[[विधानमाला Source: EB]]
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आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थावलिः ।
ग्रन्थाङ्कः ८६
श्रीनृसिंहभट्टविरचिता
विधानमाला ।
एतत्पुस्तकं
वे० शा० रा० मारुलकरोपाह्वैःशंकरशास्त्रिभिः
संशोधितम् ।
तच्च
बी. ए. इत्युपपदधारिभिः
विनायक गणेश आपटे
इत्येतैः
पुण्याख्यपत्तने
आनन्दाश्रममुद्रणालये
आयसाक्षरैर्मुद्रयित्वा
प्रकाशितम् ।
शालिवाहनशकाब्दाः १८४२
ख्रिस्ताब्दाः १९२०
( अस्य सर्वेऽधिकारा राजशासनानुसारेण स्वायत्तीकृताः )
मूल्यं सपादरूपकचतुष्टयम् । ( ४+ १/४)
आदर्शपुस्तकोल्लेखपत्रिका।
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** अस्या विधानमालायाः पुस्तकानि यैः परहितैकपरतया संस्करणार्थं प्रदत्तानि तेषां नामानि पुस्तकानां संज्ञाश्चकृतज्ञतया प्रदर्श्यन्ते—**
(क.) इति संज्ञितम् - संपूर्णमानन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्थसंग्रहलयस्थम् ।
(ख.) इतिसंज्ञितम् - आठघरे , इत्युपाह्वानां पुण्यपत्तननिवासिनाम् , अप्पासाहेब इत्येतेषाम् ।
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॥ श्रीः ॥
अथ विधानमालास्थविषयानुक्रमणिका प्रदर्श्यते ।
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| विषयाः |
| मङ्गलाचरणम् |
| विधानशब्दव्याख्या |
| मालाशब्दव्याख्या |
| शास्त्रस्य मङ्गलपरत्वम् |
| धर्मार्थकामेति क्रमद्वन्द्वः |
| व्यवहारो द्विविधः |
| कर्मणां धर्मार्थकामपरत्वम् |
| नित्यादिभेदेन कर्मणामनन्तत्वम् |
| आकृत्यधिकरणपूर्वपक्षीयदृष्टान्तः |
| नित्यानि कर्माणि |
| नैमित्तिकानि कर्माणि |
| काम्यानि कर्माणि |
| नित्यकाम्यैकदेशानि |
| षट्संगतयः |
| पुष्पवतीविधानम् |
| विकृतप्रसवशान्तिविधानम् |
| षोडशोपचारपूजामन्त्रः |
| तत्र दानमन्त्रः |
| यममूर्तिप्रतिपादनमन्त्रः |
| यमलोत्पत्तिविधानम् |
| वाजिदानमन्त्रः |
| दस्रमूर्तिदानमन्त्रः |
| समाननक्षत्रजननविधानम् |
| तत्र मूर्तिदानमन्त्रः |
| मूलशान्तिविधानम् |
| तत्राभिषेकमन्त्राः |
| मूर्तिदानमन्त्रः |
| आश्लेषाविधानम् |
| गण्डान्तविधानम् |
| अथ होमः |
| तत्र मन्त्राः |
| अथ शतौषधयः |
| सूतिकास्तन्यवर्धनविधानम् |
| रेवतीग्रहदानमन्त्रः |
| बालग्रहपीडाशमनम् |
| बलिनिक्षेपमन्त्रः |
| विवृताक्षग्रहपीडाशमनम् |
| नवग्रहपीडाशमनविधानम् |
| बलिनिक्षेपमन्त्रः |
| वायसग्रहविधानम् |
| महाजिह्वाग्रहपीडाशमनवि° |
| क्षेत्रपालग्रहपीडाशमनविधानम् |
| हस्तिपादग्रहपीडाशमनवि° |
| कर्णग्रहपीडाशमनविधानम् |
| तोलग्रहपीडाशमनविधानम् |
| स्कन्दग्रहपीडाशमनविधानम् |
| स्कन्दापस्मारपीडाशमनवि° |
| मेषग्रहपीडाशमनविधानम् |
| शिशुग्रहपीडाशमनविधानम् |
| महापूतनाग्रहपीडाशमनविधानम् |
| रेवतीग्रहपीडाशमनविधानम् |
| ऊर्ध्वपूतनाग्रहपीडाशमनवि° |
| शकुनीग्रहपीडाशमनविधानम् |
| द्वितीयरेवतीग्रहपीडाशमनवि० |
| शुष्करेवतीग्रहपीडाशमनवि० |
| असत्पूतनाग्रहपीडाशमनवि० |
| गर्भिणीप्रथममासपीडाशमनवि० |
| प्रथममासि गर्भवेदनाहरमौषधम् |
| तथा क्रियाकालगुणोत्तरे |
| द्वितीयमासे गर्भरक्षार्थंदेयो बलिः |
| क्रियाकालगुणोत्तरे |
| द्वितीयमासे गर्भरक्षाकरमौषधम् |
| क्रियाकालगुणोत्तरे |
| तृतीयमासि गर्भवेदनायां बलिः |
| तृतीयमासि गर्भरक्षार्थमौषधम् |
| क्रियाकालगुणोत्तरे |
| चतुर्थमासि गर्भवेदनाहरमौषधं बलिश्च |
| पञ्चमे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थं बलिः |
| पञ्चमे मासि गर्भवेदनाहरमौषधम् |
| क्रियाकालगुणोत्तरे |
| षष्ठे मासे गर्भिणीगर्भरक्षार्थं बलिः |
| षष्ठेमासे गर्भवेदनाहरमौषधम् |
| सप्तमे मासि गर्भरक्षार्थंदेयो बलिः |
| सप्तमे मासे गर्भवेदनाहरमौषधम् |
| क्रियाकालगुणोत्तरे |
| अष्टमे मासि ससत्त्वमहिषीदानविधिः |
| अष्टमे मासे गर्भरथार्थं बलिः |
| अष्टमे मासे गर्भवेदनाहरमौषधम् |
| नवमे मासि गर्भरक्षार्थं बलिः |
| बलिस्वरूपमाह |
| बलिमन्त्रः |
| नवमे मासि गर्भवेदनाहरमौषधम् |
| क्रियाकालगुणोत्तरे |
| दशमे मासि गर्भरक्षार्थं देयो बलिः |
| बलिप्रकारमाह |
| तत्र मन्त्रः |
| दशमे मासि गर्भवेदनाहरमौषधम् |
| एकादशे मासि गर्भरक्षार्थंबलिः |
| एकादशे मासि गर्भवेदनाहरमौषधम् |
| द्वादशे मासे गर्भरक्षार्थं देयो बलिः |
| अथ सुखप्रसवोपायः |
| अन्यच्च |
| अन्यच्च |
| योनिलेपनमन्त्रः |
| लुब्धजातकोक्तानि बालरक्षोपयोगीनि द्वादश विधानानि |
| रुद्र उवाच |
| राक्षस्य ऊचुः |
| तत्र प्रार्थनामन्त्रः |
| पञ्च पल्लवाः |
| मोहिनीपीडाशमनविधानम् |
| सुनन्दापीडाशमनविधानम् |
| पूतनापीडाशमनविधानम् |
| आसुरीपीडाशमनविधानम् |
| रेवतीपीडाशमनविधानम् |
| शकुनीपीडाशमनविधानम् |
| पिशाचिकापीडाशमनवि० |
| पाशिनीपीडाशमनविधानम् |
| महामारीपीडाशमनविधानम् |
| कालिकापीडाशमनविधानम् |
| भामिनीपीडाशमनवि. |
| अथ वन्ध्याभिषेकविधानम् |
| ईश्वर उवाच |
| वन्ध्याभिषेककालः |
| अभिषेकस्थानानि |
| स्त्रीतिथिनियमः |
| स्नपनविधिः |
| पल्लवाः |
| अभिषेकमन्त्रः |
| घटिकास्नानम् |
| अथ रुद्रस्नानम् |
| देशग्रामाद्युद्भू्तमहाव्याधिपीडाशमनवि० |
| जनमारशान्तिः |
| ब्रह्मवैवर्ते |
| धेनुदानमन्त्रः |
| प्रार्थनामन्त्रः |
| गर्गवचनम् |
| हनुमत्पताकाविधानम् |
| गरुड उवाच |
| ब्रह्मोवाच |
| गर्गप्रोक्तगोशान्तिविधानम् |
| अथाश्वशान्तिः |
| गजमारशान्तिः |
| करभशान्तिविधानम् |
| खरशान्तिविधानम् |
| सारमेयशान्तिः |
| नक्षत्रशमनविधानम् |
| गृहारिष्टशमनविधानम् |
| अथ मणिकभङ्गविधानम् |
| पेषणीवरवर्तिभङ्गविधानम् |
| भाण्डोच्छ्रायपङ्किपातविघ्नहरं विधानम् |
| गृहतुलास्तम्भभङ्गजदोपहरं विधानम् |
| अग्निदग्धगृहपुनराधानम् |
| ग्रामारिष्टशमनविधानम् |
| वृक्षोद्भवारिष्टशमनविधानम् |
| कदलीदुष्टप्रसवविघ्नशमनवि० |
| निषिद्धतरुगृहप्ररोहविघ्नहरं वि० |
| स्वस्थारिष्टशमनविधानम् |
| यात्रारिष्टशमनविधानम् |
| भेकदुष्टरुतजनितविघ्नशमनविधानम् |
| कपोतशान्तिविधानम् |
| पल्लीसरटनिपातविघ्नहरं वि० |
| पल्लीपतनसरटप्ररोहणविघ्नहरं विधानम् |
| मार्जन्यादिदुष्टरजःस्पर्शजविघ्नहरं विधानम् |
| दीपोपप्लवकूष्माण्डभेदफलचौर्यविधानम् |
| नवदुर्गपूजनविधानम् |
| दुर्गदृढीकरणविधानम् |
| चतुरङ्गसैन्यदृढीकरणवि० |
| रणदीक्षाविधानम् |
| वीरविजयप्रदवीरकङ्कणवि० |
| अथ वीरपट्टविधानम् |
| सिन्दूरपट्टविधानम् |
| जयपट्टविधानम् |
| रणप्रवेशविधानम् |
| अथ षडङ्गन्यासः |
| षडक्षरमुद्रा |
| अथ रक्षाविधिः |
| अथ खण्डकम् |
| अथौषधयः |
| सर्वायुधनिवारणम् |
| रणतिलकविधानम् |
| अथ नवौषधयः |
| गुटिकाविधानम् |
| कपर्दिकाविधानम् |
| योगघटितशस्त्रपरक्षिप्तशस्त्रञोटनविधानम् |
| शस्त्रदारुणीकरणविधानम् |
| पिच्छविधानम् |
| त्र्यम्बकविधानम् |
| जयकाहलाविधानम् |
| आनद्धभाजनविधानम् |
| भस्मरेषाविधानम् |
| यमार्गलयन्त्रविधानम् |
| रिपुस्तम्भनविधानम् |
| वैरिविद्वेषणविधानम् |
| अथ मोहनविधानम् |
| संकीर्णविधानानि |
| स्त्रीसुखप्रसवविधानम् |
| चतुस्त्रिंशद्यन्त्रम् |
| क्षेत्रे शलभादिकीटनिवारणं चतुर्विंशतियन्त्रम् |
| छुरिकायुद्धविजयप्रदं द्विषष्टि- |
| यन्त्रम |
| ग्रहभूतपिशाचनिवरणं शतयन्त्रम् |
| अपुष्पापुष्करारकं द्वात्रिंशयन्त्रम् |
| अथर्वविद्द्योक्तमसुरीविधानम् |
| तत्र विधानविक्रमः |
| षडङ्गन्यासः |
| द्वितीयं वशीकरणम् |
| प्रदोषगर्जितविधानम् |
| अलक्षण्यालक्षण्यीकरणवि॰ |
| अर्कवृक्षविवाहविधानम् |
| प्रतिकुलविधानम् |
| वसन्तपुजाविधानम् |
| तत्र ध्यानविधिः |
| ततः स्तुतिः |
| आवाहनम् |
| श्रीरागध्यानम् |
| वसन्तध्यानम् |
| कुसुमाञ्चल्यर्पणम् |
| पञ्चमध्यानम् |
| भैरवध्यानम् |
| मेघरागध्यानम् |
| नटनारायणध्यानम् |
| ततः पूजा |
| कार्तिकदीपोत्सवविधानम् |
| तत्र मातान्तरम् |
| माघमासपुरानणोक्तं दीप्सप्तमीविधानम् |
| अथ होलिकाविधानम् |
| तत्र दीपनमन्त्रः |
| चैत्रशुद्धप्रतिपद्विधानानि |
| काकपिण्डपरीक्षाविधानम् |
| क्षिप्तधान्यपरीक्षाविधानम् |
| चैत्रशुद्धप्रतिपद्वायुपरीक्षाविधानम् |
| अन्यच्च |
| वत्सराधिपतिपूजाविधानम् |
| दमनकारोपणविधानम् |
| दमनकावाहनम् |
| दमकध्यानम् |
| तत्र विसर्जनमंत्रः |
| भावुकामहोत्सवविधानम् |
| तत्रविधानक्रमः |
| पुराणवचनात् |
| शीलाषष्ठीविधानम् |
| नागपञ्चमीविधानम् |
| पवित्रारोपणविधानम् |
| भाद्रपदे मासि गरुडपञ्चमीविधानम् |
| तत्र बीजमंत्रः |
| आश्विने मासि नवचण्डीविधानम् |
| तत्र कुमारीपूजानमंत्राः |
| नवदुर्गापूजनम् |
| नव विप्रनामधेयानि |
| अथ हयनमानि |
| इन्द्रमहोत्सवविधानम् |
| विजयादशमीविधानम् |
| शमीप्रार्थनामंन्त्रः |
| अश्मन्तकप्रार्थनामन्त्रः |
| नरकचतुर्दशीविधानम् |
| भ्रातृद्वितीयसहितबलीमहोत्सवविधानम् |
| तत्र नीराजनमन्त्राः |
| बलीमूर्तिदानमन्त्रः |
| संकीर्णविधानानि |
| शिवलिङ्गविधानम् |
| तत्र पौराणमन्त्राः |
| भूमिभेदविधानम् |
| पर्वतभेदविधानम् |
| मध्यरात्रे धेनुहुम्बारववि० |
| अथाश्वत्थपूजाविधानम् |
| तत्र प्रार्थनामन्त्राः |
| चातुर्विंशतिर्मूर्तयः |
| ब्रम्हचारिनिधनविधानम् |
| कुष्ठिमरणविधानम् |
| नारायणीयवलिप्रवृत्तिवि. |
| यतिमरणविधानम् |
| गोदावर्यां गङ्गाशब्दो यथा |
| अथ भृगुपातविधानम् |
| तत्र विधिमाह |
| प्रार्थानामन्त्रः |
| तत्र पातानाह |
| अथाग्निप्रवेशविधानम् |
| तत्र क्रमेणानुगमनविशेषः |
| पातलक्षणान्याह |
| काष्ठनिपेवणविधानम् |
| हरिकथाश्रवणविधानम् |
| भारतश्रवणविधानम् |
| हरिवंशश्रवणविधानम् |
| श्रीमद्भागवतश्रवणविधानम् |
| रामायणश्रवणविधानम् |
| वासिष्ठश्रवणविधानम् |
| काशीखण्डश्रवणविधानम् |
| ब्राह्मत्रयश्रवणविधानम् |
| कालिकापुराणश्रवणवि० |
| माघमाहात्म्यश्रवणविधानम् |
| नानापुराणश्रवणविधानम् |
| वेदपारायणविधानम् |
| विनायकपूजाविधानम् |
| नवग्रहमखविधानम् |
| वसिष्ठोक्तनवग्रहमखवि० |
| कुण्डलक्षणं वर्णभेदेन कुण्डमानं च |
| कुण्डखननपरीक्षा |
| आचार्यादिऋत्विग्वरणम् |
| अग्निनामानि वक्ष्ये |
| अग्निनामाज्ञाने होमवैफल्यंग्रहमण्डलानि च |
| आदित्यादिनवग्रहस्थापनम् |
| अधिदेवताप्रत्यधिदेवतास्थापनम् |
| गणनाथादीनां स्थापनम् |
| वासुक्यादिनागपूजनम् |
| अश्विन्यादीनां पूजनम् |
| योगकरणपूजनम् |
| गङ्गादिसवर्सरित्पूजनम् |
| सप्तसागरपूजनम् |
| पर्वतपूजनम् |
| ऋषिपूजनम् |
| लोकपालपूजनम् |
| ग्रहभेदेन कुङ्कुमादि |
| ग्रहभेदेन पुष्पधूपदीपनैवेद्यफलानि |
| ग्रहाणां होममन्त्राः |
| अर्कादिसमिधः |
| हवने नियमाः |
| होमसंख्या |
| प्रथयोद्गतज्वालावर्णफलम् |
| स्रुक्स्रुवयोर्लक्षणम् |
| ग्रहाणां वर्णगोत्रदेशतिथिनक्षत्रकथनम् |
| अथ संकल्पः |
| आचार्यादीनां पूजनम् |
| ग्रहदानानि |
| अभिषेके पौराणमन्त्राः |
| सिंहस्थे सूर्ये गोप्रसवविघ्नहरविधानम् |
| अनवरतस्वेदनयनस्रुतिकाकमैथुन० |
| काकश्येनादिदुष्टपक्षिस्पर्शे विधानम् |
| जन्ममासादिपूजाविधानम् |
| सप्त धान्यान्याह |
| मातङ्गिनीपूजाविधानम् |
| उदक्यासूतिकाशुद्धिविधानम् |
| विरजयात्राविधानम् |
| यात्रानियमः |
| यात्रानिर्गममन्त्रः |
| आदित्यवार उदुम्बरयात्राविधानम् |
| शूर्पवायनदानमन्त्रः |
| वस्त्रादिसमर्पणमन्त्रः |
| मेषौर्णपट्टदानमन्त्रौ |
| विरजाम्भःपानमन्त्रः |
| अर्धोदयव्रतविधानम् |
| नियमस्वीकारमन्त्राः |
| आदौ ब्रह्मपूजा |
| तत्र प्रार्थनामन्त्रः |
| अथ महेश्वरपूजा |
| तत्र प्रार्थनामन्त्रः |
| अथ व्रताङ्गहोमविधिः |
| कपिलाषष्ठीविधानम् |
| सिंहस्थे गुरौ गुरुपूजायुतं गोदावरीयात्रावि० |
| मोक्षतीर्थपञ्चकम् |
| ब्रह्महत्याविनाशनं तीर्थम् |
| काशीसमं प्रतिष्ठानाख्यं तीर्थम् |
| गोदावरीदर्शने जाते मन्त्रः |
| प्रणिपातमन्त्रः |
| तीर्थे विधिः |
| अथ बृहस्पतिपूजनम् |
| गौतमीप्रार्थनम् |
| गोदावरीयायिनां नराणां प्रशंसा |
| कन्यागते गुरौ श्रीशैलयात्राविधानम् |
| कार्तिकेयदर्शनविधानम् |
| कमण्डल्वादीनामर्पणमन्त्राः |
| ब्रह्मकूर्चविधानम् |
| ब्रह्मकूर्चलक्षणम् |
| बालकस्योर्ध्वदन्तोद्गमजविघ्नभङ्गवि० |
| महानदीमहापूरभङ्गविधानम् |
| बालकस्य माससंवत्सरवृद्धिवि० |
| अथ मृत्युंजयविधानम् |
| अथ रुद्रानुष्ठानम् |
| वृक्षारोपणविधानम् |
| वृक्षादीनां षड्विधोत्पत्तिः |
| अश्वत्थजातौ वर्णचतुष्टयम् |
| वल्लीविषये विशेषमाह |
| वृक्षोद्यापनविधानम् |
| वटोद्यापनम् |
| तडागादिजलाशयोद्यापनविधानम् |
| जलाशयानां लक्षणानि |
| अथ प्रपाविधानम् |
| अन्नसत्रविधानम् |
| दत्तकपुत्रविधानम् |
| सपिण्डेषु दत्तकः कर्तव्यः |
| तदभावेऽसपिण्डस्थोऽपि |
| ग्रहणसूतकदोषदूषितौषधमन्त्रदृढीकरणवि० |
| अनृतमृतवार्तापरिहरणविधानम् |
| चर्मपात्रशुद्धिविधानम् |
| शिवपूजाविधानम् |
| वृषोत्सर्गविधानम् |
| तत्र विधानक्रमः |
| नारायणबलिविधानम् |
| नागबलिविधानम् |
| अस्थिपुरुषीकरणविधानम् |
| अस्थ्यभावे पालाशविधानम् |
| अथाष्ट महादानानि |
| प्रेतकर्मणि दुष्टकालविवरणम् |
| शास्त्रवीक्षाविधानम् |
| शकुनशास्त्रावलोकनविधानम् |
| सप्तशतीशकुनप्रेक्षणविधानम् |
| श्रीभागवतशकुनावलोकनम् |
| रघुवंशशकुनावलोकनम् |
| उपश्रुतिविधानम् |
| त्रिपुष्करादियोगजविघ्नभङ्गविधानम् |
| ग्रहणवेधदोषहरं विधानम् |
| दाहादिदोषदुष्टवस्त्रदोषहरं विधानम् |
| आस्तीकमते सर्पदष्टापमृत्युहरं विधानम् |
| नव नागाः |
| अभिषेके पौराणमन्त्राः |
| मन्त्रोपदेशविधानम् |
| ब्रह्मयामलोक्तं प्रासादोद्यापनविधानम् |
| प्रासादकलशन्यासविधानम् |
| वास्तुपूजाविधानम् |
| प्रासादवास्तुपूजाविधानम् |
| गृहवास्तुपूजाविधानम् |
| वास्तुमण्डलदेवताः |
| दुष्टस्थानगतादित्यपूजावि० |
| तत्र पूजाविधानम् |
| चन्द्रपूजाविधानम् |
| मङ्गलपूजाविधानम् |
| बुधपूजाविधानम् |
| गुरुपूजाविधानम् |
| शुक्रपूजाविधानम् |
| शनैश्चरपूजाविधानम् |
| रोहिणीशकटभेदविधानम् |
| शनिस्तोत्रम् |
| राहुपूजाविधानम् |
| अथ केतुपूजाविधानम् |
| अथ तुलापुरुषविधानम् |
| विष्णुश्राद्धविधानम् |
| दिव्यमातृकाविधानम् |
| धर्मचीरिकाविधानम् |
| स्थालीपाकादिहोमकुण्डलक्षणानि |
| अथ विशेषकुण्डानि |
| अङ्गुललक्षणम् |
| मेखलालक्षणम् |
| मानाधिक्यन्यूनत्वफलम् |
| अन्नहीनहोमस्य फलम् |
| द्रव्यहीनहोमस्य फलम् |
| मन्त्रहीनहोमफलम् |
| होमद्रव्यहीनहोमफलम् |
| ब्राह्मणलक्षणम् |
| होममुद्राः |
| द्रव्यहोमे विशेषः |
| अथ स्रुवधारणलक्षणम् |
| आहुतिविभागलक्षणम् |
| वर्णेषु कुण्डविशेषः |
| तत्रौष्ठकण्ठविशेषमाह |
| देवयोनिलक्षणम् |
| अन्यच्च |
| विवाहव्रतबन्धमध्ये मातृरजोदोषे |
| सप्त जिह्वानामान्याह |
| सप्त जिह्वास्तुतिमन्त्राः पौराणाः |
| मञ्चकदानमन्त्रः |
| अथ पुण्याहवाचनम् |
| दुष्टप्रसवदोषहरं विधानम् |
| निषिद्धाभ्यङ्गदोषहरं विधानम् |
| निषिद्धवारेऽभ्यङ्गे दोषहराणि द्रव्याणि |
| कृष्णचतुर्दशीप्रसूतिदोषहरं वि० |
| अमाप्रसूतिदोषहरं विधानम् |
| नष्टानन्तदोरकविघ्नहरं वि० |
इति विधानमालास्थविषयानुक्रमणिका समाप्तिमगात्।
____________________
ॐतत्सद्ब्रह्मणे नमः।
विधानमाला
श्रीनृसिंहभट्टविरचिता।
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यो धात्वन्तरशास्त्रमर्मचतुरः कारुण्यरत्नाकरः
सौजन्यामृतपूर्णमानससरिच्छ्रीशंभुचित्तः सदा।
भूपालालिकलालनीयचरणद्वन्द्वस्व सूनुर्हरे–
र्भूविस्तारियशाः सदा जयति स श्रीविश्वनाथः सुधीः ॥१॥
प्रणम्य लम्बोदरमुत्तमानां संतोषदां सर्वपुराणदृष्टाम्।
धर्मार्थकामव्यवहारसिद्ध्यै करोमि शुद्धार्थविधानमालाम् ॥२॥
विधानमालेति ग्रन्थनामधेयम्। तच्चान्वर्थम्। विधानानां मालेव माला परम्परेत्यर्थः। विधानं विधिः। यद्यपि विधानशब्दे ‘करणाधिकरणयोश्च’ [ पा० सू० ३। ३। ११७ ] ‘कृत्यल्युटो बहुलम्’ [ पा० सू० ३। ३। ११३ ] ‘भावे च’ [ पा० सू० ४। ४। १४४ ] इत्यादिष्वर्थेषु ल्युट् स्मर्यते। तथैव ‘उपसर्गे घोः किः’ [ पा० सू० ३। ३। ९२ ] ‘कर्मण्यधिकरणे च’ [ पा० सू०३।३।९३ ] इत्यादिष्वर्थेषु किरपि स्मर्यते। ततश्च विधानविधिशब्दयोः सर्वार्थविषये पर्यायत्वे संभवति तथाऽप्यत्र भावार्थ1 एव ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’ [ बृ०३। ९।२८] इतिवत्। नैयायिकाभिमतप्रकृतिप्रत्ययार्थकल्पनातः कल्पनान्तरत्वेन गौरव तथा वेदान्तिभिर्ल्युड्भाव2 एवाङ्गीकृतोऽसंभवाभावात्। यथा सति संभवे ‘उद्भिदा यजेत’ इत्यादौ सामानाधिकरण्यं निर्वोढुं पूर्वपक्षिणा मत्वर्थलक्षणाऽऽश्रिता। सिद्धान्तिना तूद्भिनत्ति पशुफलमिति खनित्रवदवयवव्युत्पत्तिपरित्यागेन लक्षणामनाश्रित्यापि बलिभिदादि कर्मान्तरव्यवच्छेदकनामधेयपक्षाङ्गीकारेण सामानाधिकरण्यमाश्रितम्। ‘सोमेन यजेत’ इत्यादौ तु ‘अग्निहोत्रं जुहोति’ ‘दघ्ना जुहोति’ इतिवत्पृथगुत्पत्तिवाक्याभावाद्यागं विधायागत्या3तस्मिन्नेव वाक्ये सोमोऽपि विधीयते। तथा ‘अक्षरमम्बरान्तधृतेः ’ [व्र० सू० १।३।१०] इतिन्यायेनाक्षरादिषु रूढिं
परित्यज्यापि न क्षरतीत्यक्षरमित्यवयवप्रसिद्धिरङ्गी क्रियत इति5 तत्र गौरवमेव न्याय्यम्। अत्र तु लाघवेनैव चरितार्थत्वाद्गौरवमन्याय्यम्।यथा महागिरिमहोदधिसहितस्य महाक्षितिलक्षणस्य कार्यस्यैकस्मिन्स्रष्टरि पातरि संहर्तरीश्वरे संभवत्यनेकेश्वरकल्पनायां गौरवस्यान्याय्यत्वाल्लाघवमेव युक्तम्। अतो विधानशब्दे ल्युट्प्रत्ययस्यैव भावार्थत्वान्न करणाद्यर्थपरत्वम्। विधानशब्दो व्याख्यात इदानीं विधानमालाशब्दे समासैकदेशभूतो मालाशब्दो व्याख्यायते। विधानानां माला विधानमाला। ग्रथितानेकद्रव्यसमुदायो मालाशब्देनोच्यते। पुष्पमाला कण्ठमालेत्यादिप्रसिद्धेः। अनेकेषां विधानानां व्यापाररूपत्वेन क्षणिकत्वाद्विधानसंबन्धिमालानुपपत्तेः प्रतिज्ञादोषश्च। अतः केवलावयवशब्दस्य मुख्यार्थासंभवेनावयवा इवावयवा इतिवदुपमेयत्वेन मालेव मालेति व्युत्पाद्य समासः कर्तव्यः। मालेव मालेति व्याख्याने विजातीयत्वाभावादेकस्यैव पदार्थस्योपमानोपमेयत्वाभावः। घट इव घटः, पट इव पट इति तद्विरोधात्। सत्यम्। तथाऽपि मालेव मालेत्यत्र यथा ‘श्येनेनाभिचरन्यजेत’ इत्यत्र श्येनशब्दस्य गुणपरत्वाङ्गीकारेण मत्वर्थलक्षणाभयाच्छे्यनशब्दस्य नामधेयपरत्वेन सिद्धान्तिनाऽऽश्रिता वत्यर्थलक्षणा।तत्र पूर्वपक्षिणा वत्यर्थलक्षणाया मत्वर्थलक्षणातो बलीयस्त्वेनैकस्यैवोपमानोपमेयत्वाभावेन च नामधेयपक्षस्य दुर्बलत्व आशङ्किते पुनः सिद्धान्तिना वचनव्यक्तिसमये लक्षणामात्राश्रयणाभावेनाधिकदोषाभावः समार्थि। किं चैकस्योपमानोपमेयभावो ‘गगनं गगनाकारम्’ इतिवद् घटते तद्वन्मालेव मालेत्युपपद्यते। इति विधानमालाशब्दसमर्थनं यथाकथंचित्कृतं परं तु विधानशब्दार्थस्य करोत्यर्थस्य सर्वत्र चैकरूपत्वान्मालाया अनुपपत्तितो विधानमालाशब्दार्थोऽघटमानोऽप्यनेकद्रव्यदेवतादिकरणसंप्रदानादिकारकसंबन्धभेदाद्विधानानेकत्वस्योपपत्तेश्चोपपद्यते। तर्ह्यस्मिन्ग्रन्थे साध्यसाधनेतिकर्तव्यतानिरूपणत्रयाणामपि भेदानां विधानशब्दवाच्यत्वे कथं भावार्थ एव ल्युडिति निश्चयः कृतः। सत्यम्। परं तु साधनादीनां कारकाणां क्रियां प्रति प्राधान्यात् पृथक्त्वेन प्रत्येकं विधानशब्दापेक्षा नोररी क्रियते। कर्मण ईप्सिततमत्वात् क्रियापेक्षयाऽप्युद्देश्यत्वेन प्रधानत्वात्कर्मणि ल्युट्प्रत्यये संभवति भावार्थ एव ल्युडिति निश्चयः कथं संपद्यत इति चेत्सत्यम्। कर्मणोऽप्यंशद्वयेन प्राधान्याप्राधान्ये, उद्देश्यत्वेन प्रधानत्वमुपयोगित्वेन कारकत्वादप्रधानत्वम्। तेनाऽऽकारेण कर्मणि कारकशब्दप्रवृत्तिः पट् कारकाणीति नियमः। तस्मादपि भावार्थ–
नियमो घटते। सतीष्वन्यासु विधानमालासु किमर्थमियं विरच्यते। यतः सर्वपुराणदृष्टामिति। अत्र पुराणशब्दो रूढिं परित्यज्य’आचारात्स्मृतिर्बलीयसी’ इत्यनेन न्यायेनावयवप्रसिद्धया वेदतदङ्गोपाङ्गस्मृतीतिहासादिषु6 शास्त्रेषु प्रवृत्तः। यद्यपि7 पुराणेषु न दृश्यते तथाऽपि सर्वेषुमिलितेषु दृष्टामिति सर्वप8दसार्थक्यम्। तर्हीशुद्धार्थविधानमालामिति पदस्य पद्ये दृष्टत्वात्कथंविधानमालेत्येव व्याख्यानम्। नायं दोषः। शुद्धार्थेति पद्मे पदस्यासंक्रान्तः(?) समासीभूतस्यापि शुद्धार्थशब्दस्येतरविशेषणापेक्षयाऽत्यन्तान्तरङ्गविशेषणप्रतिपादनत्वविज्ञापनार्थंसमशित्वम् (समर्थितम्)(?)। किं चानेकेष्वपि निबन्धनेष्वेवं दृश्यते संक्षिप्तयुक्त्यन्विततर्कभाषेतिवत्। संतोषदामित्यनेन स्वगुणसामग्र्यानिर्दोषरसनानां शर्करामिव9संतोषदात्रीमित्यर्थः। असूयकायानृजवेजनायेत्यनेन हेतुनैतद्विपरीतेभ्यो ब्रूयादिति तात्पर्यतो येऽनसूयका ऋजवः, यतस्ते सन्तस्तेषां संतोषदाम्। अथ वा गुणदोषौ निरीक्ष्य दोषप्रहाणं कृत्वाये गुर्वादयो वृद्धागुणदृष्टयस्ते परोक्षमपरोक्षं वासर्वेैर्ज्ञायमानत्वात्सन्तीति सन्तस्तेषां संतोषदामिति। कश्चिदपि पापीयान् ‘अग्निहोत्रं जुहुयात्’इति ‘स्वमांसं भक्षयेत्’इतिवत्संतोषदां संतोषच्छेत्रीमिति व्याख्यायात्तर्हिस्वर्गकामेण भीमांसकेन श्रेयसीयसा अग्नौ हूयते यस्मिन् होमे सोऽग्निहोत्रनामधेयो होम इति होमविशेषः समर्थितो यथा तथा शुद्धार्थादिशब्दसंनिधानाद्धरिं वन्दे विष्णुं वन्दे न तु दर्दुरमित्यर्थादेव ‘तां पार्वतीत्याभिजनेन नम्नाबन्धुप्रियां बन्धुजनोजुहाव’ इत्यत्र ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे चेत्यर्थद्वये संभवत्यपि प्रथमातिक्रमे कारणाभावादिति न्यायेन स्पर्धार्थत्वेनिश्चितेऽपि बन्धुप्रियामित्यादिसंनिहितार्थबलेनेह ‘उपव्हये श्रियम्’ इत्यत्र च गन्धद्वारारामित्याद्यर्थसंनिधानेनैव शब्दार्थता। अतो हरिं जुहावोपव्हयेपदवत् संतोषवितरणशीलामिति घोरर्पणपरत्वम्। एवंविधे ग्रन्थग्रन्थने को हेतुरिति प्रश्ने प्रणम्य लम्बोदरमित्युत्तरम्। लम्बोदरमितिलक्षितेन तृप्तत्वेन शास्त्रस्यमङ्गलपरत्वं ज्ञाप्यते। मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपु रुषाणि भवन्त्यायुष्मत्पुरुषाणि चेति महाभाष्यकारेणोक्तम्।‘अथ शब्दानुशासनम्’ इत्यत्राथशब्दस्य मङ्गलार्थत्वमानन्तर्यार्थत्वं वेति संदेहे ‘अथातो धर्मंव्याख्यास्यामः’ इत्यत्र धर्मशब्दे मङ्गलार्थे संभवति पुनरप्यथशब्दस्य मङ्गलान्यानन्तर्यार्थत्वंविशेषकैः सूत्रकारकायमनोवाक्कृतनमस्कारापेक्षया प्रणम्येत्यादौ नमस्कारग्रन्थेभाष्यत्वप्रदर्शनसमय आनन्तर्यार्थत्वं
दर्शितम्।‘अथ शब्दानुशासनम्’ इत्यत्रापि परमेश्वरं प्रति सूत्रकारकृतनस्कारापेक्षयाऽऽनन्तर्यंकस्मान्न भवेदित्याक्षिप्त उत्तरम्। अत्र भाष्यकारीयोऽथशब्दः सौत्रवृद्धिपदोपलक्ष्यमङ्गलार्थकएव। तर्हिनमस्काराकरणेऽशिष्ठत्वापत्तावुत्तरयति। येनाक्षरसमाम्नायेति प्रणिपातेनैव ‘अइउण्’ इत्यादिचतुर्दशसूत्रीलक्षिताक्षरसमाम्नायः सूत्रकारेण पूर्वमेवोपलब्धः। पश्चारस्वकृत्यापेक्षया ‘वृद्धिरादैच्’ इत्यत्र नमस्कारापेक्षायामतिच्छान्दसत्वंमा भूदिति तदा नमस्कारो न कृत इति ज्ञायते।अथ वा नमस्कारोद्देश्ये परमेश्वरप्रसादे जाते पुनर्नमस्कारानुपपत्तेः। तस्मात्तत्रार्थो वर्ण्यतेयत्रेति न्यायेन मङ्गलार्थसौत्रपदव्याख्यापरस्याथशब्दस्य भाष्यत्वं पुनरप्याक्षेपपूर्वंसमाधत्ते। वृद्धिशब्देन साक्षान्मङ्गलार्थंउच्यते। कथं भाष्यकारेणासंदिग्धशब्दस्य शुद्ध्यर्थस्य संदिग्धार्थेनाथशब्देन व्याख्यानं क्रियते।अपुर्वमेतदाश्चर्यं यद्भाष्यव्याख्यानमेव दुर्घटम्। अत्रोत्तरम्।यद्यपि वृद्धिशब्दस्य साक्षान्मङ्गलपरता तथाऽपि संज्ञानिरूपकत्वेनान्यपरत्वमयुक्तम्।अन्यायश्चानेकार्थत्वमितिन्यायात्। अक्षपादमालादिषु त्वगत्याऽनेकार्थत्वमङ्गी क्रियते।अत्र तु गत्यन्तरभावादनेकार्थताऽयुक्ता। अत्र समाधत्ते। यद्यपि संज्ञानिरूपकत्वेन वृद्धिशब्दः संज्ञाशब्द। ‘लध्वर्थंहि संज्ञाकरणम्’ इति न्यायेन स शब्दः सर्वत्राऽऽदैचौप्रतिपादयन्नपि मङ्गलार्थोऽपि युज्यते।अत्रहेतुमुपन्यस्यति। सर्वत्र ‘अदेङ्गुणः’ [ पा० सू० १।१।२ ] ‘हलोऽनन्तराःसंयोगः’[पा०सू०१।१। ७] इत्यादौ संज्ञासूत्रप्रगाथे संज्ञिनिरूपणानन्तरं संज्ञानिरूपणम्। अत्रतु व्यतिक्रमेण, कारणमेतदेव यन्मङ्गलादिना शास्त्रेण भवितव्यमितिसुतरां वृद्धिशब्दस्य मङ्गलार्थत्वेदुर्घटतद्व्याख्यानपरतयाऽथशब्दस्य तदपेक्षया सुगमत्वम्।‘अपृक्त एकाल्प्रत्ययः’[पा०सू०१।२।४१] इत्यत्र सूत्रकारस्यानामधेयत्वंसंभाव्यते। ग्रन्थारम्भे त्वनामधेयत्वाभावाद्व्यतिक्रमलिङ्गेन मङ्गलार्थत्वम्। तद्वदेवलम्बोदरमिति मङ्गलपरपदम्। मङ्गलाचरणं चाऽऽरब्धंकार्यपरिपन्थिविघ्नविनाशार्थम्।‘लम्बोदरश्च’ विघ्ननाशो **गणाधिपः’**इति ‘द्वादशैतानि’ इति ‘विद्यारम्भे विवाहे’इति ‘विघ्नस्तस्य न जायते’इति च विघ्नविनाशकं लम्बोदरइति नामधेयम्। तस्मादादौ मङ्गलार्थमेव प्रयुक्तम्।आक्षिपति—प्रणम्यपदस्य ग्रन्थारम्भे विद्यमानत्वात्कथं लम्बोदरमित्यत्र मङ्गलादित्वम्। सत्यम्। परं तु नमस्काराचरणानन्तरं नमस्कार्यनामधेयलक्षिततृप्तिगुणसंभावनया मङ्गलादित्वमेव। अभिधेयं सप्रयोजनमाह—‘धर्मार्थकामव्यवहारसिद्धयै’इति। ‘तादर्थ्ये चतुर्थी’इति न्यायेन प्रयोजनं
कथ्यते । यथा काव्यप्रकाशे ‘काव्यं यशसेऽर्थकृते’ इति । यदुद्दिश्य प्रवर्तते पुरुषस्तत्प्रयोजनं यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत्प्रयोजनम् । ‘यद्वृत्तयोगः प्राथम्यम्’इत्याद्युद्देशलक्षणमिति । धर्मं वाऽर्थं कामं वोद्दिश्य पुरुषः प्रवृत्तो दृश्यते । तस्माद्धर्मार्थकामानां प्रयोजनरूपत्वम् । यद्यपि ‘धर्मादिष्वनियम इष्यते’ इतीष्टिरस्ति तथाऽपि कृच्छ्रादिजन्यस्यधर्मस्यानपेक्षितार्थस्यानन्याधीनत्वात्प्राथम्यमितीष्टिस्त्वर्थकामविषया भवेत् । तदर्थकामपरपुरुषापेक्षया वस्तुवृत्त्याऽर्थस्यैव धर्मानन्तर्यम् । अर्थानर्थयोः कामाकामयोर्धर्माधर्ममूलत्वे समाने कथमर्थस्यैवधर्मानन्तर्यम् । सत्यम् । तथाऽपि, अर्थस्तु केवलं कामवद्धर्मस्य कार्यमेवेति नास्ति । धर्मं प्रत्यपि10 कारणत्वेन दृष्टत्वात् । तस्माद्धर्मार्थकामेति क्रमद्वन्द्वोघटते । एषां त्रयाणां व्यवहारः प्रवृत्तिलक्षणस्तस्य सिद्धयै प्राप्त्यै । स चप्रवृत्तिलक्षणो व्यवहारः क्वचिद्रागतः । क्वचिदागमतः । तत्र शास्त्रविरोधेगुडशर्करादिभक्षणादौ ’ अनिषिद्धसुखत्यागी पशुरेव ’ इति न्यायेन रागजोऽपि व्यवहारो न दुष्टः । शास्त्रविरोधे तु पलाण्डुगृञ्जनादिभक्षणादौ रागजो दुष्ट एव ।अत्र त्वागमतो यो व्यवहारस्तस्यैव सिद्धया इत्यर्थः । एकानि कर्माणि केवलंधर्मपराणि पुराणश्रवणादीनि । एकान्यर्थपराणि गजाश्वादिशान्त्यादीनि । एकानि कामपराणि विजयादशमीबलिदिनविधानादीनि।एतेषामेवानन्तभेदभिन्नत्वान्नित्यनैमित्तिककाम्यकाम्यैकदेशनित्यनित्यैकदेशकाम्यनैमित्तिकनित्यनैमित्तिकनित्यनैमित्तिकैकदेशनित्यनित्यैकदेशनैमित्तिकनैमित्तिककाम्यकाम्यनैमित्तिकनैमित्तिकैकदेशकाम्यकाम्यैकदेशनैमित्तिकनित्यनैमित्तिकैकदेशनित्यकाम्यादिद्वारा कर्मणामनन्तत्वम् \। यथाऽऽकृत्यधिकरणपूर्वपक्षसमये किं जातिर्वाच्या व्यक्तिर्वोभयसंबन्धः समुदयो वा लिङ्गं कारकं वा संख्या वा व्यक्तिविशिष्टा जातिर्वा जातिविशिष्टा व्यक्तिर्वा जातिसंबन्धो वा जातिसमुदायोवाजातिविशिष्टः संबन्धो वा संबन्धविशिष्टा जातिर्वा जातिविशिष्टसमुदायोवासमुदायविशिष्टा जातिर्वा जातिविशिष्टं कारकं कारकविशिष्टा जातिर्वाजातिविशिष्टा संख्या वा संख्याविशिष्टा जातिर्वा जातिविशिष्टं लिङ्गं वालिङ्गविशिष्टा जातिर्वेतीत्यादिपक्षाणामनन्तत्वम् । एते पक्षा अनन्तत्वेदृष्टान्तिता नोपयोगित्वे सिद्धान्ते जातेरेवाभिधेयत्वादितरेषामुपलक्षणीयत्वात् ।दार्ष्टान्तिकपक्षाणामपि शास्त्रबलेन सूक्ष्मदृष्ट्या संभवादुपयोगित्वम् ।तत्र च नित्यानि ‘यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात्’ इत्यादीनि । नैमित्तिकानि‘भिन्ने जुहोति’‘स्कन्ने जुहोति’ इत्यादीनि । काम्यानि ‘ज्योतिष्टोमेन
स्वर्गकामो यजेत’इत्यादीनि। जन्माष्टम्यादीनि नित्यकाम्यैकदेशानि, अकरणे प्रत्यवायश्रवणात्फलश्रवणाच्च। एवमनन्तत्वात्कर्मणां प्रज्ञाबलेन स्वयमेवोह्यत्वम्। येषां प्रतिपादकवाक्ये कामिपदसंबन्धस्तानि काम्यान्येव। येषामकरणे प्रत्यवायस्तानि नित्यान्येव। येषां नियतदेशकालत्वाभावस्तानि ग्रहणादीनि नैमित्तिकान्येव। पुत्रजन्मसमयेऽनुष्ठियमानानि तानि नैमित्तिककाम्यानि। काम्यनित्यैकदेशान्यपरपक्षश्राद्धादीन्येवं कर्मणामनन्तत्वम्। एतेष्वेव शान्तिकपौष्टिकसंज्ञकानि तानि विशेषतो निरूप्यन्ते। गर्भाधानादीनामनिरूपणे कारणमाह। गृह्यसूत्रादिग्रन्थेषु ग्रथितत्वान्निरूपणे वृथोक्तिलक्षणो दोष एव न गुणः। तस्माच्छान्तिकपौष्टिकानि प्रत्येकं वर्णोपयोगीनि संकरजोपयोगीनि सर्वजनचमत्कारकाणीति कर्माणि निरूप्यन्ते। करोमीति प्रकृतिप्रत्ययार्थयोर्मध्ये प्रत्ययार्थस्य प्रधानत्वात्। भावनारूपत्वे च क्रियमाणत्वं मालाया एव तस्मादित्युपलभ्यते। यथा पुष्पमालाग्रन्थितुर्मालामेव प्रति कर्तृत्वम्। न च पुष्पाणि प्रत्येवं ममानेकशास्त्रदृष्टग्रन्थसंग्रहकर्त्तृत्वमेव न तु ग्रन्थकर्तृत्वमेषां ग्रन्थानां पौरुषेयाणां महर्षिभिर्ग्रथितत्वात्।अपौरुषेयाणां तु काकथा। अन्यथा विश्वादर्शादिवत् प्रतिकुञ्चकानि भवेयुः। यद्यार्षाण्यपि मदीयानीति योऽभिदध्यात् तेन मूर्खवद्गोत्रप्रश्नोत्तरवत्स्ववचनविघात एव कृतः स्यात्।तस्माद्वयं धर्मसंग्रहकारा एव। तत्राप्यसंगतसंगतिकाराः। ताश्च संगतयःषट्–आक्षेपिकी, आपवादिकी, प्रत्युदाहरणलक्षणा, बुद्धिस्थानलक्षणा, आतिदेशिकी, प्रासङ्गिकी चेति। इमाः स्वविषयपरा यथायथमुपयोज्यन्त इति तात्पर्यार्थपरिशुद्धिः सर्वत्र ज्ञातव्या।
तत्राऽऽदौ पुष्पवतीविधानं निरूप्यते।
प्रथमर्तौ दृश्यमानं रजः साध्वसाध्विति विविच्यासाधुनः प्रतिकारः कथ्यते वराहपुराणात्—
प्रथमर्तौद्वितीये वा शुभाशुभनिरीक्षणम्।
कर्तव्यं ज्ञातृभिः11 सम्यग्धर्मशास्त्रविचारतः॥१॥
शुभाय श्वेतवस्त्राढ्या रोगिणी रक्तवाससा।
नीलाम्बरधरा नारी विधवा जायते ध्रुवम्॥२॥
भोगिनी पीतवस्त्रा च दृढवस्त्रा पतिव्रता।
दुर्भगा शीर्णवस्त्रा च सुभगा क्षौमवस्त्रिणी॥३॥
आलोहिते भवेद्वन्ध्या श्वेतवर्णे च पुत्रिणी।
कृष्णे न (तु) विधवा नारी रजस्ये पुत्र (वं तु ) लक्षणम्॥४॥
ऊढा संवत्सरार्धे च मासे पक्षे तथा खलु।
रजस्तु दृश्यते स्त्रीणां सर्वदैवाशुभावहम्12॥५॥
चैत्रे मासि विशेषेण वैधव्यं लभते ध्रुवम्।
वैशाखे बहुपुत्रा स्याज्ज्येष्ठे रोगावृता भवेत्॥६॥
आषाढे मृत्प्रजा *13 प्रोक्ता श्रावणे धनिनी भवेत्।
भाद्रे तु दुर्भगा क्लीबाह्याश्विने च तपस्विनी॥ ७॥
कार्तिके निर्धना बाला मार्गशीर्षे बहुप्रजा।
पौषेस्यात्पौंश्चली नारी माघे पुत्रसुखान्विता॥८॥
फाल्गुने सर्वसंपन्ना प्रथमर्तुफलं स्मृतम्।
आदित्ये विधवा नारी सोमे दैन्यमवाप्नुयात्॥९॥
मङ्गले ह्यात्मघाताय कल्पते नात्र संशयः।
बुधे च धनिनी प्रोक्ता गुरौ भर्तुः सुखप्रदा॥ १०॥
कन्यापुत्रप्रसूर्वारे भार्गवस्य न संशयः।
पौंश्चल्यकारिणी म14न्देऽन्यमते भर्तुरग्रहः॥११॥
वैधव्यदा च प्रतिपद् द्वितीया पुत्रवर्धिनी।
सौभाग्यदा तृतीया च चतुर्थी सुखनाशिनी॥१२॥
पश्चमी सुभगा चैवषष्ठी संततिनाशिनी।
सप्तमी धननाशाय पुत्रदा सौख्यदाऽष्टमी॥१३॥
नवमी क्लेशदात्री स्याद्दशमी च सुखप्रदा।
एकादश्यर्थनाशाय द्वादशी रतिवर्धिनी॥१४॥
त्रयोदशी शुभा ज्ञेया दुर्भगा च चतुर्दशी।
पौर्णमासी त्वमावास्या दुःखसंभोगवर्धिनी॥ १५॥
प्रातःकाले रजः स्त्रीणां प्रथमं शोकवर्धनम्।
संगवे सुखसंतानं मध्याह्ने धनसंततिः॥१६॥
अपराह्णेधनावाप्तिः सायाह्ने मध्यमं फलम्।
पूर्वरात्रे सुखायालं मध्यरात्रे धनक्षयः॥१७॥
पररात्रेऽर्थनाशः स्यात्प्रथमर्तुफलं स्मृतम्।
गृहमध्ये सुखावाप्तिर्गृहद्वारे वियोगिनी॥१८॥
शय्यास्था सुखदा भूमावनेकापत्यसंततिः।
पुरन्ध्र्या दृश्यते यत्तु रजः स्त्रीणां सुखाय तत्॥१९॥
विश्वस्तया तु यद्दृष्टं रजो वैधव्यदं स्मृतम्।
रजः पश्यति चेत्कन्या पुमान्वाऽथ सुखं भवेत्॥२०॥
स्वयं दृष्टं तथा स्त्रीणामात्मघाताय कल्पते।
पितृगृहे रजो दैन्यं विवन्ध्या तु स्वके कुले॥२१॥
अश्विनी सुखदा स्त्रीणां भरणी कामवर्धिनी।
कृत्तिका दैन्यदा ज्ञेया रोहिणी सुखदा भवेत्॥२२॥
मृगस्तु कामभोगाय सुखदं रुद्रदैवतम्।
आदित्यर्क्षं च सुखदं गुरुभं सुखवर्धनम्॥२३॥
आश्लेषा सुखनाशाय मघा वैधव्यदा स्मृता।
पूर्वा फल्गुनिका पुत्रकन्यकासुखवर्धिनी॥२४॥
उत्तरा ह्यर्थनाशाय हस्तः पुत्रविवर्धनः।
चित्रा विचित्रतनुतां कुरुते नात्र संशयः॥२५॥
स्वाती शुभाय नारीणां विशाखा सुखनाशिनी।
अनुराधाऽर्थभोगाय ज्येष्ठा भर्तुर्वियोगदा॥२६॥
शुभं चाप्यशुभं मूलं पूर्वाषाढाऽर्थनाशिनी।
सुखदाऽप्युत्तराषाढा श्रवणं सुखवर्धनम्॥२७॥
धनिष्ठापञ्चकं स्त्रीणां प्रथमत सुखप्रदम्।
तिथिरेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्रं च चतुर्गुणम्॥ २८॥
वारश्च षड्गुणो ज्ञेयो मासश्चाष्टगुणः स्मृतः।
वस्त्रं दशगुणं विद्याद्दर्शनं च ततोऽधिकम्॥२९॥
अशुभं चेद्रजः स्त्रीणां प्रथमर्तौ हि दृश्यते।
विधानं तत्र कर्तव्यमरिष्टघ्नं विशेषतः॥३०॥
पञ्चमे दिवसे स्नात्वा द्वाभ्यामप्यत्र मङ्गलैः।
उष्णैस्तु वारिभिः श्रेष्ठैः पञ्चपल्लवसंयुतैः॥३१॥
तिलतैलेन शुद्धेन शुभकल्केन वा पुनः।
आह्निकं च विधिं कृत्वा विधानं15 नूनमारभेत्॥३२॥
शुभाचारसमायुक्तः श्रद्धया परया युतः।
स्थण्डिलं च ततः कृत्वा स्वस्तिर्वाच्या द्विजोत्तमैः॥३३॥
अग्निप्रतिष्ठापूर्वंच हवनं तत्र कारयेत्।
अष्टोत्तरसहस्रं च जुहुयात्तिलसर्पिषा॥३४॥
प्रधानं पायसं प्रोक्तं सघृतं च सशर्करम्।
आ कृष्णेनेतिमन्त्रेण मूर्धानं चेति वा पुनः॥३५॥
सूर्यसूक्तं जपेद्विद्वान्विष्णुसूक्तं च वा पुनः।
सूर्यपूजां ततः कुर्यात्करवीरैः सुरक्तकैः॥ ३६॥
धूपार्थं गुग्गुलं दद्याद्दीपं दद्यात्प्रयत्नतः।
वह्नेरुत्तरतो विद्वान्स्थापयेत्कदलीं शुभाम्॥३७॥
हेम्नः पञ्चपलाढ्यां च पलस्यापि सुलक्षणाम्।
पलार्धेन तदर्थेन तदर्धार्धेन वा पुनः॥३८॥
सुस्तम्भां पञ्चपत्राढ्यांकदलैश्चविराजिताम्।
राशौ कृतप्रतिष्ठां तु तण्डुलानां नृपोत्तम॥३९॥
तण्डुलानां परिमाणमाढकानां चतुष्टयम्।
दद्यात्तां विप्रवर्याय सवस्त्रां च सदक्षिणाम्॥
अलंकृताय विदुषे श्रोत्रियाय कुटुम्बिने॥४०॥
तत्र मन्त्रः—
सुपत्रे सुभगे देवि रम्भे भास्करवल्लभे।
रक्ष मां रजसो दोषाद्दुष्टस्यास्य विगर्हितात्॥४१॥
कदल्यै कामदायिन्यै मेधायै गिरिजे नमः।
रम्भायै नवसारायै स जीव शरदः शतम्॥४२॥
दानेन तत्र देवेशि सविता विश्वतोमुखः।
प्रीतो भवतु मे सद्यो दोषं हरतु दुष्करम्॥४३॥
इति दानमन्त्रः। ततस्त्वाचार्यप्रार्थना—
आचार्य त्वं महाभाग महादोषविनाशन।
दानस्यास्य प्रभावेण रजोदोषाच्च पाहि माम्॥ ४४॥
इत्याचार्यप्रार्थना।
ततोऽभिषेचनं कार्यंदंपत्योश्च विशेषतः।
वेदविद्भ्यो धनं देयं यथाशक्त्या (क्ति) च तर्पणम्॥४५॥
यस्मिन्वाससि तद्द्दृष्टं रजो दुष्टं भयावहम्।
तद्वासो यत्नतस्त्याज्यं ततः शान्तिकरं भवेत्॥४६॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां प्रथमर्तौ
रजोदोषहरं पुष्पवतीविधानम्।
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अथ विकृतप्रसवजनितविघ्नशान्तिविधानम्।
यद्यपि रजोदोषोनिराकृतस्तथाऽपि रजःसमये निषिद्धाचरणनिमित्तविकृत्याद्युत्पत्तिस्त्वापस्तम्बीयविश्वरूपप्रपाठकप्रोक्तन्यायेन संभवति। तद्विधानम्—
विकृताङ्गानिजायन्ते त्वपत्यानि नृपोत्तम।
यानि यानि महावाहो तच्छृणुष्व विधानतः॥१॥
हीनाङ्गान्यधिकाङ्गानि सदन्तानि विशेषतः।
उत्पन्नान्येव पश्यन्ति प्रवदन्ति हसन्ति च॥२॥
सकूर्चानि च जायन्ते पित्रोर्मृत्युं दिशन्ति च।
सर्पव्याघ्रकादीनां रूपैर्नानाविधैर्नृप॥३॥
जायन्ते प्राणिनां गर्भा महाभयविधायकाः।
उत्पद्यन्ते विलीयन्ते कालेनैकेन देहिनः॥४॥
तज्जन्मभयनाशाय विधानं कथ्यते मया।
यस्या उदरसंभूता दृश्यते विकृतिर्नृप॥५॥
दशाहादूर्ध्वमुद्विग्नाःस्नपनीयाः शुभैर्जलैः।
जनयित्री च राजेन्द्र जनकश्च विशेषतः॥६॥
सकुल्या अपि मनुजाः शुक्लमाल्यानुलेपनाः।
शुक्लाम्बरधराश्चापि श्लक्ष्णवाचः प्रयत्नतः॥७॥
कृताह्निकस्तु कर्ता च विदधीत विधानकम्।
सदनस्योत्तरे भागे स्थण्डिलं तत्र कारयेत्॥८॥
वाचयित्वा द्विजान्स्वस्ति पीठे पूज्या यपाकृतिः।
कालायसमयी चण्डी महिषोपरि संस्थिता॥ ९॥
नव्येन वस्त्रयुग्मेण वेष्टिता च विशेषतः \।
चतुर्भुजा पिङ्गकेशा पिङ्गाश्मश्रुविविलोचना॥ १०॥
कर्णिकारभवैःपुष्पैः पूजिता सुमनोहरा।
वामहस्ते गदा पूज्या दक्षिणे कालदण्डकः16॥
ऊर्ध्ववामे हला पूज्या तथा खड्गश्चदक्षिणे॥११॥
यम प्रेतसख श्राद्धदेव देव महामते।
कालदण्डधर श्रीमन्वैवस्वत नमोऽस्तु ते॥१२॥
इति पोडशोपचारपूजाऽनेनैव मन्त्रेण कर्तव्या।
ततश्चाग्निं प्रतिष्ठाप्य हवनं कारयेद्बुधः17।
तिलाज्यतण्डुलास्तत्र प्रधानं सदाहृतम्॥१३॥
तेनैव स्विष्टकृज्ज्ञेयं प्रायश्चित्तंतु सर्पिषा।
कृणुष्व पेतिमन्त्रेण जुहुयाच्च सहस्रकम्॥१४॥
रक्षोघ्नांश्च जपेन्मन्त्राञ्छं न इत्यपि शान्तये।
ततो दीपबलिं कुर्याद्धर्मराजस्य तुष्टये॥१५॥
समाप्य विधिवद्धोमं दानं तत्र समारभेत्।
नीलाम्बरवृतं चण्डमहिषंयमवाहनम्॥१६॥
आचार्याय ततो दद्यात्सखड्गं च सदक्षिणम्।
पुष्पमालावृताङ्गं च स्वर्णशृङ्गं मनोरमम्॥१७॥
ताम्रपृष्ठंरौप्यखुरं रत्नपुच्छं सचामरम्।
दक्षिणार्थंसुवर्ण च दद्याद्धर्मस्य तुष्टिदम॥
संपूज्य विधिवद्विप्रंवस्त्रालंकारभूषणैः॥१८॥
तत्र दानमन्त्रः—
यमवाह नमस्तुभ्यमकालमरणापह।
लुलाय तव दानेन प्रीयतां मे परेतराट्॥१९॥
सदक्षिणं महिषं संपाद्य ततः श्रेयःसंपादनपूर्वकमृत्विक्पूजा।
ततोऽभिषेको विकृते मातापित्रोः सगोत्रयोः॥
ततश्चाऽऽचार्याय यममूर्तिप्रतिपादनं तत्र मन्त्रः—
यमोऽसि पुण्यरूपोऽसि पुण्यमूर्तिर्निरामयः।
दानेन तव देवेश विघ्ना नश्यन्तु मे प्रभो॥ २०॥
इति यममूर्तिप्रतिपादनम्। ततश्च यथाशक्ति ब्राह्मणतर्पणम्।
एवं कृते विधाने तु विघ्ना नश्यन्ति भूरिशः।
विकृतप्रसवोद्भूता नात्र कार्या विचारणा॥ २१॥
इति18श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां विकृतप्रसवजनितविघ्न19शान्तिविधानम्।
__________
अथ यमलोत्पत्तिविधानम्।
करचरणाद्यन्यथात्वे विधानमस्तु यमलस्य तु विकृतत्वाभावाद्वैकृतिकादन्यद्विधानं कथ्यते तदपि काशीखण्डे शौनकसूतसंवादे—
त्रिविधा यमलोत्पत्तिर्जायते योषितामिह।
सुतौ च सुतकन्ये च कन्ये एव तथा पुनः॥१॥
एकलिङ्गौविनाशाय द्विलिङ्गौ मध्यमौ स्मृतौ।
पित्रोर्विरोधिनौ20 ज्ञेयो तत्र शान्तिर्विधीयते॥२॥
हेममूर्ती विधातव्ये दस्रयोश्च द्विजोत्तम।
पलेन वा तदर्धेन तदर्धार्धेन वा पुनः॥३॥
ब्रह्मवृक्षस्य पत्रे च स्थापयेद्रक्तवाससि।
स्वस्तिके तण्डुलानां च न्यस्ते पीठे द्विजोत्तम॥४॥
पूजयेद्रक्तपुष्पैश्च चन्दनेनानुलेपयेत्।
दशाङ्गेनैव धूपेन धूपयेत्प्रयतः पुमान्॥५॥
दीपैर्नीराजयेच्चैव नैवेद्यं परिकल्पयेत्।
यस्मै त्वं सुकृते मन्त्रेणाक्षतैरर्चयेत्ततः॥६॥
अनेनैव तु मन्त्रेण होमं कुर्यादतन्द्रितः।
अष्टोतरसहस्रं च पायसेन स21सर्पिषा॥७॥
शान्तिपाठं जपेद्विद्वान्सूर्यसूक्तं जपेत्ततः।
विष्णुसूक्तं तथा गा22थां वैश्वदेवं ज23पेद्बुधः॥८॥
अश्वदानं ततो दद्यादाचार्याय कुटुम्बिने।
तयोर्मूर्तिः प्रदातव्या यजमानेन धीमता॥९॥
तत्र दानमन्त्रः—
अश्वरूपौ महाबाहू अश्विनौ दिव्यचक्षुषौ।
अनेन वाजिदानेन प्रीयेतां मे यशस्विनौ॥ १०॥
इति वाजिदानमन्त्रः।
आचार्यःप्रथमो वेधा विष्णुस्तु सविता भगः।
दस्रमूर्तिप्रदानेन प्रीयतामश्विनौ भगः॥११॥
इति मूर्तिप्रतिपादनम्।
ततोऽभिषेचनं कार्यं दंपत्योर्विधिवद्बु24धैः।
आचार्यान्भोजयेत्पश्चाद्दक्षिणाभिश्च तोषयेत्॥
सालंकारैश्चवस्त्रैश्च प्रार्थयेद्वचनैः शुभैः॥१२॥
एवं कृते विधाने च यमलोत्पत्तिशान्तिकम्।
जायते नात्र संदेहः सत्यमेतद्ब्रवीमि ते॥१३॥
इति काशीखण्डे शौनकसूतमतम्।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां यमलोत्पत्तिविधानम्।
अथ समाननक्षत्रजननविधानम्।
यदा पितृनक्षत्रसमाननक्षत्रे जन्माथ वा ज्येष्ठापत्यनक्षत्रसमाननक्षत्रे जन्म भवति शिशोस्तदा शान्तिकविधानं कर्तव्यम्। अत्रापि संगतिः पूर्ववत्। यदि विधानं न क्रियते तदा पूर्वस्य विघ्नो जायते तत्परिहरणार्थं विधानमुक्तं पद्मपुराण उमामहेश्वरसंवादे—
ईश्वर उवाच—
समानभौ यदा देवि पितापुत्रौ च सोदरौ।
भगिन्यौ वा स्वसा बन्धुस्तदा पूर्वस्य नाशनम्॥१॥
विधानं तस्य कर्तव्यं जन्मनक्षत्रपूजनम्।
नक्षत्रदेवता पूज्या त्वधिप्रत्यधिपूर्वकम्॥२॥
यस्य ऋक्षस्य यद्द्रव्यं दक्षिणाविधिमन्त्रणम्।
तत्र तस्य विधातव्यमृक्षदैवततुष्टये॥३॥
गृह्योक्तेन विधानेन हवनं तत्र कारयेत्।
भक्त्या हरिहरौ देवौ ( यौ ) स्वर्णरौप्यमयौ शुभौ॥४॥
तत्र मूर्तिदानमन्त्रः—
विविधस्यास्य देवेश पितरौ विश्वतोमुखौ।
प्रीयेतां मूर्तिदानेन देवौहरिहरावुभौ॥५॥
इति दानमन्त्रः।
दानं होमविधेः पश्चाद्दानं दत्त्वाऽभिषेचनम्।
अभिषेचनपूजाऽत्र विप्रपूजा स्मृता शिवे॥६॥
ततोऽभिगम्य गोविन्दं शूलिनश्च निकेतनम्।
तूर्याणां चा निनादेन जयघोषेण पार्वति॥७॥
पूजाविधिं समाप्यैवं सर्वोपस्करसंयुतम्।
प्रार्थयेद्देवदेवेशौ लक्ष्मीशैलसुतेश्वरौ॥८॥
दण्डवत्प्रणिपातेन वन्दनीयौपुनः पुनः।
ततः स्वगृहमागत्य ब्राह्मणान्भोजयेत्सुधीः॥९॥
तोषयेद्दक्षिणादानैर्यथाशक्ति वरानने।
एवं कृते विधाने तु विघ्नशान्तिर्भवेद्ध्रुवम्॥
तुष्टिदं पुष्टिदं नृृणां विधानं चेति सुन्दरि॥१०॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां पद्मपुराणोक्तं समाननक्षत्रजन्मजनितविघ्नविनाशनविधानम्।
____________
अथ मूल25विधानम्।
पितृभ्रातृसंबन्धिदु26र्वृत्तनक्षत्रविधानानन्तरं स्वभावतो दुष्टनक्षत्रविधानस्य बुद्धिस्थतया मूलादेरानन्तर्यम्। मूलनक्षत्रोत्पन्नस्य शिशोर्जनन्या जनकस्य च स्नानं विधातव्यम्। तत्र द्रव्याणि—कलशःशतच्छिद्रः। अन्ये चत्वारः कलशाः। हिरण्यस्य मूलं कर्तव्यं शक्त्यनुसा27रम्।त्र्यहतं वस्त्रं पञ्च रत्नानि च।
हीरको मौक्तिकं चैवं विद्रुमः पुष्परागकम्।
गोमेदः पञ्चमः शक्त्या रत्नानि कथितानि च॥
ततः—प्रातरेव सितैः पिष्टैः कल्कितैस्तिलसर्षपैः।
स्नायातां दंपती तत्र सशिशू हृष्टमानसौ॥
ततः संबन्धमुच्चार्य स्वस्तिवाचनं कृत्वाऽग्नेरीशानभागे स्वस्तिकमण्डले तण्डुलमये कलशान्संस्थाप्य प्रथमे सप्त मृत्तिका नद्युभयतस्तटाकाभ्यां गोशृङ्गोत्कृत्तभूमेर्दर्भमूलमृत्तिका वल्मीकाद्ध्रदाच्चतुष्पथाज्जलस्थानादश्वस्थानादश्वत्थमूलाद्वा मृत्तिकाः। द्वितीयकलशे पञ्चगव्यं निक्षिपेत्। तृतीये सप्त धान्यानि
निक्षिपेत्। पञ्चगव्यं सर्वौषधीश्च चतुर्थे ता वक्ष्यमाणाः। पञ्चरत्नानि पञ्चमे। सप्तधान्यानीह यान्युक्तानि तानि वक्ष्यन्ते– व्रीहिगोधूमतिलमाषमुद्गप्रियंगुयवाः। पञ्चरत्नान्युक्तान्याह–हीरको मौक्तिकं प्रवालं माणिक्यं वैदूर्यमिति। न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थाश्चूतः प्लक्षश्च पञ्चमः। एते पञ्चपल्लवाः। चत्वारस्तु तैः पूर्णाः कार्याः। जलं निक्षिप्य वस्त्रैः संवेष्ट्य चतुर्भिर्ब्राह्मणैश्चतुरस्तान्कलशान्गृहीत्वोत्क्षिप्य ततस्तं शतच्छिद्रं प्रस्नाप्य तत्रत्यमुदकं शतच्छिद्रे प्रक्षेप्तव्यम्। तत्र मन्त्राः– पावमानीभिः पञ्चभिः, समुद्रज्येष्ठेतिचतुर्भिः, आपश्च, देवस्य त्वा, इमं मे वरुण, आपो हि ष्ठा मयोभुवः। ततो वेदादिभिः शतच्छिद्रकलशे शतौषधीःप्रस्थाप्य प्रथमे घटे मृत्तिका, द्वितीयं पञ्चगव्येन, तृतीयं सप्तधान्यैश्चतुर्थंरत्नैरिति चतसृभिर्धाराभिर्मण्डलादैशानभागे भद्रपीठ उपविष्टानां शिशुजनकजननीनां ततो ह्याचार्यः शतच्छिद्रं कलशं गृहीत्वा स्नपनं कुर्यात्।
तत्र मन्त्राः—
सुरास्त्वामभिषिञ्चन्तु ये च सिद्धाः पुरातनाः।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च साध्याश्च समरुद्गणाः॥१॥
आदित्या वसवो रुद्रा अश्विनौ च भिषग्वरौ।
अदितिर्देवमाता च स्वाहा सिद्धिः सरस्वती॥२॥
कीर्तिर्लक्ष्मी28र्द्युतिः श्रीश्च सिनीवाली कुहूस्तथा।
दितिश्च सुरसा चैव कद्रूश्च विनता तथा॥३॥
देवपत्न्यस्तथैवोक्ता देवमातर एव च।
सर्वास्त्वामभिषिञ्चन्तु शुभाश्चाप्सरसां गणाः॥४॥
नक्षत्राणि मुहूर्ताश्च अहोरात्राणि संधयः।
संवत्सरदिनेशाश्च कलाः काष्ठाः क्षणा लवाः॥५॥
सर्वे त्वामभिषिञ्चन्तु कालस्यावयवाः शुभाः।
वैमानिकाश्च सर्वे वै मरुद्भिः सहिताः शुभाः॥६॥
वानप्रस्था द्विजाः श्रेष्ठास्तथा वैखानसाः शुभाः।
सप्तैव ऋषयश्चैव सदाराः सुदृढव्रताः॥७॥
मरीचिरत्रिश्च्यवनः पुलस्त्यः क्रतुरङ्गिराः।
भृगुः सनत्कुमारश्च सनकश्च सनन्दनः॥८॥
सनातनश्च दक्षश्च योगी ब्रह्मर्षयोऽमलाः।
जावालिःकश्यपोजिष्णुर्विष्णुश्चैवसनातनः॥९॥
दुर्वासाश्च ऋषिश्रेष्ठः कण्वः कात्यायनस्तथा।
मार्कण्डेयो दीर्घतमाः शुनःशेपःसुलोचनः॥१०॥
वसिष्ठश्च महातेजा विश्वामित्रः पराशरः।
द्वैपायनो महाबुद्धि29र्देवराजो धनंजयः॥११॥
एते चान्ये च मुनयो वेदव्रतपरायणाः।
सशिष्यास्त्वाऽभिषिञ्चन्तु सदाराश्च महाव्रताः॥१२॥
पर्वतास्तरवो वल्ल्यः पुण्यान्यायतनानि च।
ऐरावतादयो नागास्तुरगेश स्तुरंगमाः॥१३॥
सुरधेनुमुखा गावः सरितः सागरास्तथा।
वाहनानि च देवानां सर्वेषामायुधानि च॥१४॥
अग्नयः पितरस्तारा जीमूताश्च दिशो दश।
एते चान्ये च बहवः पुण्याः संपरिकीर्तिताः॥१५॥
तोयैस्त्वामभिषिञ्चन्तु सर्वोत्पातनिबर्हणैः।
कल्याणं च प्रकुर्वन्तु आयुरारोग्यमेव च॥१६॥
यथाऽभिषिक्तो मघवान्स्वर्गराज्यमवाप्तवान्।
अ30वाप शमनः स्वाम्यं दक्षिणस्या दिशो महत्॥१७॥
वरुणो जलनाथत्वं धनं प्राप धनाधिपः।
सगरः पृथिवीशत्वं तथा चान्ये महीभृतः॥१८॥
ततः स्वस्तिकमण्डलमध्ये सर्वौषधीपूर्णे शतच्छिद्रसमीपे सौवर्णमूलयुते निर्ऋतिपुरुषमूर्तिं द्वितीये घटे वस्त्रोपरि पूजयेत्।
चतुर्भुजं महाकायंप्रेतवाहं महाभयम्।
शक्तिपाशासिखट्वाङ्गसहितं पूजयेत्सुधीः॥१९॥
जलपूर्णे घटे विद्वान्वंशपात्रे मनोरमे।
विधाय तत्र तं देवं यातुधानं चतुर्भुजम्॥२०॥
गन्धपुष्पा31क्षतैःसर्वैरुपचारैस्तु पूजयेत्।
आमिषंचैव नैवेद्यमुचितं जातिधर्मतः॥२१॥
ताम्बूलं च ततो दद्याद्दक्षिणां शक्तितस्तथा।
ए32वं कृते विधाने च होमं चापि विशेषवित्॥२२॥
तिलाज्यं च चरुश्चापि प्रधा33नश्चापि कीर्ति34तः।
कृणुष्व पाजः प्रसितिं मन्त्रः प्रोक्तो मनीषिभिः॥२३॥
जाते तु हवने35 विद्वानभिषेकं समा36रभेत्।
सुस्नातयोस्तु दंपत्योः पुरस्कृत्य शिशुं त37था॥ २४॥
पट्टे निधापयेद्धीमानभिषेकं समाचरेत्।
अभिषेके तु संजाते पूर्वोक्तविधिना ततः॥२५॥
नवेन कम्बलेनैव दंपती च समावृतौ।
अभिषेके शुभे सभ्य38ग्बालं तं च परित्यजेत्॥२६॥
आचार्यस्तु महाभागः पूजनीयः प्रयत्नतः।
वस्त्रयुग्मेण संवेष्ट्य भूषणानि समर्पयेत्॥२७॥
गां च दद्यात्सुशीलां च सवत्सां च पयस्विनीम्।
कस्मैचिद्ब्राह्मणायाऽऽशु कम्बलं तु प्रदापयेत्॥२८॥
धान्येन सहितं विद्वानायसं च समर्पयेत्।
मूर्तिं तां च सवस्त्रां च समूलां पात्रसंयुताम्॥
हृष्टपुष्टमना भूत्वा ह्याचार्याय निवेदयेत्॥२९॥
तत्र दानमन्त्रः—
देव त्वं निर्ऋतिः पुण्यः पुण्यमूर्तिर्निरामयः।
मूलसंभवजं दोषं प्रशामय मम प्रभो॥३०॥
इति संप्रार्थ्य देवं तमाचार्याय निवेदयेत्।
एवं कृत्वा विधानं च ब्राह्मणान्भोजयेच्छुचीन्॥३१॥
प्रसाद्य दक्षिणादानैर्नमस्कारैर्मुहुर्मुहुः।
एवं कृते विधानेऽस्मिन्दंपत्योः सहबालयोः॥३२॥
निर्विघ्नं जायते नूनं कर्ता च श्रद्धयाऽन्वितः।
नन्दते सुखसंतानैः श्रियं प्राप्नोत्यनामयाम्॥३३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां गृह्योक्तं मूलविधानम्।
_______________
अथात आश्लेषाविधानम्।
नागप्रतिकृतिं कुर्यात्सौवर्णीं पलमानतः।
अथ वा शक्तितः कुर्याद्वित्तशाठ्यविवर्जितः॥१॥
मूले यत्तु विधानं स्यात्तत्समं सर्पदैवते।
कद्रुद्रायप्रचेतस इति मन्त्री विशेषतः॥२॥
नैवेद्ये ह्यामिषंनास्ति पूजा दानकृतिः समा।
अयुतं हवनं त्वत्र तिलैः साज्यैः प्रधानकैः॥३॥
ब्रह्मवृक्षस्य समिधः शतमष्टोत्तरं शुभाः।
शुभा इति द्वादशाङ्गुल39मिताः साग्राअवक्रा अव्रणाः सत्वचः। अन्यत्सर्वं मूलविधानवत्।
इति श्रीनृसिंहविरचिताया विधानमालायां गृह्योक्तमाश्लेषाविधानम्।
____________
अथ गण्डान्तविधानम्।
गण्डान्तं त्रिविधं ज्ञेयं तिथिलग्नर्क्षसंज्ञकम्।
विधानमुच्यते तत्र त्रितयेऽपि समासतः॥१॥
तथा च श्रीपतिः—
मध्ये पूर्णानन्दयोर्नाडिके द्वे स्याद्गण्डान्तं कीटहर्योस्तथैका।
कोदण्डादौ वृश्चिकान्ते झषान्ते मेषस्याऽऽदौ सर्वकार्येष्वनिष्टम्॥२॥
गण्डान्तं तदिति ख्यातं रेवतीदस्रयोर्नृप।
मुहूर्तद्वितयं दुष्टं शुभकार्ये विवर्जयेत्॥३॥
गण्डान्तेऽस्मिन्यदा जन्म बालकस्य कदाचन।
नैव(तदा) भूयाद्रिपोर्गेहेष्वपि दुःखस्य भाजनम्॥४॥
तस्य शान्तिं प्रवक्ष्यामि शास्त्रदृष्टेन कर्मणा।
गण्डान्ते यानि ऋक्षाणि तत्र तेषां च देवताः॥ ५॥
उत्पन्नं डिम्भकं यस्मिन्नक्षत्रे तस्य देवता।
पूजनीया प्रयत्नेनमन्त्रैस्तल्लिङ्गसंज्ञकः॥
विधानं सर्वसामान्यमभिषेकादिकं तथा॥६॥
अथ होमः—
मूले नैर्ऋतिदैवत्ये चरुहोमः प्रशस्यते।
रक्षसे च प्रधानाय जुहुयाच्छतमष्ट वा॥७॥
तत्र मन्त्रः। मोषुणः काण्वो घोरो निर्ऋतिगायत्री चरुहोमे विनियोगः। तत आज्येनान्या देवताः।ब्रह्मजज्ञानं गौतमो वामदेवो ब्रह्मा त्रिष्टुप्।ब्रह्मजज्ञानमिति ब्रह्मणे समिधोब्रह्मवृक्षस्याष्टोत्तरशतं साज्यम् (ज्याः।)। त्र्यम्बकं मि(मै)वरुणो(णिं ) व(र्व)सिष्ठो रुद्रोऽनुष्टुप्।त्र्यम्बकाय।इदं विष्णुर्मेधातिथिः काण्वोर्गायत्री।केवलाज्येन विष्णवे।प्रजापते प्राजापत्यो हिरण्यगर्भः प्रजापतिस्त्रिष्टुप्। आज्येन प्रजापतये अथतिलाज्येन।नाममन्त्राः।ॐ अग्नये स्वाहा। ॐ सोमाय स्वाहा।पवनाय स्वाहा। ॐ मरुताय स्वाहा। ॐ अन्तकाय स्वाहा।सर्वद्रव्यैः स्विष्टकृत्। शान्तिकृज्जपः। ‘त्रातारमिन्द्रं’ ‘त्वं नो अग्ने’ ‘सुगं नः पन्थाम्’ ‘असुन्वन्तं तत्त्वा यामि’‘आनो नियुद्भिः’ ‘वयं सोम’ ‘तमीशानं’ ‘नमस्ते रुद्र मन्यवे’ ‘स्योना पृथिवि’ ‘इमं मे’ ‘समुद्राय त्वा’ ‘ब्रह्मजज्ञानम्’ इति शान्तिजपः। मूलज्येष्ठागण्डान्ते हवने विशेषः। इन्द्रनिर्ऋती प्रधानदेवते चर्वाज्यसमिद्भिः प्रत्येकमष्टोत्तरशतं जुहुयात्। इन्द्रश्रेष्ठानि गृत्समदइन्द्रस्त्रिष्टुप्।इन्द्राय।निर्ऋतिमन्त्रः पूर्वोक्त एव। प्रागुक्तं हवनं शान्तिपाठश्च। पौष्णाश्विन्योः। पूषाणमश्विनौ चर्वाज्यसमिद्भिः प्रधानदेवतायजनम्। तत्र मन्त्रौ।संपूषन्नित्यस्य कण्वो घोरः पूषा गायत्री। पूष्णे। अश्विनावर्तिगौतमो राहुगणोऽश्विनावुष्णिक्। अश्विभ्याम्। शेषं पूर्ववत्।सार्पपैत्रगण्डान्ते चरुसमिद्भिराज्येन प्रत्येकमष्टोत्तरशतं जुहुयात्। आयंगौः सार्पराज्ञी सर्पा गायत्री। सर्पेभ्यः। उपप्लु(हू)ताः पितरो या40म्यायनः शङ्खः पितरस्त्रिष्टुप्।पितृभ्यः।शेषं पूर्ववत्। शान्तिपाठः। तथैवाऽऽश्लेषायामायंगौरिति चर्वाज्यसमिद्भिः प्रत्येकमष्टोत्तरशतं जुहुयात्। शेषं हवनं शान्तिपाठश्च मूलविधानवत्। अत्र सर्वत्र स्नानानन्तरं हवनसमये नवग्रहमस्वः कार्यः।पश्चादाचार्यं पूजयेत्।वस्त्रयुग्मेणालंकारैः पूजितां सौवर्णीं मूर्तिं दद्यात्। षण्नक्षत्राणि गण्डान्तसंज्ञानि।तेषां नक्षत्राणां या अधिदेवतास्तासां मूर्तयस्तासां दानं यथाशक्ति41धान्यं च देयम्। आचार्यप्रमुखेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः सुवर्णशतमानं दक्षिणाशतमानमिति पलं सौवर्णमेव भवति। ततः सर्वे विप्रा हवनकर्तारः स्नपनकर्तारश्च दक्षिणाभिः संतोष्याः। ततो ब्राह्मणभोजनम्। ततः सर्वे लोकाः कालश्रवणपूर्वकं गण्डान्तदेवताप्रीतये संतोष्याः। अनेन विधानेन तदपत्यं पितुर्दर्शनयोग्यं चिरायुश्च भवति। एतद्विधानं मूल आश्लेषायां गण्डान्ते च ग्रहारिष्टे च ज्ञातव्यम्। अथ शतौषधयः कथ्यन्ते—
अधःपुष्पी १ शङ्खपुष्पी २ मयूरस्य शिखा ३ तथा।
ज्येष्टी ४ च काकजङ्घा ५ च कुमारी ६ जीरकद्वयम् ७-८॥१॥
अपामार्गो९ भृङ्गराजो १० लक्ष्मणा ११ श्वेतलक्ष्मणा १२।
जाती १३ दूर्वा १४ तथा व्याघ्री १५ पत्रको १६ ऽर्कश्च१७ रोध्रकम् १८॥
शमी १९ काशश्च २० बिल्वश्च २१ विष्णुक्रान्ता २२ कपाटिका २३।
नकुली २४ चन्दनं २५ चैव रक्तचन्दनमेव च २६॥३॥
जटामांसी २७ च मूर्वा २८ च बालकोऽथ २९ शिवा ३० मता।
प्रस्तरी ३१ तुलसी ३२ चैव ब्राह्मी ३३ लाङ्गलिका ३४ तथा॥४॥
कुन्दश्च३५ देवकुन्दश्च ३६ प्रियंगु ३७ स्मृतं ३८ तथा।
सर्षपा३९ जलवृक्षश्च ४० गन्धारी ४१ चेन्द्रवल्लभा ४२॥५॥
तेजस्विनी ४३ च भूपाली ४४ दन्तिका ४५ कदली ४६ तथा।
सहदेवी ४७ तथा वश्या ४८ तथा लोकप्रियंकरी ४९॥६॥
उमा ५० निशा ५१ घना ५२ विश्वा ५३ सिन्धुवारा ५४ सरस्वती ५५।
शङ्खिनी ५६ पद्मिनी ५७ योषा५८ ललिता ५९ भूतवारिणी ६०॥७॥
निर्जरा ६१ निर्गमा ६२ राज्या ६३ रोहिणी ६४ शतमूलिका ६५।
जीवन्ती ६६ विजया ६७ रामा ६८ पिप्पली ६९ च कपर्दिनी ७०॥८॥
मरूवकः७१ सुरारीशा ७२ शतपत्रा ७३ प्रभञ्जनी ७४।
त्रिसंधिका ७५ प्रियालुस्तु ७६ सागराहा ७७ करञ्जिका ७८॥ ९॥
प्लक्षा ७९न्यग्रोधमूली ८० च तुम्बरी ८१ कुशला ८२ सती ८३॥
जानकी ८४ करहा ८५ क्षेमा ८६ शिप्राऽ ८७ जाजी ८८ कृपावती ८९॥
विडङ्गी ९० विमली ९१ नीली ९२ घण्टा ९३ च गिरिकर्णिका ९४॥ ११॥
रामणी ९५ रमणा ९६ भङ्गी ९७ कलाङ्गी ९८ काश्मरी ९९ शता १००॥
या ओषधीरितिमन्त्रस्याऽऽथर्वणभिषगृषिः सर्वौषधीदेवताऽनुष्टुप्छन्द ओषधीप्रक्षेपणे विनियोगः। या ओषधीः।
इति शतौषधयः।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मूलाश्लेषारेवतीज्येष्ठाश्चितीमघागण्डान्तविधानम्।
अथ सूतिकास्तन्यवर्धनविधानम्।
शिशुरक्षारत्ने—
सूतिकायाः स्तनक्षीरमकस्मात्क्षीयते यदि।
विधानमेतत्कर्तव्यं यद्वक्ष्यामि निबोध तत्॥१॥
रेवतीग्रहमामन्त्र्य पूजयेत्प्रयतः शुचिः।
ब्रह्मवृक्षस्य पीठे च न्यसेन्नव्याम्बरे सुधीः॥२॥
कृष्णधत्तूरपुष्पैस्तु धूपैः कृष्णागरोः शुभैः।
धूपयेद्दीपदानेन ग्रहं नीराजयेत्तथा॥३॥
रक्ततण्डुलभक्तेन गुडयुक्तेन चैव हि।
महिषीसर्पिषा चैव पूरिकाःपाचयेत्सुधीः॥४॥
सुधाफलानि नैवेद्यं पायसं च विशेषतः।
सकर्पूरं च ताम्बूलं सलवङ्गं च दापयेत्॥५॥
सुगन्धं चन्दनं तत्र ध्वजान्सप्त समाहरेत्।
छत्रमेकं तथा कार्यं पीतवर्णं हरिद्रया॥६॥
खर्जूरीनारिकेलानि यथाशक्त्या(क्ति) निदा(धा)पयेत्।
रूप्यं वा हेम वा तत्र बलिपात्रे निधापयेत्॥७॥
होमं च विधिवत्कृत्वा जुहुयात्तिलसर्पिषा।
अष्टोत्तरसहस्रं च तथैवाष्टाधिकं शतम्॥८॥
जुहुयात्प्रयतस्तत्र मन्त्रान्रक्षोनिवारणान्।
जपेच्छान्तिं द्विजैः सार्धं शं न इत्यादिमन्त्रवित्॥९॥
यत्प्रधानं हविस्तेन प्रोक्तं वै स्विष्टकृदुधैः।
एवं समाप्य विधिवद्धवनं मन्त्रविद्विजः॥१०॥
प्रार्थ्य भक्त्या ग्रहं धीमान्रेवतीनामधेयकम्।
दद्याद्विप्राय मेधावी ग्रहं तं दक्षिणायुतम्॥
सपीठं च सवस्त्रं च नैवेद्यं चैव सर्वशः॥११॥
तत्र दानमन्त्रः—
नमस्ते भगवन्देव रेवतीग्रह शोभन।
ग्रहेश तव दानेन स्तन्यं भवतु मे सदा॥१२॥
इति रेवतीग्रहदानमन्त्रः।
ततः समुद्रज्येष्ठा इत्यभिषेकं समाचरेत्। तत आचार्यब्रह्मर्त्विक्पूजनं पश्चाद्ब्राह्मणभोजनम्। भुक्तेषु विप्रेषु तदुच्छिष्टेन गतक्षीरायाः स्तनावालिप्य कमारीमूलकन्देन हरिद्रायुक्तेन स्तनद्वयमालिम्पेत्।
एवं कृते विधाने तु बहुक्षीरं प्रजायते॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां कर्मविपाकोक्तंसूतिकास्तन्यवर्धनविधानम्।
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अथ बालग्रहपीडाशमनम्।
मैलुगिविरचिते कर्मविपाके प्रोक्तंतदुच्यते। तत्रोर्ध्वकेशग्रहो नाम बालकं गृह्णाति कदाचिदपि युवानं वृद्धं च। तस्याऽऽदौ लिङ्गं प्रवक्ष्यामि यं प्राणिनं स बाधते तस्याङ्गे स्फोटा जायन्ते। तत्र कृच्छ्रचान्द्रायणं प्रथमं प्रायश्चित्तं कुर्यात्। ततश्चारुघृते रौद्रेण सूक्तेन जुहुयाद्व्याहृतिभिश्च। शक्त्या हिरण्यं दद्यात्। ततो बलिविधानम्। तच्चाऽऽह–स्थण्डिलात्समन्ततो दीपाल्लोँकपालानुद्दिश्य घृताक्तवर्तिप्रज्वलितान्निध्यात्। पञ्च दीपान्ग्रहपीठाग्रतो निदध्यात्। द्वावन्यौ क्षेत्रपालमुद्दिश्य स्थण्डिलाद्दक्षिणतो निदध्यात्।उत्तरतो नव दीपान्दुर्गामुद्दिश्य निध्यात्।ईशानदिशि रुद्रानुद्दिश्यैकादश दीपान्निदध्यात्। ते च रुद्रा वीरभद्रादयः प्रसिद्धाः। पूर्वतो ह्यादित्यानुद्दिश्य द्वादश दीपान्निध्यात्। उत्तरतो वसूनुद्दिश्याष्टौ निदध्यात्। स्थण्डिलस्य परितः सप्तविंशतिं दीपान्नक्षत्राण्युद्दिश्य निदध्यात्। द्वौ दीपौ गङ्गायमुने उद्दिश्य स्थण्डिलस्य पश्चिमतो निदध्यात्। पञ्च दीपान्गणेशमुद्दिश्य स्थण्डिलस्यैशान्यां निदध्यात्। षोडश दीपांश्चन्द्रमुद्दिश्य निदध्यात् \। यस्यै यस्यै देवतायै बलिपूजा क्रियते तल्लिङ्गान्मन्त्रानुच्चारयेत्।
अपूपा मुष्टिका मुद्गाभक्तो दधियुतः शुभः।
मुद्गशब्देन चणकगोधूमयावनालघुगरिका लोकभाषया प्रसिद्धाः। आर्द्रतण्डुलपिष्टं हरिद्राकल्केन युक्तं कृत्वा तेन स्थानानि विधायापूपादि सर्वे तत्र निधापयेत्।
पायसंसघृतं तक्रं कदलानि तथैव च।
कलशे प्रक्षिपेद्विद्वान्गन्धपुष्पाक्षतावृते॥१॥
जलं च ताम्रपात्रेण किंचित्कुम्भेप्रतिक्षिपेत्।
मन्त्रेण मन्त्रितं तं तु निक्षिपेच्चचतुष्पथे॥२॥
तत्र मन्त्रः—
ॐ जहि कुरु कुरु कुशलं गृहाण बलिं स्वाहा।
इति बलिनिक्षेपमन्त्रः।
ततः परेऽहनि ब्राह्मणभोजनं यथाशक्ति कर्तव्यम्।
एवं कृते विधाने तु बालपीडा विनश्यति।
सुखं विवर्धते सम्यक्शिशोर्नात्र विचारणा॥३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामूर्ध्वकेशग्रहबालग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ विवृताक्षग्रहपीडाशमनविधानम्।
प्रथमं ज्वरोऽभिजायते। ततश्च हस्तयोः पादयोश्च स्फोटा जायन्ते विषूचिका च भवति बाधिर्यंच जायते। तत्राऽऽदौ चान्द्रायणं कुर्यात्। पुरुषसूक्तेन ताम्रपात्रेण सहस्रवारं शिवस्य स्नपनं कुर्यात्। यत्र विष्णुप्रतिमा तत्र शालग्रामशिलायां वा सहस्रदलैः शतपत्रैर्वा देवस्य पूजा विधातव्या। ततश्चसहस्रनामस्तोत्रं जपेत्। घृतदधिपायसक्षीरषष्टिकापूपपूर्णं कलशं किंचिद्धिरण्यसहितवस्त्रेणाऽऽवेष्टय गन्धादिभिरलंकृत्य तं कुम्भं चतुष्पथे पूर्वेण मन्त्रेण मन्त्रितं निक्षिपेत्।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मैलुगिकर्मविपाकोक्तं विवृताक्षग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ नवग्रहपीडाशमनविधानम्।
सखितपस्विस्वामिसंबन्धिस्त्रीगामिणं नवग्रहः संक्रमते।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि प्राणिनां हितकाम्यया॥
मेढ्रेच दाहो भवति तस्य स्फोटोऽभिजायते॥१॥
अधमानि (आध्मानी) जायन्ते (ते) नयनरोगी च भवति। स्त्री चेत्तदा पूर्वं य उद्दिष्टास्तेषु व्यभिचारिणीत्थं पीड्यते। तत्र प्रायश्चित्तम्। कृच्छ्रद्वयं प्राजापत्यं कृच्छ्रं कृच्छ्रातिकृच्छ्रं चान्द्रायणं समस्तव्यस्तव्याधितारतम्येन कुर्यात्। धेनुदानविधिना प्रत्यक्षां धेनुं दद्यात्। निष्कद्वादशकं हैमं दद्यात्। कूष्माण्डहोमं पुरुषसूक्तं हिरण्यधेनुं च दद्यात्। तथा हि—
पलेन सुकृतां राजन्धेनुं स्वर्णमयीं शुभाम्॥
सवत्सां वस्त्रसंवीतां दद्याद्विघ्नोपशान्तये॥१॥
विप्राय परिशीलाय श्रोत्रियाय कुटुम्बिने।
कृतज्ञाय च भक्ताय तीर्थसेवापराय च॥२॥
तीर्थं मातापित्रोश्चरणचतुष्टयम्। ततश्चयथाशक्ति ब्राह्मणभोजनं कुर्यात्।
शक्तिशब्देन राजा चेदयुतं ब्राह्मणान्भोजयेत्। इतरो धनाढ्यश्चेत्सहस्रं भोजयेत्। निष्किंचनश्चेच्छतं वा विंशतिं वा भोजयेत्, बलिं च निक्षिपेत्।
पञ्चखाद्यै42श्च रत्नैश्च पूर्णं कुम्भं सधूपकम्।
अक्षतैश्चन्दनैर्युक्तं कुसुमैश्च मनोरमैः॥३॥
निक्षिपेन्मध्यरात्रे च शस्त्र43पाणिश्चतुष्पथे।
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण मन्त्रितं कलशं शुचिः॥४॥
निक्षिपेन्निर्भयो धीमाञ्जले वा सरितो ह्रदे।
धीमानिति पञ्चाक्षरमन्त्रवित्। जल इति तडागादिजले। सरितो ह्रदे महानदीह्रदे\। तत्र मन्त्रः—
नवग्रह महाबाहो44 सर्वग्रहनिवारण।
बलिं गृहाण निर्विघ्नं रोगिणं कुरु सत्वरम्॥५॥
इति बलिनिक्षेपमन्त्रः।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते।
आयुर्विवर्धते तस्य विधानं यः समाचरेत्॥६॥
इति श्रीनृसिंहभट्टाविरचितायां विधानमालायां मैलुगिकर्मविपाकोक्तं नवग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ वायसग्रहविधानम्।
देवद्विजक्षेत्रतडागवल्मीकादिषु विष्ठामोचकं वायसो नाम ग्रहो गृह्णाति। तत्क्षणादाध्मानज्वरी, अरुचिमान्पाददाही च जायते। तत्र विधानम्—स्वस्तिवाचनपूर्वकं हवनं कार्यम्। अग्निमुखपूर्वकं व्याहृतिभिर्जुहुयात्। श्वेतकृष्णपीतवर्णैर्वस्त्रैरावेष्ट्य कलशं पञ्चखाद्येन पूर्णं कुम्भं कृत्वा गन्धपुष्पाक्षतैः समभ्यर्च्य प्रदोषे चतुष्पथे बलिं निक्षिपेन्मन्त्रेणानेन— ॐ घ्रंघं घः ॐ फट्स्वाहा। वायसबलिरेषप्रकप्लितः। तत्क्षणादेवाऽऽरोग्यं भवति। फट्स्वाहा।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपिन जायते।
आयुर्विवर्धते तस्य विधानं यः समाचरेत्॥१॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां कर्मविपाकोक्तं वायसग्रहविधानम्।
अथ महाजिह्वाग्रहपीडाशमनविधानम्।
मुसलोलूखलशूर्पाण्यायुधानि च पादेन लङ्घयति तं जिह्वाग्रहो नाम गृह्णाति तस्मादास्यशोषोऽभिजायते। गद्गदवाग्जिह्वाव्रणीजायते। कफवाञ्जायते तत्र विधानम्—त्रिरात्रोपवासं कुर्यात्। व्याहृतिभिराज्येन जुहुयात्। उदुत्यमिति सूक्तं जपेत्। अष्टोत्तरसहस्रं गायत्रीजपं कुर्यात्। अन्नं घृतबढुलं दद्यात्। सर्वशाखिभ्यो विप्रेभ्यो दक्षिणां दद्यात्। आमिषं मत्स्यानां तिलपिष्टमन के मत्स्यान् सुरारुधिरसूपशाकान्गन्धान्पुष्पाणि चन्दनमक्षतांश्च बल्यर्थे वंशपात्रे निवास चतुष्पथे निक्षिपेत्। मध्यरात्रे पूर्वेण बीजत्रयेण मन्त्रयित्वा ग्रहनाम समुच्चार्य चतुर्थ्यन्तं स्वाहाकारेणनिक्षिपेत्। तत्क्षणादेवाऽऽरोग्यं जायते।
एवं कृते विधाने चविघ्नराशिः प्रशाम्यति।
आयुर्विवर्धते तस्य विधानं यः समाचरेत्॥१॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां मैलुगिकर्मविपाकोक्तं महाजिह्वाग्रहपीडाशनविधानम्।
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अथ क्षेत्रपालग्रहपीडाशमनविधानम्।
देवतानिन्दया क्षेत्रपालो नाम ग्रहो गृह्णाति तेन गृहीतो मुखपाकी ज्वरी व्रणी भवति। ततस्तद्देवताभिषेकं कुर्यात्। पञ्चामृतैःसुपुष्पैःपूजांकुर्यात्। क्षेत्रस्य पतिनेति सर्वोपचारान्विदध्यात्।
पञ्चखाद्यं सुरामांसं बल्यर्थे प्रतिवादयेत्।
यथाशक्ति ब्राह्मणभोजनम्। आगमोद्दिष्टं वटुकस्तोत्रं45 जपेत्।
निर्विघ्नो जायते प्राणी विधाने विहिते सति।
क्षेत्रपालनप्रसादेन सुखी भवति मानवः॥१॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां क्षेत्रपालग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ हस्तिपादग्रहपीडाशमनविधानम्।
यो वस्त्रधान्यादिकमुचितराजविदितमूल्यादधिकं गृह्णातितं हस्तिपादो नाम ग्रहो गृह्णाति। तत्क्षणादेव वल्मीकव्याधिना पीड्यते। हरिद्रावर्णनयनो भवति। तत्र विधानम्—त्रिरात्रमुपवसन्नष्टोत्तरशतं व्याहृतिभिस्तिलाज्येन जुहुयात्।
शक्त्या हिरण्यं दद्यात्। अन्नं तैलपक्वंतिलपिष्टं माहिषक्षीरं नव्ये कलशे निधाय निशीथे चतुष्पथेनिक्षिपेन्मन्त्रेण।सोऽपि मन्त्रः—
बलिं गृहाण भूतेश रोगिणं मुञ्च सत्वरम्।
प्रीतो भव महावाहो बलिदानेन सर्वदा॥१॥
एवं कृते विधाने च रोगमुक्तो नरो भवेत्।
पुष्टिमांस्तुष्टिमाञ्श्रीमान्हस्तिपाद्मसादतः॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मैलुगिकर्मविपाकोक्तं हस्तिपादग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ कर्णग्रहपीडाशमनविधानम्।
यः प्राणी मातापित्रोर्गुरुगुरुभार्ययोः पितृव्यपितृव्यपत्न्योर्मातुलमातुलान्योर्ज्येष्ठकनिष्ठभ्रातृभातृपत्न्योः सुरतादि शृणोति तं कर्णग्रहो गृह्णाति।
तस्य चिह्नं प्रवक्ष्यामि कर्णयोरुपजायते।
आकस्मिकं च बाधिर्यं कर्णपीडा महीयसी॥१॥
शृणोति चिट्चिटाकारं कर्णग्रहनिपीडनात्।
वक्ष्ये तस्य प्रतीकारं महाबलिविधानकम्॥२॥
सुरामांसं तैलपक्वंपञ्चखाद्यं विशेषतः।
तिलपिष्टं च मूलं च फलपुष्पं तथैव च॥
चतुष्पथ उषःकाले मन्त्रपूर्वं निधापयेत्॥३॥
तत्र मन्त्रः—
गृहाणेमं बलिं देव कर्णारिष्टकर ग्रह।
आतुरस्य सुखं सिद्धिं प्रयच्छ त्वं महाबल॥४॥
एवं कृते विधाने तु सुखसिद्धिः प्रजायते।
नश्यन्ति कर्णजा रोगाः कर्णग्रहसुपूजनात्॥५॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां कर्णग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ तोलग्रहपीडाशमनविधानम्।
बन्धुषु दोषं संभावयन्तमुपकर्तुरपकारिणं स्वप्रकृत्या सुकृतविक्रयिणंतोलो नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
श्वासः कासो ज्वरश्चैव शिरोर्तिपरिपीडितः॥
विच्छायो विकलो विग्नो मृतकल्पश्च जायते॥१॥
तस्य शान्तये कृच्छ्रत्रयं कारयेत्।विष्णोः सहस्राभिषेकं कारयेत्।कूष्माण्डेन जुहुयात्। कया नश्चित्रेति जपेत्। अनेन दधिसक्तुचूर्णरुधिरक्षीरापूपसुरागन्धपुष्पवस्त्रादिहिरण्यजलपूर्णकुम्भं निशायां चतुष्पथे बलिं निदध्यात्।
तत्र मन्त्रः—
व्याधिं हर महाबाहो महाभयविनाशन।
प्रसन्नो देवदेवेश विकलं त्राहि रोगिणम्॥१॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां तोलग्रहपीडाशमनविधानम्।
___________
अथ स्कन्दग्रहपीडारामनविधानम्।
बालकस्यैव पीडायां ग्रहसंचारे बालमादाय या स्त्र्युच्छिष्टा सत्याग्निंस्पृशति तं बालकं स्कन्दो नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि बालानां हितकाम्यया।
पादयोर्हस्तयोश्चापि वायुकोपः प्रजायते॥१॥
उक्तं च महाभारते—
स्पृशंश्च निकटे वह्निं बालमादाय मानवः।
स गृह्णाति ग्रहस्तं वै स्कन्दो नाम महाबलः।
तस्येह पादहस्तेषु विकारो वायुजो भवेत्॥२॥
स तु क्षीरदधिकृसरापूपतिलपिष्टमुद्गराजमाषनिष्पावपक्वमांससुराक46दलीपूर्णकुम्भं तस्योपरि किंचित्प्रमाणं कांस्यपात्रं निधाय वस्त्रद्वयेन संवेष्ट्य रक्तसूत्रेण कुङ्कुमरक्तादिभिश्च मध्यरात्रे बलिं दद्यात्। विशेषेण दक्षिणस्यां दिशि ग्रामाद्बहिः।
तत्र मन्त्रः—
बालभास्करसंकाश रक्तमाल्याम्बरप्रिय।
प्रगृह्णीष्व बलिं चेमं पूजोपस्करसंयुतम्॥१॥
ततश्चाग्निं प्रतिष्ठाप्य जुहुयात्तिलसर्पिषा।
क्षीरं च सर्षपाञ्श्वेताञ्जुहुयात्प्रयतो बुधः॥
नाममन्त्रेण चैवेह स्वाहान्तं श्रद्धयाऽन्वितः॥२॥
पश्चाद्बालकस्य रामरक्षास्तोत्रेण रक्षां कृत्वा ततो द्रोणमात्रपक्वान्नपक्वमांसदधितिलपिष्टरुधिरहिरण्यरक्तचन्दनवस्त्रगन्धाक्षतादिभिर्वृक्षमूले प्रदोषसमये बलिं दद्यात्।
एवं कृते विधाने तु रोगमुक्तः शिशुर्भवेत्।
स्कन्द्रग्रहप्रसादेन नात्र कार्या विचारणा॥३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां स्कन्दग्रहपीडाशमनविधानम्।
____________
अथ स्कन्दापस्मारपीडाशमनविधानम्।
अग्नौ मूत्रपुरीषोत्सर्गकर्तारं स्कन्दापस्मारो नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि बालानां हितकाम्यया।
व्यथा भवति जिह्वायां फेनश्चैव प्रजायते॥१॥
अपस्मारिवच्चिह्नं जायते तत्र पूर्वविधाने यद्द्रव्यं समुद्दिष्टं यच्च हवनं तदेव कुर्यात्। ततश्च शान्तिर्भवति।
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां स्कन्दापस्मारपीडाशमनविधानम्।
____________
अथ निद्रास्कन्दग्रहपीडाशमनविधानम्।
उच्छिष्टा सती जननी बालमादाय शयने निद्राति गृहीतव्रतेऽवज्ञां करोति तस्या बालकं निद्रास्कन्दो नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि बालानां हितकाम्यया।
निद्रास्कन्दस्य संतुष्ट्यै विधानं चात्र कथ्यते॥१॥
आध्मानी च ज्वरी चैव श्वासी कासी च जायते।
पीनसी रक्तनयनो बहुमूत्रो विशेषतः॥२॥
पुरीषंबहुधा चास्य जायते नात्र संशयः।
अरुचिश्चैव संतापो दिवा रात्रौ च जायते॥३॥
बलिं तस्य प्रवक्ष्यामि येन रोगात्प्रमुच्यते।
पायसं सर्पिषा युक्तं मांसं कुक्कुटमेषयोः॥४॥
सुगन्धानि च पुष्पाणि दशाङ्गं धूपनं तथा।
वटस्य मूलदेशे तु मध्यरात्रे विनिक्षिपेत्॥५॥
विधाय किंचित्कनकं सताम्बूलं सदीपकम्।
निक्षिपेन्नाममन्त्रेण श्रद्धया परया शुचिः॥६॥
एवं कृते विधाने च रोगमुक्तो भवेच्छिशुः \।
निद्रास्कन्दप्रसादेन नात्र कार्या विचारणा॥७॥
इति श्री नृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां निद्रास्फन्दग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ मेषग्रहपीडाशमनविधानम्।
मात्रा निर्भर्त्सितस्ताडितो न क्षमापितश्च सन्निद्रां कुरुते तं मेषग्रहो नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि बालानां हितकाम्यया।
सर्वाङ्गेषु वायुप्रकोपो भवति।
नेत्रोन्मीलनं कुरुते मुखे फेनोऽभिजायते।
निरीक्षितुं न शक्नोति भ्रुवोर्भङ्गोऽभिजायते॥१॥
तस्य रोगस्योपशान्तये विधानमुद्दिष्टम्। हिरण्यं दद्याच्छ्वेतवस्त्रं च दद्यात्। पायसं सक्तुलाजापूपाश्चसुगन्धानि पुष्पाणि चन्दनं सर्वं कलशे निधाय निशीथे शस्त्रपाणिर्बलिं समाहरेदनेन मन्त्रेण—
बलिं गृहाण देवेश विमुञ्चामुं च बालकम्।
स्थापितं तेऽग्रतः सम्यकृच्छिशोः शान्तिप्रदो भव॥२॥
ॐ हुंफट्स्वाहेति वलिं निक्षिपेत्।
एवं कृते विधाने च रोगमुक्तिः प्रजायते।
व्याधितस्य शिशोर्नूनं नात्र कार्या विचारणा॥३॥
केषांचिन्मतेन तं बलिं ब्राह्मणाय दद्यात्।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मेषग्रहपीडाशमनविधानम्।
अथ शिशुग्रहपीडाशमनविधानम्।
देवब्राह्मणगोगुर्वाचार्यादीनामवज्ञाकारिणं युवानं वा वृद्धं वा बालकं वा स्त्रियं तथावयस्कां वा शिशुको नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य चिह्नं प्रवक्ष्यामि प्राणिनां हितकाम्यया।
विधानं चापि वक्ष्यामि येन रोगाद्विमुच्यते॥१॥
ज्वरश्च प्रथमं तत्र जायते नात्र संशयः।
अतीसारो भवेत्पश्चादास्यशोषश्च जायते॥२॥
हस्तयोः पादयोः कम्पो जायते शिशुपीडनात्।
तस्य शान्तिं प्रवक्ष्यामि यया रोगाद्विमुच्यते॥३॥
लाजान्ससर्पिषश्चैव पायसं तण्डुलोद्भवम्।
कुक्कुटस्य च मेषस्य मांसं रक्तंतथैव च॥४॥
रक्तवस्त्रं तथा रक्तचन्दनं रक्तपुष्पकम्।
सुवर्णं विद्रुमं चैत्र नव्ये कुम्भे निधापयेत्॥५॥
वटमूलसमीपे च कुम्भं तत्र विनिक्षिपेत्।
पूर्वरात्रे च पूर्वस्यां दिशि मन्त्रेण मन्त्रितम्॥
बलिमेनं शुचिर्भूत्वा शस्त्रपाणिर्विशेषतः॥६॥
तत्र मन्त्रः—
ॐ क्रुंकुं क्रुः शिशुकाय स्वाहा, इति।
एवं कृते विधाने च रोगमुक्तिस्तु जायते।
शिशुकस्य प्रसादेन नात्र कार्या विचारणा॥७॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ महापूतनाग्रहपीडाशमनविधानम्।
चोरादिसाहसकारिणो न दण्डयत्यदण्ड्यान्दण्डयति यो राजा तं राजानं राजापत्यं वा राजपत्नीं वा महापूतना नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि नराणां हितकाम्यया।
वक्ष्ये तस्य प्रतीकारं रोगमुक्तिर्यतो भवेत्॥१॥
तेन केवलातिसारी भवति। तस्य शान्तये—
पञ्चखाद्यानि चान्नानि हरिद्रासहितानि च।
तिलपिष्टं च गन्धं च सुगन्धि कुसुमानि च॥२॥
निधाय कलशे धीमान्सुवर्णं च विशेषतः।
वस्त्रेण वेष्टितं कुम्भं तडागान्ते विनिक्षिपेत्॥
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण प्रदोषे च विशेषतः॥३॥
तत्र मन्त्रः—
नीलाम्बरधरे देवि पूतने विकृतानने।
व्याधितं मुञ्च राजानं बालकं वा तथा स्त्रियम्॥
एवं कृते विधाने च रोगशान्तिस्तु जायते॥४॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां महापूतनाग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ रेवतीग्रहपीडाशमनविधानम्
संध्याकाले मुक्तकेशमुच्छिष्टं शयने रेवतीग्रहः संक्रमते।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि नराणां हितकाम्यया।
आस्यशोषश्चदाहश्च सर्वाङ्गे कम्प एव च॥१॥
कृष्णवर्णो भवेन्नूनं रोगी नात्र विचारणा।
घृतं लाजांश्चमांसं च कौक्कुटं मेषजं तथा॥२॥
रक्तवस्त्रं च रक्तं च रक्तचन्दनमेव च।
नूतने कलशे हेम निदध्यात्प्रयतः शुचिः॥३॥
शमीमूलेऽथ वा मूले वटस्य निशि दक्षिणे।
प्रदेशे निक्षिपेद्धीमान्कृत्वा मन्त्रेण मन्त्रितम्॥४॥
तत्र मन्त्रः—
चित्राम्बरधरे देवि चित्रमाल्यानुलेपने।
रोगान्मुञ्च महाभागे गृहाण बालमुत्तमम्॥
एवं कृते विधाने च रोगशान्तिस्तु जायते॥५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां रेवतीग्रहपीडाप्रशमनविधानम्।
अथोर्ध्वपूतनाग्रहपीडाशमनविधानम्।
वित्तलोभाद्भयाद्वाऽपि श्राद्धानि न करोति योऽधिकारी पितृृगां तं नरमूर्ध्वपूतनाग्रहः संक्रमते।
तस्य चिह्नं प्रवक्ष्यामि नराणां हितकाम्यया।
अक्षिरोगी ज्वरी कासी जागरी जायते नरः॥१॥
निद्राति वासरे सम्यक्शीतार्तिपरिपीडितः।
बलिं47 सम्यक्च वक्ष्यामि येन शान्तिस्तु जायते॥२॥
समांसान्नरुधिरगन्धवस्त्रहिरण्यपूर्णकुम्भं स्नुहिवृक्षमूले प्रदोषे मन्त्रेणानेन बलिं दद्यात्।
तत्र मन्त्रः—
त्वमूर्ध्वपूतने देवि गृहाण बलिमुत्तमम्।
शिशुं विकारान्मुञ्चाद्य दुर्गे दुर्गार्तिहारिणि॥३॥
एवं कृते विधाने च व्याधिमुक्तः शिशुर्भवेत्।
शिशुर्वा तरुणो वृद्धो नात्र कार्या विचारणा॥४॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामूर्ध्वपूतनाग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ शकुनीग्रहपीडाशमनविधानम्।
पितृमातृगुरुस्वामिनो विनाऽन्येषामुच्छिष्टभोजनं देवालये मूत्रं पूरीषंनिष्ठीवनं च कुरुते तं शकुनी नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामिनराणां हितकाम्यया।
मुखे व्रणी च कण्ठे च गुदेचैव विशेषतः॥१॥
अतीसारी ज्वरी चैव कृष्णश्चापि प्रजायते।
पैष्टी सुरा तथा चान्नं मांसं मेषसमुद्भवम्॥२॥
तिलपिष्टं हरिद्रां च हिरण्यं चन्दनं शुभम्।
निधायैतानि नव्ये च कलशे च निधापयेत्॥३॥
कुम्भं तं सरितस्तीरे गवां गोष्ठे शिवालये।
भैरवालयमुद्दिश्य स्थापयेत्प्रयतः शुचिः॥४॥
मन्त्रेणानेन दैवज्ञो बलिं दद्यात्प्रयत्नतः।
प्रगृह्णीष्व वलिं चेमं शकुनि त्वं महावले॥५॥
शिशुं विकारान्मुञ्चाद्य शोभने कामरूपिणि।
एवं कृते विधाने च रोगमुक्तिश्च जायते॥६॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शकुनीग्रहपीडाशमनविधानम्।
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अथ द्वितीयरेवतीग्रहपीडाशमनविधानम्।
कुटुम्बार्थव्यतिरेके स्त्रीधनेन जीवति वृद्धो वा तरुणो वा बालो वा तं द्वितीयरेवती नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
मूत्रविष्ठाविलिप्ताङ्गो दुर्गन्धिर्जायते यथा॥१॥
तथैव मूत्रविष्ठालेपं विना दुर्गन्धिरुपजायते। हरिद्रावर्णाः स्फोटाः सर्वाङ्गेषु जायन्ते। एतदुपशान्तये पूर्वमेव बलिं दद्यात्तेनैव मन्त्रेण।
एवं कृते विधाने च रोगमुक्तिस्तु जायते।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां द्वितीयरेवतीग्रह पीडाशमनविधानम्।
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अथ शुष्करेवतीग्रहपीडाशमनविधानम्।
भूमौ पतितं प्रमादेन पर्यङ्कान्मञ्चकादपि। मातुश्चापि पितुश्चापि तं बालं शुष्करेवती नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि प्रथमं जायते ज्वरः।
आध्मानी हृद्ग्रही चैव जठरान्त्रनिपीडनम्॥१॥
तस्योपशान्तये मुद्गश्वेततण्डुलभोजनम्।
सुगन्धीन्यपि पुष्पाणि धूपश्च सरलोद्भवः॥२॥
शुष्काम्रमूले मन्त्रेणानेन वलिं दद्यात्—
करालवदने घोरे देवि धोरार्तिनाशिनि।
इमं बलिं गृहाण त्वं व्याधिमुक्तं शिशुं कुरु॥३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शुष्करेवतीग्रहपीडाशमनविधानम्।
अथासत्पूतनाग्रहपीडाशमनविधानम्।
अक्षालितचरणो योऽत्ति तं वालं वृद्धं युवानं वाऽसत्पूतना नाम ग्रहो गृह्णाति।
तस्य लिङ्गं प्रवक्ष्यामि धर्ममार्गमनुस्मरन्।
अर्बुदी देहकम्पी रात्रौ निद्राविरहितो दिवास्वापी भवति।
तस्य शान्तिं प्रवक्ष्यामि नराणां हितकाम्यया।
तिलपिष्टं तैलपक्वान्नं च सुगन्धीनि च द्रव्याणि सुगन्धिकुसुमानि च कुम्भे हिरण्यं निधाय बलिं दद्याच्च मन्त्रतः। वाह्याली(लिन्द)स्थाने प्रदोषसमये निदध्यात्।
तत्र मन्त्रः—
नीलाम्बरधरे देवि पूतने विकृतानने।
शिशुं विकारान्मुञ्चाद्य गृहाण वलिमुत्तमम्॥
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते॥१॥
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामसत्पूतनाग्रहपीडाशमनविधानम्।**
___________
अथ गर्भिणीप्रथममासपीडाशमनविधानम्।
तत्र बालरक्षाप्रसङ्गेन गर्भिणीगर्भरक्षार्थं मासविशेषोऽभिधीयते। शिशुरक्षारत्ने प्रजापतिं समुद्दिश्य देयो वलिः।
श्वेतवस्त्रं पायसं च गव्यं क्षीरं तथा घृतम्।
श्वेतच्छत्रं चन्दनं च सरत्नं चाङ्गुलीयकम्॥१॥
कुम्भे निधाय देयो वै बलिर्धूपसुधूपितः।
दीपैर्नीराजितश्चापि ताम्बूलेन समन्वितः॥
हिरण्यसहितः शक्त्या गवां दोहे निधापयेत्॥२॥
तत्र मन्त्रः—
एह्येहि भगवन्ब्रह्मन्प्रजाकर्तः प्रजापते।
परिगृहाण च बलिं सापत्यां रक्ष गर्भिणीम्॥ ३॥
इति प्रथमे मासि गर्भिणीगर्भरक्षणवलिः।
___________
अथ प्रथममासि गर्भवेदनाहरमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपोक्षितार्थद्योतिन्याम्-प्रथममासे गर्भवेदना जायते तदा
पद्मकोशीरतगरं समभागितमुदकेन पिष्ट्वाक्षीरेण सह पाययेत्। तथा च क्रियाकालगुणोत्तरे—
यदि स्यात्प्रथमे मासि गर्भिण्या गर्भवेदना।
नीलोत्पलं सनालं च शृङ्गाटककसेरुकम्॥१॥
शीततोयेन पिष्ट्वातु क्षीरेणाऽऽलोड्यतत्पिबेत्।
एवं न पतते48गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुरक्षारत्नोक्तं
गर्भिणीप्रथममासपीडाहरमौषधम्।
___________
अथ द्वितीयमासे गर्भरक्षार्थं देयोबलिः।
समुद्दिश्याश्विनौ देवौदेयो मन्त्रेण मन्त्रितः।
दध्यन्नं पायसं लाजाः पिण्याकः कुसुमानि च॥१॥
गन्धश्च धूपो दीपश्च वस्त्रेणाऽऽवेष्टितो घटः।
हेम्ना युतश्च शालायाः समीपे निक्षिपेद्बलिम्॥२॥
क्रियाकालगुणोत्तरे—
सुगन्धपुष्पवस्त्राणि कृष्णा च गिरिकर्णिका।
नीलोत्पलान्यलाभे वेद्युत्पलानि समाहरेत्॥
गोदोहस्थानमालक्ष्य निक्षिपेत्प्रयतः शुचिः॥३॥
तत्र मन्त्रः–
भगवन्तौ प्रगृह्णीतां प्रभावन्तौ वलिं त्विमम्।
स49रूपौदेवभिषजौरक्षतां गर्भिणीमिमाम्॥४॥
इति द्वितीयमासे गर्भरक्षार्थं देयो वलिः।
___________
अथ द्वितीयमासि गर्भरक्षाकरमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थयोतिन्याम्—
शालूकमुत्पलं नीलं कसेरु शृङ्गवेरकम्।
समांस(श)मुदकैः पिष्ट्वा क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्॥१॥
अत्रोदकानां बहुवचनस्य कारणमाह—यदि संतापो दारुणो वर्तते तदा शीतं मध्यमस्तदा कवोष्णं वातश्लेष्मभावे सति तदोष्णमिति।
क्रियाकालगुणोत्तरे—
द्वितीये मासि त्वथ चेद्गर्भे भवति वेदना।
तगरं कुङ्कुमं बिल्वं कर्पूरेण समन्वितम्॥१॥
अजाक्षीरेण तत्पिष्ट्वाक्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्।
एवं न पतते गर्भः सर्वशूलः प्रशाम्यति॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुरक्षारत्नोक्तं द्वितीयमासि गर्भरक्षाकरमौषधम्।
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अथ तृतीये मासि गर्मिणीगर्भवेदनायां बलिः।
शिशुरक्षारत्ने—
गर्भिणीगर्भरक्षार्थं बलिर्मासे तृतीयके।
रुद्रानेकादशोद्दिश्य देयो मन्त्रेण मन्त्रितः॥१॥
घृतमन्नं च लाजाश्च ध्वजः श्वेतश्च चन्दनम्।
श्वेतवस्त्राणि पुष्पं च श्वेतं धूपप्रदीपकौ॥२॥
श्वेतानि50 चम्पकान्याशु विघ्नशान्तिकराणि तु।
एतत्सर्वंसमाहृत्य कलशे संनिधापयेत्॥
ई(ऐ)शान्यां दिशि रात्रौ च निक्षिपेत्प्रयतः शुचिः॥ ३॥
निशायां गोदोहवेलायामित्यर्थः। क्रियाकालगुणोत्तरे यत्र बलिर्निक्षेपणीयस्तज्जलाशयस्थानमिति ज्ञातव्यम्।
तत्र मन्त्रः—
महादेवः शिवो रुद्रः शंकरो नीललोहितः।
ईशानो विजयो भौमो देवदेवो भवोद्भवः॥१॥
कपाली शंभुरीशानो रुदै(न इत्ये )कादश मूर्तयः।
रुद्रा एकादश प्रोक्ताः प्रगृह्णीत बलिं त्विम्॥२॥
युष्माकं तेजसा वृद्ध्या नित्यं रक्ष्या तु गर्भिणी।
यूयमत्रैव बुद्ध्या तु नित्यं रक्षत गर्भिणीम्॥३॥
इति मन्त्रेण देयो बलिः।
अथ तृतीये मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम् \। तृतीये मासि—
पद्मं च चन्दनं तोयं तगरं समभागितम्।
पूर्ववद्वारिणा पिष्टं क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिवेत्॥१॥
क्रियाकालगुणोत्तरे—
तृतीये मासि गर्भिण्या गर्भे भवति वेदना।
पद्मकं चन्दनं चैव बालकं पद्म51नालकम्॥१॥
पिष्ट्वाशीतेन तोयेन क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्।
एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां तृतीयमासे
गर्भिणीगर्भरक्षार्थमौषधम्।
___________
अथ चतुर्थे मासि गर्भिणीगर्भवेदनाहरमौषधं बलिश्च।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम्—
क्षीरं च कदलीमूलमुत्पलं बालकं तथा।
आलोड्य समभागेन पिबेद्रोगोपशान्तये॥१॥
क्रियाकालगुणोत्तरे—
चतुर्थे मासि गर्भिण्या गर्भे भवति वेदना।
उशीरं कदलीमूलं पद्मनालं सशर्करम्॥१॥
शीततोयेन पिष्ट्वा च पिबेत्क्षीरेण संयुतम्।
एवंन❋52पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति॥ २॥
बलिर्मासि तृतीये53 च प्रोक्तोऽसौ च चतुर्थके।
कुर्यात्मयत्नतो विद्वान्नात्र कार्या विचारणा॥ ३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुरक्षारत्नोक्तं
चतुर्थे मासि वेदनाहरौषधकथनं बलिविधानं च।
अथ पञ्चमे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थं देयो बलिः।
कर्मविपा54कसमुच्चये—
गर्भिणीगर्भरक्षार्थं पञ्चमे मासि वै बलिः।
विनायकं समुद्दिश्य देयः संयतचेतसा॥१॥
विनायकं गोमयेन कुर्यात्पिष्टेन वा पुनः।
चतुरस्रे स्थण्डिले च स्थापयेत्तं गणाधिपम्॥२॥
अभ्यर्च्य गन्धपुष्पैश्च बलिं तत्पुरतः क्षिपेत्।
