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संस्कृत का अधिकार - करपात्र-मत-खंडन

भाग १ - स्कंदपुराण के प्रमाण

-कुशाग्र अनिकेत

करपात्री जी के अनुसार संस्कृत केवल द्विजों की भाषा है और शूद्रों को संस्कृत बोलने का अधिकार नहीं है-

“संस्कृत भाषा ही सबकी भाषा है - यह कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। शास्त्र की दृष्टि से भी संस्कृत द्विजातियों की ही भाषा कही गयी है। कई लोगों के लिए तो संस्कृत शब्दों का उच्चारण भी निषिद्ध है। ‘नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्’ (स्कन्द-पुराण)।”

(विचार पीयूष, पृ॰ ४७५)

करपात्री जी का कथन दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ शास्त्रादेश और लोकाचार के विरुद्ध है। अतः इसका खंडन करना आवश्यक है।

सर्वप्रथम स्कंदपुराण के जिस श्लोकांश को करपात्री जी ने उद्धृत किया है, हम उसका ही विवेचन करेंगे। यह श्लोक इस प्रकार है-

न शिखां नोपवीतं च नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम् । न पठेद्वेदवचनं त्रैरात्रं न हि सेवयेत् ॥

(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.७०)

यहाँ प्रसंग है सोमनाथ-तीर्थ की यात्रा का। अध्याय के आरंभ में देवी पार्वती भगवान् शिव से प्रश्न करती हैं कि सोमनाथ-यात्रा की विधि क्या है और उस क्षेत्र में तीर्थयात्री को कौन-कौन से नियमों का पालन करना चाहिए-

इत्याश्चर्यमिदं देव त्वत्तः सर्वं मया श्रुतम् । महिमानं महेशस्य विस्तरेण समुद्भवम् । सांप्रतं सोमनाथस्य यथावद्वक्तुमर्हसि ॥ विधिना केन दृश्योसौ यात्रा कार्या कथं नृभिः । कस्मिन्काले महादेव नियमाश्चैव कीदृशाः ॥

(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.१-२)

उत्तर में भगवान् शिव सोमनाथ-क्षेत्र में पालन करने योग्य नियमों का प्रतिपादन करते हैं। आगे चलकर उपवास का प्रसंग आता है - सोमनाथ-क्षेत्र में विभिन्न वर्णों के लोगों को कितने समय तक उपवास करना चाहिए? महादेव कहते हैं कि ब्राह्मणों को यात्रा-पर्यंत अनशन करना चाहिए किंतु शूद्रों को “षष्ठकाल” अर्थात् तीसरे दिवस की संध्या तक उपवास करना चाहिए। वहीं वर्णसंकरों को केवल एक दिन का उपवास करना चाहिए-

ब्राह्मणस्य त्वनशनं तपः परमिहोच्यते । षष्ठकालाशनं शूद्रे तपः प्रोक्तं परं बुधैः । वर्णसङ्करजातानां दिनमेकं प्रकीर्तितम् ॥

(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.६५-६६)

उपर्युक्त श्लोक से दो बातें स्पष्ट हैं-

१. शूद्रों की अपेक्षा ब्राह्मणों से अधिक अवधि तक तपश्चर्या अपेक्षित है। २. उपवास के ये नियम सार्वत्रिक नहीं हैं, अपितु तीर्थक्षेत्र-विशेष के लिए विहित हैं।

अन्य प्रसंगों में अनेक लोगों के लिए षष्ठकालोपवास का विधान है, केवल शूद्रों के लिए नहीं। उदाहरण-स्वरूप पुराणों में पंचाग्नि-साधकों के लिए ग्रीष्म में1, लोहार्गल-क्षेत्र में सभी तीर्थयात्रियों के लिए2 और द्वारका-क्षेत्र में सभी तीर्थयात्रियों के लिए3 षष्ठकालोपवास का विधान है। किंतु सोमनाथ में उपवास की अवधि वर्णानुसार भिन्न-भिन्न है। अतः केवल “षष्ठकालाशनं शूद्रे तपः प्रोक्तं परं बुधैः” के उद्धरण से शूद्रों के लिए षष्ठकालोपवास का सार्वत्रिक विधान नहीं किया जा सकता।

