[[पुरुषार्थचिन्तामणिः Source: EB]]
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आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थावलिः
ग्रन्थाङ्कः५५
**आठवले इत्युपनामकविष्णुभट्टविरचितः **
**पुरुषार्थचिन्तामणिः । **
एतत्पुस्तकं
वे० शा० सं० रा० रा० भास्करशास्त्री पावगी इत्येतैः संशोधितम् ।
तच्च
**हरि नारायण आपटे **
**इत्यनेन **
पुण्याख्यपत्तने
**आनन्दाश्रममुद्रणालये **
**आयसाक्षरैर्मुद्रयित्वा **
**प्रकाशितम् । **
_______
शालिवाहनशकाब्दाः१८२९
ख्रिस्ताब्दाः १९०७
( अस्य सर्वेऽधिकारा राजशासनानुसारेण स्वायत्तीकृताः ।)
आदर्शपुस्तकोल्लेखपत्रिका
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अथास्य पुरुषार्थचिन्तामणेः पुस्तकानि यैः परहिततत्परैः संशोधनार्थं प्रदत्तानि तेषां नामादीनि पुस्तकानां संज्ञाश्च प्रकाश्यन्ते —
( क.) इति संज्ञितम् – पुण्यपत्तननिवासिनां रा० रा० गंगाधर कृष्ण आपटे इत्येतेषाम्। अस्य लेखनकालः शके १७१३
( ख ) इति संज्ञितम् - अस्य लेखनकालः शके १७१९.
(ग.) इति संज्ञितम् - बेलगावनिवासिनां रा० रा० महेश्वर लक्ष्मण गाडगील वकील इत्येतेषाम् । अस्य लेखनकालः शके १७१०
(घ.) इति संज्ञितम्-अस्य लेखनकालः शके १७७८
(च.) इति संज्ञितम् – पुण्यपत्तननिवासिनां वे. शा. रा० रा० कृष्णशास्त्री.पाटणकर इत्येतेषाम् ।
(छ.) इति संज्ञितम् –वैराजग्रामनिवासिनां वे० रा० रा० अण्णंभट्ट अभ्यंकर इत्येषाम् । अस्य लेखनकालः शके १७१३
(ज.) इति संज्ञितम् - मुंबईस्थ रा० रा० तुकाराम जावजी इत्येषां निर्णयसागरमुद्रणालये मुद्रापितम् । अस्य मुद्रणकालः शके १८२७
समातेयमादर्शपुस्तकोल्लेखपत्रिका ।
———————————
अथ पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः ।
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| विषयाः | विषयाः |
| मङ्गलाचरणम् | मले प्रथमाब्दिकनिर्णयः |
| कालद्वैविध्यम् | मलमासकर्मविधानम् |
| काललक्षणम् | अनन्यगतिकं मले कार्यम् |
| लघ्वक्षरादिकाललक्षणम् | वृषोत्सर्जनम् |
| अहोरात्रलक्षणम् | मलमासे दानादि |
| मासश्चतुर्धा | पक्षनिर्णयः |
| चान्द्रमासद्वैविध्यम् | तिथिनिर्णयः |
| चैत्रादिमासलक्षणम् | तिथीनां कर्माहता |
| मासकृत्यानि | सखण्डाखण्डतिथिविचारः |
| मासविशेषेकर्मविशेषः | दिवसस्वरूपम् |
| मासकृत्यानि | मुहूर्तनामानि तद्विभागश्च |
| वैशाखकृत्यम् | अह. पञ्चधाविभागः |
| ज्यैष्ठ मासकृत्यम् | चतुर्धा विभागः |
| आषाढकृत्यम् | त्रिधा विभागः |
| श्रावणमासकृत्यम् | द्विधा विभागः |
| भाद्रपदकृत्यम् | रात्रिगतपञ्चदशनामानि |
| आश्विनमासकृत्यम् | दिनद्वये तिथिसत्त्वे व्यवस्था |
| कार्तिककृत्यम् | तिथिसामान्यनिर्णयः |
| मार्गशीर्षकृत्यम् | कर्माङ्गतिथिनिर्णयः |
| पौषमासकृत्यम् | तिथिवेवधनिर्णयः |
| माघकृत्यम् | साकल्यापवादः |
| फाल्गुनमासकृत्यम् | एकभक्ते तिथिनिर्णयः |
| ऋतुनिर्णयः | नक्तव्रते तिथिनिर्णयः |
| अयननिर्णयः | प्रदोषपरिमाणम् |
| संवत्सरनिर्णयः | नक्तभोजिनियमाः |
| चान्द्रः संवत्सरः | अयाचिते तिथिनिर्णयः |
| सौरः संवत्सरः | अयाचिते प्राणसंख्या |
| मलमासनिर्णयः | उपवासे तिथि निर्णयः |
| क्षयमासनिर्णयः | नक्षत्रनिर्णयः |
| मलमासे कार्याकार्यनिर्णयः | योगनिर्णयः |
| मलमासे कर्माभ्यनुज्ञा | उपवासे भद्राकरणनिर्णयः |
| महादानानि | एकभक्कादिसंकलनः |
| अधिमासेकर्तव्यम् | पारणाकालः |
| अनन्यगतिकाभ्यनुज्ञा | प्रतिपन्निर्णयः |
| बले महालय निर्णयः | चैत्रशुक्लप्रतिपदि चान्द्रवत्सराद्यारम्भः |
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः ।
[TABLE]
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः।
| विषयाः | विषयाः |
| अत्र ढुण्ढिराजपूजनम् | वैशाखशुक्लाष्टम्यां आम्ररसेन देवीस्नपनम् |
| अङ्गारिका चतुर्थी | ज्येष्ठकृष्णाष्टम्यां त्रिलोचनार्चा |
| चतुर्थ्यो भरणीशनियोगे यमपूजनम् | आषाढशुक्लाष्टम्यां हरिद्रोदकेन देवीस्नपनम् |
| पञ्चमीनिर्णयः | जन्माष्टमीनिर्णयः |
| स्कन्दोपवासः | जयन्तीनिर्णयः |
| श्रीपञ्चमी | जन्माष्टमीव्रतप्रकारः |
| नागपञ्चमी | जन्माष्टमीपूजाप्रकारः |
| ऋषिपञ्चमी | अकरणे पापम् |
| इन्द्राण्या सह नागपूजनम् | जयन्तीजन्माष्टम्योरैक्यम् |
| उपाङ्गललिताव्रतम् | व्रतस्वरूपम् |
| मार्गशीर्षशुक्लपञ्चम्यां स्नानदानैर्नागलोकः | ग्राह्याष्टमी द्विविधा |
| माघशुक्लपञ्चम्यां कुन्दैर्लक्ष्मीपूजनम् | बुधवारादियोगे प्राशस्त्यम् |
| अत्रैव वसन्तोत्सवः | निर्णीतार्थसंग्रहः |
| षष्ठी निर्णयः | पारणानिर्णयः |
| स्कन्दपूजा | रात्रावपि पारणम् |
| आषाढशुक्लषष्ठी कौमारिकी | भाद्रपदशुक्लाष्टम्यांदूर्वाष्टमीव्रतम् |
| भाद्रपदशुक्लषष्ठ्यां कार्तिकेयदर्शनम् | महालक्ष्म्यष्टमीव्रतम् |
| अस्यामेव स्नानं भास्करपूजनं च | ज्येष्ठापूजा |
| भाद्रपदकृष्णषष्ठी कपिलाषष्ठी | आश्विनशुक्लाष्टम्यांदुर्गापूजनम् |
| अस्यामेव चन्द्रषष्ठीव्रतम् | भैरवाष्टमी |
| कार्तिकशुक्लषष्ठी वहिषष्ठी | षौषशुक्लाष्टमी महाभद्राष्टमी |
| मार्गशीर्षशुक्लषष्ठी गुहषष्ठी | माघशुक्लाष्टमी भीष्माष्टमी |
| सप्तमीनिर्णयः | नवमीनिर्णयः |
| चैत्रशुक्लसप्तम्यां दमनकैः सूर्यपूजनम् | रामनवमी |
| भाद्रपदशुक्लसप्तम्यपराजिता | अस्यां भद्रकालीपूजनम् |
| मार्गशीर्ष शुद्धसप्तमी नन्दासप्तमी | वैशाखनवम्यामुमापूजनम् |
| इयमेय मित्रसप्तमी | ज्येष्ठनवम्यां कुमारीपूजा |
| रथसप्तमी | आषाढनवम्यामैन्द्रीपूजनम् |
| इयमेव रवियोगे विजया | श्रावणनवम्यां चण्डिकापूजनम् |
| अस्यां रविसंक्रमे महाजया | भाद्रपदशुक्लनवम्यां दुर्गापूजा |
| अस्यां रेवतीरवियोगेऽशोकैर्दुर्गापूजा, अशोककलिकाप्राशनं च | कृष्णनवम्यां देवीप्रबोधः |
| पद्मकयोगः | आश्विन शुक्लनवमीदुर्गानवमी, इयं दानेऽतिप्रशस्ता |
| सर्वसप्तमीषु रविपूजनम् | कार्तिकशुक्लनवम्यां पितॄणामुत्सवः |
| अष्टमीनिर्णयः | माघशुक्लनवमी महानन्दा |
| चैत्र शुक्लाष्टम्यामशोककलिकाप्राशनम् | दशमीनिर्णयः |
| अस्यां भवानीयात्रा | ज्येष्ठशुक्लदशमी संवत्सरमुखी |
| अन्नपूर्णायात्रा | दशहरानिर्णयः |
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः।
| विषयाः | विषयाः |
| अस्यां गङ्गावतारः | पतिमत्या उपवासे पुष्पादिधारणम् |
| अत्र दश योगाः | सूतकादिप्राप्तौ कर्तव्यम् |
| बुधहस्तयोग आनन्दयोगः | स्त्रीणां रजोदर्शने |
| अत्र प्रतिपदादिषु दशाश्वमेधे स्नानम् | दशमीकृत्यम् |
| दशाश्वमेधेशदर्शनफलम् | एकादशीकृत्यम् |
| विजयादशमी | प्रातः कृत्यानन्तरं संकल्पः |
| सीमोल्लङ्घनम् | नित्यव्रते विशेषः |
| अपराजितापूजनम् | प्रतिनिविष्वपि समन्त्रक एवं संकल्पः |
| शमीपूजनम् | एकादश्यां देवोपरि पुष्पमण्डपिका |
| अश्मन्तकपूजा | अत्र पाषण्ड्यादिदर्शने प्रायश्चित्तम् |
| एकादशीनिर्णयः | द्वादशीकृत्यम् |
| शुद्धाविद्धाभेदाः | नित्योपवासप्रकारः |
| वैष्णवलक्षणम् | समर्थस्य भोजने प्रायश्चित्तम् |
| वैष्णवैकादशीनिर्णयः | तद्विचारः |
| स्मार्तानां सूर्योदयोत्तरमेव | पारणानिर्णयः |
| एकादशी द्विविधा | द्वादश्यां होमादिकं रात्रिंशेषेऽनुदितहोमिनाम् |
| उन्मीलिन्यायष्टभेदाः | उदितहोमिनां तु द्वादश्यतिक्रमः |
| स्मार्तैकादशीनिर्णयः | तच्च द्वादशीप्रथमपादमतिक्रम्य कर्तव्यम् |
| एकादश्या अष्टादशभेदाः | संदेहे ग्राह्यवचनाः |
| समन्यूनद्वादशिकायां व्यवस्था | द्वादशीनिर्णयः |
| भ्यूनद्वादशिकायां विशेषः | अनुराधादिषु संगवे न भोक्तव्यम् |
| पुत्रवद्गृहीणामुपवासनिषेधः | श्रवगद्वादशी |
| विद्धाधिकासाम द्वादाशिकायां परैव | अस्यां बुधयोगेमहाफलम् |
| विद्धाधिकायां तु | विष्णुशृङ्खलयोगः |
| गृहस्थविषये विचारः | द्वादशीव्रतसंकल्पः |
| एकादशीनिर्णयसंग्रहः | पारणमुभयान्ते मुख्यम् |
| एकादशीमहिमा | त्रयोदशीनिर्णयः |
| विधवायत्योर्दोषविशेषः | अनङ्गत्रयोदशी |
| एकादश्यामुपाहार विचारः | प्रदोषनिर्णयः |
| एकादशी नित्या काम्या च | शनिप्रदोषव्रतम् |
| संक्रान्त्यादिनिमित्तंकोपवासनिर्णयः | त्रयोदश्यां कश्चिद्विशेष |
| गृहस्थब्रह्मवारिणोर्विशेषः | प्रदोषद्वयासत्त्व उत्तरैव |
| एकादशीव्रतं काम्यमपि | अत्र त्रिलोचनयात्रा |
| अस्मिन्व्रते सर्वोऽप्यधिकारी | अत्र कामकुण्डे स्नानं कामेशदर्शनं च |
| उपवासस्वरूपम् | वारुणीमहावारुणीयोगौ |
| उपवासे वर्जनीयानि | आश्विनकृष्णत्रयोदश्यांयमदीपदानम् |
| असामर्थ्य एकभक्तादिकम् | क्षत्रविद्शुद्रस्त्रीणां ज्ञाननिषेधः |
| हविष्यनिर्णयः | |
| प्रतिनिधिद्वारोपवासः |
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः।
| विषयाः | विषयाः |
| चतुर्दशीनिर्णयः | तिथ्यन्ते पारणम् |
| चैत्रशुक्लचतुर्दश्यां दमनकारोपणम् | उद्यापनम् |
| दमनकपूजाविधिः | पारणानिर्णयः |
| वैशाखशुक्लचतुर्दश्यां नृसिंहजयन्ती | यामत्रयोर्ध्वगामिन्याम् |
| अङ्गारके गङ्गास्नानम् | मासशिवरात्रिः |
| आषाढशुक्लचतुर्दश्यां शिवपूजनम् | शिवरात्रिव्रतप्रयोगः |
| पवित्रारोपणम् | बिल्वपत्रपुष्पादिसंपादनम् |
| अन्यदेवपवित्रारोपणम् | शिवपूजायां प्रशस्तपुष्पाणि |
| पवित्रनिर्माण प्रकारः | पर्युषितविचारः |
| शिवपवित्रप्रकारः | निषिद्धपुष्पाणि |
| भाद्रपदशुक्लचतुर्दश्यामनन्तव्रतम् | मासविशेषात्पुष्पार्पणे विशेषः |
| आश्विनकृष्णचतुर्दश्यां दीपावलिः | पुष्पार्पणमुद्रा |
| दिनत्रयं तैलाभ्यङ्गः | पुष्पपत्राद्यर्पणप्रकारः |
| अपामार्गभ्रामणम् | बिल्वप्रशंसा |
| कार्तिकस्नानोत्तरं यमतर्पणम् | धूपदीपनैवेद्याः |
| नरकोत्तारणार्थे यमदीपः | फलार्पणम् |
| दिनत्रयं बलिराज्ये दीपदानम् | प्रदक्षिणाप्रकारः |
| महारात्रिपूजा | नमस्कारप्रकारः |
| शैवविषभोजनम् | लिङ्गार्चनं महाफलम् |
| मावपत्रशाकभोजनम् | पञ्चसूत्रीनिर्णयः |
| भौमयोगेशिवाराधनम् . | पीठलक्षणम् |
| उल्कादानम् | पार्थिवलिङ्गे पञ्चसूत्री नैव |
| अमायां रात्रौ भोजनम् | ज्योतिर्लिङ्गादौ शूद्रादिस्पृष्टे न दोषः |
| प्रदोष इन्दिरापूजनम् | स्थापितलिङ्गे स्त्रीशूद्रयोः स्पर्शानधिकारः |
| अभ्यङ्गे नित्यत्वं तत्कालश्च | शूद्रस्थापितलिङ्गं न प्रणमेत् |
| बलेरालेखनं पश्चरङ्गकैः | चरलिङ्गपूजने फलतारतम्यम् |
| बलिपूजा | वाणलिङ्गपरीक्षा |
| गोक्रीडकनम् | युगभेदाल्लिङ्गभेदः |
| लक्ष्मीपूजननिर्णयः | पार्थिवलिङ्गप्राशस्त्यम् |
| कार्तिकशुक्लचतुर्दश्यां विश्वेश्वरोत्पत्तिः | पार्थिवलिङ्गनिर्माणप्रकारः |
| मार्गशीर्षशुक्लचतुर्दश्यां पिशाचमोचनयात्रा | प्राणप्रतिष्ठापनम् |
| महाशिवरात्रिनिर्णयः | पार्थिवपूजाविधिः |
| शिवरात्रिमतेऽधिकारिणः | स्त्रीशूद्राणामशक्तस्य च विधिः |
| व्रतविधिः | शिवपञ्चाक्षरन्यासादिपूजाप्रयोगः |
| व्रतसंकल्पः | प्रहरभेदेन यामपूजनम् |
| पूजाप्रकारः | शिवप्रसादग्रहणनिर्णयः |
| पूजापदार्थाः | निषेधः क्वचित् |
| योमचतुष्टयपूजा | निषिद्धनिर्मात्यभक्षणे चान्द्रम् |
| शिवस्य स्तोत्रम् | देवताभेदेन प्रसादग्रहणेऽधिकारिञ्च |
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः।
| विषयाः | विषयाः |
| निर्माल्यं षड्विधम् | भद्रानिषेधः |
| तीर्थे सर्वत्र प्रायम् | भद्रामुखादिनिर्णयः |
| पूर्णिमानिर्णयः | चित्रादिमासर्क्षयुतपूर्णिमासु स्नानादि |
| चैत्र्यां दमनकपूजा | पूर्णेन्दुजीवयोगे महाफलम् |
| ज्येष्ठयां वटसावित्री | महाज्येष्ठी गुर्वादियोगे |
| आषाढ्यां भारभूतेश्वरयात्रा | महामाघी मेषगे सूर्ये |
| व्यासपूजा | महाचैत्री शालग्रामे |
| श्रावण्यां रक्षाबन्धनम् | महावैशाखी गङ्गायाम् |
| पवित्रारोपणम् | ज्येष्ठी पुरुषोत्तमे |
| श्रावण्या श्रवणाकर्म | आषाढी कनखले |
| उपाकर्म कालनिर्णयः | श्रवणी केदारे |
| एतन्निर्णयसंग्रहः | महाभाद्रपदी बदर्याम् |
| आपस्तम्बादिसूत्रभेदाद्विशेषः | आश्विनी कुब्जायाम् |
| प्रथमोपाकर्मणि अस्तादिनिषेधः | कार्तिकी पुष्करे |
| उत्सर्जनकालः | मार्गशिर्षी कान्यकुब्जे |
| भाद्रपद्यां नान्दीमुखपितृश्राद्धम् | महापौषी,अयोध्यायाम् |
| नान्दीमुखनिर्णयः | महामाघी प्रयागे |
| भाद्रपद्यां कुशस्तम्जयात्रा | फाल्गुनी नैमिषे |
| आश्विन्यामक्षैर्जागरणम् | अमावास्यानिर्णयः |
| कोजागरव्रतम् | ज्येष्ठामायां सावित्रीव्रतम् |
| अत्र निकुम्भागमनान्मार्गपरिष्कारादि | श्रावणामायां दर्भसंग्रहः |
| कार्तिकस्नानारम्भः | अस्यां कुलस्तम्भयात्रा |
| कार्तिक्यां दामोदरपूजनम् | ऋणमोचनस्नानम् |
| क्षीरसागरदानम् | लिङ्गत्रयदर्शनम् |
| कार्तिक्यां वृषोत्सर्गः | वैतरणीस्नानम् |
| त्रिपुरदाहोत्सवः | गजच्छाया |
| कृतिकायोगे महती | माध्यां नवनीतधेनुदानम् |
| महाकार्तिकी | अस्यां शततारकायोगे पितृदुर्लभा |
| मार्गशीर्ष्यां विधुपूजनम्, लवणदानं च | अर्धोदययोगः |
| पौष्यां पुष्ययोगे गौरसर्षपकल्कस्नानन् | आर्द्रादिनक्षत्रयुक्ताऽमा श्राद्धेऽतिप्रशस्ता |
| सर्वौषध्यः | भौमयुक्तामायां जाह्नवीस्नानम् |
| अत्र मूलकभक्षणे चान्द्रम् | सोमादियुतामा सूर्यपर्वशताधिका |
| माध्यां तिलकार्पासघेनुकम्बलरत्नकञ्चुकोपानद्दानानि | सूर्यग्रहसमास्तिथयः |
| अत्र शिवपूजा | इष्ट्युपयोगिपर्वनिर्णयः |
| मघायुतायां तिलैः श्राद्धम् | आपस्तम्बानां पर्वनिर्णयः |
| माध्यां स्नानम् | अन्वाधानकालः |
| फाल्गुन्यां शय्यादानम् | निर्णीतपर्वसंग्रहः |
| दोलास्थगोविन्ददर्शनम् | विकृतिकालः |
| होलिकोत्सवः | आग्रयणेष्टौ कालविशेषः |
| होलिकादीपनमन्त्रः |
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः।
| विषयाः | विषयाः |
| पिण्डपितृयज्ञकालः | वारनक्षत्रादिप्रयुक्तो विशेषः |
| श्राद्धेऽमावास्यानिर्णयः | ध्रुवमृद्वादिनक्षत्रसंज्ञाः |
| अमावास्यानिर्णयसंग्रहः | व्यादिघटिकाः पुण्याः |
| ग्रहणनिर्णयः | मन्दादीनां वर्णविशेषे शुभमनिष्टं च |
| रवौ सूर्यप्रहश्चूडामणिसंज्ञः | संक्रान्तिनिरुक्तिः |
| देवपितृमनुष्याः स्पर्शादिषु क्रमेण तृप्यन्ति | अस्त्राने दोषः |
| स्नान होमदानादिकालः | संक्रान्त्यां दानप्रशंसा |
| सर्ववर्णानां सूतक्रम् | अपुत्रिणामुपवासः |
| नित्यं चेदं स्नानम् | शुक्ल सप्तम्यां संक्रमे विशेषः |
| अयनादिषूपवासः | पुण्यकालव्यवस्था |
| पुत्रवद्गृहिण उपवासनिषेधः | विष्णुपद्यां पूर्वकालः पुण्यतरः |
| ग्रहणे सर्वमुदकं गङ्गासमम् | षडशीतिमुखे चोत्तरः कालः पुण्यतरः |
| ग्रहणे दानं पृथ्वीदानसमम् | रात्रिसंक्रमे निर्णयः |
| ग्रहणे प्रशस्ता नद्यः | अभिन्नतिथौ विशेषः |
| असंभवे वाप्यादौ स्नानम् | रात्रौ स्नानं प्रशस्तं कचित् |
| आतुर उष्णोदकस्नानम् | अयनादिप्रयुका अनध्यायाः |
| ग्रहे मासविशेषेण नदीविशेषः | प्रद्दान्तरसंक्रान्तौ पुण्यकालः |
| अत्र श्राद्धं सर्वस्वेनापि | निर्णीतसंग्रहः |
| श्राद्धं चाऽऽमेन हेम्ना वा | श्राद्धकालनिर्णयः |
| सूतकादौ ग्रहणे स्नानादिकर्तव्यानि | सामान्यतः श्राद्धतिथि |
| दाने पात्रापात्रविचारः | एकोद्दिष्टे मध्याह्नगा |
| स्वापनिषेधः | पार्वणेऽपराहगा |
| भोजननिषेधः | आमश्राद्धं पूर्वाह्णेऽपि |
| बालादिविषये | वृद्धिश्राद्धं प्रातः |
| समर्थस्य भोजने प्रायश्चित्तम् | सांवत्सरिकश्राद्धे तिथिः |
| तत्कालपक्वं त्याज्यम् | अकरणे दोषः |
| केषुचित्पर्युषितदोषो नास्ति | मातृश्राद्धे विशेषः |
| चन्द्रग्रस्तास्ते विशेषः | मासश्चान्द्रः |
| नक्षत्रविशेषप्रयुक्तो विशेषः | पित्रोरुपासने पार्वणमेव |
| मण्डलविशेषेण शान्तिविशेषः | दत्तको द्विविधः |
| जन्मराश्यादिषु ग्रहणे दोषः | यतेरपि पार्वणम् |
| ग्रहणे तद्दोषशान्तये दानादिकथनम् | द्व्यामुष्यायणानामे कोद्दिष्टम् |
| राज्यनक्षत्रे ग्रहे शान्तयः | श्राद्धे निषिद्वकालः |
| सौवर्णं नागं राजतं बिम्बं च दद्यात् | सायंकालत्यापि क्वचिदभ्यनुज्ञा |
| ग्रहणशान्तिः | अष्टमो मुहूर्तः कुतपः |
| मन्त्रदीक्षा ग्रहणम् | दिनद्वयव्याप्तिविचारः |
| पुरश्चरणप्रकारः | सामान्यतः श्राद्धकालः |
| निर्णीतसंग्रहः | वृद्धिश्राद्धकालः |
| संक्रान्तिनिर्णयः | वृद्धिश्राद्धाधिकारिणः |
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः ।
| विषयाः | विषयाः |
| पित्रभावे ज्येष्ठभ्रात्रादिः | एकादशेऽह्नि वृषोत्सर्गः |
| जीवत्पितृकस्य स्वसुतसंस्कारे विशेषकश्च | सुवासिन्याः पयस्विनीदानम् |
| कर्माङ्गमपि श्राद्धम् | अत्र द्विजा एकादश |
| कृष्णपक्षे श्राद्धनिर्णयः | इदमेव महैकोद्दिष्टम् |
| पञ्चम्यादिः सर्वासु तिथिषु | नवमिश्रसंज्ञकषोडशश्राद्धकालः |
| अमाश्राद्धात्पृथगिदम् | मासिकानां कालः |
| मघायुक्तत्रयोदश्याम् | सपिण्ड्यनन्तरपार्वणवदर्वागोकोद्दिष्टम् |
| शुक्लप्रतिपदा सह षोडश | द्वित्र्यादिदिन न्यूनपक्षे नन्दादिनिषेधः |
| कन्यासंक्रमः सर्वः श्रेष्ठः | आहिताग्नेः प्रेतश्राद्धकालः |
| सर्वत्र श्राद्धनन्दादिनिषेधो न | असामर्थ्ये |
| एकस्मिन्दिने श्राद्धकरणे नन्दादिनिषेधः | नवश्राद्वभोजने प्रायश्चित्तम् |
| अध्यापवादः | निरग्नेः सपिण्डीकालः |
| मौणकालः | षोडशश्राद्धानि कृत्वा सपिण्डनम् |
| अकरणे प्रत्यवायः | अपकृष्टानां स्त्रकाले पुनरावृत्तिः |
| श्राद्धं पार्वणेनैव | वृद्धिं विनापकर्षे दोषः |
| विवाहप्रयुक्तपिण्डनिषेधस्तत्र न | साग्निकसपिण्डन कालः |
| संन्यासिनां पार्वणं द्वादश्याम् | गौण कालस्त्रिपक्षादिः |
| श्राद्धं पक्केनैव | वत्सरान्तेऽपि सपिण्डनम् |
| महालयश्राद्धे देवताः | पितामहे जीवति विवारः |
| विधवाकर्तृकश्राद्धे विशेषः | पितृसपिण्डनोत्तरं पितामहे मृते |
| महालयाङ्गतर्षाणं परेऽहनि | अत्र वृद्ध्यादिनिमित्ते सपिण्डनं पुत्र एव कुर्यात् |
| माध्यंदिनैः सकृन्महालये तद्दिन एव कार्यम् | मातुर्व्युक्रममरणे |
| भरणीश्राद्धं पिण्डरहितम् | पत्न्याः पत्या |
| अष्टम्यां श्राद्धम् | पुत्राभावे पतिरेव |
| मघात्रयोदशीश्राद्धम् | आसुरादिविवाहे मातामहादिभिः |
| इदं श्राद्धं नित्यम् | पुत्राभावे पत्नी सपिण्डनं कुर्यात् |
| त्रयोदश्यां श्राद्वनिषेत्रः | सपिण्डनमपि ज्येष्ठ एव षोडशश्राद्धानि |
| असंतानेन कर्तव्यम् | ज्येष्ठ एव कुर्यात् |
| श्राद्धं विना मधुरायसादि देयम् | कनिष्ठ ऋद्धि कामाश्चेत्पृथक् |
| द्वादश्यादौ श्राद्धे फलम् | सूत्रकान्ते सर्ववर्णानां सपिण्डी |
| इदं दर्शवदेव कार्यम् | शूद्राणामपि द्वादशाहे पार्वणम् |
| चतुर्दशीश्राद्धनिर्णयः | संन्यासिनतमेकादशे पार्वणम् |
| तत्तु शत्रहतानामेव | अस्थिक्षेपादिप्रथमेऽब्दे |
| अत्र पितुरप्येकोद्दिष्टम् | अतीतक्रियाकालः |
| त्रयाणां शस्त्रमरणे पार्वणम् | तत्र नक्षत्रादिनिषेधः |
| एकोहिष्टकालः | युगादयः |
| युद्धहतादौ सयः शौचेऽप्येकोद्दिष्टम् | एकत्रश्राद्धे निर्वाहः |
| युगादिश्राद्धं मलेऽपि |
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः।
| विषयाः | विषयाः |
| युगान्ताः | पुंसवनम् |
| मन्वादयः | अनवलोभनम् |
| कल्पादयः | सीमन्तोन्नयनम् |
| काम्यास्तिथयः | विष्णुपूजाकालः |
| काम्यनक्षत्राणि | जातकर्मकालः |
| काम्यवाराः | नामकरणकालः |
| तिथिवारादियोगाः | पर्याङ्करोहणम् |
| आमश्राद्धकालः | दुग्धपानम् |
| भार्यायां रजस्वलायाम् | निष्क्रमणम् |
| श्राद्धकर्त्र्यां रजस्वलायाम् | भूम्युपवेशनम् |
| पाकारम्भाद्युतरं रजसि | कर्णवेधः |
| मासिकविषय उत्तरमासे | अन्नप्राशनम् |
| अमावास्यादि लुप्यत एव | चूडाकर्मकालः |
| आमश्राद्धेतिकर्तव्यता | अक्षरारम्भकालः |
| आमं तण्डुलादिकम् | उपनयनम् |
| पुत्रजन्मनि हेमश्राद्धम् | वेदाद्यारम्भकालः |
| हेमश्राद्ध गृहपाकात्पिण्डदानम् | ब्रह्मचारिव्रतारम्भः |
| विप्राभावे निर्णयः | अनध्यायाः |
| गृहीतस्य प्रतिपत्तिः | गोदानकर्म |
| अशक्तस्य तु | प्रतिवेदं ब्रह्मचर्यकालः |
| ततोऽप्यशक्तौ तिलाञ्जलिः | समावर्तनकालः |
| ततोऽव्यशक्तावरण्ये रोदनम्, निर्णीतसंग्रहः | छुरिकाबन्धनम् |
| क्षयाहापरिज्ञाने निर्णयः | विवाहकालः |
| तिथिमात्रज्ञाने | विवाहाद्युपयोगिनिर्णयः |
| तदभावे प्रस्थानदिनमासौ तदभावे वार्ताश्रवणदिनम् | एकोदरयोः संस्कार निर्णयः |
| तस्याप्यभावे मार्गमाघामावास्यायाम् | प्रतिकूलविचारः |
| यस्य वार्ता न श्रूयते | रजोदोषे विचारः |
| पालाशविध्युत्तरमागते विधिः | दिनचतुष्टये श्राद्धनिषेधः |
| श्राद्धे क्वचिदाशौचापवादः | मासिकादिनिर्णयः |
| श्राद्धसंनिपाते निर्णयः | धर्मार्थविवाहकरणे फलाभिधानम् |
| पार्वणैकोद्दिष्टयोर्युगपत्प्राप्तौ | कन्यागृहे भोजने |
| श्राद्धाङ्गतिलतर्पणकालः | वध्वा सह भोजने दोषाभावः |
| श्राद्धाहे वैश्वदेवकालः | अनिष्टनक्षत्रादौ विवाहकरणे दानम् |
| निरग्नेर्वैश्वदेवकालः | वाग्दानोत्तरं वरमरणे |
| दाने प्रशस्तकालः | कचित्परिवेत्तृत्वदोषाभावः |
| व्यतीपातोत्पत्तिः | गृहप्रवेशनीय होमकालः |
| नदीनां रजोदोषः | देवकोत्थापनकालः |
| गर्भाधानकीलः | देवकोत्थापनपर्यन्तं सपिण्डानां वर्ज्यानि |
| तीर्थविवाहादावस्पृश्यस्पर्शे न दोषः |
पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः ।
| विषयः | विषयः |
| स्नाननिषेधः | राजदर्शने |
| मुण्डननिषेधः | क्रयविक्रयादौ |
| गोपीचन्दननिषेधः | सेतुबन्धने |
| नववधूप्रवेशकालः | पशुकृत्ये |
| द्विरागमनकालः | गजदन्तच्छेदे |
| भावसध्याधानम् | निक्षेप मुहूर्तः |
| असंभवे पितृमरणोत्तरम् | ऋणमोक्षे |
| पितरि ज्येष्ठे भ्रातरि वा न दोषः | राजमुद्रायाम् |
| श्मश्रुकर्मकालः | नौकायाम् |
| दुष्ठतिथ्यादौ क्षौरे दोषः | भोगे मुहूर्तः |
| राजकार्यनियुकानां न दोषः | इन्धनसंग्रहे |
| पुनः सुदिने क्षौरम् | नवान्नभक्षणे |
| अभ्यङ्गकालः | नवभोजनपात्रे |
| अभ्यङ्गे तिथिवारयोर्निषेधे वारो बलवान् | नवफलादिभक्षणे |
| सार्षपे वासिते च न दोषः | ज्वराद्युत्पत्तौ |
| आमलकस्नानकालः | ज्वरे मरणयोगः |
| दन्तधावननिषेधः | तत्र शान्तिः |
| संध्याकालः | भेषजग्रहणे |
| कालविशेषे वर्ज्यानि | आरोग्यस्त्राने |
| देवप्रतिष्ठाकालः | काम्यहोमाहुतौ |
| शिवप्रतिष्ठाकालः | अथ युगधर्माः |
| विष्णुप्रतिष्ठाकालः | युगभेदेन देवताराधनम् |
| देवीप्रतिष्ठाकालः | युगभेदेन तीर्थसेवा |
| मातृभैरवादिप्रतिष्ठायाम् | युगभेदात्स्मृतिप्राबल्यम् |
| चतुःषष्टिप्रतिष्ठायाम् | युगभेदाइहिष्कारभेदः |
| वापीकूपादिप्रतिष्ठाकालः | भाषणस्पर्शनान्नादानकर्मभिः पातित्यम् |
| तिथिविशेषे देवताविशेषपूजा | कलियुगधर्माः |
| कामनाविशेषेण देवतापूजाकालः | षडक्षरेण शिवपूजा |
| कृषिलवनसंग्रहाहौ मुहूर्तः | युगक्रमेण ध्यानयागार्चनस्मृतयः |
| वस्त्रधारणम् | कलौ हरिसंकीर्तनम् |
| अलंकारधारणम् | कलिवर्ज्यानि |
| सूचीकर्मणि | जारिणीपारेग्रहे निर्णयः |
| शय्यायाम् | अस्थिसंचयनोत्तरं स्पर्शो न |
| शस्त्रधारणम् | चतुश्चत्वारिंशच्छतवर्षोत्तरमग्निहोत्रादिनिषेधकथनम् |
| स्वाभिसेवायाम् | यावद्वर्णविभागं संन्यासादि |
| दास्यादिसंग्रहे | प्रन्थप्राशस्त्यम् |
| गजाश्वदोलाद्यारोहणे | |
| नृत्यमुहूर्तः |
इति पुरुषार्थचिन्तामणिस्थविषयानुक्रमः ।
ॐ तत्सद्ब्रह्मणे नमः।
विष्णुभट्टविरचितः पुरुषार्थचिन्तामणिः।
——————————————————
(कालखण्डात्मकः)
ब्रह्मविष्णुमहेशानां सर्वेषां जगतां प्रभुः।
ईश्वरो नित्यकालात्मा विभुर्विजयतेतराम्॥ १॥
अत्रेः समुद्भवाद्रामकृष्णसूरिरभूत्कुलात्।
आठवले इति ख्यातात्तन्नेत्राच्चन्द्रमा इव॥ २॥
तदात्मजो विष्णुभट्टः पुरुषार्थप्रभासके।
ग्रन्थे चिन्तामणौ कालसम्यग्ज्ञानप्रसिद्धये॥ ३॥
हेमाद्रिष्णा माधवस्य विरोधः कालनिर्णये
इति ज्ञात्वा कृतास्तेऽतः परस्परविरोधिनः॥ ४॥
नवीनविदुषां ग्रन्थाः सुप्रसिद्धमिदं ह्यतः।
सर्वेषामृषिवाक्याणां हेमाद्रेर्माधवस्य च1॥ ५॥
संविवादपरीहारपरिष्कारपुरःसरम्।
करोति कालखण्डं तु नत्वा विश्वेश्वरं प्रभुम्॥ ६॥
तत्र कालो द्विविधो नित्यो जन्यश्च। नित्यस्वरूपमुक्तं कूर्मपुराणे —
अनादिरेप भगवान्कालोऽनन्तोऽजरोऽमरः।
सर्वगत्वात्स्वतन्त्रत्वात्सर्वात्मत्वान्महेश्वरः॥
ब्रह्माणो बहवो रुद्रा ह्यन्ये नारायणादयः।
एको हि भगवानीशः कालः कविरिति स्मृतः॥
ब्रह्मनारायणेशानां त्रयाणां प्राकृतो लयः।
प्रोच्यते कालयोगेन पुनरेव च संभवः॥
परं ब्रह्म च भूतानि वासुदेवोऽपि शंकरः।
कालेनैव च सृज्यन्ते स एव ग्रसते पुनः॥
तस्मात्कालात्मकं विश्वं स एव परमेश्वरः॥ इति।
विष्णुधर्मोत्तरेऽपि —
अनादिनिधनः कालो रुद्रः संकर्षणः स्मृतः।
कलनात्सर्वभूतानां स कालः परिकीर्तितः॥
अनादिनिधनत्वेन स महान्परमेश्वरः।
निमेषादपि सूक्ष्मत्वात्सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरो2 ह्यपि3॥
तस्य सूक्ष्मातिसूक्ष्मस्य कालस्य परमेष्ठिनः।
दुर्विभाव्या महाभाग योगिनामपि सूक्ष्मता॥
पद्मपत्रसहस्रं तु सूच्या वै भिद्यते यथा।
समकालं तु तद्भिन्नमबुद्धो4 मन्यते जनः॥
कालक्रमेण तद्भिनं सा तस्य द्विज सूक्ष्मता॥
यद्यप्येवंविधस्यानादिनिधनस्यापरिच्छिन्न तैवोचिता तथाऽप्यन्तवतीभिः सूर्यादिग्रहक्रियाभिः परिच्छिन्नतोपपद्यते। तांसां क्रियाणां संतामस्य बीजाङ्कुरादिसंतानवदनाद्यन्तत्वादनादिनिधनस्यापि कालस्य परिच्छेदः संभवतीत्युक्तं तत्रैव—
तस्य सूक्ष्मातिसूक्ष्मस्य तथाऽतिमहतो द्विजाः।
मानं संख्या बुधैर्ज्ञेया ग्रहगत्यनुसारतः॥ इति।
तथाऽस्मदादिप्रत्यक्षनिमेषादिक्रियाद्वारेण परिच्छेदस्तत्रैवोक्तः —
लध्वक्षरसमा मात्रा निमेषः परिकीर्तितः।
अतः सूक्ष्मतरः कालो नोपलभ्यो भृगूत्तम॥
नोपलभ्यं यथा द्रव्यं सुसूक्ष्मं परमाणुतः।
द्वौ निमेषौ त्रुटिर्ज्ञेया प्राणो दशत्रुटिः स्मृतः॥
विनाडिका तु षट्प्राणास्तत्षष्ट्या नाडिका स्मृता।
अहोरात्रं तु तत्षष्ट्या नित्यमेव प्रकीर्तितम्॥
त्रिंशन्मुहूर्ताश्च तथा अहोरात्रेण कीर्तिताः।
तेऽत्र पञ्चदश प्रोक्ता राम नित्यं दिवाचराः॥
उत्तरां तु यदा काठां क्रमादाक्रमते रविः।
तथा तथा भवेद्वृद्धिदिवसस्य महाभुज॥
दिवसश्च यथा राम वृद्धि समधिगच्छति।
तदाश्रितमुहूर्तानां तथा वृद्धिः प्रकीर्तिता॥
दिनवृद्धिर्यथा राम दोषाहानिस्तथा तथा।
तदाश्रितमुहूर्तानां हानिज्ञेया तथा तथा॥
दक्षिणां च यदा काष्ठां क्रमादाक्रमते रविः।
दिवसस्य तदा हानिर्ज्ञातव्या तावदेव तु॥
क्षीयन्ते तस्य हानौ तु तन्मुहूर्तास्तथैव च।
रात्र्याश्रिताश्च वर्धन्ते रात्रिवृद्धिस्तथा तथा॥
यदा मेषं सहस्रांशु स्तुलां चैव प्रपद्यते।
समरात्रिंदिवः कालो विषुवच्छब्दवाचकः॥ इति।
एवं च निमेषरूपक्रियाकालेनावच्छिन्ना या सूर्यस्य क्रिया तद्व्यावच्छिन्नः कालस्त्रुटिरिति व्यवहारस्य विषयः। एवं प्राणविनाडिकादिव्यवहारा ज्ञेयाः। षष्टिनाडिकापरिमितस्याहोरात्रस्य त्रैविध्यमुक्तं हेमाद्रौ ब्रह्मसिद्धान्ते ———
सावनं स्यादहोरात्रमुदयादोदयाद्रवेः।
रवेस्त्रिंशस्तु राश्यंशस्तिथिसंभोग ऐन्द्रवः॥ इति।
विष्णुधर्मोत्तरे त्वहोरात्रस्य चातुर्विध्यमुक्तम्—
तिथिनैकेन दिवसश्चान्द्रमाने प्रकीर्तितः।
अहोरात्रेण चैकेन सावनो दिवसः स्मृतः *॥
तिथिभागयोर्लक्षणं तत्रैव—
चन्द्रार्कगत्या कालस्य परिच्छेदो यदा भवेत्।
तदा तयोः प्रवक्ष्यामि गतिमाश्रित्य निर्णयम्॥
भगणेन समग्रेण ज्ञेया द्वादश राशयः।
त्रिंशांशश्च तथा राशेर्भाग इत्यभिधीयते॥
आदित्याद्विमकृष्टस्तु भागद्वादशकं यदा।
चन्द्रमाः स्यात्तदा राम तिथिरित्यभिधीयते॥ इति।
तस्य चातुर्विध्यात्तन्निष्पायो मासोऽपि चतुर्विधः। तदुक्तं हेमाद्रौ ज्योतिः सिद्धान्ते —
प्रथमः सावनो मासो द्वितीयश्चान्द्र उच्यते।
नाक्षत्रस्तु तृतीयः स्यात्सौरो मासश्चतुर्थकः॥ इति।
विष्णुधर्मोत्तरेऽपि —
चन्द्रमाः पौर्णमास्यन्ते भास्करावृतिरिच्यते।
राशिषट्कं तथा राम मासार्धेन न संशयः॥
भागद्वादशकेनैव तिथ्यां तिथ्यां क्रमेण तु।
चन्द्रमाः कृष्णपक्षान्ते सूर्येण सह युज्यते॥
* ख. ग. पुस्तकयोरेतदधिकम् – आदित्यभागभोगेन सौरो दिवस उच्यते। चन्द्रमक्षत्रमोगेम नाक्षत्रो दिवसः स्मृतः। इति।
संनिकर्षावथाऽऽरभ्य संनिकर्षस्तथा परः।
चन्द्रार्कयोबुधैर्मासश्चान्द्र इत्यभिधीयते॥
सावने तु तथा मासि त्रिंशत्सूर्योदयाः स्मृताः।
आदित्यराशिभोगेन सौरो मासः प्रकीर्तितः॥
सर्वर्क्षपरिवर्तैस्तु नाक्षत्रो मास उच्यते।
हेमाद्री त्रिकाण्डमण्डनेन देशव्यवस्थया चान्द्रमासस्य द्वैविध्यमुक्तम्—
चान्द्रोऽपि शुक्लपक्षादिः कृष्णादिर्वेति च द्विधा।
कृष्णपक्षादिकं मासं नाङ्गी कुर्वन्ति केचन॥
येऽपीच्छन्ति न तेषामपीष्टो विन्ध्यस्य दक्षिणे।
तथा च तैत्तिरीयके— अमावास्यया मासान्संपाद्याहरुत्सृजन्त्यमावास्यया हि मासान्संपश्यन्ति पौर्णमास्या मासान्संपाद्याहरुत्सृजन्ति पौर्णमास्या मासान्संपश्यन्तीति। अयमर्थः–गवामयनस्य विकृतिरुत्सर्गिणामयनं नाम सत्रं तत्र प्रकृतौ प्रतिमासं त्रिंशत्स्वप्यहःसु त्रिंशतां सोमयागानामनुष्ठेयत्वान्न कस्याप्यह्नस्त्यागस्तथा विकृतौ प्राप्ते द्वितीयादिमास5प्रथममहस्त्याज्यमिति विधीयते। तत्र मासो दर्शान्तः पौर्णमास्यन्तो वा ग्राह्यः इति। पूर्णमासादण्वक्तव्य इति वार्तिके पूर्णो मासोस्यामिति शाब्दिकैरुक्तत्वाञ्च।
अश्वयुक्कृष्णपक्षे तु श्राद्धं कार्यं दिने दिने।
इति व्यवहाराच्च। विष्णुधर्मोत्तरे—
माने मासस्तु नाक्षत्रे सप्तविंशतिभिर्दिनैः।
परिशेषेषु मानेषु मासस्त्रिंशद्दिनः स्मृतः॥ इति।
माधवे हेमाद्रौ च ब्रह्मसिद्धान्ते—
अमावास्यापरिच्छिन्नो मासः स्याद्ब्राह्मणस्य तु।
संक्रान्तिपौर्णमासीभ्यां तथैव नृपवैश्ययोः॥ इति।
एवं सत्यपि —
पक्षौपूर्वापरी शुकृकृष्णौ मासस्तु तावुभौ।
इति कोशात्पूर्णिमान्तत्वे मलमासादेरसंभवाच्छुक्लप्रतिपदादिदर्शान्त एव मुख्यश्चान्द्रो मासः। चैत्रादिशब्दश्चान्द्रचैत्रादावेव पङ्कजादिशब्दव—
२ ख मासेषु।
द्योगरूढः। अत एव नक्षत्रेण युक्तः काल इत्यधिकारे साऽस्मिन्पौर्णमासीति संज्ञायामिति सूत्रयता पाणिनिना साऽस्मिन्पौर्णमासीत्यनेन प्रवृत्तिनिमित्तं चित्रादिनक्षत्रयुक्तपौर्णमासीयोगं प्रदर्श्यतस्याव्याप्त्यतिव्यातिवारणार्थं संज्ञायामित्यनेन रूढिः स्वीकृता। तत्र रूढ्याः प्रवृत्ति—
निमित्तमुक्तं ज्योतिर्ग्रन्थे—
मेषादिस्थे सवितरि यो यो मासः प्रपूर्यते चान्द्रः।
चैत्रादिः स विज्ञेयंः पूर्तिद्वित्वेऽधिमासेऽन्त्यः॥ इति।
तथा च मेषादिस्थसूर्याधिकरणदर्शान्तत्वं सति चित्रादिनक्षत्रयोगयोग्यपौर्णमासीयुक्तत्वं चैत्रत्वादिकं चान्द्रचैत्रादिलक्षणं पर्यवसन्नम्। नन्वेवमपि मेषार्काधिकरणदर्शान्तत्वस्याधिकवैशाखे सत्त्वाञ्चैत्रलक्षणस्य तत्रातिव्याप्तिरिति संभाव्यते तार्है मेषार्काधिकरणप्रथमदर्शान्तत्वे सतीतिवाच्यमिति न काऽप्यनुपपत्तिः। नन्वेवम्
अन्त्योपान्त्यौ त्रिभो ज्ञेयौ फाल्गुनश्च त्रिभो मतः।
शेषा मासा द्विभा ज्ञेयाः कृत्तिकादिव्यवस्थया॥
द्वे द्वे चित्रादिताराणां परिपूर्णेन्दुसंगमे।
मासाश्चैत्रायो ज्ञेयास्त्रिंकैः षष्ठान्त्यसप्तमाः॥
इत्यादीनां हेमाद्रिमाधवोदाहृतवचनानां यस्मिन्मासि पूर्णिमा चित्रानक्षत्रेण युज्यते स चैत्रः। एवं वैशाखादिषन्नेयम्। चित्राविशाखादियोगस्योपलक्षणात्। चित्रादिप्रत्यासन्नस्वात्यनुराधादियोगे चैत्रवैशाखादिसंज्ञा न विरुध्यते। चैत्रादिश्रावणान्तानां पञ्चानां मासानां चित्रादिनक्षत्रद्वंद्वं प्रयुज्यते। भाद्रपदाश्वयुजोस्तु शतभिषग्रेवत्यादिकं त्रिकम्। कार्तिकादिमाघान्तानां कृत्तिकादिद्वंद्वम्। फाल्गुनस्य पूर्वोफाल्गुन्यादिनयमिति विवेक इति माधवस्य विशाखाद्यन्यतरेण नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी वैशाख्यादिव्यपदेशभाक्। नक्षत्रयोगश्चैकदेशेनापि व्यपदेशहेतुः। तथा च शंकरगीता—
आदिपादार्धमात्रेण नक्षत्रस्यान्वये ह्यसौ।
तिथिरर्धेऽपि संयुक्ता विपरीता न सा पुनः॥
इत्यादिहेमाद्रेश्च निर्विषयत्वमिति चेन्न। यौगिकार्थबोधकत्वेनैव सार्थकत्वात्। संज्ञायामिति सूत्रयन्पाणिनी रूढिशब्दतां पुरस्करोति।
१ घ. °ण प्रथमद’। २ घ. ‘स्त्रिभैः ष°। ३ ग °यनूरा। ४ ख ग घ. प्रयोजकम्।
भा। ५ घ. ‘वफल्म '
यत्तु वृत्तिकारेण पुष्ययोगात्पौषीत्यायुदाहृतं तच्छिष्याणां सुखबोधार्थम्6। नायमश्वकर्णादिशब्दवत्सर्वथालुप्तावयवार्थः। किंतूद्भिदाद शब्दवद्यथाकथंचिदवाप्तप्रवृत्तिनिमित्तइति तस्याभिप्राय इति वदतो हेमाद्रेरुक्तार्थ एव तात्पर्यात्। एवं च चान्द्रमास एव चैत्रादिशब्दा मुख्याः। सौरादिषु तूक्तप्रवृत्तिनिमित्ताभावात्प्रसिद्धप्राचुर्याभावाञ्च चैत्रादिशब्दा गौणाः। मासविशेषस्य कर्माविशेषे प्राशस्त्यम्। तदाह हेमाद्रौ ज्योतिर्गार्ग्यः—
सौरो मासो विवाहादौ यज्ञादौ सावनः स्मृतः।
आब्दिके पितृकार्ये च चान्द्रो मासः प्रशस्यते॥
आब्दिके सांवत्सरिकमृताहश्राद्धे पितृकार्ये मासिकषण्मासिकादौ च शब्दाद्देवकार्येऽपि। तथा च पितामहः—
दैवे कर्माणि पित्र्ये च7मासश्चान्द्रमसः स्मृतः॥इति॥
बृहस्पतिः—
रवेरभ्युदये मानं चन्द्रस्य पितृकर्मणि।
यज्ञे सावनमित्याहुराक्षं सर्वव्रतादिषु॥
ज्योतिर्गार्ग्यः—
आयुर्दायविभागश्च प्रायश्चित्तक्रिया तथा।
सावनेनैव कर्तव्या शत्रूणां चाप्युपासना॥
यथा पाण्डवैः कौरवाणाम्। अत्र सौरो मासो विवाहादावित्यादीनां प्राशस्त्यपरत्वमेव न तु विवाहादौ सौर एवेति नियमपरत्वम्।
उद्वाहयज्ञोपनयप्रतिष्ठा तिथिव्रतक्षौरमहोत्सवाद्यम्।
पर्वक्रिया वास्तुगृहप्रवेशः सर्वं हि चान्द्रेण विगृह्यते तत्॥
इति विवाहवृन्दावने वसिष्ठवचनविरोधात्। यज्ञादौ सावन इत्यत्र
विवाहव्रतयज्ञेषु सौरं मानं प्रशस्यते।
पार्वणे त्वष्टकाश्राद्धे चान्द्रमिष्टं तथाऽऽब्दिके॥
इति हेमान्द्रावृष्यशृङ्गवचनविरोधात्। आब्दिके पितृकार्ये चान्द्र एवेत्यत्र
यस्मिन्राशौ गते सूर्ये विपत्तिं यान्ति मानवाः।
तेषां तत्रैव कर्तव्याः पिण्डदानादिकाः क्रियाः॥
इति व्याघ्रपादवचनविरोधात्। अत एव *प्राशस्त्यादेव
प्रेतमासस्य यः पक्षस्तत्तिथौ प्रतिवत्सरम्।
यावत्स्मरति पौत्रोऽपि तेषां तत्रैव दापयेत्॥
इति हेमाद्रौप्रचेतसा तत्पक्षान्तर्गतमृततिथावेव श्राद्धविधानान्महालयपक्षान्तर्गतमृततिथौ निषिद्धवारादियुक्तायामपि शिष्टानां सकृन्महालयश्श्राद्धानुष्ठानं संगच्छते। तस्मात्सौरो मासो विवाहादावित्यादीनि प्राशस्त्यमात्रबोधकानीति सिद्धम्। इति मासनिर्णयः। अथ मासकृत्यानि। तत्र चैत्रकृत्यं मत्स्यपुराणे —
वर्जयित्वा मधौ यस्तु दधिक्षीरघृतैक्षवम्।
दद्याद्वस्त्राणि सूक्ष्माणि सर्ववर्णयुतानि च॥
संपूज्य विप्रमिथुनं गौरी मे प्रियतामिति।
एतद्गौरीव्रतं नाम भवानीलोकदायकम्॥ इति।
भविष्योत्तरे—
चैत्रे त्रिरात्रं नक्काशी नद्यां स्नात्वा ददाति यः।
अजाः पञ्च पयस्विन्यो दरिद्राय कुटुम्बिने॥
न जायते पुनरसौ जीवलोके कदाचन॥ इति।
वामनपुराणे —
चैत्रे मासि विचित्राणि शयनान्यासनानि च।
विष्णोः प्रीत्यर्थमेतानि देयानि ब्राह्मणेष्वथ॥ इति।
वैशाखकृत्यं महाभारते ——
निश्चरेदेकभक्तेन वैशाखे यो जितेन्द्रियः \।
प्रातः स्नायी नरः स्त्री वा जातीनां श्रेष्ठतां व्रजेत्॥ इति।.
वामनपुराणे ——
गन्धमाल्यानि च तथा वैशाखे सुरभीणि च।
देयानि द्विजमुख्येभ्यो मधुसूदनतुष्टये॥ इति।
ज्येष्ठकृत्यं भविष्योत्तरे—
पिप्टेन कंजर्ज कृत्वा ज्येष्ठे मासि सवैदिकम्8।
पुष्यैः संपूज्य गन्धाद्यैर्नानावस्त्रविभूषणैः॥
वर्षकोटिशतं साग्यं सूर्यलोके9 महीयते।
——————————————————————————————————————————————
* एतदधिकमिति भाति।
कंजजो ब्रह्मा। वामनपुराणे —
उदकुम्भाम्बु धेनुश्च तालवृन्तं सचन्दनम्।
त्रिविक्रमस्य प्रीत्यर्थं दातव्यं ज्येष्ठमासि च॥ इति।
आषाढकृत्यं महाभारते —
आषाढमेकभक्तेन स्थित्त्वा मासमतन्द्रितः।
बहुधान्यो बहुधनो बहुपुत्रश्च जायते॥
वामनपुराणे—
उपानद्युगूलं10 छत्रं लवणामलकानि च।
आषाढे वामनप्रीत्यै दातव्यानि तु भक्तितः॥ इति।
श्रावणकृत्यं महाभारते—
श्रावणं नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षपेत्।
तत्र तत्राभिषेकेण पूज्यते ज्ञातिवर्धनः॥
वामनपुराणे —
घृतं च क्षीरकुम्भाश्च घृतधेनुफलानि च।
श्रावणे श्रीधरप्रीत्यै दातव्यानि विपश्चिता॥
भाद्रपदकृत्यं महाभारते —
प्रौष्ठपद्ये तु यो मासे एकाहारो भवेन्नरः।
धनाद्यं स्फीतमतुलमैश्वर्यं प्रतिपद्यते॥
वामनपुराणे —
मासि भाद्रपदे दद्यात्पायसं मधुसर्पिषा।
हृषीकेशप्रीणनार्थं लवणं सगुडोदनम्॥ इति।
आश्विनकृत्यमाह यमः —
घृतमाश्वयुजे मासि नित्यं दद्याद्द्विजातये।
प्रीणयित्वा द्विजान्देवान्त्रूपभागभिजायते॥
वामनपुराणे —
तिलास्तुरगवृषभदधिताम्रवशादिकम्।
प्रीत्यर्थं पद्मनाभस्य देयमाश्वयुजे नरैः॥ इति।
वशा धेनुः। कार्तिककृत्यं पुष्करपुराणे—
मुलायां तिलतैलेन सायंकालसमागमे।
आकाशदीपं यो दद्यान्मासमेकं दिनं प्रति॥
महतीं श्रियमाप्नोति रूपसौभाग्यसंपदम्।
विष्णुः—
कार्तिकं सकलं मासं प्रातःस्नायी जितेन्द्रियः।
जपन्हविष्यभुग्दान्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
वामनपुराणे —
रजतं कनकं दीपान्मणिमुक्ताफलादिकम्।
दामोदरस्य प्रीत्यर्थं प्रदद्यात्कार्तिके नरः॥ इति।
मार्गशीर्षकृत्यं भारते—
मार्गशीर्षं तु यो मासमेकभक्तेन संक्षिपेत्।
भोजयेत्तु द्विजान्भक्त्या सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
कृषि11भागी बहुधनो बहुधान्यश्च जायते॥
वामनपुराणे—
खरोष्ट्राश्वगजा गावः शकटादि अजाविकम्।
दातव्यं केशवप्रीत्यै मासि मार्गशिरे नरैः॥ इति।
पौषकृत्यं महाभारते —
पौषमासं तु कौन्तेय एकभक्तेन यः क्षिपेत्।
सुभगो दर्शनीयश्च यशोभागी12 च जायते॥
वामनपुराणे —
प्रासादनगरादीनि गृहप्रावरणानि च।
नारायणस्य तुष्ट्यर्थं पौषे देयानि यत्नतः॥ इति।
माघकृत्यमाह विष्णुः13—
माघे मास्यनि प्रत्यहं निलैहुत्वा सघृतं कृसरान्नं14 ब्राह्मणान्भोजयित्वा दीप्ताग्निर्भवति। भविष्योत्तरे—
पौर्णमास्याममायां वा प्रारभ्य स्नानमाचरेत्।
त्रिंशद्दिनानि पुण्यानि भकरस्थे दिवाकरे॥
वामनपुराणे —
अप्रावृतशरीरस्तु यः कष्टं स्नानमाचरेत्।
पदे पदेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोति मानवः॥
एवं स्नानस्याबसाने भोज्यं देयमवारितम्।
भोजयेद्द्विजदांपत्यं भूषयेद्वस्त्रभूषणैः॥
वामनपुराणे —
माघे मासि तिलाः शस्तास्तिलधेनुश्च दानतः15।
**एवे16**न्ध16नादयश्चान्ये माधवमीणनाय च॥
फाल्गुनकृत्यं स्कन्दपुराणे —
एकभक्तं17 तु कुर्वाणः फाल्गुने मासि नित्यशः।
स्त्रीषु सौभाग्यमाप्नोति स्त्रियश्च परमप्रियाः॥
वामनपुराणे —
फाल्गुने व्रीहयो गावो वस्त्रं कृष्णाजिनान्वितम्।
गोविन्दप्रीणनार्थाय दातव्यं पुरुषर्षभ॥ इति।
इति चैत्रादिद्वादशमासकृत्यानि।
अथ ऋतुः। स च चान्द्रसौरमानेन मासद्वयात्मकः। तञ्चाग्निचयन18 ऋतव्येष्टकोपधानब्राह्मणे श्रूयते द्वंद्वमुपदधाति। तस्माद्द्ंद्वमृतवः। इति। नन्वधिकमासे सति कश्वन ऋतुर्मासत्रयात्मको भवति तत्कथं मासद्वयात्मकत्वनियम इति चेत्कचित्रयोदशमासात्मकत्वेऽपि द्वादश मासाः संवत्सर इत्यत्र
षष्ट्या तु दिवसैर्मासः कथितो बादरायणैः।
इत्यनेनाधिमासस्य षटिदिनात्मकमासावयवत्वप्रतिपादनात्संवत्सरस्य द्वादशमासात्मकत्व वहतोर्मासद्वयात्मकत्वात्19। स च द्विविधः सौरचान्द्रभेदात्। तत्र सौरो विष्णुधर्मोत्तरे दर्शितः —
सौरं मासद्वयं राम ऋतुरित्यभिधीयते॥ इति।
चान्द्रस्तु बहूवृचश्रुतौ दर्शितः– पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीलन्तौ परियातो अध्वरम्। विश्वान्यन्यो भुवनाऽभिचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुनः॥ इति। अत्र त्रिकाण्डमण्डनः—
ऋतौचन्द्रनिमित्तत्वं मन्त्रवर्णात्प्रतीयते।
ऋतूँरन्यो विधज्जायते पुनरित्यतः। पुनः पुनर्यो जायते स एवं विद्धहतून्।
चन्द्रः पुनः पुनर्जन्मा तस्माञ्चन्द्रवशाहतुः॥ इति।
तैत्तिरीयेऽपि — चन्द्रमाः षड्ढोता स ऋतून्कल्पयति। इति। अनयोर्विनियोग उक्तस्त्रिकाण्डमण्डनेन—
श्रौतस्मार्तक्रियाः सर्वाः कुर्याच्चान्द्रमसर्तुषु।
तदलाभे तु सौरर्तुष्विति ज्योतिर्विदां मतम्॥ इति।
स च द्विविधोऽपि प्रत्येकं षड्विधः। षड्वाऋतव इति श्रुतेः। यत्तु द्वादश मासाः पञ्चर्तव इति श्रूयते तत्प्रयाजानुमन्त्रणोपयोगितया हेमन्तशिशिरयोरेकीकरणाभिप्रायेण। पञ्चर्तवो हेमन्तशिशिरयोः समासेनेति बहूवृचबाह्मणात्। ते च वसन्तोपक्रमात्। मुखं वा एतद्यहतूनां वसन्त इति श्रुतेः। तत्र चान्द्रा वसन्तादयश्चैत्रादिमासद्वयात्मकाः। तथा च श्रुतिः — मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू। शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू। नमश्य नमस्यश्च वापिकावृतू। इपश्चोर्जश्च शारदावृतू। सहश्च सहस्यश्व हैमन्तिकावृतू। तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू। इति। अत्र सर्वत्र ऋतू इति द्विवचनमृत्ववयवमासद्वित्वाभिप्रायम्। अन्यथा षड्वाऋतव इति षट्संख्यानियमबाधापत्तेः। मध्वादिशब्दाश्चैत्रादिमासवचनाः। तथा च हेमाद्रौ—
चैत्रो मासो मधुः प्रोक्तो वैशाखो माधवो भवेत्।
ज्येष्ठो मासश्च शुक्रः स्यादाषाढः शुचिरुच्यते।
नभो मासः श्रावणः स्यान्नमस्यो भाद्र इष्यते।
इषश्वाऽऽश्वयुजो मासः कार्तिक श्चोर्जसंज्ञकः॥
सहो मासो मार्गशिरः सहस्यः पुष्यनामकः।
माघमासस्तपः प्रोक्तस्तपस्यः फाल्गुनः स्मृतः॥ इति॥
सौरास्तु वसन्तादयः। मीनमेषयोर्मेषवृषयोर्वा वसन्त इति बौधायनोक्तेर्मीनादिसौरमासद्वयात्मको मेषादिसौरमासद्वयात्मको वा वसन्त इति। एवं ग्रीष्मादीनामपि द्वैविध्यम्। ऋतूनां विनियोग उक्तः श्रुतौवसन्ते ब्राह्मणोऽग्रीनादधीत। ग्रीष्मे राजन्यः। शरदि वैश्य इति। इति ऋतुनिर्णयः।
अथायनम्। तच्च तस्मादादित्यः षण्मासान्दक्षिणेनैति पडुत्तरेणेतिश्रुतावादित्यगतिमुपजीव्य प्रवृत्तत्वात्सौरमेव सौरं मानमधिकृत्य
विष्णुधर्मोत्तरे— ऋतुत्र्यं चायनं स्यादिति। भास्कराचार्यः—कर्किमृगादिषट्केनैवायने दक्षिणसौम्यके स्त इति। तत्रोत्तरायणस्य कर्माङ्गत्वं भूयते — उदगयन आपूर्यमाणपक्षस्य पुण्याहे द्वादशाहमुपसद्वती भूत्वा। इति। आश्वलायनश्च — उदगयन आपूर्यमाणपक्षे कल्याणे नक्षत्रे चौलकर्मोपनयनगोदानविवाहाः। इति। सत्यवतः —
देवतारामवाप्यादिप्रतिष्ठोदङ्मुखे रवौ।
दक्षिणाभिमुखे कुर्वन्न तत्फलमवाप्नुयात्॥ इति।
उग्रदेवतानां प्रतिष्ठा दक्षिणायने कार्या। तथा च वैखानससंहिता —
मातृभैरववाराहनारसिंहत्रिविक्रमाः।
महिषासुरहन्त्री च स्थाप्या वै दक्षिणायने॥ इति।
ज्योतिर्ग्रन्थे—
गृहप्रवेशत्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबन्धपूर्वम्।
सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणे20 च।
इत्ययननिर्णयः। अथ संवत्सरः। स च द्वादश मासाः संवत्सर इतिश्रुतेः सम्यग्वसन्ति मासादयोऽस्मिन्नितिव्युत्पन्नेन संवत्सरशब्देन रूढ्याऽभिधीयमानो द्वादशमासात्मकः कालविशेषः। स च चान्द्रसावन सौराख्यत्रिविधमासनिष्पाद्यत्वेन त्रिविधः। तदुक्तं ब्रह्मसिद्धान्ते—
चान्द्रसावनसौराणां मासानां तु प्रभेदतः।
चान्द्रसावनसौरास्तु त्रयः संवत्सरा अपि॥ इति।
तत्र चान्द्रः संवत्सरश्चैत्र शुक्ल प्रतिपदादिः फाल्गुनदर्शान्तः। यं कंचन मासमारभ्य तत्प्राक्तनमासान्तः षट्यधिकशतत्रयतिथिनिष्पन्नत्वात्। यां कांचन तिथिमारभ्य तत्प्राक्तनतिथिपर्यन्तोऽपि चान्द्रः संवत्सर इति बोध्यम्। सावनः षष्ट्युत्तरशतत्रयाहोरात्रात्मकः। सौरस्तु मेषादिर्मीनान्तः। तत्र चान्द्रसंवत्सरस्य तिलकवतादादुपयोगः। तिलकव्रतं भविप्योत्तर उक्तम्—
वसन्ते किंशुकाशोकशोभिते प्रतिपत्तिथिः।
तिलैस्तस्यां प्रकुर्वीत स्नानं नियममास्थितः॥
ललाटपट्टे तिलकं कुर्याच्चन्दनपङ्कजम्।
ततः प्रभृत्यनुदिनं तिलकालंकृतं मुखम्॥
धायें संवत्सरं यावच्छशिनेव नभस्तलम्॥ इति।
अत्र चान्द्र एव संवत्सरः शुकृपक्षप्रतिपत्तिथ्योश्चान्द्रमान एवं संभवात्। सावनस्योपयोगी विष्णुधर्मोत्तर उक्तः—
सत्राण्युपास्यान्यथा सावनेन लोक्यं21 च यत्स्याद्यवहारकर्म। इति।
“गोसत्रं वै संवत्सरो22 य एवं विद्वांसः संवत्सरमुपयन्ति ऋध्नुवन्त्येव” इति श्रुतौ गवामयनसत्रस्य संवत्सरशब्देन व्यवहारात्संवत्सरशब्दस्य तद्ङ्गत्वं प्रतीयते तत्राहोरात्रसाध्य एकः सोमयागो वेदेऽहःशब्देनोच्यते। तादृशानामहविशेषाणां गणः षडहः। स द्विविधः — अभिप्लवः पृष्ठ्यश्च। तत्र चत्वारोऽभिप्लवाः षडहा एकः पृष्ठ्यः षडह इति। षडहपञ्चकेनैको मासः संपद्यते तादृशैर्द्वादशभिर्मासैः साध्यं संवत्सरसत्रम्। तस्य षष्ट्यधिकशतत्रयाहोरात्रात्मकसावनसंवत्सरेणैव सिद्धिः, न तु चान्द्रसंवत्सरेण तस्य षडहोभिर्न्यूनत्वात्। सौरस्य पञ्चभिरहोरात्रैरधिकत्वात्सौरसंवत्सरस्य सुजन्मावाप्तिव्रतादावुपयोगः। तच्च व्रतं विष्णुधर्मोत्तरे —
मेषसंक्रमणे भानोः सोपवासो नरोत्तमः।
पूजयेद्भार्गवं देवं रामं23 शक्त्या यथाविधि॥
इत्यारभ्य मीनसंक्रमणे मत्स्यं वासुदेवं च पूजयेदित्यादिना व्रतमुक्त्वा कृत्वा व्रतं वत्सरमेतदिष्टं म्लेच्छेषु तिर्यक्षु न चापि जन्म। इत्युपसंहृतम्। अत्र सौर एव संवत्सरः। क्वचित्संवत्सरस्य पञ्चविधत्वं परिमाणं
चोक्तम्। तथा च माधवादौ वचनम् —
सौरवृहस्पतिसावनशशधरनाक्षत्रिकाः क्रमेण स्युः।
मातुलपातालातुलविमलवराङ्गाश्च वत्सराः पञ्च॥ इति।
अस्यार्थः— गणकप्रसिध्द्या कटतपया वर्गास्तत्र वर्गाक्षरसंख्ययाऽङ्कसंग्रहस्तेन मातुलेत्यत्र पकारात्पञ्चमेन मकारेण पञ्चसंख्या लभ्यते टकारात्यष्टेन तकारेण घट्संख्या यवर्गतृतीयेन लकारेण त्रित्वसंख्या तत्राङ्कानां वामतो गतिरितिप्रकारेण मेलने पञ्चषष्ट्यधिकशतत्रयसंख्या संपद्यते तावदहोरात्रपरिमितः सौरः संवत्सरः। * एवं पूर्वोक्तप्रकारेण पातालशब्द एकषष्ट्यधिकशतत्रय संख्यामाह तावदहोरात्रपरिमितो बाहस्पत्यः संवत्सरः। एवं गणकप्रसिद्धयाऽकारः शून्यवचनस्तेनातुलशब्दः
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* पकार एकसंख्यावाचकः। तकारेण षट्संख्या। लखित्ववाचक इति घ. पुस्तकेऽधिकं वर्तते।
षष्टयधिकशतत्रयसंख्यामाह। तेनैव तावदहोरात्रपरिमितः सावनः संवत्सरः। उक्तप्रकारेण विमलशब्दश्चतुष्पञ्चाशदधिकशतत्रयसंख्यामाह तावदहोरात्रात्मकश्चान्द्रः संवत्सरः। एवं वराङ्गशब्दश्चतु र्विंशत्यधिकशतत्रय संख्यामाह तावदहोरात्रपरिमितो नाक्षत्रः संवत्सर इति। तत्र नाक्षत्र— संवत्सरस्य ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्ध आयुर्दायादावुपयोग इति माधवः। बार्हस्पत्यस्य तु सिंहादिस्यबृहस्पतिनिमित्तके
आद्या सा गौतमी गङ्गा द्वितीया जाह्नवी स्मृता।
सर्वतीर्थफलं स्नानाद्गौतम्यां सिंहगे गुरौ॥
इत्यादिविहित गोदावर्यादिनानाजावुपयोगो द्रष्टव्यः। अनेन बार्हस्पत्यमानेन कदाचिदधिक24वत्सरो जायते। तदुक्तं माधवे उत्तरसौरे—
गुरोर्मध्यमसंक्रान्तिहीनो यश्चान्द्रवत्सरः।
अधिसंवत्सरस्तस्मिन्कारयेन्न सवत्रयम्॥
वर्जनीया प्रयत्नेन प्रतिष्ठा सर्वनाकिनाम्।
स्फुट संक्रान्तिहीनश्चेत्केऽप्याहुरधिमासवत्। इति॥
यस्मिंश्चान्द्रसंवत्सरे मध्यममानेन गुरोः संक्रान्तिर्नास्ति सोऽधिवत्सरस्तत्र बृहस्पतिसवादिकं न कार्यम्। स्फुटमानेन गुरुसंक्रान्तिशून्यवेत्तस्मिन्नधिमासवत्काम्यादिकं वर्ज्यमिति केचिदृपय आहुः। चान्द्रसंवत्सरस्य चैत्रशुक्कुप्रतिपद्यारम्भः। तदुक्तं हेमाद्री ब्रह्मपुराणे—
चैत्रे मासि जगद्ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि।
शुकृपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति॥
प्रवर्तयामास तदा कालस्य गणनामपि।
ग्रहान्नागानृतून्मासान्वत्सरान्वत्सराधिपान्॥ इति।
ब्रह्मसिद्धान्ते—
चैत्रसितादेरुदयाद्भानोर्दिनमासवर्षयुगकल्पाः।
सृष्ट्यादौ लङ्कायां समं प्रवृत्ता दिनेऽर्कस्य॥ इति।
सौरसंवत्सरस्याऽऽरम्भस्तु—
शिशिरो मकरे कुम्भे वसन्तो मीनमेषयोः। इतिवचनात्, मीनमेषयोर्मेषवृषयोर्वा वसन्त इति वचनाद्वसन्तस्य मीनादित्वमे पादित्वयोर्विकल्पाद्वसन्तस्य ऋतुमुखत्वाद्वत्सरमुखस्यैव ऋतुमुखत्वोपपतेरिति हेमाद्रयुक्तेमनसंक्रमे मेषसंक्रमे वा ज्ञेयः। यत्तु विष्णुधर्मोत्तरे—
**माघशुक्लसमारम्भे चन्द्रार्कौवासवर्क्षगौ।
जीवयुक्तौ यदा स्यातां षष्ट्या25**ऽब्दा25दिस्तदा स्मृतः॥ इति।
माघशुकप्रतिपदुपक्रमत्वं वत्सराणामुक्तं, तज्ज्योतिः शास्त्रप्रसिद्धशुमाशुभफलप्रतिपादनार्थं न तु धर्मानुष्ठानार्थमिति हेमादिः। प्रभवादिषष्टिसंख्यानां वत्सराणामादितः पञ्चानां पञ्चानां युगादिसंज्ञकानां यथासंख्यं संवत्सरः परिवत्सर इदावत्सरोऽनुवत्सर उद्वत्सर इति पञ्च संज्ञाः। तदुक्तं हेमाद्री ब्रह्मवैवर्ते——
संवत्सरस्तु प्रथमो द्वितीयः परिवत्सरः।
इदावत्सरस्तृतीयस्तु चतुर्थश्चानुवत्सरः॥
उद्वत्सरः पञ्चमस्तु तत्संघो युगसंज्ञकः। इति।
संवत्सरादीनामुपयोग उक्तो विष्णुधर्मोत्तरे माधवे——
संवत्सरे तु दातॄणां तिलदानं महाफलम्।
परिपूर्वे तथा दानं यवानां द्विजसत्तम॥
इदापूर्वे तु वस्त्राणां धान्यानां चानुपूर्वके।
उत्पूर्वे रजतस्यापि दानं प्रोक्तं महाफलम्॥ इति।
तथा तदधिष्ठातृदेवतापूजादिरूपवतमुक्तम्—
संवत्सरः स्मृतो वह्निस्तथाऽर्कः परिवत्सरः।
इदापूर्वस्तथा सोमो ह्यनुपूर्वः प्रजापतिः॥
इत्पूर्वश्च तथा प्रोक्तो देवदेवो महेश्वरः।
तेषां मण्डलविन्यासः प्राग्वदेव विधीयते॥
प्राग्वत्स्यात्पूजनं कार्यं होमः कार्यो यथाविधि॥ इति।
इति संवत्सरनिर्णयः। द्वादश मासाः संवत्सरः। अस्ति त्रयोदशो मास इति श्रुतौ त्रयोदशमास उक्तस्तस्य मलमासं विनाऽसंभवान्मलमासो निर्णीयते। तत्स्वरूपमाह हेमाद्री लघुहारीतः—
इन्द्राग्नी यत्र हूयेते मासादिः स प्रकीर्तितः।
अग्नीषोमी स्थिती मध्ये समाप्तौ पितृसोमकौ॥
तमतिक्रम्य तु यदा रविर्गच्छेत्कदाचन।
आद्यो मलिम्लुचो ज्ञेयो द्वितीयः प्राकृतः स्मृतः॥ इति।
अत्र प्रथमयोः पूर्वसवर्ण इत्यत्रेव कव्यवाहनगुणविशिष्टाग्न्यभिप्रायेण पितृसोमकाविति द्विवचनं बोध्यम्। शुक्लप्रतिपदादिदर्शान्तं मासमति—
क्रम्य यदा सूर्यो राश्यन्तरं गच्छति तदा पूर्वो मलिम्लुची द्वितीयः संक्रान्तियुक्तः प्राकृत इत्यर्थः। शातातपः—
वत्सरान्तर्गतः पापो यज्ञानां फलनाशकृत्।
नैर्ऋतैर्यातुधानाद्यैः समाक्रान्तो विनाशकैः॥
मलिम्लुचं26 समाक्रान्तं सूर्यसंक्रान्तिवर्जितम्।
मलिम्लुचं विजानीयात्सर्वकर्मसु गर्हितम्॥ इति।
ब्रह्मसिद्धान्ते —
चान्द्रो मासो ह्यसंक्रान्तो मलमासः प्रकीर्तितः। इति।
मलत्वं च कालाधिक्यादुक्तम्। गृह्यपरिशिष्टे—
मलं वदन्ति कालस्य मासं काल विदोऽधिकम्॥ इति।
कालाधिक्यं च विष्णुधर्मोत्तरे दर्शितम्—
सौरेणाब्दस्तु मानेन यदा भवति भार्गव।
सावने तु तदा माने दिलषट्कं न पूर्यते॥
ऊनरात्राश्च ते राम प्रोक्ताः संवत्सरेण षट्।
सौरसंवत्सरस्यान्ते मानेन शशिजेन तु॥
एकादशातिरिच्यन्ते दिनानि भृगुनन्दन।
समाद्वये साष्टमासे तस्मान्मासोऽतिरिच्यते॥
स चाधिमासकः प्रोक्तः काम्यकर्मसु गर्हितः॥ इति।
नन्दिपुराणे —
अमावास्यामहोरात्रे यदा संक्रमते रविः।
स तु मासः पवित्रः स्यादतीते ह्याधिको भवेत्॥
अमावास्यां प्राप्येति शेषः। तत्रैव ज्योतिः शास्त्रे—
अमावास्याद्वयं यत्र रविसंक्रान्तिवर्जितम्।
मलिम्लुचः स विज्ञेय उत्तरस्तूत्तमाभिधः॥
रविणा लङ्घितो मासश्चान्द्रस्य27तु मलिम्लुचः।
वरुणः सूर्यो भानुस्तपनश्चण्डो रविर्गभस्तिश्च॥
अर्यमा हिरण्यरेता दिवाकरो मित्रविष्णू च।
एते द्वादश सूर्या माधाद्येषूदयन्ति मासेषु।
निःसूर्योऽधिकमासो मलिम्लुचाख्यस्ततः पापः॥
मासेषु द्वादशाऽऽदित्यास्तपन्ति हि यथाक्रमम्।
नपुंसकेऽधिके मासि मण्डलं तपते रवेः28॥
असंक्रान्तो हि यो मासः कदाचित्तिथिवृद्धितः।
कालान्तरात्समायाति स नपुंसक उच्यते॥ इति।
कालान्तरेयत्तोक्ता हेमाद्री वसिष्ठसिद्धान्ते—
द्वात्रिंशद्भिर्गतैर्मासैर्दिनैः षोडशभिस्तथा।
घटिकानां चतुष्केण पतत्यधिकमासकः॥ इति।
नन्वियं मलमासयोर्व्यवधायककालेयत्ता वचनान्तरेण विरुध्यते तथा श्व काठकगृह्ये—
यस्मिन्मासे न संक्रान्तिः संक्रान्तिद्वयमेव वा।
मलमासः स विज्ञेयो मासे त्रिंशत्तमे भवेत्॥ इति।
अत्रोत्तरार्धे द्विसंक्रान्तस्य न परामर्शोऽयोग्यत्वात्। महाभारतेऽपि —
पञ्चमे पञ्चमे वर्षे द्वौ मासावधिमासको।
तेषां कालातिरेकेण ग्रहाणामतिचारतः॥
इति चेन्न। वसिष्ठवचनस्य ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धमध्यममानलभ्यश्रौतस्मार्तकर्मानुपयोग्यधिमासविषयत्वेन काठकवचनस्य श्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानोपयोगिस्फुटमानलभ्याधिकमासविषयत्वेन विरोधाभावात्। तत्रापि मासे त्रिंशत्तमे भवेदित्यादीनि वचनानि संभवाभिप्रायाणि न तु नियमपराणि। कदाचित्पूर्वाधिकमासादारभ्य त्रिंशत्यवेकोन त्रिंशस्य कदाचिदेकत्रिंशमारभ्य पञ्चत्रिंशपर्यन्तस्याधिकस्य29 दर्शनेन व्यभिचारापतेः। न च मेषादिस्थे सवितरीत्यनेन बोधितस्य मीनावधिकरणदर्शान्तत्वरूपफाल्गुनलक्षणस्याधिक चैत्रेऽतिव्याप्तिरिति शङ्करम्।
पूर्तिद्वित्वेऽधिमासोऽन्त्य इत्यनेनाधिकस्य प्राकृतमासवेलक्षण्याभि30धानात्तद्नुगुणतया मीनार्काधिकरणदर्शस्य प्राथम्येन विशेषणादधिकचेत्रस्य तदन्तत्वाभावेनातिव्याप्त्यभावात्। नचैवं मेषार्काधिकरणदर्शास्तत्वाभावेन तस्य चैत्रत्वं न स्यादिति वाच्यम्।
षष्ठ्या तु दिवसैर्मासः कथितो बादरायणैः।
पूर्वार्धं तु परित्यज्य कर्तव्या चोत्तरे क्रिया॥
इत्यादिवचनैर्मेषार्काधिकरणदर्शान्तषष्टिदिनात्मकचैत्रपूर्वार्धत्वप्रतिपादनेनतस्य चैत्रत्वात्। तत्सिद्धमसंक्रान्तं मलमासप्रारभ्याष्टाविंशान्मासादूर्ध्वं षट्त्रिंशान्मासात्पूर्वं कश्चन द्वितीयोऽसंक्रान्तो मलमासः।
दशानां फाल्गुनादीनां प्रायो माघस्य31च क्वचित्।
नपुंसकत्वं भवतीत्येष शास्त्रस्य निश्चयः॥
इति वचनात्पौषातिरिक्तेषु32 मासेषु मध्येऽन्यतमो मलमासो भवतीति।अत एव
त्रिंशत्षट्त्रिंशमासस्य बाह्याभ्यन्तरयोर्द्वयोः।
अधिमासोऽवकल्पेत बादरायणकीर्तितः॥
इति निर्णयामृते ज्योतिःशास्त्रवचनं संगच्छते। यस्तु द्विसंक्रान्तो मलमासः क्षयाख्यः स कार्तिकादिषु त्रिष्वेवान्यतमो भवति नान्यः।
तदुक्तं सिद्धान्तशिरोमणौ —
असंक्रान्तमासोऽधिमासः स्फुटः स्या-
द्द्विसंक्रान्तिमासः क्षयाख्यः कदाचित्।
क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्या-
त्तदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं च॥ इति।
तथा च कार्तिकमार्गशीर्षपौषेष्वेवान्यतमः क्षयमासो भवति नान्य इत्यर्थः। तदा क्षयमासाव्यवहितपूर्वमासत्रये कश्चनैकोमासोऽसंक्रान्तो भवति। क्षयमासाव्यवहितोत्तरमासत्रयेऽपि कश्चनैको मासोऽसंक्रान्तो भवतीति। एकस्मात्क्षयमासाद्द्वितीयक्षयमासस्य कियता कालेन संभव इत्याकाङ्क्षायामुक्तं सिद्धान्तशिरोमणौ —
गतोऽब्ध्यद्रिनन्दैर्मिते शाककाले
तिथीशैर्भविष्यत्यथाङ्गाक्षसूर्यैः।
गजाद्यग्निभूमिस्तथा प्रायशोऽयं
कुवेदेन्दुवर्षैः क्वचिद्गोकुभिश्च॥ इति।
अस्यार्थः — चतुःसप्तत्यधिकनवशतसंख्याकैर्वर्षैःपरिमिते शकस्य काले कश्चिदुक्तलक्षणः क्षयमासो गतः। अन्धयश्चत्वारः, अद्रयः सप्त, नन्दा नवेति, ९७४ अब्ध्यद्रिनन्दैरित्यनेनोक्तासंख्या लभ्यते। तिथयः पञ्चदश, ईशा एकादश, १११५। तथा च तिथीशैरित्यनेन पञ्चदशयुक्तशताधिकसहस्रवर्षपरिमितशकवर्षेद्वितीयः क्षयमासो भविष्यति। अङ्गा ६ क्ष ५ सूर्यैः १२। तथाच षट्पञ्चाशदधिकशतद्वययुक्त —
सहस्र १२५६ वर्षपरिमितशककाल उक्तलक्षणः क्षयमासो भविष्यति। गजा अष्टौ, अद्रयः सप्त, अग्नवस्त्रयः, भूरेका, १३७८। तथा चाष्टसप्तत्यधिकशतत्रययुक्तसहस्रवर्यपरिमिते शकवर्षे कञ्चित्क्षयमासो भविष्यति। इति क्षयमासचतुष्टयमुदाहृत्य तद्यवधायककालेयत्तामाह-कुवेदेन्दुवर्षेरिति। कुर्भूमिरेका, वेदाश्रत्वारः, इन्दुरेकः, १४१। तथा चैकचत्वारिंशदधिकशतवर्षैः पूर्वस्मात्क्षयमासाद्वितीयः क्षयमासो भवति बहुधा। कचिङ्गोकुभिरिति। एकोनविंशतिवर्यैद्वितीयः क्षयमासो भवतीत्यर्थः। सिद्धान्तशिरोमणिकृतमिताक्षरायां कुवेदेन्दुवर्षैरित्यादिस्ववाक्यं कालावधिद्वयपरतयैव व्याख्यातम्। तद्द्दृष्ट्वा माधवमदनरत्नादिभिः पूर्वस्मात्क्षयमासात्कुवेदेन्दुपरिमितैर्वर्षैर्द्वितीयः क्षयमासो भवति क्वचिद्गोकुभिरकोनविंशतिपरिमितवर्षैर्भवतीत्युक्तम्, तथाऽपि शिरोमण्युदाहृतचतुर्थक्षयमासस्य तृतीयात्क्षयमासाद्वाविंशत्यधिकशतवर्षैर्जातत्वेन नियमद्रयस्यापि व्यभिचारात्। अत एव मणिमरीच्याख्याशिरोमणिटीकायां गोकुभिर्न्यूनः कुवेदेन्दुवर्षैश्चतुर्थः क्षयमास इति तृतीयावधिस्वीकारेण समाहितम्। किं च वर्षत्रयाधिकषोडशशत वर्षपरिमितशककालेऽस्मदादिभिः स्मर्यमाणः क्षयमासः शिरोमण्युदाहृत चतुर्थक्षयमासात्संपादशतद्वयवर्वैर्जातः। तत्र पूर्वोक्त नियमस्य कथमप्युक्तिसंभवाभावात्। तस्माद्ब्रहगतिविशेषाद्यदा यस्मिन्दशन्तचान्द्रमासे संक्रान्तिद्वयं भवति तदा स क्षयमास इत्येव वक्तव्यमिति बोध्यम्। यद्यपि क्षयः कार्तिकादित्रयें नान्यत इति नियम उक्तः सोऽप्ययुक्तः।
संक्रान्तिद्वयसंयुक्तः स मासोंऽहस्पतिः स्मृतः।
चैत्रादिसप्तमासेषु न कदाचिद्भवेदयम्॥
ऊर्जादिपञ्चमासेषु कदाचन भवेद्यदा।
तदा द्वावधिकौ स्यातां तस्मिन्नूर्जादिपञ्चके॥
इतिहेमाद्र्युदाहृतज्योतिर्धन्थवचनविरोधात्। कन्यादिस्थे सवितरि सर्वदाऽधिकमासनिषेधपरत्वे
मासः कन्यागते भानावसंक्रान्तो भवेद्यदा।
दैवं पित्र्यं तदा कर्म तुलास्थे कर्तुरक्षयम्॥
इत्यादिज्योतिः पितामहादिवचनविरोधात्क्षयमासात्पूर्वभाविनोऽसंक्रान्तस्याधिकमासत्वनिषेधे
घटकन्यागते सूर्ये वृश्विके वाऽथ धन्विनि।
मकरे वाऽथ कुम्भे वा नाधिमासो विधीयते॥
इति ज्योतिःसिद्धान्तवचनविरोधाच्च। तस्माद्भास्कराचार्यैः संप्रतिकाले मासान्तरस्य क्षयत्व उपपत्तिर्न लब्धेति स्वोपज्ञाभिप्रायेणैव नान्यतः स्यादित्युक्तमित्यभिप्रायेण विरोधः परिहर्तव्यः।
यत्र मासि रविसंक्रमद्वयं तत्र मासयुगलं क्षयाह्वयम्॥
दर्शान्तयोर्द्वयोर्मध्येऽधिमासश्चेन्नसंक्रमः।
द्वे संक्रान्ती क्षयः स्यात्स एकोऽपि द्व्यात्मको भवेत्॥
इतिरत्नमालादिष्वपि संक्रान्तिद्वययुक्तक्षयमासत्वमुक्तम्। तद्यथा त्र्यधिकषोडशशतपरिमितशकवर्षे भाद्रपदान्त्यभागे कन्यासंक्रान्तिः। ततोऽसंक्रान्त एको मासः। तत आश्विनशुक्लप्रतिपदि तुलासंक्रान्तिः। कार्तिकशुक्लप्रतिपदि वृश्चिकसंक्रान्तिः। ततः कार्तिकदर्शोत्तरप्रतिपदि धनुःसंक्रान्तिः। उत्तरदर्शे मकरसंक्रान्तिः। ततो माघान्त्यभागे कुम्भसंक्रान्तिः। फाल्गुनान्त्यदर्शान्ते33 मीनसंक्रान्तिः। तत एको मासोऽसंक्रान्तः। ततश्चैत्रशुक्लप्रतिपदि मेषसंक्रान्तिर्जातेति। तथा पूर्वासंक्रान्तमारभ्य34 चान्द्रद्वादशमासात्मकवर्षमध्य एको द्विसंक्रान्तिर्द्वौ मासावसंक्राताविति मासत्रयं जातम्। तत्र मेषादिस्थे सवितरीति वचनान्मेषार्काधिकरणदर्शान्तश्चैत्र इत्यादिक्रमेण वृश्चिकार्काधिकरणदर्शान्तकार्तिकानन्तरं मकरार्काधिकरणदर्शान्तस्य पौषत्वमेव संपन्नमिति धनुस्थार्काधिकरणदर्शान्तरूपमार्गशीर्षस्याभावान्मार्गशीर्षस्य क्षयः संपद्यत इति बोध्यम्।
यस्मिन्मासे न संक्रान्तिः संक्रान्तिद्वयमेव वा।
संसर्पांहस्पती मासावधिमासश्च निन्दिताः॥
इतिबार्हस्पत्यज्योतिर्ग्रन्थे व्यवहारात्पूर्वासंक्रान्तस्य संसर्प इति द्विसंकान्तस्यांहस्पतिरिति संज्ञा ज्ञेया। संसर्पांहस्पत्योर्निन्दितत्वं विवाहादिशुभकार्यविषयम्।
यस्मिन्वर्षे द्विसंक्रान्तोऽधिकमासद्वयं तथा।
तद्धिमासत्रयं दुष्टं सर्वेषु शुभकर्मसु॥
यद्वर्षमध्येऽधिकमासयुग्मं तत्कार्तिकादित्रितये क्षयाख्यः।
मासत्रयं त्याज्यमिदं प्रयत्नाद्विवाहयज्ञोत्सवमङ्गलेषु॥
इति हेमाद्र्युदाहृतज्योतिर्ग्रन्थवचनात्। तथा —
‘रविणा लङ्घितो मासो ह्यनर्हः सर्वकर्मसु’ इत्यादिवचनानि क्षयमासा-
त्प्राचीनसंसर्पाख्येऽसंक्रान्ते न प्रवर्तन्ते किंतूत्तरासंक्रान्तमास एव प्रवर्तन्ते। तथा चहेमाद्रौजाबालः —
एकस्मिन्नपि वर्षे च द्वौ मासावधिमासकौ।
पूर्वो मासः प्रशस्तः स्यादपरस्त्वधिमासकः॥
मासद्वयेऽब्दमध्ये तु संक्रान्तिर्न यदा भवेत्।
प्राकृतस्तत्र पूर्वः स्यादधिमासस्तथोत्तरः॥ इति।
यत्तु षष्ट्या तुदिवसैरित्यस्यापवादो35मासद्वयेऽब्दमध्ये त्विति वचनम्, तथा चैकस्मिन्वर्षे यदा द्वौमासावसंक्रान्तौ तदा षष्टिदिनात्मकस्य मासस्य पूर्वो भागः प्राकृतः शुद्ध उत्तरो भागो मलिम्लुचः। एकाब्दमध्यवर्तिनौद्वावधिमासौ। पूर्वमासो36त्तरार्धत्वात्पूर्वमाससंज्ञाविति विश्वप्रकाशकृद्वर्णितमपवादकत्वम्, तत्तु पूर्वोत्तरशब्दाभ्यामुपात्तमासपरित्यागेनानुपात्तभागग्रहणस्यायुक्तत्वादित्यादिना हेमाद्रिणा दूषित्वादयुक्तमेव।
तस्माद्विवाहाद्व्यतिरिक्तश्रौतस्मार्तादिकर्मसु संसर्पो योग्य एव। यस्तु तस्मिन्नधिकशब्दप्रयोगः सोऽसंक्रान्तत्वाभिप्रायेण न तु कर्मानर्हत्वाभिप्रायेण। अत एव —
चैत्रादर्वाग्नाधिमासः परतस्त्वधिको भवेत्।
दृष्टा हि सर्वशास्त्रेषु तस्मिन्मूर्तिस्त्रयोदशी॥
इति ब्रह्मसिद्धान्तवचने तस्मिन्नुत्तरस्मिन्नेव मासे त्रयोदशी मूर्तिर्न तु पूर्वस्मिन्नपि विरोधादिति हेमाद्र्यादयः संगच्छन्ते। वचनार्थस्तु चैत्रादर्वाक्क्षयमासात्पूर्वोयोऽसंक्रान्तः स नाधिमासः किंतु क्षयमासात्परतो योऽसंक्रान्तः स एवाऽधिमास इति। अन्यथा चैत्रात्प्राक्तनानां क्षयमासोत्तरभाविनामप्यसंक्रान्तानामधिमासत्वनिषेधापत्तौ
प्राकृतस्तत्र पूर्वः स्यादधिमासस्तथोत्तरः।
इतिवचनविरोधापत्तेः। नन्वेवं ससंक्रान्तिकमासानामेकादशत्वापत्तौ ससंक्रान्तिकद्वादशमासात्मकत्वबोधकद्वादश मासाः संवत्सर इति श्रुतिविरोध इति चेन्न।
तिथ्यर्थे प्रथमे पूर्वो द्वितीयेऽर्धे तदुत्तरः।
मासाविति बुधैश्चिन्त्यौक्षयमासस्य मध्यगौ॥
इति हेमाद्र्याद्युदाहृतवचनेन क्षयमासस्य संक्रान्तिद्वययुक्तस्य मासद्वयत्वप्रतिपादनेन द्वादशत्वोपपत्तेः। इति मलमासस्वरूपनिरूपणम्।
अथ मलमासे कार्याकार्यनिर्णयः। तत्र हेमाद्रौपैठीनसिः —
श्रौतस्मार्तक्रियाः सर्वा द्वादशे मासि कीर्तिताः।
त्रयोदशे तु ताः सर्वा निष्फला इति कीर्तिताः॥
तस्मात्त्रयोदशे मासि कुर्यात्ता न कथंचन।
कुर्वन्नर्यमेवाऽऽशु कुर्यादात्मविनाशनम्॥ इति।
सुमन्तुः —
न कुर्यादधिके मासि काम्यं कर्म कदाचन॥ इति।
गृह्यपरिशिष्टे —
मलिम्लुचस्तु मासो वै मलिनः पापसंभवः।
गर्हितः पितृदेवेभ्यः सर्वकर्मसु तं त्यजेत्॥
तत्रैव ब्रह्मसिद्धान्ते —
यदा शशी याति गभस्तिमण्डलं
दिवाकरः संक्रमणं करोत्युत।
तदाऽधिमासः कथितो विरिञ्चिना
विवाहयात्रोत्सवयज्ञदोषकृत्॥
ज्योतिः शास्त्रान्तरे —
सवितृमण्डलमेति यदा शशी तदनु संक्रमणं कुरुते रविः।
मखमहोत्सवनाशकरस्तदा मुनिवरैः कथितोऽधिकमासकः॥
सिनीवालीमतिक्रम्ययदा संक्रमते रविः।
भानुना लङ्घितो मासो ह्यनर्हः सर्वकर्मसु॥
इति सामान्यतः सर्वकर्मनिषेधे प्राप्ते क्वचिदभ्यनुज्ञामाह हेमाद्रौ शङ्खः—
न कुर्यादधिके मासे कर्माकर्म कथंचन।
मुक्त्वा नैमित्तिकं कर्म तद्धि तत्रैव कीर्तितम्।
कर्माकर्मेतिशब्देन काम्यकर्मोच्यते। तद्धिफलकामैः क्रियमाणत्वात्कर्माफलकामैरक्रियमाणत्वादकर्म। कर्म च तदकर्म चेति कर्मधारय इति हेमाद्रिः। तथा च प्रजापतिः —
न कुर्यादधिके मासि काव्यं कर्म कथंचन।
मुक्त्वा नैमित्तिकं श्राद्धं तद्धि तत्रैव कीर्तितम्॥ इति।
अयं काम्यनिषेधः काम्यारम्भसमाप्तिविषयः, न तु मलमासात्प्राक्प्रारब्धासमाप्तकाम्यकर्मविषयः। तथा च हेमाद्रौब्रह्मसिद्धान्ते —
प्रारब्धं कर्म यत्किंचित्तत्तु कार्य मलिम्लुचे।
असूर्या नाम ये मासा न तेषु मम संमताः॥
व्रतानां चैव यज्ञानां प्रारम्भाश्चसमाप्तयः॥ इति।
यत्तु काठकगृह्यपरिशिष्टे —
प्रवृत्तं मलमासात्प्राग्यत्काम्यमसमापितम्।
आगते मलमासेऽपि तत्समाप्यमसंशयम्॥
इतिवचनं, तत्सावनमासप्रवृत्तकृच्छ्रचान्द्रायणाहीनसत्रादिविषयम्। अत एव
एकादश्यां तु गृह्णीयात्संक्रान्तौ कर्कटस्य वा
आषाढादौ नरो भक्त्या चातुर्मास्यव्रतक्रियाम्॥
कार्तिक शुक्लपक्षस्य एकादश्यां समापयेत्।
अधिमासे च पतिते एष एव विधिक्रमः॥
इति मध्यपातिमलमासेऽनुष्ठानं संगच्छते। न चैवं पञ्चसु मासेषु व्रतानुष्ठाने चातुर्मास्यव्रतमितिसमाख्याविरोधः,
मैत्रादिपादे37 स्वपतीह विष्णुवैष्णव्यमध्ये परिवर्तमेति38।
पौष्णावसाने च सुरारिहन्ता प्रबुध्यते मासचतुष्टयेन॥
इतिवचनविरोधश्चेति शङ्क्यम्। षष्ट्या तु दिवसैर्मास इति वचनान्मासचतुष्टयोपपत्तेः। यत्तु काव्यं संप्रतिकाल एवक्रियमाणं प्रकृतफलस्य, साधकं यथा तीव्रज्वराभिभूतस्य ज्वरनिवृत्तये विहितं श्रीरुद्रजपादिकं तन्मलमासेऽप्यारभ्य कार्यम्। तदाह मरीचिः —
रोगे चालभ्ययोगे च सीमन्ते पुंसवेऽपि च।
यद्दानादि समुद्दिष्टं कुर्वंस्तत्र न दुष्यति॥ इति।
एवम्। अग्नये रक्षोघ्नेपुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यँ रक्षाँसि सचेरन्नग्निमेव रक्षोहणँ स्वेन भागधेयेनोपधावति स एवास्माद्रक्षाँस्यपहन्ति" इति। सचेरन्तमवेयुर्गृह्णीयुरिति यावत्। स्वेन भागधेयेनोपधावति
प्रियेण हविर्भागेण तोषयति। तृप्तः सोऽस्माद्रक्षोगृहीताद्रक्षांसि दूरीकरोतीतीष्टिः। “यो मृत्योर्विभीयात्तस्मा एतां प्राजापत्याँ शतकृष्णलां निर्वपेत्प्रजापतिमेव स्वेन भागधेयेनोपधावति स एवास्मिन्नायुर्दधाति सर्वमायुरेति” इति। एवं “कारीर्या वृष्टिकामो यजेत” इत्यादीष्टयोऽपि यदि मलमासे प्रसक्तास्तर्हितत्रापि कर्तव्याः। कालान्तरप्रतीक्षायां ज्वर्यादीनां मरणमेव स्यादित्यावश्यकत्वात्। हेमाद्रौवृद्धमनुबृहस्पतिपैठीनसिज्योतिःपराशराः —
अग्न्याधेयं प्रतिष्ठां च यज्ञदानव्रतानि च।
वेदव्रतवृषोत्सर्गचूडाकरणमेखलाः॥
माङ्गल्यमभिषेकं च मलमासे विवर्जयेत्।
ग्रहणादिनिमित्तकं दानं तु मलमासेऽपि कार्यम्॥
चन्द्रसूर्यग्रहे चैव मरणे पुत्रजन्मनि।
मलमासेऽपि देयं स्याद्दत्तमक्षय्यकारकम्॥ इति वचनात्।
बाले वा यदि वा वृद्धे शुक्रे चास्तमुपागते।
मलमास इवैतानि वर्जयेद्देवदर्शनम्॥
इति वचनान्मलमासे निषिद्धानां शुक्रास्तादावपि निषेधः। अग्न्याधेयं “वसन्ते ब्राह्मणोऽग्नीनादधीत” इत्यादिकमेव निषिध्यते। तेनाग्न्यनुगमनिमित्तकं प्रायश्चित्तभूतमग्न्याधेयं मलमासेऽपि कार्यम्। एवं प्रतिमासंस्कारनाशे पुनः प्रतिष्ठाऽपि न निषिध्यते। यज्ञा वसन्तादौ विहिता उत्तरमासे क्रियमाणा ये स्वकाल एव कृता भवन्ति ते मले निषिद्धाः। दानानि कालान्तरे शक्यानुष्ठानानि। तेन नित्यदानादीनां न निषेधः। वृषोत्सर्गस्य नैकादशाहिकस्य निषेधः। षॊडशश्राद्धवत्तस्यापि प्रेतोपकारकत्वात्।
वापीकूपतडागादिप्रतिष्ठां यज्ञकर्म च।
न कुर्यान्मलमासे तु महादानव्रतानि च॥
** महादानानि मात्स्ये —**
आद्यं तु सर्वदानानां तुलापुरुषसंज्ञितम्।
हिरण्यगर्भदानं च ब्रह्माण्डं तदनन्तरम्॥
कल्पपादपदानं च गोसहस्रं तु पञ्चमम्।
हिरण्यकामधेनुश्चहिरण्याश्वस्तथैव च॥
हिरण्याश्वरथस्तद्वद्धेमहरितरथस्तथा।
पञ्चलाङ्गलकं तद्वद्धरादानं तथैव च॥
द्वादशं विश्वचक्रं च ततः कल्पलतात्मकम्।
सप्तसागरदानं च रत्नधेनुस्तथैव च॥
महाभूतघटस्तद्वत्षॊडशः परिकीर्तितः॥ इति।
कौथुमिः —
अधिमासे न कर्तव्यं श्राद्धं सांवत्सरादिकम्।
वर्षवृद्ध्यभिषेकादि कर्तव्यमधिके न तु॥
काठकगृह्ये —
चूडां मौञ्जीबन्धनं च अग्न्याधेयं महालयम्।
राजाभिषेकं काव्यं च न कुर्याद्भानुलङ्घिते॥
ज्योतिःशास्त्रे —
तत्र वृत्तमदत्तं स्याद्धुतं चाहुतमेव च।
सुजप्तमप्यजप्तं स्यान्नोपवासः कृतो भवेत्॥
न यात्रा न विवाहं च न39च वास्तुनिवेशनम्।
न प्रतिष्ठां च देवानां प्रासादग्रामभूरुहाम्॥
न हिरण्यं सुवासांसि कारयेदिति निश्चयः।
हिरण्यं तद्धारणमित्यर्थः। पराशरः —
रविणा लङ्घितो मासश्चान्द्रःख्यातो मलिम्लुचः।
तत्र यद्विहितं कर्म उत्तरे मासि कारयेत्॥
** **प्रजापतिः—
उपाकर्म च हव्यं च कव्यं पर्वोत्सवं तथा।
उत्तरे नियतः कुर्यात्पूर्वे तन्निष्फलं भवेत्॥
पराशरः—
एवं षष्टिदिनो मासस्तदर्धं च मलिम्लुचः।
त्यक्त्वा तदुत्तरे कार्याः पितृदेवादिकाः क्रियाः॥
सत्यव्रतः —
मासि संवत्सरे चैव तिथिद्वैधं यदा भवेत्।
तत्रोत्तरोत्तमा ज्ञेया पूर्वा तु स्यान्मलिम्लुचा॥
अधिमासे कर्तव्यमाह हेमाद्रौ शातातपः —
एकसंज्ञौ यदा मासौ स्यातां संवत्सरे क्वचित्।
तत्राऽऽद्ये पितृकार्याणि देवकार्याणि चोत्तरे॥
अङ्गिराः —
द्वौ मासावेकनामानावेकस्मिन्वत्सरे यदि।
पूर्वस्मिन्पितृकार्याणि देवकार्याणि चोत्तरे॥
ज्योतिःशास्त्रे —
षष्टिभिर्दिवसैर्मासः कथितो बादरायणैः।
पूर्वस्मिन्देवकार्याणि पितृकार्याणि चोभयोः॥
एवमादीनि मलमासेऽपि देवकार्यपितृकार्यप्रतिपादकवचनानि अत्यावश्यकदेवकार्यपितृकार्यविषयाणि। बृहस्पतिः —
नित्यनैमित्तिके कुर्यात्प्रयतः सन्मलिम्लुचे।
तीर्थश्राद्धं गयाश्राद्धं40 प्रेतश्राद्धं तथैव च॥
अत्रापि यस्य नित्यादेर्मलमासेऽननुष्ठाने कालातिक्रमनिमित्तं प्रायश्चित्तं विहितं यथा41 “तदाहुर्य आहिताग्निरमावास्यां पौर्णमासीं वाऽतीयात्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये पथिकृतेऽष्टाकपालं पुरोलाशं निर्वपेत्” इत्यादि तस्यैव नित्यस्य मलमासेऽनुष्ठानं न तु सोमयागादेस्तस्योत्तरमासेऽनुष्ठानेऽपि तदङ्गभूतवसन्तादिकालस्यातिक्रमाभावात्। तेन दर्शपूर्णमासाग्निहोत्रपञ्चमहायज्ञादेर्मलमासेऽनुष्ठानं न तु सोमादेः। एवं यस्य नैमित्तिकस्य दाहेष्ट्यादेर्निमित्तकालानन्तरकाल एव कर्तव्यत्वेन मासान्तरे विहितकालासंभवस्तस्यैव मलमासेऽनुष्ठानं न तु नैमित्तिकस्यापि जातेष्ट्यादिर्निमित्तानन्तरकाले नालच्छेदात्पूर्वं शिशुसंरक्षणार्थमननुष्ठितस्य नालच्छेदानन्तरं सूतकेनानधिकारादनुष्ठानेऽपि42 प्रायश्चित्ताभावात्। ततश्च जातेष्ट्यादेः शुद्धमास एवानुष्ठानम्। एवं च नित्यत्वं नैमित्तिकत्वं चाविवक्षितम्। किं तु यस्योत्तरमासेऽनुष्ठाने कालातिक्रमनिमित्तप्रायश्चित्तापत्तिर्विहितकालासंभवेन लोपप्रसक्तिर्वा तन्मलमासेऽपि कर्तव्यमित्यत्रैव तात्पर्यम्।
अनन्यगति यन्नित्यं कुर्यान्नैमित्तिकं तथा।
इति हेमाद्र्याद्युदाहृतवचनात्। अनन्यगतिकानि कानिचिद्गृह्यपरिशिष्टे दर्शितानि —
अवषट्कारहोमाश्च पर्व चाऽऽग्रयणं तथा।
मलमासे तु कर्तव्यं काम्या इष्टीश्च वर्जयेत्॥
अवषट्कारहोमा अग्निहोत्रौपासनवैश्वदेवादयः। पर्व दर्शपूर्णमासौ पार्वणस्थालीपाकश्च। आग्रयणमाग्रयणेष्टिः।
संक्रान्तिरहिते मासि कुर्यादाग्रयणं न वा।
इति हेमाद्रौपैठीनसिना विकल्प उक्तः। तेन दुर्भिक्षादिना जीर्णधान्याभाव आग्रयणं विना नवान्नभोजने “तदाहुर्य आहिताग्निराग्रयणेनानिष्ठा नवान्नं प्राश्नीयात्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालं पुरोलाशं निर्वपेत्"इतिप्रायश्चित्ताम्नानान्मलमासे कार्यं धान्यसत्त्वे तूत्तरमास एवेति व्यवस्थितविकल्प एव। काठकगृह्यपरिशिष्टे —
मलेऽनन्यगतिं नित्यां कुर्यान्नैमित्तिकीं क्रियाम्।
सोमयागादिकर्माणि नित्यान्यपि मलिम्लुचे॥
पुष्टीष्ट्याग्रयणाधानचातुर्मास्यादिकान्यपि
महालयाष्टकाश्राद्धोपाकर्माद्यपि कर्म यत्॥
स्पष्टमासविशेषाख्यविहितं वर्जयेन्मले॥ इति।
** महालयो भाद्रपदापरपक्षः।**
प्रेतमाल्यादिमारभ्य श्राद्धपिण्डोदकक्रियाः।
सपिण्डीकरणान्ताश्च यथाकालमुपस्थिताः॥
यवव्रीहितिलैर्होमो जातकर्मादिकाः क्रियाः।
मघात्रयोदशीश्राद्धं प्रत्युपस्थितिहेतुकम्॥
अनन्यगतिकत्वेन कर्तव्यं स्यान्मलिम्लुचे।
भृगुस्मृतिः —
वृद्धिश्राद्धं तथा सोममग्न्याधेयं महालयम्।
राजाभिषेकं काम्यं च न कुर्याद्भानुलङ्घिते॥
ज्योतिःपराशरः—
यातुधानप्रियो मासः कन्यार्के जायते यदा।
दैवं पित्र्यं तदा कर्म उत्तरे मासि युज्यते॥
देवलः —
अर्के नभस्ये कन्यास्थे श्राद्धपक्षः प्रकीर्तितः।
सिनीवालीमतिक्रम्य यदा कन्यां व्रजेद्रविः॥
तदा कालस्य वृद्धत्वादतीतैव पितृक्रिया॥
अतीता पञ्चमं पक्षमतिक्रान्तेत्यर्थः। एतेन महालयश्राद्धस्य कन्यार्कनिमितत्वान्नैमित्तिकश्राद्धस्य मलमासे विधानान्महालयश्राद्धं मलमासे कार्यमिति केषांचिदुक्तिरयुक्तैव। उदाहृतवचनविरोधात्। अत एव
अब्दोदकुम्भमन्वादिमहालययुगादिषु।
इतिकालादर्शकारिकायामपि मलमासकार्येषु मध्ये महालयग्रहणमुक्तोदाहरिष्यमाणवचनविरोधादयुक्तमेव। हेमाद्रौ नागरखण्डे —
आषाढ्याःपञ्चमे पक्षे कन्यासंस्थे दिवाकरे।
यो वै श्राद्धं नरः कुर्यादेकस्मिन्नपि वासरे॥
तस्य संवत्सरं यावत्तृप्ताः स्युः पितरो ध्रुवम्।
नभो वाऽथ नभस्यो वा मलमासो भवेद्यदा॥
सप्तमः पितृपक्षः स्यादन्यथैव तु पञ्चमः॥
अत्र कन्यार्कः प्राशस्त्यसंपादको न तु निमित्तम्। अन्यथा चतुर्दश्याममायां वा यदा कन्यासंक्रान्तिस्तदा ततः पूर्वंश्राद्धाकरणापत्तावेकस्मिन्नपि वासर इति सामान्येनाभिधानानुपपत्तिः। तथा च कार्ष्णाजिनिः —
अन्ते वा यदि वा मध्ये यत्र कन्यां रविर्व्रजेत्।
पक्षस्तु पञ्चमः पूज्यः श्राद्धषोडशकं प्रति॥
बृहन्मनुरपि —
मध्ये वा यदि वाऽप्यन्ते यत्र कन्यां रविव्रजेत्।
स पक्षः सकलः पूज्यः श्राद्धं तत्र विधीयते॥
इति। यत्तु जातूकर्ण्यवचनम् —
आपाढीमवधिं कृत्वा यः स्यात्पक्षस्तु पञ्चमः।
श्राद्धं तत्र प्रकुर्वीत कन्यां गच्छतु वा नवा॥
इति तदुदाहृतवचनैकवाक्यत्वार्थं पक्षोपक्रमकाले कन्यार्काभावेऽपि तत्र श्राद्धं कर्तव्यमित्यभिप्रायकम्। अत एव
कन्यागते सवितरि यान्यहानि तु षोडश।
क्रतुभिस्तानि तुल्यानि पितॄणां दत्तमक्षयम्॥
इति वचनमपि पक्षमध्ये यस्मिन्कस्मिन्नहनि कन्यासंक्रमेऽपि ततः प्राचीनान्यप्युपादेयानीत्यभिप्रायम्। यत्तु
श्राद्धीयेऽहनि संप्राप्ते मलमासो भवेद्यदि।
श्राद्धद्वयं प्रकुर्वीत एवं कुर्वन्न मुह्यति॥
इति वृद्धवसिष्ठवचनं तन्मासिकविषयम्। संवत्सरमध्ये यदि मलमासो भवेत् [तर्हि] मासिकार्थं दिनमेकं वृद्धिं नयेदिति।
अब्दमम्बुघटं दद्यादन्नं दद्यात्सुसंचितम्।
संवत्सरे विवृद्धेऽपि प्रतिमासं च मासिकम्॥
इति वसिष्ठकौथुभिवाक्यैकवाक्यत्वात्। विष्णुरपि —
मासिकाब्दे चेदधिमासपातो मासिकार्थं दिनमेकं वर्धयेदिति। अत एव हेमाद्रौ—
संवत्सरातिरेके वै मासश्चैव त्रयोदशः।
असुराणां तु मासोऽसौ तस्मादेव विगर्हितः॥
तस्मात्त्रयोदशे श्राद्धं न कुर्यान्नोपतिष्ठते।
इति ऋष्यशृङ्गोक्तः श्राद्धनिषेधः संगच्छते। यानि तु
उपाकर्म तथोत्सर्गः प्रसवाहोत्सवाष्टकाः।
मासवृद्धौ पराः कार्या वर्जयित्वा तु पैतृकम्॥ इति।
प्रतिसंवत्सरे श्राद्धे नाधिमासं विवर्जयेत्॥ इति।
मलमासेऽपि कर्तव्यं श्राद्धं यत्प्रतिवत्सरम्।
सांवत्सरं न वर्धेत श्राद्धं तत्र मृताहनि॥
जातकर्माणि यच्छ्राद्धं दर्शश्राद्धं तथैव च।
प्रतिसंवत्सरं चैवं43 पूर्वभागे प्रकीर्तितम्॥
पूर्वभागे मलमास इत्यर्थः। इति ज्योतिःपराशरशातातपपैठीनसिवचनानि तानि मलमासमृतानां कदाचित्स एवाधिकस्तदा मलमासे प्राप्ताब्दिकविषयाणि, शुद्धमासमृतानां प्रथमाब्दिकविषयाणि च पैठिनस्यादिपूर्ववाक्यैकवाक्यत्वात्। तथा हि पैठीनसिः —
मलमासमृतानां तु श्राद्धं यत्प्रतिवत्सरम्।
मलमासे44 तु कर्तव्यं नान्येषां तु कदाचन॥ इति।
माधवे सत्यतपाः —
वर्ष वर्षे च यच्छ्राद्धं मृताहे तन्मलिम्लुचे।
कुर्यात्तत्र प्रमीतानां नान्येषामुत्तरत्र तु॥ इति।
भृगुः —
मलमासमृतानां तु यच्छ्राद्धं प्रतिवत्सरम्।
मलमासे44 तु कर्तव्यं नान्येषां तु कदाचन॥
व्यासः —
मलिम्लुचे तु संप्राप्ते ब्राह्मणो म्रियते यदि।
ऊनाभिधेयो मासो नु कथं कुर्यादथाऽऽब्दिकम्॥
यस्मिन्राशौ गते सूर्ये विपत्तिः स्याद्विजन्मनः।
तस्मिन्नेव प्रकुर्वीत पिण्डदानोदकक्रियाः॥
अधिमासमृतानां तु सौरं मानं समाश्रयेत्।
स एव तस्य मासोऽपि श्राद्धपिण्डक्रियादिषु॥
स एव दिवसस्तस्य श्राद्धपिण्डोदकादिषु॥
इति उत्तरार्धे हेमाद्रौपाठान्तरम्। इत्यादिपैठीनस्यादिवचनैर्मृतमास एव यदा मलमासो भवति तदा मलमासमृतानामेव क्षयाहश्राद्धं मलमास एव कार्यमिति विधीयते। नान्येषां तु कदाचनेति तु
अधिमासे न कर्तव्यं श्राद्धं संवत्सरादिकम्॥ इति।
वर्षे वर्षे तु यच्छ्राद्धं मातापित्रोर्मृतेऽहनि।
मलमासे न कर्तव्यं व्याघ्रस्य वचनं यथा॥
इत्यादिवाक्यविहितनिषेधानुवाद इत्यस्य निर्विवादत्वात्। एवम् —
गर्भे वार्धुषिके प्रेतश्राद्धे भृत्येऽनुमासिके।
प्रथमे चाऽऽब्दिके चैव नाधिमासो विधीयते॥
असंक्रान्तेऽपि कर्तव्यमाब्दिकं प्रथमं द्विजैः।
तथैव मासिकं श्राद्धं सपिण्डीकरणं तथा॥
आब्दिकं प्रथमं यत्स्यात्तत्कुर्वीत मलिम्लुचे।
त्रयोदशे तु संप्राप्ते कुर्वीत पुनराब्दिकम्॥
अब्दे पूर्णे सति द्वितीयाब्दप्रवेशतिथौ क्रियमाणं प्रथमाब्दिकम्। पुनराब्दिकं द्वितीयाब्दिकं त्रयोदशे मासि सम्यक्प्राप्तेऽतीते सति चतुर्दशमासप्रवेशतिथौ कार्यमित्यर्थः।
प्रत्यब्दं द्वादशे मासि कार्या पिण्डक्रिया सुतैः।
क्वचित्त्रयोदशेऽपि स्यादाद्यं मुक्त्वा तु वत्सरम्॥
ससंक्रान्तचान्द्रद्वादशमासात्मकप्रत्यब्दे द्वादशे मासि पूर्णे सति द्वितीयाब्दाद्यतिथौ पिण्डक्रिया सांवत्सरिकश्राद्धं कार्यम्। क्वचित्तृतीयचतुर्थाद्यब्दाद्यमासे मलमासे सति मलमासात्मके तस्मिंस्त्रयोदशे सति चतुर्दशमासाद्यतिथौ स्यादित्यर्थः। अस्यापवादमाह — आद्यं मुक्त्वा त्विति। मृतमासमारभ्य त्रयोदशस्य द्वितीयाब्दाद्यमासस्य मलत्वे तु प्रथसाब्दे पूर्णे
द्वितीयाब्दाद्यतिथौ क्रियमाणं प्रथमाब्दिकं मलमासगतद्वितीयाब्दाद्यतिथावेव कार्यमित्यर्थः।
आब्दिकं प्रथमं यत्स्यात्तत्कुर्वीत मलिम्लुचे॥ इति।
असंक्रान्तेऽपि कर्तव्यमाब्दिकं प्रथममित्येकवाक्यत्वात्। यदा शुद्धकार्तिके मृतस्य मृतमासमारभ्य त्रयादशो द्वितीयकार्तिक एव मलमासस्तदा द्वितीयाब्दाद्यावयवे तस्मिन्मलमास एवं कार्यम्। न तु प्रथमवर्षान्तर्गतमासान्तरेऽप्यधिके मृतमासमारभ्य त्रयोदश आश्विने तस्य प्रथमाब्दान्तर्गतत्वेन द्वितीब्दाद्यतिथौ विहितस्य प्रथमाब्दिकस्य तत्रानुष्ठानस्याशास्त्रीयत्वात्।
सर्वेषामेव श्राद्धानां श्रेष्ठं सांवत्सरं मतम्।
क्रियते यत्खगश्रेष्ठ मृतेऽहनि बुधैः सदा॥
मृतेऽहनि पितुर्यस्तु न कुर्याच्छ्राद्धमादरात्।
मातुश्च खगशार्दूल वत्सरान्ते मृतेऽहनि॥
नाहं तस्य खगश्रेष्ठ पूजां गृह्णामि नो हरिः।
न ब्रह्मा न च वै रुद्रो न चान्ये देवतागणाः॥
तस्माद्यत्नेन कर्तव्यं वर्षे वर्षे मृतेऽहनि।
नरेण खगशार्दूल भोजकेन विशेषतः॥
भोजको यस्तु वै श्राद्धं न करोति खगाधिप।
मातापितृभ्यां सततं वर्षे वर्षे मृतेऽहनि॥
स याति नरकं घोरं तामिस्रं नाम नामतः॥
इत्यादिहेमाद्र्युदाहृतभविष्यत्पुराणादिवचनैः ससंक्रान्तचान्द्रद्वादशमासात्मकवत्सरान्ते पूर्णे सति द्वितीयवत्सराद्यतिथौ मृततिथिसजातीयायां श्राद्धस्यात्यावश्यकत्वबोधनात्तदकरणेन45 प्रत्यवायापत्तेः। द्वितीयाब्दे श्राद्धसंबन्धाभावेन प्रत्यब्दमितिश्रूयमाणव्याप्तिबाधापत्तेश्च। अत एव
वर्षे वर्षे तु यच्छ्राद्धं मातापित्रोर्मृतेऽहनि।
मासद्वयेऽपि कुर्वीत व्याघ्रस्य वचनं यथा46॥
इति कालादर्शोदाहृतगालववचनमपि प्रथमाब्दिकं मले द्वितीयाब्दिकं शुद्ध इत्यभिप्रायकमेव। आब्दिकं प्रथमं यत्स्यादित्याद्युदाहृतवाक्यैकवाक्यत्वात्। न च मासद्वयेऽपि एकस्यैव श्राद्धस्य कर्तव्यतापरमिदमस्तु एतदेकवाक्यतयोदाहृतवचनान्येव मासद्वयकर्तव्यतापराणि सन्त्विति
शङ्क्यम्। द्वितीयाद्या47ब्दिकस्य मलसासे कर्तव्यतास्वीकार आब्दिकं प्रथमं यत्स्यादितियमवाक्येऽसंक्रान्तेऽपि कर्तव्यमाब्दिकं प्रथममिति वासिष्ठे, आद्यं मुक्त्वा तु वत्सरमिति हारीतीये च प्राथम्यविशेषणवैयर्थ्यापत्तेः।
वर्षे वर्षे तु यच्छ्राद्धं मातापित्रोर्मृर्तेऽहनि।
मलमासे न कर्तव्यं व्याघ्रस्य वचनं यथा॥इति।
वर्षे वर्षे तु यच्छ्राद्धं मृताहे न मलिम्लुचे।
कुर्यात्तत्र प्रमीतानामन्येषामुत्तरत्र तु॥इति।
मलमासप्रमीतानां श्राद्धं यत्प्रतिवत्सरम्।
मलमासेऽपि तत्कार्यं नान्येषां तु कदाचन॥
इति सत्यव्रतसत्यतपः पैठीनसिभृगुवाक्याणां विरोधापत्तेश्च। गालवीयस्य प्रथमद्वितीयादिव्यवस्थया मासद्वयकर्तव्यतापरत्वे तु न कस्यापि48 शङ्केति तत्परत्वमेव युक्तमिति बोध्यम्। अत एव हेमाद्रिमाधवादीनां गालववचनानुपन्यासेऽपि न न्यूनता। अत एव मलमासमृतानां प्रत्याब्दिकं श्राद्धं मलमासेऽपि कार्यम्। अन्येषामुत्तरमास्येवेति स्मृत्यर्थसारः। वर्षे वर्ष इति सत्यव्रतवचनं मलमासादन्यत्र मृतस्य प्रथमाब्दिकान्यश्राद्धविषयमिति हेमाद्रिः। शुद्धमासमृतानां प्रथमाब्दिकं मलमासे कर्तव्यम्। द्वितीयाब्दिकं49 शुद्धमास इत्यनया विवक्षयोभयत्र कर्तव्यतेति माधवः।
प्रतिमासं मृताहे च श्राद्धं यत्प्रतिवत्सरम्।
मन्वादौ च युगादौ च मासयोरुभयोरपि॥
इति मरीचिवचने प्रतिसंवत्सरं श्राद्धं प्रतिसंवत्सरं क्रियमाणं कल्पादिप्रभृतिश्राद्धं न तु क्षयाहश्राद्धं तन्निषेध50कवचनविरोधादिति मदनरत्नः। गालववचने मासद्वयेऽपीत्यनेन मासद्वयात्मकक्षयमासे श्राद्धं कार्यमित्यर्थः। मलमासादन्यत्र मृतानां शुद्धमास एव कार्यम्। प्रथमाब्दिकं मलमास एव कार्यमिति निर्णयामृतश्च संगच्छते। यत्तु कालादर्शे भृगुसत्यतपोवचनाभ्यां नियमावगतेर्मलमासमृतानां मलमास एव। अन्यमास मृतानामुत्तरत्रेति प्राचीनकृतव्यवस्थां पूर्वपक्षीकृत्य मलमासमृतानां मल एवान्येषामुभयत्रेति निश्चयो गालवमरीचिवचनाभ्यामित्युक्तं तद्गालवमरीचिवचनविरुद्धाब्दिकं प्रथममित्यादियमवसिष्ठहारीतसत्यव्रतवच-
नादर्शननिबन्धनत्वात्कालादर्शे पूर्वपक्षीकृतप्राचीनमतस्यैव यमादिवचनानुगुणस्य हेमाद्रिमाधवादिभिः पुरस्कृतत्वाच्चोपेक्ष्यमेव। एतेन मासद्वयेऽपि कार्यमित्यर्थका अर्वाचीनग्रन्था अप्युपेक्ष्या इति बोध्यम्।तस्मान्मलमासमृतस्य यदा मृतमास एव मलमासस्तदा51प्रथमाब्दिकं चेन्मलमास एव द्वितीयाद्याब्दिकं चेन्मलमासमतिक्रम्य शुद्धमास एवकार्यमिति सिद्धम्। मलमासमृतस्य प्रथमाद्याब्दिकं तु यन्नामको मलमासो द्वितीयाब्दाद्ये शुक्लपक्षादिके तन्नामके मासि मृतपक्षीयमृततिथौ कार्यम्। उदाहृतसर्ववचनेन52 हेमाद्रिमाधवाद्यनुगतत्वात्। एतेन मलमासमृतस्य प्रथमाब्दिकं तद्राशिस्थे सूर्ये मृततिथौ कार्यं सत्यतपोव्यासवचनमूलत्वादिति नन्दपण्डितादिसकलनवीनोक्तिः, सत्यतपोव्यासवचनार्थाज्ञाननिबन्धनत्वादुदाहृतानेकवचनहेमाद्रिमाधवविरोधाच्चसाहसरूपेति चिन्तनीयम्। मासद्वयात्मकक्षयाख्यमलमासे तु मासद्वयनिमित्तकंश्राद्ध कार्यम्।
एक एवयदा मासः संक्रान्तिद्वयसंयुतः।
मासद्वयगतं श्राद्धंमलमासेऽपि शस्यते॥
इति हेमाद्रिमाधवनिर्णयामृतमदनरत्नाद्युदाहृतसत्यव्रतवचनात्। हेमाद्रिणाऽपि एक एवयदा मास इतिवचनाच्छुद्धमासकृतन्यापि प्रतिसंवत्सरश्राद्धस्य क्षयमासे विधानात्क्षयमासाव्यवहितपूर्वभाव्यसंक्रान्तश्राद्धं प्राकृतस्तव पूर्वः स्यादिति पूर्वासंकान्त एक एव यदामास इतिवचनात्क्षयमासे च कार्यम्। तेन मलमासमृतस्य यदा मलमासो भवति तदा प्रथमाब्दिकं चेन्मलमास एवं कार्यं, न शुद्धे नाप्युभयोः। शुद्धमासमृतस्ययदा मरणमासोमलमासो भवति तदा प्रथमाब्दिकं चेन्मलमास एवं कार्यं न शुद्धे नाप्युभयोः। द्वितीयाब्दिकं53 चेच्छुद्ध एवं कार्य न मलमासे नाप्युभयोः।
तस्मिंस्तु प्राकृते मासे कुर्याच्छ्राद्धंयथोदितम्।
तथैवाभ्युदयं श्राद्धं नित्यमेकं हि सर्वदा॥
प्राकृते शुद्धे सर्वं श्राद्धं नित्यं नियमेनैकमेव कुर्यान्न द्वितीये मलमासेऽपीत्यर्थः। तथा
सांवत्सरं न वर्धेत श्राद्धं तत्र मृताहनि।
इति वचनादपि न सांवत्सरिकमुभयत्रानुष्ठेयमिति सिद्धान्तयित्वा केचिदुभयत्रेति तदयुक्तमित्यादिनोभयत्रानुष्ठानं दूषितम्। स्मृत्यर्थसारमाधवनिर्णयामृतमदनरत्नादीनामिदमेव संमतमिति बोध्यम्।
पिण्डवर्जमसंक्रान्तौ संक्रान्तौ पिण्डसंयुतम्।
प्रतिसंवत्सरं श्राद्धमेवं मासद्वयेऽपि च॥
इत्यर्वाचीनग्रन्थे क्वचित्पराशरनाम्ना लिखितं तद्यदि आर्षं तर्हि पूर्वासंक्रान्ते कृतस्य क्षयमासेऽप्यनुष्ठानमिति हेमाद्रिणोक्तत्वात्तद्विषयकमेवेति नैतद्बलादप्युभयत्रानुष्ठानमिति दिक्। मासद्वयसंबन्धीन्यन्यान्यप्यावश्यककर्माणि क्षयमासेऽनुष्ठेयानि।
मासद्वयोदितं कर्म तत्कुर्यादिति निर्णयः।
एकस्मिन्मासि मासौ द्वौ यदि स्यातां तयोर्द्वयोः॥
तावेव पक्षौ ता एव तिथयस्त्रिंशदेव हि।
इतिमदनरत्नोदाहृतस्मृत्यन्तरवचनात्। क्षयमासे तिथिपूर्वार्ध उत्पन्नस्य मृतस्य च वर्षान्तरे वर्धापनोत्सवः क्षयाहश्राद्धं च क्षयमासान्तर्गते पूर्वमासे कार्यम्। तिथ्युत्तरार्धे जातस्य मृतस्य च क्षयमासान्तर्गत उत्तरमासे।
तिथ्यर्धेप्रथमे पूर्वो द्वितीयार्धे तदुत्तरः।
मासाविति बुधैश्चिन्त्यो क्षयमासस्य मध्यगौ॥
इतिहेमाद्रिमाधवाद्युदाहृतवचनात्। न च श्राद्धमपि पूर्वमासमृतस्य तिथिपूवार्ध उत्तरमासमृतस्योत्तरार्धे किं न स्यादिति शङ्क्यम्, अपराह्णादिकालविधायकवचनविरोधापत्तेः। अत एवान्यान्यपि मासदयविहितानि कार्याणि स्वस्वकाल एव कर्तव्यानि। एवं च
रविसंक्रान्तिहीने यो वर्ज्यावर्ज्यविधिः स्मृतः।
स एव तु द्विसंक्रान्ते मलमासेऽप्युदीरितः॥
इति वचनात्क्षयमासेऽपि सामान्यतो व्रतारम्भनिषेधः प्रतीयते, तथाऽपि प्रथमारम्भविषय एव स मासद्वयोदितं कर्मेत्यनेनैकवाक्यत्वात्। तेनमार्गशीर्षपौषयोः क्षयान्तःपातेऽपि चातुर्मास्यव्रतसमाप्तिः पूर्ववर्षपौष आरब्धस्य माघमासव्रतस्नानादेर्द्वितीयारम्भः क्षयेऽपि भवति। एवं
कार्तिकस्य क्षयान्तःपातेऽपि चातुर्मास्यव्रतसमाप्तिस्तत्रैव कार्या। आरब्धस्य कर्मणोऽसमाप्तौ पुनरनारम्भे चाऽऽरम्भनियमे दोषश्चासमाप्तौस्यादिति हेमाद्र्युदाहृतकात्यायनवचनविरोधापत्तेश्च। हेमाद्रौ यमः —
गर्भेवार्धुषिके भृत्ये श्राद्धकर्मणि मासिके।
सपिण्डीकरणे नित्ये नाधिमासं विवर्जयेत्॥
तीर्थस्नानं जपो होमो यवव्रीहितिलादिभिः।
जातकर्मान्त्यकर्माणि नवश्राद्धं तथैव च॥
मघात्रयोदशीश्राद्धं श्राद्धान्यपि च षॊडश।
चन्द्रसूर्यग्रहे स्नानं श्राद्धं दानजपादिकम्॥
कार्याणि मलमासेऽपि नित्यं नैमित्तिकं तथा। इति।
अत्र तीर्थस्नानं द्वितीयादिकं प्रथमं तु न भवति मलमासेऽप्यनावृत्ततीर्थयात्रां विवर्जयेदितिनिषेधात्। गर्भे गर्भमासप्रवृत्त्या54 विहितपुंसवनादौ। वार्धुषिकेऽशीतिभागो वृद्धिः स्यादिति विहितवृद्धौ। भृत्ये मासिकमृतिदाने। श्राद्धेति प्रतिमासं क्रियमाणेऽमावास्याश्राद्ध इत्यर्थः। मासिकस्य षोडशश्राद्धान्तर्गतत्वेनैव सिद्धेः। स्मृत्यन्तरे —
श्राद्धजातकनामानि ये च संस्कारसव्रताः।
मलिम्लुचेऽपि कर्तव्याः काम्या इष्टीश्च वर्जयेत्॥
संस्कारा अन्नप्राशननिष्क्रमणादय इति हेमाद्र्यादयः सव्रताः पूर्वसंकल्पितचातुर्मास्यव्रतविशेषाः। यस्तु
नामान्नप्राशनं चौलं विवाहं मौञ्जिबन्धनम्।
निष्क्रमं जातकर्मादि55 काम्यं वृषविसर्जनम्॥
अस्तगे च गुरौ शुक्रे बाले वृद्धे मलिम्लुचे।
उद्यापनमुपारम्भं व्रतानां नैव कारयेत्॥
इति गार्ग्येण नामान्नप्राशननिष्क्रमणजातकर्मणां निषेध उक्तः स जातकर्मादिविधायकोदाहृतवचनविरोधात्
नामकर्म च दर्शेष्टिं यथाकालं समाचरेत्॥
अतिपाते सति तयोः प्रशस्ते मासि पुण्यभे।
इत्यादिवचनैकवाक्यत्वाच्च स्वकालातिक्रान्तनामकरणादिविषयः।
मत्स्यपुराणे —
आधानं यज्ञकर्मादि प्रायश्चित्तं व्रतानि च।
न कुर्यान्मलमासेऽपि शुकगुर्वोरुपप्लवे॥ इति।
बृहस्पतिः —
नित्यनैमित्तिके कुर्यात्प्रयतः सन्मलिम्लुचे।
तीर्थश्राद्धं गजच्छायां प्रेतश्राद्धं तथैव च॥
अत्र तीर्थश्राद्धं गजच्छायाश्राद्धं च न नित्यमकरणे प्रत्यवायाभावात्। नापि नैमित्तिकं तीर्थगजच्छायासंबन्धरूपनिमित्तस्य पुरुषप्रयत्नसाध्यत्वेन निमित्तत्वाभावादतस्तयोः पृथगुपादानम्। गजच्छायाऽत्र
परमान्नं तु यो दद्यात्यितॄणां मधुना सह।
छायायां कुञ्जरेन्द्रस्य पूर्वस्यां दक्षिणामुखः॥
इति विश्वामित्रोक्ता गजस्यैव च्छाया ग्राह्या न तु
यदेन्दुः पितृदैवत्ये हंसश्चैव करे स्थितः।
याम्या56 तिथिर्भवेत्साऽपि गजच्छाया प्रकीर्तिता।
इति तेनैव परिभाषितेति। अधिकभाद्रपदे हस्तस्थसूर्यासंभवेन तस्या असंभवात्। स्मृतिसंग्रहे —
यौगादिकं मासिकं च श्राद्धं चापऽऽरपक्षिकम्।
मन्वादिकं तैर्थिकं च कुर्यान्मासद्वयेऽपि च॥ इति।
अत्राऽऽपरपक्षिकं प्रतिकृष्णपक्षविहितं श्राद्धमित्यर्थः। न तु महालयश्राद्धं तस्याधिमासे निषेधस्योक्तत्वात्। एवं च क्षयाहश्राद्धस्य मासद्वये विधायकानि वर्षे वर्ष इत्यादिगालवादिवचनानि प्रथमाब्दिकं मलमाससंभवे तत्रैव कार्यं, द्वितीयाद्याब्दिकं तु शुद्धमास एवेत्येवं व्यवस्थया मासद्वयविधायक्रानि। प्रतिसंवत्सरे श्राद्धे नाधिमासं विवर्जयेदित्यादीनि मलमासमृतप्रत्याब्दिकविषयाणि। श्राद्धीयाहनि संप्राप्त इत्यादिश्राद्धद्वयविधायकानि मासिकश्राद्धपराणि। पितृकार्याणि चोभयोरित्यादीनि दर्शश्राद्धपराणीति। मलमासे न कर्तव्यं व्याघ्रस्य वचनं यथेति अन्येषामुत्तरत्र त्वित्यादीनि शुद्धमासमृतद्वितीयाद्याब्दिकविषयाणीति विषयभेदात्सिद्धः सर्वेषामविरोध इति। तथा च सर्ववाक्याविरौधेन कृतस्य मलमासे कार्याकार्यनिर्णयस्यायं संग्रहः — अनन्यगतिकानि नित्यजपः स्नानं
संध्या, आपासनहोमः, अग्निहोत्रहोमः, देवपूजा, पञ्च महायज्ञा, अतिथिपूजा, नित्यदानं, पूर्वारब्धस्थालीपाकदर्शपौर्णमासेष्टयः, जीर्णधान्याभाव आग्रयणेष्टिः, अग्न्यनुगमनादिनिमित्तानि पुनःसंधानादीनि, देवप्रतिमासंस्कारनाशे पुनः प्रतिष्ठा, पुंसवनं, सीमन्तोनयनं, यथाकालप्राप्तजातकर्मनामकरणनिष्क्रमणान्नप्राशनानि, तदङ्गाभ्युदयिकश्राद्धं, तन्निमित्तकदानं, मलमासात्माक्प्रारब्धव्रताद्यनुष्ठानं, ग्रहणनिमित्तकस्नानजपहोमश्राद्धदानानि, ज्वरादिरोगनिवर्तकं जपशान्त्यादिकं, वृष्ट्यर्थं विहितजपादिकमलभ्ययोगे विहितदानादिकं, पूर्वदृष्टानादिदेवदर्शनं, पूर्वदृष्टतीर्थस्नानम्। एतानि मलमासेऽप्यनुष्ठेयानि। मरणकाले शुद्ध्यापादकप्रायश्चित्तदानादिकं, प्रेतदाहमारभ्य दशाहान्तविहितप्रेतक्रिया, एकादशाहे विहितैकोद्दिष्टश्राद्धवृपोत्सर्गादिकं, मासिकश्राद्धं, सपिण्डीकरणमब्दोदकुम्भश्राद्धं चैतानि मलमासे प्राप्तानि चेत्तत्रानुष्ठेयानि। युगादिमन्वादिकल्पादिनिमित्तकश्राद्धं, मासिकश्राद्धं, दर्शश्राद्धम्, अहरहःश्राद्धं, चैतानि मासद्वये कर्तव्यानि। शुद्धमासमृतस्य मृतमासनामको द्वितीयाद्याब्दमास एव चेन्मलमासस्तदा प्रथमाब्दिकं मलमास एव कर्तव्यम्। द्वितीयाब्दिकं तु मलमासमतिक्रम्य शुद्धमास एव कार्यम्। मलमासे मृतस्य तु प्रथमाब्दिकादिश्राद्धं तद्वितीयाद्याब्दाद्यमासाद्यतिथौ कार्यम्। यदा कदाचिन्मृतमास एव मलमासस्तदा मलमास एव कार्यम्, न शुद्धमास इति। एवमन्यदपि यदनन्यगतिकं नित्यं नैमित्तिकमन्यद्वा कालान्तरेऽशक्यानुष्ठानं तदपि कार्यमिति। यत्तु नित्यादिकमपि कालान्तरे कर्तुं शक्यते तन्मलमासे न कुर्यात्। यथाऽग्न्याधानम्, अग्निष्टोमादियागान्, प्राथमिकदर्शपूर्णमासपार्वणस्थालीपाकान्, अपूर्वतीर्थयात्रा [म्] अनादिदेवप्रथमदर्शनम्, देवतारामतटाकवाप्यादिप्रतिष्ठाम्, अग्निहोत्रादिहोमारम्भम्, अथ वृषोत्सर्जनम्, तच्च द्विविधम् — काम्यं नैमित्तिकं च। नैमित्तिकमैकादशाहिकम्। काव्यं कार्तिक्यां वैशाख्यां ग्रहणे संक्रमणे चेति बौधायनेनोक्तम्। काम्यवृषोत्सर्गम्, प्रथमराजाभिषेकम्, अतिक्रान्तस्वकालजातकर्माद्यन्नप्राशनान्तानि, चौलोपनयनवेदव्रतसमावर्तनविवाहान्, आश्रमस्वीकारं, ग्रहग्रामाद्यारम्भप्रवेशौ, वसन्तमहोत्सवादिरूपदेवमहोत्सवान्, व्रतारम्भोद्यापने, पूर्वोक्तानिमित्तकातिरिक्ताभ्युदयश्राद्धं, देशान्तरयात्रां, जातेष्ट्यादिकाम्येष्टीः, अनापत्कालिकाग्रयणम्, चातुर्मास्यपशुबन्धादीनि, सर्वपापप्रायश्चित्तम्, उपाकर्मोत्सर्जनजन्मदिनोत्सवान्, पवित्रारोपणं, दमनकपूजामष्टकाश्राद्धम्, विष्णुशयनपरिवर्तनोत्थापनानि, दुर्गास्थाप-
नशक्रध्वजोत्थापने महादानादिदानं, शुद्धमासमृतद्वितीयाद्याब्दिकम्, महालयश्राद्ध्म्, स्पष्टमासविशेषाख्याविहितानि श्रवणाकर्मादीनि, दीपावल्यादीनि च मलमासे विवर्जयेत्। आधानादि, सर्वप्रायश्चित्तं, महादानं च। एतानि शुक्राद्यस्तादावपि वर्जयेत्।
बाले वा यदि वा वृद्धे शुक्रे चास्तमुपागते।
मलमास इवैतानि वर्जयेद्देवदर्शनम्॥ इति वचनात्।
गयायां नायं निषेधः।
गयायां सर्वकालेषु पिण्डं दद्याद्विचक्षणः।
अधिमासे जन्मदिने अस्ते च गुरुशुक्रयोः॥
न त्यक्तव्यं गयाश्राद्धं नीचस्थे च बृहस्पतौ।
इति वायुपुराणात्। अत्र श्राद्धस्य यात्रापूर्वकत्वाद्यात्रयां57 न निषेध इत्यर्थः। मलमासविशेषस्य द्विराषाढ इति संज्ञा। तदाह माधवे वृद्धमिहिरः—
माधवाद्येषु षट्स्वेकमासि दर्शद्वयं यदा।
द्विराषाढः स विज्ञेयः शेते कर्कटकेऽच्युतः॥ इति।
अत्र विशेषमाह स एव —
मेषादिमिथुनान्तेषु यदा दर्शद्वयं भवेत्।
अब्दान्तरे तदाऽवश्यं मिथुनार्के हरिः स्वपेत्॥
इति अब्दान्तर उत्तरवर्षे।
कर्कटादित्रिके वाऽपि यदा दर्शद्वयं भवेत्।
अब्दान्तरे तदाऽवश्यं कर्कटार्के हरिः स्वपेत्॥ इति।
मलमासकृत्यमुक्तं हेमाद्रौपाद्मे—
विष्णुरूपं सहस्रांशुं मलमासे तु पूजयेत्।
मलमासस्तु मासानां मलिनः पापसंभवः॥
तस्य पापविशुद्ध्यर्थं मलमासव्रतंचरेत्।
दिने दिने प्रदेयानि विविधान्नानि शक्तितः॥
दक्षिणाघृतयुक्तानि कांस्यपात्रयुतानि च।
अधिमासे तु संप्राप्ते गुडसर्पिःसमन्वितान्॥
दद्यादनेन मन्त्रेण त्रयस्त्रिंशदपूपकान्।
विष्णुरूपी सहस्रांशुः सर्वपापप्रणाशनः॥
अपूपान्नप्रदानेन मम पापं व्यपोहतु।
चन्द्रवन्निर्मलाः पूषाशालितण्डुलमिश्रिताः॥
आहारः सर्वदेवानां तन्मे58कुर्वन्तु मङ्गलम्।
यावन्ति तत्र च्छिद्राणि अपूपस्य च पार्थिव॥
तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते।
अधिमासे तु संप्राप्ते त्रयस्त्रिंशत्तु देवताः॥
उद्दिश्यापूपदानेन पृथ्वीदानफलं भवेत्59।
अशक्तावुक्तं तत्रैव —
अधिमासे यदा राजन्द्वादशी वाऽथ पूर्णिमा।
व्यतीपातादिने वाऽपि दद्यादन्नं हि शक्तितः॥
साज्यपात्रं च सगुडं त्रयस्त्रिंशदपूपकान्।
कांस्यपात्रे विनिक्षिप्य हिरण्येन समन्वितान्॥
उपानच्छत्रसंयुक्तान्विप्राय विनिवेदयेत्।
मन्त्रः —
यस्य हस्ते गदाचक्रे गरुडो यस्य वाहनम्।
शङ्खः करतले यस्य स मे विष्णुः प्रसीदतु॥
कलाकाष्ठादिरूपेण निमेषघटिकादिना।
यो वञ्चयति भूतानि तस्मै कालात्मने नमः॥
कुरुक्षेत्रमयं देशः कालः पर्व द्विजो हरिः।
पृथ्वीसममिदं दानं गृहाण पुरुषोत्तम॥
मलानां च विशुद्ध्यर्थं पापप्रशमनाय च।
पुत्रपौत्राभिवृद्ध्यर्थं तव दास्यामि भास्कर॥
मन्त्रेणानेन वै दद्यात्त्रयस्त्रिंशदपूपकान्।
गृहे तस्य स्थिरा लक्षीर्यो दद्यात्सूर्यसंनिधौ॥
दारिद्र्यं न भवेत्तस्य रोगक्लेशविवर्जितः। इति।
इति आठवले इत्युपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे मलमासे कार्याकार्यनिर्णयः।
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अथ पक्षनिर्णयः। स च द्वेधा विभक्तस्य चान्द्रमासस्यैको भागः। स द्विविधः शुक्लपक्षः कृष्णपक्षश्च। तत्र चन्द्रकलावृद्ध्यधिकरणकालः शुक्ल-
पक्षः। कलाक्षयाधिकरणकालः कृष्णपक्षः। अनयोर्विनियोगो ज्योतिः शास्त्र उक्तः —
पक्षौ निरुक्तौ खलु शुक्लकृष्णौ शुभाशुभे कर्मणि तौप्रशस्तौ। इति — तैत्तिरीये होतृब्राह्मणे —
“यं कामयेत वसीयान्स्यादिति। तं पूर्वपक्षे याजयेत्। वसीयानेव भवति। यं कामयेत पापीयान्स्यादिति तमपरपक्षे याजयेत्। पापीयानेव भवति। तस्मात्पूर्वपक्षोऽपरपक्षात्करुण्यतरः” इति शुभाशुभहेतुत्वबोधनादाभ्युदयिकदेवकार्यादौ शुक्लपक्षः प्रशस्तः। आभिचारिके कर्मणि पित्र्ये कर्मणि च कृष्णपक्षः प्रशस्त इति। इति पक्षनिर्णयः।
अथ तिथिर्निर्णीयते। तत्स्वरूपमुक्तं विष्णुधर्मोत्तरे —
चन्द्रार्कगत्या कालस्य परिच्छेदो यदा भवेत्।
तदा तयोः प्रवक्ष्यामि गतिमाश्रित्य निर्णयम्॥
भगणेन समग्रेण ज्ञेया द्वादश राशयः।
त्रिंशांशश्चतथा राशेर्भाग इत्यभिधीयते॥
आदित्याद्विप्रकृष्टस्तु भागद्वादशकं तथा60।
चन्द्रमाः स्यात्तदा राम तिथिरित्यभिधीयते॥ इति।
स्कान्देऽपि —
अमा षोडशभागेन देवि प्रोक्ता महाकला।
संस्थिता परमा माया देहिनां देहधारिणी॥
अमादिपौर्णमास्यन्ता या एव शशिनः कलाः।
तिथयस्ताः समाख्याताः षॊडशैव वरानने॥ इति।
अत्रामापौर्णमास्योर्भेदविवक्षया षोडशत्वं बोध्यम्। सिद्धान्तशिरोमणौ —
अर्काद्विनिसृतः प्राचीं यद्यात्यहरहः शशी।
तच्चान्द्रमानमंशैस्तु ज्ञेया द्वादशभिस्तिथिः॥ इति।
अयमर्थः — ऊर्ध्वप्रदेशवर्तिमन्दगामिसूर्यस्याधःप्रदेशवर्ती चन्द्रस्तयोर्गतिविशेषवशाद्दर्शे सूर्यमण्डलस्याधोभाग एव चन्द्रस्यावस्थितिर्भवति तदा सूर्यरश्मिभिरभिभूतत्वाञ्चन्द्रमण्डलमीपदपि न प्रकाशते। ततो दर्शोत्तरकाले शीघ्रगामित्वात्त्रिंशदंशोपेतराशौ सूर्याधि-
करणराश्यंशं त्यक्त्वाऽग्रिमांशं गच्छति। एवं क्रमेण त्रयोदशांशप्रवेशक्षणे चन्द्रस्य प्रथमा कला दर्शनयोग्या भवति। सूर्याधिकरणराश्यंशादग्रिमत्रयोदशांशप्रवेशस्तु अतिशीघ्रगतौ चतुष्पञ्चाशता घटिकाभिर्भवति। अतिमन्दगतौ पञ्चषष्ट्या घटिकाभिर्भवति। ततश्च प्रथमकलया स्वदर्शनयोग्यत्वसंपत्त्यर्थं यावत्कालो61ऽपेक्ष्यते, स कालः प्रतिपच्छब्दाभिधेयः। एवं द्वितीयादिपौर्णमासीपर्यन्तास्तिथयो बोध्याः। अत एवोक्तं सिद्धान्तशिरोमणौ—
तन्यन्ते कलया यस्मात्तस्मात्तास्तिथयः स्मृताः। इति।
तथा च सूर्येण सहातिसंनिकृष्टस्य चन्द्रस्य यावता कालेन सूर्याद्द्वादशभिरंशैर्विप्रकर्षो भवति तावान्कालः कृष्णपक्षे प्रतिपच्छब्दवाच्यः। एवं द्वितीयादिपूर्णिमान्ताः। एवमादित्यादतिविप्रकृष्टस्य चन्द्रस्य यावता कालेन द्वादशभिरंशैःसंन्निकर्षोभवति तावान्कालः कृष्णपक्षे प्रतिपत्तिथिः। एवं क्रमेणामावास्यान्ताः। पौर्णमास्यां विप्रकर्षतारतम्यविश्रान्तिः। संन्निकर्षतारतम्यविश्रान्तिरमावास्यायाम्। तदुक्तं गोभिलेन — यः परमो विप्रकर्षःसूर्याचन्द्रमसोः सा पौर्णमासी, यः परः संनिकर्षः सामावास्येति। एतावता तिथिस्वरूपे निर्णीतेऽपि कर्माङ्गतथा निर्णयो वक्तव्यस्तत्र कर्माङ्गतामाह गार्ग्यः —
तिथिनक्षत्रवारादि साधनं पुण्यपापयोः।
प्रधानगुणभावेन स्वातन्त्र्येण न ते क्षमाः॥ इति।
कालादर्शे व्यासः —
यत्तिथो यच्च नक्षत्रे वारे वाऽपि च यद्यथा।
विहितं वा निषिद्धं वा पालयंस्त्रिदिवं व्रजेत्॥
अपालयन्पुनर्मोहादपवित्रं पदं व्रजेत्। इति।
एवं च न कालो गुणो निमित्तं ह्येतदिति मीमांसाभाष्यमुपादेयो गुणो न भवतीत्यभिप्रायकमन्यथा गार्ग्यवचनविरोधादसंगतं स्यादिति बोध्यम्। सा तिथिः संपूर्णा खण्डा चेति द्विप्रकारा। तत्राऽऽद्या
आदित्योदयवेलाया आरभ्य षष्टिनाडिका।
तिथिस्तु या सा शुद्धा स्यात्सर्वतिथिष्वयं विधिः॥
सर्वा ह्येताश्च तिथय उदयादोदयं स्थिताः।
शुद्धा इति विनिश्चेयाः षष्टिनाड्यो हि वै तिथिः॥
इति माधवीये नारदीयपुराणे सूर्यसिद्धान्तवाक्याभ्यां दर्शिता। सा च यदा सूर्योदयमारभ्य प्रवृत्ता तदोपवासेऽयाचित एकभक्ते नक्ते दाने व्रते च षड्विधे दैवकर्मणि, एकोद्दिष्टे पार्वणे द्विविधे पित्र्ये, अभ्यङ्गादिनिषेधे च संदेहाभावान्न निर्णयापेक्षा।
खर्वो दर्पस्तथा हिंसा त्रिविधं तिथिलक्षणम्।
धर्माधर्मवशादेव तिथिस्त्रेधा प्रवर्तते॥
इति गर्गेण तिथेर्वृद्धिक्षयावुक्तौ तद्वशादेका तिथिर्दिनद्वयसंबन्धा भवति। दिवसस्वरूपमुक्तं विष्णुधर्मोत्तरे —
लघ्वक्षरसमा मात्रा निमेषः परिकीर्तितः।
द्वौ निमेषौ त्रुटिर्ज्ञेयाप्राणो दशत्रुटिः स्मृतः॥
विनाडिका तु षट् प्राणास्तत्षष्टिर्नाडिका स्मृता।
अहोरात्रस्तु तत्षष्ट्यानित्यमेतत्प्रकीर्तितम्॥
त्रिंशन्मुहूर्ताश्च तथा अहोरात्रेण कीर्तिताः।
तत्र पञ्चदश प्रोक्ता राम रात्रिस्तथा दिवा।
उत्तरां तु यदा काष्ठां क्रमादाक्रमते रविः।
तदा तदा भवेद्वृद्धिर्दिवसस्य महीभुज॥
दिवसश्च यदा राम वृद्धिं समधिगच्छति।
तदाश्रितमुहूर्तानां वृद्धिर्ज्ञेया तथा तथा॥
रात्रिश्च क्षीयते तत्र दिनं यावत्प्रवर्धते।
रात्र्याश्रितमुहूर्तानां हानिर्ज्ञेया तथा तथा॥
दक्षिणां च यदा काष्ठां क्रमादाक्रमते रविः।
दिवसस्य तदा हानिर्ज्ञातव्या तावदेव तु॥
क्षीयन्ते तस्य हानौ तु तन्मुहूर्तास्तथैव च इति।
मुहूर्तनामानि तु — रौद्रश्चेत्रश्च मैत्रश्च तथा सारभटः स्मृतः।
सावित्रश्च जयन्तश्च गान्धर्वः कुतुपः स्मृतः॥
रौहिणश्च विरिञ्चश्च62 विजयो नैर्ऋतस्तपाः।
माहेन्द्रो वारुणश्चैव भेदाः पञ्च63दश स्मृताः॥
इति शङ्खेन पञ्चदशमुहूर्तात्मकदिवसस्य पञ्चंदश विभागा उक्ताः।
मुहूर्तत्रितयं प्रातस्तावानेव तु संगवः।
मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तः स्यादपराह्नश्च तादृशः॥
सायाह्नस्त्रिमुहूर्तः स्यात्सर्वकर्मसु गर्हितः॥
इति। व्यासेन,
रेखाप्रभृत्यथाऽऽदित्या64 मुहूर्तास्त्रय एव तु।
प्रातस्तु स स्मृतः कालो भागश्चाह्नः स पञ्चमः॥
संगवस्त्रमुहूर्तोऽथ मध्याह्नस्तत्समः स्मृतः।
ततस्त्रयो मुहूर्ताश्च अपराह्णोऽभिधीयते॥
पञ्चमोऽथ दिनांशो यः स सायह्न इति स्मृतः॥
पद्यदेतेषु विहितं तत्तत्कुर्याद्विचक्षणः॥
इति वृद्धपराशरेण च पञ्चविधभागा उक्ताः।
पूर्वाह्नः प्रहरं सार्धं मध्याह्नः प्रहरं तथा॥
आतृतीयादपराह्नः सायाह्नश्च ततः परः॥
इतिगोभिलेन चत्वारो भागा उक्ताः। “ऋग्भिः पूर्वाह्ने दिवि देव ईयते यजुर्वेदे तिष्ठति मध्ये अह्नः। सामवेदेनास्तमये महीयते वैदैरशून्यस्त्रिभिरेति सूर्यः” इति सहस्रसंवत्सरब्राह्मणेन" पूर्वाह्नो वै देवानां मध्यंदिनो मनुष्याणामपराह्णःपितॄणाम्" इतिश्रुत्यन्तरेण चत्रयो विभागा उक्ताः।
आवर्तनात्तु पूर्वाह्णॊह्यपराह्णस्ततः परः।
इतिस्कान्देन विभागद्वयमुक्तम्। एवं च पञ्चदशधा पञ्चधा चतुर्धा त्रिधा द्विधा चेति पञ्चप्रकारा अह्नो विभागा उक्ताः। तथा
शंकरश्चाजपादश्च तथाऽहिर्बुध्न्यमैत्रकौ।
आश्विनो याम्यवाह्नेयौ वैधात्रं65श्चन्द्र एव च॥
आदितेयोऽथ जैवश्व वैष्णवः सौर एव च।
ब्राह्मो नाभस्वतश्चैव मुहूर्ताः क्रमशो निशि॥
इत्येतन्नामकपञ्चदशमुहूर्तात्मकरात्रेः प्रदोषादयो विभागा उक्ताः। तत्र प्रातरादिदिनादिविभागविशेषावच्छिन्नायां तिथौ यत्कर्म विहितं दिनद्वये तत्काले तत्तिथिसत्त्वेऽपि तिथिरूपाङ्गानुरोधेन प्रधानावृत्तेरन्याप्यत्वेन कर्मणः सकृत्कर्तव्यत्वेनाव्यवस्थया66 प्राप्तौ व्यवस्थामाह गार्ग्यः-
निमित्तं कालमादाय वृत्तिर्विधिनिषेधयोः।
विधिः पूज्यतिथौ तत्र निषेधः कालमात्रके॥
तिथीनां पूज्यता नाम कर्मानुष्ठानयोग्यता।
निषेधस्तु निवृत्त्यात्मा कालमात्रमपेक्षते॥ इति।
अथमर्थः — निषेधवाक्येन कालविशेषे कर्मविशेषस्यानुष्ठानस्यानर्थहेतुत्वबोधनाद्यदा कदाऽपि तत्काले तत्कर्मानुष्ठानेऽनर्थप्रसङ्गात्सर्वदैव तत्काले तद्वर्जनीयमिति न तत्र निर्णयापेक्षा। विधिवाक्येन तु विधेयानुष्ठानस्याभ्युदयहेतुत्वबोधनात्सकृदनुष्ठानादेवाभ्युदयोत्पत्तिः। सा च पूज्यतिथावनुष्ठान एव भवति नापूज्यतिथाविति। ततश्च कर्मायोग्यतिथौ कृतेऽपि कर्मणि —
अकाले यत्कृतं कर्म विधिशौचविवर्जितम्।
अकृतं तद्विजानीयात्पुनरिज्याश्रुतेर्बलात्॥
इति वचनेन तस्य वैयर्थ्यबोधनात्तिथिद्वैधे कस्मिन्कर्मणि का तिथिर्योग्येति निर्णयः कर्तव्य एव। ननु कालादर्शादिग्रन्थेषु निर्णयः कृत एवेति किमिदानीं तद्यत्नेनेति चेत्। कानिचिदेव वचनान्युपन्यस्य केषुचिदेव कर्मसु कृतव्यवस्थाया वचनान्तरविरोधेऽपि निर्णयत्वस्वीकारे
सर्वैकवाक्यता यत्र तत्र तत्त्वविनिर्णयः।
नान्यथा हि क्वचिद्ब्रह्मन्नूनं तत्त्वविनिश्चयः॥
तत्त्वे विप्रतिपन्नानां वाक्यानामितरेतरम्।
विरोधपरिहारस्तु निर्णयस्तत्त्वदर्शनम्॥
इत्यादिशिवरहस्यादिवचनविरोधापत्तेस्तत्कृतव्यवस्थाया हेमाद्रिणा तत्र तत्र दूषितत्वाच्च न तैनिर्वाहः। नन्वेवं तर्हिहेमाद्रिकृतनिर्णयेनैव निर्वाहे67 कृतमिदानीं निर्णयेनेति चेत्। अनेककृतानेकव्यवस्थासंवलितहेमाद्रिग्रन्थसिद्धान्तज्ञानस्य प्रेक्षावतामपि सहसाऽसंभवात्। न च तथाऽपि यद्यपि कर्माङ्गतया हेमाद्रिप्रभृतिग्रन्थेषु कालो निर्णीतस्तथाऽप्यनेकत्र विप्रकीर्णस्यैकत्र संग्रहार्थोऽयं यत्न इति प्रतिज्ञाय कृतेन हेमाद्रिसिद्धान्तसंग्रहरूपमाधवग्रन्थेनैवान्यथा सिद्धिरिति शङ्क्यम्, हेमाद्रिसिद्धान्तविरुद्धार्थस्यापि तत्र तत्र वर्णितत्वात्। न च
स्मृतेर्वेदविराधे तु परित्यागो यथा भवेत्।
तथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेत्॥
इति वचनात्स्मृतिविरुद्धहेमाद्रिकृतनिर्णयत्यागेन तद्विरुद्धस्मृत्यनुरूपान्यथानिर्णयेऽपि तस्यैव युक्तत्वान्न दोष इति शङ्क्यम्, वचनविरुद्धहेमाद्रिग्रन्थस्य त्याज्यत्वेऽपि वचनानुगुणहेमाद्रिग्रन्थविरुद्धार्थस्य वर्णितत्वात्। अन्यथा तद्ग्रन्थार्थसंग्राहकस्थलान्तरस्थमाधवग्रन्थस्यापि त्याज्यत्वापत्तेः। न च माधवाचार्याणामपि बहुदर्शित्वाद्धेमाद्य्रुदाहृतवचनविरुद्धवचनान्तरानुरोधेन तद्विरुद्धार्थवर्णने तस्यापि ग्राह्यत्वान्न दोष इति वाच्यम्, वचनान्तरानुपन्यासात्। अप्रतिज्ञातेऽर्थे तात्पर्यंनास्तीति माधवाचार्यैरपि अन्यत्र सिद्धान्तितत्वात् अप्रतिज्ञातहेमाद्रिग्रन्थदूषण आचार्यतात्पर्यासंभवाञ्च। अत एव चिकीर्षितकालनिर्णयप्रतिज्ञावाक्य उपजीव्याकरतया हेमाद्रिग्रन्थोपादानं कृतम्। तस्येदमेव प्रयोजनम् वेदभाष्यादौ व्यासक्तान्तःकरणतया युक्तायुक्तदर्शनेऽवसराभावेन हेमाद्रिसिद्धान्तविरुद्धार्थस्यापि वर्णनं संभाव्येत,68 तथाऽपि प्रासङ्गिके तस्मिन्न तात्पर्यमपि तु वचनानुगुणहेमाद्रिनिर्णीतकालसंग्रह एवेति। रजोयुक्तभार्यायां श्राद्धतिथावेवश्राद्धं कार्यमिति कालादर्शमतम्। पञ्चमदिने कार्यमिति हेमाद्रिमतमुपन्यस्यात्र यद्युक्तं तद्ग्राह्यमिति पराशरमाधवग्रन्थेनायमर्थ उक्तप्राय एव। तस्मान्माधवग्रन्थेनापि नान्यथासिद्धिः। किंच हेमाद्रावपि प्रदोषनक्तवतनवरात्रदीपावलीहुताशन्याद्यनेकानुष्ठेयेषु विशिष्य69 निर्णयस्याकृतत्वाच्च, तेनापि नान्यथासिद्धिः। हेमाद्र्युक्तं तुच्छं, हेमाद्रिर्बभ्राम, इति केचन। हेमाद्र्यादयो माधवोक्तं तुच्छं, माधवो बभ्राम। अत्र हेमादिमतमेव सम्यङ्न माधवमतम्, अत्र माधवमतमेव सम्यङ्न हेमाद्रिमतम्। व्युत्पत्तिविरुद्धं वचनार्थं वर्णयद्भ्यो नमः प्राचीनेभ्यः।
यत्र माधवहेमाद्री युयुधाते महागजौ।
तत्र मां वारणं लोकस्तृतीयमभिधास्यति॥
इति वाक्यानां हेमाद्र्यर्थाज्ञानमाधवतात्पर्याज्ञानमूलकद्वेषनिबन्धनत्वाद्यथासंभवमेतद्वाक्ययुक्ता हेमाद्रिदूषणोत्प्रेक्षोपक्रमयुक्तकालतत्त्वविवेचनादि(दयः) सर्वे नवीनग्रन्था अपि हेमाद्र्यर्थाज्ञानादिमूलकाः परस्परं विरुद्धाश्चेति तैः कर्माङ्गतिथ्यादेर्निर्णयसंभावनाऽपि नास्तीति। उपवासाद्यङ्गतिथ्यादेः सम्यग्ज्ञानाभावे —
ज्ञात्वा तिथिं नरः सम्यक्संवत्सरमुदीरितम्।
स कुर्यादुपवासं तु अन्यथा नरकं व्रजेत्॥
इति नारदीयपुराणे दोषाभिधानात्कर्माङ्गतिथिज्ञानार्थं निर्णयः क्रियते। तत्रेतरेतरं विरुद्धवचनानि —
खर्वो दर्पस्तथा हिंसा त्रिविधं तिथिलक्षणम्।
खर्वदर्पौपरौ पूज्यौ हिंसा स्यात्पूर्वकालिकी॥
इति हेमाद्रौपितामहव्याघ्रौशनसः। खर्वः साम्यम्, अल्पक्षयोऽपि। दर्पोवृद्धि। हिंसा क्षय इति हेमाद्रिमाधवौ। खर्वः साम्यं तद्योगात्तिथिरपि खर्वः। दर्पो वृद्धिस्तद्योगात्तिथिरपि दर्पः। हिंसा क्षयः, तद्योगात्तिथिरपि हिंसेति कालादर्शः। अत्र खर्वादियुक्तोत्तरा कार्या हिंसायुक्तापूर्वा कार्येतिविधानात्साम्यवृद्धिक्षया70ग्राह्यतिथिगा एव। पूर्वतिथ्यपेक्षयेति वदतां हेमाद्रिमाधवमदनरत्नानामप्ययमेव सिद्धान्तः। कालादर्शस्वरसोऽप्यत्रैव। एवं च ग्राह्यतिथ्यपेक्षया तदुत्तरतिथेर्वेति कालतत्त्वविवेचनादयो नवीनग्रन्था उपेक्ष्याः। हेमाद्र्यादिविरोधादुत्तरतिथिगतसाम्यादीनां पूर्वतिथिव्यवस्थापकत्वस्यायुक्तत्वाच्च।
वर्धमानेन्दुपक्षस्य उदये पूज्यते तिथिः।
यदा चन्द्रः क्षयं याति तदा स्यादापराह्णिकी॥
क्षये पूर्वा तु कर्तव्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा।
तिथेस्तस्यास्त्रिक्षणायाः क्षयवृद्धित्वकारणम्॥
त्रिक्षणायास्त्रिमुहूर्ताया इत्यर्थः। इति शिवरहस्यसौरपुराणयोस्त्रिमुहूर्तायाः क्षयवृद्ध्योरनिर्णायकत्वमुक्तम्। दक्षः —
त्रिमुहूर्ता न कर्तव्या या तिथिः क्षयगामिनी।
द्विमुहूर्ताऽपि कर्तव्या या तिथिर्वृद्धिगामिनी॥
मार्कण्डेयः —
शुक्लपक्षे तिथिर्ग्राह्या यस्यामभ्युदितो रविः।
कृष्णपक्षे तिथिर्ग्राह्या यस्यामस्तमितो रविः॥
इति। निगमः —
युग्माग्नियुगभूतानां षण्मुन्योर्वसुरन्धयोः।
रुद्रेणद्वादशी युक्ता चतुर्दश्या च पूर्णिमा॥
प्रतिपद्यव्यमावास्यातिथ्योर्युग्मं महाफलम्।
एतद्व्यस्तं महादोषं हन्ति पुण्यं पुरा कृतम्॥ इति।
युग्मं द्वितीया। अग्निस्तृतीया। युगं चतुर्थी। भूतं पञ्चमी। षट् षष्ठी। मुनिः सप्तमी। वसुरष्टमी। रन्ध्रंनवमी। रुद्र एकादशी। अत्र तिथ्योर्युग्ममित्यभिधानाद्वितीयादिप्रतिपदन्तासु क्रमेण द्वयोर्द्वयोस्तिथ्योः परस्परं युग्मं महाफलं तत्तत्तिथिनिमित्तकतत्तत्कर्मविधिबोधिततत्तत्फलदातृ71। अनया स्तुत्या युग्मगता पूर्वा तिथिरुत्तरविद्धा ग्राह्या, उत्तरा तिथिः पूर्वविद्धा ग्राह्येति विधिरुन्नेयः। व्यस्तं विपर्यस्तम्। पूर्वा तिथिस्तत्पूर्वतिथ्योत्तरा तदुत्तरतिथ्या युग्मीकृतेत्यर्थः। महादोषं कर्म वैगुण्यापादकमित्यर्थः। पुराकृतं पुण्यं हन्तीति निन्दा नहि निन्दान्यायेन पूर्वविधिस्तुत्यर्था। अस्य पूर्ववाक्यैः सह तत्र72 तत्र विरोधः। हेमाद्रौविष्णुधर्मोत्तरे —
एकादश्यष्टमी पष्ठी पौर्णमासी चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥
अन्याश्च तिथयः सर्वा उपोष्याः पूर्वसंयुताः॥ इति।
तृतीयापौर्णमास्यौ युग्मवाक्ये पूर्वे इत्युक्तम्। अत्र परे इति विरोधः। हेमाद्रौवृद्धवसिष्ठः —
द्वितीया पञ्चमी वेधाद्दशमी च त्रयोदशी।
चतुर्दशी चोपवासे हन्युः पूर्वापरे तिथी॥ इति।
अस्य युग्मादिभिर्विरोधः। वेधश्च पैठीनसिना दर्शित : —
पक्षद्वयेऽपि तिथयस्तिथिंपूर्वां तथोत्तराम्।
त्रिभिर्मुहूतैर्विध्यन्ति सामान्योऽयं विधिः स्मृतः॥ इति।
अयमर्थः — उदयोत्तरविद्यमानया त्रिमुहूर्ताव73रया पूर्वतिथ्योत्तरा तिथिर्विध्यते। अस्तात्पूर्वं विद्यमानया त्रिमुहूर्ता74वरयोत्तरतिथ्या पूर्वा तिथिर्विध्यत इति त्रिमुहूर्तैरित्युक्तेर्मुहूर्तत्रयान्न्यूनाया वेधकत्वं वा वेध्यत्वं नास्तीति तथा दिवैव वेध्यवेधकभावो न रात्रावपीति बोध्यम्। जन्माष्टमीशिवरात्र्योस्तु
अष्टमी शिवरात्रिश्च अर्धरात्रादधोयदि।
दृश्यते घटिकैका सा पूर्वविद्धा प्रकीर्तिता॥
इति माधवोदाहृतवचनाद्रात्रावपि। अत एवोदयास्तमययोरेव वेध इति द्वितीयाप्रकरणे माधवः, पूर्वपरवेधोऽपि उदयास्तमयकालीन एवेत्यवसीयत इत्युदाहरणप्रकरणे निर्णयामृतश्च संगच्छते। तस्मात्खर्वो दर्प इत्यादिवाक्यानां परस्परविरोधस्य दुष्परिहार्यत्वात्
तत्त्वे विप्रतिपन्नानां वाक्यानामितरेतरम्।
विरोधपरिहारस्तु निर्णयस्तत्त्वदर्शनम्॥
इत्यादिवाक्यलक्षितो निर्णयः कर्तुमशक्य एवेति प्राप्ते विधीयते —
यस्मिन्काले तु यत्कर्म तत्कालव्यापिनी तिथिः।
इति स्कान्दम्।
यो यस्य विहितः कालस्तत्कालव्यापिनी तिथिः॥
इति गार्ग्यः।
कर्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनी तिथिः।
इतिवृद्धयाज्ञवल्क्यः। एषामुत्तरार्धम् —
तथा कर्माणि कुर्वीत ह्रासवृद्धी न कारणम्॥
इतिकर्मकालव्याप्तिशास्त्रम्।
तिथिनक्षत्रवारादिसाधनं पुण्यपापयोः।
प्रधानगुणभावेन स्वातंत्र्येण न ते क्षमाः॥
इत्यनेन तिथेरङ्गत्वस्य कर्मणः शेषित्वस्य प्रतिपादनादङ्गरूपतिथिधर्मक्षयादिविषयखर्वादिवाक्येभ्यः प्रधानविध्याकाङ्क्षिततिथिविषयकर्मकालव्याप्तियाक्यस्य75 प्राबल्यादेतदनुरोधेनैव खर्वादिवाक्यानां तस्मिंस्तस्मिन्विषये यथासंभवं प्रवृत्तिरिति तत्र तत्र व्यक्ती भविष्यति। आपाततः प्रतीयमानः परस्परविरोधस्त्वकिंचित्करः। अत एव व्यासनिगमः —
द्वितीयादिकयुग्मानां पूज्यता नियमादिषु।
एकोद्दिष्टादिवृद्ध्यादौ ह्रासवृद्ध्यादिचोदना॥ इति।
नियमादिष्वित्यादिशब्देन पितृकर्मव्यतिरिक्तव्रतोपवासादिसकलकर्मणां ग्रहणम्। एकोद्दिष्टादीत्यादिशब्देन विवाहादिमङ्गलाङ्गभूतवृद्धिश्राद्धव्यतिरिक्तपार्वण्श्राद्धादेः। वृद्ध्यादावित्यतद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिणा वृद्धिर्वृद्धिश्राद्धमादिः प्रकृतिर्यस्येत्यर्थात्
देवानुद्दिश्य क्रियते यत्तद्दैविकमुच्यते।
तन्नित्यश्राद्धवत्कुर्याद्द्वादश्यादिषु यत्नतः॥
इति विहितदैविकश्राद्धं ग्राह्यम्। मुख्यवृद्धिश्राद्धस्य तिथिनिमितत्वाभावेन तत्रोपयोगाभावादिति। यत्तु तिथित्व एकोद्दिष्टादिनिमित्तभूततिथेर्वृद्धिक्षयसाम्येषु तत्प्रयुक्ते संशय आपराह्णिकेतरपितृकृत्ये चन्द्रवृद्धिह्रासोपलक्षितशुक्लकृष्णपक्षचोदना नियामिका। आपराह्णिके तु तत्र ययाऽस्तमिति चोदनेति खर्वदर्पवाक्यमाचार्यचूडामणिना दर्शश्राद्धविषयं व्याख्यातमित्याद्युक्तं तदेकोद्दिष्टादीत्यस्य कुसृष्ट्या व्याख्यानस्य खर्वादिवाक्यस्य दर्शमात्रविषयतयाऽतिसंकोचेन व्याख्यानस्यायुक्तत्वादुपेक्ष्यम्। शुक्लपक्षे तिथिरिति मार्कण्डेयवचनं तु एकैव तिथिरेकेन वचनेन पूर्वा ग्राह्येत्युच्यते द्वितीयवचनेन परयुता ग्राह्येतिविरोधे व्यवस्थापकम्।
वर्धमानेन्दुपक्षस्य उदये पूज्यते तिथिः।
यदा चन्द्रः क्षयं याति यदा स्यादापराह्णिकी॥
इति विष्णुधर्मोत्तरादिवचनानि मार्कण्डेय समानार्थानीति।
सा तिथिस्तच्चनक्षत्रं यस्यामभ्युदितो रविः।
वर्धमानस्य पक्षस्य हानौ त्वस्तमयं प्रति।
वर्धमानस्य पक्षस्य उदये पूज्यते तिथिः॥
यदा पक्षः क्षयं याति तदा स्यादापराह्णिकी॥
इति बौधायनवृद्धवसिष्ठवचने अपि पक्षनिर्वाहकश्चन्द्रः क्षयं यातीत्यर्थान्मार्कण्डेयसमानार्थे। यत्तु यदा पक्षो वर्धते षोडशदिनात्मको भवति क्षयं याति चतुर्दशदिनात्मको भवति तदा तु पूर्वेति कालादर्शकृतं व्याख्यानं तदुभयथा वाक्यस्योपपत्तौ वचनान्तरसंवादिन्यर्थे तात्पर्यकल्पनाया युक्तत्वादन्यथा मूलश्रुत्यन्तरकल्पनापत्तेरयुक्तमिति हेमाद्रिणा दूषितम्।
त्रिमुहूर्ता न कर्तव्या या तिथिः क्षयगामिनी।
द्विमुहूर्ताऽपि कर्तव्या या तिथिर्वृद्धिगामिनी॥
इति दक्षवचने पुर्वार्धेऽप्यपिशब्दान्वयान्न तस्य प्रतिषेधे तात्पर्यम्, किंतूत्तरार्धगतानुकल्पविधावेव।
क्षये पूर्वा तु कर्तव्या वृद्धी कार्या तथोत्तरा।
तिथेस्तस्यास्त्रिक्षणायाः क्षयवृद्धी त्वकारणम्76॥
इति शिवरहस्यसौपुराणयोः। स्कान्दे तूत्तरार्धमेवं पठ्यते —
तस्यास्तु त्रिमुहूर्ताया ह्रासवृद्धी त्वकारणम्॥
इत्येतदेकवाक्यत्वादनयैव दिशाऽन्येषामप्येवंजातीयकवचनानां विरोधः परिहर्तव्यः। ननु तिथिविशेषविषयकयुग्मादिवाक्येभ्यस्तिथिसामान्यविषयकः।
यस्मिन्काले तु यत्कर्म तत्कालव्यापिनी तिथिः।
इत्यस्य प्राबल्यसिद्धावेवेयं व्यवस्था युज्यते तत्रैव मानं न पश्यामः, न च प्रातिस्विकप्रतिपदाद्यवस्थितपूर्णादिकालस्य कर्मणामावश्यकत्वाद्युग्मानादरेण कर्मकालव्यापिनी तिथिर्ग्राह्येति हेमाद्रिसिद्धान्तः, कर्मकालव्याप्तौ सर्वस्मृतीनामत्यन्तनिर्बन्धदर्शनात्कर्मकालव्याप्तिशास्त्रमितरेभ्यः प्रबलमिति निश्चीयते, तदनुसारेण द्वितीयाद्यास्तिथय उपवासादौ दैव एकोद्दिष्टादौ पित्र्ये च कर्मकालव्याप्तियुक्ताः स्वीकर्तव्या इति माधवसिद्धान्तश्च मानमिति युक्तम्। बाधे दृढेऽन्यदपि बाध्यतामिति न्यायेन तत्रापि पर्यनुयोगस्य दुर्वारत्वात्, अत एव कालतत्त्वविवेचनादिनवीनग्रन्थेषु गौरीतृतीयादौ कर्मकालव्याप्तिशास्त्रस्यापि बलवता वचनेनापवादो वक्ष्यत इति प्रतिज्ञायाग्रे तत्र तत्र कर्मकालव्याप्तिशास्त्रस्य बाध इत्युद्धोषः संगच्छत इति चेन्न। यत्तच्छब्दयोर्विशेष77रूपेणैवोपस्थापकत्वमिति सिद्धान्तात्, यस्मिन्काले, अत्र यच्छब्देन दिनार्धानन्तरकालप्रदोषादिकालानां यत्कर्म, अत्रत्ययच्छब्देनैकभक्तनक्तादिकर्मणां तयाकर्माणि, अत्र तच्छब्देन प्रतिपदादितिथीनां च विशेषरूपेणैवोपस्थापनात्। तिथ्यपेक्षया कर्मणः प्राधान्यात्तिथिविशेषविषययुग्मादिशास्त्रात्कर्मविशेषविषयकयस्मिन्काले तु यत्कर्मेतिवाक्यप्राबल्यस्य युक्ततरत्वादेतभिप्रायकहेमाद्रिमाधवग्रन्थयोर्युक्तत्वात्, नवीनग्रन्थास्तु हेमाद्रिमाधवसिद्धान्ताज्ञाननिबन्धना इति बोध्यम्। न च
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा।
सर्वैरेवोत्तरा कार्या परतो द्वादशी यदि॥
उदयस्था सदा पूज्या हरिनक्तव्रते तिथिः।
इत्यादीनां यस्मिन्काले तु यत्कर्मेत्येतद्बाधकत्वमावश्यकमिति शङ्क्यम्। विधिः पूज्यतिथौ तत्रेत्येतदेकवाक्यतया वचनान्तरप्रतिपादितपूज्यत्ववत्या78 एवतिथेः साकल्यवचनापादितमपि सत्त्वमादाय प्रवृ-
त्तिसंभवे तत्संकोचे प्रमाणाभावात्संपूर्णैकादशीत्यादीनां तिथिपूज्यत्वबोधकत्वेनोपपत्तौवचनबाधकत्वकल्पनस्यात्यन्तायुक्तत्वात्। अत एव
पित्र्येऽस्तमयवेलायां स्पृष्टा पूर्णा निगद्यते।
इति वचने यदि सा तिथिर्दिनान्तेऽस्ति तदा सा कुतुपापरह्णयोरस्तीति79 मत्वा तदुपलक्षित एव दिवसे कुतुपकालिकं श्राद्धं कर्तव्यमिति हेमाद्रिः, यदाऽपराह्णमारभ्य प्रवृत्ता संगवान्ता प्रतिपद्भवति, तदा पूर्वेद्युर्गौणकाले सत्त्वमादायैकभक्तेऽनुष्ठेये तस्य मध्याह्नेऽवश्यानुष्ठेयत्वात्तत्र स्वाभाविकप्रतिपदसत्त्वेऽपि साकल्यवचनापादितप्रतिपद्व्याप्तिः स्वीकृता भवतीति माधवश्चसंगच्छते। अत एव साकल्यप्रतिपादकवचनानि सार्थकानि। तथा च हेमाद्रौ स्कान्दे —
यां तिथिं समनुप्राप्य यात्यस्तं पद्मिनीपतिः।
सा तिथिस्तद्दिने प्रोक्ता त्रिमुहूर्ता च या भवेत्॥
शिवरहस्यसौरपुराणयोः —
यां प्राप्यास्तमुपैत्यर्कः सा चेत्स्यात्रिमुहूर्तिका।
धर्मकृत्येषु सर्वेषु संपूर्णांतां विदुर्बुधाः॥
वृद्धवसिष्ठः —
यस्यां तिथावस्तमियात्सूर्यस्तु त्रिमुहूर्तके।
यागदानजपादि80भ्यस्तामेवोपक्रमेत्तिथिम्॥
विष्णुधर्मोत्तरसौरपुराणयोः —
उदिते दैवतं भानौ पित्र्यं चास्तमिते रवौ।
द्विमुहूर्तं त्रिरह्नश्च सा तिथिर्हव्यकव्ययोः॥
मानावुदिते सत्युपरितनं मुहूर्तद्वयं दैवं देवदेवताकम्, अस्तमित इत्यत्र वर्तमाने क्तः, अह्न इत्युपादानात्। तथा चास्तं गच्छति सति अस्तात्प्राचीनं मुहूर्तत्रयं पितृदेवताकमतस्तावत्कालव्यापिनी या तिथिर्भवति सा क्रमाद्धव्यकव्ययोर्ग्राह्येत्यर्थः। एतैर्वचनैः सायंतन्यास्तिथेरस्ताप्राक्त्रिमुहूर्तसत्त्वमेव साकल्यप्रयोजकं, न तु तन्न्यूनसत्त्वमिति प्रतिपाद्यते। तथौदयिकतिथेः साकल्ये मुहूर्तत्रयमपेक्षितमिति वचनान्तरं नास्ति अनेन तु मुहूर्तद्वयसत्त्वमेव साकल्यप्रयोजकमुच्यते। तथाऽपि
द्विमुहूर्ताऽपि कर्तव्या या तिथिर्वृद्धिगामिनी।
इत्यत्रापिशब्देन द्विमुहूर्तसत्त्वस्यानुकूलत्वं सूच्यते। अत्र सायंतनतिथेः संपूर्णत्वाभिधानं पूर्वविद्धोपादेयविषयम्। औदयिक्याः संपूर्णत्वाभिधानं च परविद्धोपादेयतिथिविषयं ज्ञेयमिति हेमाद्रिः। यानि तु हेमाद्रौ देवलः—
यां तिथिं समनुप्राप्य उदयं याति भास्करः।
सा तिथिः सकला ज्ञेया स्नानदानजपादिषु॥
यां तिथिं समनुप्राप्य अस्तं याति दिवाकरः।
सा तिथिः सकला ज्ञेया दानाध्ययनकर्मसु॥
व्यासः —
उदयन्नेव सविता यां तिथिं प्रतिपद्यते।
सा तिथिः सकला ज्ञेया दानाध्ययनकर्मसु॥
पाद्मे —
व्रतोपवासनियमे घटिकैका यदा भवेत्
उदये सा तिथिस्तत्र विपरीता तु पैतृके॥
विष्णुधर्मोत्तरे—
व्रतोपवासस्नानादौ घटिकैका यदा भवेत्।
उदये सा तिथिर्गाह्या श्राद्धादावस्तगामिनी॥
इत्यादीनि घटिकामात्राया अपि तिथेः साकल्यप्रतिपादकानि तानि वैश्वानराधिकरणन्यायेनावयुत्या81नुवादरूपतया द्विमुहूर्तत्रिमुहूर्तव्याप्तिप्रशंसापराणि। अन्यथोदाहृतस्कान्दादिविरोधापत्तेः।
आदित्योदयवेलयां या स्तोकाऽपि तिथिर्भवेत्।
पूर्णा सा त्ववगन्तव्या प्रभूता नोदयं विना॥
इत्यादिवचना82न्येकादशीविषयाणि। साकल्यापवादो हेमाद्रौ स्कान्दे —
अभ्यङ्गे चोदधिस्नाने दन्तधावनमैथुने।
जाते च निधने चैव तत्कालव्यापिनी तिथिः॥
नारदीये वसिष्ठः —
पारणे मरणे नृणां तिथिस्तात्कालिकी स्मृता।
पित्र्येऽस्तमयवेलायां स्पृष्टा83 पूर्णा निगद्यते॥
अत्र तात्कालिक्येव तिथिर्न साकल्यवचनापादितेत्यर्थः।
मन्वादौ च युगादौ च ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः॥
व्यतीपाते च वैधृत्यां तत्कालव्यापिनी क्रिया।
मन्वादौ या स्नानदानश्राद्धादिका क्रिया सा मन्वादिकालव्यापिनी कार्या न कालान्तर इत्यर्थः। हेमाद्रौ स्कान्दे —
नक्तव्रते च संप्राप्ते तत्कालव्यापिनी तिथिः॥ इति।
तस्य नक्तव्रतस्य यः कालः प्रदोषाख्यस्तद्व्यापिनी तिथिर्ग्राह्येत्यर्थः। यदा पूर्वदिने कर्मसमाप्तिकालसंबन्धिनी द्वितीयदिने कर्मोपक्रमकालसंबन्धिनी तदोत्तरा ग्राह्या। तदाह हेमाद्रौ बौधायनः —
यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे।
विद्यमानो भवेदङ्गं नोज्झितोपक्रमेण तु॥ इति।
यदाऽपि स्वपूर्वतिथ्या युग्मीभूताऽपि पूर्वविद्धा तिथिर्द्वितीयास्तमयसंबन्धिनी भवति तदोत्तरैव।
त्रिसंध्याव्यापिनी यत्र सैव पूज्या सदा तिथिः।
इतिवचनात्। या तु पूर्वास्तात्प्राङ्मुहूर्तत्रयान्न्यूना द्वितीयास्तात्पूर्वमेव समाप्ता साऽप्युत्तरेव।
अहःसु तिथयः पुण्याः कर्मानुष्ठानतो दिवा।
नक्तादिव्रतयोगेषु रात्रियोगो विशिष्यते॥
इति जाबालिवृद्धगौतमवचनात्। दिवारात्रिसाध्यं व्रतमुभययोगिन्यामेव कार्यम्। तदुक्तं वृद्धयाज्ञवल्क्यप्रोक्तपद्मपुराणयोः —
दिवा रात्रौव्रतं यच्च एकमेकतिथौ गतम्।
तस्यामुभययोगिन्यामाचरेत्तद्व्रतं व्रती॥ इति।
यासां तिथीनां वारनक्षत्रयोगेण पुण्यत्वं तत्र युग्मादरो नास्ति। तदाह गोभिलः —
या तिथिर्ऋक्षसंयुक्ता या च योगेन नारद।
मुहूर्तद्वयमात्राऽपि साऽपि सर्वा प्रशस्यते॥
सर्वाऽपि दुष्टयुग्मस्थाऽपीत्यर्थः।
इति श्रीआठवले इत्युपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे तिथिसामान्यनिर्णयः।
अथैकभक्ते तिथिर्निर्णीयते। तत्रैकभक्तस्वरूपं तत्कालश्चोक्तो हेमाद्रौ स्कान्दे —
दिनार्धसमयेऽतीते भुज्यते नियमेन यत्।
एकभक्तमिति प्रोक्तमतस्तत्स्याद्दिवैव हि॥
देवलः —
दिनार्धसमयेऽतीते भुज्यते नियमेन यत्।
एकभक्तमिति प्रोक्तं न्यूनं ग्रासत्रयेण तु॥ इति।
अत्र दिनार्धस्योपरिसार्धमुहूर्तपरिमितः कालः पञ्चधा विभागे मध्याह्नस्यापरभाग एकभक्तस्य मुख्यः कालो दिनार्धेऽतीते समनन्तरमावित्वात्। ततोऽस्तमयावधिको गौणो दिवैव हीत्यभ्यनुज्ञानात्।
उदये तूपवासस्य नक्तस्यास्तमये तिथिः।
मध्याह्नव्यापिनी ग्राह्या एकभक्ते सदा तिथिः॥
इति बौधायनपद्मपुराणयोर्मध्याह्नशब्दो मध्याह्नोत्तरार्धपरः। अत्र निर्णेतव्या तिथिः षोढा भिद्यते — पूर्वदिन एव मध्याह्नोत्तरार्धव्यापिनी, द्वितीयदिन एव तद्व्यापिनी, उभयत्र तद्व्यापिनी, उभयत्रापि तदस्पर्शिनी, उभयत्र साम्येनैकदेशव्यापिनी, वैषम्येणैकदेशव्यापिनी चेति। तत्र प्रथमद्वितीययोर्यैव मध्याह्नव्यापिनी सैव ग्राह्या। तृतीये पूर्वैव गौणकालव्याप्तेराधिक्यात्। चतुर्थेऽपि पूर्वैव गौणकाले सत्त्वात्। अत एव पञ्चमेऽपि पूर्वैव षष्ठे यदा पूर्वाधिकं कर्मकालैकदेशं व्याप्नोति तदाऽऽधिक्याद्गौणकाले सत्त्वाच्चपूर्वैव। यदा तूत्तराधिकं कर्मकालैकदेशं व्याप्नोति तदा पूर्वत्र गौणकाले सत्त्वेऽपि उत्तरत्रैवाधिककालव्याप्तेः,
यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे।
विद्यमानो भवेदङ्गं नोज्झितोपक्रमेण तु॥
इति वचनाच्च। तदहोरात्रावयवाधिकरणभोजनाभावे सति अष्टमु84हूर्तोत्तरार्धादिसार्धमुहूर्तात्मकावयवाधिकरणं भोजनमेकभक्तम्। तत्र ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्ध्या ग्राह्यतिथ्यसत्त्वेऽपि।
तिथ्यादिषु भवेद्यावान्ह्रासो वृद्धिः परेऽहनि।
तावान्ग्राह्यस्तु पूर्वेद्युरदृष्टोऽपि स्वकर्मणि॥
इतिवचनेन पूर्वतिथेरपि तावद्ध्रासकल्पनेन साकल्यबोधकस्कान्दादिवचनैश्च मुख्यकालेऽपि ग्राह्यतिथिसत्त्वप्रतिपादनात्तत्रैवैकिभक्तं कार्यम्। ग्राह्यतिथिप्राप्तावेव गौणकाले कार्यमिति मतं दूषयित्वा हेमाद्रिणा
माधवेन च तिथ्यभावेऽपि मुख्यकाल एव कार्यमिति सिद्धान्तितत्वाच्च। अयं कालः
प्रतिपद्येकभक्ताशी समाप्ते कपिलाप्रदः।
इत्यादिब्रह्मपुराणादिभिर्विहितस्वतन्त्रैकभक्तस्य। यत्तु मध्याह्नेपूजयेन्नृपेत्यादिभिः सिद्धिविनायकपूजाद्युत्तरं विहितं तदन्याङ्गं, तत्र प्रधानेन पूजादिना मुख्यकालावरोधेऽङ्गगुणविरोधे च तादर्थ्यादितिन्यायेन गौणकालेऽपि कर्तव्यम्। यत्तु—
एकभक्तेन नक्तेन बालवृद्धातुरः क्षिपेत् ॥
इत्युपवासप्रतिनिधिरूपमेकभक्तं तदुपवासदिने मध्याह्ने तत्तिथिसत्वेऽपि तत्रैव कार्यम्।
तिथौ यत्रोपवासः स्यादेकभक्तेऽपि सा तथा ॥
इति माधवे सुमन्तुवचनात्।
नागो द्वादशनाडीभिर्दिक्पञ्चदशभिस्तथा।
भूतोऽष्टादशनाडीभिर्दूषयत्युत्तरां तिथिम् ॥
इतीदमपि वचनमुत्तरदिने मुख्यकाले ग्राह्यतिथिसत्त्व एव प्रवर्तते नान्यथा यस्मिन्काले तु यत्कर्मेति विरोधादिति हेमाद्रिः। यद्यपि पूर्वाह्णे देवा अशनमभिहरन्ति मध्यंदिने मनुष्या अपराह्णे पितर इति श्रुतिस्त्रिधा विभक्तस्य द्वितीयभागे मध्याह्नशब्दो वर्तते, तथाऽपि85 दिनार्धादुपरितनो मध्याह्नोमुख्यः कालस्तदूर्ध्वमस्तमानावधिर्गौणो दिनार्धसमयेऽतीत इतिवचनाद्दिवैवेत्यभिधानाच्च। मध्याह्नव्यापित्वं च कर्मणो यस्य यः काल इत्यादिपर्यालोचनयैकदेशलक्षणया दिनार्धादुपरितनमध्याह्नव्यापित्वं विवक्षितमिति हेमाद्रिग्रन्थात्सार्धमुहूर्तद्वयपरिमितोऽपि मुख्यः काल इति प्रतीयते, तथाऽप्ययं दिनार्धसमयेऽतीत इतिवचनविषये भोजन एव मध्याह्नव्यापिनी तिथिरिति निर्णयवाक्येऽपि तत्स्वीकारे यदाऽष्टादशघटिकानन्तरं प्रवृत्तातिथिर्द्वितीयदिने षोडशघटिका तदाऽधिककर्मकालव्याप्त्या पूर्वस्याग्रहणे मुहूर्तत्रयात्मको मध्याह्नइति व्यासपराशरवाक्ययोर्बाधापत्तेः। नचेष्टापत्तिरुभयथा वाक्यस्योपपत्तौ वचनान्तरसंवादिन्यर्थ एव तात्पर्यकल्पनाया युक्तत्वादिति वचनविरोधपरिहारप्रकरणगतहेमाद्रिग्रन्थोऽसंगतः स्यात्। एवमेकोद्दिष्टं तु मध्याह्न
इति वाक्येऽपि पञ्चमुहूर्तात्मकस्य ग्रहणे तावत्परिमित86वृद्ध्याद्यसंभवेनैकोद्दिष्टादिकर्मकालव्यापिन्यास्तिथेर्दिनद्वये संभवेऽसंभवे वा ह्रासवृद्ध्यादिवाक्यं नियामकमिति वाक्यग्रन्थोऽप्यसंगतः स्यात्। मध्याह्नव्यापिनीतिवाक्ये त्रिमुहूर्तात्मकमध्याह्नग्रहणेनोत्तरतिथिग्रहणे तु सर्ववाक्याणां संवाद एव भवति। तस्माद्ग्रन्थद्वयप्रामाण्यसंरक्षणानुरोधात्रत्यग्रन्थे मध्याह्नव्यापित्वं चेत्यत्र मध्याह्नो मुहूर्तत्रयात्मक एवाभिप्रेतो हेमाद्रेः। तस्मात्कर्मणो यस्य यः काल इत्यादितिथिनिर्णायकवाक्ये दिनार्धादुपरितनसार्धमुहूर्तात्मकमध्याह्न एव हेमाद्रेस्तात्पर्यमिति पूर्वोक्तैकभक्ततिथिनिर्णयो हेमाद्रेरपि संमत एवेति सिद्धम्। अत एव मध्याह्नान्त्यदले त्रिभागदिवसे स्यादेकभक्तमिति दीपिका चिन्त्या। हेमाद्रितात्पर्यार्थाज्ञाननिबन्धनत्वात्। एतेन पञ्चमुहूर्तात्मक एवमध्याह्नो ग्राह्य इति हेमाद्रिस्तदयुक्तम्। सर्वेष्वेव मध्याह्नसंशब्दनेष्वनेन न्यायेन त्रेधा विभक्तस्यैव ग्रहणप्रसङ्गे विधान्तरदिनभागतत्संज्ञाकरणस्याऽऽनर्थक्यप्रसङ्गादिति कालतत्वविवेचनं वचनविरोधपरिहारप्रकरणगतहेमाद्रिग्रन्थार्थाज्ञाननिबन्धम्। यदपि दिनद्वये मुख्यकालव्याप्तौ युग्मवाक्यान्निर्णयाभिधानं हेमाद्रेरयुक्तमित्युक्तं तदेवायुक्तम्, युग्मादिवाक्यबोधितपूज्यत्वं तिथिमादायैव विधिः पूज्यतिथौ तत्रेत्येकवाक्यतयैव कर्मणो यस्येत्यस्य प्रवृत्तेर्युक्ततरत्वात्। यदपि केन विशेषेणात्रैव युग्मवाक्यान्निर्णयकरणमस्पर्शैकदेशसमव्याप्त्योस्तु गौणकालव्याप्त्या तदिति न जानीम इतीदमज्ञानं त्वेकदेशव्यातौ युग्मवाक्यमेव प्रवर्तते न खर्ववाक्यमिति हेमाद्रिग्रन्थस्य मुख्यासंभवे गौणस्य ग्रहणमिति सिद्धान्तस्य चाज्ञाननिबन्धनमिति बोध्यम्। मध्याह्नश्चात्र त्रेधा पञ्चधा वा विभक्तस्याह्नो मध्यमभाग इति मदनरत्नेऽप्याद्यः पक्षस्तथैव। अत एव पञ्चधा विभागे मध्याह्नस्यापरभागः सार्धमुहूर्तपरिमित एकभक्तस्य मुख्यः काल इति माधवो निर्णयामृतश्च संगच्छते। इति एकभक्ततिथिनिर्णयः।
अथ नक्तव्रते तिथिर्निर्णीयते। नक्तस्वरूपं तु प्रदोषात्प्राक्तद्दिनाधिकरणकभोजनाभावे सति तदहोरात्रावयवप्रदोषाधिकरणकं भोजनम्। तत्र प्रदोषव्यापिनी तिथिर्ग्राह्या। तदाह वत्सः —
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या तिथिर्नक्तव्रते सदा।
एकादशीं विना सर्वाः शुक्ले कृष्णे समाः स्मृताः॥ इति।
एकादशी तु नक्ते न प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या किं तूपवासयोग्यैवेत्यर्थः। तत्रोपवासासामर्थ्येन नक्तविधानादुपवासदिन एव तत्कार्यमित्यर्थ इति हेमाद्रिः। एकादश्यां तु यन्नक्तं तत्रोदयव्यापिनी ग्राह्या। तदुक्तं स्कान्दे —
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या सदा नक्तव्रते तिथिः।
उदयस्था सदा पूज्या हरिनक्तव्रते तिथिः॥
इति। माधवश्च87प्रदोषपरिमाणमुक्तं व्यासेन —
त्रिमुहूर्तं प्रदोषः स्याद्भानावस्तं गते सति।
नक्तं तु तत्र कुर्वीत इति शास्त्रस्य निश्चयः॥ इति।
प्रदोषोऽस्तमर्यादूर्ध्वं घटिकात्रयमिष्यते।
इति हेमाद्रिमाधवयोर्वचनान्तरं तत्प्राशस्त्यपरम्। अत्र —
उदयात्प्राक्तनी संध्या घटिकात्रयमुच्यते।
सायंसंध्या त्रिघटिका अस्तादुपरि भास्वतः॥
इति घटिकात्रयस्य संध्याकालत्वात्। तत्र —
चत्वारीमानि कर्माणि संध्यायां परिवर्जयेत्।
आहारं मैथुनं निद्रां स्वाध्यायं च चतुर्थकम्॥
इति भोजननिषेधात्तदुत्तरं भोजनं कार्यमिति कैश्चिदुक्तं तत्
नक्षत्रदर्शनात्संध्या सायं तत्परतः स्थितम्।
तत्परा रजनी ज्ञेया तत्र धर्मान्विवर्जयेत्॥
इतिवचनान्नक्षत्रदर्शनात्प्राचीनस्यैव मुख्यसंध्याकालत्वेन तत्रैव भोजननिषेधादयुक्तम्। अस्तु वा घटिकात्रयं संध्याशब्दार्थस्तथाऽपि न तत्र निषेधस्त88द्रागप्राप्तभोजनविषयत्वादिति हेमाद्रिः। युक्ततरं चैतत्, अन्यथाऽऽद्यघटिकात्रयप्राशस्त्यबोधकवचनवैय्यर्थ्यापत्तेः। घटिकात्रयसंभध्याकालस्तु संध्यागर्जितनिमित्तकानध्याये द्रष्टव्यः। अत एव रात्रिभोजनेऽपि घटिकात्रयमुत्तमः कालो घटिकाषङ्कं मध्यम इति माधवः संगच्छते। अतस्त्रिदण्डोत्तरं कार्यमिति निर्णयसिन्ध्वादय उपेक्ष्याः। तस्मादुस्ता89नन्तरमुहूर्तत्रयपर्यन्तो नक्तस्य मुख्यः कालोऽतस्तद्यापिनी तिथिर्ग्राह्या। तत्र या पूर्वदिन एवपरदिन एववा तद्व्यापिनी सैव ग्राह्या प्रदोषव्यापिनीतिवचनात्। उभयत्र तद्व्याप्तावुत्तरैव।
यदैव तिथ्योरुभयोः प्रदोषव्यापिनी तिथिः।
तत्रोत्तरत्र नक्तं स्यादुभयत्रापि सा यतः॥
इति जाबालिवचनात्। उभयत्र दिवरात्रावित्यर्थः। अत एव पूर्वप्रदोषेऽधिकव्याप्तावुत्तरप्रदोषन्यूनव्याप्तावुत्तरैव दिवा रात्रौ व्रतं यच्चेतिवचनादुभयत्र प्रदोषास्पर्शिन्यप्युत्तरैव।
अतथात्वे परत्र स्यादस्तादुर्वाग्यतो हि सा।
इति जाबालिवचनादुभयप्रदोषाव्याप्तावपि90 यतोऽस्तात्पूर्वं विद्यमानत्वात्तस्यापि गौणकालात्वादत एव कौर्मे—
प्रदोषव्यापिनी यत्र त्रिमुहूर्ता यदा दिवा।
तदा नक्तव्रतं कुर्यात्स्वाध्यायस्य निषेधवत्॥
इति। यद्यप्यत्र सायंकालव्याप्तिः प्रयोजिकेति प्रतीयते, तथाऽप्यनुकल्पः सेति अतथात्व इति जाबालिवचनाद्गम्यते। तत्र प्रदोषव्याप्त्यभाव एव सायंकालव्याप्तेर्हेतुत्वेनोपन्यासात्।
मुहूर्तोनं दिनं नक्तं प्रवदन्ति मनीषिणः।
नक्षत्रदर्शनान्नक्तमहं मन्ये गणाधिप॥
इति भविष्यत्पुराणात्तस्य गौणत्वनिश्चयात्। तत्रापि साकल्यवचनापादिततिथेर्मुख्यप्रदोषेऽपि सत्त्वादेकभक्तवत्तत्रैव नक्तं कार्यमिति प्रसक्तौ —
प्रदोषव्यापिनी न स्याद्दिवा नक्तं विधीयते।
आत्मनो द्विगुणच्छायामतिक्रामति भास्करे॥
तन्नक्तं नक्तमित्याहुर्न नक्तं निशि भोजनम्।
एवं ज्ञात्वा ततो विद्वान्सायाह्ने तु भुजिक्रियाम्॥
कुर्यान्नक्तवती नक्तं फलं भवति निश्चितम्।
इति स्कान्देन तिथिमध्य एवं नक्तविधानात्। अभ्यङ्गे चोदधिस्रान इति प्रकरणे नक्तव्रते च संप्राप्ते तत्कालव्यापिनी तिथिरिति हेमाद्र्युदाहृतस्कान्देन ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथेरेव पूज्यत्वाभिधानात्कर्मकालव्याप्तिशास्त्रस्य तत्रैव प्रवृत्तेः। यत्यादिभिस्तु मुख्यप्रदोषे तिथिसत्त्वेऽपि गौणप्रदोष एव कार्यम्। तदाह माधवे देवलः —
नक्षत्रदर्शनान्नक्तं गृहस्थस्य बुधैः स्मृतम्।
यतेर्दिनाष्टमे भागे तस्य रात्रौ निषिध्यते॥ इति।
नक्तं निशायां कुर्वीत गृहस्थो विधिसंयुतः।
यतिश्चविधवा चैव कुर्यात्तत्सदिवाकरम्॥
सदिवाकरं तु तत्प्रोक्तमन्तिमे घटिकाद्वये।
निशानक्तं तु विज्ञेयं यामार्धे प्रथमे सदा॥इति।
यदपि सप्तमीरविवारादिनिमित्तिकं तदपि दिने सायंकाल एवकार्यम्। तदाह माधवेसुमन्तुः —
त्रिमुहूर्तस्पृगेवाह्नि निशि चैतावती तिथिः।
तस्यां नक्तं भवेत्सौरमहन्येव तु भोजने॥इति।
भविष्यत्पुराणे —
ये त्वादित्यदिने ब्रह्मन्नक्तं कुर्वन्ति मानवाः।
दिनान्ते तेऽपि भुञ्जीरन्निषेधाद्रात्रिभोजने॥इति।
मदनरत्ने कालादर्श च कौर्मम् —
नरस्य द्विगुणां छायामतिक्रामेद्यदा रविः।
तदा91 सौरं चरेन्नक्तं न नक्तं निशि भोजनम्॥इति।
सूर्यप्रीत्युद्देशेन क्रियमाणरविवारादिनिमित्तकनक्तस्यैव रात्रौ निषेधः, न त्वन्यतिथ्यादिनिमित्तकस्य रविवारादौ प्राप्तस्यैकादश्युपवासस्यैव वैधत्वेन निषेधासंभवात्। अत एव प्रदोषव्याप्त्यभाव इव रविवारादावपि रात्रिभोजननिषेधात्तत्रापि दिवैव कार्यमिति केषांचिदुक्तिर्निषेधस्य रागप्राप्तभोजनविषयत्वाद्विधिप्राप्ते निषेधासंभवादिति हेमाद्रिणा दूषिता। कालादर्शनिर्णयामृतमदनरत्नेष्वप्येवमेव। नन्वेवमपि भानुवारसंक्रान्त्यादिना गृहस्थस्यापि यदा रात्रिभोजननिषेधस्तदाऽपि दिवैव कुर्यादिति माधवविरोध इति चेत्, हेमाद्रिनिर्णीतकालसंग्रहस्यैव प्रतिज्ञातत्वेना92प्रतिज्ञाते वैधभोजनविषयकोऽपि रविवारादौ रात्रिभोजननिषेध इत्यभ्युपेत्य वादप्रवृत्तग्रन्थप्रतिपाद्यरात्रिनक्तनिषेधे माधवतात्पर्याभावेन तद्विरोधस्यादोषत्वात्। यत्तु अयं च नक्तव्रतनिर्णयो न्यायाविशेषात्रयोदशीप्रदोषव्रतेऽपि योजयितव्य इति कालतत्त्व विवेचनं तदत्यन्तायुक्तमिति प्रदोषव्रतनिर्णये व्यक्ती भविष्यति। यदा तु पूर्वतिथिप्रयुक्तमेकभक्तमुत्तरतिथिप्रयुक्तं नक्तं चैकस्मिन्दिने प्राप्नुतस्तदा पूर्वप्राप्तैकभक्तस्यानुपसंजातविरोधित्वान्मुख्यकल्पेनानुष्ठानं नक्तस्य त्वनुकल्पेन तत्रोत्तरतिथेः परदिने सायाह्नकाले सत्त्वे गौणकालसत्त्वात्स्वयमेवोत्तरदिने तत्प्रयुक्तं नक्तं कर्तव्यं कालस्यात्यन्तबाधाभावे कर्त्रनुरोधस्यापि न्याय्यत्वात्। उत्तरदिने गौणकालेऽप्यसत्त्वे तस्मिन्नेव दिने
भार्यादिकर्त्रन्तरेण करणीयम्। अनुपादेयकालानुरोधेनोपादेयकर्तृप्रतिनिध्युपादानस्योचितत्वादिति। नक्तमोजननियमानाह व्यासः —
हविष्यभोजनं स्रानं सत्यमाहारलाघवम्।
अग्निकार्यमधःशय्यां नक्तभोजी षडाचरेत्॥ इति।
स्नानं कर्माङ्गम्।
मार्गशीर्षे सिते पक्षे प्रतिपद्या तिथिर्भवेत्।
तस्यां नक्तं प्रकुर्वीत रात्रौ विष्णुं च पूजयेत्॥
होमं च तत्र कुर्वीतेतिवाराहे विहितनक्ताङ्गपूजाहोमौ पूर्वकाले कार्यौ। आहारलाघवमेकभक्ते दृष्टत्वाद्ग्रासत्रयन्यूनता, अग्निकार्यं होमः स च लौकिकाग्नावाज्येन व्याहृतिभिः सकृत्। इति नक्ते तिथिनिर्णयः।
अथायाचिते तिथिर्निर्णीयते। तत्स्वरूपं तु —
‘अयाचिताशी मितभुक्परां सिद्धिमवाप्नुयात्’ इत्यत्रोपपदसमासरूपायाचिताशीशब्देन नञ्समासे विशेषविधिनिषेधौ93 विशेषणमुपसंक्रामतः सति विशेष्ये बाध इति नियमाद्याचिताशननिषेधप्रतीतेः। न याचितमयाचितमिति नञ्समासं कृत्वोपपदसमासेऽपि सन्त्येकपदान्यप्यवधारणानि यथाऽब्भक्षो वायुभक्ष इति महाभाष्यकारोक्तेः। तत्रार्थापत्तिप्रमितभोजन उदकाद्यतिरिक्तसाधकत्वाभावे तात्पर्यवत्प्राङ्मुखोऽन्नं भुञ्जीतेत्यस्य दिगन्तराभिमुखत्वव्यावृत्ताविव च प्रकृते स्वयत्नसाध्यान्नाशनस्य च याञ्चांविनाऽन्यदत्ताशनस्य रागतःप्राप्तावयाचितमेवाश्नातीत्यनेन स्वयत्नसाध्यान्नाशनरूपविशिष्टाभावबोधनात्तस्य च याञ्चां विना लब्धस्याशनेऽनशनेऽपि सत्त्वात्। तथा च संकल्पोत्तरं याञ्चां विना लब्धस्य दिने रात्रौ वा भोजनयोग्यकाले सकृद्भोजनम्। अयाचितालाभ उपवास एतदन्यतरदयाचितस्वरूपम्। तच्च अथापरं त्र्यहं कंच न याचेतेति प्राजापत्यकृच्छ्रप्रकरणे गौतमोक्तप्रतिषेधपक्षे —
त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम्।
त्र्यहं परं तु नाश्नीयात्प्राजापत्यं चरन्द्विजः॥
इति बृहस्पत्युक्तपर्युदासपक्षेऽपि समानमेवेति पर्युदासोऽपि संगत एव। अत एव संकल्पोऽप्यस्मिन्नहोरात्रेऽयाचितमन्नं न भोक्ष्य इत्येवं कर्तव्यः। अथवा याचितादन्यदयाचितमित्यप्रयत्नलभ्यस्य परदत्तस्य भोजनं विवक्ष्यत इति माधवोऽपि संगच्छते। एतेन केचित्तु त्र्यहमद्यादयाचि-
तमिति दृष्ट्वा याचनं विनाऽन्येन दत्तस्य भोजनमयाचितमित्याहुः। अत्र कदाचिदयाचितान्नालाभेनोपवासे व्रतभङ्गापत्तिरिति मदनरत्नोद्भावितं माधवदुषणं निरस्तम्। माधवतात्पर्यार्थाज्ञाननिबन्धनत्वात्। अयाचिते ग्राससंख्या तु
प्रातस्तु द्वादश ग्रासा नक्तं पञ्चदशैव तु।
अयाचिते तु द्वौ चाष्टौ प्राजापत्यो विधिः स्मृतः॥
इति चतुर्विंशतिमते दश ग्रासा उक्ताः।
सायं तु द्वादश ग्रासाः प्रातः पञ्चदश स्मृताः॥
चतुर्विंशतिरायाच्याः परे निरशनास्त्रयः।
इति पराशरेण,
सायं द्वाविंशतिर्ग्रासाःप्रातः षड्विंशतिः स्मृताः।
चतुर्विंशतिरायाच्याः परे निरशनास्त्रयः॥
इत्यापस्तम्बेन चतुर्विंशतिग्रासा उक्ताः शक्ताशक्ताधिकारिभेदेन बोध्याः। अस्यायाचितस्याहोरात्रसाध्यत्वाद्दिवा रात्रौ व्रतं यच्चेतिवचनादहोरात्रव्यापिनी तिथिर्मुख्या। यदा पूर्वदिने रात्रिमात्रव्यापिनी, उत्तरदिने दिनमात्रव्यापिनी तदा
अहःसु तिथयः पुण्याः कर्मानुष्ठानतो दिवा।
नक्तादिव्रतयोगे तु रात्रियोगो विशिष्यते॥
इति जाबालिवचनादुत्तरा। यदा तु पूर्वमध्याह्नादौप्रवृत्ता द्वितीयमध्याह्नादौ समाप्ता प्रतिपदादिस्तदाऽयाचितस्य नियमरूपत्वाद्वितीयादिकयुग्मानां पूज्यता नियमादिष्वितिवचनाद्युग्मादिवाक्यबोधितैव तिथिः पूज्या पूज्यतिथावेव कर्मणो यस्य यः काल इत्यस्य प्रवृत्तेर्युग्मदिनगतैव ग्राह्या। अत एव प्रतिपदयाचिते पूर्वविद्धा ग्राह्या। अयाचितस्य नियमरूपत्वाद्वितीयादिकयुग्मानामिति वचनादिति माधवः। इत्ययाचिततिथिनिर्णयः।
अथोपवासे तिथिर्निर्णीयते। उपवासश्च सर्वतिथिषूक्तो माधवे नारदीये —
शुक्लान्वा यदि वा कृष्णान्प्रतिपत्प्रभृतींस्तिथीन्।
उपोष्यैव बलिं दत्त्वा विधिना त्वपरेऽहनि॥
ब्राह्मणान्भोजयित्वा तु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ इति।
उपवासस्याहोरात्रसाध्यत्वात्खण्डा तिथिः का, कीदृशी ग्राह्येत्याकाङ्क्षायां निर्णय उक्तो हेमाद्रौविष्णुधर्मोत्तरे —
एकादश्यष्टमी षष्ठी पौर्णमासी चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥
अन्याश्च तिथयः सर्वा उपोष्याः पूर्वसंयुताः॥इति।
विशेषस्तु तत्तत्तिथिनिर्णये वक्ष्यते। योदयगा तिथिर्मध्याह्नंन व्याप्नोति सा खण्डा तस्यां व्रतारम्भसमापनं न कुर्यात्तदाह निर्णयामृते सत्यव्रतः —
उदयस्था तिथिर्या हि न भवेद्दिनमध्यगा।
सा खण्डा न व्रतानां स्यात्तत्रारम्भसमापनम्॥इति।
दिनार्धानन्तरं समाप्तायामारम्भसमाप्ती कार्ये। तदाह वृद्धवसिष्ठः —
अखण्डवर्तिमार्तण्डे यद्यखण्डा भवेत्तिथिः।
तत्र प्रारम्भणं तस्या न नष्टगुरुशुक्रयुक्॥इति।
यद्यनष्टगुरुशुक्रयुक्स्यात्तर्हि तस्यामारम्भं समाप्तिं च कुर्यादित्यर्थः। इत्युपवासतिथिनिर्णयः। अथात्रैव नक्षत्रं निर्णीयते। तन्निर्णय उक्तो विष्णु धर्मोत्तरे —
उपोषितव्यं नक्षत्रं यस्मिन्नस्तमियाद्रविः।
युज्यते यत्र वा राम निशीथ94:** शशिना सह॥इति।**
येन वा युज्यते रामेति हेमाद्रौ पाठान्तरम्। यत्र वाऽहोरात्रो ‘नक्षत्रेण शशिना च संयुज्यते तन्नक्षत्रमुपोषितव्यम्। अत्रार्धरात्रशब्देन तत्पूर्वकालो ग्राह्यः। तथाच सुमन्तुः —
यत्रार्धरात्रादर्वाक्तु नक्षत्रं प्राप्यते तिथौ।
तन्नक्षत्रे व्रतं कुर्यादतीते पारणं भवेत्॥इति।
प्राप्यते प्रारभ्य इत्यर्थः। अत्रास्तकालयोगो मुख्योऽर्धरात्रपूर्वकालयोगोऽनुकल्पस्तेन पूर्वप्रदोषानन्तरं प्रवृत्तं द्वितीयदिनेऽस्तानन्तरं समाप्तमुत्तरमेव दिनद्वयेऽस्तमयव्याप्तावप्युत्तरमेवोदयास्तमययोगित्वात्संकल्पकालसत्त्वादतीते पारणं भवेदित्यस्याऽऽनुगुण्याच्च। यदा दिनद्वयेऽप्यस्तमययोगाभावस्तदा निशीथपूर्वकालयोगसत्त्वात्सुमन्तुवचनात्पूर्वमेव। एकभक्तनक्ते अपि उपवासयोग्यनक्षत्र एव कार्ये। तदुक्तं माधवादौ स्कान्दे —
तत्र चोपवसेदृक्षे यन्निशीथादधो भवेत्।
उपवासे यदृक्षं स्यात्तद्धि नक्तैकभक्तयोः॥इति।
माधवे मार्कण्डेयः —
तन्नाक्षत्रमहोरात्रं यस्मिन्नस्तमियाद्रविः।
यस्मिन्नुदेति सविता तन्नाक्षत्रं भवेद्दिनम्॥इति।
अयमर्थः — नक्षत्रनिमित्तकोपवासनक्तैकभक्तानामहोरात्रसाध्यत्वात्खण्डस्यापि नक्षत्रस्यास्तमययोगिनोऽहोरात्रसत्त्वमापद्यते। तेनास्तमयसंबन्धि नक्षत्रं तत्र ग्राह्यम्। तदसंभवे तु निशीथप्राक्कालसंबन्ध्यपि दानव्रतश्राद्धानां दिनमात्रसाध्यत्वादौदायिकस्य नक्षत्रस्य संपूर्णदिनसत्त्वमापद्यत इति कर्मकालव्यापिनक्षत्रलाभे तु तदेव ग्राह्यम्। तदाह माधवे स्मृतिः —
नक्षत्रे खण्डिते येन व्याप्तः कालस्तु कर्मणः॥
नक्षत्रकर्माण्यत्रैव तिथिकर्म तथैव तु॥इति।
तथा च कर्मकालव्यापिनक्षत्रालाभे दानव्रतयोरौदयिकं श्राद्धेऽस्तमयसंयोगि नक्षत्रं ग्राह्यमिति भावः। नन्वेवमेकभक्ते मध्याह्नव्यापि नक्षत्रस्य ग्रहणे —
उपवासे यदृक्षं स्यात्तद्धि नक्तैकभक्तयोः।
इति विरोध इतिचेन्न। तस्योपवासप्रतिनिधिनक्तादिविषयत्वमेवान्यथा नक्षत्रे खण्डित इत्यस्य विरोधापत्तेः। यत्तु विष्णुधर्मोत्तरं ( रे )
सा तिथिस्तच्चनक्षत्रं यस्यामभ्युदितो रविः।
तया कर्माणि कुर्वीत ह्रासवृद्धी न कारणम्॥
इति, तन्नक्षत्रांश उपवासाद्यतिरिक्तव्रतविषयम्। यच्च बौधायनं
सा तिथिस्तच्चनक्षत्रं यस्यामभ्युदितो रविः॥
वर्धमानस्य पक्षस्य हानौ त्वस्तमयं प्रति।
इति, तत्पितृकार्यविषयमिति हेमाद्रिमाधवौ। यदपि माधवे स्मृतिवचनं
तिथीनामन्तिमो भागस्तिथिकर्मसु पूजितः।
ऋक्षाणां पूर्वभागस्तु ऋक्षकर्मसु पूजितः॥
इति, तत्र तिथ्यन्तपूज्यत्वं दानव्रतादिविषयम्। नक्षत्रपूर्वभागपूज्यत्वमुपवासादिविषयमन्यथोदाहृतवचनान्तरविरोधापत्तेः। इति नक्षत्रनिर्णयः।
अथ योगनिर्णयः। योगनिर्णायकविशेषवचनाभावेऽपि
पारणं व्यतिपातान्ते कुर्यात्संप्राश्य गोमयम्।
अथैकस्मिन्नेव दिने व्यतीपातो भवेद्यदि॥
तत्रैवाह्नि तदा दत्त्वा उपवासं समाचरेत्॥
इति व्यतीपातव्रतप्रकरणे द्वितीयदिने व्यतीपातान्ते पारणाविधानेन व्यतीपातस्य पूर्वविद्धस्योपोष्यत्वनिश्चयाद्योगान्तरस्यापि पूर्वविद्धस्यैवोपोष्यत्वकल्पनादुपवासे योगः पूर्वविद्धो ग्राह्यः। एकभक्तनक्तायाचितव्रतदानेषु दिनद्वये कर्मकाले सत्त्वेऽसत्त्वे वा यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे। विद्यमानो भवेदङ्गमितिवचनादुत्तरमेव। श्राद्धे तु तिथिवन्निर्णयः। इति योगनिर्णयः।
उपवासे भद्राकरणनिर्णयो माधवे भविष्योत्तरे भद्राव्रते —
यस्मिन्दिने भवेद्भद्रा तस्मिन्नहनि भारत।
उपवासस्य नियमं कुर्यान्नारी नरोऽपि वा॥
यदि रात्री भवेद्विष्टिरेकभक्तं दिनद्वये।
कार्यं तेनोपवासः स्यादिति पौराणिको विधिः॥
प्रहरस्योपरि यदा स्याद्विष्टिः प्रहरत्रयम्।
उपवासस्तदा कार्य एकभक्तं ततोऽन्यथा॥ इति।
यदोदयमारभ्य विष्टिः प्रवर्तते तदोपवासे संदेहो नास्ति। यदा तु पूर्वाह्णएव भद्रासमाप्तिः, अपराह्णमारभ्य प्रवृत्तिः, उदयानन्तरं प्रवृत्ता, अस्तात्पूर्वमेव समाप्ता वा तदा यस्मिन्दिने भवेद्भद्रेत्यनेनोपवासो विधीयते। यदा त्वस्तानन्तरं प्रवृत्तोदयात्प्राग्रात्रावेव समाप्यतेतदा दिनद्वय एकभक्तं कार्यं तेनोपवाससिद्धिरित्यर्थः। अग्रिमवाक्ये प्रहरत्रयशब्द एकदेशोपलक्षकस्ततोऽन्यथेत्यत्रैकदेशव्याप्त्यभाव इत्यर्थात्स एवार्थो मतान्तरत्वेनोक्तोऽत एवैकदेशव्याप्तेःसद्भावादुपवासोऽनुष्ठेयस्ततोऽन्यथेत्यनेनैकदेशध्याप्त्यभावो विवक्षित इति माधवः संगच्छते। यस्तु भद्राव्रतंसंकल्प्याहोरात्रमुपोषितुं न शक्नोति स भद्रायुक्तकाले भोजनं त्यजेत्। तावताऽपि व्रतसिद्धिस्तदुक्तं माधवे भविष्योत्तरे —
स्नातः संपूज्य तामेव ब्राह्मणं च स्वशक्तितः।
ततो भुञ्जीत राजेन्द्र यावद्भद्रा न जायते॥
अथवाऽन्तेऽपि भद्रायाः कामतो वाग्यतः शुचिः।
न किंचिद्भक्षयेत्प्राज्ञो यावद्भद्राप्रवर्तते॥ इति।
यदा सायाह्ने भद्राप्रवृतिस्तवैकदेशे भद्रायोगिनो दिनस्य व्रतार्हत्वादशक्तस्य भोजनाभ्यनुज्ञाने पूजादेरभुक्तेनैवानुष्ठेयत्वाद्भद्रारहितेऽपि काले पूजा कार्या। यदा तु भद्रान्ते भुङ्क्तेतदा भद्रायुक्तकाल एवपूजा —
दिकं कार्यम्। पक्षद्वयेऽपि भद्रायुक्तकाले न किंचिद्भक्षयेत्तावताऽपि भद्रोपवासः पूर्यत इति भावः। एवं बवबालवादिकरणेष्वपि यत्र निर्णायकविशेषवचनाभावस्तत्रापि भद्रायां क्लृप्तस्य न्यायस्यातिक्रमे कारणाभावादयमेव निर्णयप्रकारः सर्वोऽपि द्रष्टव्यः। इति करणनिर्णयः। एकभक्तादीनां संकल्पस्तु
प्रातः संकल्पयेद्विद्वानुपवासव्रतादिकम्।
इति वचनात्प्रातःकालज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धग्राह्यतिथिसत्त्वाभावेऽपि यां तिथिंसमनुप्राप्येत्यादिसाकल्यप्रतिपादकवचनापादिततिथिसत्त्वमादाय प्रातःकाल एव कर्तव्यः। तथा ‘प्रातरारभ्य मतिमान्कुर्यान्नक्तव्रतादिकम्’ इतिवचनान्नक्तादिव्रतसंकल्पोऽपि प्रातःकाल एव कार्यः। तत्र यदाऽस्तोत्तरक्षणमारभ्य ग्राह्यतिथिप्रवृत्तिस्तदा प्रातःकाले साकल्यबोधकवचनापादिततिथिसत्त्वस्याप्यभावेऽप्यङ्गकालस्य प्रधानकालानुरोधित्वात्प्रातःकाल एव कार्यः। उपवासोत्तरदिने च भोजनरूपं पारणमवश्यं कर्तव्यं तदाह देवलः —
उपवासेषु सर्वेषु पूर्वाह्णे पारणं भवेत्।
अन्यथा तु फलस्यार्धं धर्ममेवोपसर्पति॥इति।
धर्मो यमः।
पारणान्तं व्रतं ज्ञेयं व्रतान्ते तद्धि भोजनम्।
असमाप्ते व्रते पूर्वे नैव कुर्याद्व्रतान्तरम्॥
इत्यादिभिस्तस्य व्रताङ्गत्वाभिधानात्। तच्चोपोष्यतिथ्याद्यन्ते कार्यम्। तदुक्तं माधवे निगमे —
पूर्वविद्धासु तिथिषु भेषु च श्रवणं विना।
उपोष्यविधिवत्कुर्यात्तत्तदन्ते च पारणम्॥इति।
अनेन तिथ्याद्यन्ते पारणावधानात्पूर्वाह्णेपारणवचनमुत्तरविद्धोपोष्यतिथिविषयमिति न तद्विरोधः। माधवे स्कान्दे —
तिथीनामेव सर्वासामुपवासव्रतादिषु।
तिथ्यन्ते पारणं कुर्याद्विना शिवचतुर्दशीम्॥इति।
आदिशब्देनैकभक्तनक्तायाचितानि गृह्यन्ते। यस्यां तिथौ पूर्वविद्धायामेतान्यनुष्ठितानि उत्तरदिने तां तिथिमतिक्रम्य पारणं कार्यमिति माधवः। न चैकभक्ताद्युत्तरदिने पारणमन्यत्र न हृष्टमिति शङ्क्यम्।
एकभक्तेन नक्तेन तथैवायाचितेन च।
उपवासेन दानेन न निर्द्वादशिको भवेत्॥
इत्यादौ प्रसिद्धत्वात्। यदा तु रात्रौ तिथ्यन्तो भवति तदा दिवसे तिथिमध्येऽपि कार्यम्।
सर्वेष्वेवोपवासेषु दिवा पारणमिष्यते।
अन्यथा पुण्यहानिः स्यादृते धारणपारणात्॥
इति ब्रह्मवैवर्तात्।
अन्यतिथ्यागमो रात्रौतामसस्तैजसो दिवा।
तामसे पारणं कुर्वंस्तामसीं गतिमश्नुते॥
इति गारुडाच्च। एवं च
तिथ्यन्ते चैव भान्ते च पारणं यत्र चोच्यते।
यामत्रयोर्ध्वगामिन्यां प्रातरेव हि पारणम्॥
इति माधवोदाहृतवचनमनुकल्प इति बोध्यम्।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे तिथिनक्षत्रयोगकरणसामान्यनिर्णयः।
अथ प्रतिपन्निर्णीयते। सा च शुक्लाऽमाविद्धाग्राह्या प्रतिपद्यप्यमावास्येति युग्मवाक्यात्।
पञ्चमी सप्तमी चैव दशमी च त्रयोदशी।
प्रतिपन्नवमी चैव कर्तव्या संमुखी तिथिः॥
इति पैठीनसिवचनाच्च।
संमुखी नाम सायाह्नव्यापिनी दृश्यते यदा।
प्रतिपत्संमुखी कार्या या भवेदापराह्णिकी॥
इतिस्कान्दस्यासंजातविरोधतृतीयपादेन पूर्वार्धोक्तलक्षणलक्षितसंमुखीशब्दवाच्या पूर्वविद्धा विधीयते। चतुर्थपादेन तु यदा संमुखी गृह्यते तदाऽऽपराह्णिकी ग्राह्येत्यत्र किं वक्तव्यमित्यापराह्णिकी स्तूयते। असंजातविरोधवाक्यं प्रबलमिति सिद्धान्तात्। एतदनादरेण सांमुख्यानुवादेनाऽऽपराह्निकत्वावधौ तात्पर्यकल्पने —
श्रावणी दुर्गनवमी तथा दूर्वाष्टमी च या।
पूर्वविद्धा तु कर्तव्या शिवरात्रिर्बलेर्दिनम्॥
इत्यत्राप्यस्तात्पूर्वं मुहूर्तषट्रकव्यापिन्या एव बलिप्रतिपदोऽपि ग्रहणापत्तौ
त्रियामगा दर्शतिथिर्मवेच्चेत्सार्धत्रियामा प्रतिपद्धिवृद्धौ।
दीपोत्सवे ते मुनिभिः प्रदिष्टे अतोऽन्यथा पूर्वयुते विधेये॥
वर्धमानतिथौ नन्दा यदा सार्धत्रियामिका।
द्वितीया वृद्धिगामित्वादुत्तरा तत्र चोच्यते॥
इत्यनयोर्वैयर्थ्यापत्तेः। यामत्रयानन्तरं प्रवृत्ताया मुहूर्तषट्कव्यापित्वाभावेन तत्प्रसक्तेरेवाभावात्। एवं पूर्वापराह्णमारभ्य प्रवृत्ताया द्वितीयदिने सार्धयामत्रयसत्त्वस्य बाधितत्वात्। एवं बृहत्तपानामकव्रते कार्तिकमासान्तदर्शे पायसभोजनादिनियमं विधाय भविष्योत्तरे पठ्यते —
ततो मासे मार्गशीर्षे प्रतिपद्यपरेऽहनि।
पृष्ट्वा गुरुं चोपवसेन्महादेवं स्मरन्मुहुः॥
इत्यत्राप्यापराह्णिकी ग्रहणापत्तौ —
रुद्रव्रतेषु सर्वेषु कर्तव्या संमुखी तिथिः।
इत्यस्य बाधापत्तेश्च। तस्य स्तावकत्वस्वीकार उदाहृतवाक्यानां सार्थक्याद्वचनांन्त95रविरोधाभावाच्च स्तावकत्वमेवोचितम्। उभयथावाक्यस्योपपत्तौ वचनान्तरसंवादिन्यर्थे तात्पर्यकल्पनाया एव युक्तत्वादिति वचनविरोधपरिहारप्रघट्टकगतहेमाद्रिग्रन्थस्याप्यत्रैव स्वारस्यात्। शुक्लप्रतिपत्पूर्वा ग्राह्या यद्यापराह्णिकीति हेमाविग्रन्थस्य पूर्वविद्धाव्यावृत्तौ तात्पर्य उदाहृततद्ग्रन्थविरोधापत्तेस्तस्यापि चतुर्थपादस्थस्य प्राशस्त्यपरत्वकल्पनाया एव युक्तत्वात्। एतेन शुक्लास्यात्प्रतिपत्तिथिः प्रथमतश्चेत्साऽपराह्णे भवेदिति दीपिकोपेक्ष्या, उदाहृतवचनविरोधाद्धेमाद्रितात्पर्यार्थाज्ञाननिबन्धनाच्चेति। अत एव यदा सायाह्नव्यापिन्यपि गृह्यते तदाऽपराह्णव्यापिन्या ग्रहणे किं वक्तव्यमिति नान्तरीयकसिद्धया सायाह्नव्याप्त्याऽपराह्णव्याप्तिः प्रशस्यत इति माधवः। यदा विनैवापराह्णव्याप्तिं सायाह्नमात्रं व्याप्यते तदाऽपि पूर्वविद्धायाः पूज्यत्वादिति। यदा शुक्लपक्षे सायाह्नमात्रं व्याप्नोति नत्वपराह्णंतदानीमुत्तरा प्रसज्येतेति चेन्मैवम्। संमुखी नाम सायाह्नव्यापिनीतिवचनेन तादृशे विषये पूर्वतिथेविधानादिति द्वितीयांपञ्चमीवेधादिति द्वितीयायुक्तोपवासनिषेधस्तु पूर्वेद्युः प्रतिपदस्त्रिमुहूर्तवेधे सति द्रष्टव्य इति च माधवः संगच्छते। तत्सिद्धं या भवेदापराह्णिकी96त्यस्य स्तावकत्वात्प्रतिपत्संमुखी कार्येत्या97दिभिर्विहितत्वाच्छुक्लाप्रतिपत्पूर्वविद्धा ग्राह्येति। एतेन पञ्चधा विभक्तस्या
ह्रश्चतुर्थभागव्यापिनी तदैव पूर्वविद्धा ग्राह्या या भवेदापराह्णिकीति स्कान्दादिति मदनरत्न उपेक्ष्यः। उदाहृतवचनविरोधाद्वचनविरोधपरिहारप्रकरणगतहेमाद्रिप्रतिपत्प्रकरणस्थमाधवकालादर्श-निर्णयामृतविरोधाच्च। अत एव यद्यपि सायाह्नमात्रव्याप्त्याऽपि पूर्वविद्धा भवति तथाऽपि तत्पूर्वत्रिमुहूर्तात्मकापराह्णेऽपि यदि वर्तते तदैव पूर्वा ग्राह्याऽन्यथोत्तरैवेति कालतत्त्वविवेचनमुपेक्ष्यम्। यदपि आपराह्णिकवचनस्य पित्र्यविषयत्वं गोडैरुक्तं तदयुक्तमिति सायाह्नमात्रव्यापिन्या ग्राह्यत्वं माधवोक्तमुपेक्षितमुत्तरार्ध आपराह्णिकत्वविधानेन पूर्वार्धोक्तसंमुखत्वस्य तिथ्यन्तरविषयत्वप्रतीतेरितीयं प्रतीतिरनुपसंजातविरोधिवाक्यं प्रबलमिति सिद्धान्ताप्रतिसंधानमूलकत्वादयुक्तैव। यद्यप्यविशेषेण पूर्वविद्धत्वमुक्तं तथाऽप्यपराह्णव्यापिन्येव ग्राह्येति स्मृतिकौस्तुभः। एवं निर्णयसिन्धुमयूखादयो नवीनग्रन्था अप्युपेक्ष्या एवेति दिक्। कृष्णा प्रतिपद्द्वितीयायुता ग्राह्या।
प्रतिपत्सद्वितीया स्याद्द्वितीया प्रतिपद्युता।
इत्यापस्तम्बवचनात्। उपवासे तु कृष्णाऽपि पूर्वविद्धैव।
प्रतिपत्पञ्चमीभूतं सावित्रीवटपूर्णिमा॥
नवमी दशमी चैव नोपोष्याः परसंयुताः।
इति ब्रह्मवैवर्तात्॥
‘प्रतिपत्पञ्चमी चैव उपोष्यापूर्वसंयुता’ इतिमदनरत्ने जाबालिवचनात्।
द्वितीया पञ्चमी वेधाद्दशमी च त्रयोदशी।
चतुर्दशी चोपवासे हन्युः पूर्वोत्तरे तिथी॥
इति वृद्धवसिष्ठेन प्रतिपन्मात्रस्य पूर्वविद्धस्योपोष्यत्वाभिधानादिति हेमाद्र्युक्तेश्च कृष्णप्रतिपत्परेद्युरुदयादूर्ध्वंत्रिमुहूर्ता ततोऽधिका वा स्यात्तदा सैवोपोष्येति माधवस्तु ‘प्रतिपत्पञ्चमी चैव उपोष्यापूर्वसंयुता इति98जाबालिवचनं यदि न स्यादितिकृत्वा चिन्ताभिप्रायेण प्रवृत्त इति न तद्विरोधो दोषवहः99। इति प्रतिपत्सामान्यनिर्णयः। चैत्रशुक्लप्रतिपदि चान्द्रवत्सराद्यारम्भः। तदुक्तं माधवे ब्राह्मे—
चैत्रे मासि जगद्ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि।
शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति॥
प्रवर्तयामास तदा कालस्य गणनामपि।
ग्रहान्नागानृतून्मासान्वत्सरान्वत्सराधिपान्॥ इति।
अत्र प्रतिपदौदयिकी ग्राह्या। दिमद्वय उदयकाले सत्त्वेऽसत्वे च पूर्वैव।
वत्सरादौ वसन्तादौ बलिराज्ये तथैव च।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या प्रतिपत्सर्वदा बुधैः॥
इति वृद्धवसिष्ठवचनात्। अस्यां वत्सराधिपपूजोक्ता ज्योतिर्निबन्धे —
यश्चैत्रशुक्लप्रतिपद्दिनवारो नृपो हि सः।
तस्य पूजा विधातव्या पताकातोरणादिभिः॥
प्रतिगृहं ध्वजाः कार्याः शक्त्या ब्राह्मणतर्पणम्।
निरीक्षणं च कर्तव्यं शकुनानां फलेप्सुभिः॥ इति।
तैलाभ्यङ्ग उक्तो वृद्धवसिष्ठेन —
वत्सरादौ वसन्तादौ बलिराज्ये तथैव च।
तैलाभ्यङ्गमकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते॥इति।
चैत्रमासि महाबाहो पुण्या या प्रतिपत्परा॥
अस्यां वै निम्बपत्राणि प्राश्य100वै शृणुयात्तिथिम्।
शकवत्सरभूपमन्त्रिणां रसधान्येश्वरमेघपतीनाम्॥
श्रवणात्पठनाच्च वै नृणां शुभतां यात्यशुभं सह श्रिया।
इति वचनाच्छकादिश्रवणं कार्यम्। ब्राह्मे —
तत्र कार्या महाशान्तिः सर्वकल्मषनाशिनी।
तस्यामादौ तु संपूज्यो ब्रह्मा कमलसंभवः॥
पाद्यार्घ्यधूपदीपैश्च वस्त्रालंकारभूषणैः।
होमैर्बल्युपहारैश्च तथा ब्राह्मणतर्पणैः॥
ततः क्रमेण देवेभ्यः पूजा कार्या पृथक्पृथक्।
ॐ नमो ब्रह्मणे तुभ्यं कामाय च महात्मने॥
नमस्तेऽस्तु निमेषाय त्रुटये च महात्मने।
नमस्ते बहुरूपाय विष्णवे परमात्मने।
अथ किं बहुनोक्तेन मन्त्रेणानेन पूजयेत्।
प्राङ्मुखोदङ्मुखान्विप्रान्देवानुद्दिश्य पूर्ववत्॥
अनेनैव तुमन्त्रेण स्वाहान्तेन पृथक्पृथक्।
पविष्ठायाग्नये होमः कर्तव्यः सर्वतृप्तये॥
शालाशोभाततः कार्या मङ्गलालम्मनं तथा।
भोजयित्वा द्विजान्सर्वान्सुहृत्संबन्धिबान्धवान्॥
विशेषेण च भोक्तव्यं कार्यश्चापि महोत्सवः।
एवं संवत्सरारम्भः सर्वसिद्धिप्रवर्तकः॥इति।
चैत्रस्य मलमासत्वेऽपि तदारभ्यैव संवत्सरप्रवृत्तेस्तद्दिनवारस्यैव संवत्सराधिपत्वात्तत्पूजादेर्वत्सरादिनिमित्तकस्याभ्यङ्गादेश्य नित्यनैमित्तिके कुर्यात्मयतः स न्मलिम्लुचे।
इति वचनात्तत्रैवानुष्ठानं युक्तम्॥ मयूखादौ तु —
षष्ट्या तु दिवसैर्मासः कथितो बादरायणैः।
पूर्वार्धं तु परित्यज्य कर्तव्या चोत्तरे क्रिया॥
इतिवचनादभ्यङ्गादिकमुत्तर एवेत्युक्तं तदुपेक्ष्यम्। यस्य कर्मणो मासद्वयेऽपि निमित्तलाभःसमानस्तद्विषयत्वाद्वचनस्याभ्यङ्गादिनिमित्तस्य वत्सरादेर्द्वितीयेऽसंभवेन तत्रानुष्ठाने प्रमाणाभावान्निमित्तकालेऽनुष्ठानाभावेन प्रत्यवायापत्तेश्च। अत्रैव प्रपादानमुक्तं भविष्ये —
अतीते फाल्गुने मासि प्राप्ते चैत्रमहोत्सवे।
पुण्येऽह्नि विप्रकथिते प्रपादानं समारभेत्॥इति।
तत्र मन्त्रः —
प्रपेयं सर्वसामान्यभूतेम्बः प्रतिपादिता।
अस्याः प्रदानात्पितरस्तृप्यन्तु हि पितामहाः॥इति।
अनिवार्य ततो देयं जलं मासचतुष्टयम्।इति।
प्रपां दातुमशक्तेन विशेषाद्धर्मलिप्सुना।
प्रत्यहं धर्मघटको वस्त्रेण101 वेष्टिताननः102॥
ब्राह्मणस्य गृहे देयः शीतामलजलः शुचिः॥
तत्र मन्त्रः —
एष धर्मघटो दत्तो ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः।
अस्य प्रदानात्सकला मम सन्तु मनोरथाः॥
अनेन विधिना यस्तु धर्मकुम्भं प्रयच्छति।
प्रपादानफलं सोऽपि प्राप्नोतीह न शंशयः॥ इति।
ज्येष्ठ्शुक्लप्रतिपत्प्रभृतिदशमीपर्यन्ततिथिषु दशाश्वमेधस्नानफलमुक्तंकाशीखण्डे —
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे प्राप्य प्रतिपदं तिथिम्।
दशाश्वमेधिके स्नात्वामुच्यते सर्वपातकैः॥
एवं सर्वासु तिथिषु क्रमस्रायी नरोत्तमः।
आशुक्लपक्षदशमींप्रतिजन्माद्यमुत्सृजेत्॥ इति।
अथाऽऽश्विनशुक्लप्रतिपदि शिष्टाचाराद्दौहित्रो मातामहश्राद्धं कुर्यात्।
जातमात्रोऽपि दौहित्रो जीवत्यपि हि मातुले।
कुर्यान्मातामहश्राद्धं प्रतिपद्याश्विने सिते॥ इति।
प्रतिपद्याश्विने शुक्ले दौहित्रस्त्वेकपार्वणम्।
श्राद्धं मातामहः कुर्यात्सपिता संगवे सति103॥
जातमात्रोऽपि दौहित्रो जीवत्यपि च मातुले।
प्रातःसंगवयोर्मध्ये याऽश्वयुक्प्रतिपद्भवेत्॥
इति शिष्टाचारानुगुणाभियुक्तवाक्येभ्यः। अत्र सपितेति विशेषणाज्जीवत्पितृक एवाधिकारी। अत एव पिण्डरहितं संगदेकुर्यादिदं पार्वणत्वात्। अपराह्णेसपिण्डकं कुर्यादिति केषांचिदुक्तिरुदाहृतवाक्यविरुद्धेति दिक्। अत्रैव नवरात्रप्रारम्भः। तदुक्तं व्रतखण्डे हेमाद्र्युदाहृतदेवीपुराणे —
आश्विने घातिते घोरे नवम्यां प्रतिवत्सरम्।
श्रोतुमिच्छाम्यहं तात उपवासव्रतादिकम्॥
घोरनामके दैत्ये मारिते सतीत्यर्थः। ब्रह्मोवाच —
शृणु शक्रप्रवक्ष्यामि यथा त्वं परिपृच्छसि।
महासिद्धिप्रदं धन्यं सर्वशत्रुनिबर्हणम्॥
सर्वलोकोपकारार्थं विशेषादसिवृत्तिषु।
ऋत्वर्थं ब्राह्मणाद्यैश्च क्षत्रियैर्भूमिपालने।
गोधनार्थं विशा104 वत्स शूद्रैः पुत्रसुखार्थिभिः।
सौभाग्यार्थं स्त्रिया कार्यमन्यैश्च धनकाङ्क्षिमिः॥
महाव्रतं महापुण्यं शंकराद्यैरनुष्ठितम्।
कर्तव्यं देवराजेन्द्र देवीभक्तिसमन्वितैः॥
कन्यासंस्थे रवौ शक्र शुक्लामारभ्य नन्दिकाम्।
नन्दिका प्रतिपदिति हेमाद्रिः।
अयाची अथ एकाशी नक्ताशी अथवाऽन्नदः105।
प्रातःस्नायी जितद्वंद्वस्त्रिकालं शिवपूजकः॥
शिवायाः पूजक इति विग्रहे छान्दसो ह्रस्वः।
जपहोमसमासक्तः कन्यका भोजयेत्सदा॥
मदनरत्ननिर्णयामृतयोस्त्वेवं पाठः —
भूमौ शयीत चाऽऽमन्त्र्य कुमारीर्भोजयेत्सदा106।
वस्त्रालंकारदोनैश्च107 संतोष्याः प्रतिवत्सरम्॥
बलिं च प्रत्यहं दद्यादोदनं मांसमापवत्।
त्रिकालं पूजयेद्देवीं जपस्तोत्रपरायणः॥ इति।
जपो देवीमन्त्रस्य। स्तोत्रं सप्तशतिकादि। हेमाद्रौ भविष्योत्तरे —
आश्वयुक्शुक्लपक्षस्य अष्टमी मूलसंयुता।
सा महानवमी नाम त्रैलोक्येऽपि सुदुर्लभा॥
कन्यागते सवितरि शुक्लपक्षेऽष्टमी तु या।
मूलनक्षत्रसंयुक्ता सा महानवमी स्मृता।
अष्टम्यां च नवम्यां च जगन्मोक्षप्रदाम्बिकाम्।
पूजयित्वाऽऽश्विने मासि विशोको जायते नरः॥
सा पुण्या सा पवित्रा च सुधर्मसुखदायिनी।
तस्यां सदा पूजनीया चामुण्डा मुण्डमालिनी॥
तस्यां ये ह्युपयुज्यन्ते प्राणिनो महिषादयः।
सर्वे ते स्वर्गतिं यान्ति घ्नतां पापं न विद्यते॥
उद्दिश्य दुर्गा हन्यन्ते विविधा यत्र जन्तवः।
ते यान्ति स्वर्गं कौन्तेय घातयन्तो यशस्विनः॥
एवं च विन्ध्यवासिन्यां नवरात्रोपवासतः।
एकभक्तेन नक्तेन स्वशक्त्याऽयाचितेन वा॥
पूजनीया जनैर्देवी स्थाने स्थाने पुरे पुरे।
गृहे गृहे भक्तिपरैर्ग्रामे ग्रामे वने वने॥
स्नातैः प्रमुदितैर्हृष्टर्ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्नृपैः।
वैश्यैः शूद्रैर्भक्तियुतैर्म्लेच्छेरन्यैश्च मानवैः॥
स्त्रीभिश्च कुरुशार्दुल तद्विधानमिदं शृणु।
इति प्रतिज्ञाय प्रसङ्गात्
जयाभिलाषी नृपतिः प्रतिपत्प्रभृति क्रमात्।
लोहाभिसारिकं कर्म कारयेद्यावदष्टमीम्॥
इत्यारभ्य—
लोहाभिसारकं कर्म कृत्यैवं मन्त्रपूर्वकम्।
फलनैवेद्यकुसुमैर्धूपदीपैर्विलेपनैः॥
इत्यन्तेन लोहाभिसारकमुक्त्वा प्रतिज्ञातविधानमुक्तम् —
अष्टभ्यां नियमं108 कृत्वा पूर्वाह्णे स्नानमाचरेत्।
दुर्गा काञ्चनमूर्तिस्थां रौप्यां वा मृन्मयीमपि109॥
शैलीं वाक्षीं तथा चैत्रीं110 ताम्रीं वा विभवात्कृताम्।
दारुणि चित्रतोरणे न्यस्तां सुशोभने स्थाने॥
पुरतो विन्यस्तमृगां विचित्रगृहमध्यगां देवीम्।
चन्दनकुङ्कुमचन्द्रैः समै रसभूमिकैः शिलापिष्टैः॥
चर्चितगात्रां देवीं कुसुमैरभ्यर्चयेद्बहुभिः।
कुमुदैः111 संपन्नगन्धैः सुधूपदीपैः सुनैवेद्यैः॥
मांसैर्बल्युपहारैर्मङ्गलशब्दैः समुच्छलितैः।
विजयच्छत्रैर्यानैः स्यन्दनसितशस्त्रधारिभिर्लोकैः॥
तुष्टैर्वरवस्त्रादि सुनिवेद्यते सर्वमेव भगवत्यै।
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी॥
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते।
इति पूजामन्त्रः।
अमृतोद्भवं श्रीवृक्षं महादेवप्रियं सदा।
बिल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्रं ते सुरेश्वरि॥
दुर्गा संपूजयेच्चैवं तद्दिने द्रोणपुष्पया।
सा चाभीष्टा सुरेशान्यास्तस्या रूढा यतोऽग्रतः॥
ततः खड्गं नमस्कृत्य शत्रूणां वधसिद्धये।
इच्छेत विजयं राज्यं सुभिक्षं चाऽऽत्मनो नृपः॥
पुनः पुनः प्रणम्याथ संस्मरेद्धृदये शिवाम्।
महिषघ्नीं कुमारीं तु भुजगीं सिंहवाहिनीम्॥
दानवांतर्जयन्तीं च खगोद्यतकरां शुभाम्।
घण्टाब्जस्रग्धरां दुर्गांरणारम्भे व्यवस्थिताम्॥
ततो जयजयालापैः स्तवं कुर्यादिमं मुदा।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते।
कुङ्कुमेन समालब्धे चन्दनेन विलेपने।
बिल्वपत्रमहामाले दुर्गेऽहं शरणं गतः॥
इत्यन्तेनाष्टमीं प्रकृत्यापि प्रतिपदादिसाधारणपूजाविधिमभिधाय
दत्त्वैवमथ112 कौरव्य अष्टम्यां जागरं निशि।
नटनर्तकगीतैश्च कारयेत्सुमहोत्सवम्॥
हृष्टैर्निशां ततो नीत्वा प्रभाते अरुणोदये॥
घातयेन्महिषान्मेषान्।
इत्यादिनाऽष्टम्यादौ जागरादिकमुक्तम्। प्रतिपदादिनवसु तिथिषु पूजादिकरणासामर्थ्येसप्तम्यादिषु कर्तव्यम्। तदाह हेमाद्रौ धौम्यः —
आश्विने मासि शुक्लेतु कर्तव्यं नवरात्रकम्।
प्रतिपदादिक्रमेणैव यावच्च नवमी भवेत्॥
त्रिरात्रं वाऽपि कर्तव्यं सप्तम्यादि यथाक्रमम्॥ इति।
अत्राप्यशक्तावटम्यामेव कर्तव्यम्। तदुक्तं हेमाद्रौ ब्राह्मे —
तत्राष्टम्यां भद्रकाली दक्षयज्ञविनाशिनी।
प्रादुर्भूता महाघोरा योगिनीकोटिभिः सह॥
अतोऽर्थं (तः स्रं) पूजनीया सा तस्मिन्नहनि मानवैः।
उपोषितैर्वस्त्रधूपदीपैर्माल्यानुलेपनैः॥
आमिषैर्विविधैः शाकैर्होमैब्राह्मणतर्पणैः।
बिल्वपत्रैः श्रीफलैश्च चन्दनेन घृतेन च॥
नवम्यां तु कृतस्रानैः सर्वैः पूज्यास्तु ब्राह्मणाः। इति॥
एतेन मूलाभावेऽपि केवलाष्टम्यामेव पूजादिकं कर्तव्यम्। अत एव लिङ्गपुराणम् —
मूलाभावेऽपि सप्तम्यां केवलायां प्रवेशयेत्।
तथा तिथ्यन्तरेष्वेवमृक्षे वृत्ते फलोच्चयः॥ इति।
देवलोऽपि —
तिथिनक्षत्रयोर्योगे द्वयोरेवानुपालनम्।
योगाभावे तिथिर्ग्राह्या देव्याः पूजनकर्मणि॥ इति।
इदंच तस्यां सदा पूजनीयेत्युदाहृतभविष्ये सदाशब्दश्रवणान्नित्यम् \। फलश्रवणात्काम्यमपि। अत्र नवरात्रशब्दः
आश्विने मासि शुक्लेतु कर्तव्यं नवरात्रकम्।
श्रोतुमिच्छाम्यहं तात उपवासव्रतादिकम्॥
महाव्रतं महापुण्यं शंकराद्यैरनुष्ठितम्।
इत्याद्युदाहृतवाक्येषु कर्तव्यादिपदसामानाधिकरण्यादुपवासाद्यन्यतमनियमयुक्तकर्तृकप्रतिपदा दिनवम्यन्तनवतिथ्यधिकरणकपूजारूपकर्मनामधेयम्। न च रात्रिशब्दस्य तिथौ लक्षणैव दोष इति वाच्यम्। नवरात्रशब्दस्य गुणनिधित्ववादिनाऽपि तदन्तर्गतरात्रिशब्दस्याहर्गणनामधेयद्विरात्र्यत्रिरात्रादिष्विवसावनाहोरात्रपरत्वे तिथिह्नासे नवम्यन्ततिथिसमुदायेन वाऽहोरात्रस्यसंभवेन तिथिपरत्त्वस्यैव स्वीकारात्। अत एव ‘तिथिवृद्धौ तिथिह्रासे रात्रमपार्थकम्’ इतिकेषांचिदुक्तिः संगच्छते। न चैवमपि कालपरत्वं विना रामासान्तानुपपत्तेरिति शङ्क्यम्। कालपरतयैवोपपन्नस्य नवरात्रशब्दस्य द्विरात्रादिशब्दानां भागबोधकत्ववन्नवतिथ्यधिकरणपूजादिबोधकत्वेनानुपपत्त्यभावात्। न च मासिचाऽऽश्वयुजे शुक्ले नवरात्रे संपूज्य नवदुर्गा चेत्यादौ नवरात्र इति सप्तमीनिर्देशानुपपत्तिरिति वाव्यम्। पूर्वेद्युरमावस्यायां वेदिं करोतीत्यत्रेव तस्याप्युपपन्नत्वात्। अत एव
आश्विनस्य सिते पक्षे प्रारब्धे नवरात्रके।
शावे सूते समुत्पन्ने क्रिया कार्या कथं बुधैः॥
सूतके वर्तमाने च तत्रोत्पन्नं यदा भवेत्।
देवीपूजा प्रकर्तव्या जपयज्ञविधानतः॥
इति निर्णयामृतोदाहृतवचनमप्युपपन्नम्। एतेन नवरात्रशब्दो गुणविधिरेव न कर्मनामधेयमिति कालतत्त्वविवेचनादिग्रन्था उपेक्ष्याः।
अत्र नवरात्रव्रतारम्भे प्रतिपन्निर्णीयते। तत्र ‘त्रिकालं पूजयेद्देवीम्’ इति कालत्रये पूजाविधानात्। यदा संध्यात्रयव्यापिनी प्रतिपत्तदा कर्मणो यस्य यः काल इति वचनात्सैव ग्राह्येति संदेहो नास्ति। यदा पूर्वदिने मुहूर्तत्रयानन्तरं प्रवृत्ता द्वितीयादने मुहूर्तत्रयादिपरिमिता तदाऽष्टम्यां नियमं कृत्वा पूर्वाह्णॆस्नानमाचरेत्, इति प्रक्रम्य चर्चितगात्रां देवीं कुसुमैरभ्यर्चयेद्बहुभिरिति पूर्वोक्तहेमाद्रिनिर्णयामृतमदनरत्नाद्युदाहृतभविष्योत्तरे पूर्वाह्णॆपूजाविधानात्
यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे।
बिद्यमानो भवेदङ्गं नोज्झितोपक्रमेण तु॥
उदिते दैवतं मानौ पित्र्यं चास्तमिते रवौ।
मुहूर्तं त्रिरह्नश्व सा तिथिर्हव्यकव्ययोः॥
इत्यादिवचनैरुत्तरैव ग्राह्या। अत एव
शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।
सा113कार्योदयगामिन्यां न तत्र तिथियुग्मता॥
प्रातरावाहयेद्देवीं प्रातरेव प्रवेशयेत्।
प्रातः प्रातस्तु संपूज्य114 प्रातरेव विसर्जयेत्॥
भगवत्याः प्रवेशादिविसर्गान्तश्च याः क्रियाः।
तिथावुदयगामिन्यां सर्वास्ताः कारयेद्बुधः॥
इति तिथितत्त्वादिगौडनिबन्धोदाहृतनन्दिपुराणभविष्योत्तरदेवीपुराणवचनानि संगच्छन्ते। तथा
आश्विनस्य सिते पक्षे प्रतिपत्सु यथाक्रमम्।
सुनातस्तिलतैलेन पूर्वाह्णॆपूजयेच्छिवाम्॥
इति देवीपुराणनाम्ना,
प्रत्यहं पूजनं कुर्यात्रिकालं भक्तितत्परः।
अष्टम्यां जागरं चैव महापूजनपूर्वकम्॥
इत्यादीनि रुद्रयामलादिनाम्ना,
पूर्वविद्धा तु या शुक्ला भवेत्प्रतिपदाश्विनी ।
नवरात्रव्रतं तस्यां न कार्यं शुभमिच्छता॥
देशभङ्गो भवेत्तत्र दुर्भिक्षं चोपजायते।
नन्दायां दर्शयुक्तायां यत्र स्यात्पूजनं मम।
अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिपत्पूजने मम॥
मुहूर्तमात्रा कर्तव्या द्वितीयादिगुणान्विता
न दर्शकलया युक्ता प्रतिपच्चण्डिकार्चने॥
उदये द्विमुहूर्ताऽपि ग्राह्या सोदयगामिनी।
इत्यादिमार्कण्डेयदेवीपुराणनाम्ना द्वैतनिर्णयकालतत्त्वविवेचननिर्णयसिन्ध्वाद्यर्वाचीनग्रन्थेषूदाहृतानि यदि वचनानि तर्हि तान्यपि संगच्छन्ते। यदा पूर्वदिने मुहूर्तानन्तरं प्रवृत्ता द्वितीयदिने किंचिन्यूनमुहूर्तत्रयपरिमिता तत्रापि
द्विमुहूर्ताऽपि कर्तव्या या तिथिर्वृद्धिगामिनी।
इति वचनात्तरैव। यदा पूर्वदिने मुहूर्तपञ्चकानन्तरं प्रवृत्ता द्वितीयदिने115 मुहूर्तद्वयपरिमिता तदा
त्रिमुहूर्ता न कर्तव्या या तिथिः क्षयगामिनी।
इति वचनेनोत्तरानिषेधात्पूर्वेव। यदा मुहूर्तानन्तरं प्रवृत्ता द्वितीयदिने मुहूर्तद्वयन्यूना तदोत्तरत्र मध्याह्नादिपूजाकाले साकल्यवचनापादिताया अपि तिथेरभावात्पूर्वैव। अत एव।
अमायुक्तैव कर्तव्या प्रतिपच्चण्डिकार्चने।
न ग्राह्या परसंयुक्ता शुद्धसतानकाङ्क्षिभिः॥
द्वितीया शेषसंयुक्ता प्रतिपच्चण्डिकार्चने।
मोहादथोपदेशाद्वा कृता पुत्रविनाशकृत्॥
आरम्भे नवरात्रस्य द्वितीया त्रुटिसंमिता।
न केवलं तिथिंहन्ति वेधात्सा पुत्रसंपदम्॥
द्वितीयादिकलोपेता प्रतिपच्चण्डिकार्चने।
वर्जनीया प्रयत्नेन विपलेशो यथाऽम्भसि॥
प्रतिपच्छेषसंयुक्तद्वितीयायां ममार्चनम्।
कृतं धर्मं नाशयति संततिंपुत्रपौत्रिकीम्॥
अमायुक्तैव सा ग्राह्या प्रतिपच्चण्डिकार्चने।
अन्यथाकरणे तावद्राज्यभङ्गः प्रजायते॥
इत्यादीन्यर्वाचीनोदाहृतानि यद्यार्षाणि तर्ह्येतद्विषयाणि। यदाऽमाविद्धा द्वितीयदिने नास्ति तदा कोट्यन्तराभावात्सैवेति निर्विवादमेव।
यदोदयमारभ्यप्रवृत्ता द्वितीयदिने किंचिन्यूनमुहूर्तत्रयपर्यन्ता तदा पूर्णत्वात्पूर्वैव ग्राह्येति।
आश्विने मासि मेघान्ते महिषासुरमर्दिनीम्।
निशासु पूजयेद्भक्त्या सोपवासादिकं क्रमात्॥
इत्याद्यर्वाचीनोदाहृतानि यद्यार्षाणि, तर्हि तृतीयपूजायाः प्रदोष एवानुष्ठानात्तद्विषयाणीति सर्ववाक्यैकवाक्यतयैव नवरात्रवतारम्भे प्रतिपन्निर्णयः सिद्ध इति। नन्वेवं प्रदोषस्य कर्मकालत्वसूचकस्य नवरात्रनक्तव्रतत्वादिमाधवस्यासंगतिरिति चेन्न। तस्य प्रदोषे भोजनप्रधानरूपनक्तव्रतपरत्वे ‘अयाची ह्यथ वैकाशी नक्काशी अथवाऽन्नदः। त्रिकालं पूजयेद्देवीम्’ इत्यादीनां नक्तादीनामधिकारिविशेषणत्वस्य पूजाया एव प्राधान्यस्य बोधकवाक्यानां विरोधापत्तेः पाक्षिकमन्याङ्गनक्तमेवाभिप्रेतम्। तत्र
अन्याङ्गस्यैकभक्तस्य कालस्त्वङ्ग्यनुसारतः।
इत्येकभक्तप्रकरणेऽभिधाय नक्तप्रकरणेऽत्राप्येकभक्तवदन्याङ्गनक्ते निर्णयो द्रष्टव्य इत्यभिधतो माधवस्यापि पूर्वोक्तनिर्णयः संमत एवेति न तदसंगतिशङ्काऽपीति विभावनीयम्। एतेन माधवस्य नेदृशं सिद्धवदभिधातुं युज्यतेऽभिदधतो वा विश्वसितुं, पदवाक्यप्रमाणपरैर्नितरां तत्रैवाभिनिवेष्टुं धर्मविनाशभीरुभिरित्यादि। तथा माधवोक्तं नक्तव्रतनिर्णयेन निर्णेयत्वमसंबद्धमेवेति द्वैतनिर्णयो माधवार्थाज्ञानमूलकत्वादयुक्त एव। यत्तु यद्यपि रात्रिकर्मकालत्वबोधकानि पूर्वाह्णकर्मकालत्वबोधकानि वचनानि माधवादिभिर्न लिखितानि, तथाऽपि तदीयनक्तव्रतत्वोक्तिसंवादित्वाद्रात्रिकर्मकालवचनानि तैर्दृष्टानीति गम्यते। अत्यन्तोपयोगाभावात्तु तेषामलेखनं देवीपूजाप्रकारविशेषकुमारीपूजाबलिदानादिवचनवत्। यद्यपि देवीपुराणे त्रिकालं पूजयेद्देवीमिति कालत्रये पूजोक्ता, तथाऽपि प्रातर्मध्याह्नयोः संक्षेपपूजनभङ्गं, विस्तरपूजनं प्रधानभूतं रात्रावेव पूर्वाह्णॆपूजयेच्छिवामित्यादिवचनं तत्सर्वं प्रथमकालपूजार्थमुपपन्नमेव। तिथिनिर्णयस्तु प्रामाणिकोक्तनक्तवतत्वबलेन प्रधानपूजनस्य प्रदोषत्वमङ्गीकृत्यैव कर्तव्य इति मम मतिरिति कालतत्त्वविवेचने सिद्धान्तितम्। तन्नवमीव्रतप्रकरणे हेमाद्रिणाऽष्टमीनिर्णयप्रकरणे निर्णयामृतमदनरत्नाभ्यां च सेतिकर्तव्यताकदेवीपूजाकुमारीपूजाबलिदानादिविधायकानां देवीपुराणभविष्योत्तरपुराणस्कन्दपुराणानामुदाहृतत्वात्,.
