श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(हिडिम्बवधपर्व)
एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
हिडिम्बके भेजनेसे हिडिम्बा राक्षसीका पाण्डवोंके पास आना और भीमसेनसे उसका वार्तालाप
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तेषु शयानेषु हिडिम्बो नाम राक्षसः।
अविदूरे वनात् तस्माच्छालवृक्षं समाश्रितः ॥ १ ॥
मूलम्
तत्र तेषु शयानेषु हिडिम्बो नाम राक्षसः।
अविदूरे वनात् तस्माच्छालवृक्षं समाश्रितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जहाँ पाण्डव कुन्तीसहित सो रहे थे, उस वनसे थोड़ी दूरपर एक शालवृक्षका आश्रय ले हिडिम्ब नामक राक्षस रहता था॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रूरो मानुषमांसादो महावीर्यपराक्रमः ।
प्रावृड्जलधरश्यामः पिङ्गाक्षो दारुणाकृतिः ॥ २ ॥
मूलम्
क्रूरो मानुषमांसादो महावीर्यपराक्रमः ।
प्रावृड्जलधरश्यामः पिङ्गाक्षो दारुणाकृतिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बड़ा क्रूर और मनुष्यमांस खानेवाला था। उसका बल और पराक्रम महान् था। वह वर्षाकालके मेघकी भाँति काला था। उसकी आँखें भूरे रंगकी थीं और आकृतिसे क्रूरता टपक रही थी॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दंष्ट्राकरालवदनः पिशितेप्सुः क्षुधार्दितः ।
लम्बस्फिग्लम्बजठरो रक्तश्मश्रुशिरोरुहः ॥ ३ ॥
मूलम्
दंष्ट्राकरालवदनः पिशितेप्सुः क्षुधार्दितः ।
लम्बस्फिग्लम्बजठरो रक्तश्मश्रुशिरोरुहः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका मुख बड़ी-बड़ी दाढ़ोंके कारण विकराल दिखायी देता था। वह भूखसे पीड़ित था और मांस मिलनेकी आशामें बैठा था। उसके नितम्ब और पेट लम्बे थे। दाढ़ी, मूँछ और सिरके बाल लाल रंगके थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महावृक्षगलस्कन्धः शङ्कुकर्णो बिभीषणः ।
यदृच्छया तानपश्यत् पाण्डुपुत्रान् महारथान् ॥ ४ ॥
मूलम्
महावृक्षगलस्कन्धः शङ्कुकर्णो बिभीषणः ।
यदृच्छया तानपश्यत् पाण्डुपुत्रान् महारथान् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका गला और कंधे महान् वृक्षके समान जान पड़ते थे। दोनों कान भालेके समान लम्बे और नुकीले थे। वह देखनेमें बड़ा भयानक था। दैवेच्छासे उसकी दृष्टि उन महारथी पाण्डवोंपर पड़ी॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरूपरूपः पिङ्गाक्षः करालो घोरदर्शनः।
पिशितेप्सुः क्षुधार्तश्च तानपश्यद् यदृच्छया ॥ ५ ॥
मूलम्
विरूपरूपः पिङ्गाक्षः करालो घोरदर्शनः।
पिशितेप्सुः क्षुधार्तश्च तानपश्यद् यदृच्छया ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेडौल रूप तथा भूरी आँखोंवाला वह विकराल राक्षस देखनेमें बड़ा डरावना था। भूखसे व्याकुल होकर वह कच्चा मांस खाना चाहता था। उसने अकस्मात् पाण्डवोंको देख लिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वाङ्गुलिः स कण्डूयन् धुन्वन् रूक्षान् शिरोरुहान्।
जृम्भमाणो महावक्त्रः पुनः पुनरवेक्ष्य च ॥ ६ ॥
मूलम्
ऊर्ध्वाङ्गुलिः स कण्डूयन् धुन्वन् रूक्षान् शिरोरुहान्।