षष्ठकालोपवास के समय शूद्र को क्या-क्या करना चाहिए? इसके लिए आगे कहते हैं-

शूद्रस्तु षष्ठकालाशी यथाशक्त्या तपश्चरेत् ।
न दर्भानुद्धरेच्छूद्रो न पिबेत्कापिलं पयः ॥
मध्यपत्रे न भुञ्जीत ब्रह्मवृक्षस्य भामिनि ।
नोच्चरेत्प्रणवं मन्त्रं पुरोडाशं न भक्षयेत् ॥
न शिखां नोपवीतं च नोच्चरेत्संस्कृतां गिरम् ।
न पठेद्वेदवचनं त्रैरात्रं न हि सेवयेत् ॥
नमस्कारेण शूद्रस्य क्रियासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।
निषिद्धाचरणं कुर्वन्पितृभिः सह मज्जति ॥
(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य २८.६८-७९)

अर्थात् “षष्ठकालोपवास करने वाले शूद्र को यथाशक्ति तप करना चाहिए। न उसे दर्भ उखाड़ना चाहिए, और न ही कपिला गाय का दूध पीना चाहिए। हे भामिनी! उसे ब्रह्मवृक्ष (पलाश अथवा उडुंबर) का मध्यवर्ती पत्ता नहीं खाना चाहिए। उसे प्रणवयुक्त मंत्र का उच्चारण नहीं करना चाहिए और न ही पुरोडाश का भक्षण करना चाहिए। उसे शिखा और यज्ञोपवीत नहीं धारण करना चाहिए और न ही संस्कृत भाषा का उच्चारण करना चाहिए। उस वेद वाक्यों का पठन नहीं करना चाहिए, और त्रैरात्र (तीन रात्रियों का यज्ञ) नहीं करना चाहिए। शूद्र की क्रिया-सिद्धि नमस्कार के माध्यम से ही हो जाती है — यह निश्चित बात है। यदि वह निषिद्ध आचरण करता है, तो अपने पितरों सहित नरक में गिर जाता है।”

इन श्लोकों का तात्पर्य यह है कि सोमनाथ-क्षेत्र में शूद्र के लिए केवल नमस्कार कर लेना ही पर्याप्त है, उसी किसी कठोर व्रत के पालन की आवश्यकता नहीं है। किंतु ये सभी निषेध सोमनाथ-क्षेत्र के लिए हैं, सार्वत्रिक नहीं हैं।

यदि इन नियमों को सार्वत्रिक मान लिया जाए तो धर्मशास्त्रों में शूद्रों के लिए बताए गए अन्य नियमों का भी निषेध हो जाएगा। उदाहरणस्वरूप अनेक धर्मशास्त्रों में शूद्रों के लिए शिखा का विधान मिलता है। वसिष्ठधर्मसूत्र (२.२१) के अनुसार सभी को वर्णों को शिखा धारण करना चाहिए। इस सूत्र को शेषकृष्ण ने शूद्राचारशिरोमणि में उद्धृत करते हुए बताया है कि चारों वर्ण के लोग केश के साथ शिखा धारण करें अथवा शिखा के अतिरिक्त पूरा मुंडन करा लें।4

अतः स्कंदपुराण के उपर्युक्त निषेधों को तीर्थक्षेत्र-विशेष तक सीमित मानना चाहिए। भावार्थ यह है कि कोई शूद्रवर्ण का तीर्थयात्री यदि कुछ न करे, केवल सोमनाथ को नमस्कार ही कर ले तो भी उसे तीर्थयात्रा का फल प्राप्त हो जाता है। पूर्वपक्षी की भूल है कि उन्होंने “नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्” को पूर्वापर प्रसंग के बिना ही उद्धृत कर शूद्रों के लिए संस्कृत-भाषा का निषेध कर दिया।

