श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(पौष्यपर्व)
तृतीयोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जनमेजयको सरमाका शाप, जनमेजयद्वारा सोमश्रवाका पुरोहितके पदपर वरण, आरुणि, उपमन्यु, वेद और उत्तंककी गुरुभक्ति तथा उत्तंकका सर्पयज्ञके लिये जनमेजयको प्रोत्साहन देना
सरमाशापः
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनमेजयः पारीक्षितः सह भ्रातृभिः कुरुक्षेत्रे दीर्घसत्रम् उपास्ते।
तस्य भ्रातरस् त्रयः - श्रुतसेन उग्रसेनो भीमसेन इति। तेषु तत्सत्रमुपासीनेष्वागच्छत् सारमेयः॥१॥
मूलम्
जनमेजयः पारीक्षितः सह भ्रातृभिः कुरुक्षेत्रे दीर्घसत्रमुपास्ते। तस्य भ्रातरस्त्रयः श्रुतसेन उग्रसेनो भीमसेन इति। तेषु तत्सत्रमुपासीनेष्वागच्छत् सारमेयः॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— परीक्षित्के पुत्र जनमेजय अपने भाइयोंके साथ कुरुक्षेत्रमें दीर्घकालतक चलनेवाले यज्ञका अनुष्ठान करते थे। उनके तीन भाई थे—श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन। वे तीनों उस यज्ञमें बैठे थे। इतनेमें ही देवताओंकी कुतिया सरमाका पुत्र सारमेय वहाँ आया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतो रोरूयमाणो मातुः समीपमुपागच्छत् ॥ २ ॥
मूलम्
स जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतो रोरूयमाणो मातुः समीपमुपागच्छत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयके भाइयोंने उस कुत्तेको मारा। तब वह रोता हुआ अपनी माँके पास गया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं माता रोरूयमाणमुवाच । किं रोदिषि केनास्यभिहत इति ॥ ३ ॥
मूलम्
तं माता रोरूयमाणमुवाच । किं रोदिषि केनास्यभिहत इति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बार-बार रोते हुए अपने उस पुत्रसे माताने पूछा—‘बेटा! क्यों रोता है? किसने तुझे मारा है?’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तो मातरं प्रत्युवाच जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतोऽस्मीति ॥ ४ ॥
मूलम्
स एवमुक्तो मातरं प्रत्युवाच जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतोऽस्मीति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माताके इस प्रकार पूछनेपर उसने उत्तर दिया—‘माँ! मुझे जनमेजयके भाइयोंने मारा है’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं माता प्रत्युवाच व्यक्तं त्वया तत्रापराद्धं येनास्यभिहत इति॥५॥
मूलम्
तं माता प्रत्युवाच व्यक्तं त्वया तत्रापराद्धं येनास्यभिहत इति॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब माता उससे बोली—‘बेटा! अवश्य ही तूने उनका कोई प्रकटरूपमें अपराध किया होगा, जिसके कारण उन्होंने तुझे मारा है’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तां पुनरुवाच नापराध्यामि किंचिन्नावेक्षे हवींषि नावलिह इति॥६॥
मूलम्
स तां पुनरुवाच नापराध्यामि किंचिन्नावेक्षे हवींषि नावलिह इति॥६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उसने मातासे पुनः इस प्रकार कहा—‘मैंने कोई अपराध नहीं किया है। न तो उनके हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही है’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा तस्य माता सरमा पुत्रदुःखार्ता तत् सत्रमुपागच्छद् यत्र स जनमेजयः सह भ्रातृभिर्दीर्घ-सत्रमुपास्ते॥७॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा तस्य माता सरमा पुत्रदुःखार्ता तत् सत्रमुपागच्छद् यत्र स जनमेजयः सह भ्रातृभिर्दीर्घ-सत्रमुपास्ते॥७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर पुत्रके दुःखसे दुःखी हुई उसकी माता सरमा उस सत्रमें आयी, जहाँ जनमेजय अपने भाइयोंके साथ दीर्घकालीन सत्रका अनुष्ठान कर रहे थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तया क्रुद्धया तत्रोक्तोऽयं मे पुत्रो न किंचिदपराध्यति नावेक्षते हवींषि नावलेढि किमर्थमभिहत इति॥८॥
मूलम्
स तया क्रुद्धया तत्रोक्तोऽयं मे पुत्रो न किंचिदपराध्यति नावेक्षते हवींषि नावलेढि किमर्थमभिहत इति॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ क्रोधमें भरी हुई सरमाने जनमेजयसे कहा—‘मेरे इस पुत्रने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया था, न तो इसने हविष्यकी ओर देखा और न उसे चाटा ही था, तब तुमने इसे क्यों मारा?’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न किञ्चिदुक्तवन्तस्ते सा तानुवाच यस्मादयमभिहतोऽनपकारी तस्माददृष्टं त्वां भयमागमिष्यतीति॥९॥
मूलम्
न किञ्चिदुक्तवन्तस्ते सा तानुवाच यस्मादयमभिहतोऽनपकारी तस्माददृष्टं त्वां भयमागमिष्यतीति॥९॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु जनमेजय और उनके भाइयोंने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब सरमाने उनसे कहा, ‘मेरा पुत्र निरपराध था, तो भी तुमने इसे मारा है; अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात् ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहलेसे कोई सम्भावना न रही हो’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनमेजय एवमुक्तो देवशुन्या सरमया भृशं सम्भ्रान्तो विषण्णश्चासीत् ॥ १० ॥
मूलम्
जनमेजय एवमुक्तो देवशुन्या सरमया भृशं सम्भ्रान्तो विषण्णश्चासीत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंकी कुतिया सरमाके इस प्रकार शाप देनेपर जनमेजयको बड़ी घबराहट हुई और वे बहुत दुःखी हो गये॥१०॥
सोमश्रवोवरणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्मिन् सत्रे समाप्ते हास्तिनपुरं प्रत्येत्य पुरोहितमनुरूपमन्विच्छमानः परं यत्नमकरोद् यो मे पापकृत्यां शमयेदिति॥११॥
मूलम्
स तस्मिन् सत्रे समाप्ते हास्तिनपुरं प्रत्येत्य पुरोहितमनुरूपमन्विच्छमानः परं यत्नमकरोद् यो मे पापकृत्यां शमयेदिति॥११॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सत्रके समाप्त होनेपर वे हस्तिनापुरमें आये और अपनेयोग्य पुरोहितकी खोज करते हुए इसके लिये बड़ा यत्न करने लगे। पुरोहितके ढूँढ़नेका उद्देश्य यह था कि वह मेरी इस शापरूप पापकृत्याको (जो बल, आयु और प्राणका नाश करनेवाली है) शान्त कर दे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिन्मृगयां गतः पारीक्षितो जनमेजयः कस्मिंश्चित् स्वविषय आश्रममपश्यत्॥१२॥
मूलम्
स कदाचिन्मृगयां गतः पारीक्षितो जनमेजयः कस्मिंश्चित् स्वविषय आश्रममपश्यत्॥१२॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन परीक्षित्पुत्र जनमेजय शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ उन्होंने एक आश्रम देखा, जो उन्हींके राज्यके किसी प्रदेशमें विद्यमान था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र कश्चिदृषिरासांचक्रे श्रुतश्रवा नाम । तस्य तपस्यभिरतः पुत्र आस्ते सोमश्रवा नाम ॥ १३ ॥
मूलम्
तत्र कश्चिदृषिरासांचक्रे श्रुतश्रवा नाम । तस्य तपस्यभिरतः पुत्र आस्ते सोमश्रवा नाम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आश्रममें श्रुतश्रवा नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि रहते थे। उनके पुत्रका नाम था सोमश्रवा। सोमश्रवा सदा तपस्यामें ही लगे रहते थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तं पुत्रमभिगम्य जनमेजयः पारीक्षितः पौरोहित्याय वव्रे ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्य तं पुत्रमभिगम्य जनमेजयः पारीक्षितः पौरोहित्याय वव्रे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्कुमार जनमेजयने महर्षि श्रुतश्रवाके पास जाकर उनके पुत्र सोमश्रवाका पुरोहितपदके लिये वरण किया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नमस्कृत्य तमृषिमुवाच भगवन्नयं तव पुत्रो मम पुरोहितोऽस्त्विति॥१५॥
मूलम्
स नमस्कृत्य तमृषिमुवाच भगवन्नयं तव पुत्रो मम पुरोहितोऽस्त्विति॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने पहले महर्षिको नमस्कार करके कहा—‘भगवन्! आपके ये पुत्र सोमश्रवा मेरे पुरोहित हों’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तः प्रत्युवाच जनमेजयं भो जनमेजय पुत्रोऽयं मम सर्प्यां जातो महातपस्वी स्वाध्याय-सम्पन्नो मत्तपोवीर्यसम्भृतो मच्छुक्रं पीतवत्यास्तस्याः कुक्षौ जातः॥१६॥
मूलम्
स एवमुक्तः प्रत्युवाच जनमेजयं भो जनमेजय पुत्रोऽयं मम सर्प्यां जातो महातपस्वी स्वाध्याय-सम्पन्नो मत्तपोवीर्यसम्भृतो मच्छुक्रं पीतवत्यास्तस्याः कुक्षौ जातः॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर श्रुतश्रवाने जनमेजयको इस प्रकार उत्तर दिया—‘महाराज जनमेजय! मेरा यह पुत्र सोमश्रवा सर्पिणीके गर्भसे पैदा हुआ है। यह बड़ा तपस्वी और स्वाध्यायशील है। मेरे तपोबलसे इसका भरण-पोषण हुआ है। एक समय एक सर्पिणीने मेरा वीर्यपान कर लिया था, अतः उसीके पेटसे इसका जन्म हुआ है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्थोऽयं भवतः सर्वाः पापकृत्याः शमयितु-मन्तरेण महादेवकृत्याम् ॥ १७ ॥
मूलम्
समर्थोऽयं भवतः सर्वाः पापकृत्याः शमयितु-मन्तरेण महादेवकृत्याम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह तुम्हारी सम्पूर्ण पापकृत्याओं (शापजनित उपद्रवों)-का निवारण करनेमें समर्थ है। केवल भगवान् शंकरकी कृत्याको यह नहीं टाल सकता॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य त्वेकमुपांशुव्रतं यदेनं कश्चिद् ब्राह्मणः कंचिदर्थमभियाचेत् तं तस्मै दद्यादयं यद्येतदुत्सहसे ततो नयस्वैनमिति॥१८॥
मूलम्
अस्य त्वेकमुपांशुव्रतं यदेनं कश्चिद् ब्राह्मणः कंचिदर्थमभियाचेत् तं तस्मै दद्यादयं यद्येतदुत्सहसे ततो नयस्वैनमिति॥१८॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु इसका एक गुप्त नियम है। यदि कोई ब्राह्मण इसके पास आकर इससे किसी वस्तुकी याचना करेगा तो यह उसे उसकी अभीष्ट वस्तु अवश्य देगा। यदि तुम उदारतापूर्वक इसके इस व्यवहारको सहन कर सको अथवा इसकी इच्छापूर्तिका उत्साह दिखा सको तो इसे ले जाओ’॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैवमुक्तो जनमेजयस्तं प्रत्युवाच भगवंस्तत् तथा भविष्यतीति ॥ १९ ॥
मूलम्
तेनैवमुक्तो जनमेजयस्तं प्रत्युवाच भगवंस्तत् तथा भविष्यतीति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रुतश्रवाके ऐसा कहनेपर जनमेजयने उत्तर दिया—‘भगवन्! सब कुछ उनकी रुचिके अनुसार ही होगा’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं पुरोहितमुपादायोपावृत्तो भ्रातॄनुवाच मयायं वृत उपाध्यायो यदयं ब्रूयात् तत् कार्यमविचारयद्भिर्भवद्भिरिति। तेनैवमुक्ता भ्रातरस्तस्य तथा चक्रुः। स तथा भ्रातॄन् संदिश्य तक्षशिलां प्रत्यभिप्रतस्थे तं च देशं वशे स्थापयामास॥२०॥
मूलम्
स तं पुरोहितमुपादायोपावृत्तो भ्रातॄनुवाच मयायं वृत उपाध्यायो यदयं ब्रूयात् तत् कार्यमविचारयद्भिर्भवद्भिरिति। तेनैवमुक्ता भ्रातरस्तस्य तथा चक्रुः। स तथा भ्रातॄन् संदिश्य तक्षशिलां प्रत्यभिप्रतस्थे तं च देशं वशे स्थापयामास॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे सोमश्रवा पुरोहितको साथ लेकर लौटे और अपने भाइयोंसे बोले—‘इन्हें मैंने अपना उपाध्याय (पुरोहित) बनाया है। ये जो कुछ भी कहें, उसे तुम्हें बिना किसी सोच-विचारके पालन करना चाहिये।’ जनमेजयके ऐसा कहनेपर उनके तीनों भाई पुरोहितकी प्रत्येक आज्ञाका ठीक-ठीक पालन करने लगे। इधर राजा जनमेजय अपने भाइयोंको पूर्वोक्त आदेश देकर स्वयं तक्षशिला जीतनेके लिये चले गये और उस प्रदेशको अपने अधिकारमें कर लिया॥२०॥
धौम्य-शिक्षा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे कश्चिदृषिर्धौम्यो नामायोदस्तस्य शिष्यास्त्रयो बभूवुरुपमन्युरारुणिर्वेदश्चेति ॥ २१ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे कश्चिदृषिर्धौम्यो नामायोदस्तस्य शिष्यास्त्रयो बभूवुरुपमन्युरारुणिर्वेदश्चेति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(गुरुकी आज्ञाका किस प्रकार पालन करना चाहिये, इस विषयमें आगेका प्रसंग कहा जाता है—) इन्हीं दिनों आयोदधौम्य नामसे प्रसिद्ध एक महर्षि थे। उनके तीन शिष्य हुए—उपमन्यु, आरुणि पांचाल तथा वेद॥२१॥
आरुणिकथा
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एकं शिष्यमारुणिं पाञ्चाल्यं प्रेषयामास गच्छ केदारखण्डं बधानेति॥२२॥
मूलम्
स एकं शिष्यमारुणिं पाञ्चाल्यं प्रेषयामास गच्छ केदारखण्डं बधानेति॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन उपाध्यायने अपने एक शिष्य पांचालदेशवासी आरुणिको खेतपर भेजा और कहा—‘वत्स! जाओ, क्यारियोंकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उपाध्यायेन संदिष्ट आरुणिः पाञ्चाल्यस्तत्र गत्वा तत् केदारखण्डं बद्धुं नाशकत्। स क्लिश्यमानोऽपश्यदुपायं भवत्वेवं करिष्यामि॥२३॥
मूलम्
स उपाध्यायेन संदिष्ट आरुणिः पाञ्चाल्यस्तत्र गत्वा तत् केदारखण्डं बद्धुं नाशकत्। स क्लिश्यमानोऽपश्यदुपायं भवत्वेवं करिष्यामि॥२३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायके इस प्रकार आदेश देनेपर पांचालदेशवासी आरुणि वहाँ जाकर उस धानकी क्यारीकी मेड़ बाँधने लगा; परंतु बाँध न सका। मेड़ बाँधनेके प्रयत्नमें ही परिश्रम करते-करते उसे एक उपाय सूझ गया और वह मन-ही-मन बोल उठा—‘अच्छा; ऐसा ही करूँ’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र संविवेश केदारखण्डे शयाने च तथा तस्मिंस्तदुदकं तस्थौ॥२४॥
मूलम्
स तत्र संविवेश केदारखण्डे शयाने च तथा तस्मिंस्तदुदकं तस्थौ॥२४॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह क्यारीकी टूटी हुई मेड़की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जानेपर वहाँका बहता हुआ जल रुक गया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कदाचिदुपाध्याय आयोदो धौम्यः शिष्यानपृच्छत् क्व आरुणिः पाञ्चाल्यो गत इति॥२५॥
मूलम्
ततः कदाचिदुपाध्याय आयोदो धौम्यः शिष्यानपृच्छत् क्व आरुणिः पाञ्चाल्यो गत इति॥२५॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर कुछ कालके पश्चात् उपाध्याय आयोदधौम्यने अपने शिष्योंसे पूछा—‘पांचालनिवासी आरुणि कहाँ चला गया?’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तं प्रत्यूचुर्भगवंस्त्वयैव प्रेषितो गच्छ केदारखण्डं बधानेति। स एवमुक्तस्ताञ्छिष्यान् प्रत्युवाच तस्मात् तत्र सर्वे गच्छामो यत्र स गत इति॥२६॥
मूलम्
ते तं प्रत्यूचुर्भगवंस्त्वयैव प्रेषितो गच्छ केदारखण्डं बधानेति। स एवमुक्तस्ताञ्छिष्यान् प्रत्युवाच तस्मात् तत्र सर्वे गच्छामो यत्र स गत इति॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिष्योंने उत्तर दिया—‘भगवन्! आपहीने तो उसे यह कहकर भेजा था कि ‘जाओ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़ बाँध दो।’ शिष्योंके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उनसे कहा—‘तो चलो, हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ आरुणि गया है’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार। भो आरुणे पाञ्चाल्य क्वासि वत्सैहीति॥२७॥
