श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(आस्तीकपर्व)
त्रयोदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जरत्कारुका अपने पितरोंके अनुरोधसे विवाहके लिये उद्यत होना
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः।
सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ॥ १ ॥
निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः।
आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः ॥ २ ॥
मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः।
कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ॥ ३ ॥
स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे।
मूलम्
किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः।
सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ॥ १ ॥
निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः।
आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः ॥ २ ॥
मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः।
कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ॥ ३ ॥
स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे।
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजीने पूछा— सूतजी! राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने किसलिये सर्पसत्रद्वारा सर्पोंका अन्त किया? यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन! इस विषयकी सब बातोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। जप-यज्ञ करनेवाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीकने किसलिये सर्पोंको प्रज्वलित अग्निमें जलनेसे बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्रका आयोजन किया था, किसके पुत्र थे? तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये॥१—३॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ॥ ४ ॥
सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर।
मूलम्
महदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ॥ ४ ॥
सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर।
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजीने कहा— ब्रह्मन्! आस्तीकका उपाख्यान बहुत बड़ा है। वक्ताओंमें श्रेष्ठ! यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो॥४॥
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ॥ ५ ॥
आस्तीकस्य पुराणर्षेर्ब्राह्मणस्य यशस्विनः ।
मूलम्
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ॥ ५ ॥
आस्तीकस्य पुराणर्षेर्ब्राह्मणस्य यशस्विनः ।
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजीने कहा— सूतनन्दन! पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण आस्तीककी इस मनोरम कथाको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ॥५॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ॥ ६ ॥
कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु ।
पूर्वं प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ॥ ७ ॥
शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान्।
तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ॥ ८ ॥
मूलम्
इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ॥ ६ ॥
कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु ।
पूर्वं प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ॥ ७ ॥
शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान्।
तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजीने कहा— शौनकजी! ब्राह्मणलोग इस इतिहासको बहुत पुराना बताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षणजीने, जो व्यासजीके मेधावी शिष्य थे, ऋषियोंके पूछनेपर साक्षात् श्रीकृष्णद्वैपायन (व्यास)-के कहे हुए इस इतिहासका नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणोंके समुदायमें वर्णन किया था। उन्हींके मुखसे सुनकर मैं भी इसका यथावत् वर्णन करता हूँ॥६—८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते।
कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते।
कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! यह आस्तीक मुनिका उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवाला है। आपके पूछनेपर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः।
ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा ॥ १० ॥
मूलम्
आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः।
ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आस्तीकके पिता प्रजापतिके समान प्रभावशाली थे। ब्रह्मचारी होनेके साथ ही उन्होंने आहारपर भी संयम कर लिया था। वे सदा उग्र तपस्यामें संलग्न रहते थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरेता महातपाः।
यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः ॥ ११ ॥
स कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः ।
चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः ॥ १२ ॥
मूलम्
जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरेता महातपाः।
यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः ॥ ११ ॥
स कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः ।
चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका नाम था जरत्कारु। वे ऊर्ध्वरेता और महान् ऋषि थे। यायावरोंमें1 उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्मके ज्ञाता थे। एक समय तपोबलसे सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारुने यात्रा प्रारम्भ की। वे मुनि-वृत्तिसे रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः।
चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ॥ १३ ॥
मूलम्
तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः।
चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब तीर्थोंमें स्नान करते हुए घूमते थे। उन महातेजस्वी मुनिने कठोर व्रतोंकी ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्ननिमिषो मुनिः।
इतस्ततः परिचरन् दीप्तपावकसप्रभः ॥ १४ ॥
अटमानः कदाचित् स्वान् स ददर्श पितामहान्।
लम्बमानान् महागर्ते पादैरूर्ध्वैरवाङ्मुखान् ॥ १५ ॥
मूलम्
वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्ननिमिषो मुनिः।
इतस्ततः परिचरन् दीप्तपावकसप्रभः ॥ १४ ॥
अटमानः कदाचित् स्वान् स ददर्श पितामहान्।
लम्बमानान् महागर्ते पादैरूर्ध्वैरवाङ्मुखान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजनका सर्वथा त्याग करके अपने शरीरको सुखाते रहते थे। उन महर्षिने निद्रापर भी विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समय उन्होंने अपने पितामहोंको देखा जो ऊपरको पैर और नीचेको सिर किये एक विशाल गड्ढेमें लटक रहे थे॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानब्रवीत् स दृष्ट्वैव जरत्कारुः पितामहान्।
के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्ते ह्यस्मिन्नधोमुखाः ॥ १६ ॥
मूलम्
तानब्रवीत् स दृष्ट्वैव जरत्कारुः पितामहान्।
के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्ते ह्यस्मिन्नधोमुखाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखते ही जरत्कारुने उनसे पूछा—‘आपलोग कौन हैं, जो इस गड्ढेमें नीचेको मुख किये लटक रहे हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरणस्तम्बके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते।
मूषकेन निगूढेन गर्तेऽस्मिन् नित्यवासिना ॥ १७ ॥
मूलम्
वीरणस्तम्बके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते।
मूषकेन निगूढेन गर्तेऽस्मिन् नित्यवासिना ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप जिस वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकोंके समूह) -को पकड़कर लटक रहे हैं, उसे इस गड्ढेमें गुप्तरूपसे नित्य निवास करनेवाले चूहेने सब ओरसे प्रायः खा लिया है’॥१७॥2
मूलम् (वचनम्)
पितर ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः।
संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम् ॥ १८ ॥
मूलम्
यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः।
संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितर बोले— ब्रह्मन्! हमलोग कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावर नामक मुनि हैं। अपनी संतान-परम्पराका नाश होनेसे हम नीचे—पृथ्वीपर गिरना चाहते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृतः।
मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एव समास्थितः ॥ १९ ॥
मूलम्
अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृतः।
मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एव समास्थितः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारु। हम भाग्यहीनोंकी वह अभागी संतान केवल तपस्यामें ही संलग्न है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स पुत्राञ्जनयितुं दारान् मूढश्चिकीर्षति।
तेन लम्बामहे गर्ते संतानस्य क्षयादिह ॥ २० ॥
अनाथास्तेन नाथेन यया दुष्कृतिनस्तथा।
कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ॥ २१ ॥
ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मन् को भवानिह नः स्थितः।
किमर्थं चैव नः शोच्याननुशोचसि सत्तम ॥ २२ ॥
मूलम्
न स पुत्राञ्जनयितुं दारान् मूढश्चिकीर्षति।
तेन लम्बामहे गर्ते संतानस्य क्षयादिह ॥ २० ॥
अनाथास्तेन नाथेन यया दुष्कृतिनस्तथा।
कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ॥ २१ ॥
ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मन् को भवानिह नः स्थितः।
किमर्थं चैव नः शोच्याननुशोचसि सत्तम ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करनेके लिये किसी स्त्रीसे विवाह करना नहीं चाहता है। अतः वंशपरम्पराका विनाश होनेसे हम यहाँ इस गड्ढेमें लटक रहे हैं। हमारी रक्षा करनेवाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्योंकी भाँति हम अनाथ हो गये हैं। साधुशिरोमणे! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बान्धवोंकी भाँति हमलोगोंकी इस दयनीय दशाके लिये शोक कर रहे हो? ब्रह्मन्! हम यह जानना चाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीयकी भाँति यहाँ हमारे पास खड़े हो? सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ! हम शोचनीय प्राणियोंके लिये तुम क्यों शोकमग्न होते हो॥२०—२२॥
मूलम् (वचनम्)
जरत्कारुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः।
ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम् ॥ २३ ॥
मूलम्
मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः।
ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरत्कारुने कहा— महात्माओ! आपलोग मेरे ही पितामह और पूर्वज पितृगण हैं। स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ। बताइये, आज आपकी क्या सेवा करूँ?॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
पितर ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः।
आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो ॥ २४ ॥
मूलम्
यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः।
आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितर बोले— तात! तुम हमारे कुलकी संतान-परम्पराको बनाये रखनेके लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाहके लिये प्रयत्न करो। प्रभो! तुम अपने लिये, हमारे लिये अथवा धर्मका पालन हो, इस उद्देश्यसे पुत्रकी उत्पत्तिके लिये यत्न करो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि धर्मफलैस्तात न तपोभिः सुसंचितैः।
तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै ॥ २५ ॥
मूलम्
न हि धर्मफलैस्तात न तपोभिः सुसंचितैः।
तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! पुत्रवाले मनुष्य इस लोकमें जिस उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकूल फल देनेवाले भलीभाँति संचित किये हुए तपसे भी नहीं पाते॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु।
पुत्रकास्मन्नियोगात् त्वमेतन्नः परमं हितम् ॥ २६ ॥
मूलम्
तद् दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु।
पुत्रकास्मन्नियोगात् त्वमेतन्नः परमं हितम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः बेटा! तुम हमारी आज्ञासे विवाह करनेका प्रयत्न करो और संतानोत्पादनकी ओर ध्यान दो। यही हमारे लिये सर्वोत्तम हितकी बात होगी॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
जरत्कारुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दारान् वै करिष्येऽहं न धनं जीवितार्थतः।
भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम् ॥ २७ ॥
मूलम्
न दारान् वै करिष्येऽहं न धनं जीवितार्थतः।
भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरत्कारुने कहा— पितामहगण! मैंने अपने मनमें यह निश्चय कर लिया था कि मैं जीवनके सुख-भोगके लिये कभी न तो पत्नीका परिग्रह करूँगा और न धनका संग्रह ही; परंतु यदि ऐसा करनेसे आपलोगोंका हित होता है तो उसके लिये अवश्य विवाह कर लूँगा॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम्।
तथा यद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा ह्यहम् ॥ २८ ॥
मूलम्
समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम्।
तथा यद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा ह्यहम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु एक शर्तके साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्तके अनुसार किसी कुमारी कन्याको पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभिः।
भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः ॥ २९ ॥
मूलम्
सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभिः।
भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वह शर्त यों है—) जिस कन्याका नाम मेरे नामके ही समान हो, जिसे उसके भाई-बन्धु स्वयं मुझे देनेकी इच्छासे रखते हों और जो भिक्षाकी भाँति स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्याका मैं शास्त्रीय विधिके अनुसार पाणिग्रहण करूँगा॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरिद्राय हि मे भार्यां को दास्यति विशेषतः।
प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित् प्रदास्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
दरिद्राय हि मे भार्यां को दास्यति विशेषतः।
प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित् प्रदास्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगनेपर भी कौन अपनी कन्या पत्नीरूपमें प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षाके तौरपर अपनी कन्या देगा तो उसे ग्रहण करूँगा॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः।
अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा ॥ ३१ ॥
मूलम्
एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः।
अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामहो! मैं इसी प्रकार, इसी विधिसे विवाहके लिये सदा प्रयत्न करता रहूँगा। इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै।
शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम ॥ ३२ ॥
मूलम्
तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै।
शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मिली हुई पत्नीके गर्भसे यदि कोई प्राणी जन्म लेगा तो वह आपलोगोंका उद्धार करेगा, अतः आप मेरे पितर अपने सनातन स्थानपर जाकर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुतत्पितृसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारु तथा उनके पितरोंका संवाद नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥
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यायावरका अर्थ है सदा विचरनेवाला मुनि। मुनिवृत्तिसे रहते हुए सदा इधर-उधर घूमते रहनेवाले गृहस्थ ब्राह्मणोंके एक समूहविशेषकी यायावर संज्ञा है। ये लोग एक गाँवमें एक रातसे अधिक नहीं ठहरते और पक्षमें एक बार अग्निहोत्र करते हैं। पक्षहोम सम्प्रदायकी प्रवृत्ति इन्हींसे हुई है। इनके विषयमें भारद्वाजका वचन इस प्रकार मिलता है—‘‘‘यायावरा नाम ब्राह्मणा आसंस्ते अर्धमासादग्निहोत्रमजुह्वन्।‘‘‘यायावरलोग घूमते-घूमते जहाँ संध्या हो जाती है वहीं ठहर जाते हैं। ↩︎
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यहाँ भूलोक ही गड्ढा है। स्वर्गवासी पितरोंको जो नीचे गिरनेका भय लगा रहता है उसीको सूचित करनेके लिये यह कहा गया है कि उनके पैर ऊपर थे और सिर नीचे। काल ही चूहा है और वंशपरम्परा ही वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकोंका समुदाय) है। उस वंशमें केवल जरत्कारु बच गये थे और अन्य सब पुरुष कालके अधीन हो चुके थे। यही व्यक्त करनेके लिये चूहेके द्वारा तिनकोंके समुदायको सब ओरसे खाया हुआ बताया गया है। जरत्कारुके विवाह न करनेसे उस वंशका वह शेष अंश भी नष्ट होना चाहता था। इसीलिये पितर व्याकुल थे और जरत्कारुको इसका बोध करानेके लिये उन्होंने इस प्रकार दर्शन दिया था। ↩︎