संदर्भ-

वाल्मीकीय-रामायण के प्रथम अध्याय को मूल-रामायण अथवा संक्षिप्त-रामायण कहते हैं। इस अध्याय के अंत में निम्नलिखित फलश्रुति प्राप्त होती है-

पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात् स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात्। वणिग्जनः पण्यफलत्वमीयाज्जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात्॥

(वाल्मीकीय-रामायण १.१.७९)

इस फलश्रुति में चारों वर्णों के लोगों के लिए रामायण-पाठ का फल वर्णित है-

१. ब्राह्मण - वाणी में श्रेष्ठता २. क्षत्रिय - भूमि का राज्य ३. वैश्य - वाणिज्य में लाभ ४. शूद्र - महत्त्व अथवा ऐहिक और पारलौकिक प्रतिष्ठा

यदि “पठन्” को प्रत्येक वर्ण का विशेषण माना जाए, तब उपर्युक्त श्लोक से शूद्र द्वारा रामायण पाठ का स्पष्ट विधान प्राप्त होता है। यह पाठ वाचिक अथवा मानस हो सकता है। यदि वाचिक पाठ होता है तो “नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्” के कल्पित नियम का स्वतः खंडन हो जाता है। किंतु यदि मानस पाठ होता है, तब भी वाल्मीकीय-रामायण को पढ़ने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस भाषा को श्रवण, मनन और उच्चारण-पूर्वक सीखना अपेक्षित है। शूद्रों द्वारा संस्कृत सीखने के क्रम में संस्कृत शब्दों के उच्चारण से भी “नोच्चरेत् संस्कृतां गिरम्” का खंडन हो जाता है।

यहाँ पूर्वपक्षी यह प्रत्याक्षेप कर सकते हैं कि उपर्युक्त श्लोक में “पठन्” शब्द त्रैवर्णिकों के लिए है। शूद्र के लिए केवल श्रवण का विधान है। तदनुरूप इस श्लोक पर नागेश भट्ट की टीका में शूद्र के लिए “शृण्वन्” (“सुनता हुआ”) का अध्याहार किया गया है।5 किंतु यदि पूर्वपक्षी का यह तर्क मान भी लिया जाए, तब भी संस्कृत में निबद्ध वाल्मीकीय-रामायण का श्रवण अभिहित है, उसके अनुवाद अथवा किसी अन्य लौकिक रामायण का नहीं।

क्या पूर्वपक्षी यह मानने के लिए प्रस्तुत हैं कि शूद्र संस्कृत से अनभिज्ञ रहकर ही वाल्मीकीय-रामायण का श्रवण करे? यदि हाँ, तब वह वाल्मीकीय-रामायण के तात्पर्य के सर्वथा अनभिज्ञ रहेगा। यदि नहीं, तब शूद्र के लिए संस्कृत-शिक्षा आवश्यक हो जाएगी। क्या पूर्वपक्षी उच्चारण के बिना ही शूद्रों को संस्कृत सिखाने के पक्षधर हैं? अंततः दोनों ही अवस्थाओं में पूर्वपक्षी की हास्यपात्रता चिंतनीय है।

किंतु सत्य तो यह है कि उपर्युक्त श्लोक के लगभग सभी टीकाकारों ने शूद्र के लिए वाल्मीकीय-रामायण के पाठ को स्वीकार किया है। अमृतकतक-टीकाकार माधव योगी ने शूद्र के श्रवणाधिकार-मात्र का कोई उल्लेख नहीं किया है, अपितु “पठन्” को शूद्र का विशेषण भी माना है।6 महेश्वर-तीर्थ ने भी शूद्र के लिए “पठन्” शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया है।7