भवदुदाहृतरात्रिकर्मकालत्वबोधकवाक्यानां हेमाद्य्रादिभिरस्पृष्टत्वात्, तद्विरुद्धानां त्रिकालं पूजयेद्देवीं पूर्वाह्णेस्नानमाचरेदित्यादीनामुपन्यासात्, रात्रिकर्मकालत्ववचनान्येव तैर्द्दष्टानि न तु पूर्वाह्णकर्मकालत्ववचनानीत्युक्तेरत्यन्तानुचितत्वात्, माधवस्य स्वतन्त्रनक्तपरत्वकल्पने त्याज्यत्वापत्तेरुक्तत्वान्न तद्बलेन प्रदोषस्य कर्मकालत्वसिद्धिरित्युपेक्ष्यमेव। यदपि रात्रेः कर्मकालत्वसाधकत्वेन
निशि भ्रमन्ति भूतानि शक्तयः शूलभृद्यतः।
इतिवचनमुदाहृतं तदप्ययुक्तम्। अतस्तस्यां चतुर्दश्यां सत्यां तत्पूजनं भवेदित्युत्तरार्धे चतुर्दश्या एवोपादानेन तस्य तिथ्यन्तरविषयत्वासंभवादन्यथा गौरीतृतीयायामपि तत्त्वापत्तेः। तृतीयपूजैव प्रधानमित्युक्तं तदपि अथवैकाशीत्येकभक्तनियमपक्षे भोजनोत्तरं तत्कर्तव्यतापत्तेरयुक्तमेव। अत एव पूर्वदिनेऽमाविद्धा प्रतिपत्परदिने द्वितीयाविद्धा तत्र परस्परविरुद्धानि वचनानि दृश्यन्ते तथाऽपि रात्रिपूजाया एव प्राधान्यात्तस्या महानिबन्धेषु नक्तव्रतोक्तेः प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या सदा नक्तव्रते तिथिरिति वचनात्प्रदोषस्य कर्मकालत्वमङ्गीकृत्यैव निर्णय इत्यादिस्मृतिकौस्तुभादयोऽप्यर्वाचीनग्रन्था अप्युपेक्ष्याः, हेमाद्र्युदाहृ116तपुराणविरुद्धत्वान्माधवगतनक्तशब्दार्थाज्ञानमूलत्वाच्च रात्रिपूजाया एव प्राधान्ये पूजात्रयप्राधान्यबोधकत्रिकालं पूजयेद्देवीमित्यादिविरोधादेकभक्तनियमपक्षे भोजनोत्तरं कर्तव्यतापत्तेश्चेति दिक्। तस्मादादित्योदयमारभ्य यावत्तु दश नाडिकाः काल इतिख्यातस्थापनारोपणादिष्वित्यादिवचनैः पूर्वाह्णस्यापि कर्मकालत्वात्तस्यैव प्राथम्याच्च पूर्वोक्त एव निर्णयो युक्त इति विभावनीयम्। यत्तु
आद्यास्तु नाडिकास्त्याज्याः षोडश द्वादशापि वा।
अपराह्णेऽपि कर्तव्यं शुद्धसंतानकाङ्क्षिभिः॥
आद्याः षोडश नाडीस्तु लब्धा यः कुरुते नरः।
कलशस्थापनं तत्र अरिष्टं जायते ध्रुवम्॥
इत्यर्वाचीनोदाहृतं प्रतिपाद्यनाडीत्यागवचनंतद्दशघटिकामध्ये तत्परिहारेण पूजासंभवे द्रष्टव्यम्। अन्यथा पूर्वाह्णपूजाविधायकवचनविरोधापत्तेः। एवं
प्रारभ्य नवरात्रं स्याद्धित्वा चित्रां च वैधृतिम्।
त्वाष्ट्रवैधृतियुक्ता चेत्प्रतिपच्चण्डिकार्चने॥
तयोरन्ते विधातव्यं कलशारोपणं गृह।
प्रतिपदाश्विने मासि भवेद्वैधृतिचित्रया॥
आद्यपादौ परित्यज्य प्रारभेन्नवरात्रकम्।
चित्रावैधृतिसंयुक्ता प्रतिपच्चेद्भवेन्नृप॥
त्याज्या ह्यंशास्त्रयस्त्वाद्यास्तुरीयांशे तु पूजनम्।
इमानि सति संभवाभिप्रायाणि। यत्तु
संपूर्णा प्रतिपद्देव चित्रायुक्ता यदा भवेत्।
वैधृत्या वाऽपि युक्ता स्यात्तदा मध्यंदिने रवौ॥
अभिजित्तु मुहूर्तं यत्तत्र स्थापनमिष्यते।
इत्यर्वाचीनोदाहृतं117 तदनाकरत्वादुपेक्ष्यम्। प्रतिबन्धकवशेन दशघटिकातिक्रमविषयं वा, अन्यथा हेमाद्र्युदाहृतपूर्वाह्णपूजाविधायकवचनविरोधापत्तेरिति। एवं निर्णीतायां प्रतिपदि देवीपूजा कार्या। तत्त्रैविध्यमुक्तं भविष्ये —
शारदी चण्डिकापूजा त्रिविधा परिगीयते।
सात्त्विकी जपयज्ञाद्यैर्नैवेद्यैश्च निरामिषैः॥
माहात्म्यं भगवत्याश्च पुराणादिषु कीर्तितम्।
पाठस्तस्य जपः प्रोक्तः पठेद्देवीमनास्तथा॥
राजसी बलिदानेन नैवेद्यैः सामिषैस्तथा।
सुरामांसापाहारैर्जपयज्ञैर्विना तु या।
विना मन्त्रैस्तामसी स्यात्किरातानां च संमता॥
ब्राह्मणैः क्षत्रियै र्वैश्यैः शुरन्यैश्च मानवैः।
एवं नानाम्लेच्छगणैः पूज्यते सर्वदस्युभिः॥इति।
अत्र ब्राह्मणस्य सात्त्विकपूजैव। अत एव कालिकापुराणम् —
स्वगात्ररुधिरं दत्त्वा ब्रह्महत्यामवाप्नुयात्।
मद्यं दत्त्वा ब्राह्मणस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते॥इति।
क्षत्रियवैश्ययोस्तु राजस्यपि शूद्रस्यापि जपहोमयोर्ब्राह्मणद्वारैवाधिकारः पूजायां तु स्वतोऽपि। यत्तु पराशरवचनं
दक्षिणार्थं तु यो विप्रः शूद्रस्य जुहुयाद्धविः।
ब्राह्मणस्तु भवेच्छूद्रः शूद्रस्तु फलभाग्भवेत्॥
इति तद्वैदिकमन्त्रविषयम् । म्लेच्छादीनां तु ब्राह्मणद्वाराऽपि जपादौ नाधिकारः किं तु सुराद्युपहारसहिततत्तदुपचाराणां पश्वादिबलेश्च देवीमुद्दिश्य मनसोत्सर्गमात्रं तैः कर्तव्यम् । अत्र ब्राह्मणादिभिः स्वाधिकारानुसारेण पूजा कार्या \। कलशस्थापनं सर्वदेशे क्रियमाणं हेमाद्र्याद्युदाहृतपुराणाविरुद्धत्वात्कर्तव्यम् । तद्विधिरुक्तो रुद्रयामलादौ —
स्नानं माङ्गलिकं कृत्वा ततो देवीं प्रपूजयेत् ।
शुद्धाभिर्मृत्तिकाभिश्चपूर्वं कृत्वा तु वेदिकाम् ॥
यवान्वै प्रक्षिपेत्तत्र गोधूमैश्चापि संयुतान् ।
तत्र संस्थापयेत्कुम्भं विधिना मन्त्रपूर्वकम् ॥
सौवर्णं राजतं वाऽपि ताम्रं वा मृन्मयं तु वा । इति ।
ननु धर्मप्रमाणेष्वनन्तर्भूतत्वात्कथं रुद्रयामलाद्युपन्यास इति चेत् । शिष्टाचारानुवादकत्वेनैव तदुपन्यासात् । स्मृत्यादिविरुद्धार्थकरुद्रयामलडामरादिवचनानि तूपन्यासानर्हाण्येवेति बोध्यम् । तत्र प्रतिपदि कृतनित्यक्रियो देशकालादि संकीर्त्य अमुकफलकामः, प्रीतिकामो वा प्रतिपदादिनवमीपर्यन्तमेकभक्तादिनियमयुक्तः प्रत्यहं देवीपूजनं करिष्ये तत्राऽऽदौ कलशस्थापनं करिष्य इति संकल्प्य मही द्यौः पृथिवीति मन्त्रेण भूमिंस्पृष्ट्वा ओषधयः समित्यनेन यवान्निक्षिप्य, आकलशेत्यनेन कलशं तत्र संस्थाप्य, इमं मे गङ्गेति कलशं जलेनाऽऽपूर्य, गन्धद्वारामिति गन्धम् । या ओषधीरिति सर्वौषधीः, काण्डात्काण्डादिति दूर्वाः, अश्वत्थेवेति पञ्चपल्लवान्, स्योना पृथिवीति सप्त मृदः, याः फलिनीरिति फलम्, स हि रत्नानीति पञ्च रत्नानि, हिरण्यरूप इति हिरण्यं च कलशे क्षिप्त्वा, युवा सुवासा इति वस्त्रेणाऽऽवेष्ट्य, पूर्णा दर्वीत्यनेन कलशे पूर्णपात्रं निधाय, तत्र वरुणं तत्त्वायामीत्यनेन संपूज्य,
दुर्गागृहं प्रकर्तव्यं चतुरस्रं सुशोभनम् ।
रहस्यं स्वस्तिकाद्यैश्च चर्चितं वस्त्रमण्डितम् ॥
गौरमृद्गोमयाभ्यां च लिप्तं शस्त्रसमन्वितम् ।
तन्मध्ये वेदिका कार्या चतुर्हस्ता समा शुभा ॥
तस्यां सिंहासनं क्षौमं कम्बलाजिनसंयुतम् ।
तत्र दुर्गां प्रतिष्ठाप्य सर्वलक्षणसंयुताम् \।\।
सर्वदेवमयीं प्रौढयौवनो118न्मादशालिनीम् ।
भुजैश्चतुर्थी रुचिरैर्देशभिर्वा विभूषिताम् \।\।
तप्तहाटकवर्णाङ्गीं त्रिनेत्रां कृतशेखराम्।
पीताम्बरपरीधानां नीलकौशेयसंयुताम्॥
ग्रैवेयहारकेयूरनूपुराभरणान्विताम्।
नानारत्नविचित्रेण मुकुटेन विराजिताम्॥
अनेककुसुमाकीर्णां कन्दर्पेण सुशोभिताम्।
नितम्बबिम्बसंबद्धकिङ्किणीकाणनादिनीम्।
शूलचक्रदण्डशक्तिवज्ज्रचापासिधारिणीम्।
घण्टाक्षमालाकरकपानपात्रलसत्कराम्॥
तदग्रे छिन्नशिरसं महिपं रुधिराप्लुतम्।
निःसृतार्धतनुं कण्ठमालाचर्मासिधारिणम्॥
देवीकरधृतग्रीवं शूलेनोरसि ताडितम्।
दैत्यं करालदंष्ट्रास्यं विद्युत्कपिलमूर्धजम्॥
नागपाशे विनिक्षिप्तं हर्यक्षेणापि विद्रुतम्119।
वमद्रुधिरवक्त्रेण धुन्वन्तं च सटा रुषा॥
ऊर्ध्वलाङ्गूलदण्डेन देव्यधिष्ठानशोभिना।
सर्वतो मातृचक्रेण सेव्यमानं सुरैस्तथा॥
इति निर्णयामृतोदाहृतभविष्योत्तरोक्तवेदिमध्यस्थ आसने संस्थापितप्रतिमायां तदीशानदिग्भागस्थापितकुम्भे च120वेदिमध्यस्थापितकुम्भ एव वा यथोक्तलक्षणां हेमादिप्रतिमां संस्थाप्य, उक्तदेवीस्वरूपं ध्यात्वा स्थापितप्रतिमायां प्राणप्रतिष्ठां कृत्वा
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥
इति पूर्वोक्तेन मन्त्रेण,
आगच्छ वरदे देवि दैत्यदर्पविनाशिनि।
पूजां गृहाण सुमुखि नमस्ते शंकरप्रिये॥
सर्वतीर्थमयं वारि सर्वदेवसमन्वितम्।
इमं घटं समागच्छ सर्वदेवगणैः सह॥
दुर्गे देवि समागच्छ सांनिध्यं चेह कल्पय।
बलिं पूजां गृहाण त्वमष्टाभिः शक्तिभिः सह॥
इत्यनेन चाऽऽवाह्य, जयन्ती मङ्गलेति मन्त्रान्ते ॐ दुर्गायै नम इदमासनमेवं पाद्याद्युपचारान्दद्यात्। पुष्पदाने जयन्तीति मन्त्रान्ते
अमृतोद्भवं श्रीवृक्षं शंकरस्य सदा प्रियम्।
बिल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्रं ते सुरेश्वरि॥
इति बिल्वपत्रम्,
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां द्रोणपुष्पं सदा प्रियम्।
तत्ते दुर्गे प्रयच्छामि सर्वकामार्थसिद्धये॥
इति कुरबकपुष्पं दद्यात्। ततो धूपाद्युपचारान्दत्त्वा पुष्पाञ्जल्यन्ते छत्रचामरादिराजोपचारान्समर्प्य सर्वमङ्गलमाङ्गल्य इति पूर्वोक्तेन
महिषघ्नि महामाये चामुण्डे मुण्डमालिनि।
द्रव्यमारोग्यमैश्वर्यं देहि देवि नमोऽस्तु ते॥
कुङ्कुमेन समालब्धे चन्दनेन विलेपिते।
बिल्वपत्रमहामाले दुर्गेऽहं शरणं गतः॥
इति मन्त्रैर्बद्धाञ्जलिः प्रार्थयेत्। ततो माषभक्तबलिं कूष्माण्डादिबलिंवा यथाधिकारं दद्यात्। देवीगृहेऽहोरात्रं दीपः संस्थाप्यः।
अखण्डदीपकं देव्याः प्रीतये नवरात्रके।
उज्ज्वालयेदहोरात्रमेकचित्तो धृतव्रतः॥
इतिवचनात्।
सप्तशत्यादिजपप्रकार उक्तो मत्स्यसूक्ते121—
प्रणवं चाऽऽदितो जप्त्वा स्तोत्रं122 वा संहितां पठेत्।
अन्ते च प्रणवं दद्यादित्युवाचाऽऽदिपूरुषः॥
आधारे स्थापयित्वा तु पुस्तकं वाचयेत्सुधीः।
हस्तसंस्थापने चैव यस्मादल्पं123 फलं भवेत्॥
स्वयं च लिखितं यच्च शूद्रेण लिखितं च यत्।
अब्राह्मणेन लिखितं तच्चापि विफलं भवेत्॥
शुद्धेनानन्यचित्तेन पठितव्यं प्रयत्नतः।
न कार्यासक्तमनसा कार्यंं स्तोत्रस्य वाचनम्॥
ऋषिच्छन्दादि विन्यस्य पठेत्स्तोत्रं विचक्षणः।
स्तोत्रे न दृश्यते यत्र प्रणवन्यासमाचरेत्॥
संकल्पितः स्तोत्रपाठे संख्यां कृत्वा पठेत्सुधीः।
अध्यायं प्राप्य विरमेन्न तु मध्ये कथंचन।
कृते विरामे मध्ये तु अध्यायादि पठेत्पुनः।
इत्यादि ज्ञात्वा पठेत्।
शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः॥
सर्वबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसमन्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥
इति श्रवणेमुक्तं124 तत्तु ब्राह्मणादेव कर्तव्यम्।
वाचकं ब्राह्मणं विद्यान्नान्यवर्णजमादरात्।
इति भविष्यत्पुराणात्।
कुमारीपूजनमुक्तं हेमाद्रौ स्कान्दे—
एकैकां पूजयेत्कन्यामेकवृध्या तथैव च।
द्विगुणं त्रिगुणं वाऽपि पूजयेन्नवकं वरम्॥
नवभिर्लभते भूमिमैश्वर्यंं द्विगुणेन च।
एकवृद्ध्यालभेत्क्षेममेकैकेन श्रियं लभेत्॥
एकवर्षा तु या कन्या पूजार्थे तां विवर्जयेत्।
गन्धपुष्पफलादीनां प्रीतिस्तस्या न विद्यते॥
द्विवर्षकन्यामारभ्य दशवर्षावधि क्रमात्।
पूजयेत्सर्वकार्येषु यथाविध्युक्तमार्गतः॥
कुमारिका द्विवर्षा तु त्रिवर्षा च त्रिमूर्तिनी।
चतुर्वर्षा तु कल्याणी पञ्चवर्षा तु रोहिणी॥
षड्वर्षा तु भवेत्काली सप्तवर्षा तु चण्डिका।
अष्टवर्षा शांभवी तु दुर्गा तु नवभिः स्मृता॥
दशवर्षा सुभद्रेति नामभिः परिकीर्तिताः।
अत ऊर्ध्वं तु याः कन्याः सर्वकार्येषु वर्जिताः॥
दुःखदारिद्र्यनाशाय शत्रूणां नाशनाय च।
आयुष्यबलवृद्ध्यर्थं कुमारीं पूजयेन्नरः॥
आयुष्कामस्त्रिमूर्तिं तु त्रिवर्गस्य फलाप्तये।
अपमृत्युव्याधिपीडादुःखानामपनुत्तये॥
कल्याणीं पूजयेद्धीमान्नित्यं कल्याणवृद्धये।
आरोग्यसुखकामी च जयकामी तथैव च॥
यशस्कामी नरो नित्यं रोहिणीं परिपूजयेत्।
विद्यार्थीं च जयार्थी च राज्यार्थी च विशेषतः॥
शत्रूणां च विनाशार्थी कालिकां पूजयेन्नरः।
सङ्ग्रामे जयकामी च चण्डिकां125 परिपूजयेत्॥
दुःखदारिद्र्यनाशाय नृपसंमोहनाय च।
महापापविनाशाय शांभवीं च प्रपूजयेत्॥
सबलोत्कटशत्रूणामुग्रसाधनकर्मणि।
दुर्गां दुर्गतिनाशाय पूजयेत्प्रयतो बुधः॥
सौभाग्यधनधान्यादिवाञ्छितार्थफलाप्तये।
सुभद्रां पूजयेन्मर्त्यो दासीदासविवृद्धये।
प्रातःकाले विशेषेण कृताभ्यङ्गो विशेषतः॥
आवाहयेत्ततः कन्यां मन्त्रेणानेन भार्गव।
मन्त्राक्षरमयीं लक्ष्मीं126 मातॄणां रूपधारिणीम्॥
नवदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामावाहयाम्यहम्।
ततः संपूजयेद्धीमानेभिर्मन्त्रैः पृथक्पृथक्॥
जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरूपिणी।
पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोऽस्तु ते॥
त्रिपुरां त्रिपुराधारां त्रिवर्गां ज्ञानरूपिणीम्।
त्रैलोक्यपूजितां देवीं त्रिमूर्तिं पूजयाम्यहम्॥
कलात्मिकां कलातीतां कारुण्यहृदयां शिवाम्।
कल्याणजननीं नित्यं कल्याणीं पूजयाम्यहम्॥
अणिमादिगुणाधारामकाराद्यक्षरात्मिकाम्।
अनन्तशक्तिकां लक्ष्मीं रोहिणीं पूजयाम्यहम्॥
कामचारीं शुभां कान्तां कालचक्रस्वरूपिणीम्।
कामदांः करुणोदारां कालीं संपूजयाम्यहम्॥
चण्डवीरां चण्डमायां चण्डमुण्डप्रभञ्जनीम्।
पूजयामि सदा देवीं चण्डिकां चण्डविक्रमाम्॥
सदाऽऽनन्दकरीं शान्तां सर्वदेवनमस्कृताम्।
सर्वभूतात्मिकां लक्ष्मीं शांभवीं पूजयाम्यहम्॥
दुर्गमे दुस्तरे कार्ये दुःभवखविनाशिनीम्127।
पूजयामि सदा भक्त्या दुर्गांदुर्गतिनाशिनीम्॥
सुन्दरीं स्वर्णवर्णाभांसुखसौभाग्यदायिनीम्।
सुभद्रजननीं128 देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम्॥
एवमभ्यर्चनं कुर्यात्कुमारीणां प्रयत्नतः।
कञ्चुकैश्चैव वस्त्रैश्च गन्धपुष्पाक्षतादिभिः॥
नानाविधैर्भक्ष्यभोज्यैर्भोजयेत्पायसादिभिः
हीनाधिकाङ्गीं कुष्ठादिविकारां कुनरवां तथा॥
ग्रन्थिस्फुटितगर्भाङ्गीं रक्तपूयव्रणाङ्किताम्।
जात्यन्धां केकरीं काणीं कुरूपां तनुरोमशाम्॥
संत्यजेद्रोगिणीं कन्यां दासीगर्भसमुद्भवाम्।
अरोगिणीं सुपुष्टाङ्गींसुरूपां व्रणवर्जिताम्॥
एकवंशसमुद्भूतां कन्यां सम्यक्प्रपूजयेत्।
ब्राह्मणीं सर्वकार्यार्थे जयार्थे नृपवंशजाम्॥
लाभार्थे वैश्यवंशोत्थां सुतार्थे शूद्रवंशजाम्।
दारुणे चान्त्यजातीनां पूजयेद्विधिना नरः॥
इति कुमारीपूजा। एवं द्वितीयादिनवमीपर्यन्तासु तिथिषु पूजादिकं कार्यम्। साश्वस्य त्वश्वपूजनमुक्तं हेमाद्रौदेवीपुराणे —
अश्वयुक्शुक्लप्रतिपत्स्वातियोगे शुभे दिने।
पूर्वमुच्चैःश्रवा नाम प्रथमं श्रियमावहत्॥
तस्मात्साश्वैर्नरस्तत्र पूज्योऽसौ श्रद्धया सह।
पूजनीयाश्च तुरगा नवमीं यावदेव हि॥
शान्तिस्वस्त्ययनं कार्यं तदा तेषां दिने दिने।
धान्यं भल्लातकं कुष्ठं वचा सिद्धार्थकास्तथा॥
पञ्चवर्णॆन सूत्रेण ग्रन्थिंतेषां तु बन्धयेत्।
वायव्यैर्वारुणैः सौरैः शाक्तैर्मन्त्रैः सवैष्णवैः॥
वैश्वदेवैस्तथाऽऽग्नेयैर्होमः कार्यो दिने दिने।
तुरंगा रक्षणीयास्तु पुरुषैः शस्त्रपाणिभिः॥
दारिद्र्यतः क्वचित्तत्र न च वाह्याः कथंचन।
इत्यश्वपूजा। राज्ञो लोहाभिसारिकमुक्तं हेमाद्रौ भविष्योत्तरे —
जयाभिलाषी नृपतिः प्रतिपत्प्रभृतिक्रमात्।
लोहाभिसारिकं कर्म कारयेद्यावदष्टमी॥
प्रागुदक्प्रवणे देशे पताकाभिरलंकृते।
मण्डपं कारयेद्दिव्यं नवसप्तकरं शुभम्॥
आग्नेय्यां कारयेत्कुण्डं हस्तमात्रं तु शोभनम्।
मेखलात्रयसंयुक्तं योन्याऽश्वत्थदलाभया॥
राजचिह्नानि सर्वाणि शस्त्राण्यस्त्राणि यानि च।
आनीय मण्डपे तानि सर्वाण्येवाधिवासयेत्॥
ततस्तु बाह्मणः स्नातः शुक्लाम्बरधरः शुचिः।
ॐकारपूर्वकैर्मन्त्रैस्तल्लिङ्गैर्जुहुयाद्घृतम्॥
लोहनामाऽभवत्पूर्वं दानवः सुमहाबलः।
स देवैः समरे कुद्धैर्बहुधा शकलीकृतः॥
तदङ्गसंभवं सर्वं लोहं यद्दृश्यते क्षितौ।
लोहाभिसारिकं कर्म तेनैतदृषिभिः स्मृतम्॥
शस्त्रास्त्रमन्त्रैर्होतव्यं पायसं घृतसंयुतम्।
केवलं घृतहोमस्तु राजचिह्नमन्त्रैरिति हेमाद्रिः।
हुतशेषं तुरंगाणां राजान्नमुपहारयेत्।
बद्धपल्ययनांस्तत्र गजाश्वान्समलंकृतान्॥
भ्रामयेन्नगरे नित्यं नन्दिघोषपुरःसरम्।
प्रत्यहं नृपतिः स्रात्वा संपूज्य पितृदेवताः॥
पूजयेद्राजचिह्नानि फलमाल्यानुलेपनैः।
हुतशेषं प्रदातव्यमौपनायनिके गजे॥
तस्याभिसरणाद्राज्ञो विजयः समुदाहृतः।
पूजामन्त्रान्प्रवक्ष्यामि पुराणोक्तानहं तव॥
यैः पूजिताः प्रयच्छन्ति कीर्तिमायुर्यशो बलम्।
यथा चन्द्रश्छादयति शिवायेमां वसुंधराम्॥
तथाऽऽच्छादय राजानं विजयारोग्यवृद्धये।
इति च्छन्त्रमन्त्रः।
गन्धर्वकुलजातस्त्वं मा भूयाः कुलदूषकः।
ब्रह्मणः सत्यवाक्येन सोमस्य वरुणस्य च॥
प्रभावाच्चहुताशस्य वर्धयस्व तुरंगम।
तेजसा चैव सूर्यस्य ऋषीणां तपसा तथा॥
रुद्रस्य ब्रह्मचर्येण पवनस्य बलेन129 च।
स्मर त्वं राजपुत्रं च कौस्तुभं च मणिं स्मर॥
यां गतिं पितृहा गच्छेद्ब्रह्महा मातृहा तथा।
भूमिहाऽनृतवादी च क्षत्त्रियश्च पराङ्मुखः॥
सूर्याचन्द्रमसौ वायुर्यावत्पश्यन्ति दुष्कृतम्।
व्रज त्वं तां गतिं क्षिप्रं तव पापं भवेत्तदा॥
विकृतिं यदि वा छन्नो युद्धेऽध्वनि तुरंगम।
रिपून्विजित्य समरे सह भर्त्रा सुखी भव॥
इति अश्वस्य।
शक्रकेतो महावीर्य श्यामवर्णार्चयाम्यहम्।
पत्रिराज नमस्तेऽस्तु तथा नारायणध्वज॥
काश्यपेया130मृतभ्रातर्नागारे विष्णुवाहन।
अप्रमेय दुराधर्ष रणे देवारिसूदन॥
गरुत्मन्मारुतगतिस्त्वयि संनिहिता यतः।
अस्त्रचर्मायुधान्यत्र रक्ष त्वं च रिपून्दह॥
इति ध्वजस्य।
कुमुदैरावणः पद्मः पुष्पदन्तोऽथ वामनः।
सुप्रतीकोऽञ्जनो नील एते वै देवयोनयः॥
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च वनान्यष्टौ समाश्रिताः।
भद्रो मन्दो131 मृगश्चैवं132 राजसंकीर्ण एव च॥
वने वने प्रसूतास्ते स्मर योनिं महागज।
पान्तु त्वां वसवो रुद्रा आदित्याः समरुद्गणाः॥
भर्तारं रक्ष नागेन्द्र स्वाभिवत्प्रतिपाल्यताम्।
अवामुहि जयं युद्धे गमने स्वस्तितो व्रज॥
श्रीस्ते सोमाहुलं विष्णोस्तेजः सूर्याज्जवोऽनिलात्।
स्थैर्यं मेरोजयं रुद्राद्वीर्यं देवात्पुरंदरात्॥
युद्धे रक्षन्तु नागाश्च दिशश्च सह दैवतैः।
अश्विनौ सह गन्धर्वैः पान्तु त्वां सर्वतः सदा॥
इति गजस्य।
**हुतभुग्वसवो रुद्रा वायुः सोमो महर्षयः।
नागकिंनरगन्धर्वा यक्षभूतगणा ग्रहाः॥
प्रमथास्तु133 महादेव्यो भूतेशो मातृभिः सह।
शक्रः सेनापतिः स्कन्दो वरुणः पार्श्वदास्त्विह॥
प्रदहन्तु रिपून्सर्वान्राजा विजयमृच्छतु।
यानि प्रयुक्तान्यरिभिरायुधानि134 समन्ततः॥
पतन्तूपरि शत्रूणां हतानि तव तेजसा।
कालनेमिवधे यद्वद्यद्वत्रिपुरघातने॥
हिरण्यकशिपोर्युद्धे युद्धे देवासुरे तथा।
शोभिताऽसि तथैवाद्य शोभया135समयं स्मर॥
नीलां श्वेतामिमां दृष्ट्वा नश्यन्त्वाशु नृपारयः।
व्याधिभिर्विविधैर्घोरेः शस्त्रैश्च युधि निर्जिताः॥
सद्यः स्वस्था भवन्त्वस्मांस्त्वघातेनोपमार्जिताः।
पूतना रेवती गौरी कालरात्री तु या स्मृता॥
दहस्वाऽऽशु रिपून्सर्वान्पताके त्वं स्मृता मया। **
इति पताकामन्त्रः।
असिर्विशसनः खड्गो विकर्मा च दुरासदः॥
श्रीगर्भो विजयश्चैव धर्माधारस्तथैव च।
इत्यष्टौ तव नामानि स्वयमुक्तानि वेधसा॥
कृत्तिका ऋक्षमा हुस्ते गुरुर्देवो महेश्वरः।
हिरण्यं च शरीरं ते धाता देवो जनार्दनः॥
पिता पितामहो देवस्तन्मां पालय सर्वदा।
इयं येन धृता क्षोणी हतश्च महिषासुरः॥
तीक्ष्णधाराय खड्गायतस्मै शुद्धाय ते नमः।
इति खड्गमन्त्रः।
शर्मप्रदस्त्वं समरे वर्म सर्वायसो हृदि ।
रक्ष मां रक्षणीयोऽहं न हन्तव्यो नमोऽस्तु ते ॥
इति वर्ममन्त्रः ।
दुन्दुभे त्वं सपत्नानां घोषाद्धृदायकम्पनः ।
भव भूमिपसैन्यानां तथा विजयवर्धनः ॥
यथा जीमूतघोषेण प्रहृष्यन्ति सुबर्हिणः।
तथाऽस्तु तव शब्देन हर्षोऽस्माकं सुखावहः॥
यथा जीमूतशब्देन स्त्रीणां त्रासोऽभिजायते।
तथा च तव शब्देन त्रस्यन्त्वस्मद्द्विषो रणे॥
इति दुंदुभिमन्त्रः।
सर्वायुध महामात्रेसर्वदेवारिसूदन।
शिवभूमाऽसि सैन्यानां तथा विजयवर्धनः॥
चाप मां सर्वदा रक्ष साकं सायकसत्तमैः।
घृतं कृष्णेन रक्षार्थं संहारार्थंहरेण च॥
त्रयीमूर्तिगतं देवं धनुरस्त्रं नमाम्यहम्।
इति चापस्य।
पुण्यस्त्वं सर्वपुण्यानां मङ्गलानां च मङ्गलम्।
विष्णुना विधृतो नित्यमतः शान्तिप्रदो भव॥
इति शङ्खमन्त्रः।
शशाङ्ककरसंकाश हिमडिण्डिरपाण्डुर।
प्रोत्सारयाऽऽशु दुरितं चामरामरवल्लभ136॥
इति चामरस्य।
सर्वायुधानां प्रथमा निर्मिताऽसि पिनाकिना।
शूलायुधाग्रान्निष्कृष्य कृत्वा मुष्टिग्रहं शुभम्॥
चण्डिकायाः प्रदत्ताऽसि सर्वदुष्टनिबर्हिणी।
तया विस्तारिता चासि देवानां प्रतिपादिता॥
सर्वसत्त्वाङ्गभूताऽसि शुम्भासुरनिबर्हिणी।
छुरिके रक्ष मां नित्यं शान्तिंयच्छ नमोऽस्तु ते॥
इति च्छुरिकामन्त्रः।
प्रोत्सारणाय दुष्टानां साधुसंग्रहणाय च।
ब्रह्मणा निर्मितश्चासि व्यवहारप्रसिद्धये॥
यशो देहि सुखं देहि जयदो भव भूपतेः।
ताडयाऽऽशु रिपून्सर्वान्हेमदण्ड नमोऽस्तु ते॥
इति कनकदण्डमन्त्रः।
विजयो जयदो नाम रिपुघ्नोऽतिप्रियंकरः।
दुःखहा धर्मदः शान्तः सर्वारिष्टविनाशनः॥
एतेऽष्टौ संनिधौ प्रोक्तास्तव सिंहा महाबलाः।
तेन सिंहासनेति त्वं विप्रैर्वेदेषु गीयते॥
त्वयि स्थितः शिवः शान्तस्त्वयि शक्रः सुरेश्वरः॥
त्वयि स्थितो हरिर्देवस्त्वदर्थं तप्यते तपः।
नमस्ते सर्वतोभद्र सर्वदो भव भूपतेः॥
त्रैलोक्यजय सर्वस्व सिंहासन नमोऽस्तु ते।
इति सिंहासनमन्त्रः।
लोहाभिसारिकं कर्म कृत्वैवं विधिपूर्वकम्।
फलनैवेद्यकुसुमैर्धूपदीपविलेपनैः॥इति।
इति लोहाभिसारिकम्।
नवरात्रगतषष्ठ्यांबिल्वशाखायां देवीप्रबोधः कर्तव्यः । तदुक्तं हेमाद्रौ लैङ्गेः —
रावणस्य वधार्थाय रामस्यानुग्रहाय च।
अकाले ब्रह्मणा बोधो देव्यास्त्वयि कृतः पुरा॥
अहमप्याश्रितः षष्ठ्यां सायाह्ने बोधयाम्यतः।
श्रीशैलशिखरे जातः श्रीफल श्रीनिकेतन॥
नेतव्योऽसि मया गुच्छ पूज्यो दुर्गास्वरूपतः।इति।
सप्तम्यां प्रातस्तां शाखां गृहं प्रवेशयेत्तदपि तत्रैव —
मूलाभावेऽपि सप्तम्यां केवलायां प्रवेशयेत्।
उभाभ्यां नवबिल्वस्य फलाभ्यां शाखिकां तथा॥
इति। तां शाखां देव्युत्तरभागे स्थापयित्वा तत्रापि देवीमावाह्य पूजयेत्। नवरात्रगतमूलनक्षत्रे सरस्वतीस्थापनमुक्तं रुद्रयामले —
मूलऋक्षे सुराधीश पूजनीया सरस्वती।
पूजयेत्प्रत्यहं देव यावद्वैष्णवऋक्षकम्॥
नाध्यापयेन्न च लिखेन्नाधीयीत कदाचन।
पुस्तके स्थापिते देव विद्याकामो द्विजोत्तम॥ इति।
संग्रहेऽपि —
**आश्विनस्य सिते पक्षे मेधाकामः सरस्वतीम्। **
मूलेनाऽऽवाहयेद्देवीं श्रवणेन विसर्जयेत्॥इति ।
प्रतिपदादावेकभक्तादिनियमपक्षेऽपि अष्टम्यां पूर्ववत्पूजां कृत्योपवास एव कर्तव्यः।
पुष्पैश्च द्रोणबिल्वाम्रजातीपुन्नागचम्पकैः॥
द्रोणः कुरबकः।
विचित्रां रचयेत्पूजामष्टम्यामुपवासयेत्।
दुर्गाग्रतो जपेन्मन्त्रमेकचित्तः137 सुभावितः॥
तदर्धयामिनीशेषे विजयार्थंनृपोत्तमः।
पञ्चाब्दंलक्षणोपेतं महिषासुरपूजितम्॥
विधिवत्कालिकालीति जप्त्वा खड्गेन घातयेत्।
ॐकालि कालि यज्ञेश्वरि लोहदण्डायै नम इति मन्त्रः।
तस्योत्थं रुधिरं मांसं गृहीत्वा पूतनादिषु138।
नैर्ऋताय प्रदातव्यं महाकौशिकमन्त्रितम्॥
इति हेमाद्र्युदाहृतदेवीपुराणात् । मन्त्रो वक्ष्यते।
तत्राष्टम्यां भद्रकाली दक्षयज्ञविघातिनी।
प्रादुर्भूता महाघोरा योगिनीकोटिभिः सह॥
अतोर्थं पूजनीया सा तस्मिन्नहनि मानवैः।
उपोषितर्वस्त्रधूपदीपमाल्यानुलेपनैः॥
आमिषैर्विविधैः शाकैर्होमैर्बाह्मणतर्पणैः।
बिल्वपत्रैः श्रीफलैश्च चन्दनेन घृतेन च॥
नवम्यां तु कृतस्नानैः सर्वैः पूज्यास्तु ब्राह्मणाः।
इति हेमाद्र्युदाहृतबह्मपुराणात् । अत्र रात्रौजागरणं पूजा च कर्तव्या॥
दत्त्वैवमथ139 कौरव्य अष्टव्यां जागरं निशि।
नटनर्तकगीतैश्च कारयेत्सुमहोत्सवम्॥
इति हेमाद्र्युदाहृतभविष्योत्तरात्।
कन्यायां कृष्णपक्षे तु पूजयित्वाऽऽर्द्रभेऽपि वा।
नवम्यां पूजयेद्देवीं गीतवादित्रनिस्वनैः॥
शुक्लपक्षे चतुर्थ्यां तु देवीकेशविशोधनम्।
प्रातरेव तु पञ्चम्यां स्नापयेत्सलिलैः शुभैः॥
सप्तम्यां पत्रिकापूजा अष्टम्यामप्युपोषणम्।
पूजनं जागरश्चैव नवम्यां विधिवद्बलिः।
संप्रेषणं दशम्यां तु रथमारोप्य वै पुरे॥
इति कालादर्शोदाहृतदेवीपुराणात्।
कन्यासंस्थे रवावीश शुक्लाष्टम्यां प्रपूजयेत्॥
सोपवासो निशार्धे तु महाविभवविस्तरैः॥
इति तिथितत्त्वोदाहृतदेवीपुराणाच्च\। अष्टम्युपवासफलमुक्तं तिथितत्त्वे देवीपुराणे —
**एकादशी कोटिसहस्रतुल्या सिताष्टमी पर्वतराजपुत्र्याः।
ततोऽपि140 शुक्ला गुणिता शतेन पराशरव्यासवसिष्ठमुख्यैः ॥ **
इति। अत्र पूजादौ तिथिनिर्णयोऽष्टमीनिर्णयप्रकरणे वक्ष्यते । नवम्यामपि पूजोक्ता हेमाद्रौ भविष्योत्तरे —
अष्टम्यां च नवम्यां च जगन्मोक्षप्रदाम्बिकाम्।
पूजयित्वाऽऽश्विने मासि विशोको जायते नरः॥
संतर्जयन्ती हुंकारैर्विघ्नौघच्छेदकृत्परा।
नवम्यां पूजिता देवी ददात्यनवमं फलम्॥
सा पुण्या सा पवित्रा च सुधर्मसुखदायिनी।
तस्यां सदा पूजनीया चामुण्डा मुण्डमालिनी।
तस्यां ये ह्युपयुज्यन्ते प्राणिनो महिषादयः।
सर्वे ते स्वर्गतिं यान्ति घ्नतां पापं न विद्यते॥
न तथा बलिदानेन पुष्पधूपविलेपनैः।
यथा संतुष्यते मेषैर्महिषैविन्ध्यवासिनी॥
इत्यायुपक्रम्य, अष्टम्यां पूजाजागरणे उक्त्वोक्तम् —
हृष्टैर्निशां ततो नीत्वा प्रभाते अरुणोदये॥
घातयेन्महिषान्मेषानग्रतो नतकंधरान्।
शतमर्धशतं वाऽपि तदर्थं वा यथेच्छया॥
सुरासवभृतैः कुम्भैस्तर्पयेत्परमेश्वरीम्।
कापालिकेभ्यस्तद्देयं तथा इष्टजनेष्वपि॥
विभज्य सर्वं कौन्तेय सुहृत्संबन्धिबन्धुषु।
ततोऽपराह्नसमये नवम्यां स्यन्दने स्थिताम्॥
भवानीं भ्रामयेद्राष्ट्रे स्वयं राजा स्वसैन्यवान्।
सुविदग्धैः पूरुषैर्वा रथयुक्तैः सुपूजितैः॥
शनैः शनैरम्बिकाया ज्वलद्भिर्दीपवृक्षकैः।
आकृष्टखड्गैर्योधैश्च धानुष्कैः सुप्रवल्गितैः॥
नदद्भिः शङ्खपटहैर्नृत्यद्भिर्बहुवारकैः।
कश्चिञ्चोपोषितो वीरो विधृतोऽन्येन खड्गिना॥
भूतेभ्यस्तु बलिं दद्यान्मन्त्रेणानेन सामिषम्।
सरक्तं सजलं चान्नं गन्धपुष्पाक्षतैर्युतम्॥
त्रींस्त्रीन्वारांस्त्रिशूलेन दिग्विदिक्षु क्षिपेद्बलिम्।
बलिं गृह्णन्त्विमं देवा आदित्या वसवस्तथा।
मरुतश्चाश्विनौ रुद्राः सुपर्णाः पन्नगा ग्रहाः॥
असुरा यातुधानाश्चपिशाचा मातरो गणः।
डाकिन्यो यक्षवेताला योगिन्यः पूतनास्तथा॥
जृम्भकासिद्धगन्धर्वा मालाविद्याधराः पराः।
दिक्पाला लोकपालाश्चये च विघ्नविनायकाः॥
जगतां शान्तिकर्तारो ब्रह्माद्याश्चमहर्षयः।
मा विघ्नं मा च मे पापं मा सन्तु परिपन्थिनः॥
सौम्या भवन्तु उग्राश्चभूतप्रेताः सुखावहाः।
इत्येवं भ्रामयेद्राष्ट्रे दुर्गांदेवीं रथे स्थिताम्॥
नरयानेन वा पार्थ ततोऽविघ्नं समापयेत्।
एवं ये कुर्वते यात्रां राजानोऽन्येऽपि मानवाः॥
महानवम्यां नन्दायाः पुत्रिकाहृष्टमानसाः।
ते सर्वे पापनिर्मुक्ता यान्ति भागवतीं पुरीम्॥
नीरुजाः सुखिनो भोगान्भोक्तारो रोगवर्जिताः।
भवन्ति पुरुषा भक्ता भगवत्याः किमुच्यते॥
इति बलिदानादिकमुक्तम् । तत्र पशुरूपबलिदान इतिकर्तव्यतोक्ताकालिकापुराणे —
उत्तराभिमुखो भूत्वा बलिं पूर्वमुखं141 तथा।
निरीक्ष्य साधकः पश्चादिमं मन्त्रमुदीरयेत्॥
पशुस्त्वं बलिरूपेण मम भाग्यादुपस्थितः।
प्रणमामि ततः सर्वरूपिणं बलिरूपिणम्॥
चण्डिकाप्रीतिदानेन दातुरापद्विनाशन।
चामुण्डाबलिरूपाय बले तुभ्यं नमोऽस्तु ते॥
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा।
अतस्त्वां घातयिष्यामि तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः॥
ऐं हींश्रीमिति मन्त्रेण तं बलिं मत्स्वरूपिणम्।
चिन्तयित्वा न्यसेत्पुष्पं मूर्ध्नि तस्य तु भैरव॥
अभिषिच्य बलिं पश्चात्करवालं तु पूजयेत्।
रसना त्वं चण्डिकायाः सुरलोकप्रसाधक॥
ह्रीं ह्रीं खड्गेति मन्त्रेण ध्यात्वा खड्गं तु पूजयेत्।
पूजयित्वा ततः खड्गमां ह्रीं फडिति मन्त्रकैः॥
गृहीत्वा विमलं खड्गं छेदयेद्बलिमुत्तमम्।
ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं कौशिकीति रुधिरेणाऽऽप्यायतामिति॥
स्थाने नियोजयेद्रक्तं142 शिरश्च सप्रदीपकम्।
एवं दत्त्वा बलिं पूर्णंफलं प्राप्नोति साधकः॥
बलिदाने तु दुर्गायाः सर्वत्रैष विधिः स्मृतः। इति ।
इदं बलिदानमग्रीषोमीयपशुवद्वैधमपि
तदर्धयामिनीशेषे विजयार्थं नृपोत्तमः।
पञ्चाब्दं लक्षणोपेतं गन्धपुष्पस्रगर्चितम्॥
इत्यादौक्षत्रियादेरेवाधिकार143 इत्युक्तत्वात्। तस्यापि काम्यमेव विजयार्थमित्युक्तेः। ब्राह्मणस्य तु न भवत्येव तस्य सात्त्विकपूजायामेवाधिकार इत्युक्तत्वात्तत्र मांसादेर्निषेधात्।
लब्धाभिषेका वरदा शुक्लेचाऽऽश्वयुजस्य च।
तस्मात्सा तत्र संपूज्या नवम्यां चण्डिका बुधैः॥
इति तिथितत्त्वे भविष्याच्चपूजैव कार्या \। ब्राह्मणेनापि बलिदानं कर्तव्यं चेन्माषभक्तादिना कार्यम्।
माषकूष्माण्डमांसाद्यैर्देयो दिक्षु बलिर्निशि।
कूष्माण्डमिक्षुदण्डश्चमद्यमासव एव च॥
एते बलिसमा ज्ञेया तृप्तौ छागसमाः स्मृताः।
इति कालिकापुराणात्॥
छागाभावे तु कूष्माण्डं श्रीफलं वा मनोहरम्।
वस्त्रसंवेष्टितं कृत्वा छेदयेच्छुरिकादिना॥
इति रुद्रयामलात् । होमैर्ब्राह्मणतर्पणैरिति पूर्वोदाहृतब्रह्मपुराणेन।
पूर्वाषाढायुताष्टम्यां पूजाहोमाद्युपोषणम्।
इत्यनेन चाष्टम्याम्।
नवम्यां बलिदानं चकर्तव्यं वै यथाविधि।
जपहोमं च विधिवत्कुर्यात्तत्र विभूतये॥
इति नवम्यां च होमविधाना।अष्टम्यामारभ्य नवम्यां समापनीयः,शिष्टसमाचारात्। नवम्यामेव वा कार्यः। होमद्रव्यं च तिलाज्यादिकम्। पूजयेत्तिलहोमैश्च दधिक्षीरघृतादिभिः।
इति देवीपुराणात् । मन्त्रश्च जयन्तीत्यादिः।
अनेनैव तु मन्त्रेण पूजाहोमादि कारयेत्॥
इति देवीपुराणात्।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषेति रहस्येऽभिधानान्मार्कण्डेयपुराणगतसप्तशत्याः प्रतिश्लोकेन स्वाहान्तेन तिलसर्पिर्युतपायसेन वा कार्यः । अत्र पूजाहोमादौ नवमी पूर्वविद्धा बलिदाने तूत्तरेति नवमीनिर्णयप्रकरणे वक्ष्यते । एवं च नवम्यां पूजाहोमबलिदाने कृते हेमाद्र्युदाह्रतपुराणेषु नवम्यामुपवासविधानाभावात्।
विभज्य सर्वं कौन्तेय सुहृत्संबधिबन्धुषु।
इत्यनेन बलिदानोत्तरं पूर्वाह्णएव सुरासवादिदानविधानात्, अपराह्णॆविहितयात्राकाले।
कश्चिच्चोपोषितो वीरो विधृतोऽन्येन खड्गिना।
भूतेभ्यस्तु बलिं दद्यान्मन्त्रेणानेन सामिषम्॥
इत्यनेन बलिदानकर्तुरेव तात्पर्यं तमुपोष्यत्वाभिधानात्, ततो विघ्नं समापयेदित्यग्रे समाप्तिश्रवणाच्च।
नवम्यां पूर्ववत्पूजा कर्तव्या भूतिमिच्छता।
दक्षिणां वस्त्रयुग्मं च आचार्याय निवेदयेत्॥
इति तिथितत्त्वोदाहृतमत्स्यसूक्ते नवम्यामेव दक्षिणाविधानात्, बर्हिषि पूर्णपात्रं निनयेदेषोऽवभृथः पाकयज्ञानामेतत्तन्त्रं हविरुच्छिष्टं दक्षिणेति।
ब्रह्मणे दक्षिणा देया यत्र या परिकीर्तिता।
कर्मान्तेऽनुच्यमानायां पूर्णपात्रादिका भवेत्॥
इत्याश्वलायनच्छन्दोगपरिशिष्टादिभिर्दक्षिणायाः कर्मसमाप्तिसमानकालत्वप्रतिपादनात्प्रकृते नवम्यां दक्षिणाविधानेन नवम्यामेव नवरात्रव्रतसमाप्तिनिश्चयात्।
पारणान्तं व्रतं ज्ञेयं व्रतान्ते तद्धि भोजनम्।
इति व्रतान्ते विहितं पारणमपि नवम्यामेव कार्यम्।
अष्टम्यां समुपोष्यैवं नवम्यामपरेऽहनि।
मत्स्यमांसोपहारेण दद्यान्नैवेद्यमुत्तमम्॥
तेनैव विधिनाऽन्नं तु स्वयं भुञ्जीत नान्यथा॥
इति तिथितत्त्वोदाहृतदेवीपुराणेऽपि नवम्यामेव पारणविधानाच्च\। न चात्र मांसश्रवणात्सात्त्विकपूजाधिकारिबाह्मणविषयमिदं कथमिति शङ्क्यम् \। मत्स्यमांसोपहारेणेति तृतीयया तस्योपसर्जनत्वबोधनान्नैवेद्यस्य प्राधान्यात्तत्र144 ब्राह्मणाधिकारस्य निर्विवादत्वात्।
" एवं च विन्ध्यवासिन्यां नवरात्रोपवासतः।
एकभक्तेन नक्तेन स्वशक्त्याऽयाचितेन वा ॥ पूजनीया जनैर्देवी̋
इति भविष्योत्तरेणोपवासाद्यन्यतमनियमयुक्तैर्नवरात्रे देवी पूजनीयेति विधीयत इति निर्विवादम् । तत्रैकभक्तेनेत्यादि तृतीयान्तपाठादुपवासत इत्यत्र, आद्यादित्वात्तृतीयान्तात्तसिः । नवरात्र इति पृथगेव पदं संधिस्तु तद्दिनैकादशीव्रतमित्यादाविव च्छान्दसत्वात्समासस्तु न शङ्कनीय एव, उपवासत इत्यस्य कर्तृविशेषणत्वेन नवरात्र इत्यस्य पूजनक्रियाविशेषणत्वेन परस्परमन्वयासंभवात्।
शारदीया महापूजा चतुष्कर्ममयी145 शुभा।
तां तिथित्रयमासाद्य कुर्याद्भक्त्या विधानतः॥
इति लिङ्गपुराणेनापि सप्तम्यष्टमीनवमीषुस्नपनपूजनबलिदानहोमरूपचतुष्कर्मात्मकपूजैव विधीयते । सा तु नवम्यामपि संपन्नैव । तथा च तेनैव विधिनाऽन्नं तु स्वयं भुञ्जीतेति देवीपुराणेननवम्यां विधीयमाना पारणा हेमाद्रिनिर्णयामृतमदनरत्नाद्युदाहृतदेवीब्रह्मस्कन्दभविष्यत्पुराणसंमतैवेति सिद्धम् । यत्तु द्वैतनिर्णये शंकरभट्टैः —“वासन्ते नवरात्रे तु पूज्यां146सा रक्तदन्तिका’ इति प्रकम्योक्तं रुद्रयामले —
नवम्यां वा विशालाक्षि कार्या होमादिकाः क्रियाः।
पारणं च प्रकुर्वीत देवीपूजनपूर्वकम् ॥ इति।
नारदीयपुराणे —
हविर्द्रव्याणिजुहुयाद्दुर्गाष्टम्यां विशेषतः।
रात्रौ जागरणं कुर्याद्गीतवाद्यपुरःसरम्॥
ततः प्रभाते विमले स्रानं कृत्वा यथाविधि।
इत्यादिनाऽष्टम्युत्तरदिनकृत्यं विधायान्तेऽभिहितम —
स्वयं च पारणं कुर्यादिष्टबन्धुजनैः सह।
अहःशेषं समासीत शिष्टेरिष्टैः शिवाप्रियैः॥
इति नवम्यां पारणा गम्यते । रुद्रयामलेऽपि —
प्रत्यहं पूजनं कुर्यात्त्रिकालं भक्तितत्परः॥
अष्टम्यां जागरं चैव महापूजनपूर्वकम्।
होमं कुर्यान्महारात्रेबलिदानं च माधव॥
प्रातर्वैपारयेद्देवींब्रह्माणान्भोजयेत्तथा147।
कुमारीणां च नवकं संभोज्य विविधान्नकैः॥
स्वयं च पारणं कुर्याद्रात्रौजागरणं तथा।
दशम्यामभिषेकं च कृत्वा मूर्तिंविसर्जयेत्॥ इति ।
अत्राष्टमीकृत्यानन्तरं दशमीकृत्याभिषेकादेः पूर्वं पारणा गम्यते। रुद्रयामलेऽष्टमेऽध्याये —
आश्विने मासि संप्राप्ते शुकृपक्षे विधेस्तिथिम्।
प्रारभ्यं नवरात्रं स्यादुर्गापूजा च तत्र वै॥
उपोषणेन नक्तेन एकभक्तेन वा पुनः।
हविष्यान्नेन वा देव प्रत्यहं पूजयेच्छिवाम्॥
व्रतोपवासपूजादौ दिनहानिं च कारयेत्।
न देवदिवसस्यात्र वृद्धिः कार्या विजानता॥
तिथिवृद्धिं च यः कुर्यादज्ञानाज्ज्ञानतोऽपि वा।
परलोके भवेत्पीडा प्रेतत्वजनिता स्थिरा।
भगवत्याश्च पीडा स्यादुपवासेन केशव॥
तस्मान्न वर्धयेद्देव दिवसं दुर्गपूजने।
प्रत्यहं पूजने प्रोक्तो विधिर्देवमहर्षिभिः॥
तिथिवृद्धौ न कार्यः148 स्यात्तस्मान्नो वर्धयेद्दिनम्।
अत्रोपवासाधिक्यनिषेधादष्टावेवोपवासा न तु नवरात्रसमारख्यामात्रेण नवम्युपवासः कर्तव्य इति वदन्ति। तदेतद्वालसंमोहनमात्रं देवानां प्रिया आद्रियन्ते, नवम्युपवासविध्यभावे ह्येतदेवं स्यादस्ति त्वसौ।
आश्विने प्रतिपन्मुख्याः पुण्यास्तु तिथयो नव।
देविकापूजने प्रोक्ताः सर्वकामफलप्रदाः॥
इति देवीपुराणम् । अत्र देवीपूजायामिव फलिसंस्कारकोपवासेऽपि नवसंख्या प्राप्नोति । किं च
एवं च विन्ध्यवासिन्यां नवरात्रोपवासतः॥इति।
अत्रोपवासे कालतत्संख्ययोरपेक्षितत्वान्नवरात्रे नवसु तिथिषूपवासितः कृतोपवास इति विग्रहान्नवसंख्यापूरकनवमीरूपकालविधिरुपवासे सिद्ध इत्युक्तम् । इदमेव बालसंमोहनम् । तथा हि —
तेनैव विधिनाऽन्नं तु स्वयं भुञ्जीत नान्यथा।
इति देवीपुराणवचनान्तरेण नवम्यां पारणाविधानात्प्रथमवाक्ये नवम्युपवासकल्पनाया बाधितत्वान्नवसु तिथिषु कृतोपवास इत्यर्थकल्पना तु उपवासत इत्यस्य —
एकभक्तेन नक्तेन स्वशक्त्याऽयाचितेन वा।
पूजनीया जनैर्देवीत्यग्रिमेणैवान्वयात्तत्र पूजनीयेति कर्मण्यनीयर्प्रत्ययान्तोपस्थितपूजनयाक्रियायां प्रथमान्तोपस्थितार्थस्यान्वयासंभवाज्ञानमूलत्वाद्धेमाद्रिनिर्णयामृतमदनरत्नादिषूपवासत इत्येव पाठेनोपवासित इति पाठस्य प्रामादिकत्वाच्चायुक्तैव। तस्मादयुक्तो द्वैतनिर्णयस्तदनुयायिमयूखादिरपि । अत एव
लब्धाभिषेका वरदा शुक्ले चाऽऽश्वयुजस्य च।
तस्मात्सा तत्र संपूज्या नवम्यां चण्डिका बुधैः॥
इति नवम्यां पूजाऽऽवश्यकीत्यर्थाद्दशम्यां देवीविसर्जनं नियमत्यागश्चेति । एवं सति यत्केषांचिद्धान्तानां नवमीपारणाचरणं तन्मूलभूतवचनकल्पनं च तत्सर्वं शिष्टैः कदाचिदष्टमीयुक्तनवम्यां नवमीकृत्ये जाते द्वितीयनवम्यां क्रियमाणां पारणामुपलभ्य तत्र नवमीप्रयुक्तभ्रान्त्या प्रवृत्तमित्युपेक्षणीयमिति कालतत्त्वविवेचनमपि नवम्यां पारणाविधायकदेवीपुराणादिवचनविरोधादुपेक्ष्यम् । अत एवैतन्मूलककालनिर्णयकृत्यरत्नावल्यावपि। यस्तु कृत्यरत्नावल्याम् —
तस्मादियं महापुण्या नवमी पापनाशिनी।
उपोष्या तु प्रयत्नेन सततं सर्वपार्थिवैः॥
इति श्लोको लिखितः सोऽपि पूर्वोदाहृतवचनविरुद्धत्वादाकरालेखनाच्चनिर्मूल एव । समूलश्चेत्तर्हि स्वातन्त्र्येणोपवासविषयको न तु नवरात्रसंबन्धित्वेन । अत एव यानि तु कैश्चिल्लिखितानि नवम्यां पारणविधायकानि वचनानि, तानि हेमाद्र्यादिविरुद्धत्वान्निर्मूलानीति
निर्णयसिन्धुर्हेमाद्र्युदाहृतसर्ववचनाविरुद्धमत्स्यसूक्तदेवीपुराणवचनदर्शनाभावप्रयुक्तत्वादुपेक्ष्य एव। अत एव पूर्वोदाहृतवचनद्वैधाद्दाक्षिणात्यानां नवम्यां पारणाचारदर्शनात् । प्राच्यानां तु दशम्यामेव तद्दर्शनाद्यथाचारमेव व्यवस्थोचितेति स्मृतिकौस्तुभः। एवं च दशम्यांपारणबोधका अन्येऽप्यर्वाचीनग्र149न्थाअपीति विभावनीयम्। तस्मात् —
अष्टम्यां समुपोष्यैव नवम्यामपरेऽहनि।
मत्स्यमांसोपहारेण दद्यान्नैवेद्यमुत्तमम्॥
तेनैव विधिनाऽन्नं तु स्वयं भुञ्जीत नान्यथा।
इति तिथितत्त्वोदाहृतदेवीपुराणेनाष्टम्युपवासोत्तरदिने विधीयमानं पारणमष्टम्युपवासनवमीसमाप्तिसूचकानामष्टम्यामुपवासयेदिति, नवम्यां तु कृतस्नानैः सर्वैः पूज्यास्तु ब्राह्मणा इति ततोऽविघ्नं समापयेदिति हेमाद्र्युदाहृतदेवीबह्मभविष्योत्तरपुराणवचनानाम्
नवम्यां पूर्ववत्पूजा कर्तव्या भूतिमिच्छता।
दक्षिणां वस्त्रयुग्मं च आचार्याय निवेदयेत्॥
इति मत्स्यसूक्तस्य चाविरोधेनैव विधीयत इति नवम्यामेव पारणं युक्तमिति सिद्धम्। अत एव
स्वयं च पारणं कुर्यादिष्टबन्धुजनैः सह।
इति नवम्यां पारणाविधायकद्वैतनिर्णये नारदीयं संगच्छते । यानि तु
अष्टम्या सह कार्या स्यान्नवमी पारणादिने। इति।
नवम्यां पारणं कुर्याद्दशमीमिश्रिता न चेत्।
इत्यादिवचनानितानि150पूर्वत्रैवोपवासयोग्या शुद्धाधिका विद्धाधिका वाऽष्टमी दशम्यां नवमी151 च तद्विषयाणि उदाहृतवचनविरोधात् । अत एव
अष्टम्यां जागरं कुर्यान्नवम्यां पारणं तथा।
दशम्यां च विसर्गः स्यादभिषेकश्च माधव॥
नवम्यां च विशालाक्ष कार्या होमादिकाः क्रियाः।
पारणं च प्रकुर्वीत देवीपूजनपूर्वकम्॥
यो मोहात्पारणं कुर्याद्दशमीदिवसे विभो।
तद्राष्ट्रं नाशमायाति दुर्भिक्षादिभयं भवेत्॥
नृपहीनं भवेद्राष्ट्रं दशम्यां पारणे कृते।
तस्मात्तु पारयेद्देव नवम्यां भक्तितत्परः॥
नवम्यां पारिता देवी कुलवृद्धिं प्रयच्छति।
दशम्यां पारिता देवी कुलनाशं करोति वै॥
तस्मात्तु पारणं कुर्यान्नवम्यां विबुधाधिप।
इति नवमीपारणसाधकतया भट्टोजीदीक्षितलिखितडामररुद्रयामलवचनानां स्वातन्त्र्येण प्रामाण्याभावेऽप्युदाहृतपुराणवचनोपबृंहणतयाप्रामाण्यं संगच्छते। इति नवरात्रपूजाविधिर्नवरात्रपारणनिर्णयश्च । विजयादशमीकृत्यं तन्निर्णयश्च दशमीनिर्णयप्रकरणे वक्ष्यते । इत्याश्विनशुक्लप्रतिपन्निर्णयः।
कार्तिकशुक्लप्रतिपदि बल्युत्सवस्तत्र प्रतिपन्निर्णयश्च चतुर्दशीप्रकरणे दीपावलीनिर्णये वक्ष्यते । मार्गशीर्षप्रतिपद्बृहत्तपाभिधेति सामान्यनिर्णय उक्तम् —
रोहिणीप्रतिपद्युक्ता मार्गे मासि सितेतरा।
गङ्गायां यदि लभ्येत सूर्यग्रहशतैः समा॥
इति तिथितत्त्वे भविष्यम् । हुताशन्युत्तरायां फाल्गुनकृष्णप्रतिपदि कर्तव्यमुक्तं हेमाद्रौपाद्मे—
चेत्रे मासि महाबाहो पुण्या प्रतिपदा परा।
तस्यां यः श्वपचं दृष्ट्वा स्रानं कुर्यान्नरोत्तमः॥
निर्णयामृते भविष्योत्तरे स्पृष्ट्वेति पाठः।
न तस्य दुरितं किंचिन्नाऽऽधयो व्याधयो नृप।
भवन्ति कुरुशार्दूल तस्यां स्नानं समाचरेत्।
दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशकम्॥
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं भूषयेन्नरः152।
चूर्णवस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणाधस्ततो नयेत्153॥
ब्राह्मणानां तथा भोज्यं कुर्यात्कुरुकुलोद्भव । इति ।
भविष्योत्तरे —
प्रवृत्ते मधुमासे तु प्रतिपद्युदिते रवौ।
कृत्वाऽऽवश्यककर्माणि संतर्प्य पितृदेवताः॥
वन्दयेद्धोलिकाभूतिं सर्वदुष्टोपशान्तये।
मन्त्रश्च—
वन्दिताऽसि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शंकरेण च।
अतस्त्वं पाहि नो देवि विभूते भूतिदा भव ॥ इति।
मण्डिते चर्चितेचैव उपलिप्ते गृहाजिरे।
चतुष्कं कारयेच्छ्रेष्ठं वर्णकैश्चाक्षतैः शुभैः॥
तन्मध्ये स्थापयेत्पीठं शुक्लवस्त्रोत्तरच्छदम्॥
अग्रतः पूर्णकलशं स्थापयेत्पल्लवैर्युतम्।
साक्षतं सहिरण्यं च सितचन्दनचर्चितम्॥
आसने चोपविष्टस्य ब्रह्मघोषेण भारत।
चर्चयेञ्चन्दनैर्नारी अव्यङ्गाङ्गी सुशोभना154॥
पद्मरागोत्तरपटा श्रेष्ठांशुकविभूषिता।
वसुधाद्यं शिरोन्तं च दधिदूर्वाक्षतान्वितम्॥
**वर्धापयित्वा श्रीखण्डमायुरारोग्यवृद्धये। **
वसुधाद्यमिति चरणद्वयमारभ्य जानुद्वयांसद्वयादिस्पर्शक्रमेण दधिदूर्वाक्षतसहितं श्रीखण्डं सुवासिन्यादिनोक्तक्रमेण शिरस्यारोपणरूपं वर्धापनं कृत्वेत्यर्थः।
पश्चाञ्च प्राशयेद्विद्वांश्चूतपुष्पं सचन्दनम्।
मनोभवस्य सा पूजा ऋषिभिः परिकीर्तिता॥
दूतमग्न्यंवसन्तस्य माकन्द कुसुमं तव।
सचन्दनं पिबाम्यद्य सर्वकामसमृद्धये॥
इति प्राशनमन्त्रः।
अनन्तरं द्विजेन्द्राणां सूतमांगधबन्दिनाम्॥
दद्याद्दानं यथाशक्त्या कामो मे प्रीयतामिति॥
ततो भोजनवेलायां गृतं पाकेन तेन हि।
प्राशयेत्प्रथमं चान्नं ततो भुञ्जीत कामतः॥
एवं यः कुरुते पार्थ शास्त्रोक्तं फाल्गुनोत्सवम्।
अनायासेन सिध्यन्ति तस्य सर्वे मनोरथाः॥इति ।
पुराणसमुञ्चयेऽपि —
वृत्ते तुषारसमये सितपञ्चदृश्यां
प्रातर्वसन्तसमये समुपस्थिते च।
संप्राश्य चूतकुसुमं सह चन्दनेन
सत्यं हि पार्थ पुरुषोऽथ समां सुखी स्यात्॥इति ।
अत्र पूर्वाह्णस्य कर्मकालत्वात्कर्मणो यस्य यः काल इति वचनात्प्रतिपत्सद्वितीया स्यादिति वचनाच्चौदयिकी प्रतिपद्ग्राह्या। दिनद्वये तथात्वे पूर्वैव वसन्तादावेव तद्विधानात्। निर्णयामृते तु पूर्वविद्वेत्युक्तम् । तच्चप्रातः पूर्णिमाकालेऽनुष्ठाने प्रवृत्ते मधुमास इति प्रातर्वसन्तसमय इत्यादिवचनविरोधादपराह्णॆऽनुष्ठाने प्रातर्वसन्तसमय इत्यत्र प्रातर्ग्रहणस्य प्राशनानन्तरकृत्यविधायकततोभोजनवेलायामित्यादिविरोधाच्चिन्त्यम्।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौकालखण्डे प्रतिपन्निर्णयः॥
अथ द्वितीया निर्णियते।
तत्र शुक्लद्वितीया तृतीयायुतैव ग्राह्या युग्माग्नीतिनिगमवाक्यात्। ननु युग्मेत्यनेन द्वितीयासामान्यस्यैव प्रतीतेः कथं शुक्लद्वितीयामात्रपरत्वमस्येति चेत् [न] । प्रतिपद्यप्यमावास्येत्यत्र कृष्णप्रतिपदोऽमावास्यायुक्तत्वासंभवात्तिथ्योर्युग्मं महाफलमित्यनेन शुक्लप्रतिपदमावास्यायुग्मस्यैवप्राशस्त्यबोधनात्, शुक्कुप्रतिपद्वितीययोर्व्यस्तत्वेन, एतद्व्यस्तं महाघोरमित्यनेनानिष्टत्वबोधनात्, युग्मानीति शुक्लद्वितीयातृतीययोरेव युग्मत्वेन प्राशस्त्यबोधनाच्च, द्वितीयाप्रतिपद्युतेत्यापस्तम्बवचनस्य निरवकाशत्वापतेश्च \। तृतीयया युता कार्या द्वितीया न तु पूर्वयेतिः माधवोदाहृतव्यासवचनम् ।
एकादश्यष्टमी षष्ठी द्वितीया च चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोप्याः परान्विताः॥
इति भृगुस्मृतिवचनमपि शुक्लद्वितीयाविषयमेव। कृष्णद्वितीया तु पूर्वयुतैव ग्राह्या द्वितीया प्रतिपद्युतेत्यापस्तम्बवचनात्। एतस्य शुक्लद्वितीयाविषयत्वे निगमवाक्यविरोधापत्तेः कृष्णविषयकमेवेदम्।
तृतीयैकादशी षष्ठी तथाचैवाष्टमी तिथिः।
वेधादधस्ताद्धन्युस्ता उपवासे तिथीस्त्विमाः॥
इति नारदीयपुराणवचनमपि। कृष्णद्वितीयाऽपि मुहूर्तत्रयात्मकपूर्वाह्णस्पर्शिन्येव पूर्वा पूर्वाह्णानन्तरप्रवृत्ता तु कृष्णाऽप्युत्तरैव।
**प्रतिपत्संमुखी कार्या या भवेदापराह्णिकी। **
पैर्वाह्णिकी च कर्तव्या द्वितीया तादृशी विभो॥
इति हेमाद्रिमाधवाद्युदाहृतस्कन्दपुराणवचनात्। तादृशी संमुखी । तथा च पूर्वाह्णस्पर्शिन्येव पूर्वविद्धेत्यर्थः। एतस्यापि शुक्लद्वितीयाविषयत्वेऽप्राप्तस्य पूर्वविद्धत्वस्यपौर्वाह्णिकत्वस्य च विधातव्यत्वेन गौरवापत्तेः, कृष्णद्वितीयाविषयत्वे तु तस्याः पूर्वविद्धत्वस्य वचनान्तरैण प्राप्तत्वात्, अप्राप्तपौर्वाह्णिकमात्रविधाने लाघवात् तस्मात्पूर्वदिन उदयानन्तरं प्रवृत्ता शुक्लद्वितीया पूर्वाह्णानन्तरं प्रवृत्ता कृष्णाऽप्युत्तरैव, शुद्धाधिका द्वितीयदिने मुहूर्तत्रयान्न्यूनत्वे पूर्वैवेति सिद्धम्। द्वितीया सर्वाऽप्युत्तरा पूर्वविद्धाविधायकवचनानि यमद्वितीयाशून्यशयनद्वितीयाविषयाणीति निर्णयामृत उक्तम्, तत्सामान्यविषयकपूर्वविद्धाविधायकवचनानां विशेषमात्रपरत्वेन संकोचे प्रमाणाभावाद्धेमाद्रिमाधवमदनरत्नादिविरोधाच्चोपेक्ष्यम् । इति द्वितीयासामान्यनिर्णयः।
चैत्रशुक्लद्वितीयायामुमादिपूजोक्ता निर्णयामृते भविष्योत्तरे —
चैत्रशुक्लद्वितीययामुमापूजा155 फलार्थिभिः।
शिवपूजाऽग्निपूजा च कर्तव्या मुनिसत्तम॥इति ।
हेमाद्रौ देवीपुराणे —
**उमां शिवं हुताशं च द्वितीयायां प्रपूजयेत्। **
हविष्यमन्त्रं नैवेद्यं देयं गन्धार्चनान्वितम्॥
प्रकरणाद्दमनकमित्यर्थः।
फलमाप्रोति विप्रेन्द्र सर्वक्रतुसमुद्भवम्। इति।
अत्र दैविकत्वात्पौर्वाह्णिकी द्वितीया ग्राह्या।
चतुर्ष्वसितपक्षेषु मासेषु श्रावणादिषु।
**अशून्याख्यं व्रतं कुर्याज्जयया तु फलाधिकम्॥ **
इति श्रावणादिकृष्णद्वितीयास्वशून्यव्रतमुक्तम् । तत्र
**चन्द्राय चार्घ्यो दातव्यो दध्यक्षतफलादिभिः। **
इति चन्द्रार्घ्यविधानात्
** एकभक्ते दिवा नक्ते निशि चन्द्रोदयव्रते।**
**तिथिस्तात्कालिकी ग्राह्या पारणे त्वपरा तिथिः॥ **
इति मदनरत्नाद्युदाहृतस्मृतिसंग्रहे चन्द्रोदयव्यापिनी ग्राह्येत्युक्तत्वात्पूर्वदिन एव तद्व्याप्तौपूर्वा, उभयत्र तद्व्याप्तावव्याप्तौ च जयया तु फलाधिकमित्युक्तत्वात्परैवेति।
ऊर्जे शुल्कद्वितीयायामपराह्णॆऽर्चयेद्यमम्।
स्नानं कृत्वा भानुजायां यमलोकं न पश्यति॥
इति स्कान्दे । तथा —
कार्तिके शुक्लपक्षस्य द्वितीयायां तु नारद।
**यमो यमुनया पूर्वं भोजितः स्वगृहेऽर्चितः॥ **
अतो यमद्वितीयेयं त्रिषु लोकेषु विश्रुता।
अस्यां निजगृहे विप्र न भोक्तव्यं ततो बुधैः॥
स्नेहेन भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं पुष्टिवर्धनम्।
दानानि च प्रदेयानि भगिनीभ्यो विधानतः॥
**सर्वा भगिन्यः संपूज्या अभावे प्रतिपन्नकाः॥ **
इति प्रतिपन्नका भगिनीत्वेन कल्पिता इत्यर्थः। इयं मध्याह्नस्य भोजनकालत्वाद्भोजने मध्याह्नव्यापिनी यमपूजनेऽपराह्णव्यापिनी ग्राह्या । दिनद्वये तद्व्याप्तावव्याप्तौ च युग्माग्नीति वचनादुत्तरैव । हेमाद्रौ ब्रह्माण्डपुराणे —156
**बृहस्पतौद्वितीयायां विधिवद्विधिपूजनम्। **
**कृत्वा नक्तं समश्नीयाल्लभते भूतिमीप्सिताम्॥ **
विधिर्ब्रह्मा तत्पूजनं च गायत्र्याऽन्येन वा वैदिकेन नाममन्त्रेण वा कुर्यात् ।
इति आठवले उपनामक श्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे द्वितीयानिर्णयः।
अथ तृतीया निर्णीयते।
सा च रम्भाव्रत एव पूर्वविद्धा, तदतिरिक्तव्रतादिषूत्तरैव । तदुक्तं हेमाद्रौ ब्रह्मवैवर्ते —
रम्भाख्यां वर्जयित्वा तु तृतीयां द्विजसत्तम।
अन्येषु सर्वकार्येषु गणयुक्ता प्रशस्यते॥
गणश्चतुर्थी।
द्वितीययाऽनुविद्धा च तृतीया न कदाचन।
कर्तव्या व्रतिभिस्तात धर्मकामार्थतत्परैः॥
विहायैकां तु रम्भाख्यां तृतीयां पुण्यवर्धिनीम्।
तच्चात्र ऋषिभिः प्रोक्तं वचनं कृत्तिकासुत॥
बृहत्तपा तथा रम्भा सावित्री वटपैतृकी।
कृष्णाष्टमी च भूता च कर्तव्या संमुखी तिथिः॥
नान्येषु संमुखी कार्या तृतीया चाष्टमी द्विज।
युग्माग्रीति युग्मवाक्यमपि रम्भातृतीयाविषयमेव । ब्रह्मवैवर्ते —
तृतीया तु न कर्तव्या द्वितीयोपहिता विभो।
द्वितीयया युतां तां तु यः करोति नराधमः॥
संवत्सरकृतेनेह नरो धर्मेण मुच्यते।
द्वितीयाशेषसंयुक्तां तृतीयां कुरुते नृप॥
स याति नरकं घोरं कालसूत्रं भयंकरम्।
द्वितीयाशेषसंयुक्तां या करोति विमोहिता॥
सा वैधव्यमवाप्नोति प्रवदन्ति मनीषिणः॥
आपस्तम्बः —
चतुर्थीसंयुता या च सा तृतीया फलप्रदा।
अवैधव्यकरी स्त्रीणां पुत्रपौत्रप्रवर्धिनी॥
स्कान्दे —
तृतीया तु न कर्तव्या द्वितीयासंयुता तिथिः।
या करोति विमूढा स्त्री पुरुषो वा शिखिध्वज॥
द्वितीयासंयुतां तात पूर्वधर्माविलुप्यते।
विधवात्वं दुर्भगात्वं भवेन्नैवात्र संशयः॥
कला काष्ठाऽपि या चैव द्वितीया संप्रदृश्यते।
सा तृतीया न कर्तव्या कर्तव्या गणसंयुता॥
यदीच्छेत्परमं पुण्यं व्रतकर्ता शिखिध्वज।
इतिभविष्यत्पुराणे —
कार्या द्वितीयया सार्धंन तृतीया कदाचन । इति ।
अत्र शेषसंयुक्तेति कला काष्ठेति श्रवणाद्दशमवदल्पोऽपि द्वितीयायोगो गौरीव्रतेषु त्याज्यः। अत एव द्वितीयदिने मुहूर्तमात्राऽपि गौरीव्रते ग्राह्येति सूच्यते। अत एव —
मुहूर्तमात्रसत्त्वेऽपि दिने गौरीव्रतं परे।
शुद्धाधिकायामप्येवं गणयोगप्रशंसनात्॥
इति माधवेनोक्तम् । व्रतान्तरे तु त्रिमुहूर्तद्वितीयावेध एव निषिद्धः । द्वितीयदिने त्रिमूहूर्ततृतीयासत्वं मुहूर्तद्वयासत्त्वं वाऽऽवश्यकं तथा च द्वितीयदिने मुहूर्तसत्त्वाभावे गौरीव्रतेमुहूर्तद्वयाभावे व्रतान्तरेष्वपि पूर्वविद्धैव ग्राह्या । तदाह माधवे वसिष्ठः —
एकादशी तृतीया च षष्ठी चैव त्रयोदशी।
पूर्वविद्धा तु कर्तव्या यदि न स्यात्परेऽहनि ॥इति।
कृष्णाष्टमी बृहत्तपासावित्री वटपैतृकी।
अनङ्गत्रयोदशी रम्भा उपोष्याः पूर्वसंयुताः॥ इति निगमात्
एकादश्यष्टमी षष्ठी पौर्णमासी चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥
इति बृहस्पतिवचनाच्चोपवासेऽपि रम्भातृतीया पूर्वविद्धाऽन्या तूत्तरेति सिद्धम् । इति तृतीयासामान्यनिर्णयः ।
चैत्रशुक्लतृतीयायाम्।
तृतीयायां यजेद्देवीं शंकरेण समन्विताम्।
कुङ्कुमागरुकर्पूरमणिवस्त्रसुगन्धकैः॥
स्रग्गन्धधूपदीपैश्च दमनेन विशेषतः।
आन्दोलयेत्ततो वत्स शिवोमातुष्टये सदा॥
रात्रौ जागरणं कार्यंप्रातर्देया च दक्षिणा।
इति हेमाद्रिमदनरत्नोदाहृते स्कान्दे, निर्णयामृते च देवीपुराणे —
सौवर्णी तु उमा कार्या राजतः शंकरस्तथा।
चतुर्भुजस्तु देवेशो द्विभुजा तु उमा भवेत्॥
इति देवीपूजनाद्युक्तं तत्र गणयुक्ता प्रशस्यत इति वचनादुत्तरा ग्राह्या।
चैत्रे भाद्रपदे माघे रूपसौभाग्यसौख्यदम्।
तृतीयात्रयमेतन्मे कृष्ण कस्मान्न कीर्तितम्॥
इति भविष्योत्तरे चैत्रभाद्रपदमाघशुक्लतृतीयासु गौरीव्रतं विहितं
तत्र मुहूर्तमात्राऽप्युत्तरैव। इति चैत्रतृतीया। अथ वैशाखतृतीया\। साऽक्षय्यतृतीया युगादिश्च। तत्र —
वैशाखस्य तृतीयायां श्रीसमेतं जगद्गुरुम्।
नारायणं पूजयेथाः पुष्पधूपविलेपनैः॥
इति निर्णयामृतेभविष्योत्तरे विष्णुपूजोक्ता। तथा —
वैशाखे शुल्कपक्षे तु तृतीयायां तथैव च।
गङ्गातोये नरः स्नात्वा मुच्यते सर्वकिल्बिषैः॥
तस्यां कार्यो यवैर्होमो यवैर्विष्णुं प्रपूजयेत्।
यवान्दद्याद्द्विजातिभ्यः प्रयतः प्राशयेद्यवान् ॥इति ।
तथा —
उदकुम्भान्सकनकान्सान्नान्सर्वरसैः सह।
यवगोधूमचणकान्सक्तून्दध्योदनं तथा॥
ग्रैष्मिकंसर्वमेवान्नं सस्यं दाने प्रशस्यते। इति।
देवीपुराणे —
तृतीयायां तु वैशाखे रोहिण्यर्क्षे प्रपूज्य च ।
प्रकरणाद्गौरीमित्यर्थः।
उदकुम्भप्रदानेन शिवलोके महीयते ॥इति ।
मन्त्रस्तु—
एष धर्मघटो दत्तो ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः।
अस्य प्रदानात्सकला मम सन्तु मनोरथाः॥ इति।
पित्रुदेशेन दाने तु पूर्वार्धं तदेव।
अस्य प्रदानात्तृप्यन्तु पितरोऽथ पितामहाः।
गन्धोदकतिलैर्मिश्रं सान्नं कुम्भं फलान्वितम्॥
पितृभ्यः संप्रदास्यामि अक्षय्यमुपतिष्ठतु। इति।
यमः —
कृतोपवासाः सतिलं ये युगादिदिनेषु तु।
दास्यन्त्यन्नादिसहितं तेषां लोका महोदयाः॥ इति।
पानीयमप्यत्र तिलैर्विमिश्रं दद्यात्पितृभ्यः प्रयतो मनुष्यः। इति विष्णुपुराणम्। अत्र समुद्रस्नानं महाफलम्। तदुक्तं सौरपुराणे —
युगादौ तु नरः स्नात्वा विधिवल्लवणोदधौ।
गोसहस्रप्रदानस्य कुरुक्षेत्रे फलं च यत्॥
तत्फलं लभते मर्त्यो भूमिदानस्य च ध्रुवम्। इति।
अत्र तृतीया पौर्वाह्णिकी ग्राह्या। तदुक्तं भविष्योत्तरे —
द्वे शुक्लेद्वे तथा कृष्णे युगादी कवयो विदुः।
शुक्लेपौर्वाह्णिके ग्राह्ये कृष्णे चैवाऽऽपराह्णिके॥
नारदीयेऽपि —
वैशाखे शुक्लपक्षे तु तृतीया रोहिणीयुता।
दुर्लभा बुधवारेण सोमेनापि युता तथा॥
रोहिणीबुधयुक्ताऽपि पूर्वविद्धा विवर्जिता।
भक्त्या कृताऽपि मांधातः पुण्यं हन्ति पुराकृतम्॥
गोरी विनायकोपेता रोहिणीबुधसंयुता।
विनाऽपि रोहिणीयोगात्पुण्यकोटिप्रदा सदा॥इति।
गौरी तृतीया। विनायकश्चतुर्थी। इयं कस्मिंश्चित्कल्पे कृतयुगादिः। कस्मिंश्चित्कल्पे त्रेतायुगादिः। तदुक्तं हेमाद्रौस्कान्दे भविष्यत्पुराणे च —
नवम्यां शुल्कपक्षस्य कार्तिके निरगात्कृतम्।
राधे सिततृतीयायां त्रेता वैसमपद्यत॥
दर्शे तु माघमासस्य प्रवृत्तं द्वापरं युगम्।
कलिः कृष्णत्रयोदश्यां नभस्ये मासि निर्गतः॥
युगादयः स्मृता ह्येता दत्तस्याक्षयकारकाः॥इति।
नागरखण्डे —
अधुना शृणु राजेन्द्र युगाद्याः पितृवल्लभाः।
यासां संकीर्तनेनापि क्षीयते पापसंचयः॥
नवमी कार्तिकेशुक्ला तृतीया माधवे सिता।
अमावास्या तपसि च नभस्ये च त्रयोदशी॥
त्रेता कृतकलीनां तु द्वापरस्याऽऽदयः क्रमात्।
स्नाने दाने जपे होमेविशेषात्पितृतर्पणे॥
कृतस्याक्षयकारिण्यः सुकृतस्य महाफलाः।
माधवे वैशाखे । तपसि माघे । तत्रैव विष्णुभविष्यत्पुराणयोः —
वैशाखमासस्य तु या तृतीया नवम्यसौ कार्तिकशुक्लपक्षे।
नभस्य मासस्य तु कृष्णपक्षे त्रयोदशी पञ्चदशी तु माघे॥
एता युगाद्याः कथिताः पुराणां अनन्तपुण्यास्तिथयश्चतस्रः।इति।
ब्रह्मपुराणे —
वैशाखे शुक्लपक्षस्य तृतीयायां कृतं युगम्।
कार्तिके शुक्लपक्षे तु त्रेता च नवमेऽहनि॥
अथ भाद्रपदे कृष्णत्रयोदश्यां तु द्वापरम्।
माघे तु पौर्णमास्यां च घोरं कलियुगं तथा॥
युगारम्भास्तु तिथयो युगाद्यास्तेन कीर्तिताः।
फलं दत्तहुतानां च अनन्तं परिकीर्तितम्॥
तत्रैव भविष्यत्पुराणे —
वैशाखस्य तृतीया या समा कृतयुगेन तु।
नवमी कार्तिके या तु त्रेतायुगसमा तु सा॥
त्रयोदशी नभस्ये तु द्वापरेण समा तु सा।
माघे पञ्चदशी राजन्कलिकालसमा स्मृता॥
उपवासस्तपो दानं श्राद्धं होमो जपस्तथा।
यदासु क्रियते किंचित्सवं कोटिगुणं भवेत्॥इति।
कृतयुगेन समेति समग्रेऽपि कृतयुगे प्रत्यहं क्रियमाणेन कर्मणा यावत्पुण्यं भवति तावदस्यामेकस्यामेव तिथावित्यर्थः। अत्र कस्मिंश्चिकल्पे माघस्य पौर्ममास्यां कलियुगप्रवृत्तिः, कस्मिंश्चिदमावास्यायामिति कल्पभेदेन व्यवस्था \। तत्रापि—
नभस्यमासस्य तु कृष्णपक्षे त्रयोदशी पञ्चदशी तु माघे।
इत्यत्रामावास्यान्तभाद्रपदकृष्णपक्षस्य तद्ग्रहणान्माघस्याप्यमान्तस्यैव कृष्णपक्षस्य ग्रहणान्माघ्युत्तराऽमावास्यैवेति बोध्यम्।
कृतं श्राद्धं विधानेन मन्वादिषु युगादिषु॥
हायनानि द्विसाहस्रं पितॄणां तृप्तिदं भवेत्।
इत्यादिमात्स्यादिवचनैः एतांस्तु श्राद्धकालान्वै नित्यानाह प्रजापतिरित्यादिभिश्च युगादौश्राद्धस्य नित्यत्वाद्वैशाखतृतीयायां श्राद्धं नित्यम्। श्राद्धेऽपि —
शुल्केपौर्वाह्णिके ग्राह्ये कृष्णे चैवाऽऽपराह्णिके।
इति भविष्योत्तरवचने पूर्वाह्णापराह्णयोर्द्वयोरेव श्रवणात्॥
शुकृपक्षस्य पूर्वाह्णॆश्राद्धं कुर्याद्विचक्षणः।
कृष्णपक्षापराह्णॆतु रोहिणं तु न लङ्घयेत्॥
इति वचनाच्चद्वेधा विभक्तस्याह्नः पूर्वेभागः पूर्वाह्णॊद्वितीयभागोऽपराह्णस्तत्रापराह्णःपितॄणां तु याऽपराह्णानुयायिनीत्यादिनाऽऽपराह्णिकत्वस्य कृष्णायामिव शुक्लायामपि प्रसक्तौ शुल्कैपौर्वाह्णिक इत्यनेनपूर्वाह्णगाया एव विधानाद्गान्धर्वकुतूपरौहिणेतिमुहूर्तत्रयस्यैव युगादिश्राद्धकालत्वाद्गन्धर्वादिकुतूपपूर्वार्धान्तसार्धमुहूर्तव्यापिनी157 शुक्ला, कुतुपोत्तरार्धादिव्यापिनी158 कृष्णा ग्राह्या । उभयत्र व्याप्तावव्याप्तौ चशुक्लोत्तरा यदोत्तरत्र159 गान्धर्वात्पूर्वंसमाप्ता पूर्वत्र तद्व्यापिनी, तदा कर्मकालशास्त्रस्य प्राबल्यात्पूर्वा ग्राह्या । अत एव शुक्लपक्षस्य पूर्वाह्णॆश्राद्धमिति मार्कण्डेयवचनं युगादिविषयमिति हेमद्रिः। युगादिमन्वादिश्राद्धेषु शुक्लपक्ष उभयव्यापिनी तिथिर्ग्राह्याकृष्णपक्षेऽपराह्णव्यापिनीतिस्मृत्यर्थसारः।
वैशाखस्य तृतीयां यः पूर्वविद्वां करोति वै।
हव्यं देवा न गृह्णन्ति कव्यं च पितरस्तथा॥
इति दिवोदासीये गोभिलः।
पूर्वाह्णे तु सदा कार्या शुक्ला मनुयुगादयः।
दैवे कर्मणि पित्र्ये च कृष्णे चैवाऽऽपराह्णिके॥
इत्यर्वाचीनोदाहृतपद्यंच संगच्छते । श्राद्धेऽमावास्याऽऽपराह्णिकी।
एवं मन्वन्तरादीनां युगादीनां विनिर्णयः॥
इति कालादर्शः, निर्णयामृतश्च कृष्णपक्षीयतद्विषयतया नेयः।अन्यथोदाहृतवचनादिविरोधापत्तेः160। अत एव श्राद्धे युगादीनां शुक्लानामप्यापराह्णिकत्वबोधककालतत्त्वविवेचनकृत्यरत्नावल्याद्यर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्याः। न चैवं कृष्णपक्षीया युगादिः पूर्वदिने दशममुहूर्तमारभ्य प्रवृत्ताऽप्यपराह्णव्याप्तेः पूर्वा स्यादिति वाच्यम्। रौहिणं तु न लङ्घयेदित्यनेन कुतपोत्तरार्धमारभ्य रौहिणान्तसार्धमुहूर्तात्मकापराह्णादिभागस्यैव कर्मकालत्वप्रतिपादनादुत्तरत्रैव तद्व्याप्तिसत्त्वाद्द्वितीयैव ग्राह्या।
अयनद्वितये श्राद्धं विषुवद्वितये तथा।
युगादिषु च सर्वासु पिण्डनिर्वपणाद्रते॥
इतिवचनात्पिण्डरहितं श्राद्धं कर्तव्यम् । इदं युगादिकृत्यं युगादितिथिमध्य एव कार्यम्।
मन्वादौ च युगादौ च ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
व्यतीपाते वैधृतौ च तत्कालव्यापिनी क्रिया॥
इति स्कान्दात्। तथा मलमासेऽप्यवश्यं कार्यम्।
दशहरासु नोत्कर्षश्चतुर्ष्वपि युगादिषु।
इति ऋष्यशृङ्गवचनाद्वैशाखादिशब्दाश्चान्द्रमासवचना एव, तथाऽपि युगाद्युत्कर्षनिषेधपर्यालोचनया प्रसिद्ध्यानुगुण्यादनुष्ठानादरार्थं सौरमासगतैव युगादिर्ग्राह्येति हेमद्र्युक्तेश्च।
यौगादिकं मासिकं च श्राद्धं चाऽऽपरपक्षिकम्।
मन्वादिकं तैर्थिकं च कुर्यान्मासद्वयेऽपि च॥
इति स्मृतिचन्द्रिकावचनाच्छुद्धमासेऽप्यभ्युदयकरमिति बोध्यम्। अपरपक्षः कृष्णपक्षो न तु महालयस्तस्य तत्र निषेधात्। इयमेव तृतीया परशुरामजयन्ती। सा प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या। तदुक्तं भार्गवार्चनदीपिकायां स्कान्दे —
**वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ। **
**निशायाः प्रथमे यामे रामाख्यः समये प्रभुः॥ **
रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो भुवि स्वयम्॥इति।
दिनद्वये प्रदोषे कार्त्स्न्येनसाम्येन वैषम्येण वैकदेशव्याप्तौ परैव संकल्पकालमारभ्य सत्त्वाद्दिवारात्रियोगाच्च। इति वैशाखतृतीया।
ज्येष्ठ शुक्लतृतीयायाम् —
भद्रे कुरुष्व यत्नेन रम्भाख्यं व्रतमुत्तमम्।
ज्येष्ठ शुक्लतृतीयायां स्राता नियमतत्परा॥
इत्यादिना भविष्ये रम्भाव्रतमुक्तम्। तत्र बृहत्तपा तथा रम्भेत्यादिपूर्वोदाहृतवचनात्पूर्वविद्धैव तृतीया ग्राह्या। आषाढ्युत्तरतृतीयायाम् —
**तृतीया श्रावणे कृष्णा या स्याच्छ्रवणसंयुता। **
तस्यां संपूज्य गोविन्दं तुष्टिमग्र्यां च विन्दति॥
इति विष्णुधर्मोत्तरे गोविन्दपूजोक्ता। तत्र दिनद्वये श्रवणयुक्ता चेत्, रम्भाख्यां वर्जयित्वेति पूर्वोदाहृतवचनादुत्तरा ग्राह्या। भाद्रपदशुक्लतृतीयायां हरितालिकाव्रतं लोकप्रसिद्धम्। तत्रापि रम्भाख्यां वर्जयित्वेत्यादिपूर्वोदाहृतवचनैर्मुहूर्तमात्रसत्त्वेऽपि दिने गौरीव्रतं परे इति माधवोक्तेश्च मुहूर्तमात्राऽप्युत्तरैव ग्राह्या । मार्गशीर्षशुक्लतृतीयायामपि रम्भाव्रतमुक्तं भविष्योत्तरे —
‘रम्भातृतीयां वक्ष्यामि सर्वपापप्रणाशिनीम्।
मार्गशीर्षे शुभे मासि तृतीयायां नराधिप।
शुक्लायां प्रातरुत्थाय दन्तधावनपूर्वकम्।
उपवासस्य नियमं गृह्णीयात्’।
इत्याद्युक्त्वोक्तम् —
सौभाग्यार्थंपुरा चीर्णं रम्भया राजकन्यया।
तेन रम्भातृतीयेयं परसौभाग्यदायिनी॥इति।
इयं पूर्वविद्धा ग्राह्या बृहत्तपा तथा रम्भेति वचनात्।
माघमासे तु संप्राप्य तृतीयां शुक्लपक्षतः।
प्रातर्गव्येन पयसा तिलैः स्नानं समाचरेत्॥
स्रापयेन्मधुना देवीं तथैवेक्षुरसेन च।
गन्धोदकेन च पुनः पूजनं कुङ्कुमेन वै॥
इत्यादिना मात्स्ये रसकल्याणिनीव्रतमुक्तम्। तत्रापि रम्भाख्यां वर्जयित्वेति वचनादुत्तरा ।फाल्गुनशुक्लतृतीयायां वाराहपुराणादौ सौभाग्यतृतीयाव्रतादीन्युक्तानि तत्रापि परविद्धैव।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णभट्टसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे तृतीयानिर्णयः।
अथ चतुर्थी निर्णीयते । तत्र —
विनायकं समभ्यर्च्य चतुर्थ्यां यदुनन्दन।
सर्वविघ्नविनिर्मुक्तः कार्यसिद्धिमवाप्नुयात्॥
निद्रां रतिं शिवां भद्रां कीर्तिंमेधां सरस्वतीम्।
प्रजां तुष्टिं तथा कान्तिं तत्रैवाहनिपूजयेत्॥
विद्याकामो विशेषेण पूजयेच्च सरस्वतीम्।
इति माधवीये भविष्यत्पुराणे।
चतुर्थ्यां तु गणेशस्य गौर्याश्चैव विधानतः।
पूजां कृत्वा लभेत्सिद्धिंसौभाग्यं च नरः क्रमात्॥
इति तत्रैव लैङ्गे च विनायकव्रतं गौरीव्रतं च विहितम्।
तिथौ युगाह्वयायां च समुपोष्य यथाविधि
शङ्खपालादिनागानां शेषस्य च महात्मनः॥
पूजा कार्या क्षीरगन्धपुष्पाप्यायनपूर्वकम्।
विषाणि तेषां नश्यन्ति न चतान्घ्नन्ति पन्नगाः॥
इति माधवीये कौर्मे नागव्रतं विहितम्। एतानि गणेशगौरीनागव्रतानि विहायान्यस्मिन्व्रते चतुर्थी युगभूतानामिति युग्मवाक्यात्पञ्चमीविद्धैव ग्राह्या।
एकादशी तथा षष्ठी अमावास्या चतुर्थिका।
उपोष्याः परसंयुक्ताः पराः पूर्वेण संयुताः॥
इति वृद्धवसिष्ठवचनाच्च।
गणेशगौरीबहुलाव्यतिरिक्ताः प्रकीर्तिताः।
चतुर्थ्यः पञ्चमीविद्धा देवतान्तरयोगतः॥
इति मदनरत्नादौ ब्रह्मवैवर्ताच्च । विनायकनागव्रतयोस्तु मध्याह्नव्यापिनी ग्राह्या ।तत्र मध्याह्नस्य कर्मकालत्वात्।
प्रातः शुक्लतिलैः स्नात्वा मध्याह्ने पूजयेन्नृप।
इति गणपतिकल्पे
युगं मध्यंदिने यत्र तत्रोपोष्य फणीश्वरान्।
क्षीरेणाऽऽप्याय्य पञ्चम्यां पारयेत्प्रयतो नरः॥
इति वचने च मध्याह्न एव पूजाविधानात्।
चतुर्थीसंयुता कार्या तृतीया च चतुर्थिका।
तृतीयया युता नैव पञ्चम्याकारयेत्क्वचित्॥ इति।
चतुर्थी चैव कर्तव्या तृतीयासंयुता विभो।
इति हेमाद्र्युदाहृतबह्मवैवर्तस्कान्दवचने विनायकचतुर्थीविषये एव ।अत एव हेमाद्रौ ब्रह्मवैवर्तम् —
चतुर्थीसंयुता या तु तृतीया सा फलप्रदा।
चतुर्थी च तृतीयायां महापुण्यफलप्रदा॥
कर्तव्या व्रतिभिर्वत्स गणनाथसुतोषिणी॥इति ।
माधवीये स्कान्दे —
विनायकव्रते कार्या सर्वमासेषु षण्मुख।
चतुर्थी तु जयायुक्ता गणनाथसुतोषिणी॥ इति।
चतुर्थी गणनाथस्य मातृविद्धा प्रशस्यते ।
मध्याह्नव्यापिनी सा तु परतश्चेत्परेऽहनि॥
इति बृहस्पतिवचनाच्च। अत्र परतश्चेत्परेऽहनीत्यनेन पूर्वमध्याह्नव्याप्त्यपेक्षया द्वितीयमध्याह्नेऽधिकव्याप्तावेव परविद्धाविधानादितरेषु पक्षेषु तृतीयायुतैव गणनाथव्रते ग्राह्याः। अत एव —
मातृविद्धा प्रशस्ता स्याच्चतुर्थी गणनायके।
मध्याह्नात्परतश्चेत्स्यान्नागविद्धा प्रशस्यते॥
इति माधवे स्मृत्यन्तरम्।
द्वितीया पञ्चमी वेधाद्दशमी च त्रयोदशी।
चतुर्दशी चोपवासे हन्युः पूर्वोत्तरे तिथी॥
इति पञ्चम्यामुपवासे चतुर्थीदूषकत्वमपि पूर्वविद्धोपोष्यचतुर्थीविषयमेव। नागव्रते तु पूर्वदिन एव मध्याह्नव्याप्तौ पूर्वा कर्मकालव्याप्तिशास्त्रप्राबल्यात् । अन्येषु पक्षेषूत्तरैव । पञ्चम्या नागतिथित्वेन तद्योगस्य नागव्रते प्राशस्त्यात् । तृतीयायोगप्राशस्त्यस्य विनायकव्रतविषयत्वेनैव व्यवस्थापनात् । गौरीव्रते तु गौरीदैवत्यतृतीयायोगस्यैव प्रशस्तत्वात्, गणेशगौरीबहुलेतिवचनात्
गौर्याश्चतुर्थी वटधेनुपूजा दुर्गार्चनं दुर्भरहोलिके च।
वत्सस्य पूजा शिवरात्रिरेताः परा विनिघ्नन्ति नृपं सराष्ट्रम्॥
इति निर्णयामृतमदनरत्नयोः पुराणसमुच्चयवचनाच्चपूर्वैव।
जया च यदि संपूर्णा चतुर्थी ह्रसते161 पुनः।
जया सैव हि कर्तव्या नागविद्धां न कारयेत्॥
इति वचनमपि कैमुतिकन्यायेन पूर्वाप्राशस्त्यबोधकम्। अत एव यद्यपि जया संपूर्णा, तथाऽपि नागविद्धा हेया किमुत जयायुक्तचतुर्थ्यां संभवन्त्यामिति माधवः । तस्माद्विनायकनागगौरीव्रतेषु चतुर्थी पूर्वविद्धाव्रतान्तरे तूत्तरविद्धेति सिद्धम् ।
इति चतुर्थीसामान्यनिर्णयः।
गणेशे कारयेत्पूजां लड्डुकादिभिरादरात्॥
चतुर्थ्यांविघ्ननाशाय सर्वकामसमृद्धये॥
इति हेमाद्रौनिर्णयामृते च देवीपुराणे चैत्रशुक्लचतुर्थ्यां गणेशपूजोक्ता। तत्रोत्तरत्रैव मध्याह्नव्याप्तावधिकैकदेशव्याप्तौ चोत्तराऽन्यथा पूर्वेति।
ज्येष्ठशुक्लचतुर्थ्यांतुजाता पूर्वमुमा सती।
तस्मात्सा तत्र संपूज्या स्त्रीमिः सौभाग्यवृद्धये॥
उपहारैश्च विविधैर्गीतनृत्योत्सवादिभिः।
होमैः पयोभिर्वस्त्रैश्चपत्रपुष्पैः सुगन्धिभिः॥
इति ब्रह्मपुराणे ज्येष्ठशुक्लचतुर्थ्यां गौरीपूजोक्ता। तत्र पूर्वविद्धायाअलाभएवोत्तरा ग्राह्येति। श्रावणकृष्णचतुर्थ्याम्
श्रावणे बहुले पक्षे चतुर्थ्यां तु विधूदये।
गणेशं पूजयित्वा तु चन्द्रायार्घ्यंप्रदीयते॥
चतुर्थ्यां प्रातरुत्थाय दन्तधावनपूर्वकम्।
ग्राह्यं व्रतमिदं पुण्यं संकष्टतरणं शुभम्॥
कर्तव्यमिति संकल्प्य व्रतेऽस्मिन्गणपं स्मरेत्।
निराहारोऽस्मि देवेश यावच्चन्द्रोदयो भवेत्॥
भोक्ष्यामि पूजयित्वाऽहं संकष्टोत्तारणाय च।
इत्यादिना पूजामभिधाय — पञ्चैव मोदकान्।
भक्षयेन्निशि चन्द्रस्य अर्घ्यं दत्त्वा विधानतः।
क्षीरसागरसंभूत सुधारूप निशाकर।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं गणेशप्रीतिवर्धन।
एवं व्रतं तु कर्तव्यं प्रतिमासं त्वयाऽद्रिजे॥
इति स्कान्दे संकष्टचतुर्थीव्रतमुक्तम्। तत्र चन्द्रोदयकालस्य कर्मकालत्वात्पूर्वदिन एव तद्व्याप्तौ पूर्वा। दिनद्वये तद्व्याप्तावव्याप्तौ च परैव।
दिवा रात्रौव्रतं यच्च एकमेव तिथौ गतम्।
तस्यामुभययोगिन्यामाचरेत्तद्व्रतं व्रती॥
यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे।
विद्यमानो भवेदङ्गं नोज्झितोपक्रमेण तु॥
इत्यादिवाक्यैरुत्तरस्या एवं विधानात्। पूर्वचन्द्रोदयानन्तरं प्रवृत्ता द्वितीयचन्द्रोदयादर्वाक्समाप्ता तत्र द्वितीयचन्द्रोदयकाले ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथ्यसत्त्वेऽपि साकल्यवचनापादिततिथिसत्त्वात्पूर्वचन्द्रोदयकाले साकल्यवचनापादिततिथेरप्यभावादुत्तरदिन एव व्रतं कार्यम्। एतेन दिनद्वये चन्द्रोदयकाले सत्त्वेऽसत्त्वे वा पूर्वेव चतुर्थी च तृतीयायां महापुण्यफलप्रदेत्यादिवचनैः। न च ‘तृतीयाविद्धाविधायकवचनानि दिवात्रिमुहूर्तवेधे सत्येव प्रवर्तन्ते न तु रात्रियोगमात्र इति वाच्यम्। रात्रिसाध्ये कर्मणि रात्रिवेधस्यापि जन्माष्टमीप्रकरणे माधवादिभिर्दर्शितत्वादिति कृत्यरत्नावलीमयूरवाद्यर्वाचीनग्रन्था उदाहृतवचनविरोधादुदयास्तमययोरेव वेध इति द्वितीयादिप्रकरणगतमाधवजाबालिविष्णुधर्मसुमन्तुवचनैरुदयास्तमयव्यापिनीमेव सामस्त्येन प्राशस्त्याभिधाना-
त्पूर्वपरवेधोऽप्युदयास्तमयकालीन एवेत्यवसीयत इति निर्णयामृतविरोधात, जन्माष्टम्यादौरात्रिवेधप्रतिपादक —
अष्टमी शिवरात्रिश्च अर्धरात्रादधो यदि।
दृश्यते घटिका या सा पूर्वविद्धा प्रकीर्तिता॥
इति माधवोदाहृतवचनादर्शनमूलत्वाच्चायुक्ता एव। इति संकष्टचतुर्थी। भाद्रपदशुक्लचतुर्थ्याम् —
शिवा शान्ता सुखा राजंश्वतुर्थी त्रिविधा मता।
मासि भाद्रपद शुक्ला शिवलोके सुपूजिता॥
तस्यां स्नानं च दानं च उपवासी जपस्तथा।
भवेत्सहस्रगुणितं प्रसादाद्दन्तिनो नृप॥
इति हेमाद्रिनिर्णयामृतयोर्भविष्यत्पुराणे स्रानादिकमुक्तंतत्र पौर्वाह्णिकीग्राह्या। अस्यामेव सिद्धिविनायकव्रतमुक्तम् —
गजवक्त्रं तु शुक्लायांचतुर्थ्यां तु प्रपूजयेत्।
यदा चोत्पद्यते भक्तिस्तदा पूज्यो गणाधिपः॥
प्रातः शुक्लतिलैः स्रात्वा मध्याह्ने162 पूजयेन्नृप।
स्वशक्त्या गणनाथस्य स्वर्णरौप्यादिनिर्मिताम्॥
अथवा मृन्मयीं कुर्याद्वितशाज्यं विवर्जयेत्॥
स्वरूपमुक्तम् —
एकदन्तं शूर्पकर्णंगजवक्त्रं चतुर्भुजम्।
पाशाङ्कुशधरं देवं ध्यायेत्सिद्धिविनायकम्॥ इति।
कुर्यात्पूजां प्रयत्नेन स्राप्य पञ्चामृतेः पृथक्।
गणाध्यक्षेति नाम्ना वै गन्धं दद्याच्च भक्तितः॥
विनायकेति पुष्पाणि धूपं चोमासुताय च।
दीपं रुद्रप्रियायेति नेवेद्यं विघ्ननाशिने॥
वस्त्रं वस्त्रप्रदे रक्तं युग्मं दद्यात्सुभावितः।
ततो दूर्वाङ्कुरान्गृह्य विंशतिं चैकमेव च॥
पूजनीयः प्रयत्नेन एभिर्नामपदैः पृथक्।
दूर्वायुग्मं गृहीत्वा तु गन्धयुक्तं प्रपूजयेत्॥
एकैकेन च नाम्ना वै दत्त्वैवं सर्वनामभिः।
तथैकविंशतिं गृह्य मोदकान्घृतपाचितान्॥
स्थापयित्वा गणाध्यक्षसमीपे कुरुनन्दन।
दश विप्राय दातव्या स्वयं चाद्यात्तथा दश॥
एकं गणाधिपे दद्यात्सनैवेद्यं नृपोत्तम।
विप्राय भोजनं दद्याद्भुञ्जीयात्तैलवर्जितम्॥
इति स्कान्दे सिद्धिविनायकपूजोक्ता। तत्र मध्याह्नेपूजयेदिति मध्याह्ने पूजाविधानात्, चतुर्थी गणनाथस्येत्यादिवचनैः परदिन एव संपूर्णमध्याह्नव्याप्तिः पूर्वापेक्षयाऽधिकमध्याह्नैकदेशव्याप्तिर्वा तदैव परा। अन्यदा तु पूर्वैव ग्राह्या। अत एव युग्मादिवाक्यस्यैव कर्मकालवाक्यविषयपरिहारेण प्रवृत्तिरिति हेमाद्र्यादयः। कर्मकालव्याप्तौसर्वस्मृतीनामत्यन्तनिर्बन्धदर्शनात्कर्मकालवाक्यं सर्वेभ्यः प्रबलमिति निश्चीयते तदनुसारेणैव द्वितीयादयो ग्राह्या इति माधवश्चसंगच्छते। यत्त्वत्रोत्तरत्र महत्वेऽपि मातृविद्धा ग्राह्येति माधवेनोक्तं तदभ्युपेत्यवादः। अन्यथा मुहूर्तसप्तकानन्तरं प्रवृत्ता द्वितीयदिने किंचिदधिकमुहूर्तनवकपरिमिता चतुर्थी तत्रापि पूर्वाग्रहणापत्तौ
मध्याह्नात्परतश्चेत्स्यान्नागविध्दाप्रशस्यते।
इति माधवोदाहृतवचनविरोधापत्तेः। न च मध्याह्नानन्तरं प्रवृत्तचतुर्थीविषयं वाक्यमिति न तद्विरोध इति वाच्यम्। उभयत्र मध्याह्नात्स्पर्शेऽप्युत्तराग्रहणापत्तौ मातृविद्धेत्यादिविरोधापत्तेः। एतेनोत्तरदिन एव मध्याह्नव्याप्तावुत्तराऽन्यथा पूर्वेति कालतत्त्वविवेचनस्मृतिकौस्तुभादयः सर्वेऽप्यर्वाचीना ग्रन्थाउपेक्ष्या इति बोध्यम्। अत्र संक्षेपेण प्रयोगः— कृतनित्यक्रियः शुकृतिलैः पूजाङ्गं स्नानं कृत्वा देशकालाद्युल्लिख्यामुकफलसिद्धिद्वारा श्रीगणेशप्रीत्यर्थं सिद्धिविनायकव्रतं करिष्य इति संकल्प्य प्रतिमायाः163 प्राणप्रतिष्ठां कृत्वा, ॐ सिद्धिविनायकाय नम इति मन्त्रेणाऽऽवाहनाद्याचमनान्तं कृत्वा पञ्चामृतैः पृथक्स्नापयित्वा शुद्धोदकमानाचमने दत्त्वा, ॐ गणाध्यक्षाय नम इति गन्धं विनायकाय नम इति पुष्पाणि उमासुताय नम इति धूपं रुद्रप्रियाय नम इति दीपम्ॐ विघ्ननाशिने नम इत्येकमोदकसहितनैवेद्यम् ॐ सर्वप्रदाय नम इति रक्त-
वस्त्रयुग्मं दद्यात्। ततः सगन्धा एकविंशतिदूर्वा गृहीत्वा, ॐ, गणाधिपाय नम इति दूर्वायुग्मं दद्यात्। एवम् ॐ उमापुत्रायनमः, ॐ अघनाशनाय ०ॐ विनायकाय ॐ ईशपुत्राय० ॐ सर्वसिद्धिप्रदायकाय ॐ एकदन्ताय ॐ इभवक्त्राय ॐ मूषकवाहनाय ॐ कुमारगुरवे० ततोऽवशिष्टामेकां गणाधिपेत्यादिभिर्दशभिर्नामभिः समर्प्य विंशतिमोदकान्देवाग्रे संस्थाप्य तेभ्यो दश मोदकान्सदक्षिणान्ब्राह्मणाय दत्त्वाऽन्नेन ब्राह्मणं भोजयित्वा दश मोदकसहितमतैलपक्वंभुञ्जीतेति। अस्यां चन्द्रदर्शनं न कार्यम्। तथा च मार्कण्डेयः —
सिंहादित्ये शुक्लपक्षे चतुर्थ्यां चन्द्रदर्शनम्।
मिथ्याभिदूषणं कुर्यात्तस्मात्पश्येन्न तं सदा॥
पराशरः —
**कन्यादित्ये चतुर्थ्यां तु शुक्लेचन्द्रस्य दर्शनम्।
मिथ्याभिदूषणं कुर्यात्तस्मात्पश्येन्न तं सदा ॥
दोषस्य शान्तये सिंहः प्रसेनमिति वै पठेत्। **
अत्र सिंहादित्य इत्यनेन कन्यादित्य इत्यनेन च चान्द्रो भाद्रपद उपलक्ष्यते श्लोकस्तु —
सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंही जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः॥
इति विष्णुपुराणे पठितः। तिथितत्त्वे —
**पञ्चाननगते मानौ पक्षयोरुभयोरपि।
चतुर्थ्यामुदितश्चन्द्रो नेक्षितव्यः कथंचन164॥इति। **
निर्णयामृते वाराहे —
भाद्रे शुक्लचतुर्थी या भौमेनार्केण वा युता।
महती साऽत्र विघ्नेशमर्चित्वेष्टं लभेन्नरः॥
इति भाद्रपदशुक्लचतुर्थी। कार्तिकशुक्लचतुर्थ्यांसंवत्सरप्रदीपे —
आश्विने कृष्णपक्षस्य चतुर्थ्यां रात्रियोगतः।
मृन्मयेऽवस्थितः पूज्यो राजा दशरथः स्त्रिया॥
दुर्गा च तत्र संपूज्या सर्व सौख्यविवृद्धये॥
इयं प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या\। इयमेव चतुर्थी करकाभिधा\। सा चन्द्रोदयव्यापिनी ग्राह्या\। उभयत्र तद्व्याप्तावव्याप्तौ च परेति\। कार्तिकशुक्लचतुर्थ्यां तिथौ युगाह्वयायां तु इत्युदाहृतवचनैर्नागवतमुक्तम्\। तत्र युगं मध्यंदिने यत्रेति स्कान्देन मध्याह्ने पूजाविधानान्मध्याह्नव्यापिनी ग्राह्या\। पूर्वत्रैव मध्याह्नव्यातौपूर्वाऽन्यथोत्तरेत्यनुपदमेवोक्तम्\। मार्गशीर्षशुक्लचतुर्थ्यामारभ्य वरदचतुर्थीव्रतमुक्तं स्कान्दे\। तत्र मातृविद्धाप्रशस्यत इतिवचनात्पूर्वविद्धा ग्राह्या।
**माघशुक्ल चतुर्थ्यां तु कुन्दपुष्पैः सदाशिवम्\।
संपूज्य यो हि नक्ताशी संप्राप्नोति श्रियं नरः॥ **
इति कौर्मेकुन्दपुष्पैः शिवपूजोक्ता \। तत्र नक्ते प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या\। तिथितत्त्वे भविष्योत्तरे —
चतुर्थी वरदा नाम तस्यां गौरी सुपूजिता।
सौभाग्यं मङ्गलं कुर्यात्पञ्चम्यां श्रीरपि स्वयम्॥
इति गौरीपूजोक्ता\। तत्र पूर्वविद्धा ग्राह्या\। अत्र दुण्ढिराजपूजोक्ता काशीखण्डे —
माघशुक्लचतुर्थ्यांतु नक्तव्रतपरायणाः।
ये त्वां दुण्ढेऽर्चयिष्यन्ति तेऽर्च्याःस्युरसुरद्विषाम्॥
विधाय वार्षिकींयात्रां चतुर्थीं प्राप्य तापसीम्।
शुक्लां शुक्लतिलान्बध्वा प्राश्नीयाल्लड्डुकान्व्रती॥
तां यात्रां नात्र यः कुर्यान्नैवेद्यं तिललड्डुकैः।
उपसर्गसहस्रैस्तु स हन्तव्यो ममाऽऽज्ञया॥
होमं तिलाज्यद्रव्येण यः करिष्यति भक्तितः॥
तस्यां चतुर्थ्यंमन्त्रज्ञस्तस्य मन्त्रः प्रसेत्स्यति॥ इति।
इति माघशुक्लचतुर्थी \। हेमादौभविष्यत्पुराणे —
यदा शुक्लचतुर्थ्यां तु वारो भौमस्य वै भवेत्।
तदा सा सुखदा ज्ञेया सुखा नामेति कीर्तिता॥
स्नानदानादिकं कर्म सर्वमक्षय्यमश्नुते165॥ इति।
चतुर्थ्यां भरणीयोगः शनैश्चरदिने यदि।
तदाऽभ्यर्च्य यमं देवं मुच्यते सर्वकिल्बिषैः॥ इति।
शङ्खः —
अमावास्या तु सोमेन सप्तमी भानुना सह।
चतुर्थी भूमिपुत्रेण सोमपुत्रेण चाष्टमी॥
चतस्रस्तिथयस्त्वेताः सूर्यग्रहणसंनिभाः॥ इति।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे चतुर्थीनिर्णयः।
**अथ पञ्चमी निर्णीयते।**
सा च स्कन्दोपवासातिरिक्तोपवासे पूर्वविद्धा ग्राह्या । तदाह हेमाद्रौ गार्ग्यः —
एकादशी तथा षष्ठी अमावास्या चतुर्थिका।
उपोप्याः परसंयुक्ताः पराः पूर्वेण संयुताः॥
पराः पञ्चम्यादयः । तत्रैव स्कान्दे —
पञ्चमी तु तथा कार्या चतुर्थीसंयुता विभो॥इति।
पाद्मद्वादशीकल्पयोः —
पञ्चमी सचतुर्थी च कार्या षष्ठ्यान संयुता॥इति।
युगभूतानामिति निगमोऽपि । पैठीनसिश्च —
पञ्चमी सप्तमी चैव दशमी च त्रयोदशी।
प्रतिपन्नवमी चैव कर्तव्या संमुखी तिथिः॥
प्रतिपत्पञ्चमी चैव उपोष्यापूर्वसंयुताः॥ इति ।
मदनरत्ने जाबालिरपि —
प्रतिपञ्चमी भूतसावित्री वटपूर्णिमा।
नवमी चैव दशमी नोपोष्याः परसंयुताः॥
तृतीयैकादशी षष्ठी तथा चैवाष्टमी तिथिः।
वेधादधस्ताद्धन्युस्ता उपवासे तिथीस्त्विमाः॥
इत्याभ्यामुत्तरानिषेधाच्च । स्कांन्दोपवासे तूत्तरा। तदुक्तं कालादर्शे ब्रह्मवैवर्ते निर्णयामृते166स्कान्दे च —
स्कन्दोपवासे स्वीकार्या पञ्चमी परसंयुता।
त्रिमुहूर्ता तु षष्ठ्यास्यात्परा पूर्वयुताऽन्यथा॥इति।
पञ्चम्यामपि स्कन्दोपवास उक्तो निर्णयामृते वाराहे —
आषाडे शुक्लषष्ठीतु तिथिः कौमारिकी स्मृता।
कुमारमर्चयेत्तत्र पूर्वत्रोपोष्य वै दिने॥ इति।
पञ्चमी तु प्रकर्तव्या षष्ठ्यायुक्ता तु नारद।
इति हेमाद्रौब्रह्मवैवर्तमप्येतद्विषयम्। स्कन्दोपवासनागपूजाभिन्नदेवकार्ये तु दिनद्वये कर्मकाले तिथिसत्वेऽसस्त्रे वा पञ्चमी तु तथा कार्येत्यादिस्कान्दादिवचनैः पूर्वजविद्धैव। नागपूजायां तूत्तरविद्धैव।
श्रावणे पञ्चमी शुक्ला संप्रोक्ता नागपञ्चमी।
तां परित्यज्य पञ्चम्यश्चतुर्थीसहिता हिताः॥
इति निर्णयामृतमदनरत्नोदाहृतसंग्रहवाक्यात्। एतच्च नागपञ्चमीमात्रोपलक्षणं तथैवाऽऽचारादिति मदनरत्नोक्तेः,
पञ्चमी तु प्रकर्तव्या षष्ठ्यायुक्ता तु नारद।
इति वचनाच्च। नन्वेवं शुक्लपञ्चमी परविद्धा कृष्णपञ्चमी तु पूर्वविद्धेति पञ्चमीप्रकरणस्थपञ्चमी चतुर्थीयुतोपोष्येत्युपवासतिथिप्रकरणगतहेमाद्रिविरोधः, एवं युगभूतानामितिविरोधात्पञ्चमी पूर्वविद्धा ग्राह्येति प्रतिज्ञाय
प्रायः प्रातरुपोष्याहि तिथिर्देवफलेप्सुभिः।
इत्येतद्विरोधमाशङ्क्य
चतुर्थीसंयुता कार्या पञ्चमी परया न तु।
दैवे कर्मणि पित्र्ये च शुक्लपक्षे तथाऽसिते॥
इति हेमाद्रिणाऽलिखितं हारीतवचनमुपन्यस्यात्र पित्र्यग्रहणं दृष्टान्तार्थं यथा पित्र्य उत्तरा न तथा दैवे सर्वस्मिन्नपि। तत्र पूर्वाह्णे ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथ्यभावेऽपि साकल्यवचनप्रतिपादिततिथिसत्त्वात्। अतः स्कन्दोपवास एव पञ्चमी परविद्धाऽन्यत्र पूर्वविद्धेति माधवविरोधोऽपि। किंचोपवासे सर्वाऽपि पूर्वविद्धा तदतिरिक्ते दैवे शुक्लोत्तरा कृष्णा पूर्वेति हेमाद्रेः, स्कान्दोपवासातिरिक्तसर्वदैवे शुक्लपक्षेऽपि पूर्वेति माधवस्य परस्परं विरोधोऽपि दुष्परिहर इति चेन्न।
स्मृतेर्वेदविरोधे तु परित्यागो यथा भवेत्।
तथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेत्।
इति वचनात्स्मृतिविरुद्धं पुरुषवाक्यं न प्रमाणमिति हेमाद्रिमाधवान्यमप्यन्यत्र सिद्धान्तितत्वात्, विशेषवचनविषयपरिहारेणैव सामान्य-
वाक्यप्रवृत्तेः परविद्धेति हेमाद्रिग्रन्थे शुक्लपक्षगतपञ्चमीसामान्यग्रहणे श्रावणे पञ्चमी शुक्लेति स्मृतिसंग्रहविरोधात्। एवमुपवासे पञ्चम्याः सर्वस्याः पूर्वविद्धाया ग्रहणे हेमाद्र्यनुदाहृतकालादर्शाद्युदाहृतस्कन्दोपवासे स्वीकार्येति विशेषवचनविरोधात्, शुक्ला परविद्धेति हेमाद्रिग्रन्थस्यैव शुक्लपञ्चमीविशेष एव तात्पर्यस्य युक्ततरत्वेन हेमाद्रिविरोधाभावात्, स्कन्दोपवासे परविद्धाऽन्यत्र पूर्वविद्धेति माधवस्य नागपञ्चमीविषयत्वे स्मृतिसंग्रहविरोधात्तदतिरिक्तपञ्चम्यामेव तात्पर्यस्य युक्तत्वेन न माधवविरोधोऽपि। नन्वेवमपि युग्मवाक्यस्यैव कर्मकालव्याप्तिशास्त्रविषयपरित्यागो युक्तः संपूर्णत्वाभिधानेनाऽऽरोपितकर्मकालीनतिथिग्रहणस्य मुख्यकर्मकालीनतिथिव्याप्तिसंभवेऽन्याय्याश्रयणादिति167 हेमाद्रिणा सह हारीतवचनात्साकल्यवचनापादितपञ्चमीसत्त्वमादायैवानुष्ठानमिति माधवस्य विरोधो दुष्परिहर इति चेन्न । हारीतवचनस्य प्राबल्यमभ्युपेत्य तथोक्तत्वेऽप्यत्र तात्पर्याभावात्, अन्यथा कर्मकालव्याप्तिशास्त्रं सर्वेभ्यः प्रबलमिति निश्चीयते तदनुसारेणैव तिथिर्ग्राह्येति द्वितीयाप्रकरणस्थस्य, न चवं मन्तव्यं परेऽहनि सत्यामपि मध्याह्नापराह्णव्याप्तौ तत्परित्यागाय पूर्वविद्धात्वविधानमिति मुख्यकर्मकालव्याप्तेः परित्यागायोगात्, अन्यथा मूषकभिया स्वगृहं दहतीति न्याय अपतेदिति षष्ठीप्रकरणस्थस्य च माधवस्यासंगत्यापत्तेरिति। एवं च हेमाद्रिमाधवयोस्तात्पर्यविषयीभूतार्थैक्यसिद्धौ न तयोः परस्परविरोधः । तत्सिद्धं दिनद्वये कर्मकाले पञ्चमीसत्वेऽसत्त्वे वा नागपूजायां स्कन्दोपवासे च पञ्चमी परविद्धाऽन्यत्र पूर्वविद्धेति । एतेन पञ्चमीविषयो हेमाद्र्युक्तो निर्णयो न सम्यक्, माधवोक्तदृष्टान्तताऽप्ययुक्तेति द्वैतनिर्णयो हेमाद्रिमाधवतात्पर्यविषयीभूतार्थाज्ञाननिबन्धनत्वादयुक्त एव। अत एव पञ्चमीविषयं विरुद्धं वचनद्वयं शुक्लकृष्णभेदेन व्यवस्थितमिति हेमाद्रिर्माधवोदाहृतहारीतवचनविरुद्ध इत्यादिकालतत्त्वविवेचनोक्तं दूषणं निरस्तं हेमाद्रितात्पर्यविषयार्थाज्ञाननिबन्धनत्वात् । इति पञ्चमीसामान्यनिर्णयः \। हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे —
शुक्लायामथ168 पञ्चम्यां चैत्रे मासि शुभानना \।
श्रीर्विष्णुलोकान्मानुष्यं संप्राप्ता केशवाज्ञया \।\।
तस्मात्तां पूजयेत्तत्र यस्तं लक्ष्मीर्न मुञ्चति।
एषा श्रीपञ्चमी कार्या विष्णुलोकगतिप्रदा॥इति।
निर्णयामृते देवीपुराणे चैत्रमासतिथिप्रक्रमे —
पञ्चम्यां पूजयेन्नागाननन्ताद्यान्महोरगान्।
क्षीरं सर्पिस्तु नैवेद्यं देयं सर्वसुखावहम्॥
इति नागपूजोक्ता। हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे—
**श्रावणे मासि पञ्चम्यां शुक्लपक्षे नराधिप। **
द्वारस्योभयतो लेख्या गोमयेन विषोल्बणाः॥
**पूजयेद्विधिवद्वीर दधिदूर्वाङ्कुरैःकुशैः। **
गन्धपुष्पोपहारैश्च ब्राह्मणानां च तर्पणैः॥
**एतस्यां पूजयन्तीह नरा भक्तिपुरःसराः। **
**न तेषां सर्पतो वीर भयं भवति च क्वचित्॥ **
तथा भाद्रपदे मासि पञ्चम्यां श्रद्धयाऽन्वितः।
समालेख्य नरो नागाञ्शुक्लकृष्णादिवर्णकैः॥
**पूजयेद्गन्धपुष्पैश्च सर्पिर्गुग्गुलपायसैः। **
**तस्य तुष्टिं प्रयान्त्याशु पन्नगास्तक्षकादयः॥ **
आसप्तमात्कुलात्तस्य न भयं सर्पतो भवेत्।
पुण्या भाद्रपदे प्रोक्ता169पञ्चमी नागपञ्चमी॥
इति नागपूजोक्ता \। तत्र उत्तरविद्धाया अलाभ एव पूर्वा, तल्लाभे तूत्तरैव। भाद्रपदशुक्लपञ्चमी ऋषिपञ्चमी। तत्र ब्रह्मपुराणे—
**नभस्ये शुक्लपक्षे तु यदा भवति पञ्चमी। **
**नद्यादिके तदा स्नात्वा कृत्वा नियममेव च॥ **
**ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्रा वाऽपि वरानने। **
**कृत्वा नैमित्तिकं कर्म गत्वा निजगृहं पुनः॥ **
वेदिं सम्यक्प्रकुर्वीत गोमयेनोपलेपिताम्।
**रङ्गवल्लीसमायुक्तां नानापुष्पोपशोभिताम्॥ **
**तत्र सप्तऋषीन्दिव्यान्भक्तियुक्ता प्रपूजयेत्। **
**गन्धैश्च विविधैः पुष्पैर्धूपदीपैः सुशोभनैः॥ **
ततो नैवेद्यं संपन्नमर्घ्यं दद्याच्छुभैःफलैः।
अर्घ्यमन्त्रः —
कश्यपोऽत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोऽथ गौतमः।
जमदग्निवसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥
गृहीत्वाऽर्घ्यंमया दत्तं तुष्टा भवत सर्वदा॥ इति।
एवं पूजां विनिर्वर्त्य ऋषीन्ध्यात्वा समाहिता।
अकृष्टपृथ्वीसंजातशाकाहारं प्रकल्पयेत्॥
आदौ मध्ये तथा चान्ते कुर्यादुद्यापनं बुधः।
इत्यादिनर्षिपञ्चमीव्रतमुक्तम्। तत्र
पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी तिथिः।
इति माधवोदाहृतवचनान्मनुष्यदेवत्यत्वान्मध्याह्नव्यापिनी पश्चमी ग्राह्या। तत्र परदिन एव मध्याह्नव्याप्तौ परा दिनद्वये तद्व्याप्तावव्याप्तौ च पूर्वैव । निर्णयामृते भविष्योत्तरे —
तथा चाऽऽश्वयुजे मासि पञ्चम्यां कुरुनन्दन।
कृत्वा कुशमयं नागमिन्द्राण्या सह पूजयेत्॥
कृतोदकाभ्यां पयसा स्नापयित्वा विशां पते।
गौधूमैः पयसा सिक्तैर्भक्ष्यैश्च विविधैस्तथा॥
पूजयेत्कुरुशार्दूल तस्य शेषादयो नृप।
नागाः प्रीता भवन्तीह शान्तिमाप्नोति वै विभो॥ इति।
अत्र परविद्धाया अलाभ एव पूर्वा, तल्लाभे तूत्तरैव । आश्विनशुक्लपञ्चम्यामुपाङ्गललिताव्रतमुक्तं स्कान्दे —
शुक्लपक्षस्य पञ्चम्यामिषे मासि चरेद्व्रतम्।
गर्जिते संध्ययोस्त्याज्यं दिनवृध्दौक्षये तथा॥
निर्वर्त्याऽऽवश्यकं कर्म शुची रागविवर्जितः।
चत्वारिंशत्तथा चाष्टौ कल्पितानि विधानतः॥
दन्तकाष्ठान्युपादाय तडागं वा नदीं व्रजेत्।
दन्तधावनपूर्वाणि मज्जनानि समाचरेत्॥
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते॥
मुखदुर्गन्धिनाशाय दन्तानां च विशुद्धये।
ष्ठविनाय170 च गात्राणां कुर्वेऽहं दन्तधावनम्॥
इति दन्तधावनमन्त्रः।
ततो यथाविधि स्नात्वा शुक्लवासा गृहं व्रजेत्।
शुचौ देशे मण्डपिकां कृत्वा चातिमनोहराम्॥
सौवर्णींप्रतिमां कृत्वा स्थापितां तत्र पूजयेत्।
अथ दूर्वाङ्कुरान्साग्रांश्चत्वारिंशत्तथाऽष्टभिः॥
अधिकान्हस्त आदाय मन्त्रमेनं जपेद्बुधः।
बहुप्ररोहा सततममृता हरिता लता॥
यथेयं ललिते मातस्तथा मे स्युर्मनोरथाः।
इति दूर्वापूजामन्त्रः।
इत्युक्त्वा पूजयेद्दवीमेवमेवंविधां सुधीः।
चत्वारिंशतिकृत्वस्तु अष्टकृत्वः समाचरेत्॥
ततो वाणकमादाय विंशत्या वटकादिकम्।
पठ्यमानेन मन्त्रेण आचार्याय निवेदयेत्॥
मन्त्रश्च—
उपाङ्गललितादेव्या व्रतसंपूर्णहेतवे।
वाणकं द्विजवर्याय सहिरण्यं ददाम्यहम्॥
ततः कथां समाकर्ण्य वाणकान्नस्य संख्यया।
स्वयमद्यात्तदेवान्नं वाग्यतः सह बान्धवैः॥
रात्रौ जागरणं कुर्याद्गीतनृत्यादिमंङ्गलैः।
प्रभाते पूजयेद्देवीं ततः कुर्याद्विसर्जनम्॥
सवाहना शक्तियुता वरदा पूजिता मया।
मातर्मामनुगृह्याथ171 गम्यतां निजमन्दिरम्॥
तामर्चांगुरवे दद्यान्निशि वा स्याद्विसर्जनम्।
व्रतमेवं तु यः कुर्यात्सुतबान्धववान्भवेत्॥
विद्यावान्रोगनिर्मुक्तः सुखी गोमांश्चजायते ।
अवधव्यं च लभते स्त्री कन्या वरमुत्तमम् ॥
विजयं पुष्टिमायुष्यं यञ्चान्यदपि वाञ्छितम्॥ इति।
अस्मिन्नुपाङ्गललिताव्रते —
तां परित्यज्य पञ्चम्यश्चतुर्थीसहिता हिताः।
इति संग्रहवाक्याद्युगभूतानामिति निगमच्च पूर्वविद्धा ग्राह्या‚ तदलाभे तूत्तरैव । हेमाद्रौ स्कान्दे —
शुक्ला मार्गशिरे पुण्या श्रावणे या च पञ्चमी।
स्नानदानैर्बहुफला नागलोकप्रदायिनी॥
वाराहे —
माघशुक्लचतुर्थ्यां तु वरामाराध्य च श्रियम्।
पञ्चम्यां कुन्दकुसुमैः पूजा कार्या समृद्धये॥ इति।
अत्रैव वसन्तोत्सवारम्भ उक्तो निर्णयामृते पुराणसमुच्चये —
माघमः से नृपश्रेष्ठ शुक्लायां पञ्चमीतिथौ।
रतिकामौ तु संपूज्य कर्तव्यः सुमहोत्सवः॥
दानानि च प्रदेयानि तेन तुष्यति माधवः।
अत्रोत्तरदिन एव पूर्वाह्नव्याप्तोत्तरा, अन्यदा तु पूर्वैवेति।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे पञ्चमीनिर्णयः।
अथ षष्ठी निर्णीयते —
सा च स्कन्दव्रतातिरिक्तेसप्तमीविद्धा ग्राह्या। तदुक्तं षण्मुन्योरिति युग्मवाक्ये। हेमाद्रौ स्कान्दे —
नागविद्धान कर्तव्या षष्ठी चैव कदाचन।
सप्तमीसंयुता कार्या षष्ठी धर्मार्थचिन्तकैः॥
ब्रह्मवैवर्ते —
न हि षष्ठी नागविद्धा कर्तव्या तु कदाचन।
नागविद्धा तु या षष्ठी कृता पुण्यक्षया भवेत्॥
सप्तम्या सह कर्तव्या महापुण्यफलप्रदा॥ इति।
तत्रैव निगमः —
नागविद्धा तु या षष्ठी रुद्रविद्धो दिवाकरः।
कामविद्धो भवेद्विष्णुर्न172 ग्राह्यास्ते तु वासराः॥
नागः पञ्चमी। रुद्रः षष्ठी\। दिवाकरः सप्तमी। कामस्त्रयोदशी। विष्णुर्द्वादशी\। द्वितीया पञ्चमी वेधाद्दशमी चेत्यनेनापि पूर्वविद्धानिषेधात्। विष्णुधर्मोत्तरे —
एकादश्यष्टमी षष्ठी पौर्णमासी चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥
नागविद्धा च या षष्ठी शिवविद्धा च सप्तमी।
दशम्येकादशीविद्धा नोपोष्याः स्युः कथंचन॥
इति शिवरहस्यसौरपुराणवचनाच्च। स्कन्दव्रते पूर्वविद्धा ग्राह्या तदाह वसिष्ठः —
कृष्णाष्टमी स्कन्दषष्ठी शिवरात्रिचतुर्दशी।
एताः पूर्वयुताः कार्यास्तिथ्यन्ते पारणं भवेत्॥
यत्तु—
नागो द्वादशनाडीभिर्दिक्पञ्चदशभिस्तथा।
भूतोऽष्टादशनाडीभिर्दूषयत्युत्तरां तिथिम्॥
इतिवचनं नैतस्य स्कन्दव्रतविषयत्वं तत्र पूर्वविद्धाया एव विधानात्। नाप्युत्तरविद्धायामनुष्ठेयस्कन्दव्रतातिरिक्तव्रतविषयत्वं पूर्वदिने षण्मुहूर्तपरिमितपञ्चम्यां सत्यां मुहूर्तत्रयाधिकक्षयाभावेन द्वितीयदिने मुहूर्तत्रयपरिमितषष्ठ्या अवश्यंभावे —
एकादशी तृतीया च षष्ठी चैव त्रयोदशी।
पूर्वविद्धा तु कर्तव्या यदि न स्यात्परेऽहनि॥
इति माधवोदाहृतवसिष्ठवचनस्य निर्विषयत्वापत्तेः। किं तु एकभक्ते दिनद्वये मध्याह्ने षष्ठ्यादितिथिसत्त्वेऽसत्त्वे वा गौणकालसत्त्वेन पूर्वत्रप्रसक्तावनेन पूर्वा निषिध्यते। अत एव दिनद्वयेऽपि कर्मकालव्यापितिथिसंभव इदं द्रष्टव्यमुपवासादिविषयता नास्य युक्तेति हेमाद्रिः संगच्छते। यत्तु यदि उत्तराविद्धा न लभ्यते तदा व्रतान्तराण्यपि स्कन्दव्रतवत्पूर्वविद्धायामनुष्ठेयानि, एकादशी तृतीयेति वसिष्ठवचनादित्युक्त्या नागवेधः षण्मुहूर्तात्मकः, नागो द्वादशनाडीभिरिति वचनादिति माधवाचार्यैरुक्तं तदेकभक्ताभिप्रायेणैव नेयम्। अन्यथा तदुदाहृतवसिष्ठवचनहेमाद्रिविरोधापत्तेः। सप्तमीविद्धाया अलाभे तु स्कन्दव्रतातिरिक्तव्रतान्यपि वसिष्ठवचनात्पूर्वविद्धायामेव कर्तव्यानि। इति षष्ठीसामान्यनिर्णयः। हेमाद्रौ ब्रह्मपुराणे —
जातः स्कन्दश्च षष्ठ्यां तु शुक्लायां चैत्रनामनि।
सैनापत्येऽभिषिक्तश्च देवानां ब्रह्मणा स्वयम्॥
जितवस्तारकं दैत्यं क्रौञ्चं शक्त्या बिभेद सः।
तस्मात्सर्वत्र विधिना स्कन्दो माल्यैः सुगन्धिभिः॥
दीपालंकारवस्त्रान्नकुक्कुटैः पूज्य एव हि।
सकुक्कुटक्रीडनकैर्घण्टाचामरदर्पणैः॥
इति स्कन्दपुजोक्ता। निर्णयामृते वाराहे —
आषाढी शुक्लषष्ठी तु तिथिः कौमारिकी स्मृता।
कुमारमर्चयेत्तत्र पूर्वत्रोपोष्य वै दिने॥ इति।
हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे —
ये173यंभाद्रपदे मासि षष्ठी तु भरतर्षभ।
स्नानदानादिकं सर्वमस्यामक्षय्यमुच्यते॥
षष्ठ्यांफलाशनो राजन्विशेषात्कार्तिके नृप।
कृष्णशुक्लासु नियतो ब्रह्मचारी समाहितः॥
षष्ट्यां फलाशनो यस्तु नक्ताहारो भविष्यति।
इह चामुत्र174 सोऽत्यर्थं लभते ख्यातिमुत्तमाम्॥
राज्यच्युतो विशेषेण स्वराज्यं लभतेऽचिरात्।
योऽस्यां पश्यति गाङ्गेयं दक्षिणापथवासिनम्॥
ब्रह्महत्यादिपापैस्तु मुच्यते नात्र संशयः।
तस्यां षष्ठ्यां सदा पश्येत्कार्तिकेयं सदैव हि॥
त्रिः कृत्वा दक्षिणामाशां गत्वा यः श्रद्धयाऽन्वितः।
पूजयेद्देवदेवेशं स गच्छेच्छान्तिमन्दिरम्॥ इति।
त्रिः कृत्वा दक्षिणामाशां गत्वेत्युक्तेर्विन्ध्योत्तरतो गच्छतामेतत्फलमिति हेमाद्रिः। अत्र स्कन्दव्रते सर्वत्र पूर्वविद्धा ग्राह्या।
शुक्रे भाद्रपदे षष्ठ्यांस्रानं भास्करपूजनम्॥
प्राशनं पञ्चगव्यस्य अश्वमेधफलप्रदम्।
इति भास्करपूजोक्ता। तत्र पौर्वाह्णिकी ग्राह्या। निर्णयामृते वाराहे —
नभस्ये कृष्णपक्षे या रोहिणीपातभूसुतैः।
युक्ता षष्ठी पुराणज्ञैः कपिला परिकीर्तिता॥
व्रतोपवासनियमैर्भास्करं तत्र पूजयेत्।
कपिलां च द्विजाग्र्याय दत्त्वा ऋतुफलं लभेत्॥
पुराणसमुच्चये —
भाद्रेमासि सिते पक्षे भानौ चैव करे स्थिते।
पाते कुजे च रोहिण्यां सा षष्ठी कपिला भवेत्॥
सूर्यस्य हस्तस्थितत्वं सति संभवे प्राशस्त्यातिशयसंपादकम्। अत इयं पूर्वा परा वा योगवशेन ग्राह्या।
तद्वद्भाद्रपदे मासि षष्ठ्यां पक्षे सितेतरे।
चन्द्रषष्ठीव्रतं कुर्यात्पूर्ववेधः प्रशस्यते॥
चन्द्रोदये यदा षष्ठी पूर्वाहे वापरेऽहनि।
चन्द्रषष्ठ्यसिते पक्षे सैवोपोष्याप्रयत्नतः॥ इति।
इति भाद्रषष्ठी। कार्तिकषष्ठीकृत्यं मात्स्ये —
वृश्चिकार्के शुक्लषष्ठी भौमवारेऽप्युपस्थिते।
महाषष्ठीति सा प्रोक्ता सर्वपापहरा तिथिः॥
तस्यां स्वपिति वै वह्निः पूर्वत्रोपोष्य वै दिने।
षष्ठ्यांवह्निं समभ्यर्च्य कुर्याद्वह्निमहोत्सवम्॥ इति।
अत्र षण्मुन्योरिति वचनादुत्तरा ग्राह्या \। मार्गशीर्षशुक्लषष्ठीकृत्यं मदनरत्ने भविष्योत्तरे —
येयं मार्गशिरे मासि षष्ठी भरतसत्तम।
पुण्या पापहरा धन्या शिवा शान्ता गुहप्रिया॥
निहत्य तारकं षष्ठ्यांगुहस्तारकराजवत्175।
राजते तेन दयिता तारकेयस्य सा तिथिः॥
स्नानदानादिकं कर्म तस्यामक्षय्यमुच्यते।
येऽस्यां पश्यन्ति गाङ्गेयं दक्षिणाशासमाश्रितम्॥
ब्रह्महत्यादिपापैस्ते मुच्यन्ते नात्र संशयः।
तस्मादस्यां सोपवासः कुमारं स्वर्णसंभवम्॥
इत्यादिना स्कन्दपूजाद्युक्तम्। तत्र पूर्वविद्धा ग्राह्या कृष्णाष्टमी स्कन्दषष्ठीतिवचनात्। षष्ठ्यां पूजा गुहस्य चेति वचनेन सर्वास्वपि षष्ठीषु स्कन्दपूजोक्ता, तत्रापि पूर्वविद्धा ग्राह्येति।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे षष्ठीनिर्णयः।
** अथ सप्तमी निर्णीयते —**
सा च पक्षद्वयेऽपि सर्वेषूपवासादिषु पूर्वविद्धैव षण्मुन्योरिति युग्मवाक्यात् । हेमाद्रौस्कान्दे च —
षष्ठ्या युता सप्तमी तु कर्तव्या तात सर्वदा।
पष्ठी च सप्तमी यत्र तत्र संनिहितो रविः॥
भविष्यत्पुराणब्रह्मपुराणयोः —
षष्ठी च सप्तमी तात अन्योन्यं तु समाश्रये।
पूर्वविद्धा द्विजश्रेष्ठ कर्तव्या सप्तमी तिथिः॥
पैठीनसिः —
पञ्चमी सप्तमी चैव दशमी च त्रयोदशी।
प्रतिपन्नवमी चैव कर्तव्या संमुखी तिथिः॥
उत्तरविद्धाप्रतिषेधः स्कान्दे —
षष्ठ्येकादश्यमावास्या पूर्वविद्धा तथाऽष्टमी।
सप्तमी परविद्धा च नोपोष्यं तिथिपञ्चकम्॥
इति। तत्र संनिहितो रविरित्यनेन सूर्यव्रत एवपूर्वविद्धेति शङ्का न कार्या। तदुक्तं ब्रह्मवैवर्ते माधवे —
**सप्तमी नाष्टमीयुक्ता ने सप्तम्या युताऽष्टमी।
सर्वेषु व्रतकल्पेषु अष्टमी परतः शुभा॥ **
इति। यदा पूर्वदिनेऽस्तमयपर्यन्ता षष्ठी, द्वितीयदिने क्षयवशादपराह्णान्तपर्यन्ता सप्तमी, तदा पूर्वविद्धाया अभावादुत्तरविद्धायाः प्रतिषेधात्कुत्रानुष्ठानमिति चेत्।
नागविद्धा तु या षष्ठी दशम्यैकादशी तथा।
भूतविद्धाऽप्यमावास्या निष्फलं स्यात्तिथित्रयम्॥
नागविद्धा तु या षष्ठी सप्तम्या च तथाऽष्टमी।
भूतविद्धाऽप्यमावास्या न ग्राह्या मुनिपुगवैः॥
नागविद्धा तु या षष्ठी भानुविद्धो महेश्वरः।
चतुर्दशी कामविध्दास्तिस्रस्ता मलिनाः स्मृताः॥
एतानि वचनानि पूर्वविद्धानिषेधमुखेन परविद्धापूज्यतापराणीति कालादर्शसिद्धान्तात्।
पूर्वविद्धा न कर्तव्या तृतीया षष्ठ्यपि द्विज।
अष्टम्येकादशी भूता धर्मकामार्थमोक्षिभिः॥
अत्रैकादश्यादयः परविद्धा उपोष्याः प्रतीयन्त इति विद्धाधिकसमद्वादशिकाप्रकरणे हेमाद्युक्तेश्च सप्तमी नाष्टमी युक्तेत्यादिनोत्तरविद्धानिषेधमुखेन पूर्वविद्धाप्राशस्त्यबोधकत्वेन पूर्वविद्धाया अभाव उत्तरविद्धानिषेधकत्वाभावात्तिथ्यन्तरप्राशस्त्यबोधकत्वमेव युक्तम्। अन्यथा पूज्यतिथिप्रकरणे पाठस्यासामञ्जस्यापत्तेः। तत्र प्रशस्तपूज्यतिथ्यलाभे पूज्यतिथावेवानुष्ठानस्य
एकादशी तृतीया च षष्ठी चैव त्रयोदशी।
पूर्वविद्धा तु कर्तव्या यदि न स्यात्परेऽहनि॥
इत्यादिषु दृष्टत्वादष्टमीविध्दायामेव सप्तम्यामनुष्ठानं कर्तव्यम्। इति सप्तमीसामान्यनिर्णयः। चैत्रशुक्लसप्तम्याम्
भास्करस्य तु सप्तम्यां पूजा दमनकादिभिः।
कृत्वा प्राप्नोति भोगादीन्विगतारिर्महातपाः॥
इति देवीपुराणे सूर्यपूजोक्ता \। निर्णयामृते ब्रह्मपुराणे—
आषाढशुक्लसप्तम्यां विवस्वान्नाम भास्करः।
जातः सर्वासु तस्मात्तं तत्रोपोष्य यजेत्सदा॥
रथचक्राकृतौ रम्ये मण्डले सर्वकामदम्।
भक्ष्यैर्भोज्यैस्तथा पेयैः पुष्पधूपविलेपनैः॥
इति सूर्यपूजोक्ता । हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे—
मासि भाद्रपदे शुक्ला सप्तमी या गणाधिप।
अपराजितेति विख्याता महापातकनाशिनी॥
या तु मार्गशिरे मासि शुक्लपक्षे तु सप्तमी।
नन्दा सा कथिता वीर सर्वानन्दकरी शुभा॥
स्नानदानादिकं कर्म अस्यामक्षय्यमुच्यते।
निर्णयामृते ब्रह्मपुराणे —
नन्दा मार्गशिरे शुक्ला सप्तम्यानन्ददायिनी।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता पुण्या पापहरा स्मृता॥
यद्विष्णोर्दक्षिणं नेत्रं तदेवाऽऽकृतिमत्पुनः।
अदितेः कश्यपाज्जातो मित्रो नाम दिवाकरः॥
सप्तम्यां तेन सा ख्याता लोकेऽस्मिन्मित्रसप्तमी।
षष्ठयां च स्नपनंकार्यं तस्मै मित्राय भानवे॥
तत्रोपवासः कर्तव्यो भक्ष्याण्यथ फलानि च।
रात्रौजागरणं कार्यंगीतनृत्यपुरःसरम्॥
सप्तम्यां वपनं कार्यं ततः स्नात्वा यजेद्रविम्।
नानाकुसुमसंभारैर्भक्ष्यैः पिष्टमयैः शुभैः॥
मधुना च प्रभूतेन होमजाप्यसमाधिभिः।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दीनानाथांश्च मानवान्॥
अष्टम्यां संविभोज्याश्च तथा नटकनर्तकाः।
दिनद्वये च भोक्तव्यं पिष्टमन्नं मधुप्लुतम्॥इति।
माघशुक्लसप्तमी रथसप्तमी मन्वादिश्चतदुक्तं हेमाद्रौ मात्स्ये —
यस्यां मन्वन्तरस्याऽऽदौ रथारूढो दिवाकरः।
माघमासस्य सप्तम्यां सा तस्माद्रथसप्तमी॥
तत्रैव विष्णुः—
सूर्यग्रहणतुल्या तु शुक्ला माघस्य सप्तमी।
अरुणोदयवेलायां तस्यां स्नानं महाफलम्॥
तथा
माघमासस्य सप्तम्यामुदयत्येव भास्करे।
विधिवत्तत्र च स्रानं महापातकनाशनम्॥
माघमासे सिते पक्षे सप्तमी कोटिभास्करा।
कुर्यात्स्नानार्घ्यदानाभ्यामायुरारोग्यसंपदः॥
अर्घ्यदानमन्त्रश्च —
यद्यज्जन्मकृतं पापं मया जन्मसु सप्तसु।
तन्मे रोगं च शोकं च माकरी हन्तु सप्तमी॥इति।
हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे—
शुक्लपक्षस्य सप्तम्यां रविवारो भवेद्यदि।
सप्तमी विजया नाम तत्र दत्तं महाफलम्॥
शुक्लपक्षे तु सप्तम्यां नक्षत्रं सवितुर्भवेत्* ।
तामुपोष्य नरो भीरु ब्रह्मलोकमवाप्नुयात्॥
सवितुर्नक्षत्रं हस्तः। तथा
शुक्लपक्षे तु सप्तम्यां यद्यृक्षं तुकरो भवेत्।
तस्मात्सा सुमहापुण्या सप्तमी पापनाशिनी॥
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* ख. ग. ध पुस्तकेषु —आद्ये पादे तु देवेश तदा सा भद्रतां व्रजेत् । स्नपनं तत्र देवेशघृतेन कथितं बुधैः । इत्येषा कथिता वीर भद्रा नामेतिसप्तमी । इत्यधिकं वर्तते ।
तस्यां संपूज्य देवेशं चित्रभानुं दिवाकरम्।
सप्तजन्मकृतात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः॥
यश्चॊपवासं कुरुते तस्यां नियतमानसः।
सर्वपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोके महीयते।
शुकृपक्षे तु सप्तम्यां यदा संक्रमते रविः॥
महाजया तदा स्याद्धिसप्तमी भास्करप्रिया।
स्नानं दानं तथा होमः पितृदेवादिपूजनम्॥
सर्वं कोटिगुणं प्रोक्तं भास्करस्य वचो यथा।
हेमाद्रावादित्यपुराणे —
रेवतीरविसंयुक्ता सप्तमी स्यान्महाफला।
रेवती यत्र सप्तम्यामादित्यदिवसे भवेत्॥
अशोकैरर्चयेद्दुर्गामशोककलिकां पिबेत्॥इति।
अत्रोपवासे सप्तमी पूर्वविद्धालाभे पूर्वविद्धा ग्राह्याऽलाभेतूत्तरापूजादौ दिनद्वये कर्मकालव्याप्तौ पूर्वा, उत्तरदिन एव तद्व्याप्तावुत्तरेति।निर्णयामृते176—
षष्ठीसप्तमीसंयोगे वारश्चेदंशुमालिनः।
पद्मको नाम योगोऽयं सहस्रार्कग्रहैः समः॥इति।
हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे —
षष्ठ्यामुपोष्य यः सम्यक्सप्तम्यां सूर्यमर्चयेत्।
रोगमुक्तो वित्तवांस्तु संप्राप्नोतीप्सितं फलम्॥
इति सर्वसप्तम्यां सूर्यपूजोक्ता\। तत्र दिनद्वये कर्मकालव्याप्तौ पूर्वाऽन्यथोत्तरेति।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे सप्तमीनिर्णयः॥
*
*
अथाष्टमी निर्णीयते।
सा चोपवासातिरिक्तव्रतादौ शुक्लोत्तरा, कृष्णा पूर्वा। तदुक्तं निगमे —
शुक्लपक्षेऽष्टमी चैव शुक्लपक्षे चतुर्दशी।
पूर्वविद्धान कर्तव्या कर्तव्या परसंयुता॥
उपवासादिकार्येषु ह्येष धर्मः सनातनः।
कृष्णपक्षेऽष्टमी चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी॥
पूर्वविद्धैव कर्तव्या परविद्धान कुत्रचित्।
उपवासादिकार्येषु ह्येष धर्मः सनातनः॥ इति।
यानि तु
सप्तमी नाष्टमीयुक्ता सप्तम्याऽपि सहाष्टमी।
सर्वेषु व्रतकल्पेषु अष्टमी परतः शुभा॥
अष्टमी नवमीमिश्रा कर्तव्या भूतिमिच्छता।
सप्तमीसंयुता चैव न कर्तव्या शिखिध्वज।
इत्यादिब्रह्मवैवर्तस्कान्दादिवचनानि तानि शुक्लाष्टमीविषयाणि। कृष्णाविषयत्वे कृष्णपक्षेति निगमविरोधापत्तेः। शिवशक्तिमहोत्सवे तु पक्षद्वयेऽप्युत्तरैव। तदुक्तं पद्मपुराणे —
अष्टमी नवमीविद्धा नवमी177 चाष्टमीयुता।
अर्धनारीश्वरप्राया उमामाहेश्वरी तिथिः॥
अष्टमीनवमीयुग्मे महोत्साहे महोत्सवः।
शिवशक्त्योः शिवक्षेत्रे पक्षयोरुभयोरपि॥ इति।
महानुत्साहो यस्मादिति बहुव्रीहिः। अष्टमीनवमीयुग्मविशेषणमिदं शिवक्षेत्र इत्यपि। तथा च महोत्सवकारक इत्यर्थः।
चतुर्दशीमुपोषन्ति शिवभक्ता नराधिप॥
अपरे त्वष्टमीं सन्तः शिवभक्तिसमाश्रयाः178।
इत्यादिमार्कण्डेयादिवाक्यविहितशैवोपवासातिरिक्तोपवासे तु पक्षद्वयेऽप्युत्तरैव।
उपवासे सप्तमी तु वेधाद्धन्त्युत्तरं दिनम्।
पक्षयोरुभयोरेष उपवासविधिः स्मृतः॥ इति।
पूर्वविद्धा न कर्तव्या षष्ठ्येकादश्यथाष्टमी।
एकादशी179 (शीं) तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि॥ इति।
षष्ठ्येकादश्यमावास्या पूर्वविद्धा तथाऽष्टमी।
पूर्णिमा परविद्धा च नोपोष्यंचैव पञ्चकम्॥
इति हेमाक्लदाहृतवृद्धवसिष्ठनारदीयपुराणऋष्यशृङ्गपद्मपुराणादिवचनैः सप्तमीविद्धानिषेधात्।
एकादश्यष्टमी षष्ठी उभे पक्षे चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥
इत्यादिभिर्हेमाक्लदाहृतपद्मपुराणविष्णुधर्मोत्तरादिभिर्वसुरन्ध्रयोरिति युग्मवाक्येन चोत्तरस्या एव विधानात्। न चैवं शुक्लपक्षेऽष्टमीति वाक्ये शुक्लपक्ष इत्यस्योपादानं व्यर्थमिति शङ्क्यम् \। उपवासादीत्यत्राऽऽदिपदग्राह्यव्रतादौ कृष्णपक्षव्यावृत्तये तस्याऽऽवश्यकत्वात्। न चैवमपि कृष्णपक्षेऽष्टमीति पूर्वविद्धाविधायकनिगमवाक्य उपपासादिकार्येष्वित्यत्रोपवासग्रहणात्कृष्णपक्षे विकल्प एव युक्त इति शङ्क्यम्। उपवासादिसकलव्रतविषयकनिगमवाक्यात्। उपवासमात्रविषयकनारदीयादिवाक्यानां विशेषवचनत्वेन तदपवादकत्वस्यैव युक्तत्वात्। न चैवं पूर्वविद्धाविधायके180, उपवासग्रहणवैयर्थ्यापत्तिः।
रुद्रव्रतेषु सर्वेषु कर्तव्या संमुखी तिथिः।
अन्येषु व्रतकल्पेषु यथोद्दिष्टामुपावसेत्॥
इत्यनेनैकवाक्यतया रुद्रोपवासविषयत्वसंभवेन वैयर्थ्याभावात्। नन्वेवमपि उत्तरविद्धाविधायकवाक्यानि शुक्लपक्षेऽष्टमीति निगमैकवाक्यतया शुक्लपक्षविषयाणीति पूर्वविद्धाविधायकानि तु कृष्णपक्ष इति निगमानुसारात्कृष्णपक्षविषयाणीति सिद्धान्तयद्भ्यां हेमाद्रिमाधवाभ्यां सह विरोधो दुर्वार इति चेन्न। अष्टमीनिर्णयप्रकरणे हेमाद्रिणैवमुक्तत्वेऽप्युपवासतिथिनिर्णयप्रकरणेऽष्टमी तु पक्षद्वयेऽपि परयुतैव।
उपवासे सप्तमी तु वेधाद्धन्त्युत्तरं दिनम्।
पक्षयोरुभयोरेष उपवास विधिः स्मृतः॥
इति वचनात्।
कृष्णपक्षेऽष्टमी चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी।
पूर्वविद्धातु कर्तव्या परविद्धा न कुत्रचित्॥
उपवासादिकार्येषु ह्येष धूर्मः सनातनः।
इति वचनं तु रुद्रव्रतविषयम्। रुद्रवतेषु सर्वेष्वितिवचनादिति उपवासे पक्षद्वयगताया अपि उत्तरस्या एवं सिद्धान्तितत्वात्। अष्टमीप्रकरणस्थो हेमाद्रिरुपवासभिन्नव्रतविषय इति तद्विरोधाभावात्। उपवासप्रकरणस्थहेमाद्र्यविरोधाय माधवस्यापि उपवासातिरिक्तव्रतेऽष्टमी-
निर्णय एव तात्पर्येण तद्विरोधस्याप्यभावात्। न चोपवासप्रकरणस्थहेमाद्रिग्रन्थोपमर्दार्थमेव माधवप्रवृत्तिरिति शक्यम् ।
उपवासे सप्तमी तु वेधाद्धन्त्युत्तरं दिनम्।
पक्षयोरुभयोरेष उपवासविधिः स्मृतः॥
इत्यादिवाक्यविरोधापत्तेः। न च यथाश्रुतार्थे माधवग्रन्थप्रामाण्यनिर्वाहार्थं नारदीयादिवाक्यान्यनादर्तव्यानीति वाच्यम्।
स्मृतेर्वेदविरोधे तु परित्यागो यथा भवेत्।
तथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेत्॥
इति बैजवापवाक्येनैव वचनबलाबलव्यवस्थेति हेमाद्रिणा, माधवेन च सिद्धान्तितत्वान्न तद्विरोधसंभावनेति। अत एवोपवासे तु पक्षद्वयेऽपि अष्टमी परयुतैव ग्राह्या, उपवासे सप्तमी त्विति नारदीयवचनेन पक्षद्वयेऽपि सप्तमीविद्धानिषेधात्, एकादश्यष्टमी षष्ठीतिवचनाच्चेति मदनरत्नः संगच्छते। यत्तु कालतत्त्वविवेचने, अष्टम्या नवमी विद्धेति181यः पूजोपवासादिरुत्सवः पक्षद्वयगतायामष्टम्यां नवम्यां च विहितः, स नवमीयुतायामष्टम्यामष्टमीयुतायां च नवम्यां कर्तव्य इत्येतावद्विवक्षितमित्युपवासपरत्वमुत्सवविधायकपाद्मस्योत्प्रेक्ष्योपवासे सप्तमीतिनारदीयवचनं शिवशक्तिप्रीत्यर्थोपवासविषयमेव। नतु कृष्णाष्टम्या उपवासे सामान्यवचनप्राप्ते पूर्वविद्धत्वमपोद्य पक्षद्वयेऽप्युत्तराग्राह्यत्वं प्रतिपादयतीति युक्तम्। कृष्णाष्टम्याः पूर्वविद्वत्वप्रतिपादकनिगमवाक्य आहत्योपवासग्रहणात्। न चैतस्य रुद्रव्रतेष्वितिवचनवशादुद्रोपवासविषयत्वेनोपसंहारो युक्तः, उपवासादिकार्येषु ह्येष धर्मः सनातन इति सर्वविषयत्वस्य स्पष्टत्वात्। रुद्रव्रतेष्वित्यस्य च रुद्रव्रतमात्रविषयत्वेनोपवासमात्रविषयत्वाभावात्समानविषयत्वाभावादिति हेमाद्रिमदनरत्ने सिद्धान्ते दूषणोत्प्रेक्षणं कृतं तदत्यन्तानुचितम्। तथाहि यन्महोत्सवशब्दस्योपवासपरत्वकल्पनं तत्तिथ्यन्ते वोत्सवान्ते वा व्रती कुर्वीत पारणमिति वाक्य उत्सवः प्रातस्तनदेवपूजेति माधवमदनरत्नादिविरोधात् ।
अष्टम्यां पूज्यते रुद्रो नवम्यां शक्तिरर्च्यते ।
द्वयोर्योोगे तु संप्राप्ते पूजायां तु महाफलम् ॥
इति निर्णयामृतोदाहृतभोजराजीयस्य, अतश्चोमामहेश्वरपूजा कृष्णा-
ष्टम्यामपि नवमीयुक्तायामेवेति सिद्धमिति निर्णयामृतस्य च विरोधादयुक्तमेव। यदप्युपवासे सप्तमीत्यस्य पूर्वविद्धापवादकत्वे पूर्वाविधायकनिगमवाक्य आहत्योपवासग्रहणविरोधोद्भावनं, तत्
एकादृश्यष्टमी षष्ठी उभे पक्षे चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥
इति हेमाद्र्युदाहृतवृद्धवसिष्ठवाक्येऽव्याहत्यैवोपवासग्रहणादयुक्तम्। यदपि सर्वविषयकृष्णपक्षेऽष्टमीमिति निगमस्य व्रतसामान्यविषयकेण रुद्रव्रतेष्वित्यनेनोपवास उपसंहारो न युक्तः, अस्योपवासमात्रविषयत्वाभावेन समानविषयत्वाभावादिति दूषणं तूपवास उपसंहारं वदतां भवतामेव न तु नारदीयादिविशेषवचनेनान्योपवासेऽस्य बाधितत्वाद्रुद्रव्रतेष्वित्वनेमैकवाक्यतया कृष्णपक्ष उपवासादिरुद्रव्रतसामान्य एतस्य पर्यवसानमित्यर्थककृष्णपक्षेऽष्टमीति वचनं रुद्रव्रतविषयं रुद्रव्रतेष्विति वचनादितिहेमाद्रिसिद्धान्त इति यत्किंचिदेतत्तस्माच्छुक्लाष्टमी नवमीयुतैव कृष्णाष्टमी पूर्वयुतैवेति निर्णयामृतः, कालतत्त्वविवेचनम्, अष्टमी तु सर्वमते कृष्णा पूर्वा सिता परेति निर्णयसिन्धुः, एवं स्मृतिकौस्तुभमयूखादयः सर्वे नवीनग्रन्था नारदीयादिवचनविरुद्धा एवेति बोध्यम्। इत्यष्टमीसामान्यनिर्णयः। चैत्रकृष्णाष्टम्याम्
अशोककलिकाश्चाष्टौ ये पिबन्ति पुनर्वसौ।
चैत्रे मासि सिताष्टम्यां न ते शोकमवाप्नुयुः॥
त्वामशोक नमामीह मधुमाससमुद्भवम्।
पिबामि शोकसंतप्तो मामशोकं सदा कुरु॥
इति लिङ्गपुराणेऽशोककलिकाप्राशनमुक्तम्। तत्र नवमीयुताष्टमी ग्राह्या।
चैत्राष्टम्यां महायात्रां भवान्याः कारयेत्सुधीः।
अष्टाधिकाः प्रकर्तव्याः शतकृत्वः प्रदक्षिणाः॥
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपवती मही।
सशैला ससमुद्रा च साश्रमा च सकानना॥
कुर्याज्जागरणं रात्रौ महाष्टम्यां व्रती नरः।
प्रातर्भवानीमभ्यर्च्य प्राप्नुयाद्वाञ्छितं फलम्॥
इति स्कान्दे।
भवानीं यस्तु पश्येत्तु शुक्लाष्टम्यां व्रती नरः।
न जातु शोकं लभते सदानन्दमयो भवेत् ॥
इति काशीखण्डे चान्नपूर्णायात्रोक्ता। तत्र पूर्वविद्धालाभउपवासजागरणे तत्र कृत्वा पूजाप्रदक्षिणादिकं च नवमीयुतायामेव। पूर्वविद्धायाः संभवे तु सर्वमुत्तरत्रैव कार्यम्। इति चैत्राष्टमी। वैशाखशुक्लाष्टम्याम्
**सहकारफलैः स्नानं वैशाखे ह्यष्टमीदिने।
आत्मनो देवतांस्नाप्य मांसीवालकवारिभिः ॥
लेपनं फलकर्पूरं धूपं चापि सुगन्धकम्। **
फलं जातीफलमिति निर्णयामृते।
**देव्याः पूजा182 प्रकर्तव्या केतक्या चम्पकेन च।
शर्कराक्षीरनैवेद्यं कन्याविप्रेषु भोजनम् ॥
आत्मनः पारणं तद्वद्दक्षिणां शक्तितो ददेत्। **
इति देवीपुराण आम्रफलरसेन देव्याः स्नानपूजादिकमुक्तम्। तत्र पौर्वाह्णिकी ग्राह्या।
ज्येष्ठे मासि द्विजश्रेष्ठ कृष्णाष्टम्यां त्रिलोचनम्।
यः पूजयति देवेशं शिवलोकं व्रजेन्नरः ॥
इति भविष्योत्तरे ज्येष्ठकृष्णाष्टम्यां शिवपूजोक्ता तत्र सायाह्नव्यापिनी ग्राह्या रुद्रव्रतेषु सर्वेष्वितिवचनात्। आषाढशुक्लाष्टम्याम्
**अष्टम्यां च तथाऽऽषाढे निशातोयेन स्नापयेत्।
स्वयं स्नात्वा च कर्पूरैश्चन्दनैस्तां विलेपयेत् ॥
धूपैश्चन्दनकर्पूरवालकैः सितसिह्लकैः।
भक्ष्याणि शर्करापूर्णान्यनेकानि शुभानि च ॥
दापयेत्कन्यकाविप्रभोजनं चाऽऽत्मनस्तथा।
शक्तितो दक्षिणां दद्यान्महिषघ्नीं च कीर्तयेत् ॥
दीपमाला घृतैनैव सर्वान्कामान्प्रयच्छति। **
इति देवीपुराणे महिषघ्न्या हरिद्रातोयेन स्नानपूजादिकमुक्तं तत्र दीपमालाविधानात्प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या। इत्याषाढाष्टमी। अथ जन्मा-
ष्टमी निर्णीयते — सा च दर्शान्तमासाभिप्रायेण श्रावणकृष्णाष्टमीति, पूर्णिमान्तमासाभिप्रायेण भाद्रपदकृष्णाष्टमीति वाक्येषु व्यवह्रियत इति श्रावण्युत्तरैकैवाष्टमी। यत्तु —
**श्रावणे वा नभस्ये वा रोहिणीसहिताष्टमी।
यदा कृष्णा नरैर्लब्धा सा जयन्तीति कीर्तिता॥
श्रावणे न भवेद्योगो नभस्ये तु भवेद्ध्रुवम्।
तयोरभावे योगस्य तस्मिन्वर्षे न संभवः॥ **
इति माधवे वसिष्ठसंहितावचनं तत्र सा जयन्तीत्यत्र सेत्यनेन श्रावणगतैव परामृश्यते न तु नभस्यगता \।
**रोहिणी च यदाऽष्टम्यांकृष्णायां श्रावणे भवेत्।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता न तु भाद्रपदेऽष्टमी॥ **
इति कालादर्शोदाहृतवाराहवचनविरोधात्। दर्शान्तमासाभिप्रायेण श्रावण इति पूर्णिमान्तमासाभिप्रायेण भाद्रपद इत्युच्यत इति एकैवाष्टमीति हेमाद्रिमाधवकालादर्शादिविरोधाच्च। एतेन श्रावणकृष्णाष्टम्यांरोहिणीयोगाभावे भाद्रपदकृष्णाष्टम्यां रोहिणीसत्त्वे च तत्रैव जयन्तीव्रतं कार्यमिति स्मृतिकौस्तुभ उपेक्ष्यो वाराहवचनाद्यदर्शननिबन्धनत्वात्। अस्यांहेमाद्रिमदनरत्नाद्युदाहृत भविष्योत्तरे —
**कीदृशं तद्व्रतं देव देवैः सर्वैरनुष्ठितम्।
जन्माष्टमीतिसंज्ञं च पवित्रं पापनाशनम्। **
इति युधिष्ठिरेण पृष्ठःकृष्ण उवाच —
**मासि भाद्रपदेऽष्टम्यां निशीथे कृष्णपक्षगे।
शशाङ्के वृषराशिस्थ ऋक्षे रोहिणिसंज्ञिते॥
योगेऽस्मिन्वसुदेवाद्धि देवकी मामजीजनत्।
तस्मान्मां पूजयेत्तत्र शुचिः सम्यगुपोषितः॥
भगवत्याश्च तत्रैव क्रियते सुमहोत्सवः।
योगेऽस्मिन्कथितेऽष्टम्यां सिंहराशिगते रवौ॥ **
इत्युपक्रम्य सूतिकागृहनिर्माणाद्यभिधाय
**प्रणवादि नमोन्तं च पृथग्नामानुकीर्तयन्183॥
कुर्यात्पूजां विधिज्ञश्च सर्वपापापनुत्तये।
देवक्यै वसुदेवाय वासुदेवाय चैव हि॥ **
**बलदेवाय नन्दाय यशोदायै पृथक्पृथक्। **
इत्यादिपूजामभिधाय
**मन्त्रेणानेन नैवेद्यं दद्याच्चन्द्रमसे नरः।
तथैवार्घ्यं च मन्त्रेण अनेनैव तु दापयेत्।
क्षीरोदार्णवसंभूत अत्रिनेत्रसमुद्भव।
गृहाणार्घ्यं शशाङ्केदं रोहिण्या सहितो मम।
ज्योत्स्नापते नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषां पते।
नमस्ते रोहिणीकान्त अर्घ्यं नः प्रतिगृह्यताम्।
स्थाण्डिले स्थापयेद्देवं शशाङ्कं रोहिणीयुतम्।
देवक्या वसुदेवं च नन्दं चैव यशोदया।
बलदेवं मया सार्धं भक्त्या परमया नृप।
संपूज्य विधिवद्देही किं नाऽऽप्नोत्यतिदुर्लभम्। **
ततो नालच्छेदादिनामकरणपर्यन्तसंस्कारान्नवमीप्रातःपूजां चोक्त्वा
**ब्राह्मणान्भोजयेद्भक्त्या तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणाम्।
हिरण्यं मेदिनीं गावो वासांसि कुसुमानि च।
यद्यदिष्टतमं तत्तु कृष्णो मे प्रियतामिति। **
इत्यादिपारणान्तमभिधाय
**एवं यः कुरुते देव्या देवक्या सुमहोत्सवम्।
प्रतिवर्षं विधानेन मद्भक्तो धर्मनन्दन।
नरो वा यदि वा नारी यथोक्तं फलमाप्नुयात्।
पुत्रं संतानमनघं सौभाग्यमतुलं भवेत्।
इह धर्मरतिर्भूत्वा मृतो वैकुण्ठमाप्नुयात्। **
इत्याद्यनेकफलान्युक्तानि। अत्र प्रतिवर्षमिति वीप्साश्रवणात्,
**श्रावणे बहुले पक्षे कृष्णजन्माष्टमीव्रतम्।
न करोति नरो यस्तु भवति क्रूरराक्षसः।
जन्माष्टमीदिने प्रा184प्ते, येन भुक्तं द्विजोत्तम।
त्रैलोक्यसंभवं पापं तेन भुक्तं द्विजोत्तम। **
इत्यादिमाधवाद्युदाहृतभविष्यत्पुराणादिवचनैरकरणे प्रत्यवायश्रवणात्करणे पुत्रादिफलश्रवणाच्चनित्यं, काम्यं [च] जन्माष्टमीव्रतं रोहिणीयुताष्टम्यां विहितम्। अग्निपुराणे वसिष्ठ उवाच —
**कृष्णाष्टम्यां भवेद्यत्र कलैका रोहिणी नृप।
जयन्ती नाम सा ज्ञेया185 उपोष्या सा प्रयत्नतः॥
सप्तजन्मकृतं पापं राजन्यत्रिविधं नृणाम्।
तत्क्षालयति गोविन्दस्तिथौ तस्यां सुभावितः॥
उपवासश्च तत्रोक्तो महापातकनाशनः।
जयन्त्यां जगतीपाल विधिना नात्र संशयः॥
त्रेतायां द्वापरे चैव राजन्कृतयुगे पुरा।
रोहिणीसहिता चेयं विद्वद्भिः समुपोषिता॥
वियोगे पारणं चक्रुर्मुनयो ब्रह्मवादिनः।
सांयोगिके व्रते प्राप्ते यत्रैकोऽपि वियुज्यते॥
तत्र पारणकं कुर्यादेवं वेदविदो विदुः।
अतः परं महीपाल संप्राप्तेतामसे कलौ।
जन्मनो वासुदेवस्य भविता व्रतमुत्तमम्।
आराधितः स देवक्या विष्णुः सर्वेश्वरः पुरा॥
समायोगे तु रोहिण्यां निशीथे राजसत्तम।
समजायत गोविन्दो बालरूपी चतुर्भुजः॥
तं दृष्ट्वा जगतांनाथं प्रणम्य गरुडध्वजम्।
देवकी प्राञ्जलिर्भूत्वा इदं वचनमब्रवीत्॥
नाहं वियोगं संसोढुं हार्दप्रस्रुतलोचना।
तवेदृग्रूपमालोक्य शक्नोमि मधुसूदन॥ **
वासुदेव उवाच—
**त्वं मां द्रक्ष्यस्यसंदिग्धं दिनेऽस्मिन्नेव मामके।
तव दर्शनमेष्यामि बालरूपेण देवकि॥
ये त्वां पुष्पादिभिर्देवि पूजयिष्यन्ति मानवाः।
दिनेऽस्मिन्मां महाभागास्तवोत्सङ्गे व्यवस्थितम्॥
दास्यन्ति ये निशीथेऽर्घ्यंरोहिण्या सहिते विधौ।
सुवर्णेन कृते पात्रे राजते वा नरोत्तमाः॥
सर्वान्कामानवाप्स्यन्ति इह लोके परत्र च।
सप्तमीसंयुताष्टम्यां निशीथे रोहिणी यदि॥ **
**भविता साऽष्टमी पुण्या यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
यत्पुण्यं सम्यगिष्टेन राजसूयेन पार्थिव॥
तत्पुण्यं सकलं लब्ध्वा विष्णोः सालोक्यतां व्रजेत्।
नापुत्री नाधनो दुःखी वियोगी नापि रोगवान्॥
भवेन्नाकालतो मृत्युर्यावज्जन्मशतं नृप।
शङ्खे तोयं समादाय सपुष्पफलकाञ्चनम्॥
जानुमेकं धरां कृत्वा चन्द्रायार्घ्यंनिवेदयेत्।
क्षीरोदार्णवसंभूत अत्रिगोत्रसमुद्भव॥
अर्घ्यं गृह्ण शशाङ्केदं रोहिण्या सहितो मम।
ततोऽनुपूजयेत्तां तु सकृष्णां देवकीं नृप॥
गन्धपुष्पैः सनैवेद्यैर्वस्त्रैराभरणैस्तथा। **
इत्यादिना पूजामभिधाय
**पूर्वेतिहासैःपौराणैः क्षपेत्तां शर्वरीं नृप।
दद्यात्स्वशक्तितो राजन्प्रभात उदिते रवौ॥
ब्राह्मणेभ्यो यथाशक्ति धेनुं वस्त्राणि काञ्चनम्।
दक्षिणां तु द्विजेभ्यस्तु सर्वं तदक्षयं भवेत्॥
भान्तेकुर्यात्तिथेर्वाऽपि शस्तं भारत पारणम्।
व्रतेनानेन पूतात्मा राजसूयफलं लभेत्॥
यः कुर्याद्व्रतमेतत्तु पुण्यवान्भक्तितः सदा।
इहामुत्र सुखी विद्वान्परात्परतरं व्रजेत्॥ **
इत्यादिना जयन्तीव्रतमुक्तम्। अत्र फलश्रवणात्काम्यत्वम्।
**न करोति यदा विष्णोर्जयन्तीसंभवं व्रतम्।
यमस्य वशमापन्नः सहते नारकीं व्यथाम्॥
जयन्तीवासरे प्राप्ते करोत्युदरपूरणम्186।
संपीड्यतेऽतिमात्रं तु यमदूतैः कलेवरम्॥ **
इत्यादिवाक्यैरकरणे प्रत्यवायस्मरणान्नि187त्यत्वं चास्य स्पष्टम्। एतस्य पूर्वोदाहृतभविष्योत्तरोक्ताज्जन्माष्टमीव्रताद्भेदस्वीकारे
**शूद्रान्नेन तु यत्पापं शवहस्तस्थभोजने।
तत्पापं लभ्यते पुंभिर्जयन्त्यां भोजने कृते॥ **
गृध्रमांसं खरं काकं श्येनं च मुनिसत्तम।
मांसं वा द्विपदां भुक्तं भुक्तं जन्माष्टमीदिने॥
कृष्णाष्टमीदिने प्राप्ते येन भुक्तं द्विजोत्तम।
त्रैलोक्यसंभवं पापं तेन भुक्तं न संशयः॥
ब्रह्मघ्नश्चसुरापश्च स्त्रीवधो गोवधोऽपि वा।
न लोको मुनिशार्दूल जयन्तीविमुखस्य च॥
ये न कुर्वन्ति जानन्तः कृष्णजन्माष्टमीव्रतम्।
ते भवन्ति नराः प्राज्ञ व्याला188 महति कानने॥
श्रावणे बहुले पक्षे कृष्णजन्माष्टमीव्रतम्।
न करोति नरो यस्तु भवति क्रूरराक्षसः॥
श्रावणे बहुले पक्षे न करोति यदाऽष्टमीम्।
क्रूरायुधाः क्रूरमुखा हिंसन्ति यमकिंकराः॥
न करोति यदा विष्णोर्जयन्तीसंभवं व्रतम्।
यमस्य वशमापन्नः सहते नारकीं व्यथाम्॥
जयन्तीवासरे प्राप्ते करोत्युदरपूरणम्।
संपीड्यतेऽतिमात्रं तु यमदूतैः कलेवरम्॥
यो भुञ्जीत विमूढात्मा जयन्तीवासरे नृप।
नरकोत्तरणं नास्ति द्वादशीं तु प्रकुर्वतः॥
यदा सह जयन्त्या तु करोति द्वादशीव्रतम्॥
तस्य शौरिपुरे वासो यावदाभूतसंप्लवम्।
रटन्तीह पुराणानि भूयो भूयो महामुने॥
अतीतानागतं तेन कुलमेकोत्तरं शतम्।
पातितं नरके घोरे भुञ्जीता कृष्णवासरे॥
इति हेमाद्रिणा, निर्णयामृतेन, मद्रनरत्नेन चोदाहृते स्कन्दपुराणे एकस्यैव व्रतस्य जन्माष्टमीशब्देन, जयन्तीशब्देन च बहुशो व्यवहारविरोधापत्तेः। अथ जयन्तीव्रतनित्यत्वनिर्णय इति प्रस्तुत्यैतान्येव स्कान्दवाक्यान्युदाहृत्य त्याज्यभोजनप्रतिषेधस्य नित्यजन्माष्टमीव्रतस्तुत्यर्थता वेदितव्या। भोजननिन्दावाक्यानां नित्यव्रतविधिशेषत्वं स्पष्टमेव। फलसंबन्धवचनात्काम्यत्वमप्येतद्व्रतस्यावगम्यते। विष्णुरहस्ये —
प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता कृष्णा नभसि चाष्टमी ।
मुहूर्तमपि लभ्येत सैवोपोष्या महाफला ॥
स्कान्दे —
व्रतेनाऽऽराध्यते देवं देवकीसहितं हरिम् ।
त्यक्त्वा यमपदं घोरं याति विष्णोः परं पदम् ॥
जन्माष्टमीव्रतं ये वै प्रकुर्वन्ति नरोत्तमाः ।
कारयन्ति च विप्रेन्द्रा लक्ष्मीस्तेषां सदा स्थिरा ॥
ममाऽऽज्ञया कुरुष्व त्वं जयन्तीं मुक्तयेऽनघ ।
भविष्योत्तरे —
प्रतिवर्षं विधानेन मद्भक्तो धर्मनन्दन ।
नरो वा यदि वा नारी यथोक्तफलमाप्नुयात् ॥
इत्यादिवाक्यान्युदाहृत्य तस्मादेतद्व्रतं नित्यं काम्यं चेति सिद्धमिति हेमाद्रिसिद्धान्तविरोधापत्तेः । अकरणे प्रत्यवायबोधकजन्माष्टमीपदयुक्तजयन्तीपदयुक्तानि पूर्वोक्तानि वाक्यान्युदाहृत्यैतैर्वाक्यैर्जन्माष्टम्यां भोजने महादोषः श्रूयत उपवासे महाफलसंबन्धश्च । तदुक्तं विष्णुरहस्येप्राजापत्यर्क्षसंयुक्तेत्यादिफलसंयुक्तबोधकान्युदाहृत्य तस्मात्सर्वैरेवोपवासव्रतं कार्यमिति निर्णयामृतस्य, अथ जन्माष्टमीव्रतनित्यकाम्यतानिर्णय इत्युपक्रम्य जन्माष्टमीजयन्तीशब्दयुक्तान्यकरणे प्रत्यवायस्य, करणे फलसंबन्धस्य बोधकानि वाक्यान्युदाहृत्येति जन्माष्टमीव्रतनित्यकाम्यतानिर्णय इति मदनरत्नस्य च विरोधापत्तेः । अत एव यदा शुद्धाऽधिकाष्टमी द्वितीयदिन एव रोहिणीयुक्ता तत्र नोपवाससंदेहो रोहिणीयुक्तद्वितीयकोटेरभावादिति । यदा विद्धाऽधिका द्वितीयदिन एव रोहिणीयुक्ता तत्रोपवासः पूर्वतिथौ न युक्तो रोहिणीयोगाभावात्परेद्युस्तु तत्सद्भावात्प्राजापत्यर्क्षेत्यादिना तत्रैवोपवासो विधीयत इति । रोहिणीयोगे तु केवलायास्तिथेरनुपादेयत्वादिति अष्टमी निशीथात्पूर्वं प्रवृत्ता रोहिणी निशीथादूर्ध्वं प्रवृत्ता तत्र परेद्युर्नक्षत्रबाहुल्येऽप्यष्टमीयोगस्याप्यल्पत्वादनुपादेयत्वशङ्का पद्मपुराणे व्यावर्तते ।
पूर्वविद्धाऽष्टमी या तु उदये नवमीदिने ।
मुहूर्तमपि संयुक्ता संपूर्णा साऽष्टमी भवेत् ॥
कला काष्ठा मुहूर्ताऽपि यदा कृष्णाष्टमी तिथिः ।
नवम्यां सैव कार्या स्यात्सप्तमीसंयुता नहि ॥
इति माधवः संगच्छते। न च भविष्योत्तरे यशोदानन्दबलदेवपूजोक्ता न तु वह्निपुराण इत्यनुष्ठेयपदार्थन्यूनाधिकभावेन प्रयोगविध्येकत्वासंभवात्कथं व्रतैक्यमिति वाच्यम्। पूर्वोक्तरीत्या व्रतैक्ये निर्णीते सर्वशाखाङ्गोपसंहारन्यायेन चात्रापि यशोदादिपूजाया उपसंहरणीयत्वात्। अशक्तौ तु
**बह्वल्पं वा स्वगृह्योक्तं यस्य कर्म प्रचोदितम्।
तस्य तावति शास्त्रार्थे कृते सर्वं कृतं भवेत्॥ **
इत्यत्रैव वह्निपुराणोक्तकृष्णदेवकीपूजने कृतेऽपि प्रत्यवायपरिहारो भवत्येव। अत एव
**प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता कृष्णा नभसि चाष्टमी।
सोपवासो हरेः पूजां तत्र कृत्वा न सीदति॥ **
इत्यादिषु हरिपूजामात्रमेवोक्तम्। तस्माज्जयन्तीशब्देन जन्माष्टमीशब्देन चोच्यमानं व्रतमेकमेव न तु व्रतद्वयमिदं भवितुमर्हतीति प्रतिज्ञाय नामनिमित्तरूपशुद्धमिश्रत्वनिर्देशभेदैः पञ्चभिर्हेतुभिर्महता प्रयत्नेन व्रतभेदं प्रसाध्य सर्वथा व्रतभेदोऽङ्गीकार्य इति माधवग्रन्थस्तु स्वरूपासिद्धहेतुविषयक निगमनरूप एव। तथाहि —अथैव ज्योतिरित्यत्राथशब्देन प्रकरणान्तरत्वनिश्चये सति, ज्योतिःशब्देन ज्योतिष्टोमशब्दस्यानुवादासंभवाद्यागान्तरकल्पना युक्ता प्रकृत उदाहृतस्कान्दसंदर्भे —
**तत्पापं लभ्यते पुंभिर्जयन्त्यां भोजने कृते। इति,
मांसं वा द्विपदां भुक्तं भुक्तं जन्माष्टमीदिने। इति,
ये न कुर्वन्ति जानन्तः कृष्णजन्माष्टमीव्रतम्। इति,
न करोति यदा विष्णोर्जयन्तीसंभवं व्रतम्। **
इत्यादिष्वेकस्यैव व्रतस्य शब्दद्वयेन बहुशोऽनुवादेन जन्माष्टमीव्रतशब्दजयन्तीव्रतशब्दयोः पर्यायत्वनिश्चयेन व्रतभेदकल्पनासंभवात्।
अन्यथा सोमयागशब्दज्योतिष्टोमशब्दयोर्भेदेन तत्रापि भेदकल्पनापत्तेरिति नामभेदरूपहेतुः स्वरूपासिद्ध एव।
**मासि भाद्रपदेऽष्टम्यां निशीथे कृष्णपक्षगे।
शशाङ्के वृषराशिस्थ ऋक्षे रोहिणिसंज्ञिते॥
योगेऽस्मिन्वसुदेवाद्धि देवकी मामजीजनत्। **
इत्यादिजन्माष्टमीकथावचनैः,
**वासरे वा निशायां वा यत्र स्वल्पाऽपि रोहिणी।
विशेषेण नभोमासे सैवोपोष्या मनीषिभिः॥ **
इति वचनात् [च] यो जयन्तीव्रते योगनिर्णयो जन्माष्टमीव्रते189 स एव ग्राह्य इति निर्णयता माधवेनापि जन्माष्टमीव्रते रोहिण्या निमित्तत्वप्रतिपादनाज्जन्माष्टमीव्रते तिथिरेव निमित्तं, जयन्तीव्रते तु रोहिणीयोग इति निमित्तभेदाद्व्रतभेद इत्यत्र निमित्तभेदहेतुरपि स्वरूपासिद्धः।
जन्माष्टमीकथायामेव भविष्योत्तरे —
**देवक्या वसुदेवं च नन्दं चैव यशोदया \।
बलदेवं मया सार्धं भक्त्या परमया नृप॥
संपूज्य विधिवद्देही किं नाऽऽप्नोत्यतिदुर्लभम्।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणाम्॥
हिरण्यं मेदिनीं गावो वासांसि कुसुमानि च। **
इति पूजादानादिविधानात्। उपवासादिमात्रं190 जन्माष्टमीव्रतस्वरूपम्, जयन्तीव्रतस्य तु दानादिसहितोपवासः स्वरूपमितिरूपभेदाद्व्रतभेद इत्यत्र रूपभेदोऽपि स्वरूपासिद्धः \। अकरणे प्रत्यवायमात्रश्रवणाच्छुद्धं नित्यं जन्माष्टमीव्रतम्, जयन्तीव्रतं नित्यं काम्यमपीति शुद्धमिश्रत्वभेदाद्भेद इत्युक्तं तत्र —
**जन्माष्टमीव्रतं ये वै प्रकुर्वन्ति नरोत्तमाः।
कारयन्ति च विप्रेन्द्रा लक्ष्मीस्तेषां सदा स्थिरा।
सिध्यन्ति सर्वकार्याणि कृते जन्माष्टमीव्रते॥ **
इति स्कान्दे,
**पुत्रसंतानमारोग्यं सौभाग्यमतुलं लभेत्। **
इत्यादि भविष्योत्तरे चानेकफलश्रवणाज्जन्माष्टमीव्रतमपि नित्यं191 काम्यं वेति शुद्धमिश्रत्वहेतुरपि स्वरूपासिद्धः।
**जन्माष्टमी जयन्ती च शिवरात्रिस्तथैव च। **
इत्यत्र जन्माष्टमीजयन्त्योर्निर्देशभेदाद्व्रतभेद इत्युक्तं तत्र रोहिणीयुक्ताष्टम्यां विहितस्यैव व्रतस्य यस्मिन्वर्षेऽष्टम्यां रोहिणीयोगो नास्ति, तत्र वर्षे तु कर्तव्य इत्यनेन केवलाष्टम्यां विधानादेकस्मिन्नेव व्रते वर्षभेदेनोभयविधानार्थं च निर्देशभेदस्याऽऽवश्यकत्वेन तस्य व्रतभेदापाद-
कत्वासंभवादिति पृथङ्निर्देशरूपहेतुरपि स्वरूपासिद्ध एवेति व्रतभेदो निष्प्रमाणक एव। व्रतद्वयस्वीकारे तु यस्मिन्वर्षे रोहिणीयोगो नास्ति तत्र जयन्तीव्रतलोपे192 जन्माष्टमीव्रतप्रवृत्तिरूपप्रयोजनमुक्तं तदन्यथासिद्धम्। रोहिणीयुक्तायां विहितस्यैव व्रतस्य
**प्रतिवर्षं विधानेन मद्भक्तो धर्मनन्दन।
नरो वा यदि वा नारी यथोक्तं फलमाप्नुयात्।
प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता193श्रावणस्यासिताष्टमी॥
वर्षे वर्षे तु कर्तव्या तुष्ट्यर्थं चक्रपाणिनः। **
इत्यादिवचनै रोहिणीरहिताष्टम्यामपि विधानात्।
**श्रावणे बहुले पक्षे न करोति यदाऽष्टमीम्।
यमस्य वशमापन्नः सहते नारकीं व्यथाम्॥ **
इत्यादिना केवलाष्टम्यतिक्रमेऽनिष्टबोधनाच्च केवलाष्टम्यामपि जयन्तीव्रतस्यानुष्ठेयत्वात्। इति निष्प्रयोजनश्च व्रतभेदः। एवं स्थिते तिथिनिर्णयप्रतिपादकमाधवग्रन्थस्य व्रतभेदप्रतिपादकमाधवग्रन्थस्य[च] परस्परविरोधात्। विरोधे प्रतिपत्तिर्वोभयोरितिमहाभाष्यकारोक्तेर्ग्रन्थद्वयस्यापि त्यागप्रसक्तौ
**सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्यर्धं त्यजति पण्डितः। **
इत्यभियुक्तोक्तेरेकस्य प्रौढिवादत्वकल्पनं विना विरोधस्य परिहर्तुमशक्यत्वात्। कस्य तत्कल्प्यमित्याकाङ्क्षायाम् —
**स्मृतेर्वेदविरोधे तु परित्यागो यथा भवेत्।
तथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेत्॥ **
इति जाबालिवचनाद्वचनविरुद्धं पौरुषेयं वाक्यं त्याज्यमिति प्रमाणबलाबलविचारे, प्रधानस्य जगत्कारणताविचारे चाप्रतिज्ञातेऽर्थे तात्पर्यं नास्तीति च माधवेनापि व्यवस्थापनात्। प्रकृते हेमाद्र्यादिनिर्णीतकालसंग्रहार्थं ममायमुद्योग इति ग्रन्थोपक्रमे माधवेन प्रतिज्ञानात्तिथिनिर्णय एव माधवतात्पर्यं न व्रतभेद इति निश्चयादुदाहृतसकलवचनानुकूलत्वाच्चतिथिनिर्णयग्रन्थे तत्कल्पनस्यायुक्तत्वात्। वचनविरुद्धप्रासङ्गिकव्रतभेदप्रतिपादकग्रन्थस्यैव प्रौढिवादत्वं युक्तम्।
**विधाने वाऽनुवादे वा यागः करणमिष्यते। **
इतिमीमांसावार्तिकवदिति विभावनीयम्। तत्सिद्धं जन्माष्टमीव्रतशब्देन जयन्तीव्रतशब्देन च व्यवह्रियमाणं व्रतमेकमेवेति। एतेन युक्तिविरुद्धं माधवहेमाद्र्यादिमहानिबन्धविरुद्धं जन्माष्टमीजयन्तीव्रतयोरैक्यमिति जयन्तीयोगसत्त्वे तु जन्माष्टमीव्रतं च तन्त्रेण करिष्य इति संकल्प्य, इत्यादि च स्मृतिकौस्तुभः कृतादिषु जयन्ती स्यात्कलौ जन्माष्टमी स्मृतेतिनन्दपण्डितोक्तिः शुद्धाधिका विद्धाधिका194द्वितीयदिन एव रोहिणीयुक्ता, तदा युक्तं तूपवासद्वयं द्वयोर्नित्यत्वादिति निर्णयसिन्धुः, जन्माष्टमी नित्या, जयन्ती नित्या काम्याचेति मयूख एवं व्रतद्वयबोधका अन्येऽप्यर्वाचीनग्रन्थाः सर्वेऽप्युपेक्ष्या हेमाद्रिमाधवादिसिद्धान्तस्कान्दादिवचनार्थाज्ञाननिबन्धनत्वात्।
नन्वेवम्
मासि भाद्रपदेऽष्टम्यां निशीथे कृष्णपक्षगे।
शशाङ्के वृषराशिस्थ ऋक्षे रोहिणिसंज्ञिते॥
इत्यादिवचनै रोहिणीयुक्तायामेवाष्टम्यां जन्माष्टमीव्रतविधानाद्यस्मिन्वर्षेऽष्टम्यां रोहिणी नास्ति तदा कथमिति चेत्।
प्रतिवर्षं विधानेन मद्भक्तो धर्मनन्दन।
नरो वा यदि वा नारी यथोक्तफलमाप्नुयात्॥
इति जन्माष्टमीकथायामेव रोहिण्यभावेऽष्टम्यां195विधानात्।
**श्रावणे बहुले पक्षे न करोति यदाऽष्टमीम्॥
क्रूरायुधाः क्रूरमुखा हिंसन्ति यमकिंकराः। **
इत्यादिवचनैरकरणेऽनिष्टबोधनाच्च केवलाष्टम्यामपि व्रतानुष्ठानम्। हेमाद्रिणाऽपि।
प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता श्रावणस्यासिताष्टमी।
वर्षे वर्षे तु कर्तव्या तुष्ठ्यर्थं चक्रपाणिनः॥
अयमर्थः — रोहिणियुक्ताष्टम्याम् —
तुष्ट्यर्थंदेवकीसूनोर्जयन्तीसंभवं व्रतम्।
कर्तव्यं वित्तमानेन भक्त्या भक्तजनैरपि॥
इत्यादिवाक्यैर्विहितं जयन्तीव्रतं तद्वर्षे वर्षे कर्तव्यमिति सिद्धान्तितत्वात्। मदनरत्नादिभिरप्येवमेव। तत्सिद्धं रोहिणीयोगाभावे केवलाष्टम्यां जयन्तीव्रतं कर्तव्यमिति। व्रतस्वरूपं तु
**उपवासश्च तत्रोक्तो महापातकनाशनः॥
तस्यामभ्यर्चनं शौरेर्हन्ति पापं त्रिजन्मजम्।
( ) कुर्याज्जागरणं तु यः॥
अर्धरात्रयुताष्टम्यां सोऽश्वमेधफलं लभेत्। **
इत्यादिवचनैस्त्रयाणां फलसंबन्धबोधनादुपवासपूजाजागरणानि।
**केवलेनोपवासेन तस्मिञ्जन्मदिने मम॥ **
इत्यादयस्त्वनुकल्पा अशक्तविषयाः। एतेनैवोपवास एव प्रधानमिति स्मृतिकौस्तुभः, पूजैव प्रधानमिति मयूखश्च उपक्ष्यौ। सुन्दोपसुन्दन्यायाच्च। अस्मिन्व्रते ग्राह्याऽष्टमी द्विविधा शुद्धा विद्धा च \। नात्र तिथ्यन्तर इव दिवैव वेधः। अपि तु
**अष्टमी शिवरात्रिश्च अर्धरात्रादधोयदि।
दृश्यते घटिकैका सा पूर्वविद्धा प्रकीर्तिता॥ **
इति माधवोदाहृतवचने घटिकाशब्देन ‘अर्धरात्रादधश्चोर्ध्वं कलयाऽपि यदा भवेत् \। जयन्ती नाम सा प्रोक्ता’ इत्याद्येकवाक्यतयाऽर्धरात्रात्पूर्वमष्टमीकलामात्रस्याप्युपलक्षणाद् द्वितीयायामान्त्यकलामारभ्य प्रवृत्ताऽपि पूर्वविद्धा भवति। तत्र शुद्धा विद्धा रोहिणीसहिता तद्रहिताऽपि वा यदा द्वितीयसूर्योदयानन्तरं नास्ति तदा सैवेति संदेहो नास्ति द्वितीयसूर्योदयोत्तरं मुहूर्तापेक्षया न्यूना विद्यते तदाऽपि पूर्वैव मुहूर्तन्यूनाया विधायकाभावात्। यदा शुद्धा द्वितीयदिने मुहूर्तादिपरिमिता वर्धते रोहिणी च सूर्योदयारभ्यार्धरात्रमारभ्य रात्रेरन्तिमक्षणमारभ्य वा प्रवृत्ता तदा पूर्वैव।
**मासि भाद्रपदेऽष्टम्यां निशीथे कृष्णपक्षगे।
शशाङ्के वृषराशिस्थ ऋक्षे रोहिणिसंज्ञिते॥
योगेऽस्मिन्वसुदेवाद्धि देवकी मामजीजनत्।
तस्मान्मां पूजयेत्तत्र शुचिः सम्यगुपोषितः॥ इति।
अर्धरात्रे तु रोहिण्यां यदा कृष्णाष्टमी भवेत्।
तस्यामभ्यर्चनं शौरेर्हन्ति पापं त्रिजन्मजम्॥ इति।
मुहूर्तमप्यहोरात्रेयस्मिन्युक्तं हि लभ्यते।
अष्टभ्यां रोहिणीऋक्षं तां सुपुण्यामुपावसेत्॥ **
**कृष्णाष्टम्यां भवेद्यत्र कलैका रोहिणी यदि।
जयन्ती नाम सा ज्ञेया उपोष्या सा प्रयत्नतः॥ **
इति भविष्यत्पुराणविष्णुधर्मविष्णुरहस्यवह्निपुराणवचनेभ्यो यदा तु शुद्धाऽधिका द्वितीयदिन एव रोहिणीयुक्ता तदा तूत्तरैव। तदुक्तं हेमाद्रौ विष्णुरहस्ये —
**प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता कृष्णा नभसि चाष्टमी।
मुहूर्तमपि लभ्येत196 सैवोपोष्या महाफला॥
मुहूर्तमप्यहोरात्रे यस्मिन्युक्तं हि लभ्यते।
अष्टम्यां रोहिणीऋक्षं तां सुपुण्यामुपावसेत्॥ **
तत्रैव विष्णुधर्मोत्तरे —
**रोहिण्यृक्षं यदा कृष्णपक्षेऽष्टम्यां द्विजोत्तम\।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वपापहरा तिथिः॥ **
सनत्कुमारसंहितायाम् —
**श्रावणस्य तु मासस्य कृष्णाष्टम्यां नराधिप।
रोहिणी यदि लभ्येत जयन्ती नाम सा तिथिः॥ **
स्कान्दे —
**प्राजापत्येन संयुक्ता अष्टमी तु यदा भवेत्।
श्रावणे बहुले सा तु सर्वपापप्रणाशिनी॥
जयं पुण्यं च कुरुते जयन्ती तेन तां विदुः। **
विष्णुधर्मे —
**जयन्त्यामुपवासश्च महापातकनाशनः।
सर्वैःकार्यो महाभक्त्या पूजनीयश्च केशवः॥ **
वह्निपुराणे —
**कृष्णाष्टम्यां भवेद्यत्र कलैका रोहिणी यदि।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता उपोष्यासा प्रयत्नत.॥
सप्तजन्मकृतं पापं राजन्यत्त्रिविधं नृणाम्।
तत्क्षालयति गोविन्दस्तिथौ तस्यां सुभावितः॥
उपवासश्च तत्रोक्तो महापातकनाशनः॥ **
इत्यादिवचनैः,
**अहोरात्रं तयोर्योगो ह्यसंपूर्णो भवेद्यदि।
मुहूर्तमप्यहोरात्रे योगश्चेत्तामुपोषयेत्॥
वासरे वा निशायां वा यत्र स्वल्पाऽपि रोहिणी।
विशेषेण नभोमासे सैवोपोष्या मनीषिभिः॥
दिवा वा यदि वा रात्रौ नास्ति चेद्रोहिणीकला।
रात्रियुक्तां प्रकुर्वीत विशेषेणेन्दुसंयुताम्॥ **
इति माधवोदाहृतवसिष्ठसंहितादिवचनैश्च स्वल्पाया अपि रोहिणीयुताया एव विधानात्,
**विधिः पूज्यतिथौ तत्र निषेधः कालमात्रकः। इति वचनात्
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव हि197।
सर्वैरेवोत्तरा कार्या परतो द्वादशी यदि॥ **
इत्येतद्वचनविहिताया एव तिथेर्मुख्यमपि संपूर्णाहोरात्रसत्त्वमुपेक्ष्य साकल्यवचनबोधितमपि सत्त्वमादाय कर्मणो यस्य यः काल इति कर्मकालशास्त्रं प्रवर्तते। तथा प्रकृतेऽपि मुहूर्तमात्राया अपि रोहिणीयुताया एव विधानादर्धरात्रे कर्तव्यपूजादावपि साकल्यवचनापादितसत्त्वमादायोत्तरदिन एव कर्मकालशास्त्रप्रवृत्तेः। अत एव —
‘मुहूर्तमपि संयुक्ता संपूर्णा साष्टमी भवेत्।
प्राजापत्यं द्वितीयेऽह्नि मुहूर्तार्धंभवेद्यदि॥
तदाऽष्टयामिकं ज्ञेयम्’
इत्यादिवचनानि सार्थकानि। शुद्धाधिकायां द्वितीयदिन एव रोहिणीयोग उत्तरैवेति हेमाद्रिमाधवमदनरत्ननिर्णयामृतादयश्च संगच्छन्ते। तत्सिद्धं द्वितीयदिन एव रोहिणीयुक्ता शुद्धाधिकोत्तरैवेति। एवं विद्धाधिकायां पूर्वदिन एव रोहिणीयोगे सैव ग्राह्या।
**अर्धरात्रे तु रोहिण्यां यदा कृष्णाष्टमी भवेत्।
तस्यामभ्यर्चनं शौरेर्हन्ति पापं त्रिजन्मजम्॥
सप्तमीसंयुताष्टम्यां निशीथे रोहिणी यदि।
भविता साऽष्टमी पुण्या यावच्चन्द्रदिवाकरौ॥
तस्मात्कृष्णाष्टमी पूज्या सप्तम्यां नृपसत्तम।
रोहिणीसंयुतोपोष्या सर्वाघौघविनाशिनी॥
कार्या विद्धापि सप्तम्या रोहिणीसंयुताऽष्टमी।
तत्रोपवासं कुर्वीत तिथिभान्ते च पारणम्॥ **
इतिभविष्यत्पुराणविष्णुधर्मवह्निपुराणपाद्मादिवचनेभ्यः। यदा दिनद्वयेऽप्यर्धरात्रे रोहिणीयोगस्तदा —
**सऋक्षाऽपि न कर्तव्या सप्तमीसंयुताऽष्टमी॥ **
इति हेमाद्रिमाधवोदाहृतब्रह्मवैवर्तवचनेन पूर्वस्या निषेधात्,
**अविद्धायां सऋक्षायां जातो देवकिनन्दनः। **
इतिमाधवे ब्रह्मवैवर्तवचनात्,
**मासि भाद्रपदेऽष्टम्यां कृष्णपक्षेऽर्धरात्रके।
शशाङ्के वृषराशिस्थे ऋक्षे रोहिणिसंज्ञिते॥
योगेऽस्मिन्वसुदेवाद्धि देवकी मामजीजनत्।
तस्मान्मां पूजयेत्तत्र शुचिः सम्यगुपोषितः॥ **
इति वचनादुत्तरैव। यदोत्तरदिन एवार्धरात्रे रोहिणीयोगस्तदोदाहृतवचनादुत्तरैवेति संदेह एव नास्ति। यदा पूर्वार्धरात्रात्पूर्वंप्रवृत्ताऽष्टमी द्वितीयार्धरात्रे विद्यते, अर्धरात्रात्पूर्वं वा समाप्ता, रोहिणी चार्धरात्रादूर्ध्वं प्रवृत्ता, द्वितीयार्धरात्रादर्वागेव समाप्ता, यदा वाऽष्टमीरोहिण्यावर्धरात्रादूर्ध्वं प्रवृत्ते, द्वितीयार्धरात्रात्पूर्वं198 समाप्ते, तदा
**वर्जनीया प्रयत्नेन सप्तमीसंयुताऽष्टमी।
सऋक्षाऽपि न कर्तव्या सप्तमीसंयुताऽष्टमी॥ **
इत्यनेन पूर्वस्या निषेधादुदाहृतानेकवचनादुत्तरैव। यदाऽर्धरात्रानन्तरं प्रवृत्ताऽष्टमी द्वितीयार्धरात्रात्पूर्वं समाप्ता, रोहिणी चार्धरात्रात्पूर्वं प्रवृत्ता द्वितीयदिने स्वल्पेति शङ्का निवर्त्यते हेमाद्रिमाधवोदाहृतस्कान्दे —
**सप्तमीसंयुताष्टम्यां भूत्वा ऋक्षं द्विजोत्तम।
प्राजापत्यं द्वितीयेऽह्नि मुहूर्तार्धंभवेद्यदि॥
तदाऽष्टम्यामिकं ज्ञेयं प्रोक्तं व्यासादिभिः पुरा॥ इति। **
यदा विद्धाधिकाऽष्टमी द्वितीयदिने स्वल्पा, तत्रैव रोहिणीयुक्ताष्टम्या अल्पत्वशङ्का व्यावर्त्यतेहेमाद्रिमाधवोदाहृतपाद्मे —
**पूर्वविद्धाऽष्टमी या तु उदये नवमीदिने॥
मुहूर्तमपि संयुक्ता संपूर्णा साऽष्टमी भवेत्।
कला काष्ठा मुहूर्ताऽपि यदा कृष्णाष्टमी तिथिः॥
नवम्यां सैव कार्या स्यात्सप्तमीसंयुता नहि॥ इति। **
यस्मिन्वर्षेऽष्टम्यां रोहिणीयोगो नास्ति, तदा केवलायामपि
**प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता कृष्णा नभसि चाष्टमी।
वर्षे वर्षे तु कर्तव्या तुष्ट्यर्थं चक्रपाणिनः॥ **
इत्यादिवाक्यैर्जयन्तीव्रतं विधीयते तत्र शुद्धायामनधिकविद्धायां वा संदेह एव नास्ति। विद्धाऽधिका तु पूर्वदिन एवार्धरात्रव्यापिनी, तदा सैव ग्राह्या रात्रियुक्तां प्रकुर्वीत विशेषेणेन्दुसंयुतामिति वचनात्। दिनद्वयेऽर्धरात्रव्याप्तावव्याप्तौ च
**वर्जनीया प्रयत्नेन सप्तमीसंयुताऽष्टमी॥ **
इति पूर्वस्या निषेधात्,
**दिवा रात्रौ व्रतं यच्च एकमेकतिथौ गतम्।
तस्यामुभययोगिन्यामाचरेत्तद्व्रतं व्रती॥ **
इत्यादिवचनात्,
**दिवा वा यदि वा रात्रौ नास्ति चेद्रोहिणीकला।
रात्रियुक्तां प्रकुर्वीत विशेषेणेन्दुसंयुताम्॥ **
इतिवचनाच्चोत्तरैवेति। यदा निर्णीततिथिदिने बुधवासरादिर्भवति, तदा प्राशस्त्यमुक्तं स्कान्दे —
**उदये चाष्टमी किंचिन्नवमी सकला यदि।
भवेत्तु बुधसंयुक्ता प्राजापत्यर्क्षसंयुता॥
अपि वर्षशतेनापि लभ्यते यदि वा नवा। **
पाद्मेऽपि —
**प्रेतयोनिगतानां तु प्रेतत्वं नाशितं नरैः।
यैः कृता श्रावणे मासि अष्टमी रोहिणीयुता॥
किं पुनर्बुधवारेण सोमेनापि विशेषतः।
किं पुनर्नवमीयुक्ता कुलकोट्यास्तु मुक्तिदा॥ इति। **
अत एव यदा द्वितीयदिवस एव रोहिणीयोगस्तदा तत्रैव व्रतमित्युक्तं तत्र बुधवारादियोगे प्राशस्त्यातिशय इति हेमाद्रिमाधवनिर्णयामृतमदनरत्नादिसिद्धान्तः संगच्छत इति दिक्। यत्तु पूर्वदिने रोहिणीरहिता निशीथगाऽष्टमी द्वितीयदिने रोहिणीसहिताऽपि निशीथात्प्रागेव समाप्ता, तदाऽपि पूर्वैव कर्मकालशास्त्रस्य सर्वापेक्षया प्राबल्यस्य सर्वग्रन्थसिद्धत्वात्। रोहिणीयोगे तुप्राशस्त्यात्फलातिशयो न तु तस्य निर्णयोपयोगित्वं नवमीबुधवारवत्। अन्यथा प्रेतयोनिगतानां त्विति
वचनात्पूर्वेद्युरर्धरात्रे विद्यमानां सरोहिणीमप्यष्टमीं त्यक्त्वा बुधनवमीयुता परैव कार्या, आपद्येतेति मयूखे द्वैतनिर्णये चोक्तम्। तत्र कर्मकालवाक्यस्य तत्तत्तिथिविषयकविशेषवाक्यानुग्रहेणैव प्रवृत्तिरित्येव हेमाद्रिमाधवादिसिद्धान्तः। विशेषवाक्यापेक्षयाऽपि प्राबल्यकल्पने तु
**एकादश्यां तु नक्तं च नरः कुर्याद्यथाविधि।
मार्गशीर्षे शुक्लपक्षादारभ्याब्दं विचक्षणः॥
तद्व्रतं धनदश्रेष्ठ कृतं वित्तं प्रयच्छति। **
इति पुण्यैकादशीप्रकरणे हेमाद्र्यादौ वाराहाद्युक्तनक्तादावुदयादूर्ध्वं प्रवृत्तविद्धाधिकैकादश्यादितिथौ पूर्वदिने कर्मकालवाक्यप्रवृत्त्यापत्तौ
**प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या सदा नक्तव्रते तिथिः।
उदयस्था सदा पूज्या हरिनक्तव्रते तिथिः॥ **
इत्यादिस्कान्दादिवचनानां, तत्रत्यहेमाद्रिमाधवादीनां च निर्विषयत्वापत्तेः। तस्माद्विधिः पूज्यतिथौ तत्रेतिवचनादुदयस्थेत्यादिविशेषवचनविहिताया एव तिथेःसाकल्यवचनापादितमपि कर्मकालसत्त्वमादाय तत्रैव कर्मकालवाक्यप्रवृत्तेस्तत्रैवानुष्ठानमिति यथा हेमाद्रिमाधवादिभिः सिद्धान्तितम्, तथा प्रकृतेऽपि —
**प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता कृष्णा नभसि चाष्टमी।
मुहूर्तमपि लभ्येत सोपोष्या सा महाफला॥
त्रेतायां द्वापरे चैव राजन्कृतयुगे पुरा।
रोहिणीसहिता चेयं विद्वद्भिः समुपोषिता॥
वासरे वा निशायां वा यत्र स्वल्पाऽपि रोहिणी।
विशेषेण नभोमासे सैवोपोष्यामनीषिभिः॥
अहोरात्रं तयोर्योगो ह्यसंपूर्णो भवेद्यदि।
मुहूर्तमप्यहोरात्रे योगश्चेत्तामुपोषयेत्॥ **
इत्यादिवाक्यैः स्वल्पाया अपि रोहिणीयुताया एव विधानादर्धरात्रे पूजाकालेऽष्टमी नास्तीति शङ्कायाः
**पूर्वविद्धाऽष्टमी या तु उदयेनवमीदिने॥
मुहूर्तमपि संयुक्ता संपूर्णा साऽष्टमी भवेत्॥ **
इत्यादिवचनैर्निवर्तितत्वान्मुहूर्तमात्राऽपि रोहिणीयुतैव ग्राह्येति हेमाद्रिमाधवकालादर्शादिभिः सर्वैरुक्तत्वात्पूर्वदिन एवार्धरात्रव्यापिनी द्वितीयदिन एव रोहिणीयुता पूर्वेद्युरुक्तिरुदाहृतवचनहेमाद्र्यादिनिबन्धवि-
रोधादुपेक्ष्या। रोहिण्या निर्णायकत्वेबुधवारस्यापि निर्णायकत्वापत्तिरित्याद्युक्तिस्त्वष्टम्यां विधायकयावद्वचनै रोहिणीविशिष्टाया एवोपवासादिनिमित्तत्वविधानाद्बुधवारस्य तु केनापि तेनास्पर्शात्।
**प्रेतयोनिगतानां तु प्रेतत्वं नाशितं नरैः।
यैः कृता श्रावणे मासि अष्टमी रोहिणीयुता॥ **
इत्यनेन रोहिणीयुताया एव फलमुक्त्वा किं पुनर्बुधवारेणेत्यादिना बुधवारादेः प्राशस्त्यसंपादकस्यैव प्रतिपादनाद्धेमाद्रिमाधवमदनरत्ननिर्णयामृतादिभिः सर्वैस्तथैव सिद्धान्तितत्वादयुक्तैव। अत एव द्वैतनिर्णये —
**पूर्वविद्धाऽष्टमी या तु उदये नवमीदिने। **
इत्यादिवाक्येषूदयपदं चन्द्रोदयपरं, कला काष्ठा मुहूर्ताऽपीत्यत्र कलादिपदमर्धरात्रवर्तिकलादिपरमित्यर्थान्तरोत्प्रेक्षाऽप्ययुक्ता वचनात्स्वारस्येन तथा प्रतीतेरभावात्संपूर्णा साऽष्टमी भवेदित्यस्यवैयर्थ्यापत्तेः, हेमाद्रिमाधवादिविरोधाच्च। अत एव यदि तु जयन्तीव्रतं जन्माष्टमीव्रताद्भिन्नं, तदा भवतु परेऽहनि न तु जन्माष्टमीमिति पक्षान्तरमनुसृतं मयूखे, अत्र संदिग्धत्वेनोक्तिर्व्रतनिश्चयबोधक — तत्र जन्माष्टमीनित्या जयन्ती नित्या काम्या चेतिस्वोक्तिविरुद्धा, जन्माष्टमीजयन्तीशब्दाभ्यां व्यवह्रियमाणव्रतस्यैकत्वबोधकानेकवचनमूलकहेमाद्रिग्रन्थार्थाप्रतिसंधाननिबन्धना चेत्यसंगतैव। तस्मादनेकवचनैः प्रतिपादितस्य हेमाद्रिमाधवनिर्णयामृतमदनरत्नादिभिः पुरस्कृतस्य रोहिण्या निर्णायकत्वस्य जन्मकाले सद्भावमात्रेण रोहिण्या निमित्तत्वे बुधवारस्यापि निमित्तत्वापत्तिरिति प्रौढिवादरूपमाधवग्रन्थदर्शनमात्रेणापह्नवस्य साहसरूपत्वादुपेक्ष्यो द्वैतनिर्णयो मयूखश्चेति। यत्त्वल्पकालरोहिणीयोगे जयन्ती नामाष्टमी, अर्धरात्रे योगे तु रोहिण्यष्टमीति कैश्चिदुक्तं, तदर्धरात्रादधश्चोर्ध्वं कलयाऽपि यदा भवेदित्यादिवचनविरोधेन दूषयित्वा
**श्रावणस्य तु मासस्य कृष्णाष्टम्यां नराधिप।
रोहिणी यदि लभ्येत जयन्ती नाम सा तिथिः॥ **
इत्यादिवचनाद्रोहिणीयुताष्टमीवचन एव जयन्तीशब्द इति हेमाद्रिणा199सिद्धान्तितम्। एतेनार्धरात्रे रोहिणीयुक्ता जयन्तीति निर्णयामृत-
उपेक्ष्य उदाहृतवचन200हेमाद्रिमाधवविरोधादिति दिक्\। इत्थं च हेमाद्रिमाधवयोः परस्परं विरोधपरिहारपुरःसरं सर्ववाक्याविरोधेन निर्णीताया जन्माष्टम्या अयं संग्रहः—शुद्धसमायां, शुद्धन्यूनायां, विद्धसमायां, विद्धन्यूनायां वेषद्रोहिणीयोगेऽपि संदेह एव नास्ति\। शुद्धाधिकायां पूर्वदिन एव दिनद्वयेऽपि वा रोहिणीयोगे पूर्वैव\। यदोत्तरदिन एव रोहिणीयोगस्तदा मुहूर्तमात्रादुत्तरैव\। विद्धाधिकायां पूर्वदिन एव निशीथात्पूर्वं निशीथे वा रोहिणीयोगे पूर्वा\। दिनद्वयेऽपि निशीथे निशीथं विहाय वा रोहिणीयोगे तूत्तरैवेति\। यस्मिन्वर्षे रोहिणीयोगो नास्ति तत्रापि शुद्धाविद्धयोः समान्यूनयोः संदेह एव नास्ति\। शुद्धाधिकाऽपि पूर्वैव\। विद्धाधिका तु पूर्वदिन एव निशीथव्याप्तौ पूर्वा\। दिनद्वयेऽपि निशीथव्याप्तावव्याप्तौ चोत्तरैवेति संक्षेपः\। एवं निर्णीतायां तिथावुपवासादि कृत्वा पारणान्तं व्रतं ज्ञेयं व्रतान्ते तद्धि भोजनमित्यादिवाक्यैर्द्वितीयदिने भोजनरूपं पारणं व्रताङ्गतया विधीयते\। तच्च सति सामर्थ्ये पारणदिनेऽनुवर्तमानामष्टमीं रोहिणीं चातिक्रम्य कार्यम्\। तदुक्तं पद्मपुराणे —
**कार्या विद्धा तु सप्तम्या रोहिणीसहिताऽष्टमी\।
तत्रोपवासं कुर्वीत तिथिभान्ते च पारणम्॥ इति\। **
उभयान्तप्रतीक्षायां सामर्थ्याभावे त्वन्यतरान्ते कर्तव्यम्\। तदुक्तमग्निपुराणे कथायाम् —
**भान्तेकुर्यात्तिथेर्वाऽपि शस्तं भारत पारणम्\। इति\। **
तथा
**रोहिणीसहिता चेयं विद्वद्भिः समुपोषिता॥
वियोगे पारणं चक्रुर्मुनयो ब्रह्मवादिनः\।
सांयोगिके व्रते प्राप्ते यत्रैकाऽपि वियुज्यते॥
तत्र पारणकं कुर्यादेवं वेदविदो विदुः॥ इति\। **
यत्तु वचनम् —
याः काश्चित्तिथयः प्रोक्ताःपुण्या नक्षत्रसंयुताः\।
ऋक्षान्ते पारणं कुर्याद्विना श्रवणरोहिणीम्॥
इतितन्नक्षत्रान्तापेक्षया तिथ्यन्तस्य प्राशस्त्यद्योतकं न तु नक्षत्रांशस्या201नुकल्पत्वाभा202वार्थं पारणे नक्षत्रान्तप्रतीक्षाभावार्थं वा भान्ते कुर्यादिति वाक्यविरोधात्। एतेनाष्टम्यन्ते पारणं कार्यं, रोहिण्यन्तो नापेक्षित इति निर्णयामृत उपेक्षणीयः। अत एवोभयान्तमुख्यत्वद्योतनायेदमिति मदनरत्नः केवलनक्षत्रोपवासविषयमिदमित्युक्त्वा तत्र याः काश्चित्तिथयइत्यस्य स्वारस्यभङ्गभिया पूर्वोक्तानुकल्पविषयं वेदमिति माधवश्चसंगच्छते। तथा चोभयान्त उत्तमः, तिथ्यन्तो मध्यमः, नक्षत्रान्तो जघन्य इति फलितम्। अन्यतरान्तप्रतीक्षायामिति सामर्थ्याभावे तु भविष्योत्तरे कथायामुक्तम् —
शान्तिरस्तु शिवं चास्तु इत्युक्त्वा मां विसर्जयेत्।
ततो बन्धुजनौघं च दीनानाथजनं203 बहु।
भोजयित्वा तु शान्तात्मा स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः॥
इति देवविसर्जनानन्तरं पारणविधानात्। माधवोदाहृते गारुडेऽपि —
**जयन्त्यां पूर्वविद्धायामुपवासं समाचरेत्।
तिथ्यन्ते चोत्सवान्ते वा व्रती कुर्वीत पारणम्॥ इति। **
नन्वेवम् —
अष्टम्यामथ रोहिण्यां न कुर्यात्पारणं क्वचित्।
हन्युः पुराकृतं कर्म उपवासार्जितं फलम्॥
तिथिरष्टगुणं हन्ति नक्षत्रं च चतुर्गुणम्।
तस्मात्प्रयत्नतः कुर्यात्तिथिभान्ते च पारणम्॥
इति ब्रह्मवैवर्तवचनविरोध इति चेन्न।
**सायमाद्यन्तयोरह्नोः सायं प्रातश्च मध्यमे॥
उपवासफलं प्रेप्सुर्जह्याद्भक्तचतुष्टयम्। **
इत्यादिवचनेषु फल204पदश्रवणात्काम्यव्रतविषयाण्येवैतानीत्येकादशीप्रकरणे हेमाद्र्यादिभिः सिद्धान्तितत्वात्। प्रकृतवाक्येऽपि फलनाशकत्वश्रवणेन काम्यव्रताङ्गपारणविषयत्वस्यैवोचितत्वेन नित्यव्रतविषयत्वाभावादन्यथा पूर्वोदाहृतवाक्यविरोधेनाव्यवस्थापत्तेः। काम्यव्रताङ्गपारणं तु अष्टम्यामथेतिवचनादुभयान्त एव मुख्यं तत्र रात्र्यष्टममु-
हूर्तरूपनिशीथात्प्रागुभयान्त205एव यदा तु निशीथाव्यवहितपूर्वकालेऽन्यतरान्त एव तदाऽन्यतरान्तेऽप्यर्धरात्रे पारणं कार्यम्।
तिथ्यृक्षयोर्यदा छेदो नक्षत्रान्तमथापि वा।
अर्धरात्रेऽपि वा कुर्यात्पारणं त्वपरेऽहनि॥
इतिहेमाद्रिमाधवाद्युदाहृतवचनात्केवलतिथ्यन्ते भान्ते च पारणविधानमसमर्थविषयमुभयान्तपारणं तु समर्थविषयमिति सिद्धान्तयतो हेमाद्रेरप्युक्तार्थ एव तात्पर्यं सर्वाङ्गानुष्ठानसमर्थस्यैव काम्याधिकारित्वात्। न च
सर्वेष्वेवोपवासेषु दिवा पारणमिष्यते।
अन्यथा पुण्यहानिः स्यादृते धारणपारणम्॥
इतिरात्रिपारणनिषेधकवचनविरोध इति वाच्यम्।
जयन्ती शिवरात्रिश्चकार्ये भद्राजयान्विते।
कृत्वोपवासं तिथ्यन्ते तदा कुर्वीत पारणम्॥
इत्यादिविशेषवचनविषये सामान्यविषयकनिषेधाप्रवृत्तेः। यदपि —
न रात्रौ पारणं कुर्यादृते वै रोहिणीव्रतात्।