सरितः पुलिने वाऽथ पर्वताग्रे55 च वा तले॥३॥
छायामाश्रित्य वृक्षस्य कस्यचिच्छ्येनकं विना।
तत्र तं सुप्रतिष्ठाप्य गणराजं कृताकृतिम्॥४॥
अन्नं पक्वंतथाऽपक्वंमांसं पक्वमपक्वकम्।
पायसं च मधुद्राक्षागुडक्षीरफलानि56 च॥५॥
कदलीफलपिण्डालुमधुकानि च मूलकम्।
लड्डुकान्नारिकेलं च कन्दमूलानि सर्पपान्॥६॥
सर्वधान्यानि लाजांश्च वरान्नंतिलपिष्टकम्।
इभुं च तद्रसं चैवमाध्वीं पैष्टीं तथा सुराम्॥७॥
गौडीं चैव विशेषेण धूपदीपौ तथाविधौ।
तथाविधशब्देन यः कश्चिद्धूपः स मये(द्ये)नाभ्यक्त इत्यर्थः।
क्रियाकालगुणोत्तरे—
पक्वापक्वेच मांसे च मत्स्याश्चापि विशेषतः।
पाटलीसहकाराणां मूलं मधुसमुद्भवम्॥१॥
अन्येषां पादपानां च विल्वादीनां च मूलकम्।
विल्वादिशब्देन दशमूली प्रसिद्धा।
एतत्सर्वं समाहृत्य वंशपात्रे मनोरमे।
मनोरम इति पञ्चवर्णैश्चित्रितेऽभ्रकादिरचनाविशेषैर्मण्डिते।
** **तत्र मन्त्रः—
एकदन्ताम्बिकापुत्र त्रिनेत्र गणनायक।
रक्ताम्बरधर श्रीमत्रक्तमाल्यानुलेपन॥१॥
स्कन्दप्रिय महावाहोपाशहस्त नमोऽस्तु ते।
प्रगृह्णीष्व बलिं चेमां सापत्यां रक्ष गर्भिणीम्॥२॥
बलिप्रदायकं मर्त्यमायुषा चाभिवर्धय।
अलक्ष्मीनामकं पापं मम सद्यो विनाशय॥३॥
एवं मन्त्रं समुच्चार्य सगदा गर्भिणी बली (सा बाला गर्भिणी सदा)।
नमस्कुर्यात्प्रयत्नेन संप्रार्थ्य च पुनः पुनः॥४॥
येन मन्त्रेण गर्भिणी नमस्करोति स एषमन्त्रः—
वक्रतुण्ड महावीर्य महाभाग महाबल।
शिरसा त्वामहं वन्दे सापत्यां रक्ष मां सदा॥५॥
इति गणेशनमस्कारः।
इति बलिं दत्त्वा रक्षामन्त्रं पठेत्। तथा हि—
अयं बलिर्मया देव त्वदर्थे प्रतिपादितः।
रक्षेमं शिशुमानन्दरूप शैलसुतात्मज॥६॥
इति पञ्चममासे गर्भिणीगर्भरक्षार्थं देयो बलिः।
** ________**
अथ पञ्चममासे गर्भिणीगर्भवेदनाहरमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम्—
पञ्चमे मासि गभिण्यां गर्भे चेद्वेदना भवेत्।
तन्निवारकमेवाऽऽशु भेषजं कथ्यते मया॥१॥
नीलोत्पलं मृणालं च कोलीक्षीरं तथैव च।
केसरं पद्मकं चैव तोयेनाऽऽलोड्यतत्पिबेत्॥२॥
क्रियाकालगुणोत्तरे—
अथास्याः पञ्चमे मासे गर्भे भवति वेदना।
नीलोत्पलं सनालं च पद्मकेसरसंयुतम्॥१॥
अजाक्षीरेण तत्पिष्ट्वातोयेनाऽऽलोड्यतत्पिबेत्।
अत्र योगे कोलीक्षीरमेव मुख्यं तत्पुनः केषांचित्सेव्यं केषांचिन्न सेव्यं तस्मादजाक्षीरम्।
एवं न पतते गर्भः स च रोगः प्रशाम्यति॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां पञ्चमे मासि गर्भिण्या
गर्भवेदनाहरमौषधं शिशुरक्षारत्नोक्तं विधानं च।
अथ षष्ठे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थं देयो बलिः।
कर्मविपाकसमुच्चये—
गर्भिणीगर्भरक्षार्थं षष्ठे मासि तथा बलिः।
वसूनष्टौ समुद्दिश्य देयो मन्त्रेण मन्त्रितः॥१॥
घृतान्नं च हरि[द्रा]क्तंखण्डं लाजाश्च पायसम्।
पीतवर्णानि पुष्पाणि तथा नीलोत्पलानि च॥
सकाञ्चनः पूर्णकुम्भः सर्वंनद्यास्तटे क्षिपेत्॥२॥
पूर्णकुम्भः स जलेन पूर्ण इति। अत्र मन्त्रः—
प्रभासः पावकः सोमः प्रत्यूषो मारुतोऽनलः।
धरो ध्रुव इति ह्येते वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः॥
प्रगृह्णन्तु बलिं चेमां सर्वे रक्षन्तु गर्भिणीम्॥३॥
इति षष्ठे मासि देयो वलिः।
________
अथ पष्ठे मासि गर्भवेदनाहरमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम्-पष्ठे चैलामृद्वीकोत्पलकेसरं पिबेत्। क्रियाकालगुणोत्तरे—
अथास्या मासि पष्ठेतु गर्भे भवतिवेदना।
पिप्पलीबीजमूले च सोत्पले च सकेसरे॥१॥
शीततोयेन पिष्ट्वातु क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्।
एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां षष्ठे मासि
गर्भिण्या गर्भवेदनाहरमौषधं सविधानम्।
________
अथ सप्तमे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थं देयो बलिः।
अथ सप्तमे मासि गर्भवेदनाहरं विधानम्। एतावांस्तु विशेषः। षष्ठे च वसवो देवाः। अत्र स्कन्दो देवता। अत एव बलिदाने मन्त्रभेदः। बलिसमुदायः पूर्व एव।
तत्र मन्त्रः—
स्कन्द षण्मुख देवेश शिवप्रीतिविवर्धन।
प्रगृह्णीष्व वलिं चेमां सापत्यां रक्ष गर्भिणीम्॥१॥
बलिक्षेपस्थानं नदीतटम्।
इति सप्तमे मासि देयोवलिः।
अथ सप्तमे मासि गर्भवेदनाहरमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम्सप्तमे— कपित्थत्वक्फलमूलशर्करालाजाश्च वेणुशर्करा। सर्वंसमांशं कृत्वा वारिणा निष्पीड्यदातव्यम्।
क्रियाकालगुणोत्तरेt
अथास्याः सप्तमे मासे गर्भे भवति वेदना।
कपित्थत्वक्चशालूकं शर्करायुक्तमञ्जसा॥१॥
अञ्जसेति शर्करा समभागा।
शीततोयेन पिष्ट्वातु क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्॥
एवं न पतते गर्भः स च रोगः प्रशाम्यति॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुरक्षारत्नोक्तं
सप्तमे मासि गर्भवेदनाहरभेषजविधानम्।
________
अथ57 गर्भिण्या अष्टमे मासि ससत्वमहिषीदानविधिः।
एवं गुणविशिष्टे पुण्यदेशे पुण्यकाले च ममोदरमध्यस्थे गर्भ औत्सुक्यगतिवैकल्यशैथिल्यपवनग्रहवरू(दुरु)क्तिवाक्स्खलननेत्रभ्रान्तिरूज(गु)ग्रत्वालस्यस्वरस्पन्दस्वरभेदानिच्छाङ्गस्पन्दवैवर्ण्यग्रन्थिलत्वोन्मादादयो ये दोषास्तथा मम प्रमादादशुचित्वात्क्रियालोपादसत्यभाषणादशुद्धभूमिक्रमणाद्ग्रहणस्याबलोकनात्प्रदोषादौ स्नानादपवित्रस्य भक्षणाद्ये दोषाः कर्मजा अकर्मजा वा समुत्पन्नास्तेषां संशोधनार्थं तथोदरस्थस्य गर्भस्याऽऽयुरारोग्यैश्वर्यादिसकलमनोरथसिद्धयर्थं गर्भवेदनापरिहारार्थं श्रीयमदेवताप्रीत्यर्थं ससत्वमहिषीदानमहं करिष्ये। तदङ्गस्वस्तिवाचनं प्रतिग्रहीतृवरणपूजनं महिषीपूजनं च करिष्ये। इति प्रयोगं विधाय स्वस्तिवाचनं प्रतिग्रहीतृपूजनं च कुर्यात्। तत्र प्राङ्मुखो दाता प्रतिग्रहीतुरुदङ्मुखस्य वरणं निष्पाद्य यथासंभववस्त्रगन्धस्रङ्मुद्रिकादिना विप्रसमीपे प्रार्थयेदनेन मन्त्रेण—
मनसे(ई)प्सितशु(सि)द्ध्यर्थं गृहाणेमां द्विजोत्तम।
मया दत्तां सदासौख्यसंतानफलदायिनीम्॥१॥
ततः प्रतिग्रहीत्रा ( त्रे ) मां [ प्रतिगृह्णामीति ] महिषीसमीपे वक्तव्यम्।
ततो महिषीपूजनम्। प्राङ्मुखां महिषीं संस्थाप्य पुष्पचन्दनवस्त्राद्यैस्तामलंकृत्य संपूज्य च प्रार्थयेत्।
तत्र मन्त्रः—
इन्द्रादिलोकपालानां[पूज्या] या महिषी शुभा।
महिषीदानमाहात्म्यश्रोतुर्मे सर्वकामदा॥२॥
धर्मराजस्य साहाय्ये यस्याः पुत्रः प्रतिष्ठितः।
महिषासुरजननी साऽस्तु मे सर्वकामदा॥३॥
इति महिषीं संप्रार्थ्य प्रतिग्रहीतृहस्ते शिवा आपः सन्तु इत्यादिकं विधायामुकसगोत्रायेत्यादिकं चोच्चार्य स्वदक्षिणहस्ते पुष्पाक्षतयुक्तमुदकं गृहीत्वैनं प्रयोगं पठेत्। इमां महिषीं प्रथमोद्गमगर्भयुक्तां सवस्त्रां सालंकृतां( कारां)यथोपस्करसहितां धर्मदैवतां मदीयोदरस्थगर्भस्य सर्वोपद्रवदोपविनाशनार्थंगुणवत्संतानप्राप्त्यर्थं सत्पुत्रसुखकामा तुभ्यमहं संप्रददे[तेन] भगवान् धर्मः प्रीयताम्। मे वाञ्छितार्थसिद्धिरस्तु।
उदरस्थस्य गर्भस्य ये दोषोपद्रवाः स्मृताः।
तेषां निरसनार्थाय दत्तेयं महिषी मया॥४॥
गृहाणेमां द्विजश्रेष्ठसुखसिद्धिप्रदायिनीम्।
दानेनानेन सकलं यथोक्तं फलमस्तु मे॥५॥
तत्सन्नमम। देवस्य त्वेत्यादि जपेत्। धर्माय देवायेमां महिषीं प्रतिगृह्णामीति पठित्वा को ददातीति जपेत्। ततो दक्षिणादानम्। प्रथमगर्भयुक्ता द्विवस्त्रयुक्ता सालंकारा। ते चालंकाराः। सुवर्णशृङ्गी सुवर्णतिलकसुवर्णघण्टायुक्ता ताम्रदोहन[पात्र]युता। पिण्डकप्रस्वप्रदा(मा)न(ण)सप्तधान्यानि। ब्राह्मणाय वस्त्रत्रयकञ्चुकोष्णीषप्रावरणानि। कर्ममात्रालंकाराः। मालाद्वयम्।रक्तचन्दनानुलेपनं च। फलानि चत्वारि। दक्षिणा दानानुसारतः। पादुकाप्रदानम्।
इत्यष्ठमे मासि महिषीदानविधिः। )
________
अथाष्ठमे मासि गर्भिण्या गर्भरक्षार्यं देयो बलिः।
कर्मविपाकसमुच्चये—
गर्भिणीगर्भरक्षार्थं बलिर्मासे न(ऽथ) चाष्टमे।
दुर्गामुद्दिश्य दातव्यो ह्येवं कुर्वन्न सीदति॥१॥
बलिदानप्रकारमाह—
सगुङंपायसं लाजास्तृणधान्यौदनं घृतम्।
अपूपाः कृसराश्चैव माहिषं दधि मूलकम्॥२॥
माषा निष्पावका मुद्गाः श्यामाकाः कुसुमानि च।
नीलोत्पलानि च तथा पूर्णकुम्भः सकाञ्चनः॥
एतत्क्षिपेन्नदीतीरे मन्त्रेणानेन संयतः॥३॥
ग्रन्थान्तरे तु विशेषमाह—
गिरौ वा सरितस्तीरे देवस्थाने तडागके।
राजमार्गे द्रुमाधस्तो बलिमेनं विनिक्षिपेत्॥४॥
तत्र मन्त्रः—
कात्यायानिमहादेवि ज्येष्ठे वन्द्येनिशाप्रिये।
दुर्गे देवि महाकालि सिंहशार्दूलवाहने॥५॥
धनुष्खड्गधरे देवि दृष्टदैत्यविनाशिनि।
नदीशैलप्रिये देवि कुमारि सुभगे शिवे॥६॥
अष्टहस्ते चतुर्वक्त्रे पिङ्गले शुकनासिके।
प्रगृह्णीष्व बलिं चेमं सापत्यां रक्ष गर्भिणीम्॥७॥
इत्यष्टमे मासि गर्भिण्या गर्भरक्षार्थ देयो बलिः।
________
अथाष्टमे मासि गर्भिणीगर्भवेदनाहरमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम्—
अष्टमे मासि विज्ञेयं धान्यं केसरकं तथा।
शालूकमुत्पलं चैव तथा च गजपिप्पली॥
निष्क्वाथ्य सितया सर्वंदेयं रोगोपशान्तये॥१॥
क्रियाकालगुणोत्तरे—
अथास्यास्त्वष्टमे मासि गर्भेभवति वेदना।
पद्मकं गजकृष्णा च धान्यमुत्पलकं तथा॥२॥
शीततोयेन पिष्ट्वा तु क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्।
एवं न पतते गर्भः स च रोगः प्रशाम्यति॥३॥
**इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां कर्मविपाकसमुच्चयोक्तमष्टमे **
मासि गर्भिण्या गर्भवेदनाहरभेषजविधानम्।
अथ नवमे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थं देयो बलिः।
कर्मविपाकसमुच्चये—
गर्भिण्या गर्भरक्षार्थं मासेऽथ नवमे बलिः।
देयः स्यान्मातृकोद्देशस्ततः स्याद्रोगमुक्तिदः॥१॥
बलिस्वरूपमाह—
दध्योदनं च लाजाश्च मुद्गान्नंच पुनर्दधि।
कृसरश्च तथा श्वेतपङ्कजानि च चन्दनम्॥२॥
शतपत्राणि पुष्पाणि तथाऽन्यानि शुभानि च।
धूपो वस्त्रं हिरण्यं च पूर्णकुम्भस्तथैव च॥३॥
** **बलिमन्त्रमाह—
प्रगृह्णीत बलिं चेमं मया दत्तं च मातरः।
यूयं रक्षन्तु संतुष्टाः सापत्यां गर्भिणीमिमाम्॥४॥
बलिक्षेपश्चतुष्पथे।
इति नवमे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थंदेयो बलिः।
________
अथ नवमे मासि गर्भिणीगर्भवेदनाहरमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम्—
नवमे मासि काकोलीपलाशस्य तु बीजकम्।
एरण्डमूलसंयुक्तं पिष्ट्वा तोयेन संयतः॥१॥
कृत्वा तु मोदकं धात्रीफलमानं विशेषतः।
जीर्णान्ने भक्षितश्चैव हरेद्गर्मव्यथां ध्रुवम्॥२॥
क्रियाकालगुणोत्तरे—
अथास्या नवमे मासि गर्भेभवति वेदना।
पलाशबीजं काकोलीमूलं स्यात्पौष्करं तथा॥३॥
सोशीरं सोदकं कृत्वा जीर्णान्ने भोजयेद्ध्रुवम्।
एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति॥४॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुरक्षारत्नोक्तं
नवमे मासि गर्भवेदनाहरभेषजविधानम्।
अथ दशमे मासिगर्भिणीगर्भरक्षार्थं देयो बलिः।
कर्मविपाकसंग्रहे—
गर्भिणीगर्भरक्षार्थं मासे च दशमे बलिः।
उद्दिश्य निर्ऋतिं देवं बलिर्देयस्तु मन्त्रिणा (तः)॥१॥
तत्र बलिप्रकारमाह—
पक्वान्नंकृसरो (रं) लाजाः (जान्) पक्वापक्वफलं तथा।
इक्षूणां निक्षिपेत्तत्र रक्षो(सं) मन्त्रेण मन्त्रकृ(वि)त्॥ २॥
कृष्णगन्धं कृष्णवस्त्रं कृष्णानि कुसुमानि च।
धूपो दीपश्च नैवेद्यं बलये संप्रदीयते॥३॥
नीलोत्पलानि कुम्भान्ते (न्तः) सजलानि विनिक्षिपेत्।
दक्षिणाशां प्रति तथा नीत्वा तत्र विनिक्षिपेत्॥४॥
** **तत्र मन्त्रः—
ॐ ह्रंह्रां ह्रीं ह्रंस्वाहा।
बालतन्त्रे च कुक्कुटाचार्यमतेऽपि भोजराजमते च सर्वत्र संमतताऽस्य मन्त्रस्य।
बलिं गृहाण रक्षस्त्वं मया दत्तं (ते) प्रतिपादितम्।
बलिं[त] मवलोकय(स्व) सापत्यां रक्ष गर्भिणीम्॥५॥
निर्विघ्नं कुरु कुरु गर्भपीडनात्।
प्रेतासन महाबाहो कुमुदेत्तवत(भरव)प्रिय।
प्रगृह्णीष्व बलिं चेमां सापत्यां रक्ष गर्भिणीम्॥६॥
अत्र बलो ब्राह्मणैर्विव58र्जनीयस्तैरिक्षुर59सोऽक्षेपणीयः।
इति दशमे मासि गर्भरक्षार्थं देयो बलिः।
________
अथ दशमे मासि गर्भवेदनाहरमौषधम्।
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम्–दशमे काश्मीरोत्पलं मधुकं ससितं तण्डु60लेन पिष्ट्वा[ क्षीरेणा ]ऽऽलोड्यतत्पिबेत्।
क्रियाकालगुणोत्तरे—
अथास्या दशमे मासि गर्भे भवति वेदना।
शर्करा चोत्पलं चैव मधुकं मुद्गमेव च॥१॥
शीततोयेन पिष्ट्वाच क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्।
एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुरक्षारत्नोक्तं दशमे
मासि गर्भिणीगर्भवेदनाहरभेषजविधानम्।
________
अथैकादशे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थं देयो बलिः।
कर्मविपाकसंग्रहे—
गर्भिणीगर्भरक्षार्थं मासि चैकादशे बलिः।
वासुदेवं समुद्दिश्य देयो नात्र विचारणा॥१॥
पायसापूपपिष्टं च गुडो लाजाश्च सक्तवः।
पिष्टशब्देन पिष्टान्नम्।
श्यामो ध्वजस्तथा धूपः श्यामं च चन्दनं स्मृतम्॥२॥
श्यामं चन्दनं कृष्णागरु श्यामो धूपः प्रियंगुः। श्यामानि च नीलोत्पलानीत्यर्थः। तदभावे श्यामानि मोगराणि कदम्बपुष्पाणि। श्यामले कलशे निधाय सर्वंनिक्षिपेत्। जले मूले बोधिद्रुमस्य वा वृन्दावनतले वाऽपि विनिक्षिपेत्। तत्र प्रयतो भूत्वाऽमुं मन्त्रमुच्चारयेत्।
पाञ्चजन्यप्रभाव्यक्त कौस्तुभद्योतिताङ्गक।
प्रगृह्णीष्व बलिं चेमं सापत्यां रक्ष गर्भिणीम्॥३॥
इत्येकादशे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थंदेयो बलिः।
________
अथैकादशे मासि गर्भवेदनाहरमौषधम्।
दशमे मासि यदुक्तं गर्भवेदनाहरमौषधं तदेवैकादशे मासि देयमिति।
क्रियाकालगुणोत्तरे—
त61तश्चैकादशे मासि गर्भे भवति वेदना।
पद्मोत्पलं च मधुकं तालकेनापि संयुतम्॥१॥
शीततोयेन पिष्ट्वातु क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्।
एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति॥२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुरक्षारत्नोक्तमेकादशे मासि गर्भवेदनाहरभेषजविधानम्।
अथ द्वादशे मासि गर्भिणीगर्भरक्षार्थं देयो बलिः❋62।
अथ [ च ] द्वादशे मासि गर्भे भवति वेदना।
पद्मं शृङ्गारकं चैवचोत्पलं च सनालकम्॥१॥
शीततोयेन पिष्ट्वा तु क्षीरेणाऽऽलोड्य तत्पिबेत्।
एवं न पतते गर्भः स च शूलः प्रशाम्यति॥२॥
अत्र सर्वत्र व्यावृत्तक्षीरशब्देन गोक्षीरमुच्यते तच्चापक्वमेव। यदाऽपक्वाभावस्तदा पक्वंनिर्वाप्य सितया सह प्रयोगे देयम्। गोक्षीरस्याप्यभावो यदा तदा कृष्णाजाक्षीरं ज्ञातव्यम्। पथ्यं क्षीरौदनम् (नः)।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिशुरक्षारत्नोक्तं
द्वादशमासे गर्भवेदनाहरभेषजविधानम्।
_________
अथ सुखप्रसवोपायः॥
नारायणीयटीकायामपेक्षितार्थद्योतिन्याम्—
करङ्कीभूतगोमूर्धा सूतकीभवनोपरि।
तत्काले निहितो नार्याः सुखप्रसवकारकः॥१॥
करङ्कीभूतगोमूर्धाऽस्थिमात्रावशिष्टं गोमस्तकमिति।
** **तथाच—
उपोदक्यास्तु मूलानि तैलयुक्तानि कारयेत्।
योनेः मलेपो दातव्यः सुखप्रसवकारकः॥२॥
अन्यच्च—
अपामार्गस्य मूलानि पाठां चैव विशेषतः।
पेषयेदारनालेन तेन योनिः प्रलिप्यते॥
तदेव पाययेद्धीमान्सुखप्रसवहेतवे॥३॥
अन्यच्च—
वंशस्य निम्बस्य च संप्रदिष्टा त्वक्संप्रयुक्ता तुलसीरसाढ्या।
मूला प्रधाना नु (तु) कपित्थपत्रं करञ्जवीजं च समस्तमेतत्॥४॥
अजापयःसंयुतमेव पथ्यं घृतं च तैलेन युतं समांस( शं )म्।
योनिप्रलेपं विदधीत तेन तच्चापि पेयं खलु सौख्यसिद्ध्यै॥५॥
गर्भे मृतं चा(तश्चा)र्भकमे(क ए)ति सम्यग्द्वारं च योनेर्न करोति दुःखम्।
एवं विधानं न करोति जानन्स भ्रूणहा नात्र विचारणीयम्॥६॥
तत्र योनिलेपनमन्त्रः—
हिमवदुत्तरे पार्श्वे शवरी नाम यक्षिणी।
तस्या नूपुरशब्देन विशल्या भवतु(साऽस्तु)गर्भिणी॥ स्वाहा॥७॥
इति मन्त्रः।
❋63 (प्रमन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना। अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे। इति पानीयं मन्त्रयित्वा पाययेत्। )
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां पृथ्वीमल्लकृतशिशुरक्षारत्नोक्तसुखप्रसवोपायविधानम्।
_________
अथ प्रसङ्गेन लुग्धजातकोक्तानि बालरक्षोपयोगीनि द्वादश विधानानि।
तत्र श्रीस्कन्दसूर्यसंवादे विमोचिनीपीडाशमनविधानम्।
सूर्य उवाच—
केन कर्मविपाकेन बालानां जायते व्यथा।
जातमात्राणि बालानि कर्म किं परिकुर्वते॥१॥
आहारश्चैव निद्रा च रुदितं हास्यमेव च।
स्वाभाविकं त्विदं देव कर्म चैषां षडानन॥२॥
कर्मणस्त्वस्य करणात्कथं पापं प्रजायते।
पापं विना कथं व्याधिः पीडयत्यखिलाञ्छिशून्॥३॥
तेषां कर्मफलं किं च मातापित्रोस्तु कर्मजम्।
जन्मनः समयस्या64थ तन्ममाऽऽचक्ष्व सुव्रत॥४॥
श्रीस्कन्द उवाच—
येन कर्मविपाकेन शिशूनां जायते गदः।
तत्सर्वं कथयिष्यामि पृच्छतस्ते दिवाकर॥५॥
लङ्कायां रावणो नाम पौलस्त्यो राक्षसेश्वरः।
स्वसारस्तस्य वीरस्य द्वादशाऽऽसन्महाबलाः॥६॥
ताभिः कृतं तपो घोरं सर्वलोकभ65यप्रदम्।
पीडितं ताभिरखिलं जगत्तीव्रतपोबलात्॥७॥
रुद्रस्त्वाराधितस्ताभिस्तपसा तीव्रतेजसा।
प्रसन्नोऽभूत्तदा देवस्ताभ्य एवं वरं ददौ॥८॥
रुद्र उवाच—
वरदोऽहं वरार्हाभ्यो❋66 युष्मभ्यं रजनी67वराः+68।
ताभिर्वृतं तदा भक्ष्यं बालानां देहसंभवम्॥९॥
वसासृङ्मांसमेदोस्थिमज्जाशुक्रात्मकं रवे।
देहि देवेश सर्वंभो जीवतामेव शंकर॥१०॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तासां चुकोप परमेश्वरः।
ब्रह्मवंशसमुद्भूतास्तपोवृत्तिपरायणाः॥११॥
तत्कथं वालघाताय चेतो वः परिवर्तते।
सर्वलोकमतं देयं प्रार्थितं तु मनीषिभिः॥१२॥
राक्षस्य ऊचुः—
यदि प्रसन्नो भगवान्ददात्यस्मत्मियं शिवः।
सर्वेषामपि बालानां मेदसा तृप्तिरेव नः॥१३॥
रुद्र उवाच—
या स्त्री निशामुखेऽश्नाति बालं स्पृशति भुञ्जती।
प्रसूतिसमयेऽभ्यङ्गं न करोति प्रमादतः॥१४॥
नग्ना निद्राति रात्रौ वा निष्पन्नसुरता सती।
तस्या बालं दिनैर्मासैर्वर्षैरपि विशेषतः॥१५॥
आद्ये तु दिवसे मासे वर्षे वाऽपि विमोचिनी।
गृह्णातु मत्प्रसादेन ज्वराद्यैर्वेदनाचयैः॥१६॥
द्वितीये मोहिनी नाम सुनन्दा तु तृतीयके।
चतुर्थे पूतना नाम पञ्चमे ह्यासुरी तथा॥१७॥
षष्ठे तु रेवती देवी बालं गृह्णातु सत्वरम्।
सप्तमे शकुनी नाम त्वष्टमे च पिशाचिका॥१८॥
नवमे पाशिनी देवी शिशुं गृह्णातु सत्वरम्।
महामारी तु दशमे कालिका तु ततः परम्॥१९॥
द्वादशे भामिनी देवी पीडाकरणतत्परा।
यूयमेवंकुरुध्वंभोः पीडां बालकविग्रहे॥२०॥
आत्मनो दिवसे मासे वर्षे चापि पृथक्पृथक्।
निमित्ते सति राक्षस्यः शुचौ तु न कदाचन॥२१॥
युष्मभ्यं बलिदानं ये विदधत्यखिलं परम्।
गृहीतमपि बालं तं संतुष्टाः परिमुञ्चत॥२२ ॥
इति लब्धवराः सर्वाः पीडयन्ति शिशून्हि ताः।
दिनमासाब्दमानेन नात्र कार्या विचारणा॥२३ ॥
प्रथमे दिवसे मासे वर्षे देवी विमोचिनी।
तस्यास्तु जायते पीडा शिशूनां तीव्रवेदना॥२४ ॥
ज्वरस्तु प्रथमं तावन्नेत्ररोगस्ततः परम्।
न गृह्णाति स्तनं डिम्भो वान्तिरात्यन्तिकी भवेत्॥२५ ॥
मुष्टिं बध्नाति वेगेन दन्तान्दन्तैर्दशत्यलम्।
इत्थं प्रजायते पीडा विमोचिन्या दिवाकर॥२६ ॥
तस्याः पूजां प्रवक्ष्यामि बालानां शान्तिकारिणीम्।
करवीरस्य पुष्पाणि चन्दनं रक्तपूर्वकम्॥२७ ॥
धूपस्तु शिवनिर्माल्यं साज्यं बिल्बदलं स्मृतम्।
दीपास्तु पञ्च विज्ञेयास्तथा पञ्चैव पोलिकाः॥२८॥
मुष्टिकाः पञ्च विज्ञेया ध्वजाः पञ्च सुपीतकाः।
ताम्बूलवीटिकाः पञ्च पूगी(ग) फलसमन्विताः॥२९ ॥
रक्ततण्डुलभक्तस्तु प्रोक्तः साज्यगुडस्तथा।
शरावे नूतने प्राज्ञ निधेयं सर्वमेव तत्॥३० ॥
ततस्तु पुत्तलीं कुर्यान्नद्याउभयतो मृदः।
तिदध्यात्तत्र तां श्रीमान्पीतवस्त्रसमावृताम्॥३१ ॥
पीत69सूत्रोपवीतां तां पूजयेद्भक्तिमान्नरः।
पूर्वोक्तैरेव संभारैर्गन्धधूपादिभिर्बुधः॥३२॥
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण प्रार्थयेत्तां समाहितः।
तत्र मन्त्रः—
ॐ नमो भक्तवत्सले विमोचिनि स्वाहा।
एवं मन्त्रं समुच्चार्य सर्वांपूजां प्रकल्पयेत्॥३३॥
केषांचिन्मत एकस्मिञ्छरावे तां पुत्तलीं निधायान्यस्मिञ्छरावे गन्धादिताम्बूलान्तः संभारो निधीयते। त70त्र ब्रह्मयामल उक्तम्। एक एव यदा भवति तदा पुत्तलीं शरा71व आदौ निधाय तस्याः पुरतस्तत्सर्वंनिक्षिप्य तत्रैवोपचारा72न्विधाय पञ्च पल्लवानेकीकृत्य बालकाङ्गेभ्यः सर्वं निःसार्य सोदकांस्ततस्तु पुनर्नीराजनं विधाय तत्सर्वं नेता नयतु सकम्बलः सशस्त्रो मन्त्रमुच्चारयन् \। ते च पल्लवाः—
जम्ब्वाम्रोदुम्बराश्वत्थवटानां पल्लवास्तथा।
सर्वाङ्गेभ्यः समुत्तार्य पीडा बालस्य संव्रजेत्॥३४॥
इत्थं रात्रित्रये कुर्याद्विधानं सुसमाहितः।
ग्रामादुत्तरतो नीत्वा पूर्वरात्रे विचक्षणः॥३५॥
तस्मिन्स्थाने जपेन्मन्त्रं बालानां शान्तिहेतवे।
एवं प्रशान्तिमायाति शिशुपीडा न संशयः॥३६॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मार्कण्डेयपुराणे
लुब्धजातकोक्तं प्रथमदिवसमासाब्दजनितविमोचिनीपीडाशमनविधानम्।
________
अथ मोहिनीपीडाशमनविधानम्।
स्कन्द उवाच—
द्वितीये दिवसे मासे वर्षे चैव प्रभाकर।
मोहिनी नाम देव्यत्र कुरुते पीडनं शिशोः॥१॥
ज्वरं नेत्ररुजं कासं श्वासं चैवविशेषतः।
छर्दनं ग्रहणीं द्वेषं जनयत्यनिशं शिशोः॥२॥
तत्र शान्तिविधानं च प्रवक्ष्यामि समासतः।
मालतीकुसुमैः पूजा चन्दनं मलयोद्भवम्॥३॥
कुङ्कुमं केशरं दिव्यं कर्पूरं सुविलेपनम् ।
दि73व्यभक्तिसमाचारा दशाङ्गं धूपनं तथा ॥ ४ ॥
नैवेद्यं पूर्ववद्देयं तथैव पल्लवक्रिया ।
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशयेत् ॥
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण कुर्यात्सर्वमतन्द्रितः ॥ ५ ॥
तत्र मन्त्रः—
सर्वेश्वरि सर्वजनप्रियंकरि त्राहि त्राहि जगत्सर्वम् ॐ नमो भगवति स्वाहा ।
इत्यनेन हि मन्त्रेण सर्वं कृत्वा विधानकम् ।
रात्रित्रये विधातव्यं पश्चिमे ग्रामतो बहिः ॥
प्रथमे यामिनीयामे कृतं भवति सौख्यदम् ॥ ६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां लुब्धजातकोक्तं द्वितीयदिवसमासवर्षजनितमोहिनीपीडाशमनविधानम् ।
__________
अथ सुनन्दापीडाशमनविधानम् ।
स्कन्द उवाच—
तृतीये दिवसे मासे वर्षे शृणु विधिं रवे।
सुनन्दा नाम देव्यत्र बालानां भयदा भवेत् ॥ १ ॥
अवस्थां कुरुते घोरां सुनन्दा चैव भामिनी।
हृद्रोगच्छर्दनं श्वासो ज्वरेण सह जायते ॥ २ ॥
आकुञ्चयति गात्राणि शिशून्रोगादहर्निशम् ।
इत्थं संजायतेपीडा सुनन्दाकोपसंभवा ॥ ३ ॥
तस्याः शान्तिविधानं तु प्रवक्ष्यामि समासतः ।
शतपत्राणि पुष्पाणि चन्दनस्यानुलेपनम् ॥ ४ ॥
हरिद्राकुडकुमं नागकेशरं बालकान्वितम् ।
गन्धार्थं धूपनं दद्याद्गुग्गुलं चातिशोभनम् ॥ ५ ॥
घृताक्तं खदिराङ्गारैः संप्रताप्य विशेषतः ।
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशयेत् ॥ ६ ॥
प्रभृतित्रयशालीनामोदनः सर्पिषाऽन्वितः ।
दीपकाः पोलिकाः पञ्च तावन्तो मुष्टिकाः स्मृताः ॥ ७ ॥
ध्वजाः पञ्चैव विज्ञेयाः सहिताः पञ्चपल्लवैः ।
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण बलिं सर्वे समाहरेत् ॥ ८ ॥
तत्र मन्त्रः—
ॐ नमः सुनन्दायै हुं फट् स्वाहा ।
इत्यनेन प्रकारेण ग्रामात्पूर्वंविनिक्षिपेत् ।
त्रिरात्रं रजनीयामे पूर्वे बालो( धो )पशान्तये ॥ ९॥
एवं कृते विधाने तु व्याधिमात्रं विनश्यति ।
वर्धते दीपवद्बालः शुक्लपक्षाब्जवत्सुखम् ॥ १० ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां तृतीयदिनमासाब्दजनितसुनन्दापीडाशमनविधानम् ।
__________
अथ पूतनापीडाशमनविधानम् ।
** **स्कन्द उवाच—
चतुर्थे दिवसे मासे वर्षे चैव विभाकर ।
पूतना नाम देव्यत्र पीडां प्रकुरुते शिशोः ॥ १ ॥
संतापो जायते पूर्वमतिसारस्ततः परम् ।
मुष्टिं बध्नाति कम्पश्च वारं वारं प्रजायते ॥ २ ॥
तस्याः शान्ति प्रवक्ष्यामि पीडाया उष्णदीधिते ।
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशयेत् ॥ ३ ॥
वेष्टयेद्रक्त74सूत्रेण कुङ्कुमेनानुलेपयेत् ।
पूजयेद्धौत्तुरैः पुष्पैर्बब( द )रीपत्रसंयुतैः ॥ ४ ॥
मत्स्यमांसस्य धूपोऽत्र गव्येनाऽऽज्येन संयुतः ।
त्रयो दीपास्त्रिकोणास्तु साज्य75वर्त्तिसमन्विताः ॥ ५॥
तिस्रस्तु पोलिका ज्ञेया मुष्टयस्तु त्रयस्तथा ।
ध्वजास्त्रयः समाख्याता नात्र कार्या विचारणा ॥ ६॥
प्रसृतित्रयमुद्दिष्टं तण्डुलानां प्रभाकर ।
तद्भक्तं सर्पिषा युक्तं शरावे संनिवेशयेत् ॥ ७ ॥
रक्तवस्त्रेण संवेष्ट्य नमस्कृत्वा( त्य )तु पुत्तलीम् ।
दध्यक्षतसमारोपं विदध्यात्तु समाहितः ॥ ८ ॥
पल्लवैः पञ्चभिर्बालं सर्वाङ्गेषु प्रमार्जयेत् ।
तत्र मन्त्रः—
ॐ नमः पूतने मातर्वलिं पश्य सुशोभने ।
बालकं मुञ्च वेगेन बलिदानेन हर्षिते ॥ ९ ॥
इति मन्त्रं समुच्चार्य सर्वंबलिमुपाहरेत् ।
प्रदोषे क्षणनिर्वृत्ते सप्तसप्ते विधिं शृणु ॥ १० ॥
दक्षिणां दिशमाश्रित्य निक्षिपेद्वामतो बहिः ।
एवं कृते बलौ सम्यग्बालकः सुखमाप्नुयात् ॥ ११ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां स्कन्दपुराणोक्तं चतुर्थदिवसमासवर्षजनितपूतनापीडाशमनविधानम् ।
__________
अथाऽऽसुरीपीडाशमनविधानम् ।
स्कन्द उवाच—
पञ्चमे दिवसे मासे वर्षे चैव प्रभाकर ।
आसुरी नाम देव्यत्र बालकं बाधते भृशम् ॥ १ ॥
तत्र चिह्नं प्रवक्ष्यामि बालाङ्गे यत्प्रजायते ।
ज्वरस्तु प्रथमं पश्चाद्धृद्रोगो ग्रहणी ततः ॥ २ ॥
मुष्टिबन्धः प्रलापः स्यादुद्वेगोऽनशनं तथा ।
शिरोरुग्जायतेऽत्यन्तमेतल्लक्षणकं रखे ॥ ३ ॥
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा पीतसूत्रेण वेष्टयेत् ।
पीतवासो वसानां तां शरावे संनिवेशयेत् ॥ ४ ॥
घृताभ्यङ्गो विधेयोऽत्र हरिद्रालेपने कृते ।
ततः पूजां प्रकुर्वीत कुसुमैः करवीरजैः ॥ ५ ॥
जपापुष्पैर्बन्धुजीवैस्तथा बालस्य चानघ ।
चन्द्रनेनानुलिप्ता76 तां दिव्यगन्धोपशोभिताम् ॥ ६ ॥
राजिकासर्षपैर्धूपोघृताक्तोऽत्र प्रशस्यते ।
दीपकाः सप्त विज्ञेया ध्वजास्तावन्त एव च ॥ ७ ॥
मुष्टिकाः पोलिकाः सप्त सप्त सौलि (वै मालि ) कास्तथा ।
नैवेद्यार्थंसमुद्दिष्टश्चौदनः सघृतो हविः ॥ ८ ॥
पल्लवैस्तु यथापूर्वं कारयेन्मार्जनं शिशोः ।
मन्त्रमेनं समुच्चार्यंत्रिवारं प्रतिपूजने ॥ ९ ॥
** **तत्र मन्त्रः—
सुकले सुभगे देवि सर्वशत्रुनिवारिणि ।
कुरु शान्ति शिशोश्चात्र बलिदानेन राक्षसि ॥ १० ॥
इत्युच्चार्य क्षिपेत्पूर्वमध्यरात्रे त्रिवासरम् ।
पश्चिमां दिशमाश्रित्य ग्रामाद्धन्वन्तरे❋77 रवे॥ ११ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां स्कन्दपुराणोक्तं पञ्चमदिवसमासवर्षजनितासुरीपीडाशमनविधानम् ।
_____________
अथ रेवतीपीडाशमनविधानम्।
स्कन्द उवाच—
अथ षष्ठे च दिवसे मासे वर्षे दिवाकर ।
रेवती नाम देव्यत्र शिशुं गृह्णात्यसंशयम् ॥ १ ॥
आदौ तु जायते पीडा व्रणानां शिशुमूर्धनि ।
ज्वरस्तु मुखशोको(षो)ऽपि तृषासमभिजायते ॥ २ ॥
प्रकम्पन्ते च गात्राणि रुदितं च पुनः पुनः ।
तत्र शान्ति प्रवक्ष्यामि शृणु सूर्य समाहितः ॥ ३ ॥
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशयेत् ।
गङ्गातोयेन संस्नाप्य शुक्लवस्त्रेण वेष्टिताम् ॥ ४ ॥
शुक्लसूत्रेण संवीतां शुक्रमाल्यानुलेपनाम् ।
शुक्लधूपोऽत्र निर्दिष्टो बिल्वपत्रैः सहानघ ॥ ५ ॥
आज्येनाक्तस्तु विश्वात्मन्दीपाः पञ्च प्रकीर्तिताः ।
तावन्तो मुष्टिका ज्ञेयाः पोलिकाभिः समन्विताः ॥ ६ ॥
प्रसृतित्रयमात्राणां ब्रीहीणामोदनः स्मृतः ।
दध्ना सह गुडेनाक्तस्ताम्बूलं78 च विशेषतः ॥ ७ ॥
ध्वजैश्च पञ्चभिर्युक्तं बलिमेनं (वं) प्रकल्पयेत् ।
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण प्रक्षिपेच्च समाहितः ॥ ८ ॥
तत्र मन्त्रः—
राक्ष79सि त्वं महाभागे बालं मुञ्च शुभानने ।
क्षेमं कुरु जगत्यस्मिञ्छोभना भव रेवति ॥ ९ ॥
इति मन्त्रेण संमन्त्र्य प्रदोषे बलिमाहरेत् ।
संस्नाप्य बालकं पञ्चपल्लवैःसुसमाहितः ॥ १० ॥
नगरादुत्तरे देशे रेव80तीबलिमाहरेत् ।
एवं प्रशान्तिमायाति बालपीडा प्रभाकर ॥ ११ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां स्कन्दपुराणोक्तं षष्ठदिवसमासवर्षजनितरेवतीपीडाशमनविधानम् ।
अथ शकुनीपीडाशमन विधानम् ।
स्कन्द उवाच—
सप्तमे दिवसे मासे वर्षे चैव दिवाकर ।
शकुनी नाम देव्यत्र बालं गृह्णाति दारुणा ॥ १ ॥
ज्वरस्तु प्रथमं तावच्छिरोरोगस्ततः परम् ।
प्रलापस्त्वतिसारः स्याद्वान्तिरात्यन्तिकी भवेत् ॥ २ ॥
अक्षणोर्निमीलनं चापि गात्रकम्पोऽभिजायते ।
तत्र शान्तिंप्रवक्ष्यामि शकुनीप्रीतिवर्धिनीम् ॥ ३ ॥
रक्तचन्दनलिप्ताङ्गीं पूर्ववत्पुत्तलीं कृताम् ।
यथाकालोद्भवैः पुष्पैः पूजयेद्यत्नतः सुधीः ॥ ४ ॥
धूपस्तु गुग्गुलुः श्रेयान्दीपाः पञ्च प्रकीर्तिताः ।
पोलिका मुष्टिकाः पञ्च ध्वजाः पञ्च सुशोभनाः ॥ ५ ॥
नैवेद्यमोदनः सर्पिःसहितः प्रसृतेर्मतम् ।
तण्डुलानां सुरश्रेष्ठ मन्त्रपूतं प्रकल्पयेत् ॥ ६ ॥
तत्र मन्त्रः—
ॐ नमः पद्मपत्राक्षि विशालवदने शिवे ।
संगृह्य बलिमेनं त्वं बालं मुञ्च सुशोभने ॥ ७ ॥
इत्युच्चार्य ततो श्रीमान्बलिं निशि समाहरेत् ।
दक्षिणां दिशमाश्रित्य विधाय पलवक्रियाम् ॥ ८ ॥
एवं कृते विधाने तु त्रिरात्रं सुरसत्तम ।
व्याधिमुक्तो भवेद्बालो नात्र कार्या विचारणा ॥ ९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां स्कन्दपुराणोक्तं सप्तमदिवसमासवर्षजनितशकुनीपीडाशमनविधानम् ।
_______________
अथ पिशाचिकापीडाशमनविधानम् ।
** स्कन्द उवाच—**
अथाष्टमे दिने मासे वर्षे देवी पिशाचिका।
पीडयत्येव बालानि ज्वरच्छर्दिशिरोर्तिभिः ॥ १ ॥
नेत्रपीडाऽङ्गसंकोचो हृद्रोगश्चाभिजायते ।
शृणु तस्य प्रतीकारं येन तुष्येत्पिशाचिका ॥ २ ॥
प्रकुर्याच्च त्रिरात्रेण शान्तिंबालार्तिहारिणीम् ।
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशवेत् ॥ ३ ॥
पञ्चामृतैस्तु संस्नाप्य देवीं तां शिशुना सह ।
चन्दनेनानुलिप्ताङ्गीं श्वेतपुष्पैः प्रपूजयेत् ॥ ४ ॥
ध्वजाः सप्त समाख्यातास्तावत्यः पोलिकाः स्मृताः ।
मुष्टिकाश्चापि विज्ञेया हरिद्राक्ताः शुभाः स्मृताः ॥ ५ ॥
पीतवर्णेन वस्त्रेण सूत्रेणापि सुसंस्कृतम् ।
विजयाचूर्णधूपोऽत्र घृताक्तः संप्रकीर्तितः ॥ ६ ॥
दीपान्सप्त घृतेनैव पूरयित्वा नियोजयेत् ।
प्रसृतित्रयभक्तस्य घृताक्तस्य विशेषतः ॥ ७ ॥
नैवेद्यं कल्पयेद्धीमान्देव्यै तस्यै81 न संशयः ।
ताम्बूलं च सकर्पूरं भक्तिभावेन दीयते ॥ ८ ॥
शक्तया च दक्षिणा82तत्र देवताप्रीतये रवे ।
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण सर्वमेव विधीयते ॥ ९ ॥
** तत्र मन्त्रः—**
ॐ नमः सर्वभूतेशि शोभने त्वं पिशाचिके ।
बलिं चैव पुरस्कृत्य त्वरितं मुञ्च बालकम् ॥ १० ॥
यथाविधानतः कार्या पञ्चपल्लवसत्क्रिया \।
त्रिरात्रं रजनीवक्त्रे पूर्वे ग्रामाद्वहिः क्षिपेत् ॥
एवं कृते विधाने च रोगशान्तिः प्रजायते ॥ ११ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तमष्टम- दिवसमासवर्षजनितपिशाचिकापीडा शमनविधानम्।
—— —— ——
अथ पाशिनीपीडाशमनविधानम् ।
स्कन्द उवाच—
नवमे दिवसे मासे वर्षे चैव प्रभाकर ।
देवता पाशिनी नाम83बाधते बालकं भृशम् ॥ १ ॥
तत्र चिह्नं प्रवक्ष्यामि समासेन दिवाकर \।
ज्वरश्छर्दिर्गलोत्पीडा संकोचो नेत्रयोस्तथा84 ॥ २ ॥
अङ्गुष्ठम85ध्यमायोगमग्राभ्यां कुरुते भृशम् ।
अन्नत्यागेन संतोषो मुखे गन्धोऽभिजायते ॥ ३ ॥
तत्र शान्ति प्रवक्ष्यामि पाशिनीप्रीतये रवे ।
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशयेत् ॥ ४ ॥
शुक्लवस्त्रेण संवीतां शुक्लसूत्रेण वेष्टिताम् ।
पूजयेच्छुकृपुष्पैश्च मन्दाराद्यैः सुगन्धिभिः ॥ ५ ॥
गन्धार्थं घनसारेण युक्तं चन्दनमर्पयेत् ।
दशाङ्गं धूपने धूपं ततो दीपान्मकल्पयेत् ॥ ६ ॥
नव वा सप्त वा दीपान्पोलिका वा नवोत्तमाः ।
उत्तमशब्देनाङ्गारपक्वाअदग्धा इत्यर्थः ।
तावतो मुष्टिकान्दद्याद्ध्वजांश्चैव विशेषतः ॥ ७ ॥
नवसृतिमानेन तण्डुलौदनमुत्तमम् ।
दध्ना क्षीरेण चाभ्युक्ष्य नैवेद्यं परिकल्पयेत् ॥ ८ ॥
मध्यरात्रत्रये ग्रामपश्चिमे प्रक्षिपेद्र लिम् ।
एतावता विधानेन रोगमुक्तो भवेच्छिशुः \।\।
पञ्चानां पल्लवानां तु विदध्यात्पूर्ववत्क्रियाम् ॥ ९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तं
नवममासवर्षजनितपाशिनीपीडाशमनविधानम्।
__________
**विधानमाला । **
अथ महामारीपीडाशमनविधानम् ।
स्कन्द उवाच—
दशमे दिवसे मासे वर्षे चैव दिवाकर ।
शक्तिरत्र महामारी राक्षसी घोररूपिणी ॥
मृत्युकल्पं ज्वरं शूलं विदधाति दिवानिशम् ॥ १ ॥
विष्टम्भं कुरुतेऽत्यन्तं हिक्कां कासमतिक्षयम् ।
तस्य शान्तिं प्रवक्ष्यामि बालानां हितकाम्यया ॥ २ ॥
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशयेत् ।
स्नापयेत्सरितो वार्भिश्रन्दनेनानुलेपयेत् ॥ ३ ॥
पीतवस्त्रेण संवीतां पुष्पमालोपशोभिताम् ।
दशाङ्गं धूपने धूपं महामार्यै प्रकल्पयेत् ॥ ४ ॥
दीपास्तु पञ्च विज्ञेयास्तावत्यः क्षीरमुष्टिकाः ।
पोलिकाः पञ्च वै शस्ता ध्वजाः पञ्च सुशोभनाः ॥ ५ ॥
संस्कृतं सर्पिषा भक्तंतण्डुलानां च पौष्कलम् ।
नैवेद्यार्थे न्यसेत्तत्र शरावे सुमनोहरम् ॥ ६ ॥
ताम्बूलसहितं भानो दक्षिणासहितं तथा ।
दक्षिणार्थे नवं वस्त्रं रजतं शक्तितोऽपि वा ॥ ७ ॥
पल्लवैः पञ्चभिर्युक्तं बलिं सर्वंसमर्पयेत् ।
मध्यरात्रात्तमर्वाक्तु बलिं कुर्याद्दिनत्रयम् ॥ ८ ॥
दक्षिणां दिशमाश्रित्य प्रक्षिपेन्नगराद्बहिः ।
मन्त्रेणानेन मार्तण्ड वक्ष्यमाणेन ते मया ॥ ९ ॥
तत्र मन्त्रः—
ॐ नमो रक्तवर्णाक्षि रक्तपद्मनिभानने ।
रक्तोष्ठे रक्तदशने महामारि महाभये ॥ १० ॥
महाबले महाकाये महाभयनिवारिके86 ।
अनेन बलिदानेन तुष्टा भव सुशोभने ॥ ११ ॥
व्याधिना पीडितं बालं रक्ष(क्षे)[मं]परमेश्वरि ।
श्रीनृसिंहभट्टविरचिता—
इमं मन्त्रं समुच्चार्य सर्वे बलिमुपाहरेत् ॥
क्षेमाय बालकानां हि नात्र कार्या विचारणा ॥ १२ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तंदशमदिवसमासवर्षजनितमहामारीपीडाशमनविधानम् ।
_______________
अथ कालिकापीडाशमनविधानम् ।
स्कन्द उवाच—
एकादशे दिने मासे वर्षे चापि दिवाकर ।
कालिका नाम देव्यत्र तत्पीडा जायते शिशोः ॥ १ ॥
ज्वरस्तु प्रथमं तावद्धृद्रोगस्तदनन्तरम् ।
मुखशोको(फो) महाम्लानि87स्ततः स्याच्चित्तविभ्रमः ॥ २ ॥
तुदन्ति सर्वगात्राणि वेपन्ते च पुनः पुनः ।
अवस्था मृत्युकल्पा स्यात्कालिकाकोपसंभवा ॥ ३ ॥
तत्र शान्तिं प्रवक्ष्यामि बालानां हितकाम्यया।
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशयेत् ॥ ४ ॥
गङ्गातोयेन संस्नाप्य चन्दनेनानुलेपयेत् ।
करवीरस्य पुष्पैस्तु पूजयेद्ववरी88दलैः ॥ ५ ॥
धूपयेत्पुत्रकेशैश्च सर्पनिर्मोकसर्षपैः।
वचालशुनफेनैश्च89 घृतयुक्तैः ससर्जकैः ॥ ६ ॥
दीपैस्तु पञ्चभिः सूर्य तैस्तु नीराजयेच्च तम् ।
नैवेद्यं पायसं क्षीरं षष्टिकांस्तिलमोदकान् ॥ ७ ॥
अपूपान्मुष्टिकाः पोलीः पञ्च पञ्च प्रकल्पयेत् ।
ध्वजाश्च पञ्च विज्ञेयाः शरावे सर्वमेव तत् ॥ ८ ॥
निवेश्य सकलं देव्यै कालिकायै निवेदयेत् ।
मन्त्रेणानेन सप्ताश्व वक्ष्यमाणेन ते मया ॥ ९॥
तत्र मन्त्रः—
ॐ नमो घोररूपायै विकटे घोरदर्शने ।
त्राहि सर्वजगद्धात्रि बालं मुञ्च बलिप्रिये ॥ १० ॥
विधानमाला ।
एवंविधं विधिं कुर्यात्पूर्ववत्पल्लवाक्रियाम् ।
एवं कृते विधाने च रोगमुक्तिर्भवेच्छिशोः ॥ ११ ॥
बलिःप्रदोषसमये ग्रामाद्दक्षिणतो बहिः ।
निधेयो मन्त्रमुच्चार्य नरेणैव सहेतिना ॥ १२ ॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तमेकादशदिनमासवर्षजनितकालिकापीडाशमनविधानम् ।
__________
अथ भामिनीपीडाशमनविधानम् ।
स्कन्द उवाच—
द्वादशे दिवसे मासे वर्षे चैव दिवाकर ।
भामिनी नाम देव्यत्र पीडयत्यनिशं शिशुम्90 ॥ १ ॥
आदौ ज्वरं प्रकुर्याच्च हृद्रोगं तदनन्तरम् ।
कासं श्वासमतीसारं प्रलापं जृम्भणं त91था ॥ २ ॥
कम्पन्ते सर्वगात्राणि तथा जाड्यं च नेत्रयोः ।
इत्थं92 नानाप्रकारैश्च शिशूनां जायते गदः॥ ३ ॥
तत्र शान्तिं प्रवक्ष्यामि बालानां हितकारिणीम् ।
पूर्ववत्पुत्तलीं कृत्वा शरावे संनिवेशयेत् ॥ ४ ॥
गन्धपुष्पाक्षता धूपदीपाश्च विविधा मताः ।
नैवेद्यं विविधं चात्र भामिन्यै परिकल्पयेत् ॥ ५ ॥
वस्त्रं छत्रं ध्वजं सूत्रमोदनं पयसाऽन्वितम् ।
अपूपैः पायसं क्षीरं षष्टिकाभिश्चसंयुतम् ॥ ६ ॥
नैवेद्यं कल्पयेद्भक्त्या संध्याकाले निशामुखे ।
ग्रामादुत्तरतो देशे बहिरेव न संशयः ॥ ७ ॥
इत्थं पञ्चदिनेष्वेव कर्तव्यं रोगमुक्तये ।
मन्त्रेणानेन सप्ताश्व मन्त्रयेत्सर्वतो बलिम् ॥ ८ ॥
तत्र मन्त्रः—
बलिं गृहाण बालस्य व्याधीन्संहर संहर ।
पञ्चवक्त्रप्रसादेन प्रसन्ना भव भामिनि ॥ ९ ॥
एवं कृते विधाने तु बालकः क्षेममाप्नुयात् ।
श्रीनृसिंहभट्टविरचिता—
इत्थं ते कथितं सूर्य शान्तिकृल्लब्धजातकम् ॥ १० ॥
सूर्य उवाच—
येन पापेन बालानामज्ञानानां गदो भवेत् ।
तत्सर्वं पूर्वमेव त्वमुक्तवानसि षण्मुख ॥ ११ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां स्कान्दं द्वादशदिनमासाब्दजनितभामिनीपीडाशमनविधानम् ।
__________
अथ वन्ध्याभिषेकविधानम् ।
नमः सकलकल्याणभाजनाय पिनाकिने ।
नमो लक्ष्मीनिवासाय देवतायै गिरां नमः93 ॥ १ ॥
प्रलया (हिमान्य) द्रिप्रस्थद्युतिनिचयपर्याप्तवपुषे
नमो विघ्नश्रेणीविघटनपटिष्ठा94य महसे ।
जगlत्प्रादुर्भावस्थितिलयनिरायासरचना-
विनोदासक्ताय प्रणतफलसिद्धिप्रतिभुवे ॥ २ ॥
यदिन्दिरानाथपुरन्दराद्यैराराधितं भक्तिभरानताङ्गैः।
श्रीचण्डिकायाश्चरणारविन्दं वन्दामहे तत्कुलदेवतायाः ॥ ३ ॥
प्रकृष्टचलकुण्डलस्तबकघृष्टगण्डस्थलं
महार्हमणिमेखलं मरकताङ्कुरश्यामलम् ।
करोतु करुणां सदा कलितपञ्चषाब्दक्रमा-
न्महः किमपि मोहनं कपटशैशवं शैशवम् ॥ ४ ॥
कान्ते कृतागसि रुषापरुपं ब्रुवाणा
कुण्ठीकृताग्ररसनार्धनियन्त्रणेन ।
मौनेन नूनमधिगच्छति या ददातु
सा पार्वती हरविभक्ततनुः शिवं वः ॥ ५ ॥
तनुते पृथिवीमल्लःसोऽयं बालोऽप्यबालचरितश्रीः ।
जगति हिताय शिशूनां शिशुरक्षारत्नसंज्ञकं ग्रन्थम् ॥ ६ ॥
प्रयोगसारप्रमुखागमेषु प्रोक्तेषु शास्त्रेषु च सुश्रुताद्यैः ।
यदुक्तमेकत्र निबध्यतेऽस्मिन्ग्रन्थे मया तत्खलु बालतन्त्रम् ॥ ७॥
बालर[क्षा]र्थानि कर्माणि यन्त्राणि चाभिधीयन्ते। तदुच्यते गर्ग(र्भ)कोशाच्च प्रसवसमये निर्गताः षोडशवर्षपर्यन्तं बालव्यपदेशेन(शं)भजन्ते। गर्भश्चस्त्रीपुरुषजन्मान्तरदुष्कर्मवशान्तु(न्न) जायते। ये चैवंविधाः पुरुषायाश्च स्त्रियस्ते सर्वे वन्ध्याव्यपदेशभाजो भवन्ति। अतो वन्ध्यानामपिगर्भसंजननाय वन्ध्याभिषेकादिविधिः प्रथममभिधीयते। भविष्योत्तरे—
कार्तिकेय उवाच—
पूर्वमेव त्वया ज्ञातं सन्ति वन्ध्या न हि स्त्रियः ।
दोषैस्तु विविधाकारैर्ग्रहधातुविकारजैः ॥
वन्ध्यात्वं जायते तासां तानाचक्ष्व प्रयत्नतः ॥ १ ॥
स्त्रियः संतानसत्फला इति न्यायेन स्त्रीणां संतानं भाव्यम्। येन येनप्रकारेण संतानं भवति तेन तेन प्रकारेण वन्ध्यात्वं हरति स स कर्तव्यः।तथा हि भारतश्रवणम्। विरजयात्राविधिः। विष्णुश्राद्धम्। इत्यादिप्रकारैःस्त्रियः संतानं पश्यन्ति। वन्ध्याभिषेकं प्रस्तुतं कथयिष्ये। भविष्योत्तरे—
ईश्वर उवाच—
ग्रहदोषान्प्रवक्ष्यामि शृणु पुत्र यथार्हतः ।
द्वात्रिंशच्च ग्रहाः प्रोक्ता नारीपीडाकराश्च ते ॥ १ ॥
ग्रहाः कौमारिकाश्चान्ये तेऽपि तावन्त एव हि ।
चतुःषष्टिः समाख्याता ग्रहाणां क्रूरकर्मणाम् ॥ २ ॥
चतुःषष्टिसहस्राणि एकैकस्य प्रविस्तरः ।
तेषां मध्ये तु मुख्या ये चतुःषष्टिस्तु नायकाः ॥ ३ ॥
दोषैर्द्वादशभिर्वत्स ग्रहा गृह्णन्तु(न्ति) योषितः ।
पात्रसंकरदोषेण निषिद्धशयनात्तथा ॥ ४ ॥
आसनाच्च निषिद्धाच्च निषिद्धान्नस्य भक्षणात् ।
निषिद्धकालाशनतो निषिद्धाचरणात्तथा ॥ ५ ॥
निषिद्धदेवनमनान्निषिद्धव्रतपूजनात् ।
जारस्य सङ्गदोषेण परवस्त्रविभूषणैः ॥ ६ ॥
श्रीनृसिंहभट्टविरचिता—
लालोच्छिष्टस्य संपर्काद्दीपच्छायानिषेवणात् ।
केशोदकेन संसिक्ताद्धीनप्रभवयोषिताम् ॥ ७ ॥
चेटिकादिसमाश्लेषात्पारुष्यात्सर्वजन्तुषु ।
एतैर्दोषैश्च ते सर्वे ग्रहाः पीडाकराः स्मृताः ॥ ८ ॥
प्रथमं पुष्पबाधा स्याद्गर्भं गृह्णन्त्यतः परम् ।
पश्चात्क्षीरं ततो बालं नात्र कार्या विचारणा ॥ ९ ॥
ग्रहनामानि वक्ष्यामि शवरी रेवती शिवा ।
सुवला कण्डना चैव पूतकण्डनिका तथा ॥ १० ॥
गोमुखी च बिडाली च अजा वक्रा च रोचना ।
कुक्कुटी पिङ्गला नाम मत्स्यनासा तथा परा ॥ १० ॥
स्कन्दग्रहास्तथा चान्ये सर्वेषां नायकाः स्मृताः ।
रजनी कुम्भकर्णा च तापसी परमोदनी95 ॥ १२ ॥
[परा च ] रोदनी चात्र धनदा नकुला तथा ।
चतुःषष्टिः समाख्याता नामतो बालमातरः ॥ १३ ॥
अर्जको जम्भको भीम उपस्कन्दश्च पञ्चमः ।
बालानां पीडकाः सर्वे भ्रमन्ति बलिकाङ्क्षिणः ॥ १४ ॥
बलिं दद्याद्विधानेन यतो मुञ्चन्ति नान्यथा \।
चतुरस्रं शुभं क्षेत्रं कारयेत्प्रयतः पुमान् ॥ १५ ॥
शिल्पविद्धारयेत्सूत्रं भूमिमालक्ष्य शोभनाम् ।
हस्तैः षोडशभिः प्रोक्तं क्षेत्रं क्षेत्रविचक्षणैः ॥ १६ ॥
तत्रान्तरे प्रकर्तव्या नव कोष्ठाः सुशोभनाः ।
कोष्ठे कोष्ठे च सेनानीरेकैकं पद्ममालिखेत् ॥ १७ ॥
अन्ये द्वे पङ्कजे वत्सं संलिखेत्क्षेत्रतो बहिः ।
अन्ये द्वे पङ्कजे धीमान्क्षेत्रमध्ये च षण्मुख ॥ १८ ॥
क्षेत्रस्य पूर्वतश्चक्रं षोडशारं समालिखेत् ।
पश्चिमे संलिखेत्पद्ममष्टपत्रं सितं शुभम् ॥ १९ ॥
सकेसरं सनालं च सपरागं मनोहरम् ।
क्षेत्रस्य दक्षिणे पार्श्वे भैरवीं मूर्तिमालिखेत् ॥ २० ॥
उत्तरे संलिखेद्धीमाञ्छुभां मूर्तिंहनूमतः ।
कोष्ठेषु नवसु श्रीमान्प्रोक्तान्यब्जानियानि मे (ते) ॥ २१ ॥
तत्र तत्र लिखेद्दुर्गानव चैताः पृथक्पृथक् ।
तासां नामानि वक्ष्यामि दुर्गाणां शृणु नन्दन ॥ २२ ॥
महालक्ष्मीं न्यसेत्पूर्वे चण्डिकां वह्निकोष्ठके ।
क्रौञ्चीं तु दक्षिणे कोष्ठे नैर्ऋते भ्रामरीं लिखेत् ॥ २३ ॥
पश्चिमे पाशिनीं चैव वायव्ये मृगवाहिनीम् ।
कौबेरीमुत्तरे कोष्ठे जम्बुकां शिवकोष्ठके ॥ २४ ॥
मध्ये तु संलिखेद्धात्रीं चतुर्वक्त्रां चतुर्भुजाम् ।
मरालवाहनां देवीं लोकानां हितकारिणीम् ॥ २५ ॥
पद्मान्तरे लिखेद्दुर्गांकुङ्कुमेन सुशोभनाम् ।
द्वे पद्मे क्षेत्रमध्ये च ये प्रोक्ते ते मया पुरा ॥ २६ ॥
नाम्नी तु संलिखेत्तत्र दंपत्योः सुसमाहितः ।
द्वे बाह्ये पङ्कजे क्षेत्रात्तत्र गङ्गाद्वयं लिखेत् ॥ २७ ॥
क्षेत्रस्य पूर्वचक्रस्य षोडशारस्य षण्मुख ।
कलाः षोडश चन्द्रस्य तत्र तत्र समालिखेत् ॥ २८ ॥
पश्चिमेऽष्टदले देवानिन्द्राद्यान्संलिखेत्क्रमात् ।
गन्धपुष्पाक्षताधूपैर्दीपैर्नैवेद्यसंचयैः96 ॥ २९ ॥
सर्वेषां मध्यदेशे तु पूजयेन्मां समाहितः ।
पार्वतीसहितं धीमान्वन्ध्यादोषनिबर्हणम् ॥ ३० ॥
परितः97 क्षेत्रतः पूज्या रेवत्यादिग्रहाः क्रमात् ।
एवं क्षेत्राकृतिं कृत्वा सोपवासः शुचिव्रतः ॥
पूजयेन्नाममन्त्रैश्च सर्वांस्तांश्चपृथक्पृथक् ॥ ३१ ॥
अत्र वन्ध्याभिषेककालं वक्ष्यामि—
पातनिर्मुक्तकाले तु स्नानं कुर्याच्छुभेऽहनि ॥
तच्चाऽऽह—
त्रिषू(त्र्यु)त्तरासु[च]रेवत्यां प्राजापत्ये पुनर्वसौ ।
अश्विन्यामथ पुष्ये च मैत्रे वारे शुभे रवौ ॥
तिथौ शुभे च संशोध्य बलं चन्द्रमसस्तथा ॥ ३२ ॥
अथाभिषेकस्थानानि वक्ष्ये—
मातृस्थाने गृहे वाऽपि त्रिपथे च चतुष्पथे ।
जीर्णकूपे तडागे च नदीनां संगमेषु च98 ॥
एकवृक्षे श्मशाने वा देवतायतनेऽपि वा ॥ ३३ ॥
अथ स्त्रीतिथिनियमः—
अष्टम्यां राजपत्नीं तु मध्याह्ने99 स्नापयेत्ततः ।
पुत्रकामां गवां तीर्थे विप्रपत्नीं तु संगमे100 ॥ ३४ ॥
मातुः स्थाने तु दौर्भाग्यां श्मशाने मृतबालकाम् ।
काकवन्ध्यां जीर्णकूपे वन्ध्यां पुष्करिणीषु च ॥ ३५ ॥
अभिचारकरीं नारीं पुरुषं गतरेतसम् ।
स्नापयेच्च प्रयत्नेन शिवस्याऽऽयतने शुभे ॥ ३६ ॥
शुभं वीजवतः क्षेत्रमिति न्यायेन गतरेताः पुमानपि स्नपनीयः । तत्र स्नपनविधिः—
अव्रणानूतनाः कुम्भा नव कार्याः सुशोभनाः
प्रक्षालयेत्तु तांस्तोयगङ्गः सर्वान्समाहितः ॥ ३७ ॥
तण्डुलोपरि संस्थाप्य चन्दनेनानुलेपयेत् ।
सर्वेषु तेषु कुम्भेषु पलवान्परियोजयेत् ॥ ३८ ॥
ते च पल्लवाः—
चूतोदुम्बरयज्ञाङ्गन्यग्रोधाश्वत्थसंभवाः ।
पल्लवाः सर्वकार्येषु कार्यसिद्धिविधायकाः ॥ ३९ ॥
हिरण्याक्षतदूर्वाश्च ओषध्यः पञ्च वै मृदः ।
एकस्मिन्कलशे सर्वं निधेयं वारिणा सह ॥ ४० ॥
द्वितीये पञ्च गव्यानि चन्दनं च तृतीयके ।
चतुर्थे हेमरजते पञ्चमे सर्वमौषधम् ॥ ४१ ॥
षष्ठे तीर्थाम्बु संन्यस्य सप्तमे सर्वधान्यकम् ।
अष्टमे फलपुष्पाणि नवमे मां च विन्यसेत् ॥ ४२ ॥
मामिति शिवनामाक्षराणि संलिख्य भूर्जपत्रादिषु विन्यसेन्मातृकानामाक्षरैः सह ।
अनेन विधिना मन्त्री त्वभिषेकं प्रकल्पयेत् ।
एवं कृते विधाने च वन्ध्याऽपत्यमवाप्नुयात् ॥ ४३ ॥
अबीजी बीजमाप्नोति स्त्री वाऽथ पुरुषोऽपि वा ।
अभिचारकृतं दोषंविधिरेष प्रशाम्यति *101 ॥ ४४ ॥
अनेनैव प्रयोगेण मन्त्रपूतेन सुव्रत \।
दुर्भगा सुभगा वाऽपि कन्या प्राप्नोति संततिम् ॥ ४५ ॥
दैवाभिश्वोपसृष्टास्तु (देवीभिश्रोपसृष्टानां ) बालानां ग्रहपीडने ।
क्रियामेतां नरः कुर्यात्साधकस्तु यशस्करीम् ॥ ४६ ॥
सभार्यो दक्षिणां102 दद्यान्नगरं वाऽथ हाटकम् ।
हस्त्यश्वरथयानं वा मुकुटं कुण्डले तथा ॥ ४७ ॥
धन103धान्यं हिरण्यानि यैस्तु संतुष्यते + गुरुः ।
तेन तुष्टेन तुष्यन्ति देवता मातरो ग्रहाः ॥ ४८ ॥
**अथाभिषेकाभिधमन्त्रः—**ॐ रौं ह्रौं सौं104 वौषट् । मुख्याभिषेकमन्त्रोऽयम् । ततश्च ‘समुद्रज्येष्ठा’ इत्यादिसर्वमन्त्रैरभिषेकविधिः । निर्बीजस्य पत्युः । ॐ सां105फट् रैं स्वाहा ।
सर्षपैरक्षतैर्वाऽपि देहे संताडयेत्स्त्रियम् ।
पुरुषं वा ग्रहग्रस्तं गृहीतं वा शिशुं तथा ॥
एवं कृते विधाने तु नारी वन्ध्या प्रसूयते ॥ ४९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
भविष्योत्तरोक्तं वन्ध्याभिषेकविधानम् ।
—— ——
अथ घटिकास्नानम् ।
ईश्वर उवाच—
शृणु षण्मुख तत्त्वेन स्नानं घटिकया परम् ।
धारयन्ति च ये वत्स घटिकां देवनिर्मिताम् ॥ १ ॥
तेषामर्थश्च कामश्च सौभाग्यं वृद्धिरेव च ।
पूर्ववन्मण्डलं कृत्वा गौरीं तत्र प्रपूजयेत् ॥ २ ॥
पुत्र वित्तानुसारेण विधिना परिपूजयेत् ।
ऐशान्यां दिशि संस्थाप्य घटिकां मधुपूरिताम् ॥ ३ ॥
पुष्पमालोपशोभाढ्यां रक्तसूत्रेण वेष्टिताम् ।
हिरण्यं निक्षिपेत्तत्र न रिक्तां स्थापयेद्बुधः ॥ ४॥
वस्त्रेण च समावृत्य गन्धं तत्रैव निक्षिपेत् ।
कुङ्कुमागरुकर्पूरचन्दनेनानुलेपयेत् ॥ ५ ॥
उशीरं चन्दनं मुस्तापुत्रकेश(कन्दा)शतौषधीः ।
तथा चाऽऽमलकान्दूर्वाः क्षिपेद्गोरोचनां बुधः ॥ ६ ॥
शतमष्टोत्तरं कृत्वा गौर्या वै मूलविद्यया ।
अभिमन्त्र्य घटीगौरीं लिङ्गमन्त्रेण वै सुधीः ॥ ७॥
शताष्टाधिकमव्यग्रो घटिकामभिमन्त्रयेत् ।
ततोऽभिषेकं कुर्याद्वै योषितो वा नरस्य वा ॥ ८॥
अभिषिक्ता भवेन्नारी नरश्च विधिवद्गुह ।
अपुत्रो लभते पुत्रं जीवद्वत्सो भवेद्ध्रुवम् ॥ ९ ॥
एतदेव विधानं तु यदि कुर्याच्च गुर्विणी ।
पुत्रं प्रसूयते सा तु महावीर्यपराक्रमम् ॥ १० ॥
राजा विजयमाप्नोति एतत्कृत्वा च संगरे ।
या च रूपवती कन्या वरं न लभते यदा ॥ ११ ॥
साऽप्यनेन विधानेन रूपवन्तं नरं लभेत् ।
येन येन हि भावेन घटिकां कारयेन्नरः ॥ १२ ॥
तस्य तस्य हि भावस्य फलमाप्नोत्यसंशयम् ।
यत्ते चोक्तमथो किंचित्संक्षेपेण षडानन ॥ १३ ॥
तत्सर्वंमूलमाश्रित्य त्वनेनैव तु कारयेत् ।
मूलमाश्रित्य यच्चोक्तं तन्मूलमन्त्रेणेत्यर्थः ।
घटिकायाः परं श्रेयो नास्ति नास्ति षडानन ॥ १४ ॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु घटिकास्नानमुत्तमम् ।
घटिकां धारयेद्यस्तु नरः प्राप्नोतिवाञ्छितम् ॥ १५ ॥
अपुत्रो लभते पुत्रं निर्धनो लभते धनम् ।
प्रधानपुरुषो बुद्धिं पतिं प्राप्नोत्यभर्तृका ॥ १६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भविष्योत्तरोक्तं
घटिकास्नानविधानम् ।
— — —
अथ रुद्रस्नानम्।
भविष्योत्तरे कृष्णयुधिष्ठिरसंवादे –
युधिष्ठिर उवाच—
रुद्रस्नानं विधानेन कथयस्व जनार्दन ।
सर्वविघ्नोपशमनं सर्वशान्तिकरं परम् ॥ १ ॥
श्रीकृष्ण उवाच—
शृणु पार्थ प्रवक्ष्यामि रुद्रस्नानविधानकम् ।
कुमारं रुद्रतनयं सर्वज्ञं परमेश्वरम् ॥
अगस्त्यो मुनिशार्दूलः सुखासीनमुवाच ह ॥ २ ॥
अगस्त्य उवाच—
सर्वज्ञोऽसि कुमार त्वं प्रसादाच्छंकरस्य च ।
स्नानं रुद्रविधानेन ब्रूहि कस्य कथं भवेत् ॥ ३ ॥
स्कन्द उवाच—
मृतवत्सा तु या नारी दुर्भगा ऋतुवर्जिता ।
या सूते कन्यका वन्ध्या स्नानमासां विधीयते ॥ ४ ॥
अष्टम्यां वा चतुर्दश्यामुपवासपरायणः ।
ऋतुशुद्धौ चतुर्थेऽह्नि प्राप्ते सूर्यदिने तथा ॥ ५ ॥
नद्योश्च संगमे कुर्यान्महानद्योर्विशेषतः ।
शिवालये गवां गोष्ठे विविक्ते वा गृहाङ्गणे॥ ६॥
आहिताग्निंद्विजं शान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
स्नानार्थं प्रार्थयेदेनं निपुणं रुद्रकर्मणि ॥ ७ ॥
ततस्तु मण्डलं कुर्याच्चतुरस्रमुदक्प्लवम् ।
बद्धचम्पकमालं च गोमयेनानुलेपयेत् ॥ ८ ॥
मण्डपभूमिं संमार्जयेदित्यर्थः ।
तन्मध्ये श्वेतरजसा संपूर्णं पद्ममालिखेत् ।
मध्ये तस्य महादेवं स्थापयेत्कर्णिकोपरि ॥ ९ ॥
दद्याद्दलेषु नन्द्यादींश्चतुर्षु विधिपूर्वकम् ।
नन्दी भद्रो महाकालः कुबेरश्च चतुर्थकः ॥ १० ॥
इन्द्रादिलोकपालांश्च दलेष्वन्येषु विन्यसेत् ।
देवीं विनायकं चेति स्था106पयेत्तत्र भावतः ॥ ११ ॥
दत्त्वाऽर्घ्यं गन्धपुष्पं च धूपं दीपं गुडौदनम् ।
भक्ष्यं नानाविधं दद्यात्फलानि विविधानि च ॥ १२ ॥
चतुष्कोणेषु कलशाञ्शृङ्गाररचनाधिकान् ।
विन्यसेत्तेषु कुम्भेषु सुपुष्पाश्च शतौषधीः*107॥ १३ ॥
मण्डपस्य चतुर्दिक्षु दद्याद्भूतबलिं ततः ।
आग्नेय्यां दिशि कर्तव्यं मण्डपस्य समीपतः ॥ १४ ॥
अग्निकार्यं शुभे कुण्डे पुष्पपत्रैरलंकृते ।
लवणं सर्पिषा युक्तं सितया मधुना सह ॥ १५ ॥
मा नस्तोकेन मन्त्रेण जुहुयात्प्रयतः शुचिः ।
नवग्रहमखे जात आदौ पश्चादयं विधिः ॥ १६ ॥
द्वितीयस्याग्निकार्यस्य कर्ता च ब्राह्मणो भवेत् ।
रुद्रजाप्यकृदाचार्य108: सितचन्दनचर्चितः ॥ १७ ॥
सितवस्त्रपरीताङ्गः सितमाल्यविभूषितः ।
शोभितः कण्ठसूत्रेण हस्तकर्णविभूषणः ॥ १८ ॥
मण्डपस्य समीपस्थो जपेद्रुद्रान्विमत्सरः ।
यावदेकादशगताः (तं) पुनरेव जपेच्च तान् ॥ १९ ॥
देवमण्डलवत्कार्यं द्वितीयं मण्डलं शुभम् ।
तस्य मध्ये तु सा नारी श्वेतपुष्पैः समावृता ॥ २० ॥
श्वेतवस्त्रपरीधाना श्वेतगंन्धानुलेपना ।
सुखासनोपविष्टो य आचार्यो रुद्रजाप्यकृत् ॥ २१ ॥
अभिषिश्चेत्तथा चैनामर्कपत्रपुटाम्बुना ।
चतुःषष्टिऋचेनैव रुद्रेणैकादशेन *109तु ॥ २२ ॥
शतानि सप्त वर्णानां चतुर्भिरधिकानि तु ।
वर्णानामिति ऋचां चतुःषष्टिऋचामेकादशकृत्वः पठितानां च रुद्राणा-[ मित्यर्थः ] ।
अच्छिद्रेणेति मन्त्रेण स्नानार्थं विनिवेशयेत् ॥ २३ ॥
अश्वस्थानाद्गजस्थानाद्वल्मीकात्संगमाद्धदात् ।
वैश्याङ्गणाद्राजगृहाद्गोष्ठादानीय वै मृदः ॥ २४ ॥
सर्वौषधीरुपानीय नदीतीर्थोदकानि च ।
एतत्संक्षिप्य कलशे शिवसंज्ञे सुपूजिते ॥ २५ ॥
आपादतलकेशान्तं कुक्षिदेशे विशेषतः ।
सर्वाङ्गा(गे) स्नापयेद्भक्त्या सुशीलां कांचिदङ्गनाम् ॥ २६ ॥
रुद्राभिजापकृद्विद्वान्स्नापयेत्कलशोदकैः ।
स(पू)र्वतो दिङ्मुखाग्रस्थैः पश्चाच्च कलशोदकैः110 ॥ २७ ॥
एवं कृत्वा111 स्नातकाय दद्याद्गां काञ्चनं तथा ।
होतुरेवात्र112 निर्दिष्टा दक्षिणा गौः पयस्विनी ॥ २८ ॥
ब्राह्मणानां तथाऽन्येषां स्वशक्त्या मुनिपुंगव ।
गोवस्त्रकाञ्चनादीनि दत्त्वा सर्वान्क्षमापयेत् ॥ २९ ॥
कृतेनानेन विप्रेन्द्र रुद्रस्नानेन भामिनी ।
सुभगा कान्तिसंयुक्ता बहुपुत्रा च जायते ॥ ३० ॥
सर्वेष्वपि च मासेषु ब्राह्मणानुमते शुभम् ।
तस्मादवश्यं कर्तव्यं स्त्रिया पुत्रार्थमेव च ॥ ३१ ॥
या स्नानमाचरति रौद्रमतिप्रसिद्धं श्रद्धान्विता द्विजवरानुमते च नारी । दोषान्निहत्य सकलांश्च शरीरभाजो भर्तुः प्रिया भवति भारत जीवपुत्रा +113 ॥इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भविष्योत्तरोक्तं रुद्रस्नानविधानम् ।
अथातो देशनगरग्रामोद्भूतमहाव्याधिपीडाशमनविधानम् ।
यथा सर्वोपद्रवोऽभिजायते राजाऽवज्ञया ब्राह्मणान्द्वेष्टि देवान्न पूजयति गुरून्न मन्यते प्रजाः पीडयति चेत्तदा सर्वदेशेषु सर्वनगरेषु सर्वग्रामेषु सर्वोपद्रवा जायन्ते । आशु मृत्युकराः कालस्फोटादयो महाव्याधयो भवन्ति । तेषां शान्तिविधानं ब्रवीमि । तच्चाऽऽहकर्मविपाकसंग्रहे—शिवालयेषु विष्णुगृहेषु शक्तिभैरवगणाधीश्वरमुख्येषु सर्वेषु देवतायतनेषु सहस्रकलशाभिषेकं कुर्यात् । प्रत्येकं यद्देवतायतनं तल्लिङ्गैर्मन्त्रैस्तिलाज्यद्रव्येणायुतहोमं कुर्यात् । प्रत्येकं यथाविधि जाप्यपूर्वकं गोभूहिरण्यकम्बलकमण्डलुच्छत्रचामरोपानद्दानानि कुर्यात् । अन्नदानं ब्राह्मणपूर्वकेषु सर्वप्राणिषु कुर्यात् । एतत्सर्वंराजविषयम् । तथा हि सामान्यग्रामेषु शक्त्या जपहोमब्राह्मणतर्पणं कुर्यान्महाव्याधिशान्तये ।
तदुक्तं ब्रह्माण्डपुराणे—
ग्रामे चेदद्भुतं यस्मिञ्ज्वरिताः स्युर्यदा नराः ।
प्राणकृच्छ्राणि जायन्ते राजा कुर्यात्तु शान्तिकम् ॥ १ ॥
एवं कृते विधाने तु ग्रामशान्तिर्भवेदिह ।
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे सुरायतनपूजनात् ॥ २ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्माण्डपुराणोक्तंदेशनगरग्रामोद्भूतमहाव्याधिपीडाशमनविधानम् ।
———
अथ जनमारशान्तिः ।
जनमारसमुत्पत्तिं प्रवक्ष्यामि च शान्तिकम् ।
यदा लोभसमाविष्टः पीडनैर्बन्धनैः प्रजाः ॥
क्लेशयत्यनिशं राजा न च धर्मं समाचरेत् ॥ १ ॥
तथा च काशीखण्डे—
साग्रं शतं योजनानां देशः सर्वोऽभिभूयते ।
घोरै राजकृतैर्दोषैः परेषामपि सुव्रत ॥ २ ॥
यदि प्रजा न वश्याः स्युस्तस्य पापपरायणाः ।
क्रोधलोभसमाविष्टाः साध्वाचारविवर्जिताः ॥ ३ ॥
पूज्यन्ते न च वेदज्ञा114 देवविप्रास्तथा पितॄन् (ता) ।
ताः स्वधर्माभिभूताः स्युस्ततो रुद्रः प्रकुष्यति ॥ ४ ॥
अन्तकोऽप्येष भगवान्भूतानां प्रिय एव च ।
कुरुते स विकारांश्च ह्युत्पातांश्च पृथग्विधान् ॥ ५॥
ताराग्रहोल्का रु( रौ ) द्राश्च राहुकेतूपदर्शनम् ।
उदयास्तमये चन्द्रसूर्यबिम्बविपर्ययः ॥ ६ ॥
विपर्ययशब्देन शीतोष्णविपर्ययः ।
विकारो मृगसिंहानां विद्युत्पातोल्बणानि च ।
भूमिकम्पोऽथ निर्घाताः शीतोष्णानिलविक्रिया ॥ ७॥
अतिवृष्टिरनावृष्टिस्तथैवर्तुविपर्ययः ।
गृष्टयो दुग्धहीनाश्च रोगयुक्ता भवन्ति च ॥
एतद्राजकृतं पापं विज्ञेयं नात्र संशयः ॥ ८ ॥
ब्रह्मवैवर्ते—
राजा यः कुरुते पापं ब्रह्महत्यादि दारुणम् ।
वंशजान्हन्ति सहसा स्त्रीवधं कुरुते भृशम् ॥ ९ ॥
तेन राज्ञा च सा पृथ्वी सनरा क्षयमाव्रजेत् ।
कालस्फोटादयो दोषा वैद्याविज्ञातलक्षणाः ॥ १० ॥
प्रभवन्त्यौषधं नैव तन्त्रमन्त्राणि चैव हि ।
आशुमृत्युकराश्चैव शोफा हृद्रोगकारिणः ॥ ११ ॥
रुद्रप्रकोपजास्तस्माज्जनमारोऽभिजायते ।
तस्मात्प्रसादयेद्देवंपार्वतीवल्लभं शिवम् ॥ १२ ॥
गाणपत्येन विधिना ह्यथर्वशिरसा तथा ।
आ (अ)मलेन विधानेन कुर्याद्देवप्रसादनम् ॥ १३ ॥
रुद्रसूक्तं तथा गाथा विष्णुसूक्तं तथैव च ।
बल्युपहारान्विविधांश्चत्वरेषु निवेदयेत् ॥ १४ ॥
*115 आवाहयित्वा सगणं रुद्रं शैलसुतान्वितम् ।
शिवद्वारे विधिस्त्वेष कार्यो नान्यत्र वै शुभः ॥ १५ ॥
X116 त्र्यम्बकेण च मन्त्रेण होमं तत्र प्रकल्पयेत् ।
समिधो ब्रह्मवृक्षस्य जुहुयाच्च सहस्रकम् ॥ १६ ॥
साज्यं च पायसं चैव सहस्रं जुहुयात्सुधीः ।
सहस्रं बिल्वपत्रैश्च त्वविच्छिनैर्द्विजोत्तमः ॥ १७॥
जुहुयात्क्षीरषष्टीभिस्तथा च तिलसर्पिषा ।
सर्वैःस्विष्टकृतं चैव जषेच्छान्तिं द्विजोत्तमः ॥ १८ ॥
ततोऽभिषेचनं नॄणां सर्वेषामपि कारयेत् ।
आचार्यब्रह्मऋत्विग्भ्यो हेमदानं प्रदापयेत् ॥ १९ ॥
गामाचार्याय साध्वीं च सवत्सां च पयस्विनीम् ।
सदक्षिणां सवस्त्रां च सालंकारां सभाजनाम् ॥ २० ॥
नाम मोत्रं समुच्चार्य प्राङ्मुखाय निवेदयेत् ।
चक्ष्यमाणेन मन्त्रेण दाताचैवोत्तरामुखः ॥ २१ ॥
तत्र मन्त्रः—
धेनुस्त्वं पृथिवीरूपा सर्वपापक्षयंकरी (यंकुरु ) *117।
जनस्यास्य च सर्वस्य मृत्युं नाशय शोभने ॥ २२ ॥
इति धेनुदानमन्त्रः ।
सप्त धान्यानि विप्रेभ्यो दद्याद्राजा समाहितः ।
भूमिदानानि भूरीणि विविधांश्च तुरङ्गमान् ॥ २३ ॥
दद्याच्छकटदानं च धुर्याभ्यां सनियन्त्रितम् ।
ततश्च रुद्रसदने गर्भागारं सुसंस्कृतम् ॥ २४ ॥
दशाङ्गेन च धूपेन धूपयेत्प्रयतः पुमान् ।
शतपत्रादिपुष्पाणि पूजार्थं प्रतिपादयेत् ॥ २५ ॥
विलिप्य चन्दनं श्वेतं सकर्पूरं सुसंस्कृतम् ।
दीपैर्नीराजयेद्देवं नैवेद्यैस्तोषयेच्छिवम् ॥ २६ ॥
ताम्बूलं दापयेद्विद्वान्द्रविणं कनकादि च ।
एवं संपूज्य देवेशं प्रार्थयेत्सजनो नृपः ॥ २७ ॥
तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
देवदेव महादेव महापापविनाशन ।
जनमारकृतां पीडां सद्यो नाशय शंकर ॥। २८ ॥
इति संप्रार्थ्य देवेशं कुर्याच्चैव प्रदक्षिणाः ।
जपञ्छैवीःः स्तुतीर्थीमाञ्छ्रद्धया परया युतः॥ २९ ॥
प्रसादिते ततो रुद्रे जनमारो निवर्तते ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्सहस्रशतसंख्यया ॥ 30 ॥
रुद्रार्चनं गवां दानं गायत्रीजप उत्तमः ।
निवास्यति विघ्नानां राशिं नात्र विचारणा ॥ ३१ ॥
शिवपूजां शिवध्यानं शिवाराधनसत्क्रियाम् ।
ये कुर्वन्ति सदा भक्त्या ते विघ्नान्न भजन्ति वै ॥ ३२ ॥
यो राजा मङ्गलाविष्टो धर्मकीर्तिपरायणः ।
न भवेत्तस्य राष्ट्रे तु जनमारः कदाचन ॥ ३३ ॥
उपवासेन भूपालो विधानमिदमाचरेत् ।
सभार्यसचिवः श्रीमान्सपुत्रः सपुरोहितः ॥ ३४ ॥
धर्ममङ्गलगीतैश्च नृत्तैश्च118 विविधैरपि ।
शृणुयाद्वैष्णवाख्यानं हृष्टपुष्टजनावृतः ॥ ३५ ॥
तथा च गर्गवचनम्—
उपोषितो नृपः स्नातः शुक्लवस्त्रसमावृतः ।
आत्मरक्षाविधानज्ञः शान्तिमेनां समारभेत् ॥ ३६॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां गर्गप्रोक्तं
जनमारशान्तिविधानम् ।
———
अथ हनुमत्पताकाविधानम् ।
तथा च गरुडपुराणे रामगरुडसंवादे—
यदा रामस्त्रिकूटाद्रौ नागपाशैस्तु पीडितः ।
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मार विनतासुतम्119 ॥ १ ॥
तदाऽसौ काश्यपो वीरः समागत्य रणाङ्गणम् ।
प्रणाममकरोत्तस्मै रामायाभित120तेजसे ॥ २ ॥
निवार्य पन्नगास्त्रं तन्मेघनादसमीरितम् ।
तुष्टाव रघुवीरं तं ससैन्यं च सलक्ष्मणम् ॥ ३ ॥
उवाच प्रणिपत्याथ रामभद्रं खगेश्वरः ।
गरुड उवाच—
आश्चर्यमिदमत्यन्तं यद्भवानस्मरद्धि माम् ॥ ४ ॥
सति वीरे महारुद्रे सगणेऽत्र हनूमति ।
सुग्रीवे च नले नीले सुषेणे जाम्बवत्यपि ॥ ५ ॥
अङ्गदे दधिवक्त्रे च तारे च तरले तथा ।
मैन्दे सति महावीरे किमत्रास्ति प्रयोजनम् ॥ ६॥
राम उवाच—
भवद्भीतिमुपागम्य विद्रुताश्च भुजंगमाः ।
एतेषु सत्सु वीरेषु किमु(कपि)सैन्यमपीडयन् ॥ ७ ॥
गरुड उवाच—
रामदेव महाबाहो कपीनां चरितं शृणु ।
आत्मनोऽपि समाविष्टो मा कुरुष्वात्र गर्हणाम् ॥ ८ ॥
साक्षात्त्वं भगवान्विष्णुर्लक्ष्मीस्तु जनकात्मजा ।
सौमित्रिः फणिराजोऽयं रुद्राश्च कपयः स्मृताः ॥ ९ ॥
सुग्रीवो वीरभद्रोऽयं शंभुरेषमतो नलः ।
विद्धि दाशरथे नूनं गिरिशो नील एव च ॥ १० ॥
महायशाः सुषेणोऽयं जाम्बवांश्चाप्यजैकपात् ।
अहिर्बुध्न्योऽङ्गन्दो वीरो दधिवक्त्रः पिनाकधृक् ॥ ११ ॥
अपराजित्त्वयं तारः स्थाणुश्चतरलो मतः ।
मैन्दो गर्भतनुः साक्षाद्धनुमान्भगवान्स्मृतः ॥ १२ ॥
अवतेरुर्महारुद्रास्त्वदर्थे रघुनन्दन ।
अवसन्सर्वदेशेषु नानापर्वतमूर्धसु ॥ १३ ॥
धृत्वा च कपिरूपाणि*121 अवतेरुर्महीतले ।
सर्वेऽपि कपितां प्राप्ताः कारणं तद्ब्रवीमिते ॥ १४ ॥
पुरा देवासुरैः सिन्धोर्मथिताद्व्याधयोऽभवन् ।
नानापीडाकराः सर्वे लूनाविस्फोटकादयः ॥ १५ ॥
तैरेव व्याधिभिः सर्वंपीडितं जगतीतलम् ।
ऋषयोऽपि नृपालाश्चब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ १६ ॥
ऊचुश्चजगतां नाथं ब्रह्माणं कमलोद्भवम् ।
X122 त्राहि त्राहि जगन्नाथ व्याधिभ्यो जगतीतलम्123 ॥ १७ ॥
पीडितं दारुणैर्दोषैर्ध्वराद्यैश्च महोल्बणैः ।
त्रिदोषैर्जर्जरीभूतं बिभ्रमैर्व्याकुलीकृतम् ॥ १८ ॥
औषधानि न सिध्यन्ति मन्त्रयन्त्राणि चैव हि ।
पीडयन्ति महारोगा मानवान्नाशकारिणः ॥ १९ ॥
एत्तत्ते कथितं सर्वंरक्ष तच्चतुरानन ।
आश्वास्य सकलाल्ँलोकान्निर्ययौ कमलोद्भवः ।
रुद्रस्थानं महादिव्यं भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणाम् ॥ २० ॥
रुद्रानानम्य देवेशः प्रोवाच चतुराननः ।
व्याधीनां चेष्टितं सर्वंरुद्राणा पुरतः सुधीः ॥ २१ ॥
तच्छ्रुत्वा ब्रह्मणो वाक्यं रुद्रा एकादशामलाः ।
समाश्वास्य विरिञ्चिं ते वीरभद्रादयः सुराः ॥ २२ ॥
संभूय वानरे वंशे सुग्रीवप्रमुखा इमे ।
पर्यटन्पर्वताग्राणि मण्डलानि च सर्वशः ॥ २३ ॥
नादयन्तो जगत्सर्वंभुभुका124रैः सुदारुणैः ।
क्ष्वेडितैः क्रीडितैस्तेषां व्याधयो नाशमाययुः ॥ २४ ॥
ततस्तु सकलं दृष्ट्वातिरश्चां चे125ष्टितं महत् ।
तुतोष भगवान्ब्रह्मा ददौ तेभ्यो वरान्बहून् ॥ २५ ॥
ब्रह्मोवाच—
युष्मासु कपिमुद्राऽस्तु मृतसंजीविनी कला ।
आज्ञाऽस्तु सर्वजगति वेगोऽस्तु मनसः समः ॥ २६ ॥
युष्मान्स्मरन्ति ये मर्त्याः पूजयन्ति भवत्तनूः ।
पताका विविधाः कृत्वा चित्रतोरणसंयुताः ॥ २७ ॥
भक्ष्यभोज्यानि खाद्यानि लेह्यंपेयं च सर्वशः ।
युष्मानुद्दिश्य ये मर्त्या यज्जुह्वति हुताशने ॥ २८ ॥
हविः पुण्यतमं रुद्रास्तेषां सिद्धा न संशयः ।
पायसेनैव साज्येन तथैव तिलसर्पिषा ॥ २९ ॥
यजन्ति भवतां वृन्दं ते यान्ति परमं पदम् ।
पठन्ति रुद्रमखिलं गाथा वैश्वानरीस्तथा ॥ ३० ॥
मानस्तोकेन (त) इति वा मनो ज्योतिरथापि वा ।
भवतां यजनं त्वत्र गायत्र्या वा प्रकीर्तितम् ॥ ३१ ॥
एवं ये मानवा लोके विधानं परिकुर्वते ।
व्याधिमुक्ताः सुखासीनास्ते न यान्ति यमक्षयम् ॥ ३२ ॥
गरुड उवाच—
इति राम पुरावृत्तं कपीनां कथितं मया ।
एतेषु सर्वरुद्रेषु हनुमान्कपिनायकः ॥ ३३ ॥
विधानं तत्र कर्तव्यं यत्रास्ति हनुमत्तनुः ।
गोपुरे हनुमन्मूर्तिः शिलायां च प्रतिष्ठिता ॥ ३४ ॥
तत्र सर्वं प्रकर्तव्यं विधानं सुरसत्तम ।
राम उवाच—
केन केन प्रकारेण क्रियते कपिपूजनम् ॥ ३५ ॥
पताकाः कीदृशस्तत्र कति कार्या विहंगम ।
हवनं कतिसंख्याकं किं द्रव्यं को जपो भवेत् ॥ ३६ ॥
किं दानं केन विधिना तन्ममाऽऽचक्ष्व सुव्रत ।
गरुड उवाच—
जनमारे समुत्पन्ने ग्रामे वा पत्तनेऽपि वा ॥ ३७॥
प्रभवत्यौषधं नैव मणिमन्त्रपुरस्क्रिया ।
विधानं तत्र कर्तव्यमेकादश्यां तिथौरवौ॥ ३८ ॥
प्रातःकाले समुत्थाय कृतशौचो द्विजोत्तमः ।
स्नात्वा गङ्गाजले पुण्ये तिलामलकसंस्कृतः ॥ ३९ ॥
एकादश द्विजाञ्छ्रेष्ठान्सोपवासान्निमन्त्रयेत् ।
जागरस्तैस्तु कर्तव्यः सर्वोपस्करसंयुतः ॥ ४० ॥
आदौ तु मण्डपं कृत्वा सर्वत्रापि सुशोभनम् ।
पुष्पमण्डपिकां मध्ये मण्डपस्य प्रकल्पयेत् ॥ ४१ ॥
पञ्चामृतैस्तु स्नपनं रुद्रेभ्यः परिकल्पयेत् ।
ततस्तु कुसुमैः पूजां शतपत्रादिभिः शुभैः ॥ ४२ ॥
चन्दनं च सकर्पूरं देयं रुद्रानुलेपने ।
दशाङ्गं धूपमादद्याद्दीपैर्नीराजयेत्ततः ॥ ४३ ॥
नैवेद्यं विधिवद्दद्यात्ताम्बूलेनैव संयुतम् ।
एकादश पताकास्तु पटेषु परिकल्पयेत् ॥ ४४ ॥
या या यस्मै समुद्दिष्टा पताका च सुशोभना ।
तस्य तस्यैव रूपं तु तस्यामेव प्रकल्पयेत् ॥ ४५ ॥
एवं कृते विधाने च सपताके सतोरणे ।
प्रातःकाले तु काकुत्स्थ जागरान्ते द्विजोत्तमाः ॥ ४६ ॥
कृतस्नाना नदीतोये होमं कुर्युः समाहिताः ।
पायसेन तु साज्येन तथैव तिलसर्पिषा ॥ ४७ ॥
अयुतं हवनं कृत्वा पुनः पूजां प्रकल्पयेत् ।
पताकां हनुमद्द्वारे तस्यैव च निधापयेत् ॥ ४८ ॥
राजद्वारे च सौग्रीवीं सौषेणीमापणे न्यसेत् ।
नलनीलपताके तु शिवद्वारे तु विन्यसेत् ॥ ४३ ॥
यज्ञगेहेऽङ्गदस्यैव तारस्य तरलस्य च ।
जाम्बवन्मैन्दयोर्ग्रामाद्दक्षिणोत्तरयोर्बहिः॥ ५० ॥
दधिवक्त्रपताकां च भैरवस्याऽऽलये न्यसेत् ।
द्वारदेशे जनानां च रुद्रमूर्तीर्विलेखयेत् ॥ ५१ ॥
चित्रिताः पञ्चवर्णैश्च ग्रामं सूत्रैश्च वेष्टयेत् ।
प्रत्यहं कारयेद्विद्वान्भक्त्या ब्राह्मणतर्पणम् ॥ ५२ ॥
दद्याद्वस्त्राणि ऋत्विग्भ्यः सालंकाराणि भूपतिः ।
छत्राणि करपत्रीश्च पादुकाश्च विशेषतः ॥ ५३ ॥
धेनुं पयस्विनीं दद्यादाचार्याय सवत्सकाम् ।
सदक्षिणां सवस्त्रां च सालंकारां गुणान्विताम् ॥ ५४ ॥
ब्रह्मणे महिषीं दद्यात्तथैव पृथिवीपतिः ।
अन्येभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च सप्त धान्यानि भूरिशः ॥ ५५ ॥
लवणं सघृतं देयं तैलं च सगुडं तथा ।
शय्यादानानि भूरीणि क्षेत्राणि विविधानि च ॥ ५६ ॥
एतत्कृत्वा विधानं तु राजा क्षेममवाप्नुयात् ।
रुद्र एवात्र निर्दिष्टो जपः सर्वसुलक्षणः ॥
अथवा ह126वनं शस्तं मानस्तोक इति स्फुटम् ॥ ५७ ॥
एतद्धि गुर्जरदेशे प्रसिद्धम् ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
हनुमत्पताकाविधानम् ।
———
अथ गर्गप्रोक्तगोशान्तिविधानम् ।
व्याधयस्तु दश प्रोक्ता गवां वक्ष्यामि तानिह ।
उद्विग्नोहृदयग्राही पतनो मो127हनस्तथा ॥ १ ॥
गोलिङ्गः पूतना चैव दारुणः खुरकस्तथा ।
कलिलो ल128म्बकर्णश्च कर्णाक्षेपस्तथा परः ॥ २ ॥
एकादशैते*129 गृष्टीनां व्याधयः परिकीर्तिताः ।
तेषां रूपं समुत्थानं यादृशं तद्वदाम्यहम् ।
शान्तिकर्म च निर्दिष्टं यादृशं तत्र निर्मितम् ॥ ३ ॥
रात्रौ गोष्ठेषु या गावो वित्रसन्ति यद(त)स्ततः ।
उद्विग्नो नाम स व्याधिस्तत्र चैवं प्रजायते ॥ ४ ॥
प्रजायत इति प्रकर्षं दर्शयति भ्रान्तेः ।
अश्रुप्रमोचनं यत्र कुर्वन्ति च चलन्ति च ।
हृद्रोगं तं विजानीयाद्गोषु रोगं विचक्षणः ॥ ५ ॥
शोणितं यत्र कुर्वन्ति पुरीषेमूत्रयन्ति च ।
प्रवेषमानाः स्खलिताः पतनो व्याधिरुच्यते ॥ ६ ॥
हुम्बारवांश्च कुर्वन्ति मण्डलानि तथैव च ।
उत्पतन्ति पतन्त्येव मोहनं तं विदुर्बुधाः ॥ ७ ॥
यासां मूत्रं पुरीषं च क्षौद्रवच्च प्रवर्तते ।
ग्रहं तं पूतनां विद्याद्गोषु रोगं समुत्थितम् ॥ ८ ॥
यदि जिह्वा च निर्भिन्ना गवां चैव प्रजायते ।
तृणग्राहेऽप्यशक्तत्वं विद्यात्तं +130 च कलिङ्गकम् ॥ ९ ॥
यासां नेत्राणि रक्तानि स्रवन्ति सलिलं बहु ।
मक्षिकाश्च विलीयन्ते तं विद्याद्दारुणं गदम् ॥ १० ॥
उत्थाय भ्रमते या तु घ्राणेनाऽऽघ्राति*131 मारुतम् ।
कर्णाक्षेप इति ज्ञेयो गोषु व्याधिः समुत्थितः ॥ ११ ॥
खुरेण या न शक्नोति यातुं पङ्गुवदातुरा ।
खुरकं तं विजानीयाद्गोषु रोगं समुत्थितम् ॥ १२ ॥
यासां स्फुटन्ति गात्राणि रोमाण्यूर्ध्वं भवन्ति च ।
उभौ कर्णौ च लम्बेते विद्यात्तं लम्बकर्णकम् ॥ १३ ॥
इत्येते व्याधयो दृष्टा अन्येऽपि विविधास्तथा ।
गर्गेण मुनिना तेन वक्ष्यते शान्तिधा132नकम् ॥ १४ ॥
आदौ तु कारणं तेषां व्याधीनां वच्मि निश्चयात् ।
नग्नाः काषायवसना मुण्डा ये परिचारकाः ॥ १५ ॥
व्यङ्गाश्च स्खलिताश्चैव दूरतस्तान्विवर्जयेत् ।
चित्रांश्च कुष्ठयुक्तांश्च तथा पापहतानपि ॥ १६ ॥
अन्ते(न्ता)ऽवसायिनश्चैव दूरत133स्तान्विवर्जयेत् ।
एते गोपा न कर्तव्या गवां व्याधिकरायतः134 ॥ १७ ॥
नार्ककाष्ठेन हन्याद्गां नोपलेन तथैव च ।
शुष्ककाष्ठेन नो हन्यात्कशया नैव ताडयेत् ॥ १८ ॥
जम्बूप्लक्षाम्रधात्रीणां वटोदुम्बररोहिणाम् ।
अश्मन्तकस्य शालस्य यष्टिं सार्द्रां प्रकल्पयेत् ॥ १९ ॥
शान्तिकर्म प्रवक्ष्यामि धेनूनां हितकाम्यया ।
अश्वत्थे वा पलाशे वा समे देशेऽथ वा पुनः ॥ २० ॥
महास्थाने चैकवृक्षे ग135वां गोष्ठेऽथ वा पुनः ।
व्रात्यो वा गोलकश्चापि कुण्डश्चापि विशेषतः ॥
वैश्यो वा सुव्रतस्तेषामभावे कर्मकृद्भवेत् ॥ २१ ॥
सुव्रत इतिशब्देनामी व्रात्याद्यास्त्रिषु वर्णेषु सन्ति तस्मात्कारणात्सुव्रतःशुद्धो वैश्यः । तेषां सर्वेषामप्यभावे ब्राह्मणो भवति । गवां कृत्ये दुष्टमप्याचरेत् ।अतः कारणाद्विष्णुवचनम्—
मत्कर्म कुर्वतां पुंसां कर्मलोपो भवेद्यदि ।
तत्कर्म ते प्रकुर्वन्ति तिस्रः कोट्यो महर्षयः ॥ २२ ॥
तथा च वामनपुराणे—
गवार्थे ब्राह्मणार्थे च निन्द्यमप्याचरेत्तु यः ।
तस्येह कीर्तिं मोक्षं च परत्र प्रददाम्यहम् ॥ २३ ॥
अन्यच्च—
दीर्घतीव्रामयग्रस्तं ब्राह्मणं गामथापि वा ।
मोचयन्मुच्यते पापादाजन्ममरणान्तिकात् ॥ २४ ॥
अतः कारणात्—
निन्द्यमप्याचरन्विप्रो गवार्थे न च दोषभाक् । इति ।
रोगग्रस्तानां प्राणिनां हितमाचरन्विप्रः श्रेय एवाऽऽप्नोति तस्माद्यतितव्यमस्ति ।
कर्ताऽत्र शुद्धिमान्स्नात्वा गोशान्तिं परिकल्पयेत् ॥ २५ ॥
मण्डपं कारयेत्स्थूलं चतुरस्रं सुशोभनम् ।
भूमिं संमार्जयेत्तत्र पुष्पप्रकरशोभिताम् ॥ २६ ॥
विन्यसेद्भैरवं तत्र सपत्नीकं चतुर्भुजम् ।
सुवर्णमूर्तिं सुस्निग्धं स्वर्णाभावे तु राजतम् ॥ २७ ॥
तस्याप्यभावे ताम्रं वा रक्तचन्दनजं ततः ।
कुङ्कुमेनापि संलिख्य पट्टे वा तदभावतः ॥ २८ ॥
चन्दनेन प्रियां तस्य स्वर्णादीनामभावतः ।
अञ्जनेन लिखेत्कालीं प्रकृत्या चाष्टबाहुकाम् ॥ २९ ॥
त्रिशूलं डमरुं चोर्ध्वं खड्गं चषकमुत्तमम् ।
एवमायुधमीशं तं दक्षिणोर्ध्वं प्रदक्षिणम् ॥ ३०॥
तथैव योगनाथां तां तत्पत्नीं परिकल्पयेत् ।
चक्रं खट्वाङ्गमुसलमभयं खेटकं तथा ॥ ३१ ॥
घण्टां पात्रं गदां चैव कालिकायां न्यसेत्तथा ।
पूर्णौकुम्भौ जलेनैव तयोरग्रे तु विन्यसेत् ॥ ३२ ॥
वंशपात्रे सुवृत्ते च कुम्भयोर्वक्त्रयोर्न्यसेत् ।
दधिभक्तस्य पिण्डौ तु तयोरुपरि विन्यसेत् ॥ ३३ ॥
क्षेत्रस्य पतिनैतेन मन्त्रेणाखिलमाचरेत् ।
गौरीर्मिमायमन्त्रेण तस्यै च परिकल्पयेत् ॥ ३४ ॥
मूलमन्त्रेण वा कुर्याद्गायत्र्या वा समाहितः ।
प्रतिष्ठां विधिवत्कुर्यात्कालश्रवणपूर्वकम् ॥ ३५ \।\।
स्वस्तिवाच्य ततो विप्रान्वृणुयादग्निकर्मणि ।
पक्वंमांसं तथा चाऽऽमं तथैव हिमपिण्डकाः ॥ ३६ ॥
आमशब्देनापक्वंमांसम् । हिमशब्देनापक्वान्नपिण्डाः । सर्वे पञ्चपञ्चसंख्याकाः । कलशयोरग्रतो विन्यसेत्तान्।
सुघृतेन सुतैलेन सार्षपेण सुयोजयेत् ।
दीपान्सुवृत्तान्पञ्चैव तावतो मुष्टिकाञ्छुभान् ॥ ३७ \।\।
तिथिश्च शुक्लप्रतिपद्विधानेऽस्मिन्प्रयुज्यते ।
खदिरोदुम्बराश्वत्थपलाशानां शुभाः स्मृताः ॥ ३८ ॥
समिधो बिल्ववृक्षस्य सहस्रं च पृथक्पृथक् ।
शमीवृक्षस्य च तथा तथा यज्ञतरोरपि ॥ ३९ ॥
मुखमग्नेः प्रकर्तव्यं यथाविधि विचक्षणैः ।
क्रव्यादस्य तथा मांसं छागस्य च हयस्य च ॥ ४० ॥
केशाश्च मानवाश्चैव लशुनं च वचा त्वचा \।
सार्षपेण च तैलेन घृतेन च गुडेन च ॥ ४१ ॥
युक्तानि कारयित्वा तु धूपार्थे च द्विजोत्तमः ।
सुरारुधिरसंयुक्तं मांसं पक्वंतथेतरत् ॥ ४२ ॥
दिशां च विदिशां चैव बलिंकुर्यात्प्रयत्नतः ।
एतद्विधानं केवलमण्डपविषयमिति न तत्सीम्नोऽप्युद्दिष्टम् (?) ।
कर्ता क्षेममवाप्नोति गवां क्षेमकरो यतः \।\।
शान्तिमेतां प्रयुञ्जीत सावित्रीं मनसा स्मरेत् \।\। ४३ ॥
एषाहि वेदमाता तु द्विजैः पूर्वमुदाहृता ।
कृष्णच्छागस्य मेदांसि रुधिरं च विशेषतः ॥ ४३ ॥
कर्णाभ्यां गृह्य136तस्यैव जुहुयाच्च शतं द्विजः ।
सघृतं च सतैलं च सर्षपांश्च विमिश्रयेत् ॥ ४५ ॥
एवं यो जुहुयाद्विद्वान्हृद्रोगस्य विनाशनम् \।
जायते नात्र संदेहो गर्गस्य वचनं यथा ॥ ४६ ॥
पुष्पकर्णस्य रुधिरं छागस्यापि च हावयेत् ।
चक्रकुक्कुटमांसानि पतनं शमयन्त्यलम् ॥ ४७ ॥
मोहकं नाशयत्याशु शम्याश्च समिधो ध्रुवम् ।
कृसरो यावकश्चैव नात्र कार्या विचारणा ॥ ४८ ॥
पाण्डुरच्छागमांसानि हृदयं रसनां तथा ।
मधुसर्पिर्युतां कृत्वा जुहुयात्पूतनाग्रहे ॥ ४९ ॥
आश्वत्थ्यौदुम्बरीभिश्च खादिरीभिस्तथैव च ।
जुहुयात्सर्पिषा विद्वान्का (न्गो) लिङ्गस्य विमोक्षणे ॥ ५० ॥
शम्या सह पलाशेन सर्पिषायावकेन च ।
आसुरेण च मांसेन व्याधिः शाम्यति दारुणः ॥ ५१ ॥
कृष्णच्छागस्य वाऽजस्य च्छाग्या वाऽपि समाहितः ।
शोणितं सर्पिषायुक्तं जुहुयात्खुरकोद्भवे ॥ ५२ ॥
छागस्याप्यतिवृद्धस्य वसाहृदयशोणितम् ।
अरिष्टाक्षतसंयुक्तं हुतं*137 कण्डूविनाशनम् ॥ ५३ ॥
घृतसर्षपतैलं च हृदयं कुक्कुटस्य च ।
यथोपनीताः समिधो हावयेल्लम्बकर्णके ॥ ५४ ॥
गवां शान्तिं यथोद्दिष्टां यः प्रयुञ्ज्याद्द्विजोत्तमः ।
कारयेद्यो गवामर्थे वाजपेयशताधिकम् ॥ ५५ ॥
तेन पुत्राश्च पौत्राश्च धनं धान्यं तथैव च ।
गावश्च परिवर्त(र्ध)न्ते लोके कीर्तिमवाप्नुयात् ॥ ५६ ॥
शिवधर्मात् —
ब्रह्मणा ब्रह्मशब्देन स्तूयते प्रणवेन यः ।
स शिवः शाश्वतो देवो गवां मारीं व्यपोहतु ॥ ५७ ॥
योऽर्च्यते च सदा देवो विष्णुना प्रभविष्णुना ।
स शिवः शाश्वतो देवो गवां मारीं व्यपोहतु ॥ ५८ ॥
नित्यं रुद्रबलोपेतो रुद्रभक्तिसमन्वितः ।
घण्टाकर्णगतो देवो विश्वज्ञानविधायकः ॥ ५९ ॥
लम्बोदरेण देवेन गजवक्त्रेण यः स्तुतः ।
स शिवः शाश्वतोदेवो गवां मारीं व्यपोहतु ॥ ६० ॥
सर्वरोगहरेणापि रविणा यः प्रणम्यते ।
स शिवः शाश्वतो देवो गवां मारीं व्यपोहतु ॥ ६१ ॥
श्रीमता रुधिराङ्गेण घण्टाकर्णगणेन यः ।
नित्यं प्रणम्यते भक्त्या प्रहृष्टेनान्यचेतसा ॥६२ ॥
शिवाय देवदेवाय महादेवाय शाश्वते ।
रुद्राय स्थाणवे नित्यं हरायोग्राय ते नमः ॥६३ ॥
परमेशाय सिद्धाय मन्त्रसिद्धिप्रदायिने ।
त्र्यम्बकाय च देवायानन्ताय च नमो नमः ॥ ६४ ॥
अभिमन्त्र्य सदा तोयमेतैर्मन्त्रैर्यथाक्रमम् ।
प्रोक्षयेत्तु गवां देहं ततः सिद्धिर्भवेदिह ॥६५ ॥
एवं यः पठते+138 गोषु रोगार्तासु विशेषतः ।
गोशान्तिकं सदाकालं गोषु शान्तिर्भवेदिह ॥६६ ॥
प्रातः प्रातस्तु सततं गोशान्तिकमिदं पठेत् ।
गवामुत्सवकालेषु प्रस्थाने वा समागते ॥
आयुष्मान्बलवान्भोगी श्रीमानर्थपतिर्भवेत् ॥ ६७ ॥
एकतः शिवसद्मानि (द्मनां) सहस्रं तुलितं बुधैः ।
गोशान्तिरेकतश्चैका सहस्राच्च गरीयसी ॥ ६८ ॥
वैशाखे द्वारकायां च गोविन्दस्य विलोकनम् ।
तस्मात्पुण्यतरा शान्तिर्गवां सत्यं वदाम्यहम् ॥६९ ॥
ब्राह्मणस्य परित्राणाद्गवां द्वादशकस्य वा ।
तथाऽश्वमेधावभृथस्नानाद्वा शुद्धिमाप्नुयात् ॥ ७० ॥
गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश ।
तस्माद्गवां प्रकर्तव्या ह्युपचारक्रिया बुधैः ॥ ७१ ॥
गङ्गावगाहनं मातुः पादपङ्कजसेवनम् ।
भारतश्रवणं तेभ्यः पुण्यं धेनुचिकित्सितम् ॥ ७२ ॥
गवां भेषजकर्ता च ग्रीष्मे प्रपाविधायकः ।
योगयुक्तो रणे धीरश्चत्वारस्ते हरेः कराः ॥ ७३ ॥
गवामङ्गेषु ये दोषा उद्विग्नाद्याः प्रकीर्तिताः ।
अजानां महिषीणां च विज्ञेयास्ते न संशयः ॥ ७४ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांगर्गप्रोक्तं गोशान्तिविधानम् ।
——————
अथाश्वशान्तिः ।
ग्रहऋक्षादिवैकृत्याद्भवन्त्यश्वास्तु रोगिणः ।
तदा निर्गमयेत्स्थानात्कल्पयेद्वा विधानकम् ॥१ ॥
पूजयेच्छंकरं देवं पार्वतीसहितं विभुम् ।
नारायणं श्रिया युक्तं मन्त्रैस्तल्लिङ्गकैर्नृपः ॥ २ ॥
प्रारभेच्छुभनक्षत्रे ग्रामस्य तु चतुष्पथे ।
सुरामांसोपहाराद्यैर्गीतवाद्यादिनर्तनैः॥ ३ ॥
ग्रहभानि समुद्दिश्य बलिं च परिकल्पयेत् ।
आदौ रेवन्तकः पूज्यः पश्चाच्च ग्रहदेवताः ॥ ४ ॥
पूजयेदभिषेकं च सूर्यस्य परिकल्पयेत् ।
सूर्यकान्तशिलायां वा यन्त्रे वा ताम्रजेऽर्चयेत् ॥५ ॥
अर्कपत्रेऽथ वा रक्तचन्दनेन समालिखेत् ।
सूर्यं रथसमासीनं चिन्तयेदरुणं तथा ॥ ६ ॥
सप्तभिर्वाजिभिः श्रेष्ठैर्यन्त्रितं रथसत्तमम् ।
ध्वजेन सहितं राजा चिन्तयेद्वाजिशान्तये ॥ ७॥
वाजिभिर्विजयो राज्ञां वाजिभिः स्वर्गसंस्थितिः ।
गुणिभिर्दोषरहितैर्महावेगपरायणैः ॥८ ॥
यस्य धान्यं धनं तस्य यस्याश्वास्तस्य जीवितम् ।
सुभगं मुनिभिः प्रोक्तं यस्याश्वास्तस्य मेदिनी ॥ ९ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन चिन्तयेद्वाजिनां हितम् ।
अभिषेकं च सूर्यस्य सहस्रकलशैस्तथा ॥ १० ॥
उदुत्यं जातवेदसमित्यृचोद्यन्नद्येत्यनेन वाऽष्टोत्तरायुत[^137]त्रयजपं कुर्यात्तद्दशांशेन चरुघृताभ्यां जुहुयात् ।
एतदुक्तं स्कन्दपुराणे—
देशमन्यं नयेत्क्षिप्रमन्यानपि स दूषयेत् ।
रेवन्तं पूजयेत्तत्र महाकालीं हरं हरिम् ॥ ११ ॥
सहस्रकलशैः स्नानं रवेरेवं प्रकल्पयेत् ।
अश्वानां व्याधयो यत्र तत्र ब्राह्मणभोजनम् ॥
प्रकुर्यात्प्रयतो वाजिनाशः क्षिप्रं प्रशाम्यति ॥ १२ ॥
तत्र ग्रहान्प्रदर्शयति—
ईश्वरस्य कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च ।
बृहस्पतेरुशनसः सोमस्याथ विवस्वतः ॥ १३ ॥
ग्रहा नानाविधा घोराः प्रवरा ह्येकविंशतिः ।
तत्र माहेश्वराः सप्त महारौद्राः प्रकीर्तिताः ॥ १४ ॥
चत्वारो राक्षसास्तेभ्यो मुनिभिः परिकीर्तिताः ।
त्रयो रौद्रास्तु राज्ञां वै ते निघ्नन्ति तुरंगमान् ॥
एवं प्राणहरा राजन्क्रूरा भुवनवर्तिनः ॥१५ ॥
यावान्कालोऽश्वशान्तिकस्य कर्मणस्तावन्तं कालमाह—
त्रिदिनं चैवसप्ताहं दशाहं पक्षमेव च ।
तत्र कुर्याद्यथाप्रोक्तं जपमष्टोत्तरायुतम् ॥ १६ ॥
तावन्तमपि होमं च कर्मकाण्डे प्रकीर्तितम् ।
एवं रक्षोगृहीतानां वाजिनां महदुल्बणम् ॥ १७ ॥
जायते च बहूनां च रोगाणां समुदायतः ।
देवानां च प्रसादेन पूजितानां यथाविधि ॥ १८ ॥
जायते रोगनिर्मुक्तिर्नात्र कार्या विचारणा ।
तस्माद्देवपरो नित्यं शुचिः स्नानमुपक्रमेत् ॥ १९ ॥
अश्वशान्तिं महाराजः कुर्याच्चैव समाहितः ।
प्रभातसमये स्नातानलंकृत्य तुरंगमान् ॥
विप्रैःसह स्वयं स्नायादित्याह भगवान्मुनिः ॥ २० ॥
तत इत्यस्यार्थः समाप्ते कर्मण्यश्वान्प्रस्नाप्य स्वयं स्नायादिति ।मनसो रुच्यादानानि दद्यात् । यतः कारणाद्ग्रहनक्षत्रगत्या राजनक्षत्रे पीडिते सति राज्ञःसर्वसंपदः पीड्यन्त इत्यस्ति ज्योतिःशास्त्रे ।
तच्चाऽऽहशालिहोत्रोक्तायामश्वशान्त्याम्—
स्थाने शुभे स्थापितानां सशल्ये वाऽथ सग्रहे ।
हयानां जायते घोरो मारको नात्र संशयः ॥ २१ ॥
यस्य वा जन्मनक्षत्रं कर्मजं वाऽथ मानसम् ।
सांघातिकं सामुदायं तथा वैनाशिकं च भम् ॥ २२ ॥
जन्मनक्षत्राच्चतुर्थदशमषोडशाष्टादशत्रयोविंशनक्षत्राणां मानसादयः*139 संज्ञाः ।पीडयन्ते [ इति शेषः । ] ।
यस्य राशिस्तु सूर्याद्यैर्यदि वा राहुणा तथा ।
विविधैर्वा तथोत्पातैस्तस्य स्याद्वाजिपीडनम् ॥ २३ ॥
यस्य वा ब्राह्मणाः क्रुद्धा देवा वा पितरस्तथा ।
रोर्गैर्नानाविधैस्तस्य पीड्यन्ते वाजिनो भृशम् ॥ २४ ॥
हयमारो भवेत्तस्य यः साहसकरो नृपः ।
रात्रौ च वाजिशालायां नास्ति दीपो निरन्तरम् ।
तेन दोषेण घोटानां संभवन्ति महागदाः ॥ २५ ॥
लेण्डापकर्षणं नास्ति दिवा नास्त्येव घर्षणम् ।
मक्षिकावारणं नास्ति नास्ति शुद्धिर्भुवोऽपि च ।
कृशाश्च140 व्याधियुक्ताश्च जायन्ते नात्र संशयः ॥ २६ ॥
उरःप्रमाणः कर्तव्यः स्थानस्यैव समुच्छ्रयः ।
शल्यस्योद्धरणं कार्यं भुवस्तज्ज्ञैर्विचक्षणैः ॥२७ ॥
अश्मन्तकस्य वाऽऽम्रस्य छाग (शाक) स्य शिंशपस्य ×141 च ।
बदर्याश्चैव जम्ब्वाश्च स्थानस्तम्भाः शुभावहाः ॥ २८ ॥
कण्ठदारु प्रकर्तव्यमेभिरेव द्रुमोत्तमैः ।
शालोच्छ्रायो विधेयोऽत्र शिल्पशास्त्रेण भूभुजा ॥ २९ ॥
लेण्डापकर्षणं रात्रौ नैव कार्यं प्रघर्षणम् ।
एतदन्यादृशं सर्वमश्वानां व्याधिदं भवेत् ॥३० ॥
रैवन्तकस्य पूजाऽत्र तथा वास्तुप्रपूजनम् ।
कृत्वा विशोध्य समयं घोटांस्तत्र निवेशयेत् ॥ ३१ ॥
पीडिते जन्मनक्षत्रे स्नानं विहितमाचरेत् ।
पीडकस्तु ग्रहः पूज्यस्तथा नक्षत्रमेव च ॥ ३२ ॥
विनायकोऽपि संपूज्यो गाणपत्येन कर्मणा ।
मितश्च संमितश्चैव तथा शालकटङ्ककौ142॥३३ ॥
कूष्माम्डो राजपुत्रश्च पूज्या चैवाम्बिका तथा ।
पीडितं राजनक्षत्रं ग्रहैः क्रूरैर्भयावहैः ॥
उत्पातैर्विविधैस्तत्तु कथ्यतेऽत्र समासतः ॥ ३४ ॥
षड्भो नरः स्यान्नृपतिर्नवर्क्षःक्रूरान्तरिक्षे चरपीडितं भम् ।
कुर्वीत पूजां खलु तस्य राजानरोऽथवा क्लेशनिवारणार्थम् ॥ ३५ ॥
जन्मर्क्षमाद्यं दशमं च कर्मसांघातिकं षोडशमृक्षमाद्यात् ।
अष्टादशं भं समुदायसंज्ञं प्राहुस्त्रयोविंशमिदं विनाशम् ॥ ३६ ॥
यत् पञ्चविंशं खलु मानसंतद्भैः षड्भिरित्थं पुरुषोऽपि षड्भः ।
विश्वंभरेशो नवभिः स्वजातिदेशाभिषेकोद्भवभैर्नवर्क्षः ॥ ३७ ॥
यत्केतुसूर्यात्मजभोगयुक्तं विभेदवक्रोपहतं कुजेन ।
उल्काहतं यद्ग्रहणाहतं वाप्रपीडितं143 भं यदुषाकरेण ॥ ३८ ॥
जन्मभे प्रतिहते तनुनाशः कर्मणः फलहृतिर्दशमर्क्षे ।
षोडशे भवति बान्धवपीडाऽष्टादशे तनुभृतां धनहानिः ॥ ३९ ॥
प्राणिनामसुहृतिस्तु विनाशे मानसे विकलता मनसः स्यात् ।
जातिभे भवति गोत्रविनाशो देशभे भवति देशविनाशः ॥ ४० ॥
प्रपीडिते सत्यभिषेकधिष्ण्ये भवेन्नृपाणां तनुदेशपीडा ।
घोराऽपि पीडा प्रशमं प्रयाति
स्नानैर्यतः स्नाति पयोऽभिधास्ये॥४१॥
गोक्षीरयुक्तैरथ पूर्णकोशैः (ष्ठा)-फेनैः सिताशेषतनोर्वृषस्य ।
तथा शकृन्मूत्रयुतैः पयोभिः स्नानं नृणां पीडितजन्मभे स्यात् ॥ ४२॥
अक्षारमद्याभिषभुग्दशाहे मध्वाज्यहोमी हृतकर्मपीडः।
प्रियंगुसिद्धार्थकभीरुदूर्वाशतावरीस्नाननिरस्तदोषः ॥४३॥
सांघातिके भेऽभिहते निरस्य मध्वामिषे क्रौर्यमनोभवां च ।
दुर्वासमिद्भिर्विदधीत होमं दानं च दद्याद्विभवानुरूपम् ॥ ४४॥
अश्वत्थसिद्धार्थकदेवदारुप्रियंगुबिल्वैर्यवचन्दनाद्यैः ।
जलप्लुतस्नानमशेषदोषान् सांघातिकर्क्षप्रभवांश्छिनत्ति ॥ ४५॥
स्वर्णंसरूप्यं समुदायधिष्ण्ये तप्ते प्रदद्याद्विदधीत होमम् ।
वलक्षसिद्धार्थकसर्वगन्धयुक्तैर्जलैः स्नानमुशन्ति शस्तम्॥४६ ॥
सरुद्रसावित्र्यभिमन्त्रिताम्बुपूर्णैर्घटैः षोडशभिर्विनाशे ।
तप्तेऽभिषेको मणिबीजरौप्यसर्वौषधीस्वर्णयुतैः प्रशस्तः ॥४७ ॥
यानासनोर्वीवसनानि गाश्च शक्त्या प्रदद्याद्द्विजपुंगवेभ्यः ।
होमं च कुर्याच्छुभदूर्वया च वैनाशिकोपद्रवनाशमिच्छन् ॥ ४८ ॥
कार्योऽब्जहोमो घृतपायसाभ्यां तर्प्याद्विजा मानसतापशान्त्यै ।
स्नायाच्छिरीषातिबलाबलेन मदाम्बुभिश्चन्दनसंयुतैश्च ॥ ४९ ॥
स्नानं प्रतप्ते त्वभिषेकधिष्ण्ये समस्तरत्नैः सलिलप्लुतैः स्यात् ।
स्वजातिधिष्ण्येऽपि च सर्वबीजैः सवारिभिः सर्वसुखाय राज्ञाम् ॥ ५० ॥
देशर्क्षे परिपीडिते व्रजहयस्तभ्वेरमस्थानतः
शैलाग्राद्वृषशृङ्गक्तत्तध ( कृत्तध) रणेर्गोष्ठाङ्गणात्सद्भदात् ।
वक्ष्मीकात्सरसो द्विजातिभवनाद्रुद्रालयात्संगमादानीयाथ
मृदो निधाय कलशे राजाऽभिपेकश्रियै ( कं श्रियात् ) ॥५१ ॥
लेण्डापकर्षणं यत्र कृतं भवति वाजिनाम् ।
तत्रैव परिकर्तव्यं गन्धर्वाणां च पूजनम् ॥५२ ॥
गन्धर्वशब्देन तुरंगमाः ।
