श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुर्दशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जरत्कारुद्वारा वासुकिकी बहिनका पाणिग्रहण
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः।
महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत ॥ १ ॥
मूलम्
ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः।
महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— तदनन्तर वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण भार्याकी प्राप्तिके लिये इच्छुक होकर पृथ्वीपर सब ओर विचरने लगे; किंतु उन्हें पत्नीकी उपलब्धि नहीं हुई॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिद् वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन्।
चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव ॥ २ ॥
मूलम्
स कदाचिद् वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन्।
चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन किसी वनमें जाकर विप्रवर जरत्कारुने पितरोंके वचनका स्मरण करके कन्याकी भिक्षाके लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी—‘कोई भिक्षारूपमें कन्या दे जाय’॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वासुकिः प्रत्यगृह्णादुद्यम्य भगिनीं तदा।
न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् ॥ ३ ॥
मूलम्
तं वासुकिः प्रत्यगृह्णादुद्यम्य भगिनीं तदा।
न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिनको लेकर मुनिकी सेवामें उपस्थित हो गये और बोले, ‘यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।’ किंतु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे-जैसे नामवाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनाम्नीं चोद्यतां भार्यां गृह्णीयामिति तस्य हि।
मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः ॥ ४ ॥
मूलम्
सनाम्नीं चोद्यतां भार्यां गृह्णीयामिति तस्य हि।
मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महात्मा जरत्कारुका मन इस बातपर स्थिर हो गया था कि मेरे-जैसे नामवाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसीको पत्नीरूपमें ग्रहण करूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः ।
किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ॥ ५ ॥
मूलम्
तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः ।
किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान् एवं महान् तपस्वी जरत्कारुने पूछा—‘नागराज! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिनका क्या नाम है?’॥५॥
मूलम् (वचनम्)
वासुकिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम।
प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम्।
त्वदर्थं रक्षिता पूर्वं प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ॥ ६ ॥
मूलम्
जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम।
प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम्।
त्वदर्थं रक्षिता पूर्वं प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वासुकिने कहा— जरत्कारो! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नामसे ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटिप्रदेशवाली कुमारीको पत्नी बनानेके लिये मैंने स्वयं आपकी सेवामें समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ! यह बहुत पहलेसे आपहीके लिये सुरक्षित रखी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा ततः प्रादाद् भार्यार्थे वरवर्णिनीम्।
स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ७ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा ततः प्रादाद् भार्यार्थे वरवर्णिनीम्।
स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वासुकिने वह सुन्दरी कन्या मुनिको पत्नीरूपमें प्रदान की। मुनिने भी शास्त्रीय विधिके अनुसार उसका पाणिग्रहण किया॥७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वासुकिकी बहिनके वरणसे सम्बन्ध रखनेवाला चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