जृम्भमाणो महावक्त्रः पुनः पुनरवेक्ष्य च ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अंगुलियोंको ऊपर उठाकर सिरके रूखे बालोंको खुजलाता और फटकारता हुआ वह विशाल मुखवाला राक्षस पाण्डवोंकी ओर बार-बार देखकर जँभाई लेने लगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृष्टो मानुषमांसस्य महाकायो महाबलः।
आघ्राय मानुषं गन्धं भगिनीमिदमब्रवीत् ॥ ७ ॥
मूलम्
हृष्टो मानुषमांसस्य महाकायो महाबलः।
आघ्राय मानुषं गन्धं भगिनीमिदमब्रवीत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यका मांस मिलनेकी सम्भावनासे उसे बड़ा हर्ष हुआ। उस महाबली विशालकाय राक्षसने मनुष्यकी गन्ध पाकर अपनी बहिनसे इस प्रकार कहा—॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपन्नश्चिरस्याद्य भक्षोऽयं मम सुप्रियः।
स्नेहस्रवान् प्रस्रवति जिह्वा पर्येति मे सुखम् ॥ ८ ॥
मूलम्
उपपन्नश्चिरस्याद्य भक्षोऽयं मम सुप्रियः।
स्नेहस्रवान् प्रस्रवति जिह्वा पर्येति मे सुखम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज बहुत दिनोंके बाद ऐसा भोजन मिला है, जो मुझे बहुत प्रिय है। इस समय मेरी जीभ लार टपका रही है और बड़े सुखसे लप-लप कर रही है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टौ दंष्ट्राः सुतीक्ष्णाग्राश्चिरस्यापातदुस्सहाः ।
देहेषु मज्जयिष्यामि स्निग्धेषु पिशितेषु च ॥ ९ ॥
मूलम्
अष्टौ दंष्ट्राः सुतीक्ष्णाग्राश्चिरस्यापातदुस्सहाः ।
देहेषु मज्जयिष्यामि स्निग्धेषु पिशितेषु च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज मैं अपनी आठों दाढ़ोंको, जिनके अग्रभाग बड़े तीखे हैं और जिनकी चोट प्रारम्भसे ही अत्यन्त दुःसह होती है, दीर्घकालके पश्चात् मनुष्योंके शरीरों और चिकने मांसमें डुबाऊँगा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आक्रम्य मानुषं कण्ठमाच्छिद्य धमनीमपि।
उष्णं नवं प्रपास्यामि फेनिलं रुधिरं बहु ॥ १० ॥
मूलम्
आक्रम्य मानुषं कण्ठमाच्छिद्य धमनीमपि।
उष्णं नवं प्रपास्यामि फेनिलं रुधिरं बहु ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं मनुष्यकी गर्दनपर चढ़कर उसकी नाड़ियोंको काट दूँगा और उसका गरम-गरम, फेनयुक्त तथा ताजा खून खूब छककर पीऊँगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ जानीहि के त्वेते शेरते वनमाश्रिताः।
मानुषो बलवान् गन्धो घ्राणं तर्पयतीव मे ॥ ११ ॥
मूलम्
गच्छ जानीहि के त्वेते शेरते वनमाश्रिताः।
मानुषो बलवान् गन्धो घ्राणं तर्पयतीव मे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहिन! जाओ, पता तो लगाओ, ये कौन इस वनमें आकर सो रहे हैं? मनुष्यकी तीव्र गन्ध आज मेरी नासिकाको मानो तृप्त किये देती है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वैतान् मानुषान् सर्वानानयस्व ममान्तिकम्।
अस्मद्विषयसुप्तेभ्यो नैतेभ्यो भयमस्ति ते ॥ १२ ॥
मूलम्
हत्वैतान् मानुषान् सर्वानानयस्व ममान्तिकम्।
अस्मद्विषयसुप्तेभ्यो नैतेभ्यो भयमस्ति ते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम इन सब मनुष्योंको मारकर मेरे पास ले आओ। ये हमारी हदमें सो रहे हैं, (इसलिये) इनसे तुम्हें तनिक भी खटका नहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषामुत्कृत्य मांसानि मानुषाणां यथेष्टतः।