अदीपे स्थापिता यत्र तथा शुचि <MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-16944585264.png"/>144 (शौच) विवर्जिते ।
स्थानापकर्षणं कृत्वा श्रुतपूजा विधीयते ॥ ५३ ॥
श्रुतशब्देन शालिहोत्रशास्त्रम् ।
उच्चैःश्रवा हयः पूज्यस्तुरंगाधिपतिस्तु यः ।
हयमारे समुत्पन्ने तस्मात्तं परिपूजयेत् ॥५४ ॥
इमां शान्तिं प्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु ।
ब्राह्मीं भूमिं च संशोध्य क्षत्रियां (क्षात्रियीं) वा समाहितः ॥ ५५ ॥
गोमयेनानुसंलिप्य तां भूमिं परिशोधिताम् ।
अहोरात्रोषितो भूत्वा सोपवासः पुरोहितः ॥ ५६ ॥
रात्रौ जागरणं कृत्वा तस्यां भूमावनालसः ।
तूर्याणां च निनादेन गीतनृत्यविनोदितः ॥ ५७॥
चन्दनैः कुङ्कुमैर्दिव्यैः कुसुमैः प्रकिरेन्महीम् ।
धूपैस्तु धूपितां सम्यग्दीपैर्नीराजितां शुभाम् ॥५८॥
एवं रात्रिमुषित्वा तां प्रातःकाले पुरोहितः ।
स्नात्वा शुक्लाम्बरधरः शुक्लमाल्यानुलेपनः ॥ ५९ ॥
सोष्णीषोऽलंकृतः शक्त्या सहायैः शुचिभिः सह ।
चत्वारो ब्राह्मणाश्चास्य सहायाः स्युरतन्द्रिताः ॥६०॥
ऋग्वेदपारगो ह्येको द्वितीयो यजुषां वरः ।
तृतीयः साम145विन्मुख्यश्चतुर्थश्चाप्यथर्ववित् ॥ ६१ ॥
सर्वे146 स्वङ्गाः कुलीनाः स्युः शुचयः शीलसंयुताः ।
अहंभावैरसंवीताः पवित्रचरितास्तथा ॥६२॥
तेषामभावे सर्वेषामेको नाऽस्ति (ऽस्तु) तथाविधः ।
तस्याभावे हि कर्तव्य ऋक्शाखी तत्त्वविद्द्विजः ॥ ६३॥
तस्याप्यभावे कर्तव्यो यजुर्वेदपरायणः ।
सामविद्वा भवेद्विप्रोवेदशास्त्रपरायणः ॥६४॥
सर्वेषामप्यभावे तु मीमांसातत्त्वकोविदः ।
आचार्यं तं प्रकुर्वीत पुराणार्थविदां वरम् ॥६५॥
धर्मशास्त्ररतं नित्यं निष्णातं सर्वकर्मसु ।
पावनं तं विजानीयात्कर्मसिद्धिप्रदं नृणाम् ॥
कुलीनं वैष्णवं दान्तं वह्निसेवापरायणम् ॥६६॥
तथा च श्रीभागवते—
नाहं तथाऽग्नियजमानहविर्विताने
श्चोतद्घृतप्लुतमदन्हुतभुङ्मुखेन ।
यद्ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ॥ ६७ ॥
अन्यच्च—
यस्तु व्याकुरुते वाचं यश्च मीमांसतेऽध्वरम् ।
तावुभौ पुण्यकर्माणौ पङ्क्तिपावनपावनौ ॥६८॥
तस्मात्कारणाद्विद्वानेको विष्णुरूपः ।
मण्डपे विस्तृते सम्यक्तन्मध्ये कुण्डमुत्तमम् ।
लक्षणोक्तं प्रकुर्वीत यज्ञविद्याविशारदः ॥६९॥
परितो मण्डलं कार्यं चतुरस्रं सुशोभनम् ।
तण्डुलैर्लक्षणोपेतैरर्चितं सुमनोहरम् ॥७०॥
विदिक्षु विन्यसेत्कुम्भान्पूर्णानोषधिवारिणा ।
रसांश्च विन्यसेत्तेषु ऐशान्यादिक्रमेण तु ॥७१॥
सर्पिषा पयसा दध्ना मधुना च यथाक्रमम् ।
कुम्भांस्तान्पूरयेद्विद्वान्साक्षतान्ससुमांस्तथा ॥ ७२॥
संवीतान्वस्त्रयुग्मै147श्चवंशपात्रैः प्रपूरितान् ।
संपूजयेत्ततो देवान्कुम्भेषु चदिगीश्वरान् ॥ ७३॥
प्राच्यादिमुख्यदिग्भागेष्वर्चयेदिन्द्रतः सुरान् ।
न्यस्तेषु देवकोष्ठेषु सवस्त्रेषु विशेषतः ॥ ७४॥
कृत्वा स्वर्णमयान्सर्वानुपचारैः पृथक्पृथक् ।
यस्य यस्य च यद्रूपं यत्स्थानं याऽभिधा क्रमात् ॥७५॥
तल्लिङ्गेनैव मन्त्रेण कार्यंसर्वंविधानकम् ।
तेषामेवाथ मन्त्रैस्तैर्होमं कुर्याद्विधानवित् ॥७६॥
साज्येन पायसेनैव जुहुयाच्च पृथक्पृथक् ।
अयुतं वा सहस्रं वा तथा च तिलसर्पिषा ॥ ७७ ॥
बिल्वपत्रैस्तथा पुष्पैः पद्मैर्नानाविधैः शुभैः ।
जुहुयाच्छ्रीफलैस्तद्वद्बीजपूरैर्मनोरमैः ॥ ७८ ॥
खर्जूरैर्नारिकेलैश्च सितया गुग्गुलेन च ।
साज्यैश्च तण्डुलैश्चापि होमं कुर्या148त्पृथक्पृथक् ॥ ७९ ॥
ऋग्वेदी पूर्वदिग्भागे जपेच्छान्तीरनुत्तमाः ।
यजुरध्ययनो विप्रोवारुण्यां जपकृद्भवेत् ॥८० ॥
याम्ये तु सामगो विप्रो कौबेरेऽथर्वविज्जपेत् ।
तेन149 तेन प्रकारेण हवनं कुर्युरञ्जसा ॥ ८१ ॥
यथासंख्योदितं कृत्वा हवनं जातवेदसि ।
शान्तिपाठं ततः कुर्युरितरैर्ब्राह्मणैः सह ॥८२ ॥
होमावशिष्टैः सर्वैस्तैर्द्रव्यै[स्तु] स्विष्टकृद्भवेत् ।
ततो होमबलिं कुर्याद्यथाशास्त्रमतन्द्रितः ॥८३ ॥
हयानां रोगशान्त्यर्थं या पूजा परिकीर्तिता ।
तां तु वक्ष्ये समासेन भेषजैः सह संमतैः ॥८४ ॥
इन्द्रादीनां पृथक्पूजां चतुर्णांविनिवर्त्य च ।
ईशानादिचतुर्णां तु ततः कुर्यात्पुरस्क्रियाम् ॥८५ ॥
ऐशान्यामग्निकुण्डाच्च पूर्वदक्षिणतस्तथा ।
भूमौ कुर्वीत देवानां मण्डलेष्वपि पूजनम् ॥ ८६ \।\।
अत्र विप्रास्त्रयः कार्या नैव कुर्यात्त्वथर्ववित् ।
आग्नेये त्वथ दिग्भागे वह्निपूजा विधीयते ॥ ८७ ॥
ऐशाने पूजनं वायोः पूर्वे देवेशमर्चयेत् ।
सावित्रं तु जपेन्मन्त्रं यजुर्वेदविशारदः ॥८८ \।\।
आग्नेये बह्वृचश्चैव सौम्ये सामविदुत्तमः ।
सर्वमेव तु कर्तव्यं पूर्वोद्दिष्टं150 विधानतः ॥८९ ॥
उत्पातेषु च सर्वेषु तुरगेषु नृपस्य च ।
प्रायश्चित्तं प्रकुर्वीत ततः सर्वं प्रशाम्यति ॥९० ॥
हयशालोत्तरे भागे स्थण्डिलं च प्रकल्पयेत् ।
त्रिरात्रोपोषितस्तत्र शान्तिं कुर्याद्द्विजोत्तमः ॥
कश्चिन्निमन्त्रितः पूर्वं त्रिरात्रमुपवासितः ॥ ९१ ॥
उपवास इत्यस्य कोऽर्थः । त्रिरात्रं तत्रैव निवासकारको ब्रह्मचर्येण ।
उदकुम्भास्तु चत्वारः स्थापनीयाश्चतुर्दिशम् (शे) ।
रसपात्राणि देयानि पूर्णकुम्भमुखोपरि ॥९२ ॥
शिरःस्त्रातः कृतोष्णीषो यथावत्कृतमङ्गलः ।
शुक्लवासा जितक्रोधो बह्वृचेन समीरितः ॥९३॥
अकृतो (आहुती) र्जुहुयाद्वह्नौघृतेन सुसमाहितः ।
पितामहाय रुद्राय स्कन्दाय वरुणाय च ॥९४॥
अश्विभ्यां चैव सूर्याय शक्राय च तथाऽग्नये ।
वायवे चाथ हरये श्रिये देव्यै तथैव च ॥ ९५ ॥
गन्धर्वेभ्यश्च सोमाय ह्युच्चैःश्रवस एव च ।
देवता या भवेत्तत्र ह्युत्पातस्य तु कारणम् ॥९६ ॥
मण्डलेऽस्मिन्बलिं सम्यग्विधिवत्परिकल्पयेत् ।
शतमष्टाधिकं हुत्वा प्रतिदेवं द्विजोत्तमः ॥ ९७ ॥
ततश्चपूजनं कुर्याद्देवानां च विशेषतः ।
पायसैर्घारिकादीपधूपमाल्यानुलेपनैः ॥ ९८ ॥
पायसैरिति बहुवचनं येन कारणेन तद्वक्ष्ये पायसं केवलं तण्डुलसंभवमितिन यस्य कस्यचिद्धविषः ।
मधुना पयसा चैव ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ।
एकैकं देवमुद्दिश्य दश सप्त द्विपञ्च च ॥
पलसंख्याऽत्र निर्दिष्टा स्वर्णस्यैव मनीषिभिः ॥९९ ॥
तथैव रजतं देयं ताम्रं कांस्यं च दक्षिणा ।
इति धनिधनीतरनिर्णयविषयम् ।
याजकानां हि तुष्टयर्थं नाणकं च प्रदापयेत् ॥१०० ॥
या या देवता येन येन पूजिता तां तां तस्मै तस्मै सालंकारां सकुम्भां सपीठांसवस्त्रां सदक्षिणां दद्यात् । हस्तकर्णमात्रवस्त्राणि सर्वेभ्यः समानत्वं प्रकल्प्यदद्यात् । ब्रह्मणे महिषीं दद्यात् । अश्वं सोपस्करं दद्यादाचार्याय ।
ततस्तु वाचयेत्स्वस्ति संपूज्य कुलदेवताम् ।
रेवन्तकस्ततः पूज्यस्ततोऽश्वान्परिपूजयेत् ॥
ततस्तु भेषजं कुर्यादश्वानां रोगमुक्तये ॥ १०१ ॥
तथा हि—
अश्वकन्दस्य मूलानि कुमारीकन्दमेव च ।
व्योषं च सर्षपैर्युक्तं पयसा परिलोड्येत् ॥१०२ ॥
व्रीहिपिष्टेन संमिश्रं दद्यात्पलचतुष्टयम् ।
[ भेषजं तच्च घोटाय ] एकैकस्मै पृथक्पृथक् ॥ १०३ ॥
बलातैलेन घोटानामङ्गानि परिमर्दयेत् ।
ततस्तु सर्वखाद्यानि मृन्मये शुचिभाजने ॥ १०४ ॥
निधायाश्वांस्तु नीराज्य तदैशान्यां दिशि क्षिपेत् ।
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण [ वाजिनां रोगमुक्तये ] ॥ १०५ ॥
स च मन्त्रः—
एह्येहि भगवन्देव हयान्मुञ्च महाग्रह \।
अनेन बलिदानेन क्लेशमुक्तिकरो भव ॥ १०६ ॥
हुं फट्स्वाहा ।
ततो गृहे विशुद्धात्मा कृतमङ्गलकौतुकः ।
रक्षोघ्नं च प्रदद्यात्तु धान्यं विप्राय भूरि च ॥ १०७ ॥
रक्षोघ्नशब्देन तिलाः । भूरिशब्देन पुरुषभारात्परम् ।
राज्ञो विजयदं पुण्यं धनधान्यविवर्धनम् ।
तुष्टिदं पुष्टिदं लोके सर्वविघ्नहरं शुभम् ॥१०८ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शालिहोत्रोक्तमश्वशान्तिविधानम् ।
————
अथ गजमारशान्तिविधानम् ।
यदा च कुंजराणां तु रोगोत्पत्तिः प्रजायते ।
तदा गजग्रहक्षोभो विज्ञेयः पृथिवीभृताम् ॥ १ ॥
तदुक्तं वामनपुराणे—
कुंजरग्रहसंक्षोभो गजानां जायते यदा ।
तदा संपूजयेदिन्द्रं पुष्पगन्धादिभिः सुधीः ॥ २ ॥
विश्वतश्चक्षुरित्यादिसूक्तैरैन्द्रैर्द्विजोत्तमः ।
पूजयेत्प्रयतो भूत्वा विप्रवर्यैः समावृतः ॥ ३ ॥
अनेनैव तु मन्त्रेण जुहुयादयुतत्रयम् ।
अष्टाधिकं च मतिमान्पायसेन च सर्पिषा॥ ४ ॥
सप्तावृत्या जपेद्विद्वान्साष्टं चैवायुतत्रयम् ।
कुंजरा हि यदा रोगपीडिताः स्युर्महीपतेः ।
तदेन्द्रं पूजयेत्सम्यगित्याह भगवाञ्शिवः ॥ ५ ॥
पद्मपुराणे—
पञ्चाशद्ब्राह्मणेभ्यश्चगाः प्रदद्यान्नृपोत्तमः ।
सुवर्णं दक्षिणां तत्र प्रत्येकं निष्कमेव च ॥ ६ ॥
सहस्रं ब्राह्मणा भोज्याः सूक्ष्मवस्त्रैरलंकृताः ।
ततः प्रेतपिशाचेभ्यो बलिं दद्याद्विधानतः ॥ ७ ॥
सुरा मांसं च पिष्टं च सघृतं पायसं तथा ।
शराबदशकं पूर्णं तेन कृत्वा क्षिपेन्निशि ॥ ८ ॥
इति पद्मपुराणोक्तगजशान्तिः ।
————
अथ गरुडपुराणोक्तगजशान्तिविधानम् ।
तथा च गरुडपुराणे सनत्कुमारवचनात्—
अथ राजा प्रकुर्वीत गजानां शान्तिकं परम् ।
गजानां रोगतप्तानां तदुत्पातोदये सति ॥ १ ॥
नादन्ति कबलानार्ता मुञ्चन्त्यश्रूणि संततम् ।
तथा प्रशान्ता निर्वेदा (र्विण्णा) भवन्ति मदवर्जिताः ॥ २ ॥
विमनास्त्रस्तसर्वाङ्गः सुप्तो नष्टपराक्रमः ।
नष्टशोभः सदाहीनो नष्टसंज्ञोऽभिजायते ॥ ३ ॥
नानाव्याधिसमुत्थाभिः पीडाभिः पीड्यते भृशम् ।
इति व्याधिसमाक्रान्तेष्वेव हस्तिषु भूपतिः ॥ ४ ॥
कुर्यात्तु शान्तिकं राजा गजरक्षणतत्परः ।
रोगहीना यदा नागास्त्यजन्ति बलमाङ्गकम् ॥ ५॥
तदाऽपि शान्तिकं कार्यं गजविघ्नोपशान्तये ।
युद्धारम्भेषु सर्वेषु गजशान्तिं समारभेत् ॥ ६ ॥
मण्डपं चतुरस्रं च द्वादशारं च कारयेत् ।
तन्मध्य इषुमानं च कुण्डं कुर्याद्विचक्षणः ॥ ७ ॥
दक्षिणे पश्चिमे योनी वितस्तिप्रमिते शुभे ।
कुण्डं त्रिमेखलं कार्यं वितस्त्युच्छ्रायशोभितम् ॥ ८ ॥
केचि(षां म)न्मतेन वृत्तं स्यात्कुण्डं सर्वगुणान्वितम् ।
तत्पुरस्ताद्दक्षिणतः कुण्डं हस्तप्रमाणकम् ॥ ९ ॥
अन्यत्तु कारयेद्विद्वान्पश्चिमे चोत्तरे तथा ।
त्रिकोणं दक्षिणे कुण्डं पश्चिमे वर्तुलं स्मृतम् ॥ १०॥
उत्तरे चतुरस्रं च ह्येवं कुण्डकृतिः स्मृता ।
अर्कखदिरपलाशशमीबिल्वतरूद्भवाः ॥ ११ ॥
समिधः पूर्वतः प्रोक्ता मध्ये बिल्वस्य शोभनाः ।
तिलतण्डुललाजैर्वा यवसिद्धार्थशालिभिः ॥ १२ ॥
यवैरेव च मध्यस्थे कुण्डे च हवनं स्मृतम् ।
दध्ना च पयसा चैव घृतेन मधुना तथा ॥
कोणस्थेषु यजिः प्रोक्ता मध्यमे सकलैरपि ॥ १३ ॥
‘यवैरेव च मध्यस्थे’ अस्यायमर्थः । इतरेषु कुण्डेषु यवहवनं नास्ति ।स्थापयेच्च ततः कुम्भानष्टावष्टसु दिक्षु च ।
वस्त्रयुग्मैः परिच्छन्नान्सर्वौषधिसमन्वितान् ॥ १४ ॥
सर्वरत्नैस्तु संयुक्तान्गन्धपुष्पोदकैरपि ।
हा (का) रावरप्रमाणं च151 बृहत्कुम्भं च मध्यमम् ॥ १५ ॥
तीर्थोदकेन संपूर्णं सर्वरत्नैःसमन्वितम् ।
सर्वौषधिसमायुक्तं सुवर्णहृदयं स्मृतम् ॥ १६ ॥
हृदयशब्दो गर्भवाचकः ।
तण्डुलानां चतुष्के च न्यसेत्तं सुस्थिरं दृढम् ।
चतुरः कलशानन्यांश्चतुष्कस्य समीपतः ॥
कोणेषु च तथा विद्यान्मण्डपस्य तथा घटान् ॥ १७ ॥
तथाशब्देन जलौषधिरत्नवस्त्रयुग्मयुक्तानिति ।
स्मरेत्प्रधानकलशे नरसिंहाकृतिं हरिम् ।
चक्रशङ्खगदाशार्ङ्गवज्रासिशरशक्तयः ॥ १८ ॥
पूर्वादिक्रमयोगेण ध्यातव्याः सकेलष्वपि ।
बहिः शक्रादिदिक्पालांस्तत्र तत्र च संस्मरेत् ॥ १९ ॥
प्रधानकुम्भात्पुरतः कुर्याच्चक्राब्जमण्डलम् ।
तत्र संपूज्य देवेशं पश्चाद्धोमादि साधयेत् ॥ २० ॥
मुख्यकुण्डे ततो धीमाञ्जुहुयात्तिलसर्पिषा ।
ततः स्विष्टकृते (दि) त्यादिः समानस्तु विधिक्रमः ॥ २१ ॥
एवं कुण्डेषु जुहुयुर्विधिवत्प्रयता द्विजाः ।
एवं समाप्य विधिना होमं तत्र पुरोहितः ॥ २२ ॥
संस्पृशन्नुदकुम्भं तु जपेद्दशसहस्रकम् ।
गायत्रीं शिरसा सार्धं विप्रैःसह शुचिव्रतैः ॥२३ ॥
मण्डपस्थेषु कुम्भेषु प्रत्येकं च सहस्रकम् ।
पर्यन्तकलशान्स्पृष्ट्वा जपेत्तत्र सहस्रकम् ॥२४ ॥
अनन्तरेषु कुम्भेषु गायत्र्या प्रणवेन च ।
ऋत्विग्भिर्युगपत्कार्यं होमतन्त्रं तु पूर्ववत् ॥ २५ ॥
प्रतिकुम्भं सहस्रं च जपेत्तानप्युपस्पृशन् ।
पूजयेल्लोकपालादीन्गन्धादिभिरतन्द्रितः ॥ २६ ॥
सर्वालंकारशोभाढ्यान्दिव्यलक्षणलक्षितान् ।
तल्लिङ्गकैस्तथा मन्त्रैर्देवान्संतर्पयेद्बुधः ॥ २७ ॥
अभ्यज्य वारणान्सर्वांस्तथा चैव तुरंगमान् ।
सर्वालंकारशोभाढ्यान्सर्वांस्तान्स्नापयेद्बु्धः ॥ २८ ॥
ब्राह्मकुम्भोदकेनैव स्नापयेत्तत्र साधकः ।
राज्ञो नीराजनं कुर्यात्तद्वाहांश्चैव मन्त्रवित् ॥ २९ ॥
अन्येष्व (न्यैस्त्व) यं विधिः कार्यो यतो राजा हरेस्तनुः ।
एवं कृत्वा विधानं च स्वस्तिवाच्य द्विजोत्तमैः ॥ ३० ॥
दक्षिणाश्च ततो दद्याद्विप्रेभ्यो भूरिकल्पवित् ।
आचार्यं पूजयेत्पश्चाद्ब्राह्मणांश्चैव ऋत्विजः ॥३१ ॥
दासेभ्यश्चैव दासीभ्यो दद्याद्वस्त्राणि भूरिशः ।
समस्तकरणाधीशं ग्रामणीप्रमुखान्नरान् ॥३२ ॥
पूजयेद्धनधान्याभ्यां सन्मानेन प्रतोषितान् ।
ततो भेरीनिनादेन निःसाणानां महारवैः ॥ ३३ ॥
शङ्खानां काहलानां च गजानां बृंहितैस्तथा ।
हेषाभिस्तुरगाणां च नादयञ्जगतीतलम् ॥ ३४ ॥
प्रविशेद्भूपतिः सम्यङ्मण्डितं राजमन्दिरम् ।
पुनस्तत्र नृपालोऽसौ स्वस्तिवाचनतत्परः ॥ ३५ ॥
दानं दद्याद्द्विजातिभ्यः परिगृह्याभिषेचनम् ।
वाजिशालां च संप्रोक्ष्य हस्तिशालां तथैव च ॥३६ ॥
सिद्धार्थांस्तण्डुलान्पुष्पप्रकरांश्च तिलानपि ।
प्रकिरेत्स्वयमुर्वीशो गजानां शान्तिहेतवे ॥ ३७॥
शालामध्ये नृसिंहं च सुदर्शनमनामयम् ।
पूजयेद्गन्धपुष्पैश्च दीपैर्नीराजयेत्ततः ॥ ३८ ॥
ततो भूतबलिं दद्यादन्नैर्बहुविधैर्बहिः ।
ततः संवेशनं मन्त्रैराचार्यः कारयेत्सुधीः ॥ ३९ ॥
गजानामभिषिक्तानां तथा चैवापि वाजिनाम् ।
हृष्टपुष्टमना राजा चिरं राज्ये महीयते ॥ ४० ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां गरुडपुराणोक्तंगजशान्तिविधानम् ।
—————
अथ करभशान्तिविधानम् ।
तद्भविष्योत्तरे कृष्णार्जुनसंवादे ।
युधिष्ठिर उवाच—
दासेराणां कथं कृष्ण रोगमुक्तिस्तु जायते ।
ब्रूहि केन विधानेन क्रियमाणेन भूभुजा ॥ १ ॥
श्रीकृष्ण उवाच—
पुरा राजन्पिशाचानामधिपेन विशः पुरः ।
कथितं च वटाधस्तात्क्रमेण (ल) कविधानकम् ॥ २॥
उत्पद्यन्ते महारोगाः करभेषु महोल्बणाः ।
विधानं तत्र कर्तव्यं तेषां रोगोपशान्तये ॥ ३ ॥
ग्रामादुत्तरतोऽरण्ये मण्डपं परिकल्पयेत् ।
तत्र मध्ये प्रकुर्वीत कुण्डं हस्तमितं152 शुभम् ॥ ४ ॥
तस्मिन्कुण्डे तिलैः साज्यैर्हवनं कारयेद्बुधः ।
अष्टाधिकायुतं चैव लाजानां च तथैव च ॥ ५ ॥
पायसेन च साज्येन सहस्रं जुहुयात्सुधीः ।
बलिं प्रदद्यात्तत्रैव पञ्चखाद्यैः प्रयत्नतः ॥ ६ ॥
आचार्याय ततो दद्यान्मञ्चकं च सतूलिकम् ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्सहस्रं शुभलक्षणान् ॥ ७ ॥
भूमिदानं ततः कुर्याद्गोचर्मद्वयसंमितम् ।
पर्वतस्य समीपे च या भूमिः कृष्णपिङ्गला ॥
सा दत्ता यदि विप्राय पापमुक्तिस्तदा भवेत् ॥ ८ ॥
पिशाचाधिपतिरुवाच—
एतस्मिन्विहिते वैश्य विधाने श्रद्धयोदिते ॥
तदा करभरोगाणां विमुक्तिर्जायते ध्रुवम् ॥ ९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां करभशान्तिविधानम् ।
—————
अथ खरशान्तिविधानम् ।
खराणामुदरे रोगो जायते पादतः क्वचित् ।
अथ वा सर्वदेहे च तदा शान्तिंप्रकल्पयेत् ॥ १ ॥
शुचिः शुक्लाम्बरधरो राजा सह पुरोधसा ।
स्वामी वा तेषु कुर्यात्स विधानं विधिवद्बुधः ॥ २ ॥
त्रिंशतं विंशतिं वाऽपि नव वा च ततः परान् ।
विभवा (त्ता) नुसारतः कुर्यान्निर्व्रणाञ्छुभलक्षणान् ॥ ३ ॥
तण्डुलोपरिसंस्थाप्य सर्वोंस्तान्कलशान्सुधीः ।
सौषधान्ससुवर्णांश्च वस्त्रैरावेष्टितानपि ॥ ४ ॥
पूजयेत्तेषु सर्वेषु वह्निध्यानपरो द्विजः ।
चतुर्भुजं सप्तजिह्वं त्रिनेत्रं मेषवाहनम् ॥ ५ ॥
मेषशृङ्गं च पिङ्गाक्षं शक्तिपाशासिधारिणम् ।
एवं तेषु स्मरेद्देवं हव्यवाहं महाभुजम् ॥ ६ ॥
कुम्भानां पूर्वतः पङ्क्तिर्विधातव्या प्रयत्नतः ।
दक्षिणोत्तरतः सर्वा गन्धपुष्पादिपूजिता ॥ ७ ॥
तस्यास्तु पश्चिमे भागे स्थण्डिले जुहुयात्सुधीः ।
समिद्भिर्हविषा चैव सहस्रं च पृथक्पृथक् ॥
ततश्च पायसेनापि153 जुहुयाच्छतसंख्यया154॥ ८ ॥
उक्तं च—
अष्टोत्तरायुतं कुर्यादग्निसूक्तेन च द्विजः ।
चरुणा सघृतेनैव द्विजः कुर्यादतन्द्रितः ॥ ९ ॥
एतस्मिन्विहिते वैश्य विधाने विधिवद्बुधैः ।
शान्तिर्भवति रोगाणां खराणां नात्र संशयः ॥ १० ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां खरशान्तिविधानम् ।
————
अथ सारमेयशान्तिः ।
पद्मपुराण इन्द्रसत्यश्रवसं155वादे ।
इन्द्र उवाच—
अहं तु मृगयायुक्तो जिज्ञासुस्तव सत्यताम् ।
अटामि कानने घोरे जाङ्गले दंशसंयुते ॥१ ॥
मृगयाक्रीडमानोऽहं राजवेषधरः प्रभुः ।
शुनां द्वंद्वैःसमाकीर्णो जिघांसुः श्वापदान्बहून् ॥ २ ॥
अकस्मादेव विप्रर्षे सारमेयाः प्रपीडिताः ।
व्याधिभिर्बहुभिर्ब्रह्मन्वद156रोगं च शान्तिकम् ॥ ३ ॥
भेषजानि न सिध्यन्ति विहितानि भिषग्वरैः ।
वैद्य (द्या) विज्ञातरोगाणां शान्त्यर्थं हि द्विजोत्तम ॥
विधानं क्रियते सम्यगेतन्मुनिमतं महत् ॥४ ॥
ऋषिरुवाच—
विधानमस्ति देवेन्द्र शुनां रोगोपशान्तिकृत् ।
या शान्तिर्गर्दभाणां च सैवोक्ता मुनिभिः शुनाम् ॥
महाव्याधिगृहीतानामकस्मादेव सुव्रत ॥ ५ ॥
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे सारमेयाङ्गसंभवाः ।
विनाऽपस्मारमेकं हि स एवात्र शुनां यतः ॥ ६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांसारमेयशान्तिविधानम् ।
————
अथ नक्षत्रशमनविधानम् ।
यस्मिन्नृक्षे भवेत्पीडा तस्य ऋक्षस्य देवताम् ।
प्रतिमां स्वर्णमयीं ( सौवर्णीं प्रतिमां ) कृत्वा पूजयेत्प्रयतः157कृती ॥ १ ॥
गोमयेनानुसंलिप्य मण्डलं शुभलक्षणम् ।
चतुरस्रं च संवीतं तण्डुलैश्च कृताकृतैः ॥ २ ॥
कृत्वा तु स्थण्डिलं तत्र यत्नतः कृष्णया मृदा ।
वेदीस्थाने सुधीः कुर्यात्तण्डुलानां महाचयम् ॥३ ॥
तत्र प्रमाणं खारी वा द्रोणा वा द्वादश स्मृताः ।
अभावे पञ्च वा द्रोणा द्रोणं वा तदभावतः ॥ ४ ॥
ईशानकोणदेशे तु कलशं स्थापयेत्सुधीः ।
निधाय द्रविणं तत्र कलशे शक्त्यपेक्षया ॥ ५॥
पीठं तु पूर्वतः स्थाप्यं नववस्त्रेण संयुतम् ।
स्वस्तिकं तण्डुलानां च शुभानां तत्र संलिखेत् ॥ ६॥
शुभानामिति प्रयत्नकर्मणा निष्पन्नानाम् ।
तन्मध्ये देवतास्तिस्रो नक्षत्रत्रितयस्य वै ।
यस्मिन्नृक्षे गदोत्पत्तिस्तस्य पूर्वापरे सुधीः ॥ ७ ॥
उडुनी पूजयेद्यत्नादधिप्रत्यधिदैवते ।
प्रकटीभूतचिह्नस्य रोगस्य च नृविग्रहे ॥ ८ ॥
यस्मिन्दिने ततः पूर्वे षष्टिनाडीषु संभवः ।
ततश्च पुरतस्तद्वत्तस्मात्पूज्यमुडुत्रयम् ॥ ९॥
देवता यस्य ऋक्षस्य मन्त्रस्तल्लिङ्ग एव च ।
द्रव्यं च तस्य यत्प्रोक्तं प्रधानं प्राकृतं तथा ॥ १० ॥
तत्सर्वंविदुषाऽऽनीय होमं तत्र प्रकल्पयेत् ।
ऐशान्यां भगवद्विष्णोर्नाम्नां द्वादशकस्य वा ॥ ११ ॥
वक्ष्यमाणानि नामानि शृणु भूपतिकुंजर ।
हरिर्नारायणो विष्णुर्गोविन्दो गरुडध्वजः ॥ १२ ॥
उपेन्द्रो माधवो धाता श्रीवत्साङ्को जनार्दनः ।
पद्मनाभोऽच्युतो नाम्नां विष्णोर्द्वादशकं स्मृतम् ॥ १३ ॥
गणेशं पूर्वभागस्थं दुर्गामपि च पूर्वतः ।
अग्नेर्दिशि तु संपूज्य देवं क्षेत्राधिपं सुधीः ॥ १४ ॥
उत्तरे रुद्रमूर्तिं च पूजयेत्प्रयतः पुमान् ।
पञ्चोपचारसंयुक्तां पूजां तत्र प्रकल्पयेत् ॥ १५ ॥
स्वगृह्योक्तविधानेन कुर्यादग्निमुखं सुधीः ।
कलशं जलपूर्णं च वस्त्रयुग्मेण वेष्टितम् ॥१६ ॥
निधाय चौषधीस्तत्र पञ्चपल्लवसंयुताः ।
पञ्चस्थानमृदां कुम्भ आलवालं प्रकल्पयेत् ॥ १७ ॥
इमं मे वरुणेत्येवं जलं मन्त्रेण वा पुनः ।
सर्वे समुद्राः सरित इति मन्त्रं पठेद्बुधः ॥ १८ ॥
यच्चिद्धितेविशो यथेत्यादिसूक्तं जपेद्द्विजः ।
आवाहयेद्घटे देवं वरुणं पयसां पतिम् ॥ १९ ॥
एवं नक्षत्रशान्त्यर्थं विदध्यात्पूर्वपीठिकाम् ।
ततः स्नानादि ऋक्षाणां शमनं परिकल्पयेत् ॥ २० ॥
सामान्योऽयं विधिः प्रोक्तो नक्षत्राणां प्रपूजने ।
सर्वौषधीनामप्राप्तौ भवेदेका शतावरी ॥ २१ ॥
सर्वेषामपि गन्धानामभावे चन्दनं मतम् ।
शतपत्रं सुमनसां धूपाभावे च गुग्गुलुः ॥ २२ ॥
नैवेद्यानामभावे च पायसं परिकीर्तितम् ।
मन्त्राणामप्यभावे च गायत्रीमन्त्र उत्तमः ॥ २३ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च तथा शतमुदाहृतम् ।
जुहुयात्प्रयतो धीमांस्ततः पूर्णाहुतिर्भवेत् ॥ २४ ॥
होमद्रव्यस्य दुष्प्राप्तौ तिलाः प्रोक्ता मनीषिभिः
नक्षत्राणां पृथक्त्वेन नक्षत्रशमनं ब्रुवे ॥ २५ ॥
अश्विन्यां चाप्यहोरात्रमथ वा दश वासरान् ।
पीडोत्पन्नस्य रोगस्य नात्र कार्या विचारणा ॥ २६ ॥
देवते अश्विनौ तत्र द्विभुजौ शुक्लवर्णकौ ।
सुधाकलशसंयुक्तौ कमण्डलुधरौ शुभौ ॥ २७ ॥
देवस्य त्वेति वा देव्या गायत्र्या पूजनादिकम् ।
नीलोत्पलं च पूजायां धूपः सघृतगुग्गुलुः ॥ २८ ॥
क्षीरौदनं च नैवद्यं समिधः क्षीरवृक्षजाः ।
प्रधानं पायसं द्रव्यं तिलाश्चैव घृतप्लुताः ॥ २९ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च तथैव शतमुच्यते ।
एवं रोगः शमं याति दानैः पुण्यैस्तु भेषजैः ॥ ३० ॥
भरण्यां मरणं रोगाद्दिनानामेकविंशतिः (तौ) ।
विग्रहेषु मनुष्याणां दुर्वारा रोगसंस्थितिः ॥ ३१ ॥
यमस्तु देवता तत्र कृष्णवर्णो द्विबाहुकः ।
लुलायवाहनः श्रीमान्पाशदण्डधरः प्रभुः ॥ ३२ ॥
यमाय सोमं यमो यमोऽनुष्टुप् ।इति पूजादिमन्त्रः ।
कृष्णागुरुः सुगन्धश्च धूपो गुग्गुलुरेव च ।
कृष्णं सुमल्लिकापुष्पमथ वा करवीरकम् ॥३३ ॥
गुडापूपं च नैवेद्यं मध्वाज्यतिलकं हविः ।
पूर्वसंख्या समुद्दिष्टा हवने नात्र संशयः ॥ ३४ ॥
कृत्तिकाया दिनान्येवं संप्रोक्तानि मनीषिभिः ।
अग्निश्च देवता तत्र रक्तवर्णोऽजवाहनः ॥ ३५ ॥
चतुर्भुजो धृतामत्रस्रुवः सवरदाभयः ।
अग्निं दूतं मेधातिथिग्निर्गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
रक्तचन्दनमेवात्र गन्धस्तु परिकीर्तितः ॥३६ ॥
पुष्पाणि करवीरस्य [ रक्तस्य ] च विशेषतः ।
केवलं सर्पिषो धूपो दीपाः सप्त प्रकीर्तिताः ॥ ३७॥
घृतौदनं च नैवेद्यं घृतं चैव प्रधानकम् ।
हवनस्य परिमाणं सहस्रं वा शतंतथा ॥ ३८ ॥
रोहिण्यां तु दिनान्यष्टौ क्लेशो भवति देहिनाम् ।
प्रजापतिस्तु तस्यापि देवता परिकीर्तिता ॥ ३९ ॥
रक्तवर्णश्चतुर्वाहुर्हंसारूढश्चतुर्मुखः ।
पद्मपद्माक्षवरदाभयहस्तो निरामयः ॥ ४०॥
ध्वजे कमण्डलुर्यस्य दर्भमुष्टिर्गुणाकरः ।
प्रजापते हिरण्यगर्भः प्रजापतिस्त्रिष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
गन्धार्थे कुङ्कुमं देयमोषधीनां च धूपनम् ॥४१ ॥
क्षीरौदनं च नैवेद्यं पञ्चधान्यं प्रधानकम् ।
तिलाश्चतण्डुला मुद्गायवा गोधूमकास्तथा ॥
एतेषां समुदायश्च पञ्चधान्यं प्रकीर्तितम् ॥४२ ॥
तथा च मार्कण्डेयपुराणे—
तिलो व्रीहिर्यवो मुद्गोगोधूमः पञ्चमः स्मृतः ।
अनेन पञ्चधान्येन प्रीयतां परमेश्वरी158 ॥ ४३ ॥
मृगशीर्षे दिनान्येवं पञ्च रोगस्य देहिनाम् ।
सोमो हि देवता तस्य श्वेतवर्णः शुभाकृतिः ॥ ४४ ॥
दशाश्वरथमारूढः श्वेताश्वोऽपि निगद्यते ।
द्विभुजोऽपि गदायुक्तोऽभयपाणिः स सोमराट् ॥४५ ॥
आप्यायस्वेति गौतमः सोमो गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
चन्दनं लेपनं तस्य कुमुदं कुसुमं मतम् ॥
दशाङ्गश्चापि धूपोऽत्र नैवेद्यं पायसं तथा ॥ ४६ ॥
प्रधानद्रव्यं गोक्षीरं घृतं वा धेनुसंभवम् ।
ता159वती चैवं संख्याऽत्र हवने परिकीर्तिता ॥४७ ॥
आर्द्रायां तु मृती रोगाद्दिनानामेकविंशतिः ।
रुद्रो हि देवता तस्या वृषारूढश्चतुर्भुजः ॥ ४८ ॥
शूलखट्वाङ्गवरदाभयहस्तः प्रकीर्तितः ।
नमः शंभव इत्यस्य हिरण्यगर्भो रुद्रो बृहतीति पूजादिमन्त्रः ।
चन्दनं च सकर्पूरं गन्धार्थंदापयेद्बुधः ॥ ४९ ॥
पूजायां धौस्तुरं पुष्पं दशाङ्गं धूपमेव च ।
नैवेद्यं पायसं साज्यं प्रधाने मधुसर्पिषी ॥ ५० ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च शतमष्टोत्तरं तथा ।
जुहुयात्प्रयतो विद्वान्महारोगोपशान्तये ॥५१ ॥
पुनर्वसौ यदा रोगः शरीरे जायते नृणाम् ।
सप्तरात्रं तु पीडा स्यात्तस्य रोगस्य दारुणा ॥५२ ॥
अदिति160स्तस्य ऋक्षस्य देवता परिकीर्तिता ।
चतुर्भुजा पीतवर्णा साक्षसूत्रकण्डलुः ॥
वरदाभयहस्ता सा कार्या स्वर्णमयी शुभा ॥ ५३ ॥
अदितिर्द्यौरित्यस्य गौतमोऽदितिस्त्रिष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
कुङ्कुमं च हरिद्रा च गन्धस्तस्याः प्रियंकरः ।
अगस्तिपुष्पपूजा च धूपो मलयजस्तथा ॥ ५४ ॥
गुडौदनं च नैवेद्यं प्रधानं पायसं मतम् ।
संख्या होमस्य विज्ञेया शतमष्टोत्तरं तथा ॥ ५५ ॥
रोगपीडा भवेन्नॄणां पुष्यर्क्षेदिनसप्तकम् ।
चतुर्भुजः पीतवर्णोदेवताऽत्र बृहस्पतिः ॥
दण्डाक्षसूत्रपाणिस्तु साभयः सकमण्डलुः ॥ ५६ ॥
बृहस्पते गृत्समदो बृहस्पतिस्त्रिष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
कुङ्कुमेनानुलिप्ताङ्गोवारिजैः पूजितो गुरुः ।
साज्येन बिल्वगर्भेण धूपनीयः161प्रयत्नतः ॥ ५७ ॥
गुडमण्डकनैवेद्यं प्रधानं घृतपायसम् ।
होमसंख्या शतं साष्टं पुष्यर्क्षेपरिकीर्तिता ॥५८ ॥
आश्लेषायां सप्तरात्रंवा दिनान्येकविंशतिः ।
सर्पस्तु देवता तत्र महामण्डलरूपधृक् ॥
विशेषत्रि(स्त्रि)शिराश्चण्डः षड्जिह्वःपिङ्गलोचनः ॥ ५९ ॥
आयं गौःसार्षराज्ञी सर्पा गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
कालोद्भवानि पुष्पाणि गन्धः कुङ्कुमकेशरम् ।
सघृतो गुग्गुलुर्धूपः साज्यं क्षीरान्नभोजनम् ॥६० ॥
गव्यं घृतं प्रधानं स्यान्नक्षत्रे सर्पदेवते ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा नूनमष्टोत्तरं शतम् ॥ ६१ ॥
मघायां मरणं रोगाद्दिनान्येवैकविंशतिः ।
पितरो देवता तत्र कृष्णवर्णाश्चतुर्भुजाः ॥
रुद्राक्षसूत्रवरदकमण्डलुधराः शुभाः ॥६२ ॥
आयन्तु नः पितर इत्यस्य शङ्खः पितरस्त्रिष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
गन्धार्थे चन्दनं देयं पूजा चम्पकजा मता ।
धूपार्थं गुग्गुलुः साज्यतिलपिष्टं च भोजनम् ॥ ६३ ॥
प्रधानद्रव्यमुद्दिष्टं साज्याश्च तिलतण्डुलाः ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं तथा ॥ ६४ ॥
पूर्वफल्गुनिकायां व रोगः पक्षप्रमाणतः ।
भगस्तु देवता तत्र पद्मारूढस्तु लोहितः ॥
अभयाब्जकरः श्रीमान्भग एव न संशयः ॥ ६५ ॥
भग एव वसिष्ठो भगस्त्रिष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
रक्तचन्दनलेपस्तु पुष्पं स्यात्करवीरकम् ।
धूपोबिल्वरसः प्रोक्तो नैवेद्यं कृसरो मतः ॥६६ ॥
साज्याश्च व्रीहयस्तत्र प्रधानं द्रव्यमेव च ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं तथा ॥ ६७ ॥
उत्तराफल्गुनीरोगदिनान्येवैकविंशतिः ।
अर्यमा देवता पद्ममध्यस्थः पद्मवर्णकः ॥
पद्माभयकरः श्रीमान्स्वर्णमूर्तिर्महाद्युतिः ॥ ६८ ॥
मानो मित्रोदीर्घतमा अर्यमास्त्रिष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
पुष्पं तु मधुवृक्षस्य तथा कुङ्कुमकेसरम् ।
धूपार्थे गुग्गुलुः साज्यो नेवैद्यं घृतपायसैः ॥ ६९ ॥
घृतौदनं प्रधानं स्यादुत्पन्नगदशान्तये ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं तथा ॥ ७० ॥
हस्ते यदि गदोत्पत्तिर्मृत्यवे जायते नृणाम् ।
दिनानि पञ्चदश वा प्रायः क्लेशाय कल्पते ॥ ७१ ॥
सविता देवता तस्य सप्ताश्वरथवाहनः ।
द्विभुजो रक्तवर्णः स्यात्पद्मासनसमाश्रयः ॥ ७२ ॥
आकृष्णेनेति हिरण्यस्तूपः सविता त्रिष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
पूज्यो रक्तैः करवीरै रक्तचन्दनलेपनैः ।
सल्लक्या एव निर्यासो धूपः प्रोक्तो मनीषिभिः ॥ ७३ ॥
नैवेद्यार्थमपूपाश्च दधिप्रोक्तं प्रधानकम् ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं बुधैः ॥ ७४ ॥
चित्रायां जायते रोगो, दिनान्येवैकविंशतिः ।
एके पञ्चदश प्राहुस्त्वष्टा नक्षत्रदेवता ॥७५ ॥
पद्मस्थश्चित्रवर्णः स्याद्धयायते स चतुर्भुजः ।
पद्माक्षसूत्रवलयपद्माभयकरः प्रभुः ॥ ७६ ॥
अग्ने पत्नीरिति काण्वो मेधातिथिस्त्वष्टा गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
गन्धस्तु कुङ्कुमं श्रेष्ठं जपाकुसुमपूजनम् ।
आज्येन धूपनं तस्य नैवेद्यं चौदनं स्मृतम् ॥७७ ।
चित्रान्नं च प्रधानं स्याच्चित्रारोगापनुत्तये ।
होमसंख्या समृद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं तथा ॥७८ ॥
स्वातौ मासद्वयं रोगः प्राणिनां जायते ध्रुवम् ।
वायुश्च देवता तत्र मृगारूढश्च162मेचकः ॥
असिचर्मधरः श्रीमान्द्विभुजः परिकीर्तितः ॥ ७९ ॥
वायवायाहि दर्शत मधुच्छन्दो वायुर्गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
धूपः (गन्धः) कृष्णागरुः प्रोक्तः स च वै धूपनं मतम् ।
धत्तूरकुसुमैः पूजा पवनस्यापि दर्शिता ॥८० ॥
दधिभक्तस्तु नैवेद्यं यवाः साज्याः प्रधानकम् ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं तथा ॥ ८१ ॥
विशाखायां नृणां रोगे वासराः पञ्चविंशतिः ।
इन्द्राग्नीदेवते तत्र गजाजवाहनौ मतौ ॥ ८२ ॥
चतुर्बाहू सुवर्णस्य ( र्णौच ) निजशास्त्रविशारदौ ।
पा163शाङ्कुशशरैर्युक्तौ तथाऽभयविराजितौ ॥ ८३ ॥
इन्द्राग्नीआगतं सुतमित्यस्य विश्वामित्र इन्द्राग्नी गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
कुङ्कुमं चन्दनं गन्धः शतपत्रैः सुपूजनम् ।
धूपस्तु देवकाष्ठस्य नैवेद्यं गुडपायसम् ॥ ८४ ॥
क्षीरौदनं प्रधानं च विशाखारोगमुक्तये ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं तथा ॥ ८५ ॥
दिनानि दश रोगस्यानुराधायां विदुर्बुधाः ।
पद्मासनो रक्तवर्णो मित्रस्तस्य तु देवता ॥
पद्माभयकरः श्रीमान्द्विभुजः परिकीर्तितः ॥ ८६ ॥
मित्रस्य चर्षणीधृतो वो विश्वामित्रो [मित्रो] गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
कुङ्कुमेनानुलिप्ताङ्गः पुण्डरीकैस्तु पूजितः ।
धू164पितश्चन्दनेनैव नैवद्यं कृशरो मतः ॥ ८७ ॥
प्रधानः सौरणःकन्दः साज्य एव निगद्यते ।
एव संपूजितो मित्रो भवेद्रोगविमुक्तये ॥ ८८ ॥
होमसंख्या पूर्ववत् ।
ज्येष्ठायां रोग उत्पन्नो वर्तते दश वासरान् ।
इन्द्रोऽस्य देवता प्रोक्ता नक्षत्रस्य विशेषतः ॥ ८९ ॥
गजपृष्ठे समारूढो दिव्यसिंहासने विभुः ।
श्वेतवर्णो वज्रवरोऽभयपाणिर्महाभुजः ॥९० ॥
इन्द्रं वो विश्वत इति मधुच्छन्दा इन्द्रो गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
चन्दनेन सुगन्धेन चर्चिताङ्गोदिवस्पतिः ।
पद्मपूजा विधानेन कर्पूरागरुधूपनम् ॥ ९१ ॥
घृतौदनं च नैवेद्यं प्रधानं सूरणो मतः ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं तथा ॥९२ ॥
मूले मृत्युर्भवेद्रोगादथ वा पञ्च वासरान् ।
रोगयुक्ताः प्रजायन्ते व्याधयस्तस्य देहिनः ॥९३ ॥
निर्ऋतिर्देवता तस्य प्रेतारुढस्तु मेचकः ।
खड्गखेटकधारी च द्विभुजः परिकीर्तितः ॥ ९४ ॥
मोषुणः कण्वो निर्ऋतिर्गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
कृष्णागुरुविलिप्ताङ्गः कृष्णसौवीरपूजितः ।
मुस्ताबालकधूपेन धूपितः शान्तिकृद्भवेत् ॥ ९५ ॥
समांसपूरिका165पूर्णनैवेद्यंपरिकल्पयेत् ।
प्रधानं मूलकं साज्यं यातुधानप्रियंकरम् ॥९६ ॥
सहस्रंं जुहुयात्तस्य रक्षसः परिशान्तये ।
एवं वि166प्रप्रकुरुते मूलरोगोपशान्तये ॥९७ ॥
पूर्वाषाढाभिधे त्वृक्षे यदि रोगोऽभिजायते ।
मृत्युस्तु नियतस्तस्य167यस्य व्याधिप्रपीडनम् ॥ ९८ ॥
अथ वा सप्तरात्रं च सप्तविंशतिवासरान् ।
जलंतु देवता तस्य शुक्लवर्णं शुभाकृति ॥ ९९ ॥
वरुणोऽस्य जलस्यापि स्वामी पूज्यतमो मतः ।
स्फाटिको वा सुवर्णस्य कृतिभिः पूज्यते शुभः ॥ १०० ॥
मकरासनसंविष्टः पद्महस्तो भवेदिह ।
त168त्त्वा यामीति [शुनः शेपो] वरुणो गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
विलिप्तचन्दनेनाऽऽशु कह्लारैस्तु सुपूजितः ॥ १०१ ॥
शैलजं धूपनं चात्र नैवेद्यं गुडमण्डकाः169 ।
रोगनिर्मुक्तिदाः प्रोक्ताः सघृता रक्तशालयः ॥ १०२ ॥
प्रधानद्रव्यमुद्दिष्टं सर्वशास्त्रविशारदैः ।
होमसंख्या समुद्दिष्टा शतमष्टोत्तरं तथा ॥ १०३ ॥
उत्तरापूर्विकाऽषाढा त्रिरात्रं रोगकारिणी ।
विश्वेदेवा देवताश्च श्वेतवर्णाश्चतुर्भुजाः ॥ १०४ ॥
वरदाभयहस्ताश्च साक्षसूत्राम्बु170जावृताः ।
विश्वेदेवास आगतेत्यस्य भरद्वाजो विश्वेदेवा गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
गन्धार्थे चन्दनं तेषां पुष्पार्थे शतपत्रि171काम् ॥१०५ ॥
उशीरं धूपने दद्यान्नैवेद्यं पञ्चभक्ष (क्ष्य) कम् ।
समिधः क्षीरवृक्षस्य तण्डुलाश्च प्रधानकम् ॥ १०६ ॥
अष्टोत्तरशतं होमः समुद्दिष्टो मनीषिभिः ।
रोगोत्पत्तिर्नृदेहे स्याच्छ्रवणे षष्टिवासरान् ।
केचिन्नव दिनान्याहुर्विष्णुरत्रैव देवता ॥ १०७ ॥
पूज्यस्तु कृष्णवर्णः स्यात्पन्नगाशनवाहनः ।
शङ्खचक्रगदापाणिः पीतवासाश्चतुर्भुजः ॥ १०८ ॥
इदं विष्णुर्मेधातिथिर्विष्णुर्गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
श्रीखण्डलेपनं तत्र मालतीकुसुमं तथा ।
दशाङ्गं धूपनं तत्र सकर्पूरं प्रदीयते ॥ १०९ ॥
मण्डकाः क्षीरसंयुक्ताः शुद्धशर्करयासह ।
तस्मिन्होमे विधातव्यं प्रधानं रक्ततण्डुलाः ।
शतमष्टोत्तरं विद्याद्धवनं रोगशान्तये ॥ ११० ॥
सार्धमासं गदोत्पत्तिर्धनिष्ठायां प्रजायते ।
वसवो देवता तत्र श्वेतवर्णा चतुर्भुजा ॥१११ ॥
वरदाभयपाणिस्तु साक्षसूत्रकमण्डलुः ।
आ172गतामिह देवा विश्वामित्रो वसव173स्त्रिष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
सकर्पूरं चन्दनं च गन्धस्तत्र शुभावहः ॥११२ ॥
पुष्पं तु शतपत्राख्यं घृ॒तगुग्गुलुधूपनम् ।
गुडाज्यपूरिका देया नैवेद्यार्थे मनीषिभिः ॥११३ ॥
समिधो हेमदुग्धस्य प्रधानद्रव्यहेतवे ।
शतमष्टोत्तरं होमसंख्या च परिकीर्तिता ॥ ११४ ॥
त्रयोदशदिनक्लेश ऋक्षे शतभिषाभिधे।
वरुणो देवता तत्र मकरोपरि संस्थितः ॥ ११५ ॥
यष्टिपाशधरः श्रीमान्गदापद्मशयस्तथा ।
गौरवर्णश्चतुर्बाहुः श्वेतवस्त्रेण वेष्टितः ॥११६ ॥
रोचना गन्ध उद्दिष्टश्चम्पकं कुसुमं मतम् ।
दशाङ्गं धूपनं तस्य नैवेद्यं पायसं तथा ॥ ११७ ॥
समिधो वञ्जुलस्यापि प्रधानं क्षीरसंयुताः ।
इमं मे वरुण इत्यस्य शुनःशेपोवरुणो गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
संख्याऽत्र शतमुद्दिष्टं साष्टं रोगोपशान्तये ॥११८ ॥
पूर्वभद्रपदायां तु मृत्युर्भवति देहिनः ।
अथ वा क्लेशकारीणि दिनान्येवैकविंशतिः ॥ ११९ ॥
अनैकचरणो देवोदेवताऽस्य प्रकीर्तिता ।
खड्गचर्मधरो वाग्मी भुजद्वयसमायुतः ॥ १२० ॥
शं नो देवीरभिष्टय इत्यस्य सिन्धुद्वीपोऽजैकपाद्गायत्रीति पूजादिमन्त्रः ।
हरिद्राचन्दनं धूपः पुष्पं स्याच्छतपत्रकम् ।
नैवेद्यं मोदकापूपाः पायसं साज्यमुत्तमम् ॥ १२१ ॥
प्रधानं चापि तत्सर्वंसमुद्दिष्टं मनीषिभिः ।
सहस्रं हवने संख्या शतं वा परिकल्पिता ॥
दशरात्रं भवेत्क्लेशोऽहिर्बुध्न्ये देहिनां तथा ॥ १२२ ॥
विष्णुर्योनिमित्यस्याहिर्बुध्न्यो जगतीति पूजादिमन्त्रः ।
अश्वारुढोऽश्वसदृशो द्विबाहुश्च कशाशयः ।
लोहिताम्बरसंवीतो लसन्मकरकुण्डलः ॥ १२३ ॥
गन्धार्थे चन्दनं तस्य पुष्पमागस्त्यमेव च ।
दशाङ्गो धूपने धूपो नैवेद्यं क्षीरषष्टिकाः ॥
घृतौदनं प्रधानं च प्रोक्तं वेदार्थकोविदैः ॥१२४ ॥
शतमष्टोत्तरं होमः कथितोऽत्र सदा बुधैः ।
रेवत्यामष्टरात्रं चमरणं वा प्रजायते ॥ १२५ ॥
पूषा तु देवता तत्र पद्मवर्णोऽम्बुजासनः ।
द्विभुजः पद्मपाणिः स्यात्पद्मगर्भप्रियो विभुः ॥ १२६ ॥
पूषणं नु वामदेवः पूषाऽनुष्टुबिति पूजादिमन्त्रः ।
रक्तचन्दनगन्धाढ्यो मन्दारकुसुमप्रियः ।
धूपार्थे गुग्गुलुस्तस्य साज्यः प्रोक्तो मनीषिभिः ॥
तिलतण्डुलपिष्टेन नैवेद्यं परिकीर्तितम् ॥१२७ ॥
अखण्डितफलानि स्युः प्रधानं यज्ञशाखिनः ।
शतमष्टोत्तरं संख्या हवने परिकीर्तिता ॥१२८ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां नक्षत्रशान्तिविधानम् ।
———————
अथ गृहारिष्टशमनविधानम् ।
पूर्वं शरीरसंबन्धिपीडाशमनविधानानि प्रोक्तान्यधुना174 गृहारिष्टशमनविधानानिवक्ष्यन्ते तत्र सुमुहूर्ते रचिते सुदृढे गृहोत्तमेऽरिष्टनिमित्तेऽसति यान्यरिष्टानिजायन्ते तानि वक्ष्ये । तथा हि—
अकस्माद्दृश्यते गेहे छत्राकं व्रततौ175 तरौ ।
सरघापटलं176 सर्पनिर्गमः सद्मनो मुखात् ॥ १ ॥
तैलपाणि (वर्णा) महीगोधाः सरटाश्च पिपीलिकाः ।
वृश्चिका मत्कुणा दंशास्तथा च विषमक्षिकाः ॥२ ॥
एतेषां दर्शनं पापं सद्यः स्वामिभयप्रदम् ।
तद्दोषशमनं प्रोक्तं विधानं पूर्वसूरिभिः ॥ ३ ॥
शुभे तिथौ शुभे वारे विघ्नशान्त्यै विधानकम् ।
आचरेत्प्रयतो विद्वान्गृह्योक्तेन च कर्मणा ॥ ४ ॥
श्वेतसर्षपतैलेन तिलैर्वाऽऽमलकैः सह ।
स्नायान्नदीजले प्रातर्गृहस्वामी हितेच्छया ॥ ५ ॥
शुक्लाम्बरधरः श्रीमाञ्छुकमाल्यानुलेपनः ।
कृत्वा तु मण्डपं गेहे चतुरस्रं गुणान्वितम् ॥६ ॥
कारयेत्स्थण्डिलं त्वत्र स्थालीपाके तथा यथा ।
स्वस्तिवाचनपूर्वं च होमकर्म समारभेत् ॥ ७ ॥
पालाशीः समिधो हुत्वा खादिरीर्वा सहस्रकम् ।
अयुतं जुहुयाद्विद्वान्गायत्र्या घृतपायसम् ॥ ८ ॥
तिलैः सव्रीहिकैःसाज्यैर्व्याहृतीः परिकल्पयेत् ।
अपूपाञ्जुहुयात्पश्चात्प्रायसे च हुते सति॥९ ॥
मोदकाञ्जुहुयात्पश्चादोदनं क्षीरपष्टिकान् ।
खर्जूरान्नारिकेलानि सितां वाऽपि यथाविधि ॥ १० ॥
कदलानि च बिल्वानि बीजपूरफलानि च ।
शान्तिपाठं पठेद्विद्वान्सर्वारिष्टोपशान्तये ॥ ११ ॥
विष्णोर्नामसहस्रं च स्तुतिं सप्तशतीं शुभाम् ।
स्थण्डिलात्पूर्वतः पीठे पूजितोमाधवे सति ॥१२ ॥
दुर्गाया अपि राजेन्द्र विदध्यात्प्रतिपूजनम् ।
सहस्रकलशस्नानैः स्नापिते गिरिजापतौ ॥ १३ ॥
नैवेद्यं पायसं दद्यात्सर्वारिष्टोपशान्तये ।
दृश्यते यद्गृहेऽरिष्टजननं स्वर्णजं हि तत् ॥ १४ ॥
दद्याद्विप्राय कस्मैचिद्वस्त्रालंकारसंयुतम् ।
गां च दद्यात्सवस्त्रां च सुशीलां च पयस्विनीम् ॥ १५ ॥
देवस्य त्वेत्यनेनैव ब्राह्मणाय प्रकल्पयेत् ।
एवंविधे विधाने तु कृते सति महीपते ॥
गृहारिष्टानि सर्वाणि नश्यन्त्येव न संशयः ॥ १६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भविष्योत्तरोक्तगृहारिष्टशमनविधानम् ।
———————
अथ मणिकभङ्गविधानम् ।
सनत्कुमार उवाच—
शृणु षण्मुख वक्ष्यामि गृहारिष्टं परं हि ते ।
अकस्मान्मणिके भग्ने जलपूर्णेगृहाङ्गणे ॥ १ ॥
क्षुभितं वरुणं विद्याद्गृहिण्या मरण177प्रदम् ।
तच्छान्त्यै विदधीताऽऽशु विधानं वारुणं शुभम् ॥ २॥
सुवर्णप्रतिमां कुर्याज्जलाश्रयपतेः शुभाम् ।
निष्कत्रितयमानेन मकरं राजतं तथा ॥ ३ ॥
उदकुम्भोपरि स्थाप्या वंशपात्रे सवस्त्रके ॥
शतपत्रैस्तथा पद्मैःश्वेतैर्वा करवीरकैः॥४ ॥
कह्लारैः कुसुमैश्चैव पूजयेत्प्रयतस्तु ताम् ।
चन्दनेनानुसंलिप्य दशाङ्गेनैव धूपयेत् ॥ ५ ॥
प्रधानं (नैवेद्यं) पायसं प्रोक्तं हवनं घृततण्डुलैः ।
प्रधानं पायसं साज्यं यजिसंख्या शतानि षट् ॥ ६ ॥
कदा क्षत्रश्रियमिति प्र(आ)ज(जी)गर्तिः शुनःशेप ऋषिर्वरुणो देवताःगायत्री छन्दः ॥ इति हवनमन्त्रः ॥
ततो जपेत्सुधीः सूक्तं वारुणं प्रयतः पुमान् ।
होमान्ते वरुणं दद्यादाचार्याय सवाहनम् ॥ ७ ॥
दोग्ध्रीं च श्वेतवर्णांच गां प्रदद्यात्सदक्षिणाम् ।
मणिकं नूतनं दद्याद्ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ॥८ ॥
भिन्नं त्यक्त्वा नवं तत्र स्थापयेद्वेदिकोपरि ॥
मन्त्रघोषैश्च विप्राणां तूर्याणां च महास्वनैः ॥ ९ ॥
विवाहविधिवत्कार्या प्रतिष्ठा मणिकस्य च ।
विप्रांश्च भोजयेत्पश्चाद्यथाशक्त्या (क्ति) सदक्षिणान् ॥ १० ॥
स्त्रीश्च संभोजयेत्ताभ्यो दद्याद्वस्त्राणि कञ्चुकीः ।
कर्णपत्राणि साधूनि कण्ठसूत्राणि चैव हि ॥ ११ ॥
हरिद्रां कुङ्कुमं दिव्यं चन्दनं साञ्जनं तथा ।
एवं कृते विधाने च सुशान्तिर्जायते गृहे ॥ १२ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मणिकभङ्गविधानम् ।
———————
अथ पेषणीवरवर्तिभङ्गविधानम् ।
यदा तु पेषणीभङ्गो जायते शिखिवाहन ।
स्त्रिया हस्तेन कस्याश्चित्तस्या विघ्नोऽभिजायते ॥१ ॥
वैधव्यं लभते सा हि प्रभग्ने व178वर्तिनि ।
पेषण्यां वा प्रभग्नायामात्मनाशस्तदा भवेत् ॥ २ ॥
विधानं तत्र कर्तव्यं नरेण हितमिच्छता ।
पेषणीसप्तकं कार्यं वरवर्त्तिसमन्वितम् ॥३ ॥
दृढोपलं च सुस्निग्धं पेषणीलक्षणान्वितम् ।
शुभे तिथौ शुभे वारे शुभयोगे विवाहभे॥ ४ ॥
स्नात्वा शुद्धेन तैलेन शुभवस्त्रसमावृतः ।
गौरीर्मिमायेति ऋचा पूजाहोमौ प्रकल्पयेत् ॥
स्थण्डिलस्योत्तरे भागे स्थापयेत्पेषणीं शुभाम् ॥ ५ ॥
वरवर्तिसमायुक्तामष्टसौभाग्यसंयुताम् ।
सौ179भगैश्चैव मन्त्रैश्च सौभाग्यवसुसंग्रहैः॥ ६ ॥
पूजयेच्छतपत्राद्यैः पार्वतीपरमेश्वरौ ।
सुवर्णरजताभ्यां च विदधीत तनू तयोः ॥ ७ ॥
अर्धनारीश्वर स्तोत्रं जपेत्तत्र समाहितः ।
आचार्यो वेदवित्प्राज्ञः सभार्यः शुभलक्षणः ॥ ८ ॥
वस्त्रयुग्मेण संवेष्ट्य पेषणीस्थावुमेश्वरौ ।
ततश्चरुघृताभ्यां च हवनं हि निगद्यते ॥ ९ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च द्रव्याभावे शतं मतम् ।
होमावसाने विप्रेभ्यो दक्षिणाः परिकल्पयेत् ॥१० ॥
ततस्ता दृपदः सर्वाः प्रक्षाल्य सरितां जलैः ।
हरिद्रया च तैलेन संलिप्य प्रयताङ्गना ॥ ११ ॥
सूत्रैश्च वेष्टयेत्सर्वास्त्रिवृत्याऽच्छिन्नया सुधीः ।
द्रव्याष्टकं च सौभाग्यं पुरंध्रीषु निवेदयेत् ॥१२ ॥
ततः कञ्चुकिकाः सप्त निदध्यात्पेषणीषु च ।
कर्णपत्राणि ताम्बूलं कण्ठसूत्राणि चैव हि ॥ १३ ॥
तत्सर्वंविनिवेद्याऽऽशुपुरंध्रीषु च पञ्चसु ।
पञ्च पेषणिका दद्यादेकामाचार्ययोषिते ॥ १४ ॥
सप्तमीं पेषणीं गेहे स्वकीये स्थापयेत्सुधीः ।
त180त्रस्थौदंपती देवीदेवौ च परिपूजयेत् ॥ १५ ॥
आचार्याय प्रदातव्यौ विदुषे श्रोत्रियाय च ।
संभोजयेत्तु विधिवन्मिथुनानि यथेच्छया ॥ १६ ॥
सप्त वा पञ्च वा द्वे च वित्तशाठ्यविवर्जितः ।
दत्त्वा ताम्बूलदानानि प्रार्थयेच्छ्ल्क्ष्णया गिरा ॥ १७ ॥
अनुव्रजेत्तु सीमान्तं दंपती(मिथुने)षु गतेषु वै ।
आचार्यं चाप्यनुव्रज्य प्रविशेन्निजमन्दिरम् ॥ १८ ॥
ततः सगोत्रसंपन्नः पारणं परिकल्पयेत् ।
एवं कृते विधाने च विघ्ना नश्यन्ति तत्क्षणात् ॥ १९ ॥
कुलं च वर्धते गेहं धनधान्यसमाकुलम् ।
अक्षय्या जायते तस्याः संततिः पुत्रपौत्रिकी ॥ २० ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां पेषणीवरवर्तिभङ्गविधानम् ।
——————
अथ भाण्डोच्छ्रायपङ्क्तिपातजनितविघ्नहरं विधानम् ।
भाण्डोच्छ्रायस्य पङ्किश्चेन्निपतेदनिमित्ततः ।
अरिष्टं181 तद्विजानीयात्सदनाधिपतेर्ध्रुवम् ॥१ ॥
तच्छान्त्यै त्वरितं कार्यं विधानं विधिसत्तमैः ।
भाण्डानां पङ्क्तयः पञ्च देया विप्रेभ्य एव च ॥ २ ॥
त्रियम्बकेण मन्त्रेण होममादौ प्रकल्पयेत् ।
समिधां हवनं कार्यं पालाशीनां शतं बुधैः ॥३ ॥
प्रधानं पायसं साज्यं प्रायश्चित्ते घृतं स्मृतम् ।
कृत्वा स्विष्टकृतं विद्वाञ्छान्तिपाठं पठेत्सुधीः ॥ ४॥
भाण्डपङ्क्तेःप्रभग्नाया आलवालेन वा न्यसेत् । (?)
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दक्षिणाभिः सुतोषयेत् ॥ ५ ॥
आचार्यं पूजयेद्भक्त्या वस्त्रालंकारभूषणैः ।
एवं कृते विधाने च कल्याणं तत्र वर्धते ॥ ६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां लल्लसंहितोक्तं
भाण्डोच्छ्रायपङ्क्तिपातजनितविघ्नहरं विधानम्।
——————
अथ गृहतुलास्तम्भभङ्गजदोषशमनविधानम् ।
भारते श्रीकृष्णचन्द्रहाससंवादे ।
चन्द्रहास उवाच—
स्तम्भे भग्ने यदुश्रेष्ठ गृहाधारेऽथ वा विभो ।
प्रभग्ने सदनस्तम्भे गृहा (तुला) धारे च भूपते ॥
महाविघ्नप्रदो नॄणां कथं शान्तिस्तु जायते ॥ १ ॥
श्रीकृष्ण उवाच—
विधानं तत्र कर्तव्यं नरेण हितमिच्छता ।
धनधान्यसमायुक्तं गेहं देयं182 विपश्चिता ॥
अभावे तद्गृहं त्याज्यं त्यागाभावे यजेद्धविः ॥ २ ॥
व्रीहींस्तिलसमायुक्तान्सघृताञ्जुहुयात्सुधीः ।
अष्टोत्तरसहस्रं च प्रधानं पायसं स्मृतम् ॥३ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च जुहुयात्तदनालसः ।
त्र्यम्बकेण च मन्त्रेण गायत्र्या वा समाहितः ॥ ४ ॥
होमान्ते विधिवत्कृत्वा मन्त्रैश्चैवाभिषेचनम् ।
ततो वस्त्राणि विप्रेभ्यः प्रदद्यात्सुसमाहितः ॥ ५ ॥
आचार्यं प्रणिपत्याथ दानमानैस्तु तोषयेत् ।
रजतं काञ्चनं दद्याद्धेनुं दद्यात्पयस्विनीम् ॥
एवं कृते विधाने च गृहे शान्तिर्भवेदिह ॥ ६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां गृहतुलास्तम्भभङ्गजदोषशमनविधानम् ।
——————
अथाग्निदग्धगृहपुनराधानविधानम् ।
श्रीकृष्ण उवाच—
अग्निदग्धे यदागेहे पुनर्वासो विधीयते ।
तदा विधानमुद्दिष्टमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १ ॥
कुड्या183दि पातयित्वा च भूमिं च निखनेत्सुधीः ।
विधाय समतां तत्र जलैरापूरयेत्ततः ॥ २ ॥
कर्दमेन समालिप्य स्थण्डिलं मार्जये184त्ततः ।
पञ्चामृतैः समभ्युक्ष्य मण्डपश्च विधीयते ॥३ ॥
विदधीत ततः शान्तिं वारुणीं जातवेदसीम् ।
वारुणैरेव मन्त्रैश्च वारुणीं परिकल्पयेत् ॥४ ॥
पालाशीःसमिधस्तत्र वाञ्जुलीर्वा शतं शतम् ।
जुहुयात्सघृता राजंस्तथा वैश्वानरी पुनः ॥ ५ ॥
वैश्वानरैश्व मन्त्रैश्च समिधः खादिरीस्तथा ।
अर्कस्य वाऽथ साज्याश्च सैंख्यया च शतं शतम् ॥ ६ ॥
स्थण्डिले द्वे विधातव्ये मण्डपाभ्यन्तरे शुभे ।
आचार्यौद्वौ समुद्दिष्टावृत्विग्भिः सह भूपते ॥ ७ ॥
वैश्वानर्यांतु शान्तौ च प्रधानं च घृतौदनम् ।
उत्तिष्ठेति च मन्त्रेण हवनं परिकल्पयेत् ॥८ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च जुहुयात्प्रयतो द्विजः ।
मनोज्योतिर्जुषतामिति स्याद्वारुणी यजिः ॥ ९ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च हवनं परिकल्पितम् ।
पायसेन प्रधानेन साज्येनैव च भूपते ॥ १० ॥
होमान्ते वह्निवरुणावाचार्याय (भ्यां) प्रदापयेत् ।
कृत्वा हेममयौ सम्यक्सालंकारौसदक्षिणौ ॥ ११ ॥
आचार्यो यस्य यस्तस्मै दद्यात्तं विधिवन्नृप ।
ऋत्विग्भ्यश्च धनं देयं वस्त्रालंकारसंयुतम् ॥ १२ ॥
गामेकां च ततो दद्याद्ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ।
वरुणप्रीतये मेषमग्निप्रीत्यर्थमेव च ॥ १३ ॥
एवं कृते विधाने च पुनर्गेहं समाचरेत् ।
आयव्ययौविशोध्यैव नात्र कार्या विचारणा ॥ १४ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेन्नित्यं यथाशक्ति यथावसु ।
यावत्समाप्यते गेहकर्म राजकुलोत्तम ॥
एवं प्रशाम्यति स्थाने ज्वलनस्योपघातता ॥ १५ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामग्निदग्धगृहपुनराधानविधानम् ।
अथ ग्रामारिष्टशमनविधानम् ।
जम्बूकःशशको व्याघ्रः कुरङ्गो वा रुरुस्तथा ।
ग्राममध्ये यदा यान्ति ते सर्वेऽरिष्टसूचकाः ॥ १ ॥
तथा च मत्स्यपुराणे—
ग्रामे वा नगरे वाऽपि दिवा संक्रमते यदा ।
वृकादिश्वापदोऽरण्ये (वन्योऽ)रिष्टं सूचयति ध्रुवम् ॥ २ ॥
दस्यूनां भयमत्यन्तमग्नेश्चापि प्रजायते ।
राजिकं दैविकं तत्र जायते नात्र संशयः ॥ ३ ॥
तथा च भारते —
गृध्रादिविहगा यत्र श्वापदाः शशकादयः ।
दिशन्त्युद्वसतां ग्रामे प्रविष्टा यदि वासरे ॥ ४ ॥
यदि वा फलमुद्दिष्टं तदर्धं निशि जायते ।
अर्धं फलं दिशन्त्येते धृत्वा ये विनिवेशिताः ॥ ५॥
स्वेच्छया ये प्रविष्टास्ते संपूर्णफलदा ध्रुवम् ।
विधानं तत्र कर्तव्यं पौरैर्वा भूभृताऽपि वा ॥ ६ ॥
चतुष्पथे शिवद्वारे तथा राजनिवेशने ।
मण्डपं कारयेत्स्थूलं चतुरस्रं सुशोभनम् ॥ ७ ॥
पताकातोरणैर्युक्तं वृतं वस्त्रैर्मनोरमैः ।
तन्मध्ये स्थण्डिलं कृत्वा हवनं तु समारभेत् ॥ ८ ॥
गणेशं पूजयेत्तत्र हेमपीठे सवस्त्रके ।
दुर्गामपि तथाभूतां क्षेत्रनाथतनुं तथा ॥ ९ ॥
आतून इन्द्र क्षुमन्तंमन्त्रेण गणनायकम् ।
पूजयेत्स्थापयित्वा च नानातीर्थभवैर्जलैः ॥ १० ॥
जपायाः कुसुमैः कालसंभवैर्वा सुरक्तकैः ।
क्षेत्रस्य पतिनेत्येवं क्षेत्रनाथं प्रपूजयेत् ॥११ ॥
गौरीर्मिमायेति तथा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनीम् ।
चन्दनेन विलिप्याऽऽशु सकर्पूरेण साधुना ॥१२ ॥
साधुनेति शुद्धेनेत्यर्थः ।
ततस्तु धूपयेद्धूपैर्दशाङ्गैःसघृतैस्तथा ।
दीपैर्नीराजयेत्पश्चान्नैवेद्यैः परितोषयेत् ॥ १३ ॥
ताम्बूलमर्पयेत्तेभ्यः पुरस्ताद्भक्तिपूर्वकम् ।
ततस्तु नाममन्त्रेण प्रार्थयेत्प्रयतः शुचिः ॥ १४ ॥
एवं पूजादिसंस्कारैः पूजितं देवतात्रयम् ।
प्रणम्य विधिवद्धोममाचार्यस्तु समारभेत् ॥ १५ ॥
विहिते विधिवत्कुण्डे कृत्वा वह्निमुखं सुधीः ।
पालाशीःसमिधः सम्यगयुतं च पृथक्पृथक् ॥ १६ ॥
प्रीतये गणराजस्य तथा क्षेत्राधिपस्य च ।
दुर्गाप्रीत्यर्थ185मेवाऽऽशु तथा च तिलसर्पिषा ॥१७ ॥
तथा च पायसेनापि बिल्वपत्रैस्तथाऽपि वा ।
द्राक्षाकदलखर्जूरीप्रियालबीजसंचयैः ॥ १८ ॥
अयुतं होमसंख्या च समुद्दिष्टा मनीषिभिः ।
द्राक्षादिफलसंघाते नैव संख्या समाहृता ॥ १९ ॥
लक्षणं च यथोद्दिष्टं फलभागेषु कोविदैः ।
तत्तथैव न संदेहः साज्यं सर्वमुदाहृतम् ॥२० ॥
प्रधानं पायसं तत्र सर्वत्रेति विदुर्बुधाः ।
ततः स्विष्टकृते हूते (तं हुत्वा) प्रतिपूजा विधीयते ॥ २१ ॥
आचार्यं पूजयेद्वस्त्रहिरण्यरजतादिभिः ।
ततश्च विप्रवर्येभ्यः सप्त धान्यानि दापयेत् ॥ २२ ॥
बलिं दद्यात्प्रयत्नेन ग्रामस्य सर्वतोदिशम् ।
तैलभक्तं विमिश्र्याऽऽशु प्रक्षिपेत्सर्वतोदिशम् ॥२३ ॥
उदयः सर्वजगतो ग्रामस्यास्य विशेषतः ।
उदयोऽस्तु नृपस्यास्य पौरैः सह निरन्तरम् ॥ २४ ॥
इत्युच्चार्य महाघोषैस्तूर्याणां चैव निस्वनैः ।
दानं दद्यात्प्रयत्नेन गोहिरण्यादि शक्तितः ॥ २५ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्वि186धिमौढ्यं न कारयेत् ।
एवं कृते विधाने च विघ्ना नश्यन्ति तत्क्षणात् ॥
कल्याणं जायते ग्रामे नात्र कार्या विचारणा ॥ २६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ग्रामारिष्टशमनविधानम्।
—————
अथ वृक्षोद्भवारिष्टशमनविधानम् ।
तच्च काशीखण्डे—
झंझावातंविना वृक्षाः पतन्ति च महीतले ।
उन्मूलन्ति जलाघातं विना क्लिश्यन्ति दग्धवत् ॥ १ ॥
अपुष्पाःपुष्पिता वृक्षा अफलाः फलिता यदा ।
अपर्णा दर्शयन्त्येव पर्णानि विविधानि च ॥ २ ॥
अन्येषां फलमन्येषु लग्नानि (ग्नं वा) व्रततीषु च ।
इक्षूणां सस्यमायाति त187था वस्तुविपर्ययः ॥३ ॥
अजला वापिकास्तोयैः पूर्णाःस्युर्जलदं विना ।
वर्षास्वपि घने नित्यं जलहानिस्तु जायते ॥ ४॥
तदा महद्भयं विद्यात्पुरस्य विषयस्य च ।
विधानं तत्र कर्तव्यमुत्पन्नारिष्टशान्तये ॥ ५ ॥
नृपो वा ग्रामणीर्वाऽपि पौरो यश्चापि कश्चन ।
कुर्याच्छान्तिं प्रयत्नेन श्रेयोबुद्धिपरायणः ॥ ६ ॥
पुरे कृतं विधानं च देशारिष्टविनाशनम् ।
ग्रामे कृते ग्राम एवारिष्टं नाशमवाप्नुयात् ॥ ७॥
वृक्षो यः पात (क्लिष्ट) तां प्राप्तस्तस्मिन्कुर्याद्विधानकम् ।
आलवालं प्रकुर्वीत क्लिन्न (ष्ट) वृक्षतले सुधीः ॥ ८ ॥
जलैस्तु पूरयेत्स्वच्छैर्जपेत्सूक्तं तु वारुणम् ।
विप्राङ्घ्रिशौचतोयं च तीर्थतोये विधीयते ॥ ९ ॥
तत्रापि<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16949685505.png"/>188प्रदुहेद्धेनुमुत्पन्नारिष्टशान्तये ।
यस्मिंस्तरौ भवेद्दृष्टमरिष्टं तत्र तत्र च ॥ १० ॥
गोमूत्रं प्रक्षिपेन्मूले मूलमन्त्रेण बुद्धिमान् ।
जपन्सहस्रनामानि विष्णुभक्तिपुरःसरः ॥११ ॥
ततस्तु विहिते स्थूले मण्डले तरुसंनिधौ ।
जुहुयात्पायसं सम्यगयुतं सघृतं सुधीः ॥ १२ ॥
सुवर्णं रजतं वाऽपि दद्यादाचार्यतुष्टये ।
वस्त्रयुग्मं ततो दद्याद्गामेकां च पयस्विनीम् ॥१३ ॥
द्विजानामयुतं सम्यग्भोजयेत्षाकसंचयैः ।
कदलानि च साज्यानि शर्करासहितानि च ॥ १४ ॥
यथेष्टं प्रयतो दद्यान्न कुर्याद्वित्तवञ्चनम् ।
आ नो भद्राः क्रतव इत्येवं पाठं पठेत्सुधीः॥ १५ ॥
घृतं तु प्रबलं देयं पायसं शर्करान्वितम् ।
सखण्डं तैलपक्वंच व्यञ्जनानि बहूनि च ॥ १६ ॥
भोजयेन्मिथुनान्येवं गौरीशंकरतुष्टये ।
एवं कृते विधाने च विघ्नशान्तिस्तु जायते ॥ १७ ॥ .
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां वृक्षोद्भवारिष्टशमनविधानम् ।
——————
अथ कदलीदुष्टप्रसवजनितविघ्नशमनविधानम् ।
पद्मपुराण उमामहेश्वरसंवादे ।
उमोवाच —
प्रथमः प्रसवो देव रम्भाया दृश्यते यदा ।
दक्षिणाभिमुखो दुष्टो विदधाति फलं स किम् ॥
भूपाले वा कृपाणे वा फलं कस्मिंस्तु जायते ॥ १ ॥
श्रीमहेश्वर उवाच —
यदा ग्राम्यमुखा देवि कदली तु प्रसूयते ।
तदा ग्रामपतेर्नाशं विदधीत न संशयः ॥ २ ॥
एवं विघ्ने समुत्पन्ने विधानं तत्र कारयेत् ।
सूतकी चोपचर्या सा कदली हितमिच्छता ॥ ३ ॥
दर्शे तु जागरः कार्यो होमं कुर्यात्ततः परम् ।
कदलैर्हवनं कार्यमन्याभ्यस्तु समाहृतैः ॥ ४ ॥
सहस्रं प्रयतो वाग्ग्मी जपेच्छान्तीरनेकशः ।
विष्णुस्तु देवता तत्र तल्लिङ्गो मन्त्र उच्यते ॥ ५ ॥
विप्रेभ्यो विधिवद्दद्यात्सप्त धान्यानि संयतः ।
दद्यात्तां कदलीं राजा विप्रवर्याय धीमते ॥ ६ ॥
एवं कृते विधाने च विघ्नशान्तिस्तु जायते ।
पूजिते विप्रवर्ये च कर्ता सुखमवाप्नुयात् ॥७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां पद्मपुराणोक्तं
कदलीदुष्टप्रसवजनितविघ्नशमनविधानम् ।
—————
अथ निषिद्धतरुगृहप्ररोहजनितविघ्नहरविधानम् ।
मधुश्च बीजपूरश्च दाडिमी कदली तथा ।
यस्मिन्गृहे प्ररोहन्ति तद्गृहं न प्ररोहति ॥ १ ॥
एतद्गर्गसंहितायामुक्तमस्ति तस्य शान्तिविधानं वक्ष्ये —
दृश्यते यस्तरुर्गेहे प्ररूढः स्वेच्छया खलु ।
तज्जातीयस्य चान्यस्य फलानां शतमाहरेत् ॥ २॥
फलानि तानि विप्राय दद्याच्छान्ताय धीमते ।
ततश्च हवनं कार्यं तिलव्रीहिभिरादरात् ॥३ ॥
या ओषधीरिति मन्त्रेण हवनं कारयेद्बुधः ।
श्रीसूक्तं च जपेत्पश्चात्पौरुषं च तथैव च ॥ ४ ॥
वस्त्रयुग्मं ततो दद्यादाचार्याय म189हीयसे ।
सघृतं पायसं दद्याद्विप्रेभ्यः शक्त्यपेक्षया ॥ ५ ॥
एवं कृते विधाने च विघ्नशान्तिस्तु जायते ।
ततश्च वर्धनीयोऽसौ पादपः सुखमिच्छता ॥
विषवृक्षोऽपि पाल्योऽस्ति बहूनां मतमीदृशम् ॥ ६॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां गर्गसंहितोक्तं
निषिद्धतरुगृहप्ररोहजनितविघ्नहरविधानम् ।
—————
अथ स्वस्थारिष्टशमनविधानम् ।
तदुक्तं मार्कण्डेयपुराणे मार्कण्डेयक्रोष्टृसंवादे ।
दत्तात्रेय उवाच —
शृणु राजेन्द्र वक्ष्यामि स्वस्थारिष्टविनाशनम् \।
विधानं च समासेन यत्कृतं दुरितं हरेत् ॥ १ ॥
देवमार्गो ध्रुवः शुक्रः सोमच्छाया अरुन्धती ।
अगस्त्य इल्वलश्चापि पुष्यतारा द्विदैवतम् ॥२ ॥
अकस्माद्यस्य कस्यापि न भवन्त्यक्षिगोचराः ।
तस्य मृत्युः समीपेऽस्ति नात्र कार्या विचारणा ॥ ३ ॥
निजनासाग्रमत्युच्चमधोदृष्ट्याऽविलोकयन् ।
सं190पश्यति तदा मृत्युं विजानीयान्न संशयः ॥ ४ ॥
न्युब्जां तु मध्यमां कृत्वा विधाय निजसक्थनि ।
उन्नम्यानामिकां पश्येत्स्वस्थारिष्टं विचक्षणः ॥ ५ ॥
उत्क्षिप्ता चोद्धरेत्सा तु तदा मृत्युर्न संशयः ।
तत्र शान्तिं प्रकुर्वीत मया प्रोक्तां निबोध ताम् ॥ ६ ॥
यानि प्रोक्तानि मे तात स्वस्थारिष्टानि कानिचित् ।
तेषु किंचिद्भवेद्वत्स तत्र शान्तिर्विधीयते ॥ ७ ॥
विधाय मण्डपं रम्यं चतुरस्रं सुशोभनम् ।
स्तम्भैः षोडशभिर्युक्तं चतुर्द्वारं सुलक्षणम् ॥ ८ ॥
कोटिहोमं लक्षहोममयुताख्यं समाहितः ।
हवनं कारयेद्धीमानुत्पन्नारिष्टशान्तये ॥ ९ ॥
त्र्यम्बकेण च मन्त्रेण गायत्र्या वा समाहितः ।
प्रधानं पायसं साज्यं पालाशीः समिधस्तथा ॥ १० ॥
जुहुयात्प्रयतो भूत्वा सहस्रं नात्र संशयः ।
तिलव्रीहियवैश्चापि लोकपालयजिः स्मृता ॥ ११ ॥
गाणपत्यं तु हवनं फलैस्तु कदलादिभिः ।
प्रत्येकं च सहस्रं तु शतं वा शक्त्यपेक्षया ॥
देवतायाः प्रधानत्वमत्र प्रोक्तं मनीषिभिः ॥ १२ ॥
मृत्युंजयस्य नान्यस्य स्वस्थारिष्टविनाशने ।
जपेच्छान्तीस्तु शैवानि स्तोत्राणि विविधानि च ॥ १३ ॥
ततस्तु मूर्तिदानं च दद्याद्विप्राय चाऽऽत्मनः ।
पलेन वा तदर्धेन तस्याप्यर्धेन वा पुनः ॥ १४ ॥
सौवर्णीं स्वतनुं कृत्वा वस्त्रयुग्मेण वेष्टिताम् ।
तिलानां राशिमाधाय तत्र तां विनिवेशयेत् ॥ १५ ॥
पूजयेद्गन्धपुष्पाद्यैरुपचारैर्मनोरमैः ।
पौराणैरेव मन्त्रैश्च सा मूर्तिरुपचर्यते ॥ १६ ॥
आचार्याय ततो दद्याद्दक्षिणासहितां शुभाम् ।
मृत्युंजयस्य देवस्य पीठे संपूज्य विग्रहम् ॥
तं चापि विप्रवर्याय दद्याच्चैव सदक्षिणम् ॥ १७ ॥
तत्र मन्त्रः —
स्वस्थारिष्टसमुद्भूतं विघ्नं नाशय शंकर ।
निजमूर्तिप्रदानेन मृत्युं जय समागतम् ॥ १८ ॥
इति दानमन्त्रः ।
अथ स्वमूर्तिदानमन्त्रः —
आचार्य वेदवित्प्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
दानेन मम चानेन विघ्नाद्रक्षमहामते ॥ १९ ॥
इति स्वमूर्तिदानमन्त्रः ।
ततस्तु भोजयेद्विप्रान्सहस्रं च शताधिकम् ।
वस्त्रालंकारसहितं यथाशक्ति सदक्षिणम् ॥
एवं कृते विधाने च स्वस्थारिष्टं विनश्यति ॥ २० ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां स्वस्थारिष्टशमनविधानम् ।
—————
अथ यात्रारिष्टशमनविधानम् ।
तत्र ज्योतिःशास्त्रे गर्गसंहितायाम् —
मार्जारयुद्धं कलहः कुटुम्बे रजस्वला स्त्री ज्वलनो गृहेषु ।
अकालवृष्टिः शवसूतकं च प्रयाणकाले मरणाय षट् स्युः ॥ १ ॥
प्रासादभेदो वटवृक्षभेदः सर्पेण मा191र्गस्य च लङ्घनं चेत् ।
वायुः प्रतीपो रुदितश्रुतिश्चेत्प्रयाणकाले मरणानि पञ्च ॥ २ ॥
छत्रप्रपातस्तुरगाङ्गकम्पो भ्रष्टस्वरं काकरुतं यदि स्यात् ।
कोशक्षतिर्निःस्मरणं क्षुतं च प्रयाणकाले मरणाय पञ्च ॥ ३ ॥
इत्यादि दृश्यते चिह्नं प्रयाणे तु प्रियासुभिः ।
विधाय शान्तिकं श्रेष्ठं विधानं गम्यतां सुखम् ॥ ४ ॥
वराहपुराणे —
प्रयाणे दृश्यते यच्च यात्राविघ्नकरं परम् ।
तच्छान्तये समुद्दिष्टं विधानं पूर्वसूरिभिः ॥ ५ ॥
कुर्याद्व्रतं सिद्धिविनायकाख्यं शक्त्या तथा ब्राह्मणभोजनं च ।
यात्रां विदध्यात्कुलदेवतायाः स्नायात्तिलैर्वा शुभकार्यसिद्धयै ॥६॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां यात्रारिष्टशमनविधानम् ।
————————
अथ भेकदुष्टरुतजनितविघ्नशमनविधानम् ।
गर्गसंहितायाम् —
भेको यदा शब्दति धर्मकाले यामक्रमाद्दिक्क्रमशोऽपि नूनम् ।
फलं विदध्यात्खलु वासराणामेकोत्तराणां त्वरितं हि मध्ये ॥ १ ॥
ऐन्द्रयां रुतं शत्रुभयं विदध्याद्वह्नौ यदा वह्निभयं च पीडाम् ।
शोकोपलब्धिं खलु दक्षिणे च धनक्षयं नैर्ऋतदिग्विभागे ॥ २ ॥
पर्जन्यलाभो दिशि पश्चिमायां स्थानच्युतिः स्यात्खलु वायुदेशे ।
अर्थस्य लाभो दिशि सौम्यभागे सर्वार्थसिद्धिर्भवतीशकोणे ॥ ३ ॥
ऊर्ध्वाधरे वै भयशोकचिन्तां करोति भेको रुतमेष यत्र ।
वह्नेर्भयं वह्निभयं च पीडा शोकोपलब्धिः खलु जायते च ॥ ४ ॥
एतत्फलं पूर्वत एव विद्याद्व्यस्तं यदा तत्र कृशानुपीडा ।
तच्छान्तये शान्तिकरं विधानं दैवोदितं तत्परिवक्ष्यतेऽत्र ॥ ५ ॥
भेकस्य रूपं विदधीत ताम्रं नेत्रद्वयं रत्नमयं च तस्य ।
कालायसस्याङ्घ्रिचतुष्टयं स्याद्रौप्योदरं पञ्चपलप्रमाणम् ॥
संपूज्य मन्त्रैः खलु वारुणैस्तं भेकं प्रदद्याद्द्विजपुंगवाय ॥ ६ ॥
तत्र पौराणो मन्त्रः —
उत्पन्नविघ्नप्रशमोऽस्तु तेऽद्य ह्यनेन भेक प्रतिपादनेन ।
अरिष्टशान्त्यर्थमिदं प्रयुक्तं पूर्णो भवत्वद्य मनोरथो मे ॥ ७ ॥
शक्त्या संभोज्य विप्रांश्चपक्वान्नैः पायसादिभिः ।
आमान्नेनेतरः कुर्याच्छ्रद्धया परया युतः ॥
एवं कृते विधाने च विघ्ना नश्यन्ति सर्वशः ॥ ८॥
रात्रौ यदा रौति च दुर्दुरोऽयं पूर्वक्रमाद्वह्निदिगादिकेषु ।
दिगन्तरेष्वेवमुदाहरन्ति फलं हि तद्वद्धि न ऋद्धये च ॥ ९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ग्रीष्मकाले
भेकदुष्टरुतजनितविघ्नशमनविधानम् ।
—————
अथकपोतशान्तिविधानम् ।
महाभारते भीष्मयुधिष्ठिरसंवादे ।
युधिष्ठिर उवाच —
कपोतो यदि गाङ्गेय प्रविशत्यालयं नृणाम् ।
कथं शान्तिर्भवेत्तस्य सद्मनस्तद्वदस्वमे ॥ १ ॥
भीष्म उवाच —
प्रविष्टे सदनं राजन्कपोते भयकारिणि ।
उद्वसं जायते सद्म नात्र कार्या विचारणा ॥ २ ॥
अथ वा सद्मनः स्वामी त्वरितं मृत्युमाप्नुयात् ।
गेहिनी वा गृहेशस्य राजा कुप्यति वा भृशम् ॥ ३ ॥
येन येन प्रकारेण प्रोद्वसं जायते गृहम् ।
स स संपद्यते राजन्कपोते सदनागते ॥ ४ ॥
निर्विशेत्सदनं यस्तु कपोतो विघ्नकारकः ।
स हन्तव्यो मृतस्यास्य मेदसा जुहुयात्सुधीः ॥ ५॥
जीवद्गते कपोते चेद्विधानान्तरमस्ति तत् ।
शालीनां पिष्टमादाय पयसाऽऽलोड्यतत्पुनः ॥ ६ ॥
विदधीत कपोतस्य रूपं शास्त्रविचक्षणः ।
गुडेनोदरमापूर्य मुखं शर्करया पुनः ॥ ७ ॥
मधुना चरणौ तस्य पक्षौ वाऽऽज्येन पक्षिणः ।
ततो वह्निमुखं कृत्वा हावयेत्प्रयतः सुधीः ॥ ८ ॥
देवाः कपोत इत्येष यजने मन्त्र उत्तमः ।
खगं पिष्टमयं तं तु जुहुयात्सर्पिषायुतम् ॥ ९ ॥
शतधा तं खगं कृत्वा भागशः परिकल्पयेत् ।
शिरसोऽप्यष्ट भागाः स्युः पक्षयोः षोडश स्मृताः ॥ १० ॥
वक्षसः षोडशैव स्युस्त्रिंशस्त्रिंशच्चपादयोः ।
सवितुष्ट्वेति शिर192सा वसुभ्यो यजनं स्मृतम् ॥ ११ ॥
मनो ज्योतिर्जुषतामिति वक्षश्चन्द्रमसे भवेत् ।
यस्त्वा हृदा कीरिणा मन्यमान इति वा ।
यस्मै त्वं सुकृते जातवेद इति दक्षिणचरणयजिरग्नये । वामचरणयजनमश्विभ्यामेव ।श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू इति दक्षिणवामपक्षयजनं रुद्राय ।ततस्तु तिलव्रीहिभिर्व्याहृतीः कृत्वा पश्चात्स्विष्टकृति हुते सति शान्तिपाठः ।प्रधानं पक्ष्यङ्गंप्रायश्चित्त आज्यं स्विष्टकृतं ( ति ) सर्वं विद्यमानं होमद्रव्यम्।एतत्सर्वं कृत्वा वस्वग्निचन्द्राश्विदेवा ये पूजितास्तल्लिङ्गैरेव मन्त्रैः प्रतिपूजां विधायततोऽभिषेचनं सकुटुम्बस्य यजमानस्य तत आचार्यपूजा ।
सालंकारां सवस्त्रां च सवत्सां च पयस्विनीम् ।
धेनुं दद्यात्सुवर्णं च दक्षिणार्थे विशेषतः ॥१२ ॥
आचार्याय सुशीलाय श्रोत्रियाय कुटुम्बिने ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्यथाशक्त्या (क्ति) च दक्षिणाम् ॥
एवं कृते विधाने च कपोतः शान्तिकृद्भवेत् ॥ १३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांभारतोक्तं कपोतशान्तिविधानम् ।
———————
अथ पल्लीसरटनिपातविघ्नहरं विधानम् ।
गर्गसंहितायाम् —
पल्ली पतति चेत्पुंसां दक्षिणाङ्गे न सा शुभा ।
वामभागे शुभा प्रोक्ता प्रयुक्तः सरटस्तथा ॥ १ ॥
तथाशब्देन निपातो लक्षितः ।
पल्लीसरटयोः पाते विधानं तु विधीयते ।
स्नात्वा शुद्धेन तैलेन स्त्री वाऽथ पुरुषोऽपि वा ॥ २ ॥
कुर्यात्प्रदक्षिणाः शंभोर्विष्णोर्वाऽपि समाहितः ।
चतुर्विंशतिरेवोक्ताः श्रीधरस्य प्रदक्षिणाः ॥३ ॥
प्रातःकाले हरेः कार्याः सायंकाले कपर्दिनः ।
महाप्रदक्षिणा शंभोरेकाऽपि शुभदा भवेत् ॥
अशक्तौ च शरीरस्य मुनीनां मतमीदृशम् ॥ ४ ॥
तामप्याह —
वृषं चण्डं वृषं चैत्र सोमसूत्रं पुनर्वृषम् ।
चण्डंच सोमसूत्रं च पुनश्चण्डं पुनर्वृषम् ॥ ५ ॥
इति महाप्रदक्षिणा ।
ततो नीराजनं कुर्याद्दीपैः षोडशभिस्तथा ।
नैवेद्यं विविधं दद्याद्विष्णोः शंभोश्च तुष्टिदम्॥ ६ ॥
ततः स्वगृहमागत्य ब्राह्मणान्भोजयेत्सुधीः ।
एवं कृते विधाने च विघ्ना नश्यन्ति तत्क्षणात् ॥ ७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांपल्लीसरटनिपातविघ्नहरं विधानम् ।
——————
अथ पल्लीपतनसरटप्ररोहणविघ्नहरं विधानम् ।
तथा च नारदसंहितायाम् —
पल्ल्याः प्रपतनं चैव सरटस्य प्ररोहणम् ।
सर्वाङ्गेष्वशुभं विद्याच्छान्तिं कुर्यात्स्वशक्तितः ॥ १ ॥
शुभस्थाने शुभावाप्तिरशुभे दोषशान्तये ।
तत्स्वरूपं सुवर्णेन रुद्ररूपं तथैव च ॥ २ ॥
मृत्युंजयेन मन्त्रेण वस्त्रादिभिरथार्चयेत् ।
अग्निं तत्र प्रतिष्ठाप्य जुहुयात्तिलपायसैः ॥३ ॥
आचार्यो वारुणैः सूक्तैः कुर्यात्तत्राभिषेचनम् ।
आज्यावलोकनं कृत्वा शक्त्या ब्राह्मणभोजनम् ॥४ ॥
गणेशक्षेत्रपालार्कदुर्गाक्षोण्यङ्गदेवताः ।
तासां तुष्ट्यै जपः कार्यः शेषं पूर्ववदाचरेत् ॥
ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्यात्षोडशभ्यः स्वशक्तितः ॥ ५ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां पल्लीपतनसरटप्ररोहणविघ्नहरं विधानम् ।
अथ मार्जन्यादिदुष्टरजःस्पर्शजनितविघ्नहरं विधानम् ।
अजारजःखररजस्तृतीयं मार्जनीरजः ।
एकदा स्पर्शमात्रेण शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥ १ ॥
तत्र विधानम् —
गङ्गाजलेन सुस्नातः स्मरेद्विष्णुं शिवं रविम् ।
जननीं स्वां निजं तातं गुरुं पापापनुत्तये ॥ २ ॥
शक्त्या च द्रविणं किंचिद्दद्याद्विप्राय धीमते ।
एवं कृते विधाने च रजोविघ्नो न जायते ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां दुष्टरजःस्पर्शजनितविघ्नहरं विधानम् ।
———————
अथ दीपोपप्लवकूष्माण्डभेदफलचौर्यजनितविघ्नहरं विधानम् ।
तथा चस्मृतिवचनम् —
दीपस्योपप्लवः पुंसां स्त्रीणां कूष्माण्डभेदनम् ।
चौर्यं महाफलानां च वंशच्छेदाय कल्पते ॥ १ ॥
तत्राधिकारं विना जातेषु त्रिषु किंचित्तदा विधानं कर्तव्यम् ।
तदाह वृद्धगर्गः —
दीपोपप्लवनं येन कृतं स्यान्निशि वा दिवा ।
कूष्माण्डभेदनं नार्या द्वाभ्यां फलहृतिस्तथा ॥ २ ॥
दीपोपप्लवने दीपं दद्याद्विप्रगृहे सुधीः ।
कूष्माण्डभेदने दद्यात्कूष्माण्डं च द्विजातये ॥३ ॥
एतल्लिङ्गौ समुद्दिष्टौ मन्त्रौ दाने यजौ तथा ।
मनोज्योतिर्जुषतामिति दीपप्रणाशने ॥ ४ ॥
दानं च हवनं प्रोक्तं यथाशक्ति महर्षिभिः ।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कश्चिन्न जायते ॥ ५ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां दीपोपप्लवकूष्माण्डभेदफलचौर्यजनितविघ्नहरं विधानम् ।
——————
अथ नवदुर्गपूजनविधानम् ।
तत्र व्याडिः—
दुर्गमष्टविधं विद्यात्परिघा(खा)गिरिपूर्वकम् ।
जलजं दारुजं भित्तिसंभवं नरचक्रजम् ॥
वनजं पङ्कजं चैव सर्वंमनुजरक्षितम् ॥ १ ॥
तथा च भूपालवल्लभे —
प्रथमं मृन्मयं दुर्गंद्वितीयं जलसंज्ञकम् ।
तृतीयं ग्रामकोटश्चचतुर्थं वनगह्वरम् ॥ २ ॥
पञ्चमं गिरिकोटश्च षष्ठंकोटश्च पारिखः ।
सप्तमं भूमिचक्रस्थं विषमाख्यं तथाऽष्टमम् ॥ ३ ॥
जलान्तरालं जलजं परिखा परिखाभिधम् ।
गिरिदुर्गं गिरिः सम्यग्दारुजं दारुभिः कृतम् ॥ ४ ॥
भित्तिजं धूलिजं ज्ञेयं कान्तारं वनसंभवम् ।
नरव्यूहमयं दुर्गं नवदुर्गमुदाहृतम् ॥ ५ ॥
नरैरश्वैर्गजैश्चैव भागशः परिरक्षितम् ।
विद्यात्तन्मानवं दुर्गे यत्र तत्र विधीयते ॥ ६ ॥
चतुरस्रं सुवृत्तं च भित्तिजं दुर्गमुच्यते ।
भित्त्वा कुल्याप्रवाहांश्चकर्दमः क्रियते पथि ॥ ७ ॥
विद्यात्तत्कर्दमं दुर्गंपरचक्रविघातकृत् ।
नानाविधानि यन्त्राणि विधीयन्ते यतस्ततः ॥ ८ ॥
सै(भै)रवादीनि राजेन्द्र प193रिघाताय194 वैरिणाम् ।
तथा च भित्तिजे दुर्गे दृढपङ्कजरक्षिते ॥ ९ ॥
(<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16950231525.png"/>195जीवरक्षाभिधा भित्तिर्द्वितीयाऽन्यत्र या भवेत् ।
तद्धूलिकं विजानीयादुर्गं[ दुर्ग ] विचक्षणः ॥ १० ॥ )
भित्तिः शिलामयी ज्ञेया तथा चैवेष्टकोद्भवा ।
पङ्केन रचिता चैव त्रिविधा भित्तिरुच्यते ॥ ११ ॥
आयास्तत्र त्रयः प्रोक्ता ध्वजसिंहगजास्तथा ।
पूर्वद्वारे गजः श्रेष्ठः सिंहश्चैवोत्तरामुखः ॥
ध्वजस्तु पश्चिमद्वारे यथास्थानं तथा शुभः ॥१२ ॥
तथा च व्याडिः —
रचिते नूतने दुर्गे परिखासुदृढीकृते ।
शान्त्यर्थमात्मनः कुर्याद्विधानं पृथिवीपतिः ॥ १३ ॥
आमन्त्र्य ब्राह्मणान्राजा वेदशास्त्रविदस्तथा ।
आचारनिपुणान्यज्ञकर्मकाण्डविशारदान् ॥ १४ ॥
विधाय मण्डपं दिक्षु पूर्वादिषु यथाक्रमम् ।
अष्टासु विधिवद्राजा विधानं तत्र कल्पयेत् ॥ १५ ॥
पालाशीः खादिरीर्दौर्वीरपामार्गभवास्तथा ।
बाञ्जुलीः पैप्पलीश्चाऽऽम्रविल्वजाः समिधस्तथा ॥ १६ ॥
एकैकशोऽयुतं विद्यात्सहस्रं वा समाहितः ।
यस्यां दिशि विधानं स्याद्विद्यात्तां देवतां बुधः ॥ १७ ॥
तल्लिङ्गेनैव मन्त्रेण प्रकुर्याद्यजनं बुधः ।
दुग्धौदनं घृतं मांसं पायसं तिलतण्डुलाः ॥ १८ ॥
चर्वाज्यं पायसं सर्पिः प्रधानं च यथाक्रमम् ।
यस्यै यस्यै देवतायै यत्प्रधानमुदाहृतम् ॥१९ ॥
तदेव स्विष्टकृविद्यात्प्रायश्चित्तं तु सर्पिषा ।
विधायाऽऽदावर्चनं च सर्वोपस्करसंयुतम् ॥ २० ॥
व्याहतीःकारयेत्पश्चाद्यथाविभवगौरवम् ।
ततो बलिविधिं कुर्याद्दीपैर्नीराजनं ततः ॥ २१ ॥
नैवेद्यं विविधं कुर्याद्दिक्स्वामिप्रीतये बुधः ।
आचार्यान्पूजयेत्पश्चाद्वस्त्रालंकारभूषणैः ॥ २२ ॥
ब्राह्मणानृत्विजश्चैव तथैव नृपपुंगवः ।
अन्यांश्च तोषयेद्राजा दत्त्वा दानानि भूरिशः ॥ २३ ॥
एतद्विधानं कर्तव्यमष्टधैव विधानतः ।
यद्यशक्तोऽष्टधा कर्तुमेकस्मिन्नेव कारयेत् ॥
पूजयेद्देवताः सर्वास्तासां मन्त्रैः पृथक्पृथक् ॥ २४ ॥
तथा च मानसोल्लासे —
दुर्गे चाष्टविधे कुर्याद्विधिवद्देवतार्चनम् ।
विधानेन विना दुर्गंदुर्गमं196 ह्यभिधीयते ॥ २५ ॥
तस्माद्दुर्गस्य रक्षार्थं पूजयेद्दुर्गदेवताः ।
पुष्पैर्धूपैश्च नैवेद्यैर्मांसैर्मद्यैस्तथाऽम्बरैः ॥ २६ ॥
एवं दृढे कृते दुर्गे राजा विजयमाप्नुयात् ।
राष्ट्रं च वर्धते सर्वंवैरिभिर्नाभिभूयते ॥२७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां व्याडिमतोक्तमष्टविधनवदुर्गपूजनविधानम् ।
——————
अथ दुर्गदृढीकरणविधानम् ।
मानसोल्लासे —
यदा कदाचिद्राजेन्द्र दुर्गग्रामो (हो)द्यमः परैः ॥
क्रियते पृथिवीशस्य दुर्गसंवरणं तथा ॥ १ ॥
चा197ररक्षा विधातव्या बाह्याभ्यन्तरमञ्जसा ।
लोहबद्धे कपाटे च वज्रनाराचसंयुते ॥ २ ॥
स्वर्गलापिहिते सम्यक्तथा वज्रार्गलायुते ।
वामे वा दक्षिणे वाऽपि कुक्षिदेशे निगूढकम् ॥ ३ ॥
द्वारं कपाटसंयुक्तं ध्वान्तयुक्तं विधीयते ।
अर्गलाद्यं च तत्रापि रक्षणं परिकल्पयेत् ॥ ४ ॥
अन्तरोभयतो भित्ती कण्ठदघ्ने (घ्न्यौ) प्रकल्पयेत् ।
तत्रान्तरे विधातव्या आप्तास्तद्द्वाररक्षकाः ॥ ५॥
तत्रोपरि गृहं सौधं दृढस्तम्भं प्रकल्पयेत् ।
तस्य च्छिद्राणि कुर्वीत वायुहेतोर्यतस्ततः ॥ ६ ॥
युद्ध (ऊर्ध्व) वक्त्राणि कुर्वीत योधविग्रहगुप्तये ।
युद्ध (सौध) चक्रेषु सर्वेषु भैरवप्रमुखाणि वा ॥ ७ ॥
युद्धयन्त्राणि तुङ्गानि रचयेद्युद्धकाङ्क्षिभिः ।
तत्र तत्र विरचयेत्तृणमर्कटविग्रहान् ॥८ ॥
यवागूमणिकांस्तप्तांस्तत्र तत्र निधापयेत् ।
कचाश्ययेशीः(कवाटदेशे) सर्वत्र करण्डान्फणिनां तथा ॥ ९ ॥
संतप्ताः सिकताः सूक्ष्माः खण्डे खण्डे नियोजयेत् ।
शूलानि बहुशस्तत्र खण्डवक्त्रेषु योजयेत् ॥१० ॥
येन येन प्रकारेण भवेद्वैरिविनिग्रहः ।
तत्र तत्र (तं तं सर्वं) प्रकुर्वीत नात्र कार्या विचारणा ॥ ११ ॥
एवं दृढीकृते दुर्गे दुर्गादेवीं प्रपूजयेत् ।
पूर्वोक्तेन विधानेन विधिज्ञो धरणीपतिः ॥ १२ ॥
जपायाः कुसुमैः पद्मैःशतपत्रैः समोगरैः ।
करवीरैः सुगन्धैश्चजातीपुष्पैर्मनोरमैः ॥ १३ ॥
तेषामभावे सर्वेषामर्कपुष्पैश्च पूजयेत् ।
खण्डस्थां देवतां राजा यक्षिणीं दिव्यरूपिणीम् ॥ १४ ॥
रक्तं मांसं च मेदश्व मधु सर्पिर्गुडौदनम् ।
नैवेद्यार्थं तु देव्याश्चदद्यात्सर्वमनालसः ॥१५ ॥
द्वारे देव्या विधातव्यं तोरणं च भयंकरम् ।
अन्त्रमालाभिरव्यग्रः पताकाडम्बराणि च ॥ १६ ॥
चामराणि च दिव्यानि शूर्पाणि विविधानि च ।
एतत्सर्वं प्रकुर्वीत यक्षिणीप्रीतये नृपः ॥
प्रार्थयेद्देवतां तां च यक्षिणीं भूमिवल्लभः ॥ १७ ॥
तत्र प्रार्थनामन्त्रः —
रक्ष रक्ष महादेवि महादेवस्य वल्लभे ।
दुर्गं मे वैरिवर्गेभ्यो बलेन महता शिवे ॥ १८ ॥
इति संप्रार्थ्यभूपालो दण्डवत्प्रणमेद्भुवि ।
एवं कृते विधाने तु दुर्गपूजाभिधे नृप ॥
विजयं प्राप्नुयात्सम्यग्वैरिनिग्रहतत्परः ॥ १९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मानसोल्लासोक्तं दुर्गदृढीकरणविधानम् ।
——————
अथ चतुरङ्गसैन्यदृढीकरणविधानम् ।
आगते परचक्रे तु स्वचक्रं पोषयेन्नृपः ।
धनै रत्नैश्च वस्त्रैश्च ताम्बूलैर्मानपूर्वकैः॥ १ ॥
वेतनादिकतां राजा वर्धयेज्जयसिद्धये ।
आहूय प्रकृतीः सर्वाः श्रेणीश्चैव विशेषतः ॥ २ ॥
तथैवाऽऽटविकं सर्वं मानपूर्वं महीपतिः ।
संभावयेत्ततो दस्यून्निगृह्य परचक्रवत् ॥
आत्मोदयं परग्लानिं संविलोक्य सुखं व्रजेत् ॥ ३ ॥
तथा च मार्कण्डेयपुराणे —
प्रागात्मानं ततो मौलांस्ततोऽश्वान्पुरजांस्ततः ।
ततो दुर्गाणि राष्ट्रं च ज्ञात्वा राजा प198रान्व्रजेत् ॥४ ॥
यात्राशुद्धिं विजानीयादात्मनोऽपि बलावले ।
निजोदयं परग्लानिं ततो वैरिगणान्व्रजेत् ॥ ५ ॥
चतुर्वेदभवैर्मन्त्रैरभिषेकं समाहितः ।
प199रिगृह्य महीपालो विजयाय व्रजेत्सुधीः ॥ ६ ॥
दत्त्वा दानानि भूरीणि हयादिविविधानि च ।
ततः पूजितसत्खड्गस्तत्पाणिः पृथिवीपतिः ॥
निर्गच्छेत्तूर्यघोषेण स्तूयमानस्तु बन्दिभिः ॥ ७ ॥
तत्र निर्याणमन्त्रः — तत्त्वा यामीति ।
इमं मन्त्रमुच्चार्य तुरंगमारुह्य शकुनान्संविलोकयन्व्रजेत्। लसच्चामरयुग्मवीज्यमानो विस्तारितसपल्लवच्छत्रस्तुरंगवल्गनचञ्चलकुण्डलो यत्र यत्र वैरिवर्गस्तत्र तत्र ससैन्यः संव्रजेत् । तथा च —
दृष्टायां वैरिसेनायां निवेशं कारयेन्नृपः ।
मायुरं(?) द्यज (मनुध्वजस) मुच्छ्रायं वाद्यवादनपूर्वकम् ॥ ८ ॥
युद्धव्यूहान्प्रकुर्वीत हृष्टपुष्टो महीपतिः ।
योधयेत्सुभटान्सर्वान्पत्तिपूर्वान्महीपतिः ॥ ९ ॥
कृत्वा तु मोहनं सम्यक्सर्वोपकरणेषु च ।
वादित्रेषु च सर्वेषु मन्त्रभेषजविन्नृपः ॥१० ॥
मन्त्रयन्त्रं प्रवक्ष्यामि सङ्ग्रामबलमुत्तमम् ।
यस्य प्रभावतो युद्धे दुर्बलस्य बलं भवेत् ॥११॥
चतुरस्त्रं चतुर्द्वारं त्रिरेषं पद्मगर्भितम् ।
हस्तत्रयप्रमाणं च तण्डुलैर्मण्डलं लिखेत् ॥१२ ॥
तत्र चक्रे लिखेद्देवं रुद्रं दुर्गासमन्वितम् ।
एकैकपत्र(द्म) पत्रेषु वसुसंख्येषु मन्त्रवित् ॥ १३ ॥
अणिमाद्याः सिद्धयस्ताः पूजनीयाः पृथक्पृथक् ।
मध्ये देवं लिखेच्छंभुं भद्रकालीसमन्वितम् ॥ १४ ॥
प्रणवादिनमोन्तैश्च नाममन्त्रैस्त200थाऽर्चयेत् ।
तीर्थोदकान्वितैः कुम्भैः सदूर्वाक्षतपल्लवैः ॥१५ ॥
मृत्युंजयेन मन्त्रेण शतधा201ऽप्यभिमन्त्रितैः ।
अभिषिश्चेत्ततो वीरं शुभे लग्ने स्वरोदये ॥ १६ ॥
ओजस ( ओं जूं सः ) इति मृत्युंजयमन्त्रः ।
अभिषिक्तस्ततो वीरो रणेऽसौ विजयी भवेत् ।
शस्त्रैर्न भिद्यते तस्य शरीरं शत्रुनोदितैः ॥ १७ ॥
एवं मण्डलमध्यस्थोऽभिषिक्तो नृपतिर्यदा ।
तदाप्रभृति युद्धेषु शत्रूञ्जयति सर्वदा ॥ १८ ॥
राज्यभ्रष्टो लभेद्राज्यं रोगी रोगात्प्रमुच्यते ।
मुक्तपीडा ग्रहाः सर्वे शान्तिं कुर्वन्ति सर्वदा ॥ १९ ॥
एवं कृते विधाने च दृढत्वं लभते चमूः ।
वैरिवर्गः क्षयं याति नात्र कार्या विचारणा ॥ २० ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां चतुरङ्गसैन्यदृढीकरणविधानम् ।
——————
अथ रणदीक्षाविधानम् ।
भारते युधिष्ठिर उवाच —
कथं गाङ्गेय वीरस्य रणदीक्षाविधिर्भवेत् ।
तत्सर्वं च समाचक्ष्व विस्तरेण महामते ॥ १ ॥
भीष्म उवाच —
रणदीक्षाविधिं तात शृणु मे गदतो ध्रुवम् ।
आगते परचक्रे च स्वामिकार्ये समुद्यते ॥ २ ॥
निजभूहरणोद्वारे स्त्रीदुष्टग्रहनिग्रहे ।
एतेषु सर्वकार्येषु रणदीक्षाविधिः स्मृतः ॥ ३ ॥
गोग्रहे ब्राह्मणार्थे च नास्ति सङ्ग्रामदीक्षणम् ।
स्नानं कृत्वा शुचिर्भूत्वा स्वस्ति202वाच्य द्विजोत्तमैः ॥ ४ ॥
हयादिदानकृद्राजा रणदीक्षां समाचरेत् ।
वेतालभैरवं देवं प्रणम्य शिरसा भुवि ॥ ५ ॥
संपूज्य कुलदेवीं च रणदीक्षां समारभेत् ।
विधाय तिलकं भाले203 चन्दनेन सुमन्त्रितम् ॥ ६ ॥
मषीमयं महाश्रेष्ठमङ्गुल्या च कनिष्ठया ।
रक्तचन्दनसंयुक्तानक्षतान्संनिवेशयेत् ॥ ७ ॥
ॐ204 जूं स एवं मन्त्रेण कृतदीक्षाविधिर्नृपः ।
षडङ्गन्यासपूर्वेण मन्त्रेण न्यस्ततत्फलः ॥ ८ ॥
तथा तु कलया युक्तस्त्रिदशैरपि दुर्जयः ।
असंशयं भवेद्राजा रणदीक्षावृतो भृशम् ॥ ९ ॥
पूर्वोक्तमण्डलस्यान्तर्योधशस्त्राणि विन्यसेत् ।
पूजयेद्विधिवत्तानि ततो जागरणक्रिया ॥१० ॥
तत्र सर्वशस्त्रपूजनमन्त्राः ।
ॐ खां खीं खूं खैं खौं खं खः रौद्रमूर्तये खड्गाय नमः ।
इति खड्गमन्त्रः । षोडशोपचारेष्वयमेव \।
ॐ ह्रां205 ह्रीं ह्रूंह्रैंह्रौंह्रः श्रीभैरवरूपाय रक्षायुधाय फलकाय नमः ।
इति फलकमन्त्रः । सर्वोपचारेपष्वयमेव ।
ॐ लां लीं लूं लैं लौं लःइ206न्द्रायुधाय धनुषे नमः ।
इति धनुर्मन्त्रस्तथैव ।
ॐ स्रां स्रीं स्रूंस्रैं स्रौं स्रः ब्रह्माद्यपञ्चदेवतामूर्तये पञ्चबाणस्वरूपिणे बाणफलकाय नमः ।
अनेन सर्वपूजाविधिर्बाणानाम् ।
ॐ क्रां क्रीं क्रूंक्रैं क्रौं क्रः शूलिमूर्तये भैरवायुधाय कुन्ताय नमः ।
पूर्ववदयं कुन्तमन्त्रः ।
ॐ अघोरे छुरिके चामुण्डे छ्रांछ्रींछूं छ्रैंछ्रौंछ्रःभगवतीमूर्तये कात्यायन्यै छुरिकायै नमः ।
सर्वोपचारयोग्योऽयं छुरिकामन्त्रः ।
ततस्तु पूजितेषु सर्वायुधेषु तैलपक्वानि नानाविधानि खाद्यानि चान्नानि मांसान्यपि नैवेद्यार्थंप्रकल्पयेत् । ततस्तु सकर्पूरं ताम्बूलं परिकल्पयेत्। ततस्तु रक्ताक्तस्यौदनस्य षट्त्रिंशन्मोदकान्कृत्वा षट्त्रिंशद्विधेभ्य आ(धानामा)युधेभ्यो(धानां) बल्यर्थं पूजितानां पङ्कौपुरस्तान्निधापयेत् । एवं कृते सति राजप्रमुखसर्वयोधकण्ठेषु रक्तकरवीरमाला निधाय भालेषु सिन्दूरं विलेपयेत्। ततस्तूदयोऽस्तु सर्वसैनिकेभ्य इत्युच्चार्य सर्वेऽपि महाशब्दघोषंकुर्युः।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां रणदीक्षाविधानम् ।
—————
अथ वीरविजयप्रदरणकंकणविधानम् ।
तथा हि गोजा207तिमातुलभागिनेयलाङ्गूलबालकृतदोरके मृत्युंजयेन मन्त्रेण ग्रन्थितव्यं ग्रन्थिसप्तकम्। तत्र गन्धपुष्पाद्युपचारान्विधाय तस्य ग्रन्थियुक्तस्य दोरकस्य कंकणं कृत्वा तद्रणकंकणं तत्र सव्यहस्ते बद्ध्वा रणे विजयी भवेत् ।
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां वीरविजयप्रदरणकंकणविधानम् ।
——————
अथ वीरपट्टविधानम् ।
कर्पूरं कुङ्कुमं चैव गोरोचनसमन्वितम् ।
कोकिलाक्षस्य लेखन्या श्वेतवस्त्रे सुशोभने ॥ १ ॥
ॐकारद्वयमध्यस्थं साध्यनाम पटेलिखेत् ।
सगर्भस्थहकारस्थं टकारपरिवेष्टितम् ॥ २ ॥
परिवेष्टितमिति पल्लवितम् ।
पृथ्वीसंपुटमध्यस्थं वज्राष्टकयुतं ततः208 ।
प्रणवाद्यरिनामात्र हुंफडन्तं दिगन्तके ॥३ ॥
मन्त्रमेनं शतं <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16951151815.png"/>209जप्त्वा स पट्टो मूर्ध्नि बध्यते ।
भीरुंनयति वीरत्वं समरे विजयी भवेत् ॥ ४ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां वीरपट्टविधानम् ।
——————
अथ सिन्दूरपट्टविधानम् ।
पूर्वपट्टविधानेन सिन्दूरपटमालिखेत् ।
शुभैर्गङ्गाजलैर्धौतपट्टे सिन्दूरधूसरे ॥ १ ॥
कोकिलाक्षस्य लेखन्या लिखेद्रूपं हनूमतः ।
तस्य देवस्य हृदय इमं मन्त्रं समालिखेत् ॥ २ ॥
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूंह्रैंह्रौं ह्रः ।
मन्त्रस्याक्षरमालायाश्चक्रवालं समालिखेत् ।
तदन्तरालमध्ये तु निजयोधाभिधां लिखेत् ॥ ३ ॥
तस्य गन्धादिकं सर्वं नैवेद्यान्तं विधीयते ।
ततस्तु पट्टमादाय ऋजुं मूर्ध्नि नियोजयेत् ॥ ४ ॥
पट्टं सूत्रेण मूर्धस्थं सप्तवारं च वेष्टयेत् ।
तेन बद्धेन पट्टेन हनुमत्तुल्यविक्रमः ॥
जायते नात्र संदेहः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां सिन्दूरपट्टविधानम् ।
——————
** अथ जयपट्टविधानम् ।**
शुभे वाससि सिद्ध्यर्थं लिखेद्देवं तु भैरवम् ।
त्रिशूलं दक्षिणे हस्ते कपालं वामहस्तके ॥ १ ॥
एवंविधं लिखेद्देवं पूर्वद्रव्यैः प्रयत्नतः ।
त्रिपुरानामबीजानि हृदये तस्य संलिखेत् ॥२ ॥
गन्धपुष्पादिकं कृत्वा पट्टं तन्मूर्ध्नि धारयेत् ।
मूर्ध्नि बद्धेन तेनैव त्रैलोक्यं तु पराजयेत् ॥३ ॥
ॐ ऐं क्रीं210 क्लीं त्रिपुरायै नम इति त्रिपुरानाममन्त्रः ।
इत्येकं जयपट्टविधानम् ।
[ अन्यदाह —]
कन्यारचितसूत्रेण अष्टोत्तरगुणेन च ।
कर्तव्या रज्जुका तत्र दीर्घा च कटिमात्रिका ॥ १ ॥
मृत्युंजयेन मन्त्रेण ग्रन्थीनष्टोत्तरं शतम् ।
ग्रथित्वा मन्त्रमुच्चार्य निविष्टश्चोत्तरामुखः ॥ २ ॥
गूढेन्द्रियचयो भूत्वा रशनां तां विधाय च ।
मृत्युंजयेन मन्त्रेण कट्यां बद्ध्वा जयी भवेत् ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां जयपट्टविधानम् ।
——————
अथ रणप्रवेशविधानम् ।
ब्राह्मणी ( ह्मंच ) कवचं कृत्वा यो योधो रणमाविशेत् ।
प्रभवन्ति न तस्याङ्गे प्रहाराः शत्रुनोदिताः \।\।
चन्दनेन विलिप्ताङ्गःसकर्पूरेण साधुना ॥ १ ॥
साधुनेति शुद्धेन ।
ॐ ब्रां ब्रीं ब्रूंब्रैं ब्रौं ब्रः इति बीजक्रमेण चन्दनलिप्तेषु षडङ्गेषु कुङ्कुमकेसररसेन कोकिलाक्षस्य लेखन्या षड् बीजानि व्यक्तानि संलिखेत् । पुरोधसा गन्धपुष्पादिषोडशोपचारान्कारयित्वा दृढानि च षडङ्गानि कृत्वा रणे प्रवेशं कुर्यात् । एतद्ब्राह्मकवचम् । इति कवचबलम् ।
इति रणप्रवेशविधानम् ।
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अथ षडङ्गन्यासः ।
आनुलोम्येन प्रातिलोभ्येन [ च ] मृत्युंजयमन्त्रं योधषडङ्गेष विन्यसेत् । लिखितस्तु षडङ्गेषु न्यासोऽयं शस्त्रवारणः ।
इति षडङ्गन्यासः ।
अथ षडक्षरमुद्रा ।
घण्टिकारसविन्यस्ता अङ्गुष्ठानामिकातले ।
षडक्षरा महाविद्या ददाति लघुस्तताम् ॥
एतन्मुद्राप्रभावेण सङ्ग्रामे विजयी भवेत् ॥ १ ॥
इति षडक्षरमुद्रा ।
अथ रक्षाविधिः ।
द्रव्यैः पूर्वोदितैरेव भूर्जपत्रे सुशोभने ।
लिखेन्मृत्युंजयं मन्त्रं चक्राकारं विशेषतः ॥१ ॥
तन्मध्ये वीरनाम्नो हि वर्णमालां लिखेत्सुधीः ।
मृत्युंजयेन मन्त्रेण ग्रथितं तच्च नामकम् ॥
रक्षां कृत्वा211कटौ बद्ध्वा सङ्ग्रामे विजयी भवेत् ॥ २ ॥
ॐ212 हौं जूं सः ।
इति रक्षाविधिः ।
अथ खण्डकम् ।
अरण्यपलही (कदली) मूलं पुष्यार्केण तु गृह्यते ।
कन्यारचितसूत्रेण शतघ्नेन तु वेष्टयेत् ॥१ ॥
ग्रन्थयेन्मन्त्रजाप्येन प्रत्येकं च पृथक्पृथक् ।
अष्टोत्तरशतेनैव जायते वीरखण्डकम् ॥२ ॥
ॐ कुमारि अवतर अवतर हरबाणवासिनि त्रिपुरुषप्रथे सर्वायुधं भञ्जय भञ्जय स्वाहा।अंसकस्थेन वस्त्रेण तेनैव वैरिणां दुर्जयो भवति।
स्तम्भयेत्सर्वशस्त्राणि वैरिणां शक्तिसंयुतः ।
जायते नात्र संदेहः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ३ ॥
इति खण्डकम् ।
** —————**
अथौषधयः ।
ईश्वरी ब्रह्मदण्डी च कुमारी वैष्णवी तथा ।
वाराही वज्रिणी चण्डी तथा रुद्रजटाभिधा ॥ १ ॥
लाङ्गली सहदेवी च सोमराजी हनूमती ।
श्वेताऽपराजिता गुञ्जा श्वेता च गिरिकर्णिका ॥ २ ॥
क्षु213द्रिणी शङ्खिनी चैव विडङ्गं शतपुष्पिका ।
खर्जूरी केतकी ताली पूगश्चनारिकेलिका ॥ ३ ॥
अञ्जनः काञ्चनश्चैव चम्पकोऽश्मन्तकः कुहा ।
अपामार्गौ च भृङ्गौ च ब्रह्मवृक्षो वटस्तथा ॥ ४ ॥
अपामार्गौ भृङ्गौ चेति द्वयोर्द्विवचनेनद्वौ द्वौ विधत्ते । लोहितश्वेतभेदादपामार्गभृङ्गराजौ द्वौ द्वौ स्तः ।
शतमूली बलायुग्मं गोजिह्वोत्पलशारिवा ।