मूलम्
स तत्र गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार। भो आरुणे पाञ्चाल्य क्वासि वत्सैहीति॥२७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर उपाध्यायने उसे आनेके लिये आवाज दी—‘पांचालनिवासी आरुणि! कहाँ हो वत्स! यहाँ आओ’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तच्छ्रुत्वा आरुणिरुपाध्यायवाक्यं तस्मात् केदारखण्डात् सहसोत्थाय तमुपाध्यायमुपतस्थे ॥ २८ ॥
मूलम्
स तच्छ्रुत्वा आरुणिरुपाध्यायवाक्यं तस्मात् केदारखण्डात् सहसोत्थाय तमुपाध्यायमुपतस्थे ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायका यह वचन सुनकर आरुणि पांचाल सहसा उस क्यारीकी मेड़से उठा और उपाध्यायके समीप आकर खड़ा हो गया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोवाच चैनमयमस्म्यत्र केदारखण्डे निःसरमाणमुदकमवारणीयं संरोद्धुं संविष्टो भगवच्छब्दं श्रुत्वैव सहसा विदार्य केदारखण्डं भवन्तमुपस्थितः॥२९॥
मूलम्
प्रोवाच चैनमयमस्म्यत्र केदारखण्डे निःसरमाणमुदकमवारणीयं संरोद्धुं संविष्टो भगवच्छब्दं श्रुत्वैव सहसा विदार्य केदारखण्डं भवन्तमुपस्थितः॥२९॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उनसे विनयपूर्वक बोला—‘भगवन्! मैं यह हूँ, क्यारीकी टूटी हुई मेड़से निकलते हुए अनिवार्य जलको रोकनेके लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था। इस समय आपकी आवाज सुनते ही सहसा उस मेड़को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदभिवादये भगवन्तमाज्ञापयतु भवान् कमर्थं करवाणीति ॥ ३० ॥
मूलम्
तदभिवादये भगवन्तमाज्ञापयतु भवान् कमर्थं करवाणीति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये, मैं कौन-सा कार्य करूँ?’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच यस्माद् भवान् केदारखण्डं विदार्योत्थितस्तस्मादुद्दालक एव नाम्ना भवान् भविष्यतीत्युपाध्यायेनानुगृहीतः॥३१॥
मूलम्
स एवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच यस्माद् भवान् केदारखण्डं विदार्योत्थितस्तस्मादुद्दालक एव नाम्ना भवान् भविष्यतीत्युपाध्यायेनानुगृहीतः॥३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
आरुणिके ऐसा कहनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया—‘तुम क्यारीके मेड़को विदीर्ण करके उठे हो, अतः इस उद्दलनकर्मके कारण उद्दालक नामसे ही प्रसिद्ध होओगे।’ ऐसा कहकर उपाध्यायने आरुणिको अनुगृहीत किया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्माच्च त्वया मद्वचनमनुष्ठितं तस्माच्छ्रेयोऽवाप्स्यसि। सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति॥३२॥
मूलम्
यस्माच्च त्वया मद्वचनमनुष्ठितं तस्माच्छ्रेयोऽवाप्स्यसि। सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति॥३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही यह भी कहा कि, ‘तुमने मेरी आज्ञाका पालन किया है, इसलिये तुम कल्याणके भागी होओगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धिमें स्वयं प्रकाशित हो जायँगे’॥३२॥
उपमन्युकथा
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देशं जगाम । अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्योपमन्युर् नाम ॥ ३३ ॥
मूलम्
स एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देशं जगाम । अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्योपमन्युर्नाम ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायके इस प्रकार आशीर्वाद देनेपर आरुणि कृतकृत्य हो अपने अभीष्ट देशको चला गया। उन्हीं आयोदधौम्य उपाध्यायका उपमन्यु नामक दूसरा शिष्य था॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चोपाध्यायः प्रेषयामास वत्सोपमन्यो गा रक्षस्वेति ॥ ३४ ॥
मूलम्
तं चोपाध्यायः प्रेषयामास वत्सोपमन्यो गा रक्षस्वेति ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे उपाध्यायने आदेश दिया—‘वत्स उपमन्यु! तुम गौओंकी रक्षा करो’॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उपाध्यायवचनादरक्षद् गाः; स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥३५॥
मूलम्
स उपाध्यायवचनादरक्षद् गाः; स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायकी आज्ञासे उपमन्यु गौओंकी रक्षा करने लगा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहकर संध्याके समय गुरुजीके घरपर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार करता॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायः पीवानमपश्यदुवाच चैनं वत्सोपमन्यो केन वृत्तिं कल्पयसि पीवानसि दृढमिति॥३६॥
मूलम्
तमुपाध्यायः पीवानमपश्यदुवाच चैनं वत्सोपमन्यो केन वृत्तिं कल्पयसि पीवानसि दृढमिति॥३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायने देखा उपमन्यु खूब मोटा-ताजा हो रहा है, तब उन्होंने पूछा—‘बेटा उपमन्यु! तुम कैसे जीविका चलाते हो, जिससे इतने अधिक हृष्ट-पुष्ट हो रहे हो?’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्यैण वृत्तिं कल्पयामीति ॥ ३७ ॥
मूलम्
स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्यैण वृत्तिं कल्पयामीति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने उपाध्यायसे कहा—‘गुरुदेव! मैं भिक्षासे जीवन-निर्वाह करता हूँ’॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्यं नोपयोक्तव्यमिति । स तथेत्युक्त्वा भैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत् ॥ ३८ ॥
मूलम्
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्यं नोपयोक्तव्यमिति । स तथेत्युक्त्वा भैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर उपाध्याय उपमन्युसे बोले—‘मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षाका अन्न अपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये।’ उपमन्युने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपाध्यायको अर्पण करने लगा॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्मादुपाध्यायः सर्वमेव भैक्ष्यमगृह्णात्। स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद् गाः। अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥३९॥
मूलम्
स तस्मादुपाध्यायः सर्वमेव भैक्ष्यमगृह्णात्। स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद् गाः। अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्याय उपमन्युसे सारी भिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु ‘तथास्तु’ कहकर पुनः पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओंकी रक्षामें रहता और (संध्याके समय) पुनः गुरुके घरपर आकर गुरुके सामने खड़ा हो नमस्कार करता था॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भैक्ष्यं गृह्णामि केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति॥४०॥
मूलम्
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भैक्ष्यं गृह्णामि केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति॥४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस दशामें भी उपमन्युको पूर्ववत् हृष्ट-पुष्ट ही देखकर उपाध्यायने पूछा—‘बेटा उपमन्यु! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ, फिर तुम इस समय कैसे जीवन-निर्वाह करते हो?’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिं कल्पयामीति॥४१॥
मूलम्
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिं कल्पयामीति॥४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उन्हें उत्तर दिया—‘भगवन्! पहलेकी लायी हुई भिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसीसे अपनी जीविका चलाता हूँ’॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भैक्ष्योपजीविनां वृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोऽसीति॥४२॥
मूलम्
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भैक्ष्योपजीविनां वृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोऽसीति॥४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर उपाध्यायने कहा—‘यह न्याययुक्त एवं श्रेष्ठ वृत्ति नहीं है। तुम ऐसा करके दूसरे भिक्षाजीवी लोगोंकी जीविकामें बाधा डालते हो; अतः लोभी हो (तुम्हें दुबारा भिक्षा नहीं लानी चाहिये)’॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत् । रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ॥ ४३ ॥
मूलम्
स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत् । रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने ‘तथास्तु’ कहकर गुरुकी आज्ञा मान ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा। एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकालको) उपाध्यायके घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्वं भैक्ष्यं गृह्णामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्तिं कल्पयसीति॥४४॥
मूलम्
तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्वं भैक्ष्यं गृह्णामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्तिं कल्पयसीति॥४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायने उसे फिर भी मोटा-ताजा ही देखकर पूछा—‘बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो। आजकल कैसे खाना-पीना चलाते हो?’॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्तिं कल्पयामीति। तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्तुं भवतो मया नाभ्यनुज्ञातमिति॥४५॥
मूलम्
स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्तिं कल्पयामीति। तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्तुं भवतो मया नाभ्यनुज्ञातमिति॥४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पूछनेपर उपमन्युने उपाध्यायको उत्तर दिया—‘भगवन्! मैं इन गौओंके दूधसे जीवन-निर्वाह करता हूँ।’ (यह सुनकर) उपाध्यायने उससे कहा—‘मैंने तुम्हें दूध पीनेकी आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओंके दूधका उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचित है’॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्यायगृहमेत्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥४६॥
मूलम्
स तथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्यायगृहमेत्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपमन्युने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दूध न पीनेकी भी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गोपालन करता रहा। एक दिन गोचारणके पश्चात् वह पुनः उपाध्यायके घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायः पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नाश्नासि न चान्यच्चरसि पयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति॥४७॥
मूलम्
तमुपाध्यायः पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नाश्नासि न चान्यच्चरसि पयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति॥४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायने अब भी उसे हृष्ट-पुष्ट ही देखकर पूछा—‘बेटा उपमन्यु! तुम भिक्षाका अन्न नहीं खाते, दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते और गौओंका दूध भी नहीं पीते; फिर भी बहुत मोटे हो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो?’॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भोः फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातॄणां स्तनात् पिबन्त उद्गिरन्ति॥४८॥
मूलम्
स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भोः फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातॄणां स्तनात् पिबन्त उद्गिरन्ति॥४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पूछनेपर उसने उपाध्यायको उत्तर दिया—‘भगवन्! ये बछड़े अपनी माताओंके स्तनोंका दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसीको पी लेता हूँ’॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच—एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्साः प्रभूततरं फेनमुद्गिरन्ति। तदेषामपि वत्सानां वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमानः। फेनमपि भवान् न पातुमर्हतीति। स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद् गाः॥४९॥
मूलम्
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच—एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्साः प्रभूततरं फेनमुद्गिरन्ति। तदेषामपि वत्सानां वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमानः। फेनमपि भवान् न पातुमर्हतीति। स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद् गाः॥४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर उपाध्यायने कहा—‘ये बछड़े उत्तम गुणोंसे युक्त हैं, अतः तुमपर दया करके बहुत-सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ोंकी जीविकामें बाधा उपस्थित करते हो, अतः आजसे फेन भी न पिया करो।’ उपमन्युने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे न पीनेकी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत् गौओंकी रक्षा करने लगा॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा प्रतिषिद्धो भैक्ष्यं नाश्नाति न चान्यच्चरति पयो न पिबति फेनं नोपयुङ्क्ते। स कदाचिदरण्ये क्षुधार्तोऽर्कपत्राण्यभक्षयत्॥५०॥
मूलम्
तथा प्रतिषिद्धो भैक्ष्यं नाश्नाति न चान्यच्चरति पयो न पिबति फेनं नोपयुङ्क्ते। स कदाचिदरण्ये क्षुधार्तोऽर्कपत्राण्यभक्षयत्॥५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मना करनेपर उपमन्यु न तो भिक्षाका अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, न गौओंका दूध पीता और न बछड़ोंके फेनको ही उपयोगमें लाता था (अब वह भूखा रहने लगा)। एक दिन वनमें भूखसे पीड़ित होकर उसने आकके पत्ते चबा लिये॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तैरर्कपत्रैर्भक्षितैः क्षारतिक्तकटुरूक्षैस्तीक्ष्णविपाकैश्चक्षुष्युपहतोऽन्धो बभूव । ततः सोऽन्धोऽपि चङ्क्रम्यमाणः कूपे पपात ॥ ५१ ॥
मूलम्
स तैरर्कपत्रैर्भक्षितैः क्षारतिक्तकटुरूक्षैस्तीक्ष्णविपाकैश्चक्षुष्युपहतोऽन्धो बभूव । ततः सोऽन्धोऽपि चङ्क्रम्यमाणः कूपे पपात ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकके पत्ते खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है (पाचनकालमें वे पेटके अंदर आगकी ज्वाला-सी उठा देते हैं); अतः उनको खानेसे उपमन्युकी आँखोंकी ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गया। अन्धा होनेपर भी वह इधर-उधर घूमता रहा; अतः कुएँमें गिर पड़ा॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्ये चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्यायः शिष्यानवोचत्—नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति॥५२॥