तत्र निश्यपि तत्कुर्याद्वर्जयित्वा महानिशाम्॥
इतिमदनरत्नोदाहृतवचनं तत्सार्धप्रहरादुपरितनमहानिशातः पूर्वमुभयान्तरूपकालसंभवे तत्रैव कार्यमित्यभिप्रायकम्, अन्यथा — अष्टम्यामथ रोहिण्यामित्यादिविरोधापत्तेः। न चैवं यदा रात्रौ तिथ्याद्यन्तस्तदा दिवैव पारणं कुर्यादिति कालादर्शनिर्णयामृतविरोध इति शङ्क्यम्। तयोर्नित्यव्रताङ्गपारणविषयत्वेन तद्विरोधाभावात्। तयोनित्यविषयत्वं कथं निश्चितमिति चेदष्टम्यामथेत्यादिवचनानुपन्यासात्। अन्यथैतद्वचनविरोधेन तयोरुपेक्षणीयत्वमेव स्यात्। अशक्तस्य तिथिनक्षत्रयोरनुवर्तमानयोरपि प्रातर्देवं संपूज्य क्रियमाणं पारणं न दुष्यतीति वदतो माधवस्याप्युक्तार्थ एव तात्पर्यकल्पनसंभवात्। एवं च हेमाद्र्यादीनां कालादर्शादीनां च परस्परविरोधोऽपि परिहृत इति विभावनीयम्। एवं सति पूर्वोक्तहेमाद्रिमाधवमदनरत्नग्रन्थाननूद्य तदेतन्मतत्रयमप्य-
युक्तम्, दिवैव पारणमिति कालादर्शमतमेव युक्तमिति द्वैतनिर्णयः साहसरूपत्वादुपेक्ष्य एवेति बोध्यम्।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे जन्माष्टमीनिर्णयः।
भाद्रपदशुक्लाष्टम्यां विष्णुरुवाच —
**ब्रह्मन्भाद्रपदे मासि शुक्लाष्टम्यामुपोषितः।
पूजयेच्छंकरं भक्त्या यो नरः श्रद्धयाऽन्वितः॥
स याति परमं स्थानं यत्र देवस्त्रिलोचनः। **
अत्राष्टम्यां पूजयेदित्यन्वयाद206र्थात्सप्तम्यामुपवासः207 कृतोपवासःसप्तम्यामित्यग्रेऽभिधानाच्च।
**गणेशं पूजयेद्यस्तु दूर्वया सहितं मुने। **
गणेशो महेश्वरः।
**फलैर्नानाविधैर्दिव्यैर्गन्धपुष्पैर्विलेपनैः।
दूर्वामभ्यर्च्य चेशानं मुच्यते सर्वपातकैः॥
शुचौ देशे प्रजातायां दूर्वायां ब्राह्मणोत्तम।
स्थाप्यं लिङ्गं ततो गन्धैः पुष्पैर्धूपैः समर्चयेत्॥
खर्जूरैर्नारिकेलैश्च मातुलिङ्गफलैस्तथा।
पूजयेच्छंकरं भक्त्या दूर्वया विधिना द्विज॥
दध्यक्षतैर्द्विजश्रेष्ठ अर्घ्यं दद्यात्त्रिलोचने।
दूर्वाशमीभ्यां संपूज्य मानवः श्रद्धयाऽन्वितः॥
स वै सुकृतजन्मी स्यात्सर्वदेवैस्तु वन्दितः।
विद्यां प्राप्नोति विद्यार्थी पुत्रार्थी पुत्रमाप्नुयात्॥
धनार्थी धनमाप्नोति भार्यार्थी लभते च ताम्।
मनसा यद्यदिच्छेत्तुतत्तदाप्नोति मानवः॥
य एवं पूजयेद्दूर्वांभूतेशं मानवः फलैः।
स सप्तजन्मपापौघैर्मुच्यते नात्र संशयः॥
कृतोपवासः सप्तम्यामष्टम्यां पूजयेच्छिवम्।
दूर्वासमेतं विप्रेन्द्र दध्यक्षतफलैः शुभैः॥ **
त्वं दूर्वेऽमृतजन्माऽसि वन्दिताऽसि सुरासुरैः।
सौभाग्यं संततिं देहि सर्वकार्यकरी भव।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृताऽसि महीतले॥
तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरम्।
इति दूर्वापूजामन्त्रः।
स्वलिङ्गमन्त्रैरीशानमर्चयेत्प्रयतः शुचिः।
ततः संपूजयेद्विप्रान्फलैर्नानाविधैर्द्विज॥
अनग्निपक्वमश्नीयादन्नंदधिफलं तथा।
अक्षारलवणं ब्रह्मन्नश्नीयान्मधुनाऽन्वितम्।
दद्यात्फलानि विप्रेषु फलाहारः स्वयं भवेत्॥
प्रणम्य शिरसा दूर्वांशिवं शिवमवाप्नुयात्।
य एवं कुरुते भक्त्या महादेवस्य पूजनम्॥
गणत्वं पात्यसौ ब्रह्मन्मुच्यते ब्रह्महत्यया।
एवं पुण्या पापहरा अष्टमी दूर्वसंज्ञिता।
चतुर्णामपि वर्णानां स्त्रीजनानां विशेषतः।
इति हेमाद्रिमदनरत्नाद्युदाहृतभविष्यत्पुराणे दूर्वाष्टमीव्रतं स्त्रीपुंसाधिकारिकं काम्यमुक्तम्। भविष्योत्तरे तु —
अष्टम्यां फलपुष्पैश्च खर्जूरैनारिकेरकैः।
द्राक्षामलक208पिण्डैश्च बदरैर्लकुचैस्तथा
नारङ्गैर्जम्बुकैराम्रैर्बीजपूरैश्च दाडिमैः।
दध्यक्षतैः स्रजोभिश्च धूपैर्नैवेद्यदीपकैः॥
मन्त्रेणानेन राजेन्द्र शृणुष्वावहितो मम।
त्वं दूर्वेऽमृतजन्माऽसि वन्दिताऽसि सुरासुरैः॥
सौभाग्यं संततिं दत्त्वा सर्वसौख्यकरी भव।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृताऽसि महीतले॥
तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरम्।
दत्त्वा पिष्टानि विप्रेभ्यः फलं च विविधं प्रभो॥
तिलपिष्टकगोधूमधान्यपिण्डाश्च पाण्डव।
भोजयित्वा सुहृन्मित्रं संबन्धिस्वजनांस्तथा॥
ततो भुञ्जीत तच्छेषं स्वयं श्रद्धासमन्वितम्209।
दूर्वाष्टमीव्रतं पुण्यं यः करोतीह मानवः॥
न तस्य क्षयमाप्नोति संततिः साप्तपौरुषम्।
नन्दते मोदते नित्यं यथा दूर्वा तथा कुलम्॥
इति दूर्वापूजामात्रं प्रतीयते तथाऽपि शिवपूजाया अप्युपसंहार्यत्वादेकमेव व्रतं न तु व्रतान्तरम् । अत एवैतच्च पिष्टादिकमनग्निपक्वमेव भक्षणीयम् ‘अनग्निपक्वमश्नीयात्’ इति भविष्यत्पुराणवचनादिति मदनरत्नः संगच्छते । एतच्च स्त्रीणां नित्यमपि ।
या न पूजयते दूर्वांमोहादिह यथाविधि।
त्रीणि जन्मानि वैधव्यं लभते नात्र संशयः॥
तस्मात्संपूजनीया210 च प्रतिवर्षं वधूजनैः।
सुखसंतानजननी भर्तुः सौख्यकरी सदा॥
इति मदनरत्नाद्युदाहृतपुराणसमुच्चयेऽकरणे दोषश्रवणाद्वीप्साश्रुतेश्च।
मुहूर्ते रौहिणेऽष्टम्यां पूर्वा वा यदि वा परा।
दूर्वाष्टमी तु सा ज्ञेया ज्येष्ठां मूलं211 च वर्जयेत्॥
इति पुराणसमुच्चयान्नवममुहूर्तस्यैव कर्मकालत्वात्पूर्वत्रैव दिनद्वयेऽपि वा तद्व्याप्तौ दिनद्वये रौहिणास्पर्शे वा पूर्वेव ग्राह्या।
श्रावणी दुर्गनवमी दूर्वा चैव हुताशनी।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या शिवरात्रिर्बलेर्दिनम्॥
इति बृहद्यमवचनात्
शुक्लाष्टमी तिथिर्या तु मासिभाद्रपदे भवेत्।
दूर्वाष्टमी तु सा ज्ञेया नोत्तरा सा विधीयते॥
इति पुराणसमुच्चयाच्च।उत्तरदिन एव रौहिणव्याप्तौ मुहूर्ते रौहिण इति वचनादुत्तरैव। तत्रापि
ऐन्द्रर्क्षेपूजिता दूर्वा हन्त्यपत्यानि नान्यथा।
भर्तुरायुर्हरा मूले तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥
इति पुराणसमुच्चये ज्येष्ठामूलयोरनिष्टफलबोधनात्
दूर्वाष्टमी सदा त्याज्या ज्येष्ठामूलर्क्षसंयुता।
तथा
प्राप्तेभाद्रपदे मासि शुक्लाष्टम्यां च भारत।
दूर्वामभ्यर्चयेद्भक्त्या ज्येष्ठां मूलं च वर्जयेत्॥
इति निषेधाच्चपूर्वदिने रौहिणे ज्येष्ठादिसत्त्व उत्तररौहिणे तदभावश्चेत्तदोत्तरत्रैव। यदा ज्येष्ठामूलरहिताऽष्टमी न लभ्यते तदाऽपि कर्तव्यमुक्तं पुराणसमुच्चये —
कर्तव्या त्वेकभक्तेन ज्येष्ठामूलं यदा भवेत्।
दूर्वामभ्यर्चयेद्भक्त्या न वन्ध्यं दिवसं नयेत्॥ इति।
अनेनानग्निपक्वमश्नीयादितिविहितानग्निपक्व212भोजनस्थानेऽग्निपक्वान्नभोजनरूपैकभक्तं विधीयते। अन्यत्पूजाफलदानादिकं स्वयमेव कर्तव्यम्। अत एव दूर्वामभ्यर्च्यैकभक्तं कार्यमिति निर्णयामृतः संगच्छते। अतो ब्राह्मणद्वारा पूजां कृत्वेति मदनरत्नः कालतत्त्वविवेचनादयश्च चिन्त्याः। कर्तव्या त्वेकभक्तेनेत्यनेनानग्निपक्वाशन एव निषेध इति बोध्यते। पूजायामपि तत्स्वीकारे दूर्वामभ्यर्चयेद्भक्त्येत्येतद्विरोधात्। न चेन्द्रर्क्षेपूजितेत्यनेन पूजनेन पूजायामप्यनिष्टफलश्रवणाद्ब्राह्मणद्वारेत्युक्तमिति शङ्क्यम्। ब्राह्मणकृतादपि पूजनाद्यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधादित्यत्रेव यजमानस्यैव तदापत्तेः,
या न पूजयते दूर्वां मोहादिह यथाविधि।
इत्यत्र यथाविधीतिविशेषणांशत्यागापत्तेश्च । नन्वेवमपि
शुक्ला भाद्रपदे मासि दूर्वासंज्ञा तथाऽष्टमी।
सिंहार्क एव कर्तव्या न कन्यार्के कदाचन॥
सिंहस्थे सोत्तमा सूर्येऽनुदिते मुनिसत्तम।
तथा
अगस्त्य उदिते तात पूजयेदमृतोद्भवाम्।
वैधव्यं पुत्रशोकं च दश जन्मानि पञ्च च॥
इति निर्णयामृताद्युदाहृतस्कान्दे,
उद्यानिकाशिवपवित्रकमेघपूजा-
दूर्वाष्टमीफलविरूढकजागराणि।
स्त्रीणां व्रतानि निखिलान्यपि वार्षिकाणि
कुर्यादगस्त्य उदिते न शुभानि लिप्सुः॥
इति हेमाद्र्युदाहृतलौगाक्षिणा च कन्यागतेऽर्केऽगस्त्योदये च निषेधाद्भाद्रशुक्लाष्टम्याः पूर्वं कन्यार्कोऽगस्त्योदयो वा भवति तदा किं कार्यमिति चेत्।
प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता श्रावणस्याष्टमी सिता।
वर्षे वर्षे तु कर्तव्या तुष्ट्यर्थं चक्रपाणिनः॥
इति वाक्यं रोहिणीयुक्ताष्टम्यां चक्रपाणितुष्ट्यर्थं वाक्यान्तरेण व्रतं विहितं तद्रोहिणीरहितायामप्यष्टम्यां विधीयत इति यथा हेमाद्रिमदनरत्नादिभिः सिद्धान्तितं, तथा प्रकृतेऽपि शुक्ला भाद्रपदे मासीति स्कान्देन भाद्रशुक्लाष्टम्यां वचनान्तरैर्यद्दूर्वाष्टमीसंज्ञकं व्रतं विहितं तत्सिंहार्क एव कर्तव्यमिति विधीयते, तथा च सिंहार्कबहिर्भूतशुक्लपक्षपरित्यागेन सिंहार्कयुक्तभाद्रकृष्णाष्टम्यामेव कार्यमिति पर्यवसानान्नानुपपत्तिः। न चाष्टमीशब्दस्य व्रते लक्षणैव दोष इति शङ्क्यम्।लक्षणां विनाऽपि वाक्योपपत्तावेव लक्षणादोष इति सिद्धान्तात्। प्रकृते कन्यार्कगताष्टम्याः सिंहार्के कथमपि कर्तुमशक्यत्वेन वाक्यस्यैव वैयर्थ्यापत्तेः। एवमगस्त्योदयेऽपि
अधिमासे तु संप्राप्ते नमस्ये तूदये मुनेः।
अर्वाग्दूर्वाव्रतं कार्यं परतो नैव कुत्रचित्॥
इति निर्णयदीपोदाहृतस्कान्दात्कृष्णाष्टम्यामेव कर्तव्यम्। दूर्वाष्टमी च सिंहस्थे सूर्ये भाद्रपदशुक्लाष्टमी भवति, यदि चाष्टम्याः पूर्वमगस्तिरुदेति तदा प्राग्बहुले पक्षे कार्येति हेमाद्रिसिद्धान्तोऽप्युक्तार्थतात्पर्यकत्वाद्युक्त एव। अत एव
कन्यारवौ कुम्भजनावनस्तगे
दूर्वाष्टमी याऽस्ति नभोपराष्टमी।
इति ज्योतिर्विदाभरणे कालिदासः संगच्छते। एतेन कन्यार्कागस्त्योदयरूपदोषेऽपि दूर्वामभ्यर्च्यैकभक्तं कार्यमिति निर्णयामृतः, ब्राह्मणद्वारा पूजां कारयित्वैकभक्तं कार्यमिति मदनरत्नः, कालतत्त्वविवेचनादयश्चोपेक्ष्याः। स्वोदाहृत — शुक्ला भाद्रपदे मासीतिस्कान्दवैयर्थ्यापत्तेः, हेमाद्रिविरोधाच्चेति दिक्। इति दूर्वाष्टमी।
मासि भाद्रपदे शुक्लपक्षे ज्येष्ठायुताऽष्टमी।
आरब्धव्यं व्रतं तत्र महालक्ष्म्या यतात्मभिः॥
करिष्यामि व्रतं देवि त्वद्भक्तस्त्वत्परायणः।
तदविघ्नेन मे यातु समाप्तिं त्वत्प्रसादतः॥
इत्युच्चार्य ततो बध्वा दोरकं दक्षिणे करे।
षोडशग्रन्थिसहितं गुणैः षोडशभिर्युतम्॥
ततोऽन्वहं महालक्ष्मीं पूजयेन्नियतात्मवान्।
गन्धपुष्पैः सनैवेद्यैर्यावत्कृष्णाष्टमीदिनम्।
तस्मिन्दिने तु संप्राप्ते कुर्यादुद्यापनं व्रती।
इत्यादिस्कन्दपुराणे षोडशतिथिसाध्यं महालक्ष्मीव्रतमुक्तं, तस्यारम्भः संपूर्णायां मध्याह्नादूर्ध्वं नवमीयुक्तायां वा ज्येष्ठानक्षत्रयुतायां भाद्रसिताष्टम्यां सिंहार्क एव कार्यः। उद्यापनं तु वक्ष्यमाणदोषचतुष्टयरहिताश्विनकृष्णाष्टम्यां कार्यम्।
मासि भाद्रपदे शुक्लपक्षे ज्येष्ठायुताष्टऽमी। इत्यादिस्कान्दात्॥
कन्यागतेऽर्के प्रारभ्य कर्तव्यं न श्रियोऽर्चनम्॥
हस्तप्रान्तदलस्थेऽर्के तद्व्रतं न समापयेत्॥
इति पुराणसमुच्चयात्। निर्णयामृते ब्रह्माण्डपुराणे —
सप्तमीपुष्यसंयुक्ता कर्तव्या चाश्विनाष्टमी।
दुर्गोत्सवे सिते पक्षे बहुले श्रीव्रते शुभे॥
इत्यत्र सप्तमीपुष्यसंयुक्तेति बहुलाष्टम्या एव विशेषणं सिताष्टम्या213ःपुष्ययोगासंभवात्। दुर्गोत्सवे सितपक्षगाऽष्टमी शुभेत्येवार्थः।
अर्धरात्रमतिक्रम्यवर्तते योत्तरातिथिः ।
तदा तस्यां तिथौ कायं महालक्ष्मीवतं शुभम्॥
इति च पुराणसमुच्चये।
पूजनीया गृहस्थेन अष्टमी प्रावृषि श्रियः॥
दोषैश्चतुर्भिः संत्यक्ता सर्वसंपत्करी तिथिः।
पुत्रसौभाग्यराज्यायुर्नाशिनी सा प्रकीर्तिता॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन त्याज्या कन्यागते रवौ।
विशेषेण परित्याज्या नवमीदूषिता यदि॥
त्रिदिने वाऽवमे चैव अष्टमीं नोपवासयेत्।
पुत्रहानवमीविद्धा स्वघ्नी हस्तार्कगे रवौ॥
कर्मघ्नी214त्रिदिने प्रोक्ता त्याज्या चैवावमेऽपि सा॥
इति दोषचतुष्टयम्। अत्र कन्यार्कनिषेधो व्रतारम्भविषयः। त्रिदिनावमावुभयविषयौ। नवमीवेधो हस्तार्धगार्कश्च समाप्तिविषयाविति बोध्यम्। त्रिदिनावमयोर्लक्षणं रत्नमालायामुक्तम् —
यत्रैकः स्पृशति तिथिद्वयावसानं
वारश्चेदवमदिनं तदुक्तमाद्यैः।
यः स्पर्शाद्भवति तिथित्रयस्य वार-
स्त्रिघुस्पृक्कथितमिदं द्वयं च नेष्टम्॥ इति।
एतद्दोषचतुष्टयवर्जनं प्रायेणाऽऽरम्भोद्यापनयोरेवेति। अन्यथा षोडशवर्षसाध्यव्रतस्य मध्ये दोषसंभवेऽकरणं स्यात्। अतो मध्ये सति संभवे त्याज्यं, न नियमतः। अत एव —
श्रियोऽर्चनं भाद्रपदे सिताष्टमीं प्रारभ्य कन्यामगते च सूर्ये।
समापयेत्तत्र तिथौ च यावत्सूर्यस्तु पूर्वार्कगतो युवत्या॥
इति पुराणसमुच्चयेऽप्युक्तम्। आश्विनकृष्णाष्टम्यां च प्रयोगसमाप्तिस्तत्र —
अर्धरात्रमतिक्रम्य वर्तते योत्तरा तिथिः।
तदा तस्यां तिथौ कार्यं महालक्ष्मीव्रतं शुभम्॥
इति पूर्वोदाहृतवचनेनार्धरात्रोर्ध्वकालस्पर्शिन्या उत्तरस्या एव विधानात्।
पूर्वा वाऽपरविद्धा वा ग्राह्या चन्द्रोदये सदा।
त्रिमुहूर्ताऽपि सा पूज्या परतश्चोर्ध्वगामिनी॥
इति पुराणसमुच्चये न परविद्धाऽपरविद्धेति पर्युदासेन नवमीवेधयोग्य-नवम्यविद्धायाश्चन्द्रोदयव्यापिन्या विधानात्,
षोडशैरुपचारैश्च धूपदीपादिभिस्तथा।
जागरं तत्र कर्तव्यं गीतवादित्रनिस्वनैः॥
ततो निशीथे संप्राप्तेऽभ्युदितेऽमृतदीधितौ।
दद्यादर्घ्यं च रागेण व्रती तस्मै समाहितः॥
इतिस्कान्देन चन्द्रोदयात्पूर्वकाल एव पूजाविधानात्पूर्वदिन एव चन्द्रोदयव्याप्तौ पूर्वा, उत्तरदिन उभयत्र वा चन्द्रोदयव्याप्तौ तूत्तरैव यदा पूर्वचन्द्रोदयानन्तरं प्रवृत्ता द्वितीयचन्द्रोदयात्पूर्वं समाप्ता, तदोत्तरत्र
पूजाकाले चन्द्रार्घ्यदानकाले च ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथेरभावेऽपि साकल्यवचनापादिततिथेः सत्त्वात्।
कर्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनी तिथिः॥
इति वचनेनोत्तरस्या एव विधानात् [च]।त्रिमुहूर्ताऽपि सा पूज्येत्यनेन द्वितीयदिन उदयोर्ध्वगामिनी त्रिमुहूर्ताऽपि पूज्या, किंपुनः कर्मकालव्यापिशास्त्रविषयीभूतेति सैव प्रस्तूयत इति सिद्धम्। पूर्वदिन एव चन्द्रोदयव्याप्तौ पूर्वा, उभयत्र चन्द्रोदयव्याप्तावव्याप्तौ च परैवेति। यत्तु मदनरत्नेऽस्य समापनं चन्द्रोदयव्रते चैव तिथिस्तात्कालिकी स्मृतेति वचनाच्चन्द्रोदयव्यापिन्यामेव कार्यम्, उभयत्र चन्द्रोदयव्याप्तौ कृष्णपक्षेऽष्टमी चैवेत्यादिवचनात्पूर्वस्यां कर्तव्यम्, उभयत्र चन्द्रोदयव्यापित्वेऽप्युत्तरदिने चन्द्रोदयोत्तरमुहूर्तत्रयव्यापिनी, तदोत्तरस्यां समापनीयम्, पूर्वा वापरविद्धा वेतिवचनादित्युक्तम्, तदन्यतरदिनेऽपि चन्द्रोदयव्याप्त्यभावे समानलोपापत्तेर्दिनद्वये निशीथव्यापिनी जन्माष्टमी कृष्णपक्षेऽष्टमी चैवेत्यादिभिर्न निर्णेतुं शक्या, तेषामहर्वेधविषयत्वात्, अन्यथा व्रतान्तरेष्वपि निशीथे वेधः प्रसज्येतेति माधवादिभिः सिद्धान्तितत्वेन, कृष्णपक्षेऽष्टमीति सामान्यवचनस्य प्रकृते प्रवृत्त्यसंभवात्, अष्टघटिकापरिमिततिथिवृद्धेरसंभावितत्वेन तदेकसाध्यस्य पूर्वचन्द्रोदयमारभ्यप्रवृत्ततिथेरुत्तरचन्द्रोदयोत्तरमुहूर्तत्रयसत्त्वस्य बाधितत्वात्, त्रिमुहूर्ताऽपीत्यपिशब्दविरोधात्,
पूर्वा वाऽपरविद्धा वा ग्राह्या चन्द्रोदये सदा।
इति पूर्वार्धविरोधाच्चात्यन्तासंगतमेव। अत एव मदनरत्नपृष्ठानुयायिनः कालतत्त्वविवेचनस्मृतिकौस्तुभादयः सर्वे नवीनग्रन्था उपेक्ष्याः। पूर्वा वाऽपरविद्धा वेतिवचनार्थाज्ञानमूलत्वाच्च। एतेन चन्द्रोदयादूर्ध्वं त्रिमुहूर्तव्यापित्वे तूत्तरैव। नवमी विद्धाऽपि कार्येति निर्णयामृतोऽप्ययुक्तः। अर्धरात्रानन्तरवेधस्वीकारस्तु त्रिभिर्मुहूर्तैविध्यन्तीति वचनस्य वेधकतिथेरुदयेऽस्तमये वा त्रिमुहूर्तसत्त्वं वेधप्रयोजकं वेध्यतिथेरपि त्रिमुहूर्तसद्भावोऽपेक्षितस्तेनोदयास्तमययोरेव वेध इति माधवस्य च विरोधात्, उदाहृतवचनैरुदयास्तमयव्यापिनीनामेव तिथीनां सामस्त्येन प्राशस्त्याभिधानात्, पूर्वपरवेधोऽप्युदयास्तमयकालीन एवेत्यवसीयत इत्युदाहरणप्रकरणस्थग्रन्थविस्मरणमूलत्वाच्चायुक्तमेव। इति महालक्ष्मीव्रताष्टमी।
लिङ्गपुराणे —
तेन सा जलसंस्तरे।
ग्रामे कर्कटबाह्ये तु नित्यमास्ते शुभा पुनः।
इत्यन्तेन ज्येष्ठानामिकाया अलक्ष्म्या उत्पत्त्यादि उक्त्वा
अनाथाऽहं जगन्नाथ वृत्तिं देहि नमोऽस्तु ते।
इत्युक्तो भगवान्विष्णुः प्रहस्याऽऽह जनार्दनः॥
ज्येष्ठामलक्ष्मींदेवेशो माधवो मधुसूदनः।
ये रुद्रमनघं शर्वंशंकरं नीललोहितम्॥
अम्बां हैमवतीं वाऽपि जनित्रीं जगतामपि।
मद्भक्ता निन्दयन्त्यत्र तेषां वित्तं तवैव हि॥
ये तमेव महादेवं विनिन्द्यैव यजन्ति माम्।
मूढा ह्यभाग्या मद्भक्ता अपि तेषां धनं तव॥
ये विनिन्द्य यजन्ते मामत्यन्तभ्रंशकारकाः।
मद्भक्ता नैव तद्भक्ता एवं वर्तन्ति दुर्मदाः॥
तेषां धनं गृहं क्षेत्रमिष्टापूर्तं तवैव च।
तस्मात्प्रदेयस्तस्यैवं बलिर्निन्द्यो न215चेश्वरः॥
विष्णुभक्तैर्न संदेहः सर्वयत्नेन सर्वथा।
अङ्गनाभिःसदा पूज्या बलिभिर्विविधैर्द्विजाः॥
इति ज्येष्ठापूजोक्ता । तत्कालोऽपि लिङ्गपुराणे —
कन्यार्के याऽष्टमी शुक्ला ज्येष्ठर्क्षेमहती स्मृता।
अलक्ष्मीपरिहाराय ज्येष्ठां तत्र प्रपूजयेत्॥ इति।
कन्यार्काव्यभिचारिदर्शान्ते भाद्रपद इत्यर्थः। तत्र
पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी तिथिः।
इति वचनान्मध्याह्नव्यापिन्या ग्राह्यत्वाद्यदा दिनद्वयेऽपि मध्याह्नव्यापिनी, तदा शुक्लपक्षगतत्वेनोत्तरस्या एव ग्रहणे प्राप्ते पूर्वत्रैव ज्येष्ठायोगे ज्येष्ठर्क्षेमहती स्मृतेत्यनेन पूर्वैव ग्राह्येत्यर्थः। यदा पूर्वदिने मध्याह्नानन्तरं नक्षत्रं प्रवृत्तं द्वितीयदिने मध्याह्ने मध्यात्पू216र्वं वा समाप्ति217स्तदा
यस्मिन्नस्तमियाद्भानुस्तन्नक्षत्रमुपोषणे।
इत्युपवासेऽस्तगामिनो विधानात्,
उपवासे यदृक्षं स्यात्तद्धि नक्तैकभक्तयोः।
इत्यनेनैकभक्ते तस्यैव ग्राह्यत्वात्
सा तिथिस्तच्चनक्षत्रं यस्मिन्नस्तमियाद्रविः।
इति वचनापादितनक्षत्रमादाय पूर्वदिन एव। यदा पूर्वमध्याह्नमारभ्य प्रवृत्तद्वितीयदिनेऽपराह्णंस्पृशति, तदा यथा नक्षत्रमेव प्रधानतया निमित्तमाश्रित्य
मासि भाद्रपदे शुक्लेपक्षे ज्येष्ठर्क्षसंयुते।
यस्मिन्कस्मिन्दिने कुर्याज्जेष्ठायाःपरिपूजनम्॥
इति स्कान्दविहितव्रतस्य
यस्मिन्दिने भवेऽज्येष्ठा मध्याह्नादूर्ध्वमप्यणुः।
तस्मिन्हविष्यं पूजा च न्यूना चेत्पूर्ववासरे॥
इति स्कान्दादुत्तरदिन एवानुष्ठानं, तथा नक्षत्रविशिष्टतिथिनिमित्तकव्रतेऽप्युपसर्जनीभूतस्यापि नक्षत्रस्योचितत्वादुत्तरदिन एव । यदा पूर्वमध्याह्नानन्तरं तिथिनक्षत्रं218 प्रवृत्तं219 द्वितीयमध्याह्नात्पूर्वं समाप्तं,220 तदा साकल्यवचनापादिततिथिनक्षत्रसत्ताया उभयत्र सत्त्वेऽपि तिथिप्राधान्यात्तस्याः शुक्लाया उत्तरस्या एव पूज्यत्वात्तत्रैवानुष्ठानम्। यदा तु दिनद्वयेऽपि कर्मकाले तिथिनक्षत्रसत्ता समाना, एकत्र रविवारयोगस्तदा
तत्राष्टम्यां यदा वारो भानोर्ज्येष्ठर्क्षमेव च।
नीलज्येष्ठेति सा प्रोक्तादुर्लभा बहुकालिका॥
इति स्कान्देन रविवारयोगे प्राशस्त्यबोधनाद्रवियु221क्तैव ग्राह्या। एवं पूर्वमध्याह्नमारभ्य नक्षत्रं प्रवृत्तमुत्तरमध्याह्नात्पूर्वं समाप्तं तिथिस्तु द्वितीयदिन एव मध्यान्हव्यापिनी, तदा तिथेः प्राधान्यादुत्तरैव ग्राह्येति। पूजा तु
ज्येष्ठायै ते नमस्तुभ्यं श्रेष्ठायैते नमो नमः।
शर्वायै ते नमस्तुभ्यं शांकर्यै ते नमो नमः॥
इतिमन्त्रेण कर्तव्या। यत्तु कालतत्त्वविवेचने तप्ते पयसिदध्यानयति सा वैश्वदेव्यामिक्षेत्यत्र वैश्वदेवीशब्दान्वयलभ्यदेवतान्वयेन यागविनियोगलाभेन पयःप्राधान्यात्सेति शब्देन परामर्शसंभवादाभिक्षाशब्दस्तस्य नामधेयमिति युक्तं न तु तथाऽष्टम्याःप्राधान्यं संभवति, येन नीलज्येष्ठेति तन्नामधेयं स्यात्। न चात्रापि
कृतस्नानो नरः कुर्यात्तस्यामन्यत्र वा दिने।
भक्तियुक्तः शुचिर्भूत्वा ज्येष्ठायाःपरिपूजनम्॥
इत्युत्तरवाक्ये तस्यामित्यष्टम्या विनियोगात्संभवत्येव तदिति वाच्यम्। उपक्रमे ज्येष्ठायुक्तस्य यस्य कस्यापि दिनस्य कर्मकालत्वावगमेन तद्विरुद्धस्याष्टम्यास्तत्र विनियोगस्यासंभवात्तेनोपक्रमानुरोधान्नक्षत्रमेव सेति शब्देन परामृश्यत इति तस्यैव नामधेयं नीलज्येष्ठेति स्त्रीलिङ्गं च सा वैश्वदेव्यामिक्षेतिवत्। माधवस्य तु तिथावेवेदं योजयतोऽभिप्रायं न विद्म इत्युक्तम्, तत्र यस्मिन्कस्मिन्दिन इत्युपक्रमवाक्येऽपि तिथ्यन्तरवदष्टम्या अपि परामर्शात्तस्यामन्यत्र वादिन इत्यत्राष्टम्या एवमुख्यत्वप्रतीतेरुपक्रमाविरोधेनैवान्वयसंभवात्सेति स्त्रीलिङ्गशब्देन तत्परामर्शस्यैव युक्तत्वान्नीलज्येष्ठेति तस्या एव नामधेयमुचितम्। किंच सा वैश्वदेव्यामिक्षेत्यत्र विधेयबोधकामिक्षापदसामानाधिकरण्यात्सेति स्त्रीलिङ्गत्वोपपत्तावपि सा प्रोक्तेति वाक्यार्थस्यैवेतिकरणान्तनीलज्यष्ठेतिशब्देन बोधनेन स्त्रीलिङ्गवाचकविधेयपदसामानाधिकरण्याभावात्सेतिशब्देन नक्षत्रपरामर्शासंभवान्नीलज्येष्ठेति नक्षत्रस्यैव नामधेयमित्युक्तिः कथमिति चिन्त्यम्। तस्मान्माधवाशयं न विद्म इति ग्रन्थ एव यथार्थक इति दिक्। यत्तु
मासि भाद्रपदे पक्षे शुक्ले ज्येष्ठा यदा भवेत्।
रात्रौजागरणं कृत्वा गीतवादित्रनिस्वनैः।
एवं विधविधानेन एभिर्मन्त्रैस्तु पूजयेत्॥
इति मदनरत्नाद्युदाहृतभविष्योत्तरपुराणे,
मासि भाद्रपदे पक्षे शुक्लेज्येष्ठर्क्षसंयुते॥
यस्मिन्कस्मिन्दिने कुर्याज्जेष्ठायाःपरिपूजनम्।
इति हेमाद्रौ, स्कान्दे च ज्येष्ठानक्षत्रं प्राधान्येन निमित्तीकृत्य ज्येष्ठाव्रतमुक्तम्, तत्र यदा पूर्वमध्याह्नमारभ्य प्रवृत्ता ज्येष्ठा द्वितीयमध्याह्ने मध्याह्नात्पूर्वं वा समाप्यते, तदा मासि भाद्रपद इति स्कान्दात्पूर्वदिन एव। यदा पूर्वमध्याह्नानन्तरं प्रवृत्ता, द्वितीयमध्याह्ने समाप्यते, तदा
कृतस्नानो नरः कुर्यात्तस्यामन्यत्र वा दिने।
इति स्कान्दादष्टमीयुता ग्राह्या। यदा मध्याह्नमारभ्य, प्रवृत्ता द्वितीयदिनेऽपराह्णंस्पृशति, तदा
यस्मिन्दिने भवेज्जेष्ठा मध्याह्नादूर्ध्वमप्यणुः।
तस्मिन्हविष्यं पूजा चन्यूना चेत्पूर्ववासरे॥
इति स्कान्दादुत्तरदिन एव।
मैत्रेणाऽऽवाहयेद्देवीं ज्येष्ठायां तु प्रपूजयेत्।
मूले विसर्जयेद्देवीं त्रिदिनं व्रतमुत्तमम्॥
इतिवचनात्पूजादिना पूर्वदिन आवाहनमुत्तरदिने विसर्जनं कार्यम्।
प्रत्याब्दिकं तिथावुक्तं यज्ज्येष्ठादैवतं व्रतम्।
प्रतिज्येष्ठाव्रतं यच्चविहितं केवलोडुनि॥
तिथावेवाऽऽचरेदाद्यं द्वितीयं केवलर्क्षके।
इति कालादर्शोदाहृतमात्स्ये ज्येष्ठायोगाभावे केवलतिथौ कार्यमित्यर्थसिद्धः सर्ववाक्याविरोधेन ज्येष्ठाष्टमीनिर्णयः। इति भाद्रपदशुक्लाष्टमी। आश्विनशुक्लाष्टम्याम्
अश्वयुक्शुक्लपक्षे या अष्टमी मूलसंयुता।
सा महानवमी प्रोक्ता त्रैलोक्ये तु सुदुर्लभा॥
कन्यागते सवितरि शुक्लपक्षेऽष्टमी तु वा।
मूलनक्षत्रसंयुक्ता सा महानवमी स्मृता॥
अष्टम्यां च नवम्यां च जगन्मातरमम्बिकाम्।
पूजयित्वाश्विने मासि विशोको जायते नरः॥
इति हेमाद्रौ स्कान्दे प्रभासखण्डऽम्बिकापूजोक्ता।
तत्राष्टम्यां महाकाली दक्षयज्ञविनाशिनी।
प्रादुर्भूता महाघोरा योगिनी कोटिभिः सह॥
अतोर्थं(तःसं) पूजनीया सा तस्मिन्नहनि मानवैः।
उपोषितैर्धूपदीपवस्त्रमाल्यानुलेपनैः॥
इति ब्रह्मपुराण उपवासोऽप्युक्तः। अयं पुत्रवता न कार्यः।
उपवासं महाष्टम्यां पुत्रवान्न समाचरेत् ॥
यथा तथा च पूतात्मा व्रती देवीं प्रपूजयेत्।
इतिकालिकापुराणात् । तत्रोपवासपूजादावष्टमी नवमीयुता ग्राह्या वसुरन्ध्रयोरिति युग्मवाक्यात्,
शुक्लपक्षेऽष्टमी चैत्र शुक्लपक्षे चतुर्दशी।
पूर्वविद्धा न कर्तव्या कर्तव्या परसंयुता॥
उपवासादिकार्येषु एष धर्मः सनातनः।
इति निगमाच्च। मदनरत्ने स्मृतिसमुच्चये —
शरन्महाष्टमी पूज्या नवमीसहिता सदा।
सप्तमीसंयुता नित्यं शोकसंतापकारिणी॥
जम्भेन सप्तमीयुक्ता पूजिता तु महाष्टमी।
इन्द्रेण निहतो जम्भस्तदा दानवपुंगवः॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सप्तमीमिश्रिताष्टमी।
वर्जनीया प्रयत्नेन मनुजैः शुभकाङ्क्षिभिः॥
सप्तमी शल्यसंविद्धा वर्जनीया सदाऽष्टमी।
स्तोका
ऽपि सा तिथिः पुण्या यस्यां सूर्योदयो भवेत्॥ इति।
अत्र भौमवारयोगोऽतिप्रशस्तः।
अष्टम्यामुदिते सूर्ये दिनान्ते नवमी भवेत्।
कुजवारो भवेत्तत्र पूजनीया प्रयत्नतः॥
इति निर्णयामृताद्युदाहृतवचनात्। निर्णयामृते —
मूलेनाऽऽगमनं देव्याः पूर्वाषाढासु पूजनम्।
उत्तरासु बलिं दद्याच्छ्रवणेन222 विसर्जयेत्॥ इति।
तत्रैव देवीपुराणे—
सूर्योदये परं रिक्ता पूर्णा स्यादपरा यदा।
बलिदानं प्रकर्तव्यं तत्र देशः शुभावहः॥
बलिदाने कृतेऽष्टम्यां राष्ट्रभङ्गो भवेन्नृप॥ इति।
अयं निषेधो नवम्यां विहितस्यैव बलेर्न तु वक्ष्यमाणाष्टम्यां विहितस्य बलेः। अत्र सप्तमीविद्धानिषेधकवाक्यानि द्वितीयदिने पूजोपवासयोग्याऽष्टमीसत्त्व एव प्रवर्तन्ते। द्वितीयदिन उपवासादियोग्याष्टम्यलाभे तु सप्तमीयुताऽपि कार्या कर्मकालव्यापिशास्त्रस्य तत्रैव प्रवृत्तेः।
महाष्टम्याश्विने मासि शुक्ला कल्याणकारिणी।
सप्तम्यां223तु युता कार्या मूलेन तु विशेषतः॥
अहं भद्रा च भद्राऽहं नावयोरन्तरं क्वचित्।
सर्वसिद्धिं प्रदास्यामि भद्रायामर्चिता ह्यहम्॥
भद्रायांभद्रकाल्याश्च मध्ये स्यादर्चनक्रिया।
तस्माद्वै सप्तमी विद्धा कार्या दुर्गाष्टमी बुधैः॥
विष्टिं त्यक्त्वा महाष्टम्यां मम पूजां करोति यः।
तस्य पूजाफलं न स्यात्तेनाहमवमानिता॥
इति निर्णयामृताद्युदाहृतविश्वरूपनिबन्धादिवचनेभ्यश्च यदा सार्धत्रयमुहूर्ता सप्तमी द्वितीयदिने मुहूर्तद्वयमष्टमी, तृतीयदिने मुहूर्तार्धं नवमी, तदा त्रिकालं पूजयेद्देवीति वचनात्। पूजायाःकालत्रयसाध्यादुपवासस्य चाहोरात्रसाध्यत्वात्तत्र मुख्यतिथ्यभावे साकल्यबोधकवचनापादिततिथिसत्ताया अवश्यमपेक्ष्यत्वात्।
द्विमुहूर्ताऽपि कर्तव्या या तिथिर्वृद्धिगामिनी।
इत्यादिभिर्वृद्धावेव द्विमुहूर्तायाः साकल्यप्रतिपादनात्क्षयगामिन्यां तिथौ द्विमुहूर्तायां साकल्याभावेन पूर्वत्र कर्मणो यस्य यः काल इत्यस्य प्रवृत्तेः।
उत्तरास्तिथयो यत्र क्षयं यान्ति नराधिप।
पूर्वाऽष्टमी तदा कुर्यादन्यथा त्वशुभं भवेत्॥
इति दुर्गोत्सववाक्येन पूर्वस्या एव विधानात्।
सप्तम्यामुदिते सूर्ये परतश्चाष्टमी भवेत्॥
तत्र दुर्गोत्सवं कुर्यान्न कुर्यादपरेऽहनि।
यदाऽष्टम्यां तु संप्राप्य अस्तं याति दिवाकरः॥
तत्र दुर्गोत्सवं कुर्यान्न कुर्यादपरेऽहनि।
दुर्भिक्षं तत्र जानीयान्नवम्यां यत्र पूज्यते॥
इत्यादिनिर्णयामृतमदनरत्नाद्युदाहृतवचनैर्नवमीयुक्ताया निषेधाच्च पूर्वैव। न चैवं याऽष्टमी सप्तमीविद्धा सती तिथिक्षयवशाद्द्वितीयदिने न वर्धते224 तद्विषयत्वात्पूर्वविद्धाविधायकवचनानां तदुक्तं स्मृतिसंग्रहे —
यदा सूर्योदये न स्यादष्टमी चापरेऽहनि।
तदाऽष्टमीं न कुर्वीत सप्तम्या सहितां नृप॥ इति।
द्वितीयदिनेऽष्टम्या भाव एव पूर्वविद्धावचनानांप्रवृत्तिरिति निर्णयामृतविरोध इति वाच्यम्। प्रकृते द्वितीय225दिने वाऽष्टमीस्वीकारे कर्मकालव्याप्तिशास्त्रविरोधान्नवमी युक्ता निषेधकवाक्यानां निर्विषयत्वापत्तेश्च। न चाऽऽश्विनकृष्णनवम्यांविहितो देवीप्रबोधस्तदङ्गत्वेन कृष्णाष्टम्यां क्रियमाणदेवीपूजाविषयाण्येतानीति निर्णयामृत उक्तत्वान्न निर्विषयत्वमिति शङ्क्यम्। महाष्टमीप्रकरणपठितवाक्यानामनन्यथासिद्धं वचनं विना प्रकरणविरोधेन कृष्णाष्टमीविषयत्वासंभवा-
त्संग्रहवाक्यस्य नवमीयुक्तानिषेधकवाक्याविरोधेनैव226विद्धानधिकाष्टम्यां चरितार्थत्वात्। तृतीयदिने नवम्यभावेपूर्वविद्धाविधायकानीमानीति मदनरत्नादिविरोधापत्तेश्च। अतः।
तथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेत्।
इति बैजवापवाक्यात्। प्रकृते227 निर्णयामृत उपेक्ष्य एव।यदा द्वादश घटिका सप्तमी द्वितीयदिने।
वृद्धिक्षयौ स्तः परमौ तिथौ यदा
व्यर्धा रसाः साङ्घ्रिरसाश्च नाडिकाः॥
इति ज्योतिर्विदाभरणोक्तेः, सपादषड्घटिकाऽष्टमी नवमी च सूर्योदये समाप्ता, तदा शुक्लपक्षेऽष्टमीत्यादिसामान्यवचनैः,
मूलेनापि हि संयुक्ता सदा त्याज्याऽष्टमी बुधैः।
लेशमात्रेण सप्तम्या अपि स्याद्यदि दूषिता॥
इति निर्णयामृताद्युदाहृतरूपनारायणाद्यनेकवचनविशेषैश्च सप्तमीविद्धानिषेधात्,
शरन्महाष्टमी पूज्या नवमीसंयुता सदा।
इति पूर्वोदाहृतेन—
नवमी च यदा देव्या मूर्तिर्दैत्यविनाशिनी।
अत एव हि पूज्या स्यादष्टमी नवमीयुता॥
इत्यादिदुर्गोत्सवादिविशेषवचनैरपि नवमीयुताया एव पूज्यत्वप्रतिपादनात्पूज्यतिथेरेव साकल्यबोधकवचनापादितमपि सत्त्वमादायैव कर्मकालव्याप्तिशास्त्रप्रवृत्तिः हेमाद्रिमाधवादिसंमतेति जन्माष्टमीप्रकरणे प्रतिपादनात्, प्रकृते उत्तरदिन एव तत्प्रवृत्तिरिति नवमीयुतैवाष्टमी ग्राह्या। एवं सप्तमीविद्धाऽष्टमी द्वितीयदिने मुहूर्तद्वयात्किंचिदधिका तृतीयदिने नवमी नास्ति द्वितीयदिन एव मूलनक्षत्रं, तत्रापि
अश्वयुक्शुक्लपक्षे या अष्टमी मूलसंयुता।
सा महानवमी प्रोक्ता त्रैलोक्ये तु सुदुर्लभा॥
इत्याद्युदाहृतवाक्यैर्मूलयुतायामेव पूजादिविधानात्,
उदिते दैवतं भानौपित्र्यं चास्तमिते रवौ।
द्विमुहूर्तं228 मुहूर्तश्च सा तिथिर्हव्यकव्ययोः॥
इत्यनेनौदयिक्यास्तिथेर्द्विमुहूर्ताया अपि साकल्यप्रतिपादनाद्द्वितीयैव ग्राह्या। न चैवं द्वितीयदिनेऽष्टमीलाभेऽपि यदा तृतीयसूर्योदये नवमी नास्ति तदा सप्तमीविद्धैव कार्या।
यदा सूर्योदये न स्यान्नवमी चापरेऽहनि।
इत्यादिस्मृतिसंग्रहवाक्यादिति मदनरत्नविरोध इति वाच्यम्। निर्णयामृतेऽष्टमीत्येव पाठेन नवमीतिपाठस्यैवाभावात्। भवतु नाम नवमीति पाठस्तथाऽपि यदा द्वितीयदिने मुहूर्तद्वयान्न्यूनाऽष्टमी तत्र स्तोकाऽपि सा तिथिरित्यादिना प्रसक्तौ सप्तमीविद्धाविधानेन चरितार्थत्वात्। साकल्यबोधकवचनविषयीभूतनवमीयुक्ताष्टमीस्थले तत्प्रवृत्तेरसंभवात्। अन्यथा द्वादशघटिका सप्तमी द्वितीयदिने मूलयुक्तमुहूर्तत्रयाष्टम्यामपि नवम्य229संभ230वे सप्तमीविद्धाग्रहणापत्तौ पूर्वोक्तानेकवचननिर्णयामृतादिग्रन्थविरोधापत्तेस्तस्मात्प्रकृतविषय उपेक्ष्य एव मदनरत्नः। एतेन मदनरत्नपृष्ठानुयायिनः कालतत्त्वविवेचनकृत्यरत्नावलीस्मृतिकौस्तुभनिर्णयसिन्धुमयूखादयः सर्वे नवीनग्रन्था अप्ययुक्ता एव। यत्तु
निशायां पूजिता देवी वैष्णवी पापनाशिनी।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन अष्टम्यां निशि पूजयेत्॥
इति निर्णयामृते भविष्ये रात्रौ पूजोक्ता।
तदर्धयामिनीशेषे विजयार्थं नृपोत्तमः।
पञ्चाब्दं लक्षणोपेतं गन्धधूपस्रगर्चितम्॥
विधिवत्कालिकालीति जप्त्वा खड्गेन घातयेत्।
इति देवीपुराणे राज्ञोऽर्धरात्रे बलिदानमष्टम्यामुक्तं तत्तत्कालव्यापिन्यामेव कार्यम्, कर्मकालव्याप्तिशास्त्रं सर्वेभ्यः प्रबलमिति हेमाद्रिमाधवादिभिः सिद्धान्तितत्वात्। अतः कर्मकालव्याप्तिशास्त्रं बाधित्वा नवमीयुतायामेव रात्रावसत्यामप्यष्टम्यां नवमीपूजया सह तन्त्रेणाष्टमीपूजोचितेति कालतत्त्वविवेचनस्मृतिकौस्तुभादय उपेक्ष्याः। इति दुर्गाष्टमीनिर्णयः। कार्तिक्युत्तराष्टम्याम्
मार्गशीर्षासिताष्टम्यां कालभैरवसंनिधौ।
उपोष्यजागरं कुर्वन्सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
इति काशिखण्ड उपवासजागरणे उक्ते।
कृत्वा च विविधां पूजां महासंभारविस्तरैः।
नरो मार्गासिताष्टम्यां वार्षिकं विघ्नमुत्सृजेत्॥
तीर्थे कालोदके स्नात्वा कृत्वा तर्पणमत्वरः।
विलोक्य कालराजानं निरयादुद्धरेत्पितॄन्॥
इति काशितत्त्वप्रकाशिकायां पूजास्नानाद्युक्तम्। तत्र कृष्णपक्षेऽष्टमी चैवेति निगमात्।
रुद्रव्रतेषु सर्वेषु कर्तव्या संमुखी तिथिः।
इति ब्रह्मवैवर्ताच्च। अस्तात्प्राचीनमुहूर्तत्रयव्यापिनी पूर्वविद्धा ग्राह्या, पूर्वविद्धाया अभावे तूत्तरैव। एतेनेयं मध्याह्नव्यापिनी ग्राह्येति कमलाकरभट्टोक्तिः, रात्रिव्यापिनी ग्राह्येति नन्दपण्डितोक्तिः[च]उपेक्ष्या, कृष्णपक्षेत्यादिवचनविरोधात्। इति भैरवाष्टमी। हेमाद्रौब्रह्माण्डे —
पौषे मासि यदा देवि शुक्लाष्टम्यां बुधो भवेत्।
तदा सा तु महापुण्या महाभद्रेति कीर्तिता॥
तस्यां स्नानं जपो होमस्तर्पणं विप्रभोजनम्।
मत्प्रीतये कृतं देवी शतसाहस्रिकं भवेत्।
तस्मात्तस्यां सदा देवि पूज्योऽहं विधिवन्नरैः॥
पौष मासि सदा देवि अष्टम्यां यमदैवतम्।
नक्षत्रं जायते पुण्यं शिवे शैलात्मजे शुभे॥
तदा तु सा महापुण्या जयन्ती चाष्टमी स्मृता।
तस्यां स्नानं तथा दानं जपो होमश्च तर्पणम्॥
सर्वं कोटिगुणं देवि कृतं भवति कृत्स्नशः।
इति पौषशुक्लाष्टमी।
माघे मासि सिताष्टम्यां सलिलैर्भी231ष्मतर्पणम्232।
श्राद्धं च ये नराः कुर्युस्ते स्युः संततिभागिनः॥
तर्पणमन्त्रः—
भीष्मः शांतनवो वीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः।
आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम्॥
वैय्याघ्रपादगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च।
अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे॥
इति हेमाद्रौवाराहपुराणे भीष्मतर्पणं श्राद्धं चोक्तम् । अत्र श्राद्धं काम्यम् । तर्पणं नित्यम्,
ब्राह्मणाद्याश्च ये वर्णा दद्युर्भीष्माय नो जलम्।
संवत्सरकृतं तेषां पुण्यं नश्यति सत्तम॥
इत्यकरणे प्रत्यवायश्रवणात्।
जीवत्पिताऽपि कुर्वीत तर्पणं यमभीष्मयोः।
इतिवचनादत्र श्राद्धस्यैकोद्दिष्टत्वान्मध्याह्नव्यापिन्यष्टमी ग्राह्या।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डेऽष्टमीनिर्णयः समाप्तः।
अथ नवमी निर्णीयते — सा चोपवासव्रतादिषु पूर्वविद्धा ग्राह्या वसुरन्ध्रयोरिति युग्मवाक्यात्,
न कुर्यान्नवमीं तात233 दशम्यां तु कदाचन।
इति हेमाद्रौ स्कान्दात्,
नवम्येकादशी चैव दिशा विद्धा यदा भवेत्।
तदा वर्ज्या विशेषण गङ्गाम्भः श्वदृतौयथा॥
इति तत्रैव पाद्मात्,
द्वितीया पञ्चमी विद्धा234 दशमी च त्रयोदशी।
चतुर्दशी चोपवासे हन्युः पूर्वापरे तिथी॥
इति बृहद्वसिष्ठाच्च। चैत्रशुक्लनवमी रामनवमी।
चैत्रे नवम्यां प्राक्पक्षे दिवा235 पुण्ये पुनर्वसौ।
उदये गुरुगौरांश्वोः स्वोच्चस्थे ग्रहपञ्चके॥
मेषं पूषणि संप्राप्ते लग्ने कर्कटकाह्वये।
आविरासीत्सकलया कौसल्यायां परः पुमान्॥
तस्मिन्दिने तु कर्तव्यमुपवासव्रतं सदा।
तत्र जागरणं कुर्याद्रघुनाथपरो भुवि॥
प्रातर्दशम्यां कृत्वा तु संध्यायाः कालिकाः क्रियाः।
संपूज्य विधिवद्रामं भक्त्या वित्तानुसारतः॥
ब्राह्मणान्भोजयेद्धुत्वा दक्षिणाभिश्च तोषयेत्।
रामभक्तान्प्रयत्नेन प्रीणयेत्परया मुदा॥
एवं यः कुरुते भक्त्या श्रीरामनवमीव्रतम्।
अनेकजन्मसिद्धानि पातकानि बृहन्त्यपि॥
भस्मीकृत्य व्रजत्येव तद्विष्णोः परमं पदम्।
सर्वेषामप्ययं धर्मो भुक्तिमुक्त्यैकसाधनम्॥
यस्तु रामनवम्यांतु भुङ्क्तेस च नराधमः।
कुम्भिपाकेषु घोरेषु पच्यते नात्र संशयः॥
इति मदनरत्ने मत्स्यसंहितायां रामनवमीव्रतमुक्तम्। अत्र सदाशब्दस्याकरणे प्रत्यवायस्य, फलस्य च श्रवणान्नित्यकाम्यमिदम्। अत्र लग्ने कर्कटकाह्वय इत्यनेन मध्याह्नस्य जन्मकालाभिधानात्,
सैव मध्याह्नयोगेन महापुण्यतमा भवेत्।
इति वचनाच्चमध्याह्नव्यापिनी ग्राह्या। उभयत्र तद्व्याप्तावव्याप्तौ वा
पुनर्वस्वृक्षसंयोगः स्वल्पोऽपि यदि दृश्यते।
चैत्रशुक्लनवम्यां तु सा पुण्या सर्वकामदा॥
इति मदनरत्नेऽगस्तिसंहितावचनाद्या पुनर्वसुयुता सैवग्राह्या। यदेकत्र मध्याह्ने पुनर्वसुयोगोऽन्यत्र मध्याह्नंविहाय पुनर्वसुयोगस्तदा मध्याह्ने पुनर्वसुयुता ग्राह्या । यदादिनद्वयेऽपि मध्याह्ने पुनर्वसुयोगः, मध्याह्नंविहायैव वा पुनर्वसुयोगस्तदोत्तरा। यदा पुनर्वसुयोगो नास्ति, केवलनवम्येव दिनद्वये मध्याह्नव्यापिनी तदैकदेशव्यापिनी मध्याह्नास्पर्शिनी वा, तदाऽप्युत्तरैव,
नवमी चाष्टमीविद्धा त्याज्या विष्णुपरायणैः।
उपोषणं नवम्यां वै दशम्यां पारणं भवेत्॥
इति माधवोदाहृतागस्तिसंहितावचनात्। इति रामनवमी। हेमाद्रौ ब्रह्मपुराणे —
चैत्रशुक्लनवम्यां च भद्रकाली महाबला।
योगिनीनां तु सर्वासामाधिपत्ये विनिश्चिता॥
तस्मात्तां पूजयेत्तत्र सोपवासो जितेन्द्रियः।
विचित्रैर्बलिभिर्भक्त्या सर्वासुनवमीषु च॥ इति।
निर्णयामृते भविष्योत्तरे —
वैशाखे मासि राजेन्द्र नवम्यांपक्षयोर्द्वयोः।
उपवासपरो भक्त्या पूजयेद्यस्तु चण्डिकाम्॥
हंसकुन्देन्दुसंकाशस्तेजसा सूर्यसंनिभः।
विमानवरमारूढो देवलोके महीयते॥ इति।
उपवासपरो भक्त्या नवम्यांपूजयेदुमाम्।
ब्रह्माणीत्विति वै नाम्ना साक्षाद्ब्रह्मस्वरूपिणी॥
ज्येष्ठे मासि नृपश्रेष्ठ कृत्वा नक्तस्य वै विधिम्।
उपवासपर इत्यत्र दिवेति शेषः। अन्यथा नक्तविधिविरोधात्।
शाल्यन्नं पयसोपेतं स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः।
कुमारीर्भोजयेच्चापि स्वशक्त्या ब्राह्मणांस्तथा॥ इति।
उपवासपरो भक्त्या नवम्यां पक्षयोर्द्वयोः।
आपाढे मासि राजेन्द्र यः कुर्यान्नक्तभोजनम्॥
पूजयेछ्रद्धया236 दुर्गामैन्द्रीनाम्नेति नामतः।
ऐरावतगतां शुभ्रां श्वेतरूपेण रूपिणीम्॥
स ऐरावतमारुह्य इन्द्रस्यानुचरो भवेत्॥ इति।
श्रावणे मासि राजेन्द्र यः कुर्यान्नक्तभोजनम्।
क्षीरषष्टिकभक्तेन सर्वभूतहिते रतः॥
उपवासपरो वारे नवम्यां पक्षयोर्द्वयोः।
वारे वासर इत्यर्थः —
कुमारीमिति वै नाम्ना चाण्डकां पूजयेत्सदा।
कृत्वा रौप्यमयीं भक्त्या घोरपापविनाशिनीम्॥
करवीरस्य237 पुष्पस्तु गन्धैश्चागरुचन्दनैः।
धूपेन च दशाङ्गेन मोदकैश्चापि पूजयेत्॥
कुमारीभोजयेच्छक्त्या स्त्रियो विप्रांश्च शक्तितः।
भुञ्जीत वाग्यतः पश्चाद्बिल्वपत्रकृताशनः॥
एवं यः पूजयेदार्यां श्रद्धया परया युतः।
स याति परमं स्थानं यत्र देवो गुहः स्थितः॥ इति।
अथ भाद्रपदे या स्यान्नवमी बहुलेतरा।
सा तु नन्दा महापुण्या कीर्तिता पापनाशिनी॥
तस्यां यः पूजयेद्दुर्गां विधिवत्कुरुनन्दन।
सोऽश्वमेधफलं विन्द्याद्विष्णुलोकं स गच्छति॥ इति।
देवीपुराणे —
कन्यायां कृष्णपक्षे तु पूजयित्वाऽऽर्द्रभेऽम्बिकाम्।
नवम्यां बोधयेद्दैवीं गीतवादित्रनिस्वनैः॥ इति।
अत्र दुर्गापूजादौ नवमी पूर्वविद्धैव ग्राह्या।
श्रावणी दुर्गनवमी दूर्वा चैव हुताशनी।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या शिवरात्रिर्बलेर्दिनम्॥
इति बृहद्यमवचनात्।
दुर्गापूजासु नवमी मूलाद्यृक्षत्रयान्विता।
महती कीर्तिता तस्यां दुर्गां महिषमर्दिनीम्॥
चण्डिकामुपहारैस्तु पूजयेद्राज्यवृद्धये।
इति लिङ्गपुराणात् — मूलाद्यृक्षयोगेऽतिप्रशस्ता।बलिदानेतूत्तरेव।
सूर्योदये परं रिक्ता पूर्णास्यादपरा यदि॥
बलिदानं प्रकर्तव्यं तत्र देशःशुभावहः।
बलिदाने कृतेऽष्टम्यां राष्ट्रभङ्गो भवेन्नृप॥
इति देवीपुराणेन बलिदाने दशमीयुताविधानात्, अष्टमीयुतानिषेधाच्च। न चैवम्।
न कार्या दशमीविद्धा नवमी तु सदा238 बुधैः।
नवमीं दशमीविद्धांये कुर्वन्ति विमोहिताः।
वृथा तेषां भवेत्सर्वं बलिपूजाविधानकम्॥
इति मदनरत्नलिखितवचनविरोध इति वाच्यम्। एतच्छुद्धाधिकाविषयमिति तत्रैवोक्तेः।
नवम्यामपराण्हे तु बलिदानं प्रशस्यते।
दशमीं वर्जयेतत्र नात्र कार्या विचारणा॥
इति ब्रह्मवैवर्तादिवचनान्यप्येतद्विषयाण्येवेति।
तस्यां ये ह्युपयुज्यन्ते प्राणिनो महिषादयः।
सर्वे ते स्वर्गतिं यान्ति घ्नतांपापं न विद्यते।
यावन्न चालयेद्गात्रं पशुस्तावन्निहन्यते॥
न तथा बलिदानेन पुष्पधूपानुलेपनैः।
यथा संतुष्यते मेषैर्महिषैर्विन्ध्यवासिनी॥
इति हेमाद्रिनिर्णयामृताद्युदाहृतभविष्योत्तरोक्तेः। इति दुर्गानवमीनिर्णयः । हेमाद्रौदेवीपुराणे —
आश्विनस्य तु मासस्य नवमी शुक्लपक्षगा\।
जायते कोटिगुणितं दानं तस्यां नराधिप।
शुक्लपक्षे नवम्यां तु कार्तिकस्य समाहितः।
स्नायाद्दद्यान्नमस्कुर्यादक्षय्यं लभते फलम्॥
तत्रैव पाद्मे —
कार्तिके नवमी शुक्ला पितॄणामुत्सवाय च।
तस्यां स्नातंहुतं दत्तमनन्तफलदं भवेत्॥ इति।
इयं युगादिरपि तन्निर्णयोऽक्षय्यतृतीयाप्रकरणे बोध्यः। निर्णयामृते भविष्योत्तरे —
मासि मार्गशिरे पार्थ शुक्लपक्षे तु या भवेत्।
सा नन्दिता महापुण्या नवमी परिकीर्तिता।
यस्तस्यां पूजयेद्देवीं त्रिरात्रोपोषितो नरः।
सोऽश्वमेधमवाप्येह विष्णुलोके महीयते॥ इति।
माघमासे तु या शुक्ला नवमी लोकपूजिता।
महानन्देति सा प्रोक्ता सदाऽऽनन्दकरी नृणाम्॥
तस्यां स्नानं तथा दानं जपो होम उपोषणम्।
सर्वं तदक्षयं प्रोक्तं यदस्यां क्रियते नरैः॥
इति आठवले उपनामक विष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे नवमीनिर्णयः॥
अथ दशमी निर्णीयते —सा च पूर्वविद्धा ग्राह्या । तदुक्तं हेमाद्रौ स्कान्दे।
दशमी चैव कर्तव्या सदुर्गा239 द्विजसत्तम। इति।
यदा तु दिनद्वयेऽपि240 कर्मकालव्यापिनी, तदा पूर्वा परा वा ग्राह्या।
संपूर्णा दशमी ग्राह्या241पूर्वया परयाऽथ वा।
युक्ता न दूषिता यस्मादतः सा सर्वतोमुखी॥
इति हेमाद्रावङ्गिरसो भविष्यत्पुराण242स्य च वचनाद्दिनद्वयेऽपि कर्मकाला243स्पशिनी तदेकदेशव्यापिनी वा, तदा पूर्वैव।
पञ्चमी सप्तमी चैव दशमी च त्रयोदशी।
प्रतिपन्नवमी चैव कर्तव्या संमुखी तिथिः॥
इति कालादर्शहेमाद्र्याद्युदाहृतपैठीनसिवचनादुपवासे तु सर्वाऽपि पूर्वैव।
प्रतिपत्पञ्चमी भूतं सावित्रीवटपूर्णिमा।
नवमी दशमी चैव नोपोष्याः परसंयुताः॥
नन्दाविद्धा तु या पूर्णा द्वादशी मकरे सिता।
भृगुणा नष्टचन्द्रा च एता वै निष्फलाः स्मृताः॥
नन्दाः प्रतिपत्षष्ठ्येकादश्यः, पूर्णाः पञ्चमीदशमीपञ्चदश्यः, तथा चैकादशीविद्धा दशमी नोपोष्येत्यर्थः।
नागविद्धा तु या षष्ठी सप्तम्या तु तथाऽष्टमी।
रुद्रेण दशमी विद्धा नोपोष्या मलिनाः स्मृताः॥
इति कालादर्शोदाहृतबह्मवैवर्तकूर्मस्कन्दपुराणवचनैः,
तृतीयैकाशी षष्ठी तथा चैवाऽष्टमी तिथिः॥
वेधादधस्तात्ता हन्युरुपवासे तिथीस्त्विमाः।
नागविद्धा तु या षष्ठी शिवविद्धा तु सप्तमी।
दशम्येकादशी विद्धा नोपोष्या स्यात्कथं चन॥
इत्यादि हेमाद्र्युदाहृतनारदीयशिवरहस्य सौरपुराणादि वचनैरुपवासरूपव्रतविशेषविषयकैः व्रतसामान्यविषयकसंपूर्णा दशमी कार्येति वाक्यस्योपवासे बाधात्, कालादर्शहेमाद्रिनिर्णयामृतमदनरत्नादिभिरुपवासे पूर्वैवेति सिद्धान्तितत्वाच्च। नन्वेवं दशमी संपूर्णावत्पूर्वविद्धा परविद्धा वा कर्तव्येति संपूर्णा दशमी कार्येत्यनेन विधीयते तत्र वचनाभाव एवैच्छिकविकल्पस्य स्वीकर्तव्यत्वात्। प्रकृते —
शुक्लपक्षे तिथिर्ग्राह्या यस्यामभ्युदितो रविः।
कृष्णपक्षे तिथिर्ग्राह्या यस्यमस्तभितो रविः॥
इति मार्कण्डेयवचनाच्छुक्लपक्षे परयुता, कृष्णपक्षे पूर्वयुता कार्या, पूर्वविद्धाविधाकवचनानि उपवास उत्तरविद्धा निषेधकानि च वचनानि कृष्णपक्षविषयाणि, तस्माच्छुक्लोत्तरविद्धा, कृष्णा पूर्वविद्धेति माधवविरोध इति चेत्। मूलवचनानुगुणहेमाद्र्यादिसंवादिमाधवाचार्यतात्पर्यविषयीभूतार्थप्रतिपादककर्मकालव्याप्तावनेकस्मृतीनामत्यन्तनिर्बन्धदर्शनात्कर्मकालव्याप्तिशास्त्रं सर्वेभ्यः प्रबलमिति निश्चीयते। तेन तदनुसारेणैव द्वितीयाद्यास्तिथयो ग्राह्या इति द्वितीयाप्रकरण244स्थग्रन्थः।
दशम्यामेकभक्तस्तु मांसमैथुनवर्जितः।
इत्येकादशीप्रकरणस्थमाधवग्रन्थः। एताभ्यां विरुद्धस्य तत्तात्पर्यार्थविषयाप्रति245पादकग्रन्थविरोधस्यादोषत्वात्कथं पूर्वापरमाधवग्रन्थाभ्यामेतस्य विरोध इति चेत्।यथा शुक्लपक्षे पूर्वविद्धैव कर्मकालव्यापिनीनोत्तरविद्धा कृष्णपक्ष उत्तरविद्धैव कर्मकालव्यापिनी न पूर्वविद्धा, तदा पक्षभेदेन व्यवस्था स्वीकारे कर्मकालव्याप्त्यैव निर्णय इति ग्रन्थविरोधस्य शुक्लपक्ष उत्तरविद्धदशम्यामुपवासापत्तौ दशम्यामेकभक्तबोधकग्रन्थविरोधस्य च स्पष्टत्वात्। न चैवमपि विचारपूर्वकत्वेन प्रवृत्तदशमीनिर्णयग्रन्थस्य प्रतीयमानेऽर्थे माधवतात्पर्यं नास्तीति कथं निश्चय इति चेत्। अप्रतिज्ञातेऽर्थे ग्रन्थकर्तुस्तात्पर्यं नास्तीति माधवाचार्यैरेव निर्णीतमिति जन्माष्टमीप्रकरणे प्रतिपादितत्त्वात्प्रकृते हेमाद्र्यादिभिः कर्माङ्गतयाऽपि निर्णीतकालस्य संकलीकरणार्थं ममायमुद्योग इति माधवाचार्यैर्हेमाद्र्यादिनिर्णीतसंग्रहकालस्यैव प्रतिज्ञातत्वात्तत्रैव तेषां तात्पर्यं न तु महत्स्वभावतया प्रसङ्गेन विचारितेऽर्थ इति सुनिश्चयात्। किंच यत्रैकैव तिथिरेकेन वचनेन पूर्वविद्धा ग्राह्येत्युच्यते, द्वितीयेन परयुतेति, तत्रविरोधे सति तत्र व्यवस्थापकं मार्कण्डेयवचनमिति हेमाद्रिणा सिद्धान्तितत्वात्प्रकृते विरोधाभावेन तस्याः प्रवृतेः। अपि च द्वितीयादितिथिष्विवात्रापि तत्प्रवृत्तिस्वीकारे तिथ्यन्तरे तिथ्यतराद्विशेष प्रतिपादकोऽतः सा सर्वतो मुखीत्यस्य वैय्यर्थापत्तेश्च तत्सिद्धं हेमाद्र्यादिकृतदशमीनिर्णय एव माधवाचार्यसंमत इति। एवं सति दशमी शुक्लोत्तरा कृष्णपूर्वेति माधवकृतनिर्णयो न समीचीनः स एव समीचीन इत्यादिपरस्परविरुद्धार्थप्रतिपादकाः कालतत्त्वविवेचननिर्णयसिन्धुमयूखादयः सर्वे नवीनग्रन्था हेमाद्रिकालादर्शमाधवनिर्णयामृतमदनरत्नविरोधादुपेक्ष्या इति दिक्। इति दशमीसामान्यनिर्णयः। हेमाद्रौ स्कान्दे —
ज्येष्ठस्य शुक्लदशमी संवत्सरमुखी स्मृता।
तस्यां स्नानं प्रकुर्वीत दानं चैव विशेषतः॥
यां कांचित्सरितं प्राप्य दद्याद्दर्भतिलोदकम्।
मुच्यते दशभिः पापैः सुमहापातकोपमैः॥
ब्राह्मे —
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशमी हस्तसंयुता।
हरते दश पापानि तस्माद्दशहरा स्मृता॥
तस्यां स्नानं प्रकुर्वीत दानं चैव विशेषतः।
दशपापान्याह मनुः —
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चैव सर्वशः।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्॥
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च कायिकं त्रिविधं स्मृतम्॥
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसाऽनिष्टचिन्तनम्।
वितथाऽभिनिवेशश्चत्रिविधं कर्म मानसम्॥
भविष्ये —
ज्येष्ठे शुक्लदशम्यां च भवेद्भौमदिनं यदि।
ज्ञेया हस्तर्क्षसंयुक्ता सर्वपापहरा तिथिः॥
विष्णुधर्मोत्तरे —
दशम्यांशुक्लपक्षे च ज्येष्ठे मासे कुजे दिने।
गङ्गाऽवतीर्णा हस्तर्क्षेसर्वपापहरा स्मृता॥ इति।
निर्णयामृते वाराहे —
दशम्यां शुक्लपक्षे तु ज्येष्ठे मासि कुजेऽहनि।
अवतीर्णा यतः स्वर्गाद्धस्तर्क्षॆतु सरिद्वरा॥
हरते दश पापानि तस्मादशहरा स्मृता।
दश योगा उक्ता स्कान्दे —
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां बुधहस्तयोः।
गरानन्दे व्यतीपाते कन्याचन्द्रे वृषे रवौ॥
दशयोगे नरः स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते। इति।
बुधहस्तयोग आनन्दयोगो भवति। अत्र बुधभौमवारयोःकल्पभेदेन व्यवस्था बोध्या । अस्याः खण्डत्वे यत्र योगाधिक्यं सा ग्राह्या
ॐ नमः शिवायै नारायण्यै दशपापहरायै गङ्गायै नमो नम इति मन्त्रेण गङ्गापूजा कार्या। काशीखण्डे विशेषः।
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे प्राप्य प्रतिपदं तिथिम्।
दशाश्वमेधिकेस्नात्वा मुच्यते सर्वपातकैः॥
एवं सर्वासु तिथिषु क्रमस्नायीनरोत्तमः।
आशुक्लपक्षदशमीं प्रतिजन्माद्यमुत्सृजेत्॥ इति।
तथा
लिङ्गं दशाश्वमेधेशं दृष्ट्वा दशहरातिथौ।
दशजन्मार्जितैः पापैस्त्यज्यते नात्र संशयः॥ इति।
ज्येष्ठे मले तत्रैवेदं कर्तव्यम् —
दशहरासु नोत्कर्षश्चतुर्ष्वपि युगादिषु।
उपाकर्म महाषष्ठ्योर्ह्येतदिष्टं वृषादितः॥
इति हेमाद्रौऋष्यशृङ्गवचनात्। अथाऽऽश्विनशुक्लदशम्यां राजानं प्रत्युक्तं गोपथब्राह्मणे —
राजा निर्गत्य भवनात्पुरोहितपुरोगमः।
प्रास्थानिकं विधिं कृत्वा प्रतिष्ठेत्पूर्वतो दिशि॥
गत्वा नगरसीमान्तं वास्तुपूजां समारभेत्।
संपूज्य चाथ दिक्पालान्पूजयेत्पथि देवताः॥
मार्गे शमीतरुमूले दिक्पालपूजनपूर्वकं वास्तुपूजनं कुर्यादित्यर्थः।
मन्त्रैर्वेदिकपौराणैः पूजयेच्च शमीतरुम्।
अमङ्गलानां शमनीं शमनीं दुष्कृतस्य च॥
दुःखप्रशमनीं246 धन्यां प्रपद्येऽहं शमीं शुभाम्।
ततः कृताशीः पूर्वस्यां दिशि विष्णुक्रमान्क्रमेत्।
रिपोः प्रतिकृति कृत्वा ध्यात्वा च मनसाऽथ तम्॥
शरेण स्वर्णपुङ्खेन विध्येद्धृदयवर्मणि।
दिशां विजयमन्त्राश्च पठितव्याः पुरोधसा॥
पूर्वमेव247 विधिं कुर्याद्दक्षिणादिदिशास्वपि।
पूज्यान्द्विजांश्चसंपूज्य सांवत्सरपुरोहितौ॥
गजवाजिपदातीनां248 प्रेक्षाकौतुकमाचरेत्।
जयमङ्गलशब्देन ततः स्वभवनं विशेत्॥
नीराज्यमानः पुण्याभिर्गणिकाभिः सुमङ्गलम्।
य एवं कुरुते राजा वर्षे वर्षे सुमङ्गलम्॥
आयुरारोग्यमैश्वर्यं विजयं च स गच्छति।
नाधयो व्याधयस्तस्य भवन्ति न पराजयः॥
श्रियं पुण्यमवाप्नोति विजयं च सदा भुवि। इति।
सर्वे जना अपि तस्यां सीमोल्लङ्घनं कुर्युः।
उल्लङ्घयेयुः सीमानं तद्दिनर्क्षेततो नराः॥
इति कश्यपवचनादपराजितां च पूजयेयुः।
दशम्यां च नरैः सम्यक्पूजनीयाऽपराजिता।
ऐशानीं दिशमाश्रित्य अपराण्हेप्रयत्नतः॥
इति पुराणसमुच्चयवचनात्। ग्रामादैशान्यामपराह्णेऽपराजितापूजां कुर्युः। तत्र चन्दनादिना लिखिताऽष्टदलपद्ममध्येऽपराजितायै नम इत्यपराजितां तद्दक्षिणे क्रियाशक्त्यै नम इति जयां, तद्वाम उमायै नम इति विजयां प्रतिष्ठाप्य, अपराजितायै नमो जयायै नमो विजयायै नम इत्यावाहनाद्युपचारैः संपूज्य नमस्कृत्य।
इमां पूजां मया देवि यथाशक्तिनिवेदिताम्।
रक्षणार्थं समादाय व्रज स्वस्थानमुत्तमम्॥
इति विसर्जयेत्। राजा तु नमस्कारानन्तरम्।
चारुणा मुखपद्मेन विचित्रकनकोज्ज्वला॥
जया देवी शिवे भक्त्या249 सर्वान्कामान्ददातु मे।
काञ्चनेन विचित्रेण केयूरेण विराजिता॥
जयप्रदा महामाया शिवभावितचेतसा।
विजया च महाभागा ददातु विजयं मम॥
हारेण सुविचित्रेण भास्वत्कनकमेखला।
अपराजिता रुद्रभक्ता करोतु विजयं मम॥
इति प्रार्थनां कृत्वा हरिद्रारक्तवस्त्रे दूर्वायुक्तसिद्धार्थकान्प्रदक्षिणवलयाकारेणाऽऽबध्य
सदाऽपराजिते यस्मात्त्वं लतासूत्तमा स्मृता।
सर्वकामार्थसिध्यर्थं तस्मात्त्वां धारयाम्यहम्॥
भवापराजिते देवि मम सर्वसमृद्धये।
पूजितायां त्वयि श्रेयो ममास्तु दुरितं हृतम्॥
इति तद्वलयमभिमन्त्र्य।
जयदे वरदे देवि दशम्यामपराजिते।
धारयामि शुभे दक्षे जयलाभाभिवृद्धये॥
बलमाधेहि वलय मम250 शत्रौ पराभवम्।
त्वद्धारणाद्भवेयुर्मे धनधान्यसमृद्धये॥
इति मन्त्रेण दक्षिणबाहौधारयित्वा पूर्ववदपराजितां विसर्जयेदिति सर्वे च जना ग्रामाद्बहिरीशानदिगवस्थितां शमींसंपूज्यामङ्गलानामिति पूर्वोक्तमन्त्रेण प्रार्थयेयुः। ज्योतिर्निबन्धे स्कान्दे — अश्वगजादिभूषणमभिधाय
ततस्तु पूजयेद्देवान्गन्धपुष्पाक्षतैर251लम्।
आहूय ब्राह्मणान्सर्वान्वाचयेत्स्वस्ति मङ्गलम्॥
ततस्तुरगमारुह्य तूर्यघोषसमन्वितः।
बन्दिभिस्तूयमानस्तु सन्मानशकुनैर्व्रजेत्॥
ज्योतिःशास्त्रोदितां काष्ठां सुहृद्भिः परिवारितः।
संप्राप्य तु शमीवृक्षमश्मन्तकमथापि वा॥
अवतीर्य नृपो वाहाद्वेगात्सह पुरोधसा।
संनिषण्णः शमीमूले विदध्यात्स्वस्तिवाचनम्॥
कार्योद्देशान्द्विजैः252 साकं प्रयोगकुशलैर्वदन्।
ततः प्रोक्ष्य शमीमूले भूमिं भूमिपतिर्ध्रुवम्॥
उत्कृत्य मृत्तिकां तत्र प्रक्षिपेत्तण्डुलाञ्शुभान्।
सपूगं हेमशक्त्या च अभावे ताम्रमुत्तमम्॥
ततः प्रदक्षिणं कुर्यात्तस्य वृक्षस्य भूपतिः।
शमी शमयते पापं शमी शत्रुविनाशिनी॥
अर्जुनस्य धनुर्धात्री253 रामस्य प्रियवादिनी।
करिष्यमाणयात्रायां यथा कालं सुखं मम॥
तत्र निर्विघ्नकर्त्री त्वं भव श्रीरामपूजिते॥ इति।
शम्या अलाभेऽश्मन्तकपूजा कार्या।
अश्मन्तक महावृक्ष महादोषनिवारण॥
इष्टानां दर्शनं देहि शत्रूणां च विनाशनम्।
इत्यश्मन्तकप्रार्थनामन्त्र इति ज्योतिर्निबन्ध उक्तम्। भविष्ये —
गृहीत्वा साक्षतामार्द्रांशमीमूलगतां मृदम्।
गीतवादित्रनिर्घोषैरानयेत्स्वगृहं प्रति॥
ततो भूषणवस्त्रादि धारयेत्स्वजनैः सह। इति।
ज्योतिषे
कृत्वा नीराजनं राजा बलवृद्ध्यैयथाक्रमम्।
शोभनं खंजनं पश्येज्जलगोगोष्ठसंनिधौ॥
तिथितत्त्वे मन्त्रः —
नीलग्रीव शुभग्रीव सर्वकामफलप्रद ।
पृथिव्यामवतीर्णोऽसि खंजरीट नमोऽस्तु ते ॥
त्वं योगयुक्तो मुनिपुत्रकस्त्वमदृश्यतामेषि शिखोद्गमेन ।
संदृश्यसे प्रावृषि निर्गतायां त्वं खंजनाश्चर्यमयो नमस्ते। इति।
दर्शनफलं तिथितत्त्वे —
अब्जेषु गोषु गजवाजिमहोरगेषु
राज्यप्रदः कुशलदः254 शुचिशाड्वलेषु।
भस्मास्थिकेशनखलोमतुषेषु दृष्टो
दुःखं ददासि बहुशः खलु खंजरीटः॥\।
वित्तं ब्रह्मणिकार्यसिद्धिरतुला शक्रेहुताशे भयं
याम्यामग्निभयं सुरद्विषि कलिर्लाभः समुद्रालये।
वायव्यां नववस्त्रगन्धसलिलं दिव्याङ्गनाश्चोत्तरे
ऐशान्यां मरणं ध्रुवं निगदितं255 तल्लक्षणं खंजने॥
अत्र यात्रासीमोल्लङ्घनापराजितापूजासु दशमीश्रवणनक्षत्रयोगाभावे नवमीयुता ग्राह्या।
या पूर्णा नवमीयुक्ता तस्यां पूज्याऽपराजिता।
क्षेमार्थं विजयार्थं च प्रसिद्धविधिना नरैः॥
नवमीशेषसंयुक्ता दशम्यामपराजिता।
ददाति विजयं देवी पूजिता जयवर्धिनी॥
आश्विने शुल्कपक्षे तु दशम्यां पूजयेन्नरः।
एकादश्यां न कुर्वीत पूजनं चापराजितम्॥
इति पुराणसमुच्चयवचनात्।
दशमीं यः समुल्लङ्घ्य प्रस्थानं कुरुते नृपः।
तस्य संवत्सरं राज्ये न क्वापि विजयो भवेत्॥
इति निर्णयामृते स्कान्दात्\। दिनद्वये256 श्रवणयोगेऽपि नवमीयुतैव।यदा तूत्तरदिन एव श्रवणयुक्ता, तदोत्तरैव।
उदये दशमी किंचित्संपूर्णैकादशी यदि।
श्रवणक्षं यदा काले सा तिथिर्विजयाभिधा॥
श्रवणर्क्षे तु पूर्णायां काकुत्स्थः प्रस्थितो यतः।
उल्लङ्घयेयुः सीमानं तद्दिनर्क्षेततो नराः॥
इति कश्यपवचनात्,
मूलेनाऽऽगमनं देव्याः पूर्वाषाढासु पूजनम्।
उत्तरासु बलिं दद्याच्छ्रवणेनापराजिता॥
पूज्येतिशेष इति पूर्वोदाहृतवचनाच्च\। अत्रापराह्णादिकाले ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धदशम्यभावेऽपि साकल्यवचनापादिततत्सत्त्वमादायोत्तरदिन एवानुष्ठानं, पूज्यतिथेरेव साकल्यवचनापादितमपि सत्त्वमादाय कर्मकालव्याप्तिशास्त्रप्रवृत्तिरित्येव हेमाद्र्यादिसिद्धान्त इति पूर्वमुक्तत्वात्\। एतेन दिनद्वयेऽप्यपराह्णव्याप्तौपूर्वा, दिनद्वये प्रदोषव्याप्तौ परा, उभयत्रैकदेशस्पर्शेऽपि पूर्वैव, परदिनेऽपराह्णॆश्रवणसत्त्वे परेति[निर्णयसिन्धुरुपेक्ष्यः257। द्वितीयदिन एव श्रवणयुक्तायां दिनार्धपर्यंतदशम्यां पूर्वाग्रहापत्तावुदाहृतवचननिर्णयामृतमदनरत्नादिविरोधापत्तेः258। अत एव परदिन एकादशमुहूर्ते दशम्यभावेऽपि श्रवणं चेत्तत्रैव यात्रा पूजा तु पूर्वदिन एवेति मयूखोऽप्युपेक्ष्यः\। एवमन्ये नवीनग्रन्थाश्चेति\। अत्र चन्द्राद्यानुकूल्याभावेऽपि यात्रोक्ता ज्योतिर्निबन्धे —
आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां सर्वराशिषु।
सायंकाले शुभा यात्रा दिवा वा विजयक्षणे॥
एकादशो मुहूर्तो विजयः।
ईषत्संध्यामतिक्रान्तः किंचिदुद्भिन्नतारकः।
विजयो नाम कालोऽयं सर्वकार्यार्थसाधकः॥
अथ।
इषस्य दशमीं शुक्लां पूर्वविद्वां न कारयेत्।
**श्रवणेनापि संयुक्तां राज्ञां पट्टाभिषेचने॥ **
सूर्योदये यदा राजन्दृश्यते दशमीतिथिः।
आश्विने मासि शुक्ला तु विजयां तां विदुर्बुधाः॥इति॥
इति विजयादशमी । इति आठवले उपनामकविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे दशमीनिर्णयः समाप्तः।
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*अथैकादशी निर्णीयते — सा च द्विविधा शुद्धा विद्धा च । शुद्धाऽपि द्विविधा, असंपूर्णा संपूर्णा च। संपूर्णाऽप्युदयमारभ्य259 त्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वारुणोदयमारभ्य260 द्वात्रिंशन्मुहूर्तात्मकत्वभेदेन द्विविधा। तत्राऽऽद्या
आदित्योदयवेलाया आरभ्य षष्टिनाडिका।
सा तिथिः सातु संपूर्णा कथिता पूर्वसूरिभिः॥
इति हेमाद्रौ नारदीये प्रतिपादिता। द्वितीयाऽपि।
उदयात्प्राग्यदा विप्र मुहूर्तद्वयसंयुता।
**संपूर्णैकादशी नाम तत्रैवोपवसेद्गृही॥ **
आदित्योदयवेलायां प्राङ्मुहूर्तद्वयान्विता।
**एकादशी तु संपूर्णा विध्दाऽन्या परिकीर्तिता ॥ **
इति गारुडभविष्यत्पुराणाभ्यां हेमाद्रौ प्रतिपादिता । तेन द्विविधैकादशी संपूर्णाहोरात्रव्यापिनी, अरुणोदयादारभ्य261द्वितीयसूर्योदयपर्यंतमवस्थिता च । तत्रापि सर्वतिथिसाधारणः पूर्वस्यां संपूर्णशब्दो मुख्यः, न द्वितीयायामनेकार्थत्वापातात् \। उदयात्प्राग्घटिकाचतुष्टयेऽपि विद्यमानायाः संपूर्णेत्यभिधानं चारुणोदयवेधनिराकरणार्थम्।
प्रतिपत्प्रभृतयः सर्वा उदयादोदयाद्रवेः॥
**संपूर्णा इति विख्याता हस्विसारवर्जिताः। **
इत्यपि चेति हेमाद्रिसिद्धान्तादपि पूर्वस्यामेव मुख्यत्वं प्रतीयते। सूर्योदये दशमीयोगरहिता शुद्धा। उदयात्प्राचीनमुहूर्तद्वयव्यापित्वाभिधानं तु वैष्णवैस्तत्कालवर्तिदशमीयुक्ताया अपि त्याज्यत्वं ज्ञापयितुं, न
तु प्रकृतेऽस्य कश्चिदुपयोग इति मदनरत्नादपि। तथा विद्धाऽपि सूर्योदयोत्तरदशमीसद्भावारुणोदयोत्तरदशमीसद्भावरूपवेधद्वैविध्याद्द्विविधा। यस्तु —
नागो द्वादशनाडीभिर्दिक्पञ्चदशभिस्तथा।
भूतोष्टादशनाडीभिर्दूषयत्युत्तरां तिथिम्॥
इति स्कन्दपुराणे पञ्चदशनाडीवेध उक्तः स तु
सर्वप्रकारवेधोऽयमुपवासस्य दूषकः।
सार्धसप्तमुहूर्तस्तु वेधोऽयं बाधते व्रतम्॥
इति माधवीये निगमवचनेन262व्रतविषयत्वेनैव व्यवस्थापितो, न तूपवासविषयकः। योऽपि
अर्धरात्रात्परा यत्र एकादश्यां तु लभ्यते।
तत्रोपवासनं कर्तुं नचेच्छेद्दशमी कला॥
इति हेमाद्रौस्मृतिवचनेऽर्धरात्रादूर्ध्वं दशमीकलारूपने वेधः प्रतीयते‚
सोऽर्धरात्रेऽपि केषां चिद्दशम्यां वेध इष्यते।
अरुणोदयवेलायां नावकाशो विचारणे॥
कपालवेध इत्याहुराचार्या ये हरिप्रियाः।
न तन्मम मतं यस्मात्त्रियामा रात्रिरिष्यते॥
तत्प्रातरेव वचनं263 दैविकं धर्मसाधनम्।
मुख्यमाहुरतस्त्यागस्तत्र बेधस्य निश्चितः॥
इति हेमाद्रौब्रह्मवैवर्तवचनेनैव कैमुतिकन्यायेनारुणोदयवेधपरत्वेनैव प्रतिपादितः।
दशम्याः सङ्गदोषेण अर्धरात्रात्परेण तु।
वर्जयेञ्चतुरो मासान्संकल्पार्चनयोस्तदा॥
इति हेमाद्रौनारदवचनात्संकल्पादावुपयुज्यते। वेधस्त्वत्र न त्रिमुहूर्तात्मकः, किं तु
सूर्योदयस्पृशा ह्येषादशमी गर्हिता सदा।
दशम्याः प्रान्तमादाय यदोदेति दिवाकरः॥
इति हेमाद्रौस्मृतिवाक्याभ्यां सूर्योदयोत्तरकालस्पर्शमात्रस्यैव प्रतीतेः कलार्धमात्रोऽपि।
अरुणोदयकाले तु दशमी यदि दृश्यते।
नतत्रैकादशी कार्या धर्मकामार्थनाशिनी॥
अरुणोदये दशमीगन्धमात्रं भवेद्यदि।
द्रष्टव्यं तत्प्रयत्नेन वर्जनीयं नराधिप॥
इति तत्रैव नारदीयभविष्यद्वाक्याभ्यामरुणोदयेऽपि कलार्धमात्र एव तत्रापि
अतिवेधा महावेधा ये वेधास्तिथिषु स्मृताः।
सर्वेऽप्यवेधा विज्ञेया वेधः सूर्योदये मतः॥
इति हेमाद्रिमाधवादौस्मृतिवचनात्सूर्योदयोत्तरकालस्पर्शिनी सूर्योदयस्पृशाशब्देनोक्तेति गम्यते। तस्मात्सूर्योदयोत्तरकालदशमीस्पर्श एव सर्वविषयो वेधः।
दशमीशेषसंयुक्तो यदि स्यादरुणोदयः।
वैष्णवेन न कर्तव्यं तद्दिनैकादशीव्रतम्॥
इति हेमाद्र्याद्रौभविष्यत्पुराणवचनादरुणोदयवेधो वैष्णवविषय एव।
उदयात्प्राक्त्रिघटिकाव्यापिन्येकादशी यदा।
संदिग्धैकादशी नाम वर्ज्या स्याद्धर्मकाङ्क्षिभिः॥
उदयात्प्राङ्मुहूर्तेन व्यापिन्येकादशी यदा।
संयुक्तैकादशी नाम वजयेद्धर्मवृर्द्धये॥
आदित्योदयवेलाया आरम्य षष्टिनाडिका।
संकीर्णैकादशी नाम त्याज्या कर्मफलेप्सुभिः॥
पुत्रपौत्रप्रवृध्यर्थं द्वादश्यामुपवासयेत्।
तत्र क्रतुशतं पुण्यं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इति हेमाद्रौ गारुडादिवचनैर्घटित्रयवेधमुहूर्तवेधसूर्योदयकालवेधा उक्तास्ते कामिकोपवासविषयाः। नन्वरुणोदयकाले कलार्धमात्रवेधो वक्तुमत्राशक्योऽरुणोदयकालस्याव्यवस्थितत्वात्। तथाहि —
चतस्रो घटिका प्रातररुणोदयनिश्चयः।
अरुणोदयवेधः स्यात्सार्धं तु घटिकात्रयम्॥
इति हेमाद्रिमाधवयोर्ब्रह्मवैवर्तवाक्याभ्यां,
निशि प्रान्ते तु यामार्धेदेववादित्रवादने।
सारस्वतानध्ययने चारुणोदय उच्यते॥
इति हेमाद्रौस्मृतिवचनेन चारुणोदयस्यानेकत्वप्रतीतेः किं घटिकाचतुष्टय आद्यभागे कलार्धमुत्तरसार्धघटिकात्रयाव्यवहितपूर्वकाले कला —
र्धमथवा यामार्धाद्यभागे कलार्धमित्यत्र विनिगमकाभावादरुणोदयशब्दस्यानेकार्थत्वापत्तिश्च तस्मादरुणोदयस्याव्यवस्थितत्वात्
कलार्धेनापि विद्धा स्याद्दशम्येकादशी यदि।
तदाऽप्येकादशींहित्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
इत्यादिवचनैः कुत्र कलार्धवेधो बोधनीय इति निश्चेतुमशक्यमेवेति चेन्न।
चतस्रो घटिका प्रातररुणोदय उच्यते।
यतीनां स्नानकालोऽयं गङ्गाम्भःसहशः स्मृतः॥
त्रियामां रजनीं प्राहुस्त्यक्त्वाऽऽद्यन्तचतुष्टयम्।
नाडीनां तदुभे संध्ये दिनस्याऽऽद्यन्तसंज्ञिके॥
तदादिवेधरहितामुपोष्यामाहुः। इति हेमाद्रौब्रह्मवैवर्ते रात्रेः प्रथमयामार्धस्य दिनान्तत्वेनान्त्ययामार्धस्य दिनादित्वेन स्पष्टं प्रतिपादनाद्वात्रिंशद्घटिकापरिमितरात्रिमाने यामार्धचतुर्थांशवाचकत्वेन घटिकानाडीशब्दयोर्निश्चितत्वाद्यामार्धन्यूनाधिकभावेऽपि तच्चतुर्थांशवाचकत्वमेव स्वीकर्तुमुचितम्, अन्यथा द्वात्रिंशद्घटिकारात्र्यतिरिक्तकाले त्रियामां रजनीमित्याद्यसंगतमेव स्यात्तस्मात्पञ्चदशमुहूर्तात्मकरात्रिचतुर्थांशपादोनमुहूर्त-चतुष्टयात्मकयामस्यार्धमर्धपादन्यूनमुहूर्तद्वयमेवारुणोदयस्तत्रैव कलार्धेनापीत्यादिवचनानि कलार्धमात्रदशमीसद्भावरूपं वेधं बोधयन्तीति न काचिदनुपपत्तिः। एवं च सति सप्तविंशतिघटिकारात्रिसमये सार्धघटिकात्रयान्यूनरात्र्यष्टमभागः, अष्टाविंशतिरात्रिमानविषया सार्धघटिकात्रयोक्तिः, महत्तररात्रिं विषयीकृत्य चतस्रो घटिका इत्युक्तमिति निशि प्रान्ते तु यामार्ध इतिवचनघटिताग्रिमप्रघट्टकान्तरे हेमाद्रयुक्तिरपि चतस्रो घटिकेति ब्रह्मवैवर्तमूलकत्वाद्युक्ततरैव। एवं सति किं भवता विनिगमकमध्यवसितं, येन राज्यन्त्ययामार्धवेधवाक्यमेवाऽऽद्रियते न मुहूर्तद्वयवाक्यमिति द्वैतनिर्णयः, रात्र्यन्त्याष्टमभागरूपस्यारुणोदयस्य कालभेदेन घटिकाचतुष्टयादिरूपत्वसंभवात्तद्वेधोपलक्षकत्वेनैकार्थत्वमेवोक्तं हेमाद्रिणा, तद्वेधातिवेधमहावेधयोगाख्यवेधानां भेदस्य स्पष्टं प्रतीतेरयुक्तमिति कालतत्त्वविवेचनम्, एवं हेमाद्रिदूषणोत्प्रेक्षायुक्ता निर्णयसिन्ध्वादयोऽपि अयुक्ता हेमाद्रयुदाहृतबह्मवैवर्तदर्शनामावमूलकत्वात्। माधवीयेऽपि नाडिकाघटिकाशब्द्रौयामार्धचतुर्थांशवाचकावेवेति तत्राप्यतिप्रामाणिकेन हेमाद्रिणाऽनिर्दिष्टाकरतया लिखितेन निशि प्रान्ते तु
यामार्ध इतिवाक्येन सपाददण्डचतुष्टयादिसत्त्वरूपा अपि वेधा उक्ता माधवेन न संगृहीता इत्यादिमाधवदूषणपरद्वैतनिर्णयो निरस्तः।
अरुणोदयवेधः स्यात्सार्धं तु घटिकात्रयम्। इति वचनम्
मुहूर्तंद्वादशी न स्यात्रयोदश्यां यदा मुने।
उपोष्या दशमीमिश्रा सदैवैकादशी तिथिः॥
इत्यादिहेमाद्र्युदाहृतविष्णुरहस्यादिवचनेषु
पारणाहे न लभ्येत द्वादशी कलयाऽपि चेत्।
इति वचनान्मुहूर्तादिग्रहणमविवक्षितं, किं तु द्वादशीसद्भावमात्रमेव विवक्षितमिति हेमाद्रौसिद्धान्तितं सर्वैरपि स्वीकृतं तथा प्रकृतेऽप्यरुणोदयकाले दशमीसद्भाव एव वेधस्तन्न्यूनाधिकभावोऽविवक्षित इति समञ्जसमेव। माधवाचार्यैरपि अरुणोदयस्य प्रथमघटिकायां दशमीसद्भावो वेध इत्युक्तः। स च द्विविधः, घटिकाप्रारम्भे कृत्स्नघटिकायां च दशमीवृत्तिभेदात्। तत्र प्रारम्भे दशमीयुक्तैकादशी संपृक्तेत्युच्यते। कृत्स्नघटिकावर्तिदशमीयुक्तैकादशी संदिग्धेति। गारुडे —
**उदयात्प्राक्त्रिघटिकाव्यापिन्येकादशी यदा।
संदिग्धैकादशी नाम वर्जयेद्धर्मवृद्धये॥इति। **
यद्यपि पूर्वत्र वेधवाक्ये सार्धं तु घटिकात्रयमित्युक्तं, अत्र तु संदिग्धैकादशीवाक्ये त्रिघटिकेत्युक्तं, तथाऽपि नैतावता वैषम्येणविरोधः शङ्कनीयः, शास्त्रद्वयस्यापि दशमीवेधत्यागपरत्वादिति सिद्धान्तितत्वाच्च।
**उदयात्प्राग्यदा विप्र मुहूर्तद्वयसंयुता। **
इतिगारुडवाक्ये, अत्र संपूर्णत्वमहोरात्रव्यापित्वं विवक्षितम्, अन्यथा परतो द्वादशी न चेदित्यसंगतं स्यात्। अरुणोदयमारभ्य प्रवृत्ताया द्वितीयदिन एकघटिकासत्त्वं घटिकापञ्चकवृद्धावेव संभवति। अस्यां परमवृद्धौ समनन्तरदिने षड्घटिकाक्षयस्य ज्योतिःशास्त्रविरुद्धत्वादिति हेमाद्रिमदनरत्नाभ्यां सिद्धान्तितत्वान्मुहूर्तद्वयग्रहणमविवक्षितमेव। तस्मात्सर्ववचनसामञ्जस्यादर्धपादन्यूनमुहूर्तद्वयात्मकार्धयाम एवारुणोदयशब्दवाच्य इति सिद्धम्। अत एव नानार्थत्वशङ्काऽपि व्युदस्ता। एवं सति मुहूर्तद्वयस्यारुणोदयत्वबोधकवचनाभावेऽपि तस्यारुणोदयत्वस्वीकारे यो ह्युत्सूत्रं कथयेन्नादो गृह्येत, इतिमहाभाष्यविरोधः स्पष्ट एव। एतेनार्धयामवाक्यस्यैव त्वल्पान्तरत्वेन मुहूर्तद्वयोपलक्षणत्वौचित्याद्धेमा-
द्र्युक्तमयुक्तमिति कालतत्त्वविवेचनमुपेक्ष्यम्। *हेमाद्र्युदाहृतबह्मवैवर्तार्थापर्यालोचनमूलत्वात्,264
अरुणोदये तु दशमी गन्धमात्रं भवेद्यदि।
द्रष्टव्यं तत्प्रयत्नेन वर्जनीयं नराधिप॥
इत्यादिवचनविरोधाच्च। अपि च मुहूर्तद्वयाद्यपदार्धस्यारुणोदयत्वाभावेन तत्र दशमीकलासद्भावमात्रेण द्वितीयदिन उपवासस्वीकारेशास्त्रार्थाननुष्ठानाशास्त्रानुष्ठानापत्तिश्च265। घटिकाचतुष्टयात्मकारुणोदयस्वीकारे तु चतुस्त्रिंशद्घटिकारात्रिसमये सपादघटिकाचतुष्टयार्धयामाद्यपादघटिकापर्यन्तदशमीसद्भावयुक्तैकादश्यां विद्धत्वं न स्यात्सपादघटिकात्रितयात्मकयामार्धसमये घटिकाचतुष्टयाद्यपादे दशमीसद्भावमात्रेण विद्धत्वं स्यात्, न चेष्टं तत्, त्रियामां रजनीमित्यादिवचनैर्विरोधापत्तेरिति दिक्। अयं चारुणोदयवेधः पूर्वोदाहृतभविष्यत्पुराणवाक्यात्
दशमीशेषसंयुक्तो यदि स्यादरुणोदयः।
नैवोपोष्यं वैष्णवेन तद्दिनैकादशीव्रतम्॥
इति गारुडाच्च वैष्णवविषय एव। वैष्णवलक्षणं च —
वैखानसाद्यागमोक्तदक्षायुक्तो हि वैष्णवः।
इति मदनरत्नोदाहृतायां स्मृतौ,
परमापदमापन्नोहर्षे वा समुपस्थिते।
नैकादशीं त्यजेद्यस्तु यस्य दीक्षाऽस्ति वैष्णवी॥
समात्मा सर्वजीवेषु निजाचारादविप्लुतः।
विष्ण्वर्पितसदाचारः स हि वैष्णव उच्यते॥
न चलति निजवर्णधर्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे।
न हरति न च हन्ति किंचिदुच्चैः सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम्॥
इति माधवोदाहृतस्कान्दवाक्ययोर्विष्णुपुराणवाक्ये चाभिहितम्। अत्र यथोक्तगुणसंपन्नो वैष्णवदीक्षां प्राप्तो वैष्णव इति माधवादिभिरुक्तं, तथाऽपि अनेक वाक्येषूपादानाद्विष्णुदीक्षैव वैष्णवलक्षणं, अन्ये गुणाः सति संभवाभिप्राया इति बोध्यम्। अत एव वैष्णवदीक्षायुक्त एव वैष्णव इति मदनरत्नादयः संगच्छन्ते। तस्मात्स्कान्दादिवाक्यो-
क्तगुणसंपन्ना वैष्णवदीक्षायुक्ता वैष्णवास्तान्प्रति अरुणोदयोत्तरदशमीकलार्धेनापि युक्तैकादशी विद्धा, अरुणोदयमारभ्य प्रवृत्ता शुद्धा। विद्धाऽपि द्विविधा —आधिक्येन युक्ता, तद्रहिता च। आधिक्यं च त्रिविधम् —एकादश्याधिक्यं, द्वादश्याधिक्यमुभयाधिक्यं चेति। आधिक्यं न्यूनत्वं समत्वं चोत्तरसूर्योदयावधिकमेव सर्वत्र। तत्रारुणोदयमारभ्य प्रवृत्ताया द्वितीयसूर्योदयोत्तरं कलादिकालावच्छेदेन विद्यमानत्वरूपमाधिक्यं किंचिदधिकचतुःषष्टिघटिकात्मकतिथिभोगे सत्येव संभवति, नान्यथा। तत्र पूर्वतिथिभोगापेक्षयोत्तरतिथिभोगस्य सार्धघटिकापेक्षया न्यूनाधिकभावस्य ज्योतिःशास्त्रेऽप्रसिद्धत्वात्, किंचिदधिकचतुःषष्टिघटिकापरिमितायामेकादश्यां समनन्तरद्वादश्याः सूर्योदयपर्यन्तत्वरूपं समत्वमपि न संभवतीति शुद्धाधिकाधिकद्वादशिकैव। एवं शुद्धसमाऽपि समद्वादशिकाऽपि न संभवतीति साऽप्यधिकद्वादाशिकैव। शुद्धहीना तु द्विविधा — अधिकद्वादशिकाऽनधिकद्वादशिका चेति। शुद्धा चतुर्विधा तत्राऽऽद्या सर्वैरेव परोपोष्या तदाह हेमाद्रिमाधवयोर्भृगुः —
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा।
तत्रोपोष्या द्वितीया तु परतो द्वादशी यदि॥ इति।
अत्र यदिशब्दः
यदि वेदाः प्रमाणं स यदि सोमं बिभक्षयिषेत्।
इत्यादाविव निश्चयपर एव। एकादश्याः परमवृद्धौ द्वादश्यनाधिक्यस्य पूर्वोक्तरीत्या बाधितत्वात्। तत्रैव नारदोऽपि —
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा।
सर्वैरेवोत्तरा कार्या परतो द्वादशी यदि॥
यत्तु कालतत्त्वविवेचने, अरुणोदयवेधो वैष्णवविषयोऽपीति प्रक्रम्यभृग्वादिवचनं वैष्णवेतरविषयमेव युक्तं, वैष्णवानां विद्धत्वमात्रेणैव परत्रान्यतरस्या अलाभेऽप्युत्तरत्रोपवाससत्त्वादित्युक्तं, तत्संपूर्णा चात्र न सूर्योदयद्वयमात्रव्यापिनी, किंतूदयात्प्रागिति परिभाषितैवेत्युत्तरग्रन्थे स्वयमेवोक्तत्वादरुणोदयमारभ्य प्रवृत्तायास्त्यागे विद्धत्वस्य कथं हेतुत्वमिति विचारणीयम् \। हेमाद्रौ वचनान्तरमपि —
एकादशी विष्णुना चेद्वादशी परतः स्थिता।
उपोष्या द्वादशी तत्र यदीच्छेत्परमं पदम्॥
विष्णुर्द्वादशी सहार्थे तृतीया द्वादशीयुक्तेत्यर्थः।एतादृशानि266सर्वविषयाण्येव । शुद्धहीनानधिकद्वादशिकायामपि
उपोष्यैकादशी नित्यं पक्षयोरुभयोरपि।
एकादशी सदोपोष्यापक्षयोः शुक्लकृष्णयोः॥
इत्यादिहेमाद्र्यादौ गारुडसनत्कुमारादिवचनैः शुद्धैकादश्यामेवोपवासः सर्वेषाम्। शुद्धसमाधिकद्वादशिकाशुद्धन्यूनाधिकद्वादशिकयोस्तु वैष्णवानां परत्रैवोपवासः । तदाह हेमाद्रौ स्कन्दः —
एकादशी भवेत्पूर्णा परतो द्वादशी यदा।
तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
विष्णुरहस्ये —
एकादशी तु संपूर्णा सदशा चोत्तरा भवेत्।
**पूर्वा तु पूर्ववज्ज्ञेया तिथिवृद्धिः267 प्रशस्यते॥ **
उत्तरा द्वादशी सदृशा सशेषा त्रयोदश्यामपि स्यादित्यर्थः। पूर्वैकादशी, पूर्ववद्दशमीवदनुपोष्येत्यर्थः। तत्रैव गारुडपुराणे —
**पूर्णा भवेद्यदा नन्दा भद्रा चैव विवर्धते। **
**तदोपोष्या तु भद्रा स्यात्तिथिवृद्धिः प्रशस्यते॥ **
तत्रैव भागवतादितन्त्रे —
संपूर्णैकादशी त्याज्या परतो द्वादशी यदि।
उपोष्या द्वादशी शुद्धा द्वादश्यामेव पारणम्॥
न गर्भेविशते जन्तुरित्याह भगवान्हरिः॥
तत्रैव भविष्यत्पुराणे —
उपोष्या द्वादशी शुद्धा द्वादश्यामेव पारणम्।
**निर्गतायां त्रयोदश्यां कला वा द्विकलाऽपि वा॥ **
**द्विकलयांतु द्वादश्यां पारणं यः करोति हि। **
तामुपोष्य महीपाल न गर्भेविशते नरः॥
एवमादिशुद्धद्वादश्युपवासविधायकानि वैष्णवविषयाण्येव। विद्धायामपि, एकादश्याधिक्यम्, द्वाशश्याधिक्यम्, उमयाधिक्यं चेतित्रैविध्यंबोध्यम् । तत्रोभयाधिक्ये सर्वेषां परत्रैवोपवासः। तदाह हेमाद्रौ स्कन्दः-
एका लिप्त्या समायुक्ता याति वृद्धिं परा तिथिः।
द्वादशी पारणार्था च नोपोष्यं पूर्ववासरे॥
एकैकादशी लेशमात्रेण द्वादश्या युक्ता, परा द्वादशी वृद्धिं याति, तदा पूर्वनिषेधस्योत्तरविधानार्थत्वादुत्तरत्रोपवास इत्यर्थः । तत्रैव नारदोऽपि —
द्वादश्यैकादशी यत्र द्वादशी परतोपि च268
द्वादश्यां पारणं कुर्यात्क्रतुकोटिफलं लभेत्॥
तत्रैव पाद्मम् —
एकादशीकलायुक्ता येन द्वादश्युपोषिता।
किं तस्य बहुभिर्यज्ञैरश्वमेधादिभिर्नृप॥
एकादशी द्वादशी च तत्र संनिहितो हरिः।
उपोष्य रजनीमेकां ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥
मदनरत्ने तत्त्वसारसंहितायां269— क. ग. घ.छ. ॰सागर
द्वादश्येकादशी यत्र द्वादशी परतोऽपि हि।
द्वादश्यां270 पारणं कृत्वा क्रतुकोटिफलं लभेत्॥
इत्येवमादिवचनानि सर्वसाधारणान्येव। एतावान्परं विशेषः स्मार्तानां सूर्योदयोत्तरमेव दशमीयुक्ता विद्धाधिका ततः पूर्वं तद्युक्ता शुद्धाधिकैवेति । अनुष्ठानं तु समानमेव । द्वादशीमात्राधिक्येऽप्युदयात्पूर्वं वेधे वैष्णवानाम्, उदयवेधे तु सर्वेषां परत्रैव । तदाह हेमाद्रौ नारदः
शुद्धा तु द्वादशी राजन्समुपोष्या सदा तिथिः।
दशम्येकादशीमिश्रा न कर्तव्या कदाचन॥
हेमाद्रिमाधवयोर्व्यासः —
एकादशी यदा लुप्ता परतो द्वादशी भवेत्।
उपोष्या द्वादशी तत्र यदीच्छेत्परमं पदम्॥
पूर्वत्र दशमीविद्धत्वात्परत्र वृध्यभावाच्चोपोष्यत्वेन लुप्ता, न तु स्वरूपेण । उदयोत्तरवेधे तु स्वरूपेणैव लुप्ता क्षयं गतेति यावत्। हेमाद्रौब्रह्मवैवर्ते —
नन्दा शरीरं देवस्य भद्रा ह्यात्मा ह्यजोऽव्ययः।
तस्मात्सरोगं त्यक्त्वाऽङ्गमात्मानं तूपवासयेत्॥
इति स्मार्तानामसाधारणवचनं तत्प्रकरण उदाहरिष्यते। एकादशीमात्राधिक्येऽपि वैष्णवानां परत्रैव चोपवासमाह हेमाद्रौ माधवीये विष्णुरहस्यम् —
एकादशी कलाप्राप्ता येन द्वादश्युपोषिता।
तुल्या क्रतुशतेन स्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
तत्रैव स्मृत्यन्तरम् —
एकादशी तु संपूर्णा परतः पुनरेव सा॥
पुण्यं क्रतुशतस्योक्तं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
[अरुणोदयविद्धायामप्युदयादुदयपर्यन्तत्वरूपं271 संपूर्णत्वं तिष्ठत्येव।]
एकादशीकलायुक्तामुपोष्य द्वादशीं नरः।
त्रयोदश्यां तु भुञ्जानो विष्णुसायुज्यमृच्छति॥
माधवीये नारदः —
संपूर्णैकादशी यत्र द्वादश्यां वृद्धिगामिनी।
द्वादश्यां लङ्घनं कार्यं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥ इति।
ननु विद्धाभेदकल्पनं,तत्र[^275]वचनान्तरोपन्यसनं, वेधातिवेधमहावेधयोगाख्यवेधचतुष्टयकथनं च प्रकृतेव्यर्थम्[^276]।
दशमीशेषसंयुक्तो यदि स्यादरुणोदयः॥
वैष्णवैर्न तु कर्तव्यं तद्दिनैकादशीव्रतम्।
इति वचनेनैव वैष्णवानां परत्रानुष्ठानसिद्धेः,
अरुणोदयवेलायां या स्तोकाऽपि तिथिर्भवेत्।
पूर्णा इत्येव मन्तव्या प्रभूता नोदयं विना।
तत्र चेद्दशमीवेधोऽतिवेधो वाऽपि जायते॥
महावेधोऽथवा योगो रक्षसां सफलं भवेत्।
इति हेमाद्रौ ब्रह्मवैवर्तवचनेन रक्षःफलभागित्वेन चतुर्विधवेधस्यापि साम्यत्वप्रतीतेर्वेधत्यागेनैव सर्वेषां त्यागसंभवात्। न च
दशमीशेषसंयुक्तां न तु कुर्यात्कथंचन।
जम्भस्येयं पुरा दत्ता दशमीशेषसंयुता॥
अज्ञानाद्यदि वा मोहात्कुर्वन्नेकादशीं नरः।
दशमीशेषसंयुक्तां प्रायश्चित्तमिदं भवेत्॥
तप्तकृच्छ्रं नरश्चीर्त्वा गां च दद्यात्सवत्सकाम्।
सुवर्णस्यार्धकं देयं तिलद्रोणसमन्वितम्।
इति प्रायश्चित्तम्।
यातुधानव्रतं योगे महावेधे तु बाष्कलेः।
जम्भासुरस्यातिवेधे मोहिनी वेधलेशिनी॥
इतीदं चतुष्टयमुक्त्वा जम्भकासुरभागितया निन्दितातिवेध एव पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तं वेधान्तरे तु प्रायश्चित्ताल्पत्वमहत्त्वस्य(योः) कल्पनीयत्वाद्वेधभेदस्योपयोगः स्पष्ट एवेति वाच्यम्। षष्ठे परकृतिपुराकल्पम्। इति सूत्रे बट्कुर्वार्ष्णिर्माषान्मे272 पचतेत्यत्र वार्ष्णिग्रहणस्येव जम्भकस्येति निन्दार्थवादगतजम्भग्रहणस्योपलक्षणत्वेन प्रायश्चित्ततारतम्यव्यवस्थापकत्वासंभवात् । किं च
प्रायश्चित्तं प्रकर्तव्यं शुद्ध्यर्थं तु व्रतस्य वै।
निश्छिद्रं जायते येन धर्मसंतानमेव च॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्रिंशद्गांच दद्यात्सवत्सकाम्।
धरणस्यार्धकं देयं तिलद्रोणमथापि वा॥
इति हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरे साधारणस्यैव प्रतीतेः। न चाल्पत्वादिदं वेध एवातिवेधमहावेधादौ महत्वं कल्पनीयमिति वाच्यम् । वैपरीत्यस्यापि सुवचनत्वात्। न च पुरुषदोषतारतम्यात्प्रायश्चित्ततारतम्यमिति शङ्क्यम्। दोषतारतम्यबोधकस्यानुपलब्धेः। न चोच्चावचप्रायश्चित्तस्य श्रवणमेव तत्कल्पकम्, उच्चावचप्रायश्चित्तश्रवणात्पुरुषदोषतारतम्यं, पुरुषदोषतारतम्याच्च प्रायश्चित्ततारतम्यमित्यन्योन्याश्रयापत्तेः। अपि च स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं याति इत्यर्थवाद एतानि वै दृश यज्ञायुधानि, इति यज्ञायुधव्यपदेशस्योपयोगवत्, जम्भकस्येयं पुरा दत्तेति निन्दार्थवादे वेधातिवेधमहावेधयोगाख्यचातुर्विध्यप्रतिपादकस्मृतेरुपयोगसंभवेन273न तद्द्बलाद्दोषतारतम्यकल्पना युक्ता। तस्माद्विद्धाभेदादिकथनस्य प्रकृते कोऽप्युपयोगो नास्तीति चेन्न। भेददर्शनं विना पूर्वोक्तवच-
नानां व्यवस्थापयितुमशक्यत्वाद्भेदकथनमावश्यकम्, अन्यथा दशमीविद्धांवैष्णवो न कुर्यादित्येतावत एव नैवोपोष्यं वैष्णवेनेतिवचनात्प्रतीतेर्यदा वेधरहिता लभ्यते तदानीमेव कुर्यादिति संभाव्येत। नेनु274 न कदाचिदतिक्रमेदितिवचनादेकादश्युपवासस्य नित्यत्व प्रतीतेरेतादृशी संभावना न युक्तेति चेत्। तथाऽपि दशमीविद्धानिषेधस्यैव शब्दात्प्रतीतेः किमुत्तरत्रोपवासः कल्पनीयः किं वा
उपोष्या दशमी तत्र द्वादशीं न लभेद्यदि।
दशम्याऽपि हि मिश्रेव एकादश्येव धर्मकृत्॥
इत्यादिहेमाद्रौ स्मृत्यन्तरवचनैर्दशमीविद्धायामेवोपवास इति संदेह एव स्यान्न तु निश्चयः। न चैतादृशानि वैष्णवभिन्नविषयत्वेन संकोचनीयानीति न दोष इति वाच्यम्। आर्थिकोपवासकल्पनया स्पष्टानेकवचनसंकोचस्यायुक्तत्वात्। तस्माद्विरुद्धवचनैर्विना वचनान्तरसंकोचस्यकर्तुमशक्यत्वात्तेषामावश्यकत्वे तेषामेवोत्तरत्रोपवासविधायकत्वमुचितं, नैवोपोष्यम्। एतस्य तु वेधनिषेधकत्वमेव युक्तम्। एवं च सत्येकैकार्थविधानेनानेकशास्त्रोपपत्तौ नैकमस्तके बहुभार आरोपणीयस्तस्मादुत्तरत्रोपवासविधानार्थं वचनोपन्यासो युक्ततर एव\। वेधभेदोऽपि
अरुणोदये तु दशमी गन्धमात्रं भवेद्यदि।
द्रष्टव्यं तत्प्रयत्नेन वर्जनीयं नराधिप॥
इतिवचनेन दशमीसद्भावस्य प्रयत्नेन द्रष्टव्यत्वप्रतिपादनात्, गन्धमात्रस्य द्रष्टुमशक्यत्वेन तत्र पुरुषापराधः स्वल्प उत्तरोत्तरं दर्शनस्य सुकरत्वात्तदनादरेण निषिद्धकाले कर्मानुष्ठाने कर्मवैगुण्यवत्पुरुषदोषस्यापि बहुषु वाक्येषु श्रवणात्पुरुषदोषतारतम्यं, तत्तारतम्यात्प्रायश्चित्ततारतम्यमपि युक्तमेवेति सर्वं समञ्जसमेव \। माधवाचार्यैरपि वैष्णवं प्रति तिथिरेवं निर्णेतव्या। एकादशी द्विविधा — अरुणोदयवेधवती, शुद्धा चेति। तत्र वेधवती सर्वथा त्याज्या तद्दिनैकादशीव्रतमिति सामान्येन प्रतिषेधात्। विशेषतस्तु संपृक्तादिभेदन प्रतिषेधो द्रष्टव्य इत्यभिधाय संपृक्तादिभेदानुक्त्वोक्तं — तदेवं सामान्यविशेषाभ्यां प्रतिषिद्धत्वादरुणोदयविद्धैकादशी वैष्णवेन त्याज्या\। यस्तु योगसंज्ञकश्चतुर्थो वेधस्तस्य त्याज्यत्वमर्थात्सिद्धमित्यादिना विद्धानिषेधं प्रदर्श्य शुद्धा
लक्षयितुमुक्तं — यातु चतुर्विधवेधरहिता शुद्धैकादशी सा द्विविधा — आधिक्येन युक्ता, तद्रहिता चेति्। यद्यपि वेधरहितत्वमेव लक्षणं, तथाऽपि शिष्यबुद्धिवैशद्यार्थमुक्तिवौचित्र्यार्थं वा चातुर्विध्योपादानम्। तत्र या तु चतुर्विधवेधरहिता, सा शुद्धेत्यन्वयः। अनेन शुद्धालक्षणं कृत्वा भेदान्तरं दर्शयितुमेकादशी द्विविधेति पूर्वोक्ता विद्धा, इयं शुद्धा चेति द्विविधैकादशीत्यर्थः। द्वैविध्यं दर्शयितुमाधिक्येन युक्ता तद्रहिता चेतीत्याधिक्यस्यापि भेद उक्तः। आधिक्यं च त्रिविधम् — एकादश्याधिक्यंद्वादश्याधिक्यमुभयाधिक्यं चेति। यद्यपीदमाधिक्यं विद्धाशुद्धोभयसाधारण्येन प्रतीयते, तथाऽपि विद्धायामेव त्रिविधमाधिक्यम्। यदि शुद्धायामपि विवक्षितं स्यात्तर्हि स्मार्तप्रकरणे शुद्धायां चत्वारो भेदा इति यथोक्तं, तथाऽत्राप्युक्तं स्यात्तदनुक्तेः पूर्वोक्तरीत्याऽरुणोदयमारभ्य प्रवृत्तैकादशीमात्राधिक्यस्य बाधितत्वाद्द्वादश्याधिक्यमुभयाधिक्यं चेति द्विविधमेवाऽऽधिक्यम्। आधिक्यस्य प्रयोजनमुक्तम् —त्रिष्वप्येतेषु पक्षेष्वरुणोदयमारभ्य प्रवृत्तां शुद्धामध्येकादशीं परित्यज्य परेद्युरुपवासः कर्तव्य इति। विद्धाविषयेषु त्रिषु पक्षेषु शुद्धामपीत्यपिशब्दसमुच्चितां विद्धां त्रिष्वपीत्यपिशब्दसमुञ्चिते शुद्धाविषयपक्षद्वयेऽरुणोदयमारभ्य प्रवृत्तां शुद्धामेकादशीं परित्यज्य परेद्युरुपवासः कर्तव्य इत्यर्थः। यद्यत्रापि शुद्धैकादशीमात्राधिक्यं विवक्षितं स्यात्तर्हि स्मार्तप्रकरणे शुद्धायामेकादश्याधिक्य इति यथोक्तं, तथाऽत्राप्युक्तं स्यात्तदनुक्तेस्तस्य बाधितत्वाच्च विद्धामेवाभिप्रेत्येत्युक्तम् — तत्रैकादश्याधिक्ये नारद इत्यादि। वैष्णवानां वेधमात्रेणैवोत्तरैसिद्धत्वाद्वचनवैयर्थ्यशङ्का275 तु पूर्वमेव276निराकृता। तत्रापि विद्धायां द्वादशीमात्राधिक्ये वैष्णवस्मार्तसाधारणत्वाद्वैष्णवासाधारण एकादशीमात्राधिक्ये277पूर्वप्रमाणोपन्यासः। विद्धायां द्वादशीमात्राधिक्ये प्रमाणमुक्तम् —द्वादश्याधिक्ये व्यास आह —एकादशी यदा लुप्तेति। शुद्धायां द्वादशीमात्राधिक्य एवेदं प्रमाणमिति शङ्का तु माधवाचार्यैरेव स्मार्तानां विद्धायां द्वादशीमात्राधिक्ये प्रमाणत्वेनोपन्यस्यमानव्यासवचनस्य वैष्णवानां शुद्धायां द्वादशीमात्राधिक्ये प्रमाणत्वेनोपन्यासस्यात्यन्तासंगतेरेव निरस्ता \। विद्धाया द्वादशीमात्राधिक्यस्य वैष्णवस्मार्तसाधारणत्वादेकस्यैव प्रमाणवचनस्योभयत्राप्युपन्यासो युक्त
———————————————————————————————
** ख. छ. चातुर्विध्यप्रतिपादकम्मृतेरुपयोगमा**
इति कृतः। विद्धात्वमेव परं वैष्णवस्मार्तभेदेन भिन्नम्। एतेने यत्तु शुद्धायां द्वादशीमात्राधिक्ये वैष्णवानामप्येतस्माद्वचनात्परेद्युरुपवास इति माधवस्तन्नेति मयूखे दूषणमुक्तं तत्, शुद्धापदाघटितान्माधवात्परावृत्तं शुद्धायामितिपदघटितमयूखादावेवावस्थितम्। एवं च यो दूषणसमर्थनाय व्रतार्के परिल्केशः सोऽपि दूषणपृष्ठानुयायित्वात्तत्रैवावतिष्ठत इति बोध्यम्।उभयाधिक्यस्य278 वैष्णवस्मार्तविद्धाशुद्धासाधारणत्वात्पश्चात्प्रमाणमुपन्यस्तमुभयाधिक्ये मृगुराहे्त्यादिना। अत एवोभयाधिक्यवत्यां द्विविधायां यथा न कस्यापि संदेहस्तथा तद्रहितायां तस्यां तत्प्रसक्तिमाशङ्क्योक्तम् — उभयाधिक्यरहितायां तु शुद्धायां न कोऽपि संदेह इति। तुर्भिन्नक्रमः शुद्धायामित्यस्याग्रे बोध्यः। उभयाधिक्यरहितायां शुद्धायां त्वित्यर्थः। उभयाधिक्यरहितायां विद्धायां स्मार्तानां पूर्वा, वैष्णवानामुत्तरत्रेति व्यवस्थितविकल्परूपसंदेहस्य सत्त्वादुक्तं शुद्धायां त्विति न कोऽपि संदेहोऽस्तीति चेति योजनया यथाश्रुतग्रन्थदर्शनप्रसक्तबाधितार्थकत्वरूपक्लेशसागरं प्रतीर्णो माधवग्रन्थः सुस्थ एव। अर्थानुसारेण ग्रन्थयोजनस्यैवोचितत्वात्। ग्रन्थानुसारेणार्थकल्पनायां तु न हि शब्दकृतेन नामार्थेन भवितव्यम्, अर्थकृतेन नामशब्देन भवितव्यमित्यादिमहाभाष्यविरोधः स्पष्ट एवेति। एवं सति यथाश्रुतमाधवग्रन्थमात्रदर्शनप्रवृत्तशुद्धायामेकादशीमात्राधिक्य इत्याद्यानुपूर्वीघटितनवीनग्रन्थाः279सर्वेऽप्ययुक्ता इति विभाव्यतां सदसद्व्यक्तिहेतुभिः सूरिभिः। अथोन्मीलिन्याद्यष्टौ भेदा हेमाद्रौ ब्रह्मवैवर्ते —
एकादशीव्रतं सर्वव्रतानां प्रवरं स्मृतम्।
विशोधनमिदं पुंसां शुष्कार्द्रस्यां हसः परम्॥
तत्स्वरूपं श्रुतं तीर्थस्नानादप्यधिकं विदुः।
एतत्सारमिदं तत्त्वमिदं सत्यमिदं व्रतम्॥
प्रायश्चित्तमिदं सम्यग्यदेकादश्युपोषणम्।
विशेषस्तत्र विज्ञेयो द्वादशीषु द्विजोत्तम॥
भवन्त्यष्टौ परिख्यातास्ताः शृणुष्व यथोदिताः।
उन्मीलिनी वञ्जुली च त्रिस्पृशा पक्षवर्धनी॥
**जया च विजया चैव जयन्ती पापनाशिनी।
द्वादश्योऽष्टौ महापुण्याः सर्वपापहरा द्विज॥
तिथियोगेनं280 जायन्ते चतस्रश्वापरास्तथा।
नक्षत्रयोगात्प्रबलं पापं प्रशमयन्ति ताः॥
एकादशी तु संपूर्णा वर्धते पुनरेव सा।
उन्मीलिनी भृगुश्रेष्ठ कथिता पापनाशिनी॥
द्वादश्यामुपवासस्तु द्वादश्यामेव पारणम्।
वञ्जुली नाम सा प्रोक्ता हत्यायुतविनाशिनी॥
अरुणोदय281 आद्या स्याद्वादशी सकलं दिनम्।
अन्ते त्रयोदशी प्रातस्त्रिस्पृशा सा हरेः प्रिया॥ **
कुहूराके यदा वृद्धिंप्रयाते पक्षवर्धनी।
विहायैकादशीं तत्र द्वादशीं समुपोषयेत्॥
पुष्यश्रवणपुष्याद्यरोहिणीसंयुतास्तथा।
उपोषिताः समफला द्वादश्योऽष्टौ पृथक्पृथक्॥
ब्रह्मघ्रमपि सा पूर्वा विशोधयति भार्गव।
वञ्जुलीति द्वितीया सा हत्यायुतविनाशिनी॥
महापापानि चत्वारि शोषयेत्त्रिस्पृशा कृता।
कुरुतेऽशेषकलुषविच्छेदं पक्षवर्धिनी॥
जया जयं तु विजया प्रेतमोक्षं तथा परा।
जयन्ती नरकच्छेदमपि दुष्कृतकारिणाम्॥
अष्टमी च भृगुश्रेष्ठ महापातकनाशिनी।
इत्यष्टावुन्मीलिन्यादयः। तदित्थं वैष्णवैररुणोदयादिवेध282 एकादशीमात्राधिक्ये द्वादशीमात्राधिक्य उभयाधिक्येऽनुभयाधिक्ये वा पूर्वांत्यक्त्वा द्वितीयैव कार्येति सिद्धम्। अत्र केचन शैवादयोऽपि गतानुगतिकन्यायेन वैष्णववद्द्वितीयामेव कुर्वन्ति।
**वैष्णवो वाऽथ शैवो वा सौरोऽप्येतत्समाचरेत्। **
इति सौरपुराणादिभिः शैवादीनामप्यधिकारबोधनात्तेषां वक्ष्यमाणवाक्यैः प्रथमाया एव विधानाद्द्वितीयदिन उपवासे विहितत्यागाविहितानुष्ठानजन्यप्रत्यवायः,
एकादश्यामहारात्र भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।
इति प्रायश्चित्तापत्तिश्च दुर्वारैवेति बोध्यम्। इति वैष्णवान्प्रत्येकादशीं निर्णीय तदितरान्स्मार्तशब्दव्यवहार्यान्प्रत्येकादशी निर्णीयते — तत्र सूर्योदयपर्यन्तदशमीवेधस्य वैष्णवविषयत्वेन व्यवस्थापनात्।
सर्वेऽप्यवेधा विज्ञेया वेधः सूर्योदये स्मृतः।
सूर्योदयस्पृशा ह्येषा दशमी गर्हिता सदा॥
इत्यादिवचनबोधितो वेधः परिशेषात्स्मार्तविषयः। तत्र सूर्योदयोत्तरं दशमीसद्भावरहिता शुद्धा दशमीयुक्ता विद्धा। तत्रापि समन्यूनाधिकभेदेन शुद्धा त्रिविधा। एवं विद्धाऽपि। तत्र द्वितीयसूर्योदयपर्यन्ता समा, ततः पूर्वमेव समाप्ता न्यूना, तत ऊर्ध्वं विद्यमानाऽधिका। तत्र शुद्धसमा, समद्वादशीका, अधिकद्वादशीकेति त्रिविधा। एवं शुद्धन्यूना, शुद्धाधिकाऽपि प्रत्येकं त्रिविधेति शुद्धा नवविधा। विद्धसमाऽपिसमद्वादशीका, न्यूनद्वादशीकाऽधिकद्वादशीकेति त्रिविधा। एवं विद्धन्यूना विद्धाधिका च प्रत्येकं त्रिविधेति विद्धाऽपि नवविधेत्येकादश्यष्टदशधा। यद्यपि निर्णये सर्वेषामसांकर्येणोपयोगी283 नास्ति, तथाऽपि
शुद्धा यदा समा हीना समक्षीणाऽधिकोत्तरा।
इत्यादिवचनेषु व्यवहृतत्वादुपन्यस्ताः। तत्र शुद्धसमाशुद्धन्यूनयोः समद्वादशीकयोर्न्यूनद्वादशीकयोश्चैकादश्यामेवोपवास इति संदेह एव नास्ति। अधिकद्वादशीकयोरपि एकादश्यामेवोपवास उत्पत्तिशिष्टैकादश्यवरुद्ध उपवासे द्वादशीसमवायासंभवात्। अत एव हेमाद्रौ द्वादश्युपवासप्रकरणे द्वादश्यामुपवासः कार्य इति वदन्तं मार्कण्डेयं प्रति प्रद्युम्नवचनम् —
उपोष्या व्याहृता ब्रह्मंस्त्वया ह्येकादशी शुभा।
द्वादश्यां पारणं कार्यमेकादश्यां हि लङ्घनम्॥
पुराणविहिते मार्गे विरुद्धं वदसे कथम्।
इति संगच्छते। हेमाद्रिणाऽपि केचिदाहुरित्यादिना प्रकृते विषय एकादश्यामेवोपवास इति सिद्धान्तयित्वा
एकादशी त्वहोरात्रं द्वादशी च कलाधिका।
त्रयोदश्यां यदा प्रातरुपोष्या द्वादशी तदा॥
इतिवचनविरोधमाशङ्क्यतद्दशमीविद्धैकादशीविषयं, द्वादश्यां विद्यमानकियन्मात्रैकादशीविषयं चेति समाहितम्।अहोरात्रव्यापिन्यप्येकादशी येषां दशमीविद्वैकादशी तद्विषयं वैष्णवविषयमिति यावत्।स्मार्तान्प्रति तु284 यदा द्वादश्यां किंचिदेकादशी विद्यते, तदैव प्रवर्तते न प्रकृतेऽपीति तदाशयः। तथा च स्मार्तानामेकादश्यामेवोपवासो वैष्णवानां द्वादश्यामिति सिद्धान्तः पर्यवसन्नः। न च केचिदिति वदतो हेमाद्रेर्नायं सिद्धान्त इति शङ्क्यम्। एतान्यरुणोदयवेधनिषेधकवचनान्यपि यदा द्वादश्यां कियन्मात्राऽप्येकादशी दृश्यते, त्रयोदश्यां च कियन्मात्रा द्वादशी तदा परित्याज्येत्येवंपराणि द्रष्टव्यानि, काम्यैकादशीव्रतविषयाणि वा वैष्णवविषयाणि वा, शैवानां तु तत्रोपवासे नास्ति दोष इति हेमाद्रिणैवाग्रे निष्कृष्यमाणत्वात्। अत एव
एकादशी भवेत्पूर्णा परतो द्वादशी यदा
तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
इत्यादिस्कान्दादिवचनानां प्रकृते विरोधमाशङ्क्यवैष्णवविषयाण्येवैतानीति माधवः, द्वादश्यां विद्यमानकियन्मात्रैकादशीविषयाणीति मदनरत्नश्च संगच्छते प्रकृते तद्विषयत्वाभाव उभयोस्तात्पर्यात्। कालादर्शनिर्णयामृतमदनरत्नेषु स्कान्दमपि —
शुद्धा यदा समा हीना समक्षीणाधिकोत्तरा।
एकादशीमुपवसेन्न शुद्धां वैष्णवीमपि॥ इति ।
वैष्णवीं द्वादशीमित्यर्थः। माधवमदनरत्नयोर्नारदः —
न चेदेकादशी विष्णौ द्वादशी परतः स्थिता।
उपोष्यैकादशी तत्र यदीच्छेत्परमं पदम्॥ इति।
नचैवमपि
विध्दाऽप्यविद्धा विज्ञेया परतो द्वादशी न चेत्।
अविध्दाऽपि तथा विद्धा परतो द्वादशी यदि॥
इति पाद्मविरोध इति वाच्यम्। तत्र पूर्वार्धंदशमीशेषसंयुक्त इत्यादिवचनविरोधात्स्मार्तविषयमेव। उत्तरार्धं तु शुद्धा यदा समाहीनेत्यादिविरोधाद्वैष्णवविषयमेव। उत्तरार्धं शुद्धाधिकाविषयमितिमदनरत्नादयः। वस्तुतस्तु
विद्धाऽव्येकादशी ग्राह्या परतो द्वादशी न चेत्।
द्वादश द्वादशीर्हन्ति त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इति विद्धैव ग्राह्येति पूर्ववाक्येणोक्तं, तत्र विद्धानिषेधविरोधाशङ्कायांपरत्र द्वादश्यभावे सैव ग्राह्येत्यर्थकेन पूर्वार्धेन तां दूरीकृत्य परत्र द्वादशी चेदविद्वाऽपि न ग्राह्या किमुत विद्धेति कैमुतिकन्यायेन विद्धानिषेध एव दृढीक्रियत उत्तरार्धेनेत्येव युक्तमप्रकृतार्थकल्पने प्रमाणाभावात्। अत एव प्रकृते परत्र द्वादशीसत्त्वेऽपि पूर्वा ग्राह्येति हेमाद्रिप्रभूतिसिद्धान्तः संगच्छते। इदं वाक्यमनुपन्यस्यतां माधवादीनां च न न्यूनता। तथा च प्रकृते तद्विषयस्यैवाभावात्। एतेनैकस्य वाक्यस्योभयत्वासंभवात्सर्वेषामेव प्रकृते द्वादश्यामुपवास इति स्मृतिकौस्तुभः पाद्मप्रकरणविरोधाज्ञानमूलकः स्कान्दादिवाक्यविरुद्ध एवेति बोध्यम्। यदा प्रकृतेऽरुणोदयमारभ्यैकादशी प्रवृत्ता, तदाऽपि वैष्णवानां द्वादश्यामेवोपवास इति प्रतिपादनार्थं हेमाद्रिणा मतान्तरमुपन्यस्तम्। परेत्वाहुः —परतो द्वादशीसद्भावे शुद्धद्वादश्यामेवोपवासो नैकादश्याम्।
एका लिप्त्या तु संयुक्ता यदि वृद्धा परा भवेत्।
अथवैकादशी नास्ति दशम्या चाथ संयुता॥
कलाऽथ काष्ठा द्वादश्या यदि स्यादपरेऽहनि।
द्वादश द्वादशीर्हन्ति पूर्वस्मिन्पारणे कृते॥
इति विष्णुपुराणम्, एकादशी भवेत्पूर्णेत्यादीनि भागवततन्त्रान्तानि वैष्णवप्रकरणोदाहृतानि वचनान्युपन्यस्य तस्मादेवंविधे विषये द्वादश्यामेवोपवासः सिद्ध इत्युपसंहृत्य, अपरे तूदयात्प्राग्यदेति वाक्याद्गृहिणां पूर्वी एकादशी भवेत्पूर्णेत्यादिस्कान्दादिभिर्मुमुक्षूणां परा। एतद्भिन्नानामपि
बहुवाक्यविरोधेन संदेहो जायते यदा।
द्वादशी तु तदा ग्राह्या त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इत्यादिना तृतीयमतमुपन्यस्य बहुवाक्येति वाक्यम्
विवादेषु तु सर्वेषु द्वादश्यां समुपोषणम्।
इति प्रद्युम्नवाक्यं चोक्तवेधविषयत्वेन व्याख्येयमित्यादिना तृतीयं मतं प्रदूष्य, तस्माद्यथोक्तमेव साधीय इत्यनेन मतद्वयमेव व्यवस्थापितं स्मृत्यर्थसारकालादर्शमाधवनिर्णयामृतमदनरत्नैरपीत्थमेव सिद्धान्तितम्। एवं सर्वेषामैकमत्ये सति
शुद्धोनाऽभ्यधिका समा भवतु वा विद्धा तथैकादशी
चेद्द्वादश्यधिका तदोपवसने ग्राह्याऽखिलैर्द्वादशी।
इति दीपिका प्रकृतविषये किंमूलकेति चिन्तनीयम्। अत एव शुद्धोनाभ्यधिकसमासु द्वादश्याधिक्ये सर्वैर्द्वादश्येवोपोष्येति भट्टोजीदीक्षितोक्तिरप्युपेक्ष्यैव। यत्तु हेमाद्रिणा प्रकृतविषय एकादश्यामुपवासविधानमुदयात्प्राग्यदेति वाक्याद्गृहिविषयं, शुद्धद्वादश्यामुपवासविधानं संपूर्णैकादशी यत्रेति वाक्याद्यतिविषयमिति स्वसंमतं व्यवस्थान्तरमुक्तं तदुभयाधिक्यविषयत्वेन वैष्णवविषयत्वेन वा व्याख्येयमिति कालतत्त्वविवेचनं, प्रद्युम्नवचनादेव हेमाद्रिणा सिद्धान्तः कृतः सोऽनुचित इति निर्णयसिन्धुः, प्रद्युम्नवचनाद्धेमाद्रिकृतः सिद्धान्त एवोचित इति स्मृतिकौस्तुभवोपेक्ष्यो हेमाद्र्यर्थाज्ञाननिबन्धनत्वात्। एतेन हेमाद्रिणा शुद्धसमा शुद्धन्यूना वाऽप्यधिक द्वादशीका चेत्सर्वेषां परैवेति उक्तमिति निर्णयसिन्धूक्तिर्हेमाद्रिसिद्धान्तापर्यालोचनमूलिकैवेति बोद्धव्यम्। यदपि स्मृतिकौस्तुभे सर्वैः स्मार्तैःप्रकृतविषये द्वादश्यामेवोपोषणं कार्यमित्यभिप्रायेण हेमाद्रिणा द्वितीयमतमुपन्यस्तमिति निश्चित्य तत्र माधवविरोधमाशक्य, न चानेकवाक्यानां माधवोदाहृतवचनद्वयेन संकोचो युक्तस्तस्मान्माधवोदाहृते न चेदेकादशी विष्णाविति वाक्ये यदीच्छेत्परमं पदमितीन्द्रादिपदकामाभिप्रायमेव प्रतीयत इत्यादिना दूषणमुद्भाव्य गृहियतिव्यवस्थेति हेमाद्रिणा दूषितं तृतीयमतमेव सिद्धान्तितम्। तत्र संवादार्थं संगच्छते चैवं पृथ्वीचन्द्रोदये बृहन्नारदीयवाक्यं —
संपूर्णैकादशी शुद्धा द्वादश्यां नैव किंचन।
द्वादशी च त्रयोदश्यामस्ति तत्र कथं भवेत्॥
पूर्वागृहस्थैः कार्या स्यादुत्तरा यतिभिस्तथा॥ इति।
ये तु हेमाद्रिसंमतार्थकमप्येतद्वाक्यं हेमाद्र्यलिखनान्निर्मूलं हेमाद्र्यालिखितत्वे तुल्येऽपि शुद्धा यदेति माधवलिखितं वाक्यद्वयं समूलमिति वदन्ति, नमस्तेभ्यो निष्फला ग्रहशीलेभ्य इत्युक्तम्। तत्र सिद्धान्तस्तृतीयमतदूषणपरहेमाद्रिसिद्धान्तविरुद्धः। स्मृत्यर्थसारकालादर्शनिर्णयामृतमाधवमदनरत्नादिसकलग्रन्थैः, शुद्धा यदेत्यादिवचनैश्च विरुद्ध एव। यदपि परमपदशब्दादिन्द्रादिपदमेव प्रतीयत इत्युक्तं, तद्व्यभियुक्तानां तथा प्रतीतावेव संगच्छते, नान्यथेति माधवदूषणाभिनिवेशप्रयुक्तमेव । तस्मात्प्रकृते स्मार्तान्प्रति चन्द्रोदयलिखितवचनं विरुद्धं प्रथममतमेव सिद्धान्तयता हेमाद्रिणा, स्मृत्यर्थसारादिभिश्च माधवोदाहृतवचनद्वया-
र्थस्यैव सिद्धान्तितत्वाद्धेमाद्र्यलिखितत्वे तुल्येऽपि चन्द्रोदयलिखितं निर्मूलं, माधवलिखितं समूलमिति वदतां निर्गतफलाग्रहशीलानां नमस्कार एव युक्त इति बोध्यम्। न च बृहन्नारदीये वाक्यस्योपलम्भान्निर्मूलत्वकथनमयुक्तमिति वाच्यम्285। स्मार्तान्प्रत्यप्रवर्तकमिति तदाशयात्।
अत एव—उपोष्यैव द्वितीयेति केचिदाहुश्च भक्तितः।
इति बृहन्नारदीयवाक्यशेषश्चसंगच्छत इति दिक्। या तु शुद्धाधिका समद्वादशीका, न्यूनद्वादशीका वा तत्र व्यवस्थामाह हेमाद्रौ कूर्मपुराणम् —
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा।
उत्तरां तु यतिः कुर्यात्पूर्वामुपवसेद्गृही॥
गृह्यत्र स्मार्तः, न तु वैष्णवः पूर्वोक्तवचनविरोधात्। गृह्यत्र वैष्णव इति मयूखोक्तिस्तु शुद्धाधिकायां वैष्णवस्य पूर्वत्रोपवासासंभवादसंगतैव। हेमाद्रौ स्कान्दे तु —
प्रथमेऽह्नि तु संपूर्णा व्याप्याहोरात्रमास्थिता।
द्वादश्यां च तथा तात दृश्यते पुनरेव च286॥
घटिका च प्रदृश्येत द्वादश्यां शिखिवाहन।
पूर्वा कार्या गृहस्थैस्तु यतिभिश्च तथा विभो॥
द्वादशीसंयुता कार्या सदा वै मोक्षकाङ्क्षिभिः।
इति यतीनामपि मुक्तच्छायामुत्तराऽन्यथा तु पूर्वैवेति व्यवस्थामाह। माधवे तु
पूर्वा कार्या गृहस्थैस्तु यतिभिश्चोत्तरा विभो।
इत्येव पाठः। हेमाद्रौ गारुडे —
उदयात्प्राग्यदा विप्र मुहूर्तद्वयसंयुता।
संपूर्णैकादशी नाम तत्रैवोपवसेद्गृही॥
पुनः प्रभातसमये घटिकैका यदा भवेत्।
अत्रोपवासो विहितश्चतुर्थाश्रमवासिनाम्॥
विधवायाश्च तत्रैव परतो द्वादशी न चेत्।
चशब्देन वनस्थस्य संग्रहः, अत्र गृहस्थयतिशब्दौ यथाश्रुतार्थावेवेति स्मृत्यर्थसारहेमाद्रिमाधवनिर्णयामृताः। यत्तु
संपूर्णैकादशी यत्र परत्र पुनरेव सा।
पूर्वामुपवसेत्कामी निष्कामस्तूत्तरां वसेत्॥
इति मार्कण्डेयवचनाद्गृहस्थयतिपदे सकामनिष्कामपरे, अन्यथा
निष्कामस्तु गृही कुर्यादुत्तरैकादशीं सदा।
प्रातर्भवतु वा मा वा द्वादशी च द्विजोत्तम॥
इति स्कान्दवचनान्निष्कामगृहस्थस्योत्तरत्रोपवासविधानं विरुध्येतेति हेमाद्रौमतान्तरं287, मदनरत्ने कालतत्त्वविवेचने च तदेव पुरस्कृतम्, तदुपोष्ये द्वे तिथी इतिवाक्ये तस्मिंस्त्रयोदशे त्वह्नि यदा द्वादशी नास्ति, पूर्वोक्तगृहस्थाश्रमिचतुर्थाश्रम्यधिकारिभेदेन द्वे तिथी उपोष्ये न त्वेकेनेस्यर्थ इति सिद्धान्तयतो हेमाद्रेर्मार्कण्डेयादिवाक्यद्वयमनुपन्यस्यतो माधवस्य, गृहियत्योर्व्यवस्थेति सिद्धान्तयतोः स्मृत्यर्थसारनिर्णयामृतयोश्चानभिमतमेव। किं च निष्कामस्त्विति स्कन्दवाक्येन कामसामान्याभावो विशेषणं तद्वन्तं प्रति वचनशतेनापि प्रवर्तयितुमशक्यत्वात्।
शुद्धाऽप्येकादशी यत्र तया विद्धातु द्वादशी।
स्वर्गदोपोषिता पूर्वा द्वितीया स्वर्गमोक्षदा॥
इति हेमाद्रौ ब्रह्मपुराणवचने द्वितीयस्या अपि फलश्रवणाद्वस्तुमहिम्नोऽन्यथयितुमशक्यत्वाच्च राज्यादिकामाभाव एव विशेषणत्वेन विवक्षितः। सोऽपि न स्मार्तगृहस्थं विशिनष्टि।
यत्त्र्यहःस्पृगहोरात्रं नोपोष्यं तत्सुतार्थिभिः।
उपवासंन कुर्वीत पुत्रपौत्रसमन्वितः॥
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
द्वादश द्वादशीर्हन्ति त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इत्यादिवचनैस्तस्योपवासनिषेधात्, नोपवासो गृहाश्रम इति गृहस्थमात्रस्योपवासनिषेधदर्शनादिति हेमाद्रिसिद्धान्तात्पुत्ररहितस्यापि निषेधनिश्चयात्, द्वादशीदिनक्षय उपोषणं वैष्णवविषयं यतिविषयं वा द्रष्टव्यं, गृहस्थे तु तन्निषिद्धमिति माधवे गृहस्थशब्दस्य वैष्णवभिन्नगृहस्थपरत्वनिश्चयाच्च। तस्मात् —
एकादशी कलाऽप्येका द्वादशी यत्र लुप्यते।
तत्रोपवासं कुर्वीत निष्कामो विष्णुतत्परः॥
इति हेमाद्र्युदाहृतवचनान्तरेण समानार्थत्वात्।
सपुत्रश्च सभार्यश्च स्वजनैर्भक्तिसंयुतः।
एकादश्यामुपवसेत्पक्षयोरुभयोरपि॥ इति।
संसारसागरोत्तारमिच्छन्विष्णुपरायणः।
ऐश्वर्यं संततिं स्वर्गं मुक्तिंवा यद्यदिच्छति॥
एकादश्यामुपवसेत्पक्षयोरुभयोरपि।
इत्यादिवचनैर्वैष्णवानां दिनक्षयेऽप्युपवासविधानान्निष्कामस्त्वितिवचनं वैष्णवविषयमेव। तथा च तस्य स्वार्तविषयवचनस्य गृहस्थयतिपदयोः सकामनिष्कामपरत्वसाधकत्वं खपुष्पायमाणमेवेति विभाव्यतां सूरिभिः। तस्मात्सकामनिष्कामशब्दावेव गृहस्थयतिपराविति बोद्धव्यम्।अत एव —
आदित्योदयवेलायामारभ्य षष्टिनाडिका।
संपूर्णैकादशी नाम त्याज्या धर्मफलेप्सुभिः॥
इत्यादिवचनानि काम्यैकादशीविषयाण्येव वैष्णवविषयाणि चेत्यग्रे हेमाद्रिसिद्धान्तः। एतेन
द्वादश्यस्ति समाऽल्पिकोत परतः शुद्धाधिकैकादशी
काम्याऽऽद्यां समुपावसेत्परदिने वाञ्छाविहीनस्तदा।
विष्णुप्रीणनकृद्द्वयोरुपवसेत्।
इति दीपिका हेमाद्र्युपन्यस्तमतान्तरमूलिका हेमाद्रिसिद्धान्तविरुध्देति बोध्यम्। एतेन मदनरत्नकालतस्वविवेचनादिसर्वनवीनग्रन्था अप्युपेक्ष्या एव। निष्कामस्तु गृही कुर्यादिति स्कान्दे निष्काम एवोत्तरामिति निष्काम उत्तरामेवेति वा नियमस्य
संकीर्णैकादशी नाम त्याज्या धर्मफलेप्सुभिः।
पुत्रपौत्रप्रवृध्द्यर्थं द्वादश्यामुपवासयेत्॥
इति सकामस्योत्तराविधानेन,
द्विस्पृगेकादशी यत्र तत्र संनिहितो हरिः।
तामेवोपवसेत्काममकामो विष्णुतत्परः॥
इति निष्कामस्यापि पूर्वाविधानेन वक्तुमशक्यत्वाच्चेति दिक् । न्यूनद्वादशीकायां तु शुद्धाधिकायां विशेषमाह हेमाद्रौवृद्धवसिष्ठः —
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा।
लुप्यते द्वादशी तस्मिन्नुपवासः कथं भवेत्॥
उपोष्ये द्वे तिथी तत्र विष्णुप्रीणनतत्परः॥ इति।
अत्र गृहस्थयतिरूपाधिकारिभेदेनैव व्यवस्था न त्वेकेनाधिकारिणासमुचिते द्वे तिथी उपोष्ये इति स्मृत्यर्थसारकालादर्शहेमाद्रिमाधवनिर्णयामृताः। विष्णुप्रीतिकामेनैकेनैव तिथिद्वयमुपोष्यमिति हेमाद्रौ मतान्तरं, मदनरत्ने कालतत्त्वविवेचने चेदमेव पुरस्कृतम्। शुद्धाधिकाऽधिकद्वादशी चेत्सर्वैः परा कर्तव्या।
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा।
सर्वैरेवोत्तरा कार्या परतो द्वादशी यदि॥
इति पूर्वोदाहृतनारदादिवचनेभ्यः,
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा।
वैष्णवी च त्रयोदश्यां घटिकैकाऽपि दृश्यते॥
गृहस्थोऽपि परां कुर्यात्पूर्वांनोपवसेत्तदा।
इति माधवीये स्मृत्यन्तराच्च।यदा विद्धसमा समद्वादशीका न्यूनद्वादशीका वा, तदैकादश्यामेवोपवासः। तदाह हेमाद्रिमाधवयोरृष्यशृङ्गः —
पारणाहे न लभ्येत द्वादशी कलयाऽपि चेत्।
तदानीं दशमीविद्धाऽप्युपोष्यैकादशी तिथिः॥
हारीतोऽपि—
त्रयोदश्यां यदा न स्याद्वादशी घटिकाद्वयम्।
दशम्येकादशीमिश्रा सैवोपोष्यातदा तिथिः॥
हेमाद्रौवृद्धवसिष्ठः —
यदार्कोदयमात्राऽपि द्वादशी288 ह्यपरेऽहनि।
त्रयोदश्यां तदा कार्या दशमीशेषसंयुता॥
हेमाद्रिमाधवयोः स्मृत्यन्तरम् —
उपोष्यैकादशी तत्र द्वादशी न भवेद्यदि।
दशम्याऽपि विमिश्रैव एकादश्येव धर्मकृत्॥
तत्रैव वृद्धवसिष्ठः —
द्वादशी स्वल्पमल्पाऽपि यदि न स्यात्परेऽहनि।
दशमीमिश्रिता कार्या महापातकनाशिनी॥
हेमाद्रौतत्त्वसागरसंहिता —
दशम्येकादशी यत्र नोपोष्या सा कुलापहा।
सैवोपोष्या कलामात्रा द्वादश्यां289 चेन्न विद्यते॥
हेमाद्रौ भविष्यम् —
एकादशी कलाऽप्येका परतो न च वर्धते।
गृहिभिः पुत्रवद्भिश्च सैवोपोष्या तदा तिथिः॥
ऋष्यशृङ्गः —
एकादशी न लभ्येत सकला द्वादशी भवेत्।
उपोष्यैकादशी विद्धा ऋषिरुद्दालकोऽब्रवीत्॥
हेमाद्रौ पद्मपुराणम् —
दिनक्षयमृते देवि नोपोष्या दशमीयुता।
सैवोपोष्या तदा पुण्या परतश्चेत्त्रयोदशी॥ इति।
द्वादश्यां सूर्योदयात्पूर्वं यदि त्रयोदशीत्यर्थ इति हेमाद्रिः[^295]। निगमः —
पूर्वविद्धा न कर्तव्या षष्ठ्येकादश्यथाष्टमी।
एकादशीं तु290 कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि॥ इति।
एतेन विद्धसमा, समद्वादशीका, न्यूनद्वादशीका च सकामैरुपोष्या, निष्कामैस्तु द्वादशीति भट्टोजीदीक्षितोक्तिरुपेक्ष्योदाहृतवचनविरोधादिति बोध्यम्। यानि तु —
दशमीमिश्रिता पूर्वा द्वादशी यदि लुप्यते।
एकादश्यां महाप्राज्ञं उपवासः कथं भवेत्॥
शुद्धैव द्वादशी राजन्नुपेक्ष्या मोक्षकाङ्क्षिभिः।
इत्यादीनि हेमाद्रौव्यासादिवचनानि, तानि सर्वाणि वैष्णवविषयाणि मुमुक्षुविषयाणि च बोद्धव्यानि।
विध्दाऽप्येकादशी ग्राह्या परतो द्वादशी न चेत्।
द्वादश द्वादशीर्हन्ति त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इति हेमाद्रौपद्मपुराणादिवचनविरोधात्। यदा तु विद्धसमाऽधिकद्वादशीका, तदा सर्वेषां शुद्धद्वादश्यामेवोपवासः। तदाह हेमाद्रिमाधवयोर्व्यासः —
एकादशी यदा लुप्ता परतो द्वादशी भवेत्।
उपोष्याद्वा दशी तत्र यदीच्छेत्परमं पदम्॥ इति।
यदीच्छेदित्याद्यर्थवादमात्रम्। उदाहृतवचननिचयपर्यालोचनया सर्वेषां द्वादश्युपवासावगमादिति हेमाद्रिः। हेमाद्रौनारदः —
शुद्धा तु द्वादशी राजन्समुपोष्या सदा तिथिः।
दशम्यैकादशी मिश्रा कर्तव्या न कदाचन॥
हेमाद्रौपाद्मम् —
दशमीगर्भिता पूर्वा लुप्यतैकादशी परा।
उपोष्या द्वादशी तत्र न दशम्यां कथंचन॥
पलार्धेनापि विद्धा च दशम्यैकादशी यदा।
तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
इति। हेमाद्रौनारदीयपुराणम् —
उपवासदिनं विद्धं यदा भवति पूर्वया।
द्वितीयेऽह्नि यदा न स्यात्स्वल्पाऽव्येकादशी तिथिः॥
तत्रोपवासो विहितः कथं तद्वद सूतज।
सूत उवाच —
यदा न प्राप्यते291 विप्रा द्वादश्यां पूर्ववासरः।
रविचक्रार्धमात्रोऽपि तदोपोष्यं परं दिनम्॥
उपोष्या द्वादशी शुद्धा द्वादश्यामेव पारयेत्।
निर्गता292चेत्रयोदश्यां कला वा द्विकलाऽपि वा॥ इति।
नन्वेकादशीनिमित्त उपवासो द्वादश्यां कथं युज्यते। न च किं हि वचनं न कुर्यान्नास्ति वचनस्यातिभार इत्यभियुक्तोक्त्या समाधानस्य कालतत्त्वविवेचने स्पष्टत्वात्प्रश्न एवानुपपन्न इति वाच्यम्।असाधारणवचनविषयिण्या अभियुक्तोक्तर्वैष्णवविषये सावकाशैकादशी यदा लुप्तेत्यादिवचनविषयत्वस्यैवाभावात्। न च स्मार्तविषयेऽपिप्रवृत्तौ बाधकाभावः। न चेदेकादशी विष्णाविति नारदवचनस्य बाधकस्य सत्त्वात्। इदमपि शुद्धाविषये सावकाशमिति चेत्।
एकादशी कलाऽप्येका परतो न च वर्धते।
गृहिभिः पुत्रवद्भिश्च सैवोपोष्या सदा तिथिः॥
इत्यादिभविष्यादिवचनानामेव बाधकत्वात्। नन्वनधिकद्वादशीविषय एतान्यपि सावकाशानीति चेत्तर्हि परस्पराविरोधेन293 सावकाशानां विरोधस्थले कस्य प्रवृतिरिति संप्रधारणायां स्मार्तान्प्रति तद्विषयकभविष्यवाक्यप्रवृत्तेरेवोचितत्वात्। भवतु तर्हि विद्धायामेव स्मार्तगृहीणामिति चेन्न।
पारणाहे न लभ्येत द्वादशी कलयाऽपि चेत्।
इत्यादिभिर्द्वादश्यभाव एव विद्धाभ्यनुज्ञानात्। द्वादशीवृद्धौ विद्धाभ्यनुज्ञाभावेन नोपोष्या दशमीयुतेत्यादिवाक्यैस्तस्या निषिद्धत्वात्। न चैते द्वादशीविद्धाविधिप्रशंसार्था निषेधसरूपा निन्दार्थवादा294 इति न दोष इति वाच्यम् । पूर्वविद्धा न कर्तव्येति ऋष्यशृङ्गवचनेऽत्र विधिर्गृहस्थविषयो निषेधो यतिविषय इति माधवग्रन्थविरोधापत्तेः।
कुर्वन्नेकादशीं नरः।
दशमीशेषसंयुक्तां प्रायश्चित्तमिदं चरेत्।
तप्तकृच्छ्रं नरश्चीर्त्वा गां च दद्यात्सवत्सिकाम्॥
इत्यादिप्रायश्चित्तविरोधापत्तेश्च। न च नानुयाजेष्वितिवत्पर्युदासवृत्या दशमीविद्धाभिन्नामुपवसेदित्यर्थान्नानुपपत्तिः पर्युदासस्यापि निषेधे पर्यवसानान्न माधवविरोधः प्रायश्चित्तविधिश्चोपपन्न इति वाच्यम्।
मुहूर्तैःपञ्चभिर्विद्धा ग्राह्यैवैकादशी तिथिः।
इत्याद्यनेकवाक्यविरोधापत्तेः। अपि च दशम्यादावतिप्रसङ्गवारणार्थं दशमीविद्धाभिन्नामेकादशीमुपवसेदित्यर्थस्याऽऽवश्यकतया प्रकृते द्वादशीमात्रवृद्धावनुपपत्तिस्तदवस्थैव। न च द्वादशीक्षये द्वादश्या इवद्वादशीवृद्धी दशमी विद्धाया निर्मित्तत्वाभावान्नैमित्तिकोपवासस्याप्यमावादेव295 नानुपपत्तिरिति वाच्यम्।
शुक्कामेव सदा गृही।
वैष्णवो वाथशैवो वा कुर्यादेकादशीव्रतम्।
एकादशीमुपवसेन्न कदाचिदतिक्रमेत्॥
इत्याद्यनेकवाक्यैरेकादश्युपवासस्य नित्यत्वप्रतिपादनात्। नन्वेवमपि स्मार्तानाम्
एकादशी कलाऽप्येका परतो न च वर्धते।
गृहिभिः पुत्रवद्भिश्च सैवोपोष्येत्यादिभिर्विद्धायामेवोपवासो युक्तो न तु द्वादश्यामत एव मदनरत्नेन प्रकृते मुमुक्षुव्यतिरिक्तानां विद्धायामेवोपवास इति सिद्धान्तितम्। तस्माद्बाधे दृढेऽन्यदपि बाध्यतामिति न्यायात्स्मृत्यर्थसारकालादर्शहेमाद्रिनिर्णयामृतमाधवादिसिद्धान्त उपेक्ष्यः प्रमाणाभावादिति चेन्न। विद्धाग्रहणे पारणाहे न लभ्येतेत्यादिवाक्यैर्द्वादश्यभावस्य हेतुत्वोक्तेर्भविष्यादिवचनानां दिनक्षये गृहिण उपवास-
निषेधात्तस्य तिथित्रयसंबन्धतिथ्यन्तद्वयमात्रसंबन्धरूपत्वेन द्वैविध्यादुभयत्र निषेधप्रसक्तौ तिथ्यन्तद्वयमात्ररूपे तस्मिन्नुपवासविधानेन चारितार्थ्येन तेषां द्वादशीवृध्दौविद्धाभ्यनुज्ञापकत्वासंभवात्।
एकादशी296 दिशा विद्धा द्वादश्यां न प्रतीयते।
द्वादशी च त्रयोदश्यामस्ति तत्र कथं भवेत्॥
उपोष्या द्वादशी शुद्धा सर्वैरेव न संशयः।
केचिदाहुश्चपूर्वां तु तन्मतं न समञ्जसम्॥
इति बृहन्नारदीयवचनेन — ऐन्द्र्यागार्हपत्योपस्थान इव प्रकृत एकादश्युपवासे द्वादश्या एव विधानावादश्यामेवोपवासः कार्यः। अत एव स्मृत्यर्थसारहेमाद्रिमाधवादिसिद्धान्तः संगच्छत इति बोध्यम्। नन्वत्र मुमुक्षुव्यतिरिक्तानां विद्धायामेवोपवास इति मनरत्नः किमित्युपेक्षितः,न च तत्र साधकाभावः।
सर्वत्रैकादशी कार्या दशमीमिश्रिता नरैः।
प्रातर्भवतु वा मा भूद्यतो नित्यमुपोषणम्॥
इति कालादर्शस्थऋष्यशृङ्गवचनस्य मदनरत्नेनोपन्यासात् न च कालतत्त्वविवेचन एव मदनरत्नकृतव्याख्यां दूषयित्वा प्रातरेकादशी भवतु मा वेति व्याख्यामाशङ्कयैकादशीमात्राधिक्ये विद्धायामुपवासः स्यात्तदपि बहुवचनविरुद्धमिति दूषितमदनरत्नोपन्यास एवानुचित इति वाच्यम्।
एकादशीं तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि।
इत्यादिवाक्यैर्विहितस्यैकादशीमात्राधिक्ये विद्धोपवासस्य स्मृत्यर्थसारकालादर्शनिर्णयामृतहेमाद्रिमाधवादीनां संमतत्वेन तत्प्रतिबन्धाद्दूषणस्य भूषणपर्यवसायित्वादिति चेन्न। कालादर्शहेमाद्रिमाधवोदाहृतवचनपूगविरुद्धसिद्धान्तस्यात्यन्तानुचितत्वात्।न च ऋष्यशृङ्गवचनविरोधः कथं न पर्यालोच्यत इति वाच्यम्। कालादर्शमात्रोदाहृतवाक्यस्य विद्धहीनात्रयविषयत्वेनैव तत्रैव व्यवस्थापनात्। अत एव विद्धसमायां द्वादश्याधिक्यवत्यां परत्रोपवासः स्मृत्युक्तः
कलार्धेनापि विद्धा स्याद्दशम्येकादशी यदा।
तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
इति कालादर्शसिद्धान्तः संगच्छते। न चैवमपि मुहूर्तैःपञ्चभिर्विद्धेति वाक्यस्यापि तेनोपन्यासात्कथमनौचित्यमिति शङ्क्यम्।
पूर्वविद्वा न कर्तव्या षष्ठ्येकादश्यथाष्टमी।
एकादशीं तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि॥
इत्यादिहेमाद्व्याद्युदाहृतानेकवचनाविरोधेनैवास्य प्रवृत्तौ संभवन्त्यां तद्विरोधेन प्रवृत्तेरनुचितत्वात्। शुद्धा यदा समा हीनेति स्कान्दे शुद्धेतिविशेषणवैयर्थ्यापत्तेरित्यलं बहुना। या तु विद्धन्यूना, समद्वादशीका, न्यूनद्वादशीका वा तत्र पुत्रवद्भिन्नानां सर्वेषां पूर्वत्रैव। तदाह हेमाद्रौवृद्धवसिष्ठः —
यदाऽर्कोदयमात्राऽपि द्वादशी ह्यपरेऽहनि।
त्रयोदश्यां तदा कार्या दशमीशेषसंयुता॥
हेमाद्रौऋष्यशृङ्गः —
एकादशी न लभ्येत सकला द्वादशी भवेत्।
उपोष्या दशमीविद्धा ऋषिरुद्दालकोऽब्रवीत्॥
स्कान्दम् —
एकादश्यां प्रदृश्येत दशमी घटिका ह्यपि।
द्वितीयेऽहि न चांऽऽप्नोति यदा चैकादशी तिथि॥
तदा कार्या च विवद्भिर्दशमीसंयुता तिथिः॥
हेमाद्रौ नारदः —
दशमीशेषसंयुक्ता नोपोष्यैकादशी तिथिः।
एकादश्यां रात्रिशेषे द्वादशी चेन्नदृश्यते297॥
यदि दैवात्तु संसिध्येदेकादश्यां तिथित्रयम्।
तत्र क्रतुशतं पुण्यं द्वादशीपारणे भवेत्॥
द्विस्पृगेकादशी यत्र तत्र संनिहितो हरिः।
तामेवोपवसेत्काममकामो विष्णुतत्परः॥
दशमीं द्वादशीं च या स्पृशत्येकस्मिन्वासरे सा द्विस्पृक्। हेमाद्रौ पाद्मम् —
एकादशी दिशा विद्धा परतो न च वर्धते।
यतिभिर्गृहिभिश्चैव सैवोपोष्याक्षये तिथिः॥
यानि तु —
दिनक्षयेऽपि शुद्धैव द्वादशी मोक्षकाङ्क्षिभिः।
उपोष्या दशमीविद्धा नोपोप्यैकादशी सदा॥
दिनत्रयवती जाता तिथिरेकादशी यदा।
प्रथमा तत्र नोपोष्याउपोष्याचोत्तरा भवेत्॥
इत्यादीनि सुमन्तसत्यव्रतभविष्यत्पुराणादिवचनानि तानि मुमुक्षुविषयाणीति हेमाद्र्यादयः।हेमाद्रौपाद्मम् —
दिनक्षयमृते देवि नोपोष्यादशमीयुता।
सैवोपोष्या तदा पुण्या परतश्च त्रयोदशी॥
परतो द्वादश्यां सूर्योदयात्पूर्वं यदि त्रयोदशीत्यर्थं इति हेमाद्रिः। अत्रैवकार आग्नेय्येव मनोता कार्येत्यत्रेवायोगव्यवच्छेदार्थक एव। कालादर्शहेमाद्रिमाधवमदनरत्नादिसकलनिबन्धेष्वनधिकद्वादशीकविद्धसमाविधायकत्वेनोपन्यस्तानां
पारणाहे न लभ्येत द्वादशी कलयाऽपि चेत्॥
इत्यादिऋष्यशृङ्गादिवचनानां विरोधान्नान्ययोगव्यवच्छेदार्थकः। एतेन दिनक्षयमिति वचनं दिनक्षयातिरिक्तदशमीविद्धायामुपवासनिवृत्तिं विनाऽनर्थकमिति व्रतार्क उपेक्ष्य उदाहृतवचनार्थाज्ञानमूलकत्वात्।
पूर्वविद्धा न कर्तव्या षष्ठ्येकादश्यथाष्टमी।
एकादशीं तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि॥
इति निगमवचनं हेमाद्रिणोपन्यस्तम्। यद्यपीदं षष्ठ्यादिनिमित्तकानुष्ठेयलोपप्रसङ्गाद्विद्वानधिकायां पठ्यादौ न प्रवर्तते, किंतु विद्धाधिकायामेव प्रवर्तते तत्साहचर्यादिकादश्यामपि विद्धाधिकायामेव प्रवर्तते। उत्तरार्धेन पूर्वार्धोपात्तविषय एव द्वादशीक्षये प्रतिप्रसवः क्रियत इतिविद्धाधिकाविषयमेव निगमवाक्यं, तथाऽपि द्वादशीक्षये विद्धाधिकाऽपि चेत्पूर्वा ग्राह्या, तदा विद्धानधिका पूर्वा ग्राह्येत्यत्र किं वक्तव्यमित्यभिप्रायेणात्रोपन्यस्तमिति बोध्यम्। पुत्रवद्गृहिणामत्रोपवासनिषेधमाहहेमाद्रौ पितामहः —
एकादशीदिनक्षये उपवासं करोति यः।
तस्य पुत्रा विनश्यन्ति मघयां पिण्डदो यथा॥
पिण्डद इति षष्ठी।
दिनक्षये तु संप्राप्ते नोपोष्या दशमीयुता।
यदीच्छेत्पुत्रपौत्राणामृद्धि संपदमात्मनः॥
हेमाद्रौव्यासः —
एकादशीदिनक्षय उपवासी तु चेद्गृही।
अन्नाभावेऽवरुद्धो वा संकल्पाद्वा विशेषतः॥
धर्महानिश्च भवति संततिर्नश्यते ध्रुवम्।
तस्यायुः क्षीयते नित्यं संवत्सरमिति श्रुतिः॥
एकादशीषु कृष्णासु रविसंक्रमणे तथा।
पारणं चोपवासं च न कुर्यात्पुत्रवान्गृही॥ इति।
न च दिनक्षयनिमित्तोपवासस्यायं निषेध इति शङ्क्यम्। एकादशीपद्वैयर्थ्यप्रसङ्गाद्धेमाद्रिणाऽपि तथैव सिद्धान्तितत्वाच्च। एवमुपवासे निषिद्धे पुत्रवद्भिः किं कार्यमित्यत्र हेमाद्रौ गोभिलः —
एकादश्यां यदा ब्रह्मन्दिनक्षयतिथिर्भवेत्।
तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
इत्यादिवचनावाद्द्वादश्यामुपवासः । अथवा
उपवासनिषेधे तु भक्ष्यं किंचित्प्रकल्पयेत्॥
न दुष्यत्युपवासेन उपवासफलं लभेत्।
इति वायुपुराणवचनात्किंचिद्भक्षयित्वैकादश्यामेवोपवासः कार्यः। विद्वन्यूनाधिकद्वादशीकायां तु द्वादश्यामेवोपवासः सर्वेषां तदाह हेमाद्रिमाधवयोर्व्यासः —
एकादशी यदा लुप्ता परतो द्वादशी भवेत्।
उपोष्याद्वादशी तत्र यदीच्छेत्परमां गतिम्॥
लुप्ता क्षयं गता। परतस्त्रयोदश्याम्।
शुद्धा तु द्वादशी राजन्समुपोष्या सदा तिथिः॥
दशम्येकादशी मिश्रा कर्तव्या न कदाचन।
इत्यादिविन्द्धसमाधिकद्वादशीकानिर्णय उहाहृतनारदादिवचनान्यपि
एकादशी दिशा विद्धा द्वादश्यां न प्रतीयते।
द्वादशी च त्रयोदश्यामस्ति तत्र कथं भवेत्॥
उपोष्या द्वादशी शुद्धा सर्वैरेव न संशयः।
इति बृहन्नारदीये298 []299 द्वादश्यामेव सर्वेषां विधानादिति। यत्त्वत्र
सर्वत्रैकादशी कार्या दशमीमिश्रिता नरैः।
प्रातर्भवतु मा वाभूद्यतो नित्यमुपोषणम्॥
इतिवचनाद्विद्धायामेवोपवासः सर्वेषामिति कालादर्शे। गृहस्थानामेव विध्दायाम् —
दशमीशेषसंयुक्ता नोपोष्यैकादशी तिथिः।
एकादश्यां रात्रिशेषे द्वादशी चेन्न दृश्यते॥
इतिनारदवचनादिति मदनरत्ने सिद्धान्तितम्, तत्र (तत्) सर्वत्र द्वादश्याः साम्ये हानौ च प्रातर्दैविकमुहूर्तद्वयमध्य एकादशी प्रवर्ततां मा वा तथाऽपि न दशमीमिश्रिता कार्येत्यर्थकऋष्यशृङ्गवाक्यनारदवाक्ययोर्व्यासादिवाक्याविरोधेनैवानधिकद्वादशीकायामेव विद्धायां प्रवृत्तेरुचितत्वात्स्मृत्यर्थसारहेमाद्रिमाधवविरोधाच्चोपेक्ष्यम्। या तु विद्धाधिकासमद्वादशीका, तत्र सर्वेषां परत्रैव। तदाह हेमाद्रौनारदः —
द्वादश्यैकादशी यत्र संगता त्रिदशाधिप।
तामुपोष्य ततः कुर्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
एकादशी कला यत्र परतो द्वादशी न चेत्।
तत्र क्रतुशतं पुण्यं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
बौधायनोऽपि —
कलाऽप्येकादशी यत्र परतो द्वादशी न चेत्।
तत्र क्रतुशतं पुण्यं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
हेमाद्रौ पाद्मम्—
द्वादशीमिश्रिता कार्या सर्वत्रैकादशी तिथिः।
द्वादशी च त्रयोदश्यां विद्यते यदि वा न वा॥
सर्वत्रैकादशी कार्या द्वादशीमिश्रिता नरैः।
प्रातर्भवतु वा मा वा यतो नित्यं हि पारणम्॥
यद्यप्यस्मिन्प्रकरणे हेमाद्रौ नित्यमुपोषणमिति पाठो दृश्यते, तथाऽपि प्रघट्टकान्तरे पारणमित्येव पाठस्तत्र द्वितीयदिने प्रातर्द्वादशी भवतु मा वेत्यर्थात्पूर्वोत्तरवाक्यानुगुणत्वादयमेव पाठो युक्तः। अथवा यत्रोपोषणं नित्यतत्र300त्वन्त्यक्षणोपलक्षिताहोरात्र एव मुख्यः कालः स तु प्रकृ–
तेऽस्त्येव पारणं त्वङ्गं तत्र त्रयोदश्यां द्वादशी लभ्यते चेत्सम्यगेव। नो चेत्त्रयोदश्यामपि भवत्वित्यर्थकल्पनया, उपोषणमिति पाठः संगमनीयः। यथाश्रुतस्तु विद्धाधिकाप्रकरणे संगतः। हेमाद्रौ स्थलान्तरे स्कान्दम् —
दशमीशेषसंयुक्ता यदि वृद्धिमती भवेत्।
तदोपोष्या द्वितीया स्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
हेमाद्रौ सुमन्तुसनत्कुमारौ —
तृतीयैकादशी षष्ठी चतुर्थी च त्रयोदशी।
अमावास्याऽष्टमी चैव ता उपोष्याः परान्विताः॥
हेमाद्रौ पैठीनसिः —
एकादशी तथा षष्ठी शुक्लपक्षे चतुर्दशी।
तृतीया च चतुर्थी च ता उपोष्याः परान्विताः॥
इत्यादीनि वचनान्युत्तरामेव विदधति। न च
**पूर्वविद्धा न कर्तव्या षष्ठी चैकादशी तथा। **
विद्धाऽप्येकादशी कार्या परतो द्वादशी न चेत्॥
इति विद्धन्यूनसमद्वादशीकाप्रकरणे हेमाद्र्युदाहृतस्मृत्यन्तरवचनेन विद्धैव भवत्विति शङ्क्यम्।
**एकादशी न लभ्येत सकला द्वादशी भवेत्। **
उपोष्या दशमीविद्धा ऋषिरुद्दालकोऽब्रवीत्॥
इति तत्रैवोदाहृतऋष्यशृङ्गादिवचनविरोधापत्तेः। किं च
**अविद्धानि निषिद्धैश्चेन्न लभ्यन्ते दिनानि तु। **
मुहूर्तेः पञ्चभिर्विन्द्धा ग्राह्यैवैकादशी तिथिः॥
इत्यृष्यशृङ्गवचनेनाविद्धाया अलाभ एव विद्धाभ्यनुज्ञावचनानां प्रवृत्तेर्नियमितत्वात्। तदलाभस्तु —
**एकादशी कलाऽऽप्येका परतो न च वर्धते। **
गृहिभिः पुत्रवद्भिश्च सैवोपोष्या तदा तिथिः॥
इत्यादिप्रतिपादितः स्वरूपेण।
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
तत्र्यहस्पृगहोरात्रं नोपोष्यं तु सुतार्थिभिः॥
इत्यादिशास्त्रान्तरनिषिद्धत्वेन वा। प्रकृते स्वरूपेण सत्त्वाच्छास्त्रान्रेणानिषिद्धत्वाच्चाविद्धालाभसंभवेन विध्दाभ्यनुज्ञावचनानामप्रवृत्तेरौ —
दयिकद्वादशीयुक्तैकादश्या301 एव मुख्यत्वाच्च। यत्तु माधवाचार्यैर्निर्णयप्रकरण एकादश्याधिक्ये गृहियत्योर्व्यवस्थेत्युक्तं, वचनव्यवस्थान्ते च यत्तु ऋष्यशृङ्गवचनम् —
अविध्दानि निषिध्दैश्चेन्न लभ्यन्ते दिनानि तु।
मुहूर्तैःपञ्चभिर्विध्दा ग्राह्यैवैकादशी तिथिः॥
तदर्थविध्दान्यन्यानि दिनान्युपवसेद्बुधः।
पूर्वविध्दा न कर्तव्या षष्ठ्येकादश्यथाष्टमी॥
एकादशीं तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि।
अत्र निषेधो यतिविषयो विधिर्गृहस्थविषयो वेधबाहुल्येन हेयत्वशङ्का मा भूदिति पञ्चभिर्मुहूर्तैरित्युक्तमित्युपसंहृतम्। तत्र302चत्वारो भेदा इति पूर्वग्रन्थानुरोधात्पञ्चभिर्मुहूर्तेरित्यस्य विध्दोपलक्षणत्वे तदर्धविध्दान्यन्यानीत्यग्रिमवाक्येऽपि तथात्वापत्तौ सर्वोपप्लव एव स्यात्। अविध्दाया अलाभ एवं पञ्चमान्तमुहूर्तेरेव विध्दा ग्राह्या न त्वधिकविध्देति नियमार्थकतयैव हेमाद्व्यादिभिर्व्यवस्थापितस्याविध्दानीतिवाक्यस्यैव वैयर्थ्यापत्तौतथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेदितिवचनान्माधवग्रन्थस्यैव त्याज्यत्वापत्तेः। तस्मान्माधवाचार्याणामपि पूर्वोक्तनियम एवाविध्दानीति वाक्यस्य तात्पर्यात्। न्यूनत्वरूपद्वादशीक्षय एव गृहियत्योर्व्यवस्था द्वादशीसाम्ये तु गृहिणामपि परैवेति पर्यवसितम्। चत्वारो भेदा इति ग्रन्थस्य पञ्चमभेदस्याप्युपलक्षणत्वेम सर्ववाक्यानुग्रह एव संपद्यत इति महाँभः। अत एव
शुध्दा यदा समा हीना समक्षीणाधिकोत्तरा।
इति वाक्यगतद्वादश्या न्यूनत्वे समत्वेऽधिकत्वेऽपि पूर्वेति माधवग्रन्थः संगच्छते। परिगणनपरत्वे त्वसंगत एव स्यात्। एवं सति स्मृत्यर्थसारकालादर्शनिर्णयामृतहेमाद्रिमदनरत्नग्रन्थैरव्येकवाक्यता भवतीति सर्वसंप्रतिपन्नत्वादुत्तरैवेति सिध्दम्। एतेनोपसंहारग्रन्थतात्पर्यार्थमपर्यालोच्यैकादशीमात्राधिक्ये गृहियत्योर्व्यवस्थेत्येतावदेव दृष्ट्वा प्रवृत्ता माधवेनोक्ता व्यवस्थाऽसंगतेति केचित्, व्यवस्थैव संगतेत्यन्येऽप्यर्वाचीनग्रन्था अयुक्ता एवेति दिक्। या तु विद्धाधिका न्यूनद्वादशीका, तस्यामपि गृहस्थव्यतिरिक्तानां परत्रैव। तदाह हेमाद्रौपाद्मम् —
द्वादशीसंयुता यत्र भवत्येकादशी कला।
दिनक्षयेऽपि सा पुण्या दशम्या न कथंचन॥
हेमाद्रौ नारदोऽपि —
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
त्रिस्पृशा नाम सा प्रोक्ता ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥
इत्याद्यनेकवाक्यानि हेमाद्र्युदाहृतान्यपि।गृहस्थस्य तु विद्धैकादश्यामेवोपवासस्तदाह कालादर्श एकादशीप्रकरणे प्रघट्टकान्तरे वायुपुराणम् —
एकादशी यदा विद्धा द्वादशी च क्षयं गता।
दशमीमिश्रिता तत्र उपोष्यामुनिसत्तम॥ इति।
हेमाद्रिमाधवयोरृप्यशृङ्गः —
पूर्वविद्धा न कर्तव्या षष्ट्येकादश्यथाष्टमी।
एकादशीं तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि303॥
न चानेन प्रकृते द्वादशीसाम्येऽपि तिथ्यन्तद्वयाधिकरणरूपदिनक्षय एवं हेमन्तादिसमये सार्धपञ्चमुहूर्तादिवेधोऽपि द्वादशीन्यूनत्वसंभवेन तिथित्रयसंबन्धाधिकरणरूपदिनक्षये304 च विद्धाग्रहणापत्तौ
द्वादशी मिश्रिता कार्या सर्वत्रैकादशी तिथिः॥
द्वादशी च त्रयोदश्यां विद्यते यदि वा न वा॥
इत्यादिभिर्द्वादशीसाम्य उत्तराविधायकपाद्मादिवाक्यैरनभ्यनुज्ञातवेधपरशल्यशब्दयुक्ततिथिहानौ प्रयोक्तव्या सशल्यैकादशी यदीति हेमाद्रयुदाहृतवचनेन च विरोध इति वाच्यम्।तिथित्रयसंबन्धाधिकरणरूपद्वादशीक्षय इव तिथ्यन्तद्वयाधिकरणरूपेऽपि द्वादशीक्षये, एवं पञ्चमान्तमूहूर्तविद्धाया इव पञ्चमुहूर्ताधिकदशमीविद्धाया अपि पूर्वविद्धेत्यनेन ग्रहणप्रसक्तौ नियमार्थेन।
अविद्धानि निषिद्धैश्च न लभ्यन्ते दिनानितु।
मुहूर्तैःपञ्चभिर्विद्धा ग्राह्यैवैकादशी तिथिः॥
इतिऋष्यशृङ्गवचनान्तरेणोत्तरदिन उपवासयोग्यैकादश्यलाभ एव पञ्चमुहूर्तविद्धायाग्राह्यत्वप्रतिपादनात्। एतदेकवाक्यतयैवानयोर्विधायकत्वेन द्वादशीसाम्य अविद्धालाभसंभवेनाधिकवेधे वचनान्तरनिषि–
द्धत्वे305नचातिप्रसङ्गाभावात्। अत एव शुद्धिकामविष्णुसायुज्यकाममुमुक्षुव्यतिरिक्तगृहस्थविषयमृष्यशृङ्गवचनद्वयं निषिद्धैर्दशम्यादिभिरविद्धान्येकादश्यादिदिनानि
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
तत्र्यहस्पृगहोरात्रं नोपोष्यं तत्सुतार्थिभिः॥
इत्यादिवचनादुपोष्यत्वेन न लभ्यन्ते न स्वरूपेण चेत्यर्थ इति हेमाद्रिः, विद्धानिषेधकानेकवचनोपन्यासानन्तरं विद्धैकादश्यामभावेद्वादश्याश्च त्रयोदश्यामभावेऽपि
एकादशीं दिशा विद्धां पक्षवृद्धौविवर्जयेत्।
पक्षहानौ स्थिते सोमे कुर्वीत दशमीयुताम्॥
इति श्रुतेः शुद्धद्वादश्येव
तिथिहानौ प्रमोक्तव्या सशल्यैकादशी यदि।
इत्यनुसारादुपोष्या \।
विहीनशल्याऽपि विवर्जनीया यद्यग्रतो वृद्धिमुपैति पक्षः।
इति तु यद्यपि स्मार्तं, तथाऽप्येकादशी दिशा विद्धामित्यस्य, सशल्यैकादशी यदीत्यस्य च विशेषणस्यान्यथानुपपत्तेर्विहीनशब्दस्य चात्यन्ताल्पवाचित्वेनाप्युपपत्तेः, अविद्धानि निषिध्दैरित्यविद्धालाभनिमित्तविध्दानुज्ञास्मृत्युक्तघटिकादशकापेक्षयाऽप्यधिकविध्दा306 तिथिर्वर्जनीयेत्येव व्याख्येयमित्यग्रिमो हेमाद्रिश्च संगच्छते। यत्तु समद्वादशीकाविद्धन्यूनाप्रकरणे हेमाद्रिणा —
एकादशी न लभ्येत सकला द्वादशी भवेत्।
उपोष्या दशमीविद्धा ऋषिरुद्दालकोऽब्रवीत्॥
पारणाहे न लभ्येत द्वादशी कलयाऽपि चेत्।
तदानीं दशमी विद्धाऽप्युपोष्यैकादशी तिथिः॥
इत्यृष्यशृङ्गवचनद्वयमध्ये —अविद्धानि निषिद्धैश्चेति वाक्यमुपन्यस्यारुणोदयवेधान्तर्भावेन मुहूर्तपञ्चकवेधे षड्घटिकात्मकक्षये द्वादश्यामेकादश्यभावेन, त्रयोदश्यां च द्वादश्यभावेनोक्तवक्ष्यमाणवाक्यपर्यालोचनया दशमीयुताया अपि ग्रहणोपपत्तेरित्युक्तं, तन्निषिध्दैर्मुहूर्तेरविद्धानि दिनानि यदि न लभ्यन्ते, तदैकादशी त्रिभिर्द्वाभ्यां वा मुहूर्ताभ्यां
विद्धाग्राह्यैव व्यस्तयोरपि संख्ययोर्लाघवार्थं पञ्चशब्देनाभिधानं न त्वेतदुपपद्यते। एवंविधे विषये द्वादश्यामेकादशीलाभान्न च तस्यां लभ्यमानायामपि दशमीविद्धा ग्राह्येति क्वचित्स्मर्यत इति केचिन्मतमुपन्यस्य तद्युक्तमिति प्रक्रम्यैवोक्तमिति नास्य मुख्यो विषयः सः। अत एव तत्रोक्तवक्ष्यमाणवचनानां ग्राहकत्त्वोत्यैतस्यान्यथासिद्धत्वं सूचितम्, तदपि त्रिंशद्घटिकाधिकदिनमानसमये न संभवतीति तत्र व्याख्यामुपेक्ष्य विध्दाधिकामात्रविषयपूर्वविद्वेतिऋष्यशृङ्गवचनान्तरमुपन्यस्यात्रैव व्याख्यातम्। युक्तं चैतदेवारुणोदयवेधनिषेधस्य वैष्णवमात्रविषयत्वस्य हेमाद्र्यादिभिः सर्वैः सिद्धान्तितत्वाद्वैष्णवानां विद्धाभ्यनुज्ञाया अभावाद्विद्धाभ्यनुज्ञावाक्यानां स्मार्तमात्रविषयत्वात्स्मार्तानां सर्वेऽप्यवेधा विज्ञेया इत्यादिवाक्यैः सूर्योदयोत्तदशमीसद्भावस्यैव वेधत्वप्रतिपादनात्सूर्योदयोत्तरमेव मुहूर्तपञ्चकविद्धाग्रहणमिति विभावनीयम्। अत एवैकादशी तु मुहूर्तपञ्चक विद्धाऽप्युपोष्यैवेति तिथ्यन्तरनिर्णयप्रकरणे स्मृत्यर्थसारः संगच्छते। अत्र निषेधो यतिविषयो विधिगृहस्थविषयो वेधबाहुल्येन हेयत्वशङ्का मा भूदिति पञ्चभिर्मुहूर्तेरित्युक्तमिति माधवसिद्धान्तादपि सूर्योदयोत्तरमेव मुहूर्तपञ्चकविद्धाया एव ग्राह्यत्वप्रतीतेः, अन्यथा मुहूर्तत्रयवेधस्य तिथ्यन्तरसाधारण्येन वेधबाहुल्येनेत्यस्य वैयर्थ्यापत्तेस्तस्मान्मुहूर्तपञ्चकाधिकदशमीविद्धाभ्यनुज्ञाभावात्सा त्याज्यैव। न च
विद्वाऽप्यविद्धा विज्ञेया परतो द्वादशी न चेत्।
इत्यभ्यनुज्ञापकं तिष्ठत्येवेति वाच्यम्।ऋष्यशृङ्गादिवाक्यैकवाक्यतयैवास्याभ्यनुज्ञापकत्वसंभवेन तद्विरुद्धविषयेऽभ्यनुज्ञापकत्वे प्रमाणामावादिति चिन्तनीयम्। अत एव दशमीविध्दैकादशी द्वादश्यां किंचिदस्ति रात्रिशेषे च त्रयोदशी, तदा यतिभिरुत्तरा, गृहिभिः पूर्वेति स्मृत्यर्थसारः, द्वादशीहानियुक्तायां विद्धाधिकायां गृहियत्योर्व्यवस्थेति कालादर्शो, निर्णयामृतश्च संगच्छते । यत्तु तिथितत्त्वाख्ये गौडग्रन्थे —
एकादशीमुपवसेद्द्वादशीमथवा पुनः।
विमिश्रां वाऽपि कुर्वीत न दशम्या युतां क्वचित्॥
कुर्यादलाभे संयुक्तां नालाभेऽपि प्रवेशिनीम्।
उपोष्या द्वादशी तत्र त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
उदयात्प्राग्दशम्यास्तु शेषः संयोग इष्यते।
उपरिष्टात्प्रवेशस्तु तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥
इति कालविवेकसंवत्सरप्रदीपादयुदाहृतकूर्मपुराणवचनमुपन्यस्य307 द्वादश्यां कलार्धमात्रमकादश्या अनिर्गमे यदि दशमी नोदयं स्पृशति, उदयात्प्रागरुणोदयकाल एवावतिष्ठते, तदा संयुक्तोच्यते सैवोपोष्या। अत्रैव विषये —
एकादशी दिशाविद्धा परतोऽपि न वर्धते।
गृहिभिर्यतिभिश्चैव सैवोपोष्यासदा तिथिः॥
इति भविष्यत्पुराणादिवचनैर्द्वादश्यामेकादश्यलाभ308 एवारुणोदयविद्धायाः कर्तव्यतोपदेशाद्द्वादश्यामेकादशीलाभे तादृग्विधानं कुर्यादित्यर्थतोऽवसीयते। ततस्तत्र परोपोष्येति गम्यते। अत्रापि त्रयोदश्यां द्वादशीलाभ एव परोपोष्येत्यवधेयम्। नचेत्तत्र पूर्वामुपोष्य परदिने द्वादश्याद्यपादमुत्तीर्य पारणं कुर्यात्।
विद्धाऽप्येकादशी ग्राह्या परतो द्वादशी न चेत्।
इत्यादिमात्स्यादिवचनेभ्यः। अथोदयानन्तरवर्तिनी दशमी यद्येकादशीं स्पृशति, सा प्रवेशिनी तां विहाय द्वादशीमेवोपवसेत्तदिदमुक्तम् — नालाभेऽपि प्रवेशिनीमिति, अलाभेऽपि परदिन एकादृश्यलाभेऽपि। अत एव —
उदयोपरिविद्धा तु दशम्यैकादशी यदि।
दानवेभ्यः प्रीणनार्थं दत्तवान्पाकशासनः॥
इत्यादिकण्वादिवचनानि। अथारुणोदयविद्धषष्टिदण्डैकादशीपूर्णैकादश्योर्व्यवस्थायामविशेष इति चेन्न।
पूर्णाऽप्येकादशी त्याज्या वर्धते द्वितयं यदि।
द्वादश्यां पारणालाभे309 पूर्णैव परिगृह्यते॥
इतिप्राचेतसाद्वैष्णवेनापि पूर्णोपोष्येति। अरुणोदयविद्धा तु द्वादशीपारणस्यालाभेऽपि वैष्णवैर्नोपोष्या, किं तु खण्डैकादश्युपोष्येति।
दशमीशेषसंयुक्तो यदि स्यादरुणोदयः।
नैवोपोष्यं वैष्णवेन तहिनैकादशीव्रतम्॥
इतिगारुडे वैष्णवेनेत्यभिधानात्। तत्रापि कृष्णपक्षेऽरुणोदयविद्धैव।
एकादशीं दिशा युक्तां वर्धमाने विवर्जयेत्।
पक्षहानौ स्थिते सोमे लङ्घयेद्दशमीयुताम्॥
इतिभविष्यत्पुराणैकवाक्यत्वात्। तदयं संक्षेपः —यदा तु पूर्वदिने दशम्या उत्तरदिने द्वादश्या युतैकादशी, तदोत्तरामुपोष्य द्वादश्यां पारणं
कुर्यात्। पारणादिने द्वादश्यनिर्गमे तु त्रयोदश्यामपि। यदा सूर्योदयानन्तरं दशमीयुतैकादशी, अथ च परदिने न निःसरति, तदा तां विहाय परदिने द्वादशीमुपवसेत्। यदा तु सूर्योदयपूर्वकाले दशमीविद्धैकादशी परदिने निःसरति, तदा तामुपवसेत्। यदा तु तथा विद्धा सती परदिनेऽपि निःसरति तत्परदिने च द्वादशी, तदा तां विहाय खण्डामुपोष्य द्वादश्यां पारयेत्। या चोभयदिने तद्विद्धैकादशी, तत्परदिने च न द्वादशी, तदा षष्टिदण्डात्मिकां विद्धामुपोष्यपरदिने द्वादश्याद्यपादमुत्तीर्य पारयेत्। वैष्णवस्तु तत्रापि शुक्लपक्षे परामुपोष्य त्रयोदश्यां पारयेदिति सिद्धान्तितम्। तत्रारुणोदयमारभ्य प्रवृत्ताहोरात्रव्यापिन्या एव पूर्णत्वस्य तिथितत्त्वेऽप्युक्तत्वात्पूर्वतिथिभोगापेक्षयोत्तरतिथिभोगस्य सार्धघटिकापेक्षया न्यूनाधिकभावस्य ज्योतिःशास्त्रेऽप्रसिद्धत्वाच्चतुःषष्टिघटिकापरिमितैकादश्यां सत्यां समनन्तरद्वादश्या वृद्ध्यवश्यंभावेन द्वादश्यां पारणालाभ इत्युत्तरार्धस्यानन्वयापत्तेः। प्रचेतोवाक्ये पूर्णत्वमहोरात्रव्यापित्वमात्रमित्येव स्वीकर्तव्यत्वेन तस्य वैष्णवविषयत्वासंभवाद्द्वादश्यवृद्धौ प्रचेतोवाक्यात्पूर्णाधिकायां वैष्णवैः पूर्णोपोष्येत्युक्तिः, तिथितत्त्वेऽप्युदाहृतदशमीशेषसंयुक्त इति वचनविरोधात्
एकादशीकलायुक्तामुपोष्य द्वादशीं नरः।
त्रयोदश्यां तु भुञ्जानो विष्णुसायुज्यमृच्छति॥
इत्यादिबौधायनाद्यनेकवाक्यविरोधाच्चिन्त्यैव \। कृष्णपक्षे वैष्णवैररुणोदयविद्धैवोपोष्येत्युक्तिरपि, पक्षहानौस्थिते सोम इत्यस्य
तदा कार्या च विद्वद्भिर्दशमीसंयुता तिथिः।
तिथिक्षये तु सेनानीर्न वृद्धौतु कथंचन॥ इति
विहीनशल्याऽपि विवर्जनीया यदाऽग्रतो वृद्धिमुपैति पक्षः। इति हेमाद्र्युदाहृतस्कान्दाद्येकवाक्यतया तिथिक्षय एव विद्धाभ्यनुज्ञापकत्वेनोपपन्नत्वात्पक्षहानिसंपादकशीघ्रगामिचन्द्र इत्यर्थकपक्षहानौस्थिते सोम इत्येतस्मात्सोमहानिपक्ष इत्यर्थस्य कथमप्यलाभेन कृष्णपक्षपरत्वस्य वक्तुमशक्यत्वाद्वैष्णवानां कुत्रापि विद्धाभ्यनुज्ञाभावेन310नैवोपोष्यं वैष्णवेनेत्यस्य संकोचाभावादिति चिन्त्यैव। अत एव
द्वादशी दशमीयुक्ता यत्र शास्त्रे प्रतिष्ठिता।
न तच्छास्त्रमहं मन्ये यदि ब्रह्मा स्वयं वदेत्॥
वरमेकादशीत्यागो न कार्या दशमीयुता।
इति ब्रह्मवैवर्तादिवाक्यानि संगच्छन्ते । नालाभेऽपि प्रवेशिनीमित्यस्य सर्वस्मार्तविषयस्वीकारस्तु —
एकादशी यदा विद्धा द्वादशी च क्षयं गता।
दशमीमिश्रिता तत्र उपोष्या मुनिसत्तम॥
इति कालादर्शोदाहृतवायुपुराणस्य,
सर्वत्रैकादशी कार्या दशमीमिश्रिता नरैः।
प्रातर्भवतु मा वा भूतो नित्यमुपोषणम्॥
इति कालादर्शमदनरत्नोदाहृतऋष्यशृङ्गस्य,
पूर्वविद्धा न कर्तव्या षष्ठ्येकादश्यथाष्टमी।
एकादशीं तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि॥
इति हेमाद्रिमाधवोदाहृतऋष्यशृङ्गवाक्यस्य,
अविद्धानि निषिद्धैश्चेन्न लभ्यन्ते दिनानि तु ।
मुहूर्तैःपञ्चभिर्विद्धा ग्राह्यैवैकादशी तिथिः॥
इत्याचार्यचूडामणिप्रभृतिगौडैरप्युदाहृतस्य चादर्शनमूलक इत्युपेक्ष्य एव। कस्तर्ह्युदाहृतकौर्मस्य विषय इति चेत्।
एकादशीमुपोष्यैव द्वादशीमथवा पुनः।
विमिश्रां वाऽपि कुर्वीत न दशव्या युतां क्वचित्॥
इत्यादि सौरधर्मोत्तरादिवाक्यानाम्
पारणाहे न लभ्येत द्वादशी कलयाऽपि चेत्।
तदानीं दशमीविद्धाऽप्युपोच्चैकादशी तिथिः॥
इत्याद्यनेकवाक्याविरोधार्थमननुज्ञातविद्धापरत्वस्य हेमाद्र्यादिभिर्व्यवस्थापितत्वात्तत्समानार्थकं प्रथमवाक्यं तद्विषयमेव। कुर्यादलाभेसंयुक्तामित्येतदपि पूर्वोक्तरीत्या वैष्णवविषयत्वासंभवात्
आदित्योदयवेलाया आरभ्य षष्टिनाडिका।
संकीर्णैकादशी नाम त्याज्या धर्मफलेप्सुभिः॥
उदयोत्तरविद्धा तु दशम्येकादशी यदि।
दानवेभ्यः प्रीणनार्थं दत्तवान्पाकशासनः॥
इत्यादिगारुडकण्वादिवचनानि काम्यैकादशीविषयाणीतिहेमाद्र्यादिभिः सिद्धान्तितत्वात्फलकामस्मार्तविषयकमेवेति सिद्धा सर्ववाक्याना–
मेकवाक्यतेति विपश्चितो विदांकुर्वन्त्विति दिक्। एतेन यत्तु माधवेन शुद्धाधिकावद्विद्धाधिकायामपि द्वादश्यनाधिक्ये —
एकादशी विवृद्धा चेच्छुक्लेकृष्णे विशेषतः।
उत्तरां तु यतिः कुर्यात्पूर्वामुपवसेद्गृही
इति प्रचेतोवाक्याद्गृहियत्योर्व्यवस्थेत्युक्तं तत्प्रचेतोवाक्यस्यापि संपूर्णैकादशीत्यादिवच्छुद्धाविषयत्वस्यैव युक्तत्वादयुक्तमिति कालतत्त्वविवेचनोक्तं दूषणं परास्तम्। एकादशी यदेति वायुपुराण — पूर्वविद्धा न कर्तव्येतिऋष्यशृङ्गवचनदर्शनाभावप्रयुक्तत्वाच्छुक्लेकृष्ण इत्यनेन पक्षद्वयसंग्रहे शुद्धाविद्धोभयसंग्राहकाविशेषत इति पदयुक्तस्य शुद्धामात्राविषयत्वस्य वक्तुमशक्यत्वाच्च। यत्तु व्रतार्के माधवायुक्तिरयुक्तेति विद्धैकादशीमात्रे किंचिदुच्यत इत्युक्तं तत्र माधवे दूषणोद्भावनं माधवार्थाज्ञानमूलकमेव। किंचिदुच्यत इत्यादिकं तु —
पूर्वविद्वा न कर्तव्या षष्ठ्येकादश्यथाष्टमी।
एकादशीं तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि॥
इत्यादिऋष्यशृङ्गादिवाक्यतद्व्यवस्थापकहेमाद्रिमाधवार्थादर्शनमूलकत्वाद्दशमीविध्दैकादशी द्वादश्यां किंचिदस्ति रात्रिशेषे च त्रयोदशी तदा यतिभिरुत्तरा गृहिभिः पूर्वेति स्मृत्यर्थसार — द्वादशीहानियुक्तायां विद्धाधिकायां गृहियत्योर्व्यवस्थेतिकालादर्शनिर्णयामृतविरुद्धत्वाच्च यत्किंचिदेव। यदपि मदनरत्ने कालतत्त्वविवेचने च पुत्रवद्भिन्नगृहिभिरपि परा कार्या
पारणाहे न लभ्येत द्वादशी कलयाऽपि चेत्।
तदानीं दशमीविद्धाऽप्युपोष्यैकादशी तिथिः॥
इत्यादिऋष्यशृङ्गादिवचनानि311 विध्दाधिकातिरिक्तविषयाणि पूर्वोदाहृतवचनविरोधादित्युक्तं तदप्ययुक्तम्। यत्यादिविषयकैः
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
इत्यादिभिः पारणाह इत्यादेर्यथाकथंचित्संकोचकल्पनेऽपि विध्दाधिकामात्रविषयेऽविद्धानीत्यस्य तद्विषयत्वस्य वक्तुमशक्यत्वात्। न च हेमाद्रिमाधवविरोधेऽप्यरुणोदयमारभ्य मुहूर्तपञ्चककल्पनया विद्धानधिकाविषयमेवेदमिति वदता तद्विषयत्वं वक्तुं शक्यमिति वाच्यम्। वैष्णवानां कुत्रापि विद्धाभ्यनुज्ञानाभावेन स्मार्तमात्रविषयकमेवेदमित्यस्यैवयुक्तत्वेनारुणोदयमारभ्य तत्कल्पनाया असंभवात्, एवमपि तत्कल्पने
तदर्धविद्धान्यन्यानीत्यग्रिमवाक्यस्यासंगत्यापत्तेश्च अपि चोत्तरदिनेग्राह्यतिथिलाभ एव पूर्वानिषेधप्रवृत्तिरित्येव स्वीकार्यमन्यथा प्रधानलोपापत्तेः। ततश्च पूर्वविद्धा न कर्तव्येत्यादिऋष्यशृङ्गादिवाक्यस्य
एकाशी दिशा विद्वा द्वादशी च क्षयं गता।
दशमीमिश्रिता तत्र उपोष्या312 मुनिसत्तम॥
इतिवायुपुराणस्य च विद्धाधिकामात्रविषयत्वमनिच्छद्भिरपि स्वीकार्यमिति तद्विरोधस्य स्पष्टत्वादिति दिक्। गृहस्थस्यापि यदा —
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
त्रिभिर्मिश्रा तिथिः प्रोक्ता सर्वपापहरा स्मृता॥
उपवासः कृतस्तस्यां महापातकनाशनः।
द्वादश्यां तु यदा भूप दिनक्षयतिथिर्भवेत्॥
तदोपवासः कर्तव्यो विष्णुसायुज्यमिच्छता।
इत्यादिवाक्यविहितकाम्योपवासचिकीर्षा तदा पूर्वदिने नित्योपवासं कृत्वोत्तरत्रापि भवत्येव। तत्रापि —
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
तत्र्यहस्पृगहोरात्रं नोपोष्यं तत्सुतार्थिभिः।
इत्यादिपाद्मादिवचनैः पुत्रवदुपवासनिषेधो नित्योपवासविषयः। एतेन विद्धाधिकन्यूनद्वादशीका तु सकामानां पूर्वा, निष्कामाणां परेति भट्टोजीदीक्षितोक्तिरुपेक्ष्या। उदाहृतवाक्यवैपरीत्यादिति बोध्यम्। या तु विद्धाधिकाऽधिकद्वादशीका सा सर्वैरुत्तरैव कार्या।तदाह हेमाद्रौ
नारदः —
द्वादश्यैकादशी यत्र द्वादशी परतोऽपि च।
उपोष्या द्वादशी तत्र यदीच्छेत्परमं पदम्॥
हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणम् —
तृतीयेऽहनि संप्राप्ते द्वादशी यदि दृश्यते।
द्वितीयैकादशीं कुर्यात्प्रथमां तु विवर्जयेत्॥
द्वादश्यैकादशी313 युक्ता द्वादशी परतो यदि।
दादशीमिश्रितोपोष्या तिथिरेकादशी तदा॥
द्वादश्यैकादशी यत्र द्वादशी परतो भवेत्।
तत्रोपोष्याद्वितीया तु द्वादश्यां चैव पारणम्॥ इति।
तदेवं वचनव्यवस्थापकशिरोमणिहेमाद्रिमाधवयोरैकमत्यप्रदर्शनपरिष्कारपूर्वकमष्टादशस्वपि भेदेषु निर्णीताया एकादश्याः संक्षेपतोऽयं निर्णयसंग्रहः शुद्धसमाभेदत्रये शुद्धन्यूनाभेदत्रये च सर्वेषामेकादश्यामेवोपवासः।
शुद्धा यदा समा हीना समक्षीणाऽधिकोत्तरा।
एकादशीमुपवसेन्न शुद्धां वैष्णवीमपि॥
इति स्कान्दात् । शुद्धाधिकायां द्वादश्याः समत्वे न्यूनत्वे314 च गृहियत्योर्व्यवस्था।
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा।
उत्तरां तु यतिः कुर्यात्पूर्वामुपवसेद्गृही॥
इति कौर्मात्,
पुनः प्रभातसमये घटिकैका यदा भवेत्।
अत्रोपवासो विहितो वनस्थस्य यतेस्तथा॥
विधवायाश्च तत्रैव परतो द्वादशी न चेत्।
इति गारुडाच्च । द्वादश्याधिक्ये तु सर्वेषां परत्रैव।
संपूर्णैकादशी यत्र प्रभाते पुनरेव सा॥
तत्रोपोष्या परा पुण्या परतो द्वादशी यदि।
इति गारुडात्। विद्धसमायां द्वादश्याः समत्वे न्यूनत्वे च सर्वेषां विद्धायामेव।
यदाऽर्कोदयमात्राऽपि द्वादशी त्वपरेऽहनि।
त्रयोदश्यां तदा कार्या दशमीशेषसंयुता॥
इति वृद्धवसिष्ठात्।
एकादशी दिशा विद्धा परतो न च वर्धते।
यतिभिर्गृहिभिश्चैव सैवोपोष्याक्षये तिथिः॥
इतिपाद्मात् [च ] । न च वर्धत इत्यनेनैकादश्याः समत्वसूचनात्, द्वादश्या एव क्षयः परिशेषात्। द्वादश्याधिक्ये तु सर्वेषां द्वादश्यामेव।
एकादशी दिशा विद्धा द्वादश्यां न प्रतीयते।
द्वादशी च त्रयोदश्यामस्ति तत्र कथं भवेत्॥
उपोष्या द्वादशी शुद्धा सर्वैरेव न संशयः।
इति बृहन्नारदीयात्। विद्धन्यूनायां द्वादश्याः समत्वे न्यूनत्वे च पुत्रवद्भिन्नानां सर्वेषां विद्धायामेव।
दशमीशेषसंयुक्ता नोपोष्यैकादशी तिथिः।
एकादश्यां रात्रिशेषे द्वादशी चेन्न लभ्यते।
इति नारदीयात्। पुत्रवता तु315 किंचिद्भक्षयित्वोपवासः कार्यः।
उपवासनिषेधे तु भक्ष्यं किंचित्प्रकल्पयेत्।
न दुष्यत्युपवासेन उपवासफलं लभेत्॥
इति वायवीयात्। द्वादश्याधिक्ये तु सर्वेषां द्वादश्यामेव।
उपोष्या द्वादशी शुद्धा द्वादश्यामेव पारयेत्।
निर्गता चेत्त्रयोदश्यां कला वा द्विकलाऽपि वा॥
इति नारदीयाद्बृहनारदीये विद्वायां द्वादशीवृद्धौ सर्वेषां द्वादश्यामेव विधानाच्च। विद्धाधिकायां द्वादशीसाम्य उत्तरत्रैव सर्वेषाम्।
द्वादश्येकादशी यत्र संगता त्रिदशाधिप।
तामुपोष्यततः कुर्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इति नारदीयात्
दशमीशेषसंयुक्ता यदि वृद्धिमती भवेत्।
तदोपोष्या द्वितीया स्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इतिस्कान्दाच्च। विद्धाधिकायां द्वादश्या न्यूनत्व एव विद्धाभ्यनुज्ञानात्, द्वादशीसाम्ये विद्धाभ्यनुज्ञानाभावात्, उदयकालिकद्वादशीयुक्तैकादश्या एवोपवासे मुख्यत्वाच्चेति दिक्। विद्धाधिकायां द्वादशीन्यूनत्वपक्षे316 गृहिणां पूर्वत्रैव।
पूर्वविद्धा न कर्तव्या षष्ठ्येकादश्यथाष्टमी।
एकादशीं तु कुर्वीत क्षीयते द्वादशी यदि॥
इति ऋष्यशृङ्गवाक्यात्। पञ्चमुहूर्ताधिकदशमीविद्धा तु त्याज्यैव …… पञ्चभिर्विद्वेति नियमात्।यतीनामुत्तरत्रैव।
एकादशी द्वादशी च रात्रिशेषे त्रयोदशी।
त्रिस्पृशा नाम सा प्रोक्ता ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥
इति नारदीयात्।
कलाऽप्येकादशी यत्र द्वादश्यनुगता भवेत्।
दिनक्षयेऽपि सा पुण्या यतीनामुत्तमा तिथिः॥
इति हेमाद्युदाहृतवचनाञ्च। विद्धायामुभयाधिक्य उत्तरैव सर्वेषाम्।
द्वादश्येकादशी यत्र द्वादशी परतोऽपि च।
द्वादश्यां पारणं कुर्यात्क्रतुकोटिफलं लभेत्॥
इति नारदीयादिति। यानि तु —
दशमीशेषसंयुक्तां यः करोति विमूढधीः।
एकादशीफलं तस्य नश्येद्द्वादशवार्षिकम्॥
इत्येवमादीनि दशमीविद्धानिषेधकानि ब्रह्मवैवर्तादिवचनानि तानि या विद्धोपोष्यत्वेनोक्ता तद्व्यतिरिक्तविषयाण्येव विद्धाविधायकपूर्वोदाहृतवचनविरोधात्। यान्यपि
एकादश्यामुपोष्यैव द्वादश्यां पारणं स्मृतम्।
त्रयोदश्यां न तत्कुर्याद्वादशद्वादशीक्षयात्॥
एवमादित्रयोदशीपारणनिषेधकानि कूर्मपुराणादिवचनानि तानि यस्यां त्रयोदश्यां वचनान्तरेण पारणं पूर्वमुक्तं तद्व्यतिरिक्तविषयाणीति बोध्यम्। इति संक्षेपः। अथैकादशीमहिमा। तत्र हेमाद्रौ नारदीयपुराणे वसिष्ठः —
एकादशीसमुत्थेन वह्निना पातकेन्धनम्।
भस्मतां याति राजेन्द्र अपि जन्मशतोद्भवम्॥
नेदृशं पावनं किंचिन्नराणां भूप विद्यते।
यादृशं पद्मनाभस्य दिनं पातकहानिदम्॥
तावत्पापानि देहेऽस्मिंस्तिष्ठन्ति मनुजाधिप।
यावन्नोपवसेज्जन्तुः पद्मनाभदिनं शुभम्॥
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च।
एकादश्युपवासस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
एकादशेन्द्रियैः पापं यत्कृतं भवति प्रभो।
एकादश्युपवासेन तत्सर्वं विलयं व्रजेत्॥
एकादशीसमं किंचित्पापत्राणं न विद्यते ।
स्वर्गमोक्षप्रदा ह्येषा राज्यपुत्रप्रदायिनी॥
सुकलत्रप्रदा ह्येषा शरीरारोग्यदायिनी।
न गङ्गा न गया भूप न काशी नच पुष्करम्॥
न चापि कौरवं क्षेत्रं न रेवा न च देविका।
यमुना चन्द्रभागा च तुल्या भूप हरेर्दिनात्॥
व्याजेनापि कृता राजन्न दर्शयति साऽन्तकम्।
अनायासेन राजेन्द्र प्राप्यते वैष्णवं पदम्॥
चिन्तामणिसमा ह्येषा ह्यथवाऽपि निधेः समा317।
सा कल्पपादपप्रख्या वेदवादोपमा तथा॥ इति।
हेमाद्रौ स्कान्दम् —
अभोज्यभोजनाज्जातमगम्यागमनाच्चयत्।
अयाज्ययाजनाद्यच्चअभक्ष्याणां च भक्षणात्॥
अस्पृश्यस्पर्शनाद्यच्च परेषां निन्दनाच्च यत्।
आत्मसंस्तवनाद्यच्च पारदार्यकृतं च यत्॥
विहिताकरणाद्यच्चपरवित्तापहारतः।
ज्ञानाज्ञानकृतं यच्च पातकं चोपपातकम्॥
तत्सर्वं विलयं याति एकादश्यामुपोषणात्। इति।
अस्यामेकादश्यां पक्षद्वयेऽप्यष्टवर्षाधिकवयस्कैरशीतेर्न्यूनवयस्कैश्च सर्वैरपि भोजनं न कार्यम्। तदाह हेमाद्रौनारदपुराणे —
**अष्टवर्षाधिको मर्त्यो ह्यशीतिर्नहि पूर्यते। **
यो भुङ्क्तेमामके राष्ट्रे विष्णोरहनि पापभाक्॥
स मे वध्यश्च दण्ड्यश्च निर्वास्यो देशतः स मे।
हेमाद्रौ विष्णुस्मृतिः —
एकादश्यां न भुञ्जीत कदाचिदपि मानवः।
हेमाद्रौदेवलः —
**न शङ्खेन पिबेत्तोयं न खादेत्कूर्मसूकरौ॥ **
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि।
हेमाद्रौ नारदीयम् —
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यासमानि च।
अन्नमाश्रित्य तिष्ठन्ति संप्राप्ते हरिवासरे318॥
हेमाद्रौ स्कन्दपुराणे —
मातृहा पितृहा चैव भ्रातृहा गुरुहा तथा।
एकादश्यां तु भुञ्जानो विष्णुलोकाच्च्युतो भवेत्॥ इति।
विधवायास्तु दोषविशेषमाह हेमाद्रौ कात्यायनः —
विधवा या भवेन्नारी भुञ्जीतैकादशीदिने।
तस्यास्तु सुकृतं नश्येद्ब्रह्महत्या319 दिने दिने॥ इति।
हेमाद्रौनारदीयम् —
एकादश्या विना रण्डा यतिश्च सुमहामुने।
पच्यते ह्यन्धतामिस्रे यावदाभूतसंप्लवम्॥
हेमाद्रौअग्निपुराणे —
गृहस्थो ब्रह्मचारी च आहिताग्निस्तथैव च।
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि॥
एवमादिवाक्येषु पर्युदासाश्रयणकारणव्रतादिशब्दसामानाधिकरण्याभावात्, न खादेत्कूर्मसूकरावित्यादिनिश्चितनिषेधसाहचर्यान्नञःप्रधानाख्यातान्वयत्यागे बीजाभावाच्च निषेधपरत्वमेव। अत एव तस्मात्स्वतन्त्रनञर्थविधिपरमेवमादिवचनमितिमतं समीचीनमिति हेमाद्रिसिद्धान्तोऽपि। अन्नशब्दस्य अन प्राणन इति धातोः कॄवृजॄसिद्रुपन्यनिस्वपिभ्यो निदिति सूत्रेण न प्रत्यये निष्पन्नत्वात्, अन्नमोदन इति वृत्तिकारैर्विवरणाद्भिःसा स्त्री भक्तमन्धोऽन्नमित्यमरात्, अन्नं भक्ते च भुक्ते चेतिमेदिनीकोशादपि ओदन एव रूढत्वात्
कर्षमात्राणि भक्ष्याणि लाजा मुष्टिमिता मताः।
अन्नं ग्राससमं ग्राह्यं शाकं ग्रासार्धमात्रकम्॥
तिलसक्तुकणादीनां मृगीमुद्राप्रमाणतः।
इति सिद्धान्तशेखरवाक्येषु भक्ष्यादीनां पृथगुपादानाच्चौदन एवान्नपदवाच्यः। भोजननिन्दापरेषूत्तरवाक्येष्वपि —
सताम्बूलमताम्बूलं सभोजनमभोजनम्।
साहारं च निराहारं चतुर्विधमुपोषणम्॥
यावत्कृताह्निको न स्याद्यावन्नार्चयते हरिम्।
गृही ताम्बूलहीनः स्यात्तत्सताम्बूलमुच्यते॥
पूजयित्वाऽच्युतं पूर्वं पूर्णाभुक्त्यां भुनक्ति यः।
भद्राभुक्त्यां पुनर्भुङ्क्तेतत्सभोजनमुच्यते॥
पूर्वदिने दशमीमध्य एव भुक्त्वा द्वितीयदिन एकादशीमतिक्रम्य द्वादश्यां प्राप्तायां पुनर्भुङ्क्तइत्यर्थः।
तृणधान्याशनं मूलपयसाऽऽज्येन वा फलैः।
हरेरह्न्युपवासं च तत्साहारमुदाहृतम्॥
यदेतैरहितं शुद्धमुपायैः समुपोषणम्।
अताम्बूलमनाहारमभोजनमतो हितम्॥
इति हेमाद्रौभविष्यत्पुराणद्वादशीकल्पवाक्येषु भुजिविशेषस्याभ्यनुज्ञानात्।
मूलं फलं पयस्तोयमुपभोग्यं भवेच्छुभे।
नत्वेवभोजनं कैश्चिदेकादश्यां बुधैः स्मृतम्॥
इति नारदीये भोजनविशेषस्यैव सर्वथा निषेधात्, फलादिभक्षणे लोकेऽपि भोजनशब्दप्रयोगाभावात्।
शयने च मदुत्थाने मत्पार्श्वपरिवर्तने।
नरो मूलफलाहारी हृदि शल्यं ममार्पयेत्॥
इति कालंविशेष एवं निन्दातिशयश्रवणाच्च, ओदनकर्मकभोजननिन्दैवाध्यवसीयत इति तत्सर्वथा सर्वैर्वर्जनीयम्। यत्तु कालतत्त्वविवेचने कृष्णविद्धैकादश्यादिषु व्रतरूपोपवासनिषेधे भोजननिषेधवशात्सकलादनीयवर्जने320 प्राप्ते —
उपवासनिषेधे तु किंचिद्भक्ष्यं प्रकल्पयेत्।
इति वचनेन फलादिभक्षणविधानादौत्सर्गिकस्य भोजननिषेधस्य सकलादनीयाभ्यवहरणविषयताऽवसीयते। एतद्वचनवशादपि व्रतविध्यतिरिक्तः सर्वपुरुषसाधारणः, सर्वैकादशीसाधारणश्च निषेधोऽवश्यमङ्गीकरणीयः। अन्यथा संक्रान्तिरविवारादिष्विवोपवासनिषेधेऽपि
भोजनस्यैव संभवात्किंचिद्भक्षणविधानस्यानपेक्षितत्वादनुपपत्तेः। अनपेक्षायामपि विधौ संक्रान्त्यादावपि तदापत्तेः। सति तु निषेधे तत्परिपालनाय प्रवृत्तस्य निवृत्तेरपि संकल्पाविनाभावस्य प्रजापतिव्रतनय उक्तत्वात्। इति विज्ञाय कुर्वीतावश्यमेकादशीव्रतम्।
विशेषनियमाशक्तोऽहोरात्रं भुक्तिवर्जितः॥
इति वचनाद्विशेषनियमरहितभोजनद्वयवर्जनसंकल्परूपनित्यव्रतस्याप्यनुषङ्गात् प्रसक्तेरुपवासनिषेधातिक्रमशङ्कानिवृत्तये युक्तः किंचिद्भक्षणविधिः। अत एव तस्यैवोत्तरार्धं —
