श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
दशमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
रुरु मुनि और डुण्डुभका संवाद
मूलम् (वचनम्)
रुरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम प्राणसमा भार्या दष्टासीद् भुजगेन ह।
तत्र मे समयो घोर आत्मनोरग वै कृतः ॥ १ ॥
भुजङ्गं वै सदा हन्यां यं यं पश्येयमित्युत।
ततोऽहं त्वां जिघांसामि जीवितेनाद्य मोक्ष्यसे ॥ २ ॥
मूलम्
मम प्राणसमा भार्या दष्टासीद् भुजगेन ह।
तत्र मे समयो घोर आत्मनोरग वै कृतः ॥ १ ॥
भुजङ्गं वै सदा हन्यां यं यं पश्येयमित्युत।
ततोऽहं त्वां जिघांसामि जीवितेनाद्य मोक्ष्यसे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुरु बोला— सर्प! मेरी प्राणोंके समान प्यारी पत्नीको एक साँपने डँस लिया था। उसी समय मैंने यह घोर प्रतिज्ञा कर ली कि जिस-जिस सर्पको देख लूँगा, उसे-उसे अवश्य मार डालूँगा। उसी प्रतिज्ञाके अनुसार मैं तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। अतः आज तुम्हें अपने प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
डुण्डुभ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये ते भुजगा ब्रह्मन् ये दशन्तीह मानवान्।
डुण्डुभानहिगन्धेन न त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ ३ ॥
मूलम्
अन्ये ते भुजगा ब्रह्मन् ये दशन्तीह मानवान्।
डुण्डुभानहिगन्धेन न त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
डुण्डुभने कहा— ब्रह्मन्! वे दूसरे ही साँप हैं जो इस लोकमें मनुष्योंको डँसते हैं। साँपोंकी आकृति-मात्रसे ही तुम्हें डुण्डुभोंको नहीं मारना चाहिये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकानर्थान् पृथगर्थानेकदुःखान् पृथक्सुखान् ।
डुण्डुभान् धर्मविद् भूत्वा न त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ ४ ॥
मूलम्
एकानर्थान् पृथगर्थानेकदुःखान् पृथक्सुखान् ।
डुण्डुभान् धर्मविद् भूत्वा न त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! आश्चर्य है, बेचारे डुण्डुभ अनर्थ भोगनेमें सब सर्पोंके साथ एक हैं; परंतु उनका स्वभाव दूसरे सर्पोंसे भिन्न है तथा दुःख भोगनेमें तो वे सब सर्पोंके साथ एक हैं; किंतु सुख सबका अलग-अलग है। तुम धर्मज्ञ हो, अतः तुम्हें डुण्डुभोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये॥४॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति श्रुत्वा वचस्तस्य भुजगस्य रुरुस्तदा।
नावधीद् भयसंविग्नमृषिं मत्वाथ डुण्डुभम् ॥ ५ ॥
मूलम्
इति श्रुत्वा वचस्तस्य भुजगस्य रुरुस्तदा।
नावधीद् भयसंविग्नमृषिं मत्वाथ डुण्डुभम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— डुण्डुभ सर्पका यह वचन सुनकर रुरुने उसे कोई भयभीत ऋषि समझा, अतः उसका वध नहीं किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच चैनं भगवान् रुरुः संशमयन्निव।
कामं मां भुजग ब्रूहि कोऽसीमां विक्रियां गतः ॥ ६ ॥
मूलम्
उवाच चैनं भगवान् रुरुः संशमयन्निव।
कामं मां भुजग ब्रूहि कोऽसीमां विक्रियां गतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके सिवा, बड़भागी रुरुने उसे शान्ति प्रदान करते हुए-से कहा—‘भुजंगम! बताओ, इस विकृत (सर्प)-योनिमें पड़े हुए तुम कौन हो?’॥६॥
मूलम् (वचनम्)
डुण्डुभ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं पुरा रुरो नाम्ना ऋषिरासं सहस्रपात्।
सोऽहं शापेन विप्रस्य भुजगत्वमुपागतः ॥ ७ ॥
मूलम्
अहं पुरा रुरो नाम्ना ऋषिरासं सहस्रपात्।
सोऽहं शापेन विप्रस्य भुजगत्वमुपागतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
डुण्डुभने कहा— रुरो! मैं पूर्वजन्ममें सहस्रपाद नामक ऋषि था; किंतु एक ब्राह्मणके शापसे मुझे सर्पयोनिमें आना पड़ा है॥७॥
मूलम् (वचनम्)
रुरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थं शप्तवान् क्रुद्धो द्विजस्त्वां भुजगोत्तम।
कियन्तं चैव कालं ते वपुरेतद् भविष्यति ॥ ८ ॥
मूलम्
किमर्थं शप्तवान् क्रुद्धो द्विजस्त्वां भुजगोत्तम।
कियन्तं चैव कालं ते वपुरेतद् भविष्यति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुरुने पूछा— भुजगोत्तम! उस ब्राह्मणने किसलिये कुपित होकर तुम्हें शाप दिया? तुम्हारा यह शरीर अभी कितने समयतक रहेगा?॥८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि रुरुडुण्डुभसंवादे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें रुरु-डुण्डुभसंवादविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०॥