भक्षयिष्याव सहितौ कुरु तूर्णं वचो मम ॥ १३ ॥
मूलम्
एषामुत्कृत्य मांसानि मानुषाणां यथेष्टतः।
भक्षयिष्याव सहितौ कुरु तूर्णं वचो मम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर हम दोनों एक साथ बैठकर इन मनुष्योंके मांस नोच-नोचकर जी-भर खायेंगे। तुम मेरी इस आज्ञाका तुरंत पालन करो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्षयित्वा च मांसानि मानुषाणां प्रकामतः।
नृत्याव सहितावावां दत्ततालावनेकशः ॥ १४ ॥
मूलम्
भक्षयित्वा च मांसानि मानुषाणां प्रकामतः।
नृत्याव सहितावावां दत्ततालावनेकशः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इच्छानुसार मनुष्यमांस खाकर हम दोनों ताल देते हुए साथ-साथ अनेक प्रकारके नृत्य करें’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता हिडिम्बा तु हिडिम्बेन तदा वने।
भ्रातुर्वचनमाज्ञाय त्वरमाणेव राक्षसी ॥ १५ ॥
जगाम तत्र यत्र स्म पाण्डवा भरतर्षभ।
ददर्श तत्र सा गत्वा पाण्डवान् पृथया सह।
शयानान् भीमसेनं च जाग्रतं त्वपराजितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
एवमुक्ता हिडिम्बा तु हिडिम्बेन तदा वने।
भ्रातुर्वचनमाज्ञाय त्वरमाणेव राक्षसी ॥ १५ ॥
जगाम तत्र यत्र स्म पाण्डवा भरतर्षभ।
ददर्श तत्र सा गत्वा पाण्डवान् पृथया सह।
शयानान् भीमसेनं च जाग्रतं त्वपराजितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उस समय वनमें हिडिम्बके यों कहनेपर हिडिम्बा अपने भाईकी बात मानकर मानो बड़ी उतावलीके साथ उस स्थानपर गयी, जहाँ पाण्डव थे। वहाँ जाकर उसने कुन्तीके साथ पाण्डवोंको सोते और किसीसे परास्त न होनेवाले भीमसेनको जागते देखा॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वैव भीमसेनं सा शालपोतमिवोद्गतम्।
राक्षसी कामयामास रूपेणाप्रतिमं भुवि ॥ १७ ॥
मूलम्
दृष्ट्वैव भीमसेनं सा शालपोतमिवोद्गतम्।
राक्षसी कामयामास रूपेणाप्रतिमं भुवि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धरतीपर उगे हुए साखूके पौधेकी भाँति मनोहर भीमसेनको देखते ही वह राक्षसी (मुग्ध हो) उन्हें चाहने लगी। इस पृथ्वीपर वे अनुपम रूपवान् थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं श्यामो महाबाहुः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः।
कम्बुग्रीवः पुष्कराक्षो भर्ता युक्तो भवेन्मम ॥ १८ ॥
मूलम्
अयं श्यामो महाबाहुः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः।
कम्बुग्रीवः पुष्कराक्षो भर्ता युक्तो भवेन्मम ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(उसने मन-ही-मन सोचा—) ‘इन श्यामसुन्दर तरुण वीरकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं, कंधे सिंहके-से हैं, ये महान् तेजस्वी हैं, इनकी ग्रीवा शंखके समान सुन्दर और नेत्र कमलदलके सदृश विशाल हैं। ये मेरे लिये उपयुक्त पति हो सकते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं भ्रातृवचो जातु कुर्यां क्रूरोपसंहितम्।
पतिस्नेहोऽतिबलवान् न तथा भ्रातृसौहृदम् ॥ १९ ॥
मुहूर्तमेव तृप्तिश्च भवेद् भ्रातुर्ममैव च।
हतैरेतैरहत्वा तु मोदिष्ये शाश्वतीः समाः ॥ २० ॥
मूलम्
नाहं भ्रातृवचो जातु कुर्यां क्रूरोपसंहितम्।