मूलम्
अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्ये चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्यायः शिष्यानवोचत्—नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति॥५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचलकी चोटीपर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरुके घरपर नहीं आया, तो उपाध्यायने शिष्योंसे पूछा—‘उपमन्यु क्यों नहीं आया?’ वे बोले—‘वह तो गाय चरानेके लिये वनमें गया था’॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानाह उपाध्यायो मयोपमन्युः सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततो नागच्छति चिरं ततोऽन्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यैः सार्धमरण्यं गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार भो उपमन्यो क्वासि वत्सैहीति॥५३॥
मूलम्
तानाह उपाध्यायो मयोपमन्युः सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततो नागच्छति चिरं ततोऽन्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यैः सार्धमरण्यं गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार भो उपमन्यो क्वासि वत्सैहीति॥५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उपाध्यायने कहा—‘मैंने उपमन्युकी जीविकाके सभी मार्ग बंद कर दिये हैं, अतः निश्चय ही वह रूठ गया है; इसीलिये इतनी देर हो जानेपर भी वह नहीं आया, अतः हमें चलकर उसे खोजना चाहिये।’ ऐसा कहकर शिष्योंके साथ वनमें जाकर उपाध्यायने उसे बुलानेके लिये आवाज दी—‘ओ उपमन्यु! कहाँ हो बेटा! चले आओ’॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उपाध्यायवचनं श्रुत्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन् कूपे पतितोऽहमिति तमुपाध्यायः प्रत्युवाच कथं त्वमस्मिन् कूपे पतित इति॥५४॥
मूलम्
स उपाध्यायवचनं श्रुत्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन् कूपे पतितोऽहमिति तमुपाध्यायः प्रत्युवाच कथं त्वमस्मिन् कूपे पतित इति॥५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने उपाध्यायकी बात सुनकर उच्च स्वरसे उत्तर दिया—‘गुरुजी! मैं कुएँमें गिर पड़ा हूँ।’ तब उपाध्यायने उससे पूछा—‘वत्स! तुम कुएँमें कैसे गिर गये?’॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उपाध्यायं प्रत्युवाच—अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतोऽस्म्यतः कूपे पतित इति ॥ ५५ ॥
मूलम्
स उपाध्यायं प्रत्युवाच—अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतोऽस्म्यतः कूपे पतित इति ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने उपाध्यायको उत्तर दिया—‘भगवन्! मैं आकके पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ; इसीलिये कुएँमें गिर गया’॥५५॥
अश्विनस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच—अश्विनौ स्तुहि। तौ देवभिषजौ त्वां चक्षुष्मन्तं कर्ताराव् इति।
स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युस् स्तोतुम् उपचक्रमे देवाव् अश्विनौ - वाग्भिर् ऋग्भिः॥५६॥
मूलम्
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच—अश्विनौ स्तुहि। तौ देवभिषजौ त्वां चक्षुष्मन्तं कर्ताराविति। स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युरश्विनौ स्तोतुमुपचक्रमे देवावश्विनौ वाग्भिर्ऋग्भिः॥५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उपाध्यायने कहा—‘वत्स! दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके वैद्य हैं। तुम उन्हींकी स्तुति करो। वे तुम्हारी आँखें ठीक कर देंगे।’ उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उपमन्युने अश्विनीकुमार नामक दोनों देवताओंकी ऋग्वेदके मन्त्रोंद्वारा स्तुति प्रारम्भ की॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रपूर्वगौ पूर्वजौ चित्रभानू
गिरा वाऽऽशंसामि तपसा ह्यनन्तौ।
दिव्यौ सुपर्णौ विरजौ विमाना-
वधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा ॥ ५७ ॥
मूलम्
प्रपूर्वगौ पूर्वजौ चित्रभानू
गिरा वाऽऽशंसामि तपसा ह्यनन्तौ।
दिव्यौ सुपर्णौ विरजौ विमाना-
वधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों सृष्टिसे पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप ही चित्रभानु हैं। मैं वाणी और तपके द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं। दिव्यस्वरूप हैं। सुन्दर पंखवाले दो पक्षीकी भाँति सदा साथ रहनेवाले हैं। रजोगुणशून्य तथा अभिमानसे रहित हैं। सम्पूर्ण विश्वमें आरोग्यका विस्तार करते हैं॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ
नासत्यदस्रौ सुनसौ वै जयन्तौ।
शुक्लं वयन्तौ तरसा सुवेमा-
वधिव्ययन्तावसितं विवस्वतः ॥ ५८ ॥
मूलम्
हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ
नासत्यदस्रौ सुनसौ वै जयन्तौ।
शुक्लं वयन्तौ तरसा सुवेमा-
वधिव्ययन्तावसितं विवस्वतः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुनहरे पंखवाले दो सुन्दर विहंगमोंकी भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं। पारलौकिक उन्नतिके साधनोंसे सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दस्र—ये दोनों आपके नाम हैं। आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चितरूपसे विजय प्राप्त करनेवाले हैं। आप ही विवस्वान् (सूर्यदेव)-के सुपुत्र हैं; अतः स्वयं ही सूर्यरूपमें स्थित हो दिन तथा रात्रिरूप काले तन्तुओंसे संवत्सररूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्रद्वारा वेगपूर्वक देवयान और पितृयान नामक सुन्दर मार्गोंको प्राप्त कराते हैं॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिका-
ममुञ्चतामश्विनौ सौभगाय ।
तावत् सुवृत्तावनमन्त मायया
वसत्तमा गा अरुणा उदावहन् ॥ ५९ ॥
मूलम्
ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिका-
ममुञ्चतामश्विनौ सौभगाय ।
तावत् सुवृत्तावनमन्त मायया
वसत्तमा गा अरुणा उदावहन् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्माकी कालशक्तिने जीवरूपी पक्षीको अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनों अश्विनीकुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषोंने ज्ञान देकर कैवल्यरूप महान् सौभाग्यकी प्राप्तिके लिये उस जीवको कालके बन्धनसे मुक्त किया है। मायाके सहवासी अत्यन्त अज्ञानी जीव जबतक राग आदि विषयोंसे आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियोंके समक्ष नत-मस्तक रहते हैं, तबतक वे अपने-आपको शरीरसे आबद्ध ही मानते हैं॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षष्टिश्च गावस्त्रिशताश्च धेनव
एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति।
नानागोष्ठा विहिता एकदोहना-
स्तावश्विनौ दुहतो घर्ममुक्थ्यम् ॥ ६० ॥
मूलम्
षष्टिश्च गावस्त्रिशताश्च धेनव
एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति।
नानागोष्ठा विहिता एकदोहना-
स्तावश्विनौ दुहतो घर्ममुक्थ्यम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिन एवं रात—ये मनोवांछित फल देनेवाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एक ही संवत्सररूपी बछड़ेको जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़ेको निमित्त बनाकर उन गौओंसे विभिन्न फल देनेवाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं; उन सब क्रियाओंका एक (तत्त्वज्ञानकी इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओंको आप दोनों अश्विनीकुमार ही दुहते हैं॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकां नाभिं सप्तशता अराः श्रिताः
प्रधिष्वन्या विंशतिरर्पिता अराः ।
अनेमि चक्रं परिवर्ततेऽजरं
मायाश्विनौ समनक्ति चर्षणी ॥ ६१ ॥
मूलम्
एकां नाभिं सप्तशता अराः श्रिताः
प्रधिष्वन्या विंशतिरर्पिता अराः ।
अनेमि चक्रं परिवर्ततेऽजरं
मायाश्विनौ समनक्ति चर्षणी ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अश्विनीकुमारो! इस कालचक्रकी एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिसपर रात और दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरोंको थामनेवाले पुट्ठों)-में जुड़े हुए हैं। अश्विनीकुमारो! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र बिना नेमिके ही अनियत गतिसे घूमता तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकोंकी प्रजाओंका विनाश करता रहता है॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकं चक्रं वर्तते द्वादशारं
षण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम् ।
यस्मिन् देवा अधि विश्वे विषक्ता-
स्तावश्विनौ मुञ्चतं मा विषीदतम् ॥ ६२ ॥
मूलम्
एकं चक्रं वर्तते द्वादशारं
षण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम् ।
यस्मिन् देवा अधि विश्वे विषक्ता-
स्तावश्विनौ मुञ्चतं मा विषीदतम् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्विनीकुमारो! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः नाभियाँ हैं और संवत्सर जिसकी एक धुरी है, वह एकमात्र कालचक्र सब ओर चल रहा है। यही कर्मफलको धारण करनेवाला आधार है। इसीमें सम्पूर्ण कालाभिमानी देवता स्थित हैं। आप दोनों मुझे इस कालचक्रसे मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदिके दुःखसे अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्विनाविन्दुममृतं वृत्तभूयौ
तिरोधत्तामश्विनौ दासपत्नी ।
हित्वा गिरिमश्विनौ गा मुदा चरन्तौ
तद्वृष्टिमह्ना प्रस्थितौ बलस्य ॥ ६३ ॥
मूलम्
अश्विनाविन्दुममृतं वृत्तभूयौ
तिरोधत्तामश्विनौ दासपत्नी ।
हित्वा गिरिमश्विनौ गा मुदा चरन्तौ
तद्वृष्टिमह्ना प्रस्थितौ बलस्य ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनोंमें सदाचारका बाहुल्य है। आप अपने सुयशसे चन्द्रमा, अमृत तथा जलकी उज्ज्वलताको भी तिरस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरु पर्वतको छोड़कर आप पृथ्वीपर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बलकी वर्षा करनेके लिये ही आप दोनों भाई दिनमें प्रस्थान करते हैं॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युवां दिशो जनयथो दशाग्रे
समानं मूर्ध्नि रथयानं वियन्ति।
तासां यातमृषयोऽनुप्रयान्ति
देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ॥ ६४ ॥
मूलम्
युवां दिशो जनयथो दशाग्रे
समानं मूर्ध्नि रथयानं वियन्ति।
तासां यातमृषयोऽनुप्रयान्ति
देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों ही सृष्टिके प्रारम्भकालमें पूर्वादि दसों दिशाओंको प्रकट करते—उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओंके मस्तक अर्थात् अन्तरिक्ष-लोकमें रथसे यात्रा करनेवाले तथा सबको समानरूपसे प्रकाश देनेवाले सूर्यदेवका और आकाश आदि पाँच भूतोंका भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन-उन दिशाओंमें सूर्यका जाना देखकर ऋषिलोग भी उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकारके अनुसार) स्वर्ग या मर्त्यलोककी भूमिका उपयोग करते हैं॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युवां वर्णान् विकुरुथो विश्वरूपां-
स्तेऽधिक्षियन्ते भुवनानि विश्वा ।
ते भानवोऽप्यनुसृताश्चरन्ति
देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ॥ ६५ ॥
मूलम्
युवां वर्णान् विकुरुथो विश्वरूपां-
स्तेऽधिक्षियन्ते भुवनानि विश्वा ।
ते भानवोऽप्यनुसृताश्चरन्ति
देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अश्विनीकुमारो! आप अनेक रंगकी वस्तुओंके सम्मिश्रणसे सब प्रकारकी ओषधियाँ तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्वका पोषण करती हैं। वे प्रकाशमान ओषधियाँ सदा आपका अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने अधिकारके अनुसार स्वर्ग और मर्त्यलोककी भूमिमें रहकर उन ओषधियोंका सेवन करते हैं॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ नासत्यावश्विनौ वां महेऽहं
स्रजं च यां बिभृथः पुष्करस्य।
तौ नासत्यावमृतावृतावृधा-
वृते देवास्तत्प्रपदे न सूते ॥ ६६ ॥
मूलम्
तौ नासत्यावश्विनौ वां महेऽहं
स्रजं च यां बिभृथः पुष्करस्य।
तौ नासत्यावमृतावृतावृधा-
वृते देवास्तत्प्रपदे न सूते ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्विनीकुमारो! आप ही दोनों ‘नासत्य’ नामसे प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमलकी माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होनेके साथ ही सत्यका पोषण और विस्तार करनेवाले हैं। आपके सहयोगके बिना देवता भी उस सनातन सत्यकी प्राप्तिमें समर्थ नहीं हैं॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखेन गर्भं लभेतां युवानौ
गतासुरेतत् प्रपदेन सूते ।
सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भ-
स्तावश्विनौ मुञ्चथो जीवसे गाः ॥ ६७ ॥
मूलम्
मुखेन गर्भं लभेतां युवानौ
गतासुरेतत् प्रपदेन सूते ।
सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भ-
स्तावश्विनौ मुञ्चथो जीवसे गाः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युवक माता-पिता संतानोत्पत्तिके लिये पहले मुखसे अन्नरूप गर्भ धारण करते हैं। तत्पश्चात् पुरुषोंमें वीर्यरूपमें और स्त्रीमें रजोरूपसे परिणत होकर वह अन्न जड शरीर बन जाता है। तत्पश्चात् जन्म लेनेवाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही माताके स्तनोंका दूध पीने लगता है। हे अश्विनीकुमारो! पूर्वोक्त रूपसे संसार-बन्धनमें बँधे हुए जीवोंको आप तत्त्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाहके लिये मेरी नेत्रेन्द्रियको भी रोगसे मुक्त करें॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तोतुं न शक्नोमि गुणैर्भवन्तौ
चक्षुर्विहीनः पथि सम्प्रमोहः ।
दुर्गेऽहमस्मिन् पतितोऽस्मि कूपे
युवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये ॥ ६८ ॥
मूलम्
स्तोतुं न शक्नोमि गुणैर्भवन्तौ
चक्षुर्विहीनः पथि सम्प्रमोहः ।
दुर्गेऽहमस्मिन् पतितोऽस्मि कूपे
युवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्विनीकुमारो! मैं आपके गुणोंका बखान करके आप दोनोंकी स्तुति नहीं कर सकता। इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचाननेमें भी भूल हो जाती है; इसीलिये इस दुर्गम कूपमें गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं; अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं तेनाभिष्टुतावश्विनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एष तेऽपूपोऽशानैनमिति ॥ ६९ ॥