अष्टलोहरसा वज्री हरिद्रा तालकं शिला (वा) ॥ ५ ॥
एताश्चौषधयो दिव्या जयार्थं संप्रकीर्तिताः ।
सूर्येन्दुग्रहणे प्राप्ते दीपोत्सवदिनत्रये ॥६ ॥
पुष्यमूलार्कसंयोग आश्विने नवमीदिने ।
खादिरेण तु कीलेन प्रोद्धरेत्ता महौषधीः ॥ ७ ॥
बलिपूजाविधानेन सर्वकर्मसु सिद्धिदाः ।
सर्वावर्तकटीकण्ठशिरोबाहुषु संस्थिताः ॥
त्रिदशैरप्यवध्योऽसौ युद्धे चैव चतुर्विधे ॥ ८ ॥
इत्योषधयः ।
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** अथ सर्वायुधनिवारणम् ।**
चण्डी चक्री च वज्री च त्रिशूली मुद्गरी तथा ।
देहस्थाः समरे पुंसां स214र्वायुधनिवारकाः ॥ १ ॥
गृहीतं च सुनक्षत्रे ह्यपामार्गस्य मूलकम् ।
लेपमन्त्रेण वीराणां सर्वशस्त्रनिवारणम् ॥ २ ॥
दक्षबाहुस्थितश्चार्कोवामे चेन्दुर्धृतो यदि ।
शस्त्रप्रहारनिर्भिन्नः सङ्ग्रामे विजयी भवेत् ॥३ ॥
त्रिलोहवेष्टितं कृत्वा रसं वज्राभिसंयुतम् ।
चक्रस्थं च करस्थं च सर्वायुधनिवारणम् ॥४ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां सर्वायुधनिवारणम् ।
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अथ रणतिलकविधानम् ।
गिरिकर्णीं शमींगुञ्जां श्वेतवर्णां समाहरेत् ।
चन्दनेनान्वितानां च तिलकाद्विजयी भवेत् ॥ १ ॥
अधःपुष्पी शिखा चैव श्वेता च गिरिकर्णिका ।
गोरोचनसमायुक्ता तिलकः शत्रुमोह215कः ॥ २ ॥
कनकास्त्रनटो (भ्रनटी) वह्निः षड्विन्दुः पञ्चमस्तथा ।
तेषां तु तिलको यस्य पञ्चधा दृश्यते हि सः ॥ ३ ॥
कृष्णकाककपालं तु चितामृत्तिकयाऽन्वितम् ।
श्वेतगुञ्जां वपेत्तत्र तस्या मूलं समाहरेत् ॥ ४ ॥
भालस्थं तिलकं कृत्वा तस्य मूलस्य बुद्धिमान् ।
सङ्ग्रामे युध्यमानस्य रूपं तु बहुधा भवेत् ॥ ५ ॥
श्वगणैर्भक्ष्यमाणं च पलं चान्नं पतत्यधः ।
छाया यस्य जले याति समूलः कासमर्दनः ॥ ६ ॥
तिलकस्तस्य सर्वस्य यस्य भाले विराजते ।
स यत्र भुवि तिष्ठेत्तु तत्र वाऽपि जलान्वितान् ॥
पश्येद्वैरिगणः सर्वो व्याघ्रसिंहकांस्तथा ॥ ७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां रणतिलकविधानम् ।
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अथ नवौषधयः ।
ब्रह्मदण्डी च कौमारी ईश्वरी वैष्णवी तथा ।
वाराही वज्रिणी चण्डी महालक्ष्मीस्तथैव च ॥ १॥
एताश्चौषधयो दिव्या नवैता मातरः स्मृताः ।
कृत्वा तन्मालिकां हस्ते बद्ध्वा तु विजयी भवेत् ॥ २ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां नवौषधयः ।
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अथ गुटिकाविधानम् ।
वङ्गं सीसं च शुक्लाभ्रं हेमतारसमन्वितम् ।
वज्रायसादिभिर्युक्तः क्रियते पारदो रसः ॥१ ॥
वज्राणां द्रावणं वक्ष्ये पारदस्य च बन्धनम् ।
लघुद्रावं तथा लोहे संयोगार्थं परस्परम् ॥२ ॥
अस्थिशृङ्खलमध्यस्थं कृत्वा वज्रनिरुद्धकम् ।
जलभाण्डे विनिक्षिप्य स्वेदयेद्दिनसप्तकम् ॥ ३ ॥
वङ्गिकारससंघृष्टं नष्टपिष्टं च पारदम् ।
डे216ट्रकाकन्दमध्यस्थं धनार्थं च ततः पुटे ॥४ ॥
रेचितं लोहचूर्णं तु टङ्कणेन तु भावयेत् ।
लघुद्रावा भवेदेषा यवमात्रा न संशयः ॥५ ॥
सर्वांस्तानेकतः कृत्वा मुखमध्यस्थिता भवेत् ।
गुटिका जायते रम्या ताम्रा वज्रार्कसुन्दरी ॥६ ॥
मुखस्था सिद्धिदा प्रोक्ता राजमृत्युर्विनश्यति ।
सङ्ग्रामे विजयी वीरो वज्रदेहो भवेन्नरः ॥ ७ ॥
सर्वलोकप्रियो नित्यं नारीणां सुतरां तथा ।
गुटिकेयं मया ख्याता यथोक्ता ब्रह्मयामले ॥ ८ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तं गुटिकाविधानम् ।
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अथ कपर्दिकाविधानम् ।
सिंही व्याघ्री मृगी हंसी चतुर्थै (र्धै)व कपर्दिका ।
एतासां लक्षणं वक्ष्ये प्रभावं च यथाक्रमम् ॥ १ ॥
सिंही सुवर्णवर्णा च व्याघ्री धूम्रा रसेषिका ।
मृगी तत्र च विज्ञेयापीतपृष्ठा सितोदरी ॥ २ ॥
हंसी जलत(च)रा श्वेता वर्तुला नातिदीर्घिका ।
एवं विशेषं विज्ञाय ततः कर्म समारभेत् ॥३ ॥
ओषधी सिंहिका नाम तयाघृष्टो महारसः ।
सिंहीकपर्दिकामध्ये क्षिप्त्वा तं मूलसंयुतम् ॥ ४ ॥
वि(पि)धाय वदनं तस्याः सिक्तेन च समन्ततः ।
तस्यां वक्त्रस्थितायां तु सिंहवज्जायते नरः ॥५ ॥
मदोन्मत्ता गजास्तस्य दर्शनेन पराङ्मुखाः ।
रणे राजकुले द्यूते विवादे वाऽपराजितः ॥६ ॥
व्याघ्रीरसेन संघृष्टः पारदो मूलसंयुतः ।
पूर्ववत्साधयेद् व्याघ्रीं फलं चैव तथाविधम् ॥ ७ ॥
मृगमूत्रेण संभिन्ना मृत्तिका रससंयुता ।
मृगधिष्ण्ये क्षिपेन्मृग्यां तस्याः फलमतः शृणु ॥८ ॥
मुखमध्यकृता सा तु वशं कुर्याच्च मानवम् ।
रतिकाले मुखस्था याऽवलाप्राणहरा भवेत् ॥ ९ ॥
हंसपदीरसाघृष्टः पारदो मूलसंयुतः ।
हंसीमध्ये क्षिपेद्धीमान्मुखस्था सर्वसिद्धिदा ॥१० ॥
ग्रहाःपीडां न कुर्वन्ति दुरितं नश्यति क्षणात् ।
स्थावरं जङ्गमं वाऽपि विषं नश्यति तत्क्षणात् ॥ ११ ॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तकपर्दिकाविधानम् ।
——————
अथ योगघटितशस्त्रपरप्रक्षिप्तशस्त्रत्रोटनविधानम् ।
कृत्तिका च विशाखा च भौमवारेण संयुता ।
तद्दिने घटितं शस्त्रं सङ्ग्रामे जयदं भवेत् ॥ १॥
विद्युत्पातमृतास्थीनि पेषयेत्करकाम्बुना ।
अनेन विलिखेत्तार्क्ष्य संनाहे फलकेऽपि वा ॥ २ ॥
तत्र217लग्नानि शस्त्राणि त्रुटन्ति च नमन्ति च ।
न भिन्दन्ति शरीराणि पुष्पाणि च मृदूनि च ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तं योगघटितशस्त्रपरप्रक्षिप्तशस्त्रत्रोटनविधानम् ।
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अथ शस्त्रदारुणीकरणविधानम् ।
कृष्णसर्पशिरो ह्यष्टौ विषं पञ्च पलानि च ।
चुच्छुन्दरीवसाऽष्टौ च तथा च गृहगोधिका ॥ १ ॥
कृष्णस्य वृश्चिकस्याष्टौ कपेश्चैव पलाष्टकम् ।
द्वे पले हरितालस्य कृकलासवसापलम् ॥ २॥
लाङ्गलीकरवीराणां त्रीणि त्रीणि पलानि च ।
एतेषां शोधितं कल्कं भल्लातकसमन्वितम् ॥ ३ ॥
सर्वेषां चैव शस्त्राणां लेपोऽयं समुदाहृतः ।
विद्धास्तु तैर्मनुष्याश्चत्यजन्ति जीवितं ध्रुवम् ॥ ४ ॥
रक्तकञ्चुकिका नारी रक्तप्रावरणा तु या ।
पत्या तु सहिता नारी पर्वतानपि शा218तयेत् ॥ ५ ॥
गृहीता मक्षिका नीली षड्विन्दुकीटकान्विता ।
शस्त्रलेपेन सद्यो वै जायन्ते कीटका व्रणे ॥ ६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शस्त्रदारुणीकरणविधानम् ।
———————
अथ पिच्छविधानम् ।
षट्त्रिंशत्या धनुष्षष्ट्या शतेनाष्टोत्तरेण वा ।
मयूरोलूकपक्षाणां तन्मात्रं पथि पिच्छकम् ॥ १ ॥
ग्रहणे मुक्तिपर्यन्तं रक्तसूत्रेण बन्धनम् ।
इष्टमन्त्राभिजप्तं तद्वैरिसैन्यनिवारणम् ॥२ ॥
सविसर्गमुपात्तेन गच्छ गच्छ परं ध्रुवम् ।
सर्वत्र स्थानगो वीरः स्वसैन्यविजयावहः ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तं पिच्छविधानम् \।
——————
अथ त्र्यम्बकविधानम् ।
लाङ्गली ब्रह्मदण्डी च कृष्णोन्मत्तरसान्विता ।
मार्जयेत्ताम्रकं वर्म पश्चाद्यन्त्रं समालिखेत् ॥ १ ॥
काकरक्तं तथा विष्ठा चिताङ्गारहलाहलम् ।
काकपिच्छस्य लेखन्या लिखेद्यन्त्रं यमालयम् ॥ २ ॥
मध्ये बीजस्य मध्यस्थं शत्रुनाम ससैन्यकम् ।
बाह्येन वायुबीजेन वेष्टयोस्त्रिगुणं पुनः ॥ ३ ॥
वायुमण्डलगं कृत्वा वायुबीजेन रक्तिकाम् ।
द्वादशस्वरसंयुक्तां वेष्टये219त्सर्वमार्गतः ॥४ ॥
त्र्यम्बकस्य निनादेन व्याकुलीकृतमानसाः ।
बलं त्यक्त्वा महावीराः पलायन्ते महारणात् ॥ ५ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां त्र्यम्बकविधानम् ।
———————
** अथ जयकाहलाविधानम् ।**
त्रपु हेमाऽऽयसं रौप्यं समभागं तु कारयेत् ।
चतुर्णोपलमेकं च ताम्रमर्कघ्नमुत्तमम् ॥ १ ॥
पञ्चानामपि तेषां च कारयेज्जयकाहलाम् ।
काकजङ्घारसैर्लिप्तां सप्तवारं तु कारयेत् ॥
तस्या नादेन घोरेण पलायन्ते रिपुव्रजाः ॥ २॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां जयकाहलाविधानम् ।
———————
अथाऽऽनद्धभाजनविधानम् ।
पू220र्ववत्तु प्रकारेण लोहैःपञ्चभिरुत्तमैः ।
भागकल्पनया कुर्याड्ढक्कांलक्षणसंयुताम् ॥१ ॥
संनद्धां चर्मणा सम्यक्सूत्ररज्जुसमावृताम् ।
वृषस्य रक्तवर्णस्य चर्म निर्लोम कारयेत् ॥ २ ॥
चर्मणाऽनेन संनह्य ढक्कां तां सुमनोहराम् ।
तुम्बेन चित्रिका दण्डी कृष्णोन्मत्तरसान्विता ॥ ३ ॥
मार्जयेद्विततं सर्वंसप्तवारं पुटद्वये।
दण्डी च चित्रिका दन्ती लज्जालुरससंयुता ॥ ४ ॥
मुखं विमर्दयेत्तेन जायते वाद्यभाजनम् ।
ब्राह्मी जाती कुमारी च विद्युद्भस्मौदनान्विता ॥
इष्टमन्त्राभिजप्तं तज्जयार्थे वाद्यभाजनम् ॥ ५ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामानद्धभाजनविधानम् ।
——————————
अथ भस्मरेषाविधानम् ।
अग्निहोत्रश्मशानान्त्यजातिगेहसमुद्भवम् ।
भस्मत्रितयमादाय कर्तव्यं भस्मकुट्टनम् ॥ १ ॥
इन्द्रवृक्षमयं कार्यंमुसलोलूखलं दृढम् ।
कारयेद्भूमिमध्यस्थं द्वारहीने तु सद्मनि ॥ २ ॥
भस्मनस्त्रिविधस्यापि कुर्यात्ताभ्यां च कण्डनम् ।
चतुर्वर्णोद्भवाः कन्याश्चतुष्षष्टिप्रमाणतः ॥३ ॥
तासु सर्वासु कन्यासु चतुर्विंशतिकन्यकाः ।
ताश्चरासादिगीतेन सह मन्त्रं तु गापयेत् ॥ ४ ॥
मन्त्रमाह —
का221लबुक्कसुचुडंउत्रउच्यविनुच्छुभा ।गुललिकरंतउबीजाटहिम् । किपिछटहिंभद्रसजउपनीतिमालामन्त्रं गापयेत् ।
तेन मन्त्रेणोच्चारितेन सह भस्मवन्दनं कुर्यात् । ( <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16951496505.png"/>222शेषाश्च कुमारिकाः करतालिकानिनादेन नर्तनं कुर्युः।)
एवं तत्त्रिविधं भस्म तस्मात्सिद्धिर्भविष्यति ।
स्वसैन्यस्याग्रतस्तस्य भस्मनो रेखां कृतां नोल्लङ्घयन्ति वैरिणः ।
क्षेपिते च रिपोः सैन्यं भङ्गमाप्नोति तत्क्षणात् ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तंभस्मरेषाविधानम् ।
————————
अथ रिपुमारणोपयोगियमार्गलयन्त्रविधानम् ।
मारणे मोहने स्तम्भे विद्वेष्युच्चाटने वशे ।
एकं यमार्गलं यन्त्रं भेदैश्च बहुभिर्युतम् ॥ १ ॥
द्वादशारं लिखेच्चक्रं वृत्तत्रयविभूषितम् ।
उष्ट्रीमन्त्रं लिखेद्बाह्ये यमश्लोकं तु मध्यतः ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं ष्ट्रीं विकृतदंष्ट्रानने[^222] हुंफट् स्वाहा ।इममुष्ट्रीमन्त्रं दश सहस्राणि जपेत् । घृतमधुना रक्तपुष्पैः सहस्रमेकं हावयेत्। ततः सिद्धो भवति ।
यमराजसहोपम्ये यमे दारुणयोदयः ।
यदयो निरयाख्येयो यख्येयो वानरामयः (?) ॥ ३ ॥
इति मन्त्रश्लोकः ।
इमं मन्त्रश्लोकं द्वात्रिंशदक्षरसंख्याकं द्वात्रिंशत्सहस्राणि जपेत् । तथा च पूर्वविधानेन सप्त शतानि हावयेत् । एवं यन्त्रः सिद्धो भवति ।
मनईप्सितकर्माणि फलदानि करोति च ।
चिताङ्गा223रंविषंरक्तं कृष्णोन्मत्तर224सस्तथा ॥ ४ ॥
एवं नरास्थिलेखन्या यन्त्रं प्रेतपटेलिखेत् ।
साध्यनाम च तन्मध्ये हुं फ225डन्तं विशेषतः ॥ ५॥
यमं कु226र्वीतचेतस्थं महिषासनसंस्थितम् ।
कृष्णाष्टम्यां चतुर्दश्यां गन्तव्यं पितृमन्दिरम् ॥ ६ ॥
नग्नो मुक्तशिखो भूत्वा मद्यमांसैस्तथाऽर्चयेत् ।
क्षिप्तोच्छिष्टशवस्याङ्गं कृष्णसूत्रेण वेष्टयेत् ॥
श्मशानभूमिमध्यस्थं सप्ताहान्मारयेद्रिपुम् ॥ ७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तं रिपुमारणोपयोगियमार्गलयन्त्रविधानम् ।
——————
अथ रिपुस्तम्भनविधानम् ।
रोचना कुङ्कुमं चन्द्रः कृष्णोन्मत्तरसस्तथा ।
लाक्षारसेन संयुक्तं जम्बीररससंयुतम् ॥ १ ॥
रोहिषोद्भवलेखन्या भूर्जपत्रे विलेखयेत् ।
यन्त्रं षट्कोणकं विद्वान्साध्यनाम्ना च गर्भितम् ॥ २ ॥
बाह्ये चोकारपरिधिं षट्सु कोणेषु संलिखेत् ।
वह्निमण्डल227गं कृत्वा रक्तसूत्रेण वेष्टयेत् ॥३ ॥
सिच्छकेनाऽऽवृतं कृत्वा म228ध्यकुम्भे विनिक्षिपेत् ।
पूजयेद्रक्तपुष्पैस्तु चन्दनेनानुलेपयेत् ॥४ ॥
रोहिषोद्भवलेखन्येति पुरोक्तम् । रोहिषस्तृणविशेषः । देशान्तरप्रमाणेन नाना नामानि भजते । वह्निमण्डलगं कृत्वेति त्रिरेषामण्डलमध्यगमिति ।सिच्छकेनाऽऽवृतमिति सिच्छकं पट्टसूत्रमित्यभिधानार्णवेऽस्ति तेन वेष्टितमिति ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां रिपुस्तम्भनविधानम् ।
———————
अथ वैरिविद्वेषणविधानम् ।
निम्बाक्षचित्रकैस्तुल्यैर्महिषरुधिरान्वितैः ।
प्रेतवस्त्रेऽर्कलेखन्या लिखेद्यन्त्रमिदं वरम् ॥
रञ्जकाम्बरसंयुक्तं महिषस्योरसि कुर्यात् ॥ १ ॥
कुर्यादित्यस्यार्थस्तदम्बरं निबध्यते तद्वक्षसि। रञ्जकाम्बरमिति गैरिकगन्धकुङ्कुममषीभृङ्गराजरसैः परिलिप्तम् । तस्मिन्वाससि साध्यनामाक्षरावलिं
संलिख्य महिषस्योरसि निबध्य तं महिषं राजिकाभिस्ताडयेत् । एवं सप्तदिनं कार्यं चेदम् । तत्र मन्त्रस्ताडनविधौ —
गच्छ गच्छ महापाप यमराजस्य वाहन ।
विद्वेषं कारयेः शत्रूञ्छीघ्रं भव शिवो मयि ॥ २ ॥ इति ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां वैरिविद्वेषणविधानम् ।
——————
अथ मोहनविधानम् ।
शिला तालं हरिद्रा च मेषसूत्रेण कल्पिता ।
कोकिलाक्षस्य लेखन्या नीलीरक्तपदेलिखेत् ॥ १ ॥
साध्यनामयुतं मध्ये रञ्जकाम्बरवेष्टितम् ।
पर्वताकारयन्त्रं च शिलातलनिवेशितम् ॥ २ ॥
पूजयेत्पीतपुष्पैश्च कुम्भकेन च वायुना ।
वायुना कुम्भयेद्देहं स्वकीयं प्रणवाष्टकम् ॥
ततस्तु जायते नूनं सप्ताहान्मोहनं रिपोः ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तं मोहनविधानम् ।
———————
अथ संकीर्णविधानानि ।
तत्र चतुस्त्रिंशद्यन्त्रसहितं स्त्रीसुखप्रसवविधानम् ।
यदा प्रसवकाले स्त्री प्रसवे क्लिश्यते भृशम् ।
चतुस्त्रिंशत्समाख्यं तु कोष्ठमानं समालिखेत् ॥ १ ॥
न्युब्जमाने समालिख्य विवर्णाङ्गारवर्णकैः।
अङ्कैर्व्यक्ततरैर्धीमानर्चयेद्गन्धपुष्पकैः ॥ २ ॥
विन्यसेन्मञ्चकस्याधो गर्भिण्याःक्लेशमुक्तये ।
सद्यः प्रसूतिमाप्नोति गर्भिणी नात्र संशयः ॥ ३ ॥
तत्र भेषजं च —
अपामार्गस्य मूलं हि पाठामूलेन संयुतम् ।
आरनालेन संपिष्यपाययेत्त्वरितं सुधीः ॥
योनेः प्रलेपनं कुर्यात्तेन सद्यः प्रसूयते ॥ ४ ॥
चतुस्त्रिंशद्यन्त्रम्
| ९ | १६ | २ | ७ |
| ६ | ३ | १३ | १२ |
| १५ | १० | ८ | १ |
| ४ | ५ | ११ | १४ |
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भैरवयन्त्रप्रगाथोक्तं चतुस्त्रिंशद्यन्त्रसहितं स्त्रीसुखप्रसवविधानम् ।
——————
अथ क्षेत्रशलभकीटकनिवारणं चतुर्विंशतियन्त्रविधानम् ।
ताडपत्रे समालिख्य चतुर्विंशत्प्रमाणकम् ।
कज्जलेन तु लेखन्या पूर्ववत्पूजयेत्सुधीः ॥ १ ॥
एरण्डकाष्ठनिर्बद्धं सूत्ररज्ज्वाऽवलम्बितम् ।
क्षेत्रस्य कोणदेशेषु चतुर्ष्वपि समाहितम् ॥२ ॥
चतुर्धा विहितं सम्यक्पूजयित्वा प्रयत्नतः ।
शलभान्कीटकान्सर्वान्विनाशयति तत्क्षणात् ॥ ३ ॥
चतुर्विंशतियन्त्रम् ।
| ४ | ११ | २ | ७ |
| ६ | ३ | ८ | ७ |
| १० | ५ | ८ | १ |
| ४ | ५ | ६ | ९ |
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भैरवयन्त्रप्रगाथोक्तं क्षेत्रशलभकीटकनिवारणं चतुर्विंशतियन्त्रविधानम् ॥
———————
अथ च्छुरिकायुद्धविजयप्रदं द्विषष्टियन्त्रविधानम् ।
द्विषष्टिसंज्ञकं यन्त्रं भूर्जपत्रे समालिखेत् ।
कस्तूरी घनसारश्च तथा कुङ्कुमकेसरम् ॥ १ ॥
मिश्रितं कारयेत्सर्वं तेन यन्त्रं समालिखेत् ।
पूर्ववत्पूजयेद्विद्वांस्तद्बद्ध्वा दक्षिणे करे ॥
छुरिकाद्वन्द्वयुद्धानि जयेदुग्रो न संशयः ॥ २ ॥
द्विषष्टियन्त्रम् ।
| २३ | ३० | २ | ७ |
| ६ | ३ | २७ | २६ |
| २९ | २४ | ८ | १ |
| ४ | ५ | २५ | २८ |
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भैरवानन्दप्रगाथोक्तं छुरिकायुद्धविजयप्रदं द्विषष्टियन्त्रविधानम्।
———————
अथ ग्रहभूतपिशाचनिवारणं शतयन्त्रविधानम् ।
लिखितं घनसाराद्यैः सिद्धिदं भूर्जपत्रके ।
द्वारदेशे धृतं सम्यग्ग्रहभूतादिवारणम् ॥ १ ॥
शतयन्त्रम् ।
प्रकारान्तरेण शतयन्त्रम् ।
| ४२ | ४९ | २ | ७ |
| ६ | ३ | ४६ | ४५ |
| ४८ | ४३ | ८ | १ |
| ४ | ५ | ४४ | ४७ |
| ८ | १ | ४८ | ४३ |
| ४४ | ४७ | ४ | ५ |
| २ | ७ | ४२ | ४९ |
| ४६ | ४५ | ६ | ३ |
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भैरवानन्दप्रगाथोक्तग्रहभूतपिशाचनिवारणं शतयन्त्रविधानम्।
——————
अथापुष्पापुष्पप्राप्तिकारकं द्वात्रिंशद्यन्त्रविधानम् ।
अपुष्पा ललना चेत्स्यात्तस्या हस्ते प्रबध्यते ।
द्वात्रिंशत्संख्यकं नाम यन्त्रं भैरवमन्त्रितम् ॥१ ॥
लिखितं घनसाराद्यैर्भूर्जपत्रे सुलक्षणे ।
संस्कृतं गन्धपुष्पाद्यैस्तदा पुष्पं भवेत्स्त्रियाः ॥ २ ॥
द्वात्रिंशद्यन्त्रम् ।
| ८ | १५ | २ | ७ |
| ६ | ३ | १२ | ११ |
| १४ | ९ | ८ | १ |
| ४ | ५ | १० | १३ |
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भैरवानन्दप्रगाथोक्तमपुष्पापुष्पप्राप्तिकारकं द्वात्रिंशद्यन्त्रविधानम् ।
अथाथर्वविद्योक्तमासुरीविधानम् ।
उच्चाटनं स्तम्भनं च वशीकरणमोच(ह)नम् ।
जारणं मारणं चैव ष229ड्धाप्रोक्तं मनीषिभिः ॥ १ ॥
तत्र विधानक्रमः—
आदावासुरीमूलम230न्त्रः । ॐ कटुके कटुकपत्रे सुभगे आसुरि रक्ते रक्तवाससे आथर्वणस्य दुहितरघोरे अघोरकर्मकारके अमुकस्य गतिं दह दह साध्य उपविष्टाय गुदं दह दह सुप्ताय मनो दह दह प्रबुद्धाय हृदयं दह दह हन हन दह दह पच पच हन तावद्दह तावत्पच यावन्मे वशमायाति स्वाहा । इति मूलमन्त्रः ।
अथ षडङ्गन्यासः—
ॐ कटुके कटुकपत्रेहुं फट् स्वाहा हृदयाय नमः । ॐ सुभगे आसुरि हुँ फट् स्वाहा शिरसे स्वाहा । ॐ रक्ते रक्तवाससे हुं फट् स्वाहा शिखायै वषट् । ॐ आथर्वणस्य दुहितर्हुंफट् स्वाहा कवचाय हुम्। ॐ अघोरे अघोरकर्मकारके हुं फट् स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ हुं हुं फट् स्वाहा अस्त्राय फट् । इति षडङ्गन्यासः।
अथ द्वितीयं वर्णयति वशीकरणम् ।
राजिकासूक्ष्मचूर्णं कृत्वा तदेव घृताक्तं कुर्यात् । ततः साध्यमूर्तिस्तेनैव चूर्णेन कार्या । आत्मनः पुरतः सा कस्मिंश्चिद्भाजनेपरिसंस्थापनीया ।पश्चात्सप्तवारं तस्यां मूर्तौप्राणप्रतिष्ठांकुर्याद्वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण ।ॐ +231 अस्याऽऽसुरीमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुःसामाथ232र्वच्छदांसि प्राणात्मशक्तिर्देवता आं बीजं क्रौं शक्तिःह्रींहृदयं पञ्चबाणस्तत्त्वमसुककार्यार्थे जपे विनियोगः । ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वंशं षं सं233 हं सःअमुकस्य प्राणा इह प्राणाः। अमुकस्य जीव इह स्थितो जीवः। अमुकस्य सर्वेद्रियाणि इहेन्द्रियाणि यान्तु। इहैवाऽऽगत्य सुखं चिरं तिष्ठन्सु स्वाहा । अयं प्राणप्रतिष्ठामन्त्रो भाजनस्थापितायां साध्यमूर्तौकर्त्रा दक्षिणकरेण कलाप्यासे योजनीयः। ततोऽर्ककाष्ठैरग्निं प्रज्वाल्य स्थालीपाकन्यायेनाग्निमुखंकृत्वा पश्चाद्भाजनस्थितायाःसाध्यमूर्तेर्ललाटदेशे तस्या एव नामाक्षराणि लिखेत् । ततः पादादारभ्य शस्त्रेण [सा] छेत्तव्या । अष्टोत्तरशतं कृत्वा तत-
स्तावत्संख्यया हवनं कुर्यान्मूलमन्त्रेण । नारी वा पुरुषो वा वशो भवति । आसुरीपुष्पाणि मनःशिला प्रियङ्गुश्चन्दनं नागकेसरम् । एतेषां चूर्णं यस्य मूर्ध्नि क्षिप्तं स वशो भवति । आसुरीपुष्पाणि सौवीराञ्जनचूर्णमष्टोत्तरशतवारं मन्त्रितम्। तेनाऽऽत्मनेत्रे अभ्यज्यावलोक्यते यत्तद्वशमियात् । आसुरीसर्षपतैलेन होमं कारयेत् । दक्षिणाभिमुखः सप्त दिनानि हवनं कारयेदष्टोत्तरशतवारम् । प्रत्यहमेकैकस्याः कुमार्या भोजनं पूजनमेकैकस्य ब्राह्मणस्य पूजनं भोजनं च । आलोहिते वस्त्र आसुरीमूर्तिपूजनम् । आसुरीमूर्तिः सप्तमाषाणां सौवर्णानामशक्तौ सप्तवल्लानाम् । आचार्यपूजनम् । दक्षिणार्थं त्रिहायणो रक्तवर्णो दृषः ।
किं कुर्याज्जननी स्नेहात्किंकुर्यान्नृपतिर्भुवः ।
किं कुर्यात्कुपितः कालो ह्यासुरी वशगा यदि ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामासुरीविधानम् ।
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अथ प्रदोषगर्जितविधानम् ।
ब्रह्मौदनविधेः पूर्वं प्रदोषे गर्जितं भवेत् ।
तदा विघ्नकरं ज्ञेयं वटोरध्ययनस्य तत् ॥ १ ॥
तस्य शान्तिविधानं शास्त्रानुसारतः ।
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु हवनं कारयेद्बुधः ॥ २ ॥
प्रधानं पायसं तत्र साज्यं साष्टशतं यजिः ।
सूक्तं बृहस्पतेर्विद्वान्पठेत्प्रज्ञाविवृद्धये ॥ ३ ॥
गायत्रीयं जपेन्मन्त्रं प्रायश्चित्तं तु सर्पिषा ।
धेनुं सवत्सकां दद्यादाचार्याय पयस्विनीम् ॥ ४ ॥
शीलान्होमविधेः पश्चाद्ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ।
शतमष्टोत्तरं धीमांस्ततो ब्रह्मौदनं पचेत् ॥ ५ ॥
इति श्रीगङ्गाधरपद्धतौ गङ्गाधरोक्तं व्रतबन्धकालप्रदोषगर्जितविधानम् ।
अथालक्षण्यालक्षणी(ण्यी)करणविधानम् ।
तत्र याज्ञवल्क्यः—
अविप्लुतब्रह्मचर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत् ।
अनन्यपूर्विकां कान्तामसपिण्डां यवीयसीम् ॥ १ ॥
अलक्षण्या वधूरेवं रूपेणाऽप्रतिमा यदि ।
विधानं विधिवत्कृत्वा ततो ह्युपनयेद्धि ताम् ॥ २ ॥
ततः परीक्षा तस्यास्तु कर्तव्या सुपरीक्षकैः ।
श्मशानमृत्तिकामेकामेकां राजाङ्गणाद्धरेत् ॥ ३ ॥
अष्टसौभाग्यनिचयं त्रिषु त्रीणि नियोजयेत् ।
सर्वतोभद्रमा234दाय तण्डुलानां यथाविधि ॥ ४ ॥
लोकपालान्समभ्यर्च्य गणाधीश्वरपूर्वकम् ।
तस्मान्मण्डलतः पूर्वे न्यसेत्ते मृत्तिके समे ॥ ५ ॥
सौभाग्यनिचयं चापि समभ्यर्च्य तु तामपि ।
उपविश्य कुमारीं तां प्राङ्मुखं सुसमाहिताम् ॥ ६ ॥
पुष्पमालावृताङ्गीं च सालंकारां ससाक्षताम् ।
श्रीसूक्तेनाभिषिच्याऽऽशु कुमारीं तां परीक्षयेत् ॥ ७ ॥
आबध्य लोचने तस्या वस्त्रेण शुचिना ततः ।
विन्यसेद्दक्षिणं पाणिं कस्मिंश्चिदपि सा वधूः ॥ ८ ॥
न्यस्तहस्ता यदा कन्या सौभाग्यनिचये तदा ।
सौभाग्यं लभते कन्या भर्तुरायुष्यसूचिका ॥ ९ ॥
राजाङ्ग235णमृदि न्यस्तकरा यदि कुमारिका ।
पौंश्चल्यकारिणी ज्ञेया नात्र कार्या विचारणा ॥ १० ॥
चिताभस्मनि चेत्पाणिं निदधाति कुमारिका ।
तदा वैधव्यमानोति मुनीनां मतमीदृशम् ॥ ११ ॥
विलक्षणं यदि प्राप्तं कुमार्याः किल दृश्यते ।
कृष्णजिह्वा कृष्णतालुः स्थूलोरूश्च स236रोमका ॥ १२ ॥
कृष्णौष्टी पिङ्गनयना संहतभ्रूलता शुभा ।
हस्तकेशी श्मश्रुमुखी वृत्तभाला स्वरे खरा ॥ १३ ॥
वर्जनीया प्रयत्नेन संयुक्ता या विलक्षणैः ।
अलक्षण्येति सा नारी वर्जिता मुनिसत्तमैः ॥ १४ ॥
साऽपि चेत्करणीया स्याद्विधानं विधिना बुधैः ।
अश्वत्थे वा पलाशे वा न्यग्रोधे वा शमीतरौ ॥ १५ ॥
विधानमेतत्कर्तव्यं गङ्गायां च शिलात237ले ।
विवाहो विधिवत्तत्र क्रियते मण्डपक्रिया ॥
शिलायां मूर्तिमालिख्य हरितालेन पौरुषीम् ॥ १६ ॥
तथा च गरुडपुराणे—
स238मालक्षणपीडायां त्वपि विश्रुतमध्रुवम् ।
इत्युच्चार्य शिलापृष्ठे पुरुषे चाक्षतान्क्षिपेत् ॥१७ ॥
विशीर्णो जायतेऽश्मा तु सप्ताहं नात्र संशयः ।
ततस्तु विधिवत्कार्यं विधानं विधिवत्तमैः ॥ १८ ॥
सौभाग्यमन्त्रमुच्चार्य ह्यक्षतान्कन्यका क्षिपेत् ।
मूर्तिदानं ततो दद्याद्ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ॥ १९ ॥
हाटकस्य पलस्याथ तदर्धार्धस्य वा पुनः ।
एवं कृते विधाने तु विघ्ना नश्यन्ति तत्क्षणात् ॥ २० ॥
लक्षण्या जायते साध्वी सौभाग्यधनपुत्रदा ।
विलक्षणेष्वपि सदा योषितोऽवयवेषु च ॥
लक्षण्या जायते नूनं नात्र कार्या विचारणा ॥ २१ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामलक्षण्यालक्षणी(ण्यी)करणविधानम् ।
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अथ तृतीयभार्यापरिणयनेऽर्कवृक्षविवाहविधानम् ।
यदि च चतुर्थीमपि परिणयति तदा तृतीयापरिणयने वृक्षपरिणयनविधानं नास्ति । तथा च स्कन्दपुराणे**—**
चतुर्थीमपि कुर्यात्तु नोचेत्कुर्याद्विधानकम् ।
विधानमादौ कृत्वा च पश्चात्परिणयेद्वधूम् ॥
तृतीयां विधिवच्छ्रेष्ठां साधुसंततिसिद्धये ॥ १ ॥
तथा च कालिकापुराणे**—**
द्वे भार्येतु मृते पुंसस्तृतीयां कुरुते यदि ।
चतुर्थीमपि कुर्यात्तु नोचेत्कुर्याद्विधानकम् ॥२ ॥
भार्या त्वं भव मे श्रेष्ठा तृतीया सुखसिद्धये ।
साक्षात्संग्रहसिद्ध्यर्थं ममात्र भव शोभना ॥ ३ ॥
इत्युक्त्वा वृक्षोपर्यक्षतानिक्षेपणं कुर्यात् । तत्र स्वस्तिवाचनं हेमदानं वस्त्रदानं च यथाशक्ति कुर्यात् ।
तथा च लिङ्गपुराणे**—**
मृतभार्यो यदा कुर्याद्विधानमिदमुत्तमम् ।
तदाऽर्कया विधातव्यो विवाहो विधिवच्छुभे ॥ ४ ॥
अर्कयेति यदुक्तं तदर्कवृक्षस्य द्विलिङ्ङ्गता विद्यते । अर्कश्चेत्पुंस्त्वेन यदा व्यवह्रियते तदा विशेषोऽस्ति । मन्दारोऽर्कविशेषः । मन्दारादितरो मन्दारसजातीयो वृक्षविशेषोऽर्कशब्देनाभिधीयत इति । अर्कया सह यदाविवाहस्तदाऽर्काया ब्रह्मक्षत्रियविजातीयत्वाभावात्पाणिशरप्रतोदग्रहणासंभवात्तद्रूपावलोकनेनैव विवाहः ।तच्च रूपावलोकनमनिष्टपरिहारार्थमिति । नैव गृभ्णामि त इतिवदर्कां प्रति संवादः । यतोऽर्का सुभगा[त्वा]द्यभाव[व]त्त्वेन प्रतीता वेदेनैवोपाध्यायमुखोच्चारितेनैव प्रेरितः सन्नर्कारूपमवलोकयेत् । अत्रैवार्थे मन्त्रः**—**
आशसनं विशसनमथो अधि विकर्तनम् ।
सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति ॥ इति ।
अस्मात्परत एव गृभ्णामि त इति पाणिग्रहणं कथम् । अयमेक आक्षेपः । अन्योऽपि सत्येनोत्तभित इत्यत आरभ्य ‘इहैव स्तं मा’ इतिपर्यन्तदशवर्गपरिमितोद्वादसूक्ते शुभनिरूपकेऽशुभसंक्रमः कथमिति ।
अत्राऽऽक्षेपद्वयस्यैकमेवोत्तरम् । अर्कविवाहाधिकारिणोऽर्कविवाहानन्तरमेव कन्याविवाहः । यदा त्वर्कविवाहाधिकार्यभावस्तदैनामृचं परित्यज्य विवाहसमये पाठो ब्रह्मयज्ञादौ चापरित्यागः ।यदा शिलावदर्यादिभिर्विवाहस्तदाऽपीयमेव सोहिका पठनीया ।शरप्रतोदे देहवत् । यदि जीवत्पत्नीकस्तृतीयां परिणयति तदा बदरीमातुलिङ्गीदाडिमीधात्रीणां मध्ये कयाचिदेकया सह कर्तव्यं विधानं नत्वर्कयेति निश्चयः ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामर्कवृक्षविवाहविधानम् ।
अथ प्रतिकूलविधानम् ।
तथा च स्मृतिः**—**
कृते वाङ्निश्चये पश्चान्मृत्युर्मर्त्यस्य कस्यचित् ।
तदा तु शान्तिकं कार्य गृह्यसूत्रविधानतः ॥ १ ॥
यदा कृते निश्चये वाङ्मये मङ्गले क्षयदिव्यभौमान्तरिक्षोत्पातस्तदा शान्तिकं गृह्यसूत्रोक्तं कुर्याद्यमं च पूजयेन्मङ्गलार्थे ।
निश्चये जायमाने तु यस्मिन्वंशे क्षयो भवेत् ।
तद्वंशवर्धनार्थं [तु] विधानं शौनकोऽब्रवीत् ॥२ ॥
अथ प्रतिकूलनिर्णयः ।
तत्र गर्गः**—**
कृते वानिश्चये पश्चान्मृत्युर्मर्त्यस्य कस्यचित् ।
त239दा न मङ्गलं कुर्यात्कृते वैधव्यमाप्नुयात् ॥ ३ ॥
मेधातिथौ**—**
वधूवरार्थेघटिते सुनि240श्चये वरस्य गेहे त्वथ कन्यकायाः ।
मृतिर्यदि स्यान्मनुजस्य कस्यचित्तदा न कार्यं खलु जातु मङ्गलम् ॥ ४ ॥
स्मृतिचन्द्रिकायाम्**—**
कृते वाङ्निश्चये पश्चान्मृत्युर्मर्त्यस्य गोत्रिणः ।
तदा न मङ्गलं कार्यं नारीवैधव्यदं यतः ॥ ५ ॥
भृगुसंहितायाम्**—**
वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः ।
तदोद्वाहो नैव कार्यः स्वपक्षक्षयदो यतः ॥ ६ ॥
बृद्धशौनकः**—**
वरवध्वोः पिता माता पितृव्यश्च सहोदरः ।
एतेषां प्रतिकूलं चेन्महाविघ्नप्रदं हि तत् ॥ ७ ॥
वाग्दानानन्तरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः ।
तदा संवत्सरादूर्ध्वं विवाहः शुभदो भवेत् ॥ ८ ॥
स्मृतिरत्नावल्याम्**—**
पितुरब्दमिहाऽऽशौचं षण्मासं मातुरेव च ।
मासत्रयं च भार्यायास्तदर्धं स्वसू(भ्रातृ)पुत्रयोः ॥ ९ ॥
अन्येषां तु सपिण्डानामाशौचं माससंमितम् ।
तदन्ते शान्तिकं कृत्वा ततो लग्नं विधीयते ॥ १० ॥
ज्योतिष्प्रकाशे**—**
प्रतिकूलेऽपि कर्तव्यो विवाहो मासमन्तरा ।
शान्तिं विधाय गां दत्त्वा वाग्दानादि चरेत्पुनः ॥ ११ ॥
स्मृत्यन्तरे**—**
दंपत्योः पितरौ भ्राता सापत्नश्च सहोदरः ।
पितृव्यस्तादृशश्चैव पितामह(हः) पितामही ॥ १२ ॥
कृते वा निश्चये पश्चान्मृतो भवति मानवः ।
एषां मध्ये तु यः कश्चित्प्रतिकूलंतदुच्यते ॥ १३ ॥
प्रतिकूले तु संजाते विवाहं नैव कारयेत् ।
नारी वैधव्यमाप्नोति ह्यन्यथा कारयेद्यदि ॥ १४ ॥
अतो दोपविनाशार्थंशान्तिं कुर्याद्विचक्षणः ।
पुण्येऽह्नि विप्रकथिते कृत्वा पुण्याहवाचनम् ॥ १५॥
पूजयेत्प्रयतो देवान्यथाशक्ति हिरण्मयान् ।
श्रियं हरिं शिवां शंभुं मृत्युं241 संपूजयेत्ततः ॥ १६ ॥
श्रीसूक्तेन श्रियं विष्णुमिदं विष्णुस्तु इत्यपि ।
गौरीर्मिमायेति शिवां त्र्यम्बकेन(ण) महेश्वरम् ॥ १७॥
परं मृत्योस्तु मन्त्रेण मृत्युं संपूजयेत्ततः ।
वासांसि गन्धपुष्पाढ्यानुपचारान्प्रकल्पयेत् ॥ १८ ॥
अथाऽऽज्यभागपर्यन्तमुपलेपादि पूर्ववत् ।
दुर्वातिलाज्यचरुणा हुनेदष्टोत्तरं शतम् ॥ १९ ॥
भूः स्वाहा मृत्युर्नश्यतु सुखाय वर्धतामिति ।
एवं व्याहृतिभिर्हुत्वा घृतेन तु विचक्षणः ॥ २० ॥
स्विष्टकृदिध्मसंधानं प्रायश्चित्ताहुतीस्तथा ।
एवं समाप्य होमं तु दद्याद्विप्राय दक्षिणाम् ॥ २१ ॥
गोहिरण्यं च वासांसि दत्त्वा ह्यस्मात्प्रमुच्यते ।
तदाऽरिष्टप्रशमनं विधानं क्रियते बुधैः ॥ २२ ॥
ऐश्वर्यकीर्तिजननं पुत्रपौत्रप्रवर्धनम् ।
सर्वमृत्युमतिक्रम्य दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥२३ ॥
तत्र दानमन्त्रः**—**
नारायण नमस्तुभ्यं वेदाधार धराधर ।
प्रतिकूलभवं दोषं विनाशय विधानतः ॥ २४ ॥
इति मन्त्रेण नारायणमूर्तिदानम् ।
क्षीरार्णवसमुद्भूते सर्वविघ्नोपशान्तये ।
स्वमूर्तिदानसंतुष्टे प्रतिकूलभयं हर ॥ २५ ॥
इति लक्ष्मीमूर्तिदानमन्त्रः ।
वासोभिर्गन्धपुष्पाद्यैरुपचारैः प्रपूजयेत् ।
कृत्वा विधानं गां दत्त्वा वाग्दानादि चरेत्पुनः ॥ २६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां प्रतिकूलविधानम् ।
——————
अथ वसन्तपूजाविधानम् ।
कार्तिक्यां पूर्णिमायां तु द्वादश्यां वा समाहितः ।
ब्राह्मणैः सह भूपालो विधानं च समारभेत् ॥ १ ॥
कृताभ्यङ्गस्ततो राजा शुक्लमाल्यानुलेपनः ।
शुक्लाम्बरधरो धीमान्पुत्रपौत्रैः समावृतः ॥ २ ॥
आवाह्य ब्राह्मणान्सर्वान्क्षत्रियादिपुरोद्भवान् ।
मण्डलं कारयेच्छ्रीमत्षोडशारं पुरोधसा ॥३ ॥
चतुरस्रं द्वितीयं च चतुःषष्टिप्रकोष्ठकम् ।
अष्टकर्णिकमन्यत्तु मण्डलं कारयेत्सुधीः ॥ ४ ॥
मण्डपाभ्यन्तरे चान्यं मण्डपं तु सुलक्षणम् ।
ईक्षणं (मण्डलं) यावनालानां पुष्पमण्डपिकान्वितम् ॥ ५ ॥
वस्त्रैः परिवृतं सम्यङ्नानावर्णैः सुलक्षणैः ।
दक्षिणोत्तरतः सम्यक्कारयेन्मण्डलानि च ॥ ६ ॥
षोडशारं चतुःषष्टि तथाऽष्टकर्णिकाभिधम् ।
क्रमेण पूजयेत्तानि मण्डलानि नृपोत्तमः ॥ ७ ॥
मण्डले प्रथमे कोष्ठ ईशान्यादिक्रमेण तु ।
अष्टपङ्क्तिषुपुष्पैस्तु मातृकाः पूजयेत्क्रमात् ॥ ८ ॥
सावित्रीं वाडवीं क्रौञ्चीं कौवेरीं मारुतीं तथा ।
गाणेशीं पान्नगीं सौरीं पूजयेत्क्रमशस्त्विमाः ॥ ९ ॥
मात्स्यीं कौर्मीं च हांसीं च सैहीं व्याघ्रीं च वारुणीम् ।
गौरीं वृषभवक्त्रां242 च पूज्याः पङ्क्तिक्रमादिमाः ॥ १० ॥
जाह्नवीं गौतमीं कृष्णां नर्मदां च सरस्वतीम् ।
भीमां तापीं च भद्रां च पूजयेत्क्रमशस्त्विमाः ॥ ११ ॥
पाशिनीं शक्तिहस्तां च भ्रामरीं महिषासनाम् ।
गदिनीं शूलिनीं चण्डीं शङ्खिनीं च प्रपूजयेत् ॥ १२ ॥
लक्ष्मीं सरस्वतीं कालीं धात्रीं कान्तारवासिनीम् ।
ज243म्बुकां पद्मिनीं पद्मां मालतीं पूजयेत्क्रमात् ॥ १३ ॥
ध्व244जिनीं बर्बरीं245 बालां चापिनीं चपलां ध्रुवाम् ।
पुष्पितां पुष्पमालाढ्यां पूजयेन्मातृकाः क्रमात् ॥ १४ ॥
एवं संपूज्य विधिवच्चतुःषष्टिं तु मातृकाः ।
षोडशारे च भद्रे च पूजयेद्रागदेवताः ॥ १५ ॥
श्रीरागं च वसन्तं च पञ्चमं भैरवं त246था ।
नारायणं नटाख्यं च मेघरागं247 च पूजयेत् ॥१३ ॥
समित्रांश्च सभार्यांश्च पूजयेत्प्रयतो नृपः ।
दिगीशान्पूजयेत्पश्चादारास्वपि दशस्वपि ॥ १७ ॥
आदौ ध्यानं स्तुतिः पश्चादावाहनमतः परम् ।
ततस्तु प्रार्थनं तेषां ततः पूजा विधीयते ॥ १८ ॥
तत्र ध्यानविधिः —
हेमचम्पकवर्णाभं हेमकेयूरभूषणम् ।
हेमवर्णाम्बरधरं ध्यायेच्छ्री248रागमादरात् ॥ १९ ॥
ततः स्तुतिः —
किं दानैः क्रतुभिः पुण्यैः श्रीकण्ठस्तुष्यति प्रभुः ।
ऋ249तौ श्रीरागगीतैस्तु नादलुब्धो यतः शिवः ॥ २० ॥
अथाऽऽवाहनम् —
एहि श्रीराग रागेश भद्रेऽस्मिन्संनिधिं कुरु ।
बसन्तदेवसाहाय्ये पूजां गृह्ण नमोऽस्तु ते ॥ २१ ॥
मूलमन्त्रेण सर्वास्तु विख्याताञ्जगतीतले
सर्वेषामेव रागाणां यो रागः स तु केशवः ॥ २२ ॥
मृगभोगी(गि)शिशून्सर्वान्सुविद्याजगतीतले ।
पुष्णाति रागरूपेण तस्माद्रागो हि केशवः ॥ २३ ॥
ततश्च वसन्तध्यानम् —
नवाम्रतरुमूलस्थस्तप्तहाटकसंनिभः ।
पुष्पमालावृतः सम्यग्ध्येयः स्यात्कुसुमाकरः ॥ २४ ॥
तत आवाहनम् —
हिताय सर्वजगतां सुखाय सुखिनां250सताम् ।
आहूतोऽसि मया देव वसन्त वनराजिप ॥ २५
चम्पकाशोकपुंनागनागकेसरपाटलैः ।
नवाम्रपल्लवस्निग्धैर्लक्षितः कुसुमाकरः ॥ २६ ॥
प्रार्थनीयोऽसि देवेश पूजनीयोऽसि भूभृताम् ।
फाल्गुने कार्तिके वाऽपि पूर्णिमायां निशामुखे ॥ २७ ॥
पूजिते त्वयि पुष्पेश पूजिताः स्युः सुरोत्तमाः ।
अतस्त्वां पूजयाम्यद्य वसन्त मदनप्रिय ॥ २८ ॥
श्रीरागप्रमुखा रागा निषादप्रमुखाः स्वराः ।
कलाश्च काकलीमुख्याः पूजिताः सन्तु चाद्य मे ॥ २९ ॥
विश्वावसुमुखाः सर्वे गन्धर्वाः किंनरास्तथा ।
पूजिताः सन्तु मे चाद्य वसन्त त्वयि पूजिते ॥ ३० ॥
अथ कुसुमाञ्जल्यर्पणम्**—**
चम्पकाशोकपुंनागमालतीमोगराणि च ।
मरुवको दमनकस्त्वदर्थे चार्पितो मया ॥ ३१ ॥
गन्धं मलयजं देव मृगनाभिसमन्वितम् ।
वसन्त तव भोगार्थं मया दत्तं गृहाण तम् ॥ ३२ ॥
आभ्यं च वर्तिसंयुक्तं कर्पूरेण समन्वितम् ।
वसन्त तव तुष्ट्यर्थमार्तिक्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३३ ॥
सोपस्करं महादिव्यं घृतेन च समन्वितम् ।
भक्ष्यभोज्यादिसंयुक्तं नेवैद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ ३४ ॥
ततः प्र251शस्तिः**—**
बसन्तपूजेनं श्रेष्ठं सर्वविघ्नोपशान्तिदम् ।
तुष्टिदं पुष्टिदंं लोके श्रेयो भव252ति देहिनाम् ॥ ३५ ॥
आदौ पञ्चमध्यानम्**—**
तप्तकार्तस्वराभासं हेमकेयूरकुण्डलम् ।
बाणचापध253रं देवं पञ्चमं ध्यायतामिह ॥३६ ॥
सत्कण्ठकण्ठकुहरप्रति254नादवादप्रेंङ्खोलितप्रियतरप्रतिकाकलीकम् ।
सिद्धाङ्गनाकरतलाहृतयन्त्रवीणागीतं प्रियं सुरवरैः खलु पञ्चमं तम् ॥ ३७॥
अथाऽऽवाहनम् —
एहि पञ्चम रागेन्द्र भद्रेऽस्मिन्संनिधिं कुरु ।
गृहाणगन्धपुष्पादि बलिं चैव मया हृतम् ॥ ३८ ॥
अनेनैव प्रकारेण पञ्चमो ह्युपचर्यते ।
ते न यान्ति यमस्थानं नन्दन्ति सुरसंसदि ॥ ३९ ॥
अथ भैरवध्यानम्**—**
खङ्गचर्मधरं स्निग्धं चूतपल्लवसंनिभम् ।
केयूरकुण्डलधरं भैरवं ध्यायतां हृदि ॥ ४० ॥
अथाऽऽवाहनम्—
एहि भैरव रागेश देवदानववल्लभ ।
विधेहि संनिधिं चात्र प्रसन्नो भव मे सदा ॥ ४१ ॥
अनेनैव प्रकारेण पूजां कुर्यात्प्रयत्नतः ।
मूलमन्त्रेण गन्धादि नैवेद्यान्तं प्रकल्पयेत् ॥ ४२ ॥
तत्र प्रार्थना—
वसन्तपूजने चास्मिंस्त्वमाहूतोऽसि रागप।
कुरु शान्तिं जगत्यस्मिन्विघ्नान्नाशय नः सदा ॥ ४३ ॥
ततस्तु मेघरागध्यानम्—
नृत्यन्मयूरच्छददत्तदृष्टिः करे दधानश्छुरिकामुदाराम् ।
केयूरमुद्राङ्कितबाहुदण्डः स मेघरागः कथितो मुनीन्द्रैः ॥ ४४ ॥
इति मेघरागध्यानम् ।
आर्षवचनम् —एवंविधं मेघरागं चिन्तयामीति ध्यानं कृत्वा पश्चादावाहनम् ।
एहि रागाधिप क्षिप्रं भद्रेऽस्मिन्संनिधिं कुरु ।
पृथ्वीजीवितहेतुस्त्वं मेघराग कृपां कुरु ॥ १ ॥
इत्यावाहनम् ।
ततस्तु षोडशोपचारसहितां पूजां कुर्यात् ।
ततश्च नटनारायणध्यानम्—
शङ्खचक्रगदापद्मधरं देवं चतुर्भुजम् ।
नटनारायणं रागं चिन्तयामि हृदि प्रभुम् ॥ १॥
इति ध्यानम् ।
अथाऽऽवाहनम् —
एहि रागेन्द्र त्वरितं गृहाणेमां सपर्ययाम् (सपर्यां च गृहाण मे )
पूजिते त्वयि देवानां गणः स्यात् पूजितो मया ॥ २ ॥
इत्यावाहनम् । ततश्च पूजादि सर्वंकार्यम्—
एवं ध्यानपरा पूजा रागाणां विहिता क्रमात् ।
भूयात्सुखप्रदा नृणां वसन्तस्यार्चनं शुभम् ॥ १ ॥
एवं सर्वेषु रागेषु पूजितेषु नराधिपैः ।
ऋतुराजस्ततः पूज्यो ध्यानावाहनपूर्वकम् ॥ २ ॥
तत्र ऋतुराजस्य ध्यानम्—
नवाम्रपल्लवाभासं मुक्ताभरणभूषितम् ।
सचूतमञ्जरीहस्तमृतुराजं विचिन्तयेत् ॥३ ॥
इति ऋतुराजस्य ध्यानम् ।
अथाऽऽवाहनम्—
ऋतुराज समागच्छ मण्डलेऽत्र स्थिरो भव ।
पूजिते त्वयि सर्वंहि विश्वं स्यात्पूजितं मया ॥ ४ ॥
इत्यावाहनम् । ततः पूजा—
चूतपल्लवमन्दारशतपत्रमरूवकैः ।
कह्लारैः कुमुदैःपद्मैःपूजयेत्कुसुमाकरम् ॥ १ ॥
अष्टकर्णिकमध्ये तु परिसंस्थाप्य तं विभुम् ।
ऋतुराजं सहाध्यक्षैः स्वर्गस्य च यथाक्रमम् ॥२ ॥
मन्त्रैस्तल्लिङ्गकैर्वाऽपि नाममन्त्रैः पृथक्पृथक् ।
चन्द्रनाक्षतदूर्वाभिरन्यैर्वा मङ्गलो चयैः ॥३ ॥
अ255र्चयित्वा हि तं रागं स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ।
ततस्तु पूजयेद्विप्रानाचार्यप्रमुखाञ्छुचीन् ॥ ४ ॥
गोभिर्वस्त्रैः सुवर्णादिधातुर्भि256र्बाणकादिभिः ।
धान्यैर्नानाविधैः क्षेत्रैः स257स्यवृद्धिपरैस्तथा ॥ ५ ॥
सपल्याणैस्तुरङ्गैश्च गोणीपृष्ठैर्धुरंधरैः ।
कस्तूरीवीणकैः स्वच्छैर्घनसारकरण्डकैः ॥ ६ ॥
उशीरतालवृन्तैश्च चामरैः सुमनोरमैः ।
अन्नैर्नानाविधैर्वस्तुसंचयैः पूजयेद्विजान् ॥ ७ ॥
ततो वन्दिजनव्रातान्नटांश्चैव कुशीलवान् ।
तोषयेद्वस्त्रमाल्यैश्च पङ्ग्वन्धवधिरादिकान् ॥ ८ ॥
एवं यः कुरुते राजा वसन्तस्य प्रपूजनम् ।
तस्य राष्ट्रे भवेत्क्षेमं धनधान्यसमाकुलम् ॥
नन्दते पृथिवी सर्वा सर्वसंपत्समन्विता ॥ ९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां चतुर्वर्गचिन्तामणौ हेमाद्रिप्रोक्तं वसन्तपूजनम् ।
अथ कार्तिकदीपोत्सवविधानम् ।
तथा च विष्णुधर्मोत्तरे —
वैष्णवानां परो धर्मः कार्तिके मासि सुव्रतः ।
सर्वस्वं दीयते भक्त्या विप्रेभ्यो विधिपूर्वकम् ॥१ ॥
तथा च योगियाज्ञवल्क्यः—
अह्नोमासस्य षण्णां वा तथा संवत्सरस्य च ।
अर्थानां संचयं कुर्यात्कृतमाश्वयुजि त्यजेत् ॥ २ ॥ इति ।
यदि सर्वस्वं दातुं शक्तिर्नास्त्यर्थागमाभावाद्यवरोधे सति तदाऽऽश्विनशुद्धपूर्णिमामारभ्य हरिजागरमहोत्सवं कार्तिकीपूर्णिमापर्यन्तं कृत्वा पश्चात्पूर्णिमायां रात्रौ प्रथमया258मे दीपदानं कुर्यात् । दीपश्चक्षुरुत्तमम्" इति स्मृतिवचनन्यायेनविष्णुगृहे शिवालये तुलसीवृन्दावने बिल्वतरुमूले वा दीपप्रज्वालनं कुर्यात् ।
तत्र259मतान्तरम्—
यस्मिन्गृहे यावन्तो मनुष्यास्तावतो दीपान्प्रज्वालयेत् ।उच्चतरं स्तम्भं समारोप्यतस्योपरि दीपभाजनं कृत्वा घृतेन तैलेन वा पूर्णं कृत्वा स्थूलतरां वर्ति नियोज्य प्रज्वाल्य श्रीलक्ष्मीनृसिंहौ प्रीयेतामिति संकल्पं कुर्यात् । यथाशक्ति ब्राह्मणतर्पणं कुर्यात् । ततश्च त्रिपुरवधमाप्तजयश्रीशिवप्रीत्यर्थं दीपदानमहं करिष्य इति संकल्पं कुर्यात् ।
एवं कृते विधाने च प्रदीपोत्सवसंज्ञके ।
निर्विघ्नं जायते राष्ट्रं वर्धन्ते सुखसंपदः ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां विष्णुधर्मोक्तं हरिजागरपूर्वकं दीपोत्सवविधानम् ।
———————
अथ माघमासपुराणोक्तं दीपसप्तमीविधानम् ।
आदित्यपुराणे—
माघमासे समापन्ने शुक्लपक्षे तु सप्तमी ।
तत्र नीराजनं कुर्याद्रवेर्वेर्दीपैस्तु सप्तभिः ॥ १ ॥
प्रातःकाले शुचिर्भूत्वा स्नात्वा गङ्गाजले शुभे ।
ततो नीराजयेद्भक्त्या सहस्रांशुं नभोगतम् ॥२ ॥
दण्डवत्प्रणिपातैश्च स्तोत्रैः सर्वैर्मनोरमैः ।
शुक्लाम्बरधरः श्रीमाञ्छुक्लमाल्यानुलेपनः ॥ ३ ॥
अक्षतैरर्चयेद्देवं सप्तसप्तिं विभावसुम् ।
ततो नीराजनमन्त्रः—
जय सूर्य जयाऽऽदित्य जय भानो जय प्रभो ।
मया नीराजितोऽस्यद्य क्षेमं कुरु जगत्पते ॥ ४ ॥
इति नीराजनमन्त्रः ।
आदित्यहृदयादीनि जपेत्स्तोत्राणि यत्नतः ।
प्रणम्य भास्करं पश्चात्सानन्दो गृहमाव्रजेत् ॥ ५ ॥
स्थ260ण्डिले रङ्गमालाभिः सुस्निग्धे सदनाङ्गणे ।
पुनस्तत्रापि कर्त261व्यं सूर्यनीराजनं बुधैः ॥ ६ ॥
शक्त्या तु भोजयेद्विमान्प्रणिपातैः क्षमापयेत् ।
एवं कृते विधाने च प्रसन्नः सविता भवेत् ॥ ७ ॥
पुष्टिदं तुष्टिदं लोके पापक्षयकरं परम् ।
सर्वान्कामान्ददात्याशु कर्तॄणां नात्र संशयः ॥ ८ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामादित्यपुराणोक्तं दीपसप्तमीविधानम् ।
———————
अथ हो262लिकाविधानम् ।
भविष्योत्तरे—
पुरा कृतयुगस्याऽऽदौ राक्षसोऽभून्म263रूधकः ।
सुता तस्य महाघोरा होलिका नाम राक्षसी ॥ १ ॥
तस्या विधानमत्युग्रं कार्यमुल्वणनाशनम् ।
फाल्गुने मासि संप्राप्ते शुक्लपक्षे सुखास्पदे ॥२ ॥
पञ्चमीप्रमुखास्तत्र तिथयोऽनन्तपुण्यदाः ।
दश स्युः शोभनास्तासु काष्ठस्तेयं विधीयते ॥ ३ ॥
अपत्यैर्वाऽथ वृद्धैर्वा युवभिर्वा दिनात्यये ।
प्राप्तायां264 पूर्णिमायां तु कुर्यात्तत्काष्ठदीपनम् ॥ ४ ॥
भद्राकरणमुल्लङ्घ्य दीपयेत्काष्ठसंचयम् ।
स्नात्वा राजा शुचिर्भूत्वा स्वस्तिवाचनतत्परः ॥ ५ ॥
दत्त्वा दानानि भूरीणि दीपयेद्धो265लिकाचितिम् ।
ग्रामाद्बहिश्च मध्ये वा तूर्यनादसमन्वितम् ॥६ ॥
तत्र दीपनमन्त्रः—
प्रदीपयेऽद्य ते घोरां चितिं राक्षससत्तमे ।
हिताय सर्वजगतां प्रीतये पार्वतीपतेः ॥ ७ ॥
ततोऽभ्युक्ष्य चितिं सर्वां साज्येन पयसा सुधीः ।
गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्य कृत्वा चैव प्रदक्षि266णम् ॥८ ॥
नारिकेलानि दिव्यानि बीजपूरफलानि च ।
द्राक्षेक्षुकदलादीनि फलानि च समर्पयेत् ॥ ९ ॥
अर्चयित्वाऽक्षतै रक्तैः कुङ्कुमेन सुसंस्कृतैः ।
गीतैर्वाद्यैस्तथा नृत्यै रात्रिः सा नीयते नरैः ॥ १० ॥
प्रभातसमये जाते स्नात्वा गाङ्गे तु वारिणि ।
होलिकाचयनं प्राप्य भस्म तत्परिवन्द्यते ॥ ११ ॥
सादनं करतालीनां कुर्याच्चैव परस्परम् ।
गीयते देवगान्धारे वसन्ते देवकीर्तनम् ॥ १२ ॥
होलिकादाहजं भस्मरजो मूर्ध्नि सुधार्यते ।
भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गाः क्ष्वेडनैकपरायणाः ॥ १३ ॥
प्रतारणैकनिपुणा हासोत्सवरसेप्सवः ।
सिन्दूरोद्धूलनं कुर्युरन्यद्रविणसंपदा ॥ १४ ॥
पलाशकुसुमोद्भूतशुभवारिप्रसेचनम् ।
विधीयते मिथो लोके वसन्तप्रीतये ध्रुवम् ॥ १५ ॥
द्वितीया च तृतीया च चतुर्थी पञ्चमी तथा ।
षष्टी च सप्तमी चैव सेवने तिथयः267 स्मृताः ॥ १६ ॥
जलेन वाऽथ तैलेन दध्ना च पयसाऽपि वा ।
इक्षूणां च रसेनैव वसन्तस्य प्रसेचनम् ॥ १७ ॥
आदौ देवेषु कर्तव्यं ततो विप्रेषु बन्धुषु ।
कर्तव्यं भूमिपालेन सुखसंभोगवृद्धये ॥ १८ ॥
निर्लज्जा मानरहिता गतेर्ष्या गतसाध्वसाः ।
क्रीडेयुः सकला लोका वसन्तस्योत्सवं प्रति ॥ १९ ॥
निवृत्ते चोत्सवे तस्मिन्गुरुप्रमुखतो द्विजान् ।
संपूजयेन्महीपालो वस्त्रालंकारभूषणैः ॥ २० ॥
बन्दिनश्चारणाध्यक्षान्नटतश्चकुशीलवान् ।
इन्द्रजालकलाभिज्ञांस्तोषयेद्धनसंचयैः ॥ २१ ॥
एवं कृते विधाने च होलिकायाः प्रयत्नतः ।
प्रसन्ना जायते सा तु त्रैलोक्यसुखदा भवेत् ॥ २२ ॥
आख्यानमेतद्धोलायाः पुराणे परिचक्षते ।
तुष्टिदा पुष्टिदा लोके विधाने विहिते सति ॥ २३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भविष्यपुराणोक्तं होलिकाविधानम् ।
———————
अथ चैत्रशुद्धप्रतिपद्विधानानि ।
तत्राऽऽदौ काकपिण्डपरीक्षाविधानं गर्गसंहितायाम्—
फाल्गुने मासि दर्शस्य मध्यरात्रे पुराद्बहिः ।
धन्वन्तराणि संवीक्ष्य पञ्चाशत्तरुसंनिधौ ॥ १ ॥
भूमिं संशोध्य यत्नेन निखनेत्कुद्दलादिभिः ।
कण्टकास्थिशरावाणां खण्डकानि बहिः क्षिपेत् ॥ २ ॥
प्रसिञ्चेत्सरितस्तोयैः सरस्यादि वैरपि ।
ततः संमार्जनं कृत्वा धूपयेद्धूपसंचयैः ॥ ३ ॥
आलिप्य चन्दनैर्दिव्यैः पुष्पाणि विकिरेत्ततः ।
महाफणिमहाभोगदृढाधारकृतालये ॥
प्रसन्ना भव मातस्त्वं कुरु चाद्य जनप्रियम् ॥ ४॥
इत्यनेन मन्त्रेण गन्धपुष्पादि विधाय “पृथ्वि त्वया धृता लोकाः” इति प्रातःकालावधि पठन्पूर्वाभिमुखो निषण्णो वर्तेत । ततः प्रातरेवारुणोदयवेलायां दध्योदनपिण्डपञ्चकं सव्यञ्जनं पूर्वादिक्रमेणोत्तरपर्यन्तं निदध्यात् । “दधिक्राव्णो अकारिषम्” इति स्तोकं दधि पिण्डोपरि निधापयेत् । ततो दिक्क्रमेणेन्द्रयमवरुणकुवेरेभ्यश्चतुरः पिण्डांस्तल्लिैर्मन्त्रैर्नाममन्त्रैश्च चतुर्थ्या समर्पयेत् । नमोन्तमुच्चार्य ततश्च पञ्चमं पिण्डं ब्रह्मणे समर्पयेत् । ततस्तां पिण्डभूमिं प्रणिपत्य धन्वन्तरसप्तकं भूभ्यन्तरं व्रजेत् । तदनन्तरं काकागमनं निरीक्षेत ।यस्माद्दिग्विभागादागच्छति वायसः, कंचित्पिण्डं गृह्णाति, साशङ्कं268 निःशङ्कं वा तदवलोकनीयम् ।शब्दायमानो मौनी वा किंवा ग्रासमात्रं परिगृह्यान्यं काकं पश्यति यां यां चेष्टां कुरुते तदनुरूपं फलमादिशेत् । यतो दिग्विभागादागच्छति तस्मिन्दिग्विभागे दुर्भिक्षं सूचयति । यद्दिग्देशस्थं पिण्डमश्नाति तस्मिन्देशे सुभिक्षं सूचयति । अन्यान्समाहूय तैः सह पिण्डम269श्नाति तदाऽत्यन्तं सुभिक्षं सूचयति । मौनेनात्ति तदा सुभिक्षे सति पुनर्दस्युभयमादिशति । साशङ्कं समश्नाति तदा तस्मिन्नेव देशे स्थाने स्थाने सुभिक्षं (दुर्भिक्षं) सूचयति । [ निःशङ्कं समश्नाति तदा ] स्थाने स्थाने दुर्भि(सुभि)क्षमादिशति । अपरेण गृहीतमन्नं बलादाहृत्य भक्षयति तदा राजभ270यमादिशति । तस्मिन्नेव वर्णविशेषोऽस्ति271। शुभ्रकण्ठः काको ब्राह्मणस्तस्य फलं त्रिभिर्मासैः । मयूरकण्ठः क्षत्रियस्तस्य फलंषड्भिर्मासैः । शिखाकारं मस्तकं यस्य स वैश्यस्तस्य फलं नवभिर्मासैः272। कृष्णकण्ठः काकः शूद्रस्तस्य फलं वर्षेण273 भवति । पञ्चानां पिण्डानां मध्ये ब्रह्मस्थान274गतं पिण्डं चेद्गृह्णाति तदा सर्वदेशे सुभिक्षं जायते । यस्य वर्णस्य काको मध्यमं पिण्डं गृह्णाति तस्यैव वर्णस्य क्षेमं विदधाति । *275 [ पिण्डं गृहीत्वा यां दिशमनुधावति तस्यां दिशि स्वमाससंख्यया महर्घंविदधाति । तद्दोषशमने तात्कालिकमेव विधानम्—
पायसं शर्करा पूपपूरिकाक्षीरषष्टिकाः ।
एवमादीनि चान्नानि निक्षिपेत्काकभुक्तये ॥ ५ ॥
आदिशब्देन घृतमा(मां)समुद्दिष्टम् । चेत्पिण्डमात्रमपि न गृह्णाति तदा तत्र सर्वत्र जनमारं दिशति तदा सर्वैरन्नैर्नरमूर्तिं कृत्वा काकेभ्यो भूतेभ्यः श्वभ्यो निद-
ध्यात् । श्वचाण्डालपतितभूतवायसगृहे(ग्रह)राक्षसयक्षभैरववेतालपिशाचेभ्यो बलिं विदधाति मन्त्रेण ।
एवं कृते विधाने च विघ्ना नश्यन्ति तत्क्षणात् ।
नन्दते जगति (जगत्यां नन्दते) लोको नात्रकार्या विचारणा ] ॥ ६॥
इति276 श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां काकपिण्डपरीक्षाविधानम् ।
———————
अथ क्षिप्तधान्यपरीक्षाविधानम् ।
(** +277** ततश्चैत्रमासि प्रतिपत्तिथौविधानमन्यदस्ति ।)
फाल्गुनस्यामावास्यायां278दिनात्ययसमये ग्रामात्पूर्व उत्तरे वा पूर्वस्मिन्नेव भूमिमाने समस्थले भूमिशुद्धिं विधाय धान्यसंख्ययाऽवटान्कृत्वा तेष्ववटेषु गोमयेन संमार्जनं कृत्वा गन्धपुष्पादिकानुपचारान्विदध्यात् ।एकस्मिन्नेकस्मिन्नवटे शतं शतंधान्यकणान्निक्षिपेत् । द्वादश द्वादशा279वटा एकैकस्य धान्यस्य कर्तव्याः । द्व्यङ्गुलं द्व्यङ्गुलं चतुरङ्गुलं वाऽवटान्तरं कार्यम् । एवं धान्यमितावटपङ्क्तयो भवन्ति । ततः कणेषु निक्षिप्तेषु मासाधिदेवताः षोडशोपचारैरुपचर्या(रे)त् । ततश्चाऽऽद्रार्कपत्रैः प्रच्छाद्यप्रदक्षिणं कृत्वा गृहं संव्रजेत् । पश्चात्प्रातःकाले समुत्थाय कृतस्नानाद्याह्निकःसमागत्य पुनस्तेषामवटानामर्चनं कृत्वाऽर्कपत्राणि निःसार्यावटगर्भानवलोकयेत् । तत्र धान्यकणानां न्यूनाधिक्यं (कत्वं ) संविलोक्य तस्मिंस्तस्मिन्मासि तादृशमेव फलमादिशेत् । यस्मिन्मासि यस्य धान्यस्य न्यूनता भवति तस्य मासस्याधिदेवताप्रीतये ब्राह्मणतर्पणं कुर्यात् । एकस्य विद्वद्ब्राह्मणस्य द्वारदेशे शक्त्या धान्यराशिं दद्यात् । तस्याप्यभावे स्वे स्वेद्वारदेशे सर्वधान्यपूजां कृत्वा मासपर्यन्तमन्तिकेभ्यो भिक्षुकेभ्यः स्तोकं स्तोकं देयम् ।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां सर्वधान्यजिज्ञासाख्यं विधानम् ।
अथ चैत्रशुद्धप्रतिपद्वायुपरीक्षाविधानम् ।
चैत्रमासि ग्रामात्पूर्वे पश्चिमे वा दक्षिणोत्तरयोः समस्थले देशे संमार्जनं कृत्वा तस्य संमार्जितस्य मण्डलस्य चतुर्दिक्षु चतस्रः पताकाः समुच्छ्रित्य तासां मध्ये स्थण्डिलं कृत्वाऽग्निमुखं विधाय गणपतिदुर्गाक्षेत्राधिपतिपूर्वकमष्टलोकपालप्रीतये साज्येन पायसेन हवनं कुर्यात् । मन्त्रैस्तु तल्लिङ्गकैः प्रत्येकमष्टोत्तरशतम् । तदे(तेनै)व स्विष्टकृतम् । ततो हवने कृते वायुप्रार्थनां कुर्यात् ।
तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
एह्यात्मन्सर्वभूतानां कुरङ्गपतिवाहन ।
समादिश फलं चास्मिन्वत्सरे हि सदागते ॥ १ ॥
इत्यावाह्य(ति प्रार्थ्य) पवनं प्रणम्य क्षणमात्रं तिष्ठेत् । यावत्सूर्यस्य दर्शनम् । के(केषां)चिन्मतेनोदयात्षोडश पलानि परीक्षेत । ततस्तु यद्दिग्विभागाद्वायुरागच्छति तदवलोकनीयम् ।
सुभिक्षं जनमारं च सुराज्यं धनमूढताम् ।
बहुतोयं जनं हर्ष संतोषं तनुते क्रमात् ॥ २ ॥
अन्यच्च—
पूर्ववायुर्धनोत्कर्षंवह्निवायुर्जनक्षयम् ।
दाक्षिणः पशुमारं च नैर्ऋतो धनहानिकृत् ॥३ ॥
पाश्चिमो मेघवृद्धिं च वायव्यो री(व्यस्त्वी)तिमा280दिशेत् ॥
औत्तरो धान्यलाभाय रुद्रवायुर्धनप्रदः ॥ ४ ॥
अनयोर्द्वयोर्वचनयोर्मध्ये द्वितीयस्यार्थः प्रायो घटते ।
सार्धपौरुषमानेन पताकोच्छ्राय उच्यते ।
तासां कम्पाद्विजानीयात्फलमेतन्महीपतिः ॥ ५ ॥
होमधूमशिखायां च प्रेक्षणीयः प्रभञ्जनः ।
एवं कुर्वन्महीनाथो न कुत्रापि च सीदति ॥ ६ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां गर्गोक्तं281 वायुपरीक्षाविधानम् ।
अथ वत्सराधिपतिपूजाविधानम् ।
यश्चैत्रशुद्धप्रतिपद्दिनवारो नृपो हि सः ।
तस्य पूजा विधातव्या पताकातोरणादिभिः ॥ १॥
प्रतिगृहं ध्वजाकर्म शक्त्या ब्राह्मणतर्पणम् ।
निरीक्षणं च कर्तव्यं शकुनानां शुभेप्सुभिः ॥ २ ॥
रघुवं282शमहाकाव्ये श्रीमद्भागवते तथा ।
सप्तशत्यां स्तुतौ देव्या उपश्रुतिकृतौ तथा ॥
कर्तव्या शकुनेच्छा च समाफलविशुद्धये ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां वत्सराधिपतिपूजाविधानम् ।
———————
अथ दमनकारोपणविधानम् ।
भविष्योत्तरे—
चै283त्रे मासि सिते पक्षे चतुर्थी नवमी284तथा ।
दशमी द्वादशी चैव तथैव च त्रयोदशी ॥१ ॥
चतुर्दशी पञ्चदशी श्रेष्ठा दमनकार्पणे ।
चतुर्थी गणनाथस्य दुर्गाया नवमी तथा ॥ २ ॥
विष्णोस्तु दशमी पुण्या त285स्यैव द्वादशी शुभा ।
त्रयोदशीश्वरस्यैव श्रेष्ठाऽरण्यनिवासिनः ॥ ३ ॥
भैरवस्यैकवीराया ज्ञेया भू286ता फलप्रदा ।
पूर्णिमा सर्वदेवानां पुण्या दमनकार्पणे ॥ ४ ॥
तत्र विधानम्—
कारुह287स्तागतः श्रेष्ठः प्रोक्तो दमनको बुधैः ।
आनीय मन्दिरं स्नात्वा कृत्वा गन्धादिपूजनम् ॥ ५ ॥
अर्पयेत्सर्वदेवेभ्यो यथाकालं यथा288विधि ।
ध्यानमावाहनं पूजां तथैव च विसर्जनम् ॥
कृत्वाऽर्पयेद्दमनकं देवेभ्यः सुसमाहितः ॥ ६ ॥
तत्राऽऽवाहनम्—
एहि दैत्यकुलश्रेष्ठ चैत्रपर्वणि मानद ।
अर्पिते त्वयि देवेभ्यः कृत्यं भवतु मे शुभम् ॥ ७ ॥
इति दमनकावाहनम् ।
सुस्निग्धपल्लवाभासं मयूरवरवाहनम् ।
चिन्तयामि सदानन्दं289 शुचिं दमनकं हृदि ॥ ८ ॥
इति ध्यानम् ।
पूजयामि सुमैः स्वच्छेस्त्वामद्यासुरसूदन ।
पूजितेन त्वया सर्वान्पूजयामि सुरोत्तमान् ॥ ९ ॥
इति मन्त्रेण पूजितं दमनकं पुष्पमण्डपिकामध्यस्थहिन्दोलक उपवेशितेभ्यो देवेभ्यः समर्पयेत् । ततो गन्धपुष्पादि दत्त्वा गुर्वादीनभ्यर्च्य च विसर्जयेत् ।
तत्र विसर्जनमन्त्रः—
गच्छ गच्छासुरश्रेष्ठ यथास्थानं महामते ।
अर्पिते त्वयि देवेभ्यो जगदस्तु निरामयम् ॥ १० ॥
इति विसर्जनमन्त्रः ।
हिन्दोलविसर्जनं जङ्गमानामेव । स्थावराणामुभ290यासंभवात् । केषांचिन्मते यावद्वसन्तर्तु।अथवा कृतयुगादिपर्यन्तमथवाऽपराष्टमीतिथिपर्यन्तं विसर्जनं न कर्तव्यं देशान्तरव्यवहितपित्रादिपूजनार्थप्रतीक्षार्थम् । यदि पित्रादिसंनिधानं भवेत्तदा तत्पूजनानन्तरमेव विसर्जनं कार्यम् ।
देवतानां गुरूणां च पूजायाः क्रम ईदृशः ।
पञ्चस्वायतनेष्वेव प्रधानं प्रथमं स्मृतम् ॥ ११ ॥
पश्चात्तरतमत्वेन स्वरुच्या वाऽपि पूजनम् ।
यवानां (पञ्चानां) मन्त्रराजानां किंतु कुर्यादुपासकैः ॥ १२ ॥
आवृत्यावर्तितं मन्त्रैर्देवतामादितो291 यजेत् । (?)
आदौ पिता ततो माताऽऽचार्यश्वशुरमातुलाः ॥ १३ ॥
पितृमातृष्वसारश्च ज्यायांसो भ्रातरस्तथा ।
एतत्प्रभृतयः श्रेष्ठाः प्रपूज्या योषितोनराः ॥ १४ ॥
पितृसाम्यात्पितृव्याणां पूजा स्यात्पितृपूजने ।
महामन्त्रोपदेष्टा चेत्पितृवत्पूजने स्मृतः ॥ १५ ॥
सर्वेषां चैव पूज्यानां श्रेष्ठौ च पितरौ यतः ।
एते मान्या यथापूर्वमेभ्यो माता गरीयसी ॥ १६ ॥
अथवा —
गुरवः पञ्च सर्वेषामेभ्यो माता गरीयसी ।
इत्यादिवाक्यपर्यालोचनयाऽऽदौ मातुरेव पूजाप्राप्तिः । तदयुक्तम् । यथा ग्राम्यारण्यपशुभ्यो जलतिलपयसां पूर्वोक्तनिन्दापूर्वकमहिंसापादकत्वेनाजाक्षीरेण जुहोतीत्यजाक्षीरविधिनाऽपेक्षिता स्तुतिस्तथा मातृपूजाविधावितरनिन्दया प्राशस्त्यं न तु पितुरधिकत्वम् ।कुतः ।पितुस्तस्या अपि पूज्यत्वात् । पूज्यस्य पूज्यः पूज्यतरः पितामहो मातामहो वा । पूज्यतरस्य पूज्यःपूज्यतमः प्रपितामहो मातामहपितामहौ (मातामहो) वा यथा तेषां पूजनात्पितृपूजनं [न] गुरुतमं गुरुक्रमन्यायेन तथा पितरि स्वरूपेण गुरुत्वं मातृपूज्यत्वेन गुरुतरत्वं ज्येष्ठभ्रातृपूज्यत्वेन गुरुतर(म)त्वम् । तस्मादादौ पितृपूजनमेव देवतागुरुपूजनानन्तरम् ।यथाशक्ति तिलाज्यहोमंकुर्यात् । यथाशक्ति दक्षिणादानम् । ततो ब्राह्मणकुमारिकाराधनं यथाशक्ति । एतद्दमनकविधानं भविष्योत्तरोक्तम् । सांख्यायनेऽस्ति । हेमाद्रिपण्डितोक्ते चतुर्वर्गचिन्तामणावप्यस्ति ।
कृते दमनकस्यास्मिन्विधाने नरपुंगवैः ।
सर्वत्र विजयप्राप्तिर्भवेन्नात्र विचारणा ॥१७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भविष्योत्तरोक्तं दमनकारोपणविधानम् ।
—————
अथ भावुकामहोत्सवविधानम् ।
वैशाखे कृष्णपक्षे स्यादष्टमी तिथिरुत्तमा ।
नवमी दशमी तद्वत्तिथिरेकादशी शुभा ॥ १ ॥
द्वादशी तत्पराचैव भूताऽमा च विशेषतः ।
ज्येष्ठस्याऽऽद्या शुभा तद्वत्सूत मातृमहोत्सवे ॥२ ॥
सूतकं विद्यतेचात्र लोकस्य सकलस्य च ।
धनिष्ठापञ्चके यद्यद्वर्जनीयं शुभेप्सुभिः ॥ ३ ॥
तथैवाष्टासु तिथिषु वर्जनीयंप्रयत्नतः ।
विवाहमङ्गलादीनि कुर्यात्कर्माणि मानवः ॥
श्राद्धादि सकलं कार्यंनात्र कार्या विचारणा ॥ ४ ॥
तत्र विधानक्रमः—
प्रातःकालेऽष्टमीं प्राप्यसमाहूय द्विजोत्तमम् ।
पूजयेद्विधिवद्भक्त्या वस्त्रारोपणपूर्वकम् ॥ ५ ॥
प्रस्थाप्य तं समभ्यर्च्य नवभ्यां कारयेत्परम् ।
विधानं भूभुजां सम्यग्ब्राह्मणैः सह चापरैः ॥ ६ ॥
हस्ते कङ्कणमावध्य कुलालस्य महीपतिः ।
ग्रामादा(द्या)यं समस्तं च तस्मै दद्याद्दिनाष्टके ॥७ ॥
एतदेव विधानं तु नवम्यां क्रियते बुधैः ।
दशम्यां प्रातरेवं हि दीपनिर्याणमुत्तमम् ॥ ८ ॥
विदध्यात्सद्मनस्तस्य कुलालस्योग्रसंयुतम् ।
सर्वधान्यमयो दीपः पञ्चवर्तिसमन्वितः ॥
शरावसंपुटेन्यस्तः सद्घृतापूरितः शुभः ॥ ९ ॥
सद्घृतं सद्यस्तप्तमिति ।
भावुकामूर्तिमानीय तत्र तंपरिपूजयेत् ।
ततश्च ब्राह्मणागारं नीयते भूपतेस्ततः ॥ १० ॥
ततः सचिवमुख्यानां सद्यानि प्रतिनीयते ।
यत्र यत्राऽऽगतो दीपस्तत्र तत्र प्रपूज्यते ॥११ ॥
समानीय पुनः सद्म कुलालस्य विशेषतः ।
शिक्यस्थं तत्र तं कृत्वा रात्रिशेषस्तु नीयते ॥ १२ ॥
एकादश्यां तिथौ रात्रौ कुर्याज्जागरणं जनः ।
स्वेषु स्वेषु गृहेष्वेव यावच्चोदेति भास्करः ॥१३ ॥
उदिते भास्करे पश्चान्निर्याणं कुलपस्य च ।
काष्ठस्य कुलपं कृत्वा292संवाह्य च कुमारकैः ॥
नरैरितस्ततो नीत्वा वृक्षोपरि परिक्षिपेत् ॥ १४ ॥
इत्येकादश्यां विधानम् ।
द्वाद293श्यामुल्लकाख्यं तु कंचिदेकं विनिर्णयेत् ।
शाखाप्रावृतसर्वाङ्गं कांचिदेकां नितम्बिनीम् ॥१५ ॥
नटयित्वा नरं कंचित्तद्रूपसहितं तथा ।
क्रीडते ग्राममध्ये तु294 उल्लको दैत्यपुंगवः ॥ १६ ॥
योधयित्वा ततः सार्धंनूनमज्जूकयाऽसुरः ।
विधातव्यो मृतो दैत्य उल्लको भुवि पातितः ॥ १७ ॥
शान्तमस्तु जगत्सर्वंधर्मवृद्धिस्तु295 जायताम् ।
विवर्धतां श्रुतेर्मार्गो गवां वृद्धिस्तुजायताम् ॥ १८ ॥
वर्धन्तां चैव दातारो धर्मशीलाःपतिव्रताः ।
सुखप्रसवता लोके जायतां योषितामपि ॥ १९ ॥
सर्वे च सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखमाप्नुयात् ॥ २०॥
पटेयुरिति सर्वेऽपि उल्लके निहते सति ।
एवं विधानं कर्तव्यं द्वादश्यां मध्यवासरे ॥
त्रयोदश्यां च त्वपरं मल्लयुद्धं296 विधीयते ॥ २१ ॥
पुराणवचनात्—
मल्लयुद्धं त्रयोदश्यां चतुर्दश्यां च योगिनीः ।
अमाया च विशेषेण गान्धारीपूजनं शुभम् ॥ २२ ॥
अ297मां विना यजिर्देव्या रोहिण्यां क्रियते जनैः ।
न298तां गृह्णाति सा देवी प्रधानत्वं तिथेर्यतः ॥ २३ ॥
ततस्त्रयोदश्यामेव मल्लयुद्धम् । तत्र मल्लचतुष्टयं कर्तव्यम् । नगरे विपिने चतुष्पथे चतुरः स्तम्भान्समारोप्य तत्र रङ्गावतारं कुर्यात् । स्तम्भमूले सर्वधान्यैः परिपूर्णानि सजलानि भाण्डानि विन्यसेत् । तत्समीपे चतुरः पटान्निधाय तेषु पटेषु मल्लाभिनयकारिणो नरान्विनिवेशयेत् ।तेषु मल्लेषु निविष्टेषु कश्चित्पौरः शिरसि धृतजलपूर्णकलशो गलत्पञ्चधारः पदेपदेस्खलन्सन्सतूर्यनिनादो घनगर्जितकारी सह पौरजनै रङ्गं समायातस्तैर्मलैः सह नियुद्धं कुर्यात् । तेऽपि परस्परं च कुर्युः ।शिरस्थं कलशं स्फोटयेत् \। स्तम्भमूलस्थानपि कुम्भान्स्फोटयेत् । तत्कलशस्थं धान्यसंचयं जलं यत्र निम्नाभिमुखं धावति तत्र तत्र वारिणि कानि धान्यान्यग्रेसराणि कानि मध्यस्थानि
कानि पश्चिमानि रङ्गाद्बहिर्न धावन्ति तत्सर्वंसमालोकनीयम् । समालोच्य तादृशं फलं वक्तव्यम् । तच्चाऽऽह - अग्रधान्यान्यग्रत एव यान्ति तदा महत्सुभिक्षम् । अनेनैव प्रकारेण यत्स्वभावं धान्यमग्रेधावति तद्बहुतरं भविष्यतीति ज्ञातव्यम् । ततः सानन्दाः स्वान्स्वान्गृहान्गच्छेयुः । ततश्चतुर्दश्यां सायंकाले अ299ज्जुकीभूय सर्वेऽपि पुमांसो गृहीतशस्त्रास्त्रसंपदः ‘उदयोऽस्तु300, उदयोऽस्तु’ इति ग्राममध्ये ग्रामं प्रदक्षिणीकृत्य किंचित्स्थानान्तरं व्रजेयुः । तत्र कांचिदेकां कुम्भकारेणाऽऽनीतां कृत्रिमनारीस्वरूपिणीं भावुकास्वरूपिणीं भावुकां पटान्तरे301ऽभिनिषण्णां कृत्वा सर्वे पौरास्तत्र तृणमयं पुरुषं तस्या भावुकास्वरूपिण्या देव्या हस्ताक्षतांस्तन्मस्तके क्षेपयित्वा ततस्तं तृणपुरुषं दहेयुः । ततस्तु सानन्दाः पुनः पुरमाव्रजेयुः । उदकं संस्पृश्य स्वान्स्वान्गृहान्व्रजेयुश्च ।यत्र यत्र गच्छन्ति तत्र तत्र पाद्यपूजापूर्वकानुपचारान्कारयेयुः । एवं भूतदिने नक्तवेलायां योगिनीविधानम् । ततस्तस्मिन्नेव नक्तेऽपरविधानम् ।
शिशुः काष्ठमयस्तत्र कर्तव्यः शिल्पिभिर्दृढः ।
इति क्षीरवृक्षस्य काष्ठस्य यस्य कस्यचिदेवं ज्ञातव्यम् ।
हरिद्राक्तं न्यसेत्तस्या302 गान्धार्याः पुरतः सुधीः ।
प्रजास्ताः कन्यका देव्या भूतमातुः सुलक्षणाः ॥ २४ ॥
त्रिपुरा भैरवी देवी त्रिशूलवरधारिणी ।
इत्युच्चार्य जनाः सर्वे प्रातःकाले समाहिताः ॥ २५ ॥
ततस्तु पुरजा लोका नरा नार्यः सबालकाः ।
कम्बलोत्तरधारिण्यो हिरिकङ्कणकास्तथा ॥२६ ॥
सूत्रत्रिवृत्तेरष्टोत्तरशतगुणमयं हस्तकङ्कणं हिरीति निगद्यते ।
कुठारान्कण्ठतः कृत्वा व्रजेयुः शरणं हि ताम् ॥
प्रदक्षिणप्रक्रमणैः स्तोत्रैर्नानाविधैस्तथा ॥ २७ ॥
पुष्पैर्नानाविधैर्देवीं पूजयेयुः प्रयत्नतः ।
ततस्तु मण्डलं देव्याः पूरकैर्मण्डकैस्तथा ॥ २८ ॥
आच्छाद्य विधिवद्भक्त्या303घटिकाः स्फोटयेत्ततः ।
नैवेद्यं विविधं देव्यै भा304वुकायै समर्पयेत् ॥ २९ ॥
ततः संप्रार्थ्यदेवीं तां गच्छेयुर्निजमन्दिरम् ।
सखीं तिलकभालां तां निम्बदामधरास्तथा ॥
रात्रौ जागरणं कुर्युरात्तशस्त्राः शुचिव्रताः ॥ ३० ॥
शुचिव्रता ब्रह्मचर्ययुक्ता इत्यर्थः ।
ज305पेद्वेतालनामानि पवित्राणि मुहुर्मुहुः ।
मध्यरात्रे ततः कुर्युर्युद्धाभासं परस्परम् ॥ ३१ ॥
हन्यतां हन्यतां शी306घ्रं प्रहरं दैत्यपुंगवम् ।
हतो दैत्यो हतो दैत्य इति ब्रूयुरुदायुधाः॥ ३२ ॥
तस्मिन्नेव तु समये शिक्यस्थो दीपदैत्यराट्।
स च्छेत्तव्योऽस्त्रवर्गेण बहुधा कारयेद्धतम् ॥३३ ॥
हते च प्रहरे दीपे निहते च सुदारुणे ।
नर्तनं च मिथः कुर्युस्त्रिपुरानिह्नवे कृते ॥३४ ॥
ततः प्रभातसमये चौर्यमारोप्यकेषुचित् ।
सीरेषु च समारोप्य विदध्या307त्क्ष्वेडनं बहु ॥ ३५ ॥
सीरारोपणकाले च भूतमातुः प्रियंकरम् ।
कल्पयेयुस्तु नैवेद्यं स्त्रियः शुभसुतान्विताः ॥३६ ॥
एवं कृते विधाने च कल्पयेयूरणल्वणम् ।
तच्चापि कृत्रिमं स्फीतं प्रहारे जर्जरीकृतम् ॥ ३७ ॥
शकटोपरि विन्यस्य नयेयुः पुरतो बहिः ।
ततस्तान्सीरपृष्ठस्थान्ववा(न्धर्षि)तान्स्तेयिनो जनान् ॥ ३८ ॥
आनयेयुर्बहिर्ग्रामान्न्यसेयुर्वृषचर्मणि ।
शिखास्त्वादाय तेषां तु ततः कुर्युर्विसर्जनम् ॥ ३९ ॥
तेऽपि चौराः शिरस्तस्य रजन्यां निहतस्य च ।
दग्धाः (ग्ध्वा) स्नानाय गच्छेयुः सह तैः पुरसंभवैः ॥ ४० ॥
कृतस्नानाः पुरं प्राप्य त्वभिवाद्य308शिवात्मजाम् ।
भावुकां जगतां धात्रीं प्रार्थयेयुर्वरान्बहून् ॥ ४१ ॥
जयं देहि यशो देहि देहि सौभाग्यमुत्तमम् ।
देहि पुत्रांश्च पौत्रांश्चदेहि सर्वार्थसंपदः ॥ ४२ ॥
देहि वृद्धिं गवां शश्वत्ससस्यां मेदिनीं कुरु ।
सुभिक्षं चास्तु सर्वत्र वाणिज्यं माऽस्तु निष्फलम् ॥४३ ॥
मार्गे च गच्छतां नॄणां मा सन्तु परिपन्थिनः ।
जलं धान्यं तृणं वासो रसाः शाका धनानि च ॥ ४४ ॥
बहूनि सन्तु लोकेषु न कश्चित्सीदतां जनः ।
अन्नं बहुतरं चास्तु दाने चाऽऽस्तिक्यमुत्तमम् ॥ ४५ ॥
संतोषः सर्वदा चास्तु त्वत्प्रसादाच्छिवात्मजे ।
एवं ये कुर्वते लोका विधानं प्रतिवत्सरम् ॥ ४६ ॥
ते न पश्यन्ति दारिद्र्यंभोक्तारः सुखसंपदाम् ।
एतत्समस्तमाख्यानं पुराणे परिगीयते ॥
पवित्रं सुरसं श्राव्यं लोकानां हितवर्धनम् ॥ ४७ ॥
इतिश्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांपद्मपुराणोक्तं भावुकामहोत्सवविधानम् ।
———————
अथ शीलाषष्ठीविधानयुक्तं नागपञ्चमीविधानम् ।
तथा च भविष्योत्तरे—
श्रावणे मासि पञ्चम्यां सिते पक्षे विधीयते ।
विधानं नागदेवानां शीलाषष्ठ्यास्ततः परम् ॥ १॥
मुहूर्तद्वित्तये नागः शेषः स्कन्दो हि दृश्यते ।
सा नागपञ्चमी पूज्या गणराजयुताऽशुभा ॥ २ ॥
प्रातःकाले सदा पष्ठी पूज्या च युवतीजनैः ।
अपराह्णेसदा नूनं वैधव्याय च पूज्यते (कल्पते) ॥ ३ ॥
इति स्मृतिचिन्तामणिः ।
नागास्तु मृन्मया ज्ञेया आलेख्याः कुङ्कुमेन वा ।
चन्दनेनाथवा लेख्यास्तदभावे हरिद्रया ॥ ४ ॥
आलेख्याः सदनेष्वेव स्वस्मिन्स्वस्मिन्मनीषिभिः ।
मृन्मयास्तु विधातव्यास्ते पूज्याः पुरवासिनाम् ॥ ५ ॥
कर्तारो नापि309कास्तेषां यत्र कुत्राऽऽस्पदे शुभे ।
गङ्गावारिणि सुस्नातैर्द्विजाद्यैः पुरवासिभिः ॥ ६ ॥
संस्नाप्य पयसा पूर्वं मन्त्रैस्तल्लिङ्गकैर्ध्रुवम् ।
दध्ना च सर्पिषा चैव मधुना सितया तथा ॥ ७ ॥
ततो गङ्गाजलेनैव ततो गन्धं समर्पयेत् ।
पूजयेत्कुसुमैर्दिव्यैरपामार्गेण दूर्वया ॥ ८ ॥
बिल्वपत्रैश्च बहुभिर्देशाङ्गेनैव धूपयेत् ।
दीपैर्नीराजयेत्पश्चान्नैवेद्यं तु समर्पयेत् ॥ ९ ॥
ताम्बूलं क्रमुकैर्युक्तं सकर्पूरं समर्पयेत् ।
ततश्च प्रार्थयेन्नागान्वासुकिप्रमुखा310न्नव ॥ १० ॥
नमामि वासुकिं नागं नौमि तं तक्षकं विभुम् ।
नमामि शङ्खं नागेन्द्रं कुमुदं प्रणमाम्यहम् ॥ ११ ॥
अनन्तं भुजगं श्रेष्ठं नौमि कर्कोटकं विभुम् ।
पद्मं नमामि नागेन्द्रं पुण्डरीकं नमाम्यहम् ॥ १२ ॥
नमामि कुलिकं नागं नागलोकनिकेतनम् ।
इति संप्रण311भेन्नागान्गृ312णन्नामानि सर्वशः ॥ १३ ॥
सर्वश इति वासुकिप्रमुखाणां नवानां नामानि गृणन्निति स्तुवन्निति ।
आरोपयन्पवित्राणि वस्त्राणि विविधानि च ।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य ब्रजेदायतनं निजम् ॥ १४ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्पत्नीस्तेषां यथाविधि ।
सायंकाले स्वयं भुक्त्वा गृहस्वामी विशेषतः ॥ १५ ॥
नागस्थानं पुनर्गच्छेन्मृत्तिकानयनेसुधीः ।
नागभोगात्समानीय मृत्तिकां सुमनाः सुधीः ॥ १६ ॥
कुर्यान्नारीप्रतिनिधिं वाजिपृष्ठसमाश्रयाम् ।
पूजयेद्गन्धपुष्पैश्च दीपैर्नीराजयेत्ततः ॥ १७ ॥
नैवेद्यैर्विविधैर्भक्त्याताम्बूलैस्तोषयेच्छुभैः।
गीतैर्वादित्रघोषैश्चतां च जागरयेन्निशि ॥ १८ ॥
शीलानाम्नींसुशीलां च मृन्मयीं वाजिसंयुताम् ।
प्रातःकाले तिथौ षष्ठ्यांविधानान्तरमिष्यते ॥१९ ॥
योषाजनैश्च क्रियते शीलाव्रतमनुत्तमम् ।
गङ्गासैकततः किंचित्समानीय तु सैकतम् ॥ २० ॥
वीरणानि समानीय क्रियते कृत्रिमं सरः ।
मूर्तेस्तस्याश्च शीलायाः कृतायाः फणिनां मृदा ॥ २१ ॥
विन्यसेद्दधिभक्तं च त्वर्कपत्रपुटे शुभे ।
दद्यात्तं ब्राह्मणेभ्यश्च तत्पत्नीभ्यो विशेषतः ॥ २२ ॥
वंशपात्रेषु विन्यस्य नूतनेषु शुभेषु च ।
कार्पासकानि वस्त्राणि तथा कर्णावतंसकान् ॥ २३ ॥
कण्ठसूत्राणि हारांश्चकुङ्कुमं चन्दनं तथा ।
अञ्जनं चाष्ट सौभाग्यवस्तूनि सवसूनि च ॥
सावित्रीप्रीतये दद्याच्छीलासंतोषवृद्धये ॥ २४ ॥
तत्र दानमन्त्रः —
प्रीयतां ब्रह्मसावित्री शीला च प्रीयतां सती ।
दधिभक्तप्रदानेन भूयान्मे संततिः शुभा ॥ २५ ॥ इति ।
एवं कृते विधाने च नागानां प्रीतिवर्धने ।
शीलाव्रतविधानेन सहिते क्षेमदं नृणाम् ॥ २६ ॥
विधानस्यास्य कथितं पुराणे च कथानकम् \।
विधानं तस्य सर्वंच समासात्कथितं मया ॥ २७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भविष्योत्तरपुराणोक्तंशीलाषष्ठी्विधानयुक्तं नागपञ्चमीविधानम् ।
———————
अथ पवित्रारोपणविधानम् ।
याः पूर्वमुक्तास्तिथयश्चैत्रमासि शुभावहाः ।
अष्टौ दमनकारोपे पवित्रारोपणे313 मताः ॥ १ ॥
श्रावणे मासि संप्राप्ते कर्तव्यं वि314धिवद्बुधैः ।
पवित्रारोपणं315 पुण्यं देवानां प्रीतिवर्धनम् ॥२ ॥
त्रिसूत्रं त्रिवृतं कृत्वा गोमूत्राक्तं च कारयेत् ।
क्षालये316त्तु ततस्तोयैः शुद्धयर्थं शुद्धिमान्नरः ॥३ ॥
कुर्यात्तस्य पवित्राणि विधिवन्मन्त्रकोविदः ।
दृढसूत्रमयं317 पुण्यं पवित्रं क्रियते मया ॥ ४ ॥
प्रीत्यर्थं सर्वदेवानां हिताय जगतामिह ।
इति मन्त्रेण पवित्राणि कुर्यात् ।
पवित्रे तन्तवः प्रोक्ताः शतसंख्यैकविंशतिः ॥ ५ ॥
विनायकाय देवाय तावद्ग्रन्थिकरं हि तत् ।
षष्ट्याऽधिका स्यात्त्रिशती तन्तूनां प्रीतये हरेः ॥ ६ ॥
ब्रह्मसूत्रं प्रमा318णं च शतग्रन्थि पवित्रकम् ।
हराय तावदेव स्यात्परिमाणं पवित्रकम् ॥ ७ ॥
षष्टितन्तुमयं दिव्यं षष्टिग्रन्थि पवित्रकम् ।
भैरवाद्येषु देवेषु शतमष्टोत्तरं शुभम् ॥ ८ ॥
तन्तूनां ग्रन्थयस्तावत्पवित्रे परिकीर्तिताः ।
सहस्रसंमितं पूतं तन्तुभिर्वा शतत्रयम् ॥ ९ ॥
श319तं चाष्टाधिकं चैव पवित्रं गुरवे स्मृतम् ।
शतग्रन्थि पवित्रं स्यादष्टाधिकमनुत्तमम् ॥ १० ॥
पित्रोस्तु शतसंख्यं स्थात्पितृव्ये षष्टितन्तुकम् ।
तदेव मातुले ज्ञेयं ज्येष्ठे भ्रातरि चैव हि ॥ ११ ॥
षष्टितन्तु320मयं श्रेष्ठं पितृपूज्येषु संमतम् ।
अष्टाविंशतितन्तूनां पृथग्ग्रन्थि पवित्रकम् ॥१२ ॥
इतरेषु च सर्वेषु निर्दिष्टं कर्मकोविदैः।
कुङ्कुमाक्ताः प्रकर्तव्या ग्रन्थयः सुसमाहिताः ॥ १३ ॥
पवित्राणां च सर्वेषां विदुषांमतमीदृशम् ।
केषां मतेन पूजा स्यात्पवित्राणां यथोत्तरा ॥ १४ ॥
वृद्धिह्राससमायुक्ता यावदेति च पूर्णताम् ।
एवं कृतिः पवित्राणां विद्वद्भिः परिकीर्तिता ॥ १५ ॥
यद्यद्यस्मै समुद्दिष्टं तत्तत्तस्यैव योषिते ।
आदौ पूजा विधातव्या पवित्रेभ्यो मनीषिभिः ॥ १६ ॥
विधातव्यः समारोपः पवित्रस्येश्वरादिषु ।
सूतकाद्यवरोधेन प्रोक्तेकाले न सिध्यति ॥ १७ ॥
पवित्रारोपणं नॄणां तदा भाद्रपदे शुभम् ।
आश्विने वाऽपि कर्तव्यं यावन्नोत्तिष्ठते हरिः ॥ १८ ॥
आषाढप्रभृति प्रोक्ता मासाः पञ्च मनीषिभिः ।
पवित्रारोपणे श्रेष्ठास्तेषु श्रावण उत्तमः ॥ १९ ॥
श्वेतादीन्भावयेद्वर्णान्पवित्रेषु समाहितः ।
कलान्यासैस्तु पूतानि पवित्राणि च मान्त्रिकः ॥ २० ॥
आरोपयेत्पवित्राणि रविपूर्वेषु पञ्चसु ।
देवेषु स्थानमुद्दिश्य तथाऽऽराध्यं यथाविधि ॥ २१ ॥
निष्पाद्य विधिवत्पूजां गन्धपुष्पादि कारयेत् ।
एवं कृते विधाने व संपूर्णो वार्षिको विधिः ॥
संपादितो भवेन्नॄणां नात्र कार्या विचारणा ॥२२ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांपवित्रारोपणविधानम् ।
———————
अथ भाद्रपदे मासि गरुडपञ्चमीविधानम् ।
अडबालमते—
तत्र नदीतोये स्नानं कृत्वा वल्मीके विधानमेतत्कर्तव्यम् । कूष्माण्डीपर्णानिचतुर्दश तावन्त्येव कूष्माण्डीपुष्पाणि तावन्त एवगोधूमचूर्णस्य नागाविधातव्यास्तावन्त एव दीपास्तावन्त एव मुष्टिकास्तावन्त एव ऋषिपोलिकास्तावन्त्येव यज्ञसूत्राणि तावन्त्येव पवित्राणि । तत्र चतुर्दशभिबीजैर्वल्मीकसमन्ताद्गङ्गाजलेन सेचनीयम् । ततस्तु सर्पिषा पयसा च सेचनीयम् ।ततश्च कूष्माण्डीपर्णानि वामकरे गृहीत्वोत्तराभिमुखो मान्त्रिकः क्रमेण कण्ठे -
श्वरीबीजप्रभृतीनिबीजानि समुच्चार्य पर्णानि विन्यसेत् । तत्र बीजैरेवाऽऽसनंदत्त्वा बीजोद्धारेण सह नागा योजनीयाः ।
तत्र बीज321मन्त्राः—
ॐ कण्ठेश्वरीची आज्ञा १ । ॐ पारोक्षीची आज्ञा २ \। ॐ विपाशापेची आज्ञा ३ ।ॐ पिशापेची आज्ञा ४ \। ॐ धूमेयाची आज्ञा ५ । ॐ पटिरेयाची आज्ञा ६ ।ॐ गरुडाची आज्ञा ७ । ॐ विनायकाची आज्ञा ८ । ॐ भाद्रनायकाचीआज्ञा ९ । ॐ भा322ईशेटीची आज्ञा १० । ॐ अडबालाची आज्ञा ११ । ॐअडबलभामिनीयेची आज्ञा १२ । ॐ ना323गाची आज्ञा १३ \। ॐ गुरूची आज्ञा१४ ।
एवं प्रकारेणैतानि बीजानि प्रत्येकं मन्त्ररूपाणि । ततः पूजान्त आर्द्रीकृतान् गोधूमान्समीपे संगृह्य स्नानं कृत्वा तत्रैव मार्जनमेतैरेव बीजैरेभिरेवतर्पणं कर्तव्यम् । ततो जलाद्बहिर्निर्गत्य वल्मीकमागत्य प्रदक्षिणीकृत्य गोधूमैरर्चयेत्।दण्डवत्प्रणिपातं कृत्वा क्ष्वेडनं कुर्यात् । ततो गच्छ रे धाव रे विष तवपिता अडबाल प्राप्त इत्युच्चार्य क्ष्वेडनं कुर्यात् । पुनस्तु देशभाषया क्ष्वेडनंकुर्यात् । सर्वे निम्बपवित्रावतंसा दर्भपवित्राणि निम्बपल्लवपवित्राणि करयोर्धृत्वामन्त्रमुच्चारयेयुः । परस्परं कर्णेषु मन्त्रजपं [च] कुर्युः । यः परम्परया गुरुस्तस्मै पवित्रारोपणं कृत्वा प्रणमेयुः । परस्परं चापि तस्मिन्नेव समये यस्मै कस्मैचिच्छ्रद्दधानाय मन्त्रो दातव्यः । प्रत्यहं त्रिसंध्यं मन्त्रस्यास्यानुवृत्तिर्माजनं तर्पणं जलपानं च \।
एवं कृते विधानेऽस्मिन्मन्त्रः सिध्यति सत्वरम् ।
दष्टे प्राणिनि सर्पेण यत्र कुत्रापि जीवति ॥ १ ॥
तावत्कुर्यात्प्रयत्नेन विषस्योत्तारणं बुधः ।
जलाभिषेचनं शस्तं जपः कर्णे तथैव च ॥ २ ॥
निम्बस्य पल्लवैर्भ्रष्टैर्विषस्योत्तारणं बुधैः ।
निम्बाभावे महानिम्बस्तद्भावे कुशः स्मृतः ॥ ३ ॥
कुशाभावे मयूरस्य पिच्छचूलः प्रकीर्तितः ।
विषस्योत्तारणं कार्यं सरिद्रोधसि मन्त्रतः ॥ ४॥
भैरवस्याऽऽलये तद्वन्नान्यत्र प्रविधीयते ।
विषस्य देवसंस्थस्य कुर्याच्चैव परीक्षणम् ॥ ५ ॥
नागवल्लीदलेनैव कांस्यपात्रेण वा पुनः ।
ऊर्ध्ववृत्तं दलं कार्यंजलार्द्रंच समन्त्रकम् ॥ ६ ॥
शिरस्थस्यैव दष्टस्य पर्णं संश्लिष्य विग्रहे ।
दष्टास्पदं समानीय ज्ञातव्या विपसंस्थितिः ॥ ७॥
यत्र कुत्रापि देहे तु पर्णं लगति वह्निवत्।
तत्रैव विषमर्यादा ज्ञातव्या मन्त्रकोविदैः॥८ ॥
यतो विषं समुत्तीर्णं तत्र बन्धं त्रियायुषा।
मन्त्रेण सहितं कुर्याद्विषस्योत्तारणं पुनः ॥ ९ ॥
यावन्निर्विषता देहे दृष्टस्यैव प्रजायते ।
तावत्क्रियां विदध्यात्तु विपस्योत्तारणं प्रति ॥ १० ॥
नागानुमतवेत्तारो यदि यान्त्यनुमन्त्रितुम् ।
नो गच्छेत्तत्र वेत्ता तु मन्त्रस्यास्य विचक्षणः ॥ ११ ॥
दष्टं तु प्राणिनं श्रुत्वा कृत्यं त्यक्त्वा तु सत्वरम् ।
स्नानं कृत्वाऽऽर्द्रवासाश्च गच्छेत्तत्र तु वेगवान् ॥ १२ ॥
अनेनैव तुमन्त्रेण विषं हरतु सत्वरम् ।
दंष्ट्रिणामपि सर्वेषां नात्र कार्या विचारणा ॥१३ ॥
लूताविस्फोटकाश्चैंव कालस्फोटा विशेषतः ।
नश्यन्ति विषमन्त्रेण सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ १४ ॥
सर्वेषामपि देवानामेको विष्णुः सनातनः ।
पक्षिणां गरुडः शेषोनागानां नृपतिर्नृणाम् ॥ १५ ॥
चतुर्णां( वर्णानां ) ब्राह्मणः श्रेष्ठः सरितां जाह्नवी तथा ।
सतीनां जानकी श्रेष्ठा धेनूनां सुरराङ्गवी ॥ १६ ॥
तथा च लघुविद्यानां विद्येयं सुभगा मता ।
विषे हृते तु सर्पस्य दष्टे व्याधिविमुक्तये ॥ १७ ॥
किंचिद्धनं स्वयं दद्यान्न किंचिदपि याचयेत् ।
मन्त्रस्यास्य विधानेन कृतेन विधिवद्बुधैः॥ १८ ॥
प्रीयते केशवो देवस्तथैव विनतात्मजः ।
यथा भागीरथीस्नानं प्रयागे तीर्थसत्तमे ॥१९ ॥
विषस्योत्तारणे तद्वत्स्नानं मन्त्रविदस्तथा ।
अभिषेकसृतस्तोयविन्दुर्लग्नो हि मन्त्रिणः ॥२० ॥
यज्ञावभृथवज्ज्ञेयः स बिन्दुर्नात्र संशयः ।
तैलभुक्तिस्तु मालूरफलानां राजिकाशनम् ॥२१ ॥
विद्यावीर्यं निहन्त्याशु पञ्चम्यां द्विभुजिस्तथा ।
एतद्व्रतं समुद्दिष्टं मन्त्रिणां सर्वदा बुधैः ॥ २२ ॥
कर्मलोपो यदा पुंसोविषापहृतिकारिणः ।
भवेच्चैव तदा तस्य नास्ति पापभयंक्वचित् ॥ २३ ॥
तथा च पुराणे —
सत्कर्म कुर्वतां पुंसां कर्मलोपो भवेद्यदि ।
तत्कर्म ते प्रकुर्वन्ति तिस्रःकोट्यो महर्षयः ॥ २४ ॥
एवं कृते विधाने च मन्त्रः सिध्यति सत्वरम् ।
वीर्यमेति शुभो मन्त्रो नात्र कार्या विचारणा ॥२५ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामडवालमतोक्तं गरुडपञ्चमीविधानम् ।
——————
अथाऽऽश्विने मासि नवचण्डीविधानम् ।
आश्विने प्रतिपन्मुख्याः पुण्यास्तु तिथयो नव ।
चण्डिकापूजने प्रोक्ताः सर्वकामफलप्रदाः ॥१ ॥
स्नात्वा शुक्लतिलैस्तोये गङ्गायाः शुचिमानसः ।
गृहे वा देवतास्थाने कुर्यात्कुसुममण्डपम् ॥२ ॥
वस्त्रैः परिवृतं सम्यङ्नानावर्णैः सुशोभनैः ।
पूगैश्च नारिकेलैश्च जम्बीरैर्मातुलुङ्गकैः ॥ ३ ॥
अन्यैश्चबहुभिः पुष्पैः शोभितं फलसंचयैः ।
तत्र मध्ये मृदः कार्यमालबालं मनोरमम् ॥ ४ ॥
निक्षिपेत्तत्र धान्यानि ततः सिञ्चेज्जलैः शुभैः ।
तस्योपरि न्यसेत्कुम्भं जलपूर्णं नवं शुभम् ॥ ५ ॥
सुवर्णं निक्षिपेत्तत्र गन्धपुष्पैः समर्चयेत् ।
पुष्पमालावृतं कुर्यात्प्रतिष्ठामन्त्रमन्त्रितम् ॥ ६ ॥
पुरस्तात्तस्य कुम्भस्य जपेत्सप्तशतीं बुधः ।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ॥ ७ ॥
ततश्चाप्यर्गलां श्रेष्ठां ततश्च कीलकं जपेत् ।
मूर्तीनां च रहस्यं च पल्लवं तदनन्तरम् ॥ ८ ॥
ततो विधानमुद्दिष्टमेवं जपपरम्परा ।
समाप्य विधिवद्विद्वान्स्तुतिं सप्तशतीं शुभाम् ॥ ९॥
पुनः प्रपूजयेत्कुम्भं पुस्तिकां च कुमारिकाम् ।
उपचारैः षोडशभिर्ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ॥ १० ॥
तैलपक्वेन साज्येन पायसेन विशेषतः ।
ततस्तु तुरगं श्रेष्ठं हयभूषणभूषितम् ॥ ११ ॥
आनीय सरितस्तोयैः स्नापयित्वाऽर्चयेत्सु324मैः ।
चन्दनस्यानुलेपेन सर्वतश्चानुलेपितम् ॥१२ ॥
आनीय सदनं रम्यं कुर्यान्नीराजनाविधिम् ।
स्वयं तिष्ठेन्निराहारोऽशक्तचेन्नक्तभोजनैः ॥ १३ ॥
एवमेकोत्तरा वृद्धी रूपाणां परिकीर्तिता ।
तथैव कन्यकाविप्रहयानां वृद्धिरुत्तमा ॥ १४ ॥
रात्रौ जागरणं कार्यं गीतवादित्रनिस्वनैः ।
ताम्बूलदानैर्बहुभिः स्तोत्रैर्देव्या मनोरमैः ॥ १५ ॥
ततस्तु नवमीं प्राप्य कुर्यात्स्थण्डिलमुत्तमम् ।
उत्तममिति लक्षणोक्त ( णान्वित ) म् ।
मूर्तिं देव्याः प्रकुर्वीत सुवर्णस्य पलेन च ॥ १६ ॥
तदर्धेन च वा कुर्यात्तदर्धेन च वा पुनः ।
माषेण वा प्रकर्तव्या विदुषां मतमीदृशम् ॥ १७ ॥
वस्त्रयुग्मेन (ण) संवीतां पद (घट) स्योपरि विन्यसेत् ।
प्रतिष्ठामन्त्रमुच्चार्य पुष्पैः सह परिन्यसेत् ॥ १८ ॥
पूजयित्वा यथाधर्मंयथाभावं यथाविधि ।
ततस्तु प्रारभेद्धोमं स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥ १९ ॥
प्रधानं पायसं साज्यं तिलव्रीही मतान्तरे ।
अन्यैश्च मङ्गलद्रव्यैर्नारिकेलफलादिकैः ॥ २० ॥
साज्यैस्तु हवनं कुर्याद्बिल्वपत्रैर्विशेषतः ।
जपस्यास्य दशांशेन विधाय हवनं बुधः ॥ २१ ॥
प्रतिश्लोकं तु जुहुयात्सर्वद्रव्याणि भक्तिमान् ।
नमो देव्यैच मन्त्रेण विदध्याद्धवनं बुधः ॥ २२ ॥
तूर्यघोषसमायुक्तं कुर्यात्कूष्माण्डभेदनम् ।
विदधी325ताऽऽशु शास्त्रेण शक्तेर्दृष्टिप्रमाणतः ॥ २३ ॥
ये तु जाप्यस्य कर्तारोहोतारोऽप्यृत्विजस्तथा ।
आचार्यब्रह्ममुख्याश्चपूजयेत्तान्यथाविधि ॥ २४ ॥
दानानि बहुशो दद्यात्तिलधेनुमुखानि च ।
कुमारीरूपतुरगवृद्धिः पूर्वं प्रकीर्तिता ॥ २५ ॥
ताश्च प्राक्सकुमार्यश्च मातृकागणविग्रहाः ।
प्रतिपत्प्रभृति श्रेष्ठाः पूजनीयाः प्रयत्नतः ॥
भोजनाच्छादनैः सम्यक्ताम्बूलैश्चसचन्द्रकैः॥ २६ ॥
तत्र प्रथमं कुमारीपूजनमन्त्राः—
मन्त्राक्षरमयीं लक्ष्मीं मातॄणा रूपधारिणीम् ।
नवदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामावाहयाम्यहम् ॥ २७ ॥
त्रिपुरां त्रिगुणां धात्रीं मार्गज्ञानस्वरूपिणीम् ।
त्रैलोक्यवन्दितां देवीं त्रिपुरां पूजयाम्यहम् ॥ २८ ॥
कालिकां तु कलातीतां कारुण्यहृदयां शिवाम् ।
कल्याणजननीं देवीं कल्याणीं पूजयाम्यहम् ॥ २९ ॥
अणिमादिगुणोदारामकाराद्यक्षरान्विताम् ।
अनन्तशक्तिभेदां तां कामाक्षीं पूजयाम्यहम् ॥ ३० ॥
कामचारां महामायां कारुण्यहृदयां शिवाम् ।
कामदां करुणां दान्तां कालरा326त्रिं नमाम्यहम् ॥ ३१ ॥
चण्डवेगां चण्डमायां चण्डमुण्डविनाशिनीम् ।
तां327 नमामि जगत्पूज्यां चण्डिकां पूजयाम्यहम् ॥ ३२ ॥
सुखानन्दकरीं शान्तां सर्वदेवैर्नमस्कृताम् ।
सर्वभूतात्मिकां देवीं शांभवीं पूजयाम्यहम् ॥ ३३ ॥
सुन्दरीं स्वर्णवर्णाभां पुत्रसौभाग्यदायिनीम् ।
संतोषजननीं देवीं कौमारीं पूजयान्यहम् ॥ ३४ ॥
दुर्गमे दुस्तरे कार्ये भयशोकविनाशिनीम् ।
पूजयामि सदा भक्त्या दुर्गां दुर्गार्तिनाशिनीम् ॥ ३५ ॥
आद्या चैव महालक्ष्मीस्त्रिपुरा कालिका तथा ।
कामाक्षी कालरात्री च चण्डिका शांभवी तथा ॥ ३६ ॥
सुभद्रा चैव दुर्गा च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
एतासां पूजने सम्यग्लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ३७ ॥
इति नवदुर्गापूजनम् ।
ततो नव विप्रनामधेयानि—
प्रथमो मत्स्यरुपी च द्वितीयः कूर्मनामकः ।
तृतीयश्च वराहश्चचतुर्थो नृहरिः स्मृतः ॥ ३८ ॥
पञ्चमो वामनश्चैव षष्ठो भार्गवसंज्ञकः ।
सप्तमो राम328भद्रश्चदेवकीनन्दनोऽष्टमः ॥३९ ॥
नारायणस्तु नवमो नव नारायणाः स्मृताः ।
एतेषां पूजने तुष्टा नव स्युस्ते जनार्दनाः ॥ ४० ॥
अथ हयनामानि—
प्रतिपत्प्रभृति श्रेष्ठं हयवृद्धेस्तु पूजनम् ।
स्नपयित्वा नदीतोये गन्धधूपैस्तु पूजयेत् ॥ ४१ ॥
उचैःश्रवा हयश्चाऽऽद्यो द्वितीयो मेघपुष्पकः ।
तृ329तीयः क्षेमकृद्वाजी चतु330र्थोराजहंसकः ॥४२ ॥
सर्वसौख्यप्रदः श्रेष्ठः पञ्चमो मकरालयः ।
षष्ठः सुलोचनोवाहः सप्तमो भ्रमराह्वयः ॥ ४३ ॥
अष्टमः कालकेशश्च नवमः सिद्धिदायकः ।
एतेषु पूजितेष्वेव पूजिताः स्युः सुरोत्तमाः ॥ ४४ ॥
दधिक्राव्णो अकारिषमिति हयपूजामन्त्रः ।
एवं कृते विधाने च रात्रौ नित्यं तु जागरम् ।
गीतवादित्रघोषैश्चस्तोत्रैर्देव्या मनोरमैः॥ ४५ ॥
ततस्तु नवमीं प्राप्य कुर्यात्स्थण्डिलमुत्तमम् ।
उत्तममिति लक्षणान्वितम् ।
पूजितायाः शिवामूर्त्तेरग्रतो हवनं शुभम् ॥४६ ॥
ततस्तु स्थापितस्य घटस्य पुनः पूजां विधाय तत्रत्यान्सर्वधान्याङ्कुरान्संगृह्य घटस्थेनैवोदकेन यजयानमुख्यानां सर्वेषां जनानामभिषेकं कुर्यात् ।ततस्तंघटं सजलं कस्यचित्करे दत्त्वा तूर्यघोषसमायुक्तः पूजितैरश्वैस्तैरेव पूजितैर्नवभिर्विप्रैरन्यैश्च विप्रमुख्यैः पौरजनैः सह नगरस्य प्रदक्षिणानवकं कृत्वा सुरयोन्मत्तं महाबलं रक्तवर्णनेत्रं महिषं शक्तेर्दृष्टि331पाते निहन्यात् । ततस्तस्यशोणितेनाक्तं भक्तं विकीर्येत । ततस्तु नवनाथस्वरुपेभ्यो नव विप्रेभ्यः पायसप्रमुखाणि चान्नानि योगिवृन्देभ्यो दद्यात् ।
कन्था मुद्राश्चशङ्खस्य रौप्यस्य स्फटिकस्य वा ।
सुवर्णस्य च ताम्रस्य शृङ्गीं दद्याद्विशेषतः ।
एवं संभोज्य विधिवत्सुरामांसानि दापयेत् ॥ ४७ ॥
एवं चण्डिकाप्रीतिकरं भोजनविधिं समाप्य ततश्चविधानान्तरं समारभेत ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां नवचण्डी विधानम् ।
———————
अथेन्द्रमहोत्सवगोवर्धनपूजनविधानम् ।
विष्णुपुराणे पराशरमैत्रेयसंवादे \। पराशर उवाच—
विमलाम्बरनक्षत्रे काले चाप्यागतो व्रजम् ।
ददशेन्द्रमहोत्साहायोद्यतान्स व्रजौकसः ॥ १ ॥
कृष्णस्तानुत्सुकान्दृष्ट्वा गोपानुत्सवलालसान् ।
कौतूहलादिदं वाक्यं प्राह वृद्धान्महामतिः ॥ २ ॥
कोऽयं शक्रमहो नाम येन वो हर्षआविशत् ।
प्राहतं नन्दगोपश्चपृच्छन्तमिवसादरम् ॥ ३ ॥
मेघानां पयसां देवो देवराजः शतक्रतुः ।
तेन संनोदिता मेघा वर्षन्त्यत्र पयोरसम् ॥४ ॥
तद्वृष्टिजनितं सस्यं वयमन्ये च देहिनः ।
भुञ्जानास्तर्पयामस्तां देवीं या कुलपूजिता ॥ ५ ॥
क्षीरवन्त्य इमा गावो वत्सवन्त्यश्च निर्वृताः ।
तेन संवर्धितैःसस्यैः पुष्टास्तुष्टा भवन्ति ताः ॥ ६ ॥
नासस्या नातृणा भूमिर्न क्षुधार्ता जनाः क्वचित् ।
दृश्यन्ते यत्र दृश्यन्ते वृष्टिमन्तो बलाहकाः ॥ ७ ॥
कुर्वन्ति क्षीरवृद्धिं च कीलालं च वने वने ।
पर्जन्यः सर्वलोकस्य भवाय भुवि वर्षति ॥ ८ ॥
तस्मात्प्रावृषि राजानः सर्वे नन्दन्ति वारिणा ।
श्रद्धया परयेन्द्रस्य कुर्यादुत्सवमुत्तमम् ॥ ९ ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा जानञ्छ्रीमद्गदाग्रजः ।
आह गोपाधिपंवाक्यमिन्द्रदर्षजिहीर्षया ॥१० ॥
न वयं कृषिकर्तारो वाणिज्याजीविनो वयम् ।
गावोऽस्मद्दैवतं तात वयं च हि वनेचराः ॥ ११ ॥
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथा परा ।
विद्याचतुष्टयं ह्येतद्वार्तामत्र शृणुष्व मे ॥ १२ ॥
कृषिस्तद्वच्च वाणिज्यं तृतीयं पशुपालनम् ।
विद्या ह्येका महाभागा वार्ता वृत्तित्रयाश्रया ॥ १३ ॥
कर्षकाणां कृषिर्वृत्तिः पण्यं वाणिज्यजीविनाम् ।
अस्माकं गौः (गावोऽस्माकं) परा वृत्तिर्वार्ताभेदैरियं त्रिभिः ॥ १४ ॥
विद्यया यो यथा युक्तस्तस्य सा दैवतं महत् ।
सैव तस्यार्चनीया च सैव तस्योपकारिका ॥ १५ ॥
यो यस्य फलमश्नन्वैपूजयत्यपरं नरः ।
इह च प्रेत्य चैवाऽऽशु ततो नाऽऽप्नोति शोभनम् ॥ १६ ॥
कृष्यन्ताः प्रथिताः सीमाः सीमान्तं च पुनर्वनम् ।
वनान्ततश्च गिरयः सर्वेऽस्माकं332 सदा गतिः ॥ १७ ॥
तद्धारबन्धावरणानगृहक्षेत्रिणस्तथा । (?)