पतिस्नेहोऽतिबलवान् न तथा भ्रातृसौहृदम् ॥ १९ ॥
मुहूर्तमेव तृप्तिश्च भवेद् भ्रातुर्ममैव च।
हतैरेतैरहत्वा तु मोदिष्ये शाश्वतीः समाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे भाईकी बात क्रूरतासे भरी है, अतः मैं कदापि उसका पालन नहीं करूँगी। (नारीके हृदयमें) पतिप्रेम ही अत्यन्त प्रबल होता है। भाईका सौहार्द उसके समान नहीं होता। इन सबको मार देनेपर इनके मांससे मुझे और मेरे भाईको केवल दो घड़ीके लिये तृप्ति मिल सकती है और यदि न मारूँ तो बहुत वर्षोंतक इनके साथ आनन्द भोगूँगी’॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा कामरूपिणी रूपं कृत्वा मानुषमुत्तमम्।
उपतस्थे महाबाहुं भीमसेनं शनैः शनैः ॥ २१ ॥
लज्जमानेव ललना दिव्याभरणभूषिता ।
स्मितपूर्वमिदं वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत् ॥ २२ ॥
कुतस्त्वमसि सम्प्राप्तः कश्चासि पुरुषर्षभ।
क इमे शेरते चेह पुरुषा देवरूपिणः ॥ २३ ॥
मूलम्
सा कामरूपिणी रूपं कृत्वा मानुषमुत्तमम्।
उपतस्थे महाबाहुं भीमसेनं शनैः शनैः ॥ २१ ॥
लज्जमानेव ललना दिव्याभरणभूषिता ।
स्मितपूर्वमिदं वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत् ॥ २२ ॥
कुतस्त्वमसि सम्प्राप्तः कश्चासि पुरुषर्षभ।
क इमे शेरते चेह पुरुषा देवरूपिणः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हिडिम्बा इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली थी। वह मानवजातिकी स्त्रीके समान सुन्दर रूप बनाकर लजीली ललनाकी भाँति धीरे-धीरे महाबाहु भीमसेनके पास गयी। दिव्य आभूषण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। तब उसने मुसकराकर भीमसेनसे इस प्रकार पूछा—‘पुरुषरत्न! आप कौन हैं और कहाँसे आये हैं? ये देवताओंके समान सुन्दर रूपवाले पुरुष कौन हैं, जो यहाँ सो रहे हैं?॥२१—२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केयं वै बृहती श्यामा सुकुमारी तवानघ।
शेते वनमिदं प्राप्य विश्वस्ता स्वगृहे यथा ॥ २४ ॥
मूलम्
केयं वै बृहती श्यामा सुकुमारी तवानघ।
शेते वनमिदं प्राप्य विश्वस्ता स्वगृहे यथा ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘और अनघ! ये सबसे बड़ी उम्रवाली श्यामा1 सुकुमारी देवी आपकी कौन लगती हैं, जो इस वनमें आकर भी ऐसी निःशंक होकर सो रही हैं, मानो अपने घरमें ही हों॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदं जानाति गहनं वनं राक्षससेवितम्।
वसति ह्यत्र पापात्मा हिडिम्बो नाम राक्षसः ॥ २५ ॥
मूलम्
नेदं जानाति गहनं वनं राक्षससेवितम्।
वसति ह्यत्र पापात्मा हिडिम्बो नाम राक्षसः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्हें यह पता नहीं है कि यह गहन वन राक्षसोंका निवासस्थान है। यहाँ हिडिम्ब नामक पापात्मा राक्षस रहता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनाहं प्रेषिता भ्रात्रा दुष्टभावेन रक्षसा।
बिभक्षयिषता मांसं युष्माकममरोपम ॥ २६ ॥
मूलम्
तेनाहं प्रेषिता भ्रात्रा दुष्टभावेन रक्षसा।
बिभक्षयिषता मांसं युष्माकममरोपम ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह मेरा भाई है। उस राक्षसने दुष्टभावसे मुझे यहाँ भेजा है। देवोपम वीर! वह आपलोगोंका मांस खाना चाहता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहं त्वामभिसम्प्रेक्ष्य देवगर्भसमप्रभम् ।