मूलम्
इत्येवं तेनाभिष्टुतावश्विनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एष तेऽपूपोऽशानैनमिति ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उपमन्युके स्तवन करनेपर दोनों अश्विनीकुमार वहाँ आये और उससे बोले—‘उपमन्यु! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खानेके लिये पूआ है, इसे खा लो’॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्तौ न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे गुरवेऽनिवेद्येति ॥ ७० ॥
मूलम्
स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्तौ न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे गुरवेऽनिवेद्येति ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर उपमन्यु बोला—‘भगवन्! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं गुरुजीको निवेदन किये बिना इस पूएको अपने उपयोगमें नहीं ला सकता’॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तमश्विनावूचतुः—आवाभ्यां पुरस्ताद् भवत उपाध्यायेनैवमेवाभिष्टुताभ्यामपूपो दत्त उपयुक्तः स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैव कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति॥७१॥
मूलम्
ततस्तमश्विनावूचतुः—आवाभ्यां पुरस्ताद् भवत उपाध्यायेनैवमेवाभिष्टुताभ्यामपूपो दत्त उपयुक्तः स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैव कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति॥७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब दोनों अश्विनीकुमार बोले—‘वत्स! पहले तुम्हारे उपाध्यायने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हमने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरुजीको निवेदन किये बिना ही काममें ले लिया था। तुम्हारे उपाध्यायने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करो’॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तः प्रत्युवाच—एतत् प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनौ नोत्सहेऽहमनिवेद्य गुरवेऽपूपमुपयोक्तुमिति ॥ ७२ ॥
मूलम्
स एवमुक्तः प्रत्युवाच—एतत् प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनौ नोत्सहेऽहमनिवेद्य गुरवेऽपूपमुपयोक्तुमिति ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर उपमन्युने उत्तर दिया—‘इसके लिये तो आप दोनों अश्विनीकुमारोंकी मैं बड़ी अनुनय-विनय करता हूँ। गुरुजीके निवेदन किये बिना मैं इस पूएको नहीं खा सकता’॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमश्विनावाहतुः प्रीतौ स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते कार्ष्णायसा दन्ता भवतोऽपि हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्च भविष्यसीति श्रेयश्चावाप्स्यसीति॥७३॥
मूलम्
तमश्विनावाहतुः प्रीतौ स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते कार्ष्णायसा दन्ता भवतोऽपि हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्च भविष्यसीति श्रेयश्चावाप्स्यसीति॥७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अश्विनीकुमार उससे बोले, ‘तुम्हारी इस गुरु-भक्तिसे हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्यायके दाँत काले लोहेके समान हैं। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायँगे। तुम्हारी आँखें भी ठीक हो जायँगी और तुम कल्याणके भागी भी होओगे’॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तोऽश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत् ॥ ७४ ॥
मूलम्
स एवमुक्तोऽश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अश्विनीकुमारोंके ऐसा कहनेपर उपमन्युको आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्यायके समीप आकर उन्हें प्रणाम किया॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान् बभूव ॥ ७५ ॥
मूलम्
आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान् बभूव ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा सब बातें गुरुजीसे कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह चैनं यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोऽवाप्स्यसि ॥ ७६ ॥
मूलम्
आह चैनं यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोऽवाप्स्यसि ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उससे बोले—‘जैसा अश्विनीकुमारोंने कहा है, उसी प्रकार तुम कल्याणके भागी होओगे॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति। एषा तस्यापि परीक्षोपमन्योः॥७७॥
मूलम्
सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति। एषा तस्यापि परीक्षोपमन्योः॥७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारी बुद्धिमें सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।’ इस प्रकार यह उपमन्युकी परीक्षा बतायी गयी॥७७॥
वेदशिक्षणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापरः शिष्यस् तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्मम गृहे कंचित् कालं शुश्रूषुणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति॥७८॥
मूलम्
अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्मम गृहे कंचित् कालं शुश्रूषुणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति॥७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हीं आयोदधौम्यके तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्यायने आज्ञा दी, ‘वत्स वेद! तुम कुछ कालतक यहाँ मेरे घरमें निवास करो। सदा शुश्रूषामें लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा’॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरोऽवसद् गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्षु नियोज्यमानः शीतोष्णक्षुत्तृष्णादुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरुः परितोषं जगाम॥७९॥
मूलम्
स तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरोऽवसद् गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्षु नियोज्यमानः शीतोष्णक्षुत्तृष्णादुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरुः परितोषं जगाम॥७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुके घरमें रहने लगे। उन्होंने दीर्घकालतक गुरुकी सेवा की। गुरुजी उन्हें बैलकी तरह सदा भारी बोझ ढोनेमें लगाये रखते थे और वेद सरदी-गरमी तथा भूख-प्यासका कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओंमें गुरुके अनुकूल ही रहते थे। इस प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरुजी उनपर पूर्णतः संतुष्ट हुए॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्परितोषाच्च श्रेयः सर्वज्ञतां चावाप । एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य ॥ ८० ॥
मूलम्
तत्परितोषाच्च श्रेयः सर्वज्ञतां चावाप । एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुके संतोषसे वेदने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली। इस प्रकार यह वेदकी परीक्षाका वृत्तान्त कहा गया॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद् गुरुकुलवासाद् गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत। तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रयः शिष्या बभूवुः स शिष्यान् न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियतां गुरुशुश्रूषा चेति। दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान् परिक्लेशेन योजयितुं नेयेष॥८१॥
मूलम्
स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद् गुरुकुलवासाद् गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत। तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रयः शिष्या बभूवुः स शिष्यान् न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियतां गुरुशुश्रूषा चेति। दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान् परिक्लेशेन योजयितुं नेयेष॥८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उपाध्यायकी आज्ञा होनेपर वेद समावर्तन-संस्कारके पश्चात् स्नातक होकर गुरुगृहसे लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया। अपने घरमें निवास करते समय आचार्य वेदके पास तीन शिष्य रहते थे, किंतु वे ‘काम करो अथवा गुरुसेवामें लगे रहो’ इत्यादि रूपसे किसी प्रकारका आदेश अपने शिष्योंको नहीं देते थे; क्योंकि गुरुके घरमें रहनेपर छात्रोंको जो कष्ट सहन करना पड़ता है, उससे वे परिचित थे। इसलिये उनके मनमें अपने शिष्योंको क्लेशदायक कार्यमें लगानेकी कभी इच्छा नहीं होती थी॥८१॥
उत्तङ्क-शिक्षा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कस्मिंश्चित् काले वेदं ब्राह्मणं
जनमेजयः पौष्यश् च क्षत्रियाव् उपेत्य
वरयित्वोपाध्यायं चक्रतुः॥८२॥
स कदाचिद् याज्यकार्येणाभिप्रस्थित उत्तङ्कनामानं शिष्यं नियोजयामास॥८३॥भो यत् किंचिदस्मद्गृहे परिहीयते तदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योत्तङ्कं वेदः प्रवासं जगाम॥८४॥
मूलम्
अथ कस्मिंश्चित् काले वेदं ब्राह्मणं जनमेजयः पौष्यश्च क्षत्रियावुपेत्य वरयित्वोपाध्यायं चक्रतुः॥८२॥स कदाचिद् याज्यकार्येणाभिप्रस्थित उत्तङ्कनामानं शिष्यं नियोजयामास॥८३॥भो यत् किंचिदस्मद्गृहे परिहीयते तदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योत्तङ्कं वेदः प्रवासं जगाम॥८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है—ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेदके पास आकर ‘जनमेजय और पौष्य’ नामवाले दो क्षत्रियोंने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेदने यजमानके कार्यसे बाहर जानेके लिये उद्यत हो उत्तंक नामवाले शिष्यको अग्निहोत्र आदिके कार्यमें नियुक्त किया और कहा—‘वत्स उत्तंक! मेरे घरमें मेरे बिना जिस किसी वस्तुकी कमी हो जाय, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।’ उत्तंकको ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये॥८२—८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोत्तङ्कः शुश्रूषुर्गुरुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति स्म । स तत्र वसमान उपाध्यायस्त्रीभिः सहिताभिराहूयोक्तः ॥ ८५ ॥
मूलम्
अथोत्तङ्कः शुश्रूषुर्गुरुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति स्म । स तत्र वसमान उपाध्यायस्त्रीभिः सहिताभिराहूयोक्तः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंक गुरुकी आज्ञाका पालन करते हुए सेवापरायण हो गुरुके घरमें रहने लगे। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्यायके आश्रयमें रहनेवाली सब स्त्रियोंने मिलकर बुलाया और कहा—॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपाध्यायानी ते ऋतुमती, उपाध्यायश्च प्रोषितोऽस्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न भवति तथा क्रियतामेषा विषीदतीति॥८६॥
मूलम्
उपाध्यायानी ते ऋतुमती, उपाध्यायश्च प्रोषितोऽस्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न भवति तथा क्रियतामेषा विषीदतीति॥८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी गुरुपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो; इसके लिये गुरुपत्नी बड़ी चिन्तामें पड़ी हैं॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्ताः स्त्रियः प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्यं करणीयम्। न ह्यहमुपाध्यायेन संदिष्टोऽकार्यमपि त्वया कार्यमिति॥८७॥
मूलम्
एवमुक्तस्ताः स्त्रियः प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्यं करणीयम्। न ह्यहमुपाध्यायेन संदिष्टोऽकार्यमपि त्वया कार्यमिति॥८७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर उत्तंकने उत्तर दिया—‘मैं स्त्रियोंके कहनेसे यह न करनेयोग्य निन्द्य कर्म नहीं कर सकता। उपाध्यायने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि ‘तुम न करनेयोग्य कार्य भी कर डालना’॥८७॥
गुरुदक्षिणाकथनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य पुनरुपाध्यायः कालान्तरेण गृहमाजगाम तस्मात् प्रवासात्। स तु तद् वृत्तं तस्याशेषमुपलभ्य प्रीतिमानभूत्॥८८॥
मूलम्
तस्य पुनरुपाध्यायः कालान्तरेण गृहमाजगाम तस्मात् प्रवासात्। स तु तद् वृत्तं तस्याशेषमुपलभ्य प्रीतिमानभूत्॥८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद कुछ काल बीतनेपर उपाध्याय वेद परदेशसे अपने घर लौट आये। आनेपर उन्हें उत्तंकका सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, इससे वे बड़े प्रसन्न हुए॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच चैनं वत्सोत्तङ्क किं ते प्रियं करवाणीति। धर्मतो हि शुश्रूषितोऽस्मि भवता तेन प्रीतिः परस्परेण नौ संवृद्धा तदनुजाने भवन्तं सर्वानेव कामानवाप्स्यसि गम्यतामिति॥८९॥
मूलम्
उवाच चैनं वत्सोत्तङ्क किं ते प्रियं करवाणीति। धर्मतो हि शुश्रूषितोऽस्मि भवता तेन प्रीतिः परस्परेण नौ संवृद्धा तदनुजाने भवन्तं सर्वानेव कामानवाप्स्यसि गम्यतामिति॥८९॥
अनुवाद (हिन्दी)
और बोले—‘बेटा उत्तंक! तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? तुमने धर्मपूर्वक मेरी सेवा की है। इससे हम दोनोंकी एक-दूसरेके प्रति प्रीति बहुत बढ़ गयी है। अब मैं तुम्हें घर लौटनेकी आज्ञा देता हूँ—जाओ, तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी’॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तः प्रत्युवाच किं ते प्रियं करवाणीति, एवमाहुः॥९०॥
मूलम्
स एवमुक्तः प्रत्युवाच किं ते प्रियं करवाणीति, एवमाहुः॥९०॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुके ऐसा कहनेपर उत्तंक बोले—‘भगवन्! मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? वृद्ध पुरुष कहते भी हैं॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चाधर्मेण वै ब्रूयाद् यश्चाधर्मेण पृच्छति।
तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति ॥ ९१ ॥
मूलम्
यश्चाधर्मेण वै ब्रूयाद् यश्चाधर्मेण पृच्छति।
तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अधर्मपूर्वक अध्यापन या उपदेश करता है अथवा जो अधर्मपूर्वक प्रश्न या अध्ययन करता है, उन दोनोंमेंसे एक (गुरु अथवा शिष्य) मृत्यु एवं विद्वेषको प्राप्त होता है॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहमनुज्ञातो भवतेच्छामीष्टं गुर्वर्थमुपहर्तुमिति । तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क उष्यतां तावदिति ॥ ९२ ॥
मूलम्