सुखिनः सकला लोका यथा वै च333क्रचारिणः ॥ १८ ॥
श्रू334यन्ते गिरयः सर्वे वनेऽस्मिन्कामरूपिणः ।
तत्तद्रूपं समास्थाय रमन्ते स्वेषु सानुषु ॥ १९ ॥
यदा चैतेऽपराध्यन्ते तेषां ये काननौकसः ।
तदा सिंहादिरूपैस्तान्घातयन्ति महीधराः ॥ २० ॥
गिरियज्ञस्त्वयं तस्माद्गोयज्ञश्चप्रवर्तताम्।
किमस्माकं महेन्द्रेण गावः शैलाश्चदेवताः ॥ २१ ॥
मन्त्रयज्ञपराविप्रासीतायज्ञाश्च कर्षकाः ।
गिरिगोयज्ञशीलाश्च वयमद्रिवनाश्रयाः ॥ २२ ॥
तस्माद्गोवर्धनः शैलो भवद्भिर्विविधार्हणैः ।
अर्च्यतां पूज्यतां मेध्यान्पशून्हत्वा विधानतः ॥ २३ ॥
सर्वघोषस्य संदोहो गृह्यतां मा विचार्यताम् ।
तोषयन्तस्ततो विप्रांस्तथा ये चाभिवाञ्छकाः ॥ २४ ॥
तमर्चितं (तेऽर्चनीयाः) कृते होमे भोजितेषु द्विजातिषु ।
शरत्पुष्पकृताः पीडाः परिगच्छन्तु गोगणात् ॥ २५ ॥
एतन्मम मतं गोपाः प्रीत्या तु क्रियते यदि ।
ततः कृता भवेत्प्रीतिर्गवामद्रेस्तथा मम ॥२६ ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा नन्दाद्यास्तु व्रजौकसः ।
प्रीत्युत्फुल्लमुखाः सर्वे साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥ २७॥
शोभनं ते मतं वत्स यदेतद्भवतोदितम् ।
तत्करिष्यामहे सर्वे गिरियज्ञः प्रवर्तताम् ॥ २८ ॥
तथैव कृतवन्तस्ते गिरियज्ञं व्रजौकसः ।
दधिपायसमांसाद्यैश्चक्रुः शैलवलिं ततः ॥ २९ ॥
द्विजांश्च भोजयामासुः शतशोऽथ सहस्रशः ।
वृषभाश्चाभिनर्दन्तः(न्ति) संतोषाज्जलदा इव ॥ ३० ॥
गिरिमूर्धनि कृष्णोऽपि शैलोऽहमिति मूर्तिमान् ।
बुभुजेऽन्नं बहु तथा गोपवर्या335हृतंद्विज ॥ ३१ ॥
तेनैव कृष्णो रूपेण गोपैः सह गिरेः शिरः ।
अधिरुह्यार्चयामास द्वितीयामात्मनस्तनुम् ॥ ३२ ॥
अन्तर्धा336नं गते तस्मिन्गोपा गिरिमहोत्सवम् ।
कृत्वा गिरितले गोष्ठं निजमभ्याययुः पुनः ॥ ३३ ॥
ततस्ते विस्मयन्तो वै दृष्ट्वाकृष्णस्य चेष्टितम् ।
हयग्रीवतनुं धृत्वा यश्चाखादान्नमुत्तमम् ॥ ३४ ॥
प्रस्थशो द्रोणशश्चापि खारीशोऽपि ततः परम् ।
आनीतं सर्वगोपैस्तैः स्वल्पवत्तेन भक्षितम् ॥ ३५ ॥
ऊचुश्चसकला गोपाः प्रीत्यातं देवकीसुतम् ।
प्रभावस्ते महान्कृष्ण लोकातीतस्तु दृश्यते ॥ ३६॥
बालस्यापि क्षुधावोधो वडवानलवत्कथम् ।
अस्माकं तु शिशुः कृष्ण यत्करोषि तदद्भुतम् ॥
देवानामविनिर्वाच्यं क्वच मानुषगोचरम् ॥३७ ॥
श्रीकृष्ण उवाच—
अहं सर्वगतः साक्षी साक्षात्परमपूरुषः ।
त्रयाणां जगतां स्रष्टा धर्ता हर्ता स्वयं शिवः ॥ ३८ ॥
यदद्य गिरियज्ञेऽस्मिन्भवद्भिः समु337पाहृतम् ।
स यज्ञपुरुषश्चास्मिंस्त(द्मित)दन्नमपि सर्वशः ॥ ३९ ॥
अन्नोपसाधनं सर्वंकण्डणीपेषणीमुखम् ।
इत्युक्त्वाऽन्तर्दधे कृष्णस्तत्र तेषां च पश्यताम् ॥ ४० ॥
कृष्ण कृष्णेति ते प्रोचुरशृण्वंश्चैव तद्गिरः ।
मुसलोलूखले शूर्षेघरट्टे पेषणीतले ॥ ४१ ॥
इत्यादिसकलेष्वेव श्रुत्वा कृष्णस्य भारतीम् ।
तुष्टुवुस्ते महाभागा नन्दाद्या व्रजवासिनः ॥ ४२ ॥
प्रादुर्बभूव गोविन्दः प्रसन्नतनुरीश्वरः ।
उवाच वचनं श्लक्ष्णंनन्दादींस्तान्व्रजौकसः ॥ ४३ ॥
प्रत्ययो वस्तनूनां मे जातः सर्वत्र शोभनः ।
यद्यद्दृष्टतमं लोके ततत्सर्वंभवाम्यहम् ॥ ४४ ॥
मा कु338रुध्वं तु संदेहं कृष्णं मां वि339त्त सादरम् ।
ये करिष्यन्ति मे चेयंमहं गिरिमखात्मकम् ॥ ४५ ॥
प्रत्यब्दमिषमासेऽस्मिन्पक्षे शुक्ले विशेषतः ।
नवमीं तिथिमुद्दिश्य ते यान्ति परमांगतिम् ॥ ४६॥
गोवर्धनगिरेरस्मादन्यस्मिन्विषयोत्तमे ।
ग्रामे वा पत्तने वाऽपि स्वे स्वे हर्म्ये शुचिव्रताः ॥ ४७ ॥
मृन्मयः पर्वतः श्रेष्ठो गोवर्धनगिरिः स्वयम् ।
कर्तव्यः श्रद्धया सम्यक्तृणवृक्षोपशोभितः ॥ ४८ ॥
गोकुलं तत्र कर्तव्यं मया सह शुभावहम् ।
पूजनीयः स शैलेन्द्रो मत्तनुस्तस्य मूर्धनि ॥ ४९ ॥
उपत्यकायामपरा पूजनीया प्रयत्नतः ।
गावो गोपाश्चसंपूज्या गन्धधूपैः समर्चिताः ॥ ५० ॥
ततो मुसलशूर्पादि पाकानां साधनं महत् ।
शस्त्रास्त्राणि च सर्वाणि वस्त्राणि विविधानि च ॥
मन्नाममन्त्रमुच्चार्य पूजयेत्प्रयतः पुमान् ॥ ५१ ॥
तथा हि—
मुसले बलदेवं340च वासुदेवमुलूखले ।
शूर्पेदेवं गदापाणिं घरट्टे च जनार्दनम् ॥ ५२ ॥
वरिवर्तिनि गोविन्दं पेषण्यां श्रीधरंतथा ।
नारायणं तु मणिके चुल्ल्यां देवं हुताशनम् ॥५३ ॥
भाजनेऽप्यारनालस्य ल341क्ष्मीशं पूजयेत्सुधीः ।
महानसे महाविष्णुं वैकुण्ठं देवतास्पदे ॥५४ ॥
कपाटे केशवं चैव प्रक्री(की)ले पुरुषोत्तमम् ।
प्रद्युम्नं देहलीदेशे त्वलिन्दे माधवं तथा ॥ ५५ ॥
अङ्गणे चक्रपाणिं च सर्वज्ञं पुस्तकालये ।
चापे शार्ङ्गधरं देवं तूणीरे वामनं तथा ॥ ५६ ॥
बाणेषु बलभद्रं च खड्गे नन्दकधारिणम् ।
कुन्तायुधे पद्मनाभं तोमरे गरुडध्वजम् ॥ ५७ ॥
छुरिकायां हृषीकेशमुपेन्द्रं चैव चर्मणि ।
चतुर्भुजं तु फलके कंकटे मधुघातिनम् ॥ ५८ ॥
स्वभुवं वज्रकवचे सर्वत्रैवत्रिविक्रमम् ।
एवं संपूजयेद्देवं मामेव वृष्णिनन्दनम् ॥ ५९ ॥
य इदं कुरुते नित्यं विधानं प्रतिवत्सरम् ।
नन्दते सदनं तस्य यथा ते नन्द गोकुलम् ॥ ६० ॥
संतानं वर्धते तस्य पुत्रपौत्रप्रपौत्रकैः ।
गवां च क्षीवृरद्धिः स्याद्धनधान्यसमन्विता ॥ ६१ ॥
तस्मादिदं प्रकर्तव्यं विधानं मम सुव्रत ।
प्रसन्ने मयि सर्वत्र विजयं प्राप्नुयान्नरः ॥६२ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां विष्णुपुरोणोक्तमिन्द्रमहोत्सवगोवर्धनपूजनविधानम् ।
———————
अथ विजयादशमीविधानम् ।
प्राह नारदः—
सूर्योदये यदा राजन्दृश्यते दशमी तिथिः ।
आश्विने मासि शुक्ला तु विजयां तां342विदुर्बुधाः ॥ १ ॥
तथा च स्कन्दपुराणे—
मार्तण्डस्योदये पुण्या वर्तते दशमी तिथिः ।
आश्विने मासि शुक्ले तु सा भवेज्जयदा नृणाम् ॥ २ ॥
निषिद्धमपि कर्तव्यं तैलाभ्यञ्जनमादरात् ।
अश्वानामपि कर्तव्यं तैलस्नानं नदीजले ॥ ३ ॥
तूर्यघोषसमायुक्तान्पुरं प्रावेशयेद्धयान् ।
पुष्पमालापरीतांस्तान्हयांश्चन्दनभूषितान् ॥ ४ ॥
चामरैर्वीज्यमानांश्च साधुशब्दैश्चलालितान् ।
राजद्वारि समाविष्टान्स्त्रीभिर्नीराजितान्हयान् ॥ ५ ॥
संपूज्य विधिवद्राजा नमस्कुर्यात्प्रयत्नतः ।
भक्ष्यं भोज्यं स्वहस्तेन भोजयेत्तुरगान्नृपः ॥ ६ ॥
वाहाधिकारिणः सर्वान्दानमानैस्तु तोषयेत् ।
तथैव वारणान्राजा पूजयेच्च क्रमेलकान् ॥ ७ ॥
नाममन्त्रेण विधिवच्चतुर्थ्यन्तेन मन्त्रवित् ।
कृताभ्यङ्गो महाघोषैस्तूर्याणां शुभलब्धये ॥ ८ ॥
ततश्च पूजयेद्देवान्गन्धपुष्पादिकैरलम् ।
आहूय ब्राह्मणान्सर्वान्वाचयेत्स्वस्तिमङ्गलम् ॥ ९ ॥
ततस्तुरगमारुह्य तूर्यघोषसमन्वितः ।
बन्दिभिः स्तूयमानस्तु सन्मनाः शकुनैर्ब्रजेत् ॥ १० ॥
ज्योतिःशास्त्रोदितां काष्ठां सुत्दृद्भिः परिवारितः ।
संप्राप्तस्तु शमीवृक्षमश्मन्तकमथापि वा ॥ ११ ॥
अवतीर्य नृपो वाहाद्वेगात्सह पुरोधसा ।
संनिषण्णः शमीमूलं विदध्यात्स्वस्तिवाचनम् ॥ १२ ॥
कार्योद्देशाञ्जनैः साकं प्रयोगकुशलैर्वदेत् ।
ततः प्रोक्ष्य शमीमूले भूमिं भूमिपतिर्ध्रुवम् ॥ १३ ॥
उत्कृत्य मृत्तिकां तत्र प्रक्षिपेत्तण्डुलाञ्छुभान् ।
सपूगं हेम शक्त्या तु तद्भावे तु तारकम् ॥
ततः प्रदक्षिणं कुर्यात्तस्य वृक्षस्य भूपतिः ॥ १४ ॥
तत्र मन्त्रः—
शमी शमयते पापंशमी शत्रुविनाशिनी ।
धारिण्यर्जुनबाणानां रामस्य प्रियवादिनी ॥ १५ ॥
इति शमीप्रार्थनामन्त्रः ।
अश्मन्तक महावृक्ष सर्वदोषनिवारण ।
इष्टानां दर्शनं देहि कुरु शत्रुविनाशनम् ॥ १६ ॥
त्यश्मन्तकप्रार्थनामन्त्रः ।
ततः शमीतरोर्वाऽश्मन्तंकेरयवो भयोः पत्राणि गृहीत्वा तस्यां मृदितण्डुलपूगहेमानि प्रक्षिप्यगोलकं कृत्वा सर्वकार्यसिध्यर्थंगृह्णाति ततो वृक्षंनमस्कृत्य दिग्लिङ्गैर्मन्त्रैः प्राचीपूर्वादिग्जयं गृहीतखड्गःकरोति । एवंत्रिचतुष्पादक्रमेण तुलितासिर्दिग्विजयं कृत्वा शत्रवोजिता इति ब्रूयात् ।
इन्द्रादीन्देवान्विप्रांश्च नमस्कृत्य स्वपुरं प्रविशेत् । ततः प्रविष्टः सन्महाद्वारसमीपेपुण्यस्त्रीभिर्नीराजितो द्वारि न्यस्तेषु मञ्चकेषु तूलिकोपरि तण्डुलैः कृतमूर्तिषुशत्रुषु पदं कृत्वा लब्धविप्रानुज्ञो निषण्णो भूत्वा द्रव्यवस्त्रताम्बूलादि सर्वंदद्यात् ।
एवं कृत्वा विसृज्याऽऽशु सर्वान्पौरान्निजालयात् ।
प्रतिवर्षं कृते चैव सर्वकार्यपरो भवेत् ॥ १७ ॥
एवं सर्वेषु पौरेषु विधिरेषसनातनः ।
निष्पादितो यथाधर्मं विदधाति सुखं श्रियम् ॥ १८ ॥
एवं कृते विधाने च तुष्टिदे पुष्टिदे नृणाम् ।
सर्वैः पौरजनैः सार्धं विजयं प्राप्नुयान्नृपः ॥ १९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भविष्योत्तरपुराणोक्तंविजयादशमीविधानम् ।
—————
अथ नरकचतुर्दशीविधानम् ।
तत्र स्मृतिवचनम्—
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यामाश्विनस्य विधूदये ।
तैलस्नानं प्रकर्तव्यं नरैर्नरकभीरुभिः ॥ १ ॥
तत्र प्रयोगः—
सर्वपापविनिर्मुक्तो नरकासुरतुष्टिदम् ।
सर्वकामफलप्राप्त्यै तिलस्नानं करोम्यहम् ॥२ ॥
तत्र विशेषः—
कृतस्नाना तिलैर्नाारी नीराजनपरा भवेत् ।
वैधव्यं लभते सा तु देशे च मरुके भवेत् ॥ ३ ॥
त्रि343कटु सघृतं पश्चात्प्राश्नीयाद्धित344काम्यया ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्वैष्णवान्विष्णुतुष्टये ॥ ४ ॥
एवं कृते विधाने च पुष्टिदे तुष्टिदे नृणाम् ।
आरोग्यं लभते सद्यो विजयं प्राप्नुयाद्ध्रुवम् ॥ ५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां नरकचतुर्दशीविधानम् ।
———————
अथ भ्रातृद्वितीयासहितबलिमहोत्सवविधानम् ।
आश्विने कृष्णपक्षे तु द्वादशीमुख्यपञ्चसु ।
तिथिषूक्तः पूर्वरात्रे345नृणां नीराजनाविधिः ॥ १ ॥
कृताभ्यङ्गमहोत्साहा कृतमाल्यानुलेपनाः ।
शुचिवस्त्राः शुभाचारा गृहीतकरदीपकाः ॥ २ ॥
नीराजयेयुर्देवांस्तु विप्रान्गाश्चतुरङ्गमान् ।
ज्येष्ठाञ्छ्रेष्ठाञ्जघन्यांश्च मातृमुख्याश्च योषि346तः ।
राजानं सचिवं चापि राजपुत्रावपि ध्रुवम् ॥ ३ ॥
तत्र नीराजनमन्त्रः—
दीपोत्सवे महापुण्ये बलिराज्यप्रवर्तके ।
भूयाच्छुभकरी नॄणां कृता नीराजना मया ॥ ४ ॥
विरोचनसुतो धीमान्परमं दैवकारणम् ।
बलिर्भूयात्सुखायात्र सर्वेषां प्राणिनामपि ॥ ५ ॥
सुभिक्षमायुरारोग्यं नित्योद्योगपरा जनाः ।
भवन्त्विह महोत्साहे रात्रौ नीराजिता मया ॥ ६॥
इति नीराजनमन्त्रः ।
एवं विधानं कर्तव्यं रात्रौ नीराजनात्मकम् ।
नित्याभ्यङ्गपरैः पुंभिर्हृष्टैःपुष्टैर्महोत्सवैः ॥ ७ ॥
कार्तिकस्य सिते पक्षे नक्षत्रं यद्द्विदैवतम् ।
नीराजनं न कुर्वीत प्रतिपद्याह गौतमः ॥८ ॥
कार्तिक शुक्लपक्षाद्ये विधानं द्वितयं तिथौ ।
नारीनीराजनं प्रातः सायं मङ्गलमालिका ॥ ९ ॥
प्रातःसायाह्नयोः कार्यं सपताकं गृहार्चनम् ।
पुष्पाणां प्रकरं347 योपाः कुर्युश्चत्वरभूमिषु॥ १० ॥
दधिदूर्वाक्षतापुष्पप्रकरं चन्दनं तथा ।
प्रकीर्य सद्मनो द्वारे तोरणैश्च सुसंस्कृतैः ।
उपचाराञ्छुभाचारान्कुर्याद्बलिदिने सुधीः ॥ ११ ॥
मातृष्वसृसुतादिभ्यो देयं वस्त्रादिभूषणम् ।
ब्राह्मणेभ्यो धनं गाश्च गोभ्यश्चैव तृणं जलम् ॥ १२ ॥
भक्ष्यं भोज्यं च सर्वेभ्यः प्राणिभ्यो भूतिमिच्छता ।
देयं बहुतरं सम्यग्विष्णुसंतोषकारकम् ॥१३ ॥
क्रीडाद्यूतं ततः कुर्याद्ब्राह्मणप्रमुखो जनः ।
कुर्यात्ताम्बूलदानं च मिथःप्रीतिवि348वर्धनम् ॥१४ ॥
ततो रात्रौ समभ्यर्च्य पुष्पैः शंकरवल्लभाम् ।
दीपैर्नीराजयेदन्नैस्तोषयेत्प्रयतो नृपः ॥ १५ ॥
ततः349प्रभाते विमले भगिनी भ्रातृमन्दिरम् ।
गत्वा निमन्त्रयेद्भ्रातॄञ्जनकं जननीं तथा ॥ १६ ॥
आनीय सकलान्हृष्टाञ्छुभं स्वं मन्दिरं प्रति ।
अभ्यङ्गं कारयेद्यत्नाच्छुभैर्भोज्यैश्च भोजयेत् ॥ १७ ॥
पित्रादिसर्वबन्धुभ्यो दद्याद्वस्त्राणि भूरिशः ।
तैश्च ताभ्यः प्रदातव्यं वस्त्रालङ्कारभूषणम् ॥ १८ ॥
विधानान्तरगं चैतद्द्वितीयोत्सवपूर्वकम् ।
कर्तव्यं प्राणिभिः सर्वैरायुरारोग्यमीप्सुभिः ॥ १९ ॥
एतद्विधानद्वितयं नराणां कृतं विदध्याच्छुभकर्मसिद्धिम् ।
अतोऽन्यथा चेद्विदधाति हानिं मृतिं विघातादिति चाऽऽहुरार्याः ॥ २० ॥
विधानान्ते बलेर्मूर्तिं कृत्वा गीर्वाणमन्दिरे ।
सर्वधान्ययुतां कुर्याद्वस्त्रयुग्मेण वेष्टिताम् ॥ २१ ॥
पूजितां पुष्पधूपाद्यैरुपचारैर्मनोरमैः ।
दानमन्त्रेण संमन्त्र्य दद्याद्विप्राय भूपतिः ॥ २२ ॥
तत्र दानमन्त्रः—
विरोचनसुतो धीमांश्चिरंजीवी महायशाः ।
विप्राय विधिवद्दत्तो दद्यान्मे विपुलं सुखम् ॥ २३ ॥
इति दानमन्त्रः ।
ततः स्वान्स्वान्गृहान्यान्तु लोका राजपुरःसराः ।
चिरं नन्दन्तु सुधियः प्रसादान्मधुघातिनः ॥ २४ ॥
एवं बलिमहोत्साहे प्राप्ते सर्वजनप्रिये ।
विधानमेतच्छुभदं यः कुर्यात्स सुखी चिरम् ॥ २५ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भ्रातृद्वितीयासहितबलिमहोत्सवविधानम् ।
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अथ संकीर्णविधानानि ।
आदित्यपुराणेऽरिष्टाध्याये—
अकालवृष्टिस्तरुमूलकृन्तनं फलेषु पुष्पेषु विपर्ययोद्भवः ।
दूर्वाप्ररोहाः सदनेषु निन्दितास्तरुप्ररोहा नृपतेर्भयप्रदाः ॥ १ ॥
मूर्तिप्रभङ्गः सहजः सुराणामौत्पातिको वा भयदो नृपाणाम् ।
तदा मृतिर्ब्रह्मबटोर्जनानां तद्ग्रामतद्वंशभयस्य हेतुः ॥ २ ॥
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अथ शिवलिङ्गभेदविधानम् ।
सहजोत्पाटिते देवे (लिङ्गे ) यदि (भेदे ) शूलभूतो यदा ।
पिण्डिकायास्तदाऽप्येवं विधानं तत्र कथ्यते ॥ १ ॥
पिण्डिका यदि भिन्ना स्यात्तदाऽन्यां कारये350द्बुधः ।
तल्लिङ्गं स्थापयेन्नूनं मन्त्रैस्तल्लिङ्गसंज्ञकैः ॥ २ ॥
श्रीसूक्तेन शुभाचारैर्ब्राह्मणैर्नैष्ठिकव्रतैः ।
श्रद्धया परया राजा विधानं कारयेत्सुधीः ॥ ३ ॥
गर्भागारं जलैः शुद्धैः क्षालयेत्प्रथमं ततः ।
दशाङ्गैर्धूपयेद्धूपैः पयसा पूरयेत्ततः ॥ ४ ॥
पश्चाच्च क्षालयेत्तोयैरुष्णैःपल्लवसंयुतैः ।
कुम्भाभिषेचनं कुर्युर्ब्राह्मणाश्चसहस्रकम् ॥ ५ ॥
शतं चाष्टाधिकैर्मन्त्रैर्वारिभिस्तु सतूर्यकैः ।
गन्धपुष्पैश्च तन्मन्त्रैर्धूपयेच्चानुलेपयेत् ॥६ ॥
कालोद्भवैश्चपुष्पैश्च पूजयेत्प्रयतः शुचिः ।
भूषयेन्नवरत्नैश्च वस्त्रयुग्मेण वेष्टयेत् ।
दापयेद्यज्ञसूत्राणि सप्त वा पञ्च वा सुधीः ॥ ७ ॥
तत्र पौराणमन्त्राः—
एवं सर्वेश्वरानङ्गदेहभङ्गविधायक ।
रक्ष लोकाञ्जगन्नाथ प्रसन्नो भव शंकर ॥ ८ ॥
प्रतिष्ठा तव लोकेऽस्मिन्सुखदा भवतु प्रभो ।
विघ्ना नश्यन्तु सर्वेऽपि प्रसन्नो भव शंकर ॥ ९ ॥
लोहिताक्ष महाबाहो वेदमूर्ति ( र्ते) निरामय ।
पार्वतीनाथ विश्वेश संनिधिं कुरु सर्वदा॥ १० ॥
मूलमन्त्रेण सर्वेऽपि ह्युपचाराः प्रकीर्तिताः ।
क्षेमवृद्धौ च कल्पन्ते सर्वदा देहधारिणाम् ॥ ११ ॥
ततः प्रदक्षिणां कुर्युर्नृपतिप्रमुखा जनाः ।
वृषभं पूजयेद्राजा गन्धपुष्पाक्षतैर्ध्रुवम् ॥ १२ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च हावयेत्पायसेन च ।
तण्डुलैः सर्पिषा युक्तैरष्टोत्तरशतं ततः ॥ १३ ॥
बिल्वपत्रैः सहस्रं च शतपत्रैः सचम्पकैः ।
सितोत्पलैः सहस्रं च जुहुयात्सघृतैः सुधीः ॥ १४ ॥
अपूपैश्चापि कर्तव्यं पूरकैःक्षीरषष्टिकैः ।
मोदकैश्चापि कर्तव्यं मातुलुङ्गफलैस्तथा ॥ १५ ॥
प्रधानं पायसं तत्र तिलव्रीहिसमन्वितम् ।
रौप्यं तु पारदं वाऽपि पीठे संपूजयेच्छिवम् ॥ १६ ॥
सूक्तं तु पौरुषं विद्वाञ्जपेद्भूपालसंनिधौ ।
श्रीसूक्तं तु शुभाचारः श्रेयस्करमिदं परम् ॥ १७ ॥
एवं समाप्ते हवने ब्राह्मणान्भोजयेत्सुधीः ।
दद्याच्च वस्त्रयुग्माणि सालङ्काराणि भूपतिः ॥ १८ ॥
दक्षिणार्थं तु कनकं रजतं वा समाहितः ।
षोडशभ्यो द्विजातिभ्यो धान्यं दद्याच्च पुष्कलम् ॥ १९ ॥
येन येन विधानेन क्रियते द्विजतर्पणम् ।
तच्छृणुष्व महाबाहो यतस्ते शिवमूर्तयः ॥ २० ॥
प्रथमं शंकरं विद्याद्द्वितीयं शूलधारिणम् ।
तृतीयं पार्वतीनाथं चतुर्थं वृषभध्वजम् ॥ २१ ॥
पञ्चमं पञ्चवदनं षष्ठंखट्वाङ्गधारिणम् ।
सप्तमं प्रमथाधीशमष्टमं च कपर्दिनम् ॥ २२ ॥
नवमं गिरिशं विद्याद्दशमं फणिभूषणम् ।
एकादशं च भूतेशं द्वादशं कृत्तिवाससम् ॥२३ ॥
त्रयोदशं वामदेवं भर्गं विद्याच्चतुर्दशम् ।
मृत्युंजयं पञ्चदशमीशानं षोडशं स्मृतम् ॥
एतानि शिवनामानि क्रमाद्विप्रेषु योजयेत् ॥ २४ ॥
उपचारैःषोडशभिरुपचर्यो महेश्वरः ।
षोडशक्षितिदेवेभ्यो दद्याद्भोजनमञ्जसा ॥ २५ ॥
वस्त्राण्याच्छादनार्थाय दक्षिणां च यथाविधि ।
संभोजयेद्द्विजपत्नीस्तावतीरेव सुव्रताः ॥२६ ॥
पार्वतीप्रीतये351 पुष्पवस्त्रालङ्कारभूषणैः ।
एवंविधे विधाने च कृते दुष्कृतिना वरे ॥२७ ॥
क्षेमदो जायते देवः पार्वतीप्राणवलभः ।
विघ्ना नश्यन्ति सर्वेऽपि लिङ्गभेदसमुद्भवाः ॥२८ ॥
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अथ भूमिभेदविधानम् ।
अकस्माद्भिद्यते भूमिरनिमित्तं352 सगर्जना ।
तदाऽऽदिशति भूपस्य राष्ट्रपीडां महीयसीम् ॥ १ ॥
व्याधीनां दारुणा भीतिः परचक्रभयं तथा ।
तत्पीडाशमनं कार्यं विधानं पृथिवीभुजा ॥ २ ॥
पद्मपुराण उमामहेश्वरसंवादे । उमोवाच—
यदि भूमिर्द्विधा नाथ भिद्यते ह्यनिमित्ततः ।
किं करोति नृपालस्य तद्वदस्व महेश्वर ॥३ ॥
श्रीमहेश्वर उवाच—
भूमिपर्वतभेदश्च जायते ह्यनिमित्ततः ।
तदा दिशति राष्ट्रस्य नाशं सह महीभुजा ॥४ ॥
विधानं तत्र कर्तव्यं विद्वद्भिर्विधिपूर्वकम् ।
स्योना पृथिविमन्त्रेण लक्षाणि जुहुयाद्दश ॥ ५ ॥
तिलाज्येन तु वै विद्वान्व्रीहियुक्तेन सत्तमः ।
होमान्ते विधिवद्राजा धेनुं दद्यात्सदक्षिणाम् ॥ ६॥
पयस्विन्य353र्जनी धेनुरिति लक्षणम् । अथवा या काविद्भवेत् ।
गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश ।
इत्यादिपौराणवचनैः संमार्थ्य श्रोत्रियाय कुटुम्बिने विष्णुभक्ताय दद्यात् ।
ततो वस्त्राणि भूषाश्च ऋत्विग्भ्यो भूरिदक्षिणाम् ।
शय्यां सदक्षिणां दद्याद्ब्राह्मणाय कुटुम्बिने ॥ ७ ॥
व्यजनं चामरं चैव दद्यात्क्रोडस्य तुष्टये ।
ततः सत्यवतीं भूमिं ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ ८ ॥
भूमिः354 कश्यपसंभूता वराहेण समुद्धृता ।
प्रीता भवतु दानेन ब्राह्मणे प्रतिपादिता ॥९ ॥
यत्किंचित्कुरुते पापं ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा ।
अपि गोचर्ममात्रेण भूमिदानेन शुध्यति ॥ १० ॥
ससीरां सवृषांभूमिं यो दद्यात्पृथिवीं नृपः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स विष्णुः परमेश्वरः ॥ ११ ॥
भूमिपर्वतभेदेन यो विघ्नः परिजायते ।
नश्यतेऽसौ भुवो दानात्पवनादिव बुद्बुदः ॥ १२ ॥
होमद्रव्येषु सर्वेषु तिलाज्यं हि प्रधानकम् ।
मन्त्रेष्वेव355 च सर्वेषु स्योना पृथिवी भवेति ॥ १३ ॥
आचार्यो विप्रवृन्दे356 च दानेषु च मही स्मृता ।
देवतासु च सर्वासु वराहो देवता स्मृता ॥ १४ ॥
यस्मिन्काले समुद्भूतिर्भुवो भेदस्य जायते ।
अद्रेर्वा जायते देवि कालं तं न विलङ्घयेत् ॥ १५ ॥
अथ पद्मपुराणोक्तं पर्वतभेदविधानम् ।
उमामहेश्वरसंवादे महेश्वर उवाच—
विनिर्घातं तडित्पातं विना पर्वतभेदनम् ।
जायते यदि रुद्राणि तदा राज्ञो भयं भवेत् ॥ १ ॥
विधानं तत्र कर्तव्यं स्वहिताय महीक्षिता ।
आहूय ब्राह्मणाब्राजा मानपूर्वं विमत्सरः ॥ २ ॥
कुर्यात्पर्वतदानानि धातूनामष्टधाऽष्ट च ।
अष्टौ पर्वतमूर्तीश्च विप्रेषु प्रतिपादयेत् ॥३ ॥
हिमवान्माल्यवान्सह्यो विन्ध्यो मलयनिष्कुटौ ।
श्वेताद्रिश्च सुमेरुश्च गिरीणां मूर्तयोऽष्टधा ॥ ४ ॥
कनकस्य सुमेरुः स्याद्राजतो रौप्य (तःश्वेत ) पर्वतः ।
माल्यवांस्ताम्रमूर्तिश्चविन्ध्यः कांस्यमयः स्मृतः ॥ ५॥
निष्कुटं लोहजं विद्याद्वङ्गजं हिमपर्वतम् ।
सह्यं सीसमयं विद्यान्माण्डूरो मलयः स्मृतः ॥ ६ ॥
मेरोर्मूर्तिः पलैः श्ड्भी रजताद्रेस्तथाऽष्टभिः ।
त्रिंशता माल्यवान्कार्यः सह्यः शतपलस्तथा ॥ ७॥
तथैव हिमवाञ्ज्ञेयो विन्ध्यः शतपलो भवेत् ।
पलानां च सहस्रेण निष्फुटं कारयेद्बुधः ॥ ८ ॥
द्वात्रिंशत्पलको ज्ञेयो माल्यवान्पण्डितोत्तमैः ।
सुवर्णं दक्षिणां तेषु दद्याद्भूपतिसत्तमः ॥ ९ ॥
आदौ तु हवनं कृत्वा गायत्र्यायुत संख्यया ।
पायसेनाऽऽज्ययुक्तेन ततो दानविधिः स्मृतः ॥ १० ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दक्षिणाभिस्तु तोषयेत् ।
अभिषेकविधेः पश्चात्कृत्वा ब्राह्मणभोजनम् ॥ ११ ॥
संभुक्तेषु च विप्रेषु गृह्णीयादाशिपो नृपः ।
यस्तु भिन्नो गिरिस्तत्र निदध्यात्क्षीरशर्करे ॥ १२ ॥
यानि कानि च पुष्पाणि यानि कानि फलानि च ।
ततस्तु जायते शान्ती राज्ञो राष्ट्रस्य पार्वति ॥
एवं कृते विधानेऽस्मिन्विघ्नः कोऽपि न जायते ॥ १३ ॥
अथ मध्यरात्रे धेनुहुम्बारवविधानम् ।
तथा श्रीभारते—
धेनुः शब्दायते राजन्मध्यरात्रे गृहे गृहे ।
नाशाय सर्वराष्ट्रस्य तत्कुलस्य विशेषतः ॥ १ ॥
शान्तिं विधेहि भद्रं ते तया क्षेमं भविष्यति ।
न करोषि यदि क्ष्माप शान्तिं गर्गोदितां शुभाम् ॥ २ ॥
तदा सर्वस्य राष्ट्रस्य त्वया सह महद्भयम् ।
ग्रामे रुतं निशीथे गोर्ग्रामस्यैव भयं भवेत् ॥३ ॥
राजधान्यां तु राजेन्द्र तदा पृथ्वी विलीयते ।
अत्र शान्तिर्विधातव्या जपहोमसुरार्चनैः ॥ ४ ॥
मृत्युंजयेन मन्त्रेण लक्षजाप्यं विधीयते ।
यथोक्तं हवनं पश्चात्ततो ब्राह्मणभोजनम् ॥ ५ ॥
मृत्युंजयेन मन्त्रेण सर्वमेव विधीयते ।
धेनुं पयस्विनीं दद्याद्यथालक्षणलक्षिताम् ॥६ ॥
सप्त धान्यानि देयानि विप्रेभ्यो भूतिमिच्छता ।
या गौः शब्दति राजेन्द्र साऽपि देया द्विजातये ॥ ७ ॥
गृहे गृहे च लेख्यानि गोकुलानि विचित्रकैः ।
गोपालैः सह राजेन्द्र यमुनातीरकेलिभिः ॥ ८ ॥
उच्छ्रायं तोरणानां च विदध्यान्नागरो जनः ।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते ॥ ९ ॥
—————
अथाश्वत्थपूजाविधानम् ।
स्कन्दपुराणे—
यस्य स्त्री स्त्रीप्रसूर्नित्यं मृतापत्याऽथवा भवेत् ।
तेनाऽऽशु पिप्पलः पूज्यो यथाविधि हितेप्सुना ॥ १ ॥
भृगुवारे प्रदोषे च सायंविधिमुपास्य च ।
सभार्यः पिप्पलं गत्वाप्रार्थयेत्तं समाहितः ॥ २ ॥
तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
बोधिद्रुम महावृक्ष महापापनिवारण ।
नारायणस्वरूपस्त्वं क्षेमं कुरु जगत्पते ॥ ३ ॥
इति संप्रार्थ्य तं वृक्षं कृत्वा चैव प्रदक्षिणम् ।
आलवाले जलं क्षिप्त्वा ततः स्वगृहमाव्रजेत् ॥४ ॥
ब्रह्मचारी<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16972695985.png"/>357स्वपेद्रात्रौ भुक्त्वा भुवि हरिं स्मरन् ।
निधाय तुलसीदाम कण्ठे मुद्रितलोचनः ॥ ५ ॥
ततः प्रातः समुत्थाय स्नात्वा गङ्गाजले तिलैः ।
गच्छेतां द्वावपि ब्रह्मन्पिप्पलान्तिकमादरात् ॥ ६ ॥
विष्णोर्नाम्नां सहस्रं च जपेत्तत्र समाहितः ।
कुर्यात्संमार्जनं तत्र ह्यासमन्तात्तरुप्रभोः ॥ ७ ॥
विकीर्य तत्र पुष्पाणि चन्दनं च विशेषतः ।
कुङ्कुमं केसरं चैव पिप्पलाङ्गे विलेपयेत् ॥ ८ ॥
आलवाले क्षिपेद्वारि358क्षीरं दधि घृतं मधु ।
तद्विष्णोरिति मन्त्रेण पायसं जुहुयात्सुधीः ॥ ९ ॥
अयुतं वा सहस्रं वा यथाविभवसारतः ।
मातुलुङ्गैस्ततः कुर्याद्धवनं शतसंख्यया ॥१० ॥
उद्देशो विष्णुदैवत्यो द्रव्याणां हवने स्मृतः ।
धात्रीफलैस्तथा द्राक्षाफलैः खर्जूरकैस्तथा ॥ ११ ॥
इक्षुदण्डैश्च कदलैःशतसंख्या पृथक्पृथक् ।
जाते तु हवने तस्मिन्सूत्रैरावेष्टयेत्त्रिभिः ॥१२ ॥
पिप्पलं संस्कृतं सम्यग्वाससा वेष्टयेत्ततः ।
गन्धपुष्पाक्षतैः सम्यग्वृक्षाङ्गं तत्समर्चयेत् ॥१३ ॥
दशाङ्गैर्धूपयेद्धूपैर्दीपैर्नीराजयेत्सुधीः ।
नैवेद्यैर्विधिवद्भक्त्याताम्बूलेन सुतोषयेत् ॥ १४ ॥
बोधिद्रुम महावृक्ष महापापनिषूदन ।
पुत्रान्देहि जगन्नाथ कुरु मे जीवसंततिम् ॥ १५ ॥
इति संप्रार्थ्यप्रदक्षिणीकृत्य दण्डवत्प्रणिपातैः प्रणम्य तत आचार्यपूजनं कुर्यात् ।
वस्त्रयुग्मं च धेनुं च दद्यादाचार्यतुष्टये ।
अत्राऽऽचार्यप्रार्थनामन्त्रः पौराणः—
आचार्य त्वं महाविष्णुराचार्यानीयमब्धिजा ।
दत्तं मे संततिं श्रेष्ठां प्रसन्नेनैव चेतसा ॥१६ ॥
युवं वस्त्राणीति वस्त्राणि समर्पयेत्, हिरण्यरूप इति हिरण्यम् । गवामङ्गेषुतिष्ठन्तीति गोप्रदानम् ।
ततः स्वगृहमागत्य ब्राह्मणान्भोजयेत्सुधीः ।
चतुर्विंशतिसंख्याका विष्णुमूर्तीः प्रकल्पयेत् ॥ १७ ॥
तत्र प्रत्येकमूर्तिपार्थक्यम् ।
प्रथमं केशवं विद्याद्द्वितीयं मधुसूदनम् ।
संकर्षणं तृतीयं च दामोदरमतः परम् ॥ १८ ॥
वामनं पञ्चमं विद्यात्षष्ठंप्रद्युम्नसंज्ञकम् ।
सप्तमं विष्णुनामानं माधवं चाष्टमं विदुः ॥ १९ ॥
नवमं चानिरुद्धाख्यं दशमं पुरुषोत्तमम् ।
एकादशमधोक्षजं द्वादशं च जनार्दनम् ॥ २० ॥
त्रयोदशं च गोविन्दं त्रिविक्रममतः परम् ।
श्रीधरं दशमं359 हृषीकेशं च षोडशम् ॥ २१ ॥
नारसिंहं सप्तदशं वासुदेवमतः परम् ।
अतः परं पद्मनाभं कृष्णं विंशतिमं तथा ॥ २२ ॥
एकविंशतिमं विद्यादुपेन्द्रं जगतः प्रभुम् ।
हरिं च द्वाविंशतिकमच्युतं च ततः परम् ॥ २३ ॥
चातुर्विंशतिकं विद्यान्नारायणमनुत्तमम् ।
एतानि विष्णुनामानि चतुर्विंशतिषु न्यसेत् ॥ २४ ॥
ब्राह्मणेषु नभोरत्न विष्णुधर्मरतेषु च ।
तेभ्यो दद्याच्च रत्नानि वस्त्राण्याभरणानि च ॥ २५ ॥
भुक्तवन्तस्ततस्ते तु दद्युराशषमुत्तमाम् ।
एवं कृते विधाने च श्रेष्ठे पिप्पलपूजने ॥
जायते पुत्रसंतानमक्षयं गुणवत्तमम् ॥ २६ ॥
——————
अथ ब्रह्मचारिनिधनविधानम् ।
येषां कुले ब्रह्मचारी निधनं प्राप्नुयाद्यदि ।
तत्कुलं क्षयमाप्नोति सोऽपि दुर्गतिमाप्नुयात् ॥ १ ॥
ग्रहत्वमाप्नु360याद्बोधिद्रुमेऽनवरतं वसेत् ।
तस्यापि तस्य वंशस्य गतिमिच्छन्महीयसीम् ॥ २ ॥
विधानं च विधायाऽऽशु तत ऊर्ध्वं समाचरेत् ।
मृतस्य म्रियमाणस्य षडब्दव्रतमादिशेत् ॥३ ॥
त्रिंशते ब्रह्मचारिभ्यो दद्यात्कौपीनकान्नवान् <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16972699975.png"/>361।
हस्तमात्राः कर्णमात्रा दद्यात्कृष्णाजिनानि च ॥ ४ ॥
पादुकाछत्रमाल्यानि गोपीचन्दनमञ्जसा ।
ब्रह्मसूत्राणि साधूनि प्रवालमणिमालिकाः ॥ ५ ॥
यद्यत्प्रदीयते तेभ्यो मन्त्रैस्तल्लिङ्गकैः स्फुटम् ।
प्रयोगो362 ( त्येकं ) ब्रह्मसायुज्यसिद्धये प्रतिपादने (येत् ) ॥ ६ ॥
अभावे व्रतिनां पूज्या गृहस्थाः साधवः शुभाः ।
शुभा इत्यस्यायमर्थः– हीनाङ्गाधिकाङ्गव्याधिग्रस्तवन्ध्यमृतापत्येतरे। साधवइत्यस्यायमर्थः -कुलीना विद्याविशारदाः केवलमृतुकालाभिगामिनः सुशीलाअनभिशस्ता दुष्टप्रतिग्रहरहिता दान्ता उदारा उपकारिणः सौजन्यशीलाःश्रोत्रियाः। एवमेतद्विधाय पश्चात्तच्छरीरं क्षीरादिपञ्चामृतैः प्रस्नाप्य हरिद्राक्तंकृत्वा घृतेनाभ्यज्य तद्धर्मिणाऽग्निना सूर्यकान्तादुद्भूतेन वा कपालाग्निना वालौकिकाग्निना वा दहेत्। अन्त्येष्टिविधिनाऽऽद्यदिवसमारभ्य द्वादशाहपर्यन्तंकर्म कुर्यादिति।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते ॥ ७ ॥
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अथ कुष्ठिमरणविधानम् ।
तत्र यमस्मरणात् ( णम् )—
मृतस्य कुष्ठिनो देहं निखनेद्गोष्ठभूमिषु ।
वासरत्रितयं पश्चादुद्धृत्यान्यत्र तद्दहेत् ॥ १ ॥
न गङ्गापवनं कार्यं न निक्षेपो विधीयते ।
षडब्दव्रतपूर्वेण विधिनाऽन्त्यक्रतुं चरेत् ॥ २ ॥
ततोऽस्थिसंचयं तस्य गङ्गायां प्रक्षिपेत्सुधीः ।
मासि मासि ततः कुर्यान्मासश्राद्धानि पार्वणात् ॥ ३ ॥
संकल्पविधिना केचित्प्रवदन्ति मनीषिणः ।
इत्येतत्कुष्ठिनो ह्यूर्ध्वं कथितं शास्त्रकोविदैः ॥
स्मृतिविद्भिरनूचानैर्यमाद्यैः पूतविग्रहैः ॥४ ॥
—————
अथापमृत्यौ नारायणीयबलिप्रवृत्तिविधानम् ।
तत्र कानि कान्यपमृत्युलक्षणानि तान्याह—
सर्पव्याघ्रहता ये च ये च शस्त्रहता नराः ।
जले मग्ना विषं पीत्वा मृता ये शृङ्गिभिर्हताः ॥ १ ॥
उपलैस्ताडिता ये च लगुडैर्निहता भृशम् ।
रज्ज्वा नियन्त्रिता ये च शृङ्खलायन्त्रिताश्चये ॥ २ ॥
अश्वादीनां पदाघातैर्येमृता गजपोथनैः ।
वृक्षाग्रात्पतिता ये च ये च पर्वतमूर्धतः ॥ ३ ॥
शूलेन निहता ये च वह्निना ये मृता नराः ।
विषूचिकागदव्याप्त्या ये मृताः क्षयपीडनात् ॥ ४ ॥
उत्पाद्य मरणं ये च मृता363निस्खलनादपि ।
ये मृता बन्धनागारे येऽज्ञातौषधसेवनात् ॥ ५ ॥
व्रणकृमिनिपातेन जर्जरीभूतविग्रहाः ।
इत्याद्यसदृशैर्दोषैर्मृता ये भुवि मानवाः ॥ ६ ॥
तेषां गत्यर्थमादिष्टो बलिर्नारायणीयकः ।
विशेषात्सर्पदष्टस्य कुर्याद्भौजंगिकं वलिम् ॥ ७ ॥
बलिद्वयं विधातव्यं सर्पदष्टस्य देहिनः ।
यस्य नास्ति शरीरं च नास्त्यस्थ्नां च चयः क्वचित् ॥ ८ ॥
+364पालाशीयो विधिस्तस्य ब्राह्मणस्य विधीयते ।
गवाद्यर्थे हतो यस्तु या स्त्री पत्यनुगामिनी ॥ ९॥
वृषोत्सर्गस्तयोर्नास्ति नास्ति नारायणो बलिः ।
दण्डा ये द्विजजातीनां प्रोक्ता मौञ्जीनिबन्धने ॥ १० ॥
ता एव समिधो ज्ञेयास्तेषामन्त्येष्टिदीपने ।
शूद्रजातौ कुशैरेव दाहो देहस्य निह्नवे ॥ ११ ॥
सर्वेषामपमृत्यौ च बलिर्नारायणीयकः ।
कर्तव्यो विधिवद्दृष्टो महदेनोऽन्यथा भवेत् ॥ १२ ॥
अग्निहोत्रपरो विप्रः प्रेतः स्यादपमृत्युतः ।
त्रिभिर्मासैस्तथा पक्षैस्तस्यायं क्रियते बलिः ॥ १३ ॥
प्रेतश्च यजमानश्च द्वावप्यग्निपरौ यदा ।
दत्त्वा गोदशकं सद्यः कुर्यादूर्ध्वं यथाविधि ॥ १४ ॥
——————
अथ यतिमरणविधानम् ।
काशीखण्डात्—
यतेश्चतुर्विधस्यापि निधने क्रियते विधिः ।
विधानं तत्प्रवक्ष्यामि संस्कारं यतिधर्मिणाम् ॥ १॥
स्नात्वा गृहस्थः शुद्धात्मा यतिसंस्कारमारभेत् ।
शिक्ये शरीरमारोप्य गन्धपुष्पैरलंकृतम् ॥२ ॥
घोषितं जयशब्देन दुन्दुभीनां रवैरपि ।
प्राचीमुदीचीं वा गत्वा शुद्धदेशं समाश्रयेत् ॥३ ॥
नदीतीरेऽश्वत्थमूले गवां गोष्ठे हरेर्गृहे ।
छायायां ब्रह्मवृक्षस्य भूमिं प्रोक्ष्य समाहितः ॥ ४ ॥
विप्रो व्याहृतिभिः प्रोक्ष्य दर्भानास्तीर्य पुष्कलान् ।
दक्षिणाग्राञ्छरीरं तत्सावित्र्या प्रोक्ष्य यत्नतः ॥ ५ ॥
स्नापयेत्सरितस्तोयैः पठन्सूक्तं च पौरुषम् ।
प्रत्यृचं प्रतिपादं वा गन्धपुष्पैः समर्चयेत् ॥ ६ ॥
विष्णो हव्यं<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16972706205.png"/>365रक्षस्वेति तच्छरीरं कुण्डे निधाय हंसः शुचिषदिति हृदयदेशे जपेत्। ततः पुरुषसूक्तं यतिभ्रूमध्ये जपेत्।ब्रह्मजज्ञानमिति मूर्ध्नि।
भूमिर्भूमिमधश्चागान्माता मातरमप्यगात् ।
भूयाम पुत्रैः पशुभिर्यो नो द्वेष्टि समिद्य( ध्य )ताम् ।
इति मूर्धानं भिन्द्यादश्मना परशुना वा । ॐ भूर्भुवः स्वरोमित्यभिमन्त्र्यदर्भैराच्छाद्य देवयजनं पूरयेत् । अग्निनाऽग्निः समिध्यतां पृथिवी होतेति मन्त्रद्वयंत्रिदण्डिविषयम् । श्वापदादिमृगवायसगोमायुरक्षणार्थंसम्यक्छादयेत् । यदिशृगालादिभिर्भक्ष्यते तदा तस्मिन्देशेऽनावृष्टिर्भवति । तस्माद्भूमिं शिलादिभिराच्छादयेत् । गङ्गायां नर्मदायां वा तल्लिङ्गैरेव मन्त्रैर्वा पूर्वोक्तैःकुर्यात् । यत्रमन्त्रानुपपत्तिस्तत्र प्रणवेनैव कुर्यात् । यत्र गङ्गानर्मदयोरप्राप्तिस्तत्र सर्वत्रशुचौ देशे सामान्यनद्यां वा । [ यदा ] गङ्गाशब्देन भागीरथी गोदावरी प्रोच्यतेतदा गङ्गानर्मदयोरिति द्विवचनेन द्वे एव निर्दिष्टे । भागीरथी गौतमी त्वेकैव । आनायकभगीरथगौतमसंबन्धित्वेनौपाधिको भेदो न तु तात्त्विकः । सांसिद्धिकं चोभयत्र गङ्गाशब्दवाच्यत्वम् । गौतमीशब्दप्रत्येतव्यत्वं न भगीरथानीतेस्वरूपे ।अथ च भागीरथीशब्दप्रत्येतव्यत्वं न गौतमानीते स्वरूपे ।यथाजपाकुसुमसंबन्धाद्रक्तः स्फटिकश्चम्पकपुष्पसंबन्धात्पीतः स्फटिकः । न पीतशब्दो रक्तस्य प्रत्यायको न रक्तशब्दः पीतस्येत्यौपाधिको भेदः । स्फटिकवाच्यत्वं स्वरूपमात्रस्य तद्वदिदम् ।सत्यपि भेदेऽभेदः । यथा पयोष्ण्याःकावेरीचण्डवेगाक्षिप्रागोमत्यन्तं रूपमोघभेदेऽप्येकमेव तद्वच्चेदम् । किं चोभयत्रगङ्गाशब्दवाच्यत्वं स्कन्दपुराणब्रह्मपुराणाभ्याम् । स्कन्दपुराणे भागीरथ्यांगङ्गाशब्दो यथा—
विष्णुपादार्घ्यसंभूते गङ्गे त्रिपथगामिनि ।
धर्मद्रवीति विख्याते पापं मे हर जाह्नवि ॥इति ।
ब्रह्मपुराणे गोदावर्यां गङ्गाशब्दो यथा—
ब्रह्माद्रिशिखरोत्पन्ने त्रिकण्टकविराजिते ।
गौतमप्रार्थिते गङ्गेगृहाणार्घ्यंनमोऽस्तु ते ॥इति ।
कृष्णावेण्यादिषु सरित्सु लोकमध्ये गङ्गाशब्दः समुद्रगामित्वगुणयोगाद्गौणो देवदत्तगतसिंहशब्दवत् । यतिनिधने नाशौचं विधीयते नोदकक्रिया। वहनखननशिरःस्फोटनादि कुर्वतामपि सद्यः शौचमेव।यतस्तत्र नारायणमयत्वात्प्रेतत्वाभावः । यतश्च प्रेतत्वविमुक्त्यासंन्यासस्वीकारः । अतोऽपि—
पदेपदेऽश्वमेधस्य फलमाप्नोति मानवः ।
अनुव्रजति साध्वीं यो यतिं गोब्राह्मणार्थिनम् ॥ ७ ॥
सोऽपि तल्लोकमाप्नोति इत्याह भगवान्हरिः ।
परोपकारिणः पुंसः कर्मलोपो भवेद्यदि ॥ ८ ॥
तत्कर्म ते प्रकुर्वन्ति मुनयो हि ममाऽऽज्ञया ।
धर्मसंजल्पने देवसेवायां गोचिकित्सितेे ॥९ ॥
यत्कर्म लुप्यते पुंसां विधास्ये सफलं हि तत् ।
व्याधिग्रस्तस्य विप्रस्य तृषार्तस्य च कस्यचित् ॥१० ॥
यश्चोपकुरुते सद्यः स मे ध्येयो निरन्तरम् ।
यासोपवासिनी नारी गवाद्यर्थे हतो नरः ॥ ११ ॥
संन्यासी मद्गुणग्राही चतस्रो मम मूर्तयः ।
संन्यासी भगवान्विष्णुः संन्यासी शंकरः स्वयम् ॥
संन्यासी विश्वसृड्देवस्त्रिमूतिर्भगवान्यतिः ॥ १२ ॥
अथ भृगुपातविधानम् ।
चतुर्वर्गचिन्तामणौ—
ब्रह्महा मद्यपः स्तेयी तथैव गुरुतल्पगः ।
एते महापातकिनो यश्चतैः सह संवसेत् ॥१ ॥
भार्यात्यागी पितृत्यागी मातृद्रोही महागदः ।
एतेषां पतनं श्रेष्ठंभृगौ चैव यथाविधि ॥ २ ॥
हरिश्चन्द्रे पुरश्चन्द्रे श्रीशैले त्रिपुरान्तके ।
महाबले च कावेर्यामोंकारे सिन्धुपर्वते ॥३ ॥
एतेषु भृगवः श्रेष्ठाः प्रोक्ताः शास्त्रविदुत्तमैः ।
तेषु तेषु च यः पातो भृगुपातःस उत्तमः ॥ ४ ॥
तत्र विधिमाह—
शनिवारे निराहारः स्नात्वा नद्यां366तिलैः शुभैः ।
शुक्लाम्बरधरो भूत्वा धृतमाल्यानुलेपनः ॥ ५ ॥
जपेन्नामसहस्राणि विष्णोस्तद्ध्यानसंयुतः ।
रात्रौ जागरणं कार्यं गीतवादित्रनिःस्वनैः ॥ ६ ॥
ततः प्रभातसमये स्नायाद्धात्रीफलैर्जले ।
कृत्वाऽऽह्निकविधिं सम्यग्जुहुयाज्जातवेदसम् ॥ ७ ॥
तिलैराज्ययुतैर्लक्षं गायत्र्या वा सहस्रकम् ।
होमान्ते विधिवत्पूज्या ऋत्विजः कनकादिभिः ॥ ८ ॥
भृगुमूर्धनि देवेशं भैरवं पूजयेत्सुधीः ।
गन्धपुष्पैस्तथा धूपैर्नैवेद्यैर्विविधैरपि ॥
प्रार्थयेत्क्षेत्रनाथं तं कृताञ्जलिपुटःसुधीः ॥ ९ ॥
तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
देवदेव महादेव क्षेत्रपाल महामते ।
कुरु मे सफलं कामं भृगुपातादिमं प्रभो ॥ १० ॥
इति संमार्थ्य देवं तं भृग्वग्रस्थं समाहितः ।
कृत्वा प्रदक्षिणां देवं भैरवं सिद्धिदायकम् ॥ ११ ॥
ब्राह्मणानभिवन्द्याथ निर्भयो मुक्तमूर्धजः ।
स्मरन्नारायणं चित्ते कृतं पापं समुच्चरन् ॥ १२ ॥
तिष्ठन्भृगुसमीपे च मानसे घृतवाञ्छितः ।
निपतेद्भृगुपातेऽत्र मृतःप्राप्नोति वाञ्छितम् ॥१३ ॥
तत्र पातानाह—
पारावतो मौसलाख्योहंसपातश्चझैल्लिकः ।
ऊर्ध्वहस्तो गृध्रपातः सिंहपातोदरौ तथा ॥ १४ ॥
एतेपाताःसमाख्याता भृगुपातेषु देहिनाम् ।
पारावतेन पातेन ब्रह्महानिपतेद्भृगौ ॥ १५ ॥
मद्यपो मौसलेनैव हंसपातेन तस्करः ।
मातृगो झैल्लिकाख्येन भार्यात्याग्यूर्ध्वहस्वकात् ॥१६ ॥
पितृत्यागी गृध्रपातात्सिंहान्मातृविरोधकृत् ।
औदराख्याद्दीर्घरोगी निपतेद्भृगुमूर्धतः ॥ १७ ॥
संसर्गीभृगुपातस्य दर्शनाच्छुद्धिमाप्नुयात् ।
निमित्तेन विना यस्तु निपतेद्भृगुमूर्धतः ॥ १८ ॥
नास्ति तस्य फलं किंचिदात्महा स भवेन्नरः ।
नृपाणां पतनं श्रेष्ठं विशां काष्ठाग्निसेवनम् ॥
शूद्राणां करपत्रेण मरणं श्रेष्ठमंहसः ॥ १९ ॥
——————
अथाग्निप्रवेशविधानम् ।
चतुर्वर्गचिन्तामणौहेमाद्रिविरचिते पुराणसंग्रहे—
याऽनुवृत्ताऽङ्गना लोके कर्मणा मनसा भवेत् ।
मृते पत्यौ न जीवेत्सा वह्निमार्गपरायणा ॥ १ ॥
आर्ताऽऽर्ते मुदिते हृष्टा प्रोषिते मलिना कृशा ।
मृते म्रियेत या पत्यौ सा स्त्री ज्ञेया पतिव्रता ॥ २ ॥
मातृकं पैतृकं चैव दत्ता यस्मिन्कुले सती ।
कुलत्रयं पुनात्येका भर्तारमनुगच्छति ॥ ३ ॥
तिस्रः कोट्योऽर्धकोटी च या367नि रोमाणि मानवे ।
तावद्वर्षसहस्राणि पत्या सह वसेद्दिवि ॥४ ॥
विशन्तं पन्नगं गृध्री बलादुद्धरते बिलात् ।
पतिं पापनिमज्जन्तमेकैवोद्धरतेऽङ्गना ॥ ५ ॥
मृते पत्यौतु या जीवेद्घटिकापञ्चकं भुवि ।
वैधव्यं नास्ति तस्यास्तु यावद्विशति चानले ॥ ६॥
तथा च<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1697452406Screenshot2023-10-16160254.png"/>368भविष्यपुराणे सावित्रीवचनम्—
सतां संतोषनित्या (वृत्त्या) च स्त्रीणां भर्ता सदा गतिः ।
वेदो वर्णाश्रमाणां च शिष्याणां च सदा गुरुः ॥ ७॥
तथा च श्रीमहाभारत आदिपर्वणि खाण्डववनदाहे —
गतिः प्रजानां नृपतिः सुतानां च पिता गतिः ।
वेदो गतिर्द्विजातीनां पतिः स्त्रीणां सदा गतिः ॥ ८ ॥
माता गतिः स्तन्यभृतां शिशूनां स्त्रीणां गतिः प्राणद एव नान्यः ।
तस्मान्मृते भर्तरि नान्यमानसा वह्निं विशत्येव विधिप्रयुक्तम् ॥
कीर्तिं जने स्वर्गगतिं परत्र लभेत्पुमांस ( च्च पुंसा ) सह या तु गच्छति ॥ ९ ॥
त369त्रच क्रमेणानुगमनविशेषः—
शय्यापालनमाजीवं ब्राह्मणीकुरुते यदि ।
सा याति ब्रह्मसायुज्यमनन्तं गतकल्मषा॥ १० ॥
एकाकिनीं वसेत्प्रेतभूमिदेशे त्वहर्निशम् ।
अन्नं तोयमयाचन्ती भुञ्जीयात्स्वयमागतम् ॥ ११ ॥
मलिना जटिलाऽस्नेहा त्रिकालस्नानकारिणी ।
अप्रावृताऽप्यनास्तीर्णा सा शय्यापालिका स्मृता ॥१२ ॥
तदन्यानिर्विशेद्वह्निंशयीत पतिना सह ।
वामाङ्गे विधिवत्काष्ठनिचये दर्भयन्त्रिते ॥१३ ॥
उत्तानशायिनी भूत्वा स्म370रन्ती श्रीजनार्दनौ ।
तदङ्गपञ्चके पुत्रो देवरोऽथ च गोत्रजः ॥ १४ ॥
जुहुयात्सर्पिरानीय गायत्र्याऽऽहुतिपञ्चकम् ।
नाभौ वक्त्रे ललाटे च तथैव करयोर्द्वयोः ॥ १५ ॥
समीपे वह्निमाधाय कृतस्नानो विरोदनः ।
ललाट इन्द्रमुद्दिश्य वक्त्रे चैव प्रजापतिम् ॥ १६ ॥
नाभावग्निं समुद्दिश्य पाण्योः सूर्ययमौ क्रमात् ।
यजेद्देवानिमान्पुत्रः कृत्वा पूर्वविधिं पितुः ॥
पाददेशे ततोवह्निं तृणैरादीपयेत्सुधीः ॥ १७ ॥
सुधीशब्देन शास्त्रोद्देशमात्रं कृत्वा येन केन प्रकारेण वह्निः प्रदी371प्तो भवति सएव कर्तव्यः ।तदभावे वह्निप्रपातनं कुर्यात् ।
सह शयने प्रपाते वा यद्व्रतं तत्तु कथ्यते ।
तैलाभ्यङ्गपरा भूत्वा धृतमाल्यानुलेपना ॥ १८ ॥
अश्वपृष्ठे समारुढा वपन्ती तण्डुलान्व्रजेत् ।
आनमन्ती रविं विप्रान्देवमूर्तीर्गुरूनपि॥ १९ ॥
हसन्ती ददती वित्तं सर्वसाधारणं सताम् ।
नत्वा गङ्गाम्भसि स्नात्वा स्मरेत्सावित्रिकां सतीम् ॥ २० ॥
वंशपात्रेषु विन्यस्य कण्ठसूत्रावतंसकान् ।
कार्पासकानि वस्त्राणि हरिद्राकुङ्कुमं तथा ॥ २१ ॥
नारिकेलानि ताम्बूलं नानारत्नानि भूरिशः ।
सावित्रीप्रीतये दद्याद्ब्राह्मणीभ्यो यथाविधि ॥ २२ ॥
शृणुयाच्चरितं तस्याः सावित्र्यास्तु समञ्जसा ।
ततोऽभिवाद्य देवांश्च सूर्यं विप्रवधूस्तथा ॥२३ ॥
कृत्वा प्रदक्षिणां वह्नेः कालश्रवणपूर्वकम् ।
तिष्ठेद्धर्मशिलापृष्ठे क्षिप्त्वा पुष्पं विभावसौ ॥ २४ ॥
ततश्चसंविशेद्वह्निमूर्ध्वबाहुलता सती ।
पारावतेन पातेन तथा मुसलपाततः ॥ २५ ॥
झैलिकाख्येन सिंहेन गृध्रपातेन वा पुनः ।
ऊर्ध्वहस्तेन हंसेन तथैवोदरपाततः ॥२६ ॥
तत्र पातलक्षणान्याह—
पारावतो यथोड्डीय खाद्गच्छेत्पृथिवीतलम् ।
पक्षावाकुच्य शिरसा पारावत उदाहृतः ॥ २७ ॥
ऊर्ध्वमुद्भियते यद्वन्मुसलं युवतीजनैः ।
विद्यात्तं मौसलं पातं भृगौ वह्नौस उत्तमः ॥ २८ ॥
हंसो यथा विशन्नम्बुसरितः प्लवते मुहुः ।
निर्विशेद्वीतिहोत्रे सा भर्तारं याऽनुगच्छति ॥ २९ ॥
सिंहश्चपेटमुद्धृत्य कुञ्जरं प्रति धावति ।
तथा हस्तं समुद्धृत्य विशेद्वह्निंपतिव्रता ॥३० ॥
उदरेण स्पृशेद्वह्निंनिविष्टा या विभावसौ।
उदराख्यः स विज्ञेयो भूगौवह्नौस उत्तमः ॥ ३१ ॥
एवंविधैस्तु पातैर्या निर्विशेज्जातवेदसम् ।
प्राप्नुयाद्ब्रह्मसायुज्यं भर्त्रा सह पतिव्रता॥ ३२ ॥
** ————**
** अथ काष्ठनिषेवणविधानम् ।**
काशीखण्डे—
महापापनिमग्नानामपुत्राणामृ( णां रु)जा जिताम् ।
गुरुद्रोहिकृतघ्नानां प्रयागे काष्ठसेवनम् ॥ १ ॥
माघे मासि प्रयागे च ये विशन्ति हुताशनम् ।
ते यान्ति ब्रह्मसायुज्यमनन्तं धौतकल्मषाः॥ २ ॥
तत्र विधानमाह—
कृतस्नानविधिः सम्यग्विधाय पितृतर्पणम् ।
दत्त्वा च विविधं दानं प्रार्थयेद्ब्राह्मणाञ्शुचीन् ॥३ ॥
एकाकी कुलहीनश्चेज्जीवन्नेवौर्ध्वदेहिकम् ।
विदध्यात्सर्वमेवाऽऽशु त्वेकस्मिन्नेव वासरे ॥ ४ ॥
पश्चाद्वधीयते चोर्ध्वं सद्भावो गोत्रिणां यदि ।
कृत्वा372सुमङ्गलं स्नानं स्मृत्वा लक्ष्मीपतिं हृदि ॥ ५॥
आगत्य सरितस्तीरं प्रयागं तीर्थमुत्तमम् ।
रचयेत्स्वयमेवाऽऽशु चितिं काष्ठमयीं दृढाम् ॥ ६ ॥
ऊर्ध्वाग्रैर्दारुभिः सम्यग्रचितां विस्तृतां चिताम् ।
स्मरन्नारायणं देवं प्राङ्मुखः स्वयमाविशेत् ॥ ७ ॥
पादमूले न्यसेद्वह्निं स्मरन्नारायणं प्रभुम् ।
एवं यो दहति क्षिप्रंशरीरं धैर्यसंयुतः ॥
स याति ब्रह्मसायुज्यमनन्तं गतकल्मषः ॥८ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांसंकीर्णविधानानि ।
अथ साधारणहरिकथाश्रवणविधानम् ।
चतुर्वर्गचिन्तामणौ पुराणसंग्रहे—
सर्वपापविनिर्मुक्तिकरणे यस्य मानसम् ।
वर्तते विधिवत्तेन पुराणं श्रूयतां ध्रुवम् ॥ १ ॥
प्रातःकाले समुत्थाय दन्तधावनपूर्वकम् ।
प्रातःस्त्रानं विधायैव जुहुयाज्जातवेदसम् ॥ २ ॥
कृत्वाऽऽह्निकं समाहूय वक्तारं शास्त्रकोविदम् ।
संभाव्याऽऽसनदानेन नमस्कुर्यात्समञ्जसा ॥ ३ ॥
तत्र नमस्कारमन्त्रः—
नमस्ते भगवन्व्यास सर्वशास्त्रार्थकोविद ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानमूर्ते सत्यवतीसुत ॥ ४ ॥
इति नमस्कारमन्त्रेण व्यासस्वरूपिणं वक्तारं प्रणमेत् । तत्र पुराणकथाश्रवणस्थानान्याह—
शिवालये हरिगृहे देवतासदने तथा ।
वृन्दावने नदीतीरे तथा चैव गृहे शुभे ॥
पुराणं शृणुयाद्भक्त्यायथोक्तविधिना गृही ॥ ५ ॥
ततो गन्धपुष्पादिभिरर्चयित्वा तेनोक्तां पुराणकथां शृणुयात् ।
पूर्वपक्षोक्तिसिद्धान्तपरिनिष्ठासमन्विताम् ।
कथां श्रुत्वा पुनः पूजां कुर्याद्वक्तुः प्रयत्नतः ॥६ ॥
नारायणं हृषीकेशं मानसे परिचिन्तयेत् ।
निधाय तुलसीं हस्ते पुष्पयुक्तामतन्द्रितः ॥ ७ ॥
प्रार्थयित्वा हि तं विप्रंभोजयेत्प्रयतः शुचिः ।
अन्यांश्च भोजयेद्विप्रान्विधिवन्मानपूर्वकम् ॥ ८ ॥
एवं नित्यं कथां विद्वाञ्छृणुयान्मधुघातिनः ।
कथासमाप्तौ विप्रस्य व्यासरूपस्य धीमतः ॥ ९ ॥
दयाद्वित्तंचवस्त्राणि वक्तृतुष्टिकराणि च ।
कथाप्रसङ्गतो यानि373 तानि सेव्यानि सर्वशः ॥ १० ॥
ते374भ्यो वित्तं प्रदातव्यं का375र्याकार्येषु मानवैः ।
इदमेव फलं नॄणां श्रोतॄणां मुनिभिः स्मृतम् ॥
त्याज्यं यत्त्यज्यते सद्यो ग्राह्यं संगृह्यते ध्रुवम् ॥ ११ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां साधारणहरिकथाश्रवणविधानम् ।
————
अथ भारतश्रवणविधानम् ।
तत्र याज्ञवल्क्यः—
त्रिवृता पूर्णपृथिवीदानाद्यत्फलमश्नुते ।
तपसश्च परस्येह नित्यं स्वाध्यायवान्द्विजः ॥ १ ॥
यस्य यस्य जपः प्रोक्तो ब्रह्मयज्ञे मनीषिभिः ।
तेन तेन भवेद्विप्रोनित्यं स्वाध्यायवान्द्विजः ॥ २ ॥
एकतश्चतुरो वेदान्कृत्वा भारतमेकतः ।
विष्णुना तुलितं यावत्तावद्धि गुरु भारतम् ॥ ३ ॥
भाति सर्वपुराणेषु रतिः सर्वेषु जन्तुषु ।
तरणं सर्वपापानां तस्माद्भारतमुच्यते ॥४ ॥
यस्य नास्ति सुतः पुंसो यस्य हत्या सुदारुणा ।
यस्य चातुर्यलिप्साऽस्ति श्रोतव्यं तेन भारतम् ॥ ५॥
अपमृत्युविनाशाय महाशोकापनुत्तये ।
कलाविज्ञानसौख्याय श्रोतव्यं भारतं नृभिः ॥ ६ ॥
यथा धातूच्चये हेम वज्रं रत्नोच्चये यथा ।
तोयेषु जाह्नवीतोयं तथा शास्त्रेषु भारतम् ॥ ७ ॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुर्णामुत्तमं फलम् ।
श्राव्यो ज्ञेयो जयेप्सूनां व्यासवक्त्रानकध्वनिः ॥ ८ ॥
कतकेन तु पानीयं निर्मलं जायते यथा ।
भारतश्रवणान्नॄणां तथा निष्कल्मषं मनः ॥ ९ ॥
पवित्रं निर्मलं स्वाद्यं पथ्यं खण्डं रुचिप्रदम् ।
तथैव भारतं लोके श्रोतव्यं तेन मानवः ॥ १० ॥
प्रयागे मकरस्नानं द्विजातिभयवारणम् ।
भारतश्रवणं चैव सममेतत्त्रयं स्मृतम् ॥ ११ ॥
तत्र भारतश्रवणे विधिः—
स्नात्वा गङ्गाजले पुण्ये कृताह्निकविधिर्नरः ।
शृणुयाद्भारतं रम्यमादिपर्वपुरःसरम् ॥१२ ॥
प्रतिपर्वसमाप्तौ च दद्याद्धेनुं सवत्सकाम् ।
समाप्ते सति सर्वस्मिल्लँक्षहोमो विधीयते ॥ १३ ॥
होमान्ते विधिवद्दद्यादृत्विग्भ्यो भूरिदक्षिणाम् ।
ततो वक्तारमानम्य संपूज्य च यथाविधि ॥ १४ ॥
भूषणैर्हस्तकर्णानां वस्त्रैःक्षौमादिभिः सुधीः ।
राजतं सुदृढं जिष्णुं कुञ्जरं दशभिः पलैः ॥ १५ ॥
चतुर्दन्तं सकुथकं साङ्कुशं च सर्पजठरम् (सहाभ्रमुम्) ।
विधाय विधिवद्दद्यादाचार्याय सदक्षिणम् ॥
आचार्यानीं समभ्यर्च्य वस्त्रालंकारभूषणैः ॥ १६ ॥
तत्राऽऽचार्यपूजनमन्त्रौ—
आचार्य त्वं महाविष्णुर्व्यासरूप नमोऽस्तु ते ।
प्रसन्ने त्वयि विप्रेन्द्र प्रसन्नो मे जनार्दनः ॥ १७ ॥
मया ते वदनाद्विप्रपवित्रं भारतं श्रुतम् ।
तेन मे सफलाः कामाः सकलाः सन्तु सत्वरम् ॥ १८ ॥
इत्याचार्यपूजनमन्त्रौ।
ततः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो यथाशक्ति धनं दद्यात् । भारतस्य वक्त्रे भारतपुस्तकंदद्यात् ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायाभारतश्रवणविधानम् ।
—————
** अथ हरिवंशश्रवणविधानम् ।**
जपवच्छ्रवणं प्रोक्तं हरिवंशस्य सूरिभिः ।
श्रवणान्ते हरेर्मूर्तिः सश्रीकस्य च दीयते ॥
सुवर्णेन कृता सम्यग्लक्षणा पलमानतः ॥१ ॥
विशेषोऽत्र समुद्दिष्टो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
स्थातव्यं ब्रह्मचर्येण यावद्ग्रन्थःसमाप्यते ॥ २ ॥
समाप्तौ विधिवद्दद्याद्वस्त्रं क्षौमं द्विजातये ।
भोजयेन्मिथुनान्येव चतुर्विंशतिमादरात् ॥३ ॥
प्रत्यवरोहमन्त्रेण विशेषहवनं सहस्रसंख्यं कुर्यात् ।
एवं कृते विधाने च प्रजां प्राप्नोति मानवः ।
धनमारोग्यमायुष्यं सौभाग्यं गुणगौरवम् ॥
प्राप्नोति मनुजः सम्यङ्नात्र कार्या विचारणा ॥ ४ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांहरिवंशश्रवणविधानम् ।
** —————**
अथ श्रीमद्भागवतश्रवणविधानम् ।
शतं भोज्यं प्रतिस्कन्धं स्वर्णं दद्याद्यथावसु ।
श्रुते सिंहं सुवर्णस्य पलमानस्य साम्वरम् ॥ १ ॥
आचार्याय सुधीर्दत्त्वा मुक्तः स्याद्भवबन्धनैः ।
गायत्र्या हवनंकार्यं पायसेनाऽऽज्यतस्तथा ॥ २ ॥
तिलव्रीहिभिरेवात्र मता व्याहृतयो यजौ ।
होमान्ते भगवान्विष्णुः पूज्यः स्वर्णमयः शुभैः ॥ ३ ॥
उपचारैः षोडशभिर्मन्त्रैः पौरुषसंभवैः ।
ततश्च धेनुदानं च वक्त्रे देयं प्रयत्नतः ॥ ४ ॥
एवं कृते विधाने च सर्वपापनिवारणम् ।
फलदं स्यात्पुराणं तु श्रीमद्भागवतं शुभम् ॥ ५ ॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं नात्र संशयः ।
अर्थवादान्वदन्त्येव पुराणानि च केचन ॥ ६ ॥
न तथा भारतं सम्यक्छ्रुतं भागवतं जनैः ।
विधानसहितं सम्यक्पुराणफलदं भवेत् ॥
तस्माद्विधानयुक्तं तु पुराणं शृणुयान्नरः ॥ ७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां श्रीमद्भागवतश्रवणविधानम् ।
अथ रामायणश्रवणविधानम् ।
रामायणे श्रुते दद्याद्रथं हेममयं सुधीः ।
चतुर्भिर्वाजिभिर्युक्तं तथा क्षौमपताकया ॥ १ ॥
यन्त्रा चैव समायुक्तं किंकिणीनादनादितम् ।
संपादिते रथे सम्यग्धेनुं दद्यात्पयस्विनीम् ॥२ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाच्छतमष्टोत्तरं सुधीः ।
एवं कृते विधाने च महाकाव्यं फलप्रदम् ॥
रामायणं भवेन्नूनं नात्र कार्या विचारणा ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां रामायणश्रवणविधानम् ।
—————
अथ वासिष्ठश्रवणविधानम् ।
वासिष्ठश्रवणे जाते कृतिनां विधिपूर्वकम् ।
प्रदेयं शशिनो बिम्बंराजतं पलमानतः ॥
हवनं पायसेनैव साज्येनायुतसंमितम् ॥ १ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायांविधानमालायांवासिष्ठश्रवणविधानम् ।
—————
अथ काशीखण्डश्रवणविधानम् ।
काशीखण्डे श्रुते दद्याद्गवांपञ्चकमादरात् ।
विधानं पूर्ववत्कार्यं गायत्र्या हवनं मतम् ॥१ ॥
अयुतं वा सहस्रं वा शतं वाऽष्टाधिकं तथा ।
प्रधानं पायसं साज्यं प्रायश्चित्तं चतुर्विधम् ॥२ ॥
कृते तु हवने पश्चाद्गवां दानं विधीयते ।
ततश्च भोजयेद्विप्रांस्तेषां पत्नीश्च भोजयेत् ॥
एवं कृते विधाने च फलप्राप्तिर्भवेन्नृणाम् ॥३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां काशीखण्डश्रवणविधानम् ।
—————
अथ ब्राह्मजयश्रवणविधानम् ।
तथा हि—
ब्रह्माण्डे ब्रह्मवैवर्ते तथा ब्रह्मणि संश्रुते ।
गां भूमिं महिषीं दद्यात्क्रमाद्गोदावगाहनात् ॥ १ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांब्राह्मत्रयश्रवणविधानम् ।
—————
अथ कालिकापुराणश्रवणविधानम् ।
पुराणे कालिकायाश्च श्रुते दद्या376दसिं शुभम् ।
कांस्यपात्राणि देयानि घण्टा दर्पणमञ्जसा ॥ १ ॥
गायत्र्या हवनं कार्यं सहस्रं तिलसर्पिषा ।
होमान्ते विधिवत्कुर्याच्छतब्राह्मणभोजनम् ॥ २ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांकालिकापुराणश्रवणविधानम् ।
—————
अथ माघमाहात्म्यश्रवणविधानम् ।
पद्मपुराणे—
शृणुयान्माघमाहात्म्यं माघस्त्राने कृते सति ।
सवृषं शकटं दद्यात्कम्बलं कनकं घृतम् ॥ १ ॥
त्रिंशच्छूर्पाणि वंशस्य सालंकाराणि शक्तितः ।
तावन्ति मिथुनान्येव भोजयेत्सादरं सुधीः ॥
भुक्तेषु मिथुनेष्वेव दद्याच्छूर्वाणि भक्तिमान् ॥ २ ॥
तत्र शूर्पदानमन्त्रः—
माधवः प्रतिगृह्णाति माधवो वै ददाति च ।
माधवस्तारको लोके प्रीयतां माधवोऽच्युतः ॥ ३ ॥
शूर्पदानमन्त्रः ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां माघमाहात्म्यश्रवणविधानम् ।
अथ नानापुराणश्रवणविधानम् ।
येषां प्रोक्तं मया चात्र पुराणानां विधानकम् ।
पृथक्त्वेनैव दृष्टं तत्पृथग्दानसमन्वितम् ॥ १ ॥
मत्स्यादीनां नु शेषाणां सर्वसाधारणो विधिः ।
पुराणश्रवणान्ते च दद्याद्धेनुं सवत्सकाम् ॥ २ ॥
वस्त्रालंकारसहितां साधुलक्षणलक्षिताम् ।
वेदार्थो दुर्गमो लोके मीमांसाहृदयं परम् ॥३ ॥
कृष्णेन कृपया नॄणां पुराणे सुगमीकृतः ।
प्रभुत्वं मित्रधर्मश्च कान्तासंगतिरेव च ॥ ४ ॥
वेदे पुराणे काव्ये च क्रमशः परिकीर्त्यते ।
पुराणे श्रूयमाणे च ग्रामे च सकलैर्जनैः ॥ ५ ॥
न शृणोति क377थं पापः पापविच्छित्तिकारकम् ।
तेन माता कृता वन्ध्या न श्रुतं येन भारतम् ॥ ६॥
न दत्तं ब्रह्मणे किंचिन्न स्नातं गौतमीजले ।
पौराणीं वृत्तिमाश्रित्य ये जीवन्ति द्विजोत्तमाः ॥ ७ ॥
ते यान्ति ब्रह्मसायुज्यमनन्तं गतकल्मषाः।
ते सूर्यमण्डलं भित्त्वा यान्ति ब्रह्म सनातनम् ॥ ८ ॥
गङ्गातोयेन शुद्धेन पवित्रीकृतविग्रहाः ।
ये शृण्वन्ति कथां विष्णोस्तुल्यास्ते सनकादिकैः॥ ९ ॥
विप्राणां शौनकस्तीर्णो भवाब्धिं गतकल्मषः।
परिक्षितस्तु भूपानां हरिदत्तो विशां तथा ॥ १० ॥
पुराणश्रवणेनैव विधिपूर्वेण सत्वरम् ।
तस्मात्पुराणश्रवणं विधिपूर्वंहितं नृप ॥ ११ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांनानापुराणश्रवणविधानम् ।
—————
अथ वेदपारायणविधानम् ।
आश्विने सर्वविघ्नशमनार्थमथ वा यदा कदाचित्समय उत्पन्नमहाव्याधिशमनार्थं वेदपारायणं चरेत्। मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदेत्यनेन वचनेन वेदपठनंकृत्वा षडङ्गानि पठेत्।
ततो वाक्यं पुराणं च नाराशंसीश्च गाथिकाः ।
इतिहासांस्तथा विद्यां योऽधीते शक्तितोऽन्वहम् ॥ १॥
अनेन न्यायेन ऋग्वेदादिचतुर्वेदपठनं तत्पारायणमिति जाते पारायणे सतिसौवर्णीं गायत्रीप्रतिमां सौवर्णं वेदपुरुषंच कृत्वा कलशोपरि स्थापयेत् । तिलाज्येन गायत्र्या हवनं जपस्य दशांशेन विधाय पश्चाद्यथाविभवं ब्राह्मणतर्पणं कुर्यात् ।
तथा च श्रीमद्भागवते—
नाहं तथाऽद्मि यजमानहविर्तिविंताने श्चोतद्धृतप्लुतमदन्हुतभुङ्मुखेन ।
यद्ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ॥ २ ॥
इत्यनेन न्यायेन लोके ब्राह्मणभोजनं कर्तव्यम् ।
ततो वेदपारायणकृद्भ्यो ब्राह्मणेभ्यो वस्त्राणि भूषणानिकनकं गाश्च दद्यात् ।पूर्वप्रतिष्ठापिते कलशे यानि धान्यानि प्ररोहन्ति तैरेव प्ररोहाङ्कुरैस्तेन कलशोदकेन सकुटुम्बस्य यजमानस्याभिषेकं कुर्युः। ततस्तान्साधुवचनैः संप्रार्थ्यप्रस्थापयेत्स्वयं सीमान्तमनुव्रजेत्।
वेदपारायणं येन साधुना सुखसिद्धये ।
कृतं भवति तेनाऽऽशु वाजिमेधशतं शुभम् ॥ ३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांवेदपारायणविधानम् ।
——————
अथ विनायकपूजाविधानम् ।
तत्र याज्ञवल्क्यः—
विनायकोऽविघ्नकर्मसिद्धयर्थं विनियोजितः ।
गणानामाधिपत्ये च रुद्रेण ब्रह्मणा तथा ॥ १ ॥
तेनोपसृष्टो यस्तस्य लक्षणानि निबोधत ।
स्वप्नेऽवगाहतेऽत्यर्थं जले मुण्डांस्तु पश्यति ॥ २ ॥
काषायवाससश्चैव क्रव्यादांश्चाधिरोहति ।
अन्त्यजैर्गदिभीरुष्टैः सहैकत्रावतिष्ठते ॥ ३ ॥
व्रजन्तं च तथाऽऽत्मानं मन्यतेऽनुगतं परैः ।
विमना विफलारम्भः संसीदत्यनिमित्ततः ॥ ४ ॥
तेनोपसृष्टो लभते राज्यं नो राजनन्दनः ।
कुमारी न च भर्तारं न पुष्पं गर्भमङ्गना ॥ ५ ॥
आचार्यत्वं श्रोत्रियश्च न शिष्योऽध्ययनं तथा ।
वणिग्लाभं न चाऽऽप्नोति कृषिं चैव कृषीवलः ॥ ६ ॥
स्नपनं तस्य कर्तव्यं पुण्येऽह्नि विधिपूर्वकम् ।
गौरसर्षपकल्केन साज्येनाऽऽच्छादितस्य च ॥ ७ ॥
सर्वौषधैः सर्वगन्धैर्विलिप्तशिरसस्तथा ।
भद्रासनोपविष्टस्य स्वस्तिवाच्य द्विजोत्तमैः ॥ ८ ॥
अश्वस्थानाद्गजस्थानाद्वल्मीकात्संगमाद्भदात् ।
मृत्तिका रोचनां गन्धान्गुग्गुलुं चाप्सु निक्षिपेत् ॥ ९ ॥
अहतैरव्रणैश्चैव चतुर्भिः कलशैर्हृदात् ।
चर्मण्यानडुहे रक्ते स्थाप्यं भद्रासनं तथा ॥ १० ॥
सहस्राक्षशतधारं पवित्रमृषिभिः स्मृतम् ।
तेन त्वामभिषिञ्चामि पावमान्यः पुनन्तु वै ॥ ११ ॥
भगं ते वरुणो राजा भगंसूर्यो बृहस्पतिः ।
भगमिन्द्रश्च वायुश्च भगं त ऋषयो ददुः ॥ १२ ॥
यत्ते केशेषु दौर्भाग्यं सीमन्ते यच्च मूर्धनि ।
ललाटे कर्णयोरक्ष्णोरापस्तद् घ्नन्तु सर्वदा ॥ १३ ॥
स्नानं सर्षपतैलेन स्रवेणौदुम्बरेण तु ।
जुहुयान्मूर्धनि कुशान्सव्येन परिगृह्य च ॥ १४ ॥
मितश्च378प्रमितश्चैव तथा शालकटङ्कटौ ।
कूष्माण्डो राजपुत्रश्चेत्येतैः स्वाहासमन्वितैः ॥ १५ ॥
नामभिर्बलिमन्त्रैश्च नमस्कारसमन्वितैः ।
दद्याच्चतुष्पथे शूर्पे कुशानास्तीर्य सर्वतः ॥ १६ ॥
कृताकृतांस्तण्डुलांश्च पललौदनमेव च ।
मत्स्यान्पक्वांस्तथैवाऽऽमान्मांसमेतावदेव तु ॥ १७ ॥
पुष्पं सुगन्धं चित्रं तु सुरां च त्रिविधामपि ।
मूलकं पूरिकापूपांस्तथा वेष्टनिकाः स्रजः ॥ १८ ॥
दथ्योदनं पायसं च गुडमिश्रसितोदकम् ।
एतत्सर्वंसमाहृत्य भूमौ कृत्वाऽऽनतं शिरः ॥ १९ ॥
विनायकस्य जननीमुपतिष्ठेत्ततोऽम्बिकाम् ।
दूर्वासर्षपपुष्पाणां दत्त्वाऽर्घपूर्णमञ्जलिम् ॥ २० ॥
रूपं देहि जयं देहि भगं पार्वति देहि मे ।
पुत्रान्देहि धनं देहि सर्वकामांश्च देहि मे ॥ २१ ॥
ततः शुक्लाम्बरधरः शुक्लमाल्यानुलेपनः ।
ब्राह्मणान्भोजयेद्दद्याद्वस्त्रयुग्मं गुरोरपि ॥ २२ ॥
एवं विनायकं पूज्य ग्रहांश्चैव विधानतः ।
कर्मणां फलमाप्नोति श्रियं प्राप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ २३ ॥
आदित्यस्य सदा पूजां तिलकं स्वामिनस्तथा ।
महागणपतेश्चैव कुर्वन्सिद्धिमवाप्नुयात् ॥ २४ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां याज्ञवल्क्योक्तविनायकपूजाविधानम् ।
——————
अथ नवग्रहमखविधानम् ।
याज्ञवल्क्यः—
श्रीकामः शान्तिकामो वा ग्रहयज्ञं समाचरेत् ।
वृष्ट्यायुष्पुष्टिकामो वा तथैवाभिचरन्नपि ॥ १ ॥ .
सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः ।
शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चैव ग्रहाः स्मृताः ॥ २ ॥
ताम्रकात्स्फटिकाद्रक्तचन्दनात्स्वर्णकादुभौ ।
रजतादयसः सीसात्कांस्यात्कार्या ग्रहाः क्रमात् ॥३ ॥
सुवर्णे वा पटेलेख्या गन्धैर्मण्डलकेषु च ।
यथावर्णं प्रदेयानि वासांसि कुसुमानि च ॥ ४ ॥
गन्धाश्च वलयश्चैव धूपो देयश्च गुग्गुलुः ।
कर्तव्या मन्त्रवन्तश्चचरवः प्रतिदैवतम् ॥ ५ ॥
आ कृष्णेन इमं देवा अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत् ।
उद्बुध्यस्वेति च ऋचो यथा संपरिकीर्तिताः ॥ ६॥
एकैकस्य शतं साष्टमष्टाविंशतिरेव वा ।
होतव्या मधुसर्पिर्भ्यांदध्नाक्षीरेण संयुताः ॥ ७ ॥
गुडौदनं पायसं च हविष्यं क्षीरपष्टिकाः ।
दथ्योदनं च कुसरो मांसं चित्रान्नमेव च ॥ ८॥
दद्याद्ग्रहक्रमादेतद्विजेभ्यो भोजनं बुधः ।
शक्तितो वा यथालाभं सत्कृत्य विधिपूर्वकम् ॥ ९ ॥
धेनुः शङ्खस्तथाऽनड्वान्हेम वासो हयः क्रमात् ।
कृष्णा गौरायसं <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16974822425.png"/>379छाग एता वै दक्षिणाः स्मृताः ॥ १० ॥
यस्य यस्य यदा दुष्टः स तं यत्नेन पूजयेत् ।
ब्रह्मणा च वरो दत्तः पूजिताःपूजयिष्यथ ॥ ११ ॥
ग्रहाधीना नरेन्द्राणामुच्छ्रायाः पतनानि च ।
भावाभावौ च जगतस्तस्मात्पूज्यतमा ग्रहाः ॥ १२ ॥
ग्रहाणामिदमातिथ्यं कुर्याद्यः प्रतिवत्सरम् ।
आरोग्यं वर्णसंपत्तौ (त्ती) जीवेद्वर्षशतं नरः ॥ १३ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांयाज्ञवल्क्योक्तं नवग्रहमखविधानम् ।
————————
अथ वसिष्ठोक्तनवग्रहमखविधानम् ।
आदित्याद्या ग्रहाः सर्वे दुष्टस्थानस्थिता नृणाम् ।
तदा कुर्वन्ति सर्वत्र पीडा नानाविधा ध्रुवम् ॥ १ ॥
तत्पीडाशमनायाऽऽशु विधानं तु विधीयते ।
पूर्वशास्त्रानुसारेण वित्तशाट्यविवर्जितः ॥ २ ॥
आहूय विधिविज्ञानपरान्विप्रान्समाहितः ।
प्रारभेद्ग्रहपूजार्थं विधानं विधिवत्ततः ॥ ३ ॥
अच्छिद्रेण तु भावेन यथाविभवमात्मनः ।
शतौषधीः समाहत्य कलशं च मनोरमम् ॥ ४ ॥
यत्र कुत्र च खेटस्य क्रियते पूजनं बुधैः ।
तत्राबलोकयेद्भूमिब्रह्मवर्णादिलक्षणम् ॥ ५ ॥
शुक्लाभां च रसे स्वादुं पूतां पूर्वप्लवां शुभाम् ।
तां विद्याद्ब्राह्मणीं भूमिं सर्वकर्मसुसाधिकाम् ॥ ६ ॥
आलोहितां तीक्ष्णरसां भूमिमाहुर्भुजोद्भवाम् ।
आभिचारिककर्माणि तस्यां कुर्वीत पण्डितः ॥ ७॥
पीतवर्णांरसे क्षारां विदुर्वैश्यां (शीं) वसुंधराम् ।
शान्तिकर्म प्रकुर्वीत पुटं भेषजकर्मणि ॥ ८ ॥
कटुकां मद्यगन्धां च कृष्णां शौद्रीं वसुंधराम् ।
उच्चाटनादिकं कर्म तस्यां कुर्वीत सिद्धये ॥ ९ ॥
ब्राह्मी भूः सर्ववर्णेषु शस्ता क्षात्री त्रये शुभा।
वैशी ख्या (स्वा) दिद्वये श्रेष्ठा शौद्री वर्णे स्वके शुभा ॥ १० ॥
पूर्वोत्तरप्लवा भूमिर्विशल्या मण्डपान्विता ।
तस्यां कुण्डं प्रकुर्वीत चतुरस्त्रं करावधि ॥ ११ ॥
उच्छ्रायस्त्वङ्गुलैः पड्भिर्मेखला चतुरङ्गुला ।
योनिर्वितस्तिमात्रा च आयामेऽङ्गुलसप्तकम् ॥ १२ ॥
सर्वावयवसंपूर्णोत्सेधे ह्यङ्गुल380सप्तकम् ।
मध्येऽङ्गुष्ठप्रमाणा च गर्ता कार्या हि पण्डितैः ॥ १३ ॥
कुण्डात्पूर्वविभागस्था वितस्त्यन्तरशालिनी।
गर्ताङ्गुष्ठप्रमाणा च तत्र संस्था दिवौकसाम् ॥ १४ ॥
कीदृशं ब्राह्मणे कुण्डं कीदृशं क्षत्रिये तथा ।
कीदृशं चोरुजे कुण्डं कीदृशं शूद्रजातिषु ॥ १५ ॥
वसिष्ठ उवाच—
हस्तप्रमाणयुक्तं हि विप्रस्य चतुरङ्गुलम् ।
इषुमात्रं क्षत्रियस्य तावदेव विशो मतम् ॥ १६ ॥
प्रथमादधिकं कुण्डं शूद्रस्य षड्भिरङ्गुलैः ।
मानहीनाधिकं कुण्डमनेकभयवर्धनम् ॥ १७ ॥
यस्मात्तस्मात्प्रयत्नेन शान्तिकुण्डं विधीयते ।
खन्यमाने यदा कुण्डे पाषाणः प्राप्यते तदा ॥ १८ ॥
धनायुर्वृद्धिदो ज्ञेयोऽस्थिकेशेषु धनक्षयः ।
अङ्गारखण्डकान्दृष्ट्वा त्यजेत्तत्कुण्डमञ्जसा ॥ १९ ॥
अङ्गारदर्शने रोगो दैन्यं केशविलोकने ।
पाषाणदर्शने सौख्यं कुलनाशः शवास्थिषु ॥ २० ॥
कोविदारस्य काष्ठे च भस्माङ्गारास्थिखर्परे ।
सर्पे च वृश्चिके दृष्टे रोगमृत्युभयप्रदम् ॥ २१ ॥
पाषाणे श्रीमदारोग्यमिष्टका सर्वकामदा ।
अङ्गारे स्वामिनो नाशः खर्परे स्त्रीधनक्षयः ॥ २२ ॥
भस्मना संततिच्छेदः सिकताभिर्धनक्षयः ।
गजास्थि स्वामिनं हन्ति तुरगास्थि धनापहम् ॥ २३ ॥
मानुषास्थि मनुष्यांश्च हन्ति होतुर्न संशयः ।
पश्वस्थि पशुसंघातं हन्ति नात्र विचारणा ॥ २४ ॥
एवं कुण्डखननपरीक्षा।
सर्वलक्षणसंपूर्णे कुण्डे च विहिते सति।
विदध्याद्धोमसंधानं होमलक्षणकोविदः ॥ २५ ॥
कुण्डस्य रुद्रदिग्भागे द्विहस्ते पीठमारभेत् ।
किंचिन्मध्योत्तरं (न्नतं) कुर्यादुच्छ्राये द्वादशाङ्गुलम् ॥ २६ ॥
आर्यमाचार्यमाहूय कुलीनं वेदपारगम् ।
दैवज्ञं वा द्विजश्रेष्ठंकुशलं यज्ञकर्मणि ॥ २७ ॥
सदाचारांश्च विदुषः कुलीनान्कुशलान्क्रतौ।
ऋत्विजोऽष्टौ च चत्वारो द्वावप्येकं विधेविंदम् ॥ २८ ॥
समिहाज्यतिलान्दर्भान्यवान्क्षौद्रपयोःदधि ।
पुष्पाणि च तथा धूपं नैवेद्यं च समाहरेत् ॥ २९ ॥
यजमानः शुचिः स्नातः श्रद्धायुक्तो जितेन्द्रियः ।
पादशौचार्ध्यवस्त्राद्यैराचार्यादींस्ततोऽर्चयेत् ॥ ३० ॥
अस्य यागस्य निष्पत्तौ भवन्तोऽभ्यर्चिता मया ।
सुप्रसादं प्रकुर्वन्तु शान्तिकेहवने शुभे ॥ ३१ ॥
इति संप्रार्थ्य विप्रांस्तान्दद्यात्पूगी(ग)फलं करे ।
आचार्यत्वे वृतोऽसीति ब्रह्मर्त्विक्त्वेवृतोऽसि च ॥
सदस्यत्वे वृतोऽसीतीत्युद्गातृत्वे वृतोऽसि च ॥ ३२ ॥
इति वरणविधिः । ततस्तूल्लेखने कृतेऽग्निप्रतिष्ठां कुर्यात् । तत्राग्निनामानि
वक्ष्ये —
आदित्ये कपिलो नाम पिङ्गलः सोम उच्यते ।
धूमकेतुस्तथाऽङ्गारे381 जठराग्निर्बुधस्य च ॥ ३३ ॥
गुरौ चैत्र शिखी नाम शुक्रे भवति हाटकः ।
शनैश्चरे महातेजा राहौ केतौ हुताशनः ॥ ३४ ॥
अविदित्वाऽग्निनामानि होमं कुर्याद्विचक्षणः ।
तद्धुतं न च संस्कारं न च यज्ञफलं लभेत् ॥ ३५ ॥
पीठे चाष्टदलं पद्मं कृत्वा श्रेष्ठं सिताक्षतैः ।
रुद्रकुम्भं सवस्त्रं च सपत्राम्भःसपल्लवम् ॥ ३६ ॥
पुष्पचन्दनसंयुक्तं पीठ382स्येशानतो न्यसेत् ।
सितैरखण्डितैः श्रेष्ठैः क्षालितैः शालितण्डुलैः ॥ ३७ ॥
ग्रहानाहूय संस्थाप्य पङ्कजे रूपधारिणः ।
वृत्तं मण्डलमादित्ये चतुरस्रं निशाकरे ॥ ३८ ॥
महीपुत्रे त्रिकोणं च बुधे स्याद्बाणसंनिभम् ।
गुरौ च पट्टिशाकारं पञ्चकोणं च भार्गवे ॥ ३९ ॥
धनुराकृति मन्दे च शूर्पाकारं च राहवे ।
केतूनां च ध्वजाकारं मण्डलान्येव कारयेत् ॥ ४० ॥
शुक्रार्कौ प्राङ्मुखौ ज्ञेयौ गुरुसौम्यावुदङ्मुखौ
प्रत्यङ्मुखः शनिः सोमः शेषादक्षिणतोमुखाः ॥ ४१ ॥
मध्ये तु भास्करं विद्याच्छशितं पूर्वदक्षिणे ।
दक्षिणे लोहितं विद्याद्बुधं पूर्वोत्तरेण तु ॥ ४२ ॥
उत्तरे च गुरुं विद्यात्पूर्वेणैव तु भार्गवम् ।
पश्चिमे तु शनिं विद्याद्राहुं दक्षिणपश्चिमे ॥ ४३ ॥
पश्चिमोत्तरतः केतुः स्थाप्यो वै शुक्लतण्डुलैः ।
वर्णस्य च गुणैर्युक्तान्व्याहृत्याऽऽवाहयेत्तुतान् ॥४४ ॥
भो भोः सूर्य ग्रहाध्यक्ष कलिङ्गविषयोद्भव ।
रक्त काश्यपगोत्र (त्रिं) स्तु द्विभुजः (बाहो) पद्मलाञ्छन ॥ ४५ ॥
सप्ताश्वबाहनाऽऽगच्छ पद्ममध्ये वरप्रद ।
अग्निं दूतेतिमन्त्रेण रुद्ररूपीप्र(पिन्प्र)तिष्ठित ॥ ४६ ॥
अहो चन्द्र जगत्प्राण यमुनाविषयोद्भव ।
श्वेतवर्णात्रिगोत्रे(त्री)य गदापाणे वरप्रद ॥ ४७॥
दशाश्ववाहनाऽऽगच्छ उमारूपीस(पिन्स)माविश ।
हुताशनदले देव मन्त्रेणाप्स्वग्निनाऽर्चित ॥ ४८ ॥
उज्जयिन्यां समुत्पन्न भो भो भौम चतुर्भुज ।
भरद्वाजकुले जात शूलशक्तिगदाधर॥ ४९ ॥
मेषमारूढ वरद स्कन्दप्राण तडित्प्रभ ।
स्योना पृथिविमन्त्रेण दले याम्ये प्रतिष्ठित ॥ ५० ॥
अहो चन्द्रसुत श्रीमन्मगधीयासमुद्भव ।
अत्रिगोप्रचतुर्बाहो खड्गखेटकधारक ॥ ५१ ॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16975662215.png"/>383गदावरद सिंहस्य सुवर्णाभ समाविश ।
नीलपङ्कजपत्रस्थ इदं विष्णुप्रपूजित ॥ ५२ ॥
अहो वाचस्पते जीव सिन्धुमण्डलसंभव ।
एह्याङ्गिरसगोत्रे(त्री)य हयारूढ चतुर्भुज ॥ ५३ ॥
दण्डाक्षसूत्रवरदकमण्डलुधर प्रभो ।
महानिन्द्रेति संपूज्य विधिवच्चोत्तरे दले ॥ ५४ ॥
भो भो भोजकटेजात शुक्र श्वेताश्ववाहन ।
समागच्छ चतुर्बाहो भृगुगोत्रविभूषण ॥ ५५ ॥
परिष्वा (घा)क्षावलीहस्त कमण्डलुधर प्रभो ।
पूर्वपत्रे प्रतिष्ठा तु(ष्ठाऽऽशु) शुक्र ज्योतीतिपूजित ॥ ५६ ॥
अहो सौराष्ट्रसंजात च्छायापुत्र चतुर्भुज ।
कृष्णबर्णार्कगोत्रे (त्री) य बाणखड्गधनुर्धर ॥ ५७ ॥
वरद त्वं समागच्छ त्रिशूलिन्मृध्रवाहन ।
प्रजापतीति संपूज्य ह्यम्बुजस्योत्तरे दले ॥ ५८ ॥
संजात बर्वरे देशे राहो कायविवर्जित ।
गोत्रे पैठीनसे ह्येहि सिंहारूढ वरप्रद ॥ ५९ ॥
करालवदन श्रेष्ठ कालरूपिञ्जनप्रभो ।
आयं गौरितिमन्त्रेण पूज्य नैर्ऋतपत्रके ॥ ६० ॥
केतवो विविधाकारा मलयाद्रिसमुद्भवाः ।
द्विभुजा जैमिने(निगो)त्रागदाहस्ता वरप्रदाः ॥ ६१ ॥
आगच्छत कपोतस्थाः शोभने मारुते दले ।
ब्रह्मजज्ञानमन्त्रेण चित्रगुप्त इवार्चिताः ॥ ६२ ॥
एवं ग्रहान्प्रतिष्ठाप्य स्थापनीयाश्च देवताः ।
तेषां स्थानानि नामानि मन्त्रांश्च प्रवदाम्यहम् ॥ ६३ ॥
रुद्रं त्र्यम्बकमन्त्रेण रवेरुत्तरतो न्यसेत् ।
सोमस्याऽऽग्नेयदिग्भागे श्रीश्च ते मेनकात्मजाम् ॥ ६४ ॥
यदक्रन्देति भौमस्य स्कन्दं याम्ये प्रपूजयेत् ।
विष्णुं विष्णो रराटेति यजेत्पूर्वे बुधस्य च ॥ ६५ ॥
गुरोरुत्तरतोऽभ्यर्च्योब्रह्मा ब्रह्मेतिमन्त्रतः ।
सजोपा इति शुक्रस्य प्राच्यां शक्रं निधापयेत् ॥ ६६ ॥
शनेश्च पश्चिमे स्थाप्यो यमायेतिऋचा यमः ।
कार्ष्णिरसीतिमन्त्रेण राहोः कालं तथोत्तरे ॥ ६७ ॥
चित्रगुप्तं तु केतूनां चित्रश्वेतेति नैर्ऋते ।
ग्रहाणां देवताः ख्याता मुख्याः शृण्वधिदेवताः ॥ ६८ ॥
शंभोश्चाग्रे भवेद्वह्निरापश्चोमाऽधिनैर्ऋति ।
धरा च स्कन्दवायव्ये विष्णुर्नारायणोत्तरे ॥ ६९ ॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16975680515.png"/>384चित्रगुप्तान्तरे ब्रह्मा अधिदेवान्निधापयेत् ।
X385सनोपोदाविदं विष्णुरिन्द्रस्त्वैन्द्री प्रजापतिः ॥
नमोऽस्तु ब्रह्मजज्ञानमधिदेवा यथाक्रमम् ॥ ७० ॥
आ नो भद्रेत्यनन्तं च रवेःपूर्वेप्रपूजयेत्।
देवानां वासुकिः पूज्यो मृगाङ्कस्याग्रतो बुधैः॥७१॥
तां पूर्वयाऽहिचक्रस्य तक्षकं स्थापयेत्पुरः।
तन्नो वातेति कर्कोटं पूजयेदुत्तरे बुधात्॥७२॥
तमीशानेति पद्मं तु गुरोरग्रे निधापयेत्।
महापद्मं च शुक्रस्य सव्यतः सौम्यतो न्यसेत्❋386॥७३॥
शतं मित्रेति केतूनां पु(कु)लिकं पुरतो न्यसेत्।
आ नो भद्रानुवाके387न एवं प्रत्यधिदेवताः॥७४॥
गणनाथं त388था दुर्गांवायुमाकाशमेव च।
कुमारावश्विनौ देवौलोकपालांस्तथैव च॥७५॥
शनेः केतोश्च पूर्वे तु गुरोः सूर्यस्य पथिमे।
आवाहयामि देवेशं गणानामधिपं शुभम्॥७६॥
आखुवाहनमारूढं तप्तकाञ्चन389सप्रभम्।
लम्बोदरं महाकायमेकदन्तं गजाननम्॥७७॥
विभ्रतं पुस्तिकामक्षान्कमलं च परश्वधम्।
आगच्छ भगवन्देव यज्ञेऽस्मिन्संनिधोभव॥७८॥
नमो गणेति मन्त्रेण गणेशं पूर्वतो न्यसेत्।
आवाहयामि देवीं तां दुर्गां दुर्गार्तिनाशिनीम्॥७९॥
सुस्निग्धां श्यामवर्णां च सर्वशस्त्रप्रधारिणीम्।
अनेकबाहुवदनां बहुरूपधरां शिवाम्॥८०॥
तत्राऽऽवाहनमन्त्रः—
आगच्छ देवि चामुण्डे यज्ञेऽस्मिन्संनिधा भव।
त्वयि संनिहितायां च कर्मसिद्धिर्भवेन्मम॥८१॥
जातवेदसेमन्त्रेण चामुण्डां दक्षिणे न्यसेत्।
आवाहयामि देवेशीं चतुःषष्ट्यधिदेवताम्॥
मुण्डमालाधरां घोरां व्याघ्रचर्माम्बरप्रियाम्॥८२॥
क्षेत्रपालं हयारूढं खड्गपात्रधरं शुभम्।
विभ्रतं डमरुं शूलं सर्पयज्ञोपवीतिनम्॥८३॥
आगच्छ भगवन्देव यज्ञेऽस्मिन्संनिधो भव।
भूतानामितिमन्त्रेण भैरवं चोत्तरे न्यसेत्॥८४॥
गणनाथं प्रतिष्ठाप्य सर्वदेवसमन्वितम्।
घृतं घृतेतिमन्त्रेण अन्तरिक्षं तु पश्चिमे॥८५॥
अग्र आज्येतिमन्त्रेण उत्तरे च धनाधिपम्।
श्रियं मन्त्रेण तद्देव्या श्रीश्चते इति दक्षिणे॥८६॥
यावांकशेतिमन्त्रेण पूर्वे स्थाप्यौ तथाऽश्विनौ।
सप्त संप्त यजेद्भानि प्रागेवाश्विनिपूर्वकम्॥८७॥
अश्विन्यां तेजसाऽश्विन्या यमाय भरणीषु च।
कृत्तिकायामग्निदेवो रोहिणी ब्रह्मदेवता॥८८॥
सोमो वैश्वेति सौम्यस्य नमस्ते रुद्रदैवते।
अदितिर्द्यौः पुनर्वस्वोः पुष्ये वाचस्पते इति॥८९॥
सार्पे च दैवतं सर्पः पितरः पितृदैवते।
भगप्रणेति भाग्यं च देव्या रधुर्य(चार्चेयु)रर्यमम्॥९०॥
हस्तं विभ्रतिमन्त्रेण त्वाष्ट्रं त्वाष्ट्रेति पूजयेत्।
वायो अन्येति वायव्यमिन्द्राग्नीति द्विदैवतम्॥९१॥
नमो मित्रेति मित्रर्क्षं स इष्विति पुरंदरम्।
मूलं मातेव पुत्रं तु पूर्वाषाढापाद्यमत्(?)॥९२॥
विश्वे अद्येति विश्वेशं गायत्र्या वाऽभिजिन्न्यसेत् \।
श्रवणं विष्णुमन्त्रेण धनिष्ठां वसुधारया॥९३॥
पञ्चवारुणं वारुण्यां अजपादोवनोदिते। (?)
शिवौ नामेत्यहिर्बुध्न्ये पौष्णं पूपस्तवेन तु॥९४॥
योगे योगेतिमन्त्रेण विष्कम्भादि प्रपूजयेत्।
भद्रं कर्णेतिमन्त्रेण करणान्यखिलान्यपि॥१५॥
ध्रुवोऽसीति ध्रुवौ मध्ये ग्रहाणां शततारकाम्।
गङ्गां च सरितः सर्वाः पञ्च नद्येति पूजयेत्॥९६॥
सागरांश्चैव सप्तैतानिमं म इति पूजयेत्।
पृथिव्यां पर्वतान्कांश्चित्पर्वतेति प्रपूजयेत्॥९७॥
पा390वायस्तेतिमन्त्रेण रैवतं पूजयेत्ततः।
ऋषीणामितिमन्त्रेण ऋषीणां पूजनं मतम्॥९८॥
असंख्यातेति संपूज्यो रुद्रो रुद्रघटेऽम्भसि।
पूज्यो विष्णुः स्वसूक्तेन वामनेन तथैव च॥९९॥
चतुःषष्टिपदो वास्तुः पूज्यो वास्तोष्पते इति।
गणानां त्वेति वायव्ये गणनाथं मपूजयेत्॥१००॥
प्रजापत इत्यनेन पूज्यो दक्षः प्रजापतिः।
रुद्रकुम्भाग्रतः पूज्या चामुण्डा जातवेदसे॥१०१॥
यो वः शिवेतिमन्त्रेण चोत्तरे मातृमण्डलम्।
भूर्लोकान्सत्यपर्यन्तानैशान्यादौ प्रपूजयेत्॥ १०२॥
अहो इन्द्र गजेन्द्रस्थ वज्रहस्त प्रपूजित।
त्रातारमितिमन्त्रेण प्राचींसंरक्ष दिवपते॥१०३॥
अहो मेपस्थ सप्तार्चे शक्तिपाणे महाबल।
त्वं नो अग्नेति संपूज्य दिशं वह्ने प्रपालय॥१०४॥
अहो महिषमारूढ दण्डपाणे वरप्रद।
सुगं न इति संपूज्य दक्षिणाशां प्रपालय॥१०५॥
अहो नैर्ऋत दिक्पाल नैर्ऋत्यां खड्गधारक।
आगच्छ कुणपारूढ सुन्वन्तमिति पूजित॥१०६॥
अहो वरुण वारुण्यां यादःपृष्ठसमाश्रित।
आगच्छ पाशपाणे त्वं तत्त्वायामीति पूजित॥१०७॥
अहो वायो मृगारूढ ध्वजहस्त प्रपूजित।
आ नो नियुद्भिर्मन्त्रेण मारुताशां प्रपालय॥१०८॥
अहो किंनरराजेद्र शिविकारूढ वित्तप।
रक्षोत्तरदिशं सम्यग्वयं सोमेति पूजित॥१०९॥
अहो वृषभमारूढ शूलपाणे महाबल।
रौद्राशामीश रक्ष त्वं तमीशानेतिपूजित॥११०॥
अहो हंसस्थित ब्रह्मन्व्योम रक्ष निरन्तरम्।
ब्रह्मजज्ञानमन्त्रेण पूजितः सकमण्डलुः॥१११॥
अहो गरुडमारूढ शङ्खचक्रगदाधर।
स्योना पृथिविपूजार्ह पालय त्वमधोदिशम्॥११२॥
संपूज्य बलिपुष्पैस्तु प्रक्रमेण दिगीश्वरान्।
तत्र ये स्थापिताः पीठे ग्रहा देवाधिदेवताः॥११३॥
विचिन्त्याः संमुखाः सर्वे मूर्ताश्चैव वरप्रदाः।
मृदुभिः शोभनैर्वस्त्रैः परिधाप्याः पृथक्पृथक्॥११४॥
युगैकपाश्च वा सर्वे रुद्रकुम्भयुगैकपाः।
श्रीखण्डं भार्गवे चन्द्रे भौमार्के रक्तचन्दनम्॥११५॥
चमसं च बुधे जीवे शेषाणां कुङ्कुमं स्मृतम्।
हयारिकुसुमैः सूर्यंकुमुदैः सोममर्चयेत्॥११६॥
क्षितिजं तु जपापुष्पैश्चम्पकैः सोमनन्दनम्।
शतपत्रैर्गुरुः पूज्यो जातीपुष्पैस्तु भार्गवः॥११७॥
मल्लिकाकुसुमैः पङ्गं कुन्दपुष्पैर्विधुंतुदम्।
केतुं नानाविधैः पुष्पैर्ऋतुकालोद्भवैः शुभैः॥११८॥
प्रतिष्ठासंभवैर्मन्त्रैः पश्चाद्धूपं प्रदापयेत्।
कुन्दुराज्यं रवेधूपं तण्डुलाज्यं निशाकरे॥११९॥
सल्लकीधूपमुर्वीजे बुधेऽगरुरुदाहृतः।
स एव त्रिदशाचार्ये साज्यं विल्वाङ्कुरं कवौ॥१२०॥
गुग्गुलं सूर्यपुत्रे तु राहौ लाक्षा ह्युदाहृता।
नखं केतौ समादिष्टं वसवस्त्वेति धूपयेत्॥१२१॥
गुडान्नंक्षीरिकासारं दुग्धान्नंदधिभक्तकम्।
घृतान्नं कृशरान्माषान्विचित्रान्नं गुडादिभिः॥१२२॥
द्राक्षेक्षुपूगनारङ्गजम्बीरं बीजपूरकम्।
खर्जूरं नारिकेलं च दाडिमं च यथाक्रमम्॥१२३॥
अलाभे यानि भक्ष्याणि फलानि तानि दापयेत्।
खेचराणां च ताम्बूलमेकैकस्य प्रदापयेत्॥ १२४॥
नववर्तियुतो दीपो घृतेन परिपूरितः।
ग्रहाणामग्रतः कार्यस्तेजोऽस्येतेन मन्त्रितः॥१२५॥
ग्रहदेवाधिदेवाश्च स्थापनीया दिगीश्वराः।
प्रतिष्ठालिङ्गमन्त्रैश्च पुनस्तेषां प्रकल्पयेत्॥१२६॥
ततः कुण्डं समासाद्य निर्वृत्याग्निक्रियां चरुम्।
श्रपयित्वा ततो होमः कर्तव्यः खेचरान्मात॥१२७॥
आधारावाज्यभागांश्च जुहुयात्पञ्चवारुणीम्।
हिरण्यस्तूप आ कृष्णेन त्रिष्टुप्सविता मतः॥१२८॥
आप्यायस्वे गौतमस्तु गायत्रं सोमदैवतम्।
अग्निर्मूर्धा विरूपाक्षो गायत्रं चाग्निदैवतम्॥१२९॥
उद्वुध्यस्व बुधास्त्रिष्टुबविश्वेदेवाश्च देवताः।
बृहस्पते गृत्समदस्त्रिष्टुब्देवो बृहस्पतिः॥१३०॥
❋391अन्नादिभिर्भरद्वाजत्रिष्टुप्पूषाच देवता।
सिन्धुद्वीपस्तु गायत्री आपः शं न इति क्रमात्॥१३१॥
प्रक्रान्ते वामदेवस्तु गायत्रं स्याच्छतक्रतुः।
केतुं कृण्वन्मधुऋषिर्गायत्री चेन्द्रदैवतम्॥१३२॥
एकैकां च घृतस्याऽऽहुतिमेकैकां चरोस्तथा।
मन्त्रे मन्त्रे स्वकीये च दद्याद्देवग्रहान्प्रति॥१३३॥
समिदाज्यचरोर्होमः कर्तव्यस्तु क्रमेण तु।
समिदर्कमयी सूर्ये पालाशी शशिनस्तथा॥१३४॥
खादिरी भूमिपुत्रे च ह्यापामार्गी बुधस्य च।
गुरोरश्वत्थजा प्रोक्ता शुक्रस्यौदुम्बरी तथा॥१३५॥
शमी प्रोक्ता च मन्दस्य सोमे (राहौ) दूर्वा प्रकीर्तिता।
केतोः कुशाः समादिष्टा यज्ञविद्याविशारदैः॥१३६॥
अभावे तु प्रकर्तव्याः सर्वा ब्रह्मतरोः शुभाः।
या ओषधीरित्यनेन समिधस्त्वार्द्रिकाहरेत्॥१३७॥
अक्रोधनो गतव्याधिः शुचिः सन्ब्राह्मणोत्तमः।
पूर्वदिक्प्रान्ततो वाऽथ सौम्यतो वाऽथ पश्चिमात्॥१३८॥
आहरेत्समिधः सर्वा न तु याम्यदिशः सुधीः।
हुत्वा पलाशवृक्षस्य समिधो द्विजसत्तमः॥१३९॥
सर्वान्कामान्समाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।
खादिरी चार्थलाभाय ह्यपामार्गेण रूपवान्॥१४०॥
अश्वत्थः सर्वकामाणां ददात्यविरतं फलम्।
हेमक्षीरस्य समिधः सौभाग्यसुखदा नृणाम्॥१४१॥
शमी शमयते पापं दूर्वा ह्यायुर्विवर्धिनी।
कुशा धर्मार्थकामानां फलदा नात्र संशयः॥१४२॥
रक्षोघ्नास्तु कुशाः काशाः पिशाचगणवारणाः।
तस्मात्कुशाः पवित्रास्तु काशास्तेषामलाभतः॥१४३॥
कृशा स्थूला च दीर्घा च न्यूना शीर्णा दलीकृता।
कीटविद्धा तथा शुष्का वर्जनीया प्रयत्नतः॥१४४॥
वक्रा द्विशाखा त्वग्हीना समिन्नेष्टा श्रुतौ स्मृतौ।
विशीर्णाऽऽयुष्क्षयं कुर्याद्विदला व्याधिकारिणी॥१४५॥
ह्रस्वया मृत्युमाप्नोति वक्रा विघ्नकरी स्मृता।
स्थूला हरति वित्तानि कृशायां पापसंचयः॥१४६॥
द्विशाखा नेत्ररोगाय कृमिदष्टाऽर्थनाशिनी।
द्वेषं वितनुते दीर्घा प्राणघ्नीत्वग्विवर्जिता॥१४७॥
शस्ता दशाङ्गुलोपेता द्वादशाङ्गुलिका तथा।
रोगहन्त्री मनस्तुष्टिसंपद्भोगविवर्धिनी॥१४८॥
प्रजालाभप्रदा पापक्षयदा रोगनाशिनी।
आयुर्विवर्धिनी शोकनाशिनी धनदा तथा॥१४९॥
अर्कादिसमिधो ज्ञेया विद्वद्भिर्गतमत्सरैः।
अष्टोत्तरसहस्रं च शतमष्टाधिकं तथा॥१५०॥
अष्टाविंशतिमष्टौ वा यजेत्पञ्चामृतप्लुताः।
इन्धनैः पूरिते वह्नौ सुसमिद्धे विशेषतः॥१५१॥
निर्धूमे लेलिहाने च होतव्याः कर्मसिद्धये।
अन्नवृत्रे (अप्रवृद्धे) समिद्धे च जुहुयाद्यो हुताशने॥१५२॥
यजमानो भवेदन्धः सौमित्र इति नः श्रुतम्।
आ कृष्णेनेति सूर्यस्य इमं देवेति शीतगोः॥१५३॥
अग्निर्मूर्धेति भौमस्य उद्बुध्यस्वेति बोधने।
❋392बृहस्पतेति जीवस्य शुक्रस्यान्नात्परिश्रुतेः॥१५४॥
शं नो देवी शर्मन्त्रः कया नश्चित्र राहवे \।
केतुं कृण्वन्न केतूनां होममन्त्राः प्रकीर्तिताः॥१५५॥
शेषाणां स्थापने मन्त्रैर्होमो व्याहृतिभिस्तिलैः।
अन्नाद्विशेषहोमः स्यादन्ते व्याहृतिरुच्यते॥१५६॥
न मुक्तवालो जुहुयान्नानुपातितजानुकः।
अनुपातितजानुश्च रक्षसे जुहुयाद्धविः॥१५७॥
हूयमाने हुताशे च याद ज्वालासमुद्भवः।
सिद्धिदो यजमानस्य ज्ञेयः प्रीतो मनीषिभिः॥१५८॥
सा ज्वाला यदि रक्ता स्यात्कृष्णा चैव विशेषतः।
उदिता शत्रुभयदा ऋत्विजां नात्र संशयः॥१५९॥
वह्निः प्रदक्षिणावर्तः सशिखो धूमवर्जितः।
स्निग्धः सुगन्धिर्गम्भीरश्चिरायुर्होतुरादिशेत्॥१६०॥
होमान्ते सर्वकृत्यानां दद्यात्पूर्णाहुतिंशुभाम्।
अध्वर्युऋत्विक्सहितः पूर्णाहुतिमुपारभेत्॥१६१॥
श्रेपर्णी खादिरी दार्वी विकङ्कतसमुद्भवा।
बाहुमात्रा प्रकर्तव्या स्रुग्वा स्याद्धस्तमात्रिका॥१६२॥
यस्य काष्ठस्य दर्वी स्यात्तस्यैव स्यात्स्रुवः शुभः।
खादिरो हैमदुग्धो वा प्रोक्तो यज्ञस्य कर्मणि॥१६३॥
चतुरस्रमुखा दर्वी योनिः स्याच्चतुरङ्गुला।
अर्धाङ्गुलसमुच्छ्राया पञ्चाङ्गुलमितानना॥१६४॥
हरिणीखुरमाना स्यान्माने व्यङ्गुल उच्यते।
द्विपक्षः शुभदो ज्ञेयः स्रुवो यज्ञस्य कर्मणि॥१६५॥
चन्दनेनानुलिप्ताङ्गौ कृत्वा दर्वीस्रुवौ शुभौ।
वामहस्ते धृतां दर्वीमाज्येनैवाभिघारयेत्॥१६६॥
शुक्रज्योत्यनुवाकेन घृतेनाच्छिन्नारया \।
निविष्टः प्राङ्मुखः कर्ता शान्तात्मा च हुतानलः॥१६७॥
होमान्ते यजमानेन कर्तव्यं ग्रहपूजनम्।
यो यस्य विहितो393 होमः सर्वंतस्य नियोजयेत्॥१६८॥
अष्टाधिकसहस्रं च शतमष्टाधिकं तथा।
अष्टाविंशतिरेव स्युरष्टौ वा समिधोऽर्कजाः॥१६९॥
अर्कतृप्त्यै च होतव्याः पृषदाज्येन संयुताः।
समिद्भ्यो द्विगुणं प्रोक्तं पृषदाज्यं मनीषिभिः॥१७०॥
ततस्तु त्रिगुणाः प्रोक्तास्तिला यज्ञविशारदैः।
तिलेभ्यश्चाक्षतास्तद्वत्समुद्दिष्टाश्चतुर्गुणाः॥१७१॥
ॐकारपूर्वमुच्चार्य मन्त्रं तल्लिङ्गकं शुभम्।
ध्यात्वा च भास्करं देवं काश्यपिं च कलिङ्गजम्॥१७२॥
सप्तम्यां च समुत्पन्नं विशाखर्क्षसमुद्भवम्।
वर्णेन क्षत्रियं विद्याद्भगवन्तं विभावसुम्॥१७३॥
आहुत्यन्ते समुच्चार्य चतुर्थ्या ग्रहनामकम्।
विशेषणं विशेष्यं च ततस्तु जुहुयात्सुधीः॥१७४॥
अत्रिगोत्रसमुद्भूतं यमुनातीरवासिनम्।
अष्टम्यां कृत्तिकायां च जातं विद्याद्ग्रहं विधुम्॥१७५॥
वैश्यवर्णसमुद्भूतं दशाश्वं द्विभुजं तथा।
देशे मालवके जातं भारद्वाजकुलोद्भवम्॥१७६॥
उज्जयिन्यां समुद्भूतं दशमीतिथिसंभवम्।
पूर्वाषाढासमुत्पन्नं क्षत्रियं मङ्गलं विदुः॥१७७॥
अत्रिगोत्रसमुद्भूतं चन्द्रजं वैश्यवर्णजम्।
गिरिव्र394जे समुत्पन्नं देशे मगधसंज्ञके॥१७८॥
द्वादश्यां च धनिष्ठायां बुधं सर्वज्ञमुत्तमम्।
गोत्रे चाऽऽङ्गिरसे जातं सिन्धुदेशसमुद्भवम्॥१७९॥
सिन्धुग्रामे समुद्भूतमेकादश्यां विशेषतः।
पूर्वफल्गुनिकऋक्षे ब्रह्मवर्णं बृहस्पतिम्॥१८०॥
देशे भोजकटे जातं विद्याद्गोत्रे भृगुं भृगुम्।
नक्षत्रे रेवतीसंज्ञे चतुर्दश्यां समुद्भवम्॥१८१॥
वर्णेन ब्राह्मणं श्रेष्ठं दैत्याचार्यं चतुर्भुजम्।
कश्यपस्य कुले जातं सूर्यपुत्रं शनैश्चरम्॥१८२॥
रेवतिऋक्षजं ज्ञेयं जातं सौराष्ट्रमण्डले।
शूद्रवर्णे समुद्भूतं कृष्णवर्णं चतुर्भुजम्॥१८३॥
कमण्डल्वक्षमालाधनुष्पाशान्बिभ्रतं करैः।
चतुर्दश्यां समुद्भूतं कृष्णपक्षे विशेषतः॥१८४॥
यमरूपं महाघोरं देवदैत्यनमस्कृतम्।
पैठीनसकुले जातं देशे बर्बरसंज्ञके॥१८५॥
पूर्णिमायां भरण्यां च सिंहिकातनयं विदुः।
शूद्रवर्णं महारौद्रं देववंशभयप्रदम्॥१८६॥
गोत्रेण जैमिनिंजातं मलये पर्वतोत्तमे।
अमायां सर्पदैवत्ये शूद्रवर्णं महाबलम्॥१८७॥
केतुं विद्यान्महारौद्रं चन्द्रसूर्यभयप्रदम्।
येन केन प्रकारेण सुप्रीतं कारयेद्बुधः॥१८८॥
गौरं गौरतनुं रक्तं गौरं गौरं सुपीतकम्।
कृष्णं कृष्णं च धूम्रं च भास्कारादिग्रहं स्मरेत्॥१८९॥
एके वदन्ति केतूनां रूपबाहुल्यमञ्जसा।
एक एवास्ति केतुस्तु नानावर्णंवदन्ति तम्॥१९०॥
अथ संकल्पः—
यथासंख्याकेन समित्तिलचर्वाज्यद्रव्यैर्व्याहृतिभिर्ऋग्यजुःसामाथर्वमन्त्रैर्यजमानस्य सपुत्रस्य सकलत्रस्य सान्वयस्य सपशुधनस्य सवृत्तस्य सशलिस्य सभृतकस्याऽऽयुरारोग्यसिद्ध्यर्थमुत्पन्नक्लेशनिवृत्त्यर्थं सर्वकामफलप्रात्प्यर्थं यत्कृतं ग्रहहवनमनेन ग्रहहवनेनाऽऽदित्यादिनवग्रहाः सुप्रसन्ना भवन्तु। अनेन ग्रहप्रसादेन यजमानस्य मनोरथाः सफलाः सन्तु। भूतवर्तमानभविष्यत्र्त्रिविधाकल्याणविनाशनार्थं लक्ष्मीप्राप्त्यै प्राप्तश्रीपरित्राणार्थंतिथिमुहूर्तकरणलग्नाधिदेवताप्रीत्यर्थंपूर्वाग्नेयदक्षिणनैर्ऋतपश्चिमवायव्योत्तरैशानोर्ध्वाधो यानि कानि च तीर्थानि याः काश्चिद्देवतास्तेषां प्रीणनार्थं जम्बूशाकक्रौञ्चकुशशाल्मलिप्लक्षपुष्करसप्तद्वीपेषु प्रसाद्यानि तीर्थानि क्षेत्राणि गङ्गाद्याः सरितः पुण्या नैमिषचम्पकारण्यवदरिकाश्रमप्रभृतिपुण्यारण्यानि वाराणसीमुक्तिनगरी श्रीमद्वारकाप्रभृतिशैववैष्णवस्थानानि तेषां प्रीणनार्थं सप्त पातालानि मर्यादीकृत्य हाटकेश्वराधोलोकसंस्थितवासुकिप्रमुखपन्नगकुलप्रीत्यर्थं स्वर्लोकसंस्थितेन्द्रादिदेवतागणगन्धर्वयक्ष राक्षसविद्याधरभूतप्रेतपिशाचवेतालाष्टविधदेवयोनिप्रीत्यर्थं मनुष्यलोकसंस्थितसनकसनन्दनादिप्रीत्यर्थं पितृलोकसंस्थितवसुरुद्रादिमीणनार्थं [ यत्कृतं हवनं तेनै ] ते होमाधिष्ठातारोऽग्निवायुसूर्यादियज्ञदेवाः प्रीयन्ताम्।
आचार्यः प्रथमं पूज्यो गजाश्वरथकाञ्चनैः।
तोषयित्वा महादानैर्नमस्कृत्य क्षमापयेत्॥१९१॥
ततस्तु ऋत्विजः पूज्या ग्रहमूर्तिप्रदानतः।
वस्त्रालंकारदानेन दक्षिणाभिश्च भूरिशः॥१९२॥
यस्मै यस्मै नभोगाय येन येन यथाविधि।
कृतं स्याद्धवनं तं तं तस्मै तस्मै प्रदापयेत्॥१९३॥
ततस्तु ब्राह्मणाः सर्वे सदस्यत्वेन संस्थिताः।
तेऽपि पूज्या यथाविद्यं यथाविभवमात्मनः॥१९४॥
रवेर्धेनुं विधोः शङ्खमनड्वाहं कुजस्य च।
हेम ज्ञस्य गुरोर्वस्त्रं हयं शुक्रे शनेश्च गाम्॥१९५॥
अजं राहोर्विदुस्तज्ज्ञाः केतूनामायसं तथा।
सितासिते च गावौ स्तो रक्तोऽनड्वान्प्रकीर्तितः॥
पीतं वस्त्रं हयः श्वेतस्तथैवाजः प्रकीर्तितः॥ १९६॥
तथा च पैठीनसिः—
आदित्याय शुभां धेनुं शङ्खं सोमाय दापयेत्।
भौमे रक्तमनड्वाहं सोमपुत्राय काञ्चनम्॥१९७॥
गुरवे वस्त्रयुग्मं च हयं श्वेतं भृगोस्तथा।
शनैश्चराय कृष्णां गां राहोश्छागं तथैव च॥
केतूनामायसं दद्यात्सर्वेषामपि काञ्चनम्॥१९८॥
तथा च याज्ञवल्क्यः—
धेनुः शङ्खस्तथाऽनङ्वान्हेम वासो हयः क्रमात्।
कृष्णा गौरायसं छागो ह्येता वै दक्षिणाः स्मृताः॥१९९॥
हयस्य वृषभस्यापि साम्यं सर्वत्र कल्पयेत्।
एतन्मुनिमतं श्रेष्ठं दक्षिणायां पृथक्पृथक्॥२००॥
आस्तीर्णवाससा सार्धंपट्टतण्डुलसंयुतम्।
ब्रह्मणे यज्ञक्रुद्दद्याद्यथावित्तं च दक्षिणाम्॥२०१॥
आचार्यमृत्विजं यस्तु ब्रह्माणमपि ऋत्विजम्।
कुर्वन्नैवाऽऽप्नुयात्तस्य यज्ञस्य सकलं फलम्॥२०२॥
विप्राभावे प्रकर्तव्यावृत्विजौ तौ मनीषिभिः।
सद्भावे न हि कर्तव्यौ फलच्युतिक्षयान्नृभिः॥२०३॥
यज्ञकुण्डात्पश्चिमतो ह्यभिषेकं समाचरेत्।
आदाय रुद्रकलशं द्विजैः सार्धं ततो गुरुः॥२०४॥
पञ्चाङ्गरुद्रजाप्येन वशं कुर्यात्सदाशिवम्।
ईश्वरो वशगो यस्य तस्य वश्यं जगत्त्रयम्॥२०५॥
उच्चार्य वारुणान्मन्त्राञ्जलमश्वत्थपल्लवैः।
उद्धृत्योद्धृत्य संसिञ्चेत्सकलत्रं सपुत्रकम्॥२०६॥
आम्रोदुम्बरन्यग्रोधजम्बूदूर्वाः समूलिकाः।
सपुष्पाः सकुशाः प्रोक्ता विद्वद्भिरभिषेचने॥२०७॥
आपो हि ष्ठेतिसूक्तेन मन्त्रैर्वाऽपि त्रिभिस्तथा।
पञ्चैन्द्रैर्वारुणैस्तावदिदमापेति वै तथा॥२०८॥
समुद्रज्येष्ठामन्त्रैस्तु चतुर्भिरभिषेचयेत्।
आप्यायपञ्चनद्येति शिरो मेति च पञ्चभिः॥२०९॥
देवस्य त्वात्रिभिः कुर्यादभिषेकं महामतिः।
तथा पौराणविधिः—
सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः।
आयान्तु मम देहस्य दुरितक्षयकारकाः॥२१०॥
इति यजमानः प्रार्थयेत्।
ततश्च तैर्ब्राह्मणैः पौराणवचनैरभिषेकः कर्तव्यः।
तथाहि—
शक्रादिदेवताः सर्वा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
सर्वे त्वामभिषिञ्चन्तु सुरपत्न्योऽमराङ्गनाः॥२११॥
नारायणो जगन्नाथो देवः संकर्षणो विभुः।
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च ऋद्धिमिच्छन्तु ते सदा॥२१२॥
नारदाद्या ऋषिगणा ये चान्ये च तपोधनाः।
भवन्तु यजमानस्य आशीर्वादपरायणाः॥२१३॥
इन्द्रो वह्निर्यमश्चैव निर्ऋतिर्वरुणस्तथा।
वायुः सोमश्च रुद्राश्च दिक्पालाः पान्तु सर्वदा॥२१४॥
वत्सरायनमासाश्च तिथिवाराश्चनाडिकाः।
मुहूर्तास्त्वाऽभिषिञ्चन्तु नक्षत्राणां च देवताः॥२१५॥
आदित्यश्चन्द्रमा भौमो बुधजीवसितार्कजाः।
ग्रहास्त्वामभिषिञ्चन्तु राहुःकेतुश्च तर्पिताः॥२१६॥
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः।
लोकपालाः प्रयच्छन्तु मङ्गलानि दिने दिने॥२१७॥
गन्धर्वाः किंनरा यक्षाः सिद्धा विद्याधरास्तथा।
अभिषिञ्चन्तु ते सर्वे नद्यः सागरपर्वताः॥२१८॥
वेदशास्त्राणि मीमांसे छन्दांस्यागनपञ्चकम्।
पुराणानि च सर्वाणि सेतिहासानि सर्वतः॥२१९॥
गायत्री चैव सावित्री शवी लक्ष्मीः सरस्वती।
मृडानी मातरः सर्वा भवन्तु वरदास्तव॥२२०॥
यमेवं रुद्रकुम्भेण कर्तारमभिषेचयेत्।
सर्वान्कामानवाप्नोति यथावद्ग्रहपूजनात्॥२२१॥
नोपसर्गा न च व्याधिर्न च प्रियवियोगिता।
न दारिद्र्यं न शोकः स्यात्कृत्वैवं ग्रहपूजनम्॥२२२॥
विवाहोत्सवयज्ञादौ राज्यप्राप्तौ महीपतिः।
यात्रादौ धनवृद्धौ च कुर्याद्ग्रहमखं बुधः॥२२३॥
वित्तशक्तिर्गृहे नास्ति यदि स्याद्ग्रहपीडनम्।
दत्तं स्वल्पं हि भावेन प्रसन्नास्ते नव ग्रहाः॥२२४॥
अन्नहीनो दहेद्राष्ट्रं मन्त्रहीनस्तु ऋत्विजः।
यजमानमदक्षिण्यो (अदक्षिणो यजमानं) नास्ति यज्ञसमो रिपुः॥१२५॥
वेदशास्त्रपुराणेषु होमाग्निस्त्रिविधः स्मृतः।
कोटिलक्षायुता ज्ञेयाः सर्वकर्मषु शोभनाः॥२२६॥
कोटिहोमे यदा शक्तिर्लक्षे वाऽप्ययुते तथा।
प्रतिवर्षंप्रकर्तव्यं हवनं पुष्टि395वर्धनम्॥२२७॥
शाखा वाजसनेयी या सर्वसाधारणा मता।
तां पुरस्कृत्य मुनिनावसिष्ठेन प्रकाशिता॥२२८॥
अध्येतव्या प्रयत्नेन वासिष्ठी शान्तिरुत्तमा।
शान्तिकं यः पठेन्नित्यं श्रद्धया यः शृणोति वा।
सानकूला ग्रहास्तस्य सर्वकाले भवन्ति हि॥२२९॥
यथा समु396त्थितं397 यन्त्रं यत्नेन प्रतिबध्यते।
एवं समुत्थितं घोरं सर्वशान्त्या विनश्यति॥२३०॥
यथा बाणप्रहाराणां कवचं वारणं भवेत्।
तथा सर्वोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम्॥२३१॥
बलिं गृह्णन्तु तं देवा आदित्या वसवस्तथा।
मरुतश्चाश्विनौ रुद्राः सुपर्णः पन्नगास्तथा॥२३२॥
असुरा यातुधानाश्च पिशाचा राक्षसा नगाः।
शाकिन्यो यक्षवेताला योगिन्यः पूतना ग्रहाः॥२३३॥
जृम्भकाः सिद्धगन्धर्वाः साध्या विद्याधरा नराः।
दिक्पाला लोकपालाश्च ये ये विघ्नविनाशकाः॥२३४॥
जगतां शान्तिकर्तारो ब्रह्माद्याश्च महर्षयः।
मा विघ्नो मा च मे पापं मा सन्तु परिपन्थिनः॥
सौम्या भवन्तु सुस्निग्धा भूतप्रेताः सुखावहाः॥२३५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
वसिष्ठोक्तं नवग्रहमखविधानम्।
___________
अथ सिंहगते सूर्ये गोप्रसवजनितविघ्नहरविधानम्।
** **मनुराह—
माघे बुधे च महिषी श्रावणे वडवा दिवा।
सिंहे गावः प्रसूयन्ते स्वामिनो मरणं ध्रुवम्॥१॥
विधानं तत्र कर्तव्यं नरेण हितमिच्छता।
सौरैः सूक्तैःप्रकर्तव्यो होमः सूर्यस्य तुष्टये॥२॥
प्रधानं तिलसर्पीपि पायसं शर्करायुतम्।
सहस्रं हवनं प्रोक्तं दानान्यष्टौ यथाविधि॥३॥
सहस्रकिरणप्रीत्यै कर्तव्यानि च धीमता।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते॥४॥
इदमेव माघे बुधे महिषीप्रसवे श्रावणे दिवा बडवाप्रसवेच विधानं बोध्यम्।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां सिंहगते सूर्ये
गोप्रसवजनितविघ्नहरविधानम्।
अथानवरतस्वेदनयनस्रुतिकाकमैथुनदर्शनजनितविघ्नहरं विधानम्।
यदि स्युर्विषमे स्थाने मनुष्याणां नभश्चराः।
शान्तिकं च न कुर्वन्ति न भजन्ति सुरान्द्विजान्॥१॥
ये ये विघ्नाः प्रजायन्ते तेषां ताञ्छृणु पार्वति।
दक्षिणं नयनं तेषां स्रवति द्रवते सदा❋398॥२॥
निमित्तेभ्य ऋते काकमैथुनं यस्तु पश्यति।
प्रकृतिर्विकृतिं याति पण्मासान्निधनं भवेत्॥३॥
तस्य शान्तिं प्रवक्ष्याभि सर्वप्राणिहितां शुभाम्।
वैश्वानरीं शुभां देवि देवानामपि दुर्लभाम्॥४॥
दृष्टा काकरतं धीमान्विदध्याच्छान्तिकं तदा।
स्नात्वा तैलेन शुद्धेन बारिणोष्णेन संगवे॥५॥
+399प्रारभेद्धवनं धीमान्वैश्वानरसुतोषकृत्।
अयुतं वा सहस्रं वा ह्यग्निमील इति स्मरेत्॥६॥
** **स्मरेदिति ऋचं जपेत्।
जुहुयात्तद्दशांशेन पायसेन ससर्पिषा।
अग्निमील इत्यग्नेर्वा लक्षजाप्यं समाचरेत्॥७॥
व्याहृतीनां सहस्राणि जुहुयात्पञ्चविंशतिम्।
होमान्ते महिषीं दद्याद्ब्राह्मणाय सदक्षिणाम्॥८॥
तरुणीं रूपसंपन्नां भूरिक्षीरां सुशोभनाम्।
सवत्सकां यमप्रीत्यै ह्यकालमरणापहाम्॥९॥
दत्त्वा तां महिषीं धीमान्ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः।
य एवं कुर्वते देवि विधानं विधिसत्तमाः॥१०॥
तेषां प्रीतो400ऽनलो देवो हुतः सभ्यङ्भनीषिभिः।
यमस्तु महिषीदानाद्ददाति विपुलं सुखम्॥११॥
नारीणां वा नराणां वा दक्षिणं नयनं स्रवेत्।
विना निदानमर्याणि पण्मासात्तन्मृतिप्रदम्॥१२॥
तथैव विग्रहे खेदं विना धर्मः प्रजायते।
सोऽपि चेत्सततं नॄणामादिशेत्पूर्ववत्फलम्॥
तद्विघ्नशमनायाऽऽशु विधानं पूर्ववत्स्मृतम्॥१३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामनवरतस्वेदनयनस्रतिकाकमैथुनदर्शनजनितविघ्नहरविधानम्।
____________
अथ काकश्येनादिदुष्टपक्षिस्पृष्ट्यादिजनितविघ्नहरं
विधानम्।
काकश्येनकपोतगृध्रवलाकादिदुष्टपक्षिगणे यः कोऽपि यदा मनुष्यस्य जीवतो विग्रहे विलीनो भवति निविष्टो वा भवति तदा तस्य नरस्य नार्या वा षण्मासाभ्यन्तरेण मरणं विनिर्दिशेत्। तेषां मध्ये गृध्रस्तु मासमात्रेण मरणं सूचयति। श्येनस्तु तात्कालिकं मरणं सूचयति। कपोतो दीर्घव्याधिं न तु मरणम्। बलाकः प्रतिष्ठाहानिं करोति। काकस्तु संततिविच्छित्तिं ददाति। एतद्भारते विस्तरेण दर्शितम्।
तत्र शान्तिविधानम्—
गङ्गाजले कृतस्नानो द्विजानाहूय सत्वरः।
कृतस्वस्त्ययनो धीमाञ्जपेन्मृत्युंजयं ततः॥१॥
शिवालये महास्थाने प्रदीपं दीपयेत्सुधीः।
घृतेन तिलतैलेन कौसुम्भेनाथ वा पुनः॥२॥
प्रदक्षिणानमस्कारान्प्रकुर्याच्छक्तितस्त्र्यहम्।
पिप्पलं पूजयेद्धीमान्मूलतस्वितिमन्त्रतः॥३॥
अष्टोत्तरशतं (त) वारान्म ( रं म ) न्दे कुर्यात्प्रदक्षिणाः।
तथा गोगोष्ठमध्यस्थः स्पृशेद्गाःपृष्टमागतः॥४॥
यथाशक्ति तिलान्दद्याद्ब्राह्मणाय कुटुम्बिने।
नमो रुद्राय भीमाय नीलकण्ठाय वेधसे॥५॥
कपर्दिने सुरेशाय व्योमकेशाय वै नमः।
इत्यादिस्तोत्रमालास्तु जपन्नेव दिनत्रयम्॥६॥
शयीत शिवसांनिध्ये शिवध्यानपरायणः।
चतुर्थे दिवसे प्राप्ते भोजयेच्छक्तितो द्विजान्॥७॥
काकादिमूर्तयः कार्या गौरसर्षपपिष्टतः।
छेत्तव्याः कण्ठतः साज्या होतव्या यमतुष्टये॥८॥
यमाय सोममित्याद्यैर्मन्त्रैश्च यमदैवते।
एवं कृते विधाने च दुष्पक्षिस्पृष्टिभावितः॥
विघ्नो नश्यति मर्त्यस्य सम्यगेतन्निबोधत॥९॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां काकश्येनादिदुष्टपक्षिस्पृष्ट्यादिजनितविघ्नहरं
विधानम्।
_________
अथ जन्ममासादिपूजाविधानम्।
निषिद्धं यत्र मासे यत्कर्म पुंसां मनीषिभिः।
तन्मास एव कर्तव्यं मासाधीशस्य पूजनम्॥१॥
तस्य देवस्य कर्तव्या मूर्तिः स्वर्णमयी शुभा।
निष्केण वा तदर्धेन तस्याप्यर्धेन वा पुनः॥२॥
ध्यानयुक्तां दृढां श्रेष्ठां निजवाहनशालिनीम्।
तल्लिङ्गेनैव मन्त्रेण पूजयेत्प्रयतः पुमान्॥३॥
सप्तर्षिमते—
गणेशप्रमुखा देवा दुर्गाद्यामासदेवताः।
पूज्यास्तल्लिङ्गकैर्मन्त्रैर्याजयेच्च विशेषतः॥
सप्तधान्यमये राशौ स्थापयेत्पट्टमुत्तमम्॥४॥
** **उत्तममिति श्रीपर्णीदेवकाष्ठादिजं तैजसं वा। सप्त धान्यान्याह—
यवाः प्रियंगवो माषाआढक्यश्चणकास्तिलाः।
व्रीहयश्च समुद्दिष्टं धान्यानां सप्तकं बुधैः॥५॥
पट्टस्योपरि विन्यस्य वस्त्रमच्छिन्नमुत्तमम्।
तस्योपरि न्यसेन्मूर्तिं शालितण्डुलपङ्कजाम्॥६॥
वस्त्रेणान्येन तां मूर्तिं समन्तात्परिधापयेत्।
पूजयेत्कालजैः पुष्पैदेशाङ्गेनैव धूपयेत्॥७॥
चन्दनेनानुलिप्ताङ्गीं दीपैर्नीराजयेत्ततः।
ततस्तु हवनं कार्यं कृत्वा चाग्निमुखं बुधैः॥८॥
प्रधानं पायसं तत्र शतमष्टोत्तरं भवेत्।
व्याहृतीः कारयेद्विद्वान्यथासंख्यं यथा401वतु॥९॥
तल्लिङ्गेनैव मन्त्रेण प्रधानं जुहुयाद्बुधः।
होमान्ते विधिवत्पूजां तन्मूर्तेःकारयेत्सुधीः॥१०॥
प्रतिपाद्य ततः श्रेयो होमकर्त्रे यथाविधि।
अभिषेकं ततः कुर्यादाचार्यः कर्तुरञ्जसा॥११॥
शान्तिपाठं पठेयुस्ते ये सदस्या द्विजोत्तमाः।
आचार्याय ततो दद्याद्गामेकां लक्षणान्विताम्॥१२॥
अन्येभ्यो विप्रवर्येभ्यः प्रदद्याद्भूरिदक्षिणाम्।
ततस्तु योजयेच्छक्त्या साधुवाचा क्षमापयेत्॥१३॥
अत्र मासशब्दो जन्ममासवाचको ज्ञेयः। न तु पौषापाढौ निषिद्धत्वेन स्मर्तव्यौ।
जन्ममासे जन्मतिथौ जन्मर्क्षे जन्मलग्नके।
विधानं तु प्रयोक्तव्यं विदुषा शान्तिमिच्छता॥१४॥
विवाहे व्रतवन्धे च जन्ममासादि वर्जयेत्।
एवं कृते विधाने चविघ्नः कोऽपि न जायते॥१५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां जन्ममासादिपूजाविधानम्।
_________
अथमातङ्गिनीपूजाविधानम्।
** **भैरव उवाच—
शृणु देवि महागुह्यं मातङ्गिन्याः समुद्भवम्।
सुधार्णवे शयानं तं हरिं परमदैवतम्॥१॥
रमादेवीसमायुक्तं पुरुषं शेषशायिनम्।
तत्र गत्वा महात्मानावुभौ नारदतुम्बुरू॥२॥
कृताञ्जलिपूटौभूत्वा परमेशमपृच्छताम्।
नारायण महादेव गीतज्ञानं वद प्रभो॥३॥
** **श्रीनारायण उवाच—
समयेऽस्मिन्मुनी प्राप्तो ह्यहं शंकरपर्वतम्।
दृष्टस्तत्र महादेव उमया सहितो मया॥४॥
जयशब्दैरनेकैस्तु प्रोक्तो देवो मया मुनी।
रेभे मां शंकरो गौरी रेभे लक्ष्मीं पतिंवराम्॥५॥
विचित्रे आसने दत्ते उभयोर्मानपूर्वकम्।
आवाभ्यामुपविष्टाभ्यां दृष्टं चित्रमलौकिकम्॥६॥
अन्नराशिर्महादिव्यो नानाव्यञ्जनसंयुतः।
मनोहरो महास्वादो विविधास्वादनैर्युतः॥७॥
जा(या)तो दृष्टिपथं राशिरावयोश्चित्रकारिणोः।
सामरस्यं तदा जातं भोक्तुमुच्छिष्टमावयोः॥८॥
देवदेव्योस्तदोच्छिष्टमावाभ्यां भक्षितं मुनी।
उच्छिष्टं देहि देहीति प्रोक्तः शंभुः सुरेश्वरी॥९॥
दत्तमात्रे तदोच्छिष्टे कुमारी सर्वलक्षणा।
आवाभ्यां च समुत्पन्ना दिव्यरूपा कृशोदरी॥१०॥
साऽप्युवाच शिवं गौरीमुच्छिष्टं ❋402काङ्क्षये हि वाम्।
उभाभ्यां दत्तमुच्छिष्टं तस्यै सप्तस्वरैर्युतम्॥११॥
चतुर्विधैश्च वादित्रैः सहितं प्रीतिपूर्वकम्।
ऊचतुश्च ततः कन्यां प्रीतिपूर्वं मुहुर्मुहुः॥१२॥
देवदेव्या ऊचतुः—
त्वां यजन्ति च ये कन्ये जपहोमार्चनादिभिः।
तेषां कर्माणि सिध्यन्ति वश्यादीनि न संशयः॥१३॥
तदात्रभृति लोकेषु ख्यातोच्छिष्टा परेश्वरी।
अनेकगुणसंयुक्ता साधकानां वरप्रदा॥१४॥
गायनं नर्तनं वाद्यं गन्धर्वाणां ददौ शिवा।
ननाम तानि संगीते दर्शितानीह नारद॥१५॥
तदाप्रभृति नाम्ना सा जातोच्छिष्टा कुमारिका।
मातङ्गिनीति विख्याता कल्पितार्थप्रदा नृणाम्॥१६॥
विष्णोस्तु वचनं श्रुत्वा गतौ नारदतुम्बुरू।
आर्यादिमातृभिर्युक्तं गिरिं दृष्ट्वा तु सुन्दरम्॥१७॥
शुद्धस्फटिकसंकाशं403 शृङ्गैर्व्याप्तदिगन्तरम्।
संपूर्णचन्द्रसदृशं पीयूषकरसंनिभम्॥१८॥
दृष्ट्वा शिवगिरिं विप्रौपरं हर्षमवापतुः।
ऊचतुश्च गिरीशस्य वर्णनं तौविचक्षणौ॥१९॥
** **नारदतुम्बुरू ऊचतुः—
जय क्षोणीधर श्रीमञ्शैलराज महागिरे।
त्वद्दर्शनाद्गतं पापमावयोर्निर्गतं तमः॥२०॥
इति स्तुत्वा गिरिं तौ तु प्रणम्य च गणेश्वरम् \।
कैलासशिखरासीनं देवदेवं जगद्गुरुम्॥२१॥
युक्तं स्कन्देन देवेन सेनेशेन दिवौकसाम्।
तौमुनी तौसमाविष्टौ पप्रच्छतुरुमासुतौ॥२२॥
कल्पमुच्छिष्टकन्याया मातङ्गिन्या महामती \।
ऊचतुश्च ततो देवौ कल्पं प्रति मुनीश्वरौ॥२३॥
शृणुतं विप्रवर्यौतं कल्पमत्यन्तसुन्दरम्।
यस्य विज्ञानतः सर्वो भाग्ययुक्तो भवत्यलम्॥२४॥
अर्चनं साधनं ध्यानं विनियोनं च सुव्रतौ।
उच्छिष्टं तु पदं पूर्वं चाण्डाल्याः शृणुतं शुभम्॥२५॥
मातङ्गिनीपदं चान्ते ये स्मरन्ति मनीषिणः।
सर्ववशंकरी स्वाहा मन्त्रराजमनुत्तमम्॥२६॥
ते यान्ति परमं स्थानं दुःखशोकविवर्जितम्।
वालात्रिबीजमाद्यं च मायाबीजेन संयुतम्॥
इमं मन्त्रं महागुह्यमावाभ्यां प्रकटीकृतम्॥२७॥
दुग्धेऽग्निलोकार्404लवर्णयुक्तं न्यासोऽङ्गषट्के विहितः सुविद्यैः।
सकृत्कृते न्यासवरे शरीरे सिध्यन्ति कर्माणि च साधकानाम्॥२८॥
उच्छिष्टेन बलिं दद्याद्रात्रौ रात्रौ च साधकः।
चतुर्दशप्रकारेण बलिं दद्यात्प्रयत्नतः॥२९॥
ध्येया सुनीलपद्माभा शङ्खकुण्डलधारिणी।
चतुर्भुजा चैकवक्त्रा वीणापाशाङ्कुशाभया॥३०॥
मुक्ताप्रवालमालाभिर्भूपिताङ्गी समस्वरा।
कृष्णांशुका महानीलमयूखाभा शुचिस्मिता॥३१॥
कर्पूरागरुधूपेन धूपितार्द्रकचा शिवा।
सर्वलक्षणसंयुक्ता पुष्पमालोपशोभिता॥३२॥
भावयुक्तस्य भक्तस्य भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी।
त्रिकोणं पञ्चकोणाष्टदलं षोडशपत्रकम्॥३३॥
चतुरस्रं चतुर्द्वारं वृत्तं व्यायामसंयुतम्।
सौवर्णे राजते ताम्रे वाऽथ भूर्जस्य पत्रके॥३४॥
पटे वाऽप्यालिखेद्यन्त्रं समरेखं मनोहरम् \।
चन्द्रचन्दनकस्तूरीरोचनागरुकुङ्कुमैः॥३५॥
लिखेद्यन्त्रं च देवस्य सृ(दृ)ष्टिमार्गसुखावहम्।
ततं च विततं चैव धनं सुपिरमेव च॥३६॥
चतुर्र्द्वाारेषु वाद्यानि पूजयेत्पूर्वतः क्रमात्।
बटुकं च गणेशं च क्षेत्रपालं च योगिनीम्॥३७॥
आग्नेयादिषु कोणेषु पूजयेत्साधकः सुधीः।
पादुकां भावनां चैव प्रथमं पूजयेत्सुधीः॥३८॥
उर्वशीं मेनकां रम्भां घृताचीं पुञ्जकस्थलाम्।
सुकेशीं मञ्जुघोषांच महारङ्गवतीं तथा॥३९॥
यक्षगन्धर्वसिद्धांश्चकिंनरान्गुह्यकांस्तथा।
विद्याधरात्पन्नगांश्चतेषां रामा मनोहराः ॥
षोडशारे महापद्मे पूजयेत्तान्यथाविधि॥४०॥
अत्र पिशाचा अनुपङ्गेण ज्ञातव्याः। एवं षोडश देवयोनिशक्तयः।
पूर्वे च कामवाणं तु कन्यायाश्चनमोन्तकम्।
पूजयित्वा क्रमं सर्वमनेन विधिना तदा॥४१॥
अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा।
प्राकाम्यं वशिताऽदृश्यं(तेशित्वं)पादुका घु(गु)टिका तथा॥४२॥
अञ्जनाख्या च सिध्यन्ति पूजितास्त्वष्टपत्रके।
अग्रतोऽष्टदले पूज्याः सिद्धयः सिद्धिकाक्षिणा॥४३॥
ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा।
वाराही चैवकौवेरी तथा चैन्द्री च चण्डिका॥४४॥
इत्यष्टदलपद्मे च शक्तीः संपूजयेत्सुधीः।
उन्मादनं रोचनं च ततः संमोहनं शरम्॥४५॥
जारणं मारणं वाणान्पञ्चकोणेषु विन्यसेत्।
इच्छा क्रिया ज्ञानशक्तिः पूजितव्यास्त्रिकोणके॥४६॥
रतिः प्रीतिर्मनोभावा त्रिवृत्त्या पूजिताः शुभाः।
रागाः श्रीरागमुख्यास्तु निषादाद्यास्तथा स्वराः॥४७॥
रागिण्यश्च लयास्ताला देव्याः पश्चिमतोऽर्चयेत्।
गन्धपुष्पादिनैवेद्यैर्यथाविभवविस्तरैः॥४८॥
कुलाचारक्रमात्पूज्या गुरुभक्तिपरायणैः।
मौनेनात्र ध्रुवं पूज्या कुमारी सा परेश्वरी॥४९॥
एवं सा पूजिता भक्त्या सर्वकामप्रदा भवेत्।
ग्लुं खुं प्लुमिति रत्नानां त्रयेण स्याच्च पूजनम्॥५०॥
** **इति पूजनम्।
काम्यकर्मा(र्म)णि वक्ष्याभिसर्वसिद्धिप्रदानि च ( दे तथा )।
कुण्डे वा स्थण्डिले वाऽपि विधिहोमः प्रशस्यते॥५१॥
वश्याकर्षणकामार्थे योनिकुण्डे विधीयते।
अग्निवक्त्रं ततः कृत्वा यथोक्तविधिना द्विजः॥५२॥
देवीमावाह्यविधिवत्साध्यानां तु कुमारिकाम्।
संपूज्य होमयेत्पश्चाद्रक्ताम्बरवृतां शिवाम्॥ ५३॥
रक्ताक्षतां रक्तमालां रक्तचन्दनचर्चिताम्।
रक्ताश्वमारकुसुमैर्गुग्गुलेश्च घृतप्लुतैः॥ ५४॥
होमयेदयुतं येन राजा वश्यः समौलिकः।
मल्लिकाजातिपुंनागैर्होमयेद्भाग्यकामुकः॥५५॥
राज्यार्थी विल्वपत्रैश्च तथोत्पलसमन्वितैः।
श्रीकामः श्वेतपुष्पैश्च चम्पकैर्वाऽपि नारद॥५६॥
उत्पलैर्भोगकामार्थी केवलैर्होमयेत्सुधीः।
लक्ष्मीपुष्पैस्तथा विद्वान्होमयेद्भोगकामुकः॥५७॥
बकुलैश्च जपापुष्पैः किंशुकैर्बन्धुजीवकैः।
सर्ववश्यविधौ विद्वान्होमयेत्प्रयतः शुचिः॥५८॥
आकर्षणपरो विद्वान्मध्वक्तैर्मधुभिर्यजेत्।
वा405ञ्जुलैः पुष्टिकामस्तु गुडूचीभिर्ज्वगर्तिहृत्॥५९॥
आयुष्कामो हि दूर्वाभिर्धनार्थी स्वर्णपुष्पकैः।
स्त्रीवश्यार्थी तिलैः साज्यैलवणेन समन्वितैः॥६०॥
कदम्बकुसुमैर्हुत्वा सर्ववश्यकरो भवेत्।
रोचनाकुङ्कुमैर्हुत्वा स्त्रीवश्यं लभते नरः॥ ६१॥
अन्नार्थी अन्नहोमेन वित्तार्थी शालितण्डुलैः।
मधुत्रितयहोमेन सर्ववश्यकरो भवेत्॥६२॥
नन्द्यावर्तैर्यजेद्यस्तु स वाग्विभवमाव्रजेत्।
लक्ष्म्यर्थी कर्णिकारैस्तु तेजोर्थी किंशुकैर्यजेत्॥६३॥
कपिलाघृतेन वित्तार्थी पुत्रार्थी तत्पयो यजेत्।
द्विषामुन्मादकरणे धूस्तूरैर्जुहुयात्सुधीः॥६४॥
विषवल्लीदलैर्निम्बदलैर्निर्गुण्डिकादलैः।
दलैः श्लेष्मान्तकस्यापि विभीतकतरोस्तथा॥६५॥
औलूकैर्गृध्रपत्रैश्च तैलाक्तैश्च विशेषतः।
नवकोणे तथा कुण्डे वैरिनाशाय होमयेत्॥६६॥
दक्षिणाभिमुखो भूत्वा नग्नो दृष्टिं निमीलयेत्।
परोच्चाटनकृद्विद्वान्वायव्याशामुखो भवेत्॥६७॥
तेषां जारणकृच्चैव नैर्ऋत्यभिमुखो भवेत्।
मारणार्थी तु द्विषतां वह्निकाष्ठामुखो भवेत्॥६८॥
शान्तिके प्राङ्मुखो भूत्वा स्तम्भने पश्चिमामुखः।
उत्तराभिमुखो भूत्वा सर्वकर्माणि कारयेत्॥६९॥
मङ्गलं पौष्टिकं कर्म पूर्वाशास्यः प्रसाधयेत्।
आरोग्यार्थी सुखार्थी च सौम्याशाभिमुखो यजेत्॥७०॥
सगुडं पायसं चैव इक्षूंश्चैव विशेषतः।
हुंत्वा जयति वित्तार्थी सर्वाणि च न संशयः॥७१॥
अपस्मारविनाशायपायसं सघृतं यजेत्।
मरीचानि सतैलानि कासश्वासार्तिनाशने॥७२ ॥
जुहुयात्प्रयतो भूत्वा पूर्वाशास्यस्तु मन्त्रवित्।
निर्गुण्डीमूलहोमेन वायुं शमयतेऽञ्जसा॥७३ ॥
अथातः संप्रवक्ष्यामि जीवस्याऽऽकर्षणं परम्।
आकृष्ट(ति)त्रितयं कृत्वा जीवन्यासं च कारयेत्॥७४॥
कुलालमृत्तिकारूपं मधूच्छिष्टेन वै परम्।
अपरं लवणेनैव रूपत्रयमुदाहृतम्॥७५॥
यं यं कामयते कामं तं तं सुखमवाप्नुयात्।
स्व(सु)रूपं विन्यसेत्कुण्डं सप्ताङ्गुलमधस्ततः॥७६॥
लवणं मेखलायां तु मधूच्छिष्टं तु पूर्वतः।
मृन्मयं दक्षिणे कुण्डाद्योज्यं रूपत्रयं बुधैः॥७७॥
वैरिणां विजये विद्वाल्लँवणं होमयेत्सुधीः।
श्रीकामो वा तथा कुर्याद्धवनं बुद्धिमत्तरः॥७८॥
लवणं मधुनाऽक्तं च रूपं कृत्वा यथाविधि।
आरभ्य दक्षिणादङ्घेर्वामपादावसानकम्॥७९॥
पुरुषाणामयं होमः स्त्रीणां चैव विपर्ययात्।
सप्तरात्रान्महादेवि लभते मदनातुरा॥८०॥
तिष्ठते बन्धकीभावे कन्यासिद्धिरियं स्मृता।
लवणं तैलसंयुक्तं निम्बपत्रैः समन्वितम्॥८१॥
आशु सिद्धिकरं वह्नौहुतं शत्रुविनाशकृत्।
हरिद्राचूर्णमिश्रंतु लवणं स्तम्भकारकम्॥८२ ॥
यच्च सम्यक्परं वस्तु तेन तेन च होमयेत्।
पूर्वाह्णेपूर्वरात्रे च सिद्धयर्थं च जपेद्बुधः॥८३ ॥
मातङ्गिनी तु मध्याह्ने मध्यरात्रेऽथ वा पुनः।
कुर्यादुच्चाटनं शत्रोर्लक्षजाप्यान्न संशयः॥८४॥
मुख्यत्वात्तु जपेल्लक्षं दशांशं होममाचरेत्।
मान्त्रिकस्य भवेत्सिद्धिः सिद्धो मन्त्रो भवेदिह॥८५॥
कन्यापूजा च कर्तव्या गन्धपुष्पान्नसंपदा।
आर्याष्टकं जपेद्यस्तु कुमारीतृप्तिहेतवे॥८६॥
मातङ्गिनीप्रसादेन सिद्धो भवति भूतले।
यद्यत्साधयते कर्म तत्तत्प्राप्नोत्यसंशयम्॥८७॥
योगिन्यष्टकमेवाऽऽशु पूजयेच्छ्रद्धयाऽन्वितः।
ततः स्वयं च भुञ्जीत चैकीकृत्य रसोच्चयम्॥८८॥
मद्यमांसादिनैवेद्यैस्तर्पयेत्परमेश्वरीम्।
बलिं निवेदयेत्पश्चान्मातङ्गिन्यै वरानने॥८९॥
नमो भगवति श्रीशे मातङ्गिन्यै नमोऽस्तु ते।
नमोऽस्तु जगतां धात्र्यै कुमार्यै ते नमो नमः॥९०॥
इति स्तुत्वा महादेवीं महादेवस्य बल्लभाम्।
मातङ्गिनीप्रसादेन406ह्यङ्गनावल्लभो भवेत्॥९१॥
इमं बलिं प्रगृह्णीष्व स्वाहेति प्रयतः पुमान्।
मन्त्रमुच्चारयेद्यस्तु सर्वत्र विजयी भवेत्॥९२॥
मातङ्गिनीमहामन्त्रं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्।
सुखोपायेन वश्यं तु प्रोक्तं तव वरानने॥९३॥
त्रिपुरा भैरवी सिद्धिस्तथा त्रिपुरसुन्दरी।
राजलक्ष्मीर्महालक्ष्मीस्तथैव भुवनेश्वरी॥९४॥
मातङ्गिनी महामारी बाला च श्यामला तथा।
एताः सिंहासनस्थाः स्युर्विद्या इति विदो विदुः॥९५॥
एतासां स्मरणं यस्य मन्त्रपूर्वं दिने दिने।
स राजसु भवेन्मान्यो नात्र कार्या विचारणा॥९६॥
एवं तु कथितं भद्रे नारदस्य च धीमतः।
मया कारुण्यमनसा तेनासौ सुभगो मुनिः॥९७॥
किं स्याद्यज्ञैः फलं नॄणां सहस्रशतदक्षिणैः।
यदि मातङ्गिनीकल्पो हृदये परिवर्तते॥९८॥
इदं रहस्यं परमं कथनीयं न कस्यचित्।
भोगमोक्षप्रदं नॄणां नात्र कार्या विचारणा॥९९॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मत्स्यसंहितोक्तं
मातङ्गिनीपूजाविधानम्।
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अथोदकी(क्या)सूतकी(तिका)शुद्धिविधानम्।
उदकी (क्या) सूतकी (तिका) चैव पीड्यमाना ज्वरादिभिः।
स्नानेऽक्षमा तदा कार्यास्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा शतप्लुतिः॥१॥
** **तथा च वसिष्ठस्मृतौ—
ज्वरार्तिपीडिता नारी सूतकी च तथोदकी (रि उदक्या सूतिका तथा )।
स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा शतस्नानैः शुद्धा परकृतैर्भवेत्॥२॥
शतं भागाः शरीरस्य केशाग्रात्परिकल्पिताः।
पादाङ्गुल्यवधि प्राज्ञैर्मन्त्रैर्वारुणसंज्ञकैः॥३॥
** **तथा हि—
१ केशाग्रं २ केशमध्यं च ३ केशमूलं च ४ मस्तकम्।
५ ललाटं ६ भ्रूलते ७ कर्णौ ८ नेत्रे ९ नासापुटेतथा॥४॥
ओष्ठौ१० दन्ताश्च ११ चिबुकं १२ रसनाद्वय १३ मेव च।
कण्ठस्तु १४ स्कन्धयुग्मं १५ च बाहुयुग्मं १६ तथैव च॥५॥
कूर्परौ १७ च कराग्रे १८ च तथा वक्षः १९ स्तनद्वयम्।
२० स्तनयोर्मध्यभागश्च २१ कुक्षिद्वय २२ मतः परम्॥६॥
उदरं २३ नाभिदेशस्तु २४ तथा पृष्ठं २५ कटि २६ स्तथा।
जघनं २७ योनिभाग २८ स्तु ऊरू २९ जानू ३० च सक्थिनी ३१॥७॥
जङ्घे च ३२ गुल्फदेशश्च३३ पादाङ्गुल्यो ३४ नखानि ३५ च।
त्रिः कृत्वा संस्पृशेद्विद्वानेकैकं शुद्धिहेतवे॥८॥
प्राजापत्यान्पञ्चदश दद्यात्तच्छुद्धिहेतवे।
ततोऽभिषेचयेन्नारीं गृहीतान्यांशुकां बुधैः॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्स्मरेदृषिवचो महत्॥९॥
** **तथा हि—
सोमः शौचं ददावासां गन्धर्वश्च शुभां गिरम्।
पावकः सर्वमेध्यत्वं मेध्यावै योषितो ह्यतः॥१०॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां वसिष्ठस्मृत्युक्तमुदकी-
( क्या )सूतकी(तिका )शुद्धिविधानम्।
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अथ विरजयात्राविधानम्।
आदित्यपुराणे सूर्य उवाच—
यस्य नास्ति सुतः पुंसो यस्तु पैशाच्यसंयुतः।
महाग्रहैर्गृहीतात्मा स गच्छेद्विरजं प्रति॥ १॥
तत्र यात्रानियमः—
गन्तव्यं श्वोदिने येन यात्रायै विरजस्य वै।
आद्ये तु दिवसे तेन भोजनीया द्विजोत्तमाः॥२॥
लक्ष्मीनारायणप्रीत्यै स्त्रीभिः सार्धं महामते।
पञ्चाशन्मिथुनान्येव शक्त्या वाऽपि समाहितः॥३॥
वस्त्रैस्तु दक्षिणादानैर्यथाविभवमात्मनः।
निष्पाद्य विधिवद्भत्त्या गृहे भोज्यविधिं सुधीः॥४॥
भुञ्जीत च स्वयं पश्चात्ततस्तस्य कुटुम्बिनी।
समाप्य विधिवत्सांध्यंविधिं सायंतनं सुधीः॥५॥
भूमिशय्यां समासाद्य स्त्रिया सार्धं महामते।
नियमं ब्रह्मचर्यस्य गृहीत्वा दृढमानसः॥६॥