न दुष्यत्युपवासेन उपवासफलं लभेत्।
इत्युपवासेन321 निषेधेऽनुष्ठीयमान आनुषङ्गिकनित्यव्रतरूपतदनुष्ठानेन निषेधातिक्रमाद्यो दोषः प्रसक्तस्तं न प्राप्नोति। उपवासफलं भोजननिवृत्तिरूपनिषेधफलं च प्रत्यवायपरिहाररूपं लभेदित्यर्थः। न तु विश्वजितेव सत्रफलं किंचिद्भक्षणेन व्रतरूपोपवासफलं पापक्षयरूपमकरणप्रत्यवायपरिहाररूपं वा प्राप्नोतीति कृष्णविद्धादावुपवासप्राप्तेरेवाभावात्। प्राप्तौ वा न दुष्यतीत्येतद्विरोधादित्यादिना महता क्लेशेन भोजननिषेधस्य सर्वादनीयाभ्यवहरणविषयत्वं साधितं, तत्र तावद्भोजननिषेधस्य सकलादनीयाभ्यवहरणविषयत्वसिद्धौ फलादिभक्षणविधानम्, अस्माच्च विधानान्निषेधस्य सर्वाभ्यवहरणविषयत्वमित्यन्योन्याश्रयः, पूर्वदिने फलादिभक्षणेन निषेधपरिपालनमुत्तरदिने व्रतमित्युत्तरग्रन्थविरोधश्च स्पष्टः। संक्रान्त्यादाविव भोजनापादनं तु संक्रान्त्याद्युपवासस्य केवलकाम्यत्वेन तद्विधिः। पुत्रवतां निषेधं पर्यालोच्य पुत्रवद्भिन्नमेवाधिकरोतीति केवलं फलेच्छयैव तेषां प्रसक्तिः पर्युदस्तेति तेषां भोजनं युक्तम्। प्रकृते संकल्पाद्यङ्गसहितसर्वभोगवर्जनरूपोपवासे निषिद्धेऽपि भोजनस्य
मूलं फलं पयस्तौयमुपभोग्यं भवेच्छुभे।
न त्वेव भोजनं कैश्चिदेकादश्यां बुधैः स्मृतम्॥
भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेदित्याद्यनेकवाक्यैर्निषिद्धत्वेनानुचितमेव । पक्षद्वयेऽपि सर्वेषां भोजनमात्रवर्जनं निषेधपरिपालनार्थमिति हेमाद्रि(द्रेः,) पक्षद्वयेऽपि भोजनवर्जनमात्रं वक्ष्यमाणेतिकर्तव्यताशून्यमेकादश्यां सर्वैः कार्यमिति मदनरत्न[स्य च ] विरोधाच्च। अत एव किंचिद्भक्षविधानानु-
पपत्तिरपि परास्ता। सर्वभोगवर्जनरूपोपवासे निषिद्धे तस्याऽऽवश्यकत्वात्। अत एव संक्रान्त्यादौ किंचिद्भक्षापादनं निरस्तम्। अत्यावश्यकोपवासनिषेधे विहितस्य किंचिद्भक्षस्य तत्र प्रसक्तेर्दूरापास्तत्वात्। निवृत्तेः संकल्पव्याप्यत्वादिस्वीकारेण किंचिद्भक्षणविधेर्युक्तत्वोक्तिस्तु निवृत्तेः संकल्पव्याप्यत्वस्य कलत्रभक्षणनिवृत्त्यादौ व्यभिचारस्य स्पष्टत्वात्संकल्पशून्यभोजन निषेधपरिपालनाय प्रवृत्तस्य संकल्पाङ्गकनित्यव्रतस्यानुषङ्गात्प्रसक्तेः खपुष्पायमाणाया उपवासनिषेधातिक्रमशङ्कोत्थापकत्वासंभवेनायुक्तैव। विशेषनियमाशक्त इति वाक्यप्रतिपादितात्यावश्यकनित्यव्रतस्यापि भोजननिषेध एव पर्यवसानेन, तस्य च सर्वेषां नित्यत्वेनतत्रोपवासनिषेधविषयत्वासंभवाच्च। अत एव व्रताकरणे चान्द्रायणं चरेदिति प्रायश्चित्तमिति माधवः, भोजन इदं प्रायश्चित्तमिति मदनरत्नश्च संगच्छते। अपि च यत्सत्त्वं विना यदनुपपन्नं, यस्मिन्नाक्षिप्तेऽवश्यमुपपद्यते, तस्यैव तदाक्षेपकत्वात्। प्रकृते खण्डतिथौ व्रतभोजननिषेधयोर्दिनभेदं वदतां भवतां मते यदोत्तरदिन एवोपवासः, भोजननिषेधः पूर्वदिने तत्रोत्तरदिन एवोपवासनिषेधातिक्रमवारकत्वेन किंचिद्भक्षणस्य चरितार्थत्वेनैकदिन उभयप्रसक्तावपि सर्वभोगवर्जनरूपोपवासनिषेधस्य चन्दनाद्युपभोगेनापि संपादनसंभवेन भोजननिषेधस्य सर्वाभ्यवहरणविषयत्वेऽपि किंचिद्भक्षस्य वैयर्थ्याच्च पूर्वदिननिषेधपरिपालनार्थप्रवृत्तस्याप्यानुषङ्गिकोपवासस्य दुर्वारत्वेनोपवासनिषेधातिक्रमस्यावश्यंभावाच्च। अत एव भोजन निषेधव्याप्यनित्यव्रतेनोपवासनिषेधातिक्रमशङ्काऽपि निरस्ता सर्वभोगवर्जनरूपोपवासनिषेधस्यात्यावश्यकभोजनवर्जन रूपनित्योपवासविषयत्वस्यैवाभावात्।उपवासफलप्रत्यवायपरिहारलाभोक्तिस्तु यद्यपि मुख्योपवासे निषिद्धे किंचिद्भक्षणेनोपवासविधानादुचिता, तथाऽपि कृष्णविद्धादावुपवासप्राप्तेरेवाभावादिति भवदुत्तरग्रन्थविरुद्धैव। भवन्मते सर्वाभ्यवहरणविषयकभोजननिषेधस्य तु तत्राविहितकिंचिद्भक्षणेनातिक्रमात्तज्जनितप्रत्यवायस्यैवाऽऽवश्यकत्वेन तज्जनितप्रत्यवायपरिहारोत्प्रेक्षाऽनुचितैव। न च चतुर्थपाद उपवासशब्देन भोजननिवृत्तिरेव गृह्यत इति न दोष इति वाच्यम्। प्रथमतृतीययोस्तदापत्तावर्थासंगतेः पापक्षयरूपफलसाधकोपवासप्राप्तेर्न दुष्यन्तीत्येतद्विरोधात्। भावनेनापह्नवस्तु तादृशस्थलेऽधिकारिविशेषं प्रति किंचिद्भक्षणेनैवोपवासविधानात्तस्मादेव पापक्षयरूपस्यापि फलस्योपवासफलं लभेदित्यनेन बोधनान्निषेधविषयोपवासान्तराननुष्ठानेन निषेधातिक्रमाद्दोषस्तु परिशेषादेव
नास्तीति न दुष्यतीत्यनेन बोध्यत इति विरोधस्यैवाभावादयुक्तः। तस्मान्नोपवसेदित्यादिनिषेधेन नोपवासादिशब्दवाच्यं सामान्यं निषेद्धुं शक्यते भोजननिवृत्तावपि नारदादिवाक्येषूपवासशब्दप्रयोगात्तस्यापि निषेधापत्तेः।
अविद्धानामलाभे तु पयो दधि फलानि वा।
सकृदेवाल्पमश्नीयादुपवासस्त्वसौ भवेत्॥
इतिऋष्यशृङ्गवचनेन, अलामस्त्वत्रोपोष्यत्वेन न तु स्वरूपेणेति अविद्वानि निषिद्धैरिति वाक्ये हेमाद्रिणा सिद्धान्तितत्वाद्यत्र यत्रकृष्णविद्धादावुपवासनिषेधस्तत्र सर्वत्रैव दुग्धादिभक्षणेनोपवासविधानाद्विधिस्पृष्टे निषेधायोगाच्च। अपि तु संकल्पाद्यङ्गकलापसहितसर्वभोगवर्जनरूपोपवासविशेष एव निषिध्यत इत्येव स्वीकार्यम् । तथा च ऋष्यशृङ्गवाक्यैकवाक्यतापन्नमेवोपवासनिषेधे त्विति वाक्यमिति तत्सामर्थ्येन भोजननिषेधस्य सर्वाभ्यवहरणविषयत्वसाधनमृष्यशृङ्गवचनविस्मरणमूलं हेमाद्र्यादिसर्वनिबन्धविरुद्धमन्योन्याश्रयाद्यनेकदोपग्रस्तमिति विभाव्यतां सूरिभिः। किं च —
न शङ्खेन पिबेत्तोयं न खादेत्कूर्मसूकरौ।
इदं व्यर्थं स्यात्। अपि च
अष्टौ तान्यव्रतघ्नानि आपो मूलं फलं पयः।
हविर्बाह्मणकाम्या च गुरोर्वचनमौषधम्॥
इत्येतेषां व्रतविघातकानामपि निषेधविघातकापत्तौ दुग्धादिभक्षणेऽपि
एकादश्यामहोरात्रं मुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।
इति प्रायश्चित्तापत्तिर्दुर्वारा । इष्टापत्तिस्तु केनचिन्निमित्तेन भक्षितानां नित्यव्रतविघातकानां नित्यव्रतासमर्थकर्तृकनिषेधपरिपालनविघातकस्याभियुक्त संमतत्व एव स्यान्नान्यथेति। न च भवन्मते लोकप्रसिद्धभोजनस्यैव निषेधविषयत्वेन फलादिभक्षणस्य तदविषयकत्वेन [च] तत्र
उपवासनिषेधे तु भक्ष्यं किंचित्प्रकल्पयेत्।
न दुष्यत्युपवासेन उपवासफलं लभेत्॥
इतिवचनवैयर्थ्यमिति वाच्यम्। सर्वभोगवर्जनरूपोपवासे निषिद्धे प्रत्यवायपरिहारमात्रफलकभोजननिषेधपरिपालनेन पापक्षयाद्यधिकफ-
लकस्योपवासस्य सिद्ध्यभावादुपवासनिषेधाद्भोजनातिरिक्तसकलभोगेऽनुष्ठीयमाने ताम्बूलादिभक्षणस्योपवासनाशकत्वस्मरणेन व्रतसंकल्पबाध इति संकटे प्राप्त एकादश्यां श्राद्धप्राप्तावघ्राणवद्येन मक्षितेनोभयसिद्धिस्तादृशमेव किंचिद्भक्षणीयमित्येतद्बोधनार्थत्वेन वाक्यस्य सार्थक्यात्। अतएवोत्तरार्धेन —
न दुष्यत्युपवासेन उपवासफलं लभेत्।
इत्युक्तम्। उपवासे कृत उपवासनिषेधातिक्रमात्प्रसक्तं दोषं न प्राप्नोति। उपवासफलं संकल्पसिद्धिपापक्षयादि तदपि लभत इति तस्यार्थंइति दिक्। सर्वेषां पक्षद्वयेऽपि भोजनमात्रवर्जनं निषेधपरिपालनार्थमिति सिद्धान्तयतो हेमाद्रेरुपवासनिषेधेऽप्यशननिवृत्तिरेभिर्वचनैरध्यवसीयत इति कालादर्शस्य, पक्षद्वयेऽपि भोजनवर्जनं सर्वैः कार्यमितिमदनरत्नस्य च लोकप्रसिद्ध एव भोजनशब्दस्यार्थः संमत इत्यलं प्रसक्तानुप्रसक्त्या।प्रकृतमनुसरामः। ननु विष्णुवचनगतमानवपदेनैवसर्वेषां भोजननिवृत्तौ सिद्धायां गृहस्थ इत्यादिवचनं किमर्थम्। न च तदुपसंहारार्थत्वान्न वैयर्थ्यमिति शङ्क्यम्। निषेधस्य निवृत्तिफलत्वेन विशेषानपेक्षत्वादुपसंहारानुपपत्तेः। अन्यथा न हिंस्यात्सर्वभूतानीत्यस्य ब्राह्मणो न हन्तव्य इत्यनेनोपसंहारे क्षत्रियादिवधे प्रायश्चित्तविधेर्वैयर्थ्यापत्तेः । एवमप्युपसंहारे वनस्थादीनां भोजननिषेधो न स्यादिति चेन्न।
आहिताग्निरनड्वांश्च ब्रह्मचारी च ते त्रयः।
अश्नन्तएव सिध्यन्ति नैषां सिद्धिरनश्नताम्॥
यो गृहस्थो न भुञ्जीत आहिताग्निस्तथैव च।
प्राणाग्निहोत्रलोपेन अवकीर्णी भवेत्तु सः।
इत्येवमादिवचनपर्यालोचनया मानवपदसंकोचपरिहारार्थत्वेन तस्य सार्थक्यादिति दिक्। एकादशीव्रतं द्विविधं नित्यं काम्यं च । तत्र नित्यं पूर्वोक्तैर्गृहस्थव्यतिरिक्तैःसर्वैः पक्षद्वयेऽपि कर्तव्यं तदाह हेमाद्रौ देवलः —
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि।
वनस्थयतिधर्मोऽयं शुक्लामेव सदा गृही॥
उपवसेदिति शेषः। हेमाद्रौ कात्यायनः —
अष्टवर्षाधिको मर्त्यो ह्यपूर्णाशीतिवत्सरः।
एकादश्यामुपवसेत्पक्षयोरुभयोरपि॥
सर्वनियमानामुपनयनोत्तरकालत्वस्मरणादृष्टवर्षपर्यन्तमुपनीतस्याप्यनधिकारोऽष्टवर्षाधिकशब्देनोक्त इति हेमाद्रिः।हेमाद्रौभविष्यम् —
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि।
ब्रह्मचारी च नारी च शुक्लामेव सदा गृही॥
नारी विधवा पतिमत्या विशेषस्य वक्ष्यमाणत्वात्। हेमाद्रिभविष्ययोः —
एकादश्यां निराहारो यो भुङ्क्तेद्वादशीतिथौ।
वा यदि वा कृष्णे तद्वतं वैष्णवं महत्॥
हेमाद्रावाग्नेयम् —
एकादश्यां न भुञ्जीत व्रतमेतद्धि वैष्णवम्।
हेमाद्रौनारदः —
नित्यं भक्तिसमायुक्तैर्नरैर्विष्णुपरायणैः।
पक्षे पक्षे तु कर्तव्यमेकादश्यामुपोषणम्।
सपुत्रश्च सभार्यश्च स्वजनैर्भक्तिसंयुतः॥
एकादश्यामुपवसेत्पक्षयोरुभयोरपि। इति।
हेमाद्रौ गारुडम् —
उपोष्यैकादशी नित्यं पक्षयोरुभयोरपि।
सनत्कुमारप्रोक्ते —
एकादशी सदोपोष्या पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः।
एकादश्यामुपवसेन्न कदाचिदतिक्रमेत्॥
न करोति हि यो मूढ एकादश्यामुपोषणम्।
स नरो नरकं याति रौरवं तमसाऽऽवृतम्।
हेमाद्रौनारदः —
एकादश्या विना रण्डा यतिश्च सुमहामते।
पच्यन्ते ह्यन्धतामिस्रे यावदाभूतसंप्लवम्॥
एषु वाक्येषु सदा नित्यं नातिक्रमेत् इति श्रवणात्पक्षे पक्ष इति वीप्साश्रवणात्करणे दोषसंकीर्तनाच्चैकादशीव्रतं नित्यम्। अत्र केषुचिद्वाक्येषु न भुञ्जीतेति श्रूयमाणो नञ् न भोजननिषेधार्थः किं तु व्रतशब्दभोजनशब्दधर्मशब्दसामानाधिकरण्यान्नेक्षेतोद्यन्तमादित्यमितिवत्पर्युदासवृत्त्या भोजनविरुद्धस्याभोजनसंकल्पस्य प्रतिपादकः। तेनैतैर्वाक्यैरभोजनसंकल्पांङ्गकमुपवासाख्यं322 व्रतं विधीयत इति सिद्धम्। ननु
तद्व्रतंवैष्णवं महदिति श्रवणाद्वैष्णवानामेवाऽऽवश्यकं न तु शैवादीनामिति चेन्न। तस्य विष्णुसंबन्धकीर्तनमुखेनैकादश्युपवासप्रशंसार्थत्वात्। अत एव —
वैष्णवो वाऽथ शैवो वा कुर्यादेकादशीव्रतम्।
इति हेमाद्रौमत्स्यपुराणम्। अपि च शैवानामप्यावश्यकम्। तदाह हेमाद्रौविष्णुधर्मोत्तरम् —
**लिङ्गार्चनं रुद्रजपो व्रतं शिवदिनत्रये। **
वाराणस्यां च मरणं मुक्तिरेषा चतुर्विधा॥
इत्युक्त्वोक्तम् —
**एकादश्यष्टमी चैव पक्षयोश्च चतुर्दशी। **
शिवस्य तिथयः प्रोक्ता मुनिभिः शौनकादिभिः॥
तासामाद्यामुपवसेद्दिवा नाद्यात्तथाऽन्त्ययोः। इति।
हेमाद्रौ सौरम् —
वैष्णवो वाऽथ शैवो वा सौरोऽप्येतत्समाचरेत्॥ इति।
गृहस्थैस्तु शुक्लायामेव संकल्पादीतिकर्तव्यतासहितं व्रतं कर्तव्यम्। शयनीबोधिनीमध्यगतायां कृष्णायामपि। तदपि पुत्ररहितैरेव। तदाह हेमाद्रौ भविष्योत्तरे युधिष्ठिरं प्रति कृष्णः —
यथा शुक्ला तथा कृष्णा द्वादशी मे सदा प्रिया।
**शुक्ला गृहस्थैः कर्तव्या भोगसंतानवर्धिनी॥ **
मुमुक्षुभिस्तथा कृष्णा तेन तेनोपदर्शिता323।
हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरम् —
**शयनीबोधिनीमध्ये या कृष्णैकादशी भवेत्। **
सैवोपोष्यागृहस्थेन नान्या कृष्णा कदाचन॥
हेमाद्रौभविष्यम् —
नित्या शुल्कातदा ख्याता कृष्णा नैमित्तिकी भवेत्।
**शुक्ला याऽथ सदा कार्या न त्याज्या संकटेष्वपि॥ **
शुक्लायां यस्तु वै भुदे स भुङ्गे किल्बिषं नरः। इति।
निमित्तमिह शयनीबोधिनीमध्यवर्तीत्वमिति हेमाद्रिमाधवौ। पुत्राभावो निमित्तमिति हेमाद्रौमतान्तरम्। ननु कृष्णैकादश्युपवास-
निषेधानां शयनीबोधिनीवाक्यविहितोपवासव्यतिरिक्तविषयत्वेनोपपत्तेः पुत्रवतोऽपि शयनीबोधिनीमध्यवर्तिकृष्णैकादश्यां व्रते किं बाधकमिति चेन्न। ऐरं324 कृत्वोद्गेयमित्यस्य गिरापदस्थान इरापदविधित्ववत्, शुक्लामेव सदा गृहीत्यनेन सर्वस्याः कृष्णाया व्यावर्तितत्वाच्छयनीबोधिनीत्यनेन तन्मध्यगताया एव कृष्णाया विधानात्। नान्या कृष्णेत्यस्य नित्यानुवादत्वाद्यस्यां कृष्णैकादश्यां गृहस्थसामान्यस्योपवासः प्राप्तस्तस्यामेव पुत्रवतो गृहस्थविशेषस्य पुत्री नोपवसेद्गृहीत्यादिनिषेधस्योपपत्तेः। न च तथाऽपि प्रतिषेधः प्रदेशेऽनारभ्य विधाने च प्राप्तप्रतिषिद्धत्वाद्विकल्पः स्यादित्यत्र दशमे सामान्यरूपस्यापि विधेर्विशेषरूपेणापि निषेधेनोपजीव्यत्वात्समबलत्वमिति सिद्धान्तितत्वेन विकल्प एव स्यादिति वाच्यम्।
संक्रान्त्यामुपवासं च कृष्णैकादशिवासरे।
चन्द्रसूर्यग्रहे चैव न कुर्यात्पुत्रवान्गृही॥
इत्यादिवाक्येषु तदधिकरणसिद्धान्तेनानुयाजेष्वितिवदन पर्युदासाश्रयणेन नञः पुत्रवद्गृहिपदान्वयेन पुत्रवद्गृहिभिन्नसंक्रान्तिरविवारग्रहणकृष्णैकादश्यादिषूपवासं कुर्यादित्यर्थाश्रयणान्न विकल्पशङ्काऽपि। तस्माद्विकल्पभयात्पर्युदास एवायंनानुयाजेपु येयजामहं करोतीतिवदिति हेमाद्रिसिद्धान्ताच्च। संकल्पादीतिकर्तव्यतासहितस्यैव नित्योपवासस्यायं विचारः। भोजननिवृत्तिमात्रं तुपुत्रवदादिभिरपि325सर्वास्वपि कृष्णैकादशीषु कर्तव्यमेव। भोजननिषेधस्य सार्वदिकत्वस्य सर्वसाधारणत्वस्य च सर्वसंमतत्वात्।
विशेषनियमाशक्तोऽहोत्रं भुक्तिवर्जितः।
इत्यादिवचनैरावश्यकनित्यव्रतस्यापि भोजननिवृत्तावेव पर्यवसानबोधनादिति बोध्यम्। संक्रान्त्यादिनिमित्तकमुपवासमाह हेमाद्रिमाधवयोः संवर्तः —
अमावास्या द्वादशी च संक्रान्तिश्च विशेषतः।
एताः प्रशस्तास्तिथयो भानुवारस्तथैव च॥
अत्र स्नानं जपो होमो देवतानां च पूजनम्।
उपवासस्तथा दानमेकैकं पावनं स्मृतम्॥
अन्यंत्र —
सप्तवारानुपोष्यैवं सप्तधा संयतेन्द्रियः।
सप्तजन्मकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति॥ इति।
तन्निषेधमाह हेमाद्रौवृद्धवसिष्ठः —
आदित्यवारे संक्रान्तावसितैकादशीदिने।
व्यतीपाते कृते श्राद्धे पुत्री नोपवसेद्गृही॥
हेमाद्रौकौर्मम् —
द्वौ तिथ्यन्तावेकवारे यस्मिन्स स्याद्दिनक्षयः।
तस्मिन्स्नानं जपो होमो नोपवासो गृहाश्रमे॥
अत्र तिथ्यन्तद्वयमात्रं प्रतीयते तथाऽपि तृतीयतिथिप्रवेशोऽपि बोध्यः,अन्यथा —
एकादशी कलाऽप्येका परतो न च वर्धते।
गृहिभिः पुत्रवद्भिश्च सैवोपोष्यासदा तिथिः॥
इत्यादिभविष्यादिभिस्तिथ्यन्तद्वयरूप उपवासविधानविरोधापत्तेः।
एकस्मिन्सावने त्वह्नि तिथीनां त्रितयं यदा।
तदा दिनक्षयः प्रोक्तस्तत्र साहसिकं फलम्॥
इतिवासिष्ठैकवाक्यत्वात्। हेमाद्रौनारदः —
संक्रान्त्यामुपवासं तु कृष्णैकादशीवासरे।
चन्द्रसूर्यग्रहे चैव न कुर्यात्पुत्रवान्गृही॥
एकादश्यां च कृष्णायां संक्रान्त्यां च तथा रवौ।
पारणं चोपवासं च न कुर्यात्पुत्रवान्गृही॥
हेमाद्रौ गौतम : —
आदित्यवारे संक्रान्तौ व्यतीपाते326 दिनक्षये।
पारणं चोपवासं च न कुर्यात्पुत्रवान्गृही॥
आदित्येऽहनि संक्रान्तौ ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
पारणं चोपवासं च न कुर्यात्पुत्रवान्गृही॥
तन्निमित्तोपवासस्य निषेधोऽयमुदाहृतः।
नानुषङ्गकृते ग्राह्यो यतो नित्यमुपोषणम्॥
आदित्यवारादिनिमित्तस्यायं निषेधो न पुनरेकादश्यामादित्यवाराद्यन्वयनिबन्धनोपवासस्य, यत एकादश्यां नित्यमुपोषणमित्यर्थः।
कात्यायनोऽपि —
तत्प्रयुक्तोपवासस्य निषेधोऽयमुदाहृतः।
प्रयुक्त्यन्तरयुक्तस्य न विधिर्न निषेधनम्॥
अत एव हेमाद्रौ सनत्कुमारः —
भानुवारेण संयुक्ता तथा संक्रान्तिसंयुता।
एकादशी सदोपोष्यासर्वसंपत्करी तिथिः॥
हेमाद्रौ कात्यायनः —
व्यतीपातो वैधृतिर्वा एकादश्यां यदा भवेत्।
उपोष्या सा महापुण्या पुत्रसंतानवर्धिनी॥
योऽपि — श्राद्धं कृत्वा तु यो विप्रो न भुङ्क्ते पितृसेवितम्।
हविर्देवा न गृह्णन्ति कव्यानि पितरस्तथा॥
इति हेमाद्रौवचनेन श्राद्धदिन उपवासनिषेधः प्रतीयते तत्राऽऽह हेमाद्रौ याज्ञवल्क्यः —
उपवासो यदा नित्यः श्राद्धं नैमित्तिकं भवेत्।
उपवासं तदा कुर्यादाघ्राय पितृसेवितम्॥
हेमाद्रौस्कान्दम् —
यस्मिन्दिने पितुः श्राद्धं मातुर्वाऽथ भवेद्गुह।
तस्मिन्नेव दिने तात भवेदेकादशीव्रतम्॥
अन्यद्वाऽपि व्रतं स्कन्द तदा कार्यं च तच्छृणु।
न लुप्यते327 यथा श्राद्धमुपवासस्तथा328 गुह॥
तदा कृत्वा तु वै श्राद्धं भुक्तशेषं तु यद्भवेत्।
तत्सर्वं दक्षिणे पाणौ गृहीत्वाऽन्नं शिखिध्वज॥
अवजिघ्रत्यनेनार्थस्तेन श्राद्धं शिखिध्वज।
पितॄणां तृप्तिदं तात व्रतभङ्गो न विद्यते॥
श्राद्धे जन्मदिने चैव संक्रान्त्यां राहुसूतके।
उपवासं न कुर्वीत यदीच्छेच्छ्रेय आत्मनः॥
इत्यत्र जन्मदिन उपवासनिषेधः, स एकादशीव्यतिरिक्तविषय इति हेमाद्रिः। यदपि —
वृद्धिंकृत्वा तु षण्मासान्नोपवासो विधीयते।
एतद्गृहीतव्रतविषयमिति प्राञ्चः। अगृहीतमप्यावश्यकं कार्यमित्यपर इति हेमाद्रिः। ननु ब्रह्मचारिगृहस्थयोरप्युपवासस्वीकारे
**गृहस्थो ब्रह्मचारी वा योऽनश्रंश्च तपश्चरेत्।
प्राणाग्निहोत्रलोपेन अवकीर्णी भवेत्तु सः॥ **
इति हेमाद्व्याद्युदाहृतवचनविरोध इति चेत्। “सप्तऋषयस्तपसे ये निषेदुः। तपसा ये अनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः। तपो ये चक्रिरे महस्तांश्चिदेवापिगच्छतात्। प्रजापतिरकामयत प्रजाः सृजेयेति स तपोऽतप्यत" इत्यादौ गृहस्थस्य सतस्तपोनुवादाद्गृहस्थान्तरस्यापि तपो युक्तमिति गम्यते । तस्मान्नेदं गृहस्थस्योपवासनिषेधकम् । पूर्वामुपवसेद्गृही शुक्लामेव सदा गृहीत्यादिवचनविरोधाच्च।
तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्च विधिचोदितैः।
वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना॥
इत्यादिहेमाद्र्युदाहृतवचनैर्ब्रह्मचारिणोऽपि तपःसंबन्धावगमात्, ब्रह्मचारी च नारी चेति वचनविरोधाच्च तस्यापि न निषेधः। हेमाद्रिस्तु प्राणान्तिकानशनादिरूपतपोनिषेधपरं वचनं, प्राणाग्निहोत्रलोपेनेति द्वंद्वगर्भस्तत्पुरुषः, इत्थंभूतलक्षणे तृतीया, विहितकर्मोपलक्षणार्थश्चाग्निहोत्रशब्दः। तथा चायमर्थः —यो गृहस्थो ब्रह्मचारी वा प्राणबाधया, विहितकर्मबाधया वा तपश्चरति सोऽवकीर्णिदोषं प्रतिपद्येतेति। यदपि —
शरीरं पीड्यते329 येन शुभेनापि सुकर्मणा।
अत्यन्तं तन्न कर्तव्यमनायासः स उच्यते॥
इति तदत्यन्तपीडानिवारकं, न तु पीडामात्रस्येति। अत एव
धर्मार्थकाममोक्षाणां प्राणाः संस्थितिहेतवः।
तान्निघ्नता किं न हतं रक्षता किं न रक्षितम्॥ इति।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
इतिवाक्याभ्यां प्राणकर्मणामबाधनीयत्वप्रतिपादनाद्वानप्रस्थादेस्तु प्राणाग्निहोत्राद्युपरोधेनापि तपः कुर्वाणस्य नातीव दोष इति सिद्धा-
न्तितत्वात्। ननु तथाऽप्यस्त्वन्यस्य गृहस्थस्य। आहिताग्नेस्तु न भवति।
आहिताग्निरनड्वांश्चब्रह्मचारी च ते त्रयः।
अश्नन्त एव सिध्यन्ति नैषां सिद्धिरनश्नताम्॥
इत्यापस्तम्बवचनादिति चेन्न। किमनेनाऽऽहिताग्नेर्भोजनं विधीयते, उतोपवासः प्रतिषिध्यते। नाऽऽद्यः पक्षो रागप्राप्तभोजने विधिवैयर्थ्यात्। न च शास्त्राननुज्ञातकालेऽनेन भोजनं प्रतिप्रेसूयत330 इति वक्तुं युक्तं ग्रहणादावपि भोजनापत्तेः। न च तत्र चन्द्रसूर्यग्रहे नाद्यादितिनिषेधान्न भविष्यतीति चेन्न। अत्राप्याहिताग्निस्तथैव च, एकादश्यां न भुञ्जीतेति निषेधस्य जागरूकत्वात्। अस्तु तर्हि विहितप्रतिषिद्धत्वाद्विकल्प इति चेन्न ।अश्नन्त एव सिध्यन्तीति वर्तमानापदेशात्कल्प्यो विधिः, एकादश्यां न भुञ्जीतेति निषेधस्तु प्रत्यक्ष इति विकल्पासंभवात्। अत एव न द्वितीयोऽपि। न च तथाऽपि —
सायं प्रातर्द्विजातीनामशनं श्रुतिचोदितम्।
नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्रसमो विधिः॥
इत्येतद्भोजनविधिविरोधो दुष्परिहर इति वाच्यम्। रागप्राप्तभोजनस्य सायंप्रातःकालान्तरे प्रतिषेधमात्रमनेन क्रियते प्राङ्मुखोऽन्नानिभुञ्जीतेति दिड·नियमवत्सायं प्रातरेवाशनं नान्तराल इत्येतावताऽग्निहोत्रसाम्यस्तुत्युपपत्तेः। ननु भवतु तर्हिनित्यं, काम्यं त्वाहिताग्नेर्न भवति साधकामावादिति चेत्। अत्र हेमाद्रिः —नित्योऽप्युपवासोऽनेन वारयितुं न शक्यते चेत्, कथं काम्यो निवार्येत काम्यो हि नित्याद्वलीयान्, वाक्यस्य तर्हि का गतिरिति चेत्, यदा क्षीणशक्तेराहिताग्नेरुपवासाद्यनुष्ठानं निवार्यते, तत्प्रतिपादनार्थमेतद्वाक्यमाहिताग्निरनड्वांश्चेति। आपस्तम्बेनापि तथा चाऽऽत्मनोऽनुपरोधं कुर्याद्यथा कर्मसु समर्थः स्यादितिप्रक्रम्येदं वचनं पठितं, तस्मादाहिताग्निनाऽप्यग्निहोत्राद्यबाधेनोपवसितुं शक्यते चेदेकादश्यामुपवासनियमे वेति सिद्धान्तितत्वात्। एतेन यत्तु काम्यस्य नित्याद्वलीयस्त्वान्नित्यस्यैव बाधो न तु काम्यस्येति हेमाद्रिणोक्तं तदयुक्तम्। परस्परविरोधे हि तदिति कालतत्त्वविवेचैनमुपेक्ष्यं331 नित्यस्यैव बाधो न तु काम्यस्येति हेमाद्रिग्रन्थस्यैवाभावात्। तावत्पूरणेन दूषणदानस्य हेमाद्रिसिद्धान्त विरोधेनानुचितत्वात्। न च परस्पर —
विरुद्धनित्यकाम्यविषयस्य काम्यो हि नित्याद्वलीयानिति न्यायस्य प्रकृते तयोर्विरोधाभावेऽपि तेनोपन्यासात्तावत्पूरणेनापि दूषणं युक्तमिति शङ्क्यम् । नित्ये प्रवृत्तिं स्वीकृत्यैव यदा समर्थ आहिताग्निः फलकामनायां सत्यां काम्ये प्रवृत्त्युन्मुखोऽनेन वचनेन निवार्यत इति पूर्वपक्षे कृते परस्परविरोधे प्रबलात्काम्याद्दुर्बलस्य नित्यस्यानेन बाधोऽशक्यश्चेत्कथं नाम काम्यबाधः स्यादित्यभिप्रायेण तदुपन्यासस्य युक्ततरत्वादिति दिक्। इदं चैकादशीव्रतं काम्यमपि । तदाह हेमाद्रौविष्णुरहस्यम् —
य इच्छेद्विष्णुना वासं श्रुतसंपदमात्मनः।
कौर्मं – य इच्छेद्विष्णुसायुज्यं श्रियं संपत्तिमात्मनः॥
अनयोरुत्तरार्धं —
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि।
हेमाद्रौ स्कान्दम् —
यदीच्छेद्विपुलान्भोगान्मुक्तिंचात्यन्तदुर्लभाम्।
एकादश्यामुपवसेत्पक्षयोरुभयोरपि॥
माधवीये स्कन्दः —
पितॄणां गतिमन्विच्छन्कृष्णायां समुपोषयेत्।
हेमाद्रौ नारदः —
स्वर्गमोक्षप्रदा ह्येषा शरीरारोग्यदायिनी।
सुकलत्रपदा ह्येषा राज्यपुत्रप्रदायिनी॥
“तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन” इतितपसो विद्याङ्गत्वावगमात्पारम्पर्येण मोक्षार्थत्वमस्तीति मन्यमानेनोक्तं मोक्षप्रदेति, इति हेमाद्रिः। अस्मिन्काम्यव्रते तत्तत्फलकामः सर्व एवाधिकारी। इदं काम्यव्रतं तु पुत्रवतोऽपि सर्वकृष्णायामपि भवत्येव। तदाह हेमादौ स्मृत्यन्तरम् —
पुत्रवांश्च सभार्यश्च बन्धुयुक्तस्तथैव च।
उभयोः पक्षयोः काम्यं व्रतं कुर्यात्तु वैष्णवम्॥ इति।
गृहिणः पुत्रवतो रुक्माङ्गदस्योभयैकादश्युपवासस्मरणमुक्तवाक्यपर्यालोचनया काम्यविषयमिति विज्ञेयम्। तस्मात्पुत्रवतो गृहस्थस्य न काम्यकृष्णैकादश्युपवासविषयो निषेधः, किं तु नित्यैकादश्युपवासविषय इति332 हेमाद्रिसिद्धान्तात्, नैमित्तिककाम्यौ तु गृहस्थस्य
कृष्णायामपीति माधवसिद्धान्ताच्च। वैष्णवानां तु नित्येऽपि व्रते कृष्णायां पुत्रवतामप्यधिकारस्तदाह हेमाद्रौ नारदः —
नित्यं भक्तिसमायुक्तैर्नरैर्विष्णुपरायणैः।
पक्षे पक्षे तु कर्तव्यमेकादश्यामुपोषणम्॥
हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणम् —
एवं ज्ञात्वा सदोपोष्य। द्वादशी शुक्लकृष्णजा।
तयोर्भेदं न कुर्वीत भेदनान्नरकं व्रजेत्॥
द्वादशीशब्देनैकादश्येवोच्यते प्रकरणवशात्। हेमाद्रौ गारुडम् —
शुक्ला वा यदि वा कृष्णा विशेषो नास्ति कश्चन।
विशेषं कुरुते यस्तु पितृहा स तु कीर्तितः॥
हेमाद्रौ तत्त्वसागरः —
यथा शुक्ला तथा कृष्णा यथा कृष्णा तथेतरा।
तुल्ये ते मन्यते333 यस्तु स हि वैष्णव उच्यते॥
सर्वेषामिह पापानामाश्रयः स तु कीर्तितः।
विवेचयति यो मोहादेकादश्यौ सितेतरे॥
इत्येवमादीनि हेमाद्रौ कालिकापुराणादिवचनानि वैष्णवविषयाणि न तु स्मार्तगृहस्थविषयाणि शुक्लामेव सदा गृहीत्यादिवचनविरोधात्। उपवासस्वरूपमुक्तं हेमाद्रौवृद्धवसिष्ठकात्यायनविष्णुधर्मोत्तरेषु —
उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह।
उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः॥
पापेभ्यः परिवर्जनीयेभ्य उपावृत्तस्य निवृत्तस्य गुणैस्तद्दिनविहितनियमैर्युक्तस्य भोजनादिसकलभोगवर्जनेन यदहोरात्रं संकल्पपूर्वकमवस्थानं स उपवास इत्यर्थः। यत्तु इदं च फलसाधनस्योपवासस्य स्वरूपमुपवासपदार्थस्तु स्मृतिपुराणव्यवहारे रूढो निराहारावस्थानमात्रमिति कालतत्त्वविवेचनं, तत्कालादर्शहेमाद्व्यादिसिद्धान्तविरुद्धमिति स्पष्टमेव। यत्त्वत्रोपष्टम्भकमुक्तमेकादश्यां निराहार इति संकल्पवाक्ये तावदेव प्रतीतिरिति तत्रैव हेमाद्र्याद्यविरोधायोपलक्षणपरत्वस्यैवोचितत्वादन्यथा भवन्मते काम्योपवास इदं संकल्पवाक्यं विरुद्धमेव स्यादिति बोध्यम्। वर्जनीयान्याह हेमाद्रौ सुमन्तुः —
विहितस्याननुष्ठानमिन्द्रियाणामनिग्रहः।
निषिद्धसेवनं नित्यं वर्जनीयं प्रयत्नतः॥
हारीतः —पतितपाषण्डिनास्तिकादिसंभाषणानृतादिकमुपवासदिने वर्जनीयम्। इति। आदिशब्देन हिंसेन्द्रियचापलादि गृह्यत इति हेमाद्रिः। गुणास्तु विष्णुधर्मोत्तर उक्ताः —
तज्जप्यजपनं ध्यानं तत्कथाश्रवणादिकम्।
तदर्चनं च तन्नामकीर्तनश्रवणादिकम्॥
उपवासकृतां ह्येते गुणाः प्रोक्ता मनीषिभिः।
विष्णुधर्मेषु —
उपवासी हरिं यस्तु भक्त्या ध्यायति मानव।
तज्जाप्यजापी तत्कर्मरतस्तद्गतमानसः॥
निष्कामो दैत्यवद्ब्रह्मन्पदमाप्रोसंशयम्। इति।
अत्र समर्थस्यैवाधिकारः। तदाह हेमाद्रौब्रह्मवैवर्तम् —
एकादशीं विना विप्र न संसाराद्विमोक्षणम्।
तत्राप्ययं विशेषोऽस्ति कार्या शक्तिमता च सा॥
न तु देहं विदुः प्राज्ञाः पीडनीयमिहाऽऽग्रहात्।
शरीरं पीडयते येन सुशुभेनापि कर्मणा॥
अत्यन्तं तन्न कुर्वीत अनायासः स उच्यते।
धर्मसाधनमाद्यं यच्छरीरं बहुपुण्यकृत्॥
यथाकथंचिन्मौर्ख्यान्न तत्क्षपेदेकहेलया।
मूढग्राहेणाऽऽत्मनो यत्पीडया क्रियते तपः॥
न स सुखमवाप्नोति न सिद्धिं न परां गतिम्। इति।
नित्यैकादश्युपवासासमर्थेनैकभक्तादिकं कार्यम्। तदाह हेमाद्रौ मार्कण्डेयः —
एकभक्तेन नक्तेन तथैवायाचितेन च।
उपवासेन दानेन न निर्द्वादशिको भवेत्॥
एकभक्तेन नक्तेन बालवृद्धातुरः क्षिपेत्।
पयोमूलफलैर्वाऽपि न निर्द्वादशिको भवेत्॥
बौधायनोऽपि —
उपवासे त्वशक्तानामशीतेरूर्ध्वजीविनाम्।
एकभक्तादिकं कार्यमाह बोधायनो मुनिः॥
हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे द्वादशीकल्पे —
एकादश्यां प्रभुं विष्णुं समभ्यर्च्य कदाचन।
उपोषितेन नक्तेन तथैवायाचितेन च।
एकभक्तेन वा तात न निर्द्वादशिको भवेत्॥
तदेकनियमी नित्यं न सीदति भवार्णवे।
कायशक्तिबलादेव न बलाद्धर्ममाचरेत्॥
उपोषितो वा नक्ती334 वाऽयाचितैकाशनोऽपि वा।
द्विदिनं पूजयेत्तात हरिं संसारपारगम्॥
एकाहारप्रदानेन एकाशनफलं स्मृतम्।
अयाचितफलं विद्धि दक्षिणासहितेन च॥
नक्तस्य च चर्तुर्गुण्यं335 चतुर्गुणमुपोषणम्।
सदक्षिणं फलं दानाद्व्रव्रतभङ्गेऽपि लभ्यते॥
तिथितत्वे ब्रह्मवैवर्तम् —
उपवासासमर्थश्चेदेकं विप्रतु भोजयेत्।
तावद्धनादि वा दद्याद्भक्त्या336 तद्द्विगुणं भवेत्॥
सहस्रसंमितां देवीं जपेद्वा प्राणसंयमान्।
कुर्याद्द्वादशसंख्याकान्यथाशक्ति व्रते नरः॥ इति।
हेमाद्रौव्यासः —
हविष्यभोजनं स्रानं सत्यमाहारलाघवम्।
अग्निकार्यमधःशय्यां नक्तभोजी षडाचरेत्॥
हविष्यमुक्तं भविष्ये—
हैमन्तिकं सितास्विन्नं धान्यं मुद्गा यवास्तिलाः।
कलायकंगुनीवारा वास्तुकं हिलमोचिका॥
षष्टिकाः कालशाकं च मूलकं केमुकेतरत्।
कन्दः सैन्धवसामुद्रे गव्ये च दधिसर्पिषी॥
पयोऽनुद्धृतसारं च पनसाम्रहरीतकी।
तित्तिडी जीरकं चैव नागरङ्गाकपिप्पली॥
कदली लवली धात्री फलान्यगुडमैक्षवम्।
अतैलपक्वंमुनयो हविष्याणि प्रचक्षते॥ इति।
सितास्विन्नं गौडेषु प्रसिद्धो धान्यविशेषः, स च हेमन्तोत्पन्न एव न च कालान्तरोत्पन्नः कलायं कुलित्थः कङ्गु काङ्ग इति भाषाप्रसिद्धः हिलमोचिका गौडेषु हिलासा इति प्रसिद्धः पत्रशाकः कालशाकः पर्वतदेशे प्रसिद्धः। केमुकं गौडेषु केम्बु इति प्रसिद्धम्। मूलकं कन्दःसुरणः नागरं शुठिः। लवली रायआवलीति महाराष्ट्रे हरफररेवडीति मध्यदेशे प्रसिद्धा। अतैलपक्वमित्युक्तानां विशेषणम्। तिथितत्त्वेऽगस्त्यसंहिता —
**नारिकेलफलं चैव कदली लवली तथा। **
**आम्रमामलकं चैव पनसं च हरीतकी॥ **
व्रतान्तरप्रशस्तं च हविष्यं मन्वते बुधाः॥ इति।
काम्यव्रते तु यद्यपि
काम्ये प्रतिनिधिर्नास्ति नित्ये नैमित्तिके च सः।
काम्येऽप्युपक्रमादूर्ध्वं के चित्प्रतिनिधिं विदुः॥
इति माधवीये स्मृत्यन्तरम्। तस्यार्थः —नित्यं नैमित्तिकं च प्रतिनिधिनाऽप्युपक्रम्य कारयेत्काम्यं तु स्वसामर्थ्यं विचार्य स्वयमेवोपक्रम्य कुर्यात्। उपक्रमादूर्ध्वमसामर्थ्य प्रतिनिधिनाऽपि तत्कारयेत्। तदाह हेमाद्रौ वाराहः —
**असामर्थ्ये शरीरस्य व्रते तु समुपस्थिते। **
**कारयेद्धर्मपत्नीं वा पुत्रं वा विनयान्वितम्॥ **
भगिनीं भ्रातरं वाऽपि व्रतमस्य न लुप्यते337।
माधवीये पैठीनसि : —
भार्या पत्युर्व्रतं कुर्याद्भार्यायाश्च पतिर्व्रतम्।
असामर्थ्ये परस्ताभ्यां व्रतभङ्गो न जायते॥
हेमाद्रौकात्यायनः —
राज्यस्थक्षत्त्रियार्थे च एकादश्यामुपोषितः।
पुरोधास्तु क्षत्रियो वा द्वयोः सममितीरितम्॥
उपवासफलं ताभ्यां समग्रंसमवाप्यते।
शृणु यश्चान्यमुद्दिश्य एकादश्यामुपोषितः॥
यमुद्दिश्य कृतो विप्रास्तस्य पूर्णं फलं भवेत्।
कर्ता दशगुणं पुण्यं प्राप्नोत्यत्र न संशयः॥
हेमाद्रौवायुराणम् —
उपवासे त्वशक्तस्तु आहिताग्निरथापि वा।
पुत्राद्वा कारयेदाप्ताद्ब्राह्मणाद्वाऽपि कारयेत्॥
अथवा विप्रमुख्येभ्यो दानं दद्यात्स्वशक्तितः।
उपवासफलं तस्य समग्रंसमवाप्यते॥
तत्र भोजनदोषोऽपि तत्क्षणादेव नश्यति।
हेमाद्रौकात्यायनः —
पितुर्भ्रातुर्मातुरर्थ आचार्यार्थे विशेषतः।
उपवासं प्रकुर्वाणः पुण्यं शतगुणं लभेत्॥
यमुद्दिश्य कृतः सोऽपि संपूर्णं लभते फलम्।
द्रव्यसंप्रतिपत्तौ वा एकादश्यामुपोषितः।
द्रव्यदातोपवासस्य फलं प्राप्नोत्यसंशयः॥
कर्ता नक्तमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।
नारी स्वपतिमुद्दिश्य एकादश्यामुपोषिता॥
पुण्यं शतगुणं प्राहुर्मुनयः पारदर्शिनः।
उपवासफलं तस्याः पतिः प्राप्नोत्यसंशयम्॥
यत्तु हेमाद्रौ मनुः —
नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम्।
विष्णुरपि —
पत्यौ जीवति या नारी उपवासव्रतं चरेत्।
आयुः संहरते भर्तुर्नरकं चैव गच्छति॥
तद्भर्त्राद्यननुमतोपवासविषयमाहतुर्हेमाद्रौ शङ्खलिखितौ — कामं भर्त्रनुज्ञया व्रतोपवासादीनारभेत। इति। हेमाद्रौ मार्कण्डेयपुराणम्—
नारी खल्वननुज्ञाता पित्रा भर्त्रा सुतेन वा।
निष्फलं तु भवेत्तस्या यत्करोति व्रतादिकम्॥ इति।
पतिमत्या उपवासे पुष्पादिनिषेधो नास्ति। तदाह माधवे मनुः —
पुष्पालंकारवस्त्रादिगन्धधूपानुलेपनम्।
उपवासे न दुष्यन्ति दन्तधावनमञ्जनम्॥ इति।
सूतकादिप्राप्तौ कर्तव्यमाह हेमाद्रौविष्णुरहस्यम् —
परमापदमापन्नो हर्षे वा समुपस्थिते।
सूतके मृतके चैव न त्याज्यं द्वादशीव्रतम्॥
हेमाद्रौ वाराहः —
सूतके तु नरः स्नात्वा प्रणम्य मनसा हरिम्।
एकादश्यां न भुञ्जीत व्रतमेवं न लुप्यते॥
द्वादश्यां च ततो भुक्त्वा सूतकान्ते जनार्दनम्।
पूजयित्वा विधानेन पूजयेच्च द्विजोत्तमान्॥
मृतकेऽपि न भुञ्जीत एकादश्यां सदा नरः।
द्वादश्यां तु समश्नीयात्स्नात्वाविष्णुं प्रणम्य च॥
पूर्वसंकल्पितं यत्तु व्रतं सुनियतव्रतैः।
तत्कर्तव्यं नरैः श्राद्धदानार्चनविवर्जितम्॥
माधवे मत्स्यः —
सूतकान्ते नरः स्नात्वापूजयित्वा जनार्दनम्।
दानं दत्त्वा विधानेन व्रतस्य फलमश्नुते॥ इति।
अन्यत्रापि —
सूतकात्प्राक्समारब्धमनेकाहं तु यद्व्रतम्।
कायिकं तत्तु कुर्वीत न तु दानार्चनं जपम्॥
सूतकाहे तु यत्किंचिद्दानाद्यन्तरितं भवेत्।
सूतकानन्तरे त्वह्नि तत्कर्तव्यमतन्द्रितैः॥ इति।
स्त्रीणां रजोदर्शनेऽपि न व्रतत्यागः। तदाह माधवे पुलस्त्यः —
एकादश्यां न भुञ्जीत नारी दृष्टे रजस्यपि।
तत्रैव ऋष्यशृङ्गः —
संप्रवृत्तेऽपि रजसि न त्याज्यं द्वादशीव्रतम्। इति।
माधवे सत्यव्रतः —
प्रारब्धदीर्घतपसां नारीणां यद्रजो भवेत्।
न तत्रापि व्रतस्य स्यादुपरोधः कदाचन॥
स्नात्वाभर्तुश्चतुर्थेऽह्नि शुद्धा स्यात्परिचारणे।
पञ्चमेऽहनि शुद्धा स्याद्दैवे पित्र्ये च कर्मणि॥
इति वचनाच्छुध्द्यनन्तरं देवार्चनादि कुर्यादिति माधवः।
अन्तरा तु रजोयोगे पूजामन्येन कारयेत्।
इति मात्स्यमिति मदनरत्नः। काम्योपवासे हेमाद्रिमाधवयोरङ्गिराः —
सायमाद्यन्तयोरहोः सायं प्रातश्च मध्यमे।
उपवासफलं प्रेप्सुर्जह्याद्भक्तचतुष्टयम्॥ इति।
तत्र दशमीनियमानाह हेमाद्रौ देवलः —
दशम्यामेकमक्तस्तु मांसमैथुनवर्जितः।
एकादश्यामुपवसेत्पक्षयोरुभयोरपि॥
हेमाद्रौ स्मृतिः —
दशम्यामेकभक्तं तु कुर्वीत नियतेन्द्रियः।
आचम्य दन्तकाष्ठं तु खादयेत्तदनन्तरम्॥
ततश्चानन्तरं विप्र ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः।
रात्रिं नयेत्ततः पश्चात्प्रातःस्नायी समाहितः॥
उपवासं तु संकल्प्य मन्त्रपूतं जलं पिबेत्।
हेमाद्रौ स्कान्दम् —
कांस्यं मांस मसूरांश्च चणकान्कोरदूषकान्।
शाकं मधु परान्नं च त्यजेदुपवसन्स्त्रियम्॥
उपवास करिष्यन्नित्यर्थ इति। हेमाद्रिः —
द्यूतमत्यम्बुपानं च दशम्यां वैष्णवस्त्यजेत्।
माधवे[^344] नारदः —
अक्षारलवणाः सर्वे हविष्यान्ननिषेविणः।
अवनीतल्पशयनाः प्रियासङ्गविवर्जिताः॥
क्षारो यवक्षारादि लवणविशेषणं वा क्षारग्रहणम्। तेन सैन्धवादेरनिषेध इत्याशौचप्रकरणे मनुस्मृतिटीकाकारो मेधातिथिः। अथैकादशीकृत्यम् —एकादश्यां प्रातर्दन्तधावनं कार्यम्।
प्रातःसंध्यामुपासीत दन्तधावनपूर्वकम्।
इति वचनात्।
उपवासे तथा श्राद्धे न खादेद्दन्तधावनम्।
दन्तानां काष्ठसंयोगो हन्ति सप्तकुलानि वै॥
इति हेमाद्रौवृद्धवसिष्ठवचने काष्ठसंयोग एव दोषश्रवणात्पर्णादिना दन्तधावनं कार्यमेव। अत एव हेमाद्रौपैठीनसिः —
अलाभे वा निषेधे वा काष्ठानां दन्तधावने।
पर्णादिना विशुद्धेन जिह्वोल्लेखः सदैव हि॥ इति।
पक्षान्तरमाह हेमाद्रौ व्यासः —
अलाभे दन्तकाष्ठानां निषिद्धायां तथा तिथौ।
अपां द्वादशगण्डूषैर्विदध्याद्दन्तधावनम्॥
ततः प्रातःकृत्यानन्तरं संकल्पः कार्यस्तत्रमन्त्रमाह हेमाद्रौदेवलः —
एकादश्यां निराहारो भूत्वाऽहमपरेऽहनि।
भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष गतिर्भव ममाच्युत॥
अत्र विशेषमाह निर्णयामृते देवलः —
गृहीत्वौदुम्बरं पात्रं वारिपूर्णमुदङ्मुखः।
उपवासं तु गृह्णीयाद्यथा संकल्पयेद्बुधः॥
औदुम्बरं ताम्रमयम्। यथा संकल्पयेद्यत्फलं कामयेत तत्फलकाम इत्युल्लेखं कुर्यात्। विशेषान्तरमाह हेमाद्रौ स्कन्दः —
रात्रिं नयेत्ततः पश्चात्प्रातः स्नायी समाहितः।
उपवासं तु संकल्प्य मन्त्रपूतं जलं पिबेत्॥
रात्रिंदशमीरात्रिं मन्त्रेणाष्टाक्षरेण त्रिरभिमन्त्रितं जलं पिबेदित्यर्थः। तथा च हेमाद्रौ मार्कण्डेयः —
अष्टाक्षरेण मन्त्रेण त्रिर्जप्तेनाभिमन्त्रितम्।
उपवासफलप्रेप्सुः पिबेत्तोयं समाहितः॥
इति। अत्रफलप्रेप्सुरिति लिङ्गात्काम्योपवास एवं जलपानमिति बोध्यम्। अत एव
उपवासफलप्रेप्सुर्जह्याद्भक्तचतुष्टयम्।
इत्यत्रेदं काम्यविषयमिति सर्वेषां सिद्धान्तः संगच्छते। नित्यव्रते तु हेमाद्रौ मार्कण्डेयः —
देवार्चनं ततः कृत्वा पुष्पाञ्जलिमथापि वा।
संकल्प्य मन्त्रमुच्चार्य देवाय विनिवेदयेत्॥
अत्र वाशब्द ऐच्छिकविकल्पार्थक इति यद्यपि हेमाद्र्यादिग्रन्थेभ्यः प्रतीयते, तथाऽपि व्यवस्थितविकल्पार्थक एव युक्तः पूर्वोक्तरीतेरित्यवधेयम्। अत एव नित्यव्रत एकादश्यामिति मन्त्रेणोपवाससंकल्पमीरयेत्। मानसिको व्यवसायः संकल्प इति कालादर्शः, नित्ये मनसैव मन्त्रेण
संकल्पयेदिति निर्णयामृतश्चसंगच्छते। शैवानां तु संकल्पमन्त्रो हेमाद्रौ शिवधर्मेषूक्तः —तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्। इति।सौराणां तु हेमाद्रौ सौरपुराणम् —
सावित्र्या त्वथ नाम्ना वा संकल्पं तु समाचरेत्॥ इति।
यदा पूर्वार्धरात्रानन्तरं दशम्यनुवर्तते, तदैकादश्याः पूर्वार्धं त्यक्त्वा पूजासंकल्पावनुष्ठेयौ। तदाह हेमाद्रिमाधवयोः स्मृतिः —
दशम्याः सङ्गदोषेण अर्धरात्रात्परेण तु।
वर्जयेच्चतुरो यामान्संकल्पार्चनयोस्तदा॥
यदा तु दिनोदये दशम्यनुवर्तते, तदा रात्रौ पूजासंकल्पोकार्यो। तदाह हेमाद्रौनारदः —
विद्धोपवासेऽनश्नंस्तुदिनं त्यक्त्वा समाहितः।
रात्रौ संपूजयेद्विष्णुं संकल्पं च तदाऽऽचरेत्॥
इति। [पुनः] हेमाद्रौनारदः —
वर्जयन्ति नरास्तज्ज्ञा यामांश्च चतुरो द्विज।
तदूर्ध्वं स्नानपूजादि कर्तव्यं तदुपोषितैः॥
न दिवा शुद्धिमाप्नोति तदा रात्रौविधीयते।
दिनकार्यमशेषं च कर्तव्यं शर्वरीमुखे॥ इति।
उपवासप्रतिनिधिषु भक्तादिष्वपि समन्त्रक एव संकल्पः कार्यः। तथा च हेमाद्रौस्कान्दः —
उपोष्यनक्तेन विभो चत्वारः कुञ्जसंयुताः॥ इति।
एकभक्तेन यो मर्त्य उपवासव्रतं चरेत्।
इत्यादिवचनेष्वेकभक्तादिषूपवासधर्मातिदेशार्थमुपवासशब्दप्रयोगः। कुण्डपायिनामयनगते कर्मणि मासमग्रिहोत्रं जुहोतीति वचनेऽग्निहोत्रधर्मातिदेशार्थमग्निहोत्रशब्दप्रयोगवत्।तेन संकल्पमन्त्रे निराहारपदस्थान एकादश्यां नक्ताहार इत्याद्यूहितपठितेन338 तन्मन्त्रेणैव संकल्पः कर्तव्य इति बोध्यम्। इदं चोपवासस्थानीयमेकभक्तादिकमुपवासयो ग्यायामेवैकादश्यां कार्यम्। तदुक्तं हेमाद्रौभविष्यत्पुराणे द्वादशीकल्पे —
पूर्णाविद्धां पलार्धेन नन्दांपूर्णामपि त्यजेत्।
**यदीच्छेदात्मसंतानं चतुर्षु नियमेष्वपि। **
नोपोषितं न नक्तं च नैकभक्तमयाचितम्॥
**नन्दायांपूर्वविद्धायां कुर्यादैश्वर्यमोहितः। **
**एकादशी युता शस्ता द्वादश्या समुपोषणे॥ **
**नक्ते वाऽयाचिते नित्यमेकभक्ते तथाऽर्चने। **
नक्तं वाऽयाचितं तात नैकभक्तमुपाहरेत्॥
दशमीसहितं दानमनर्थं हरिवासरे॥ इति।
एकादश्यां देवस्योपरि पुष्पमण्डपं कुर्यात्। तदाह माधवे ब्रह्मपुराणम् —
**एकादश्यामुभे पक्षे निराहारः समाहितः। **
नानापुष्पैर्नरश्रेष्ठ विचित्रं पुष्पमण्डपम्॥
कृत्वा चाऽऽवरणं338 पश्चाज्जागरं कारयेन्निशि।
तस्मिन्मण्डपे देवं पूजयेत्। तदाह ब्रह्मपुराणम् —
एकादश्यामुभे पक्षे निराहारः समाहितः।
**स्नात्वा सम्यग्विधानेन सोपवासो जितेन्द्रियः॥ **
संपूज्य विधिवद्विष्णुं श्रद्धया सुसमाहितः।
पुष्पैर्गन्धैस्तथा धूपैर्दीपैनैवेद्यकैः परैः॥
**उपचारैर्बहुविधैर्जपैर्होमैः प्रदक्षिणैः। **
**स्तोत्रैर्नानाविधैर्दिव्यैर्गीतवाद्यैर्मनोहरैः॥ **
दण्डवत्प्रणिपातैश्च जयशब्दैस्तथोत्तमैः।
**एवं संपूज्य विधिवद्रात्रौ कृत्वा प्रजागरम्॥ **
याति विष्णोः परं स्थानं नरो नास्त्यत्र संशयः॥ इति।
मदनरत्ने बृहन्नारदीयम् —
**पञ्चामृतेन संस्नाप्य एकादश्यां जनार्दनम्। **
द्वादश्यां पयसा स्नाप्य हरिसायुज्यमश्नुते॥ इति।
संकल्पप्रभृतिपारणपर्यन्तं पाषड्यादिभिः संभाषणादि न कार्यं तदुक्तं हेमाद्रौविष्णुधर्मेषु —
**पाषण्डिभिरसंस्पर्शं समं भाषणमेव च। **
विष्णोराराधनपरैर्नैव कार्यमुपोषितैः॥
हेमाद्रौविष्णुपुराणे —
तस्मात्पाषण्डिभिः पापैरालापस्पर्शने त्यजेत्।
विशेषतः क्रियाकाले यज्ञादौ चापि दीक्षितः॥
वेदबाह्यागमविहितकारिणः पाषण्डिन इति हेमाद्रिः।हेमाद्रौ कूर्मः —
बहिर्ग्रामान्त्यजान्सूतिं पतितं च रजस्वलाम्।
न स्मृशेन्नाभिभाषेत नेक्षेत व्रतवासरे॥
विष्णुरहस्यम् —
नृत्यालोकनगन्धादिस्वादनं परिकीर्तनम्।
अन्नस्य वर्जयेत्सर्वं ग्रासानां चाभिकाङ्क्षणम्॥
गात्राभ्यङ्गं शिरोभ्यङ्गं ताम्बूलं चानुलेपनम्।
व्रतस्थो वर्जयेत्सर्वं यच्चान्यदलरागकृत्॥
हेमाद्रौ देवलः —
ब्रह्मचर्यमहिंसा च सत्यमामिषवर्जनम्।
व्रतेष्वेतानि चत्वारि चरितव्यानि नित्यशः॥
स्त्रीणां तु प्रेक्षणात्स्पर्शात्ताभिः संकथनादपि।
भिद्यते ब्रह्मचर्यं तु न दारेष्वृतुसंगमात्॥
असकृज्जलपानाच्च ताम्बूलस्य च भक्षणात्।
उपवासः प्रदुष्येत दिवास्वापाच्चमैथुनात्॥
अत्यये चाम्बुपानेन नोपवासः प्रणश्यति।
अशक्तावसकृदपि पानेनेत्यर्थः। पाषण्ड्यादिदर्शनादौ प्रायश्चित्तमुक्तं विष्णुपुराणे —
तस्यावलोकनात्सूर्यं पश्येत मतिमान्नरः।
संस्पर्शे तु बुधः स्नात्वा शुचिरादित्यदर्शनात्॥
संभाष्यतां शुचिषदं चिन्तयेदच्युतं बुधः।
इदं चोदाहरेत्सम्यकृत्वा तत्प्रवणं मनः।
शारीरमन्तःकरणोपघातं वाचश्च विष्णुर्भगवानशेषम्॥
शमं नयत्वस्तु ममेह शर्म पापादनन्ते हृदि संनिविष्टे।
अन्तःशुद्धिंबहिः शुद्धिं शुद्धो धर्ममयोऽच्युतः॥
स करोत्वमले तस्मिञ्शुचिरेवास्मि सर्वदा।
बाह्योपघाताननघो बौद्धांश्चभगवानजः॥
शमं नयत्वनन्तात्मा विष्णुश्चेतसि संस्थितः।
एतत्संभाष्य जप्तव्यं पाषण्डिभिरुपोषितैः॥
नमः शुचिषदेत्युक्त्वा सूर्यं पश्येत्तु दीक्षितः॥ इति।
माधवे विष्णुधर्मे —
असंभाष्यान्हि संभाष्य तुलस्यतसिकादलम्।
आमलक्याः फलं वाऽपि पारणे प्राश्य शुध्यति॥
कालादर्शे तु तुलस्या विमलं दलमिति पाठः। हेमाद्रौयाज्ञवल्क्यः —
यदि वाग्यमलोपः स्यात्स्नानदानजपादिषु।
व्याहरेद्वैष्णवं मन्त्रं स्मरेद्वा विष्णुमव्ययम्॥
कालादर्शे विष्णुरहस्ये —
श्राद्धोपवासदिवसे खादित्वा दन्तधावनम्।
गायत्र्याः शतसंपूतमम्बु प्राश्य विशुध्यति॥
कालादर्शे शङ्खः —
कृत्वा स्तेयं तथा हिंसां यथार्थं शास्त्रचोदितम्।
प्रायश्चित्तं व्रती कृत्वा जपेन्नामशतत्रयम्॥
कालादर्शे कात्यायनः —
मिथ्यावादे दिवा स्वापे बहुशोऽम्बुनिषेवणे।
अष्टाक्षरं व्रती जप्त्वा शतमष्टोत्तरं शुचिः॥
कालादर्शे पैठीनसिः —
ताम्बूलचर्वणे स्त्रीसंभोगे मांसनिषेवणे।
व्रतलोपो भवेत्कुर्यादष्टाक्षरमनोर्जवम्॥ इति।
द्वादशीकृत्यमाह हेमाद्रौ कात्यायनः —
प्रातः स्नात्वा हरिं पूज्य उपवासं समर्पयेत्।
अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव॥
प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव।
पारणं तु ततः कुर्याद्यथासंभवमार्गतः॥
यथासंभवत्वं ब्राह्मणभोजनादिषु।तान्याह बृहन्नारदीयम् —
ब्राह्मणान्भोजयेच्छक्त्या दद्याद्वै दक्षिणां तथा।
ततः स्वबन्धुभिः सार्धं नारायणपरायणः॥
कृतपञ्चमहायज्ञः स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः।
तिथितत्त्वे कात्यायनः —
द्वादश्यां पारणं कुर्याद्वर्जयित्वा ह्युपोदकीम्॥
उपोदकीं पूतिशाकम्। माधवे स्कान्दम् —
कृत्वा चैवोपवासं तु योऽश्नाति द्वादशीदिने।
नैवेद्यं तुलसीमिश्रं हत्याकोटिविनाशनम्॥
हेमाद्रौब्रह्माण्डपुराणम् —
कांस्यं मांसं सुरां क्षौद्रं लोभं वितथभाषणम्।
व्यायामं च प्रवासं च दिवास्वापमथाञ्जनम्॥
तिलपिष्टं मसूरांश्च द्वादशैतानि वैष्णवः।
द्वादश्यां वर्जयेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
पुनर्भोजनमध्यायो भारमायासमैथुने (?)।
उपवासफलं हन्युर्दिवानिद्रा च पञ्चमी।
हेमाद्रौबहस्पतिः —
दिवानिद्रा परान्नं च पुनर्भोजनमैथुने।
क्षौद्र कांस्यामिषं तैलं द्वादश्यामष्ट वर्जयेत्॥
कास्यं मांसं सुरां द्यूतं व्यायामं क्रोधमैथुने।
दिवा स्वापं पुनर्मुक्तं चणकान्कोरदूषकान्॥
हेमाद्रौ स्कान्दम् —
क्षौद्रं मांसं सुरां तैलं व्यायामं क्रोधमैथुने।
परानं कांस्यताम्बूले लोभं निर्माल्यलङ्घनम्॥
द्वादश्यां द्वादशैतानि वैष्णवः परिवर्जयेत्।
इदं सर्वं नियमजातं क्वचिदुपवासफलप्रेप्सुरिति, क्वचिदुपवासफलं हन्युरिति च श्रवणात्काम्यव्रतविषयमेवावसीयते। येषु वाक्येषु फलसंबन्धो न श्रूयते तत्रापि काम्यविषयसाहचर्येण पाठात्संकल्पनीय इति बोध्यम्। नित्योपवासप्रकारमाह माधवे विष्णुरहस्यम् —
अथ नित्योपवासी चेत्सायं प्रातर्भुजिक्रियाम्॥
वर्जयेन्मतिमान्विप्रः संप्राप्ते हरिवासरे।
माधवे ब्रह्मवैवर्तम् —
इति विज्ञाय कुर्वीतावश्यमेकादशीव्रतम्।
विशेषनियमाशक्तोऽहोरात्रं भुजिवर्जितः339॥
निगृहीतेन्द्रियः श्रद्धासहायो विष्णुतत्परः।
उपोष्यैकादशीं पापान्मुच्यते नात्र संशयः॥
शक्तौ सत्यां नियमावश्यकतामाह माधवे कात्यायनः —
शक्तिमांस्तु पुनः कुर्यान्नियमं सविशेषणम्॥ इति।
अशक्तस्य तु —
एकभक्तेन नक्तेन बालवृद्धातुरः क्षिपेत्।
पयोमूलफलैर्वाऽपि न निर्द्वादशिको भवेत्॥
इत्यनुकल्पः पूर्वमुक्त एव। भोजनमात्रवर्जनसमर्थं प्रति आवश्यकनित्यव्रतस्यापि
विशेषनियमाशक्तोऽहोरात्रं मुक्तिवर्जितः।
इत्यादिवचनैर्भोजनमात्रवर्जनपर्यवसायित्वप्रतिपादनात्। अत एवैकादश्यामुपवासाकरणे प्रायश्चित्तं स्मर्यत इति माधवस्य, एकादश्यां भोजने प्रायश्चित्तं स्मर्यत इति मदनरत्नस्य न परस्परं विरोधः। शब्दभेदेऽप्यर्थस्यैकत्वात्। अन्यथा विरोधः स्पष्ट एवेति बोध्यम्।समर्थस्यैकादश्यां भोजने प्रायश्चित्तमाह माधवीये स्मृतिः —
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां दिवा भुक्त्वैन्दवं चरेत्।
एकादश्यामहोरात्रं नक्तं चैव तु पर्वणि॥
स्मृत्यन्तरमपि —
अर्के पर्वद्वये रात्रौ चतुर्दश्यष्टमी दिवा।
एकादश्यामहोरात्रं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्॥ इति।
अत्रेदं चिन्त्यते — किमेकादशीव्रतयोग्याहोरात्राधिकरणके भोजन इदं प्रायश्चित्तमुतैकादश्यधिकरणके भोजन इति। तत्र तावदेकादश्यधिकरणक एव युक्तम्। तथा च प्रतिपत्प्रकरणे माधवे वृद्धगार्ग्यः
निमित्तं कालमादाय वृत्तिर्विधिनिषेधयोः।
विधिः पूज्यतिथौ तत्र निषेधः कालमात्रकः॥ इति।
तिथीनां पूज्यत्वं नाम कर्मानुष्ठानयोग्यता।निषेधस्तु निवृत्त्यात्मा कालमात्रमपेक्षत इति। तस्यार्थः — न्यायसिद्धोऽप्ययमर्थो न केवलं वाचनिकः। तथा हि विधिवाक्यात्कालविशेषे विधेयानुष्ठानस्याभ्युदयहेतुत्वं प्रतीयते। तत्र सकृदनुष्ठानादेवाभ्युदयसिद्वेर्विशेषणकालानुरोधेन प्रधा-
नावृत्तेरनुचितत्वात्सकृदेवानुष्ठानं, निषेधवाक्यात्तु कालविशेषानुष्ठानस्यानर्थहेतुत्वं प्रतीयते यदा कदाऽपि तत्काले तत्कर्मानुष्ठानेऽनर्थापत्तेः सर्वस्मिन्नपि तत्काले तद्वर्जनीयमिति। तस्माद्वाक्यान्न्यायादर्कादिसाह चर्याच्चैकादृश्यधिकरणक एव भोजने प्रायश्चित्तम्। अत एव सिद्धिस्तस्यार्थतो व्रते। अस्यार्थः — उपवासव्रतेऽनुष्ठीयमानेऽर्थतः प्रसङ्गात्तस्यां न निषेधस्य सिद्धिर्यथा काम्यानुष्ठाने प्रसङ्गान्नित्यसिद्धिरिति कालादर्शात्सर्वेषां पक्षद्वयेऽपि भोजनमात्रवर्जनं निषेधपरिपालनार्थं पुत्रवद्गृहस्थव्यतिरिक्तानां पक्षद्वयेऽप्युपवासव्रतं, गृहस्थस्य शुक्लायामेव व्रतं, शयनीबोधिनीमध्ये कृष्णायामपि, तदपि पुत्ररहितस्येति हेमाद्रिसिद्धान्तादपि व्रतभोजननिषेधपरिपालनयोरेकदिन एवानुष्ठानं सर्वदा प्रतीयमानमप्युपेक्ष्यम्। एकस्मिन्दिन उभयोः प्राप्तौ व्रतानुष्ठानेनैव निषेधपरिपालनसिद्धिर्निषेधपरिपालनस्य तिथ्युपक्रमावसानपरिच्छिन्नत्वाद्व्रतस्य च पूज्यतिथिगामित्वात् पूर्वापरदिनयोर्निषेधव्रतयोः प्राप्तौ कृष्णपक्षे च गृहस्थानां केवलनिषेधस्य प्राप्तौ पूर्वदिने फलादिभक्षणेन निषेधपरिपालनमुत्तरदिने च व्रतानुष्ठानमिति कालतत्त्वविवेचनसिद्धान्तः संगच्छत इति चेन्न। धर्मिग्राहकमानविरोधापत्तेः। तथा हि —
अष्टवर्षाधिको मर्त्यः अशीतिर्न हि पूर्यते।
यो भुङ्क्तेमामके राष्ट्रे विष्णोरहनि पापभाक्॥
स मे वध्यश्चदण्ड्यश्च निर्वास्यो देशतः स मे।
एतस्मात्कारणाद्विप्रएकादश्यामुपोषणम्॥
कुर्यान्नरो वा नारी वा पक्षयोरुभयोरपि।
इति हेमाद्रौनारदीयपुराणं निषेधविधायकमिति सर्वेषां संमतम्। अत्र भोजननिषेध उपोषणशब्दप्रयोगस्य मासाग्निहोत्रशब्दस्याग्निहोत्रधर्मातिदेशार्थत्ववदुपवासधर्माति-देशार्थत्वादुपवासयोग्यायोमैवकादश्यां निषेधप्रतिपादनात्,
पूर्णाविद्धां पलार्धेन नन्दां पूर्णामपि त्यजेत्।
यदीच्छेदात्मसंतानं चतुर्षु नियमेष्वपि॥
नोपोषितं न नक्तं च नैकभक्तमयाचितम्।
नन्दायां पूर्वविद्धायां कुर्यादैश्वर्यमोहितः॥
इतिहेमाद्रिमाधवयोर्द्वादशीकल्पवचनेन विद्धायां तन्निषेधाच्च।
शुक्ला वाऽथ सदा कार्या न त्याज्या संकटेष्वपि।
शुक्लायां यस्तु वै भुङ्क्तेस भुङ्क्ते किल्बिषं नरः॥
इति हेमाद्रौभविष्योत्तरवचनादपि तथैव प्रतीतेः।
प्रातर्हरिदिनं लोकास्तिष्ठध्वं चैकभोजनाः॥
इति हेमाद्रौपुराणान्तरवचने च स्पष्टतरं तथैव प्रतीतेः। उपवासयोग्यदिने भोजन एवं पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तमित्येव स्वीकर्तव्यम्। अन्यथा
कांस्यं मांसं मसूराश्चपुनर्भोजनमैथुने।
द्यूतमत्यम्बुपानं च दशम्यांसप्त संत्यजेत्॥
इत्यादीनां विद्धाधिकायामप्रवृत्तेः,
दिवा निद्रा परान्नं च पुनर्भोजनमैथुने।
क्षौद्रं कांस्यामिषं तैलं द्वादश्यामष्ट वर्जयेत्॥
इत्यादीनां चाल्पद्वादशीयुक्तत्रयोदश्यां चाप्रवृत्तेः, व्रतदिनात्पूर्वदिन गत एकादशीयुते मध्याह्ने दशम्यामेकभक्तस्तु,
दशम्यामेकभक्तं तु कुर्वीत नियतेन्द्रियः।
इत्यादीनामप्रवृत्तेर्विद्धानधिकद्वादशीकायामेकादश्यां निराहार इति संकल्पवाक्यविलोपापत्तेश्च सर्वोपप्लव एव स्यादिष्टापत्तौ विधिस्पृष्टे निषेधायोग इति सिद्धान्तो विरुध्येत। अत एव प्रायपाठोऽप्यकिंचित्कर एव। अपि च चातुर्मास्यानन्तर्गतायामुभयाधिक्यवत्यां शुद्धायामपि कृष्णायामुपवासयोग्य उत्तरदिन एव शिष्टानां विदुषां निषेधपरिपालनाचारोऽपि विरुध्येतेति दिक्। तस्माद्धेमाद्रिणा प्रवट्टकान्तरे नारदीयप्रथमवाक्यस्यैवोपन्यासात्तन्मात्रदर्शनप्रयुक्तो द्वितीयवाक्यादर्शनप्रयुक्त एव कालतत्त्वविवेचनसिद्धान्त इति बोध्यम्। तथा चैकादशीप्रकरणस्थानेकवाक्याविरोधाय निमित्तकालमादायेति वाक्यस्यैवैतत्रितयातिरिक्तविषयत्वं, दशमीशब्दस्य व्रतदिनात्पूर्वदिनोपलक्षकत्वमेकादशीशब्दस्य व्रतदिनोपलक्षकत्वं, द्वादशीशब्दस्य पारणदिनोपलक्षकत्वमेव स्वीकर्तुं युक्तम्। अत एवोदाहृतकालादर्शहेमादयादयः संगच्छन्त इति विभावनीयं सूरिभिः। पूर्वोक्तेपु द्वादशीनियमेषु मध्ये नित्यव्रते पारणमेवाऽऽवश्यकमन्येषामनुष्ठानेऽभ्युदयोऽननुष्ठाने प्रत्यवायाभाव इति बोध्यम्।
नित्यव्रताङ्गमपि पारणं द्वादश्यल्पा चेद्रात्रिशेष एव स्नानादि सर्वमनुष्ठाय द्वादशीमध्य एव कार्यम्। तदाह हेमाद्रौ पद्मपुराणम् —
यदा भवति स्वल्पा तु द्वादशी पारणादिने।
उषःकाले द्वयं कुर्यात्प्रातर्माध्याह्निकं तदा॥
नारदीयपुराणम् —
अल्पायामथ विप्रेन्द्र द्वादश्यामरुणोदये।
स्नानार्चनक्रिया कार्या दानहोमादिसंयुता॥
हेमाद्रौकूर्मम् —
एकादश्यामुपोष्यैवं द्वादश्यां पारणं स्मृतम्।
त्रयोदश्यां न तत्कुर्याद्वादश द्वादशीक्षयात्॥
हेमाद्रौविष्णुरहस्यम् —
दशम्यनुगता हन्ति द्वादशद्वादशीफलम्।
धर्मापत्यधनायूंषि त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
हेमाद्रौ कूर्मः —
कलाद्वयं त्रयं वाऽपि द्वादशीं न त्वतिक्रमेत्।
अतिक्रान्ता द्वादशी तु हन्ति पुण्यं पुरा कृतम्॥
भविष्यत्पुराणम् —
यो द्वादशीमतिक्रम्य पारणं कुरुते नरः।
द्वादशाब्दं व्रतं तस्य तत्क्षणादेव नश्यति॥
ननु द्वादश्यतिक्रमेऽपि न दोषः, सा तिथिः सकला ज्ञेयेति वचनेन साकल्यबोधनादिति चेन्न। स्नानदानजपादिष्विति वाक्यशेषेण स्रानादिष्वेव तद्बोधनात्। अतएव हेमाद्रौवसिष्ठः —
पारणे मरणे नॄणां तिथिस्ताकालिकी स्मृता॥ इति।
यदात्रयोदश्यां कियन्मात्रा द्वादशी न संपूर्णपारणपर्याप्ता, तत्र साकल्यमाह हेमाद्रौपाद्मम् —
त्रयोदश्यां यदा राजन्द्वादश्यास्तु कला भवेत्।
सा तिथिः सकला चेति वसिष्ठः प्राह धर्मवित्॥
हेमाद्रौ स्कान्दे —
कलाद्वयं त्रयं वाऽपि द्वादश्याः समतिक्रमेत्।
एकादशीमुपोषित्वा तत्र धर्मं फलं व्रजेत्॥
धर्मं यममित्यर्थः। हेमाद्रौ पाद्मम् —
यदि किंचित्त्रयोदश्यां द्वादशी चोपलभ्यते।
द्वादश्यां पारणे तत्र वर्जयेच्चत्रयोदशीम्॥
महाहानिकरी ह्येषा द्वादशी लङ्घिता नरैः।
करोति धर्महरणमस्नातेव सरस्वती॥
अथवा द्वादशी न स्यात्स्वल्पाऽपि रविसंयुता।
पारितव्यं त्रयोदश्यां महापुण्यविवृद्धये॥ इति।
एतेन त्रयोदश्यां पारणनिषेधवचनानि त्रयोदश्यां द्वादशीसद्भाव विषयाणीति ज्ञेयम्। न स्नातं यस्यां साऽस्नाताऽधिकरणे क्तः। गङ्गादिसरित्सूत्तीर्य परस्मिंस्तीरे स्रातव्यं, सरस्वत्यां तु स्नात्वा परपारे गन्तव्यमित्यर्थः। स्रानं विना लङ्घ्यमाना सरस्वती यथा धर्महरणं करोति, एवं पारणलङ्घिता द्वादश्यपीत्यर्थः। यस्यारुणोदयकालाधिककाल साध्यं जपादिकमावश्यकं, तेनापि तद्दिने संख्यासंकोचेनाप्यावश्यकं कृत्वा द्वादशीमध्य एव पारणं कर्तव्यमित्यर्थो महाहानिकरीत्यनेन बोधितः। यानि तु —
कला काष्ठामुहूर्तं तु यदि चेन्न परेऽहनि।
द्वादश द्वादशीर्हन्ति त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इति त्रयोदश्यां द्वादश्यसंभवमनूद्य पारणनिषेधकानि तानि
विद्धाऽप्येकादशी ग्राह्या परतो द्वादशी न चेत्।
द्वादश द्वादशीर्हन्ति त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
इत्यादिभिः समानार्थत्वात्स्मार्तविषयाणीति बोध्यम् ।हेमाद्रौ नारदीयम् —
एतस्मात्कारणाद्विप्राः प्रत्यूषे स्नानमाचरेत्।
पितृतर्पण संयुक्तं दृष्ट्वाऽल्पां द्वादशीतिथिम्॥
हेमाद्रौभविष्यत्पुराणम् —
अल्पायामथ भूपाल द्वादश्यामरुणोदये।
स्नानार्चनक्रिया कार्यो340 दानहोमादिसंयुता॥
अत्र होमो वैश्वदेवहोमः, उपासनहोमश्च।अग्निहोत्रहोमोऽप्यनुदितहोमिनाम्। उदितहोमिनां त्वग्निहोत्रहोम उदद्यात्पूर्वं न भवतीति
पौराणधर्मानुरोधेन श्रौतकालबाधस्यायुक्तत्वात्, अनाहिताग्न्यादिविषयत्वेन तस्य सावकाशत्वाच्च।हेमाद्रौ स्कान्दम् —
कलाद्वयं त्रयं वाऽपि द्वादशी यत्र दृश्यते।
स्नानार्चनादिकं कर्म तदा रात्रौ विधीयते॥ इति।
एतैर्वचनैर्विहितस्य भोजनपूर्वभाव्यौपासनहोमदेवार्चनवैश्वदेवाद्यपकर्षस्य भोजनापकर्षविधायकवाक्यविषयतामपि दर्शयति। हेमाद्रौ कात्यायनः—
क्रमवत्सु च कृत्येषु यद्यन्तमपकृष्यते।
तदा सर्वापकर्षः स्यादन्यथाक्रमबाधनात्॥ इति।
अत्र क्रमबाधो विपरीतपौर्वापर्यभावेन पदार्थानामनुष्ठानात्तेषामननुष्ठानाद्वा। तत्र प्रकृते —
यो मोहादथवाऽऽलस्यादकृत्वा देवतार्चनम्।
भुङ्क्ते स याति नरकं सूकरेष्वभिजायते॥
अकृत्वा वैश्वदेवं तु भुञ्जते ये द्विजाधमाः।
सर्वे ते निष्फला ज्ञेयाः पतन्ति नरकेऽशुचौ॥
इत्यादिकूर्मपराशरादिवचनैर्भोजनात्पूर्वमेवावश्यानुष्ठानबोधनाद्भोजनोत्तरमनुष्ठानासंभवात्। हेमाद्रौजैमिनिः — तदादि वाऽभिसंबन्धात्तदन्तमपकर्षे स्यात्तत्र प्रकृतौ हविषि आसादिते प्रयाजाः क्रियन्ते तेषामग्नीषोमीये पशावपकर्षः श्रूयते तिष्ठन्तं पशुं प्रयजन्तीति। तत्र वचनाद्भवतु प्रयाजानामपकर्षस्तत्पूर्वभाव्याघारादीनामपकर्षे विना वचनं प्रधानसंनिधिबाधः स्यादित्याक्षेपे, प्रकृतौ पदार्थानुष्ठानक्रमस्य क्ऌप्तत्वात्सक्रमाणामेव पदार्थानां चोदकेनातिदेशाव्युत्क्रमे सति पूर्वपदार्थेनोत्तरस्य बुद्धावनुष्ठापितत्वात्तस्यानुष्ठानं न स्यात्तस्मात्प्रयाजान्तस्याङ्गसमूहस्यापकर्ष इति न्यायशरीरम्।प्रकृतेऽपि भोजनोत्तरं देवपूजादीनां लोपःस्पष्ट एवेति न्यायविषयता स्पष्टैव। एतेन यत्तु हेमाद्रिणा जैमिनीयसूत्रस्य कातीयवचनस्य चोपन्यासेन भोजनापकर्षे तत्पूर्वभाविनैसर्गिकनित्यकृत्यापकर्षस्य न्यायसिद्धत्वमेवोक्तं, तद्वैश्वदेवादेरन्नसंस्कारत्वेन भोजनार्थत्वात्। तदभावेऽपि वा दर्शपूर्णमाससोमयागवद्वाचनिकपौर्वापर्यमात्रसद्भावात्तदपकर्षे कथंचिद्भवतु नाम, प्रातरौपासनहोमदेव-
पूजादेस्तु तद्भावात्तदपकर्षे तदयुक्तमेवेति वाचनिक एवायमर्थ इत्येव युक्तमिति कालतत्त्वविवेचने दूषणोद्भावनं, तद्धेमाद्रिदूषणाभिनिवेशमात्रप्रयुक्तमिति स्पष्टमेव।अपि चापकर्षविधायकानेकवचनोपन्यासे हेमाद्रौ स्पष्टे न्यायसिद्धत्वमेव हेमाद्रिणोक्तमित्युक्तिरौपासनहोमदेवपूजावैश्वदेवानां समाने पूर्वभावित्वे वैश्वदेवांशेऽपकर्षाभ्युपगमोऽन्यत्र तदनभ्युपगमोऽपि कथमिति चिन्तनीयमिति दिक्। पारणं द्वादशीप्रथमपादमतिक्रम्य कर्तव्यम्। तदाह निर्णयामृतमदनरत्नयोर्विष्णुधर्मोत्तरम् —
द्वादश्याः प्रथमः पादो हरिवासरसंज्ञकः।
तमतिक्रम्य कुर्वीत पारणं विष्णुतत्परः॥ इति।
इदं वैष्णवानामावश्यकं वचनस्वारस्यात्। अत एव हेमाद्रिमाधवादीनामस्यानुपन्यासेऽपि न न्यूनतेति बोध्यम्। यदा तु भागद्वयोत्तरं पारणपर्याप्ता द्वादशी, तदा समर्थेन भागद्वयानन्तरमेव पारणं कार्यम्।
दिवा भागद्वयादूर्ध्वमानिशीथात्तु चेन्निशि।
द्विजभोजनकालोऽयं बालवृद्धातुरं विना॥ इति।
विद्धन्यूनसमद्वादशीकाप्रकरणे हेमाद्र्युदाहृतवचनबाधे प्रमाणाभावात्। न च प्रातरेव हि पारणमिति तद्बाधकमिति शङ्क्यम्। भोजनप्रकरणगतप्रातःशब्दो मध्याह्नपर एवेति सर्वसिद्धान्तादिति विभावनीयम्। एतेन माध्याह्निकापकर्षस्तु भूयस्यामपि द्वादश्यां भवत्येव।
सर्वेषामुपवासानां प्रातरेव हि पारणम्।
इति वचनादिति कालतत्त्वविवेचनं चिन्त्यम्। यदा तु त्रयोदशीनिमित्तकक्षयाहश्राद्धादिकं संकटान्तरं वा भवति तदा स्वल्पायां द्वादश्यामद्भिः पारणं कृत्वा श्राद्धाद्यनन्तरं भोक्तव्यम्। तदाह माधवे देवल : —
संकटे विषमे प्राप्ते द्वादश्यां पारयेत्कथम्।
अद्भिस्तत्पारणं कुर्यात्पुनर्भुक्तं न दोषकृत्॥
तत्रैव कात्यायनोऽपि —
संध्यादिकं भवेन्नित्यं पारणं तु निमित्ततः।
अद्भिस्तु पारयित्वाऽथ नैत्यकान्ते भुजिर्भवेत्॥ इति।
अथैकादश्यादिधर्मसंदेहे निर्णायकत्वेन येषां वचनमुपादेयं तानाहतुर्हेमाद्रौपुलस्त्य सत्यव्रतो —
धर्मेषु नियता ये च धर्मशास्त्रार्थचिन्तकाः।
वेदशास्त्रविदो ये च तेषां वचनमौषधम्॥
हेमाद्रौव्यासः —
वेदवेदार्थतत्त्वज्ञा धर्मशास्त्रार्थचिन्तकाः।
सदाचारपरा ये वै तेषां वचनमौषधम्॥
हेमाद्रौदेवीपुराणम् —
ये च न्यायविदः शान्ता धर्मशास्त्रार्थवेदिनः।
स्वकर्मनिरता दान्तास्तेषां वचनमौषधम्॥
औषधमिवोपादेयमित्यर्थः। हेमाद्रावापस्तबः —
यं शिष्टा ब्राह्मणा ब्रूयुः स धर्मो मानुषः स्मृतः।
आर्षधर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना॥
यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेत्ति तत्त्वतः।
हेमाद्रौ शारदापुराणम् —
पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रार्थचिन्तकाः।
सदाचारपरा ये वै तदुक्तं यत्नतश्चरेत्॥
अनुपादेयवचनान्दर्शयति हेमाद्रौ स्कन्द : —
वेदाधिगमहीना ये शौचाचारविवर्जिताः।
नास्तिकाः पण्डितंमन्यास्तेषां वाक्यं विवर्जयेत्॥
वैश्वदेवविहीना ये जपयज्ञविवर्जिताः।
देवताविमुखा ये च तेषां वाक्यं विवर्जयेत्॥
हेमाद्रौ पाद्मम् —
वाचं व्याकुरुते नैव मीमांसान्तं तथाऽध्वरम् ।
शुष्कतर्करता ये वै तेषां वाक्यं विवर्जयेत् ॥
हेमाद्रौ स्कान्दम् —
येषां विश्वेश्वरे विष्णौ शिव भक्तिर्न विद्यते।
न तेषां वचनं ग्राह्यं धर्मनिर्णयसिद्धये॥ इति।
हेमाद्रौ कालिकापुराणे —
वेदे च देवतायां च कर्मण्यपि च वैदिके।
श्रद्धा नास्ति च येषां वै तेषां वाक्यं विवर्जयेत्॥
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्ड एकादशीनिर्णयः।
अथ द्वादशी निर्णीयते — सा च रुद्रेण द्वादशीयुक्तेति युग्मवाक्यात्
द्वादशी च प्रकर्तव्या एकादश्या युता प्रभो।
सदा कार्या च विद्वद्भिर्विष्णुभक्तैश्च मानवैः॥
इति हेमाद्रौस्कान्दाच्चैकादशीयुतैव ग्राह्या । उपवासेऽप्येकादशीयुतैव। तदाह हेमाद्रौगार्ग्यः —
एकादशी तथा षष्ठी अमावास्या चतुर्थिका।
उपोष्याः परसंयुक्ताः पराः पूर्वेण संयुताः॥ इति।
द्वितीया पञ्चमी वेधाद्दशमी च त्रयोदशी।
चतुर्दशी चोपवासे हन्युः पूर्वोत्तरे तिथी॥
इति बृहद्वासिष्ठादिवचनैरुत्तरविद्धानिषेधाच्च। नन्वेवमेकादश्युपवासो द्वादश्युपवासश्चेत्युभयमेकस्मिन्दिने प्राप्नोति तच्चैकेन संपादयितुमशक्यमिति चेन्न। विरोधाभावेन सहैवानुष्ठानात्।
असमाप्ते व्रते पूर्वे नैव कुर्याद्व्रतान्तरम्॥
इति तु एकस्य व्रतस्य मध्ये व्रतान्तरं निषेधति। प्रकृते तु व्रतद्वयस्यापि सहैवोपक्रम इति तन्त्रेणानुष्ठानात्। न चैवमपि संपूर्णतिथावेकादश्युपवासस्य
पारणान्तं व्रतं ज्ञेयं व्रतान्ते तद्धि भोजनम्।
इत्यनेन पारणं विना समाप्त्यभावबोधनादद्वादश्युपवासोपक्रमो न संभवतीति वाच्यम्। यदनाश्वानुपवसेत्क्षोधुकः स्याद्यदनीयाद्रुद्रोऽस्य पशूनभिमन्येतापोऽश्नाति तन्त्रैवाशितं नैवानशितमिति याजमानब्राह्मणेनाशनस्योभयरूरत्व प्रतिपादनादद्भिः पारणं कृत्वैव द्वितीयोपवासोपक्रमसंभवात्। इदं सर्वोपवाससाधारणम् । प्रकृते तु —
एकादशीमुपोष्यैव द्वादशीं समुपोषयेत्।
न तत्र विधिलोपः स्यादुभयोर्दैवतं हरिः॥
इति341भविष्योत्तरे नैरन्तर्येणोपवासद्वयविधानाच्च। उपवासद्वयाशक्तौ द्वादश्युपवासेनैवोभयफलप्राप्तिस्तथा च हेमाद्रिमाधवयोः स्मृतिः —
एकामेकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्।
पूर्ववासरजं पुण्यं सर्वं प्राप्नोत्यसंशयम्॥ इति।
ननु नित्यैकादशीत्यागोऽनुचित इति चेन्न। मार्कण्डेयेनैकादशीमु —
पोष्य द्वादश्यां पारणमित्युक्त्वा द्वादश्यामुपोष्य त्रयोदश्यां पारणमित्युक्तं, तच्छ्रुत्वा प्रद्युम्नः —
उपोष्या व्याहृता ब्रह्मंस्त्वया ह्येकादशी शुभा।
**द्वादश्यां पारणं कार्यमेकादश्यां हि लङ्घनम्॥ **
पुराणविहिते मार्गे निषिद्धं चरसे342 कथम्।
इति पृष्टेन मार्कण्डेयेन —
**शृणु भूपाल सकलं यत्पृष्टं साधुना त्वया। **
**जगद्विनाशितं दुष्ठैर्हेतुवादकथान्वितैः॥ **
द्वादश्या निर्णये भूप मूढमत्र जगत्त्रयम्।
नष्टभावेन स्थिरता रहस्यं याति भूमिप॥
**समलेष्वत्र देहेषु पीतं चैवौषधं यथा। **
ये शुद्धास्तेषु तद्याति स्थिरत्वं धर्मसंग्रहात्॥
त्रिफलारिक्तदेहानामौषधं स्थिरतां व्रजेत्।
चतुर्दशीमुपोषन्ति शिवभक्ता नराधिप।
**न तेषां गमनं भूप नरके दृश्यते क्वचित्। **
**अपरे त्वष्टमीं सन्तः शिवभक्तिसमाश्रयाः॥ **
एकादशी ऋषीणां तुद्वादशी चक्रपाणिनः।
**तत्कथं द्वादशी भूप नोपोष्या क्रियते जनैः॥ **
**एकादशी शरीरं तु पुरुषो द्वादशी स्मृता। **
द्वादश्यामुपवासेन सिद्धा भूप सहस्रशः॥
**चक्रवर्तित्वमतुलं संप्राप्ता अवनीश्वराः। **
चतुर्दशैते संजाता बलिनश्चक्रवर्तिनः॥
इत्यादिना चतुर्दशोक्त्वा, अग्रे —
एते राजर्षयो भूप द्वादश्यां समुपोषणे।
सिद्धिं परमिकां प्राप्ता ये द्विजास्ताञ्शृणुष्व मे॥
**याज्ञवल्क्यश्च रैभ्यश्च माण्डव्यः कौशिको मुनिः। **
**भरद्वाजस्तथा कण्वः कुम्भयोनिस्तपोनिधिः॥ **
मया सह गता भूप कथं ते संशयोऽभवत्।
**तस्माद्भूप न संदेहः कर्तव्यो द्वादशीं प्रति॥ **
विशेषफलदा प्रोक्ता द्वादशी पापनाशिनी॥
इति हेमाद्रौमार्कण्डेयेन द्वादश्यां काम्योपवासविधानात्काम्यं343नित्यस्य बाधकमिति न्यायेनासंकल्पितैकादशीव्रतस्योपवासद्वयासमर्थस्य कामिनो द्वादश्युपवासेनैकादश्युपवाससिद्धिर्युक्तैव। एकादशीसंकल्पोत्तरमसामर्ध्यज्ञाने तु एकादश्यामेवोपवासः कर्तव्य इति बोध्यम्। आषाढभाद्रपदकार्तिकशुक्लद्वादशीषु अनुराधाश्रवणरेवतीयुक्तासु
आभाकासितपक्षेषु मैत्रश्रवणरेवती।
संगवे नैव भोक्तव्यं द्वादश द्वादशीर्हरेत्॥
इति वाक्यसारोदाहृतभविष्यवचनेन
मुहूर्तत्रितयं प्रातत्स्तावानेव तु संगवः।
इति पञ्चधा विभक्तस्याह्नः संगवाख्ये द्वितीयभागे पारणनिषेधात्संगवोत्तरसत्तममुहूर्तादौ संगवात्प्राचीनतृतीयमुहूर्ते वा पारणं कार्यम्। संगम इति पाठं कल्पयित्वा प्रवृत्ता नवीनग्रन्था वचनविरोधसंपादकाः परस्परविरुद्धाश्चेति ज्ञेयम्। अथ श्रवणद्वादशी हेमाद्रौविष्णुरहस्ये —
उपवासासमर्थानां किं स्यादेकमुपोषणम्।
महाफलं महादेव तन्ममाऽऽचक्ष्व पृच्छतः॥
या राम श्रवणोपेता द्वादशी महती तु सा।
तस्यामुपोषितः स्नातः पूजयित्वा जनार्दनम्॥
प्राप्रोत्ययत्नाद्धर्मज्ञ द्वादशद्वादशीफलम्।
हेमाद्रौ भविष्योत्तरे —
उपवासासमर्थानां सदैव पुरुषोत्तम।
एषा या द्वादशी पुण्या तां वदस्व ममानघ॥
मासि भाद्रपदे शुक्ला द्वादशी श्रवणान्विता।
सर्वकामफला पुण्या उपवासे महाफला॥
संगमे सरितां स्नात्वा द्वादश्यां समुपोषितः।
समग्र समवाप्नोति द्वादशद्वादशीफलम्॥
हेमाद्रौ विष्णुधर्मोत्तरे —
श्रवणद्वादशीयोगे बुधवारो भवेद्यदि।
अत्यन्तमहती नाम द्वादशी सा प्रकीर्तिता॥ .
स्नानं जप्यं तथा दानं होमः श्राद्धं सुरार्चनम्।
सर्वमक्षय्यमाप्नोति तस्यां भृगुकुलोद्भव॥
तस्मिन्दिने तथा स्नातो यत्र कुत्र च संगमे।
स गङ्गास्नानजं राम फलं प्राप्नोत्यसंशयम्॥
बुधश्रवणसंयुक्ता द्वादशी संगमोदकम्।
दानं दध्योदनं शस्तमुपवासः परो विधिः॥
हेमाद्रौपौष्करपञ्चरात्रे च —
सर्वकामप्लवे विष्णुर्बुधश्रवणवासरे।
द्वादश्यां प्रीणनीयः स्यान्निम्नगासंगमे क्वचित्॥
हेमाद्रौनारदीयविष्णुरहस्ययोः —
द्वादश्यामुपवासोऽत्र त्रयोदश्यां तु पारणम्।
निषिद्धमपि कर्तव्यमित्याज्ञा पारमेश्वरी॥
निषिद्धमापाततो निषिद्धत्वेन प्रतीयमानमित्यर्थः। पूर्वोक्तमार्कण्डेयैकवाक्यत्वात्। इयं द्वादशी श्रवणयोगमात्रेणापि कृत्स्ना पुण्या भवति। तदुक्तं हेमाद्रौ मत्स्यपुराणे —
द्वादशी श्रवणायुक्ता कृत्स्नापुण्यतमा तिथिः।
न तु सा तेन संयुक्ता तावत्येव प्रशस्यते॥
श्रवणशब्दस्त्रीलिङ्गोऽपीति हेमाद्रिः। श्रवणस्पृष्टेति पाठान्तरं च। हेमाद्राविमां प्रकृत्य नारदीयपुराणे —
तिथिनक्षत्रयोर्योगो योगश्चैव नराधिप।
द्विकलो यदि लभ्येत स ज्ञेयो ह्याष्टयामिकः॥
योगः शिवयोगादिः।
शिवयोगस्य योगे वैसा भवेदुत्तमोत्तमा।
इति शिवरात्र्यादौ प्राशस्त्यसंपादकः। हेमाद्रौविष्णुपुराणे —
याः काश्चित्तिथयः प्रोक्ताः पुण्या नक्षत्रयोगतः।
तास्वेव तद्व्रतं कुर्याच्छ्रवणद्वादशीं विना॥
येन येन नक्षत्रयोगेणया या तिथिः पुण्या प्रोक्ता तासु विहितं यद्व्रतादिकं तत्तास्वेव कुर्यान्नतु तिथ्यन्तरेऽयं नियमः श्रवणद्वादशीं विना श्रवणद्वादशीव्रतं तु श्रवणयुक्तैकादश्यामपि भवतीत्यर्थः। अत एव हेमाद्रौ नारदीयम् —
यदा न प्राप्यते ऋक्षं द्वादश्यां श्रवणं क्वचित्।
एकादशी तदोपोष्यापापघ्नी श्रवणान्विता॥ इति।
द्वादश्यां श्रवणयोगे तु पूर्वोक्तविष्णुरहस्यादिवचनैर्द्वादश्यामेव कार्यम्। यदा श्रवणयुक्तद्वादश्येकादश्यां चेत्तदाऽतिप्रशस्ता। तदुक्तं हेमाद्रौमात्स्ये —
द्वादशी श्रवणास्पृष्टा स्पृशेदेकादशीं यदा।
स एव वैष्णवो योगो विष्णुशृङ्खलसंज्ञितः॥
तस्मिन्नुपोष्य विधिवन्नरः संक्षीणकल्मषः।
प्राप्नोत्यनुत्तमां सिद्धि पुनरावृत्तिदुर्लभाम्॥
श्रवणशब्दः स्त्रीलिङ्गोऽप्यस्ति। श्रवणास्पृष्टेति वदन्स्वल्पश्रवणयोगेनापि द्वादश्युपवासयोग्या भवतीति हेमाद्र्युक्तेः। भाविदिनशेषे रात्रौ वा श्रवणयोगस्तदा प्रातः संकल्पकाले तद्भावादनुपोष्यैव सा तिथिरिति केचित्तदयुक्तम्। श्रवणयोगेन कृत्स्नतिथिपुण्यत्वाभिधानाद्विष्णुशृङ्खलयोगेनास्यामेकादश्यां तत्क्षणमेव दिवसपुण्यत्वाम्नानद्द्वादशीव्रतग्रहणसंकल्पः क्रियते। तथा चास्तमयसंबन्धिनो नक्षत्रस्योपोष्यत्वात्तस्यै344 च प्रातरप्राप्तावपि व्रतग्रहणसंकल्पंः345 पूर्णत्वात्प्रातरेव युक्त इत्यग्रेऽपि हेमाद्रिणा सिद्धान्तितत्त्वाच्च। एकादशीशब्देन
यदि दैवात्तु संसिध्येदेकादश्यां तिथित्रयम्।
इत्यादिष्वहोरात्र इव प्रकृत एकादश्युपवासयोग्यो दिवस एव ग्राह्यः। न च दृष्टान्त इवाहोरात्र एव ग्राह्य इति वाच्यम्। प्रकृते द्वादश्युपवाससिद्धेरप्यावश्यकत्वात्346। तत्र तद्योग्यद्वादश्या अपेक्षणात्। अहःसु तिथयः पुण्या इत्यादिना दिवा विद्यमानाया एव योग्यत्वबोधनाद्दिवा सत्त्वस्याऽऽवश्यकत्वादत एव स्पृशेदेकादशीं यदीति सार्थकम्। तथा च दिवस एव द्वादशीयोगः सोऽपि मुहूर्तत्रयात्मक उत्तमः। तद्भावेद्विकलो यदि लभ्येतेतिवचनादेकमुहूर्तात्मकोऽपि ग्राह्यः।
एकादशी द्वादशी च वैष्णव्यमपि तत्र चेत्।
तद्विष्णुशृङ्खलं347 नाम विष्णुसायुज्यकृद्भवेत्॥
इति विष्णुधर्मोत्तरवाक्येऽपि348 तत्रशब्देन दिवस एव परामृश्यते। समुञ्चचार्थकापिशब्दस्वारस्यात्। निर्णयामृते तु —
द्वादशी श्रवणक्षं च स्पृशेदेकादशीं यदि॥
इति मात्स्यपूर्वार्धपाठस्तत्राप्येकादशीशब्दस्य दिवसपरत्वादेक एवार्थः। एतेन हेमाद्रिमते श्रवणयुक्तद्वादशीयोगमात्रेण विष्णुशृङ्खलं भवति। निर्णयामृतमते तु श्रवणस्यैकादशी द्वादशीभ्यां योग एव विष्णुशृङ्खलं नान्यथेति निर्णयसिन्ध्वाद्युक्तमुपेक्ष्यम्। मतभेदकल्पनस्यायुक्तत्वात्। तत्राप्येकादश्या द्वादशीश्रवणाभ्यां योग इति वक्तव्ये प्रकृतोक्तिरपि चिन्त्या। यदा त्वेकस्मिन्नेव दिवसे श्रवणमेकादशीं स्पृष्टया द्वादशीं स्पृशति, तदा फलाधिक्यम्। तदुक्तं हेमाद्रौ नारदीयपुराणे —
संस्पृश्यैकादशीं राजन्द्वादशीं यदि संस्पृशेत्।
श्रवणं ज्योतिषां श्रेष्ठं ब्रह्महत्यां व्यपोहति। इति।
यत्त्वत्र यदैकस्मिन्नहोरात्रे श्रवणमेकादशीं स्पृष्ट्वा द्वादशीं स्पृशति तदा फलाधिक्यमुक्तं नारदीय इति मदनरत्नेनोक्तम्। तत्र यदा पूर्वदिनेऽस्तानन्तरमेव द्वादश्यां श्रवणयोगो द्वितीयदिने सूर्योदयमारभ्य श्रवणयोगस्तदा
तिथिर्नक्षत्रसंयोगे विहितव्रतकर्मणि।
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या त्वन्यथा निष्फलं भवेत्।
इति सामान्येनोक्त्वा श्रवणविषये
उदयव्यापिनी ग्राह्या श्रवणद्वादशीव्रते।
इति प्रदोषापवादकबृहन्नारदीयस्य द्वादशी श्रवणस्पृष्टेत्यादिमात्स्यादिभिर्विरोधापादकत्वाद्वितीयसूर्योदयात्पूर्वमर्धघटिकामात्रेण प्रवृत्तश्रवणस्य पादघटिकामात्रेण प्रवृत्तद्वादश्याश्च तृतीयसूर्योदयपर्यन्तसत्त्वेऽपि विष्णुशृङ्खलत्वापत्तौ श्रवणद्वादशीव्रतलोपापत्तेर्हेमाद्रिनिर्णयामृतादिविरोधाच्चरात्र्यंशो विवक्षणीयः। न च विष्णुशृङ्खले व्रतद्वयस्य तन्त्रेणानुष्ठानमिति मदनरत्नेनोक्तत्वे कथं द्वादशीव्रतलोपापत्तिरिति वाच्यम्। शृङ्खल एकाद्श्युपवासेन द्वादश्युपवाससिद्धिबोधकवचनाभावेन प्रकृते तस्याप्यसंगतत्वात्। नन्वेवं शृङ्खले तन्त्रेणैवानुष्ठानमिति हेमाद्र्याद्युक्तिरप्यसंगता स्यादिति चेन्न। एकादशीविद्धाया एव द्वादश्याः खण्डतिथावुपोष्यत्वात्तस्यां दिवा मुहूर्ताद्यवच्छेदेन श्रवणसत्त्व एव तैर्विष्णुशृङ्खलत्वस्वीकारात्349। एकेन पुरुषेणैकस्मिन्दिन उपवासद्वयानुष्ठानासंभवात्सहैवानुष्ठानमित्यभिप्रायकहेमाद्र्याद्युक्ते350 रमणीयत्वात् अस्तोत्तर —
प्रवृत्तद्वादश्या द्वितीयदिन एवौपोष्यत्वात्तत्रैकादश्युपवासेन द्वादश्युपवासासिद्धेस्तल्लोपापत्तेर्दुर्वारत्वात्351।
उपोष्य द्वादशीं पुण्यां विष्णुऋक्षेण संयुताम्।
एकादश्युद्भवं पुण्यं नरः प्राप्नोत्यसंशयम्॥
इत्यादिवाक्यैर्वैपरीत्यस्यैव प्रतिपादनाच्च। नन्वेवं तर्हि भवतु प्रकृते श्रवणद्वादश्युपवासो द्वितीयदिने तथाऽपि यदा शुद्धाधिका द्वादशी द्वितीयदिन एवोदयकाले श्रवणयुता तद्विषयमेव बृहन्नारदीयमिति वदतो मदनरत्नस्य मते मात्स्यादिभिबृहन्नारदीयस्य विरोधोद्भावनं कथमिति चेत्। संपूर्णद्वादश्यां दिवा मुहूर्ताद्यवच्छेदेन352 श्रवणयोगेऽपि कृत्स्नायाः पुण्यतमत्वप्रतिपादनात्तत्रैव कर्मकालशास्त्रप्रवृत्तेस्तद्विरोधाद्बृहन्नारदीयस्य तत्रोत्तरविषयत्वासंभवात्। न च बृहन्नारदीयमनुपन्यस्यतां हेमाद्र्यादीनां तेन सह मात्स्यादीनां विरोधस्तद्वस्थ इति वाच्यम्।उदयव्यापिनीत्यस्य सार्वत्रिकत्वे मात्स्यादीनां निर्विषयत्वापत्तेः सामान्यतो नक्षत्रयुता तिथिः प्रदोषादिव्यापिन्येव ग्राह्येति पूर्वमुक्तत्वादुदयव्यापिनीत्यनेन तस्यैवापवादः क्रियत इत्येकादशीविद्धश्रवणद्वादश्यास्तदविषयत्वेन विरोधाभावात्। तस्मान्मदनरत्नीयाहोरात्रशब्दो दिवसपरत्वेनैव नेयः।अन्यथा द्विनद्वये [यदा ] श्रवणद्वादशीयोगस्तदैकादशीयोगस्य प्रशस्तत्वादिति पूर्वमदनरत्नग्रन्थः, विष्णुशृङ्खलयोग एकादश्युपवासः, श्रवणद्वादश्युपवासश्च तन्त्रेणैवानुष्ठेय इत्युत्तरग्रन्थश्चासंगतः स्यात्। अत एव यदा विद्धाधिकायां दिनद्वयेऽपि श्रवणयोगस्तदैकादशीयुता ग्राह्या तदा तन्त्रेणोपवासद्वयम्। तत्रैव यदा श्रवणमेकादशीं स्पृष्ट्वा द्वादशीं स्पृशति, तदाऽतिप्राशस्त्यमिति मदनरत्नानुयायि कालतत्त्वविवेचनं संगच्छते। अत एव लाघविकैर्माधवाचार्यैर्द्वादशीश्रवणस्पृष्टेत्यादिवाक्यानि उपवासयोग्यद्वादश्यां श्रवणयोगे प्राशस्त्यमात्रबोधकानीति पर्यालोच्य तान्यनुपन्यस्यैव द्वादशी पूर्वविद्धा ग्राह्येत्युपक्रम्य, नन्वेवं सत्येकादश्युपवासो द्वादश्युपवासश्चेत्युभयमेकस्मिन्दिने प्राप्नोति, सत्यं विरोधाभावात्सहैवानुष्ठानमिति सिद्धान्तितम्। संग्रहवाक्येऽपि —
श्रवणेन युता चेत्स्याद्द्वादशी सा हि वैष्णवैः।
स्मार्तैश्चोपोषणीया स्यात्त्यजेदेकादशीं तदा॥
इत्युक्तम्। तत्र न्यूनताशङ्काऽपि निरस्ता। अत एव भाद्रशुक्लद्वादशी श्रवणद्वादशी। सा यद्येकादश्यामेव स्यात्तदा विष्णुशृङ्खलयोग इति निर्णयामृतश्च संगच्छते। तस्मान्मात्स्यादीनां बृहन्नारदीयस्य वा सांकर्येणाप्युपपत्तेर्हेमाद्र्यादीनामेकवाक्यत्वाच्चैकादशीयुक्ते दिवस एकमुहुर्ताद्यवच्छेदेन श्रवणयुक्ताया द्वादश्याः सत्त्व एव विष्णुशृङ्खलयोग इति सिद्धम्। एतेन मदनरत्नेऽहोरात्रशब्द दर्शनमात्रप्रवृत्ता यदा निशीथे तदनन्तरं सूर्योदयावधि वा द्विकलामात्रमपि श्रवणं भवति, तदाऽपि पूर्वैवेति प्रतिपादका निर्णयसिन्धु स्मृतिकौस्तुभभट्टोजीदीक्षितादिग्रन्थाः, गोविन्दार्णवादयश्च बृहन्नारदीयहेमाद्र्यादिविरुद्धाः,पूर्वोक्तरीत्या श्रवणद्वादशीव्रतलोपापादकाश्चेति बोध्यम्। नन्वेवमपि द्विकलो यदि लभ्येतेति नारदीयपुराणमूलकमदनरत्नोक्तार्थस्यैव कालतत्त्वविवेचनातिरिक्तसर्वनवीनग्रन्थकारैः स्वीकारात्कथं व्रतलोपापादकत्वमिति चेन्न।
‘प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ता कृष्णा नभसि चाष्टमी।
मुहूर्तमपि लभ्येत सोपोष्या’ इति स्कान्दात्सप्तम्यामर्धरात्रादूर्ध्वं सूर्योदयात्प्रागेवाष्टमीरोहिणीयोगेऽप्यनुष्ठानापत्तेः। इष्टापत्तिनिरासस्तु तत्प्रकरणे द्रष्टव्यः। नारदीयस्य तर्हि का गतिरिति चेन्न। साकल्यबोधकवचनानां व्यवस्थापकत्वे सर्वत्राव्यवस्थापत्तेः। तत्र निर्णायकवाक्यैस्तिथ्यादौ निर्णीते यत्र पूर्वाङ्गाद्यनुष्ठाने, प्रधानैकदेशानुष्ठाने च353 तत्तत्तिथ्याद्यसत्त्वे कथमनुष्ठानमिति शकाव्युदासार्थ त्वस्यैव सकलकालतत्त्वविद्भिः सिद्धान्तितत्वेन तस्य निर्णायकत्वासंभवात्तच्छङ्काव्युदासार्थमेव तत्। अन्यथाबृहन्नारदीयादिविरोधापत्तेरिति दिक्। अस्मिन्विष्णुशृङ्खलयोग एकादश्युपवासो द्वादश्युपवासश्च पूर्वोक्तरीत्या सहैवानुष्ठेयः। यदा त्वेकादशीश्रवण द्वादश्युपवासौ पृथक्प्राप्नुतस्तदा नैरन्तर्येणोपवासद्वयं कार्यम्। तदुक्तं हेमाद्रौ भविष्योत्तरे —
एकादश्यामुपोष्यैव द्वादश्यामप्युपोषयेत्।
न चात्र विधिलोपः स्यादुभयोर्दैवतं हरिः॥ इति।
यस्तूपवासद्वयासमर्थः संकल्पितैकादशीव्रतस्तस्यैकादश्यामुपवासो द्वादश्यां तु पूजामात्रम्। तदुक्तं हेमाद्रौ मत्स्यपुराणे —
द्वादश्यां शुक्लपक्षे तु नक्षत्रं श्रवणं यदि।
उपोष्यैकादशीं तत्र द्वादश्यां पूजयेद्धरिम्॥ इति।
हेमाद्रौयमः —
श्रवणेन सिता यत्र द्वादशी लभ्यते क्वचित्।
उपोष्यैकादशी तत्र द्वादश्यां पूजयेद्धरिम्॥ इति।
यस्तूपवासद्वयासमर्थोऽसंकल्पितैकादशीव्रतश्च स द्वादश्यामेवोपवसेत्। तदुक्तं हेमाद्रौ नारदीयपुराणे —
उपोष्य द्वादशीं पुण्यां विष्णुऋक्षेण संयुताम्।
एकादश्युद्भवं पुण्यं नरः प्राप्नोत्यसंशयम्॥
वाजपेये तथा योगे कर्महीनोऽपि दीक्षितः।
सर्वं फलमवाप्नोति अस्नातोऽप्यहुतोऽपि सन्॥ इति।
यदा तु शुद्धाधिका, विद्धाधिका वा द्वादशी पूर्वदिने सूर्यास्तमारभ्य श्रवणयुक्तोत्तरमपि मुहुर्ताद्यवच्छेदेन श्रवणयुक्ता भवति, तदोत्तरैवग्राह्यो तथा च बृहन्नारदीये —
तिथिनक्षत्रसंयोगे विहिता व्रतकर्मणि।
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या त्वन्यथा निष्फलं भवेत्॥
इति सामान्येनोक्त्वा श्रवणे विशेष उक्तः —
उदयव्यापिनी ग्राह्या श्रवणद्वादशीव्रते॥ इति।
अनेन पूर्वदिने प्रदोषे श्रवणयुक्तामुपेक्ष्योत्तरदिन उदयोत्तरश्रवणयुक्तैव ग्राह्येति प्रतिपादनात्पूर्वदिनेऽस्तात्पूर्वं श्रवणयोगश्चेत्तदा श्रवणयोगमात्रेणैव कृत्स्नायाः पुण्यत्वप्रतिपादनाद्बहुकर्मकालव्यापित्वेन कर्मकालशास्त्रानुग्रहाच्चसैव ग्राह्येति परिशेषणात्पूर्वोक्तहेमाद्रिसिद्धान्तो युक्ततर एव। शुद्धाधिकाऽपि द्वादशी परदिनेएवोदयकालिकश्रवणयोगवती, पूर्वदिने तूदयकालातिरिक्तकाले श्रवणयोगवती,तदोत्तरा ग्राह्या354। यदा तूभयत्रोदयकालिकश्रवणयोगवती, तदा पूर्वैवबहुकर्मकालव्यापित्वादिति बोध्यम्। यदा द्वादश्यां श्रवणं नास्ति किंत्वेकादश्यामेव, तदैकादश्यामपीदं व्रतं कार्यमित्युक्तम्। तत्रापि दशमीविद्धायामेवैकादश्यां श्रवणं नोत्तरस्यां तदा दशमीविध्दायामपि कार्यम्। तदुक्तं सामान्यप्रकरणे हेमाद्र्युदाहृतलिङ्गपुराणे —
दशम्येकादशी यत्र सा नोपोष्या भवेत्तिथिः।
श्रवणेन च संयुक्ता शुभा सर्वार्थकामदा॥ इति।
मदनरत्न इंदं355 वचनं विजयैकादशीव्रते वह्निपुराणस्थमित्युक्तम्। यत्तुनारदीयपुराणे —
एकादश्यां तु विद्धायां संप्राप्ते श्रवणे तथा।
सोपोष्या द्वादशी पुण्या सर्वपापक्षयावहा॥
इतिवचनं, तद्वितीयदिने श्रवणसत्त्वे वैष्णवविषये वा बोध्यं वैष्णवप्रकरणस्थत्वात्। उत्तरदिने श्रवणयोगाभावे दशमीविद्धाऽपि ग्राह्या दशम्येकादशीति वह्निपुराणात्। तदाऽप्येकादश्युपवासस्तन्त्रमेवेति कालतत्त्वविवेचनम्।तत्र श्रवणद्वादश्युपवासेनेव दशमी विद्धोपवासेनैकादश्युपवाससिद्धिबोधकवचनाभावात्कथमिति चिन्त्यम्। श्रवणद्वादश्युपवासाङ्गपारणं तु द्वितीयदिन उभयानुवृत्तावुभयान्त एव।
तिथिनक्षत्रनियमे तिथिमान्ते च पारणम्।
अतोऽन्यथा पारणायां व्रतभङ्गमवाप्नुयात्॥
इति हेमाद्र्युदाहृतसाधारणस्कन्दपुराणवचनस्याप्यनुग्रहात्। उभयान्तासंभवे तिथ्यन्त एव।
याः काश्चित्तिथयः प्रोक्ताः पुण्या नक्षत्रसंयुताः ।
ऋक्षान्ते पारणं कुर्याद्विना श्रवणरोहिणीम् ॥
इति हेमाद्रौ स्कन्दपुराणात्। तिथ्यन्तासंभवे नक्षत्रान्तेऽपि भवति।
सांयोगिके व्रते प्राप्ते यत्रैकोऽपि वियुज्यते।
तत्रैव पारणं कुर्यादेवं वेदविदो विदुः॥
तिथिनक्षत्रसंयोग उपवासो भवेद्यदा।
पारणं तु न कर्तव्यं यावन्नैकस्य संक्षयः॥
इतिहेमाद्र्युदाहृतवह्निपुराणान्नारदीयपुराणाच्चेति। यदा तु विष्णुशृङ्खलयोग एवोपवासस्तदा द्वितीयदिने श्रवणान्तस्य सत्वेऽपि356 द्वादशीमध्य एवं पारणं कर्तव्यम्। एकादश्युपवासाङ्गपारणस्य द्वादश्यामेवाऽऽवश्यकत्वात्। त्रितययोगनिमित्तोपवासाङ्गपारणस्य द्वयोरनुवृत्तावपिवह्निपुराणनारदीयपुराणाभ्यां विहितत्वाच्च। अत एव
तिथिनक्षत्रसंयोग उपवासो यदा भवेत्।
तावदेव न भोक्तव्यं यावदेकस्य संक्षयः॥
विशेषेण महीपाल श्रवणं वर्धते यदि।
तिथिक्षये न भोक्तव्यं द्वादशीं नैव लङ्घयेत्॥
इति निर्णयामृतोदाहृतनारदीयद्वितीयवचनं सावकाशम्। अत्र श्रवणाद्द्वादशीन्यूनत्वे पूर्ववाक्यात्तिथिक्षय एव भोक्तव्यमिति प्रसक्तौ तिथिक्षये न भोक्तव्यमित्यनेन निषिध्यते। तिथिक्षये न भोक्तव्यमित्युक्तेऽप्यत्र न भोक्तव्यं किं तु नक्षत्रान्त एवेतिशङ्कानिरासार्थंद्वादशीं नैव लङ्घयेदित्युक्तम्। तत्रापि —आभाकेत्युदाहृतवचनात्संगवादूर्ध्वं सप्तममुहूर्तादौ संगवात्प्राप्क्तृतीयमुहूर्ते वा पारणं कार्यम् । तिथितत्त्वे त्विदमेव भविष्योत्तरनाम्ना लिखित्वा तिथिक्षयेणेकादशीक्षयेण भोक्तव्यं द्वादश्यां पारयेदित्यर्थः । अत्र हेतुर्द्वादशीमित्यादिरिति व्याख्यातम्, अन्यथा तद्वैयर्थ्यं स्पष्टमेवेति विभावनीयम्।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डॆ द्वादशीनिर्णयः।
अथ त्रयोदशी निर्णीयते —
सा च शुक्लकृष्णपक्षभेदेन व्यवस्थितैव। तत्र शुक्लत्रयोदशी पूर्वविद्धा ग्राह्या।
त्रयोदशी तु कर्तव्या द्वादशीसहिता मुने।
भूतविद्धा न कर्तव्या दर्शः पूर्णा कदाचन॥
वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्रीव्रतमुत्तमम्।
इति हेमाद्रौब्रह्मवैवर्तात्।
एवमेकादशी ग्राह्या द्वादश्या तु त्रयोदशी।
इति हेमाद्रौपाद्मात्, तुश्चार्थ एकादशी त्रयोदशी च द्वादशीयुता ग्राह्येत्यर्थः।
त्रयोदशी तु कर्तव्या भवेद्या चाऽऽपराह्णिकी।
इति हेमाद्रौस्कान्दाच्च। अत्र प्रतिपद इवापराह्णसंबन्धोऽपेक्षित इति माधवेनोक्तम्357। तत्र प्रतिपद इवेत्यनेन तस्यानावश्यकत्वमपि सूचितम्।
अत एवाऽऽपराह्णिकी पूर्वविद्धेत्यर्थ इति हेमाद्रिमदनरत्नौ । युक्तं चैतत्।
द्वितीया त्रिमुहूर्ता चेत्प्रतिपद्यापराह्णिकी।
इत्यादौतथा निर्णीतत्वात् । यद्यप्येषु वाक्येषु शुक्लपक्षोपादानं नास्ति तथाऽपि
षष्ठ्यष्टमी त्वमावास्या कृष्णपक्षे त्रयोदशी।
एताः परयुताः पूज्याः पराः पूर्वयुतास्तथा॥
इतिविशेषरूपनिगमवाक्येन कृष्णत्रयोदश्याश्चतुर्दशीयुताया एव विधानात्सामान्यरूपाणां तेषां शुक्लत्रयोदशीविषयत्वमेव परिशिष्यते।
षष्ठ्यष्टमी तथा दर्शः कृष्णपक्षे त्रयोदशी।
एताः परयुताः पूज्याः पराः पूर्वयुताः शुभाः॥
इत्यमाप्रकरणे हेमाद्रौपाद्माच्चकृष्णाऽपि परदिने न लभ्यते चेत्पूर्वैव।
एकादशी तृतीया च षष्ठी चैव त्रयोदशी।
पूर्वविद्धा तु कर्तव्या यदि न स्यात्परेऽहनि॥
इति हेमाद्रौवृद्धवसिष्ठादुपवासेऽप्युत्तरैव।
एकादश्यष्टमी षष्ठी द्वितीया च चतुर्दशी।
त्रयोदशी अमावास्या उपोष्याः स्युः परान्विताः॥
इति हेमाद्रौ विष्णुधर्मोत्तरात्। अत्र कृष्णशब्दाभावेऽपि त्रयोदशी त्विति ब्रह्मवैवर्तेन सावित्रीव्रते पूर्वविद्धदर्शादिसाहचर्येण त्रयोदश्या उपवासेऽपि पूर्वविद्धाया विधानात्। इदं कृष्णत्रयोदशीविषयकमेवेति परिशिष्यतेऽन्यथा तद्विरोधापत्तेः। अत एवानङ्गत्रयोदश्याः शुक्लत्वात्तदुपवासस्य ब्रह्मवैवर्तादेव पूर्वविद्धायां सिद्धत्वात्संवर्तवचनं स्पष्टार्थमिति माधवसिद्धान्तः संगच्छते।
द्वितीया पञ्चमी वेधाद्दशमी च त्रयोदशी।
चतुर्दशी चोपवासे हन्युः पूर्वोत्तरे तिथी॥
इति वृद्धवसिष्ठवचनमपि विष्णुधर्मोत्तरविरोधाद्ब्रह्मवैवर्तेकवाक्यत्वाच्च शुक्लत्रयोदशीविषयमेवेति। एतेन मदनरत्ने कालतत्त्वविवेचनादौ चैतद्विरोधपरिहारार्थं निगमवचने पुनरपि भारारोपणं कृतं, तद्ब्रह्मवैवर्तेनैवावरोपितमिति बोध्यम्।अनङ्गत्रयोदश्यपि पूर्वविद्धैव। तदाह हेमाद्रौ मिगमः—
कृष्णाष्टमी बृहत्तपा सावित्री वटपैतृकी।
अनङ्गत्रयोदशी रम्भा उपोष्याः पूर्वसंयुताः॥ इति।
मार्गशीर्षशुक्लत्रयोदश्यनङ्गत्रयोदशी। तत्र ब्रह्मवैवर्तेनैव सिद्धत्वादिदं विशेषवचनमिति बोध्यम्। माधवोऽप्येतत्समानार्थकं संवर्तवाक्यमुपन्यस्यैवमेव सिद्धान्तितवान्। एवं च शुक्लत्रयोदशी पूर्वविद्धा कृष्णत्रयोदशी परविद्धेति सामान्यतो निर्णयः सिद्धः। इदानीमिदं विचार्यते —
पक्षद्वये त्रयोदश्यां निराहारो भवेद्दिवा।
घटीत्रयादस्तमयात्पूर्वं स्नानं समाचरेत्॥
शुक्लाम्बरधरो भूत्वा वाग्यतो नियमान्वितः।
कृतसंध्याजपविधिः शिवपूजां समारभेत्॥
इत्युपक्रम्य पूजाविधिमभिधाय
एवमाराधयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम्।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दक्षिणाभिश्चपूजयेत्॥
सर्वपापक्षयकरी सर्वदारिद्र्यनाशिनी।
शिवपूजेयमारव्याता सर्वाभीष्टफलप्रदा॥
बहुनाऽत्र किमुक्तेन श्लोकार्धेन ब्रवीम्यहम्।
ब्रह्महत्याशतं वाऽपि शिवपूजा विनाशयेत्॥
मया कथितमेतत्ते प्रदोषे शिवपूजनम्।
रहस्यं सर्वजन्तूनामत्र नास्त्येव संशयः॥
इत्यन्तेन पक्षद्वयसाधारण्येन त्रयोदश्यां दिनावच्छेदेनाऽऽहाराभावविशिष्टकर्तृकं प्रदोषे शिवपूजाप्रधानकं प्रदोषव्रतं ब्रह्मोत्तरखण्डे विहितम्। एवं
यदा त्रयोदशी शुद्धा मन्दवारेण संयुता।
आरब्धव्यं व्रतं तत्र संतानफलसिद्धये॥
इत्याद्युपक्रम्य
ततस्तु लोहिते भानौ स्नातः सुनियतो व्रती।
पूजास्थानं ततो गत्वा प्रदोषे शिवमर्चयेत्॥
इत्यादिना पूजामभिधाय
निवेद्य कर्मजातं तु दद्याद्वित्तानुसारतः।
दक्षिणां ब्राह्मणेभ्यश्च ततो मौनं विसर्जयेत्358॥
इत्याद्यन्तेन मन्दवारादियुक्तत्रयोदश्यां शिवपूजाप्रधानं शनिप्रदोषादिव्रतं स्कन्दपुराण उक्तम्—तदङ्गत्रयोदशीनिर्णयः किं प्रातिस्विकत्रयोदशीवचनेनोत निराहारो भवेद्दिवेत्युक्त्या359 पूजोत्तरं रात्रौ रागप्राप्तभोजनपरिशेषणाद्दिवा भोजनाभावविशिष्टरात्रिभोजनस्यैव नक्तत्वान्नक्ततिथिनिर्णायकवचनैर्निर्णयः, अथ वा हेमाद्र्यादिभिर्विशिष्यानभिधानात्तत्संमतसाधारणकर्मकालशास्त्रेणैवेति। अत्र कथं निर्णय इति विचार्यते तत्र तावत्प्रातिस्विकवाक्येनैव निर्णयो युक्तस्तस्य शीघ्रोपस्थितिकत्वात्, न प्राचीनसंमतकर्मकालशास्त्रादिना तस्य विलम्बोपस्थितिकत्वात्। अत एव समयमयूखे दिनद्वये प्रदोषव्यापित्वेऽव्यापित्वे वा पूर्वा।
त्रयोदशी तु कर्तव्या द्वादशीसहिता मुने।
इति सुमन्तुवचनादिति सिद्धान्तितम्। न च हेमाद्र्यादिभिरनुपन्यासादस्य सौमन्तवत्त्वे किं मानमिति वाच्यम्। तथाऽप्येतत्समानार्थकबह्मवैवर्तस्य हेमाद्रिणोदाहृतत्वात्। तस्माद्दिनद्वये प्रदोषव्याप्तावव्याप्तावपि पूर्ववेत्येव निर्णय इति चेन्न। षष्ठ्यष्टमीति निगमपद्मपुराणवाक्याभ्यां कृष्णत्रयोदश्याः परविद्धाया एव विशेषतो विधानात्तद्विरोधपरिहारार्थं ब्रह्मवैवर्तस्य शुक्लामात्रविषयत्वात्तेन पक्षद्वयेऽनुष्ठीयमानप्रदोषवते तिथिनिर्णयस्यात्यन्तासंभावितत्वात्। न च शुक्लपक्ष एवेदं निर्णायकं कृष्णपक्षे वाक्यान्तरेणोत्तरविद्धाप्रसक्तावस्तोत्तरमनुष्ठीयमानव्रते तस्यायोग्यत्वादनेनैव तत्रापि निर्णय इत्याशय इति शक्यम् । प्रदोषद्वये सत्त्वेऽसत्त्वेऽपि च स्कान्दाद्येकवाक्यतया पूर्वविद्धाविधायकस्य तस्यास्तोत्तरमनुष्ठीयमाने व्रते शुक्लाविषयत्वस्याप्यसंभवात्। अपि च
यदा स्यात्तिथ्योरुभयोः प्रदोषव्यापिनी तिथिः।
तत्रोत्तरत्र नक्तं स्यादुभयत्रापि सा यतः॥
दिवा रात्रौ व्रतं यच्च एकमेकतिथौ गतम्।
तस्यामुभययोगिन्यामाचरेत्तद्व्रतं व्रती॥
कर्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनी तिथिः।
यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे॥
विद्यमानो भवेदङ्गं नोज्झितोपक्रमेण तु।
इत्यादिवचनैरुत्तरप्रदोषगताया एवाङ्गत्वबोधनात्कालरूपाङ्गस्यानुपादेयत्वात्। पूर्वप्रदोषे विद्यमानाया अपि विधिः पूज्यतिथौ तत्र निषेधः
कालमात्रक इत्यनेन तिथ्यन्तरवन्निषेधाविशेषात्, तत्रानुष्ठानादपूर्वोत्पत्तौ प्रमाणाभावाच्च। अत एव प्रदोषद्वयाव्याप्तौ360 पूर्वेति त्वत्यन्तासंगतम्।
अतथात्वे परत्र स्यादस्तादर्वाग्यतो हि सा।
इतिजाबालिविरोधान्नक्तप्रकरणे दिनद्वये प्रदोषव्याप्तावव्याप्तावपि परवेति हेमाद्र्यादिसकलविरोधाञ्च। अपि च पूर्वदिन एव प्रदोषव्याप्तावव्याप्तावपि पूर्वविद्धाविधायकस्य तस्य निर्णायकत्वासंभवादिति। यदपीदं दूषणं ज्ञात्वा कालतत्त्व विवेचनानुसारेण मयूखानुयायिकल्पितं पाठान्तरं तन्निरासेनैव निरसिष्यत इति दिक्। नन्वेवमव्ययुक्तत्वादसंभवाच्च माऽस्तु ब्रह्मवैवर्तादिना निर्णयः परं361 सकलानुष्ठेयसकलतिथ्यादिसाधारणकर्मकालशास्त्रापेक्षया
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या सदा नक्तव्रते तिथिः।
इत्यादिभिर्व्रतविशेषं पुरस्कृत्य तिथिविधायकैरेव निर्णयो युक्तःप्रदोषव्रतस्याप्यार्थिकनक्तत्वात्। न तु कर्मकालशास्त्रेण तस्यात्यन्तसाधारणत्वात्। अत एव स्वरसान्निर्णयामृतमदनरत्नाभ्यां कर्मकालशास्त्रादेव निर्णय इत्यभिप्रायेण नक्तकालवाक्यमनुपन्यस्योदाहृते स्कान्दपुराणोक्तशनिप्रदोषव्रते कालतत्त्वविवेचनादौ नक्तकालवाक्यैरेव निर्णयः पुरस्कृतः। तथाहि — अथ त्रयोदश्यां कश्चिद्विशेषः362 शनिवारादियुक्तत्रयोदशीषु कर्तव्यं तत्प्रदोषसमये शिवपूजानक्तभोजनात्मकं प्रदोषवम्। तत्र प्रदोषव्यापिनी त्रयोदशी ग्राह्या \। तस्य प्रदोषकालत्वम् —
ततस्तु लोहिते भानौ स्नात्वा सनियमो व्रती।
पूजास्थानं ततो गत्वा प्रदोषे शिवमर्चयेत्॥
इति तद्विधावुक्तम्। नक्तभोजनस्य प्रदोषकालत्वं नक्तनिर्णये वक्ष्यते। दिनद्वये प्रदोषव्याप्तौ साम्येन तदेकदेशस्पर्शे वोत्तरा संकल्पमारभ्यसत्त्वात्। वैषम्येणैकदेशस्पर्श आधिक्यवती पूर्वाऽपि ग्राह्या। यदि देवपूजाभोजनपर्याप्तमाधिक्यं नो चेदुत्तरैव। सायाह्नरूपगौणकालव्याप्तेरपि लाभाद्दिनद्वये प्रदोषस्पर्शाभावेऽप्युत्तरैव। नचात्रैकभक्तवन्मुख्यकालेऽनुष्ठानं किंतु गौणकाल एव।सायाह्नेतु भुजिक्रियामितिवचनात्तत्पूर्वस्य पूजादेरप्यपकर्षॆण तत्रैव कर्तव्यत्वादिति कालतत्त्वविवेचने द्विनद्वये साम्येन वैषम्येण वा तदेकदेशस्पर्शिन्यप्युत्तरैव। गौणकालव्याप्तेरधिक —
त्वादिति नक्तप्रकरणस्थस्वग्रन्थविरोधेऽप्यत्राऽऽधिक्यवती पूर्वाग्राह्येति सिद्धान्तः कृतः। अतो नक्ततिथिनिर्णायकवाक्येनैव निर्णयो युक्तो न तु कर्मकालवाक्यात्तस्माद्धेमाद्र्याद्यभिप्रायानुरोधोऽयुक्त एवेति चेन्न। प्रदोषव्रतस्य नक्तवतत्वसंभव एव तदङ्गतिथिनिर्णायकवाक्यैरस्य निर्णयसंभावना नक्तवतत्वं त्वस्य बाधितम्। यतः —
एकभक्तेन नक्तेन बालवृद्धातुरः क्षिपेत्।
इत्यादिवाक्यैः सकलनिबन्धकारैश्च दिवावच्छिन्नाभावप्रतियोगिरात्रिभोजन एवं नक्तशब्दरूढेः प्रतिपादनात्तादृशरात्रिभोजनमेव नक्तम्। प्रदोषव्रतं तु —
कृतसंध्याजपविधिः शिवपूजां समारभेत्।
प्रदोषे शिवमर्चयेत्,
एवमाराधयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम्।
इत्यादिवाक्यैर्दिवावच्छिन्नभोजनाभाववत्कर्तृकप्रदोषकालिकशिवपूजन एव निरूढिबोधनेन प्रदोषे शिवपूजारूपमेवेत्यन्तवैलक्षण्येनास्य नक्तत्वासंभवात्। न चास्य पूजारूपत्वेऽप्ययं च प्रदोषव्याप्त्या निर्णयः प्रदोषसाध्ये पूजादिरूपेऽपि द्रष्टव्यो न्यायाविशेषादिति नक्तप्रकरणे कालतत्त्वविवेचन उक्तत्वान्न दोष इति वाच्यम्।
प्रदोषव्यापिनी न स्याद्दिवानक्तं विधीयते।
इत्यादिना दिवा पूजनुष्ठानापत्तेः। न च प्रदोषद्वये त्रयोदश्यभावे पूजादिकं कृत्वा दिवैव भोजनं कार्यमिति कालतत्त्वविवेचने सिद्धान्तितत्वादिष्टापत्तिरिति वाच्यम्। अङ्गकालानुरोधेन प्रधानकालबाधस्याङ्गगुणविरोधे च तार्थ्यादित्यादिन्यायविरोधेनायुक्तत्वेऽन-ङ्गार्थिकभोजनकालानुरोधेन प्रधानकालबाध इष्टापत्तेरत्यन्तानुचितत्वात्। न च भोजनस्यानङ्गत्वे
प्रदोशे शिवमभ्यर्च्य नक्तं भोक्ष्यामि शंकर।
इति स्कान्दविरोध इति शङ्क्यम्। अयाचितव्रते त्र्यहमद्यादयाचितमित्यस्य याचितनिषेधपरत्ववद्दिवाभोजननिषेधपरत्वेन रात्रिभोजनपरंत्वासंभवात्363।
अपि चैवं भोजनानुरोधेन दिवा पूजने कृतेऽपि
पक्षद्वये त्रयोदश्यां निराहारो भवेद्दिवा ।
कृतसंध्याजपविधिः शिवपूजां समारभेत् ॥
इति प्रधानविधिबाधे व्रतभङ्ग एव स्यादिति। एतेन न चात्र मुख्यकालेऽनुष्ठानं किंतु गौण एवेति ग्रन्थोऽपि किमाशयक इति चिन्तनीयमिति दिक्। तस्मान्नक्तकालविधायकवाक्यैर्निर्णयस्याप्ययुक्तत्वाद्धेमाद्र्यादिसकलनिबन्धाभिप्रेत —
कर्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनी तिथिः।
इत्यादिकर्मकालशास्त्रेणैव प्रदोषव्रते त्रयोदशी निर्णेतव्येति। ननु कर्मकालव्यापिशास्त्रेणापि निर्णयः कर्तुमशक्यः कर्मकालपरिमाणनिश्चयाधीनत्वात्तस्य।प्रकृते तन्निश्चयासंभवात्। तथाऽपि प्रदोषे शिवमर्चयेदिति विधेर्विधेयप्रदोषपरिमाणबोधकवाक्यान्तरसापेक्षत्वात्364। किं तदित्याकाङ्क्षायाम्।
अस्तमानं समारभ्य सार्धाः सप्त च नाडिकाः।
प्रदोष इति विख्यातस्त्वर्धयाममतः शृणु॥
इति नैमित्तिकदेवपूजाकालप्रकरणे हेमाद्र्युदाहृतविष्णुधर्मोत्तरस्य,
त्रिमुहूर्तं प्रदोषः स्याद्भानावस्तंगते सति।
नक्तं तु तत्र कुर्वीत इति शास्त्रस्य निश्चयः॥
इति हेमाद्रिमाधवाद्युदाहृतस्य,
यजनं प्रति मानं तु उत्तमं त्विति कीर्तितम्।
उदये चैव मध्याह्नेप्रदोषे चार्धयामकम्॥
इति हेमाद्रौविष्णुधर्मोत्तरस्य, प्रदोषो रजनीमुखमिति कोशस्य,
प्रदोषोऽस्तमयादूर्ध्वं घटिकात्रयमुच्यते।
इति हेमादिमाधवोदाहृतस्य,
प्रदोषोऽस्तमयादूर्ध्वं घटिकाद्वयमुच्यते।
इति तिथितत्त्वाद्युदाहृतवाक्यस्य च युगपदुपस्थितत्वात्परस्परविरुद्धार्थकत्वेन सर्वेषां प्रवृतेरसंभवादकस्यैव प्रवृत्तौ नियामकाभावेन परिमाणविशेषज्ञानासंभवादिति चेन्न। प्राकरणिकनैमित्तिकपूजाङ्गप्रदोषविधायकवाक्याकाङ्क्षापूरणेन विष्णुधर्मोत्तरस्य नैराकाङ्क्ष्यात् ।नक्तं तु तत्र कुर्वीतेत्युत्तरार्धविहितनक्ताङ्गप्रदोषे परिमाणबोधनेनत्रिमुहूर्तमित्यस्य नैराकाङ्क्ष्यान्नात्र प्रवृत्तिः। किं त्वनारभ्याधीतं यजनं प्रतीति विष्णुधर्मोत्तरम्।
**त्रियामां रजनीं प्राहुर्मुक्त्वाऽऽद्यन्तचतुष्टयम्। **
नाडीनां तदुभे संध्ये दिनस्याऽऽद्यन्तसंज्ञिते॥
इति ब्रह्मवैवर्तेनैकादशीप्रकरणोक्तरीत्या राज्यन्तयामार्धस्य दिनादित्वप्रतिपादनात्। प्रत्यूषोऽहर्मुखमितिकोशेनापि यामार्धमेव प्रतिपाद्यत इति सिद्धान्तः। एवं रात्रेराद्ययामार्धमेव रजनीमुखमित्यभिप्रायक (कः) प्रदोषो रजनीमुखमिति कोशश्च तदाकाङ्क्षापूरक इति नानुपपत्तिः। न चैवमपि घटिकात्रयघटिकाद्वयबोधकवाक्ययोरप्यनारभ्याधीतत्वाविशेषाद्विनिगमनाविरहस्तदवस्थ एवेति वाच्यम् । एतयोः प्रदोषपरिमाणबोधकत्वस्वीकारे365 विष्णुधर्मोत्तरस्य कोशस्य च वैयर्थ्यापत्तेः। परस्परविरुद्धार्थत्वेन366 तथात्वासंभवाच्च। न च तस्यैव प्रवृत्तावेतद्वैयर्थ्यमिति शङ्क्यम्367। तदन्तर्गतघटिकात्रयघटिकाद्वयस्य प्रशस्ततरत्वप्रशस्ततमत्वबोधकत्वेन तयोः सार्थकत्वात्। अत एवावान्तरावधिवचनस्य महावधिवचनप्रतीतपूर्वाह्रैकदेशनिवर्तकत्वेन वा स्वाभिधेयस्यातिप्राशस्त्यप्रतिपादनपरत्वेन वाऽर्थवत्त्वं वक्तव्यम्। तत्राऽऽद्यपक्षे महावधिवचनानामानर्थक्यबाधौ स्याताम्। अतोऽवान्तरावधिवचनं प्रशस्ततरत्वार्थमिति निश्चीयत इति हेमाद्रिसिद्धान्तः संगच्छते। रात्रिभोजनेऽपि घटिकात्रयमुत्तमः कालो घटिकाषट्कं मध्यम इति नक्तप्रकरणे माधवश्च। तस्माद्यामार्धपरिमित एव प्रदोषकाल इति कर्मकालव्याप्तिशास्त्रेणैव त्रयोदशी निर्णेतव्येति सिद्धम्। तत्रैकस्मिन्नेव दिने साकल्येनैकदेशेन वा प्रदोषव्यापिनी तदा संदेह एव नास्ति। यदा दिनद्वयेऽपि प्रदोषव्यापिनी, साम्येनैकदेशव्यापिनी वा तदोत्तरैव। संकल्पदिनावच्छिन्नोपवासपूजाकालेषु विद्यमानत्वेनातिप्रशस्तत्वात्। यदा तु पूर्वप्रदोषेऽधिकव्याप्तिर्द्वितीये स्वल्पा तदाऽप्युत्तरैव।
दिवा रात्रौव्रतं यच्च एकमेकतिथौ स्मृतम्।
तस्यामुभययोगिन्यामाचरेत्तद्व्रतं व्रती॥
इति स्कान्दात्।
यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे।
विद्यमानो भवेदङ्गं नोज्झितोपक्रमेण तु॥
इति बौधायनोक्तेः। यदैकस्मिन्दिने कर्मोपक्रमकालव्यापिनी तिथिरपरस्मिन्दिने कर्मसमाप्तिकालसंबन्धिनी तद्विषयमेव बौधायनादिवचन-
मिति हेमाद्र्युक्तेश्च। अत एवासौ नक्तेषु साम्येन वैषम्येण वा दिनद्वये प्रदोषैकदेशव्याप्तौ परेद्युरेव नक्तं कार्यमिति नक्तप्रकरणे माधवः। यदा नक्तव्रततिथिः पूर्वदिनेऽधिकं प्रदोषं स्पृशति, परदिने स्वल्पं, तदाऽप्युत्तरैव। नक्तस्य दिवारात्रिव्रतत्वेन दिवारात्रिस्पृश्येव तिथौ विधेयत्वादिति निर्णयामृतश्च संगच्छते। न च पूर्वास्तात्पूर्व प्रवृत्तैताद्दशी368 दिवारात्रावित्यस्यानुग्रहात्संपूर्णप्रदोषव्याप्तेश्च पूर्वा कुतो नेति शङ्क्यम् ।दिवारात्रावित्यस्य त्रिसंध्यव्यापिनी यत्रेत्येकवाक्यतयोत्तरत्रैव प्रवृत्तौ पूर्वत्र तत्प्रवृत्तेरसंभवात्। विधेयसमर्थका369 मध्याह्नादिशब्दा मध्याह्नाद्येकदेशेऽपि मुख्या इति हेमाद्यादिभिः सिद्धान्तितत्वात्। प्रदोषैकदेशे पूजनेऽपि प्रदोषे पूजनात्। निराहारो भवेद्दिवेत्यादिविहितव्रतस्योदयादिप्रदोषान्तकालसाध्यत्वात्संकल्पदिनोपवासाद्यङ्गकप्रादोषिकपूजस्य विहितकाललाभेन तत्रैव कर्मकालशास्त्रप्रवृत्तेः। पूर्वत्र संकल्पादौ त्रयोदश्यभावेन संपूर्णप्रदोषव्याप्तेरप्रयोजकत्वात्। संकटे विहितजलपारणस्य संकटाभावेनाप्रवृत्तेः। एकादशीव्रतसमाप्तौ तत्र प्रदोषव्रतस्य नैव कुर्याद्व्रतान्तरमितिनिषेधाच्चेति दक्। प्रदोषद्वयासत्त्वेऽप्युत्तरेव। पूजाकालसत्त्वेऽप्यङ्गभूतसंकल्पदिनावच्छिन्नोपवासकाले सत्त्वात्।
रुद्रव्रतेषु सर्वेषु कर्तव्या संमुखी तिथिः।
इति वचनाञ्च।अत्र किं त्रयोदश्यनुरोधेन दिन एव पूजनमुत त्रयोदश्युपलक्षितप्रदोष एव। तत्रान्यतरत्यागावश्यकत्वे नक्तव्रते क्लृप्तत्वात्प्रदोषानादरेण दिन एव त्रयोदश्यां पूजनम्। अत एव नात्रैकभक्तवन्मुखकालेऽनुष्ठानं किंतु गौण एवेति कालतत्त्वविवेचनं संगच्छत इति चेन्न।
पक्षद्वये त्रयोदश्यां निराहारो भवेद्दिवा।
इतिप्रधानविधिविरोधस्यानुपदमेवोक्तत्वात्। अपि च
कैलासशैलभवने त्रिजगज्जनित्रीं
गौरीं निवेश्य कनकाञ्चितपीठमध्ये।
नृत्यं विधातुमभिवाञ्छति शूलपाणौ
देवाः प्रदोषसमयेऽनुभजन्ति सर्वे॥
वाग्देवी धृतवल्लकी शतमखो वेणुं क्वणन्पद्मज370
स्तालोन्निद्रक371रोमहाभगवती गेयप्रयोगान्विता।
**विष्णुः सान्द्रमृदङ्गवादनपटुर्देवाः समन्तात्स्थिताः **
**सेवन्ते तमनु प्रदोषसमये देवं मृडानीपतिम्॥ **
**गन्धर्वयक्षपतगोरगसिद्धसाध्य- **
**विद्याधरामरवराप्सरसां गणाश्च। **
**येऽन्ये त्रिलोकनिलयाः सहभूतवर्गाः **
प्राप्ते प्रदोषसमये हरपार्श्वसंस्थाः॥
**अतः प्रदोषे शिव एक एव पूज्योऽथ नान्ये हरिपद्मजाद्याः। **
**तस्मिन्महेशे विधिनेज्यमाने सर्वे प्रसीदन्ति सुराधिनाथाः॥ **
इति प्रदोषकालं प्रस्तुत्य तस्मिन्पूजामभिधाय तस्याः
**ब्रह्महत्याशतं वाऽपि शिवपूजा विनाशयेत्। **
इति फलमुक्त्वा
**मयाकथितमेतत्ते प्रदोषे शिवपूजनम्। **
इत्युपसंहृतम्। काम्यतिथिविशेषपूजाप्रकरणे हेमाद्रौकूर्मपुराणे व्यासः —
**त्रयोदश्यां तथा रात्रौ सोपहारस्त्रिलोचनम्। **
**दृष्ट्वेशं प्रथमे यामे सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ इति। **
निर्णयामृतमदरत्नयोःस्कान्दम् —
**पृथिव्यां यानि तीर्थानि सागरान्तानि यानि च। **
**अण्डमाश्रित्य तिष्ठन्ति प्रदोषे372 गोवृषस्य च॥ **
**स्पृष्ट्वा तु वृषणौ तस्य शृङ्गमध्यं विलोक्य च। **
**पुच्छं च ककुदं चैव सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ **
इत्यादि सर्वसंभवाद्रात्रावेव पूजोचिता। एवं सति तत्र दिवाकृतात्पूजनात्प्रदोषकृतपूजनफलं भवतीत्यत्र न किंचिन्मानं प्रत्युत
**ये नार्चयन्ति गिरिशं महिते प्रदोषे **
**येऽभ्यर्चितं शिवपदं प्रणमन्ति नान्ये। **
ये तत्कथां श्रुतिपुटैर्न पिबन्ति मूढा-
**स्ते जन्मजन्मसु भवन्ति नरा दरिद्राः॥ **
इत्यनिष्टापत्तिश्च। तस्मात्त्रयोदश्यां सत्यामसत्यां वा पूजनं सायंसंध्योत्तरमेव। नच तत्र त्रयोदश्यभावात्केवलप्रदोषकृतात्पूजनात्कथंविशिष्टफलमिति शङ्क्यम्। अङ्गभूतसंकल्पोपवासयोस्त्रयोदशीसंबन्धस्यस्पष्टत्वात्पूजाकाले ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धत्रयोदश्यसत्त्वेऽपि साकल्यवचनापादितायाः सत्त्वात्तादृशस्थले तादृश्या एव वैशिष्ट्यसंपादकत्वस्य शास्त्रानुगतत्वात्। अत एवापराह्णद्वयास्पर्शे तत्तिथ्युपलक्षितपूर्वापराह्ण एव पार्वणश्राद्धानुष्ठानमिति हैमाद्र्यादिभिः सिद्धान्तितं तत्सिद्धं प्रदोष एव पूजनं न दिवेति। तस्मादुभयत्र प्रदोषव्याप्तावव्याप्तौसाम्येनैकदेशव्याप्तौ पूर्वप्रदोषेऽधिकव्याप्तावुत्तरप्रदोषे न्यूनव्याप्तावप्युत्तरदिन एवप्रदोषव्रतातानुष्ठानमिति373 सिद्धमिति विभावनीयमिति दिक्। अत्रत्रिलोचनयात्रोक्ता काशीतत्त्वप्रकाशिकायां स्कान्दे —
क्षमां प्रदक्षिणीकृत्य यत्फलं समवाप्यते।
प्रदोषे तत्फलं काश्यां दृष्ट्वा देवं त्रिलोचनम्॥
यः प्रदोषे त्रयोदश्यां शनिवासरसंयुजि।
संस्नास्यति नरो धीमान्कामकुण्डे त्वदास्पदे॥
त्वत्स्थापितं च कामेशं लिङ्गं द्रक्ष्यति मानवः।
स वै(तस्य )कामकृतात्पापाद्यामी नश्यति यातना॥ इति।
कृष्णादिचैत्रत्रयोदश्यां शततारकानक्षत्रं चेत्सा वारुणीत्युच्यते शनिवारयोगे महावारुणी शुभयोगस्यापि योगे महामहावारुणी तस्यां गङ्गास्नानमतिपुण्यदं तदुक्तं तिथितत्त्वे स्कान्दे —
वारुणेन समायुक्ता मधौ कृष्णत्रयोदशी।
गङ्गायां यदि लभ्येत सूर्यग्रहशतैः समा॥
शनिवारसमायुक्ता सा महावाणी स्मृता।
गङ्गायां यदि लभ्येत कोटिसूर्यग्रहैःसमा॥
शुभयोगसमायुक्ता शनौ शतभिषा यदि।
महामहति विख्याता त्रिकोटिकुलमुद्धरेत्॥ इति।
पुर्णिमान्तमासाभिप्रायेण निर्णयामृताद्युदाहृतस्कन्दपुराणे —
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे।
यमदीपंबहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति॥
इति गृहाद्बहिर्दीपदानं विहितम्। तत्र मन्त्रः —
मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन श्याामया सह
त्रयोदश्यां दीपदानात्सूर्यजः प्रीयताम्॥ इति।
यस्तु —
त्रयोदश्यां तृतीयायां दशम्यां चैव सर्वशः।
शूद्रविट्क्षत्रियाः स्नानं नाऽऽचरेयुः कथंचन॥
स्नानं कुर्वन्ति या नार्यश्चन्द्रे शतभिषां374 गते।
सप्तजन्म भवेयुस्ता दुर्भगा विधवा ध्रुवम्॥
इति हेमाद्रौ जाबाल्याद्युक्तः स्नाननिषेधः स यादृच्छिकस्नानपरः। तथा च हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरम्—
भोगाय क्रियते यत्तु स्रानं यादृच्छिकं नरैः।
तन्निषिद्धं दशम्यादौ नित्यनैमित्तिके न तु॥
हेमाद्रौ गर्गजाबाली
क्रियते वा न वा यत्र शास्त्रयन्त्रणया विना।
मलव्यपोहनफलं स्रानं यादृच्छिकं तु यत्॥
तन्न कुर्यात्तृतीयायां चतुर्दश्यां तथा निशि।
शाश्वतीं भूतिमन्विच्छन्दशम्यामपि पण्डितः॥ इति।
एवं सत्यन्यत्रापि यत्र यत्र स्नाननिषेधः, सोऽपि यादृच्छिकस्नानपर एव। योऽपि रात्रौ स्राननिषेधः, सोऽपि गङ्गातिरिक्ते।
दिवा रात्रौ च संध्यायां गङ्गायां च प्रसङ्गतः।
स्नात्वाऽश्वमेधजं पुण्यं गृहेऽप्युद्धृततज्जलैः॥
इति ब्रह्माण्डपुराणात्। श्राद्धहेमाद्रौ मरीचिः —
भूमिष्ठमुधृतं वाऽपि शीतमुष्णमथापि वा।
गाङ्गं पयः पुनात्याशु पापमामरणान्तिकम्॥ इति।
इति श्रीमदाठवले उपनामकरामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे त्रयोदशीनिर्णयः \।
अथ चतुर्दशी निर्णीयते —
तत्र शुक्लचतुर्दशी पूर्णिमायुता ग्राह्या चतुर्दश्या च पूर्णिमेति युग्मवाक्यात् हेमाद्रौभविष्यत्पुराणेऽपि —
एवमेकादशी कार्या द्वादश्या तु त्रयोदशी।
सदा कार्या त्रयोदश्या न तु युक्ता चतुर्दशी॥
पौर्णमासीयुता साम्याच्चतुर्दश्या च पूर्णिमा।इति॥
हेमाद्रौ पद्मपुराणे —
एकादश्यटमी षष्ठी शुक्लपक्षे चतुर्दशी।
एताः परयुताः कार्याः पराःपूर्वेण संयुताः॥
माधवे व्यासः —
शुक्ला चतुर्दशी ग्राह्या परविद्धा सदा व्रते। इति।
हेमाद्रौनारदीयपुराणे —
तृतीयैकादशी षष्ठी शुक्लपक्षे चतुर्दशी।
पूर्वविद्धा न कर्तव्या कर्तव्या परसंयुता॥ इति।
हेमाद्रौ वाराहपुराणे —
एकादश्यष्टमी षष्ठी शुक्लपक्षे375 चतुर्दशी।
ग्राह्या परेण संयुक्ता नतु पूर्वेण संयुता॥ इति।
हेमाद्रावष्टमीप्रकरणे निगमः —
शुक्लपक्षेऽष्टमी चैव शुक्लपक्षे चतुर्दशी।
पूर्वविद्धान कर्तव्या कर्तव्या परसंयुता॥
उपवासादिकार्येषु ह्येष धर्मः सनातनः॥ इति।
कृष्णचतुर्दशी तूपवासभिन्नव्रतेषु पूर्वविद्धा ग्राह्या। तदाह हेमाद्रावापस्तम्बः —
कृष्णपक्षेऽष्टमी चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी।
पूर्वविद्धैवकर्तव्या परविद्धा न कर्हिचित्376॥ इति।
उपवासे तु परा —
एकादश्यष्टमी षष्ठी उभे पक्षे चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥
इति हेमाद्रौपद्मपुराणवृद्धवसिष्ठवचनात्।
अष्टम्येकादशी षष्ठी कृष्णपक्षे चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च कर्तव्या परसंयुता॥
इति हेमाद्रौनारदीयपुराणं,
चतुर्दशी दर्शयुक्ता पौर्णमास्या युता विभो॥
इति ब्रह्मवैवर्तं चाऽऽपस्तम्बाविरोधाय पद्मपुराणैकवाक्यतया चोपवासविषयमेव।
कृष्णपक्षेऽष्टमी चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या परविद्वा न कर्हिचित्377॥
उपवासादिकार्येषु ह्येष धर्मः सनातनः।
इति हेमाद्रावष्टमीप्रकरणस्थनिगमवचनं तूपवासविषये पद्मपुराणादिवाक्याविरोधाय,
एकादश्यष्टमी षष्ठी अमावास्या चतुर्दशी।
तृतीया पूर्वविद्धा च ता उपोष्याः परेऽहनि॥
इत्युपवासप्रकरणे हेमाद्र्युदाहृतनिगमब्रह्मपुराणवाक्याविरोधाय च,
रुद्रव्रतेषु सर्वेषु कर्तव्या संमुरवी तिथिः।
अन्येषु व्रतकल्पेषु यथोद्दिष्टमुपावसेत्॥
इति ब्रह्मवैवर्तवाक्यैकवाक्यतया च रुद्रव्रतविषयमेव। अत एवेदंवचनं रुद्रव्रतविषयं रुद्रव्रतेष्वितिवचनादित्यष्टमीनिर्णयस्थहेमाद्रिः संगच्छते। शुक्लाऽपि पूर्वदिनापराह्णव्यापिनी चेत्तर्हि रुद्रव्रतेषु पूर्वैव।
चतुर्दशी तु कर्तव्या त्रयोदश्या युता विभो।
मम भक्तैर्महाबाहो भवेद्या चाऽऽपराह्णिकी॥
दर्शविद्धा न कर्तव्या राकाविद्धाकदाचन।
इति स्कन्दपुराणात्। यदा शुक्लकृष्णचतुर्दश्यौ पूर्वदिनापराह्णंव्याप्नुतस्तदा त्रयोदशीयुते एव ग्राह्ये इति हेमाद्र्युक्तेरपि शुक्लायामेव तात्पर्यम्। अन्यथाऽपराह्णव्यापित्वाभावेऽपि पूर्वविद्धात्वमात्रेण कृष्णचतुर्दश्याः शिवव्रते पूर्वविद्धाया एव ग्राह्यत्वप्रतिपादकपूर्वोक्तहेमाद्रिसिद्धान्तविरोधापत्तेः। अत एवापराह्णव्यापित्वे तु शुक्लचतुर्दश्यपि पूर्वविद्धा ग्राह्येति।अत्र मम भक्तैरितीश्वरोक्तिलिङ्गाच्छिवचतुर्दशीविषयत्वं द्रष्टव्यमितिमाधवः, मदनरत्नः, तिथितत्त्वं च संगच्छते। तथा च शुक्लचतुर्दश्यपराह्णव्यापिनी चेच्छिवव्रत एव पूर्वाऽन्यव्रतेषूत्तरा। अपराह्णव्यापिनी तु शिवव्रतेऽप्युत्तरैव। कृष्णा तूपवासातिरिक्तसर्वव्रतेषु शिवव्रतरूपोपवा-
सेऽपि पूर्वविद्धैव। अन्यव्रतरूपोपवास एवोत्तरेति सिद्धःसामान्यतोनिर्णयः। चैत्रश्रावणमासयोः शुक्लाऽपि चतुर्दशी पूर्वविद्धैव ग्राह्या।
**मधोः श्रावणमासस्य शुक्ला या तु चतुर्दशी।
सा रात्रिव्यापिनी ग्राह्या परा पूर्वाह्णगामिनी॥ **
इति बोधायनवचनात्। ननु रात्रिव्यापिनीति पदयुक्तस्यास्य कथं पूर्वविद्धाविधायकत्वमिति चेत्तत्कल्पनं विनाऽस्य वैयर्थ्यापत्तेः। तथा हि नह्यस्य —
निशीथव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिव्रते तिथिः।
इत्यादाविव कर्मविशेषोपादानेन रात्रिव्यापिनीविधायकत्वसंभवःकर्मविशेषानुपादानात्। नापि —
चैत्रशुक्ले चतुर्दश्यां यथावत्पूजयेच्छिवम्। इत्यादि
प्रीयतां शिव इत्युक्त्वा नक्तं भुञ्जीत च स्वयम्॥
वर्षे वर्षे प्रकर्तव्यमेतच्चैत्रोत्सवं महत्।
शिवभक्तैस्तथाऽन्यैश्च कीर्तिश्रेयोभिवृद्धये॥
इत्यन्तस्कन्दपुराणविहितप्रदोषकालिक378दमनमहोत्सवादौ रात्रिव्यापिनीविधायकत्वमस्य पूर्वास्तोत्तरक्षणमारभ्य प्रवृत्ता चतुर्दशी द्वितीयास्तोत्तरद्विमुहूर्तपर्यन्ता तत्र प्रदोषसत्त्वस्योभयत्वतुल्यत्वेऽपि संकल्पकालेसत्त्वात्, दिवारात्रियोगाच्चदिवा रात्रौ व्रतं यच्चेत्यादिभिरुत्तरत्रैवानुष्ठानेनास्योपयोगाभावात्। यदा द्वितीयास्तादिपर्यन्ता तादृशी तत्र पूर्वत्रानुष्ठानस्योभयत्र प्रदोषासत्त्वे साकल्यप्रतिपादकवचनबोधितसत्त्वेनोत्तरत्रानुष्ठानस्य च मासान्तरगतायामप्यविशिष्टत्वेन परा पूर्वाह्णगामिनीत्यस्यासंगत्यापत्तेः। नाप्युभयत्र प्रदोषासत्त्व एव पूर्वत्रानुष्ठापकत्वं, कर्मकालव्याप्तिशास्त्रविरोधापत्तेः। तस्मात् —
‘पूर्वविद्धा न कर्तव्या कर्तव्या परसंयुता।
उपवासादिकार्येषु।’
इत्यादिशुक्लचतुर्दशीसामान्यविषयकवाक्यानामन्त्रापि प्रसक्तौ विशेषविषयकेणानेन तेषां मासान्तरगतशुक्लचतुर्दश्यां संकोचःक्रियत इत्यर्थस्यैव379 परा पूर्वाह्नगामिनीत्यनेनास्यैव विशेषेण प्रतिपादनात्। तत्रयस्यां तिथौ यस्मिन्कालविशेषे यत्कर्म विहितं, तत्कर्मानुष्ठानकाले तत्ति-
थिसत्वस्याऽऽवश्यकत्वात्, खण्डत्ववशाच्चदिनद्वयेऽपि तत्काले तत्तिथिसत्त्वे पूर्वा ग्राह्या परा ग्राह्येत्यादियुग्मादिवाक्यैर्व्यवस्था क्रियते। यदा तुदिनद्वयेऽपि तत्काले ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतत्तिथेरमावस्तत्र तस्यां तिथौविहितस्य तिथ्यन्तरेऽनुष्ठानासंभवात्प्रधानस्य तूपवासादेरवश्यानुष्ठेयत्वात्, सा तिथिःसकलेत्यादिवाक्यप्रतिपादिततिथिसत्त्वमादाय विहितपूर्वाह्णादिकाल एवतस्यानुष्ठानम्। तत्र ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथेःप्राबल्येऽपि यत्र
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या सदा नक्तव्रते तिथिः।
उदयस्था सदा पूज्या हरिनक्तव्रते तिथिः॥
इत्यादिविशेषवचनं, तत्र तदनादृत्य साकल्यवचनबोधिततिथेरेव ग्रहणमिति वस्तुस्थितिः। एवं सत्युपवासस्याहोरात्रसाध्यत्वाद्दमनकपूजादेःप्रातःकालमारभ्य प्रदोषान्तकालसाध्यत्वात्, तस्मिन्काले चतुर्दश्यामुख्यायाः साकल्यवाक्यबोधिताया वाऽऽवश्यकत्वात्, अस्तोत्तरं, प्रदोषोत्तरं वा यत्र चतुर्दशीप्रवृत्तिस्तत्र पूर्वदिन उपवासाद्यधिकरणदिनादिप्रदोषान्तकाले साकल्यवचनबोधिताया अपि चतुर्दश्या असंभवेन तन्निमित्तकोपवासादेस्तत्रानुष्ठानासंभवात्, उत्तरदिने रात्रिभागे मुख्यतिथ्यभावेऽपि साकल्यवचनबोधितायाः सत्त्वात्तत्रैवानुष्ठानमिति व्यर्थमेवेदंवचनं स्यात्। तस्मात्साकल्यवचनबोधिताहोरात्रसत्त्वचतुर्दश्या एवोपवासादियोग्यत्वात्, सूर्यास्तात्पूर्वमुहूर्तत्रयाद्यवच्छेदेन विद्यमानाया एवसाकल्यबोधनात्, उपवासादियोग्यचतुर्दशीपरत्वं विनाऽस्य सार्थक्यासंभवात्पूर्वविद्धाया एवं विधायकं बौधायनवचनम्। एवं च सति चैत्रश्रावणशुकचतुर्दशीविषयकेणानेन विशेषशास्त्रेण पूर्वविद्धायामस्यांविहितायां शुक्लचतुर्दशीसामान्यविषयकनिगमादिवाक्यानां मासान्तरगतचतुर्दशीविषयत्वं परिशेषसिद्धमेव परा पूर्वाह्णगामिनीति चतुर्थचरणेनस्पष्टी क्रियत इति सूपपन्नमस्य पूर्वविद्धाविधायकत्वम्। एतेन बौधायनवचनगतरात्रिशब्दानुवादकचैत्रश्रावणचतुर्दश्यौशुक्ले अपि रात्रियोगिन्यौ ग्राह्ये इति हेमाद्रिमाधवग्रन्थगतरात्रिशब्दोऽपि व्याख्यातः। नचात्रैवार्थे तयोस्तात्पर्यमित्यत्र किं नियामकमिति शङ्क्यम्।युग्मवाक्यस्यैव कर्मकालव्यातिशास्त्रविषयपरित्यागो युक्तः। संपूर्णत्वाभिधानेनाऽऽ-
रोपितकर्मकालिकतिथिग्रहणस्य मुख्यकर्मकालिकतिथिसंभवेऽन्याय्याश्रयणात्। यदा युग्मदिनेऽस्तमयसंबन्धिनी, अयुग्मदिन उदयास्तमयसंबन्धिनी, तत्रोभयसंबन्धिन्याः प्राशस्त्यात्सैव ग्राह्या।युग्मदिनसंबन्धिन्याः क्रियानर्हाया असत्कल्पत्वादित्यहोरात्रसाध्यं व्रतमुभययोगिन्यामेव कार्यं न तु युग्मत्वादर इति प्राग्घेमाद्रिणा सिद्धान्तितत्वात्।उदाहृतवचनवशाच्छिवरात्रिचतुर्दशी पूर्वविद्धा गृह्यते। अत एव शिवरात्रिव्रतस्य रात्रिप्राधान्यमुक्तं स्कन्दपुराणे —
निशि भ्रमन्ति भूतानि शक्तयः शूलभृद्यतः।
अतस्तस्यां चतुर्दश्यां सत्यां तत्पूजनं भवेत्॥
इति शिवरात्रिप्रकरणे पूर्वविद्धाग्राह्यत्व उपष्टम्भकत्वेनोपन्यस्य मानववचनस्येहाप्युपन्यासाच्च। प्रकृते द्वितीयास्तोत्तरं विद्यमानायां पूर्वप्रदोषोत्तरम्, अस्तोत्तरं वा प्रवृत्तायां चतुर्दश्यां पूर्वत्र तात्पर्यकल्पने तस्यासंगतत्वापत्तेः कर्मकालव्याप्तौ सर्वस्मृतीनामत्यन्तनिर्बन्धदर्शनात्कर्मकालव्याप्तिशास्त्रमितरेभ्यः प्रबलमिति निश्चीयते। तदनुसारेण तिथय उपवासादौ दैव एकोद्दिष्टादौ पित्र्ये कर्मकालव्याता ग्राह्येति माधवेनापि प्राक्सिद्धान्तितत्वात्प्रकृते रात्रिमात्रव्यापिन्यां तात्पर्यकल्पने तद्विरोधापत्तेःपूर्वविद्धाविषयकमेव बौधायनवचनमस्मिन्नेवार्थे हेमाद्रिमाधवयोस्तात्पर्यनिश्चयादिति दिक्। तत्सिद्धं चैत्रश्रावणचतुर्दश्याः शुक्लायाअपि पूर्वोक्तकृष्णचतुर्दशीवदेव निर्णय इति। यत्तु मदनरत्ने बौधायनवाक्यं विनैव चतुर्दशीनिर्णयं कृत्वा प्रदोषकालिक380दमनकपूजापवित्रपूजे अभिधायेमौ महोत्सवौ रात्रियोगिन्यां कार्यौ। तथा च बौधायनइत्यादिनाऽस्य दमनकपवित्रपूजामात्रविषयकत्वं स्वीकृत्य परा चैत्रश्रावणव्यतिरिक्तमासस्य शुक्लचतुर्दशीत्युक्तं तत्पूर्वोक्तरीत्या प्रदोषकालिकेकर्मणि मासान्तरगतशुक्लचतुर्दश्या अपि प्रदोषकालिक्या एव ग्राह्यत्वेनपरा पूर्वाह्णगामिनीति चतुर्थचरणस्यासांगत्यापत्तेश्चिन्त्यम्। अत एवदमनकपवित्ररोपणयोस्तु शुक्ले अपि चैत्रश्रावणचतुर्दश्यौ रात्रियोगिन्यौ पूर्वे एव ग्राह्ये न तूत्तरे इति कालतत्त्वविवेचनम्, चैत्रशुक्लचतुर्दशीदमनकरोपणे रात्रियोगिनी पूर्वा ग्राह्या। मधोः श्रावणेतिवचनादिति[बौधायनोक्तिः] कृत्यरत्नावलिश्चचिन्त्ये। दिनद्वये प्रदोषव्याप्तावव्या-
तौ चपूर्वाग्रहणापत्तेश्च। न चेष्टापत्तिः। दिवारात्रौ व्रतमिति कर्मणो। यस्येतिवाक्यविरोधापत्तेः। अत एव चैत्रश्रावणशुक्लचतुर्दशी रात्रिमात्रेविद्यमानाऽपि पूर्वैवेति हेमाद्रिमाधवपर्यालोचनेनाऽऽपाततः प्रतिभाति। न्याय्यस्त्वयं निष्कर्षः— पूर्वदिनेऽपराह्णव्यापिनी मुख्या। तदभावे मुहूर्तत्रयव्यापिन्यपि पूर्वा। रात्रिमात्रसत्त्वे तूत्तरैवेति प्रतिज्ञायोपवासे कृष्णचतुर्दृश्यप्युत्तरेत्यर्थकैकादश्यष्टमीत्यादिवाक्यमनादृत्य तृतीयेति नारदीयवाक्याच्छुक्लोत्तरा कृष्णपक्ष इत्यापस्तम्बात्कृष्णा पूर्वा चतुर्दशीति स्कान्दं शुक्लायामुत्तरविद्धात्वापवादकं381 कृष्णायां तु पूर्वविद्धात्वानुवादेनापराह्णव्यापित्वविधायकमिति सिद्धवत्कृत्वा मधोःश्रावणेतिवाक्ये सा रात्रिव्यापिनी ग्राह्येत्यन्तस्य विधायकत्वं खण्डयित्वा परापूर्वाह्णगामिनीत्वंशस्यैव विधायकत्वसाधनार्थं प्रवृत्तो382 द्वैतनिर्णयश्चिन्त्यः,हेमाद्रिमाधवतात्पर्यार्थादर्शनमूलकत्वात्। शैवविषयकस्कान्दस्यान्यविषयकनारदीयापवादकत्वस्य, आपस्तम्बोक्तपूर्वविद्धत्वानुवादेनापराह्णव्यापित्वविधायकत्वस्य चासंभवाद्विधिवैरुप्यापत्तेश्च। एतेन बौधायनवाक्यं यथाश्रुतार्थमिति हेमाद्रिमाधवौ। संप्रदायविदस्त्याहुः — स्कान्दमुत्सर्गः। तदपवादो नारदीयम्। तदपवादो मधोः श्रावणमासस्येति। तत्रापवादाभावे पुनरुत्सर्गस्थितिन्यायेन पूर्वविद्धैव ग्राह्येतिनिर्णयसिन्धुरपि चिन्त्यः। शैवविषयकस्कान्दस्योत्सर्गत्वासंभवाद्धेमाद्रिमाधवतात्पर्यार्थापर्यालोचनमूलत्वात्। हेमाद्रिमाधवयोः संप्रदायाज्ञत्वकल्पनानौचित्याच्च। शुक्लायामप्यापराह्णिकत्वमात्रं विधातुं पूर्वविद्धत्वप्राप्तिमपेक्षमाणं स्कान्दं बौधायनीयस्य पूर्वविद्धाविधिपरत्वमापादयतीति रात्रिव्यापिनीपदस्य पूर्वविद्धापरत्वमुचितमिति स्मृतिकौस्तुभोऽपि चिन्त्यः। शैवविषयकस्कान्दस्य स्वविधेयापराह्णिकत्वसंपत्त्यर्थमन्यविषयकनारदीयाद्यपवादकबौधायनवाक्यगतरात्रिव्यापिनीति पदस्यपूर्वविद्धत्वपरत्वाक्षेपकत्वासंभवात्, स्मृतेः स्मृत्यन्तरसापेक्षत्वेऽप्रामाण्यापत्तेश्च। तस्मात्सर्ववाक्याविरोधार्थं पूर्वोत्तरीतिरेव स्वीकार्येतिसिद्धम्। दमनकपूजाविधिर्मदनरत्ने स्कान्दे —
दमनकचतुर्दशीं वक्ष्यामि हितकाम्यया।
लोकानां पुण्यजनिकां सर्वसौख्यप्रदायिकाम् ॥
तस्यां दमनकैः पूजा383 चतुर्दश्यां विधानतः।
पूज्यते शंकरो रात्रौ तस्माद्दमनचतुर्दशी॥
चैत्रे शुक्लचतुर्दश्यां यथावत्पूजयेच्छिवम्।
प्रासादशोभां कृत्वैवं सम्यक्संमार्जनादिभिः॥
संस्नाप्य विधिवद्देवं क्षीराज्येक्षुरसादिभिः।
श्रीखण्डागुरुकर्पूरैः कुङ्कुमैश्चानुलेपयेत्॥
ततो दमनकैर्बिल्वैःपत्रैर्मरुवकैःशुभैः।
आलिङ्गं पीठपर्यन्तं पूजयेद्ग्रन्थितैस्तथा॥
तगरं देवदारुं च श्रीफलान्यथ सिह्लकम्।
अगुरुं महिपारव्यं च धूपं च निर्देहेत्ततः॥
शालिपिष्टोद्भवैर्दीपैः पञ्चभिर्नवाभिस्तथा।
कुर्यादारार्तिकं शंभोःकांस्यपात्रे समुज्ज्वलैः॥
विचित्रवस्त्रपूजा च कर्तव्या महती शिवे।
पुष्पमण्डपिकां चित्रां सवितानोज्ज्वलां शुभाम्॥
महोत्सवेन विधिवद्गेयतूर्यस्वरेण च।
विविधैर्भक्ष्यभोज्यैश्च नैवेद्यं चोपकल्पयेत्॥
संभवे सति कर्तव्या रथयात्रा पिनाकिनः।
प्रेक्षणीयैस्तथा नृत्यैर्वाद्ययन्त्रैश्च शोभनैः॥
पूजयेच्छिवभक्तांश्च विप्रानन्यांश्च शक्तितः।
प्रीयतां शिव इत्युक्त्वा नक्तं भुञ्जीत च स्वयम्॥
वर्षे वर्षे प्रकर्तव्यमेतच्चैत्रोत्सवं महत्।
शिवभक्तैस्तथाऽन्यैश्च कीर्तिश्रेयोभिवृद्धये। इति।
वर्षे वर्ष इति वीप्साश्रवणात्
चैत्रे च दमनारोपमकुर्वाणो व्रजत्यधः।
इति पाद्माच्चनित्यमिदम्। इति दमनकमहोत्सवः। हेमाद्रौ वाराहे —
चैत्रे कृष्णचतुर्दश्यामङ्गारकदिनं यदि।
पिशाचत्वं पुनर्न स्याद्गङ्गायां स्नानभोजनात्॥ इति।
इति चैत्रचतुर्दशी। वैशाखशुक्लचतुर्दश्यां नृसिंहजयन्ती। सा चास्तमयकालव्यापिनी ग्राह्या।
वैशाखशुक्लपक्षस्य चतुर्दश्यां विवस्वति।
अस्तंगामिनि सर्वेषां पुरतः स्तम्भमध्यतः॥
प्रबभूव महाविष्णुर्नरसिंहाकृतिर्नृप।
तस्यां व्रतं नरैः कार्यं महाविष्णोरतिप्रियम्।
इति नृसिंहप्रसादोदाहृतनृसिंहपुराणवचनात्। दिनद्वयेऽस्तमयकालव्याप्तावव्याप्तौ चोत्तरैव। संकल्पकालोपक्रमकालसत्त्वात्। इति वैशाखचतुर्दशी। हेमाद्रौबाह्मे —
आषाढे मासि भूताह्नि शिवं संपूज्य मानवः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वसंपदमाप्नुयात्॥
इति शिवपूजोक्ता। तत्र चतुर्दशी पूर्वविद्धा ग्राह्या रुद्रवतेष्वितिवचनात्। हेमाद्रौकालोत्तरे —
आषाढान्ते चतुर्दश्यां नमस्यनभसोस्तथा।
पवित्रारोपणं कार्यं नतु कालान्तरे स्थिरम्॥
नित्यमित्यर्थः। अत्र यद्यपि शिवपवित्रारोपणे मासत्रयं प्रतीयते,तथाऽपि श्रावणशुक्लचतुर्दश्येवमुख्या वक्ष्यमाणवचनात्। विष्णुपवित्रारोपणकालस्तु हेमाद्रौविष्णुरहस्ये —
श्रावणस्य सिते पक्षे कर्कटस्थे दिवाकरे।
द्वादश्यां वासुदेवाय पवित्रारोपणं स्मृतम्॥
तथा —
शरद्वर्षासु कुर्वीत पवित्रारोपणं शुभम्।
द्वादश्यां श्रावणे वाऽपि पञ्चम्यामथवा द्विज॥ इति।
अन्यदेवतापवित्रारोपणकालः —
प्रतिपद्धनदस्योक्ता द्वितीया च श्रिये मता।
तृतीया पार्वतीदेव्याश्चतुर्थी विघ्नहारिणः॥
पञ्चमी शशिनः प्रोक्ता षष्ठीप्रोक्ता गुहस्य तु।
सप्तमी भास्करस्योक्ता दुर्गायाश्चाष्टमी स्मृता।
मातॄणां नवमी प्रोक्ता वासवे दशमी स्मृता।
एकादशी मुनीनां च द्वादशी चक्रपाणिनः॥
त्रयोदशी त्वनङ्गस्य शिवस्योक्ता चतुर्दशी।
पौर्णमासी सुरश्रेष्ठ पितुर्मे कथिता तिथिः॥
यथोक्ताः शुक्लपक्षे तु तिथयः श्रावणस्य तु।
सर्वेषामेव देवानां कार्यं तासु यथाविधि॥ इति।
पवित्रनिर्माणप्रकारस्तु —
हेमरौप्यताम्रक्षौमसूत्रैः कौशेयपद्मजैः।
कुशैः काशैश्च कार्पासैर्ब्राह्मण्या कर्तितैः शुभैः॥
कृत्वा त्रिगुणितं सूत्रं त्रिगुणीकृत्य शोधयेत्।
तत्रोत्तमं पवित्रं तु षष्ट्या सह शतैस्त्रिभिः॥
सप्तत्या सहितं द्वाभ्यांशताभ्यां मध्यमं स्मृतम्।
साशीतिना शतेनैव कनिष्ठं तत्समाचरेत्॥
साधारणपवित्राणि त्रिभिः सूत्रैः समाचरेत्।
उत्तमं तु शतग्रन्थि पञ्चाशद्ग्रन्थि मध्यमम्॥
कनिष्ठं तु पवित्रं स्यात्षड्विंशद्ग्रन्थिशोभितम्।
षड्त्रिंशच्चचतुर्विंशद्द्वादशेन च केचन॥
चतुर्विंशद्द्वादशाष्टावित्येके मुनयो विदुः। इति।
एतच्चनित्यम्।
न करोति विधानेन पवित्रारोपणं तु यः।
तस्य सांवत्सरी पूजा निष्फला मुनिसत्तमाः॥ इति।
अधिवासनं तु पूर्वेद्युस्तद्दिने वा कार्यम्।
गोदोहान्तरिते काले पूर्वेद्युर्वाऽधिवासनम्॥
इति वचनात्। गौणकाल उक्तो हेमाद्रौमन्त्रतन्त्रप्रकाशे —
अथ चेद्विघ्नयोगेन मुख्यकालो न लभ्यते।
कन्यायां चापि कुर्वीत यावन्नोत्तिष्ठते हरिः॥
शिवपवित्रनिर्माणप्रकारस्तु तत्रैव शैवागमे —
एकादशभिर्वा सूत्रैस्त्रिंशतं चाष्टयुक्तया॥
पञ्चाशता वा कर्तव्यं तुल्यग्रन्थ्यन्तरालकम्।
द्वादशाङ्गुलमानानि व्यासादष्टाङ्गुलानि वा॥
लिङ्गविस्तारमानानि चतुरङ्गुलकानि वा॥ इति।
मन्त्रस्तु —
देवदेव नमस्तुभ्यं गृहाणेदंपवित्रकम्।
पवित्रकरणार्थाय वर्षपूजाफलप्रदम्॥
पावत्रक कुरुष्वाद्य यन्मया दुष्कृतं कृतम्।
शुद्धो भवाम्यहं देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर॥
इत्यनेन तत्तद्देवतामूलमन्त्रसंपुटितेन दद्यात्। इति पवित्रारोपणमुक्तम्।तत्र रुद्रव्रतेषु सर्वेष्विति मधोः श्रावणमासस्येत्युदाहृतवचनेन पूर्वविद्धाचतुर्दशी ग्राह्या। इति श्रावणचतुर्दशी। भाद्रपदशुक्लचतुर्दशी भविष्योत्तरविहितानन्तव्रतेऽपि परयुतैव। पूर्वोदाहृतनिगमादिभिः सामान्यवचनैः।
तथा भाद्रपदस्यान्ते चतुर्दश्यां द्विजोत्तम।
पौर्णमास्याः समायोगे व्रतं चानन्तकं चरेत्॥
मुहूर्तमपि चेद्भाद्रे पौर्णिमायां चतुर्दशी।
संपूर्णां तां विदुस्तस्यां पूजयेद्विष्णुमव्ययम्॥
इति निर्णयामृतोदाहृतभविष्योत्तरस्कन्दपुराणवाक्याभ्यां च। अत्रमुहूर्तश्रपदवणान्मुहूर्तमात्रसत्त्वेऽपि परेति न मन्तव्यम्।
आदित्योदयवेलायां या स्तोकाऽपि तिथिर्भवेत्।
पूर्णा सा त्वेव मन्तव्या प्रभूता नोदयं विना ॥
इति बौधायनीये। अत्रोदयकालिक्याःसंपूर्णत्वाभिधानं परविद्धोपादेयविषयमिति। उदिते दैवतमितिवाक्य उदयोत्तरमुहूर्तद्वयव्यापिनीतिथिर्हव्ये ग्राह्येति हेमाद्र्युक्तेर्बौधायनीयाद्येकवाक्यत्वार्थं384 चापिशब्दयुक्तंमुहूर्तपदं385 मुहूर्तद्वयादिपरम्। तेनोदयोत्तरं मुहूर्तद्वयादिव्यापिनी परैव। यदापूर्वसूर्योदयमारभ्य प्रवृत्ता तादृशी, तदा संपूर्णत्वेन संदेहाभावात्, अर्धमात्मनि भोजनमिति व्रताङ्कैकभक्तमध्याह्नकालसत्त्वाच्चपूर्वैव। अत एवत्रिमुहूर्तेति मुख्यः कल्पाद्विमुहूर्तेत्यनुकल्प इति माधवःसंगच्छते। ननुमध्याह्ने भोज्यवेलायामिति कथायां मध्याह्नस्य कर्मकालत्वप्रतीतेः कर्मकालव्याप्तिशास्त्रविरोधः। नच मध्याह्नेभोज्यवेलायामिति लिङ्गस्यार्थवादगतत्वेन विध्यनुमापकत्वासंभवान्नमध्याह्नः कर्मकाल इति माधवे, कालतत्त्वविवेचनादौ च सिद्धान्तितत्वादुपेक्ष्य एवार्थवाद इति युक्तम्। प्रतिपदोक्तमध्याह्न इतीतिहासस्य पूर्वार्धे दैविकमित्यादिसामान्यविधिना सर्वथाबाधायोगात्। अत एव वैश्वदेवशब्दःकर्मनामधेयं यद्विश्वे देवाः समयजन्तेत्यर्थवादरूपतत्प्रख्यशास्त्रादेवेति मीमांसैकदेशिमतं संगच्छते। नचाऽऽर्थवादिकविधिकल्पने ददर्श शीला सा स्त्रीणां समूहमित्यनेन स्त्रीणा-
मेवाधिकारकल्पनापत्तिरिति स्मृतिकौस्तुभोक्तदूषणापत्तेर्न मध्याह्नविधिकल्पनमित्यपि युक्तम्।
पठिष्यति नरो यस्तु कुर्वन्व्रतमिदं शुभम्।
सोऽचिरात्पापनिर्मुक्तः,
इत्यादिना कथायामेव पुंसोऽप्यधिकारोक्तेः स्त्रीसमूहेनैवेदं कार्यमित्यापत्तेरयुक्तत्वात्।तस्मात्प्रतिपदोक्तेतिहासान्मध्याह्नविधिकल्पने दूषणाभावात्कथं पूर्वोक्ता व्यवस्थेति चेन्न। पूर्वा दैविकमिति सामान्यविधेरेतदपवादकत्वासंभवेऽपि मुहूर्तमपि चेद्भाद्रइति प्रतिपदोक्तविधिविरोधेनाऽऽर्थवादिकविध्युन्नयनासंभवात्। नचैवमप्यर्थवादस्य निर्विषयत्वापत्तावानर्थक्यप्रतिहतानां विपरीतं बलाबलमितिसिद्धान्तविरोधइति वाच्यम्। भर्त्रनुज्ञयैव स्त्रीणां व्रताद्यधिकारेण भर्तृकार्यव्यापृतत्ववशेन पूर्वाह्णातिक्रमेऽपि व्रताङ्गभूतैकभक्तकाले मध्याह्नेऽप्यनुष्ठानसंभवेननिर्विषयत्वाभावात्। ततश्च केनचिन्निमित्तेन पूर्वाह्णॆऽननुष्ठाने गौणकालतया मध्याह्नोऽपि स्वीकार्य इत्येव मध्याह्न भोज्यवेलायामितीतिहासात्सिध्येन्न तु पूर्वाह्णबाधकतया मध्याह्नविधिकल्पनेति दिक्। यत्तु मध्याह्नेतिकथायां श्रवणात्
पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी तिथिः।
इति वचनात्, मध्याह्नव्यापिनीग्राह्येति दिवोदासीये प्रतापमार्तण्डेचोक्तं, तत्पूर्वोक्तरीत्या गौणकालाभिप्रायेण नेयम्। मध्याह्नव्यापिनीतिवाक्यस्य कालान्तरविधायकप्रतिपदोक्तवचनशून्यऋषिपञ्चम्यादौ सावकाशत्वेन प्रकृते तत्प्रवृत्त्यसंभवात्, मध्याह्नेभोज्यवेलायामित्यस्य गौणकालपरत्वाच्चेति। तत्सिद्धं पूर्वसूर्योदयोत्तरं प्रवृत्ता द्वितीयसूर्योदयोत्तरं मुहूर्तद्वयाद्यवच्छेदेन विद्यमानाऽनन्तचतुर्दश्युत्तरा पूर्वसूर्योदयमारभ्यप्रवृत्ता तादृश्यपि पूर्वेति386। इत्यनन्तचतुर्दशी। दीपावलीचतुर्दशी तु —
कार्तिक कृष्णपक्षे तु चतुर्दश्यां विधूदये।
तिलतैलेन कर्तव्यं स्नानं नरकभीरुभिः॥
इति चतुर्दशीप्रकरणे मदनरत्नाद्युदाहृतभविष्योत्तरे। तैलस्नानमुक्तंनिर्णयामृते —कार्तिककृष्णचतुर्दशी प्रेतचतुर्दशी तत्रोषस्यभ्यङ्गं कृत्वायमतर्पणादिकं कार्यमित्युक्त्वेदमु387दाहृतममाप्रकरणे भविष्योत्तरे —
पुरा वामनरूपेण प्रार्थयित्वा धरामिमाम्।
ददावतिथिरिन्द्राय बलिं पातालवासिनम्॥
कृत्वा दैत्यपतेर्दत्तमहोरात्रत्रयं नृप।
सरहस्यं तदेतत्ते कथयामि शृणुष्व मे॥
इत्यादिना श्रावितयुधिष्ठिरप्रश्नानन्तरम्
कार्तिक कृष्णपक्षे तु चतुर्दश्यां दिनोदये।
अवश्यमेव कर्तव्यं स्नानं नरकभीरुभिः॥
इत्यत्र च दिनोदय उदयासन्नपूर्वकालइत्यर्थः। विधूदयइति पूर्ववाक्यैकवाक्यत्वात्।
तथा कृष्णचतुर्दश्यामाश्विनेऽर्कोदयात्पुरा।
यामिन्याःपश्चिमे यामेतेलाभ्यङ्गो विशिष्यते॥
इष्टबन्धुजनैः सार्धमेतत्स्नानं समाचरेत्।
ततो मङ्गलवासांसि परिधायाऽऽत्मभूषणम्॥
कृत्वा च तिलकं धृत्वा कार्तिकस्तानमाचरेत्।
इति सनत्कुमारसंहितायां त्र्यशीतितमेऽध्याये कार्तिकमाहात्म्ये सूर्योदयात्पूर्वमेवाभ्यङ्गविधानात्। न च पश्चिमयाम इत्यनेन चन्द्रोदयात्पूर्वमपि स्यादिति शङ्क्यम्।
अरुणोदयतोऽन्यत्र रिक्तायां स्नाति या नरः।
तस्थाऽऽब्दिकभवो धर्मो नश्यत्येव न संशयः॥
इति भविष्यनाम्ना दिवोदासोदाहृतसनत्कुमारसंहितावाक्येऽरुणोदयकालस्यैव मुख्यत्वप्रतिपादनात्। केनचिन्निमित्तेनारुणोदयकालेऽतिक्रान्ते सूर्योदयोत्तरमप्यभ्यङ्गः कर्तव्यः।
इषासितचतुर्दश्यामिन्दुक्षयतिथावपि।
ऊर्जादौ स्वातिसंयुक्तेतदा दीपावली भवेत्॥
तैले लक्ष्मीर्जले गङ्गा दीपावलितिथौ वसेत्।
अलक्ष्मीपरिहारार्थमभ्यङ्गस्नानमाचरेत्॥
इन्दुक्षयेऽपि संक्रान्तावारे पाते दिनक्षये।
तत्राभ्यङ्गमदोषाय प्रातः पापापनुत्तये॥
इति ज्योतिर्निबन्धे नारसंहितायाम्,
इषे भूते च दर्शे च कार्तिकप्रथमे दिने।
मानवो मङ्गलस्रायी नैव लक्ष्म्या वियुज्यते॥
इति सनत्कुमारसंहितायां च लक्ष्मीकामस्य दिनत्रयेऽप्यभ्यङ्गविधानात्। ब्रह्मपुराणे —
तैले लक्ष्मीर्जले गङ्गा दीपावल्याश्चतुर्दशीम्।
प्राप्य वसतीति शेषः।
प्रातःस्रानं तु यः कुर्याद्यमलोकं न पश्यति।
अपामार्गमथो तुम्बीप्रपुन्नाटमथापरम्॥
भ्रामयेत्स्नानमध्ये तु नरकस्य क्षयाय वै। इति।
भ्रमणं समन्त्रकं त्रिवारं कार्यम्।
वारत्रयं त्रिवारं च पठित्वा मन्त्रमुत्तमम्।
सीतालोष्टसमायुक्त सकण्टकदलान्वित।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनः पुनः।
इति सनत्कुमारसंहितायां वारत्रयमित्युक्तेः पुनःपुनरिति मन्त्रलिङ्गाच्च। सीतालोष्टमपि ग्राह्यं लिङ्गादेव। प्रपुन्नाटश्चक्रमर्दकः, तरवण्टा( तरवड ) इति भाषायामुच्यते। सीता लाङ्गलपद्धतिः। कार्तिकस्नानानन्तरं यमतर्पणं कर्तव्यम्। तदुक्तं सनत्कुमारसंहितायाम् —
स्नानाङ्गतर्पणं कृत्वा यमं संतर्पयेत्ततः।
यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च॥
वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च।
औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने॥
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय ते नमः।
चतुर्दशैते मन्त्राः स्युः प्रत्येकं च नमोन्विताः॥
एकैकेन तिलैर्मिश्रान्दद्यात्त्रीनुदकाञ्जलीन्।
यज्ञोपवीतिना कार्यं प्राचीनावीतिनाऽथवा॥
देवत्वं च पितृत्वं च यमस्यास्ति द्विरूपता।
जीवत्पिताऽपि कुर्वीत तर्पणं यमभीष्मयोः॥
नरकाय प्रदातव्यो दीपः संपूज्य देवताः॥ इति।
नरकनिवृत्तय इत्यर्थः। * अयं दीपः प्रातःपूजोत्तरमेव। भविष्योत्तरे —
* अर्थोभिधयेरैवस्तु प्रयोजननिवृत्तिष्वितिकोशान्निवृत्तिरूपार्यशब्दार्थेऽपितादर्थेचतुर्थी वक्तव्येति चतुर्थी विधानात्। इत्यधिकं वर्तते।
ततः प्रदोषसमये दीपान्दद्यान्मनोहरान्।
ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु मठेषु च॥
प्राकारोद्यानवापीषु प्रतोलीनिष्कुटेषुच।
मन्दुरासु विचित्रासु हस्तिशालासु चैव हि॥ इति।
प्रतोली वीथिः। निष्कुटो गृहारामः। सनत्कुमारसंहितायाम् —
तस्मादेतद्बलेराज्यमस्तु घस्रत्रयं तु मे।
मद्राज्ये ये दीपदानं भुवि कुर्वन्ति मानवाः॥
तेषां गृहे तव स्त्रीयं सदा तिष्ठतु सुस्थिरा।
इति विष्णुं प्रति बलिकृतवरयाचनम्। महारात्रिपूजाऽप्युक्ता —
महारात्रिः समुत्पन्ना चतुर्दश्यां मुनीश्वराः।
अतस्तदुत्सवः कार्यः शक्तिपूजापरायणैः॥ इति।
निर्णयामृते लैङ्गम् —
ततः प्रेतचतुर्दश्यां भोजयित्वा तपोधनान्।
शैवान्विप्रान्धर्मपराञ्शिवलोके महीयते॥
दानं दत्त्वा तु तेभ्यश्च यमलोकं न गच्छति।
तथा — माषपत्रस्य शाकेन भुक्त्वा वैतद्दिने नरः॥
प्रेतचतुर्दशीकाले सर्वपापैः प्रमुच्यते।
तथा — नक्तं प्रेतचतुर्दश्यां यः कुर्याच्छिवतुष्टये।
न तत्क्रतुशतेनापि प्राप्यते पुण्यमीदृशम्॥ इति।
हेमाद्रौ लिङ्गपुराणे —
कार्तिके भौमवारेण चित्राकृष्णचतुर्दशी।
तस्यामाराधितः स्थाणुर्नयेच्छिवपुरं ध्रुवम्॥ इति।
उल्कादानमुक्तं सनत्कुमारसंहितायाम् —
तुलासंस्थे सहस्रांशौप्रदोषे भूतदर्शयोः।
उल्काहस्ता नराः कुर्युः पितॄणां मार्गदर्शनम्॥ इति।
चतुर्दश्यामभ्यङ्गस्नानयमतर्पणदीपदानप्रदोषदीपदानोल्कादानशिवपूजामहारात्रिपूजानक्तभोजनानि विहितानि।अमावास्यायामपि —
एवं प्रभातसमये त्वमायां च मुनीश्वराः।
स्नात्वा देवान्पितॄन्भक्त्या संपूज्याथ प्रणम्य च॥
कृत्वा तु पार्वणं श्राद्धं दधिक्षीरघृतादिभिः।
दिवा तत्र न भोक्तव्यमृते बालातुराज्जनात्॥
ततः प्रदोषसमये पूजयेदिन्दिरां शुभाम्।
दीपदानं ततः कुर्यात्प्रदोषे च तथोल्मुकम्॥
भ्रामयेत्स्वस्य शिरसि सर्वारिष्टनिवारणम्।
दीपवृक्षास्तथा कार्याः शक्त्या देवगृहादिषु।\।
ब्राह्मणान्भोजयित्वाऽऽदौ संभोज्य च बुभुक्षितान्।
अलंकृतेन भोक्तव्यं नववस्त्रोपशोभिना॥
इत्यादिना सनत्कुमारसंहितायां मदनरत्नोदाहृतादित्यपुराणे चाभ्यङ्गस्नानादि विहितम्। तदुत्तरप्रतिपद्यपि —
प्रतिपद्युदयेऽभ्यङ्गं कृत्वा नीराजनं ततः।
सुवेषः सत्कथागीतैर्दानैश्च दिवसं नयेत्॥
तस्माद्द्यूतं प्रकर्तव्यं प्रभाते तत्र मानवैः।
तस्मिन्द्यूते जयो यस्य तस्य संवत्सरं जयः॥
विशेषवच्च भोक्तव्यं प्रशस्तैर्बाह्मणैः सह।
दयिताभिश्च सहितैर्नया सा च भवेन्निशा॥
बलिमालिख्य दैत्येन्द्रं वर्णकैः पञ्चरङ्गकैः।
मन्त्रेणानेन संपूज्य षोडशैरुपचारकैः॥
बलिराज नमस्तुभ्यं दैत्यदानवपूजित।
इन्द्रशत्रोऽमराराते विष्णुसांनिध्यदो भव॥
बलिमुद्दिश्य दीयन्ते दानानि मुनिपुंगवाः।
यानि तान्यक्षयाण्याहुर्मयैतत्संप्रदर्शितम्॥
यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां मुनीश्वराः।
हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति हि॥
बलिपूजां विधायैवं पश्चाद्गोक्रीडनं चरेत्। इति।
सनत्कुमारसंहितायां भविष्योत्तरे च प्रतिपद्यप्यभ्यङ्गादि विहितम् —
तस्मादेतद्बलेराज्यमस्तु घस्रत्रयं तु मे।
मद्राज्ये ये दीपदानं भुवि कुर्वन्ति मानवाः॥
तेषां गृहे तव स्त्रीयं सदा तिष्ठतु सुस्थिरा।
दीपैर्नीराजनादत्र सैषा दीपावलिः स्मृता॥
बलिराज्ये तु ये लोकाःशोकानुत्सवकारिणः।
तेषां गृहे सदा शोकः पतेदिति न चान्यथा॥
येऽवैष्णवा वैष्णवा वा बलिराज्योत्सवं नराः।
न कुर्वन्ति वृथा तेषां धर्माः स्युर्नात्र संशयः॥
बलिराज्यं समासाद्य यैर्न दीपावलिः कृता।
तेषां गृहे कथं दीपाः प्रज्वलिष्यन्ति केशव। इति।
वत्सरादौ वसन्तादौ बलिराज्ये तथैव च।
तैलाभ्यङ्गमकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते॥
इत्यादिसनत्कुमारसंहितावृद्धवसिष्ठादिवचनैरकरणेऽनिष्टस्य करणे फलस्य च बोधनान्नित्यं काम्यं चेदम्। तत्र चतुर्दश्यभ्यङ्गस्य राज्यन्त्ययाममारभ्यारुणोदयात्पूर्वःकालो जघन्यः, तदुत्तरश्चन्द्रोदयावधिर्मध्यमः,ततः सूर्योदयावधिरुत्तमः। तत्र यदाऽरुणोदयमारभ्य चतुर्दशी प्रवृत्ता,ततः पूर्वं वा प्रवृत्तोत्तरदिनेऽस्तोत्तरं मुहूर्तादिपरिमिता चतुर्दशी, तदासंदेह एव नास्ति। यदा पूर्वविद्धोत्तरत्रास्तात्पूर्वं समाप्ता, तदा दीपदाननक्तादिषु प्रदोषव्याप्तैव। अभ्यङ्गे तूषःकालव्याता ग्राह्या।
पूर्वविद्धचतुर्दश्यां कार्तिकस्य सितेतरे।
पक्षे प्रत्यूषसमये स्नानं कुर्यात्प्रयत्नतः॥
इति भविष्योत्तरसनत्कुमारसंहितायां वचनात्। पूर्वविद्धाशब्दःपूर्वोपलक्षकोऽपि। तेनास्तानन्तरं प्रवृत्ताऽपि तादृशी पूर्वैव। यदा सूर्योदयानन्तरं प्रवृत्ताऽरुणोदयात्पूर्वं समाप्ता तदाऽरुणोदयात्पूर्वमपि चतुर्थयामेचतुर्दश्यामेवाभ्यङ्गः।
अभ्यङ्गे चोदधिस्नाने तिथिस्तात्कालिकी स्मृता।
इति पूर्वोदाहृतसाकल्यवचनापवादवचनाद्यामिन्याः पश्चिमे याम इति प्रकृतोदाहृतवचनाच्च।अरुणोदयतोऽन्यत्रेति वचनं त्वरुणोदयागतायाः प्राशस्त्यपरम्। यामिन्याः पश्चिमे यामे तात्कालिकीति वचनविरोधात्। सूर्योदयात्पूर्वं केनचिन्निमित्तेन न जातश्चेत्सूर्योदयोत्तरगौणकालेऽपि चतुर्दश्यामेव कार्यः। यत्तु —
त्रयोदशी यदा प्रातः क्षयं याति चतुर्दशी।
रात्रिशेषे त्वमावास्या तदाऽभ्यङ्गे त्रयोदशी॥
इति केन चिल्लिखितं तदार्षं चेदौदयिकत्रयोदश्युपलक्षिताहोरात्रारुणोदयपरमुदाहृतवचनविरोधादिति बोध्यम्। अमायामपि प्रातरभ्यङ्गः प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजादि [ च ] विहितं तच्चोत्तरदिनेऽस्तोत्तरं वटिकाद्यवच्छेदेन विद्यते तदा सैव ग्राह्या।
दण्डैकरजनीयोगे दर्शःस्यात्तु परेऽहनि।
तदा विहाय पूर्वेद्युःपरेऽह्नि सुखरात्रिके॥
इति भविष्यनाम्ना तिथितत्त्वाद्युदाहृतसनत्कुमारसंहितावचनात्।यदा सायाह्नमारभ्य प्रवृत्तोत्तरदिनेकिंचिन्न्यूनयामं388त्रयममावास्यातदुत्तरदिने यामत्रयमिता प्रतिपत्तदाऽमावास्याप्रयुक्तदीपदानलक्ष्मीपूजादिकं पूर्वत्र। अमाप्रयुक्तोऽभ्यङ्ग उत्तरदिने प्रतिपत्प्रयुक्तदीपदानबलिपूजादिकममाविद्धप्रतिपदि। अभ्यङ्ग उत्तरप्रतिपदि। तत्रैव कर्मकालशास्त्रप्रवृत्तेः।यदा तु द्वितीयदिने यामत्रयममावास्या तदुत्तरदिने सार्धयामत्रयं प्रतिपत्तदा
त्रियामगा दर्शतिथिर्भवेच्चेत्सार्धत्रियामा प्रतिपद्विवृद्धौ।
दीपोत्सवे ते मुनिभिः प्रदिष्टे अतोऽन्यथा पूर्वयुते विधेये। इति।
वर्धमानतिथौ नन्दा यदा सार्धत्रियामिका।
द्वितीया वृद्धिगामित्वादुत्तरा तत्र चोच्यते ॥
इति निर्णयामृतमदनरत्नोदाहृतपुराणसमुच्चयसनत्कुमारसंहितावाक्याभ्यामुत्तरयोरेव विधानाद्विधिः पूज्यतिथा389वितिवचनादुत्तरत्रैव कर्मकालशास्त्रप्रवृत्तेर्दिनद्वयेऽपि प्रातरभ्यङ्गे ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथिलाभःस्पष्टः। प्रदोषे ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथ्यभावेऽपि साकल्यवचनप्रतिपादिततिथिसत्त्वमादाय दीपदानलक्ष्मीपूजादिकममावास्योपलक्षितप्रदोषएव कार्यम्। द्वितीयदिने दीपदानबलिपूजादिकं प्रतिपदुपलक्षितप्रदोषे कर्तव्यमिति सिद्धः सर्ववाक्यैकवाक्यतयैव दीपोत्सवचतुर्दश्यादितिथित्रयनिर्णयः। यत्तु कालतत्त्वविवेचनकृत्यरत्नावल्यादिषु दिनद्वयेचन्द्रोदयकाले चतुर्दश्यभावे पूर्वैव चतुर्दशीत्युक्तम्, तत्सूर्योदयानन्तरंप्रवृत्ता चन्द्रोदयात्प्राक्तनारुणोदयकालव्यापिनी चतुर्दशी, तत्र पूर्वारुणोदयेऽभ्यङ्गानुष्ठानापत्तावुदाहृतानेकवचनविरोधादयुक्तम्। यदपि स्मृतिकौस्तुभे चतुर्दशीक्षये परत्रैव स्नानं कार्यम्। अमाया वृद्धिसत्त्वे
तिथ्यादिभवेद्यावान्हासो वृद्धिः परेऽहनि।
तावान्ग्राह्यः स पूर्वेद्युरदृष्टोऽपि स्वकर्मणि॥
इति वचसा चतुर्दश्यां तत्प्रक्षेपतया चन्द्रोदयव्याप्तिसंभवात्। अमायांवृद्ध्यसत्त्वे चन्द्रोदयव्यापिन्याममायां स्नानौचित्यात्।
इषासितचतुर्दश्यामिन्दुक्षयतिथावपि।
इति वाक्येऽपिशब्देन चतुर्दशीस्थानेऽमाया अनुकल्पत्वेन विधेरीदृशविषय एव प्रवृत्यौचित्यादित्युक्तम्, तदप्यनुचितम्। चतुर्दशीनिमित्तेकर्मणि अमावास्यागतवृद्धिप्रक्षेपस्वीकारे दिनद्वये मुख्यकर्मकालैकदेशेऽपि ग्राह्यतिथ्य भावस्तत्र गौणकाले सत्त्वात्पूर्वत्रैवैकभक्तम्। अस्माद्वचनादुत्तरदिने विद्यमानग्राह्यतिथिगतक्षयस्य पूर्वदिनेऽनुष्ठीयमाने स्वनिमित्तके कर्मणि प्रक्षेपे सति मध्याह्नकालेऽपि तत्तिथिलाभान्मध्याह्नएवैकभक्तं कार्यमिति हेमाद्रिमदनरत्नादिविरोधापत्तेः। नच व्युत्पत्तिविरुद्धंवचनार्थमाश्रित्यैकभक्तादितिथेः कर्मकालव्याप्तिं वर्णयद्भ्योनमःप्राचीनेभ्य इत्युक्त्या हेमाद्र्यादीनुपहसतो ग्रन्थकृतो हेमाद्र्यादिविरोधोन दोष इति शङ्क्यम्। स्वकर्मणीति स्वशब्दयुक्तवचनेन ग्राह्यतिथेर्दिनद्वयेऽपि कर्मकालासत्त्वे वचनान्तरेण यत्र पूर्वा विहिता तत्र कर्मकालेज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथ्यभावात्कथमनुष्ठानमिति शङ्काव्युदासाय साकल्यबोधकवचनवदनेन वाचनिकी सत्ता प्रतिपाद्यते। उभयन्न सत्त्वेतुवचनान्तरेणोत्तरा यत्र विहिता तत्र कर्मकालशास्त्रात्पूर्वत्र कुतोनानुष्ठानमितिशङ्काव्युदासार्थं पूर्वतिथावुत्तरदिनगतस्वीयवृद्धिप्रक्षेपेणग्राह्यतिथ्यसत्त्वं प्रतिपाद्यत इत्येव वचनार्थः। तिथिनिर्णये त्वस्यव्यापाराभाव एव। अन्यथा तुतिःशास्त्रप्रसिद्धामेव तिथिमुपजीव्यनिर्णायकानेकवचनविरोधापत्तेः अतोऽत्यन्तप्रवीणव्युत्पत्तिलभ्यवचनस्वारस्यसिद्धमर्थं निर्णयद्भ्यो390 हेमाद्र्यादिभ्यो नमस्कार एव युक्तः। चतुर्दशीकार्ये चतुर्दश्याममागतवृद्ध्यादिप्रक्षेपेण कर्मकालव्याप्त्या निर्णयःकार्य इति स्मृतिकौस्तुभस्तु वचनार्थाज्ञानमूलत्वात्, ज्योतिःशास्त्रोपजीवनेन निर्णायकानेकवचन391विरुद्धत्वादयुक्त एव। चतुर्दशीनिमितकस्नानस्यामावास्यायामौचित्योत्प्रेक्षा तु इन्दुक्षयतिथावपीत्यस्य
इषेभूते च दर्शे च कार्तिकप्रथमे दिने।
मानवो मङ्गलस्नायी नैव लक्ष्म्या वियुज्यते॥
इत्याद्येकवाक्यतया समुच्चयार्थकत्वस्यैव युक्तत्वेनानुकल्पविधित्वासंभवाद्दुरुत्प्रेक्षैवेति दिक्। इति दीपावलीचतुर्दशीनिर्णयः। कार्तिकशुक्लचतुर्दशी च —
वर्षे वै हेमलम्बाख्ये मासे श्रीमति कार्तिके।
शुक्लपक्षे चतुर्दश्यामरुणाभ्युदयं प्रति॥
महादेवतिथौ ब्राह्म मुहूर्ते मणिकर्णिके।
निवासस्थानतोऽभ्येत्य सार्धं विश्वगणेश्वरैः॥
स्नात्वा विश्वेश्वरो देव्या विश्वेश्वरमपूजयत्।
संक्षेपं ज्योतिषस्तस्य प्रतिष्ठाख्यं तदाऽकरोत्॥
स्वयमेव स्वमात्मानं चरन्पाशुपतं व्रतम्।
जपन्वै शतरुद्रीयं पूजयंस्तमहर्निशम्॥
स्वयमेव स्वमात्मानं तत्रैवोवास शंकरः।
ततः प्रभाते विमले कृत्वा पूजां महाद्भुताम्॥
समस्तसारमेकस्थं कृत्वैवाद्भुतदर्शनम्।
दण्डपाणेर्महाधाम्निवनेऽस्मिन्कृतपारणः॥
इति सनत्कुमारसंहितायां विश्वेश्वरमाहात्म्ये षष्ठाध्याये विश्वेश्वरप्रतिष्ठाङ्गतया श्रीविश्वेश्वरकर्तृकमणिकर्णिकास्नानं पाशुपतव्रताचरणमहोरात्रपूजां द्वितीयारुणोदयकाले महापूजां ततः प्रतिष्ठासमाप्तिमुक्त्वापारणमुक्तम्, तत्र परकृतिरूपेणानेनार्थवादेनान्योऽप्येवं कुर्यादिति विधिःकल्प्यते। तेन चतुर्दश्यामरुणोदयोत्तरं मणिकर्णिकायां स्नात्वा विश्वेश्वरपूजांकृत्वोपवासं संकल्प्य रात्रौजागरणे विधाय द्वितीयारुणोदये स्नात्वा महापूजां कृत्वा पारणं कुर्यात्। न च द्वितीयारुणोदयेपूजायां मानाभाव इति शङ्क्यम्।
कस्मिन्वर्षे कदा मासे तिथौ कस्यां मुहूर्तके।
विश्वेश्वरोमहादेव्या विश्वेश्वरमपूजयत्॥
संक्षेपं ज्योतिषस्तस्य प्रतिष्ठाख्यं कदाऽकरोत्।
इति प्रश्नस्य वर्षे वै हेमलम्बाख्य इत्यादिना प्रतिष्ठाख्यं तदाऽकरोदित्यन्तेन सामान्यत उत्तरं दत्त्वा स्वयमेवेत्यग्रिमो ग्रन्थ उत्तरवाक्यस्यप्रपञ्च इति निर्विवादम्। तत्र पूजयंस्तमहर्निशमित्यादिना तत्रैवोवासशंकर इत्यन्तेन इतिकर्तव्यतामुक्त्वा
ततः प्रभाते विमले कृत्वा पूजां महाद्भुताम्।
इत्यस्यैव प्रमाणत्वात्। तत्रोपवासपूजादौ
रुद्रव्रतेषु सर्वेषु कर्तव्या संमुखी तिथिः।
इति वचनात्पूर्वविद्धैव ग्राह्या। पूर्वविद्धाया अलाभेतु —
शुक्लपक्षेऽष्टमी चैव शुक्लपक्षे चतुर्दशी।
इति वचनादुत्तरैव ग्राह्या। एतेनोपवासादावरुणोदयव्यापिनी ग्राह्येतिनिर्णयसिन्धुः, कृतोपवासजागरणेन तस्यामरुणोदयव्यापिन्यां विश्वेश्वरमभ्यर्च्य पारणं कुर्यादिति स्मृतिकौस्तुभः, उपवासचतुर्दशीयुक्तारुणोदयवत्यहोरात्रे कार्य इति मयूखश्चोपेक्ष्यः। अरुणोदयमारभ्य प्रवृत्तायां द्वितीयारुणोदयपर्यन्तायां चतुर्दश्यां सत्यामपि त्रयोश्यामुपवासापत्तेः। नचेष्टापत्तिः। उदाहृतवचनविरोधात्प्रमाणाभावाच्चेति दिक्। इति कार्तिकशुक्लचतुर्दशी।मार्गशुक्लचतुर्दश्याम् —
अद्य392शुक्लचतुर्दश्यां मार्गे मासि तपोनिधे।
अत्र स्नानादिकं कार्यं पैशाच्यपरिमोचनम्॥
मार्गशुक्लचतुर्दश्यां कपर्दीश्वरसंनिधौ।
स्त्रात्वाऽन्यत्रापि मरणान्न पैशाच्यमवाप्नुयात्॥
इमां सांवत्सरीं यात्रां ये करिष्यन्ति मानवाः।
तीर्थप्रतिग्रहात्पापात्ते तरिष्यन्ति मानवाः॥
पैशाचमोचने स्नात्वा कपर्दीशं समर्च्य च।
कृत्वा तत्रान्नदानं च इहामुत्र च निर्भयः॥
पिशाचमोचने तीर्थे लोष्टद्रोणं393समुद्धरेत्।
न पीड्यते परे लोकेकुवल्पयाऽपि पिपासया॥
इति काशीतत्त्वप्रकाशिकायां स्कांन्दसनत्कुमारसंहितावचनैः पिशाचमोचनयात्रोक्ता। तत्र
पौर्वाह्णिकास्तुतिथयो देवकार्ये शुभप्रदाः॥
इतिवचनात्पौर्वाह्णिकी चतुर्दशी ग्राह्या। इति मार्गशुक्लचतुर्दशी।अथ शिवरात्रिर्निर्णीयते। सा च —
जयन्ती शिवरात्रिश्च कार्ये भद्राजयान्विते। इति।
कृष्णाष्टमी रोहिणी च शिवरात्रिस्तथैव च।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या तिथिमान्ते च पारणम्॥
इत्यादिवचनैः पूर्वविद्धाविधानात्
तस्माद्रात्रौ हि मे पूजां यः करिष्यति मानवः।
मन्त्रैरेतैः सुरश्रेष्ठ विपाप्मा स भविष्यति॥
इत्यादिवचनै रात्रावेव पूजाविधानात्पूर्वविद्धा ग्राह्या \। तत्र रात्रौवेधस्वीकारे त्रिभिर्मुहूर्तैर्विध्यन्तीत्यादिवचनविरोधापत्तेरुदयानन्तरमस्तात्पूर्वमेव वेध इति हेमाद्रिमाधवनिर्णयामृतादिभिरुक्तत्वाद्रात्रौ वेधोनास्ति। तथाऽप्यत्र
अष्टमी शिवरात्रिश्च अर्धरात्रादधोयदि।
दृश्यते घटिकैका या पूर्वविद्धा प्रकीर्तिता॥
इति माधवोदाहृतवचनेनार्धरात्रात्पूर्वं प्रवृत्ताया अपि पूर्वविद्धात्वबोधनात्, अत्र घटिकाग्रहणस्य —
मुहूर्तं द्वादशी न स्यात्रयोदश्यां यदा मुने।
तदानीं दशमीविद्धा ग्राह्यैवैकादशी तिथिः॥
इत्यादौ मुहूर्तग्रहणस्येवार्धरात्रात्पुरस्ताच्चेज्जयायोग इत्येकवाक्यतया कलार्धसद्भावोपलक्षणत्वात्, रात्र्युत्तरार्धात्पूर्वं कलार्धमात्रेणप्रवृत्ताऽपि पूर्वविद्धा भवति।
व्याप्यार्धरात्रं यस्यां तु लभ्यते या चतुर्दशी।
अर्धरात्रादधश्चोर्ध्वं युक्ता यत्र चतुर्दशी॥
इत्यादिष्वर्धरात्रशब्देन रात्रिसंक्र—
अर्धरात्रादधस्तस्मिन्मध्याह्नस्योपरिक्रिया।
पूर्णे चेदर्धरात्रे तु यदा संक्रमते रविः॥
इत्यादाविव मात्रापरिमितकाल एक ग्राह्यः। अत एव संधौ यजेतेत्यादौ पञ्चदश्या अन्त्यार्धमात्रा प्रतिपदश्चाद्यार्धमात्रेति मात्रापरिमितःसंधिकाल इति हेमाद्रिमाधवादिभिः सिद्धान्तितम्। तथा प्रकृतेऽपिपूर्वार्धन्त्यार्धमात्राद्वितीयार्धाद्यार्धमात्रा चेति मात्रात्मक एवार्धरात्रकालइति स्वीकर्तव्यम्। तत्र यदा पूर्वास्तमयात्पूर्वमस्तमानमारभ्य वा प्रवृत्ता,तदोदाहृतपूर्वविद्धाविधायकवाक्यैः,
त्रयोदशी यदा देवि दिनभुक्तिप्रमाणतः।
जागरे शिवरात्रिःस्यान्निशिपूर्णा चतुर्दशी॥ इति।
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिचतुर्दशी।
रात्री जागरणं यस्मात्तस्मात्तां समुपोषयेत्॥
इत्यादिभिश्चविधानात्सैवग्राह्या। यदा पूर्वप्रदोषानन्तरं प्रवृत्ता,द्वितीयप्रदोषात्पूर्वं समाप्ता तदापूर्वविद्धाविद्धायकवचनैः’
अर्धरात्रात्पुरस्ताच्चेज्जयायोगो यदा भवेत्।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या शिवरात्रिः शिवप्रियैः॥
इतिवचनाच्चपूर्वैव। यदा394तु पूर्वप्रदोषानन्तरं प्रवृत्ता, द्वितीयदिनेप्रदोषव्यापिनी, तदाऽप्यर्धरात्रात्पुरस्तादितिवचनात्पूर्वैव। नन्वर्धरात्रादित्यस्य द्वितीयप्रदोषाव्याप्तौ सावकाशत्वाद्द्वितीयप्रदोषव्याप्तौ प्रदोषव्यापिनीत्यनेनोत्तराग्रहणमेव युक्तम्। अत एव कालादर्शे —
त्रयोदश्यस्तगे सूर्ये चतसृष्वेव नाडिषु।
भूतविद्धा तु या तत्र शिवरात्रिव्रतं चरेत्॥
इति वचनाच्चतुर्नाड्यूर्ध्वं प्रवृत्ता द्वितीयदिने395ऽधिकप्रदोषव्यापिन्युत्तरैव।
माघासिते भूतदिने396 हि राजन्नुपैति योगं यदि पञ्चदश्याः।
जयाप्रयुक्तां नतु जातु कुर्याच्छिवस्य रात्रिं प्रियकृच्छिवस्य॥
इति वचनात्। यानि तु —
भवेद्यत्र त्रयोदश्यां भूतव्याता महानिशा।
शिवरात्रिव्रतं तत्र कुर्याज्जागरणं तथा॥
इत्यादिवचनानि तानि महानिशावेधोऽपि ग्राह्यः किमुत चतुर्नाडीवेधइत्येवंपराणीति न तद्विरोध इति सिद्धान्तितम्, निर्णयामृतज्यो397तिर्निबन्धादौ398 तदेव पुरस्कृतमिति चेन्न। हेमाद्रिमाधवमदनरत्नतिथितत्त्वकाराद्युदाहृतार्धरात्रात्पुरस्तादिति पद्मपुराणवचनस्य माधवादितिथितत्त्वकारान्तैरुदाहृतवचनानामर्धरात्राद्धश्चोर्ध्वमित्यादीशानसंहितावचनानां च प्रदोषव्याप्तिस्तावकत्वस्य वक्तुमव्यसंभवेन तद्विरोधस्य दुष्परिहरत्वेन
तथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेत्।
