श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
नवमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
रुरुकी आधी आयुसे प्रमद्वराका जीवित होना, रुरुके साथ उसका विवाह, रुरुका सर्पोंको मारनेका निश्चय तथा रुरु-डुण्डुभ-संवाद
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु तत्रोपविष्टेषु ब्राह्मणेषु महात्मसु।
रुरुश्चुक्रोश गहनं वनं गत्वातिदुःखितः ॥ १ ॥
शोकेनाभिहतः सोऽथ विलपन् करुणं बहु।
अब्रवीद् वचनं शोचन् प्रियां स्मृत्वा प्रमद्वराम् ॥ २ ॥
शेते सा भुवि तन्वङ्गी मम शोकविवर्धिनी।
बान्धवानां च सर्वेषां किं नु दुःखमतः परम् ॥ ३ ॥
मूलम्
तेषु तत्रोपविष्टेषु ब्राह्मणेषु महात्मसु।
रुरुश्चुक्रोश गहनं वनं गत्वातिदुःखितः ॥ १ ॥
शोकेनाभिहतः सोऽथ विलपन् करुणं बहु।
अब्रवीद् वचनं शोचन् प्रियां स्मृत्वा प्रमद्वराम् ॥ २ ॥
शेते सा भुवि तन्वङ्गी मम शोकविवर्धिनी।
बान्धवानां च सर्वेषां किं नु दुःखमतः परम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— शौनकजी! वे ब्राह्मण प्रमद्वराके चारों ओर वहाँ बैठे थे, उसी समय रुरु अत्यन्त दुःखित हो गहन वनमें जाकर जोर-जोरसे रुदन करने लगा। शोकसे पीड़ित होकर उसने बहुत करुणाजनक विलाप किया और अपनी प्रियतमा प्रमद्वराका स्मरण करके शोकमग्न हो इस प्रकार बोला—‘हाय! वह कृशांगी बाला मेरा तथा समस्त बान्धवोंका शोक बढ़ाती हुई भूमिपर सो रही है; इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है?॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि दत्तं तपस्तप्तं गुरवो वा मया यदि।
सम्यगाराधितास्तेन संजीवतु मम प्रिया ॥ ४ ॥
मूलम्
यदि दत्तं तपस्तप्तं गुरवो वा मया यदि।
सम्यगाराधितास्तेन संजीवतु मम प्रिया ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैंने दान दिया हो, तपस्या की हो अथवा गुरुजनोंकी भलीभाँति आराधना की हो तो उसके पुण्यसे मेरी प्रिया जीवित हो जाय॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा च जन्मप्रभृति यतात्माहं धृतव्रतः।
प्रमद्वरा तथा ह्येषा समुत्तिष्ठतु भामिनी ॥ ५ ॥
मूलम्
यथा च जन्मप्रभृति यतात्माहं धृतव्रतः।
प्रमद्वरा तथा ह्येषा समुत्तिष्ठतु भामिनी ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैंने जन्मसे लेकर अबतक मन और इन्द्रियोंपर संयम रखा हो और ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंका दृढ़तापूर्वक पालन किया हो तो यह मेरी प्रिया प्रमद्वरा अभी जी उठे’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(कृष्णे विष्णौ हृषीकेशे लोकेशेऽसुरविद्विषि।
यदि मे निश्चला भक्तिर्मम जीवतु सा प्रिया॥)
मूलम्
(कृष्णे विष्णौ हृषीकेशे लोकेशेऽसुरविद्विषि।
यदि मे निश्चला भक्तिर्मम जीवतु सा प्रिया॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि पापी असुरोंका नाश करनेवाले, इन्द्रियोंके स्वामी जगदीश्वर एवं सर्वव्यापी भगवान् श्रीकृष्णमें मेरी अविचल भक्ति हो तो यह कल्याणी प्रमद्वरा जी उठे’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं लालप्यतस्तस्य भार्यार्थे दुःखितस्य च।
देवदूतस्तदाभ्येत्य वाक्यमाह रुरुं वने ॥ ६ ॥
मूलम्
एवं लालप्यतस्तस्य भार्यार्थे दुःखितस्य च।
देवदूतस्तदाभ्येत्य वाक्यमाह रुरुं वने ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब रुरु पत्नीके लिये दुःखित हो अत्यन्त विलाप कर रहा था, उस समय एक देवदूत उसके पास आया और वनमें रुरुसे बोला॥६॥
मूलम् (वचनम्)
देवदूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिधत्से ह यद् वाचा रुरो दुःखेन तन्मृषा।
यतो मर्त्यस्य धर्मात्मन् नायुरस्ति गतायुषः ॥ ७ ॥
गतायुरेषा कृपणा गन्धर्वाप्सरसोः सुता।
तस्माच्छोके मनस्तात मा कृथास्त्वं कथंचन ॥ ८ ॥
मूलम्
अभिधत्से ह यद् वाचा रुरो दुःखेन तन्मृषा।
यतो मर्त्यस्य धर्मात्मन् नायुरस्ति गतायुषः ॥ ७ ॥
गतायुरेषा कृपणा गन्धर्वाप्सरसोः सुता।