सोऽहमनुज्ञातो भवतेच्छामीष्टं गुर्वर्थमुपहर्तुमिति । तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क उष्यतां तावदिति ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः आपकी आज्ञा मिलनेपर मैं अभीष्ट गुरुदक्षिणा भेंट करना चाहता हूँ।’ उत्तंकके ऐसा कहनेपर उपाध्याय बोले—‘बेटा उत्तंक! तब कुछ दिन और यहीं ठहरो’॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिदुपाध्यायमाहोत्तङ्क आज्ञापयतु भवान् किं ते प्रियमुपाहरामि गुर्वर्थमिति॥९३॥
मूलम्
स कदाचिदुपाध्यायमाहोत्तङ्क आज्ञापयतु भवान् किं ते प्रियमुपाहरामि गुर्वर्थमिति॥९३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर किसी दिन उत्तंकने फिर उपाध्यायसे कहा—‘भगवन्! आज्ञा दीजिये, मैं आपको कौन-सी प्रिय वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट करूँ?’॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क बहुशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपाहरामीति तद् गच्छैनां प्रविश्योपाध्यायानीं पृच्छ किमुपाहरामीति॥९४॥एषा यद् ब्रवीति तदुपाहरस्वेति।
मूलम्
तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क बहुशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपाहरामीति तद् गच्छैनां प्रविश्योपाध्यायानीं पृच्छ किमुपाहरामीति॥९४॥एषा यद् ब्रवीति तदुपाहरस्वेति।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर उपाध्यायने उनसे कहा—‘वत्स उत्तंक! तुम बार-बार मुझसे कहते हो कि ‘मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करूँ?’ अतः जाओ, घरके भीतर प्रवेश करके अपनी गुरुपत्नीसे पूछ लो कि ‘मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करूँ?’॥९४॥ ‘वे जो बतावें वही वस्तु उन्हें भेंट करो।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छद् भगवत्युपाध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृहं गन्तुमिच्छामीष्टं ते गुर्वर्थमुपहृत्यानृणो गन्तुमिति ॥ ९५ ॥ तदाज्ञापयतु भवती किमुपाहरामि गुर्वर्थमिति ।
मूलम्
स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छद् भगवत्युपाध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृहं गन्तुमिच्छामीष्टं ते गुर्वर्थमुपहृत्यानृणो गन्तुमिति ॥ ९५ ॥ तदाज्ञापयतु भवती किमुपाहरामि गुर्वर्थमिति ।
अनुवाद (हिन्दी)
उपाध्यायके ऐसा कहनेपर उत्तंकने गुरुपत्नीसे पूछा—‘देवि! उपाध्यायने मुझे घर जानेकी आज्ञा दी है, अतः मैं आपको कोई अभीष्ट वस्तु गुरुदक्षिणाके रूपमें भेंट करके गुरुके ऋणसे उऋण होकर जाना चाहता हूँ॥९५॥ अतः आप आज्ञा दें; मैं गुरुदक्षिणाके रूपमें कौन-सी वस्तु ला दूँ।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैवमुक्तोपाध्यायानी तमुत्तङ्कं प्रत्युवाच गच्छ पौष्यं प्रति राजानं कुण्डले भिक्षितुं तस्य क्षत्रियया पिनद्धे॥९६॥
मूलम्
सैवमुक्तोपाध्यायानी तमुत्तङ्कं प्रत्युवाच गच्छ पौष्यं प्रति राजानं कुण्डले भिक्षितुं तस्य क्षत्रियया पिनद्धे॥९६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंकके ऐसा कहनेपर गुरुपत्नी उनसे बोलीं—‘वत्स! तुम राजा पौष्यके यहाँ, उनकी क्षत्राणी पत्नीने जो दोनों कुण्डल पहन रखे हैं, उन्हें माँग लानेके लिये जाओ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते आनयस्व चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता ताभ्यामाबद्धाभ्यां शोभमाना ब्राह्मणान् परिवेष्टुमिच्छामि। तत् सम्पादयस्व, एवं हि कुर्वतः श्रेयो भवितान्यथा कुतः श्रेय इति॥९७॥
मूलम्
ते आनयस्व चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता ताभ्यामाबद्धाभ्यां शोभमाना ब्राह्मणान् परिवेष्टुमिच्छामि। तत् सम्पादयस्व, एवं हि कुर्वतः श्रेयो भवितान्यथा कुतः श्रेय इति॥९७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘और उन कुण्डलोंको शीघ्र ले आओ। आजके चौथे दिन पुण्यक व्रत होनेवाला है, मैं उस दिन कानोंमें उन कुण्डलोंको पहनकर सुशोभित हो ब्राह्मणोंको भोजन परोसना चाहती हूँ; अतः तुम मेरा यह मनोरथ पूर्ण करो। तुम्हारा कल्याण होगा। अन्यथा कल्याणकी प्राप्ति कैसे सम्भव है?’॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तस्तया प्रातिष्ठतोत्तङ्कः स पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणं तमधिरूढं च पुरुषमतिप्रमाणमेव स पुरुष उत्तङ्कमभ्यभाषत॥९८॥
मूलम्
स एवमुक्तस्तया प्रातिष्ठतोत्तङ्कः स पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणं तमधिरूढं च पुरुषमतिप्रमाणमेव स पुरुष उत्तङ्कमभ्यभाषत॥९८॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुपत्नीके ऐसा कहनेपर उत्तंक वहाँसे चल दिये। मार्गमें जाते समय उन्होंने एक बहुत बड़े बैलको और उसपर चढ़े हुए एक विशालकाय पुरुषको भी देखा। उस पुरुषने उत्तंकसे कहा—॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो उत्तङ्कैतत् पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति स एवमुक्तो नैच्छत्॥९९॥
मूलम्
भो उत्तङ्कैतत् पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति स एवमुक्तो नैच्छत्॥९९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तंक! तुम इस बैलका गोबर खा लो।’ किंतु उसके ऐसा कहनेपर भी उत्तंकको वह गोबर खानेकी इच्छा नहीं हुई॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह पुरुषो भूयो भक्षयस्वोत्तङ्क मा विचारयोपाध्यायेनापि ते भक्षितं पूर्वमिति॥१००॥
मूलम्
तमाह पुरुषो भूयो भक्षयस्वोत्तङ्क मा विचारयोपाध्यायेनापि ते भक्षितं पूर्वमिति॥१००॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वह पुरुष फिर उनसे बोला—‘उत्तंक! खा लो, विचार न करो। तुम्हारे उपाध्यायने भी पहले इसे खाया था’॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तो बाढमित्युक्त्वा तदा तद् वृषभस्य मूत्रं पुरीषं च भक्षयित्वोत्तङ्कः सम्भ्रमादुत्थित एवाप उपस्पृश्य प्रतस्थे॥१०१॥
मूलम्
स एवमुक्तो बाढमित्युक्त्वा तदा तद् वृषभस्य मूत्रं पुरीषं च भक्षयित्वोत्तङ्कः सम्भ्रमादुत्थित एवाप उपस्पृश्य प्रतस्थे॥१०१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पुनः ऐसा कहनेपर उत्तंकने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसकी बात मान ली और उस बैलके गोबर तथा मूत्रको खा-पीकर उतावलीके कारण खड़े-खड़े ही आचमन किया। फिर वे चल दिये॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र स क्षत्रियः पौष्यस्तमुपेत्यासीनमपश्यदुत्तङ्कः । स उत्तङ्कस्तमुपेत्याशीर्भिरभिनन्द्योवाच ॥ १०२ ॥
मूलम्
यत्र स क्षत्रियः पौष्यस्तमुपेत्यासीनमपश्यदुत्तङ्कः । स उत्तङ्कस्तमुपेत्याशीर्भिरभिनन्द्योवाच ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ वे क्षत्रिय राजा पौष्य रहते थे, वहाँ पहुँचकर उत्तंकने देखा—वे आसनपर बैठे हुए हैं, तब उत्तंकने उनके समीप जाकर आशीर्वादसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा—॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थी भवन्तमुपागतोऽस्मीति स एनमभिवाद्योवाच भगवन् पौष्यः खल्वहं किं करवाणीति॥१०३॥
मूलम्
अर्थी भवन्तमुपागतोऽस्मीति स एनमभिवाद्योवाच भगवन् पौष्यः खल्वहं किं करवाणीति॥१०३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैं याचक होकर आपके पास आया हूँ।’ राजाने उन्हें प्रणाम करके कहा—‘भगवन्! मैं आपका सेवक पौष्य हूँ; कहिये, किस आज्ञाका पालन करूँ?’॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच गुर्वर्थं कुण्डलयोरर्थेनाभ्यागतोऽस्मीति। ये वै ते क्षत्रियया पिनद्धे कुण्डले ते भवान् दातुमर्हतीति॥१०४॥
मूलम्
तमुवाच गुर्वर्थं कुण्डलयोरर्थेनाभ्यागतोऽस्मीति। ये वै ते क्षत्रियया पिनद्धे कुण्डले ते भवान् दातुमर्हतीति॥१०४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंकने पौष्यसे कहा—‘राजन्! मैं गुरुदक्षिणाके निमित्त दो कुण्डलोंके लिये आपके यहाँ आया हूँ। आपकी क्षत्राणीने जिन्हें पहन रखा है, उन्हीं दोनों कुण्डलोंको आप मुझे दे दें। यह आपके योग्य कार्य है’॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रत्युवाच पौष्यः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रिया याच्यतामिति। स तेनैवमुक्तः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रियां नापश्यत्॥१०५॥
मूलम्
तं प्रत्युवाच पौष्यः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रिया याच्यतामिति। स तेनैवमुक्तः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रियां नापश्यत्॥१०५॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा—‘ब्रह्मन्! आप अन्तःपुरमें जाकर क्षत्राणीसे वे कुण्डल माँग लें।’ राजाके ऐसा कहनेपर उत्तंकने अन्तःपुरमें प्रवेश किया, किंतु वहाँ उन्हें क्षत्राणी नहीं दिखायी दी॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पौष्यं पुनरुवाच न युक्तं भवताहमनृतेनोपचरितुं न हि तेऽन्तःपुरे क्षत्रिया सन्निहिता नैनां पश्यामि॥१०६॥
मूलम्
स पौष्यं पुनरुवाच न युक्तं भवताहमनृतेनोपचरितुं न हि तेऽन्तःपुरे क्षत्रिया सन्निहिता नैनां पश्यामि॥१०६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे पुनः राजा पौष्यके पास आकर बोले—‘राजन्! आप मुझे संतुष्ट करनेके लिये झूठी बात कहकर मेरे साथ छल करें, यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके अन्तःपुरमें क्षत्राणी नहीं हैं, क्योंकि वहाँ वे मुझे नहीं दिखायी देती हैं’॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तः पौष्यः क्षणमात्रं विमृश्योत्तङ्कं प्रत्युवाच नियतं भवानुच्छिष्टः स्मर तावन्न हि सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना शक्या द्रष्टुं पतिव्रतात्वात् सैषा नाशुचेर्दर्शनमुपैतीति॥१०७॥
मूलम्
स एवमुक्तः पौष्यः क्षणमात्रं विमृश्योत्तङ्कं प्रत्युवाच नियतं भवानुच्छिष्टः स्मर तावन्न हि सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना शक्या द्रष्टुं पतिव्रतात्वात् सैषा नाशुचेर्दर्शनमुपैतीति॥१०७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंकके ऐसा कहनेपर पौष्यने एक क्षणतक विचार करके उन्हें उत्तर दिया—‘निश्चय ही आप जूँठे मुँह हैं, स्मरण तो कीजिये, क्योंकि मेरी क्षत्राणी पतिव्रता होनेके कारण उच्छिष्ट— अपवित्र मनुष्यके द्वारा नहीं देखी जा सकती हैं। आप उच्छिष्ट होनेके कारण अपवित्र हैं, इसलिये वे आपकी दृष्टिमें नहीं आ रही हैं’॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैवमुक्त उत्तङ्कः स्मृत्वोवाचास्ति खलु मयोत्थितेनोपस्पृष्टं गच्छतां चेति। तं पौष्यः प्रत्युवाच—एष ते व्यतिक्रमो नोत्थितेनोपस्पृष्टं भवतीति शीघ्रं गच्छता चेति॥१०८॥
मूलम्
अथैवमुक्त उत्तङ्कः स्मृत्वोवाचास्ति खलु मयोत्थितेनोपस्पृष्टं गच्छतां चेति। तं पौष्यः प्रत्युवाच—एष ते व्यतिक्रमो नोत्थितेनोपस्पृष्टं भवतीति शीघ्रं गच्छता चेति॥१०८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर उत्तंकने स्मरण करके कहा—‘हाँ, अवश्य ही मुझमें अशुद्धि रह गयी है। यहाँकी यात्रा करते समय मैंने खड़े होकर चलते-चलते आचमन किया है।’ तब पौष्यने उनसे कहा—‘ब्रह्मन्! यही आपके द्वारा विधिका उल्लंघन हुआ है। खड़े होकर और शीघ्रतापूर्वक चलते-चलते किया हुआ आचमन नहींके बराबर है’॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोत्तङ्कस्तं तथेत्युक्त्वा प्राङ्मुख उपविश्य सुप्रक्षालितपाणिपादवदनो निःशब्दाभिरफेनाभिरनुष्णाभिर्हृद्गताभिरद्भिस्त्रिः पीत्वा द्विः परिमृज्य खान्यद्भिरुपस्पृश्य चान्तःपुरं प्रविवेश॥१०९॥
मूलम्
अथोत्तङ्कस्तं तथेत्युक्त्वा प्राङ्मुख उपविश्य सुप्रक्षालितपाणिपादवदनो निःशब्दाभिरफेनाभिरनुष्णाभिर्हृद्गताभिरद्भिस्त्रिः पीत्वा द्विः परिमृज्य खान्यद्भिरुपस्पृश्य चान्तःपुरं प्रविवेश॥१०९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उत्तंक राजासे ‘ठीक है’ ऐसा कहकर हाथ, पैर और मुँह भलीभाँति धोकर पूर्वाभिमुख हो आसनपर बैठे और हृदयतक पहुँचनेयोग्य शब्द तथा फेनसे रहित शीतल जलके द्वारा तीन बार आचमन करके उन्होंने दो बार अँगूठेके मूल भागसे मुख पोंछा और नेत्र, नासिका आदि इन्द्रिय-गोलकोंका जलसहित अंगुलियोंद्वारा स्पर्श करके अन्तःपुरमें प्रवेश किया॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तां क्षत्रियामपश्यत्, सा च दृष्ट्वैवोत्तङ्कं प्रत्युत्थायाभिवाद्योवाच स्वागतं ते भगवन्नाज्ञापय किं करवाणीति॥११०॥
मूलम्
ततस्तां क्षत्रियामपश्यत्, सा च दृष्ट्वैवोत्तङ्कं प्रत्युत्थायाभिवाद्योवाच स्वागतं ते भगवन्नाज्ञापय किं करवाणीति॥११०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्हें क्षत्राणीका दर्शन हुआ। महारानी उत्तंकको देखते ही उठकर खड़ी हो गयीं और प्रणाम करके बोलीं—‘भगवन्! आपका स्वागत है, आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ?’॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तामुवाचैते कुण्डले गुर्वर्थं मे भिक्षिते दातुमर्हसीति। सा प्रीता तेन तस्य सद्भावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्चेति मत्वा ते कुण्डलेऽवमुच्यास्मै प्रायच्छदाह तक्षको नागराजः सुभृशं प्रार्थयत्यप्रमत्तो नेतुमर्हसीति॥१११॥
मूलम्
स तामुवाचैते कुण्डले गुर्वर्थं मे भिक्षिते दातुमर्हसीति। सा प्रीता तेन तस्य सद्भावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्चेति मत्वा ते कुण्डलेऽवमुच्यास्मै प्रायच्छदाह तक्षको नागराजः सुभृशं प्रार्थयत्यप्रमत्तो नेतुमर्हसीति॥१११॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंकने महारानीसे कहा—‘देवि! मैंने गुरुके लिये आपके दोनों कुण्डलोंकी याचना की है। वे ही मुझे दे दें।’ महारानी उत्तंकके उस सद्भाव (गुरुभक्ति)-से बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने यह सोचकर कि ‘ये सुपात्र ब्राह्मण हैं, इन्हें निराश नहीं लौटाना चाहिये’—अपने दोनों कुण्डल स्वयं उतारकर उन्हें दे दिये और उनसे कहा—‘ब्रह्मन्! नागराज तक्षक इन कुण्डलोंको पानेके लिये बहुत प्रयत्नशील हैं। अतः आपको सावधान होकर इन्हें ले जाना चाहिये’॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तस्तां क्षत्रियां प्रत्युवाच भगवति सुनिर्वृता भव। न मां शक्तस्तक्षको नागराजो धर्षयितुमिति॥११२॥
मूलम्
स एवमुक्तस्तां क्षत्रियां प्रत्युवाच भगवति सुनिर्वृता भव। न मां शक्तस्तक्षको नागराजो धर्षयितुमिति॥११२॥
अनुवाद (हिन्दी)
रानीके ऐसा कहनेपर उत्तंकने उन क्षत्राणीसे कहा—‘देवि! आप निश्चिन्त रहें। नागराज तक्षक मुझसे भिड़नेका साहस नहीं कर सकता’॥११२॥
पौष्यश्राद्धम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवम् उक्त्वा तां क्षत्रियाम् आमन्त्र्य पौष्य-सकाशम् आगच्छत्।
आह चैनं - “भोः पौष्य प्रीतोऽस्मी"ति।
तम् उत्तङ्कं पौष्यः प्रत्युवाच॥११३॥
मूलम्