आचार्य गोविंदराज की टीका समन्वयात्मक है। प्रथम विकल्प में वे शूद्र द्वारा रामायण-पाठ को स्वीकार करते हैं।8 दूसरे विकल्प में वे कहते हैं कि यद्यपि स्मृति-ग्रंथों द्वारा शूद्रों को इतिहास-पुराण में केवल श्रवणाधिकार प्राप्त है, तथापि आर्षवचन के प्रमाण से शूद्रों को संक्षिप्त-रामायण के पाठ में अधिकार है।9 संक्षिप्त-रामायण स्वयं ७९-१०० श्लोकों का एक लघु संस्कृत ग्रंथ है, जिसके सम्यक् अवबोध के लिए विभिन्न विद्यास्थानों (जैसे व्याकरण, निरुक्त, छंद, न्याय, काव्यशास्त्र आदि) का ज्ञान अपेक्षित है। अतः संक्षिप्त-रामायण के सुधी पाठकों के लिए केवल संस्कृत शब्दों के उच्चारण का अधिकार ही नहीं, संस्कृत में निबद्ध शास्त्रों का अध्ययन अपेक्षित है।

यदि तीसरे विकल्प में (संक्षिप्त-रामायण सहित) समस्त इतिहास-पुराणों के पाठ में शूद्र का अनधिकार मान लिया जाए तो भी अर्थग्रहणपूर्वक श्रवण पर उसका अधिकार सिद्ध है। इस अवस्था में भी संस्कृत अध्ययन और उसके अंगभूत संस्कृत शब्दों के उच्चारण में शूद्र का अधिकार सिद्ध होता है।

अतः वाल्मीकीय-रामायण के प्रमाण से पूर्वपक्षी के मत का खंडन हो जाता है।


  1. वर्षास्वाकाशशायी च हेमन्ते सलिलाश्रयः ।
    पञ्चाग्निसाधको ग्रीष्मे षष्ठकालकृताशनः ॥
    (स्कंदपुराण, नागरखंड २०९.६८) ↩︎

  2. वराहपुराण, अध्याय १५१ ↩︎

  3. वराहपुराण, अध्याय १४९ ↩︎

  4. “नियताः केशावेषाः सर्वेषां चामुक्तशिखावर्जमिति। सर्वमुण्डनं शिखातिरिक्तकेशमुण्डनं वेति।” ↩︎

  5. “शूद्रोऽपि जनस्त्रैवर्णिकदासः। अत्र शृण्वन्नित्यध्याहारः। महत्त्वं द्विजेतरसर्वप्रजाभ्यः श्रैष्ठ्यं महत्त्वं देहान्ते स्वोपरितनवर्णप्राप्तिलक्षणं च महत्त्वं प्राप्नुयात्।” - नागेशभट्ट ↩︎

  6. “शूद्रजनः द्विजदासोऽपि तदितरसर्वप्रजाभ्यो महत्वं श्रैष्ठ्यं ईयात् देहान्तरे स्वोपरिवर्णप्राप्तिलक्षणं महत्वमीयात्।” - अमृतकतक ↩︎

  7. “यद्वा पठन् शूद्रो जनः स्यात् महत्त्वं सजातीयेषु सर्वोत्तमत्वे पूज्यत्वमीयात्। चकारादवान्तरजातिस्समुच्चीयते।” - महेश्वरतीर्थ ↩︎

  8. “पठन् शूद्रोऽपि जनो यदि महत्त्वं स्वजातिश्रेष्ठत्वमीयात्”। - गोविंदराज ↩︎

  9. “यद्यपि ‘श्रावयेच्चतुरो वर्णान् कृत्या ब्राह्मणमग्रतः’ इति शूद्रस्येतिहासपुराणयोः श्रवणमात्रं स्मृतिभिरनुज्ञातं न तु पठनम्। तथापि ‘पठन्’ इत्यादिऋषिवचनप्रामाण्याद् ‘वचनाद् रथकारस्य’ इति न्यायेनास्मिन् सङ्क्षेपपाठमात्रेऽधिकारोऽस्तीति सिद्धम्।” - गोविंदराज ↩︎