तस्माच्छोके मनस्तात मा कृथास्त्वं कथंचन ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवदूतने कहा— धर्मात्मा रुरु! तुम दुःखसे व्याकुल हो अपनी वाणीद्वारा जो कुछ कहते हो, वह सब व्यर्थ है; क्योंकि जिस मनुष्यकी आयु समाप्त हो गयी है, उसे फिर आयु नहीं मिल सकती। यह बेचारी प्रमद्वरा गन्धर्व और अप्सराकी पुत्री थी। इसे जितनी आयु मिली थी, वह पूरी हो चुकी है। अतः तात! तुम किसी तरह भी मनको शोकमें न डालो॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायश्चात्र विहितः पूर्वं देवैर्महात्मभिः।
तं यदीच्छसि कर्तुं त्वं प्राप्स्यसीह प्रमद्वराम् ॥ ९ ॥
मूलम्
उपायश्चात्र विहितः पूर्वं देवैर्महात्मभिः।
तं यदीच्छसि कर्तुं त्वं प्राप्स्यसीह प्रमद्वराम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें महात्मा देवताओंने एक उपाय निश्चित किया है। यदि तुम उसे करना चाहो तो इस लोकमें प्रमद्वराको पा सकोगे॥९॥
मूलम् (वचनम्)
रुरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क उपायः कृतो देवैर्ब्रूहि तत्त्वेन खेचर।
करिष्येऽहं तथा श्रुत्वा त्रातुमर्हति मां भवान् ॥ १० ॥
मूलम्
क उपायः कृतो देवैर्ब्रूहि तत्त्वेन खेचर।
करिष्येऽहं तथा श्रुत्वा त्रातुमर्हति मां भवान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुरु बोला— आकाशचारी देवदूत! देवताओंने कौन-सा उपाय निश्चित किया है, उसे ठीक-ठीक बताओ? उसे सुनकर मैं अवश्य वैसा ही करूँगा। तुम मुझे इस दुःखसे बचाओ॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
देवदूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुषोउर्धं प्रयच्छ त्वं कन्यायै भृगुनन्दन।
एवमुत्थास्यति रुरो तव भार्या प्रमद्वरा ॥ ११ ॥
मूलम्
आयुषोउर्धं प्रयच्छ त्वं कन्यायै भृगुनन्दन।
एवमुत्थास्यति रुरो तव भार्या प्रमद्वरा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवदूतने कहा— भृगुनन्दन रुरु! तुम उस कन्याके लिये अपनी आधी आयु दे दो। ऐसा करनेसे तुम्हारी भार्या प्रमद्वरा जी उठेगी॥११॥
मूलम् (वचनम्)
रुरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुषोऽर्धं प्रयच्छामि कन्यायै खेचरोत्तम।
शृङ्गाररूपाभरणा समुत्तिष्ठतु मे प्रिया ॥ १२ ॥
मूलम्
आयुषोऽर्धं प्रयच्छामि कन्यायै खेचरोत्तम।
शृङ्गाररूपाभरणा समुत्तिष्ठतु मे प्रिया ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुरु बोला— देवश्रेष्ठ! मैं उस कन्याको अपनी आधी आयु देता हूँ। मेरी प्रिया अपने शृंगार, सुन्दर रूप और आभूषणोंके साथ जीवित हो उठे॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गन्धर्वराजश्च देवदूतश्च सत्तमौ।
धर्मराजमुपेत्येदं वचनं प्रत्यभाषताम् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततो गन्धर्वराजश्च देवदूतश्च सत्तमौ।
धर्मराजमुपेत्येदं वचनं प्रत्यभाषताम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— तब गन्धर्वराज विश्वावसु और देवदूत दोनों सत्पुरुषोंने धर्मराजके पास जाकर कहा—॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मराजायुषोऽर्धेन रुरोर्भार्या प्रमद्वरा ।
समुत्तिष्ठतु कल्याणी मृतैवं यदि मन्यसे ॥ १४ ॥
मूलम्
धर्मराजायुषोऽर्धेन रुरोर्भार्या प्रमद्वरा ।
समुत्तिष्ठतु कल्याणी मृतैवं यदि मन्यसे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मराज! रुरुकी भार्या कल्याणी प्रमद्वरा मर चुकी है। यदि आप मान लें तो वह रुरुकी आधी आयुसे जीवित हो जाय’॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
धर्मराज उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमद्वरां रुरोर्भार्यां देवदूत यदीच्छसि।
उत्तिष्ठत्वायुषोऽर्धेन रुरोरेव समन्विता ॥ १५ ॥
मूलम्
प्रमद्वरां रुरोर्भार्यां देवदूत यदीच्छसि।
उत्तिष्ठत्वायुषोऽर्धेन रुरोरेव समन्विता ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज बोले— देवदूत! यदि तुम रुरुकी भार्या प्रमद्वराको जिलाना चाहते हो तो वह रुरुकी ही आधी आयुसे संयुक्त होकर जीवित हो उठे॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते ततः कन्या सोदतिष्ठत् प्रमद्वरा।