स एवमुक्त्वा तां क्षत्रियामामन्त्र्य पौष्यसकाशमागच्छत्। आह चैनं भोः पौष्य प्रीतोऽस्मीति तमुत्तङ्कं पौष्यः प्रत्युवाच॥११३॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारानीसे ऐसा कहकर उनसे आज्ञा ले उत्तंक राजा पौष्यके निकट आये और बोले—‘महाराज पौष्य! मैं बहुत प्रसन्न हूँ (और आपसे विदा लेना चाहता हूँ)।’ यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा—॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवंश्चिरेण पात्रमासाद्यते भवांश्च गुणवानतिथिस्तदिच्छे श्राद्धं कर्तुं क्रियतां क्षण इति॥११४॥
मूलम्
भगवंश्चिरेण पात्रमासाद्यते भवांश्च गुणवानतिथिस्तदिच्छे श्राद्धं कर्तुं क्रियतां क्षण इति॥११४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! बहुत दिनोंपर कोई सुपात्र ब्राह्मण मिलता है। आप गुणवान् अतिथि पधारे हैं, अतः मैं श्राद्ध करना चाहता हूँ। आप इसमें समय दीजिये’॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच कृतक्षण एवास्मि शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्नमुपस्कृतं भवतेति स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेनैनं भोजयामास॥११५॥
मूलम्
तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच कृतक्षण एवास्मि शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्नमुपस्कृतं भवतेति स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेनैनं भोजयामास॥११५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उत्तंकने राजासे कहा—‘मेरा समय तो दिया ही हुआ है, किंतु शीघ्रता चाहता हूँ। आपके यहाँ जो शुद्ध एवं सुसंस्कृत भोजन तैयार हो उसे मँगाइये।’ राजाने ‘बहुत अच्छा’ कहकर जो भोजन-सामग्री प्रस्तुत थी, उसके द्वारा उन्हें भोजन कराया॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोत्तङ्कः सकेशं शीतमन्नं दृष्ट्वा अशुच्येतदिति मत्वा तं पौष्यमुवाच यस्मान्मेऽशुच्यन्नं ददासि तस्मादन्धो भविष्यसीति॥११६॥
मूलम्
अथोत्तङ्कः सकेशं शीतमन्नं दृष्ट्वा अशुच्येतदिति मत्वा तं पौष्यमुवाच यस्मान्मेऽशुच्यन्नं ददासि तस्मादन्धो भविष्यसीति॥११६॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जब भोजन सामने आया, तब उत्तंकने देखा, उसमें बाल पड़ा है और वह ठण्डा हो चुका है। फिर तो ‘यह अपवित्र अन्न है’ ऐसा निश्चय करके वे राजा पौष्यसे बोले—‘आप मुझे अपवित्र अन्न दे रहे हैं, अतः अन्धे हो जायँगे’॥११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पौष्यः प्रत्युवाच यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मात्त्वमनपत्यो भविष्यसीति तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच॥११७॥
मूलम्
तं पौष्यः प्रत्युवाच यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मात्त्वमनपत्यो भविष्यसीति तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच॥११७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पौष्यने भी उन्हें शापके बदले शाप देते हुए कहा—‘आप शुद्ध अन्नको भी दूषित बता रहे हैं, अतः आप भी संतानहीन हो जायँगे।’ तब उत्तंक राजा पौष्यसे बोले—॥११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न युक्तं भवतान्नमशुचि दत्त्वा प्रतिशापं दातुं तस्मादन्नमेव प्रत्यक्षीकुरु। ततः पौष्यस्तदन्नमशुचि दृष्ट्वा तस्याशुचिभावमपरोक्षयामास॥११८॥
मूलम्
न युक्तं भवतान्नमशुचि दत्त्वा प्रतिशापं दातुं तस्मादन्नमेव प्रत्यक्षीकुरु। ततः पौष्यस्तदन्नमशुचि दृष्ट्वा तस्याशुचिभावमपरोक्षयामास॥११८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! अपवित्र अन्न देकर फिर बदलेमें शाप देना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। अतः पहले अन्नको ही प्रत्यक्ष देख लीजिये।’ तब पौष्यने उस अन्नको अपवित्र देखकर उसकी अपवित्रताके कारणका पता लगाया॥११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तदन्नं मुक्तकेश्या स्त्रिया यत् कृतमनुष्णं सकेशं चाशुच्येतदिति मत्वा तमृषिमुत्तङ्कं प्रसादयामास॥११९॥
मूलम्
अथ तदन्नं मुक्तकेश्या स्त्रिया यत् कृतमनुष्णं सकेशं चाशुच्येतदिति मत्वा तमृषिमुत्तङ्कं प्रसादयामास॥११९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह भोजन खुले केशवाली स्त्रीने तैयार किया था। अतः उसमें केश पड़ गया था। देरका बना होनेसे वह ठण्डा भी हो गया था। इसलिये वह अपवित्र है, इस निश्चयपर पहुँचकर राजाने उत्तंक ऋषिको प्रसन्न करते हुए कहा—॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन्नेतदज्ञानादन्नं सकेशमुपाहृतं शीतं तत् क्षामये भवन्तं न भवेयमन्ध इति तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच॥१२०॥
मूलम्
भगवन्नेतदज्ञानादन्नं सकेशमुपाहृतं शीतं तत् क्षामये भवन्तं न भवेयमन्ध इति तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच॥१२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! यह केशयुक्त और शीतल अन्न अनजानमें आपके पास लाया गया है। अतः इस अपराधके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं अन्धा न होऊँ।’ तब उत्तंकने राजासे कहा—॥१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मृषा ब्रवीमि भूत्वा त्वमन्धो न चिरादनन्धो भविष्यसीति। ममापि शापो भवता दत्तो न भवेदिति॥१२१॥
मूलम्
न मृषा ब्रवीमि भूत्वा त्वमन्धो न चिरादनन्धो भविष्यसीति। ममापि शापो भवता दत्तो न भवेदिति॥१२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैं झूठ नहीं बोलता। आप पहले अन्धे होकर फिर थोड़े ही दिनोंमें इस दोषसे रहित हो जायँगे। अब आप भी ऐसी चेष्टा करें, जिससे आपका दिया हुआ शाप मुझपर लागू न हो’॥१२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पौष्यः प्रत्युवाच न चाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुं न हि मे मन्युरद्याप्युपशमं गच्छति किं चैतद् भवता न ज्ञायते यथा—॥१२२॥
नवनीतं हृदयं ब्राह्मणस्य
वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः ।
तदुभयमेतद् विपरीतं क्षत्रियस्य
वाङ्नवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम् । इति ॥ १२३ ॥
मूलम्
तं पौष्यः प्रत्युवाच न चाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुं न हि मे मन्युरद्याप्युपशमं गच्छति किं चैतद् भवता न ज्ञायते यथा—॥१२२॥
नवनीतं हृदयं ब्राह्मणस्य
वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः ।
तदुभयमेतद् विपरीतं क्षत्रियस्य
वाङ्नवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम् । इति ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर पौष्यने उत्तंकसे कहा—‘मैं शापको लौटानेमें असमर्थ हूँ, मेरा क्रोध अभीतक शान्त नहीं हो रहा है। क्या आप यह नहीं जानते कि ब्राह्मणका हृदय मक्खनके समान मुलायम और जल्दी पिघलनेवाला होता है? केवल उसकी वाणीमें ही तीखी धारवाले छुरेका-सा प्रभाव होता है। किंतु ये दोनों ही बातें क्षत्रियके लिये विपरीत हैं। उसकी वाणी तो नवनीतके समान कोमल होती है, लेकिन हृदय पैनी धारवाले छुरेके समान तीखा होता है॥१२२-१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेवं गते न शक्तोऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात् तं शापमन्यथा कर्तुं गम्यतामिति। तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच भवताहमन्नस्याशुचिभावमालक्ष्य प्रत्यनुनीतः प्राक् च तेऽभिहितम्॥१२४॥यस्माददुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति। दुष्टे चान्ने नैष मम शापो भविष्यतीति॥१२५॥
मूलम्
तदेवं गते न शक्तोऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात् तं शापमन्यथा कर्तुं गम्यतामिति। तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच भवताहमन्नस्याशुचिभावमालक्ष्य प्रत्यनुनीतः प्राक् च तेऽभिहितम्॥१२४॥यस्माददुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति। दुष्टे चान्ने नैष मम शापो भविष्यतीति॥१२५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः ऐसी दशामें कठोरहृदय होनेके कारण मैं उस शापको बदलनेमें असमर्थ हूँ। इसलिये आप जाइये।’ तब उत्तंक बोले—‘राजन्! आपने अन्नकी अपवित्रता देखकर मुझसे क्षमाके लिये अनुनय-विनय की है, किंतु पहले आपने कहा था कि ‘तुम शुद्ध अन्नको दूषित बता रहे हो, इसलिये संतानहीन हो जाओगे।’ इसके बाद अन्नका दोषयुक्त होना प्रमाणित हो गया, अतः आपका यह शाप मुझपर लागू नहीं होगा’॥१२४-१२५॥
तक्षकानुसरणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च॥१२६॥
मूलम्
साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च॥१२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब हम अपना कार्यसाधन कर रहे हैं।’ ऐसा कहकर उत्तंक दोनों कुण्डलोंको लेकर वहाँसे चल दिये। मार्गमें उन्होंने अपने पीछे आते हुए एक नग्न क्षपणकको देखा जो बार-बार दिखायी देता और छिप जाता था॥१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोत्तङ्कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थं प्रचक्रमे। एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत्॥१२७॥
मूलम्
अथोत्तङ्कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थं प्रचक्रमे। एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत्॥१२७॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ दूर जानेके बाद उत्तंकने उन कुण्डलोंको एक जलाशयके किनारे भूमिपर रख दिया और स्वयं जलसम्बन्धी कृत्य (शौच, स्नान, आचमन, संध्यातर्पण आदि) करने लगे। इतनेमें ही वह क्षपणक बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आया और दोनों कुण्डलोंको लेकर चंपत हो गया॥१२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्तङ्कोऽभिसृत्य कृतोदककार्यः शुचिः प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्च कृत्वा महता जवेन तमन्वयात्॥१२८॥
मूलम्
तमुत्तङ्कोऽभिसृत्य कृतोदककार्यः शुचिः प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्च कृत्वा महता जवेन तमन्वयात्॥१२८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंकने स्नान-तर्पण आदि जलसम्बन्धी कार्य पूर्ण करके शुद्ध एवं पवित्र होकर देवताओं तथा गुरुओंको नमस्कार किया और जलसे बाहर निकलकर बड़े वेगसे उस क्षपणकका पीछा किया॥१२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तक्षको दृढमासन्नः स तं जग्राह गृहीतमात्रः स तद्रूपं विहाय तक्षकस्वरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश॥१२९॥
मूलम्
तस्य तक्षको दृढमासन्नः स तं जग्राह गृहीतमात्रः स तद्रूपं विहाय तक्षकस्वरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश॥१२९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें वह नागराज तक्षक ही था। दौड़नेसे उत्तंकके अत्यन्त समीपवर्ती हो गया। उत्तंकने उसे पकड़ लिया। पकड़में आते ही उसने क्षपणकका रूप त्याग दिया और तक्षक नागका रूप धारण करके वह सहसा प्रकट हुए पृथ्वीके एक बहुत बड़े विवरमें घुस गया॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य च नागलोकं स्वभवनमगच्छत् । अथोत्तङ्कस्तस्याः क्षत्रियाया वचः स्मृत्वा तं तक्षकमन्वगच्छत् ॥ १३० ॥
मूलम्
प्रविश्य च नागलोकं स्वभवनमगच्छत् । अथोत्तङ्कस्तस्याः क्षत्रियाया वचः स्मृत्वा तं तक्षकमन्वगच्छत् ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बिलमें प्रवेश करके वह नागलोकमें अपने घर चला गया। तदनन्तर उस क्षत्राणीकी बातका स्मरण करके उत्तंकने नागलोकतक उस तक्षकका पीछा किया॥१३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तद् बिलं दण्डकाष्ठेन चखान न चाशकत्। तं क्लिश्यमानमिन्द्रोऽपश्यत् स वज्रं प्रेषयामास॥१३१॥
मूलम्
स तद् बिलं दण्डकाष्ठेन चखान न चाशकत्। तं क्लिश्यमानमिन्द्रोऽपश्यत् स वज्रं प्रेषयामास॥१३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले तो उन्होंने उस विवरको अपने डंडेकी लकड़ीसे खोदना आरम्भ किया, किंतु इसमें उन्हें सफलता न मिली। उस समय इन्द्रने उन्हें क्लेश उठाते देखा तो उनकी सहायताके लिये अपना वज्र भेज दिया॥१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छास्य ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुरुष्वेति । अथ वज्रं दण्डकाष्ठमनुप्रविश्य तद् बिलमदारयत् ॥ १३२ ॥
मूलम्
गच्छास्य ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुरुष्वेति । अथ वज्रं दण्डकाष्ठमनुप्रविश्य तद् बिलमदारयत् ॥ १३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने वज्रसे कहा—‘जाओ, इस ब्राह्मणकी सहायता करो।’ तब वज्रने डंडेकी लकड़ीमें प्रवेश करके उस बिलको विदीर्ण कर दिया (इससे पाताललोकमें जानेके लिये मार्ग बन गया)॥१३२॥
नागस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्तङ्कोऽनुविवेश तेनैव बिलेन प्रविश्य च तं नागलोकमपर्यन्तमनेकविधप्रासादहर्म्यवलभीनिर्यूहशतसंकुलमुच्चावचक्रीडाश्चर्यस्थानावकीर्णमपश्यत् ॥ १३३ ॥ स तत्र नागांस्तानस्तुवदेभिः श्लोकैः—
य ऐरावतराजानः सर्पाः समितिशोभनाः।
क्षरन्त इव जीमूताः सविद्युत्पवनेरिताः ॥ १३४ ॥
मूलम्
तमुत्तङ्कोऽनुविवेश तेनैव बिलेन प्रविश्य च तं नागलोकमपर्यन्तमनेकविधप्रासादहर्म्यवलभीनिर्यूहशतसंकुलमुच्चावचक्रीडाश्चर्यस्थानावकीर्णमपश्यत् ॥ १३३ ॥ स तत्र नागांस्तानस्तुवदेभिः श्लोकैः—
य ऐरावतराजानः सर्पाः समितिशोभनाः।
क्षरन्त इव जीमूताः सविद्युत्पवनेरिताः ॥ १३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उत्तंक उस बिलमें घुस गये और उसी मार्गसे भीतर प्रवेश करके उन्होंने नागलोकका दर्शन किया, जिसकी कहीं सीमा नहीं थी। जो अनेक प्रकारके मन्दिरों, महलों, झुके हुए छज्जोंवाले ऊँचे-ऊँचे मण्डपों तथा सैकड़ों दरवाजोंसे सुशोभित और छोटे-बड़े अद्भुत क्रीडास्थानोंसे व्याप्त था। वहाँ उन्होंने इन श्लोकोंद्वारा उन नागोंका स्तवन किया—ऐरावत जिनके राजा हैं, जो समरांगणमें विशेष शोभा पाते हैं, बिजली और वायुसे प्रेरित हो जलकी वर्षा करनेवाले बादलोंकी भाँति बाणोंकी धारावाहिक वृष्टि करते हैं, उन सर्पोंकी जय हो॥१३३-१३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरूपा बहुरूपाश्च तथा कल्माषकुण्डलाः।
आदित्यवन्नाकपृष्ठे रेजुरैरावतोद्भवाः ॥ १३५ ॥
मूलम्
सुरूपा बहुरूपाश्च तथा कल्माषकुण्डलाः।
आदित्यवन्नाकपृष्ठे रेजुरैरावतोद्भवाः ॥ १३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐरावतकुलमें उत्पन्न नागगणोंमेंसे कितने ही सुन्दर रूपवाले हैं, उनके अनेक रूप हैं, वे विचित्र कुण्डल धारण करते हैं तथा आकाशमें सूर्यदेवकी भाँति स्वर्गलोकमें प्रकाशित होते हैं॥१३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहूनि नागवेश्मानि गङ्गायास्तीर उत्तरे।
तत्रस्थानपि संस्तौमि महतः पन्नगानहम् ॥ १३६ ॥
मूलम्
बहूनि नागवेश्मानि गङ्गायास्तीर उत्तरे।
तत्रस्थानपि संस्तौमि महतः पन्नगानहम् ॥ १३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गंगाजीके उत्तर तटपर बहुत-से नागोंके घर हैं, वहाँ रहनेवाले बड़े-बड़े सर्पोंकी भी मैं स्तुति करता हूँ॥१३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छेत् कोऽर्कांशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना।
शतान्यशीतिरष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः ॥ १३७ ॥
सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रो यदैजति।
ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरपथं गताः ॥ १३८ ॥
अहमैरावतज्येष्ठभ्रातृभ्योऽकरवं नमः ।
यस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत् पुरा ॥ १३९ ॥
तं नागराजमस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम्।
तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ ॥ १४० ॥
कुरुक्षेत्रं च वसतां नदीमिक्षुमतीमनु।
जघन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति यः श्रुतः ॥ १४१ ॥
अवसद् यो महद्युम्नि प्रार्थयन् नागमुख्यताम्।
करवाणि सदा चाहं नमस्तस्मै महात्मने ॥ १४२ ॥
मूलम्
इच्छेत् कोऽर्कांशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना।
शतान्यशीतिरष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः ॥ १३७ ॥
सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रो यदैजति।
ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरपथं गताः ॥ १३८ ॥
अहमैरावतज्येष्ठभ्रातृभ्योऽकरवं नमः ।
यस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत् पुरा ॥ १३९ ॥
तं नागराजमस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम्।
तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ ॥ १४० ॥
कुरुक्षेत्रं च वसतां नदीमिक्षुमतीमनु।
जघन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति यः श्रुतः ॥ १४१ ॥
अवसद् यो महद्युम्नि प्रार्थयन् नागमुख्यताम्।
करवाणि सदा चाहं नमस्तस्मै महात्मने ॥ १४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐरावत नागके सिवा दूसरा कौन है, जो सूर्यदेवकी प्रचण्ड किरणोंके सैन्यमें विचरनेकी इच्छा कर सकता है? ऐरावतके भाई धृतराष्ट्र जब सूर्यदेवके साथ प्रकाशित होते और चलते हैं, उस समय अट्ठाईस हजार आठ सर्प सूर्यके घोड़ोंकी बागडोर बनकर जाते हैं। जो इनके साथ जाते हैं और जो दूरके मार्गपर जा पहुँचे हैं, ऐरावतके उन सभी छोटे बन्धुओंकों मैंने नमस्कार किया है। जिनका निवास सदा कुरुक्षेत्र और खाण्डववनमें रहा है, उन नागराज तक्षककी मैं कुण्डलोंके लिये स्तुति करता हूँ। तक्षक और अश्वसेन—ये दोनों नाग सदा साथ विचरनेवाले हैं। ये दोनों कुरुक्षेत्रमें इक्षुमती नदीके तटपर रहा करते थे। जो तक्षकके छोटे भाई हैं, श्रुतसेन नामसे जिनकी ख्याति है तथा जो पाताललोकमें नागराजकी पदवी पानेके लिये सूर्यदेवकी उपासना करते हुए कुरुक्षेत्रमें रहे हैं, उन महात्माको मैं सदा नमस्कार करता हूँ॥१३७—१४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तुत्वा स विप्रर्षिरुत्तङ्को भुजगोत्तमान्।
नैव ते कुण्डले लेभे ततश्चिन्तामुपागमत् ॥ १४३ ॥
मूलम्
एवं स्तुत्वा स विप्रर्षिरुत्तङ्को भुजगोत्तमान्।
नैव ते कुण्डले लेभे ततश्चिन्तामुपागमत् ॥ १४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उन श्रेष्ठ नागोंकी स्तुति करनेपर भी जब ब्रह्मर्षि उत्तंक उन कुण्डलोंको न पा सके तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई॥१४३॥
पुरन्दरस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तुवन्नपि नागान् यदा ते कुण्डले नालभत तदापश्यत् स्त्रियौ तन्त्रे अधिरोप्य सुवेमे पटं वयन्त्यौ। तस्मिंस्तन्त्रे कृष्णाः सिताश्च तन्तवश्चक्रं चापश्यद् द्वादशारं षड्भिः कुमारैः परिवर्त्यमानं पुरुषं चापश्यदश्वं च दर्शनीयम्॥१४४॥स तान् सर्वांस्तुष्टाव एभिर्मन्त्रवदेव श्लोकैः॥१४५॥
मूलम्
एवं स्तुवन्नपि नागान् यदा ते कुण्डले नालभत तदापश्यत् स्त्रियौ तन्त्रे अधिरोप्य सुवेमे पटं वयन्त्यौ। तस्मिंस्तन्त्रे कृष्णाः सिताश्च तन्तवश्चक्रं चापश्यद् द्वादशारं षड्भिः कुमारैः परिवर्त्यमानं पुरुषं चापश्यदश्वं च दर्शनीयम्॥१४४॥स तान् सर्वांस्तुष्टाव एभिर्मन्त्रवदेव श्लोकैः॥१४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार नागोंकी स्तुति करते रहनेपर भी जब वे उन दोनों कुण्डलोंको प्राप्त न कर सके, तब उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ दिखायी दीं, जो सुन्दर करघेपर रखकर सूतके तानेमें वस्त्र बुन रही थीं, उस तानेमें उत्तंक मुनिने काले और सफेद दो प्रकारके सूत और बारह अरोंका एक चक्र भी देखा, जिसे छः कुमार घुमा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ पुरुष भी दिखायी दिये। जिनके साथ एक दर्शनीय अश्व भी था। उत्तंकने इन मन्त्रतुल्य श्लोकोंद्वारा उनकी स्तुति की—॥१४४-१४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये
षष्टिश्च नित्यं चरति ध्रुवेऽस्मिन्।
चक्रे चतुर्विंशतिपर्वयोगे
षड् वै कुमाराः परिवर्तयन्ति ॥ १४६ ॥
मूलम्
त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये
षष्टिश्च नित्यं चरति ध्रुवेऽस्मिन्।
चक्रे चतुर्विंशतिपर्वयोगे
षड् वै कुमाराः परिवर्तयन्ति ॥ १४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जो अविनाशी कालचक्र निरन्तर चल रहा है, इसके भीतर तीन सौ साठ अरे हैं, चौबीस पर्व हैं और इस चक्रको छः कुमार घुमा रहे हैं॥१४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्त्रं चेदं विश्वरूपे युवत्यौ
वयतस्तन्तून् सततं वर्तयन्त्यौ ।
कृष्णान् सितांश्चैव विवर्तयन्त्यौ
भूतान्यजस्रं भुवनानि चैव ॥ १४७ ॥
मूलम्
तन्त्रं चेदं विश्वरूपे युवत्यौ
वयतस्तन्तून् सततं वर्तयन्त्यौ ।
कृष्णान् सितांश्चैव विवर्तयन्त्यौ
भूतान्यजस्रं भुवनानि चैव ॥ १४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, ऐसी दो युवतियाँ सदा काले और सफेद तन्तुओंको इधर-उधर चलाती हुई इस वासना-जालरूपी वस्त्रको बुन रही हैं तथा वे ही सम्पूर्ण भूतों और समस्त भुवनोंका निरन्तर संचालन करती हैं॥१४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वज्रस्य भर्ता भुवनस्य गोप्ता
वृत्रस्य हन्ता नमुचेर्निहन्ता ।
कृष्णे वसानो वसने महात्मा
सत्यानृते यो विविनक्ति लोके ॥ १४८ ॥
यो वाजिनं गर्भमपां पुराणं
वैश्वानरं वाहनमभ्युपैति ।
नमोऽस्तु तस्मै जगदीश्वराय
लोकत्रयेशाय पुरन्दराय ॥ १४९ ॥
मूलम्
वज्रस्य भर्ता भुवनस्य गोप्ता
वृत्रस्य हन्ता नमुचेर्निहन्ता ।
कृष्णे वसानो वसने महात्मा
सत्यानृते यो विविनक्ति लोके ॥ १४८ ॥
यो वाजिनं गर्भमपां पुराणं
वैश्वानरं वाहनमभ्युपैति ।
नमोऽस्तु तस्मै जगदीश्वराय
लोकत्रयेशाय पुरन्दराय ॥ १४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो महात्मा वज्र धारण करके तीनों लोकोंकी रक्षा करते हैं, जिन्होंने वृत्रासुरका वध तथा नमुचि दानवका संहार किया है, जो काले रंगके दो वस्त्र पहनते और लोकमें सत्य एवं असत्यका विवेचन करते हैं; जलसे प्रकट हुए प्राचीन वैश्वानररूप अश्वको वाहन बनाकर उसपर चढ़ते हैं तथा जो तीनों लोकोंके शासक हैं, उन जगदीश्वर पुरन्दरको मेरा नमस्कार है॥१४८-१४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स एनं पुरुषः प्राह प्रीतोऽस्मि तेऽहमनेन स्तोत्रेण किं ते प्रियं करवाणीति स तमुवाच॥१५०॥
मूलम्
ततः स एनं पुरुषः प्राह प्रीतोऽस्मि तेऽहमनेन स्तोत्रेण किं ते प्रियं करवाणीति स तमुवाच॥१५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वह पुरुष उत्तंकसे बोला—‘ब्रह्मन्! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे बहुत प्रसन्न हूँ। कहो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’ यह सुनकर उत्तंकने कहा—॥१५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागा मे वशमीयुरिति स चैनं पुरुषः पुनरुवाच एतमश्वमपाने धमस्वेति॥१५१॥
मूलम्
नागा मे वशमीयुरिति स चैनं पुरुषः पुनरुवाच एतमश्वमपाने धमस्वेति॥१५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सब नाग मेरे अधीन हो जायँ’—उनके ऐसा कहनेपर वह पुरुष पुनः उत्तंकसे बोला—‘इस घोड़ेकी गुदामें फूँक मारो’॥१५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽश्वस्यापानमधमत् ततोऽश्वाद्धम्यमानात् सर्वस्रोतोभ्यः पावकार्चिषः सधूमा निष्पेतुः ॥ १५२ ॥
मूलम्
ततोऽश्वस्यापानमधमत् ततोऽश्वाद्धम्यमानात् सर्वस्रोतोभ्यः पावकार्चिषः सधूमा निष्पेतुः ॥ १५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर उत्तंकने घोड़ेकी गुदामें फूँक मारी। फूँकनेसे घोड़ेके शरीरके समस्त छिद्रोंसे धूएँसहित आगकी लपटें निकलने लगीं॥१५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभिर्नागलोक उपधूपितेऽथ सम्भ्रान्तस्तक्षकोऽग्नेस्तेजोभयाद् विषण्णः कुण्डले गृहीत्वा सहसा भवनान्निष्क्रम्योत्तङ्कमुवाच॥१५३॥
मूलम्
ताभिर्नागलोक उपधूपितेऽथ सम्भ्रान्तस्तक्षकोऽग्नेस्तेजोभयाद् विषण्णः कुण्डले गृहीत्वा सहसा भवनान्निष्क्रम्योत्तङ्कमुवाच॥१५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सारा नागलोक धूएँसे भर गया। फिर तो तक्षक घबरा गया और आगकी ज्वालाके भयसे दुःखी हो दोनों कुण्डल लिये सहसा घरसे निकल आया और उत्तंकसे बोला—॥१५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमे कुण्डले गृह्णातु भवानिति स ते प्रतिजग्राहोत्तङ्कः प्रतिगृह्य च कुण्डलेऽचिन्तयत्॥१५४॥
मूलम्
इमे कुण्डले गृह्णातु भवानिति स ते प्रतिजग्राहोत्तङ्कः प्रतिगृह्य च कुण्डलेऽचिन्तयत्॥१५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! आप ये दोनों कुण्डल ग्रहण कीजिये।’ उत्तंकने उन कुण्डलोंको ले लिया। कुण्डल लेकर वे सोचने लगे—॥१५४॥
कुण्डलार्पणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य तत् पुण्यकमुपाध्यायान्या दूरं चाहमभ्यागतः स कथं सम्भावयेयमिति तत एनं चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच॥१५५॥
मूलम्
अद्य तत् पुण्यकमुपाध्यायान्या दूरं चाहमभ्यागतः स कथं सम्भावयेयमिति तत एनं चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच॥१५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! आज ही गुरुपत्नीका वह पुण्यकव्रत है और मैं बहुत दूर चला आया हूँ। ऐसी दशामें किस प्रकार इन कुण्डलोंद्वारा उनका सत्कार कर सकूँगा?’ तब इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए उत्तंकसे उस पुरुषने कहा—॥१५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तङ्क एनमेवाश्वमधिरोह त्वां क्षणेनैवोपाध्यायकुलं प्रापयिष्यतीति ॥ १५६ ॥
मूलम्
उत्तङ्क एनमेवाश्वमधिरोह त्वां क्षणेनैवोपाध्यायकुलं प्रापयिष्यतीति ॥ १५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तंक! इसी घोड़ेपर चढ़ जाओ। यह तुम्हें क्षणभरमें उपाध्यायके घर पहुँचा देगा’॥१५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपाध्यायकुलमुपाध्यायानी च स्नाता केशानावापयन्त्युपविष्टोत्तङ्को नागच्छतीति शापायास्य मनो दधे॥१५७॥
मूलम्
स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपाध्यायकुलमुपाध्यायानी च स्नाता केशानावापयन्त्युपविष्टोत्तङ्को नागच्छतीति शापायास्य मनो दधे॥१५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुत अच्छा’ कहकर उत्तंक उस घोड़ेपर चढ़े और तुरंत उपाध्यायके घर आ पहुँचे। इधर गुरुपत्नी स्नान करके बैठी हुई अपने केश सँवार रही थीं। ‘उत्तंक अबतक नहीं आया’—यह सोचकर उन्होंने शिष्यको शाप देनेका विचार कर लिया॥१५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तस्मिन्नन्तरे स उत्तङ्कः प्रविश्य उपाध्यायकुलमुपाध्यायानीमभ्यवादयत् ते चास्यै कुण्डले प्रायच्छत् सा चैनं प्रत्युवाच॥१५८॥
मूलम्
अथ तस्मिन्नन्तरे स उत्तङ्कः प्रविश्य उपाध्यायकुलमुपाध्यायानीमभ्यवादयत् ते चास्यै कुण्डले प्रायच्छत् सा चैनं प्रत्युवाच॥१५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी बीचमें उत्तंकने उपाध्यायके घरमें प्रवेश करके गुरुपत्नीको प्रणाम किया और उन्हें वे दोनों कुण्डल दे दिये। तब गुरुपत्नीने उत्तंकसे कहा—॥१५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तङ्क देशे कालेऽभ्यागतः स्वागतं ते वत्स त्वमनागसि मया न शप्तः श्रेयस्तवोपस्थितं सिद्धिमाप्नुहीति॥१५९॥
मूलम्
उत्तङ्क देशे कालेऽभ्यागतः स्वागतं ते वत्स त्वमनागसि मया न शप्तः श्रेयस्तवोपस्थितं सिद्धिमाप्नुहीति॥१५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तंक! तू ठीक समयपर उचित स्थानमें आ पहुँचा। वत्स! तेरा स्वागत है। अच्छा हुआ जो बिना अपराधके ही तुझे शाप नहीं दिया। तेरा कल्याण उपस्थित है, तुझे सिद्धि प्राप्त हो’॥१५९॥
वेदस्पष्टीकरणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोत्तङ्क उपाध्यायमभ्यवादयत् । तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क स्वागतं ते किं चिरं कृतमिति ॥ १६० ॥
मूलम्
अथोत्तङ्क उपाध्यायमभ्यवादयत् । तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क स्वागतं ते किं चिरं कृतमिति ॥ १६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उत्तंकने उपाध्यायके चरणोंमें प्रणाम किया। उपाध्यायने उससे कहा—‘वत्स उत्तंक! तुम्हारा स्वागत है। लौटनेमें देर क्यों लगायी?’॥१६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्तङ्क उपाध्यायं प्रत्युवाच भोस्तक्षकेण मे नागराजेन विघ्नः कृतोऽस्मिन् कर्मणि तेनास्मि नागलोकं गतः॥१६१॥
मूलम्
तमुत्तङ्क उपाध्यायं प्रत्युवाच भोस्तक्षकेण मे नागराजेन विघ्नः कृतोऽस्मिन् कर्मणि तेनास्मि नागलोकं गतः॥१६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उत्तंकने उपाध्यायको उत्तर दिया—‘भगवन्! नागराज तक्षकने इस कार्यमें विघ्न डाल दिया था। इसलिये मैं नागलोकमें चला गया था॥१६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र च मया दृष्टे स्त्रियौ तन्त्रेऽधिरोप्य पटं वयन्त्यौ तस्मिंश्च कृष्णाः सिताश्च तन्तवः किं तत्॥१६२॥
मूलम्
तत्र च मया दृष्टे स्त्रियौ तन्त्रेऽधिरोप्य पटं वयन्त्यौ तस्मिंश्च कृष्णाः सिताश्च तन्तवः किं तत्॥१६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहीं मैंने दो स्त्रियाँ देखीं, जो करघेपर सूत रखकर कपड़ा बुन रही थीं। उस करघेमें काले और सफेद रंगके सूत लगे थे। वह सब क्या था?॥१६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र च मया चक्रं दृष्टं द्वादशारं षट् चैनं कुमाराः परिवर्तयन्ति तदपि किम्। पुरुषश्चापि मया दृष्टः स चापि कः। अश्वश्चातिप्रमाणो दृष्टः स चापि कः॥१६३॥
मूलम्
तत्र च मया चक्रं दृष्टं द्वादशारं षट् चैनं कुमाराः परिवर्तयन्ति तदपि किम्। पुरुषश्चापि मया दृष्टः स चापि कः। अश्वश्चातिप्रमाणो दृष्टः स चापि कः॥१६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहीं मैंने एक चक्र भी देखा, जिसमें बारह अरे थे। छः कुमार उस चक्रको घुमा रहे थे। वह भी क्या था? वहाँ एक पुरुष भी मेरे देखनेमें आया था। वह कौन था? तथा एक बहुत बड़ा अश्व भी दिखायी दिया था। वह कौन था?॥१६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पथि गच्छता च मया ऋषभो दृष्टस्तं च पुरुषोऽधिरूढस्तेनास्मि सोपचारमुक्त उत्तङ्कास्य ऋषभस्य पुरीषं भक्षय उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति॥१६४॥