प्रातःकाले समुत्थाय दन्तधावनपूर्वकम्।
प्रातर्विधिं समाप्यैव निर्गच्छेद्विरजं प्रति॥७॥
** **तत्र यात्रानिर्गममन्त्रः—
अद्यप्रभृति यात्रायै गृहीतनियमः स्वयम्।
दर्शनेच्छुरहं मातः कमले तव पादयोः॥८॥
इति कृत्वा विधिं सम्यक्स्वस्तिवाच्य द्विजोत्तमैः।
हृष्टपुष्टमना वत्स निर्गच्छेत्सुखसिद्धये॥९॥
यो येन वर्त्मना याति विरजं तीर्थमुत्तमम्।
तत्र वर्त्मनि या नद्यो गोदाद्याः सागराम्बुगाः॥१०॥
** **तास्तु वक्ष्यन्ते
गौतमी तपती रेवा कृष्णा भीमरथी तथा।
वर्त्मगा खलु साधूनां नृणां विरजयायिनाम्॥११॥
मा(या)त्रा स्नानं प्रकर्तव्यं हेमश्राद्धं यथाविधि।
विरजं प्राप्य सद्वृत्त मणिपत्य मुहुर्मुहुः॥१२॥
दृष्ट्वा गङ्गात्रयं स्नानं पुण्यं कुर्यादतन्द्रितः।
अमासोमसमायोगे विरजे फलमुत्तमम्॥१३॥
** **अथाऽऽदित्यवार उदुम्बरयात्राविधानम्
आदित्ये सूर्यतीर्थस्य गमनं शस्यते बुधैः।
ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय स्नात्वा गङ्गात्रयेऽमले॥१४॥
आगत्य भास्करं तीर्थमुदुम्वरतलं वरम्।
जलं दृष्ट्वा महापुण्यं देवानामपि दुर्लभम्॥१५॥
तत्र स्नात्वा महातीर्थे विदध्याज्जलतर्पणम्।
प्रातर्विधिं समाप्याऽऽशु हिरण्यश्राद्धमारभेत्॥१६॥
तर्पयित्वा पितॄन्देवान्हिरण्याद्यैर्महाधनैः।
अश्वदानं ततो दद्या(तः कुर्या)द्ब्राह्मणाय सदक्षिणम्॥१७॥
कलशं स्थापयित्वा तु यज्ञवृक्षस्य दक्षिणे।
तस्योपरि निधायैव वंशपात्रं मनोरमम्॥१८॥
तस्योपरि न्यसेद्वस्त्रमच्छिन्नं च सकुङ्कुमम् \।
स्थापयेत्तत्र देवानां ब्रह्माद्यानां त्रयं शुभम्॥१९॥
कृत्वा स्वर्णमयं वत्स प्रत्येकं पलसंख्यया।
तदर्धेन प्रकर्तव्यं यथाविभवमात्मनः॥२०॥
प्रस्नाप्यपयसा दध्ना मधुनाऽऽज्ये(ऽक्ते)न सर्पिषा।
पूजयेत्प्रयतो विद्वान्गन्धपुष्पातादिभिः॥२१॥
धूपैर्दीपैश्चनैवेद्येस्ताम्बूलैश्चसदक्षिणैः।
ततो वह्निमुखं कृत्वा जुहुयात्तिलसर्पिषा॥
एकैकशोऽयुतं विद्वान्मन्त्रैरतैः पृथक्पृथक्॥२२॥
ते च मन्त्राः—
ब्रह्म जज्ञानमिति ब्रह्मणे \। तद्विष्णोः परमं पदमिति विष्णवे। अस्मे रुद्राइति रुद्राय।
होमान्ते विधिवद्दद्याद्धेनुं विद्वान्विरिञ्चये॥
विष्णवे मेच(मञ्च)कं दद्यात्सोपधानं सदक्षिणम्॥२३॥
रुद्राय वृषभं दद्यात्सुशीलं च धुरंधरम्।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्संपूज्याऽऽचार्यमादरात्॥२४॥
मूर्तीर्निवेद्य तस्मै ता अन्येभ्यो अरिदक्षिणाः।
एवं निष्पाद्य तत्सर्वं प्रार्थयेद्यज्ञपादपम्॥२५॥
तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
हेमक्षीर महाविष्णो चतुरानन शंकर।
पूजिते त्वयि वृक्षेशे पूजिताः सन्तु देवताः॥२६॥
कामान्मे सफलान्सर्वान्विधेहि सततं प्रभो।
इति संप्रार्थ्य वृक्षं तं कृत्वा चैव प्रदक्षिणाम्॥२७॥
प्रणम्य विधिवद्भक्त्या ह्यागच्छेन्निजमन्दिरम्।
आगत्य मन्दिरं विद्वान्भुञ्जीत सह भार्यया॥२८॥
इत्यादित्यवार उदुम्बरयात्राविधानम्।
अमासोमसमायोगे प्रातरुत्थाय मानवः।
कृत्वा गङ्गात्रये स्नानं निर्गच्छेद्विरजं प्रति॥२९॥
यत्र गङ्गात्रयस्यौघो मिश्री भवति निश्चयात्।
विरजे भाग्यतो नॄणां गदाधरसमीपतः॥३०॥
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत महापातकशान्तये।
निधाय वस्त्रयोग्रन्थिं दंपती पुत्रकाम्यया॥३१॥
समुच्चार्याऽऽर्द्र(ऽऽत्म) पापानि पश्चात्तापाकुलेन्द्रियौ।
स्नानं भक्त्या विदध्यातां विरजे तीर्थसत्तमे॥३२॥
पिण्डदानं प्रकुर्वीत सुवर्णश्राद्धपूर्वकम्।
गां प्रदद्याच्छुभां धीयान्विप्रायांहोविमुक्तये॥३३॥
ततस्तु बुद्धिमान्गच्छेद्रामतीर्थं शुचिव्रतः।
तत्र स्नानादिकं कृत्वा पश्येद्रामेश्वरं सुधीः॥३४॥
कार्पासकानि वस्त्राणि तथा कर्णावतंसकान्।
ब्राह्मणेभ्योऽङ्गना दद्यात्कण्ठसूत्राणि चैव हि॥
शूर्पाणि विविधान्येवं जानकीप्रीतये सुधीः॥३५॥
तत्र मन्त्रः—
रामपत्नि महाभागे पुण्यमूर्ते निरामये।
गृहाणेमानि शूर्पाणि मया दत्तानि जानकि॥३६॥
** **इति शूर्पप्रतिपादनमन्त्रः।
कञ्चुकीवस्त्रयुग्मैश्च तथा कर्णावतंसकैः।
कण्ठसूत्रैश्चभूपाभिः प्रीयतां निमिनन्दिनी॥३७॥
इति वस्त्रादिसमर्पणमन्त्रः।
शतं वाऽथ तदर्धं वा तथा वा पञ्चविंशतिः।
द्वादश द्वादशार्धं वा तोपयेज्जनकात्मजाम्॥३८॥
ततस्तु भूरिदानानि कृत्वा तत्र महामते।
निर्गच्छेद्वह्नितीर्थस्य समीपं श्रद्धयाऽन्वितः॥३९॥
तत्र स्नात्वा जले पुण्ये वैरजे भक्तिसंयुतः।
तर्पयित्वा पितॄन्सम्यग्जुहुयात्तिलसर्पिपा॥४०॥
अग्निं दूतं वेत्यमुना गायत्र्या वा समाहितः।
अष्टोत्तरशतं विद्वान्मेषं दद्यात्सदक्षिणम्॥४१॥
मेषालाभे प्रदद्याच्च पट्टमौर्णं द्विजातये।
तदभावे यथाशक्ति स्वर्णं दद्यात्समाहितः॥४२॥
** **तत्र दानमन्त्रौ—
मेपवाह महाबाहो सप्तजिह्व सुरेश्वर।
प्रीतो भवानल श्रीमन्मेषेदत्ते मया सति॥४३॥
और्णपट्टमनुध्येयं स्वर्णबीज तवप्रभो।
दत्तं गृहाण देवेश पापं संहर सत्वरम्॥४४॥
** **इति मेषौर्णपट्टदानमन्त्रौ।
ततो निर्गम्य गोविन्दवल्लभां कमलां सतीम्।
संप्राप्य प्रयतो भूत्वा दण्डवत्प्रणमेन्मुहुः॥४५॥
ततः स्नात्वा जले पुण्ये श्रियो दृष्टिनिपातने।
पुष्पाणां प्रकरैर्देवीं कमलां परिपूजयेत्॥४६॥
चन्दनेनानुसंलिप्य धूपयेद्धूपसंचयैः।
दीपैर्नीराजयेत्पश्चान्नैवेद्यैः परितोषयेत्॥४७॥
कर्पूरसमवेतेन ताम्बूलेन सुतोषयेत्।
नव्येन वाससा देवीं कमलां परिधापयेत्॥४८॥
मुहुर्मुहुः प्रणम्यैव वर्णयेत्स्तोत्रसंचयैः।
ततस्तु प्रार्थयेद्भक्त्या कृत्वा चैव प्रदक्षिणम्॥४९॥
निर्गत्य स्थानतस्तस्मात्तारातीर्थमनुव्रजेत्।
दृष्ट्वा तज्जलकल्लोलं क्षारासृक्पूयसंयुतम्॥५०॥
अकुत्सयंस्तु तत्तोयं स्नायाच्छुद्धेन चेतसा।
तत्र दद्याद्धृतं तैलं राजतं पारदं तथा॥५१॥
मुक्ताफलानि हीरांश्चविद्रुमांश्च तथैव च।
सनत्कुमार शक्त्यैव वित्तशाठ्यं विवर्जयेत्॥५२॥
ततस्तु तत्पयः पीत्वा चुलुकैः सप्तभिः सुधीः।
समुच्चरेच्च पापानि यथा लोकः शृणोत्यलम्॥५३॥
यानि चोच्चारितान्याशु विलयं यान्ति तानि बै।
तस्मादुत्तरतो गत्वा भार्गवं तीर्थमुत्तमम्॥५४॥
कृतस्नानस्तु ताराख्ये भार्गवे दानमादिशेत्।
चामरं व्यजनं छत्रं पादुकाः करपत्रि(यष्टि)काः॥५५॥
वस्त्रयुग्मानि(णि) धौतानि यज्ञसूत्राणि चैव हि।
भार्गवं च समुद्दिश्य ब्राह्मणाय निवेदयेत्॥५६॥
ततस्तूत्तरतो देशे देवे सिद्धेश्वरे सुधीः।
ताम्रं नागं च विन्यस्य देवमूर्धनि बुद्धिमान्॥५७॥
पूजां प्रकल्पयेद्भक्त्या सप्तधान्यैः सुशोभनाम्।
ततो गदाधरं देवमाव्रजेत्प्रयतः पुमान्॥५८॥
गयाश्राद्धं प्रकुर्वीत यथाविधि यथावसु।
ततो निर्गत्य विरजाल्लक्ष्मीमानम्य भक्तिमान्॥५९॥
गङ्गात्रये जलं पीत्वा मन्दिरं स्वं समाविशेत्।
हेमरौप्यादिदानानि तत्र कुर्याच्च शक्तितः॥६०॥
** **तत्र विरजाम्भःपानमन्त्रः—
ये मे कुक्षिगता दोषा ये मे गर्भविमोचकाः।
ते सर्वे विलयं यान्तु विरजाम्भोनिषेवणात्॥६१॥
एवं कृते विधाने च वैरजे विरजा भवेत्।
सर्वव्याधिविनिर्मुक्तो ध्रियते च शतं समाः॥
लभते पुत्रसंपत्तिं सर्वान्कामानवाप्नुयात्॥६२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
विरजयात्राविधानम्।
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अथार्धोदयव्रतविधानम्।
अगस्त्य उवाच—
भगवंस्त्वत्प्रसादेन श्रुतोऽयं व्रतविस्तरः।
अर्धोदयं तु मे ब्रूहि दुर्लभं हि चराचरे॥१॥
जीवितं प्राणिनां पुण्यं यदि तद्वदसि प्रभो।
कथं कार्यं कृते किं स्यात्फलं कथय षण्मुख॥२॥
** **श्रीस्कन्द उवाच—
श्रूयतां पुण्ययोगोऽयं दुर्लभोऽर्धोदयोदयः।
तिर्यङ्मनुष्यदेवानां दुष्प्रापः सर्वकामदः॥३॥
माघामायां व्यतीपात आदित्ये विष्णुदैवते।
अर्धोदयः स विख्यातः सहस्रार्कग्रहैः समः॥४॥
तथा च—
अमाऽर्कपातश्रवणैर्युक्ता चेत्पौषमाघयोः।
अर्धोदयः स विज्ञेयः सूर्यपर्वशताधिकः॥५॥
पुराकृतं वसिष्ठेन जामदग्न्येन सुव्रत।
सनकाद्यैर्मनुष्यैश्च बहुभिर्मुनिसत्तमैः॥६॥
अन्यैः शतसहस्रैश्च इष्टं भवति कुम्भज।
व्रतानां यज्ञतीर्थानां फलं येन कृतं भवेत्॥७॥
ससागरा धरा चैव सप्तद्वीपसमन्विता।
दत्ता स्याद्येन तत्सर्वंविधानं विहितं भुवि॥८॥
गङ्गायां च प्रयागे च पुष्कराणां त्रये तथा।
मानसे विष्णुतीर्थे च यत्पुण्यं स्नानदानतः॥९॥
अर्धोदयविधानेन लभते तत्फलं नरः।
नारी वा पुरुषो वाऽपि दंपती वा समाहितौ॥१०॥
विधुरो ब्रह्मचारी वा कुर्यादर्धोदयव्रतम्।
अश्वमेधायुते पुण्यमिष्टापूर्ते च यद्भवेत्॥११॥
गवां च रक्षणे पुण्यं तदर्धोदयकुल्लभेत्।
वाचि सत्यं गृहे लक्ष्मीं संततिं चानपायिनीम्॥१२॥
आयुर्यशोभिवृद्धिं च विधानाल्लभते नरः।
इन्द्राग्नियमलोकेषु नैर्ऋतस्य पयःपतेः॥१३॥
वसेद्वायुकुबेरेशभवनेषु विधानतः।
कोटिदानेन बेनूनां पूता ये तीर्थवासिनः॥१४॥
अर्धोदयविधानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।
भूर्लोकाधिपतित्वेन स्वर्लोकपालनेन यत्॥१५॥
फलं प्रोक्तं मुनिव्रातैस्तत्फलं लभते हि सः।
ततो हिरण्यगर्भस्य प्रभावात्परमेष्ठिनः॥१६॥
अर्धोदयविधानस्य फलं प्राप्नोत्यविच्युतम्।
ततो विष्णुः सुव(प)र्णस्य त्रै(स्थस्त्रै)लोक्याधिपतिर्भवेत्॥
शङ्खचक्रगदाधारी वनमाली हरिः स्वयम्॥१७॥
** **अगस्त्य उवाच—
स्कन्द केन विधानेन कर्तव्यं व्रतमुत्तमम्।
अर्धोदयाख्यमुद्देशात्मब्रूहि मम पृच्छतः॥१८॥
श्रीस्कन्द उवाच—
कृते कृतं वसिष्ठेन त्रेतायां रघुणा कृतम्॥
द्वापरे धर्मराजेन कलौ पूर्णोद407येन च॥१९॥
अन्यैर्देवमनुष्यैश्च दानवैर्द्विजसत्तम।
कृतमर्धोदयं सम्यक्सर्वकामफलप्रदम्॥२०॥
माघमासे तु पौषे वा दर्शे सूर्यदिने तथा।
श्रवणे च व्यतीपाते कार्यमेतद्व्रतोत्तमम्॥२१॥
पूर्वाह्ने संगमे स्नात्वा शुचिर्भूत्वा समाहितः।
सर्पपापविशुध्द्यर्थं नियमस्थो भवेन्नरः॥२२॥
** **तत्र नियमस्वीकारमन्त्रः—
त्रिदैवतं व्रतं देवाः करिष्ये भुक्तिमुक्तिदम्।
भवन्तु संनिधौ मेऽद्य त्रयो देवास्त्रयोऽग्नयः॥२३॥
** **इति नियमस्वीकारमन्त्रः।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां सुवर्णपलसंख्यया।
कर्तव्याः प्रतिमा ब्रह्मन्यथाव्यानं प्रयत्नतः॥२४॥
वित्ताभावे पलार्धेन तदर्धार्धेन वा तथा।
शतत्रयेण सार्धेन द्रोणानां तिलपर्वतः॥२५॥
ब्रह्मणे तु प्रकर्तव्यो नात्र कार्या विचारणा।
कर्तव्यौ विष्णुरुद्राभ्यां गिरी पूर्वोक्तसंख्यया॥२६॥
शय्यात्रयं ततः कुर्यादुपस्करसमन्वितम्।
देवानां त्रयमुद्दिश्य शक्तितो भक्तितत्परः॥२७॥
ब्रह्मविष्णुशिवप्रीत्यै दातव्यं तु गवां त्रयम्।
हिरण्यभूमिधान्यादिदानं विभवसारतः॥२८॥
कुर्याच्च श्रद्धयोपेतो ब्राह्मणेभ्यः प्रयत्नतः।
मध्याह्ने तु नरः स्नात्वा शुचिर्भूत्वा समाहितः॥
तिलपर्वतमध्यस्थं पूजयेद्देवतात्रयम्॥२९॥
आदौ ब्रह्मपूजा—
नमो विश्वसृजे तुभ्यं सत्याय परमेष्ठिने।
देवाय देवपतये यज्ञानां पतये नमः॥३०॥
ॐ नमो ब्रह्मणे पादौ स्वर्णगर्भाय वै नमः।
ऊरू धात्रे नमो जानू जङ्घेच परमेष्ठिने॥३१॥
वेधसे च नमो गुह्यं स्तनौ पद्मोद्भवाय च।
कटिदेशं हंसवाहनाय वक्त्रं तु दक्षिणम्॥३२॥
ॐ नमः सामवेदाय पूजयेत्पश्चिमाननम्।
नमो ह्यथर्ववेदाय यजुर्वेदाय वै नमः॥३३॥
इत्यौत्तराहं पूर्वास्यमृग्वेदाय नमो नमः।
लोकपालास्ततः पूज्याः स्त्रैः स्वैर्मन्त्रैः प्रयत्नतः॥३४॥
** **तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
हिरण्यगर्भ देवेश प्रधानव्यक्तरूपक।
प्रसादसुमुखो भूत्वा पूजां मे सफलां कुरु॥३५॥
** **इति प्रार्थनामन्त्रः।
** **अथविष्णुपूजा।
नारायण जगन्नाथ नमस्ते गरुडध्वज।
पीताम्बर नमस्तुभ्यं जनार्दन नमोऽस्तु ते॥३६॥
अनन्ताय नमः पादौ विष्णुरूपाय वै नमः।
ऊरू नमो मुकुन्दाय जानू जङ्घे नमो नमः॥३७॥
गोविन्दायेति गुह्यं तु प्रद्युम्नायेति पूजयेत्।
पद्मनाभायेति नाभिं चतुर्वक्त्राब्जसंभवाम्॥३८॥
भुवनोदरायोदरं वक्षः कौस्तुभवक्षसे।
चतुर्भुजाय वै वाहूंश्चतुरो वेदरूपकान्॥३९॥
विश्वतोवदनायेति वदनं च शिरस्तथा।
मौलिं सहस्रशीर्षाय केशवाय नमो नमः॥४०॥
** **तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
आदित्यचन्द्रनयन दिग्बाहो दैत्यसूदन।
पूजां दत्तां मया भक्त्या गृहाण करुणाकर॥४१॥
** **इति प्रार्थनामन्त्रः।
अथ महेश्वरपूजा।
महेश्वर महेशान नमस्ते त्रिपुरान्तक।
जीमूतकेशाय नमो नमस्ते वृषभध्वज॥४२॥
ईशानाय नमः पादौ चन्द्रशेखर ते नमः।
जङ्घे जानू पशुपतय ऊरू शंकराय वै॥४३॥
उमाकान्ताय गुह्यं तु नीललोहित ते नमः।
नाभिं वा उदरं कृत्तिवाससे ते नमोऽस्त्विति॥४४॥
नागोपवीतिने कुक्षी वाहून्भोगियुताय च।
नीलकण्ठाय कण्ठं तु मुखं पञ्चमुखाय च॥४५॥
** **तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
अन्धकारे ह्यमेयात्मन्नमो लोकान्तकारक।
पूजां दत्तां मया भक्त्या गृहाण वृषभध्वज॥४६॥
इति प्रार्थनामन्त्रः।
इति पूजाक्रमः प्रोक्तो मन्त्रैरेतैः प्रयत्नतः।
आचार्यं पूजयेद्भक्त्या वस्त्रालंकारभूषणैः॥४७॥
हस्तमात्राः कर्णमात्राः पीठं छत्रं कमण्डलुः।
श्वेतवस्त्रयुगं देयं ब्रह्मणे सर्वमूर्तये॥४८॥
पीतवस्त्रयुगं विष्णोर्लोहितं शंकरस्य च।
पञ्चामृतेन स्नपनं पूजनं कुसुमैः स्वकैः॥४९॥
ब्रह्माणं पूजयेद्भक्त्या कमलैश्चस्वकैरिति।
विष्णुं संपूजयेद्धीमांस्तुलसीछदसंचयैः॥५०॥
शंकरं पूजयेत्पश्चाद्बिल्वपत्रैरखण्डितैः।
तत्कालसंभवैर्दिव्यैः पूजयेत्तु यथाक्रमम्॥५१॥
यथाशक्ति तु कर्तव्यं व्रतमेतत्सुदुर्लभम्।
जीवितं प्राणिनां चैव अनित्यं निश्चितं यतः॥५२॥
** **अथ व्रताङ्गहोमविधिः—
देवतात्रयमुद्दिश्य शास्त्रदृष्टेन कर्मणा।
रुद्राय विश्वरूपाय मजानां पतये नमः॥५३॥
अनेनैव तु मन्त्रेण वह्निं संस्थाप्य भक्तितः।
ततो होमं प्रकुर्वीत यथाविभवसंभवम्॥५४॥
अग्नये प्रजापतये स्वाहा। अग्नये विष्णवे स्वाहा। अग्नये रुद्राय स्वाहा।
ॐकारपूर्वमुच्चार्य मन्त्रमेनं द्विजोत्तमः।
त्रिदैवतयजिश्चात्र स्वाहान्ता परिकल्पिता॥५५॥
होमस्तु चरुणा कार्यो घृताक्तेन द्विजन्मना।
प्रजापते न त्वदेतानिति होमो विरिञ्चये॥५६॥
इदं विष्णुर्विष्णवे च त्र्यम्बकं शूलिने त्विति।
एतैर्मन्त्रैराज्यहोमः स्वाहान्तैर्नामभिः स्मृतः॥५७॥
ततः पूर्णाहुतिः कार्या बहाणे विष्णवेतथा।
स्वाहान्ताय च रुद्राय धामन्त इति मन्त्रतः॥५८॥
मन्त्रमेनं पल्लवितं ब्रह्माद्यैर्नामभिः कृतम्।
समुच्चार्याऽऽहुतिं दद्याद्गांच होमावसानके॥५९॥
तरुणीं रूपसंपन्नां सुशीलां च पयस्विनीम्।
स्वर्णशृङ्गींरौप्यखुरीं ताम्रपृष्ठां सवत्सकाम्॥६०॥
रत्नपुच्छीं तथा वस्त्रयण्टाभरणभूषिताम्।
चामरैः पञ्चभिर्युक्तां कांस्यदोहां सदक्षिणाम्॥६१॥
आचार्याय सुशीलाय श्रोत्रियाय कुटुम्बिने।
दत्त्वा तां धेनुकां धीमान्सर्वकामानवाप्नुयात्॥६२॥
तेन दत्तं हुतं तप्तमिष्टं यज्ञैः सहस्त्रवा।
अर्धोदयस्य सामर्थ्याद्विधानज्ञो विधानकृत्॥६३॥
पूरितं पायसेनैव साज्येन च सदक्षिणम्।
कांस्यपात्रं मुनिश्रेष्ठ दद्याद्विप्राय सुव्रत॥६४॥
सूर्यमुद्दिश्य विप्रर्षे महापापोपशान्तये।
एवं कृते विधानेऽस्मिन्सर्वान्कामानवाप्नुयात्॥६५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
स्कन्दपुराणोक्तमर्धोदयव्रतविधानम्।
________
अथ कपिलाषष्ठीविधानम्।
** **भविष्यपुराणे कृष्णयुधिष्ठिरसंवादे—
भाद्रे स्कन्दतिथौकृष्णे रोहिण्यां भौमवासरे।
व्यतीपाते महायोगे कपिलापष्ठिरु(सा षष्ठी कपिलो)च्यते॥१॥
षण्णां योगे महापुण्ये नृणां भाग्यानुसारिणी।
तदा धर्मस्य सिद्धयर्थं विधानं क्रियते बुधैः॥२॥
सूर्यनारायणं देवं स्वर्णमूर्तिं सुलक्षणम्।
पलेन कारयेद्धीमांस्तदर्धार्धेन वा पुनः॥३॥
रथं रौप्यमयं कुर्यात्पलैरष्टभिरावृतः।
सप्तभिस्तुरगैः सार्धंध्वजस्तम्भसमन्वितम्॥४॥
तत्र तं विन्यसेद्देवं सूर्यनारायणं प्रभुम्।
द्विभुजं पद्महस्वं च गरुडाग्रजसारथिम्॥५॥
पुण्यकाले य(त)दा राजन्कृतस्नानो नरोत्तमः।
यो वा को वा श्रिया युक्तः कुर्यादेतद्विधानकम्॥६॥
तर्पयित्वा पितॄन्देवाञ्श्रद्धया परया युतः।
विधानं प्रारभेद्धीमान्सर्वकामप्रसिद्धये॥७॥
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु हवनं कारयेद्बुधः।
अग्निवक्त्रं ततः कृत्वा तिलाज्यं जुहुयाद्बुधः॥८॥
सहस्रं चैव सावित्र्या प्रधानं चैव तत्स्मृतम्।
हुत्वा स्विष्टकृतं सम्यक्प्रायश्चित्तं तु सर्पिषा॥९॥
होमादौ पूजितं सूर्यं होमान्ते प्रतिपूजयेत्।
पुष्पैः कालोद्भवैर्गन्धैर्लेपयेत्प्रयतः पुमान्॥१०॥
सकर्पूरेण धूपेन धूपयेत्तदनन्तरम्।
दीपैर्नीराजयेतिस्नग्धैर्नैवेद्यैः परितोषयेत्॥११॥
ततो गां कपिलां साध्वीं बहुक्षीरां शुभप्रजाम् \।
नवाम्रपल्लवाभासां पीतनेत्रां बृहत्स्तनीम्॥१२॥
शुभप्रजामित्यस्य जीवत्मजामव्यङ्गवत्सां चेत्यर्थः।
समगृङ्गीं शुभारावां सालंकारां सवत्सवाम्।
तां गां यत्नेन संपूज्य वस्त्रयुग्मेण वेष्टिताम्॥१३॥
दण्डवत्प्रणिपातेन प्रणभ्य भक्तितत्परः।
आचार्याय सुशीलाय ससुवर्णां प्रदापयेत्॥१४॥
** **तत्र दानमन्त्रः—
सर्वदेवमयीं दोग्ध्रींसर्वलोकमयीं तथा।
सर्वलोकनिमित्तं गां सर्वदेवनमस्कृताम्॥१५॥
प्रयच्छामि महासत्त्वामक्षय्यां च शुभामिति।
प्रीणन्तु सकला देवा धर्मसिद्धिः प्रजायताम्॥१६॥
या लक्ष्मीः सर्वभूतानां या च देवे व्यवस्थिता।
धेनुरूपेण सा देवी मम पापं व्यपोहतु॥१७॥
गावो मे अग्रतः सन्त्वित्याचार्यस्य गोत्रनामान्युच्चार्योदङ्मुखो यजमानः प्राङ्मुखाय ब्राह्मणाय तां कपिलां दद्यात्। ततः पूर्वपूजितं सूर्यनारायणं विदुषे ब्राह्मणाय दद्यात्।
** **तत्र दानमन्त्रः—
द्युमणे जगतां नाथ विश्वात्मन्विश्वतोमुख।
दानेन तब देवेश मम नश्यतु पातकम्॥१८॥
** **इति दानमन्त्रः।
ततः संपादिते दाने त्वन्येभ्यो दीयतां वसु।
यथासंख्यं यथावित्तं यथाविधि यथासुखम्॥१९॥
एवं कृते विधानेऽस्मिन्गृहमागभ्य सुव्रत।
ब्राह्मणान्भोजयेच्छक्त्या ततो भुञ्जीत च स्वयम्॥२०॥
सूर्यपर्वशतान्येवं सोमग्रहसहस्रकम्।
राजेन्द्र कपिलाषष्ठ्याःकलां नार्हन्ति षोडशीम्॥२१॥
कृत्वा तु कपिलाषष्ठीविधानं विधिपूर्वकम्।
ब्रह्महामुच्यते पापान्नात्र कार्या विचारणा॥२२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
भविष्यपुराणोक्तं कपिलाषष्ठीविधानम्।
________
अथ सिंहस्थे बृहस्पतौ बृहस्पतिपूजनसहितं गोदावरीयात्राविधानम्।
** **ब्रह्माण्डपुराणे ब्रह्मनारदसंवादे नारद उवाच—
ये त्वया प्रापिता देव संसारं भुवि मानवाः।
तेषामुद्धरणार्थाय तीर्थं किं कल्पितं विभो॥१॥
** **श्रीब्रह्मोवाच—
अस्ति विख्यातमतुलं पापाब्धौ तरणं परम्।
गोदावरीति विख्यात शंभुना रचितं पुरा॥२॥
ब्रह्माद्रिशिखराज्जातं तीर्थानामुत्तमोत्तमम्।
शतयोजनविस्तीर्णं पूर्वसागरगं शुभम्॥३॥
ब्रह्महत्यादिपापानां गौतमी क्षयकारिणी।
दृष्टा सती मुनिश्रेष्ठ प्राणिनां भवयायिनाम्॥४॥
गङ्गाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते।
स्नात्वा कनखले तीर्थे पुनर्जन्म न लभ्यते॥५॥
इति मोक्षतीर्थपञ्चकम्।
अथ ब्रह्महत्याविनाशनं तीर्थं श्रीगोदावर्यां पद्मनगरे—
अरुणावरुणयोर्मध्ये यत्र प्राची सरस्वती।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥६॥
ततश्च काशीसमं प्रतिष्ठानाख्यं तीर्थस्—
विश्वेशः पिप्पल्लेशोऽयं गोदेयं किल जाह्नवी।
प्रतिष्ठानमिदं काशी सिंहस्थे च बृहस्पतौ॥७॥
** **तथा च—
त्र्यम्बके पद्मके चैव गङ्गासागरसंगमे।
सर्वत्र सुलभा गोदा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा॥८॥
अतः कारणात्सर्वपातकनाशेप्सुना सिंहस्थे गुरौ सति गौतमीतीरं गन्तव्यम्। तत्राऽऽदौ यात्रामुखप्रयोगः—
अद्यगच्छामि गौतम्या दर्शनेप्सुरतन्द्रितः।
यात्रानियममासाद्य जपन्नारायणाभिधाम्॥९॥
नमो देवि महापुण्ये पुण्यतोयसमन्विते।
तवयात्रां विधास्यामि प्रसीद गौतमात्मजे॥१०॥
ततो दर्शने जातेऽयं मन्त्रः—
मनोवाक्कायजैःपापैर्ग्रस्तो बहुविधैरपि।
वीक्ष्य मातर्भवेयं त्वां पूतोऽहं देवि गौतभि॥११॥
नमो देवि महागङ्गे महादेवस्य वल्लभे।
वहति त्वां शिवो मूर्ध्ना गोदावरि नमोऽस्तु ते॥१२॥
इति नमस्कृत्य गङ्गां प्राप्तः सन्कृताञ्जलिर्भूत्वा गङ्गां प्रणमेत्। तत्र मन्त्रः—
दण्डवत्प्रणिपातेन दृष्ट्वा गोदावरीपयः।
प्रणमन्त्यसकृद्ये तु ते न यान्ति यमालयम्॥१३॥
देवि गौतमि पापाब्धौ मग्नं मां त्वं समुद्धर।
लुठन्तं ते तटे मातः कुरु मोक्षस्य भाजनम्॥१४॥
** **इति प्रणिपातमन्त्रः। ततः—
मुण्डनं चोपवासश्च सर्वतीर्थेष्वयं विधिः।
इतिन्यायेन तीर्थविधिं कृत्वा सिंहस्थबृहस्पतिपूजनमारभेत।
सौवर्णं त्रिदशाचार्यं कृतं वै पलसंख्यया।
तण्डुलोपरि विन्यस्ते कलशे स्थापयेद्बुधः॥१५॥
कुम्भवक्त्रे तु विन्यस्य वंशपात्रं सवस्त्रकम्।
तत्र तं स्थापयेद्विद्वान्प्रतिष्ठामन्त्रतत्परः॥१६॥
वार्हस्पत्येन सूक्तेन तोषयेद्देवमन्त्रिणम्।
❋408बृहस्पतेतिमन्त्रेण जुहुयात्तिलसपिंषा॥१७॥
अष्टोत्तरसहस्त्रं च शतं चाष्टाधिकं तथा।
होमान्ते विधिवद्दद्याद्गामेकां च पयस्विनीम्॥१८॥
जाते नक्ते द्विजैः सार्धं विदध्याज्जागरं बुधः।
गीतवाद्यैश्च नृत्यैश्च पुराणश्रवणेन च॥१९॥
शान्तिपाठैरनेकैश्च नीत्वा रात्रिं प्रयत्नतः।
प्रातःकाले समुत्थाय स्नानं कृत्वा यथाविधि॥२०॥
तर्पयित्वा सुमनसो मुनीन्मनुजसत्तमान्।
पितॄंश्च विधिवद्विद्वान्प्रारभेत्पूजनं पुनः॥२१॥
मुनिपुष्पैः समभ्यर्च्य चन्दनेनानुलेपयेत्।
धूपैश्च विविधैर्देवराजाचार्यं च धूपयेत्॥२२॥
दीपैर्नीराजयेद्भक्त्या नैवेद्यैः परितोषयेत्।
पीतवस्त्रद्वयं तस्यै ह्यर्पयेद्देवमन्त्रिणे॥२३॥
बृहस्पते प्रथममितिसूक्तं च जपेत्ततः।
ततस्तु प्रार्थयेन्नाकिगुरुं च श्लक्ष्णया गिरा॥२४॥
नमस्ते वाग्विलासाय देवाचार्याय धीमते।
सिंहस्थाय च जीवाय त्रैलोक्यहितकारिणे॥२५॥
** **अथ गौतमीप्रार्थनम्—
गोदावरि महाभागे महापापविनाशिनि।
धर्मार्थकाममोक्षाणां +409सुलभे गौतमप्रिये॥२६॥
नमस्ते भुवनाधीशे नमस्ते सुरनिम्नगे।
ब्रह्माद्रिशिखरोद्भूते पाहि लोकत्रयं शिवे॥२७॥
मज्जन्ति तव तोये ये तवाङ्क्षी प्रणमन्ति ये।
तान्समुद्धर वेगेन पापाब्धेर्गौतमात्परे॥२८॥ इति।
** **गोदावरीयायिनां नराणां प्रशंसा—
ते धन्या मानवा लोके कुतस्तेषां तु दुष्कृतम्।
दृष्टा यैर्गौतमी गङ्गा सिंहस्थे सुरमन्त्रिणि॥२९ ॥
ज410नन्यु(नो)पकृतस्येह नोत्तीर्णाः स्युः कदाचन।
ते भवन्ति न संदेहो गोदावर्यां तु पिण्डदाः॥३०॥
अश्वमेधेन किं पुण्यं किं फलं भृगुसेवनात्।
यावन्न क्रियते लोके गोदावर्या निषेवणम्॥३१॥
ततरतु विधिवद्दद्याद्गुरुं हेममयं शुभम्।
आचार्याय सुवृत्ताय सर्वोपस्करसंयुतम्॥३२॥
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा ह्याचार्यं प्रार्थयेत्सुधीः।
दानेन च नमस्कारैर्विनयेन क्षमापयेत्॥३३॥
इति कृत्वा गुरोः पूजां विसृज्याऽऽचार्यसत्तमम्।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चादन्नैर्नानाविधैस्तदा॥३४॥
एवं कृते विधाने व पापमुक्तो भवेन्नरः।
सर्वान्कामानवाप्नोति नन्दते❋411 पुत्रपौत्रकम्॥३५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां सिंहस्थे वृहस्पतौ
बृहस्पतिपूजनसहितं गोदावरीयात्राविधानम्।
________
अथ कन्यागते बृहस्पतौश्रीशैलयात्राविधानम्।
** **स्कन्दपुराणे स्कन्दसूर्यसंवादे सूर्य उवाच—
कन्यागते गुरौ स्कन्द कृष्णायां किं विधीयते।
श्रीशैले तु विशेषेण तन्ममाऽऽचक्ष्व पृच्छतः॥१॥
** **श्रीस्कन्द उवाच—
शृणु भास्करं वक्ष्यामि श्रीशैले यद्विधीयते।
विधानं मनुजैः सम्यक्कृष्णायात्रानुयायिभिः॥२॥
या गतिर्योगमु(यु)क्तानां मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्।
सा गतिः सर्वजन्तूनां कृष्णातीरनिवासिनाम्॥३॥
महावले च वैराटे तथा वेणीसमागमे।
करहाटे महातीर्थे कृष्णा भागीरथीसमा॥४॥
कन्यागते सुराचार्ये ये गच्छन्ति रमाचलम्।
शिवरात्र विशेषेण ते न पश्यन्ति भास्करम्॥५॥
तत्र शिवरात्रौ श्रीपर्वतं गत्वा यत्क्रियते विधानं तद्वक्ष्यते—
चतुर्दश्यां प्रभाते च समुत्थाय समाहितः।
स्नायान्नीलसरित्तोये कुर्याद्देवादितर्पणम्॥६॥
कृतक्षौरक्रियः सम्यग्जीवज्जनककादृते।
कुर्यात्स्नानविधिं सर्वमुचितं श्रद्धयाऽन्वितः॥७॥
हेमश्राद्धं ततः कुर्याद्दानानि किल भूरिशः।
ततो मन्दिरमागत्य श्रीशैलाधिपतेः प्रभोः॥८॥
मण्डपादि विदध्यात्तु तोरणाडम्बराणि च।
सायंकाले शिवं पश्येन्मल्लिकार्जुनमादरात्॥९॥
गर्भागारं गिरीशस्य क्षालयेद्गन्धवारिणा \।
ततस्तु धूपयेद्धूपैर्दीपर्नीराजयेत्ततः॥१०॥
ततो बिल्वदलैः पूर्णैः कर्णिकारसमन्वितैः।
पूजयेत्पार्वतीनाथं यावत्स्याच्चेतसो रुचिः॥११॥
पूजान्ते धूपयेद्देवं दीपैर्नीराजयेत्पुनः।
नैवेद्यैर्विविधैर्भक्त्या तोषयेत्पार्वतीपतिम्॥१२॥
ब्राह्मणेभ्यो धनं दद्याच्छ्रीकृष्णाप्रीतये बुधः।
सवत्सां महिषीं दद्यात्सपल्याणं तुरंगमम्॥१३॥
धेनूः पयस्विनीर्दद्याच्छकटं सवृषं तथा।
पट्टकूलानिं वस्त्राणि भूमिदानं तथैव च॥१४॥
प्रियंगूर्यवगोधूमान्यावनालांस्तथा तिलान्।
एवमादीनि धान्यानि शय्या दीपांश्च दीपिकाः॥१५॥
करपत्रीश्च मणिकाञ्जलपूर्णांस्तथैव च।
फलानि वीजपूराणां कूष्माण्डानि तथैव च॥१६॥
नारिकेलानि रम्माणि जम्बीराणि तथैव च।
वंशपात्राणि चित्राणि च्छत्राणि विविधानि च॥१७॥
राजिकामानमप्यत्र श्रीकृष्णायां प्रदापयेत्।
तत्सुमेरुसमं प्रोक्तं नात्र कार्या विचारणा॥१८ ॥
ततः प्रभाते विमले स्नात्वा कृष्णाजले बुधः।
ब्राह्मणान्भोजयेच्छ्रेष्ठानन्नैर्नानाविधैः शुभैः॥१९॥
कृतप्रणामो देवस्य स्वयं भुञ्जीत भक्तिमान्।
पारणान्ते ततस्तिस्रो यष्टीर्वेणुमयीः शुभाः॥२०॥
गृह्णीयाद्गैरिकं तोयसिक्ताम्बरधरः शुचिः।
ततस्तु गृहमागच्छेद्धृतव्रह्मवतः पुमान्॥२१॥
अन्येऽपि लौकिकाचारा मार्गसेकादयो गृहे।
भगिनीप्रमुखा नार्यः कुर्युस्तांस्तद्धिते रताः॥२२॥
नारी वा रविवारे तु भैरवं पूजयेत्सुरम्।
गन्धपुष्पाक्षतादीनि शुभद्रव्याणि चार्पयेत्॥२३॥
नैवेद्यं विविधं चैव ताम्बूलं तदनन्तरम्।
ततस्तु भोजयेल्लोकान्ब्राह्मणादीञ्छुचित्रतान्॥२४॥
ततस्तु स्वयमश्नीयाद्भूमौ शयनमाचरेत्।
ततः प्रभाते विमले सोमवारे शुचिव्रतः॥२५॥
स्नात्वा तैलेन शुद्धेन नव्यवस्त्रावृतस्तदा।
पारिवर्हांश्चमेधावी गृह्णीयात्सुसमाहितः॥२६॥
कृतस्वस्त्ययनो गच्छेन्मन्दिरं पार्वतीपतेः।
गैरिकं तानि वस्त्राणि यष्टीर्येणुप्रयीस्तथा॥२७॥
तत्सर्वं विन्यसेत्तत्र वृपथस्य समीपतः।
ततोऽवलोकयेद्देवं शंकरं लोकशंकरम्॥२८॥
गन्धपुष्पाक्षतादीनि चार्पयेद्भक्तिमान्नरः।
प्रार्थयेद्देवदेवेशं पार्वतीप्राणवल्लभम्॥२९॥
** **तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
इह जन्मनि देवेश यत्कृतं पातकं मया।
तत्सर्वंत्वं महादेव क्षिप्रं नाशय शंकर॥३०॥
इति प्रार्थयित्वा प्रदक्षिणीयकृत्यसयन्दिरं व्रजेत्। तनः सुहृद्भिः सहैकपङ्क्तौभुञ्जीत।
एवं कृते विधाने च कन्यासंस्थे बृहस्पतौ।
श्रीगिरौ कृष्णवेण्यां वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
सर्वान्कामानवाप्नोति देहान्ते मोक्षमाप्नुयात्॥३१॥
तत्र पुराणवचनं केदारखण्डे—
रेतःकुण्डोदकं पीत्वा वाराणस्यां मृतो यदा।
श्रीशैलशिखरं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न लभ्यते॥३२॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
कन्यागते बृहस्पतौश्रीशैलयात्राविधानम्।
_________
अथ कार्तिकेयदर्शनविधानम्।
** **पद्मपुराणे—
कार्तिक्यां कृत्तिकायोगे शिवयोगसमन्विते।
यः पश्येत्कृत्तिकापुत्रं स भवेद्ब्रह्मसत्तमः॥१॥
नीलकुण्डे सुधीः स्नात्वा स्वामिनं योऽवलोकयेत्।
सप्तजन्मसु विप्रः स्याद्धनाढ्यो वेदपारगः॥२॥
दृष्ट्वा देवं महासेनं कुशैः पुष्पैः समर्चयेत्।
चन्दनेनानुसंलिप्य दशाङ्गेनैव धूपयेत्॥३॥
दीपैर्नीराजयेद्भक्त्या मयूरमपि पूजयेत्।
कमण्डलुं ब्रह्मसूत्रमक्षमालां कुशांस्तिलान्॥
पञ्चोपवीतकान्येव( उपवीतानि च मृदं ) समन्त्राणि समर्पयेत्॥४॥
** **तत्र मन्त्राः—
कमण्डलुर्जलापूर्णः स्वर्णगर्भः सुलक्षणः।
अर्पितस्ते महासेन प्रसन्नोऽनेन मे भव॥५॥
इति कमण्डलुसमर्पणमन्त्रः।
ब्रह्मसूत्रं महादिव्यं प्रीतये ते मयाऽर्पितम्।
ब्रह्मजन्मास्तु मे देव ब्रह्मसूत्रसमर्पणात्॥६॥
इति यज्ञोपवीतसमर्पणमन्त्रः।
गोमतीतीरसंभूता गोपीवापीसमुद्भवा।
य(मृ)दर्षिता मया तुभ्यं ब्रह्मजन्माप्तये गुह॥७॥
❋412इति गोपीचन्दनार्पणमन्त्रः।
उपवीतानि शुभ्राणि पवित्राणि शिवात्मज।
पुरतस्तेऽर्पयाम्यद्य प्रसादार्थं तव प्रभो॥८॥
** **इति पवित्रारोपणमन्त्रः।
तिलाः काश्यपसंभूतास्तिलाः पापहराः स्मृताः।
पादयोरर्पितास्तेऽद्य सर्वपापापनुत्तये॥९॥
** **इति तिलार्पणमन्त्रः।
दर्भा ब्रह्ममया विष्णुस्वरूपा रुद्ररूपिणः।
प्रीत्यर्थं तत्र देवेश न्यस्ताः पादतले मया॥१०॥
इति दुर्भारोपणमन्त्रः।
अष्टाविंशतिसंख्याकै रुद्राक्षैर्योजिता मया।
अर्पिता तव हस्ते413 च गृहाण सुरसैन्यप॥११॥
** **इत्यक्षमालार्पणमन्त्रः।
सुवर्णमुत्तमं लोके भुक्तिमुक्तिप्रदं तथा।
अर्पितं तव देवेश दैन्याज्ञानापनुत्तये॥१२॥
** **इति सुवर्णार्पणमन्त्रः।
एतत्कृत्वा समस्तं च प्रणम्य च मुहुर्मुहुः।
प्रासादतोविनिर्गत्य विधानान्तरमादिशे(चरे)त्॥१३॥
दक्षिणं स्कन्धमारोप्य भागिनेयं तु मातुलः।
कुर्यात्प्रदक्षिणास्तिस्रस्तूर्यनादसमन्वितः॥१४॥
ततोऽवतार्यतं धीमान्स्वस्कन्धाद्भगिनीसुतम्।
संपूजयेद्धिरण्यादिसंपद्भिर्भक्तिपूर्वकम्॥१५॥
ततो मन्दिरमागत्य स्नायात्तैलेन सुव्रतः।
ब्राह्मणान्भोजयेद्भूरिधनं तेभ्यः समर्पयेत्॥१६॥
एवं कृते विधाने तु सर्वपापहरे शुभे।
सप्तजन्मसु विप्रः स्याद्धनाढ्योवेदपारगः॥१७॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
कार्तिकेयदर्शनविधानम्।
__________
अथ ब्रह्मकूर्चविधानम्।
ब्रह्मशुद्धौ गृहारम्भे सूतके मृतसूतके।
यज्ञारम्भे धनप्राप्तौ प्रायश्चित्ते विशेषतः॥१॥
रोगमुक्तौ च संपर्के क्षुद्रपापापनुत्तिषु।
विदव्याद्ब्रह्मकूर्चं च मासि मास्यपि वा द्विजः॥२॥
तत्र ब्रह्मकूर्चलक्षणम्—
दुग्धं दधि घृतं मूत्रं पञ्चमं गोमयं तथा।
देहशुद्ध्यर्थमादिष्टं पवित्रं गव्यपञ्चकम्॥३॥
गव्यं तु गोश्च संभूतं क्षीरदध्यादि पञ्चकम्।
पृथग्भूतं गवां चैव पञ्चानामिति निश्चयः॥४॥
नवाम्रपल्लवाभा या पीतनेत्रा सुलक्षणा।
सा धेनुः कपिला ज्ञेया साक्षाद्विष्णुस्वरूपिणी॥५॥
लाक्षारससमानाभा श्वेतरोम्णी ललाटतः।
सा रक्ता कथिता विष्णुस्वरूपा धेनुरुत्तमा॥६॥
या गौः स्फटिकसंकाशा सुस्निग्धा स्निग्धलोचना।
सा गौः श्वेता समादिष्टा मुनिभिस्तत्त्वर्शिभिः॥७॥
अतसीपुष्पसंकाशा लम्बपीनपयोधरा।
सा नीली सुरभिर्ज्ञेया महापापविनाशिनी॥८॥
भिन्नाञ्जनसमानाभा पीनोध्नीचारुमस्तका।
सा कृष्णा कृष्णरूपा च महादोषनिवारिणी॥९॥
❋414कपिलाया घृतं (मूत्रमेकपलं) ग्राह्यमङ्गुष्ठार्धं च गोमयम्।
क्षीरं सप्तपलं ग्राह्यं दधि त्रिपलमुच्यते॥१०॥
घृतमेकपलं ग्राह्यं पलमेकं कुशोदकम्।
घृतेन तेजो वीर्यं च घृतमायुर्यशस्करम्॥
घृतमारोग्यकरणं घृतं रक्षोघ्नमेव च॥११॥
नद्यां प्रस्रवणे तीर्थे रहस्ये निर्जने वने।
यज्ञागारे गवां गोष्ठे देवतायतने तथा॥१२॥
तत्र स्नात्वा शुचिर्भूत्वा शुक्लवासा जितेन्द्रियः।
+415 गायत्र्या गृह्य गोमूत्रं गन्धद्वारेति गोमयम्॥
आप्यायस्वेति च क्षीरं दधिक्राव्णोऽथ वै दधि॥१३॥
तेजोऽसि शुक्ल (क्र)मस्यमृतमसि नामधामासि प्रियं देवानां घृतं देवयजनमसीत्याज्यम्।देवस्य त्वेति कुशोदकम्।आपो हि ष्ठा मयोभुव इति त्र्यृचेनाभिमथ्नीयात्।
पालाशं पाद्मपत्रं च ताम्रभाजनमेव च।
उदुम्बरमयं पात्रं श्रीवृक्षस्याथ वा भवेत्॥१४॥
सप्तपत्राश्च ये दुर्भा अक्षता यवसंयुताः।
तेषु केषु च संगृह्य पञ्चगव्यं द्विजोत्तमः॥१५॥
स्रुवेण जुहुयाद्विद्वांस्तैर्वा यज्ञार्थकोविदः।
स्वाहाऽग्नये च प्रथमा सोमायेति परा स्मृता॥१६॥
आहुतिद्वितयं मुख्यं पञ्चगव्ययजौ स्मृतम्।
मा नस्तोक इदं विष्णुर्गायत्री ब्रह्मजेत्यपि॥१७॥
समग्रस्य तृतीयांशमेतैर्व्याहृतिभिस्तथा।
अनले विधिवद्धुत्वा हुतशेषं पिबेन्नरः॥१८॥
पञ्चगव्यं महाश्रेष्ठं देवानामपि दुर्लभम्।
मासि मासि नरोऽश्र्नीयात्सर्वपापापनुत्तये॥१९॥
अर्धमासे तु योऽश्र्नीयात्स स्वर्गं प्राप्नुयाद्ध्रुवम्।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति पष्ठे षष्ठे तु वासरे॥२०॥
वचस्य (यत्त्वग) स्थिगतं पापं देहे तिष्ठति वै नृणाम्।
ब्रह्मकूर्चोदहेत्सर्वं घृतसिक्त इवानलः॥२१॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
ब्रह्मकूविधानम्।
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अथ बालकस्योर्ध्वदन्तोद्गमजनितविघ्नभङ्गविधानम्।
ब्रह्मयामले—
प्रथमं दन्तनिर्मुक्तिरूर्ध्वा बालस्य चेद्भवेत्।
क्लेशाय मातुलस्येह तदा प्रोक्ता मनीषिभिः॥१॥
विघ्नभङ्गं प्रवक्ष्यामि विधानं विधिपूर्वकम्।
सौवर्णं राजतं वाऽपि ताम्रं कांस्यमयं तथा॥२॥
दध्योदनेन पूर्णंतु पात्रं दद्याच्छिशोः करे।
समन्त्रं भाजनं दत्त्वा संपश्येन्मातुलः शिशुम्।
सालंकारं सवस्त्रं च शिशुमालिङ्ग्य सादरम्॥३॥
तत्र मन्त्रः—
रक्ष मां भागिनेय त्वं रक्ष मे सकलं कुलम्।
गृहीत्वा भाजनं सान्नं प्रसन्नो भव मे सदा॥४॥
निर्विघ्नं कुरु कल्याणं निर्विघ्नां च स्वमातरम्।
त्वमप्यात्मानमातिष्ठचिरं जीव मया सह॥५॥
इति भाजनदानमन्त्रः।
ततोऽभिनन्दयेद्विद्वान्भगिनीं भगिनीपतिम्।
ज्येष्ठाञ्श्रेष्ठान्गुरून्विप्रान्पवित्रानभिवादयेत् ॥६॥
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते।
ऊर्ध्वदन्तोद्गमभवं पापं नश्यति तत्क्षणात्॥७॥
बालकं जननी चैव चिरं जीवति मातुलः।
तस्मात्प्रयत्नतो विद्वान्विधानं सम्यगाचरेत्॥८॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां बालकस्योर्ध्वदन्तोद्गमजनितविघ्नभङ्गविधानम्।
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अथ महानदीमहापूरहरविधानम्।
ब्रह्मपुराणे ब्रह्मनारदसंवादे नारद उवाच—
निस्तरन्ति कथं लोका गङ्गापूरपरिप्लुताः।
तन्ममाऽऽचक्ष्व लोकेश सम्यग्विधिविदां वर॥१॥
श्रीब्रह्मोवाच—
शृणु नारद वक्ष्यामि विधानं विधिपूर्वकम्।
तरन्ति येन मनुजा नदीपूरपरिप्लुताः॥२॥
पतिप्रियहिते युक्ता सवीरा सुभगा सती।
कर्तव्यं हि तया सम्यग्विधानं विधिपूर्वकम्॥३॥
स्नात्वा तैलेन शुद्धेन शुक्लाम्बरधरा सती।
आगत्य सरितस्तीरं दण्डवत्प्रणमेन्नदीम्॥४॥
परिधाय नवं वस्त्रं सकूर्पासकमुत्तमम्।
शूर्पे षोडशवन्धे च कर्णपत्रादिकं तथा॥५॥
हरिद्रां कुङ्कुमं चैव जीरकं धान्यकं तथा।
लवणं च गुडं चैव तण्डुलान्मधुकं तथा॥६॥
अक्षतांश्चन्दनं चापि चन्द्रं कस्तूरिकां तथा।
एतत्सर्वंतु शूर्पस्थं समन्त्रं सरितेऽर्पयेत्॥७॥
तत्र मन्त्रमाचार्यः समुच्चारयेत्—
इमं मे गड़गे यमुने सरस्वतीति अन्यान्यपि वारुणानि सूक्तानि जपेत्।
कराभ्यां शूर्पमादाय सप्तवारं जलं क्षिपेत्।
सरितः सरितो मध्ये मन्त्रानुच्चार(न्प्रब्रुव)ती सती॥८॥
तत्र पौराणमन्त्राः—
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं गङ्गे त्रिपथगामिनि।
लोकानुद्धर तीरस्थान्पूरं संहर चाऽऽत्मनः॥९॥
इति जपित्वा शूर्पेण जलमध्ये जलं प्रक्षिपेत्। एवं प्रतिमन्त्रं जलमध्ये जलं क्षिपेत्।
गङ्गेः त्वं पुण्यरूपाऽसि सर्वपापविनाशिनी।
पूरेण ते जगन्मग्नं समुद्धर समुद्रगे॥१०॥
जीवनं तव लोकानां सुभगं तारणक्षमम्।
अर्ध्यार्थमर्पितं तुभ्यं गृहाण परमेश्वरि॥११॥
अत्युत्कटेन तोयेन सर्वंजगदुपप्लुतम्।
रक्ष तत्सकलं मातर्बलिदानेन सुव्रते॥१२॥
स्वर्गे मन्दाकिनी देवी पाताले भोगवत्यसि।
भागीरथी तु भूलोके गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥१३॥
उत्तुङ्गवीचिवेगेन प्लावितं जगतीतलम्।
रक्षितुं तत्समस्तं हि पूरं संहर चाऽऽत्मनः॥१४॥
पुष्पधूपान्वितं सर्वंबलिं तुभ्यं मया हृतम्।
गृहाण त्वं जगद्धात्रि कृपया रक्ष भूतलम्॥१५॥
इति सप्त मन्त्रानुच्चार्य सप्तवारं तेन शूर्पेण गङ्गामध्ये गङ्गाजलं प्रक्षिपेत्। तत्सर्वं वस्त्रादिकं गङ्गायां प्रक्षिपेत्। अथ वा तत्स्वरूपिण्यै सुचरित्रायै ब्राह्मण्यै दद्यात्। ततस्तु तां पुरंध्रीं सर्वे जना नमस्कुर्युः।
कूर्पासकं च वस्त्रं च कर्णपत्रादिकं तथा।
कृताञ्जलिपुटाः सर्वे ह्यर्पयेयुः समञ्जसा॥१६॥
एवं कृते विधाने तु पूरं संहरति क्षणात्।
हृष्टपुष्टो जनः सर्वो विधानान्नन्दति ध्रुवम्॥१७॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
महानदीमहापूरहरविधानम्।
अथोत्पन्नस्य बालकस्य माससंवत्सरवृद्धिविधानम्।
** **ल(लु)ब्धजातके—
मासःपूर्णो यदाजातो जननाच्च शिशोस्तदा।
कार्यं वृद्धिविधानं तु मात्रा बालस्य वृद्धये॥१॥
अभ्यज्य बालकं सम्यक्पल्लवाद्येन वारिणा।
दिपैर्नीराजयेद्वस्त्रं नूतनं च समर्पयेत्॥२॥
❋416 अपूपान्पूरकान्साज्यान्ब्राह्मणीभ्यः समर्पयेत्।
ब्राह्मणान्भोजयेत्सम्यग्बालकायुर्विवृद्धये॥३॥
अस्योत्पन्नस्य बालस्य सम्यगायुर्विवृद्धये।
जन्मर्क्षदेवताप्रीत्यै कृत्यं सर्वंसमर्पयेत्॥४॥
एवं कृत्वा मासि मासि बालायुर्वृद्धिदं विधिम्।
संप्राप्से द्वादशे मासि विधानान्तरमादिशे (चरे)त्॥५॥
सुदृढाः कारयेत्स्थूलाः सुवृत्ता वंशपेटिकाः।
निधाय मोदकादीनां खाद्यानां तत्र संचयम्॥६॥
आच्छाद्य नूतनैर्वस्त्रैः पूर्णा द्वादश पेटिकाः।
जीवत्प्रजासु नारीषु प्रतिसंपादयेत्सुधीः॥७॥
प्रत्यब्दं च ततः कुर्यात्समावृ417द्धिमनुत्तमाम्।
संततेः क्षेमवृद्ध्यर्थं जननी पुत्रवत्सला॥८॥
यदाऽब्दषष्टिरापूर्णा संप्राप्ते जन्मवासरे।
स्नात्वा शुद्धेन तैलेन पूजयेद्वत्सराधिपम्।\।
ब्राह्मणान्भोजयेच्छक्त्त्यातेनाऽऽरोग्यमवाप्नुयात्॥९॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायामुत्पन्नस्य बालकस्य माससंवत्सरवृद्धिविधानम्।
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अथ मृत्युंजयविधानम्।
ग्रहपीडासु सर्वासु महागदनिपीडने।
वियोगे बान्धवानां च जनमार उपस्थिते॥१॥
राज्यभङ्गे धनग्लानावपमृत्युविनाशने।
अभियोगे समुत्पन्ने मनोधर्मविपर्यये॥२॥
मृत्युंजयस्य देवस्य विधानं क्रियते बुधैः।
यदाकदाचित्समये प्राप्ते चन्द्रबले शुभे॥३॥
शुभे तियौशुभे वारे शुभनक्षत्रसंयुते।
शुभे योगे शुभे लग्ने शुभग्रहसमीक्षिते॥४॥
मृत्युंजयस्य देवस्य विधानं शुभदं स्मृतम्।
मण्डिते शंकरद्वारि चित्रिते मण्डपान्विते॥५॥
दीपस्थानं तु संशोध्य रत्नकम्बलसंयुते।
ब्राह्मणान्वेदशास्त्रज्ञानाहूय गतमत्सरान्॥६॥
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु विधानं परमारभेत् ❋418।
प्रारब्धस्य च कार्यस्य सदृशो जप उत्तमः॥७॥
ऊनाधिकस्तु कार्याच्च जपो हीनफलः स्मृतः।
राष्ट्रभङ्गे जनक्लेशे महारोगनिपीडने ॥८॥
कोटिसंख्यो जपः प्रोक्तो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
सामान्यगदपीडायां दुष्टस्वप्नस्य दर्शने॥९॥
मृत्युंजयस्य मन्त्रस्य जपो लक्षमितः शुभः।
अपमृत्युविनाशाय जपोऽयुतमितः स्मृतः॥१०॥
दुर्वातश्रवणे जाप्यं सुहृदामनृते क्षुते।
यात्रायामयुतं कार्यं सहस्रं वा समाहितैः॥११॥
आदावभ्यर्च्य देवेशं शंकरं लोकशंकरम्।
गर्भागारं जलैर्गङ्गैः क्षालयेच्चन्दनान्वितैः॥१२॥
दशाङ्गैर्धूपयेद्धूपः स्नपयेच्छंकरं ततः।
पञ्चामृतैः समन्त्रैश्च सपुष्पैः साक्षतैः शुभैः॥१३॥
तंत्र पञ्चामृतान्याह—
पयो दधि घृतं गव्यं शर्करा च शुभं मधु।
आप्यायस्वेति च क्षीरं दधिक्राव्णस्तथा दध॥१४॥
तेजोऽसिं शुक्रमित्याज्यं मधुवातास्तथा मधु।
गायत्र्या शर्कराशुद्धिर्जलस्नानं ततः परम्॥१५॥
सप्तर्पिमते च—
तैलाभ्यङ्गः शुभः शंभोः सर्वकार्येषु चोत्तमः।
यथाविधि विधातव्यः सर्वक्लेशनिवारणः॥१६॥
चन्दनेन सुगन्धेन कुर्याद्देवस्य लेपनम्।
स्थावरे पाणिना कार्यं जङ्गमे सकनिष्ठकम्॥१७॥
ततः पुष्पैर्विधातव्या पूजा देवस्य शूलिनः।
कालोद्भवैर्यथोद्दिष्टैर्यावत्स्यात्स्वमनोरुचिः॥१८॥
दशाङ्गैर्धूपयेत्पश्चाद्धूपैर्नीजयेत्ततः।
दीपिकाभिश्च साज्यैस्तु नैवेद्यैः परितोषयेत्॥१९॥
ताम्बूलमर्पयेत्साङ्गं मीत्यै देवस्य शूलिनः।
न्यस्तबीजाक्षरो मन्त्री स्वदेहावयवेषु च॥२०॥
रुद्राक्षमालिकाहस्तो जपेच्चिन्तितशंकरम्।
यावन्नो जृम्भणं निद्रा शरीरस्यावमर्दनम्॥२१॥
जायते मन्त्रिणस्तावदेव स्याज्जप उत्तमः।
जपान्ते च पुनः शंभोः प्रतिपूजां तु कारयेत्॥२२॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य शंभुं स्वगृहमाव्रजेत्।
निर्वर्त्यैवाऽऽह्निकं विद्वान्भुञ्जीयाद्विधिना गृही॥२३॥
हविष्यान्नं ससर्पिस्तु सगुडं पायसान्वितम्।
भुक्त्वाऽऽचम्य जलैरुष्णैः पुनः शीतैर्जलैस्तथा॥२४॥
कृतास्यशुद्धिः शुचिमाञ्छयीत पृथिवीतले।
एवं दिने दिने विद्वान्कृतजाप्यो महामतिः॥२५॥
पूर्णसंख्यस्य जाप्यस्य दशांशहवनं मतम्।
पायसेन च साज्येन समिद्भिस्तिलसर्पिपा॥२६॥
श्रीवृक्षस्य फलैः पत्रैः कमलैः शतपत्रकैः।
साज्यैरेव तु खर्जूरैरन्यैर्यज्ञफलैस्तथा॥२७॥
हवनं कारयेद्विद्वान्कृताचार्यार्चनक्रियः।
ब्राह्मणान्भोजयेत्सम्यग्दशांशेन यजेस्तथा॥२८॥
एवं कृते विधाने च सर्वकामफलं लभेत्।
चिन्तितार्थस्य सिद्धिः स्यान्नात्र कार्या विचारणा॥२९॥
आराध्य विधिवद्देवं मृत्युंजयमुमापतिम्।
गतविघ्नो गतक्लेशः सततं सुखमाप्नुयात्॥३०॥
अथ जाप्यलक्षणम्—
अस्य श्रीत्र्यम्बकमन्त्रस्य वसिष्ठ ऋषिः। मृत्युंजयरुद्रो देवता। अनुष्टुप्छन्दः। देवदेव्यौ प्रणवौ बीजशक्ती \। सर्वकामसिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः।
अत्र मूलमन्त्रेण करशुद्धिं कृत्वा प्रणवं करतलयोर्विन्यस्य व्याहृत्यादिमन्त्रपादचतुष्टयं सर्वंच करयोरङ्गुष्ठादिकनिष्ठिकान्तमङ्गुलिषुविन्यस्य
ॐ त्र्यम्बकं सर्वज्ञाय हृदयाय नमः। ॐ यजामहे तृप्तिरूपाय शिरसे स्वाहा। ॐ सुगन्धिं पुष्टिवर्धनमनादिबोधाय शिखायै वषट्। ॐ उर्वारुकमिव बन्धनाद्वज्रिणे वज्रकवचाय हुम्। ॐ मृत्योर्मुक्षीय नित्यमलुप्तमूर्तये नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ माऽमृतादचिन्त्यानन्तशक्तयेऽस्त्राय फट्। एवं सर्वेण मन्त्रेण व्यापकन्यासं कृत्वा देहाङ्गन्यासमारभेत \।
ॐ त्र्यं त्र्यक्षेशाय त्रिनेत्राशक्तिसहिताय शिखाय पादुकां पूजयामि। ॐ वं वालार्कतेजसे बालाशक्तिसहिताय शिरसि पादुकां पूजयामि। ॐ कं कालान्तकेशाय कल्याणीशक्तिसहिताय ललाटे पादुकां पूजयामि। ॐ यं यज्ञेशाय यज्ञरूपाशक्तिसहिताय भ्रुवोः पादुकां पूजयामि। ॐ जां जालंधरेशाय ज्वालामुखीशक्तिसहिताय नेत्रयोः पादुकां पूजयामि। ॐ मं महादेवेशाय महाशक्तिसहिताय श्रोत्रयोः पादुकां पूजयामि। ॐ हें हाकिनीशाय हिमवतीशक्तिसहिताय नासिकायां पादुकां पूजयामि। ॐ सुं सुधीशाय सुगन्धाशक्तिसहिताय कपोलयोः पादुकां पूजयामि। ॐ गं गङ्गाधरेशाय गम्भीराशक्तिसहितायोर्ध्वोष्ठे पादुकां पूजयामि। ॐ धिं धीमहीशाय धीराशक्तिसहितायाधरोष्ठे पादुकां पूजयामि। ॐ पुं पुण्डरीकाक्षेशाय पूर्णाशक्तिसहितायोर्ध्वदन्तेषु पादुकां पूजयामि। ॐ ष्टि419ष्टीवनेशाय ष्टीवना (?) शक्तिसहितायाधोदन्तेषु पादुकां पूजयामि। ॐ वं वरिष्ठेशाय वरेण्याशक्तिसहिताय जिह्वायां पादुकां पूजयामि। ॐ र्धंधन्वीशाय ध्वान्ताशक्तिसहिताय हनौ पादुकां पूजयामि। ॐ नं नदीस्वामीशाय नादिनीशक्तिसहिताय वक्त्रे पादुकां पूजयामि। ॐ उं बुद्धि (उमुद्धी) शायोमाशक्तिसहिताय कण्ठे पादुकां पूजयामि। ॐ र्वांवारुणीशाय वामाशक्तिसहिताय स्कन्धयोः पादुकां पूजयामि। ॐ रुं रुद्रेशाय रूपवतीशक्तिसहिताय बाह्वोः पादुकां पूजयामि। ॐ कं कान्तीशाय कान्ताशक्तिसहिताय हस्तयोः पादुकां पूजयामि। ॐ मिं मीढुष्टमीशाय मङ्गलाश-
क्तिसहिताय वक्षसि पादुकां पूजया। ॐ वं वेदवेदेशाय वेदगर्भेशाय वेदगर्भाशक्तिसहिताय स्तनयोः पादुकां पूजयामि। ॐ बं बकीशाय बन्दिनीशक्तिसहिताय हृदये पादुकां पूजयामि। ॐ धं धर्मीशाय धनुष्मतीशक्तिसहिताय नाभौपादुकां पूजयामि। ॐ नान्नाकेश्वरेशाय पुष्टिशक्तिसहिताय कंधरायां पादुकां पूजयामि। ॐ मृंमृत्युंजयेशाय मृत्युनाशिनीशक्तिसहिताय गुह्ये पादुकां पूजयामि। ॐ त्यों त्यादीशाय त्यादिशक्तिसहिताय पायौपादुकां पूजयामि। ॐ र्मुं मुक्तीशाय मुकुंदाशक्तिसहिताय कट्यां पादुकां पूजयामि। ॐ क्षीं क्षितीशाय क्षेमकरीशक्तिसहिताय जान्वोःपादुकां पूजयामि। ॐ यं योगिनीशाय यन्त्रभेदिनीशक्तिसहितायोः पादुकां पूजयामि। ॐ मां माङ्गल्येशायम420हर्द्धिशक्तिसहिताय जङ्घयोः पादुकां पूजयामि। ॐ मृंमृत्युविनाशनेशाय मृतवतीशक्तिसहिताय गुल्फयोः पादुका पूजयामि। ॐ तात्तान्त्रिकेशाय तन्वे421तीशक्तिसहिताय पादयोः पादुकां पूजयामि।
इति वर्णन्यासः।
ॐ त्र्यम्बकं त्रिपुरान्तकेशाय त्रिलोक्याशक्तिसहिताय शिरसि पादुकां पूजयामि। ॐ यजा यज्ञपतीशाय स्वाहाशक्तिसहिताय ललाटे पादुकां पूजयामि। ॐ महे महत्तत्त्वेशाय मायाशक्तिसहिताय श्रोत्रयोः पादुकां पूजयामि। ॐ सुं सुखीशाय सुरुचिशक्तिसहिताय चक्षुषोः पादुकां पूजयामि। ॐ गन्धिंगगनेशाय गगनाशक्तिसहिताय नासिकायां पादुकां पूजयामि। ॐ पुष्टिं पुरुपेशाय पुरंदरीशक्तिसहिताय वक्त्रे पादुकां पूजयामि। ॐ वर्धनं वरदेशाय वशंकरर्णाशक्तिसहिताय बाह्वोः पादुकां पूजयामि। ॐ उर्वा, उमा422वतीशायोर्ध्वरेतः शक्तिसहिताय हृदये पादुकां पूजयामि। ॐ रुक रूपवतीशाय रुक्मशक्तिसहिताय कुक्ष्योः पादुकां पूजयामि। ॐ मिवमित्रेशाय मित्रिकाशक्तिसहिताय नाभौ पादुकां पूजयामि। ॐ वन्धनाद्वालचन्द्रमौलीशाय बर्वरीशक्तिसहिताय कट्यां पादुकां पूजयामि। ॐ मृत्योर्मन्त्रीशाय मन्त्रशक्तिसहिताय गुले पादुकां पूजयामि। ॐ मुक्षीय मुक्तिकरीशाय मुक्तिशक्तिसहिताय जान्वोः पादुकां पूजयामि। ॐ मा महाकालेशाय महाशक्तिसहिताय जङ्घयोः पादुकां पूजयामि। ॐ [अ] मृतादमृतेशायामृताशक्तिसहिताय पादयोः पादुकां पूजयामि।
इति पा(प) इन्यासः।
ॐ त्र्यम्बकं भवेशाय भूक्ति(ति) शक्तिसहितायाऽऽधारे पादुकां पूजयामि। ॐ यजामहे सर्वेशाय शर्वाणीशक्तिसहिताय स्वाधिष्ठाने पादुकां पूजयामि। ॐ सुगन्धिं रुद्रेशाय विभुषा(त्व ) शक्त्तिसहिताय मणिपूरे पादुकां पूजयामि।ॐ पुष्टिवर्धनं पुरुषवरदेशाय वंशवर्धनीशक्तिसहितायानाहते पादुकां पूजयामि। ॐ उर्वारुकमिवोग्रेशायोग्राशक्तिसहिताय विशुद्धे पादुकां पूजयामि। ॐ बन्धनान्महादेवेशाय मानवीशक्तिसहितायाऽऽज्ञायां पादुकां पूजयामि। ॐ मृत्योर्मुक्षीय भीमेशाय भद्रकालीशक्तिसहिताय ब्रह्मरन्ध्रेपादुकां पूजयामि। ॐ माऽमृतादीशानेशायेश्वरीशक्तिसहिताय सहस्रदले पादुकां पूजयामि।
इति वाक्यन्यासः \।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे त्र्यम्बकेशायाम्बिकाशक्तिसहिताय पूर्ववक्त्रे पादुकां पूजयामि। ॐ सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं मृत्युंजयेशाय वामाशक्तिसहिताय दक्षिणवक्त्रे पादुकां पूजयामि। ॐ उर्वारुकमिव बन्धनान्महादेवाय भीमाशक्तिसहिताय पश्चिमवक्त्रे पादुकां पूजयामि। ॐ मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्संजीवनेशाय रौद्रीशक्तिसहितायोत्तरवक्त्रे पादुकां पूजयामि।
इति चरणन्यासः।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं महेशाय गौरीशक्तिसहिताय दक्षिणपार्श्वे पादुकां पूजयामि। ॐ उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृताच्छांभवीशाय व्यापिनीशक्तिसहिताय वामपार्श्वेपादुकां पूजयामि।
इत्यर्धर्चन्यासः।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥
सर्वाख्येशायानाख्याशक्तिसहिताय सर्वशरीरे पादुकां पूजयामि।
इति समग्रर्चन्यासः।
एवं षड्विधदेहाङ्गन्यासं कृत्वा पडङ्गन्यासमारभेत \।
ॐ नमो भगवते त्र्यम्बकाय शूलपाणिने हृदयाय नमः। ॐ नमो भगवते रुद्रायामृतमूर्तये मां जीवय शिरसे स्वाहा। ॐ नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने शिखायै वषट्। ॐ नमो भगवते त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं ह्रुंकवचाय हुम्। ॐ नमो भगवते त्रिलोचनाय ऋग्यजुःसाममन्त्राय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ नमो भगवते वह्नित्रयायमहामृत्युंजय ज्वल ज्वल मां रक्ष रक्षाघोरास्त्राय फट्।
एवं न्यासादिकं कृत्वा शिवो भूत्वा शिवं यजेत्।
ततश्चन्द्रमण्डलोपरिवद्धपद्मासनस्थं प्रवहदमृतचन्द्रकलाधरं योगमुद्रावद्धाधरहस्तद्वयममृतपूर्णकलशोत्तरहस्तद्वयं सोमसूर्याग्निलोचनं पिङ्गलजटाजूटं नागभूषितं भक्तानुकम्पिनं रुद्रं ध्यात्वा स्नेहपूर्णेन मनसा पूर्वोक्तेन विधानेनार्चयित्वा शरणं व्रजेत्।
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराल्पावयन्तं शिरो
द्वाभ्यां तौदधतं मृगाक्षवलयं द्वाभ्यां वहन्तं परम्।
अङ्कन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलाससंस्थं शिवं
स्वच्छा(बद्धा) म्भोजगतं सुचन्द्रमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे॥३१॥
एवं ध्यानपरो जपं कुर्यात्।
अथ मतान्तरम्।
ॐ त्र्यम्बकमितिमन्त्रस्य मैत्रावरुणवसिष्ठ ऋषिः। रुद्रो देवता। अनुष्टुप्छन्दः। त्र्यम्बकमन्त्रजपे विनियोगः।
अत्र मूलमन्त्रेण करशुद्धिं कृत्वा प्रणवं करतलयोर्विन्यस्य व्यापकन्यासं कुर्यात्। व्याहृत्यादिमन्त्रपादचतुष्टयं सर्वंच करतलयोरङ्गुलीषु विन्यसेत्। ततो देहाङ्गन्यासमारभेत।
ॐ त्र्यम्बकमिति शिरसि \। यजामह इति ललाटे। सुगन्धिमिति मुखे। पुष्टिवर्धनमिति हृदये।उर्वारुकमिति नाभौ। बन्धनादिति कट्याम् \। मृत्योरिन्यूरुद्वये। मुक्षीयेति जानुद्वये। माऽमृतादिति पादद्वये।
इति देहाङ्गन्यासं कृत्वा षडङ्गन्यासमारभेत।
ॐ नमो भगवते त्र्यम्बकाय शूलपाणये हृदयाय नमः। ॐ नमो भगवते रुद्रायामृतमूर्तये मां जीवय शिरसे स्वाहा। ॐ नमो भगवते रुद्राय शिरचन्द्राय जटिने शिखायै वषट् \। ॐ नमो भगवते त्रिपुरान्तकाय ह्रांह्रीं ह्रूंकवचाय हुम्। ॐ नमो भगवते त्रिलोचनाय ऋग्यजुःसाममन्त्राय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ नमो भगवते वह्नित्रयाय महामृत्युंजय ज्वल ज्वल रक्ष रक्ष मामघोरास्त्राय फट्। ॐ भूर्भुवः स्वरोमिति दिग्बन्धः।
ततश्चन्द्रमण्डलोपरिवद्धपद्मासनं चन्द्रवर्णं स्रवदमृतचन्द्रकलाधरं योगमुद्राबद्धहस्तद्वयं सोमसूर्याग्निलोचनं —
बद्धपिङ्गजटाजूटं नागाभरणभूषितम्।
भक्तानुकम्पिनं कृत्वाऽभ्यर्चनं शरणं व्रजेत्॥३२॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि मां शरणागतम्।
जन्ममृत्युजरारोगैः पीडितं कर्मबन्धनैः॥३३॥
तावकस्त्वत्स्थितप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड।
इति विज्ञाप्य देवेशं मन्त्रं त्रैयम्बकं जपेत्॥३४॥
ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ—
❋त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥
ॐ स्वः, भुवः, भूः ॐ सः, जूं, हाम्, ॐ।
ॐ ईशानं मूर्ध्नि। तत्पुरुषं मुखे। अघोरं हृदये। वामदेवमूर्वोः। सद्योजातं पादयोः। ततो जपं कुर्यात्।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
मृत्युंजयविधानम्।
_________
अथ रुद्रानुष्ठानविधानम्।
चतुर्वर्गचिन्तामणौ—
अभिशापे महाव्याधौ महापापविनाशने।
यज्ञादौग्रहपीडायां युद्धयात्रामुखे तथा॥
अनुष्ठितो नरै रुद्रो रौद्रपीडानिवारणः॥१॥
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❋*“*अर्थज्ञानं विना कर्म न श्रेयःसाधनं यतः। अर्थज्ञानं साधनीयं द्विजैः श्रेयोथिंभिस्ततः"॥ इत्यभियुक्तोक्तेर्मन्त्रस्यार्थं प्रदर्शयामः—
त्र्यम्बकमिति। हे भगवन्, त्र्यम्बकं त्रिनेत्रं सुगन्धिं दिव्यसौरभयुक्तं पुष्टिवर्धनं स्वभक्तपालनवर्धकं त्वां यजामहे। यथोर्वारुकं कर्कट्यादेः फलं पक्वंसद्बन्धनाद्वृन्तान्मुच्यते तथाऽस्मान्मृत्योः सकाशान्मुक्षीय मोचय। अमृतान्मोक्षान्मा मुक्षीय मा मोचय।
यजामहे त्रिनेत्रं त्वां सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
कर्कट्यादिफलं पक्वंयथा वृन्तात्प्रमुच्यते॥
तथा मृत्योर्मोचयास्मानमृतान्माविमोचय " इति।
तत्र विधानक्रमः—
एकादशद्विजातीनां प्रथमं वरणं भवेत्।
एकादश्यामिन्दुबारे शुभनक्षत्रसंयुते॥२॥
प्रातःकाले समुत्थाय स्नात्वा गङ्गाजले शुभे।
प्रातर्विधिंसमाप्यैव कालश्रवणपूर्वकम्॥३॥
वरणं कार्यमुद्दिश्य कर्तव्यं नूनमृत्विजाम्।
ततस्ते शुचयो विप्रा ह्यागत्य शिवमन्दिरम्॥४॥
अर्चयित्वा शिवं सम्यक्पुष्पैर्नानाविधैः शुभैः।
कुर्युः षोडश धीमन्तो ह्युपचारान्पृथक्पृथक्॥५॥
मूलमन्त्रेण शर्वस्य सर्वकामफलेच्छया।
ततस्तु दीपमासाद्य जपं कुर्युरतन्द्रिताः॥६॥
रुद्रं विन्यस्य सर्वाङ्गे क्रमादक्षरतो बुधाः।
नियमेन जपे सिद्धे कुर्युस्ते यजनं ततः॥७॥
आगमोद्दिष्टमार्गेण समाप्य विधिवद्यजिम्।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दद्यात्तेभ्यश्च दक्षिणाः॥८॥
आचार्यमृत्विजःसर्वांस्तोषयेत्कनकादिभिः।
एकादश वृषान्दद्यादृत्विग्भ्यस्तु सदक्षिणान्॥९॥
सालंकाराणि वस्त्राणि धान्यानि विविधा423नि च।
एकादशभ्य ऋत्विग्भ्यो दद्याद्रुद्रस्य तुष्टये॥१०॥
यदि तुष्टो महारुद्रः सिद्धिभिः किं प्रयोजनम्।
किं स्यात्तु निधिभिस्तस्य महापद्मादिभिस्तथा॥११॥
कियत्तु पृथिवीस्वाम्यं यज्ञैः किं भूरिदक्षिणैः।
तुष्टे सर्वेश्वरे रुद्रे पूजिते च यथाविधि॥१२॥
एवंविधे महारुद्रविधाने विहिते सति।
अदैवोदेवमानोति नात्र कार्या विचारणा॥१३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
रुद्रानुष्ठान विधानम्।
अथ वृक्षारोपणविधानम्।
चतुर्वर्गचिन्तामणौ—
अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दश तिन्तिडीश्च।
कपित्थबिल्वामलकीत्रयं च पञ्चाम्रवापी नरकं न पश्येत्॥१॥
तत्र केषांचिदारोपणे सकामता केषांचिदारोपणे निष्कामता। अश्वत्थवटनिम्बानामारोपणे केवलं निष्कामता। आम्रतिन्तिड्यारोपणे केवलं सकामता। कपित्थबिल्वामलकीनां त्रये द्विस्वभावता। इति पुराणमतम्। अन्येषामपि पुष्पजातीनां वृक्षाणां सकाम निष्कामताऽस्ति।
वृक्षगुल्मलतानां च षड्विधोत्पत्तिरिष्यते।
अग्रैर्मूलैश्च शाखाभिः फलैर्बीजैश्चकन्दकैः॥२॥
अष्टादशप्रकारैश्च भारसंख्या निगद्यते (?)।
तेष्वष्टादशभारेषु कुञ्जराशन उत्तमः।
तथैव वटवृक्षः स्यात्पिचुमन्दोऽपि तादृशः॥३॥
तत्राश्वत्थजातौ वर्णचतुष्टयमस्ति। तथा हि—
शुक्लपक्षे मधौ मासे यस्य शुक्लदलोद्भवः।
दृश्यते स द्विजातिः स्याद्वापितुर्मु(दूप्तुर्वै मु)क्तिकारकः॥४॥
मधावेवासिते पक्षे दृश्यन्ते रक्तपल्लवाः।
नवीना बोधिवृक्षस्य वापितुर्वि(वप्तुः स्याद्वि)ष्णुलोकदः॥५॥
माधवे मासि पीतश्च पल्लवो यस्य दृश्यते।
सारूप्यं च सिते पक्षे स ददाति च वापितुः (वप्त्रे प्रददाति च)॥६॥
वैशाखे कृष्णपक्षे च हरित्पल्लवसंभवः।
नूतनो दृश्यते यस्य स शूद्रगुण उच्यते॥७॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रचत्वार एव च।
शुक्लोरक्तस्तथा पीतो हरितो जायते क्रमात् ॥८॥
उप्तो येन वटो भूमौ पुत्रपौत्रप्रपौत्रकैः।
संतानैर्नन्दयत्येनं वापितारं (वप्तारंच) न संशयः॥९॥
सर्वाङ्गेषु जटा यस्य प्ररोहन्ति च मूलवत्।
स वटः शंकरः साक्षाद्भुक्तिमुक्तिप्रदो भवेत् ॥१०॥
निम्बावरोपणे कर्तुर्गदमुक्तिस्तु जायते।
पञ्चाङ्गे सेविते निम्बे महाकुष्ठं विलीयते॥११॥
धात्रीकपित्थविल्वानां रोपणं कीर्तिवर्धनम्।
प्रीयते शंकरस्तैस्तु वप्नुर्नास्त्यत्र संशयः॥१२॥
प्रायेण शैशिरे काले वापिते चूतपञ्चके।
मङ्गलानि लभेत्कर्ता महापङ्कौमहाफलम्॥१३॥
राज्यं प्राप्नोत्यविरतं कृतासु बहुपङ्किषु।
शिल्पोक्तेन विधानेन नात्र कार्या विचारणा॥१४॥
चम्पकाशोकपुंनागजम्बूपाटलिकादिकान्।
तरून्वापयिता श्रीमाञ्जायते पृथिवीपतिः॥१५॥
पिप्पलः शंकरद्वारि वटो मार्गे चतुष्पथे।
जलाशये गवां गोष्ठे रोपितः सर्वकामदः॥१६॥
निम्बश्चतुष्पथे रोप्यः सह बोधिद्रुमेण च।
यदा फलति साक्षात्स रुद्ररूपी न संशयः॥१७॥
पिप्पलस्य दले तस्य निम्बस्य गलितं फलम् \।
विदधाति शिवे स्वर्णमर्पितं स्वतुलासमम्॥१८॥
प्रदक्षिणप्रक्रमणैः सप्तभिः पिप्पलद्रुमः।
अभिवन्द्यः शनेः प्रीत्यै नरैः स्वहितमीप्सुभिः॥१९॥
संस्पृश्य शनिवारेऽसौ समालिङ्ग्यःपुनः पुनः।
अन्यदा प्रणमेन्नैव संस्पृशेत्तु कदाचन॥२०॥
अश्वत्थसेवया धेनुस्पर्शनेन समालभेत्।
गङ्गास्नानफलं सम्यङ्नात्र कार्या विचारणा॥२१॥
आम्राणां वापने यत्तु विधानं क्रियते नरैः।
वक्ष्यामि तत्समासेन हिताय प्राणिनामिह॥२२॥
कृष्णायां भुवि सैरोप्यश्चूतः पल्वलसंनिधौ।
उद्याने वाटिकायां च संशोध्य पृथिवीतलम्॥२३॥
मानं घृत्वा भुवः सम्यगष्टादशकरान्तरम्।
तत्र तं वापयेद्धीमान्फलबाहुल्यलव्धये॥२४॥
धात्री स्वद्वारि संयोज्यांकपित्थं तु चतुष्पथे।
शिवप्राकारमध्ये तु वापयेच्छ्रीतरुं पुमान्॥२५॥
निम्ने देशे तिन्तिडींतु चम्पर्क वाटिकान्तरे।
उदुम्बरः समारोप्य उद्याने वाऽथवा वने॥२६॥
अन्ये जम्ब्वादयो वृक्षा नृपोद्याने जलाश्रये।
आरोग्य विधिवद्धीमाननन्तं फलमञ्जुते॥२७॥
अथ वल्लीविषये विशेषमाह —
वाटिकायां समारोप्या मृद्वीका शिशिरे शुभा।
अशोकलतिका निम्ने कुल्यारोधसि माधवे॥२८॥
केचिन्म (षां म) तेन सा रोप्या माधवीमण्डपान्तरे।
पिप्पली नागवल्ली च मृदुवृक्षतले तथा॥२९॥
वाटिकाभ्यन्तरे रोप्या खर्जूरी नालिकेरिका।
वृन्दावने तु तुलसीं ग्रीष्मान्ते परिवापयेत्॥३०॥
अन्याश्च पुष्पजातीश्च यथाकालं यथाक्षिति।
एतत्फलं समालोक्य वापयन्ति तरून्नराः॥
ते यान्ति ब्रह्मसायुज्यं विधूतीकृतकल्मषाः॥३१॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिल्पशास्त्रे
भोजकृतवृक्षारोपणविधानम्।
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अथ वृक्षोयापनविधानम्।
चतुर्वर्गचिन्तामणौ—
आरोपितस्य वृक्षस्य कुर्वन्यापनाविधिम्।
फलं तु लभते सम्यगन्यथाऽर्धफलं लभेत्॥१॥
तत्रोद्यापनविधाने विशेषः—
यः काल उदितः सम्यग्विवाहे मुनिपुंगवैः।
तस्मिन्नेव प्रकर्तव्य उद्यापनविधिस्तरोः॥२॥
नान्दीश्राद्धं प्रकर्तव्यं पिप्पलोद्यापनाविधौ।
नवग्रहमखं चाऽऽदौ विदधीत यथावसु॥३॥
सहस्रपर्णसंपत्तौ सत्यां बोधितरोध्रुवम्।
जातकर्मादिकं कुर्याद्गोदानावधिकं ततः॥४॥
कार्यमुद्यापनं नूनं विवाहविधिवन्नरैः।
प्लक्षशाखां समारोप्य समीपे पिप्पलस्य तु॥५॥
आलवाले जलं क्षिप्त्वा शतकुम्भमितं शुभम्।
सा शाखा स च वृक्षश्व वस्त्रयुग्मेण वेष्टितः॥६॥
सेचनीयोऽथ दुग्धेन मधुना सघृतेन च।
तयोः शाखामयान्हस्तांश्चतुरः परियोजयेत्॥७॥
त्रिसूत्रेण त्रिवृत्तेन सव्यतस्तौ प्रवेष्टयेत्।
ब्रह्मवर्णस्य वृक्षस्य विधिरेष सनातनः॥८॥
क्षत्रियस्य तु वृक्षस्य शरौ ग्राह्यः परस्परम्।
वैश्यः प्रतोदमादयात्तुरीये पल्लवग्रहः॥९॥
तथा च याज्ञवल्की ये धर्मशास्त्रे—
पाणिर्ग्राह्यः सवर्णासु गृह्णीयात्क्षत्रियः शरम्।
वैश्यः प्रतोदमादद्याद्वेदने त्वग्रजन्मनः॥१० ॥
संयोज्य विधिवत्तौ तु प्लक्षाश्वत्थौ सुवेष्टितौ
कृत्वाऽग्निवदनं सम्यग्जुहुयात्तिलसर्पिषी।
प्रधानदेवता ब्रह्मा वृक्षस्यास्य न संशयः॥११॥
तत्र मन्त्रः—
द्वा सुपर्णां सयुजा सखाया इति।
अष्टोत्तरसहस्रं च जुहुयात्तिलसर्पिषी।
ततो व्याहृतिभिर्होमं विदध्याच्च यथारुचि ॥
चरुं साज्यं तु जुहुयाद्विद्वान्स्विष्टकृते❋424समम्॥१२ ॥
सममित्यस्य कोऽर्थः—साज्याश्चरुतिलाः।
शान्तिपाठंततो विद्वान्विप्रैश्च सहितः पठेत्।
अग्निपूर्वविभागस्थं ब्रह्माणं पूजितं पुरा॥१३ ॥
स्वर्णमूर्तिफलैः साकं स्वर्णभूपीठसंस्थितम्।
सवस्त्रं च ततो दद्यादाचार्याय महीयसे॥१४॥
महीयसे सर्वज्ञायेति।
धेनुं पयस्विनीं दद्यात्सुशीलां वत्ससंयुताम्।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दद्यात्तेभ्यश्चदक्षिणाम्॥१५॥
वृक्षवेष्टनवस्त्रे च ब्राह्मणाय समर्पयेत्।
नीराजयेत्ततो वृक्षं दृढमूलं समाहितम्॥१६॥
समाहितं दृढवेदिविराजितमित्यर्थः।
एवं कृते विधाने च पिप्पलोद्यापनाभिधे।
समग्रं लभते कर्ता फलमारोपणोद्भवम्॥१७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां पिप्पलोद्यापनविधानम्।
_________
अथ वटोद्यापनम्।
तत्रैवोक्तम्—
न बध्नाति फलं यावद्वापितो वटपादपः।
तावदुधापनं नैव कर्तव्यं हितमिच्छता॥१॥
जाते फले तदा कार्यो वटस्योद्यापनाविधिः।
आदौ संवरणं कृत्वा परिसंशोध्य भूतलम्॥२॥
वृत्तं वा चतुरस्त्रं वा दृढप्राकारसंवृतम्।
प्राकारान्तस्ततः कुर्यान्मण्डपं तोरणान्वितम्॥३॥
मण्डपाभ्यन्तरे कुर्याद्धोमकुण्डं विचक्षणः।
प्रयुतस्योचितं सम्यक्सर्वलक्षणसंयुतम्॥४॥
ऋत्विजस्तत्र कर्तव्याश्चत्वारः कर्मकोविदाः।
आचार्यलक्षणोपेतमाचार्यं परिकल्पयेत्॥५॥
लब्धवर्णं च कुर्वीत ब्रह्माणं यज्ञकर्मणि।
स्वस्तिवाच्य द्विजाः सर्वे चतुर्वेदपरायणाः॥६॥
आदौ वृता ऋत्विजस्तु कृत्वा वह्निमुखं विदः।
जुहुयुः पायसं साज्यं गायत्र्या प्रयुतं ततः॥७॥
सावित्रीप्रीतये सर्वे ततो व्याहृतिभिर्यजिः।
प्रधानं पायसं चैव सावित्री दैवतं परम्॥८॥
कृत्वा स्विष्टकृतं सम्यग्विसृज्य हव्यवाहनम्।
पूजितां पूर्वतः पीठे सावित्रीं प्रतिपूजयेत्॥९॥
उपचारैः षोडशभिस्ततः संवरणं तरोः।
आरुह्य वेदिकां सम्यक्कुर्यात्स्थण्डिलमुत्तमम्॥१०॥
अग्निवक्त्रं ततः कुर्याद्ध(कृत्वा ह)वनं तत्र कारयेत्।
विवाहविधिवद्धीमांस्ततः संवेष्टयेत्तरुम्॥११॥
त्रिसूत्र्यामन्त्रतःसम्यक्परि त्वा गिर्वणस्त्विति।
सुवर्णं दक्षिणां दद्याद्धेनुं दद्यात्पयस्विनीम्॥१२॥
नैयग्रोधं फलं दद्यात्सौवर्णं श्रोत्रियाय च।
सवत्सां महिषीं दद्यादाचार्याय महीयसे॥१३ ॥
वस्त्रयुग्मं ततो दद्यात्तत्पत्न्यै कञ्चुकादिकम्।
कुण्डले हस्तमात्राश्च तत्पत्न्यै कर्णभूषणे॥१४॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चान्मिथुनानि च षोडश।
वंशपात्राणि तल्लिङ्गैर्मन्त्रस्तोत्रैर्यथाविधि॥१५॥
आचार्यं प्रार्थयेत्पश्चात्सम्यक्संश्र्लक्ष्णया गिरा।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य न्यग्रोधस्य समाहितः॥१६॥
सभ्यक्फलमवाप्नोति वटस्योद्यापने कृते।
यज्ञैः किं बहुभिर्दानैस्तपोभिस्तीर्थसाधनैः॥
आरोपिते वटे नृृणां साक्षाच्छंकरविग्रहे॥१७॥
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां**
** वृक्षोद्यापनविधानम्।**
**
_________**
** अथ तडागादिजलाशयोद्यापनविधानम्।**
भविष्यपुराणे—
देवखाते तडागे च पुष्करिण्यां सरोवरे।
वाप्यां कूपे विशेषेण कुर्यादुद्यापनाविधिम्॥१॥
युधिष्ठिर उवाच—
तरन्ति मनुजाः सम्यक्पतिता भवसागरे।
प्रयान्ति तव सायुज्यं तन्ममाऽऽचक्ष्वमाधवं॥२॥
श्रीकृष्ण उवाच—
संसारगहने घोरे पतिता ये शरीरिणः।
तेषामुद्धरणार्थाय विधानं चिन्तितं मया॥३॥
तडागो वा सरो वाऽपि देवखातं तथाऽपि वा।
दीर्घिका वापिका कूपस्तथा पुष्करिणी शुभा॥
कुल्या तु कृत्रिमा कार्या सर्वपापापनुत्तये॥४॥
तत्रैतेषां जलाशयानां लक्षणानि वक्ष्ये—
कुल्यामाबध्य पाषाणैर्निम्नां तु निखनेन्महीम्।
तत्र यज्जलमातिष्ठेत्स तडागः प्रकीर्तितः॥५॥
जलान्तः शोधयेद्भूमिं तत्र कुर्यात्प्रणालिकाम्।
आरोपयेच्च नलिनीः सर्वजात्याः प्रयत्नतः॥६॥
तन्मध्ये रोपयेत्स्तम्भं काष्ठजं वा शिलामयम्।
सरस्यारोपयेद्वृक्षान्वाटिकास्तत्र कारयेत्॥७॥
प्रतिष्ठां देवतानां तु सरस्यन्ते नियोजयेत्।
सरस्तत्कृत्रिमं विद्याल्लोकानन्त्याय कल्पते॥८॥
लक्षणं देवखातस्य गिरौ यत्परिवर्तते।
सहजं कृत्रिमं वाऽपि स्तम्भैस्तु वहुभिर्वृतम्॥९॥
गिरौ वा पथि वा कार्यं शीतलैर्निर्झरैर्युतम्।
गम्भीरान्तं सूक्ष्ममुखं सोपानपङ्किशोभितम्॥
तद्देवखातमुद्दिष्टं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥१०॥
दीर्घाभिर्दीर्घिका ज्ञेया द्विवक्त्रा निम्नभूतला।
शोधिता जलपर्यन्तं दृढपाषाणशोभिता॥
सा दीर्घिका विजानीयाल्लोकानन्त्यप्रदा नृणाम्॥११॥
वापिका चतुरास्या स्याद्घटिताश्मसमावृता।
मधुहन्तुः समायुक्ता चतुर्विंशतिमूर्तिभिः॥१२॥
वराहं कारयेत्तत्र शेषं कूर्मसमाश्रयम्।
भूगोलं कोलदेहस्थं समग्रं कारयेत्सुधीः॥१३॥
अन्यैस्तु देवलिङ्गैश्च बहुभिः परिशोभिता।
पुरे वा पथि वा कार्या तथा देवस्य संनिधौ॥१४॥
वाटिकायां नृपोद्याने सा कार्या मुक्तिमीप्सुभिः।
चतुरास्या द्विवक्त्रा वा त्रिवक्त्रा वा प्रकल्पिता॥
सा वापिका समुद्दिष्टा लोकानन्त्यप्रदा नृणाम्॥१५॥
कूपस्तु मन्दिरे प्रोक्तो बद्धः सोपानपङ्क्तिभिः।
कपाटेन युतो वक्त्रे कूपः स परिकीर्तितः॥१६॥
एकवक्त्रा पुष्करिणी सुलभा सर्वदेहिनाम्।
जलार्थिनां पशूनां च सुगमा या पदक्रमे॥
शिल्पविद्भिः समुद्दिष्टा श्रेष्ठा पुष्करिणीफले॥१७॥
पिवेत्पानोयमेका गौस्तृषार्तोऽन्योऽपि कश्चन।
कर्तुः स्वर्गफलायाऽऽशु कल्पते किं ततोऽधिकः॥१८॥
कुल्यामानीय निम्ने तु तत्रोद्यानं प्रकल्पयेत्।
शालतालतमालादिपादपैरुपशोभितम्॥१९॥
इक्षून्सवापयेत्तत्र कदलीकन्दसंचयम्।
आर्द्रकं च हरिद्रां वा शालीन्सर्वर्तुसंभवान्॥२०॥
एतद्विधानं कुल्यायाः कर्तुः कामविवर्धनम्।
सहस्रं मानसादीनां सरसां तु चतुष्टयम्॥२१॥
कर्ता तेषां मृडानीशो न तत्रोद्यापनाविधिः।
विरजाख्यं सरस्तद्वद्गान्धारं सर उत्तमम्॥२२॥
कूपेषु वृषभः श्रेष्ठो न तत्रोद्यापनाविधिः।
वापीकूपतडागानां कुर्यादुद्यापनं बुधः॥२३॥
आदौ निरीक्ष्य तत्कालं ज्योतिःशास्त्रोदितं शुभम्।
जलाश्रयात्पश्चिमतो मण्डपं कारयेद्बुधः॥२४॥
संशोध्य भूतलं रम्यं स्थण्डिलं तत्र कारयेत्।
वानीरसमिधश्चात्र सहस्रं जुहुयाद्बुधः॥२५॥
वरुणो देवता चात्र विदध्यात्कनकस्य तम्।
स्थण्डिलात्पूर्वतः पूज्यः पीठे वानीरसंभवे॥२६॥
वस्त्रयुग्मे समासीनो मकरोपरिसंस्थितः।
पाशं खड्गं तथा खे(धरन्खे)टंतोमरं चोर्ध्वदक्षिणात्॥२७॥
हस्तक्रमं विजानीयात्पाशादीनां चतुष्टये।
यच्चिद्धि ते तु मन्त्रेण वारुणं हवनं मतम्॥२८॥
प्रधानं पायसं प्रोक्तं प्रायश्चित्तं तु सर्पिषा।
होमान्ते विधिवत्कुर्यात्प्रतिपूजां च पाशिनः॥२९॥
आचार्याय ततो दद्यान्महिषीं च पयस्विनीम्।
ब्रह्मणे वस्त्रयुग्मं च ऋत्विग्भ्यो भूरिदक्षिणाः॥३०॥
मूर्तिमाचार्यवर्याय दद्याद्वस्त्रसमावृताम्।
अभिषेकं ततः कुर्याद्वाप्याः कर्तुः समाहितः॥३१॥
मूर्तीनां च कलान्यासं कुर्याद्देवस्य वज्रिणः।
वराहस्य सशेषस्य सकूर्मस्यापि तत्त्ववित्॥३२॥
तथैव देवखातादिजलाशयविधानकम्।
कुर्यात्फलस्य संप्राप्त्यै स्वर्गस्य तु न संशयः॥३३॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्संमानैः परितोषयेत्।
एवं कृत्वा तु वाप्यादिजलस्योद्यापनं सुधीः॥३४॥
प्राप्नुयादिन्द्रलोकस्य शाश्वतीं च समीपताम्।
यज्ञैः किं बहुभिर्भूप तपोभिर्वा व्रतैस्तथा॥३५॥
एकगोतृप्तिकृत्तोयं यदि भूमौ विधीयते।
यथा गङ्गाजलं श्रेष्टं तडागाम्बु तथाविधम्॥३६॥
क्षुद्रतोयाशये राजन्विद्यते परतोयता।
पञ्च पिण्डाननुद्धृत्य न स्नायात्परवारिषु॥३७॥
इति क्षुद्रजलाशयेषु विशेषः। तथा च याज्ञवल्क्यः—
शुचि गोतृप्तिकृत्तोयं प्रकृतिस्थं महीगतम्।इति।
तथा दानखण्डे—
जलाधारं जगत्सर्वं जलाधारा हि देवताः।
तस्माज्जलप्रदानेन प्रीतो भवतु केशवः॥३८॥
इति जलप्रशंसा।
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां**
** तडागादिजलाशयोद्यापनविधानम्।**
**
______**
अथ प्रपाविधानम्।
भविष्यपुराणे कृष्णयुधिष्ठिरसंवादे। युधिष्ठिर उवाच—
कथं कृष्ण तरन्त्यत्र संसारे पतिता नराः।
स्वल्पेनैव तु कालेन तथा दानेन शंस मे॥१॥
श्रीकृष्ण उवाच—
विधानमेकमतुलं सामान्यनरसेवितम्।
प्रपाख्यं विद्धि राजेन्द्र कथ्यमानं मया शृणु॥२॥
यस्मिन्पथि जलं नास्ति नास्ति ग्रामः समीपगः।
प्रपा तत्र प्रकर्तव्या स्वर्गभोगेप्सुभिर्नरैः॥३॥
माघमासेऽसिते पक्षे शिवरात्रौ विशेषतः।
कृत्वा तु मण्डपं रम्यं चतुर्द्वारं सुशोभितम्॥४॥
शाला शिलामयी कार्या दृढैः स्तम्भैर्विराजिता।
एकवक्त्रा द्विवक्त्रा वा पूर्वोत्तरमुखा शुभा॥५॥
मार्गाणां सति बाहुल्ये यत्र कुत्र च वर्त्मनि।
तत्र तां कारयेद्धीमान्मणिकं च निधापयेत्॥६॥
दृढग्रावमयं रम्यं मृन्मयं वा समाहितः।
पूर्वजांस्तु समुद्दिश्य स्वर्गकामोऽथ वाऽऽत्मनः॥७॥
प्रावृट्समयपर्यन्तं जलैः स्वच्छैः प्रपूरयेत्।
यवागूं तक्रसंयुक्तां व्यञ्जनैस्तु समन्विताम्॥८॥
अन्यैर्वा बहुभिश्चान्नैः सघृतैश्चैव संयुताम्।
ताम्बूलं लवणं वाऽपि खट्वानानाविधास्तथा॥९॥
प्रपायां योजयेच्छक्त्या जलं वा केवलं तथा।
ब्राह्मणार्थं पृथक्पात्रं ब्रह्मचिह्नेन लक्षितम्॥१०॥
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु सर्वमेतत्प्रकल्पयेत्।
एवंविधा प्रपा प्रोक्ता विद्वेद्भिर्धर्मकोविदैः॥११॥
शिशूनां जननी यद्वत्क्षुत्तृषाहरणे क्षमा।
सर्वेषामपि राजेन्द्र मार्गगाणां तथा प्रपा॥१२॥
नन्दन्ति पितरस्तस्य तुष्यन्ति कुलदेवताः।
स्तुवन्ति मनुजास्तं तु येनाध्वनि कृता प्रपा॥१३॥
क्रतुकोटिशते यत्तु पुण्यं संलभते नरः।
तथा मन्दिरवीक्षा425यां प्रपाकृत्तदवाप्नुयात्॥१४॥
दुर्भिक्षे ग्रासमात्रान्नं ग्रीष्मे बिन्दुसमं जलम्।
तुलितं क्रतुलक्षेण द्वयमेतत्ततोऽधिकम्॥१५॥
प्रपा तु द्विविधा प्रोक्ता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
चरा वाऽप्यचरा राजन्सर्वकामविवर्धिनी॥१६॥
कावडिस्थेन तोयेन (वीवधेन समाहृत्य) मार्गे यत्प्राप्यते जलम्।
मनुजान्विद्धि राजेन्द्र प्रपा सा स्थावरेतरा॥१७॥
शालायां मणिके तोयं लोकार्थं यन्निधीयते।
सा प्रपा स्थावरा ज्ञेया लोकानन्त्यप्रदायिनी॥१८॥
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां**
** प्रपाविधानम् ।**
** _________**
अथान्नसत्रविधानम्।
भविष्यपुराणे—
भूपतेः सर्वधर्मार्थंकिं पुण्यं वद केशव।
सर्वदा क्रियमाणं च सर्वकामसुखास्पदम्॥१॥
श्रीकृष्ण उवाच—
यदीच्छसि महाराज्यमिहामुत्र महासुखम्।
तत्प्रयच्छ कुरुश्रेष्ठ स्वन्नसत्रं यथेच्छया॥२॥
यो यदिच्छति राजेन्द्र तस्मै तच्च प्रदीयते।
अन्नं बहुविधं तद्धि स्वेच्छाभोजनमुच्यते॥३॥
अन्नमेकविधं दत्तं बहुधा वा प्रकल्पितम्।
अनन्तसुखदं ज्ञेयं दातुर्नात्र विचारणा॥४॥
कार्तिके वाऽथ माघे वा श्रावणे शुद्धिसंयुते।
प्रारभेतान्नसत्रं तु प्रीतये सर्वनाकिनाम्॥५॥
वारिदस्तृप्तिमाप्नोति सुखमक्षयमन्नदः।
तिलप्रदः प्रजामिष्टां दीपदश्चक्षुरुत्तमम्॥६॥
अनेन प्रकारेणाक्षयसुखप्राप्तिरन्नदानेन भवेत्। यतः कारणादन्नदानेन सर्वमेव घटते तेन कारणेन भूभुजाऽन्नसत्रं विधातव्यम्।
आहूय ब्राह्मणान्राजा स्वस्तिवाचनपूर्वकम्।
प्रारभेतान्नसत्रं तद्यत्र सौख्यं निरामयम्॥७॥
तीर्थे वाऽपि पुरे वाऽपि तथैव च महापथे।
जलाशयसमीपस्थं विदध्यात्सत्रमण्डपम्॥८॥
महानसं समाधाय सर्वोपस्करसंयुतम्।
मुसलोलूखलादीनि पाकयन्त्राणि सर्वदा॥९॥
निधापयेद्बहून्याशु तुल्या (लादी)नि समन्ततः।
घृतकुम्भांस्तैलकुम्भान्व्यञ्जनानि बहून्यपि॥१०॥
पर्णानि विहितान्येव शाकान्नानाविधांस्तथा।
तैलानि भाण्डनिचयं दधिक्षीरघटान्बहून्॥११॥
सूदान्प्रस्थापयेत्तत्र कुशलान्पाककर्मसु।
आन्धसिकवधूस्तत्र शुचिचित्तान्निधापयेत्॥१२॥
गिरिजानलभीमानां पतेषु परिशिक्षितान्।
सर्वर्तुषु प्रदातव्यमिच्छापूर्त्यै चतुर्विधम्॥१३॥
अन्नं तु तृप्तिपर्यन्तं साधुशब्दसमन्वितम्।
आचान्तेभ्यस्ततो दद्यात्ताम्बूलं च सुसंस्कृतम्॥१४॥
शय्यां दद्याच्छयालुभ्यः पादशौचं च कारयेत्।
एवं यः कुरुते राजा प्राप्नुयात्स सुखं परम्॥
सत्रिणः सूतकं नास्ति स्मृतिरेषा सनातनी॥१५॥
तत्र याज्ञवल्क्यः—
ऋत्विजां दीक्षितानां च यज्ञकर्म प्रकुर्वताम्।
सत्रिव्रतिब्रह्मचारिदातृब्रह्मविदां तथा॥१६॥
नन्दन्ति पितरस्तस्य कुलानि च पितामहाः।
अन्नदोऽस्मत्कुले जात इति संचिन्त्य सर्वदा॥१७॥
नित्यं गयायजिस्तस्य नित्यं गङ्गावगाहनम्।
नित्यं तुलाप्रदानं च पुंसो नित्यान्नसत्रिणः॥१८॥
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालाया**
** मन्नसत्रविधानम् ।**
** \_\_\_\_\_\_**
अथ दत्तकपुत्रविधानम्।
शौनकस्मृतौ शौनक उवाच—
इदानीं संप्रवक्ष्यामि पुत्रसंग्रहमुत्तमम्।
बन्ध्या मृतप्रजा वाऽपि पुत्रार्थं समुपोष्य च॥१॥
आधाय विधिवद्वह्निंस्वगृह्योक्तेन वर्त्मना।
बन्धूनाहूय सर्वांस्तु ग्रामस्वामिनमेव च॥२॥
वाससी कुण्डले छत्रमुष्णीषं चाङ्गुलीयकम्।
दद्यादाचार्यवर्याय संपूज्य द्विजपुंगवान्॥३॥
मधुपर्कंततो दद्यात्पृथिवीशाय शालिने।
पायसं चैव साज्यं च शतसंख्यंतु हा426वयेत्॥४॥
समक्षस्थो ददत्तस्मै ये यज्ञेनेति पञ्चभिः।
देवस्य त्वेति मन्त्रेण हस्ताभ्यां प्रतिगृह्यंच॥
अङ्गदङ्गेत्यृचं जप्त्वा चाऽऽघ्राय शिशुमूर्धनि॥५॥
वस्त्रादिभिरलंकृत्य च्छत्रच्छायानिषण्णं कृत्वा।
नृत्यगीतैश्च वादित्रैः स्वस्तिशब्दैश्च संयुतम्।
यस्त्वा हृदेति द्वाभ्यां तु तुभ्यमग्न ऋचैकया॥६॥
सोमो दददित्येताभिः प्रत्यृचं पञ्चभिस्तथा।
स्विष्टकृदवशेषं च कृत्वा होमं समापयेत्॥
ब्राह्मणानां सपिण्डेषु कर्तव्यः पुत्रसंग्रहः॥७॥
तदभावेऽलाभे वाऽसपिण्डस्थोऽपि।
क्षत्रियाणां स्वजातौ वा गुरुगोत्रे समेऽपि वा।
वैश्यानां वैश्यजातौ च दत्तपुत्रविधिः स्मृतः॥
शूद्राणां शूद्रजातौ च कर्तव्यः पुत्रसंग्रहः॥८॥
यदि स्यादन्यजातीयं गृहीतमपि नन्दनम्।
अंशभाजं न कुर्वीत मन्वादीनां मतं हि तत् ॥९॥
दौहित्रो भागिनेयश्च शूद्रैस्तु क्रियते सुतः।
ब्राह्मणादित्रये नास्ति भागिनेयः सुतः क्वचित्॥१०॥
नैकपुत्रेण कर्तव्यं पुत्रदानं कदाचन।
बहुपुत्रेण कर्तव्यं पुत्रदानं यथाविधि॥११॥
दक्षिणां गुरवे दद्याद्यथाशक्ति द्विजोत्तमः।
नृपो राष्ट्रार्धमेवापि वैश्यो रत्नशतत्रयम्॥१२॥
शूद्रः सर्वस्वमेवापि ह्यशक्तस्तु यथावसु427।
दत्तपुत्रे यदा जाते कदाचित्त्वौर428सो भवेत्॥१३॥
पितुर्वि429त्तस्य सर्वस्य भवेतां समभागिनौ।
अविधाय विधानं यः परिनन्दति नन्दनम्॥१४॥
विवाहविधिभाजं तं कुर्यान्न धनभाजनम्430।
तस्मिञ्जाते सुते दत्ते ह्यकृते च विधानके॥१५॥
तत्सुतस्यैव वित्तस्य स स्वामी पितुरञ्जसा।
जातेष्वन्येषु पुत्रेषु दत्तपुत्रपरिग्रहात्॥
पिता चेद्विभजेद्वित्तं नैवासौ ज्ये431ष्ठभाग्भवेत्॥१६॥
**इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शौनकोक्तं **
** दत्तकपुत्रविधानम्।**
** ________**
अथ ब्रह्मयामलोक्तं ग्रहणसूतकदोषदूषितौषध
** मन्त्रदृढीकरणविधानम्।**
यदा कदाचित्समये ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
वेधदोषेण दुष्यन्ति मन्त्रौषधरसक्रियाः॥१॥
तृतीये दिवसे चन्द्रग्रहः सूर्यस्य पञ्चमे।
यदि स्याद्भेषजं मन्त्रं मन्त्रितं निखनेद्भुवि॥२॥
क्षुद्रमन्त्रक्रियाः सर्वमौषधं सूत्रयन्त्रितम्।
पृथिव्यां ब्रह्मवर्णायां यत्नतो निखनेद्बुधः॥३॥
बीजसंख्यां समाम्ना432यसूत्र433ग्रन्थिप434रम्पराम्।
संप्रोक्ष्य पयसा भूमिं ततस्तिलकुशोदकैः॥४॥
निखनेत्तत्र तां सूत्रग्रन्थिमालां प्रयत्नतः।
शरावसंपुटे धृत्वा पूर्वाशासंमुखः शुचिः॥५॥
ततो दृष्टग्र435हे चन्द्रसूर्ययोः स्पर्श एव च।
स्नात्वा खातां सूत्रमालां बीजोच्चारैस्तु मोचयेत्॥६॥
बीजैस्तैर्मार्जनं कृत्वा तर्पणं जलमध्यतः।
सहस्रं वा शतं वाऽपि जपो मन्त्रस्य कीर्तितः॥७॥
एवं पृथक्पृथङ्मन्त्रान्सं436रक्षेद्ग्रहसूतकात्।
सर्पवृश्चिकनेत्रादिवृ(व्र)णम437न्त्रक्रियौषधम्॥८॥
अभूमिस्थं विधानेन संगोप्यं सिद्धिहेतवे।
संगोपिते यदा मन्त्रे द्विगुणं बलमादिशे438त्॥९॥
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ब्रह्मयामलोक्तं**
** ग्रहणसूतकदोषदूषितौषधमन्त्रदृढीकरणविधानम्।**
** \_\_\_\_\_\_\_\_\_\_**
** अथानृतमृतवार्तापरिहरणविधानम्।**
गर्गसंहितायाम्—
दुष्टस्थाने यदा पुंसो भवेत्क्रूरो नभश्चरः।
कुलदेव्याः प्रकोपो वा तदा विघ्नः प्रजायते॥१॥
मृत एवेति वार्ता स्यात्सर्वदेशे दुरत्यया।
विधानं तत्र कर्तव्यं नरेण हितमिच्छता॥२॥
आहूय ब्राह्मणान्सर्वांचतुर्वेदपरायणान्।
स्नात्वा तैलेन शुद्धेन पूजेयत्कुलदेवताः॥३॥
पितृृन्त्संतर्प्य विधिवत्स्वस्तिर्वाच्या द्विजोत्तमैः।
जुहुयाद्विधिवद्वह्निमिन्द्रप्रीत्यै समाहितः॥४॥
स्वादिष्ठया मदिष्ठयेति जुहुयादयुतं सुधीः।
पायसं सर्पिषा युक्तं प्रधानं द्रव्यमुत्तमम्॥५॥
मूर्तिमिन्द्रस्य हेम्नस्तु पीठे देवतरोः शुभे।
पूजितां विधिवद्भक्त्या ह्याचार्याय निवेदयेत्॥६॥
हुते स्विष्टकृते विद्वान्गां प्रदद्यात्पयस्विनीम्।
तैलं दद्याद्द्विजातिभ्यो विघ्ननाशाय भूरिशः॥७॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाच्छतं वा शक्त्यपेक्षया।
आत्मनस्त्वायसीं मूर्तिं पलैस्तु दशभिः कृताम्॥
तैलाभ्यक्तां ततो दद्याह्ब्राह्मणाय सदक्षिणाम्॥८॥
तत्रेन्द्रस्य मूर्तिदानमन्त्रौ—
सहस्राक्ष महावाह्ये सर्वविघ्नविनाशन।
अनेन मूर्तिदानेन सुप्रीतो भव मे सदा॥९॥
अपमृत्युविनाशाय मूर्त्तिमेतां ददाम्यहम्।
तुष्टेन मृत्युनाऽनेन पातकं मे व्यपोहतु॥१०॥
ततः पुण्यस्त्रियो विप्रावृद्धाश्च गुरवस्तथा।
नीराजयन्ति दुर्वार्ताहरणाय पुनः पुनः॥११॥
शतं जीव शरदो वर्धमान इत्याशिषं प439ठेयुः।
ततोऽभिषेचनं कुर्युर्दुर्वार्तापीडितस्य च।
वृद्धान्प्रणमतस्तस्य दद्युराशीर्वचो द्विजाः॥१२॥
ग्रहं तु पूजयेद्दुष्टं प्रणम्य कुलदेवताम्।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते॥१३॥
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां गर्गोक्त**
** मनृतमृतवार्ताहरणविधानम्।**
** __________**
अथ चर्मपात्रशुद्धिविधानम्।
शङ्खोक्तम्—
चर्मपात्राणि नव्यानि तथा मांसमयानि च।
पूरितानि घृतेनाऽऽशु शुध्यन्त्येकाह एव तु॥१॥
घृतं वा चाथ तैलं वा यावन्निःसरतो मुखात्।
चर्मपात्रस्य नव्यस्य तदा शुद्धिस्तु जायते॥२॥
तत्तैलं तद्घृतं चैव त्यक्त्वाऽन्यन्निक्षिपेद्घृतम्।
व्यवहार्यं भवेत्तत्तु दैवे पित्र्ये च कर्मणि॥३॥
जलपात्राणि नव्यानि शल्कलादीनि चैव हि।
त्रयोदशदिनैः शुद्धिं चाऽऽप्नुवन्ति मृदादिभिः॥४॥
मृद्भस्मत्वक्फलैः शुद्धिर्भवेत्रिभिस्त्रिभिर्दिनैः।
उद्वृत्य सर्षपैः पात्रं व्यवहारं(र्यं) द्विजातिभिः॥५॥
तत्र क्रमः—
स्थूले वा लघुनि ज्ञेया शुद्धिः पात्रे च चर्मणः।
मृदादिभिश्र कल्कैश्चवासरैश्च त्रिभिस्त्रिभिः॥६॥
निक्षिपेन्मृत्तिकां कृष्णां सजलां वासरत्रये।
ततश्च भस्म तावच्च ततः सप्तत्वचस्त्र्यहम्॥७॥
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षन्यग्रोधाम्रशिंवास्तथा।
जम्बूश्च चर्मणः शुद्धौ विदलस्य प्रकीर्तिताः॥८॥
यदा कदाचिद्भिन्नैस्तु (नं तु) पात्रं शुद्धं तु चर्मणः।
संधितं सर्षपैः शुध्येद्दिनेनैकेन सत्वरम्॥९॥
शुद्धपात्रं दिने यस्मिन्क्षालयेत्सरितो जलैः।
तेनाम्बु प्रक्षिषेन्मूले बोधिवृक्षस्य ❋440 बुद्धिमान्॥१०॥
वृषभेशानयोर्मध्ये कुर्यान्मार्जनमादरात्।
ततस्तु तुलसीमूले प्रक्षिपेद्वारि भूरि च॥११॥
(ततस्तु ब्राह्मणागारे मणिकेवारि भूरिच।+441)
ततः शुद्धं भवेत्पात्रं चर्मणो नात्र संशयः॥१२॥
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां **
** शङ्खोक्तं चर्मपात्रशुद्धिविधानम्।**
** _________**
अथ शिवपूजाविधानम्।
शिवरहस्ये नन्दिकार्त्तिकेयसंवादे।कार्त्तिकेय उवाच—
नन्दिन्नश्येत्कर्थेपीडा प्राणिनां रोगसंभवा।
स्वल्पेन वाऽथ पुण्येन तन्ममाऽऽचक्ष्व सुव्रत॥१॥
नन्दिकेश्वर उवाच—
यदि प्रसन्नो देवेशः शंकरस्त्रिविलोचनः।
अन्नपूजादिभिः सर्वैरुपचारैर्मनोरमैः॥२॥
तदा नश्यन्ति सर्वेऽपि व्याधयो देहिनां स्फुटम्।
पित्तज्वरे समुत्पन्ने शिवं संस्नाप्य वारिभिः॥३॥
आदौ पञ्चामृते जाते स्नपयेत्पार्वतीपतेः (तिम्)।
ततश्च शीतलैर्वार्भिर्गाङ्गेयैश्चैव चन्दनैः॥४॥
स्नपयेत्पार्वतीनाथं ततो धूपैश्च धूपयेत्।
ततोऽन्नानां प्रकर्तव्या पूजा चित्तप्रमोहिनी॥५॥
मण्डकैः परिधिः कार्यः पिण्डिकोपरितः समः।
तस्याभ्यन्तरतः सम्यक्तथैव मोदकान्न्यसेत्॥६॥
ततश्च पूरिकाःस्वच्छा फेणिकास्तदनन्तरम्।
ततश्च वटकान्स्निग्धान्दद्यात्प्रोक्तांस्ततस्ततः॥७॥
ततस्तु मणिपात्रादौ यत्नाद्भक्तं नियोजयेत्।
तस्याभ्यन्तरतो योज्यं पायसं सितया सह॥८॥
अष्टोत्तरशतं दीपान्घृतपूर्णान्नियोजयेत्।
सकर्पूरांस्तु ज्वलितानासमन्तात्पडानन॥९॥
ततस्तु कुसुमैः पूजा प्रकर्तव्या मनीषिभिः।
ततो ध्वजादि442कं सर्वंविदध्याच्छिवतुष्टये॥१०॥
शंकरं प्रार्थयेत्पश्चाद्दण्डवत्प्रणमेन्मुहुः।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य कृताञ्जलिपुटः शुचिः॥
प्रार्थयेद्देवदेवेशं शंकरं लोकशंकरम्॥११॥
तत्र प्रार्थनामन्त्रः—
जगतीनाथ देवेश त्राहि मां शरणागतम्।
अनया पूजया विघ्नं त्राहि मां हर मे हर॥१२॥
इति प्रार्थयित्वा स्वमन्दिरं गत्वा व्याधितमभिषेचयेत्।
यथा अ (ह्य) न्नमयी पूजा तथा धान्यमयी स्मृता॥१३॥
तथा वस्त्रमयी ज्ञेया नानारत्नमयी तथा।
घनसारमयी पूजा तथा कास्तूरिकी मता॥
सर्वासामप्यभावे च पूजा पुष्पमयी शुभा॥१४॥
तत्र पुष्पविशेषो यत्र कुत्रचित्पुराणान्तरे कालविशेषेण दर्शितः।
एवं कृते विधाने तु विघ्नः कोऽपि न जायते।
ह्रियन्ते व्याधयः सर्वे पूजनात्पार्वतीपतेः॥१५॥
शिवालयो नास्ति यत्र नास्ति विष्ण्वादिमन्दिरम्।
जङ्गमेऽपि विधातव्या पूजा पूजाविचक्षणैः॥१६॥
**इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शिवरहस्योक्तं **
** सर्वगदनिवारणशिवपूजाविधानम्।**
**\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_**
अथ वृषोत्सर्गविधानम्।
काशीखण्डे—
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत्।
गौरीं बाऽप्युद्वहेत्कन्यां नीलं वा वृषमुत्सृजेत्॥१॥
तत्र नीलवृषस्य लक्षणमाह—
लोहितो यस्तु सर्वाङ्गे मुखे पुच्छे च पाण्डुरः।
त्रिहायणोऽक्षतो गर्वी स नीलो वृष उच्यते॥२॥
यस्मिन्यस्मिन्विषये च वृषउत्सृज्यते तानाह–
गङ्गायां च कुरुक्षेत्रे प्रयागे पुष्करे तथा।
गोदावर्यंच सिंहस्थे सुराचार्ये च मानसे॥३॥
इत्यादिषु च तीर्थेषु वृषोत्सर्गो विधीयते।
एकादशे च दिवसे मातापित्रोः क्षयेऽहनि॥४॥
तत्र विशेषः श्राद्धसमुच्चये गङ्गाधरभट्टविरचिते—
पतिवत्स्त्रीक्षयेऽनड्वान्नोत्सृज्यो बुद्धिभन्नरैः443।
स प्रेतत्वहरो यस्मात्तन्नास्ति पतिवत्स्त्रियाः॥५॥
+444 [ तथा च ब्रह्मवैवर्ते—
गयापिण्डे वृषोत्सर्गे कुरुक्षेत्रे च तर्पणे।
गौरीकन्याविवाहे च पितृृणामक्षया गतिः॥६॥
तथा च स्मृत्यन्तरे—
अपि पुत्रवती नारी भर्तुरग्रे मृता यदि।
वृषोत्सर्गं न कुर्वीत गां दद्यात्तु पयस्विनीम्]॥७॥
तत्र विधानक्रमः—
कृत्वा स्नानं नदीतोये स445माप्याऽऽह्निकमञ्जसा।
स्वस्तिर्वाच्या द्विजैः सर्वैः स्थण्डिलं चैव कारयेत्॥८॥
स्थालीपाकविधानेन कृत्वा च हवनं द्विजः।
पायसेन प्रधानेन कृत्वा स्विष्टकृतं बुधः॥९॥
विसृज्य विधिद्वह्निं विवाहविधिवद्भृशम्।
उक्षाणंतर्णकां न446द्यां प्रस्नाप्य शीतलैर्जलैः॥१०॥
उभौ संयोजयेन्मन्त्रैर्वैवाह्यैर्मन्त्रकोविदः।
वस्त्रैरावेष्टयेत्पश्चादक्षतैरभिमन्त्रयेत्॥११॥
हरिद्रा कुङ्कुमं दूर्वा दधि धान्यं च जीरकम्।
गोरोचनं शर्तोषध्यो447हरितालं मनःशिला॥१२॥
कलशे निहिताः सम्यगभिषेके क्षमाः शुभाः।
अभिषिच्य ततस्ताभिरुक्षाणं तर्णकाम448पि॥१३॥
शीतोष्णेन जलेनैव स्वगृह्योक्तेन कर्मणा।
सदक्षिणां तर्णकां तु दत्त्वा वृषभमु449त्सृजेत्॥१४॥
सव्ये कटिदेशे चक्रं चन्दनेन वा कुङ्कुमेन वा संलिख्य दक्षिणे कटिदेशे त्रिशूलं संलिख्य विसृजेत्। ततो यजमान इति पठेत्–
भो भो वृष सुखं तिष्ठ सुखं गच्छ सुखमद्धि तृणं पानीयं पिव गवां पृष्ठतः स450न्स्वेच्छया क्रीडन्विचर संरक्षास्मत्कुलम्।पुनीहि पितॄनस्माकमवतु त्वां महेश्वरः। हरिस्त्वां जीवयतु।
नासावेधं च युग्यत्वं यः करिष्यति तेऽनघ।
पष्टिवर्षसहस्राणि कृमिभुक्स भविष्यति॥१५॥
इति पठेत्।
शृङ्गयोश्चामरे बद्ध्वा कण्ठे घण्टां सुनादिताम्।
किङ्किणीयुक्तसर्वाङ्गो रण न्नूपुरमण्डितः॥१६॥
एवं नेपथ्ययुक्ताङ्गो विनोक्तव्यो गवां पतिः।
स तु मुक्तो लसद्देहो यत्र कुत्र च गच्छति॥१७॥
पितृृणां तीर्थयात्रा स्याद्यजमानस्य केवला।
स पिवेद्यत्र पानीयं वृषराड्वलदर्पितः॥१८॥
पिवन्ति पितरः कर्तुर्जाह्नवीतोयमेव तत्।
मूत्रं करोति गोस्वामी पुरीषं यत्र कुत्रचित्॥१९॥
पुरोडाशसमं विद्यादश्वमेधशताधिकम्।
शृङ्गाभ्यां च खुराभ्यां च दर्पादुत्किरति क्षितिम्॥२०॥
तद्रजः सकलं प्रोक्तं गयावर्जनवद्बुधैः।
लाङ्गूलचालनाद्वायुः खे सर्पति सुशीतलः॥२१॥
पितॄणां देहजां ग्लानिं पि451तृलोके व्यपोहति।
नन्दन्ति पितरस्तस्य वस (द)न्ति च पितामहाः॥२२॥
उत्स्रष्टा वृषभस्यैवमस्मद्भोत्रसमुद्भवः।
पुष्करस्य शतं यात्रा वाराणस्यां शतत्रयम्॥२३॥
गोदावर्याः सहस्रं च वृषोत्सर्गसमं त्रयम्।
महालयं गयाश्राद्धं (द्धो) दधिस्नानं (ने) हयक्रतुः॥२४॥
\ [❋452 वृषोत्सर्गस्य पुण्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।
वृषोत्स्रष्टा गयाश्राद्धदाता च स्य (दाता) दुहितुः क्षितैः॥
उद्धरेत्सप्तगोत्रस्थान्दश पूर्वान्दशापरान् ]॥२५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
काशीखण्डोक्तं वृषोत्सर्गविधानम्।
_________
अथ नारायणबलिविधानम्।
दालभ्य उवाच—
भगवन्ब्राह्मणाः केचिदपमृत्युवशं गताः।
कथं तेषां भवेन्मार्गः किं स्थानंः का गतिर्भवेत्॥१॥
कथं श्राद्धं भवेत्तेषां विधानं च विधीयते।
त्वत्तोऽहं श्रोतुमिच्छामि ब्रूहि त्वं परमेश्वर॥२॥
श्रीविष्णुरुवाच—
साधु साधु महाप्राज्ञ कृता पृच्छा गरीयसी।
ब्रह्मचर्याश्रमादीनां द्विजानामपमृत्युता॥३॥
तेषां मार्गो गतिः स्थानं विधानं च विधीयते।
शस्त्रघातमृता ये च सलिले वा कदाचन॥४॥
हयैर्वा ताडिता ये च गोवृषैःकुञ्जरैस्तथा।
वृक्षेभ्यः पतिता ये च मृता ये च चतुष्पथे॥५॥
व्याघ्रैःसर्वैर्वराहैश्च भक्षिताः श्चापदैस्तथा।
कुष्ठव्याधिमृता ये च मञ्चकोपरि ये मृताः॥६॥
तूलिकायां453 मृता ये च कम्बलोपरि ये मृताः।
गोघ्नश्च ब्रह्महा यश्चतथा स्त्रीवालघातकाः454॥७॥
वर्णसंकरकर्तारो ब्रह्मसूत्रविवर्जिताः।
ब्राह्मणानां गुरूणां च तथा ये लिङ्गभेदकाः॥८॥
जलाग्निबन्धनभ्रष्टास्तथैवाऽऽत्मप्रहिंसकाः।
विषं यैर्भक्षित विप्रैःप्रेतसंस्कारलोपकाः॥९॥
संतानरहिता ये च क्षयरोगेण ये मृताः।
कण्ठे ग्रासवि455लग्नाश्च विष्टिविद्युन्निपातिताः॥१०॥
हता ये करकाघातैः शीतपातैर्मृताश्च ये।
अनाहारमृता ये च मार्गश्रमनिपीडिताः॥११॥
स्खलनान्मरणं प्राप्ताः शूलारोपणतो हताः।
विषाग्निना मृता ये च मृताः कण्टकपीडनैः॥१२॥
एकादशाहे वृषोत्सर्गादिश्राद्धविवर्जिताः।
देशान्तरमृता भ्रष्टा अग्निदाहादिवर्जिताः॥१३॥
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्म्रियन्ते चापमृत्युभिः।
अपमृत्युमृतानां च स्थानं दालभ्य हि तच्छृणु॥१४॥
गच्छन्ति नरके घोरे पूयशोणितसंकुले।
बहुचञ्चुखगाकीर्णे लोहकण्टकदुर्गमे॥१५॥
अधोमुखाश्च तिष्ठन्ति नराः पापसमाकुलाः।
न तेषां कारयेदाद्यं सूतकं नोदकक्रियाः॥१६॥
विधानं न तथोक्तं न क्रियामूर्ध्वाभिधां तथा।
अन्त्येष्टिं कारयेत्क्षिप्रंषण्मासाभ्यन्तरेषु च॥१७॥
कर्तव्यं मणिसंस्तारं शुभतीर्थं समाश्रयेत्।
गङ्गायां यमुनायां च पुष्करे नैमिषे तथा॥१८॥
कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां तीर्थेऽन्यस्मिञ्शुभेऽपि वा।
नद्यामब्धौतडागे वा संगमे निर्झरेऽपि वा॥१९॥
दालभ्य वै जलपूर्णे च ह्रदे वा विमले जले।
वापीकूपे (वापीकूले) गवां गोष्ठे कुण्डे वा प्रतिमाश्रये॥
मन्नाम्ना कारयेदाद्यं बलिं नारायणं शुभम्॥२०॥
दाल्भ्य उवाच—
विप्रस्यार्थे त्वया देव कथिता या बलिक्रिया।
शेषा वर्णाः कथं विष्णो न यान्ति नरकं ध्रुवम्॥२१॥
विष्णुरुवाच—
चातुर्वर्ण्येन कर्तव्यो वलिर्नारायणाभिधः।
विधानं पूर्ववर्णस्य दाहोऽनेन क्रमेण तु॥२२॥
षण्मासाद्ब्राह्मणे दाहस्त्रिमासात्क्षत्रिये स्मृतः।
अर्यस्यार्धेन मासेन सद्यः शूद्रैर्बिधीयते॥२३॥
यद्यग्निहोत्रिणो मृत्युर्जायते निन्द्य एव च।
त्रिभिर्मासैस्त्रिभिः पक्षैर्न तु षाण्मासिकोऽवधिः॥२४॥
अग्निहोत्रविनाशस्य भयेन मुनिपुंगव।
धेनूनां दशकं दत्त्वा सद्य एव विधीयते॥२५॥
यत्फलं कथ्यते यज्ञे कन्यायज्ञशतत्रये।
तत्फलं प्राप्नुयान्मर्त्यः कुर्वन्नारायणं बलिम्॥२६॥
नारायणं बलिं सम्यग्यः करोति मृतस्य च।
प्रेतश्चापि च कर्ता च उभौ तौफलभागिनौ॥२७॥
न तच्छ्रेयोऽग्निहोत्रेण ह्यग्निष्टोमादिभिर्मखैः।
अपमृत्युविनष्टानां नारायणवलिः शुभः॥२८॥
अकृत्वैवं बलिं विष्णोर्योऽड्वाहं प्रमुञ्चति।
सर्वमूर्ध्वकृतं चापि नोपतिष्ठति तस्य तत्॥२९॥
पुत्रो वा बन्धुपुत्रो वा पौत्रो वा बन्धुरेव च।
स्वगोत्रो वाऽर्थभा456गीच कु457र्यान्नारायणं बलिम्॥३०॥
शिष्यो वा ऋगहर्ता वा458 भार्या वा भगिनी तथा।
जामाता दुहिता वाऽपि कुर्यान्नारायणं बलिम्॥३१॥
एतेऽधिकारिणो मोहान्न कुर्वन्ति बलिं मम।
सर्वे तिष्ठन्ति नरके प्रेतेन सह दारुणे॥३२॥
यद्येतत्क्रियते विष्णोर्बलिसंज्ञं विधानकम्।
यथावित्तं यथाकालं लोकानन्त्याय कल्पते॥३३॥
सौम्यमृत्युफलं तस्य यस्यैषा क्रियते क्रिया।
ब्रह्मलोकप्रदा ज्ञेया यावदाभूतसंप्लवम्॥३४॥
दाल्भ्य उवाच–
केन देव विधानेन कार्यो नारायणो बलिः।
किं तत्र तर्पणं श्राद्धं कस्योद्देशो विधीयते॥३५॥
विष्णुरुवाच–
पूर्वं मे तर्पणं भक्त्या मन्त्रैः पौराणवैदिकैः।
सर्वोषध्यक्षतैर्मिश्रैर्विष्णूद्देशेन कारयेत्॥३६॥
तर्पणं पुरुषस्यैव सूक्तेन च विधीयते।
दक्षिणाभिमुखो भूत्वा प्रेतप्रोक्षप्रदं स्मरन्॥३७॥
तर्पणस्यावसाने तु वीतरागो विमत्सरः।
जितेन्द्रियचयो भूत्वासुस्थिरं धर्ममाचरेत्॥३८॥
दानधर्मरतः शान्तो गुणवान्वाग्यतः शुचिः।
यजमानो भवेत्तत्र पुत्रवन्धुसमन्वितः॥३९॥
तत्राऽऽवाहनमन्त्रः—
आगच्छाभिमुखस्तावद्यावन्नारायणं वलिन्।
करोमि प्रेतमुक्त्यर्थं तर्पणाद्धोममुत्तमम्॥४०॥
इमं मन्त्रं पठेद्विद्वान्विष्णोरावाहने क्षमम्।
शुक्लामेकादशीं प्राप्य वैष्णवीं तिथिमुत्तमाम्॥४१॥
कारयेद्वैष्णवं श्राद्धं नन्वेकादशभिर्द्विजैः।
स्थापयेद्वैष्णवी ( वं ) वह्निं विधिना निर्वपेच्चरुम्॥
तदिदानीं स्पष्टमाह कालश्रवणपूर्वकम्॥४२॥
अमुकगोत्रस्यामुकप्रेतस्य प्रेतत्वविमुक्त्यर्थं दुर्मरणजनितपातकपरिहारार्थंच लोकगर्हापरिहारार्थं च त्रिंशत्याजापत्यान्यात्राद्वारेण ब्राह्मणसहायवान्प्रायश्चित्तं करिष्ये।
देशान्तरमृतानां च शृङ्गिन्दंष्ट्रिनिपातिनाम्।
प्रायश्चित्ते तु सर्वारख्येराजदण्डो न विद्यते॥४३॥
तत्र यस्मिन्कस्मिन्मासे मलक्षयविवर्जिते शुक्लैकादश्यामारप्रेत।तद्यथा–दशभ्यामेकादश ब्राह्मणान्योग्यान्निमन्त्रयेत्।छत्रोपानद्वस्त्रोष्णीपकमण्डलुमुद्रा दक्षिणार्थं गावः सुवर्णं च। अनुलेपनार्थं गन्धादिकम्। प्रतिष्ठापनार्थं कुम्भाःपञ्च। आज्यस्थाल्यादिपात्राणि।तण्डुलदुग्धसर्पिःसर्वैषध्यः। अक्षततिलदर्भास्तर्पणार्थम्। मृत्तिका गोमयं पुष्पं स्नानार्थम्। ब्राह्मणानां निर्वापिका।कलशमुद्रापताकार्थंद्रव्यम्। होमदक्षिणार्थं गावः। आचार्यस्य गोमिथुनं हिरण्यं च। एतानि गृहीत्वा नदीं गच्छेत्। प्रथमं नित्योक्तेन विधिनाऽऽचार्यः स्नानसंध्यातर्पणदेवतार्चनादिकं कृत्वा नारायणबलिं समारंभेत। तत्रामुकगोत्रस्य कृष्णशर्मणो दुर्मरणजनितप्रत्यवायपरिहारार्थं लोकगर्हापरिहारार्थंच नारायणबलिमहं करिष्ये। ततः पश्चात्स्थण्डिलं कर्तव्यम्। तस्योपर्यव्रणं लोहितं मृन्मयं कुम्भं स्थापयेत्।विष्णुकलशस्योपरि सुवर्णमयीं मूर्तिं स्थापयेत्। ततो
दक्षिणाभिमुखो भूत्वा सर्वौषधिगन्धाक्षतब्रीहिन्गृहीत्व ऋजुदर्भैस्तर्पणं कर्तव्यम्। प्रथमं पुरुषसूक्तेन प्रत्यृचं नारायणं तर्पयामीति प्रयोगः।सहस्रशीर्षा०१ पुरुष एवे०२ एतावानस्य०३ त्रिपादूर्ध्व०४ तस्माद्विराड०५ यत्पुरुषेण०६ तं यज्ञं०७ तस्माद्यज्ञात्०८ तस्माद्यज्ञात्०९ तस्मादश्वा०१० यत्पुरुषं०११ ब्राह्मणोऽस्य०१२ चन्द्रमा मनसो०१३ नाभ्या आसीद०१४ सप्तास्याऽऽसन्०१५ यज्ञेन यज्ञम०१६प्रथमामृचं जपित्वा तस्या अग्र इमं मन्त्रं पठेत्।
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः।
अक्षयः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव॥४४॥
मानसेऽमुकगोत्रप्रेतमोक्षार्थे विष्णुस्तृप्यतु। पक्षे च मासे च युञ्जते मन इत्यष्टर्चेन तर्पणं तेनैव विधिना। युञ्जते मन०१ इदं विष्णु०२ इरावती धेनुमती०३ देवश्रुतौ०४ विष्णोर्नुकं०५ दिवो वा०६ प्रतद्वि०७ विष्णोरराट०८ अनेस्तव०९ त्रीणि पदा०१० तद्विप्रासो०११ रक्षोहणं वलगहनं०१२ रक्षोहणो व०१३ तद्विष्णोः०१४ विष्णोः कर्माणि०१५ उपयाम गृहीतोऽस्यादित्येभ्यस्त्वा०१६ वाचस्पतये०१७ एताभिस्तर्पणं पूर्वविधिना। पश्चात्स्थण्डिलं समागत्य यथोक्तविधिनाऽग्निस्थापनं कर्तव्यम्। चरुश्रपणादिकं च पर्युक्षणान्तम्। ततो नारायणवल्यङ्गभूतहोममहं करिष्ये। तत आज्येन चरुणा विष्णुमहं यक्ष्ये। प्रजापतये।इन्द्राय।अग्नये।सोमाय।युञ्जते मन इत्यष्टाभिर्ऋग्भिश्चरुगृहीतेनाऽऽज्येनाऽऽहुतीर्जुहुयात्। इदं विष्णव इति त्यागः। लोमभ्यः स्वाहेत्यादि। द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा। उत्तरादिद्विचत्वारि पृ (रिंशत्पृ)षदाज्याहुतीर्जुहोति। संस्रवरहिताः स्रुवेण सहस्रशीर्षेति षोडशाऽऽहुतीर्जुहोति। अद्भ्यसंभूतमिति षड्द्विगुणा आज्याहुतीर्जुहोति। अथ चरुहोमः। इदं विष्णु०। अतो देवा०। त्रीणि पदा०।तद्विप्रासो०।रक्षोहणं वलगहनं०।तद्विष्णोः०। विष्णोर्नुकं०। दिवो वा०।प्रतद्वि०।विष्णोरराट०।अद्भयः संभूतमिति षट्। अग्नये स्विष्टकृते।अथ भूरादिनवाऽऽहुतयः।स्वाहा प्राणेभ्य इति ऋक्त्रयेण पूर्णाहुतिं हुत्वा संस्र प्राशनम्।होमान्त आचार्याय कलशं हिरण्यं कल्पयित्वाऽनन्तरमेकादश श्राद्धानि।
ततश्च वैष्णवं श्राद्धं कुर्याच्छ्रद्धासमन्वितः।
शास्त्रोक्तविधिना विप्र ब्राह्मणैर्वेदपारगैः॥४५॥
मामुद्दिश्य प्रकुर्वीत प्रेतं हि मनसा स्मरन्।
दर्भैश्च ऋजुभिः श्राद्धमक्षतैर्दक्षिणामुखः॥४६॥
प्रेतं हि मनसा ध्यायन्देवतीर्थेन निर्वपेत्।
पिण्डश्राद्धं प्रकुर्वीत तुलसीं तु न दापयेत्॥४७॥
दापयेत्तुलसीपत्रं पितॄणां हितमिच्छता।
निपात्य जानुनी भूमावेकोद्दिष्टविधानतः॥४८॥
निर्वर्त्य श्राद्धमखिलं भोजयेत्क्रमशो द्विजान्।
भोज्यं व्रीहियवान्नं च गोधूमान्नं तथैव च॥४९॥
छत्रोपानत्कर्णभूषा हस्तमुद्रास्तथैव च।
वस्त्रोष्णीषंच यष्टिं च भोज्यपात्रे कमण्डलुम्॥५०॥
दापयेत्सर्वविप्रेभ्यो नात्र कार्या विचारणा।
नमस्कृत्य ततो विप्रान्गन्धपुष्पतिलाक्षतान्॥५१॥
प्रतिपिण्डे वसोर्धारां वेदमन्त्रैश्च दापयेत्।
शङ्खपात्रे च ताम्रे च अलाभे मृन्मयेऽपि च॥
ततो जलं समादाय पिण्डे पिण्डे पृथक्पृथक्॥५२॥
प्रथमं विष्णवे। द्वितीयं शिवाय।यमाय सानुचराय तृतीयम्। सोमाय चतुर्थम्। हव्यवाहनाय पञ्चमम्। कव्यवाहनाय षष्ठम्।कालाय सप्तमम्।रुद्रायाष्टमम्। पुरुषाय नवमम्। प्रेताय दशमम्। विश्वरूपिण एकादशम्।विष्णव एकोद्दिष्टविधिना करिष्य इति संकल्पः। विष्णवेतत्ते पादार्घ्यं संपद्यताम्। कालज्ञानम्। एवं काले नारायणवलिनिमित्तं विष्णुश्राद्धमहं करिष्ये। विष्णव इदमासनम्। शिवायेदमासनम्। तथाऽन्येषांसर्वेषामासनम्।
श्राद्धे सर्वत्र षष्टी स्यादासने च क्षणे तथा।
वृद्विश्राद्धे चतुर्थी स्याद्विष्णुश्राद्धे तथैव च॥५३॥
इति कोऽपि पक्षः। अन्यथा सर्वत्र षष्टी स्यात्। विष्णुश्राद्धे क्षणः क्रियताम्। तथा प्राप्नोतु भवान्। प्राप्नवानि।आवाहनम्।विष्णवेष तेऽर्घ इति सर्वत्र समानम्।गोत्र प्रेत विष्णुरूपैष तेऽर्घः। चतुर्थ्यन्तेन विनियोगेनात्र गन्धपुष्पधूपदीपाच्छादनार्चनक्रिया संपद्यताम्।यथाक्रमं सर्वेषामपि। विष्णवेतत्त आमं ब्राह्मणभोजनपर्याप्तममृतरूपेण स्वाहा संपद्यताम्। इदं विष्णवे।
विष्णो शुन्धतामिति ऋक्शाखाध्यायिनाम्।वाजसनेयिनां तर्हि विष्णोऽवनेनिक्षा (क्ताम्)। शुन्धतामिति पूर्ववत्।शिवावनेनिक्षा (क्ताम्)। तथैव सर्वत्र। क्रमेण गोत्र प्रेत विष्णुरूप शुन्धतामवनेनिक्षा (क्ताम्)। एवमेकादश पिण्डान्दद्यात्पूर्वसंस्थान्। अथ शङ्खाद्युक्तपात्रेण प्रतिपिण्डं मन्त्रेणैकेन जलधारां दद्यात्। ये देवाः०। उपयाम गृहीतोऽस्यादित्येभ्यस्त्वा०। येनापावक०। ये देवासः०।समुद्रं गच्छ०। अग्निर्ज्योतिः०। हिरण्यगर्भः०। इषेत्वा०।यज्जाग्रतः०।याः फलिनीः०।विश्वतश्चक्षुरुत०।एतैर्मन्त्रैर्यथासंख्यं जलधारां दत्त्वा श्राद्धानि समाप्य भद्रं कर्णेभिरिति विसर्जयेत्। तर्पणादिमन्त्रं पौराणम्रग्ने पठेत्।
अनादिनिधनं देवं शङ्खचक्रगदाधरम्।
पीताम्बरं महाकायं महाभयविनाशकम्॥५४॥
अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम्।
ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम्॥५५॥
समुद्धृत्य ततः पिण्डान्नद्यादौ च विनिक्षिपेत्।
क्षिप्रंसंकीर्त्य मनसा नामगोत्रे मृतस्य तु॥५६॥
एकादशश्राद्धप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थं नानाविधं धनं दद्यात्।अनन्तरम्—
रात्रौ तु जागरः कार्य इतिहासकथादिभिः।
गीतनृत्यविनोदन संनिधौ हरचक्रिणोः॥५७॥
पुनरभ्यर्चयेद्विष्णुं यमं च कुसुमादिभिः।
गन्धपुष्पैश्चनैवेद्यैर्भक्ष्यभोज्यसमन्वितैः॥५८॥
आमन्त्रयेद्द्विजान्पञ्च ऋग्यजुःसामपारगान।
अथर्वज्ञं च सर्वज्ञमाचार्ये पञ्चभिर्युतम्॥५९॥
सुहेमरूप्यताम्रैश्चलोहमृद्भिश्च सत्कृतान्।
पञ्च कुम्भान्समादाय तथा पत्रैस्तु पूरितान्॥
निक्षिपेत्तत्र वैतोयं रत्नानि विविधानि च॥६०॥
अथ कलशस्थापनमन्त्रः—
आवाहितोऽसि देवेश सृष्टिस्थितिविनाशन।
त्रयाणामपि लोकानां पात्रं तुभ्यं नमो नमः॥६१॥
पञ्चानामपि क्लेशानां स्थापनेऽयमेव मन्त्रः। तत्र विष्णुकलशं पूर्वतः स्थाप–
येत्। रुद्रकलशमुत्तरे स्थापयेत्।यमकलशं यास्येस्थापयेत्। पुरुषकलशं पश्चिमे स्थापयेत्।मध्ये ब्रह्मकलशं स्थापयेत्।
आपस्त्वं परमं ज्योतिस्त्रिलोकीपावनक्षमम्।
पवित्रं कुरु मे देव आपो ज्योतिर्नमोऽस्तुते॥६२॥
अनेन कुम्भेषु जलं क्षिपेत्।
सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः।
आयान्तु यजमानस्य दुरितक्षयकारकाः॥६३॥
अनेन मन्त्रेण सर्वेषां विष्ण्वादीनामावाहनमाचार्यः कुर्यात्। आवाहने कृते सति तेषु कलशेषु कुङ्कुमदेवदारुसिद्धार्थगोरोचनमुस्ताशिवाकस्तूरिकाविद्रुमचन्द्रकान्तिसर्वौषध्यादिकं प्रक्षिपेत्। अतो देवा इति मन्त्रेण कलशवक्र, च्छादनं कुर्यात्। श्वेतवस्त्रयुग्नैः सर्वान्घटान्परिच्छादयेत्।मध्यकलशे ब्रह्माणं रौप्यमयं पलैश्चतुर्विंशत्या कृतं ब्रह्मजज्ञानमिति मन्त्रेण कलशोपरि पूर्णपात्रे वस्त्रोपरि तण्डुलोपरि स्थापयेत्। द्वितीयकलशे सुवर्णमयं विष्णुं फलैःषोडशभिः कृतमिदं विष्णुरिति मुद्गानामुपरि विन्यसेत्।तृतीयकलशे ताम्रमयं रुद्रं पञ्चफलमात्रं नमस्ते रुद्रेतिःगोधूमानामुपरि विन्यसेत्। चतुर्थकलशे लोहमयं यममशीतिफलसंख्याकं यमाय त्वेति माषाणामुपरि स्थापयेत्।पञ्चमकलशे स्वर्णमिश्रदर्भमयं पुरुषंत्र्यणुकसंख्याकं स्वर्गमयं पुरुषं वा तिलानामुपरि विन्यसेत्पुरुषसूक्तस्यैकयर्चा।कलशे षडङ्गरुद्रजपः। द्वितीयकलशेऽप्रतिरथकवचजपः। ततः स्वैः स्वैः सूक्तैःप्रतिकलशं जपः। स्वैः स्वैरित्यस्यायमर्थः–यस्य कलशस्य या देवता विष्ण्वाद्या तस्यास्तस्या देवतायाः सूक्तम्। तत्र तत्र समीपस्थः पञ्चानां मध्ये यस्य यस्य समीपे यजमानेन नियुक्तः स तज्जपं कुर्यात्।तृतीयकलशे पुरुषसूक्तजपः। चतुर्थकलशेऽपेदित्यध्यायजपः। पञ्चमकलशे स एवाध्यायजपः। पञ्च देवताः। पञ्च कलशाः।सर्वदेवप्रीतये षडङ्गरुद्रजपः। ततो यजमान आचम्यताज्ञेव पञ्च ब्राह्मणानाहूय पार्वणेनैकोद्दिष्टेन विधिना वा श्राद्धं समारभेत। ऋग्वेदी ब्रह्मोद्देशे।यजुर्वेदी विष्णूद्देशे। सामवेदी विरूपाक्षोद्देशे। अथर्ववेदी यमोद्देशे।सर्वज्ञः प्रेतोद्देशे। ब्रह्मन्पादार्घ्यं संपद्यताम्। एवं यथाक्रमं सर्वत्र। तत एवंविशिष्टे काले नारायणवलिनिमित्तं विष्णुश्राद्धमहं करिष्ये। ब्रह्मण इदमासनम्।
एवं पुरतो यथाक्रमम्।गोत्राय प्रेतायेदमासनम्। षष्ठ्यावा देयम्। ब्रह्मन्नेष तेऽर्घः। ततश्च यथाक्रमम्।गोत्र प्रेत विष्णुरूपैष तेऽर्घः। विष्णवे गन्धपुष्पधूपदीपाच्छादनं स्वाहा संपद्यताम्।विष्णवेतत्तेऽन्नं दत्तं दास्यमानं चामृतरूपेणोपतिष्ठताम्। ततः पिण्डदानम्। पूर्वसंस्थान्पञ्च पिण्डान्दद्यात्।ब्रह्मणे नम इदं विष्णवे नम इति यथाक्रमम्। प्रतिपिण्डं मन्त्रौ द्वौ द्वौ पठित्वा ब्रह्मापिण्डेऽग्निमील आ ब्रह्मन्निति मन्त्रद्वयेन शङ्खपात्रेण गन्धपुष्पाक्षतसर्वौषधीमिश्रजलधारां दद्यात्। विष्णुपिण्ड इषेत्वेदं विष्णुः। रुद्रपिण्डेऽग्न आयाहि नमः शंभवे। यमपिण्डे शंनो देवीरभिष्टये यमाय त्वा। प्रेतपिण्डे नामगोत्रे मनसोच्चार्य यमाय स्वाहा। इति प्रतिपिण्डे जलधारां दत्त्वा शुद्धे जाते सति प्रेतपिण्डे नामोच्चारं न कुर्यात्। सर्वत्र विष्णुनाम्ना कर्तव्यम्। पञ्चश्राद्धानां प्रतिष्ठासिद्ध्यर्थं पञ्च दानानि। दक्षिणार्थे हिरण्यं दद्यात्। पञ्चश्राद्धेषु दक्षिणाविशेषः। प्रथमे श्राद्धे जातसस्या वसुंधरा दातव्या।
वसु धारयसे यस्मात्तस्मात्त्वं वसुधा स्मृता।
अतो मोचय पापेभ्यो दत्ता शान्तिं प्रयच्छ मे॥६४॥
इति भूमिदानमन्त्रः।
द्वितीये श्राद्धे गां पयस्विनीं दद्यात्। तत्र मन्त्रः—
गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश।
यस्मात्तस्माच्छिवं मे स्यादिह लोके परत्र च॥६५॥
तृतीये श्राद्धे कलधौतवस्त्रं कृष्णवर्णं दद्यात्। तत्र मन्त्रः—
दुर्लभं मानुषे लोके लज्जाया रक्षणं परम्।
सुवेषधारणं यस्मात्तस्माच्छान्तिं प्रयच्छ मे॥६६॥
चतुर्थे श्राद्धे गोणीसंख्याकांस्तिलान्दद्यात्। तत्र मन्त्रः—
तिलाःपापहरा नित्यं विष्णुदेहसमुद्भवाः।
सुवर्णा हरदेहोत्था अतः शान्तिं प्रयच्छत॥६७॥
पञ्चमे श्राद्धे प्रेतोद्देशेन गोमिथुनं दद्यात्। तत्र मन्त्रौ—
यस्मात्त्वं पृथिवी सर्वा धेनुः केशवसंनिधौ।
सर्वपापहरा नित्यमतः शान्ति प्रयच्छ मे॥६८॥
धर्मस्त्वं वृषरूपेण जगदानन्दकारकः।
अष्टमूर्तेरधिष्ठानमतः शान्तिं प्रयच्छ मे॥६९॥
‘अक्रञ्छर्म ’ इति सर्वश्राद्धानि विसृज्य पिण्डानुदके क्षिपेत्। मतान्तरे पञ्चकलशस्थापनं तेषामर्चनादि सर्वंरात्रावेव क्रियते। द्वादश्यां तेष्वेव ब्राह्मणेषु श्राद्धपञ्चकं कुर्यात्। यथोक्ते कर्मणि यजमानोऽकिंचनस्तदा सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो वस्त्रयुग्ममेकैकशो दद्यात्। भूभ्यभावे सवत्सां धेनुं दद्यात्। धान्यं दक्षिणा। केषांचिन्मतेन तान्ब्राह्मणानुपोषयेत्।
एवं कृते विधाने च दुर्मृत्युभवपातकम्।
ब्रह्मादीनां च सर्वेषां x459 नश्यते नात्र संशयः॥७०॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां विष्णुदा
लभ्यसंवादे भारते विष्णूक्तनारायणबलि
विधानम्।
** _________**
अथ नागबलिविधानम्।
तत्रैवोक्तसर्पदष्टस्य दुर्मरणकृते नारायणवलौ कञ्चिद्विशेषोऽस्ति।
श्रावणे मासि भाद्रे वा पञ्चम्यां शुक्लकृष्णयोः।
पक्षयोश्चैव कर्तव्यः शुद्धये नागबलिः शुभः॥१॥
एकभक्तं तु कर्तव्यं चतुर्थ्यां ब्रीहिभोजनम्।
उपोषणं तु पञ्चम्यां स्नात्वा प्रातर्नदीजले॥२॥
कर्तव्यं विधिवद्भक्त्या जागरं तत्र कारयेत्।
कृत्वा हेममयं नागं शक्त्या भोगफणान्वितम्॥३॥
स्वस्तिकं तण्डुलानां च कुर्याद्द्रोणचतुष्टये।
कलशं स्थापयेत्तत्र तन्मुखे वंशभाजनम्॥४॥
तस्योपरि न्यसेन्नागं मन्त्रैस्तल्लिङ्गकैर्मुने।
प्रतिष्ठामन्त्रतो वाऽपि गायत्र्या वा समाहितः॥
अत्र गन्धादिकं सर्वं कार्यं तस्य च भोगिनः॥५॥
तत्र नाममन्त्रैरुपचारान्कारयेदित्येके।
ॐ अनन्ताय नमः । ॐ वासुकये नः । ॐ शङ्खाय नमः । ॐ पद्माय नमः ।ॐ काकोदराय नमः । ॐ कर्कोटकाय नमः । ॐ व्यन्तराय नमः । ॐ धृतराष्ट्राय नमः । ॐ शङ्खपालाय नमः । ॐ कालिकाय नमः । ॐ तक्षकाय नमः । ॐ कपिलाय नमः ।
एवं प्रणवादिनमोन्ता नाममन्त्राः । अत्र विशेषमाह - भाद्रपदपर्यन्तं श्रावणादिमारभ्य ( भाद्रपदमारभ्य श्रावणपर्यन्तं ) द्वादशमासेषु द्वादशनामभिः स च स्वर्णमयो नागः पूजनीयः । पञ्चभ्यां द्वादश द्वादश ब्राह्मणान्भोजयेत्पतिमासं त्रीन्वेति संकल्पः । घृतपायसैस्तीक्ष्णविरहितैः पूजिते नागे भूरिब्राह्मणान्भोजयेत् ।अथवा यदाऽशक्तः प्रतिमासपूजने तदा श्रावण एव व्रतविधानं समापयेत् । जाते नागपूजने तं नागं ब्राह्मणाय दद्यात् । अस्य कर्मणोऽङ्गतया विहितं हेममयं नागं सकलशं सवस्त्रं सदक्षिणं तुल्यमहं संप्रदे । अनेन स्वर्णनागदानेनानन्तादिद्वादशनामानो नागाः प्रीयन्ताम् । अस्य कर्मणो विहि ताङ्गतया गामेकां पयस्विनीं तुभ्यमहं संप्रददे । इति संकल्प्यगां दद्यात् । अनेन गोप्रदानेन द्वादशनामानो नागाः प्रीयन्ताम् । केषांचिन्मतेनाऽऽदौ नागवलिः कार्यः ।पश्चान्नारायणवलिः । केचिद्वदन्ति नारायणवलेः पश्चान्नागवलिः ।परं तु सर्पदंष्ट्रयामृतस्य वलिद्ययमेव कर्तव्यम् ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां नागवलिविधानम् ।
____________
अथास्थिपुरुषीकरणविधानम् ।
अप्रतिरथमात्रे ( मन्त्रे ) ण पुरुषसूक्तसंयुतेन चतुर्विंशत्यङ्गुलान्तयेकं चतुर्विंशतिदर्थशिखासिः पूलकान्कृत्वा पृथक्पृथग्दीयन्ते । चतुरो मुखेग्रीवायामेकं न्यसेत् ।वाह्मोश्चतुरो हृदये पञ्च ।तथोदना-भिगुदगुह्यकटिषु प्रत्येकं पञ्च पञ्च ।जानुनरिकन् ।जङ्ययोरेकम् \। शिरो मे धेहीत्येकम् ।जिह्वां मे धेहीति द्वौ ।बाहू मे धेहीति त्रीन् । पृष्टिर्म इति चत्वारो निवेयाः । नाभिर्म इति पञ्च ।विष्णोः क्रमोऽसीति मन्त्रेण वेष्टयेत् ।विम्राडित्यनुवाकेन क्षालनं कृत्वा तिलोऽसीतिमन्त्रेण तिलपिष्टोवर्तनं कृत्वाऽऽपश्चिदिति तण्डुपिष्टेतानु लेपनं कृत्वा यवोऽसीतियवपिष्टानुलेपनं कृत्वाव्रीहयश्च सइति वीहीस्तत्रमूर्तौ निक्षियेत् ।
मुद्गाश्च म इति मुद्रपिष्टानुलेपनं कुर्यात् । त्वां गन्धर्वाः स्वर्लोकं प्रयच्छन्त्विति हरिद्रयाऽनुलेपयेत् । प्राणाय स्वाहेति सूत्रेण बध्वा पुरुषसूक्तशतरुद्रियमन्त्रैर्मङ्गलकलशोदकैः प्रक्षालयेत् । ततो दर्भाः ( र्भशय्या ) यां चतुर्विंशत्यङ्गुलमितायामस्थिशरीरं पूर्वमेव निहितमुत्क्षिपेत् । विश्रामपिण्डमुत्थान-पिण्डदानानन्तरं प्रदत्त्वा यथाविधि संस्कुर्यात् । तत्राऽऽ( ? ) संधीलक्षणमाह-
साक्षाच्छवस्य याऽऽसंधी पालाशैर्वा कुशैः कृता ।
खादिरैर्दैववृक्षैर्वा शवविग्रहसंमिता ॥१॥
अस्थ्या ( स्थ्नां) संधी चतुर्विंशत्यङ्गुलाऽत्र मि(लीभिर्मि) ता भवेत् ।
मतान्तरेण विज्ञेया पालाशैश्छदनैः कृता ॥२॥
सप्त(त्य) मते-
प्रक्षालय विग्रहं वाऽऽस्थं पलाशस्य दलेषु च ।
कृष्णाजिनं परिस्तीर्य पुरुषं चास्थिरूपिणम् ॥३॥
दुग्धमिश्रेण तोयेन पुनः प्रक्षालयेद्बुधः ।
कृष्णाजिनोपरि स्थाप्या कृत्वा मूर्तिं च पौरुषीम् ॥४॥
आज्येनाभ्यज्य चूर्णेन यवानां लेपयेत्ततः ।
वैष्णवैः कलशाम्भोभिरभिषेकं च कारयेत् ॥५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालाया-.
मस्थिपुरुषीकरणविधानम् ।
__________
अथास्थ्यभावे पालाशविधानम् ।
षष्ट्याऽधिकं वृन्तशतत्रयं बुधैः संगृह्य जीर्णं च पलाशशाखिनः ।
मूर्तिं विदध्याद्गतजीवितस्य गङ्गानटे वासवपञ्चके च ॥१॥
वर्ज्यं च दाहस्य च कर्म पुंभिः ।
शिरस्यशीतिसंख्यानि ग्रीवादेशे दशैव च ।
वाह्वोरथ शतं दद्याद्विंशतिं च तथोरसि ॥२॥
उदरे विंशतिं दद्यात्त्रिंशतं कटिदेशतः ।
ऊर्वोश्च दशकं दद्यात्त्रिंशतं जानुजङ्घयोः ॥
पादाङ्गुलीषु बृन्तानि दश दद्यात्समाहितः ॥३॥
रेतो मूत्रं दृष्टा460परिश्रुतः सीसेन तन्त्रमित्येवं461मन्त्रैर्वृन्तमूर्ति सूत्रेण वेष्टयेत्। अथ पालाशवृन्तमूर्तिशिरसि तुम्बकं निदध्यात्। मुखे नारिकेलं दद्यात्। नेत्रयोश्च कपर्दिकाम।गुञ्जामौक्तिकानि कर्णयोः। शुक्तिं नासापुटे।तथा पट्टसूत्रमधरयोः। प्रवालदाडिमीबीजानि दन्तेषु।गुडं ग्रीवायाम्। ब्राह्मणश्चेत्स्कन्धे यज्ञोपवीतकम्।हृदये हरितालं नियोजयेत्। ( ? ) कालिञ्जस्थाने माञ्जिष्ठं वस्त्रम्। मेदःस्थाने मनःशिलाम्।मांसस्थाने यवपिष्टम्।रुधिरस्थाने मधु।अन्त्रस्थाने पद्मनालं पटोलं वा। नखस्थाने श्वेतनिष्पावकान्।त्वक्स्थाने मृगत्वचं नियोजयेत्। वीर्यस्थाने पारदं नियोजयेत्। सर्वसंधिस्थान इक्षुपर्वाणि। लोमस्थाने कृष्णोर्णाम्। केशस्थाने सूकरकेशान्नियोजयेत्। नाभिस्थाने मूलकम्। पृष्ठे सर्वौषधीर्नियोजयेत्। शिश्नस्थाने गृञ्जनम्। वृषणस्थाने वृन्ताकम्। मूत्रस्थाने गोमूत्रम्। अमेध्यस्थाने रीतिकाम्।जिह्वास्थाने ताडपत्रम्।धातुस्थाने मृत्तिकाम्। हस्तपाद इक्षवो योज्याः। मज्जास्थाने हरितालम्। अस्थ्यभावे पालाशवृन्तानि। अभ्यङ्गे घृतम्। चन्दनं च विलेपने।स्वैः स्वैर्मन्त्रैः सर्वाण्येतानि द्रव्याणि योजयेत्। सहस्रशीर्षेति शिरसि तुम्बकं न्यसेत्।मुखे462दशदिति मन्त्रेण नारिकेलं न्यसेत्। स्योना पृथिवीति मन्त्रेण तनुं यवपिष्टेन लेपयेत्। चक्षुःस्थाने वराटकौ गुञ्जे कनीनिकयोर्मध्यतारयोर्मौक्तिके463ना ( ? ) वातं प्राणेनेति न्यसेत्। अस्थ्यादिस्थाने त्वमङ्गं जपेत्। आत्मनु ( ? ) पस्थाने ( आत्मस्थाने च।) केशश्मश्राण शूकरकेशैः कारयेत्। कृष्णोर्णी लोमस्थाने लोमानि प्रयातीति। मधु वाता इति रक्तस्थाने मधु। प्राणे प्रा ( ? ) णाया इति श्रोत्रयोः शुक्ति प्रणवेन। वरुणस्योत्तम्भनमसीति तनावायुर्न्यसेत्। तेजोऽसीति तेजः परिकल्प्य वायुरभ्यगा इति वायुं प्रयुज्य पञ्चभूतात्मकैर्मन्त्रैर्भूतग्रामं च कारयेत्। परीत्य भूतानीति वा वृन्तस्यासीति ( ? ) चक्षुर्भ्यामञ्जनं कल्प्यम्।दाडिमीवीजानि ये देवा इति पुनन्तु मेतिखलु ( न्यखिल ) संधिषु त्रातारमिति रत्नं मुखे न्यसेत्। अध्यचोचदिति गन्धस्थाने रीतिकां न्यसेत्। कांस्यगोलकं हृदये ध्रुवाऽसीति न्यसेत्। ब्रह्मजज्ञानमिति धातुस्थाने हरितालम्। मेदःस्थाने मनःशिलां कया नश्चित्रेति न्यसेत्।प्रणवेन नखस्थाने निष्पावकान्न्यसेत्। ॐकारेणैव जिह्वास्थाने ताडपत्रम्।नासां ख ( ? ) लवपिष्टेन कारयेत्। अदितिर्द्यौरिति मृत्तिका परिलेपनम्। विश्वतश्चक्षुरिति नालकमन्त्रस्थाने न्यसेत्। व्रीहयश्चेति
सप्त धान्यानि मुखे क्षिपेत्। वृन्ताके वृषणयोः।गृञ्जनं प्रजापते न त्वदेतानिति गुह्ये न्यसेत्। ब्रह्मजज्ञानमिति शुक्रस्थाने पारदं न्यसेत्। पुरीषे पित्तलं दद्यात्स्थिरो भवेति मन्त्रतः।मूत्रस्थाने गोमूत्रमयं त इति मन्त्रतः।ऊर्णया रोमाणि लोमानि प्रयतेरिति। युवा सुवासा इति कौपीनं वस्त्रेण पट्टेन दुकूलेन वा। प्रतद्विष्णुरिति पञ्चगव्येन प्रोक्षेत्। आदित्यास्त्वगिति कृष्णाजिनमभिमन्त्र्य वेदाहमिति सर्वाङ्गान्यभिमन्त्रयेत्।
कृत्वा मूर्तिं प्रयत्नेन ततो नामादि कारयेत्।
जातकर्मादिविवाहान्ताः क्रियाःसंक्षेपेण कर्तव्याः। तत्र कालनियमो नास्ति। एककालेनैव कर्तव्याः। वैष्णवैर्मन्त्रैः सर्वसंस्कारान्कुर्यात्।गायत्र्या वाऽस्य कायस्य शुद्धिः। अनन्तरं पुरश्चरणं सावित्रीजपो गोदानं च। तत्र प्रयोगः–
अमुकगोत्रस्य प्रेतस्य निखिलकायिकवाचिकमानसिकसांसर्गिकरहस्यप्रकाशज्ञानाज्ञानकृतमहापातकातिपातकानुपातकोपपातकसंकीर्णप्रकीर्णकदोषक्यार्थमू र्ध्वोच्छिष्टाधरोच्छिष्टास्पृश्यस्पर्शाद्यनेकनिमित्तजनितपापक्षयार्थंपित्रोरौर्ध्वदेहिके कर्मण्यधिकारार्थं यथासंभवं प्रायश्चित्तमहं करिष्ये। इति संकल्पं कृत्वा देवस्य त्वेति प्रेतं संस्नाप्य भूरसीति भूमौ निधाय भद्रं कर्णेभिरिति क्षौरं कारयेत्। कृतं कर्मोच्चारयेत्। ततो वैतरणीदानम्।
यमद्वारे महाघोरे तप्ता वैतरणी नदी।
तर्तुकामःप्रदास्यामि तुभ्यं वैतरणीं च गाम्॥४॥
अथाष्ट महादानानि—
कार्पासलोहलवणसप्तधान्यं तथैव च।
हिरण्यतिलपात्रादि दद्याद्विष्णुसुतुष्टये॥५॥
कार्पासस्य तुला।लोहस्याशीतिपलानि।लवणस्य द्रोणचतुष्टयम्।तिलानां द्रोणपञ्चकम्। हिरण्यं निष्कमितम्।
व्रीहीन्माषान्प्रियंगूश्च शालीन्मुद्गांस्तिलानपि।
ददामि यावनालांश्च ततः शान्तिं प्रयच्छ मे॥६॥
विष्णोरिति दक्षिणां कर्णे श्रावयेत्। अनन्तरं विष्णुकलशोदकेन रुद्रकलशोदकेन चाभिषेकः। शिरो मे श्रीरिति पञ्चभिः। वाचं ते०।नमस्ते०।ऋचं षाचः
म्० । पुनः सर्वमन्त्रैः पुरुषसूक्तेन शं न इन्द्राग्नी० उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते० समुद्रं गच्छ० नमो ब्रह्मणे० इत्यन्यैर्वैष्णवमन्त्रैश्च पञ्चकलशोदकेनाभिषेकः कार्यः । अथालंकरणानि । अधिवासने कर्पूरः ।पीतं वस्त्रम् ।अभ्यङ्गे घृतम् । कण्ठे तुलशीशतपत्रमालाः । अथ प्रेतमातरः स्वर्णरौप्यमय्योऽक्षतपुञ्जेषु चतुर्दिक्षु स्थाप्याः ।
दीप्ता सूक्ष्मा जया भद्रा विभूतिर्विमला तथा ।
अमोधा विद्युता नन्दा सर्वा च सर्वतोमुखी ॥७॥
एता आदित्यं गर्भमिति पूर्वे न्यसेत् ।
दितिरदितिर्दनुः कद्रूर्निकषाविनता सुभगैता यमाय त्वेति याम्ये न्यसेत् ।
नन्दा भद्रा सुरभिला सुशीला बहुला शुभा ।
देवमाता वेदमाता लोकमाता च शङ्खिनी ।
यक्षिण्यथ च गायत्री सावित्री जलशायिनी ॥८॥
एताश्चतुर्दश मातृृर्वरुणस्योत्तम्भनमसीति वारुणे न्यसेत् ।
लक्ष्मीः सुभगा पार्वती च मन्त्रिणी वसुधा तथा ।
धनदा चेति षण्मातृृःस्थापयेदुत्तरे दले ॥९॥
प्रेतमातॄणां प्रीत्यर्थं सप्तधान्यं प्रत्येकं द्रोणमात्रं दद्यात् । शिवसंकल्पमन्त्रेण पूर्वमातॄणां गन्धादिभिरर्चनं कुर्यात् । पुरुषसूक्तमन्त्रेण दक्षिणमातॄणामर्चनं कुर्यात् । नारायणमन्त्रेण पश्चिममातॄणामर्चनं कुर्यात् । अप्रतिरथमन्त्रेणोत्तरमातृृणामर्चनं कुर्यात् । मातॄणां प्रीतये पुनः पुरुषसूक्तमन्त्रेण समग्रेण सूक्तेन वा ब्रह्माद्या देवता गन्धादिनाऽभ्यर्चयेत् ।यमसूक्तैर्ऋतंवचैः स्नानं प्रेतस्य प्रयत्नतः । स्नानान्ते तं मृतमिति विचिन्त्य दहनं कुर्यात् । भूरसीति चिताभूमिं संशोध्य समुद्रं गच्छेति प्रोक्षेत् । स्वशाखोक्तेन विधिना प्रेतमासंधीसंस्थमुत्क्षिप्य चितां प्रतिनिवेशयेत् ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
पालाशविधानम् ।
______________
अथ प्रेतदाहकर्मणि दुष्टकालविवरणम् ।
भरणी कृत्तिकाऽऽश्लेषा मघा मूलान्त्यपञ्चकम् ।
नक्षत्राण्यतिदुष्टानि प्रेतकर्मणि वर्जयेत् ॥१॥
विशाखा रोहिणी चित्रा मित्राख्यं च पुनर्वसू।
पूर्वाषाढाद्वयं वर्ज्यं दुष्टं कुणपकर्मणि॥२॥
त्रयोदशीचतुर्दश्यौ वारौ शुक्रशनैश्चरौ।
वैधृतिं पातपरिघौ तथा विष्टिं विवर्जयेत्॥३॥
पालाशवृन्तैदर्भैश्चसाग्नेश्चानग्निकस्य च।
क्रमाच्छरीरमाधाय दाहयेद्विधिवत्त464था ॥४॥º
साग्निकं प्रत्यक्शिरसं याभ्यावक्त्रं निरग्निकम्।
स्वगृह्योक्तेन विधिना विदध्याद्धवनं द्विजः॥५॥
अनग्नं हेमवक्त्रं च घृताभ्यक्तं ससूत्रकम्।
उत्तानं तिलकैर्युक्तं तुलसीपूर्णरन्ध्रकम्॥६॥
तिलाभिमन्त्रितं प्रेतं दहेद्दिव्येन वह्निना।
चन्दनेनानुलिप्ताङ्गं पुष्पमालाभिशोभितम्॥७॥
क्रमात्प्राप्ते च दाहे च नास्ति कालनिषिद्धता।
विनाऽन्त्यपञ्चकं भानां विधानं तत्र कल्पयेत्॥८॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां प्रेतदाहक
** र्मणि दुष्टकालविवरणविधानम्।**
___________
अथ शास्त्रवीक्षाविधानम्।
यदा कदाचित्समये वीक्षाकामैर्मनीषिभिः।
संमार्जिते स्थले रम्ये पूजयित्वा च पुस्तकम्॥१॥
तण्डुलाष्टदलं कृत्वा धूपिते भूतले शुभे।
गन्धपुष्पाक्षतैः कुर्यादर्चनं मूलमन्त्रतः॥२॥
सामान्योऽयं विधिः शास्त्रे सामान्ये कथ्यते बुधैः।
विपाके कर्मणां प्रोक्तो विशेषः शास्त्रकोविदैः॥३॥
स्नात्वाऽवलो465कयेच्छास्त्रं रविवारे विशेषवित्।
तण्डुलाष्टदलं कृत्वा पूर्ववत्पूजयेद्बुधः॥४॥
परिमाणं तण्डुलानां खारी वा द्रोणपञ्चकम्।
निष्किंचनस्तदर्धेनकुर्यादष्टदलं सुधीः॥५॥
वैद्यैर्विज्ञातदोषस्य दुःसाध्यस्यौषधैरपि।
शान्त्यर्थमीक्षते ग्रन्थं पूर्वकर्मविपाकजम्॥६॥
ज्योतिःशास्त्रावलोके च दद्यात्पूगी( ग ) फलादिकम्।
पुष्पवद्ग्रह466णं पश्येत्पटे संलिखितं शुभम् ॥७॥
येनेदं467 दर्शितं सम्यक्तस्मै दद्याद्धनं वहु।
इति वीक्षा प्रकर्तव्या शास्त्रेषु कुशलैर्द्विजैः॥८॥
** इति श्रीनृसिंहमहविरचितायां विधानमालायां **
** शास्त्रवीक्षाविधानम् ।**
** ____________**
अथ शकुनशास्त्रावलोकनविधानम्।
ब्रह्मयामले—
रघुवंशः स्तुतिर्देव्यास्तथा भागवतं शुभम्।
प्रेक्षणीयानि शास्त्राणि पूर्वाभावे परं परम्॥१॥
पूर्वेद्युरधिवास्तव्या रघुवंशस्य पुस्तिका।
गन्धपुष्पादिकैः सर्वैरुपचारैःप्रपू468जिता ॥२॥
निमन्त्रयेत्कुमारीं तां या गौरी या विवेकिनी।
द्विजातीनां विशेषेण पूर्वेद्युरभिवन्द्य च॥३॥
प्रातःकाले समुत्थाय कृत्वाऽभ्यङ्गं समाहितः।
तामप्यभ्यज्य विधिवत्कन्यकां तु समाह्वयेत्॥४॥
संमार्जिते स्थले रम्ये चतुष्के रू( ष्कैरु ) पशोभिते।
आसनं प्राङ्मुखं कुर्यात्कुमार्या विधिपूर्वकम्॥५॥
पटे वा दारुपट्टे वा केवले भूतलेऽपि वा।
सर्गपङ्क्तिंद्विधा कुर्यादक्षतैर्भावतत्परः॥६॥
प्रथमं ( मा ) दशसर्गाणां नवानामपरा भवेत्।
आदिरुत्तरतो ज्ञेया तथैवापरपङ्किजा ( तथा दक्षिणतोऽपुरा )॥७॥
पङ्क्त्योः प्रागे ( च्ये ) व दिग्भागे पीठे शास्त्रं प्रपूजयेत्।
उपचारैः षोडशभिः कुमारीमपि पूजयेत्॥८॥
वागर्थाविव संपृक्ताविति सर्वत्र मन्त्रतः।
अर्चयित्वा कुमारीं च पुस्तिकामपि पण्डितः॥१॥
चिन्तयित्वाऽऽत्मसुहितं पूगीफलमनुत्तमम्।
प्रदत्त्वा कन्यकाहस्ते प्रार्थयेच्च पुनःपुनः॥१०॥
तत्र चिन्ताक्रमः—
यदि मे सफलं कार्यंपरिपश्यसि शोभने।
त्तदाऽस्मिञ्शकुने ब्रूहिशोभनं469 नान्यथा वद॥११॥
कुमारि गिरिजारूपे भविष्यत्सदृशं फलम्।
निधेहि पङ्क्तिपूजेषु ( पुञ्जेऽत्र ) य470त्र ते मनसो रुचिः॥१२॥
कुमार्या निहितं ज्ञात्वा पूगीफलमनुत्तमम्।
गणयेत्सर्गदशकान्दशके तु फलं न्यसेत्॥१३॥
श्लोके च निहिते पूगे कथां तत्र विचिन्तयेत्।
स्तुतिलिङ्वर्जितः श्लोकः शकुनेषु प्रशस्यते॥१४॥
शुभं वाऽप्यशुभं सत्यं तवर्गेतरपञ्चमम्।
अक्षरं प्रथमे पादे संयोगेन विवर्जितम्॥१५॥
एतद्रघुवंशविरचनमध्ये “तस्याधिकारपुरुषैः” इत्यादिग्रन्थसंदर्भविरचनसमयेऽतिप्रसन्नया परमेश्वर्यैकोनविंशसर्गसंग्रहे ममाधिष्ठानमस्तीति कालिदासोऽनुकम्पितः। ततश्च कविना वृतो वरः “यद्गृह एत्पुस्तकं तत्रानन्तरायोऽस्तु यः पठति तद्वंशादिवृद्धिरस्तु। यः पूजयति तदायुर्वर्धताम्।यः शकुनार्थं पर्यालोचयति तस्यैव प्र471कारःसम्यग्भवतु। यो लेखयित्वा ददाति तस्य माघमासप्रयागस्नानमस्तु। यस्तु बालान्पाठयति स सर्वविद्याध्यापको भवतु” इति। ततः परितुष्टया परमेश्वर्यैवमस्त्वित्यवादि472। इत्याख्याऽपि (ख्यायिका) रुद्रयामलादित्रयटीकासु दर्शिता। ततो निश्चयेन सम्यक्परमेश्वर्या अस्मिन्ग्रन्थेऽधिष्ठानमस्त्यतो लौकिकमेतदिति न मन्तव्यम्।
** _____________**
** अथ सप्तशतीशकुनप्रेक्षणविधानम्।**
संपूज्य विधिवद्देवीं कुमारीरूपिणीं शिवाम्।
कृत्वाऽष्टदलमुर्वीस्थं तत्र तत्पुस्तकं न्यसेत्॥१॥
पूजितायाः करे दद्यात्कन्यकायास्तु मुद्रिकाम्।
शलाकां वा हेममयीं गजदन्तस्य वा शुभाम्॥२॥
द्वादशाङ्गुलमात्रां तु विन्यसेत्पुस्तकान्तरे।
संपश्येत्प्रथमां पङ्क्तिपुटेवाऽनङ्कसंज्ञके॥३॥
तत्रत्यं सुविचार्याऽऽशु यत्स्वभावं कथानकम्।
आदिशेत्तत्स्वरूपं हि फलं शास्त्रविशारदः॥४॥
नमो देव्यै महादेव्यै मन्त्रमुच्चारयेद्बुधः।
उपचारेषु सर्वेषु नात्र कार्या विचारणा ॥५॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां सप्तशतीशकुन
** प्रेक्षणविधानम् ।**
_____________
अथ श्रीभागवतशकुनावलोकनम् ।
यथा रघुवंशेऽवलोकनं तथैव भागवते। परं मूलमन्त्रेणोपचाराः। द्वादशस्कन्धानां तण्डुटपुञ्जाकर्तव्याः।पङ्किरेकैव। तत्र स्कन्धेऽध्यायानां पुञ्जा अध्यायेदशकानां तत्र श्लोकानाम्।
स्तुतिलिड्वर्जितः श्लोकः शकुनेषु प्रशस्यते।
इति नियमोऽत्रापि। न तु तवर्गेतरपञ्चममिति। स्तुतिलिड्वर्जितः श्लोक इति नियमः सप्तशतीस्तोत्रे नास्ति। यतः कारणात्तच्छास्त्रं स्तुतिप्रधानं तत्र फलितार्थो ग्राह्यः। तथा कालचक्र उपचारपूर्वकं विलोकनीयम्। तथा च रूपकावल्यक्षरकैवल्यादिषु च विलोकनीयम्। तत्र शकुनानां मध्य एक औत्पादिका एके सहजा भवन्ति। तत्राऽऽदावौत्पादिका विवाहादिमङ्गले कार्ये तथा ग्रामनिवेशने शकुना भवन्ति फलदाः किं पुनः सहजाः। पूर्णफलदाः। सहजाः सामिफलदाः कृत्रिमा ज्ञेयाः। तथैवापशकुनाःक्षुतादिका निषिद्धाःस्युः। “ लाभस्तेषां० तदेव लग्नं० सर्वदा सर्वकार्येषु० वैन्यं पृथुं०।
१ ख. °रं तु मू° । ३ ख. °नां पुञ्जा।
तव वर्त्मनि वर्ततां शिवं पुनरस्तु त्वरितं समागमः।
अयि साधय साधयेप्सितं स्मरणीयाः समये वयं वयम्॥१॥
इत्याद्यौत्पादिकाः शकुना दक्षिणाः। दक्षिणःकाको वामभागस्था नकुलभरद्वाजचाषमयूराः शुभदाः। पल्लीपिङ्गलादिरुतानि यथोदितानि तान्येव शकुने प्रशस्तानि न तु ते दर्शनफ473ला इत्यादि सहजम्।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां यन्त्रमालोक्त
रघुवंशादिशकुनविधानम् ।
\_\_\_\_\_\_\_\_
अथोपश्रुतिविधानम् ।
तथा च यज्ञकाण्डे—
उपश्रुतौ प्रधानत्वं फले कार्यं फलार्थिना।
ज्ञातव्या यज्ञकर्मान्ते सा पौरमुखजा बुधैः॥१॥
तथा च विशेषः—
अन्त्यजानां गृहे वाक्यं पूर्वरात्रे यदुच्यते।
स्त्रिया वा वालकैर्वाऽपि तथा पुंभिः परस्परम्॥२॥
विचार्य तद्ववस्तत्त्वमादेष्टव्यं फलं बुधैः।
निर्णेजकालये पश्येत्प्रतिपद्येव बुद्धिमान्॥३॥
मद्यकृत्सदने पश्येद्द्वितीयायां न संशयः।
तैलविक्रयिणां गेहे तृतीयायां विलोकयेत्॥४॥
चतुर्थ्यां पुल्कसानां च पञ्चम्यां लोहकारिणाम्।
षष्ठ्यांकिंशुकजातीनां सप्तम्यां मद्यकारिणाम्॥५॥
अष्टम्यां चैव वैश्यानां नवम्यां योगजातिषु।
पश्येत्पौष्कलके गेहे दशम्यां नात्र संशयः॥६॥
सिन्दोलकगृहे पश्येदेकादश्यामुपश्रुतिम्।
द्वादश्यां कुम्भकाराणां स्वर्णकारालये स्मरे॥७॥
भूते कापालिके गेहे पौर्णमास्यां द्विजन्मनाम्।
अमायां शूद्रजातीनां गेहे पश्येदुपश्रुतिम्॥८॥
तत्र विलोकनक्रमः—
उपास्य पश्चिमां संध्यांस्मरन्नात्महितं सुधीः॥
स्वस्तिवाच्य द्विजान्गच्छेद्वालग्रन्थिर्मुदाऽन्वितः॥९॥
चन्दनेनानुलिप्ताङ्गःश्वेतमाल्यधरः शुचिः।
श्वेतवस्त्रसमायुक्तो474धृतहेमविभूषणः॥
अक्षतानञ्जलौधृत्वा मन्त्रेणानेन मन्त्रितान्॥१०॥
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं देवि देवि महादेवि महादेवस्य वल्लभे।
विमोहय जनान्सर्वान्ममात्र वशगान्कुरु॥११॥ स्वाहा।
इत्यभिमन्त्र्याक्षतानञ्जलौपरिगृह्य वस्त्रेण वद्धनेत्रकर्णःसन्नन्येन नीयमान उपश्रुतिगृहं गत्वाऽञ्जलेरक्षतांस्तद्गृहोपरि प्रक्षिप्य मुक्तनेत्रकर्णो गृहमनुष्यशब्दाञ्च्छृणुयात्। तच्छुभमशुभं वा विचार्याऽऽदेष्टव्यमिति।
अन्यच्च —
यदा कदाचित्समये ग्रामान्तरं जिगमिषुर्गम्यमानः पथि पौरशब्दानाकर्णयेत्तेषु क्रूरान्वर्जथित्वाऽन्ये शब्दादिवर्णाः श्रेष्ठाः।प्रयाणे गृहाणगच्छभवत्यर्थजातार्थदानार्थलाभार्थादिसाधुशब्दाः प्रशस्ताः। तेषु काक्वर्थादुष्टाः। एह्यागच्छनास्तिनभवत्यर्थाजातासिद्धार्थादिशब्दा गमने दुष्टाः।ताञ्च्छदाञ्छ्रुत्वा गच्छन्सन्स्वगृहान्निवर्तयेत्। अत्युत्कटकार्यविशेषोऽस्ति तर्हि निवृत्तः सन्द्विराचम्य कुलदेवतां संस्मृत्य मुहूर्तं तिष्ठन्पुनर्गच्छेत्। वैन्यं पृथुं हैहयमिति प्रयाणसिद्धिदान्संस्मृत्य कार्यसिद्धयै गच्छेत्। पुनश्चेन्निषिद्धप्रयाणःक्षुतादिभिर्भवति तदा सिद्धिविनायकव्रतोपयाचितकं संकल्प्य गच्छेत्। ततश्च निषिद्धः सन्न गच्छेदेव।
** इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां **
** यज्ञकाण्डोक्तमुपश्रुतिविधानम् ।**
_____________
अथ त्रिपुष्करादियोगजातविघ्नङ्गविधानम् ।
धनिष्ठापञ्चके याश्च देवताश्चत्रिपुष्करे।
संपूज्यास्तु प्रयत्नेन मन्त्रैस्तल्लिङ्गसंज्ञकैः॥१॥
तिथिर्वारं च नक्षत्रं त्रिपुष्कर इति स्मृतः।
त्रयाणां देवताः पूज्या मन्त्रैस्तल्लिङ्गकैर्बुधैः॥२॥
कुबेरस्य पृथक्पूजा विधातव्या मनीषिभिः।
होमं च विधिवत्कुर्यान्नक्षत्रशमनोचितम्॥३॥
सामान्यं च हविस्तेषां साज्यं पायसमुत्तमम्।
मन्त्राभावे च गायत्री पालाश्यः स475मिधस्तथा॥४॥
होमान्ते यजमानस्य विदध्यादभिषेचनम्।
लक्ष्मीसूक्तं जपेत्पश्चाद्दद्याद्दानानि भूरिशः॥५॥
लक्ष्मीनारायणप्रीत्यै मञ्चकं च सतूलिकम्।
दद्याद्विप्राय शीलाय सदाराय विशेषतः॥६॥
मतान्तरे—
यानि कानि च ऋक्षाणि ये च वाराश्चकेचन।
याश्च काश्चिच्च तिथयः कथिताश्चत्रिपुष्करे॥७॥
सर्वेषामपि तेषां तु त्रयो देवाः प्रकीर्तिताः।
यमो रुद्रश्च मघवा संपूज्यो विधिवद्बुधैः॥८॥
महिषं वृषभं नागं लौहं ताम्रं च राजतम्।
आचार्याय यथाशक्त्या( क्ति ) प्रदद्यादक्षिणां ततः476 ॥९॥°
तत्र दानमन्त्रः—
त्रिपुष्करकर श्राद्धदेव देवनसस्कृत।
दानेन महिषस्यात्र निर्विघ्नं कुरु मां प्रभो॥१०॥
इति महिषदानमन्त्रः।
वृषभं कामरूपं हि सर्वकामविवर्धनम्।
दास्ये रुद्रस्य तुष्ट्यर्थं निर्विघ्नं कुरु मां ततः॥११॥
इति वृषभदानमन्त्रः।
इन्द्रवाहन वाहेन्द्र चतुर्दन्तविराजित।
दत्ते त्वयि विप्रवर्याय ( द्विजेन्द्राय ) प्रीतो भवतु देवराट्॥१२॥
** इति गजदानमन्त्रः।**
ततश्च भोजयेद्विप्रानन्नैर्नानाविधैः शुभैः।
एवं कृते विधाने च विघ्ना नश्यन्ति भूरिशः॥
पुनश्च जायते लक्ष्मीस्तेजोवृद्धिविवर्धन477म्॥१३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां त्रिपुष्करादि
** योगजातविघ्नभङ्गविधानम्।**
____________
अथ ग्रहणवेधदोषहरं विधानम्।
तत्र ज्योतिःशास्त्रम्—
त्रिषड्दशायोपगतं नराणां शुभप्रदं स्याद्ग्रहणं रवीन्द्वोः।
द्विसप्तनन्देषुषु मध्यमं स्याच्छेषेष्वनिष्टं प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥१॥
सूर्यग्रहे न भोक्तव्यं पूर्वंयामचतुष्टयम्।
चन्द्रग्रहे न भोक्तव्यं पूर्वं यामत्रयं तथा॥२॥
सायाह्ने संगवेऽश्नीयाच्छारदे संगवादधः।
मध्याह्ने परतोऽश्नीयान्नोपवासो रविग्रहे॥३॥
मूहर्तत्रितयं प्रातस्तावानेव तु संगवः।
मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तः स्यादपराह्णोऽपि तादृशः॥४॥
सायाह्ने त्रिमुहूर्ते च न कार्यंकिमपीष्यते।
अग्निहोत्रं तथा संध्यामतिथेःपूजनं विना॥५॥
यदि दुष्टे ग्रहे चन्द्रसूर्ययोर्भाविनां नृणाम्।
विधानं तत्र कर्तव्यं जपहोमसुरार्चनैः॥
तीर्थस्नानैश्च दानैश्च विष्णुमूर्तिविलोकनैः॥६॥
तत्र मुख्यदानम्—
सौवर्णं कारयेन्नागं पलेन च पलार्धतः।
तदर्धेन तदर्धेन फणायां मौक्तिकं न्यसेत्॥७॥
ताम्रपात्रे निधायाऽऽशु घृतपूर्णे विशेषतः।
कांस्ये वा कान्तलोहे वा न्यस्य दद्यात्सदक्षिणम्॥८॥
माषा निष्पावका राजमाषा मुद्राः प्रियङ्गवः।
देया राहूपरागे तु नरेण हितमिच्छता॥९॥
चन्द्रग्रहे तु रौप्यस्य बिम्बं दद्यात्सदक्षिणम्।
नागं रुक्ममयं चैव सूर्यबिम्बंच हेमजम्॥१०॥
तुरंगरथगोभूमितिलसर्पींषि काञ्चनम्।
दुकूलादीनि वस्त्राणि दद्याद्ग्रहणशान्तये॥११॥
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते।
ऐश्वर्यं लभते मर्त्यो नात्र कार्या विचारणा॥१२॥
विधुंतुद नमस्तुभ्यं सिंहिकानन्दनाच्युत।
दानेनानेन नागस्य रक्ष मां वेधजाद्भयात्॥१३॥
इति स्वर्णनागदानमन्त्रः।
तथा च तुरंगरथवृषादीनां दानमन्त्रा ये दानखण्डे प्रोक्तास्तैरेव तानि दानानि विदध्यात्।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां ग्रहणवेध
** दोषहरं विधानम् ।**
\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_\_
** अथ दाहादिदोषदुष्टवस्त्रदोषहरं विधानम्।**
कज्जलकर्दमगोमयलिप्ते वाससि दग्धवति स्फुटिते वा।
चिन्त्यमिदं नवधाविहितेऽस्मिछ्रेष्ठकनिष्ठफलं च सुधीभिः॥१॥
दाहादिदोषैर्दुष्टं स्याद्वस्त्रं यदि तदाऽऽचरेत्।
विधानं विधितत्त्वज्ञस्तद्विघ्नस्यापनुत्तये॥२॥
यानि ऋक्षाणि वस्त्रस्य478जन्मऋक्षं तु वा भवेत्।°
तेषां तु देवताः पूज्या गन्धपुष्पाक्षतादिभिः॥॥३॥
हवनं च प्रकर्तव्यं मन्त्रैस्तल्लिङ्गसंज्ञकैः।
तनवः स्वर्णजाः479 कार्या ऋक्षेशानां पृथक्पृथक्॥४॥
प्रधानं पायसं तत्र साज्यं प्रोक्तं मनीषिभिः।
अयुतं वा सहस्रं वा शतमष्टोत्तरं तथा॥५॥
वित्तशाठ्यं न कर्तव्यं श्रद्धया परयाऽन्वितः॥
दद्याद्वस्त्रंच तद्वर्णं यद्वर्णं दुष्टमम्बरम्॥६॥
तत्र दानमन्त्रः—
लोकलज्जाहरं श्रेष्ठं सोमलोकप्रदायकम्।
दत्तं तुभ्यं मया ब्रह्मन्सर्वशान्तिकरो भव॥७॥
इति वस्त्रदानमन्त्रः।
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते।
इति श्रीनृसिंहभट्टाविरचितायां विधानमालायांदाहादि
** दोषदुष्टवस्त्रदोषहरं विधानम्।**
___________
अथाऽऽस्तीकमते सर्पदष्टापमृत्युहरं विधानम्।
दष्टे सर्पेण मनुजे मणिमन्त्रैर्हृते विषे।
विधानं तत्र कर्तव्यमपमृत्युविनाशनम्॥१॥
निशाकल्केन कर्तव्यमङ्गोद्वर्तनमुत्तमम्।
सपल्लवेन तोयेन कवोष्णेनैव मार्जयेत्॥२॥
सपल्लवेनेतिपञ्चपल्लवैर्युक्तेनोष्णेन वारिणेति। ते च पञ्च पल्लवाः—
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षचूतन्यग्रोधपल्लवाः।
मतान्तरे तु निम्बः स्यादाम्रन्यग्रोधनिह्नवे॥३॥
निह्नवेऽभाव इति।
ततस्तु नूतनं वस्त्रं परिधाय कृताह्निकः।
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु ब्राह्मणानर्चयेत्ततः॥
स्वस्तिके तण्डुलानां च नव नागान्प्रपूजयेत्॥४॥
ते च नागाः—
वासुकिस्तक्षकोऽनन्तः पद्मः शङ्खोऽथ शाद्वलः480।
कुमुदःकैरवः कुम्भो नव नागा भयप्रदाः॥५॥
चतुर्थ्यन्तैश्च ते पूज्या नाममन्त्रैः पृथक्पृथक्।
कूष्माण्डीसंभवैःपुष्पैरपामार्गदलैस्तथा॥६॥
शतपत्रैस्तु पद्मैर्वा करवीरैश्च पूजयेत्।
चन्दनेन सुगन्धेन लेपनीयाः पृथक्पृथक्॥७॥
धूपैस्तु धूपयेत्पश्चाद्दीपैर्नीराजयेत्ततः।
अतैलपक्वैर्नैवेद्यैस्ताम्बूलैरपि तोषयेत्॥८॥
नागाः स्वर्णमयाः श्रेष्ठा राजतास्ताम्रजा अपि।
अभावे मृन्मयाः कार्याः संलिखेच्चन्दनेन वा॥९॥
परिमाणं तण्डुलानामाढकानां चतुष्टयम्।
प्रातःकालेऽथवा कुर्याद्विधानं संगवेऽपि च॥
पूजान्ते वैदिकैर्मन्त्रैः पौराणैर्वाऽभिषेचयेत्॥१०॥
ते च पौराणमन्त्राः—
अभिषिञ्चन्तु ते देहं वासुक्याद्या भुजंगमाः।
अभिषिञ्चतु ते देवाः स्वर्गे ये सुप्रतिष्ठिताः॥११॥
वसिष्ठाद्याश्च ऋषयो मानवाः सनकादयः।
विश्वावसुमुखा यक्षाः पौलस्त्याद्याश्च राक्षसाः॥१२॥
ऐरावतादयो नागास्तुरगेन्द्रादिवाजिनः।
कामधेनुमुखा गावो वृक्षाः कल्पद्रुमादयः॥१३॥
चिन्तामणिमुखास्तद्वन्मणयो दिव्यरूपिणः।
गङ्गाद्याः सरितः सर्वा मानसादिसरांसि च॥१४॥
अर्णवाद्या उदन्वन्तो हिमवत्प्रमुखा नगाः।
एते त्वामभिषिञ्चन्तु पावमान्यः शुचिव्रताः॥१५॥
अभिषिच्याथ धीमन्तः पयसा वा जलेन वा।
शतं जीवेति मन्त्रैस्तु अभिनन्दनतत्पराः॥१६॥
आशीर्वादमुखा विप्रा अभिपूज्या धनैस्ततः।
ततस्तु नागपीठं च समादाय द्विजैः सह॥१७॥
वल्मीकमभिगच्छेत्तु पीठं तत्र प्रदापयेत्।
आचार्याय सुशीलाय श्रोत्रियाय कुटुम्बिने॥१८॥
अभिषिञ्चेत्तु वल्मीकं पयसा सघृतेन वा
गन्धपुष्पादिकं सर्वंवल्मीके च विधीयते॥१९॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य पुनरेव गृहं व्रजेत्।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दक्षिणाश्च प्रदापयेत्॥२०॥
एवं कृते विधाने च विघ्नः कोऽपि न जायते॥
शतायुर्जायते मर्त्यो नात्र कार्या विचारणा॥२१॥
**इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामास्तीकमतोक्तं **
** सर्पदष्टापमृत्युहरं विधानम्।**
__________
अथ मन्त्रोपदेशविधानम्।
मन्त्ररहस्ये—
आयुष्कामः प्रजाकामः स्वर्गकामो जितेन्द्रियः।
अर्थयेद्देवतां कांचित्पुष्टिदांतुष्टिदां पराम्॥१॥
तद्वश्यकरमौन्नत्यविद्यापुष्टिविवर्धनम्।
बुद्धिमानभ्यसेन्मन्त्रं हितमायुर्दमात्मनः॥२॥
वश्याद्यैः पञ्चभिर्गुणैर्युक्तं हितमित्यर्थः।
वरवध्वोर्यथा मैत्रीं गृहतत्स्वामिनोर्यथा।
तथा विद्यामान्त्रिकयो राशिमैत्रीं विचिन्तयेत्॥३॥
चन्द्रसूर्यग्रहे कुर्याद्विद्याग्रहणमुत्तमम्।
पर्वण्येव च पावित्रे तथा दामनके शुभे॥४॥
नवचण्डीमहोत्साहे शुभे वा वासरे तथा।
विद्यासंभारमादाय गन्धपुष्पादिकं परम्॥५॥
आचार्यं पूजयेद्भक्त्या कृतस्नानविधिः सुधीः।
आदौ तु हवनं कृत्वाऽभ्यर्चयेन्मन्त्रदेवताम्॥६॥
देवदारुमये पीठे दुकूले वाऽन्यवाससि।
नीलीवर्जं विधातव्यं यन्त्रमुक्तं तु कौङ्कुमम्॥७॥
परिवारसमायुक्तां देवतां तत्र पूजयेत्।
पञ्चामृतैः सुस्नपितां शङ्खेनैव पृथक्पृथक्॥८॥
अभिषिक्तोऽथ गुरुणा मान्त्रिकःसंमुखः शुचिः।
पादावानम्य सूक्तस्य सद्गुरोर्नम्रमस्तकः॥९॥
विद्याधिकारकृत्तूष्णींमूर्धन्यस्तार्यहस्तकः।
आगतं दक्षिणात्कर्णान्मन्त्रं हृदि समावहेत्॥१०॥
ततस्तु न्यासपूर्वं तं विद्याविधिमनुत्तमम्।
ध्यानदीपा ( बीजा ) दिकं सर्वमभ्यसेन्मन्त्रतत्परः॥११॥
पुरश्चरणमेकान्ते कुर्यान्मन्त्रस्य मान्त्रिकः।
दशांशं इवनं कुर्याद्धविषोक्तेन बुद्धिमान्॥१२॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दशांशेनैव तद्यजेः।
सर्बान्कामानवाप्नोति गुरुभक्तिपरायणः॥१३॥
पूजयेत्तुयथाशक्ति गुरुं पर्वणि पर्वणि।
एवं कुर्वन्विधिं धीमान्त्सर्वदा सुखमाप्नुयात्॥१४॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां मन्त्ररहस्योक्तं
मन्त्रस्वीकारविधानम्।
__________
अथ ब्रह्मयमालोक्तंप्रासादोद्यापनम्।
देवालयं तु यः कुर्यात्पाषाणैर्दारुभिस्तथा।
शंकरस्य हरेर्वाऽपि देव्या वाऽन्यस्य कस्यचित्॥१॥
शिल्पशास्त्रोक्तविधिना शुद्धार्थं शुद्धदिङ्मुखम्।
उद्यापनं प्रकुर्वीत काले सौभ्यायने सुधीः॥२॥
संभारं सर्वमादाय संस्कृते सुरमन्दिरे।
विहिते मण्डपे सम्यक्कुर्यादुद्यापनविधिम्॥३॥
यजमानः शुचिर्भूत्वा स्वस्तिवाचनपूर्वकम्।
प्रारभेद्धवनं देवसद्मदक्षिणतो बुधः॥४॥
उद्यापनं तु देवस्य क्रियते यस्य कस्यचित्।
कृत्वा तस्य तनुं हैमीं पलेन ध्यानसंपुताम्॥५॥
पलार्धेन तदर्धेन यदि वित्तं न विद्यते।
वित्ते सति पलेनैव नात्र कार्या विचारणा॥६॥
सा मूर्तिःपूर्वतः पूज्या स्थण्डिलात्कलशोपरि।
पद्मे चाष्टदले श्रेष्ठे तण्डुलानां वुधेन वै॥७॥
परिमाणं तण्डुलानां खारी वा द्रोणपञ्चकम्।
सुवृत्तेवंशपात्रे च प्रतिष्ठापनमन्त्रतः॥८॥
विन्यस्य मतिमान्वस्त्रे वस्त्रेणान्येन वेष्टयेत्।
प्रस्नाप्य पयसा दध्नासर्पिषा मधुना तथा॥
सितया श्रद्धया धीमान्मन्त्रैस्तल्लिङ्गसंज्ञकैः॥९॥
श्रद्धयेक्षुरससंभवया न तु वंशजयेति।
ततस्तोयेन मूर्तिं तां क्षालयेन्नाममन्त्रतः।
ततस्तु पूजयेत्पुष्पैर्लिप्त्वा वै चन्दनेन च॥१०॥
दशाङ्गेनैव धूपेन धूपयेत्प्रयतः पुमान्।
दीपैर्नीराजयेत्पश्चान्नैवेद्यैः परितोषयेत्॥११॥
अर्चयेन्मूलमन्त्रेण प्रार्थत्कार्यसिद्धये।
ततस्तु हवनं कुर्याद्यथाविधि विधानवित्॥१२॥
पायसेन तु साज्येन लक्षं वाऽप्ययुतं तथा।
तिलैर्व्याहृतयः प्रोक्ता लक्षसंख्या मनीषिभिः॥१३॥
कृत्वा स्विष्टकृतं सम्यक्पूर्णाहुतिमुपाहरेत्।
कुर्यादित्यर्थः।
शान्तिपाठं ततो विद्वान्पठेत्सार्धं द्विजातिभिः॥१४॥
प्रतिपूजां ततः कुर्यान्मूर्त्तेस्तस्या विचक्षणः।
आचार्यं पूजयेद्भवत्या ब्राह्मणानपि पूजयेत्॥१५॥
ऋत्विजश्चततः पूज्या वस्त्रालंकारभूषणैः।
धेनुं पयस्विनीं दद्यादाचार्याय मनीषिणे॥१६॥
ब्रह्मणे महिषीं दद्यात्कस्मैचिन्मञ्चकोत्तमम्।
सतूलिकं सोपधानं सोत्तरच्छदमुत्तमम्॥१७॥
ताम्बूलपेटिकां दद्यादुपस्करसमन्विताम्।
स्थालीं दीपं सकलशं मुसलोलूखलं तथा॥१८॥
घरट्टपेषणीमाढ्यां दवींशूर्पं च शोभनम्।
आढ्यांवरिवर्तिसमन्वितामित्यर्थः।
एतावदेव चैतच्चप्रासादे विन्यसेत्सुधीः॥१९॥
देवस्य त्वेति मन्त्रेण गायत्र्या च समाहितः।
विदध्याद्धवनं धीसांस्ततस्तु प्रणमेत्सुरम्॥२०॥
ध्वजमाबध्यतद्द्वारे चित्राम्बरमयं शुभम्।
कलशाद्वृषपर्यन्तं गरुडं पादुकावधि॥
संपूज्य विधिवद्देवं ततः कृत्वा प्रदक्षिणाम्॥२१॥
आगच्छेच्चपुनर्गेहं तत्र विप्रांश्चभोजयेत्।
संभोज्य मिथुनान्यात्मन्(न्यन्या)नक्षतैरर्चयेत्सुधीः॥२२॥
वस्त्रालंकारभूषाभिस्तोषयेच्छक्त्यपेक्षया।
एवं कृते विधाने तु सिद्धिर्भवति शोभना॥२३॥
प्रासादकरणे पुण्यं फलं प्राप्नोति शोभनम्।
नन्दन्ति पितरस्तस्य वल्गन्ति च पितामहाः॥२४॥
अस्मद्वंश्येन देवस्य प्रासादः परिकल्पितः।
कृत इत्यर्थः।
सुवर्णकलशं धेयं नासायां कीर्तिमच्छिरः?॥२५॥
मण्डपे कलशान्पञ्च केतुं प्रासादमध्यगम्।
इत्थं यः कुरुते धीमान्स मुक्तिं लभते ध्रुवम्॥
कुलं च नन्दते तस्य सर्वसंपत्समन्वितम्॥२६॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायांब्रह्मयामलोक्तं
प्रासादोद्यापनंविधानम्।
-
*
अथ प्रासादकलशन्यासविधानम्।
भोजकृते शिल्पदर्पणे—
मेरुं वाऽप्यर्धमेरुं वा प्रासादं विदधाति यः।
न तेन कलशन्यासः कर्तव्यः स्वहितेच्छया॥१॥
कुलवृद्धो यदा नास्ति कलशन्यासकारकः।
तदा कृत्वा विधानं तु प्रासादे कलशं न्यसेत्॥२॥
दद्यात्स्वमूर्तिं स्वर्णस्य पलेन विहितां शुभाम्।
धेनुं पयस्विनीं दद्यादाचार्याय कुटुम्विने॥३॥
स्वारीभितांस्तिलान्दद्याच्छय्यां दद्यात्सदक्षिणाम्।
मृत्युंजयेति (यस्य) मन्त्रेण हवनं कारयेत्सुधीः॥४॥
लक्षं वाऽप्ययुतं वाऽपि पायसेन ससर्पिषा।
समाप्य विधिवद्धोमं ब्राह्मणान्भोजयेच्छतम्॥५॥
यथाशक्ति धनं दद्याद्दक्षिणार्थं पृथक्पृथक्।
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु कलशं स्थापयेत्सुधीः॥६॥
कलशात्केतुपर्यन्तं ध्वजां पटमयीं न्यसेत्।
सूत्रेण वेष्टयेद्धीमान्मासादे विन्यसेच्छुभाम्॥७॥
धूपयेद्धूपनैः श्रेष्ठैर्दीपैर्नीराजयेत्ततः।
घण्टां नाद(ग)मयीं श्रेष्ठां लम्बमानां च मण्डपे॥८॥
दृढालाने पौरुषे तु माने चोर्ध्वां सुलक्षणाम्।
ततस्तु प्रणिपत्येशमागच्छेन्निजमन्दिरम्॥९॥
नवग्रहमखं कुर्यात्सर्वविघ्नोपशान्तये।
मखान्ते भोजयेद्विप्रान्दद्यात्तेभ्यश्च दक्षिणाः॥१०॥
सर्वान्कामानवाप्नोति विन्यस्तकलशो नरः।
नारी वा लभते कीर्तिं समस्ते पृथिवीतले॥
देहान्ते लभते स्थानमव्ययं नित्यमुत्तमम्॥११॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां भोजकृतशिल्पदर्पणोक्तंप्रासादकलशन्यासविधानम्।
अथ वास्तुपूजाविधानम्।
अथर्वगुह्योक्तम् —
भूमिदुर्गे नवीने तु वास्तुपूजा विधीयते।
देवालये तथा गेहे स्वगृह्योक्तेन कर्मणा॥१॥
वास्तुःस्वर्णमयः कार्यो गजोऽश्वो वृषभः क्रमात्।
दुर्गादीनां त्रयाणां च नूतनानां विधानतः॥२॥
दुर्गे वास्तुद्वयं कार्यं द्वया उ(गजावु) भयतस्तथा।
मण्डपाभ्यन्तरे पूजां विदधीत यथाविधि॥३॥
वास्तू स्तम्भद्वये पूज्यौ स्तम्भमूलेघटान्न्यसेत्।
वंशपात्रे मुखेकृत्वा कुम्भयोर्वस्त्रसंयुते॥४॥
तत्र तौ साक्षतौ वास्तू विन्यसेन्मूलमन्त्रतः।
प्रतिष्ठामन्त्रतो वाऽपि शङ्खपुष्पैः समर्चयेत्॥५॥
स्थण्डिले द्वे ततः कुर्याद्वास्तुपश्चिमतः सुधीः।
अग्निवक्त्रं ततः कुर्यात्स्वगृह्योक्तेन कर्मणा॥६॥
जुहुयात्सर्वमाचार्य ऋत्विग्भिर्ब्राह्मणैः सह।
पायसं मधुसर्पिर्भ्यामयुतं च पृथक्पृथक्॥७॥
कुर्युश्चव्याहृतीःपश्चात्तिलव्रीहिघृतैस्तथा।
कक्षंवाऽप्ययुतं वाऽपि यथासंख्यं च वा पुनः॥८॥
ततः स्विष्टकृते ताभ्यामाचार्याभ्यां हुते सति।
शान्तिपाठं पठेयुस्ते ब्राह्मणा ऋत्विजस्तथा॥९॥
इन्द्रश्रेष्ठेति मन्त्रेण हवमं प्रोच्यतेऽत्र वै।
गायत्र्या वा यजेद्धीमान्द्वयोः स्थण्डिलयोरपि॥१०॥
होमान्ते विदधीताऽऽशु बलिपूजां विधानवित्।
इन्द्रो वै देवता त्वस्य वास्तोर्वैत्रिविधस्य च॥११॥
इन्द्रादीनां दिगीशानां पूजाविधिरनुत्तमः।
वस्त्रं धान्यं हिरण्यं च दद्याद्विप्राय एव च॥१२॥
ततो भक्तं वराक्तं च तैलाभ्यक्तं तथैव च।
प्रकिरेत्सर्वतो दिक्षु भूतानां तुष्टिदं परम्॥१३॥
एवं कृते विधाने च दुर्गवास्तोश्च पूजने।
नश्यन्ति सर्वविघ्नाश्च नन्दते भूपतेःकुलम्॥
राष्ट्रं च बर्धते तस्य पुरवृद्धिस्तु जायते॥१४॥
**इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां **
वास्तुपूजाविधानम्।
-
*
अथ प्रासादवास्तुपूजाविधानम्।
प्रासादे दक्षिणे कार्या वास्तुपूजा विधानतः।
अश्वरूपो विधातव्यो वास्तुः स्वर्णमयः शुभः॥१॥
पलेन वा तदर्धेन सपल्याणः सचामरः।
तण्डुलानां चतुष्के तु वस्त्रस्योपरि स्थापयेत्॥२॥
दधिक्रान्णइत्यमुना कुर्याद्धोमादिपूजनम्।
सर्वमेवं भवति।
पूजिते तुरगे तस्मिन्वास्तुरूपे विधानतः॥३॥
गन्धपुष्पादिभिः सम्यग्घोमं कुर्यात्ततः परम्।
पूर्वतः स्थण्डिलं कृत्वा कुर्यादग्निमुखं सुधीः॥४॥
अयुतं वा सहस्रं वा जुहुयात्तिलसर्पिषा।
बिल्वपत्रैश्च कदृ्लारैः शतपत्रैश्च चम्पकैः॥५॥
मालतीकुसुमैर्नन्द्यावर्तकैःपाटलैरपि।
मरुबकैर्दमनकैर्होमंकुर्यादतन्द्रितः॥६॥
बास्तुप्रीत्यै सुरेन्द्रस्य फलैर्नानाविधैरपि।
होमान्ते विधिवत्कुर्याद्वलिपूजां तु पूर्ववत्॥७॥
धान्यं वस्त्रं हिरण्यं च दद्याद्विप्रेभ्य एव च।
अन्येभ्यः सर्वभूतेभ्यो दद्यादन्नं यथाविधि॥८॥
बास्तुं दद्यात्ततो धीमानाचार्याय सदक्षिणम्।
ततो मन्दिरमागत्य ब्राह्मणान्भोजयेत्सुधीः॥९॥
एवं कृते विधाने च वास्तौ संपूजिते तथा।
तत्रैव तुष्टिमाप्नोति यत्र वास्तुःप्रपूजितः॥१०॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां प्रासादवास्तुपूजा
** विधानम्।**
** _______**
अथ गृहवास्तुपूजाविधानम्।
शुभे बारे तिथौ श्रेष्ठ शुभनक्षत्रसंयुते।
शुभे लग्ने शुभे चन्द्रे गृहवास्तुं प्रपूजयेत्॥१॥
अभ्यज्य प्रातरेवं हि सपत्नीको गृहाधिपः।
आहूय सर्वशास्त्रज्ञमाचार्यंवेदपारगम्॥२॥
तेनैव कारयेद्वास्तुपूजनं सर्वधर्मवित्।
वास्तुमण्डलदेवताः—
ब्रह्माणम् १ अर्थमणम् २ सवितारम् ३ विवस्वन्तम् ४ विबुधाधिषम् ५ मित्रम् ६ राजयक्ष्माणम् ७ पृथ्वीधरम् ८ आपवत्सम् ९ शिखिनम् १० पर्जन्यम् ११ जयन्तम् १२ कुलिशम् १३ सूर्यम् १४ सत्यम् १५ भृशम् १६ आकाशम् १७ वायुम् १८ पूषणम् १९ वितथम् २० वृहच्छ्रवम् २१ यमम् २२
गन्धर्वम् २३ भृङ्गराजम् ४२ मृगम्२५ पितृगणम् २६ दौवारिकम २७ सुग्रीवम् २८ पुष्पदन्तकम् २९ वरुणम् ३० आसुरम् ३१ शोकम् ३२ पापम् ३३ रोगम् ३४ हयम् ३५ मुख्यम् ३६ भल्लाटम् ३७ समाख्यम् ३८ सर्पम् ३९ अदितिम् ४० दितिम् ४१ अपः४२ सावित्रम् ४३ जयन्तम् ४४ रुद्रम् ४५ चरकीम् ४६ बिडालीम् ४७ पूतनाम् ४८ पापराक्षसीम्४९ स्कन्दम् ५० यमम् ५१ जृम्भकम् ५२ पिलिपित्सम् ५३ इन्द्रम् ५४ अग्निम् ५५ यमम् ५६ निर्ऋतिम् ५७ वरुणम् ५८ वायुम् ५९ सोमम् ६० ईशानम् ६१ उग्रसमम् ६२ डामरम् ६३ महाकालम् ६४ पिलियिकम् ६५ बास्तोष्पतिम् ६६ वास्तुपुरुषम् ॥६७॥
भूतगणेभ्यो नमः ।पितृगणेभ्यो नमः ।राक्षसगणेभ्यो नमः । पिशाचगणेभ्यो नमः । मातृगणेभ्यो नमः । दिव्यान्तरिक्षेभ्यो नमः ।
वास्तुं वृषभरूपं च होमस्याऽऽदौ प्रतिष्ठितम् ॥ ३ ॥
अन्तर्गृहे सवस्त्रं च कलशोपरि संस्थितम् ।
पूजयित्वाऽक्षतेः पुष्पैस्ततो होमं समारभेत् ॥ ४ ॥
पूर्वपक्षे गृहस्यान्ते स्थण्डिलं कारयेत्सुधीः ।
कृत्वा वह्निमुखं सम्यग्जुहुयाच्चरुणा ततः ॥ ५ ॥
साज्येनैव सहस्रं तु पायसेनापि हावयेत् ।
खर्जूरीनारिकेलैश्च द्राक्षाकदलकैस्तथा ॥ ६ ॥
अप्सु मे सोमो अव्रवीदित्यनेन मन्त्रेण इवनं गायत्र्या वा सोमाय ।
जपे होमे च दाने च संध्यायां वन्दने तथा ।
कुवेरं सोमनामानं पुराणकवयो विदुः ॥ ७ ॥
कृते होमे विधानेन हुते स्विष्टकृते तथा ।
पटेयुः शान्तिपाठांश्च ब्राह्मणा मन्त्रकोविदाः ॥ ८ ॥
कृत्वा बलिविधानं च दिक्षु प्राचीक्रमेण तु ।
आसनावाहने कृत्वा निशाकल्केन नाकिनाम् ॥ ९ ॥
दध्योदनं पिण्डमात्रं पोलिका मुष्टिकांस्तथा ।
दीपांश्चसर्पिषापूर्णान्साधुवर्तिसमन्वितान् ॥ १० ॥
नाममन्त्रैश्च विन्यस्य चतुर्थ्यन्तैः पृथक्पृथक् ।
कुर्याच्च श्रेयसः ( सेचनं ) सम्यङ्मन्त्रैराचार्यसत्तमः॥ ११ ॥
अभिषिक्तो वृषं दद्यादाचार्याय सदक्षिणम् ।
बस्त्रयुग्मेण सहितां ब्रह्मणे धेनुयुत्तमाम् ॥ १२ ॥
ऋत्विग्भ्यः कनकं दद्याद्यथाविभवमात्मवित् ।
एवं कृत्वा विधिं सम्यङ्नूतने सदनोत्तमे ॥ १३ ॥
सूर्यं तु वामतः कृत्वा प्रबिशेन्मन्दिरं सुधीः ।
पुरतः सजलान्कुम्भान्विधाय विधिवत्तमः ॥ १४ ॥
तोरणाडम्बरं सद्मपताकाभिरलंकृतम् ।
अर्चितं चित्रितं सम्यक्संमार्जनविशोधितम् ॥ १५ ॥
प्रविश्य विधिवत्स्वामी सभार्यात्मजभृत्यकः ।
स्वस्तिवाचं ततः कुर्यात्परिबर्हसमावृतः ॥ १६ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्तत्र शुभैः पार्केरनुत्तमैः ।
एवं कृते विधाने च विधानज्ञो गृहाधिपः ॥
नन्दते सुखसन्तानैर्वर्धमानो दिने दिने ॥ १७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायामथर्वरहस्योक्तं त्रिविधं वास्तुपूजनविधानम् ।
______________
अथ दुष्टस्थानगतादित्यपूजाविधानम् ।
यतः कारणाज्ज्योतिःशास्त्रे नराणां जन्मतः प्राधान्यमादित्येऽस्ति " योनिः स्त्रीणां शिशिरकिरणश्चित्र-भानुश्च पुंसाम्" इति न्यायेन सूर्यवलं भाव्यम् ।
यदि सूर्यबलं नास्ति तदा विधानवलेन कार्यमिति ।
तत्र याज्ञवल्क्यः । “ आदित्यस्य सदा पूजाम् ” इति ।
जन्मस्थो धनदः सहस्रकिरणो दुष्टश्चतुर्थोऽपि च ।
स्यान्निन्द्यः खलु पञ्चमो द्युनगतो मृत्युस्थितो नो शुभः ।
तद्वत्त्वङ्कगतो भवेन्न शुभदो नेष्टो भवेद्द्वादशः ।
प्रत्यर्थिप्रवरैः किमत्र भुवने नोत्पाद्यते वैकृतम् ॥ १ ॥
यद्याकुप्यति भास्करः श्रुतिविदोऽप्यारान्महीपस्य वावेक्ष्याद्याः( वक्ष्युर्ये )किमु जन्तवो लघुधियस्ते नित्यमोहार्दिताः ।
तस्मात्साधुमतिः स्वधर्मनिरतः संपूजयेद्भास्करं श्रीसौभाग्ययशांसिं कीर्तिमतुलां नान्योऽस्ति दातुं क्षमः ॥ २ ॥
तंत्र पूजाविधानम्—
साधु481वारे समुत्पन्ने तिथौ482 साधौ शुभे क्षणे ।
नक्षत्रे वा शुभे चन्द्रे विदध्याद्रविपूजनम् ॥ ३ ॥
प्रातःकाले समुत्थाय दन्तधावनपूर्वकम् ।
स्नात्वा शुक्लतिलैर्नद्यां कृत्वाऽऽह्निकविधिंपुमान् ॥ ४ ॥
रविप्रसन्नतामीप्सुर्विधानं तत्समारभेत् ।
सदनस्योत्तरे भागे मण्डपाभ्यन्तरे तथा ॥ ५ ॥
विदध्यात्स्थण्डिलं धीमान्होमार्थं लक्षणान्वितम् ।
स्थण्डिलात्पूर्वतो भानोःपूजापीठं प्रकल्पयेत् ॥ ६ ॥
रक्तचन्दनपट्टे वा पटेवा लोहिते तथा ।
षोडशारं लिखेत्पद्मं कुङ्कुमेन सुगन्धिना ॥ ७ ॥
आकृष्णेनेति मन्त्रेण रवेरावाहनं भवेत् ।
सेनैव पूजनं शस्तं तेनैव यजनक्रिया ॥ ८ ॥
आचार्यप्रमुखान्विप्रान्मानपूर्वंसमाह्वयेत् ।
वाचयेत्स्वस्तिवादांश्च सार्धं तैर्द्विजसत्तमैः ॥ ९ ॥
ततो वह्निमुखं कृत्वा समिद्भिर्जुहुयात्सुधीः ।
अयुतं वा सहस्रं वा त्वर्कजाभिर्विचक्षणैः ॥ १० ॥
ततस्तु पायसेनापि साज्येनापि समाहितः ।
तिलैः सव्रीहिकैः पश्चात्सहस्रं च पृथक्पृथक् ॥ ११ ॥
स्वर्जूरैर्नारिकेलैश्च कदलेश्चविशेषतः ।
प्रायश्चित्तं घृतेनैव व्याहृतीस्तिलसर्पिषा ॥ १२ ॥
आदित्यप्रीतये स्विष्टकृतं भवति पायसात् ।
शान्तिपाठं ततो विप्रा आचार्यप्रमुखाश्च ये ॥ १३ ॥
पठेयुः सर्वशाखीया यजमानहितेप्सवः ।
बलिप्रदानपूर्वां483तु प्रतिपूजां रवेः पुनः ॥ १४ ॥
विदध्याद्गन्धपुष्पाद्यैस्ततो दानविधिः स्मृतः ।
क्षीरिणीं लोहितां धेनुं सवत्सां चारुरूपिणीम् ॥ १५ ॥
दद्यात्सक्षिणां484श्रीमानाचार्याय महीयसे ।
सप्तसप्तेस्तनुं हैमीं सरथाश्वांससारथिम् ॥ १६ ॥
आचार्याय ततो दद्याद्वस्त्रालङ्कारभूषिताम् ।
ब्रह्मणे कनकं दद्यादृत्विग्भ्यश्च धनानि च ॥ १७ ॥
ततः प्रसन्नो भगवान्सविता विपुलं सुखम् ।
ददाति विपुलान्भोगान्पूजितस्तु यथाविधि ॥ १८ ॥
सौरैश्च स्तुतिपाठैश्च स्तोतव्यो धर्मदीधितिः ।
तुष्टे तस्मिन्रवौसम्यग्विघ्ननानश्यन्ति देहिनाम् ॥ १९ ॥
एवं कृते रवेः पूजाविधाने विधिवित्तमैः ।
भोक्तव्या ब्राह्मणाः सम्यक्सहस्त्रशतसंख्यया ॥ २० ॥
प्रसन्नेन महीषेन किं स्यात्कार्यं शरीरिणाम् ।
धर्मार्थकामसिद्धयर्थंसमर्थोऽर्कः485 प्रसादितः ॥ २१ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां दुष्टस्थानगतादित्यपूजाविधानम् ।
——————
अथ चन्द्रपूजाविधानम् ।
द्वितीयश्च चतुर्थश्च पञ्चमः सप्तमोऽष्टमः ।
नवमो द्वादशश्चन्द्रो गोचरे नो शुभप्रदः ॥ १ ॥
तत्रापि द्वादशाब्धिस्थो बेधेन रहितः शशी ।
विघ्नराशिकरः प्रोक्तो वि486द्धोऽपि मरणस्थितः ॥ २ ॥
अ ( ना ) न्यत्र क्लेशदश्चन्द्रो नृणां भवति निश्चयात् ।
तस्मात्पूज्यः प्रयत्नेन विवाहे वाऽध्वरादिषु ॥ ३ ॥
राजावलोकने हर्म्यप्रवेशे धनसंग्रहे ।
यात्रायां च विवाहे ( दे ) च पूजनीयोऽसमः शशी ॥ ४ ॥
पञ्चाङ्गे शुभतां प्राप्ते कर्तव्यं स्वहितेप्सुभिः ।
पूजनं शशिनः सम्यङ्नार्या वाऽपि नरेण वा ॥ ५ ॥
आचार्यं प्रवरं साधुं समाहूय निजालयम् ।
ऋत्विग्भिर्ब्राह्मणैः सार्धंवृणुयाच्चन्द्रतुष्टये ॥ ६ ॥
वृते विप्रवरे तस्मिन्ब्राह्मणैः सहितेऽर्चिते ।
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु प्रारभेत्पूजनं विधोः॥ ७ ॥
कृत्वा स्थण्डिलमारात्तंपट्टे पालाशजे विधुम् ।
पूजयेच्छतपत्रैश्च487 चतुरस्रे च मण्डले ॥ ८ ॥
चन्दनेन सुगन्धेन कृते सम्यग्विचक्षणैः ।
प्रत्यङ्मुखाय सोमाय दद्यादासनकं बुधः ॥ ९ ॥
अहो चन्द्र जगत्प्राण यमुनाविषयोद्भव ।
श्वेतवर्णात्रिगोत्रेन्दो गदापाणे वरप्रद ॥ १० ॥
दशाश्ववाहनाराग (रोह) उमारूपी स (पिन्स)माविश ।
चन्द्रमा मनसो जात इत्यृचा तं समाह्वयेत् ॥
श्रीश्चते त्वितिमन्त्रेण विधोरावाहनं भवेत् ॥ ११ ॥
आप्यायस्वेति मन्त्रस्य गौतमर्षिः। सोमो देवता ।गायत्री छन्दः । सोमप्रीतये होमे विनियोगः ।
पालाशसमिधश्चात्र सहस्रं समु488दाहृताः ।
अभावे तु सहस्रस्य शतमष्टोत्तरं489 तथा ॥ १२ ॥
पायसेन ततः कुर्याद्धवनं च ससर्पिषा ।
सहस्रं वाशतं वाऽपि द्रव्याभावे विचक्षणः ॥ १३ ॥
तिलैः सव्रीहिकैः कुर्याद्व्याहृतीस्तु यथाविधि ।
आज्येन मधुना सार्धं प्रायश्चित्तं यजेद्बुधः ॥ १४ ॥
ततः स्विष्टकृतं कुर्याच्छेषं490 होमविधेः क्रमात् ।
शान्तिः सर्वत्र विप्रैश्च पठितव्या समन्ततः ॥ १५ ॥
प्रतिपूजाविधेः पञ्चात्कुर्याद्दानविधिं बुधः ।
शङ्खं तु मौक्तिकैः पूर्णमाचार्याय निवेदयेत् ॥ १६ ॥
वस्त्रं शुभ्रंशुभं दद्याद्ब्राह्मणाय सदक्षिणम् ।
रौप्यं दद्याद्यथालाभं धेनुं वाऽथ पयस्विनीम् ॥ १७ ॥
कस्मैचिद्विप्रवर्याय सवत्सां च सदक्षिणाम् ।
एवं निष्पादितविधिर्दानस्य शशितुष्टये ॥ १८ ॥
अभिषिक्तस्ततः कर्ता ब्राह्मणान्भोजयेच्छुभान् ।
कृतविघ्नप्रतीकारो नन्दते भुवि मानवः ॥
सुधाकरप्रसादेन नात्र कार्या विचारणा ॥ १९ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां चन्द्रपूजाविधानम् ।
** अथ मङ्गलपूजाविधानम् ।**
प्रथमस्तु द्वितीयश्च चतुर्थः पञ्चमस्तथा ।
सप्तमश्चाष्टमो भौमो नवमो द्वादशोऽशुभः ॥ १ ॥
द्वादशाष्टमजन्मस्थो विद्धोऽपि पृथिवीसुतः ।
करोति प्राणसंदेहं देशत्यागं धनक्षयम् ॥ २ ॥
यदा श्रद्धा भवेत्कर्तुः पीडा वा भौमसंभवा ।
तदा पूजा प्रकर्तव्या मङ्गलस्य यथाविधि ॥ ३ ॥
पञ्चाङ्गे गुणसंपन्ने पूजायोग्ये धनागमे ।
तदैव यत्नतः कुर्याद्भौमपूजां विचक्षणः ॥ ४ ॥
\ [<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-16975975396.png"/>491स्नात्वा तिर्नदीतोये प्रातःकाले विचक्षणः ]।
कृत्वाऽऽह्निकविधिं गेहमागत्य प्रीतमानसः ॥ ५ ॥
प्रारभेद्भौमदेवस्य प्रीतये पूजनक्रियाम् ।
विहिते मण्डपे द्वा492रे शोधिते पृथिवीतले ॥ ६ ॥
आचार्यं493 तु समाहूय वरयेहत्विजां गणम्494 ।
ब्राह्मणं चापि दैवज्ञं कुशलं यज्ञकर्मणि ॥ ७ ॥
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु विदध्यात्पीठपूजनम् ।
रक्तचन्दनपट्टेतु खादिरे वा त्वलाभतः ॥ ८ ॥
वस्त्रे लोहितवर्णे च तण्डुलैः परिपूरिते ।
रक्तचन्दनकल्केन त्रिकोणं पीठमालिखेत् ॥ ९ ॥
प्रतिष्टामन्त्रमुच्चार्य विन्यसेत्तत्र मङ्गलम् ।
रक्तचन्दनजं कृत्वा ताम्रं वा तद495भावतः ॥ १० ॥
वैद्रुमं प (पा)द्मरागं वा भूमिपुत्रं विदुर्बुधाः ।
दक्षिणाभिमुखं भौमं पूजयेत्मयतः सुधीः496 ॥ ११ ॥
करवीरैर्जपापुष्पैः सिन्दूरीसंभवैस्तथा ।
अन्यैश्च लोहितैः पुष्पैरर्चयेद्भूमिनन्दनम् ॥ १२ ॥
आगच्छ पृथिवीपुत्र भरद्वाजकुलोद्भव ।
उज्जयिन्यधिषश्रीमंचतुर्बाहो महामते ॥ १३ ॥
शूलशक्तिगदापाणे वरदाभयमण्डित ।
अहो भौमःग्रहाध्यक्ष यज्ञेऽस्मिन्कु497रु संनिधिम् ॥ १४ ॥
इत्यावाह्य धरासूनुं मङ्गलं मङ्गलायनम्498 ।
यदक्रन्देति भौमस्य होममन्त्रं विदुर्बुधाः ॥ १५ ॥
अग्निर्मूर्धा दिव इति मन्त्रो लोहितपूजने ।
द्वयोरसंभवे मन्त्रो गायत्री संप्रकीर्तिता ॥ १६ ॥
पूजनावाहनादीनामिदं मन्त्रत्रयं मतम् ।
समिधः खदिरस्यात्र चरुद्रव्यं प्रधानकम् ॥ १७ ॥
सहस्रं समिधां प्रोक्तं सहस्रं हवनं चरोः ।
पूर्ववत्स्युर्व्याहृतयः सहस्रं वाऽयुतं ततः ॥ १८ ॥
प्रायश्चित्तं घृतेनैव सर्वैः स्विष्टकृतं भवेत् ।
होमान्ते बलिदानं च कर्तव्यं विधिवत्तथा ॥ १९ ॥
शान्तिपाठं499 ततो विद्वान्पठेद्विप्रसमन्वितः ।
पुनः पूजां ततः कृत्वा दानं दद्यात्ततः परम् ॥ २० ॥
रक्तवस्त्रम500नड्वांश्च विद्रुमं भौमतुष्टिदम् ।
रक्ताश्च व्रीहयो रक्ता आढक्यो भौमतुष्टिदाः ॥ २१ ॥
ताम्रं दद्याद्यथालाभं सुवर्णंतद501भावतः ।
अभिषिक्तस्ततः कर्ता दानं दत्त्वा502 यथाविधि ॥ २२ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चादाचार्यं प्रार्थयेत्ततः ।
मूलमन्त्रेण तत्सर्वंभौमपीठं समर्पयेत् ॥ २३ ॥
आचार्याय कुलीनाय शास्त्रज्ञाय कुटुम्बिने ।
एवं कृते विधाने च भौमशान्तिर्भवेदिह ॥ २४ ॥
तुष्टिदः पुष्टिदो भौमः प्रसन्नो जायते नृणाम् ।
ददाति विपुलान्भोगान्नात्र कार्या विचारणा ॥ २५ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शान्तिपटलोक्तं मङ्गलपूजाविधानम् ।
** अथ बुधपूजाविधानम् ।**
प्रथमस्तु503 तृतीयस्तु पञ्चमः सप्तमस्तथा ।
नवमो दशमश्चैव द्वादशो504ऽशुभदो बुधः ॥ १ ॥
उद्वेगं मनसो व्याधिं धनहानि तनोति च ।
तस्य शान्तिःप्रकर्तव्या नरेण हितमिच्छता ॥ २ ॥
शुभवारादिपञ्चाङ्गे प्रारभेच्छान्तिकं विदः ।
अन्येषां वलमादाय चन्द्रादीनां कृताह्निकः ॥ ३ ॥
आचार्यं वेदशास्त्रज्ञं समाहूय समञ्जसम् ।
वरपेद्यज्ञसिद्ध्यर्थमृत्विग्भि505र्ब्राह्मणैः सह ॥ ४ ॥
काञ्चनस्य तरोः पट्टे पूज्यश्चन्द्रसुतो506 ग्रहः ।
वस्त्रे तु नूतने रम्ये मण्डले बाणसंमिते ॥ ५ ॥
उद्बुध्यस्वेत्यृचा सोमसुतस्याऽऽवाहनादिकम् ।
होमान्तं कर्म कुर्वीत गायत्र्या वा समाहितः ॥ ६ ॥
उत्तराभिमुखः सौम्यःपूजनीयो मनीषिभिः ।
अहो चन्द्रसुत श्रीमन्मगधक्ष्मासमुद्भव ॥ ७ ॥
अत्रिगोत्र चतुर्बाहो खड्गखेटकधारक ।
गदावरद सिंहस्थ तप्त507कार्तस्वरप्रभ ॥ ८ ॥
नीलपङ्कजपत्रस्थ इदं विष्णुरितीडित ।
इत्यादिसकलं कृत्वा सुवर्णतनुमुत्तमम् ॥ ९ ॥
सौम्यं तत्र समाहूय पूजयेत्प्रयतः सुमैः ।
शतपत्रैश्च कह्लारैः सुस्निग्धैस्तुलसीदलैः ॥ १० ॥
गन्धं पुष्पं तथा धूपं दीपं नैवेद्यमेव च ।
ताम्बूलं च सकर्पूरं वुधप्रीत्यै निवेदयेत् ॥ ११ ॥
ततः स्थण्डिलमाधाय स्वगृह्योक्तं विचक्षणः ।
कृत्वा वह्निमुखं सम्यक्समिधो जुहुयात्ततः ॥ १२ ॥
अपामार्गस्य सुस्निग्धाः सहस्रं शुभलक्षणाः ।
\ [x508 सघृतं पायसं पश्चात्तत्संख्यं च विचक्षणः ॥ १३ ॥ ]
पद्मैश्च शतपत्रैश्च बिल्वपत्रैश्च शोभनैः ।
खर्जूरैर्नारिकेलैश्च द्राक्षैः कदलबिल्वकैः ॥ १४ ॥
हवनं तु यथालाभं कुर्याच्छ्रद्धासमन्वितः ।
पायसं च प्रधानं च पायसं स्विष्टकृद्भवेत् ॥ १५ ॥
होमान्ते प्रतिपूजान्ते दानं दद्याद्विचक्षणः ।
सुवर्णं पलसंख्याकं पलार्धं तदभावतः ॥ १६ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्यथाशक्ति शुचिव्रतान् ।
एवं कृते विधाने च प्रसन्नो जायते बुधः ॥
तुष्टिकृत्पुष्टिकर्ताच नात्र कार्या विचारणा ॥ १७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शान्तिपटलोक्तं बुधपूजाविधानम् ।
——————
अथ गुरुपूजाविधानम् ।
जन्मंस्थो वा तृतीयस्थो गुरुर्दोषिकरो भवेत् ।
तथा षष्ठश्चतुर्थोऽपि मृतिकर्मव्ययस्थितः ॥ १ ॥
हानिं शरीरपीडां च कुरुते नात्र संशयः ।
विधानं तत्र कर्तव्यं नरेण हितमिच्छता ॥ २ ॥
शुभकाले प्रकर्तव्यं विधिवत्पूजनं गुरोः ।
कृत्वा निष्कस्वर्णमयीं मूर्ति चापि विचक्षणः ॥ ३ ॥
पूजयेद्बादरे पट्टे प्रतिष्ठाप्य बृहस्पतिम् ।
पीठे तण्डुलजे कार्यं पट्टिशाकारमण्डलम् ॥ ४ ॥
उत्तराभिमुखस्तत्र पूजनीयो बृहस्पतिः ।
पुष्पैरगस्त्यसंभूतैश्चम्पकैः शतपत्रकैः ॥ ५ ॥
अहो वाचस्पते जीव सिन्धुमण्डलसंभव ।
एह्याङ्गिरससंभूत हयारूढ चतुर्भुज ॥ ६ ॥
दण्डाक्षसूत्रवरदकमण्डलधर प्रभो ।
महानिन्द्रेति संपूज्यो विधिवन्नाकिनां गुरुः ॥ ७ ॥
ब्रह्म ब्रह्मेति मन्त्रेण गायत्र्या वा समाहितः ।
सहस्रं509 समिधश्चात्र बोधिपादपसंभवाः ॥ ८ ॥
चरुर्वा पायसो वाऽपि प्रधानमिह संमतम् ।
सहस्रसंमितं कर्ता विदध्याद्धवनं गुरोः ॥ ९ ॥
विल्वानि नारिकेलानि जुहुयाद्धोमसिद्धये ।
प्रायश्चित्ते घृतं कार्यं पायसं स्विष्टकृद्भवेत् ॥ १० ॥
व्याहृतीर्जुहुयाद्धीमान्होमसिद्ध्यर्थमेव च ।
होमान्ते प्रतिपूजा स्याद्देवाचार्यस्य तुष्टये ॥ ११ ॥
गन्धं मलयजं चात्र दशाङ्गो धूप उत्तमः ।
पुष्पं चागस्त्यसंभूतं दीप आज्येन पूरितः ॥ १२ ॥
नैवेद्यं दधिभक्तस्य ताम्बूलेन समन्वितम् ।
एवं कृत्वा विधानज्ञः प्रतिपूजां510 बृहस्पतेः ॥ १३ ॥
श्रेयःसंपादनादूर्ध्वं प्रदद्यात्पीतमम्बरम् ।
दुकूलं मुख्यमेवात्र समुद्दिष्टं मनीषिभिः ॥ १४ ॥
कार्पासजमथाभावे दुकूलस्याक्षतं नवम् ।
आचार्याय कुलीनाय श्रोत्रियाय कुटुम्बिने ॥ १५ ॥
दद्यात्सदक्षिणां (णं) कर्ता प्रीतये नाकिनां गुरोः ।
ऋत्विग्भ्यश्च धनं देयं ब्रह्मणे धेनुरुत्तमा ॥ १६ ॥
बलिप्रदानात्तुष्टस्य स्वर्गिभि (गीर्भि)र्वा बृहस्पतेः ।
कृत्वा पूजां विधानज्ञो भोगानाप्नोति पुष्कलान् ॥ १७ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शान्तिपटलोक्तं गुरुपूजाविधानम् ।
—————
अथ शुक्रपूजाविधानम् ।
द्वितीयः सप्तमः काव्यो दशमो गोचरेऽशुभः ।
अन्यत्र यादृशो दृष्टः प्रोक्तः शास्त्रविचक्षणैः ॥ १ ॥
गोचरे वर्तमानस्य विवाहे गमने तथा ।
जातकादिषु सर्वत्र दुष्टः पूज्यो भृगूद्वहः ॥ २ ॥
पञ्चाङ्गे शुभतां511प्राप्ते मनसश्चसमुन्नतौ ।
आचार्यं प्रणिपत्याऽऽशु वरयेद्रह्मणा सह ॥ ३ ॥
स्वस्तिवाचनपूर्वं तु कुर्याद्दैत्येश्वरार्चनम् ।
आम्रवृक्षस्य पट्टे तु शुभ्रवस्त्रेण512संयुते ॥ ४ ॥
राजतं भृगुवंश्यं513 तं स्थापयेन्मन्त्रविद्द्विजः ।
पञ्चामृतैस्तु संस्नाप्य संध्यार्कसुमनोहरैः ॥ ५ ॥
समुच्चार्य प्रयोगं च तण्डुलोपरि विन्यसेत् ।
मण्डले पञ्चकोणे च विहिते तण्डुलोत्तमैः ॥ ६ ॥
नाम वंशं समुच्चार्य दानवेज्यं समाह्वयेत् ।
अहो भोजकटे जात शुक्र श्वेताश्ववाहन ॥ ७ ॥
समागच्छ चतुर्बाहो भृगुगोत्रविभूषण ।
परिघाक्षावलीहस्त कमण्डलुधर प्रभो ॥ ८ ॥
पूर्वे514 पत्रेऽपि शु (श) क्रस्य शुक्रज्योतीति ( तिस्तु ) पूजित ।
कृत्वा चाग्निमुखं विद्वान्सघृतं जुहुयाच्चरुम् ॥ ९ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं च यज्ञाङ्गसमिधस्तथा ।
यथाविधि हुते द्रव्ये कृ (हु) ते स्विष्टकृते तथा ॥ १० ॥
गन्धपुष्पादिकं सर्वं विदध्यात्प्रतिपूजने ।
श्वेतं तुरंगमं दद्याद्दक्षिणार्थं च भक्तिमान् ॥ ११ ॥
एवं संपूजिते दैत्यगुरौ क्षेममवाप्नुयात् ।
यात्रामुखे विवाहे च गोचरे गृहवेशने ।
पूज्यो दैत्येन्द्रपूज्योऽसौ नात्र कार्या विचारणा ॥ १२ ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शान्तिपटलोक्तं शुक्रपूजाविधानम् ।
** ——————**
** अथ शनैश्वरपूजाविधानम् ।**
प्रथमस्तु द्वितीयस्तु चतुर्थः पञ्चमस्तथा ।
सप्तमश्चाष्टमो मन्दो नवमो द्वादशोऽशुभः ॥ १ ॥
करोति प्राणिनां देहधनदेशपरिप्लवम् ।
कालोऽयं शनिरूपेण वर्तते भुवनत्रये ॥ २ ॥
पूजनीयः प्रयत्नेन होमदानार्चनादिभिः ।
जन्मसंस्थेन मन्देन रावणो विनिपातितः ॥ ३ ॥
तेनैव च द्वितीयेन कार्तवीर्यो निपातितः ।
चतुर्थेनासुराध्यक्षः पञ्चमेन नलो नृपः ॥ ४ ॥
स्वराज्यात्मापितो भ्रंशं515 द्युम्नसेनोऽस्तगेन वै ।
अष्टमेन महादेवो गजरूपी कृतः पुरा ॥ ५ ॥
नवमेन कुरुश्रेष्ठो द्यूताधीनस्तु कारितः ।
द्वादशेनार्कपुत्रेण जमदग्निर्निपातितः ॥ ६ ॥
न बलप्रौढिरुग्रत्वं न ज्ञातृत्वं न निह्ववः516 ।
सुभक्ति517पूजनं चात्र शनैश्चरसुतुष्टिदम् ॥ ७ ॥
स्वगृह्योक्तेन विधिना पूजनीयः शनैश्चरः ।
सर्वकामफलावाप्त्यै नात्र कार्या विचारणा ॥ ८ ॥
कृष्णाञ्जनमये पीठे खादिरे वाऽऽयसे तथा ।
तण्डुलैःकारयेत्पीठं कर्णिकाभिरलंकृतम् ॥ ९ ॥
पश्चिमे पद्मपत्रे च मण्डलं धनुराकृति ।
कृत्वा तु स्थापयेत्तत्र सूर्यपुत्रं यथाविधि ॥ १० ॥
ततश्चाऽऽवाहनमन्त्रः—
अहो सौराष्ट्रसंजात च्छायापुत्र चतुर्भुज ।
कृष्णवर्णार्कगोत्रीय वाणहस्त धनुर्धर ॥ ११ ॥
त्रिशूलिंश्च समागच्छ वरदो गृध्रवाहन ।
प्रजापते तु संपूज्यःसरोजे पश्चिमे दले ॥ १२ ॥
इत्यावाह्य धनुराकृतिकृष्णगिरिकर्णिकापुष्पैः सहस्रं ( ह तं ) प्रतिष्ठापयेत् ।
प्रजापते तु मन्त्रेण कुर्याद्धोमादिकं बुधः ।
सहस्रसंमितं कुर्या518द्भवनं चरुणा बुधः ॥ १३ ॥
होमान्ते विधिवद्दद्यात्कृष्णां धेनुं पयस्विनीम् ।
मूर्तिं519 च सूर्यपुत्रस्य दद्याल्लोहमयीं शुभाम् ॥ १४ ॥
सदक्षिणां सवस्त्रां च कुलीनाय कुटुम्बिने ।
आचार्याय शुभाचारो ब्रह्मणे महिषीं तथा ॥ १५ ॥
अन्येभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च दद्याद्द्रव्यं यथावसु ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चान्नानागोत्रसमुद्भवान् ॥१६॥
या मूर्तिः पूजिता होमे त्वर्कजस्याऽऽयसी शुभा ।
दत्त्वा विप्राय तां पश्चाद्या520चयेत्प्रतिनिष्क्रयात् ॥१७॥
तैलभाण्डे विनिक्षिप्य शिक्यारूढां तु कारयेत् ।
ब्राह्मणान्भोजयेच्छक्त्या तिलान्माषांस्तु निर्वपेत् ॥१८॥
अभावे विप्रभुक्तेस्तु विधिरेष सनातनः ।
एवं कृत्वा विधानं तु सर्वदा सुखमा521प्स्यति ॥१९॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शान्तिपटलोक्तं
शनैश्चरपूजाविधानम् ।
——————————–
अथ शकटभेदविधानम् ।
शौनक उवाच—
रघुवंशे सुविख्यातो राजा दशरथः पुरा ।
चक्रवर्ती स विजयी सप्तद्वीपाधिपो नृपः ॥१॥
कृत्तिकान्ते शनिं ज्ञात्वा दैवज्ञैर्ज्ञापितो हि सः ।
रोहिणीं भेदयित्वा तु शनिर्यास्यति सांप्रतम् ॥२॥
श (शा) कटो भेद इत्युक्तः सुरासुरभयंकरः ।
द्वादशाब्दं च दुर्भिक्षं भविष्यति सुदारुणम् ॥३॥
एवं522 धृत्वा ततो वाक्यं मन्त्रिभिः सह पार्थिवः ।
मन्त्रयामास किमिदं भयंकरमुपस्थितम् ॥४॥
देशाश्च नगरग्रामा भयभीताः समन्ततः ।
आकुलं च जगद्दृष्ट्वा घोरं जनपदादिकम् ॥५॥
धनं हि सर्वलोकानां क्षयायैतत्समागतम् ।
पप्रच्छ प्रयतो राजा वशिष्523ठप्रमुखान्द्विजान् ॥६॥
दशरथ उवाच—
समाधानं किमत्रास्ति ब्रूहि तद्द्विजसत्तम ।
कालत्रयस्य विज्ञाने यतः स्याद्भवतो मतिः ॥७॥
वशिष्ठ उवाच—
प्रजापालनकृद्राजा तस्मिन्भीते524 कुतः प्रजाः ।
लोकानां पालनायैव निर्मितः परमेष्ठिना ॥८॥
सर्गस्तु525 ब्रह्मणा कार्यो यज्ञभु (मु) क्तिस्तु विष्णुना ।
प्रजानां पालनं राज्ञा कर्तव्यं धर्मलिप्सया ॥९॥
एष एव परो धर्मो राज्ञां प्रोक्तो मनीषिभिः ।
न लोकाल्लँभते राजन्नरक्षन्नृपतिः प्रजाः ॥१०॥
न च स्फुरत्युपायोऽन्यस्तच्चक्रस्य विरोधकृ (ना) त् ।
रोहिणीऋक्षशकटभेदाद्भुतसुशान्तये ॥११॥
शौनक उवाच—
तदा526 विविच्य मनसा साहसं परमं नृपः ।
समादाय धनुर्दिव्यं दिव्यायुधसमन्वितम्527 ॥१२॥
रथमारुह्य वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम् ।
योजनानां गतो लक्षं सूर्यादुपरि संस्थितः ॥१३॥
रोहिणीं पृष्ठतः कृत्वा राजा दशरथो बली ।
रथे तु काञ्चने दिव्ये मणिव्रातविभूषणे528 ॥१४॥
हंसवर्णहयैर्युक्ते महाकेतुविभूषिते ।
दीप्यमानो महारत्नैर्निषक्तैर्मर्कतैरिव (र्मुकुटोपरि) ॥१५॥
बभ्राज स तदाऽऽकाशे द्वितीय इव भास्करः ।
आकर्णपूरिते चापे संहारास्त्रमयोजयत् ॥१६॥
कृत्तिकान्ते शनिः स्थित्वा प्राविशत्किल रोहिणीम् ।
स ददर्श नृपालं तं भ्रुकुटीकुटिलाननम् ॥
हसित्वा तद्भयात्सौरिरिदं वचनमब्रवीत् ॥१७॥
शनिरुवाच—
पौरुषं तव राजेन्द्र परं रिपुभयंकरम् ।
देवासुरमनुष्याश्च सिद्धा विद्याधरोरगाः ॥१८॥
मयाऽवलोकिता राजन्दैत्यदानवपुंगवाः ।
राजानो बहवः शूराः कलां नार्हन्ति तेऽनघ ॥१९॥
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र तपसा पौरुषेण च ।
क्षात्रेण तेजसा राजंस्त्वदन्यो नास्ति भूतले ॥२०॥
वरं ब्रूहि प्रदास्यामि मनोभिलषितं529 नृप ।
मा कुरुष्वात्र संदेहं सर्वकामप्रदो ह्यहम् ॥२१॥
दशरथ उवाच—
रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं त्वया शने ।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कभूमयः ॥२२॥
याचितं हि मया सौरे नान्यमिच्छामि ते व ( त्वद्व) रम् ।
यतो हि भगवानिन्द्रविष्णुरुद्रार्कसंनिभः ॥२३॥
एवमस्त्विति स प्राह च्छायामूर्तिसमुद्भवः ।
संप्राप्यैवं वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा ॥२४॥
द्वादशाब्दं तु दुर्भिक्षं भविष्यति न जातुचित् ।
कीर्तिरेषा मदीयाऽस्तु त्रैलोक्ये530 तु चराचरे ॥२५॥
एवं वरं तु संप्राप्य हृष्टचित्तस्तु पार्थिवः ।
रथोपस्थे धनुः❋531 स्थाप्य भूत्वा चैत्र कृताञ्जलिः ॥२६॥
ध्यात्वा सरस्वतीं देवीं गणनाथं विनायकम् ।
राजा दशरथः स्तोत्रं सौरेरिदमथाकरोत् ॥२७॥
दशरथ उवाच—
ॐ नमः कृष्ण नीलाय शितिकण्ठनिभाय च ।
+532 नमो निर्मांसदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ॥२८॥
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदरभ (श) याय च ।
नमः परुषगात्राय स्थूलरोम्णे नमो नमः ॥
नमो नित्यक्षुधार्ताय अ(ह्य)तृप्ताय च वै नमः ॥२९॥
नमो दीर्घाय शुष्काय काणदृष्टे नमो नमः ।
नमस्ते क्रोधरूपाय दुर्निरीक्षाय वै नमः ॥
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने ॥३०॥
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोस्तु ते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदायिने ॥३१॥
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिशास्त्र नमोऽस्तु ते ॥३२॥
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च ।
ज्ञानदृष्टे नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मजसूनवे ॥३३॥
तुष्टो ददासि राज्यं च रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।
देवासुरमनुष्याश्चसिद्धविद्याधरोरगाः ॥३४॥
त्वयाऽवलोकिताश्चैते दैन्यमाशु533 व्रजन्ति हि ।
ब्रह्मा शक्रो मनुश्चैव ऋषयः सप्त तारकाः ॥३५॥
राज्यभ्रष्टाः पतन्तीह तव दृष्ट्यावलोकिताः ।
देशाश्च नगरग्रामा द्वीपानि सरितस्तथा ॥२६॥
त्वयाऽवलोकिताः सर्वे न दृश्यन्ते समूलतः ।
प्रसादं कुरु मे सौरे वरदो भव भास्करे ॥३७॥
एवं स्तुतस्तदा सौरिग्रहराजो महाबलः ।
अब्रवीच्च ततो वाक्यं हृष्टरोमा स भास्करिः ॥३८॥
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र स्तोत्रेणानेन सुव्रत ।
वरं534 ब्रूहि प्रदास्यामि मनसा यदभीप्सितम् ॥
तत्सर्वं तव दास्यामि राजवर्य महामते ॥३९॥
दशरथ उवाच—
प्रसन्नो यदि535 मे सौरे वरं देहि ममेप्सितम् ।
अद्यप्रभृति भोः सौरे पीडा कार्या न कस्यचित् ॥४०॥
देवासुरमनुष्याणां पशुपक्षिशरीरिणाम् ।
सर्वेषामपि लोकानां क्षेमदो भव भास्करे ॥४१॥
शनैश्चर उवाच—
गृह्णन्तीति ग्रहा ज्ञेया ग्रहाःपीडाकराः स्मृताः ।
यद्देयस्तु536 वरो ह्येष भक्त्या चैव ददामि ते ॥४२॥
त्वया प्रोक्तं मम स्तोत्रं537 यः पठिष्यति मानवः ।
एककालं द्विकालं वा पीडां मुञ्चामि तस्य वै ॥४३॥
मृत्युस्थानस्थितो वाऽपि जन्मस्थानगतोऽप्यहम् ।
यः पुनः श्रद्धया युक्तः538 शुचिस्नानसमाहितः ॥४४॥
शमीपत्रैः समभ्यर्च्य प्रतिमां लोहजां मम ।
मद्दिने तु विशेषेण स्तोत्रेणानेन पूजयेत् ॥४५॥
पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भक्त्या चैव कृताञ्जलिः ।
तस्य पीडां न चैवाहं करिष्यामि कदाचन ॥४६॥
गोचरे जन्मराशौ वा दशास्वन्तर्दशासु च ।
रक्षामि सततं चाथ पीडाभ्योऽन्यग्रहस्य च ॥४७॥
वरं प्राप्य ततो राजा शनिनोक्तं महीपतिः ।
उवाच प्रणिपत्याऽऽशु सूर्यपुत्रं539 शनैश्चरम् ॥४८॥
दशरथ उवाच—
विधानं कि ग्रहाधीश प्रसन्नीकरणे तव ।
रोहिणीशकटोद्भेदे शनैश्चर वदस्व तत् ॥४९॥
शनिरुवाच—
पूजने मम यद्द्रव्यं जाप्यं वा हवनं नृपः ।
स्वगृह्योक्तेन विधिना कर्तव्यं मम तुष्टये ॥५०॥
प्रतिमां लोहजां राजन्कृत्वा मम चतुर्भुजाम् ।
वरदामधनुःशूलवाणाङ्कितकरान्विताम् ॥५१॥
तैले वा तिलराशौ वा प्रतिष्ठाप्य यथाविधि ।
पूजयेच्चैव मे मन्त्रैः कुङ्कुमादिविलेपनैः ॥५२॥
तैलाक्षतैः कृष्णगन्धैस्तुलसीभिः शमीदलैः ।
दद्यान्मे प्रीतये राजन्कृष्णां धेनुं पयस्विनीम् ॥५३॥
तिलांस्तैलं च माषांश्च लोहं कृष्णे च वाससी ।
एवं विशेषपूजां यो मद्वारे कुरुते नृपः ॥५४॥
मम प्रीतिकरं स्तोत्रं पठेद्भक्त्या कृताञ्जलिः ।
मन्नामान्युपदिष्टानि540 जपेच्च नियतः शुचिः ॥५५॥
तत्कुले मम पीडा नो भविष्यति कदाचन ।
●541 नन्दते सुखसंतानै542 रागद्वेषविवर्जितः ॥५६॥
कोणस्थः543 पिङ्गलो बभ्रुः कृष्णो रौद्रोऽन्तको यमः ।
सौरिः शनैश्चरो मन्दः पिप्पलादेन संस्तुतः ॥५७॥
एतानि शनिनामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
शनैश्वरकृता पीडा न कदाचिद्भविष्यति ॥५८॥
मतान्तरे—
अयुतान्ब्राह्मणान्साधून्यथेष्टं भोजयेत्सुधीः ।
ताम्बूलैर्विविधैर्वस्त्रैर्दक्षिणाभिश्च तोषयेत् ॥५९॥
यथा544 च सप्तर्षिमते—
यदा कदाचित्समये जगतां विप्लवाय च ।
शकटो भिद्यते ब्रह्मन्मन्देन यमरूपिणा ॥६०॥
अनड्वान्दीयते कृष्णः शकटं चार्पयेच्छुभम् ।
चक्रे लोहमये कृष्णे सर्वोपस्करसंयुते ॥६१॥
श्रोत्रियाय सुशीलाय ब्राह्मणाय समर्पयेत् ।
नाममन्त्रेण मन्दस्य दक्षिणासहितं नृपः ॥६॥
इति शनैश्चरपूजाविधिः ।
_______
पुनः स्तोत्रम् ।
कोणोऽन्तको रौद्रयमोऽपि ( मौ च ) बभ्रुः
कृष्णः शनिः पिङ्गल एव मन्दः (सौरिमन्दाः) ।
नित्यं स्मृतो यो हरते च पीडां
तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥१॥
सुरासुराः किंपुरुषा गणेशाः
गन्धर्वविद्याधरपन्नगाश्च।
♦545पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेऽस्मि-
स्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥२॥
नरा नरेन्द्राः पशवो मृगेन्द्रा
धन्याश्च ये कीटपतङ्भृङ्गाः ।
__________________
पीड्यन्ति जन्मर्क्षगते च यस्मि-
स्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥३॥
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यस्य
ग्रामा निवेशाः पुरपत्तनानि ।
पीड्यन्ति यस्मिन्विषमस्थिते च
तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥४॥
तिलैर्यवैर्माषविधानदानै-
र्लोहेन कृष्णाम्बरदानतो वा ।
प्रीणाति मन्त्रैर्निजवासरे च
तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥५॥
अन्यप्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्टो
मदीयवारे स नरः सुखी स्यात् ।
गृहागतो यो न पुनः प्रयाति
तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥६॥
स्रष्टा स्वयंभूर्भुवनत्रयस्य
त्राणे हरिः संहरणे महेशः ।
एकस्त्रिधा त्वृग्यजुःसाममूर्ति
स्तस्मै नमः श्री रविनन्दनाय ॥७॥
प्रयागकूले यमुनातटे च
सरस्वतीपुण्यजले गुहायाम् ।
यो योगिभिर्ध्येयतमोऽतिसूक्ष्म-
स्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥८॥
शन्यष्टकं यः पठति प्रभाते
नित्यं स पुत्रैः पशुबान्धवैश्च ।
करोति राज्यं भुवि भोगसौख्यं
प्राप्नोति निर्वाणपदं546तथाऽन्ते ॥९॥
एवं कृते विधानेऽस्मिन्छकटोद्भेदकाभिधे ।
नश्यन्ति जगतः पीडा नात्र कार्या विचारणा ॥१०॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां स्कन्दपुराणोक्तं रोहिणीशकटभेदविधानम् ।
___________
अथ राहुपूजाविधानम् ।
प्रथमस्तु द्वितीयस्तु चतुर्थः पञ्चमस्तथा ।
सप्तमश्चाष्टमोऽङ्कस्थोदशमो द्वादशस्तमः ॥१॥
करोति मरणं पुंसां देशत्यागं धनक्षयम् ।
विकाराञ्छोणितस्यापि युद्धे चैव पराजयम् ॥२॥
विवादे वचनग्लानिं दौर्हृदं सुहृदामपि ।
निर्विघ्नार्थं तु संपूज्यो गृह्योक्तविधिना तमः ॥३॥
पूजिते तमसि प्रीते सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।
कालाञ्जनस्य पट्टे च तथा लोहमयेऽपि वा ॥४॥
चतुरस्रेचतुष्पादे नूतने वस्त्रसंयुते ।
अक्षतैः पूरिते सम्यक्तत्र तं स्थापयेद्बुधः ॥५॥
आहूय विधिमार्गेण नाममन्त्रेण तं ग्रहम् ।
शूद्रवर्णसमुद्भूत कृष्णवर्ण चतुर्भुज ॥६॥
श्रीमन्धर्तर्धनुष्पाशावक्षमालां कमण्डलुम् ।
चतुर्दश्यां समुद्भूत कृष्णपक्षे विशेषतः ॥७॥
यमरूप महाघोर देवदैत्यनिबर्हण ।
पैठीनसकुले जात देशे बर्बरसंज्ञके ॥८॥
भरणीतारकायां च सैहिकेय नमोऽस्तु ते ।
आगच्छ वरद श्रेष्ठ पीठेऽस्मिन्संनिधिं कुरु ॥९॥
आवाह्यविधिवद्राहुं पूजयेत्प्रयतः शुचिः ।
ततस्तु हवनं कुर्याद्दूर्वाभिरयुतेन च ॥
प्रधानं +पायसं तत्र साज्यं चैव विशेषतः ॥१०॥
सहस्रंसमितो (तं) होमः (मं) पायसेन प्रकल्पयेत् ।
ततः स्विष्टकृते जाते होमे च विधिवत्तमः ॥११॥
- ’ पितॄनुद्दिश्य यो भक्त्या पायसं मधुसंयुतम् इति सीयते । नपुंसकत्वमघ-
प्रतिपूजां ततः कुर्याद्राहोः प्रीत्यै विशेषतः547 ।
आयसं दक्षिणां दद्यादाचार्याय कुटुम्बिने ॥१२॥
वस्त्रयुग्मं च सूक्ष्मं च कुण्डले कटकानि च ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्भुक्तेष्वनुव्रजेत्ततः ॥१३॥
एवं यः कुरुते पूजां राहोर्गोचरगस्य च ।
दुष्टस्थानस्थितस्याऽऽशु ग्रहपीडा विनश्यति ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥१४॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां शान्तिपटलोक्तंराहुपूजाविधानम् ।
_________
अथ केतुपूजाविधानम् ।
यथा राहुस्तथा केतुर्ज्योतिःशास्त्रे निगद्यते ।
तस्य शान्तिकरं सम्यग्विधानं मुनिभिः स्मृतम् ॥१॥
कृत्वा कांस्यमयं केतुं चतुर्बाहुं महातनुम् ।
धूम्रवर्णं दीर्घहनुं पिङ्गश्मश्रुविलोचनम् ॥२॥
एके वदन्ति केतूनां रूपबाहुल्यमञ्जसा ।
एकमेवेति चान्ये तु सहस्रं त्वपरे विदुः ॥३॥
महाभया महारौद्रा महाभयकरा नृणाम् ।
केतवस्त्रिषु लोकेषु तस्मात्पूज्याः सदा नृणाम् ॥४॥
नामगोत्रे समुच्चार्य मन्त्रैराबाहयेद्बुधः ।
निवेश्य चित्रपट्टे548 तु तण्डुलैःपरिपूरिते ॥५॥
वस्त्रयुग्मसमायुक्ते चन्दनेन सुचर्चिते ।
पञ्चामृतैस्तु संरनाप्य समाहूय निवेशयेत् ॥६॥
तत्राऽऽवाहनमन्त्रः—
अहो केतो महाबाहो विशाखा❋549 तारसंभव ।
अमावास्यातिथौजात शूद्रवर्णसमुद्भव ॥७॥
आदित्यचन्द्रभयद कालरूप नमोऽस्तु ते ।
आगच्छ वरदानन्द नन्दनोद्भव सुव्रत ॥८॥
____________________________
यज्ञेऽस्मिन्कुरु सांनिध्यं कामान्मे पूरय प्रभो ।
केतुं कृण्वन्निति मनुः पूजाहोमविधौ स्मृतः ॥९॥
चित्रान्नं हवने चात्र कुशाश्च समिधस्तथा ।
अयुतं हवने संख्या प्रबलं550 स्मृतमत्र वै ॥१०॥
कृ(हु)ते स्विष्टकृते कार्या प्रतिपूजा मनीषिभिः ।
छागस्तु दक्षिणा चात्र केतूनां प्रीतये मता ॥११॥
संपाद्य विधिवद्भक्त्या ह्याचार्याय मनीषिणे ।
मूर्ति छागं च वस्त्रेण नमस्कुर्यात्प्रयत्नतः ॥१२॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्दद्यात्तेभ्यश्च दक्षिणाम् ।
एवमर्कादिखेटानां पूजनं परिकीर्तितम् ॥१३॥
य ( त ) स्य य ( त )स्य च खेटस्य होमे वह्नेः पृथक्पृथक् ।
नामानि कथितान्येव यज्ञकर्मविशारदः ॥१४॥
आदित्ये कपिलो नाम पिङ्गलः सोम उच्यते ।
धूमकेतुस्तथा भौमे जठरास्थि (ग्नि)धस्य च ॥१५॥
गुरौ चैव शिखी नाम शुक्रे भवति हाटकः ।
शनैश्चरे महातेजा राहौ केतौ हुताशनः ॥१६॥
अविदित्वाऽग्निनामानि होमं कुर्याद्विचक्षणः ।
तद्भुतं न च संस्वर्ग्यं न च यज्ञफलं भवेत् ॥१७॥
एवं विधानमुद्दिष्टं केतूनां पूजने मतम् ।
सर्वकामप्रदं नॄणां नारीणां च विशेषतः ॥१८॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां शान्तिपटलोक्तं केतुपूजाविधानम् ।
_________________
अथ तुलापुरुषविधानम् ।
मत्स्यपुराणे सूत उवाच—
अथातः संप्रवक्ष्यामि महादानानुकीर्तनम् ।
दानधर्मेऽपि यन्नोक्तं551 विष्णुना प्रभविष्णुना ॥१॥
तदहं संप्रवक्ष्यामि महादानमनुत्तमम् ।
सर्वपापक्षयकरं नृणां दुःस्वप्ननाशनम् ॥२॥
यत्तु षोडशधा प्रोक्तं वासुदेवेन भूतले ।
पुण्यं पवित्रमायुष्यं सर्वपापहरं शुभम् ॥३॥
पूजितं देवताभिश्च ब्रह्मविष्णुहरादिभिः ।
आद्यं तु सर्वदानानां तुलापुरुषसंज्ञकम् ॥४॥
हिरण्यगर्भदानं च ब्रह्माण्डं तदनन्तरम् ।
कल्पपादपदानं च गोसहस्रं च पञ्चमम् ॥५॥
हिरण्यकामधेनुश्च हिरण्याश्वस्तथैव च ।
हिरण्याश्वरथस्तद्वद्धेमहस्तिरथस्तथा॥६॥
पञ्चलाङ्गलकं तद्वद्धरादानं तथैव च ।
द्वादशं विश्वचक्रं च ततः कल्पलतात्मकम् ॥७॥
सप्तसागरदानं च रत्नधेनुस्तथैव च ।
महाभूतघटस्तद्वत्षोडशं परिकीर्तितम् ॥८॥
सर्वाण्येतानि कृतवान्पुरा शम्बरसूदनः ।
मनुरुवाच—
महादानानि यान्येव पवित्राणि552 शुभानि च ॥९॥
रहस्यानि प्रदेयानि तानि मे कथयाच्युत ।
मत्स्य उवाच -
नोक्तानि यानि गुह्यानि महादानानि षोडश ॥१०॥
तानि ते संप्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः ।
तुलापुरुषयोगो553ऽयमेषामाद्योऽभिधीयते ॥११॥
अयने विषुवे पुण्ये व्यतीपाते दिनक्षये ।
युगादिषूपरागेषु तथा मन्वन्तरादिषु ॥१२॥
संक्रान्तौ वैधृतिदिने चतुर्दश्यष्टमीषु च ।
सितपञ्चदशीपर्वद्वादशीष्वष्टकासु च ॥१३॥
यज्ञोत्सवविवाहेषु दुःस्वप्नाद्भुतदर्शने ।
द्रव्यब्राह्मणलाभे वा श्रद्धा वा यत्र जायते ॥१४॥
तीर्थे वाऽऽयतने गोष्ठे कूपारामसरित्सु च ।
गृहे वाऽथ वने वाऽपि तडागे रुचिरे तथा ॥ १५ ॥
समय हुचा ब्राह्मणवाचतम्
पुम्यां विधि
बूर्गांडौ च नि सेनि चेदितव्यम् ब्राह्मणाचनं नाम ब्रह्मपुत्पादिशब्दवा-
चलम् \। यानंतु परिभाषा
न्यतमकाक्षापूर्वेषुः
नातः सुस्ताः श्रोभूदान प्रतिपाइविध्य इति
राजमातः संहरूप्य मत्युहन्यापुज्य ब्राह्मणा
तुझाती कर्म समारत अब बुद्धिवाद इत्यातमुनिववरणं विधाय तांच
पाने संपूजये\।
पाचां द्रव्यानि । विशे
॥ १६ ॥
पोशारत्नपार्जन
अवयंस बुचः ।
तथा चाह
यजमानस्यैश शिन्यतः
कमाययभेदेन विशे-
यम् । चतुभयोमनमिति चत्वारि सान्यासनानि
दानमसामविकृत्य विश्वकर्मा-
द्वारेक्तुभिर्निगतैः या र्भिः सह
विभूषित सुपूर्तरुपा
रातामाता सनई हिन्द्रीयस्याः ॥ इति ।
१७
\। कुयोती महात्मयं बुवः
समकतावावित व्यवस्थित विकल्पः। मा
तत्मध्ये वृत्तावन्यतार्थ तोरण भारताल
उत्तमममहमे
चेद्रकापची चतुर्भशस्तित
माकेगुदीन्याडियक्ष्यमाणं कुर्या
चतुदेह बेद्या शनिवेद्यासन्तरं विधेयम् । पुम
कुम्भ जलपूनचेतवः। तात्रय यज्ञमात्रानि बुझक
रु.
वादोनि । विरोऽच्छिमाय। पू सुलुसरे।
उपदारः फलाक्षताम्बूचादिः
पूर्वोत्तरे इस्लामिता बेदी प्रहादिदेवे भराय
अत्रार्चनं ब्रह्मशताः॥ २०॥
पूर्वोच्चर इंशानभाग आयामको विस्तार समिता वितस्तियाजोच्याया बेदी
कार्या। तत्र मध्ये सूर्य । आये सोनम् \। दक्षिणे सौम्। पेशाले वृक्षम् \।
बञ्चरे गुरुम् । पूर्वे भार्गवम् । शनैवान् ने राहुन्। बायव्ये
पत्रिने
केतुं मतिष्ठापयेत् । ईश्वरगौरीफन्दाविरूशकमालचित्र
आत्रेजलभूमिविष्णुशक्रशचीनत्यदेव
स्वस्वग्रहसंनिधौ स्थाप्याः । तथा विनायक दुर्गा कामदेवनी देत
सूर्यशनैशरयोरुत्तरभागे राहुकेन्वोष दक्षिणे विनायकस्य दुर्गावतीनों च
स्थापनम् । तथा जनस्थापनम् \। तेषासुतरक देवतात्वेना के
इत्याधिदेवताः ।
गाव
तदुक्तं सुत्यन्तरे –
वरुणं पक्षिये भागे डुबेरें चोतरे तथा ॥ २१ ॥
अन्यादिकोयनांध कोभानेषु विन्यसेत्
कुवेरन्तु सुषणोभो आ ( च ) विवाद सुवर्णभ
तथैव निर्ऋतिः श्यामो बाहुत ते २३
ईशानस्तु भवेत एवं ध्याय
इन्द्रस्य दक्षिणेला ॥ २३ ॥
देवेशेशालयोध्य आदित्यानां स्थानम् \।
विषयः
॥२६
इन्द्रो विवायूच
बचावको विष्णुरुजयन्यो उपन्यः ॥ २३
इत्येते द्वादशाऽऽदित्या नामभिः परिकीर्तिताः ।
अग्नेः पश्चिमभागे तु रुद्राणामयनं विदुः ॥२८॥
वीरभद्रश्च शंभुश्च गौरीशश्च महायशाः ।
अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी चापराजितः ॥२९॥
भुवनाधीश्वरश्चैव कपाली च554विशांपतिः ।
स्थाणुर्भगश्च भगवान्रुद्रा एकादश स्मृताः ॥३०॥
प्रेतेशरक्षसोर्मध्ये मातृस्थानं प्रकल्पयेत् ।
मातृनामानि परिभाषायां दर्शितानि ।
निर्ऋतेरुत्तरे भागे मन्मथायतनं विदुः ॥३१॥
कुबेरमरुतोर्मध्ये मरुतां स्थानमुच्यते ।
मरुतो नाम वै देवा गणा वै सप्तसप्तकाः ॥३२॥
आवहः प्रवहश्चैव उ(ह्यु) द्वहः संवहस्तथा ।
परावहो विवहश्च तथा परिवहोऽनिलः ॥३३॥
एते सूर्यादयो ग्रहा यज्ञोक्तविधिना पूजनीयाः। अनुक्तमन्त्राणां प्रणवादिभिश्चतुर्थ्यन्तैर्नामभिः स्थापनादि विधेयम् । अथ ब्रह्मशिवाच्युतार्चनं कर्तव्यं तल्लक्षणमन्त्रैरेव । ततः सर्वदेवतार्चने कृते तुलापूजनं कर्तव्यम् ।
तत्र मन्त्रः—
त्वं तुले सत्यरूपाऽसि पुरा देवैर्विनिर्मिता ।
पूजिताऽसि मया देवि पापं हर ममानघे ॥३४॥
अनेन मन्त्रेण षोडशोपचारैस्तुलोपचार्या । ततश्च स्वस्तिके तण्डुलमये हेममयं तुलापुरुषं ध्यानयुक्तं तुलायाःपूर्वतो हस्तचतुष्टये पूजयित्वा पौराणैरेव मन्त्रैः
तुलापुरुष देवेश वणिग्वंशसमुद्भव ।
तुलायां रोहणान्मेऽद्य पापं नश्यतु जन्मनः ॥३५॥
इत्यनेन मन्त्रेण तुलापुरुषं संप्रार्थ्य यदुपनीतं स्वर्णादितुलादानं तत्सर्वंतुलायाःपात्रे विन्यस्य वस्त्रालंकारनिजशस्त्रधारी स्वयं दक्षिण भाजने समारोहेत् ।
तूर्याणां च निनादेन वेदघोषसमन्वितः ।
तत्र स्वर्णतुलापुरुषदानमन्त्रः (?)। बृहस्पतिः—
गृहादिके555 तु तत्पुण्यं भवेन्मूल्यानुसारतः ।
तस्मात्सर्वप्रदानानां हिरण्यमधिकं स्मृतम् ॥३६॥
यथा संतानकादीनां हेम्ना संपाद्यते क्रिया ।
न तथा गृहदानेन हिरण्यमधिकं ततः ॥३७॥
नन्दिपुराणे—
कृष्णलैः पञ्चभिर्माषोमाषैःषोडशभिः स्मृतम् ।
सुवर्णमेकं तद्दानाद्दाता स्वर्गमवाप्नुयात् ॥३८॥
तस्मात्सर्वात्मना पात्रे दद्यात्कनकदक्षिणाम् ।
दानार्थमेव तत्सृष्टं ह्यु॒त्कृष्टं स्वर्गसाधनम् ॥
दानात्परः सुवर्णस्य विधिरेव न विद्यते ॥३९॥
आदित्यपुराणे—
आदित्योदयसंप्राप्तौ विधिमन्त्रपुरस्कृतम् ।
ददाति काञ्चनं यो वै दुःस्वप्नंविनिहन्ति सः ॥४०॥
सर्वदाऽभ्युदिते मित्रे काञ्चनं च ददाति यः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स्वर्गंप्राप्नोत्यविच्युतम् ॥४१॥
मध्याह्ने ददते रुक्मं हन्ति पापमनागतम् ।
सायंकाले च संप्राप्ते काञ्चनं यः समर्पयेत् ॥४२॥
ब्रह्मवाय्वग्निसोमानां लोकानाप्नोति निश्चयात् ।
सुवर्णमक्षयं दत्त्वा लोकानाप्नोति पुष्कलान् ॥४३॥
यस्तु संजनयत्यग्निमादित्योदयनं प्रति ।
दद्याद्यो व्रतमुद्दिश्य सर्वान्कामान्समश्नुते ॥४४॥
रामं प्रति वसिष्ठवाक्यम्—
सर्वरत्नानि निर्मथ्य तेजोराशेः समुत्थितम् ।
सुवर्णमेभ्यो राजेन्द्र रत्नं परममुत्तमम् ॥४५॥
एतस्मात्कारणाद्देवा गन्धर्वोरगराक्षसाः ।
मनुष्याश्च पिशाचाश्च प्रयता वेदयन्ति तत् ॥४६॥
मुकुटैरङ्गदयुतैरलंकारैः पृथग्विधैः ।
सुवर्णविधृतौतत्र विराजन्ते रघूत्तमाः ॥४७॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पवित्रं परमं स्मृतम् ।
पृथिवीं गां च दत्त्वैव तथाऽन्यदपि किंचन ॥४८॥
काञ्चनस्य प्रदत्तस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।
अक्षयं पावनं चैव सुवर्णं पापनाशनम् ॥४९॥
अर्पितं द्विजमुख्येभ्यो मुक्तिमार्गं ददाति च ।
सुवर्णमेव सर्वासु दक्षिणासु विधीयते ॥
सुवर्णं ये प्रयच्छन्ति ते न यान्ति यमक्षयम् ॥५०॥
तत्र दानसंकल्पः—
वस्त्रसुवर्णचारमुक्ताविद्रमशङ्खकर्पूरमृगनाभिचन्दनताम्बूलयुक्तं सुवर्णतुलापुरुषदानं पुराणोक्तफलप्राप्तयेऽद्येत्यादिविशिष्टकाले समस्तकुटुम्बक्षेमप्राप्त्यै नानानामगोत्रेभ्यो विप्रेभ्यः संप्रददे तत्र दानसिद्ध्यर्थं यथाशक्ति सुवर्णं दक्षिणां संप्रदद इति संकल्प्य तुलाया अवरुह्य दण्डवत्प्रणिपत्याऽऽचार्यमभ्यर्च्य ब्रह्मर्त्विगादिभ्यो यथाप्रतिष्ठं तत्सुवर्णंदत्त्वा स्वमन्दिरं व्रजेत् । सा तुला दृढा स्वर्णस्य रौप्यस्य ताम्रस्य वा सदण्डा सपत्रा पलशतत्रयेण निर्मिता तां भाण्डागारे प्रतिष्ठापयेत् । ततश्च लक्षमयुतं सहस्रं वा ब्राह्मणान्भोजयेत् ।
अथान्यत्तत्र सर्वं पूर्ववदेव कृत्वा रौप्यस्य तुलापुरुषं दद्यात् । तत्र रौप्य प्रार्थनं कृत्वा
अद्योत्याद्युक्त्वेदं रजतं सोमदेवत्यमभिनवरौप्यतुलापुरुषसहितं स्वर्गप्राप्तिकामोऽहं नानागोत्रेभ्यःब्राह्मणेभ्यः संप्रददे ।एतद्रौप्यतुलापुरुषदानप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थं यथाशक्ति सुवर्णं दक्षिणां दद्यात् । एवं ताम्रकांस्यादिधातुचामरदुकूल- हीरकमौक्तिकरत्नकर्पूरकस्तूरिकाचन्दनतुलापुरुषविधानानि कुर्यात् ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां तुलापुरुषविधानम् ।
अथ विष्णुश्राद्धविधानम् ।
कालश्रवणपूर्वकं विष्णुश्राद्धमारभेत । तत्र प्रयोगः—
सर्वगर्भदोषविनाशार्थं विष्णुश्राद्धमहं करिष्ये । तत्रायं क्रमः— यदाकदा-
चिन्मासि गुरुशुक्रादिविघातवर्जंकृष्णैकादशीदिने प्रातःकाले नद्यां स्नात्वा नित्यकर्म विधाय देवागारं समागत्य पुष्पमण्डपिकां कृत्वा ततश्च तिथिश्रवणपूर्वकं रात्रौ संकल्पं कुर्यात् । पश्चादाचार्यवरणम् ।तत्र संकल्पमन्त्रः—
पूर्वजन्मकृतैः पापैः पीडितोऽस्मि जनार्दन ।
श्राद्धेनानेन देवेश पापमुक्तिर्भवत्विह ॥१॥
इति संकल्प्य तत आचार्यं वरयेत् । तत्र मन्त्रः—
दोषैर्नानाविधैः स्थूलैः पीडितोऽस्मि महामते ।
पूर्णकामो भवेयं ते वरणादर्चनाद्धरेः ॥२॥
इत्याचार्यवरणमन्त्रः ।
नारिकेलं मातुलुङ्गं पूर्व धात्रीफलं तथा ।
आचार्यहस्ते दत्त्वा तु दण्डवत्प्रणमेत्ततः ॥३॥
ततो मण्डपिकामध्ये मण्डलस्योपरि तण्डुलपूर्णं सुमण्डितं कलशं स्थापयित्वा वस्त्रयुग्मेन ( ण ) संवेष्ट्य मुखोपर्यन्यच्च वस्त्रयुग्मं विन्यस्य देवं गरुडवाहनं सौवर्णनिष्कनिर्मितं स्थापयेत् । तस्य पौरुषेण सूक्तेन षोडशोपचारान्कुर्यात् । सप्त धान्यराशीन्पुरतः कुर्यात् । तस्य देवस्य सव्यदक्षिणयोरन्यत्कलशद्वयं प्रतिष्ठाप्य ब्रह्माणं शिव(वं) नाममन्त्रैस्तयोः कलशयोरुपरि पूजयेत् ।
सप्त धान्यान्याह—
तिलमाषयवव्रीहिप्रियगुमुद्गकास्तथा ।
श्यामाकाः सप्त धान्यानि समुद्दिष्टानि सूरिभिः ॥४॥
तेषां चैव तु सर्वेषामेकैकं द्रोणसंमितम् ।
व्रताङ्गेषु च सर्वेषु नात्र कार्या विचारणा ॥५॥
पञ्चामृतैश्चसंस्नाप्य कुर्यात्पूजां मनोरमाम् ।
जागरं कारयेत्पश्चात्कीर्तयेद्देवकीर्तनम् ॥६॥
ततः प्रभाते गङ्गायां स्नानादिनित्यक्रियां कृत्वा सप्त पञ्च त्रयो वा ब्राह्मणाः श्रीविष्णुभक्ताः शुचयो निमन्त्रयितव्या वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण—
निमन्त्रयामि भो विप्रा विष्णुश्राद्धे पवित्रके ।
भस्मी कुरुत तान्दोषान्बाले गर्भे च ये स्थिताः ॥
दण्डवत्प्रणिपातेन सर्वांस्तांश्च प्रसादयेत् ॥७॥
केषांचिन्मतेन तान्पूर्वमेवैकादश्यां निमन्त्रयेत् । ततश्च तैः सार्धं जागरं कुर्यात् । ततश्च पूर्ववद्देवमर्चयेत् । देवस्य पुरतो नवं शरावं स्थापयित्वा तत्र पितॄनावाहयेत् ।
कूटवादरता ये च ये च ब्राह्मणनिन्दकाः ।
ब्रह्मस्वहारिणः क्रूरा वाग्दत्तस्यापहारिणः ॥८॥
अनाचाराः कृतघ्नाश्च अ ( ह्य ) शास्त्राः प्राणिघातकाः ।
परदाररता ये च सर्वधर्मवहिष्कृताः ॥९॥
मिथ्याभिशापिनो ये च चौर्यकर्मणि ये रताः ।
पुनः पुनः स्मृतिं प्राप्य ये गर्भेसंचरन्ति हि ॥
येसर्वेऽत्र समायान्तु तृप्तिं तेषां करोम्यहम् ॥१०॥
इति तान्नूतन आर्द्रेशराव आवाहयेत् । गन्धपुष्पादि तेभ्यो दत्त्वा घृतप्लुतेनान्नेन पात्रं पूरयेत् । तिलगर्भसहितमुदकं गृहीत्वा संकल्पं कुर्यात् । पूर्वोक्तान्मन्त्रानन्त्यार्धविहीनानुच्चार्यैवं श्लोकं पठेत्
येऽत्र पात्रे स्थिता जीवाः पापिष्टा दुःखभागिनः ।
अन्नं तेभ्यो मया दत्तमुपतिष्ठतु तृप्तये ॥११॥
इति सतिलाञ्ञ्जलिं क्षिपेत् ।
ततो होमं प्रकुर्वीत समिद्भिश्चरुणा तिलैः ।
इदं विष्णुरिमं मन्त्रमुच्चार्याष्टोत्तरं शतम् ॥१२॥
होमं कुर्यात्प्रयत्नेन विधिज्ञो विधिवद्विजः ।
होमान्ते होमकर्तृभ्यो दक्षिणा विधिसंयुता ॥१३॥
दातव्या सत्त्वयुक्तेन वित्तशाठ्यं न कारयेत् ।
पूर्णाहुतिं ततः कृत्वा श्राद्धकर्म समारभेत् ॥
एकोदहिष्टविधानेन विष्णुरूपमनुस्मरन् ॥१४॥
तत्र चायं प्रयोगः—
अद्येत्यादि पुण्यतिथौ विष्णुश्राद्धाधिकारप्राप्तानां नानागोत्राणां नानाशर्मणां विष्णुरूपाणामेकोद्दिष्टश्राद्धविहितेन विधिना विष्णुश्राद्धमहं करिष्ये । ततः पाद्यादीनुपचारान्वस्त्रदक्षिणादिदानं परितोषकरं च दद्यात् । सप्तपञ्चत्रयाणां मध्ये यावन्तो ब्राह्मणास्तावत एव पिण्डान्निर्वपेद्भुवि ।
शर्कराघृतसंमिश्रान्घृतपायससंयुतान् ।
विसर्जयेत्ततो विप्रान्संपूर्णं वाचयेच्च तान् ॥१५॥
संपूर्णं विष्णुश्राद्धमिति वाचयेदित्यर्थः ।
वस्त्रैराभरणैश्चैव जलपात्रैः सपादुकैः ।
संपूर्णां दक्षिणां दद्यान्न कुर्याद्वित्तवञ्चनम् ॥
शिवाः सन्त्वाप इत्युक्त्वा श्राद्धशेषं समापयेत् ॥१६॥
ततः कृष्णां सवत्सां तरुणीं रूपसंपन्नां गामग्रतः कुर्यात् ।
गन्धपुष्पैः समभ्यर्च्य रौप्यहाटकताम्रकैः ।
खुरशृङ्गपृष्ठदेशो दोहार्थं कांस्यभाजनम् ॥
पुच्छे मुक्तामणीन्वद्ध्वा द्विजहस्ते समर्पयेत् ॥१७॥
तत्र दानप्रयोगः—
अमुकगोत्रायामुकप्रवरायामुकशर्मणे ब्राह्मणायेमां गां विष्णुदेवत्यां विष्णुश्राद्धाङ्गभूतां सुवर्णशृङ्गांरौप्यखुरीं ताम्रपृष्ठां कांस्यदोहनीवस्त्रयुग्मप्रावृतां रत्नपुच्छीममुकगोत्रामुकप्रवरामुकशर्मवर्मादिस्वीयं नामोच्चारयेत् । यदा दासान्तं नाम तदा गोत्राद्यभावः । अमुकशर्मा चिरायुर्निर्दोषवहुपुत्रकामस्तुभ्यमहं संप्रददे न ममेत्युक्त्वा साक्षतं सदर्भं जलं द्विजहस्ते समर्पयेत् । “ गावो मे अग्रतः सन्तु " इति मन्त्रं पठेच्च \। ततो गोदानाङ्गदक्षिणां दद्यात् । पश्चाद्देवमाचार्याय निवेदयेदनेन मन्त्रेण—
सप्तधान्ययुतं देवमुपचारैश्च पूजितम् ।
पूर्णकुम्भसमायुक्तं गृहाण त्वं द्विजोत्तम ॥
ततस्तु दक्षिणां दद्याद्गुरुतोषकरीं शुभाम् ॥१८॥
अस्य विष्णुश्राद्धाख्यस्य कर्मणःप्रतिष्ठासंसिद्ध्यर्थमाचार्यायैतत्कर्मसाद्गुण्यार्थमिदं हिरण्यं दक्षिणार्थं संप्रददे न ममेत्युक्त्वा समर्पयेत् । ततः " मन्त्रहीनम् " इति दण्डवन्नमस्कारं विधाय देवं सोपस्करमाचार्यगृहं नयेत् । सप्तमते च-
अर्पयेद्देवमाचार्यवर्यरूपाय धीमते ।
एकस्मै धेनुकां दद्यात्परस्मै हाटकं तथा ॥१९॥
अन्यस्मै भूमिदानं च कांस्यपात्रं सदक्षिणम् ।
अन्यस्मै प्रयतो दद्याद्धनं बहुतरं ततः ॥२०॥
सप्तमाय शुभं वस्त्रयुग्मं दक्षिणया सह ।
तुल्यद्रव्याणि दानानि सर्वाण्युर्वींविनाऽर्पयेत् ॥२१॥
एवं विधिं समाप्यैव श्राद्धकर्ता महामतिः ।
अन्नपूर्णं शरावं तं गृहीत्वा सरितं व्रजेत् ॥
तत्र गत्वाऽर्पयेन्मध्ये तिष्ठन्मन्त्रानिमाञ्जपेत् ( पन् ) ॥२२॥
" कूटवादरता ये च " इति मन्त्राः \। पश्चात्—
विष्णुश्राद्धप्रसादेन ये सर्वे तारिता मया ।
उत्तमान्यान्तु ते लोकान्पापं त्यक्त्वाऽमले जले ॥२३॥
इत्युच्चार्य तं शरावं जले स्थापयेत् । पात्रनाशावधि जले स्थित्वा सचैलं स्नात्वा गृहमागत्य ब्राह्मणैः सुहृद्भिः सह भुञ्जीत ।
एवं यः कुरुते लोके विष्णुश्राद्धं च मानवः \।
तस्य पुत्राः प्रजायन्ते सुशीलाच चिरायुषः॥
सुभगा धनसंपन्ना धर्मिष्ठाः सत्यवादिनः ॥२४॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां यमस्मृत्युक्तं विष्णुश्राद्धविधानम् ।
अथ दिव्यमातृकाविधानम् ।
दिव्यं राजा स्वयं पश्येद्विद्वद्भिर्ब्राह्मणैः सह ।
अन्यैश्च बहुभिर्लोकैर्देशजैर्वा विदेशजैः ॥१॥
प्राड्विवाकस्तु संपश्येद्व्राह्मणै राजयन्त्रितैः ।
मन्त्राधिकरणाध्यक्षैः शास्त्रबुद्धिपरायणैः ॥२॥
तथा च याज्ञवल्क्यः—
व्यवहारान्नृपः पश्येद्विद्वद्भिर्वाह्मणैः सह ।
धर्मशास्त्रानुसारेण क्रोधलोभविवर्जितः ॥३॥
अपश्यता कार्यवशाद्व्यवहान्नृपेण तु \।
सभ्यैः सह नियोक्तव्यो ब्राह्मणः सर्वधर्मवित् ॥४॥
इति मतमादाय प्राड्विवाको व्यवहारं पश्यति तच्चापि समर्थम् ।
तत्र विधानक्रमः —
वैकल्यं चेद्भवेद्भर्तुर्दिव्यं स्वं[र्ग्यं च भौमकम् ] (?) ।
ज्वराद्यैर्व्याधिभिर्घोरैः काले संकुचिते सति ॥५॥
सर्वेषां मतमादाय कर्तव्यः प्रतिहस्तकः ।
इस्ते मुद्रा प्रकर्तव्या सायंकाले भृगोर्दिने ॥६॥
एकभक्तविधानेन स्थातव्यं तेन तन्निशि ।
प्रतिवादिजनः कश्चित्स्वकीयो वा जनस्तथा ॥७॥
न गन्तव्यो(व्यः)स्थितो यत्र रक्षितो राजसेवकैः ।
भूमौ शय्या विधातव्या रम्भापत्रे तृणेऽथवा ॥८॥
न पुष्पं धारयेन्मूर्ध्नि ताम्बूलं नैव भक्षयेत् ।
राजविप्रसमानीतं तृषितः सञ्जलं पिवेत् ॥९॥
इत्यनेन प्रकारेण नीत्वा रात्रिं समाहितः ।
प्रातःकाले समुत्थाय दन्तधावनपूर्वकम् ॥१०॥
प्रातःस्नानादिकं सर्वे विदध्याद्विधिपूर्वकम् ।
ततो ह्युपवसेद्धीमान्स्मरन्सीतां शुचिव्रताम् ॥११॥
द्रौपदीं वा नलं धर्मं रामं सत्यपरायणम् ।
कुलदेवीं निजां तद्वत्कामधेनुं सरस्वतीम् ॥१२॥
मध्याह्नसमये भूयः कुर्यात्स्नानादिकर्म सः ।
सायंविधिं तु सायाह्नेशयीत तदनन्तरम् ॥१३॥
प्रातःकाले समुत्थाय कुर्यात्प्रातविधिं हि सः ।
ततो विद्वान्प्राड्विवाकः कृतस्नानविधिः शुचिः ॥१४॥
शिवद्वारे महापुण्ये ह्यथवा च चतुष्पथे ।
संमार्जिते शुचौ देशे कुर्याद्धोमचतुष्टयम् ॥१५॥
तुलादिसर्वदिव्यानां विधिरेष सनातनः ।
नृणां समाजमाहूय नीलवस्त्रविवर्जितम् ॥
एवं कृते समाजे तु यथोक्ते च महर्षिभिः ॥१६॥
याज्ञवल्क्यः—
श्रुताध्ययनसंपन्ना धर्मज्ञाः सत्यवादिनः ।
राज्ञा सभासदः कार्या रिपौ मित्रे च ये समाः ॥१७॥
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् ।
धर्मः स नो यत्र न सत्यमस्ति सत्यं न तद्यच्छलवाक्यविद्धम् ॥८॥
नियुक्तोऽप्यनियुक्तोऽपि शास्त्रज्ञो वक्तुमर्हति ।
दैवीं वाचं संवदति यः शास्त्रमुपजीवति ॥१९॥
ग्रामे x556 दृष्टः पुरे याति पुरे दृष्टस्तु राजनि ।
राज्ञा दृष्टः कुदृष्टो वा नास्ति पौनर्भवो विधिः ॥२०॥ (
तस्मात्सर्वशास्त्रविदो विद्वांसो राज्ञः सकाशे भाव्याः । यदि तैः सह विचार्य धर्मतत्परो धर्मनिर्णयं करोति तदा भूपतेर्वचनीयं557 नास्ति । एवं राजपुसरे समाजे मिलित आदित्यस्य होरायां वारात्षष्ठस्य558 षष्ठस्येत्यनेन559 शुक्रवा दिव्यं कारयेत् । ततश्चाऽऽदौ प्राड्विवाको धर्मावाहनपूर्वकं दिव्यदेवतपूजनं कुर्यात् । तत्र पूजनक्रमः —
देवस्याङ्गणे वृषभेशानयोर्मध्ये चतुरस्रं हस्तमात्रं सर्वतोभद्रं श्वेततण्लैमण्डलं कृत्वा धर्मावाहनं तत्रकुर्याक्ष्यमाणैर्मन्त्रः । ते च मन्त्राः –
एह्येहि धर्म भगवन्नस्मिन्दिव्ये समाविश ।
सहितो लोकपालैश्च वस्वादित्य मरुद्गणैः ॥
घ (ध) टाढ़ि (दी) यानि दिव्यानि तत्र धर्मे समाह्वयेत् ॥२१॥
एह्येहि धर्म भगवन्निति सर्वदिव्येषु धर्ममाहूय पूजयेत् ।
इन्द्रं पूर्वे तु संस्थाप्य येतेशं दक्षिणे तथा ।
वरुणं पश्चिमे भागे कुबेरं चोत्तरे तथा ॥२२॥
अग्न्यादिलोकपालांश्च कोणभागेषु विन्यसेत् ।
तल्लिङ्गैर्न्वैदिकर्मन्त्रः पौराणैर्वाऽभिधात्मकैः॥
स्थाप्या वा पूजनीया वा दिव्यदेवा मनीषिभिः560 ॥२३॥
तत्र ध्यानम् —
इन्द्रः पीतो यमः श्यामो वरुणः स्फटिकप्रभः ।
कुवेरस्तु सुवर्णाभो वह्निश्च कनकप्रभः ॥२४॥
तथैव निर्ऋतिः श्यामो वायुर्धूम्रः प्रशस्यते ।
ईशानस्तु भवेद्रक्तो ह्येवं ध्यायेत्क्रमादिमान् ॥२५॥
इन्द्रस्य दक्षिणे पार्श्वे वसूनावाहयेद्बुधः ।
धरो ध्रुवस्तथा सोम आपश्चैवानलोऽनिलः ॥२६॥
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।
देवेशेशानयोर्मध्य आदित्यानां तथाऽयनम् ॥२७॥
धाताऽर्यमा च मित्रश्च वरुणश्च भगस्तथा ।
इन्द्रो विवस्वान्पूषाच पर्जन्यश्च विशेषतः ॥२८॥
ततस्त्वष्टाऽनलो विष्णुरादित्या द्वादश स्मृताः ।
अग्नेः पश्चिमभागे तु रुद्राणामयनं विदुः ॥२९॥
वीरभद्रश्च शंभुश्च गिरिशश्च सहायशाः ।
अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी चापराजितः ॥३०॥
भुवनाधीश्वरश्चैव कपाली च विशांपतिः ।
स्थाणुर्भगश्च भगवान्रुद्रा एकादश स्मृताः ॥ ३१ ॥
प्रेतेशरक्षसोर्मध्ये मातृस्थानं प्रकल्पयेत् ।
ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा ॥३२॥
वाराही चैव माहेन्द्री चामुण्डा गणसंयुता ।
निर्ऋतेरुत्तरे भागे गणेशायतनं विदुः ॥३३॥
वरुणस्योत्तरे भागे मरुतां स्थानयुच्यते ।
गगनः (श्वसनः) स्पर्शनो वायुरानिलो मारुतस्तथा ॥३४॥
प्राणः प्राणेशजीवौ च मरुतोऽष्टौप्रकीर्तिताः ।
दिव्यस्योत्तरभागे तु दुर्गामावाहयेद्बुधः ॥
एतेषां दिव्यदेवानां स्वनाम्ना पूजनं561 शुभम् ॥३५॥
पराशरमतेन -
प्राड्विवाकस्ततो विप्रो वेदवेदाङ्गपारगः ।
श्रुतवृत्तोपसंपन्नः शान्तचित्तो विमत्सरः ॥३६॥
सत्यसंधः शुचिर्दक्षःसर्वप्राणिहिते रतः ।
उपोषितः शुद्धवासाः कृतदन्तानुधावनः ॥३७॥
सर्वासां देवतानां च कुर्यात्पूजां यथाविधि ।
धर्माय(दि) साधनं भूषां दत्त्वा चार्घ्यादिकं क्रमात् ॥३८॥
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् ।
धर्मः स नो यत्र न सत्यमस्ति सत्यं न तद्यच्छलवाक्यविद्धम् ॥१८॥
नियुक्तोऽप्यनियुक्तोऽपि शास्त्रज्ञो वक्तुमर्हति ।
दैवीं वाचं संवदति यः शास्त्रमुपजीवति ॥१९॥
ग्रामे x562 दृष्टः पुरे याति पुरे दृष्टस्तु राजनि ।
राज्ञा दृष्टः कुदृष्टो वा नास्ति पौनर्भवो विधिः ॥२०॥ (?)
तस्मात्सर्वशास्त्रविदो विद्वांसो राज्ञः सकाशे भाव्याः ।यदि तैः सह विचार्य धर्मतत्परो धर्मनिर्णयं करोति तदा भूपतेर्वचनीयं563 नास्ति । एवं राजपुरःसरे समाजे मिलित आदित्यस्य होरायां वारात्षष्ठस्य564 षष्ठस्येत्यनेन559शुक्रस्य565 वा दिव्यं कारयेत् । ततश्चाऽऽदौप्राड्विवाको धर्मावाहनपूर्वकंकुर्यात् । तत्र पूजनक्रमः—
देवस्याङ्गणे वृषभेशानयोर्मध्ये चतुरस्रं हस्तमात्रं सर्वतोभद्रं श्वेततण्डुलैर्मण्डलं कृत्वा धर्मावाहनं तत्र कुर्याद्वक्ष्यमाणैर्मन्त्रैः । ते च मन्त्राः —
एह्येहि धर्म भगवन्नस्मिन्दिव्ये समाविश ।
सहितो लोकपालैश्च वस्वादित्यमरुद्गणैः ॥
घ(ध)टादि(दी) यानि दिव्यानि तत्र धर्मंसमाह्वयेत् ॥२१॥
एह्येहि धर्म भगवन्निति सर्वदिव्येषु धर्ममाहूय पूजयेत् ।
इन्द्रं पूर्वे तु संस्थाप्य प्रेतेशं दक्षिणे तथा ।
वरुणं पश्चिमे भागे कुवेरं चोत्तरे तथा ॥२२॥
अग्न्यादिलोकपालांश्च कोणभागेषु विन्यसेत् ।
तल्लिङ्गैर्वैदिकैर्मन्त्रैः पौराणैर्वाऽभिधात्मकैः ॥
स्थाप्या वा पूजनीया वा दिव्यदेवा मनीषिभिः566 ॥२३॥
तत्र ध्यानम्—
इन्द्रः पीतो यमः श्यामो वरुणः स्फटिकप्रभः ।
कुबेरस्तु सुवर्णाभो वह्निश्च कनकप्रभः ॥२४॥
तथैव निर्ऋतिः श्यामो वायुर्धूम्रः प्रशस्यते ।
ईशानस्तु भवेद्रक्तो ह्येवंध्यायेत्क्रमादिमान् ॥२५॥
इन्द्रस्य दक्षिणे पार्श्वे वसूनावाहयेद्बुधः ।
धरो ध्रुवस्तथा सोम आपश्चैवानलोऽनिलः ॥२६॥
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।
देवेशेशानयोर्मध्य आदित्यानां तथाऽयनम् ॥२७॥
धाताऽर्यमा च मित्रश्च वरुणश्च भगस्तथा ।
इन्द्रो विवस्वान्पूषा च पर्जन्यश्च विशेषतः ॥२८॥
ततस्त्वष्टाऽनलो विष्णुरादित्या द्वादश स्मृताः ।
अग्नेः पश्चिमभागे तु रुद्राणामयनं विदुः ॥२९॥
वीरभद्रश्च शंभुश्च गिरिशश्च सहायशाः ।
अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी चापराजितः ॥३०॥
भुवनाधीश्वरश्चैव कपाली च विशांपतिः ।
स्थाणुर्भगश्च भगवाव्रुद्रा एकादश स्मृताः ॥३१॥
प्रेतेशरक्षसोर्मध्ये मातृस्थानं प्रकल्पयेत् ।
ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा ॥३२॥
वाराही चैव माहेन्द्री चामुण्डा गणसंयुता ।
निर्ऋतेरुत्तरे भागे गणेशायतनं विदुः ॥३३॥
वरुणस्योत्तरे भागे मरुतां स्थानयुच्यते ।
गगनः (श्वसनः) स्पर्शनो वायुरनिलो मारुतस्तथा ॥३४॥
प्राणः प्राणेशजीवौ च मरुतोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।
दिव्यस्योत्तरभागे तु दुर्गामाबाहयेद्बुधः ॥
एतेषां दिव्यदेवानां स्वनाम्ना पूजनं561 शुभम् ॥३५॥
पराशरमतेन—
प्राड्विवाकस्ततो विप्रोवेदवेदाङ्गपारगः ।
श्रुतवृत्तोपसंपन्नः शान्तचित्तो विमत्सरः ॥३६॥
सत्यसंधः शुचिर्दक्षः सर्वरप्राणिहिते रतः ।
उपोषितः शुद्धवासाः कृतदन्तानुधावनः ॥३७॥
सर्वासां देवतानां च कुर्यात्पूजां यथाविधि ।
धर्माय(दि) साधनं भूषां दत्त्वा चार्घ्यादिकं क्रमात् ॥३८॥
अर्घ्यादिपश्चादङ्गानां भूषां समनुकल्पयेत् ।
गन्धादिकां निवेद्यान्तां परिचर्यां प्रकल्पयेत् ॥३९॥
रक्तैर्गन्धैश्च माल्यैश्च दधिपूजा (धूपदीपा) क्षतादिभिः ।
अर्चयेद्दिव्यपीठं567 तु ततः शिष्टांश्च पूजयेत् ॥४०॥
इन्द्रादीनां विशेषा [न] भिधानाद्रक्ताक्षतैरन्यैर्वा पूजनमिति पूजाक्रमो नारदेनोक्तः ।
चतुर्दिक्षु तथा होमः कर्तव्यो वेदपारगैः ।
चतुर्दिक्ष्विति-आग्नेयीनैर्ऋतीवायव्यैशानीषु न तु पूर्वादिषु ।
आज्येन हविषा चैव समिद्भिर्होमसाधनैः ॥४१॥
सावित्र्या प्रणवेनाथ स्वाहान्तेनैव होमयेत् ।
यदर्थमभियुक्तः स्यात्तल्लिखित्वा तु पत्रके ॥
मन्त्रेणानेन सहितं तत्तत्कार्यं शिरोगतम् ॥४२॥
मन्त्रश्चायम्
आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च ।
अहश्च रात्रिश्च उभे च संध्ये धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तम् ॥४३॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां दिव्यमातृकाविधानम् ।
अथ धर्मचीरिकाविधानम् ।
एह्येहि धर्म भगवन्नस्मिन्दिव्ये समाविश ।
सहितो लोकपालैश्च वस्वादित्यमरुद्गणैः ॥१॥
अत्रावतरन्तु मे सत्यानृतकर्मसाक्षिणः ।
पञ्चेमे ते लोकपाला दिक्पालाश्च [तथाऽष्ट वै] ॥२॥
आगच्छन्तु महादेवा लोकपालाश्च साक्षिणः ।
सत्यानृतस्य संदेहे स्फुटवाचो भवन्तु मे ॥३॥
आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च ।
अहश्चरात्रिश्च उभे च संध्ये धर्मश्चजानाति नरस्य वृत्तम् ॥४॥
धर्मो जयति नाधर्मः सत्यं जयति नानृतम् ।
क्षमा जयति न क्रोधो विष्णुर्जयति नासुरः ॥५॥
धर्मो बन्धुर्मनुष्याणां धर्मो मण्डनमुत्तमम्568 ।
अविनाशि धनं धर्मो धर्मः सर्वत्र रक्षकः ॥६॥
सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः ।
सत्येन वायवो वान्ति सर्वंसत्ये प्रतिष्ठितम् ॥७॥
यत्सत्यं त्रिषु लोकेषु इन्द्रे वैश्रवणे यमे ।
ब्रह्मवादिषु यत्सत्यं तत्सत्यमिह दृश्यताम् \।॥८॥
एकतः क्रतवः सर्वे सत्यं च तुलया धृतम् ।
क्रतुपुण्याधिकं चैव सत्यमेवावशिष्यते ॥९॥
एकपादस्थिते धर्मे सत्ये च प्रलयं गते ।
विपरीतगते काले यतो धर्मस्ततो जयः ॥१०॥
अनृतं569 कर्तुमिच्छन्ति ये देवाः क्षुद्रजन्तवः ।
सर्वे ते ध्वंसमायान्ति सवितुः किरणाहताः ॥११॥
इति धर्मचीरिका ।
एतच्च धर्मावाहनं शिरसि पत्रारोपणाद्यनुष्ठानकाण्डं सर्वदिव्यसाधारणम् ।
यथोक्तम्—
इमं मन्त्रविधिं कृत्स्नं सर्वदिव्येषु योजयेत् ।
आवाहनं तु देवानां यथावत्परिकल्पयेत् ॥१२॥
अनन्तरं प्राड्विवाकोपदिष्टं दिव्यं घटादि तल्लिङ्गैर्मन्त्रैरभिमन्त्रयेत्।त्वं तुले सत्यधर्माऽसीति। ततश्च तप्तलोहपिण्डतप्तमाषजलादीनां दिव्यानामभिमन्त्रणं कारयित्वा राजप्रमुखसर्वजनसहितो दिव्यं प्राड्विवाकः पश्येत्। तत्र सत्यासत्यसदृशं यद्भवति तद्विचारणीयम् ।
अग्निदिव्यं तथा कुम्भप570न्नगं विषमेव च ।
तप्तमाषजलं दिव्यमार्द्रवासाः समाहरेत्571 ॥१३॥
अतोऽन्यत्र दिव्ये शुद्धवासा दिव्यं समाहरेत् ॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां पितामहस्मृत्युक्तं सर्वदिव्येषु धर्मचीरिकाविधानम् ॥
अथ स्थालीपाकादिहोमकुण्डलक्षणविधानम् ।
तथा च यज्ञकाण्डे—
स्थालीपाके भवेत्कुण्डमिषुमात्रावरं572 समम् ।
चतुरस्रं शुभं विद्यात्प्रत्यग्दक्षिणयोनिकम् ॥१॥
विवाहहोमे तद्वच्च गर्भाधानादिकर्मसु ।
सर्वदानेष्विदं श्रेष्ठं व्रतेषु विविधेषु च ॥२॥
सहस्रहवने चापि स्थण्डिलं वाऽपि कारयेत् ।
चुल्लीकुण्डं समुद्दिष्टं नित्योपासनकर्माणि ॥३॥
वैश्वदेवे तथा चुल्ली जङ्गमं वा तयोर्द्वयोः ।
नवान्नहवने चुल्लीकुण्डं चैव प्रकल्पयेत् ॥४॥
उत्सर्जने च वेदानामिषुमत्रावरं573 स्मृतम् ।
वृषोत्सर्गे ग्रहारिष्टशमने मूलशान्तिके ॥५॥
गण्डान्तदोषशमने तथाऽऽश्लेषाविधानके ।
तातबन्धुसमानर्क्षदोषशान्तौ तथाविधम्574 ॥६॥
सद्वस्तुसंग्रहे चैव वास्तुपूजाविधौ तथा ।
उद्यापने तडागादेः575कृत्रिमे जलसंश्रये ॥७॥
वृक्षोद्यापनकर्मात्र576 कार्यंकर्मविचक्षणैः।
प्रासादोद्यापने चैव क्षेत्रारम्भे तथैव च ॥
इत्या(ष्ट्या) दिकर्म कुर्वीत बाणमात्रावरे बुधः ॥८॥
अथ विशेषकुण्डानि ।
शतार्धहोमे वद्धमुष्टिहस्तमितं कुण्डं कुर्यात् । शतहोमेऽरत्निमितं स्यात् । सहस्रहोमे पूर्णहस्तमितं स्यात्।
अथाङ्गुललक्षणम् ।
तिर्यग्यवोदराप्यष्टा ऊर्ध्वा वा व्रीहयस्त्रयः ।
मध्यमं577 पर्वमध्याया एतदङ्गुललक्षणम् ॥१॥
अयुतहोमे द्विहस्तमितम् । एषु सर्वेषु कुण्डेषु यवैरष्टभिर्यदगुलं तैश्चतुर्विंश- तिभिर्ह (त्या ह) स्तः स्यात् । केषांचिन्मते ध्वजायं कुर्यात् । अत्र खातमेखलायोनिमानज्ञानं परिभाषायाम् । किंचित्कुण्डं चतुर्विंशतिधा विभज्य चतुर्विंशमङ्गुलं परिकल्प्य तैश्चतुर्विंशतिभिर्ह (त्या ह) स्तं परिकल्प्य तन्मानेन चतुरस्रं कुण्डं खातं च कुर्यात्। तेनैव हस्तेन मेखलासहितं तन्मानेनैवाधस्तादपि खनेत्।
अथ मेखलालक्षणम् ।
प्रथममेखलोच्छ्रायो नवाङ्गुलः। अधःखातमङ्गुलानि पञ्चदश। अधः - खातमेखलासहितं चतुर्विंशत्यगुलं कार्यम्। अधःखातकण्ठो द्वाभ्यामङ्गुलाभ्यां कर्तव्यः। द्वितीया चतुर्भिरङ्गलैर्भवेत्।तृतीया त्रिभिर्भवति।
अथ मानाधिक्यादिफलम् ।
हारीतः—
विस्ताररहिते कुण्डे यजमानोऽल्पजीवितः ।
खाताधिक्ये भवेद्रोगो हीने तु धनसंक्षयः ॥१॥
कुण्डवक्त्रे मानहीने जठरे578 हीयते ध्रुवम् ।
आधिक्ये तु भवेत्तापो यजमानस्य निश्चितम् ॥२॥
मरणं यजमानस्य जायते छिन्नमेखले ।
शोकस्तु मेखलोच्छ्राये मानाधिकतरे भवेत् ॥३॥
कण्ठाधिक्ये भवेन्नाशः पशूनां यजने तथा ।
अभियुक्ते यदा कार्ये कुण्डं न्यूनाधिकं भवेत् ॥
तदाऽधिकस्तु कर्तव्यो होमो होमविचक्षणैः ॥४॥
तथा च—
अन्नहीनस्तु यो होमो राज्यनाशाय कल्पते ।
तस्मादन्नं प्रदातव्यं सर्वभूतेषु यत्नतः ॥५॥
द्रव्यहीनश्च पुत्रांश्च सदा स (त्राश्वदासानां) मृत्यवे ध्रुवम् ।
मन्त्रहीनस्तु यो होम ऋत्विङ्नाशाय कल्पते ॥६॥
होमद्रव्यविहीनश्च यजमानं विनाशयेत् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन होमः कार्यः सुलक्षणः ॥७॥
अथेदानीं ब्राह्मणलक्षणम् ।
मूर्खा दुष्टाः प्रलुब्धाच वेदज्ञानविवर्जिताः ।
अलसा मलसंयुक्ता नित्यं कलहकारिणः ॥१॥
अन्येऽपि सर्वदुष्टाश्च परच्छिद्रैषिणोऽशुभाः ।
क्रूरा दुष्टचरित्राश्च नित्यं वादरताश्च ये ॥
शास्त्रहीना द्रव्यलुब्धाः पुराणार्थविवर्जिताः ॥२॥
तथा च—
परच्छिद्राणि यो ब्रूते ब्रह्महाकथ्यते बुधैः ॥
ब्रह्मघ्नेषु च सर्वेषु प्रायश्चित्त सदा मुने ॥
कथितं मुनिशार्दूलैर्न तत्स्यान्मर्मभेदिनः ॥३॥
तथा च ब्रह्मपुराणे—
परच्छिद्रेषु यः पापो निमग्नो मोहतत्परः ।
वर्जनीयः शुभे कार्ये होमे चैव विशेषतः ॥४॥
श्राद्धेषु यज्ञकार्येषु विवाहसमये तथा ।
परमर्मरतं579 नित्यं वर्जयेच्च580 प्रयत्नतः ॥५॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सदोषान्वर्जयेद्द्विजान् ।
निर्दोषाः फलदा विप्राः सर्वकर्मसु शोभनाः ॥६॥
अथ होममुद्राः ।
मयूरी कुकुट्टी हंसी शूकरी581 च मृगी तथा ।
पञ्च मुद्रा विजानीयाद्धोमद्रव्यग्रहे बुधैः ॥१॥
न्युब्जेन पाणिना द्रव्यं त(व्यैस्त)र्जनीरहितेन यत् ।
क्रियते हवनं विप्रैर्मयूरी तां विदुर्बुधाः ॥२॥
उत्तानलक्षिताः सर्वा अङ्गुल्योऽङ्गुष्ठयन्त्रिताः ।
हवनं क्रियते ताभिः कुक्कुटी सा प्रकीर्तिता ॥३॥
विकनिष्ठा तु हंसी स्यान्मुकुलाभा तु सूकरी ।
मध्यमानामिकाङ्गुष्ठैर्मृगी चैवोपलक्षिता ॥४॥
फलमूलयजौ श्रेष्ठामुद्रा ज्ञेया शिखण्डिनी ।
जारणे मारणे तद्वत्कुक्कुटी परिकीर्तिता ॥५॥
वश्योच्चाटनपूर्वाणां कर्मणां सूकरी मता ।
शान्तिके पौष्टिके कार्या मृगी हंसी तथोत्तमा ॥६॥
अथ द्रव्यहोमे विशेषः ।
फलमूलयजौश्रेष्ठा मुद्रा च शिखिवल्लभा ।
कुक्कुटी पत्रपुष्पाणां शालिहोमे तु शूकरी582 ॥
यवानां वा तिलानां च हंसी प्रोक्ता मनीषिभिः ॥१॥
अथ स्रुवधारणम् ।
अग्रे घृतो विनाशाय (शं च) धृतो मध्ये प्रजाक्षयम् ।
मूले धृतश्च होतुश्च मृतिं दद्यात्स्रुवो ध्रुवम् ॥१॥
अग्रान्मध्याच्च मध्ये तु मूलान्मध्याच्च मध्यतः ।
स्रुवः प्रधार्यो विद्वद्भिः सर्वकार्यार्थसिद्धये ॥२॥
अथाऽऽहुतिविभागलक्षणम् ।
खण्डत्रयं तु मूलानां कर्तव्यं स्वप्रमाणतः ।
ग्रासार्धमात्रमन्नानां पञ्च सूक्ष्माणि होमयेत् ॥१॥
पनसस्य फलस्यैव शतं भागाः प्रकीर्तिताः ।
तथैव च विभागश्च कूष्माण्डस्य प्रकीर्तितः ॥२॥
नारिकेलस्य विद्वद्भिर्भागाः प्रोक्तास्तु षोडश।
तावन्त एव भागाः स्युः कदलस्य क्रतूत्तमे ॥३॥
खर्जूरीफलभागाश्च पञ्च प्रोक्ता मनीषिभिः ।
पत्रमेकैकमेव स्यात्तथा पुष्पं च हूयते ॥४॥
तिला अशीतिसंख्याकास्तथा षष्टिर्यवाः स्मृताः ।
व्रीहयश्चशतं ग्राह्या गोधूमः षष्टिसंमिताः ॥५॥
प्रियंगवश्व विज्ञेया विडालपदमात्रकाः ।
तथैव तण्डुलाः प्रोक्ता होमलक्षणकोविदैः ॥६॥
फलानि बदरादीनि पञ्च पञ्च च हावयेत् ।
आदिशब्देन वदरमात्राण्येव ।
इक्षवः पर्वमात्राश्च पल्लवाः कोमला यतः (मताः) ॥७॥
शर्करा च गुडश्चैव विडालपदमात्रतः ।
हवनीयाः सदा सद्भिः प्रवृत्ते यज्ञकर्मणि ॥८॥
अतिसूक्ष्माणि बीजानि फलानि च तथैव च ।
यज्ञकृद्यज्ञसिद्ध्यर्थं वल्लमात्राणि हावयेत् ॥९॥
चतुर्धाबीजपूराणि दाडिमानि तथैव च ।
कन्दास्त्वेकैकशः श्रेष्ठा आर्द्रमङ्कुरशःशुभाः(भम्) ॥१०॥
कन्देष्वपि विशेषात्तु सूरणो दशधा भवेत् ।
जम्बीरामलका (क) द्राक्षास्तथा (ण्यथ) भल्लातकाः कणाः ॥११॥
अक्षाः पथ्याम्रमूलाद्याः प्रोक्ता ह्येकैकशो यजौ ।
आज्यं च पृषदाज्यं च दधिदुग्धं तथैव च ॥
स्रुववक्त्रमितं583 श्रेष्ठं तथा मांसं प्रकीर्तितम् ॥१२॥
अथ वर्णेषु कुण्डविशेषः ।
त्रिमेखलं द्विजे कुण्डं क्षत्रियस्य द्विमेखलम् ।
मेखलैका तु वैश्यस्य शूद्रस्य न हि मेखला ॥१॥
वक्रकुण्डे584 च संतापो मरणं हीनमेखले ।
अपत्यनाशनं प्रोक्तं कुण्डे कण्ठोष्ठवर्जिते ॥२॥
भार्याविनाशनं प्रोक्तं585 कुण्डे योनिविवर्जिते586 ।
दैर्ध्यायामसमं श्रेष्ठं समगर्भं तु कारयेत् ॥३॥
एवं लक्षणसंयुक्तं सत्कुण्डं प्रोच्यते बुधैः ।
कण्ठोष्टौ च यवैःकार्यो तिर्यक्षोडशभिस्तथा587 ॥
हस्तः प्रमाणं कुण्डस्य ह्यरन्तिर्वेति मन्यते ॥४॥
तत्रौष्टकण्ठविशेषमाह—
यवैश्चतुर्भिरोष्ठःस्यादृजुभिर्लक्षणान्वितः ।
तथा षोडशभिः कण्ठः कर्तव्यः सूत्रकोविदैः ॥५॥
अष्टाङ्गुलं त्यजेत्पक्षं त्यजेन्मात्रां षडङ्गुलाम् ।
मध्ये त्वरत्निमात्रास्यं नियुञ्ज्यात्सर्वकर्मसु ॥६॥ (?)
दिग्भ्रान्ते588 विभ्रमः कुण्डे सूत्रहीने तु पङ्गुता ।
खातहीने विरोधस्तु बन्धुभिः सह जायते ॥७॥
ओष्ठहीने त्वपस्मारो योनिहीने भगन्दरम् (रः)।
नाभिहीने स्थाननाशो मरणं छिन्नमेखले ॥८॥
उक्तमानाधिका589 न्यूना मेखला व्याधिवर्धिनी ।
समसूत्रां च कुर्वीत समसूत्रेण दिक्क्रमात् ।
विदिङ्मुखे590 कर्तृनाशस्तस्माद्दिक्साधनं शुभम् ॥१०॥
समभूदिक्प्रेमाणेन591 द्वारतोरणकर्तृभिः ।
पताकावेदिकास्तम्भकुण्डादिभिरलंकृतः ॥
मण्डपःशुभदः सम्यग्जायते निष्फलोऽन्यथा ॥११॥
अन्यच्च-
इक्षु(क्षो) रापर्व मानं तु मूलमानं गुण (लानामङ्गुल) द्वयम् ।
पुष्पं पत्रं स्वमानेन समिधस्तु दशाङ्गुलाः ॥१२॥
चन्द्रचन्दनकाश्मीरकस्तूरीयक्षकर्दमाः ।
कलापसंमिता भद्रा गुग्गुलुर्बदरास्थिवत् ॥१३॥
तत्र देवयोनिलक्षणम्—
कुण्डस्य पूर्वभागे तु देवयोनिर्विधीयते ।
हस्तमात्रान्तरालं स्याद्देव592तायोनिकुण्डयोः ॥१४॥
ओष्ठः पञ्चाङ्गुलः कार्यः सर्वावयवसंयुतः ।
मध्येऽङ्गुष्ठप्रमाणस्तु गलः कार्यः स्तनद्वयम् ॥
देवयोनिरिति ख्याता तत्र संस्था दिवौकसाम् ॥१५॥
अन्यच्च—
कुण्डं च मण्डपं चैव देवयोनिं तथैव च ।
वेदिकां मणिकारम्भं विदध्याद्वृद्धिवासरे ॥१६॥
विवाहव्रतचौलेषु प्रवृत्ते यज्ञकर्मणि ।
वृद्धिश्राद्धानि593 कुर्वीत यावन्मासः समाप्यते ॥१७॥
सिद्धे कर्मणि मासान्ते594 वृद्धिं कृत्वा महामतिः ।
कुण्डं समण्डपं देवयोनियुक्तं विसर्जयेत्595 ॥१८॥
अन्यच्च—
पाणिहोमे कथं कुण्डं कियन्मात्रं विधीयते ।
तन्ममाऽऽचक्ष्व विप्रेन्द्र पृच्छतः शुचिमानस ॥१९॥
मैत्रेय उवाच—
दर्भैः कुण्डं प्रकर्तव्यं चतुरस्रं सुशोभनम् \।
साग्रैरष्टभिरेव596 स्यात्समूलैर्नात्र संशयः ॥२०॥
दर्भस्य समिधं तत्र जुहुयान्मौनमास्थितः ।
सोमाग्नि(ग्नी)दैवते तत्र पितृमत्कव्यवाहने (नौ) ॥
अपसव्येन होतव्यमाहुतिद्वयमेव च ॥२१॥
एतत्पाणियजौ कुण्डं प्रोक्तं विप्रदरैः शुभम् ।
वहिःक (हिष्क)र्मणि कुण्डं तु त्रिकोणं मनुरब्रवीत् ॥२२॥
नवश्राद्धेषु सर्वेषु कुण्डं पाणितलं597 मतम् ।
परिस्तरणमुद्दिष्टं पत्रमेव598 कुशोद्भवम् ॥२३॥
यत्कुण्डमयुते प्रोक्तं लक्षेतद्द्विगुणं भवेत् ।
चतुर्गुणं कोटिहोमे प्रयुते लक्षहोमजम् ॥२४॥
त्रिमेखलोपरि ज्ञेया योनिश्च कुंजरोष्ठवत् ।
कुंजराशनपत्रेण सदृशी वा प्रपद्य (ठ्य) ते ॥२५॥
पश्चिमे दक्षिणे योनी कार्ये कार्यविचक्षणैः ।
एवं कुण्डानि सर्वाणि यज्ञकर्मणि योजयेत् ॥२६॥
कुण्डहीनस्तु यो होमो वैश्वदेवं विनाऽशुभः ।
गार्हपत्यादयो ये च होमा ये च मनस्विनाम् ॥
यज्ञकाण्डे समुद्दिष्टं तेषां कुण्डं पृथक्पृथक् ॥२७॥
इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां स्थालीपाकादिहोमकुण्डलक्षणविधानम् ।
** ——————**
अथ विवाहव्रतबन्धमध्ये मातृरजोदो(जति तद्दो)षहरं विधानम् ।
शान्तिपटले—
विवाहे व्रतबन्धे च माता यस्य रजस्वला \।
मृत्युश्च जडता ज्ञेया क्रमान्मनुजसत्तमैः ॥१॥
तत्र शान्तिं प्रवक्ष्यामि सर्वेषां हितकारिणीम् ।
यस्मिन्दिने समुत्पन्नं मातुर्दोषकरं रजः ॥२॥
तस्माद्दिनात्समारभ्य जपेन्मृत्युंजयं बुधः ।
चतुर्थेऽहाने संप्राप्ते पञ्चमे वासमाहितः ॥३॥
कुर्याच्छिवार्चनं विद्वान्पायसेन समाहितः ।
मण्डकैः पूरकैश्चापि(पूरिकाभिश्च) लड्डुकैः शर्करान्वितैः ॥४॥
भक्तेन घृतयुक्तेन पञ्चान्नैः599 पूजयेच्छिवम् ।
पिण्डिकां मण्डकैः साज्यैः परितः परिपूजयेत् ॥५॥
अधस्तालिङ्गतः कार्या(पूज्या) पूरकैर्मोदकैस्ततः600 ।
भक्तस्य परिधिं कृत्वा पायसेनार्चयेच्छिवम् ॥६॥
दीपान्षोडशसंख्याकानाज्यप्रज्वलिताञ्शुभान् ।
अर्पयेद्देवदेवाय ह्युपचारैः समन्वितान् ॥७॥
तत्र मन्त्राः पुरुषसूक्तोक्ताः ।
ततः संप्रार्थ्य देवेशं सतूर्यो गृहमाव्रजेत् ।
तत्र स्थण्डिलमाधाय हवनं कारयेद्बुधः ॥८॥
अग्निमीलेन601 मन्त्रेण ( ल इत्यमुना ) जुहुयादयुतं सुधीः ।
पायसेनैव साज्येन स्वगृह्योक्तविधानतः ॥
वर्णयेत्सप्तजिह्वस्य जिह्वाः सप्त हविर्भुजः ॥९॥
अग्नेः सप्त जिह्वानामान्याह —
कराली लोहिता श्वेता महत्पूर्वा च लोहिता ।
पीता च पद्मरागा च सुवर्णाख्या तथैव च ॥१०॥
लोहिता पूर्वतो ज्ञेया महत्पूर्वा शुचेर्दिशि ।
सुवर्णा दक्षिणे जिह्वा पद्मरागा ततः परा ॥११॥
श्वेता तु वारुणे भागे पीता वायुदिशि स्मृता ।
ईशानदिशि विख्याता या जिह्वा जातवेदसः ॥१२॥
कराली नाम सा ज्ञेया तयारक्षांसि तोषयेत् ।
सुवर्णांमध्यभागस्थां केचिदूचुर्मनीषिणः ॥१३॥
लोहितायां पिशाचांश्च यजेद्विद्वान्क्रतो क्रतौ।
महालोहितया यक्षास्तृप्तिमायान्ति शाश्वतीम् ॥१४॥
सुवर्णया च वैदेवाः पन्नगाःपद्मरागया ।
श्वेतया ग्रहदेवाश्च पीतया चेटकादयः ॥१५॥
तत्र स्तुतिमन्त्राः पौराणाःस्कन्दपुराणे —
नमस्ते रसने देवि तपनस्य करालिके ।
हुते त्वयि समश्नन्ति राक्षसा वलदर्पिताः ॥१६॥
नमस्ते लोहिते जिह्वे ज्वलनस्य सुशोभने ।
पिशाचास्तृप्तिमायान्ति हुते त्वयि हविष्मतः ॥१७॥
नमस्ते रसने देवि महालोहितसंज्ञिके ।
हुते त्वयि समश्नन्ति यक्षगन्धर्वकिंनराः ॥१८॥
नमस्ते वीतिहोत्रस्य सुवर्णे रसने शुभे ।
त्वया तृप्तो यमो देवो ददाति विपुलं सुखम् ॥१९॥
पद्मरागे नमस्तुभ्यं देवपन्नगतर्पणम् ।
जायते शाश्वतं देवि हुते त्वयि हुताशने ॥२०॥
ग्रहाणां तर्पणं श्वेते कुरु जिह्वे हविर्भुजः ।
हुते हविषि विप्रैश्च ग्रहतृप्त्यर्थमादरात् ॥२१॥
चेटकःकामदेवश्च समस्ताः कुलदेवताः ।
पीतायां हवने जाते तृप्तिमायान्ति शाश्वतीम् ॥२२॥
इति जिह्वास्तुतिं कृत्वा समाप्य विधिवद्यजिम् ।
अभिषेकं ततः कुर्यादुदक्याः सूनुना सह ॥२३॥
ततस्तु दक्षिणां दद्यादाचार्याय मनीषिणे ।
अन्येभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च यथाशक्ति क्षमापयेत् ॥२४॥
कस्मैचिन्मञ्चकं दद्यात्सोपधानं सदक्षिणम् ।
प्रेतराजं समुद्दिश्य मन्त्रेणानेन सत्तम ॥२५॥
स च मन्त्रः—
नमस्ते धर्मराजाय देवदेवाय ते नमः ।
मञ्चकस्यास्य दानेन प्रीतो भव मम प्रभो ॥२६॥
ततस्तु—
यद्वाससि रजो दृष्टं तदासस्तु परित्यजेत् ।
अपरं वस्त्रमादाय ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ॥२७॥
एवं कृते विधाने च विघ्ना नश्यन्ति तत्क्षणात् ।
नन्दते सुखसंतानैः सह मात्रा निजे गृहे ॥२८॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां विवाहव्रतबन्धमध्ये
मातृरजोदो(जसि तद्दो)षहरं विधानम् ।
——————-
अथ पुण्याहवाचनम् ।
पुण्येऽहनि तु संप्राप्ते विवाहे चौलके तथा ।
व्रतबन्धे च यज्ञादौ तथा च व्रतकर्मणि ॥१॥
गृहारम्भे धनप्राप्तौ तीर्थाभिगमने तथा ।
नवग्रहमखे शान्तावद्भुतानां तथैव च ॥२॥
गृहप्रवेशने चैव ग्रामस्याभिनिवेशने ।
गजवन्धे तुरङ्गाणां दासादीनां602 च संग्रहे ॥३॥
अन्यस्मिन्नपि सर्वस्मिञ्शुभे कर्मणि603 सत्तमैः ।
वाचनीया द्विजाः सम्यग्वेदशास्त्रपरायणाः ॥४॥
न तत्र कुनखी काणो हीनाङ्गो विकलस्तथा ।
क्षयरोगी च कुष्ठीच श्यामदन्तोऽभिशापकः604 ॥५॥
वन्ध्यश्च विधुरो वाग्ग्मी क्रूरस्तु खलसेवकः ।
बकवृत्तिश्चदम्भी च हैतुको ज्ञानदुर्बलः ॥६॥
सहोपप605त्तिरुन्मत्तो606 व्यसनी सोमविक्रयी ।
कन्याविक्रयकृद्वाजिविक्रयी पिशुनोऽनृतः ॥७॥
लोकदुष्टः पराधीनो राजद्रोहपरायणः ।
एते चान्येऽपि विप्राश्च न वाच्याः स्वस्तिवाचने ॥८॥
ताम्बूलमक्षता द्रव्यं दूर्वाः पुष्पाणि चन्दनम् ।
कुङ्कुमं607 स्र(त्व)क्शमीपत्राण्यक्षताः कुङ्कुमान्विताः ॥९॥
पुण्यतीर्थोदकं सम्यङ्निधाय कलशे शुभे ।
सुवर्णं तदभावे तु द्रव्यमात्रं निधापयेत् ॥१०॥
पूगी(ग)फलादि608पुण्यानि फलानि तु विशेषतः ।
साक्षते भाजने पुण्ये दीपान्नीराजनात्मकान् ॥११॥
संगृह्य विधिवद्धीमान्वाचयेत्स्वस्तिवाचनम् ।
उदङ्मुखः प्राङ्मुखो वा यजमानः समाहितः ॥१२॥
निषण्णो मङ्गले पीठे तथाऽन्येऽपि द्विजातयः \।
सदूर्वापाणयः सर्वे शुचयः शुचिवाससः ॥१३॥
गणेशं कुलदेवीं च नमस्कृत्य609 प्रयत्नवान् ।
कालज्ञानं ततः कुर्यादनुज्ञातो द्विजातिभिः ॥१४॥
प्रारब्धकृत्यमुद्दिश्य पिधाय कलशं सुधीः ।
मङ्गलद्रव्ययुक्तेन भाजनेन समाहितः ॥१५॥
उद्धृत्य सविधानं तु कलशं हेमपूरितम् ।
पद्मासनसमाविष्टो नमस्कुर्यात्प्रयत्नतः ॥१६॥
कमलमुकुलसदृशेनाञ्जलिना कलशं धृत्वा ललाटपर्यन्तमानीय नमस्कृत्य च पुनर्भूमौ निधाय कलशवदनात्पिधानं निःसारयेत्। ततो ह्यात्मनः कामरूपाणि वचांस्युक्त्वा विप्रान्प्रार्थयेत् । तैश्चापि सूचयितव्यानि \। तान्याह -
ऐरावतादयो नागा गङ्गाद्याश्चैव निम्नगाः ।
महेन्द्राद्या गिरीन्द्राश्च त्रीणि विष्णुपदानि च ॥
तेनाऽऽयुष्यप्रमाणेन पुण्याहमेतदस्त्विति ॥१७॥
दीर्घमायुरस्तु ।शिवा आपः सन्तु \। सौमनस्यमस्तु । अक्षतं चारिष्टं चास्तु ।गन्धाः पान्तु ।सौमङ्गल्यं चास्तु ।अक्षताः पान्तु ।आयुष्यमस्तु । पुष्पाणि पान्तु । सौश्रियमस्तु । ताम्बूलानि पान्तु ।ऐश्वर्यमस्तु । दक्षिणाः पान्तु। बहु देयं चास्तु ।दीर्घमायुः श्रेयः शान्तिः पुष्टिस्तुष्टिश्चास्तु ।श्रीर्यशो विद्या विनयो वित्तं बहुपुत्रं चाऽऽयुष्यं चास्तु । यं कृत्वा सर्ववेदयज्ञक्रियाकरणकर्मारम्भाः शुभाः शोभनाः प्रवर्तन्ते तमहमोंकारमादिं कृत्वा, ऋग्यजुःसामाशीर्वचनं बहुऋषिमतं संविज्ञातं भवद्भिरनुज्ञातः पुण्यं पुण्याहं वाचयिष्ये । इति यजमानः पृच्छति । वाच्यतामिति तैर्वक्तव्यम् । ‘द्रविणोदा’ इति पठित्वा दीर्घमायुरस्त्विति भवन्तो ब्रुवन्तु इति यजमानेन प्रष्टव्यम् । दीर्घमायुरस्त्विति विप्राः प्रतिब्रूयुः । ततश्च ‘सविता पश्चातात्’ इति पठित्वा दीर्घमायुरस्त्विति यजमानः पृच्छति। अस्तु दीर्घमायुरिति विप्राः प्रतिब्रूयुः । ततश्च ‘नवो नवो भवति’
इति पठित्वा दीर्घमायुरस्त्विति भवन्तो ब्रुवन्त्विति यजमानो ब्रवीति। दीर्घमायुरस्त्विति ते प्रतिब्रूयुः । ततश्च ‘उच्चा दिवि’ इति यजमानो ब्रूयात्। दीर्घमायुरिति तैर्वक्तव्यम् । इति चतुर्णां मन्त्राणामवसाने त्रिवार प्रश्नस्त्रिवारमेव प्रतिवचनम्। इति परस्परोक्तौ जातायां पुनराशीर्वचनानि प्रार्थयते । तान्याह -
ॐ नमः (मनः) समाधीयताम् । समाहितमनसः स्मः ।प्रसीदन्तु भवन्तः । प्रसन्नाः स्मः । इति यजमानेनोक्ते []610 ❋610सति तैर्वक्तव्यम्611। ततः शान्तिरस्तु । पुष्टिरस्तु ।तुष्टिरस्तु । ऋद्धिरस्तु ।वृद्धिरस्तु ।अविघ्नमस्तु ।आयुष्यमस्तु । आरोग्यमस्तु ।शिवं कर्मास्तु ।कर्मसमृद्धिरस्तु । अहरहरंभिवृद्धिरस्तु ।धनधान्यसमृद्धिरस्तु ।वेदसमृद्धिरस्तु । शास्त्रसंपदस्तु । पुत्रसंपदस्तु । इष्टसंपदस्तु । [बहिर्देशे] अ(सर्वा)रिष्टनिरसनमस्तु । यत्पापं तत्प्रतिहतमस्तु । [मध्ये ।] यच्छ्रेयस्तदस्तु ।उत्तरे कर्मण्यविघ्नमस्तु । उत्तरोत्तरं श्रीरस्तु । उत्तरोत्तरमहरहरभिवृद्धिरस्तु । उत्तरोत्तराः क्रियाः शुभाः शोभनाःसंपद्यन्ताम्।तिथिकरणमुहूर्तनक्षत्रसंपदस्तु।तिथिकरणमुहूर्तनक्षत्रग्रहलग्नाधिदेवताः प्रीयन्ताम् । तिथिकरणे मुहूर्तनक्षत्रे सग्रहे सदैवते प्रीयेताम् । दुर्गापाञ्चाल्यौ प्रीयेताम् । अग्निपुरोगाः सर्वे देवाः प्रीयन्ताम् । इन्द्रपुरोगा मरुद्गणाः प्रीयन्ताम् । आदित्यपुरोगाःसर्वे ग्रहाः प्रीयन्ताम् ।ब्रह्मपुरोगाः सर्वे वेदाः प्रीयन्ताम् ।विष्णुपुरोगाः सर्वे देवाः प्रीयन्ताम् । माहेश्वरीपुरोगा उमामातरः प्रीयन्ताम् । अरुन्धतीपुरोगा एकपत्न्यः प्रीयन्ताम् । वसिष्ठपुरोगा ऋषिगणाः प्रीयन्ताम् । ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च प्रीयन्ताम् । श्रीसरस्वत्यौ प्रीयेताम् । श्रद्धामेधे प्रीयेताम् । भगवती कात्यायनी प्रीयताम् ।भगवती महालक्ष्लमीःप्रीयताम् । भगवती शान्तिकरी प्रीयताम् । भगवती पुष्टिकरी प्रीयताम् \। भगवती तुष्टिकरी प्रीयताम् । भगवती, ऋद्धिकरी प्रीयताम् । भगवती वृद्धिकरी प्रीयताम् । भगवन्तौ विघ्नविनायकौ प्रीयेताम् ।भगवान्स्वामी महासेनः सपत्नीकः ससुतः सपार्षदःसर्वस्थानगतः प्रीयताम् ।हरिहरहिरण्यगर्भाः प्रीयन्ताम् । सर्वाः कुलदेवताः श्रीयन्ताम् । सर्वा ग्रामदेवता प्रीयन्ताम् । [बहिः] शाम्यन्तु घोराणि \। शाम्यन्तु पापानि । शाम्यन्त्वीतयः । हता ब्रह्मद्विषः । हताः परिपन्थिनः । हताश्च कर्मणो विघ्नकर्तारः । शत्रवः पराभवं यान्तु \। [अन्तः] शिवानि वर्धन्ताम् । शिवा आपः सन्तु ।शिवा ऋतवःसन्तु ।शिवा ओषधयः सन्तु ।शिवा वनस्पतयः सन्तु ।
शिवा अग्नयः सन्तु ।शिवा आहुतयः सन्तु \। शिवा ‘अतिथयः सन्तु \। अहोरात्रे शिवे स्याताम् । निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु । फलिन्यो न ओषधयः पच्यन्ताम् । योगक्षेमो नः कल्पताम् ।ऋषयश्छन्दांस्याचार्या वेदा देवा यज्ञाश्च प्रीयन्ताम्। आदित्यसोमाङ्गारकबुधबृहस्पतिशुक्रशनिराहुकेतवो ग्रहाः प्रीयन्ताम्। भगवान्नारायणः प्रीयताम् । भगवान्स्वामी महासेनः प्रीयताम् । पुण्याहकालान्वाचयिष्य इति यजमानेन वक्तव्यम् । वाच्यतामिति विप्रैर्वक्तव्यम् । ‘उद्गातेव० याज्यया यजति०’ इति मन्त्रब्राह्मणे पठित्वा पुण्याहमिति यजमानो वदति त्रिवारम् ।पुण्याहमिति त्रिवारं विप्रा ब्रूयुरुत्तरम् । ततः ‘स्वस्ति न इन्द्रो०’ ‘आदित्य उदयनीयः०’ इति मन्त्रब्राह्मणे पठित्वा स्वस्त्यस्त्विति भवन्तो ब्रुवन्त्विति त्रिवारं यजमानो वदति । तेऽपि त्रिवारं स्वस्ति ब्रूयुः । पुनः ‘ऋद्धdया(ध्या)म स्तोमं ० सर्वामृद्धि ० ’ इतिमन्त्रब्राह्मणंपाठान्ते यजमान ऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्त्विति त्रिवारं पठति । ऋध्यतामिति त्रिवारं विप्राः । ततः ‘श्रिये जातः०’ श्रिय एवैनं तदिति मन्त्रब्राह्मणान्ते श्रीरस्त्विति यजमानो वदति त्रिवारम् । प्रतिवचनं तथैव त्रिवारम् । तत इहैव स्तमिति पठित्वाऽक्षतार्पणं कुर्युर्विप्राः। ततः समस्तस्वस्तिप्राप्त्यर्थं नानागोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्य इदं हिरण्यममृतरूपेण संपद्यतामिति संकल्प्य यथाशक्ति द्रव्यं दद्यात् ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां सर्वकामसिद्धिदं
पुण्याहवाचनाख्यं विधानम् ।
______________
अथ दुष्टप्रसवदोषहरं विधानम् ।
माघे बुधे च महिषीश्रावणे वडवा दिवा ।
सिंहे गावः प्रसूयन्ते स्वामिनो मृत्युदायकाः ॥१॥
तथा-
विष्टिं भद्रातिथिं वाऽपि त्यक्त्वा नैव प्रसूयते ।
तदा विघ्नः प्रजायेत स्वामिनो मृत्युदायकः ॥२॥
विधानं तत्र कर्तव्यं स्वामिनो विघ्ननाशनम् ।
कृष्णपक्षे मध्यमासु कुर्यात्तिथिषु पञ्चसु ॥३॥
कालायसमयं कृत्वा यमं महिषवाहनम् ।
कालदण्डधरं हैमं (म)यमान्या सहितं नृप ॥४॥
तथा मृत्युंजयेनापि जुहुयाद्घृतपायसम्
रक्षोघ्नैः श(शा) मनैर्मन्त्रैः शं न इत्यादिभिस्तथा ॥५॥
निर्गुण्डीपल्लवैः स्निग्धैरभिषेकं च कारयेत् ।
साऽऽचार्याय प्रदातव्या यममूर्तिःसदक्षिणा ॥६॥
दानमन्त्रः -
सदक्षिणं श्राद्धदेवं यमान्या सहितं द्विज ।
सोपस्करं गृहाण त्वं मम विघ्नहरो भव ॥७॥
इति दानमन्त्रः ।
ततः शिशुं प्रजातं तं प्रदद्यादग्रजन्मने ।
सदक्षिणं नृपश्रेष्ठ तस्माद्विघ्नो विनश्यति ॥८॥
पश्चात्संतप ( र्प ) येद्विद्वान्पायसापूपमोदकैः।
सघृतैः शर्करायुक्तैर्यथाविभवसारतः ( विस्तरम् ) ॥९॥
एवं कृते विधाने च मृत्युस्तुष्यति पूजितः ।
निष्प्रत्यूहो भवेन्नूनं यजमानो नराधिप ॥१०॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां
पद्मपुराणोक्तंदुष्टप्रसवदोषहर विधानम् ।
** __________**
अथ निषिद्धाभ्यङ्गदोषहरं विधानम् ।
क्षुद्राण्यन्यानि सर्वाणि यानि कानि समासतः ।
वक्ष्ये तानि विधानानि शास्त्रदृष्टेन कर्मणा ( वर्त्मना ) ॥१॥
‘रतिस्तापं कान्तिम्० ’ इति शास्त्रम् ।यदा निषिद्धवारे तैलाभ्यङ्गकरणं घटते तदा विधानपूर्वकं कृतं चेन्न दोषभाग्भवति । तच्चाऽऽह - रविकुज- गुरुभृगुवारेषु द्रव्यमिश्रितं तैलं कृत्वा मस्तके पुराणोपदिष्टेन मन्त्रेण निधायोष्णेन वारिणा स्नायात् । स्नात्वा [ च ] नर्मदागण्डकीगोमतीतीरसैकतो- द्भवान्, [ देवान् ] एलाबकुलकुसुमचम्पकोपवासितेन शुद्धेन तैलेनाभ्यज्य कवोष्णेन वारिणा प्रस्नाप्य गन्धपुष्पादिभिरुपचर्य तेनोदकेन स्वमूर्धानं मार्जयेत् ’ इमं मे गङ्गे’ इति मन्त्रेण । तत्राऽऽदित्यकुजगुरुभृगुवारेषु संमोहनानि ( दोषहराणि ) द्रव्याण्याह -
अर्के पुष्पं गुरौ दूर्वीं भौमवारे च मृत्तिकाम् ।
भार्गवे गोमयं क्षिप्त्वा तैलाभ्यङ्गो विधीयते ॥२॥
तत्र – ‘नमः सवित्रे’ इति रविमन्त्रः \।
अङ्गारको महाकायो रक्तवर्णश्चतुर्भुजः ।
सिद्धिदः सिद्धिकद्वाग्मी भूयाच्छान्तिकरो मम ॥३॥
इति भौममन्त्रः ।
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां निषिद्धाभ्यङ्गदो-
पहरं विधानम् ।
-
*
अथ कृष्णपक्ष चतुर्दश्यां ( शी ) प्रसूतिदोषहरं विधानम् ।
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां प्रसूतेश्च फलं शृणु ।
चतुर्दश्यास्तु षड्भागाः प्रथमस्तु न दोषभाक् ॥१॥
द्वितीयः पितरं हन्ति तृतीयो मातरं तथा ।
चतुर्थो मातुलं हन्ति पञ्चमः कुलनाशनः ॥२॥
षष्टश्चैव शिशुं हन्ति गण्डदोषो यथाक्रमम् ।
अथ शान्तिं प्रकुर्वीत सर्वारिष्टप्रणाशिनीम् ॥३॥
रुद्ररूपं विधायाऽऽशु सुवर्णेन विचक्षणः ।
कर्षमात्रसुवर्णेन तदर्धार्धेन वा पुनः ॥४॥
वस्त्रदयसमायुक्तं षोडशैरु ( ध्यानपूर्वो ) पचारकैः ।
त्रैयम्बकेण मन्त्रेण पूजां होमं च कारयेत् ॥५॥
पलाशसमिधस्तत्र चरुं तिलसमन्वितम् ।
शतमष्ट सहस्रं वा जुहुयाद्घृतपूरितम् ॥६॥
मूलाश्लेषविधानं च ( पोक्तविधिना ) वित्तशाठ्यं न कारयेत् ।
अकृत्वा शान्तिकं मूढो धनधान्यविनश्यति ( न्यैर्वियुज्यते ) ॥७॥
चतुर्दश्यां सिनीवाल्यां गोश्वयोर्महिषस्य च ।
स्त्रीणां चैव प्रसूतिश्च शक्रस्थापि श्रियं हरेत् ॥८॥
गृहं क्षेत्रं तथा धान्यं गृहोपकरणानि च ।
पशुवस्त्रादिकं चेति नू ( न्यू ) नमित्युच्यते बुधैः ॥९॥
** इति श्रीनृसिंहविरचितायां विधानमालायां**
कृष्णचतुर्दशीप्रसूतिदोषविधानम् ।
** ___________**
अथामाप्रसूतिदोषहरं विधानम् ।
सिनीवालीप्रसूता स्याद्यस्य भार्या पशुस्तथा ।
गजाश्वमहिषाश्चैव ( करिण्यश्वामहिष्यश्च ) शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥१॥
नारीं विना तु शेषस्य परित्यागो विधीयते ।
परित्यागात्ततः शान्तिं कुर्याद्धीमान्विचक्षणः ( धानतः ) ॥२॥
रुद्रः शक्रश्च पितरः पूज्याः स्युर्देवताः क्रमात् ।
कर्षेण तु सुवर्णेन तदर्धार्धेन वा पुनः ॥३॥
स्वशक्त्याऽप्यथ वा कुर्याद्वित्तशाठ्यविवर्जितः ।
नवग्रहमखं कुर्यात् [ अत्र शान्तौ प्रयत्नतः ] ॥४॥
प्रतिमां कारयेच्छंभोश्चतुर्भुजसमन्विताम् ।
त्रिशूलखड्गपरशुवरदण्डान्यथाक्रमम् ॥५॥
श्वेतवर्णांश्वेतरक्तां श्वेतपुष्परथस्थिताम् ।
त्रैयम्बकेण मन्त्रेण सर्वपूजां प्रकल्पयेत् ॥
दत्त्वा दानं विधायाऽऽशु ततः सौख्यं लभेन्नरः ॥६॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायाममाप्रसूतिदोष-
हरं विधानम् ।
______
अथ नष्टानन्तदोरकविघ्नहरं विधानम् \।
युधिष्ठिर उवाच -
अनन्तव्रतमाहात्म्यं बहुधा च मया श्रुतम् ।
दोररूपो ह्यनन्तोऽपि रक्षतीति सुरोत्तम ॥१॥
प्रमादाद्यदि नष्टः स्याद्दोरग्रन्थिषु पूजितः ।
तदा किं करणीयं स्याद्वद त्रैलोक्यपालक ॥२॥
कृष्ण उवाच -
साधु पृष्टं त्वया राजन्वक्ष्यामि च यथातथम्।
शृणु लोकस्य सर्वस्य रक्षार्थं शान्तिमिच्छता ॥३॥
दोरे नष्टे महान्दोषःसंभवेद्बहुकायिकः ।
तस्मात्तदोषशान्त्यर्थं प्रायश्चित्तं समारभेत् ॥४॥
गुरुं प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य समाहितः ।
विज्ञाप्य दोरनाशं च तेन सार्धं व्रतं चरेत् ॥५॥
कारयित्वा च दोरं तु पूर्ववद्ग्रन्थिसंयुतम् ।
हव्यवाहं प्रतिष्ठाप्य तस्मिन्नावाहयेद्धरिम् ॥६॥
आज्यमग्नावधिश्रित्य दद्याद्विप्राय वा ( चाऽऽ) सनम् ।
अष्टोत्तरशतं दुत्वा मूलमन्त्रेण संयुतः ॥७॥
नामत्रयं च (मन्त्रेण ) हुत्वा च केशवादिक्र(दीन्क्र)मात्ततः ।
अर्चयेदर्चनाद्यै ( र्है) श्च सुमनोभिः सदूर्वकैः ॥८॥
अनन्तं कामयेद्देवं सर्वकामफलप्रदम् ।
अनन्तं दोररूपेण अनन्ताय नमो नमः ॥९॥
अथ भविष्योत्तरपुराणोक्तविधिर्लिख्यते ।
युधिष्ठिर उवाच -
प्रमादाद्यदि देवेश नश्येच्चानन्तदोरकः ।
तदा किं करणीयं स्याद्वद त्रैलोक्यपालक॥१॥
कृष्ण उवाच -
साधु पृष्टं त्वया पार्थ वक्ष्यामि च यथाक्रमम् ।
शृणु सर्वस्य लोकस्य रक्षार्थं विधिमुत्तमम् ॥२॥
दोरे नष्टे महान्दोषः संभवेद्बहुपातकम् ।
तस्मात्तद्दोषशान्त्यर्थं प्रायश्चित्तविधिं चरेत् ॥३॥
कृत्वा च मृत्तिकास्नानं गोमयेन विलेपयेत् ।
स्नानादनन्तरं पञ्चगव्यप्राशनमाचरेत् ॥४॥
तत्तन्मन्त्रैः प्रकुर्वीत (पञ्चगव्य) प्राशनं कल्पयेद्बुधः ।
पश्चात्स्वहस्ते गृह्णीयादर्भान्दक्षिणया युतान् ॥५॥
गुरुं प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य महाजनम् ।
विज्ञात ( प्य) दोरनाशं च तेन सार्धं व्रतं चरेत् ॥६॥
पुण्याहं वाचयेच्चैवमाचार्य वरयेत्ततः ।
पश्चाद्धोमभुवं सम्यग्गोमयेनोपलिप्य च ॥७॥
हव्यवाहं प्रतिष्ठाप्य स्वगृह्योक्तविधानतः ।
चतुर्दश स्वनामानि तैरनन्तं समाहितः ॥८॥
पूजयित्वा प्रयत्नेन पश्चाद्धोमं समारभेत् ।
विष्णुरग्निस्तथा सूर्यः सहस्राक्षः पितामहः ॥९॥
इन्द्रः पिनाकी विघ्नेशः स्कन्दः सोमस्तथैव च ।
वरुणः पवनः पृथ्वी वसन्तो ग्रन्थिदेवताः ॥१०॥
अष्टोत्तरशतं हुत्वा स्वाहान्तमूलमन्त्रतः ।
अतो देवेति मन्त्रेण ( वा इत्यमुना ) होमं कुर्यात्प्रयत्नतः ॥११॥
नाममन्त्रेण हुत्वाऽथ केशवादीन्क्रमात्ततः ।
अनन्तं कामरूपं च विष्णुं जिष्णुं हरिं शिवम् ॥१२॥
ब्रह्माणं भास्करं शेषं सर्वव्यापिनमीश्वरम् ।
विश्वरूपं महाकायं स्थितिसंहारकारकम् ॥१३॥
मूर्तित्रयं प्रकुर्वीत अ(ह्य)नन्तस्य महात्मनः ।
शान्तिहोमं प्रकुर्वीत महाव्याहृतिभिः क्रमात् ॥१४॥
पूर्णाहुतिं ततः कुर्याद्ब्रह्मोद्वासनमेव च ।
एवं शान्तिविधिं कृत्वा पूर्ववद्व्रतमाचरेत् ॥ १५॥
संपूज्यानन्तदेवेशं वन्धनीयः सुदोरकः ।
संभोज्य द्विजमुख्यांश्च दत्त्वा च गुरुदक्षिणाम् ॥१६॥
गोभूहिरण्यवासादि दद्यात्तदोषशान्तये ।
बन्धुभिः सहितः पश्चात्स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः ॥१७॥
न पूजयन्ति ये मूढाश्छिन्ने नष्टेऽथ दोरके ।
दारिद्र्यं व्याधिदुःखादि पीडयेन्नात्र संशयः ॥१८॥
एवं यः कुरुते नित्यं पूजां तस्य समादरात् ।
न भवेत्पापभोगी स न च दुःखं भविष्यति ॥१९॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणाम् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरुपूजा स्वशक्तितः ॥२०॥
प्रतिमां वस्त्रसंयुक्तामाचार्याय निवेदयेत् ।
विप्राशीर्वचनं ग्राह्यं पश्चात्तान्वै क्षमापयेत् ॥२१॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां नष्टानन्तदोरक-
विघ्नहरं विधानम् ।
** _______________**
+612 (समाहृतमिदं शास्त्रं सर्वशास्त्रार्थसंग्रहात् ।
विधानमालिकाख्यं हि प्राणिनामुपकारकम् ॥१॥
धर्मार्थकामशास्त्रेभ्यः संगृह्यालंकृतं मया ।
सद्धृतं सर्वपुष्पेभ्यो यतः स्यान्मधु माक्षिकम् ॥२॥
ग्रन्थस्यास्यानुरागेण ममानुग्रहणेन वा ।
संतोषयन्तु विद्वांसः स्वचेतांसि समञ्जसाः ॥३॥
वैराटे विषयेऽस्ति चन्दनगिरेर्गव्यूतिमात्रं पुरं
देव्याः प्राक्सुमनोहरं वसुमतीतीरेऽग्रहारं(रो) महत् ।
तत्रत्योऽत्रिकुलोद्भवो गुणनिधिः श्रीमान्नृसिंहो द्विज-
श्चक्रे शास्त्रमिदं नृणामुपकृतिं संधाय चित्ते निजे ॥४॥
विधानमालां ग्रथितां मया तां गुणानुसंधानविराजमानाम् ।
प्रायेण सारैः सुरभिं पवित्रां कुर्वन्तु कण्ठेष्ठनिजेषु धीराः) ॥५॥
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचिता विधानमाला संपूर्णा॥
≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈
]
-
“क. ‘वार्थः स्फुट ए° ।” ↩︎
-
“ख. ‘भिर्लिंड्भा” ↩︎
-
“क त्यावृत्याऽपि त° " ↩︎
-
“ख. याचयेत् " ↩︎
-
“क.°ति कुत्रापि गौ°।” ↩︎
-
“ख. षु० र्जार्णशा० " ↩︎
-
“ख. ०पि प्रत्येकं पु०” ↩︎
-
“क. ०पदार्थसा०” ↩︎
-
“ख. ०वसतां सं०।” ↩︎
-
“क. प्रति का " ↩︎
-
“१ ख. ज्ञातिभिः ।”
↩︎ -
“ख. °हम् । आद्यर्तौ विधवा नारी प्रतिपद्यावृताऽसृजा । चै० ।” ↩︎
-
“‘मृङ् प्राणत्यागे’ इति पाणिनिस्मृत्युक्तमृङ्घातोः क्विप्प्रत्यये तुकि च कृते ‘मृत्’ इतिप्रयोगस्य कथंचिदुपपादयितुं शक्यत्वेन प्राणवियोगाश्रयाप्रजा यस्या इत्यर्थाविरोधे छन्दोनुरोधे च सति मृत्प्रजेति यथास्थितमेव साध्विति प्रतीयते । साध्वसाधु वा साधुभिर्विचारणीयम् ।” ↩︎
-
“ख. °न्दे म्रियते भर्तुरग्रतः । वै०।” ↩︎
-
“ख. ०नं तु समा०।” ↩︎
-
“ख. ०कः ॥ अधोवा०” ↩︎
-
“क. ०येत्ततः । ति० ।” ↩︎
-
“क. °ति श्रीमत्पद्मपुराणमतं वि० " ↩︎
-
“क. ‘घ्ननाशनं वि°” ↩︎
-
“ख. °त्रोर्विघ्नकरौज्ञे°।” ↩︎
-
“ख. °न च स°” ↩︎
-
“ख. °क्तं जपेद्गा°” ↩︎
-
“ख. ०देवीं ज० ।” ↩︎
-
“ख. ०धैः । ब्राह्मणान्भो० ।” ↩︎
-
“ख. °लनक्षत्रवि°।” ↩︎
-
“ख. दुष्ट न°।” ↩︎
-
“ख. °सारंनव्यंव ।” ↩︎
-
“ख. क्ष्मीर्धृतिः श्रद्धा सि° ।” ↩︎
-
“ख. द्धिरैरावतवनंजयौ ।” ↩︎
-
“क. अथाऽऽपश ।” ↩︎
-
“ख. ष्पादिकैः स° । " ↩︎
-
“ख. एवं कृत्वा विधानं च होमं चापि विशेषतः ।ति°।” ↩︎
-
“ख. ‘धानं परिकां’ ।” ↩︎
-
“ख. °र्तितम्। " ↩︎
-
“ख. °ने पश्चादभि° ।” ↩︎
-
“४ ख. °माचरेत् ।” ↩︎
-
“ख. तदा ।” ↩︎
-
“ख. म्यक्कम्बलं तं प° ।” ↩︎
-
“क. लघुताः।” ↩︎
-
“ख. याम्येन श।” ↩︎
-
“क. °क्तिदानं दे° ।” ↩︎
-
“क. °द्यैरन्नैश्च” ↩︎
-
“क. ‘स्रवांश्च च ।” ↩︎
-
“ख. °हो महाग्र° ।” ↩︎
-
“ख. ०कसूक्तं ज०।” ↩︎
-
“ख. °रा कन्दमूलपू° ।” ↩︎
-
“ख. ०लिं तस्य प्रव० ।” ↩︎
-
“’ पतते ’ इत्यत्राऽऽर्षत्वाच्छन्दोनुरोधाच्च व्यत्ययेनाऽऽत्मनेपदं त्राहि मामितिवद्बोद्धव्यम् ।” ↩︎
-
“ख. सुरू।” ↩︎
-
“ख. °नि पङ्कजान्या°” ↩︎
-
“ख. °द्मतालकौ° ।” ↩︎
-
“त्राहि मामितिवदार्षः पदव्यत्ययश्छन्दोनुरोधाद्भोद्धव्यः । " ↩︎
-
" ख. °ये यः प्रोक्तः स च ।” ↩︎
-
“ख. °पके स उच्यते° । " ↩︎
-
" ख. °ग्रेशिलात° । " ↩︎
-
" ख. °लान्वितम् । " ↩︎
-
" धनुश्विह्नान्तःस्थो ग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति ।” ↩︎
-
" ख. °वर्जितस्तै°। " ↩︎
-
" ख. °रसः प्रक्षे° । " ↩︎
-
" ख. °ण्डुलोदके क्षीरेणाऽऽलो° ।” ↩︎
-
“ख. अथ चैका॰ ।” ↩︎
-
" अत्र देयो चलिरित्युक्त्वाऽग्रेऽथादिपिबदित्यन्तश्लोकेनौषधाविधानाद्वलिविधानग्रन्थस्त्रुटित इत्यनुपीयते ।” ↩︎
-
“धनुश्चिह्वान्तर्गतो ग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति । " ↩︎
-
" ख. °स्थापित°।” ↩︎
-
“ख. भयंकरम् ।” ↩︎
-
“वरेऽभीष्टवरणेऽर्हा योग्या इत्यर्थः।” ↩︎
-
“ख. ॰नीचराः " ↩︎
-
“वरशब्दोऽभीष्टवाची । वराऽभीष्टा प्रियेत्यर्थः । बहुव्रीहिसमासः । आहिताग्न्यादित्वाद्राजदन्तादित्वाद्वा वरशब्दस्य परनिपातः । ख. पुस्तकस्थपाठे तु रजनीचर्य इति भाव्यम् । स च च्छन्दोविरुद्ध इति कृत्वाऽयमेवाऽऽदृत इति ध्येयम् ।” ↩︎
-
“ख. ॰तवस्रोप॰।” ↩︎
-
“ख. तच्चब्र° । " ↩︎
-
" ख. °रविति°। " ↩︎
-
" क. °रान्निधा°” ↩︎
-
“ख. देव्या भाक्तिःसमाचारा द° ।” ↩︎
-
“ख. ‘क्तवस्त्रेण । " ↩︎
-
" ख. ‘ज दुपिस॰ ।” ↩︎
-
“ख. ‘प्ताङ्गांदि॰।” ↩︎
-
“’ धनेरुस ’ इति व्युत्पादितस्य सान्तस्य धनुःशब्दग्यान्तरशब्देन समासे धनुरन्तर इति भाव्यं तथाऽपि आर्षत्वाच्छन्दोनुरोधा च्चशिरोरुबाहव इत्प्बिंदुकारान्तधनुशब्दमनुमाय यथास्थितप्रयोगः समर्थनीय इति विदुषः प्रार्थये ।” ↩︎
-
“ख. ॰लं सुमनोहरम् ।” ↩︎
-
“ख. बलिं गृहण सकलं बा॰।” ↩︎
-
" ख. ॰वत्यै ब॰ ।” ↩︎
-
“ख. ॰स्यै नमो नमः।” ↩︎
-
" ख. ॰णा देया दे॰।” ↩︎
-
“१ ख. °म बालार्तिंकुरुते भू°।” ↩︎
-
“२ ख. °स्ततः।” ↩︎
-
“३ ख. तर्जनीम्।” ↩︎
-
“ख. वारिणि ।” ↩︎
-
“ख. °हाग्लानि° ।” ↩︎
-
“ख. °द्वदरी°।” ↩︎
-
“ख. °नलेपैश्च॰ ।” ↩︎
-
“ख. °त्यखिलाञ्छिशून्।” ↩︎
-
“ख. ‘पं संभ्रमं त°।” ↩︎
-
“ख. पुस्तके त्विदमर्थंनास्ति।” ↩︎
-
“ख. °यै गिरे न°।” ↩︎
-
“ख. °नवरिष्ठा°।” ↩︎
-
“ख. °सी च तथा परा ।मोदनी रो° ।” ↩︎
-
“ख. °संयुतैः। स° ।” ↩︎
-
“ख. पुरतः ।” ↩︎
-
“ख. च. पृथग्वृक्षे°” ↩︎
-
“ख. ‘ह्ने स्नप ।” ↩︎
-
“ख. °मे मातृस्था° ।” ↩︎
-
“* ‘शशाम वृष्ट्याऽपि विना दवाग्निः’ इति महाकविप्रयोगानुरोधान्नाशार्थकमधातोरकर्मकत्वेऽपि ण्यर्थमन्तर्भाव्य प्रशमयतीत्यर्थकत्वेन सकर्मकत्वम् । तदुक्तं भट्टदीक्षितैः कौमुद्यां क्षि क्षये अकर्मकः । अन्तर्भावितण्यर्थस्तु सकर्मक इति । + ’ कश्चिद्यतति सिद्धये ’ इतिवदार्षः पदव्यत्ययः स्वीकार्यश्छन्दोनुरोधात् ।” ↩︎
-
“क. ‘क्षिणा देया न॰ ।” ↩︎
-
“ख. धेनुधा॰ ।” ↩︎
-
“ख. रौं औं ह्रौं॰।” ↩︎
-
“ख. ॐ औं सां° ।” ↩︎
-
“ख. °कं चैव स्था°।” ↩︎
-
" दिक्संख्ये संज्ञायामिति नियमाच्छतौषधीरित्यत्रकर्मधारयो दुर्लभस्तथाऽपि शतमवयवा यासां ताः शतावयवा ओषध्य इति मध्यमपदलोपिसमासो बोध्यः । तदेतच्च त्रिलोकनाथेनेत्यत्र रघु- वंशटीकायां मल्लिनाथेन व्याख्यातम् ।” ↩︎
-
“ख. ‘जापी यदाऽऽचा° ।” ↩︎
-
“* एकादश परिमाणमस्येति डप्रत्ययेन यथाकथंचिन्निर्वहणीयम् । तदप्यार्षत्वादेवेति बोध्यम् ।” ↩︎
-
“क. °लशाक्षतैः ।” ↩︎
-
“ख. °वं स्गत्वा ।” ↩︎
-
“ख. °रेका च नि॰ ।” ↩︎
-
“जीवतीति जीवः । इगुग्धेति कः । ततो बहुव्रीहिः । जीवत्पुत्रेत्यर्थः ।” ↩︎
-
“क. °ज्ञा वेदाज्ञा ।” ↩︎
-
“अत्र ल्यबभाव आर्षः ।” ↩︎
-
“त्र्यम्बकशब्दोऽस्मिन्नस्तीति अर्शनद्यचा यथाकथंचित्स्थि- तस्य गतिश्चिन्तनीया ।” ↩︎
-
“आर्षः प्रयोगः ।” ↩︎
-
“ख. नृत्यैश्च°।” ↩︎
-
“ख. °तालजम्° ।” ↩︎
-
“क. °यासित° ।” ↩︎
-
“इकोऽसवर्ग इति प्रकृतिभावादसंधिः ।” ↩︎
-
“आर्षत्वाद्व्यत्ययेन परस्मैपदम् ।” ↩︎
-
“क. ‘तीमिमाम् ।” ↩︎
-
“क.°र्वं बुबुका° ।” ↩︎
-
“ख. ‘ष्ठा वीराणां चे° ।” ↩︎
-
“क. आद्यर्चा ह ।” ↩︎
-
“क. °ही पतितो मो°।” ↩︎
-
“ख. कलिका ल° ।” ↩︎
-
“उपक्रमे व्याधयस्तु दशेति प्रतिज्ञाय ‘उद्विग्नो हृदयग्राही’ इत्यादिना ० व्याधिनामान्युक्त्वा ‘एकादशैते’ इत्युक्तं परिगणनयाऽपि नामान्येकादशेत्यापतति तथाऽपि कलिलव्यतिरिक्तानां दशानामेव स्वरूपलक्षणप्रतिपादनादुपक्रमोपसंहारबलेन ‘इत्येते दशागृष्टीनम्’ इत्यपेक्षितमित्यनुमीयते । प्रत्यन्तरदर्शनमन्तरा न निश्चेतुं पारयामः।” ↩︎
-
“उद्विग्न इत्यादिगोरोगप्रतिपादकवाक्ये गोलिङ्ग इति श्रवणात् ’ विद्याद्गोलिङ्गकं च तम्’ इत्यपेक्षितमिति भाति ।” ↩︎
-
" जिघ्रतीत्यर्थः । आर्षः प्रयोगः ।” ↩︎
-
" ख. वक्ष्ये शान्तिविधा°।” ↩︎
-
“ख. °रतः परिव°।” ↩︎
-
“क. °रा ह्यतः ।” ↩︎
-
“ख. °ने च वृक्षे च ग° ।” ↩︎
-
“गृहीत्वेत्यर्थः । अत्र ल्यबार्षः ।” ↩︎
-
“इदं विधानं कर्णाक्षेपस्येति पूर्वोत्तरग्रन्थसंदर्भाद्भाति ।” ↩︎
-
“आर्षत्वाद्व्यत्ययेनाऽऽत्मनेपदम् ।” ↩︎
-
“अत्राऽऽदिपदेन कर्मजस्यापि ग्रहणम् । कर्मजादय इत्युचितम्। " ↩︎
-
“ख. अश्वाश्व ° ।” ↩︎
-
“कोशे शिंशपाशब्दः स्त्रीलिङ्ग उक्तोऽत्र तु लिङ्गव्यत्यय आर्षः। युक्तं चेद्ग्राह्यम् ।” ↩︎
-
“ख. कटौ° ।” ↩︎
-
“ख. ‘तं यत्तु दिवाक’ ।” ↩︎
-
“शुचीतिभावप्रधानो निर्देशः ।” ↩︎
-
“ख. मगायी स्याच्चतु ।” ↩︎
-
“ख. ‘र्वेऽव्यङ्गा’।” ↩︎
-
“ख. युरमेण वं॰।” ↩︎
-
“ख. र्यात्प्रयत्नतः ।” ↩︎
-
“ख. अनेनैव प्र॰ ।” ↩︎
-
“ख. द्दिष्टवि ।” ↩︎
-
“कृ.च ब्रह्मकु° ।” ↩︎
-
“क. °स्तसमन्वितम् ।” ↩︎
-
“ख. °नाग्निं जु° ।” ↩︎
-
“ख. °या ।अ° ।” ↩︎
-
“ख. °वणसं° ।” ↩︎
-
“ख. °द तद्रोगशा° ।” ↩︎
-
“ख. °तः शुचिः ।” ↩︎
-
“क.°श्वरः ।” ↩︎
-
“ख. पूर्वोद्दिष्टा तु सं°।” ↩︎
-
“ख. °तिर्देवतातस्य मुनिभिः प° ।” ↩︎
-
“ख. °यः पुनः पुनः ।” ↩︎
-
“ख. ° श्च पूजयेत् ।अ° ।” ↩︎
-
“ख. चापाङ्कु° ।” ↩︎
-
“ख. धूपस्तु च° ।” ↩︎
-
“ख. °काभ्रूर्णैनै°।” ↩︎
-
“ख. विधानं कर्तव्यं मू° ।” ↩︎
-
“ख. °स्थ नरस्य व्या°।” ↩︎
-
“ख. पश्चिद्धिते विशो यथेति विश्वामित्रो ।” ↩︎
-
“क. °डकम् ।रो ।” ↩︎
-
“ख. °म्बुभाजनाः ।” ↩︎
-
“ख. °त्रिकम् ।” ↩︎
-
“ख. त्रायन्तामि° ।” ↩︎
-
“ख. °सवोऽनुष्टु° ।” ↩︎
-
“क. °न्यथ गु° ।” ↩︎
-
“ख. °ततिं तरुम् । स° ।” ↩︎
-
“ख. °पतनं स°।” ↩︎
-
“ख. °रणं भवेत् । त°” ↩︎
-
“ख. वरिव° ।” ↩︎
-
“क. सौभाग्यैश्चै°।” ↩︎
-
“क. ततस्तौदं°।” ↩︎
-
“क. ॰ष्टं च वि॰ ।” ↩︎
-
“ख. °यं द्विजातये ।” ↩︎
-
" ख. °ड्यानि पा° ।” ↩︎
-
“ख. °मारभेत् ।” ↩︎
-
“ख. °र्थमप्याशु ।” ↩︎
-
“ख. °द्वित्तशाट्यंन ।” ↩︎
-
“क. तथैव तु वि° ।” ↩︎
-
“दुहेदित्यार्षः प्रयोगः । ‘अदिप्रभृतिभ्यः शपः’‘बहुलं छन्दति’ इति बहुलग्रहणाच्छपोऽलुग्बोध्यः ।” ↩︎
-
“ख. महीपते ।” ↩︎
-
“ख.स प° ।” ↩︎
-
“ख. मार्गेषु च° ।” ↩︎
-
“ख. °रसो व° ।” ↩︎
-
“ख, परघा।” ↩︎
-
“ख. य पर्वते ।” ↩︎
-
“धनुश्चिह्नान्तर्गतं पद्यं ख. पुस्तके नास्ति ।” ↩︎
-
“ख, मं चाभिभूय ।” ↩︎
-
“ख. द्वार° ।” ↩︎
-
“ख. पराञ्जयेत् ।” ↩︎
-
“ख प्रतिगृ ।” ↩︎
-
“ख. ०स्ततोऽर्च° ।” ↩︎
-
“ख ०धा चाभि० ।” ↩︎
-
“ख. ०स्तिवाचनपूर्वकम् ।” ↩︎
-
“ख. ले चन्दनोपरि सुव्रत।” ↩︎
-
“ख. ॐ जुं इति म०।” ↩︎
-
“ख. ॐ फ्रांफ्रीं फ्रूं फ्रैंफ्रौंफ्रः। " ↩︎
-
“ख. रुद्राय०।” ↩︎
-
“ख. ‘जाहिमा’ ।” ↩︎
-
“ख. तथा ।” ↩︎
-
“* आगमशास्त्रस्यानित्यत्वात्सागरं तर्तुकामस्येतिवदिडभावो बोध्यः ।” ↩︎
-
“ख. क्रीं क्रौंत्रि०।” ↩︎
-
“ख. °त्वा दृढं ब° ।” ↩︎
-
“ख. ॐ जुं ।” ↩︎
-
“क. शृक्विणी ।” ↩︎
-
“ख. सर्वयुद्धनि० ।” ↩︎
-
“ख. ०हनः ।” ↩︎
-
“ख ढेंट्रकाकं च म० ।” ↩︎
-
“ख. ‘त्र शस्त्राणि लग्नानि त्रु° ।” ↩︎
-
“ख. शापये ।” ↩︎
-
" ख. °येत्स्वरमा॰ ।” ↩︎
-
“ख. सर्वस्तु ° ।” ↩︎
-
“ख. कालडकुक्रुरुसुचुडुंचुद्रुउत्तरच्यविउच्छ्रबंभणूललिकरंतउकिंआइहिकिंपिच्छएहिंकिंपिच्छएहिंकिपिबएहींमयिसग्रह इति ।” ↩︎
-
“* धनुश्चिह्नगतो भागः ख. पुस्तके नास्ति।” ↩︎
-
“ख. °ङ्गारवि° ।” ↩︎
-
“ख. °रसास्त°।” ↩︎
-
“क. फडिति वि॰ ।” ↩︎
-
“क. कुर्वन्ति चे° ।” ↩︎
-
“क. °लकं कृ°। " ↩︎
-
“क. मद्यकु° ।” ↩︎
-
“ख. षोढा ° । " ↩︎
-
“ख. मन्त्रविधानम् ।” ↩︎
-
“+ क. ख. पुस्तकयोर्मध्ये ॐकारश्छन्दर्षिकाले वर्तते,परमेतच्छास्त्रविरुद्धम् ।” ↩︎
-
“ख. °मानि च्छन्दां° ।” ↩︎
-
“ख. °सं अ° ।” ↩︎
-
“ख. ०माधाय ।” ↩︎
-
" ख. ङ्गनमृ० ।” ↩︎
-
“ख. सलोम० ।” ↩︎
-
“क. °तटे । वि॰ । " ↩︎
-
“ख. प्रमालक्षणपीडा या त्वयि विश्वमनुध्रुवम् ।” ↩︎
-
“ख. तन्मङ्गलं न कर्तव्यं नारीवैधव्यशङ्कया ।” ↩︎
-
“ख. निश्चिते ।” ↩︎
-
“ख. ०त्युंचैव विशेषतः ।” ↩︎
-
“ख. भरक्तां च । " ↩︎
-
“ख. जम्बूकां ।” ↩︎
-
“ख. ज्वलंनीं ।” ↩︎
-
“ख. रीं बालां।” ↩︎
-
“क. तबोः।” ↩︎
-
“ख. राजं च ।” ↩︎
-
“ख. °च्छ्रीकाममा । " ↩︎
-
" क. अन्ते श्री ।” ↩︎
-
“ख. °नां ततः ।” ↩︎
-
“ख. स्तुतिः ।” ↩︎
-
“ख. ‘वतु दे’ । " ↩︎
-
“ख. ‘रं रागं प° ।” ↩︎
-
“ख. तिवाद’ ।” ↩︎
-
“ख. पूजयि। " ↩︎
-
“ख. भिर्माण। " ↩︎
-
“क. सम्यग्वृ ।” ↩︎
-
“ख. ०याममध्ये दी० ।” ↩︎
-
“ख. ०त्र केषांचिन्मतम् ।” ↩︎
-
“ख. °मण्डिते र° । " ↩︎
-
" ख. °र्तव्या सूर्यनीराजना ।” ↩︎
-
“क. होलका° ।” ↩︎
-
“ख. °न्मरूब° ।” ↩︎
-
“ख.°यां पौर्णमस्यां तु° । " ↩︎
-
“क. °होलका° ।” ↩︎
-
“ख.°क्षिणामु।” ↩︎
-
“ख. यः शुभाः ।” ↩︎
-
“स्व. कं निर्भयं वा ।” ↩︎
-
“ख. ‘मत्ति त ।” ↩︎
-
“ख. ‘भयं दि ।” ↩︎
-
“ख. °स्ति कृष्णकण्ठो ।” ↩︎
-
“स्व. °सैः । क्षामक° ।” ↩︎
-
“ख . ॰ण जायते प° ।” ↩︎
-
“ख. °नस्थं पि° ।” ↩︎
-
“* धनुश्चिह्नान्तर्गतो भागो नास्ति. ख. पुस्तके” ↩︎
-
“ख. °ति विधानमालायां काकपञ्च पि° ।” ↩︎
-
“+ धनुश्चिह्नान्तर्गतमधिकम् ।” ↩︎
-
“यां सूर्यास्तसमये ।” ↩︎
-
“ख. ख. दश गर्ता ए° ।” ↩︎
-
“क. °माविशे° ।” ↩︎
-
" ख. °क्तंप्रतिपद्वा°।” ↩︎
-
“ख. ‘वंशे म’ ।” ↩︎
-
“ख. चैत्रमा।” ↩︎
-
“क. ‘मीदिने । द° ।” ↩︎
-
" ख. तथैव । " ↩︎
-
“ख. भूतफ° ।” ↩︎
-
" ख. हस्तग’ ।” ↩︎
-
“ख. थातिथि।” ↩︎
-
“ख. ‘न्दं सुखं द° ।” ↩︎
-
“ख. भयसं°” ↩︎
-
" ख. तो व्रजेत्।” ↩︎
-
“ख. ०त्वा सबाह्यं च । " ↩︎
-
“ख. ०दश्यां झलु०।” ↩︎
-
“ख. ॰तु झल्लको।” ↩︎
-
“॰स्तु वर्धताम् ।” ↩︎
-
“३ ख. ‘द्धं प्रवर्तते ।” ↩︎
-
“क. श्रमं वि॰ ।” ↩︎
-
“ख. न तागृ॰” ↩︎
-
“ख. अज्जकीभू° । " ↩︎
-
“ख. °स्तुइ° ।” ↩︎
-
“ख. °रे निविष्टां कृ° ।” ↩︎
-
“ख. °स्या-गान्धा°।” ↩︎
-
“ख. क्त्या कटि° ।” ↩︎
-
“ख.भावका°।” ↩︎
-
“क. जपेता° ।” ↩︎
-
“ख. °शीघ्रंषह°।” ↩︎
-
" ख. °ध्यात्खेटकंब°।” ↩︎
-
“ख. °द्य सुरात्म°।” ↩︎
-
“ख. °पितास्ते°।” ↩︎
-
“ख. °खानपि । तथा हि न° ।” ↩︎
-
“क. °णमन्ना°।” ↩︎
-
“ख. °न्गृह्णन्ना° ।” ↩︎
-
“ख. °णे च ताः।” ↩︎
-
“क. विविधं बुधैः ।” ↩︎
-
“ख. °णंदिव्यं दे°।” ↩︎
-
“ख. °येत्सरितस्तो°।” ↩︎
-
“ख. °यं पूतं प° ।” ↩︎
-
“ख.°माणेन श° ।” ↩︎
-
" ख. तथा चा°।” ↩︎
-
“ख.°न्तुमितं श्रे°।” ↩︎
-
“ख. °जक्रमः ।” ↩︎
-
“ख. भारसेटी°” ↩︎
-
“ख. नागांची ।” ↩︎
-
“ख. °त्सुधीः । च° ।” ↩︎
-
“ख. °धीत सुशस्त्रे° ।” ↩︎
-
“ख. °रात्रीं न°।” ↩︎
-
“ख. °तां नत्वा त्रिज° ।” ↩︎
-
“ख. °मचन्द्रश्च ।” ↩︎
-
“ख. °तीयो होम°।” ↩︎
-
" ख. तुर्थस्तु बलाहकः । पञ्चमो राजहंसश्च षष्ठश्चमकरालयः । सप्तमो लोचनो नाम अष्टमो मकराह्वयः । नवमः कलकेयस्तु दशमःसिद्धिदायकः ।” ↩︎
-
“ख. ष्टिप्रमा° ।” ↩︎
-
“ख. कं परा ग° ।” ↩︎
-
“ख. °वैतक्रकारि° ।” ↩︎
-
“ख. शूय° ।” ↩︎
-
“ख. °र्यादृतं।” ↩︎
-
“ख. °र्धाने ग°।” ↩︎
-
“ख. °मुदाहृ°।” ↩︎
-
“क. कुरुष्वतु° ।” ↩︎
-
“क. विद्धि सा°।” ↩︎
-
“ख.°वंतु वा° ।” ↩︎
-
“ख. लक्ष्मीं सं पू ।” ↩︎
-
“ख. तां जगुर्बु°।” ↩︎
-
“ख. व्योषं च ।” ↩︎
-
“ख. °तलिप्सया ।” ↩︎
-
“ख. °त्रेनॄणां।” ↩︎
-
“ख. °षिता । " ↩︎
-
“रा° ।” ↩︎
-
“ख. विवृद्धये । त° ।” ↩︎
-
“क. °तः प्राप्ते तु वि°।” ↩︎
-
“ख. °येत्सुधीः। त° ।” ↩︎
-
“ख. °ये स्कन्द व°।” ↩︎
-
“ख. °त्तं च ग° ।” ↩︎
-
“ख. °न्यर्जु धे° ।” ↩︎
-
“ख. °मिः काश्य° ।” ↩︎
-
“ख. °ष्वेतेषु स°।” ↩︎
-
“ख. °न्देषु दा° ।” ↩︎
-
“* आर्षत्वाच्छपोऽलुकि साधुः ।” ↩︎
-
“ख. °रि क्षिप्रं द° ।” ↩︎
-
“आर्षत्वान्मटि साधुः ।”
↩︎ -
“ख. °प्नुवन्बोधि°।” ↩︎
-
“आर्षत्वाल्लिङ्कव्यत्ययेन कथंचिन्निर्वहणीयम् ।” ↩︎
-
“क. °गो व्रतसा°।” ↩︎
-
“ख. °ता अध्वखलाद° ।” ↩︎
-
“स्वार्थे प्रज्ञाद्यण् । ततो गहादित्वाच्छे साधुः ।” ↩︎
-
“रक्षस्वेतिपदव्यत्यय आर्षस्त्राहिमामितिवत् ।” ↩︎
-
“ख. °द्यां जलैः ।” ↩︎
-
“क. यावद्रोमा°।” ↩︎
-
" भूगतोर्लृटि शत्रादेशे स्य इटि च कृते पृषोदरादित्वात्तलोप भविष्यति साधीयान्प्रयोगः । अत एव यद्भविष्येविनश्यतीत्यादि पञ्चतन्त्रम्। एवमेव धर्मसिन्धौ ज्योतिर्ग्रन्थे च जोघुऽयमाणो गतैष्ययोग एष्यघटिकेत्यादावकारान्तैष्यशब्दप्रयोगः सर्वजनीनः साधुरिति प्रतीयते ।” ↩︎
-
“ख. °त्र वर्णक्र°।” ↩︎
-
“ख. °स्मर्तव्यौ श्री° ।” ↩︎
-
“ख. °दीपःक° ।” ↩︎
-
“ख. °त्वा तु म° ।” ↩︎
-
“ख. °नि सेव्यसे° ।” ↩︎
-
“ख. तेषु वि° ।” ↩︎
-
“ख. कार्यःका° ।” ↩︎
-
“ख. °द्याद्यथावसु । कां°।” ↩︎
-
“ख. कथां पा° ।” ↩︎
-
“ख. °श्च संमि° ।” ↩︎
-
“अयःशब्दात्स्वार्थेप्रज्ञाद्यण्लौह इतिवदिति शब्दकल्पद्रुमः।” ↩︎
-
“क. ‘लपञ्चकम् ।” ↩︎
-
“ख. ॰रेअजस्राग्नि॰। " ↩︎
-
" क. ॰ठस्येशतया न्य° ।” ↩︎
-
" गदा प्रसिद्धः शस्त्रावशेषो वरदं वरदातृत्वसूचकहतादिविन्यासरूपो मुद्राभेदश्वास्य स्त इति मत्वर्थेऽर्शआद्यचा स्थितस्स गतिश्चिन्तनीयेति न्यायेन यथाकथं चिन्निर्वाह्य चन्द्रसुतविशेषगं बोध्यमिति विदुषः प्रार्थये ।” ↩︎
-
" शृण्वधिदेवता इत्यनेन प्रत्यधिदेवताकर्मकश्रावणं प्रतिज्ञा शंभोश्वेत्यादिनारायणोत्तर इत्यन्तेन ग्रन्थेन वह्न्यब्धराविष्णवः प्रत्यधिदेवाश्चत्वारः श्राविताः । अग्रे च चित्रगुप्तान्तरे ब्रह्मत्यनेन ब्रह्मा श्रावितो न तु विष्णोरग्रेतना इन्द्रेन्द्राणीप्रजापतिसर्परूपप्रत्यधिदेवाः । ततश्चैत्रमनुमीयतेतेषां तद्गन्थो भ्रष्ट इति । " ↩︎
-
" अस्मिञ्श्लोकइदं विष्णुर्नमोऽस्तु ब्रह्मजज्ञानमित्यादिमन्त्रप्रतीकदर्शनात्प्रत्यधिदेवस्थापनमन्त्रसंग्रहं चिकीर्षतीति। पूर्वग्रन्थसदर्भेणापि तथैव प्रतीयते । परं त्वत्पशुद्धत्वात्प्रत्यन्तराभावाच्च यथास्थित एवश्लोकः स्थापितः ।” ↩︎
-
“अत्रापि कियान्ग्रन्थो भ्रष्ट इति भाति । " ↩︎
-
" ख. ॰न, अधिप्र॰” ↩︎
-
" क. ततो दु॰। " ↩︎
-
“ख. ‘नसंनिभम् । ल॰।” ↩︎
-
“ख. यावा॰ ।” ↩︎
-
“इदमर्थं ख. पस्तके नास्ति ।” ↩︎
-
“बृहस्पतिशब्दोऽस्मिन्नस्तीति मत्वर्थेऽर्शआद्यचा बृहस्पतो मन्त्र इति स्थितस्य गतिश्चिन्तनी येतिन्यायेन यथाकथंचिद्व्याख्येयम् ।” ↩︎
-
“क. ॰तो मन्त्रः स॰।” ↩︎
-
“ख. ॰व्रते स॰ ।” ↩︎
-
“ख °ष्टिदं बुधैः । " ↩︎
-
“क. ॰मुच्छ्रितं । " ↩︎
-
“क. ॰तं छत्रं य॰” ↩︎
-
“औषत्वाद्व्यत्ययेनाऽऽत्मनेपदम् ।” ↩︎
-
“आर्षत्वाद्व्यत्ययेन परस्मैपदं बाहि मामितिवत् ।” ↩︎
-
“ख. °तो भवेद्देवो देवानां वदनं प्रभुः । सर्वविघ्नहरो भूत्वा ददा°।” ↩︎
-
" ख. °थ विधि । त° ।” ↩︎
-
" काङ्क्षय ते काक्षि काङ्क्षायामिति धातो रामो राज्यनचीकरदितिवत्स्वार्थणिचा निर्वाह्यम्।” ↩︎
-
" क. °शं मृगैर्व्या°। " ↩︎
-
" ख. °नथ व° ।” ↩︎
-
“ख. ताम्बूलैः ।” ↩︎
-
“ख. ॰ न जगतां व ॰।” ↩︎
-
“क. ॰दरेण च ।” ↩︎
-
" संघिवर्षः । " ↩︎
-
" ल्भृधातोरन्तर्भावितण्यर्थातकर्तरि पचादिवादच्प्रत्यये लम्भयित्रीप्रापयित्रीत्यर्थः ।" ↩︎
-
“ख. जन्मन्युप॰।” ↩︎
-
" आर्पत्वाव्द्यत्ययेनाऽऽत्मनेपदम् । " ↩︎
-
" कमण्डलुमित्यादिसमर्पयेदित्यन्तश्लाकेन तत्तत्पदार्थसमर्पणं प्रतिज्ञाय तत्र पोराणम न्त्रप्रदर्शनार्थं तत्र मन्त्रा इत्यवतरणं दत्त्वा कमण्डलुर्जलापूर्ण इत्यादयस्ते ते मन्त्रा उक्ताः । तत्र गोमतीतीरेन्यादिगोपीचन्दनसमर्पणमन्त्रदर्शनात्पवित्रभमर्पणमन्त्रे च संख्याया अनुपादानात्तथाऽग्रे स्वर्णसमर्पणमन्त्रदर्शनाच्च पञ्चोपवीतेत्यादितृतीयचरणस्थाने मृत्सुवर्णोपवीतानीतिपाठेन भाव्यमित्यनुमीयते ।" ↩︎
-
“ख ॰स्तेन गृ॰।” ↩︎
-
“गोमूत्रं ताम्रवर्णायाः श्वेतायाश्चापि गोमयम्। पयः काञ्चनवर्णाया नीलायाश्च तथा दधि॥१॥ घृतं च कृष्णवर्णायाः सर्वंकापिलमेव च। अलामे सर्ववर्णानां पञ्चगव्येष्वयं विधिः॥२॥” ↩︎
-
“अत्र ल्यबार्षः ।” ↩︎
-
“आषत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः कृत इति भाति । पूरेिकाः साज्यानिति तु सम्यमेव ।” ↩︎
-
“क.°र्यान्मासवृ° ।” ↩︎
-
“चक्षिङो ङित्करणेनानुदात्तेत्त्वलक्षणात्मनेपदस्यानित्यत्वज्ञापनात्परस्मैपदं कश्चिद्यततीतिवद्बोध्यम् ।” ↩︎
-
“क. ष्टिस, इष्टीशाय क्रियाश” ↩︎
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“ख. महारुद्रश” ↩︎
-
“ख. न्वङ्गीश” ↩︎
-
“क. मापती” ↩︎
-
“ख. धान्यपि पादुके करपावंच च्छत्रणि विविधानि च ।” ↩︎
-
“तादर्थ्येचतुर्थी वाच्येतिवार्तिकात्तादर्थ्ये चतुर्थैषा। तथा च स्विष्टकृत्सिद्ध्यर्थमित्यर्थः। तदुकं मिद्धान्तकौमुद्यां भट्टोजीदीक्षितैर्द्विदण्ड्यादिभ्यश्वेति सूबे–तादर्थ्ये चतुर्थ्येषा। एषां सिद्ध्यर्थमिति।” ↩︎
-
“ख. मन्दारवृक्षाº” ↩︎
-
“ख. °ख्यं च. हा°”
प्रजापते न त्वदिति प्रजापतिमुद्दिश्य जुहुयात्स्विष्टकृतं हुत्वा होमं समाप्य दातुः समीपं गत्वा पुत्रं देहीति याचेत4। ↩︎
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“ख. °थाविधि” ↩︎
-
“ख. ºचिदौरº” ↩︎
-
" ख. पितृविº” ↩︎
-
“ख. ºभागिनम्” ↩︎
-
“ख.°वाऽऽद्यो ज्ये°” ↩︎
-
“ख. ºमादाय” ↩︎
-
“ख. °य तत्र” ↩︎
-
“ख. ºग्रन्थषº” ↩︎
-
“ख. दृष्टे ग्रº” ↩︎
-
“ख. °थग्विधं मन्त्रं सं°” ↩︎
-
“ख. ºदिब्रह्मा? मº” ↩︎
-
“ख. ºमाविशेº” ↩︎
-
" ख. °त्याद्याशिषः प° " ↩︎
-
“अश्वत्थवृक्षस्येत्यर्थः” ↩︎
-
" धनुश्चिह्रितग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति" ↩︎
-
“ख. °तो धूपादि°” ↩︎
-
" ख. °मनरैः" ↩︎
-
“धनुश्चिह्नितग्रन्थो नास्ति ख. पुस्तके” ↩︎
-
" ख. °दीतोरे स°" ↩︎
-
“ख. °णं तर्णकीन°” ↩︎
-
“ख. ºचनशतोषध्यो” ↩︎
-
“ख. °तर्पकीमº” ↩︎
-
" ख. °षमु°" ↩︎
-
“ख. °ष्ठगः स°” ↩︎
-
" ख. ग्लानीं पि°" ↩︎
-
“धनुश्चिह्नितो भागः ख. पुस्तके नास्ति " ↩︎
-
“क. भूभिकायां” ↩︎
-
“क. °श्च वृषलस्त्रीबालवातकाः ।व° ।” ↩︎
-
" ख. ग्राहविº” ↩︎
-
“क. वाऽर्धभा°” ↩︎
-
“ख. °गी वा कु °” ↩︎
-
“ख. ºणहन्ता वा” ↩︎
-
“व्यत्ययेन ऽऽत्मनेपदम्।” ↩︎
-
“ख. ‘ष्ट्वा रूपेद्वे दे ले दृष्टवा परिस्तुतः " ↩︎
-
“ख. ०वं पञ्चमं०” ↩︎
-
" ख. °खे देवादि०” ↩︎
-
“ख. ०के वश०।” ↩︎
-
“ख. ºधिना ततः।साº।” ↩︎
-
“ख. ºत्वा विलोº।” ↩︎
-
" ख. द्ग्राहº।" ↩︎
-
“ख. विसेदं।” ↩︎
-
“ख. °रैश्चषू°।” ↩︎
-
“ख. ‘हि शकुनं।” ↩︎
-
“ख. °जेऽत्रय°” ↩︎
-
“ख.°स्यैकःप्र°” ↩︎
-
“ख. °त्यवाचि । इ° ।”
इति श्रीनृसिंहभट्टविरचितायां विधानमालायां रघुवंशे
↩︎शकुनप्रेक्षणविधानम् । -
“क. °र्शफ°” ↩︎
-
" ख. °क्तो हेनालङ्कारसंयुतः । अ°।" ↩︎
-
“ख. °लाशस° " ↩︎
-
“ख. °क्त्या दक्षिणां च प्रदापयेत् । त° ।” ↩︎
-
" ख. ‘द्धिर्विवर्धते इ°” ↩︎
-
“ख. °स्य स्वजन्मर्क्षं तु°।” ↩︎
-
“क. र्णभाःका°” ↩︎
-
" ख. शाड्वलः।" ↩︎
-
" ख. शाकवा॰" ↩︎
-
“ख. थौ शाकशु॰” ↩︎
-
“ख. ॰पूर्वे च प्र॰” ↩︎
-
“ख. णां धेनुमाचा० " ↩︎
-
“ख मयोक्तः प्र०” ↩︎
-
“ख. विधापि” ↩︎
-
“ख. ०त्रैस्तु च०” ↩︎
-
“ख. ०मुदीरिताः” ↩︎
-
“ख. ०रं भवेत्” ↩︎
-
" ख. °षहोम०” ↩︎
-
“धनुश्चिह्नान्तर्गतभागो नास्ति खपुस्तके ।” ↩︎
-
“ख. द्वारि शो° " ↩︎
-
“ख. ०यचस०” ↩︎
-
“ख. गणान् । त्रा०” ↩︎
-
" ख. ०दुलाभतः” ↩︎
-
“ख. सुप्रैः” ↩︎
-
" ख. °स्मिस्तत्संनिधो भव ॥ १४॥ इ°।" ↩︎
-
" ख. ॰य नः । य॰ ।" ↩︎
-
" ख. " ↩︎
-
" ख °मनुहुहं वि° ।" ↩︎
-
“ख. °दुलाभतः° ।” ↩︎
-
“ख. दद्याद्यथा° ।” ↩︎
-
" ख. °स्तु द्वितीयस्तु ।" ↩︎
-
“ख. °दशः शुभदो बुवः ।१।अन्वत्स्थाने त्वसौव्या° ।” ↩︎
-
“ख. °ग्भिर्बझञास’ ।” ↩︎
-
“स. तो बुधैः । व° ।” ↩︎
-
“ख. °प्तकाञ्चनसंनिभ ।” ↩︎
-
“धनुचिह्नान्तर्गतो भागो नास्ति ख. पुस्तके” ↩︎
-
“ख. ०हससमिधश्वा०।” ↩︎
-
“क. ०पूजा बु०।” ↩︎
-
“०तां प्रोक्तेन० ।” ↩︎
-
" ख. ॰ण वेष्टिते " ↩︎
-
" व. वंशाग्य्रंस्था॰" ↩︎
-
“ख. पूर्वष॰” ↩︎
-
“ख. ॰शं ह्युग्रसनेऽस्तगेन वा । अ॰ ।” ↩︎
-
“ख. °ज्ञकम् । स °” ↩︎
-
“ख. °पूर्वकं चा ।” ↩︎
-
“ख. °र्याज्वरुणा हवनं बु॰।” ↩︎
-
“ख. ॰तिं तु सू ।” ↩︎
-
“ख. °द्यातये°” ↩︎
-
" ख. °माप्नुयात् ।" ↩︎
-
" ख. एतच्छुत्वा।" ↩︎
-
" ख. वसिष्ठ° ।" ↩︎
-
" ख. °ते तु न प्र° ।" ↩︎
-
“ख. गर्भस्तु " ↩︎
-
“ख. तत्संवि°” ↩︎
-
" ख. ०न्वितः ॥१३॥ र०” ↩︎
-
“ख. °भूषिते । हं°” ↩︎
-
“ख. ०तं तव " ↩︎
-
“ख. ०क्ये सच ।” ↩︎
-
“अत्र त्यबार्षः” ↩︎
-
“‘नमो नीलमयूराय नीलोत्पलनिभाय च ’ इति ख. पुस्तकेऽधिकम् ।” ↩︎
-
" ख. ‘न्यत्वं प्राप्नुवन्ति ।” ↩︎
-
" ख. °रं प्रसन्नो दा ।" ↩︎
-
" ख. °दि सौरेश व° ।" ↩︎
-
“ख. यदि वस्तु” ↩︎
-
“ख. °त्रंये पठिष्यन्ति मानवाः । ए° ।” ↩︎
-
“ख. ‘क्तःप्रातःस्नानस०।” ↩︎
-
“ख. ०ब्रंग्रहेश्वरम् ।” ↩︎
-
“ख. क्तः प्रातःस्नानस” ↩︎
-
“● आर्षत्वाद्व्यत्ययेनाऽऽत्मनेपदम् ।” ↩︎
-
“ख. संपद्धी रागदोषविवर्जितः " ↩︎
-
“कोडस्थः ।” ↩︎
-
“तथा च संमतिः ।” ↩︎
-
“♦कण्ड्वादेराकृतिगणत्वेन यकि रूपमेतत् ।” ↩︎
-
“ख. ०दं भवान्ते ।” ↩︎
-
“क. ०षवित्०” ↩︎
-
“२ ख. ०चित्रिते पट्टे त° ।” ↩︎
-
“नक्षत्रे नेत्रमध्ये च तारा भ्यात्तार इन्दपि इति व्य डेः पुंलिङ्गस्तारशब्दः ।” ↩︎
-
" क. ०लं घृतम०” ↩︎
-
“ख. यत्प्रोक्तं।” ↩︎
-
“स्व. °णि श्रुतानि °” ↩︎
-
“स्व. गोऽयं येषां मध्येऽभि ।” ↩︎
-
" ख. घ वृषांपतिः ।" ↩︎
-
“ख.०के पुण्यफलं भ०।” ↩︎
-
" दृष्ट इत्यत्र स्वपुस्तके दुष्ट इतिपाठोऽस्मिन्पद्ये" ↩︎
-
“स्व. °चयं” ↩︎
-
“स्व. ‘रान्य°” ↩︎
-
“स्व. स्यदि°। स्व षिणा ।त° " ↩︎
-
“दृष्ट इत्यत्र खपुस्तके दुष्ट इतिपाठोऽस्मिन्पद्ये ।” ↩︎
-
“स्व. °चयं " ↩︎
-
" स्व. ‘रान्य°” ↩︎
-
“स्व स्य दि°” ↩︎
-
“स्वषिणा । त° ।” ↩︎
-
“क. ०पीठे तु ।” ↩︎
-
" स्व. ॰मुज्ज्वलम् । अ° ।” ↩︎
-
“स्व. °नृतीक” ↩︎
-
“क. कुम्भं प°” ↩︎
-
“४. क. ‘माचरे’।” ↩︎
-
“क. °रें वरम् " ↩︎
-
" स्व.°मात्रंच शोभनम् । वृ°” ↩︎
-
" क. विधे" ↩︎
-
" स्व. °गादिः कृ°" ↩︎
-
“क. °त्र’ सर्वक°” ↩︎
-
“स्व. °ध्यमपर्व वा मध्यमया ए° ।” ↩︎
-
“ख. जठरो” ↩︎
-
“क. ०खर्म०” ↩︎
-
" ख. ‘ठेद्बह्महा यथा । त°" ↩︎
-
“ख. सूकरी” ↩︎
-
“स्व. सूकरी ।” ↩︎
-
“ख. एकवक्त्रमितं ।” ↩︎
-
“क.‘क्रतु’ " ↩︎
-
" ख. °क्तं कुण्डं यो°” ↩︎
-
“ख. ‘र्जितम् । दाै°।” ↩︎
-
“ख. थाहस्तममाणतः कण्डमर°” ↩︎
-
“ख दिग्वाले वि°” ↩︎
-
“ख. उकसानाधिकोन्माना " ↩︎
-
“ख. °दिक्कुण्डे नृनाशःस्यात्तस्मा°” ↩︎
-
“ख. प्रभागैश्चा” ↩︎
-
“क. °वयोनिषु कु° " ↩︎
-
" क. वृद्धानि कुर्वीत कुण्डानि या°” ↩︎
-
" क. न्ते धृतिं कृ°” ↩︎
-
" स्व. विवर्ज° " ↩︎
-
“ख. ° रेवंस्था°” ↩︎
-
“ख. °तले म°” ↩︎
-
“ख. °मेकं कु°” ↩︎
-
" क. ०पक्कानैः" ↩︎
-
" ख. ०स्तथा । भ०" ↩︎
-
" ख. ०लेतिन०" ↩︎
-
“स्व. दासराणां च " ↩︎
-
“क. °णि चोदने । वा°” ↩︎
-
“स्व. °भिशस्तकः " ↩︎
-
" स्व. °त्तिकृन्म°” ↩︎
-
“स्व. °त्तो यज्ञार्थं सो°” ↩︎
-
“स्व.°ङ्कुभा च श°” ↩︎
-
“क. ०लानि पु” ↩︎
-
" ख. ०मस्कुर्यात्प्र०” ↩︎
-
“द्वितीयं चतुर्थं चेत्यर्थः ।” ↩︎
-
“धनुश्विह्नगतो भागो नास्ति स्वपुस्तके ।” ↩︎