इति वचनेनैव कालादर्शादीनां त्याज्यत्वाभिधानात्। हेमाद्रिणाऽपि प्रकृते पूर्वैवेति सिद्धान्तितम्। तथा हि ननु यदा द्वितीयदिन एवप्रदोषव्यापिनी, तदा किमर्धरात्रात्पुरस्ताच्चेदितिवचनात्पूर्वा ग्राह्योत प्रदोषव्यापिनीतिवचनादुत्तरेतिकथं निर्णयः।
उच्यते। यद्यप्यर्धरात्रिदिने399 प्रदोषव्यापित्वाभावेऽप्युपपद्यते प्रदोषव्यापिनीतिवाक्यं चार्धरात्रादुपरिजयायोगेऽपि तथाऽप्येवंविधे विषयेद्वितीयचतुर्दशीग्रहणे प्रागुदाहृतपूर्वविद्धशिवरात्रिप्रतिपादकबहुवाक्यसंकोचप्रसङ्गः पूर्वशिवरात्रिग्रहणे तु तद्भाव इति सैव ग्राह्या। किंच पूर्वाबहुकर्मकालव्यापिनी, उत्तरा तु न तथेति सैव ग्राह्या। यत्तु माघासितेति वचनं तदर्धरात्रात्पुरस्ताच्चेदितिवाक्यपर्यालोचनयाऽर्धरात्रादुपरि जयायोगनिषेधकमिति। अत्र हेमाद्रिणाऽपीशानसंहितावचनानुपन्यासात्पूर्वा ग्राह्येत्यत्र पूर्वविद्धाविधायकबहुवचनसंकोचप्रसङ्गाभावोहेतुत्वेनोपन्यस्तः। स तु —
दिवरात्रौव्रतं यच्च एकमेकतिथौ गतम्।
तस्यामुभययोगिन्यामाचरेत्तद्व्रतं व्रती॥
यो यस्य विहितः कालः कर्मणस्तदुपक्रमे।
विद्यमानो भवेदङ्गं नोज्झितोपक्रमेण तु॥
आदित्यास्तमये काले अस्ति चेद्या चतुर्दशी।
तद्रात्रिःशिवरात्रिःस्यात्सा भवेदुत्तमोत्तमा॥
इत्याद्युत्तराविधायकानेकवचनसंकोचप्रसङ्गेन सत्प्रतिपक्षित इत्यस्वरसात्किंचेंत्यनेन बहुकर्मकालव्यापित्वमेव हेतुरित्युक्तम्। द्वितीयदिन एव प्रदोषमात्रव्यापिन्यप्युत्तरेत्यत्र प्रमाणत्वेनोपन्यस्तवचनविरोधमाशङ्क्योत्तरदिने प्रदोषमात्रव्याप्तौ न तदर्धरात्रात्पूर्वं जयायोगनिषेधकमपि तु अर्धरात्रानन्तरमिति समाहितम्। यत्तु माघासितेत्यनेनेति तस्माद्वितीय दिने प्रदोषमात्रव्याप्तौपूर्वैव। यदा दिनद्वयेऽप्यर्धरात्रव्यापिनी, तदा
शिवरात्रिव्रतेभूतां कामविद्धां विवर्जयेत्।
इतिनिर्णयामृततिथितत्त्वाद्युदाहृतलिङ्गपुराणवचनेन
निशाद्वये चतुर्दश्यां पूर्वा त्याज्या परा शुभा॥
इतिमाधवमदनरत्नायुदाहृतकामिकवचनेन चोत्तरार्धरात्रव्याप्तिमात्रविषयकेणोत्तरार्धरात्राव्याप्तौ400 सावकाशानामर्धरात्रात्पुरस्ताच्चेदित्यादिवचनानां बाधेनोत्तराविधानात् प्रदोषव्यापिनीति,दिवारात्रौव्रतं यच्चेति, यो यस्य विहितः काल इति, आदित्यास्तमये काल इति
पूर्वोदाहृतानेकवचनाच्चोत्तरैव। बहुकर्मकालव्यापिन्येव ग्राह्येति वदतो हेमाद्रेःकालादर्शमाधवनिर्णयामृतज्योतिर्निबन्धतिथितत्त्वादिग्रन्थकाराणां संमतत्वाच्च। यत्तु माधासितेतिवचनमर्धरात्रादुपरि जयायोगनिषेधकमिति हेमाद्रिणोक्तम्, तद्द्वितीयदिने प्रदोषमात्रव्याप्तिविषयकमित्युक्तमेव।अन्यथोपवासपूजाजागरणानि शिवरात्रिव्रतशब्दवाच्यानीति सिद्धान्तयतो हेमाद्रेर्द्वितीयार्धरात्रव्याप्तौ तत्रैवोपवासकालाधिकव्याप्तिसत्त्वेनकिंच पूर्वा बहुकर्मकालव्यापिन्युत्तरा तु न तथेति ग्रन्थस्य सर्वथाऽसंगत्यापत्तेः।
शिवरात्रिव्रते भूतां कामविद्धांविवर्जयेत्।
इत्यादिलिङ्गपुराणादिवचनविरोधेन
तथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेत्।
इतिहेमाद्र्युदाहृतजाबालवचनेन हेमाद्रिग्रन्थस्यैव त्याज्यत्वापत्तेः।हेमाद्रिनिर्णीतकालसंकलीकरणार्थं ममायमुद्योग इति प्रतिज्ञाय प्रवृत्तान्निशीथद्वयव्यापिनी शिवरात्रिचतुर्दशी प्रदोषनिशीथोभयव्याप्तिलाभात्संकल्पकालमारभ्य सत्त्वादहोरात्रोभययोगाच्च परैवेति माधवात्। यदातूत्तरदिने प्रदोषव्यापिनी न निशीथव्यापिनी पूर्वदिने निशीथव्यापिनीन प्रदोषव्यापिनी, तदोत्तरस्याःप्रदोषव्यापित्वेऽपि पूर्वैव। अर्धरात्रात्पुरस्ताच्चेदिति हेमाद्रिनिबद्ध401स्मृत्यन्तरवचनादितिमदनरत्नाच्चदिनद्वयेऽर्धरात्रव्यापिनी परैवेत्येव हेमाद्रिसिद्धान्त इति निश्चयात्। तस्मात्तद्दिनद्वयेऽर्धरात्रव्याप्तौ परैवेति सिद्धम्। एतेन युक्ता चेज्जयया निशीथसमयादूर्ध्वं तदाऽन्त्योदिता पूर्वेवाऽपरथेति कालनिर्णयदीपिका, पूर्वाबहुकर्मकालव्यापिनी, उत्तरा तु न तथेति हेमाद्रिग्रन्थार्थज्ञानाभावप्रयुक्तत्वात्कालादर्शमाधवनिर्णयामृतज्योतिर्निबन्धतिथितत्त्वादिगौडग्रन्थ-विरोधाच्चोपेक्ष्यैव। यत्तु मदनरत्नेन दिनद्वयेऽर्धरात्रव्यापिन्यपि पूर्वैवेतिप्रतिज्ञायानेकवचनैः पूर्वविद्धाविधानात्। भवेद्यत्र त्रयोदश्यां भूतव्याप्तेतिवचनात्।
**महतामपि पापानां दृष्टा वै निष्कृतिःपुरा॥
न दृष्टा कुर्वतां पुंसां कुहूयुक्तां तिथिं त्विमाम्। **
इत्यनेनोत्तरानिषेधादिति हेतुत्रयमुपन्यस्तं तस्य त्रयस्यापि द्वितीयार्धरात्रव्याप्त्यभावे सावकाशस्य
शिवरात्रिव्रते भूतांकामविद्धांविवर्जयेत्। इति,
निशाद्वयेचतुर्दश्यां पूर्वा त्याज्या परा शुभा।
इतिनिरवकाशेन वचनद्वयेन बाधितत्वात्स्वरुपासिद्धत्वेन तत्साधकत्वासंभवात्प्रतिज्ञामात्रस्य साध्यसाधकत्वाभावात्कालादर्शहेमाद्रिमाधवनिर्णयामृतज्योतिर्निबन्धतिथितत्त्वादिग्रन्थविरोधाच्चायुक्तमेव। अत एवदिनद्वयेऽर्धरात्रिव्यापिनी पूर्वेति कालतत्त्वविवेचनम्, तदनुयायिकृत्यरत्नावल्यादयोऽप्युपेक्ष्याः।
शिवरात्रिव्रते भूतां कामविद्धां विवर्जयेत्।
इत्यादिवचनविरोधात्। अत एवोभयत्रार्धरात्रव्याप्तादुत्तरेति माधवस्तन्नसम्यगिति हेमाद्रिरिति स्मृतिकौस्तुभोऽप्ययुक्तः। हेमाद्र्यर्थाज्ञाननिबन्धनत्वाच्च। अत एवात्र हेमाद्रिमाधवयोर्विप्रतिपत्तिरित्युपक्रम्य तस्मादुपेक्ष्योहेमाद्रिकृतो निर्णय इत्युपसंहारयुक्तो द्वैतनिर्णयः। दिनद्वयेऽर्धरात्रव्याप्तौहेमाद्रिमते पूर्वी माधवमते परेति अनुष्ठातॄणां व्यामोहापादिका निर्णयसिन्धुमयूखकारभट्टोजीदीक्षितादीनामुक्तिरप्युपेक्ष्या। हेमाद्र्यर्थानवबोधप्रयुक्तत्वादिति विभावनीयम्। यदा तु पूर्वदिने रात्रितृतीययाममारभ्यप्रवृत्ताद्वितीयास्तानन्तरं षष्ठे पञ्चमे वा मुहूर्ते समाप्ता, तदा पूर्वविद्धत्वाभावेन पूर्वविद्धाविधायकार्धरात्रात्पुरस्ताच्चेदित्यादिवचनानामप्रवृत्तेःप्रदोषव्यापिनी ग्राह्येत्याद्युदाहृतानेकवचनैरुत्तरस्या एव विधानादुत्तरैव।न च भवेद्यत्र त्रयोदश्यां भूतव्याप्ता महानिशेतिवचनात्पूर्वा कुतो न भवतीति शङ्क्यम्। पूर्वविद्धाविधायकवचनविषय उपपन्नस्यास्य वचनस्योत्तराविधायकानेकवचनानां विरोधेन तत्र प्रवृत्तेः शङ्कितुमप्यशक्यत्वात्कालादर्शहेमाद्रिमाधवनिर्णयामृतमदनरत्नादिग्रन्थविरोधापत्तेश्च। यदातूत्तरदिन एवार्धरात्रव्यापिनी, तदा प्रदोषव्यापिनीत्यादिवचनेभ्यः,
पूर्वेद्युरपरेद्युर्वा महानिशि चतुर्दशी।
व्याप्ता सा दृश्यते यस्यां तस्यां कुर्याद्व्रतं नरः॥
इतीशानसंहितावचनाच्चपरैवेति निर्विवादमेवेति। तथा च सर्ववचनानां हेमाद्रिमाधवयोश्चैकवाक्यताप्रदर्शनपूर्वकं कृतस्य शिवरात्रिनिर्णयस्यायं संग्रहः — पूर्वदिन एवार्धरात्रव्यापिनी पूर्वा, उत्तरदिन एवार्धरात्रव्यापिनी दिनद्वयेऽप्यर्धरात्रव्यापिनी, दिनद्वयेऽप्यर्धरात्रास्पर्शिनीचोत्तरैवेति ज्ञेयम्। विस्तरस्तु मत्कृते हेमाद्रिमाधवैकमत्यप्रदर्शनेऽनुसंधेयः। अस्यां रविवारादियोगे प्राशस्त्यमुक्तं स्कान्दे —
माघकृष्णचतुर्दश्यां रविवारोभवेद्यदा।
भौमो वाऽपि भवेद्देवि कर्तव्यं व्रतमुत्तमम्॥
शिवयोगस्य योगे वै तद्भवेत्तूत्तमोत्तमम्।
तथा — त्रयोदशीकलाऽप्येका मध्ये चैव चतुर्दशी।
अन्ते चैव सिनीवाली त्रिस्पृश्यां रुद्रमर्चयेत्॥ इति।
व्रतस्वरूपं तूपवासपूजाजागरणरूपप्रधानत्रयसमुदायः। तदुक्तं हेमाद्रौनागरखण्ड —
उपवासप्रसङ्गेन बलादपि च जागरात्।
शिवरात्रेस्तथा तस्यां लिङ्गस्यापि प्रपूजनात्॥
अक्षयाल्ँलभते भोगाञ्शिवसायुज्यमाप्नुयात्॥
इति त्रयाणामपि फलसंबन्धबोधनात्। स्कान्दे —
एवं द्वादश वर्षाणि शिवरात्रिमुपोषकः।
यो मां जागरते रात्रिंमनुजः स्वर्गमारुहेत्॥
शिवं च पूजयित्वा यो जागर्ति च चतुर्दशीम्।
मातुः पयोधररसं न पिबेत्स कथंचन238॥ इति।
हेमाद्रौ नागरखण्डे —
स्वयंभूलिङ्गमभ्यर्च्य सोपवासः सजागरः।
अजानन्नपि निष्पापो निषादो गणतां गतः॥
इत्यादिवचनैस्त्रयाणामपि प्राधान्यप्रतिपादनात्।
तथा —माघे कृष्णचतुर्दश्यां कर्तव्यं व्रतमुत्तमम्।
इत्युपक्रम्य —त्रयोदश्यां विशालाक्षि एकभक्तं समाचरेत्।
उपोषितो वरारोहे चतुर्दश्यां वरानने॥
इत्यादिभिरङ्गपूजामुक्त्वा —
स वै शुध्यति पापेन त्रिविधेन वरानने।
इति प्राशस्त्यमभिधाय —
जागरं तत्र कर्तव्यं गीतवादित्रमङ्गलैः।
कर्तव्या यामपूजा च स्रानं पञ्चामृतेन तु॥
इत्युक्तं तत्रापि त्रयाणां प्राधान्यं समानमेव। एवं सति
न स्रानेन न वस्त्रेण न धूपेन नचार्चया।
तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः॥
इति वचनादुपवास एव प्रधानमिति तिथितत्त्वमुपेक्ष्यम्। उपवासप्राशस्त्यबोधकवचनस्य पूजादेःप्राधान्यबाधकत्वासंभवात्। अन्यथा —
न तथा बलिदानेन पुष्पधूपानुलेपनैः।
यथा संतुष्यते मेषैर्महिषैर्विन्ध्यवासिनी॥
इत्यादीनामपि पूजादिप्राधान्यविघातकत्वापत्तेस्त्रयाणां प्राधान्यमितिहेमाद्रिमाधवविरोधाच्च। अत एव —
अथवा शिवरात्रिं च पूजाजागरणैर्नयेत्।
कश्चित्पुण्यविशेषेण व्रतहीनोऽपि यः पुमान्॥
जागरं कुरुते तत्र स रुद्रमतां व्रजेत्।
इत्येवमादीनि केवलपूजादिविधायकानि तान्यनुकल्पत्वादशक्तविषयाणीति हेमाद्रिमाधवादयः। इदं शिवरात्रिव्रतं संयोगपृथक्त्वन्यायेननित्यं, काम्यं च। तत्र नित्यत्वम् —
परात्परतरं नास्ति शिवरात्रिव्रतात्परम्।
न पूजयति भक्त्येशं रुद्रं त्रिभुवनेश्वरम्॥
जन्तुर्जन्मसहस्रेषु भ्रमते नात्र संशयः।
वर्षे वर्षे महादेवि नरो नारी पतिव्रता॥
शिवरात्रौमहादेवं कामं भक्त्या प्रपूजयेत्।
माघकृष्णचतुर्दश्यां यः शिवं संशितव्रतः॥
मुमुक्षुः पूजयेन्नित्यं स लभेदीप्सितं फलम्।
अर्णवो यदि शुष्येत क्षीयेत हिमवानपि॥
मेरुमन्दरलङ्काश्चश्रीशैलो विन्ध्य एव च।
चलन्त्येते कदाचिद्वै निश्चलं हि शिवव्रतम्।
इत्येवमादिषु हेमाद्रिमाधवयोः स्कन्दपुराणादिवाक्येष्वकरणे प्रत्यवायश्रवणेन वीप्सानित्यनिश्चलशब्दैश्च नित्यत्वं निश्चीयते।
शिवं च पूजयित्वा यो जागर्ति च चतुर्दशीम्।
मातुः पयोधररसं न पिबेत्स कदाचन॥
मम भक्तस्तु यो देवि शिवरात्रिमुपोषकः।
गणत्वमक्षयं दिव्यमक्षयं शिवशासनम्॥
सर्वान्भुक्त्वा महाभोगान्मृतो भूयो न जायते।
इत्यादिवाक्येषु फलश्रवणात्काम्यत्वं च।
एवमेतद्व्रतं कुर्यात्प्रतिसंवत्सरं व्रती।
द्वादशाब्दिकमेतत्स्याच्चतुर्विंशाब्दिकं तु वा॥
सर्वान्कामानवाप्नोति प्रेत्य चेह च मानवः।
इतीशानसंहितायामपि फलश्रवणात्। वैष्णवादीनामपीदं नित्यम्—
शैवो वा वैष्णवो वाऽपि यो वा स्यादन्यपूजकः।
सर्वपूजाफलं हन्ति शिवरात्रिबहिर्मुखः॥
इति तिथितत्त्वोदाहृतेश्वरसंहितावचनात्। तत्रैव यमं प्रतीश्वरवचः—
वेदसारेण संपूज्य शिवरात्रौ महेश्वरम्।
शिवरात्रिव्रतं कृत्वा ब्रह्मा ब्रह्मत्वमागतः॥
विद्यासारेण मन्त्रेण शिवरात्रौ महेश्वरम्।
शिवरात्रिव्रतं कृत्वा विष्णुर्विष्णुत्वमागतः॥
शिवरात्रौ शिवं पूज्य मृत्युमोचनविद्यया।
कल्पायुरभवत्पूर्वं मार्कण्डेयो महामुनिः॥
अष्टौ च वसवः पूर्वं रुद्रा एकादश स्मृताः।
वेदसारेण मां पूज्य सर्वे देवत्वमागताः॥
बहुनाऽत्र किमुक्तेन सारभूतं वचः शृणु।
आचाण्डालं मनुष्याणां पापसंदहनक्षमम्॥ इति।
अस्मिन्व्रतेऽधिकार्युक्तो माधव ईशानसंहितायाम्—
शिवरात्रिव्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम्।
आचाण्डालं मनुष्याणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्॥ इति।
उपवासस्वरूपं तु—
उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह।
उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः॥
इत्याद्येकादशीप्रकरणोक्तं द्रष्टव्यम्। अधिकारिनियमाश्च व्रतहेमाद्रौमाधवे च स्कान्दे दर्शिताः—
माघमासे तु या कृष्ण फाल्गुनादौ चतुर्दशी।
सा च पुण्या तिथिर्ज्ञेया सर्वपापप्रणाशिनी॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं दया क्षमा।
शान्तात्मा क्रोधहीनश्च तपस्वी ह्यनसूयकः॥
तस्मै देयमिदं देवि गुरुपादानुगो यदि।
अन्यथा यो ददातीदं स दाता नरकं व्रजेत्॥ इति।
व्रतविधिमाहेशानसंहितायामीश्वरः—
शृणु ब्रह्मन्व्रतविधिं शृणु विष्णो गदाधर।
मम प्रियकरी चैषा माघकृष्णचतुर्दशी॥
महानिश्यन्विता यत्र तत्र कुर्याद्व्रतं त्विदम्।
सा तिथिःसकला ज्ञेया दिवा वा यदि वा निशि॥
पूर्वेद्युरेकदाऽश्नीयाद्दन्तधावनपूर्वकम्।
अद्रोहेणान्वितः कुर्याद्ब्रह्मचर्यव्रती व्रतम्॥
ब्राह्मेमुहूर्ते चोत्थाय कृतशौचविधिक्रियः।
संध्यामुपास्य विधिवत्प्रातःस्नानपुरःसरम्॥
अभिवाद्य गुरुं भक्त्या तदनुज्ञामवाप्य च।
शिवस्य संनिधिं गत्वा प्रणम्य वृषकेतनम्॥
व्रतं संकल्पयेत्तत्र स्वाचान्तः सुसमाहितः।
शिवरात्रिव्रतं देव करिष्ये शिवसंनिधौ॥
निर्विघ्नं कुरु देवेश भक्तिग्राह्य महेश्वर।
एवं संकल्प्य विधिवच्छान्तो भूत्वा402 (त) हिते रतः॥
पूजोपकरणद्रव्यं सर्वं संपादयेत्ततः।
मध्याह्नकाले संप्राप्ते नदींगत्वा समुद्रगाम्॥
सरित्कुल्यादिकं गत्वा स्नायादेव विधानतः।
नित्यदेवार्चनं कुर्याद्गृहमागत्य भक्तितः॥
शिवस्य यजनस्थानमलं कुर्यात्समाहितः।
संमार्जनानुलेपाद्यैः शोधयेन्मध्यमेव च॥
वितानध्वजमाल्यैश्च फलपक्वान्नलम्बितैः।
अलं कुर्याच्चतुर्दिक्षु वस्त्रकांस्यादितोरणैः॥
अलंकृत्य सुचित्रेण सायंसंध्यामुपास्य च।
पूजोपकरणद्रव्यमादाय सुसमाहितः॥
प्रक्षाल्य पादौ हस्तौ च कुर्यादाचमनं द्विजः।
पूजागृहं प्रविश्याथ प्रणम्य शिवमीश्वरम्॥
उपविश्याऽऽसने शुद्धे प्राणानायम्य वाग्यतः।
वामहस्ते विनिक्षिप्य भसितं सितमुत्तमम्॥
दक्षिणेन स्पृशेद्भस्म जपन्नग्न्यादिसप्तकम्।
क्षिपेच्चभस्म शिरसि मन्त्रितेऽप्यथ भस्मनि॥
शिवं देवं च संस्मृत्य विसृज्याङ्गानि संस्पृशेत्।
पुनर्भस्म समादाय वामपाणौ विनिक्षिपेत्॥
प्रणवेनाथ सावित्र्या देवीसूक्तेन वा पुनः।
त्र्यम्बकेणच वाऽऽमन्त्र्यततः संमृज्य पाणिना॥
त्रिपुण्ड्रं धारयेद्यस्तु ललाटादिष्वनुक्रमात्।
मणिबन्धे शिखास्थाने कण्ठे चैव विशेषतः॥
रुद्राक्षान्धारयेत्पश्चाद्व्रतीनियतमानसः।
मद्भक्तांश्चसमाहूय दद्याद्यजनसाधनम्॥
भक्तैः संभूय देवेशं पूजयेत्सुसमाहितः।
स्वगुरूक्तेन मार्गेण यजेद्देवं प्रयत्नतः॥
आसनं पाद्यमर्घ्यंच मधुपर्कादिकं ततः।
पञ्चामृतेन संस्नाप्य स्रापयेच्चफलोदकैः॥
पुष्पोदकैर्गन्धतोयैः स्नापयेत्कुङ्कुमाम्बुभिः।
रत्नोदकैश्च देवेशं तथा कर्पूरजाम्बुभिः॥
लेपयेद्यवचूर्णैश्च ह्यर्चयेद्बिल्वपत्रकैः।
उष्णोदकेन संस्नाप्य स्नापयेच्छीतलाम्बुभिः॥
वस्त्रं दद्याच्चदेवाय सोपवीतं च भक्तितः।
दद्यादाचमनं भक्त्या पाद्यमर्घ्यादिकं ततः॥
कर्पूरकुङ्कुमोपेतं गन्धं दद्याच्छिवाय तु।
भूषणैर्भूषयेद्देवं हेमरत्नादिनिर्मितैः॥
अखण्डबिल्वपत्रैश्चमृदुकोमलपत्रकैः।
पुष्पैःसंपूजयेद्देवं कमलोत्पलपूर्वकैः॥
मल्लिकामालतीभिश्च चम्पकैः शतपत्रकैः।
कुन्दपुन्नागबकुलशिरीषाशोककिंशुकैः॥
अर्कपुष्पैरपामार्गैर्बृहतीशमिपूर्वकैः।
अन्यैर्नानाविधैः पुष्पैरर्चयेत्परमेश्वरम्॥
घृताक्तं गुग्गुलं दद्याद्दीपमाज्येन योजयेत्।
गोधूमपिष्टपचितं पक्वान्नादि च संयुतम्॥
लेह्यचोष्यादिसंयुक्तमाज्येनान्वितमादरात्॥
नानाविधकलोपेतं दद्यान्नैवेद्यमास्तिकः॥
कर्पूरकस्तुरीयुक्तं दद्याताम्बूलमास्तिकः।
ततो नीराजयेद्दिव्यैर्भक्त्या कर्पूरदीपकैः॥
चामरं व्यजनं दत्त्वा दर्पणं चापि दर्शयेत्।
ततः प्रदक्षिणं कुर्यात्सव्यासव्यविधानतः॥
शतमष्टोत्तरं चापि प्रणम्य च पुनः पुनः।
ततो बादित्रघोषैश्चगीतस्तोत्रादिपाठकैः॥
पुराणवचनैश्चैव कुर्याज्जागरणं व्रती।
एवं द्वितीययामेऽपि पूजयेदम्बिकापतिम्॥
प्राणानायम्य विधिवद्रात्रौ संकल्पनं जपेत्।
रात्रीमित्यादिमन्त्राभ्यां संकल्प्य सुसमाहितः॥
एवमेव यजेद्देवमुपचारैर्महानिशि।
जागरं चोपवासं च तस्मिन्कुर्याद्व्रती पुमान्॥
एवमेव तथा रात्रिं पूजाजागरणैर्नयेत्।
पूजान्ते च जपेत्स्तोत्रं नामभिश्चाञ्जलिं क्षिपेत्॥
ऋषय ऊचुः —
किं तत्स्तोत्रं महाभाग कानि नामानि सुव्रत।
तत्सर्वं कथयास्माकं लोकानां हितकाम्यया॥
सूत उवाच —
शृण्वन्तु ऋषयःसर्वे व्यासेनोक्तं वदाम्यहम्।
यस्य वै पाठमात्रेण व्रतस्यैव फलं लभेत्॥
नमः सकलकल्याणदायिने शूलपाणये।
विषयार्णवमग्नानां समुद्धरणहेतवे॥
अस्नेहस्नेहरूपाय वार्तातिक्रान्तवर्तिने।
स्वभावोदारधीराय चिद्रूपाय नमो नमः॥
यत्र सर्वं यतः सर्वं यत्सर्वं तन्न संशयः।
लोककल्लोलकलितं वन्दे शंभुं महोरगम्॥
दैशिकेक्षणमारुह्य धीपद्मानि विकासयन्।
उदितो भाति योऽभ्यन्तस्तं वन्दे शंभुभास्करम्॥
हृदयाकाशमाक्रान्तो महामोहाहिमालिकाम्।
छेदयेद्यस्तु तरसा वन्दे भर्गमहानिलम्॥
वामदक्षिणपार्श्वे तु संजातौ हरिवेधसौ।
यस्य देवस्य तं वन्दे सर्वकारणकारणम्॥
भवामयपरिक्षीणमर्त्यानां स्मृतिमात्रतः।
भयं हरति यो नित्यं वन्दे भवभिषक्तमम्॥
यस्मिन्सूर्यो न भातीशे चन्द्रमा अनलोऽपि वा।
यस्य भासा विभातीदं तं वन्दे शिवमव्ययम्॥
आत्मारामं महात्मानं सर्वभूतहृदि स्थितम्।
चेतःसेव्यं स्वपददं महादेवं नमाम्यहम्॥
एकोऽपि बहुधा भाति प्रतिदेहसमुद्भवः।
हृदिस्थोऽपि हि यो दूरस्तं नमामि सदाशिवम्॥
ब्रह्मविष्ण्वादिदेवेषु नृपक्षिमृगयोनिषु।
योऽन्तरे निवसत्येकस्तं नमामि सदाशिवम्॥
भक्तानां सुलभोऽतीव विज्ञेयश्च विवेकिनाम्।
दृश्यो ज्ञानदृशां नित्यं तं नमामि महेश्वरम्॥
यत्पादपद्मनम्राणामल्पं विष्ण्वादिकं पदम्।
त्रसरेणूपमं प्राहुस्तं वन्दे शिवमव्ययम्॥
स्रष्टा त्वमेव लोकानां पालको जगतामपि।
अन्तकोऽसि त्वमेवेश नमामि त्वां महेश्वरम्॥
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।
पाहि मामपराधेभ्यः पिता पुत्रमिवौरसम्॥
एतत्स्तोत्रं पठेद्यस्तु भक्त्या यस्तु शृणोति च।
शिवरात्रिव्रतफलं प्राप्नुयात्सोऽपि मानवः॥
सूत उवाच—
कथयामि मुनिश्रेष्ठा नामानी403मानि यत्नतः।
व्रतस्य परिपूर्त्यर्थं404 शिवप्रियकराणि वै॥
शिवो रुद्रः पशुपतिर्नीलकण्ठो महेश्वरः।
हरिकेशो विरूपाक्षः पिनाकी त्रिपुरान्तकः॥
शंभुः शूली महादेवो नामान्येतान्यनुक्रमात्।
चतुर्थ्यन्तं समुच्चार्य दद्यात्पुष्पाञ्जलिं व्रती॥
एवमेव समुच्चार्य यामे यामे गते निशि।
स्तोत्रैः स्तुत्वाऽञ्जलिं बद्ध्वा नमस्कुर्यात्तु नामभिः॥
प्रभाते समनुप्राप्ते शिवपूजां समाप्य च।
स्नात्वातु विधिवत्संध्यामुपास्य च यथाविधि॥
आगत्य देवसदनं शिवं संपूज्य भक्तितः।
ब्राह्मणान्द्वादशाऽऽहूय पादौ प्रक्षाल्य भक्तितः॥
अभ्यर्च्य गन्धपुष्पाद्यैर्द्वादशैश्चैव नामभिः।
कुम्भमेकैकशो दद्यात्तिलपक्वान्नसंयुतम्॥
प्रत्येकं दक्षिणां दद्याच्छिवं स्मृत्वा विसर्जयेत्।
प्रातःपूजां विधायैवं शिवाय विनिवेदयेत्॥
यत्कृतं मन्त्रतो हीनं यच्चभक्त्या विना कृतम्।
यच्चदक्षिणया हीनं पूर्णं कुरु महेश्वर॥
समर्पयित्वा देवाय ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः।
तिथ्यन्ते पारणं कुर्याद्बन्धुपुत्रादिसंयुतः॥
एवमेतद्व्रतं कुर्यात्व्रतीसंवत्सरं प्रति।
सर्वान्कामानवाप्नोति प्रेत्य चेह च मानवः॥ इति।
इति शिवरात्रिव्रतविधिः। अथोद्यापनम् —
एवमुक्तविधानेन व्रतं कुर्याद्विधानतः।
चतुर्विंशतिवर्षाणि यद्वा द्वादशवत्सरम्॥
चतुर्विंशतिमे वर्षे कुर्यादुद्यापनं व्रती।
अथवा द्वादशे वर्षे कुर्यादुद्यापनं बुधः॥
उमामहेश्वरस्यार्चांपलमात्रां हिरण्मयीम्।
श्रुताध्ययनसंपन्नाञ्शौचाचारसमन्वितान्॥
शिवभक्तिसमायुक्तान्द्वादश ब्राह्मणाञ्छुचीन्।
आचार्यं वरयेदेकं भार्यापुत्रादिसंयुतम्405॥
श्रुताध्ययनसंपन्नमात्मनिष्ठं जितेन्द्रियम्।
तस्मिन्नुद्यापने चैव ऋत्विग्वरणमिष्यते॥
मधुपर्कं ततःकुर्यात्तस्मिन्नहनि संयमी।
तेषामाभरणं दद्याद्वस्त्रमङ्गुलिभूषणम्॥
पूजोपकरणं सर्वं ततः संपादयेद्व्रती।
नदीं गत्वा विधानेन कुर्यान्माध्याह्निकं ततः।
उपास्य पश्चिमां संध्यां पूजोपकरणानि च।
आदाय संयतो भूत्वा प्रविशेच्चशिवालयम्॥
आचार्येण च ऋत्विग्भिः सहितः शिवमर्चयेत्।
पूजासाधनकं द्रव्यं तेभ्यो दद्यात्पृथक्पृथक्॥
कृतस्यास्य महादेव शिवरात्रिव्रतस्य च।
उद्यापनं करिष्यामि निर्विघ्नं कुरु शंकर।
मन्त्रोणानेन संकल्प्य भस्म धृत्वा विधानतः।
पूर्वोक्तेन विधानेन यजेद्देवं त्रियम्बकम्॥
शिवसूक्तजपैश्चैव रुद्रसूक्तजपैस्तथा।
नृत्यगीतैस्तथा वाद्यैः पुराणश्रवणादिभिः॥
यामे यामे यजेद्देवं कुर्याज्जागरणं व्रती।
प्रभाते समनुप्राप्ते शिवपूजां समाप्य च॥
प्रातः स्नात्वा विधानेन कुर्यादग्निमुखं व्रती।
तस्मिन्नावाहयेद्देवं हरिब्रह्मादिवन्दितम्॥
शुक्लवर्णं त्रिनेत्रं च जटाचन्द्रकलाधरम्।
मृगटङ्कधरं देवं वरदाभयपाणिनम्॥
गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्य हुनेच्चैव विधानतः।
कपिलायाःसवत्साया घृतमत्र प्रशस्यते॥
कृष्णधेन्वाः सवत्साया घृतं वा जुहुयाद्व्रती।
कद्रुद्रायेति मन्त्रेण आ ते पितर इत्यपि॥
इमा रुद्रायसूक्ताभ्यां प्रत्यृचंजुहुयाद्व्रती।
तमु ष्टुहीति मन्त्रेण तथा वै त्र्यम्बकेण च॥
वेदमात्राऽथ जुहुयादाज्यमष्टोत्तरं शतम्।
अष्टोत्तरशतं पश्चात्तिलैर्व्याहृतिभिर्हुनेत्॥
ततः स्विष्टकृतं हुत्वा प्रायश्चित्ताहुतीर्व्रती।
ततोऽग्निंपूजयित्वा च तत्रस्थं भस्म धारयेत्॥
विसर्जयित्वा देवेशं ब्राह्मणान्पूजयेत्ततः।
गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्य शिवाय406 विनिवेदयेत्॥
फलभक्ष्यसमायुक्तं तिलैरपि समन्वितम्।
तेषां च दक्षिणां दद्यात्प्रत्येकं निष्कमात्रतः॥
छत्रं चोपानहौचैव दद्याच्चकरपत्रिकाम्।
उमामहेश्वरस्यार्चांसर्वोपकरणैर्युताम्॥
गां महीं हेम रत्नं च आचार्याय प्रकल्पयेत्।
दत्त्वा तु दक्षिणां तस्मै ब्राह्मणान्प्रार्थवेत्ततः॥
भवन्तो हि ब्रुवन्त्वत्र व्रतं संपूर्णमस्त्विति।
उद्यापनेन सहितं शिवरात्रिव्रतं त्विदम्॥
यत्कृतं भवतामद्य परिपूर्णं तदस्तु मे।
ततः संप्रार्थयेद्देवं कृताञ्जलिपुटः स्थितः॥
यत्कृतं मन्त्रतो हीनं साधनैश्च विवर्जितम्।
भक्त्या दक्षिणया हीनं संपूर्णंकुरु शंकर॥
ब्रह्मत्वं प्राप्तवान्ब्रह्मा विष्णुर्विष्णुत्वमाप सः।
त्वां समाराध्य देवेश देहि मे भक्तिमुत्तमाम्॥
एवं संप्रार्थ्य देवेशं व्रतं तस्मै निवेदयेत्।
व्रतं शिवात्मकं त्वेतत्कर्ताऽहं च महेश्वरः॥
व्रतेनानेन सुप्रीतो भूयान्मम सदाशिवः।
विसर्जयित्वा देवेशं बाह्मणान्भोजयेत्ततः॥
संबन्धिबान्धवैः सार्धं स्वयं कुर्यात्तु पारणम्॥ इति।
इति शिवरात्रिव्रतोद्यापनम्। अथ पारणनिर्णयः। तत्र यद्यप्यत्रेशानसंहितायाम् —
जन्माष्टमी रोहिणी च शिवरात्रिस्तथैव च।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या तिथिभान्ते च पारणम्॥
इत्यादिपूर्वोक्तेषु वाक्येष्वपि तिथ्यन्ते पारणं प्रतीयते, तथाऽपि —
अष्टम्यामथ रोहिण्यां न कुर्यात्पारणं क्वचित्।
हन्यात्पुरा कृतं कर्म उपवासार्जितं फलम्॥
इत्यादिनिषेधस्याष्टम्यादाविव प्रकृतेऽभावात्,
तिथीनामेव सर्वासामुपवासव्रतादिषु।
तिथ्यन्ते पारणं कुर्याद्विना शिवचतुर्दशीम्॥
इति माधवोदाहृतस्कन्दवाक्ये पर्युदासात,
उपोषणं चतुर्दश्यां चतुर्दश्यां च पारणम्।
कृतैः सुकृतलक्षैश्चलभ्यते यदि वा न वा॥
ब्रह्मा स्वयं चतुर्वक्त्रैः पञ्चवक्त्रैस्तथा ह्यहम्।
सिक्थे सिक्थे फलं तस्य शक्तो वक्तुं न पार्वति॥
ब्रह्माण्डोदरमध्ये तु यानि तीर्थानि सन्ति वै।
संस्थितानि भवन्तीह भूतायां पारणे कृते॥
इति माधवीये स्कन्दवाक्यैः पुण्यातिशयप्रतिपादनात्,
दिनमानप्रमाणेन या च रात्रौ चतुर्दशी।
शिवरात्रिस्तु सा ज्ञेया चतुर्दश्यां तु पारणम्॥
इति तिथितत्त्वोदाहृतगौतमीयेऽपि चतुर्दश्यां पारणविधानाच्च चतुर्दशीमध्य एवं पारणं प्रशस्ततरम्। तत्र यदा नित्यकृत्यपूर्वकं पारणापर्याप्ताचतुर्दशी नास्ति, येषां वा पार्वणादिश्राद्धप्रसक्तिस्तत्र संकटे विषमइत्यादिवचनेन जलपारणप्रसक्तौ तिथ्यन्ते पारणविधायकानि वाक्यानीत्येव व्यवस्था युक्ततरेति विभावनीयं सूरिभिः। हेमाद्रिणा त्वत्रजयन्त्येकादशीपारणनिर्णयवन्निर्णयो न कृतः, स्कान्दवचनान्यपि नलिखितानि, किंतु यदा द्वितीयदिने पारणपर्याप्ता सायंकालेऽमावास्या, तदा पूर्वा नो चेत्परा रात्रौ भुक्त्वा तु पर्वणीत्यनेन रात्रौ भोजननिषेधात्।
त्रयोदशी यदा देवि दिनभुक्तिप्रमाणतः।
इति वाक्याद्दिवसभोजनानुरोधेन यस्यां त्रयोदश्यामुपोषितायां तिथ्यन्ते विहितं पारणं रात्रौ नोपपद्यते सा त्रयोदशी दिनभुक्तिप्रमाणत इत्यनेनोच्यत इति मतमुपन्यस्य तदयुक्तम्। भुक्तिशब्दस्य भोजनवत्कालप्राप्तावपि तिथिनक्षत्रवारभुक्तिरित्यादिषु ज्योतिःशास्त्रनिरूढत्वात्। एवं च भुक्तिशब्देन भोजनग्रहणेर्धरात्रात्पुरस्ताच्चेदिति संकोचप्रसङ्ग इत्यादितद्दूषणप्रस्तावेऽथ तिथ्यन्ते विहितंभोजनं यदा दिवा संभवति, तदा पूर्वा ग्राह्येति। तन्न। लक्षणाप्रसङ्गात्, रात्रिभोजनेऽपि बाधकाभावाच्च। निषेधस्य रागप्राप्तभोजनविषयत्वाद्रागप्राप्तलाभे विधिस्पृष्टे निषेधाप्रवृत्तेरित्यन्तेन तन्मतदूषणमात्रं कृतं तद्युक्तरम्। अन्यथा पूर्वसूर्यास्तमारभ्य प्रवृत्ता चतुर्दशीद्वितीयसूर्यास्तप्राक्क्षणे समाप्ता, तत्रोत्तराग्रहणे, अङ्गभूतपारणानुरोधेनप्रधानान्यथाकरणानौचित्यादिति। एवं सति निरवकाशशिवरात्रिमात्र विषयकस्कान्दवचनविहितपारणस्वीकारेण हेमाद्रिविरोधः। एतेनव्रततिथेरन्ते निशीथेऽपि वाऽश्नीयादिति दीपिका तु —
तिथ्यन्ते पारणं कुर्याद्विना शिवचतुर्दशीम्।
इत्यादिस्कान्दवाक्यैः,
न रात्रौ पारणं कुर्यादृते वै रोहिणीव्रतात्।
तत्र निश्यपि वा कुर्याद्वर्जयित्वा महानिशाम्॥
इति मदनरत्ने गौडनिबन्धोदाहृतभविष्योत्तरवाक्येणच विरुद्धैव।यदा चतुर्दशी यामत्रयमतिक्रामति, तदा चतुर्दशीमध्ये पूर्वाह्णेपारणंकुर्यादिति माधवग्रन्थे श्राद्धादेरप्रसक्ताविति शेषस्याऽऽवश्यकत्वात्। यदायामत्रयादर्वागेव चतुर्दशी समाप्यते, तदा तिथ्यन्ते पारणमिति पूर्वग्रन्थेऽपि पार्वणश्राद्धादिप्रसक्ताविति शेषादिकल्पनायाः407 कथंचित्पूर्वोक्तार्थ एव तात्पर्यं कल्प्यम्। अन्यथा —
तिथ्यन्ते पारणं कुर्याद्विना शिवचतुर्दशीम्।
शिवरात्रिस्तु सा ज्ञेया चतुर्दश्यां तु पारणम् ॥
इति पूर्वोदाहृतस्कान्दगौतमीयवचनविरोधापत्तेरिति बोध्यम्। यत्तुयदोत्तरदिने दिवैव चतुर्दशीसमाप्तिस्तदा तिथ्यन्ते पारणम्, यदा तु रात्रौतिथ्यन्तस्तदा चतुर्दशीमध्ये प्रातरेव पारणम्।
सा त्वस्तमयपर्यन्तव्यापिनी चेत्परेऽहनि।
दिवैव पारणं कुर्यात्पारणान्नैव दोषभाक्॥
इति कालदर्शलिखितशिवरात्रिप्रकरणपठितस्मृतिवचनादितिमदनरत्नेकालतत्वविवेचनादौ चोक्तं तदुपेक्ष्यम्। यतो यस्यामष्टम्यादितिथौ—
अष्टम्यामथ रोहिण्यां न कुर्यात्पारणं क्वचित्।
इत्यादिनोपोष्यतिथिमध्ये पारणं निषिद्धम्। सा त्वस्तमयपर्यन्तातदा रात्रौ पारणे प्राप्ते तत्रापि
अन्यतिथ्यागमो रात्रौ तामसस्तैजसो दिवा।
तामसे पारणं कुर्वंस्तामसीं गतिमश्नुते॥
इत्यनेन रात्रौ तन्निषेधात्पारणस्य चाऽऽवश्यकत्वाद्दिवैवेत्युक्तं न दोषभागिति च। अनेन यत्र दोषप्रसक्तिस्तत्रैवाभ्यनुज्ञाबोधनाच्छिवरात्रौचतुर्दशीमध्ये पारणस्यातिप्राशस्त्यप्रतिपादनेनास्य वाक्यस्य शिवरात्रिविषयत्वासंभवेन प्रकरणाल्लिङ्गस्य प्राबल्येन च शिवरात्र्यन्यविषयत्वस्यैवौचित्यादिति दिक्। निर्णयसिन्ध्वादौ तु तिथ्यन्ते पारणमिदं शिवरात्रौन संबध्यते। तस्मात्तिथिमध्य एव पारणमित्युक्तम्। तत्रैताः पूर्वयुताः
कार्या इत्येकशेषेणोपस्थितासु मध्य एकस्यामनन्वयस्य वक्तुमशक्यत्वाच्छिवरात्रिमात्रविषयकतिथ्यन्ते पारणमितीशानसंहितावाक्यविरोधाच्चोपेक्ष्यम्। यच्च मयूख उक्तं तिथ्यन्ते गौणकालः स्वकालादुत्तरो गौणइति मण्डनोक्तेरिति तत्रोत्तरत्वं स्वकालत्वाश्रयनिरूपितं चेन्मुख्यकालान्तर्गतोत्तरक्षणादीनां गौणत्वापत्तेः स्वोद्देशेन विहितकालत्वावच्छिन्ननिरूपितोत्तरत्वस्यैव वक्तव्यत्वात्। प्रकृते तिथ्यन्तस्याप्यनेकवाक्यैर्विहितत्वाद्गौणत्वोक्तेः कथमौचित्यमिति चिन्तनीयम्। तस्मात्कालद्वयस्यमुख्यत्वेऽपि चतुर्दशीमध्ये पारणे408 पुण्यातिशयश्रवणात्तस्य मुख्यतरत्वमित्येव स्वीकर्तुमुचितमिति बोध्यम्। इति शिवरात्रिपारणनिर्णयः।
यच्च — यदीच्छेच्चाक्षयान्भोगान्दिवि देवमनोरमान्।
आगमोक्तविधिं कृत्वा प्राप्नोति सकलं फलम्॥
आदौ मार्गशिरे मासि दीपोत्सवदिनेऽपि वा।
गृह्णीयान्माघमासे वा द्वादशैवमुपोषयेत्॥
निशि जागरणं कृत्वा दीपद्योतितदिङ्मुखः।
गीतवाद्यविनोदेन पूजाजाप्यैः शिवे रतः॥
इत्यादिना स्कान्दपुराणे शिवरात्रिप्रकरणमध्य एव द्वादशस्वपिकृष्णचतुर्दशीषु शिवरात्रिव्रतवदेव काम्यं व्रतं विहितम्। तत्राप्युपवासपूजाजागरणविधानाद्रात्रिप्राधान्यस्य सत्त्वाद्बहुरात्रिव्यापिनी चतुर्दशीग्राह्या। यदा दिनद्वयेऽपि निशीथव्यापिनी तदा पूर्वोत्तरीत्योत्तरैवबहुकर्मकालव्यापिनी ग्राह्येति हेमाद्रिसिद्धान्तादपि तथैव प्रतीतेः।एतेन साम्ये तु पूर्वा स्मृतेति दीपिका साम्ये पूर्वैवेति हेमाद्रिरितिनिर्णयसिन्धुश्चहेमाद्रिविरुद्ध एव। यत्तु—
चतुर्दशीमुपोषन्ति शिवभक्ता नराधिप।
न तेषां गमनं भूप409 नरके दृश्यते क्वचित्॥
इत्यादिमार्कण्डेयादिवचनैर्विहितं प्रतिमासं कृष्णचतुर्दश्यां शिष्टैरनुष्ठीयमानमुपवासमात्रं तत्
अखण्डितव्रतो यो हि शिवरात्रिमुपोषयेत्।
सर्वान्कामानवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥
इत्यादिनित्यशिवरात्रिव्रतेऽनुकल्पवत्काम्ये चतुर्दशीव्रतेऽनुकल्पासंभवात्स्वतन्त्रमेव। तत्र चतुर्दशी
एकादश्यष्टमी षष्ठी उभे पक्षे चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥
इतिवृद्धवसिष्ठवचनामावास्याविद्धा प्राप्ता।
कृष्णपक्षेऽष्टमी चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी।
पूर्वविद्धा तु कर्तव्या परविद्धा न कस्यचित्॥
इति निगमवचनात्रयोदशीविद्धा प्राप्ता। तत्र व्यवस्थामाह हेमाद्रिमाधवयोर्ब्रह्मवैवर्तम्—
रुद्रव्रतेषु सर्वेषु कर्तव्या संमुखी तिथिः।
अन्येषु व्रतकल्पेषु यथोद्दिष्टामुपावसेत्॥ इति।
यथोद्दिष्टामुत्तरामित्यर्थः। तत्र संमुखीशब्दःसंमुखी नाम सायाह्नव्यापिनी या तिथिर्भवेदिति वचनात्पारिभाषिकः। तेन यदा पूर्वविद्धा लभ्यते, तदा पूर्वैव नो चेदुत्तरैवेति विभाव्यतां सूरभिः।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे शिवरात्रिनिर्णयः।
अथ शिवरात्रिव्रतप्रयोगः।
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं दया क्षमा।
शान्तात्मा क्रोधहीनश्च तपस्वी ह्यनसूयकः॥
इतिगुणयुक्तस्त्रयोदश्यामेकभक्तं विधाय चतुर्दश्यां दन्तकाष्ठवर्जं जिह्वाल्लेखनपूर्वकं मुखं प्रक्षाल्य स्नानसंध्यादिनित्यक्रियां विधाय कृताचमनो देवसंनिधौ गत्वा शिवं नमस्कृत्य—
शिवरात्रिव्रतं देव करिष्ये शिवसंनिधौ।
निर्विघ्नं कुरु देवेश भक्तिग्राह्य महेश्वर॥
इतिमन्त्रेण व्रतं संकल्पयेत्। ततोऽहिंसादिभिः पूर्वोक्तैः
तद्ध्यानं तज्जपः स्नानं तत्कथाश्रवणादिकम्।
उपवासकृतां ह्येते गुणाः प्रोक्ता मनीषिभिः॥
इत्येतैश्चतुर्गुणैर्युक्तः सन्
समित्पुष्पकुशादीनां द्वितीयः प्रहरो मतः॥
इति दक्षोक्तेर्द्वितीयप्रहरे बिल्वपत्रपुष्पादिपूजोपयोगि सर्वं संपादयेत्।आदित्यपुराणे—
बिल्वपत्रैरखण्डैश्च सकृत्पूजयतेशिवम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते॥
पञ्चाक्षरेण मन्त्रेण बिल्वपत्रैः शिवार्चनम्।
करोति श्रद्धयायस्तु स गच्छेदैश्वरं पदम्॥
दर्शनाद्बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनाद्वन्दनादपि।
अहोरात्रकृतं पापं नश्यत्येव हि नारद॥
अन्तकाले नरो यस्तु बिल्बमूलस्य मृत्तिकाम्।
आलिप्य सर्वगात्राणि मृतो याति परां गतिम्॥
बिल्वपत्रैरखण्डैस्तु पूजयेदिन्दुशेखरम्।
कृष्णाष्टम्यां संयतात्मा ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥
मातृहा पितृहा वाऽपि युक्तो वा सर्वपातकैः।
माघकृष्णचतुर्दश्यां पूजयेदिन्दुशेखरम्॥
भक्त्या बिल्वदलैर्मौनी शिवनामजपन्निशि।
सर्वपापविनिर्मुक्तो याति शैवं परं पदम्॥
शुष्कैः पर्युषितैर्वाऽपि पत्रैर्बिल्वस्य नारद।
पूजयेद्गिरिजानाथं मुच्यते सर्वपातकैः॥
शिवरहस्ये—
नित्यं सार्द्रैरनार्द्रैर्वा बिल्वपत्रैः सदाशिवम्।
पूजयस्व महादेवं तस्मान्मा प्रमदो भव॥
बिल्वपत्राणि शुद्धानि स्वतः पर्युषितान्यपि।
शंकरार्चनयोग्यानि भवन्तीत्यस्ति हि श्रुतिः॥
सुवर्णं बिल्वपत्रं च रत्नं च रजतं तथा।
नहि पर्युषितं यस्माच्छुद्धमेवस्वयं यतः॥
अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्य च पुनः पुनः।
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि क्वचित्॥
शुष्कं खण्डितमार्द्रंवा बिल्वपत्रं शिवप्रियम्।
पाद्मीयशिवगीतायाम्—
बिल्वमूलमृदा यस्तु शरीरमुपलिम्पति।
अन्तकालेऽन्तकजनैः स दूरी क्रियते नरः॥
बिल्ववृक्षं समाश्रित्य यो मन्त्रान्विधिवज्जपेत्।
एकेन दिवसेनैव पुरश्चर्या कृता भवेत्॥
ब्रह्मोत्तरखण्डे —
माघमासे महापुण्या या सा कृष्णा चतुर्दशी।
शिवलिङ्गं बिल्वपत्रं दुर्लभं हि चतुष्टयम्॥ इति।
लैङ्गे —
मणिमुक्ताप्रवालैस्तु रत्नैरप्यर्चनं कृतम्।
न गृह्णामि विना देवि बिल्वपत्रैर्वरानने॥
भविष्ये —
सर्वकामप्रदं बिल्वं दारिद्र्यस्य विनाशनम्।
बिल्वपत्रात्परं नास्ति येन तुष्यति शंकरः॥
इति बिल्वमहिमानं410ज्ञात्वा
अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रियः सदा।
गृह्णामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात्॥
इति मन्त्रेण वृक्षं नमस्कृत्य विचिनुयात्। शिवपूजायां प्रशस्तानिपुष्पाणि भविष्यत्पुराण उक्तानि—
करवीरो बकश्चैव अर्क उन्मत्तकस्तथा।
पाटला बृहती चैव तथा वै गिरिकर्णिका॥
तथा काशस्य पुष्पाणि मन्दारश्चापराजिता।
शमीपुष्पाणि वन्यानि कुब्जकः षष्ठिनी तथा॥
अपामार्गस्तथा पद्मं जातिपुष्पं सवोकनम्।
चम्पकोशीरतगरास्तथा वै नागकेसरम्॥
पुंनागं किंकिरातश्च द्रोणपुष्पं तथा शुभम्।
शिंशश्चोदुम्बर411श्चैव जपा मल्ली तथैव च॥
पुष्पाणि यज्ञवृक्षस्य तथा बिल्वं प्रियं शुभे।
कुसुम्भस्य च पुष्पाणि तथा वै कुङ्कुमस्य च॥
नीलं च कुमुदं चैव तथा रक्तोत्पलानि च।
सुरभीणि च पुष्पाणि तत्तत्कालोद्भवानि च॥
पुष्पैरेतैर्यथालाभं सततं पूजयेच्छिवम्॥ इति।
–
श्वेतार्ककुसुमे साक्षाच्चतुर्वक्त्रः प्रजापतिः।
कर्णिकारस्य कुसुमे मेधा साक्षाद्व्यवस्थिता॥
करवीरे गणाध्यक्षो बके नारायणः स्वयम्।
सुगन्धिषु तु सर्वेषु नगात्मजा व्यवस्थिता॥
बिल्वपत्रे स्थिता लक्ष्मीर्देवी लक्षणसंयुता॥
नीलोत्पलेऽम्बिका साक्षादुत्पले षण्मुखः स्वयम्।
पद्मे गणैर्महादेवः सर्वदेवपतिः स्वयम्॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रीपत्रं न त्यजेद्द्बुधः।
नीलोत्पलं चोत्पलं च कमलं च विशेषतः॥
स्कान्दे —
चतुर्णां पुष्पजातीनां गन्धमाघ्राति शंकरः।
अर्कस्य करवीरस्य बिल्वस्य च बकस्य च॥ इति।
भविष्ये —
तपःशीलगुणोपेते पात्रे वेदान्तपारगे।
दत्त्वा सुवर्णशतकं तत्फलं कुमुदस्य च॥
अर्कपुष्पे तथैकस्मिञ्शिवाय विनिवेदिते।
दश दत्त्वा सुवर्णस्य यत्फलं तदवाप्नुयात्॥
अर्कपुष्पसहस्रेभ्यः करवीरं विशिष्यते।
करवीरसहस्रेभ्यो बिल्वपत्रं विशिष्यते॥
विल्वपत्रसहस्रेभ्यो द्रोणपुष्पं विशिष्यते।
द्रोणपुष्पसहस्रेभ्यो बकपुष्पं विशिष्यते॥
बकपुष्पसहस्रेभ्य एकं धत्तूरकं महत्412।
धत्तूरकसहस्रेभ्यः शमीपत्रं413 विशिष्यते॥
शमीपुष्पसहस्रेभ्यः श्रीमन्नीलोत्पलं वरम्।
सर्वासां पुष्पजातीनां प्रवरमृषिभिः स्मृतम्॥
नीलोत्पलसहस्रस्य यो मालां संप्रयच्छति।
शिवाय विधिवद्भक्त्या तस्य पुण्यफलं शृणु॥
कल्पकोटिसहस्राणि कल्पकोटिशतानि च।
वसेच्छिवपुरे श्रीमाञ्शिवतुल्यपराक्रमः॥
धत्तूरकैस्तु यो लिङ्गं सकृत्पूजयते नरः।
स गोलक्षफलं प्राप्य शिवलोके महीयते॥
बृहतीकुसुमैर्भक्त्या यो लिङ्गं सकृदर्चयेत्।
गोलक्षस्य फलं प्राप्य ततः शिवपुरं व्रजेत्॥
करवीरसमा ज्ञेया जाती बकुलपाटली \।
श्वेतमन्दारकुसुमं सितपद्मं च तत्समम्।
नागचम्पकपुंनामा धत्तूरकुसुमाः414 स्मृताः॥
कनकानि कदम्बानि रात्रौ देयानि शंकरे।
मदनरत्ने केतकानि कदम्बानीति पाठः॥
दिवा शेषाणि देयानि दिवा रात्रौ च मल्लिका।
भविष्ये —
प्रहरं तिष्ठते जाती करवीरमहर्निशम्।
तुलस्यां बिल्वपत्रेषु सर्वेषु जलजेषु च॥
न पर्युषितदोषोऽस्ति मालाकारगृहेऽपि च।
जाती प्रहरात्करवीरमहोरात्रात्। पश्चाद्देवादुत्तारणीयमित्यर्थः। हेमाद्रौ कामिककारणयोः —
बिल्वपुष्पं शमीपुष्पं करवीरं च मालती।
उन्मत्तकं चम्पकं च सद्यः प्रीतिकरं मम॥
चम्पकाशोकपुंनागाः सकह्लारास्तथा मम।
सा हृष्टा द्विजशार्दूल ये चान्ये बहुगन्धिनः॥
एतैर्हि पूजितो नित्यं प्रीतिं शीघ्रं व्रजाम्यहम्।
यैः कैर्वाऽपीह कुसुमैर्जलस्थलरुहैःशिवम्॥
संपूज्य तोषितैर्भक्त्या शिवलोके महीयते।
अभावेन हि पुष्पाणां पत्राण्यपि निवेदयेत्॥
पत्राणामप्यलाभे तु फलान्यपि निवेदयेत्।
तत्रैव स्कान्दे —
अभावे पत्रपुष्पाणामन्नाद्येनापि पूजयेत्।
शालीतण्डुलगोधूमैर्यवैर्वाऽपि समर्चयेत्॥
गाणपत्यमवाप्नोति रुद्रलोके वसेच्चिरम्। इति।
शिवधर्मोत्तरे निषिद्धान्युक्तानि —
सर्जबन्धूकपुष्पाणि कुन्दयूथी415 मदन्तिका।
केतकी चातिमुक्तश्च श्वेता चैवापराजिता॥
कपित्थं बकुलं तङ्कींशिरीषं च बिभीतकम्।
धातकीं निम्बपत्रं च गृञ्जनं च विवर्जयेत्॥
अत्र कुन्दनिषेधो माघातिरिक्तकाले। तदुक्तं हेमाद्रौदेवीपुराणे —
वैशाखे मासि कर्तव्या पूजा पाटलया तथा।
सर्वान्कामानवाप्नोति ज्येष्ठे पद्मार्चनात्तथा॥
आषाढे बिल्वकह्लारैरीप्सितं लभते फलम्।
नवमल्लिकया पूजा नमोमासि महाफला॥
कदम्बैश्चम्पकैरर्चानभस्ये सर्वकामदा \।
पूजा पङ्कजमालत्या416 इषेऽभ्युदयदायिनी॥
शतपत्रिकया पूजा कार्तिके सर्वकामिकी।
मार्गे नीलोत्पलैः पूजा पुष्ये स्यात्कुब्जकैः शुभा॥
माघे च कुन्दकुसुमैर्मरुबकेन फाल्गुने।
शतपत्रैस्तथा चैत्रे यः कुर्यात्सुरसत्तम॥
लभते सर्वयज्ञानां सर्वदानफलं तथा।
एवं मासानुरूपेण यस्तु पुष्पं प्रकल्पयेत्॥
शिवाय स भवेद्वत्स शिवस्थानरतस्तथा॥ इति।
माघे कुन्दपुष्पविधानात्
कुन्दपुंनागबकुलशिरीषाशोककिंशुकैः।
इतीशानसंहितायां शिवरात्रौ बकुलशिरीषयोर्विधानान्निषेधस्तदतिरिक्तकाले। येषां तु कालविशेषपुरस्कारेण विधानं नास्ति, किंतुसामान्येन विधानं निषेधोऽपि तथैव, तेषां विकल्प इति बोध्यम्।
मुकुलैर्नार्चयेद्देवं चम्पकैर्जलजैर्विना।
इति वचनाच्चम्पकजलजभिन्नमुकुलैर्नार्चयेत्।
मध्यमानामिकाङ्गुष्ठैःपुष्पं संगृह्य पूजयेत्।
अङ्गुष्ठतर्जन्यग्राभ्यां निर्माल्यमपनोदयेत्॥
अपनीतं च निर्माल्यं चण्डेशाय निवेदयेत्।
अशून्यमस्तकं लिङ्गं सदा कुर्वीत पूजकः॥
इति वचनादनामिकामध्यमाङ्गुष्ठैः पुष्पाद्यर्पणं कुर्यात्। तच्च पुष्पादिकम्—
पत्रं पुष्पं फलं चैव यथोत्पन्नं तथाऽर्पयेत्।
इति वचनात्स्वाभिमुखमुत्तानमर्पयेत्। बिल्वपत्रं तु —
वामपत्रे वसेद्ब्रह्मा पद्मनाभस्तु दक्षिणे।
मध्यपत्रे स्थितः साक्षात्साम्बः सर्वार्थदायकः॥
इन्द्रादयो लोकपाला वृन्ता परिकीर्तिताः।
पृष्ठभागे स्थिता यक्षा अभक्तानां निषेधकाः॥
पूर्वभागेऽमृतं न्यस्तं देवैर्ब्रह्मादिभिः पुरा।
तस्माद्वै पूर्वभागेण पूजयेद्गिरिजापतिम्॥
इति शिवरहस्यवचनादभ्यग्रं न्युब्जमर्पयेत्।
अगरुं शतसाहस्रं द्विगुणं चासितागरुम्॥
गुग्गुलं घृतसंयुक्तं साक्षाद्गृह्णाति शंकरः।
घृतदीपं च यो दद्याद्वसेच्छिवपुरे तु सः।\।
तैलेनापि हि यो दद्याद्घृताभावे तु मानवः।
तेन दीपप्रभावेन शिववद्राजते भुवि॥ इति।
अथ भक्त्या शिवं पूज्य नैवैद्यमुपकल्पयेत्।
यद्यदेवाऽऽत्मनः श्रेयस्तत्तदीशाय कल्पयेत्॥
एकमाम्रफलं पक्वंयः शंभोर्विनिवेदयेत्।
वर्षाणामयुतं भोगैःक्रीडते स शिवे पुरे॥
एकं मोचाफलं पक्वंयः शिवाय निवेदयेत्।
वर्षलक्षं महाभोगैःशिवलोके महीयते॥
मोचा कदली। शिवरहस्ये —
प्रदक्षिणाप्रकारस्तु द्विविधो वेदसंमतः।
सव्यापसव्यः सव्यश्च तत्राऽऽद्ये विधिरुच्यते॥
वृषं चण्डं वृषं चैव सोमसूत्रं पुनर्वृषम्।
चण्डं च सोमसूत्रं च पुनश्चण्डं पुनर्वृषम्।\।
प्राग्द्वारं देवदेवस्य वृषस्थानं प्रकीर्तितम्।
ईशानभागे विज्ञेयं चण्डस्थानं द्विजोत्तम।\।
उपविश्य वृषस्थाने संकल्प्य विधिपूर्वकम्।
कृताञ्जलिपुटो मौनी चण्डस्थानं व्रजेत्ततः॥
पुनर्वृषेशमागत्य सोमसूत्रं व्रजेत्ततः।
पुनर्वृषेश417मागत्य चण्डस्थानं व्रजेत्ततः॥
ततो वृषेशमप्राप्य सोमसूत्रं व्रजेद्विजः।
सोमसूत्रमनुल्लङ्घ्य चण्डस्थानाद्वृषं व्रजेत्॥
सव्यं सव्येन कर्तव्यं तदपि श्रुतिचोदितम्॥ इति।
देवीपुराणे —
सव्यं व्रजेत्ततोऽसव्यं प्रणालं नैव लङ्घयेत्।
एकीभूतमना418 रुद्रे यः कुर्यात्त्रिः प्रदक्षिणम्॥
छिन्नस्तेन भवग्रन्थिर्न तस्य पुनरुद्भवः।
इति प्रकारान्तरमुक्तम्। चरलिङ्गे तु सव्येनैवेति बोध्यम्।
उरसा शिरसा दृष्ट्या मनसा वचसा तथा॥
पद्भ्यां कराभ्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टाङ्ग उच्यते।
दण्डवत्प्रणमेत्तत इति वचनाद्ददण्डवद्वा नमस्कारः।
गन्धधूपनमस्कारैर्मुखवाद्यै419श्च सर्वशः।
यो मामर्चयते भक्त्या तदा तुष्याम्यहं सदा॥ इति।
एवं बिल्वपत्रपुष्पादिपूजोपकरणं संपाद्य मध्याह्नस्नानादि कुर्यात्।
पूजोपकरणद्रव्यं सर्वं संपादयेत्ततः।
मध्याह्नकाले संप्राप्ते स्नायादेव विधानतः॥
नित्यदेवार्चनं कुर्याद्गृहमागत्य भक्तितः।
इत्युदाहृतव्रतविधौ मध्याह्नस्रानाद्यनन्तरं नित्यदेवार्चनमुक्तम्। देवार्चनस्य नित्यत्वं पराशरेणाप्युक्तम् —
षट्कर्माभिरतो नित्यं देवतातिथिपूजकः।
हुतशेषं तु भुञ्जानो ब्राह्मणो नावसीदति॥
संध्या स्नानं जपो होमो देवतानां च पूजनम्।
आतिथ्यं वैश्वदेवं च षट्कर्माणि दिने दिने॥ इति।
अत्र दिने दिन इति वीप्सया नित्यत्वबोधनात्॥
वरं प्राणपरित्यागः शिरसो वाऽपि कर्तनम्।
न त्वसंपूज्य भुञ्जीत भगवन्तं त्रिलोचनम्॥
इति मदनरत्नोदाहृतभविष्यपुराणवचनेन
वरं प्राणपरित्यागः शिरसो वाऽपि कर्तनम्।
न चैवापूज्य भुञ्जीत शिवलिङ्गे महेश्वरम् ॥
इति शूलपाणिमाऽप्युदाहृतलैङ्गवचनेन लिङ्गपूजां विना भोजनेऽनिष्टप्रतिपादनाच्च।
लिङ्गार्चनं रुद्रजपो व्रतं शिवदिनत्रये।
वाराणस्यां च मरणं मुक्तिरेषा चतुर्विधा॥ इति।
यः प्रदद्याद्भवां लक्षं दोग्ध्रीणां वेदपारणे।
एकाहं योऽर्चयेल्लिङ्गं तस्य पुण्यं ततोऽधिकम्॥
सकृत्पूजयते यस्तु भगवन्तमुमापतिम्।
अस्याश्वमेधाधिकं फलं भवति भूसुराः॥ इति।
यस्तु पूजयते नित्यं शिवं त्रिभुवनेश्वरम्।
स स्वर्गराज्यमोक्षाणां शीघ्रं भवति भाजनम्॥
नहि लिङ्गार्चनात्किंचित्पुण्यमभ्यधिकं क्वचित्।
इति विज्ञाय यत्नेन पूजनीयः सदा शिवः॥
इति हेमाद्रिमाधवमदनरत्नोदाहृतविष्णुधर्मोत्तरनन्दिकेश्वरभविष्यपुराण-वचनैर्निःश्रेयसादिहेतुत्वप्रतिपादनाच्च लिङ्गार्चनं नित्यं कर्तव्यम्। तदनन्तरं —
शिवस्य यजनस्थानमलं कुर्यात्समाहितः।
वितानध्वजमाल्यैश्च फलपक्वान्नलम्बितैः॥
अलंकृत्य सुचित्रेण सायं संध्यामुपास्य च।
पूजागृहं प्रविश्याथ प्रणम्य शिवमीश्वरम्॥
इत्यत्रापि शिवादिशब्देन लिङ्गमेव ग्राह्यं न प्रतिमादिकम्।
लिङ्गेषु च समस्तेषु स्थावरेषु चरेषु च॥
संक्रमिष्याम्यसंदिग्धं वर्षपापविशुद्धये।
इत्युदाहृतवाक्येषु
माघकृष्णचतुर्दश्यामुपवासो हि दुर्लभः।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये रात्रौ जागरणं तथा420॥
अतीव दुर्लभं तत्र शिवलिङ्गस्य दर्शनम्।
लभ्यते वा पुनस्तत्र बिल्वपत्रार्चनं विभोः॥
वर्षाणामयुतं येन स्नातं गङ्गासरिज्जले।
समृद्बिल्वार्चनेनैव तत्फलं लभते नरः॥
एकेन बिल्वपत्रेण शिवलिङ्गार्चनं कृतम्।
त्रैलोक्ये तस्य पुण्यस्य को वा सादृश्यमर्हति421॥
इत्यादिब्रह्मोत्तरखण्डादिवाक्येषु च लिङ्गपूजाया एव प्रतीतेश्च लिङ्गएव पूजा कर्तव्या। तच्च लिङ्गं द्विविधं — स्थावरं, चरं च। तच्चपञ्चसूत्रं कार्यम्। पञ्चसूत्रलक्षणमुक्तं गौतमीतन्त्रे —
लिङ्गमस्तकविस्तारो लिङ्गोच्छ्रायसमो मतः।
परिधिस्तत्त्रिगुणितस्तद्वत्पीठं व्यवस्थितम्॥
प्रणालिका तथैव स्यात्पञ्चसूत्रविनिर्णयः॥ इति।
पीठलक्षणं बृहद्वासिष्ठलैङ्गे —
वृत्तं वा चतुरस्रं वा मध्ये कण्ठसमन्वितम्।
द्विगुणं422 लिङ्गनाहाच्च कण्ठनाहं समाचरेत्॥
त्रिमेखलमधश्चोर्ध्वं समं चाथ द्विमेखलम्।
लिङ्गमस्तकविस्तारं षड्भागं विभजेत्ततः।
मेखलामेकभागेन कुर्यात्खातं च तत्समम्॥
लिङ्गदैर्ध्यसमं कुर्यात्प्रणालं पीठबाह्यतः।
विस्तारं तत्समं मूले तदर्धं च तदग्रतः॥
जलमार्गः प्रकर्तव्यस्तस्य मध्ये त्रिभागतः।
कुर्यात्पीठार्धदीर्घं वा प्रणालं च शिवोदितम्॥ इति।
अयमर्थः — लिङ्गोच्चताप्रमाणसूत्रसमानसूत्रं लिङ्गमस्तकं कृत्वा त्रिगुणिततत्सूत्रवेष्टनार्हंलिङ्गस्थौल्यं, स्थौल्यसूत्रपरिमितं पीठोच्चत्वं, पीठविस्तारं च कृत्वा त्रिगुणिततत्सूत्रवेष्टनार्हंपीठस्थौल्यं पीठोच्चतासूत्रतृतीयांशेन पीठोच्चतामध्यप्रदेशे लिङ्गस्थौल्यद्विगुणस्थौल्यमेकवप्रं, द्विवप्रं,त्रिवप्रं, समं वा पीठकण्ठं कृत्वा पीठस्योत्तरदिग्भागे लिङ्गोच्चतासमदीर्घं, पीठार्धदीर्घं वा मूले तत्समविस्तारम्, अग्रे तदर्धविस्तारं गोमुखाकारं प्रणालं कुर्यात्। लिङ्गमस्तकविस्तारषष्ठांशेन पीठस्य, प्रणालषष्ठांशेन प्रणालस्य च समन्तादुपरितनबहिर्भागं त्यक्त्वाऽऽसमन्तात्तत्परिमाणकं खातं कुर्यादिति।
पञ्चसूत्रविधानं च पार्थिवे न विचारयेत्।
यथाकथंचिद्विधिना रमणीयं तु कारयेत्।
पक्वजम्बूफलाकारं सर्वकामप्रदं शिवम्॥
इतिवचनात्पार्थिवलिङ्गातिरिक्तलिङ्गैपञ्चसूत्रविधानमावश्यकमितिबोध्यम्।
अखण्डं स्थावरं लिङ्गं द्विखण्डं चरमेवच।
ये कुर्वन्ति नरा मूढा न पूजाफलभागिनः॥
इत्यादिवचनात्स्थावरं द्विखण्डमेव चरलिङ्गमखण्डमेव कार्यम्। तत्रदेवादिभिः प्रतिष्ठापिते ज्योतिर्लिङ्गादौ स्त्रीशूद्रादिभिः स्पृष्टेऽपि
अर्चकस्य तपोयोगात्पूजनस्यातिशायनात्।
आभिरूप्याच्चबिम्बानां देवः सांनिध्यमृच्छति।
इत्यादिवचनात्सर्वदा देवसांनिध्यात्॥
यस्तु पूजयते लिङ्गे देवादि423ंमां जगत्पतिम्।
ब्राह्मणः क्षत्त्रियो वैश्यः शूद्रो वा मत्परायणः॥
तस्य प्रीतः प्रदास्यामि शुभं लोकाननुत्तमान्। इति।
ब्राह्मणस्यैव पूज्योऽहं शुचेरप्यशुचेरपि।
पूजां गृह्णामि शूद्राणां पुनः स्वाचारवर्तिनाम्॥
तिथितत्त्वे स्कान्दे —
शूद्रकर्माणि यो नित्यं स्वीयानि कुरुते प्रिये।
तस्याहमर्चांगृह्णामि चन्द्रखण्डविभूषिते॥ इति।
सूतसंहितायां—
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थश्च सुव्रते।
एवं दिने दिने देवं पूजयेदम्बिकापतिम्॥
संन्यासी देवदेवेशं प्रणवेनैव पूजयेत्।
नमोन्तेन शिवेनैव स्त्रीणां पूजा विधीयते॥
विरक्तानां तु शूद्राणामेवं पूजा प्रकीर्तिता।
इत्यादिवाक्येभ्यश्चतुर्वर्णैः पूजा कार्या।
लिङ्गं गृही यतिर्वाऽपि संस्थाप्य तुयजेत्सदा।
इत्यादिवचनात्पुरुषप्रतिष्ठापितलिङ्गे तु
यदा प्रतिष्ठितं लिङ्गं मन्त्रविद्भिर्यथाविधि।
तदाप्रभृति शूद्रश्च योषिद्वाऽपि न संस्पृशेत्॥
स्त्रीणामनुपनीतानां शूद्राणां च नरेश्वर।
स्थापने नाधिकारोऽस्ति विष्णोर्वा शंकरस्य च॥
शूद्रो वाऽनुपनीतो वा स्त्रियो वा पतितोऽपि वा।
केशवं वा शिवं वाऽपि स्पृष्ट्वा नरकमश्नुते॥
यः शूद्रेणार्चितं लिङ्गं विष्णुं वा प्रणमेन्नरः।
न तस्य निष्कृतिर्दृष्टा प्रायश्चित्तायुतैरपि॥
नमेद्यः शूद्रसंस्पृष्टं लिङ्गं वा हरिमेव वा।
स सर्वयातनाभोगी यावदाचन्द्रतारकम्॥
पाखण्डिपूजितं लिङ्गं नत्वा पाखण्डतां व्रजेत्।
आभीरपूजितं लिङ्गं नत्वा नरकमश्नुते॥
योषिद्भिः पूजितं लिङ्गं विष्णुं वाऽपि नमेत्तु यः।
स कोटिकुलसंयुक्तमाकल्पं रौरवं व्रजेत्॥
यः शूद्रसंस्कृतं लिङ्गं विष्णुं वाऽपि नमेत्तु यः।
इहैवात्यन्तदुःखानि पश्यत्यामुष्मिके किमु॥
इत्यादिवाक्येभ्यो ब्राह्मणादिस्थापितलिङ्गे शूद्रादिस्पर्शानन्तरं शूद्रादिस्थापितलिङ्गे वा पूजाऽनिष्टावहत्वान्न कार्या। चरलिङ्गेषु यद्यपि
रत्नलिङ्गसहस्रस्य पूजया यत्फलं भवेत्।
ततः शतगुणं पुण्यं धातुलिङ्गस्य पूजने॥
धातुलिङ्गेष्वपि श्रेष्ठं हेमलिङ्गं श्रुतिश्रुतम्।
तत्र संपूजितः शंभुः प्रसीदति न संशयः॥
धातुलिङ्गसहस्रस्य पूजया यत्फलं भवेत्424।
ततः शतगुणं पुण्यं मृत्तिकालिङ्गपूजने॥
मृल्लिङ्गानां सहस्रस्य पूजया यत्फलं लभेत्।
ततोऽनन्तगुणं पुण्यं बाणलिङ्गस्य पूजने॥
अनन्तबाणलिङ्गानां पूजया तत्फलं लभेत्।
ततोऽनन्तगुणं पुण्यं रसलिङ्गस्य पूजने॥
रसलिङ्गसमं लिङ्गं नास्ति न श्रूयतेऽपि वा।
इति शिवरहस्ये पारदलिङ्गं श्रेष्ठमित्युक्तम्, तथाऽपि केवलपारदलिङ्गस्य दुर्लभत्वात्
सप्तकृत्वस्तुलारूढं वृद्धिमेति न हीयते।
बाणलिङ्गमिति प्रोक्तं शेषं नार्मदमुच्यते॥
इति लक्षणलक्षितबाणलिङ्गस्यापि दुर्लभत्वात्सुवर्णादिलिङ्गे पञ्चसूत्रसंपादनस्याऽऽवश्यकत्वात्तस्य च दुःसंपादकत्वात्
कृते रत्नमयं लिङ्गं त्रेतायां हेमसंभवम्॥
द्वापरे पारदं श्रेष्ठं पार्थिवं तु कलौ युगे॥
इति वचनेन कलियुगे पार्थिवस्यैव श्रेष्ठत्वप्रतिपादनात्तत्र पञ्चसूत्रत्वाभावेऽपि दोषाभावाच्च।
आयुष्मान्बलवाञ्छ्रीमान्पुत्रवान्धनवान्सुखी।
वरमिष्टं लभेल्लिङ्गं पार्थिवं यः समर्चयेत्॥
तस्मात्तु पार्थिवंलिङ्गं ज्ञेयं सर्वार्थसाधकम्।
इति तिथितत्त्वादिष्वप्युदाहृतनन्दिपुराणे प्राशस्त्यप्रतिपादनात्पार्थिवलिङ्गपूजनं प्रशस्ततरम्। तत्प्रकारश्च — अरण्यतडागनदीतीरादिशुद्धस्थानमभिलक्ष्योक्तम् —
गत्वा स्थानं नमस्कुर्यान्मन्त्रमेतं समुच्चरेत्।
सर्वाधारधरादेव त्वद्रूपां मृत्तिकामिमाम्॥
लिङ्गार्थं तु प्रगृह्णामि प्रसन्नो भव मे प्रभो।
इति मन्त्रेण मृत्तिका ग्राह्या। मृत्तिकापरिमाणं तु—
यावत्स्यादात्मनः शक्तिर्मृदं तावत्समुद्धरेत्।
तदर्थं वाऽथ तस्यार्धं तदर्धं वा तदर्धकम्॥
एवं पलद्वयान्न्यूनंन तु कुर्यात्कदाचन।
इति शक्त्यनुसारेण मृदमानीय तदुपरि आर्द्रतार्थं जलं दत्त्वा,ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि, इति मन्त्रेण मृदं हस्ते गृहीत्वा ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय, इति मन्त्रेण मृदि जलं निषिच्य, ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्य इति मन्त्रेण पीठं कृत्वा, ॐ तत्पुरुषाय विद्महे, इति उपरिभागस्थमृदोपरितनपीठमध्यदेशे जलबुद्बुदमस्तकाकारमस्तकं सति संभवे पञ्चसूत्रलक्षणयुतं, तदसंभवे अतिरमणीयं लिङ्गं कुर्यात्। ततः — ॐ ईशानः सर्वविद्यानाम्। इति मन्त्रेण लिङ्गमस्तकेऽक्षतानर्पयित्वा, पूजापीठेबिल्वपत्रं निधाय, तदुपरि लिङ्गं स्थापयेत्। ततः, अस्य प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, ऋग्यजुःसामानि च्छन्दांसि, चिद्रूपिणीप्राणशक्तिर्देवता, आं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्रों कीलकम्, अस्मिन्पार्थिवलिङ्गे साम्बशिवप्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः। ततो लिङ्गमस्तकोपरिपाणितलं कृत्वा, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः साम्बशिव-
प्राणा इह प्राणाःसाम्बशिवजीव इह स्थितः साम्बशिवसर्वेन्द्रियाणिवाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रत्वग्जिह्वाघ्राणानि इहाऽऽयान्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तुस्वाहा, इति त्रिवारं पठेत्। ततः —
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारपारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदारमन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि॥
इति ध्यात्वा वक्ष्यमाणमूलमन्त्रेण मानसोपचारैः संपूज्य, उत्तानहस्ताग्रेण लिङ्गं स्पृशन्नस्मिल्ँलिङ्गे ॐ भूः पुरुषं साम्बशिवमावाहयामि,भुवः पुरुषं साम्बशिवमावाहयामिॐ स्वः पुरुषं साम्बशिवमावाहयामि ॐ भूर्भुवः स्वः पुरुषं साम्बशिवमावाहयामि, इति पठित्वा
चैतन्यविग्रहं देवं स्थितं हृदयपङ्कजे।
श्वासमार्गेणाऽऽगतं तं चिन्तयेत्कुसुमाञ्जलौ॥
इति वचनान्मूलमन्त्रं पठन्कुसुमाञ्जलावागतं तं संचिन्त्य,
स्वामिन्सर्वजगन्नाथ यावत्पूजावसानकम्।
तावत्त्वं प्रीतिभावेन लिङ्गेऽस्मिन्संनिधिं कुरु॥
इतिमन्त्रेणाञ्जलिस्थपुष्पाणि लिङ्गमस्तके स्थापयेत्। ततः
गोभूहिरण्यवस्त्रादिबलिपुष्पनिवेदने।
ज्ञेयो नमः शिवायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः॥
सर्वमन्त्राधिकश्चायं प्रणवाद्यः षडक्षरः।
इति नन्दिपुराणादिवचनात्, ॐ नमः शिवाय, इति मूलमन्त्रान्तेॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः साम्बशिवायाऽऽसनं समर्पयामि, इत्यासनं दद्यात्। एवं पाद्याद्युपचारेष्वपि मूलमन्त्रपाठानन्तरं वक्ष्यमाणमन्त्रान्तरं पठित्वोपचारान्दद्यात्। यस्मिन्नुपचारे मन्त्रान्तरं नास्ति, तत्र मूलमन्त्र एवेति बोध्यम्। ॐभवे भवे नाति भवे भवस्व माम्। इति पाद्यम्। ॐ भवोद्भवाय नम इत्यर्घ्यम्। ॐ वामदेवाय नमः, इत्याचमनीयम्।ॐ ज्येष्ठाय नम इत्यन्त आपोहिष्ठेति तिसृभिः, हिरण्यवर्णाः शुचयःपावका इति चतसृभिः, सति सामर्थ्येपवमानः सुवर्जन इत्यनुवाकेन, रुद्राध्यायेन पुरुषसूक्तेन चाभिषिच्याऽऽचमनं दत्त्वा ॐ भवंदेवं तर्पयामि, ॐ शर्वं देवं तर्पयामि, ॐ ईशानं देवं तर्पयामि, ॐपशुपतिं देवं तर्पयामि, ॐ उग्रं देवं तर्पयामि, ॐ रुद्रं देवं तर्पयामि,ॐ भीमं देवं तर्पयामि, ॐ महान्तं देवं तर्पयामि, ॐ भवस्य देवस्य
पत्नीं तर्पयामि, ॐ शर्वस्य देवस्य पत्नीं तर्पयामि, ॐ ईशानस्यदेवस्य पत्नीं तर्पयामि, ॐ पशुपतेर्देवस्य पत्नीं तर्पयामि, ॐ उग्रस्यदेवस्य पत्नीं तर्पयामि, ॐ रुद्रस्य देवस्य पत्नीं तर्पयामि, ॐ भीमस्यदेवस्य पत्नीं तर्पयामि, इति तर्पयित्वा, ॐ श्रेष्ठाय नम इति वस्त्रमाचमनीयं, ॐ रुद्राय नमः, इत्युपवीतमाचमनीयम्, ॐ कालाय नम इतिगन्धम्,ॐकलविकरणाय नम इत्यक्षतान्, ॐ बलविकरणाय नमइति पुष्पाणि, ॐ बलाय नम इति धूपम्, ॐ बलप्रमथनाय नमइति दीपम्, ॐ सर्वभूतदमनाय नमः, इति नैवेद्यं425, मूलेन फलम्, ॐ मनोन्मनाय नम इति ताम्बूलम्, मूलेन नीराजनम्, ॐ ईशानः सर्वविद्यानाम् इति मन्त्रेण पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा, ॐ शर्वाय क्षितिमूर्तये नमइति लिङ्गस्य पूर्वदिग्भागे वेद्याम् ॐ भवाय जलमूर्तये नम इतीशान्याम्, ॐ रुद्राय तेजोमूर्तये नम इत्युत्तरस्याम्, ॐ उग्राय वायुमूर्तयेनम इति वायव्याम्, ॐ भीमायाऽऽकाशमूर्तये नमः, इति पश्चिमायाम्, ॐपशुपतये यजमानमूर्तये नम इति नैर्ऋत्याम्, ॐ महादेवाय सोममूर्तये नम इति दक्षिणस्याम्, ॐ ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः, इति आग्नेय्याम् इत्यष्टसु दिक्षु वेद्यामष्टमूर्तिपूजां कृत्वा, ॐ भवाय देवाय नमः, ॐशर्वाय देवाय नमः, ॐ ईशानाय देवाय नमः, ॐ पशुपतये देवाय नमः,ॐ उग्राय देवाय नमः, ॐ रुद्राय देवाय नमः, ॐ भीमाय देवाय नमः, ॐ महादेवाय नमः, इति लिङ्गमस्तकेऽष्टौ पुष्पाण्यर्पयित्वा लिङ्गवामभागे ॐ भवस्य देवस्य पत्न्यै नमः, ॐ शर्वस्य देवस्य पत्न्यै नमः, ॐईशानस्य देवस्य पत्न्यै नमः, ॐ पशुपतेर्देवस्य पत्न्यै नमः, ॐ उग्रस्य देवस्य पत्न्यै नमः, ॐ रुद्रस्य देवस्य पत्न्यै नमः, ॐ भीमस्य देवस्यपत्न्यै नमः, ॐ महतो देवस्य पत्न्यै नम इत्यष्टभिरष्टौ पुष्पाणि दद्यात्।ततः —ॐ अघोरेभ्य इत्यारभ्य मन्त्रत्रयं दशवारं जप्त्वाऽष्टोत्तरसहस्र426मष्टोत्तरशतं वा मूलमन्त्रं च जप्त्वा
गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु देवेश त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरा॥
** **इति मन्त्रेण देवाय जपं समर्थ्य पञ्च प्रदक्षिणा नमस्कारांश्च कृत्वोपविश्य पुनः प्रणम्य, ॐ ईशानः सर्वविद्यानामिति मन्त्रेण लिङ्गमस्तकस्थं पुष्पमाघ्राय शिरसि धृत्वा हृदि प्रविष्टं देवंसंचिन्त्य मूलेन·
मानसैः पञ्चोपचारैः संपूज्य, कृतेन पार्थिवलिङ्गपूजनेन श्रीपरमेश्वरःप्रीयतामितीश्वरायार्पयेत्। इति बौधायनकल्पबृहद्वासिष्ठलैङ्गानुसारिपार्थिवलिङ्गपूजाविधिः। विस्तरेण पूजाकरणासामर्थ्येस्त्रीशूद्राणां पूर्वोक्तवैदिकमन्त्रेष्वनधिकारात्पुराणानुसारी पार्थिवपूजाविधिः। ॐ हरायनम इति मृदं गृहीत्वा, ॐ महेश्वराय नम इति लिङ्गं कृत्वा, ॐशूलपाणये नम इति प्रतिष्ठाप्य।
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्॥
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानं
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥
इति ध्यात्वा, ॐ पिनाकधृषे नमः श्रीसाम्बसदाशिवेहाऽऽगच्छेह तिष्ठेहसंनिहितो भवेत्यावाहनम्। अत्र सर्वत्र मूलमन्त्रसमुच्चयः। ततो मूलेनैवॐ नमः शिवायेत्यासनं पाद्यमर्ध्यमाचमनं पशुपतये नम इति ॐ नमःशिवायेति स्त्रानं, वस्त्रमाचमनम्, उपवीतमाचमनं, गन्धम्, अक्षतान्,पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं, फलं, ताम्बूलं, नीराजनं, मन्त्रपुष्पाञ्जलिं[च]दत्त्वा ॐ शर्वाय क्षितिमूर्तये नम इत्यादिपूर्वोक्ताष्टमूर्तिपूजां कृत्वा यथाशक्ति मूलमन्त्रजपं कृत्वा प्रदक्षिणानमस्कारान्कृत्वा ॐ महादेवायनम इति विसर्जयेत्। स्त्रीभिः शूद्रैश्च प्रणवरहितः शिवाय नम इत्येव मन्त्रः पठितव्यः।
नमोन्तेन शिवेनैव स्त्रीणां पूजा विधीयते।
विरक्तानां तु शूद्राणामेवं पूजा प्रकीर्तिता॥
इति सूतसंहितावचनात्। इति पार्थिवपूजा \। आस्तामिदं प्रासङ्गिकम्। प्रकृते सायं संध्यां विधाय
विना भस्मत्रिपुण्ड्रेण विना रुद्राक्षमालया।
पूजितोऽपि महादेवो न स्यात्तस्य फलप्रदः॥
इतिभविष्यवचनेनाप्याव427श्यकत्वबोधनात्, धृतत्रिपुण्ड्ररुद्राक्षमालः पूर्वमलङ्कृतस्थानं गत्वा योग्यासने शुचिरासीनो मौनी निश्चलोदङ्मुखः सुधीरिति सूतसंहितावचनात्,
रात्रावुदङ्मुखः कुर्याद्देवकार्यं सदैव हि।
शिवार्चनं सदाऽप्येवं शुचिः कुर्यादुदङ्मुखः॥
इतिगौतमीयाच्चोदङ्मुख उपविश्याऽऽचम्य प्राणानायम्य देशकालौसंकीर्त्य शिवरात्रौ प्रथमयामे पूजां करिष्य इति संकल्प्य मूलमन्त्रस्यनन्दिकेश्वरमताद्युक्तसर्वन्यासकरणासामर्थ्येषडङ्गं न्यासं कुर्यात। तथाहि — अस्य श्रीशिवपञ्चाक्षरमन्त्रस्य वामदेवऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीसदाशिवो देवता, न्यासे पूजने जपे विनियोगः। शिरसि वामदेवायऋषये नमः। मुखेऽनुष्टुप्छन्दसे नमः। हृदये सदाशिवदैवतायै नमः।तर्जन्योः ॐ नं तत्पुरुषायनमः। मध्यमयोः ॐ मम् अघोराय नमः।कनिष्ठिकयोः428 ॐ शिं सद्योजाताय नमः। अ429नामिकयोः ॐ वां वामदेवाय नमः। अङ्गुष्ठयोः ॐ यम् ईशानाय नमः। मुखे ॐ नं तत्पुरुषायनमः। हृदये ॐ मम् अघोराय नमः। पादयोः ॐ शिं सद्योजाताय नमः। गुह्ये ॐ वां वामदेवाय नमः। मूर्ध्नि ॐ यम् ईशानाय नमः। मुखे ॐ नं तत्पुरुषाय प्राग्वक्त्राय नमः। दक्षिणकर्णे ॐ अघोराय दक्षिणवक्त्राय नमः। चूडाधः430 ॐ शिं सद्योजाताय पश्चिमवक्त्राय नमः। वामकर्णे ॐ वां वामदेवायोत्तरवक्त्राय नमः। मूर्ध्नि ॐ यम् ईशानायोर्ध्ववक्त्रायनमः। ॐ सर्वज्ञ431धाम्ने हृदयाय नमः। ॐ नं नित्यतृप्ति432धाम्ने शिरसे स्वाहा। ॐ मम् अनादिबोध433धाम्ने शिखायै वषट्। ॐ शिं स्वतन्त्रशक्तिधाम्ने कवचाय हुं। ॐ वाम् अलुप्तशक्तिधाम्ने नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ यम्अनन्तशक्तिधाम्न अस्त्राय फट्।
ॐ नमोऽस्तु स्थाणुरूपाय ज्योतिर्लिङ्गामृतात्मने।
चतुर्मूर्तिवपुस्थाय भासिताङ्गाय शंभवे॥
इति मन्त्रेण मूर्धादिपादपर्यन्तं व्यापकं न्यसेत्। इति न्यासं कृत्वा,
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतसं
रत्नाकल्पोज्जवलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानं
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥
इति ध्यात्वा, पार्थिवलिङ्गे पूजनं चेत्। उक्तप्रकारेणाऽऽवाहानपर्यन्तंकृत्वा, स्थावरलिङ्गे, पूर्वसंस्कृतचरलिङ्गे चाऽऽवाहनान्तं वर्जयित्वा
दिनान्ते स्नपनं कुर्याच्छिवनाम्ना प्रपूजयेत्।
द्वितीये प्रहरे चैव नाम्ना शंकरमर्चयेत्॥
तृतीये प्रहरे देवं नाम्ना माहेश्वरं तथा।
यामे चतुर्थे प्राप्ते तु रुद्रनाम्ना प्रपूजयेत्॥
इति स्कान्दात्, प्रथमप्रहरे श्रीशिवायाऽऽसनं समर्पयामीति वाक्येनैवसर्वोपचारान्दद्यात्। तथा च ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वैनमो नमः ॐ नमः शिवाय श्रीशिवायाऽऽसनं समर्पयामि। स्त्री शुद्रश्चेच्छ्रीशिवाय नम इति मन्त्रेणैव सर्वोपचारान्दद्यात् ॐ भवे भवेनातिभवे भवस्व माम् ॐ नमः शिवाय श्रीशिवाय पाद्यं स०। ॐभवोद्भवाय नमः ॐ नमः शिवाय श्रीशिवाय अर्घ्यं स०। ॐ वामदेवाय नमः ॐ नमः शिवाय श्रीशिवायाऽऽचमनं स०। ॐ ज्येष्ठायनमः ॐ नमः शिवाय श्रीशिवाय स्नानं स०। ततोऽनेन मन्त्रेण,मन्त्रान्तरेण च पञ्चामृतेन संस्नाप्याऽऽपोहिष्ठेति तिसृभिर्हिरण्यवर्णाइति चतसृभिः पवमानः सुवर्जन इत्यनुवाकेनैकादशावृत्त्यैकावृत्त्या वारुद्रेण, पुरुषसूक्तेन च यथासंभवं चन्दनकर्पूरकुङ्कुमवासितजलेनाभिषिच्य ॐ नमः शिवाय श्रीशिवाय स्रानान्त आचमनं स०।इति आचमनं दत्त्वा, ॐ भवं देवं तर्पयामि। ॐ शर्वं देवं तर्पयामि। ॐईशानं देवं तर्पयामि ॐ पशुपतिं देवं तर्पयामि ॐ उग्रं देवं तर्पयामि।ॐ रुद्रं देवं तर्पयामि। ॐ भीमं देवं तर्पयामि ॐ महान्तं देवं तर्पयामि।ॐ भवस्य देवस्य पत्नीं तर्पयामि। ॐ शर्वस्य देवस्य पत्नीं तर्पयामि।ॐ ईशानस्य देवस्य पत्नीं तर्पयामि। ॐ पशुपतेर्देवस्य पत्नीं तर्पयामि। ॐ उग्रस्य देवस्य पत्नीं तर्पयामि। ॐ रुद्रस्य देवस्य पत्नीं तर्पयामि।ॐ भीमस्य देवस्य पत्नीं तर्पयामि। ॐ महतो देवस्य पत्नीं तर्पयामि।ॐ श्रेष्ठाय नमः ॐ नमः शिवाय श्रीशिवाय वस्त्रं समर्पयामि। मूलेनाऽऽचमनम् ॐ रुद्राय नमः ॐ नमः शिवाय श्रीशिवायोपवीतम्। मूलेनाऽऽचमनम्। ॐ कालाय नम ॐ नमः शि० श्री० चन्दनम्। ॐ कलविकरणाय नमः ॐ नमः शि० अक्षतान्। ॐ बलविकरणायनमः ॐ नमः शि० पुष्पाणि। अष्टोत्तरसहस्रं शतं यथासंभवं वाबिल्वपत्राणि सहस्रनाम्ना मूलेन वा दद्यात्। ॐ बलाय नमः ॐनमः शि० धूपं०। ॐ बलप्रमथनाय नमः ॐ नमः शि० दीपं स०। ॐ सर्वभूतदमनाय नमः ॐ नमः शि० नैवेद्यं स०। मूलेनाऽऽचमनीयम्।तेनैव फलम्। ॐ मनोन्मनाय० ताम्बूलं स०। मूलेन वैदिकमन्त्रेणनीराजनम्। ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्बह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ॐ नमः शिवाय
श्रीशिवाय मन्त्रपुष्पाञ्जलिं दत्त्वा, पार्थिवलिङ्गे चेत्पूजा, तदा ॐशर्वाय क्षितिमूर्तये नम इत्यष्टमूर्तिपूजां कुर्यादिति विशेषः। ततःॐ भवाय देवाय नमः। ॐ शर्वाय देवाय नमः। ॐ ईशानायदेवाय नमः। ॐ पशुपतये देवाय नमः। ॐ उग्राय देवाय नमः।ॐ रुद्राय देवाय नमः। ॐ भीमाय देवाय नमः। ॐ महते देवायनमः। ॐ भवस्य देवस्य पत्न्यै नमः। ॐ शर्वस्य देवस्य पत्न्यै नमः। ॐईशानस्य देवस्य पत्न्यै नमः। ॐ पशुपतेर्देवस्य पत्न्यै नमः। ॐउग्रस्य देवस्य पत्न्यै नमः। ॐ रुद्रस्य देवस्य पत्न्यै नमः। ॐभीमस्य देवस्य पत्न्यै नमः। ॐ महतो देवस्य पत्न्यै नमः। इतिपूजयित्वाऽष्टोत्तरसहस्रं434 शतं वा मूलमन्त्रं जप्त्वा ॐ नमः सकलकल्याणदायिने शूलपाणय इत्यादिपूर्वोदाहृतस्तोत्रं पठित्वा ॐ शिवायनमः, ॐ रुद्राय नमः, ॐ पशुपतये नमः, ॐ नीलकण्ठाय नमः ॐ महेश्वराय नमः, ॐ हरिकेशाय नमः, ॐ विरूपाक्षाय नमः, ॐ पिनाकिने नमः, ॐ त्रिपुरान्तकाय नमः, ॐ शंभवे नमः, ॐॐ शूलिने नमः, ॐ महादेवाय नम इति द्वादशनामभिर्द्वादश पुष्पाञ्जलीन्दत्त्वा प्रदक्षिणानमस्कारान्कृत्वा कृतेन शिवरात्रौ प्रथमयामपूजनेनश्रीसाम्बशिवः प्रीयतामिति समर्प्यावशिष्टकालं तत्कथाश्रवणादिनानयेत्। द्वितीयप्रहरे प्राप्ते पूर्ववच्छिवरात्रौ द्वितीययामपूजां करिष्य इति संकल्प्यप्रथमयामपूजावत्पूजां कुर्यात्। एतावान्विशेषः —श्रीशिवायेदमासनमित्यादिसर्वोपचारेषु श्रीशंकरायेदमासनमित्यादिशिवनामस्थाने शंकरनामप्रयोगं कुर्यादिति। द्वितीययामपूजां समाप्य प्राणायामंकृत्वा ॐ रात्रीं प्रपद्ये जननीं सर्वभूतनिवेशिनीम्। भद्रां भगवतीं कृष्णांविश्वस्य जगतो निशाम्। संवेशिनीं संयमिनीं ग्रहनक्षत्रमालिनीम्।प्रपन्नोऽहं शिवां रात्रीं भद्रे पारमशीमह्योन्नम इति जपेत्। ततो महानिशि पूजां करिष्य इति संकल्प्यैवमेव पूजां कुर्यात्। ततस्तृतीययामपूजां करिष्य इति संकल्प्य ॐ सद्योजातं प्रपद्यामीत्याद्यन्ते श्रीमाहेश्वरायेदमासनमित्यादि तत्तन्मन्त्रान्ते माहेश्वरनामप्रयोगेण पूजां कुर्यात्।ततश्चतुर्थयामेऽपि संकल्पपूर्वकं तत्तन्मन्त्रान्ते श्रीरुद्रायेदमासनमित्यादिरुद्रनामप्रयोगेण पूजां कुर्यात्। पूजान्ते पूर्वोक्तस्तोत्रपाठं द्वादशनामभिःपुष्पाञ्जलींश्च सर्वपूजासु कुर्यात्। ततः प्रभाते पूजां समाप्य प्रातःस्नानं,
संध्यां च कृत्वा पुनर्देवं संपूज्य पूर्वोक्तशिवो रुद्र इत्यादिद्वादशभिर्नामभिर्द्वादश ब्राह्मणानशक्तावेकं वा संपूज्य तिलपक्कान्नपूरितान्द्वादशकुम्भानेकं वा दत्त्वा दक्षिणां दद्यात्। ततः
यत्कृतं मन्तो हीनं यच्च भक्त्या विना कृतम्।
यच्च दक्षिणया हीनं पूर्णंकुरु महेश्वर।
इति पठित्वा कृतेन शिवरात्रिव्रतेन श्रीसाम्बसदाशिवः प्रीयतामितीश्वरार्पणं कृत्वा यथाशक्ति ब्राह्मणान्भोजयित्वा सति संभवे चतुर्दशीमध्येऽसंभवे तिथ्यन्ते पारणं कुर्यात्। इति शिवरात्रिव्रतानुष्ठानप्रयोगः।अथ शिवप्रसादग्रहणनिर्णयः।
शिवतीर्थप्रसादादिग्रहणे तु परस्परम्।
विरुद्धानि पुराणेषु दृश्यन्ते वचनानानि वै॥
तद्विरोधं पराकर्तुं यत्नोऽयं विष्णुशर्मणा।
क्रियते शिवसंप्रीत्यै विदुषां संशयच्छिदे॥
तत्र बृहज्जाबालोपनिषदि रुद्रभुक्तं भुञ्जीयाद्रुद्रपीतं पिबेद्रुद्राघातंजिघ्रेदिति। ब्रह्मोत्तरखण्डे —
आरोग्यं ज्ञानमैश्वर्यं वर्धते सर्वदेहिनाम्।
रुद्राध्यायेन ये देवं स्नापयन्ति महेश्वरम्॥
तज्जलैः कुर्वते स्नानं ते मृत्युं संतरन्ति च। इति।
तत्रैव प्रकरणान्तरे —
नृत्यवादित्रगीतादि यथावत्परिकल्पयेत्।
नमस्कृत्वाऽथ विधिवत्प्रसादं धारयेत्ततः॥
अग्रेऽपि — तावद्भवनमद्राक्षं न दुग्धमिव सुस्थितम्।
अधुना देवपूजान्ते प्रसादं लब्धुमागताः॥ इति।
स्कान्दे —
शिवस्वामिकमेवान्नं शिवाय विनिवेदयेत्।
विनियोगोपचारेण संतुष्यतिसदाशिवः॥
सर्वलोकैकनाथस्य शंभोः कः किं प्रयच्छति।
उपचारप्रियः शंभुस्तेनैवायं प्रसीदति॥
शिवोपभुक्तस्रग्गन्धमन्नपानादिकं तथा॥
निवेदितमिति प्रोक्तं सर्वपापहरं परम्।
पत्रं पुष्पं फलं तोयमन्नपान्नाद्यमौषधम्॥
अनिवेद्य न भुञ्जीत यदाहाराय कल्पितम्।
तथा पादोदकं पुत्र पत्रं पुष्पं सुखावहम्॥
तथैव धूपशेषश्च दीपशेषो न संशयः।
निर्माल्यं धारयेद्भक्त्या शिरसा पार्वतीपतेः॥
राजसूयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति निश्चितम्। इति।
तिथितत्त्वेऽप्युदाहृतस्कान्दे—
ब्रह्महाऽपि शुचिर्भूत्वा निर्माल्यं यस्तु धारयेत्।
तस्य पापं महच्छीघ्रं नाशयिष्ये महाव्रत॥ इति।
शिरसा धारयेद्भक्त्या यो निर्माल्यमलोभतः।
अहमेव धृतस्तेन सोमः सोमकलाधरः॥
इत्यादीनि विधायकानि \। निषेधाश्च—
स्पृष्ट्वा रुद्रस्य निर्माल्यं सवासा अप्लुतः शुचिः।
इति कालिकापुराणे। स्कान्दे—
शिवनिर्माल्यभोक्तारः शिवनिर्माल्यलङ्घकाः।
शिवनिर्माल्यदातारः स्पर्शस्तेषां हि पुण्यहृत्।
लोभान्न धारयेच्छंभोर्निर्माल्यं न च भक्षयेत्॥
न स्पृशेदपि पादेन लङ्घयेन्नापि नारद। इति।
शैवे—
अनर्हं मम नैवेद्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम्।
मह्यं निवेद्य तत्सर्वं कूप एव विनिक्षिपेत्॥
मक्षिकापादमात्रं यः शिवस्वमुपजीवति।
मोहाल्लोभात्स पच्येत कल्पान्तं नरके नरः॥ इति।
सूतसंहितायां यज्ञवैभवखण्डे षोडशाध्याये—
विशिष्टमन्नं भुञ्जीत चित्तशुद्ध्यर्थमात्मनः।
निर्माल्यं च निवेद्यं च विशेषेण विवर्जयेत्॥ इति।
एतट्टीकायां माधवीयायामागमे सर्वज्ञानोत्तरे—
विसर्जितस्य देवस्य गन्धपुष्प435निवेदनम्।
निर्माल्यं तद्विजानीयाद्वर्ज्यं वस्त्रविभूषणम्॥
अर्चयित्वा तु तद्भूयश्चण्डेशाय निवेदयेत्।
कालोत्तरे —
स्थिरे चरे तथा रत्ने सिद्धलिङ्गे स्वयंभुवि।
लौहे चित्रमये बाणे स्थितश्चण्डो नियामकः॥
सिद्धान्ते नोत्तरे तन्त्रे न वामे न च दक्षिणे।
चण्डद्रव्यं गुरुद्रव्यं देवद्रव्यं तथैव च॥
रौरवे ते तु पच्यन्ते मनसा ये तु भुञ्जते।
इति सिद्धान्तमतपर्यालोचनया गन्धपुष्पादेर्नैवेद्यस्य च चण्डद्रव्यत्वेन सर्वथा वर्ज्यत्वावगतेस्तन्न436 भुञ्जीतेत्यर्थः। वामदक्षिणादितन्त्रान्तरमते तु यत्र चण्डाधिकारोनास्ति तत्र निर्माल्यस्वीकारेऽपि दोषोनास्ति। तथा चोक्तम् —
बाणलिङ्गे चरे लौहे सिद्धलिङ्गे स्वयंभुवि।
प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोऽधिकृतो भवेत्॥ इति।
त्रैविक्रम्यां प्रतिष्ठापद्धतौ तु बाणलिङ्गे च लौहे चेति प्रथमचरणपाठः। अयमेव युक्तो बाणलिङ्गस्य पृथगुपादानात्। पुरुषार्थप्रबोधे भविष्ये —
लिङ्गे स्वायंभुवे बाणे रत्नजे रसनिर्मिते।
सिद्धप्रतिष्ठिते चैव न चण्डाधिकृतिर्भवेत्॥
यत्र चण्डाधिकारोऽस्ति तद्भोक्तव्यं न मानवैः।
चण्डाधिकारोनो यत्र भोक्तव्यं तत्र भक्तितः॥ इति।
परिशिष्टे —
अग्राह्यं शिवनिर्माल्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम्।
शालग्रामशिलासङ्गात्सर्वं याति पवित्रताम्॥
तिथितत्त्वे भविष्ये —
दत्त्वा नैवेद्यवस्त्रादि नाऽऽददीत कथंचन।
त्यक्तं यच्छिवमुद्दिश्य तदादाने न तत्फलम्॥ इति।
स्मृत्यर्थसारे-शैवसौरनिर्माल्यनैवेद्यभक्षणे चान्द्रम्।अभ्यासेद्विगुणम्। अत्यन्ताभ्यासे पतनम्।अन्यनिर्माल्येऽप्यनापद्येवमिति।
अपरार्के—गोग्रासदानान्तरं ब्रह्मपुराणे —
२ घ. ॰स्तदन्नं न °।
विप्रेभ्यस्त्वथ तद्देयं ब्रह्मणे यन्निवेदितम्।
वैष्णवं सात्वतेभ्यश्च भस्माङ्गेभ्यश्च शांभवम्॥
सौरं मृगेभ्यः शाक्तेभ्यो देवभ्यो यन्निवेदितम्।
स्त्रीभ्यश्च देयं मातृभ्यो यद्यत्किंचिन्निवेदितम्॥
भूतप्रेतपिशाचेभ्यो यत्तद्भूमौ निधापयेत्। इति।
स्मृतिसारे —
विप्रेभ्यस्त्वथ तद्देयं ब्रह्मणे यन्निवेदितम्।
वैष्णवं सात्वतेभ्यश्च भस्माङ्गेभ्यश्च शांभवम्॥
सौरं मृगेभ्यः शाक्तेभ्यस्तापिने यन्निवेदितम्।
तापी बौद्धावतारः।
देयं कुमार्यै मातृभ्यो यत्किंचिद्विनिवेदितम्।
वाडवेभ्यस्तु तद्देयं गणेशाय निवेदितम्।\।
भूतप्रेतपिशाचेभ्यो यत्तद्दीनेषु निक्षिपेत्।
यद्योनिदानं नैवेद्यं दातुश्चानवधानतः॥
दाता तद्योनिमाप्नोति तस्माद्देयं तदुत्तमे।
इति सर्वदेवनैवेद्यप्रतिपत्तिरुक्ता। तच्च निर्माल्यं षड्विधम्॥
तदुक्तं सिद्धान्तशेखरादौ —
देवस्वं देवताद्रव्यं निवेद्यं च निवेदितम्।
चण्डद्रव्यं बहिः क्षिप्तं निर्माल्यं षड्विधं स्मृतम्॥
देवस्वं ग्रामभूम्यादिदासीदासचतुष्टयम्।
हेमरूप्यकरत्नादि देवद्रव्यमिति स्मृतम्॥
यत्संकल्पितं437 देवाय पत्रं पुष्पं फलं जलम्।
अन्नपानादि तत्सर्वं निवेद्यमिति कीर्तितम्॥
शिवोपभुक्तस्रग्गन्धमन्नपानादिकं तथा।
निवेदितमिति प्रोक्तं सर्वपापहरं परम्॥
स्थापितं विधिना लिङ्गं सिद्धैर्देवर्षिभिस्तथा।
एतत्त्रिविधनिर्माल्ये चण्डेशाधिकृतः शिवः॥
बहिः क्षिप्तमनर्हं स्यादन्यद्रव्यत्वकारणात्।
पिशाचानां च सर्वेषामधिकारोऽत्र सर्वदा॥
इति षड्डिधनिर्माल्यस्य विहितप्रतिषिद्धत्वेनैच्छिक विकल्पस्वीकारे
श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यादुभौ धर्मावपि स्मृतौ।
स्मृतिद्वैधे तु विषयः कल्पनीय : पृथक्पृथक्॥
इतिवचनविरोधापत्तेव्यवस्थित438विकल्पकल्पनयैव विरोधः परिहर्तव्यः। तत्र व्यवस्थापकाकाङ्क्षायां वायुसंहितायां श्रीकृष्णं प्रति च,उपमन्युना शिवपूजाद्यभिधायोक्तम् —
ततः स्वयं च भुञ्जीत शुद्धमन्नं यथासुखम्।
निवेदितं यद्देवाय439 तच्छेषं चातिशुद्धये॥
श्रद्दधानो न लोभेन न चण्डाय निवेदितम्।
गन्धमाल्यादि यच्चान्यत्तत्राप्येष समो विधिः॥ इति।
अनेन लोभशून्यस्य श्रद्धावतोऽधिकारिणोऽतिशुद्धिप्राप्तये चण्डनिवेदितभिन्ननिवेदितसंज्ञितनिर्माल्यविशेषस्य विधानादेतद्विषयाण्येवरुद्रभुक्तं भुञ्जीयादिति।
‘आरोग्यं ज्ञानमैश्वर्यं वर्धते सर्वदेहिनाम्।
रुद्राध्यायेन ये देवं स्नापयन्ति महेश्वरम्॥
तज्जलैः कुर्वते स्नानम्’
इत्यादीन्युदाहृतवचनानि। अत एव —
येषां पुनर्भवच्छेदं चिकीर्षति महेश्वरः॥
लिङ्गार्चने भवेद्बुद्धिस्तेषामेवात्र भास्कर।
सर्वतीर्थाभिषेकः स्याल्लिङ्गस्नानाम्बुसेवनात्॥
इति काशीखण्डोत्तरार्धैकपञ्चाशत्तमाध्याये। तत्रैव त्रिपञ्चाशत्तमाध्याये —
स्नापयित्वा विधानेन यो लिङ्गस्नपनोदकम्।
त्रिः पिबेत्रिविधं पापं तस्येहाऽऽशु विनश्यति॥
लिङ्गस्नपनवाभिर्यः कुर्यान्मूर्ध्न्यभिषेचनम्।
गङ्गास्नानफलं तस्य जायतेऽत्र विपाप्मनः॥
तस्यास्तदैकया नीतं रत्नेशस्नपनोदकम्।
तदुक्षणात्क्षणादेव तन्मूर्छा विरराम ह॥
श्रद्धावतां स्वभक्तानामुपसर्गे महत्यपि।
नोपायान्तरमस्त्येव विनेशचरणोदकम्॥
ये व्याधयो हि दुःसाध्या बहिरन्तःशरीरिणाम्।
श्रद्धयेशोदकस्पर्शात्ते नश्यन्त्येव नान्यथा॥
सेवितं येन सततं भगवच्चरणोदकम्।
तं बाह्याभ्यन्तरशुचिं नोपसर्पति दुर्गतिः॥
आधिभौतिकतापं च तापं चाप्यधिदैविकम्440।
आध्यात्मिकं तथा तापं हरेच्छ्रीचरणोदकम्॥
इत्यादिकाशीखण्डवचनान्यपि स्वारस्येन संगच्छन्ते।
बाणलिङ्गे स्वयंभूते चन्द्रकान्ते हृदि स्थिते।
चान्द्रायणसमं ज्ञेयं शंभोर्नैवेद्यभक्षणम्॥
पादोदकं दधेद्यस्तु लिङ्गमूर्तेः शिवस्य तु।
प्रक्षालयति तत्तोयं ब्रह्महत्यादिपातकम्॥
इत्यादिभविष्यादित्यपुराणवचनानि च। तथा च लोभशून्यश्रद्धायुक्तस्य शुद्ध्यादिप्राप्तये निवेदितसंज्ञितनिर्माल्यविशेषस्यैव विधानात्,निवेदितभिन्नपञ्चविधनिर्माल्ये निषेधवचनानां प्रवृत्तेः सुवर्णादेर्दानाद्येव।लोभयुक्तस्य तु—
लोभान्न धारयेच्छंभोर्निर्माल्यं न च भक्षयेत्।
इत्यादिभिर्निवेदितस्यापि निषेधात्तस्यापि दानमेव। इदं नैवेद्यग्रहणं चरलिङ्ग एव। स्थावरलिङ्गे तु स्वयं निवेदितेऽप्यन्नादौदेवलकादिदेवसेवकानामेव स्वत्वात्तद्ग्रहणे स्वतो नाधिकारः। देवलकादिनाप्रसादत्वेन दत्तं चेत्तदपि ज्योतिर्लिङ्गस्यैव नैवेद्यभक्षणं नान्यस्य।
ज्योतिर्लिङ्गं विना लिङ्गं यःपूजयति सत्तमः।
तस्य नैवेद्यनिर्माल्यभक्षणात्तप्तकृच्छ्रकम्॥
इति निषेधाद्भक्षणार्हं न ग्राह्यम्। किंतु धार्यं पुष्पाद्येव ग्राह्यम्।तीर्थं तु श्रद्धायुक्तेन सर्वत्र स्वयमपि ग्राह्यम्।
स्नापयित्वा विधानेन यो लिङ्गंस्नापनोदकम्। त्रिः पिबेत्।
इत्यादीनां सर्वलिङ्गविषयत्वात्। प्रायश्चित्तवचनान्यपि विहितातिरिक्तनिर्माल्यविषयाणि। नन्वेवं चरलिङ्गे सर्वत्र नैवेद्यार्ग्राह्यत्वे
अग्राह्यं शिवनिर्माल्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम्।
शालग्रामशिलासङ्गात्सर्वं याति पवित्रताम्॥
इतिवचनविरोधो दुष्परिहर एवेति चेन्न। शैवे जैमिनिः —
अनर्हं मम नैवेद्यं पादाम्बु कुसुमं जलम्।
इतीश्वरेण कथितमिति केचिन्महर्षयः॥
वदन्ति तत्कथं स्वामिन्यथार्थं कथयस्व मे।
व्यास उवाच —
देवदेवस्य वचसो विषयोऽयं हि जैमिने।
ये वीरभद्रशपिताः शिवभक्तिपराङ्मुखाः॥
शंभोरन्यत्र देवेषु ये भक्ता ये न दीक्षिताः।
तेषामनर्हमीशस्य तत्प्रसादचतुष्टयम्॥
इत्यनेन त्रिविधानामेषां शिवप्रसादग्रहणानर्हत्वं प्रतिपादितं तदेवाग्राह्यमिति पूर्वार्धेनानूद्यैतैरपि यदा पञ्चायतनपूजादौ शालग्रामेणसह शिवपूजा क्रियते तदा तैरपि ग्राह्यमिति शालग्रामेत्युत्तरार्धेनबोध्यत इति विषयभेदान्न विरोधशङ्काऽपीति। तस्माल्लोभशून्येन श्रद्धावता पूजकेन शुद्ध्यादिफलप्राप्तये चण्डांशातिरिक्तनैवेद्यादेर्ग्रहणं कार्यमिति सर्ववाक्याविरोधेनैव सिद्धमिति विपश्चितो विदांकुर्वन्तु। यत्तुब्रह्महाऽपि शुचिर्भूत्वेति वचने शुचिः स्नानादिनेत्यर्थः। एवं च स्पृष्ट्वारुद्रस्येति वचनमशुचिविषयम्। अनुपनीतविषयमिति श्रीदत्तः। अग्राह्यंशिवनिर्माल्यमिति वचनात्पञ्चायतनपूजायामेव ग्राह्यमिति तिथितत्त्वउक्तम्। तद्दृष्वाकालतत्त्वविवेचननिर्णयसिन्ध्वाद्यर्वाचीनग्रन्थेऽपि तथैवोक्तम्। तत्र प्रथमपक्षे स्नातस्य लुब्धस्यापि यथेच्छाचारापत्तौ लोमान्नधारयेच्छंभोर्निर्माल्यमित्यादिवचनवैयर्थ्यापत्तिः। द्वितीयपक्ष उपनीतस्य सर्वस्य यथेच्छाचरणापत्तौ निर्माल्यग्रहणादौ प्रायश्चित्तवचनवैयर्थ्यापत्तिश्चानुपनीतस्य कामचारकामभक्षस्याभ्यनुज्ञानात्तद्विषयत्वासंभवात्। तृतीयपक्षे केवलशिवपूजायां विनियुक्तनैवेद्यादिविधायकोदाहृतानेकवचनवैयर्थ्यामिति बोध्यम्।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे शिवरात्रिपूजाशिवप्रसादग्रहणनिर्णयः।
अथ पूर्णिमा निर्णीयते —
सा च सावित्रीव्रतातिरिक्तोपवासादौ परैव ग्राह्या। तदुक्तं हेमाद्रौ441माधवाद्युदाहृतविष्णुधर्मोत्तरे —
एकादश्यष्टमी षष्ठी पौर्णमासी चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥ इति।
भूतविद्धान कर्तव्या दर्शः पूर्णा कदाचन।
वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्रीव्रतमुत्तमम्॥ इति।
तदुदाहृतब्रह्मवैवर्तवचनेन पूर्वविद्धानिषेधाच्च। सावित्रीव्रते तु पूर्वविद्धैव ग्राह्या चतुर्दश्या च पूर्णिमेति युग्मवाक्यात्
पूर्वविद्धा तु कर्तव्या सप्तमी व्रतिभिर्नरैः।
पौर्णमासी महीपाल पुराणे निश्चयं गता॥ इति।
बृहत्तपा तथा रम्भा सावित्री वटपैतृकी।
कृष्णाष्टमी च भूता च कर्तव्या संमुखी तिथिः॥ इति।
सावित्रीव्रतसंबन्धिनी पूर्णिमा वटपैतृकी वटसावित्रीव्रतसंबन्धिन्यमावास्येत्यर्थः।
कृष्णाष्टमी बृहत्तपा सावित्री वटपैतृकी।
अनङ्गत्रयोदशी रम्भा उपोष्याःपूर्वसंयुताः॥
इति हेमाद्र्युदाहृतपाद्मस्कान्दनैगमवाक्यैश्च पूर्वविद्धाया एव विधानात्।
प्रतिपत्पञ्चमीभूतसावित्रीवटपूर्णिमा(माः)।
नवमी दशमी चैता नोपोष्याः परसंयुताः॥
इति निर्णयामृतमदनरत्नोदाहृतब्रह्मवैवर्तेन
षष्ठ्येकादश्यमावास्या पूर्वविद्धा तथाऽष्टमी॥
पूर्णिमा परविद्धा च नोपोष्यं चैव पञ्चकम्।
इति हेमाद्रिमदनरत्नोदाहृतपाद्मेन चोत्तरविद्धानिषेधाच्च।
अवटा पूर्णिमा चामा परान्विता442 सदा पूज्या।
सावित्र्यमा पौर्णमासी उपोष्याःपूर्वसंयुताः॥
इति कालादर्शे हेमाद्रिनिर्णयामृतमदनरत्नेषु चेत्थमेव व्यवस्थापितम्। एवं सति सावित्रीव्रते पौर्णमासी पूर्वविद्धा ग्राह्या, व्रतान्तरे तु परविद्धैवकर्तव्येति परस्परविरुद्धस्य विष्णुधर्मोत्तरपद्मपुराणवचनस्य व्यवस्था।
यदा तु चतुर्दश्यष्टादशनाडिका भवति, तदा सावित्रीव्रतमपि तत्रपरित्याज्यम्।
भूतोऽष्टादशनाडीभिर्दूषयत्युत्तरां तिथिम्।
इति स्मृतेरमावास्यायामपिसावित्रीव्रतं पूर्वदिने व्रतान्तराण्युत्तरदिने, पौर्णमासीवदेव व्यवस्था। अत्र प्रमाणंपूर्वविद्धान कर्तव्येतिब्रह्मवैवर्तवचनम्। स्कन्दपुराणेऽपि —
भूतविद्धा सिनीवाली न तु तत्र व्रतं चरेत्।
वर्जयित्वा तु सावित्रीव्रतं तु शिखिवाहन ॥ इति।
एवं च सति युग्मशास्त्रं सावित्रीव्रतव्यतिरिक्तव्रतेषु द्रष्टव्यम्
प्रचेता अपि—नागविद्धा तु या पष्ठी सप्तम्या च युताऽष्टमी।
दशम्येकादशीविद्धात्रयोदश्या चतुर्दशी॥
भूतविद्धाऽप्यमावास्या न ग्राह्या मुनिपुंगव।
उत्तरोत्तरविद्धास्ताः कर्तव्याः काठकी श्रुतिः॥
पाद्मे —
षष्ठ्यष्ठमी तथा दर्शःकृष्णपक्षे त्रयोदशी।
एताः परयुताः कार्याःपराःपूर्वेण संयुताः॥
यत्तु नारदीयपुराणम् —
दर्शं च पौर्णमासं च पितुः सांवत्सरं दिनम्।
पूर्वविद्धमकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते॥
इति, तत्सावित्रीव्रतविषयमिति।माधवग्रन्थस्तु यथाश्रुतः परस्परव्याघातादबोधक एव। तथा हि यदा त्वित्यादिस्मृतेरित्यन्तग्रन्थादष्टादशनाडीचतुर्दशीसत्त्वे सावित्रीव्रतमप्युत्तरविद्धायां कर्तव्यमिति प्रतीयते,तत्स्वीकारे सावित्रीव्रतं पूर्वविद्धायां, व्रतान्तरमुत्तरविद्धायामिति व्यवस्थाप्रतिपादकपूर्वग्रन्थ उत्तरग्रन्थश्चासंगतः स्यात्। एतत्स्वीकारे मध्यमग्रन्थोऽसंगतः। एवं व्याघातादबोधकत्व प्राप्तौ तत्परिहारार्थमेकस्य यथाश्रुतार्थपरत्वमन्यस्य यथाकथंचिन्नयनमित्येवाङ्गीकार्यम्। तत्र नियामकाकाङ्क्षायां व्यवस्थायामनेकवाक्यानुग्रहाद्विप्रतिषिद्ध443धर्मसमवाये भूयसां स्यात्सधर्मत्वमिति न्यायाह्यवस्थाग्रन्थ एव यथाश्रुतार्थक इति निश्चये444यदा तु चतुर्दश्यष्टादशनाडिका भवति, तदा सावित्रीव्रतमपि तत्र
त्याज्यमेतदग्रेकिमुत व्रतान्तरमिति शेषपूरणेन कैमुतिकन्यायेन सावित्रीव्रतभिन्नव्रतविषयत्वेनैव योज्यः। एवं सति सर्ववचनैः सर्वनिबन्धैश्चमाधवस्यैकवाक्यता भवतीत्यत्रैवार्थे माधवतात्पर्यमिति बोध्यम्।
पूर्वविद्धैवसावित्रीव्रते पञ्चदशी तिथिः।
नाड्योऽष्टादश भूतस्य स्युश्चेत्तच्चपरेऽहनि॥
इति माधवसंग्रहवाक्येऽपि भूतस्याष्टादश नाड्यश्चेत्स्युस्तत्तथाऽपिपरेऽहनि सावित्रीव्रतेऽङ्गतया विहित इष्टे पूर्वेऽहनीत्यर्थः। परशब्दस्येष्टपरत्वस्यापि विप्रतिषेधे परमिति सूत्रे महाभाष्य उक्तत्वात्। ननु बृहत्तपाइत्यादिस्कान्दादीनामुत्सर्गत्वकल्पनया भूतोऽष्टादशनाडीभिरित्यस्यापवाद445कत्वकल्पनया माधवग्रन्थस्य बोधकत्वं सूपपन्नमेव। अत एव पूर्वविद्धयोः पञ्चदश्योः कर्तव्यत्वेनोक्तमपि सावित्रीव्रतं नवमुहूर्तचतुर्दशीविद्धयोर्न कर्तव्यं भूतोऽष्टादशनाडीभिरितिवचनादिति माधव इति, कालतत्त्वविवेचनादिनवीनग्रन्थाः सं446गृह्यन्त इति चेन्न। स्कान्दादीनां प्रतिपदवाक्यत्वेन भूतोऽष्टादशेत्यस्य सामान्यवाक्यतया स्कान्दाद्यपवादकत्वस्यमाधवेन वक्तुमशक्यत्वात्। न च प्रतिपदवाक्यानां माधवेनानुपन्यासान्नानुपपत्तिरिति शङ्क्यम्। सावित्रीव्रतस्याप्युत्तरविद्धायां स्वीकारेब्रह्मवैवर्तस्य व्यवस्थापकत्वासंभवेन परस्परविरोधे सति या व्यवस्था,सा ब्रह्मवैवर्ते दर्शितेति ग्रन्थस्य प्रतिपद्यव्यमावास्येति शास्त्रं सावित्रीव्रतातिरिक्तविषयमिति ग्रन्थस्य चासंगत्यापत्तेः। तस्मात्सर्ववाक्याणां हेमाद्रिमाधवादीनां चैकवाक्यतयैव सावित्रीव्रते पूर्णिमा पूर्वविद्धा,व्रतान्तर उत्तरेति निर्णयः सिद्धः। एतेन यद्भूत उत्तरां तिथिं दूषयतितदष्टादशनाडीभिरिति यत्र पूर्वविद्धा निषिद्धा, तत्रैवायं विशेषविधिः।इति भूतविद्धा447 न कर्तव्येत्यस्य शेषोलाघवादिति सावित्रीव्रत एतस्य प्रवृत्तिर्न युक्ता। किंत्वितरव्रतेष्वेव त्रिमुहूर्तसामान्यवेधबाधेनेति कालतत्त्वविवेचनोक्तं माधवदूषणमुपेक्ष्यम्। माधवतात्पर्यार्थापर्यालोचनमूलत्वात्। व्रतान्तर उत्तरविद्धाविधानेनैव पूर्वविद्धासामान्यनिवृत्तेरार्थिकत्वाद्विशेषोपपादनस्य वैयर्थ्यात्। अत एवाष्टादशदण्डचतुर्दशीसत्त्वेसावित्रीव्रते माधवेनापवाद उक्तो न तु हेमाद्रिणा। अस्यां विप्रतिपत्तौ
माधवमतमयुक्तमिति द्वैतनिर्णयो निरालम्बन एव। माधवतात्पर्यार्थपर्यालोचने विप्रतिपत्तेरेवाभावादिति दिक्। इति पूर्णिमासामान्यनिर्णयः।
संवत्सरकृतार्चायाः साफल्यायाखिलान्सुरान्।
दमनेनार्चयेच्चैत्र्यां विशेषेण सदाशिवम्॥
इति वायुपुराणे चैत्र्यां दमनेन पूजोक्ता। तत्र पौर्वाह्णिकास्तु तिथय इत्युदाहृतवचनात्पौर्वाह्णिकी पूर्णिमा ग्राह्या। इति चैत्री।ज्यष्ठपूर्णिमायां
ज्येष्ठमासे तु संप्राप्ते पौर्णमास्यां पतिव्रता।
स्नात्वा चैव शुचिर्भूत्वा वटं सिञ्चेद्बहूदकैः॥
इत्यादिना स्कान्दे पूर्णिमायाम्।
अमायां च तथा ज्येष्ठे वटमूले महासती।
त्रिरात्रोपोषिता नारी विधिनाऽनेन पूजयेत्॥
अशक्तौतु त्रयोदश्यां नक्तं कुर्याज्जितेन्द्रिया।
अयाचितं चतुर्दश्याममायां समुपोषणम्॥
इति भविष्येऽमायां च सावित्रीव्रतमुक्तम्। तत्र पूर्णिमाऽमावास्येपूर्वविद्धेग्राह्ये।
बृहत्तपा तथा रम्भा सावित्री वटपैतृकी।
कृष्णाष्टमी च भूता च कर्तव्या संमुखी तिथिः॥
इत्याद्युदाहृतवचनात्। इति ज्यैष्ठी। आषाढ्यां भारभूतेश्वरयात्रोक्ता काशीखण्डे —
उदीच्यां भारभूतेशमाषाढेशं समर्चयेत्।
आषाढ्यां पञ्चदश्यां वै न पापैः परितप्यते॥
कृत्वा सांवत्सरीं यात्रामनेना जायते नरः ॥ इति।
तत्रापि पौर्वाह्णिकी।
एकरात्रं वसेद्ग्रामेपत्तने तु दिनत्रयम्।
पुरे दिनद्वयं भिक्षुर्नगरे पञ्चरात्रकम्॥
वर्षास्वेकत्र तिष्ठेत स्थाने पुण्यजनान्विते।
आत्मवत्सर्वभूतानि पश्यन्भिक्षुश्चरेन्महीम्448॥
आषाढ्यां पौर्णमास्यां च कारयेद्वपनं यतिः॥
चातुर्मास्यस्य मध्ये तु वर्जयेद्वपनं यतिः।
इत्यादिभिः संन्यासि449नामेकत्रावस्थानं वपनं व्यासपूजा चोक्ता। तत्रौदयिकी पूर्णिमा ग्राह्या।
त्रिमुहूर्ताधिकं ग्राह्यं पर्व क्षौरप्रणामयोः।
इति विश्वेश्वर्यामुदाहृतवचनात्। इति आषाढी। श्रावण्यां
ततोऽपराह्णसमये रक्षापोटलिकां शुभाम्।
कारयेदक्षतैः शस्तैः सिद्धार्थैर्हैमभूषिताम्॥
वस्त्रेर्विचित्रैःकार्पासैःक्षौमैर्वा मलवर्जितैः।
विचित्रग्रन्थिग्रन्थितां स्थापयेद्भाजनोपरि॥
उपलिप्ते गृहे चैव सुचतुष्के न्यसेद्भुवि।
तस्योपरि विशेद्राजा सामात्यः सपुरोहितः॥
पुरोधा नृपते रक्षां बध्नीयान्मन्त्रतः सुधीः।
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः॥
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रैरन्यैश्च मानवैः॥
कर्तव्यो रक्षिकाचारो द्विजान्संपूज्य यत्नतः।
अनेन विधिना यस्तु र450क्षिकाबन्धमाचरेत्॥
स सर्वदोषरहितः सुखं संवत्सरं नयेत्।
इति451 भविष्योत्तरे रक्षाबन्ध उक्तः। अत्रापराह्णइत्युक्तत्वादपराह्णोमुख्यः कालः। तत्रोभयदिनेऽपराह्णसत्त्वे
पूर्वविद्धा न कर्तव्या दर्शःपूर्णा कदाचन।
वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्रीव्रतमुत्तमम्॥ इति,
भूतोऽष्टादशनाडीभिर्दूषयत्युत्तरां तिथिम्।
इत्याभ्यां पूर्वानिषेधात्कर्मणो यस्य यः काल इत्यस्मादुत्तरा ग्राह्या।यदा द्वितीयापराह्णात्पूर्वं समाप्ता, तदाऽपि श्रावणी दुर्गनवमीति वचनं पवित्रारोपणविषयमिति निर्णयामृतमदनरत्नादिभिरुक्तत्वात्।
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा॥
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्रामं दहति फाल्गुनी।
इति भद्रायां निषेधादुत्तरैव। तत्रापराह्णात्पूर्वमनुष्ठानेऽपराह्णस्यबाधः। अपराह्णेतु साकल्यवचनापादिततिथिसत्त्वात्तत्रैवानुष्ठानम्।यदा तूत्त452रदिनेमुहूर्तद्वयान्न्यूना तदाऽपराह्णेसाकल्यवचनापादितायाअप्यभावात्।
प्रदोषपश्चिमौयामौ दिनवत्कर्म चाऽऽचरेत्।
इति पराशरात्, भद्रान्ते प्रदोषयामेऽनुष्ठानम्। न चानुपादेयाङ्गकालबाधो न युक्त इति शङ्क्यम्। भद्रान्तर्गतस्य निषिद्धत्वेनाङ्गत्वाभावादङ्गभूतकालबाधस्यैवायुक्तत्वात्। एतेनोभयत्रापराह्णव्याप्तौ पूर्वेति कृत्यरत्नावलिः
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये फाल्गुनी श्रावणी तथा।
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्रामं दहति फाल्गुनी॥
इतिनिषेधादुपेक्ष्या। श्रावणपौर्णमास्यामपि पवित्रारोपणमुक्तं हेमाद्रौशिवधर्मभविष्यत्पुराणयोः —
पौर्णमास्यां तथा453षष्ठ्यां शिवं संपूज्य यत्नतः।
उपवीतं शिवे दद्याच्छिवभक्तांश्च भोजयेत्॥
पुनरेव च कार्तिक्यां पूज्य शंभुं क्षमापयेत्।
यतिभ्यो दक्षिणां दद्यात्सत्रवस्त्रादिपूर्विकाम्॥
यः कुर्यात्सकृदप्येवं चातुर्मास्यं पवित्रकम्।
कल्पकोटिशतं दिव्यं रुद्रलोके महीयते॥ इति।
हेमाद्रौशिवरहस्ये —
पवित्रारोपणं शंभोः कुर्यान्नभसि वा शुचौ।
चतुर्दश्यामथाष्टम्यामधिवास्य विधानतः॥
श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वा पवित्रारोपणं तु यः।
कुरुते नापवित्रं स्यात्तस्य संवत्सरान्तरा॥
शंभोःपवित्रमारोप्य रिक्तः संपूर्णतामियात्।
पवित्रं तु पवित्राख्यं सान्वयं भृगुनन्दन॥
अपवित्रं पवित्रं स्याद्देहकर्माखिलं नृणाम्॥ इति।
तत्र कर्मणो यस्य यः काल इति वचनात्पूजाकालव्यापिनी पौर्णमासी ग्राह्येति। अत्रैव च श्रावण्यां श्रवणकर्मेति आश्वलायनेन
श्रवणाकर्मोक्तम्। तत्रास्तमिते स्थालीपाकं श्रपयित्वेत्युक्तत्वात्पूर्वदिन एवास्तमयव्याप्तौ पूर्वाऽन्यथोत्तरेति। केचित्तु पूर्णिमाशब्दस्यान्त्यक्षणोपलक्षणत्वात्तदुपलक्षितेऽहोरात्रे कार्यमिति वदन्ति। तत्रोपलक्षणत्वेप्रमाणं चिन्त्यम्। अथोपाकर्मकालनिर्णयः। तत्र याज्ञवल्क्यः —
अध्यायानामुपाकर्म श्रावण्यां श्रवणेन तु।
हस्तेनौषधिभावे वा पञ्चम्यां श्रवणस्य तु॥ इति।
अधीयन्त इत्यध्याया वेदास्तेषामुपाकर्म प्रारम्भः श्रावण्यां श्रावणमासस्य पौर्णमास्यां श्रवणेन युक्तायां कस्यांचित्तिथौ हस्तयुक्तायांतत्पञ्चम्यां वा कार्यः। ओषधिप्रादुर्भावे श्रावणस्येति च सर्वत्रसंबध्यते। एतेषां कालानां स्वगृह्यानुसारेण ग्राह्यत्वं बोध्यम्। तत्राऽऽश्वलायनगृह्यम् —अथातोऽध्यायोपाकरणमोषधीनां प्रादुर्भावे श्रवणेनश्रावणस्य पञ्चम्या हस्तेन वेति। तत्कालमाह —ओषधीनामिति। श्रावणमासस्य श्रवणेन कर्तव्यम्। ओषधीनामितिवचनं यदा श्रावणे प्रादुर्भावो न स्यात्तदा भाद्रपदे श्रवणेन कर्तव्यमित्येवमर्थम्। श्रावणात्पूर्वं वृष्ट्यपकर्षे भाद्रपदादुर्ध्वमुत्कर्षे वोपाकर्मापकर्षोत्कर्षशङ्का न कार्या।तद्वार्षिकमित्याचक्षत इति वक्ष्यमाणसमाख्याबलात्। पञ्चम्यामित्यत्रापि श्रावणस्येति संबध्यते मध्यगतत्वात्प्रयोजनवत्त्वाच्च। श्रावणमासस्यपञ्चमी यदा हस्तेन युज्यते, तदा वेत्यर्थः। एवं च कालत्रयमुक्तं भवति तत्तु वृत्तिग्रन्थात्। यद्यपि कालत्रयस्य साम्यं प्रतीयते, तथाऽपि
धनिष्ठाप्रतिपद्युक्तं त्वाष्ट्रऋक्षसमन्वितम्।
श्रावणं कर्म कुर्वीरन्नृग्यजुःसामपाठकाः॥
इत्याद्यनेकस्मृतिवाक्येषु श्रवणपौर्णमासीहस्तानामेव प्रतीतेर्बह्वृचादीनां श्रवणादयो मुख्यतरा इति बोध्यम्। *श्रावणस्तु मासप्रकरणोक्तमेषादिस्थे सवितरीत्यादिवचनात्सिंहस्थे सवितरि समाप्तदर्शकःशुक्लादिर्बोध्यः। + तत्र
भवेदुपाकृतिः पौर्णमास्यां पूर्वाह्णएव तु।
ब्राह्मणान्भोजयेत्तत्र पितॄनुद्दिश्य देवताः॥
* घ. पुस्तके बोध्यमित्यस्मादूर्ध्वं, कारिकाऽपि — अध्यायानामुपाकर्म श्रावण्यां श्रवणेन तु। तन्मासेहस्तयुक्तायां पञ्चम्यां वा तदिष्यते। अवृष्ट्यौषधयस्तस्मिन्मासे तु न भवन्ति चेत्। तदा भाद्रपदेमासि श्रत्रणेन तदिष्यते। इति। इत्यभिकं वर्तते। + घ. पुस्तके बोध्य इत्यस्मादूर्ध्वं तत्रापि संपूर्णं श्रवणं न कर्मकालः। किंतु पूर्वाह्णेदैविकं कर्मेत्यादिपूर्वोदाहृतसामान्यवाक्यादित्यधिकं वर्तते।
इति हेमाद्रौबार्हत्प्रचेतसात्,
संप्राप्ते श्रावणस्यान्ते पौर्णमास्यां दिनोदये।
स्नानं कुर्वीत मतिमाञ्श्रुतिस्मृतिविधानतः॥
ततो देवानृषींश्चैव तर्पयेत्परमाम्भसा।
उपाकर्मादि चैवोक्तमृषीणां चैव तर्पणम्॥
कुर्वीत ब्राह्मणैः सार्धं वेदानुद्दिश्य शक्तितः।
इति भविष्योत्तराच्चोपाकर्मणः पौर्वाह्णिकत्वनिश्चयात्। पूर्वाह्णस्तु यद्यपि चतुर्विधः पूर्वमुक्तस्तथाऽपि योऽयं कालमपेक्ष्य सूक्ष्मः, स तस्मात्प्रशस्त इति पञ्चधाविभागपक्षादन्येऽनुकल्पत्वेन ग्राह्या इति हेमाद्रौमाधवादिभिः सिद्धान्तितत्वात्। मुहूर्तत्रयात्मकःप्रातःकाल एव मुख्यःपूर्वाह्णः। तदवच्छिन्नस्यैव मुख्यं कर्मकालत्वं तत्र यदा पूर्वसूर्योदयमारभ्य श्रवणं प्रवृत्तं द्वितीयसूर्योदयोत्तरं मुहूर्तत्रयपरिमितं भवति,तदा यद्यपि
पर्वण्यौदयिके कुर्युः श्रावणं तैत्तिरीयकाः।
बह्वृचाःश्रवणे कुर्युर्हस्तर्क्षेसामवेदिनः॥
इति गोभिलवाक्यम्
पर्वण्यौदयिके कुर्युः श्रावणं तैत्तिरीयकाः।
बह्वृचाःश्रवणे कुर्युर्ग्रहसंक्रान्तिवर्जिते॥
इति बह्वृचपरिशिष्टवाक्यमुभयत्र समानपक्षपाति, तथाऽपि सत्रपूर्वानुष्ठाने
धनिष्ठासंयुतं कुर्याच्छ्रावणं कर्म यद्भवेत्।
तत्कर्म सफलं विद्यादुपाकरणसंज्ञितम्॥
धनिष्ठाप्रतिपद्युक्तं त्वाष्ट्रऋक्षसमन्वितम्।
श्रावणं कर्म कुर्वीरन्नृग्यजुःसामपाठकाः॥
इति व्यासपरिशिष्टवाक्ययोर्निर्विषयत्वापत्तेरुत्तरत्रैवानुष्ठानम्। न चात्रैव यदा पूर्वसूर्योदयं विहाय श्रवणप्रवृत्तिस्तत्रानयोः सावकाशतेतिशङ्क्यम्। तत्र पूर्ववाक्याभ्यामुत्तरत्रैव विधानेनानयोरसाधारणविषयलाभासंभवात्। न च संपूर्णत्वाद्गौणकाल454सत्वाच्च पूर्वदिन एव भवत्विति शङ्क्यम्। प्रातःकालावच्छिन्नस्यैवाङ्गत्वेन संपूर्णत्वस्य प्रकृतानुप-
योगाद्गौणकालव्याप्तेर्विरुद्धवचनाभाव उपष्टम्भकत्वेऽपि प्रकृते धनिष्ठासंयुतमित्यादिवचनविरोधेनोपष्टम्भकत्वासंभवात्। अत एव श्रवण आदौ घटिकाचतुष्टयमभिजिन्नक्षत्रांशं वर्ज्यमिति स्मृत्यर्थसारःसंगच्छते। यदासूर्योदयमारभ्यप्रवृत्तं द्वितीयदिने किंचिन्न्यूनमुहूर्तत्रयं भवति, तदा मुहूर्तत्रयस्यैव मुख्यत्वात्तस्योत्तरत्वाभावात्पूर्वदिने संपूर्णत्वसंभवेऽनुकल्परूपमुहूर्तद्वयसत्त्वमादाय धनिष्ठासंयुतमित्यादेरप्रवृत्तेः पूर्वदिन एवानुष्ठानम्। एवं यदा मुहूर्तत्रयानन्तरं प्रवृत्तं द्वितीयदिने नास्ति, तत्रापि
उपाकर्म प्रकुर्वन्ति क्रमात्सामर्ग्यजुर्विदः।
ग्रहसंक्रान्त्ययुक्तेषु हस्तश्रवणपर्वसु॥
इति हेमाद्र्युदाहृतवचनात्तत्रैव। न च पूर्वाह्णेश्रवणाभावात्कथमनुष्ठानमिति शङ्क्यम्।
त455न्नाक्षत्रमहोरात्रं यस्मिन्नस्तमियाद्रविः।
यस्मिन्नुदेति सविता त456न्नाक्षत्रं भवेद्दिनम्॥
इति माधवोदाहृतमार्कण्डेयवचनापादितस्य सत्त्वात्। यदा तु पूर्वदिनेमुहूर्तानन्तरं प्रवृत्तं द्वितीयदिने मुहूर्तद्वयपरिमितं श्रवणं तत्रापि
उदिते दैवतं भानो पित्र्यं चास्तमिते रवौ।
द्विमुहूर्तं त्रिरह्नश्च सा तिथिर्हव्यकव्ययोः॥
इति457 वचने भानावुदिते सत्युत्तरकालेऽह्नोमुहूर्तद्वयं देवं देवदैवत्यंतस्मिंश्चास्तमिते तत्पूर्वकालेऽह्नो मुहूर्तत्रयं पित्र्यं पितृदैवत्यम्। अतस्तावत्कालव्यापिनी या तिथिर्भवति, सैव क्रमाद्धव्यकव्ययोर्ग्राह्येति हेमाद्रिमाधवाभ्यां *सिद्धान्तितत्वात्तिथिवन्नक्षत्रस्यापि निर्णेयत्वात्कर्मकालव्याप्तिवचनानुग्रहसाम्ये व्यवस्थापकप्रवृत्तेर्युक्तत्वाद्धनिष्ठासंयुतमित्यादिवचनैरुत्तरदिन एव। अत एव श्रवणं धनिष्ठासंयुतं प्रयोगपर्याप्तं ग्राह्यमिति स्मृत्यर्थसारे प्रयोगपर्याप्तिपर्यन्तानुधावनं सार्थकमिति। नन्वेवं
* घ. ज. पुतकयोः– उदयाद्विमहूर्तव्यापिन्यां दैवं कर्म, अस्तमयत्रिमुहूर्तव्यापिन्यां पित्र्यं कर्मकार्यमिति निर्णयामृतेन, इदं चोदयास्तमयकालिकतिथेः संपूर्णत्वाभिधानं यदोदयादूर्ध्वं मुहूर्तत्रयं मुहूर्तद्वयं वा विहिततिथिर्भवति, अस्तात्प्राङ्मुहूर्तत्रयं तदावगन्तव्यमिति मदनरत्नेन चेत्यधिकं वर्तते
पूर्वदिने मुहूर्तद्वयानन्तरं प्रवृत्तं श्रवणं द्वितीयदिने मुहूर्तमात्रं विद्यते,तत्राप्युत्तरग्रहणापत्तिः
उदयव्यापिनि त्वेव विष्ण्वृक्षे घटिकाद्वयम्।
तत्कर्म सफलं ज्ञेयं तस्य पुण्यं त्वनन्तकम्।
इति प्रयोगपारिजातोदाहृतवचनादिति चेन्न॥
व्रतोपवासनियमे घटिकैका यदा भवेत्।
उदये सा तिथिर्ग्राह्या विपरीता तु पैतृके॥
इत्यादीनामिवास्यापि कैमुतिकन्यायेन द्विमुहूर्तादिव्याप्तिस्तावकत्वेनविधायकत्वासंभवा458दिति दिक्। एवं पूर्णिमाऽपि यदा पूर्वसूर्योदयमारभ्यप्रवृत्ता, तदा संदेह एवनास्ति। यदा पूर्वदिने मुहूर्ताद्यनन्तरं प्रवृत्ताद्वितीयदिने मुहूर्तद्वयादिपरिमिता भवति, तदा
धनिष्ठाप्रतिपद्युक्तं त्वाष्ट्रऋक्षसमन्वितम्।
श्रावणं कर्म कुर्वीरन्नृग्यजुःसामपाठकाः॥
इति वचनादुत्तरदिन एव सर्वेषां प्राप्तम्। तत्र
पर्वण्यौदायिके कुर्युः श्रावणं तैतिरीयकाः॥
बह्वृचाःश्रवणे कुर्युर्ग्रहसंक्रान्तिवर्जिते।
इतिबह्वृचगृह्यपरिशिष्टवचनात्तैत्तिरीयकैरुत्तरदिने तैत्तिरीयकभिन्नयाजुषैः पूर्वदिने कर्तव्यमिति। हेमाद्रिणाऽपि नैतद्युज्यते पर्वण्यौदयिकेयदुपाकर्म तैत्तिरीयका एव कुर्युरिति वक्तुं विशिष्टानुवादे वाक्यभेदप्रसङ्गादिति मतमुपन्यस्य, तद्युक्तम्, उद्देश्यविशेषणविवक्षायां हि स न तुविशिष्टोद्देशे। प्रपञ्चितं चैतद्भवदेवेन — योऽत्र विप्रतिपद्यते तं प्रतिविशिष्टविध्याश्रयणेन परिहारो वक्तव्य इति। अपि च पूर्वोदाहृतवचनैरौदयिके पर्वण्युपाकर्मप्राप्तेरनुवादोपपत्तेः कर्मण्यपि च459कर्तृविधिरुपपन्नोऽप्राप्तविषयत्वाद्विधेः। नच संबन्धद्वयविधानाद्वाक्यभेदो विशिष्टविध्याश्रयणाद्ग्रन्थकर्तृभेदेन पौनरुक्त्यपरिहारात्। अन्यथा सर्वस्मृत्युच्छेदापत्तेरित्यादिना460 परिहृत्य तस्मादेवं व्यवस्था यदेकस्मिन्नेव दिनेकर्मकालव्यापि पर्व तदा सर्वेषां तत्रोपाकर्म। यदा तु दिनद्वयेऽपि कर्मकालव्यापि न वा तदा तैत्तिरीयाणामौदयिके पर्वण्युपाकर्म, अन्येषां
त्वन्यत्रेत्युपसंहृतम्। तत्र श्रावणपौर्णमास्याःसूर्योदयमारभ्य प्रवृत्ताया द्वितीयदिने मुहूर्तत्रयसत्त्वस्यासंभवाद्दिनद्वयेसंपूर्णकर्मकालव्या461पीतिनार्थःकिंतु द्वितीयेऽपि प्रयोगपर्याप्तमित्यर्थः। न462वेति पूर्वदिने मुहूर्तानन्तरं प्रवृत्तं द्वितीयदिने मुहूर्तद्वयापरिमितं वेत्यर्थः। यथाश्रुतार्थपरत्वेपूर्वदिने मुहूर्तत्रयानन्तर प्रवृत्तं463 ह्रासवशाद्द्वितीयदिने नास्ति तत्राप्युत्तरत्रापत्तौ यदैकस्मिन्दिने कर्मकालव्यापि तदा सर्वेषां तत्रैवेत्यसंगतंस्यादिति। एतेन ह्यहगा तु कर्मसमयं व्याप्नोति सा चेन्न वा कार्या तित्तिरशाखिभिः परदिने पूर्वेतरैर्याजुषैरिति दीपिका यथाकथंचिदुक्तार्थपरतया नेया \। यथाश्रुता त्वसंगतेति बोध्यम्। तथा च कर्मकालव्याप्तिवाक्यानुग्रहसाम्ये धनिष्ठेतिवाक्यविहितं यत्प्रतिपयुक्तौदयिके पर्वण्युपाकर्मण्युपाकर्म तैत्तिरीयका एव कुर्युरिति वाक्यार्थे सिद्धेऽन्येषाम्
उपाकर्म प्रकुर्वन्ति क्रमात्सामर्ग्यजुर्विदः।
ग्रहसंक्रान्त्ययुक्तेषु हस्तश्रवणपर्वसु॥
इति वचनात्पूर्वदिन एवेति व्यवस्था युक्तेत्याशयः। एतेन तैत्तिरीयकातिरिक्तैर्यजुःशाखीयैः पूर्वविद्धैव पौर्णमासी ग्राह्या श्रावणी दुर्गनवमीति वचनादिति मदनपारिजात उपेक्ष्य उदाहृतोदाहरिष्यमाणवचनहेमाद्र्यादिविरुद्धत्वात्। अत एव तैत्तिरीयेतरयाजुषाणां तु पूर्वविद्धमेव पर्व।श्रावणीति वचनादिति द्वैतनिर्णयः। अन्ये याजुषाः पूर्वविद्धएव श्रावणीति वचनादिति हेमाद्रिरिति मयूखः, श्रावणीति वचनं तैत्तिरीयकभिन्नयाजुषपरमिति भट्टोजीदीक्षितोक्तिः, वाजसनेयिभिः पूर्वविद्धपौर्णमास्याभिदं कार्यमिति हेमाद्रिः, स्मृतिकौस्तुभादयश्च हेमाद्रितात्पर्यार्थाज्ञानमूलकत्वादुपेक्ष्या एव। यत्तु मदनरत्ने बह्वृचकारिकाकारस्यबह्वृचसंबन्धिधर्मविधानार्थमेव प्रवृत्तत्वात्, बह्वृचाःश्रवण इत्युत्तरार्धमेव विधायकम्। पर्वण्यौदयिक इति पूर्वार्धं तु बह्वृचैः प्राशस्त्यलाभाच्छ्रवणपरित्यागेन पर्वमा464त्रग्राहीत्येतदर्थमनुवाद इति तद्गतं तैत्तिरीयपदं सर्वयाजुषाणामुपलक्षणम्। तेन दिनद्वयेऽपि कर्मकालव्याप्तावव्याप्तौ च सर्वैरपि यजुर्वेदिभिरौयिके पर्वण्युपाकर्म कर्तव्यम्। श्रावणीति वाक्यं तुपवित्रारोपणादिविषयमित्युक्तं, तत्
‘धनिष्ठासंयुतं कुर्याच्छ्रावणं कर्म यद्भवेत्।
तत्कर्म सफलम्’। इत्यादिवाक्येन तद्गृह्यविहितश्रवणे प्राशस्त्यबोधनात्, श्रवणत्यागेन पर्वग्रहणशङ्कायाअसंभावितत्वेनानुवादवैयर्थ्यापत्तेश्चिन्त्यम्। अत एव तैत्तिरीयकग्रहणं सर्वयाजुषाणामुपलक्षणमिति कालतत्त्वविवेचनमपि उपेक्ष्यम्465। तस्माद्धेमाद्रिसिद्धान्तस्यैव युक्तत्वात्पूर्वसूर्योदयानन्तरं मुहूर्तादूर्ध्वं प्रवृत्ता पौर्णमासी द्वितीयोदयानन्तरंमुहूर्तद्वया466दिपरिमिता भवति, तत्र तैत्तिरीयैरुत्तरा, तैत्तिरीयान्ययाजुषैः पूर्वा ग्राह्येति सिद्धम्। यदा द्वितीयदिने मुहूर्तषट्कपरिमिता पौर्णमासीतदा तैत्तिरीयभिन्नैरप्युत्तरैव ग्राह्या।
श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वा प्रतिपत्षण्मुहूर्तकैः।
विद्धा स्याच्छन्दसां तत्रोपाकर्मोत्सर्जनं भवेत्॥
इति कालादर्शमदनरत्नोदाहृतनिगमवचनात्।
श्रावणी पौर्णमासी तु संगवात्परतो यदि।
तदैवौदयिकी ग्राह्या नान्यदौदयिकी भवेत्॥
इति माधवोदाहृतनिगमवचनाच्च। अनेनापि467 संभावितमध्याह्नस्पर्शाविधानात्। यत्तु —
उदये संगवस्पर्शे श्रुतौ पर्वणि चार्कभे।
कुर्युर्नभस्युपाकर्म ऋग्यजुःसामगाः क्रमात्॥
इति चन्द्रोदयोदाहृतस्याऽऽर्षत्वेऽपि नियामकत्वस्वीकारे मध्याह्नमारभ्य प्रवृत्तं द्वितीयदिने मुहूर्तत्रयं पर्व, श्रवणं च भवति, तत्रापि पूर्वदिनेऽनुष्ठानापत्तौ पूर्वोक्त468विरोधापत्तेः,
तपो हन्त्युत्तराषाढा उपाकर्मणि वैष्णवे।
श्रवणेन तु यत्कर्म उत्तराषाढसंयुतम्॥
संवत्सरकृतोऽध्यायस्तत्क्षणादेव नश्यति।
धनिष्ठासंयुतं कुर्याच्छ्रावणं कर्म यद्भवेत्॥
तत्कर्म सफलं ज्ञेयमुपाकरणसंज्ञितम्।
इत्यादिवाक्यविरोधापत्तेश्च। किंतु धनिष्ठेत्यादिवाक्यविषयैकदेशेप्रपञ्चभूतमेव। माधवस्याप्यत्रैव तात्पर्यं कल्पनीयमन्यथाऽसंगतिप्रसङ्गात्। इत्थं सर्ववाक्यविरोधेन संपन्नस्योपाकर्मकालनिर्णयस्यायं
संग्रहः — पूर्वसूर्योदयमारभ्यप्रवृत्तं श्रवणं द्वितीयदिने मुहूर्तत्रयात्किंचिन्न्यूनं भवति, तदा पूर्वदिन एवानुष्ठानम्। यदा तु तादृशं द्वितीयदिने संपूर्णमुहूर्तत्रयं तदा यदा वा पूर्वदिने मुहूर्तार्धाद्यनन्तरं प्रवृत्तंद्वितीयदिने मुहूर्तद्वयादिपरिमितंभवति, तदोत्तरदिन एव मुहूर्तद्वयान्न्यूनं चेत्पूर्वदिन एवेति। पूर्णिमाऽपि यदा पूर्वसूर्योदयमारभ्यप्रवृत्ता, तदा पूर्वैव सर्वेषाम्। यदा तु पूर्वदिने मुहूर्ताद्यनन्तरं प्रवृत्ताद्वितीयदिने मुहूर्तद्वयादिपरिमिता भवति, तदा तैत्तिरीयैरुत्तरा ग्राह्या तद्भिन्नयाजुषैःपूर्वेति व्यवस्था। यदा द्वितीयदिने षण्मुहूर्तपरिमिता, तदा सर्वेषामुत्तरैव। यदा पूर्वदिने मुहूर्तानन्तरं प्रवृत्ता, द्वितीयदिने मुहूर्तद्वयान्न्यूना, तदा सर्वेषां पूर्वैवेति। हस्तनक्षत्रमपि यदा दिनद्वये संपूर्णापराह्णव्यापि, साम्येन, वैषम्येण वा तदेकदेशव्यापि,दिनद्वयेऽप्यपराह्णास्पर्शि वा तदोत्तरमेव। यदा पूर्वदिन एवापराह्णव्यापि,तदा पूर्वमेवेति कर्मकालव्याप्त्यैव निर्णय इति स्मृत्यर्थसारहेमाद्रिप्रभूतिभिः सिद्धान्तितत्वादिति। एवं च सति औदयिकानि च पर्वादीनिप्रातःसंगवात्मकषण्मुहूर्तव्यापीनि ग्राह्याणीत्यादिकालतत्त्वविवेचनादिनवीनग्रन्था उपेक्ष्या एव। पूर्वदिने मध्याह्नमारभ्य प्रवृत्तं श्रवणादिकंद्वितीयदिने मुहूर्तपञ्चकपरिमितं भवति, तदा469पूर्वदिनेऽनुष्ठानापत्तौ पूर्वोदाहृतानेकवचनस्मृत्यर्थसारहेमासद्र्यादिनिबन्धविरोधापत्तेरिति बोध्यम्।एतेन सामगानां त्वपराह्णोपाकर्मिणां वचनात्तत्कालव्यापिनमपि पूर्वहस्तंबाधित्वोत्तरदिन एवानुष्ठानमिति कालतत्त्वविवेचनमुपेक्ष्यम्। उदाहृतवचनानां कर्मकालशास्त्राविरोधेनैवोपपत्तौ कर्मकालबाधस्यानुचितत्वात्। अत एव —
षण्मुहूर्तोत्तराषाढायुक्तः स्याच्छ्रवणो यदि।
तदाऽसौ श्रवणस्त्याज्यो गृह्यते श्रवणोऽपरः॥
षट्क्षणाचोत्तराषाढा संगवात्परतो यदि।
तदाऽसौ श्रवणस्त्याज्यो गृह्यते श्रवणोऽपरः॥
इत्यादिप्रयोगपारिजातनाम्ना परस्परविरुद्धार्थकवचनं कल्पयन्गोविन्दार्णव उपेक्ष्यः। वचनानां पारिजातेऽभावा470दिति ज्ञेयम्। ग्रहसंक्रान्तिवर्जितेत्यत्र पर्वादिशब्दोत्तरसप्तम्याः पर्वादिगताधिकरणत्वपरतयापर्वादिषु जायमानयोर्ग्रहसंक्रान्त्योर्दूषकत्व471म्, उत–
यदि दैवात्तु संसिध्येदेकादश्यां तिथित्रयम्।
इत्यादिष्वेकादश्यादिशब्दानामिव पर्वादिशब्दानामनुष्ठानयोग्यपर्वाद्युप-लक्षिताहोरात्रपरतयोपाकर्माधिकरणाहोरात्रे जायमानयोरिति। तत्र तावदुपलक्षणत्वे प्रमाणाभावात्पर्वादिगतयोरेव दूषकत्वं, न पूर्वोत्तरतिथ्यादिगतयोः। अन्यथाग्रहसंक्रान्तियोगश्च यस्मिन्दिन उपाकर्म, तद्दिनार्धरात्रात्पूर्वमेवोक्तेषु कालेषूपजायमानस्तेषां दूषको न तु तस्मात्परस्तादिति कालतत्त्वविवेचनस्य पर्वश्रवणगतयोरेव ग्रहणसंक्रान्त्योः पर्युदासप्रयोजकता तत्सामानाधिकरण्येन श्रुतत्वात्, न तिथ्यन्तरनक्षत्रान्तरगतयोरपि। तेन चतुर्दशीप्रतिपदुत्तराषाढाधनिष्ठादौ ग्रहणे संक्रान्तौ वा पर्वाणिश्रवणे चोपाकर्म कार्यमेवेति मयूरवस्य ग्रहसंक्रान्तियोगश्चोपाकर्मसंबन्धिन्यहोरात्रे भाव्यर्धरात्रात्पूर्वं नक्षत्रपर्वणोर्विद्यमानस्तयोर्दूषको न त्वर्धरात्रात्परस्ताद्विद्यमानः। नाप्युपाकर्माङ्गभूततिथिनक्षत्रयोः पूर्वोत्तरकालीने तिथ्यन्तरे नक्षत्रान्तरे वा विद्यमान इति स्मृतिकौस्तुभस्य चासंगत्यापत्तेरिति चेन्न। अर्धरात्रात्पूर्वं संगवादिकाले धनिष्ठादौ जायमानेसंक्रान्त्यादावपि प्रातःकालानुष्ठानापत्तावर्धरात्रादधस्तादित्युदाहरिष्यमाणवचनस्य
संक्रान्तौग्रहणे चैव सूतके मृतके तथा।
गणस्नानं न कुर्वीत नारदस्य वचो यथा॥
इति हेमाद्र्याद्युदाहृतवचनस्य च कस्मिंश्चिद्दिने ग्रहसंक्रान्तिवर्जिते कार्यमिति स्मृत्यर्थसारस्य विरोधपरिहारार्थमुदाहृतवाक्यगतपर्वादिशब्दानां पर्वाद्युपलक्षिताहोरात्रपरतयोपाकर्माधिकरणाहोरात्रगतयोरेव ग्रहसंक्रान्त्योर्दूषकत्वं न तु पर्वादिगतयोरेवेत्यत्रैव तात्पर्यस्य कल्पनीयत्वात्। तेन पूर्वाहोरात्रगतश्रवणादौ संक्रान्त्यादिसत्त्वेऽपिद्वितीयदिनगतश्रवणादेर्न दुष्टत्वमिति बोध्यम्। संक्रान्तौग्रहणे चैवेत्यनेनोपाकर्माधिकरणाहोरात्रे संक्रान्तौ ग्रहणे चोपाकर्म न कर्तव्यमित्युक्तम्। तत्र विशेषमाह गार्ग्यः —
अर्धरात्रादधस्ताच्चेत्संक्रान्तिग्रहणं तथा।
उपाकर्म न कुर्वीत परतश्चेन्न दोषकृत्॥ इति।
प्रयोगपारिजाते कात्यायनो वृद्धमनुश्च—
यदाऽर्धरात्रादर्वाक्चेद्ग्रहः संक्रम एव च।
नोपाकर्म तदा कुर्याच्छ्रावण्यां श्रवणेऽपि च॥ इति।
अत्र श्रावणीग्रहणमाषाढीप्रौष्ठपद्योः, श्रवणग्रहणं पञ्चमीहस्तयोरुपलक्षणमित्यवगन्तव्यम्। यत्तु —
वेदोपाकरणे प्राप्ते कुलीरे संस्थिते रवौ।
उपाकर्म न कर्तव्यं कर्तव्यं सिंहयुक्तके ॥ इति।
नर्मदोत्तरभागे तु कर्तव्यं सिंहयुक्तके।
कर्कटे संस्थिते भानावुपा472कुर्यात्तु दक्षिणे ॥
इति माधवेनोपन्यस्तं वचनद्वयं, तत्राऽऽद्यं छन्दोगविषयं प्रोष्ठपदींहस्तेनोपाकरणम्। इति सूत्रेण, सिंहे रवौतु पुष्यर्क्ष इति गार्ग्येण चतेषां सिंहस्थ एव विधानात्।
श्रावण्यां श्रावणीकर्म यथाविधि समाचरेत्।
उपाकर्म तु कर्तव्यं कर्कटस्थे दिवाकरे॥
इति हेमाद्रौनिगमवचनेन विरोधाच्च। द्वितीयेन तु श्रावण्यां प्रोष्ठपद्यां वोपाकृत्यार्धपञ्चमान्मासानधीयीरन्। इति कौशिकगृह्यादिषुश्रावणीपोष्ठपद्यौविहिते। तत्र कर्कटस्थश्रावणीव्यावृत्तिरेव क्रियते।साऽपि नर्मदोत्तरदेश एव, न तु तद्दक्षिण इति चिन्तनीयम्। एतेन नर्मदोत्तरभागार्यावर्तनिवासिनां शिष्टानां कर्कटस्थे रवावप्युपाकर्मानुष्ठानप्रामाण्यम्। अस्मिन्वचनद्वयेऽनाश्वासात्। आश्वासे तु निषेध एवेति कालतत्त्वविवेचनसिद्धान्तिताऽव्यवस्थाऽपि परिहृता। अत एवेदं वचनद्वयं छन्दोगविषयमेव। तेन नर्मदा दक्षिणदेशे कर्कटस्थे रवावेव च्छन्दोगैरुपाकर्तव्यमिति द्वैतनिर्णयनिर्णयसिन्धुमयूखसिद्धान्त उपेक्ष्यः। प्रौष्ठपदीं हस्तेनोपाकरणम्। इति सूत्रे सिंहे रवावित्यादिवचनविरोधात्। अतइदं सर्वशाखासाधारणमिति केचित्। छन्दोगविषयमित्यन्य इति भट्टोजीदीक्षितोक्तिरपीति बोध्यम्। श्रवणापक्ष ओषधीषु जातासु हस्तेनपौर्णमास्यां वाऽध्यायोपाकर्म, इति हिरण्यकेशिसूत्रात्तैत्तिरीयकैः श्रावण्यांहस्ते वा कार्यम्। श्रवणायुक्तःपक्षः श्रावणशुक्लपक्ष इत्यर्थः। अत्रपौर्णमासी मुख्यः कालः।
पर्वण्यौदायिके कुर्युः श्रावणं तैत्तिरीयकाः।
इत्यादिवाक्येषु तस्या एवोपादानात्। खण्डत्वे निर्णयस्तु पूर्वोक्तोऽवगन्तव्यः।
संक्रान्तिग्रहणं वाऽपि पौर्णमास्यां यदा भवेत्।
उपाकृतिस्तु पञ्चम्यां कार्या वाजसनेयिभिः॥
इतिवाक्ये हेमाद्रिणा तैत्तिरीयगृह्ये पञ्चम्युपादानाभावात्तैत्तिरीयकैः प्रौष्ठपद्यां कार्यमित्युक्तम्। तद्धस्तनक्षत्रासंभव इति बोध्यम्। तेषां गृह्ये हस्तस्योपादानात्। एतेन तैत्तिरीयाणां प्रौष्ठपद्यामिति हेमाद्रिमतमयुक्तम्।हिरण्यकेशिसूत्रे पञ्चम्युपादानात्तैः पञ्चम्यां कार्यं, हिरण्यकेशिभिन्नतैत्तिरीयाणां प्रौष्ठपद्यामिति द्वैतनिर्णयो हेमाद्रिदूषणसंरम्भप्रयुक्त एव। हिरण्यकेशिसूत्रे पञ्चमीग्रहणाभावादिति। उपाकरणोत्सर्जनयोः पौर्णमासीहस्तरोहिणीनक्षत्राणि षण्मुहूर्तान्युदयव्यापीनि ग्राह्याणीति महेशभट्टोक्तिरुपेक्ष्या। मध्याह्नमारभ्य प्रवृत्तानि पौर्णमास्यादीनि द्वितीयदिने किंचिन्न्यूनषण्मुहूर्तपरिमितानि भवन्ति तत्र पूर्वदिनेऽनुष्ठानापत्तौ धनिष्ठाप्रतिपद्युक्तमित्यादिपूर्वोदाहृतानेकवचनस्मृत्यर्थसारहेमाद्र्यादिविरोधापत्तेरिति। श्रावण्यां पौर्णमास्यामध्यायमुपाकृत्य मासं प्रदोषेनाधीयीत, सिंहस्थे सवितरि याऽमावास्या तदन्ते चान्द्रमसे या मध्यवर्तिनी पौर्णमासी सा श्रावणी, श्रवणयोगस्तु भवतु मा वा तस्यामध्यायमुपाकृत्य गृह्योक्तेन विधिनोपाकर्म कृत्वा स्वाध्यायमधीयीत।अधीयानश्च मासमेकं प्रदोषे प्रथमे रात्रिभागे नाधीयीत। प्रदोषग्रहणाद्रात्रावप्यूर्ध्वं न दोष इति हरदत्तविवृतादापस्तम्बसूत्रादापस्तम्बैःश्रावणपौर्णमास्यामुपाकर्म कार्यम्। खण्डत्वे निर्णयस्तुद्वितीयसूर्योदयोत्तरं मुहूर्तत्रयादिपरिमितोत्तराऽन्यथा पूर्वैवेति पूर्वोक्तोऽवगन्तव्यः। अथातोऽध्यायोपाकर्मौषधीनां प्रादुर्भावे श्रवणेन श्रावण्यां पौर्णमास्यां पञ्चम्यां हस्तेन वेति कात्यायनसूत्र ओषधीप्रादुर्भावे श्रवणे च पौर्णमास्या विशेषणे तयोस्तत्र प्रायशः संभवात्। तस्माद्विशेषणाभावे पौर्णमास्यां भवति। एवं पञ्चम्यां हस्तोऽपि प्राय473शो भवतीत्युपन्यस्तः। अतः श्रावणी पौर्णमासी, पञ्चमी वा विशिष्टा, अवशिष्टावोपाकर्मकालः। एवं स्वमतेन व्याख्याय परमतमुदाजहार। श्रवणेनवा पौर्णमास्यां वा हस्तेन वेति हरिहरेण क474र्कोपाध्यायाशयस्य वर्णितत्वात्कातीयैः श्रवणयुक्तश्रावण्यां केवलायां वा हस्तयुक्तपञ्चम्यां केवलायां वोपाकर्म कार्यम्। खण्डत्वे निर्णयस्तु पूर्वोक्तो वेदितव्यः। प्रौष्ठ-
पदीं हस्तेनोपाकरणम्। इति गोभिलसूत्रे प्रौष्ठपदीमिति द्वितीया प्रतिशब्दाध्याहारार्था। तेन प्रतिवर्षमुपाकर्म कर्तव्यमिति ज्ञायत इतितद्भाष्योक्तेः। प्रौष्ठपदीं प्राप्येत्यर्थ इति हेमाद्रावपि प्रौष्ठपदमाससंबन्धिनीं कांचित्तिथिं प्राप्य हस्तनक्षत्र उपाकरणं कार्यमित्यर्थः।तत्र संक्रान्त्यादिदोषे श्रावण्यामुपाकृत्य भाद्रपदशुक्लहस्तनक्षत्रपर्यन्तंनपठेयुः। श्रावण्यामेक उपाकृत्यैतमासावित्रात्कालं काङ्क्षन्त इतिगोभिलसूत्रात्। सावित्रं हस्तनक्षत्रम्।
सिंहे रवौ तु पुष्यर्क्षेपूर्वाह्णेविचरेद्बहिः।
छन्दोगा मिलिताः कुर्युरुत्सर्गंसर्वच्छन्दसाम्॥
शुक्लपक्षे तु हस्तेन उपाकर्माऽऽपराह्णिकम्।
इति गार्ग्येण सिंहस्थे रवावेवोत्सर्जनोपाकरणयोर्विधानात्। तत्रापि यदा सिंहस्थे सूर्ये हस्तनक्षत्रात्पूर्वःपुष्यःकर्कटे सूर्ये475 भवति, तदा
मासे प्रौष्ठपदे हस्तात्पुष्यः पूर्वो भवेद्यदा।
तदा तु श्रावणे कुर्यादुत्सर्गं छन्दसां द्विज॥
इति च्छन्दोगपरिशिष्टेन श्रावणगतपुष्य उत्सर्जनविधानस्य सौरमासपरत्वं विनाऽनुपपन्नत्वादत्रप्रौष्ठपदश्रावणशब्दौ मीनादिसौरमासाभिप्रायेणेति मदनरत्नादिभिरुक्तत्वात्सामगानामुत्सर्जनोपाकरणयोः सौरमास एवग्राह्यः। तथा च च्छन्दोगैःसिंहस्थे कर्कटस्थेऽपि वा रवौ पुष्यनक्षत्र उत्सर्जनं कृत्वा सिंहस्थ एव सूर्ये हस्तनक्षत्र उपाकर्म कर्तव्यम्। हस्तनक्षत्रस्यखण्डत्वे निर्णयःपूर्वोक्तो ग्राह्यः। श्रावण्यां पौर्णमास्यामाषाढ्यांवोपाकृत्य च्छन्दांस्यधीयीत। इति बौधायनवचनाद्बौधायनैः श्रावण्यांकार्यम्। तत्र दोषादिसंभावनायामाषाढ्यां कर्तव्यम्। द्वितीयदिने मुहूर्तत्रयादिपरिमिता चेदुत्तरदिने मुहूर्तत्रयान्न्यूना चेत्पूर्वदिन एवानुष्ठानमिति निर्णयःपूर्वोक्त एवेति। इदं चोपाकर्म श्रावण ओषधीप्रादुर्भावाभावे भाद्रपदे कर्तव्यम्। तदुक्तं बह्वृचकारिकायाम् —
अवृष्ट्यौषधयस्तस्मिन्मासे तु न भवन्ति चेत्।
तदा भाद्रपदे मासे श्रवणेन तदिष्यते॥ इति।
अत्र श्रवणग्रहणं भाद्रपदगतपञ्चमीहस्तपर्वणामुपलक्षणम्। तद्वा-
र्षिकमित्याचक्षत इति सूत्राद्वर्षाकाले भवं वार्षिकमित्येषा समाख्या। वर्षाकालश्चश्रावणभाद्रपदौ तत्रैतत्समाख्यावचनमनन्यार्थं सच्छ्रावणे साक्षाद्विधानेनैव सिद्धे भाद्रपदविधानार्थम्। मासे च विहिते तत्र कस्मिन्दिन इत्याकाङ्क्षायां पूर्वत्र क्लृप्तश्रवणपञ्चमीहस्तानां पूर्ववद्ग्रहणम्।
**श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि। **
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान्विप्रोऽर्धपञ्चमान्॥
इति मनुवचनाच्च। ओषध्यनुत्पत्तिग्रहणं चाऽऽशौचादीनामुपलक्षणम्। तेन येन केनचिन्निमित्तेन श्रावणातिक्रमेऽप्यपोक्षितविधिलाभादेव भाद्रपदगताः श्रवणादय एवकाला इति बोध्यम्। अत एव गुरुशुक्रास्ते निषेधेन श्रावणातिक्रमः। तत्राप्यपेक्षितविधिबलादेव भाद्रपदगतश्रवणपर्वादिग्रहणम्। तथा प्रथमोपाकरणेऽप्यपेक्ष्याया अविशेषात्प्रवृत्तिर्निर्बाधैव। ननु गौणकाले कथमारम्भ इति चेन्न। सर्वेषां कालानां स्मृतिषु विधानमस्ति। तत्र केवलं व्यवस्थैवापेक्षिता वचनान्तरेण क्रियत इति न तेषां गौणत्वशङ्काऽपि। तेन श्रावणश्रवणादौ संक्रान्त्यादिदोषे तत्पञ्चमीविधिः प्रथमोपाकर्मण्यपि यथा प्रवर्तते, एवं भाद्रपदश्रवणादिविधिरपि अस्तादिना श्रावणातिकमेऽपि प्रवर्तत इति बोध्यम्। अस्तादिनिषेधश्च।
**शुक्रे मूढेऽप्युपाकृत्य विद्यावित्तविनाशनम्। **
आयुःक्षयमवाप्नोति तस्मात्तत्कर्म वर्जयेत्॥
इति प्रयोगपारिजाते मनुवाक्यात्,
**गुरुशुक्रतिरोधाने वर्जयेच्छ्रुतिचोदनात्॥ **
इत्याह भगवानत्रिः श्रावणं तु विशेषतः॥
इति तत्रैव काश्यपाच्च। अयं निषेधः प्रथमोपाकरणविषय इति
**गुरुभार्गवयोर्मौढ्ये बाल्ये वा वार्धकेऽपि वा। **
तथाऽधिमाससंसर्पमलमासादिषु द्विज476॥
प्रथमोपाकृतिर्न स्यात्कृतं कर्म विनाशकृत्।
इति संग्रहकारोक्तेःप्रतीयते। तथाऽप्यार्षवचनानुपलम्भाद्द्वितीयादिप्रयोगेऽपि सति संभवे बोध्यः। अत एव श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वा
शुक्रास्तमयादिप्रतिबन्धस्तदानीमाषाढ्यां कार्यमिति माधवः, मलमासप्रकरणगतहेमाद्र्यादिग्रन्थाश्च संगच्छन्ते। अधिमाससंसर्परूपौ मलमासावादिशब्देन सिंहस्थगुरु477वक्त्रातिचारादिग्रहणम्। मलमास उपाकर्मनिषेधमाह हेमाद्रौ कात्यायनः —
उत्कर्षः कालवृद्धौ स्यादुपाकर्मादिकर्मणि।
अभिषेकादिवृद्धीनां न तूत्कर्षो युगादिषु॥
ज्योतिष्पराशरोऽपि —
उपाकर्म तथोत्सर्गः प्रसवाहोत्सवाष्टकाः।
मासवृद्धौ पराः कार्या वर्जयित्वा तु पैतृकम्॥ इति।
यत्तु — दशहरासु नोत्कर्षश्चतुर्ष्वपि युगादिषु।
उपाकर्म महाषष्ट्योर्ह्येतदिष्टं वृषादितः॥
इति ऋष्यशृङ्गवचनमनुत्कर्षविधायकं,तत्सामगविषयम्। तेषां पूर्वोक्तरीत्या सिंहार्क एव विधानात्। यत्तु कालादर्शे —
अध्यायानामुपाकर्म श्रावण्यां तैत्तिरीयकाः।
बह्वृचाःश्रवणे कुर्युःसिंहस्थोऽर्को भवेद्यदि॥
असिंहार्के प्रौष्ठपद्यां श्रवणेन व्यवस्थया। इत्युक्तं, तत्
उपाकर्म तु कर्तव्यं कर्कटस्थे दिवाकरे॥
आषाढ्यां प्रौष्ठपद्यां वा वेदोपाकरणं स्मृतम्।
श्रावण्यां पौर्णमास्यामाषाढ्यां वोपाकृत्येति निगमकूर्मपुराणबौधायनादिवचनविरुद्धमिति स्पष्टमेव। माधवे कार्णाजिनिः —
उपाकर्मणि चोत्सर्गे यथाकालं समेत्य च।
ऋषीन्दर्भमयान्कृत्वा पूजयेत्तर्पयेत्ततः॥ इति।
बौधायनोऽपि —
गौतमादीनृषीन्सप्त कृत्वा दर्भमयान्पुनः।
पूजयित्वा यथाशक्ति तर्पयेदृचमुच्चरन्॥इति।
अथोत्सर्जनकालः। तत्र याज्ञवल्क्यः —
पौषमासस्य रोहिण्यामष्टकायामथापि वा।
जलान्ते छन्दसां कुर्यादुत्सर्गं विधिवद्बहिः॥
पौषमासस्य रोहिण्यां कृष्णाष्टम्यां वा जलसंनिधौ ग्रामाद्बहिर्वेदानामुत्सर्जनं कुर्याद्येन प्रकारेणोपाकर्मप्रभृत्यध्ययनं कृतं, तं प्रकारमिदानीं परित्यजेन्न तु सर्वात्मनेत्यर्थः। मनुः —
पुष्ये तु च्छन्दसां कुर्याद्बहिरुत्सर्जनं द्विजः।
माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्णेप्रथमेऽहनि॥
श्रावण्यां चेदुपाकर्म तदा पौषशुक्लप्रतिपदि पूर्वाह्णे, यदा प्रौष्ठपद्यामुपाकर्म तदा माघशुक्लप्रतिपदीति व्यवस्थितो विकल्पः।
श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाऽप्युपाकृत्य यथाविधि।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान्विप्रोऽर्धपञ्चमान्॥
इति उपाकर्मोत्तरं शुक्लकृष्णपक्षद्वयसाधारण्येन सार्धचतुर्मासपर्यन्तमध्ययनमुक्त्वोत्सर्जनानन्तरमध्ययनप्रकारमाह मनुः —
अतः परं तु च्छन्दांसि शुक्लेषु नियतः पठेत्।
अङ्गानि च रहस्यं च कृष्णपक्षेषु वै पठेत्॥ इति।
आश्वलायनगृह्यम् — मध्यमाष्टकायामेताभ्यो देवताभ्योऽन्नेन हुत्वाऽपोऽभ्यवयन्त्येता एव देवतास्तर्पयन्त्याचार्यानृषीन्पितॄंश्चैतदुत्सर्जनम्,इति। अत्र वृत्तिकृता मध्यमाष्टकाग्रहणं षण्मासान्तलक्षणार्थम्। तेनतस्याः समीपे माघ्यां पौर्णमास्यामित्यर्थ इत्युक्तम्। छन्दोगानां तुसिंहे रवावित्यादिनोक्तम्। तत्र तदा सिंहस्थार्कहस्तात्पूर्वं पुष्य नक्षत्रंकर्कटस्थे रवौ भवति, तदा तत्रैवोत्सर्गस्तदुक्तं छन्दोगपरिशिष्टे —
मासे प्रौष्ठपदे हस्तात्पुष्यःपूर्वो भवेद्यदा।
तदा तु श्रवणे कुर्यादुत्सर्गंछन्दसां द्विज॥
इति प्रौष्ठपदश्रावणशब्दौ चात्रत्यौ सिंहकर्करूपसौरमासपरावित्युक्तंप्राक्। यदि वर्षपर्यन्तमप्यध्येतव्यमिति बुद्धिस्तदा संवत्सरान्ते प्रागुपाकरणादुत्सृजेत्। यत्स्वाध्यायमधीयतेऽब्दमिति श्रुतेरिति माधवः। वर्षंवाऽधीत्योपाकर्मदिन उत्सर्जनं कार्यं न वा तर्पणं तु कार्यमेवेति स्मृत्यर्थसारः। उपाकर्मोत्सर्जने प्रशंसति कात्यायनः —
प्रत्यब्दं यदुपाकर्म सोत्सर्गं विधिवद्द्विजैः।
क्रियते छन्दसां तेन पुनराप्यायनं भवेत्॥
अयातयामैश्छन्दोभिर्यत्कर्म क्रियते द्विजैः।
क्रीडमानैरपि सदा तत्तेषां सिद्धिकारकम्। इति ॥
उत्सर्जनं च वेदानामुपाकरणकर्म च।
अकृत्वा वेदजाप्यस्य फलं नाऽऽप्नोति मानवः॥
इति प्रयोगपारिजाते वचनान्तरम्। नन्विदं ब्रह्मचारिधर्म एवोपाकृत्याधीयीतेति तस्य ग्रहणाध्ययनाङ्गत्वप्रतीतेर्ग्रहणाध्ययनं च ब्रह्मचारिण एव वेदमधीत्य स्नायादिति स्नानात्प्राचीनत्वावगमादतः कथं गृहस्थधर्मत्वमिति चेन्न। अधीयीतेत्यनुवृत्तौ समावृत्तो ब्रह्मचा478रिकल्पेनयथान्यायमितरे जायोपेतोऽपीत्येक इत्याश्वलायनसूत्रे गृहस्थस्यापि ग्रहणाध्ययनेऽधिकारदर्शनात्। अस्यार्थः — येन नियमविशेषेण युक्तो ब्रह्मचार्यधीते तेनैव नियमेन समावृत्तोऽप्यधीयीत। समावृत्तादितरे ब्रह्मचारिणस्तु यथान्यायं स्वविध्युक्तप्रकारेणाधीयीरन्, तथा जायोपेतो गृहस्थोऽपि ब्रह्मचारिवन्नियमोपेतोऽधीयीतेति। अध्येष्यमाणोऽध्याप्यैरन्वारब्ध इति सूत्रेऽध्याप्यपदसमभिव्याहारादध्येष्यमाणपदमध्यापकपरमिति गृहस्थधर्मोऽप्युपाकर्म। अत एव बह्वृचकारिका—
अन्वारब्धोऽधुना शिष्यैः स्वयमेव न सन्ति चेत्।
इति शिष्याभावे स्वयं कर्तव्यतोक्तेरिति दिक्।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्ड उपाकर्मोत्सर्जनकालनिर्णयः।
अथ भाद्रपदपौर्णमास्यां
नान्दीमुखानां प्रत्यब्द479 श्राद्धं कन्यागते रवौ।
पौर्णमास्यां तु कर्तव्यं वराहवचनं यथा॥
इति ब्रह्मपुराणे नान्दीमुखसंज्ञकानां प्रतिवर्षं श्राद्धं विहितम्। तत्रकन्याराशिस्थरव्यधिकरणकपौर्णमासीस्वीकारे यदा भाद्रपदीमतिक्रम्यकन्यासंक्रान्तिस्तदाऽऽश्विन्यां तदापत्तौ, यदा च पौर्णमासीद्वयमपिकन्यागते रवौ भवति, तदा विकल्पापत्तौ प्रौष्ठपद्यामेव कर्तव्यमिति हेमाद्रिमदनरत्नप्रयोगपारिजातादिविरोधापत्तेः। यदैकाऽपि श्राद्धयोग्या पौर्णमासी कन्यारवौन भवति तदा श्राद्धलोपापत्तेश्च कन्यागतसूर्यसमाप्तदर्शान्तभाद्रपदपौर्णमास्येव ग्राह्या। एतेन यदा भाद्रपद्याःकन्यार्कयोगाभावस्तदाऽऽश्वयुज्यां कन्यार्कयुक्तायां कार्यम्। हेमाद्र्युक्तस्य
भाद्रपद्युपलक्षणत्वस्यायुक्तत्वादिति कृत्यरत्नावल्येवायुक्ता। आश्विनस्याधिकत्वे तत्रैव श्राद्धापत्तेश्चेति बोध्यम्। केनान्दीमुखा इत्यपेक्षायाम्।
ये स्युः पितामहादूर्ध्वं ते स्युर्नान्दीमुखास्त्रयः।
प्रसन्नमुखसंज्ञास्तु मङ्गलीया यतस्तु ते॥
अत्र पितामहशब्देन प्रपितामहो विवक्षितः।
पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः॥
त्रयो ह्यश्रुमुखा ह्येते पितरः संप्रकीर्तिताः।
तेभ्यः पूर्वे त्रयो ये तु ते तु नान्दीमुखाः स्मृताः॥
इत्यग्रिमब्रह्मपुराणवचनेन लेपभाक्षु नान्दीमुखशब्दसंकेतबोधनात्तएवात्र देवताः, न तु जनकादयो लेपभाजां नान्दीमुखसंज्ञाविधानवैयर्थ्यापत्तेः। न च वृद्धिश्राद्धोपयोगित्वान्न संज्ञाविधानवैयर्थ्यमिति शङ्क्यम्। नान्दीमुखानां प्रत्यब्दमिति प्रौष्ठपदीनिमित्तकश्राद्धविध्येकवाक्यतापन्नवाक्यबोधितसंज्ञायाःप्रकरणान्तरे विहितवृद्धिश्राद्धोपयोगित्वासंभवात्। अपि च
कर्मण्यथाभ्युदयिके माङ्गल्ये चातिशोभने।
जन्मन्यथोपनयने विवाहे पुत्रकस्य च॥
पितृन्नान्दीमुखान्नाम तर्पयेद्विधिपूर्वकम्।
इति प्रकरणान्तरबोधकाथशब्दयुक्ताग्रिमवाक्यविहिताभ्युदयिकश्राद्धे तस्मात्पूर्वेद्युः पितृभ्यः क्रियत उत्तरमहर्देवान्यजन्त इत्यादिश्रुतौ, अमायां पितृभ्यो दद्यात्पितॄंस्तर्पयेदि480ति स्मृतौ च पितृशब्दस्य जनकादिष्वेवानादिशक्तेःपितृशब्दस्य सामानाधिकरण्यात्,
मातृश्राद्धं तु पूर्वं स्यात्पितॄणां तदनन्तरम्।
ततो मातामहानां च वृद्धौ श्राद्धत्रयं स्मृतम्॥
इति शातातपवचनाच्च। अत्र नान्दीमुखशब्दस्यापि जनकादिष्वनादिसंकेतात्प्रथमोपस्थितजनकादय एवात्र देवता इति वाक्यार्थबोधपर्यवसाने पुनर्नान्दीमुखशब्दाल्लेपभागुपस्थित्यसंभवेन तेषामत्र देवतात्वसंभावनाया अप्यसंभवात्। मात्रादिष्वपि नान्दीमुखशब्दसंकेतस्यानादित्वेन विश्वेषां देवानामित्यादाविव संज्ञात्वाभावात्। नखमुखात्संज्ञायामितिनिषेधाप्रवृत्तेः स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादिति वैकल्पिको ङीष्भव-
त्येव। न च पुंयोगादाख्यायामिति नित्य एव ङीषस्त्विति शङ्क्यम्। नान्दीमुखशब्दस्य दिव्यपितृषु
ऊर्ध्ववक्त्रास्तु ये तत्र ते नान्दीमुख481संज्ञिताः।
इति हेमाद्र्युदाहृतवाराहवच482नवज्जनकादिषु शक्तिग्राहकवचनाभावेनपितृशब्दपरतन्त्रत्वान्मातरश्च पितरश्च पितर इत्येकशेषेण पितृशब्दादुपस्थितपितॄणां मातॄणां च नान्दीमुख्यश्च नान्दीमुखाश्च नान्दीमुखा इत्येकशेषेण नान्दीमुखत्वरूपेण शक्त्यैव बोधकत्वात्पुंवाचकस्य शब्दस्यपुंयोगात्स्त्रियां प्रवृत्तौ विधीयमानस्य ङीषोऽत्रासंभावितत्वात्। अन्यथा प्रथमोपस्थितपित्रादिभिरेव विधिनैराकाङ्क्ष्ये पश्चादुपस्थितमातॄणां तत्रान्वयासंभवान्मातृश्राद्धं तु पूर्वं स्यादित्यादिना वैयर्थ्यापत्तेः। अत एव
प्रपितामहीपर्यन्ता नान्दीमुख्यश्च मातरः। इति।
अथ नान्दीमुखीभ्यश्च मातृभ्यः श्राद्धमुत्तमम्॥
इति हेमाद्र्युदाहृतब्रह्मपुराणे नान्दीमुखीभ्य इति निर्देशो मातृपितामहीप्रपितामह्यो नान्दीमुखा इति पद्धतिकाराणां निर्देशश्चसंगच्छते।इत्यास्तां प्रासङ्गिकम्। तस्माल्लेपभाजां वृद्धिश्राद्धदेवतात्वासंभवात्तेषां प्रौष्ठपदीश्राद्ध एव देवतात्वं न वृद्धिश्राद्धे न वा जनकादीनांप्रौष्ठपदीश्राद्धे देवतात्वं लेपभाजां नान्दीमुखसंज्ञाविधानवैयर्थ्यापत्तेः। अत एव
तेभ्यःपूर्वे त्रयो ये तु ते तु नान्दीमुखाः स्मृताः।
इति नान्दीमुखवचनस्य नान्दीमुखानां प्रत्यब्दमिति प्रौष्ठपदीनिमित्तकश्राद्धविधिनैकवाक्येनोपात्तत्वात्। श्राद्धान्तरे नान्दीमुखशब्देनप्रपितामहात्परतरे न ग्राह्या इति हेमाद्रिसिद्वान्तः संगच्छते। एतेनयत्तु ब्रह्मपुराणे लेपभाजां नान्दीमुखत्वमुक्तं, तज्जीवत्पित्रादित्रिकस्यश्राद्धकर्तुर्वृद्धिश्राद्धे देवतात्वसिद्ध्यर्थम्। मत्स्यपुराणादिषु पित्रादीनां नान्दीमुखदेवतात्वमुक्तम्। ब्रह्मपुराणे लेपभाजामुक्तमतः परस्परविरोधपरिहारःपूर्वोक्तविषयभेदेन घटते, नान्यथा। ततश्च विद्यमानपित्रादित्रयस्यापि वृद्धौ नान्दीश्राद्धमावश्यकमिति गम्यते, न पार्वणादिश्राद्धम्।पितरि पितामहे प्रपितामहे च जीवति नैव कुर्यादिति विष्णुना निषेधात्।
एवं च यत्कैश्चिदुक्तं पित्रादिषु त्रिषु विद्यमानेषु न पितृवर्गनान्दीमुखश्राद्धमेवं मातृश्राद्धादिष्वपीति, तद्ब्रह्मपुराणवचनापरिज्ञाननिबन्धनमित्युपेक्षणीयमिति मदनपारिजात एवोपेक्ष्यः। नान्दीमुखानां प्रत्यब्दमिति प्रौष्ठपदीश्राद्धविधायकब्रह्मपुराणवचनापरिज्ञाननिबन्धनत्वात्।लेपभाजां नान्दीश्राद्धान्वयासंभवस्योक्तत्वाज्जीवत्पित्रादित्रिकस्य नजीवत्पितृकः कुर्यादिति निषेधेन पार्वण श्राद्धाप्रसक्तेः, नैव कुर्यादितिविष्णुवचनस्य,
न जीवत्पितृकः कुर्याच्छ्राद्धमग्निमृते द्विजः।
येभ्य एव पिता दद्यात्तेभ्यः कुर्वीत साग्निकः॥
पितामहेऽप्येवमेव कुर्याज्जीवति साग्निकः।
साग्निकोऽपि न कुर्वीत जीवति प्रपितामहे॥
इतिकालादर्शमदनरत्नाद्युदाहृतवृद्धिश्राद्धमात्रविषयसुमन्तुवचनस्य,हेमाद्र्यादिनिबन्धानां च विरोधापत्तेश्च। अत एव विष्णूक्तो निषेधोदर्शादिविषय इति कल्पतरुः, अत्र विष्णुवचने जीवत्पित्रादित्रिकस्ययः श्राद्धनिषेधः, स वृद्धिश्राद्धव्यतिरिक्तविषय इति मदनरत्नश्चो483पेक्ष्यःपूर्वोक्तदोषापत्तेः। अत एव
पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा अपि।
इत्यत्र पितृशब्दस्य जनकपरत्वे बहुवचनानुपपत्तेः सपिण्डीकरणानन्तरपितृभावापन्नानामेव वाचकःपितृशब्दस्तेन चतुर्थाद्युद्देश्यकप्रौष्ठपदीश्राद्धेऽपि मातामहा अपि कार्या इति निर्णयसिन्धुस्मृतिकौस्तुभभट्टोजीदीक्षितोक्तयोऽयुक्ता एव पितृशब्दस्य पितृभावापन्नपरत्वकल्पने, सपिण्डीकरणे, तत्पूर्वभाविश्राद्धेषु च मातामहानां प्रसक्त्यभावात्।
कर्षूसमन्वितं मुक्त्वा तथाऽऽद्यं श्राद्धषोडशम्।
प्रत्याब्दिकं च शेषेषु पिण्डाः स्युः षडिति स्थितिः॥
इति कात्यायनवाक्ये षोडशश्राद्धपर्युदासासंगत्यापत्तेः, किंच पितृभावापन्नपरत्वे मातामहानामपि पितृभावापन्नत्वात्पितृभ्यो दद्यादित्यनेनैवसिद्धौ पितरो यत्र पूज्यन्त इत्यस्यैव वैयर्थ्यापत्तेश्च। तस्माज्जनकाद्युद्देशेन क्रियमाणश्राद्धे मातामहा अप्युद्देश्या इत्येव वचनव्यक्तेर्लेपभागुद्देश्यकश्राद्धेऽपि मातामहाः कार्या इत्युक्तेर्वचनार्थाज्ञाननिबन्धनत्वात्।बहुवचनस्य तु
वसवः पितरो ज्ञेया रुद्राश्चैव पितामहाः।
प्रपितामहास्तथाऽऽदित्याः श्रुतिरेषा सतातनी॥
वसून्वदन्ति तु पितॄन्रुद्राश्चैव पितामहान्।
प्रपितामहास्तथाऽऽदित्याञ्छ्रुतिरेषा सनातनी॥
इति मन्वादिवाक्यगतबहुवचनवत्पूजार्थत्वेनैवोपपत्तेश्च। अत एव वृद्धिश्राद्धोद्देश्या अपि प्रौष्ठपदीश्राद्धे देवता इति गोविन्दार्णवोऽप्ययुक्तइति दिक्। तत्सिद्धं लेपभाग्मात्रोद्देश्यकस्य प्रौष्ठपदीश्राद्धस्य पार्वणश्राद्धत्वादपराह्णव्यापिनी तत्र पौर्णमासी ग्राह्येति। अत्रापि कुलस्तम्भयात्रोक्ता काशीतत्त्वप्रकाशिकायां स्कान्दे —
नभस्य पञ्चदश्यां च कुलस्तम्भं समर्चयेत्।
दुःखं रुद्रपिशाचत्वे न भवेत्तस्य पूजनात्॥ इति।
इति भाद्रपदपूर्णिमा।
आश्विनपौर्णमास्यां च अक्षैर्जागरणं निशि।
कौमुदी सा समाख्याता कार्या लोकविभूतये॥
कौमुद्यां पूजयेल्लक्ष्मीमिन्द्रमैरावते स्थितम्।
सुगन्धैर्निशितैः सर्वैः साक्षैर्जागरणं भवेत्॥
इति हेमाद्रौलिङ्गपुराणे रात्री लक्ष्मीन्द्रयोः पूजा, जागरणम्, अक्षैः क्रीडा च विहिता। तिथितत्त्वे तु सुगन्धिर्निशि सद्वेषो ह्यक्षैर्जागरणं चरेदिति पाठः। तिथितत्त्वे लैङ्गे —
निशीथे वरदा लक्ष्मीः को जागर्तीतिभाषिणी।
तस्मै वित्तं प्रयच्छामि अक्षैः क्रीडां करोति यः॥
नारिकेलैश्चिपिटकैः पितृन्देवान्समर्चयेत्।
बन्धूंश्च प्रीणयेत्तेन स्वयं तदशनो भवेत्॥
चिपिटकाः पृथुकाः। तत्रैवाऽऽदित्यपुराणे —
पाशाक्षमालिकाम्भोजसृणिभिर्याम्यसौम्ययोः।
पद्मासनस्थां ध्यायेच्च श्रियं त्रैलोक्यमातरम्॥
गौरवर्णांसुरूपां च सर्वालंकारभूषिताम्।
रौक्मपद्मव्यग्रकरां वरदां दक्षिणेन तु॥
दक्षिणोर्ध्वकरे पाशाक्षमालाभ्यां वामे पद्माङ्कुशाभ्यां भूषितां वामाधःकरे हेमपद्मं, दक्षिणे वरं दधतीमित्यर्थः। इति ध्यात्वा ॐ लक्ष्म्यै नमइति मन्त्रेण षोडशोपचारैःसंपूज्य,
नमस्ते सर्वदेवानां वरदाऽसि हरिप्रिये।
या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा मे भूयात्त्वदर्चनात्॥
इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा प्रणमेत्।
चतुर्दन्तसमारूढो वज्रपाणिः पुरंदरः॥
शचीपतिश्च ध्यातव्यो नानाभरणभूषितः।
इति ध्यात्वा ॐ इन्द्राय नम इति मन्त्रेण संपूज्य
विचित्रैरावतस्थाय भास्वत्कुलिशपाणये।
पौलौम्यालिङ्गिताङ्गाय सहस्राक्षाय ते नमः॥
इति पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा प्रणमेत्। सनत्कुमारसंहितायां नवसप्ततितमेऽध्याये कार्तिकमाहात्म्ये —
आश्विने शुक्लपक्षे तु भवेद्या चैव पूर्णिमा।
तद्रात्रौ पूजनं कुर्याच्छ्रियो जागृतिपूर्वकम्॥
नारीकेलोदकं पीत्वा अक्षक्रीडां समारभेत्।
निशीथे वरदा लक्ष्मीः को जागर्तीतिभाषिणी॥
तस्मै वित्तं प्र484यच्छामि यो जागर्ति महीतले।
इत्युपक्क्रम्येतिहासमभिधायान्ते —
बहुरात्रव्यापिनी या साऽत्र पूर्णा विशिष्यते।
एवं लक्ष्मीव्रतं कृत्वा न दरिद्रो न दुःखभाक्॥
इत्युपसंहाराद्बहुरात्रिव्यापिनी ग्राह्येत्युक्तेः पूर्वदिन एव निशीथव्याप्तौ पूर्वा, उत्तरदिन एवं दिनद्वयेऽपि वा निशीथव्याप्तौ दिनद्वयेऽपिनिशीथस्पर्शाभावेऽप्युत्तरैवेति सिद्धम्। एतेन यदा पूर्वदिने निशीथव्याप्तिः परदिने प्रदोषव्याप्तिस्तदा परेद्युस्तत्कृत्यं प्रधानपूजाकालव्याप्त्यनुरोधादिति तिथितत्त्वम्, एतन्मूलिका कृत्यरत्नावलिश्च बहुरात्रिव्यापिनीतिवचनविरोधात्
तस्मै वित्तं प्रयच्छामि अक्षैः क्रीडां करोति यः।
इति वाक्येन क्रीडाजागरयोरेव फलसंबन्धबोधनात्तदपेक्षया पूजायाः प्राधान्ये, प्रदोषस्यैव पूजाकालत्वे च प्रमाणाभावाच्चचिन्त्येति दिक्।
नित्यमाश्वयुजे मासि पूर्णिमायां गणेश्वरः।
ऐरावतसमारूढः शक्रो लोकानुकम्पया।
परिभ्रमति लोकांस्त्रीन्पश्यन्भक्तवरप्रदः।
को जागरविधानेन मामाराधयतीत्युत॥
तेन कोजागरं नाम व्रतं लोकेषु विश्रुतम्।
विधानं तस्य वक्ष्यामि शृणुष्वैकाग्रमानसः॥
पूर्णिमाऽऽश्वयुजे मासि कौमुदी परिकीर्तिता।
तत्राऽऽराध्य महालक्ष्मीमिन्द्रं चैरावते स्थितम्॥
उपवासं प्रकुर्वीत दीपान्दद्याच्च भक्तितः।
लक्षं तदर्धमयुतं सहस्रं शतमेव वा॥
घृतेन दीपयेद्दीपांस्तिलतैलेन वा व्रती।
रात्रौजागरणं कुर्यान्नृत्यगीतपुरःसरम्॥
यथाविभवतो देयाः पुरवीथ्यासु दीपकाः।
ततः प्रभाते सुस्नातः संपूज्य च शतक्रतुम्॥
ब्राह्मणान्भोजयेच्चान्नं शर्कराघृतपायसैः।
वासोभिर्दक्षिणाभिश्च ततस्तान्पूजयेद्द्विजान्॥
यथाशक्ति च दातव्या दीपाःस्वर्णविनिर्मिताः।
एवं निर्वर्त्य विधिवत्ततः पारणमुच्यते॥
व्रतस्यास्य विधानेन कल्पान्वै दीपसंख्यकान्।
अप्सरोभिः परिवृतः सूर्यलोके महीयते॥
इह चाऽऽयुष्यमारोग्यपुत्रपौत्रादिसंपदः।
भवन्ति व्रतमाहात्म्यात्कुलश्रैष्ठ्यं गणेश्वर॥
इति निर्णयामृतोदाहृतस्कन्दपुराणोक्तं कोजागरव्रतम्। तत्र जागरोपवासयोर्विधानादुपवासस्य चाहोरात्रसाध्यत्वात्तत्र ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धतिथ्यभावे साकल्यवचनापादिततिथेरावश्यकत्वात्पूर्वविद्धपौर्णमासीलाभएव पूर्वा, अन्यथोत्तरैव ग्राह्या।
आश्वयुज्यां पौर्णमास्यां निकुम्भो वालुकार्णवात्।
आयाति सेनया सार्धं कृत्वा युद्धं सुदारुणम्॥
तस्मात्तत्र नरैर्मार्गाः स्वगृहस्य समीपगाः।
शोधितव्याः प्रयत्नेन भूषितव्याश्च मण्डनैः॥
वेश्मानि भूषितव्यानि नानारङ्गैर्विशेषतः।
सुस्नातैरनुलिप्तैश्च नरैर्भाव्यं सबालकैः॥
दिवा तत्र न भोक्तव्यं मानुषैश्च विवेकिभिः।
स्त्रीवृद्धमूर्खबालैश्च भोक्तव्यं पूजितैः सुरैः॥
इत्थंभूतलक्षणे तृतीया तेन पूजितसुरैरित्यर्थः।
पूज्याश्च सफलैः पुष्पैस्तथा द्वारोर्ध्वभित्तयः॥
द्वारोपान्ते प्रदीप्तस्तु संपूज्यो हव्यवाहनः।
यवाक्षतघृतोपेतैस्तण्डुलैस्तु सुतर्पितः॥
संपूजितव्यः पूर्णेन्दुः पयसा पायसेन च।
रुद्रः सभार्यः स्कन्दश्च तथा नन्दीश्वरो मुनिः॥
गोमद्भिः सुरभिः पूज्या छागवद्भिर्हुताशनः।
रा485रैभ्रवद्भिर्वरुणो गजवद्भिर्विनायकः॥
पूज्यःसाश्वैश्च रेवन्तो यथाविभवविस्तरैः।
ततः पूज्यो निकुम्भश्च समांसैस्तिलतण्डुलैः॥
सुगन्धिभिर्घृतोपेतैः कासराक्षैश्च भूरिभिः।
कासराक्षौ माहिषाख्यो गुग्गुलः॥
ब्राह्मणान्भोजयित्वा तु भोक्तव्यं मांसवर्जितम्।
निर्णयामृते ब्रह्मपुराणे — अस्तोत्तरं चन्द्रादिनिकुम्भान्तं देवपूजोत्तरंभोजनमुक्तम्। तत्र पूर्वदिन एव चेत्प्रदोषव्यापिनी पौर्णमासी तदापूर्वा। दिनद्वयेऽपि प्रदोषव्याप्तौ प्रदोषस्पर्शाभावे चोत्तरैव ग्राह्या।अस्यामेव शरद्याग्रयणं कार्यं पर्वणि स्यात्तदुच्यत इति शौनकेनाऽऽग्रयणमुक्तम्। तच्च पूर्वांश इष्टौ पूर्णिमायामिष्टेः पूर्वं कर्तव्यं प्रतिपदि इष्टौ पूर्वदिने पूर्णिमायां कर्तव्यम्। अमायां चेदिष्ट्युत्तरमेव कार्यमितीष्टिप्रकरणे वक्ष्यते। अत्रैवाऽऽश्वयुजीकर्मेति आश्वलायनेनाऽऽश्वयुजीकर्मोक्तंतदपि पर्वेष्टौ तदुत्तरं प्रतिपदीष्टौ पूर्वदिने पर्वणि कार्यम्। आश्वयुज्यामश्विनीगते चन्द्रमसि घृतपूर्णंभाजनं सुवर्णयुतं विप्राय दत्त्वा दीप्ताग्निर्भवतीति विष्णुक्ते दाने पौर्वाह्णिकी पौर्णमासी ग्राह्येति। अस्यामपि कार्तिकस्नानव्रतारम्भ उक्तो हेमाद्रावादित्यपुराणे —
पूर्ण आश्वयुजे मासि पौर्णमास्यां समाहितः।
मासं समग्रं परया च भक्त्या समाप्यते कार्तिक पौर्णमास्याम्। इति।इत्याश्विनी पूर्णिमा \। अथ कार्तिकी। तस्यां
पौर्णमास्यां तु संपूज्यो भक्त्या दामोदरः सदा।
ततश्चन्द्रोदयेपूज्यास्तापस्यःकृत्तिकास्तु षट्॥
कार्तिकेयस्तथा खड्गो वरुणश्चहुताशनः।
धान्यैः सशूकैरोर्ध्वंभूषितव्यं निशागमे॥
माल्यैर्धूपैस्तथा गन्धैर्भक्ष्यैरुच्चावचैस्तथा।
परमान्नैः फलैः शाकैर्वह्निब्राह्मणतर्पणैः॥
एवं देवांस्तु संपूज्य दीपो देयो गृहाद्बहिः।
दीपोपान्ते तथा गर्तश्चतुरस्रो मनोहरः।
चतुर्विंशाङ्गुलः कार्यःसिक्तश्चन्दनवारिणा॥
गवां क्षीरेण संपूर्णः समन्तात्परिरक्षितः।
तत्र हेममयो मत्स्यो मुक्तानेत्रमनोहरः॥
प्रक्षेतव्यो विधानेन नमोऽस्तु हरये पठेत्।
ब्राह्मणायाथ योग्याय दद्यात्तं क्षीरसागरम्॥
इति निर्णयामृते ब्रह्मपुराणे क्षीरसागरदानमुक्तम्। तत्र चन्द्रोदयइति निशागम इत्युक्तत्वात्प्रदोषव्यापिनी पौर्णमासी ग्राह्या।
कार्तिक्यां तु वृषोत्सर्गो विवाहःपुण्यलक्षणः।
कार्यःकुरुकुलश्रेष्ठ हरेर्नीराजनं तथा॥
राज्ञा च रथदानं च घृतधेन्वादयस्तथा।
प्रदेयाः पुण्यकृद्भिस्तु तास्ताः सकलदेवताः॥
इति भविष्योत्तरे।
कार्तिक्यां तु वृषोत्सर्गं कृत्वा नक्तं समाचरेत्।
शैवं पदमवाप्नोति शिवव्रतमिदं स्मृतम्॥
इति मात्स्येऽपि काम्यवृषोत्सर्गो विहितः। तत्र भविष्योत्तरीक्तवृषोत्सर्गादौ पौर्वाह्णिकी पौर्णमासी ग्राह्या। मात्स्योक्ते वृषोत्सर्गे तु
रुद्रव्रतेषु सर्वेषु कर्तव्या संमुखी तिथिः।
इति वचनात्पूर्वविद्धा ग्राह्या। यदा तु पूर्वविद्धा नास्ति द्वितीयदिने तु दिवैव समाप्ता, तदा पूर्वाह्णएव पौर्णमास्यां वृषोत्सर्गं कृत्वा, अङ्गभूतं नक्तं प्रदोषे प्रतिपद्यपि कार्यम्। न च तस्याङ्गत्वे नक्तं समाचरेदिति प्राधान्येन निर्देशोऽनुपपन्न इति शङ्क्यम्। वाजपेयेनेष्ट्वाबृहस्पतिसवेन यजेतेत्यत्रेवोपपन्नत्वात्।
नीलं च वृषभं दद्याच्चतुर्वत्सतरीयुतम्।
सर्वसस्यचरं रम्यं सर्वगन्धसमन्वितम्॥
सुवाससं बाह्मणाय महाकान्तारतारकम्।
यावन्ति तस्य रोमाणि शरीरे सन्ति संख्यया॥
तावद्युगसहस्राणि स्वर्गे वसति तत्प्रदः।
पूजयित्वा ततो विष्णुं रक्तमाल्यानुलेपनैः॥
भोक्तव्यं गोरसप्रायं स्वप्तव्यं स्थण्डिले ततः।
इति ब्रह्मपुराणे नीलवृषदानमुक्तम्। तत्र पौर्वाह्णिक्येव पौर्णमासी। नीलवृषलक्षणं तु —
लोहितो यस्तु वर्णेन मुखे पुच्छे च पाण्डुरः।
श्वेतः खुरविषाणाभ्यां स नीलो वृष उच्यते॥
इति बोध्यम्। अस्यां त्रिपुरदाहोत्सवो भविष्ये —
पौर्णमास्यां तु संध्यायां कर्तव्यस्त्रैपुरोत्सवः।
दद्यादनेन मन्त्रेण प्रदीपांश्च सुरालये॥
कीटाःपतङ्गा मशकाश्च वृक्षा
जले स्थले ये विचरन्ति जीवाः।
दृष्ट्वा प्रदीपं न च जन्मभागिनो
भवन्ति नित्यं श्वपचा हि विप्राः॥ इति।
अत्र पूर्णिमा प्रदोषव्यापिनी ग्राद्या \। दिनद्वये प्रदोषव्याप्तावव्याप्तौ वा परैव ग्राह्या। अस्या महत्त्वमुक्तं हेमाद्रौ पाद्मे —
आग्नेयं हि यदा ऋक्षं कार्तिक्यां तु भवेत्क्वचित्।
महती सा तिथिर्ज्ञेया स्नानदानादिषूत्तमा॥
आग्नेयं कृत्तिका।
यदा तु याम्यं भवति ऋक्षं तस्यां तिथौ क्वचित्।
तिथिःसाऽपि महापुण्या ऋषिभिः परिकीर्तिता॥
याम्यं भरणी।
प्राजापत्यं यदा ऋक्षं तिथौ तस्यां नराधिप।
सा महाकार्तिकी प्रोक्ता देवानामपि दुर्लभा॥
प्राजापत्यं रोहिणी। ब्रह्मपुराणे—
पुण्या महाकार्तिकी स्याज्जीवेन्द्वोः कृत्तिकास्थयोः॥ इति।
इति कार्तिकी। मार्गशीर्ष पौर्णमास्यां
पौर्णमास्यां तु तस्मात्तं पूजयेत्तत्र सर्वदा॥
शुक्लैःपुष्पैश्च पयसा श्रद्धया परया युतः।
रत्नैर्दीपैश्च बहुभिर्होमैर्ब्राह्मणतर्पणैः॥
गोभ्यश्च लवणं देयं तस्मिन्नहनि सर्वदा।
यस्मात्तु लवणं चन्द्राद्दक्षशापाद्विनिःसृतम्॥
कान्तं रूपं भवेत्स्त्रीणां पूर्णेन्दोः पूजना486त्सदा।
इति निर्णयामृते स्कान्दे चन्द्रपूजोक्ता। तत्र चन्द्रोदयव्यापिनी ग्राह्या। मार्गशीर्षशुक्लपञ्चदश्यां मृगशिरोयुतायांचूर्णितलवणस्य सुवर्णेन प्रस्थमेकं चन्द्रोदये ब्राह्मणाय प्रतिपादयेत्। अनेन कर्मणा रूपसौभाग्यलाभो जायत इति विष्णुनोक्तं सुवर्णसहितचूर्णितलवणदानम्। तत्रापि चन्द्रोदयव्यापिन्येव ग्राह्या। मार्गशीर्ष्यांप्रत्यवरोहणंचतुर्दश्यां पौर्णमास्यां वेति आश्वलायनेनोक्तम्। तत्पौर्णमास्यां चतुर्दश्यां वा कार्यम्। अथ पौष्यां पुष्यनक्षत्रयुतायां—
इदं जगत्पुरा लक्ष्म्या व्यक्तमासीत्ततो हरिः।
पुरन्दरश्च सोमश्चतथा पुष्यबृहस्पती॥
पञ्चैते पुष्ययोगेण पौर्णमास्यां तपोबलात्।
अलंकृतं पुनश्चक्रुः सौभाग्योत्सवलक्ष्मभिः॥
तस्मान्नरैः पुष्ययोगे तत्र सौभाग्यवृद्धये।
गौरसर्षपकल्केन समालभ्य स्वकां तनुम्॥
कृतस्नानैस्ततः कार्यमलक्ष्मीनाशनं परम्।
उद्वर्त्य देवं च तथा सर्वौषधियुतैर्जलैः॥
स्नापयित्वा नवं वस्त्रं गृहीत्वाऽऽच्छादनं ततः।
द्रष्टव्यं मङ्गलशतं धूपस्रग्माल्यशोभितम्॥
ततो नारायणः शक्रश्चन्द्रः पुष्यबृहस्पती।
संपूज्य धूप487दीपैश्च नैवेद्यैश्च पृथक्पृथक्॥
प्रशस्तैर्वैदिकैर्मन्त्रैः कृत्वाऽग्निहवनं शुभम्।
धनैर्विप्रांश्चसंतर्प्य नवैर्वस्त्रैश्च शोभितान्॥
ततः पुष्टिकरं हृद्यं भोक्तव्यं घृतपायसम्।
पुष्ययोगे तु कर्तव्यं राज्ञा स्नानं तु सर्वदा॥
इति ब्रह्मपुराणेऽलक्ष्मीनाशकं स्नानादिकमुक्तम्। तत्र पौर्वाह्णिकी पौर्णमासी ग्राह्येति पौषी।
कुष्ठं मांसी हरिद्रे द्वे मुरा शैलेयचन्दनम्।
वचा चम्पकमुस्ते च सर्वौषध्यो दशं स्मृताः॥
इति सर्वौपध्यः। पूर्णिमान्तमासमुपक्रम्य तिथितत्त्वे स्कान्दे —
पितॄणां देवतानां च मूलकं नैव दापयेत्।
ददन्नरकमाप्नोति भुञ्जीत ब्राह्मणो यदि॥
ब्राह्मणो मूलकं भुक्त्वा चरेच्चान्द्रायणं व्रतम्।
अन्यथा याति नरकं क्षत्रविट्शूद्र एव च॥ इति।
अथ माघ्यां —
माघे मासे तु संप्राप्ते पौर्णमास्यामुपोषितः।
ब्राह्मणेभ्यस्तिलान्दत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
इति हेमाद्रौ संवर्तेन तिलदानमुक्तम्। अत्र दानं पौर्णमास्यां विधीयते प्राधान्यात्ततश्चार्थाच्चतुर्दश्यामुपवास इति हेमाद्रिः। निर्णयामृतेभविष्योत्तरे —
माघ्यांमघासु तु तिलैःसंपूज्य पितृदेवताः।
तिलपात्राणि देयानि तिलैः सपललौदनम्॥
कार्पासदानमत्रैव धेनुदानं तु शस्यते।
कम्बलाजिनरत्नानि कञ्चुकौ पापमोचकौ॥
उपानद्दानमत्रैव कथितं सर्वकामदम्। इति।
तिलाःस्वर्णसमायुक्ता दुरितक्षयकारकाः।
विष्णुप्रीतिकरा नित्यमतः शान्तिं प्रयच्छ मे॥
इति तिलदानमन्त्रः।
देव देव जगन्नाथ वाञ्छितार्थफलप्रद।
तिलपात्रं प्रदास्यामि तवाङ्गे संस्थितेरहम्॥
इति तिलपात्रमन्त्रः।
और्णपट्टमनुध्येयं स्वर्णबीजं तव प्रभो।
दत्तं गृहाण देवेश पापं संहर सत्वरम्॥
इति कम्बलमन्त्रः। निर्णयामृते भविष्योत्तरे —
पौर्णमास्यां तु यो माघे पूजयेद्विधिवच्छिवम्।
सोऽश्वमेधमवाप्येह शिवलोके महीयते॥
इति दानादिकं विहितम्। तत्र पौर्वाह्णिकी पौर्णमासी ग्राह्या। माघीमघायुता चेत्स्यात्तस्यां तिलैः श्राद्धं कृत्वा पूतो भवतीति विष्णूक्तेश्राद्धे त्वापराह्णिकी ग्राह्या। अस्यां स्नानादिकमावश्यकमित्युक्तं भविष्योत्तरे —
वैशाखी कार्तिकी माघी तिथयोऽतीव पूजिताः।
स्नानदानविहीनास्ता न नेयाः पाण्डुनन्दन॥ इति।
इति माघी पौर्णमासी। अथ फाल्गुन्यां फाल्गुनी फल्गुनीयुताचेत्स्यात्तस्यां ब्राह्मणाय संस्कृतं स्वास्तीर्णं शयनं निवेद्य भार्यां मनोरमांपक्षवतीं द्रविणवतीं चाऽऽप्नोति, नार्यपि भर्तारमिति विष्णूक्तं शयनदानम्। अत्र मन्त्रस्तु—
यस्मादशून्यं शयनं केशवस्य शिवस्य च।
शय्या ममाप्यशून्याऽस्तु तस्माज्जन्मनि जन्मनि॥
अशून्यं शयनं नित्यम488न्यूनां श्रियमुन्नतिम्।
सौभाग्यं देहि मे नित्यं शय्यादानेन केशव॥ इति।
कृत्यचिन्तामणौ ब्राह्मे—
नरो दोलागतं दृष्ट्वा गोविन्दं पुरुषोत्तमम्।
फाल्गुन्यां संयतो भूत्वा गोविन्दस्य पुरं व्रजेत्॥ इति।
अत्र पौर्वाह्णिक्येव पौर्णमासी ग्राह्या। अत्रैव होलिकोत्सवः कर्तव्यः। तदुक्तं मदनरत्नोदाहृतभविष्यपुरा489णे कृष्णउवाच—
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि विस्तरेण पुरातनम्।
चरितं होलिकायास्तु पारम्पर्येण चाऽऽगतम्॥
आसीत्कृतयुगे पार्थ रघुर्नाम नराधिपः।
इत्याद्युपक्रम्य—
नाधर्मरुचयःपौरास्तस्मिञ्शासति पार्थिवे।
तस्यैवं शासतो राज्यं क्षत्रधर्मरतस्य वै।
सर्वे पौराःसमागम्यत्राहि त्राहीति चाब्रुवन्।
पौरा ऊचुः—
अस्माकं तु गृहे काचिड्ढुण्ढा नामेति राक्षसी।
दिवा रात्री समागम्य बालान्पीडयते बलात्॥
रक्षया दण्डकेनापि भेषजैर्वा नराधिप।
मन्त्रज्ञैः परमाचार्यैः सा नियन्तुं न शक्यते॥
इति तेषां वचः श्रुत्वा पुरोहितमथाब्रवीत्।
ढुण्ढेति राक्षसी केयं किंप्रभावा द्विजोत्तम॥
कथमेषानियन्तव्या मया दुष्कृतकारिणी।
वसिष्ठ उवाच —
ढुण्ढा नामेति विख्याता राक्षसी मालिनः सुता।
तया चाऽऽराधितः शंभुरुग्रेण तपसा पुरा॥
इत्यादिना वरप्रार्थनानन्तरम् —
एवमस्त्विति तामुक्त्वा पुनः प्रोवाच शूलभृत्।
उन्मत्तेभ्यः शिशुभ्यश्च प्रभवस्ते भविष्यति॥
प्रभवः पराभव इत्यर्थः, योग्यत्वात्।
ऋतुसंधौ महाभागे नान्यथा हृदये कृथाः।
इत्याद्यभिधाय
एवं लब्ध्वा वरं सा तु राक्षसी कामरूपिणी।
नित्यं पीडयते बालान्संस्मृत्य हरभाषितम्॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं दुण्ढायाश्चरितं मया।
सांप्रतं कथयिष्यामि येनोपायेन हन्यते॥
अद्य पञ्चदशी शुक्ला फाल्गुनस्य नराधिप।
शीतकालो विनिष्क्रान्तः प्रातग्रीर्ष्मो भविष्यति॥
अभयं त्वद्य लोकानां दीयतां पुरुषर्षभ।
यथा ह्यशङ्किता लोका रमन्ति च हसन्ति च॥
दारुजानि च खड्गानि गृहीत्वा समरोत्सुकाः।
योद्धार इव निर्यान्तु शिशवः संप्रहर्षिताः॥
संचयं शुक्लकाष्ठानामुपलानां च कारयेत्।
तत्राग्निं विधिवद्धुत्वा रक्षोन्घैर्मन्त्रविस्तरैः॥
तत्र किलकिलाशब्दैस्तालशब्दैर्मनोरमैः।
तमग्रिं त्रिः परिक्रम्य गायन्तु च हसन्तु च॥
तेन शब्देन सा पापा होमेन च निराकृता।
भयेन तेन सा रण्डा पलायेल्लज्जिता सती॥
मरिष्यति न संदेहो भस्मीभूता तु पूतना।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सनृपः पाण्डुनन्दन॥
सर्वं चकार विधिवद्यदुक्तं तेन धीमता।
गता सा राक्षेसी नाशं तेन चोग्रेण कर्मणा॥
ततःप्रभृति लोकेऽस्मिन्होलिका ख्यातिमागता।
सर्वदुष्टापहो होमः सर्वरोगोपशान्तिदः॥
क्रियतेऽस्यां द्विजैः पार्थ तेन सा होलिका स्मृतां।
अस्यां निशागमे पार्थ संरक्ष्याः शिशवो गृहे॥
गोमयेनोपलिप्तेच सचतुष्के गृहाङ्गणे।
आकारयेच्छिशुप्रायान्बहुव्यग्रकरान्नरान्490॥
ते काष्ठखड्गैः संस्पृश्य गीतैर्हास्यकरैः शिशून्।
रक्षन्ति तेभ्यो दातव्यं गुडपक्वान्नमेव च॥
एवं दुण्ढेति राक्षस्याः स दोषः प्रशमं व्रजेत्।
बालानां रक्षणं कार्यं तस्मात्तस्मिन्निशागमे॥
उपलाः शुष्कगोमयानि।सुचतुष्के सुचतुरस्रे। शिशुप्रायाः शिशुबहुलाः। ते काष्ठेति शिशुभिन्ना नरा इत्यर्थः। रक्षोघ्ना मन्त्रा रक्षोहणं वाजिनमित्यादयो वैदिकाः। होमे पूजामन्त्रस्तु —
असृक्पा भयसंत्रस्तैः कृता त्वं होलि चालिशैः।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव॥ इति।
ज्योतिर्निबन्धे —
फाल्गुने मासि संप्राप्ते शुक्लपक्षे सुखास्पदे।
पञ्चमीप्रमुखास्ताः स्युस्तिथयोऽनन्तपुण्यदाः॥
दश स्युः शोभनास्तासु काष्ठस्तेयं विधीयते।
अपत्यैर्वाऽथ वृद्धैर्वा युवभिर्वा दिनात्यये॥
प्राप्तायां पूर्णिमायां तु कुर्यात्तत्काष्ठदीपनम्।
चण्डालसूतिकागेहाच्छिशुहारितवह्निना॥
भद्रामुखं परित्यज्य होलाया दीपनं शुभम्।
स्नात्वा राजा शुचिर्भूत्वा स्वस्तिवाचनतत्परः॥
दत्त्वा दानानि भूरीणि दीपयेद्धोलिकाचितिम्।
ग्रामाद्वाहिश्च मध्ये वा तूर्यनादसमन्वितम्॥ .