मूलम्
पथि गच्छता च मया ऋषभो दृष्टस्तं च पुरुषोऽधिरूढस्तेनास्मि सोपचारमुक्त उत्तङ्कास्य ऋषभस्य पुरीषं भक्षय उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति॥१६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधरसे जाते समय मार्गमें मैंने एक बैल देखा, उसपर एक पुरुष सवार था। उस पुरुषने मुझसे आग्रहपूर्वक कहा—‘उत्तंक! इस बैलका गोबर खा लो। तुम्हारे उपाध्यायने भी पहले इसे खाया है’॥१६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्य वचनान्मया तदृषभस्य पुरीषमुपयुक्तं स चापि कः। तदेतद् भवतोपदिष्टमिच्छेयं श्रोतुं किं तदिति। स तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच॥१६५॥
मूलम्
ततस्तस्य वचनान्मया तदृषभस्य पुरीषमुपयुक्तं स चापि कः। तदेतद् भवतोपदिष्टमिच्छेयं श्रोतुं किं तदिति। स तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच॥१६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तब उस पुरुषके कहनेसे मैंने उस बैलका गोबर खा लिया। अतः वह बैल और पुरुष कौन थे? मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ, वह सब क्या था?’ उत्तंकके इस प्रकार पूछनेपर उपाध्यायने उत्तर दिया—॥१६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये ते स्त्रियौ धाता विधाता च ये च ते कृष्णाः सितास्तन्तवस्ते रात्र्यहनी। यदपि तच्चक्रं द्वादशारं षड् वै कुमाराः परिवर्तयन्ति तेऽपि षड् ऋतवः द्वादशारा द्वादश मासाः संवत्सरश्चक्रम्॥१६६॥
मूलम्
ये ते स्त्रियौ धाता विधाता च ये च ते कृष्णाः सितास्तन्तवस्ते रात्र्यहनी। यदपि तच्चक्रं द्वादशारं षड् वै कुमाराः परिवर्तयन्ति तेऽपि षड् ऋतवः द्वादशारा द्वादश मासाः संवत्सरश्चक्रम्॥१६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे जो दोनों स्त्रियाँ थीं, वे धाता और विधाता हैं। जो काले और सफेद तन्तु थे, वे रात और दिन हैं। बारह अरोंसे युक्त चक्रको जो छः कुमार घुमा रहे थे, वे छः ऋतुएँ हैं। बारह महीने ही बारह अरे हैं। संवत्सर ही वह चक्र है॥१६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः पुरुषः स पर्जन्यो योऽश्वः सोऽग्निर्य ऋषभस्त्वया पथि गच्छता दृष्टः स ऐरावतो नागराट्॥१६७॥
मूलम्
यः पुरुषः स पर्जन्यो योऽश्वः सोऽग्निर्य ऋषभस्त्वया पथि गच्छता दृष्टः स ऐरावतो नागराट्॥१६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुरुष था, वह पर्जन्य (इन्द्र) है। जो अश्व था वह अग्नि है। इधरसे जाते समय मार्गमें तुमने जिस बैलको देखा था, वह नागराज ऐरावत हैं॥१६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैनमधिरूढः पुरुषः स चेन्द्रो यदपि ते भक्षितं तस्य ऋषभस्य पुरीषं तदमृतं तेन खल्वसि तस्मिन् नागभवने न व्यापन्नस्त्वम्॥१६८॥
मूलम्
यश्चैनमधिरूढः पुरुषः स चेन्द्रो यदपि ते भक्षितं तस्य ऋषभस्य पुरीषं तदमृतं तेन खल्वसि तस्मिन् नागभवने न व्यापन्नस्त्वम्॥१६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘और जो उसपर चढ़ा हुआ पुरुष था, वह इन्द्र है। तुमने बैलके जिस गोबरको खाया है, वह अमृत था। इसीलिये तुम नागलोकमें जाकर भी मरे नहीं॥१६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि भगवानिन्द्रो मम सखा त्वदनुक्रोशादि-ममनुग्रहं कृतवान्। तस्मात् कुण्डले गृहीत्वा पुनरागतोऽसि॥१६९॥
मूलम्
स हि भगवानिन्द्रो मम सखा त्वदनुक्रोशादि-ममनुग्रहं कृतवान्। तस्मात् कुण्डले गृहीत्वा पुनरागतोऽसि॥१६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे भगवान् इन्द्र मेरे सखा हैं। तुमपर कृपा करके ही उन्होंने यह अनुग्रह किया है। यही कारण है कि तुम दोनों कुण्डल लेकर फिर यहाँ लौट आये हो॥१६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् सौम्य गम्यतामनुजाने भवन्तं श्रेयोऽवाप्स्यसीति। स उपाध्यायेनानुज्ञातो भगवानुत्तङ्कः क्रुद्धस्तक्षकं प्रतिचिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे॥१७०॥
मूलम्
तत् सौम्य गम्यतामनुजाने भवन्तं श्रेयोऽवाप्स्यसीति। स उपाध्यायेनानुज्ञातो भगवानुत्तङ्कः क्रुद्धस्तक्षकं प्रतिचिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे॥१७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः सौम्य! अब तुम जाओ, मैं तुम्हें जानेकी आज्ञा देता हूँ। तुम कल्याणके भागी होओगे।’ उपाध्यायकी आज्ञा पाकर उत्तंक तक्षकके प्रति कुपित हो उससे बदला लेनेकी इच्छासे हस्तिनापुरकी ओर चल दिये॥१७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हास्तिनपुरं प्राप्य न चिराद् विप्रसत्तमः।
समागच्छत राजानमुत्तङ्को जनमेजयम् ॥ १७१ ॥
मूलम्
स हास्तिनपुरं प्राप्य न चिराद् विप्रसत्तमः।
समागच्छत राजानमुत्तङ्को जनमेजयम् ॥ १७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हस्तिनापुरमें शीघ्र पहुँचकर विप्रवर उत्तंक राजा जनमेजयसे मिले॥१७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम् ।
सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम् ॥ १७२ ॥
तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः।
उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा ॥ १७३ ॥
मूलम्
पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम् ।
सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम् ॥ १७२ ॥
तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः।
उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा ॥ १७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय पहले तक्षशिला गये थे। वे वहाँ जाकर पूर्ण विजय पा चुके थे। उत्तंकने मन्त्रियोंसे घिरे हुए उत्तम विजयसे सम्पन्न राजा जनमेजयको देखकर पहले उन्हें न्यायपूर्वक जयसम्बन्धी आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् उचित समयपर उपयुक्त शब्दोंसे विभूषित वाणीद्वारा उनसे इस प्रकार कहा—॥१७२-१७३॥
मूलम् (वचनम्)
उत्तङ्क उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यस्मिन् करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम।
बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम ॥ १७४ ॥
मूलम्
अन्यस्मिन् करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम।
बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम ॥ १७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंक बोले— नृपश्रेष्ठ! जहाँ तुम्हारे लिये करनेयोग्य दूसरा कार्य उपस्थित हो, वहाँ अज्ञानवश तुम कोई और ही कार्य कर रहे हो॥१७४॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः।
अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम् ॥ १७५ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः।
अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम् ॥ १७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— विप्रवर उत्तंकके ऐसा कहनेपर राजा जनमेजयने उन द्विजश्रेष्ठका विधिपूर्वक पूजन किया और इस प्रकार कहा॥१७५॥
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसां प्रजानां परिपालनेन
स्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि ।
प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्य
येनासि कार्येण समागतस्त्वम् ॥ १७६ ॥
मूलम्
आसां प्रजानां परिपालनेन
स्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि ।
प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्य
येनासि कार्येण समागतस्त्वम् ॥ १७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय बोले— ब्रह्मन्! मैं इन प्रजाओंकी रक्षाद्वारा अपने क्षत्रियधर्मका पालन करता हूँ। बताइये, आज मेरे करनेयोग्य कौन-सा कार्य उपस्थित है? जिसके कारण आप यहाँ पधारे हैं॥१७६॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन
द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः ।
उवाच राजानमदीनसत्त्वं
स्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व ॥ १७७ ॥
मूलम्
स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन
द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः ।
उवाच राजानमदीनसत्त्वं
स्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व ॥ १७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयके इस प्रकार कहनेपर पुण्यात्माओंमें अग्रगण्य विप्रवर उत्तंकने उन उदार हृदयवाले नरेशसे कहा—‘महाराज! वह कार्य मेरा नहीं, आपका ही है, आप उसे अवश्य कीजिये’॥१७७॥
मूलम् (वचनम्)
उत्तङ्क उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता।
तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने ॥ १७८ ॥
मूलम्
तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता।
तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने ॥ १७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कहकर उत्तंक फिर बोले— भूपालशिरोमणे! नागराज तक्षकने आपके पिताकी हत्या की है; अतः आप उस दुरात्मा सर्पसे इसका बदला लीजिये॥१७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः।
तद्गच्छापचितिं राजन् पितुस्तस्य महात्मनः ॥ १७९ ॥
मूलम्
कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः।
तद्गच्छापचितिं राजन् पितुस्तस्य महात्मनः ॥ १७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं समझता हूँ, शत्रुनाशन-कार्यकी सिद्धिके लिये जो सर्पयज्ञरूप कर्म शास्त्रमें देखा गया है, उसके अनुष्ठानका यह उचित अवसर प्राप्त हुआ है। अतः राजन्! अपने महात्मा पिताकी मृत्युका बदला आप अवश्य लें॥१७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना।
पञ्चत्वमगमद् राजा वज्राहत इव द्रुमः ॥ १८० ॥
मूलम्
तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना।
पञ्चत्वमगमद् राजा वज्राहत इव द्रुमः ॥ १८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि आपके पिता महाराज परीक्षित्ने कोई अपराध नहीं किया था तो भी उस दुष्टात्मा सर्पने उन्हें डँस लिया और वे वज्रके मारे हुए वृक्षकी भाँति तुरंत ही गिरकर कालके गालमें चले गये॥१८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः ।
अकार्यं कृतवान् पापो योऽदशत् पितरं तव ॥ १८१ ॥
मूलम्
बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः ।
अकार्यं कृतवान् पापो योऽदशत् पितरं तव ॥ १८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्पोंमें अधम तक्षक अपने बलके घमण्डसे उन्मत्त रहता है। उस पापीने यह बड़ा भारी अनुचित कर्म किया जो आपके पिताको डँस लिया॥१८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम् ।
यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत पापकृत् ॥ १८२ ॥
मूलम्
राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम् ।
यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत पापकृत् ॥ १८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महाराज परीक्षित् राजर्षियोंके वंशकी रक्षा करनेवाले और देवताओंके समान तेजस्वी थे, काश्यप नामक एक ब्राह्मण आपके पिताकी रक्षा करनेके लिये उनके पास आना चाहते थे, किंतु उस पापाचारीने उन्हें लौटा दिया॥१८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने।
सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद् विधीयताम् ॥ १८३ ॥
मूलम्
होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने।
सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद् विधीयताम् ॥ १८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः महाराज! आप सर्पयज्ञका अनुष्ठान करके उसकी प्रज्वलित अग्निमें उस पापीको होम दीजिये; और जल्दी-से-जल्दी यह कार्य कर डालिये॥१८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि।
मम प्रियं च सुमहत् कृतं राजन् भविष्यति ॥ १८४ ॥
कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना।
विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ ॥ १८५ ॥
मूलम्
एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि।
मम प्रियं च सुमहत् कृतं राजन् भविष्यति ॥ १८४ ॥
कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना।
विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ ॥ १८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा करके आप अपने पिताकी मृत्युका बदला चुका सकेंगे एवं मेरा भी अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायगा। समूची पृथ्वीका पालन करनेवाले नरेश! तक्षक बड़ा दुरात्मा है। पापरहित महाराज! मैं गुरुजीके लिये एक कार्य करने जा रहा था, जिसमें उस दुष्टने बहुत बड़ा विघ्न डाल दिया था॥१८४-१८५॥
मूलम् (वचनम्)
सौतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह।
उत्तङ्कवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निर्हविषा यथा ॥ १८६ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह।
उत्तङ्कवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निर्हविषा यथा ॥ १८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रश्रवाजी कहते हैं— महर्षियो! यह समाचार सुनकर राजा जनमेजय तक्षकपर कुपित हो उठे। उत्तंकके वाक्यने उनकी क्रोधाग्निमें घीका काम किया। जैसे घीकी आहुति पड़नेसे अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वे क्रोधसे अत्यन्त कुपित हो गये॥१८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपृच्छत् स तदा राजा मन्त्रिणस्तान् सुदुःखितः।
उत्तङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगतिं प्रति ॥ १८७ ॥
मूलम्
अपृच्छत् स तदा राजा मन्त्रिणस्तान् सुदुःखितः।
उत्तङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगतिं प्रति ॥ १८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय राजा जनमेजयने अत्यन्त दुःखी होकर उत्तंकके निकट ही मन्त्रियोंसे पिताके स्वर्गगमनका समाचार पूछा॥१८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत्।
यदैव वृत्तं पितरमुत्तङ्कादशृणोत् तदा ॥ १८८ ॥
मूलम्
तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत्।
यदैव वृत्तं पितरमुत्तङ्कादशृणोत् तदा ॥ १८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तंकके मुखसे जिस समय उन्होंने पिताके मरनेकी बात सुनी, उसी समय वे महाराज दुःख और शोकमें डूब गये॥१८८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौष्यपर्वणि तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौष्यपर्वमें (पौष्याख्यानविषयक) तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