अधिग्रन्थम्

गुरुमण्डलग्रन्थमालायाः नवमपुष्पकम् :-

स्मृति- सन्दर्भः

श्रीमन्महर्षिप्रणीत धर्मशास्त्रसंग्रहः

कपिलादिदशस्मृत्यात्मकः

पञ्चमोभागः

“श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रन्तु वै स्मृतिः ।”

सम्वत् २०१२ ]

मन सुखराय मोर

५, क्लाइव रो,

कलकत्ता-१

[ सन् १९५५

  • श्रीगणेशाय नमः

गुरुमण्डलग्रन्थमालायाः नवमपुष्पकम् :-

स्मृति - सन्दर्भ :

श्रीमन्महर्षिप्रणीत धर्मशास्त्रसंग्रहग्रन्थः

कपिलादिदशस्मृत्यात्मकः

पञ्चमो भागः

श्रीनाथादिगुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयम्भैरवम् ; सिद्धौघं वटुकत्रयम्पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम् । वीरान्द्वचष्टचतुष्कषष्टिनवकं वीरावलीपञ्चकम् ; श्रीमन्मालिनिमंत्रराजसहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम् ॥

५, क्लाइव रो,

कलकत्ता ।

वैक्रमाब्दः

प्रथम संस्करणम्

ख्रस्ताब्दः

[[२०१२]]

[[५०००]]

[[१६५५]]

मुद्रक :-

रुलियाराम गुप्त

दि बङ्गाल प्रिण्टिङ्ग वर्क्स

१, सिनागाग स्ट्रीट,

कलकत्ता- १

F

GURUMANDAL SERIES No. IX

THE

SMRITI SANDARBHA

Collection of Ten Dharmashastric

Texts by Maharshis.

Volume V

5, CLIVE ROW,

CALCUTTA.

Vikram Era

First Edition

Christian Era

tique

THE

CRIME BOM

AD

  • श्रीकृष्णः शरणम्

सम्पादकीयं निवेदनम्

अयि भो धर्मशास्त्रप्रणयिनो विद्यावधूवल्लभा विद्वद्धुरन्धराः

सहृदयाः !

समुपस्थाप्यते भवत्पुरस्तादिदं स्मृति - सन्दर्भग्रन्थस्य गुरु- मण्डलग्रन्थमालाप्रकाशितस्य नवमपुष्परूपेण पञ्चमं खण्डं कपिलस्मृत्यादि भारद्वाजस्मृत्यन्तं दशस्मृतीनां संग्रहात्मकम् । पूर्वभागचतुष्टयसङ्कलितचतुश्चत्वारिंशत्स्मृतिभिः सङ्कलनेन संख्यैषा चतुःपञ्चाशद्भवतीति अष्टोत्तरशतस्मृतीनां ततोऽपि समधिक- स्मृतिनामंसंग्रह प्राप्त्या न्यूनमेव संख्यासङ्कलनमिति प्रमोदस्य परमात्मसन्तोषस्य च विषयोऽस्माकम् ।

अत्र विषये गवर्नमेण्टमैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी ट्रिप्लीकेन मद्रासतः, थियोसोफिकल सोसाइटी तत्वावधानस्थितस्य अड्यार पुस्तकालयतः, भाण्डारकर प्राच्यशोधसंस्थान पूनातः, एशियाटिक सोसाइटी कलकत्तातो वाराणसीस्थसंस्कृत महाविद्यालयाधिकृतसरस्वतीभवन्तश्च बहूनामादर्शहस्तलिखित- पुस्तकलिपीनां सङ्कलीकरणे तैस्तैः पुस्तकालयाध्यक्षैरधिकारिभिश्च बहुसाहाय्यं समाचरितम् ; तदर्थन्तेषामधिकाधिकमभिनन्दनं सहर्षमाभारञ्च वयं प्रकटीकुर्मो वितरामश्च तेभ्यः परः सहस्रान् धन्यवादान् ।

अस्मत्प्रमादालस्यादिभिः याः सम्भवन्त्यस्त्रुटयो भाग- चतुष्टयवत्परिलक्ष्यन्ते ता अत्राऽपि विदुषां दृष्टिपथिसमाया-

(=)

स्यन्तीति तासां संशोधने पुनः पुनः सकलनिगमागमस्वाध्याय- निपुणाः धीधना अभ्यर्थ्यन्ते । अत्र ग्रन्थेषु नूतना विषया प्रायश्चित्तनित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानसम्बन्धिनो दरीदृश्यन्ते मन्या- महे यद्भवन्तः स्वकल्याणबुड्या स्वाध्यायं कृत्वा जगदुद्धाराय शास्त्रप्रचाराय च दुर्लभग्रन्थ प्रकाशकस्य श्रीमनसुख रायमोरश्रेष्ठि- वर्यस्य समुद्योगे सुष्ठु सहयोगं विधास्यन्तीति ।

श्रीकरुणावरुणालयस्यासीमयाऽनुकम्पयाऽद्यावधि षष्ठभागे सम्मेलनाय द्वे स्मृती लौगाक्षिमार्कण्डेयाभिधे समधिगते । अनुदिनं प्रयत्नसापेक्षस्य कार्यस्यास्य समाप्त्यै कृतचेष्टा अपि वयं नितरामसमर्था इति विशिष्टानामप्रकाशितस्मृतिग्रन्थानां सङ्कलने तत्तद्ग्रन्थाधिकारिणो महानुभावाः सततं प्रार्थ्यन्ते यदेकोऽपि शब्दः सृष्टिसंरक्षणोपायपरो यदि तेषु मिलिष्यति बहूपकारभाजो वयं सर्वेऽपि भविष्यामः । आशास्महे सर्वेऽपि विद्वांसो मोर पदवीभाजः श्रीमनसुखरायश्रेष्ठिमहोदयस्य लेखे धन्यवाद प्रकाशने प्रतिपादितानां नामावशेषतां नीतानां स्मृतिग्रन्थानां पृथक्- पृथगथवा सम्मिलितरूपेणास्मभ्यं वितरणं विधाय कृतकृत्या- न्विधास्यन्तीति विनिवेद्य विरमाम इति ।

कालीक्षेत्रम् भाषाढ़ शुक्ला गुरुपूर्णिमा

२०१२ विक्रमाब्दः

विदुषामनुचराः

लक्ष्मणदुर्गवास्तव्य ब्रह्मदत्त त्रिवेदी नवलदुर्गाभिजनौ कजोड़ीलाल मिश्र- रामनाथदाधीचौ

मोरप्राच्यशोधसंस्थानम् – ५, क्लाइव रो ।

11 27: 11

धन्यवाद प्रकाश

सत् चित् आनन्दकन्द व्रजविहारी श्रीकृष्णचन्द्र की असीम अनुकम्पा से स्मृति-सन्दर्भ के पश्चम भाग को कृपालु विद्वज्जन की सेवा में प्रस्तुत करते हुए अत्यन्त आनन्द अनुभव हो रहा है । इस भाग में निम्नलिखित स्मृतियों के लिये जो अपेक्षित प्रतिलिपीकरण के साथ सहायता प्राप्त हुई है उन सभी अधिकारी महानुभावों का हम हृदय से धन्यवाद करते हुए आभार प्रदर्शन करते हैं ।

कपिलस्मृति — अड्यार पुस्तकालय, थियोसोफिकल सोसाइटी,

[[99]]

[[99]]

[[99]]

वाधूलस्मृति- विश्वामित्रस्मृति — एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता

[[99]]

मद्रास ।

एवं गवर्नमेण्ट ओरियण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, मद्रास ।

लोहितस्मृति-

नारायणस्मृति–

"

"

"

"

शाण्डिल्यस्मृति – गवर्नमेण्ट ओरियण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइनरी,

मद्रास ।

मद्रास ।

कण्वस्मृति - अड्यार पुस्तकालय, थियोसोफिकल सोसाइटी,

एवं भण्डारकर प्राच्यशोधसंस्थान, पूना ।

दाल्भ्यस्मृति - अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ।

आङ्गिरसस्मृति - अड्यार पुस्तकालय,

थियोसोफिकल सोसाइटी, अड्यार, मद्रास ।

भारद्वाजस्मृतिः - एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता ।

( ख )

इसके साथ-साथ हमारे पूर्व चार भागों में ४४ स्मृतियाँ और ये १० स्मृतियाँ इस प्रकार ५४ स्मृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं । महामहोपाध्याय डा. पी. व्ही. काणे एम. ए. डी. लिट्. एल. एल. एम. सदस्य, ‘कौंसिल आँव स्टेट’ नई दिल्ली ने अपने ग्रन्थ “हिस्ट्री आंव धर्मशास्त्र” में नीचे लिखी हुई अप्रकाशित स्मृतियों का उल्लेख किया है ।

इनके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों से संग्रह की गई सूची में मुझे जिन नामों का उल्लेख मिला उन्हें मैं अविकल अपने सम्मान्य महानुभावों की सेवा में उपस्थित करता हूं जिससे भविष्य में इनकी गवेषणा की जाकर हमारा मार्ग प्रशस्त

हो सके :-

अगस्त्य संहिता

शान्तनुस्मृति

आत्रेयधर्मशास्त्र

छागल्यस्मृति

आश्वलायनधर्मशास्त्र

सप्तर्षिस्मृति

इन्द्रदत्तस्मृति

लोमशस्मृति

उपकश्यपस्मृति

हिरण्यकेशीस्मृति

ऋष्यशृङ्गस्मृति

वैखानसस्मृति

कवसस्मृति

पैठीनसिस्मृति

क्रतुस्मृति

सोमस्मृति

गर्गस्मृति

नारद संहिता

गार्ग्यस्मृति

काश्यपस्मृति

चन्द्रस्मृति

व्याघ्रपादस्मृति

स्कन्दुस्मृति

लल्लस्मृति

कौशिकस्मृति

वैजवापस्मृतिपुलहस्मृति पैयस्मृति प्रह्लादस्मृति बभ्रु स्मृति

( ग )

वाराही संहिता वामदेव संहिता शौनकस्मृति

वैश्वानर संहिता

मरीचिस्मृति

शुनः पुच्छ संहिता

विश्वेश्वरस्मृति

विश्वेश्वरीस्मृति

शाट्यायन संहिता शाकलस्मृति

शाकटायनस्मृति

षण्मुखस्मृति

शाकलस्मृति

सनत्कुमार संहिता

शाट्यायनिस्मृति

सांख्यायनस्मृति

सत्यव्रतस्मृति

ईशान संहिता

सुमन्तुस्मृति

कात्यायन स्मृति

च्यवनस्मृति

काष्र्णाजिनिस्मृति

जमदग्निस्मृति

गवेयस्मृति

गालवस्मृति

छागलेय स्मृति

जतुकर्णस्मृति

कापिञ्जलस्मृति

जाबालस्मृति

कणादस्मृति

षष्ठ भाग में केवल दो स्मृतियां ही उपलब्ध हुई हैं ५५०० श्लोकोंवाली, लौगाक्ष और मार्कण्डेय । यदि समस्त धर्म- शास्त्र प्रेमी इस ओर कुछ विशेष अनुसन्धान दृष्टि से कृपा करें तो हमारे प्रकाशन कार्य में शीघ्रता होकर भारतीय जनता द्वारा संसार को प्रकाशित स्मृति-संग्रह की अनुपम भेंट प्रस्तुत की जा सकती है ।

स्मृति - सन्दर्भ और निरुक्त ग्रन्थों की आलोचनात्मक प्राप्ति स्वीकृति पृथक्-पृथक् व सम्मिलित रूप से भाण्डारकर.

( घ )

ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना के मासिक पत्र अनाल्स ग्रन्थ संख्या ३३. सन् १६५३ पृष्ठ संख्या २६६ पर और थियो- सोफिकल सोसाइटी की अड्यार लायब्रेरी के बुलेटिन ( ब्रह्मविद्या ) ग्रन्थ संख्या १८ भाग १ -२ जो ८ मई १९५४ में प्रकाशित की गई। इसी प्रकार संयुक्त कर्णाटक के राष्ट्रीय पत्र कर्मवीर साप्ताहिक संख्या ५-१०-५३ में, हिन्दुस्तान साप्ताहिक में २६ जुलाई १६५४ तथा कलकत्ता के प्रसिद्ध दैनिक सन्मार्ग, लोकमान्य एवं विश्व बन्धु में विस्तृत आलोचनायें प्रकाशित हुई हैं। इनके विद्वान् सम्पादक महानुभावों का मैं हृदय से कृतज्ञ हूं । समय-समय पर देश के गण्यमान्य देव-भाषा संस्कृत के हितैषी विद्वान् तथा भारतीय संस्कृति के प्रेमी नेतृवृन्द ने अपने सद्भावना पूर्ण आशीर्वादात्मक पत्रों से उपकृत किया उनके लिये मैं औपचारिक आभार प्रदर्शन करू इसके पूर्व यही करबद्ध निवेदन करना चाहता हूं कि आप सभी सृष्टि के कल्याण के लिये बद्ध परिकर हैं । भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्तों का आधार इन धर्मशास्त्रों में अविकल प्रतिपादित है अतः इनसे प्रेरणा और जीवन द्वारा प्राणिहित के लिये अव त्रस्त जनमानस को सान्त्वना दीजिये और सृष्टि की नियमावली इन धर्मशास्त्रों का बार-बार अविकल पारायण कर ऐसे-ऐसे रत्न हम सबको देते रहिये जो वास्तव में सभी का मार्ग प्रशस्त एवं आलोकित करते रहें ।

सुप्रसिद्ध धर्मशास्त्र मर्मज्ञ हिस्ट्री ऑव धर्मशास्त्र के अप्रतिम लेखक स्वनामधन्य श्री पाण्डुरङ्ग वामन काणे एम. ए. एल. एल.

(ङ)

एम. सदस्य राज्य सभा (स्टेट कौंसिल ) नई दिल्ली ने हमें अपने ग्रन्थ द्वारा बहुत उपकृत किया तथा मद्रास विश्वविद्यालय के Dr. V. Raghvan महोदय ने अपने गवेपणापूर्ण अनु- भव से अधिक उत्साहित किया । एतदर्थ उनके हम आभारी हैं। श्री परशुराम कृष्ण गोड़े एम. ए. क्यूरेटर भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना के सत्प्रयत्नों से कई अन्य स्मृतियां प्रतिलिपीकरण के साथ आने की आशा है। इसके साथ मुझे काशी के पण्डित समाज ने बृहत्पाराशर की टीका कालमाधव आदि को प्रकाशित करने के लिये सत्परामश भेजे । परन्तु मूल ग्रन्थ में आर्षप्रणीत ग्रन्थों का समावेश न होने जैसी दशा में इन ग्रन्थों के अलभ्य होनेपर भी छपाने में असमर्थ रहा तदर्थ क्षमाप्रार्थी हूं। मुझे समय-समय पर कोई भी अप्रकाशित स्मृति निवन्धों के अतिरिक्त अन्य आर्ष- प्रणीत स्मृतिग्रन्थों को जब भी कोई महानुभाव भेजेंगे उन्हें मैं प्रकाशित होते ही सुरक्षित रूप में साभार सधन्यवाद भिजवाने की चेष्टा करूंगा । आशा है पण्डित महानुभाव मेरी अपूर्णताजन्य भूलों को बालक समझ क्षमा करेंगे ।

मुझे धर्मशास्त्रों के लिये अप्रतिम श्रद्धा है इसका कारण यह है कि ऋषि-प्रणीत वाक्यों में सृष्टि को जिलानेवाला वह अमरतत्त्व निहित है जिससे मानव संस्कारसम्पन्न बन राष्ट्रों, प्राणियों और सम्पूर्ण भूमण्डल का कल्याण मार्ग खोजकर आत्मानुभव से सर्वभूतहिते रताः उन महर्षियों का अनुकरण कर सकता है ।

( च )

जीवन का मूल्याङ्कन उसमें होनेवाली छोटी-छोटी भूलों को प्रतिदिन अन्तर्निरीक्षण द्वारा और नित्य कृत्यों से ठीक बनाने से है । हमारे पूर्वजों ने आत्म-सुधार के लिये इन धर्मशास्त्रग्रन्थों को सम्पूर्ण संसार की नियमावली के रूप में प्रकाशित किया । आज की भीषण परिस्थिति में जिन महानुभावों ने शास्त्रमय जीवन से अपने शरीर द्वारा प्राणिहित का प्रण लिया है वे धन्य हैं । आशा करता हूं कि शास्त्र मर्यादित जीवन से हम सभी अपना मार्ग प्रशस्त कर सभी का कल्याण सम्पादन करेंगे । इस प्रकाशन की विशालता और अन्य महापुराणादि के प्रकाशन में व्यापृत रहने के कारण हमारे कार्यकर्तृवृन्द के द्वारा अपूर्णता रह गई है उन्हें कृपालु पाठक महानुभाव शोधन कर लेंगे यह प्रार्थना है ।

‘कामये दुःखतप्तानाम्प्राणिनामार्तिनाशनम्’

विद्वन्मण्डली का अनुग्राह्य :-

श्रावणी पूर्णिमा

[[२०१२]]

मनसुखराय मोर

५, क्लाइव रो, कलकत्ता ।

श्रीगणेशाय नमः ।

अथ स्मृतिसन्दर्भस्थ पञ्चमभागे सङ्कलित- स्मृतीनां नामनिर्देशः

स्मृतिनामानि ४५

कपिलस्मृतिः ४६ वाधूलस्मृतिः ४७ विश्वामित्रस्मृतिः ४८ लोहितस्मृतिः ४६ नारायणस्मृतिः ५० शाण्डिल्यस्मृतिः.

पृष्ठाङ्काः

[[२५२६]]

[[२६२३]]

[[२६४५]]

[[२७०१]]

५१ कण्वस्मृतिः

: :

[[२७७०]]

[[२७६३]]

[[२८६०]]

५२ दाल्भ्यस्मृतिः

५३ आङ्गिरसस्मृतिः नं० २…

(क) पूर्वाङ्गिरसम्

""

[[२६३३]]

[[२६४६]]

(ख)

[[35]]

उत्तराङ्गिरसम्·

[[३०६५]]

५४ भारद्वाजस्मृतिः

विशेष द्र० – द्वितीयाङ्गिरसस्मृतेर्विषयवैशिष्ट्येनपृथगुपन्यासः

[[३०८५]]

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

स्मृतिसन्दर्भ पञ्चम भाग

अध्याय

की

विषय-सूची

कपिलस्मृति के प्रधान विषय

प्रधान विषय

कपिल - शौनक-सम्बादवर्णनम्

पृष्ठाङ्क

[[२५३६]]

कपिल एवं शौनक में परस्पर वेद विषयक चर्चा । यहीं वेद निन्दकों का प्रकरण भी आया है (१-२० ) । वैदिककर्मणामभावकथनम्

वैदिक कर्मों का अभाव कथन ( २१-४० ) ।

वेदमन्त्राणां व्यत्यासेनोच्चारणेदोषकथनम्

[[२५३४]]

वेदमन्त्रों के व्यत्यास से उच्चारण करने में दोष

होना ( ४१-५० ) ।

श्राद्धप्रकरणवर्णनम्

[[२५३५]]

श्राद्ध प्रकरण का वर्णन, नान्दीमुख श्राद्ध की प्रधा- नता, विभिन्न श्राद्धों का सुन्दर वर्णन (५१-३०० ) ।

[ २ ]

अध्याय

प्रधान विषय

उपनयनसंस्कारवर्णनम्

[[२५५७]]

उपनयन संस्कार का वर्णन ( ३०१-३३३ ) । ब्राह्मणादिवर्णानामेकपङ्क्तौभोजननिर्णयवर्णनम् २५५६

ब्राह्मणादिवर्णों का एक पक्ति में भोजननिर्णय

वर्णन ( ३३४ – ३५० ) ।

विप्रमहत्त्ववर्णनम्

वित्रों के महत्त्व का वर्णन ( ३५१ – ३५८ ) ।

नान्दीश्राद्धप्रकरणवर्णनम्

[[२५६१]]

[[२५६३]]

नान्दी श्राद्ध करनेवाले की योग्यता व अधिकार

का वर्णन (३५६-३७४ ) ।

दत्तकपुत्रप्रकरणवर्णनम्

[[२५६५]]

दत्तकपुत्र का वर्णन और उसकी योग्यता (३७५-४२६) ।

दानप्रकरणवर्णनम्

[[२५६६]]

दशविधदानों का निरूपण (४२७-४७६ ) । दान के

अधिकारी जनों का वर्णन ( ४७७-४८७ ) ।

दौहित्रप्राधान्यवर्णनम्

[[२५७५]]

दौहित्र की सर्वत्र प्रधानता का निरूपण (४८८-५००) ।

भूमिदानप्रकरणवर्णनम्

भूमिदान प्रकरण (५०१–५१८ ) ।

[[२५७७]]

अध्याय

[ ३ ]

पृष्ठाङ्क

[[२५७६]]

प्रधान विषय

वर्जितस्त्रीणां श्राद्धपाककरणे दोषवर्णनम्

वर्जित स्त्रियों को श्राद्ध का पाक करने में दोष

बतलाया है ( ५१६–५४० ) ।

विधवास्त्रीणां कृत्यवर्णनम्

[[२५८१]]

विधवा स्त्रियों के कार्यों का वर्णन (५४१-५६२ ) ।

सधवाविधवा स्त्रीणां मीमांसा

[[२५८५]]

सधवा एवं विधवा स्त्रियों का विवेचन (५६३-६३२) ।

[[२५८६]]

अतिरण्डा, महारण्डा और पुत्ररण्डा आदि का

विधवास्त्रीणां प्रकरणम्

वर्णन ( ६३३-६५६ ) ।

पुत्रमहत्त्ववर्णनम्

[[२५६१]]

पुत्र के बिना. एक क्षण भी न रहे । पुत्र के महत्त्व का

विस्तार से निरूपण (६५६-६७८ ) ।

ज्येष्ठपुत्रस्य पैत्र्ये योग्यता

[[२५६३]]

ज्येष्ठ पुत्र की पिता के सभी उत्तराधिकारियों से

अधिक योग्यता (६७६–६६८ ) ।

औरसपुत्रेषु ज्येष्ठत्वनिर्णयः

[[२५६५]]

औरस पुत्रों में ज्येष्ठ कौन हो इसका निर्णय (६६६-७००) ।

[ ४ ]

अध्याय

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

पैत्र्ये कर्मणि दौहित्रस्यौरसत्वम्

पैत्र्य कर्म में दौहित्र का पुत्र के अभाव में औरस

[[२५६७]]

होना ( ७०१ – ७४४ ) ।

धर्मसेवनलाभः

[[२५६६]]

धर्मसेवन का लाभ ( ७४५–७६६ ) ।

सुतस्य कुलतारकत्वम्

[[२६०१]]

पुत्र का कुलतारक होना ( ७६७ – ७८६ ) ।

निर्दष्टपुत्रयोग्यता

[[२६०३]]

निर्दुष्ट पुत्र की योग्यता ( ७६०–८०६ ) ।

दण्ड्यानामदण्ड्यानां यथायथधर्मव्यवहरणम्

. २६०५

दण्डनीय और न दण्ड देने योग्य जनों का धर्म से

व्यवहार करना ( ८१० – ८३० ) ।

दण्डविधानम्

[[२६०७]]

दण्डविधान वर्णन ( ८३१ –८७१ )।

विप्रमहत्त्ववर्णनम्

विप्र का महत्त्व निरूपण (८७२ – ८६३ ) ।

नानाविधदान प्रकरणम्

विविध दानों का वर्णन (८६४-६८०)।

[[२६११]]

२६१३अध्याय.

[५].

प्रधान विषय

दुष्कर्मणां प्रायश्चित्तवर्णनम्

[[२६२१]]

दुष्कर्मों का प्रायश्चित्त वर्णन ( ६८१ - ६६५ )। कपिलस्मृति का माहात्म्य वर्णन (६६६ ) ।

कपिलस्मृति की विषय-सूची समाप्त ।

वाघूलस्मृति के प्रधान विषय

नित्यकर्म विधिवर्णनम्

[[२६२३]]

महर्षियों ने वाधूल मुनि से ब्राह्मणादि के आचार पूछे इस पर नित्यकर्म विधि का वर्णन उन्होंने किया (१-३) । ब्राह्ममुहूर्त्त में शय्या त्याग कर प्रसन्न मन से हाथ-पैर धोकर भगवत्स्मरण करे (४) । ब्राह्ममुहूर्त्त में सोनेवाला सभी कर्मों में अनाधिकारी रहता है (५) । प्रातः सन्ध्या तारागण के प्रकाश से लेकर सूर्योदय तक है । अतः तारागण के रहते प्रातः सन्ध्या करे (६) । सायंकाल में आधे सूर्य के अस्त होने के समय सन्ध्या करे (७) । कानों पर यज्ञोपवीत रखकर दिन में और सब सन्ध्याओं में उत्तर की तरफ और रात में दक्षिण की ओर मुँह कर टट्टी पेशाब करे (८) । सारे अङ्गों

अध्याय

[६]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

को सिकोड़ कर नाक और मुँह को वस्त्र से ढक कर मलमूत्र त्याग करे (६) । जो व्यक्ति अपने शिर को बिना ढंके मलमूत्र का त्याग करता है उसके शिर के सौ टुकड़े हों ऐसा वेद शाप देते हैं (१०) । बाद में शोधन कर्म करे । गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्यासियों का विभिन्न शौच प्रकार ( ११-१७ )। बाह्य और आभ्यन्तर शौच आवश्यक है क्योंकि शौच व आचार से हीन की सब क्रिया निष्फल हैं ( १८-२० ) । आचमन प्रकार — ब्राह्मण इतना आचमन ले जितना हृदय तक स्पर्श हो, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्रियां कण्ठतालु तक स्पर्श करनेवाले जल से आचमन करे । हाथ में कुश लेकर जल पीवे और आचमन करे । ( २२-२७) । अपने कटि प्रदेश तक जल में स्नान कर वहीं भीगे कपड़ों से तर्पण, आचमन और जप करे यदि सूखे कपड़े पहनकर करना हो तो स्थल में ये क्रियायें करें (२८-३०) उपवास के दिन दन्तधावनादि न करे । कुंल्ला के समय तर्जनी से मुख के शोधन से प्रायश्चित्त लगता है । स्नानविधिवर्णनम्

२६२७ निषिद्ध तिथियों में दन्तधावन नहीं करना चाहिये । पतित मनुष्य की छाया पड़ने से स्नान करना चाहिये

अध्याय

[ ७ ]

प्रधान विषय

अस्पृश्य के छू जाने से १३ वार जल में नहाने से शुद्धि हो । रजस्वला स्त्री को यदि ज्वर चढ़ जावे तो वह कैसे शुद्ध हो इसके उत्तर में वाधूल ने बताया कि चतुर्थ दिन दूसरी स्त्री उसे स्पर्श कर दश या बारह बार आचमन कर अपने पहलेवाले कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े पहन ले फिर पुण्याहवाचन के साथ यथाशक्ति दान करे ( ३१-४८ ) । भूमि पर गिरा हुआ जल गंगा के समान पवित्र है । चन्द्र और सूर्य ग्रहण के समय कुआ, वापी, तड़ाग के जल शुद्ध हैं। अपनी शौच क्रिया से निर्वृत्त होकर स्नान करे दोनों हाथों को मिला कर जल की अञ्जलि से जल में तर्पण करे जिस तीर्थ से जल लिया जाय उसीसे जलाञ्जलि देवे (४६-५६) । पूर्व की ओर मुख करके देवतागण को, उत्तराभिमुख होकर ऋषियों को और दक्षिण की ओर मुँह करके जल में पितरों को तर्पण करे । स्नान के लिये जाते हुए मनुष्य के पीछे पितरों के साथ देवगण प्यास से व्याकुल जल के लिये लालायित होकर वायुरूप होकर जाते हैं अतः देवर्षिपितृतर्पण किये बिना वस्त्र को न निचोड़े यदि वस्त्र निचोड़ा जाता है तो वे निराश होकर चले जाते हैं । सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये नदी, तालाब, पहाड़ी झरनों में प्रतिदिन स्नान करे (५७-६३) ।

अध्याय

[ 4 ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

दूसरे के बनाये हुए सरोवर में स्नान करने से उस बनानेवाले के दुष्कृत (पाप) स्नानार्थी को लगते हैं अतः उसमें न नहावे (६४) । सोकर उठने से लार - पसीनों से भरा हुआ मनुष्य अशुद्ध है उसे स्नानादि से शुद्ध होनेपर ही नित्यकर्म सन्ध्योपासन देवर्षि पितृ तर्पण करना चाहिये । सूर्योदय के पूर्व प्रातःकाल का स्नान प्राजापत्य यज्ञ के समान है और आलस्यादि को नष्ट कर मनुष्य को उन्नत विचार और कार्यशील बना देता है । स्नान के समय पहने वस्त्र से शरीर को न मले न पोंछे ही इससे शरीर कुत्ते के द्वारा सूंघा हुआ हो जाता है जो फिर स्नान करने से ही शुद्ध होता है ( ६५-६८ ) ।

स्नान मूलाः क्रियाः सर्वाः सन्ध्योपासनमेव च । स्नानाचारविहीनस्य सर्वाः स्युः निष्फलाः क्रियाः ॥६७॥

सम्पूर्ण क्रियायें स्नान के अन्तगत ही हैं। रविवार को उषा काल में स्नान करने से हजार माघ स्नान का फल और जन्म दिन के नक्षत्र में वैधृत पुण्यकाल, व्यतीपात और संक्रान्ति पर्वो में, अमावस्या को नदी में स्नान कोटि कुलों का उद्धार कर देता है । प्रातः स्नान करनेवाले को नरक के दुःख कभी नहीं देखने

अध्याय

[ & ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

पड़ते । स्नान किये बिना भोजन करनेवाला मल का भोजन करता है ( ६६-७५ ) ।

शिव सङ्कल्प सूक्त का पाठ, मार्जन, अधमर्पण, देवर्षि पितृ तर्पण ये स्नान के पाँच अङ्ग हैं (७६-७७) । जल के अवगाहन, जल में अपने शरीर का अभिषेक, जल को प्रणाम और जल में तीर्थों गङ्गादि नदियों का आवाहन फिर मज्जन, अघमर्पण, देवर्षि पितृतर्पण का विधान वत- लाया गया है ( ७८-८९ ) । प्रातः स्नान का महत्त्व । अपने शरीर को पोंछने पर सूखे कपड़े पहनकर उत्तरीय धारण करे । वन्दन और तर्पण के समय इसे कटि प्रदेश में ही बांधे रक्खे। फिर तिलक करे । पर्वत की चोटी से, नदी के किनारे से, विशेष रूप से विष्णु क्षेत्र में मिली सिन्धु के तट पर तुलसी के मूल की मिट्टी से तिलक प्रशस्त बताया गया है ( ६०-१०८) ।

श्यामतिलक शान्तिकर लाल वश में करनेवाला, पीला लक्ष्मी देनेवाला और सफेद मोक्षदाता बतलाया है ( १०६ - ११० ) । भगवान् पर चढ़ाये गये हरिद्रा के चूर्ण के तिलक का माहात्म्य (१११ ) सम्पूर्ण संसार में जो कर्महीन द्विजाति मात्र हैं उनको शुद्ध करने के लिये सन्ध्या स्वयं ब्रह्मा ने बनाई ।

प्रातःकाल गायत्री का ध्यान, मध्याह्न में सावित्री

अध्याय

'

[१०]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

और सायं काल सरस्वती का ध्यान करना चाहिये । प्रतिग्रह, अन्नदोष, पातक और उपपातकों से गायत्री मन्त्र के जपनेवाले की गायत्री रक्षा करती है इसलिये इसका नाम गायत्री है ।

प्रतिग्रहादन्नदोषात्पातकादुपपातकात् ।

गायत्री प्रोच्यते यस्माद् गायन्तं त्रायते यतः ॥११५॥

सविता को प्रकाशित करने से इसका नाम सावित्री और संसार की प्रसवित्री वाणी रूप से होने से इसका इसका नाम सरस्वती अन्वर्थ है (जैसा नाम वैसा गुण) ( ११२-११६ ) ।

आपोहिष्ठेत्यादि मार्जन मन्त्रों में नौ ओङ्कार के साथ जो मार्जन किया जाता है उससे वाणी, मन और शरीर के नवों दोषों का क्षय हो जाता है (११७-१२०) । सायंकाल में अर्ध्य जल में न देवे जहाँ सन्ध्या की जाय वहीं जप भी हो । वेदोदित नित्यकर्मों का किसी कारण अतिक्रमण हो जाय तो एक दिन बिना अन्न खाये रहना चाहिये और १०८ गायत्री मन्त्र के जप दोनों सन्ध्या में विशेष रूप करे (११-१२६ ) ।

सूतक और मृतक के आशौच में भी सन्ध्या कर्म न छोड़े प्राणायाम को छोड़ कर सारे मन्त्रों को मन से

अध्याय

[११]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

उच्चारण करे (१३०-१३२)। देवार्चन, जप, होम, स्वाध्याय, स्नान, दान तथा ध्यान में तीन-तीन प्राणायाम करे ( १३३ - १३४ ) । जप का विधान प्रातः काल हाथ ऊंचे रखकर, सायंकाल नीचे हाथ कर एवं मध्याह्न में हाथ और कन्धे के बीच में रखकर जप करे नीचे हाथ कर जप करना पैशाच, हाथ बीच में रखकर करने से राक्षस, हाथ बांधकर करने से गान्धर्व और ऊपर हाथ करने से दैवत जप होता है ( १३५ - १३६ ) ।

प्रदक्षिणा, प्रणाम, पूजा, हवन, जप और गुरु तथा देवता के दर्शन में गले में वस्त्र न लगावे ( १४० ) । दर्भा के विना सन्ध्या, जल के बिना दान और विना संख्या किया हुआ जप सब निष्फल होता है । जप में तुलसी काष्ठ की माला और पद्माक्ष तथा रुद्राक्ष की माला प्रशस्त है ( १४१-१४३ ) । गृहस्थ एवं ब्रह्मचारी १०८ बार मन्त्र का जाप करे । वानप्रस्थ तथा यति १००८ वार करें । आहुति के लिये सामग्री का विधान ( १४४-४५ )। गृहस्थधर्मवर्णनम्

[[२६३७]]

गृहस्थ को सम्पूर्ण कार्य पत्नी सहित इष्ट है । जिस मनुष्य की स्त्री दूर हो, पतित हो गई हो, रजस्वला हो, अनिष्ट वा प्रतिकूल हो उसकी अनुपस्थिति में कोई

अध्याय

[१२]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

ऋषि कुशमयी धर्मपत्नी, कोई ऋषि काश की बनी पत्नी को प्रतिनिधि रूप में रखकर नित्यकर्म क्रिया करने की सद्गृहस्थ को आज्ञा देते हैं ( १४७-४८ ) । लिये गो घृत श्रेष्ठ वह न मिले तो माहिष घृत

होम के

उसके न

मिलने पर बकरी का घृत और उन सब के न मिलने पर साक्षात् तैल का व्यवहार करे ( १४६ ) । समय पर

आहुति देने का माहात्म्य ( १५० - १५२ ) । वेदाक्षरों को स्वार्थ में लानेवाले मनुष्य की निन्दा । छै प्रकार के वेदों को बेचनेवाले का गणन (१५३-१५८) । रविवार, शुक्रवार, मन्वादि चारों युगों में और मध्याह्न के बाद तुलसी न लावे । संक्रान्ति, दोनों पक्षों के अन्त में द्वादशी में और रात्रि तथा दिन की सन्ध्या में तुलसी चयन का निषेध है ( १६० ) । तीर्थ में मन, वाणी और कर्म से कैसा भी पाप न करे और दान न लेवे क्योंकि वह सब दुर्जर है अतः अक्षम्य है । ऋत (व्यवहार) अमृत सत्य कर्तव्य पालन ऋत या प्रमृत से और सत्य-अनृत से जीविका कमावे ( १६१-६३ )।

किसी वस्तु को बिना पूछे लेने से पाप (१६४) । मनुजी ने वनस्पति, कन्द, मूल फल, अग्निहोत्र के लिये काठ, तृण और गौओं के लिये घास ये अस्तेय बताये हैं किन-किन लोगों से किसी भी रूप में कोई वस्तु न लेवें

अध्याय

[१३]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

इसका वर्णन ( १६५-१६८ ) । दूसरे के लिये तिल का हवन करनेवाले दूसरे के लिये मन्त्र जप करनेवाले और अपने माता पिता की सेवा न करनेवाले को देखते ही आँख बन्द कर ले ( १६६ ) । जो लोग निन्द्य कर्म करते हैं उनके सङ्ग से सत्पुरुष भी हीन हो जाते हैं और उनकी शुद्धि आवश्यक है ( १७०-१७४ ) । जो आदेश, तीन या चार वेद के महाविद्वान् दें वही धर्म है और कोई हजारों व्यक्ति चाहे, कहे वह धर्म सम्मत नहीं । वेद पाठी सदा पञ्चमहायज्ञ करनेवाले और अपनी इन्द्रियों को वश में करनेवाले मनुष्य तीन लोकों को तार देते हैं (१७५-१७६ ) ।

पतित लोगों से सम्पर्क करने से मनुष्य एक वर्ष में पतित हो जाता है ( १८० ) । कलियुग में सभी ब्रह्म का प्रतिपादन करेंगे परन्तु कोई भी वेद विहित कर्मों का अनुष्ठान नहीं करेगा ( १८१ ) । मैथुन में त्याज्य दिनों की गणना - षष्ठी अष्टमी, एकादशी, द्वादशी, चतुर्दशी, दोनों पर्व अमावास्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति कोई भी श्राद्ध दिन, जन्म नक्षत्र का दिन, श्रवण व्रत का समय और जो भी विशेष महत्त्वपूर्ण दिन हैं उनमें मैथुन (स्त्री गमन ) निषिद्ध है (१८२-१८३) । शुभ समय में अर्थार्थी मनुष्य जिन कामों को अपने स्वार्थ के लिये

अध्याय

[१४]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

करता है उन्हें ही यदि धर्म के लिये करे तो संसार में

कोई दुःखी नहीं रह सकता ।

अर्थार्थी यानि कर्माणि करोति कृपणो जनः । तान्येव यदि धर्मार्थं कुर्वन् को दुःखभाग्भवेत् ॥ १८६॥ भिन्न-भिन्न वस्तुओं एवं पतितों के छू जाने से स्नान का विधान किसी वस्तु को बेचने पर स्नान का विधान आवश्यक है ( १८४-१८८ ) ।

श्रुति स्मृति के आदेश प्रभु की आज्ञा है इनको न माननेवाले को भगवद्भक्त बनने का अधिकार नहीं ( १८६ ) । सच्चे अन्धे का लक्षण – जो श्रुति स्मृति का अध्ययन, मनन और अनुशीलन कर उनके मार्ग का अनुष्ठान नहीं करता वह अन्धा है (१६० - १६१) । पापी को धर्मशास्त्र अच्छे नहीं लगते (१६२ ) ।

सच्चा ब्राह्मण वही है जो ॠण करने से ऐसे डरता है जैसे सर्प को देखकर। सम्मान से ऐसे दूर रहता है जैसे लोग मरने से और स्त्रियों के सम्पर्क से जैसे मृतक से घृणा होती है वैसे दूर रहता है । ब्राह्मण वह है जो शान्त हो, दान्त हो, क्रोध को जीतनेवाला हो, आत्मा पर पूरा अधिकार करनेवाला हो, इन्द्रियों का निग्रह कर चुका हो । ब्राह्मण का यह शरीर उपभोग के लिये नहीं बल्कि इस शरीर में क्लेश के साथ तपस्या करते हुएअध्याय

[१५]

प्रधान विषय

ऊर्ध्व लोक में अनन्त सुख की प्राप्ति के लिये है (१६३ - ११४) । दर्श में सूखे कपड़े पहनकर तिलोदक जल के बाहर दे, गीले वस्त्रों से पितर निराश होकर जले जाते हैं। ऊर्ध्व पुण्ड्र का माहात्म्य ( १६५-२०१ ) । श्राद्ध के बाद ब्राह्मण भोजन का विधान ( २०२ ) । विवाह में, श्राद्धादि में नान्दी श्राद्ध करने से, सूतक का दोष नहीं रहता (२०३ ) ।

पितृ श्राद्ध में वर्जित लोगों को देवता कार्य में बुलाने की छूट (२०५-२०६ ) । पितृ श्राद्ध में वस्त्रों के देने का माहात्म्य ( २०७ ) । अलग-अलग कमानेवाले पुत्रों द्वारा पृथक्-पृथक् पितृ श्राद्ध का विधान (२०८-२१०) । सन्यासी बहुत खानेवाला, वैद्य, नामधारी साधु, गर्भवाला, ( जिसकी स्त्री गर्भवती हो ) वेदों के आचरण से हीन व्यक्ति को दान और श्राद्ध में न बुलावे ( २११ ) ।

गर्भ करनेवाले द्विज के लिये वर्ज्य कर्म (२११-२१७) । स्नान, सन्ध्या, जप, होम, स्वाध्याय, पितृ तर्पण, देव- ताराधन और वैश्वदेव को न करनेवाला पतित होता है अतः इन्हें नियम से करना प्रत्येक द्विजाति का कर्तव्य है ( २१८-२२४ ) ।

॥ वाधूलस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥

विश्वामित्रस्मृति के प्रधान विषय

अध्याय

प्रधान विषय.

१ नित्यनैमित्तिककर्मणां वर्णनम्

पृष्ठाङ्क

[[२६४५]]

मङ्गलाचरण ( १ ) ब्राह्ममुहूर्त, उषःकाल, अरुणोदय और प्रातःकाल के मान का वर्णन ( ३ ) । नित्य और नैमित्तिक तथा काम्य कर्म समय पर करने से सत्फल देते हैं (४) ब्राह्ममुहूर्त में शौच से निवृत्त होकर अरु- णोदय के पहले आत्मा के लिये स्नान करे प्रातः जप करे और सूर्य को देखकर उपस्थान करे ( ६ ) । काल बीतने पर कोई कर्म करने से फल नहीं मिलता यदि किसी कारण से काल का लोप हो गया तो तीन हजार जप करने से उसका प्रायश्चित्त विधान है । दुःसङ्ग या निद्रा अथवा प्रमाद आलस्य से काल का लोप करने से प्रायश्चित्त वतलाया गया है ( ८-१४) । जो व्यक्ति समय पर नित्यकर्मादि को करता है वह सम्पूर्ण लोगों पर जय पाकर अन्त में विष्णुपुर में जाता है (१६) ।

प्रातः स्नान सन्ध्या और जप अवश्य कर्म है । जैसे समय पर वर्षा होते ही बीज बोने से अच्छी खेती होती है वैसे ही नियुक्त कर्मों को नियुक्त समय पर करने से सद्यः सिद्धि मिलती है ( १७-२१)। उत्तम, मध्यम और

अध्याय

[ १७ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

अधम सन्ध्या के भेद । शुचि या अशुचि हो, नित्यकर्म को कभी न छोड़े (२२-२५) । तीनों सन्ध्या काल में या तो पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुँह कर नित्यकर्म करे । दक्षिण या पश्चिम की ओर मुँह करके नहीं (२६) । सन्ध्या स्नान किये विना विद्या पढ़ना हानिकारक है, सन्ध्या काल आने पर उसे छोड़नेवाले को पाप लगता है (३०) । सोपाधि एवं अनुपाधि भेद से आचार के दो भेद - सोपाधि गुणवान् और अनुपाधि मुख्य है ( ३१-२६ ) । गायत्री मन्त्र की विशेषता - प्रातः शय्या- त्याग के बाद पृथ्वी का वन्दन भैरव की स्तुति, दक्षिण दिशा में जाकर मल-मूत्र आदि का त्याग करे (३२) । शौच का प्रकार (५३-५६ ) । दन्तधावन और दतुवन के लिये वनस्पतियों का परिगणन (६३) । आचमन कर स्नान करने का प्रकार ( ६८ ) । सन्ध्यादि, तर्पण का विधान (७३) ।

जलस्नान का विधान मन्त्रोच्चारण पूर्वक विशेष फल- दायक है। तीनों कालों में स्नान का विशेष विधान (७८ ) । स्नान करनेवाले पुरुष के रूप, तेज, बल, शौच, आयु, आरोग्य, अलोलुपता, एवं तप की वृद्धि व दुःस्वप्न का नाश होता है। तर्पण की विशेषता (८७) । वस्त्र- धारण में वस्त्रों के महत्त्व का वर्णन, प्राणायाम का

अध्याय

[ २८ ] प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

प्रकार, पूरक, कुम्भक और रेचक से सम्पूर्ण प्रकार के मलदोषों का नाश होकर शरीर की शुद्धि होती है और अध्यात्मबल बढ़ता है । तिलक धारण की विधि, पुण्ड्र धारण इसके बिना सब कर्म निष्फल ( १०४ ) ।

२ आचमनविधिवर्णनम्

[[२६५७]]

मुख्य तीन प्रकार के आचमनों का वर्णन, पौराण, स्मार्त और आगम, इनके साथ श्रौत एवं मानस आच- मनों का वर्णन - मन्त्र जपने एवं नित्यकर्मों के आदि और अन्त में आचमन करे । भगवान् के २१ नामों के साथ न्यास विधान (१-२० ) ।

२. विधिवदाचमनस्यैवफलवर्णनम्

[[२६५६]]

गोकर्ण की आकृति बनाकर अंगूठे और सबसे छोटी अङ्गुली को छोड़कर अञ्जलि में जलग्रहण कर आचमन का विधान है इसी का फल है (२१-२३) । थूकने, सोने, ओढ़ने, अश्रुपात आदि से विघ्न होने पर आच- मन करे या दक्षिण कान को तीन बार स्पर्श करे । भोजन के आदि में और अन्त में नित्य आचमन करे । मानसिक आचमन में भी केशवाय नमः, माधवाय नमः और गोविन्दाय नमः मन में बोलकर चित्त शुद्धि करे (२४-३२ ) ।

[ १६ ]

अध्याय

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

२ मार्जनम्

२६६०-

“आपोहिष्ठा मयो भुवः” से मार्जन करे फिर न्यास करे, ऐसा करने से द्विजमात्र शुद्ध होकर ध्यान, जप,

पूजा में सब सिद्धियां प्राप्त करते हैं ( ३३-३६)।

२ पञ्चाचमनविधिवर्णनम्

[[२६६१]]

ब्रह्मयज्ञ में तीन वार आचमन का विधान है ।

श्रौतं, स्मार्त, आचमन को किन-किन स्थलों पर करना

इसकी विधि (४०-५७ ) ।

३ प्राणायामविधिवर्णनम्

पञ्चपूजाविधिवर्णनम्

विलोमगायत्रीमन्त्रवर्णनम्

[[२६६३]]

[[२६६५]]

[[२६६७]]

नानामन्त्राणां जपे तत्तन्मन्त्रेण प्राणायामः २६६8

प्राण और अपान का समयुक्त होना ही प्राणायाम कहलाता है, इसे सन्ध्याकाल और प्रत्येक कर्म के - आरम्भ में मन को एकाग्र करने के लिये अवश्य करे । नौ बार उत्तम प्राणायाम, छै वार मध्यम और तीन बार अधम कहा गहा गया है ( १-३) । गायत्री मन्त्र और व्याहृतियों के साथ प्राणायाम करना चाहिये

अध्याय

[२०]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

( ४-५ ) । पहले कुम्भक फिर पूरक और फिर रेचक, इस क्रम से प्राणायाम करना इष्ट है । सन्ध्या होम काल और ब्रह्मयज्ञ में कुम्भक से आरम्भ कर प्राणायाम करे । प्राणायाम में करने योगाध्यान का वर्णन (६-१० ) । दश प्रणव एवं गायत्री मन्त्र के साथ इडा और पिङ्गला को छोड़ सुषुम्ना नाड़ी से कुम्भक करे साथ में मन्त्र का स्मरण बराबर होता रहे (११) । रेचक और पूरक बिना प्रयास के होते हैं । कुम्भक में प्रयास करना होता है यह अभ्यास से शक्य है । अनभ्यास से शास्त्र विष का काम करते हैं, अभ्यास से वही अमृत बन जाते हैं । प्राणायाम के समय सिद्धासन से बैठे । प्राणायाम में चारों अङ्गुली और अंगूठा काम में लेना चाहिये । इस समय मन्त्र के उच्चारण के साथ-साथ उस-उस देवता की मानसां पूजा करनी चाहिये इससे विशेष फल मिलता है ।

लं, हं, यं, रं, वं इन वीजों से पृथिव्यात्मा को गन्ध, आकाशात्मा को पुष्प, वाय्वात्मा को धूप, अग्न्यात्मा को दीप और अमृतात्मा को नैवेद्य प्रदान करे। इस पश्च- भूतात्मक मानसी पूजा से ही प्राणायाम की सिद्धि मिलती है (१२-२६) । प्राणायाम का अभ्यास सिद्धासन, कुम्भक के साथ और मन्द दृष्टि के रूप में आँखें बन्द

अध्याय

[२१]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है । प्राणायाम में मानसी पूजा का माहात्म्य ( ३० - ३६ ) । प्राणायाम के विना सब निष्फल है । विलोम गायत्री मन्त्र का वर्णन ( ३७-४६ ) । इससे सम्पूर्ण पाप, रोग, दरिद्रता दूर होते हैं (४७) ।

विलोम गायत्री मन्त्र के जाप का फल सम्पूर्ण मन, वाणी और कर्म से किये गये पापों का नाश होना बताया है (४८-४९) । प्राणायाम न करनेवाला अव- कीर्णी होता है उसे प्रायश्चित्त लगता है ( ५०-५२ ) । विशेष जिन-जिन मन्त्रों का विधान आता हैं उनके साथ भी पूरक, कुम्भक और रेचक क्रम से प्राणायाम करने का विकल्प है। चार्वाक, शैव, गाणेश, सौर, वैष्णव और शाक्त जो भी मन्त्र हैं उन उन से प्राणायाम की विधि फल देनेवाली है । भिन्न-भिन्न विधियों में प्राणा- याम की १०, १५, २०, २४, १३, १४ और १६ बार आवृत्ति करने की विधि हैं । वैश्वदेव में १० बार आदि में १० बार अन्त में प्राणायाम करने का विधान हैं । जहाँ सङ्कल्प है वहां २ बार और सभी काम्य आदि कर्मों में १०-१० बार आवृत्ति का विधान है । विलो- माक्षरों से गायत्री का प्राणायाम अनन्त कोटि गुणित फल देता है (५३-७६ ) ।

[ २२ ]

अध्याय

[[४]]

प्रधान विषय मार्जनम्

पृष्ठाङ्क

[[२६७१]]

शिर से पैर तक “आपोहिष्ठादि” मन्त्र से मार्जन का फल । अर्ध मन्त्र और पूर्ण मन्त्र मार्जन दो प्रकार का है (१-५) । ऋग्यजुः साम वेद की शाखावालों का मार्जन क्रम । आपोहिष्ठादि के मन्त्र में प्रणव का उच्चारण करते हुए शिर पर मार्जन करे और “यस्यक्ष- याय जिन्वथ से नीचे की ओर जल प्रक्षेप करे (६-१८) । शिर से भूमि तथा पादान्त मार्जन से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है । मार्जन की फलश्रुति ( १६-२७) ।

५ सार्घ्यदानगायत्रीमाहात्म्यवर्णनम्

[[२६७४]]

सन्ध्यावन्दन के समय प्रातः और सायं तीन-तीन अर्घ्य सूर्य को दे, मध्याह्न काल की सन्ध्या में केवल एक ही। तीन अर्घ्य में एक दैत्यों के शस्त्रास्त्र नाश के लिये, दूसरा वाहन नाश के लिये और तीसरा असुरों के नाश के लिये और अन्तिम प्रायश्चित्तार्ध्य देकर पृथ्वी की प्रदक्षिणा से सब पापों से छुटकारा हो जाता है । गायत्री के पञ्चाङ्ग का वर्णन (१-२४) ।

५ : प्रायश्चित्तार्घ्यविधिवर्णनम् ….

नानामन्त्रविनियोगध्यानवर्णनम् …

[[२६७७]]

[[२६७६]]

अध्याय

[ २३ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

प्रायश्चित्तार्घ्य की विधि का वर्णन - नाना मन्त्रों के विनियोग एवं ध्यान का वर्णन ( २५-४४ ।

६ द्विविधजपलक्षणम्

[[२६८१]]

नैमित्तिक एवं काम्य दो प्रकार के जपों के लक्षण यह सन्ध्याङ्ग के रूप में नदीतीर, सरित्कोष्ठ और पर्वत की चोटी पर एकान्त वास में ही अधिक फल

देनेवाला है (१-२ ) ।

मूलमन्त्र से भूशुद्धि, फिर भूतशुद्धि, फिर रक्षाके लिये दिग्बन्धन करना और गायत्री के न्यास का वर्णन ( ३४-३० ) । ६ कराङ्गन्यासवर्णनम्

[[२६८५]]

दश बार मन्त्र का जप कर हृदय को हाथ से स्पर्श कर प्राणसूक्त जपे फिर प्राणायाम करे ( ३१-३२ ) । अनुलोम एवं विलोम क्रम से करन्यास एवं हृदयादि- न्यास एवं दिशाओं का बन्धन करे ।

६ मुद्राविधिवर्णनम्

[[२६८७]]

आवाहन आदि के भेद से १० प्रकार की मुद्राओं का वर्णन, गायत्री जप के आरम्भ की २४ मुद्रा (३३-७१) ।

७ उपस्थानविधिवर्णनम्

सन्ध्याकाल में सूर्योपस्थान का महत्त्व (१-२० ) ।

[[२६६०]]

[ २४ ]

अध्याय

प्रधान विषय

ପ୍ରର୍ତ୍ତ

८ देवयज्ञादिविधानवर्णनम्

[[२६६२]]

वैश्वदेवकालनिर्णयवर्णनम्

[[२६६५]]

पञ्चसूनापनुत्यर्थं वैश्वदेववर्णनम्

[[२६६७]]

वैश्वदेवमाहात्म्य वर्णनस

[[२६६६]]

वैश्वदेव में कोद्रव ( कोदो), मसूर, उड़द, लवण और कड़वे द्रव्यों को काम में न लेवे (१-२ ) । नाना प्रकार की बलि करने से नाना प्रकार के काम्य कर्मों की सिद्धियां होती हैं ।

बलि का विधान है ।

द्विजों के लिये पाँच ही क्रम से

पहले उपवीत, दूसरे निवीत, तीसरे पितृमेध के लिये बलि की जाती है (३-१२ ) ।

वैश्वदेव में ताजा अन्न ही काम में लिया जाय ( १३-१६) । वैश्वदेव मन्त्र के साथ हो या बिना मन्त्र के इसे किसी भी रूप में करना चाहिये ; क्योंकि इसको करनेवाला अन्नदोष से लिपायमान नहीं होता (१७-२४) । पथ्यशूनाजनित पापों को जैसे, चूल्हा, चक्की, जल भरने का स्थान, झाडू आदि के दोषों को दूर करने के लिये इसकी बड़ी आवश्यकता है ( २५-३६ ) ।

वैश्वदेव को करने से सफल दोषों का निवारण होता है । नित्य होम का वजन सूतक एवं मृतक में बताया[ २५ ]

गया है । वश्वदेव के काल का वणन । वैश्वदेव माहात्म्य

वर्णन (४०-८३ ) ।

॥ विश्वामित्रस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥

अध्याय

लोहितस्मृति के प्रधान विषय

प्रधान विषय

विवाहानौ स्मार्तकर्मविधानवर्णनम्

पृष्ठाङ्क

[[२७०१]]

विवाहाग्नि में स्मार्त कर्मों का वर्णन । जिस स्त्री के साथ सर्वप्रथम गार्हस्थ्य सम्बन्ध जुड़ता है वह धर्मपत्नी है । उसके विवाह के समय की अग्नि का ही सभी कार्यों में उपयोग इष्ट है (१-११) । अन्य भार्याओं की अग्नि गौण है उनमें वेदोक्त एवं तन्त्रोक्त प्रयोग नहीं होना चाहिये । यदि उन्हें काम में भी लें तो अमन्त्रक ही प्रयोग होना चाहिये ( १२-१६ ) ।

सभी स्मार्त कर्म, स्थालीपाक, श्राद्ध, या जो भी नैमित्तिक हो वह सारा प्रथम धर्मपत्नी की अग्नि में ही हो । ( २०-२६ ) ।

अनेकाग्निसंसर्गः

[[२७०४]]

पूर्ण अग्नियों का एकत्र संसर्ग का विधिपूर्वक

अध्याय

[ २६ ] प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

विधान (३०) । यदि मोह से दूसरी पत्नियों की अग्नि में यागादि का विधान किया जाय तो वह निष्फल होता है ( ३१-३६) । इसके लिये फिर से मुख्य अग्नि की स्थापना कर फिर विधान करना लिखा है ( ३७ ) । यदि धर्मपत्नी कहीं बाहर चली जाय तो वह अग्नि लौकिक हो जाती है । अतः प्रातः सायंकाल के नित्य हवन में धर्मपत्नी का उपस्थित रहना आवश्यक है ( ३८- ४२ ) । सीमान्तर जाने पर उस अग्नि का फिर सन्धान (स्थापना) करना चाहिये ।

ज्येष्ठादिपत्नीनांतत्सुतानांजैष्ठ्यकानिष्ट्यविचारः

[[२७०५]]

सभी कार्यों में धर्मपत्नी की ज्येष्ठता मानी गई है भले ही दूसरी पत्नियां अवस्था में कितनी ही बड़ी क्यों न हों (४३-४५) । इसी प्रकार धर्मपत्नी से उत्पन्न पुत्र ही कर्मादि करने में ज्येष्ठता प्राप्त करेंगे क्योंकि दूसरी, तीसरी आदि से उत्पन्न पुत्र तो कामज है ( ४६-५२)।

अपुत्राया दत्तकविधानवर्णनम्

[[२७०७]]

दत्तपुत्र की जातपुत्र के समान स्नेहभाजनता एवं सम्पत्ति का अधिकार ( ५३-५४ ) । जिनके पुत्र न हों उन्हें अपने पुत्र के लिये प्रस्ताव करनेवाले की प्रशंसा (५५-५६) । जिसका पुत्र दत्तक लिया जाय उसे समाज

अध्याय

[ २७ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

के प्रमुख व्यक्तियों के सामने इष्ट, भाई-बन्धुओं को बुलाकर विना पुत्र के माता को विधि-विधान से देना चाहिये । जो पुत्र समाज के गोत्र कुल में से दत्तकरूप में लिया जाय वास्तव में वह अपने पुत्र तुल्य है और अपुत्रक माता-पिता के लिये सर्वथा दैवपैत्र्य कार्य के लिये ग्राह्य है । उस पुत्र का औरस पुत्रों के समान ही सारा अधिकार होता है ( ६०-७१ ) ।

यदि दत्तक पुत्र लेने के बाद उन माता-पिता के सन्तान हो जाय तो वह चतुर्थ भाग का स्वामी होने का अधिकार रखता है ( ७२-७४) । जव आदि धर्मपत्नी के न रहने व पुत्र न होने पर दूसरी पत्नी से जो पुत्र होगा वही ज्येष्ठत्व का अधिकारी होगा और अवशिष्ट स्त्रियों की सन्तान कामज रहेगी ( ७५-८५)।

आत्मज सन्तान की ही औरसता कही गई है (८६- ८७) । यदि कोई धर्मपत्नी के सन्तान न हुई उसने पति की इच्छा से दत्तक पुत्र लिया और संयोगवश फिर सन्तान हो गई तो दत्तक पुत्र को ज्येष्ठ पुत्र के रूप में बराबर भाग मिलेगा । यदि दत्तकपुत्र और औरस पुत्र उपस्थित हो तो औरस पुत्र को ही पिता-माता के और्ध्वदेहिक कर्म करने का अधिकार है ( ८६-६८ ) ।

अध्याय

[ २८ ]

पृष्ठाङ्क

प्रधान विषय

धर्मपत्न्याः गृह्याग्निकृत्ये प्राबल्यम्

[[२७१०]]

ज्येष्ठ पत्नी का ही सम्पूर्ण गृह्य अग्नि एवं पाक यज्ञादि में अधिकार एवं नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य सभी कर्मों में उसी की प्रधानता है ( ६६ - १०४ ) । मुख्य गृह्यामि के कार्य धर्मपत्नी के अधीन हैं । अतः वह कार्यविशेष उपस्थित हुए विना कोई भी रूप में सीमोल्लङ्घन न करे अन्यथा गृह्य अग्नि लौकिक अग्नि हो जायगी और अग्नि की स्थापना फिर से करनी होगी ( १०५ - १०६ ) । किसी छोटी नदी को भी यदि मोह से पार कर लिया तो फिर नई प्रतिष्ठा अग्निसन्धान के लिये करनी होगी ( ११०-११४ ) ।

यदि ज्येष्ठ पत्नी कारण विशेष से उपस्थित न हो सके. बाहर गई हुई हो तो द्वितीयादि अग्नि से श्राद्धादि विधि सम्पादित हो सकती है, परन्तु उसमें कोई भी विधि समन्त्रक नहीं हो सकती सभी अमन्त्रक करनी चाहिये ( ११५ - १२६) । पूर्व पत्नी के न रहने से गृह्याग्नि की स्थापना के लिये जब दूसरा विवाह किया जाय तो पहले के घड़े से नूतन विवाहित स्त्री के घट में अग्नि की स्थापना की जाय (१३०-१३५) । अग्नि उसी समय भ्रष्ट हो जाती है, जब पत्नी चरित्र से दूषित हो ( १३६ - १४० ) ।

अध्याय

[२६]

प्रधान विपय

पृष्ठाङ्क

यदि द्वितीयानि से वेद प्रतिपादित कर्म किये जाय तो ये फलदायक नहीं होते (१४१-१५२ ) । अतः पूर्व पत्नी की गृह्याग्नि को दूसरे विवाह के वर्तन में स्थापित कर धमपत्नीवत् सारे काम किये जांय ( १५३-१५५ ) । यदि किसी दुश्चरित्र माता के दूषित होने से पूर्व पति से सन्तान हुई हो तो वह सारे वैदिक कार्यों के करने का अधिकार रखती है, परन्तु दुश्चरित्र होने के बादवाली सन्तान किसी भी रूप में ग्राह्य नहीं ( १५६ - १५७ ) । - । कलियुग में पाँच कर्मों का निषेध-

अश्वालम्भ, गवालम्भ, एक के रहते हुए दूसरी भार्या का पाणिग्रहण, देवर से पुत्रोत्पत्ति एवं विधवा का गर्भ धारण ( १५८ - १६६ ) ।

द्वादशविधपुत्राः

[[२७१७]]

क्षेत्रज, गूढ़ज, व्यभिचारज, बन्धु, अवन्धु और कानीनज आदि १२ प्रकार के पुत्रों के भेद (१७०-१८६) । दत्तक पुत्र लेने और देने में माता-पिता ही एक मात्र अधिकार रखते हैं दूसरे नहीं १८७ - २०८ ) ।

पुत्रसंग्रहावश्यकता

पुत्र संग्रहण की आवश्यकता ( २२० ) ।

[[२७२१]]

अध्याय

[३०]

प्रधान विषय

दौहित्रे सति पुत्रप्रतिग्रहाभावः

पृष्ठाङ्क

[[२७२२]]

दौहित्र होने पर पुत्रप्रतिग्रह नहीं करना, क्योंकि दौहित्र होने से अजात पुत्र भी पुत्र ही है ( २२१ - २२४ ) । किसी के सम्मिलित परिवार में अविभक्त धन के भागीदार की मृत्यु हुई यदि उसके पुत्री है और पुत्र नहीं है तो दौहित्र ही पुत्र के समान सभी कार्यों को करने व कराने का अधिकारी है (२२५-२२८) । जो कुछ धन अपुत्रक का है उसका सारा दायित्व उस मृतक की लड़की के पुत्र का है ( २२६-२३० ) ।

परधनापहारकाणां दण्डविधानवर्णनम्

[[२७२३]]

जो व्यक्ति किसी भी प्रकार से दूसरे के द्रव्य को अपहरण करने की अनधिकार चेष्टा करे उसे राजा स्वयं कड़ा दण्ड दे और उसे अपने देश से बाहर निका- लने का आदेश दे (२३१-२३५ ) ।

जो व्यक्ति धर्मसङ्गत राज्य की प्रतिष्ठा में पूर्ण सहयोग दें उन्हें रक्षापूर्वक रखना चाहिये (२३६-२४१ )

पुत्रत्वस्याधिकारितावर्णनम्

[[२७२५]]

दौहित्र को पुत्रग्रहण की योग्यता ( २४२) । अपने इष्ट परिवार माता-पिता, श्रेष्ट पुरुष आदि की आज्ञा

अध्याय

[ ३१ ]

प्रधानं विपय

से अपुत्रा विधवा स्त्री दत्तक ले ( २४३-२४४ ) । जो निकट सम्बन्धी दो या दो से अधिक सन्तानवाला हो

उसका कोई सा भी

पुत्र अपने लिये दत्तक लिया जा

सकता है ( २४६ ) । यदि कोई सा भी लूला, लङ्गड़ा, गूंगा, वहरा, अन्धा, काना, नपुंसक या कुष्ठ का दागी हो तो उसे लेना न लेना वरावर है (२४७) । यदि ऐसे विकलाङ्ग दत्तक लिये गये तो मन्त्र क्रिया आदि का लोप हो जाता है ( २४८-२५२) । यदि समाज के सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति एवं परिवार के भाई-बन्धु जिसके लिये आज्ञा दें तो वह दत्तक सफल होता है ( २५३-२५७) ।

अपुत्रक का दत्तक लेना दौहित्र न उत्पन्न हो तब तक प्रामाणिक है बाद में यदि दौहित्र पैदा हो जाय तो वह अप्रामाणिक है ।

मनु ने दौहित्रों में बड़े छोटे में किसी एक को लेने का विधान बताया है (२५८-२६३)। हां, ३ या ५, ६ पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ और सब से कनिष्ठ को छोड़ किसी एक को लिया जा सकता है ( २६४-२६६ ) । यदि मोह से ज्येष्ठ को दत्तक ले लिया गया तो मौजी विवाह विधि के बाद वह अपने सगे पिता का ही पुत्र होने का अधिकारी है दूसरे का नहीं ( २६७ ) । ऐसा दत्तक

अध्याय

[ ३२ ] प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

पुत्र लेनेवाले के किसी काम का नहीं ( २७० ) । कई स्त्रियों के एक पति से पुत्र हो तो ज्येष्ठ और कनिष्ठ को छोड़ अन्य लिये जा सकते हैं (२७३ ) ।

एकपुत्रस्य स्वीकरणनिषेधः

[[२७२७]]

एक पुत्र यदि बिना स्त्रीवाले के हो और विधवा स्त्री उसे दत्तक ले उसका निषेध ( २७४-२८५ ) ।

विधवास्त्रीकृतपुत्रदण्डम्

[[२७२८]]

जो कोई सुता और दौहित्र को तिरस्कार कर अन्य को दत्तक ले उसपर राजाविशेष विधान से दण्ड लागू करे ( ( २६०-२६६ ) ।

दौहित्रप्रशंसा

दौहित्र की प्रशंसा (२६७-३२३ ) ।

दौहित्रत्रैविध्यम्—

एक तन्मातामह गोत्री, दूसरा दौहित्र और.

तीसरा निर्दोष

[[२७२६]]

विवाह में कन्याप्रदान के समय मातांमह एवं पिता की प्रतिज्ञा के अनुसार होनेवाले सम्बन्ध से उत्पन्न सन्तान क्रमशः तन्मातामह गोत्री और दौहित्र हैं तीसरा निर्दोष तातगोत्री है ।

[[9]]

अध्याय

[ ३३ ]

प्रधान विषय

दौहित्र की श्राद्धादि कर्म में श्रोत्रिय ब्राह्मण से

ज्येष्ठता ( ३३६-३४८ ) ।

प्रत्याब्दिकाकरणे प्रत्यवायः

[[२७३४]]

प्रतिवर्ष के श्राद्ध को न करने से प्रत्यवाय होता है, अतः जल, तण्डुल, उड़द, मूंग, दो शाक, पत्र, दक्षिणा, पात्र और ब्राह्मण ये दश श्राद्ध में उपयोग करने की वस्तुएं हैं, एक का लोप भी वाञ्छनीय नहीं । यदि आपत्काल हो तो उसके लिये अनुकल्प का विधान है ( ३४६-३६३ ) ।

श्राद्धद्रव्याभावेऽनुकल्पः

[[२७३५]]

घृत के दुर्लभ होने से तैल उसका प्रतिनिधि आज्य उसके अभाव में दूध और उसके न मिलने पर दही यदि ये भी न मिलें तो पिष्ट के जल से मिला कर होमकर्मा- दिक करे । या फिर प्राप्त मधु से सब काम सिद्ध करे, किसी भी रूप में फल, पत्र और सुद्रव्य आदि से श्राद्ध का कार्य किया जाय ।

इनके अभाव में आपोशानादिक क्रियायें जल से और अन्न से सम्पादन कर पिण्ड प्रदान करे और जल में विसर्जित करे अविशिष्ट को काम में लें फिर दूसरे दिन तर्पण करे ।

अध्याय

[ ३४ ] प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

आपत्कल्प के इस विधान को शान्ति के समय काम में न ले । शुद्ध अन्न का प्रयोग जो अपनी अच्छी कमाई से लाया गया ही विहित है; सहव्य के द्वारा ही श्राद्ध करने का विधान उसका पाक भी श्राद्धकर्ता की स्त्री द्वारा शुद्धता से किया हुआ होना चाहिये । भाव- शुद्ध, विधिशुद्ध और द्रव्यशुद्ध पाक ही श्राद्ध में ग्राह्य है ( ३६४-४०६ ) ।

श्राद्धे पाककर्तारः

[[२७३६]]

धर्मपत्नी, कुलपत्नी जो वंश में विवाहित हो, पुत्रवती हो, मातायें सम्बन्धियों की स्त्रियां, भूआ, बहिन, भार्या, सासु, मामी, भाई की स्त्रियां, गुरुपत्नियां और इनके न मिलने पर स्वयं श्राद्ध में पाक करनेवाले को प्रशस्त कहा है (४०७-४२० ) ।

रण्डापाक और वन्ध्यापाक गर्हित बतलाया है (४२१) । हां कुल की कोई ऐसी स्त्रियां करनेवाली न हो तो उप- र्युक्त सभी माताओं से पाकक्रिया सम्पन्न हो सकती है ( ४२२-४२६ ) ।

मृतकार्ये कर्तरनुकल्पनिषेधः

[[२७४१]]

स्वयं के लिये ही मृतकार्य के और्ध्वदेहिक कार्य का विधान वर्णित है (४२७-४३० ) ।अध्याय

[३५]

प्रधान विपय

कर्त्तावृतस्याधिकारः

पृष्ठाङ्क

[[२७४२]]

अतद्वृत ( अनधिकार ) कर्म अकृत कर्म के समान है

( ४३१-४४४ ) ।

विधवानां निन्दा

[[२७४३]]

विधवाओं को स्वतन्त्र रहने से निन्दित कहा है

अतः पतिगृह या पितृगृह में ही रहना आवश्यक है ( ४४५-४७२ ) ।

रण्डाया अस्वातन्त्र्यम्

[[२७४६]]

रण्डा की सम्पत्ति का अधिकार, वह उसके बेचने आदि की अधिकारिणी नहीं ( ४७३ - ४८२ ) । कई रण्डाओं के भेद ( ४८३-४६३ ) ।

विवाहात्परतः स्त्रीणामस्वातन्त्र्यवर्णनम्

[[२७४६]]

विवाह के बाद स्त्रियों की अस्वतन्त्रता का वर्णन (४६६-५०५) । शास्त्रदृष्टि से धर्मपालन का महत्त्व ( ५०६-५२६ ) । पुत्र के अभाव में दत्तक का विधान वर्णन ( ५२७-५७६ ) । समीचीन रण्डा का वर्णन ( ५७७-६०८) ।

उत्तमदण्डव्यवस्थावर्णनम्

उत्तमदण्डव्यवस्था का वर्णन ( ६०६-६४० ) ।

[[२७५६]]

अध्याय

[ ३६ ]

प्रधान विषय

[[२७६१]]

[[19]]

सुवासिनीनां शिरः स्नाननिषेधः

हरिद्रास्नानविधिः

सुवासिनी स्त्रियों को ग्रहण, रजोदर्शन, मङ्गल कार्य, चण्डालस्पर्शं एवं यज्ञ के आदि व अन्त इत्यादि कार्यों में शीर्षस्नान कहा है तथा हरिद्रा के चूर्ण को जल में प्रक्षेप कर स्नानविधि कही है ( ६४१-६४७ ) ।

पतिव्रताधर्माः

पति की सेवा बड़े से बड़ा धर्म (६५३-६७० ) ।

[[२७६२]]

दुराचाररतां रण्डां दृष्ट्वा प्रायश्चित्तवर्णनम् २७६५

दुष्ट चरित्र युक्त रण्डाओं के देखने से प्रायश्चित्त का विधान कहा है ( ६७१-६८६ )।

नानादण्ड्यकर्मसु दण्डविधानवर्णनम्

नानादण्ड्य कर्मों में दण्डविधान का वर्णन (६८७-७०६)।

नयप्राप्तराज्ये सर्वेषां सुखित्ववर्णनम्

[[२७६७]]

[[२७६८]]

नयप्राप्त राज्य में सभी के सुखी रहने का वर्णन

( ७१०-७२१ ) ।

॥ लोहितस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥

नारायणस्मृति के प्रधान विषय

अध्याय

प्रधान विषय

१ नारायणदुर्वाससोः सम्वादः

नारायण दुर्वासा का सम्बाद ( १–६ ) ।

महापातकोपपातकवर्णनम्

[[२७७०]]

[[२७७१]]

महापातक और उपपातकों का वर्णन ( ७ – १५ ) । प्रतिग्रहपापप्रायश्चित्तवर्णनम्

[[२७७३]]

प्रतिग्रहजनित पाप के प्रायश्चित्त का वर्णन (१६-४१) ।

२ बुद्धिकृताभ्यासकृतपापानां प्रायश्चित्तवर्णनम् २७७४

बुद्धिकृत और अभ्यासकृत पापों के प्रायश्चित्त का

वर्णन (१-७) ।

३ नानाविधदुष्कृतिनिस्तारोपायवर्णनम्

[[२७७५]]

नाना प्रकार के पापों के निस्तार का उपाय (१-१६) ।

४ प्रायश्चित्तवर्णनम्

प्रायश्चित्तों का वर्णन (१-११ ) ।

५ दुष्प्रतिग्रहादिप्रायश्चित्तवर्णनम्

[[२७७७]]

[[२७७६]]

पाप समाचार की गति का वर्णन (१-२६ ) ।

पापादि को दूर करने के लिये सहस्र कलशस्थापन का

विधान (३०-५५) ।

अध्याय

६ सहस्रकलशाभिषेकः

[ ३८ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

[[२७८४]]

सहस्र कलशों से अभिषेक का वर्णन (१-७) ।

७ कलौ नौयात्राद्यष्टकर्मणां निषेधः

[[२७८५]]

कलियुग में विधवा का पुनः उद्वाह, नाव से यात्रा, मधुपर्क में पशु का वध, शूद्रान्नभोजिता, सब वर्णों में भिक्षा मांगना, ब्राह्मणों के घरों में शूद्र की पाचनक्रिया, भृग्वनिपतन वर्जित है (१-५) । वेन के पास ऋषियों का अनुरोधपूर्ण आवेदन ( ६-३३ ) । ८ अष्टनिषिद्धकर्मणां प्रायश्चित्तवर्णनम्

[[२७८६]]

धनाढ्य व्यक्तियों को आठ निषिद्ध कर्मों के करने से सहस्र कलशस्नान, पञ्चवारुण होम, गायत्री पुरश्चरण, महादान और सहस्र ब्राह्मण भोजन इत्यादि प्राय- श्चित बतलाये हैं (१-१४ ) ।

६ धनहीनाय प्रायश्चित्तवर्णनम्

[[२७६१]]

धनहीन के लिये प्रायश्चित्त का विधान - वह शिखा सहित मुण्डित हो पुण्यतीर्थ में, या तालाव में, आकण्ठ जल में मग्न हो अघमर्षण जाप करे (१-१३) ।

॥ श्री नारायणस्मृति की संक्षिप्त विषय-सूची समाप्त ॥

शाण्डिल्यस्मृति के प्रधान विषय

अध्याय

प्रधान विपय

१ आचारवर्णनम्

पृष्ठाङ्क

[[२७६३]]

आचार के विषय में मुनियों का शाण्डिल्य से प्रश्नो-

त्तर ( १-१२ ) ।

द्विविधादेहशुद्धिवर्णनम्

[[२७६५]]

दो प्रकार की देह शुद्धि का शर्णन । दूसरे की निन्दा पारुष्य, विवाद, झूठ, निजपूजा का वर्णन, अतिबन्ध प्रलय, असह्य एवं मर्म वचन, आक्षेप वचन, असत् शास्त्र एवं दुष्टों के साथ संभाषण इत्यादि दुर्गुणों को त्याग कर स्वाध्याय, जप में रत, मोक्ष एवं धर्म के कार्य में निरन्तर लगना प्रिय बोलना, सत्य एवं परहितकारी वचनों का उच्चारण करना ऐसी बहुत-सी शुद्धियों का वर्णन । शिर, कण्ठ आँख और नासिका के मल को दूर करना यही सर्वाङ्गीणा शुद्धि बतलाई है (१८-३६)।

ज्ञानकर्मभ्यां हरिरेवोपास्य इतिवर्णनम्

[[२७६७]]

धर्म की हानि नहीं करनी चाहिये, संग्रह ही करे । धर्म

एवं अधर्म सुख व दुःख के कारण हैं । यही सना-

। तन धर्म शास्त्र है अन्य सव भ्रामक हैं तथा तामस व राजस हैं, यही सात्त्विक है । वेद, पुराण एवं उपनिषदों

अध्याय

[ ४० ] . प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

में “इढं हेयमिदं हेयमुपादेयमिदं परम्” यही वतलाया है । साक्षात्परब्रह्म देवकी पुत्र श्री कृष्ण की आराधना सर्वोत्तम है । देव, मनुष्य और पशु आदि का विस्तार उन्ही से है ।

साक्षाद्ब्रह्म परं धाम सर्वकारणमव्ययम् । देवकीपुत्र एवान्ये सर्वे तत्कार्यकारिणः ॥ देवा मनुष्याः पशवो मृगपक्षिसरीसृपाः । सर्वमेतज्जगद्धातुर्वासुदेवस्य विस्तृतिः ॥

ज्ञान एवं कर्म से भगवान् की ही आराधना सर्वो- त्तम है । वही ज्ञान है, वही सत्कर्म है एवं वही सच्छास्त्र है । जो भगवान् के चरणारविन्दों की सेवा नहीं करते हैं वे शोचनीय हैं (४०-५६ ) ।

सात्विक राजसतामसगुणानां वर्णनम्

[[२७६६]]

प्रकृति त्रिगुणात्मिका है एवं जगत् की कारणभूता है । सम्पूर्ण संसार देव, असुर और मनुष्य इसी के विकार हैं । इस प्रकार सात्त्विक राजस और तामस गुणों का संक्षेप से वर्णन ( ६०-७० ) ।

देश शुद्धि का वर्णन - जहाँ म्लेच्छ पाषण्डी न होधार्मिक तथा भगवद्भक्तिपरायण मनुष्य रहते हों और हिंसक जन्तुओं से शून्य हो वह स्थान शुद्ध है (७१-८२। )

[ ४२ ]

प्रधान विषय

अध्याय

भगवत्पूजनविधिवर्णनम्

पृष्ठाङ्क

[[२८०१]]

सात प्रकार की शुद्धि कर भगवत्पूजापरायण होना चाहिये । प्रथम शरीर को तपस्यादि से शुद्ध करे अशक्त हो तो दान करे और दोनों में ही असमर्थ हो तो नामसंकीर्तन करना चाहिये ( ८३-१५) । उपवास, दान, भगवद्भक्तों के सेवन, संकीर्त्तन, जप, तप और श्रद्धा द्वारा शुद्धि होती है ( ६६ - १०१ ) ।

पराविद्याप्राप्त्यर्थमधिकारिगुरुशिष्यवर्णनम्

[[२८०३]]

विद्या की प्राप्ति के लिये आचार्य का वरण और अधिकारी शिष्य का वर्णन (१०२-११२ ) ।

मन, वाणी और कर्म से भी शिष्य अपने गुरु का अहित न विचारे कभी उनके सामने प्रमाद न करे किसी भी प्रकार की उद्विग्नता उत्पन्न करनेवाले भाव, विचार, इच्छा व कर्मों को न करे। शिष्य मूढ़ पाप- रत, क्रूर, वेदशास्त्रों के विरोधी लोगों की सङ्गति न करे इससे भक्ति में विघ्न होता है ( ११३-१२२ ) ।

२ प्रातः कृत्यवर्णनम्

[[२८०५]]

ऋषियों का प्रातः कृत्य के विषय में प्रश्न और महर्षि शाण्डिल्य द्वारा स्नान सन्ध्या आदि को लेकर विस्तार से प्रातः काल के कर्तव्यों का वर्णन । शय्या को छोड़ने

अध्याय

[ ४२ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाडू

के वाद सर्व प्रथम भगवान् गोविन्द के दिव्य नामों का सङ्कीर्त्तन करते हुए वस्त्र और दण्डादि कमण्डलु लेकर अपने मस्तक पर कपड़ा बांध कर मल-मूत्र त्याग करने के लिये गांव के बाहर जावे । पेशाब, मैथुन, स्नान, भोजन, दन्तधावन, यज्ञ और सामूहिक हवन में मौन धारण करने की विधि है । यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर टांग कर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये (१-६)। मलमूल करने में जो स्थान वर्जित हैं उनका परिगणन ( १०-१२ ) ।

मल-मूत्र त्याग के समय, देवता, शत्रु, शिष्य, अनि, गुरु, वृद्ध पुरुष और स्त्री को न देखे । अधिक समय तक मल-मूत्र न करे केवल आकाश, दिशा, तारा, गृह और अमेध्य वस्तुओं को देखे ( १३-१४ ) । मिट्टी से गुदा और लिङ्ग को जल से धोवे। फिर हाथ धोकर दन्तधावन करे । स्नान के लिये तीर्थ, समुद्रादि, तालाब, कूप और झरने का जल विशेष प्रयोजनीय है ( १५-२० ) । जल को अङ्गों से अधिक न पीटे न जल में कुल्ला किया जाय और देह का मल भी जल में न छोड़ा जाय फिर बाहर आकर सन्ध्या कर्म के लिये स्थान को धोवे और कपड़े बदले ( २१-२८ ) ।

स्नान प्रकरण के साथ नित्य कृत्यों का वर्णन ( २८-६१ ) ।

[ ४३ ]

अध्याय

प्रधान विपय

पृष्ठाङ्क

[[२८१३]]

३ उपादानविधिवर्णनम्

द्वितीयकाल में करने योग्य भगवत्पूजन आदि का वर्णन । भक्ति का लाभ जो श्रद्धालु एवं अपवर्ग के सुख को जाननेवाले हैं उन्हें हीं मिलता है ( १-४६ ) ।

बाह्य और आभ्यन्तर शुद्धियों का वर्णन । भोजन को अग्निदेव के समर्पण करने का वर्णन (५०-६० ) । पाक में निषद्ध वृक्षों का इन्धन जलाने के लिये परिगणन ( ६१ - १०८ ) । निषिद्ध और ग्रहण योग्य वस्तुओं का वर्णन ( १०६ - १२० ) ।

ग्राह्य और निषिद्ध पय का वर्णन ( १२१-१३५ ) । भोजन बनाने में कुशल सती स्त्री एवं निषिद्ध स्त्रियों के लक्षण ( १३६ - १५० ) ।

स्त्री के साथ सद्व्यवहार का वर्णन ( १५१ - १५८ ) । इस प्रकार भगवत्प्रीत्यर्थ उपादानों का उपयोग कर गृहस्थ सुखी होता है ( १५८-१६३ ) ।

४ इज्याचारवर्णनम्

[[२८२६]]

एक देव की पूजा ही इष्ट है, भगदद्भक्ति विषयक नियमों का विस्तार से वर्णन । भागवतों की सदा पूजा करनी चाहिये । विष्णुभक्त गृहस्थों के कर्मों का वर्णन भगवत्पूजा प्रकार, सच्छास्त्रों के श्रवण पठन का महत्त्व

[ ४४ ]

r

प्रधान विषय

अध्याय

पृष्ठाडू

वर्णन, योगविधि का वर्णन, उपवास की प्रशंसा ( १-२४२ ) ।

५ रात्रावन्त्ययामे योगकृत्यवर्णनम्

[[२८५१]]

भगवत्पूजा करने का विधान । योगधर्म का वर्णन । भगवद्भक्त के शीलाचार का निरूपण सभी कर्मों को भगवदर्पण बुद्धि से करनेवाले मनुष्य का जन्म सफल होता है । शास्त्र की प्रशंसा ( १-८१ ) ।

॥ शाण्डिल्यस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥

कण्वस्मृति के प्रधान विषय

धर्मसारवर्णनम्

धर्मकर्त्तव्यवर्णनम्

[[२८६०]]

नित्यनैमित्तिककर्मणां फलनिर्णयः

[[२८६१]]

नित्यकृत्यवर्णनम्

[[२८६३]]

प्रातःस्मरणे कीर्त्यानां वर्णनम्

[[२८६५]]

२८६७-

पाने भक्षणेच शब्देकृते प्रायश्चित्तवर्णनम् २८६६

युगभेद से ब्रह्मवेत्ता आदि ऋषियों ने कण्व ऋषि से

सनातन धर्मों के विषय में पूछा (१-५) । .७

अध्याय

[ ४५ ]

प्रधान विषय.

कण्व द्वारा धर्मसार का निरूपण

पृष्ठाङ्क

धर्मकर्त्तव्यवर्णन - जिस व्यक्ति की बुद्धि ऐसी है कि क्रिया, कर्त्ता, कारयिता, कारण और उसका फल सब कुछ हरि है वही स्थिर बुद्धि का है, उसका जीवन सफल है ( ६-१० ) । परमेश्वरप्रीत्यर्थ किया हुआ कर्म ही सफल है। सत्सङ्कल्प एवं उसका फल (११-६१) । नित्य- नैमित्तिक कर्मों का फल निर्णय ( ४-५० ) । नित्यकृत्य का वर्णन (५१-७४ ) । प्रातः काल में स्मरण करने योग्य कीर्त्य महानुभावों का वर्णन ( ७५-८० ) ।

प्रातः शौचस्नानादि क्रियाओं का वर्णन ( ८१-६४ ) । गण्डूष के समय शब्द का निषेध और उसका प्रायश्चित्त का वर्णन (६५-१७) । भक्षण एवं खाने के समय भी शब्द करने का निषेध (६८ - १०४ ) । मूत्र पुरीषोत्सर्ग

में

गण्डूष के बाद आचमन का विधान ( १०५ - ११६ ) । गृहस्थों का मृत्तिका शौच का विधान (११७-१२६ ) । शुभकर्मों में सर्वत्र आचमन का विधान (१२७-१४० ) । नित्यकर्मों में उलट-फेर करने से फल नहीं होता है ( १४१-१५० ) ।

स्नान के समय आवश्यक कृत्य जैसे सन्ध्या, अर्घ्य, गायत्री मन्त्र का जप देवर्षिपितृतर्पण, स्नानाङ्गतर्पण अवश्य करने चाहिये ( १५१-१५८ ) । कण्ठस्नान,

अध्याय

[ ४६ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

कटिस्नान, पादस्नान, कापिल स्नान, प्रोक्षणस्नान स्नात- स्नान एवं शुद्ध वस्त्र धारण करने का विधान, जैसा शरीर माने वैसा करे ( १५६ - १६० ) ।

वायव्य स्नान का अन्य स्नानों से श्रेष्ठत्व वर्णन ( १६१-१६७) । सन्ध्याओं का विधान (१६८ - १७०) । साथ ही गायत्री जप का माहात्म्य ( १७१-१६८ ) । सन्ध्या ही सब का मूल है ( १६६ - २०६ ) । गायत्री मन्त्र का वैशिष्ट्य वर्णन ( २०७-२२३) । वेद पठन का अधिकार गायत्री से ही शक्य है ( २२३-२२८ ) ।

सम्यक्प्रकार गायत्री जप का फल वर्णन ( २२६- २४१ ) । सन्ध्याः गायत्री और वेदाध्ययन का फल कब नहीं मिलता ( २४२-२५६ ) । कलि में गायत्री मन्त्र का प्राधान्य (२६०-२६६ ) । मूक ब्राह्मण का वेदादि व वैदिक कर्मों के करने में योग्यता का वर्णन ( २७०- २८० ) । वैदिक कृत्य की सब में प्रधानता (२८१-३००) । ब्रह्मार्पण बुद्धि से ही सब कर्मों का अनुष्ठान इष्ट है ( ३०१-३२५ ) ।

एक कार्य के अनुष्ठान में कार्यान्तर (दूसरा काम ) वर्जित है ( ३२६-३२७ ) । उपासना का महत्त्व (३२८-३३४ ) । गार्हपत्य अग्नि की स्थापना और उसके उपयोग का

अध्याय

[ ४७ ]

प्रधान विपय

पृष्ठाङ्क

वर्णन ( ३४० - ३४९ ) । नित्य होम एवं अग्नि के उप- स्थान का विधान (३५०-३५० ) ।

पञ्चपाक न करने की अवस्था में विकल्प का विधान ( ३६१-३७१ ) । पञ्चमहायज्ञों का निरूपण ( ३७२- ३८३ ) । ब्रह्मवेदाध्ययन में अधिकारी होने का वर्णन ( ३८४ - ३६४ ) । ब्रह्मज्ञान की एक साधना का उपा- सनाक्रम प्रयोग ( ३६५-४१४ ) । अग्निहोत्र, दर्शादि एवं आग्रयण, सौत्रामणि और पितृयज्ञों का निरूपण ( ४१५-४२६ ) ।

वेदों के अनभ्यास से मानव - चरित्र का सांस्कृतिक विकास सदा के लिये रुक जाने से राष्ट्र की अवनति होती है (४२७-४३३ ) । चित्तशुद्धि के लिये वेदोक्त मार्ग ही श्रेयस्कर है (४३४-४३७) । चार पितृ कर्मों का वर्णन, उन्हें यथाशक्ति करने का आदेश ( ४३८- ४४३ ) । विविध ऋणों से छुटकारा पाने का प्रकार ( ४४४-४६८ ) ।

वैदिक कर्मों की तुलना

में अन्य कार्यों का गौणत्व वर्णन एवं दिव्य भाषा की योग्यता ( ४६६-४७७ ) । नित्यनैमित्तिक कर्मों में विष्णु का आराधन वर्णन ( ४७८ ४८१ ) । दौर्ब्राह्मण्य से मनुष्य सदा दूर रहे ( ४८३-४८८ ) । अग्निष्टोम और अतिरात्रों का अनुष्ठान

अध्याय

[ ४८ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

श्रेयस्कर है, सप्तसोम संस्था के पाकयज्ञों का विधान ( ४८६-४६४ ) । इन अनुष्ठानों को न करने से प्रत्य- वायिक दोषों का निरूपण ( ४६५-४६७ ) ।

ब्रह्मचारी के नित्यकृत्यों का वर्णन ( ४६८-५०२ । जातकर्म, चौल, प्राजापत्य, उपाकर्म आदि का विधान (५०३-५१३) । भिन्न-भिन्न अनुवाकों का वर्णन (५१४-५२६) । नाना काण्डों का वर्णन (५२६-५३७ ) । ब्रह्मचारी वेदद्व्रतों का सम्पादन कर विधिपूर्वक स्नातक- धर्म में दीक्षित हो (५३८-५४९) । गृहस्थ में प्रवेश के लिये लक्षणवती स्त्री से विवाह और उसके साथ वैदिक विधि से गृहप्रवेश व अग्निहोत्र का विधान (५४०-५४५)। गुप्ति होम का विधान ( ५४६-५४८ ) । औपासन कृत्यों का वर्णन ( ५४६-५४४) । गृहस्थ के लिये नित्य कर्तव्य विधि का वर्णन (५४५-५५३ ) । फिर इष्ट कर्तव्य एवं अनिष्ट कर्तव्यों का परिगणन ( ५५४-५६२ ) ।

प्रातःकाल से सायंकाल तक के कर्तव्यों का निर्देश ( ५६३ - ५७३ ) । गृहस्थ भगवान् लक्ष्मीनारायण का ध्यान सदैव करे । गृहस्थ को आनेवाले सभी सम्मान्य गुरुजन अतिथि एवं विशिष्ट जनों की पूजा का विधान ( ५७४-५६० ) । उपयुक्त पाकों का विधान और उनके करनेवाले स्त्री पुरुषों का वर्णन (५६१-६०१ ) । पंक्ति

अध्याय

[ 8 ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

वर्ज्य भोजन में दोष वर्णन (६०२-६०५ ) । गृहस्थ के लिये पठनीय एवं करणीय विधान ( ६०६-६१३ ) । कन्दमूल फल जो भक्ष्य हैं उनका विधान (६१४ - ६१९) ।

यज्ञों का ब्रह्मज्ञान के समान फल वर्णन ( ६२०- ६३६ ) । शेषहोम के विधान का वर्णन (६३७-६५६ ) । ब्राह्मणादि का पूजन ( ६५७-६७७ ) । पुत्रविवाह से पुत्री विवाह की विशेषता । सुपात्र में कन्यादान पुत्र से सौ गुणा अधिक बताया है ( ६७८-७०० ) । गोत्रपरि- वर्तन के सम्बन्ध में नाना मत ( ७०१ - ७२२ ) । वंश के

। उद्धार के लिये दत्तक पुत्र का विधान ( ७२३-७४३ ) । दत्तक में दौहित्र की योग्यता (७४४-७५५) । श्राद्धकृत्य में निर्दिष्ट का अन्य कृत्य नियोजन में निषेध (७५६-७८६)। एक काल में बहुत से श्राद्ध आने पर कृत्यों का सम्पा- दन प्रकार (७८६-७८८)। ब्रह्मवेदी ब्राह्मण का माहात्म्य ( ७८६-७६२ ) । कण्वस्मृति का फल वर्णन । .

॥ कण्वस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥

अध्याय

दाल्भ्यस्मृति के प्रधान विषय

प्रधान विषय

दाल्भ्यम्प्रति ऋषीणां धर्मविषयकः प्रश्नः षोडशश्राद्धवर्णनम्

[[२६३३]]

  • २६३५

दाल्भ्य से ऋषियों का धर्माधर्म विवेक, मृतशुद्धि, मासशुद्धि,” श्राद्धकालादि के सम्बन्ध में प्रश्न, इष्टापूर्त को लेकर दाल्भ्य द्वारा विशेष प्रशंसा, पितरों के तर्पण का विधान (१-१६ ं । १६ श्राद्धों का वर्णन (२०-४१ )। श्राद्ध में निषिद्ध कर्मों का परिगणन ( ४२-५४)। श्राद्ध में भोजन करनेवाले के लिये आठ वस्तुओं का

त्याग ( ५५-५६ ) । श्राद्धकरण में पुत्र का अधिकार ( ६०-६७ ) ।

शस्त्रहतकानां श्राद्धदिनवर्णनम्

[[२६४१]]

नाना सम्बन्धियों के भिन्न-भिन्न दिनों में श्राद्ध का विधान । शस्त्र हतक के श्राद्ध दिन का वर्णन (६८-७० ) । मृतक का श्राद्ध दिन अविदित हो तो एकादशी को श्राद्ध किया जाय (७१-८० ) ।

आम श्राद्ध के करने का विधान (८१) । पहले माता का श्राद्ध फिर पितरों का फिर मातामहों का ( ८२-८५ ) । ब्रह्मघातक का लक्षण, इनके स्पर्श करने

अध्याय

[ ५१] प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

से स्नान और भोजन करने से कृच्छ्रसान्तपन का विधान । जो चाण्डाली में अकाम से गमन करे उसके लिये सान्तपन एवं दो प्राजापत्य का विधान । सकाम चाण्डाली गमन करनेवाले को चान्द्रायण और दो तप्तकृच्छ का प्रायश्चित्त करने का विधान (८६- ६६) । गोहत्यावाले के लिये प्रायश्चित्त का विधान ( १७-१०२ ) । रोध, बन्धन, अतिवाह और अतिदोह का प्रायश्चित्तविधान ( १०३ - १०८ ) । वृषभ की हत्या का प्रायश्चित्त ( १०६ - ११० ) ।

गोदोहन का नियम — दो महिने बछड़े को पिलावे व दो मास दो स्तनों का दोहन करे तथा दो मास एक वक्त शेष समय में अपनी इच्छा हो वैसे करे ।

द्वौमासौ पाययेद्वत्सं द्वौ मासौ द्वौस्तनौ दुहेत् । द्वौमासौ चैकवेलायां शेषं कालं यथेच्छया ॥ १११ ॥

किन-किन स्थानों में प्रायश्चित्त नहीं लगता इसका वर्णन (११२-११३) । किन-किन को प्रायश्चित्त न करने का पाप लगता है (११४) । आशौच का निर्णय वर्णन (११५-१२१) । किसी हीन से सम्पर्क करने में दोष कहा है ( १२२-१२३) । सूतक और मृतक के आशौच का विधान ( १२४ - १२६ ) ।

· [ ५२ ]

अध्याय

प्रधान विषय

पृष्ठा

[[२६४]]

आशौचनिर्णयवर्णनम्

बाल, शिशु एवं कुमार की परिभाषा ( १३० ) । विवाह, चौल और उपनयन में यदि माता रजखला हो जाय तो शुद्धि के बाद मङ्गल कार्य करे (१३१-१३२)। कोई कार्य प्रारम्भ हो और सूतक का आशौच हो जावे तो उस कार्य के सम्पादन का विधान ( १३४ ) । श्राद्धकर्म उपस्थित होने पर निमन्त्रित ब्राह्मण आवें तो सूतक का आशौच नहीं लगता व उस कार्य के सम्पादन का विधान ( १३५ ) ।

देशान्तरपरिभाषावर्णनम्

[[२६४५]]

ब्राह्मणों के भोजन करते हुए यदि सूतक हो जाय तो दूसरे के घर से जल लाकर आचमन करा देने से शुद्धि हो जाती है (१३७ ) । देशान्तर में यदि कोई सपिण्ड मर जाय तो सद्यः स्नान से शुद्धि कही गई है (१३८) । देशान्तर की परिभाषा ६० योजन दूर या २४ योजन अथवा ३० योजन दूर को देशान्तर बताया है या बोली का अन्तर या पर्वत का व्यवधान तथा महानदी बीच में पड़ जाती हो तो देशान्तरं कहा जाता है ( १३६-१४० ) ।

[ ५३ ]

अध्याय

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

शुद्धाशुद्धिवर्णनम्

[[२६४७]]

आशौच का विशेष रूप से वर्णन - सूतक एवं मृतक आशौच का प्रारम्भ कव से माना जाय इसका निर्णय । रजस्वला के मरने पर तीन रात के बाद शवधर्म का कार्य सम्पादन किया जाय । शुद्धाशुद्धि का वर्णन ( १४१- १६३ ) । स्पृष्टास्पृष्टि कहाँ नहीं होती इसका वर्णन ( १६३ ) । दिन में कैथ की छाया में, रात्रि में दही एवं शमी के वृक्षों में सप्तमी में आंवले के पेड़ में अलक्ष्मी सदा रहती है अतः उनका सेवन न करे ( १६४ ) । शूर्प (सूप) की हवा, नख से जलबिन्दु का ग्रहण केश एवं वस्त्र गिरे हुए घड़ेका जल और कूड़े के साथ बुहारी इनसे पूर्वकृत पुण्य का नाश होता है (१६५) । जहाँ कहीं भी शुद्धि की आवश्यकता हो वहां-वहाँ तिलों से होम एवं गायत्री मन्त्र के जप से शुद्धि कही गई है (१६६) । दाल्भ्यस्मृति के सुनाने का फल (१६७ ) ।

॥ दाल्भ्यस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥

आङ्गिरसस्मृति के प्रधान विषय

अध्याय

प्रधान विषय

पूर्वाङ्गिरसम्

आङ्गिरसम्प्रति ऋषीणाम्प्रश्नः -

[[२६४]]

आङ्गिरस से ऋषियों का प्रश्न ( १ ) । धर्म का स्वरूप वर्णन (२-४)। वैदिक कर्मों को पुराणोक्त मन्त्रों से न करे ( ५-६ ) । मन्त्र के अभाव में व्याहृतियों को काम में लिया जाय । व्याहृतियों का महत्व वर्णन ( ७-१४) । जात कर्मादि संस्कारों का अतिक्रम होने पर प्रायश्चित्त (१५-२१ ) ।

श्राद्धापाकानन्तरमाशौचे निर्णयः

[[२६५]]

श्राद्धपाक के बाद यदि आशौच हो जाय तो विधान । उस क्रिया के करने में ऋत्विक्गण को वह वाधक नहीं हो सकता (२२-२४) । पाकारम्भ के बाद यदि आस-पास में कोई मृत्यु हो तो श्राद्ध दूषित नहीं होता (२५) । पाकारम्भ से पूर्व भी यदि कोई मृत्यु हो तो वह न करे ( २६-२८ ) । दर्श पूर्णमास इष्टि पशुबन्ध के अनन्तर श्राद्ध (२६-३३) । महादीक्षा में श्राद्ध ( ३४-३६ ) । खर्वदीक्षा में श्राद्ध (३६-३७) । दीक्षा- वृद्धि में श्राद्ध (३०-४० ) । दीक्षा के बीच में मृत्युअध्याय

[ ५५ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

होने से नहीं होता ( ४१-४३)। वैदिक कर्म का प्राबल्य (४४) । सूतिकाशौच एवं मृतकाशौच में वैदिक कर्म न करे, अस्पृश्यता आवश्यक है ( ४५-४८ ) । सतत आशौच होने पर श्राद्ध करने के लिये उस ग्राम को छोड़ दूसरे ग्राम में जाकर श्राद्ध करे ( ४६-५५)।

शिखानिर्णयवर्णनम्

[[२६५५]]

शत्रु के द्वारा छिन्न शिखा हो जाने पर गौ के पुच्छ के समान वाल रखकर प्राजापत्य व्रत कर संस्कार से शुद्धि कही गई है (५६-५७) । मध्यच्छेद में भी वही वात है ( ५८ ) । रोगादिसे नष्ट होने पर भी पूर्ववत् विधान है ( ५८- ६० ) । ७० वर्ष की अवस्था में शिखा न रहने पर आस-पास के बालों को शिखा के समान मान ले ( ६१-६३ ) । पांच बार शत्रु से शिखा छेद होने पर ब्राह्मण्य नष्ट हो जाता है ( ६४-६६ ) । सूतकादि से श्राद्ध में विघ्न होने से स्त्री संभोग होने पर गर्भ रहे तो ब्रह्महत्या व्रत का विधान ( ६६-६६ ) । त्रिप्रायक श्राद्ध का वर्णन ( ७१-७६ ) । लाजहोम से पूर्व यदि वधू रजस्वला हो तो “हविष्मती” इस मन्त्र से सौ कुम्भों के विधान से स्नान कर वस्त्र बदलने से शुद्धि ( ७७-८१ ) । लाजहोम के बाद होने पर स्नान करा-

अध्याय

[ ५६ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

कर अवशिष्ट निर्मन्त्रक विधि करे और शुद्ध होने पर समन्त्रक विधि यथावत् करे ( ८२-८४ ) ।

औपासन अभी आरम्भ न हो और दूसरे दिन रजस्वला हो तो उसी प्रकार अमन्त्रक विधि एवं शुद्ध होने पर मन्त्रोच्चारण के साथ क्रिया करे ( ८५-६३ ) । आशौच में नित्यनैमित्तिक कर्मों का वर्जन (६४-६५ ) इनसे प्रेतकृत्य का नाश होता है अतः वर्जित हैं ( ६५- ६७) । अत्यन्याय; अतिद्रोह और अतिक्रूरता कलि में भी वर्जित है । अति अक्रम और अतिशास्त्र भी वर्जित है ( ६८ - १०३) ।

जीवत्पितृक पिण्ड पितृ यज्ञ श्राद्ध का वर्णन (१०४-१०७)। पिता यदि सन्यास ले ले तो पातित्यादि दूषित होने पर उनके पितादि के श्राद्ध का विधान ( १०८-११७ ) । इसी प्रकार चाचा आदि की स्त्रियों का (११८-१२०) । गौणमाता के श्राद्ध का विधान ( १२१-१२५ ) । श्राद्धा- धिकार और श्राद्धकर्ता गौणपिता के लिये भाई का पुत्र सपत्नीक कृतक्रिय भी पुत्र सज्ञा पाता है (१२६-१२६)। गोत्र नाम का अनुबन्ध व्यत्यास होने पर फिर कर्म करे ( १३०-१३२ ) ।

अनाथप्रेतसंस्कारेऽश्वमेधफलवर्णनम्

[[२६६३]]

कर्ता के दूर होने पर प्रेष्यत्व करे ( १३३-१३४ ) ।

अध्याय

[ ५७ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

अन्य से करने पर, वाङ्मात्रदान करने पर श्राद्धमात्र

होता है (१३५-१३८) । भ्रष्ट एवं पतितों का घट स्फोटन

का अधिकार ( १३६ - १४० ) । अनाथप्रेत के संस्कार करने से अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है व प्रेत के संस्कार न करने में दोष (१४२-१४३) । विप्र क़ी आज्ञा से यतिकृत्य ( १४४-१४७)। कर्ता के निकट होने पर अकर्तृ कृत को फिर करे (१४८) । असगोत्रों के संस्कार में आशौच ( १४६ ) । माता - पिता के मृताह का परित्याग होने पर प्रायश्चित्त ( १५० - १५१ ) । नदी स्नान से निष्कृति या संहिता पाठ से ( १५२-१५६ ) । वेदमहिमा (१५७ - १५६ ) । ब्राह्मण का वेदाधिकार ( १६०- १६३ ) ।

स्नान का सब विधियों में प्राधान्य (१६४) । सम्पूर्ण कार्यों में स्नान ही मूल कारण बताया है (१६५-१६७) । अस्पृश्य स्पर्शनादि कर्माङ्गस्नान ( १६८-१७१ ) । वमन में स्नान ( १७२ ) । वमन में स्नान न कर सके तो वस्त्र बदल ले ( १७३-१७४ ) । शाकमूलादि के वमन में स्नान ( १७५-१७६ ) । रात्रि में वमन में स्नान (१७७) । अपने गोत्र के छोड़ने पर अन्य गोत्र के स्वीकार करने का दोष ( १७८-१७६ ) । अर्धोदय, महोदय एवं योग का विधान (१८०-१८३) । स्त्री के पत्यन्य के साथ चितारोहण होनेपर पुत्र का कृत्य ( १८५-१६१) ।

अध्याय

[ ५८ ]

प्रधान विषय

स्त्रीणां पुनर्विवाहे प्रायश्चित्तवर्णनम्

पृष्ठा

[[२६६]]

जातिभेद से निष्कृति (११२) । स्त्री के पुनर्विवाह

में दोष जैसे-

पुनर्विवाहिता मूढः पितृभ्रातृमुखैः खलैः । यदि सा तेऽखिलाः सर्वे स्युर्वै निरयगामिनः ॥ १६३॥ पुनर्विवाहिता सा तु महारौरवभागिनी । तत्पतिः पितृभिः सार्धं कालसूत्रगगो भवेत् । दाता चाङ्गारशयननामकं प्रतिपद्यते ॥१६४॥ यदि मूर्ख एवं दुष्ट पिता व भाई आदि के द्वारा फिर स्त्री विवाहित की जाय तो वे सब नरकगामी होते हैं और वह स्त्री महारौरव नरक में जाती है, व उसका विवाहित पति अपने पितरों के साथ कालसूत्र नामक नरक में गिरता है एवं देनेवाला अङ्गारशयन नामवाले नरक में जाता है । पुनर्विवाह के दोष निवारणार्थ प्रायश्चित्त का कथन ( १६३ - २०४ ) ।

भ्रान्ति से पुत्रिकादि विवाह होने पर चन्द्रायणादि करने से स्वमात्र की शुद्धि (२०५ -२०७ ) । पुत्र होने पर व्रत का विधान ( २०८-२११) । एक, दो, तीन और चार-पाँच बार विवाहिता होनेपर प्रायश्चित्त (२१२- २१७ ) । उससे तो वेश्या की विशेषता ( २१८-२२४ ) । प्रविष्ट परपति के काय द्वारा संयोग होनेपर प्रायश्चित्त

Ros

[[६]]

अध्याय

[ 48 ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

ग्राह्यमूर्ति का वर्णन

( २२५-२२७)। अग्राह्य और ( २२८-२२६ ) । अग्राह्यमूर्ति का निवेद्य ( २३० - २३२) । भगवत्प्रसाद ग्रहण में भक्षणविधि ( २३६ ) । निवेदन- विधि (२४० ) । अत्युष्ण निवेदन करने पर नरकगामी होता है (२४१ - २४२) । निवेदन प्रकार ( २४२-२४५ ) ।

गृहस्थस्य रात्रावृष्णोदकस्नानवर्णनम्

[[२६७५]]

निवेदित का स्वीकार प्रकार ( २४६-२४७ ) । निवेदित वस्तु वच्चों को दे (२४८ ) । गृहस्थ द्वारा रात्रि में गर्म जल से स्नान (४४६ - २५० ) । अभ्यङ्ग का विधान ( २५१ - २५३ ) । माध्याह्निक एवं क्षुर स्नान का वर्णन ( २५४-२५७ ) । प्रातः सायं पर्वादि में अभ्यव्जन स्नान ( २५८-२६२ ) । सोदकुम्भ नान्दी श्राद्ध में अभ्यन्जन स्नान ( २६३-२६६ ) । क्रोशस्थित नदी स्नान से श्राद्ध विधान (२६७) । सङ्कल्प (२६८-२७१ ) । पितृ श्राद्ध के व्यत्यास में फिर करने का विधान ( २७२ ) । शून्यतिथि में करने से फिर करे (२७३-२७४ ) । पितृ श्राद्ध के बाद कारुण्य श्राद्ध (२७५-२७६ ) । माता- पिता का श्राद्ध एक दिन हो तो अन्न से करे (२७७- २७६ ) । चाक्रिक श्राद्ध ( २८०-२८१) । ग्रहण में भोजन निषेध वृद्ध बाल और आतुरों को छोड़कर (२८२-२६१) ।

अध्याय

[ ६० ] . प्रधान विषय :

पृष्ठाङ्क

अत्यन्त आतुरों को भी छूट ( २६२-२६७ ) । ग्रस्तास्त

शुद्ध होने पर सकामी व निष्कामीजन के लिये भोजन का विधान (२६८-३०० ) ।

मातापितृभ्यां पितुःदानं ग्रहणञ्च

[[२६८१]]

अग्निहोत्र वर्णन (३०१ ) । दत्तपुत्र वर्णन (३०२) । माता-पिता द्वारा देने और लेने का विधान (३०३- ३१३ ) । पुत्र संग्रह अवश्य करना चाहिये (३१४-३१५)। अपुत्र की कहीं गति नहीं ( ३१६ ) । पुत्रवान् की महत्ता का वर्णन ( ३१७-३२३ ) । पुत्र उत्पन्न होनेपर उसका मुख देखना धर्म है ( ३२४-३२६ ) । वृत्तिदत्तादि पुत्रों का वर्णन (३२७-३३५) । सगोत्रों में न मिले तो अन्य सजातियों में से पुत्र को ले अथवा सवर्ण में ले ( ३३६-३३७ ) । असगोत्र स्वीकृति में निषेध ( ३३८- ३४२ ) । विवाह में दो गोत्रों को छोड़ने का विधान ( ३४३-३४४) । अभिवन्दनादि में दो गोत्र का वर्णन ( ३४५-३४६ ) । गोत्र और ऋषियों का विचार (३४७- ३५१) । दत्तजादि का पूर्व गोत्र ( ३५२-३५८ ) ।

भ्रातृपुत्रादिपरिग्रहवर्णनम्

[[२६८७]]

भ्राता के पुत्र को लेने में विवाह और होमादि की क्रिया नहीं केवल वाणीमात्र से ही पुत्र संज्ञा कही है

अध्याय

[६१]

प्रधान विषयं

पृष्ठाङ्क

( ३५६ ) । भ्राता के पुत्र का परिग्रह ( ३६०-३६३ ) । किसी पुत्र को लेने के लिये स्वीकृति होनेपर यदि औरस पुत्र हो तो दोनों को रक्खें नहीं पाप लगता है ( ३६४-३६७ ) । पुत्रदान के समय में जो कहा गया पूरा करना चाहिये (३६८-३७५) । भाई के पुत्र को लेने पर दिये हुए का समांश औरस गोत्र का चौथा हिस्सा ( ३७६-३८० ) ।

उसे

दत्तक से औरस उपनीत न होनेपर प्रायश्चित्त (३८१- ३८२ ) । भार्या पुरुष का पुत्र ग्रहण ( ३८३-३८८ ) । उस समय की प्रतिज्ञा पूरी न करने से दोष ( ३८६- ३६६ ) । सपत्नियों में पुत्र के ग्रहण के समय जो रहे तो वह माता दूसरी सपत्नी माता (३६०-३६१) । अन्य मातामहादि का स्थान ( ३६१ - ३६५ ) । सपत्नी का पिता मातामह नहीं ( ३६६ ) । सपत्नी माता का तर्पण ( ३६६-३६८ ) ।

औपासनाग्नौ श्राद्धेऽप्रमादवर्णनम्

[[२६६१]]

सपत्नी माता का औपासन अनि में श्राद्ध (३६६) । पत्नी की अग्निं (४०० - ४०१) । भाई के पुत्र के ग्रहण की विधि ( ४०२-४११) । विभाग में भाई बराबर है ( ४१२- ४१३) । कामज पुत्रों का वर्णन ( ४१४-४३३) । दत्तादि

अध्याय

[ ६२ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

में विशेष ( ४३४ - ४४५) । पत्नी की वैशिष्ट्यता (४४६ - ४४६ ) पुत्रों का ज्येष्ठ कानिष्ठ्य ( ४५० ) ।

भोगिनी ( ४५१) । भर्मणा, वा वातादि पत्नियों का वर्णन ( ४५६–४६४ ) । धर्मपत्नी से उत्पन्न शिशु

का ही स्पर्श मात्र कर्तृत्व (४६५ - ४७१ ) । सन्निधि भी स्पर्शमात्र कर्तृत्व ( ४७२-४७४ ) । श्राद्धादि में अत्यन्त तृप्तिकर पदार्थ ( ४७५ - ४८१ ) । गौरी दान वृषोत्सर्ग व पितरों को अत्यन्त तृप्ति कर कहे हैं (४८२- ४८३ )। जकारपञ्चक का वर्णन (४८४ - ४८५) । ग्रहण श्राद्ध का लक्षण (४८६ - ४६५) । पनस स्थापित महान् विशेष है ( ४६६-५०३ ) । अलर्क श्राद्ध (५०४-५०८)।

श्राद्धार्हदिव्यशाकवर्णनम्

३०.०३

श्राद्ध के योग दिव्य शाक ( ५०६-५३० ) ।

पनस की महिमा ( ५३१ - ५७१) ।

रोदन का फल

( ५७२–५८५ ) । . उर्वारु महिमा ( ५८६ - ६०३ ) । उर्वारु को छोड़ने में दोष ( ६०४ - ६०५ ) । छियानवे श्राद्धों का वर्णन ( ६०६-६१६ ) । १०८ श्राद्ध प्रकृति श्राद्ध, दर्श श्राद्ध, दर्श और आब्दिक समान हैं मन्वादि श्राद्ध, संक्रान्ति श्राद्ध, संक्रान्ति पुण्यवास ( ६२०–६४८ ) । · अन्न श्राद्ध में कुतप ( ६४६ - ६५४ .) । ..दर्श संक्रान्ति आदि श्राद्ध ( ६५५-६५७ ) । महालय

अध्याय

[ ६३ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क ( ६५७ - ६५६ ) । श्राद्ध देवता ( ६६०-६६४ ) । पित्र्य कर्मों में प्रदक्षिणा न करे । शून्य ललाट रहे गृहालङ्कार भी न करे ( ६६५-६६७ ) । मातृवर्ग में प्रदक्षिणादि व अलङ्कार ( ६६८–६७० ) । श्राद्धभेद से विश्वेदेव, सापिण्ड वर्णन ( ६७१ - ६७५ ) । आशौच दश, तीन और एक दिन रहता है ( ६७६ - ६८३ ) । अमादि श्राद्ध में कर्तव्य ( ६८४ - ६८७ ) । एकोद्दिष्ट के अधिकारी ( ६८८-६६३ ) ।

अपिण्डक और सपिण्डक श्राद्ध ( ६६०-६६३ । छियानवे श्राद्धों की संख्या का विचार ( ६६४-७०० ) । महालय, सकृन्महालय में भरण्यादि की विशेषता महा- लय का काल, यतियों का महालय, दुर्मृतों का महालय ( १०१ - ७०६ ) । सुमङ्गली का श्राद्ध ( ७१०–७१६) । महालय से दूसरे दिन तर्पण ( ७१७ - ७१८ ) । रवि के उदय से पूर्व तर्पण ( ७१६ ) ।

निमन्त्रणार्हविप्राणां वर्णनम्

[[३०२५]]

जीवत्पितृक श्राद्ध ( ७२०-७२२ ) । श्राद्ध में वैदिक अनि के अधिकारी (७२३-७२६) । अष्टकामासिक श्राद्ध (७२७–७३२) । श्राद्ध प्रयोग में निमन्त्रण के योग्य व्यक्तियों का वर्णन (७३३ - ७३६) । वेदहीन को निमन्त्रण देने पर निषेध एवं प्रायश्चित्त (७३७-७४० ) । अपने

अध्याय

[ ६४ ]

प्रधानं विषय

पृष्ठा

शाखा के ब्राह्मण की ही श्लाध्यता ( ७४१-७४२ ) । श्राद्ध में अभोज्य ( ७४३ - ७६८ ) । वरण (७६६-७७४)। प्रसाद के लिये दर्भदान ( ७७५–७७६ ) । मण्डल पूजा

(७७७–७७६) । गुल्फों के नीचे धोना (७८० – ७८१) । आचमन कर्ता के पहले भोक्ता का आचमन देवादि के भोजन की दिशा वरणत्रयकाल, विष्टर, अर्घ्य, आवाहन गन्धाक्षतादि दान (७८२-८०१ ) । अग्नौकरण फिर सङ्कल्प परिवेषण (८०२-८१७ ) ।

परिवेषणे पौर्वापर्यवर्णनम् ·

[[३०३]]

पौर्वापर्य में पहले सूप देना ( ८०८ - ८१४ ) । रक्षोघ्न मन्त्र यदि असमर्थ हो तो दूसरे द्वारा बोला जाय ( ८१५-८१८) । गरम ही परोसना चाहिये ( ८१६- ८२५) । मन्त्र बोले जाय मन्त्रों की विकलता नाश के लिये वेद का घोष ( ८२६-८४८ ) । शास्त्र विरोधि - त्याज्य हैं (८४६–८६०) । तिलोदक पिण्डदान नमस्कार अर्चन, पुत्रकलत्रादि के साथ पितृ आदि की प्रदक्षिणा व नमस्कार ( ८६१–८६८ ) । मध्यम पिण्ड का परि- मार्जन कर धर्मपत्नी को दे दे ( ८६६-८७२ ) । श्राद्ध दिन में शूद्र भोजन निषिद्ध ( ८७३) । पिता के भोजन के पात्र गाड़ दिये जायं (८७४) ।[ ६५ ]

अध्याय

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

[[३०४१]]

श्राद्धे निमन्त्रितब्राह्मणपूजनवर्णनम्

उढ़ कुम्भ (८७५–८७७) । प्रथम वर्ष तिल तर्पण न करे सपिण्डीकरण के बाद श्राद्धाङ्गतर्पण (८७८-८८२) । श्राद्ध

निमन्त्रित ब्राह्मणों की पूजा का वर्णन (८८३-८६२) । पितरों के निमित्त रजत और देवता के निमित्त स्वर्ण मुद्रा दे । उपस्थान और अनुब्रजनादि का कथन (८६३-८६७) । कर्म के मध्य में ज्ञानाज्ञानकृत दोष का प्रायश्चित्त (८६८- ६०४ ) । उच्छिष्टादि श्राद्ध में सात पवित्र (६०५-६०६) । उच्छिष्ट, निर्माल्य, गङ्गामहिमा, महानदी, नदियों का रजस्वलात्व, पुण्यक्षेत्र ( ६१० - ६४२ ) । वमन (६४३ - ६४५) । फिर श्राद्ध प्रकरण ( ६४६ - ६५० ) ।

‘अनुमासिक में उच्छिष्ट वमनमें व उच्छिष्ट के उच्छिष्ट स्पर्श में विचार (६५१-६५६ ) । एक दूसरे के स्पर्श में ( ६६०-६६४) । दर्शादि में छींक आने पर विचार (६६५-१७३) । अपुत्र की असापिण्ड्यता (६७४-६७५)। पति के साथ अनुगमन में पत्नी का एक साथ ही पिण्डदान (६७६-६७८)। मृत के ग्यारहवें दिन या दूसरे दिन सहगमन में श्राद्ध (१८३ - ६८८ ) । यदि पत्नी ऋतुकाल में हो पति के मरण पर तो पति को तैल की कड़ाही में छोड़ दे और शुद्ध होने पर ही और्ध्वदेहिक

अध्याय

[ ६६ ]

प्रधान विषय

[[୨]]

संस्कार करे (६८६-६६५ ) । उसका पिण्ड संयोजन

( ६६६ ) ।

अन्यगोत्रदत्तकपुत्रकृत्यवर्णनम्

[[३०५]]

माता के सापिण्ड्य न होने का स्थल (६६७-६६८)। दत्तपुत्र का पालक पिता का सापिण्ड्य होता है (ह)। दत्तपुत्र का औरसपिता के प्रति कृत्य ( १०००-१००५)। अन्य गोत्र दत्त का सपिण्डीकरण में विधान (१००६- १००८) । कथातृप्ति ( २०१६ - १०२१ ) । श्राद्ध दिन में वर्ज्य ( १०२२ ) । श्राद्ध के दिन दान जप न करे ( १०२३-१०२७) । दर्श में मृताह के श्राद्ध को पहले करे ( १०२८ ) । मृताह के दिन मातामहादि का श्राद्ध

हो तो मन्वादिक श्राद्ध करे ( १०२६-१०३१ ) ।

मृताह में नित्यनैमित्तिक आ जांय तो नैमित्तिक पहले करे ( १०३२-१०३४) । दर्श में बहुश्राद्ध हों तो दर्शादि को कर फिर कारुण्य श्राद्ध करे उसमें मत- मतान्तर ( १०३५-१०४४) । किन्हीं का कल्प प्रकार ( १०४५ - २०५६ ) । भ्रष्टक्रिया का विधान, पतित की पच्चीस वर्ष के बाद क्रियायें हों ( १०६०-१०७२ ) । श्राद्धाङ्ग तर्पण दूसरे दिन ( १०७३ - १०७५ ) । उद्देश्य त्याग के समय सव्यविकिर न करें ( १०७६ - १०७८ ) । वमन में कर्ता के भोजन न करने पर अर्ध तृप्ति, तिल

Joo

अध्याय

[ ६७ ]

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

द्रोण का विधान, दर्शश्राद्ध तर्पण रूप से तिल ही मुख्य हैं। सभी कर्मों में जल की प्रधानता (१०७६-१११३) । ॥ आङ्गिरसस्मृति के पूर्वाङ्गिरसम् की विषय-सूची समाप्त ॥

आङ्गिरस ( २ ) उत्तराङ्गिरसम्

१ धर्मपर्षत्प्रायश्चित्तानां वर्णनम्

[[३०६६]]

विधिः ( १-१० ) ।

२ परिषद उपस्थानलक्षणम्

[[२०६७]]

परिषद् के उपस्थान का लक्षण और उसके सामने

निर्णय पूछने की विधि ( १-१० ) ।

३ प्रायश्चित्तविधानम्

[[३०६८]]

४ परिषल्लक्षणवर्णनम्

सत्य की महिमा व किये गये कुकृत्यों के लिये सत्य

बोलकर प्रायश्चित्त पूछने का विधान (१-११ ) ।

प्रायश्चित्त का लक्षण ( १-२ ) । परिषत् का लक्षण

और उसके मेद ( १ १० ) । ..

[[३०६६]]

अध्याय

[ ६८ ]

पृष्ठा

[[३०७]]

प्रधान विषय

५ प्रायश्चित्तनियन्तृकथनम्

दशावरापरिषद् ( १ ) । चतुर्वेद्य (२) । विकल्पी (३) । अङ्गवित् (४) । धर्मपाठक (५) । आश्रमी (६) । ब्राह्मणों की परिषद् आगे प्रायश्चित्त नियन्ताओं का वर्णन बताया है ( १-१४ ) ।

६ प्रायश्चित्ताचारकथनम्

प्रायश्चित्त के आचार का वर्णन ( १ - १५ ) ।

७ पापपरिगणनम्

[[३०७]]

[[३०७]]

जानते हुए भी प्रायश्चित्त का विधान पूछने पर ही. करे (१-२) । पापपरिगणन ( ३-७ ) । पञ्चमहापात- कियों का वर्णन (८) । पतितों का वर्णन ( ८-९ ) । ८ शूद्रान्नस्य गर्हितत्ववर्णनम्

[[३०७]]

प्रतिग्रह में प्रायश्चित्त ( १ )। शूद्रान्न के भोजन में प्रायश्चित्त (२) । शूद्र की प्रशंसा कर स्वस्तिवाचन में प्रायश्चित्त ( ३-५ ) । प्रतिग्रह लेकर दूसरों को दे दे (६) । शूद्रान्नरस से पुष्ट वेदाध्यायी का प्रायश्चित्त ( ७ ) । शूद्रान्न छै मास तक खाने से शूद्र के समान हो जाता है एवं मरने पर कुत्ता होता है ( ८ ) । सारी उम्र खानेवाले को भी शूद्र ही होना पड़ता है ( ६ ) । प्रति-

अध्याय

[ ६६ ]

प्रधान विषय

. ग्रहकेयोग्यधान्य ( १०-११ ) । पात्र से लेना चाहिये. :

प्रतिग्राह्य वस्तुयें (१२-२० ) ।

६ अभक्ष्यभक्षणप्रायश्चित्तम्

[[३०७७]]

अभक्ष्यभक्षण का प्रायश्चित्त (१-८) । भिक्षुकों की गणना ( ६-१० ) । कुत्ते से काटे हुए का प्रायश्चित्त

( ११-१६ ) । १० हिंसाप्रायश्चित्तकथनम्

[[३०७६]]

हिंसा का प्रायश्चित्त वर्णन (१) । दण्ड का लक्षण (२) । गौओं के प्रहार करने से प्रायश्चित्त ( ३ ) । गायों के रोधनादि से मरने पर प्रायश्चित्त ( ४-५ ) । गायों की हड्डी आदि मारने से टूटने पर प्रायश्चित्त ( ६-१० ) । किन-किन अवस्थाओं में प्रायश्चित्त नहीं लगता उसका परिगणन ( ११-१४ ) । गजादि प्राणियों की हिंसा में प्रायश्चित्त ( १५-१६ ) । काम और कामादिकृत पापों के प्रायश्चित्त के लिये विशेष वर्णन

( १६-१६) । बालक वृद्ध और स्त्रियों के लिये प्राय- श्चित्तविधि (२०-२१ ) ।

११ गोवधप्रायश्चित्तकथनम्

[[३०८१]]

गोवध करनेवाले का प्रायश्चित्त वर्णन ( १ - ११ ) ।

·

अध्याय

[ ७० ]

पृष्ठाङ्क

३०८ः

प्रधान विषय

१२. कृच्छ्रादिस्वरूपकथनम्

प्रायश्चित्तविधि ( १-४ ) । कृच्छ्रादि का स्वरूप कथन ( ५-८ ) । ब्राह्मण महिमा -

समस्तसम्पत्समवाप्तिहेतवः समुत्थितापत्कुलधूमकेतवः । अपारसंसारसमुद्रसेतवः पुनन्तु मां ब्राह्मणपादपांसवः ॥

( ६-१६ ) ।

आङ्गिरस ( २ ) के उत्तराङ्गिरस प्रकरण की विषय-सूची

समाप्त ।

भारद्वाज स्मृति के प्रधान विषय

१ भारद्वाजम्प्रति सन्ध्यादिप्रमुख कर्मविषये

भृग्वादिमुनीनां प्रश्नः

[[३०८५]]

भारद्वाज मुनि से भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, शाण्डिल्य, रोहित आदि महर्षियों ने नित्यनैमित्तिक क्रियाओं को लेकर प्रश्न किया (१-७) । उन्होंने बतलाया कि नित्या- नुष्ठानों के न करनेवालों की सभी क्रियायें निष्फल होती हैं। दिशाओं के निर्णय से लेकर प्रायश्चित्त तक २५ अध्यायों का संक्षेप से निरूपण (८-२० ) ।

[ ७१ ]

अध्याय

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

[[३]]

२. दिग्भेदज्ञानवर्णनम्

[[३०८७]]

पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण दिशाओं के ज्ञान की

सरलविधि (१-४) । अन्य दिशाओं का परिज्ञान प्रकार ( ५-७७ ) ।

३ विण्मूत्रोत्सर्जनविधिवर्णनंम्

४ आचमनविधिवर्णनम्

मलमूत्र विसजन की विधि ( १-८ ) ।

[[३०६४]]

[[३०६७]]

आचमन के पूर्व जङ्घा से जानु तक या दोनों चरणों को और हाथों को अच्छी प्रकार धोकर आचमन का विधान ( १-५ ) । जल में खड़ा हुआ जल में ही आच- मन करे, जल के बाहर हो तो बाहर (६-७) । अंग-न्यास, देवताओं का स्मरण, आचमन कितना लेना चाहिये, बिना आचमन के कोई कर्म फल नहीं देता अतः इसका बराबर ध्यान रक्खा जाय ( ८-४१ ) ।

५ – दन्तधावनविधिवर्णनम्

[[४००१]]

मुख शुद्धि के लिये दन्तधावन का विस्तार से निरूपण, दन्तधावन के लिये वर्ज्य तिथियां एवं समय तथा कौन- कौन काष्ठ ग्राह्य हैं तथा कौन-२ अग्राह्य हैं इसका निरू- पण, मौन होकर दन्तधावन करे (१-२५)। स्नानविधि

अध्याय

[ ७२ ]

प्रधान विषय

पृष्ठा

का वर्णन ( २६-३८ ) । ललाट में तिलक का विधान (४०-४५ ) ।

६ त्रिकालसंध्याविधानकथनम्

[[४००]]

एक ही सन्ध्या के कालभेद से तीन स्वरूप - प्रथमं काल की ब्राह्मी दूसरे की ( मन्याह्न की ) वैष्णवी तीसरे की रौद्री सन्ध्या कही गई है । यही ऋक्, यजु और सामवेदों के तीन रूप है । इनके नित्य ही द्विजमात्र को कर्तव्य इष्ट हैं । सन्ध्या की मुख्य क्रियाओं का विस्तार से परिगणन (१-६८ ) । गायत्री के जपविधान का कथन ( ६६-१४०)। गायत्री का निर्वचन ( १४१ - १६३ ) । जप यज्ञ की महिमा ( १६४ - १८१ ) । ७ जपमालाया विधानकथनम्

[[४०२१]]

जपमाला का विधान और जपमाला की प्रतिष्ठा विधि । जपं विधान में अर्थ का प्राधान्य और साथ

में मनोयोग पूर्वक करने से ही इष्टसिद्धि मिलती है ( १-१२३ ) ।

८ जपे निषिद्धकर्मवर्णनम्

जप में निषिद्ध कर्मों का वर्णन (१-१२ ) ।

९ गायत्र्याः साधनक्रमवर्णनम्

[[४०३६]]

[[४०३८]]

गायत्री के साधनक्रम को जानने से ही सद्यः सिद्धि

मिलती है अतः उसको जानकर जप किया जाय (१-५०) ।

[[106]]

अध्याय

[[१०]]

[[६]]

११ गायत्र्याः पूजाविधानकथनम्

गायत्र्या मन्त्रार्थकथनस्

गायत्री के मन्त्र का अर्थ का विस्तार से निरूपण (१-६) ।

गायत्री का पूजा विधान ( १ - ११८ ) । गायत्री

[ ७३ 1

प्रधान विषय

पृष्ठाङ्क

[[४०४३]]

[[४०४४]]

पुष्पाञ्जलि का प्रकार ( १११-१२१ ) ।

१२ गायत्रीध्यानवर्णनम्

[[४०५६]]

गायत्री का ध्यान वर्णन ( १-६१ ) ।

१३ गायत्रीमूलध्यानवर्णनम्

[[४०६३]]

गायत्री का मूलध्यान और महाध्यान का वर्णन (१-४४)।

१४ पूजाफलसिद्धये द्रव्यगन्धलक्षणवर्णनम्

[[४०६६]]

[[8]]

पूजाफल की सिद्धि के लिये नाना द्रव्य गन्धलक्षण

का विस्तार से निरूपण (१-६४ ) ।

१५ यज्ञोपवीतविधिवर्णनम्

[[४०७२]]

यज्ञोपवीत की विधि का वर्णन-निवीत और प्राचीनावीत का लक्षण । शुद्ध देश में कपास का बीज बोया जावे, उसके तैयार होनेपर ही ब्रह्मसूत्र को विधिवत् वनाया जाय । नाभि के बराबर ६६ छियानवे चार हस्ताङ्गुल प्रमाण से बनाकर शुद्ध मन से देवगण ऋषियों का ध्यान करते हुए इस ब्रह्मसूत्र को पहने ( १ - १५४ ) ।

अध्याय

[ ७४ ]

प्रधान विषय

१६ यज्ञोपवीतधारणविधिवर्णनम्

[[60]]

[[४१]]

शुद्ध होकर आचमन कर आसन पर बैठे फिर आचार्य, गणनाथ, वाणीदेवता, देवता, ऋषिगण और पितरों का स्मरण करे । भगवान्, ब्रह्मा, अच्युत और रुद्र को भक्ति से नमस्कार करे, नवों तन्तुओं में आवा- हन कर यज्ञोपवीत का धारण करे (१-६३) । १७ यज्ञोपवीतमन्त्रस्य ऋषिच्छन्द आदीनां वर्णनम् ४१ यज्ञोपवीत मन्त्र के ऋषि छन्द देवता आदि का विस्तार से वर्णन (१-३१ ) ।

१८ सप्रयोजनकुशलक्षणवर्णनम्

[[४१६]]

कुशों के विना कोई भी नित्यनैमित्तिक क्रिया का सम्पादन शक्य नहीं अतः कौन सी ग्राह्य है और कौन सी अग्राह्य है इसका निरूपण (१ - १३१ ) ।

१६ व्याहृतिकल्पवर्णनम्

[[४२०]]

व्याहृतियों का विस्तार से निरूपण ( १-४८ ) । व्याहृतियों से सम्पूर्ण कार्यसिद्धि शक्य है ( ४६ ) ।

॥ भारद्वाजस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥८

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