नान्यं भर्तारमिच्छामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ २७ ॥
मूलम्
साहं त्वामभिसम्प्रेक्ष्य देवगर्भसमप्रभम् ।
नान्यं भर्तारमिच्छामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपका तेज देवकुमारोंका-सा है, मैं आपको देखकर अब दूसरेको अपना पति बनाना नहीं चाहती। मैं यह सच्ची बात आपसे कह रही हूँ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् विज्ञाय धर्मज्ञ युक्तं मयि समाचर।
कामोपहतचित्ताङ्गीं भजमानां भजस्व माम् ॥ २८ ॥
मूलम्
एतद् विज्ञाय धर्मज्ञ युक्तं मयि समाचर।
कामोपहतचित्ताङ्गीं भजमानां भजस्व माम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मज्ञ! इस बातको समझकर आप मेरे प्रति उचित बर्ताव कीजिये। मेरे तन-मनको कामदेवने मथ डाला है। मैं आपकी सेविका हूँ, आप मुझे स्वीकार कीजिये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रास्यामि त्वां महाबाहो राक्षसात् पुरुषादकात्।
वत्स्यावो गिरिदुर्गेषु भर्ता भव ममानघ ॥ २९ ॥
मूलम्
त्रास्यामि त्वां महाबाहो राक्षसात् पुरुषादकात्।
वत्स्यावो गिरिदुर्गेषु भर्ता भव ममानघ ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! मैं इस नरभक्षी राक्षससे आपकी रक्षा करूँगी। हम दोनों पर्वतोंकी दुर्गम कन्दराओंमें निवास करेंगे। अनघ! आप मेरे पति हो जाइये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(इच्छामि वीर भद्रं ते मा मा प्राणा विहासिषुः।
त्वया ह्यहं परित्यक्ता न जीवेयमरिंदम॥)
अन्तरिक्षचरी ह्यस्मि कामतो विचरामि च।
अतुलामाप्नुहि प्रीतिं तत्र तत्र मया सह ॥ ३० ॥
मूलम्
(इच्छामि वीर भद्रं ते मा मा प्राणा विहासिषुः।
त्वया ह्यहं परित्यक्ता न जीवेयमरिंदम॥)
अन्तरिक्षचरी ह्यस्मि कामतो विचरामि च।
अतुलामाप्नुहि प्रीतिं तत्र तत्र मया सह ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! आपका भला चाहती हूँ। कहीं ऐसा न हो कि आपके ठुकरानेसे मेरे प्राण ही मुझे छोड़कर चले जायँ। शत्रुदमन! यदि आपने मुझे त्याग दिया तो मैं कदापि जीवित नहीं रह सकती। मैं आकाशमें विचरनेवाली हूँ। जहाँ इच्छा हो, वहीं विचरण कर सकती हूँ। आप मेरे साथ भिन्न-भिन्न लोकों और प्रदेशोंमें विहार करके अनुपम प्रसन्नता प्राप्त कीजिये’॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एष ज्येष्ठो मम भ्राता मान्यः परमको गुरुः।
अनिविष्टश्च तन्माहं परिविद्यां कथंचन॥)
मातरं भ्रातरं ज्येष्ठं सुखसुप्तान् कथं त्विमान्।
परित्यजेत को न्वद्य प्रभवन्निह राक्षसि ॥ ३१ ॥
मूलम्
(एष ज्येष्ठो मम भ्राता मान्यः परमको गुरुः।
अनिविष्टश्च तन्माहं परिविद्यां कथंचन॥)
मातरं भ्रातरं ज्येष्ठं सुखसुप्तान् कथं त्विमान्।