दीपनमन्त्रः —
दीपयाम्यद्य ते घोरां चितिं राक्षससत्तमे।
हिताय सर्वजगतां प्रीतये पार्वतीपतेः॥
ततोऽभ्युक्ष्य चितिं सर्वा साज्येन पयसा सुधीः।
गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्य कृत्वा चैव प्रदक्षिणम्॥
नारिकेलानि देयानि बीजपूरफलानि च।
द्राक्षेक्षुकदलादीनि फलानि च समर्पयेत्॥
अर्चयित्वाऽक्षतै रक्तैः कुंकुमेन सुसंस्कृतैः।
गीतैर्वाद्यैस्तथा नृत्यैः रात्रिः सा नीयते जनैः॥
तमग्निं त्रिः परिक्रम्य शब्दैर्लिङ्गभगाङ्कितैः।
तेन शब्देन सा पापा राक्षसी तृप्तिमान्पुयात्॥
इत्युक्तम्। अयं होलिकोत्सवो भद्रारहितपूर्णिमायां प्रदोषे कर्तव्यः।
अस्यां निशागमे पार्थ संरक्ष्याः शिशवो गृहे।
बालानां रक्षणं कार्यं तस्मात्तस्मिन्निशागमे।
इति तद्विधानोक्तलिङ्गात्। तत्र भद्रासत्त्वे —
भद्रायां दीपिता होली राजभङ्गं करोति वै।
नगरस्य च नैवेष्टा तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥
इति पुराणसमुच्चये भद्रायां निषेधात्प्रदोषादूर्ध्वं निशीथात्प्राक्भद्रासमाप्तिश्चेत्तदा प्रदोषादूर्ध्वमपि निशीथात्प्राग्भद्रासमाप्तावेव कर्तव्यः ।
दिनार्धात्परतोऽपि स्यात्फाल्गुनी पूर्णिमा यदि।
रात्रौ भद्रावसाने तु होलिकां तत्र दीपयेत्॥
इति निर्णयामृतमदनरत्नाद्युदाहृतपुराणसमुच्चयवचनात्।
होलिकाशान्तिकं कर्म जनारोग्योत्सवाय च।
त्यक्त्वा भद्रां निशीथेऽपि ज्वाल्या भद्राग्निदाहकृत्॥
इति ज्योतिर्निबन्धे नारवचनाच्च। यदा तु निशीथादूर्ध्वं भद्रासमाप्तिश्चतुर्थप्रहरमारभ्य पूर्णिमाप्रवृत्तिस्तदा निशीथादूर्ध्वं तदनुष्ठाने नारदवाक्ये निशीथेऽपीत्यस्य वैयर्थ्यापत्तेः,
राकायामद्वयादूर्ध्वं चतुर्दृश्यां यदा भवेत्।
होलां भद्रावसाने च निशीथान्तेऽपि दीपयेत्॥
इति भविष्योत्तरवाक्ये यामद्वयादित्यस्य वैयर्थ्यापत्तेः।
प्रहरद्वयात्परतः फाल्गुनी पूर्णिमा यदा।
होलिका तु तदा पूज्या रात्रौ भद्रावशेषतः॥
इति ज्योतिर्निबन्धोदाहृतवाक्यवैयर्थ्यापत्तेश्च।
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा।
तस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे॥
इति ज्योतिर्निबन्धे नारदवचनेन भद्रामुखोत्तरं भद्रायामेव प्रदोष एव तद्विधानात्तत्रैव कार्यः। मुखपरिमाणमुक्तं नारदसंहितायां —
मुखे पञ्च गले त्वेका वक्षस्येकादश स्मृताः।
नाभौ चतस्रः षट्कट्यां तिस्रः पुच्छाख्यनाडिकाः॥ इति।
इदं पञ्चनाडीपरिमितं मुखमादिभाग एवं निशामुखसाहचर्यात्। दिनमुखमित्यादौ तथैव निश्चयात्। निषिद्धस्य सर्वस्य त्यागासंभवे —
प्रतिपद्याश्विने मासि भावो वैधृतिचित्रयोः।
आद्यपादौ परित्यज्य प्रारभेन्नवरात्रकम्॥
इत्यादावादिभागत्यागस्यैव दर्शनात्। यत्तु पञ्चद्व्यद्रिकृताष्टरामरसभूयामादिघट्यः शराविष्टेरास्यमसदिति मुहूर्तचिन्तामणावुक्तं तत् जलशिखिशशिरक्षःशर्वकीनाशवायुत्रिदशपतिककुप्सु प्रोक्तमास्यं हि विष्टेः।
नियतमृषिभिराशासंव्ययामक्रमेण स्फुटमिह परिहार्यं मङ्गलेष्वेतदेव।
इति रत्नमालोक्तेर्मङ्गलकार्यविषयकमेव न हुताशनीविषयम्। तद्विषयत्वे पूर्णिमायां चतुर्थप्रहरे विष्टिमुखस्वीकारे प्रदोषव्यापिनीति नारदवाक्यस्य निर्विषयत्वापत्तेः। न च यदा चतुर्दशी प्रहरमात्रं तदा पूर्णिमाप्रवृत्तिस्तदा प्रदोषे तन्मुखसंभवात्सावकाशं वचनमिति वाच्यम्। निशीथान्तात्पूर्वं भद्रावसानसंभवे
होलां भद्रावसाने तु निशीथान्तेऽपि दीपयेत्।
इति नारदवचनान्तरेणावसान एव तद्विधानेनास्य वैयर्थ्यात्। न च निशीथानन्तरं भद्रासमाप्तिस्थले सावकाशमिति शङ्क्यम्। तत्रापि प्रदोषे मुखप्रसक्त्यभावेन वैयर्थ्यस्य स्पष्टत्वात्। तस्मान्मङ्गलादिविषयकमेव तन्मुखं न हुताशनीविषयमिति सिद्धम्। अत एव तदेतदावश्यककार्यसंभवे सति मुखदिङ्मुखयात्रानिषेधकमित्तट्टीकासंगच्छत इति दिक्। न चैवम्
प्रतिपद्भूतभद्रासु यार्चिता होलिका दिवा।
संवत्सरं च तद्राष्ट्रं पुरं दहति सा द्रुतम्।
इति भद्रानिषेधकनारदपूर्ववाक्यविरोधः॥ उत्तरवाक्येण मुखोत्तरं भद्रायामेव तद्विधनाद्विधिस्पृष्टे निषेधायोगात्पूर्ववाक्यगत भद्राशब्दस्यभद्रामुखपरत्वस्याऽऽवश्यकत्वेन तद्विरोधाभावात। अत एव त्यक्त्वाभद्रां
निशीथेऽपीत्यादिनारदादिवाक्याविरोधार्थं वाक्यान्तरगतरात्रिशब्दस्य रात्रिपूर्वार्धपरत्वस्याऽऽवश्यकत्वाद्रात्रौ भद्रावसाने त्वितिपुराणसमुच्चयवचनस्यापि निशीथादूर्ध्वं विधायकत्वासंभवान्न तस्मादपि तत्र प्राप्तिः। अत एव —
**हुताशनीं फाल्गुनपौर्णमास्यां **
निशीथपूर्वं ज्वलयेच्छुभार्थी।
पश्चात्तमी तज्ज्वलने दिवा वा
नृपश्रियं हन्त्यपि पक्षतिर्वा॥
इति ज्योतिर्विदाभरणे रात्र्युत्तरार्धस्यानिष्टकारकत्वबोधककालिदासोक्तिः संगच्छते। नारदादिवचनमूलकत्वात्। विष्टिस्तदा नित्यतया न दोषकृदिति कालिदासोक्तिरपि विष्टिशब्दस्य विष्टिमुखोत्तरविष्टिपरतया संगतैव।
भद्रायां विहितं कार्यं होलिकायाः प्रपूजनम्॥ इति।
**मध्यरात्रमतिक्रम्य विष्टिपूर्तिर्यदा भवेत्। **
प्रदोषे ज्वालयेद्वह्निंसुखसौभाग्यदायकम्॥
प्रदोषान्मध्यरात्रान्तं होलिकापूजनं शुभम्।
इति द्वैतनिर्णयमयूखोदाहृतवचनमपि संगतमेव। प्रदोषादिति ल्यब्लोपपञ्चम्या नारदादिवाक्यसंवादित्वात्। एवं सतीदं निर्मूलमिति द्वैतनिर्णयः, अनाकरमिति मयूखश्वोपेक्ष्यो नारदादिवचनार्थापर्यालोचनमूलकत्वात्। एतेन राकायामद्वयादिति वचनान्निशीथात्परमपि कार्यमिति द्वैतनिर्णयः, शेषः सूर्योदयः स्मृत इतिपरिभाषितसूर्योदयात्पूर्वं भद्रावसाने कार्यमिति स्मृतिकौस्तुभः, कृत्यरत्नावलिः पूर्वेद्युरेव रात्रौ भद्रां विहाय कार्येति मयूखश्च नारदादिवचनकालिदासाद्यभियुक्तोक्तिविरुद्धत्वादुपेक्ष्या एव। यदा पूर्वप्रदोषो भद्रामुखव्याप्त उत्तरत्रास्तात्पूर्वमेव पूर्णिमा समाप्ता प्रतिपदश्च वृद्धिर्नास्ति, तदा प्रदोषानन्तरमपि निशीथात्प्रागेव भद्रामुखोत्तरं कर्तव्यः।
प्रदोषव्यापिनी न स्यात्तदा पूर्वदिने भवेत्।
भद्रामुखं वर्जयित्वा होलिकायाः प्रदीपनम्॥
इति ज्योतिर्निबन्धे नारदवचनात्। एतेन यदा पूर्वरात्रौ भद्रारहितः कालो न लभ्यते, तदा भद्रापुच्छे कार्यम्।
पृथिव्यां यानि कर्माणि शुभानि त्वशुभानि च।
तानि सर्वाणि सिध्यन्ति विष्टिपुच्छे न संशयः॥
इति वचनादिति द्वैतनिर्णयादयः सर्वे नवीनग्रन्था उपेक्ष्या नारदवचनविरुद्धत्वात्।
असिते सर्पिणी ज्ञेया सिते विष्टिस्तु वृश्चिकी।
सर्पिण्यास्तु मुखं त्याज्यं वृश्चिक्याः पुच्छमेव च॥
इति वाक्यादर्शनमूलत्वाच्च। यदा पूर्वत्र प्रदोषे भद्रामुखोत्तरकाललाभेऽपि द्वितीयदिने सार्धयामत्रयपरिमिता ततोऽधिका वा पूर्णिमा प्रतिपदश्च वृद्धिः, तदा
सार्धयामत्रयं वा स्याद्द्वितीये दिवसे यदा।
प्रतिपद्वर्धमाना तु तदा सा होलिका स्मृता॥
इति निर्णयामृतमदनरत्नाद्युदाहृतनिरवकाशभविष्योत्तरवचनादुत्तरदिन एव तत्र मुख्यप्रदोषानुरोधेन प्रतिपदि तदनुष्ठाने
प्रतिपध्दतभद्रासुयाऽर्चिता होलिका दिवा॥
इति नारदवाक्यस्य होलिकायां प्रतिपदं वर्जयेदित्यर्थकवह्नौवह्निंविवर्जयेदिति निर्णयामृतमदनरत्नाद्युदाहृतपुराणसमुच्चयवाक्यस्य च विरोधापत्तेः। पूर्णिमान्त्यभागे सायाह्न एवानुष्ठानम्।नच तत्रापि याऽर्चिता होलिका दिवेति नारदवाक्यविरोधो दुष्परिहर इति शङ्क्यम् ।
सायाह्नेहोलिकां कुर्यात्पूर्वाह्णे क्रीडनं गवाम्।
दीपं दद्यात्प्रदोषे तु एष धर्मः सनातनः॥
इति निर्णयामृतज्योतिर्निबन्धाभ्यां बलिराजप्रतिपत्प्रकरणे मदनरत्नेन चोदाहृतेन निरवकाशपुराणसमुच्चयवचनेन सायाह्ने491 तद्विधानाद्विधिस्पृष्टे निषेधायोगाद्दिवाशब्दस्य सायाह्नभागातिरिक्तदिवसपरत्वकल्पनस्याऽऽवश्यकत्वेन तद्विरोधाभावात्। अत एव —
सूर्यास्तकालावधिरेव पूर्णिमा-
धिकोनगा वा कलया तदा कृते।
श्राद्धे च तत्र ज्वलिता हुताशनी
नन्दातिथौ स्याद्रजउत्सवः श्रियै॥
इत्यापराह्निकश्राद्धोत्तरं सायाह्नेऽनुष्ठानबोधकज्योतिर्विदाभरणे कालिदासोक्तिःसंगच्छते492। सायाह्ने होलिकावचनमूलकत्वात्। एतेन प्रदोषे
प्रतिपद्येव कार्येति द्वैतनिर्णयो मयूखो निर्णयसिन्धुः स्मृतिकौस्तुभः कृत्यरत्नावल्यादयश्चोपेक्ष्याः। नारदवचनपुराणसमुच्चयवचनादि विरुद्धत्वात्। अत एवं वह्नौ वह्निं परित्यजेदिति वचनं सायंकाले भद्रारहितपूर्णिमासंभवे तामतिक्रम्य प्रतिपदि न कर्तव्येत्येतत्परमिति निर्णयामृतः संगच्छत इति दिक्। इत्थं सर्ववाक्याविरोधेन कृतस्य होलिकानिर्णयस्यायं संग्रहः — यदा पूर्वदिने निशीथान्तात्प्राग्भद्रावसानोत्तरकाललाभस्तदा तत्रैव होलिका दीपनीया। यदा निशीथानन्तरं भद्रासमाप्तिस्तदा भद्रामुखोत्तरं भद्रायामपि प्रदोष एव। यदा प्रदोषो भद्रामुखव्याप्तस्तदा प्रदोषानन्तरमपि भद्रामुखोत्तरमेव। यदा तु द्वितीयदिने सार्धयामत्रयं पूर्णिमा, प्रतिपदश्च वृद्धिस्तदा पूर्णिमान्त्यभागे सायाह्नकाल एव दीपनीया। इति होलिकानिर्णयः। चित्रादिमासर्क्षयुक्ताश्चैत्र्यादयोऽतिप्रशस्ताः। तदुक्तं हेमाद्रौविष्णुधर्मोत्तरे —
पौर्णमासीषु सर्वासु मासर्क्षसहितासु च।
दत्तानामिह दानानां फलं दशगुणं भवेत्॥
तत्रैव स्कान्दे —
यस्यां पूर्णेन्दुना योग याति जीवो महाबलः।
पौर्णमासी तु सा ज्ञेया महापूर्वी द्विजोत्तम॥
स्नानं दानं तथा जप्यमनन्तफलदं स्मृतम्।
ऐन्द्रे गुरुः शशी चैव प्राजापत्ये रविस्तथा॥
पूर्णिमा ज्येष्ठमासस्य महाज्येष्ठीति कीर्तिता।
ऐन्द्रं ज्येष्ठा। प्राजापत्यं रोहिणी। तत्रैव ब्रह्मपुराणे —
मेषराशौ यदा सौरिः सिंहे चन्द्रबृहस्पती।
भास्करः श्रवणर्क्षॆस्यान्महामाघीति सा स्मृता॥
शालग्रामे महाचैत्री कृता पुंसां महाफला।
गङ्गायां चैव वैशाखी ज्येष्ठी वै पुरुषोत्तमे॥
आषाढी वै कनखले केदारे श्रावणी तथा।
महाभाद्री बदर्यां च कुब्जायामेव चाऽऽश्विनी॥
पुष्करे कार्तिकी कान्यकुब्जे मार्गर्शिरीतथा।
अयोध्यायां महापौषी कृताः स्युः सुमहाफलाः॥
महामाघीप्रयागे तु नैमिषे फाल्गुनी तथा। इति।
स्थलान्तरेऽप्येताः प्रशस्तास्तदाह निर्णयामृते गार्ग्यः —
आसु यत्क्रियते श्राद्धं यच्च दानं यथाविधि।
उपवासादिकं यच्च तदनन्तफलं स्मृतम्॥
इत्याठवले इत्युपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूंनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे पौर्णमासी निर्णयः।
अथामावास्या निर्णीयते —
सा च सावित्रीव्रतातिरिक्तव्रतोपवासादावुत्तरविद्धैव ग्राह्या प्रतिपद्यप्यमावास्येति युग्मवाक्यात्। हेमाद्रौ पद्मपुराणेऽपि —
षष्ठ्यष्टमी तथा दर्शः कृष्णपक्षे त्रयोदशी।
एताः परयुताः पूज्याः पराः पूर्वयुतास्तथा॥ इति।
प्रचेताः —
नागविध्दातु या षष्ठी सप्तम्या च तथाऽष्टमी।
दशम्यैकादशी विद्धा त्रयोदश्या चतुर्दशी॥
भूतविद्धा त्वमावास्या न ग्राह्या मुनिपुंगव।
उत्तरोत्तरविद्धास्ताः कर्तव्याः काठकी श्रुतिः॥
मदनरत्ने बृहद्वसिष्ठो हेमाद्रौपद्मपुराणं च —
एकादश्यष्टमी षष्ठी उभे पक्षे चतुर्दशी।
अमावास्या तृतीया च ता उपोष्याः परान्विताः॥ इति।
सावित्रीव्रते तु पूर्वैव।
भूतविद्वा न कर्तव्या दर्शः पूर्णा कदाचन।
वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्रीव्रतमुत्तमम्॥
इति ब्रह्मवैवर्तात्।
भूतविद्धा ह्यमावास्या कर्तव्या न कदाचन।
वर्जयित्वा तु सावित्रीव्रतं तु शिखिवाहन॥
इति हेमाद्रौ स्कान्दाच्च।
कृष्णा षष्ठी बृहत्तपा सावित्री वटपैतृकी।
अनङ्गत्रयोदशी रम्भा उपोष्याः पूर्वसंयुताः॥
इति निगमाच्च। व्रतविधिस्तु निर्णयामृतमदनरत्नोदाहृतभविष्योत्तरे —
अमायां च तथा ज्येष्ठे वटमूले महासती।
त्रिरात्रोपोषिता नारी विधिनाऽनेन पूजयेत्॥
अशक्तौ तु त्रयोदश्या नक्तं कुर्याज्जितेन्द्रिया।
अयाचितं चतुर्दश्याममायां समुपोषणम्॥
इत्यादिनोक्तः। अत्र पूर्णिमान्तज्येष्ठमासस्यामावास्या पूर्वविद्धा ग्राह्या। तदनुरोधेन त्रयोदशीचतुर्दश्यौ ग्राह्ये। इति ज्येष्ठामावास्या।
मासे नभस्यमावास्या तस्यां दर्भोच्चयो मतः।
अयातयामास्ते दर्भा विनियोज्याः पुनः पुनः॥
इति हारीतेन दर्भसंग्रह उक्तः। नभाः श्रावणः। दर्शान्तश्रावणे जन्माष्टम्युत्तरामावास्येति लभ्यते। मासे नभस्येऽमावास्या तस्यां दर्भोच्चयो मत इति मरीचिवाक्ये नभस्यो भाद्रपदः। दर्शान्ते तस्मिन्महालयान्तर्गताऽमावास्येति लभ्यत इति केचित्। वस्तुतो दर्शान्तः पूर्णिमान्तो वेति चान्द्रस्य द्वैविध्याजन्माष्टम्यादौ व्यवहारद्वैविध्येऽप्येकैव जन्माष्टमीति सिद्धान्तः। तथा प्रकृतेऽपि दर्शान्ताभिप्रायेण हारीतवचनं पूर्णिमान्ताभिप्रायेण मारीचमिति जन्माष्टम्युत्तरैकैवामावास्येति युक्तम्। तत्र
समित्पुष्पकुशादीनां द्वितीयः प्रहरो मतः।
इति द्वितीय प्रहरे तद्विधानात्तद्व्यापिनी ग्राह्या। अस्यां कुलस्तम्भयात्रोक्ता काशीतत्त्वप्रकाशिकायां लैङ्गे —
कपालं पतितं तत्र स्नातस्य मम सुन्दरि ।
तस्मिन्स्नातो वरारोहे ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥
कपालेश्वरनामानं तस्मिंस्तीर्थेव्यवस्थितम्।
अश्वमेधमवाप्नोति दर्शनात्तस्य सुन्दरि॥
तस्यैव चोत्तरे पार्श्वे तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।
तत्र स्नात्वा वरारोह ऋणैर्मुक्तो भवेन्नरः॥
ऋणमोचनकं नाम्ना विख्यातं भुवि सुन्दरि।
त्रीणि लिङ्गानि तिष्ठन्ति तत्रैव मम सुन्दरि॥
तानि दृष्ट्वा तु सुश्रोणि नश्यते त्रिविधमृणम्।
तस्मात्सितोदकं493 नाम लोके ख्यातिं गमष्यति॥
मयाऽपि वात्र स्नातव्यं ब्रह्मणा विष्णुना सह।
सिंतोदकं494 पापमोचनम्।
यत्र स्तम्भे सदा देवि अहं तिष्ठामि सुन्दर।
तत्र गत्वा तु यः पूजां मम देवि करिष्यति॥
सर्वपापविनिर्मुक्तो गच्छेच्चपरमां गतिम्।
कुलस्तम्भस्थलेऽन्नं495 यो दद्यादामलकोन्मितम्496॥
परलोकेष्वशेषेषु क्षुधया नैव पीड्यते।
तत्र वैतरणी नाम दीर्घिका पश्चिमोन्मुखी॥
तस्यां नातो वरारोहे नरकं नैव गच्छति। इति।
महालयगताऽमावास्या हस्तनक्षत्रयोगे गजच्छायाभिधा।तदाह बौधायनः —
हंसे करस्थिते या तु अमावास्या करान्विता।
सा ज्ञेया कुञ्जरच्छाया इति बौधायनोऽब्रवीत्॥ इति।
कार्तिकामावास्यानिर्णयस्तु दीपावलीप्रकरण एवोक्तः।
अमायांमाघमासस्य पूजयित्वा पितामहम्।
सावित्र्या सहितं देवं वेदवेदाङ्गभूषितम्॥
नवनीतमयीं धेनुं फलैर्नानाविधैर्युताम्।
सहिरण्यां सवस्त्रां च ब्राह्मणाय निवेदयेत्॥
इति निर्णयामृते ब्रह्मपुराणे नवनीतधेनुदानमुक्तम्। तत्र देविकत्वात्पौर्वाह्णिकी ग्राह्या।हेमाद्रौविष्णुपुराणे —
माघासिते497 पञ्चदशी कदाचिदुपैति योगं यदि वारुणेन।
ऋक्षेण कालः स परः पितॄणां नह्यल्पपुण्यैर्नृप लभ्यतेऽसौ॥
वारुणमृक्षं शततारका।निर्णयामृते विष्णुपुराणे —
तत्रैव चेद्भाद्रपदस्तु पूर्वः काले तदा यत्क्रियते पितृभ्यः।
श्राद्धं परं तृप्तिमवाप्नुवन्ति युगान्सहस्रं पितरश्च तेन॥
इति पूर्वाभाद्रपदायोगोऽपि प्रशस्त उक्तः। धनिष्ठायोगोऽतिप्रशस्तस्तदुक्तं निर्णयामृते भारते —
काले धनिष्ठा यदि नाम तस्मिन्भवेत्तु भूपाल तदा पितृभ्यः।
दत्तं तिलान्नं प्रददाति तृप्तिं वर्षायुतं तत्कुलजैर्मनुष्यैः॥ इति।
अस्यां रविवारश्रवणनक्षत्रव्यतीपातयोगेऽर्धोदयनामको योगो भवति। तदुक्तं निर्णयामृतमदनरत्नयोर्महाभारते —
अमार्कपातश्रवणैर्युक्ता चेत्पौषमाघयोः।
अर्धोदयः स विज्ञेयः कोटिसूर्यग्रहैः समः॥ इति।
निर्णयामृते तिथितत्त्वे चास्य शेषः —
दिवैव शस्तो योगोऽयं न तु रात्रौ कदाचन।
इति पठ्यते । एतेन रात्रावपि कदाचनेत्यर्वाचीनोदाहृतपाठोऽयुक्तत्वादुपेक्ष्यः। मदनरत्ने स्कान्दमपि —
माघामायां व्यतीपात आदित्ये विष्णुदैवते।
अर्धोदयं तदित्याहुः सहस्रार्कग्रहैः समम्॥
**तथा —माघमासे कृष्णपक्षे पञ्चदश्यां रवेर्दिनम्। **
वैष्णवेन तु ऋक्षेण व्यतीपातस्तु दुर्लभः॥ इति।
निर्णयामृते स्कान्दे —
अर्धोदये तु संप्राप्ते सर्व गङ्गासमं जलम्।
शुद्धात्मानो द्विजाः सर्वे भवेयुर्ब्रह्मसंमिताः॥
**यत्किंचित्क्रियते दानं मेरुसंनिभमिष्यते। **
**चतुःषष्टिपलं मुख्यममत्रं तत्र कारयेत्॥ **
**चत्वारिंशत्पलं वाऽपि पञ्चविंशतिमेव वा। **
निधाय पायसं तत्र पद्ममष्टदलं लिखेत्॥
पद्मस्य कर्णिकायां तु कर्षमात्रं सुवर्णकम्।
तद्भावे तदर्थं वा तदर्धं वाऽपि धारयेत्।
कृत्वा तु तण्डुलैः शुद्धैः पद्ममष्टदलं शुभम्।
**अमत्रं स्थापयेत्तत्र ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम्॥ **
तेषां प्रीतिकरार्थाय श्वेतमाल्यैः सुशोभनैः।
वस्त्रादिभिरलंकृत्य ब्राह्मणाय निवेदयेत्॥
मन्त्रः —
सुवर्णपायसामत्रं यस्मादेतत्त्रयात्मकम्।
आवयोस्तारकं यस्मात्तद्गृहाण द्विजोत्तम॥ इति।
**समुद्रमेखला पृथ्वी सम्यग्दत्तस्य यत्फलम्। **
तत्फलं लभते मर्त्यः कृत्वा दानममत्रकम्॥ इति।
इत्यर्धोदयः। आर्द्रादिनक्षत्रयुक्ताऽमावास्या ‘श्राद्धेऽतिप्रशस्ता। तदुक्तं हेमाद्रिनिर्णयामृतयोर्विष्णुपुराणे —
अमावास्या यदा मैत्रविशाखास्वातियोगिनी।
श्राद्धे पितृगणस्तृप्तिं तदाऽऽप्रोत्यष्टवार्षिकीम्॥
अमावास्या यदा पुष्ये रौद्रर्क्षेवा पुनर्वसौ।
द्वादशाब्दीं तदा तृप्तिं प्रयान्ति पितरोऽर्चिताः॥ इति।
हेमाद्रौ शातातपः —
अमावास्या भवेद्वारे यदा भूमिसुतस्य वै।
जाह्नवी स्नानमात्रेण गोसहस्रफलं लभेत्॥
तत्रैव महाभारते —
अमा सोमे तथा भौमे गुरुवारे यदा भवेत्
तत्तीर्थं पुष्करं नाम सूर्यपर्वशताधिकम्॥
श्रावणाश्विधनिष्ठार्द्रा नागदैवतमस्तकैः।
अमा चेद्रविवारेण व्यतीपातः स उच्यते॥
तत्र दत्तं हुतं जप्तं सर्वं कोटिगुणं भवेत्। इति॥
शङ्खः —
अमावास्या तु सोमेन सप्तमी भानुना संह498।
चतुर्थी भूमिपुत्रेण सोमपुत्रेण चाष्टमी।
चतस्रस्तिथयस्त्वेताः सूर्यग्रहणसंनिभाः।
स्नानं दानं तथा श्राद्धं सर्वं तत्राक्षयं भवेत्॥ इति।
इत्याठवले उपनामक श्रीमद्रामकृष्णासूरिसूनुविष्णुभट्टविरचिते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डेऽमावास्यानिर्णयः।
अथेष्टयुपयोगि पर्व निर्णीयते —
तत्र पर्व द्विधा पौर्णमासी, अमावास्या चेति। तयोः स्वरूपं गोभिलेन दर्शितम् —यः परमो विप्रकर्षः सूर्याचन्द्रमसोः सा पौर्णमासी। यः परमः संनिकर्षः साऽमावास्येति। तत्र पूर्णिमानिर्वचनं मत्स्यब्रह्माण्डपुराणयोः —
कलाक्षये व्यतिक्रान्ते दिवा पूर्णौ परस्परम्।
चन्द्रादित्यौ पराह्ने तु पूर्णत्वात्पूर्णिमा स्मृता॥ इति।
अपराह्न सूर्यास्तमयकाले यथाऽऽदित्यः संपूर्णमण्डलः सन्नस्तमेति तथोत्तरक्षणे चन्द्रः संपूर्णमण्डल : सन्नुदेतीति दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकभाव —
विवक्षयाऽऽदित्यचन्द्रगोरुपन्यासः।अमावास्यानिर्वचनं मत्स्यवायुब्रह्माण्डपुराणेषु —
अमा वसेतामृक्षेषु यदा चन्द्रदिवाकरौ।
एषा पञ्चदशी रात्रिरमावास्या ततस्तु सा॥ इति।
शतपथब्राह्मणे तु ‘ते देवा अब्रुवन्। अमा वै नोऽद्य वसुर्वसतियो नः प्रावात्सीत्’।इत्यादिना देवेन्द्रसमागमनिमित्तकमपि निर्वचनम्। एवमादिबहुविधं हेमाद्रौ तत्प्रकृतानुपयोगान्न लिखितम्। ते च पौर्णमास्यमावास्ये द्विविधे। तयोः स्वरूप499ंकठशाखायामैतरेयबाह्मणे च ‘या पूर्वा पौर्णमासी साऽनुमतिर्योत्तरा सा राका या पूर्वाऽमावास्या सा सिनीवाली योत्तरा सा कुहूः’ इति। तल्लक्षणमुक्तं बृहद्वसिष्ठेन —
राका संपूर्णचन्द्रा स्यात्कलोनाऽनुमतिः स्मृता।
पौर्णमासी दिवा दृष्टे शशिन्यनुमतिः स्मृता॥
रात्रिदृष्टे पुनस्तस्मिन्सैव राकेति कीर्तिता।
हृष्टचन्द्राममावास्यां सिनीवालीं प्रचक्षते॥
एतामेव कुहूमाहुर्नष्टचन्द्रां महर्षयः॥ इति।
तत्र कुहूभिन्नानां तिसृणां लघ्वक्षरोच्चारणपरिमितः कालः संधिरित्युच्यते। कुह्वास्त्वक्षरद्वयपरिमितस्तदुक्तं हेमाद्रौ भगवतीपुराणे —
अनुमत्याश्च राकायाः सिनीवाल्याः कुहूं विना।
एतासां द्विलवः कालः कुहूमात्रा कुहूः स्मृता॥ इति।
लवस्वरूपं माधवे स्मृत्यन्तरे —
लघ्वक्षरचतुर्भागत्रुटिरित्यभिधीयते॥
त्रुटिद्वयं लवः प्रोक्तो निमेषस्तु लवद्वयम्।
तथा च लवद्वयं लध्वक्षरं भवति लध्वक्षरपरिमिते काल एकः पर्वणो भागो द्वितीयः प्रतिपदस्तदुभयं मिलितं संधिर्भवति। कुहूप्रतिपदोः संधिस्तु द्विगुणो हेमाद्रौ मत्स्यब्रह्माण्डपुराणयोः —
कुह्विति कोकिलेनोक्ते500 यावान्कालः समाप्यते।
तत्कालसंज्ञिता चैषा अमावास्या कुहूः स्मृता॥ इति।
संधिस्वरूपे ज्ञाते संधौ यजेत इति श्रुतेः संधौ यागः कर्तव्यस्तस्य चातिसूक्ष्मत्वेन कर्मानुष्ठानायोग्यत्वात्संधिशब्दः संधिपार्श्वद्वयं
लक्षयति। तथा च संधिपार्श्वद्वये संधौ यजेतेति श्रुतिर्यागं विधत्ते। अत एव श्रुत्यन्तरम् — संधिमभितो यजेत, इति। हेमाद्रौ बौधायनोऽपि —
सूक्ष्मत्वात्संधिकालस्य संधेर्विषय उच्यते।
सामीप्यं विषयं प्राहुः पूर्वेणाथ501 परेण वा॥ इति।
अत्र पूर्वापरशब्दाभ्यां संधेः प्राचीनं पर्वदिनमुत्तरं प्रतिपद्दिनं चाभिधीयते। अत्र502व्यवस्थामाह श्रुतिः—पूर्वेद्युरिघ्माबर्हिः करोति यज्ञमेवाऽऽरभ्य गृहीत्वोपवसति, इति। अन्वाधानं नाम, इघ्माबर्हिःसंपादनमग्निपरिग्रह उपस्तरणं चेत्येवमादिः प्रयोगप्रारम्भः स पूर्वेद्युः कर्तव्यः। शतपथेऽपि—पूर्वेद्युरग्निं गृह्णात्युत्तरमहर्यजति, इति। अत्राग्निग्रहणं नामाध्वर्युणाऽऽहवनीयगार्हपत्यदक्षिणाग्निषु ‘ममाग्ने वर्च’ इत्याद्यृग्भिः समिदाधानलक्षणेऽन्वाधाने क्रियमाणे पार्श्ववर्तिना यजमानेनाग्निं गृह्णामीत्यादिमन्त्रपठनम्। तदिदं पर्वदिने क्रियते। प्रतिपद्दिने तु ‘कर्मणे वां देवेभ्यः शकेयम्’ इत्यादिभिरध्वर्युर्हस्तप्रक्षालनतण्डुल निर्वापपुरोडाशप्रदानादिलक्षणं प्रयोगं करोति । तदिदं यजनम्। एतदेवाभिप्रेत्य गोभिलः ‘पक्षान्ता उपवस्तव्याः पक्षादयोऽभियष्टव्याः’ इति।अत्रोपवासशब्देनाग्न्युपस्तरणादिर्विवक्षितः। तस्मिन्क्रियमाणे यजमानसमीपेदेवानां निवासात्। एतत्तैत्तिरीयब्राह्मणे —उपास्मिञ्छ्वॊयक्ष्यमाणे देवता वसन्ति य एवं विद्वानग्निमुपस्तृणाति, इति। लौगाक्षिणाऽत्रविशेषो दर्शितः —
त्रीनंशानौपवस्तस्य यागस्य चतुरो विदुः।
द्वावंशांवुत्सृजेदन्त्यौ503 यागे च व्रतकर्मणि॥ इति।
औपवस्तस्याग्न्यन्वाधानादेखीनंशान्विदुर्यागस्य चतुरोंऽशान्विदुरन्त्यावंशौ पञ्चदशीप्रतिपत् संबन्धिनावुत्सृजेत्परित्यजेत्। पञ्चदश्या अन्त्यमंशं व्रतकर्मणि, प्रतिपदन्त्यं याग इत्यर्थः। तत्रापि पर्वचतुर्थांशत्यागः सद्यस्कालातिरिक्त विषयः। तत्र चतुर्थांश एव सद्यो वा सद्यस्कालायामित्यादिना तद्विधानात्।ते के चत्वार इत्याकाङ्क्षायां यज्ञपार्श्वः —
पञ्चदश्याः परः पादः पक्षादेः प्रथमास्त्रयः।
कालः पार्वणयागे स्यादन्यथा तु न विद्यते॥
कात्यायनः—
न यष्टव्यं चतुर्थेंऽशे याः प्रतिपदः क्वचित्।
रक्षांसि तद्विलुम्पन्ति श्रुतिरेषा सनातनी॥
तथा — प्रतिपदंशास्त्रयो भूताः पादश्चैकश्च तिष्ठति।
यातयामः स विज्ञेयो न हि भस्मनिहूयते॥
न च पर्वचतुर्थांशादिस्मार्ते यागकाले गृह्यमाणे संधौ यजेतेत्यादिश्रुतिविरोधः संधेरतिसूक्ष्मत्वेन तत्र साङ्गप्रयोगानुपपत्तेः। संध्यादिश्रुत्यपेक्षितसंधिसामीप्यावधिविषयत्वात्स्मृतेः। यथा स्वयं विशेषाक्षेपसमर्थोऽपि504अक्ताः शर्करा उपधातीति विधिर्वाक्यशेषोपस्थापितं घृतं, यथा वा पशुना यजेतेति विधिर्मन्त्रवर्णप्रापितं छागं स्वी करोति, तथा संधौयजेतेति श्रुतिः स्मृतिवाक्यप्रापितं पर्वचतुर्थांशादिकं संधिपरिच्छेदकं स्वीकरोत्येव। ‘पौर्णमास्यां पौर्णमास्या यजेत, अमावास्यायाममावास्यया यजेतेति श्रुतिद्वयमुक्तसंधिपरं पर्वचतुर्थांशपरं वा बोध्यम् । तत्राप्यहन्येव यागः ‘पूर्वेद्युरग्निंगृह्णात्युत्तरमहर्यजतीत्यहर्विधानात्। तत्रापि पूर्वाह्न एवं पूर्वाह्णौवै देवानामिति श्रुतेस्तत्रापि प्रातरेव।
पर्वणो यश्चतुर्थांश आद्याः प्रतिपदस्त्रयः।
यागकालः स विज्ञेयः प्रातरुक्तो मनीषिभिः॥
इति वृद्धशातातपवचनात्, प्रातर्यजध्वमिति मन्त्रलिङ्गाच्च। तथाऽङ्गिरसो माऽस्य यज्ञस्य प्रातरनुवाकैरवन्त्विति श्रुतेश्च। अत्र प्रातरिति विशेषणात्सूर्योदयोत्तरमुहूर्तत्रयं यागकाल इत्युक्तं भवति, न तस्य सायमश्नीयाद्येन प्रातर्यक्ष्यमाणः स्यादिति प्रातःकालस्येव यागसंबन्धागमाच्च। कात्यायनेनापि— सद्यो वा प्रातरिति प्रातःकाल एवोक्तः। हेमाद्रौ श्रुत्यन्तरेऽपि —‘तत्र यजेत यत्रैनं पश्चादस्तमितं पुरस्तादादित्योऽभ्युदेति’ इति। आदित्योदयकाल एव यजेतेत्यवगम्यते। उदित आदित्ये पौर्णमास्यास्तन्त्रं ब्रवीमीत्युदयानन्तरमेव यागानुष्ठानमापस्तम्बेनोक्तम्। प्रागुदयामावास्यायामित्यत्रोदयात्पूर्वमुपक्रम एव न त्विष्टिरहर्विधानविरोधात्। हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरं च —
पूर्वोदिते कलाहीने चन्द्रे पूर्वां विचक्षणः।
उपवसेदिति शेषः। तदेवं पर्वण्यन्वाधानं प्रतिपदि चेष्टिरिति संधिपार्श्वयोः प्रारम्भसमाप्ती।यदा रात्रौ पर्वसमाप्तिस्तदा व्यवस्थित एव सर्वे —
षाम्। दिवा संधौतु उदितानुदितहोमवत्तत्तच्छाखोक्तविशेषानुरोधेनैव व्यवस्था वक्तव्या। तत्र तावद्बौधायनमतानुसारिणां रात्रिसंधौ तदहरन्वाधानमुत्तरेधुर्यागो दिवासंधौ पूर्वेनुरुपवासस्तदहर्यागः। तदाह कर्मान्तसूत्रे बौधायनः —
अथेमौ दर्शपूर्णमासौ पौर्णमास्युपक्रमावमावास्यासंस्थानावाचार्या ब्रुवते। तत्रोदाहरन्त्यूर्ध्वमर्धरात्रात्पौर्णमास्यां चन्द्रमाः पूर्यते स एवं चापररात्रं पूर्णो भवति सर्वं चाहरुत्तरस्याश्च रात्रेरामध्यरात्रादमावास्याया उपवसथीयेऽहन्यूर्ध्वंमध्यंदिनाञ्चन्द्रमसमादित्यो लभते स एतं चापराहं लब्धो भवति सर्वां च रात्रिमुत्तरस्य चाह्न आमध्यंदिनादेतं संधिमभियजेतेति रात्रिर्ह पौर्णमास्यां संधेया भवत्यहरमावास्यायां द्वे पौर्णमास्यौ द्वे अमावास्ये पूर्वां पूर्वांपौर्णमासीमुत्तरामुत्तराममावास्यामिति। अत्रोदाहरन्ति श्रुतिमिति शेषः। पौर्णमास्यामिति विषयनिर्देशः। ऊर्ध्वं मध्यरात्राच्चन्द्रमाः पूर्यते पौर्णमासी प्रवर्तत इत्युक्तं भवति। सैतमपररात्रमनन्तरं च सर्वमहरुत्तरस्या रात्रेरामध्यरात्रादनुवर्ततेऽतो विच्छिद्यते सोऽयं रात्रिसंधिरुक्तः। अथामावास्याविषय औपवसथीयेऽहनि यागदिनात्पूर्वेद्युरूर्ध्वंमध्यंदिनाच्चन्द्रमसमादित्यो लभते, अमावास्या प्रवर्तते, सैतमपराह्नमनन्तरां सर्वां रात्रिमुत्तरस्याह्न आमध्यंदिनादनुवर्तते ततः प्रतिपद्भवति स एष दिवासंधिरुक्तः। एतं रात्रिसंधिमभिलक्ष्य संधेः पूर्वेद्युरग्रीनन्वाधायोत्तरेद्युर्यजेत। तथैतं दिवासंधिमभिलक्ष्य तदहर्यजेतेति। एवं श्रुतिमुदाहृत्य तद्गतौ मध्यरात्रमध्यंदिनशब्दौ रात्रिसंधिदिवासंध्योरुपलक्षकौविवक्षिताविति प्रतिपादितं भवति। अनयोश्च पौर्णमास्यमावास्याविषयश्रुत्योः प्रदर्शनार्थत्वं वक्तुमुत्तरसूत्रे द्वे पौर्णमास्यौ द्वे अमावास्ये पूर्वांपूर्वांपौर्णमासीमुत्तरामुत्तराममावास्यामित्यस्यायमर्थः। रात्रिसंधिदिवासंधिमत्यौ द्वे पौर्णमास्यौ दिवासंधिरात्रिसंधिमत्यौ च द्वे अमावास्ये। तत्र दिवासंधिः पूर्वाऽमावास्या पौर्णमासी वा। रात्रिसंधिस्तूत्तरा। अत्र पूर्वाऽमावास्योक्ता न तु पौर्णमासी तामुपमाव्याजेनाऽऽह पूर्वांपूर्वां पौर्णमासीमिति। अयमर्थः —पूर्वाममावास्यामिव पूर्वापौर्णमासीं जानीयादिति। ततश्च दिवासंधिमत्यां पौर्णमास्यां यागःपूर्वेद्युरुपवास इति सिद्धम्। तथोत्तरा पौर्णमास्युक्ता न त्वमावास्या। तां पौर्णमासीं निरूपयन्नाह —उत्तरामुत्तराममावास्यामिति
उत्तरां पौर्णमासीमुक्तामिवोत्तराममावास्यां जानीयादिति। ततश्च रात्रिगतममावास्याप्रतिपत्संधिमुपवासयागयोर्मध्ये कुर्यादित्यर्थः। इति हेमाद्रिणेत्थं व्याख्यानात्। नन्वेवं ग्रीष्मकाले सूर्यास्तासन्नसंधिमद्दिने प्रातःकाले पर्वद्वितीयांशतृतीयांशयोर्यागानुष्ठानं प्राप्नोति। तच्च पर्वणो यश्चतुर्थांश इत्यादिस्मृतिविरुद्धम्। भवतु तर्हि पर्वचतुर्थांशे संधिसमीपेऽनुष्ठानं तस्यापि प्रातर्यजध्वमिति श्रुतिविरुद्धत्वात्। अत एवैतादृशविषये माधवाचार्यैः —
संधिर्यत्रापराह्णॆस्याद्यागं प्रातः परेऽहनि।
कुर्वाणः प्रतिपद्भागे चतुर्थेऽपि न दुष्यति॥
इत्यनेनोत्तरत्रैवेत्युक्तम्। इदमप्युदाहृतबौधायनसूत्र उदाहरिष्यमाणानेकवचनविरुद्धमेव। यदपि मदनरत्ननिर्णयामृताभ्यां कैश्चिदाधुनिकैश्च संधिर्यत्रापराह्ने स्यादिति वचनमेव निर्णायकत्वेन पुरस्कृतं तत्सुतरामेव। कालतत्त्वविवेचने चोत्तरदिने प्रतिपञ्चतुर्थांशेऽपि पौर्णमास्यां शातातपवचनाद्याग इति माधवादिबहूनां संमतम्। हेमाद्रेस्त्वस्य वचनत्वासंमतेरुत्तरत्र प्रतिपत्तृतीयांशसत्त्व एव यागोऽन्यथा तु पूर्वत्रैवेत्युक्तमिदमपि सर्वं तथैव। न च प्रातर्यजध्वमिति मन्त्रलिङ्गात्प्रातःकाले वाऽऽदर्तव्यमिति युक्तमप्राकरणिकमन्त्रलिङ्गात्संधौ यजेतेति श्रुतेर्बलवत्त्वात्। अत एव प्रायश्चित्तप्रदीपे — पर्वण्यस्तमयात्पूर्वं सप्ताष्टनाडिकापरिमितप्रतिपत्तिथिश्चेत्प्रविष्टस्तस्मिन्नहनि यागः पूर्वेद्युरन्वाधानम् \। यथाऽऽह भवस्वामी —
इष्टिप्रयोगपर्याप्तेप्रविष्टे प्रतिपत्तिथौ।
यष्टव्यमपराह्णॆऽपि नालं चेदुत्तरेऽहनि॥
गोपालकारिकायामपि —
अन्यो दिनान्ते रात्र्यां वा प्राहेष्टिं संधियागयोः।
संनिधानमतस्तेन काले होमोऽप्यनाद्तः॥
इत्युक्तम्। न च तत्तत्स्मृत्युक्तं तत्तत्स्मृतिकर्तृसबन्धिनामेवाऽऽवश्यकं नान्येषामिति न तद्विरोध इति वाच्यम्। अनुमानव्यवस्थानात्तत्संयुक्तं प्रमाणं स्यादिति सूत्रे प्रथमे स्मॄत्याचाराणां सर्वसाधारण्यव्यवस्थापनात्। परकृतिपुराकल्पमिति सूत्रे षष्ठे दृष्टिकर्तृको505ह्यत्र माषपाकः स्तूयते।तस्मात्तद्गोत्रैरेव कर्तव्य इति पूर्वपक्षे माषपाकमात्रं विधीयते। तत्त्वविशेषात्सर्वं पुंसां धर्म इति तन्त्ररत्ने सिद्धान्तितत्वाच्च। न च बौधायनशाखोक्तं कर्म भिन्नमेव। तत्र —
बह्वल्पं वा स्वगृह्योक्तं यस्य कर्म प्रचोदितम्।
तस्य तावति शास्त्रार्थे कृते सर्वं कृतं भवेत्॥
इति बैजवापवचनान्न दोष इति वाच्यम्। एकं वा संयोगरूपचोदनाख्याविशेषात्, इति सूत्रे द्वितीये —
सर्वत्र प्रत्यभिज्ञानात्संज्ञारूपगुणादिभिः।
एककर्मत्वविज्ञानं न शाखास्वपि गच्छति॥
इति वार्तिकेनैव शाखाभेदेन कर्मभेदस्य निरस्तत्वात्। बैजवापवचनस्य तु सर्वशाखोक्ताङ्गोपसंहारेण कर्तुमसमर्थेनापि स्वशाखोक्तमात्रमव्यवश्यं कर्तव्यमेवेत्यत्र तात्पर्यात्। यदि च शिष्टाकोपाधिकरणोक्तरीत्याऽप्रकरणाधीत स्मार्तदक्षिणा चारादेरिवाप्राकरणिकबोधितस्यापि प्रातःकालस्य न दुर्बलत्वमित्युच्यते, तथाऽपि श्रुतिद्वयस्यापि प्रवृत्तिस्वीकारेऽष्टदोषदुष्टविकल्पापत्तेरप्रतिपत्तिर्वोभयोरिति महाभाष्यकारोक्तरीत्या प्रकृते परस्परविरोधाच्छ्रुतिद्वयस्याप्रवृत्तौव्यवस्थापकप्रवृत्तेर्निर्बाधत्वात्। तस्मात्तत्र प्रातःकाले पर्व चतुर्थांशादिकालाभावात्प्रातर्यागानुष्ठानं स्मृतिविरुद्धमेवेति चेन्न।
श्रौतानां कर्मणां क्लृप्तिः कल्पसूत्रं तदुच्यते।
तथैव गृह्यकल्पानां स्मार्तानां तूपसंग्रहः॥
शाखानां विप्रकीर्णत्वात्पुरुषाणां प्रमादतः।
नानाप्रकरणस्थत्वात्स्मृतेर्मूलं न लक्ष्यते506॥
इति संस्कारपारिजाते हेमाद्रौ पौलस्त्यवचनेन स्मृतेः सूत्रस्य बलवत्त्वप्रतिपादनात्सूत्रोक्तेऽपि प्रातःकाले यागानुष्ठाने स्मृतिविरोधो न दोषावहः। बौधायनोदाहृतश्रुतिविहिते प्रातःकालानुष्ठाने तु तत्संभावनैव न। वस्तुतस्तु बौधायनसूत्रे दिवासंधिः पौर्णमास्याम् —
यज्ञकालस्तिथिद्वैधे षट्कालो यदि लभ्यते।
पर्व तत्रोत्तरं कार्यं हीने पूर्वमुपक्रमेत्॥
इत्यादिहेमाद्र्युदाहृतगार्ग्यादिवाक्यैकवाक्यतयोत्तरदिने षड्घटिकान्यूनप्रतिपत्तृतीयांशे यागमसञ्जको ग्राह्यः। अमावास्यायां दिवासंधिस्तूत्तरदिने त्रिमुहूर्तद्वितीयायुक्तप्रतिपदि यागप्रसञ्जको बोध्यः। द्वितीया त्रिमुहूर्ता चेत्प्रतिपद्यापराह्णिकीत्यादिवाक्यैरेकवाक्यत्वात्। पर्वणो यश्चतुर्थांश इदं तु गार्ग्यादिवाक्याविरुद्धे विषये सावकाशमिति न कस्यापि विरोध इति बोध्यम्। अत एव —
श्रुतिस्मृतिविरोधे तु श्रुतिरेव बलीयसी।
अविरोधे सदा कार्यंस्मार्तं वैदिकवत्तथा॥
स्मृतेर्वेदविरोधे तु परित्यागो यथा भवेत्।
तथैव लौकिकं वाक्यं स्मृतिबाधे परित्यजेत्॥
इति चतुर्विंशतिमतबैजवापवचनयोर्न विरोधः। अत एव विरोधे त्वनपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानमिति सूत्रे प्रथमे —
स्वातन्त्र्येण प्रमाणत्वं स्मृतेस्तावन्न संमतम्।
वेदमूलानुमानं च प्रत्यक्षेण विरुध्यते॥
इति मीमांसकसिद्धान्तः संगच्छते। न चैतावताऽपि बौधायनमतानुसारिभिर्दिवा पर्वसंधौ पर्वसंधिदिने यागः कर्तव्य इत्येव सिद्धं, परं तु प्रातःकाल उतापराह्णॆसंधिसमीप इत्यत्र विनिगमनाविरहेण घट्टकुटीप्रभातन्यायापात इति वाच्यम्। अपराह्णस्य कथमपि प्रातरितिवक्तुमशक्यत्वेन तत्रानुष्ठाने हे मदीयाः पुरुषा अश्विना अश्विनौ। प्रातः प्रातरेव। यजध्वं पूजयध्वं स्तुध्वम्। हिनोत प्रहिणुत। हवींषि सायं सायंकाले। हविर्देवया देवगामि नास्ति देवा न स्वी कुर्वन्तीत्यर्थः। अजुष्टमसेव्यं तद्भवति, इत्येतदर्थक ‘प्रातर्यजध्वमश्विना हिनोत न सायमस्ति देवया अजुष्टम्। ’ इति श्रुतिविरोधः स्पष्ट एव। ननु न सायमस्तीत्यनेन सायंकालस्यैव निषिद्धत्वेन विशेषनिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञापरत्वादपराह्णॊऽपि नात्यन्तं निषिद्ध इति चेन्न। एकस्य वाक्यस्योभयपरत्वे वाक्यभेदप्रसङ्गादेकमेव विधेयमितरांशे नित्यानुवाद इत्येव स्वीकार्यम्। तत्र निषेधतात्पर्यं सायंकालभिन्नाश्चत्वारोऽपि कालाः पाक्षिकत्वेन यागे प्राप्नुवन्तीति प्रातःकालस्य नित्यवद्यागसंबन्धानुवादो नोपपद्यते। विधितात्पर्ये तु प्रातःकालातिरिक्तानां सर्वेषां निषेधात्सायंकालनिषेधो नित्यानुवाद इति संगञ्छत इति विध्यंश एव ताप्तर्यकल्पनात्।प्रातर्यांगानुष्ठाने तु संधिशास्त्रस्य सामीप्यपरत्वात्सामीप्यस्य चाऽऽपेक्षिकत्वात्प्रातःकालोऽप्यन्यापेक्षया समीप इति वक्तुं शक्यत एवेति। तत्रानुष्ठाने संधिश्रुतिविरोधाभावात्। किंचापराह्णे यागानुष्ठाने पूर्वाह्णप्रातःकालतन्त्रोपक्रमकाला अपि बाध्येरन्, प्रातरनुष्ठाने तु न कस्यापि बाध इति प्रातरेव यागानुष्ठानं कर्तव्यम्। एतेन यष्टव्यमपराह्णेऽपीति भवस्वामिमतम्, अन्यो दिनान्ते राज्यां वा प्राहेष्टिं संधियागयोरिति गोपालकारि-
कोक्तमतान्तरमपि प्रातर्यजध्वमितिश्रुतिविरुद्धमेवेति वेदितव्यम्। अत एव पर्वणो द्वितीयांशेऽपीष्टिः कर्तव्या। तथा च हेमाद्रावाश्वलायनवचनम् —
पर्वणोंऽशे द्वितीये तु कर्तव्येष्टिर्द्विजातिभिः।
द्वितीयासहितं यस्माद्दूषयन्त्याश्वलायनः।
इति प्रयोगपारिजातः संगच्छते । अत एव यः पूर्वः पूर्वो यष्टा भवति स वनीयान्देवानां संभजनीयः संभाव्यो भवतीत्यर्थकपूर्वः पूर्वो यजमानो वनीयानिति श्रुतिरप्यनुकूलिता भवति। अत एवैतदेव बौधायनमतमुपोद्बलयति श्रुतिः — यस्मिन्नहनि पुरस्तात्पश्चात्सोमो नदृश्यते तदहर्यजेतेति माधवग्रन्थः,
अर्वागस्तमयाद्यत्र द्वितीया तु प्रदृश्यते।
तत्र यागं न कुर्वीत विश्वेदेवाः पराङ्मुखाः।
यदहः पश्चाच्चन्द्रमा अभ्युदेति तदहर्यजन्निमाल्ँलोकानभ्युदेति एषा वै सुमना नामेष्टिर्यमद्येजानमितिश्रुतिद्वयं बौधायनमतानुसारि व्यतिरिक्तविषयम्। एतदेवाभिप्रेत्य प्रतिपच्चतुर्थांशे याग उदाहृत इति माधवग्रन्थश्च संगच्छते।
द्वितीया त्रिमुहूर्ता चेत्प्रतिद्यापराह्णिकी।
अन्वाधानं चतुर्दश्यां परतः सोमदर्शनात्॥
चतुर्दशी चतुर्यामा अमावास्या न दृश्यते।
श्वोभूते प्रतिपच्चेत्स्यात्पूर्वी तत्रैव कारयेत्॥
चतुर्दशी च संपूर्णा द्वितीया क्षयकारिणी।
चरुरिष्टिरमायां स्याद्भूते कव्यादिकी क्रिया॥
इत्यादिमाधवोदाहृतबौधायनादिवचनानामप्युदाहृतश्रुतिमूलकत्वमेवोचितम्।
निशायां प्रथमे भागे दृश्यते पूर्णिमा तथा।
तद्व्यत्ययो दिवा नास्ति तत्र यागः परेऽहनि॥
इत्यादिवचनाद्वात्रिसंधौ परदिन एवेति हेमाद्रिसिद्धान्तात्। एतेन
हेमाद्रिस्तु निशासंधावत्यन्तापचये507 तिथेः।
द्वितीयाप्रभृतेब्रूते पूर्णे दर्शे यजेः कृतिम्॥
इति कालतत्त्वविवेचनमयुक्तम्। हेमाद्रिसिद्धान्ताज्ञानमूलत्वादिति बोध्यम्। न च चन्द्रदर्शनदिन इष्टिनिषेधविरोध इति शङ्क्यम्। गतिविशेषवशात्कदाचित्प्रतिपच्छेषेऽपि चन्द्रदर्शनस्य जायमानत्वेन तादृश-
स्थले पूर्वत्र रात्रिसंधिमद्दिने यागविधायकाभावेन यागलोपापत्तिभिया संधौ यजेतेत्यादिश्रुतिबोधिते काले यागेऽनुष्ठिते पश्चात्कदाचिच्चन्द्रदर्शनेऽपि क्षतिविरहात्। न च —
यजनीयेऽह्निसोमश्वेद्वारुण्यां दिशि दृश्यते।
तत्र व्याहृतिभिर्हुत्वा दण्डं दद्याद्विजातये॥
इति कात्यायनवचनं निर्विषयं स्यादिति वाच्यम्। प्रायश्चित्तस्य पुरुषापराधनिमित्तकत्वेन पुरुषापराधप्रयुक्तचन्द्रदर्शनदिनयागस्यैव तद्विषयत्वात्। नच तथाऽपि
प्रतिपद्यप्रविष्टायां यदि चेष्टिः समाप्यते।
पुनः प्रणीय कृत्सेष्टिःकर्तव्यायागवित्तमैः॥
इति गार्ग्यवचनविरोधः। अन्वाधानादिब्राह्मणभोजनान्तव्यापारसमुदायरूपयागस्य ब्राह्मणभोजनरूपान्तिमपदार्थस्य
आवर्तनेऽथवा तत्प्राग्यदि पर्व समाप्यते।
तत्र पूर्वाह्णएवस्यात्संधेरूर्ध्वं द्विजाशनम्॥
इति कातीयपरिशिष्टवचनात्प्रतिपद्येच कर्तव्यत्वेन तद्विरोधाभावात्। नच तथाऽपि संधिगर्भत्वसंपत्त्यर्थं कस्यचित्पर्दाथस्योत्कर्षावश्यकत्वे प्रयोगवचनबोधितनैरन्तर्याबाधार्थमन्वाधानाद्व्यतिरिक्तव्यापारस्तोमस्यैवोत्कर्ष508 उचित इति वाच्यम्प्रयोगवचनेनार्थादक्षिप्यमाणनैरन्तर्यस्य स्पष्टविधिबोधितपूर्वाह्णप्रातःकालतन्त्रोपक्रमकालबाधकत्वानौचित्यात्।तस्माद्बौधायनसूत्रानुसारिभिर्द्वितीयदिने मुहुर्तत्रयपरिमितप्रतिपत्तृतीयांशलाभे पौर्णमास्याम्, अमावास्यायां तु प्रतिपदि सायंकाले मुहूर्तत्रयान्यूनद्वितीयाप्रवेश एवं द्वितीयदिने, अन्यथा दिवासंधौपर्वद्वयेऽपि पूर्वेद्युरन्वाधानं कृत्वा संधिदिने यागः कर्तव्य इति सिद्धम्।अभ्युदयेष्टिदर्शनादकालोपक्रमे दोष उपसत्समासदर्शनादकालापवर्गे दोषः।तस्मात्तथा यतितव्यम्, यथोपक्रमापवर्गोन नश्यतः। अन्यथा —
दुरिष्टैर्दुरधीतैश्च दुराचारैर्दुरागमैः।
विप्राणां कर्मदोषैस्तैः प्रजानां जायते भयम्॥
इति स्मृत्युक्तो दोषइति ज्योतिषभाष्यंसंगच्छते। आश्वलायनानामपि तच्छाखायामाध्वर्यवादेरनुक्तत्वेन शास्त्रान्तरोक्तस्यैव ग्राह्यत्वे —
तत्र बौधायनं ग्राह्यं बहूवृचादिभिरादरात्।
इति वचनाद्बौधायनोक्तस्यैव कर्तव्यत्वेन तेषामपि बौधायनमतानुसारित्वादयमेव निर्णयः। यैरपि तत्र बौधायनं ग्राह्यमिति वचनमनावृत्याऽऽपस्तम्बोक्तमाध्वर्यवादिकं स्वीकृतं, तेषामपि
यः स्वशाखां परित्यज्य परशाखां समाचरेत्।
अप्रमाणमृषिंकृत्वा सोऽन्धे तमसि मज्जति॥
इति हेमाद्र्युदाहृतलौगाक्षिवचनात्स्वशाखाप्रवर्तकऋष्युक्ताविरुद्धस्यैव परकीयस्य ग्राह्यत्वेन प्रकृते —
पर्वणोंऽशो द्वितीये तु कर्तव्येष्टिर्द्विजातिभिः।
द्वितीयासहितं यस्माद्दूषयन्त्याश्वलायनाः॥
इति हेमाद्रिप्रयोगपारिजातोदाहृताश्वलायनाचार्यवचनबोधितस्यैव कालस्य ग्रहणौचित्यात्। नच तथाऽपि अध्वर्युप्रत्ययं तु व्याख्यानं कामकालदेशदक्षिणानामित्याष्टमिकाश्वलायनसूत्रेणाऽऽपस्तम्बानुयायिनामापस्तम्बोक्तकालस्यैव बोधनात्तद्विरोध इति वाच्यम्। अध्वर्युप्रत्यया नामस्मिञ्छास्त्रे यदभिधानं तस्येदं प्रयोजनम्। यद्यस्मिञ्छास्त्रे विशेषविधिस्तेषां सामान्यविधिस्तदाऽस्मदीय एव विधिर्ग्राह्य इत्येवमर्थमिति वृत्तिकृता तदाशयस्य वर्णनात्प्रकृत आश्वलायनाचार्यवचनानां निरवकाशत्वात्तदुक्तकालग्रहणस्यैवोचितत्वात्तस्माद्बह्वृचैरपि पूर्वदिनेऽन्वाधानं कृत्वा बौधायनवत्संधिमद्दिन एव यागः कर्तव्य इति सिद्धम्। अन्यथा
उदितो यदि वा हीनो दृश्यते यदि चन्द्रमाः।
प्रतिपत्सु न कार्यः स्याद्विश्वे देवाः पराङ्मुखाः॥
इत्यादिहेमाद्र्युदाहृतवचनैस्तन्मूलभूतोदाहृतश्रुत्या,
यस्तु न प्रारभतेष्टिमन्त्यांशे पर्वणो द्विजः।
प्रतिपद्याचतुर्थांशात्प्राग्यश्च न समापयेत्॥
कृता वाऽप्यकृतैवेष्टिस्तयोः स्यान्नात्र संशयः।
पुनरेवाऽऽचरेदिष्टिं शुभेऽहनि यथाविधि॥
इति प्रयोगपारिजातोदाहृताश्वलायनवचनैश्च सह विरोधः स्पष्ट एवेति दिक्। आपस्तम्बानां तु यदहः पुरस्ताच्चन्द्रमाः पूर्ण उत्सर्पेत्तां पौर्णमासीमुपवसेत्। श्वः पूरितेति वा खर्विकां तृतीयां वा वाजसने-
यिनः समामनन्ति यदहर्न दृश्यते तदहरमावास्यायां श्वो न द्रष्टार इति वेति। खर्विकामल्पिकामिति यावत्। अल्पत्वं च दिनार्धव्यापित्वाभावात्। यदहः पुरस्ताच्चन्द्रमाः पूर्ण उत्सर्पेद्यदहर्न दृश्येतेति सूत्रद्वयस्यायमर्थः। सर्वदा तावद्राकाकुह्वोरेव चन्द्रमसः पूर्णत्वमदर्शनं चेति ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धम्। यत्र यस्मिन्पुरस्ताञ्चन्द्रमाः पूर्ण उत्सर्पेदुदियान्न दृश्येत वा यत्रापराह्णॆरात्रौ वा पर्वसंधिस्तदा तां पौर्णमासीममावास्यां चोपवसेदिति श्वः पूरिता श्वो न द्रष्टार इति वेति सूत्रद्वयस्यायमर्थः। यदा तु पूर्वाह्णॆमध्यंदिने वा पर्वसंधिस्तदा तस्मिन्नहनि चन्द्रमाः पूरिता पूर्णो भवति यस्य वा न द्रष्टारो नेक्षितारो भवेयुस्तामनुमति सिनीवालीं चोपवसेदिति। लौगाक्षिरपि —
पूर्वाह्णॆवाऽथ मध्याह्ने यदि पर्व समाप्यते।
उपोष्य तत्र पूर्वेद्युस्तदर्यागइष्यते॥
अपराह्णेऽथवा रात्रौ यदि पर्व समाप्यते।
उपोष्यतस्मिन्नहनिश्वोभूते याग इष्यते॥ इति।
संधिनिर्णयस्तु
परेऽह्नि घटिका न्यूनास्तथैवाभ्यधिकाश्च याः।
तदर्धक्लृप्त्या पूर्वस्मिन्हासवृद्धी प्रकल्पयेत्॥
तिथेः परस्या घटिकाच याः स्यु-
र्न्यूनास्तथैवाभ्यधिकाश्चतासाम्।
अर्ध वियोज्यं च तथा प्रयोज्यं
ह्रासे च वृद्धौ प्रथमे दिने तत्॥
इति कात्यायनलौगाक्ष्यादिवचनादुत्तरदिने प्रतिपदो यावत्यो घटिका :पूर्वदिने पर्वघटिकापेक्षयाऽधिका न्यूना वा भवन्ति, तदर्थं वृद्धौ पूर्वदिने पर्वणि संयोज्य ह्रासे च वियोज्य ज्ञेयः। एतेन पञ्चदशीभोगापेक्षया प्रतिपदो ह्रासवृद्धिकल्पनेति स्मृतिकौस्तुभो मयूखश्वोपेक्ष्यः।पूर्वतिथिभोगापेक्षयोत्तरतिथिभोगस्य सपादघटिकापेक्षया न्यूनाधिकभावस्य प्रसिद्धत्वेन परेऽह्नि घटिका इत्यादिबहुवचनासंगतेः। एवमुक्तरीत्या पूर्वाह्णॆमध्याह्न वा यदा पर्वसंधिर्भवति, तदा पर्वद्वयेऽपि संधिदिन एव यागः। कालशास्त्रपूर्वाह्लादिशास्त्रोभयानुग्रहादपराह्णसंधावपि यदोत्तरदिने प्रतिपत्तृतीयांशस्तदा पौर्णमास्यां तत्रैव यागः।यदा तु ह्रासवशादुत्तरदिने प्रतिपच्चतुर्थांशस्तदाऽपराह्णसंधिशास्त्राच्चतुर्थांशे पर-
दिने यागः प्राप्नोति कालशास्त्राच्चपूर्वेद्युस्तत्र पर्वणो यश्चतुर्थोंऽश इत्यादिबोधितकालस्य यागान्वयावगतेस्तदनादरेण कालान्तरे यागानुष्ठाने —
अकाले यत्कृतं कर्म विधिशौचविवर्जितम्।
अकृतं तद्विजानीयात्पुनरिज्याश्रुतेर्बलात्॥
इति हेमाद्र्युदाहृतवचनात्।
प्रतिपद्याचतुर्थांशात्प्राग्यश्च न समापयेत्।
कृता वाऽप्यकृतैवेष्टिस्तयोः स्यान्नात्र संशयः॥
इति पारिजात आश्वलायनवचनाच्चसंधिदिने यागो युक्तः। नन्वेवं तर्ह्यपराह्णसंधावुत्तरेद्युर्यागव्यवस्थापकलौगाक्षिवचनविरोध इति चेदत्रहेमाद्रिः —यत्रापराह्णपर्वसंधावुत्तरेद्युःप्रतिपच्चतुर्थांशे यागो न भवति, तथाभूतस्यैवापराह्णस्यात्र ग्रहणमित्यविरोधः। युक्तं चैतत्। अन्यथा हेमन्तकालेऽतिखर्वंतदहस्तत्र किंचिदूने चतुर्दशघटिकामात्र आवर्तनं भवति, तथा तत्रैव तिथिवृद्धौ पोडशघटिकोऽपि पर्वचतुर्थांशस्तत्राऽऽवर्तनादुपरिघटिकामात्रेसंधानुत्तरेयुर्यागः प्रसज्येत। नच तदुक्तम्। तत्र विहितकालाभावान्न यष्टव्यमिति निषेधाच्चात्रापराह्णशब्दसंकोच एव ज्यायानिति स्वीकृत एवायमर्थोऽपराह्णसंधौ चतुर्थस्येष्टावप्रातत्वादिति सिद्धान्तयद्भिर्माधवाचार्यैरपि । यत्तु अपराह्णसंधौ प्रतिपच्चतुर्थांशेऽपि याग इत्युक्तं तत्सर्ववचनानां हेमाद्रिसिद्धान्तस्य च संबाधे तद्ग्रन्थविरोधात्प्रौढिवाद इति बोध्यम्।नचैवम्
संधिर्यत्रापराह्णॆस्याद्यागं प्रातः परेऽहनि।
कुर्वाणः प्रतिपद्भागे चतुर्थेऽपि न दुष्यति॥
इति माधवोदाहृतशातातपवचनविरोध इति वाच्यम्। चतुर्थेऽपि कुर्वाणो न दुष्यति, किमुत तृतीय इति कैमुतिकन्यायेन तृतीयभागस्यैव प्राशस्त्यबोधकत्वेन विरोधाभावात्। अन्यथा विधिविभक्तिशून्यवर्तमानापदेशरूपवचनस्य विधिशब्दघटित (ताया) न यष्टव्यमिति श्रुति(तेः)र्बाधकत्वापत्तेः। इष्टापत्तिस्तु सर्वशास्त्रविरुद्धैव। अत एवास्य वचनस्य प्रतिपच्चतुशांशविधायकत्वसमर्थनार्थप्रवृत्तत्रिकाण्डमण्डनेन पर्वणो यश्चतुर्थांश इत्यपि प्रसिद्धशातातपवचनस्य शातातपीयत्वाप्रतिसंधानाद्याज्ञिककारिकैवेयमित्युक्तम्। पूर्वाह्णापराह्णादिपर्वसंधिसाधारणस्य न यष्टव्यमिति पर्युदासस्यापराह्णसंधिशास्त्रं प्रति विशेषशास्त्रता न संभवतीत्युक्त्वा पर्युदासशास्त्रस्य श्रुतित्वेन प्राबल्यमाशङ्क्यभाष्यकारेण चतुर्थां
शनिषेधः कात्यायनवचनादित्युक्त्वा न यष्टव्यं चतुर्थेंऽश इति श्लोकः पठितः। तस्माच्छ्रुतिमूलत्वाच्छ्रुतिरित्युक्तमिति तद्ग्रन्थः संगच्छते । स्मृत्या श्रुतिबाधने त्वयं ग्रन्थोऽसंगत एव स्यात्। भवतु तर्हि त्रिकाण्डमण्डनमतमेवेति चेन्न। परं तु तदेतत्रिकाण्डमण्डनमतमन्ये नानुमन्यन्ते।कस्मात्पूर्वाह्णपराह्णसंध्योरुभयोरप्युपवासे द्वितीयेऽहनि च यागेऽनुष्ठीयमाने पक्षादेः प्रतिपच्चतुर्थांशस्य च संभवात्पक्षादयोऽभियष्टव्या न यष्टव्यं चतुर्थेंऽश इति शास्त्रद्वयस्याप्यनुग्राह्यत्वान्मध्याह्नसंधावेकमपराह्नसंधावपरमिति व्यवस्थायां प्रमाणाभावात् । नच लौगाक्षिवचनद्वयं प्रमाणं तस्य पूर्वोत्तरदिनयागव्यवस्थापरत्वेन विधिनिषेधव्यवस्थायां तात्पर्याभावात्। यत्तु प्रतिपच्चतुर्थांशनिषेधस्य श्रुतत्वमसिद्धमित्युक्तं, तन्न कात्यायनेन श्रुतिरेषा सनातनीत्यभिधानात्। यत्तु भाष्यकारेण कात्यायनवचनादित्युक्तं तच्छ्रुतित्वेऽप्यविरुद्धम्। श्रुतिरेषासनातनीत्यस्य कात्यायनवचनादित्यादिना हेमाद्रिणैव दूषितत्वात्। किंच मत्पक्षे संधिसामीप्यं, भवत्पक्षे तन्नास्तीत्यपरो विशेषः। तस्मान्न प्रतिपच्चतुर्थांशे यागो युक्तः। ननु पूर्वदिने प्रातः पर्वचतुर्थांशसत्त्वे भवतु तद्दिने यागः। यदा तु प्रातः पर्वतृतीयांशस्तदा तस्य विधायकाभावात्प्रतिपच्चतुर्थांश एव याग इति चेन्न। न यष्टव्यमिति श्रुत्या तस्य निषिद्धत्वात्।
पर्वणोंऽशे द्वितीये तु कर्तव्येष्टिर्द्विजातिभिः।
द्वितीयासहितं यस्माद्दूषयन्त्याश्वलायनाः॥
इत्यादिहेमाद्र्युदाहृतानेकवचनानां विधायकानां सत्त्वात्पूर्वदिन एव यागः। एवं सति विधित्वकल्पनाविरोधिकैमुतिकन्यायप्रवृत्तत्वद्योतकापिशब्दघटितस्य विधिविभक्तिशून्यस्य वर्तमानापदेशरूपस्य
संधिर्यत्रापराह्णॆस्याद्यागं प्रातः परेऽहनि।
कुर्वाणः प्रतिपद्भागे चतुर्थेऽपि न दुष्यति॥
इति वृद्धशातातपनाम्ना माधवोदाहृतस्य केवलं मणिमन्त्रादिन्यायेन संधौ यजेत संधिमभितो यजेत पौर्णमास्यां पौर्णमास्या यजेत, अमावास्यायाममावास्यया यजेत यस्मिन्नहनि पुरस्तात्परतः सोमो न दृश्यते तदहर्यजेत तत्र यजेत यत्रैनं पश्चादस्तमितं पुरस्तादादित्योऽभ्युदेति।
यदहश्च न दृश्येत संपूर्णश्च यदा भवेत्।
स एव कालो यागस्य एतेन हविषा यज॥
यावत्पूर्वस्य हीनत्वं यावन्नास्तमितोदयः।
औपवस्तं च यागं च तावद्विदुरिति श्रुतेः॥
विप्रकर्षे परे यागः संनिकर्षे परे तथा।
शोषकेन्द्वोः समाख्यातो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥
आदित्येऽस्तमिते चन्द्रः प्रक्षीण उद्याद्यदा।
प्रतिपद्यतिपत्तिः स्यात्पञ्चदश्यां यजेत्तदा॥
न यष्टव्यं चतुर्थेंऽशे —
उदितो यदि वा हीनो दृश्यते यदि चन्द्रमाः।
प्रतिपत्सु न कार्यः स्याद्विश्वे देवाः पराङ्मुखाः॥
अर्वागस्तमयाद्यत्र द्वितीया तु प्रद्दश्यते।
तत्र यागं न कुर्वीत विश्वे देवाः पराङ्मुखाः॥
पञ्चदश्याः परः पादः पक्षादेः प्रथमास्त्रयः।
कालः पार्वणयागे स्यादन्यथा तु न विद्यते॥
द्वावंशावुत्सृजेदन्त्यौ यागे च व्रतकर्मणि।
यजनीयेऽह्निसोमश्वेद्वारुण्यां दिशि दृश्यते॥
तत्र व्याहृतिभिर्हुत्वा दण्डं दद्याद्द्विजातये।
प्रतिपद्या चतुर्थांशात्प्राग्यश्च न समापयेत्॥
कृता वाऽप्यकृतैवेष्टिस्तयोः स्यान्नात्र संशयः।
पुनरेवाऽऽचरेदिष्टिं शुभेऽहनि यथाविधि॥
इत्यादिपूर्वोदाहृतविधिनिषेधरूपानेकश्रुतिस्मृतिवचनानां बाधकत्वकल्पनाऽत्यन्तानुचितैव। नच ‘एषा वै सुमना नामेष्टिर्यमद्येजानं पश्चाच्चन्द्रमा अभ्युदेत्यस्मिन्नेवास्मै लोकेऽर्धुकं भवति’ इत्यादिश्रुतिसत्त्वाच्चन्द्रदर्शनदिने यागेऽपि न दोष इति वाच्यम्। ‘द्वेपौर्णमास्यौ द्वे अमावास्ये यजेत यः कामयेतर्ध्र्नुयाम्।’ इति सूत्रेणोक्तो दर्शपूर्णमासयोर्गुणविकृतिरूपः काम्यप्रयोगः। स एवानादृत्य तत्, द्वे एव यजेतेत्यादिना सिद्धान्तयित्वा द्वितीयायां क्रियमाणद्वितीयप्रयोगस्यैव ‘एषा वै सुमना नाम’ इत्यादिना स्तुतिः कृतेति प्रकृतदर्शपूर्णमासविषयतैवास्य नास्तीत्यवधेयम्। अत एव द्वितीयायामिष्टवन्तं यजमानमभिलक्ष्य पश्चाञ्चन्द्रमा अभ्युदेति, तस्येयमिष्टिर्नाम्ना सुमना इत्युच्यते। वर्धिष्णुचन्द्रोदयस्य सौमनस्यहेतुत्वादिति वेदभाष्यं माधवीयं संगच्छते। नच तथाऽपि तस्मा॒द्यदैवैनं न पु॒रस्तान्न पश्चात्पश्येत्तर्हि वोपवसेदिति श्रुतिश्चन्द्रादर्शनदिनेऽन्वाधानं विदधती, अर्थाच्चन्द्रदर्शनदिने ‘यागविधानमाक्षिपतीति वाच्यम्। यस्मिन्नहनि पुरस्तात्परतः सोमो न दृश्यते तदहर्यजेतेत्यनया श्रुत्या यागस्यापि चन्द्रादर्शनदिन एव विधानात्। तत्र संपूर्णामावा-
स्याप्रतिपत्स्थले दिनद्वयेऽपि चन्द्रदर्शनाभावादुभयानुग्रह एव। यदा तु एकस्मिन्नेव दिने चन्द्रादर्शनं, तदैकत्रावश्यंभाविनि चन्द्रदर्शनेऽङ्गगुणविरोधे च तादर्थ्यादिति न्यायेन चन्द्रादर्शनदिनस्य याग एवान्वयादर्थात्पूर्वस्मिंश्चन्द्रदर्शनदिनेऽप्यन्वाधानस्य युक्तत्वादनेकश्रुतिविरोधाच्चचन्द्रदर्शनदिने विध्याक्षेपकत्वासंभवात्। अत एव तद्धैके दृष्ट्वोपवसन्तीति श्रुत्यन्तरं न निर्विषयमित्यलं बहुना ।अमावास्यायामपि यदा परदिने त्रिमुहूर्तद्वितीयाप्रवेशाभावस्तदा यदहर्न दृश्येतेति सूत्रात्संधिदिनेऽन्वाधानमुत्तरदिने यागः। यदा तु परदिने द्वितीयाप्रवेशेन चन्द्रदर्शनं तदा तत्र यागस्य
इन्दौ निरुप्ते हविषि पुरस्तादुदिते विधौ509।
यद्वैगुण्यं हुते तस्मिन्पश्चादपि हि तद्भवेत्॥
इत्यादिवसिष्ठादि॒वचनैर्निषिद्धत्वात्। श्वो न द्रष्टार इति सूत्रात्पूर्वदिनेऽन्वाधानं संधिदिन एव याग इत्येव युक्तमिति विपश्चित एव विदांकुर्वन्तु।यत्तु मदनरत्ननिर्णयामृतादिषु, स्मृतिकौस्तुभादिनवीनग्रन्थेषु चापराह्णसंधौ शातातपवचनात्परदिने प्रतिपच्चतुर्थांशे याग इत्युक्तं, तदुपेक्ष्यम्। उदाहृतवचनविरोधात्। पूर्वदिन उक्तस्यान्वाधानस्य क्वचिद्यागदिनेऽनुष्ठानमाह कात्यायनः —
संधिश्चेत्संगवादूर्ध्वं प्राक्चेदावर्तनाद्रवेः।
सा पौर्णमासी विज्ञेया सद्यस्कालविधौ तिथिः॥
इति वैकल्पिकीयं सद्यस्कालता सद्यो वा सद्यस्कालायां सर्वं क्रियत इत्यापस्तम्बसूत्रात्। वाजसनेयिनां यद्यपि खर्विकां तृतीयां वाजसनेयिनः समामनन्तीत्यापस्तम्बेनोक्तम्।
मध्यंदिनात्स्यादहनीह यस्मिन्प्राक्पर्वणः संधिरियं तृतीया।
सा खर्विका वाजसनेयिमत्या तस्यामुपोष्याथ परेदयुरिष्टिः॥
इति भाष्यार्थसंग्रहकारेणोक्तं तदनुसारेण।
आवर्तनादधःसंधिर्यद्यन्वाधाय तद्दिने।
परेद्युरिष्टिरित्याहुर्विप्रावाजसनेयिनः॥
इति कालादर्शे।
यस्तु वाजसनेयी स्यात्तस्य संधिदिनात्पुरा।
न क्वाप्यन्वाहितिः किंतु सदा संधिदिने भवेत्॥
इति माधवेनाप्युक्तम्। तथाऽपि
आवर्तनेऽथवा तत्प्राग्यदि पर्व समाप्यते।
तन्त्रं पूर्वाह्णएव स्यात्संधेरूर्ध्वं द्विजाशनम्॥
इति कातीयगृह्यपरिशिष्टवचनात्।
यजनीयेऽह्नि सोमश्चेद्वारुण्यां दिशि दृश्यते।
तत्र व्याहृतिभिर्हुत्वा दण्डं दद्याद्द्विजातये॥
इति कात्यायनेन चन्द्रर्शनदिने यागे प्रायश्चित्तविधानात् अपराह्णॆपिण्डपितृयज्ञश्चन्द्रादर्शनेऽमावास्यायामिति सूत्रे कर्कभाष्ये चन्द्रादर्शनेन परमः क्षयो लक्ष्यते तस्मिन्क्षीणॆददातीति श्रुतेः। एवं च खर्विकामावास्यायां दृष्टॆऽपि चन्द्रमसिअपराह्णॆपरमक्षय इति क्रियत एव काले पिण्डपितृयज्ञ इत्युक्तत्वात्।
संमिश्रा या चतुर्दश्या अमावास्या भवेत्क्वचित्।
खर्विकां तां विदुः केचिद्गताध्वमिति चापरे।
इति च्छन्दोगपरिशिष्टोक्ता दिवाचतुर्दशीयुक्तैव खर्विकाऽभिप्रेता नतु आवर्तनात्पूर्वंप्रतिपद्युक्ता। चन्द्राक्षयःकस्मिन्काल इत्याकाङ्क्षायामुक्तं परिशिष्टे —
अष्टमेंऽशे चतुर्दश्याः क्षीणो भवति चन्द्रमाः।
अमावास्याष्टमेंऽशे तु पुनः किल भवेदणुः॥ इति।
तस्मात्
यज्ञकालस्तिथिद्वैधे पट्कलो यदिलभ्यते।
पर्व तत्रोत्तरं कार्यं हीने पूर्वमुपक्रमे॥
इति वचनाद्वाजसनेयिभिरपि पौर्णमास्यां द्वितीयदिने षड्घटिकादिप्रतिपत्तृतीयांशलाभ एवोत्तरदिनेऽन्यथा पूर्वदिन एव। अमायां तु द्वितीया त्रिमुहूर्ता चेदित्यादिवचनानुसाराद्द्वितीये दिनेऽस्तात्पूर्वं त्रिमुहूर्तादिद्वितीयासत्त्वे दिवासंधौसंधिदिन एव रात्रिसंधौत्रिमुहूर्तन्यूनद्वितीयासत्त्वे चोत्तरदिन एवेष्टिःकर्तव्येति बोध्यम्।सामगानामपि दृश्यमानेऽप्येकदा गताध्वा भवतीति गोभिलसूत्रात्, संमिश्रा या चतुर्दश्येति तत्परिरिशिष्टात्, उत्तरस्यां चोपवासे यजनीयतिथौ पश्चाच्चन्द्रदर्शनेन भवितव्यं तच्चानिष्टमिति तद्भाष्याच्च। यज्ञकालस्तिथिद्वैध इति वचनबोधितव्यवस्थैवयुक्ता। तेन पौर्णमास्यां द्वितीयदिने पङ्घटिकाप्रतिपत्तृतीयांशसत्त्व
एवोत्तरदिने यागोऽन्यथा पूर्वदिन एव। अमायां रात्रिसंधौ चन्द्रदर्शनेऽपि द्वितीय एव।दिवासंधौ तु द्वितीयदिने सायाह्नेत्रिमुहूर्तन्यूनद्वितीयासत्व एव द्वितीयदिने त्रिमुहूर्तादिद्वितीयायां पूर्वदिन एव। यत्तु तद्भाष्यकृताऽग्रउक्तम् —
वर्धमानाममावास्यां लभेच्चेदपरेऽहनि।
यामांस्त्रीनधिकां वाऽपि पितृयज्ञस्तदाभवेत्॥
इति तद्वितीयदिने प्रतिपदोऽपि वृध्या त्रिमुहूर्तन्यूनद्वितीयासत्त्वएव बोध्यम्। अन्यथोदाहृतवचनविरोधापत्तेरिति। इत्थं च सर्ववाक्याविरोधेन हेमाद्रिमाधवयोरेकार्थकत्वप्रदर्शनेन च कृतस्येष्टिकालनिर्णयस्यायं संक्षेपः — आग्नेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां पौर्णमास्यां चाच्युतो भवति अमावास्यायाममावास्यया यजेत पौर्णमास्यां पौर्णमास्या यजेत संधौ यजेत संधिमभितो यजेत, इत्यादिश्रुतयः पर्वप्रतिपदोर्यागं विदधते। तत्रान्वाधानादिब्राह्मणभोजनान्तपदार्थसमुदायरूपयागस्य कः पदार्थः,क्वानुष्ठेय इत्याकाङ्क्षायां पूर्वेदयुरग्निंगृह्णात्युत्तरमहर्यजति पक्षान्ता उपवस्तव्याः पक्षादयोऽभियष्टव्या510 इति श्रुतिकल्पाभ्यां व्यवस्थापितम्। तत्रापि संपूर्णपर्वणोऽन्वाधाने संपूर्णप्रतिपदो यागे प्राप्तौ
त्रीनंशानौपवस्तस्य यागस्य चतुरो विदुः।
द्वावंशावुत्सृजेदन्यौ यागे च व्रतकर्मणि॥
इतिवचनेन पर्वचतुर्थांशस्ये511 व्रते प्रतिपच्चतुर्थांशस्य यागे निषेधात्,न यष्टव्यं चतुर्थेंऽश इति श्रुत्या च प्रतिपच्चतुर्थांशस्य यागे निषेधात्,
पञ्चदश्याः परः पादः पक्षादेः प्रथमास्त्रयः।
कालः पार्वणयागे स्यादन्यथा तु न विद्यते॥
पर्वणो यश्चतुर्थांश आद्याः प्रतिपदस्त्रयः।
यागकालः स विज्ञेयः प्रातरुक्तो मनीषिभिः॥
इत्यादिवचनानि संधिश्रुत्याकाङ्क्षितकालपरिच्छेदकानीति चतुरंशान्तगते प्रातःकालावच्छिन्ने काले याग इति सिद्धम्। तत्र रात्रिसंधौ परदिन एव यागः। मध्याह्ने तत्पूर्वकाले वा संधौ संधिदिन एव याग इति पर्वद्वयसाधारणमेव। अपराह्णसंधौ पौर्णमास्यां यदोत्तरदिन स्वोक्तकाललाभस्तदोत्तरत्रैव। यदा तु हेमन्तकाले किंचिदधिकत्रयोदशघ-
टिकापरिमितमावर्तनमुत्तरदिने प्रातरारभ्य प्रतिपच्चतुर्थांशस्य प्रवृत्त्या पूर्वदिन एव तल्लाभस्तदा तत्रैव यागः।पूर्वोक्तविषये सावकाशस्य व्यवस्थापकापराह्णशास्त्रस्य श्रुतिविहितकालातिरिक्तकालविधायकत्वासंभवात्, पर्वचतुर्थांशेऽन्वाधाननिषेधात्पूर्वेद्युरग्निं गृह्णातीतिश्रुतिबाधप्रसङ्गाच्च। अत्रैव यदा पूर्वदिने षोडशघटिका पूर्णिमा, द्वितीयदिने विंशतिघटिकापरिमिता प्रतिपत्तदाऽपि पूर्वदिन एव यागः।
यज्ञकालस्तिथिद्वैधे षट्कलो यदि लभ्यते।
पर्व तत्रोत्तरं कार्यं हीने पूर्वमुपक्रमेत्॥
इति गार्ग्यवचनात्। तस्मात्पौर्णमास्यामुत्तरदिने षड्घटिकापरिमितप्रतिपत्तृतीयांशसत्त्व एव परदिने यागोऽन्यथा तु संधिदिन एव। अमावास्यायामपराह्णसंधौतूत्तरदिने षण्मुहूर्तपरिमितप्रतिपत्तृतीयांशसत्व एवोत्तरदिने यागोऽन्यथा तु पूर्वदिन एव।
यज्ञकालस्तिथिद्वैधे षण्मुहूर्तस्तु विद्यते।
पर्व तत्रोत्तरं ग्राह्यं हीने पूर्वमुपक्रमेत॥
इति हेमाद्र्युदाहृतपराशरवचनात्।
त्रिमुहूर्ता द्वितीया चेत्प्रतिपद्यापराह्णिकी॥
अन्वाधानं चतुर्दश्यां परतः सोमदर्शनात्।
इत्यादिवचनान्यपि पराशरवचनसमानविषयाण्येव। चन्द्रदर्शनशब्देन प्रतिपदि त्रिमुहूर्तादिपरिच्छिन्नापराह्णिकद्वितीयोपलक्षणमेव। अन्यथा चन्द्रदर्शनस्य कदाचित्प्रतिपच्छेषेऽपि जायमानत्वात्कदाचित्त्रिमुहूर्तद्वितीयायामप्यजायमानत्वादव्यवस्थापत्तेः। एवं सति
प्रतिपद्या चतुर्थांशात्प्राग्यश्च न समापयेत्।
कृता वाऽप्यकृतैवेष्टिस्तयोः स्यान्नात्र संशयः॥
पुनरेवाऽऽचरेदिष्टिं शुभेऽहनि यथाविधि।
इत्यादिसर्ववचनान्यनुकूलानि भवन्ति।
सर्वैकवाक्यता यत्र तत्र तत्त्वविनिर्णयः।
नान्यथा हि क्वचिद्ब्रह्मन्नूनं तत्त्वविनिश्चयः॥
इत्यादिवचनात्सर्वैकवाक्यतया लभ्यमान एवार्थोऽनुष्ठेयः। तस्मादमावास्यायामपराह्णसंधौपरदिने षण्मुहूर्तप्रतिपत्तृतीयांशसत्त्व एव परदिने यागोऽन्यथा तु पूर्वत्रैवेति सिद्धमिति बोध्यम्। पार्वणस्थालीपा-
ककालस्यापीत्थमेव निर्णयः। अथ पार्वणस्थालीपाकस्तस्य दर्शपूर्णमासाभ्यामुपवास इत्याश्वलायनगृह्यात्। अथ विकृतिकालः। विकृतयस्त्रिविधाः — नित्या नैमित्तिकाः काम्याश्च। तत्र नित्या आग्रयणचातुर्मास्यपश्वाद्याः। नैमित्तिका जातेष्टिगृहदाहेष्ट्यादयः। काम्याः सौर्याद्याह्ःतत्र यद्यपि दर्शपूर्णमासाविष्टीनां प्रकृतिरित्यनेन दार्शपौर्णमासिकविध्यन्तातिदेशात्तत्रापि पर्वचतुर्थांशादिलक्षण एव काल इति प्रतीयते। तथाऽपि य इष्ट्वा512 पशुना सोमेन यजेत सोऽमावास्यायां पौर्णमास्यां वा यजेतेत्यापस्तम्बेन पुनः कालविधानात्पञ्चदश्यामेवानुष्ठानम्। तत्र यदा पञ्चदशी प्रतिपच्चसंपूर्णा, तदा पञ्चदश्यां विकृतिं समाप्य प्रकृतेरग्न्यन्वाधानादि कार्यम्। खण्डतिथौ तु यदा पूर्वाह्णॆपर्वसंधिस्तदा पूर्वेद्युर्विहितकालासंभवादेकदेशे संभवेऽप्युपक्रमकाले संभवेन साङ्गप्रधानव्यापित्वासंभवात्सहाङ्गैः प्रधानं देशे काले कर्तरि निर्दिश्यत इत्यापस्तम्बेन साङ्गस्यैव विहितकालसंबन्धविधानादुत्तरेद्युरपि अपूर्वमन्ते स्यादित्यापस्तबेन प्रकृतेरनन्तरमेव विकृतिविधानात्प्रकृतेरुत्तरकाल एवाऽऽतिदेशिकप्रतिपदाद्यभागत्रयरूपे काले विकृत्यनुष्ठानम्। यदा त्वपराह्णे रात्रौ वा पर्वसंधिस्तदा य इष्ट्या पशुनेत्यनेन पञ्चदशीरूपकालविधानात्पूर्वत्रैव विकृत्यनुष्ठानम्।
आवर्तनात्प्राग्यदि पर्वसंधिः
कृत्वा तु तस्मिन्प्रकृतिं विकृत्याः।
तदैव यागः परतो यदि स्या-
त्तस्मिन्विकृत्याः प्रकृतेः परेद्युः॥
इति हेमाद्र्युदाहृतवचनमेतदभिप्रायकम्।
अर्धादह्नो भवति नियतः पर्वसंधिः परस्तात्
कृत्वा तस्मिन्नहनि च पशुं सद्य एव ह्यहे वा।
आरभ्याऽथ प्रकृतिरथ चेत्पर्वसंधिः पुरस्तात्
कृत्वा तस्मिन्प्रकृतिमथ तु स्यात्पशुः सद्य एव॥
इति हेमाद्रौवचनात्पशावप्ययमेव कालनिर्णयः। अयं च कालनिर्णयोऽविहितविशेषकालासु विकृतिषु पशुषु च। यत्र तु कालविशेषो द्व्यहकालता वा श्रूयते, तत्र तथैवानुष्ठानमिति हेमाद्रिः। पार्थसारथिना
तु तन्त्ररत्ने य इष्ट्येति साङ्गाया विकृतेः पर्वकालत्वादावर्तनात्प्राक्पर्वसंधौ संधिमभितो यजेतेति प्रकृतेः प्रतिपदि समाप्तिनियमात्प्रकृत्यनन्तरं प्रतिपदि विकृत्ययोगात्पूर्वेद्युर्विकृतिरित्युक्तं, तत्
पर्वणो यश्चतुर्थांश आद्याः प्रतिपदस्त्रयः।
इत्यादिवचनैः प्रतिपदाद्यभागत्रयस्य यागे विधानात्तत्त्यागेनाविहितचतुर्दश्वां यागस्यानौचित्यच्चिन्त्यम्। आग्रयणेष्टौ कालविशेषमाह हेमादौ श्रुतिः —‘यस्मिन्कालेऽमावास्या संपद्यते, तयेष्ट्वाऽथैतया यजेत यदि पौर्णमासी स्यात्तयेष्ट्वाऽथ पौर्णमासेन यजेतेति यस्मिन्काल इत्यावर्तनात्पूर्वं तयेत्यमावास्ययैतयेत्याग्रयणेष्ट्या यदि पौर्णमास्यावर्तनात्पूर्वं सद्यस्काला स्यात्तदा तयाऽऽग्रयणेष्ट्याऽथ पौर्णमासेन यजेतेत्यर्थः। तदुक्तं वार्तिककृता —
पौर्णमास्यां तु पूर्वः स्वाद्द्वितीयेऽह्निशशिक्षये।
यजेत्पूर्वं पूर्णमासादूर्ध्वं दर्शे न चेद्यजेत्॥ इति।
अत्रेज्याशब्देनाऽऽग्रयणेष्टिरिति हेमाद्रिः। उपवस्तदिनवर्ज्यानि परिशिष्टे —
शाकं मांसं मसूरांश्चचणकान्कोरदूषकान्।
माषान्मधुपरान्नानि वर्जयेदौपवस्तके॥ इति।
पर्वज्ञानोपायमाह हेमाद्रौ गोभिल : —
अधीयीत तद्विद्भ्यो वा पर्वावगमयेदिति।
इष्ट्यादिविकृतिः सर्वा पर्वण्येवेति निर्णयः॥
इति माधवेनोक्तं तत्पूर्वाह्णसंधिमत्पर्वभिन्नपर्वविषयं बोध्यम्। अन्यथा पूर्वोक्तदोषापत्तेः। इति विकृतिकालः।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टविरचिते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्ड इष्टिकालनिर्णयः।
अथ पिण्डपितृयज्ञकालः —
तत्र यदा रात्रावमावास्यासंधिस्तदाऽन्वाधानानन्तरं सर्वैः कार्यः —
पक्षान्तं कर्म निर्वर्त्य वैश्वदेवं च साग्निकः।
पिण्डयज्ञं ततः कुर्यात्ततोऽन्वाहार्यकं भवेत्॥
इति लौगाक्षिवचनात्। पक्षान्तं कर्मान्वाधानम्। अन्वाहार्यकं पिण्डपितृयज्ञानन्तरं कियमाणं दर्शश्राद्धमिति हेमाद्रिमाधवादयः।
यदाऽपि सायाह्नमारभ्यप्रवृत्ता द्वितीयदिनेऽपराह्णान्तपर्यन्ता, ततोऽधिका वाऽमावास्या द्वितीयदिनेऽपराह्णॆमुहूर्तत्रयान्यूना द्वितीया, तदाऽपि द्वितीया त्रिमुहूर्ता चेदित्यादिभिर्विहितान्वाधानापकर्षस्याभावात्,
वर्धमानाममावास्यां लक्षयेदपरेऽहनि।
यामांस्त्रीनधिकान्वाऽपि पितृयज्ञस्तदा भवेत्॥
इति हेमाद्रौ हारीतवचनाच्चान्वाधानानन्तरमेव। यदा तु प्रतिपदि त्रिमुहूर्तद्वितीयाप्रवेशेन
‘द्वितीया त्रिमुहूर्ता चेत्प्रतिपद्यापराह्णिकी।
अन्वाधानं चतुर्दश्याम्’ इत्यादिभिश्चतुर्दश्यामन्वाधानं, तदा कातीयैर्यागदिनात्पूर्वेद्युः कार्यः। ‘पूर्वो वाऽङ्गत्वात्पिण्डपितृयज्ञः’ इति तत्सूत्रात्पूर्व एव दर्शात्पिण्डपितृयज्ञो न पश्चात्कुतः, अङ्गत्वात्। तथा च श्रुतिः `तस्मात्पूर्वेद्युः पितृभ्यः क्रियत उत्तरमहर्देवान्यजन्ते’ इति कर्कभाष्यात्। ‘अपराह्णॆपिण्डपितृयज्ञश्चन्द्रादर्शने अमावास्यायाम्’ इति कात्यायनसूत्रे। अत्रादर्शनशब्देन चन्द्रक्षय एवोक्तः। तस्मिन्क्षीणे ददातीति श्रुतेरिति कर्कोक्तेश्च।
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं क्षीणे राजानिशस्यते।
वासरस्य तृतीयांशे नातिसंध्यासमीपतः॥
इति हेमाद्रौकात्यायनेनैव चन्द्रे क्षीण एव पिण्डपितृयज्ञानन्तरं दर्शश्राद्धविधानात्। सूत्रादिषु प्रयुक्तोऽदर्शनशब्दोऽपि क्षयपर एवेत्याह कात्यायन एव —
यदुक्तं यदहस्त्वेव दर्शनं नैति चन्द्रमाः।
तत्क्षयोपलक्षणं ज्ञेयं क्षीणे राजनि इत्यपि॥
यदुक्तं दृश्यमानेऽपि तच्चतुर्दश्यपेक्षया।
अमावास्यां प्रतीक्षेत तदन्ते वाऽपि निर्वपेत्॥
तदन्ते चतुर्दश्यन्ते।
अस्यां संध्यागतः सोमो मृणालमिव दृश्यते।
अपराह्णॆक्षयस्तस्यां पिण्डानां करणं ध्रुवम्॥
यदा चतुर्दशी यामं तुरीयमनुपूरयेत्।
अमावास्या क्षीयमाणा तदैव श्राद्धमिष्यते॥
चन्द्रक्षयकालमाह स एव —
चतुर्दश्यष्टमे भागे क्षीणो भवति चन्द्रमाः।
अमावास्याष्टमेंऽशे तु पुनः किल भवेदणुः॥
इत्यादिकात्यायनवचनेभ्यश्च पूर्वदिन एव तेषां पिण्डपितृयज्ञः। यदैवैष न पुरस्तान्न पश्चाद्ददृशेऽथ तेभ्यो ददातीत्यादिश्रुतिगता दर्शनशब्दस्य चन्द्रक्षये तात्पर्यस्य कात्यायनेनोक्तत्वाद्धेमाद्रिणाऽपि तथैव सिद्धान्तितत्वात्।
अर्धे चतुर्दशी यत्र अर्धे पञ्चदशी भवेत्।
चतुर्दश्यवसाने तु पितृयज्ञं तु कारयेत्॥
चतुर्दश्याश्चतुर्यामे अमावास्या च दृश्यते।
श्वोभूते प्रतिपद्यत्र भूते कव्यादिकी क्रिया॥
इति हेमाद्र्युदाहृतयज्ञपार्श्वबौधायनाभ्यामपि पूर्वदिन एव विधानात्। ‘अमावास्यायामपराह्णे पिण्डपितृयज्ञः’ इत्याश्वलायनसूत्रात्।
पितृयज्ञं तु निर्वर्त्य विप्रश्चन्द्रक्षयेऽग्निमान्।
इति मनूक्तेश्च सर्वेषामव्ययमेव पिण्डपितृयज्ञकालो युक्तः। यथाश्रुतार्थानुसारेण तु अमावास्यायां यदहश्चन्द्रमसं न पश्यन्ति तदहः पिण्डपितृयज्ञं कुरुत इत्यापस्तम्बसूत्रे पिण्डपितृयज्ञः कर्मान्तरं, न दर्शशेषः। यथावक्ष्यति —पिण्डपितृयज्ञः स्वकाले विधानादनङ्गं स्यादिति। तं च यदहश्चन्द्रमसं न पश्यन्ति पञ्चदश्यां प्रतिपदि वा तदहःकुरुते यदहस्तयोः संधिस्तदहरित्यर्थ इतिरुद्रदत्तेन व्याख्यानात्, पिण्डपितृयज्ञः संधिमदहोरात्रापराह्ण इति रामाण्डारोक्तेश्च संधिदिनापराह्णॆवा कार्यः। अमावास्यायामपराह्णपिण्डपितृयज्ञ इत्याश्वलायनसूत्रेऽमावास्याशब्दः प्रतिपत्पञ्चदश्योः संधिवचनोऽप्यत्रापराह्णशब्दसमवायात्तद्वत्यहोरात्रे वर्तते। तस्यापराह्णॆऽह्नचतुर्थे भागे कार्यः। औपवसथ्ये यजनीये वाऽहनि यदा त्वहोरात्रसंधौ तिथिसंधिः स्यात्तदौपवसथ्य एवाहनि क्रियत इति नारायणवृत्तावुक्तत्वादिष्ट्युत्तरं वाऽऽश्वलायनैः कार्यः। यत्तु प्रयोगपारिजाते —
मुहूर्तमप्यमावास्या प्रतिपद्यपि चेद्भवेत्।
तदानीमुत्तमं ज्ञेयं पर्वशेषस्तु पर्ववत्॥
इति हेमाद्रौवचनं पिण्डपितृयज्ञपरमित्युक्तम्। तदिदं तुलापुरुषादिविषयं, न पिण्डपितृयज्ञादिविषयमिति हेमाद्रिसिद्वान्तविरुद्धमिति ज्ञेयम्। इति पिण्डपितृयज्ञकालः।
अथ श्राद्धेऽमावास्यानिर्णयः। तत्र शातातपः —
दर्शश्राद्धं तु यत्प्रोक्तं पार्वणं तत्प्रकीर्तितम्।
अपराह्णे पितॄणां तु तत्प्रदानं प्रशस्यते ॥इति।
नित्यं चेदम्।
न निर्वपति यः श्राद्धं प्रमीतपितृको द्विजः।
इन्द्रुक्षये मासि मासि प्रायश्चित्ती यतो हि सः॥
इति व्याघ्रवचनात्। इदं चाऽऽहिताग्निभिरिष्टिदिनात्पूर्वदिने कार्यम्। तस्मात्पूर्वेद्युः पितृभ्यः क्रियत उत्तरमहर्देवान्यजन्त इति श्रुतेः।
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं क्षीणे राजनि शस्यते।
वासरस्य तृतीयांशे नातिसंध्यासमीपतः॥
इति कात्यायनवचनात्। राजनि चन्द्रे क्षीणे। त्रेधाविभक्तदिनतृतीयभागेऽपराह्ण इति हेमाद्रेः सायाह्नात्प्राचीनोऽपराह्ण एवाभिप्रेतः। ईषन्यूनोऽपराह्णः सायाह्नसहितस्तृतीयांश इत्यनेनोच्यते। तत्र नातिसंध्यासमीपत इत्यनेन सायाह्ननिषेधादपराह्णःकर्मकालः शिष्यत इति माधवः,सायाह्नादर्वाक्तन इति मदनरत्नश्च। एतेन यत्तु माधवेन सायाह्नात्प्राचीनोऽपराह्णॊग्राह्य इत्युक्तं तदयुक्तम्। अतिसंध्येतिशब्दास्वारस्यादिति कालतत्त्वविवेचनमुपेक्ष्यम्।
सायाह्नस्त्रिमुहूर्तस्तु सर्वकर्मसु गर्हितः।
इतिवचनहेमाद्रिमदनरत्नादिविरोधात्तत्रोपक्रमकालेऽमावास्याया अप्रवृत्तावपि साकल्यप्रयुक्ततत्सत्त्वमादायाप्यनुष्ठानमित्यभिप्रायेण सएवाऽऽह —
यदा चतुर्दशी यामं तुरीयमनुपूरयेत्।
अमावास्या क्षीयमाणा तदैव श्राद्धमिष्यते॥ इति।
यस्यां संध्यागतः सोमो मृणालमिव दृश्यते।
अपराह्णॆक्षयस्तस्यां पिण्डानां करणं ध्रुवम्॥ इति।
सायाह्नमारभ्य प्रवृत्तावपि तत्रैवेत्याह हेमाद्रौ वृद्धबौधायनः —
चतुर्दशी चतुर्यामे अमावास्या न दृश्यते।
श्वोभूते प्रतिपद्यत्र भूते कव्यादिकी क्रिया॥ इति।
संपूर्णॆचतुर्थे यामेन दृश्यते किंतु सायाह्नमारभ्येत्यर्थ इतीष्टिप्रकरणे माधवः। तथा च साग्निकैरिष्टिदिनात्पुर्वदिने दर्शश्राद्धं कर्तव्यम् ।यानि तु
भूतविद्धाममावास्यां मोहादज्ञानतोऽपि वा।
श्राद्धकर्मणि ये कुर्युस्तेषामायुः प्रहीयते॥
मध्याह्नात्परतो यत्र चतुर्दश्यनुवर्तते।
सिनीवाली तु सा ज्ञेया पितृकार्ये तु निष्फला॥
मध्याह्नाद्या त्वमावास्या परस्तात्संप्रवर्तते।
भूतविद्धा तु सा ज्ञेया नच पञ्चदशी भवेत्॥
इति हेमाद्रौकार्ष्णाजिनिबौधायनबृहस्पतिवचनानि
भूतोऽष्टादशनाडीभिर्दूषयत्युत्तरां तिथिम्।
इत्येकवाक्यतयाऽपराह्णॆचतुर्दशीवेधनिषेधकानि, तान्याहिताग्निभिन्नविषयाणि उदाहृतवचनविरोधात्।
अपराह्णद्वयाव्यापी यदि दर्शस्तिथिक्षये।
आहिताग्नेः सिनीवाली निरग्न्यादेः कुहूर्मता॥
इतिमाधवाद्युदाहृतजाबालिवचनेनापराह्णास्पर्शेऽपि साग्निकानां चतुर्दशीविद्धाया अपि सिनीवाल्या एव नियमनाच्च। क्वचित्तु अपराह्णद्वयव्यापीति पाठः स लेखकप्रमादात्संपूर्णापराह्णद्वयव्यापित्वस्य वृध्यैकसाध्यत्वेन तिथिक्षय इत्यस्य हेतुत्वासंगतेः। अत एव दिनद्वयेऽप्यपराह्ण्ंन स्पृशति तदा साग्न्यनग्निव्यवस्थेति माधवः, मदनरत्नश्च संगच्छते। तिथितत्त्वेऽप्यपराह्णद्वयाव्यापीति पाठः। एतेनोभयत्रापराह्णव्यापिन्यामाहिताग्निभिः पूर्वेत्यादिनिर्णयामृतादिरपपाठदर्शननिबन्धनत्त्वादुपेक्ष्यः।
अमावास्या तु या हि स्यादपराह्णद्वये समा।
क्षये पूर्वोत्तरा वृद्धौ साम्येऽपि च परा स्मृता॥
इति माधवोदाहृतशिवराघवसंवादवचनविरोधात्, उभयापराह्णसंबन्धस्य साम्येऽपि संभवेन विशिष्य क्षयोपादानवैयर्थ्यापत्तेश्च। अनेन वचनेन द्वितीयापराह्णस्पर्शाभावेऽपि तिथिक्षयेऽपि च निरग्न्यादीनामुत्तरस्या एव नियमनात्तिथेः साम्ये वृद्धौ चोत्तराग्रहणमर्थसिद्धम्।
सिनीवाली द्विजैः कार्या साग्निकैः पितृकर्मणि।
स्त्रीभिः शूद्रैः कुहूः कार्या तथा चानग्निकैर्व्दिजैः॥
दृष्टचन्द्रा सिनीवाली कार्या विप्रैस्तु साग्निकैः।
नष्टचन्द्रा कुहूः कार्या शूद्रैर्विप्रैरनग्निकैः॥
सिनीवाली कुहूश्चैव श्रुत्युक्ते श्राद्धकर्मणि।
साग्निकैस्तु सिनीवाली कुहूः कार्याऽप्यनग्निकैः॥
इति हेमाद्रिमाधवोदाहृतलौगाक्षिव्यासबौधायनवचनैरपि तान्प्रति सामान्यत एवोत्तरानियमाच्च।अपि च
दर्श च पौर्णमासं च पितुः सांवत्सरं दिनम्।
पूर्वविद्धामकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते॥
इत्यनेन प्राप्तं दर्शस्य पूर्वविद्धत्वम्।
न द्व्यहव्यापिनी चेत्स्यान्मृताहे तु यदा तिथिः॥
पूर्वविद्धैव कर्तव्या त्रिमुहूर्ता भवेद्यदा।
इति मन्वादिवचनैर्मृततिथेरपराह्लद्वयास्पर्शेऽपि पूर्वस्या एव विधानात्।
अपराह्णद्वयव्यापिन्यतीतस्य च या तिथिः।
क्षये पूर्वा तु कर्तव्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा॥
इति माधवे बौधायनेन क्षये मृताहतिथेः पूर्वस्या एव विधानात्। जाबालिना क्षयेऽप्यपराह्णास्पर्शेऽपि निरग्निकान्प्रति दर्शस्योत्तरस्यैव विधानात्तस्य पूर्वविद्धत्वनियमः साग्निकविषयः। सोऽपि बहुवृचतैत्तिरीयभिन्नयजुर्वेदिनां नियत एव। सामगानां वैकल्पिकः।
त्रिमुहूर्ताऽपि कर्तव्या पूर्वा खर्वा तु बह्वृचैः॥
कुहूरध्वर्युभिः कार्या यथेष्टं सामगीतिभिः।
पर्वणोंऽशे द्वितीये तु कार्या इष्टिर्द्विजातिभिः॥
द्वितीयासहितं यस्माद्दूपयन्त्याश्वलायनाः। इति॥
सिनीवालीमुपोष्याथ कृत्वेष्टिं चापरेऽहनि॥
पितृयज्ञं तथा कुर्युः स्वकाले तैत्तिरीयकाः।
इति हेमाद्र्युदाहृतहारीतबौधायनवचनान्निरग्निकानां सर्वत्र भूतविद्धानिषेधे प्राप्तेऽनुज्ञामाह हेमाद्रिमाधवयोर्जाबालिः —
प्रतिपत्स्वप्यमावास्या पूर्वाह्णव्यापिनी यदि।
भूतविद्धैवसा कार्या पित्र्ये कर्मणि सर्वदा॥ इति।
प्रतिपदि यामद्वयपरिमितेत्यर्थः।
अह्नो मुहूर्ता विख्याता दश पञ्च च सर्वदा।
तत्राष्टमो मुहूर्तो यः स कालः कुतुपः स्मृतः॥
इति हेमाद्रौमात्स्योक्तकुतुपार्धपर्यन्तेति यावत् अत एव हेमाद्रिमाधवयोर्बौधायनेन —
घटिकैकाऽप्यमावास्या प्रतिपत्सु न चेत्तदा।
भूतविद्धैव सा ग्राह्या दैवे पित्र्ये च कर्मणि॥
इति कुतुपोत्तरार्धव्यापित्वाभाव एव भूतविद्धा विहिता। अत एव निरग्निकानां कुतुपव्याप्त्यैव निर्णयमाह हेमाद्रिमाधवयोर्हारीतः —
भूतविद्धाऽप्यमावास्या प्रतिपन्मिश्रिताऽपि वा।
पित्र्ये कर्मणि विद्वद्भिर्ग्राह्या कुतुपकालिकी॥ इति।
दिनद्वयेऽपि कुतुपकालव्यातौ क्षये पूर्वावृद्धिसाम्ययोः परा। तदाह हेमाद्रौप्रचेताः —
सिनीवाली कुहूश्चैव श्रुत्युक्ते श्राद्धकर्मणि।
स्यातां ते चेत्तु मध्याह्नेश्राद्धादि स्यात्कथं तदा।
तिथिक्षये सिनीवाली तिथिवृध्दौकुहूः स्मृता॥
साम्येऽपि च कुहूर्ज्ञेया वेदवेदाङ्गवेदिभिः। इति।
कात्यायनोऽपि —
क्षीयमाणाममावास्यां प्रथमेऽहनि लक्षयेत्।
वर्धमानाममावास्यां द्वितीयेऽहनिलक्षयेत्॥ इति।
यदैकादशघटिकानन्तरं प्रवृत्ता चतुर्दशी द्वितीयदिनेचतुर्दशघटिकापरिमिता तदनन्तरं प्रवृत्ताऽमावास्या प्रतिपदि षोडशघटिका भवति तदा त्रिषष्टिघटिकापरिमितचतुर्दश्यपेक्षया द्विषष्टिघटिकापरिमितामावास्यायाः क्षीयमाणत्वात्पूर्वा ग्राह्या। एवं तिथिप्रवृत्तिवैचित्र्यात्प्रकारान्तरेणापि चतुर्दश्यपेक्षयाऽमावास्याक्षयेऽपि बोध्यम्। यदा तु द्वादशघटिकानन्तरं प्रवृत्तोत्तरदिने चतुर्दशघटिका चतुर्दशी द्वितीयदिने षोडशघटिकामावास्या तदा तिथिसाम्यम् । यदा पूर्वदिने चतुर्दशघटिकापेक्षया किंचिन्यूना चतुर्दशी द्वितीयदिने षोडश किंचिदधिकषोडशघटिका वाऽमावास्या तदा तिथिवृद्धिः। एवं प्रकारान्तरेणापि वृद्धिसाम्ययोः कुहूरेवेत्यर्थः। कालादर्शे तु स्यातां ते चेत्तु मध्याह्नादिति पाठः। तत्र ल्यब्लोपे पञ्चमीति मध्याह्नं व्याव्य स्यातामित्यर्थात्तत्राप्युक्त एवार्थः। द्वितीयदिने कुतुपानन्तरममाया अभावात्कथं तत्र पार्वणश्राद्धानुष्ठानमिति शङ्कामपाकरोति हेमाद्रिमाधवयोर्हारीतः —
पूर्वाह्णॆचेदमावास्या अपराह्णे न चेद्यदि।
प्रतिद्यपि कर्तव्यं श्राद्धं वेदविदो विदुः॥ इति।
साकल्यवचनापादितामावास्यायाः सत्त्वात्तत्रैवानुष्ठानमिति भावः। अत एव मृताहश्राद्धतिथेर्विहिताया अपराह्णेऽसत्त्वेऽपि साकल्यवचनापादिततिथिसत्त्वादपराह्ण एव श्राद्धानुष्ठानमिति सांवत्सरिकश्राद्धप्रकरणे हेमाद्रिमाधवादिसिद्धान्तः संगच्छते। तस्मात्
भूतविद्धाममावास्यां मोहादज्ञानतोऽपि वा।
श्राद्धकर्माण ये कुर्युस्तेषामायुः प्रहीयते॥
इत्याद्युदाहृतकार्ष्णाजिन्यादिवचनैर्निरग्निकानां निषिद्धाया भूतविद्धायाः
प्रतिपत्स्वप्यमावास्या पूर्वाह्णव्यापिनी यदि।
भूतविद्धैवव सा ग्राह्या पित्र्ये कर्मणि सर्वदा॥
इत्यादिजाबाल्यादिवचनैरुत्तरदिने कुतुपोत्तरार्धाव्यापित्व एव पूर्वविद्धाभ्यनुज्ञानात्।
पूर्वाह्णॆ चेदमावास्या अपराह्णे न चेद्यदा।
इत्यादिवचनाद्द्वेधाविभक्तदिनस्य कुतुपोत्तरार्धादिरूपापराह्णव्यापिन्यमावास्या निरग्निकैः श्राध्देग्राह्येति सिद्धम्। यत्तु कालादर्शे, तदनुयायिनिर्णयामृते च भूतविद्धामिति कार्ष्णाजिनिवचनं प्रतिपद्येवापराह्णेऽमावास्यासत्त्वे साग्निकानामपि भूतविद्धानिषेधकम्, प्रतिपद्यपराह्णासत्त्वे पूर्वापराह्णस्पर्शीनी चेत्सर्वेषां पूर्वैव।
मध्याह्नात्परतो यत्र चतुर्दश्यनुवर्तते।
इति बौधायनवचनं त्रेधा विभक्तस्याह्नो मध्यमभागादूर्ध्वं सायंकाले चतुर्दश्यनुवृत्तिनिषेधकम्। उभयत्रापराह्णसंबन्धे त्वपराह्णद्वयव्यापीति जाबालिवचनात्तिथिक्षय एवं साग्निकानां पूर्वा, निरग्निकानामुत्तरैव। तिथिसाम्ये, वृद्धौ च सर्वेषामुत्तरैव। सिनीवाली कुहूश्चॆवेति प्रचेतोवाक्ये, स्यातां ते चेत्तु मध्याह्लादिति, पाठं धृत्वा मध्याह्नादूर्ध्वमपराह्णे स्यातामिति व्याख्यायेदमपि साग्न्यनग्निव्यवस्थापरमेव जाबालिवचनवदित्युक्त्वोभयत्रापराह्णे स्पर्शाभावे तु भूतविद्धाऽप्यमावास्येति हारीतवचनात्कुतुपकालव्यापिन्युत्तरैव सर्वेषाम्। तत्र कुतुपे प्रारब्धस्य श्राद्धस्य प्रतिपदि समाप्तौ न दोषः।
पूर्वाह्णॆचेदमावास्या अपराह्णे न चेद्यादि।
इति जाबालिवचनात्।
पूर्वाह्णे चेत्प्रतिपदो भूता सायममा यदि।
प्रारभ्य कुतुपे श्राद्धं कुर्यादारौहिणं बुधः॥
इति गौतमवचनादिति सिद्धान्तितम्। तत्। [तस्मात् ]
चतुर्दशी चतुर्यामे अमा यत्र न दृश्यते।
श्वो भूते प्रतिपच्चेत्स्यात्पूर्वां तत्रैव कारयेत्॥
इत्यादीनां पूर्वत्रापराह्णव्यापित्वाभावेऽप्याहिताग्नीनां पूर्वाविधायकबौधायनादिवचनानां निर्विषयत्वापत्तेः। मध्याह्नात्परत इत्येतस्माद्भूतोऽष्टादशनाडीभिरित्यनेनैकवाक्यत्वादपराह्णस्यैव प्रतीतेस्तं त्यक्त्वा सायंकाल ग्रहणे प्रमाणाभावात्। अपराह्णद्वयव्यापीति पाठस्त्वपपाठ इत्यनुपदमुपपादितत्वात्। प्रचेतोवाक्ये स्यातां ते चेत्तु मध्याह्नादिति पाठेऽपि ल्यब्लोपपञ्चम्या मध्याह्न इति पाठेनैकार्थत्वसंभवे तद्विरुद्धापराह्ण इत्यर्थकल्पनानौचित्येन तस्य जाबालिवाक्यैकवाक्यत्वासंभवात्। उभयत्रापराह्णस्पर्शाभावे कुतुपव्यापिन्युत्तरैव साग्निकैर्ग्राह्येत्युक्तिः साग्निकानां सिनीवालीविधायकानेकवचनविरुद्धत्वात्
त्रिमुहूर्ता तु कर्तव्या पूर्वा खर्वा च बह्वृचैः।
कुहूरध्वर्युभिः कार्या यथेष्टं सामगीतिभिः॥
इति शाखाभेदेन व्यवस्थाबोधकहारीतवचनविरोधाच्चोपेक्ष्यैव। माघवीयेऽपि व्यवस्थापरत्रिमुहूर्तेति वाक्यमनुपन्यस्य हेमाद्र्याद्यनुदाहृतस्य
अल्पापराह्णे त्याज्या सा ग्राह्या स्याद्याऽधिका भवेत्।
इति शिवराघवसंवादवचनस्य सामगविषये सावकाशस्य सर्वविषयत्वमभिप्रेत्य साधारण्येनैव निर्णयमुपक्रम्य सामगविषये सावकाशम्,
अमावास्या तु या हि स्यादपराह्णद्वये समा।
क्षये पूर्वा परा वृद्धौसाम्येऽपि च परा स्मृता॥
इति शिवराघवसंवादवचनमुपन्यस्य
सिनीवाली कुहूश्चैव श्रुत्युक्ते श्राद्धकर्मणि।
स्यातां ते चेत्तु मध्याह्नेश्राद्धादि स्यात्कथं तदा॥
इति प्रथमवाक्यं त्यक्त्वा तस्योत्तररूपम्
तिथिक्षये सिनीवाली तिथिवृद्धौ कुहूः स्मृता।
साम्येऽपि च कुहूर्ज्ञेया वेदवेदाङ्गवेदिभिः॥
इति प्रचेतोद्वितीयवाक्यं शिवराघवसंवादवाक्यैकवाक्यतया संयोज्यापराह्णद्वयास्पर्शे तिथिक्षयेऽपि अपराह्नद्वयाव्यापीति जाबालिवचना-
त्साग्निकानग्निकव्यवस्थेति सिद्धान्तितम्। तत्र, अमावास्या तु या हि स्यादित्यस्य निरग्निविषयत्वस्वीकारे तिथिक्षये तेन निरग्निकानां पूर्वा प्राप्नोति। अनेन तूत्तरा इति विरोधः स्पष्ट एव। किंच सर्वाहिताग्निविषयत्वे त्रिमुहूर्ता त्विति हारीतेन —
चतुर्दशी चतुर्यामे अमा यत्र न दृश्यते।
इत्यादिभिरिष्टिप्रकरणे माधवेनाप्युदाहृतबौधायनाद्यनेकवाक्यैश्च विरोधोऽपि मध्याह्नव्याप्त्या व्यवस्थापकप्रचेतोवाक्यस्याहिताग्निविषयत्वे तिथेः क्षये पूर्वी साम्ये वृद्धौ चाऽऽहिताग्नीनामप्युत्तराग्रहणापत्तावुदाहृतानेकवाक्यविरोधः प्रसज्येत। यदपि विरुद्धवाक्ययोजनार्थम्।
मध्याह्नाद्या त्वमावास्या परस्तात्संप्रवर्तते
भूतविद्धा तु सा ज्ञेया न सा पञ्चदशी भवेत्॥
इति बृहस्पतिवाक्ये मध्याह्लादूर्ध्वमपराह्नमतिक्रम्य परस्तात्प्रवर्तत इति व्याख्येयमित्युक्तं तन्मध्याह्नात्परस्तादित्यस्मात्स्वारस्यात्, भूतोऽष्टादशनाडीभिरित्यनेनैकवाक्यत्वाच्चापराह्णस्यैव प्रतीतेः, अपराह्णमतिक्रम्येत्यादिव्याख्याने प्रमाणाभावात्, प्रतिपत्स्वप्यमावास्येति जाबालिवाक्ये पूर्वेयद्युरपराह्णव्यापित्वाभावे साग्निकैरेव भूतविद्धा कार्येत्युक्त्या निरग्निकैः पूर्वाह्णव्यापिन्युत्तरेति परिशेषितं तत्
घटिकैकाऽप्यमावास्या प्रतिपत्सु न चेत्तदा।
भूतविद्धैव सा ग्राह्या दैवे पित्र्ये च कर्मणि॥
इति बौधायनवाक्ये घटिकैकाऽपि कर्मकालसंबन्धिनी यदि न स्यादिति स्वोक्त्या
भूतविद्धाऽप्यमावास्या प्रतिपन्मिश्रिताऽपि वा।
श्राद्ध कर्मणि विद्वद्भिर्ग्राह्या या कुतुपकालिकी॥
इति कुतुपोत्तरार्धव्यापिन्येव प्रतिपन्मिश्रा कार्येति हारीतवचनेन च विरुद्धम्। यदप्यनेन वचनेनोभयत्रापराह्णस्पर्शाभावे निरग्निकानां कुतुपव्याप्त्या प्रतिपन्मिश्रा विधीयते। भूतविद्धकुतुपकालिक्युपादानं दृष्टान्तार्थम्। यथा कुतुपकालिकी भूतविद्धोपादेया, तथा प्रतिपन्मिश्राऽपि कुतुपकालिकीत्युक्तम्। तत्र दृष्टान्तोक्तिः
सिनीवाली कुहूश्चैव श्रुत्युक्ते श्राद्धकर्षणि।
स्यातां ते चेत्तु मध्याह्ने श्राद्धादि स्यात्कथं तदा॥
तिथिक्षये सिनीवाली तिथिवृद्धौ कुहूः स्मृता।
साम्येऽपि च कुहूर्ज्ञेया वेदवेदाङ्गवेदिभिः॥
इति प्रचेतोवचनविरोधादयुक्तैव। पूर्वापराह्णादूर्ध्वं प्रवृत्ताया द्वितीयदिने रौहिणमुहूर्तव्याप्तेरवश्यंभावित्वेन कुतुपोपादानवैयर्थ्यापत्तेश्च। तस्मात्कालादर्शानुसारेण निर्णयं कुर्वद्भिर्माधवाचार्यैरुपसंहारे हेमाद्रिकृतव्यवस्थामनुसरद्भिर्यथा पराशरमाधवे भार्यायां रजोवत्यामपि श्राद्धतिथिदिन एव श्राद्धं कार्यमिति कालादर्शमते पञ्चमदिने कार्यमिति हेमाद्रिमतं चोपन्यस्य यदत्रयुक्तं तद्ब्राह्यमित्युक्त्या स्वस्योदासीनता स्पष्टोक्ता तथा प्रकृते निर्णये सा ध्वनितेत्येव युक्तमिति विभावनीयम्। अत एव माधवानुसारेणोपक्रम्य कालादर्शानुसारेणोपसंहरन्मदनरत्न उपेक्ष्यः। अत एव भूतविद्धेति हारीतवचनस्योभयत्रापराह्णस्पर्शाभावे सावकाशस्य निरग्निकान्प्रति कुतुपव्याप्त्या निर्णायकत्वं न संभवति तत्र भूतविद्धोपादानं दृष्टान्तार्थमिति कालतत्त्वविवेचनमुपेक्ष्यम्। दृष्टान्ततासंभवात्तस्य वचनविरुद्धत्वात्। हेमाद्रिणा तु निरग्निकैः कुतुपकालव्याप्त्यैव ग्राह्येत्युक्तं तद्दूषणं कालतत्त्वविवेचने द्रष्टव्यमिति तदनुयायिरामभट्टोक्तिरप्युपेक्ष्या हेमाद्र्यर्थाज्ञाननिबन्धनत्वात्, उदाहृतानेकवचनविरुद्धत्वाच्च। तस्माद्बौधायनबृहस्पतिहारीतप्रचेतोजाबाल्यादिवचनानामप्रामाणिकेन मध्याह्नात्परमपराह्णमतिकेम्प्रेत्यादिव्याख्यानेनाऽऽहिताग्निसाधारण्यस्य शक्यत्वात्तेषां निरग्निकविषयत्वमेव वक्तव्यम्। तच्चहारीतवचनस्य विधायकत्वेऽन्येषां तदनुग्राहकत्व एव संभवतीति पूर्वोक्तव्यवस्थया कुतुपव्याप्त्यैव निरग्निकान्प्रत्यमावास्या निर्णेतव्येति सिद्धम्। अत एवैतच्चापराह्णव्यापिन्यां सिनीवाल्यां श्राद्धविधानमग्निमद्विषयम्। अनग्निकानां तु कुतुपकालव्यापिन्यां कुह्वामेव। अत एव बौधायनबृहस्पतिकार्ष्णाजिनिवाक्यैस्तेषां पूर्वविद्धा निषिध्यते। लौगाक्षिसौरपुराणव्यासबौधायनवाक्यैराहिताग्नीनां सिनीवाली, निरग्निकानां कुहूरिति व्यवस्थयैव विधानम्। सा च कुहूः कुतुपकालव्यापिनी ग्राह्या भूतविद्धाऽप्यमावास्येति हारीतवचनात्। एवं सति दिनद्वयसंबन्धिन्याममावास्यायां सत्यां या कुतुपकालव्यापिनी सेवानग्निकैर्ग्राह्येत्युक्तं भवति। यदोभयत्रापि कुतुपकालसंबन्धाभावस्तदा घटिकैकेति बौधायनप्रतिपत्स्वप्यमावास्येत्यादिजाबाल्यादिवचनैः पूर्वविद्धैव ग्राह्य। यदा तु दिनद्वयेऽपि कुतुपकालव्यापिनी, तदा सिनीवाली कुहूश्चैवेति प्रचेतोवचनात, क्षये पूर्वा, वृद्धौ साम्ये चोत्तरा ग्राह्येति हेमाद्रिसिद्धान्तः संगच्छत
विभावनीयम्। एतेन निरग्निकानां दिनद्वयेऽपराह्णस्पर्शाभाव एव कुतुपकालव्यापिनीति प्रतिपादका यथाश्रुतमाधवाद्यनुसारेण प्रवृत्ताः कालतत्त्वविवेचनादयः सर्वेऽपि नवीनग्रन्था उपेक्ष्या उदाहृतानेकवचनविरोधात्, हेमाद्रिविरोधाच्चेति बोध्यम्। तथा च सर्ववाक्यैकवाक्यतया, हेमाद्रिसंमततया च निर्णीताया अमावास्याया अयं निर्णयसंग्रहः — बह्वृचयाजुपैराहिताग्निभिः पूर्वदिनेऽपराह्णेसत्त्वेऽसत्त्वे वेष्टिदिनात्पूर्वदिन एव दर्शश्राद्धं कार्यम्।‘तस्मात्पूर्वेद्युः पितृभ्य क्रियत उत्तरमहर्देवान्यजन्ते’ इति श्रुतेः,
पिण्डयज्ञं तु निर्वर्त्य विप्रश्चन्द्रक्षयेऽग्निमान्।
पिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्मासानुमासिकम्॥
इति मनूक्तेश्च।
त्रिमुहूर्ता तु कर्तव्या पूर्वा खर्वा च बह्वृचैः।
कुहूरध्वर्युभिः कार्या यथेष्टं सामगीतिभिः॥
इति हारीतवचनेऽध्वर्युशब्दस्तैत्तिरीयपरः।
सिनीवालीमुपोष्याथ कृत्वेष्टिं चापरेऽहनि।
पिण्डयज्ञं ततः कुर्युः स्वकाले तैत्तिरीयकाः॥
इति बौधायनवचनेन तैत्तिरीय उपसंहारात्। तत्र यदा कार्त्स्येनोभयापराह्णव्यापिन्यमा, तदा प्रतिपदिन एवेष्टिरिति सर्वेषामुत्तरैव। एकदेशेनापराह्णद्वयव्याप्तावपि प्रतिपद्वृद्ध्या प्रतिपदि यागस्तदाऽप्युत्तरैव सर्वेषाम्। यदा तु द्वितीयदिन एवापराह्णव्याप्तावपि प्रतिपत्क्षयात्तद्दिन एवेष्टिस्तदा बह्वृचादीनां पूर्वा, तैत्तिरियाणामुत्तरा, सामगानां पूर्वा, उत्तरा वेति विकल्पः। एवं साम्येनोभयापराह्णव्याप्तावपि तैत्तिरीयाणामुत्तरैव।सामगानां तु अमावास्या तु या हि स्यादिति वचनात्क्षये पूर्वा, साम्ये वृद्धौ चोत्तरा।यदा पूर्वदिनेऽधिकापराह्णव्याप्तिर्द्वितीयदिनेऽल्पापराह्णव्याप्तिस्तदाऽल्पाऽपराह्णे त्याज्येतिवचनात्सामगानां वृद्धावपि पूर्वा, तैत्तिरीयाणामुत्तरा। यदाऽप्युभयापराह्णस्पर्शाभावस्तदाऽपि सामगानां पूर्वा, तैत्तिरीयाणामुत्तरेति।
आहिताग्रेस्तु यो धर्मो गृह्याग्नेरपि स स्मृतः।
इति वृद्धप्रवादाद्गृह्याग्निमतामप्ययमेवामावास्यानिर्णयः। निरग्निनां द्विजानां, स्त्रीणां, शूद्राणां च
घटिकैकाऽव्यमावास्या प्रतिपत्सु न चेत्तदा।
पूर्वविद्धैव सा ग्राह्या दैवे पित्र्ये च कर्मणि॥
इति बौधायनादिवचनैर्द्वितीयदिने द्वेधाविभक्तदिनस्योत्तरार्धाद्यघटिकाव्याप्त्यभाव एव पूर्वविद्धाभ्यनुज्ञानाद्द्वितीयदिने कुतुपोत्तरार्धव्याप्तौ तत्रैव श्राद्धम्।
भूतविद्धाऽप्यमावास्या प्रतिपन्मिश्रिताऽपि वा।
श्राद्धे कर्मणि विद्वद्भिः कार्या कुतुपकालिकी॥
इति हारीतवचनात्। यदा दिनद्वयेऽपि कुतुपरूपमध्याह्नव्यापिनी, तदा
सिनीवाली कुहूश्चैव श्रुत्युक्ते श्राद्धकर्मणि।
स्यातां ते चेत्तु मध्याह्ने श्राद्धादि स्यात्कथं तदा॥
तिथिक्षये सिनीवाली तिथिवृद्धौ कुहूः स्मृता।
साम्येऽपि च कुहूर्ज्ञेया वेदवेदाङ्गवेदिभिः॥
इति वचनात्पूर्वोक्तरीत्या चतुर्दशीभोगापेक्षयाऽमावास्याभोगस्य न्यूनत्वे पूर्वा, आधिक्ये, साम्ये चोत्तरेति संक्षेपः।
अरुणोदयवेलायाममावास्या यदा भवेत्।
स कालः परमो ज्ञेयः पितॄणां दत्तमक्षयम्॥
इति वृद्धवसिष्ठवचनं स्नानपितृतर्पणादिविषयम्। अत एव हेमाद्रौ पाझम्—
अमावास्या प्रतिपद्युक्ता सर्वपापहरा तिथिः।
चन्द्रसूर्यग्रहैस्तुल्या स्नानदानजपादिषु॥ इति।
यानि तु
कन्यामकरमीनेषु तुलायां मिथुने तथा।
पूर्वविद्धैव सर्वेषां पूज्या भवति यत्नतः॥
इत्यादीनि हारीतादिवचनानि, तानि व्रतविषयाणि।
तुलायां मिथुने मीने कन्यायां मकरेऽप्यमा।
भूतविद्धा व्रते ग्राह्या शेषेषु प्रतिपद्युता॥
इति जाबालिवचनादिति हेमाद्रिमाधवादयः। इति।
इत्याठवलेत्युपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौकालखण्डे श्राद्धेऽमावास्यानिर्णयः।
अथ ग्रहणं निर्णीयते।
तत्र वृद्धगार्ग्यः —
पूर्णिमा प्रतिपत्संधौ राहुः संपूर्णमण्डलम्।
ग्रसते चन्द्रमर्कं च पर्वप्रतिपदन्तरे॥ इति।
तत्र पुण्यकालमाह जाबालिः —
संक्रान्तौ पुण्यकालस्तु षोडशोभयतः कलाः।
चन्द्रसूर्योपरागे तु यावद्दर्शनगोचरे॥ इति।
अत्र दर्शनगोचरशब्दः
रात्र्यन्तर्यामनाडी द्वे संध्यादिः काल उच्यते।
दर्शनाद्रविरेखायास्तदन्तो मुनिभिः स्मृतः॥
आमण्डलदर्शनान्नक्षत्रं दृष्ट्वा वाचं विसृजीतेत्यादिवाक्येष्विव चाक्षुषज्ञानविषयतायोग्यपरः। तेन यावति काले चाक्षुषज्ञानयोग्य उपरागः तावान्कालः पुण्यकाल इत्यर्थः। दर्शनस्य विशेषणत्वे यदा मेघादिना रविरेखादेर्दर्शनाभावस्तदा संध्यासमाप्त्यभावेन होमादिकर्मान्तरानुष्ठानाभावापत्तेः।
रजसो दर्शने नारी त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।
इत्यत्रान्धस्त्रीणां सर्वदा रात्राववलोकनाभावेन दर्शनामावे दर्शनकालपर्यन्तमन्यासां चाशुचित्वं न स्यात्। उपरागदर्शनानन्तरं मेघादिना दर्शनावे श्राद्धदानाद्यभावपत्तेः।
नेक्षेतोद्यन्तमादित्यं नास्तं यन्तं कदाचन।
नोपरक्तं न वारिस्थं न मध्यं नभसो गतम्॥
इति मनुना गृहस्थस्य ग्रस्तादित्यदर्शननिषेधात्तेषामन्धस्य च स्रानाद्यभावापत्तेश्च। नच योग्यत्वविवक्षायां द्वीपान्तरजातग्रहणस्य दर्शनयोग्यत्वानपायात्तत्रापि स्नानाद्यापत्तिरिति वाच्यम्।
सूर्यग्रहो यदा रात्रौ दिवा चन्द्रग्रहस्तथा।
तत्र स्रानं न कुर्वीत दद्याद्दानं च न क्वचित्॥
इति हेमाद्रिमाधवाद्युदाहृतषट्त्रिंशन्मतवचनेनैव वारणात्। तथा च मेघादिवशाद्दर्शनाभावेऽपेि दर्शनयोग्यतायाः सत्त्वाद्यावति काल उपरागते ज्योतिःशास्त्रान्निश्चितस्तावान्पुण्यकाल इति सिद्धम्।नचैवं द्वीपान्तरजातोपरागस्य वचनेनैव वारणे दर्शनगोचर इत्यस्य वैयर्थ्यापत्तिरनादेश्यरू-
पच्छायाग्रहणव्यावृत्तये तस्याऽऽवश्यकत्वात्। अत एव हेमाद्रिणां चाक्षुषज्ञानविषयस्यैव निमित्तत्वाच्चाक्षुष एव ज्ञाने दर्शनपदस्य मुख्यत्वात्तेन मेघादिच्छन्ने स्नानादिकं न कार्यमिति केषांचिदुक्तिं दूषयित्वा मेघादिप्रतिबन्धकेन दर्शननिषेधेन वा स्वस्य दर्शनाभावेऽपि दर्शनयोग्यतायास्तत्रापि सत्त्वात्तथैव शिष्टाचाराच्चमेघादिच्छन्नेऽपि स्रानादानादिकं कार्यमेवेति सिद्धान्तितं माधवाचार्यैरपि। ननु मेधाद्यन्तर्धाने दर्शनं न संभवतीति चेन्न।दर्शनशब्देन शास्त्रीयज्ञानस्यैव विवक्षितत्वादित्युक्तं तेषामप्युक्तार्थ एव तात्पर्यात्। मदनरत्नेनापि चाक्षुषज्ञानयोग्यताया मेघाच्छन्नेऽपि सत्त्वात्तदाऽपि स्नानादिकं कार्यमेव। हेमाद्र्यादिदाक्षिणात्यानामिदमेव मतम्। मेघादि वशाद्दर्शनाभावे स्नानादिकं न कार्यमिति कल्पतरुकारपक्षे सकृद्दृष्टस्य ग्रहणस्य मेघाद्यावरणेन पुनरदर्शने स्नानाद्यकरणापत्तेः सकलशिष्टव्यवहारविरोधापत्तेरिति कल्पतरुर्दूषितः। एतेनात्र दर्शनं चक्षुर्व्यापार एव न तु शास्त्रतोऽवगतिः। तथा सति रात्रौ सूर्यग्रहे, दिवा वा चन्द्रग्रहे च स्नानाद्यापत्तेः। तेन यस्य राशौ ग्रहणं भवति, सोऽप्येकवारं दृष्ट्वा मत्स्यपुराणोक्तशान्तिविधिना स्नायात्। पुनर्न पश्येदिति निर्णयामृत उपेक्ष्यः। अल्पकालिकानादेश्यग्रहणवद्द्वीपान्तरगतस्यापि तस्यैतद्द्वीपावस्थितपुरुषस्य दर्शनयोग्यताया एवाभावात्, सूर्यग्रहो यदा रात्रावित्यादिना निषेधाच्च। अत एव दर्शनपदाच्चाक्षुषज्ञानस्यैव निमित्तता विधीयते। तच्च चाक्षुषं स्नानादि कर्तृनिष्ठमेव निमित्तम्। अन्यथा पुत्रादिमुखदर्शने नान्दीमुखं पितृगणं पूजयेदित्यत्राप्यन्यकर्तृकस्वपुत्रदर्शनज्ञानेऽपि नान्दीश्राद्धं प्रसज्येतेति तिथितत्त्वादिगौडग्रन्था अप्युपेक्ष्याः। पितृकर्तृकपुत्रमुखकर्मकदर्शनस्य स्वरूपत एव निमित्तत्वस्वीकारे रात्र्यन्धस्य पितू रात्रौ, तस्मिन्काले कंचित्कालं रागेण प्रतिबद्धदर्शनस्य पितुर्दर्शनकालपर्यन्तमन्धस्य पितुः कदाऽपि पुत्रजन्मनिमित्तकनान्दीश्राद्धाकरणापत्तौ राज्यादावेव तद्विधायकवचनविरोधात्। किंच तन्मुखदर्शनकाले श्राद्धस्य कर्तुमशक्यत्वात्तन्निमित्तकश्राद्धस्यैव लोपापत्तेः। मुक्तं दृष्ट्वा तु भुञ्जीतेत्यादिहेमाद्र्युदाहृतविष्ण्वादिवाक्येष्वपि दर्शनस्यैव ग्राह्यत्वापत्तौ मेघवशाद्दर्शनाभावे भोजनाभावापत्तेश्च। तस्मादापि दर्शनयोग्यताया एव निमित्तत्वमाश्रित्य श्राद्धस्यानुष्ठेयत्वात्। गतं प्रविन्द्याऽपि दर्शनस्य निमित्तत्वसाधनप्रत्याशयेति विपश्चितो विदांकुर्वन्तु। तत्सिद्धं दर्शनायोग्येऽप्युपरागे स्नानादिकं कार्यमिति। हेमाद्रौमार्कण्डेयपुराणे —
चन्द्रे वा यदि वा सूर्ये दृष्टे राहौ महाग्रहे।
अक्षयं कथितं पुण्यं तत्रार्के तु विशेषतः॥
दृष्टे दर्शनयोग्य इति हेमाद्रिः।
व्यासः — रविग्रहः सूर्यवारे सोमे सोमग्रहस्तथा।
चूडामणिरिति ख्यातस्तत्रानन्तफलं लभेत्॥
वारेष्वन्येषु यत्पुण्यं ग्रहणे सूर्यचन्द्रयोः।
तत्पुण्यं कोटिगुणितं ग्रासे चूडामणौ स्मृतम्॥ इति।
तत्रैव ब्रह्मवैवर्ते —
त्रिदशाः स्पर्शसमये तृप्यन्ति पितरस्तथा।
मनुष्या मध्यकाले तु मोक्षकाले तु राक्षसाः॥
वृद्धवसिष्ठः —स्रानं स्यादुपरागादौ मध्ये होमः सुरार्चनम्। इति।
ग्रस्यमाने भवेत्स्नानं ग्रस्ते होमो विधीयते।
मुच्यमाने भवेद्दानं मुक्ते स्नानं विधीयते॥ इति।
पाझे—उपमर्दे लक्षगुणं ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
पुण्यं कोटिगुणं मध्ये मुक्तिकाले त्वनन्तकम्॥ इति।
शातातपः — अयनादौ सदा देयं द्रव्यमिष्टं गृहे तु यत्।
षडशीतिमुखे चैव विमोक्षे चन्द्रसूर्ययोः॥
विमोक्षे वर्तमान इत्यर्थः। यावद्दर्शनगोचर इति वचनात्। षट्त्रिंशन्मते —
सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहुदर्शने।
सचैलं तु भवेत्स्नानं सूतकान्नं विवर्जयेत्॥
राहुसूतकान्नमित्यर्थः।
ग्रहणे संक्रमे चैव न स्नायाद्यस्तु मानवः।
सप्तजन्मनि कुष्ठी स्याद्दुःखभागी च जायते॥
इति वृद्धवसिष्ठवचनान्नित्यं चेदं स्नानम्। मुक्तावपीदमावश्यकम्।
विमुक्ते यदि न स्नायाच्चन्द्रसूर्यग्रहे तु यः।
तस्य तावदशौचं स्याद्यावत्स्यादपरो ग्रहः॥
इति ब्रह्मवैवर्तात्। दक्षः —
उषस्युषसि यत्स्नानं संध्यायामुदिते रवौ।
चन्द्रसूर्योपरागे च प्राजापत्येन तत्समम्॥
विष्णुः—अयने विषुवे चैव चन्द्रसूर्यग्रहे तथा।
अहोरात्रोषितः स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
पूर्वस्मिन्दिने कृतोपवास इति केचित्तन्न चन्द्रसूर्यग्रहसंबन्धाहोरात्रपरित्यागेनाहोरात्रान्तरग्रहणे प्रमाणाभावादिति हेमाद्रिः। युक्तं चेदम्। उषित इत्यत्राऽऽदिकर्मणि क्तो न तु भूतकाले। स च गत्यर्थाकर्मकेति सूत्रेण कर्तरीति प्रारब्धोपवास इति पर्यवसितोऽर्थः। अतः —
ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
उपवासो न कर्तव्यो गृहिणा पुत्रिणा तथा॥
इति निषेधोऽप्युपपद्यत इति बोध्यम्। ब्रह्मपुराणे —
नित्यं द्वयोरयनयोस्तथा विषुवतोर्द्वयोः।
चन्द्रार्कयोर्ग्रहणयोर्व्यतीपातेषु पर्वसु॥
अहोरात्रोषितः स्नानं श्राद्धं दानं तथा जपम्।
यः करोति प्रसन्नात्मा तस्य तस्याक्षयं च तत्॥
यमः —अयने विषुवे चैव चन्द्रसूर्यग्रहे तथा।
कृतोपवासो यः स्नायात्सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
लैङ्गे —त्रिरात्रं समुपोष्यैवं ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
स्नात्वा दद्याच्च विधिवन्मोदते ब्रह्मणा सह॥
इदं चोपोषणं पुत्रवतो निषिद्धम्।
आदित्येऽहनि संक्रान्तौ ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
पारणं चोपवासं च न कुर्यात्पुत्रवान्गृही॥
इति वचनात्। कात्यायनः —
स्वर्धुन्यम्भःसमानि स्युः सर्वाण्यम्भांसि भूतले।
कूपस्थान्यपि सोमार्कग्रहणे नात्र संशयः॥
स्वर्धुनी गङ्गा।हेमाद्रौ व्यासः —
सर्वं भूमिसमं दानं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः।
सर्वं गङ्गासमं तोयं राहुग्रस्ते दिवाकरे॥
इन्दोर्लक्षगुणं पुण्यं रवेर्दशगुणं ततः।
गङ्गातोये तु संप्राप्त इन्दोः कोटी रवेर्दश॥
गङ्गाकोटिसहस्रस्य यत्फलं लभते नरः।
तत्फलं जाह्नवीस्नाने राहुग्रस्ते दिवाकरे॥
चन्द्रसूर्यग्रहे चैव योऽवगाहेत जाह्नवीम्।
सुस्नातः सर्वतीर्थेषु किमर्थमटते महीम्॥ इति।
ब्रह्मपुराणे — तिस्रो नद्यो महापुण्या वेणी गोदाऽथ जाह्नवी।
गां हरीशाङ्गतः प्राप्ता गङ्गा इति हि कीर्तिताः॥ इति।
गां हरीशाधिकात्प्राप्ता इति पाठान्तरम्।
हरेश्चरण ईशस्य शिरस्तस्माद्गांप्राप्ता इत्यर्थ इति माधवः। गङ्गास्नानासंभवे नद्यन्तरे स्नायात्तदुक्तं महाभारते —
गङ्गास्नानं तु कुर्वीत ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
महानदीषु चान्यासु स्नानं कुर्याद्यथाविधि॥ इति।
महानद्य उक्ता ब्रह्मपुराणे —
गोदावरी भीमरथी तुङ्गभद्रा च वेणिका।
तापी पयोष्णी विन्ध्यस्य दक्षिणे तु प्रकीर्तिताः॥
भागीरथी नर्मदा च यमुना च सरस्वती।
विशोका च वितस्ता च विन्ध्यस्योत्तरतस्तथा॥ इति।
तद्भावे तु शङ्खः —
वापीकूपतडागेषु गिरिप्रस्रवणेषु च।
नद्यां नदे देवरवाते सरसीषूद्धृताम्बुनि॥
उष्णोदकेन वा स्नायाद्ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः। इति।
अत्रोष्णोदकमातुरविषयम्। तदाह व्याघ्रः —
आदित्यकिरणैः पूतं पुनः पूतं च वह्निना।
अतो व्याध्यातुरः स्नायाद्ग्रहणेऽप्युष्णवारिणा॥ इति।
अत एवोष्णोदकमारभ्य समुद्रजलपर्यन्तेषूत्तरोत्तरप्राशस्त्यमाह
मार्कण्डेयः — शीतमुष्णोदकात्पुण्यमपारक्यं परोदकात्।
भूमिष्ठमुद्घृतात्पुण्यं ततः प्रस्रवणोदकम्॥
ततोऽपि सारसं पुण्यं ततः पुण्यं नदीजलम्।
तीर्थतोयं ततः पुण्यं महानद्यम्बु पावनम्॥
ततस्ततोऽपि गङ्गाम्बु पुण्यं पुण्यस्ततोऽम्बुधिः॥ इति।
ग्रहणे मासविशेषेण नदीविशेषस्य प्राशस्त्यमुक्तं हेमाद्रौ देवीपुराणे —
कार्तिके ग्रहणं श्रेष्ठं गङ्गायमुनसंगमे।
गङ्गायमुनमिति सर्वो513 द्वंद्वो विभाषैकवद्भवतीत्येकवद्भावः।
मार्गे तु ग्रहणं श्रेष्ठं देविकायांमहामुने।
पौषे तु नर्मदा पुण्या माघे संनिहिता शुभा॥
फाल्गुने वरुणा पुण्या चैत्रे चैव सरस्वती।
वैशाखे तु महापुण्या चन्द्रभागा, सरिद्वरा॥
ज्येष्ठे तु कौशिकी पुण्या आषाढे तापिका नदी।
श्रावणे सिन्धुनामा तु तथा भाद्रे तु गण्डकी॥
आश्विने शरयुः श्रेष्ठा भूयः पुण्या तु नर्मदा।
गोदावरी महापुण्या चन्द्रे राहुसमन्विते॥
सूर्ये च राहुणा ग्रस्ते तमोभूते महामुने।
नर्मदातोयसंस्पर्शात्कृतकृत्या भवन्ति ते॥
ये सूर्ये सैंहिकेयेन ग्रस्ते रेवाजलं जनाः।
स्पृशन्ति चावगाहन्ते न सा प्रकृतिमा(र्मा)नवी॥
स्मृत्वा क्रतुशतफलं दृष्ट्वा गोदानजं फलम्।
स्पृष्ट्वा गोमेधतुल्यं तु पीत्वा सौत्रामणीं लभेत्॥
स्रात्वा वाजिमखं पुण्यं प्राप्नुयादविचारतः।
रविचन्द्रोपरागे तु अयने चोत्तरे तथा॥
एवं गङ्गाऽपि द्रष्टव्या तद्वदेव सरस्वती।
तत्रैव मात्स्ये—गङ्गाकनखले पुण्ये प्रयागं पुष्करं तथा।
कुरुक्षेत्रं तथा पुण्यं राहुग्रस्ते दिवाकरे॥
माधवे महाभारते —
सर्वस्वेनापि कर्तव्यं श्राद्धं वै राहुदर्शने।
अकुर्वाणस्तु नास्तिक्यात्पङ्के गौरिव सीदति॥
ऋष्यशृङ्गः — चन्द्रसूर्यग्रहे यस्तु श्राद्धं विधिवदाचरेत्।
तेनैव सकला पृथ्वी दत्ता विप्रस्य वै करे॥
विष्णुः — राहुदर्शनदत्तं हि श्राद्धमाचन्द्रतारकम्।
पुण्यं च सर्वकामीयं पितृणामुपतिष्ठते।
शातातपः — स्त्रानं दानं तपः श्राद्धमनन्तं राहुदर्शने।
आसुरी रात्रिरन्यत्र तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥
देवलः —यथास्त्रानं च दानं च सूर्यस्य ग्रहणे दिवा।
सोमस्यापि तथा रात्रौस्रानं दानं विधीयते॥ इति।
कौर्मे — नैमित्तिकं तु कर्तव्यं ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
बान्धवानां च मरणे नारकी स्यादतोऽन्यथा॥
अत्र श्राद्धमामेन हेम्ना वा कार्यम्। तथा च हैमाद्रौ भविष्यत्पुराणम्। माधवे बौधायनश्च —
अन्नाभावे द्विजाभावे प्रवासे514 पुत्रजन्मनि।
हेमश्राद्धं515 []516 ग्रहे चैव कुर्याच्छ्रद्रः सदैव हि॥
शातातपः — आपद्यनग्नौ तीर्थे च चन्द्रसूर्यग्रहे तथा।
आमश्राद्धं प्रकुर्वीत517 हेमश्राद्धमथापि वा॥ इति।
प्रयोगपारिजाते गोभिलः —
दर्शेरविग्रहे पित्रोः प्रत्याब्दिकमुपस्थितम्।
अन्नेनासंभवे हेम्ना कुर्यादामेन वा सुतः॥ इति।
यानि तु —अन्नेनैवाऽऽब्दिकं कुर्याद्धेम्ना चाऽऽमेन न क्वचित्। इत्यादिवचनानि, तानि ग्रहदिनातिरिक्तविषयाणि। यानि तु —
ग्रहणात्तु द्वितीयेऽह्नि रजो दोपात्त पञ्चमे।
ग्रस्तोदये तु चन्द्रस्य ग्रस्तास्ते च परे दिने॥
इति कैश्चिल्लिखितानि, तानि निर्मूलान्येव प्रयोगपारिजातनिर्णयामृतमदनपारिजाताद्युदाहृतवचनविरोधात्। सूतकादौ विद्यमानेऽपि ग्रहणे स्नानश्राद्धदानानि कर्तव्यानि। तथा च हेमाद्रौलेङ्गे —
चन्द्रसूर्यग्रहे स्रायात्सूतके मृतकेऽपि वा।
अस्रायी मृत्युमाप्नोति स्नायी पापं न विन्दति॥
सूतके मृतके चैव न दोषो राहुदर्शने।
तावदेव भवेच्छुद्धिर्यावन्मुक्तिर्न दृश्यते॥ इति।
अत्र प्रथमवचनेनैव स्राने विहिते द्वितीयवचनं दानादेर्विधानार्थम्। माधवे वृद्धवसिष्ठः —
सूतके मृतके चैव न दोषो राहुदर्शने।
तावदेव भवेच्छुद्धिर्यावद्राहुर्न मुञ्चति॥
हेमाद्रौ स्मॄत्यन्तरम् —
सुतके मृतके चैव यदि स्याद्राहुसूतकम्।
तावत्तत्सूतकं नास्ति यावद्राहुर्न मुञ्चति॥ इति।
कालादर्शेऽङ्गिराः —
सर्वे वर्णाः सूतकेऽपि मृतके राहुदर्शने।
सात्वा श्राद्धं प्रकुर्वीरन्दानं शाठ्यविवर्जितम्॥ इति।
हेमाद्रिमाधवकालादर्शनिर्णयामृतमदनरत्नादिष्वपीत्थमेवोक्तम्।
एतेन — सूतके मृतके चैव न दोषो राहुदर्शने।
स्नानमात्रं तु कर्तव्यं दानश्राद्धविवर्जितम्॥
इति संवत्सरप्रदीपादिगौडग्रन्था उपेक्ष्या आहत्य श्राद्धदानविधायकाङ्गिरोवचनयावत्तावच्छब्दयुक्तलिङ्गपुराणादिवचनहेमाद्र्यादि निबन्धविरोधात्। दानविषये सर्वे ब्रह्मसमा द्विजा इत्युक्तम्। तथाऽपि —
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥
इति वचनात् पात्रालामविषयं तदिति बोध्यम्। तत्र पात्रलक्षणमाह याज्ञवल्क्यः —
न विद्यया केवल्या तपसा वाऽपि पात्रता।
यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रचक्षते॥ इति।
पात्रतारतम्येन फलतारतम्य हि दक्षः —
सममब्राह्मणे दानं द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे।
श्रोत्रिये शतसाहस्रं पात्रे त्वानन्त्यमश्नुते॥ इति।
भारते—भूमिर्गावः सुवर्णं वा धान्यं वा यद्यदीप्सितम्।
तत्सर्वं ग्रहणे देयमात्मनः श्रेय इच्छता॥ इति।
ग्रहणकाले स्वापादिनिषेधः शिवरहस्ये —
सूर्येन्दुग्रहणं यावत्तावत्कुर्याज्जपादिकम्।
न स्वपेन्न च भुञ्जीत स्नात्वा भुञ्जीत मुक्तयोः॥ इति।
भोजनं तु ग्रहणपूर्वकाले ग्रस्तास्ते चोत्तरकालेऽपि निषिद्धम्। तदुक्तं हेमाद्रौमात्स्ये —
चन्द्रसूर्यग्रहे नाद्यादद्यात्स्नात्वा तु मुक्तयोः।
अविमुक्तास्तगतयोर्द्दष्ट्वास्रात्वा परेऽहनि॥
तत्रैव ब्राह्मे —नाश्नीयादथ तत्काले ग्रस्तयोश्चन्द्रसूर्ययोः।
मुक्तयोस्तु कृतस्नानः पश्चाद्भुञ्ज्यात्स्ववेश्मनि॥
अत्र स्ववेश्मनीत्युक्त्या परान्ननिषेधो गम्यते। विष्णुधर्मोत्तरे —
चन्द्रस्य यदि वा भानोर्यस्मिन्नहनिभार्गव।
ग्रहणं तु भवेत्तत्र न पूर्वं भोजनक्रिया॥
नाऽऽचरेत्सग्रहे चैव तथैवास्तमुपागते।
यावत्स्यान्नोदयस्तस्य नाश्नीयात्तावदेव तु॥
मुक्तं दृष्ट्वा तु भुञ्जीत स्नात्वा चैव यथाविधि।
अत्र चन्द्रग्रहे समस्तदिने भोजननिषेधो ग्रस्तोदयविषयः।
ग्रस्तोदये विधोः पूर्वं नाहर्भोजनमाचरेत्।
इति वृद्धवसिष्ठैकवाक्यत्वात्।
अर्धरात्रादधश्चोर्ध्वं यदा चन्द्रग्रहो भवेत्।
पूर्वं पूर्वत्र भोक्तव्यमुत्तरे चोत्तरेऽपि च॥
इति हेमादौ पाद्माच्च। अर्धरात्रात्पूर्वं ग्रहणे पूर्वत्र पूवाह्णॆ, अर्धरात्रादूर्ध्वं ग्रहण उत्तरेऽपराह्णेऽपि यामत्रयपर्यन्तमित्यर्थः।
नाद्यात्सूर्यग्रहात्पूर्वमह्नि स्नायं शशिग्रहात्।
ग्रहकाले च नाश्रीयात्स्नात्वाऽश्रीयात्तुमुक्तयोः॥
मुक्ते शशिनि भुञ्जीत यदि न स्यान्महानिशा।
स्नात्वा दृष्ट्वा परेऽह्न्यद्याद्ग्रस्तास्तमितयोस्तयोः॥
यत्तु हेमाद्रौ स्कान्दम् —
यदा चन्द्रग्रहस्तात निशीथात्परतो भवेत्।
भोक्तव्यं तंत्र518 पूर्वाह्णे नापराह्णे कथंचन॥
पूर्वं निशीथाद्ग्रहणं यदा चन्द्रस्य वै भवेत्।
तदा दिवा न कर्तव्यं भोजनं शिखिवाहन॥ इति।
अत्र प्रथमवाक्यम् —
चन्द्रसूर्यग्रहे नाद्यादाद्यं यामचतुष्टयम्।
केचित्रितयमित्याहुर्मुनयो भृगुनन्दन॥
इति हेमाद्र्युदाहृतब्रह्मवैवर्तैकवाक्यत्वात्पाक्षिकयामचतुष्टयवेधाभिप्रायम्। द्वितीयं तु —
ग्रस्तोदये विधोः पूर्वं नाहर्भोजनमाचरेत्।
इत्याद्येकवाक्यत्वान्निशीथात्परत इति प्रथमवाक्ये निशीथशब्देन रात्रिपूर्वार्धस्यैव ग्रहणात्पूर्वं निशीथादित्युत्तरवाक्येऽपि तस्यैव ग्रहणं तेन तस्मात्पूर्वदिनशेष इत्यर्थाद्ग्रस्तोदयविषयमिति ज्ञेयम्। अत एव —
ग्रहणं तु भवेदिन्दोः प्रथमादधियामतः।
भुञ्जीताऽऽवर्तनात्पूर्वं प्रथमे प्रथमादधः॥
आवर्तनं दिनमध्यम्।
सूर्यग्रहे तु नाश्नीयात्पूर्वं यामचतुष्टयम्।
चन्द्रग्रहे तु यामांस्त्रीन्बालवृद्धातुरैर्विना॥
इति मार्कण्डेयवृद्धगौतमवाक्याभ्यां चन्द्रग्रहात्पूर्वं यामत्रयमेव भोजनं निषिध्यते । अत एव यस्मिन्यामे चन्द्रग्रहणं ततः पूर्वं यामत्रयं त्यक्त्वा भुञ्जीतेति हेमाद्र्यादिसकलनिबन्धाः संगच्छन्ते । बालादिविषये त्वाह हेमाद्रौमार्कण्डेयः—
सायाह्ने ग्रहणं चेत्स्यादपराह्णॆन भोजनम्।
अपराह्णे न मध्याह्ने मध्याह्ने न तु संगवे॥
भुञ्जीत संगवे चेत्स्यान्न पूर्वं भोजनक्रिया॥ इति।
ईषदसमर्थ प्रत्युक्तं हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरे —
सायाह्ने संभवेऽश्नीयाच्छारदे संगवादधः।
मध्याह्ने परतोऽश्रीयान्नोपवासो रविग्रहे॥ इति।
शारदोऽपराह्णः। गार्ग्यः —
संध्याकाले यदा राहुर्ग्रसते शशिभास्करौ ।
तदहर्नैव भुञ्जीत रात्रावपि कदाचन॥
सायं संध्यायां सूर्यस्य ग्रस्तास्ते पूर्वस्मिन्नहनि, उत्तरस्यां रात्रौ च न भोक्तव्यमित्यर्थः। समर्थस्य तु भोजने प्रायश्चित्तमुक्तं षट्त्रिंशन्मते —
चन्द्रसूर्यग्रहे भुक्त्वा प्राजापत्येन शुध्यति।
तस्मिन्नेव दिने भुक्त्वा त्रिरात्रेणैव शुध्यति॥ इति।
तस्मिन्दिने निषिद्धपूर्वोत्तरकालयोरित्यर्थः। मुक्त्यनन्तरमपि ग्रहणतत्पूर्वकालपक्वंन भोक्तव्यं शृतमन्नं विवर्जयेदित्युदाहृतवचनात्।
नवश्राद्धेषु यच्छिष्टं ग्रहपर्युषितं च यत्।
इति मिताक्षरायां वचनाच्च। केषु केषुचित्पर्युषितत्वदोषो नास्तीत्याह ज्योतिर्निबन्धे मेधातिथिः —
**आरनालं पयुस्तकं दधिनेहाज्यपाचितम्। **
मणिकस्थोदकं चैव न दुष्येद्राहुसूतके॥ इति।
मन्वर्थमुक्तावल्याम् —
अन्नं पक्वमिह त्याज्यं स्नानं सवसनं गृहे।
वारितक्रारनालादितिलदर्भैर्न दुष्यति॥
जले पर्युषितत्वं गङ्गाजलातिरिक्तस्वल्पजलविषयं बोध्यम्। चन्द्रग्रस्तास्ते विशेषमाह मदनरत्ने उशना —
**ग्रस्ते त्वस्तं गते त्विन्दौ ज्ञात्वा मुक्त्यवधारणम्। **
स्नानहोमादिकं कार्यं भुञ्जीतेन्दूदये पुनः॥ इति।
नक्षत्रविशेषेषु ग्रहणेषु शुभाशुभफलमाह हेमाद्रौ गर्गः —
**तिष्यश्चैवाऽऽजपादं च याम्यं भाग्यं च पैतृकम्। **
ऐन्द्राग्न्यमग्निदैवत्यं सप्तैतान्यानलो गणः॥
आजपादं पूर्वाभाद्रपदा। याम्यं भरणी। भाग्यं पूर्वाफाल्गुनी। पैतृकं मघा। ऐन्द्राग्नं विशाखा ।अग्निदैवत्यं कृत्तिका।
**आनले मण्डले दृष्टं ग्रहणं रविसोमयोः। **
**राज्ञो भयंकरं विद्यात्प्रजानां बहुदोषकृत्॥ **
**अहिर्बुध्न्यं तथा पौष्णं मूलमाप्यं च शांकरम्। **
वारुणं सर्पदैवत्यं वारुणं मण्डलं स्मृतम्॥
अहिर्बुध्न्यमुत्तराभाद्रपदा। पौष्णं रेवती। आप्यं पूर्वाषाढा।शांकरमार्द्रा। वारुणं शततारका।सर्पदैवत्यमाश्लेषा।
एतस्मिन्नुपरागे स्यान्मण्डले सोमसूर्ययोः।
दुर्भिक्षामयनाशस्तु प्रजानामिति निश्चयः॥
**ऋक्षाणामार्यमादीनां519 चतुर्णां च पुनर्वसु। **
सौम्यं चाऽऽश्विनदैवत्यं वायव्यं मण्डलं भवेत्॥
अर्यमादीन्युत्तराफाल्गुन्यादीनि।सौम्यं मृगशीर्षम्। अश्विदेवत्यमश्विनी।
समरं सभयं चैव दुर्भिक्षं कुरुते चिरात्।
व्याधिशस्त्राग्निकोपश्च मण्डलेऽस्मिन्नुपप्लुते॥
ज्येष्ठा ब्राह्मं तथा मैत्रं प्राग्देशं वासवं तथा।
वैष्णवं वैश्वदेवं च पुरुहूतस्य मण्डलम्॥
ब्राह्मं रोहिणी। मैत्रमनुराधा।प्राग्देशमभिजित्। वासवं धनिष्ठा। वैष्णवं श्रवणम्। वैश्वदेवमुत्तराषाढा।
मण्डलेऽस्मिन्समुत्पन्ने ग्रहणे जगतां शुभम्।
आनन्दं सर्वभूतानां विदधाति विशेषतः॥
मण्डलविशेषेण शान्तिविशेषमाह काश्यपः —
आग्रेयीं कारयेच्छान्तिंशान्तिं कुर्याच्च वारुणीम्।
वायव्या शान्तिरिष्येत माहेन्द्रीं तत्र कारयेत्॥ इति।
तत्तद्देवतापूजाजपहोमादिकमुक्तं तद्राजभिर्लोकहितार्थं कार्यम्। जन्मराश्यादिषु ग्रहणे दोषमाह गर्गः —
जन्मसप्ताष्टरिष्काङ्कदशमस्थे निशाकरे।
दृष्टोऽरिष्टप्रदो राहुर्जन्मर्क्षॆनिधनेऽपि च॥
रिष्कं द्वादशम्। अङ्का नव। निधनं सप्तमतारा।
यन्नक्षत्रगतो राहुर्ग्रसते शशिभास्करौ ।
तज्जातानां भवेत्पीडा ये नराः शान्तिवर्जिताः॥
यस्य त्रिजन्मनक्षत्रे तस्य रोगोऽथवा मृतिः।
जन्मदशमैकोनविंशानि त्रिजन्मनक्षत्राणि।
तस्य दानं च होमं च देवार्चनजपौ तथा।
उपरागाभिषेकं च कुर्याच्छान्तिर्भविष्यति॥
स्वर्णेन वाऽथ पिष्टेन कृत्वा सर्पस्य चाऽऽकृतिम्।
ब्राह्मणाय दत्तस्य न रोगादिश्च तत्कृतः॥
सर्वस्य सर्पाकारस्य राहोरित्यर्थः। अद्भुतसागरे भार्गवः —
यस्य राज्यस्य नक्षत्रे स्वर्भानुरुपरज्यते।
राज्यभङ्गं सुहृन्नाशं मरणं चात्र निर्दिशेत्॥
राज्यस्य नक्षत्रं राज्याभिषेकनक्षत्रमिति तत्रैवोक्तम्। ज्योतिःसागरे —
सौवर्णं कारयेन्नागं पलेनाथ पलार्धतः।
तदर्धतस्तदर्धेन फणायां मौक्तिकं न्यसेत्॥
ताम्रपात्रे निधायाथ घृतपूर्णेविशेषतः।
कांस्ये वा कान्तलोहे वा न्यस्य दद्यात्सदक्षिणम्॥
चन्द्रग्रहे तु रूप्यस्य बिम्बं दद्यात्सदक्षिणम्।
नागं रुक्ममयं सूर्यग्रहे बिम्बं तु हेमजम्॥
तुरंगरथगोभूमितिलसर्पिश्च काञ्चनम्।
कालविवेके — सुवर्णनिर्मितं नागं सतिलं कांस्यभाजनम्।
सदक्षिणं सवस्त्रं च ब्राह्मणाय निवेदयेत्॥
सौवर्णं राजतं वाऽपि बिम्बं कृत्वा स्वशक्तितः।
उपरागभवक्लेशच्छिदे विप्राय कल्पयेत्॥
मन्त्रस्तु — तमोमय महाभीम चन्द्रसूर्यविमर्दन।
हेमताराप्रदानेन मम शान्तिप्रदो भव॥
विधुंतुद नमस्तुभ्यं सिंहिकानन्दनाच्युत।
दानेनानेन नागस्य रक्ष मांवेधजाद्भयात्॥ इति।
शान्तिरुक्ता मात्स्ये —
यस्य राशिं समासाद्य भवेद्ग्रहणसंभवः।
स्त्रानं तस्य प्रवक्ष्यामि मन्त्रौषधिसमन्वितम्॥
चन्द्रोपरागं संप्राप्य कृत्वा ब्राह्मणवाचनम्।
संपूज्य चतुरो विप्राञ्शुक्लमाल्यानुलेपनः॥
पूर्वमेवोपरागस्य समानीयौपधादिकम्।
स्थापयेच्चतुरः कुम्भानव्रणान्सलिलान्वितान्॥
गजाश्वरथ्यावल्मीकसंगमाद्ध्रदगोकुलात्।
राजद्वारप्रदेशाच्चमृदमानीय निक्षिपेत्॥
पञ्चगव्यं पञ्चरत्नं पञ्चत्वक्पञ्चपल्लवम्।
रोचनं पद्मकं शङ्खं कुङ्कुमं रक्तचन्दनम्॥
शुक्तिस्फटिकतीर्थाम्बुसितसर्षपगुग्गुलम्।
मधुकं देवदारुं च विष्णुकान्तां शतावरीम्॥
बलां च सहदेवीं च निशाद्वितयमेव च।
गजदन्तं कुङ्कुमं च तथैवोशीरचन्दनम्॥
एतत्सर्वं विनिक्षिप्य कुम्भेष्वावाहयेत्सुरान्।
सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः॥
आयान्तु यजमानस्य दुरितक्षयकारकाः।
योऽसौ वज्रधरो देव आदित्यानां प्रभुर्मतः॥
सहस्रनयनः शक्रो ग्रहपीडां व्यपोहतु।
मुखं यः सर्वदेवानां सप्तार्चिरमितद्युतिः॥
चन्द्रोपरागसंभूतामग्निः पीडां व्यपोहतु।
यः कर्मसाक्षी लोकानां धर्मो महिषवाहनः॥
यमश्चन्द्रोपरागोत्थां ग्रहपीडां व्यपोहतु।
रक्षोगणाधिपः साक्षान्नीलाञ्जनसमप्रभः॥
खड्गहस्तोऽतिभीमश्र ग्रहपीडां व्यपोहतु।
नागपाशधरो देवः सदा मकरवाहनः॥
स जलाधिपतिर्देवो ग्रहपीडां व्यपोहतु।
प्राणरूपो हि भूतानां सदा कृष्णमृगप्रियः॥
वायुश्चन्द्रोपरागोत्थां ग्रहपीडां व्यपोहतु।
योऽसौ निधिपतिर्देवः खड्गशूलगदाधरः॥
चन्द्रोपरागकलुषं धनदोऽत्र व्यपोहतु।
योऽसाविन्दुधरो देवः पिनाकी वृषवाहनः॥
चन्द्रोपरागपापानि स नाशयतु शंकरः।
त्रैलोक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च॥
ब्रह्मविष्ण्वर्करुद्राश्च दहन्तु मम पातकम्।
एवमावाहयेद्देवान्मन्त्रैरेभिश्च वारुणैः॥
एतानेव तथा मन्त्रान्स्वर्णपट्टे विलेखयेत्।
ताम्रपट्टेऽथवा लेख्या नववस्त्रे तथैव च॥
मस्तके यजमानस्य निदध्युस्ते द्विजोत्तमाः।
कलशान्द्रव्यसंयुक्तान्नानारूपसमन्वितान्॥
गृहीत्वा स्थापयेद्गूढं भद्रपीठोपरि स्थितम्।
पूर्वैरेव तु मन्त्रैश्च यजमानं द्विजोत्तमाः॥
अभिषेकं ततः कुर्युर्मन्त्रैर्वारुणसूक्तकैः520।
आचार्यंवरयेत्पश्चात्स्वर्णपट्टं निवेदयेत्॥
आचार्येदक्षिणां दद्याद्गोदानं च स्वशक्तितः।
होमं चापि प्रकुर्वीत तिलैर्व्याहृतिभिस्तथा॥
दानं च शक्तितो दद्याद्यदीच्छेदात्मनो हितम्।
सूर्यग्रहे सूर्यनामयुक्तान्मन्त्रांश्च कीर्तयेत्॥
अनेन विधिना यस्तु ग्रहणे स्नानमाचरेत्।
न तस्य ग्रहणे दोषः कदाचिदपि जायते॥ इति शान्तिः।
सारसंग्रहे —सत्तीर्थेऽर्कविधुग्रासे तन्तुदामनपर्वणोः।
मन्त्रदीक्षां प्रकुर्वाणो मासर्क्षादीन्न शोधयेत्॥
रामार्चनचन्द्रिकायाम् —
चन्द्रसूर्यग्रहे तीर्थे सिद्धक्षेत्रे शिवालये।
मन्त्रमात्रप्रकथनमुपदेशः स उच्यते॥ इति।
पुरश्चरणचन्द्रिकायाम् —
अथवाऽन्यप्रकारेण पुरश्चरणमिष्यते।
ग्रहणेऽर्कस्य चेन्दोर्वा शुचिः पूर्वमुपोषितः॥
ग्रहणादिविमोक्षान्तं जपेन्मन्त्रं समाहितः।
अनन्तरं दशांशेन क्रमाद्धोमादिकं चरेत्॥
होमाशक्तौ जपं कुर्याद्धोमसंख्याचतुर्गुणम्।
षड्गुणं वाऽष्टगुणितं यथासंख्यं द्विजातयः॥
तेषां स्त्रीणां तु विज्ञेयस्तेषामेव समो जपः।
यं वर्णमाश्रितः शूद्रस्तज्जपस्तस्य कीर्तितः॥
जपाद्दशांशतो होमस्तथा होमात्तु तर्पणम्।
नमोन्तं मन्त्रमुच्चार्य तदन्ते देवताभिधाम्॥
द्वितीयान्तामहं पश्चात्तर्पयामि नमोन्तकम्।
तर्पणस्य दशांशेन मार्जनं कथितं किल॥
तच्चैवं देवतारूपं ध्यात्वाऽऽत्मानं प्रपूज्य च।
नमोन्तं मन्त्रमुच्चार्य तदन्ते देवताभिधाम्॥
द्वितीयान्तामहं पश्चादभिषिञ्चम्यनेन तु।
तोयैरञ्जलिना शुद्धैरभिषिञ्चेत्स्वमूर्धनि।
मार्जनस्य दशांशेन ब्राह्मणानपि भोजयेत्।
विप्राराधनमात्रेण व्यङ्गं साङ्गं भवेद्यतः॥
ततो मन्त्रप्रसिद्ध्यर्थं गुरुं संपूज्य तोषयेत्।
एवं च मन्त्रसिद्धिः स्याद्देवता च प्रसीदति॥ इति।
इदं च पुरश्चरणं ग्रस्तोदये ग्रस्तास्ते च न भवति ग्रहणादिविमोक्षान्तमि’त्यभिधानादिति। निर्णीतस्य ग्रहण तत्कृत्यस्यायं संग्रहः — तद्देशस्थपुरुषस्य चाक्षुषज्ञानयोग्यमेव ग्रहणं स्नानादौ निमित्तम्। तत्र यस्मिन्यामे चन्द्रग्रहणं तस्मात्पूर्वयामत्रयं त्यक्त्वा भोजनं कार्यम्। सूर्यग्रहात्पूर्वं यामचतुष्टयं त्याज्यम्। सूर्यग्रस्तोदये पूर्वरात्रौ चन्द्रग्रस्तोदये संपूर्णदिने न च भोक्तव्यं ग्रस्तास्ते तु पुनरुदयपर्यन्तं शक्तेन न भोक्तव्यम्। बालवृद्धातुरैर्ग्रहणयामात्पूर्वमेकं यामं त्यक्त्वा भोक्तव्यम्। स्पर्शोत्तरं सचैलं तूष्णीं मज्जनं कृत्वा पश्चात्संकल्पपूर्वकं स्नानश्राद्धजपहोमदेवपूजादानानि कर्तव्यानि। आशौचादौ विद्यमानेऽपि ग्रहणनिमित्तकस्नानश्राद्धादिकं कर्तव्यमेव मुक्त्यनन्तरं च स्नानं कर्तव्यमिति।
इति आठवलेउपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे ग्रहणनिर्णयः।
अथ संक्रान्तिर्निर्णीयते —
ताश्चसंक्रान्तयो द्वादश।तदाह हेमाद्रौ वसिष्ठः —
अयनेद्वे विपुवे द्वे चतस्रः षडशीतयः।
चतस्रो विष्णुपद्यश्च संक्रान्त्यो द्वादश स्मृताः॥
झपकर्कटसंक्रान्ती द्वे तूदग्दक्षिणायने।
विषुवती तुलामेषौतयोर्मध्ये ततोऽपराः॥
वृषवृश्चिककुम्भेषु सिंहे चैव यदा रविः।
एतद्विष्णुपदं नाम विषुवादधिकं फलम्॥
कन्यायां मिथुने मीने धनुष्यपि रवेर्गतिः।
षडशीतिमुखी प्रोक्ता पडशीतिफला गुणैः॥
झषो मकरस्तयोर्विपुवायनयोर्मध्येऽपरा विष्णुपद्यः षडशीतिमुख्यश्च वारविशेषयोगेण नक्षत्रविशेषयोगेण चैकैकस्याः संक्रान्तेः सप्त नामान्युक्तानि हेमाद्रौ देवीपुराणे —
सप्तधा सा तु विज्ञेया एकैकैव यथा शृणु।
मन्दा मन्दाकिनी ध्वाङ्क्षी घोरा चैव महोदरी॥
राक्षसी मिश्रिता प्रोक्ता संक्रान्तिर्नृप सप्तधा।
सूर्ये घोरा विधौ ध्वाङ्क्षी भौमवारे महोदरी॥
बुधे मन्दाकिनी नाम मन्दा सुरपुरोहिते।
मिश्रिता शुक्रवारे स्याद्राक्षसी च शनैश्चरे॥
मन्दा ध्रुवेषु विज्ञेया मृदौ मन्दाकिनी तथा।
क्षिप्रे ध्वाङ्क्षी विजानीयादुर्गैर्घोरा प्रकीर्तिता॥
चरैर्महोदरी ज्ञेया क्रूरैर्ऋक्षैस्तु राक्षसी।
मिश्रिता चैव निर्दिष्टा मिश्रऋक्षैस्तु संक्रमे॥
ध्रुवमृदादीनि नक्षत्राण्युक्तानि रत्नमालायाम् —
रोहिणीसहितमुत्तरात्रयं कीर्तयन्ति मुनयो ध्रुवाह्वयम्।
त्वाष्ट्रमित्रशशिपूषदैवतान्यामनन्ति मुनयो मृदून्यथ॥
अश्विनी गुरुममर्कदैवतं साभिजिल्लघु चतुष्टयं मतम्।
मूलशक्रशिवसर्पदैवतान्यामनन्ति ननु तीक्ष्णसंज्ञया।
वैष्णवत्रययुतः पुनर्वसुर्मारुतं च चरपञ्चकं त्विदम्।
पूर्विकात्रितयमन्तकं मघेत्युग्रपञ्चकमिदं जगुर्बुधाः॥
हव्यवाहनयुतं द्विदैवतं मिश्रसंज्ञमथ मिश्रकर्मसु॥ इति।
त्वाष्ट्रं चित्रा।मित्रशशिपूषदेवतानि क्रमेणानुराधामृगशीर्षरेवत्यः। गुरुभं पुष्यः। अर्कदैवतं हस्तः। शक्रशिवसर्पदेवतानि ज्येष्ठार्द्राश्लेषाः। वैष्णवत्रयं श्रवणादित्रयम्। मारुतं स्वाती पूर्विकात्रयं पूर्वादित्रयम्। अन्तकं भरणी। हव्यवाहनं कृत्तिका। द्विदैवतं विशाखा।
त्रिचतुष्पञ्च सप्ताष्ट नव द्वादश एव च।
क्रमेण घटिका ह्येतास्तत्पुण्यं पारमार्थिकम्॥
यथासंख्यं सर्वासु संक्रान्तिषु एते सप्त काला द्रष्टव्याः। पारमार्थिकं सूक्ष्मतमसंक्रान्तिकाले धर्मानुष्ठानाद्यत्पुण्यं लभ्यते, तदैवैतासु घटिकासु लभ्यत इत्यर्थः, इति हेमाद्रिः। तस्मिन्पुण्यं तत्पुण्यमित्यर्थः। मन्दादीनां ब्राह्मणादीनां सुखसूचकत्वमुक्तं हेमाद्रौदेवीपुराणे —
मन्दा विप्रजने शस्ता मन्दाकिन्यस्तु राजनि।
ध्वाङ्क्षी वैश्येषु विज्ञेया घोरा शूद्रे शुभप्रदा॥
महोदरी तु चौराणां शौण्डिकानां जयावहा।
चण्डालपुल्कसानां च ये चान्ये क्रूरकर्मिणः॥
सर्वेषां कारुकाणां च मिश्रिता वृत्तिवर्धिनी।
शौण्डिकानां जयावहत्यत्र राक्षसीति ज्ञेया। तेन या यस्य भयावहा स तस्यां जातायामभ्युदयसाधनानि कर्माणि कुर्यात्। अनिष्टसूचकत्वमुक्तं तत्रैव —
नृपाः पीड्यन्ति पूर्वाह्णे मध्याह्ने तु द्विजोत्तमाः।
अपराह्णॆतथा वैश्याः शूद्रा अस्तमये रवेः॥
पिशाचा अस्तमये वाऽपि अर्धरात्रे तु राक्षसाः।
अर्धरात्रे व्यतीपाते पीड्यन्ते नटनर्तकाः॥
उषःकाले तु संक्रान्तिर्हन्ति गोस्वामिनो जनान्।
हन्ति प्रव्रजितान्सर्वान्संध्याकाले विशेषतः॥
संक्रान्तिर्जायते यत्र भास्करे भूसुते शनौ।
विदुर्मासि भयं तत्र दुर्भिक्षावृष्टिचोरजम्॥
प्रद्योतनस्य संक्रान्तिर्यादृशेनेन्दुना भवेत्।
तन्मासि तादृशं प्राहुः शुभाशुभफलं नृणाम्॥ इति।
तत्रैव नागरखण्डे —रवेः संक्रमणं राशौ संक्रान्तिरिति कथ्यते।
स्नानदानजपश्राद्धहोमादिषु महाफला॥
शातातपः — रविसंक्रमणे प्राप्ते न स्नायाद्यस्तु मानवः।
सप्तजन्मनि रोगी स्यान्निर्धनश्चैव जायते॥
संक्रान्तौयानि दत्तानि हव्यकव्यानि दातृभिः।
तानि नित्यं ददात्यर्कः सहस्रगुणितानि वै॥
अयनादौ सदा देयं द्रव्यमिष्टं गृहे च यत्।
पडशीतिमुखे चैव विमोक्षे चन्द्रसूर्ययोः॥
तत्रैव देवीपुराणे—विषुवेषु च यज्जतं दत्तं भवति चाक्षयम्।
एवं विष्णुपदे चैव षडशीतिमुखेषु च॥
भारद्वाजः —पडशीत्यां तु यदत्तं यद्दानं विषुवद्वये।
दृश्यते सागरस्यान्तस्तस्यान्तो नैव दृश्यते॥
शतमिन्दुक्षये दानं सहस्रं तु दिनक्षये।
विषुवे शतसाहस्रं व्यतीपाते त्वनन्तकम्॥ इति।
अपने विषुवे चैव त्रिरात्रोपोषितस्तु यः।
स्नात्वा योऽर्चयते भानुं सर्वकामफलं लभेत्॥
आपस्तम्ब : —अयने विषुवे चैव चन्द्रसूर्यग्रहे तथा।
अहोरात्रोषितः स्रातः सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ इति।
अयं चोपवासः पुत्रवता न कार्यः।
आदित्येऽहनि संक्रान्तौ ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
उपवासो न कर्तव्यो गृहिणा पुत्रिणा तथा।
इति निषेधात्। तत्रैव कालिकापुराणे —
कनकं कुलिशं नीलं पद्मरागं च मौक्तिकम्।
एतानि पञ्च रत्नानि न्यसेद्देवस्य मूर्धनि॥
रत्नानां चाप्यभावे तु कर्षं कर्षार्धमेव वा।
सुवर्णं योजयित्वा तु तस्मिन्नेवोत्तरायणे॥
विधिवच्चतथाऽभ्यर्च्य गव्येनाऽऽज्येन भूरिणा।
प्रक्षाल्य मर्दयित्वा तु प्रदद्याद्घृतकम्बलम्॥
दत्त्वा चोपस्करं भूयो ब्राह्मणान्यतिभिः सह।
संभोज्य दक्षयित्वा तु कल्पयेदनिवारितम्॥
कुलिशं हीरकम्। दक्षयित्वा दक्षिणया संतोष्य। कल्पयेद्भोजनमितिं शेषः।
उपोष्य सर्वमेवैतत्कुर्याद्भक्तिपुरःसरः।
पञ्चगव्यं तिलैर्युक्तं पीत्वा वै पारयेत्स्वयम्॥
तिलैः स्नानं प्रकुर्वीत तैरेवोद्वर्तनं बुधः।
देवतानां पितॄणां च उभाभ्यां तर्पणं तथा॥
पारयेत्पारणं कुर्यात्क्रमोऽत्र तु विवक्षितः।
उभाभ्यामिति तादथ्येचतुर्थी।
होमं तिलैः प्रकुर्वीत सर्वदैवोत्तरायणे।
तान्वै देवाय विप्रेभ्यो हाटकेन समं ददेत्॥
यत्नादेव करोत्येवं चित्तं शंभौ निवेश्य यः।
उत्तरायणमासाद्य नरः कस्मात्स शोचते॥
शुक्लपक्षे तु सप्तम्यां यदा संक्रमते रविः।
महाजया तदा सा वै सप्तमी भास्करप्रिया॥
स्नानं दानं जपो होमः पितृदेवादिपूजनम्।
सर्वं कोटिगुणं प्रोक्तं तपनेन महौजसा।
यस्त्वस्यां मानवो भक्त्या घृतेन स्नापयेद्रविम्।
सोऽश्वमेन्ध्रफलं प्राप्य ततः सूर्यपुरं व्रजेत्॥
पयसा स्नापयेद्यस्तु भास्करं भक्तिमान्नरः।
विमुक्तः सर्वपापेभ्यो याति सूर्यसलोकताम्॥
शिवरहस्ये — तस्मात्तस्यां तिलैः स्रानं कार्यं चोद्वर्तनं तिलैः।
देवतानां पितॄणां च सोदकैस्तर्पणं तिलैः॥
तिला देयाश्च विप्रेभ्यः सर्वदैवोत्तरायणे।
तिलतैलेन देयाश्च दीपाः शिवगृहे शुभाः॥
सतिलैस्तण्डुलैश्चैव पूजयेद्विधिवद्द्विजः।
घृताभिषेकं वा कुर्यान्महापुण्यफलेप्सया॥
गव्येनाऽऽज्येन वा शंभोः प्रदद्याद्घृतकम्बलम्।
सर्पिषा रूपकं रम्यं कृत्वा श्रेयोभिवृद्धये॥ इति।
हेमाद्रौ वसिष्ठः —संक्रान्तिसमयः सूक्ष्मो दुर्ज्ञेयः पिशितेक्षणैः।
तद्योगाच्चाप्यधश्चोर्ध्वं त्रिंशन्नाड्यःपवित्रताः॥
शातातपः—अर्वाक्षोडश विज्ञेया नाड्यः पश्चाच्च षोडश।
कालः पुण्योऽर्कसंक्रान्तेर्विद्वद्भिः परिकीर्तितः॥
देवीपुराणे —अतीतानागतो भोगो नाड्यः पञ्चदश स्मृताः।
संक्रान्तौनिमित्ते विहितस्य स्नानदानादेर्निषिद्धस्य चाध्ययनादेः पालनं भोग इति हेमाद्रिः। यत्तु ब्रह्मवैवर्ते —
विषुवे षण्मुहूर्तः स्यात्षडशीतिमुखे त्रयम्।
तथा विष्णुपदे त्रीणि पुण्यानि कवयो विदुः॥
इत्यल्पकालस्य प्रतिपादनं, तत्पुण्यतमत्वप्रतिपादनार्थं न तु नियमार्थम्। अत एव शातातपः —
या याः संनिहिता नाड्यस्तास्ताः पुण्यतमाः स्मृताः॥ इति।
धर्माद्विवर्धते ह्यायू राज्यं पुत्रसुखादयः।
अधर्माद्व्याधिशोकादि विषुवायनसंनिधौ॥
इति देवीपुराणेऽपि संनिधावित्युक्तेश्च। एवं न संक्रान्तेः पूर्वमूर्ध्वं च त्रिंशन्नाड्यः पुण्याः षोडश पुण्यतराः, ततो न्यूनाः पुण्यतमा इति ज्ञेयम्। तदेवं संक्रान्तिसंनिहितपूर्वोत्तरकालयोः पुण्यत्वेऽपि दक्षिणायने विष्णुपद्यां च पूर्वकालः पुण्यतरः। उत्तरायणे षडशीतिमुखे चोत्तरः कालः पुण्यतरः। विषुवे तु पूर्वं पश्चाच्चदश घटिकाः पुण्यतराः। तत्र बौधायनः —
भविष्यत्ययने विष्णौ वर्तमाने तथा विषौ।
षडशीतिमुखेऽतीते व्यतीते चोत्तरायणे॥
अयने दक्षिणायने। विष्णौ विष्णुपद्याम् ।विषौ विषुवति।
वसिष्ठः — मध्ये तु विषुवे पुण्यं प्राग्विष्णौदक्षिणायने।
षडशीतिमुखेऽतीते अतीते चोत्तरायणे॥
लौगाक्षिः — याम्यायने विष्णुपदे तथाऽऽदौ
दानाद्यनन्तं विषुवे तु मध्ये।
वदन्त्यतीते षडशीतिवक्त्रे
महर्षयः खल्वयने च सौम्ये॥ इति।
वृद्धवसिष्ठः — अतीतानागते पुण्ये द्वे तूदग्दक्षिणायने।
त्रिंशत्कर्कटके नाड्यो मकरे विंशतिः स्मृताः॥
ब्रह्मवैवर्ते तु — त्रिंशत्कर्कटके नाड्यो मकरे तु दशाधिका।
भविष्यत्ययने पुण्या अतीते चोत्तरायणे॥
दशाधिकाश्चत्वारिंशदित्यर्थः।
बृहस्पतिः — अयने विंशतिः पूर्वा मकरे विंशतिः परा।
वर्तमाने तुलामेषे नाड्यस्तूभयतो दश॥
वृद्धवसिष्ठः —षडशीत्यामतीतायामष्टियुक्तास्तु नाडिकाः।
पुण्यारव्या विष्णुपद्याश्च प्राक्पश्चादपि षोडश॥
अष्टिः षोडश क्वचित्तु षष्टिरुक्तास्तु नाडिका इति पाठः। तत्र षडशीतिमुखानां चतसृणामेकैकस्याः पञ्चदश पञ्चदशेति षष्टिनाड्यो ज्ञेयाः।
षडशीतिमुखेऽतीते नाड्यः पञ्चदश स्मृताः।
इति स्कान्दैकवाक्यत्वादिति हेमाद्रिः।
मिथुनादौ द्विस्वभाव उत्तराः षष्टिनाडिकाः।
इति माधवोऽपि चतुष्टयाभिप्रायकतया बोध्यः। एतेन यथाश्रुतमाधवदर्शनेन प्रवृत्ता अर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्याः। अत्र विष्णुपद्याः पराः षोडश घटिकाः पुण्याः, पूर्वाः षोडश घटिका पुण्यतमा इति बोध्यम्। याम्यायने विष्णुपदे तथाऽऽदावित्युदाहृतवचनेषु पूर्वकालस्यपुण्यतमत्वप्रतिपादनात्।
कन्यायां मिथुने चैव मीने धनुषि च द्विजाः।
घटिकाः षोडश ज्ञेयाः परतः पुण्यदायकाः521॥
वृषभे वृश्चिके चैव सिंहे कुम्भे तथैव च।
पूर्वमष्टमुहूर्तं तु ग्राह्यं स्नानजपादिषु॥
इति बृहन्नारदीयवचनाच्च। एतादृशानि पुण्यातिशयप्रतिपादकानि,न तु नियमार्थानि।
तद्योगाश्चाप्यधश्चोर्ध्वं त्रिंशन्नाड्यः पवित्रताः।
इत्याद्यसंगतं स्यादिति हेमाद्रिः। एताश्च संक्रान्तयो यदा मध्याह्नादिकाले भवन्ति, तदा पूर्वोत्तरकालयोः पुण्यतमयोर्दिवसे लाभात्तत्रैव स्नानाद्यनुष्ठानम्। यदा तूदयानन्तरमेव दक्षिणायनं विष्णुपदी वा भवति, तदा —
अह्नि संक्रमणे पुण्यमहः कृत्स्नं प्रकीर्तितम्।
रात्रौसंक्रमणे भानोर्दिनार्धंस्नानदानयोः॥
इति वचनेन रात्रौ संक्रान्तौ रात्रौ स्नानादिनिषेधसूचनादहन्येव स्नानदानाद्यनुष्ठानम्। एवं सूर्यास्तात्प्रागेव उत्तरायणम्, षडशीतिमुखं वा भवति, संक्रमणोर्ध्वं कियानपि दिनभागो न लभ्यते, तदा संक्रान्त्यासनपूर्वकालेऽहन्येवानुष्ठानम्।विषुवति तु पूर्वोत्तरयोरपि कालयोः पुण्यतमत्वान्न रात्रावनुष्ठानप्रसङ्गः। यदा तु रात्रौ पूवार्धसंक्रान्तिस्तदा पूर्वदिनस्योत्तरार्धे स्नानादेरनुष्ठानं यदा तु रात्रिपूर्वोत्तरार्धयोः संधौसंक्रान्तिस्तदा पूर्वदिनस्योत्तरार्धे, परदिनस्य पूर्वार्धे वाऽनुष्ठानं, तदाह वृद्धवसिष्ठः —
रात्रौ संक्रमणे522 पुण्यं दिनार्धे स्रानदानयोः।
अर्धरात्रादधस्तस्मिन्मध्याह्नस्योपरि क्रिया॥
ऊर्ध्वं संक्रमणे चोर्ध्वमुदयात्प्रहरद्वयम्।
पूर्णेचेदर्धरात्रे तु यदा संक्रमते रविः॥
प्राहुर्दिनद्वयं पुण्यं मुक्त्वा मकरकर्कटौ॥ इति।
अत्र दिनद्वयशब्देन दिनद्वयार्धं गृह्यते। रात्रौ संक्रमणे पुण्यं दिनार्धंस्नानदानयोरिति वचनैकवाक्यत्वात्। गोभिलोऽपि —
रात्रौ संक्रमिते भानौ दिवा कुर्यात्तु तत्क्रियाम्।
पूर्वस्मात्परतो वाऽपि प्रत्यासंत्तेस्तु523 तत्फलम्। निगमे —
विष्णुपद्यां धनुर्मीननृयुक्वन्यासु वै यदा।
पूर्वोत्तरगतं रात्रौ भानोः संक्रमणं भवेत्॥
पूर्णाह्णॆपञ्च नाड्यस्तु पुण्याः प्रोक्ता मनीषिभिः।
अपराह्णे तु वै पञ्च श्रौते स्मार्ते च कर्मणि॥ इति।
देवीपुराणे —
संपूर्णेअर्धरात्रे तु उदयेऽस्तमयेऽपि च।
मानार्थं भास्करे पुण्यमपूर्णेशर्वरीदले॥
उदयः प्रातःसंध्या। अस्तमयः सायंसंध्या। भासं करोतीति भास्करो दिवसस्तस्य मानंप्रहरचतुष्टयं तस्यार्धंयामद्वयमित्यर्थः। अपूर्णे शर्वरीदले दलमर्धं पूर्वमुत्तरं च तस्मिन्नपूर्णेपूर्वार्धस्योत्तरार्धस्य वामध्य इत्यर्थः। एवं चार्धरात्रे प्रातः संध्यायां सायंसंध्यायां रात्रेः पूर्वदले, उत्तरदले वा यदा संक्रान्तिर्भवति तदा दिनार्धं पुण्यमित्यर्थः। रात्रौ कस्मिन्भागे संक्रमणे कस्य दिनस्यार्धं पुण्यमित्यपेक्षायां तत्रैवोक्तम् —
अर्धरात्रे त्वसंपूर्णेदिवा पुण्यमनागतम्।
संपूर्णे उभयोर्ज्ञेयमतिरेके परेऽहनि॥
रात्रेर्दलद्वयसंधिरूपात्क्षणात्मकादर्धरात्रात्पूर्वं संक्रान्तौ। आगतमिति नपुंसके भावे क्तः। न विद्यत आगतमागमनं यस्य तदनागतं पूर्वदिनार्धमित्यर्थः। संपूर्णे दलद्वयसंधौ संक्रमणरूपक्रियाया दलद्वयेनापि संबन्ध इति यावत्। तदा पूर्वोत्तरदिनयोरुत्तरपूर्वार्धयोः पूर्वदिनस्योत्तरार्धमुत्तरदिनस्य पूर्वार्धं ज्ञेयमित्यर्थः। अतिरेके यदा संक्रमणक्रियायाः पूर्वार्धे संबन्धो नास्ति, उत्तरार्ध एव संक्रान्तिस्तदोत्तरदिनार्धं पुण्यमित्यर्थः। यत्तु माधवे रात्रिस्त्रेधा भिद्यते मध्यवर्तिघटिकाद्वयात्मक एको भागस्तस्मात्पूर्वोत्तरौद्वौ भागाविति भागत्रयं कल्पयित्वा द्वितीययामान्त्यघटिकाद्यपादेऽपि संक्रान्तावपि संपूर्णेऽर्धरात्र इत्यनेनोत्तरदिनपूर्वार्धेऽपि पुण्यम्। एवं तृतीययामाद्यघटिकान्त्यक्षणेऽपि संक्रान्तौ पूर्वदिनस्योत्तरार्धेऽपि पुण्यमित्युक्तं तद्वितीययामान्त्यक्षणात्पूर्वं संक्रान्तौपूर्वदिनार्धस्यैव पुण्यत्वप्रतिपादकार्धरात्रे त्वसंपूर्णे दिवा पुण्यमनागतमिति देवीपुराणवचनस्य —
रात्रौ संक्रमिते भानौ दिवा कुर्यात्तु तत्क्रियाम्।
पूर्वस्मात्परतो वाऽपि प्रत्यासत्तेस्तु तत्फलम्॥
इत्यादिभागद्वयव्यस्थयैव प्रत्यासन्नदिनस्यैव पुण्यत्वबोधकगोभिलादिवचनानां हेमाद्रिमदनरत्ननिर्णयामृतादिनिबन्धानां च विरुद्धमिति अप्रतिज्ञातेऽस्मिन्न तत्तात्पर्यम्। अप्रतिज्ञाते तात्पर्यं नास्तीति माधवसिद्वान्तादिति ज्ञेयम्। एतेनैतन्माधवग्रन्थानुसारेण प्रवृत्ताः स्मृतिकौस्तुभाद्यर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्याः। एवमर्धरात्रसंक्रान्तौ दिनद्वयार्धस्य विकल्पेन ग्राह्यत्वे प्राप्ते व्यवस्थोक्ता देवीपुराणे —
आदौ पुण्यं विजानीयाद्यद्यभिन्ना तिथिर्भवेत्।
अर्धरात्रे व्यतीते तु विज्ञेयमपरेऽहनि॥ इति।
अर्धरात्रे संक्रान्तौसंक्रान्तकालिकी तिथिः पूर्वदिनस्योत्तरार्धे वर्तते, तदा पूर्वदिनस्योत्तरार्धं ग्राह्यम्। यदि संक्रान्त्यधिकरणीभूता तिथिः पूर्वदिने नास्ति, तदा तत्तिथियुक्तोत्तरदिनस्य पूर्वार्धं ग्राह्यमित्यर्थसिद्धम्। यदा तु अर्धरात्रादूर्ध्वं संक्रान्तिस्तदोत्तरदिने संक्रान्तिकालिकतिथिर्नास्ति तथाऽप्युत्तरदिनपूर्वार्धमेव ग्राह्यम्। यदा त्वर्धरात्रसंक्रान्तिकालिकी तिथिर्दिनद्वयेऽपि भवति, तदा विष्णुपद्यां पूर्वदिनोत्तरार्धं ग्राह्यम्। षडशीतिमुखे तूत्तरदिनपूर्वार्धं ग्राह्यम्। विषुवे तु पूर्वोत्तरस्य वा दिनस्यार्धं ग्राह्यम्। इयं रात्रिसंक्रान्तौ पुण्यकालव्यवस्थाऽयनातिरिक्तविषया मुक्त्वा मकरकर्कटावित्यभिधानात्। अयनयोस्तु मकरसंक्रान्तौ रात्रौ जातायामुत्तरदिनार्धमेव पुण्यम्। कर्कटसंक्रान्तौ रात्रौ जातायां पूर्वदिनार्धं पुण्यम्। तदाह वृद्धगार्ग्यः —
यदाऽस्तमयवेलायां मकरं याति भास्करः।
प्रदोषे वाऽर्धरात्रे वा स्नानं दानं परेऽहनि॥
अर्धरात्रात्तदूर्ध्वं वा संक्रान्तौ दक्षिणायने।
पूर्वमेव दिनं ग्राह्यं यावन्नोदयते रविः॥
भविष्योत्तरे — मिथुनात्कर्कसंक्रान्तिर्यदा स्यादंशुमालिनः।
प्रभाते वा निशीथे वा कुर्यादहनि पूर्वतः॥
कार्मुकं तु परित्यज्य झषं संक्रमते रविः।
प्रदोषे वाऽर्धरात्रे वा स्नानं दानं परेऽहनि॥ इति।
झषो मकरः। बौधायनोऽपि —
अस्तं गते यदा सूर्ये झषंयाति दिवाकरः।
प्रदोषे वार्धरात्रे वा तदा पुण्यं दिनान्तरम्॥
दिनान्तरमुत्तरदिनम्। एवमयनभिन्नसंक्रान्तिषुरात्रौ जातासु यथायथं पूर्वोत्तरदिनार्धस्य दक्षिणायने पूर्वदिनार्धस्य, उत्तरायण उत्तरदिनार्धस्य पुण्यत्वे सत्यपि पूर्वदिनस्यान्त्याः पञ्च घटिका उत्तरदिनस्याऽऽद्याः पञ्च घटिकाः पुण्यतमाः। तदुक्तं निगमे —
विष्णुपद्यां धनुर्मीननृयुक्कन्यासु वै यदा।
पूर्वोत्तरगतं रात्रौ भानोः संक्रमणं भवेत्॥
पूर्वार्धे524 पञ्च नाड्यस्तु पुण्याः प्रोक्ता मनीषिभिः।
अपराह्णॆ चपञ्चैव श्रौते स्मार्ते च कर्मणि॥ इति।
नृयुग्मिथुनम्। स्कान्दे —
धनुर्मीनावतिक्रम्य कन्यां च मिथुनं तथा।
पूर्वापरविभागेन रात्रौ संक्रमते525 यदा॥
दिनान्ते पञ्च नाड्यस्तु तदा पुण्यतमाः स्मृताः।
उदये च तथा पञ्च श्रौते स्मार्ते च कर्माणि॥
मकरकर्कटसंक्रान्तिविषये पूर्वापरविभागेनेत्येतन्न संबध्यते। एवमासन्नसंक्रमं पुण्यमित्याद्यप्ययनविषये न संबध्यते, अन्यसंक्रान्तिविषये सावकाशानामेषां मकरकर्कटमात्रविषयकयदाऽस्तमयवेलायामित्याद्युदाहृतविशेषवचनैर्बाधात्। एवमैतैर्वचनै रात्रौ संक्रान्तौ तन्निमित्तकस्नानादेर्दिने विधानाद्रात्रौतन्न कर्तव्यमित्यर्थात्सिद्धम्।
प्राहुर्दिनद्वयं पुण्यं मुक्त्वा मकरकर्कटौ।
इति पर्युदासोऽपि मकरकर्कटयोर्दिनद्वयं न पुण्यं किंतु मकर उत्तरदिनमेव, कर्कटे पूर्वमेवेति प्रतिपादनेनोपपद्यते। तथाऽपि
पुत्रजन्मनि यज्ञे च तथा संक्रमणे रवेः।
राहोश्च दर्शने स्नानं प्रशस्तं नान्यथा निशि॥
राहुदर्शनसंक्रान्तिविवाहात्ययवृद्धिषु।
स्रानदानादिकं शस्तं निशि काम्यव्रतेषु च॥
ग्रहणोद्वाहसंक्रान्तियात्रार्तिप्रसवेषुच।
श्रवणे चेतिहासस्य रात्रौ दानं प्रशस्यते।
विवाहव्रतसंक्रान्तिप्रतिष्ठाऋतुजन्मसु॥
तथोपरागपातादौ स्राने दाने निशा शुभा।
ऋतुर्गर्भाधानम्। पातो व्यतीपातः। इति वृद्धवसिष्ठयाज्ञवल्क्यसुमन्तुविष्णुवचनानां रात्रावेव संक्रान्तिनिमित्तस्नानादिविधायकानां निरवकाशत्वेन सर्वसंक्रान्तिविषयत्वे प्राहुर्दिनद्वयं पुण्यमित्यस्य वैयर्थ्यापत्तेः। मुक्त्वा मकरकर्कटावित्यनेनैकवाक्यतयाऽयनसंक्रान्तिरेवावकाशः पर्यवसितः। एवं च मकरसंक्रान्तेः संनिहितोत्तररात्रिभागस्यैतैर्वचनैरुत्तरदिनार्धस्य यदाऽस्तमयवेलायामित्याद्युदाहृतवचनैः पुण्यत्वम्। कर्कटसंक्रान्तौ तु संनिहितरात्रिपूर्वभागस्य पूर्वदिनोत्तरार्धस्य च पुण्यत्वं
रात्रौ स्नानं न कुर्वीत दानं चैव विशेषतः।
इति निषेधबाधेन सिद्धं भवति। रात्रिसंक्रान्तौ रात्रौ दिवा च पुण्यम्। आसत्तिविशेषात्तु फलविशेष इति हेमाद्रेरपि अयनसंक्रान्तावेव तात्पर्यम्। सर्वसंक्रान्तिविषयत्वे या याः संनिहिता नाड्य इत्यनेन रात्रौ संक्रान्तौसंनिहितरात्रिपूर्वभागस्यैव पुण्यत्वं प्रसक्तं, तदपवादार्थं प्रवृत्तस्य
रात्रौ संक्रमणं भानोर्दिनार्धं स्नानदानयोः।
इत्यादिनाऽर्धरात्रात्पूर्वं पूर्वदिनार्धस्य, अर्धरात्रानन्तरमुत्तरदिनार्धस्य पूर्णेऽर्धरात्रे पूर्वोत्तरदिनयोः पुण्यत्वप्रतिपादकवाक्यस्य विरोधापत्तेः। अयनविषयत्वे तु मुक्त्वामकरकर्कटाविति वाक्यशेषेणायनभिन्नदशसंक्रान्तिविषयत्वं पूर्वोक्तस्य प्रतिपाद्यते। एवं सति अयनयोः
अतीतानागते पुण्ये द्वे उदग्दक्षिणायने।
इत्याद्येकवाक्यतया या याः संनिहिता नाड्य इत्यनेन, यदाऽस्तमयवेलायामित्यादिवाक्यैश्च मकरसंक्रान्त्युत्तररात्रिभागस्योत्तरदिनस्य च पुण्यत्वं प्रतिपाद्यते। कर्कटे तु संक्रान्तिपूर्वरात्रिभागस्य तत्पूर्वदिनस्य च पुण्यत्वं प्रतिपाद्यते। एवं सति संक्रान्तिनिमित्तकस्नानादे रात्रौविधायकवचनानां मुक्त्वा मकरकर्कटावितिपर्युदासानुगृहीतवाक्यैकवाक्यतयाऽयनविषये चरितार्थत्वेनायनातिरिक्तसंक्रान्तौ पूर्वोत्तरदिनार्धपुण्यत्वबोधकवचनबाधकत्वासंभवेन तद्विषये दिनार्धपुण्यत्वप्रतिपादकवाक्यविरोधापत्तेः। तस्माद्धेमाद्रेरयनसंक्रान्तावेव तात्पर्यम्। अत एवायनयोरेव रात्रिभागस्यापि पुण्यत्वात्तत्रापि स्नानादिकं कर्तव्यम्। अत एव दक्षिणस्यां दिशि रात्रावयनसंक्रान्तौरात्रावपिस्नानादिकं शिष्टाः कुर्वन्तीति माध —
वमदनरत्नाभ्याम्, अयनयोरात्रावपि पुण्यत्वमिति निर्णयामृतेन च सहैकवाक्यता भवतीति बोद्धव्यम्। संक्रान्तिप्रयुक्तयात्रादिनिषेधा अप्युक्तेषु पुण्यकालेषुपरिपालनीयाः। तदाह हेमाद्रौ लौगाक्षिः —
यात्रानिषेधा अपि सूक्ष्मकाले
पदंस्थिरी कर्तुमशक्नुवन्तः।
आलोच्य तत्तुल्यतयोपदिष्टं
भवन्ति नित्यं परिपूर्णकामाः॥ इति।
अयनविषुवत्प्रयुक्तानध्याये विशेष उक्तो हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरे —
दिवा चेद्रात्रियुग्मं स्याद्रात्रौ चेद्वासरद्वयम्।
संक्रान्तिः पक्षिणी ज्ञेया दानाध्ययनकर्मसु॥ इति।
अत्र दानं वेदस्याध्यापनरूपम् । वचनान्तरं मदनरत्ने —
निशाद्वयं दिवा रात्रौ संक्रमे वासरद्वयम्।
अनध्यायं प्रकुर्वीत अयने विषुवे तथा॥ इति।
ग्रहान्तरसंक्रान्तिकालस्यापि पुण्यत्वमाह हेमाद्रौ जैमिनि : —
नक्षत्रराशौ रविसंक्रमे स्युरर्वाक्परत्रापि रसेन्दुनाड्यः।
पुण्यास्त्वथेन्दोस्त्रिधरापलेर्युगेकैवनाडी मुनिभिः शुभोक्ता॥
नाड्यश्चतस्रः सपलाः कुजस्य बुधस्य तिस्रो मनवः पलानि।
सार्धाश्चतस्रः पलसप्तयुक्ता गुरोश्च शुक्रे सपलाश्चतस्रः॥
द्विनागनाड्यः पलसप्तयुक्ताः शनैश्चरस्याभिहिताः सुपुण्याः।
आद्यन्तमध्ये जपदानहोमं कुर्वन्नवाप्नोति सुरेन्द्रधाम॥ इति।
नक्षत्रे राशौ वा सूर्यस्य संक्रमणे सति पूर्वतः परतोऽपि रसेन्दुनाड्यः षोडश घटिकाः पुण्यकालः इन्दोस्त्रिधरापलैर्युक्त्रयोदशपलैर्युक्तैकघटिका। कुजस्य मङ्गलस्यैकपलयुक्ताश्चतस्रो घटिकाः। बुधस्य चतुर्दशपलयुक्तास्तिस्रः। गुरोः सप्तत्रिंशत्पलयुक्ताश्चतस्रः। शुक्रस्य पलयुक्ताश्चतस्रः।शनैश्चरस्य पलसप्तयुक्ता द्विनागा द्विरावृत्ता नागाः षॊडश घटिकाः पुण्या इत्यर्थः। इत्थं सर्ववचनानामेकवाक्यतयाहेमाद्रिमाधवादिनिबन्धानामेकवाक्यताप्रदर्शनेन निर्णीतस्य संक्रान्तिकालस्यायं निर्णयसंग्रहः —तत्र मेषतुलासंक्रान्ती विषुवसंज्ञिके—वृषसिंहवृश्चिककुम्भसंक्रान्तयो विष्णुपदीसंज्ञिकाः। मिथुनकन्याधनुर्मीनसंक्रान्तयः षडशीतिसंज्ञिका। कर्कमकरसंक्रान्ती दक्षिणायनोदगयनसंज्ञिके।तत्र सर्वस्याः संक्रान्तेः पूर्वमुत्तरं च त्रिंशद्घटिकाः पुण्याः
षोडश षोडश घटिकाः पुण्यतराः। पुण्यतमास्तु मेषतुलयोः पूर्वा दश घटिकाः, उत्तराश्च दश। तत्रापि संक्रांन्तिसंनिहिता अतिपुण्यतमाः। वृषसिंहवृश्चिककुम्भेषु पूर्वं षोडश, पश्चादपि षोडश।मिथुनकन्याधनुर्मीनेषूत्तराः षोडश। कर्कटके पूर्वास्त्रिंशत्। मकर उत्तरास्त्रिंशद्घटिकाः। पुण्यतमास्वपि घटिकासु मध्ये या याः संनिहितास्ता अतिपुण्यतमा इति सर्वत्र बोध्यम्। इदं दिने संक्रान्तौ। रात्रिसंक्रान्तौ तु रात्रिपूर्वदले संक्रान्तौ पूर्वदिनोत्तरार्धम्। रात्र्युत्तरदले संक्रान्तावुत्तरदिनपूर्वार्धम्। दलद्वयसंधौसंक्रातौ तु पूर्वदिनोत्तरार्धम्, उत्तरदिनपूर्वार्धंच पुण्यम्। संक्रान्तिकालिकी तिथिश्चेत्पूर्वदिने नास्ति, तदोत्तरदिनपूर्वार्धमेव। अयनभिन्नसंक्रान्ताविदम्। अयनसंक्रान्तौतु कर्कसंक्रान्तौ रात्र्युत्तरार्धे सूर्योदयात्पूर्वं जातायामपि पूर्वदिनोत्तरार्धसंनिहितरात्रिभागोऽपि पुण्यः। मकरसंक्रान्तावस्तमयमारभ्य जातायामुत्तरदिनपूर्वार्धसंनिहितरात्रिभागश्च पुण्यः। पूर्वदिनार्धस्यान्तिमा उत्तरदिनार्धस्याऽऽद्याः पञ्च नाड्यस्त्वतिप्रशस्ततरा इति रात्रिसंक्रान्तौ सर्वत्र ज्ञेयम्। तत्र स्नानदानश्राद्धादि कर्तव्यम्। अत्र श्राद्धं पिण्डरहितं तदाह पुलस्त्यः —
अयनद्वितये श्राद्धं विषुवद्द्वितये तथा।
युगादिषुच कुर्वीत पिण्डनिर्वपणादृते॥ इति।
अत्रायनग्रहणं सर्वसंक्रान्त्युपलक्षणम्। संक्रान्त्यन्तरेऽपि वचनान्तरेण श्राद्धविधानात्।
इति आठवलेउपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे संक्रान्तिनिर्णयः।
अथ श्राद्धकालो निर्णीयते। तत्र सामान्यतः श्राद्धतिथिनिर्णयः —
एकमुद्दिश्य यच्छ्राद्धमेकोद्दिष्टं प्रकीर्तितम्।
त्रीनुद्दिश्य तु यच्छ्राद्धं पार्वणं मुनयो विदुः॥
इति वचनात्रिपुरुषोद्देश्यकं श्राद्धं यस्यां तिथौ विहितं, सा चेद्दिनद्वयसंबन्धिनी, तदा याऽपराह्णसंबन्धिनी, सा ग्राह्या। तथा च हेमाद्रौनिगमः —
पौर्वाह्णिकास्तु तिथयो दैवकार्ये फलप्रदाः।
अपराह्णिकास्तथा ज्ञेयाः पितृकार्ये शुभप्रदाः॥ इति।
यदा तु दिनद्वयेऽप्यपराह्णसंबन्धिनी, तदा पूर्वा। तदाह तत्रैव मनुः —
यस्यामस्तं रविर्याति पितरस्तामुपासते।
सा पितृभ्यो यतो दत्ता ह्यपराह्णे स्वयंभुवा॥ इति।
यस्यामपराह्नसंबन्धे सत्यस्तमयानुवृत्तिः सा पितृकार्ये प्रशस्ता नं त्वस्तमयमात्रसंबन्धिनीत्यर्थः। अत एव हारीतः —
अपराह्नः पितॄणां तु याऽपराह्णानुयायिनी।
सा ग्राह्या पितृकार्ये तु न पूर्वाऽस्तानुयायिनी॥
यदा दिनद्वयेऽप्यपराह्नसंबन्धो नास्ति तदा पूर्वैव। तदुक्तं तत्रैव नारदीये —
तिथेः प्रान्तं सुराख्यं हि उपोष्यं कवयो विदुः।
पित्र्यं मूलं तिथेः प्रोक्तं शास्त्रज्ञैः कालकोविंदैः॥
पित्र्येऽस्तमयवेलायां स्पृष्टा पूर्णा निगद्यते।
न तत्रौयिकी ग्राह्या दैवे ह्यौदायिकी तिथिः॥ इति।
गोभिलः — सायाह्नव्यापिनी या तु पार्वणे सा उदाहृता॥ इति।
ननु ‘सायाह्नस्त्रिमुहूर्तः स्यात्सर्वकर्मसु गर्हितः।
इति सायाह्नस्य निषेधादपराहे तु निमित्तभूततिथ्यभावेऽपि तत्रानुठाने कर्मणो यस्य यः काल इति वचनविरोध इति चेन्न।
विधिः पूज्यतिथौ तत्र निषेधः कालमात्रकः।
इति वचनाद्वचनान्तरबोधितपूज्यत्वाया एव तिथेः कर्मकाले ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धसत्त्वाभावेऽपि साकल्यवचनबोधिततिथिसत्त्वमादायैव कर्मकालव्याप्तिशास्त्रप्रवृत्तेः। अत एव —
पित्र्येऽस्तमयवेलायां स्पृष्टा पूर्णा निगद्यते।
इति वचनानां सार्थक्यम्।
तिथ्यादिषु भवेद्यावान्हासो वृद्धिः परेऽहनि।
तावान्ग्राह्यः स पूर्वेधुरदृष्टोऽपि स्वकर्मणि॥
इति वचनाधिककालकल्पनयाऽपराह्नेऽपि निमित्तभूततिथिसंभवादिति सिद्धान्तयतां हेमायादीनामुक्तार्थ एव स्वारस्याच्च। इयं च तिथिक्षये, तिथिवृद्धौ, तिथिसाम्ये चोत्तरा ग्राह्या। तथा च व्याघ्रः —
खर्वो दर्पस्तथा हिंसा त्रिविधं तिथिलक्षणम्।
खर्वदर्पौपरौपूज्यौ हिंसा स्यात्पूर्वकालिकी॥ इति।
उमयन्न साम्येनैकदेशव्याप्तावप्येवमेव। यदा तु वैषम्येणोभयत्रैकदेशव्यातिस्तदा यत्राधिककालव्यापिनी सैव ग्राह्येति। एकोद्दिष्टश्राद्धे तु मध्याह्नव्यापिनी तिथिर्ग्राह्या। तथा च वृद्धगौतमः —
मध्याह्नव्यापिनी या स्यात्सैकोद्दिष्टे तिथिर्भवेत्।
अपराह्णव्यापिनी तु पार्वणे सा तिथिर्भवेत्॥ इति।
हारीतः — आमश्राद्धं तु पूर्वाह्णएकोद्दिष्टं तु मध्यतः।
पार्वणं चापराह्णे तु प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम्॥
मनुः—पूर्वाह्णॆदैविकं श्राद्धमपराह्णतु पार्वणम्।
एकोद्दिष्टं तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम्॥ इति।
दैविकश्राद्धमाह हेमाद्रौपारस्करः।
देवानुद्दिश्य क्रियते यत्तद्दैविकमुच्यते॥
तन्नित्यश्राद्धवत्कुर्याद्द्वादश्यादिषु यत्नतः। इति।
अत्र धर्मणो यस्य यः काल इति वचनात्कर्मकालव्यापिनी तिथिर्ग्राह्या।इति सामान्यतः श्राद्धतिथिनिर्णयः।
अथ सांवत्सरिकश्राद्धे तिथिर्निर्णीयते।
तत्र प्रतिसांवत्सरिकं श्राद्धमुक्तं हेमाद्रौब्रह्मपुराणे —
प्रतिसंवत्सरं कार्यं मातापित्रोर्मृतेऽहनि।
पितृव्यस्याप्यपुत्रस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य चैव हि॥
मात्रादीनां श्राद्धं कार्यमित्युक्तेऽर्थात्पुत्रादीनां कर्तृत्वमुक्तम्। एतच्चाधिकारमात्रोपलक्षणं भ्रातुरित्यत्रापुत्रस्येत्यनुषञ्जनीयम्। ज्येष्ठस्येत्यनेन कनिष्ठल्य भ्रातुःश्राद्धेऽनावश्यकता सूच्यते। अत एव —
न पुत्रस्य पिता दद्यान्नानुजस्य तथाऽग्रजः।
यदि स्नेहेन कुर्वीत सपिण्डीकरणं विना॥
इति वचनेन नियताधिकारः प्रतिषिध्यते। तेनापुत्रस्य कनिष्ठभ्रातुरपि ज्येष्ठभ्रात्रा पुत्रस्य पित्राऽपि सति स्नेहे सांवत्सरिकं श्राद्धं कर्तव्यमेव। हेमाद्रौप्रयासखण्डे —
मृताहान पितुर्यस्तु न कुर्याच्छ्राद्धमादरात्।
मातुश्चैव वरारोहे वत्सरान्ते मृतेऽहनि॥
नाहं तस्य महादेवि पूजां गृह्णामि नो हरिः।
**भविष्यत्पुराणे — सर्वेषामेव श्राद्धानां श्रेष्ठं सांवत्सरं मतम्। **
क्रियते यत्खगश्रेष्ठ मृतेऽहनि सदा बुधैः॥
मृतेऽहनि पितुर्यस्तु न कुर्याच्छ्राद्धमादरात्।
मातुश्च खगशार्दूल वत्सरान्ते मृतेऽहनि॥
नाहं तस्य खगश्रेष्ठ पूजां गृह्णामि नो हरिः।
न ब्रह्मा न च वै रुद्रो न चान्ये देवतागणाः॥
तस्माद्यत्नेन कर्तव्यं वर्षे वर्षे मृतेऽहनि।
नरेण खगशार्दूल भोजकेन विशेषतः॥
भोजको यस्तु वै श्राद्धं न करोति खगाधिप।
मातापितृभ्यां सततं वर्षे वर्षे मृतेऽहनि॥
स याति नरकं घोरं तामिस्रं नाम नामतः॥ इति।
मातृश्राद्धे विशेषो मार्कण्डेयपुराणे —
भर्तुरग्रे घृता नारी सहदाहेन वा मृता।
तस्या स्थाने नियोक्तव्या विप्रैःसह सुवासिनी॥ इति।
अत्रमरणाहोरात्रान्तर्गतमरणाधिकरणभूता तिथिर्विवक्षिता न तु साकल्यवचनबोधिता।
पारणे मरणे नॄणां तिथिस्तात्कालिकी स्मृता।
इति वचनात्। तेन संवत्सरान्तरे —
मासपक्षतिथिस्पृष्टे यो यस्मिन्म्रियतेऽहनि।
प्रत्यब्दं तत्तथाभूतं क्षयाहं तस्य तं विदुः॥
इतिलक्षणयुक्ताहोरात्रान्तर्गतमरणाधिकरणतिथौ सांवत्सरिकं श्राद्धं कर्तव्यम्। अत्र मासश्चान्द्र एव।
आब्दिके पितृकार्ये च मासश्चान्द्रमसः स्मृतः।
इति वचनात्। यत्तु वचनम्।
यस्मिन्राशौ गते सूर्ये विपत्तिंयाति मानवः।
तद्राशावेव कर्तव्यं पितृकार्यं मृतेऽहनि॥
इति तन्मलमासविषयम्।
अधिमासमृतानां तु सौरं मानं समाश्रयेत्।
स एव दिवसस्तस्य श्राद्धपिण्डोदकादिषु॥
इति वचनादिति मलमासनिर्णय उक्तम्। इदं क्षयाहश्राद्धं द्विविधमेकोद्दिष्टं, पार्वणं च। तत्रैकोद्दिष्टमुक्तं मात्स्ये —
ततः प्रभृति संक्रान्तावुपरागादिपर्वसु।
त्रिपिण्डमाचारेच्छ्राध्दमेकोद्दिष्टं मृतेऽहनि॥
एकोद्दिष्टं परित्यज्य मृताहं यः समाचरेत्।
सदैव पितृहा स स्यान्मातृभ्रातृविनाशकः॥
प्रतिसंवत्सरं तस्मादेकोद्दिष्टं समाचरेत्। इति।
पार्वणरूपतोक्ता कौर्मे —
ये सपिण्डीकृताः प्रेता न तेषां स्यात्पृथक्कृतिः।
यस्तु कुर्यात्पृथक्पिण्डं पितृहा सोऽभिजायते॥
पार्वणेन विधानेन सांवत्सरिकमिष्यते।
प्रतिसंवत्सरं कार्यं विधिरेष सनातनः॥ इति।
शातातपोऽपि —
सपिण्डीकरणं कृत्वा कुर्यात्पार्वणवत्सदा।
प्रतिसंवत्सरं विद्वाञ्छागलेयोदितो विधिः॥
इत्यादिभिरितरेतरनिन्दानिषेधमुखेन स्वस्वविषयप्राशस्त्यबोधकवचनैः सामान्यतः क्षयाहे विकल्पः प्रतीयते, तथाऽपि वक्ष्यमाणविशेषवचनविषयपरिहारेणैवायंविकल्पः।अन्यथा तेषां वैयर्थ्यापत्तेः। तथाहि —
आपाद्य सहपिण्डत्वमौरसो विधिवत्सुतः।
कुर्वीत दर्शवच्छ्राद्धं मातापित्रोर्मृतेऽहनि॥
इति हेमाद्रौजमदग्निवचनादौरसमात्रस्य पार्वणं प्रतीयते, तथाऽपि सपिण्डीकरणकर्तुः साग्नेश्वैरसस्य नियतमन्यस्य तु विकल्प एवाऽऽपाद्येति क्त्वाप्रत्ययेनैककर्तृकत्वबोधनात्।
सहपिण्डक्रियायां तु यः पुत्रोऽधिकृतः पितुः।
स एव दर्शवच्छ्राद्धं विदधीत मृतेऽहनि॥
इति तत्रैव शाठ्यायनवचनाच्च।
न पैतृयज्ञिको होमो लौकिकाग्नौविधीयते।
न दर्शेन विना श्राद्धमाहिताग्नेर्द्विजन्मनः॥
इति मनुवचनात्। दर्शोपलक्षितपार्वणविधिना वर्जितं श्राद्धमाहिताग्निना न कार्यं किंतु दर्शश्राद्धविधिनैवेत्यर्थ इति हेमाद्रिः। युक्तं चैतद्दर्शश्राद्धभिन्नश्राद्धस्य निषेधे क्षयाहश्राद्धाद्यभावापत्तेः, तत्रैव —
श्राद्धक्रियैकतां तेषु प्रशस्तां मनुरब्रवीत्।
न दर्शेन विना श्राद्धमाहिताग्नोर्द्विजन्मनः॥
इति यमवचनाच्च। सपिण्डीकरणकर्तुः साग्नेश्च क्षेत्रजस्यापि पार्वणमेव।
औरसक्षेत्रजौपुत्रौविधिना पार्वणेन तु।
प्रत्यब्दमितरे कुर्युरेकोद्दिष्टं सुता दश॥
पितुः पितृगणस्थस्य कुर्यातां दर्शवत्सुतौ।
प्रत्यब्दं प्रतिमासं च विधिज्ञौ क्षेत्रजौरसौ॥
इति जाबालिना तयोः सहनिर्देशात्। प्रत्यब्दं मृताहनि प्रतिमासं दर्शादावित्यर्थ इति हेमाद्रिः।दत्तकपुत्रो द्विविधः —अद्व्यामुष्यायणो द्व्यामुष्यायणश्चेति संस्कारखण्डे सापिण्ड्यनिर्णये विस्तरः। तत्राद्व्यामुष्यायणदत्तकस्य
उपपन्नो गुणैः सर्वैः पुत्रो यस्य तु दत्त्रिमः।
स हरेतैव तद्रिक्थं संप्राप्तोऽप्यन्यगोत्रतः॥
इति मनुनौरसेन सह समधनग्राहित्वस्योक्तत्वादद्व्यामुष्यायणदत्तकस्यापि साग्नेःपार्वणमेव, न दर्शेन विनेति मनुनैकोद्दिष्टनिषेधात्।
बह्वग्नयस्तु ये विप्रा ये चैकाग्नयएव च।
तेषां सपिण्डनादूर्ध्वमेकोद्दिष्टं न पार्वणम्॥
इति भृगुणाऽपि साग्नेरेकोद्दिष्टनिषेधेन पार्वणस्यैव परिशेषात्। न चेदंसाग्नेः पार्वणनिषेधकमस्त्विति शक्यम्। उदाहृतमन्वादिवचनैः,
वर्षे वर्षे तु कुर्याद्वै पार्वणं योऽग्निमान्द्विजः।
कुर्यादनग्निमान्वीर एकोद्दिष्टं मृताहनि॥
इत्यादिभविष्यत्पुराणादिवचनैश्च विरोधापत्तेः। नच पार्वणनिषेधसुखेन पाक्षिकैकोद्दिष्टविधायकमिदं मात्स्यादिवचनवदिति शङ्क्यम्। तस्य निरग्निसाधारणत्वे बह्वग्नय इति पूर्वार्धवैयर्थ्यापत्तेः। तस्मादेकोद्दिष्टनिषेधकमेवेदम्। पार्वणं कर्तव्यमिति तु वचनान्तरप्राप्तानुषाद इत्येव स्वीकर्तव्यत्वात्। अत एव तेषामेकोद्दिष्टं नेति संबन्ध इति हेमाद्रिः संगच्छते।
अग्निप्रधानं सर्वेषामनुष्ठानं गृहाश्रमे।
तद्योगात्कृतसामर्थ्याः सर्वत्रार्हन्ति पार्वणम्॥
इति कार्ष्णाजिनिनाऽपि साग्नेः पार्वणस्यैव विधानाच्च। एवं कालविशेषे मृतयोः पित्रोर्निरग्रेनाऽप्यौरसादीनां पार्वणमेव कार्यम्।
तदाह शङ्खः — पर्वकाली मृताहश्च यद्येकत्र द्वयं भवेत्।
पार्वणं तत्र कर्तव्यं नैकोद्दिष्टं कदाचन॥
अमायां तु क्षयो यस्य प्रेतपक्षे तथा भवेत्।
पार्वणं तत्र कर्तव्यं नैकोद्दिष्टं कदाचन॥ इति।
यतेरपि पार्वणमेवेत्याह प्रचेताः —
एकोद्दिष्टं यतेर्नास्ति त्रिदण्डग्रहणादिह।
सपिण्डीकरणाभावात्पार्वणं तस्य सर्वदा॥ इति।
उक्तविधान्येषामौरसादीनां तु पार्वणैकोद्दिष्टयोर्विकल्पः। सोऽपि
श्रुतिर्द्वैधं तु यत्र स्यादुभौ धर्मावपि स्मृतौ।
स्मृतिद्वैधे तु विषयः कल्पनीयः पृथक्पृथक्॥
इति हेमाद्रौजाबालवचनात्
देशधर्मं समाश्रित्य कुलधर्मं तथा परे।
सूरयः श्राद्धमिच्छन्ति पार्वणं च क्षयाहनि॥
इति पृथ्वीचन्द्रोदये वृद्धपाराशरवचनाच्चदेशवंशसमाचाराद्यवस्थित एवं, न त्वैच्छिक इति। द्व्यामुष्यायणदत्तकादीनां तु इतरे कुर्युरेकोद्दिष्टं सुता दश, इति जातूकर्ण्यवचन एवकारो भिन्नक्रमः क्षेत्रजौरसावित्यनन्तरं बोध्यः। अन्यथा सपिण्डीकरणकर्तुरेव साग्नेरेव चौरसादेः पार्वणनियामकोदाहृतवचनैर्विरोधापत्तेः। तथा च यत्क्षयाहे पाक्षिकं पार्वणं वचनान्तरेण बोधितं तत्क्षेत्रजौरसयोरेवेत्यर्थात्
औरसक्षेत्रजौपुत्रौविधिना पार्वणेन तु।
प्रत्यब्दमितरे कुर्यरेकोद्दिष्टं सुता दश॥
पितुः पितृगणस्थस्य कुर्यातां दर्शवत्सुतौ।
प्रत्यब्दं अतिमासं च विधिज्ञौ क्षेत्रजौरसौ॥
प्रत्यब्दं मृताहनि प्रतिमासं दर्शादाविति हेमाद्रिव्याकृतजाबालिवचनेन समानार्थकमेवेति। एतेन प्रत्यब्दमिति जातकर्ण्यवचनादौरसक्षेत्रजाभ्यां मातापित्रोः क्षयाहे पार्वणमेव, दत्तकादिभिरैकोद्दिष्टमेवेति दाक्षिणात्या व्यवस्थामाहुः। तदसत्। न ह्यत्र क्षयाहवचनमस्त्यपि तु प्रत्यब्दमिति। सन्ति च प्रत्यब्दमक्षय्यतृतीयादिश्राद्धानीति नैतत्क्षयाहे पार्वणैकोद्दिष्टयोर्व्यवस्थापनायालमिति विज्ञानेश्वरोक्तिरयुक्ता, प्रत्यब्दं श्राद्धं कार्यमित्युक्ते सर्वेषामेव श्राद्धानां श्रेष्ठं सांवत्सरं मतमित्यादिवचनैस्तस्यैव प्राधान्यप्रतिपादनात्प्रधाने कार्यसंप्रत्यय इति न्यायेन शीघ्रोपस्थितक्षयाहश्राद्धपरित्यागेनाप्रधानाक्षय्यतृतीयादिश्राद्धकल्पनाया अयु-
क्तत्वात्। किंचैकोद्दिष्टमितरे कुर्युरित्युत्तरार्धेऽपि क्षयाहातिरिक्तश्राद्धस्यैवैकोद्दिष्टत्वापत्तौ
ततः प्रभृति संक्रान्तावुपरागादिपर्वसु।
त्रिपिण्डमाचरेच्छ्राद्धमेकोद्दिष्टं क्षयेऽहनि॥
इति मात्स्यादिवचनविरोधापत्तेः। यदपि साग्नेःपार्वणमेवेति नियमे बह्वग्नयस्तु ये विप्रा इति वचनेन साग्नेरप्येकोद्दिष्टाविधानादिति दूषणं दत्तं, तदपि पूर्वोक्तरीत्याऽस्य वचनस्यैकोद्दिष्टविधायकत्वासंभवात्, न दर्शेन विना श्राद्धमिति मन्वादिवचनाप्रतिसंधाननिबन्धनत्वाच्चासंगतमेव।यदपि संन्यास्यमावास्यामृतयोरेव पार्वणमन्येषां पार्वणैकोद्दिष्टयोर्विकल्प एव व्रीहियववदिति सिद्धान्तितं तदपि सपिण्डीकरणकर्तुर्निरग्नेःसाग्नेश्च पार्वणनियामकवचनविरोधात्स्मृतिद्वैधे तु विषय इति व्यवस्थितविकल्पविधायकवचनविरोधाच्चायुक्तमेवेति चिन्तनीयम्। अत एवौरसक्षेत्रजयोः पार्वणं दत्तकादीनामेकोद्दिष्टमित्येकः पक्षः, साग्नेः पार्वणं निरग्नेरेकोद्दिष्टमित्यपरस्तद्दूषणं मिताक्षरादौ ज्ञेयमिति निर्णयसिन्ध्वाद्यर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्याः। न दर्शेन विनेत्यादिवाक्यादर्शननिबन्धनत्वात्। अत एव साग्नेःपार्वणं निरग्नेरेकोद्दिष्टमिति व्यवस्थेति केचित्। तदसद्बह्बग्नयइति वाक्येन साग्नेरप्येकोद्दिष्टविधानात्। अन्ये तु प्रत्यब्दं पार्वणेनैवेति जातूकर्ण्यवचनादौरसक्षेत्रजाभ्यां पार्वणमन्यैस्त्वेकोद्दिष्टमिति व्यवस्थापयन्ति तदप्यसत्।
एकोद्दिष्टं तु कर्तव्यमौरसेन मृतेऽहनि।
सपिण्डीकरणादूर्ध्वं मातापित्रोर्न पार्वणम्॥
इति पैठीनसिनौरसस्याप्येकोद्दिष्टविधानादिति मदनरत्नोऽप्ययुक्तो मन्वादिवाक्यविरोधेन बह्वग्नयय इति वाक्यस्यैकोद्दिष्टविधायकत्वासंभवस्य दर्शितत्वात्।
न सुतस्य पिता दद्यान्नानुजस्य तथाऽग्रजः।
इत्यनेन नियताधिकार एव प्रतिषिध्यते। तेन ताभ्यामपि सुताद्यभ्युदयेच्छया श्राद्धं कर्तव्यमिति सिद्धान्तवत्, मातापित्रोर्न पार्वणमिति पैठीनसिनाऽपि नियतपार्वणस्यैव निषेधेन तद्विरोधाभावात्। अत एव बहुग्नय इति भृगुणा साग्रीनामध्येकोद्दिष्टविधानादित्यादिकालतत्त्वविवेचनाद्यर्वाचीनग्रन्था अयुक्ता न दर्शेन विनेति, मन्वादिवाक्यार्थाज्ञाननिबन्धनत्वादिति। तस्मात्सपिण्डीकरणकर्त्रा साग्निना चौरसादिना
क्षयाहे पार्वणमेव कार्यम्। एवममावास्यायां प्रेतपक्षे च मृतस्य निरग्निनाऽपि पार्वणमेव कालान्तरे मृतस्य निरग्निना सपिण्डीकरणकर्तृभिन्नेन चौरसादिना देशकुलाचारव्यवस्थयैव पार्वणमेकोदिष्टमेव वा कार्यम्। नतु कदाचित्पार्वणं कदाचिदेकोद्दिष्टमिति ऐच्छिकविकल्पेनेति सर्ववाक्याविरोधेन सिद्धमिति विभावनीयम्। अत्र श्राद्धे कर्मकालव्याप्त्यां तिथिर्निर्णेतव्येति कर्मकालो निर्णेतव्यः। तत्र निषिद्धकालमाह मनुः —
रात्रौ श्राद्धं न कुर्वीत राक्षसी कीर्तिता हि सा।
संध्ययोरुभयोश्चैव सूर्ये चैवाचिरोदिते॥ इति।
बौधायनः — चतुर्थे प्रहरे प्राप्ते यः श्राद्धं कुरुते नरः।
आसुरं तद्भवेच्छ्राद्धं दाता च नरकं व्रजेत्॥
माधवे शिवराघवसंवादे —
प्रातःकाले तु न श्राद्धं प्रकुर्वीत कदाचन।
नैमित्तिकेषु श्राद्धेषु न कालनियमः स्मृतः॥ इति।
ग्रहादिव्यतिरिक्तस्य प्रक्रमे कुतुपः स्मृतः।
कुतुपाथवाऽप्यर्वागासनं कुतुपे भवेत्॥
इति माधवे शिवराघवसंवादवचनेन गान्धर्वेऽप्यारम्भस्योक्तत्वेनार्थत्संगवनिषेधः। तथा च संगवकालादूर्ध्वं सायंकालात्प्राक्तनोऽनैमित्तिकश्राद्धस्य काल इत्यर्थादुक्तं भवति। तत्रापराह्णस्य प्राशस्त्यमाह मनुः —
यथा चैवापरः पक्षः पूर्वपक्षाद्विशिष्यते।
तथा श्राद्धस्य पूर्वाह्णादपराह्णॊविशिष्यते॥ इति।
अपराह्णःपितॄणां तु या परार्धानुयायिनी।
तिथिस्तेभ्यो यतो दत्ता ह्यपराह्णॆस्वयंभुवा॥
इत्यादिपूर्वोदाहृतवचनैश्चापराह्णस्य मुख्यकालत्वं प्रतिपाद्यते। मुख्यत्वेन निषिद्धस्यापि सायाह्नस्य गौणकालत्वमाह व्यासः —
स्वकालातिक्रमे कुर्याद्रात्रेः पूर्वं यथाविधि।इति।
पूर्वमारब्धस्य रात्रावपि समाप्तिमाहाऽऽपस्तम्बः —न च नक्तं श्राद्धं कुर्वीताऽऽरब्धे च भोजनसमापनादिति।
एकोद्दिष्टं तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम्।
इति पूर्वोदाहृतवचनादेकोद्दिष्टस्य मध्याह्नो मुख्यकालः।
मात्स्ये — अह्नो मुहूर्ता विख्याता दश पञ्च च सर्वदा।
तत्राष्टमो मुहूर्तो यः स कालः कुतपः स्मृतः॥
अष्टमे भास्करो यस्मान्मन्दी भवति सर्वदा।
तस्मादनन्तफलदस्तत्राऽऽरम्भो विशिष्यते॥
ऊर्ध्वं मुहूर्तात्कुतपाद्यन्मुहूर्तचतुष्टयम्।
मुहूर्तपञ्चकं ह्येतत्स्वधाभवनमिष्यते॥ इति।
तत्रापि पादन्यूनापराह्णान्त्यमुहूर्तस्य चतुर्थप्रहरान्तर्गतत्वाच्चतुर्थप्रहरस्य च।
चतुर्थे प्रहरे प्राप्ते यः श्राद्धं कुरुते द्विजः।
आसुरं तद्भवेच्छ्राद्धं दाता च नरकं व्रजेत्॥
इति निषिद्धत्वात्कुतपमारभ्य मुहूर्तचतुष्टयं पार्वणस्य मुख्यः कालः। अत एवात्रापराह्णादिशब्दा अपराह्णाद्येकदेशपरा इत्यपराह्णादिविनियोगे हेमाद्रिः संगच्छते। एकोद्दिष्टस्य तु
आरभ्य कुतपे श्राद्धं रौहिणं तु न लङ्घयेत्।
इति वचनात्कुतपादिमुहूर्तद्वयं मुख्यः कालः। तत्र पार्वणे या मुख्यापराह्णव्यापिनी पूर्वा परा वा, सेव ग्राह्या ।
अपराह्णव्यापिनी या पार्वणे सा तिथिर्भवेत्।
इति वृद्धगौतमवचनात्। यदा दिनद्वये संपूर्णमुख्यापराह्णव्याप्तिस्तदा। तदाह मनुः —
यस्यामस्तं रविर्याति पितरस्तामुपासते।
सा पितृभ्यो यतो दत्ता ह्यपराह्णॆस्वयंभुवा॥ इति।
सुमन्तुरपि — द्व्यहे तु व्यापिनी चेत्स्यान्मृताहस्य तु या तिथिः।
पूर्वस्यां निर्वपेत्पिण्डमित्याङ्गिरसभाषितम्॥ इति।
दर्श च पौर्णमासं च पितुः सांवत्सरं दिनम्।
पूर्वविद्धामकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते॥
इति नारदीयाच्च। यदा दिनद्वयेऽपि साम्येनैकदेशव्याप्तिस्तदा तिथिवृद्धावुत्तरा, तिथिक्षये पूर्वा। तदाह बौधायनः —
अपराह्णद्वयव्यापिन्यतीतस्य च या तिथिः।
क्षये पूर्वा तु कर्तव्या वृद्धौ कार्या तदोत्तरा॥ इति।
तिथिसाम्येऽपि पूर्वैव यस्यामस्तमिति, दर्शं च पूर्णमासं चेतिवचनात्। अत एव खर्वशास्त्रं तु क्षयाहविषयबहुवाक्यानुरोधात्तद्व्यतिरिक्तविषयमिति हेमाद्रिः, खर्वो दर्प इति क्षयाहव्यतिरिक्तश्राद्धतिथिविषयं द्व्यहे तु व्यापिनीत्याद्युदाहृतवचनविरोधादिति मदनरत्नादयश्च
संगच्छन्ते। वैषम्येणोभयापराह्णैकदेशव्याप्तौ तु यत्राधिकापराह्णव्याप्तिः, सा ग्राह्या। तदाह माधवे मरीचि : —
द्व्यपराह्णव्यापिनी चेदाब्दिकस्य यदा तिथिः।
महती यत्र तद्विद्वान्प्रशंसन्ति महर्षयः॥ इति।
यदा दिनद्वयेऽप्यपराह्णसंबन्धाभावस्तदाऽपि पूर्वैव। तदाह मनुः —
न द्व्यहव्यापिनी चेत्स्यान्मृताहस्य यदा तिथिः।
पूर्वविद्धैव कर्तव्या त्रिमुहूर्ता भवेद्यदा॥ इति।
माधवे सुमन्तुरपि —
न द्व्यहव्यापिनी चेत्स्यान्मृताहस्य तु या तिथिः।
पूर्वस्यां निर्वपेत्पिण्डमित्याङ्गिरसभाषितम्॥ इति।
नन्वत्र चतुर्थे प्रहर इत्यनेन चतुर्थप्रहरस्य निषेधात्तत्पूर्वकाले ग्राह्यतिथ्यसत्त्वेऽप्यनुष्ठाने कर्मणो यस्य यः काल इत्यादेर्विरोध इति चेन्न।
विधिः पूज्यतिथौ तत्र निषेधः कालमात्रकः।
इति वचनाद्वचनान्तरबोधितपूज्यत्वाया एव तिथेः साकल्यवचनाबोधितसत्तामादायापि कर्मकालशास्त्रप्रवृत्तिर्न तु अपूज्यतिथेर्ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्धसत्तामादाय विधिः पूज्यतिथाविति विरोधात्। अत एव वस्तुतस्त्रिमुहूर्ताया अपि
तिथ्यादिषु भवेद्यावान्ह्रासो वृद्धिः परेऽहनि।
तावान्ग्राह्यः स पूर्वेद्युरदृष्टोऽपि स्वकर्मणि॥
इति वचनाधिककालस्य कल्पनयाऽपराह्णेऽपि संभवादिति श्राद्धतिथिप्रकरणे हेमाद्रिः। यदा तूभेअपि मध्याह्नोत्तरार्धैकदेशमपि न व्याप्नुतस्तदाऽपि गौणकाले सत्त्वात्पूर्वैव तत्रापि मध्याह्न एवैकभक्तं तिथ्यादिष्विति वचनाद्यस्यां तिथौ यत्कर्म विहितं, तस्याः स्वं कर्म तेन मध्याह्नकालेऽपि तत्तिथिलाभात्तत्रैवैकभक्तं कार्यमिति हेमाद्रिरेकभक्तादिप्रकरणस्थमदनरत्नादयश्च संगछन्ते। युक्तं चैतत्परेऽहनि विद्यमानतिथ्यादिगतक्षयादिः पूर्वदिनेऽनुष्ठीयमाने स्वनिमित्तके कर्मणि ग्राह्य इत्युक्त उत्तरदिनविद्यमानस्वगतक्षयादेः पूर्वदिनगतस्वपूर्वतिथ्यादावेव स्वारस्येन ग्राह्यत्वप्रतीतेः। यत्तु माधवाचार्यैरुत्तरतिथिगतावेव वृद्धिक्षयौ न तु ग्राह्यतिथिगतौ ग्राह्यतिथेरपराह्णद्वयव्यापित्वं मुहूर्तत्रयवृद्धावेव भवति। तथा च क्षये पूर्वेति नोपपद्यते। तेन यदा द्वितीयोत्तरदिने सायाह्नंप्रविशति, तदा तिथिवृद्धिस्तत्र परेद्युरेवानुष्ठानम्। यदा द्वितीयापरेद्युर-
पराह्णॆऽपि कियती क्षीयते, तदा प्रतिपत्पूर्वविद्धा ग्राह्या। उत्तरस्याः प्रतिपदो ज्योतिःशास्त्रप्रक्रिययाऽपराह्णव्यापित्वेऽपि पारिभाषिक्या स्मार्तक्रियया तद्व्यापित्वादित्युक्तं तच्छिष्यबुद्धिपरीक्षार्थमेव, न तु तेषां तत्र तात्पर्यं कल्पनीयम्। अप्रतिज्ञातेऽर्थे तात्पर्यं नास्तीति वेदान्ताधिकरणमालायां निर्णीतत्वात्प्रकृते हेमाद्र्यादिनिर्णीतकालसंकलीकरणार्थमेव ममायमुद्योग इति प्रतिज्ञातत्वेन प्रासङ्गिकविचारे तेषां तात्पर्याभावात्। बाणवृद्धिरसक्षय इति ज्योतिर्विदुक्तेर्मुहूर्तत्रयतिथिवृद्धेरसंभवादपराह्णद्वयव्यापिन्यां प्रतिपदि सत्यां पूर्वतिथिभोगापेक्षयोत्तरतिथिभोगस्य सार्धघटिकातो न्यूनाधिकभावस्यासंभवेन तृतीयापराह्णे द्वितीयायाः क्षयस्य ज्योतिःशास्त्रेऽप्रसिद्धत्वेन बाधितार्थक एवायं ग्रन्थः स्यादिति सूरिभिश्चिन्तनीयम्। एतेन यथाश्रुतार्थ एवाऽऽचार्यतात्पर्यं निश्चित्य तदनुसारेण निर्णयार्थं प्रवृत्ताः कालतत्त्वविवेचनादयः सर्वेऽपि नवीनग्रन्था उपेक्ष्याः। अत्र क्षयाहश्राद्धे पितृपार्वणमेव, नतु मातामहपार्वणमपि।
पितुर्गतस्य देवत्वमौरसस्य त्रिपौरुषम्।
सर्वत्रानेकगोत्राणामेकस्यैव मृताहनि॥
इति पारस्करवचनाद्दौहित्रादीनामपुत्रमातामहादिश्राद्धमेकोद्दिष्टमेवेत्यर्थ इति हेमाद्रिः।
कर्षूसमन्वितं मुक्त्वा तथाऽऽद्यं श्राद्धषोडशम्।
प्रत्याब्दिकं च शेषॆषुपिण्डाः स्युः षडिति स्थितिः॥
इति कात्यायनवचनाच्च क्षयाहे मातृश्राद्धस्य पृथग्विधानात्पितृक्षयाहे पित्रादीनां केवलानामेवोद्देशः कार्य इति मरणदिनैक्येऽपि न सपत्नीकानां निर्देशः किंतु मरणपौर्वापर्येण द्वयोः श्राद्धं तन्त्रेण श्रपणं कृत्वा पृथगेव कार्यम्। यदा तु मरणपौर्वापर्यं न ज्ञातं, तदा पितृपूर्वमिति हेमाद्रिः। एकोद्दिष्टरूपक्षयाहश्राद्धेषु मध्याह्नव्यापिनी तिथिर्ग्राह्या।
मध्याह्नव्यापिनी या स्यात्सैकोद्दिष्टे तिथिर्भवेत्।
इति पूर्वोदाहृतवचनात्। अत्र मध्याह्नशब्देन मध्याह्नैकदेशः कुतपरौहिणाख्यं मुहूर्तद्वयं गृह्यते। अत एव श्लोकगौतमः —
आरभ्य कुतपे श्राद्धं कुर्यादारौहिणं बुधः।
विधिज्ञो विधिमास्थाय रौहिणं त्रु न लङ्घयेत्॥ इति।
कुतपपूर्वभाग एवाऽऽरम्भस्तदाह व्यासः —
कुतपप्रथमे भाग एकोद्दिष्टमुपक्रमेत्।
आवर्तनसमीपे वा तत्रैव नियतात्मवान्॥
तत्रैव कुतप एव। अत्रापि तिथिद्वैधे पार्वणतिथिवन्निर्णयो ज्ञेयः। एतत्क्षयाहश्राद्धं सूर्यग्रहणदिने भोक्तृब्राह्मणाभावेऽपि तद्दिन एवाऽऽमादिना कार्यम्। तदाह गोभिल : —
दर्शे रविग्रहे पित्रोः प्रत्याब्दिकमुपस्थितम्।
अन्नेनासंभवे हेम्ना कुर्यादामेन वा सुतः॥
इति आठवलेउपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे क्षयाहकालनिर्णयः।
अथ सामान्यतः श्राद्धकालः। तत्र याज्ञवल्क्यः —
अमावास्याऽष्टका वृद्धिः कृष्णपक्षोऽयनद्वयम्।
द्रव्यं ब्राह्मणसंपत्तिर्विषुवत्सूर्यसंक्रमः॥
व्यतीपातो गजच्छाया ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः।
श्राद्धं प्रति रुचिश्चैव श्राद्धकालाः प्रकीर्तिताः॥ इति।
तत्रामावास्या पूर्वं निर्णीता। अष्टका मार्गशीर्षादिमासानामपरपक्षाष्टम्यो हेमन्तशिशिरयोश्चतुर्णामपरपक्षाणामष्टमीष्वष्टका इत्याश्वलायनसूत्रादावुक्ताः। वृद्धिः पुत्रजन्मादिस्तेन तद्विशिष्टः कालो लक्ष्यते। कृष्णपक्षोऽपरपक्षः। सर्वस्य सूर्यसंक्रमस्य वचनान्तरेण श्राद्धकालत्वाभिधानादयनाद्युपादानं फलातिशयार्थम्। द्रव्यं पायसादि। ब्राह्मणसंपत्तिर्विशिष्टब्राह्मणलाभः। व्यतीपातो योगविशेषः।
श्रवणाश्विधनिष्ठार्द्रानागदैवतमस्तकैः।
यद्यमा रविवारेणव्यतीपातः स उच्यते॥
इति वृद्धमनूक्तोऽपि। गजच्छाया तु —
यदेन्दुपितृदैवत्ये हंसश्चैव करे स्थितः।
याम्या तिथिर्भवेत्सा हि गजच्छाया प्रकीर्तिता॥
इत्युक्ता। यदा श्राद्धं प्रति रुचिस्तदाऽपि श्राद्धं कार्यम्। हेमाद्रौविष्णुना तु तिस्र एवाष्टका उक्ताः। अमावास्या तिस्रोऽष्ट526काइति तिस्रोऽन्वष्टका इति अन्वष्टका अष्टकानामुपरितना नवम्यः। तत्रैव कौर्मे —
अमावास्याऽष्टकास्तिस्रः पौषमासादिषु त्रिषु।
तित्रश्चान्वष्टकाः पुण्या माघी पञ्चदशी तथा॥ इति।
अष्टकाचतुष्टयातिरिक्ता भाद्रपदापरपक्षाष्टम्यष्टकोक्ता हेमाद्रौविष्णुधर्मोत्तरे — प्रौष्ठपद्यष्टका भूयः पितृलोके भविष्यसि।
आयुरारोग्यदा नित्यं सर्वकामफलप्रदा॥ इति।
वायुपुराणे — अथ कालं प्रवक्ष्यामि श्राद्धकर्मणि पूजितम्
पुत्रदा धनमूलाः स्युरष्टकास्तिस्र एव च॥
कृष्णपक्षधनिष्ठादिपूर्वा चैन्द्री उदाहृता।
प्राजापत्या द्वितीया स्यात्तृतीया वैश्वदेविकी॥
आद्याऽपूपैः सदा कार्या मांसैरन्या भवेत्सदा।
शाकैरन्या तृतीया स्यादेवं द्रव्यगतो विधिः॥
अन्वष्टका पितॄणां तु नित्यमेव विधीयते।
या चान्या तु चतुर्थी स्यात्तां च कुर्यात्प्रयत्नतः॥
तासु श्राद्धं बुधाः कुर्युः सर्वस्वेनापि नित्यशः।
हेमाद्रौ विष्णुधर्मोत्तरे —
अन्वष्टकासु च स्त्रीणां श्राद्धं कार्यं तथैव च।
अष्टकाविधिना हुत्वाक्रमेणैतासु पञ्चकम्॥
मात्रे राजन्पितामह्यै श्राद्धं कार्यं यथाविधि।
तथैव प्रपितामह्यौवैश्वदेवपुरःसरम्॥
पिण्डनिर्वपणं कार्यं तथैव पितृवन्नृप। इति।
आश्वलायनानामपि भाद्रपदकृष्णाष्टश्यामनुष्ठानं तादृशमेव। एतेन माध्यावर्षं प्रौष्ठपद्या अपरपक्ष इत्यतिदेशात्। शाकादिद्रव्यभेद इन्द्रादिदेवताभेदश्चाऽऽश्वलायनव्यतिरिक्तविषयः। तेषां पञ्चस्वपि द्रव्याणां देवतानां भेद एव। शाकादिद्रव्योपादानं तेषां प्राधान्यार्थम्। तथा च तत्प्रधानं सर्वमन्नं देयम्। इत्यष्टकाः। अथ वृद्धिश्राद्धकालः —
वृद्धिर्नाम पुत्रजन्मादिनिमित्तोपलक्षितकालः। तथा च हेमाद्रौ जाबालिः —
यज्ञोद्वाहप्रतिष्ठासु भेखलाबन्धमोक्षयोः।
पुत्रजन्मवृषॊत्सर्गे वृद्धिश्राद्धं विधीयते॥ इति।
तत्रैव विष्णुपुराणे —
जातस्य जातकर्मादिक्रियाकाण्डमशेषतः।
पुत्रस्य कुर्वीत पिता श्राद्धं चाऽऽभ्युदयात्मकम्॥
कात्यायनः — स्वपितृभ्यः पिता दद्यात्सुतसंस्कारकर्मसु।
पिण्डा नोद्वाहनात्तेषां तस्याभावे तु तत्क्रमात्॥
जातकर्मनामकरणनिष्क्रमणान्नप्राशनचूडोपनयनव्रतचर्याध्ययनसमावर्तनगोदानविवाहाः संस्काराः। तत्र विवाहपर्यन्तसंस्कारेषु पितैव स्वपितृभ्यो दद्यात्तस्याभावे तु पितुरभावे तु
असंस्कृतास्तु संस्कार्या भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः।
इत्यादिवचनाद्यः संस्कारकर्ता ज्येष्ठभ्रात्रादिः स संस्कार्यपित्रादिभ्यो दद्यात्समावर्तनस्य विवाहप्राक्तनसंस्कारत्वादिति हेमाद्रिः। अत्राभावो नाश एव। देशान्तरगतत्वेनासांनिध्ये, रोगेणाशक्तौ संन्यासेन पातित्येन वाऽनधिकारित्वे चान्यः सकुल्यादिर्वचनलब्धाधिकारः करोति, तदाऽपि संस्कार्यपितृभ्यो दद्यात्। यदा वचनोक्तसकुल्यादिर्नास्ति, तदोपनयनात्पूर्वमृत्विगेव, उपनयनादूर्ध्वं संस्कार्यो वा स्वपितृभ्यो दद्यात्। अत एव
पितरो जनकस्येज्या यावद्व्रतमनाहितम्।
समाहितव्रतः पश्चात्स्वान्यजेत पितामहान्॥
इति यमनाम्ना नवीनोदाहृतवचनंसंगच्छते। अधिकारिनिर्णये हेमाद्रिणा पितुरभावे वचनेन लब्धाधिकारः सकुल्यादिरपि। तस्याभावे तु तत्क्रमादित्यत्र स्वपितृभ्य इत्यस्यानुषङ्गात्प्रधानेऽधिकृत एवाङ्गेऽधिकारीति सकुल्यादिः स्वेभ्य एव दद्यादित्युपसंहृतम्, तद्यदा सकुल्यादिः स्वेन द्रव्येण धर्मार्थं करोति तद्विषयमिति न तत्र वचनविरोध इति ज्ञेयम्। पितुरभावे ज्येष्ठभ्रात्रादिर्दद्यात् । तद्भावे स्वयमेव स्वपितृभ्यो दद्यात्।उपनयनोत्तरमधिकारस्य जातत्वादिति प्रयोगपारिजातश्च विष्णुपुराणादिवचनमूलकत्वाद्युक्ततर एव। एतेनोपनयनोत्तरं स्वयमेव वृद्धिश्राद्धं कार्यमिति धर्मप्रकाशाद्यर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्या विष्णुपुराणादिवचनविरोधात्।
वसिष्ठः — पूर्वेद्युर्मातृकं श्राद्धं कर्माहे पैतृकं तथा।
उत्तरेद्युः प्रकुर्वीत मातामहगणस्य तु॥
वृद्धशातातपः —
पृथग्दिनेष्वशक्तश्चेदेकस्मिन्पूर्ववासरे।
श्राद्धत्रयं तु कुर्वीत वैश्वदेवं च तान्त्रिकम्॥
पूर्वाह्णॆमातृकं श्राद्धं मध्याह्ने पैतृकं तथा।
ततो मातामहानां वै वृद्धौ श्राद्धत्रयं स्मृतम्॥
भिन्नकालासंभवे बृहन्मनुः —
अलाभे भिन्नकालानां नान्दीश्राद्धत्रयं बुधः।
पूर्वेद्युर्वै प्रकुर्वीत पूर्वाह्णॆमातृपूर्वकम्॥ इति।
जीवत्पितृकस्य सुतसंस्कारे विशेषो गृह्यपरिशिष्टे — जीवत्पिता सुतसंस्कारेषु मातृमातामहयोः कुर्यात्तस्यां जीवन्त्यां मातामहस्यैव कुर्यात्। इति। अनेन मातामहेऽपि जीवति
नानिष्ट्वा तु पितॄञ्श्राद्धे वैदिकं किंचिदाचरेत्।
इति निषेधस्तं प्रति न प्रवर्तत इति सूच्यते। अत एव कात्यायनः —
सपितुः पितृकृत्येषु अधिकरो न विद्यते।
न जीवन्तमतिक्रम्य किंचिद्दद्यादिति श्रुतिः॥ इति।
जीवे पितरि वै पुत्रः श्राद्धकालं विवर्जयेत्।
येषां वाऽपि पिता दद्यात्तेभ्यो दानं प्रचक्षते॥ इति।
मनरत्ने हारीतः — जीवेत्तु यदि वर्गाद्यस्तं वर्गं तु परित्यजेत्।
इति नवीनोदाहृतवचनं च। अत एव विष्णुः —
पितरि जीवति यः श्राद्धं कुर्याद्येषां तेषां पिता कुर्यात्। पितरि पितामहे च जीवति येषां पितामहः कुर्यात्पितरि पितामहे प्रपितामहे च जीवति नैव कुर्यात्। यस्य पिता प्रेतः स्यात्स पित्रे पिण्डं निधाय पितामहात्पराभ्यां527 दद्यात्। यस्य पिता, पितामहश्चप्रेतौस्यातां स ताभ्यां पिण्डौ दत्त्वा पितामहपितामहाय दद्यान्मातामहानामप्येवं श्राद्धं कुर्याद्विचक्षणः। अनन्तर्हितेभ्योऽन्तर्हितेभ्यो वा त्रिभ्यः क्रमेण श्राद्धं कर्तव्यमिति। अत्र यः कुर्यादिति यच्छब्दप्रयोगाज्जीवत्पितृकस्याकरणे न प्रत्यवायः, किंतु कुर्वाणस्य फलविशेषो भवतीति हेमाद्रिः संगच्छते। एतेन
पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।
त्रयो ह्यश्रुमुखा ह्येते पितरः संप्रकीर्तिताः॥
तेभ्यः पूर्वतरा ये च प्रजावन्तः सुखैधिताः।
ते तु नान्द्रीमुखा नान्दी समृद्भिरित कथ्यते॥
इति प्रपितामहात्परेषां नान्दीमुखसंज्ञामभिधाय
कर्मण्यथाऽऽभ्युदयिके मङ्गले चातिशोभने॥
जन्मन्यथोपनयने विवाहे पुत्रकस्य च।
पितॄन्नान्दीमुखान्नाम पूजयेद्विधिपूर्वकम्॥
इति तेषां नान्दीमुखानां वृद्धिश्राद्धे देवतात्वमुक्तम्। तेन जीवत्पित्रादित्रिकेण वृद्धप्रपितामहादित्रयाणां नान्दीश्राद्धं कर्तव्यम्। विष्णूक्तो निषेधस्तु वृद्धिश्राद्धातिरिक्तविषय इति मदनरत्नो मदनपारिजातश्चोपेक्ष्यः।
नान्दीमुखानां प्रत्यब्दं कन्याराशिगते रखौ॥
पौर्णमास्यां तु कर्तव्यं वराहवचनं यथा॥
इति पूर्ववचनेन प्रौष्ठपद्यां श्राद्धमुक्तं प्राकरणिके तस्मिन्नान्दीमुखसंज्ञकानां प्रपितामहपित्रादीनामन्वयेन कर्मण्यथाऽऽभ्युदयिक इति प्रकरणान्तरोक्ते वृद्धिश्राद्धे तेषामन्वयस्य वक्तुमशक्यत्वात्। पितामहप्रपितामहादीनां नान्दीमुखसंज्ञायाः प्रौष्ठपदीश्राद्धार्थत्वेन वृद्धिश्राद्धेनैतेषां संबन्ध इति हेमाद्रिविरोधात्, जीवत्पितृकस्य दर्शादिश्राद्धप्रसक्त्यभावेन विष्ण्वायुक्तनिषेधस्य वृद्धिश्राद्धातिरिक्तविषयत्वस्यायुक्तत्वाद्वक्ष्यमाणसुमन्तुवचनविरोधाच्च। अत एवैतन्मूलका गोविन्दार्णवस्मृतिकौस्तुभाद्यर्वाचीनग्रन्था अयुक्ता इति प्रौष्ठपदीप्रकरणे प्रतिपादितम्। यत्तु
विवाहे पुत्रजनने पित्र्येष्ट्यां सौमिके मखे।
तीर्थेब्राह्मण आयाते षडेते जीवतः पितुः॥
इति मैत्रायणीयपरिशिष्टवचनं, तत्
न जीवत्पितृकः कुर्याच्छ्राद्धमग्निमृते द्विजः।
येभ्य एव पिता दद्यात्तेभ्यः कुर्वीत साग्निकः॥
पितामहेऽप्येवमेव कुर्याज्जीवति साग्निकः।
साग्निकोऽपि न कुर्वीत जीवति प्रपितामहे॥
इति सुमन्तुवचनैकवाक्यत्वात्साग्निविषयमेव। एवं च
वृद्धौ तीर्थे च संन्यस्ते ताते च पतिते सति॥
येभ्य एव पिता दद्यात्तेभ्यो दद्यात्स्वयं सुतः।
अनग्निकोऽपि कुर्वीत जन्मादौ वृद्धिकर्मणि।
येभ्य एव पिता दद्यात्तानेवोद्दिश्य पार्वणम्॥
इत्यादिवचनानि फलार्थिजीवत्पितृकादिविषयाणीति बोध्यम्। एतेन जीवत्पिता सुतसंस्कारेषु मातृमातामहयोरेवेति बह्वृचपरिशिष्टं. बहुवचविषयमेवेति निर्णयसिन्ध्वादय उपेक्ष्या विष्ण्वादिवचनहेमाद्र्यर्थाज्ञाननिबन्धनत्वात्। यत्तु यदा जीवत्पितृकः पितामहादीनां श्राद्धं करोति, तदा येभ्य एव पिता दद्यादितिवचनात्पितुरेव मात्रादीनां, मातामहादीनां च कुर्यादिति कैश्चिदर्वाचीनरुक्तं, तदयुक्तं जीवत्पिता मातृमातामहयोरेव कुर्यादित्यादिभिर्मात्रादिश्राद्धस्य विधानात्। मात्रादिशब्दानां संबन्धिशब्दत्वेनोपस्थितस्वमात्रादिपरित्यागेनानुपस्थितपितृमात्रादिग्रहणस्यायुक्तत्वादिति ज्ञेयम्। कर्माङ्गमपि श्राद्धमाह हेमाद्रौ पारस्करः —
निषेककाले सोमे च सीमन्तोन्नयने तथा।
ज्ञेयं पुंसवने श्राद्धं कर्माङ्गं वृद्धिवत्कृतम्॥ इति।
निषेककालो गर्भाधानकालः। तत्र तदङ्गं श्राद्धं कार्यम्। सोमग्रहणमाधानाग्निहोत्रादिकर्मणामुपलक्षणार्थम्। यत्तु
**नान्दीमुखे विवाहे च प्रपितामहपूर्वकम्। **
नाम संकीर्तयेद्विद्वानन्यत्र पितृपूर्वकम्॥
इति वृद्धवसिष्ठवचनं, तन्नान्दीमुखाः पितर इदं वोऽर्घ्यमित्यर्घ्यप्रदानमन्त्रो यथालिङ्गमित्याश्वलायनसूत्र —
नान्दीमुखास्तु पितरः प्रीयन्तामिति मन्त्रतः।
इममेव वदेमन्त्रं पितामहपदान्वितम्॥
इति तत्कारिका —नान्दीमुखाः पितरः पितामहाः प्रपितामहा इतिकात्यायनगोभिलसूत्रविरोधाद्यस्यां शाखायां पित्रादित्वबोधकवचनं नास्ति, तद्विषयं ज्ञेयम्। नान्दीमुखे पुत्रादिप्रयोजकत्वेन हर्षसंपादक इति विवाहस्यैवेदं विशेषणमिति विवाहतत्त्वकारः। इति वृद्धिश्राद्धकालः।
अथ कृष्णपक्षश्राद्धकालनिर्णयः। तत्र हेमाद्रौ कात्यायनः — अपरपक्षे श्राद्धं कुर्वीतोर्ध्वं वा चतुर्थ्या यदहः संपद्यत इति । प्रतिपत्प्रभृत्यमावास्यान्ते पक्षे चतुर्थ्या ऊर्ध्वं कस्मिंश्चिद्दिने यस्मिञ्श्राद्धसाधनसंपत्तिस्तस्मिन्कुर्यात् । गौतमः — अमावास्यायां पितृभ्यो दद्यात्पञ्चमीप्रभृति वाऽपरपक्षस्य यथाश्रद्धं528 सर्वस्मिन्वा द्रव्यदेशबाह्मणासंभवे
कालनियमः शक्तित इति। नित्यं चेदम्। तथा च तत्रैव कात्यायनः — ‘शाकेनापि नापरपक्षमतिक्रामेत्। इति।
प्रतिपद्धनलाभाय द्वितीया द्विपदप्रदा।
इत्यादिफलश्रुतेः काम्यमपि। इदममावास्याश्राद्धात्पृथगेव कार्यम्।
अमावास्याऽष्टका वृद्धिः कृष्णपक्षोऽयनद्वयम्।
इति पृथग्निर्देशादिति हेमाद्रौस्मृतिचन्द्रिकाकारः। अपरपक्षे यदहः संपद्येतामावास्या विशेषेणेति निगमवचनात्केचित्तु विकल्पमेव मन्यन्त इति तत्रैवोक्तम्। तथा च शक्त्यशक्त्यपेक्षया व्यवस्थेति बोध्यम्। भाद्रपदापरपक्षे त्वशक्तेनापि कृष्णपक्षश्राद्धममावास्याश्राद्धात्पृथगेव कार्यम् । तथा च हेमाद्रौ विष्णुधर्मोत्तरम् —
उत्तरादयनाद्राजञ्छ्रेष्ठं स्याद्दक्षिणायनम्।
याम्यायनाच्चतुर्मासं तत्र सुप्ते तु केशवे॥
प्रौष्ठपद्याः परः पक्षस्तत्रापि च विशेषतः।
पञ्चम्यूर्ध्वं तु तत्रापि दशम्यूर्ध्वं ततोऽप्यति॥
मघायुक्ता तु तत्रापि श्रेष्ठा राजंस्त्रयोदशी॥ इति।
तत्रैव ब्राह्मे —अश्वयुक्कृष्णपक्षे तु श्राद्धं कार्यं दिने दिने।
त्रिभागहीनं पक्षं वा त्रिभागं त्वर्धमेव वा॥ इति।
आदित्यपुराणे — प्रावृडृतौ यमः प्रेतान्पितॄंश्चापि यमालयात्॥
विसर्जयति मानुष्ये कृत्वा शून्यं स्वकं पुरम् ।
क्षुधार्ताः कीर्तयन्तश्च दुष्कृतं च स्वयंकृतम् ॥
काङ्क्षन्ति पुत्रपौत्रेभ्यः पायसं मधुसंयुतम् ।
तस्मात्तांस्तत्र विधिना तर्पयेत्पायसेन तु \।\।
मध्वाज्यतिलमिश्रेण तथा शीतेन चाम्भसा \।
भिक्षामात्रेण यः प्राणान्संधारयति वा स्वयम् ॥
श्राद्धं तेनापि कर्तव्यं तैस्तैर्द्रव्यैः सुसंचितैः । इति ।
नागरखण्डे — आषाढ्याः पञ्चमे पक्षे कन्यासंस्थे दिवाकरे॥
यो वै श्राद्धं नरः कुर्यादेकस्मिन्नपि वासरे।
तस्य संवत्सरं यावत्तृप्ताः स्युः पितरो ध्रुवम्।
शाट्यायनिः — नभस्यस्यापरे पक्षे तिथिषोडशकस्तुयः॥
कन्यागतान्वितश्चेत्स्यात्स कालः श्राद्धकर्मणि।
तत्रैव ब्राह्मे —कन्यागते सवितरि यान्यहानि तु षोडश।
क्रतुभिस्तानि तुल्यानि देवो नारायणोऽब्रवीत्। इति।
अत्र पञ्चमपक्षस्यैव श्राद्धकालत्वम्। पञ्चदशतिथ्यात्मकोऽपि तिथिवृद्धौ कदाचित्षोडशदिनात्मकोऽपि भवति। तत्रैकदिनहानिर्मा भूदित्यभिप्रायेण तिथिषोडशक इत्युक्तमथवा शुक्लप्रतिपदा सह षोडशत्वम्। तदाह माधवे देवलः —
अहः षोडशकं यत्त शुक्लप्रतिपदा सह।
चन्द्रक्षयाविशेषेण529 साऽपि दर्शात्मिका स्मृता॥ इति।
अत्र कन्यार्कः प्राशस्त्यसंपादको नतु निमित्तम्। तदाह जाबालिः —
आगतेऽपि रवौ कन्यां श्राद्धं कुर्वीत सर्वथा।
आषाढ्याः पञ्चमः पक्षः प्रशस्तः पितृकर्मसु॥
पुत्रानायुस्तथाऽऽरोग्यमैश्वर्यमतुलं तथा।
प्राप्नोति पञ्चमे दत्त्वा श्राद्धं कामांस्तथाऽपरान्॥
बृहन्मनुः —आषाढीमवधिं कृत्वा पञ्चमं पक्षमाश्रिताः।
काङ्क्षन्ति पितरः क्लिष्टा अन्नमप्यन्वहं जलम्॥
तस्मात्तत्रैव दातव्यं दत्तमन्यत्र निष्फलम्।
आषाढीमवधिंकृत्वा यः पक्षः पञ्चमो भवेत्॥
तत्र श्राद्धं प्रकुर्वीत कन्यास्थोऽर्कोभवेन्न वा। इति।
शाट्यायनिः —पुण्यः कन्यागतः सूर्यः पुण्यः पक्षस्तु पञ्चमः॥
कन्यास्थार्कान्वितः पक्षः सोऽत्यन्तं पुण्य उच्यते।
कार्ष्णाजिनिः —आदौमध्येऽवसाने वा यत्र कन्यां व्रजेद्रविः।
स पक्षः सकलः पूज्यः श्राद्धषोडशकं प्रति॥ इति।
वृद्धमनुः—नभस्यस्यापरः पक्षो यत्र कन्यां व्रजेद्रविः।
स महालयसंज्ञः स्याद्गजच्छायाह्वयस्तथा॥ इति।
अत्र प्रतिपत्प्रभृत्यमावास्यापर्यन्तश्राद्धकरणे नन्दादिनिषेधो नास्ति। तदाह कार्ष्णाजिनिः—
नभस्यस्यापरे पक्षे श्राद्धं कुर्याद्दिने द्दिने।
नैव नन्दादि वर्ज्यं स्यान्नैव वर्ज्या चतुर्दशी॥ इति।
नन्वेवं — प्रतिपत्प्रभृतिष्वेकां वर्जयित्वा चतुर्दशीम्॥
इति याज्ञवल्क्यविरोध इति चेन्न। अपरपक्षे श्राद्धं कुर्वीतोर्ध्वं चतुर्थ्या यदहः संपद्येत सप्तम्या ऊर्ध्वं यदहः संपद्यत ऋते चतुर्दशीम्। इति कात्यायनवाक्यैकवाक्यतया पञ्चम्यादिसप्तम्यादिपक्षविषयत्वेनाप्युपपत्तेः श्रद्धषोडशकत्वापवादत्वासंभवात्। अत एव प्रतिपदादिसर्वतिथिश्राद्धेऽपि चतुर्दशी वर्जनीयेति केचनार्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्याः।हेमाद्रिमाधवमदनरत्नादिविरोधाच्च।
अत एव मनुः — कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम्।
श्राद्धे प्रशस्तास्तिथयो यथैता न तथेतराः॥ इति।
अत्राप्यशक्तावाह यमः —
हंसे वर्षासु कन्यास्थे शाकेनापि गृहे वसन्।
पञ्चम्योरन्तरे दद्यादुभयोरपि पक्षयोः॥ इति।
कृष्णपञ्चमीमारभ्य शुक्लपञ्चमीपर्यन्तं कस्यांचित्तिथावपि कुर्यादित्यर्थः। एकस्मिन्दिने श्राद्धकरणे नन्दादिनिषेधमाह गार्ग्यः —
नन्दायां भार्गवदिने त्रयोदश्यां त्रिजन्मसु।
एषु श्राद्धं न कुर्वीत गृही पुत्रधनक्षयात्॥
वृद्धगार्ग्यः — प्राजापत्ये च पौष्णे च पित्र्यर्क्षेभार्गवे तथा।
यस्तु श्राद्धं प्रकुर्वीत तस्य पुत्रो विनश्यति॥ इति।
नन्दाः प्रतिपत्षष्ठ्येकादश्यः। आद्यदशमैकोनविंशानि त्रिजन्मनक्षत्राणि।प्राजापत्यं रोहिणी।पौष्णं रेवती। पित्र्यर्क्षं मघा। अस्यापवादः प्रयोगपारिजाते संग्रहे —
अमापाते भरण्यां च द्वादश्यां पक्षमध्यके।
तिथिवारं च नक्षत्रं योगं च न विचारयेत्॥ इति।
इदं निषेधतत्प्रतिप्रसवपर्यालोचनं महालयपक्षान्तर्गततिथौ सकृन्महालयासंभवेन यदा तिथ्यन्तरेऽनुष्ठानं, तदैव।महालयान्तर्गतमृततिथौ सकृन्महालयानुष्ठानं मुख्यम्। तत्र न निषेधादिविचारः। सौरो मासो विवाहादाविति प्रकरणे हेमाद्रौ —
प्रेतमासस्य यः पक्षस्तत्तिथौ प्रतिवत्सरम्।
यावत्स्मरति पौत्रोऽपि तेषां तत्रैव दापयेत्॥
इति प्रचेतोवचनेन मृततिथावेव विधानात्। अत एव निषेधप्रयोजकनक्षत्रादियुक्तायामपि वृत्तिथौसकलदेशीयशिष्टानामनुष्ठानम्।
आषाढ्याः पञ्चमे पक्षे कन्यासंस्थे दिवाकरे।
मृताहनि पितुर्यो वै श्राद्धं दास्यति मानवः॥
तस्य संवत्सरं यावत्संतृप्ताः पितरो ध्रुवम्।
या तिथिर्यस्य तातस्य मृताहे तु प्रवर्तते॥
सा तिथिः पितृपक्षे तु पूजनीया प्रयत्नतः।
अशक्तः पक्षमध्ये तु करोत्येकदिने यदा॥
निषिद्धेऽपि दिने कुर्यात्पिण्डदानं यथाविधि॥
इति नागरखण्डे कात्यायननाम्ना530कैश्चिदर्वाचीनैर्लिखितानि वचनानि संगच्छन्ते प्रचेतोवचनसमानार्थत्वात्। एतान्यनाकराणि महानिबन्धेष्वदर्शनादिति कृत्यरत्नावल्याद्यर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्याः प्रचेतोवचनादर्शननिबन्धनत्वात्। गौणकालोऽप्युक्तो हेमाद्रौबाह्मे—
यावच्च कन्यातुलयोः क्रमादास्ते दिवाकरः।
तावच्छ्राद्धस्य कालः स्याच्छून्यं प्रेतपुरं तदा॥
कन्यागते सवितरि पितरो यान्ति वै सुतान्।
शून्या प्रेतपुरी सर्वा यावद्वृश्चिकदर्शनम्॥
ततो वृश्चिकसंप्राप्तौ निराशाः पितरस्तदा।
पुनः स्वभवनं यान्ति शापं दत्त्वा सुदारुणम्॥
सुमन्तुः — कन्याराशौ महाराज यावत्तिष्ठेद्विभावसुः।
तस्मात्कालाद्भवेद्देयं वृश्चिकं यावदागतः॥
येयं दीपान्विता राजन्ख्याता पञ्चदशी भुवि।
तस्यां दद्यान्न चेद्दत्तं पितॄणां वै महालये।
यत्तु जातुकर्ण्यवचनम् —
तस्मात्तत्रैव दातव्यं दत्तमन्यत्र निष्फलम् । इति,
तत्पञ्चमपक्षस्य मुख्यकालत्वबोधकम्। अकरणे दोषो हेमाद्रौब्राह्मे —
सूर्ये कन्यागते कुर्याच्छ्राद्धं यो न गृहाश्रमी।
धनं पुत्रान्कुतस्तस्य पितृनिश्वासपीडया॥
न सन्ति पितरश्चेति कृत्वा मनसि यो नरः।
श्राद्धं न कुरुते तत्र तस्य रक्तं पिबन्ति ते॥ इति।
मार्कण्डेयः — कन्यागते सवितरिदिनानि दश पञ्च च॥
पार्वणेनैव विधिना श्राद्धं तत्र विधीयते। इति॥
यस्तु—विवाहव्रतचूडासु वर्षमर्धं तदर्धकम्।
पिण्डदानं मृदा स्रानं न कुर्यात्तिलतर्पणम्॥
इति पिण्डदाननिषेधस्तस्यापवादः संग्रहे —
महालये गयाश्राद्धे मातापित्रोर्मृतेऽहनि॥
यस्य कस्यापि मर्त्यस्य सपिण्डीकरणे तथा।
कृतोद्वाहोऽपि कुर्वीत पिण्डनिर्वपणं सुतः॥ इति।
संन्यासिविषय उक्तं वायुपुराणे —
संन्यासिनोऽप्याब्दिकादि पुत्रः कुर्याद्यथाविधि।
महालये तु यच्छ्राद्धं द्वादश्यामेव तद्भवेत्॥ इति।
मृताहं च सपिण्डं च गयाश्राद्धं महालयम्॥
आपन्नोऽपि न कुर्वीत श्राद्धमामेन कर्हिचित्।
इति वचनात्पक्वान्नमेव मुख्यम्। अत्र सर्वथा तदसंभवे तु अकरणान्मन्दकरणं श्रेय इति न्यायात्
अन्नाभावे द्विजातीनामामश्राद्धं विधीयते।
इति वचनाच्चाऽऽमेनापि कर्तव्यं न तु सर्वथा लोपः कार्य इति बोध्यम्। अत्र देवता दिने दिने पार्वणेनैव विधिनेत्युक्तत्वेऽपि मातृपार्वणं पृथगेव कार्यम्।
अन्वष्टकासु वृद्धौ च प्रतिसंवत्सरे तथा।
महालये गयायां च सपिण्डीकरणात्पुरा॥
मातुः श्राद्धं पृथक्कुर्यादन्यत्र पतिना सह।
महालये गयाश्राद्धे वृद्धौ चान्वष्टकासु च॥
नवदैवतमत्रेष्टं शेषं षट्पौरुषं विदुः॥ इत्यादिवचनात्।
महालये गयाश्राद्धे श्राद्धे चान्वष्टकासु च।
ज्ञेयं द्वादशदेवत्यं तीर्थे प्रौष्ठे मघासु च॥ इति।
निगमे तु मातामहिपार्वणमपि पृथगुक्तम्। सकृन्महालये देवतास्तु संग्रह उक्ताः —
ताताम्बात्रितयं सपत्नजननी मातामहादित्रयं
सस्त्रि स्त्रीतनयादि तातजननीस्वभ्रातरः सस्त्रियः।
तातास्वात्मभगिन्यपत्यधवयुक्जायापिता सद्गुरुः
शिष्याप्ता! पितरो महालयविधौ तीर्थे तथा तर्पणे॥ इति।
अत्रापि पार्वणत्रयमेवोक्तम्। विधवाकर्तृकश्राद्धे विशेषः संग्रहे —
चत्वारि पार्वणानीह विधवायाः सदैव हि।
स्वभर्तृश्वशुरादीनां मातापित्रोस्तथैव हि॥
ततो मातामहानां च श्राद्धदानमुपक्रमेत्।
स्वभर्तृप्रभृतित्रिभ्यः स्वपितृभ्यस्तथैव च॥
विधवा कारयेच्छ्राद्धं सर्वकालमतन्द्रिता।इति।
स्मृतिरत्नावल्यां तु पार्वणद्वयमेवोक्तम्। इति महालयदेवताः। महालयश्राद्धाङ्गतर्पणकाल उक्तो नारदीये —
पक्षश्राद्धं यदा कुर्यात्तर्पणं तु दिने दिने।
सकृन्महालये चैव परेऽहनि तिलोदकम्॥ इति।
माध्यंदिनैः सकृन्महालयेऽपि तद्दिन एव कार्यम्। इदं महालयश्राद्धं मलमासे न कार्यमित्युक्तं मलमासनिर्णये ।महालयपक्षान्तर्गतभरण्यां श्राद्धे फलमुक्तं मात्स्ये —
भरणी पितृपक्षे या महती परिकीर्तिता।
तस्यां श्रद्धं कृतं येन स गयाश्राद्धकृद्भवेत्॥ इति।
इदं पिण्डरहितं कार्यम्।
अयनद्वितये श्राद्धं विषुवद्द्वितये तथा।
भरणीषु च कुर्वीत पिण्डनिर्वपणं न हि॥
इति पुलस्त्यवचनात्। अष्टम्यां श्राद्धे फलमुक्तं ब्रह्माण्डपुराणे —
आषाढ्याः पञ्चमे पक्षे या च मध्याष्टमी स्मृता।
त्रयोदशी गजच्छाया गयातुल्या तु पैतृके॥ इति।
एतत्पक्षीयत्रयोदश्यां श्राद्धमाह मनुः —
यत्किंचिन्मधुना मिश्रं प्रदद्यात्तु त्रयोदशीम्।
तदप्यक्षयमेव स्याद्वर्षासु च मघासु च॥ इति।
विष्णुः — अथ पितृगाथा भवति —
अपि जायेत सोऽस्माकं कुले कश्चिन्नरोत्तमः।
प्रावृट्कालेऽसिते पक्षे त्रयोदश्यां समाहितः॥
मधूत्तरेण यच्छ्राद्धं पायसेन समाचरेत्।
महाभारते — अपि नः स कुले भूयाद्यो नो दद्यात्त्रयोदशीम्॥
मघासु सर्पिषा युक्तं पायसं दक्षिण।मुखः।
याज्ञवल्क्यः — यद्ददाति गयास्थश्च सर्वमानन्त्यमश्नुते॥
तथा वर्षात्रयोदश्यां मघासु च विशेषतः।
प्रौष्ठपद्यामतीतायां मघायुक्तां त्रयोदशीम्॥
प्राप्य श्राद्धं प्रकर्तव्यं मधुना पायसेन च।
प्रजामिष्टां यशः स्वर्गमारोग्यं चधनं तथा॥
नृणां श्राद्धे सदा तृप्ताः प्रयच्छन्ति पितामहाः। इति।नित्यमपीदम्। प्रौष्ठपद्यामतीतायां मघायुक्ता त्रयोदशी ।
इत्युक्त्वा विष्णुधर्मोत्तरे —
एतानि श्राद्धकालानि नित्यान्याह प्रजापतिः।
श्राद्धमेतेष्वकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते॥
इत्युक्तक्त्वात्। अङ्गिराः —
त्रयोदश्यां कृष्णपक्षे यः श्राद्धं कुरुते नरः।
पञ्चत्वं तस्य जानीयाज्ज्येष्ठपुत्रस्य निश्चितम्॥
नागरखण्डे — यो वाञ्छति नरो मुक्तिंपितृभिः सह चाऽऽत्मनः।
असंतानश्च यस्तस्य श्राद्धे प्रोक्ता त्रयोदशी॥
संतानयुक्तो यः कुर्यात्तस्य वंशक्षयो भवेत्।
अद्य प्रभृति वै श्राद्धं त्रयोदश्यां करिष्यति॥
कन्यागते सहस्रांशौ तस्य स्याद्वंशसंक्षयः।
इति शापेन देवानां निर्दग्धेयं महातिथिः॥
ततः प्रभृति नैतस्यां क्रियते श्राद्धमुत्तमम्।
इत्यादिभिस्तु पुत्रवतः काम्यश्राद्धमेव निषिध्यते, न तु नित्यमपि॥
श्राद्धमेतेष्वकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते।
इत्याद्युदाहृतवचनविरोधात्। काम्यमप्युत्तमविशेषणादावाहनार्घ्यदानादीतिकर्तव्यताविशिष्टमेव निषिध्यते। अत एव
अतः श्राद्धं विना देयं तद्दिने मधुपायसम्531।
खड्गमांसंकालशाकं मासं वार्ध्रीणसस्य532 च॥
तस्याभावे तु दातव्यं क्षीरौदनमनुत्तमम्।
तस्मिन्नहनि विप्रेभ्यः पितॄणां तृप्तये नृप॥
इत्यग्रिमवचनेन ब्राह्मणभोजनविधानात्। अत एव
प्रजां मेधां पशुं पुष्टिं स्वातन्त्र्यं वृद्धिमुत्तमाम्।
दीर्घमायुरथैश्वर्यं कुर्वाणस्तु त्रयोदशीम्॥
अवाप्नोति न संदेहः श्राद्धं श्रद्धापरो नरः॥ इति,
द्वादश्यां मूर्तिसंपन्नत्रयोदश्यां बहुप्रजः।
आयुष्मतीं प्रजां चैव धनं वश्यं च विन्दति॥ इति,
प्रौष्ठपद्यामतीतायां मघायुक्तां त्रयोदशीम्।
प्राप्य श्राद्धं तु कर्तव्यं मधुना पायसेन च॥
प्रजामिष्टां यशः स्वर्गमारोग्यं च धनं तथा।
नृणां श्राद्धे तथा प्रीताः प्रयच्छन्ति पितामहाः॥
इति मार्कण्डेयवृद्धमनुशङ्खलिखितवचनबोधितं फलम्।
अयनद्वितये श्राद्धं विषुवद्द्वितये तथा॥
युगादिषु च सर्वासु पिण्डनिर्वपणावृते।
इति पुलस्त्यवचनादसंतानस्य पिण्डदानरहितेनापि श्राद्धेन भवति। तथा पुत्रवत इतिकर्तव्यतयाऽपि रहितेनैतेन फलसिद्धावपि बाधकाभावात्। अत एव
ज्ञातीनां तु भवेच्छ्रेष्ठः कुञ्छ्राद्धं त्रयोदशीम्।
नावश्यं तु युवानोऽस्य प्रमीयन्ते नरा गृहे॥
इति महाभारतस्य —
संतानयुक्तो यः कुर्यात्तस्य वंशक्षयो भवेत्।
इत्यादिनागरखण्डादिवचनैर्न विरोध इति बोध्यम्। एतेन वयं तु पश्यामो निषेधवचनानि सपुत्रविषयाण्येवासंतानस्तु य इति नागरखण्डवचनादित्यादिनिर्णयसिन्ध्वाद्यर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्या भारतादिवचनविरोधात्। इदं श्राद्धं दर्शश्राद्धवदेव कार्यं न क्षयाहश्राद्धवत्। तदाह हेमाद्रौ कार्ष्णाजिनिः —
श्राद्धं तु नैकवर्गस्य त्रयोदश्यामुपक्रमेत्।
अतृप्तास्तत्र येऽस्य स्युः प्रजां हिंसन्ति तस्य ते॥ इति।
स्मृत्यन्तरं — नेच्छेत्त्रयोदशीश्राद्धं पुत्रवान्यः सुतायुषोः।
एकस्यैव तु नो दद्यात्पार्वणं तु समाचरेत्।
यः पुत्रवान्सुतायुषोरभिवृद्धिंमिच्छेत्स एकवर्गस्यैव श्राद्धं नोदद्यादपि तु मातामहवर्गोद्देशेनापि पार्वणं समाचरेदिति हेमाद्रिमाधवादयः। ननु
पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम्।
अविशेषेण कर्तव्यं विशेषान्नरकं व्रजेत्॥
इतिवचनादमावास्यादिकालिकपितृवर्गश्राद्धे मातामहपार्वणस्याऽऽवश्यकत्वेनैकवर्गश्राद्धस्याप्रसक्तत्वात्कथं वचऩप्रामाण्यम्। न च द्वितीयब्राह्मणभोजनासामर्थ्येन तत्प्रसक्तिरिति शङ्क्यम्।
एकेनापि हि विप्रेण षट्पिण्डं श्राद्धमाचरेत्।
षडर्घ्यान्दापयेत्तत्र षड्भ्यो दद्यात्तथाऽशनम्॥
पिता भुङ्क्तेद्विजकरे मुखे भुङ्क्तेपितामहः।
प्रपितामहस्तु तालुस्थः कण्ठे मातामहः स्मृतः॥
प्रमातामहस्तु हृदये वृद्धो नाभौ तु संस्थितः।
एवमप्याचरेच्छ्राद्धं षड्दैवत्यं महामुने॥
विभक्तं कारयेद्यस्तु पितृहा स निगद्यते।
इति हेमाद्रौ देवलस्मृतिविरोधात्। तस्मादेकवर्गश्राद्धप्राप्त्यभावात्कथं प्रामाण्यमिति चेत्। येन पुरुषेण सर्वशाखोक्ताङ्गोपसंहारेणैव कर्म कर्तव्यमित्यादिसिद्धान्तः षण्णां विधायकानि सूत्रान्तरादीनि च न ज्ञातानि, किंतु पितरिदंतेऽर्घ्यं पितामहेदं तेऽर्घ्यं प्रपितामहेदंतेऽर्ध्यमिति सूत्रमेव दृष्टं, तस्य पित्रादित्रयाणामेव कर्तव्यमिति प्रसक्तौ तावन्मात्रं न कर्तव्यं किंतु मातामहपार्वणमप्यवश्यं कर्तव्यमित्येतद्विधायकत्वेन वचनसामञ्जस्याद्व्यामोहप्राप्तमेकवर्गश्राद्धमनेन निषिध्यते।हेमाद्रिमाधवयोरप्युक्तार्थ एव तात्पर्यात्। एतेनाविशेषेणेति तु येन मातामहेन सह मातुः सपिण्डीकरणं कृतं, तद्विषयमेव। तेन भाद्रकृष्णत्रयोदश्यां दर्शादौ पितृवर्गश्राद्धमात्रेणापि नित्यशास्त्रार्थसिद्धावपि तावन्मात्रं न कर्तव्यं, किंतु मातामहपार्वणमपि, इति कालतत्त्वविवेचनादयोऽर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्याः। उदाहृतानेकवचनहेमाद्रिमाधवविरोधात्। यस्तु प्रतिदिनं पक्षपर्यन्तं सपिण्डकं महालयश्राद्धं करोति तेन त्रयोदश्यामपि तथैव कार्यं नैव नन्दादिवर्जं स्यादित्युदाहृतवचनात्। इति त्रयोदशीनिर्णयः। अथ महालयान्तर्गतचतुर्दशीश्राद्धनिर्णयः। तत्र याज्ञवल्क्यः —
प्रतिपत्प्रभृतिष्वेकां वर्जयित्वा चतुर्दशीम्।
शस्त्रेण तु हता ये वै तेभ्यस्तत्र प्रदीयते॥
ब्रह्माण्डपुराणे —
प्रायो नाशकशस्त्राग्निविषोद्वन्धनिनां तथा।
चतुर्दश्यां तु कर्तव्यं तृप्त्यर्थमिति निश्चयः॥
नागरखण्डे — अपमृत्युर्भवेत्तेषां शस्त्रमृत्युरथापि वा।
उपसर्गान्वितानां च विषमृत्युमुपेयुषाम्॥
वह्निना च प्रदग्धानां जलमृत्युमुपेयुषाम्।
सर्पव्याघ्रहतानां च मृतस्योद्बन्धनैरपि॥
श्राद्धं तेषां प्रकर्तव्यं चतुर्दश्यां नराधिप। इति।
अपमृत्युरकालमृत्युः। अत एव मार्कण्डेयः —
युवानः पितरो यस्य मृताः शस्त्रेण वा हताः।
तेन कार्यं चतुर्दश्यां तेषां तृप्तिममीप्सता॥ इति।
उपसर्गो ग्रहभूतादिप्रवेशः। ब्रह्मवैवर्ते —
युवानस्तु गृहे यस्य मृतास्तेषां प्रदापयेत्।
शस्त्रेण च हता ये वै तेभ्यो दद्याच्चतुर्दशीम्॥
मरीचिः—विषशस्त्रश्वापदादितिर्यग्ब्राह्मणघातिनाम्।
चतुर्दश्यां क्रिया कार्या येषां मृत्युर्विगर्हितः॥ इति।
विषादिकृतो घातो येषां ते तथोक्ताः। प्रचेताः —
वृक्षारोहणलोहाद्यैर्विद्युज्जलविषादिभिः।
नखिदंष्ट्रिविपन्ना ये तेषां शस्ता चतुर्दशी॥
आदिशब्देन भृगुपतनादयो गृह्यन्ते। हेमाद्रौ मनुः —
ज्ञातिश्रेष्ठ्यंत्रयोदश्यां चतुर्दश्यां तु सुप्रजाः।
प्रीयन्ते पितरश्चास्य ये च शस्त्रहता रणे॥
ये तु शास्त्रानुज्ञातजलाग्निप्रवेशादिना मृतास्तेषां चतुर्दश्यां श्राद्धं न कार्यम्। अत एव शाकटायनः —
जलाग्निभ्यां विपन्नानां संन्यासे वा गृहेऽपि वा।
श्राद्धं कुर्वीत तेषां वै वर्जयित्वा चतुर्दशीम्॥ इति।
जलाग्निग्रहणं विधिपरिगृहीतभृगुपतनादिमरणहेतूनामुपलक्षणम्। उदाहृतवचनानि तु अविहितजलादिमरणविषयाणि। अत एव पतिमरणानन्तरं विहिताग्निप्रवेशेन मृतानां स्त्रीणामपि चतुर्दश्यां श्राद्धं न कार्यम्। इदं श्राद्धं पित्रादीनामप्येकोद्दिष्टमेवाऽऽह गार्ग्यः —
चतुर्दश्यां तु यच्छ्राद्धं सपिण्डीकरणात्परम्।
एकोद्दिष्टविधानेन तत्कार्यं शस्त्रघातिनः॥
**भविष्यत्पुराणे —समत्वमागतस्यापि पितुः शस्त्रहतस्य वै। **
एकोश्चिष्टं सुतैः कार्यं चतुर्दश्यां महालये॥ इति।
अत्र पितृसुतग्रहणं श्राद्धदेवतातदधिकारमात्रोपलक्षणम्।
**मनुरपि —एकपिण्डीकृतानां तु पृथक्त्वं नोपपद्यते। **
सपिण्डीकरणादूर्ध्वमृतेकृष्णचतुर्दशीम्॥ इति।
अत्र शस्त्रादिहतानामेव चतुर्दश्यां तेषां चतुर्दश्यामेवेति द्विविधो नियम इति केचित्तदयुक्तम्।
**श्राद्धं कार्यंदिने दिने। **
नैव नन्दादिवर्ज्यं स्यान्नैव वर्ज्या चतुर्दशी॥
इति वचनविरोधात्तेषामेवेत्यस्यायुक्तत्वात्।
**आहवेषु विपन्नानां जलाग्निभृगुपातिनाम्। **
चतुर्दश्यां भवेत्पूजा अमावास्या तु कामिकी॥
इति मदनरत्नोदाहृतदेवीपुराणे पूजा श्राद्धरूपा, अमावास्याग्रहणस्योपलक्षणत्वादमावास्यादिकालेष्वपि तेषां तृप्त्यर्थं श्राद्धविधानात्तेषां चतुर्दश्यामेवेत्यस्याप्ययुक्तत्वात्। शस्त्रादिहतानां चतुर्दश्यामेकोद्दिष्टमेवेत्यत्र कारणमुक्तं हेमाद्रौ नागरखण्डे —
**यदि प्रेतत्वमापन्नः कदाचित्तत्पिता भवेत्। **
**तृप्त्यर्थं तस्य कर्तव्यं श्राद्धं तत्र दिने नृप॥ **
**पितामहाद्यास्तत्राह्नि श्राद्धं नार्हन्ति कुत्रचित्। **
अथ चेद्धान्तितो दद्याद्ध्रियते राक्षसैस्तु तत्॥
ब्रह्मणो वचनाद्राजन्भूतप्रेतैश्च दानवैः।
तेनैकोद्दिष्टमेवात्र कर्तव्यं न तु पार्वणम्॥
पितृपक्षे चतुर्दश्यां कन्यासंस्थे दिवाकरे।
एतस्मात्कारणाद्राजन्पार्वणं नैव कारयेत्॥ इति।
अत एव शस्त्रहतस्य पितुश्चतुर्दश्यामेकोद्दिष्टे कृतेऽपि तेन पितामहादेस्तृप्त्यसिद्धेः
काङ्क्षन्ति पुत्रपौत्रेभ्यः पायसं मधुसंयुतम्।
तस्मात्तांस्तत्र विधिना तर्पयेत्पायसेन हि॥
इत्यादिवचनात्पितामहादितृप्त्यर्थं दिनान्तरे पार्वणविधिना महालयश्राद्धं कर्तव्यमेवेति हेमाद्रिः संगच्छते। पितामहोऽपि चेच्छस्त्रादिना हतस्तदा तस्यापि चतुर्दश्यामेकोद्दिष्टं कार्यम्। तथा च हेमाद्रौस्मृत्यन्तरम्। एकस्मिन्द्वयोर्वैकोद्दिष्टविधिरिति। यत्तु इदं चैकोद्दिष्टमपि देवयुक्तं कार्यम्—
प्रेतपक्षे चतुर्दश्यामेकोद्दिष्टं विधानतः।
दैवयुक्तं तु तच्छ्राद्धं पितॄणामक्षयं भवेत्।
इति प्रयोगपारिजात उक्तम्, तत्रानिर्दिष्टमूलकेन वचनेनैकोद्दिष्टं देवहीनमित्यादिवचनानां बाधः कथमिति चिन्त्यम्। यदा पित्रादयस्त्रयोऽपि शस्त्रादिना हतास्तत्र त्रयाणां पार्वणमेव कार्यम्। तदाह मदनरत्ने बृहत्पाराशरः—
चतुर्दश्यां तु यच्छ्राद्धं सपिण्डीकरणे कृते।
एकोद्दिष्टविधानेन तत्कुर्याच्छस्त्रघातिनाम्।
पित्रादयस्त्रयो यस्य शस्त्रघातास्त्वनुक्रमात्।
स भूते पार्वणं कुर्यादाब्दिकानि पृथक्पृथक्॥ इति।
अत एवैकस्मिन्द्वयोर्वैकोद्दिष्टविधिरिति विशेषाभिधानात्त्रयाणां शस्त्रादिहतत्वे पार्वणमेव। अनेनैवाभिप्रायेणापरार्केणापि पार्वणमेवोक्तमिति केचित्। अन्ये त्वाहुरयुक्तमेतत्। एकस्मिन्द्वयोर्वेत्यस्योपलक्षणत्वात्। अत एव देवस्वामिनोक्तं–त्रिष्वपि शस्त्रहस्तेषु एकोद्दिष्टत्रयमेव कार्यं नतु पार्वणमाहत्यवचनाभावादिति तदयुक्तम्। उपलक्षणत्वे लक्षणाप्रसङ्गादिति हेमाद्रिकृतं मतान्तरदूषणं संगच्छते। अत एवैकस्मिन्द्वयोर्वैकोद्दिष्टविधिरिति विशेषोपादानात्त्रयाणां तथात्वे पार्वणमेवेति चन्द्रिकापरार्कयोर्मतमिति माधवश्च। यत्तु त्रयाणां शस्त्रहतत्वेऽपि एकोद्दिष्टत्रयमेव कार्यमिति देवस्वामिमतमेव युक्तमिति प्रतिभाति, इति माधवेनोक्तं तद्यदि पार्वणविधायकपराशरवचनं न स्यादिति कृत्वाचिन्तया देवस्वाम्याशयवर्णनमात्रं नतु वस्तुस्थितिः स भूते पार्वणं कुर्यादिति पराशरवचने लक्षणाप्रसङ्गादिति हेमाद्र्योर्विरोधादिति बोध्यम्। अत एव त्रयाणां शस्त्रहतत्वेऽपि एकोद्दिष्टत्रयमेव कार्यं, न पार्वणमिति कालतत्त्वविवेचनादयोऽर्वाचीनग्रन्था उपेक्ष्याः। चन्द्रिकापरार्कमदनरत्नादिविरोधादिति। यस्तु अस्यां चतुर्दश्यां शस्त्रादिना मृतस्तस्य चतुर्दशीनिमित्तमेकोद्दिष्टं क्षयाहनिमित्तं च पार्वणं चैकोद्दिष्टं वा यथाकुलाचारमिति
श्राद्धद्वयं प्राप्नोति इत्यापाततो हेमाद्रिणोक्तं विज्ञानेश्वरादिभिश्चक्षयाहनिमित्तपार्वणैकोद्दिष्टयोर्विकल्प एवेत्युक्तम्, तथाऽप्यग्रे हेमाद्रिणा क्षयाहनिमित्तं पार्वणमेवेति सिद्धान्तितम्। युक्तं चेदमेव।
अमावास्याक्षयोयस्य प्रेतपक्षेऽथवा पुनः।
इति क्षयाहप्रकरणोदाहृतवाक्येन प्रेतपक्षे मृतस्य क्षयाहे पार्वणस्यैव विधानात्।तेनात्रैव चतुर्दश्यां यः शस्त्रादिना मृतस्तस्य क्षयाहनिमित्तं पार्वणमेव कार्यम्।चतुर्दशीनिमित्तैकोद्दिष्टस्य प्रसङ्गादेव सिद्धिरिति। इति महालयचतुर्दशीश्राद्धनिर्णयः।
अथैकोद्दिष्टकालः। तच्चैकोद्दिष्टं द्विविधं नवं नवमिश्रं चेत्याह हेमाद्रावाश्वलायनः—
नवश्राद्धं दशाहानि नवमिश्रं च षडृतून्। इति॥
तत्र नवान्यनेकविधानि—
त्रीणि संचयनस्यार्थे तानि वै शृणु सांप्रतम्।
यत्र स्थाने भवेन्मृत्युस्तत्र श्राद्धं तु कारयेत्॥
एकोद्दिष्टं ततो मार्गे विश्रामो यत्र कारितः।
ततः संचयनस्थाने तृतीयं श्राद्धमिष्यते॥
पञ्चमे सप्तमे तद्वदष्टमेनवमे तथा।
दशमैकादशे चैव नवश्राद्धानि तानि वै॥
कात्यायनः—
चतुर्थे पञ्चमे चैव नवमैकादशे तथा।
यत्तु वै दीयते जन्तोस्तन्नवश्राद्धमुच्यते॥
शङ्खः—
आद्यं श्राद्धमशुद्धोऽपि कुर्यादेकादशेऽहनि।
कर्तुस्तात्कालिकी शुद्धिरशुद्धः पुनरेव सः॥
वसिष्ठः—
प्रथमेऽद्धि तृतीये च पञ्चमे सप्तमे तथा।
नवमैकादशे चैव नवश्राद्धानि षट् तथा॥ इति।
मरणाद्विषमेषु दिनेष्वेकैकं नवश्राद्धं कुर्यादानवमाद्यत्र नवमं विच्छिद्येतैकादशेऽह्नि तत्कुर्यादिति बौधायनेन पञ्चोक्तानि। अत्र व्यवस्थोक्ता शिवस्वामिना—
नवश्राद्धानि पञ्चाऽऽहुराश्वलायनशाखिनः।
आपस्तम्बाःषडित्याहुर्विभाषामैतरेयिणः॥ इति।
वृद्धवसिष्ठः—
अलब्ध्वा तु नवश्राद्धं प्रेतत्वान्न विमुच्यते।
अर्वाक्तुद्वादशाहस्य लब्ध्वा तरति दुष्कृतम्॥ इति।
अत्र पूर्वपूर्वश्राद्धं स्वकाले न कृतं चेदुत्तरेण सह तत्कुर्यात्तदाह कण्वः—
नवश्राद्धं मासिकं च यद्यदन्तरितं भवेत्।
तदुत्तरेण सातन्त्र्यादनुष्ठेयं प्रचक्षते॥
सातन्त्र्यं समानतन्त्रता।हेमाद्रौकौर्मे—
पञ्चमे सप्तमे चैव नवमैकादशे तथा।
युग्मांस्तु भोजयेद्विप्रान्नवश्राद्धं तु तद्विदुः॥
शूलपाणौ तु अयुग्मान्भोजयेद्विप्रानिति पाठः। ब्रह्मपुराणे—
चतुर्थे ब्राह्मणानां च पञ्चमेऽहनि भूभृताम्।
नवमे वैश्यजातीनां शूद्राणां दशमात्परे॥
तत्रैवात्रिः—
प्रेतार्थे सूतकान्ते तु ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः।
नवश्राद्धनिमित्तं तु एकमेकादशेऽहनि॥
एवं चैकादशादिकान्नवश्राद्धादाशौचान्ते विधीयमानं ब्राह्मणभोजनं कर्मान्तरमिति हेमाद्रिः। युद्धहतादौ सद्यः शौचेऽप्येकोद्दिष्टादिकमेकादशदिन एव । तदाह हेमाद्रौपैठीनसिः—
सद्यः शौचे प्रदातव्यं प्रेतस्यैकादशेऽहनि।
स एव दिवसस्तस्य श्राद्धशय्यासनादिषु॥ इति।
बृहस्पतिः—
चतुर्थेऽहनि विप्रेभ्यो देयमन्नं हि बान्धवैः।
गावःसुवर्णं वित्तं च प्रेतमुद्दिश्य शक्तितः॥
चतुर्थेऽहनि संचयाह इति हेमाद्रिः।
यदिष्टं जीवतश्चाऽऽसीत्तद्दद्यात्तस्य यत्नतः। इति।
एकोद्दिष्टविधानेन यदेकस्य प्रदीयते।
आवाहनाग्नौकरणरहितं देववर्जितम्॥
वस्त्रालंकारशय्याद्यं पितुर्यद्वाहनायुधम्।
गन्धमाल्यैः समभ्यर्च्य श्राद्धभोक्त्रे तदर्पयेत्॥ इति।
मात्स्येऽपि—
सूतकान्ते द्वितीयेऽह्नि शय्यां दद्यात्सुलक्षणाम्।
काञ्चनं पुरुषं तत्र फलपुष्पसमन्वितम्॥
संपूज्य द्विजदांपत्यं नानारत्नविभूषणैः।
वृषोत्सर्गं च कुर्वीत देया च कपिला शुभा॥ इति।
अत्र वृषोत्सर्ग आवश्यकः।
एकादशेऽह्नि प्रेतस्य यस्य नोत्सृज्यते वृषः।
प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि॥
इति षट्त्रिंशन्मते निन्दाः। स्त्रीषु विशेष उक्तः संग्रहे—
पतिपुत्रवती नारी भर्तुरग्रे मृता यदि।
वृषोत्सर्गं न कुर्वीत गां च दद्यात्सवत्सकाम्॥ इति।
अस्मिस्त्वेकादशाहे तु द्विजा एकादशैव तु।
इति मात्स्य एकादश बाह्मणा इत्युक्तं स मुख्यः कल्पः। एको ब्राह्मण इत्यनुकल्पः। अत एव विष्णुना शक्त्यपेक्षया बहव इत्युक्तम्। इदं चैकादशाहिकं महकोद्दिष्टसंज्ञं क्षत्रियादिभिरप्येकादशाह एव कार्यम्। आद्यं श्राद्धमशुद्धोऽपीति, सद्यःशौचे प्रदेयमिति शङ्खपैठीनसिवचनात्। यत्तु अथाशौचापगम इति विष्णुनोक्तं तत्कर्तुस्तात्कालिकी शुद्धिरितिवचनोक्ततात्कालिकाशौचापगम इति व्याख्येयम्। अन्यथा
मन्त्रवर्जं हि शूद्रस्य द्वादशेऽहनि कीर्तितम्।
इति सपिण्डीकरणविषय विष्णुवाक्यविरोधापत्तेः, शङ्खादिवाक्यविरोधाच्च। एतेनैकाहाद्याशौचे द्वितीयादिदिने कर्तव्यमिति गौडादिग्रन्थाः क्षत्रियादिभिः स्वाशौचान्ते त्रयोदशाहादौ कार्यमिति कालतत्त्वविवेचनाद्यर्वाचीनग्रन्थाश्चोपेक्ष्याः। उदाहृतवचन—
एकादशेऽह्नि यच्छ्राद्धं तत्सामान्यमुदाहृतम्।
चतुर्णामपि वर्णानां सूतक तु पृथक्पृथक्॥
इति पैठीनसिवचनहेमाद्र्यादिनिबन्धविरोधात्। इति नवश्राद्धकालः। अथ नवमिश्रसंज्ञकषोडशश्राद्धकालः। तत्र हेमाद्रौ बाह्यम्—
नृणां तु त्यक्तदेहानां श्राद्धाः षोडश सर्वदा।
चतुर्थे पञ्चमे चैव नवमैकादशे तथा॥
ततो द्वादशभिर्मासैः श्राद्धा द्वादशसंख्यया।
कर्तव्याः श्रुतितस्तेषां तत्र विप्रांस्तु भोजयेत्॥
माधवे जातूकर्ण्यस्त्वाह—
द्वादश प्रतिमास्यानि आद्यं षाण्मासिकं तथा।
त्रैपक्षिकाब्दिके चेति श्राद्धान्येतानि षोडश॥ इति।
अत्राद्यषाण्मासिकाब्दिकशब्दा ऊनमासिकोनषाण्मासिकोनाब्दिकपरा द्वादशानामपि मासिकानां533 पृथग्ग्रहणात्। हेमाद्रौ तु—
द्वादश प्रतिमास्यानि आद्यषाण्मासिके तथा।
सपिण्डीकरणं चैव इत्येतच्छ्राद्धषोडशम्॥
इति जातूकर्ण्यवचनपाठः। तत्राऽऽद्यमूनमासिकम्। षाण्मासिक ऊनषाण्मासिकोनाब्दिके सपिण्डीकरणमूनाब्दिकमित्यर्थादेकार्थकत्वमिति बोध्यम्।
नवश्राद्धं दशाहानि नवमिश्राणि षडृतून्।
इत्याश्वलायनोक्तेरेतान्येव नवमिश्राणि षोडश श्राद्धानि। ब्राह्यंतु नवमिश्रगतषोडशत्वबोधकमशक्तविषयमिति बोध्यम्। मासिकानां काल उक्तो याज्ञवल्क्येन—
मृतेऽहनि तु कर्तव्यं प्रतिमासं तु वत्सरम्।
प्रतिसंवत्सरं चैवमाद्यमेकादशेऽहनि॥
मासश्चात्र मृततिथिमारभ्य त्रिंशत्तिथ्यात्मकश्चान्द्रो ग्राह्यः। वत्सरपर्यन्तं मासि मासि मृतेऽहनि श्राद्धं कर्तव्यम्। सपिण्डीकरणादूर्ध्वं प्रतिसंवत्सरं मृतेऽहनि श्राद्धं कर्तव्यम्। आद्यं तु मासिकमेकादशेऽह्नि कर्तव्यमिति हेमाद्रिमाधवादयः। तेनैकादशेऽह्नि आद्यमासिकं, नवश्राद्धं, महैकोद्दिष्टं चेति श्राद्धत्रयमिति बोध्यम्। एतेनाऽऽद्याब्दिकमेकादशाहे कर्तव्यमिति केषांचिदर्वाचीनानामुक्तिरुपेक्ष्या।
आब्दिकं प्रथमं यत्स्यात्तत्कुर्वीत मलिम्लुचे।
इत्यादिवचनार्थाज्ञाननिबन्धनत्वाच्च। अत एवाऽऽद्याब्दिकमेकादशाहे कार्यमिति शूलपाण्यादयोऽप्युपेक्ष्याः।
सपिण्डीकरणं कृत्वा कुर्यात्पार्वणवत्सदा।
प्रतिसंवत्सरं विद्वाञ्छागलेयोदितो विधिः॥
आपाद्य सह पिण्डत्वमौरसो विधिवत्सुतः।
कुर्वीत दर्शवच्छ्राद्धं मातापित्रोर्मृतेऽहनि॥
मृताहनि पितुर्यस्तु न कुर्याच्छ्राद्धमादरात्।
मातुश्चैव वरारोहे वत्सरान्ते मृतेऽहनि॥
नाहं तस्य महादेवि पूजां गृह्णामि नो हरिः।
प्रथममासिकोनमासिकद्वितीयमासिकत्रैपक्षिकतृतीयमासिकचतुर्थमासिकपञ्चमषाण्मासिकोनषा-ण्मासिकसप्तमाष्टमनवमदशमैकादशद्वादशमासिकोनाब्दिकानि षोडश श्राद्धानि क्रमेण दद्यादिति हेमाद्र्युदाहृतशा-
तातपप्रभासखण्डादिवचनकल्पसूत्रैः संवत्सरान्ते मृताहसंबन्धिन्यां तिथौ सांवत्सरिकं श्राद्धं कर्तव्यमिति हेमाद्रिमाधवादिभिश्चसह विरोधात्। अत एव—
चक्रवत्परिवर्तेत सूर्यः कालवशाद्यतः।
अतः सांवत्सरं श्राद्धं कर्तव्यं मासचिह्नितम्॥
मासचिह्नं तु कर्तव्यं पौषमाघाद्यमेव हि।
यतस्तत्र विधानेन स मासः परिकीर्तितः॥
इति लघुहारीतवचनं संगच्छते। तस्मान्मासाद्यतिथौमासिकानुष्ठानमब्दे जाते द्वितीयाब्दाद्यतिथावाब्दिकश्राद्धानुष्ठानमिति हेमाद्र्युक्तमेव युक्तमिति बोध्यम्। अत एव—
मासादौ मासिकं कार्यमाब्दिकं वत्सरे गते।
आद्यमेकादशे कार्यमधिके त्वधिकं भवेत्॥
इत्यर्वाचीनोदाहृतलौगाक्षिवचनं संगच्छते। ऊनषाण्मासिकादेः कालमाह हेमाद्रौ पैठीनसिः।
षाण्मासिकाब्दिके श्राद्धे स्यातां पूर्वेद्युरेवते ।
मासिकानि स्वकीये तु दिवसे द्वादशेऽपि वा॥ इति।
माधवे गोभिलः—
ऊनषाण्मासिकं षष्ठे मासेऽर्धन्यूनमासिकम्।
त्रैपक्षिकं तृतीये स्यादूनाब्दं द्वादशे तथा॥
मदनरत्ने भविष्ये—
त्रैपक्षिकं भवेद्वृत्ते त्रिपक्षे तदनन्तरम्॥ इति।
श्लोकगौतमोऽपि—
एकद्वित्रिदिनैरूने त्रिभागेनोन एव वा।
श्राद्धान्न्यूनाब्दिकादीनि कुर्यादित्याह गौतमः॥
ऊनमासिकस्य कालान्तरमाह गोभिलः—
मरणाद्द्वादशाहे स्यान्मास्यूने वोनमासिकम्॥ इति।
द्वित्र्यादिदिनन्यूनपक्षे नन्दादिनिषेधमाह माधवे गार्ग्यः—
नन्दायां भार्गवदिने चतुर्दश्यां त्रिपुष्करे।
ऊनश्राद्धं न कुर्वीत गृही पुत्रधनक्षयात्॥
मरीचिः—
द्विपुष्करे च नन्दासु सिनीवाल्यां भृगोर्दिने।
चतुर्दश्यां च नोनानि कृत्तिकासु त्रिपुष्करे॥ इति।
भद्रातिथयस्त्रिपादृक्षाणि भानुभौमशनैश्चरवारा एषां त्रयाणां योगस्त्रिपुष्करं द्वयोर्योगो द्विपुष्करमित्यर्थः। हेमाद्री पैठीनसिः—
सपिण्डीकरणादर्वाक्कुर्याच्छ्राद्धानि षोडश।
एकोद्दिष्टविधानेन कुर्यात्सर्वाणि तानि च॥ इति।
आहिताग्नेःप्रेतश्राद्धकालमाह कात्यायनः—
श्राद्धमग्निमतः कार्यं दाहादेकादशेऽहनि।
ध्रुवाणि तु प्रकुर्वन्ति प्रमीताहनि सर्वदा॥
त्रैपक्षिकादूर्ध्वानि ध्रुवाणि। अत एव जातूकर्ण्यः—
ऊर्ध्वं त्रिपक्षाद्यच्छ्राद्धं मृताहन्येव तद्भवेत्।
अधस्तु कारयेद्दाहादाहिताग्नेर्द्विजन्मनः॥ इति।
असामर्थ्य आह हारीतः—
मुख्यं श्राद्धं मासि मासि अपर्याप्तमृतुं प्रति।
द्वादशाहे न वा भोज्या एकाहे द्वादशापि वा॥ इति।
नवश्राद्धादौ भोजने प्रायश्चित्तमाह हारीतः—
चान्द्रायणं नवश्राद्धे प्राजापत्यं तु मासिके।
एकाहस्तु पुराणेषु मायश्चित्तं विधीयते॥ इति।
इति नवमिश्रसंज्ञकानां षोडशश्राद्धानां कालः।
अथ सपिण्डीकरणकालः। तत्र निरग्नेःप्रेतस्य निरग्निःकर्ता संवत्सरे पूर्णे तदुत्तरमृताहे सपिण्डनं कुर्यात्। तदुक्तं भविष्यत्पुराणे—
सपिण्डीकरणं कुर्याद्यजमानस्त्वनग्निमान्।
अनाहिताग्नेःप्रेतस्य पूर्णेऽब्देभरतर्षभ॥ इति।
हेमाद्रौपुलस्त्यः—
निरग्निकः सपिण्डत्वं पितुर्मातुश्च धर्मतः।
पूर्णेसंवत्सरे कुर्याद्वृद्धिर्वा यदहर्भवेत्॥
वृद्धिनिमित्तं चौलादिकम्। शाट्यायनः—
प्रेतश्राद्धानि शिष्टानि सपिण्डीकरणं तथा।
अपकृष्यापि कुर्वीत कर्तुं534 नान्दीमुखं द्विजः॥
अनेन प्रेतकर्मकर्तुस्तत्समाप्तेः पूर्वं वृद्धिश्राद्धेऽनधिकारोऽपि सूचितः। अत एव हेमाद्रौलघुहारीतः—
भ्राता वा भ्रातृपुत्रो वा सपिण्डः शिष्य एव वा।
सह पिण्डक्रियां कृत्वा कुर्यादाभ्युदयं ततः॥ इति।
नागरखण्डे—
ततः सपिण्डीकरणं वत्सरादूर्ध्वतः स्थितम्।
वृद्धिर्वाऽऽगामिनी चेत्स्यात्तदर्वागपि कारयेत्॥
उशना—
पितुः सपिण्डीकरण आब्दिके मृतवासरे।
आधानाद्युपसंप्राप्तावेतत्प्रागपि वत्सरात्॥
तत्र चापकृष्यमाणे सपिण्डीकरणे तदन्तमपकर्षे स्यादिति न्यायात्तत्पूर्वतनानि षोडश श्राद्धानि कृत्वैव सपिण्डीकरणं कार्यम्। अत एव वृद्धवशिष्ठः—
श्राद्धानि षोडशादत्त्वा नैव कुर्यात्सपिण्डनम्।
तद्धानौ तु कृते प्रेतः पितृत्वं नोपपद्यते॥
षोडशश्राद्धहानौकृते सपिण्डीकरण इति शेषः।
शाट्यायनिः—
प्रेतश्राद्धानि सर्वाणि सपिण्डीकरणं तथा।
अपकृष्य प्रकुर्वीत कुर्यान्नान्दीमुखं ततः॥
सपिण्डीकरणात्पूर्वमपकर्षेण कृतानामपि मासिकानां स्वकालेषु पुनरप्यनुष्ठानमाह लौगाक्षिः—
यस्य संवत्सरादर्वाक्सपिण्डीकरणं भवेत्।
मासिकं चोदकुम्भं च देयं तस्यापि वत्सरम्॥
माधवे गोभिलः—
यस्य संवत्सरादर्वाग्डीहिता तु सपिण्डना।
विधिवत्तानि कुर्वीत पुनः श्राद्धानि षोडश॥
पैठीनसिः—
सपिण्डीकरणादर्वाक्कुर्याच्छ्राद्धानि षोडश।
एकोद्दिष्टविधानेन कुर्यात्सर्वाणि तानि तु॥
सपिण्डीकरणादूर्ध्वं यदा कुर्यात्तदा पुनः।
प्रत्यब्दं यो यथा कुर्यात्तथा कुर्यात्सदा पुनः॥
आवर्तनं चोर्ध्वभाविनामेव नाधोभाविनाम्। तदाह कार्णाजिनिः—
अर्वागब्दाद्यत्र यत्र सपिण्डीकरणं कृतम्।
तदूर्ध्वं मासिकानां स्याद्यथाकालमनुष्टितिः। इति॥
गालवः—
अर्वात्संवत्सराद्यस्य सपिण्डीकरणं कृतम्।
षोडशानां द्विरावृत्तिं कुर्यादित्याह गौतमः।
षोडशानां मध्ये यान्यपकृष्य कृतानि, तेषां द्विरावृत्तिः पूर्ववचनैकवाक्यत्वात्। सपिण्डीकरणादूर्ध्वं स्वस्वकाले पुनरनुष्ठेयानां वृद्धिप्राप्तौपुनरप्यपकर्षमाह शाट्यायनिः—
सपिण्डीकरणादर्वागपकृष्य कृतान्यपि।
पुनरप्यपकृष्यन्ते वृद्ध्युत्तरनिषेधनात्॥ इति।
निषेधमाह कात्यायनः—
निर्वर्त्य वृद्धितन्त्रं च मासिकानि न तन्त्रयेत्।
अयातयामं मरणं न भवेत्पुनरस्य तत्॥ इति।
वृद्ध्यनन्तरं मासिकानुवर्तने नूतनं मरणं भवेदिति भावः। वृद्धिंविना पुनरपकर्षे दोषमाह शाट्यायनः—
अन्तरेणैव यो वृद्धि प्रेतश्राद्धानि कर्षति।
स श्राद्धी नरके घोरे पितृभिः सह मज्जति॥ इति।
हेमाद्रावुशना—
वृद्धिश्राद्धविहीनस्तु प्रेतश्राद्धानि यश्चरेत्।
श्राद्धी स नरके घोरे पितृभिः सह पच्यते॥
असमर्थं प्रत्याह हेमाद्रौगोभिलः—
पूर्णेसंवत्सरे षण्मासे त्रिपक्षे वा यदहर्वृद्धिरापद्येत, इति। अत्र वृद्धिरागामिनी चेत्स्यादित्यनेनैकवाक्यत्वार्थं यद्हर्वृद्धिः संनिधीयेतेति व्याख्येयम्। अन्यथा वृद्धिश्राद्धस्य पूर्वाह्णकालत्वात्सपिण्डीकरणस्यापराह्णकालत्वेनैकदिनेऽसंभवात्तेन पूर्वदिने कर्तव्यमित्यर्थः। चतुर्विंशतिमते—
सपिण्डीकरणं कुर्याद्यजमानस्त्वनग्निमान्।
अनाहिताग्नेःप्रेतस्य पूर्णेऽब्देभरतर्षभ॥
द्वादशेऽहनि षष्ठे वा त्रिपक्षे वा त्रिमासिके।
एकादशेऽपि वा मासि मङ्गलं स्यादुपस्थितम्॥ इति।
व्याघ्रः—
आनन्त्यात्कुलधर्माणां पुंसां चैवाऽऽयुषः क्षयात्।
अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहःप्रशस्यते॥
इति निरग्निकसपिण्डीकालनिर्णयः।
अथ साग्निकसपिण्डीकालः। तत्र लघुहारीतः—
अनग्निस्तु यदा वीर भवेत्कुर्यात्तदा गृही।
प्रेतश्चेदग्निमांस्तु स्यात्त्रिपक्षे वै सपिण्डनम्॥
मृताहमारभ्यपक्षत्रये पूर्णेसपिण्डीकरणं कुर्यादिति हेमाद्रिः। सुमन्तुः—
प्रेतश्चेदाहिताग्निः स्यात्कर्ताऽनग्निर्यदा भवेत्।
सपिण्डीकरणं तस्य कुर्यात्पक्षे तृतीयके॥
लघुहारीतः—
यजमानोऽग्निमान्राजन्प्रेतश्चानग्निमान्भवेत्।
द्वादशाहे भवेत्कार्यं सपिण्डीकरणं सुतैः॥
कात्यायनः—
एकादशाहं निर्वर्त्य पूर्वं दर्शायथाविधि।
प्रकुर्वीताग्निमान्विप्रोमातापित्रोःसपिण्डनम्॥
अस्याभिप्रायः—आहिताग्निनाऽमावास्यायां पिण्डपितृयज्ञःपिण्डान्वाहार्यकं श्राद्धं च कर्तव्यं तद्धि प्रमीतमातापितृकस्य सपत्नीकपितृदेवत्यम्।
एकत्वमागता भर्तुः पिण्डे गोत्रे च सूतके।
इत्यादिवचनात्पितृपिण्डे मातुरप्यंशभागित्वात्। न चाकृतसपिण्डीकरणयोस्तयोदर्शश्राद्धादौ देवतात्वमुपपद्यते तस्य सपिण्डीकरणोत्तरकालिकत्वनियमात्। तदाह हेमाद्रौप्रजापतिः—
नासपिण्ड्याग्निमान्पुत्रः पितृयज्ञं समाचरेत्।
न पार्वणं नाभ्युदयं कुर्वन्न लभते फलम्॥ इति।
अतः पिण्डपितृयज्ञदर्शश्राद्धयोर्लोपो मा भूदित्येकादशाह एकोद्दिष्टादिकृत्यानन्तरं द्वादशाहे वा षोडशश्राद्धपूर्वकं सपिण्डीकरणं कृत्वा दर्शे पिण्डपितृयज्ञादिकं कुर्यादिति। पक्षान्तरमाह हारीतः—
या तु पूर्वममावास्या मृताहाद्दशमी भवेत्।
सपिण्डीकरणं तस्यां कुर्यादेव सुतोऽग्निमान्॥
मृताहमवधीकृत्य दशमी मृताहमारभ्यैकादशीत्यर्थः। तस्यामेकोद्दिष्टं सपिण्डीकरणं कृत्वाऽनन्तरं पितृयज्ञादिकं कुर्यात्। अत एव जाबालिः—
सपिण्डीकरणं कुर्यात्पूर्वे दर्शेऽग्निमान्सुतः।
परतो दशरात्रस्य पूर्णेऽब्दे च तथाऽपरः॥
मृताहमारभ्य यद्दशममहस्तस्मात्परतो यो दर्शस्तस्मिन्नित्यर्थः। दशरात्रग्रहणमाशौचोपलक्षणार्थम्। अपरो निरग्निकः। तदेवं साग्निकस्य त्रयः सपिण्डीकरणकालाः- द्वादशाहः, द्वादशाहादूर्ध्वभाविनी याऽमावास्या तस्याः पूर्वं यत्किंचिदेकमहः, दशाहात्पुराऽमावास्या चेति। साग्निकोक्तेषु त्रिषु कालेषु प्रतिबन्धकवशात्सपिण्डीकरणं नं कृतं, तदा त्रिपक्षादिषूत्तरकालेषु कर्तव्यम्। तदाह साग्निंप्रकृत्य गोभिलः—
द्वादशाहादिकालेषु प्रमादादननुष्ठितम्।
सपिण्डीकरणं कुर्यात्कालेषूत्तरभाविषु॥ इति।
वत्सरान्तेऽप्यननुष्ठाने साग्निनिरग्निसाधारण्येन गौणकालमाह माधव ऋष्यशृङ्गः—
सपिण्डीकरणंश्राद्धमुक्तकाले न चेत्कृतम्।
रौद्रे हस्ते च रोहिण्यां मैत्रभे वा समाचरेत्॥ इति।
इदं सपिण्डीकरणं वत्सरान्ते प्रेताय तत्पित्रे तत्पितामहाय तत्प्रपितामहाय च ब्राह्मणान्देवपूर्वं भोजयेत्। प्रेतपिण्डं चार्घपात्रोदकवत्पिण्डत्रये निदध्यादिति विष्ण्वादिवचनैस्तत्पित्रादिभिः सह विहितम्। तत्र पितामहे जीवति कथं कार्यमित्याकाङ्क्षायां हेमाद्रिमाधवोदाहृतब्रह्मपुराण उक्तम्
मृते पितरि यस्याथ विद्यते च पितामहः।
तेन देयास्त्रयः पिण्डाःप्रपितामहपूर्वकाः॥
तेभ्यश्च पैतृकः पिण्डो नियोक्तव्यश्च पूर्ववत्। इति।
एतेन प्रेतस्य प्रपितामहपिण्डं त्रेधा विभज्य पिण्डत्रयेण संयोजयेदिति केषांचिदुक्तिरुपेक्ष्योदाहृतवचनविरोधात्। यदा पितामहप्रपितामहौ जीवतस्तदा प्रेतप्रपितामहपूर्वकास्त्रयः पिण्डा देयाः। पितामहग्रहणस्योपलक्षणत्वात्। अत एव—
त्रयाणामपि पिण्डानामेकेनापि सपिण्डने।
पितृत्वमश्नुते प्रेत इति धर्मो व्यवस्थितः॥
इति निर्णयामृते सुमन्तुवचनं संगच्छते। प्रेतस्य पितृपितामहप्रपितामहसंबन्धिनां त्रयाणां पिण्डानां मध्येऽन्यतमेनैकेनेत्यर्थः। अत एव यदा प्रेतस्य पितामहप्रपितामहौ जीवतस्तदा प्रेतपित्रे पिण्डं दत्त्वा तत्पितामहात्परयोर्द्वयोर्दद्यादिति हेमाद्रौस्मृतिवचनं च संगच्छते। अत एव व्युत्क्रमेण मृतानां सपिण्डीकरणं नास्तीति विज्ञानेश्वरादीनामुक्तिरुपेक्ष्या। उदाहृतवचनविरोधात्। यत्तु—
व्युत्क्रमाच्च प्रमीतानां नैव कार्या सपिण्डना।इति तत्
व्युत्क्रमेण मृतानां न सपिण्डीकृतिरिष्यते।
यदि माता यदि पिता भर्ता नैष विधिः स्मृतः॥
इति माधवनिर्णयामृतोदाहृत स्कन्दपुराणवचनोपात्तमातापितृपतिभिन्नविषयमिति बोध्यम्। हेमाद्रौब्रह्मपुराणे—
मातर्यथ प्रमीतायां विद्यते च पितामही।
प्रपितामहीतः सर्वाः कार्यस्तत्राप्ययं विधिः॥ इति।
पितृसपिण्डीकरणोत्तरं पितामहमरणे तस्य पुत्रान्तराभावे तत्सपिण्डीकरणं पौत्रेण कार्यम्। तदाह तत्रैव कात्यायनः—
पितामहः पितुः पश्चात्पञ्चत्वं यदि गच्छति।
पौत्रेणैकादशाहादि कर्तव्यं श्राद्धषोडशम्॥
नैतत्पौत्रेण कर्तव्यं पुत्रवांश्चेत्पितामहः। इति।
निर्णयामृतेऽप्येवम्। यत्तु—
असंस्कृतौ न संस्कार्यौपूर्वौपौत्रप्रपौत्रकैः।
पितरं तत्र संस्कुर्यादिति कात्यायनोऽब्रवीत्॥
इति छन्दोगपरिशिष्टवचनं, तद्विद्यमानपुत्रपितामहप्रपितामहविषयं नैतत्पौत्रेण कर्तव्यमित्यनेनैकवाक्यत्वात्। यदपि
पापिष्ठमपि शुद्धेन शुद्धं पापकृताऽपि वा।
पितामहेन पितरं संस्कुर्यादिति निश्चयः॥
इति कात्यायनवचनम्। अत्र पापिष्ठत्वं संस्काराभावेन प्रेतत्वरूपं, न तु पातित्यं पापकर्मिणो न संसृजेत्स्त्रियश्चातिचारिणीरिति गौतमेन तस्य निषेधात्। तदेकस्मिन्पक्षे मासि वा पितामहप्रपितामहौमृतौ, तत्पुत्राभ्यामेकोद्दिष्टं कृत्वा वत्सरान्ते सपिण्डीकरणपक्षोऽवलम्बितः। ततः पिता मृतोऽशक्त्यादिना द्वादशाह एव पितुः सपिण्डीकरणं कर्तुमिच्छति, तदाऽसपिण्डीकृतेनापि पितामहादिना सह कुर्यादित्यर्थकं बोध्यम्। यदा त्वावश्यकवृद्ध्यादिना पितुः सपिण्डीकरणापकर्षमिच्छति पितामहादिपुत्रौ चासंनिहितौ तदा तत्सपिण्डीकरणं कृत्वैव पितुः
सापिण्ड्यंकृत्वा नान्दीमुखं कुर्यात्।
पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा भ्राता वा भ्रातृसंततिः।
सपिण्डसंततिर्वाऽपि क्रियार्हा नृप जायते।
इति विष्णुपुराणात्।
प्रेतकर्माण्यनिर्वर्त्य चरेन्नाभ्युदयक्रियाम्।
आचतुर्थं ततः पुंसि पञ्चमे शुभदं भवेत्॥
इतिमेधातिथिवचनादिति संपन्नो वचनानामविरोध इति चिन्तनीयम्। नान्दीश्राद्धानुपस्थितौ तु
श्राद्धानि षोडशादत्त्वा कुर्यान्नतु सपिण्डनम्।
प्रोषितावसिते पुत्रः कालादपि चिरादपि॥
** **इति वायुपुराणात्पुत्र एव कुर्यात्। प्रवासावसाने चिरादपि कालात्पुत्रः सपिण्डनं कुर्याच्चषोडशश्राद्धपूर्वकमेव। यदि च कनिष्ठभ्रात्रादिना षोडश श्राद्धानि कृतानि, तदा सपिण्डनमेव कुर्यादित्यपरार्कः। मातुरपि मातर्यग्रे प्रमीतायामित्युदाहृतब्राह्मवचनात्प्रपितामहादिभिः कार्यं तस्यामपि जीवन्त्यां त्रयाणापि पिण्डानामित्युदाहृतवचनात्पितुः प्रपितामह्यादिभिः कुर्यात्। अन्वारोहणे तु पत्यादिभिरेव सपिण्डनं कार्यम्। तदाह हेमाद्रौशातातपः—
मृता याऽनुगता नाथं सा तेन सह पिण्डताम्।
अर्हति स्वर्गवासं च यावदाभूतसंप्लवम्॥
यमोऽपि—
पत्या वैकेन कर्तव्यं सपिण्डीकरणं स्त्रियाः।
सा मृताऽपि हि तेनैक्यं गता मन्त्राहुतिव्रतैः॥
पत्या वैकैन पतिवर्गेणैकेनेत्यर्थः। अथवा पत्नीपिण्डं पतिपिण्डे तूष्णीं संयोज्य पश्चात्तत्पिण्डं पिण्डत्रयेण विधिना संयोजयेत्।
मृते पितरि मातुस्तु न कार्या सह पिण्डता।
पितुरेव सपिण्डत्वे तस्या अपि कृतं भवेत्॥
इति हेमाद्रौ शातातपवचनमेतद्विषयमिति ज्ञेयम्। पुत्राभावे पतिरेव पत्न्याः सपिण्डनं कुर्यात्तदाह पैठीनसिः—
अपुत्रायां मृतायां तु पतिः कुर्यात्सपिण्डनम्।
श्वश्र्वादिभिः सहैवास्याः सपिण्डीकरणं भवेत्॥
यत्तु—
पुत्रेणैव तु कर्तव्यं सपिण्डीकरणं स्त्रियाः।
पुरुषस्य पुनस्त्वन्ये भ्रातृपुत्रादयोऽपि ये॥ इति।
सपिण्डीकरणं स्त्रीणां पुत्राभावे न विद्यते॥
इति लघुहारीतमार्कण्डेयपुराणवचनानि तानि पतिभिन्नेन न कर्तव्यमित्येवंपराणि उदाहृतवचनविरोधात्। इदं ब्राह्मादिविवाहोढाविषयम्। आसुरादिविवाहविषये तु सुमन्तुः—
पिता पितामहे योज्यःपूर्णेसंवत्सरे सुतः।
माता मातामहे तद्वदित्याह भगवाञ्छिवः॥
शातातपः—
तन्मात्रा तत्पितामह्या तच्छ्वश्र्वावा सपिण्डनम्।
आसुरादिविवाहेषु विन्नानां योषितां भवेत्॥ इति।
तत्र मातामहादिभिर्मातामह्यादिभिर्वा कुर्यात्। अपुत्रस्य तु पत्नी कुर्यात्। तदाह माधवे लौगाक्षिः—
सर्वाभावे स्वयं पत्न्यः स्वभर्तॄणाममन्त्रकम्।
सपिण्डीकरणं कुर्युस्ततः पार्वणमेव च॥ इति।
सुमन्तुः—
अपुत्रे प्रस्थिते कर्ता नास्ति चेच्छ्राद्धकर्मणि।
तत्र पत्न्यपि कुर्वीत सापिण्ड्यं पार्वणं तथा॥ इति।
यत्तु आपस्तम्बवचनं—
अपुत्रा ये मृताः केचित्पुरुषा वा स्त्रियोऽपि वा।
तेषां सपिण्डनाभावादेकोद्दिष्टं न पार्वणम्॥ इति।
एवमन्यान्यपि वचनानि535, तानि पुत्रोत्पादनविधिप्रशंसार्थानीति माधवादयः। अत एव—
सपिण्डीकरणादूर्ध्वमेकोद्दिष्टं विधीयते।
अपुत्राणां च सर्वेषामपत्नीनां तथैव च॥
इति हेमाद्रौ प्रचेतोवचनं संगच्छते। अपुत्राणामकृतविवाहानामिति हेमाद्रिः। एतानि षोडश श्राद्धान्यनेकेषु पुत्रेषु विभक्तेष्वपि ज्येष्ठ एव कुर्यात्तदाहापरार्के प्रचेताः—
एकादशाद्याः क्रमशो ज्येष्ठस्तु विधिवत्क्रिया।
कुर्यानैकैकशः श्राद्धमाब्दिकं तु पृथक्पृथक्॥ इति।
सपिण्डने त्वाह हेमाद्रौ मरीचिः—
सर्वैरनुमतिंकृत्वा ज्येष्ठेनैव तु यत्कृतम्।
द्रव्येण चाविभक्तेन सर्वैरेव कृतं भवेत्॥ इति।
ज्येष्ठासंनिधौ तु तदनुजः कुर्यादनुमतिं कृत्वेत्यनेन सर्वैरेव कृतं भवेदित्यनेन च सपिण्डनाकरणजन्यप्रत्यवायाभावप्रतिपादनेन तस्याप्यधिकारबोधनात्। अत एव—
यवीयसा कृतं कर्म प्रेतशब्दं विहाय तु।
तज्ज्यायसाऽपि कर्तव्यं सपिण्डीकरणं पुनः॥
इति। भ्राता वा भ्रातृपुत्रो वा इत्युदाहृतवचनानि।
काश्यादिषु गयायां तु प्रेतकार्यं कृतंच यत्॥
सपिण्डैरसपिण्डैर्वा कृतं तद्वै भवेत्सुतैः।
इतिश्राद्धकल्पलतायां ब्रह्मवैवर्तवचनं[च]संगच्छते। विभक्ताः सधनाः पुत्रा ऋद्धिकामाः पृथक्सपिण्डनं कुर्युरिति स्मृत्यर्थसारः। द्रव्यदानानुमत्यभावे कनिष्ठैरपि पृथक्कार्यमिति शूलपाणिः, वाचस्पतिश्च। प्रेतशब्दं विहायेत्यनेन कनिष्ठकृतेनैव प्रेतत्वनिवृत्तिबोधनाच्च।
कृतं कनीयसा वाऽपि यस्य श्राद्धं सपिण्डनम्।
ज्येष्ठोऽपि हि सुतः कुर्यात्सपिण्डीकरणं पुनः॥
पुनः सपिण्डीकरणश्राद्धं पार्वणवद्भवेत्।
अर्घ्यसंयोजनं नैव पिण्डसंयोजनं न च॥
इति श्राद्धकल्पलतायां संवर्तवचनम्।
मातापित्रोर्मृतेः काले ज्येष्ठे देशान्तरे स्थिते॥
कनिष्ठेन प्रकर्तव्यं सपिण्डीकरणं तदा।
इति निर्णयसिन्धूदाहृतसंवर्तवचनं च संगच्छते, उदाहृतवचनसूचितार्थकत्वात्। अत एवेदं निर्मूलमिति निर्णयसिन्धुरुपेक्ष्यः। एतेन ज्येष्ठपुत्रे देशान्तरस्थेऽपि सति कनिष्ठस्य सपिण्डीकरणेऽधिकारो नास्तीति केषांचिदर्वाचीनानामुक्तिरुपेक्ष्या। उदाहृतवचनविरोधात्। द्वादशाहः प्रशस्यत इत्यत्र द्वादशाहग्रहणमाशौचान्तोपलक्षणम्। अत एव कात्यायनः—
सर्वेषामेव वर्णानामाशौचान्ते सपिण्डनम्॥ इति।
द्वादशेऽहनि विप्राणामाशौचान्ते तु भूभृताम्॥
वैश्यानां च त्रिपक्षादावथवा स्यात्सपिण्डनम्।
इति निर्णयामृते वृद्धमनुश्च। शूद्राणां द्वादशाह एव सपिण्डीकरणम्। तदाह हेमाद्र्यादौ विष्णुः—
मन्त्रवर्जंहि शूद्राणां द्वादशेऽहनि कीर्तितम्।
इति वचनबलादाशौचमध्य ए॒व कार्यमिति हेमाद्र्यादयः। सर्वेषामेव वर्णानामिति वचनं त्रैवर्णिकविषयमिति बोध्यम्। संन्यासिनां सपिण्डीकरणं नास्ति । तदाहोशना—
एकोद्दिष्टं न कुर्वीत यतीनां चैव सर्वदा।
अहन्येकादशे प्राप्ते पार्वणं तु विधीयते॥ इति।
शातातपः—
एकोद्दिष्टं जलं पिण्डमाशौचं प्रेतसत्क्रियाम्।
न कुर्यात्पार्वणादन्यद्ब्रह्मीभूताय भिक्षवे॥ इति।
यत्तु—
प्रमीतौ पितरौ यस्य देहस्तस्याशुचिर्भवेत्।
न दैवं नापि वा पित्र्यं यावत्पूर्णो न वत्सरः॥
इति माधवे देवलीयं,तद्वत्सरान्तसपिण्डीकरणविषयम्। या तु पूर्वममावास्येत्युदाहृतवचनैः साग्नेःकर्तुर्दशाहानन्तरामावास्यायांपिण्डपितृयज्ञदर्शश्राद्धविधानात्।
प्रेतश्राद्धानि सर्वाणि सपिण्डीकरणं तथा।
अपकृष्यापि कुर्वीत कर्तुं नान्दीमुखं ततः॥
इत्यादिभिर्निरनेरप्यावश्यकनान्दीश्राद्धविधानात्।
अर्वाक्संवत्सराद्यस्य सपिण्डीकरणं भवेत्॥
प्रेतत्वं तस्य विज्ञेयं यावत्पूर्णो न वत्सरः।
इत्यादीनि तानि—
वृद्धिश्राद्धविहीनस्तु प्रेतश्राद्धानि यश्चरेत्।
स श्राद्धी नरके घोरे पितृभिः सह मज्जति॥ इति।
तथैव काम्यं यत्कर्म वत्सरात्प्रथमादृते।
इत्याद्येकवाक्यतया वृद्धिं विनाऽपकर्षविषयाणि। काम्यकर्मविषयाणि चेति।
अस्थिक्षेपं गया श्राद्धं श्राद्धं चाऽऽपरपक्षिकम्।
प्रथमेऽब्दे न कुर्वीत कृतेऽपि हि सपिण्डने॥
इत्यादिवचनं वृद्धिनिमित्तापकर्षविषयम्।
अस्थिक्षेपं गयाश्राद्धं श्राद्धं चाऽऽपरपक्षिकम्॥
प्रथमेऽब्देऽपि कुर्वीत यदि स्याद्भक्तिमान्सुतः।
इत्यादिकं तु वृद्धिं विनाऽपकर्षविषयमिति। भक्तिमानित्यत्र भक्त्याख्यंश्राद्धं कृत्वेति केषांचिदुक्तिश्चिन्त्या प्रमाणाभावादिति सिद्धः सर्वेषामविरोध इति चिन्तनीयम्। इति सपिण्डीकरणकालः।
अतीतस्वकालस्य प्रेतकर्मणः कालान्तरेऽनुष्ठाने विशेषमाह गार्ग्यः—
प्रत्यक्षशवसंस्कारे दिनं नैव विशोधयेत्।
आशौचमध्ये क्रियते पुनः संस्कारकर्म चेत्॥
शोधनीयं दिनं तत्र यथासंभवमेव तु।
आशौचविनिवृत्तौ तु पुनः संस्क्रियते मृतः॥
संशोध्यैव दिनं ग्राह्यमूर्ध्वं संवत्सराद्यदि।
प्रेतकार्याणि कुर्वीत श्रेष्ठं तत्रोत्तरायणम्॥
कृष्णपक्षस्तु तत्रापि वर्जयेच्च दिनक्षयम्। इति।
नन्दायां भार्गवदिने चतुर्दश्यां त्रिपुष्करे॥
तत्र श्राद्धं न कुर्वीत गृही पुत्रधनक्षयात्॥ इति च।
प्रेतश्राद्धं प्रकृत्य भारते—
नक्षत्रे च न कुर्वीत यस्मिञ्जातो भवेन्नरः।
न प्रोष्ठपदयोः कुर्यात्तथाऽऽग्नेये च भारत॥
दारुणेषु च सर्वेषु प्रत्यरे च विवर्जयेत्।
जन्मनक्षत्रं कर्तुः। प्रोष्ठपदयोः पूर्वाभाद्रपदाद्वये।आग्नेयं कृत्तिका। दारुणानि आर्द्राश्लेषाज्येष्ठामूलानि प्रत्यरं जन्मनक्षत्रात्पञ्चमं चतुर्दशं त्रयोविंशं चेति हेमाद्रिः। तत्रैव ज्योतिःपराशरः—
साधारणे ध्रुवोग्रे मैत्रे च न शस्यते मनुष्याणाम्।
प्रेतक्रिया कथंचित्रिपुष्करे यमधिष्ण्ये च॥ इति।
साधारणे कृत्तिकाविशाखे। ध्रुवाण्युत्तरात्रयरोहिण्यश्च। उग्राणि पूर्वात्रयं भरणी मघा च।मैत्राणिमृगचित्रानूराधारेवत्यः।त्रिपादृक्षं भद्रातिथिर्भानुभौमशनिवारा एतेषां मध्ये त्रयाणां योगस्त्रिपुष्करः। यमधिष्ण्यं धनिष्ठा।वाराहे—
चतुर्थाष्टमगे चन्द्रे द्वादशे च विवर्जयेत्।
प्रेतकृत्यं व्यतीपाते वैधृतौ परिघे तथा॥
करणे विष्टिसंज्ञे च शनैश्चरदिने तथा।
त्रयोदश्यां विशेषेण जन्मतारात्रये तथा॥
जन्मदशमैकोनविंशानि जन्मतारात्रयम्। कश्यपः—
भरण्यार्द्रामघाश्लेषा मूलं त्रिचरणानि च।
प्रेतकृत्येऽतिदुष्टानि धनिष्ठाद्यं च पञ्चकम्॥
फल्गुनीद्वितयं रोहिण्यनुराधापुनर्वसू।
द्वे आषाढेविशाखा च तानि द्विचरणानि च॥
एतानि किंचिद्दुष्टानि संभवे सति वर्जयेत्।
स्वकालेऽनुष्ठाने नायं निषेधः। तदाह हेमाद्रौगोभिलः—
नन्दायां शुक्रवारे वा त्रयोदश्यां त्रिजन्मसु।
एकादशाहप्रभृति नैकोद्दिष्टं निषिध्यते॥
तत्रैव बैजवापः—
प्रेतस्य साक्षाद्दग्धस्य प्राप्ते त्वेकादशेऽहनि।
नक्षत्रतिथिवारादि शोधनीयं न किंचन॥
**१.**घ. कृष्णचतुर्दश्यां।
युगमन्वादिसंक्रान्तिदर्शे प्रेतक्रिया यदि।
दैवादापतिता तत्र नक्षत्रादेर्न शोधनम्॥ इति।
प्रेतक्रियायामुपस्थितायां दैवाद्यदि युगादिप्रभृत्युपस्थितिस्तदा नक्षत्रादिशोधनं नास्ति। नतु शुद्धकालेऽनुष्ठानसंभवेऽपि तत्र निषेधाभाव इति दैवादापतितेत्यनेन प्रतिपाद्यत इति ज्ञेयम्। इति प्रेतक्रियानिषिद्धकालः।
अथ युगादयः। तत्र हेमाद्रौस्कान्दम्—
नवम्यां शुक्लपक्षस्य कार्तिके निरगात्कृतम्।
राधे सिततृतीयायां त्रेता वै समपद्यत॥
दर्शे तु माघमासस्य प्रवृत्तं द्वापरं युगम्।
कलिः कृष्णत्रयोदश्यां536 नमस्ये मासि निर्गतः॥
युगादयः स्मृता ह्येता वृत्तस्याक्षयकारकाः।
मात्स्ये—
वैशाखस्य तृतीयायां नवमी कार्तिकस्य तु।
पञ्चदश्यपि माघस्य नमस्ये च त्रयोदशी॥
युगादयः स्मृता ह्येतादत्तस्याक्षयकारकाः।
तत्रैव नागरखण्डे—
नवमी कार्तिके शुक्ला तृतीया माधवे सिता।
अमावास्या तपस्ये च नभस्येच त्रयोदशी॥
त्रेताकृतकलीनां तु द्वापरस्याऽऽदयः क्रमात्।
शुक्लादिमासाभिप्रायेण माघस्येत्युक्तम्।कृष्णादिमासाभिप्रायेण तपस्य इत्युच्यत इति माघ्युत्तरैकैवामावास्येति ज्ञेयम्। ब्रह्मपुराणे—
वैशाखे शुक्लपक्षस्य तृतीयायां कृतं युगम्।
कार्तिक शुकृपक्षे तु त्रेता च नवमेऽहनि॥
अथ भाद्रपदे कृष्णत्रयोदश्यां तु द्वापरम्।
माघस्य पौर्णमास्यां च घोरं कलियुगं तथा॥
युगारम्भास्तु तिथयो युगाद्यास्तेन विश्रुताः।
भविष्यत्पुराणे—
वैशाखस्य तृतीया या समा कृतयुगेन तु।
नवमी कार्तिके या तु त्रेतायुगसमा स्मृता॥
भाद्रे त्रयोदशी कृष्णा द्वापरेण समा तु सा।
माघे पञ्चदशी राजन्कलिकालसमा तु सा॥
एताश्चतस्रो राजेन्द्र युगानां प्रभवाः शुभाः।
युगादयस्तु कथ्यन्ते तेनैताःपूर्वसूरिभिः॥
उपवासस्तपो दानं श्राद्धं होमो जपस्तथा।
यदासु क्रियते किंचित्सर्वं कोटिगुणं भवेत्॥
समा कृतयुगेनेत्यनेन सकले कृतयुगे प्रत्यहं क्रियमाणेन कर्मणा यावत्पुण्यं भवति, तावदस्यामेकस्यामेव तिथौ भवतीति प्रतिपाद्यते। अत्र स्कान्दे—कार्तिकनवमी कृतयुगादिः, वैशाखतृतीया त्रेतायुगादिरित्याद्युक्तम्, नागरखण्डादौ तु नवमी त्रेतादिः, तृतीया कृतयुगादिरित्याद्युक्तमिति विरोधःप्रतीयते, स च कस्मिंश्चित्कल्पे नवम्यां कृतयुगप्रवृत्तिः, कस्मिंश्चित्कल्पे तृतीयायां कृतयुगप्रवृत्तिरित्यभिप्रायेण न दोषः। एवं कस्मिंश्चित्कल्पे माघ्यां कलिप्रवृत्तिः, कस्मिंश्चित्तदुत्तरामावास्यायामिति न तत्रापि विरोधः। न चैवमुभयोर्युगादित्वेन युगादीनां पञ्चत्वापत्तौ।
दशहरासु नोत्कर्षश्चतुर्ष्वपि युगादिषु।
इति तच्चतुष्ट्वबोधकवचनविरोध इति वाच्यम्। माघपञ्चदशीत्वेन परिगणनात्पञ्चत्वापत्यभावात्। न चैवमप्युभयत्रापि श्राद्धापत्तिरिष्टापत्तेरशक्तावन्यतरस्यां कृतेनापि प्रत्यवायपरिहार इति न काऽप्यनुपपत्तिः। इदं युगादिनिमित्तं श्राद्धं मलमासपाते मासद्वयेऽपि कर्तव्यमिति मलमासप्रकरणे प्रतिपादितम्। इति युगादयः।
अथ युगान्ताः। तत्र हेमाद्रौब्रह्मपुराणे—
सूर्यस्य सिंहसंक्रान्त्यामन्तः कृतयुगस्य तु।
अथ वृश्चिकसंक्रान्त्यामन्तस्त्रेतायुगस्य तु॥
ज्ञेयस्तु वृषसंक्रान्त्यां द्वापरान्तस्तु संज्ञया।
तथा तु कुम्भसंक्रान्त्यामन्तः कलियुगस्य तु॥
युगादिषु युगान्तेषु श्राद्धमक्षय्यमुच्यते। इति।
मनुः—
सहस्रगुणितं दानं भवेद्दतं युगादिषु।
कर्म श्राद्धादिकं चैव तथा मन्वन्तरादिषु॥ इतियुगान्ताः।
अथ मन्वादयः। हेमाद्रौमात्स्ये—
अश्वयुक्शुक्लनवमी द्वादशी कार्तिकस्य तु537।
चैत्रस्य तु तृतीया या तथा भाद्रपदस्य च॥
फाल्गुनस्य त्वमावास्या पौषस्यैकादशी सिता।
श्रावणस्याष्टमी कृष्णा तथाऽऽषाढस्य पूर्णिमा।
आषाढेशुक्लदशमी538 माघशुक्लस्य सप्तमी।
कार्तिकी फाल्गुनी चैत्री ज्यैष्ठी पञ्चदशी तथा॥
मन्वन्तरादयस्त्वेता दत्तस्याक्षयकारकाः।
अत्रामावास्याऽष्टमीव्यतिरिक्ताःशुक्ला एक कार्तिकादयो दर्शान्ता इति मन्वन्तरादयः।षण्णवतिश्राद्धसंग्रहः—
*539 अमामनुयुगक्रान्तिधृतिपातमहालयाः।
अन्वष्टक्यं च पूर्वेद्युःषण्णवत्यष्टकास्तथा॥ इति।
अथ कल्पादयः। हेमाद्रौ नागरखण्डे—
अथ कल्पादयो राजन्कथ्यन्ते तिथयः शुभाः।
यासु श्राद्धे कृते तृप्तिः पितॄणामक्षया भवेत्॥
चैत्रशुक्लप्रतिपदि श्वेतकल्पः पुराऽभवत्।
तस्य शुक्लत्रयोदश्यामुदानःसमजायत॥
कल्पस्तु नारसिंहाख्यः कृष्णायां प्रतिपद्यभूत्।
अथ कृष्णत्रयोदश्यां गौरीकल्पोऽप्यकल्पत॥
वैशाखस्य तृतीयायां शुक्लायां नीललोहितः।
चतुर्दश्यां तु शुक्लायां प्रवृत्तो गारुडाभिधः॥
समानस्तु तृतीयायां कृष्णायामुपपद्यते।
माहेश्वरश्चतुर्दश्यां कृष्णपक्षे समागमत्॥
ज्येष्ठशुक्लतृतीयायां वामदेवस्तु संभवः।
पौर्णमास्यां तु तस्यैव कूर्मःप्रववृते नृप॥
कृष्णपक्षतृतीयायामाग्नेयः समगच्छत।
पञ्चदश्यां तु कृष्णायां पितृकल्पः समागमत्॥
शुक्लां चतुर्थीमाषाढे प्राप्य नारायणोऽभवत्।
चतुर्थ्यां तस्य कृष्णायां सोमकल्पः समापतत्॥
श्रावणे शुक्लपञ्चम्यां गौरवः समवर्तत।
तस्यैव कृष्णपञ्चम्यां मानवःप्रत्यपद्यत॥
षष्ठीं प्रौष्ठपदे शुक्लां प्राप्य प्राणाभिधोऽभवत्।
सितेतरायां षष्ठ्यां तु तस्य तत्पुरुषाह्वयः॥
बृहत्कल्पस्तु सप्तम्यां शुक्लायामाश्विनस्य च।
कृष्णायामपि वैकुण्ठः प्रविवेश विशांपते॥
कार्तिकस्य सिताष्टम्यां कल्पः कंदर्पसंज्ञकः।
असितायां पुनर्जज्ञे लक्ष्मीकल्पस्य कल्पना॥
मार्गशुकृनवम्यां तु कल्पः सद्योऽभ्यपद्यत।
असितायां च सावित्रीकल्पः प्रारम्भमभ्यगात्॥
पौषेदशम्यां शुक्लायामीशानः प्रादुरास ह।
असितायामघोरस्य कल्पस्योपक्रमोऽभवत्॥
एकादश्यां तु शुक्लायां माघे व्यानः प्रजज्ञिवान्।
तस्यामेव तमिस्रायां वाराहः प्राप भूपते।
सारस्वतस्तु द्वादश्यां शुक्लायां फाल्गुनस्य च॥
कृष्णायामपि वैराजो विरराज महामनाः।
इति त्रिंशदमी कल्पास्तिथयः परमेष्ठिनः॥
आरम्भतिथयस्तासु शुक्लाःपुण्यतमा मताः।
आसु श्राद्धे कृते पुण्यमाकल्पस्यापि कल्पते॥ इति।
इति कल्पादयः।
अथ काम्यास्तिथयः। तत्र मनुः—
कुर्वन्प्रतिपदि श्राद्धं सुरूपाल्लंभते सुतान्।
कन्यकां तु द्वितीयायां तृतीयायां तु बन्दिनः॥
बन्दिनः स्तावकाः।
पशून्क्षुद्रांचतुर्थ्यां तु पञ्चम्यां शोभनान्सुतान्।
षष्ठ्यां द्यूतं कृषिं चैव सप्तम्यां लभते नरः।
अष्टम्यामपि वाणिज्यं लभते श्राद्धतः सदा।
स्यान्नवम्यामेकखुरं दशम्यां द्विखुरं बहु।
एकादश्यां तथा रूप्यं ब्रह्मवर्चस्विनः सुतान्।
द्वादश्यां जातरूपं तु रजतं कुप्यमेव च॥
जातिश्रैष्ठ्यं त्रयोदश्यां चतुदर्शयां तु सुप्रजाः।
प्रीयन्ते पितरश्चात्र ये शस्त्रेण हता रणे॥
श्राद्धदः पञ्चदश्यां तु सर्वान्कामानवाप्नुयात्। इति।
मार्कण्डेयः—
कन्यागते सवितरि दिनानि दश पञ्च च।
पार्वणेनैव विधिना श्राद्धं तत्र विधीयते॥
प्रतिपद्धनलाभाय द्वितीया द्विपदप्रदा।
वरार्थिनां तृतीया च चतुर्थी शत्रुनाशिनी॥
श्रियं प्राप्नोति पञ्चम्यां षष्ठ्यां पूज्यो भवेन्नरः।
गणाधिपत्यं सप्तम्यामष्टम्यां बुद्धिमुत्तमाम्॥
स्त्रियो नवम्यां प्राप्नोति दशम्यां पूर्णकामताम्।
वेदांस्तथाऽऽप्नुयात्सर्वानेकादश्यां क्रियापरः॥
द्वादश्यां हेमलाभं च प्राप्नोति पितृपूजकः।
प्रजां मेधां पशुं पुष्टिं स्वातन्त्र्यं वृद्धिमुत्तमाम्॥
दीर्घमायुरथैश्वर्यं कुर्वाणस्तु त्रयोदशीम्।
अवाप्नोति न संदेहः श्राद्धं श्रद्धापरो नरः॥
युवानः पितरो यस्य मृताः शस्त्रेण वै हताः।
तेन कार्यं चतुर्दश्यां तेषां तृप्तिमभीप्सता ॥
श्राद्धं कुर्वन्नभावास्यामन्नेन पुरुषः शुचि।
सर्वान्कामानवाप्नोति स्वर्गवासं समश्नुते॥ इति।
नक्षत्रफलांन्याह याज्ञवल्क्यः—
स्वर्गं ह्यपत्यमोजश्च शौर्यं क्षेत्रं बलं तथा।
पुत्रं श्रैष्ठ्यं च सौभाग्यं समृद्धिं मुख्यतां शुभम्॥
प्रवृत्तचक्रतां चैव वाणिज्यप्रभृतीनपि।
अरोगित्वं यशो वीतशोकतां परमां गतिम्॥
धनं वेदान्भिषक्सिद्धिं कुप्यं गा अप्यजाविकम्।
अश्वानायुश्च विधिवद्यः श्राद्धं संप्रयच्छति॥
कृत्तिकादिभरण्यन्तं सकामान्प्राप्नुयादिमान्।
आस्तिकः श्रद्दधानश्च व्यपेतमदमत्सरः॥ इति।
मार्कण्डेयोऽपि—
कृत्तिकासु पितॄनर्चन्स्वर्गमाप्नोति मानवः॥
अपत्यकामो रोहिण्यां सौम्ये तेजस्वितां लभेत्।
आर्द्रायां शौर्यमाप्नोति क्षेत्रादि च पुनर्वसौ॥
पुष्टिं पुष्ये पितॄनर्चन्नाश्लेषासु वरान्सुतान्।
मघासु स्वजनं श्रैष्ठ्यं सौभाग्यं फाल्गुनीषु च॥
प्रदानशीलो भवति सापत्यश्चोत्तरासु च।
प्राप्नोति श्रेष्ठतां सत्सु हस्ते श्राद्धमदो नरः॥
रूपवन्ति च चित्रासु तथाऽपत्यान्यवाप्नुयात्।
वाणिज्यलाभदा स्वाती विशाखाः पुत्रकामदाः॥
कुर्वतां चानुराधाश्चदधुश्चक्रप्रवर्तनम्।
ज्येष्ठास्वर्थाधिपत्यं तु मूले त्वारोग्यमुत्तमम्॥
आषाढासु यशःप्राप्तिरुत्तरासु विशोकता।
श्रवणे च शुभाल्लोँकान्धनिष्ठासु धनं महत्॥
वेदवेत्ताऽभिजिति तु भिषक्सिद्धिं च वारुणे।
अजाविकं प्रोष्ठपदे विन्देद्भार्यां तथोत्तरे॥
रेवतीषु तथा रौप्यमश्विनीषु तुरंगमान्।
श्राद्धं कुर्वंस्तथाऽऽप्नोति भरणीष्वायुरुत्तमम्॥
तस्मात्काम्यानि कुर्वीत ऋक्षेष्वेतेषु तत्त्ववित्।
इति काम्यानि नक्षत्राणि। अथ वाराः।हेमाद्रौविष्णुः—सततमादित्येऽहनि श्राद्धं कुर्वन्नारोग्यमाप्नोति सौभाग्यं चान्द्रे समरविजयं कौजे सर्वान्कामान्बुधे विद्यामभीष्टां जीवे धनं भवति वै शुक्रे जीवितं च शनैश्चरे, इति। कूर्मपुराणे—
आदित्यवारे त्वारोग्यं चन्द्रे सौभाग्यमेव च।
कुजे सर्वत्र विजयं सर्वान्कामान्बुधस्य तु।
विद्यां विशिष्टां च गुरौ धनं वै भार्गवे पुनः।
शनैश्चरे भवेदायुरारोग्ये च सुदुर्लभे॥
इति वाराः।हेमाद्रौस्कान्दे—
अमायां यदि सोमः स्यात्सप्तम्यां वै दिवाकरः।
चतुर्दश्यां चतुर्थ्यां वा वारः स्यान्मङ्गलस्य तु॥
तदा श्राद्धं प्रकर्तव्यं पितॄणां तृप्तिमिच्छता।
षष्टिर्वर्षसहस्राणि षष्टिवर्षशतानि च॥
नन्दन्ति पितरः स्वर्गे विमानवरप्रास्थिताः।
तावन्तमेव कालं हि श्राद्धकर्तुस्तथा फलम्॥ इति।
मघासु दत्त्वा विधिना चतुरो लभते वरान्।
धनमन्नं सुतानायुर्ददातिपितरोऽर्चिताः॥
शातातपः—
विभक्ता वाऽविभक्ता वा कुर्युः श्राद्धं सदैव हि॥
मघासु च ततोऽन्यत्र नाधिकारः पृथग्विना॥
पृथक्त्वं विना विभागं विनेत्यर्थः। इति काम्यश्राद्धकालः। अथाऽऽमश्राद्धकालः। तत्र
आमश्राद्धं तु पूर्वाह्णएकोद्दिष्टं तु मध्यतः।
पार्वणं चापराह्णे तु प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम्॥
इति हेमाद्रौ शातातपहारीताभ्यामामश्राद्धे पूर्वाह्णोविहितः। तत्रापि—
प्रातःकाले तु न श्राद्धं प्रकुर्वीत द्विजोत्तमः।
नैमित्तिकेषु श्राद्धेषु न कालनियमः स्मृतः॥
इति माधवीये शिवराघवसंवादवचनेन प्रातःकालस्य निषेधात्,
कालात्प्रातस्तनादूर्ध्वं त्रिमुहूर्ता तु या तिथिः।
आमश्राद्धं तत्र कुर्याद्विमुहूर्ताऽपि या भवेत्॥
इति मदनरत्ने व्याघ्रपादवचनाच्च तदूर्ध्वभाविसंगवकालो ग्राह्यः। तच्चाऽऽमश्राद्धम्—
श्राद्धविघ्ने द्विजातीनामामश्राद्धं प्रकीर्तितम्।
अमावास्यादिनियतं माससंवत्सरादृते॥
यावत्स्यान्नाग्निसंयुक्त उत्सन्नाग्निरथापि वा।
आमश्राद्धं तदा कुर्याद्धस्तेऽग्नौकरणं भवेत्॥
आपद्यनग्नौतीर्थे च चन्द्रसूर्यग्रहे तथा।
आमश्राद्धं द्विजैः कार्यं शूद्रः कुर्यात्सदैव हि॥
स्त्री शूद्रः स्वपचश्चैव जातकर्मणि चाप्यथ।
आमश्राद्धं सदा कुर्याद्विधिना पार्वणेन तु॥
स्वयं पचतीति स्वपचोऽपत्नीक इत्यर्थः। इति हेमाद्रौहारीतजमदग्न्युशनोवचनैः,
पाकाभावेऽधिकारः स्याद्विप्रादीनां नराधिप।
अपत्नीनां महाबाहो विदेशगमनादिभिः॥
सदा चैव तु शूद्राणामामश्राद्धं विदुर्बुधाः।
इति तत्रैव सुमन्तुवचनेन—
अपत्नीकःप्रवासी च यस्य भार्या रजस्वला।
सिद्धान्नेन न कुर्वीत आमं तस्य विधीयते॥
इति माधवीय औशनसेन—
आर्तवेन द्विजाभावे ग्रहणे देशविप्लवे।
आमश्राद्धं द्विजः कुर्याच्छूद्रः कुर्यात्सदैव हि॥
इति मदनरत्ने वैयाघ्रपादवचनेन,
अनग्निश्च प्रवासी च यस्य भार्या रजस्वला।
आमश्राद्धं प्रकुर्वीत न तत्कुर्यान्मृतेऽहनि॥
इतिकालादर्शेमरीचिवचनेन च द्विजातीनां नैमित्तिकत्वेन शूद्रस्य च नित्यत्वेन विहितम्। तत्र किं पाकाभाव एवसाक्षान्निमित्तमन्यानि सर्वाणि तदुपपादकानि उत सर्वाणि साक्षादेव निमित्तानीति चिन्तनीयम्। तत्र तावदनेकेषां निमित्तकल्पने प्रमाणाभावात्पाकाभाव एव साक्षान्निमित्तम्। अन्यानि तदुपपादकान्येवेति युक्तं प्रतिभाति। अत एव पाकाभाव एव द्विजातीनामामश्राद्धम्।पाकसंभवे तु अन्नेनैवेति युक्तमिति निर्णयसिन्धुरन्येऽपि नवीनग्रन्थाश्चसंगच्छन्त इति चेन्न। पत्न्यभाव विदेशगमनादीनां पाकाभावसंपादकत्वेऽपि गृह्याग्न्यभावतदुत्सादयोस्तदुत्पादकत्वाभावेन तदुपादानवैयर्थ्यापत्तेः। अस्तु तर्ह्यनन्यगत्या तयोरपि साक्षानिमित्तत्त्वमन्येषां तु तथाकल्पने प्रमाणाभावः। अत एव कालतत्त्वविवेचनेऽग्न्यभावस्यैव पाकाभावसंपादकत्वाभावेन स्वातन्त्र्येणैव निमित्तत्वमन्येषां तु पाकाभावसंपादकत्वेनैवेति सिद्धान्तितमिति चेन्न।
** यस्य भार्या रजस्वला।
सिद्धान्नेन न कुर्वीत आभं तस्य विधीयते।**
इत्यादिवचनवैयर्थ्यापत्तेः। अत एव पाणिग्रहणाद्धि सहत्वं कर्मस्विति वचनाद्गृहमेधिनः श्राद्धेऽपि पत्न्या सहैवाधिकारात्पत्नीगतरजोदर्शनमपि स्वातन्त्र्येण निमित्तमिति हेमाद्रिणा सिद्धान्तितम्। यत्तु पाणिग्रहणाद्धीति वचनं तु न्यायप्राप्तसहत्वानुवादस्तेन पुत्रकामश्राद्धादौ भवतु पत्न्या अप्यधिकारो न तु सर्वत्राग्निसाध्येऽपि। न च नित्यनैमित्तिकश्राद्धेषु पत्न्याः फलभागित्वं संभवतीति फलमाग्नित्वरूपोऽधिकारःपत्न्या नास्त्येव। पत्न्याज्यमवेक्षत इत्यादौ पत्नीशब्दो भार्यापरस्तेन यज्ञस्वामियजमानभार्याकर्तृकत्वेनावगतानामाज्यावेक्षणादीनां यजमानभार्याकर्तृकत्वमात्रं तत्र संभवतस्त्यागायोगाद्गृह्यत इत्यादिना कालतत्त्वविवेचने हेमाद्रिसिद्धान्ते दूषणोद्भावनं तदयुक्तम्। तस्मात्साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदित इति मनुवचनविरोधापत्तेः। अपि च पत्न्याः फलभागि-
त्वरूपाधिकाराभावे ‘अथैतां पत्नीं योक्त्रेण संनह्यति एनां गार्ह्यपत्ये समिधमाधापयति एनामाज्यमवेक्षयति’ इत्यादिबौधायनसूत्रे फलिसंस्कारविधानवैयर्थ्यापत्तेः। अत एव तत्सूत्रभाष्ये माधवेनावेक्षणस्याऽऽज्यसंस्कारत्वे ‘अमेध्यं वा एतत्करोति यत्पत्न्यवेक्षते गार्हपत्येऽधिश्रयति मेध्यत्वाय’ इति वचनविरोधात्पत्नीसंस्कार एवावेक्षणम्। अतः पत्न्यनेकत्व एकैकामाज्यमवेक्षयेदित्यादिशालीक्युपमन्य्वौपमन्यवीपुत्रवचनैः सर्वाभिरेव कर्तव्यमिति सिद्धान्तितम्। अत एव क्रयस्य धर्ममात्रत्वमिति षाष्ठसूत्रभाष्येपरिणेवस्येदंपारिणेयम्। तदेव परिणेय्यंपरिणेतुः स्वं तस्येष्टे स्वामिनीभवतीत्येतदर्थकपत्नीपारिणेय्यस्येष्ट इति श्रुतिः, भसदा वा एताः परग्रहाणामैश्वर्यमवरुन्धत इति च स्ववतोस्तु वचनादैककर्म्यंस्यादित्युत्तरसूत्रे स्ववन्तावुभावपि दंपती यस्त्वया कश्चिद्धर्मः कर्तव्यः सोऽनया सहेति मीमांसाभाष्यम्, उद्वाहकाल एवानयोर्वचनेन द्रव्यसाधारण्यं प्रतिपादितं धर्मे चार्थे च कामे च नातिचरितव्येत्यनेनातो यस्त्यागः स इतरेतरसस्पृष्टयोरेव दंपत्योर्न हि साधारणमेकेन त्यक्तुं शक्यते पत्न्याज्यमवेक्षते यजमानश्चेति विहितावेक्षणद्वयस्य स्वामिद्वयकर्तृकस्य प्रयोगवचनेन समुच्चितस्य ग्रहणात्स्वामिभ्यां समुच्चिताभ्यामवेक्षितस्याऽऽज्यस्य कर्माङ्गत्वात्, तथा मेखलया यजमानं दीक्षयति योक्त्रेण पत्नीमित्यादिवचनाच्च। तस्मादितिकर्तव्यतालोचनया द्रव्यसाधारण्यान्न भर्त्रा सह विभजेदिति विभागप्रतिषेधात, धर्मे चार्थे च कामे च नातिचरितव्येति वचनाच्चसंसर्गाभिप्रायमेकवचनमिति नास्ति भिन्नयोः कर्तृतेति तन्त्ररत्नसिद्धान्तः। यथैव ह्यसौ तत्कृतान्स्नानोद्वर्तनपरिषेकाल्लँँभते। यथैव ह्यसावकुर्वती किंचित्पापं तत्कृतान्वयबन्धनपरिक्लेशाल्लँभते, एवं प्रष्ठशब्दमपीति महाभाष्यं च न विरुध्यते। न चावेक्षणस्याऽऽज्यसंस्कारत्वे पत्नीसंस्कारत्वं माधवोक्तं विरुध्येतेति वाच्यम्।गयाश्राद्धादिवदेकस्योभयसंस्कारकत्वे बाधकाभावात्। अत एव संकल्पे च कर्तृनिर्णयस्त्रिकाण्डमण्डनेन कृतः।त्यागं तु सर्वथा कुर्यात्तत्राप्यन्यतरस्तयोः॥ उभावप्यसमर्थौ चेन्नियुक्तः कश्चन त्यजेत्। तयोदंपत्योर्मध्येऽन्यतरः कुर्यादित्यर्थ इत्यन्नसमर्पणप्रकरणे हेमाद्रिः संगच्छते। यत्तुमिताक्षरादौ व्रतेष्टापूर्तादावन्यतरस्याप्यधिकार इत्युक्तम्, तदन्यतरस्य सामर्थ्याभावे तदनुमत्याऽन्यतरेणापि कार्यमिति न विरुध्यते। अनुमतिं विनाऽप्यधिकारे—
नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम्।
इत्यादिस्मृतिवाक्यानां वैयर्थ्यापत्तेः। अत एव पाणिग्रहणाद्धि सहत्वं कर्मस्विति सहग्रहणं न बलीवर्दवत्समानाधिकार इति दर्शनार्थम्। ततश्चभर्त्राऽसौ वक्तव्या, अहं दानादि वर्तयामि, त्वमपि संकल्पं कुर्विति,तयाऽपि तथैव कार्यमन्यथा दोष इति सहाधिकारस्ततश्चैकफलभोक्तृत्वं फलान्तरोद्भूतिप्रतिबन्धश्चेति दारकर्मणि मैथुन इति मनुवचनेऽपरार्कः संगच्छते। तस्माद्भार्ययासहैवाधिकार इति हेमाद्रिसिद्धान्तस्यातिरमणीयत्वात्, आर्तवस्याप्यामश्राद्धनिमित्तत्वं युक्तमेवेति सिद्धम्। अत एव श्राद्धविघ्न इति वचनं भार्यारजोदर्शनविषयमिति माधवसिद्धान्तः,
रजस्वलाङ्गनोऽनग्निर्विदेशस्थोऽपि वाऽऽब्दिके।
दर्शादाविव नाऽऽमेन त्वन्नेन श्राद्धमाचरेत्॥
इति कालादर्शश्चसंगच्छते। तस्माद्भार्यारजोदर्शनमामश्राद्धस्यानिमित्तमेवेति कालतत्त्वाद्यर्वाचीनग्रन्थास्तु पत्नी पारिवेश्यस्येष्ट इत्यादि- श्रुतिमन्त्रादिवचनमीमांसाभाष्यतन्त्ररत्नापरार्कहेमाद्रिमाधवाद्यर्थाज्ञाननिबन्धनत्वादुपेक्ष्या एवेति दिक्। अपरमिदं चिन्तनीयम्। किमयं चमसवत्साधनविधिरुत प्रथमभक्षवत्कर्मान्तरमिति।अत्रापि साधनविधित्वमेव तावद्युक्तंविशिष्टकर्मान्तरकल्पने गौरवात्। अत एवाऽऽमश्राद्धं तु पूर्वाह्ण इति प्रकरणे तदा ह्ययं न्यायः प्रकृते स्याद्यदि अन्नश्राद्धाद्भिन्नमामश्राद्धं नाम कर्म स्यादिति हेमाद्रिदूषणे कालतत्त्वविवेचनं संगच्छत इति चेन्न। तत्र यहि राजन्यं वैश्यं वा याजयेत्स यदि सोमं बिभक्षयिषेन्न्यग्रोधस्तिभनीराहृत्य ताः संपिष्य दधन्युन्मृज्य तमस्मै भक्षं प्रयच्छेन्न सोममिति वचनेन यागोद्देशेनैव सोमस्थान एव तद्विधानाद्युक्तंसाधनविधित्वम्। प्रकृत आमश्राद्धमित्यत्रैकस्मिन्पद उद्देश्यविधेयभावेनान्वयस्य वक्तुमशक्यत्वेन तथात्वासंभवात्। अतोऽनन्यगत्या प्रथमभक्षवद्विशिष्टकर्मान्तरविधित्वमेव स्वीकर्तव्यम्। न चैकपद उद्देश्यविधेयभावबोधस्वीकारे बाधकाभाव एकप्रसरताभङ्गस्य दूयकत्वबीजानिरुक्तेरिति वाच्यम्।सामर्थ्यभङ्गस्यैव तद्बीजत्वात्। सर्वत्रोद्देश्यविधेयभावस्थल उद्देश्ये विधेयान्वयात्पूर्वमेवोद्देश्यस्य तत्त्वेन क्रियान्वयोऽवश्यं वक्तव्यः। यथा यागेन स्वर्गं भावयेदित्यादौ यागपदाद्यागोपस्थितौ स्वर्गपदात्स्वर्गोपस्थितौ स्वर्गस्योद्देश्यत्वेन यागस्य विधेयत्वेन क्रियान्वये प्रथममवगते पश्चादेव विधेयस्य यागस्योद्देश्ये स्वर्गेऽन्वयः, तद्वच्चप्रथमभक्षपदेऽपि, वक्तव्यस्तत्र प्राथम्येनैकार्थीभावापन्नस्य भक्षस्य निष्कृष्य क्रियान्वयासंभवस्यैव बाधकत्वात्। यत्तु कालतत्त्वविवेचनेपक्वान्नासंभव आममित्याद्युक्तं;
तदुक्तार्थाभिप्रायकहेमाद्रिग्रन्थार्थानवबोधप्रयुक्तत्वादयुक्तमिति ज्ञेयम्। अत एव पत्न्यभावे तद्रजोदोषे ग्रहणतीर्थसंक्रमादिषु पत्न्यग्नीसंनिधानेऽपि पाकसंभवेऽप्यामश्राद्धमेव मुख्यमिति कालतत्त्वविवेचनोपन्यस्तस्मृतिरत्नावली संगच्छते।
भुक्तवत्सु च विप्रेषु दत्त्वा पिण्डान्यथाक्रमम्।
इति तीर्थश्राद्धे हेमाद्रौ पाद्मवचनात्तीर्थेऽन्नश्राद्धासंभव एवाऽऽमश्राद्धमिति विभावनीयम्। तत्सिद्धमामश्राद्धं कर्मान्तरमेवेति। तस्यापि नैमित्तिकत्वनित्यत्वभेदेन द्वैविध्यादामश्राद्धं तु पूर्वाह्णइति पूर्वाह्णविधेरामश्राद्धत्वावच्छिन्नविषयत्वे
मध्याह्नात्परतो यस्तु कुतपःसमुदाहृतः ।
आममात्रेण तत्रैव पितॄणां दत्तमक्षयम्॥
इति हेमाद्रिनिर्णयामृतमदनरत्नेषु शातातपवचनस्य निर्विषयत्वापत्तेः। न चाऽऽमश्राद्धं त्वितिद्विजकर्तृकनैमित्तिकामश्राद्धविषयम्। मध्याह्नादिति तु शूद्रकर्तृककमित्यामश्राद्धविषयमिति व्यवस्था युक्ता वैपरीत्यस्यापि सुवचत्वात्। अत एव पूर्वाह्णविधिस्तु शूद्रामश्राद्धविषय एवेति कालतत्वविवेचनसिद्धान्तः संगच्छते। न चाऽऽमश्राद्धमित्यस्य शातातपहारीतप्रणीतत्वेन प्राबल्यं, मध्याह्नादित्यस्य शातातपमात्रप्रणीतत्वेन दुर्बलत्वम्। अत एव हेमाद्रिमात्रोपज्ञमिदं यदि साकरं, तर्हिसर्वत्राऽऽमश्राद्धे पूर्वाह्णविकल्पितं कुतपोत्तरार्धादिकालं विधत्तामिति कालतत्त्वविवेचनं संगच्छत इति वाच्यम्। शातातपमात्रप्रणीतानां वचनान्तराणा मप्यप्रामाण्यापत्तेः। न चैतस्यानाकरत्वेन शातातपीयत्वसंदेहादप्रामाण्यं वचनान्तराणां तत्त्वेन निश्चयात्प्रामाण्यमिति युक्तम्। हेमाद्रिनिर्णयामृत मदनरत्नलिखितस्यानाकरत्वे सर्वत्रैव तथात्वापत्त्या सर्वोपप्लवएव स्यात्। तस्मात्कथं निर्णय इत्याकाङ्क्षायामत्र हेमाद्रिः— आमश्राद्धं तु पूर्वाह्णइति विधेर्द्विजकर्तृकनैमित्तिकामश्राद्धशूद्रकर्तृकनित्यामश्राद्धोभयविषयत्वे पार्वणं चापराह्णे त्वित्यनेन विधीयमानोऽपराह्णोद्विजकर्तृकब्राह्मण भोजनात्मक नित्यमुख्यपार्वण एवाग्निष्टोमसंस्थाके ज्योतिष्टोमे दीक्षणीयादिधर्मवत्सोमद्रव्यके नित्यज्योतिष्टोमे क्रयादिवदुपदेशत एवाऽऽयाति द्विजकर्तृकनैमित्तिकामश्राद्धे त्वतिरात्रे दीक्षणीयादिवत्फलचमसे क्रयादिवदतिदेशेनैव शूद्रस्य ब्राह्मणभोजना-
त्मकश्राद्धनिषेधादामश्राद्धमेव नित्यमिति। तत्राप्युपदेशतं एवाऽऽयाति, इति स्थितिः। तत्रानेन विधीयमानः पूर्वाह्णोनैमित्तिकामश्राद्ध आतिदेशिकापराह्णस्य नित्यं बाधं कृत्वा नित्यं प्रवर्तेत। शूद्रकर्तृकामश्राद्धे तु औपदेशिकापराह्णस्य नित्यं बाधासंभवात्पाक्षिकबाधेन पाक्षिकी प्रवृत्तिरितिवैषम्यं स्यात्। अतश्चायं पूर्वाह्णविधिरुभयत्रभवन्नेकत्र नित्यत्वमन्यत्र पाक्षिकत्वमित्येवंविधवैषम्याकुलीकृतः सन्नन्याय्यविकल्पदुस्थं शूद्रामश्राद्धं परिहृत्य द्विजामश्राद्धमेव विषयी करोतीति सिद्धान्तितवान्।यत्त्वत्र तदा ह्ययं न्यायः प्रकृते स्याद्यदि अन्नश्राद्धाद्भिन्नं नामाऽऽमश्राद्धं स्यादित्यादि कालतत्त्वविवेचने दूषणोद्भावनं तत्पूर्वोक्तरीत्या श्राद्धभेदस्याऽऽवश्यकत्वादेवायुक्तमिति बोद्धव्यम्। तस्मादामश्राद्धं तु पूर्वाह्णइति पूर्वाह्णविधिद्विजकर्तृकामश्राद्ध एव। शूद्रकर्तृकामश्राद्धे तु कुतुपोत्तरार्धप्रभृत्यपराह्णएवेति सिद्धम्। अत एव शूद्रकर्तृकामश्राद्धं मध्याह्नादिति वचनादपराह्णेकार्यम्। आमश्राद्धं तु पूर्वाह्णइत्येतत्तु द्विजकर्तृकानित्यामश्राद्धविषयमिति निर्णयामृतः, एतच्चाऽऽमश्राद्धस्य पूर्वाह्णविधानं द्विजातिविषयमिति मदनरत्नश्च संगच्छत इति दिक्। इदं चाऽऽमश्राद्धं शूद्रस्य।
न पक्वंभोजयेद्विप्रान्सच्छूद्रोऽपि कथंचन।
भोजयन्प्रत्यवायी स्यान्न च तस्य फलं लभेत्॥
इति हेमाद्रिनिर्णयामृतयोः सुमन्तुवचनेन बाह्मणभोजननिषेधात्,
मध्याह्नात्परतो यस्तु कुतुपः समुदाहृतः।
आममात्रेण तत्रैव पितॄणां दत्तमक्षयम्॥
इति शातातपवचन एवकारार्थकमात्रशब्दस्वारस्याच्चनित्यमेव। एतेन मात्रशब्दादामस्यानुकल्पत्वप्रतीतेर्द्विजान्प्रत्येव कालविधायकमिदमिति कालतत्त्वविवेचनं हेमाद्र्यर्थाज्ञानादयुक्तं बोध्यम्। द्विजानां पूर्वोक्तेषु निमित्तेषु विधानान्नैमित्तिकम्। तदपि यत्र मासिकसांवत्सरिकभिन्नेऽमावास्यादिश्राद्धे कालान्तरविधानं नास्ति तत्रैव भवति अमावास्यादि नियतमिति नियतपदस्वारस्यात्।
यत्तु—मासिकानि सपिण्डानि अमावास्या तथाऽऽब्दिकम्।
अन्नेनैव तु कर्तव्यं यस्य भार्या रजस्वला॥
इति निर्णयसिन्धौ कालिकानाम्ना वचनं लिखितं, तन्मूलालेखनाद्धेमाद्र्यादिमहानिबन्धेषु अदर्शनादनाकरं प्रमाणं चेदमावास्यायां ब्राह्मण-
निमन्त्रणपाकारम्भोत्तररजोविषयमिति न तद्विरोधः। एतेन पाकासंभव एव सर्वत्राऽऽमश्राद्धमिति निर्णयसिन्ध्वादय उपेक्ष्या एव। यत्तु इदानींतनानां पत्न्यां रजस्वलायामपि क्वचिदमावास्यादावन्नश्राद्धानुष्ठानं तन्मासिक आमश्राद्धानुष्ठानवद्बोध्यम्। महालयविषये तु सर्वस्मिन्नपि पक्षे श्राद्धं कुर्यात्तदशक्ता540वष्टम्यादि, तदशक्तौ दशम्यादिदर्शान्तं तदशक्तावनिषिद्ध एकस्मिन्वा दिने कुर्यादिति विष्णुस्मृत्यादिषु पञ्च पक्षा उक्तास्तत्र प्रथमादिपक्षे चिकीर्षिते पाकारम्भात्पूर्वं पत्नी रजस्वला चेदुत्तरोत्तरपक्ष एव स्वीकर्तव्यः। पाकारम्भोत्तरं चेद्रजःप्रवृत्तिस्तदा तामपरुध्य यजेतेत्यादिवचनानुष्ठानं भवत्येव। अनिषिद्ध एकस्मिन्या दिन इति पक्षेऽपि पूर्वस्मिन्पूर्वस्मिन्दिने रजःप्रवृत्तिश्चेत्तदोत्तरममावास्यापर्यन्तमेकं दिनं ग्राह्यम्। अमायामपि तत्संभावना चेद्द्वादश्यादिपूर्वतिथौ कर्तव्यम्। यदि किंचिन्निमित्तवशावाद्द्वादश्यादौ न कृतममायां रजोनुवृत्तिस्तदा
हंसे वर्षासु कन्यास्थे शाकेनापि गृहे वसन्॥
पञ्चम्योरन्तरे दद्यादुभयोरपि पक्षयोः॥
इति हेमाद्रौ यमवचनात्प्रतिपदादिपञ्चम्यन्तेषु एकस्मिन्दिने कर्तव्यम् । इदं महालयश्राद्धमामश्राद्धस्य नियतकालिकेष्वेवाभ्यनुज्ञानात्।
मृताहं च सपिण्डीं च गयाश्राद्धं महालयम्।
आपन्नोऽपिन कुर्वीत श्राद्धमाभेन कर्हिचित्॥
इति क्वचिन्नवीनग्रन्थे स्मृतिदर्पणलिखितगालववचनाच्चाऽऽमेन न भवति। पूर्वोक्तरीत्या पत्न्यां रजस्वलायां पक्वान्नेन न भवत्येव। तस्माद्रजस्वलायां पत्न्यां तच्छुद्ध्यनन्तरमेव कर्तव्यमिति सिद्धम्। प्रत्याब्दिकश्राद्धं तु
दर्शे रविग्रहे पित्रोः प्रत्याब्दिकमुपस्थितम्।
अन्नेनासंभवे हेम्ना कुर्यादामेन वा सुतः॥
निर्णयामृतमदनरत्नयोर्गोभिलवाक्याद्दर्शशब्देन पूर्णिमाऽप्युपलक्ष्यते रविग्रह इत्यनेन चन्द्रग्रहणमपीति ताभ्यामुक्तत्वात्। ग्रहणं विनाऽऽमेन न भवत्येव। तत्राप्यन्नश्राद्धासंभव एवाऽऽमश्राद्धं तस्याप्यसंभवे हेमश्राद्धमिति बोद्धव्यम्। आमश्राद्धविधायके माससंवत्सरादृत इत्यनेन भार्यारजोदर्शनरूपे विघ्न आमश्राद्धस्य पर्युदासात्प्रत्याब्दिकस्याव-
श्यानुष्ठेयत्वात्। तद्दिन एवान्नाद्धं कर्तव्यमुत शुद्धाविति चिन्तनीयम्।तत्र तावत्कालादर्शः—
रजस्वलाङ्गनोऽनग्निर्विदेशस्थोऽपि वाऽऽब्दिके।
दर्शादाविध नाऽऽमेन त्वन्नेन श्राद्धमाचरेत्॥
तदाह लौगाक्षिः—
पुष्पवत्स्वपि दारेषु विदेशस्थोऽप्यनग्निकः।
अनेनैवाऽऽब्दिकं कुर्याद्धेम्नानाऽऽमेन न क्वचित्॥
ननु—
आपद्यनग्नौतीर्थे च प्रवासे पुत्रजन्मनि।
आमश्राद्धं प्रकुर्वीत भार्या यस्य रजस्वला॥
आर्तवे देशकालानां विप्लवे समुपस्थिते।
आमश्राद्धं द्विजेःकार्यं शूद्रः कुर्यात्सदैव हि॥
इति कात्यायनवैयाघ्रपादवचनाभ्यां मृताहेऽप्यामश्राद्धं प्रतीयते। मैवं विशेषवचनबलात्सामान्यवचनयोरनयोराब्दिकव्यतिरिक्तविषयत्वमवसीयत इत्यविरोधः। किंच
अनग्निश्चप्रवासी च यस्य भार्या रजस्वला।
आमश्राद्धं प्रकुर्वीत न तत्कुर्यान्मृतेऽहनि॥
इति मरीचिवचनान्मृताह आमश्राद्धनिषेधः प्रतीयते। अतोऽन्नेनैवाऽऽब्दिकश्राद्धं कर्तव्यम्। ननु
आब्दिके समनुप्राप्ते यस्य भार्या रजस्वला।
पञ्चमे चह्नि तत्कार्यं न तत्कुर्यान्मृतेऽहनि॥
इति स्मृत्यन्तरवचनाद्भार्यायां रजस्वलायां मृताहे श्राद्धनिषेधः प्रतीयते तत्कथमुतरम्। अपुत्रा पत्नी पत्युराब्दिके स्वयमेव कर्त्री रजस्वला यदि स्यात्तद्विषयमिदं वचनम्। तदाह गौतमः—
अपुत्रा तु यदा भार्या संप्राप्ते भर्तुराब्दिके।
रजस्वला भवेत्सा तु कुर्यात्तत्पञ्च मेऽहनि॥ इति।
केचिदिदं वचनमन्यथा पठन्ति—
श्राद्धीयेऽहनि संप्राप्ते यस्य भार्या रजस्वला।
श्राद्धं तत्र न कर्तव्यं कर्तव्यं पञ्चमेऽहनि॥ इति।
अस्मिन्नपि पक्षे प्रत्याब्दिकव्यतिरिक्तविषयमिदं वचनम्। अत्र पक्षे भार्या रजस्वला त्वनिमित्ते श्राद्धविघ्नेऽमावास्याश्राद्धमेव पञ्चमेऽहनि
कर्तव्यमिति व्यवस्थापितवान्। तत्र पुत्रेति वाक्यस्य श्राद्धकर्त्री भार्या रजस्वला चेत्तस्यास्तद्दिने श्राद्धप्रसक्त्यभावात्।
आपन्नोऽप्याब्दिकं नैव कुर्यादामेन कर्हिचित्।
अन्नेन तदमायां तु कृष्णे वा हरिवासरे॥
इति कार्ष्णाजिनिवाक्यवत्पञ्चमदिनरूपकालान्तरविधायकत्वेन सार्थकत्वान्मृतेऽह्नि रजस्वलाभार्याकर्तृकश्राद्धे निषेधकस्मृत्यन्तरवचनस्वायत्तीकरणे सामर्थ्यमेव नास्ति किं चापुत्रेति वाक्येऽपुत्रा भर्तुराब्दिक इति समभिव्याहरेण भार्याशब्दादाब्दिकदेवतासंबन्धिभार्याप्रतीतावपि यस्य भार्या रजस्वलेत्यादौ सर्वत्र कुर्यादिति क्रियाक्षिप्तकर्तृभार्याया एव प्रतीतेः स्वारसिकत्वाद्भिन्नार्थत्वमेव युक्तम्। नच मूलैककल्पनालाघवाद्यस्य भार्येत्यत्रापि देवताभार्याप्रतीतिस्वीकारस्तद्बलादेव वचनभङ्गोऽपि न दोष इति वाच्यम्।लाघवमात्रेण भिन्नार्थयोरेकार्थकत्वकल्पनस्य सिद्धान्तविरुद्धत्वात्। एवमपि न तत्कुर्यान्मृतेऽहनीत्यंशे तथात्वस्य कथमपि वक्कुमशक्यत्वात्। नचैतदंशो नित्यानुवाद एव पञ्चमे त्वह्नि तत्कार्यमित्येव विधेयांश इति न दोष इति वाच्यम्। स्मृत्यन्तरवचनाद्भार्यायां रजस्वलायां मृताहे श्राद्धनिषेधःप्रतीयत इति ग्रन्थविरोधापत्तेः। अपि च यस्य भार्या रजस्वलेत्यत्र भार्याशब्दस्य मृतभार्यापरत्वेऽनग्निकःप्रवासी च यस्य भार्या रजस्वलेत्यादावपि तथात्वापत्तौ सर्वोपप्लव एव स्यात्। अत एव कालादर्शे—
श्राद्धीयेऽहनिसंप्राप्ते यस्य भार्या रजस्वला।
इति पाठान्तरं लिखितम्।हेमाद्रिमाधवादिभिरप्ययमेव पाठो धृतः। अस्मिन्पक्षे तु प्रत्याब्दिकव्यतिरिक्तविषयमिदं वचनमिति भार्यारजोदर्शनरूपविघ्नेऽमावास्यादिश्राद्धमेव पञ्चमदिने कर्तव्यमित्युक्तं तत्
श्राद्धविघ्ने द्विजातीनामामश्राद्धं प्रकीर्तितम्।
इत्यादिवचनैः स्मृतिचन्द्रिकापरार्कहेमाद्र्यादिभिः
रजस्वलाङ्गनोऽनग्निर्विदेशस्थोऽपि वाऽऽब्दिके।
दर्शादाविव नाऽऽमेन इति स्वोक्त्या च सह विरुद्धत्वादमावास्याग्रहणादिनिमित्तकश्राद्धस्य पञ्चमदिनेऽनुष्ठानस्य कस्याप्यसंमतत्वादयुक्त एव कालादर्श इति विभावनीयम्। अत एवापुत्रा तु यदा भार्येति प्रथमपाठदर्शनेन प्रवृत्तो निर्णयामृत उपेक्ष्यः। तस्मात्पुष्पवत्स्वपि दारेष्विति श्राद्धी येऽहनीति वचनयोर्विरोधपरिहारार्थं व्रीहियत्नवद्विकल्पः स्वीकर्तव्यः । स च—
श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यादुभौ धर्मावपि स्मृतौ।
स्मृतिद्वैधे तु विषयःकल्पनीयः पृथक्पृथक्॥
इति वचनविरुद्ध इति कथं निर्णय इति चेदत्र हेमाद्रिः—गृहमेधिनस्तु भार्यया सहैवाधिकारात्तस्यां रजोदर्शननिबन्धनाशुचित्वदूषितायां मुख्यकालमतिक्रम्याशुचित्वनिवृत्तावेव श्राद्धं कर्तव्यम्, अधिकारिभार्यान्तरयुक्तेन तु मृताह एव कर्तव्यमिति सिद्धान्तितवान्।युक्ततरं चैतत्। सहाधिकारस्तु पत्नी पारिणेय्यस्येष्ट इति श्रुत्या,
तस्मात्साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्यां सहोदितः।
इति मनुना चोक्तो मीमांसाभाष्यतन्त्ररत्नस्मृतिचन्द्रिकापरार्कादिभिः पुरस्कृतो युक्ततर इति पूर्वमुक्तत्वात्। यत्तु कालतत्त्वविवेचने मृतेऽहनीतिवचनमूलक एव सहाधिकारी हेमाद्रेरभिप्रेतः सोऽपि साग्निकस्यैव निरग्निकस्यापीति तु दीपिका भ्रममूलिकेत्युक्तं तत्सहाधिकारप्रतिपादक-श्रुत्याद्यदर्शननिबन्धनत्वादयुक्तम्। यदपि फलभागित्वरूपोऽधिकारः पत्न्या नास्तीति तदपि पूर्वोदाहृतानेकवचनादर्शनप्रयुक्तत्वात्तथैव। अत एवाऽऽर्थिकसहाधिकारवशात्पत्न्यां रजस्वलायां श्राद्धं न भवतीति यत्किंचिदेतदित्युक्तम्, तदपि तथैव। मृतेऽहनीति पुष्पवत्स्वपीति वचनाभ्यामनेकभार्यस्य तद्दिन एकभार्यस्य पञ्चमदिन इति व्यवस्थेति चेद्भार्यान्तरस्याधिकारोक्तिवैयर्थ्यमित्युक्तं तदप्ययुक्तम्। यदाऽनेका अपि युगपद्रजोयुक्ता गुणवत्यांज्येष्ठायां वा रजस्वलायां निर्गुणा कनिष्ठा वाऽरजस्वला तद्व्यावृत्त्यर्थं तस्याऽऽवश्यकत्वात्। अत एव—
धर्मपत्नी समाख्याता निर्दोषा यदि सा भवेत्।
दोषे सति न दोषःस्यादन्या कार्या गुणान्विता॥
इति स्मृतिचन्द्रिकायां दक्षवचनं संगच्छते। तस्मात्कालतत्त्वविवेचने यावन्ति दूषणान्युद्भावितानि, सर्वाणि तानि हेमाद्र्यर्थाज्ञाननिबन्धनत्वात्साहसरूपाणीति विभावनीयम्। यदपि निर्णयसिन्ध्वादौसहाधिकारसहत्वश्रुत्या वैकफलभोक्तृत्वेन वा पाककर्तृत्वेन वेति। नाऽऽद्यः, ज्येष्ठया न विनेतरेति विरोधात्। न द्वितीयः, अविभक्तभ्रातृषुएकस्याशुचित्वेऽप्यन्यतरस्याधिकारापत्तेः। न तृतीयः, निर्दशसूतिकारोगिण्यादावप्यकरणापत्तेरित्युक्तं तदप्ययुक्तम्। पत्नी पारिणेय्यस्येष्ट इत्युदाहृतश्रुत्याद्यदर्शननिबन्धनत्वाद्धर्मपत्नी समाख्यातेति वाक्यविरोधेन योग्यां समर्थां ज्येष्ठामनादृत्य कनिष्ठा न नियोक्तव्येत्यर्थकज्येष्ठया न विनेतरेति
वचनविरोधोद्भावनस्य दक्षवचनादर्शनप्रयुक्तत्वात्। एकस्य शंवानुगमननिमित्ताशौचे अन्यस्याधिकारस्य युक्तत्वात्पाककर्तृत्वेन सहाधिकारस्योक्तिसंभवाभावाच्चेत्यत्र हेमाद्रिर्बभ्रामेत्युक्तिः प्रतारणैवेति। अत एव माधवेन श्राद्धीयेऽहनीति वचनाद्भार्यायां रजस्वलायामपि तद्दिन एवाऽऽब्दिकं कार्यमिति केचित्। अधिकारिभार्यान्तरयुक्तेन तद्दिन एकभार्येण पञ्चमदिन इत्यन्य इति कालादर्शमतं, हेमाद्रिमतं चोपन्यस्य युक्तायुक्तविचारेक्रियमाणेकालादर्शस्यासंगतत्वं स्फुटं भविष्यतीति गूढाभिसंधिना यदत्रयुक्तं तद्ग्राह्यमित्युपसंहृतम्। तस्माद्भार्यायां रजस्वलायामधिर्यान्तरयुक्तेनैव मृततिथौ श्राद्धं कर्तव्यम्। अधिकारिभान्तररहितेन तु पञ्चमदिन एवेति सिद्धम्। एतेन रजस्वलायामपि भार्यायां मृततिथावेव श्राद्धं कर्तव्यमिति कालतत्त्वविवेचनाद्यर्वाचीन ग्रन्थाः पत्नी पारिणेय्यस्येष्ट इत्याद्युदाहृतानेकवचनादिदर्शनाभावनिबन्धनत्वादयुक्ता एवेति चिन्तनीयम्। श्राद्धकर्त्री भार्या रजस्वला चेत्तथा पञ्चमदिन एव कार्यम्।
शुचिभूतेन दातव्यं या तिथिः प्रतिपद्यते।
सा तिथिस्तस्य कर्तव्या न चान्या वै कदाचन॥
इति हेमाद्र्याद्युदाहृतऋष्यशृङ्गवचनात्। वैधब्राह्मणनिमन्त्रणोत्तरं पाकारम्भोत्तरं वाभार्या रजस्वला चेत्तदा तामपरुध्य यजेतेति वचनात्तद्दिनएव कर्तव्यम्। श्राद्धकर्त्री भार्या पाकारम्भोत्तरं रजस्वला चेतद्दिने ब्राह्मणा भोजनीयाः। सति सामर्थ्येपञ्चमदिने श्राद्धं कर्तव्यम्।
विदेशगो वा विगताग्निको वा रजस्वलायामपि धर्मपत्न्याम्।
श्राद्धं मृताहे विदधीत पाकैर्नाऽऽमेन हेम्ना न तु पञ्चमेऽह्नि॥
इति बोपदेवोक्तिः,
रजस्वलायां भार्यायां क्षयाहं यः परित्यजेत्।
स वै नरकमाप्नोति यावदाभूतसंप्लवम्॥
इति पारिजातेऽनिर्दिष्टाकरं वचनं च पाकारम्भोत्तररजोविषयम्, अधिकृतभार्यान्तरयुक्तविषयं चेति ज्ञेयम्। मासिकविषय आहात्रिः—
तदहश्चेत्प्रदुष्येत केनचित्सूतकादिना।
सूतकानन्तरं कुर्यात्पुनस्तदहरेव वा॥
१.ग,छ,वा कर्तृभा
सूतकानन्तरदिन उत्तरमासगततत्तिथौवा कर्तव्यम्।
देये पितॄणां श्राद्धे तु आशौचं जायते यदा।
आशौचे तु व्यतिक्रान्ते तेभ्यः श्रद्धं प्रदीयते॥
इति ऋष्यशृङ्गवचनादाशौचरूपविघ्ने तदनन्तरं रजोदर्शनादिरूपविघ्न उत्तरमासगतमृततिथौ कर्तव्यमिति हेमाद्रिमाधवौ। आब्दिकमासिकभिन्नममावास्यादिनिमित्तकं तु सूतकादिविघ्ने लुप्यत एव।
दानं प्रतिग्रहो होमः स्वाध्यायः पितृकर्म च।
प्रेतकर्म क्रियावर्जमाशौचे विनिवर्तते॥
इति हेमाद्रौशङ्खवचनात्। सूतकान्तेऽपि विघ्नान्तरवशान्न कृतं चेत्तदाऽमायां कृष्णैकादश्यां वा कर्तव्यम्।
मासिकेऽदे तु संप्राप्ते अन्तरा मृतसूतके।
वदन्ति शुद्धौ तत्कार्यं दर्शे वाऽपि विचक्षणाः॥
श्राद्धविघ्ने समुत्पन्ने अविज्ञाते मृतेऽहनि।
एकादश्यां तु तत्कार्यं कृष्णपक्षे विशेषतः॥
इति हेमाद्रौषट्त्रिंशन्मतवचनान्मरीचिवचनाच्च। तत्रापि मुख्यकालप्रत्यासन्नत्वाच्छुद्ध्यनन्तरकालः श्रेष्ठः, दर्शादिस्तु गौण इति हेमाद्रिमाधवौ। आशौचादि विना तिथ्यतिक्रमोन कर्तव्यः।
तिथिच्छेदो न कर्तव्यो विनाशौचं यदृच्छया।
पिण्डश्राद्धं च दातव्यं विच्छित्तिं नैव कारयेत्॥
इति हेमाद्रौस्मृत्यन्तरवचनात्। इति भार्यारजोदर्शने प्रत्याब्दिकादिविचारः। प्रकृत आमश्राद्ध इतिकर्तव्यतामाह हेमाद्रौ व्यासः—
सिद्धान्ने तु विधिर्यः स्यादामश्राद्धेऽप्यसौ विधिः।
आवाहनादि सर्वं स्यात्पिण्डदानं च भारत॥
दद्याद्यच्च द्विजातिभ्यः शृतं वाऽशृतमेव च।
तेनाग्नौकरणं कुर्यात्पिण्डांस्तेनैव दापयेत्॥
तत्रैव पत्रिंशन्मते—
आमश्राद्धं यदा कुर्यात्पिण्डदानं कथं भवेत्।
गृहपाकात्समुद्धृत्य सक्तुभिःपायसेन वा॥
पिण्डान्दद्याद्यथालाभं तिलैः सह विमत्सरः।
प्रचेताः—
आमश्राद्धप्रदः पिण्डांस्तथाऽग्नौकरणं च यत्।
यद्दद्यात्तत्र तेनैव यत्किंचिच्छ्राद्धिकं भवेत्॥
किंचिद्विकिरादिकमिति हेमाद्रिः।
आमं ददद्धि कौन्तेय तद्दानं द्विगुणं भवेत्।
द्वित्रिचतुर्गुणं शस्तं न त्वेकगुणमर्पयेत्॥ इति।
अशक्तावुक्तं वाराहे—
असमर्थोऽन्नदानस्य धान्यमाशं स्वशक्तितः।
प्रदद्यात्तु द्विजातिभ्यः स्वल्पामपि च दक्षिणाम्॥
** **अश्यत इत्याशो बाहुलकात्कर्माणि घञ्। आमं तण्डुलादिकम्। तदाह वसिष्ठः—
सस्यं क्षेत्रगतं प्राहुः सतुषं धान्यमुच्यते।
आमं वितुषमित्युक्तं स्विन्नमन्नमुदाहृतम्॥ इति।
अत्र केषुचिन्मन्त्रेषूहमाह हेमाद्रौमरीचिः—
आवाहने स्वधाकारे मन्त्रा ऊह्या विसर्जने।
अन्यकर्मण्यनूह्याः स्युरामश्राद्धविधिः स्मृतः॥ इति।
उशन्तस्त्वेतिमन्त्र अत्तव इत्यत्र स्वीकर्तव इति। नमो वः पितर इष इत्यत्र आमायेति। वाजे वाजे तृप्ताइत्यत्र तर्प्स्यथ, इत्यूहः कार्य इति हेमाद्रिः। पुत्रजन्मनि तु हेमश्राद्धं मुख्यं तदाह हेमाद्रौ संवर्तः—
पुत्रजन्मनि कुर्वीत श्राद्धं हेम्नैवबुद्धिमान्।
न पक्वेन नचाऽऽमेन कल्याणान्यभिकाङ्क्षयन्॥ इति।
एतेन पुत्रजन्मनि पक्वान्नभोक्त्रसंभवकृतः पाकश्राद्धासंभव इति नवीनोक्तिरुपेक्ष्या।पुत्रजन्मभिन्नेष्वामश्राद्धनिमित्तेषु तु आमासंभव एव हेमश्राद्धम्। तदाह मरीचिः—
आमान्नस्याप्यभावे तु श्राद्धं कुर्वीत बुद्धिमान्।
आमाच्चतुर्गुणेनैव हिरण्येन सुरोचिषा॥ इति।
आमान्नमूल्याच्चतुर्गुणेनेत्यर्थः। हेमाद्रौभविष्ये—
गृहपाकात्समुद्धृत्य सक्तुभिःपायसेन वा।
पिण्डप्रदानं कुर्वीत हेमश्राद्धे कृते सदा॥ इति।
शूद्रस्तु गृहपाकेन तत्पिण्डान्निर्वपेत्तथा।
सक्तुर्मूलं फलं तस्य पायसं वा भवेत्स्मृतम्॥
नाऽऽमन्त्रणाग्नौकरणे विकिरो नैव दीयते।
तृतिप्रश्नोऽपि नैवात्र कर्तव्यः केनचिद्भवेत्॥ इति।
शूद्रमात्रस्य निषेधे प्राप्ते सच्छूद्रस्य प्रतिप्रसव उक्तो भविष्योत्तरे—
धर्मेप्सवश्चधर्मज्ञा यदि शूद्राः प्रकुर्वते।
अग्नौकरणमन्त्रश्च नमस्कारो विधीयते॥
आवाहनादि कर्तव्यं यथा शूद्रेण तच्छृणु।
देवानां देवनाम्ना तु पितॄणां नामगोत्रतः॥
सर्वाःप्रजाःकाश्यपीया इति श्रुतेः शूद्राणामपि काश्यपं गोत्रमिति हेमाद्रिः। विप्राभावे त्वाह हेमाद्रौदेवलः—
पात्राभावे परं कृत्वा पितृयज्ञविधिं नरः।
निर्दिश्याप्यन्नमुद्धृत्य यत्र पात्रं ततो गतिः॥
पात्राभावे क्षिपेदग्नौ गवे दद्यात्तथाऽप्सु वा।
न तु प्राप्तस्य लोपोऽस्ति पैतृकस्य विशेषतः॥ इति।
ब्राह्मणेन गृहीतस्य विनियोगमाह हेमाद्रौव्यासः—
हिरण्यमामं श्राद्धीयं लब्धं यत्क्षत्रियादितः॥
यथेष्टं विनियोज्यं स्याद्भुञ्जीत ब्राह्मणात्स्वयम्।
यथेष्टमित्युक्तत्वेऽपि लौकिके भोजनादौ, दक्षिणादानादौ च विनियोज्यं, ब्राह्मणाल्लब्धं तु स्वयमेव भोक्तव्यमिति हेमाद्रिः। षट्त्रिंग्रशन्मते—
आमं शूद्रस्य यत्किंचिच्छ्राद्धीयं प्रतिगृह्यते।
तत्सर्वं भोजनायालं नित्यनैमित्तिके न तु॥
हिरण्यं तत्पुनः श्राद्धे गृहीतं नैव दुष्यति।
तेन नित्यक्रियाः कार्या हिरण्यं नान्नमुच्यते॥ इति।
इति प्रतिगृहीतप्रतिपत्तिः। अशक्तावाह हेमाद्रौव्याघ्रः—
अङ्गानि पितृयज्ञस्य यदा कर्तुं न शक्नुयात्।
स तदा वाचयेद्विप्रान्सकला सिद्धिरस्त्विति॥
पिण्डमात्रं प्रदातव्यमलाभे द्रव्यविप्रयोः।
श्राद्धाहनि तु संप्राप्ते भवेन्निरशनोऽपि वा॥
अग्निना वा दहेत्कक्षं श्राद्धकाले समागते।
तस्मिन्वोपवसेदह्नि जपेद्वा श्राद्धसंहिताम्॥
संहिता सर्वमन्त्रसहितः श्राद्धकल्पः।
वाराहे—
तत्राप्यसामर्थ्ययुतः कराग्राग्रस्थितांस्तिलान्।
प्रणम्य द्विजमुख्येभ्यो दद्यादुद्दिश्य वै पितॄन्॥
तिलैः सप्ताष्टभिर्वाऽपि समवेतं जलाञ्जलिम्।
भक्तिनम्रः समुद्दिश्य पितॄन्दद्यात्समाहितः॥
यतः कुतश्चित्संप्राप्य गोभ्यो वाऽपि गवाह्निकम्।
पितॄनुदिश्य विप्रेभ्यो दद्याद्वा सुसमाहितः॥
सर्वाभावे वनं गत्वा स्कन्धमूलप्रदर्शकः।
पूर्वादिलोकपालानामिदमुच्चैः पठेद्बुधः॥
नमेऽस्ति वित्तं न धनं न चान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितॄन्नतोऽस्मि।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौकृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य॥
इत्येतत्कथितं सर्वं पितृभक्तिपरायणः।
यः करोति कृतं तेन श्राद्धं भवति वै द्विज॥ इति।
पराधीनः प्रवासी च निर्धनो वाऽपि मानवः।
मनसा भावयुक्तेन श्राद्धं कुर्यात्तिलोदकम्॥
हेमाद्रौ पुराणवचनम्। इति श्रद्धानुकल्पः। इत्थं सर्ववाक्यैकवायतया कृतस्याऽऽमश्राद्धकालनिर्णयस्यायं संग्रहः— विप्रादिकर्तृकनैमित्तिकामश्राद्धं हिरण्यश्राद्धं च, आमश्राद्धं तु पूर्वाह्णेइति।
कालात्मातस्तनादूर्ध्वं त्रिमुहूर्ता तु या तिथिः।
आमश्राद्धं तत्र कुर्याहमुहूर्ताऽपि या भवेत्॥
इत्यादिवचनात्संगवकाले कर्तव्यम्। शूदकर्तृकनित्यामश्राद्धं तु—
मध्याह्नात्परतो यस्तु कुतुपःसमुदाहृतः।
इति वचनादष्टममुहूर्तोत्तरार्धादिकाले कर्तव्यमिति सिद्धम्। अत्र पूर्वाह्णादिशब्दाः पूर्वाह्णाद्येकदेशेऽपि मुख्ययैव वृत्त्या प्रवर्तन्ते। यथा हिमवत्कुहरादारभ्य पूर्वसमुद्रसीम्नो जलप्रवाहविशेषस्य वाचको गंगाशब्दस्तदेकदेशेऽपि मुख्योऽतस्तदेकदेशे स्नानेऽपि गंगास्नानं भवति तथा पूर्वाह्णाद्येकदेशेऽनुष्ठानेऽपि तदनुष्ठानं भवतीति ज्ञेयम्। इत्यामश्राद्धकालनिर्णयः, भार्यायां रजस्वलायां प्रतिसांवत्सरिकश्राद्धकालनिर्णयः, श्राद्धानुकल्पाश्च।
अथ क्षयाहापरिज्ञाने सांवत्सरिकश्राद्धे मरणमासगताऽमावास्या ग्राह्या। तदाह हेमाद्रौबृहस्पतिः—
न ज्ञायेत मृताहश्चेत्प्रमीते प्रोषिते सति।
मासश्चेत्प्रतिविज्ञातस्तद्दर्शे स्यान्मृताहनि॥ इति।
मृताहनि यत्कर्तव्यं तदमायां स्यादित्यर्थः। प्रोषित इति अज्ञानकारणोपलक्षणम्। तथा च भविष्योत्तरे—
**प्रवासमन्तरेणापि स्यातां तो विस्तृतौ यदा।**इति।
तौमरणतिथिमासौ। मासाज्ञाने भविष्यत्पुराणे—
दिनमेव विजानाति मासं नैव तु यो नरः।
मार्गशीर्षे तथा भाद्रे माघे वाऽपि समाचरेत्॥
तत्रैव बृहस्पतिः—
यदा मासो न विज्ञातो विज्ञातं दिनमेव तु।
तदा मार्गशिरे मासे माघे वा तद्दिने भवेत्॥
दिनमासौ न विज्ञातौमरणस्य यदा पुनः।
प्रस्थानदिनमासौ तु ग्राह्यौपूर्वोक्तया दिशा॥
देशान्तरे मृतस्य दिनमासौ द्वावप्यज्ञातौ, तदा प्रस्थानकालिकौतौ ग्राह्यावित्यर्थः। पूर्वोक्तया दिशेत्यस्यायमर्थः— प्रस्थानतिथिज्ञाने, मासाज्ञाने च मार्गशीर्षेमाघे वा तत्तिथौकार्यम्। मासज्ञाने तिथ्यज्ञाने तन्मासामावास्यायामिति। प्रस्थानतिथिमासयोरप्यविज्ञाने मरणवार्ता-
श्रवणकालिकयोस्तिथिमासयोः कुर्यात्। तदाह प्रचेताः—
अपरिज्ञानेऽमावास्यायां श्रवणदिवसे वा, इति। श्रवणकालिकयोरप्यविज्ञाने तु प्रभासखण्डे—
मृतस्याहर्न जानाति मासं वाऽपि कथंचन।
तेन कार्यममायां तु श्राद्धं माघेऽथ मार्गके॥ इति।
यस्य प्रोषितस्य मरणवार्ता जीवनवार्ताऽपि वा न श्रूयते, पञ्चदशवर्षपर्यन्तमागमनंच नास्ति, तस्य पालाशीं कुशमयीं वा प्रतिकृतिं कृत्वा यथाविधि दाहादिसंस्कारं कृत्वा दाहकालीनमासगततिथौ तत्सांवत्सरिकं कार्यम्। तदाह तत्रैव जातूकर्ण्यः—
पितरि प्रोषिते यस्य न वार्ता नैव वा गतिः।
उर्ध्वं पञ्चदशाद्वर्षात्कृत्वा तत्प्रतिरूपकम्॥
कुर्यात्तस्य च संस्कारं यथोक्तविधिना ततः।
तदादीन्येव सर्वाणि शेपकार्याणि संचरेत्॥
प्रतिकृतिसंस्कारानन्तरमागते विधिः—
जीवन्यदि सआगच्छेद्घृतकुम्भे नियोजयेत्॥
उद्धृत्य स्नापयित्वाऽस्य जातकर्मादि कारयेत्।
द्वादशाहं व्रतचर्या त्रिरात्रमथवाऽस्य तु॥
स्नात्वोद्वहेततां भार्यामन्यां वा तदभावतः।
अग्नीनाधाय विधिवद्वात्यस्तोमेन वा यजेत्॥ इति।
व्रतचर्या ब्रह्मचर्यरूपा। स्नात्वा समावर्तनं कृत्वेत्यर्थः। इति क्षयाहापरिज्ञाने, पञ्चदशवर्षानन्तरं प्रतिकृतिसंस्कारे च सांवत्सरिकश्राद्धकालनिर्णयः। अथ श्राद्धे क्वचिदाशौचापवादः।
देये पितॄणां श्राद्धे तु आशौचं जायते यदा।
आशौचे तु व्यतिक्रान्ते तेभ्यःश्राद्धं प्रदीयते॥
इत्यनेनाशौचानन्तरं कर्तव्यमित्युक्तं तन्मुख्यकालिकश्राद्धोपक्रमात्प्रागाशौचज्ञाने मुख्यकालिकोपक्रमानन्तरं दातृगृहान्यस्थलमृताशौचज्ञाने तु श्राद्धं समापनीयम्। तदुक्तं हेमाद्रौब्रह्मपुराणे—
निमन्त्रितेषु विप्रेषुप्रारब्धे श्राद्धकर्मणि।
निमन्त्रणाद्धि विप्रस्य स्वाध्यायाद्विरतस्य च॥
देहे पितृषु तिष्ठत्सु नाशौचं विद्यते क्वचित्।
अपि दातृग्रहीत्रोश्च सूतके मृतके तथा॥
अविज्ञाते न दोषः स्याच्छ्राद्धादिषु कथंचन।
विज्ञाते भोक्तुरेव स्यात्प्रायश्चित्तादिका क्रिया॥
भोजनार्थेतु संभुक्तेविप्रैर्दातुर्विपद्यते।
यदि कश्चित्तदोच्छिष्टं शेषं त्यक्त्वा समाहितः॥
आचम्य परकीयेन जलेन शुचयो द्विजाः॥ इति।
दातुर्गृहेऽपि मरणे तज्ज्ञानाभावे भोक्तुर्दोषो नास्ति। यदि ज्ञानानन्तरं भुङ्क्ते तदा ब्राह्मणस्यैव दोषः। भोजनारम्भोत्तरमपि ज्ञाने तदनन्तरं न भोक्तव्यमिति भोजनार्धेत्यनेनोच्यत इति वेदितव्यम्। इति श्राद्ध आशौचापवादः। अथेदं चिन्तनीयम्—अमावास्यासंक्रान्तियुगादिषु श्राद्धानि विहितानि तत्रामावास्यासंक्रान्त्यादीनामेकत्र संनिपाते किं सकृदनुष्ठानमुत तन्निमित्तकस्य तस्य तस्य पृथगनुष्ठानमथवा तन्त्रेणेति। तदर्थमिदं विचारणीयम्— अमावास्यादिश्राद्धविधायकानि वाक्यानि उत्पन्ने कर्माणि कालरूपगुणविधयः, उत विशिष्टकर्मविधय इति। तत्र यद्यपि गुणविधौ भावार्थे विधानं, वाक्यार्थविधानं चाऽऽपद्यते, तथाऽपि विशेषणे विधिशक्त्युपसंक्रान्ते गौरवादिदोषयुक्तविशिष्टविध्यपेक्षया लाघवाद्गुणविधित्वमेव। तथा च सकृदेवानुष्ठानम्। अत एवैकादशे दीक्षितस्य मेध्यर्शनेऽबद्धं मनो दरिद्रं चक्षुरिति मन्त्रस्य जप उक्तस्तत्रानेका-
मेध्यदर्शने निमित्तभेदान्नैमित्तिकावृत्तिप्राप्तौविशेषग्रहणाभावात्सकृज्जप इति सिद्धान्तः।
नैकःश्राद्धद्वयं कुर्यात्समानेऽहनि कुत्रचित्।
इति हेमाद्रौ हारीतवचनं च संगच्छत इति चेन्न। यत्र हि कर्मोत्पत्तिविधिसंनिधिरस्ति, तत्र गुणयुक्तेषु वाक्येषु तत्प्रत्यभिज्ञानाद्गुणमात्रविधिर्भवति यथाऽग्निहोत्रं जुहोतीति वाक्यसंनिधिमत्सु दध्नाजुहोतीत्यादिवाक्येष्वत्र श्राद्धोत्पत्तिबोधकवाक्यसंनिध्यभावेन गुणविधित्वस्यासंभवात्। सोमेन यजेतेत्यत्रैव विशिष्टविधित्वस्यैव युक्तत्वात्। उत्पत्तिवाक्यकल्पने तु सर्वत्रैव तथात्त्वापत्तौ विशिष्टविध्युच्छेदापत्तेः। तस्मादमावास्याष्टकाक्षयाहापरपक्षसंक्रान्त्युपरागयुगादिमन्वादिश्राद्धविधायकवाक्यानां विशिष्टविधित्वादमावास्यानिमित्तकश्राद्धात्संक्रान्त्यादिनिमित्तश्राद्धानां भेदादेकनिमित्तकानुष्ठानेऽपि द्वितीयनिमित्तकानुष्ठाने प्रत्यवायापत्तेरेतन्निमित्तकस्यानुष्ठानं नैतन्निमित्तकस्येत्यत्र विनिगमकाभावात्संनिपतितयावन्निमित्तकानां सर्वेषामेवानुष्ठानं युक्तम्। अत एव
द्वे बहूनि निमित्तानि जायेरन्नेकवासरे।
नैमित्तिकानि कार्याणि निमित्तोत्पत्त्यनुक्रमात्॥
इति कात्यायनवचनं,
श्राद्धं कृत्वा तु तस्यैव पुनः श्राद्धं न तद्दिने।
नैमित्तिकं तु कर्तव्यं निमित्तानुक्रमोदयम्॥
इति जाबालिवचनं च संगच्छते। न चानेकामेध्यदर्शनेऽपि सकृन्मन्त्रजप इति सिद्धान्तविरोधः। अमेध्यत्वावच्छिन्नदर्शनस्यैव निमित्तत्वेन तस्यैकानेकामेध्यव्यक्तिदर्शनेऽपि समानत्वे जपावृत्तिप्रसङ्गाभावात्। अत एवामेध्यदर्शनवृष्टिक्लेदनयोः संनिपाते क्लेदननिमित्तकस्य उदन्ती541र्बलं धत्त इति मन्त्रान्तरस्यापि जपः कर्तव्य इति सिद्धान्तः संगच्छते। नैकः श्राद्धद्वयं कुर्यादिति वचनं तु श्राद्धं कृत्वा तु तस्यैवेत्येकवाक्यतयैकोद्देश्यकैककालिकैककर्तृकश्राद्धस्यैव पुनःप्रयोगनिषेधकमिति न तद्विरोधोऽपि। अत एवोदाहृतनिषेधस्तु श्रद्धाजडारभ्यमाणैकनिमित्तश्राद्धवृत्तिविषय इति हेमाद्रिः संगच्छते।
एककाले गतासूनां बहूनामथवा द्वयोः।
तन्त्रेण श्रपणं कृत्वा कुच्छ्राद्धं पृथक्पृथक्॥
पूर्वकस्य मृतस्याऽऽदौ द्वितीयस्य ततः पुनः।
तृतीयस्य ततः कुर्यात्संनिपाते त्वयं क्रमः॥
इति हेमाद्रौभृगुवचनम्।
भवेद्यदि सपिण्डानां युगपन्मरणं तदा।
संबन्धासत्तिमालोच्य तत्क्रमाच्छ्राद्धमाचरेत्॥ इति।
ऋष्यशृङ्गः—
बहूनामथवा द्वाभ्यां श्राद्धं चेत्स्यात्समेऽहनि।
तन्त्रेण श्रपणं कृत्वा पृथक्श्राद्धानि कारयेत्॥
अत्रिः—
पित्रोः श्राद्धे समं प्राप्ते नवे पर्युषितेऽपि वा।
पितृपूर्वं सुतः कुर्यादन्यत्रासति योगतः॥
इति कार्ष्णाजिनिः। अत्र पितृपूर्वमित्यनेन मातुः पूर्वं मरणेऽपि पितृश्राद्धं पूर्वं पश्चान्मातुः श्राद्धमित्युच्यते। विप्रकृष्टस्य पूर्वं मरणे संनिकृष्टस्य पश्चान्मरणेऽपि संनिकृष्टस्याऽऽदौ पश्चाद्विप्रकृष्टस्येति ज्ञेयम्। पार्वणैकोद्दिष्टयोर्युगपत्प्राप्तावाह जाबालिः—
यद्येकत्र भवेयातामेकोद्दिष्टं च पार्वणम्।
पार्वणं त्वभिनिर्वर्त्य एकोद्दिष्टं समाचरेत्॥ इति।
अत्रैकोद्दिष्टमभिनिर्वर्त्य पार्वणं समाचरेदित्यन्वयो युक्तः क्रमानुरोधेन कालबाधस्य सिद्धान्दविरुद्धत्वात्। यत्रैकेन पाकेनानेकश्राद्धानुज्ञा तत्र दर्शादौ पितृश्राद्धमातामहश्राद्धवत्तन्त्रेणानुष्ठानमुक्तं गारुडे—
एकेनैव तु पाकेन श्राद्धानि कुरुतेऽत्र हि।
विकिरं त्वेकतः कुर्यात्पिण्डान्दद्यात्पृथक्पृथक्॥ इति।
एवं च यदाऽनेकोद्देश्यकानामपि श्राद्धानां कालैक्ये तन्त्रेणानुष्ठानं तदा किं वक्तव्यमेकस्मिन्कालेऽनेकनिमित्तसमवाय एकोद्देश्यकश्राद्धानां तन्त्रेणानुष्ठानम्। यत्तु
नैकस्मिन्क्रियमाणे तु नानाकर्म समाचरेत्।
इति हेमाद्रौवचनं तत्सहैवानुष्ठानस्य निषेधकं न तु तन्त्रेणेति बोध्यम्। अत एवामावास्यानिमित्तकं, संक्रान्तिनिमित्तकं, युगादिनिमित्तकं चेत्येतानि श्राद्धानि तन्त्रेण करिष्य इति संकल्पं कुर्यादिति हेमाद्रिः संगच्छते। कालादर्शेऽप्युक्तम्—
नित्यस्य चोदकुम्भस्य नित्यमासिकयोरपि।
दर्शस्य चोदकुम्मस्य दर्शमासिकयोरपि॥
नित्यस्य चाऽऽब्दिकस्यापि दार्शिकाब्दिकयोरपि।
युगाद्याब्दिकयोश्चैव मन्वाद्याब्दिकयोस्तथा॥
प्रत्याब्दिकस्य चालभ्य योगेषु विहितस्य च।
संपाते देवताभेदाच्छ्राद्धयुग्मं समाचरेत्॥
निमित्तनियतिश्चात्र पूर्वानुष्ठानकारणम्।
पित्रोस्तु पितृपूर्वत्वं सर्वत्र श्राद्धकर्मणि॥ इति।
देवतैक्ये क्वचिदेकनिमित्तकानुष्ठानेनाप्यन्यनिमित्तकस्य प्रसंगतः सिद्धिर्भवति। तदप्युक्तं तत्रैव—
नित्यदार्शिकयोश्चोदकुम्भमासिकयोरपि।
दार्शिकस्य युगादेश्व दार्शिकालभ्ययोगयोः॥
दार्शिकस्य च मन्वादेःसंपाते श्राद्धकर्मणः।
प्रसङ्गादितरस्यापि सिद्धेरुत्तरमाचरेत्॥ इति।
अत्रोपात्तयोर्द्वयोर्द्वयोर्मध्य उत्तरस्यानुष्ठानेन पूर्वस्यापि सिद्धिरित्यर्थः। स्मृतिसंग्रहे—काम्यतन्त्रेण नित्यस्य तन्त्रं श्राद्धस्य सिध्यति॥ इति।
इति श्राद्धसंनिपाते कालनिर्णयः। अथ श्राद्धाङ्गतिलतर्पणकालः। तत्र प्रयोगपारिजाते गर्गः—
पूर्वं तिलोदकं दत्त्वा दर्शश्राद्धं तु कारयेत्।
प्रत्यब्दे न भवेत्पूर्वं परेऽहनि तिलोदकम्।
पक्षश्राद्धे हिरण्ये च अनुव्रज्य तिलोदकम्।
न च नित्यतर्पणविषयकमेवेदमस्तु श्राद्धाङ्गतर्पणे प्रमाणाभाव इति शङ्क्यम्—
यस्तर्पयति तान्विप्रःश्राद्धं कृत्वा परेऽहनि।
पितरस्तेन तृप्यन्ति न चेत्कुप्यन्ति वै नृणाम्॥
इति प्रत्याब्दिकं प्रक्रम्य गर्गेणैव फलनिन्दार्थवादाभ्यामकृत्वबोधनात्। आब्दिकं प्रकृत्य बृहन्नारदीयेऽपि—
परेद्युः श्राद्धकृन्मर्त्यो यो न तर्पयते पितॄन्।
तस्य ते पितरः क्रुद्धाः शापं दत्त्वा व्रजन्ति हि॥ इति।
अत्र पितृशब्दः कृतश्राद्धोद्देश्यपितृपरः।
वृद्धिश्राद्धेसपिण्डे च प्रेतश्राद्धेऽनुमासिके।
संवत्सरविमोके च न कुर्यात्तिलतर्पणम्॥
इति वृद्धिश्राद्धादौ न कार्यम्।
सप्तम्यांभानुवारे च मातापित्रोर्मृतेऽहनि।
तिलैर्यस्तर्पणं कुर्यात्स भवेत्पितृघातकः॥
इत्यादिवचनैः श्राद्धदिने तिलतर्पणस्यैव निषेधात्तिलैर्विनैव श्राद्धदिनेऽपि नित्यतर्पणं कर्तव्यमेव।
प्रत्यब्दाङ्गं तिलं दद्यान्निषिद्धेऽपि परेऽहनि।
इति वचनाच्छ्राद्धाङ्गतिलतर्पणं निषिद्धदिनेऽपि कार्यम्।
कृष्णे भाद्रपदे मासि श्राद्धं प्रतिदिनं भवेत्।
पितॄणां प्रत्यहं कार्यं निषिद्धाहेऽपि तर्पणम्॥
दर्शे तिलोदकं पूर्वं पश्चाद्दद्यान्महालये।
क्षये पूर्वं न च परं परेऽहनि तिलोदकम्॥
सकृन्महालये चैवं परेऽहनि तिलोदकम्।
माध्यंदिनानां सकृन्महालयेऽपि तद्दिन एव॥
उपरागे पितुः श्राद्धे पातेऽमायां च संक्रमे।
निषिद्धेऽपि हि सर्वत्र तिलैस्तर्पणमाचरेत्॥
इति तछ्राद्धाङ्गतर्पणविषयं श्राद्धकरणाशक्तौ श्राद्धानुकल्पतिलतर्पणविषयं चोदाहृतवचनविरो-धात्। नित्यतर्पणे तिलनिषेधमाह गार्ग्यः—
भानौभौमे त्रयोदश्यां नन्दाभृगुमघासु च।
पिण्डदानं मृदा स्नानं न कुर्यात्तिलतर्पणम्॥
मरीचिः—
सप्तम्यां रविवारे च गृहे जन्मदिने तथा।
निशासंध्यासु पुत्रार्थी न कुर्यात्तिलतर्पणम्॥ इति।
अस्यापवादः—
तीर्थे तिथिविशेषे न गयायां प्रेतपक्षके।
निषिद्धेऽपि दिने कुर्यात्तर्पणं तिलमिश्रितम्॥
इति श्राद्धाङ्गतर्पणकालः। अथ श्राद्धदिने वैश्वदेवकालः। वैश्वदेवश्चाऽऽहिताग्निना पृथक्पाकेन श्राद्धात्पूर्वं कर्तव्यस्तदाह हेमाद्रौ लौगाक्षिः—
पक्षान्तं कर्म निर्वर्त्य वैश्वदेवं च साग्निकः।
पिण्डयज्ञं ततः कुर्यात्ततोऽन्वाहार्यकं बुधः॥
पक्षान्तमन्वाधानम्। अन्वाहार्यकं दर्शश्राद्धम्। अत्र पक्षान्तपिण्डपितृयज्ञयोर्मध्ये विधानादेव साग्निककर्तृकत्वावगमात्साग्निकग्रहणं पक्षादिस्थालीपाकपिण्डपितृयज्ञकर्तुर्गृह्याग्निमन्निवृत्त्यर्थमिति हेमाद्रिः।
पित्रर्थं निर्वपेत्पाकं वैश्वदेवार्थमेव च।
वैश्वदेवं न पित्रर्थं न दार्शं वैश्वदेविकम्॥ इति।
पितृपाकेन श्राद्धात्पूर्वं वैश्वदेवं निषेधति हेमाद्रौ पैठीनसिः—
पितृपाकात्समुद्धृत्य वैश्वदेवं करोति चेत्।
आसुरं तद्भवेच्छ्राद्धं पितॄणां नोपतिष्ठते॥ इति।
परिशिष्टे—
संप्राप्ते पार्वणश्राद्ध एकोद्दिष्टे तथैव च।
अग्रतो वैश्वदेवः स्यात्पश्चादेकादशेऽहनि॥
पार्वणग्रहणमनेकदेवत्यश्राद्धोपलक्षणम्। ततश्चैकादशाह्निकश्राद्धव्यतिरिक्तेषु श्राद्धेषु साग्नि-केनपूर्वमेव वैश्वदेवः कर्तव्यः। अत एव शालकायनः—
श्राद्धात्प्रागेव कुर्वीत वैश्वदेवं तु साग्निकः।
एकादशाहिकं मुक्त्वा तत्र ह्यन्ते विधीयते॥ इति।
इत्याहिताग्नेर्वैश्वदेवकालः। निरग्निकस्यतु श्राद्धात्पूर्वं भिन्नपाकेन वैश्वदेवकरणे दोषः
पितृश्राद्धमकृत्वा तु वैश्वदेवं करोति यः।
अकृतं तद्भवेच्छ्राद्धं पितॄणां नोपतिष्ठते॥
इति वृद्धगौतमेनोक्तः542।
वैश्वदेवमकृत्वैव श्राद्धं कुर्यादनग्निमान्।
लौकिकाग्नौहुते शेषः पितॄणां नोपतिष्ठते॥
इति वसिष्ठेन वैश्वदेवशेषान्नेनैव श्राद्धनिषेधात्पाकान्तरेण पूर्वमनुष्ठाने न दोष इति शङ्क्यम्। आहिताग्निविषयेऽस्योपपन्नत्वेन निषेधापवादत्वासंभवात्। तथा च हेमाद्रौब्राह्मपुराणम्—
वैश्वदेवाहुतीरग्नावर्वाग्ब्राह्मणभोजनात्।
जुहुयाद्भूतयज्ञादि श्राद्धं कृत्वा तु तत्स्मृतम्॥ इति।
अर्वाग्ब्राह्मणभोजनादित्यनेनाग्नौकरणानन्तरंब्राह्मणभोजनात्पूर्वं वैश्वदेवविधानात्। निरग्नेरयमेको वैश्वदेवकालः। द्वितीयोऽपि हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे—
पितृसंतर्प्य विधिवद्बलिं दत्त्वा विधानतः।
वैश्वदेवं ततः कुर्यात्पश्चाद्ब्राह्मणवाचनम्॥ .
अग्निदग्धेति मन्त्रेण भूमौ यं निर्वपेद्बुधः।
जानीहि तं बलिं वीर श्राद्धकर्मणि सर्वदा॥ इति।
अनेन विकिरसंज्ञबलिदानानन्तरं स्वस्तिवाचनात्पूर्वं कर्तव्य इत्युक्तम्। तृतीयमाह मनुः—
उच्छेषणं तु तत्तिष्ठेद्यावद्विप्रविसर्जनम्।
ततो गृहबलिं कुर्यादिति धर्मो व्यवस्थितः॥
ब्राह्मणभोजनकाले यद्भूमावन्नंपतितं, तद्देशाद्ब्राह्मणगमनात्पूर्वं न मार्ष्टव्यं ततो निष्पन्ने श्राद्धेवैश्वदेवादिकं कार्यं बलिग्रहणस्योपलक्षणत्वादिति मेधातिथिः। मत्स्यपुराणेऽपि—
उच्छेषणं तु तत्तिष्ठेद्यावद्विप्राविसर्जिताः।
वैश्वदेवं ततः कुर्यान्निवृत्ते श्राद्धकर्माणि॥
हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे—
कृत्वा श्राद्धं महाबाहो ब्राह्मणांश्च विसर्ज्य च।
वैश्वदेवादिकं कर्म ततः कुर्यान्नराधिप॥
पैठीनसिः—
श्राद्धं निर्वर्त्य विधिवद्वैश्वदेवादिकं ततः।
कुर्याद्भिक्षां ततो दद्याद्धन्तकारादिकं ततः॥
मार्कण्डेयः—
ततो नित्यक्रियां कुर्याद्भोजयेच्चतथाऽतिथीन्।
ततस्तदन्नं भुञ्जीत सह भृत्यादिभिर्नरः॥
नित्यक्रियां बलिहरणनित्यश्राद्धादिकाम्। तदेवमनाहिताग्नेरग्नौकरणानन्तरं विकिरानन्तरं, समाप्तेरनन्तरं चेति त्रयो वैश्वदेवकालाः। वृत्तिकारेण विसर्जनानन्तरमेव, उच्छेषणमिति मनुवचनस्योदाहरणात्। बहवृचानां श्राद्धान्त एव पक्षान्तरं शाखान्तरविषयमिति बोपदेवेनोक्तत्वात्, व्यवस्थितविकल्पस्यैव युक्तत्वादिति ज्ञेयम्। नित्यश्राद्धं शेषेणेत्युक्तम्। पृथक्पाकेन543नित्यश्राद्धं कर्तव्यं पार्वणादिश्राद्धे कृते नित्यश्राद्धं न कर्तव्यमित्यन्य आहुरिति स्पष्टमुक्तम्। तत्रैव-
नित्यक्रियां पितॄणां च केचिदिच्छन्ति मानवाः।
न पितॄणां तथैवान्ये शेषं पूर्ववदाचरेत्॥
इति अमावास्यादिसाधारणकालिकेषु श्राद्धेषु नित्यश्राद्धदेवतानामिष्टत्वात्प्रसङ्गसिद्धतया नित्यश्राद्धं न कर्तव्यंसांवत्सरिकश्राद्धादौ
नित्यश्राद्धदेवतानां सर्वासामनिष्टत्वादवश्यं तत्कर्तव्यमिति व्यवस्थितविकल्प एव युक्तः। अत एव हेमाद्रौनागरखण्डे—
नित्यश्राद्धं न कुर्वीत प्रसङ्गाद्यच्चसिद्ध्यति।
श्राद्धान्तरे कृतेऽप्यत्रनित्यत्वात्तन्न हापयेत्॥
इति वैश्वदेवकालनिर्णयः।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डे श्राद्धकालनिर्णयः।
अथ दाने प्रशस्तकालः। तत्र हेमाद्रौ याज्ञवल्क्यः—
शतमिन्दुक्षये दानं सहस्रं तु दिनक्षये।
विषुवे दशसाहस्रं व्यतीपाते त्वनन्तकम्॥
इति। तत्रैव वाराहपुराणे—
दर्शे शतगुणं दानं तच्छतघ्नं दिनक्षये।
शतघ्नं तस्य संक्रान्तौशतघ्नं विषुवे तथा॥
युगादौ तच्छतगुणमयने तच्छताहृतम्।
सोमग्रहे तच्छतघ्नं तच्छतघ्नं रविग्रहे॥
असंख्येयं व्यतीपाते दानं वेदविदो विदुः। इति।
शतघ्नं शतगुणम्। व्यतीपातोऽत्र विष्कम्भादियोगेषु सप्तदशो योगः। अस्योत्पत्तिमाह गालवः—
चन्द्रार्कयोर्नयनवीक्षणजातमूर्तिः
कालानलद्युतिनिभः पुरुषोऽतिरौद्रः॥ इति।
अस्य चोत्पत्तिभ्रमणपतनपतितकालेषु मध्ये पतितकाले स्नानदानाविकं महाफलम्। तदाह हेमादौ याज्ञवल्क्यः—
उत्पत्तौ लक्षगुणं कोटिगुणं भ्रमणनाडिकायां तु।
अर्बुदगुणितं पतने जपदानाद्यक्षयं पतिते॥
उत्पत्त्यादिकालमानं ज्योतिषे—
विंशतिर्द्वियुतोत्पत्तौ भ्रमणे चैकविंशतिः।
पतने दश नाड्यस्तु पतिते सप्त नाडिकाः॥ इति।
वृद्धमनुः—
श्रवणाश्विधनिष्ठानागदैवतमस्तकैः।
यद्यमा रविवारेण व्यतीपातः स उच्यते॥ इति।
रविवारयुक्तामावास्यैषु नक्षत्रेषु भवति स व्यतीपातसंज्ञको योगः।
पञ्चाननस्थौ गुरुभूमिपुत्रौ मेषे रविः स्याद्यदि शुक्लपक्षे।
पाशाभिधाना करमेण युक्ता तिथिर्व्यतीपात इति प्रयोगः॥
अस्मिन्हि गोभूमि हिरण्यवस्त्रदानेन सर्वं प्रविहाय पापम्।
सुरत्वमिन्द्रत्वमनामयत्वं मर्त्याधिपत्यं लभते मनुष्यः॥
पाशाभिधाना तिथिर्द्वादशी।हेमाद्रौपद्मपुराणे—
मन्दे वाऽर्के गुरौ वाऽपि वारेष्वेतेषु तु त्रिषु।
त्रीण्येतानि च ऋक्षाणि स्वयं प्रोक्तानि ब्रह्मणा॥
अश्वमेधाधिकं पुण्यं स्नातस्य तु भवेन्नृप।
दानमक्षय्यतां याति पितॄणां तर्पणं तथा॥
ऋक्षाण्याग्नेययाम्यप्राजापत्यानीति हेमाद्रिः।
मात्स्ये—
यदा मृगशिरे ऋक्षे शशी सूर्यो बृहस्पतिः।
तिष्ठन्ति सा तिथिः पुण्या अक्षय्या परिगीयते॥
हेमाद्रौस्कान्दे—
ग्रहणं चन्द्रसूर्याभ्यामुत्तरायणमुत्तमम्।
विषुवं च व्यतीपातः षडशीतिमुखं तथा॥
दिनच्छिद्राणि संक्रान्तिर्ज्ञेयं विष्णुपदं पुनः।
इति कालः समाख्यातः पुंसां पुण्यविवर्धनः॥
अस्मिन्दिनानि दत्तानि स्नानहोमतपांसि च।
अनन्तफलदानि स्युः स्वर्गमोक्षप्रदानि तु॥
शातातपः—
अयनेषु तु यद्दत्तं षडशीतिमुखेषु च।
चन्द्रसूर्योपरागे च दत्तं भवति चाक्षयम्॥
हेमाद्रौ शङ्खः—
यदा विष्टिर्व्यतीपातोभानुवारेण संयुतः।
पद्मकं नाम तत्प्रोक्तमयनाच्च चतुर्गुणम्॥
यदा षष्ठ्यां व्यतीपातो भानुवारस्तथैव च।
पद्मकं नाम तत्प्रोक्तमयनाच्च चतुर्गुणम्॥
विशाखासु यदा भानुः कृत्तिकासु तु चन्द्रमाः।
स योगःपद्मको नाम पुष्करेष्वतिदुर्लभः॥
विष्णुधर्मोत्तरे—
कालःसर्वोऽपि निर्दिष्टःपात्रं सर्वमुदाहृतम्।
अवाप्तस्य प्रदाने तु नात्र कार्या विचारणा॥
तदैव दानकालस्तु यदोभयमुपस्थितम्।
न कालनियमो दृष्टो दीयमाने प्रतिश्रये॥
तदैव दानमस्योक्तं यदा पात्रसमागमः।
न हि कालं प्रतीक्षेत जलं दातुं तृषान्विते॥
अन्नोदकं सदा देयमित्याह भगवान्मनुः।
स्कान्दे—
अर्धप्रसूतांगां दद्यात्कालादि न विचारयेत्।
कालः स एव ग्रहणं यदा वैद्विमुखी तु गौः॥
हेमाद्रौ व्यासः—
आसन्नमृत्युना देया गौःसवत्सा तु पूर्ववत्।
तदभावे तु गौरेव नरकोत्तारणाय वै॥
तदा यदि न शक्नोति दातुं वैतरणीं तु गाम्।
शक्तोऽन्यस्तु हि तां दत्त्वा श्रेयो दद्यान्मृतस्य च॥
तत्रैव वाराहे—
व्यतीपातोऽथ संकान्तिस्तथैव ग्रहणं रवेः।
पुण्यकालास्तदा सर्वे यदा मृत्युरुपस्थितः॥
तदागोभूहिरण्यादि दत्तमक्षय्यतानियात्।
अदृष्टमश्रुतं दानं मुक्त्वा चैतन्न विद्यते। इति॥
विष्णुधर्मोत्तरे—
अच्छिन्ननाड्यांयद्दत्तं पुत्रे जाते द्विजोत्तमाः।
संस्कारेषु च पुत्रस्य तदक्षय्यं प्रकीर्तितम्॥
विष्णुपुराणे—
यदा वा जायते वित्तं चित्तं श्रद्धासमन्वितम्।
तदैव दानकालः स्याद्यतोऽनित्यं हि जीवितम्॥
रात्रौ दानं न कर्तव्यं कदाचिदपि केनचित्।
हरन्ति राक्षसा यस्मात्तस्माद्दातुर्भयावहम्॥
विशेषतो निशीथे तु न शुभं कर्म शर्मणे।
अतो हि वर्जयेत्प्राज्ञो दानादिषु महानिशाम्॥
वसिष्ठः—
ग्रहणोद्वोहसंक्रान्तिप्राणार्तिप्रसवेषु च।
दानं नैमित्तिकं ज्ञेयं रात्रावपि तदिष्यते॥
यज्ञे विवाहे यात्रायां तथा पुस्तकवाचने।
दानान्येतानि शस्तानि रात्रौ देवालये तथा॥
महाभारते—
रात्रौ दानं न शंसन्ति विना त्वयनदक्षिणम्।
विद्यां कन्यां द्विजश्रेष्ठा दीपमन्नं प्रतिश्रयम्॥
पूजनं चातिथीनां च पान्थानामपि पूजनम्।
तच्चरात्रौ तथा ज्ञेयं गवामपि च पूजनम्॥
हेमाद्रौमार्कण्डेयपुराणे—
महानिशा तु विज्ञेया मध्यस्थं प्रहरद्वयम्।
स्नानं तत्र न कुर्वीत काम्यनैमित्तिकादृते॥
इति दानकालः। अथ नदीनां रजःकालनिर्णयः। तत्र हेमाद्रौमार्कण्डेयः—
द्विमासं सरितः सर्वा भवन्ति हि रजस्वलाः।
अप्रशस्तं ततः स्नानं वर्षादौ तत्र वारिणा॥
कात्यायनः—
मासद्वयं श्रावणादौ सर्वा नद्यो रजस्वलाः।
तासु स्नानं न कुर्वीत वर्जयित्वा समुद्रगाः॥
धनुःसहस्राण्यष्टौच गतिर्यासां न विद्यते।
न ता नदीशब्दवहा गर्तास्ते परिकीर्तिताः॥
सिंहकर्कटयोर्मध्ये सर्वा नद्यो रजस्वलाः।
न स्नानादीनि कर्माणि तासु कुर्वीत मानवः॥
सिंहे निषेधोऽगस्त्योदयावपितदाह याज्ञवल्क्यः—
यावन्नोदेति भगवान्दक्षिणाशाविभूषणम्।
तावद्रेतोवहा नद्यो वर्जयित्वा तु जाह्नवीम्॥
कात्यायनः—
याः शोषमुपगच्छन्ति ग्रीष्मे कुसरितो भुवि।
तासु प्रावृषि न स्नायादपूर्ण दशवासरे॥
कर्कटादौरजोदुष्टा गौतमी वासरत्रयम्।
चन्द्रभागा सती सिन्धुः शरयूर्नर्मदा तथा॥
मदनरत्ने भविष्यत्पुराणे—
आदौ कर्कटके देवि महानद्यो रजस्वलाः।
त्रिदिनं तु चतुर्थेऽह्नि शुद्धाः स्युर्जाह्नवी तथा॥
ब्रह्मपुराणे—
गोदा भीमरथी चैव तुङ्गभद्रा च वेणिका।
तापी पयोष्णी विन्ध्यस्य दक्षिणे तु प्रकीर्तिताः॥
भागीरथी नर्मदा च यमुना च सरस्वती।
विशोका च वितस्ता च विन्ध्यस्योत्तरसंस्थिताः॥
एवमन्या अपि महानद्यः पुराणान्तरतो ज्ञेयाः।
महानद्यो देविका च कावेरी शरयूस्तथा।
रजसा तु प्रदुष्टाःस्युःकर्कटादौत्र्यहं नृप॥ इति।
कासुचिन्महानदीषु रजोदोषाभावमाह देवलः—
गङ्गा च यमुना चैव प्लक्षजाता सरस्वती।
रजसा नाभिभूयन्ते ये चान्ये नदसंज्ञकाः।
गङ्गा धर्मद्रवी पुण्या यमुना च सरस्वती।
अन्तर्गतरजोग्रोभाःसर्वाहेष्वपि चामलाः॥
प्रतिस्रोतो रजोयोगो रथ्याजलनिवेशनम्।
गङ्गायां नैव दुष्यन्ति सा हि धर्मद्रवः स्वयम्॥
कात्यायनः—
जाह्नव्यादित्यसंभूता प्लक्षजाता सरस्वती।
रजसा नाभिभूयन्ते नदाः कृष्णा च वेणिका॥
यत्तु— प्रथमं कर्कटे देवि त्र्यहं गङ्गा रजस्वला।
इति हेमाद्रौवचनं, तज्जाह्नवीव्यतिरिक्तगोदावेण्यादिगङ्गान्तरविषयम्। उदाहृतवचनविरोधात्। यदपि—
प्रावृट्काले महानद्यः सन्ति नित्यं रजस्वलाः।
चतुर्थेऽहनि संप्राप्ते शुद्धा भवति जाह्नवी॥
इति हेमाद्रौकात्यायनवचनम्। तदप्युदाहृतवचनाविरोधायैवं व्याख्येयम्। प्रावृट्काले रजस्वला महानद्यश्चतुर्थेऽह्नि तथा शुद्धा भवन्ति, यथा जाह्नवी सर्वदा शुद्धा भवतीति। हेमाद्रौ योगयाज्ञवल्क्यः—
अग्राह्यास्त्वागता ह्यापो नद्याः प्रथमवेगिकाः।
प्रक्षोभितास्तु तेनापि वाः स्वतीर्थाद्विनिःसृताः॥
तीर्थं जलावतरणमार्गः। तत्रैव स्मृत्यन्तरे—
अजा गावो महिष्यश्च ब्राह्मण्यश्च प्रसूतिकाः।
दशरात्रेण शुध्यन्ति भूमिष्ठं च नवोदकम्॥ इति।
भविष्यत्पुराणे—
महदम्बु समानं वा यदि तिष्ठेत्पुरातनम्।
न चाम्बुमिश्रितं तेन न दुष्टमिति सूरयः॥
रजोदोषेऽपि वाप्याद्यम्भोभावे तत्तीरवासिभिर्जलं ग्राह्यम्। तदाह व्याघ्रपादः—
अभावे कूपवापीनामनुपायपयोभृताम्।
रजोदोषविपर्यासे ग्रामभोगो न बाध्यते॥ इति।
क्वचिदपवादमाह कात्यायनः—
उपाकर्मणि चोत्सर्गे प्रेतस्नाने तथैव च।
चन्द्रसूर्योपरागे च रजोदोषो न विद्यते॥
इति नदीरजोदोषकालः।
अथ गर्भाधानकालः। तत्र याज्ञवल्क्यः—
गर्भाधानमृतौपुंसः सवनं स्यन्दनात्पुरा॥ इति।
ऋतावृतुकाल इत्यर्थः। ऋतुकालमाह स एव—
षोडशर्तुर्निशाः स्त्रीणां तस्मिन्युग्मासु संविशेत्।
ब्रह्मचार्येव पर्वाण्याद्याश्चतस्रश्च वर्जयेत्॥
एवं गच्छन्स्त्रियं क्षात्रां मघां मूलं च वर्जयेत्।
सुस्थ इन्दौसत्पुत्रं लक्षण्यं जनयेत्पुमान्॥
यत्तु—
स्नातां चतुर्थे दिवसे रात्रौगच्छेद्विचक्षणः।
इति महाभारतादिवचनं, तद्रजोनिवृत्तौदोषाभावपरम्। अत एव मनुः—
रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला।
इति याज्ञवल्क्यवचनमपत्यदोषाभावपरम्। अत एव लैङ्गे—
चतुर्थेसा न गम्या हि यतोऽल्पायुः प्रसूयते।
विद्याहीनं व्रतभ्रष्टं पतितं वा प्रसूयते॥
इति व्यासश्च—
रात्री चतुर्थ्यांपुत्रः स्यादल्पायुर्धनवर्जितः।
पञ्चम्यां पुत्रिणी नारी षष्ठ्यां पुत्रस्तु मध्यमः॥
सप्तम्यामप्रजा योषिदष्टम्यामीश्वरः पुमान्।
नवम्यां मध्यमा योषिद्दशम्यां पण्डितः पुमान्॥
एकादश्यामधर्म्या स्त्री द्वादश्यां पुरुषोत्तमः।
त्रयोदश्यां सुता च स्याद्वर्णसंकरकारिणी॥
धर्मध्वजः कृतज्ञः स्यादात्मवेदी दृढव्रतः।
प्रजायते चतुर्दश्यां गुणाढ्यो जगतः प्रभुः।
राजपत्नी महाभागा सारा धनवती तु वा॥
जायते पञ्चदश्यां तु बहुपुत्रा पतिव्रता।
विद्यालक्षणसंपन्नः सत्यवादी जितेन्द्रियः॥
आश्रयः सर्वभूतानां षोडश्यां जायते पुमान्। इति।
विष्णुपुराणे—
कतायुपगमः शरतः स्वपत्न्यांमन्त्रतो द्विज॥ इति।
कश्यपः—
षष्ठ्यष्टम्यौ पञ्चदशीं चतुर्थी
चतुर्दशीमप्युभयत्र हित्वा।
शेषाः शुभाः स्युस्तिथयो निषेके
वाराःशशाङ्कार्यसितेन्दुजानाम्॥
वसिष्ठः—
पौष्णद्वये पित्र्यभयाम्यसार्पविष्णुद्वये नैव न जन्मभेषु।
उत्पातपापग्रहदूषितेषु न कार्यमाधानमनिष्टलग्ने।
उपप्लवे वैधृतिपातयोश्च विष्ट्यांदिवा पारिघपूर्वभागे॥
इति गर्भाधानकालः।
अथ पुंसवनकालः। तत्र याज्ञवक्यः—पुंसः सवनं स्यन्दनात्पुरेति प्राग्गर्भचलनात्पुंसवनं कार्यमित्यर्थः। हेमाद्रौ यमः—गृहीतगर्भायां प्रथमे मासि द्वितीये तृतीये वा यदहः पुंसा नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यादिति। नक्षत्राण्युक्तानि रत्नकोशे—हस्तो मूलं श्रवणःपुनर्वसुर्मृगशिरः पुष्यः पुंसंज्ञितेषु कार्येष्वेतानि शुभदानि धिष्ण्यानि। तत्रैव बृहस्पतिः—
पुंसवनं स्पन्दति शिशाविति। इति पुंसवनकालः।
अथानवलोभनकालः। आश्वलायनगृह्यपरिशिष्टे—चतुर्थेऽनवलोभनमिति।हेमाद्रौ बैजवापगृह्यम्—अथ पुंसवनानवलोभने करोति मासि द्वितीये वा पुरा स्यन्दतश्चाऽऽपूर्यमाणपक्षे यदा पुंसा नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यादिति। इत्यनवलोभनकालः।
अथ सीमन्तोन्नयनकालः। तत्र याज्ञवल्क्यः—पष्ठेऽष्टमे वा मासि सीमन्त इति। हेमाद्रौ विष्णुः— षष्ठेऽष्टमे वा मासि सीमन्तोन्नयनम्। आश्वलायनगृह्ये—चतुर्थे गर्भमासे सीमन्तोन्नयनं षष्ठाष्टमयोर्वाऽऽपूर्यमाणपक्षे यदा पुंसा नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यादिति।
पराशरः—
आपूर्यमाणो मुख्यःस्यात्सर्वस्मिञ्शुभकर्मणि।
कृष्णो गौणो दशान्तः स्यान्नागान्तो व्रतबन्धने॥
दशान्तो दशम्यन्तः \। नागान्तः पञ्चम्यन्तः। पुंनक्षत्राणि पुंसवने दर्शितानि। हेमाद्रौ शङ्खः—
गर्भस्पन्दने सीमन्तोन्नयनं यावद्वा प्रसव इति। नारदीयसंहितायां—
बलोपपन्ने दंपत्योश्चन्द्रताराबलान्विते।
अरिक्तपर्वदिवसे कुजजीवार्कवासरे॥
तीक्ष्णमिश्रोग्रवर्ज्येषु भेषु पुंसंज्ञभांशके।
स्त्रीणां तु प्रथमे गर्भे सीमन्तोन्नयनं शुभम्॥
व्यासः—
पुरुषग्रहवाराःस्युः शुभाः सीमन्तकर्मणि।
मध्यौ स्त्रीग्रहवारौतु वर्जयेत्तु नपुंसकौ॥
पुंग्रहाःसूर्यभौमार्या स्त्रीग्रहौशशिभार्गवौ।
नपुंसकौ सौम्यसौरी शिरोमात्रं विधुंतुदः॥ इति।
बृहस्पतिः—
रोहिण्यामैन्दवादित्यपुष्यहस्तोत्तरादिषु।
पौष्णवैष्णवयोश्चैव शुभं सीमन्तकर्म च॥
सिंहाली वर्जयेल्लग्ने ग्रहैरष्टमवर्जितैः।
ग्रहशब्देनात्र चन्द्रः क्रूरग्रहाश्च गृह्यन्ते। अत एव भारद्वाजः—
व्रतबन्धे च सीमन्ते जन्मन्यपि शुभग्रहाः।
अष्टमचन्द्ररहितास्तदाऽऽयुर्वृद्धिरीरिता॥ इति।
इदं सीमन्तोन्नयनं स्त्रीसंस्कारत्वात्प्रथमगर्भ एव कार्यम्। तथा च हारीतः—
सकृत्संस्कृतसंस्काराः सीमन्तेन द्विजस्त्रियः।
यं यं गर्भं प्रसूयन्ते स सर्वःसंस्कृतो भवेत्॥
यत्तु विष्णुः—
सीमन्तोन्नयनं कर्म न स्त्रीसंस्कार इष्यते।
केचिद्गर्भस्य संस्कारात्प्रतिगर्भं प्रयुञ्जते॥
इति तत्कस्यांचिच्छाखायां कस्मिंश्चिद्देशे वाऽऽचारस्तद्विषयम्। अकृतसीमन्तायाः प्रसवे त्वाह हेमाद्रौ सत्यव्रतः—
स्त्री यदाऽकृतसीमन्ता प्रसूयेत कथंचन।
गृहीतपुत्रा विधिवत्पुनः संस्कारमर्हति॥
इति सीमन्तोन्नयनकालः।
अथ विष्णुपूजाकालः। श्रीधरः—
रोहिण्यां वा वैष्णवे पूर्वपक्षे द्वादश्यां वा सप्तमे वा तिथौ च।
मध्ये चाह्नः पूर्वभागे न रात्रौ विष्णोः पूजां कारयेद्गर्भपुष्ट्यै॥
इति विष्णुपूजाकालः।
अथ जातकर्मकालः। तत्र श्लोकविष्णुः—
जातकर्म ततः कुर्यात्पुत्रे जाते यथोदितम्।
यथोदितं स्वस्वगृह्योक्तम्। ततः स्नानानन्तरम्।
संवर्तः—
जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचैलं तु विधीयते।
मनुः—
प्राङ्नाभिच्छेदनात्पुंसो जातकर्म विधीयते॥ इति।
हारीतः—प्राङ्नाभिच्छेदनात्संस्कारःपुण्यार्थान्कुर्वन्ति च्छिन्नायामाशौचमिति।बैजवापः—
जन्मतोऽनन्तरं कार्यं जातकर्म यथाविधि।
दैवादतीतकालं चेदतीते सूतके भवेत्॥ इति।
विष्णुधर्मोत्तरे—
अच्छिन्नकाले कर्तव्यं श्राद्धं वै पुत्रजन्मनि।
आशौचोपरमे कार्यमथवा नियतात्मभिः॥
इदं चाशौचमध्येऽपि कार्यम्। तदाह प्रजापतिः—
अशौचे तु समुत्पन्ने पुत्रजन्म यदा भवेत्।
कर्तुस्तात्कालिकी शुद्धिः पूर्वाशौचेन शुध्यति॥
इति जातकर्मकालः।
अथ नामकरणकालः। तत्र याज्ञवल्क्यः— अहन्येकादशे नाम, इति। शङ्खः—
आशौचे तु व्यतिक्रान्ते नामकर्म विधीयते।
बृहस्पतिः—
दशाहे द्वादशाहे वा जन्मतोऽपि त्रयोदशे।
षोडशैकोनविंशे वा द्वाविंशे वर्णतः क्रमात्॥
अत्र द्वादशाहे व्यतीते सतीति ज्ञेयम्। वचनान्तरविरोधात्। गृह्यपरिशिष्टे—जननाद्दशरात्रे व्युष्टे शतरात्रे संवत्सरे वा नामकरणम्। इति। अत्राशौचान्ते नामकरणमिति मुख्यः कालः, तदसंभवे तूत्तरोत्तर इति ज्ञेयम्। प्राप्तकालेऽपि व्यतीपातादीनां निषेधमाह गर्गः—
व्यतीपाते च संक्रान्तौ ग्रहणे वैधृतावपि।
श्राद्धं कुर्याच्छुभं नैव प्राप्तकालेऽपि मानवः॥ इति।
नारदः—
देशकालोपघाताद्यैः कालातिक्रमणं यदि।
अनस्तगेज्ये च सिते तत्कार्यं चोत्तरायणे॥
चरस्थिरमृदुक्षिप्रनक्षत्रे शुभवासरे।
चन्द्रताराबलोपेते दिवसे च शिशोः पितुः॥
शुभलग्ने शुभांशे च नैधने शुद्धिसंयुते।
लग्ने त्वनैधने सौम्यैःसंयुक्ते वा निरीक्षते॥ इति।
पितुरसंनिध्यादावन्यो योग्यः कुर्यात्। तदाह हेमाद्रौ शङ्खः—कुलदेवता नक्षत्राभिसंबद्धं पिता कुर्यादन्यो वा कुलवृद्ध इति।
वसिष्ठः—
उत्तरारेवतीहस्तमूलतिष्याः सवारुणाः।
श्रवणादितिमैत्रे च स्वाती मृगशिरस्तथा॥
प्राजापत्यं धनिष्ठा व प्रशस्ता नामकर्मणि।
पक्षच्छिद्रांच नवमीं पञ्चमीं चैव वर्जयेत्।
शेषास्तु तिथयः सर्वाः प्रशस्ता नामकर्मणि॥
इति नामकरणकालः।
अथ पर्यङ्कारोहणम्। तत्र बृहस्पतिः—
खट्वारोहस्तु कर्तव्यो दशमे द्वादशेऽपि वा।
षोडशे दिवसे वाऽपि द्वात्रिंशे दिवसेऽपि वा॥ इति।
भविष्ये—
अभीटे पुण्यदिवसे चन्द्रताराबलान्विते।
मृदुध्रुवक्षिप्रभेषु माता च कुलयोषितः॥
योगशायं हरिं स्मृत्वा प्राक्शीर्षंविन्यसेच्छिशुम्। इति।
अथ दुग्धपानम्। श्रीधरीये—
एकत्रिंशे वासरे वा द्वितीये जन्मर्क्षेवा शुद्धलग्नेऽनुकूले।
शङ्ख़ेक्षीरं संनिदध्याच्छिशूनां वक्त्रे धात्री पूज्यपूजांविधाय॥
इति दुग्धपानम्।
अथनिष्क्रमणम्। हेमाद्रौवाराहे—
द्वादशेऽहनि कर्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्।
शङ्खलिखितौ—अत ऊर्ध्वं तृतीये मासि निष्क्रमणिका। याज्ञवल्क्यबृहस्पती—
मासे चतुर्थे कर्तव्यं शिशोनिष्क्रमणं गृह्णात्।
तत्र किं कर्तव्यमित्याकाङ्क्षायां लौगाक्षिः—तृतीये त्वर्धमासे दर्शनमादित्यस्य।
यमः—
चतुर्थे मासि कर्तव्यं शिशोश्चन्द्रस्य दर्शनम्।
** **बृहस्पतिः—
जीवभार्गवसौम्यानां शिशुनिष्क्रमणक्रिया।
दिवसे शस्यते नित्यं आयुर्वृद्धिधनप्रदा॥
अश्विनी रेवती हस्त धनिष्ठा रोहिणी तथा।
श्रवणं हस्तसंयुक्तं मृगेणोत्तरफाल्गुनी॥
अनुराधोत्तराषाढा तथा चैव पुनर्वसुः।
इमानि भानि शस्तानि शिशुनिष्क्रमणे विधौ॥
मुहूर्तसंग्रहे—
पूर्वपक्षःशुभः प्रोक्तः कृष्णश्चान्त्यत्रिकं विना।
रिक्ता षष्ठ्यष्टमी दर्शो द्वादशी च विवर्जिताः॥
झषालिमेषवर्ज्याः स्युस्तथैवाधोमुखानि च।
केन्द्रत्रिकोणगाः सौम्याः पापाः षष्ठत्रिलाभगाः॥
उपक्रमणे शस्ताः स्युर्मातुलो वाहयेच्छिशुम्।
अन्नप्राशनकाले वा कुर्यान्निष्क्रमणक्रियाम्॥
इति निष्क्रमणकालः।
अथ भूम्युपवेशनकालः।
पञ्चमे च तथा मासे भूमौ तमुपवेशयेत्॥
तत्र सर्वे ग्रहाः श्रेष्ठा भौमो राम विशेषतः।
तिथिं विवर्जयेद्रिक्तांशस्तानि शृणु भानि मे॥
उत्तरात्रितयं सौम्यं पुष्यर्क्षंशकदैवतम्।
प्राजापत्यं च हस्तं च शस्तमश्विममित्रभम्॥ इति।
अथ कर्णवेधकालः। तत्र वसिष्ठः—
मासे षष्ठेसप्तमे वाऽष्टमे वा वेध्यौ कर्णौद्वादशे षोडशेऽह्नि।
मध्ये वाऽह्नः पूर्वभागे न रात्रौ नक्षत्रे द्वे द्वे तिथी वर्जयित्वा॥
इति। यस्मिन्दिने नक्षत्रद्वयं, तिथिद्वयं वा तद्दिनं वर्जयेदित्यर्थः। व्यासः—
कार्तिके पौषमासे वा चैत्रे वा फाल्गुनेऽपि वा।
कर्णवेधं प्रशंसन्ति शुकृपक्षे शुभे दिने।
दिनच्छिद्रव्यतीपातविष्टिवैधृतिवर्जिते।
शिशोरजातदन्तस्य मातुरुत्सङ्गसर्पिणः॥
सौचिको वेधयेत्कर्णौसूच्या द्विगुणसूत्रतः।
बृहस्पतिः—
द्वितीया दशमी षष्ठी सप्तमी च त्रयोदशी।
द्वादशी पञ्चमी शस्ता तृतीया कर्णवेधने॥
भूमिजार्कात्मजार्काणां दिवसान्परिवर्जयेत्॥
कश्यपः—
हस्ताश्विनी स्वातिपुनर्वसू च चित्रेन्दुतिष्ये श्रवणे च पौष्णे।
चन्द्रेऽनुकूले गुरुशुक्रवारे कर्णौ तु वेध्यावमरेज्यलग्ने॥
वसिष्ठः—
न कश्चिदिष्टोऽष्टमराशिसंस्थस्तिथिद्वयं चावमसंज्ञकं च।
न तत्र कुर्याद्दिवसे विशेषाद्रात्रौ न कुर्यात्खलु कर्णवेधम्॥
**सौवर्णी राजपुत्रस्य राजती विप्रवैश्ययोः।
शूद्रस्य चाऽऽयसी सूची मध्यमाऽष्टाङ्गुलात्मिका॥ **इति।
**संपूज्य देवं देवेन्द्रं भिषजां श्रेष्ठमेव च।
विदुषो ब्राह्मणांश्चैव कर्मकारं तथैव च॥ **इति कर्णवेधकालः।
अथान्नप्राशनकालः। तत्राऽऽश्वलायनः— षष्ठे मास्यन्नप्राशनम्। इति।
यमः—
ततोऽन्नप्राशनं मासि षष्ठेकार्यं यथाविधि।
अष्टमे वाऽथ कर्तव्यं यथेष्टंमङ्गलं कुले॥
लौगाक्षिः— षष्ठेमास्यप्राशनं जातेषु दन्तेषु वा। इति।
नारदीयसहितायां—
षष्ठे मास्यष्टमे वाऽथ पुंसां स्त्रीणां तु पञ्चमे।
सप्तमे मासि वा कार्यं नवान्नप्राशनं शुभम्॥
वृद्धगार्ग्यः—
षष्ठे मासि तु कुर्वीत बालस्यैवान्नभोजनम्।
तदभावेऽष्टमे वाऽपिकुर्यात्संवत्सरेऽपि वा॥ इति।
नारदः—
रिक्तां दिनक्षयं नन्दांंद्वादशीमष्टमीमिमाम्।
त्यक्त्वाऽन्यतिथयः श्रेष्ठाः प्राशने शुभवासराः॥
श्रीधरीये—
आदित्यतिष्यवसुसौम्यकरानिलाश्वि-
चित्राजविष्णुवरुणोत्तरपौष्णमित्राः।
बालान्नभोजनविधौ दशमे विशुद्धे
छिद्रां विहाय नवमीं544तिथयः शुभाः स्युः॥
वारांशकाश्चगुरुशुक्रशशीन्दुजानां
मेषालिमीनरहितानि हितानि भानि।
भुक्तौ शिशोः शुभकराः परिहृत्य सौम्यं
भौमं सितं नवमनैधनसप्तमेषु॥ इति।
नारदः—
पट्टवन्धनचौलान्नप्राशने चोपनायने।
शुभदं जन्मनक्षत्रमशुभं त्वन्यकर्मणि॥
वसिष्ठः—
शुभग्रहाणां भवने विलग्ने तदंशके पूर्वदले दिनस्य।
न नैधने कर्मविशुद्धियुक्ते दोषैर्विहीने शुभदृष्टियुक्ते॥
नोत्पातपापग्रहदूषितर्क्षे वैनाशिताख्य545र्क्षविवर्जिते च॥
इत्यन्नप्राशनकालः।
अथ चूडाकर्मकालः। तत्राऽऽश्वलायनः—उदगयन आपूर्यमाणपक्षे कल्याणे नक्षत्रे चौलकर्मो-पनयनगोदानविवाहाः, इति। तृतीये वर्षे चौलं यथाकुलधर्मं वा। इति।
यमः—
ततः संवत्सरे पूर्णे चूडाकर्म विधीयते।
द्वितीये वा तृतीये वा कर्तव्यं स्मृतिदर्शनात्॥
शङ्खलिखितौ— तृतीये वर्षे चूडाकरणं पञ्चमे वा। इति।
बृहस्पतिः—
तृतीयेऽब्दे शिशोर्गर्भाज्जन्मतो वा विशेषतः।
पञ्चमे सप्तमे वाऽपि स्त्रियाः पुंसोऽपि वा समम्॥ इति।
हेमाद्रौव्यासः—
आश्विनं श्रावणं स्वातीचित्रापुण्यपुनर्वसु।
धनिष्ठारेवतीज्येष्ठामृगहस्तेषु कारयेत्॥
ज्योतिर्ग्रन्थे—
वारनक्षत्रयोगेषु शुभेषु करणेषु च।
हस्तत्रयं मृगशिरः श्रवणत्रयं च
पुण्याश्विनी च शुभभानि पुनर्वसौ च।
क्षौरे तु कर्मणि हितान्युदये क्षणे च
युक्तानि चोडुपतिना यदि शस्ततारा॥
अत्रिः—
अब्दायनर्तुमासान्ते वर्षान्ते च दिनक्षये।
कृष्णपक्षे कृते क्षौरे देहारोग्यं न विद्यते॥
बृहस्पतिः—
द्वादशीं चाष्टमीं रिक्तां षष्ठीं प्रतिपदं तथा।
हित्वा शेषासुतिथिषुचौलकर्म शुभावहम्॥
नारदः—
सूनोर्मातरि गर्भिण्यां चूडाधर्म न कारयेत्।
पञ्चाब्दार्वागथोर्ध्वं तु गर्भिण्यामयि कारयेत्॥
इदं जन्ममासे न कर्तव्यम्।
यो जन्ममासे क्षुरकर्म यात्रां कर्णस्य वेधं कुरुतेऽतिमोहात्।
इति व्यासेनाभिधानात्। इति चूडाकर्मकालः।
अथाक्षरारम्भकालः। तत्र हेमाद्रौमार्कण्डेयः—
प्राप्ते तु पञ्चमे वर्षे अप्रसुप्ते जनार्दने।
षष्ठींप्रतिपदं चैव वर्जयित्वा तथाऽष्टमीम्॥
रिक्तां पञ्चदशीं चैव सौरिभौमदिनं तथा।
एवं सुनिश्चितेकाले विद्यारम्भं तु कारयेत्॥
पूजयित्वा हरिं लक्ष्मीं देवीं चापि सरस्वतीम्।
स्वविद्यासूत्रकारांश्च स्वां विद्यां च विशेषतः॥
एतेषामपि देवानां नान्ना वै जुहुयाद्घृतम्।
दक्षिणाभिर्द्विजेन्द्राणां कर्तव्यं चात्र पूजनम्॥
प्राङ्मुखो गुरुरासीनो वरुणाभिमुखं शिशुम्।
अध्यापयीत प्रथमं द्विजाशीर्भिःप्रपूजितम्॥
इत्यक्षरस्वीकारकालः।
अथोपनयनकालः। तत्र याज्ञवल्क्यः -
गर्भाष्टमेऽष्टमेवाऽब्दे ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तुद्वादशे विशः॥ इति।
काम्यकालमाहाङ्गिराः—
ब्रह्मवर्चसकामस्य पञ्चमेऽब्देऽग्रजन्मनः।
आयुष्कामस्य नवमे कार्यं मौञ्जीनिबन्धनम्॥
षष्ठे च द्वादशे राज्ञो वृद्धिमिच्छोर्बलायुषोः।
धनायुषोस्तु वैश्यस्य अष्टमे च चतुर्दशे॥ इति।
विष्णुः—
षष्ठे तु धनकामस्य विद्याकामस्य सप्तमे।
अष्टमे सर्वकामस्य नवमे कान्तिमिच्छतः॥
आपस्तम्बः—सप्तमे ब्रह्मवर्चसकाममष्टमआयुष्कामं नवमे तेजस्कामं दशभेऽन्नाद्यकाम-मेकादश इन्द्रियकामं द्वादशे पशुकाममुपनयेत्॥ इति।
गौणकालावधिमाह याज्ञवल्क्यः—
आषोडशादा द्वाविंशाच्चतुर्विंशाच्चवत्सरात्।
ब्रह्मक्षत्रविशां काल औपनायनिकः परः॥
अत ऊर्ध्वं पतन्त्येते सर्वधर्मबहिष्कृताः।
सावित्रीपतिता ह्येते व्रात्यस्तोमादृते क्रतोः॥ इति।
आश्वलायनः—अष्टमेवर्षे ब्राह्मणमुपनयेद्गर्भाष्टमे वैकादशे क्षत्रियं द्वादशे वैश्यमाषोडशाद्ब्राह्मणस्यानतीतः काल आविंशात्क्षत्रियस्याऽऽचतुर्विंशाद्वैश्यस्येति, उदगयन आपूर्यमाणपक्षे कल्याणे नक्षत्रे चौलकर्मोपनयनगोदानविवाहा इति च।
वृद्धगार्ग्यः—माघादिमासषट्के तु मेखलाबन्धनं मतम्। इति।
नारदः—दृश्यमाने गुरौ शुक्रे शाखेशे चोत्तरायणे।
शाखेशे वेदाधिपे।वेदाधिपानाह स एव—
वेदनामधिपा जीवशुक्र रोमबुधाः क्रमात्।
क्रमादृग्वेदादिक्रमात्। हेमाद्रौ ज्योतिषे—
गुरुर्भुगसुतो धात्रीपुत्रः शशधरात्मजः।
स्युरेते ऋग्यजुःसामाथर्वणामधिपाः क्रमात्॥ इति।
गार्ग्यः—
विप्रंवसन्ते क्षितिपंनिदाघे वैश्यं घनान्ते व्रतिनं विदध्यात्॥
माघादिशुक्लादिकपञ्चमासाः साधारणा वा सकलद्विजानाम्।
रत्नकोशे—
ज्येष्ठे मासि विशेषेण सर्वज्येष्ठस्य चैव हि॥
उपनीतस्य पुत्रस्य जडत्वं मुत्युरेव वा।
जन्मोदये जन्मसु तारकासु मासेऽथवा जन्मनिजन्मचन्द्रे॥
व्रतेन विप्रो न बहुश्रुतोऽपि प्रज्ञाविशेषः प्रथितः पृथिव्याम्।
गर्भाष्टमे गर्गपराशराद्यैः फलं यदुक्तं व्रतबन्धनेन॥
ततोऽधिकं जन्मसु तारकासु मासेऽथवा जन्मनि बालकानाम्।
गर्गस्तु जन्ममासनिषेधमाह—
विवाहे मेखलाबन्धे जन्ममासं विवर्जयेत्। इति॥
राजमार्तण्डे—
जातं दिनं दूषयते वसिष्ठो ह्यष्टौ च गर्गो नियतं दशात्रिः।
जातस्य पक्षं किलभागुरिश्चशेषाः प्रशस्ताः खलु जन्ममासे॥
पराशरः—
आपूर्यमाणो मुख्यःस्यात्सर्वस्मिञ्शुभकर्मणि।
कृष्णो गौणो दशान्तः स्यान्नागान्तो व्रतबन्धने॥
बृहस्पतिः—
द्वितीया पञ्चमी षष्ठी सप्तमी दशमी तथा।
त्रयोदशी तृतीया च शुक्ले श्रेष्ठाः प्रकीर्तिताः॥
द्वादश्येकादशी चैव मध्यमास्तिथयस्तथा।
कृष्णे पञ्च प्रशंसन्ति तिथयश्चोपनायने॥
कृष्णे च प्रथमाःपूज्याःकदाचिच्छुभगे तिथौ।
प्रथमाः पञ्चमीपर्यन्ताः।
नारदः—
शुक्लपक्षे द्वितीया च तृतीया पञ्चमी तथा।
त्रयोदशी च दशमी सप्तमी व्रतबन्धने॥
श्रेष्ठास्त्वेकादशीषष्ठीद्वादश्यस्तु हि मध्यमाः।
एकां चतुर्थीं संत्यज्य कृष्णपक्षे तु मध्यमाः॥
आपञ्चम्यस्तु तिथयः पराः स्युरतिनिन्दिताः।
व्यासः—
या चैत्रवैशाखसिता तृतीया माघस्य सप्तम्यपि फाल्गुनस्य \।
कृष्णे तृतीयोपनये प्रशस्ता प्रोक्ता भरद्वाजमुनीन्द्रमुख्यैः॥
नारदः—
विनर्तुना वसन्तेन कृष्णपक्षे गलग्रहे।
अपराह्णेचोपनीतः पुनः संस्कारमर्हति॥
कृष्णपक्षे चतुर्थी च सप्तम्यादिदिनत्रयम्।
त्रयोदशीचतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहाः॥
मानवीयसंहितायां—
सर्वदेशेषु पूर्वाह्णेमुख्यं स्याच्चोपनायनम्।
मध्याह्नेमध्यमं प्रोक्तमपराह्णेच गर्हितम्॥
पापांशकगते चन्द्रे अरिनीचस्थितेऽपि वा।
अनध्याये चोपनीतः पुनःसंस्कारमर्हति॥
बृहस्पतिः—
पापग्रहाणां वाराः स्युर्न शुभाश्चन्द्रवासरः।
सिते पक्षे प्रशस्तः स्यात्कृष्णे वारो विधोर्न हि॥
शुभो बुधो नास्तमितः पापग्रहयुतो न च।
नारदः—
शाखाधिपतिवारश्च शाखाधिपबलं तथा।
शाखाधिपतिलग्नं च दुर्लभं त्रितयं व्रते॥
अत्रिः—
पराजिते च नीचस्थे नीचे शुक्रे गुरौ तथा।
व्रतिनं यदि कुर्वीत स भवेद्वेदवर्जितः॥
वृद्धगार्ग्यः—
शाखाधिपे बलिनि केन्द्रगते च मौञ्जी-
बन्धस्तदीय दिवसेषु सुखाप्तये च॥ इति।
पराशरः—
पती सितेज्यौ विप्राणां नृपाणां कुजभास्करौ।
वैश्यानां शशमत्सोम्यमितिवर्णाधिपाः स्मृताः॥
सदाऽनुकूले चैकस्मिन्वर्णेशेबालशालिनि।
ब्राह्मणादेः प्रकुर्वीत कुमारं व्रतचारिणम्॥
राजमार्तण्डः—
नष्टे शुक्रेऽथवा जीवे निरंशे चैव भास्करे।
उपनीतस्य शिष्यस्य जडत्वं मृत्युरेव वा।
त्रिषूत्तरेषु रोहिण्यां हस्ते मैत्रे च वासवे॥
त्वाष्ट्रे सौम्ये पुनर्वस्वोरुत्तमं ह्यौपनायनम्।
वारुणे वैष्णवे पुष्ये वायव्ये पौष्णभे तथा॥
अश्विन्यां षट्सु भेषूक्तं मध्यमं व्रतबन्धनम्।
शेषेषु वर्जयेद्विद्वान्द्विजातेरौपनायनम्॥
नारदः—
श्रेष्ठान्यर्कत्रयान्त्येज्यचन्द्रादित्युत्तराणि च।
विष्णुत्रयाश्विमित्राब्जयोनिभान्युपनायने॥
जन्मभाद्दशमं कर्म संघातर्क्षंच षोडशम्।
अष्टादशं सामुदायं त्रयोविंशं विनाशमम्॥
मानसं पञ्चविंशर्क्षंनाऽऽचरेच्छुभभेषु तु।
ज्योतिर्निबन्धे—
मूले हस्तत्रये सार्पेशैवेपूर्वात्रये तथा।
ऋग्वेदाध्यायिनांकार्यं मेखलाबन्धनं वटोः॥
पुष्ये पुनर्वसौपौष्णेरो को सताइने।
ध्रुवेषु च प्रशस्तं स्याद्विदुषां मौञ्जिबन्धनम्।
पुष्यवासवहस्ताश्विशिवकर्णोत्तरात्रयम्॥
प्रशस्तं मेखलाबन्धे वटूनां सामगायिनाम्।
मृगमैत्राश्विनीहस्तरेवत्यदितिवासवम्।
अथर्वपाठिनां शस्तो भगणोऽयं व्रतार्पणे।
ब्राह्मणस्य पुनर्वसुनिषेधो राजमार्तण्डे—
ताराचन्द्रानुकूलेषु ग्रहाद्येषु शुभेष्वपि।
पुनर्वसौ कृतो विप्रः पुनः संस्कारमर्हति॥
वसिष्ठः—
पापग्रहेक्षिते लग्ने मौढ्ये च गुरुशुक्रयोः।
ऋत्वन्ते चैव मासान्ते तिथ्यन्ते विपनाडिषु॥
नक्षत्रान्ते च विष्ट्यांच षडशीतिमुखे तथा।
दिनक्षये व्यतीपाते सग्रहे ग्रहपीडिते॥
शून्यमासदिने राशौ ग्रहदोषसमन्विते।
कालकर्णिकलौवज्रे विष्कम्भे परिघेतथा॥
शूले च वैधृतौ चैव कण्टके स्थूलकण्टके।
अष्टम्यां चैव रिक्तायां सर्वोत्पातादिदूषिते॥
उक्तादन्यर्क्षसंयोगे चन्द्रे गण्डातिगण्डयोः।
उडूपक्षीणकाले च वर्जयेदुपनायनम्॥ इति।
लल्लः—
व्रताह्निपूर्वसंध्यायां वारिदो यदि गर्जति।
तद्दिनं स्यादनध्यायं व्रतं तत्र विवर्जयेत्॥
बृहस्पतिः—
व्याघातंपरिघं वज्रं व्यतीपातं च वैधृतिम्।
गण्डातिगण्डशूलं च विष्कम्भं चैव वर्जयेत्॥
अन्ये विशेषा ज्योतिःशास्त्रादवगन्तव्याः। इत्युपनयनकालः।
अथ वेदाद्यारम्भकालः। तत्र वसिष्ठः—
रिक्ताऽष्टमी पञ्चदशी निषिद्धा
त्रयोदशी सप्तमिका च मध्या।
विद्यागमे वित्सितमन्त्रिणां स्यु -
र्वाराःशुभा मध्यम इन्दुभान्वोः॥
हस्ताश्वयुक्श्रावणतिष्यसनीरमित्र-
चित्रादितेयपुरजिन्मृगलाञ्छनेषु।
शस्तोत्तरासलिलसंभवपौष्णभेषु
सिध्याच्छ्रुतिस्मृतिसमावगतिर्द्विजानाम्॥
विद्यारम्भे द्विस्वभावा विशिष्टा
मध्याः प्रोक्ता ये चरा राशयश्च।
पुराणाद्यारम्भे स एवाऽऽह—
हस्तादिपञ्चाश्विमृगेज्यपूषा ब्रह्मा च विश्वत्रितयं च ताराः।
पुराणधर्मश्रुतिशास्त्रविद्याव्रतादिकानां शुभदा भवन्ति॥
शब्दशास्त्रारम्भे—
अश्विनी रोहिणीसोम्यं पुष्यं हस्ताविपञ्चकम्।
अदितिर्दशताराः स्युः शब्दशास्त्रेषु पूजिताः॥
गणिताम्भे—
गणिते रेवतीहस्तमैत्रतिष्यार्द्रवासवाः।
ज्योतिःशास्त्रनिमित्ते च रोहिणीवारुणे शुभे।
आदित्यं वैष्णवं स्वाती पुण्यहस्ताश्विदारुणाः।
त्र्युत्तरा रोहिणी चैवसर्वशास्त्रेषु पूजिताः॥
अष्टमस्था ग्रहाः सर्वे सर्वविद्यासु वर्जिताः।
इति वेदाद्यारम्भकालः। अथ बह्मचारिव्रतारम्भकालः।
तिथिनक्षत्रवारांशवर्गोदयनिरीक्षणम्।
चौलवत्सर्वमाख्यातं सगोदानवतेषु च॥
इति व्रतारम्भकालः। अथानध्यायाः। तत्रानध्यायाध्ययने दोषमाह हेमाद्रौ लिखितः—
छिद्राण्येतानि विप्राणामनध्यायाः प्रकीर्तिताः।
छिद्रेभ्यः स्रवति ब्रह्म ब्राह्मणेन यदर्जितम्॥
तत्काले तस्य रक्षांसि श्रियं ब्रह्म यशो बलम्।
सर्वमादाय गच्छन्ति वर्जयन्तीप्सितं फलम्॥
हारीतः—
छिद्राण्येतानि विप्राणां येऽनध्यायाः प्रकीर्तिताः।
हिंसन्ति राक्षसास्तेषु तस्मादेतान्विवर्जयेत्॥
विष्णुः—यस्मादनध्यायाधीतवेदो नामुत्रफलदस्तत्राध्ययनेनाऽऽयुषः परिक्षयो गुरुशिष्ययोश्च तस्मादनध्यायान्वर्जयेत्। तत्रेन्द्रनारदसंवादे—
अनध्यायेष्वधीयानाञ्शक्रकिं न हनिष्यसि।
असुरास्ते दुरात्मानो बह्मघ्ना ब्रह्मदूषकाः॥
अनध्यायेष्वधीयन्ते न ते यान्ति स्ववैदिकम्।
मृताः स्वर्गं न गच्छन्ति किं नारद न ते हताः॥
यमः—
अनध्यायेष्वध्ययने प्रज्ञामायुः प्रजां स्त्रियः।
ब्रह्मवीर्यं श्रियं तेजो निकृन्तति यमः स्वयम्॥
मन्त्रवीर्यक्षयभयादिन्द्रो वज्रेण हन्ति च।
ब्रह्मराक्षसतांयान्ति नरत्वं न शुभं भवेत्॥
आयुरस्य निकृन्तामि प्रजां मेधां हराम्यहम्।
य उच्छिष्टः प्रवदति स्वाध्यायं चाप्यधीयते॥
अष्टमी हन्त्युपाध्यायं शिष्यं हन्ति चतुर्दशी।
हन्ति पञ्चदशी मेधां तस्मात्सर्वाणि वर्जयेत्॥
मनुः—
अमावास्या गुरुं हन्ति शिष्यं हन्ति चतुर्दशी।
ब्रह्माष्टमीपौर्णमास्यौ तस्मात्ताः परिवर्जयेत्॥
ब्रह्म वेदः।रामायणे—रामं प्रति हनुमद्वचः—
सा स्वभावेन तन्वङ्गित्वद्वियोगाच्चकर्शिता।
प्रतिपत्पाठशीलस्य विद्येव तनुतां गता॥ इति।
हारीतः—
प्रतिपत्सु चतुर्दश्यामष्टम्यां पर्वणोर्द्वयोः।
श्वोऽनध्यायेऽद्यशर्वर्यांनाधीयीत कदाचन॥
हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरम्—एकानध्याययुग्मे त्वपररात्रापररात्रे मानध्यायः। अनध्याययुग्मपूर्वदिना-पररात्रे चेत्यके—
उदयेऽस्तमये वाऽपि मुहूर्तत्रयगामि यत्।
भेदितं तदहोरात्रमनध्यायविदो विदुः॥
केचिदाहुः क्वचिद्देशे यावद्भेदितनाडिकाः।
तावदेव त्वनध्यायो न तन्मिश्रदिनान्तरे॥ इति।
उशना—
अयनेविषुवे चैव शयने बोधने तथा।
अनध्यायं प्रकुर्वीत मन्वादिषु युगादिषु॥
मन्वादयः पूर्वमुदाहृताः। याज्ञवल्क्यः—
त्र्यहंप्रेतेष्वनध्यायः शिष्यर्त्विग्गुरुबन्धुषु।
उपाकर्मणि चोत्सर्गे स्वशाखाश्रोत्रिये मृते॥
संध्यागर्जितनिर्घातभूकम्पोल्कानिपातने।
समाप्य वेदं द्युनिशमारण्यकमधीत्य च॥
पञ्चंदश्यां चतुर्दश्यामष्टम्यां राहुसूतके।
ऋतुसंधिषु भुक्त्वा च श्राद्धिकं प्रतिगृह्य च॥
पशुमण्डूकनकुलश्वाहिमार्जारमूषकैः।
कृतेऽन्तरे त्वहोरात्रं शक्रपाते तथोच्छ्रये॥
संध्यागर्जितेऽहोरात्रमनध्यायः। प्रातःसंध्यायामेव।सायंसंध्यागर्जिते तु रात्रावेव। तदाह हारीतः—
सायंसंध्यास्तनिते रात्रिः प्रातः संध्यायामहोरात्रम्। इति।
राहुसूतकं ग्रहणम्। तत्राऽऽकालिकाहोरात्रत्रिरात्राणां विकल्पः। आकालिका निर्वातभूकम्पराहु-दर्शनोल्कापाताः। इति। निमित्तकालादारभ्य परेद्युस्तत्कालपर्यन्तमाकालिकः। इति गौतमे-नाऽऽकालिकस्य,
प्रतिगृह्य द्विजो विद्वानेकोद्दिष्टस्य केतनम्।
त्र्यहं न कीर्तयेद्ब्रह्म राज्ञो राहोश्चसूतके।
इति मनुना त्रिरात्रस्योक्तत्वात्। केतनं निमन्त्रणम्। तत्रैकोद्दिष्टे त्रिरात्रविधानादहोरात्रं प्रत्याब्दि-कादिविषयम्। रत्नावल्याम्—
अनुराधर्क्षमारभ्य षोडशर्क्षेषु भास्करः।
यावच्चरति वै तावदकालं मुनयो विदुः॥
विद्युद्गर्जितवृष्टीनां संनिपातो यदा भवेत्।
स्वकालवृष्टौ तत्कालमकाले तु त्रिरात्रकम्॥
अतिमात्राऽथवा वृष्टिर्नाधीयीत दिनत्रयम्।
द्वयोस्तु द्विदिनं प्रोक्तं वृष्टिमात्रे दिनं स्मृतम्॥
यदि वर्षेष्वनध्याये तेनैव सह गच्छति।
मेषे च वृषभेचैव तृणाग्रात्स्रवते जलम्॥
अत ऊर्ध्वं त्रिपादेषु तृणप्रच्यवनं स्मृतम्।
एतदाकालिकं विद्याच्छेषं तात्कालिकं विदुः॥
नृसिंहपुराणे—
महानवम्यां द्वादश्यां भरण्यामपिचैव हि।
तथाऽक्षय्यतृतीयायां शिष्यान्नाध्यापयेत्क्वचित्॥
माघमासे तु सप्तम्यां रथाख्यायां विवर्जयेत्।
अनध्यायमथाभ्यक्तः स्नानकाले च वर्जयेत्॥
द्वादश्याषाढकार्तिकशुक्लद्वादशी।भरणी पितृपक्षगता महाभरणी। अत एव हेमाद्रौस्मृत्यन्तरम्— भाद्रपदे मघाभरण्योरनध्यायः, शयनोत्थानयोश्च द्वादश्योः आषाढीकार्तिकीफाल्गुनीसमीपस्थद्वितीयायांच इति। नारदीये—
महाभरण्यां विप्रेन्द्र श्रवणद्वादशीदिने।
भाद्रपदापरपक्षद्वितीयायां च गर्जिते॥
ब्रह्माण्डपुराणे—
रात्रौ यामद्वयादर्वाग्यदि पश्येत्त्रयोदशीम्।
प्रदोषः स तु विज्ञेयः सर्वस्वाध्यायवर्जितः॥
षष्ठी च द्वादशी चैव अर्धरात्रोननाडिका।
प्रदोषे न त्वधीयीत तृतीया नवनाडिका॥
हेमाद्रौ—
मेधाकामस्त्रयोदश्यां चतुर्थ्यां चैव सर्वदा।
सप्तम्यां च प्रदोषे तु न स्मरेन्नापि कीर्तयेत्॥
चतुर्थ्याःपूर्वरात्रे तु नवनाडिषु दर्शने।
नाध्येयं पूर्वरात्रे स्यात्सप्तमी च त्रयोदशी॥ इति।
अष्टमी हन्त्युपाध्यायं शिष्यं हन्ति चतुर्दशी॥
अमावास्योभयं हन्ति प्रतिपत्पाठनाशिनी।
अष्टका तु समाख्याता सप्तम्यादिदिनत्रयम्॥
शास्त्रं तु तत्र नाध्येयं व्रतबन्धं च वर्जयेत्।
नारदीये—
अयने विषुवे चैव शयने बोधने हरेः।
अनध्यायस्तु कर्तव्यो या च सोपपदा तिथिः॥
सिता ज्येष्ठे द्वितीया तु आश्विनी दशमी सिता।
चतुर्थी द्वादशी माघ एताःसोपपदाः स्मृताः॥
हेमाद्रौस्मृत्यन्तरम्—
निशाद्वयं दिवा रात्रौ संक्रमे वासरद्वयम्।
अनध्यायं प्रकुर्वन्ति अयने विषुवे तथा॥
दिवाऽयने विषुवे च संक्रमे पूर्वोत्तरा च रात्रिः।रात्रौ संक्रमे पूर्वदिन उत्तरदिने चेत्यर्थः। त्रिरात्रमित्यनुवृत्तौगौतमः—वर्षाविद्युत्स्तनितसंनिपात इति तद्वर्षाकालादन्यत्र। अत एवाऽऽपस्तम्बः - विद्युत्स्तनयित्नुर्वृ-
ष्टिश्चार्पतौयत्र संनिपतेयुस्तत्र त्र्यहमनध्यायो यावद्भूमिर्व्युदकेत्येके। एकेन द्वाभ्यां चैतेषामाकालम्।
मनुः—
विद्युत्स्तनितवर्षेषु महोल्कानां च संप्लवे546।
आकालिकमनध्यायमेतेषु मनुरब्रवीत्॥
एतेषु विद्युदादिषु प्रत्येकमाकालिकं तदपि वर्षाकालादन्यत्र।स एव—
चौरैरुपप्लुते ग्रामे संत्रासे चाग्निकारिते॥
आकालिकमनध्यायं विद्यात्सर्वाद्भुतेषु च।
निर्घाते भूमिचलने ज्योतिषां चोपसर्जने॥
एतानाकालिकान्विद्यादनध्यायानृतावपि।
निर्घातोऽन्तरिक्षे ध्वनिविशेषः। उपसर्जनं सूर्याचन्द्रमसोः परिवेषः, ग्रहयुद्धादि वा, इति हेमाद्रिः। चण्डालादिव्यवाये षण्मासमनध्यायमाहाऽऽपस्तम्बः—चण्डालश्चापाकशशस्य।षण्मासानध्याय इत्यनुवर्तते। हस्तिव्याघ्रयोस्त्वन्तरागमने संवत्सरमनध्याय इत्याह स एव— यदि हस्ती संवत्सरं व्याघ्रेतथैवेति।
मनुः—
पशुमण्डूकमार्जारश्वसर्पनकुलाखुभिः॥
अन्तरागमने विद्यादनध्यायमहर्निशम्।
हेमाद्रौ स्मृत्यन्तरम्—
सर्वकुत्सितगन्धे च परिखाते सभासु च।
अभ्यङ्गे स्नानकाले च महावेदेऽति547कम्पने॥
गोविप्ररोदने सर्वराष्ट्रेषुश्राद्धपङ्क्तिषु।
शाल्मलस्य मधूकस्य कोविदारकपित्थयोः॥
श्लेष्मातकस्य च्छायायामिति तात्कालिका विदुः।
याज्ञवल्क्यः—
श्वक्रोष्टुगर्दभोलूकसामबाणार्त548निःस्वने॥
अमेध्यशवशूद्रान्त्यश्मशानपतितान्तिके।
देशेऽशुचावात्मनि च विद्युत्स्तनितसंप्लवे॥
भुक्तार्द्र549पाणिरम्भोन्तरर्धरात्रेऽतिमारुते।
पांसुवर्षे दिशां दाहे संध्यानीहारभीतिषु॥
धावतःपूतिगन्धे च शिष्टे च गृहमागते।
खरोष्ट्रयानहस्त्यश्वनौवृक्षेरिणरोहणे॥
सप्तत्रिंशदनध्यायानेतांस्तात्कालिकान्विदुः।
श्वादीनां शब्दे श्रूयमाणे तावत्कालमनध्यायः। क्रोष्टा गोमायुः। मनुरपि—
सामध्वनावृग्यजुषी नाधीयीत कदाचन।
अत्र हेतुमाह—
ऋग्वेदो देवदेवत्यो यजुर्वेदस्तु मानुषः॥
सामवेदः स्मृतः पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः।
इदं निन्दार्थवादमात्रम्।ऋग्वेदादिनिःस्वने साम्नामनध्यायः। तदा हाऽऽपस्तम्बः—शाखान्तर-ध्वनौ च साम्नामनध्याय इति। वाणो वीणाविशेषः, स च वेण्वादीनामुपलक्षकः। तथा च गौतमः—वेणुवीणाभेरिमृदङ्गर्दार्तशब्देषुइति। गर्दःशकटम्। आर्तो दुःखी। विद्युत्स्तनितसंप्ल-वोऽनुवृत्तौ।यानं रथादि। इरिणमुखरम्।बौधायनः—नृत्यगीतवादित्ररुदितशब्देषु तावन्तं कालमिति।
शङ्खः—
नाधीयीताभियुक्तोऽपि यानगो न च गोगतः।
देवायतनवल्मीकश्मशानवनसंनिधौ॥
मनुः—
शयानः प्रौढपादश्च कृत्वा चैवाऽऽवसक्थिकाम्।
नाधीयीताऽऽमिषं जग्ध्वा सूतकान्नाद्यमेव च॥ इति।
आवसक्थिका कटिजानुवेष्टनम्।ब्रह्मयज्ञादौ तु नानध्याय इति स एवाऽऽह—
वेदोपाकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके।
नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥
वेदोपाकरणमुपक्रियतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या व्याकरणाद्यङ्गम्। नैत्यकः स्वाध्यायो ब्रह्मयज्ञः।होममन्त्रग्रहणं होमकालिकस्तोत्रशस्त्रादिमन्त्रोपलक्षणार्थम्। अत एव शौनकः—
नित्ये जपे च काम्ये च कृतौ पारायणेऽपि च।
नानध्यायोऽस्ति वेदानां ग्रहणे ग्राहणे तु सः॥ इति।
अत एव मनुः—
इमान्नित्यमनध्यायानधीयानो विवर्जयेत्।
अध्यापनं च कुर्वाणःशिष्याणां विधिपूर्वकम्॥
चतुर्दश्यष्टमीपर्वप्रतिपत्स्वेव सर्वदा।
दुर्मेधसामनध्यायस्त्वन्तरागमनेषु च॥
तत्र विस्मृतिशीलानां बहुवेदप्रपाठिनाम्।
चतुर्दश्यष्टमीपर्वप्रतिपद्वजितेषु च॥
वेदाङ्गन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राणि चाभ्यसेत्। इत्यनध्यायाः।
अथ केशान्तकर्मकालः। तत्र याज्ञवल्क्यः—केशान्तश्चैव षोडश इति। केशान्तो गौदानाख्यं कर्म।
मनुः—
केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते।
राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य द्व्यधिके ततः॥
हेमाद्रौ ज्योतिःशास्त्रे यान्युक्तानि क्षौरेषु भानि तान्येव चूडाकरण उपनयने केशान्ते च शस्ता-नीति गोदानाख्यकर्मकालः। याज्ञवल्क्यः—
प्रतिवेदं ब्रह्मचर्यं द्वादशाब्दानि पञ्च वा।
ग्रहणान्तिकमित्येक इति। आश्वलायनः—
द्वादशवर्षाणि वेदब्रह्मचर्य ग्रहणान्तं वा॥ इति।
इति ब्रह्मचर्यकालः \।
अथ समावर्तनकालः।
तत्र दक्षः—
स्वीकरोति यदा वेदंधत्ते वेदव्रतानि च।
ब्रह्मचारी भवेत्स्नातः ततः पश्चाद्गृही भवेत्॥
वेदग्रहणं वेदार्थस्याप्युपलक्षणम्। तथा च हेमाद्रौव्यासः—
न वेदपाठमात्रेण संतोषं कारयेद्गुरुम्।
पाठमात्रावसानस्तु पङ्के गौरिव सीदति॥
यथा पशुर्भारहारी न तस्य लभते फलम्।
द्विजस्तदर्थानभिज्ञो न वेदफलमश्नुते॥
वेदस्याध्ययनं सर्वं धर्मशास्त्रस्य वाऽपि यत्।
अजानतोऽर्थं तत्सर्वं तुषाणां कण्डनं यथा॥
योऽधीत्य वेदविद्विप्रो वेदार्थं न विचारयेत्।
स सान्वयः पशुसमः पात्रतां न प्रपद्यते॥
अधीत्य यत्किंचिदपि वेदार्थाभिगमे रतः।
स ब्रह्मलोकमाप्नोति बह्मानुष्ठानसिद्धितः॥
पाठमात्ररतान्नित्यं द्विजातींश्चार्थवर्जितान्।
पशूनिव च तान्प्राज्ञो वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥
ऋग्पादमप्यधीत्यातो न्यायतस्तु तदर्थवित्।
सम्यग्व्रतानि संसेव्य समावर्तनमर्हति॥
अशक्तावाह याज्ञवल्क्यः—
गुरवे तु वरं दत्त्वा स्नायीत तदनुज्ञया।
वेदव्रतानि वादत्त्वापारं नीत्वा ह्युभयमेव वा॥ इति।
नारदः—
अथोत्तरायणे जीवशुक्रयोर्दृश्यमानयोः॥
द्विजातीनां गुरोर्गेहान्निवृत्तानां यतात्मनाम्।
रत्नसंग्रहे—
वागीशादितिसौम्यपौष्णदिनकृन्मित्रोत्तरारोहिणी-
गोविन्देषु शशाङ्कभानुगुरुविच्छुक्रांशवारादिषु॥
रिक्तां पर्व तथाऽष्टमीं प्रतिपदं मेषं च कीटं हरिं
हित्वा शुद्धियुतेऽष्टमेऽह्नि विमले कुर्यात्समावर्तनम्॥
इति समावर्तनकालः।
अथ क्षत्रियस्यच्छुरिकाबन्धनकालः। तत्र नारदः—
छुरिकाबन्धनं वक्ष्ये नृपाणां प्राक्करग्रहात्।
विवाहोक्तेषु मासेषु शुक्लपक्षेष्वनस्तगे॥
जीवे शुक्रे च भूपुत्रे चन्द्रताराबलान्विते।
मौञ्जीबन्धर्क्षतिथिषु कुजवर्जितवासरे॥
छुरिकाबन्धनं कार्यमर्चयित्वाऽपरान्पितॄन्।
इति च्छुरिकाबन्धनकालः।
अथ विवाहकालः। तत्र चतुर्णामाश्रमाणां समुच्चयमाह मनुः—
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा।
एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः॥
गृहस्थप्रभवास्तदुपजीविनः।विकल्पमाह हेमाद्रौउशना—
**आचार्येणाभ्यनुज्ञातश्चतुर्णामेकमाश्रमम्।
आविमोकाच्छरीरस्य सोऽनुतिष्ठेद्यथाविधि॥**इति।
बृहस्पतिः—
वेदानधीत्य विधिना समावृत्तोऽच्युतव्रतः।
समानामुद्वहेत्पत्नीं यशःशीलवयोगुणैः॥
वेदानधीत्य वेदी वा वेदं वाऽपि यथाक्रमम्।
अविप्लुतबह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्॥
सदृशानाहरेद्दारान्मातापितृमते स्थितः।
विवाहे वर्षमाह नारदः—
युग्मेऽब्दे जन्मतः स्त्रीणां प्रीतिदंपाणिपीडनम्।
एतत्पुंसामयुग्मेऽब्दे व्यत्यये नाशनं तयोः॥
संवर्तः—
अष्टमे तु भवेद्गौरी नवमे नग्निका भवेत्।
दशमे कन्यका प्रोक्ता द्वादशे वृषली स्मृता॥
वृषली रजस्वला।
यमः—
तस्मादुद्वाहयेत्कन्यां यावन्नेर्तुमती भवेत्।
यत्तु वचनं—
काममाभरणात्तिष्ठेद्गृहे कन्यर्तुमत्यपि।
न त्वेवैतां पिता दद्यात्कुलहीनाय कर्हिचित्॥
इति तत्कुलहीननिन्दापरम्। अत एवाऽऽश्वलायनः— “ कुलमग्रे परीक्षेत " इति। मासफलमाह व्यासः—
माघमासे भवेदूढा कन्या सौभाग्यसंयुता।
फाल्गुनोढा भवेत्साध्वी वैशाखे पुत्रिणी भवेत्॥
धर्मयुक्ता भवेज्ज्येष्ठे धनिनी कार्तिके भवेत्।
वरपूजारता नित्यं मासे स्यात्सोमदैवते॥
सोमदैवते मार्गशीर्षे।
उक्तवर्जमथान्येषु मासेषु प्राप्नुयाद्यदि।
विवाहं कन्यका सा स्यात्सुतशीलार्थवर्जिता॥
नारदः—
माघफाल्गुनवैशाखज्येष्ठमासाः शुभप्रदाः।
मध्यमः कार्तिको मार्गशीर्षो वै निन्दिताः परे॥
रत्नमालायां—
नाऽऽषाढप्रभृतिचतुष्टये विवाहो
नो पौषे न च मधुसंज्ञके विधेयः॥ इति।
भरद्वाजः—
माघफाल्गुनवैशाखज्येष्ठाषाढमृगाह्वयाः।
षडेते पूजिता मासाश्चातुर्वर्ण्यस्य नित्यशः॥ इति।
अत्र विहितनिषिद्धाषाढादीनां देशभेदेन व्यवस्थेति केचित्।
वस्तुतस्तु—
पौषेऽपि कुर्यान्मकरस्थितेऽर्के चैत्रे भवेन्मेषगतो यदा स्यात्।
प्रशस्तमाषाढकृतं विवाहं वदन्ति गर्गा मिथुनस्थितेऽर्के।
इति वसिष्ठेन मकरार्कादियोगेनैव प्राशस्त्याभिधानात्॥
अमावास्यापरिच्छिन्नो मासः स्याद्ब्राह्मणस्य तु।
संक्रान्तिपौर्णमासीभ्यां स्यातां क्षत्रियवैश्ययोः॥
इति वचनात्पौषचैत्राषाढाःक्षत्रियाणामेव युक्ता इति बोध्यम्। यत्तु सार्वकालिकमिच्छन्ति विवाहं गौतमादय इति तदधर्म्यविवाहवि
षयम्। धर्म्येष्वेव विवाहेषु कालकालपरीक्षणं नाधर्म्येष्विति परिशिष्टात्। अत्यासन्नऋतुकाल-विषयमेवेति केचित्।
शुक्लपक्षं प्रशंसन्ति विशेषेणोत्तरायणम्॥
हेमाद्रौवसिष्ठः—
आपूर्यमाणपक्षे तु विवाहो ब्राह्मणस्य तु।
इतरेषां तु वर्णानां कृष्णपक्षे विधीयते॥
लल्लः—
प्रतिपद्दुःखजननी द्वितीया प्रीतिवर्धनी।
सौभाग्यदा तृतीया स्याच्चतुर्थी चार्थनाशिनी॥
पञ्चम्यां सुखवित्तानि षष्ठी विघ्नप्रदायिनी।
विद्याशीलसुखाप्तिः स्यात्सप्तम्यामफलाऽष्टमी।
नवमी शोकफलदा चाऽऽनन्दो दशमीदिने।
दुःखदैकादशी ज्ञेया कुफला द्वादशी स्मृता॥
मानपुत्रौ त्रयोदश्यां चतुर्दश्यौ तु दुःखदे।
फलं बहुविधं नित्यं पञ्चदश्यां विशेषतः॥
पञ्चदशी पूर्णिमा।
अत्रापि कृष्णपक्षस्य दशमीमविवाहिकाम्।
वदन्त्यन्ये तु दशमीमुभयोरविवाहिकाम्॥
गुरुशुक्रेन्दुपुत्राणां दिनेषु परिणीयते।
या कन्या सा भवेन्नित्यं भर्तुश्चित्तानुवर्तिनी॥
अर्कार्किभौमवाराणां दिनेषु कलहप्रिया।
सापत्न्यं समवाप्नोति तुषारकरवासरे॥
क्षीणेन्दुःकुलनाशाय स्त्रीविनाशाय भार्गवः।
जीवः पुरुषनाशाथ यदि पाणिग्रहो भवेत्॥
लल्लः—
बृहस्पतौ शोभनगोचरस्थे विवाहमिच्छन्ति हि दाक्षिणात्याः।
रवौ शुभस्थे प्रवदन्ति गौडा न गोचरा मालवके प्रमाणम्॥
गर्गः—
चन्द्रताराबलं मुख्यं दंपत्योः पाणिपीडने।
मुख्यं गुरुबलं वध्वा वरस्येष्टं रवेर्बलम्॥
ज्योतिर्निबन्धे—
द्विपञ्चसप्तनन्देशस्थितो जीवः शुभप्रदः।
द्विजानां मेखलाबन्धे कन्यायाश्च करग्रहे॥
जन्मत्रिदशमारिस्थः पूजया शुभदो गुरुः।
विवाहेऽथ चतुर्थाष्टद्वादशस्थो मृतिप्रदः॥
वसिष्ठः—
तिस्रोत्तरा मूलमघान्त्यमैत्रप्राजेशचन्द्रार्कसमीरणेषु।
सदा प्रशस्तः खलु कन्यकानां पाणिग्रहो वेधविवर्जितेषु॥
वैधृतके परिणीता कन्या विकलेन्द्रिया व्यतीपाते।
विष्ट्यांमरणं नित्यं सुभगाःषट्स्वपि च करणेषु॥
लग्नादिविशेषो ज्योतिःशास्त्राद्वगन्तव्यः। इति विवाहकालः।
अथ विवाहाद्युपयोगिनिरूपणं तत्र वृद्धगार्ग्यः—
मीने धनुषि सिंहे च स्थिते सप्ततुरंगमे।
क्षौरमत्र न कर्तव्यं विवाहं गृहकर्म च॥
** **वसिष्ठः—
आर्द्रादिके स्वातिविरामकाले नक्षत्रवृन्दे दशके स्थितेऽर्के।
विवाहचौलव्रतबन्धदीक्षासुरप्रतिष्ठादि न कार्यमेव॥
वृत्तशते—
न जन्मधिष्ण्ये न च जन्ममासे न जन्मकालीनदिने विदध्यात्।
ज्येष्ठे न मासि प्रथमस्य सूनोस्तथा सुताया अपि मङ्गलानि॥
नारदः—
न जन्ममासे जन्मर्क्षेन जन्म दिवसे तथा।
आद्यगर्भसुतस्याऽऽद्यदुहितुर्वा करग्रहम्॥
यानि तु—
विवाहश्च कुमारीणां जन्ममासे प्रशस्यते। इति।
पूजामङ्गलवस्त्राणि विवाहो वास्तुसंग्रहः।
जन्ममासे च कर्तव्यं क्षौराध्वानं (नौ)तु वर्जयेत्॥
इत्यादिवचनानि तानि द्वितीयादिगर्भोत्पन्नापत्यविषयाणि।
पराशरः—
अज्येष्ठा कन्यका यत्र ज्येष्ठपुत्रो वरो यदि।
व्यत्ययो वा तयोस्तत्र ज्येष्ठो मासः शुभप्रदः॥
मिहिरः—
ज्येष्ठस्य ज्येष्ठकन्याया विवाहो न प्रशस्यते।
तयोरन्यतरे ज्येष्ठे ज्येष्ठमासःप्रशस्यते॥
द्वौ ज्येष्ठौमध्यमौप्रोक्तावेकज्येष्ठं सुखावहम्।
ज्येष्ठत्रयं न कुर्वीत विवाहे सर्वसंमतम्॥
जन्ममासलक्षणमाह वृद्धगार्ग्यः—
आरभ्य जन्मदिवसाद्यावत्रिंशद्दिनं भवेत्।
जन्ममासः स विज्ञेयः सर्वकर्मसु गर्हितः॥ इति।
जन्ममासेऽपि विवाहस्यात्यावश्यकत्वे ज्योतिर्ग्रन्थे—
जातं दिनं वर्जयते वसिष्ठः अष्टौ च गार्ग्योनियतं दशात्रिः।
तज्जन्मऋक्षं किल भागुरिश्चव्रते विवाहे गमने क्षुरे च॥ इति।
वसिष्ठः—
विवाहे व्रतबन्धे च यात्रायां गृहकर्मणि।
गुरावस्तमिते शुक्रे ध्रुवं मृत्युं विनिर्दिशेत्॥
रविक्षेत्रगते जीवे जीवक्षेत्रगते रवौ।
वर्जयेत्सर्वकार्याणि व्रतस्वस्त्ययनानि च॥
ज्योतिर्निबन्धे—
रविक्षेत्रं तु पैत्रर्क्षं जीवक्षेत्रं तु रेवती। इति।
लल्लः—
वक्रे चैवातिचारे त्रिदशपतिगुरौ दैत्यपूज्ये विलुप्ते
गुर्वादित्येऽधिमासे दिवसकरविधोः संगमे चैत्रपौषे।
धिष्ण्ये केतूद्गमे वा शरदि सुरगुरौ सिंहसंस्थे मनोज्ञे
वर्षे लुप्तेऽपि चोक्तं स नियतमरणं कन्यकायाश्च भर्तुः॥
अतिचारगतो जीवस्तं राशिं नैति चेत्पुनः।
लुप्तः संवत्सरो ज्ञेयः सर्वकर्मसु गर्हितः॥ इति।
ज्योतिर्निबन्धे—
सिंहस्थिते गुरौ राजन्विवाहं नैव कारयेत्।
मकरस्थेऽपि कर्तव्यं यदीच्छेदात्मनः शुभम्॥
मकरस्थेत्यत्रापि नेत्यस्यानुषङ्गः।लल्लः—
नीचस्थे वक्रसंस्थेऽप्यतिचरणगते बालवृद्धास्तगे वा
संन्यासो देवयात्रा व्रतनियमविधिः कर्णवेधश्चदीक्षा।
मौञ्जीबन्धोऽथ चूडा परिणयनविधिर्वास्तुदेवप्रतिष्ठा
वर्ज्या सद्भिः प्रयत्नात्त्रिदशपतिगुरौ सिंहराशिस्थिते च॥
ज्योतिर्निबन्धे—
सिंहस्थेऽपि मघासंस्थं गुरुं यत्नेन वर्जयेत्।
अन्यत्र सिंहभागेषु विवाहादि विधीयते॥
स्मृतितत्त्वे नारदः— माध्यां मघा यदा न स्यात्सिंहे गुरुरकारणम्।
राजमार्तण्डे दक्षः—
गुरौ हरिस्थे न विवाहमाहुर्हारीतगर्गप्रमुखा मुनीन्द्राः।
यदा न माघी मघसंयुता स्यात्तदा च कन्योद्वहनं वदन्ति॥
कालविधाने—
सिंहस्थितः सुरगुरुर्यदि नर्मदाया-
स्तद्वर्जयेत्सकलकर्मसु सौम्यभागे।
विन्ध्यस्य दक्षिणदिशि प्रवदन्ति चाऽऽर्याः
सिंहांशके मृगपतावपि वर्जनीयम्॥ इति।
पराशरः—
गोदाभागीरथीमध्ये नोद्वाहःसिंहगे गुरौ।
मघास्थे सर्वदेशेषु तथा मीनगते रवौ॥ इति।
हरिनीचारिभागेऽपि व्रतोद्वाहादिमङ्गलम्।
न निषिद्धं यदा स्याच्चेत्स्वभे चेत्संस्थितो गुरुः॥
स्वभं पुष्यनक्षत्रम्।मकरस्थे विशेषमाह लल्लः—
नर्मदापूर्वभागे तु शोणस्योत्तरदक्षिणे।
गण्डक्याःपश्चिमे पारे मकरस्थो न दोषकृत्॥
शौनकः—
विन्ध्यस्योत्तरदेशे तु नीचारिस्थो बृहस्पतिः।
व्रतादौमासमेकं तु परित्यज्य ततः शुभम्॥ इति।
नीचस्थे विशेषमाह वसिष्ठः—
अतिचारगते जीवे वर्जयेत्तदनन्तरम्।
व्रतोद्वाहादिकार्येषु अष्टाविंशतिवासरान्॥
नीचराशिगतो जीवःप्रशस्तः सर्वकर्मसु।
नीचांशकगतस्त्याज्यो यस्मादंशेषु नीचता॥
आऽऽयात्यसौ यद्यपिपूर्वराशिं शुभायपाणिग्रहणं वसिष्ठः।
वृषे मेषे झषे कुम्भे गद्यतीचारगो गुरुः।
न तत्र काललोपःस्यादित्याह गालवो मुनिः॥ इति।
ज्योतिष्प्रकाशे—
अर्वाक्षोडशनाट्यस्तु संक्रान्ते परतः पराः।
उपनयनव्रतयात्राविवाहादौविवर्ज्यास्ताः॥
गर्गः—
दिग्वाहे दिनमेकं च गृहे सप्तदिनानि तु।
भूकम्पेच समुत्पन्ने त्र्यहमेव तु वर्जयेत्॥
उल्कापाते त्रिदिवसंभूमेः पञ्च दिनानि तु।
वज्रपाते चैकदिनं वर्जयेत्सर्वकर्मसु॥
इति विवाहाद्युपयोगी निर्णयः।
अथैकोद्रयोः क्रियाकालः। अत्र मिहिरः—
एकोदरप्रसूतानामेकस्मिन्नेववत्सरे।
विवाहो नैव कर्तव्यो गर्गस्य वचनं यथा॥
गर्गः—
पुत्रीपरिणयादूर्ध्वं यावद्दिनचतुष्टयम्।
पुत्र्यन्तरस्य कुर्वीत नोद्वाहमिति सूरयः॥
मिहिरः—
पुत्रोपनयनादूर्ध्वं षण्मासाभ्यन्तरे तथा।
पुत्र्युद्वाहं न कुर्वीत नोद्वाहाद्व्रतबन्धनम्॥
वराहमिहिरः—
न पुंविवाहोर्ध्वमृतुत्रयेऽपि
विवाहकार्यं दुहितुः प्रकल्प्यम्।
न मण्डनाच्चापि हि मुण्डनं च
स्यान्मुण्डनान्मण्डनमन्वगेव॥ इति।
संकटे तु कपर्दिकारिका, मिहिरश्च—
उद्वाह्य पुत्रीं न पिता विदध्यात्पुत्र्यन्तरस्योद्वहनं कदाऽपि।
यावच्चतुर्थं दिनमत्र पूर्वं समाप्य चान्योद्वहनंविदध्यात्॥
मदनरत्ने नारदः—
पुत्रोद्वाहात्परं पुत्रीविवाहं च ऋतुत्रये।
न कार्यं व्रतमुद्वाहान्मङ्गलेनाथ मङ्गलम्॥
एकोदरभ्रातृविवाहकृत्यं स्वसुर्न पाणिग्रहणं विधेयम्।
षण्मासमध्ये मुनयः समूचुर्नमुण्डनं मण्डनतोऽपि कार्यम्॥
एकमातृजयोरेकवत्सरे पुरुषस्त्रियोः।
न समानक्रियां कुर्यान्मातृभेदे विधीयते॥
कन्यायुगे भ्रातृयुगे कन्याभ्रातृयुगे तथा।
न जातु मङ्गलं कुर्यादेकस्मिन्मण्डपेऽहनि॥
ऋतुत्रयस्य मध्ये चेदन्याब्दस्य प्रवेशनम्।
तदा ह्येकोदरस्यापि विवाहस्तु प्रशस्यते॥
विवाहश्चैकजन्यानां षण्मासाभ्यन्तरे यदि।
असंशयं त्रिभिर्वषैस्तत्रैका विधवा भवेत्॥
न वेदिकायां न गृहे न शाले मण्डपे युग्मकरग्रहौ तु।
यथा पथिप्रत्यभिदर्शने च550 तदा द्वयोरेकतरं जहाति॥
प्रत्युद्वाहो नैव कार्यो नैतस्मैदुहितृद्वयम्।
नचैक551जन्ययोः पुंसोरेकजन्ये तु कन्यके॥
नूनं कदाचिदुद्वाह्ये नैकदा मुण्डनद्वयम्। इति॥
चतुर्थीदिनादर्वाग्विषये तत्रैव वसिष्ठः—
एकलग्ने विलग्ने वा द्वे गृहे यत्र शोभने।
तयोरेको विनष्टः स्याद्वर्धते न इति स्थितिः॥
यत्र गृहे द्वे शोभने द्वौविवाहाविति संबन्धः।
द्विशोभनं त्वेकगृहेऽपि नेष्टं शुभं तु पश्चान्नवभिर्दिनैस्तु॥
आवश्यकं शोभनमुत्सवो वा द्वारेऽथवाऽऽचार्यविभेदतो वा।
सारावल्यां—
फाल्गुने चैत्रमासे वा पुत्रोद्वाहोपनायने।
भेदादब्दस्य कुर्वीत नर्तुत्रयविलम्बनम्॥
संहिताप्रदीपे—
ऊर्ध्वं विवाहात्तनयस्य नैव कार्यो विवाहो दुहितुः समार्धम्।
अप्राप्य कन्यां श्वशुरालयं च वधूं प्रविश्यात्स्वगृहं न चाऽऽदौ।
अन्तर्भावितण्यर्थो विशिः। तेन न प्रवेशयेदित्यर्थः। मदनरत्नेऽत्रिः—
कुले ऋतुत्रयादर्वाङ्मण्डनान्न तु मुण्डनम्।
प्रवेशान्निर्गमं चैव न कुर्यान्मङ्गलत्रयम्॥
पुत्रीपरिणयादूर्ध्वं पुत्रस्योद्वाहनक्रिया।
निर्दुष्टा स्यान्मातृभेदे गुरुभेदेऽपि चैव हि॥
भ्रात्रोर्युगे युगे स्वस्रोर्भ्रातृस्वसृयुगेऽपि वा।
विवाहोऽब्ददलादर्वाग्नैकस्मिन्मण्डपे गृहे॥
एकःकर्ता शुभं कुर्यान्न पुत्र्योः पुत्रयोरपि।
षण्मासे वा चतुर्मासे पूर्णे वर्षे शुभावहम्॥ इति।
कात्यायनः—
पुत्रोद्वाहः प्रवेशाख्यः पुत्र्युवाहस्तु निर्गमः।
मुण्डनं चौलमित्युक्तं व्रतोद्वाही तु मङ्गलम्॥
चौलं मुण्डनमेवोक्तं वर्जयेन्मण्डनात्परम्।
मौञ्जीचोभयतः कार्या यतो मौञ्जी न मुण्डनम्॥ इति।
मदनरत्नेतु मुण्डनमुपनयाद्युक्तं, तच्चिन्त्यमुदाहृतवचनविरोधात्। अत्र कुलं पुरुषत्रयपर्यन्तमेव। तथा च मेधातिथिनिबन्धे—
पुरुषत्रयपर्यन्तं प्रतिकूलं सगोत्रिणाम्।
प्रवेशनिर्गमौ तद्वत्तथा मण्डनमुण्डने॥ इति।
भिन्नमातृजयोस्तु एकवारेऽपि विवाहमाह मेधातिथिः—
पृथङ्मातृजयोः कार्यो विवाहस्त्वेकवासरे।
एकस्मिन्मण्डपे कार्यः पृथग्वेदिकयोस्तथा॥
पुष्पपट्टिकयोः कार्यं दर्शनं न शिरस्थयोः।
भगिनीभ्यामुभाभ्यां च यावत्सप्तपदी भवेत्॥ .
यमलजयोरपि भवति तदुक्तं भट्टकारिकायाम्—
एकस्मिन्वत्सरे चैकवासरे मण्डपे तथा।
कर्तव्यं मङ्गलं स्वस्रोर्भ्रात्रोर्यमलजातयोः॥
हेमाद्रौ वात्स्यः—
कण्डनदलनयवारकमण्डपमृद्वेदिवर्णकाद्यखिलम्।
तत्सबन्धिगतागतमृक्षे वैवाहिके कुर्यात्॥
यवारकं चिकसा इति प्रसिद्धम्।
वैवाहिके तु दिवसे शुभे वाऽथतिथौ शुभे।
जामित्रराशौ कन्याया लग्ने शुभसमन्विते॥
चतुर्थिकां प्रकुर्वीत विधिदृष्टेन कर्मणा।
इति विवाहोपयोगिनिर्णयः।
अथ प्रसङ्गात्प्रतिकूलमुच्यते। तत्र ज्योतिनिबन्धे गर्गः—
कृते तु निश्चये पश्चान्मृत्युर्भवति कस्य चित्।
तदा न मङ्गलं कुर्यात्कृते वैधव्यमाप्नुयात्॥
ज्योतिर्निबन्धे मेधातिथिः—
वधूवरार्थे घटिते सुनिश्चिते वरस्य गेहेऽप्यथ कन्यकायाः।
मृत्युर्यदि स्यान्मनुजस्य कस्यचित्तदा न कार्यं खलु मङ्गलं बुधैः॥
मङ्गलं विवाहः। स्मृतिचन्द्रिकायाम्—
कृते वाङ्निश्चये पश्चान्मृत्युर्मर्त्यस्य गोत्रिणः।
तदा न मङ्गलं कार्यं नारीवैधव्यदं ध्रुवम्॥
भृगुः—
वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः।
तदोद्वाहो नैव कार्यःस्ववंशक्षयदो यतः॥
शौनकः—
वरवध्वोः पिता माता भ्रातृव्यश्च सहोदरः।
एतेषां प्रतिकूलं च महाविघ्नप्रदं भवेत्॥
पिता पितामहश्चैव माता चैव पितामही।
पितृव्यस्त्री सुतो भ्राता भगिनी चाविवाहिता॥
एभिरत्र विपन्नैश्च प्रतिकूलं बुधैः स्मृतम्।
माण्डव्यः—
वाग्दानानन्तरं माता पिता भ्राता विपद्यते।
विवाहो नैव कर्तव्यः स्ववंशहितमिच्छता॥
संकटे तु मेधातिथिः—
वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः।
तदा संवत्सरादूर्ध्वं विवाहःशुभदो भवेत्॥
स्मृतिरत्नावल्यां—
पितुरब्दमशौचं स्यात्तदर्थं मातुरेव च।
मासत्रयं तु भार्यायास्तदर्धं भ्रातृपुत्रयोः॥
अन्येषां तु सपिण्डानामाशौचं मासमीरितम्।
तदन्ते शान्तिकं कृत्वा ततो लग्नं विधीयते॥
ज्योतिष्प्रकाशे—
प्रतिकूलेऽपि कर्तव्यो विवाहो मासतः परः।
शान्तिं विधाय गां दत्त्वा वाग्दानादि चरेत्पुनः॥
मेधातिथिः—
संकठे समनुप्राप्ते याज्ञवल्क्येन योगिना।
शान्तिरुक्तागणेशस्य कृत्वा तां शुभमाचरेत्॥
ज्योतिःसारे—
दुर्भिक्षे राष्ट्रभङ्गे च पित्रोर्वा प्राणसंशये।
प्रौढायामपि कन्यायां नानुकूलं प्रतीक्षते॥
इति प्रतिकूलदोषः। पुरुषत्रयपर्यन्तं सपिण्डमध्य एव तदाह मेधातिथिः—
पुरुषत्रयपर्यन्तं प्रतिकूलं सगोत्रिणाम्। इति।
स्मृत्यन्तरे—
दीर्घरोगाभिभूतस्य दूरदेशस्थितस्य च।
उदासवर्तिनश्चैव प्रतिकूलं न विद्यते॥
इति प्रतिकूलविचारः।
अथ रजोदोषविचारः। तत्र माधवीये—
प्रारम्भात्प्राग्विवाहस्य माता यदि रजस्वला।
निवृत्तिस्तस्य कर्तव्या सहत्वश्रुतिचोदनात्॥ इति।
अत्र प्रारम्भो नान्दीमुखं श्राद्धं नान्दीमुखं विवाहादाविति वचनात्। मेधातिथिः—
चौले च व्रतबन्धे च विवाहे यज्ञकर्मणि।
भार्या रजस्वला यस्य प्रायस्तस्य न शोभनम्॥
वधूवरान्यतरयोर्जननी चेद्रजस्वला।
तस्याः शुद्धेः परं कार्यं माङ्गल्यं मनुरब्रवीत्॥
वृद्धमनुः—
विवाहव्रतचूडासु माता यदि रजस्वला।
तदा न मङ्गलं कार्यं शुद्धौ कार्य शुभेप्सुभिः॥
गर्गः—
यस्योद्वाहादिमाङ्गल्ये माता यदि रजस्वला।
तदा न तत्प्रकर्तव्यमायुःक्षयकरं यतः॥
नान्दीश्राद्धोत्तरं रजोदोषे तु कपर्दिकारिकासूक्तं—
अलाभे सुमुहूर्तस्य रजोदोषे तु संगते।
श्रियं संपूज्य तत्कुर्यात्पाणिग्राहादिमङ्गलम्॥
हैमीं भाषमितां पद्मां श्रीसूक्तविधिनार्चयेत्।
प्रत्यृचं पायसं दत्त्वाअभिषेकं समाचरेत्॥ इति।
इति रजोदोषविचारः। विवाहसबन्धिदिनचतुष्टयमध्ये श्राद्धदिनादिसंभवे दोष उक्तो ज्योतिर्निबन्धे—
विवाहमारभ्य चतुर्थिमध्ये श्राद्धं दिनं दर्शदिनं यदि स्यात्।
वैधव्यमाप्नोति तदा तु कन्या जीवेत्पतिश्चेदनपत्यता स्यात्॥
विवाहमध्ये यदि चेत्क्षयाहस्तत्र स्वमुख्याः पितरो न यान्ति।
व्रते विवाहे परतस्तु कुर्याच्छ्राद्धं स्वधाभिर्न तु दूषयेत्तम्॥
इति श्राद्धदिनविचारः। मासिकादिविषये त्वाह शाठ्यायनिः—
प्रेतश्राद्धानि सर्वाणि सपिण्डीकरणं तथा।
अपकृष्यापि कुर्वीत कर्तुं नान्दीमुखं द्विजः॥
मेधातिथिः—
प्रेतकर्माण्यनिर्वर्त्य चरेन्नाभ्युदयक्रियाम्।
आचतुर्थं ततः पुंसि पञ्चमे शुभदं भवेत्॥
इति मासिकविचारः। धर्मार्थविवाहकरणे फलमुक्तं भारते—
ज्ञात्वा स्ववित्तसामर्थ्यादेकं चोद्वाहयेद्द्विजम्।
तेनाप्याप्नोति तत्स्थानं शिवभक्तो नरो ध्रुवम्॥
अपरार्के दक्षः—
मातापितृविहीनं तु संस्कारोद्वाहनादिभिः।
यः स्थापयति तस्येह पुण्यसंख्या न विद्यते॥
मदनरत्ने भविष्ये—
विवाहादिक्रियाकाले तत्क्रियासिद्धिसाधनम्॥
यः प्रयच्छति धर्मज्ञः सोऽश्वमेधफलं लभेत्।
कन्यागृहे भोजने च तत्रैवोक्तम्—
अप्रजायां तु कन्यायांन भुञ्जीत कदाचन।
दौहित्रस्य मुखं दृष्ट्वा किमर्थमनुशोचति॥
अपरार्क आदित्यपुराणे—
विष्णुं जामातरं मन्ये तस्य कोपं न कारयेत्।
अप्रजायां तु कन्यायां नाश्नीयात्तस्य वै गृहे॥ इति।
नववस्त्रविषये तत्रैव कश्यपः—
अहतं यन्त्रनिर्मुक्तं वासः प्रोक्तं स्वयंभुवा।
शस्तं तन्माङ्गलिक्येषु तावत्कालं न सर्वदा॥
यन्त्रनिर्मुक्तं विवाहकाल एव न तदूर्ध्वम्। वध्वा सह भोजने दोषाभावमाह प्रायश्चित्तप्रकरणे हेमाद्री गालवः—
विवाहकाले यात्रायां पथि चौरसमाकुले।
असहायो भवेद्विप्रस्तदा कार्यं द्विजन्मभिः॥
एकयानसमारोह एकपात्रे च भोजनम्।
विवाहे पथि यात्रायां कृत्वा विप्रो न दोषभाक्॥
अन्यथा दोषमाप्नोति पश्चाच्चान्द्रायणं चरेत्। इति।
अनिष्टनक्षत्रादौ विवाहकरणावश्यकत्वे दानमुक्तं ज्योतिर्ग्रन्थे—
विपत्तारे गुडं दद्यान्निधने तिलकाञ्चनम्।
प्रत्यरे लवणं दद्याच्छागं दद्यात्रिजन्मसु॥
चन्द्रे च शङ्खं लवणं च तारे तिथौ विरुद्धे त्वथ तण्डुलांश्च।
धान्यं च दद्यात्करणे च वारे योगे विरुद्धे कनकं प्रदेयम्॥
इति दुष्टनक्षत्रादौ दानम्। वाग्दानोत्तरं वरमरणे वसिष्ठः—
अद्भिर्वाचा च दत्तायां म्रियेतोर्ध्वं वरो यदि।
न च मन्त्रोपनीता स्यात्कुमारी पितुरेव552 सा॥
यत्तु नारदः—
उद्वाहिताऽपि सा कन्या न चेत्संप्राप्तमैथुना।
पुनःसंस्कारमर्हेत यथा कन्या तथैव सा॥ इति,
तद्युगान्तरविषयम्, ऊढायाः पुनरुद्वाहमित्यनेन कलौ तन्निषेधात्। वरणोत्तरं देशान्तरगमने नारदः—
प्रतिगृह्य तु यः कन्यां वरो देशान्तरं व्रजेत्।
त्रीनृतून्समतिक्रम्य कन्याऽन्यं वरयेद्वरम्॥ इति।
शुल्कदाने तु मनुवसिष्ठौ—
कन्यायां दत्तशुल्कायां म्रियेत यदि शुल्कदः।
देवराय प्रदातव्या यदि कन्याऽनुमन्यते॥
कात्यायनः—
प्रदाय शुल्कं गच्छेद्यः कन्यायाः स्त्रीधनं तु तत्।
धार्या सा वर्षमेकं तु देयाऽन्यस्मै विधानतः॥
अनेकेभ्योऽपि दत्तायामनूढायां तु तत्र वै।
पूर्वागतश्च सर्वेषां लभेताऽऽद्यवरस्तु ताम्॥
पश्चाद्वरेण यद्दत्तं तस्याः प्रतिलभेत सः।
अथाऽऽगच्छेन्नवोढायां दत्तं पूर्ववरो हरेत्॥ इति।
यतु याज्ञवल्क्यः—दत्तामपि हरेत्पूर्वाच्छ्रेयांश्चेद्वर आव्रजेत्। इति, तत्पूर्वस्य दोषसत्त्वे बोध्यम्। वसिष्ठः—
कुलशीलविहीनस्य पश्चाद्धि पतितस्य च।
अपस्मारिविधर्मस्थरोगिणां वेषधारिणाम्॥
दत्तामपि हरेत्कन्यां सगोत्रोढां तथैव च। इति।
वाग्दत्ताया अप्यन्यस्मै दानम्। क्वचित्परिवेत्तृत्वदोषाभावमाह मनुः—
षण्ढान्धबधिरादीनां विवाहोऽस्ति यथोचितम्।
विवाहासंभवे तेषां कनिष्ठो विवहेत्तदा॥
पितृव्यपुत्रे सापत्ने परदारसुतेषु च।
विवाहाधानयज्ञादौ परिवेदो न दूषणम्॥
इति परिवेत्तृत्वाभावः। गृहप्रवेशनीयहोमकाले विशेषमाहाऽऽश्वलायनः—
अर्धरात्रे व्यतीते तु परेद्युःप्रातरेव हि।
गृहप्रवेशनीयः स्यादिति यज्ञविदो विदुः॥ इति।
औपासनहोमे विशेषमाह शौनकः—
यदि रात्रौ विवाहाग्निरुत्पन्नःस्यात्तथा सति।
उपक्रम्योत्तरस्याह्नः सायं परिचरेदमुम्॥
अथ देवकोत्थापनकालः—
समे च दिवसे कुर्याद्देवकोत्थापनं बुधः।
षष्ठं च विषमं नेष्टं मुक्त्वा पञ्चमसप्तमौ॥ इति।
देवकोत्थापनपर्यन्तं सपिण्डानां वर्ज्यान्याह गार्ग्यः—
नान्दीश्राद्धे कृते पश्चाद्यावन्मातृविसर्जनम्।
दर्शश्राद्धं क्षयश्राद्धं स्नानं शीतोदकेन तु॥
अपसव्यं स्वधाकारं नित्यश्राद्धं तथैव च।
ब्रह्मयज्ञं चाध्ययनं नदीसीमातिलङ्घनम्॥
उपवासव्रतं चैव श्राद्धभोजनमेव च।
नैव कुर्युःसपिण्डाश्च मण्डपोद्वासनावधि॥
अत्रापि सपिण्डाश्चतुष्पुरुषावधीति ज्ञेयम्। अस्पृश्यस्पर्शे दोषाभावमाह बृहस्पतिः—
तीर्थे विवाहे यात्रायां सङ्ग्रामे देशविप्लवे।
नगरग्रामदाहे च स्पृष्टास्पृष्टिर्न दुष्यति॥
स्नाननिषेधमाह योगयाज्ञवल्क्यः—
न स्नायादुत्सवेऽतीते मङ्गलं विनिवर्त्य च।
अनुव्रज्य सुहृद्बन्धूनर्चयित्वेष्टदेवताम्॥
गृहभाण्डत्यागमुण्डननिषेधः—
मासषट्कं विवाहादौ व्रतप्रारम्भणेन च।
जीर्णंभाण्डादिन त्याज्यं गृहसंमार्जनं तथा॥
उर्ध्वं विवाहात्पुत्रस्य तथा च व्रतबन्धनात्।
आत्मनो मुण्डनं नैव वर्षं वर्षार्धमेव च॥
गोपीचन्दननिषेधः—
अभ्यङ्गे सूतके चैव विवाहे पुत्रजन्मनि।
माङ्गल्येषु च सर्वेषु न धार्यं गोपिचन्दनम्॥
विवाहात्प्रथमे पौषे आषाढे चाधिमासके।
न सा भर्तृगृहे तिष्ठेच्चैत्रे पितृगृहे तथा॥ इति।
अथ वधूप्रवेशकालः—
मार्गशीर्षे तथा माघे माधवे ज्येष्ठसंज्ञके।
सुप्रशस्तो भवेद्वेश्मप्रवेशो नवयोषिताम्॥
नारदः—
आरभ्योद्वाहदिवसात्षष्ठे वाऽप्यष्टमे दिने।
वधूप्रवेशःसंपत्त्यै दशमेऽथ समेदिने।
समे वर्षे समे मासे यदि नारी गृहं व्रजेत्।
आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी मरणं व्रजेत्॥
ज्योतिष्प्रकाशे—
वामे शुक्रे नवोढायाः सुखं हानिश्च दक्षिणे।
धनं धान्यं च पृष्ठस्थे सर्वनाशः पुरस्थिते॥
नवोढायास्तु वैधव्यं यदुक्तं संमुखे भृगौ।
तदेव विबुधैर्ज्ञेयं केवलं तु द्विरागमे॥
पूर्वतोऽभ्युदिते शुक्रे यायाद्दक्षिणपश्चिमे।
पश्चादभ्युदिते चैव यायात्पूर्वोत्तरे दिशौ॥
पौष्णाद्वैधात्राच्छ्रवणाच्चयुग्मे हस्तत्रये मूलमघोत्तरासु॥
पुष्ये च मैत्रे च वधूप्रवेशो रिक्ते च रव्यार्किकुजे च शस्तः।
रव्यादिभिन्न इत्यर्थः। गर्गः—
व्यतीपाते च संक्रान्तौ ग्रहणे वैधृतावपि।
श्राद्धं विना शुभं नैव प्राप्तकालेऽपिमानवः॥
अमासंक्रान्तिविष्ट्यादौ प्राप्तकालेऽपि नाऽऽचरेत्॥
इति वधूप्रवेशः। अथद्विरागमनम्—
माघफाल्गुनवैशाखशुक्लपक्षे शुभे दिने।
गुर्वादित्यविशुद्धौ स्यान्नित्यं पत्नीद्विरागमः॥
नीहारांशुदिनोत्तरादितिगुरुबह्मानुराधाऽश्विनी
शक्रेभास्करवायुविष्णुवरुणं त्वाष्ट्रे प्रशस्ते तिथौ।
कुम्भाजालिगते रवौ शुभकरे प्राप्तोदये भार्गवे
जीवज्ञासुरपूजिते नववधूवेश्मप्रवेशःशुभः॥
इति द्विरागमनकालः। अथाऽऽवसथ्याधानकालः। तत्र पारस्करः— आवसथ्याधानं दारकाले दायाद्यकाल एकेषामिति। आश्वलायनः— पाणिग्रहणादि गृह्यं परिचरेदिति। तस्मिन्काले न गृहीतश्चेत्कालान्तरमाह व्यासः—
अग्निर्वैवाहिको येन न गृहीतः प्रमादिना।
पितर्युपरते तेन ग्रहीतव्यः प्रयत्नतः॥
योऽगृहीत्वा विवाहाग्निंगृहस्थ इति मन्यते।
अन्नं तस्य न भोक्तव्यं वृथापाको हि स स्मृतः॥
पितरि ज्येष्ठे भ्रातरि वा साग्नावग्निंविनाऽपि दोषाभावमाह स्मृतिचन्द्रिकायां गार्ग्यः—
पितृपाकोपजीवी च भ्रातृपाकोपजीवकः।
विद्याज्ञानरतश्चैव न दुष्येताग्निना विना॥
अथ श्मश्रुकर्मकालः। तत्र श्रीपतिः—
पुष्ये पौष्णे चाश्विनीष्वैन्दवे च
शाक्रेहस्ताद्यत्रिके भेऽप्यदित्याः।
क्षौरं कार्यं वैष्णवादित्रये च
मुक्त्वा भौमादित्यपातङ्गिवारान्॥
नस्नातभुक्तोत्कटभूषिताना-
मभ्यक्तयात्रासमरोत्सुकानाम्।
क्षौरं विदध्यान्निशि संध्ययोर्वा
जिजीविषूणां नवमे न चाह्नि॥
गार्ग्यः—
रव्यारसौरिवारेषु रात्रौ पाते व्रताहनि।
श्राद्धाहंप्रतिपद्रिक्ताभद्राः क्षौरेषु वर्जयेत्॥
राजमार्तण्डः—
देवकार्ये पितुः श्राद्धे रवेरंशपरिक्षये।
क्षौरकर्म न कुर्वीत जन्ममासे न जन्मभे॥
मार्कण्डेयः—
अष्टमी च तथा षष्ठी नवमी च चतुर्दशी।
क्षुरकर्मणि वर्ज्याः स्युः पर्वसंधिस्तथैव च॥
गर्गः—
भानुरायुः क्षपयति मासं सप्तशनैश्चरः।
भौमो मासाष्टकं चेति ज्ञो यच्छेन्मासपञ्चकम्॥
सप्त मासान्ददातीन्दुः सुरेज्यो दशमासकम्।
एकादश कविर्दद्यात्कृते क्षौरे तु कर्मणि॥
व्यासः—
न प्रौष्ठपदयोः कार्यं तथाऽऽग्नेये च भारत।
दारुणेषु च सर्वेषु दुष्टतारां च वर्जयेत्।
भरद्वाजः—
निषिद्धतिथिवारादौ भोजनानन्तरं च यः॥
क्षौरं करोति तहे नाश्नन्ति पितरः सुराः।
नैमित्तिके क्षौरं नायं निषेधः—
क्षौरं नैमित्तिकं कुर्यान्निषेधेसत्यपि ध्रुवम्। इति।
बृहस्पतिः—
राजकार्यनियुक्तानां नटानां रूपजीविनाम्॥
श्मश्रुलोमनखच्छेदे नास्ति कालविधिर्नृणाम्।
निषिद्धतिथ्यादौक्षौरे कृते तद्दोषशान्त्यर्थं पुनः शुभकाले क्षौरं कार्यम्। तदाह गर्गः—
निषिद्धेषु च कालेषु क्षौरकर्म यदा भवेत्।
तद्दोषशान्तये क्षिप्रं कुर्यात्तच्चशुभे दिने॥
इति श्मश्रुकर्मकालः। अथाभ्यङ्गकालः। तत्र व्यासः—
पञ्चमी दशमी चैव तृतीया च त्रयोदशी।
अभ्यङ्गात्स्पर्शनात्पानाद्यस्तु तैलं निषेवते॥
चतुर्णां तस्य वृद्धिः स्याद्धनापत्यबलायुषाम्।
कात्यायनः—
पक्षादौ च रवौ षष्ठयां रिक्तायां च तथा तिथौ॥
तैलेनाभ्यज्यमानस्तु चतुर्भिः परिहीयते।
गार्ग्यः—
सप्तम्यां न स्पृशेत्तैलं नवम्यां प्रतिपद्यपि।
दर्श च पौर्णमास्यां च पञ्चस्वपि च पर्वसु॥
ज्योतिष्पराशरः—
संतापः कान्तिरल्पायुर्धनं निधनमेव च।
दारिद्र्यं सर्वकामाप्तिरभ्यङ्गे भास्करादिषु॥
षट्त्रिंशन्मते—
हृत्तापः कान्तिमरणे धनमारोग्यमेव च।
उत्तरार्धं पूर्वोक्तमेव पूर्ववाक्ये गुरुवारेऽनिष्टं फलमुक्तम्, अस्मिन्वाक्ये शुभमुक्तं तस्माद्गुरुवारे विकल्पः। हेमाद्रौस्मृत्यन्तरे—
उपोषितस्य क्लिन्नस्य कृत्तकेशस्य नापितैः।
तावच्छ्रीस्तिष्ठति प्रीत्या यावत्तैलं न संस्पृशेत्॥
अभ्यङ्गे तिथिवारयोर्निषेधे वारो बलवानित्युक्तं कालादर्शे—
तिथिवारसमायोगे बलीयान्वार इष्यते। इति।
वारदोषेऽप्युक्तं वाक्यसारे—
रवौ पुष्पं गुरौ दूर्वां भौमवारे च मृत्तिकाम्।
मृगौतु गोमयं क्षिप्त्वा तैलाभ्यङ्गो न दोषकृत्॥ इति।
प्रचेताः—
सार्षपं गन्धतैलं च यच्चान्यत्पुष्पवासितम्।
द्रव्यान्तरयुतं तैलं न दुष्येद्ग्रहणं विना॥ इति।
इत्यभ्यङ्गकालः। अथाऽऽमलकस्नानम्। तत्र गार्ग्यः—
तैल स्नानंसदा पुण्यं कुर्यादामलकैः श्रिये।
सप्तमीनवमीदर्शरविसंक्रमणादृते॥ इति।
मरीचिः—
अमायां चैव सप्तम्यां संक्रान्तौ च रवेर्दिने।
चन्द्रसूर्योपरागे च स्नानमामलकैस्त्यजेत्॥ इति।
इत्यामलकस्नानकालः। अथ दन्तधावने निषिद्धकालः। तत्र व्यासः
प्रतिपद्दर्शषष्ठीषु नवम्यां हरिवासरे।
दन्तानां काष्ठसंयोगो दहत्यासप्तमं कुलम्॥
मरीचिः—
पञ्चपर्वसु नन्दासु व्यतीपाते च संक्रमे।
स्त्रियं तैलं च मांसं च दन्तकाष्ठं च वर्जयेत्॥
हेमाद्रौव्यासः—
श्राद्धाहे जन्मदिवसे विवाहे मुखदूषिते।
व्रते चैवोपवासे च वर्जयेद्दन्तधावनम्॥
सर्वोऽप्ययं निषेधः काष्ठस्यैव न पर्णादेः। तदाहैकादशीप्रकरणे हेमाद्रौपैठीनसिः—
अलाभेवा निषेधे वा काष्ठानां दन्तधावने।
पर्णादिना विशुद्धेन जिह्वोल्लेखःसदैव हि॥
व्यासः—
अलाभे दन्तकाष्ठानां निषिद्धायां तथा तिथौ।
अपां द्वादशगण्डूषैर्विदध्याद्दन्तधावनम्॥ इति।
इदंपक्षान्तरमिति हेमाद्रिस्तदपि
तृणपर्णैःसदा कुर्यादमामेकादशीं विना॥
इतिवाक्यसारोदाहृतवचनादमैकादशीविषयं बोध्यम्। यत्तु
यो मोहात्स्नानवेलायां भक्षयेद्दन्तधावनम्।
निराशास्तस्य गच्छन्ति देवताः पितरस्तथा॥
इति तन्मध्याह्नस्नानविषयम्।
पालाशमासनं यानं दन्तकाष्ठं च पादुके।
वर्जयेत्तु प्रयत्नेन सममाश्वत्थमेव च॥ इति।
इति दन्तधावनकालः। अथ संध्याकालः। अथ संध्योक्ता हेमाद्र्युदाहृतश्रुतौ—
य एवं विद्वान्सायं प्रातश्च संध्यामुपास्ते। इति।
जपन्नासीत सावित्रीं प्रत्यगातारकोदयात्।
संध्यां प्राक्प्रातरेवं हि तिष्ठन्नासूर्यदर्शनात्॥
तत्कालमाह स एव—
अहोरात्रस्य यः संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः।
सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥ इति।
संध्याकालवर्ज्यान्याह मनुः—
चत्वारीमानि कर्माणि संध्यायां परिवर्जयेत्।
आहारं मैथुनं निद्रां स्वाध्यायं च चतुर्थकम्॥ इति।
हेमाद्रौ वृद्धमनुः—
आहारं मैथुनं निद्रां संध्याकाले विवर्जयेत्।
कर्म चाध्ययनं वाऽपि तथा दानप्रतिग्रहौ॥
आहाराज्जायते व्याधिर्गर्भो रौद्रश्चमैथुनात्।
स्वपनात्स्यादलक्ष्मीकःकर्म चैवात्र निष्फलम्॥
अध्येता नरकं याति दाता नाऽऽप्नोति तत्फलम्।
प्रतिग्राही भवेत्वापी तस्मात्संध्यां विवर्जयेत्॥
दाता वै नरकं याति ग्रहीताऽधो निमजति।
यत्तु—
उद्यात्प्राक्तनी संध्या घटिकात्रयमिष्यते।
सायं संध्या विघटिका अस्तादुपरि भास्वतः।
इति घटिकात्रयं संध्याकाल उक्तः, स संध्यागर्जितनिमित्तकानध्यायादावुपयुज्यते गौणकालाभिप्रायं वेति बोध्यम्। इति संध्याकालः। अथ कालविशेषे वर्ज्यानि। तत्र हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे—
सप्तम्यां न स्पृशेत्तैलं नीलवस्त्रं न धारयेत्।
न चाप्यामलकैःस्नायान्न कुर्यात्कलहं नरः।
सप्तम्यां नैव कुर्वीत ताम्रपात्रेण भोजनम्॥
बुधः—
निम्बस्य भक्षणं तैलं तिलैस्तर्पणमञ्जनम्।
सप्तम्यां नैव कुर्वीत ताम्रपात्रेण भोजनम्॥
हेमाद्रौमात्स्ये—
छिनत्ति वीरुधो यस्तु वीरुत्संस्थे निशाकरे।
पत्रं वा पातयेत्तेषां ब्रह्महत्यां स विन्दति॥
मनुः—
चतुर्दृश्यष्टमी दर्शःपौर्णमास्यर्कसंक्रमः।
एषु स्त्रीतैलमांसानि दन्तकाष्ठं च वर्जयेत्॥
हारीतः—
तैलं मासं भगं क्षौरं पर्वकाले विवर्जयेत्।
एतेष्वलक्ष्मीर्वसति पर्वकालेषु नित्यशः॥
हेमाद्रौ स्कान्दे—
शिरःकपालमात्राणि नखचर्मतिलांस्तथा।
एतानि क्रमशो नित्यमष्टम्यादिषु वर्जयेत्॥
शिरो नारीकेलम्। कपालमलाबु। आन्त्रं दीर्घपटोलम्।नखा निष्पावाः। चर्म मसुराः। तिला वार्ताकमिति हेमाद्रिः।
व्यासः—
षष्ठ्यष्टमी त्वमावास्या पक्षद्वयचतुर्दशी।
अत्र संनिहितं पापं तैले मांसे भगे क्षुरे॥
मनुः—
मांसाशने पञ्चदशी तैलाभ्यङ्गे चतुर्दशी।
अष्टमी ग्राम्यधर्मेषु ज्वलन्तमणि पातयेत्॥
ग्राम्यधर्मो मैथुनम्।
तैलं च न स्पृशेदाम्रवृक्षादींश्छेदयेन्नच।
पक्षादौ च तथाऽष्टम्यां रिक्तायां च तथा तिथौ॥
चतुर्दश्यष्टमी चैव अमावास्या च पूर्णिमा।
वर्ज्यान्येतानि पर्वाणि रविसंक्रातिरेव च॥
तैलस्त्रीमांससंभोगी पर्वस्वेतेषु यो नरः।
विण्मूत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं नृप॥
बृहस्पतिः—
अमावास्येन्दुसंक्रान्तिचतुर्दश्यष्टमीषु च।
नरश्चाण्डालयोनौस्यात्तैलस्त्रीमांससेवनात्॥
षट्त्रिंशन्मते—
संक्रान्त्यां पञ्चदश्यां च द्वादश्यां श्राद्धवासरे।
वस्त्रं निष्पीडयेन्नैव न च क्षुरेण हिंस्यते॥
क्वचित्तुन च क्षारेण योजयेदिति चतुर्थचरणपाठः।
वामनपुराणे—चित्रासुहस्ते श्रवणे च तैलं क्षौरं विशाखाप्रतिपत्सु वर्ज्यम्। यत्तु—
न मृच्चनोदकं वाऽपि निशायां न तु गोमयम्॥
गोमूत्रं च प्रदोषे तु गृह्णीयाद्बुद्धिमान्नरः।
इति वचनं, तददृष्टार्थमृदादिग्रहणविषयमिति हेमाद्रिः। तत्रैव भविष्यत्पुराणे—
सुप्ते विष्णौनिवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः शुभादिकाः।
विवाहव्रतबन्धादिचूडासंस्कारदीक्षणम्॥
यज्ञो गृहप्रवेशश्च प्रतिष्ठा देवभूभृताम्।
पुण्यानि यानि कर्माणि न स्युः सुप्तेजगत्पतौ॥
षट्त्रिंशन्मते—
सूर्यऋक्षे गते सोमे परान्नं यस्तु भक्षयेत्।
तस्य मासगतं पुण्यं यस्यान्नं तस्य तद्भवेत्॥
स्मृत्यन्तरे—
उपोषितस्य क्लिनस्य कृत्तकेशस्य नापितैः।
तावच्छ्रीस्तिष्ठति प्रीत्या यावत्तैलं न संस्पृशेत्॥
हेमाद्रौस्कान्दे—
स्नानं चैव महादानं स्वाध्यायं पितृतर्पणम्।
प्रथमेऽब्दे न कुर्वीत महागुरुनिपातने॥
स्नानमत्रापूर्वतीर्थे। इदं चाकृतसंपिण्डनविषयम्। व्यासः—
मध्यंदिन उषःकाले अर्धरात्रे च सर्वदा॥
चतुष्पथं न सेवेत उभे संध्ये तथैव च। इति।
इत्यभ्यङ्गादिषु निषिद्धकालः।
अथ देवप्रतिष्ठाकालः। मात्स्ये—
चैत्रे वा फाल्गुने वाऽपि ज्येष्ठे वा माधवे तथा।
माघे वा सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा भवेत्॥
विष्णुधर्मोत्तरे—
कृष्णपक्षत्रिभागे तु प्रथमे स्याच्छुभावहा।
मध्या द्वितीयभागे तु तृतीये कर्तृनाशिनी॥
शुक्लत्रिभागे प्रथमे देशनाशाय कीर्तिता।
द्वितीये मध्यफलदा तृतीये तु शुभावहा॥
धनधान्यवती स्फीता वरदा च यथा भवेत्॥
तेजस्विनी सूर्यदिने चन्द्रे क्षेमावहा भवेत्॥
भौमेऽग्निना प्र553दह्येत बुधे च धनदा भवेत्।
गुरौ सद्बुद्धिदा नित्यं लोकानन्दकरी सिते॥
आचन्द्रार्कं स्थिरा सौरी प्रतिष्ठा समुदाहृता।
दृढा धनयुता स्फीता तथा प्रतिपदिस्मृता॥
द्वितीयायां धनोपेता तृतीयायां वरप्रदा।
चतुर्थ्यां नाशमाप्नोति यमस्य स्यात्सुखावहा॥
विनायकस्य देवस्य सा तु तत्र हितप्रदा।
पञ्चम्यां श्रीयुता कर्तुर्वरदा च तथा भवेत्॥
षष्ठ्यां लक्ष्मीयुता नित्यं सप्तम्यां रोगनाशिनी।
अष्टम्यां धान्यबहुला नवम्यां तु विनाशिनी॥
भद्रकाल्याः कृता तत्र कर्तुर्भवति पुष्टये।
धर्मवृद्धिकरी ज्ञेया दशम्यां तु कृता तथा॥
एकादश्यां तथा युक्ता द्वादश्यां सर्वकामदा।
त्रयोदश्यां तथा ज्ञेया चतुर्दश्यां विनश्यति॥
कृष्णपक्षे पञ्चदश्यां कर्तुः क्षयकरी भवेत्।
पञ्चदश्यां तथा शुक्ले सर्वकामकरी भवेत्॥
त्र्यहस्पृशा च विज्ञेया तथा दोषकरी नृप। इति।
मात्स्ये—
आषाढे द्वे तथा मूलमुत्तरात्रयमेव च।
ज्येष्ठाश्रवणरोहिण्यः पूर्वाभाद्रपदा तथा॥
हस्तोऽश्विनी रेवती च पुष्यो मृगशिरस्तथा।
अनुराधा तथा स्वाती प्रतिष्ठासु प्रशस्यते॥ इति।
विष्णुधर्मोत्तरे—
जन्मराश्युदये कर्तुः क्षिप्रनाशकरी भवेत्।
द्वितीये धननाशाय तृतीये कर्तृबुद्धिता।
चतुर्थे गृहनाशाय पञ्चमे व्याधिदा भवेत्।
षष्ठे शत्रुविनाशाय सप्तमे धननाशिनी॥
अष्टमे मृत्युदा ज्ञेया नवमे धर्मनाशिनी।
दशमे कर्मणां वृद्धौलाभे लाभकरी भवेत्॥
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- घ. पुस्तके श्लोकार्धमाधिकं वर्तते। चतुर्दशी त्वीश्वरस्य प्रतिष्ठायां शुभप्रदा
द्वादशे भयदा ज्ञेया प्रतिष्ठा तु तथा कृता।
जन्मलग्नोदये श्रेष्ठा धनधान्यवती भवेत्॥
जन्मराशिफलं पूर्वं शेषस्थानेषु निर्दिशेत्।
मेषोदये तथा क्षिप्रं नाशमायाति पार्थिव।
वृषोदये स्थिरा प्रोक्ता धनधान्यवती भवेत्।
लोककानां च मिथुने बहुकल्याणकारिणी॥
कुलीरे क्षिप्रनाशाय सिंहे च सुदृढा भवेत्।
कन्यायां लोककान्ता स्यात्तले भवति चास्थिरा॥
वृश्चिके तु स्थिरा प्रोक्ता कल्याणाय धनुर्धरे।
मकरे क्षिमनाशा स्यात्कुम्भलग्ने स्थिरा भवेत्॥
मीने गुणावहा कर्तुः कल्याणाय सदा भवेत्॥ इति।
तथा—
रविर्दशत्रिषट्संस्थो राहुस्त्रिदशसंस्थितः।
षष्ठस्थानगताः शस्ता मन्दाङ्गारककेतवः॥
क्रूराश्चसर्वे पापाश्चएकादशस्थिताः शुभाः।
इति देवप्रतिष्ठा।
अथ शिवप्रतिष्ठाविषये हेमाद्रौलक्षणसमुच्चये—
उत्तराशागते भानौ लिङ्गसंस्थापनं शुभम्।
दक्षिणे त्वयने पूज्य त्रिवर्षाद्वै भयावहम्॥
सग्रहे554 स्थापनं नेष्टं तथा वै दक्षिणायने।
सग्रहे स्थापितेलिङ्गे व्याधिना पीड्यते प्रजा॥
कुमाराःसंप्रपीड्यन्ते कुलनाशश्च जायते।
तस्मान्न स्थापयेद्देवंरुग्रहे दक्षिणायने॥
स्थापनं तु प्रकर्तव्यं शिशिरादावृतुत्रये।
प्रावृषि स्थापितं सिद्ध्यै भवेद्वरदयोगदम्।
हेमन्ते ज्ञानदंलिङ्गं शिशिरे सर्वभूतिदम्॥
लक्ष्मीप्रदंवसन्ते च ग्रीष्मे च जयशान्तिदम्।
यतीनां सर्वकाले च लिङ्गस्याऽऽरोपणं मतम्॥ इति।
हेमाद्रौरत्नावल्याम्—
सौभाग्यः शोभनोयुष्मान्सिद्धःसाध्यः शिवः शुभः।
वृद्धिःप्रीतिर्धृतिः सिद्धिर्ध्रुवःशुक्लःसुशोभनः॥
बवंच बालवं चैव कौलवं तैतिलं शुभम्।
मैत्रं परममैत्रं च संपत्क्षेमं तथा शुभम्॥
लग्नं च वृश्चिकः सिंहो मेषो मिथुनकर्कटौ॥
तथा कन्या तुला कुम्भो वृषभश्च प्रशस्यते।
रविहस्ते भवेत्सिद्धिः सोमे मृगशिरस्तथा॥
कृत्तिका भौमवारे स्यादनुराधा बुधे तथा।
रेवती गुरुसंपन्ना555 शुक्रवारे पुनर्वसुः॥
श्रवणं शशिवारे च सिद्धियोगाः शुभा मताः।
इति शिवप्रतिष्ठाकालः।
विष्णुप्रतिष्ठाविषये हेमाद्रौनृसिंहपुराणे—
पूर्वपक्षे शुभे काले स्थिरे चोर्ध्वमुखेऽपि भे।
अनुकूले च लग्ने च हरिः स्थाप्यो नरैस्तथा॥
नक्षत्रे च तिथौ युग्मे प्रशस्ते विष्टिवर्जिते।
गुरुशुक्रबुधेन्दूनामेकवा556रयुते शुभे॥
ग्रामस्य यजमानस्याप्यनुकूले च तत्र वै।
चरराशिं विवर्ज्याथ स्थिरराशिं प्रगृह्य च॥
सुप्रशस्ते मुहूर्ते वै प्रतिष्ठां कारयेद्धरेः। इति।
देवीप्रतिष्ठा हेमाद्रौदेवीपुराणे—
गुरौ मेषगते शुक्रे देवीं चाथ प्रतिष्ठयेत्।
इहैव स भवेद्धन्यो मृतो गच्छेत्परं पदम्॥
तस्मान्मेषगते शुक्र उत्तमा नवमी स्मृता।
तथा माघाश्विनौ मासावुत्तमौ परिकीर्तितौ॥
देवी तत्र सदा शुक्र पांशुजाऽपि प्रतिष्ठिता।
भवते फलदा पुंसां कर्कस्थे च वृषस्थिते॥
न तिथिर्न च नक्षत्रं नोपवासोऽत्र कारणम्।
मातृभैरववाराहनरसिंहत्रिविक्रमाः॥
महिषासुरहन्त्र्यश्च स्थाप्या वै दक्षिणायने।
हेमाद्रौ चतुःषष्टिप्रतिष्ठायां ब्रह्मवचनम्—
स्थापनं च प्रवक्ष्यामि सर्वकामप्रसाधकम्।
सर्वकालं प्रकर्तव्यं कृष्णपक्षे विशेषतः॥
रात्रिरूपा यतो देवी दिवारूपो महेश्वरः।
अतः स्वकालपूजाभिः सिद्धिदा परमेश्वरी॥
इति देवीप्रतिष्ठाकालः।
अथवापीकूपतडागप्रतिष्ठाकालः। वह्निपुराणे—
वापीकूपतडागानां तस्मिन्कालेविधिः स्मृतः।
सुदिने शुभनक्षत्रे प्रतिष्ठा शुभदा स्मृता॥
कर्कटे पुत्रलाभस्तु सौख्यं तु मकरे भवेत्।
मीने यशोर्थलाभस्तु कुम्भे वसुबहूदकम्॥
वृषे च मिथुने वृद्धिर्वृश्चिकेऽल्पजलं भवेत्।
पितृतृतिस्तु कन्यायां तुलायां शाश्वती गतिः॥
सिंहे मेषे धननाशं लक्ष्म्याश्च द्विज यच्छति।
भविष्योत्तरे—
तस्मिन्सलिलसंपूर्णेकार्तिके तु विशेषतः।
तडागस्य विधिः कार्यःस्थिरनक्षत्रयोगतः॥
मुनयः केचिदिच्छन्ति व्यतीते चोत्तरायणे।
न कालनियमस्तत्र सलिलं तत्र कारणम्॥
इति आठवले इत्युपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुभट्टविरचिते पुरुषार्थचिन्तामणौकालखण्डे प्रतिष्ठाकालनिर्णयः।
अथ देवताविशेषपूजने तिथिविशेषाः। हेमाद्रौ भविष्यत्पुराणे द्वादशीकल्पे—
प्रतिपत्पावकी प्रोप्ता द्वितीया शमनस्य च।
तृतीया गिरिपुत्र्यास्तु चतुर्थी विघ्नहारिणः॥
पञ्चमी नागराजानां षष्ठी स्कान्दी तिथिः स्मृता।
सप्तमी सप्तसप्तेस्तु अष्टमूर्तेस्तथाऽष्टमी॥
नवमी योगिनीनां तु दशमी तु दशामयी।
एकादशी धनेशस्य चक्रिणो द्वादशी तथा॥
त्रयोदशी त्वनङ्गस्य भूतेशस्य चतुर्दशी।
पौर्णमासी प्रजेशस्य पितॄणां दर्श उच्यते॥
कामनाविशेषेण तिथिविशेषे देवताविशेषपूजोक्ता हेमाद्रौभविष्यत्पुराणे—
अग्निमिष्ट्वाच हुत्वा च प्रतिपद्यमृतं घृतम्।
हविषा सर्वधान्यानि प्राप्नुयादमितं धनम्॥
द्वितीयायां च ब्रह्माणं संपूज्य ब्रह्मचारिणः।
भोजयित्वा च विद्यानां सर्वासां पारगो भवेत्॥
तृतीयायां च वित्तेशं वित्तेशो जायते ध्रुवम्।
गणेशः पूजितः कुर्याच्चतुर्थ्यांसर्वकर्मसु॥
अविघ्नं विदुषां विघ्नं कार्यनाशेन कर्हिचित्।
नागानिष्ट्वातु पञ्चम्यां न विषैरभिभूयते॥ .
संपूज्य कार्तिकेयं तु द्विजः षष्ठ्यां प्रजायते।
मायावी रूपसंपन्नो दीर्घायुः कीर्तिवर्धनः॥
सप्तम्यां पूजयेद्भानुमारोग्यं समवाप्नुयात्।
अष्टम्यां पूजितो देवो गोचन्द्राभरणं हरः॥
ज्ञानं ददाति विपुलं कामजान्यच्छते गुणान्।
दुर्गांसंपूज्य दुर्गाणां नवम्यां तरणेच्छया॥
सङ्ग्रामे व्यवहारे च सदा विजयमादिशेत्।
दशम्यां धर्मराजस्य सर्वव्याधिभयं हरेत्॥
एकादश्यां यथोद्दिष्टा विश्वे देवाः प्रपूजिताः।
प्रजां बुद्धिं च धान्यं च प्रयच्छन्ति महीं तथा॥
द्वादश्यां पूजयेद्देवं सर्वैश्वर्यगुणान्वितम्।
बहुपुत्रो बहुधनो भविष्यति न संशयः॥
त्र्ययोदश्यां तु संपूज्य कामं देवं महाबलम्।
पूजितः परया भक्त्या धनं पुत्रांश्च दापयेत्॥
चतुर्दश्यां महादेवमुमाकान्तं जगद्गुरुम्।
पूजयेच्च महाभक्त्या सर्वान्कामान्ददात्यसौ।
पौर्णमास्यां च यः सोमं पूजयेद्भक्तिमान्नरः॥
बह्वपत्यं भवेत्तस्य इति मे निश्चिता मतिः।
अमायां पितरः पिण्डैरिष्टाःकुर्वन्ति सर्वदा॥
प्रजां रक्षां धनं वृद्धिमायुष्यं बलमेव च।
उपवासं विनाऽप्येते भवन्त्युक्तफलप्रदाः॥
पूजिता जपहोमैश्च तोषिता भक्तितः सदा। इति।
हेमाद्रौकौर्मे—
देवताभ्यर्चनं नॄणामशेषाघौघनाशनम्॥
अमावास्यां तिथिं प्राप्य य आराधयते भवम्।
ब्रह्माणं557 पूज येत्वा तु सर्वपापैः प्रमुच्यते।
कृष्णाष्टम्यां महादेवं तथा कृष्णचतुर्दशीम्॥
संपूज्य ब्राह्मणमुखे सर्वपापैः प्रमुच्यते।
त्रयोदशीं तथा रात्रौसोपहारस्त्रिलोचनम्॥
दृष्ट्वेशं प्रथमे यामे मुच्यते सर्वपातकैः।
षष्ठ्यामुपोषितो देवं शुक्लपक्षे समाहितः॥
सप्तम्यामर्चयेद्भानुं मुच्यते सर्वपातकैः।
भरण्यां च चतुर्थ्यां च शनैश्चरदिने यमम्॥
पूजयेत्सप्तजन्मस्थैर्मुच्यते पातकैर्नरः।
एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम्॥
द्वादश्यां शुक्लपक्षस्य महापापैः प्रमुच्यते। इति।
हेमाद्रौविष्णुधर्मोत्तरे—
बह्माणं पूजयेद्देवं सततं प्रथमेऽहनि।
पक्षद्वये महाभाग पञ्चदश्यामुपोषितः॥
संवत्सरेण धर्मज्ञ विद्यां बहुसुवर्णकम्।
चैत्रमासस्य या शुक्ले प्रथमा प्रतिपद्भवेत्॥
तदा हि ब्रह्मणः कृत्वा सोपवासस्तु पूजनम्।
संवत्सरमवाप्नोति सौख्यानि भृगुनन्दन॥
शुक्लपक्षे द्वितीयायां बालचन्द्रस्य पूजनम्।
कृत्वा दत्त्वा च लवणं प्राग्रात्रौ शोभनो भवेत्॥
इति कामनाविशेषेण देवतापूजाकालः। अथ कृषिः—राजमार्तण्डः
ऋक्षेषूत्तरपौष्णवैष्णवमघामूलानुराधाश्विनी-
प्राजापत्यकरद्विदैवतगुरुप्रालेयपादेषु च।
निर्दोषैर्वृषभैर्हलैश्च सुमनोमालाभिरभ्यर्चितैर्-
दत्त्वा क्षेत्रपतेर्बलिं हलधरः क्षेत्रं ततः कर्षयेत्॥
प्राजेशश्रवणोत्तरादितिमघामार्तण्डतिष्याश्विनी-
पौष्णानुष्णमरीचयः शतभिषक्स्वाती विशाखा तथा।
जीवार्केन्दुसितेन्दुनन्दनदिने लग्ने च सौम्योदये
सस्यानां वपने तथैव लवने शस्तास्तथा रोपणे॥
चण्डेश्वरः—
हस्तचित्रादितिस्वातीरेवत्यां श्रवणत्रये।
स्थिरलग्नेगुरोर्वारे बीजं धार्यं ज्ञशुक्रयोः॥
ॐ धनदाय सर्वलोकहिताय देहि मे धासु स्वाहा।
लेखयित्वा इमं मन्त्रं धान्यागारे निधापयेत्।
सस्यवृद्धिंपरां कुर्यात्पूजिता प्रतिपूजयेत्॥
दक्षिणदिङ्मुखगमनं गमनमभिनवासु नारीषु।
व्ययमपि सस्यधनानां न बुधा बुधवासरे कुर्युः॥
शनिवारे च नो कार्यो धनधान्यव्ययो बुधैः।
वस्त्रधारणे श्रीपतिः—
रोहिणीषु करपञ्चकेऽश्विभेव्युत्तरासु च पुनर्वसुद्धये।
रेवतीषु च सुदैवते च भेनव्यवस्त्रपरिधानमिष्यते॥
जीर्णं रवौ सततमम्बुभिराद्रमिन्दौ
भौमे शुचे बुधदिने तु भवेद्धनाय।
ज्ञानाय मन्त्रिणि भृगौ प्रियसंगमाय
मन्दे मलाय च नवाम्बरधारणं स्यात्॥
रोहिणीगुरुपुनर्वसूत्तरे या बिभर्ति नववस्त्रभूषणम्।
सा न योषिदवलम्बते पतिं स्नानमाचरति वारुणेऽपि या॥
अलंकारादौ दैवज्ञवल्लभः—
नासत्यपूषवसुभिः करपञ्चकेन
मार्तण्डभौमगुरुदानवमन्त्रिवारे।
मुक्तासुवर्णमणिविद्रुमशङ्खदन्तरक्ता
म्बराणि विधृतानि भवन्ति सिद्ध्यै॥
ज्योतिर्निबन्धे—
हस्तानुराधामृगपुष्यधनिष्ठयुक्ते
चित्रोत्तरासु च पुनर्वसुरोहिणीषु।
लग्ने स्थिरे रविसुतेन्दुजजीववारे
हेमादिधारणविधिः कथितो नराणाम्॥
श्रीपतिः—
पौष्णाश्विनीवसुकरादिषु पञ्चभेषु
कौसुम्भहेममणिविद्रुमकाचशङ्खाः।
नार्या धृताः सुतसुखार्थकरा भवन्ति
ब्रह्मोत्तरादितिगुरुश्च सुखाय भर्तुः॥
शङ्खादिवररत्नानि पुष्यादित्युत्तरासु च।
रोहिण्यां नैव गृह्णीत भर्तुर्जीवितकाङ्क्षिणी॥
सूचीकर्मणि—
वासवादितिमत्वाष्ट्रमैत्रचन्द्राश्विनीषु च।
सूचीकर्म तनुत्राणमेभिर्ऋक्षैः प्रशस्यते॥
शय्यायाम्—हस्तादितिब्रह्मगुरूत्तराणि पौष्णाश्विमूलेन्दुभचित्रभानि। वारेषु जीवेन्दुसितेन्दुजानां शय्यासनारम्भणमुत्तमं स्यात्।
शस्त्रधारणे—
पुष्ये चादितिचित्रपद्मतनये शक्रोत्तरारेवती-
स्वातीवाजिविशाखमित्रसहिते भानौ गुरौ भार्गवे।
कुम्भे कीटगृहे वृषे मृगपतौचेन्दौशुभैर्वीक्षिते
संनाहः शरखड्गकुन्तछुरिका धार्या नृपाणां हिताः॥
स्वामिसेवायां चण्डेश्वरः—
रोहिण्युत्तरपौष्णेषु वसुवारुणयोरपि।
सेवेत स्वामिनं भृत्यः शुभवारोदये तथा॥
ज्योतिर्निबन्धे—
दासीदासादिभृत्यानां कुर्यात्संग्रहणं बुधे।
स्थिरलग्ने शुभैर्दृष्टेमन्दवारे विशेषतः॥
गजाश्वदोलारोहणे—
पौष्णप्रजेशादितिभद्वयानि हस्तादिषट्कश्रवणोत्तराणि।
दोलादिमातङ्गतुरङ्गमाणामारोहणेऽभीष्टफलप्रदानि॥
नृत्ये—
हस्तः पुष्यो वासवं रोहिणी च ज्येष्ठापौष्णं वारुणं चोत्तराश्च।
पूर्वाचार्यैः कीर्तितश्चक्रवर्ती नृत्यारम्भे शोभनोऽयं भवर्गः॥
राजदर्शने श्रीपतिः—
मृगाश्वितिष्यश्रवणश्रविष्ठहस्तध्रुवत्वाष्ट्रमपूषभानि।
मैत्रेण युक्तानि प्रजेश्वराणां विलोकने मानि शुभप्रदानि॥
क्रयादौ—
भाद्रद्वयत्रिदशमेत्रिदिवाकरेषु
मूलानिलोत्तरतुरङ्गमरेवतीषु।
सारङ्गपाणिरजनीकरमैत्रभेषु
लाभःसदैव भवति क्रयविक्रयाभ्याम्॥
चित्रा शतभिषा स्वाती रेवती चाश्विनी शुभा।
श्रवणश्च तथा प्रोक्तो वस्त्राणां क्रयणे शुभः॥
सेतौ—
स्वातीयुक्तेमन्दवारे वृषलग्ने शुभे दिने।
सेतूनां बन्धनं कार्यं ध्रुवमे चार्कजीवयोः॥
पशुकृत्ये श्रीपतिः—
चित्रोत्तरावैष्णवरोहिणीषु चतुर्दशीदर्शदिनाष्टमीषु।
स्थानप्रवेशं गमनं विदध्यात्पुमान्पशूनां न कदाचिदेव।
चण्डेश्वरः—
हस्तमूलविशाखासु रेवत्यां श्रवणे तथा।
मैत्रे च वारुणे श्रेष्ठं पशुप्रापणमुच्यते॥
पूर्वात्रयामृतमयूखहुताशनेषु
इन्द्राग्निवाजिवसुवारुणशंकरेषु।
एतेषु गोमहिषदन्तितुरङ्गमादि-
नानाप्रकारपशुजातिगतिःप्रशस्ता॥
गजदन्तच्छेदे ज्योतिर्निबन्धे—
त्वाष्ट्रभेवैष्णवेऽश्विन्यामादित्ये वसुदैवते।
दन्तिनां शुभदंकर्म पुष्ये हस्ते च कीर्तितम्॥
निक्षेपे—
भरणी त्रीणि पूर्वाणि आर्द्राऽऽश्लेषा मघा तथा।
चित्रा ज्येष्ठा विशाखा च मूलं मृगपुनर्वसू॥
एभिर्दत्तं प्रयुक्तं च यद्यन्निक्षिप्यते धनम्।
पृठतो धावमानस्य धनिनो नोपपद्यते॥
ऋणमोक्षे श्रीधरः—
वागीशमन्ददिवसांशकलग्नयुक्ते
रिक्तासु मन्ददिवसे कुलिकोदमे च।
मैत्रद्वितीयपदमैत्रमुहूर्तयुक्ते
राश्युद्गमे च ऋणमोक्षमुशन्ति सन्तः॥
राजमुद्रायां—
मृदुध्रुवक्षिप्रचरेषु भेषु योगे प्रशस्ते शनिचन्द्रवर्जम्।
वारे तिथौ पूर्णजयाह्वये च मुद्राप्रतिष्ठा शुभदा हि राज्ञाम्॥
नावि चण्डेश्वरः—
पोष्णाश्विनीतुरगवारुणमित्रचित्रा-
शीतोष्णरश्मिवसवोऽनलवन्त्यमूनि।
वारे च जीवभृगुनन्दनके प्रशस्ते
नौकादिसंघटनवाहनमेषु कुर्यात्॥
भोगे—
गुरुभरविभानुराधाविधातृपौष्णाश्विनिरोहिणीषु।
स्वात्युत्तरासु कुर्याच्छयनाशनभोगभोगादि॥
इन्धनसंग्रहे—
बह्मानिलार्कमृगमूलत्रिपूर्वरौद्र-
पौष्णानुराधगुरुविष्णुविशाखयुक्ते।
वारे कुजार्कभृगुनन्दनसोमजानां
श्रेष्ठेन्धनस्य करणं भवति प्रशस्तम्॥
नवान्नेश्रीपतिः—
रेवतीश्रुतिपुनर्वसुहस्तबाह्मतः पृथगपि द्वितये च।
व्युत्तरेषु गदितं पृथुकानां प्राशनं नवनवान्नविधानम्॥
नवभोजनपात्रे ज्योतिर्निबन्धे—
भोज्यपात्रं सुधासिन्धौ घटयेद्वा समाहरेत्।
तत्रान्नप्राशनं भोक्तकाले भोजनमाचरेत्॥
नवफलादिभक्षणे चण्डेश्वरः—
मूलाश्विमैत्रकरतिष्यहरीन्दुभेषु पौष्णोत्तरैन्दवपुनर्वसुवासवेषु।
वारेषु भूतितनयार्कजवारवर्ज्यं ताम्बूलनूतनफलाद्यशनं हिताय॥
ज्वराद्युत्पत्तौज्योतिर्ग्रन्थे—
एकाहो निधनं दशाहमनिला बाणा विपत्पर्वताः
सप्ताङ्का विलयश्चमासयुगुलं मासो मृतिः पक्षकः।
द्वौ मासावथ विंशतिर्दश निशाःपक्षान्तपक्षा नखा
मासौ पक्षदशान्तपक्षककुभः पीडादिनान्यश्विभात्॥
दैवज्ञः—
उरगवरुणरौद्रा वासवेन्द्रत्रिपूर्वा
यमदहनविशाखाःपापवारेण युक्ताः।
तिथिषु नवामिषष्टी द्वादशी वा चतुर्थी
भवति मरणयोगो रोगिणां कालहेतुः॥
दारुणं चेत्तत्तन्नक्षत्रदेवताप्रतिमां सौवर्णीं द्वादशदलपद्ममध्ये स्थापितकलशोपरि प्रतिष्ठाप्य द्वादशदलेषु द्वादशाऽऽदित्यांश्च संपूज्य दूर्वासमित्तिलक्षीराज्यैर्गायत्र्या तत्तद्देवताया अष्टोत्तरशतं हुत्वा दध्योदनं बलिं दत्त्वाऽऽचार्याय गां प्रतिमां च दत्त्वा ब्राह्मणान्भोजयेदिति संक्षेपः। भेषजे चण्डेश्वरः—
मूलानुराधमृगतिष्यपुनर्वसौ च
पौष्णाश्विनीश्रवणशक्रकरत्रये च।
वारेषु वाक्पतिसितेन्दुदिने प्रशस्तं
भैषज्यभक्षणममीषु हितं नराणाम्॥
आरोग्यस्नाने श्रीपतिः—
इन्दोर्वारे भार्गवे च ध्रुवेषु सर्पादित्यस्वातियुक्तेषु भेषु।
पित्र्ये चान्त्ये वाऽपि कुर्यात्कदाचिन्नैव स्नानं रोगनिर्मुक्तजन्तुः॥
चले विलग्ने रविभौमवारे रिक्तातिथौ स्याद्बहुले च पक्षे।
धिष्ण्ये चरे रोगनिपीडितानां स्नानं नराणां निरुजत्वकारि॥
काम्यहोमाहुतौज्योतिर्ग्रन्थे—
तरणिविद्भृगुभास्करिचन्द्रमःकुजसुरेज्यविधंतुदकेतवः।
रविभतो दिनभं गणयेत्क्रमात्प्रतिखगं त्रितयं त्रितयं न्यसेत्॥
दिनकरार्कितमःकुजकेतवो हुतभुजो न शुभास्त्वितरे शुभाः।
दहनचक्रमिदं प्रविलोक्यतां हवनकर्मणि सर्वसमृद्धये॥
अस्यापवादः क्रियासारे—
नित्ये नैमित्तिके दुर्गाहौमादौ न विचारयेत्।
इति नानाकार्यकालाः।
अथ युगधर्माः। हेमाद्रौ भारते—
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुत्तमम्।
द्वापरे यज्ञमेवाऽऽहुर्दानमेव कलौ युगे॥
बृहस्पतिः—
तपो धर्मः कृतयुगे ज्ञानं त्रेतायुगे स्मृतम्।
द्वापरे चाध्वरः प्रोक्तस्तिष्ये दानं दया दमः॥
मनुबृहस्पती—
कृते यदब्दाद्धर्मःस्यात्स त्रेतायामृतुत्रये।
द्वापरे तु त्रिपक्षेण कलावह्ना तु तद्भवेत्॥
ब्रह्माण्डे—
त्रेतायामाब्दिको धर्मो द्वापरे मासिकः स्मृतः।
यथाशक्ति चरन्प्राज्ञस्तदहा प्राप्नुयात्कलौ॥
विष्णुपुराणे—
यत्कृते दशभिर्वर्षैस्त्रेतायां हायनेन तु।
द्वापरे तत्तु मासेन अहोरात्रात्कलौ युगे॥
हेमाद्रौ स्कान्दे—
ब्रह्मा कृतयुगे देवस्त्रेतायां भगवान्ब्रविः।
द्वापरे भगवान्विष्णुः कलौ देवो महेश्वरः॥
विष्णुधर्मोत्तरे—
पुष्करं तु कृते सेव्यं त्रेतायां नैमिषं तथा।
द्वापरे तु कुरुक्षेत्रं कलौ गङ्गां समाश्रयेत्॥
पराशरः—
कृते तु मानवो धर्मस्त्रेतायां गौतमः स्मृतः।
द्वापरे शङ्खलिखितः कलौ पाराशरः स्मृतः॥
त्यजेद्देशं कृतयुगे त्रेतायां ग्राममुत्सृजेत्।
द्वापरे कुलमेकं तु कर्तारं तु कलौ युगे॥
कृते संभाष्य पतति त्रेतायां स्पर्शनेन तु।
द्वापरे त्वन्नमादाय कलौ पतति कर्मणा॥ इति।
अथ कलियुगधर्माः हेमाद्रौ भारते—
यस्त्वों नमः शिवायेति मन्त्रेणानेन शंकरम्।
सकृत्कालं समभ्यर्च्य सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
सर्वावस्थां गतो वाऽपि युक्तो वा सर्वपातकैः।
यस्त्वों नमः शिवायेति मुच्यते सकलो नरः॥
शाठ्येनापि नमस्कारः प्रयुक्तः शूलपाणये।
संसारदोषसंघानामुक्तो नाशकरः कलौ॥
सदा तं यजते यस्तु श्रद्धया मुनिपुंगव।
लिङ्गे वा स्थंडिले वाऽपि कौतुकाद्विधिपूर्वकम्॥
युगदोषं विनिर्जित्य रुद्रलोके महीयते।
लैङ्गे—
कलौ रुद्रो महादेवः शंकरो नीललोहितः।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृतिः॥
ये तं विप्रास्तु सेवन्ते येन केनापि शंकरम्।
कलिदोषं विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्॥
हेमाद्रौ व्यासः—
ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन्।
यदाप्नोति तदाऽऽप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम्॥
अग्निपुराणे—
नास्ति श्रेयस्करं नॄणां विष्णोराराधनात्परम्।
युगेऽस्मिंस्तामसे घोरे यज्ञवेदविवर्जिते॥
कलौ कलिमलध्वंसं सर्वपापहरं हरिम्।
येऽर्चयन्ति नरा नित्यं तेऽपि वन्द्या यथा हरिः॥
धन्ये कलौ भवेद्विमा अल्पक्केशे महत्फलम्।
इति कलियुगधर्गाः।
अथ कलिवर्ज्यानि। हेमाद्रावादित्यपुराणे नियोगं प्रकृत्योक्तम्—
अयं कार्तयुगो धर्मो न कर्तव्यः कलौ युगे।
दीर्घकालं ब्रह्मचर्यं धारणं च कमण्डलोः॥
गोत्रान्मातृसपिण्डाच्चविवाहो गोवधंस्तथा।
नराश्वमेधौ मद्यंच कलौ वर्ज्यं द्विजातिभिः॥
ऊढायाः पुनरुद्वाहं ज्येष्ठांशं गोवधं तथा।
कलौ पञ्च न कुर्वीत भ्रातृजायां कमण्डलुम्॥
शपथाःशकुनाः स्वप्नाःसामुद्रिकमुपश्रुतिः।
उपयाचितमादेशाःसंभवन्ति कलौ युगे॥
तस्मात्तन्मात्रलाभेन कार्यं किंचिन्न कारयेत्।
तथा धर्मसमावेशादन्यान्यपि कलौ युगे॥
विहितान्यपि वर्ज्यानि कर्मभोगभयाद्बुधैः।
विधवायां प्रजोत्पत्तौ देवरस्य नियोजनम्॥
बालिकाक्षतयोन्यास्तु वरेणान्येन संस्कृतिम्।
कन्यानामसवर्णानां विवाहश्च द्विजन्मभिः॥
आततायिद्विजाग्र्याणां धर्मयुद्धेन हिंसनम्।
द्विजस्याब्धौ तु नौयातुः शोधितस्यापि संग्रहः॥
सत्रदीक्षा च सर्वेषां कमण्डलुविधारणम्।
महाप्रस्थानगमनं गोसंज्ञतिश्चगोसवे॥
सौत्रामण्यामपि सुराग्रहणस्य च संग्रहः।
अग्निहोत्रहवण्याश्च लेहो लीढापरिग्रहः॥
वानप्रस्थाश्रमस्यापि प्रवेशो विधिचोदितः।
व्रतस्वाध्यायसापेक्षमघसंकोचनं तथा॥
प्रायश्चित्तविधानं च विप्राणां मरणान्तिकम्।
संसर्गदोषस्तेयान्यमहापातकनिष्कृतिः॥
वरातिथिपितृभ्यश्च पशुपाकरणक्रिया।
दत्तौरसेतरेषां तु पुत्रत्वेन परिग्रहः॥
सवर्णान्याङ्गनादुष्टैःसंसर्गःशोधितैरपि।
असवर्णाङ्गनादुष्टैः कृतप्रायश्चित्तैरपि संसर्गो न कार्य इत्यर्थः॥
अयोनौसंग्रहे वृत्ते परित्यागो गुरुस्त्रियाः।
अयोनौहीनयोनौ गुरुस्त्रिया ब्राह्मणस्त्रियाः संग्रहे गर्भधारणे वृत्ते सति तस्याः संभोगादाविवा-न्नवस्त्रविषयेऽपि परित्यागो न कार्यः।
परोद्देशात्मसंत्याग उद्दिष्टस्यापि वर्जनम्।
प्रतिमाभ्यर्चनार्थाय संकल्पश्च सधर्मकः॥
एकैव प्रतिभोयावज्जीवं पूज्येत्येवंरुपः।
अस्थिसंचयनादूर्ध्वमङ्गस्पर्शनमेव च।
शामित्रं चैव विप्राणां सोमविक्रयणं तथा॥
षड्भक्तानशने चान्नहरणं हीनकर्मणा।
बुभुक्षितरूयहं स्थित्वा धान्यमब्राह्मणाद्धरेत्॥
इति विहितं तन्नेत्यर्थः। माधवीये—
शूद्रेषुदासगोपालकुलमित्रार्धसीरिणाम्।
भोज्यान्नता गृहस्थस्य तीर्थयात्राऽतिदूरतः॥
शिष्यस्य गुरुदारेषु गुरुवद्वृत्तिरीरिता।
आपद्वृत्तिर्द्विजाग्र्याणामश्वस्तनिकता तथा॥
प्रजार्थं तु द्विजाग्र्याणां प्रजारणिपरिग्रहः।
कस्यांचिच्छाखायां जातकर्तहोमे प्रजाजीवनार्थमरणिपरिग्रह उक्तः स नेत्यर्थः॥
ब्राह्मणानां प्रवासित्वं मुखाग्निधमनक्रिया।
बलात्कारादिदुष्टस्त्रीसंग्रहो विधिचोदितः॥
यतेस्तु सर्ववर्णेषु भिक्षाचर्या विधानतः।
भृग्वग्निपतनैश्चैव वृद्धस्य मरणं तथा॥
गोतृप्तिशिष्टे पयसि शिष्टैराचमनक्रिया।
पितापुत्रविरोधे तु साक्षिणां दण्डकल्पनम्॥
नवोदके दशाहं च दक्षिणा विधिचोदिता।
ब्राह्मणादिषु शूद्रस्य पचनादिक्रियाऽपि च॥
यतेःसायंगृहत्वं च मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
एतानि लोकगुप्त्यर्थं कलेरादौ महात्मभिः।
निवर्तितानि विद्वद्भिर्व्यवस्थापूर्वकं बुधैः॥ इति।
माधवीये विश्वेश्वर्यां संन्यासपद्धतौ—
चत्वार्यब्दसहस्राणि चत्वार्यब्दशतानि च।
कलेर्यदा गमिष्यन्ति तदा त्रेतापरिग्रहः॥
संन्यासश्च न कर्तव्यो ब्राह्मणेन विजानता।
इति व्यासवचनेनचतुश्चत्वारिंशद्वर्षशतानन्तरमग्निहोत्रादिनिषेध उक्तः। तत्र यद्यपि—
अर्धाधानं स्मृतं श्रौतस्मार्ताग्न्योस्तु पृथक्कृतिः।
सर्वाधानं तयोरैक्यकृतिः पूर्वयुगाश्रिता॥
इति लौगाक्षिवचनं व्यासवचनैकवाक्यतयोपपद्यते तथाऽपि—
यावद्वर्णविभागोऽस्ति यावद्वेदः प्रवर्तते।
संन्यासं चाग्निहोत्रं च तावत्कुर्यात्कलौ युगे॥
देवलवचनाद्वर्णविभागव्यवस्थापर्यन्तमप्यग्निहोत्रादिकं कार्यमिति। इति कलियुगवर्ज्यानि॥
विदुषा विष्णुभट्टेन पुरुषार्थप्रकाशके।
चिन्तामणौ कर्मकालसम्यग्ज्ञानप्रसिद्धये॥
सर्वेषामृषिवाक्याणां हेमाद्रेर्माधवस्य च।
विसंवादपरिहारपरिष्कारपुरःसरम्॥
रचितः कालखण्डो यस्तेन तुष्यतु शंकरः।
हेमाद्रिणा माधवस्य विरोधःकालनिर्णये॥
इति ज्ञात्वा कृतास्तेऽतः परस्परविरोधिनः।
नवीनविदुषां ग्रन्थाः सुप्रसिद्धमिदं ह्यतः॥
गुणगृह्यैर्विपश्चिद्भिरनुग्राह्यो ह्ययं सदा।
धर्मसंस्थापनायेहावतीर्णैरीश्वरांशतः॥
प्रवर्त्यो जगतीपालैः सदा धर्मविवृद्धये।
श्रीमज्जगच्चन्द्रवर्यकृतेशाधिपसत्तमैः॥
अवश्यं तु प्रवर्त्योऽयं सदा धर्मविवृद्धये॥ इति।
इति आठवले उपनामकश्रीमद्रामकृष्णसूरिसूनुविष्णुकृते पुरुषार्थचिन्तामणौ कालखण्डःसमाप्तः॥
समाप्तोऽयं पुरुषार्थचिन्तामणिः।
___________
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“क ख न । विसंवा’ ।” ↩︎
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“ख. तरः स्मृतः। त।” ↩︎
-
“क ह्यति” ↩︎
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“क बुधो ग।” ↩︎
-
“ख. घ. ‘सस्य प्र’। " ↩︎
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“ग. बोधनार्थ च। " ↩︎
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“घ. चान्द्रो मासः स्मृत बुधैरिति।” ↩︎
-
“ग घ. सवेदिकम्” ↩︎
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“घ. ग्रं ब्रह्मलोके” ↩︎
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“ग. ‘द्युगुलं।” ↩︎
-
“घ. कृषी भोगी।” ↩︎
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" शो गोगी” ↩︎
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“घ. कृष्णः” ↩︎
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“घ. शर्करान्नं।” ↩︎
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“ष. ऐषेन्ध।” ↩︎
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“ष. ‘क्तं प्रकु।” ↩︎
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" घ. ‘वने कर्तव्ये’।” ↩︎
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" घ. " ↩︎
-
" घ. क्षिणायने। इ" ↩︎
-
" घ लोकं च " ↩︎
-
“घ. त्सरं य। " ↩︎
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“घ. मं भक्त्या।” ↩︎
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" ख ग घ. धिव” ↩︎
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“ख. ग. च. ‘म्लुचैः स।” ↩︎
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" घ न्द्रश्चातो म।" ↩︎
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“क. रवि’। अ’।” ↩︎
-
“ग कम्ब द।” ↩︎
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“च भिप्रायात्त।” ↩︎
-
“म्य न क्व’। " ↩︎
-
“घ.पोषमाणाति।” ↩︎
-
“घ. ‘नान्ये ।” ↩︎
-
“घ. न्तमासमा” ↩︎
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“घ. वादकं” ↩︎
-
“घ. पूर्वोत्त’।” ↩︎
-
“अ॰त्रायपा॰।” ↩︎
-
" ख ग घ. ‘र्ततेच ।पौ।” ↩︎
-
“घ. नववा।” ↩︎
-
“ग. घ. गजच्छायां।” ↩︎
-
" घ. तथा।" ↩︎
-
" घ. ष्ठान इव मलमासेऽननुष्ठाने" ↩︎
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“ख ग घ. यच्च।” ↩︎
-
“घ. ‘णे प्र’” ↩︎
-
“ख. घ. तथा” ↩︎
-
“घ. याब्दि” ↩︎
-
“ख. ग. घ. वैयर्थ्यादिश” ↩︎
-
“ख.ग.घ.यायाब्दि” ↩︎
-
“घ- क्षत्र निषॆध " ↩︎
-
“ख ग. ध. दा मलमास एव।” ↩︎
-
“शुद्धमाससुतस्य यदा सुतमास एव मलं” ↩︎
-
“ख ग घ.वन” ↩︎
-
“ख ग घ. प्रयुक्त्या” ↩︎
-
“घ र्मापि वि” ↩︎
-
“घ. काम्या।” ↩︎
-
“ग. घ. त्रायामपि न।” ↩︎
-
“घ. ते मे” ↩︎
-
“ख ग घ. लभेत्” ↩︎
-
“ख ग घ. तदा” ↩︎
-
“घ. यावान्का” ↩︎
-
“व. विरिचिश्व” ↩︎
-
“घ. पश्च” ↩︎
-
“ग. घ. ‘न्यान्मुहू’” ↩︎
-
“घ ‘त्र श्चान्द्र ए’” ↩︎
-
“घ. ‘वस्था प्रा” ↩︎
-
“ग. ‘हेऽलमि’” ↩︎
-
“घ. संभाव्यते।” ↩︎
-
“ख. विशिष्ट ग घ. विशिष्य।” ↩︎
-
“क. ‘याः पू” ↩︎
-
“घ. ‘दादात्” ↩︎
-
“क. ग. त्र वि” ↩︎
-
“घ. ‘हूर्तव” ↩︎
-
" घ. ‘हुर्तव’” ↩︎
-
“घ. तिशास्त्रस्य प्रा।” ↩︎
-
“घ. त्वकरणे इ” ↩︎
-
“म. षणरु” ↩︎
-
“क ख ग ज्यत,या ए॰।” ↩︎
-
“घ. तिस्रस्वात्तदु’” ↩︎
-
“घ. नवतादि” ↩︎
-
“ख. ग. ‘युज्यानु°” ↩︎
-
“घ. दिबोधनव” ↩︎
-
" क. स्पष्टा" ↩︎
-
“ख. ग. घ. ‘ष्टममु°” ↩︎
-
“क. ख. ग. ततश्च” ↩︎
-
“घ. ‘तहामवृ’” ↩︎
-
“घ. ‘श्व संगच्छते प्र’” ↩︎
-
“ख ग घ. ‘स्तस्यरा ग’” ↩︎
-
“घ. स्माभक्षदर्शवान” ↩︎
-
“ग. प्ता वव्याप्ताव” ↩︎
-
“घ, तत्र” ↩︎
-
" घ. ‘त्वेन वै।" ↩︎
-
“ख. ग. घ. च. विशिष्टवि’” ↩︎
-
“व. निशीथे।” ↩︎
-
“नानां वि°” ↩︎
-
“ह्णिकीति स्ता” ↩︎
-
“घ. र्येतिवि” ↩︎
-
“घ. ति य।” ↩︎
-
“घ. बापवादः” ↩︎
-
“ख. ग. घ. च. इय संथ’” ↩︎
-
“च. वनसंवेष्टिताननः” ↩︎
-
“घ. वे ष्टितो बरः” ↩︎
-
“क ख ग. सिते। च सदा।” ↩︎
-
“च. विशेवंत्स” ↩︎
-
“क. ख. ग. च. वाद्यदः” ↩︎
-
" ग. घ. च. मुदा।" ↩︎
-
" ‘द नाद्यैः" ↩︎
-
“क. नियतं” ↩︎
-
" क ख. ग. च. ’ यीं पिबा" ↩︎
-
“क. ग. च. वैत्रीं” ↩︎
-
“क. ख. ग. च.समझग’।” ↩︎
-
“घ. कृत्वै व।” ↩︎
-
“घ. सा सूर्योद°।” ↩︎
-
“च. संपूज्या।” ↩︎
-
“ग. घ. ने किचिन्न्यूनमुहूतंत्रय।” ↩︎
-
“ख. घ. च. माद्य्राद्युदा” ↩︎
-
“घ. हृतानि यथार्षाणि ताई पूर्वोक्तरीत्या सति संभवाभिप्रायाण्येव अ°।” ↩︎
-
“घ. `वनामोद’” ↩︎
-
“घ. °म् । स्रवद्रु°” ↩︎
-
“घ. वा” ↩︎
-
“घ. °सूत्रे प्र” ↩︎
-
" घ. सूक्तं" ↩︎
-
“घ. दर्धं फलं लभेत्” ↩︎
-
“घ णफलमु’” ↩︎
-
“घ. ॰कां पूजयेन्नरः। दु॰।” ↩︎
-
“घ. देवीं।” ↩︎
-
“घ. भयदुः’।” ↩︎
-
" क. ख. ग. च. ‘भद्राज °।" ↩︎
-
“घ. जवेन” ↩︎
-
“घ. या रुण भ्रा” ↩︎
-
“घ. मन्द्रो।” ↩︎
-
“घ. ब गजः सं°।” ↩︎
-
“क. ख. ग. च. ॰मृतसु म॰।” ↩︎
-
“क. ख. ग. च. °भि र्दूषणानि” ↩︎
-
“॰यास्माश्च संस्म॰।” ↩︎
-
“घ. ॰र दुर्लभ।” ↩︎
-
“घ. ‘वित्तसमन्वितः ।” ↩︎
-
" ख. घ. पूजना ।" ↩︎
-
" घ. कृत्वैव ।" ↩︎
-
" घ. तत्रापि श°।" ↩︎
-
" ख. घ. पूर्वामु ।" ↩︎
-
" घ. जयेत्युकं " ↩︎
-
“धिकृतत्वा।” ↩︎
-
" घ. त्तत्रैव त्रा’ । " ↩︎
-
" घ. समनवा ।" ↩︎
-
“घ. समनवा ।” ↩︎
-
" घ ततः । " ↩︎
-
" घ. कार्यरय।" ↩︎
-
" घ. ‘न्था इति ।" ↩︎
-
“घ. ॰नि यदाप्॰।” ↩︎
-
“घ. `मी तृतीयदिने द’।” ↩︎
-
“ख. ग.घ. च. ‘येन्नृपः।” ↩︎
-
“घ. न्यसेत्।” ↩︎
-
“घ. शुभानना।” ↩︎
-
“ख. ग. घ. मापूज्या फ।” ↩︎
-
“१ ख. ग. घ. च. ब्रह्मयु ।” ↩︎
-
“ग.घ. `न्तव्या’।” ↩︎
-
" ग. घ. दिसामुहुर्तव्या" ↩︎
-
“घ. `न्तरार्धगा।” ↩︎
-
“घ. ‘चनवि।” ↩︎
-
" क. च. प्रसते ।" ↩︎
-
“ष. हे देवमर्चयेत्।” ↩︎
-
“घ. प्रतिमायां ।” ↩︎
-
" ख. ग. घ. कदाचन ।" ↩︎
-
" ख ग घ. य्यमुच्यते।" ↩︎
-
“ख. ग. घ. ते मदनरत्ने स्का।” ↩︎
-
" ख. ग. घ. त्येि सं। " ↩︎
-
“क.ख.ग.घ.. ‘थां माघप’ ।” ↩︎
-
“घ. मासि।” ↩︎
-
" घ. जीवनाय।" ↩︎
-
" ख. ग. घ. `ह्यत्थ ग।" ↩︎
-
" ख. ग. द्रः अष्टपी।" ↩︎
-
“घ. एवं।” ↩︎
-
" घ. नान्यत्र।" ↩︎
-
" ग. घ. न्। रराज।" ↩︎
-
“च. ‘ते. सषष्ठीसत्समीयोगे।” ↩︎
-
" क ख ग च. वम्याच ।" ↩︎
-
" घ. वशक्ति म । " ↩︎
-
" घ. दशी न कु ।" ↩︎
-
" घ. के निगमे, उ ।" ↩︎
-
“ख. घ. तिप,द्मे यः।” ↩︎
-
“ख. ग. घ. च. पूजां प्रकुर्वीत ।” ↩︎
-
“क च कीर्तयेत् ।” ↩︎
-
“क. ‘मीव्रते’ प्रा।” ↩︎
-
“घ. प्रोक्ता ।” ↩︎
-
“क.`रपोषणम्। सं।” ↩︎
-
“च. य श्रवणान्नि ।” ↩︎
-
“घ. ला व्याघ्राश्च का ।” ↩︎
-
“ग. घ.॑तेऽपि स॑” ↩︎
-
“ख. ग. घ. च. वासमा’ ।” ↩︎
-
“ख ग घ. च. नित्यकाम्यमेवे।” ↩︎
-
“घ.॰पेऽपि ज॰।” ↩︎
-
" झ क्ताकृष्णा नभसि चाष्ट।" ↩︎
-
“घ का वाऽष्टमी ।” ↩︎
-
“ख ग घ. ‘वेप्यष्ट’ ।” ↩︎
-
“क. द्य. ग. च. त सोपोष्या सा म।” ↩︎
-
“ख. थ स ।” ↩︎
-
" घ. ‘वं वास’" ↩︎
-
“घ. ‘णापि सि’ " ↩︎
-
" घ. चनाद्धेमा ।” ↩︎
-
“ग. घ. ‘क्षत्रान्तस्या’ ।” ↩︎
-
“‘कल्पाभा’ ।” ↩︎
-
“घ. ‘नानां च ज’ ।” ↩︎
-
“क, ख. ‘लप्रद’ । घ. ‘लमेप्सप’ ।” ↩︎
-
“ग. घ. न्त संभव उभयान्त ए ।” ↩︎
-
“घ. ‘यात्स ।” ↩︎
-
“घ. ‘सः सप्त’ ।” ↩︎
-
“घ. कपित्थैश्च।” ↩︎
-
“ध. ‘न्वितः द’ । " ↩︎
-
“नीयेयप्र । ख.ग.च. नीया साप्र।” ↩︎
-
“घ. लं विव।” ↩︎
-
" घ. °क भक्षणस्था’” ↩︎
-
“घ. सिताष्टम्यां।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. धर्मघ्नी।” ↩︎
-
“घ. नरेश्व।” ↩︎
-
“घ. ध्याह्नात्पू” ↩︎
-
“घ. ‘माप्तं, त’।” ↩︎
-
“घ. ‘क्षत्रे प्र’।” ↩︎
-
“घ. प्रवृत्ते” ↩︎
-
“घ. समाप्ते।” ↩︎
-
“घ. ‘विवारयु’।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. ॰णे चापराजिता इ।” ↩︎
-
“घ. ‘म्याऽपि यु।” ↩︎
-
“घ. विद्यते।” ↩︎
-
" क ख ग घ. ‘तीयाष्ट’।" ↩︎
-
“क. च. व सिद्धा’।” ↩︎
-
" क ख घ. कृंतोनि’।" ↩︎
-
“क ख ग घ. ते त्रिरहश्च।” ↩︎
-
“क घ. ‘म्यलाभ सं” ↩︎
-
" घ. संबन्धेन स।" ↩︎
-
“क. ख. ग. च. लिलं भी।” ↩︎
-
“क. स. ग. च. ‘ष्मवर्मणे’ श्रा’।” ↩︎
-
“घ. राजन्। " ↩︎
-
“क ख ग घ. वेधात्।” ↩︎
-
“घ. दिने।” ↩︎
-
“‘या युक ऐ।” ↩︎
-
“क. ल. ग. घ. केरवारस्य।” ↩︎
-
" घ. पूर्वगा। " ↩︎
-
“घ. ये क°।” ↩︎
-
“घ. कार्या।” ↩︎
-
“क. घ. च. ‘णव’” ↩︎
-
“ग. घ. च. कालस्य” ↩︎
-
“घ. ‘रणे माधवप्र’।” ↩︎
-
“घ. ‘षयप्रति’।” ↩︎
-
“घ. दुःख़प्रशमनीं। " ↩︎
-
“घ. एवमेव।” ↩︎
-
“घ. पंपत्तीनां।” ↩︎
-
“क. घ. भक्ता।” ↩︎
-
" घ. मयि।” ↩︎
-
“घ. ष्पादिकैर” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. जनैः” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. च.र्धारीरा।” ↩︎
-
“क. घ. शकुनदः।” ↩︎
-
" क. ख. ग. घ. ‘तं दिग्लक्ष’।” ↩︎
-
“घ. तथिद्वये ।” ↩︎
-
" घ. ‘क्ष्यः दिनद्वयेऽपि थ° ।" ↩︎
-
" घ. पूर्वप्र" ↩︎
-
“ग. घ. °बयोत्तररात्र ।” ↩︎
-
" ग. घ. °दयोत्तरद्वा।" ↩︎
-
" घ. भ्य प्रवृत्ता द्वि ।" ↩︎
-
" घ. न एक भका दिवि । " ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. वचनं। घ. च दिन ।” ↩︎
-
“* क. ख. ग. च. छ. पुस्तकेष्वयं हेतुर्नास्ति।” ↩︎
-
“क ख ग घ. ‘ना प°।” ↩︎
-
" * घ. पुस्तक इदं नास्ति ।" ↩︎
-
" च. ‘शिशुद्धिः प्र° ।" ↩︎
-
" घ. वा " ↩︎
-
“क. ग. घ.छ. ॰सागर” ↩︎
-
“क. ख. घ. घ. छ. ‘दशीपा ।” ↩︎
-
“* घ. पुस्तक इदं नास्ति।”
हेमाद्रौ बौधायनः — ↩︎
-
" घ. छ. बटक । " ↩︎
-
" क. ख. च. न त ।" ↩︎
-
" क, ख. ग. च. छ नच ।" ↩︎
-
" घ. ‘रत्रोपवासस्य सि’ । " ↩︎
-
" ‘व दूरीकृता बोद्धव्या त ।" ↩︎
-
" क ख ग. क्ये प्रमा- णमुकम्।बि।" ↩︎
-
“घ. धिक्ये वै " ↩︎
-
" ब इति शुद्धापद घ ।” ↩︎
-
" घ. न ता ज्ञेयाश्च त° । " ↩︎
-
“क,`यप्व्यात्या स्या॰।” ↩︎
-
" घ. ‘दयवें ।" ↩︎
-
" घ. षां भेदानाम ।" ↩︎
-
" क, ख. ग. घ. छ. तु प्रकृते य’ ।" ↩︎
-
" क ख ग घ. छ. चेत् ।" ↩︎
-
" ग घ. सा " ↩︎
-
“घ. ‘रमपन्यस्तं म’ ।” ↩︎
-
" घ. ‘शी न प । " ↩︎
-
" घ. द्वादशी ।" ↩︎
-
“घ. न ।” ↩︎
-
" क. ख. ग. च. छ. प्राप्यतां ।" ↩︎
-
" क. ख. च. ता चत्र । " ↩︎
-
" घ. ‘स्परवि’" ↩︎
-
“क. च. ‘दार्थवादा इ ।” ↩︎
-
" घ. ‘सत्वस्यैवाभा’" ↩︎
-
“क च. शीदक्षाव ।” ↩︎
-
“घ. लभ्यते ।”
आदौ दशमी, मध्य एकादशी, अन्ते द्वादशी, एतत्तिथित्रयम्। हेमाद्रौ कौर्मम् — ↩︎
-
“घ. येन एकादश्यनाधिक्येऽपि द्वादशीवृद्धी द्वादश्यामेवोपवासविधानाविति। " ↩︎
-
“१ घ. येन एकादश्यनाधिक्येऽपि द्वादशीवृद्धी द्वादश्यामेवोपवासविधानाविति। घ ‘प्रत्यक्ष’ ।” ↩︎
-
“घ ‘प्रत्यक्ष’ ।” ↩︎
-
“क. ख. ग. च. छ. ‘यिक्याः द्वा’ । " ↩︎
-
“घ. त्र विद्वायां च ।” ↩︎
-
" च. ‘दि’ इति न ।” ↩︎
-
" घ. ‘क्षये हे’ ।” ↩︎
-
" घ. ‘न वातिप्रसंतात् । अ° ।" ↩︎
-
“घ. ‘याभ्याधि’ ।” ↩︎
-
" घ. लतत्त्वत्रि ।" ↩︎
-
" घ. ‘श्यामला’ । " ↩︎
-
" छ. ‘णाभावे पू।" ↩︎
-
“घ. न विद्धाभ्यनुज्ञावचनानां स्मार्तमात्र विषयत्वाचानेन नै ।” ↩︎
-
" क. ख. ग. च. छ. ‘नि तानि वि ।" ↩︎
-
" घ. कर्तव्या । " ↩︎
-
" ख. ‘शी यत्र द्वा ।" ↩︎
-
“घ. ‘त्वेऽपि गु’ ।” ↩︎
-
“घ. ॰द्वादश्यामेव। एकादश्यां ब्रह्मन्दिनक्षयतिथिर्भवेत्। तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्। एकादश्यामेव किं॰।” ↩︎
-
" क. ख. ग. च. छ. ‘त्वरूपक्षये गृ’ ।" ↩︎
-
" क ख गं. च. ङ. ‘मा’ संकल्प ।" ↩︎
-
“* घ. पुस्तकेऽधिकं वर्तते तानि - पापान्यवाप्नोति भुञ्जानो हरिवासरे । रटन्तीह पुराणानि भूयो भूयो वरानने । न भोक्तव्यं न भोक्तव्यं संप्राप्ते हरिवासरे ॥” ↩︎
-
" क. ख. ग. घ. छ. ‘श्ये ह ।" ↩︎
-
" क ख ग घ. च. ‘शाच स ।" ↩︎
-
" घ. ‘वासन’ ।" ↩︎
-
“घ. त्यादीतिकर्तव्यतासहितमु ।” ↩︎
-
“घ. ‘पदेशिता ।” ↩︎
-
" क. च. एन्द्रं कृं° ।" ↩︎
-
“घ. ‘भिः स ।” ↩︎
-
" घ. पातदिने तथा ।पा।"
अयं पारणोपवासयोर्निषेधस्तत्प्रयुक्तयोरेव, नैकादशीनिमित्तकयोः। तदाह हेमाद्रौ जैमिनिः — ↩︎
-
“क. ख. ग. च, छ, ते तथा ।” ↩︎
-
" क, ख. ग. च. छ. °वासोऽथवा गु।"
योऽपि — ↩︎
-
“घ. पात्यते ।” ↩︎
-
" ख. ग. घ. प्रस्तूयते ।" ↩︎
-
" घ चनोभावितं दृषणमभित्तिचित्रमिवैवेति बोध्यं नि ।" ↩︎
-
“घ. तिसिद्धमिति है ।” ↩︎
-
“घ. मनुते ।” ↩︎
-
" घ. नक्काशी या । " ↩︎
-
“क ख. ग. च. छ. (तुर्गुणं च ।” ↩︎
-
“ग घ उक्त ल” ↩︎
-
" घ. लिप्यते ।" ↩︎
-
“घ. भुत्ति व ’ ।” ↩︎
-
“च. ‘र्या जपहो ।” ↩︎
-
" घ. ‘ति आनन्त’" ↩︎
-
“घ. वदसे ।” ↩︎
-
" घ. पवि ।" ↩︎
-
" घ. °स्य प्रा’ । " ↩︎
-
" घ. ‘लपश्च पू° । " ↩︎
-
“घ. ‘द्धे राव । " ↩︎
-
" घले विद्याद्वि° ।” ↩︎
-
" क. ग. च. छ. ‘क्वेत ।" ↩︎
-
" क. ख. ग. च. छ. °लस्वी° ।" ↩︎
-
“क ख ग. च. छ, ‘यानुटानमि” ↩︎
-
“घ.. स्तनानुपपत्ते । " ↩︎
-
" घ. `र्तादिपरिच्छेदे ।” ↩︎
-
" ग क. घ. वा।" ↩︎
-
“* घ. पुस्तक इदमथिकं ह्यत्येवं परं यदा तूभयत्रोदयकालिकः श्रवणयोगस्तदा पूर्वैव बहुकर्म - कालव्यापित्वादितिमदनरत्ने कालतत्त्वविवेचनेनोक्तं तद्द्बृहन्नारदीय प्रकरणहेमाद्रिविरुद्ध मितिबोध्यम् ।” ↩︎
-
“क. ख. ग. च. छ. दंवि । " ↩︎
-
" ख ग घ. त्वे सत्त्वेऽपि ।” ↩︎
-
" घ. ‘वेनाव्यपराह्नसंवन्यस्यानावश्यकत्ववचनात् । अ" ↩︎
-
" घ. विवर्जयेत् ।" ↩︎
-
" क ग. च. छ. ‘त्युक्त्वा पू ।" ↩︎
-
" ख. च छ. °द्वयव्या’ ।" ↩︎
-
" घ. ‘रं तु स’ ।" ↩︎
-
" घ. शेषतः श J" ↩︎
-
" घ. ‘रत्वसं ’ ।" ↩︎
-
" घ. ‘घेः खवि’ ।" ↩︎
-
“घ. रे आरभ्याधीतं यजनं प्रतीति वि॰” ↩︎
-
" घ र्यकत्वेन" ↩︎
-
“घ. म् अर्घयामान्त’ । •” ↩︎
-
" घ. ख. ‘वृत्तौ ता’ । " ↩︎
-
" क, ख. ग. घ. छ. मर्पकां” । " ↩︎
-
“घ. रो रमा भ’ ।” ↩︎
-
" घ. रो रमा भ’ ।" ↩︎
-
“ष. ‘षे वृषभस्य’ ।” ↩︎
-
“॰ष्टानं सर्वथापरदिने प्रदोषव्याप्त्याभावे पूर्वत्रैवेति॰।” ↩︎
-
“भिषग्गते।” ↩︎
-
“ख. ग. घ. छ. शुक्ला चैव च।” ↩︎
-
“क ख ग घ. छ. कस्यचित्।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. छ. कस्यचित्।” ↩︎
-
“क. घ. छ, क मदनम।” ↩︎
-
“घ ॰र्थस्य प॰।” ↩︎
-
“क. घ. ॰कमदनक°।” ↩︎
-
“घ. ॰बादः कृ॰। क ख ग छ ॰वादं कृ°।” ↩︎
-
“ग. घ. ॰वृत्तौ द्वै°।” ↩︎
-
“च. पूज्यः।” ↩︎
-
“क ख ग ॰थे साऽपि।” ↩︎
-
“घ. ॰दं कैमुतिकन्यायेन मु॰।” ↩︎
-
“घ पूर्वैवोक्ते।” ↩︎
-
“घ. क्त्वेदं वचनमु °।” ↩︎
-
“घ. ‘मचतुष्टयम’।” ↩︎
-
“घ.॰ई तिथि॰।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. छ. वर्णयद्भ्यो।” ↩︎
-
“ष. ॰नवप्लैव्यापाकदत्वा।” ↩︎
-
“छ. अथ” ↩︎
-
“पलं च कुडवःप्रस्थ आढको द्रोण एव च। धान्यमानेषु बोद्धव्याःक्रमशोऽमी चतुर्गुणाः।” ↩︎
-
“क. ख. ध. °दा पू’ " ↩︎
-
“घ. ‘नेऽपि प्र°।” ↩︎
-
“क. ख.ग.घ.छ. दिनं हि।” ↩︎
-
“य. ॰मृते ज्यो॰।” ↩︎
-
“घ. ° दौ च त’।” ↩︎
-
“रात्रात्पुरस्ताच्चेदिति वनाद्द्वितीयादे॰।” ↩︎
-
“व.॰रात्रव्याप्तिविषये सा॰।” ↩︎
-
“क. ख. घ. छ. ॰बन्धस्मृ॰।” ↩︎
-
“क. ख. घ. ॰त्वा समाहितः पू॰।” ↩︎
-
“ध.शिवनामानि।” ↩︎
-
“क. ख. ॰रिपूर्वार्थ।” ↩︎
-
“घ. ॰पुत्रसमन्वितम्॰।” ↩︎
-
“क. ग. घ. छ. शिवं चवि॰।” ↩︎
-
“क. ग. घ. छ. ल्पनया क°।” ↩︎
-
“घ. ॰णे फलातिशय॰।” ↩︎
-
“घ भूयो।” ↩︎
-
“॰घ. ल्वपत्रम॰।” ↩︎
-
“ख. ग. घ. ॰शश्चाडम्बर॰।” ↩︎
-
“ख. ग. घ. छ शुभं।” ↩︎
-
“क. ख. ग. छ. ॰मी पुष्पवि॰।” ↩︎
-
“घ. सुमैः समाः। क॰।” ↩︎
-
“क. कुन्दो यू॰।” ↩︎
-
“घ. चम्पकमा॰।” ↩︎
-
“घ. ॰षे समाग॰।” ↩︎
-
“च महारु॰।” ↩︎
-
“घ. ॰वासश्च।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ छ नृणां।” ↩︎
-
“घ. ॰श्यमृच्छति। क. ख.ग. छ. ॰श्यमिच्छति।” ↩︎
-
“क. गुणाङ्गलिनाहोच्चंक॰।” ↩︎
-
“घ देवदेवमुमापतिं॰ ब्रा॰।” ↩︎
-
“ख. ग. घ. छ. लभेत्।” ↩︎
-
“घ. ॰द्यं आचमनीय म।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. छ. हस्रंशतं।” ↩︎
-
“घ. ॰नात्याव॰” ↩︎
-
“घ. कनिष्ठिकयोः।” ↩︎
-
“घ. अनामिकयोः।” ↩︎
-
“घ. ग्रीवापश्चाद्भागे।” ↩︎
-
“घ. छ. ॰ज्ञशक्तिधा॰।” ↩︎
-
“घ. छ.॰तिशक्तिधा॰।” ↩︎
-
“घ. छ. ॰धशक्तिधा॰।” ↩︎
-
“घ. ह ॰स्रमष्टोत्तरश॰।” ↩︎
-
“ध. ॰पुष्पं निवेदयेत्। नि॰।” ↩︎
-
“घ. ॰न्ते चोत्त॰।” ↩︎
-
“ध. संकल्पितं यद्देवा॰।” ↩︎
-
“क. ख. ग. छ. ॰द्देवेशेत॰।” ↩︎
-
“च. ॰द्देवेशत॰।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. छ. दैवतम्। अ°।” ↩︎
-
“क.ख. ग. घ. छ. ‘माद्रि मा’।” ↩︎
-
“* सदा पूज्या परान्विता इति पाठश्चेत्समीचीनः” ↩︎
-
“क. घ. द्धकर्मस॰” ↩︎
-
“घ. ॰श्चयसिद्धं य°।” ↩︎
-
“क. च. ॰दकल्प॰। ख ग घ. ॰दत्वकल्प॰। " ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. छ. संगच्छन्ते।” ↩︎
-
“घ. पूर्वविद्धा” ↩︎
-
“घ. ॰हीम्। इति सन्यासपद्धतौआ॰।” ↩︎
-
“घ. सिनां क्षौरं मासचतुष्टयं मासद्वयं वा ए°” ↩︎
-
“घ. रक्षाबन्धनमा॰।” ↩︎
-
“घ. ॰तिनिणर्यामृतादाद्युदाहृतम्॰।” ↩︎
-
“घ. ॰त्तरत्र मुहूर्तद्वयमध्येकिंचिन्यूना पूर्णमासी त॰।” ↩︎
-
“व.थाऽष्टम्यांशि॰।” ↩︎
-
“घ. ज. लमत्वा।” ↩︎
-
“घ. तन्नदा।” ↩︎
-
“घ. तन्नक्ष॰।” ↩︎
-
“घ. ज. ॰तिबोधनोक्तविष्णुधर्मोत्तरयोः। व॰।” ↩︎
-
“घ. ज. वात्। अन्यथा व्रतोपवासेत्यादीनामपि तथात्वापत्तौ सर्वापप्लवएव स्यादिति।” ↩︎
-
“घ. च विधि॰” ↩︎
-
" घ. ॰ना त॰।” ↩︎
-
“घ. ॰व्यापिनीति।” ↩︎
-
“ख. घ. न चेति।” ↩︎
-
“घ. ॰त्तंमुहूर्तत्रयह्रा।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. च. छ. ॰माग्रा॰।” ↩︎
-
“घ. क्ष्यं संरक्षणात्त॰।” ↩︎
-
“घ. याऽपि प॰।” ↩︎
-
“घ.॰नेन सं” ↩︎
-
“घ.॰क्तवचनवि॰।” ↩︎
-
“घ. ॰दाऽपि पू॰।” ↩︎
-
“घ. ॰वात्प॰।” ↩︎
-
“घ. ॰त्वं य॰।” ↩︎
-
“घ. ॰पाकर्म तु द॰।” ↩︎
-
“घ. ॰यशः संभ॰।” ↩︎
-
“घ. ॰कर्मोपा॰।” ↩︎
-
“ज सूर्यो।” ↩︎
-
“घ. द्विजैः। क. ख. ग. छ. द्विजै।” ↩︎
-
“ख. घ. ज. ॰रुशुक्राति॰।” ↩︎
-
“घ. ॰चारीक॰। " ↩︎
-
“क. ख. ग. च. छ. ज.॰ब्दंकन्याराशिगते।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. छ. दित्यादिस्मृ॰।” ↩︎
-
“घ. ॰खसंज्ञकाः इति।” ↩︎
-
“क.घ.ज ॰चनाज॰।” ↩︎
-
“घ. ॰श्चोपेक्ष्यौ।” ↩︎
-
“घ. प्रदास्यामि।” ↩︎
-
“घ. औरभवद्भिर्व॰।” ↩︎
-
“घ. ॰नात्तदा।” ↩︎
-
“२ क. ख. ग. छ. ज. ॰पपुष्पैश्च।” ↩︎
-
“ख. ज. ॰मनूनां। घ. ॰मशून्यांथि॰। " ↩︎
-
“घ. ज. °णे युधिष्ठिरेण पृष्टः कृ°।” ↩︎
-
" क. ‘यान्खड्गचर्नक° । ग. घ. छ. याखन्ड्गव्य ।” ↩︎
-
" घ. ‘हे तद्विधायोगाद्दि । " ↩︎
-
“२ घ. ‘ते ए’।” ↩︎
-
" घ. ज. ‘स्मात्सीतो ।” ↩︎
-
“घ. ज. सीतोदकं ।” ↩︎
-
" क. ख. ग. घ. छ. ‘म्भस्य मूलेऽनंद’ । " ↩︎
-
" घ. कोपमम् ।” ↩︎
-
" ज.मातासिता ।" ↩︎
-
" घ. तथा ।" ↩︎
-
" घ. पं ऋक्शा । " ↩︎
-
" क. च. नोकी का ।" ↩︎
-
“१ घ. ‘णा प्य प’ । " ↩︎
-
“ख ग घ. छ. तत्र । " ↩︎
-
“३ क. ग. ‘शादुत्सृ’ ।” ↩︎
-
“अ. ‘क्षेपास’ ।” ↩︎
-
" घ. वृद्धिक ।” ↩︎
-
" ख. छ. लभ्यते ।” ↩︎
-
“घ. वप्यन्त्यावयव ति।” ↩︎
-
“ख ग नाद्यति ।” ↩︎
-
" ग घ विधेः ।" ↩︎
-
“द्वौधायन सूत्रानुसारिमिर्व्दितीयदिने” ↩︎
-
" क. च. स्य या’ ।" ↩︎
-
" क ख ग घ. छ. इष्ट्या’ ।" ↩︎
-
“घ. ॰र्वोऽपि द्वं॰” ↩︎
-
" घ. प्रसवे ।" ↩︎
-
“च॰द्धं सग्रहे च कु॰” ↩︎
- ↩︎
-
" च प्रकुर्वन्ति ।" ↩︎
-
" क ख ग. ज. तात ।" ↩︎
-
“क्र. न. राक्षांणां ।” ↩︎
-
“‘र्गु मैत्रे’ ।” ↩︎
-
" ख. ग. छ. पुण्यदीपकाः । घ. पुण्यदीपिकाः ।" ↩︎
-
“घ. ‘णे भानो दि° ।” ↩︎
-
“घ. ‘सने तु त° ।” ↩︎
-
" क ख ग घ. छ पूर्वा २." ↩︎
-
“घ. सक्रमणे " ↩︎
-
" कि. ख ग घ छ. ‘का ति’ ।” ↩︎
-
" ग. घ. छ. भ्यां द्वाभ्यां द द" ↩︎
-
" क. ख. घ. च. छ. ज. ज. था श्राद्धं।" ↩︎
-
" घ. यात्मकत्वेन सा ।" ↩︎
-
" घ. ‘नषवनना’ ।" ↩︎
-
" घृतपाय ।" ↩︎
-
" घ. घ. ‘कस्य’ ।" ↩︎
-
“घ. मासानां।” ↩︎
-
“ख ग घ. छ. ज. कता।” ↩︎
-
“क, ख. ग. च. छ. ज. " ↩︎
-
“घ. कृष्णचतुर्दश्यां।” ↩︎
-
“घ.‘तिकी सिता’।” ↩︎
-
“घ. ढस्यापि नवमी मा।” ↩︎
-
" घ. पुस्तकेऽङ्कपाठः” ↩︎
-
“क, ख. घ. छ. ज. शक्तौ पञ्चम्यादि।” ↩︎
-
" छ. उदयदीर्ब।" ↩︎
-
“घ. तमोक्ते” ↩︎
-
“क ख ग घ. छ. ‘न वा क’।” ↩︎
-
“घ. दशमीं।” ↩︎
-
“घ. ‘शिकाख्य’।” ↩︎
-
“घ. संभवे।” ↩︎
-
“घ. ‘हावातेति ‘” ↩︎
-
“च ‘मगानार्त’।” ↩︎
-
“ज. भुक्त्वार्द्र।” ↩︎
-
“घ. ‘र्शनेन।” ↩︎
-
“क ख ग घ. छ. ‘नवैक’।” ↩︎
-
“घ. पुनरेव।” ↩︎
-
“क. ख. ग. घ. छ. ज. प्रदृप्तेन।” ↩︎
-
“ग. सग्रामे।” ↩︎
-
" घ. गुरुसंयुक्ता।" ↩︎
-
“‘नामेव शु’।” ↩︎
-
“घ ब्राह्मणं।” ↩︎