०२० कद्रूशापः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

विंशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कद्रू और विनताकी होड़, कद्रूद्वारा अपने पुत्रोंको शाप एवं ब्रह्माजीद्वारा उसका अनुमोदन

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते कथितं सर्वममृतं मथितं यथा।
यत्र सोऽश्वः समुत्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ॥ १ ॥
यं निशम्य तदा कद्रूर्विनतामिदमब्रवीत्।
उच्चैःश्रवा हि किं वर्णो भद्रे प्रब्रूहि माचिरम् ॥ २ ॥

मूलम्

एतत् ते कथितं सर्वममृतं मथितं यथा।
यत्र सोऽश्वः समुत्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ॥ १ ॥
यं निशम्य तदा कद्रूर्विनतामिदमब्रवीत्।
उच्चैःश्रवा हि किं वर्णो भद्रे प्रब्रूहि माचिरम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनकादि महर्षियो! जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया, वह सब प्रसंग मैंने आपलोगोंसे कह सुनाया। उस अमृत-मन्थनके समय ही वह अनुपम वेगशाली सुन्दर अश्व उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर कद्रूने विनतासे कहा—‘भद्रे! शीघ्र बताओ तो यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंगका है?’॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

विनतोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वेत एवाश्वराजोऽयं किं वा त्वं मन्यसे शुभे।
ब्रूहि वर्णं त्वमप्यस्य ततोऽत्र विपणावहे ॥ ३ ॥

मूलम्

श्वेत एवाश्वराजोऽयं किं वा त्वं मन्यसे शुभे।
ब्रूहि वर्णं त्वमप्यस्य ततोऽत्र विपणावहे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विनता बोली— शुभे! यह अश्वराज श्वेत वर्णका ही है। तुम इसे कैसा समझती हो? तुम भी इसका रंग बताओ, तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगायेंगी॥३॥

मूलम् (वचनम्)

कद्रूरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णवालमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते।
एहि सार्धं मया दीव्य दासीभावाय भामिनि ॥ ४ ॥

मूलम्

कृष्णवालमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते।
एहि सार्धं मया दीव्य दासीभावाय भामिनि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कद्रूने कहा— पवित्र मुसकानवाली बहन! इस घोड़े (का रंग तो अवश्य सफेद है, किंतु इस)-की पूँछको मैं काले रंगकी ही मानती हूँ। भामिनि! आओ, दासी होनेकी शर्त रखकर मेरे साथ बाजी लगाओ (यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हें मेरी दासी बनना होगा)॥४॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते समयं कृत्वा दासीभावाय वै मिथः।
जग्मतुः स्वगृहानेव श्वो द्रक्ष्याव इति स्म ह ॥ ५ ॥

मूलम्

एवं ते समयं कृत्वा दासीभावाय वै मिथः।
जग्मतुः स्वगृहानेव श्वो द्रक्ष्याव इति स्म ह ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रश्रवाजी कहते हैं— इस प्रकार वे दोनों बहनें आपसमें एक-दूसरेकी दासी होनेकी शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकर घोड़ेको देखेंगी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुत्रसहस्रं तु कद्रूर्जिह्मं चिकीर्षती।
आज्ञापयामास तदा वाला भूत्वाञ्जनप्रभाः ॥ ६ ॥
आविशध्वं हयं क्षिप्रं दासी न स्यामहं यथा।
नावपद्यन्त ये वाक्यं ताञ्छशाप भुजङ्गमान् ॥ ७ ॥
सर्पसत्रे वर्तमाने पावको वः प्रधक्ष्यति।
जनमेजयस्य राजर्षेः पाण्डवेयस्य धीमतः ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः पुत्रसहस्रं तु कद्रूर्जिह्मं चिकीर्षती।
आज्ञापयामास तदा वाला भूत्वाञ्जनप्रभाः ॥ ६ ॥
आविशध्वं हयं क्षिप्रं दासी न स्यामहं यथा।
नावपद्यन्त ये वाक्यं ताञ्छशाप भुजङ्गमान् ॥ ७ ॥
सर्पसत्रे वर्तमाने पावको वः प्रधक्ष्यति।
जनमेजयस्य राजर्षेः पाण्डवेयस्य धीमतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कद्रू कुटिलता एवं छलसे काम लेना चाहती थी। उसने अपने सहस्र पुत्रोंको इस समय आज्ञा दी कि तुम काले रंगके बाल बनकर शीघ्र उस घोड़ेकी पूँछमें लग जाओ, जिससे मुझे दासी न होना पड़े। उस समय जिन सर्पोंने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि, ‘जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान् राजर्षि जनमेजयके सर्पयज्ञका आरम्भ होनेपर उसमें प्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी’॥६—८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शापमेनं तु शुश्राव स्वयमेव पितामहः।
अतिक्रूरं समुत्सृष्टं कद्र्वा दैवादतीव हि ॥ ९ ॥

मूलम्

शापमेनं तु शुश्राव स्वयमेव पितामहः।
अतिक्रूरं समुत्सृष्टं कद्र्वा दैवादतीव हि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस शापको स्वयं ब्रह्माजीने सुना। यह दैवसंयोगकी बात है कि सर्पोंको उनकी माता कद्रूकी ओरसे ही अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सार्धं देवगणैः सर्वैर्वाचं तामन्वमोदत।
बहुत्वं प्रेक्ष्य सर्पाणां प्रजानां हितकाम्यया ॥ १० ॥

मूलम्

सार्धं देवगणैः सर्वैर्वाचं तामन्वमोदत।
बहुत्वं प्रेक्ष्य सर्पाणां प्रजानां हितकाम्यया ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण देवताओंसहित ब्रह्माजीने सर्पोंकी संख्या बढ़ती देख प्रजाके हितकी इच्छासे कद्रूकी उस बातका अनुमोदन ही किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिग्मवीर्यविषा ह्येते दन्दशूका महाबलाः।
तेषां तीक्ष्णविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय च ॥ ११ ॥
युक्तं मात्रा कृतं तेषां परपीडोपसर्पिणाम्।
अन्येषामपि सत्त्वानां नित्यं दोषपरास्तु ये ॥ १२ ॥
तेषां प्राणान्तको दण्डो देवेन विनिपात्यते।
एवं सम्भाष्य देवस्तु पूज्य कद्रूं च तां तदा॥१३॥
आहूय कश्यपं देव इदं वचनमब्रवीत्।
यदेते दन्दशूकाश्च सर्पा जातास्त्वयानघ ॥ १४ ॥
विषोल्बणा महाभोगा मात्रा शप्ताः परंतप।
तत्र मन्युस्त्वया तात न कर्तव्यः कथंचन ॥ १५ ॥
दृष्टं पुरातनं ह्येतद् यज्ञे सर्पविनाशनम्।
इत्युक्त्वा सृष्टिकृद् देवस्तं प्रसाद्य प्रजापतिम्।
प्रादाद् विषहरीं विद्यां कश्यपाय महात्मने ॥ १६ ॥

मूलम्

तिग्मवीर्यविषा ह्येते दन्दशूका महाबलाः।
तेषां तीक्ष्णविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय च ॥ ११ ॥
युक्तं मात्रा कृतं तेषां परपीडोपसर्पिणाम्।
अन्येषामपि सत्त्वानां नित्यं दोषपरास्तु ये ॥ १२ ॥
तेषां प्राणान्तको दण्डो देवेन विनिपात्यते।
एवं सम्भाष्य देवस्तु पूज्य कद्रूं च तां तदा॥१३॥
आहूय कश्यपं देव इदं वचनमब्रवीत्।
यदेते दन्दशूकाश्च सर्पा जातास्त्वयानघ ॥ १४ ॥
विषोल्बणा महाभोगा मात्रा शप्ताः परंतप।
तत्र मन्युस्त्वया तात न कर्तव्यः कथंचन ॥ १५ ॥
दृष्टं पुरातनं ह्येतद् यज्ञे सर्पविनाशनम्।
इत्युक्त्वा सृष्टिकृद् देवस्तं प्रसाद्य प्रजापतिम्।
प्रादाद् विषहरीं विद्यां कश्यपाय महात्मने ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विषसे युक्त हैं। अपने तीखे विषके कारण ये सदा दूसरोंको पीड़ा देनेके लिये दौड़ते-फिरते हैं। अतः समस्त प्राणियोंके हितकी दृष्टिसे इन्हें शाप देकर माता कद्रूने उचित ही किया है। जो सदा दूसरे प्राणियोंको हानि पहुँचाते रहते हैं, उनके ऊपर दैवके द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है।’ ऐसी बात कहकर ब्रह्माजीने कद्रूकी प्रशंसा की और कश्यपजीको बुलाकर यह बात कही—‘अनघ! तुम्हारे द्वारा जो ये लोगोंको डँसनेवाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं, इनके शरीर बहुत विशाल और विष बड़े भयंकर हैं। परंतप! इन्हें इनकी माताने शाप दे दिया है, इसके कारण तुम किसी तरह भी उसपर क्रोध न करना। तात! यज्ञमें सर्पोंका नाश होनेवाला है, यह पुराणवृत्तान्त तुम्हारी दृष्टिमें भी है ही।’ ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने प्रजापति कश्यपको प्रसन्न करके उन महात्माको सर्पोंका विष उतारनेवाली विद्या प्रदान की॥११—१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एवं शप्तेषु नागेषु कद्र्वा च द्विजसत्तम।
उद्विग्नः शापतस्तस्याः कद्रूं कर्कोटकोऽब्रवीत्॥
मातरं परमप्रीतस्तदा भुजगसत्तमः ।
आविश्य वाजिनं मुख्यं वालो भूत्वाञ्जनप्रभः॥
दर्शयिष्यामि तत्राहमात्मानं काममाश्वस ।
एवमस्त्विति तं पुत्रं प्रत्युवाच यशस्विनी॥)

मूलम्

(एवं शप्तेषु नागेषु कद्र्वा च द्विजसत्तम।
उद्विग्नः शापतस्तस्याः कद्रूं कर्कोटकोऽब्रवीत्॥
मातरं परमप्रीतस्तदा भुजगसत्तमः ।
आविश्य वाजिनं मुख्यं वालो भूत्वाञ्जनप्रभः॥
दर्शयिष्यामि तत्राहमात्मानं काममाश्वस ।
एवमस्त्विति तं पुत्रं प्रत्युवाच यशस्विनी॥)

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार माता कद्रूने जब नागोंको शाप दे दिया, तब उस शापसे उद्विग्न हो भुजंगप्रवर कर्कोटकने परम प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी मातासे कहा—‘मा! तुम धैर्य रखो, मैं काले रंगका बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्वके शरीरमें प्रविष्ट हो अपने-आपको ही इसकी काली पूँछके रूपमें दिखाऊँगा।’ यह सुनकर यशस्विनी कद्रूने पुत्रको उत्तर दिया—‘बेटा! ऐसा ही होना चाहिये’।

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल १९ श्लोक हैं)