परित्यजेत को न्वद्य प्रभवन्निह राक्षसि ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— राक्षसी! ये मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं, जो मेरे लिये परम सम्माननीय गुरु हैं; इन्होंने अभीतक विवाह नहीं किया है, ऐसी दशामें मैं तुझसे विवाह करके किसी प्रकार कविता2 नहीं बनना चाहता। कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो इस जगत्में सामर्थ्यशाली होते हुए भी, सुखपूर्वक सोये हुए इन बन्धुओंको, माताको तथा बड़े भ्राताको भी किसी प्रकार अरक्षित छोड़कर जा सके?॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को हि सुप्तानिमान् भ्रातॄन् दत्त्वा राक्षसभोजनम्।
मातरं च नरो गच्छेत् कामार्त इव मद्विधः ॥ ३२ ॥
मूलम्
को हि सुप्तानिमान् भ्रातॄन् दत्त्वा राक्षसभोजनम्।
मातरं च नरो गच्छेत् कामार्त इव मद्विधः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझ-जैसा कौन पुरुष कामपीड़ितकी भाँति इन सोये हुए भाइयों और माताको राक्षसका भोजन बनाकर (अन्यत्र) जा सकता है?॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
राक्षस्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् ते प्रियं तत् करिष्ये सर्वानेतान् प्रबोधय।
मोक्षयिष्याम्यहं कामं राक्षसात् पुरुषादकात् ॥ ३३ ॥
मूलम्
यत् ते प्रियं तत् करिष्ये सर्वानेतान् प्रबोधय।
मोक्षयिष्याम्यहं कामं राक्षसात् पुरुषादकात् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसीने कहा— आपको जो प्रिय लगे, मैं वही करूँगी। आप इन सब लोगोंको जगा दीजिये। मैं इच्छानुसार उस मनुष्यभक्षी राक्षससे इन सबको छुड़ा लूँगी॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखसुप्तान् वने भ्रातॄन् मातरं चैव राक्षसि।
न भयाद् बोधयिष्यामि भ्रातुस्तव दुरात्मनः ॥ ३४ ॥
मूलम्
सुखसुप्तान् वने भ्रातॄन् मातरं चैव राक्षसि।
न भयाद् बोधयिष्यामि भ्रातुस्तव दुरात्मनः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— राक्षसी! मेरे भाई और माता इस वनमें सुखपूर्वक सो रहे हैं, तुम्हारे दुरात्मा भाईके भयसे मैं इन्हें जगाऊँगा नहीं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि मे राक्षसा भीरु सोढुं शक्ताः पराक्रमम्।
न मनुष्या न गन्धर्वा न यक्षाश्चारुलोचने ॥ ३५ ॥
मूलम्
न हि मे राक्षसा भीरु सोढुं शक्ताः पराक्रमम्।
न मनुष्या न गन्धर्वा न यक्षाश्चारुलोचने ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीरु! सुलोचने! मेरे पराक्रमको राक्षस, मनुष्य, गन्धर्व तथा यक्ष भी नहीं सह सकते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ वा तिष्ठ वा भद्रे यद् वापीच्छसि तत् कुरु।
तं वा प्रेषय तन्वङ्गि भ्रातरं पुरुषादकम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
गच्छ वा तिष्ठ वा भद्रे यद् वापीच्छसि तत् कुरु।
तं वा प्रेषय तन्वङ्गि भ्रातरं पुरुषादकम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः भद्रे! तुम जाओ या रहो; अथवा तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वही करो। तन्वंगि! अथवा यदि तुम चाहो तो अपने नरमांसभक्षी भाईको ही भेज दो॥३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि भीमहिडिम्बासंवादे एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अर्न्तगत हिडिम्बवधपर्वमें भीम-हिडिम्बा-संवादविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५१॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं)