अधिग्रन्थम्

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

अथ स्मृतिसन्दर्भस्य द्वितीयभागस्थ मुद्रितस्मृतीनां नामनिर्देशः ।

स्मृतिनामानि

पृष्ठाङ्काः

११ पराशरस्मृतिः

[[६२५]]

१२ बृहत्पराशरस्मृतिः

[[६८२]]

१३ लघुहारीतस्मृतिः

[[६७४]]

१४ वृद्धहारीतस्मृतिः

[[६६४]]

मुद्रा करकाराघातकातरा कापि भारती । करुणार्द्रकरस्पर्शः सुधियः सान्त्वयन्तु ताम् ॥१॥ स्मृतिवचनमयेऽस्मिन् मंग्रहेचदशुद्धिः । सदय हृदयमद्भिः शोधनीया महद्भिः ॥ प्रभवतु परितुष्टिः सर्वथाऽलोकनेन ।

मिलितकरयुगाभ्यां याचये श्रीमहेशः ॥ २ ॥

इतिविदुषामनुचरस्य —

श्रीमहेश्वर मिश्रस्य

( मैथिलम्य )

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

विषय-सूची

स्मृतिसन्दर्भ द्वितीयभाग की विषय-सूची

पराशरस्मृति के प्रधान विषय ।

अध्याय

प्रधानविषय

पृष्ठाङ्क

वर्तमान कलियुग में पराशर स्मृति का मुख्य स्थान माना गया है । पराशर संहिता दो उपलब्ध हैं पराशरस्मृति और बृहत्पराशर । पराशर स्मृति में द्वादश अध्याय हैं, वृहत्पराशर में भी उतनी ही । प्रथमाध्याय में दोनों स्मृतियों में एक जंमा वर्णन “कलौपाराशरीस्मृता " दूसरे अध्याय से बृहत्पराशर में कुछ विशेष बात और विचार वर्णन किया है। पराशरस्मृति किस देश विशेष, संप्रदाय विशेष, जाति विशेष को लेकर धर्माख्या नहीं करती है, अपि तु मनुष्यमात्र का पथ-प्रदर्शित यह स्मृति करती है। इसके प्रारम्भ में ऋषियों ने इस प्रकार प्रश्न किया ।

अध्याय

[ ३ ]

प्रधानविपय

१ धर्मोपदेशं तल्लक्षणवर्णनञ्च-

" मानुषाणां हितं धर्म वर्तमाने कलीयुगे शौचाचारं यथावच्च वद सत्यवतीसुत !"

[[६२५]]

वतमान कलियुग में मनुष्यमात्र का हित जिससे हो वह धर्म कहिए और ठीक-ठीक रीति से शौचाचार की रीति भी बतला दीजिये-पियों के प्रश्न करने पर व्यासजी ने उत्तर दिया कि कलियुग के सार्वभौम धर्म के विकाश करने में अपने पिता पराशरजी की प्रतिभा शक्ति की सामर्थ्य कही यतः पराशरजी निरन्तर एकान्त बदरिकाश्रम की तपोभूमि में आसीन हैं । तपोमय भूमि में तपस्याम्पी साधन के विना कलियुग के धर्म, व्यवहार, मर्यादा पद्धति का पर्पदीकरण अवैध सूचित किया ऋषियों ने इस बात पर विचार किया कि कलियुग के मनुष्य किसी धर्म मर्यादा की पर्षद बुलाने की क्षमता नहीं रख सकते हैं यावत् तपोमय जीवन से इन्द्रियों की उपरामता न हो जाय यतः इन्द्रिय भोग विलासिता के जीवनवाले वेद शास्त्रपारंगता प्राप्त करने पर भी धर्म, न्याय विधिको नहीं बना सकते हैं । अतः विधि, नियम रूपी धर्म व्यवहार के लिये

अध्याव

प्रधानविपय

पृष्ठाङ्क

१ तपस्या तथा वनस्थली में राग, द्वेप, मल प्रक्षालनार्थ ६२५ निवास करना परमावश्यक है। पराशरजी के आश्रम पर व्यास प्रमुख सत्र ऋषि गये पराशरजी ने मानवीय सदाचार द्वारा आश्रम में आये हुये सब का स्वागत किया । व्यासजी ने पितृभक्ति से पराशरजी को प्रणाम कर निवेदन किया :-

“यदि जानामि मे भक्ति स्नेहाद्वा भक्तवत्सल ? धर्म कथय मे तात ! अनुग्राह्योद्ययं तव” ॥

( पुत्र पिता से सर्वाच्च वस्तु क्या चाहता है यह समुदा- चार इस प्रश्न से सरलता से ज्ञात हो रहा है) व्यासजी कहते हैं कि भगवन् ! यदि मेरी भक्ति को आप जानते हैं या मेरे स्नेह को तो मुझे धर्मका उपदेश कीजिये जिससे मैं आपका अनुगृहीत होऊंगा । पुत्र पिता से सबसे बड़ा धन धर्म मांगता है यह भारत की संस्कृति है ( एक ओर व्यासजी की पिता की निधि धर्म जिज्ञासा, दूसरी ओर संसार में देखो पैतृक धन संपत्ति पर न्याया- लयों में पुत्र पिता पर अभियोग चलाते हैं ) इससे सांस्कृतिक जीवन, अमांस्कृतिक जीवन का सरलता से ज्ञान हो जायगा । संस्कृति उसे कहते हैं जिससे धर्म

अध्याय

[[१]]

[ ]

प्रधान विषय

का ज्ञान माता, पिता, गुरु, बन्धुजनों को पूज्य व्यवहार ६२६ की मर्यादामय प्रकृति होजाय । व्यासजी ने विनम्र

जिज्ञामा की - मनु, वसिष्ठ, कश्यप गर्ग, गौतम, उशना, हारीत. याज्ञवल्क्य, कात्यायनः प्रचेता आपस्तम्ब, शंख, लिखित आदि धर्मशास्त्र प्रणेताओं के धम निबन्ध सुनने पर भी वर्तमान कलियुग की धर्म- मर्यादा बनाने में अपने को असमर्थ समझकर आपके पास इन ऋषियों के साथ आया हूं कलियुग में धर्म को नष्टप्राय देख रहा हूं। अतः आपका तपोमय जीवन ही इस युग भ्रम की व्यवस्था दे सकता है, इसपर व्यासजी ने ( १६-२६ ) तक युग चतुष्टय की व्यवस्था धर्म मर्यादा का तारतम्य बताया है । ( २ ) में दान के प्रकरण में सेवा दान दान नहीं है वह सेवा का मूल्य है । सत्ययुग में अस्थि में प्राण रहते थे. त्रेता में मांस में. द्वापर में रुधिर में और कलियुग में अन्न में प्राण रहते हैं ( ३० ) । इस कारण दीर्घ समय तक तपस्या की क्षमता कलियुग के जीवन में नहीं है और अन्न की सावधानी पर ध्यान दिलाया जैसा अन्न खायगा उसी प्रकार उसके जीवन की सम्पूर्ण घटना होगी। कलियुग के जीवन की प्रवृत्ति बनाकर आचार पर ध्यान दिलाया है ( ३१-३७ ) ।

अध्याय

[ ६ ]

प्रधान विषय

आचार धर्मवर्णनम् -

१ " आचार भ्रष्टदेहानां भवेद्धर्मः पराङ्मुख" ।

पृष्ठाङ्क

[[६२६]]

व्यासजी ने अपना सिद्धान्त स्पष्ट किया है कि यदि मनुष्य आचार से च्युत है तो उसे धर्मपराङ्मुख समझना चाहिए । सदाचार विहित धर्म मर्यादा को नहीं जान सकता है।

“सन्ध्यास्नानं जपो होम स्वाध्यायो देवताच्चैनम् । वैश्वदेवातिथेयञ्च पटकर्माणि दिने दिने ॥ ( ३६ ) पटकर्माभिरतो नित्यं देवताऽतिथिपूजकः । हुतशेषन्तु भुञ्जानो ब्राह्मणो नावसीदति" ॥ (३८)

पटू कर्म का निम्पण, गृहस्थी को अतिथि का सत्कार परमावश्यक है वैश्वदेव कर्मादि का निरूपण और अतिथि का लक्षण ( ३८-५८ ) । राजा की प्रजा से सर्वस्वशोषण का निषेध “पुष्पं पुष्पं विचिनुयान्मृलच्छेदं न कारयेत्" मालाकार का उदाहरण दिया है ( ५८ समाप्ति तक ) । २ गृहस्थाश्रमधर्मवर्णनम् ।

[[६३१]]

द्वितीयाध्याय में गृहस्थी के धमांचार का निर्देश किया है ( १ ) ।[ ७ ]

अध्याय

प्रधानविपय

पृष्ठाङ्क

२ " षटकर्म निरतो विप्रः कृषिकर्माणि कारयेत् ( २ ) । ६३१

हलमष्टगवं धम्य षडगवं मध्यमं स्मृतम् ॥ चतुर्गवं नृशंमानां द्विगवं वृषघातिनाम् (३) । क्षुधितं तृषितं श्रान्तं बलीवर्द न योजयेत् ॥ हीनाङ्ग व्याधितं क्लीवं वृपं विप्रा न वाहयेत् ( ४ ) । स्थिराङ्गं नीरुजं दृप्तं वृषभं पण्डवर्जितम् ॥ वाहयेदिवसस्यार्थं पश्चात् स्नानं ममाचरेत् " ( ५ ) ।

पट्कर्म सम्पन्न विप्र को कृषि कर्म में जुट जाने का आदेश हैं, किस प्रकार भूमि में हल से जुताई करे, कितने बैलों से हल जोते तथा बैलों को हृष्टपुट बनाना उसका धर्मकार्य और कितने समय तक बैलों की खेती पर जीते जाय इसका नियम । कृषि कर्म को पराशर ने सब से प्रथम द्विजाति मात्र अर्थात मनुष्य मात्र के लिये प्रधान कम बताया है और कृपिकार सब पापों से छूट जाते हैं ( १२ ) । चतुर्वर्ण का कृषि कर्म धर्म बतलाया है ( १७ ) । ३ अशौच व्यवस्था वर्णनम् ।

[[६३३]]

अशौच का प्रकरण - ब्राह्मण मृतसूतक में ३ दिन में, क्षत्रिय १२ दिन में, वैश्य १५ दिन में और शूद्र १ मास

अध्याय

प्रधान विषय

में शुद्ध हो जाता है । तृतीय अध्याय में जन्म और मरण के अशौच का विवरण दिया गया है । किन्तु जातक अशौच में ब्राह्मण १० दिन में शेप पूर्व लिखित है । बालक और संन्यासी के मरने पर तत्काल शुद्धि बताई है । १० दिन के बाद खबर पावे तो ३ दिन का सूतक, और सम्वत्सर के वाद खवर पावे तो स्नान करके शुद्धि हो जाती है ( १-१६ ) । गर्भ में मरने की और सद्यः मरने की तत्काल शुद्धि होती ( २६ ) । शिल्प काम

she

करने वाले, राजमजदूर, नाई, वैद्य, नौकर, वेदपाठी और राजा इनको सद्यः शौच बतलाया है ( २७-२८ ) ।

गर्भस्त्राव का सूतक बतलाया है ( ३३ ) । विवाहोत्सव में मृतक सूतक हो जाय तो उसमें पूर्व दान किया हुआ दे ले सकता है ( ३४-३५ ) । मंग्राम वाले की मृत्यु का १ दिन का अशौच माना गया है और उसका माहात्म्य बतलाया है ( ३६-४३ ) । संग्राम में क्षत्रिय के देहपात का माहात्म्य (४४-४७। शूद्र के शव ले जाने वाले पर सूतक की अवधि ( समाप्ति ) ।

४ अनेकविधप्रकरण प्रायश्चितम् ।

पृष्ठाङ्क

[[६३६]]

जो किसी को फांसी में लगावे उसका पाप और उसको

अध्याय

[ ]

प्रधानविपय

पृष्ठाङ्क

चान्द्रायण करना चाहिये ( १-६ ) । जो बिना इच्छा के पतितों से सम्पर्क रखता है उसकी शुद्धि के लिये बतलाया

है

( ७-११) । जो स्त्री ऋतुकाल में पति के पास न जावे

अथवा पति पत्नी के पास न जावे उसका वर्णन

( १०-१६ ) ।

औरस, क्षेत्रज, दत्तक, कृत्रिम पुत्रों की

परिभाषा है ( १७-०८ ) ।

५ प्रायश्चित्त वर्णनम ।

इसमें प्रायश्चित्त का वर्णन आया है।

[[६४२]]

कुत्ता, भेड़िया

किसी को कांटे उसको गायत्री जपादि प्रायश्चित्त बत- लाया है (१-७) । चाण्डाल, चमार आदि से जो ब्राह्मण मर जाय उसका प्रायश्चित्त ( ८-१२ ) ।

५ श्रौताग्निहोत्र संस्कार वर्णनम् ।

[[६४३]]

आहिताग्नि के शरीर छूटने पर उसके श्रौताग्नि से उसका किस प्रकार संस्कार करना इसका विवरण हे (१३-३५) । ६ प्राणिहत्या प्रायश्चित्त वर्णनम् ।

[[६४४]]

प्राणिहत्या का प्रायश्चित्त - हस. मारस क्रौंच, टिड्डी आदि पक्षियों को मारने से जो पाप होता है उसका प्रायश्चित्त और शुद्धि (१-८) । नकुल माजर, सर्प आदि को मारने का पाप उसका प्रायभित्त और शुद्धि

अध्याय

[ १० ]

प्रधानविषय

( ६-१० ) । भेड़िया, गीदड और सूकर मारने का पाप, उसका प्रायश्चित्त और शुद्धि ( ११ ) । घोड़े, हाथी मारने का पाप, उसका प्रायश्चित्त और शुद्धि ( १२ ) । मृग, वराह के मारने का पाप उसका प्रायश्चित्त और शुद्धि (१३-१४ ) । शिल्पी, कारु और स्त्री आदि के घात का पाप प्रायश्चित्त एवं शुद्धि ( १५-१६ ) । चाण्डाल से व्यवहार का पाप उसका प्रायश्चित्त एवं शुद्धि (२०-२५ ) ।

६ प्रायश्चित्त वर्णनम् ।

पृष्ठाङ्क

[[६४७]]

उपर्युक्त के अन्न खाने का प्रायश्रित ( २६-३० ) । अविज्ञान में चाण्डाल आदि के यहां ठहर कर जूठे एवं कृमि दृपित अन्न भोजन करने का दोप और उसका प्रायश्चित्त तथा शुद्धि ( ३१-३८)। घर की शुद्धि जिस घर में चाण्डाल रह गये उस घर की शुद्धि । इन स्थानों

पर रस. दूध दही आदि अशुद्ध नहीं होते हैं ( ३६-४३ ) ।

६ ब्राह्मण महत्चवर्णनम् ।

[[६४८]]

ब्राह्मण के किसी व्रण पर कीड़े पड़ जाय तो उसका वर्णन

और उसकी शुद्धि बताई है

अध्याय

[ ११ ]

प्रधान विषय

“उपवासो व्रतं चंव स्नानं तीर्थ जपस्तपः ।

विप्रैः सम्पादितं यस्य सम्पन्नं तस्य तद्भवत्” ।

ब्राह्मण जो व्यवस्था देते हैं उसके अनुसार चलने का

माहात्म्य ( ४३-५८ ) ।

ब्राह्मण के वाक्य तथा उनका

पृष्ठाङ्क

माहात्म्य ( ५६-६१ ) । अभोज्य अन्न, भोजन करते समय कैसे बैठना चाहिये उसका विधान । कुत्ते का स्पर्श किया हुआ अन्न त्याज्य बताया है और चाण्डाल का देखा हुआ अन्न त्याज्य बताया है ( ६२-६३ ) । एक बड़ी संख्या में जो अन्न अशुद्ध हो जाय तो उसे त्याज्य नहीं बतलाया है बल्कि उसे सोने के जल से अथवा अभि से शुद्ध किया जा सकता है (६४ समाप्ति) ! ७ द्रव्यशुद्धि वणनम् ।

[[६५१]]

लकड़ी के पात्र और यज्ञ पात्र इनकी शुद्धि के सम्बन्ध में बतलाया है ( १-३ ) । स्त्री, नदी, वापी, क्रूप और तड़ाग की शुद्धि के सम्बन्ध में बताया है ( ४-५ ) । रजस्वला होने से पहले कन्या का दान न करने पर माता पिता को पाप ( ६-६ ) ।

७ स्त्रीशुद्धिवर्णनम् ।

रजस्वला स्त्री के शुद्धि के सम्बन्ध में बताया है (१०-१७) ।

[[६५३]]

अध्याय

[ १२ ]

प्रधान विषय

किसी का मत है कि बीमारी से किसी स्त्री का रज

निकलता हो तो उसे अशुद्ध नही मानते हैं

( १८ ) ।

कांस्य. मिट्टी आदि के पात्र एवं

वस्त्रों की

शुद्धि के

सम्बन्ध में बताया है ( १६-३५ ) ।

नाव और पक्के मकान इनको शुद्ध बताया है इनको

सड़क में पानी,

अशुद्ध नहीं कहते हैं

(३६) ।

वृद्ध स्त्री और छोटे

बालक ये अशुद्ध नहीं होते हैं।

पापियों के साथ

बातचीत करने पर दाहिना कान

देने पर शुद्धि बताई

981e

गई है ( २७ समाति ) ।

८ धर्माचरणवर्णनम् ।

[[६५५]]

प्रथम श्लोक में गाय को बाधने से जो मृत्यु हो जाय उसके प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में है

पाप की व्यवस्था कराने के लिये धर्माधिकारी परिषद् का वर्णन है ( २-०१ ) ।

८ निन्द्य ब्राह्मणवर्णनम् ।

[[६५७]]

जो ब्राह्मण न लिखे पढ़े तो उन्हें पतित और उनका प्रायश्चित्त है (२२-०७ ) ।

( ०२-०७) । पञ्च यज्ञ करनेवाले और वेद पढ़े लिखे ब्राह्मण की प्रशंसा ( २८-३१) । राजा को बिना विद्वान ब्राह्मणों के पत्रं स्वयं व्यवस्था नहीं देनी

[ ५३ ।

अध्याय

प्रधान विषय

चाहिये (३२-३६ ) ।

चाहिये ( ३७-३८ ) ।

प्रायश्चित्त किन स्थानों पर करना

८ गोब्राह्मण हेतोरुपदेशः ।

पृष्ठाङ्क

[[६५६]]

गाय किसी स्थान पर कीचड़ में फंस जाय तो उसके रक्षा

का पुण्य ( ३६-४३ ) । गो घाती को प्राजापत्य कृच्छ विधान का वर्णन ( ४४ - समाप्रि ) ।

के

६ गोसेवोपदेशवर्णनम ।

[[६६०]]

गो सेवा का उपदेश । गोबध करने में कौन-कौन दण्डनीय होते हैं। गाय को बांधना, लाठी मारना या काम क्रोध से मारना, पैर वा मींग तोड़ना याने कई तरह गो

को मारने का पाप तथा उसका प्रायश्चित्त बताया गया है ।

६ गवि विपन्नानां प्रायश्चित्तम् ।

[[६६३]]

इसमें गाय के बांधने का एवं नदी और पर्वत पर गाय के चराने का वर्णन । इसमें गायको विपत्ति हो जाय और गाय को किन रम्सियों से बांधना चाहिए और किनसे नहीं बांधना, बिजली गिरने से. अति वृष्टि से यदि गाय मर जाय, इन सम्बन्धों में और गाय के

अध्याय

[ १४ ]

प्रधान विषय

सम्बन्ध में कोई बात न बनावे तो इससे पाप आदि का वर्णन आया है । इस अध्याय के अन्त में यह उपदेश दिया है कि स्त्री, बाल, भृत्य, “गो विप्रेष्वति कोपं विवर्जयेत” इन पर अति कोप नहीं करना (२६ समाप्ति) । १० अगम्यागमन प्रायश्चित्तवर्णनम् ।

[[६६६]]

दशम अध्याय में अगम्यागम्य प्रायश्चित्त का वर्णन है । चातुर्वर्ण को अगम्यागम्य में चान्द्रायण व्रत बतलाया है (१) । चान्द्रायण व्रत की परिभाषा बतलाई है, शुक्लपक्ष में एक - एक ग्रास बढ़ावे और कृष्ण पक्ष में एक एक ग्रास घटावे । ग्रास का प्रमाण कुक्कुट (मुर्गा) के अंड के समान बताया है ( २-३ ) । चाण्डालनी के गमन करने से पाप का प्रायश्चित्त ( ४-६ ) । माता, माता की बहिन और लड़की के गमन करने पर चान्द्रायण व्रत बतलाया है ( १०-१४) । पिता की बहु स्त्रियां और मां की सम्बन्धी, भ्रातृ भार्या, मामी, सगोत्रा इनके गमन का प्रायश्चित्त बतलाया है। पशु और वेश्या गमन या गो गामी या भैंस के साथ गमन करने का प्रायश्चित्त है ( १५-१६ ) । मनुष्य का कर्तव्य - बीमारी, संग्राम, दुर्भिक्ष, कदखाने में भी औरत की रक्षा करता जाय ( १७ ) । व्यभिचार से दुःखित स्त्री के शुद्धि और शुद्धि के प्रसंग में बताया है

अध्याय

[ १५ ]

प्रधान विषय

( १८-२६ ) । जो स्त्री शराब पीवे उसका पति पतित हो जाता है ऐसी पतित स्त्री के पुरुष को कोई चान्द्रायण व्रत नहीं है (२७) । जार से जो स्त्री संतान पैदा करे उसे दूसरे देश में त्याग देना चाहिए (२८-३०) । पतित स्त्री का प्रायश्चित्त यदि पति चाहे तो वो भी कर सकता है (३३-३४) । जो स्त्री जार के घर चली जाय फिर वहाँ से भाग कर यदि पिता के घर आजाय तो वह जार का घर समझा जायगा । काम और मोह से जो स्त्री अपने बच्चों को छोड़ कर जार के घर चली जाय तो उसका परलोक नष्ट हो जाता है ( ३५-४२ ) ।

११ अभक्ष्यभक्षणप्रायश्चित्त वर्णनम् ।

पृष्ठाडू

[[६७०]]

अभक्ष्य भक्षण का प्रायश्चित्त- गोमांस एवं चाण्डाल

पर बैठे

एक पंक्ति

के अन्नादि भक्षण का प्रायश्चित्त ( १७ ) ।

हुए में से एक भी भोजन करने वाला उठ जाय तो जो खाता रहे उसको प्रायश्चित्त बतलाया क्योंकिहुँ

वह अन्न दूषित हो जाता है ( ८-१० ) ।

पलाण्डु ( प्याज ) वृक्ष का निर्यास, देवता का धन और ऊँट, भेड़ का दूध खानेवाले को प्रायश्चित्त ( ११-१४ ) । अज्ञान से जो किसी के घर सूतक का अन्न खाले उसको प्रायश्चित्त ( १५-२० ) । ब्राह्मण से शूद्र कन्या में उत्पन्न

अध्याय

। १ ]

प्रधानविपय

पृष्ठाङ्क

हुए को दास कहते हैं।

जिसके संस्कार हो जाते हैं उसे भी दास कहते हैं और जिसके संस्कार न हो वह नाई होता है ( २२-२४ ) । ब्रह्मकूर्च उपवास की विधि किम तरह की जाय किस मंत्र से - गोमय, दूध, दही लावे इसका वर्णन आया है ( २५-३३ ) ।

११ शुद्धि वर्णनम् ।

[[६७३]]

हवन का विधान ( ३४-३५ ) । ब्रह्मकृच का माहात्म्य

( ३६ ) ।

“ब्रह्मकूर्ची दहेत्सर्व यथैवाग्निरिवेन्धनम” ।

पीते पीते पानी यदि पात्र में रह जाय तो फिर पीने का दोष एवं उसको चान्द्रायण व्रत बतलाया है (३७) । तालाव कुएं में जहां जानवर मर गया हो उस जल के

"

पीने में प्रायश्चित्त से शुद्धि (३८-४०) । पंच यज्ञ का विधान ।

समय के ब्राह्मणों की निन्दा न करनी चाहिये (४३-५३ । १२ शुद्धिवर्णनम ।

पुनः संस्कारादि प्रायश्चित्त वर्णनम् ।

[[६७५]]

खराब स्वप्न देखने से स्नान करने से शुद्धि (१) । अज्ञान से जो सुरापान करे उसका प्रायश्चित्त । २-४ ) । तीनोंअध्याय

[ १७ ]

प्रधानविषय

वर्णों का प्रायश्चित्त, स्नान का विधान, अजिन (मृगचर्म), मेखला छोड़ने पर ब्रह्मचारी के पुनः संस्कार (५-८) । आग्नेय स्नान, वारुण्य स्नान, सातपवर्ष (दिव्य) और भम्म स्नानादि का वर्णन आया है ( ६-१४) । आचमन करने का समय और विधान बतलाया है ( १५-१८ ) । दक्षिण कर्ण का स्पर्श ( १६ ) । सूर्य की किरणों से स्नान का माहात्म्य (२०-२२) । रात्रि में चन्द्रग्रहण पर दान करने का माहात्म्य रात्रि में केवल ग्रहण समय का माहात्म्य है ( २३ ) । रात्रि के मध्य के दो प्रहर को महानिशा कहते हैं । रात्रि के उत्तरार्ध के दो प्रहर को प्रदोष कहते कहते हैं । उसमें दिनवत् स्नान करना चाहिये ( २४ ) । ग्रहण के स्नान का विधान ( २५-२८ ) । जो यज्ञ न कर सकते हों उनको वेदाध्ययन की आवश्यकता है ( २६ ) । शूद्रान्न को भक्षण कर जो प्रायश्चित्त नहीं करते हैं वे जिस जन्म में जाते हैं उन्हें कुत्तं, गीधादि की योनियां प्राप्त होती है ( ३०-३८ ) । जो अन्याय के धन से जीवन चलाता है उसका प्रायश्चित्त ( ३६-४२ ) । गोचर्म कितनी भूमि की संज्ञा है तथा उस भूमि के दान करने का माहात्म्य (४३) । छोटे-छोटे पाप जैसे- मुंह लगाकर जल पीने से पाप (४४ - ५४ ) । ऊपर नीचे का उच्छिष्ट जो अन्तरिक्ष में भरता है उसका प्रायश्चित्त

२-२

अध्याय

[ १८ ]

प्रधानविषय

( ५५-५६ ) । जो गृहस्थी व्यर्थ ( ऋतु कालाभिगमन के

अतिरिक्त ) वीर्य नष्ट करे उसका प्रायश्चित्त ( ५७ ) ।

१२ प्रायश्चित्त वर्णनम् ।

पृष्ठाडू

[[६८०]]

छोटे-छोटे प्रायश्चित्त - सेतुबन्ध में जाना, गोकुल में जाकर अपने पापों के वर्णन करने से पाप नष्ट हो जाते हैं। सेतुबंध में स्नान का माहात्म्य तथा उससे पाप नष्ट हो जाने का वर्णन आया है। इसी प्रकार १०० गाय दान करने से ब्रह्महत्या दूर हो जाती है । मद्यप ब्राह्मण गङ्गाजी में स्नान कर कभी न पीने का सङ्कल्प करे। ऐसी-ऐसी शुद्धियों का वर्णन तथा इनसे पाप दूर करने का विधान आया है ( ५८-७४) ।

बृहत् पराशरस्मृति के प्रधान विषय

इसमें १२ अध्याय है। प्रथम अध्याय में पराशर संहिता के क्रमानुसार ही विभिन्न अध्यायों में वर्णित आचार प्रायश्चित्त आदि विषयों का वर्णन किया है।

१ वर्णाश्रमधर्म वर्णनम् ।

[[६८२]]

प्रथमाध्याय में पराशरजी के पास वर्णाश्रम धर्म कलि- में किस प्रकार से होता है, इस प्रश्न को लेकर व्यास

युग

[ १६ ]

१६]

प्रधानविषय

अध्याय

आदि ऋषि पराशरजी के पास गये

(१-२० ) ।

पृष्ठाङ्क

पराशरजी ने कहा कि वेद और धर्मशास्त्र इन दोनों का कर्ता कोई नहीं है । ब्रह्माजी को जिस प्रकार वेदों का म्मरण हुआ था उसी प्रकार युग-प्रति-युग में मनुजी को धर्मस्मृतियों का स्मरण हुआ । पराशरजी ने कलियुग की वित्र दशा में वेद प्रगट किया कि धर्म दम्भ के लिये, तपस्या पाखण्ड के लिये एवं बड़े-बड़े प्रवचन लोगों की प्रवंचना ( ठगी ) के लिये किये जाते हैं । गायों का दूध कम हो जाता है, कृषि में उर्वरा शक्ति कम हो जाती है, स्त्रियों के साथ केवलमात्र रति की कामना से सहवास करते हैं न कि पुत्रोत्पत्ति के लिये । पुरुष स्त्रियों के वशीभूत होते हैं । राजाओं को वंचक अपने वश में कर लेते हैं। धर्म का स्थान पाप ले लेता है । शूद्र ब्राह्मणों का आचार पालते हैं तथा ब्राह्मण शूद्रवत् आचरण करने लगते हैं । धनी लोग अन्याय मार्ग पर चलते हैं। इस प्रकार कलियुग की विषमता पर अत्यन्त खेद प्रगट किया है ( २१-३५ ) ।

१ धर्मविषयवर्णनम् ।

[[७८६]]

इसमें आचार वर्णन दिखाया और युगों का नाम बताया

अध्याय

[ २० ]

प्रधानविषय

पृष्ठाङ्क

ह। सतयुग को ब्राह्मण युग, त्रेता को क्षत्रिय युग, द्वापर को वैश्य युग तथा कलियुग को शूद्र युग बताया है । वर्णाश्रम धर्म की क्षमता उस भूमि में बताई हैं जिसमें कृष्णसार मृग स्वभावतः स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करते हैं । हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य देश को पावन देश बताया है और अन्य देश जहां से नदियाँ साक्षात् समुद्रगामिनी हैं उन्हें भी तीर्थस्थान बताया है । इसमें पराशरजीने अपने पुत्र व्यास को द्विज कर्म और षट्कर्म वर्ण धर्म की प्रशंसा और गो बृपभ का पालन पशुपालन विधि

षट्कर्म वर्णधर्माश्च प्रशंसा गोवृपस्य च । अदोह्य बाह्यौ यौ तत्र क्षीरं क्षीरप्रयोक्त्रिणा ॥ अमावास्या निषिद्धानि ततश्च पशुपालनम् ॥

विवाह संस्कार, व्रतचर्यादि, पुत्रजन्म, अखिल गृहस्थधर्म का उपदेश, भक्ष्याभक्ष्य की व्यवस्था, द्रव्य शुद्धि, अध्ययनाध्यापन का समय, श्राद्ध कर्म, नारायणवली, सूतक तथा अशौच, प्रायश्चिन्त विधान, दानविधि तथा फल, भूमिदान की प्रशंसा, इष्टापूर्त कर्म, ग्रहों की शान्ति, वानप्रस्थ धर्म, चारों आश्रम, दो मार्ग, अर्चि तथा धूम मार्ग इन सबका वर्णन यथानुपूर्व वृहत् पराशर के द्वादश अध्याय में बताया है ( ३६-६४ ) ।

[ २१ ]

अध्याय

प्रधानविपय

पृष्ठाङ्क

[[२]]

आचारधर्मवर्णनम् ।

[[६८८]]

चारों वर्णों का धर्मपालन में आचार बतलाया है । ब्राह्मण को यज्ञावशेप वृत्ति की प्रशंसा की है ( १-३ ) । व्यासजी ने पराशरजी से पूछा कि कौन-कौन कर्म हैं जो प्रत्येक वर्णों को कलियुग में करने चाहिये तथा उनकी विधि क्या होनी चाहिये ( ४ ) ।

२ नित्य पट्कर्म वर्णनम्, सन्ध्याकृत्य वर्णनम्,

सदाचार कृत्यवर्णनम् ।

[[1]]

“कर्मपटकं प्रवक्ष्यामि यत्कुर्वन्तो द्विजातयः ।

गृहस्था अपि मुच्यन्ते संमारै बन्धहेतुभिः " ॥

[[६८६]]

इस प्रकार कहकर संध्या, स्नान, जप, देवताओं का पूजन, वैश्वदेव कर्म, आतिथ्य इन पट्कर्मों को नित्य प्रति करने का आदेश देकर संध्या वर्णन किया ( ५-८५ ) ।

२ आचारवर्णनम् ।

[[६६८]]

सात प्रकार के स्नान का वर्णन किया गया है-मंत्रस्नान, पार्थिव स्नान, वायव्य स्नान, दिव्यस्नान, वारुणस्नान, मानसस्नान तथा आग्नेयस्नान ये सात प्रकार के स्नान,

इनके मन्त्र फल सहित बताकर प्रातः स्नान का सब

अध्याय

[[२]]

[ २२ ]

प्रधानविषय

से ज्यादा माहात्म्य कहा गया है ( ८६-६३) । उषाकाल के स्नान की प्रशंसा कर और स्नानकाल में स्नान न कर हजामत या दंतधावन करें उसे रौरव नरक और पितृ श्राप कहा है ( ६४-६६ ) । गङ्गा और कुएं के स्नान का माहात्म्य तथा स्नान का समय बताया गया है ( १७-१०८ ) । भाद्रपद के महीने में नदी के स्नान का निषेध बताया है क्योंकि नदियों रजस्वला रहती हैं किन्तु जो नदियाँ सीधी समुद्र में जाती हैं उनमें स्नान हो सकता है ( १०६ - ११० ) । रवि संक्रान्ति में और ग्रहण में अमावास्या में, व्रत के दिन, पष्ठी तिथि पर गर्म जल से स्नान नहीं करना चाहिये ( १११ - ११२ ) ।

स सदाचार नित्यकम वर्णनम् ।

[[६६६]]

किस प्रकार म्नान करना अर्थात् म्नान करने की विधि बतलाई है ( ११३ - १२३ ) । स्नान का मन्त्र, पश्चगव्य स्नान के मंत्र, मिट्टी लगाने के मंत्र आदि जिन मंत्रों का उच्चारण करना है उनका वर्णन किया गया है (१२४- १४८ ) । स्नान का फल और स्नान करने का विधान, विना मंत्रों के म्नान करने से स्नान का कोई फल नहीं होता है यह बताया गया है जैसे जल में मच्छी पैदा होती है और वहीं लय हो जाती है ( १४६ - १५० ) ।

अभ्याय

[ २३ ]

प्रधान विषय

मन्त्र के उच्चारण का विधान, उदात्त अनुदात्त, स्वरित, प्लुत स्वरों के उच्चारण का क्रम बताया गया है (१५१-१५५) किस अङ्ग में कितनी बार मिट्टी लगानी चाहिये उसका विधान और शरीर पर ॐ का कहाँ कहाँ पर और कितनी बार लिखना इसका विधान, स्नान के समय गायत्री का जप और स्नानान्तर गायत्री के मन्त्र का जप करने का निर्देश किया गया है (१५६-१६८) । २ श्राद्धे इति कर्तव्यता, तर्पण वर्णनम् ।

[[७०४]]

तपण की विधि, देवताओं के तर्पण, पितरों के तर्पण, मनुष्यों के तर्पण और अपने वंशजों का तर्पण तथा यक्षों के तर्पण की विधि बताई गई हैं (१६६-२२०) । २ कर्तव्यवर्णनम् ।

[[७०६]]

मनुष्य के हाथ पर ब्रह्मतीर्थ, पितृतीर्थ, प्राजापत्य तीर्थ, सौमिक तीर्थ तथा दैव्य तीर्थ ये पंचतीर्थ बताये गये हैं । स्नान करके इन पांच तीर्थों से जल चढ़ाना चाहिये ( २२१ - २२४) । बिना स्नान किये भोजन करता है उसकी निन्दा और स्नान करने से दुःस्वप्न का नाश बताया गया है । स्नान करने के यह फल बताये हैं (२२५-२२६) यथा-

अध्याय

[ २४ ]

प्रधानविषय

चित्तप्रसाद बलरूप तपांसिमेधा,

मायुष्यशौच सुभगत्व मरोगितां च । ओजस्वितां विषमदात् पुरुषस्यचीर्ण,

स्नानं यशो - विभव - सौख्यमलोलुपत्वम् ॥

पृष्ठाङ्क

३ ओंकार मन्त्र वर्णनम् ।

[[७१०]]

ओंकार मंत्र के जप की विधि बताई गई है ।

जपने के

मन्त्रात्मक सूक्त ये बताये हैं- ब्रह्म सूक्त, शिव सूक्त,

वैष्णव सूक्त, सौरि सूक्त,

सूक्त, सरस्वती सूक्त, दुर्गा सूक्त, वरुण सूक्त और पुराण शास्त्रों में जो जप आदि लिखे हैं उनका वर्णन है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद में जो सूक्त आये हैं उनकी परिगणना । गायत्री मन्त्र का जप और ओंकार का जप, जिस मन्त्र का जप उसका ऋषि देवता जानने से सिद्धि होती है (१-६) ओंकार और गायत्री मन्त्र के जप की महिमा और उसका स्वरूप, उसमें यह दर्शाया गया है कि पहले ओंकार शब्द हुआ और वह अकेला रहा, उसने अपने आमोद-प्रमोद के लिये गायत्री को स्मरण कर उसको प्रत्यक्ष किया, तो गायत्री उसकी पत्नी हो गई और प्रणव (ओंकार ) उसका पति हुआ । इनके संयोग से तीन वेद, तीन गुण, तीन देवता, तीन मात्रा, तीन ताल

अध्याय

[ २५ ]

प्रधान विषय

तीन लिङ्ग ये उत्पन्न हुए । वेद शास्त्र में सब जगह ये तीन मात्रा आती हैं। इस ओंकार रूपी अक्षर के धन

का माहात्म्य आदि अगले अध्याय में बताया गया है ( ७-३३ ) ।

४ गायत्रीमन्त्र पुरश्चरण वर्णनम् ।

पृष्ठाङ्क

[[७१४]]

इसमें गायत्री मन्त्र का पुरश्चरण, गायत्री का उच्चारण, गायत्री प्रकृति और ओंकार को पुरुष और इनके संयोग से जगन की उत्पत्ति बताई गई है । गायत्री के २४ अक्षरों को २४ तत्त्व बताया है ( १ - १२) । वेदों से गायत्री की उच्चता ( १३-१७ ) । एक एक अक्षर में एक एक देवता बताये हैं (१८-२५) । एक एक अक्षर किस किस अङ्ग में रखना बताया गया है (२६-३६) । गायत्री जप करने का स्थान और जपने की माला का विशदीकरण किया गया है (३७ - ५२ ) ।

प्राणायाम का

माहात्म्य बताया गया है ( ५३-५५ )

उपांशु जप

और मानस जप का वर्णन किया गया है ( ५६-५८ ) । सव यज्ञों से जप यज्ञ की श्रेष्ठता बताई है ( ५६-६३ ) । जप कैसा और किस मुद्रा और किस रीति से करना चाहिये बताया है ( ६४-७० ) ।

अध्याय

[ २६ ]

प्रधानविषय

पृष्ठाङ्क

[[७२०]]

४ गायत्री मन्त्र वर्णनम् ।

गायत्री मन्त्र के एक एक अक्षर का एक एक देवता और उसके स्वरूप का वर्णन किया गया है ( ७१-६७ ) ।

४ गायत्री मन्त्र जप वर्णनम्

[[७२३]]

न्यास और गायत्री की उपासना और स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों शरीरों को गायत्री से बन्धन करने का विधान है ( ६८- ११०) ।

४ देवार्चन विधिवर्णनम् ।

[[७२४]]

देवताओं का पूजन और उसके मन्त्र, जैसे विष्णु का गायत्री और ओंकार से पूजन इत्यादि ( १११-१२३ ) । देवता के देह में न्यास जैसे कि मनुष्य अपनी देह में करता है ( १२४-१३४ ) । पुरुष सूक्त के पहले मन्त्र से आवाहन, दूसरे से आसन, तीसरे से पाद्य, चतुर्थ से अर्ध्य इत्यादि का वर्णन आया है ( १३५-१४१ ) । जो मनुष्य इस प्रकार विष्णु की पूजा करता है वह अन्त में विष्णु की देह में ही चला जाता है (१४२) ।

देवताओं का पूजन और उसकी विधि का वर्णन किया

( १४३ - १५४ ) ।अध्याय

[ २७ ]

प्रधानविषय

४ वैश्वदेव विधिवर्णनम् ।

पृष्ठांक

[[७२८]]

वेश्वदेव विधि का वर्णन करते समय बताया है कि जो बिना अग्नि को चढ़ाये खाता है अथवा बिना बलि बैश्वदेव किये जो अन्न परोसा जाता है वह अभोज्य अन्न है । जिस अग्नि में अन्न पकाये उसी में अन्न का हवन करना चाहिये और हवन करने के मन्त्र तथा विधान लिखा है (१५५-१६३) ।

४ आतिथ्य विधिवर्णनम् ।

[[७३२]]

अतिथि की विधि और अतिथि को भोजन देने का माहात्म्य लिखा है। अतिथि का लक्षण, जैसे जो कि भूखा, प्यासा, मागं चलने से थका हुआ प्राणरक्षा मात्र चाहता है यदि ऐसा अतिथि अपने घर आवे तो उसे विष्णु रूप समझना चाहिये । गृहस्थी के लिये अतिथि सत्कार परम धर्म बतलाया है (१६४-२११) ।

४ वर्णाश्रम धर्म वर्णनम् ।

[[७३४]]

वर्णाश्रम धर्म बताये हैं, जैसे यज्ञ करना, कराना, दान

देना, लेना, पढ़ना, पढ़ाना ये छः कर्म

ब्राह्मण के

कहे हैं इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और

शूद्र

के कर्म का

अध्याय

[ २८ ]

प्रधान विषय

विधान आया है । अपनी अपनी वृत्ति से सबको

जीवन निर्वाह करने का माहात्म्य बताया गया है।

५ गोमहिमा वर्णनम् ।

पट् कर्म सहित विप्र कृषि वृत्ति का

पृष्ठाडू

[[७३५]]

आश्रय करे (१-२) ।

बैल के पालन करने का माहात्म्य और किस प्रकार वैल से खेती जोतनी चाहिये उसका वर्णन किया गया है ( ३-६) । गोमाहात्म्य और गो के पालन करने का माहात्म्य तथा गोमूत्र पान करने का माहात्म्य और दुर्बल, बीमार गाय को दुहने का पाप और गोदान का माहात्म्य, गौ के अङ्ग प्रत्यङ्ग में देवताओं का निवास बताया गया है (७-४३) ।

यस्याः शिरसि ब्रह्माऽऽस्ते स्कन्धदेशे शिवः स्थितः । पृष्ठ नारायणस्वस्थौ श्रुतयश्चरणेषु च ।

या अन्या देवताः काश्चित्तस्या लोमसुताः स्थिताः । सर्वदेवमया गावस्तुष्येतद्भक्तितो हरिः ॥

स्पृष्टाश्च गावः शमयन्ति पापं, संसेविताश्चोपनयन्ति वित्तम् ।

ता एव दत्तास्त्रिदिवं नयन्ति, गोभिर्नतुल्यं धनमस्ति किश्चित् ॥

अध्याय

[ २६ ]

प्रधानविषय

पृष्ठाङ्क

५ समहत्ववृषभपूजनवर्णनम् ।

[[७४०]]

बैल पालने का माहात्म्य । गाय के

पालने से बैल का

पालन करने में दस गुणा माहात्म्य अधिक है । वृष का पूजन और वृष को धर्म का अवतार बताया गया है वृष अपने कंधे पर भार ले जाता है, अपने जीवन से दूसरे के जीवन की रक्षा और दूसरे के जीवन को बढ़ाता है । उन गायों की महती बन्दना की गई है जो वृषभ को उत्पन्न करती है इत्यादि (४३-५६ ) ।

५ हल ( वेध ) करण वर्णनम् ।

हल बनाने का विधान (६०-७६) ।

५ कृष्याद्यनेक सवृषभवर्णनम् ।

[[७४१]]

[[७४३]]

हल लगाने का दिन तथा विधि का वर्णन किया है

(७७-१००) । बैल का पूजन और बैल की रक्षा पर

ध्यान देने का विधान ( १०१ - १११) । आकाश से जो जल गिरता है उसका माहात्म्य, पृथ्वी माता के जलरूपी

अमृत पड़ने से अन्न की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है ( ११२ - ११५ ) ।

५ कृषि महत्व धर्म वर्णनम् ।

[[७४७]]

किस प्रकार की भूमि में कृषि करनी चाहिये इसका वर्णन किया गया है ( ११६ - १५५ ) ।

अध्याय

[ ३० ]

प्रधानविषय

कृषिकृच्छुद्धिकरण वर्णनम्,

कृषिकर्मकरण स सीतायज्ञ वर्णनम् ।

कृषि के सम्बन्ध में बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है । अन्त में यह बताया है-

पृष्ठाङ्क

[[७५०]]

[[७५१]]

५ " कुबेरन्यतमोऽधर्मो न लभेत्कुषितोऽन्यतः । न सुखं कृषितोऽन्यत्र यदि धर्मेण कर्षति " ॥ अर्थात् कृषि के तुल्य दूसरा कोई धर्म नहीं एवं कृषि के तुल्य और कोई व्यवहार इतना लाभदायक नहीं । कृषि करने में ही बड़ा सुख है यदि धर्मानुकूल कृषि की जाय । ( १५६ - १६५ ) ।

६ कन्या विवाह वर्णनम् ।

[[७५५]]

कन्याओं के आठ प्रकार के विवाह होते हैं। अपनी जाति में वर के लक्षण देखकर वस्त्राभूषण से सुसज्जित कर जो कन्या दी जाती है उसको ब्राह्म विवाह कहते हैं लड़के का लक्षण देखना परमावश्यक है। जिसके पेशाब में फेन निकले वह पुरुष होता है। ऐसा न होने पर नपुंसक होता है। यज्ञ करते हुए यज्ञ करनेवाले को वस्त्राभूषण से सुसज्जित जो कन्या दी जाती है इसे देव विवाह कहते हैं । वर कन्या के समान हो और गुण-

अध्याय

[ ३१ ] प्रधानविषय

वान, विद्वान हो ऐसे पुरुष को दो गाय के साथ जो कन्या दी जाती है वह आर्ष विवाह होता है । कन्या और वर स्वेच्छा से धर्मचारी हो यह कर जो कन्या का दान किया जाय वह मनुष्य विवाह होता है । जिस जगह पर वर से रुपये की संख्या लेकर कन्या दी जाती है उसे दैत्य विवाह कहते हैं। जहां वर कन्या दोनों अपनी इच्छा पूर्वक विवाह कर ले उसे गन्धर्व विवाह कहते हैं। जहां हरण करके कन्या ले जाई जावे उसे राक्षस विवाह कहते हैं । सोई हुई कन्या को जो मद्य इत्यादि के नशे में जबरदस्ती ले जाया जावे उसे पैशाच विवाह कहते हैं ( १ - १७ ) । विवाह के पहले जिन बातों का विचार करना चाहिये उनका निर्देश किया गया है । १ वर, २ कन्या की जाति, ३ वयस, ४ शक्ति, ५ आरोग्यता, ६ वित्त सम्पत्ति, ७ सम्बन्ध बहुपक्षता तथा अर्थित्व (१८) ।

६ विवाहे वरगुण वर्णनम् ।

पृष्ठाङ्क

[[७५६]]

वर के लक्षण बताये हैं (१६ - २१) । लड़की – जाति, विद्या, धन तथा आचरण की इतनी परवाह नहीं करती है जितनी प्रीति की, अतः लड़का प्रीतिमान होना चाहिये इसलिये सगोत्र की कन्या से विवाह करने पर वह धर्म

अध्याय

[ ३२ ]

प्रधानविषय

]

के अनुसार स्त्री नहीं कही जा सकती है (२२) । जहां कन्या नहीं देनी चाहिये उनको बताया है ( २३-२७ ) । उन लड़कियों के लक्षण लिखे हैं जिनके साथ विवाह नहीं करना हैं और कन्यादान करने का जिनका अधिकार है उनका वर्णन ( २८-३२ ) । उन कन्याओं का वर्णन है जिनके साथ विवाह हो सकता है (३३-३७) कन्यादान और कन्या के लक्षण जिनको कि दायविभाग मिल सकता है उनका वर्णन ( ३८-४० ) ।

६ लक्ष्मीस्वरूपा स्त्री वर्णनम् ।

पृष्ठाङ्क

[[७५८]]

गृहस्थी को स्त्रियों की इच्छा का अनुमोदन करना तथा उनको प्रसन्न रखना यह गृहस्थ की सम्पत्ति और श्रेय का साधन बताया है ( ४१-४५ ) । स्त्रीपुरुष में जहां विवाद होता है वहां धर्म, अर्थ, काम सभी नष्ट हो जाते हैं (४६-४७)। स्त्रियों को पतिव्रत पर रहना और इसका अनुशासन और पतिव्रता न रहने से नार- कीय दारुण दुःखों का होना बताया है ( ४८-५५ ) । ६ गृहस्थधर्म वर्णनम् ।

बी शक्तिरूपा है एवं शक्ति का स्रोत है। सारे संसार की उत्पादिका शक्ति भी स्त्री जाति ही है ।

। उसका संरक्षण कुमार्यावस्था में पिता द्वारा तथा युवावस्था में

अध्याय

[ ३३ ]

प्रधानविषय

पति द्वारा वाञ्छनीय है । वृद्धावस्था में पुत्र का कर्तव्य हैं कि उनकी शक्ति की देखरेख और सेवा करे । इस प्रकार मातृशक्ति की सद्उपयोगिता का ध्यान रखा जाय ( ५६-६१ ) । त्रियों की स्वाभाविक पवित्रता और स्त्रियों को इन्द्र के वरदान स्त्रियों की शुद्धता के लिये बताये हैं ( ६२-६५) । उनके सहवास के नियम बताये गये हैं। यहां पर यह दिखाया है कि गृहस्थधर्म का आधार स्त्री ही है और गृह के यज्ञ कर्म स्त्री के ही साथ हो सकते हैं अतः उसी का सत्कार और मान करना चाहिये ( ६६-७६ ) । पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ, स्वाहाकार वषट्कार और हन्तकार प्राणाग्निहोत्र विधि से भोजन करने का आचार बताया गया है (७७-८६) । ६ वेदविद्विप्रस्य कलाज्ञस्य वर्णनम् ।

पृष्ठाङ्क

७६३ प्राणाग्नि यज्ञ की विधि बताई गई है। जिसमें इस बात का विषदीकरण किया गया कि नासिका के पन्द्रह अङ्गुलीं तक जीवकी कला संचरण करती जाती है इसी को षोडसी कला कहते हैं । इसी को ब्रह्मविद्या कहते हैं जो इसे जाने उसी को वेद का ज्ञाता कहते हैं । इसी को तुरीय पद और इसी में सारा संसार लीन हो जाता है। इस बात को जानने से और कुछ जानना बाकी नहीं

२-३

अध्याय

[ ३४ ]

प्रधान विषय

रह जाता है ( ८७-६६ ) । प्राणायाम के विधान, प्राणवायु के चलने के तीन मार्ग बताये हैं- इडा, पिङ्गला, सुषुम्ना, नासिका के दो पुट होते हैं दाहिने को उत्तर और बाएँ को दक्षिण बीच भाग को विपुवृत्त कहते हैं । जो योगी प्रातः, सायं मध्याह्न और अर्धरात्रि में विषुवृत्त को जानता है उसको नित्यमुक्त कहा है। इस प्रकार प्राणायाम की विधि बताई है। पांच वायु (प्राण, उदान, व्यान, अपान, समान) का नाम लेकर स्वाहा शब्द लगावे, पांच आहुति प्रास रूप में देव और दाँत नहीं लगावे तो इसे पंचाग्निहोत्र कहते हैं ( ६७- १०७) । शरीर के जिस प्रदेश में जो अग्नि रहती है उसका वर्णन ( १०८ - १११ ) । प्राणाग्नि होम का विधान और मुद्रा का वर्णन ( ११२- १२१ ) । प्राणाग्निहोत्र विधि का माहात्म्य (१२२- १२४ ) । प्राणाग्निहोत्र के बाद जल पीने का नियम (१२५-१२७) । प्राणायाम की विधि जानने का माहात्म्य और पांच सात मनुष्यों को खिला कर गृहपत्नी के लिये भोजन विधि ( १२८ - १३८ ) । ६ स षोडश संस्कार मान्हिक वर्णनम् ।

सायं सन्ध्या विधि और कुछ स्वाध्याय करके

[[७६७]]

अध्याय

[ ३५ ]

प्रधानविषय

शयन विधि ( १३६ - १४० ) । स्त्री के साथ संगम, योनि शुद्धि और गर्भाधान विवरण (१४१ - १४३) । ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सूर्योदय से पूर्व सन्ध्या विधि का वर्णन ( १४४ - १४५ ) । प्रातः काल सन्ध्या करने से मद्यपान तथा द्यूत का दोष दूर होता है ( १४६ ) । सूर्योदय के पहले सन्ध्या का विधान ( १४७ ) । सीमन्त, अन्नप्राशन, जातकर्म, निष्क्रमण चूड़ाकर्म आदि संस्कारों का विधान, लड़कों का मन्त्र से और लड़कियों का बिना मन्त्र से संस्कार करना ( १४८ - १५१ ) ।

६ ब्रह्मचर्य वर्णनम् ।

उपनयन का समय, विधान और ब्रह्मचारी को भिक्षाधन तथा किससे भिक्षा लेवे उसका स- विस्तार वर्णन एवं पिता को स्वपुत्र के उपनयन का विधान ( १५२-१८३ ) ।

६ गृहस्थाश्रमे पुत्र वर्णनम्

पुत्र की परिभाषा, पुत्र पुन्नाम नरक से पिता को बचाता है अतः वह पुत्र कहा गया है। इसलिये पुत्र का संस्कार करना उसका कर्तव्य माना गया

पृष्ठाङ्क

[[७६८]]

[[७७१]]

अध्याय

६ है ( १८४ ) ।

[ ३६ ]

प्रधानविषय

पुत्र यदि धर्मज्ञ हो तो पिता को स्वर्ग गति होती है, अतः पशु-पक्षी भी पुत्र को

चाहते हैं ( १८५ - १९२ ) । जो पुत्र गया में पिता

का श्राद्ध करे ( १६३ ) ।

पुत्र का कर्तव्य और

उसका लक्षण बताया है । यथा-

जीवतो वाक्यकरणात् क्षयाहे भूरि भोजनात् । गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता ॥

अर्थात् ये तीन लक्षण जिसमें है उसीमें पुत्रत्व है । जीते जी पिता की आज्ञा पालन, श्राद्ध के दिन ब्राह्मण भोजन करानेवाला और गया में पिण्ड देनेवाला ( १६४ १६६ ) । पिता के लिये वृपो- त्सर्ग ( १६७ - १६८ ) । साध्वी स्त्री का लक्षण सास श्रसुर की सेवा करे ( १६६ ) । जहाँ तक सन्तानोत्पत्ति का सम्बन्ध हैं पिता, पुत्र समान और पुत्री भी वैसी ही ( २०० ) ।

६ आचार वर्णनम् -

४० संस्कार, सदाचार की प्रशंसा साथ ही हीनाचार की निन्दा बताई है ( २०१-२०७) । मनुष्य को विद्या पढ़ना, शास्त्र पढ़ना, सदाचार पर निर्भर है। आचारहीन मनुष्य कोई कर्म में सफल नहीं होता ह ( २०८-२११ ) ।

७७३अध्याय

६ शौच वर्णनम् ।

[ ३७ ]

प्रधान विषय

शौचाचार भावशुद्धि के सम्बन्ध ( २१२-२१६ ) । स्त्रियों में रमण करनेवाले वित्तपरायण, मिथ्या- वादी, हिंसक की शुद्धि कभी नहीं होती है (२१७)।

६ प्रतिग्रह ( दान ) वर्णनम् ।

मूर्ख को दान देने से दान का फल नहीं होता है ( २१८-२२१) । दान लेनेवाला मूर्ख और दाता

भी नरक में जाता है ( २२२-२२६ ) । दान पात्र

है को देना चाहिये इसपर कहा गया है (२२७-२२८) हाथी का दान, घोड़े का दान और नवश्राद्ध का दान लेनेवाला हजार वर्ष तक नर्क में रहता है ( २२६ - २३१) । विष्णु की प्रतिमा, पृथिवी, सूर्य की प्रतिमा तथा गाय यह सत्पात्र को देने से दाता को तीन लोक का फल होता है ( २३२ ) । भोजन दान के समय पर अच्छे चरित्रवान ब्राह्मणों का सत्कार करना तथा अनाचारी पुरुषों को बिल- कुल वर्जित का विधान है (२३३ - २३७) । दही, दूध, घी, गंध, पुष्पादि जो अपने को देवे ( प्रत्याख्येयं न कर्हिचित् ) उसे वापस नहीं करना ( २३८ ) ।

[[७७४]]

[[७७५]]

अध्याय

[ ३८ ]

प्रधानविषय

जो ब्राह्मण सदाचारी दान लेने योग्य है और वह दान न लेवे तो उसे स्वर्ग का फल होता है ( २३६- २४० ) । जो मांगने पर इकरार किया हुआ दान नहीं देता हैं वह अगले जन्म में दारु होता है

( २४१ ) । दान देने के सम्बन्ध की बातों का विवरण है ( २४२-२४८ ) ।

६ त्याज्य वर्णनम् ।

आचार का वर्णन और गृहस्थ के कर्तव्यों को कहा है। भोज्य अभोज्य की विधि बताई है ( २४६- २७६ ) । भोजन में जिनका निषेध किया उनका वर्णन आया है ( २७७ - २८२ ) । जिनका अन्न खाना निषेध है उनका प्रकरण आया है। जैसे- रेशम बेचनेवाला, विष बेचनेवाला, शाक बेचने

वाला इत्यादि ( २८३ - २१२ ) ।

इष्टका यज्ञ जो

कि द्विजातियों को करने चाहिये दर्श, पौर्णमास्य

और चातुर्मास्य यज्ञों का

विधान बताया है

( २६३-२६६ ) । स्नातक की परिभाषा (२६७) । सोम याग और इष्टका पशु यज्ञ का माहात्म्य बताया है (२६८-३०३ ) । श्रद्धा से दान देने का माहात्म्य है ( ३०४-३०५ ) । जो जिसका अन्न खाता है

पृष्ठाङ्क

[[७७८]]

अध्याय

[ ३६ ]

प्रधान विषय

वैसा ही उसका मन होता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि वर्ण के अन्न की शुद्ध अशुद्ध की सूचि बताई है। जिनसे भिक्षा नहीं लेनी है उनका भी निर्देश है (३०६-३१२) । रजस्वला स्त्री से छुआ हुआ अन्न, कुत्ते और कौवे के जूठे अन्न तथा जो अन्न अग्राह्य हैं उनका विवरण दिया है ( ३१३-३१६ ) । जो अन्न अभोज्य होने पर भी प्राह्य है उसको विशेष रूप से कहा गया है ( ३१७ ) ।

६ अभक्ष्य वर्णनम ।

जिन शाकों को नहीं खाना चाहिये उनके नाम बताये हैं ( ३२०-३२२ ) । अति संकट पर अर्थात् प्राण जाने पर जो अभक्ष्य है उनका वर्णन आया हैं ( ३०३ - ३२४ ) । जो गृहस्थी मांस नहीं खाता हैं उसको स्वर्ग लोक की प्राप्ति बताई गई है। जहां पर मांस खाने का नियम बताया भी है उसकी निवृत्ति - उसको न खाने से महाफल बताया है ( ३२५-३३१ ) ।

६ शुद्धि वर्णनम् ।

का विधान और कौन २ वस्तु शुद्ध होती हैं.

पृष्ठाङ्क

[[७८५]]

[[७८६]]

अध्याय

]

[ ४० ]

प्रधान विषय

इसका वर्णन (३३२-३४० ) । बछड़े के मुख से जो दूध गिर जाता है उसको शुद्ध बताया है तथा अन्यान्य शुद्धियाँ बताई है (३४१-३४४) । जो चीज शुद्ध हैं उनका वर्णन, स्त्री के शुद्ध होने का वर्णन आया है ( ३४५ ) ।

[[६]]

अनध्याय वर्णनम ।

अनध्याय अर्थात जिस समय वेद नहीं पढ़ना चाहिये उसे बताया है (३५४-३६६) । जो अनध्याय में वेदाध्ययन करता है वह निष्फल होता ह ऐसा बताया है (३६७-३७०) । म्वर हीन वेद पढ़ने का पाप और वज्रम्प फल बताया है ( ३७१-३७२ ) । “ये स्वाध्यायमधीयीरन्ननध्यायेषु लोभतः । वज्र रूपेण ते मन्त्रास्तेषां देहे व्यवस्थिताः " ॥

मनुष्यों को किसके साथ कैसा व्यवहार, किसीको ताड़न नहीं करना, किन्तु पुत्र और शिष्य को छोड़कर यह बताया है (३७३-३७६) ।

" न कश्चित्ताड़येद्धीमान् सुतं शिष्यञ्च ताड़येत्” ।

मनुष्यों को आचार का पालन करने से यश और

पृष्ठाङ्क

[[७८८]]

अध्याय

[[७]]

[ ४१ ]

प्रधानविपय

धन की प्राप्ति है । आयु, प्रजा, लक्ष्मी और

संसार में सम्मान का मूल आचार ही है (३७७ से

समाप्ति ) ।

श्राद्ध वर्णनम् ।

श्राद्धके समय कौन-कौन हैं उनका निर्देश (१-४) । श्राद्ध में जिनको निमन्त्रण देना निषिद्ध हैं उनको निमन्त्रित करने का निषेध ( ५-१४ ) । श्राद्ध में जिनको निमन्त्रण देना चाहिये और पूजना चाहिये उनका वर्णन (१५-२६) । श्राद्धमें जो ब्राह्मण भोजन करते हैं उनको किस प्रकार रहना चाहिये और उनके यम नियम बताये गये हैं (२७-३२) । श्राद्ध में पत्रावली (३३-३४) । जो निर्धन पुरुष है जिनके पास श्राद्ध करने की सामग्री नहीं है वे जंगल में जाकर हाथ ॐ चाकर मदन करे और अपने पितरेश्वरों से कहे कि मेरे पास घर में स्त्री पुत्रादि के अतिरिक्तधन नहीं है में श्राद्ध किस तरह करू । इस तरह क्षमा माँग पितृऋण से क्षमा याचना कर सकता है (३४-३७)। जो इतना भी न कर सके वह पितृ-हत्यारा कहा जाता है (३८-३६) । कौन किसका श्राद्ध कर सकता है इसका निर्णय है, जैसे; अपुत्र की स्त्री भी पति का

पृष्ठाङ्क

७६ १

अध्याय

[ ४२ ]

प्रधानविषय

श्राद्ध कर सकती है; इष्ट परिजन अपने मित्रों का भी श्राद्ध कर सकते हैं । लड़की का लड़का अर्थात् दौहित्र भी श्राद्ध कर सकता है और पार्वण श्राद्ध का वर्णन आया हूं । एकोद्दिष्ट श्राद्ध पुत्र ही अपने पिता और पितामह का कर सकता है (४०-६१) । श्राद्ध में शूद्रान्न का निषेध और स्त्री को भोजन करना निषेध बताया गया है ( ६२-८३ ): । एकोद्दिष्ट श्राद्ध का विधान तथा किस किस काल में श्राद्ध करना चाहिये उन कालों का वर्णन । जैसा कुतुप, ( मध्याह्न ) रोहिणी, संक्रान्ति अमावाम्या, व्यतीपात आदि का है (८४- १०१) । मलमास में भी श्राद्ध कर सकते हैं इसका निर्णय किया गया हैं और नित्य श्राद्ध का भी निर्णय किया हैं ( १०२ - १०५ ) । श्राद्ध की तिथि का निर्णय, सगोत्र ब्राह्मण को श्राद्ध में भोजन कराने का निषेध ( १०६ - ११६ ) । वृद्धि श्राद्ध ( नान्दीमुख ) शुभ कार्य में जो पितरों का श्राद्ध होता है उनके उपयुक्त जो पात्र है उनका निर्णय, वट वृक्ष की लकड़ी और बिल्वपत्र के पत्ते पर भोजन करने का निषेध बताया है ( ११७- १२२ ) । श्राद्ध में कौन पुष्प किसको चढ़ाने चाहिये अथवा नहीं

पृष्ठाङ्क

अध्याय

[ ४३ ]

प्रधान विषय

चढ़ाने चाहिये ऐसा कहा है ( १२३ - १२७) । गुग्गुल की धूप को श्राद्ध में निषेध बताया है ( १२८- १२६) श्राद्ध में तिलक कैसे लगाना चाहिये उसका

वर्णन हं ( १३० - १३१ ) ।

श्राद्ध में कैसा वस्त्र

देने का निर्णय है ( १३२ ) । श्राद्ध में देश रीति

है

तथा कुल रीति का पालन करना बताया गया ( १३३ - १३४ ) सपिण्डी श्राद्ध का विवरण और अग्नि में जले हुए, सांप से कटे हुए की छः मास में श्राद्ध क्रिया बताई हैं ( १३५ - १४८ ) । नान्दीमुख श्राद्ध में कौन देवता पूजे जाते हैं और उसमें दीप दानादि कैसे होता है । नान्दीमुख श्राद्ध का विशेष वर्णन किया है ( १४६ - १७२ ) ।

श्राद्ध के भेद और श्राद्ध की विधियां, स्त्री का पति के साथ तथा किस स्त्री का पृथक् श्राद्ध होता ह उसका वर्णन किया है । चतुर्दशी में जो एको- द्दिष्ट श्राद्ध होता है उसका वर्णन और प्रतिलोम के लड़कों को श्राद्ध का अधिकार नहीं उसका वर्णन तथा नारायणबली, जो अपमृत्यु से मरते हैं जैसे पेड़ से गिरकर नदी में डूबकर इत्यादि इनकी नारायणवली का विधान कहा है। अपने पति के साथ जो खो मरती है उसके श्राद्ध का

पृष्ठाङ्क

अध्याय

वर्णन, श्राद्ध

( ४४ )

प्रधान विषय

में जो जो विधान करने हैं उनका पूरा वर्णन, श्राद्ध के सम्बन्ध में जितनी बातों की

जानकारी चाहिये उन सबका वर्णन इस अध्याय

में सविस्तर दिखाया गया है ( १७३ - ३६६ ) ।

८ शुद्धि वर्णनम् ।

सूतक और अशौच का निर्णय किया गया है ।

पृष्ठाङ्क

[[८२६]]

सूतक बच्चे के जन्म होने से जो

छूत होती है उसे

कहते है । अशौच मृत्यु की

छत को कहते हैं

( १-२ ) । किसको कितने दिन का सूतक पातक लगता है उसका विचार किया गया है (३-२५) । अनाथ मनुष्य की क्रिया करने से अनन्त फल होता है तथा स्नान करने पर ही शुद्धि बताई गई है ( २६-२७ ) । गर्भपात का सूतक जितने महीने का गर्भ हो उतने दिन के सूतक का निर्णय, अग्नि, अङ्गार, विदेश आदि में जो मर जाते हैं उनका सद्यः शौच अर्थात् तत्काल स्नान करने से शुद्धि कही गई है। जिन बच्चों को दाँत नहीं निकले हैं उनके मरने पर सद्यः शौच और जो जन्मते ही मर गये हैं उनका भी सद्यः शौच कहा है । इनका अग्नि संस्कार आदि कुछ नहीं होता । किसी के घर में विवाह उत्सव आदि हो और यदि वहाँ

अध्याय

[ ४५ ]

प्रधानविषय

८ अशौच हो जाये तो उसका जो पहले किये हुए दानादि सत्कर्म अशुद्ध नहीं होते हैं ( २८-५० ) । जिन जिन पर सूतक नहीं लगता तथा जिस दशा

पर सूतक पातक नहीं लगता उनका वर्णन किया गया है ( ५१-६० ) ।

८ प्रायश्चित्त वर्णनम् ।

पापों को क्षालन करने के लिये प्रायश्चित्तों का माहात्म्य और कर्तव्य बताया है [ ६१-७० ] । प्रायश्चित्त विधान करनेवाली सभा का संगठन [ ७१-७७ ] । महापापी के प्रायश्चित्त का वर्णन [ ७८-१०७ ]। शराब पीने का प्रायश्चित्त [ १०८- ११० ] । स्वर्ण की चोरी का प्रायश्चित्त [ १११- ११३]। मातृगामी का प्रायश्चित्त बताया है [ ११४- ११५ ] । जिन पापों में चान्द्रायण व्रत किया जाता है उनका वर्णन आया है तथा महा- पातकियों का प्रायश्चित्त बताया है [ ११६ - १४०] । गोवध के प्रायश्चित्तों का निर्णय और गो के मरने के अगल-अलग कारणों पर भिन्न भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं [ १४१ - १७१ ] । घोड़ा, बैल, गधा इनकी हत्या पर शुद्धि का वर्णन

हाथी,

पृष्ठाङ्क

[[८३५]]

अभ्याय

[ ४६ ] ]

प्रधानविषय

८ आया है [ १७२-१७४ ]। हंस, कौआ, गीध, बन्दर आदि के वध का प्रायश्चित [ १७५-१७८ ] । तोता, मैना, चिड़ी इनके वध करने का प्रायश्चित्त बताया है [ १७६-१८० ]।

बाज, चील के मारने

का प्रायश्चित्त [ १८१ ]। मंडूक, गीदड़, शाखा- मृग (बंदर) महिप, ऊंट आदि जंगली जानवरों के मारने का प्रायश्चित्त । १८२-१८७ ] । अभक्ष्य के खाने का प्रायश्चित्त और रजस्वला स्त्री के छूये हुए खाने का प्रायश्चित्त बताया है [ १८८ - १६१ ] दांतों के अन्दर गया हुआ उच्छिष्ठावशेष को खाने का तथा अपना ही जूठा जल पीने का प्रायश्चित्त है [ १६२ ] । जिस जल में कपड़े धोये जाते हैं उस पानी के पीने से प्रायश्चित्त बताया है [ १६३- १६४ ] । वेश्या, नट की स्त्री, धोबी की स्त्री आदि के सहवास के पापों का प्रायश्चित्त बताया है [ १६५ - २०० ] । कसाई के हाथ का मांस खाने का प्रायश्चित्त [ २०१ - २०२ ] । जिनके घर का अन्न नहीं खाना चाहिये जैसे वेश्या आदि के घर खाने का प्रायश्चित्त कहा है [ २०३ - २०८ ] । बाएँ हाथ से भोजन करने का दोष बताया है [ २०६

२११]। बाएँ हाथ से भोजन करना सुरा तुल्यअध्याय

[[८]]

[ ४७ ]

प्रधानविषय

बताया है और उसका चान्द्रायण [ २१२-२१३ ] । चान्द्रायण और पादकृच्छ्र व्रत का विधान [ २१४- २१५ ] । वेश्याओं के साथ रहनेवाला; जो अज्ञात कुलशील हो और चाण्डाल नौकर रखनेवाले को पुनः संस्कार का निर्णय दिया है [ २४६-२२१ ] । अभक्ष्य भक्षण, अपेय पान ( जिसका छूआ पानी नहीं पीना उसके पीने ) करने पर प्रायश्चित्त का विधान बताया गया है [ २२२-२३० ] ।

]। रज- स्वला के सम्पर्क से शुद्धि का विधान [२३१-२४२ ] । धोबी के स्पर्श से शुद्धि का विधान [ २४३ ] । वर्णक्रम से (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि ) रज- स्वला स्त्रियों के गमन करने पर प्रायश्चित्त बताया है [ २४४-२५३ ] । अन्त्यज स्त्री के गमन से प्रायश्चित्त कहा है [ २५४ ] । गुरुपत्नी आदि के गमन का पाप और उसके प्रायश्चित्त का उल्लेख है [२५५-२६३ ] । रजस्वला के छुये हुए अन्न खाने का प्रायश्चित्त [ २६४ - २६६ ]। उन्हीं पापों के प्रायश्चित्तों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है [२६७-२७५] । दुःस्वप्न देखने और हजामत ( क्षौर) करने पर स्नान की विधि [ २७६ ] । सूअर, कुत्ता आदि के छूने पर शुद्धि [ २७७-२७६ ] ।

अध्याय

[ ४८ ]

प्रधान विषय

८ कन्या कुमारी को कोई कुत्ता यदि चाट ले तो उसकी शुद्धि जिधर सूर्य जा रहा हो उधर देखने से हो जाती है [ २८०-२८१ ] । कोई कुत्ता किसी को काट देवे तो उसकी शुद्धि की विधि बताई हैं

[ २८२-२८४ ] ।

से बड़ों को ‘हूं हूं’

बताई है [ २८५ ] ।

गुरु को ‘तू’ बोलना और अपने बोलना इस पाप की शुद्धि विवाद में स्त्री से जीतकर और स्त्री को मारना उसका प्रायश्चित्त [ २८६- २८७ ] । प्रेत को देखकर स्नान से शुद्धि का वर्णन [ २८८-२६३ ] । १०८ बार गायत्री मंत्र जपने से शुद्धि वर्णन [ २६४-२६५ ]। मुंह से गिरे हुए को फिर खा ले तो उसकी शुद्धि बताई है [ २६६-२६८ ] कहीं जल पर पेशाब आदि के छींटे पड़ जायें तो उसकी शुद्धि [ २६६- ३०० ]। नीच पुरुष, पापी पुरुष और पतित के साथ बात करने से जो पाप लगता है तो अपने दाहिने कान का तीन बार छू लेने से शुद्धि [३०१-३०४ ] । घर में मक्खियों के आने से, बच्चों, स्त्रियों और वृद्धों के बोलने से यदि थूक के छींटे पड़ जाये तो कोई दोष नहीं होता है [ ३०५-३१०] । जो पलास वृक्ष और शीशम के वृक्ष की दन्तधावन करता है और नाई के देखे

पृष्ठाङ्क

अध्याय

[ ४६ ]

प्रधानविषय

८ हुए खाने का दोष गाय के दर्शन से मिट जाता है. [३११ ] । जिनके छूने से सिर में जल स्पर्श करने से शुद्धि और जिनके स्पर्श करने से स्नान करना उनका अलग अलग विवरण आया है ( ३१२-३२२ ) । जिनका अन्न नहीं खाना चाहिये उनका वर्णन आया है ( ३२३-३२६ ) । नाई जो अपने यहाँ नौकर हो उसका अन्न लेने में दोष नहीं और

से बनी हुई चीज बासी होने पर भी

तेल या घृत

दूषित नहीं होती है ( ३२७ ) । आपत्तिकाल में छूत का दोष नहीं होता है ( ३२८-३३० ) । जो वस्तु म्लेच्छ के वर्तन में रहने पर भो अपवित्र नहीं होती, जैसे घी, तेल, कच्चा मांस, शहद, फल-फूल इत्यादि उनका वर्णन ( ३३१-३३५) । किस धातु के बर्तन की किससे शुद्धि होती है उसका वर्णन आया है । आत्मा की शुद्धि सत्य व्यवहार और सत्य भाषण से ही होगी प्रायश्चित्त आदि से नहीं । सड़क का कीचड़, नाव और रास्ते में घास इत्यादि ये वायु और नक्षत्रों से ही शुद्ध हो जाते हैं । यह प्रायश्चित्त को जानने की बात सबको समझनी चाहिये ( ३३६-३४२ ) ।

२-४

पृष्ठाङ्क

अध्याय

[ ५० ]

प्रधानविषय

६ व्रतोपवासविध वर्णनम् ।

चान्द्रायण व्रत, जैसे शुक्लपक्ष में एक ग्रास की वृद्धि और कृष्णपक्ष में एक-एक ग्रास का ह्रास इसको ऐन्दव व्रत कहते हैं । इस प्रकार विभिन्न चान्द्रायण व्रत कहे गये हैं । जैसे शिशु चान्द्रायण और यति चान्द्रायण आदि (१-८) । कुच्छ व्रत, तप्तकृच्छ्र, सांतपन, महासांतपन, प्राजापत्यकृच्छ्र, पशुकृच्छ्र, पर्णकृच्छ्र, दिव्य सांतपन, पादकृच्छ्र, अति कृच्छ्र, कृच्छ्रातिकृच्छ्र और परातिवृत सौम्य कृच्छ्र ( ६-२१ ) । ब्रह्मकूर्च का विधान, पंचगव्य बनाने का मंत्र और उनकी विधि बताई गई है ( २२-३२ ) । ब्रह्मकूर्व के माहात्म्य का वर्णन है ( ३३-३५) । उपवास व्रत से पापों की शुद्धि और जितने चान्द्रायण व्रत वर्णन किये गये हैं इनको मनुष्य स्वेच्छा से भी करे तो जन्म- जन्मान्तर के पाप दूर होकर आत्मशुद्धि होती है ( ३६-४३ ) ।

१० सर्वदान विधि वर्णनम् ।

व्यास तथा वशिष्ठजी ने जो दान विधि बताई है उसका फल ( १-२ ) । दान का माहात्म्य और

पृष्ठाङ्क

[[८६२]]

[[८६६]]

अध्याय

[ ५१ ]

प्रधान विषय

१० पृथक-पृथक दान करने का विवरण जैसे अत्रदान,

जलदान, गृहदान, बैलदान, गोदान, निलधेनु, घृतधेनु, जलधेनु, हेमधेनु, गजदान, अश्वदान, कृष्णाजिन दान, सुखासन (पालकी) दान, आदि का विस्तार बताया है [ ३-६] । भूमिदान, तुलादान, धातुदान, विद्यादान, प्राणदान, अभयदान और अन्नदान का वर्णन बताया है [ १०-१७ ॥ अप्रूप (मालपुर ) के दान का उल्लेख है, पृथक-पृथक् दान के प्रकार और उनकी महिमा [ १८-२४ ] । गोदान का माहात्म्य, गोदान की विधि और बैल के दान की विधि बताई गई है [ २५-४० ] । उभयमुखी (जो गाय बच्चे को उत्पन्न कर रही हैं ) उस दशा में गोदान की विधि और उसका माहात्म्य [ ४१-४५ ] । तिलधेनु दानविधि और माहात्म्य तथा विशेष सामग्री का वर्णन बताया है [ ४६- ७० ]। घृतधेनु की विधि एवं उसकी सामग्री और उसके फल का वर्णन [ ७१-८६ ] । जलधेनु विधि और उनके फल का वर्णन [ ८७-१०३ ] । हेमधेनु, स्वर्ण की धेनु बनाने का प्रकार पूजाविधि और दानविधि तथा दान के माहात्म्य का उल्लेख है । स्वर्णधेनु की रचना किस प्रकार

पृष्ठाङ्क

अध्याय

[ ५२ ]

प्रधानविषय

१० करनी और क्या-क्या रत्न उसके किस-किस अंग प्रत्यंग में लगाने चाहिये उसका वर्णन आया है [ १०४ - १२१ ] । कृष्णमृगचर्म के दान का विधान वैशाखी पूर्णिमा और कार्तिक की पूर्णिमा को जो दान किया जाय उसका माहात्म्य दर्शाया है [ १२२- १४२ ] । मार्ग दान की विधि [ १४३ - १४६ ]

१० हयगज दानविधि वर्णनम्

सुखासन दान का माहात्म्य,

रथदान का

एवं उसका अलंकार

माहात्म्य, हस्तीदान एवं

और उसकी दान विधि का उल्लेख तथा अवदान का माहात्म्य और रथ दान का वर्णन

[ १५० - १६६ ] । कन्यादान का माहात्म्य । १७०- १७१] । पुत्र दान का माहात्म्य [ १७२ - १७३ ] ।

१० भूमिदान वर्णनम् ।

भूमिदान का माहात्म्य, सब दानों से श्रेष्ठ भूमिदान बताया है । भूमिदान करनेवाला सब पापों से मुक्त हो अनन्त काल तक स्वर्ग में रहता है [ १७४- २०० ] । स्वर्ण तुला का दान और चांदी की तुला दान का दिग्दर्शन कराया है। गुड़ की तुला, लवण की तुला दान जो बी करे तो पार्वती के समान सौभाग्यवती रहेगी तथा पुरुष करे तो प्रद्युम्न के समान तेजस्वी होगा ।

पृष्ठाङ्क

[[८८१]]

[[८८३]]

अध्याय

१० दान विधि वर्णनम् ।

[ ५३ ]

प्रधानविषय

ब्राह्मण को वस्त्राभूषण दान का माहात्म्य, बड़े-बड़े रत्नों के दान का माहात्म्य, स्वर्ण तुला दान करने में भगवान विष्णु की पूजन का विधान, चाँदी दान का माहात्म्य, माणिक्य के तुलादान का माहात्म्य, घृत, भोजन की चीज, तेल, पान आदि वस्तुओं का पृथक्-पृथक् दान माहात्म्य । फल, गुड़, अन्न, मकान, पलंग दान आदि का माहात्म्य [ २०१-२३३ ]

१० विद्यादान वर्णनम् ।

विद्यादान का माहात्म्य और विद्यार्थियों को भोजन, वस्त्र देने का माहात्म्य । सब दानों से अधिक विद्यादान बताया है । २३४ - २४१ ] ।

[ औषधि दान और अस्पताल (औषधालय) खोलने का माहात्म्य और दया दान [ २४२-२४८ ] ।

१० तिथिदान विधि वर्णनम् ।

भगवान विष्णु का पूजन पौर्णमासी में करने का माहात्म्य [ २४६-२६० ]। चैत्र शुक्ला द्वादशी को वस्त्रदान का माहात्म्य और छाता, जता दान

पृशङ्क

[[८८७]]

[[८८८]]

[[८६०]]

अध्याय

[ ५४ ]

प्रधानविषय

करने का माहात्म्य । आषाढ़ में दीप दान का माहात्म्य; श्रावण में वस्त्र दान, भाद्रपद में गोदान,

आश्विन में घोड़ा दान, कार्तिक में वस्त्र दान, मार्गशीर्ष में लवण दान, पौष में धान का दान, फाल्गुन में इत्र दान मास विशेष में अलग- अलग दान बताये हैं [ २६१-२७८ ] ।

१० दान त्याज्यकाल वर्णनम् ।

अशौच

सूतक में दान देना लेना निषेध, रात्रि में दान निषेध, और रात्रि में विद्या दान, अभय दान, अतिथि सत्कार हो सकता है, अभय दान हर समय हो सकता है, दूसरे का दान अशौच सूतक । में लेना निषेध, [ २७८-२८२ ] ।

दान लेने की और देने की शास्त्रोक्त विधि का वर्णन [ २८३ - २८६ ] । सत्पात्र को दान देना चाहिये अन्य को नहीं, परोक्ष दान के महान पुण्य की विधि [ २६०-३०० ]

१० दानार्थ गोलक्षण वर्णनम् ।

गोदान का वर्णन आया है कैसी गौ दान के लिये होनी चाहिये [ ३०१-३०६ ] । दान में तौल वर्णन

पृष्ठाङ्क

[[८६३]]

Z&v

अध्याय

[ ५५ ]

प्रधानविपय

बताया है और गौ का दान अक्षय फलवाला

बताया है [ ३०-३१३ ] । १६ प्रकार के वृथा दान का वर्णन [ ३१४-३२३ ]

१० दानग्राह्य पुरुषलक्षण वर्णनम् ।

दातव्य वस्तु के दान का माहात्म्य, किसका कैसा दान देना व लेना, उसकी विधि जैसे गौ का पूंछ पकड़ कर उसके कान में कुछ कह कर दान करे इस तरह अन्य दान की विधि, प्रतिग्रह लेने पर विशेष विधि, अश्व दान का विशेष विधान, अश्व दान लेने की विधि [ ३२४-३४१ ] ।

पृष्ठाङ्क

[[८६७]]

१० मास, पक्ष, तिथि विशेषेण दान महत्त्व वर्णनम् ८६८

श्रावण शुक्ला द्वादशी को गोदान का माहात्म्य [३४३ ] । पौष शुक्ला द्वादशी को घृतधेनु का विधान [ ३४४ ] । माघ शुक्ला द्वादशी को तिलधेनु का विधान [ ३४५ ]। ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को जलधेनु का विधान [ ३४६ ] । काल, पात्र, देश में दान का माहात्म्य [ ३४७ - ३४६ ]। ग्रहण काल में दिया हुआ दान अक्षय होता है [ ३५०-३५२ ] । वैशाख, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन की पूर्णिमा को

अध्याय

[ ५६ ]

प्रधानविषय

दान का माहात्म्य [ ३५३- ३५४ ] । तुला संक्रान्ति, मेष संक्रान्ति में प्रयाग में दान का माहात्म्य [ ३५५ ]। मिथुन, कन्या, धनु, मीन संक्रान्ति में भास्कर तीथ में दान का माहात्म्य [ ३५६-३५८ ] । अक्षय दान का माहात्म्य [ ३५६ ] । सूर्य, ब्रह्मा आदि देवों के मन्दिरों का निर्माण तथा जीर्णो- द्वार विधि का माहात्म्य [ ३६०-३६८ ] ।

१० कूप तड़ागादि कीर्ति महत्त्ववर्णनम् ।

कूप बावड़ी तालाव आदि बनाने का माहात्म्य

[३६२-३७४] । पीपल, उदुम्बर, वट, आम, जामुन, निम्ब, खजूर, नारियल आदि भिन्न-भिन्न जाति के वृक्ष लगाने का माहात्म्य [ ३७५-३७८ ] ।

यथा–

पृष्ठाङ्क

[[६०१]]

“अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दश चिचिणीश्च । षट् चम्पकं तालशतत्रयं च पश्चाम्रवृक्षै नरकं न पश्येत् ॥

इतने वृक्षों को लगाने से नरक में नहीं जाते हैं लगाये हुए वृक्षों के फल पक्षी जितने दिन ग्वाते हैं उतने दिन स्वर्ग में रहते हैं [ ३७६-३८२ ] । जितने फूल के वृक्ष लगाता है उतने दिन तक स्वर्ग

1अध्याय

[ ५७ ]

प्रधानविषय

में रहता है [ ३८३ ] । विभिन्न प्रकार के वृक्ष और

पुष्पवाटिकायं अपने हाथ से लगाने से स्वग गति

का माहात्म्य हैं [ ३८६

११ विनायकशान्तिविधि वर्णनम् ।

शान्ति प्रकरण यथा - विनायक शान्ति का प्रकरण है जबतक विनायक शान्ति नहीं होती तबतक ये लिखित दुःस्वप्न दर्शन होते हैं यथा रात्रि में निशाचर, जलावगाहन इत्यादि [१८]। इसके बाद उसके स्नान का वर्णन, सफेद मग्सों से स्नान ब्राह्मण की सहायता से करना जो सम संख्या के हो यथा ४ हो या ८ हो । दुर्वा से उपर्युक्त मन्त्रों से अभिषेक करे [ ६-२१] । हवन का विधान [ २२-२५ ] । भगवती पार्वती का स्तवन मन्त्र ( २६-३० ) आचार्य दक्षिणा इत्यादि ( ३१-३३ ) ।

११ ग्रहशान्तिविधि वर्णनम ।

[[1]]

ग्रहशान्ति - प्रहमण्डप, ग्रहों के जप मन्त्र, ग्रहां का पूजोपचार, महदान आदि नवग्रह का पूजन एवं प्रतिवर्ष का माहात्म्य ( ३४-८५ ) ।

पृष्ठाङ्क

[[६०३]]

[[६०६]]

अध्याय

प्रधानविषय

[ ५८ ]

पृष्ठाङ्क

[[६११]]

अद्भुत शान्ति वर्णनम् ।

घर के उपद्रव, एवं खेती में अपाय यथा सरसों के वृक्ष में तिल, एवं जल में अमि, इन्धन इत्यादि गाय, बैल के शब्द से बोले, कौवे गृह में जाने लगे, दिन में तारे दिखना, मकान पर गृद्ध इत्यादि का बैठना, ऐसे ऐसे उपद्रवों की शान्ति

एवं उपचार मन्त्रों का वर्णन है (८६-१०६) ।

११ रुद्रपूजाविधि वर्णनम ।

रुद्र की पूजा का विधान और उसके मंत्र बताये हैं

( १०७-१५८ ) ।

११ रुद्रशान्ति वर्णनम ।

रुद्र शान्ति का सम्पूर्ण विधान बताया है । रुद्र शान्ति से आयु तथा कीर्ति बढ़ती है उपद्रवों की शान्ति होती हैं । मृत्युञ्जय का हवन बिल्वपत्रों से

( १५६-२०२ ) ।

११ तड़ागादि विधिवर्णनम ।

तड़ाग, कूप, वापी इनकी प्रतिष्ठा का विधान । उपर्युक्त वापी इत्यादि दूषित होने पर इनकी शुद्धि

[[६१४]]

[[६१६]]

[[६२३]]

अध्याय

[ ५६ ]

प्रधान विषय

का विधान बताया है और इनका माहात्म्य

बताया है ( २०३ - २४० ) ।

११ लक्ष होमविधि वर्णनम ।

कोटि होमविधि वर्णनम् ।

पृष्ठाङ्क

[[६२७]]

[[६२६]]

लक्ष होम, कोटि होम की विधि इन दोनों में कितने ब्राह्मण और कैसा कुण्ड इनका वर्णन तथा लक्ष और कोटि होम का आहवनीयद्रव्य, अभिषेक मंत्र, अभिषेक विधान, आचार्य ऋत्विक इनकी दक्षिणा का विधान और इसका माहात्म्य । सब प्रकार की आपत्तियों को दूर करनेवाला और राष्ट्र के सब उपद्रवों को दूर करनेवाला होता है

( २४१-२६६ ) ।

११ पुत्रार्थं पुरुषसूक्त विधान वर्णनम ।

जिस स्त्री के सन्तान न हो अथवा मृतवत्सा हो उसको सन्तति के लिये त्रैमासिक यज्ञ जो कि शुक्ल पक्ष में अच्छे दिनपर दम्पति द्वारा उपवास कर पुत्र कामना के लिये किया जाता है उसकी विधि एवं मंत्र ( २६७-३१३ ) ।

[[६३२]]

अध्याय

[ ६० ]

प्रधानविषय

पृष्ठाङ्क

[[६३४]]

११ शान्ति विधिवर्णनम् -

प्रत्येक ग्रह के मंत्र एवं कृषि पूजन विधान, वैदिक

सूक्तों का वर्णन आया है जो कि उपर्युक्त ग्रहों में किया जाता है । ३१४-३४७ ) ।

१२ राजधर्म वर्णनम् -

[[६३८]]

राजा को देवता के समान बताया गया है ( १५- २३) । राजा को प्रजा की रक्षा का विधान तथा

राजा को राज्य संचालन के लिये पडगुण, सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय, द्वैधीकरण इनके जानकार तथा रहस्यों की रक्षा इनका आचरण करना चाहिये। अपने समीप कैसे पुरुषों को रखना इसका वर्णन आया है ( २४-३६ ) । राजा को जहाँतक हा लड़ाई नहीं करनी चाहिये क्योंकि करने से सर्वनाश होता है ( ३७-४३ ) । जब युद्ध से न बचे उस समय व्यूह रचना आदि का वर्णन ( ४४-६६ ) । पुरुषार्थ और भाग्य इन दोनों को समान दृष्टिकोण रखकर कार्य करना चाहिये ( ६७-७१ । । सांसारिक ऐश्वर्य को विनाशवान समझकर उसमें आस्था न करें। भाग्य और

युद्ध

अध्याय

[ ६१ ]

प्रधानविषय

पुरुषार्थ के सम्बन्ध में विवेचना की गई है। दुष्टां को दण्ड से दमन करना, राजा को प्रसन्नमूर्ति रहना चाहिये क्योंकि राजा सब देवताओं के अंश से बना हुआ है (७२-६५ ) ।

१२ वानप्रस्थ भिक्षाधर्मवर्णनम् -

वानप्रस्थी के नियम तथा उसके कर्तव्यों का वर्णन आया है । वानप्रस्थ को अपने यज्ञ की रक्षा के लिये राजा को कहना चाहिये । वानप्रस्थी को यज्ञ आदि कर्म करने का विधान और उसको भिक्षा लाकर आठ ग्रास खाने का नियम बताया है ( ६६ - १२० ) । वेदान्त शास्त्र को पढ़कर यज्ञविधि को समाप्त कर सन्न्यास में जाने का नियम एवं सन्न्यासी के धर्म, दिनचर्या आदि का वर्णन किया गया ह तथा उसको निर्भयता, निर्मोह, निरहंकार, निरीह होकर ब्रह्म में अपनी आत्मा को लीन करना दर्शाया है ( १२१-१४४ ) ।

पृष्ठाङ्क

[[६४७]]

१२ चतुर्णामाश्रमाणां भेदवर्णनम् -

ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी और सन्न्यासी के

[[६५१]]

अध्याय

[ ६२ ]

प्रधानविषय

भेद बताये हैं । ब्रह्मचारी के भेद प्राजापत्य, नैष्ठिक इत्यादि गृहस्थ के चार भेद- शालीन याया- वर इत्यादि, वानप्रस्थ के भेद - वैखानस, उदुम्बर इत्यादि संन्यासी के भेद - हंस, परमहंस, दण्डी इत्यादि तथा उनके धर्मों का निदेश किया है

( १४५ - १७४ ) ।

१२ योगवर्णनम् -

गर्भ में देहरचना और उससे वैराग्य, यह बताया हैं कि आत्मा देह से भिन्न है । अनेक प्रकार के कर्मों का वर्णन दिखलाया है कि कर्म के अनुसार देह बनती हैं। शब्द ब्रह्म का वर्णन और प्राण, योग सिद्धि, दीर्घायु का वर्णन । प्राणायाम का

वर्णन पूरक, रेचक, कुम्भक और प्रत्याहार के अभ्यास का वर्णन, अग्नि, वायु, जल के संयोग से

शुद्धि । १७५-२४२ ) ।

१२ प्रणवध्यानवर्णनम् -

पृष्ठाङ्क

[[६५४]]

ध्यानयोगवणनम् -

योगाभ्यासवर्णनम् -

ज्ञान योग और परम मुक्ति का वर्णन, भगवान

[[६६१]]

[[६६४]]

[[६७०]]

अध्याय

[ ६३ ]

प्रधानविषय

१२ का ध्यान एवं प्रणव का ध्यान जानना और उसमें भक्ति का वर्णन, ध्यान के प्रकार - किस स्वरूप में तथा किस जन्म में किस देवता का ध्यान करना इत्यादि का वर्णन । मृत्यु के अनन्तर जीव की दो मार्ग की गति का वर्णन, एक धूम- मार्ग दूसरा प्रकाश (अर्चि) मार्ग । एक से ब्रह्म की प्राप्ति और एक से स्वर्ग की प्राप्ति । ब्रह्मयोग की प्राप्ति के साधन का वर्णन किया गया 1 ब्रह्म का अभ्यास, ध्यान और प्रत्याहार का वर्णन तथा यह बताया है कि “मृत्युकाले मतिर्यास्यात्तां गतिं याति मानवः " । इसलिये मुमुक्षु को नित्य ऐसा अभ्यास करना चाहिये जिससे अंत समय ब्रह्म ज्ञान का अभ्यास बना रहे। यह पराशरजी से कथित धर्मशास्त्र जो नित्य सुनता है और जो श्राद्ध में ब्राह्मणों को सुनाता है उसके पितरेश्वर तृप्ति को प्राप्त होते हैं ( २४३-३७८ ) ।

श्री वृहत्पराशर स्मृतिस्थ विषयानुक्रमणिका समाप्ता ।

पृष्ठाङ्क

अध्याय

[ ६४ ]

]

प्रधानविषय

लघुहारीतस्मृति के प्रधान विषय

१ वर्णाश्रमधर्मवर्णनम—

ऋषिगणों का हारीत ऋषि से सम्वाद - ऋषियों ने वर्णाश्रम धर्म तथा योगशास्त्र हारीत से पूछा जिसके जानने से मनुष्य जन्ममरण रूप बन्धन को तोड़कर संसार से मुक्त हो जाय । इस अध्याय के नवम श्लोक से हारीत ने सृष्टि का वर्णन किया, भगवान शेषशायी समुद्र में शयन कर रहे थे उस समय ब्रह्मा की उत्पत्ति से प्रारम्भ कर जगत

की उत्पत्ति तक वर्णन किया ।

लिखा है जो धर्मशास्त्र न जाने

श्लोक तेईस मे

उसको दान न

देना । संक्षेप में ब्राह्मण का धर्म इस अध्याय में

कहा गया है ( १-२३ ) ।

२ चतुर्वर्णानां धर्मवर्णनम् -

क्षत्रिय तथा वैश्य का धर्म बताया गया है। क्षत्रिय का धर्म प्रजापालन, दान देना, अपनी भार्या में ही रति रखना, नीति शास्त्र में कुशलता और मेल करना तथा लड़ना इसके तत्त्व को

पृष्ठाङ्क

[[६७४]]

[[६७७]]

अध्याय

[ ६५ ]

प्रधानविषय

जाने । वैश्य का धर्म बताया है गोरक्षा, कृषि

और वाणिज्य । मनुष्य को स्वदार निरत रहना चाहिये ( १ - १५ ) ।

३ ब्रह्मचर्याश्रम धर्मवर्णनम् -

[[४]]

उपनयन संस्कार के बाद विधिपूर्वक अध्ययन करना और अध्ययन विधि के विरुद्ध करना निष्फल बताया गया है ( १-४ ) । ब्रह्मचारी के नियम एवं नैष्ठिक ब्रह्मचारी को विवाह करना और संन्यास करने का निषेध बताया गया है। इस प्रकार ब्रह्मचारी के धर्म का वर्णन बताया गया है ( ५-१४ ) ।

गृहस्थाश्रम धर्मवर्णनम्—

वेदाध्ययन के अनन्तर ब्राह्मविवाह से विवाह करने की प्रशंसा लिखी है ( १-३ ) ।

प्रातःकाल

पृष्ठाङ्क

[[६७६]]

उठकर दन्तधावन का विधान और दन्तधावन की लकड़ी तथा मन्त्रों से स्नान, प्रातः काल जब सूय लाल-लाल दिखाई पड़ता है उस समय मन्देह नामक राक्षसों के साथ सूर्य का युद्ध होता है अतः प्रातः काल गायत्री मंत्र से सूर्य को अर्घ्यदान

२-५

[[६८१]]

[ ६६ ]

प्रधानविषय

४ देना लिखा है। मरीचि आदि ऋषि और सनकादि योगियों ने भी प्रातःकाल सूर्य को अर्घ्यदान देना बताया है । जो मनुष्य अर्घ्यदान नहीं करता है वह नरक में जाता है (४-१६ )। स्नान करने को विधि और स्नान करने के मन्त्र बताये गये हैं ( १७-३३ ) । तीन पानी की चुल्लू पीना और पानी की अञ्जली सिर पर डालना । कुशा को हाथ में लेकर पूर्व की ओर मुख करके प्रोक्षण करे ( ३४-३८ ) । प्राणायाम और गायत्री के मन्त्र जपने की विधि । जपके मन्त्र का उच्चारण करने का विधान । जप के तीन मुख्यभेद वाचिक, उपांशु और मानस । जप करने से देवता प्रसन्न होते हैं यह बताया गया है। जो नित्य गायत्री का जप करता है वह पापों से छुट जाता है । गायत्री जप करने के बाद सूर्य को पुष्पाञ्जलि दे और सूर्य की प्रदक्षिणा कर नमस्कार करे पश्चात् तीथे के जल से तर्पण करे (३६-५०) । ब्रह्मयज्ञ के मंत्रों का वर्णन (५१-५४) । अतिथि पूजन और वश्वदेव की विधि बताई है ( ५५-६२ ) । पहले सुवासिनी स्त्री और कुमारी को भोजन करावे फिर बालक और वृद्धों को भोजन करावे तब

୨ଥअध्याय

[ ६७ ]

प्रधानविषय

४ गृहस्थी भोजन करे । भोजन से पूर्व अन्न को हाथ जोड़े और पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके पहले “प्राणाय स्वाहा " इत्यादि मंत्रों से पांच आहुति देवे तब आचमन कर लेवे इसके बाद मौन पूर्वक स्वादिष्ट भोजन करे (६३-६४ ) । भोजन करने के अनन्तर दिन में कोई इतिहास, पुराण आदि की पुस्तकें पढ़नी चाहिये (६६) । प्रातः काल एवं सायंकाल कंवल दो समय ही गृहस्थी को भोजन करना चाहिये और बीच में कुछ नहीं खाना चाहिये ( ६७-६८ ) । अनध्याय काल ( वह दिन जिनमें पुस्तकों को नहीं पढ़ना) का वर्णन किया गया है ( ६६-७३ ) । गृहस्थी को सुवर्ण गौ एवं पृथिवी का दान करना चाहिये ( ७४-७७ ) ।

[[५]]

वानप्रस्थाश्रम धर्मवर्णनम् —

AC

वानप्रस्थ आश्रम के नियम बताये हैं जोकि अन्य धर्मशास्त्रों में समान रूप से बताये गये हैं (१-१०) ।

६ सन्न्यासाश्रम धर्मवर्णनम् -

वानप्रस्थ के बाद सन्न्यास में जाना चाहिये और सन्न्यास में जाने के बाद लड़कों के साथ भी

पृष्ठाडू

[[६८८]]

[[६८६]]

अध्याय

[ ६८ ]

प्रधानविषय

६ स्नेह की बात न करे (१-५) ।

दंड, कौपीन तथा खड़ाऊ आदि

का नियम बताया है ( ६-१० ) ।

भिक्षा के नियम और धातु के

का दोष बताया है ( ११-१६ ) ।

संन्यासी को धारण करने संन्यासी को पात्र में खाने संन्यासी को

सन्ध्या जप का विधान, भगवान का ध्यान जीव

मात्र पर समदृष्टि रखने का आदेश दिया है ( २०-२३ ) ।

७ योगवर्णनम् —

वर्णाश्रम धर्म कहकर जिससे मोक्ष हो और पाप नाश हो ऐसे योगाभ्यास की क्रिया रोज करनी चाहिये (१-३) । प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान बतला कर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में जो भगवान हैं उनका ध्यान करना लिखा है । जिस प्रकार बिना घोड़े के रथ नहीं चल सकता उसी प्रकार बिना तपस्या के केवल विद्या से शान्ति नहीं होती हैं । तप और विद्या दोनों इस जीव के पृष्ठ भाग है जिससे उत्तम गति को पाता है ( ४-११) । विद्या और तपस्या से योग में तत्पर होकर सूक्ष्म और स्थूल दोनों देह को छोड़कर

पृष्ठाङ्क

[[६६२]]

अध्याय

[ ६६ ]

प्रधानविषय

७ मुक्ति को प्राप्त हो जाता है । हारीत ऋषि कहते हैं कि मैंने संक्षेप से ४ वर्ण एवं ४ आश्रमों के धर्म

इस उद्देश्य से बताये हैं कि मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम के धर्म पालन से भगवान मधुसूदन का पूजन कर वैष्णव पद को पहुंच जाता है (१२-२१) ।

वृद्धहारितस्मृति के प्रधान विषय

१ पञ्चसंस्कार प्रतिपादनवर्णनम् -

राजा अम्बरीष हारीन ऋषि के आश्रम में गये । वहां जाकर हारीत से परम धर्म, वर्णाश्रम धर्म, स्त्रियों का धम तथा राजाओं के लिये मोक्ष मार्ग पृछा ( १-६ ) । उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में हारीत ने कहा कि मुझे जो ब्रह्माजी ने बताया है वह मैं आपको कहता हूं । नारायण वासुदेव विष्णु- भगवान सृष्टिके विधाता हैं अतः उन भगवान का दास होना ही सबसे बड़ा धर्म है ( ७ - १६ ) । मैं विष्णु का दास हूं यही भावना चित्त में रखना । नारायण के जो दास नहीं होते हैं वे जीते जी चाण्डाल हो जाते हैं। इसलिये अपनेको भगवान

पृष्ठाङ्क

[[६६४]]

अध्याय

[ ७० ]

प्रधानविषय

का दास समझकर जप पूजादि करे, नारायण का मनसे ध्यान कर उनका संकीर्तन करे और शंख, चक्र, ऊर्धपुंड्र धारण करे यह दास के चिन्ह हैं । जो वैष्णव शंख, चक्र धारण करता

है वही पूज्य है और वही धन्य है यह बताया है ( १७-३६ ) ।

२ वैष्णवानाम् पुण्ड्र संस्कारवर्णनम् -

पृष्ठाङ्क

[[६६७]]

वैष्णवानाम् नाम संस्कार वर्णनम् -

[[१००६]]

वैष्णवानाम् मंत्र संस्कार वर्णनम् -

[[१००७]]

वैष्णवानाम् पञ्चसंस्कार वर्णनम् -

[[१०११]]

पंच संस्कार शंखचक्र चिन्ह धारण ऊर्धपुण्ड्रादि की

विधि, वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा, उसका माहात्म्य,

वैष्णव सम्प्रदाय के बालक की पंच संस्कार विधि बताई गई है ( १ - १५) ।

३ भगवन मंत्रविधान वर्णनम् -

अम्बरीष राजा ने हारीत ऋषि से वैष्णव मन्त्रों

का माहात्म्य तथा विधि पूछी।

इसके उत्तर में

हारीत ने बड़े विचार के साथ पंचविंशति अक्षर

[[१०१२]]

अध्याय

[ ७१ ]

प्रधानविषय

का मन्त्र, अष्टाक्षर मंत्र, द्वादशाक्षर मंत्र, हयग्रीव मंत्र तथा पोड़शाक्षर मंत्र आदि अनेक वैष्णव मंत्रों का उद्धरण, उनके विनियोग, न्यास, ध्यान, जप विधि, शंख, चक्र पूजन और भगवान विष्णु कपूजन आदि का सुन्दर वर्णन किया है (१-३६२ ) ।

४ प्राप्तकाल भगवत् समाराधन विधिवर्णनम् - १०५०

प्रातः काल उठने का विधान, शौच से निवृत्त हो वैष्णव धर्म के अनुसार तुलसी और आँवले की मिट्टी को अपने बदन पर लगाकर मार्जन करने और स्नान करने का विधान तथा मन्त्रों का विधान बताया है ( १ - ४६ ) । विष्णु का पूजन और विष्णु को कौन-कौन पुष्प चढ़ाने चाहिये एवं पडक्षर मंत्र का विधान ( ४७ - १४० ) ।

४ प्राप्तकाल भगवत् ममाराधन विधौ कृषिवर्णनम् १०६५

पुराणों का पाठ, वैष्णव पूजा का विधान बताया हैं। तामस देवताओं का वर्णन और द्रव्य शुद्धि का वर्णन आया है। खेती करना, पशु का पालन करना सबके लिये समान धर्म बताया

अध्याय

[ ७२ ]

]

प्रधानविषय

है । चोरी करना, परस्त्री हरण, हिंसा सबके लिये

पाप बताया है ( १४१-१७४ ) ।

पृष्ठाडू

४ प्राप्तकाल भगवत्समाराधनविधौ राजधर्मवर्णनम् १०६७

राजधर्म का वर्णन, दण्डनीति विधान - प्रायः वही है जो याज्ञवल्क में हैं । इसमें विशेषता यह है कि धर्मच्युत को सहस्र दण्ड विधान बताया है । स्त्री के साथ व्यभिचार करनेवाले का अंगच्छेदन, सर्वस्वहरण और देश निष्कासन बताया है ( १७५-२१३) । युद्ध का वर्णन और युद्ध में राज्य जीतकर उसे अपने आधीन कर राज्य समर्पित कर देना इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है एवं विजय की हुई भूमि सत्पात्र को देनी चाहिये । सत्पात्र के लक्षण - तपस्या और विद्या की सम्प- न्नता है ( २१४ - २२३ ) । राज्यशासन का विधान कर लगाना, याचित, अनाहित और ऋणदान देने का विधान, पुत्र को पिता का ऋण देना, स्त्री धन की रक्षा, पतिव्रता स्त्री का पालन, व्यभिचारिणी को पति के धन का भाग न मिलने का वर्णन और बारह प्रकार के पुत्रों का वर्णन इस तरह संक्षेप

अध्याय

[ ७३ ]

प्रधानविषय

में राजधर्म और भागवत धर्म की जिज्ञासा लिखी

है ( २२४-२६५ ) ।

ପୃଥ

५ भगवन्नित्यनैमिचिक समाराधन विधिवर्णनम् १०७५

राजा अम्बरीपने मनु, भृगु, वशिष्ठ, मरीचि, दक्ष, अङ्गिरा, पुल, पुलस्त्य, अत्रि इनको जगत् गुरु कहकर प्रणाम किया और वह परमधर्म पूछा जिससे संसार के बन्धन से छुटकारा हो जाय (१-६)। उत्तर में परमधर्म इस प्रकार बताया :- भगवान वासुदेव में भक्ति और उनके नाम का जप, भगवान को उद्देश्य कर प्रतादि, स्वदार में प्रीति दूसरी स्त्री में लगन न हो, अहिंसा और भगवान का दास होकर रहना आदि आदि । मेरा स्वामी भगवान है और मैं उनका दास हूं यह धारणा रक्ख । यही भगवत् प्राप्ति का मार्ग है और इसके अतिरिक्त सब नरक का मार्ग बताया है (१०-१६) । वैष्णव धर्म का माहात्म्य और अपनेको भगवान का दास समझना ( १७-४० ) । तप्त शंख चक्र का चिन्ह जिनपर लगाया गया उन ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी और यतियों का नित्य कर्म और वर्णाचार, पूजन, जप, उपासना का विधान

अभ्याय

[[५]]

[ ७४ ]

प्रधानविषय

विस्तार से बताया गया है ( ४१ - २४६ ) । यति एवं वानप्रस्थ का रहनसहन तथा मन से अष्टो- त्तर षट् मन्त्र का जप, उनका धर्म, सन्ध्या का विधान, वैश्वदेव और भूतबलि का विधान, दिनचर्या संस्कार तथा पुत्रोत्पत्ति का विधान ( २४७ - ३०२ ) । वैष्णवों को प्रातःकाल में स्नान कर लक्ष्मीनारायण के पूजन की विधि बताई है। भगवान को पायस चढ़ाकर पुष्पाञ्जलि देकर द्वादशाक्षर जप करने का विधान आया है (३०३- ३१३ ) । मन्दिर में जाकर पूजन और द्वादशा- क्षर मन्त्र से पुष्पाञ्जली देना ( ३१४-३२७ ) । वैशाख, श्रावण, कार्तिक, माघ, इन मासों में जिस प्रकार भगवान विष्णु का पूजन तथा

विष्णु के उत्सवों का वर्णन आया है और

पुराण

पाठ आदि भगवान के पूजन कीर्तन के अनेक

प्रकार के विधान बताये हैं ( ३२८-५६२ ) ।

६ भगवतः यात्रोत्सववर्णनम् -

ପ୍ର

[[११२७]]

वैष्णवेष्टि क्रियातः श्राद्धपर्यन्त विधिवर्णनम् ११३७

भगवान के महोत्सव की विधियाँ हैं जो कि अपने

आचार के अनुसार की जाती है जिनसे अनावृष्टि

अध्याय

[[६]]

[ ७५ ]

प्रधानविषय

आदि उत्पात तथा महारोग दूर होते हैं । संवत्सर, प्रति संवत्सर या प्रति ऋतु में महोत्सव करने का विधान लिखा है । इन महोत्सवों में मण्डप के सजाने की विधि और नगर कीर्तन यज्ञ आदि की विधि बताई है । किस दशा में किस सूक्त का पाठ करना बताया है। भगवान को नीराजन कर शय्या में सुलाना उसके मंत्र बताये गये हैं और विस्तार से बृहत्पूजन की विधि बताई है। का वर्णन और श्राद्ध न करने

श्राद्ध

पर नारायणबलि

का विधान बताया है ( १ - १५५ ) । सात्विक, राजसिक, तामसिक प्रकृति का वर्णन और पाप

के अनुसार नरक की गति और उन नरकों के नाम ( १५६ - १७१ ) ।

६ महापातकादि प्रायश्चित्त वर्णनम् -

पृष्ठाङ्क

[[११४३]]

पापों का वर्णन ( १७२ ) । महापाप जिनका कि अग्नि में जलने के अतिरिक्त और कोई प्रायश्चित्त

नहीं उनका वर्णन आया है । सब प्रकार के पाप, प्रकीर्ण पाप और उनका प्रायश्चित्त बताया है । द्वादशाक्षर मंत्र के जप से पापों का नाश

और शुद्धि बताई है (१७३-२४५)।

अध्याय

[ ७६ ]

प्रधानविषय

पृष्ठाङ्क

[[११५३]]

६ रहस्य प्रायश्चित्तवर्णनम् -

सम्पूर्ण प्रकार के पापों की गणना बतला कर उनका प्रायश्चित्त व्रत, जप, दान आदि बताया है । इसी तरह गुप्त पापों से छुटकारा जिस तरह हो सके उनका प्रायश्चित्त और दान तथा भगवान का मन्त्र जप बताया है ( २४६-३५० ) ।

६ महापापादि प्रायश्चित्त प्रकरण वर्णनम् -

रजस्वला के स्पर्श से लेकर बड़े-बड़े पापों की निवृत्ति के लिये वापी, कूप, तड़ाग, वृक्ष लगाने का माहात्म्य और वैकुण्ठनाथ विष्णु भगवान के पूजन का माहात्म्य आया है ( ३५१-४४६ ) । ७ नानाविधात्सव विधानवर्णनम्-

नारायण इष्टी, वासुदेव इष्टी, गारुड़ इष्टी, वैष्णवी इष्टी, वैयुही इष्टी, वैभवी इष्टी, पाद्मी इष्टी, पव- मानिका इष्टी का विधान आया है और इनके मन्त्र तथा यज्ञ पुरुष के बनाने का विधान, द्रव्य यज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याय, ज्ञान यज्ञ इनका विधान बताया है। यज्ञ की वेदी बनाना उनके मन्त्र आदि का वर्णन किया है (१-६६ ) । कृष्ण

[[११६०]]

११६६अध्याय

[ ७७ ]

प्रधानविषय

पक्ष की एकादशी में उपवास व्रत, रात्रि जागरण और द्वादशी को द्वादशाक्षर मंत्र का जप, भगवान् का पूजन, देवर्षियों के तर्पण का विधान बताया है (७०-६०) । वैष्णवी इष्टी (यज्ञ) का विधान बताया है । उनके मन्त्र, उनकी सामग्री और वैष्णव गायत्री का जप बताया है ( ६१-१०५ ) । शुक्ल- पक्ष की द्वादशी, संक्रान्ति और ग्रहण के समय संकर्षणादि की मूर्ति, वासुदेव की मूर्ति का पूजन और किस प्रकार किस देवता की मूर्ति बनानी तथा पूजन बताकर वैभवी इष्टी का विधान बताया है। यह वैष्णवी यज्ञ जो विष्णु भक्त न करे उसको पाप बताया है । इसमें कहाँ पर किस देवता की स्थापना करनी चाहिये उनका वर्णन बताया है । शुक्लपक्ष की शुक्रवारीय द्वादशी को पानी इष्टी का विधान बताया है । इसमें भगवान् का उत्सव और उसका माहात्म्य बताया है। जलशायी भगवान् का पूजन बताया है और इनके मन्त्र बताये हैं । दोलयात्रा उत्सव का वर्णन बताया है । भगवान् का विशेष प्रकार से पूजन, विशेष प्रकार से भोग

अध्याय

[ ७८ ]

प्रधानविषय

और विशेष प्रकार से कीर्तन, रथयात्रा का वर्णन

आया है ( १०६-३२६ ) ।

८ विष्णुपूजा विधिवर्णनम् -

विष्णु की पूजा की विधि वेद के मन्त्रों से बताई गई है ( १-६० ) ।

पृष्ठाङ्क

[[१२०१]]

सवृत्यधिकार भाण्डादीनाम् संशुद्धिवर्णनम् - १२०६ सभावदूष्यादि द्रव्यभाण्डादीनाम् संशुद्धिवर्णनम् १२११ अभक्ष्य भोक्तादीनां संसर्ग निषेधवर्णनम् - १२१३ स वैष्णवलक्षण नवविधज्याभिधान वर्णनम् - १२१५ स्त्रीधर्माभिमान वर्णनम् —

[[१२१७]]

स चक्रादि धारण पुण्ड्र क्रियाभिधान वर्णनम् १२२१

वैष्णव दीक्षा विधिवर्णनम् -

वैष्णवधर्म निरूपणम्-

वैष्णव प्रशंसा वर्णनम् -

[[१२२३]]

[[१२२५]]

[[१२२७]]

स श्राद्ध कथनपर्वक विष्णोस्थानप्राप्ति वर्णनम् १२२६

अध्याय

[ ७ ]

प्रधानविषय

स वैष्णव धर्माभिधानैतच्छास्त्र स्यफलश्रुति

वर्णनम् -

पौराणिक तथा स्मृति के मन्त्रों से भगवान् विष्णु का पूजन और नवधा भक्ति का वर्णन, ध्यानजप, मन्त्रजप का वर्णन, तप्तचक्रांक धारण का माहात्म्य और वैष्णव धर्मवालों की प्रशस्ति बताई है।

“दानं दमः तपः शौचं आर्जवं शान्तिरेव च आनृशंसं सतां संग पारमैकान्त्य हेतवः । वैष्णवः परमेकान्तो नेतरो वैष्णवः स्मृतः ॥

पूजा का माहात्म्य और भिन्न भिन्न प्रकार से जो भगवान् विष्णु की पूजा उत्सव यज्ञ दान बताये हैं, इन सबका तात्पर्य यह है कि भक्त पर विष्णु भगवान् की कृपा हो जाय। जिसपर वैष्णव संस्कारों से विष्णु भगवान् की कृपा या आशि- र्वाद हो जाता है उनका जीवन चरित्र ऐसा होता है— दान करना, दम इन्द्रियों का दमन, तप तपस्या, शौच पवित्रता, आर्जव सरलता, शान्ति क्षमा, आनृशंसं सत्य वचन, सज्जनों का

पृष्ठाङ्क

[[१२३३]]

अध्याय

संग, परमेकान्त में

( ६१-३५१ ) ।

[ ८० ]

प्रधानविषय

रहना ये वैष्णव के चिह्न हैं

बृहत् हारीत स्मृति में स्मृति - प्रतिपाद्य आचार- व्यवहार प्रायश्चित्त के समुचित निर्णय के अति- रिक्त वैष्णवाचार, वैष्णवोपासना, विष्णु इष्टी; विष्णु पूजन सांग सावरण; वैष्णव पूजा उत्सव; रथयात्रा; एकादश्यादि व्रतोद्यापनः मण्डप - रचना आदि का सुचारु विधान निरूपण किया है ।

स्मृति सन्दर्भ द्वितीय भाग की विषय-सूची समाप्त ।

॥ शुभम् ॥

::

पृष्ठाङ्क

॥ ॐ तत्सद्ब्रह्मणे नमः ॥

श्रीमन्महर्षि पराशरप्रणीता-