रुरोस्तस्यायुषोऽर्धेन सुप्तेव वरवर्णिनी ॥ १६ ॥
मूलम्
एवमुक्ते ततः कन्या सोदतिष्ठत् प्रमद्वरा।
रुरोस्तस्यायुषोऽर्धेन सुप्तेव वरवर्णिनी ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— धर्मराजके ऐसा कहते ही वह सुन्दरी मुनिकन्या प्रमद्वरा रुरुकी आधी आयुसे संयुक्त हो सोयी हुईकी भाँति जाग उठी॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् दृष्टं भविष्ये हि रुरोरुत्तमतेजसः।
आयुषोऽतिप्रवृद्धस्य भार्यार्थेऽर्धमलुप्यत ॥ १७ ॥
तत इष्टेऽहनि तयोः पितरौ चक्रतुर्मुदा।
विवाहं तौ च रेमाते परस्परहितैषिणौ ॥ १८ ॥
मूलम्
एतद् दृष्टं भविष्ये हि रुरोरुत्तमतेजसः।
आयुषोऽतिप्रवृद्धस्य भार्यार्थेऽर्धमलुप्यत ॥ १७ ॥
तत इष्टेऽहनि तयोः पितरौ चक्रतुर्मुदा।
विवाहं तौ च रेमाते परस्परहितैषिणौ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम तेजस्वी रुरुके भाग्यमें ऐसी बात देखी गयी थी। उनकी आयु बहुत बढ़ी-चढ़ी थी। जब उन्होंने भार्याके लिये अपनी आधी आयु दे दी, तब दोनोंके पिताओंने निश्चित दिनमें प्रसन्नतापूर्वक उनका विवाह कर दिया। वे दोनों दम्पति एक-दूसरेके हितैषी होकर आनन्दपूर्वक रहने लगे॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लब्ध्वा दुर्लभां भार्यां पद्मकिञ्जल्कसुप्रभाम्।
व्रतं चक्रे विनाशाय जिह्मगानां धृतव्रतः ॥ १९ ॥
मूलम्
स लब्ध्वा दुर्लभां भार्यां पद्मकिञ्जल्कसुप्रभाम्।
व्रतं चक्रे विनाशाय जिह्मगानां धृतव्रतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलके केसरकी-सी कान्तिवाली उस दुर्लभ भार्याको पाकर व्रतधारी रुरुने सर्पोंके विनाशका निश्चय कर लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स दृष्ट्वा जिह्मगान् सर्वांस्तीव्रकोपसमन्वितः।
अभिहन्ति यथासत्त्वं गृह्य प्रहरणं सदा ॥ २० ॥
मूलम्
स दृष्ट्वा जिह्मगान् सर्वांस्तीव्रकोपसमन्वितः।
अभिहन्ति यथासत्त्वं गृह्य प्रहरणं सदा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सर्पोंको देखते ही अत्यन्त क्रोधमें भर जाता और हाथमें डंडा ले उनपर यथाशक्ति प्रहार करता था॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिद् वनं विप्रो रुरुरभ्यागमन्महत्।
शयानं तत्र चापश्यद् डुण्डुभं वयसान्वितम् ॥ २१ ॥
मूलम्
स कदाचिद् वनं विप्रो रुरुरभ्यागमन्महत्।
शयानं तत्र चापश्यद् डुण्डुभं वयसान्वितम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी बात है, ब्राह्मण रुरु किसी विशाल वनमें गया, वहाँ उसने डुण्डुभ जातिके एक बूढ़े साँपको सोते देखा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उद्यम्य दण्डं स कालदण्डोपमं तदा।
जिघांसुः कुपितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभः ॥ २२ ॥
मूलम्
तत उद्यम्य दण्डं स कालदण्डोपमं तदा।
जिघांसुः कुपितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखते ही उसके क्रोधका पारा चढ़ गया और उस ब्राह्मणने उस समय सर्पको मार डालनेकी इच्छासे कालदण्डके समान भयंकर डंडा उठाया। तब उस डुण्डुभने मनुष्यकी बोलीमें कहा—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नापराध्यामि ते किञ्चिदहमद्य तपोधन।
संरम्भाच्च किमर्थं मामभिहंसि रुषान्वितः ॥ २३ ॥
मूलम्
नापराध्यामि ते किञ्चिदहमद्य तपोधन।
संरम्भाच्च किमर्थं मामभिहंसि रुषान्वितः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तपोधन! आज मैंने तुम्हारा कोई अपराध तो नहीं किया है? फिर किसलिये क्रोधके आवेशमें आकर तुम मुझे मार रहे हो’॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वराजीवने नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें प्रमद्वराके जीवित होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला नवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं)