[[मदनपारिजातः Source: EB]]
[
BIBLIOTHECA INDICA;
COLLECTION OF ORIENTAL WORKS
PUBLISHED BY THE
ASIATIC SOCIETY OF BENGAL.
NEW SERIES, Nos. 641, 672, 686, 696, 705, 712, 757,
770, 796, 816 and 828.
THE MADANA PÁRIJÁTA
A SYSTEM OF HINDU LAW
BY
MADANAPÁLA
EDITED BY
PANDIT MADHUSUDANA SMRITIRATNA
Professor, Sanskrit College, Calcutta.
CALCUTTA :
PRINTED BY SASIBHUSHANA BHATTACHÁRYYA,
AT THE GIRISA-VIDYÁKATNA PRESS,
24, GIRISA-VIDYARATNA’S LANE,
UPPER CIRCULAR ROAD,
AND PUBLISHED BY THE ASIATIC SOCIETY OF BENGAL,
57, PARK STREET.
1893.
मदनपारिजातः
स्मृतिसंग्रहः
पण्डितपारिजात भट्टारमल्लेत्यादि-
विरुदरानौविराजमान-
श्रीमदनपाल-
विरचितः
कलिकातास्थ-संस्कृतविद्यालयाध्यापकेन
श्रीमधुसूदन-स्मृतिरत्नेन
संस्कृतः
पार्कवर्त्मनि सप्तपञ्चाशत्संख्यकभवनप्रतिष्ठितया
आसियिक-समित्या
प्रकाशितश्च
कलिकाताराजधान्यां
गिरिश-विद्यारत्नवर्त्मनि चतुर्विंशतिसंख्यकसद्मनि
गिरिश-विद्यारत्न-यन्त्रे
श्रीशशिभूषण-भट्टाचार्य्येण मुद्रितः
१८८३
विज्ञापनम्।
मदनपारिजात-नामधेय-निबन्धोऽयं प्राचीनःअर्व्वाचीनै-र्विख्यातै-र्नानादेशीयैः प्रामाणिकैः वाचस्पति-मिश्र-चण्डेश्वर-रघुनन्दन -मित्रमिश्र-कमलाकर-नन्दपण्डित-प्रभृतिभि-ग्रन्थकारैः समादृततयातिप्रामाणिकश्च। परन्तु अस्य कियत्कालावध्य- ध्ययनाध्यापना-विरहतो विलुप्तप्रायत्वं मन्यमानाया आसिया-टीक-समितेः संशोधनपूर्व्वक-मुद्राङ्गनाय नियुक्तेन मया राजकीय-पुस्तकालयात् संस्कृत-विद्या-भवनात् श्रीनन्दकुमारविद्यारत्न-स्वर्गीय-राजपण्डित-वैद्यनाथोपाध्याय-श्री केदारनाथकाव्यतीर्थ-रामनाथ-तर्करत्नानां सदनेभ्यश्च आदर्श-पुस्तक-षट्कं संगृहीतम्। तेषाञ्च पुस्तकानां पाठापाठ- विनिर्णयार्थं मूल-वेदसंहिता-स्मृतिसंहिता-पुराणादीन् प्राचीनार्व्वाचीन-प्रामाणिक-मिताक्षरा-हेमाद्रि पराशरभाष्य-हलायुध-शूलपाणि-रघुनन्दन-निबन्ध-निर्णयसिन्धु-वीरमित्रोदयादीन् निबन्धांञ्चालोक्य आदर्शपुस्तकानां परस्परविरोधे तैः संवादिततया पाठं निर्णीय क्वचिन्मूले निवेशितमादर्शान्तरस्व पाठान्तरं निम्ने निवेशितञ्च क्वचित्। कचिच्च सुसङ्गततया मूलसंहितादेः ग्रन्थान्तरस्य च पाठान्तरं निम्ने सन्निवेशितम्।अपिच नाना-वेदसंहिताभ्यः संगृह्य प्रयोगसौकर्य्यार्थञ्च सूक्तमन्त्रादयोऽत्र निम्नेनिवेशिताः। एवं स्मृतिपुराण-मन्त्रादीनां प्रायेण गूढार्थ-पदानि विषमपदानि च संस्कृतेन अनूदितानि।
विज्ञापनम्।
अस्य ग्रन्थस्य प्रणेता धर्म्मशीलःप्रबल-क्षितिपालो मदनपालः। स तु मिताक्षरायाःसुबोधिनी नामक टीका-प्रणेतृत्वेन कर्म्मविपाकादि-संग्रह-निब
न्ध-कर्त्तृत्वेन च प्रथित-यशसः पण्डित-प्रवरस्य विश्वेश्वर-भट्टस्य साहाय्येन नवभिः स्तवकैर्विभक्तं मदनपारिजाताभिधं निबन्धमभिनिनीतवान्। अपरांश्च आनन्दसञ्जीवन-तिथिनिर्णयसार यन्त्रप्रकाश-शूद्रधर्म्म-बोधिनी-सिद्धान्तगर्भ-स्मृतिकौमुदी-पालनिघण्टु-वैद्यक-नामधेयान् ब
हुन् निबन्धान् निर्म्मितवान्।तस्य दिल्ली-नामक-प्रसिद्धनगर्य्याउत्तरस्यां दिशि महानदी-यमुना-तट-प्रदेश-वर्त्तिनी काष्ठेति नाम्रा प्रसिद्धा महानगरी राजधानी आसीत्। सोऽयं प्रसिद्ध-विशुद्ध-राजकुले एक
त्रिंशदधिकचतुर्द्दशशत-विक्रमा
व्दे साधारण-नामधेय-प्रथित-भूपात् जातः। तस्य ज्येष्ठ-सहोदरः सहजपालः, पितामहश्च हरिश्चन्द्रः, प्रपितामहो भवपालो, वृद्धप्रपितामहश्च रत्नपालः।
निबन्धोऽयमस्य बहुदर्शितां सुधीरताञ्चविज्ञापयति स्म। यदिह प्रमादतोमुद्रा
ङ्कनकारदोषतो वा अन्यथा मुद्रि
तं पतितं विस्मरणा
द्वाअसन्निवेशितञ्च, तदिदानीं यथामति आद्यन्तमवलोक्य यथास्थानं संस्कृतम्। एवमपि यद्यपि क्वचिद्भ्रमो लक्ष्यते, तथापि प्रथम
सङ्कलनमिति विवेकेन क्षन्तव्यं पाठकेनालमिति।
श्रीमधुसूदन-स्मृतिरत्नस्य।
निर्घण्टः ।
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| स्तवकाः | विषयाः |
| प्रथमः | ब्रह्मचर्य्यादिनिर्णयः |
| द्वितीयः | गृहस्थधर्म्मनिर्णयः |
| तृतीयः | आह्निककृत्यनिर्णयः |
| चतुर्थः | गर्भाधानादिसंस्कारः |
| पञ्चमः | अशौचादिनिर्णयः |
| षष्ठः | द्रव्यशुद्ध्यादिनिर्णयः |
| सप्तमः | श्राद्धादिनिर्णयः |
| अष्टमः | दायभागनिर्णयः |
| नवमः | प्रायश्चित्तादिनिर्णयः |
—————
विषयसूची ।
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अ
| विषयाः |
| अंशानर्हाः |
| अकुलकरणानि |
| अग्नौकरणविधिः |
| अधमर्षणव्रतम् |
| अतिकृच्छ्रः |
| अतिथिपूजा |
| अतिसान्तपनम् |
| अधिकारिणः |
| अधिमासे विहितानि निषिद्वानि |
| अधिवेदनम् |
| अध्ययनविध्यादयः |
| अनध्यायाः |
| अनपत्यस्त्रीधनाधिकारिणः |
| अनवलोकनीयानि |
| अनाक्रमणीयानधिष्ठेयानि |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| अनुकल्पाः |
| अनुगमनाशौचम् |
| अनुपनीताशौचम् |
| अन्नप्राशनम् |
| अन्येऽपि कृच्छ्राः |
| अभिवादनम् |
| अभोज्यान्नभोजने |
| अयाज्ययाजने |
| अविभाज्यम् |
| अशुद्ध्यपवादः |
| अशौचसन्निपातनिर्णयः |
आ
| आचमननिमित्तानि |
| आचमनम् |
| आपदि प्रतिग्रहवृत्तिः |
| आपद्वृत्तिः |
| आभ्युदविकश्राद्धम् |
| आमश्राद्धकालनिर्णयः |
| आवसथ्याधानम् |
विषयसूची
| विषयाः |
| उच्चारविधिः |
| उत्सर्जनम् |
| उदकतर्पणम् |
| उपनयनकालादयः |
| उपपातकप्रायश्चित्तानि |
| उपपातकादिप्रायश्चित्तम् |
| उपाकर्म्म |
| उपाध्यायाद्युपरमे |
| उपासनस्य चोपासनम् |
ए
| एकोद्दिष्टश्राद्धम् |
क
| कर्णवेधः |
| कर्त्तव्यधर्म्माः |
| कर्म्मप्रशंसा |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| कर्म्मविपाकः |
| कामाकामकृतपापेषु प्रायश्चित्तकर्त्तव्यताविकल्पः |
| काम्यकालः |
| काम्यस्नानानि |
| कुसीदम् |
| कृच्छ्रप्रत्याम्नायः |
| कच्छ्रातिकृच्छ्रः |
| कृच्छ्रादिलक्षणानि |
| केशप्रसाधनादिमाङ्गल्य विधिः |
| क्रमप्राप्ततिलकविधिः |
| क्रमप्राप्तसायंसन्ध्यायां विशेषः |
| क्रियाङ्गस्नानम् |
| क्षत्रियादिवघे |
ग
| गमने वर्ज्यानि |
| गर्ब्भाधानम् |
| गुरुकुले वासचर्य्या |
| गुरुतल्पप्रायश्चित्तम् |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| गुरुतल्पप्रायश्चित्तम् |
| गुरुतल्पसमानि |
| गुरुतल्पातिदेशः |
| गोवधप्रायश्चित्तम् |
| गौनस्नानविधिः |
| ग्रहणकालः |
च
| चतुर्थाश्रमः |
| चान्द्रायणम् |
| चान्द्रायणतिकर्त्तव्यता |
| चूड़ाकर्म्म |
ज
| जननमरणाशौचे वर्णनियमेन काल-निर्णयः |
| जननाशौचम् |
| जपः |
| जपसंख्याविधिः |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| जातकर्म्म |
| जातिभ्रंशकरादिषु |
| जीवत्पितृकश्राद्धकालः |
| जीवत्पितृकश्राद्धम् |
त
| तप्तकृच्छ्रः |
| तर्पणम् |
| तीर्थयात्रास्नानम् |
| तुलापुरुषाख्यकृच्छ्रः |
| तृतीयाश्रमः |
द
| दन्तधावनम् |
| दशाहमध्ये दर्शपाते |
| दहनकाले अग्निनाशे |
| दातृनिरूपणम् |
| दारानुकल्पाः |
| देवतार्च्चनम् |
विषयसूची ।
| विषया |
| द्रुमच्छेदे |
| द्वितीयधर्म्माः |
| द्विपितृकश्राद्धम् |
| द्विराचमननिमित्तानि |
ध
| धान्यादेः |
न
| नरकाः |
| नवश्राद्धानि |
| नामकरणम् |
| नित्यश्राद्धपञ्चमहायज्ञानां स्वरूपाणि |
| नित्यश्राद्धम् |
| नित्याधिकारः |
| निष्क्रमणम् |
| नैमित्तिकस्नानविधिः |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| पङ्क्तिपावनाः |
| पतिव्रताविशेषधर्म्माः |
| पराकः |
| परिवेदन-पारिवित्त्ये च |
| परिवेषणादिविधिः |
| परिषत् |
| पर्णकृच्छ्रः |
| पर्षदुपस्थानम् |
| पाणिरेखाभिः परिगणनाप्रकारः |
| पितामहधने पौत्रविभागः |
| पुंसवनम् |
| पूजोपयुक्तपुष्पाणि |
| पोष्यवर्गचिन्तादि |
| प्रकीर्णकप्रायश्चित्तानि |
| प्रतिग्रहविषये आपदनापत्साधारणं किञ्चित् |
| प्रसङ्गात् गुर्व्वादिलक्षणम् |
| प्रसङ्गात् वर्णवृत्तिः |
| प्राजापत्यकृच्छ्रः |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| प्राणायामः |
| प्रातःस्नानम् |
| प्रायश्चित्तकर्त्तव्यतानिर्णयः |
| प्रायश्चित्तनिर्णयः |
| प्रायश्चित्तम् |
| प्रोषितमरणजननाशीचम् |
| प्रोषितमृतदाहविधिस्तदशौचम् |
फ
| फलादिकृच्छ्रः |
व
| ब्रह्मचारिनियमाः |
| ब्रह्मयज्ञः |
| ब्रह्महत्यादिप्रायश्चित्तानि |
| ब्रह्महत्याप्रायश्चित्तम् |
| ब्रह्महत्याव्रतातिदेशः |
| ब्रह्महत्यासमानानां प्रायश्चित्तं |
| तत्स्वरूपं |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| ब्राह्मणनिमन्त्रणविधिस्तन्नियमाश्च |
| ब्राह्मणपरीक्षा |
भ
| भिक्षाचरणम् |
| भूम्यादेः |
| भोजनविधिः |
| भोज्याभोज्यद्रव्यप्रसङ्गात् भोज्याभोज्यान्नाअपि |
| भोज्याभोज्यद्रव्याणि |
म
| मध्याह्नसन्ध्यायां सौकार्य्याय विशेषः |
| मलापकर्षणं स्नानम् |
| महापातकसंसर्गिप्रायश्चित्तम् |
| महापातकोद्देशः |
| महासान्तपनम् |
| मांसभक्षणे |
| मातुरंशक्लृप्तिः |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| मार्ज्जनम् |
| मिथ्याभिशंसनप्रायश्चित्तम् |
| मृताहकालः |
| मृताहापरिज्ञाने कालः |
य
| यतिधर्म्माः |
| यतिसान्तपनम् |
| यमतर्पणम् |
| यावकव्रतम् |
| युगादिमन्वादिकालः |
र
| रक्षोपायाः |
| रहस्यकृतपापप्रायश्चित्तानि |
व
| वरलक्षणानि |
विषयसूची ।
[TABLE]
विषयसूची।
श
| विषयाः |
| शयनविधिः |
| शीतकृच्छ्रः |
| शूद्रवृत्तिः |
| शौचविधिः |
| श्राद्धकालाः |
| श्राद्धदिनेऽपराह्नकृत्यम् |
| श्राद्धदिने पृर्व्वाह्नकृत्यम् |
| श्राद्धदेशः |
| श्राद्धभेदाः |
| श्राद्धस्वरूपम् |
स
| संक्रान्तिकालः |
| संसर्गिप्रायश्चित्तम् |
| संसृष्टिविभागः |
| सङ्कल्पश्राद्धम् |
| सन्धिन्यादिक्षीरपाने |
| सपिण्डीकरणम् |
विषयसूची ।
| विषयाः |
| समाचारप्राप्तद्विरागमने शुभाशुभकालादि |
| समानोदकाशौचम् |
| समावर्त्तनम् |
| सर्व्वविभागशेषः |
| साधारणधर्म्माः |
| सान्तपनकृच्छ्रम् |
| सामान्येन पापनिष्कृतिऱ्हेतवः |
| सिद्धान्नादेः |
| सीमन्तोन्नयनम् |
| सुरापानप्रायश्चित्तम् |
| " |
| सुरापानसमानि |
| सुवर्णस्तेयप्रायश्चित्तम् |
| " |
| सुवर्णस्तेयसमानानि |
| सूर्य्योपस्थानम् |
| सोमायनम् |
| सौम्यकृच्छ्रः |
| स्त्रीणां विशेषपतनहेतवः |
| स्त्रीधर्म्मः |
विषयसूची \।
| विषयाः |
| स्त्रीशूद्रविट्क्षत्रवधे |
| स्त्रीसंस्काराः |
| स्नातकव्रतानि |
ह
| हस्तदानादिक्रियादुष्टभक्षणे |
ऋष्यादिनामसूची
| एतचिह्नपूर्व्ववर्त्तिसंख्याः पृष्ठाङ्कवोधिकाः ; एतञ्चिह्नपूर्व्ववर्त्तिसंख्याश्च पङ्क्त्यङ्गबोधिका इत्यवगन्तव्यम् |
ऋषिनामानि ।
मनुः -११/२९, १२/१४, १२/१९, १४/६, १७/४, २०/२, २०/१३, २१ः७, २२/५, २४/४, २५/८, २६/३, २७/२२, २९/७, २९/१३, ३०/९, ३२/८, ३४/१, ३५/६, ३६/५, ३०४, ३०/१५, ३९/४, ४१/१२, ४२/६, ४२/८, ४३/१०, ४५/१४, ४६।६, ४७/१, ४७/११, ५०/९, ५२/७, ५३/१०, ५७/२ ६८/१७, ७१/१३, ७८/२, ८४/२, ९५/ १०, ९७/१, ९९/१०, १००/३, १००/१२, १०२/१४, १०२/१०, १०३/२, १०५/१५, १०६/२, १०९/५, १०९/११, ११४/४, ११७/१९, १२०/३, १२०/१०, १२०/२०, १२३/१२, १२६/३, १३१/१६, १३२/७, १३३/१३, १३५/६, १३६/८, १४३/१०, १४४/१३, १४७/२२, १४८/१४, १५३/४,
मनुः ( क्रमागतः )—
१५४/४, १५४/१०, १५५/२, १५५/१८, १५६/२, १५८/४,१५९/२,१६०/२,१७१/१७,१६२/४, १७०/१५, १७५/१५, १८८/१, १८९/१८, १९०/५, १९१/१०, १९२/९, १९३/६, १९५/१७, २०४/५, २०६/१३,२०८/५, २१५/२, २१५/१८, २१६/६, २१६/८, २१७/१४, २१८/१६, २२०/५, २२१/४, २२२/२, २२४/१०, २२५/३, २२७/४, २२९/१२, २३०/७, २३१/१९, २३२/१२, २४६/१६, २४९/१, २५७/८, २५८/३, २५९/८, २८०/४, २८१/१०, २८२/११, ३०५/१६, ३१५/१७, ३१६/८, ३२१/५, ३२४/१४, ३२७/१, ३२८/१७, ३२५/१६, ३४१/१४, ३४६/१०, २४७/९, ३५५/५, ३५०/११, ३६०/२, ३६१/१, ३६२/१२, ३७४/५, ३७५/९, ३७७/१,३८४/९, ३९१/९, ३९३/१२, ३९५/९, ४०५/८, ४०६/१५, ४१५/८, ४२६/१७, ४२७/२, ४२७/८, ४२८/९, ४३९/१४, ४३१/१८, ४३५/१, ४४३/११, ४४६/३, ४४९/५, ४५३/९, ४५८/२, ४६१/१०, ४६८/५, ४६८/१०, ४८३/१९, ४९५/१, ५२०/८, ५२४/१८, ५३६/१४, ५४२/१६, ५४३/१५, ५५०/१३,५५६/६, ५५७/१२, ५५८/१५, ५५९/४, ५६०/११, ५८१/१७, ५८९/३, ५९९/१६, ६०१/५, ६०१/१७. ६०९/४, ६५१/२०, ६५२/६, ६५४ः४, ६५५/१०, ६६६/१८, ६६७/११, ६६७/२१, ६७५/८, ६७५/१५, ६७५/१९,
मनुः ( क्रमागतः ) -
६८२/६, ६८२/११, ६८५/६, ६८६/८, ६८६/१२ ६९१/१८, ७००/६, ७०२/१६, ७०५/२६, ७१०/११, ०१५/९, ७३५/१२, ७४२/२०, ७४६/१०, ७४८/३, ७७४/९, ७८४/१०, ७८६/४, ७८७/१०,७८८/१३, ७९०/३, ७९७/१५, ८००/१७, ८०१/१९, ८०२/८, ८०९/१२, ८१३/२०, ८१४/१७, ८१५/१६, ८१८/१, ८२२/१७, ८२४/७, ८२५/२, ८२५/८, ८२६/९, ८३६/१, ८३६/१२, ८३७/११, ८४०/९, ८४३/१२, ८४९/५, ८५१/७, ८५९/११, ८५९/२१,८७१/९, ८७४।१, ८७४/१७, ८७५/१२, ८९१/१८, ९०२/५, ९०५/१, ९०९/४, ९१७/११, ९१८/१६, ९२०/१५, ९२५/१२, ९२७/७, ९३२/४, ९४९/१९, ९५०/६, ९५०/१८, ९५४/१७,९५७/५, ९६४/१०, ९६६/१२, ९९३/५, ९९४/४
वृहमनुः२६६/१२, २९७/८, ३२९/१७,४०५/१३, ४२९/६ ४८७/२०, ५७८/५, ८४०/२
वृहन्मनुः३८२/४
**अत्रिः -**२५०/२, ३२९/८, ४७०/१३, ४७१/७, ५७९/४, ९०१/१५, ९८१/१
**विष्णुः —**२७/१२ २७/१६, ४०/२०, ४२/१२, ४५/१२, ५२/३, १२२/१२, १२२/५,१२२/७, १२६/१२, १२६/१४,
विष्णुः( क्रमागतः)—
१९८/३, २०४/३, २०५/३, २०६/३, २०६/१९, २०७/७, २०९/१८, २२५/१४, २६३/८, २६५/१४, ३२६/१,३२७/२०, ३२९/२२, ३३०/१४, ३३१/१, ३४०/९,३४५/१,३५२/६, ३५२/१३, ३८९/१४, ४१६/१४, ४२६/१,४३६/७, ४३४/१, ४३५/१७, ४५५/१८, ४५७/११, ४१६/१०, ५२१/१३, ५३४/१५, ५५२/७, ५८७/१६, ६००/१६, ६२०/५,६३१।७, ६७२/१५, ७३३/१२, ७३६/७, ७६७/९, ७४७/१, ७७६/१४, ७८१/११, ७९५/१६, ८०७/२१, ८१०/६, ८२२/५, ८४५/१७, ८४९/११, ८७६/१५, ८८६/१०, ९२०/५
**वृद्धविष्णुः—**४३२/१६, ४३३/९
वृहद्विष्णुः– ४३/७, ८१४/८, ८४९/१६, ८६८/१७, ९२४/१५, ९३२/१६, ९८७/८
**हारीतः—**३५/११, ३७/६, ४२/२२ ४७/४, ५६/५,५७/२०,५७/४, ७०/४, ९५/१८, ११०/८, ११३/१६,११९/२०, १२१/१५, १२१।१५, १२७/१६, १५७/६, १५७/११, १०७/११, १९६/१७, १९८/१९, २१९/१३, २२८/१५, २४०/१०,२४१/१५, २८५/१७, २८८/१०, २९८/६, ३२८/१५,३३६/१५, ३४१/८, ३४२/४, ३४८/१७, ३५२/२, ३६५/१५४२५/३, ४४७/१३, ४५१/१३,४६५/१४, ४६६/४, ४६९/१०, ४८६/६,४९७/२२, ५००/७, ५७८/१९, ६०७/१९,६२८/२७, ६९१/५, ७०३/१८, ७०६/८, ७१८/१२,७४२/११, ७४९/१९,
हारीतः(क्रमागतः)—
७८२/२०, ८१९/९, ८४५/१३, ८६८/३, ८७९/१२, ९२६/१९, ९३१/१७, ९३४/१७, ९५८/३, ९५९/६, ९६१/२, ९६७/१५
**लघुहारीतः—**६२७/२२
वृद्धहारीतः— ८३६/४, ८५०/१६
**याज्ञवल्क्यः—**१०/२२, १४/१५, २३/१९, २५/२, ३०/४, ३२/४, ३३/८, ३४/११, ३५/१५, ३६/११, ३८/२, ४१/१६, ४४/८, ५४/१३, ५५/१८, ५७/७, ६१/१५, ७७/१६, ८३/६, ९५/४, ९७/८, ९९/८, १०१/४, १०२/१५, १०४/४, १०८/१७, ११०/१२, ११२/१९, १२०/१७,१२२/८, १३२/२, १४१/१३, १४२/९, १४५/९, १५०/१७, १५५/७, १५६/११, १८८/८, १८९/९, १९०/२, २९३/१, २९५/४, २११/६, २१२/८, २१५/५, २१७/५, २१९/१०, २२१/१, २२१/७, २२९/८, २२९/१५, २३१/२, २३५/६, २४३/४, २४३/६, २४५/१७, २४७/१५, २५२/६, २५३/२, २९०/१८, ३११/१७, ३२६/४, ३२७/७, ३३५/१३, ३३६/२०, ३३७/२, ३४०/१५, ३४६/३, ३४७/१२, ३५०/१८, ३५५/८, ३७३/१४, ३७६/१४, ३७७/९, ३८५/१०, ३८८/१८, ३९१/१६ ३९२/१९, ३९६/१, ३९७/७, ३९७/१७,३९८/१४, ४०२/८, ४०४/१३, ४०५/१८, ४११/१९, ४२०/१५, ४३१/७, ४३३/१६, ४३६/७, ४३७/१४, ४४५/३ ४४६/१९, ४४९/२, ४५१/४, ४५२/२१, ४५३/१५, ४५८/८, ४६२/१६, ४७१/१०, ४७३/६, ४८६/१, ५५९/७,
विष्णुः(क्रमागतः)—
१९८/३, २०४/३, २०५/३, २०६/३, २०६/१९, २०७/७, २०९/१८, २२५/१४, २६३/८, २६५/१४, ३२६/१, ३२७/२०, ३२९/२२, ३३०/१४, ३३१/१, ३४०/९, ३४५/१, ३५२/६, ३५२/१३, ३८९/१४, ४१६/१४, ४२६/१, ४३३/७, ४३४/१, ४३५/१७, ४५५/१८, ४५७/११, ४६६/१०, ५२१/१३, ५३४/१५, ५५२/७, ५८७/१६, ६००/१६, ६२०/५, ६३१/७, ६७२/१५, ७३३/१२, ७३६/७, ७३७/९, ७४७/१, ७७६/१४, ७८१/११, ७९५/१६, ८०७/२१, ८१०/६, ८२२/५, ८४५/१७, ८४९/११, ८७६/१५, ८८६/१०, ९२७/१५
**वृद्धविष्णुः—**४३२/१६, ४३३/९
**वृहद्विष्णुः—**४३/७, ८१४/८, ८४९/१६, ८६८/१७, ९२४/२५, ९३२/१६, ९८७/८
**हारीतः—**३५/११, ३७/६, ४२/२२, ४७/४, ५६/५, ५६/१२, ५७/४, ७०/४,९५/१८, ११०/८, ११३/१६, ११९/१६, १२१/१५, १२७/१६, १५७/६, १५७/११, १७२/११, १९६/१७, १९८/९, २१९/१३, २२८/१५, २४०/१०, २४१/१५, २८५/१७, २८८/१०, २९८/६, ३२८/१५, ३२९/१५, ३४१/८, ३४२/४, ३४८/१७, ३५२/३, ३९५१८, ४२५/६, ४४७/१३, ४५१/१३, ४६५/१४, ४६६/४, ४६७/१४, ४८२/६, ४९७/२२, ५००/७, ५७८/१९, ६०७/१९, ६२८/१७, ६९१/५, ७०३/१८, ७०६/८, ७१८/१२, ७४२/११, ७४२/१९,
हारीतः( क्रमागतः)—
७८२/२०, ८१९/९, ८४५/१३, ८६८/३, ८७९/१२, ९२६/१९ ९३१/१७, ९३४/१७, ९५८/३, ९५९/६, ९६१/२, ९६७/१५
लघुहारीतः —६२७/२२
वृद्धहारीतः—८३६/४, ८५०/१६
याज्ञवल्क्यः—१०/२२, २४/१५, २३/१९, २५/२, ३०/४, ३२/४, ३३/८, ३४/११, ३५/१५, ३६/११, ३८/२, ४१/१६, ४४/८, ५४/१३, ५५/१८, ५७/७, ६१/१५, ७७/१६, ८३/६, ९५/४, ९७/८, ९९/८, १०१/४, १०२/१५, १०४/४, १०८/१७, ११०/१२, ११२/१९, १२०/१७, १२२/८, १३२/२, १४१/१३, १४२/९, १४५/९, १५०/१७, १५५/७, २५६/११, १८८/८, १८९/९, १९०/२, १९३/१, १९५/४, २११/६, २१२/८,२१५/५, २१७/५, २१९/१०, २२१/१, २२१/७, २२९/८, २२९/१५, २३१/२, २३५/६, २४३/४, २४३/६, २४५/१७, २४७/१५, २५२/६, २५३/२, २९०/१८, ३११/१७, ३२६/४, ३२७/७, ३३५/१३, ३३६/२०, ३३७/२, ३४०/१५, ३४६/३, ३४७/१२, ३५०/१८, ३५५/८, ३७३/१४, ३७६/१४, ३७७/९, ३८५/१०, ३८८/१८, ३९१/१६,३९२/१९, ३९६/१, ३९७/७, ३९७/१७, ३९८/१४, ४०२/८, ४०४/१३, ४०५/१८, ४११/१९, ४२७/१५, ४३१/७, ४३३/१६, ४३६/७, ४३७/१४, ४४५/३, ४४६/१९, ४४९/२, ४५१/४, ४५२/२१, ४५३/१५, ४५८/८, ४६२/१६, ४७१/१०, ४७३/६, ४८६/१, ५५९/७,
याज्ञवल्क्यः(क्रमागतः)
५६२/५, ५६७/१३, ५७२/३, ५७५/१, ५७६/१९, ५७७/५, ५७९/१२, ५९६/१०, ५९७/१, ५९७/७, ५९८/४, ५९९/६, ६१०/१३, ६१२/३, ६२१/१४, ६४५/१३, ६४६/१४, ६४७/२२, ६५०/१०, ६५५/९, ६५६/३, ६५७/९, ६५९/३, ६५९/१६, ६६२/८, ६६५/१, ६६५/१५, ६६८/१७, ६७०/९, ६७१/१७, ६७६/१, ६७६/१५, ६८१/८, ६८३/१७, ६८८/७, ६८८/१२, ६९५/८, ६९९/१०, ७०३/९, ७०३/१३, ७०४/१८, ७०८/१, ७१०/२, ७१५/१४, ७१६/१७, ७१७/७, ७१७/१४, ७१८/२, ७२७/१९, ७३१/१५, ७३३/२, ७३५/६, ७३८/१२, ७४३/२, ७४७/६, ७४७/११, ७७२/२०, ७८६/१९, ७९८/९, ७९८/१६, ८०२/१, ८०४/१७, ८०६/११, ८०८/११, ८११/१३, ८१५/८, ८१६/३, ८१८/१८, ८२३/२, ८२५/१३, ८२६/४, ८२८/१, ८३०/१४, ८३४/१८, ८३८/७, ८४५/३, ८४६/१६, ८५०/१३, ८५३/१८, ८५६/१८, ८७०/१९, ८९८/४, ९०८/१४, ९१५/३, ९१५/२०, ९२५/१६, ९५०/११, ९५०/२२, ९५१/८, ९५३/३, ९६१/१७, ९६२/८, ९६३/१२, ९६३/१९, ९६४/४, ९६६/६, ९६७/१०, ९६८/६, ९७०/७, ९७३/५, ९७६/३, ९८७/३, ९९१/१०, ९९३/११, ९९४/४
योगियाज्ञवल्क्यः—६१/१०, ६९/२, ७४/१३, ७८/५, ८०/१९, ८१/३, २३६/१, २७२/५, २७३/२१, २७५/६, २८१/५,
योगियाज्ञवल्क्यः(क्रमागतः)—
२८४/१३, २८६/८, २९२/७, २९७/१७, २९९/९, ५७५/२१,७३८/१, ८४३/८
वृद्धयाज्ञवल्क्यः—२१०/२, ३८३/१२, ४०९/१९, ९३९/१५
उशना—१०४/१, २५९/१७, ५६६/११, ६२७/१४, ८७८/१, ८९०/१७, ८९५/१९, ८९६/१६, ९४३/१६
अङ्गिराः—४१/४, ४२/१५, ५७/१६, ३८३/१, ३८९/१९, ४०६/१०, ४०७/२, ४१४/११, ४१७/१७, ४२३/५, ४५०/१६, ५३५/८, ६१७/१, ६१८/१५, ७०४/६, ७११/७, ७७३/९, ७७५/१, ७७७/२, ७७८/९, ७७९/३, ७९१/१, ७८२/२१, ८०२/१३, ८०९/१५, ८१६/८, ८१७/८, ८६८/३, ८६८/७, ८३३/१५
यमः—२८/७, ३७/१४, ४१/१९, ४४/१६, ४६/९, ५१/१६, ५३/९, ५९/४, ७१/२२, ८१/१८, १०२/७, १९८/१४, १२०/१४, १४९/४, १५२/३, २०८/९, २१०/१४, २१९/५, २४९/९, २५४/६, २६२/१७, २६३/१८, २८९/२, ३०५/२, ३०५/१३, ३२७/१०, ३५८/५, ३६०/५, ३६१/४, ३८५/२३, ४३९/२०, ४५२/५, ४६०/७, ४६३/५, ४६६/१७, ४६७/१, ४६९/१३, ४८४/१५, ४८५/८, ५०४/६, ५१७/७, ५४६/५, ५६२/१६, ५६४/२, ५६५/१, ५६७/७, ५६९/७, ५६९/१५, ५७०/२०, ५७३/४, ५८५/१०, ६०३/४, ६२३/१०, ६२४/१, ६९५/२, ७१६/८, ७२१/१२, ७३२/५, ७३२/१५, ७५०/१९
यमः ( क्रमागतः)— ८०१/१२, ८१०/१२, ८३५/४, ८४७/१५, ८६४/७, ८६८/१४, ८७१/३, ८८४/१७, ८९०/६, ९४८/१८, ९५६/११, ९६०/१८
वृद्धयमः—८२२/१३, ८४८/१
आपस्तम्बः—२४/८, २४/१४, २५/१५, ३०/१, ५२/१५, ५९/१, १२७/१०, १३१/५, १३७/३, २४०/१३, ३१०/८, ३१२/५, ३१४/२१, ३२७/३, ३३४/१, ४१५/१६, ४४८/१७, ४५४/१६, ४६६/७, ४७४/५, ५४३/१९, ६१९/१२, ६६३/१६, ६७४/२१, ७९४/४, ८६५/८, ८६६/३, ८६८/२०, ८९६९९१३/४, ८३६/४, ९३६/१२, ९३७/३, ९४०/३, ९४६/१, ९६१/९
संवर्त्तः—६५/१, ११७/१, १५०/७, ३७५/१७, ३८२/१७, ४०७/१८, ४१६/११, ४१९/१४, ४५६/१७, ७८८/७, ८२८/१०, ८४३/१६, ८६५/१५, ८८९/४, ९११/१९, ९३७/९, ९३९/१
वृहत्संवर्त्तः— ८९६/६
कात्यायनः—२३/९, २४/१९, ५६/१५, ६२/७, ६२/१२, ६२/१२, ६६/२२, ८६/५, १४२/१५, १५३/१६, १७१/८, १७३/७, १७६/१, २०५/१२, २०६/१६, २०८/१, २३८/८, २४२/३, २५०/९, ३०६/१, ३१०/१५, ३१२/१०, ३१४/१७, ४०२/२२, ४८०/४, ४८०/१२, ४९०/२, ४९४/८, ५०२/८, ५४१/१६, ५५२/१, ५६४/१७, ५६८/१, ५७१/१६, ५७५/६, ५८०/७, ५८२/६, ५८५/६, ५८६/१, ५९२/५, ६०२/५, ६१२/१७, ६१७/८,
कात्यायनः( क्रमागतः) —
६२४/१८, ६२५/२२, ६१९/१०, ६३२/१४, ६३५/१५, ६३६/२०, ६३८/१५, ६५४/७, ६७१/४, ६७२/७, ६८५/३, ६८५/१९, ८४३/१
बृहस्पतिः—२८/१७, ४९/१, ५८/१, ७८/१५, ११७/८, १२४/१६, २१९/१९, २३०/१, २३०/१०, २६१/६, २८१/१९, २८३/१३, ३३३/१६, ४१९/१०, ४२२/११, ४२९/९, ४३२/३, ४४२/१९, ४६४/१३, ४६५/९, ४७०/१८, ४७१/१७, ५१०/१६, ५४५/९, ६११/२०, ६७७/७, ६८०/७, ६८५/१६, ६८६/१, ६९०/३, ८०४/६, ८१६/१०, ८५२/८, ९४८/१५, ९५६/८, ९५७/१४
पराशरः—४१/१२, ६८/५, १०१/१६, २३०/१३, २४७/११, २६१/१६, २६२/४, २७३/७, २९६/९, ३५०/४, ४०९/८, ४१२/१८, ४३६/१७, ४५८/१४, ४७८/१५, ७२८/८, ७३५/१७, ७३६/३, ७३६/१२, ७४८/२५,७५२/१४, ७७६/१२, ८०९/१८, ८५१/१२, ८६६/१०, ८६८/४, ८७०/७, ८९६/३, ९११/२३, ९३३/२१, ९३६/१९, ९३७/१७, ९३९/११, ९५१/१३
वृहत्पराशरः—४८/७, ४८/१४, ५२/९
व्यासः—३३/१४, ६४/१७, ६६/१२, ६७/७, ६८/१२, ७२/८, ७३/१६, ७४/१०, ९२/१, १०२/१, ११३/६, १२५/५ १७०/२, २१०/१०, २७०/२, २१७/१८, २४६/१९, २६८/१०, २७०/२, २७८/२०, ३०८/१४, ३१४/१, ३२७/१५, ३३४/२२,
व्यासः(क्रमागतः)— ३३६/१२, ३४४/१, ३५३/२, ३५४/६, ३६२/१, ३८३/७, ४५२/१४, ४५७/१५, ४८२/१२, ४९५/१६, ४९५/२०, ५३४/११, ५४५/२, ५४८/१४, ५७७/१२, ६००/६. ६०९/१५, ६१४/११, ६३१/३, ६८८/३, ८१५/५, ८१९/१५, ८६५/२१, ८६६/१२
शङ्खः—१२/१४, ४६/१२, ५५/४, ६१/१९, ६४/१२, १२१/९, १४०/२, १९५/७, २१७/१०, २३६/१७, २३९/१९, २५७/४, २७०/८, २९६/४, ३२८/८, ३३७/१५, ३५४/११, ३५६/१, ३५७/५, ३५७/८, ३६०/८, ३६४/१३, ३८४/६, ३९९/१०, ४०३/१०, ४३७/४, ४४६/९, ४४८/४, ४४८/१२, ४५१/१६, ४५५/७, ४५६/२२, ४५९/१८, ४६१/१, ४६९/१०, ४८५/१४, ५१९/१, ५५२/४, ५५४/१४, ५६८/१३, ५८९/५, ६०२/८, ६१२/६, ६१४/४, ६२३/१९, ६४७/१८, ६८०/१, ६८४/९, ६९४/१७, ७०१/४, ७३१/१२, ७३७/२, ७४२/१७, ७४६/६, ७४९/१७, ७५०/४, ७८०/१३, ७८१/४, ७८८/१९, ७९१/१५, ७९७/११, ८२४/१६, ८२७/१३, ८७९/१६, ८८७/१३, ९३४/९, ९४२/१०, ९५९/२२, ९६१/१३
वृहच्छङ्खः—५४।१९
लिखितः—२९१/५, ३५६/७, ३६१/७, ३६१/१०, ४५५/४, ७३३/१८, ८३६/१५, ९४६/१४
दक्षः—४४/१३, ४५/२१, ४६/९, ४७/९, ४८/१, ५३/४, ५४/७,
दक्षः( क्रमागतः )—६२/१५, ९६/१२, १००/८, ११२/१६,२११/१५, २१२/२, २३७/१३, २८९/६, २६६/१९, ७८९/१३
गौतमः—२०/५, २९/९, ३४/१६, ३५/१९, ५३/१३, ९६/१५, ११४/१, १९८/११, २३०/१८, ३१३/१०, ३३५/२०, ३३९/६, ३६४/५, ३९३/६, ३९७/१२, ४०२/२, ४०६/४, ४१५/११, ४३९/१, ४५८/१२, ४७१/१५, ५१८/९, ६१६/४, ६६५/८, ६६६/१४, ६६८/१३, ६७५/४, ६८७/१, ७०२/२०, ७०८/१२, ७११/११, ७१६/५, ७६०/६, ७८७/१४, ७८९/३, ८२३/७, ८२७/८, ८८७/२, ९५८/१९, ९६४/१८, ९६६/१६
वृद्धगौतमः—५३७/१९
शातातपः—२३/६, २८/१०, ४५/३, ४६/५, ४९/१३, ७९/१३, १५४/१३, १७०/१७, २६०/१७, २६१/११, २७४/८,२७४/१२, २८३/१६, २८४/१५, ३१२/१, ४३५/१९, ४३९/६, ४३९/१०, ४६०/१६, ४६६/१४, ४९१/१, ४९५/१३, ५१८/१९, ५४४/२०, ५७९/६, ६०२/२१, ६२३/१५, ६२४/१०, ६३२/५, ७८७/७, ९५४/१३, ९९४/१०
वृद्धशातातपः—४००/१, ५७७/१६, ६३४/१५, ७७८/४, ९३४/५.
वशिष्ठः—१२/१७, २०/९, २७/१, ३५/३, ३६/२, ३८/६, ३८/१५, ७६/१७, ७९/७, ९८/१, ९८/५, ११७/११, १२७/६, १३९/१, १३९/६, १४१/७, १५३/८, १७१/३, २२५/१९, २५२/३, ३१७/१५, ३२२/१२, ३३०/१७, ३४३/१६, ३४८/७,
वशिष्ठः(क्रमागतः) —३७४/१३, ३७५/१४, ३८८/५, ३८९/३, ३९७/१४, ४१५/४, ४३०/१३, ४५९/७, ५३०/१६, ५४८/२०, ५५९/१, ५६२/७, ५९७/१४, ६४७/८, ६५२/१५, ६५२/१९, ६५६/१४, ६८३/३, ७१०/१५, ७८२/४, ७८५/२, ७८७/२२, ८०८/१७, ८१०/१६, ८११/४, ८२६/१७, ८३७/५, ८४३/१९, ८५१/१, ८८३/१२, ८८५/२, ९०८/१९, ९११/५, ९१५/१५, ९१६/१०, ९२१/२, ९३८/३, ९५६/१७, ९६७/५, ९६८/२, ९६९/१६
ज्योतिर्वशिष्ठः—५३०/१, ५३१/१७
लघुवशिष्ठः—८२९/५
वृद्धवशिष्ठः—५२९/११, ५३०/१३, ५३१/५, ५३१/१९, ५३५/११, ५३६/२१, ६१२/३, ८९९/३, ८९९/१७, ९००/१५
वृहद्वशिष्ठः—१७२/८, २६४/७, ४२०/१४, ४२८/५, ५१५/१६
योगीश्वरः—५२/१८, ६१/७, ६७/४, ८२/२, ६५७/३, ६६३/२१, ६६९/१५
योगियोगीश्वरः—२७५/२०
द्वैपायनः—६९/१३
वादरायणः—१८६/१९
कश्यपः—४५/६, ७२/१६, ७३/१०, १३१/२०, १५०/१२, २५५/१, ३९४/१८, ४६६/२०, ८९९/११
गार्ग्यः—८६/१२, १७०/१०, २०७/३, २०७/१५, २६७/१८, २६८/४, २६८/१३, ५२३/५, ५३१/९, ५७६/९, ६१६/९
**वृद्धगार्ग्यः—**५२३/१२, ५३३/१३, ५३४/४
**प्रचेताः—**५२/१२, ३०८/८, ३५४/२, ३९६/१६, ३९८/२, ३९९/५, ४३५/११, ४५४/२२, ४८२/२, ४९९/१०, ५६४/४, ५६५/२०, ५७३/१३, ५७७/१, ५८०/४, ६१८/१०,८०८/२, ८१७/६, ८६४/१७
**वृद्धप्रचेताः—**४३२/५, ८९३/४
**वृहत्प्रचेताः—**८७/१
**मरीचिः—**१८०/१, २०९/२१, २८९/११, २९८/९ , ३८९/९, ४०१/११, ४०३/१४, ४२२/१६, ४३४/१६, ५०८/१, ५११/८, ५२७/३, ६००/११, ६१६/१३, ७२८/१, ९१५/१०
**पौलस्त्यः—**२०८/१२, २६२/९, ३३४/१२, ४१८/१८, ४७९/१७, ५४०/५, ८१४/१२, ८३९/१, ९५४/७
**भृगुः—**७१/१६, ५१७/१२, ५१९/११, ५४८/१०
**नारदः—**११९/५, १४३/१, १४५/१५, १४८/३, १५०/२१, १५४/१, २०८/१८, २१८/१, २२६/१८, ५०८/६, ६४५/३, ६४७/१, ६४७/५, ६६७/२, ६७५/१२, ६८४/२०, ६८९/१०,
**विश्वामित्रः—**४७५/१३, ७७२/३
**कौशिकः—**२३९/१६, २४१/७
**देवलः—**२१/१५, ४२/२, ४९/७, ७३/१३, ९६/१८, १०९/१४, १२५/१७, १५७/१८, १८८/१६, २१६/१, २४७/५, २५०/६, २७२/१३, ३१८/५, ३२६/१७, ३३४/१५, ३३५/६ ३३६/५,
देवलः(क्रमागतः )—
३४९/१७, ३७४/२०, ३७७/५, ३९६/१०, ४१६/३, ४१६/२०, ४१७/९, ४२७/१३, ४५४/३, ४६१/१६, ४६४/१६, ४६६/१, ५१५/१, ५२२/१३, ५६२/१३, ५६६/२, ५६६/१३, ५७७/२०, ७०६/१२, ७५९/२०, ७७७/१५, ७७८/१३, ८२५/१७, ९२४/२२, ९३६/९, ९५७/२१, ९६०/१४
**ऋष्यशृङ्गः—**८६/८, ३२६/६, ४०२/१४, ५११/१६, ६०९/१२, ६१८/५,८७०/१६, ८९५/८, ९५८/१६
**बौधायनः—**५१/४, ५१/१३, ५७/१०, ५८/१८, ७०/१४, ८५/२, ८७/४, १३७/१५, १४८/७, १४९/११, १७८/१३, २७५/१, २८८/१७, ३१५/६, ३२७/१८, ३२९/१२, ३५१/११, ३७४/४, ४०२/१७, ४२५/२, ४४७/४, ४५०/१२, ४५५/१५, ४५७/५, ४६०/१३, ४६४/७, ४६७/११, ४८१/५, ५६८/४, ५८९/९, ६१८/१८, ६२५/२, ६६९/११, ७५०/७, ७८२/१०, ८२१/१, ८२२/१, ९१६/७, ९९१/१६
**पैठीनसिः—**५४/१६, ५५/१०, ११८/६, ११९/८, १३९/११, १८४/१०, २३५/१०, २४८/८, २५६/९, ३१८/२५, ३२८/२०, ४१७/१९, ४२०/१०, ४२८/१३, ४४१/५, ५५७/१०, ५६१/६, ६१७/३, ६२३/५, ७८३/१७, ७९६/६, ८१७/४
**जावालिः—**२४६/१०, २४७/२, २७२/२, २७२/१६, ४९६/१६, ५०२/२२, ६१९/३, ७३१/६, ७३२/१०, ७३३/७, ७३७/१२, ७४८/१९, ८४२/६
सुमन्तुः—१३५/१४, १७२/५, १७२/१६, ३४२/१, ४०३/३, ४८१/१०, ५२०/४, ५२९/१, ५४४/७, ६२२/७, ६२४/१४, ६३०/८, ७८०/१९, ७८५/९, ७९५/३, ७९६/३, ८४०/१२, ९७१/४, ९९३/१५
पारस्करः—१७/१४, ११४/१६, १६९/१९, १७५/६, २७५/१७, ३५०/२१, ३५१/२०, ३९९/१५, ४३७/८, ४७८/७
लोकाक्षिः—२३/१२, २४/२, ३१८/११, २२०/७, ३५१/१३, ३५८/८, ३६०/३, ३६१ /१२, ४९३/१, ४९४/१५, ६१६/२१
कौथुभिः—५४८/५
च्यवनः – ७८६/७
छागलेयः—७८४/५
जातूकर्णः—२७५/१२, २७६/८, ४१९/३, ४४२/११, ५८४/१, ६००/३, ६१३/२०, ८१८/१०, ८३९/१७
पितामहः—४१/१, ५०५/९
प्रजापतिः—३५४/१७, ४३४/९, ४३९/१६, ६१९/२०, ९१२/६
धौम्यः—९४४/४
आश्वलायनः—४३१/११, ५८६/१४, ६००/१, ६३४/४
भरद्वाजः—४४/५, ५३/१७, २१४/६, २४७/८, २४८/२, ५९७/२२, ९४०/७, ९४२/१९
गोभिलः—१९/१४, ५६/८, ८४/१६, २३६/१७, २८७/१, ३३१/२०, ३५१/९, ४८९/६, ४८९/१३, ५०६/९, ५०७/१८, ५०९/१२, ६१४/१५, ६१५/२२, ६१६/१९, ६३०/१४
जमदग्निः—२९/१, ३१७/१, ३३९/१२, ४८१/१७, ५९८/१०, ५९९/४
कण्वः—३७५/१, ६१९/१४, ८४१/७, ८४१/१५
कार्ष्णाजिनिः—८६/१७, २९२/१, ४९८/५, ४९५/१४, ५१८/४, ५२४/१४, ५२९/७, ६१६/७
मार्कण्डेयः—५६/२, ५६/१८, २०७/१९, २१३/६, २६४/५, २६४/१०, ३०९/१६, ३३०/४, ३३०/१९, ३३६/१७, ३४४/१५, ३६३/११, ३८३/१५, ५०३/१२, ५३५/१४, ५३७/१२, ५८१/२, ७३४/१३, ७४६/२, ८९९/७, ९०१/१९
शाण्डिल्यः— ९१०/२१, ९११/१४
सत्यव्रतः—२८९/१६
शौनकः—१९/१७, ३३/६, ७०/७, ८४/९, ८४/१९, ३१२/१६, ३५१/१५, ५७९/१, ६१९/१९
वत्सः—१६१/३
व्याघ्रः—८४१/१, ८४७/९
वैयाघ्रपादः—२३६/१९, २५१/२४, २५५/१९, ३२५/१०, ३९०/२, ४२९/२०
वैशम्पायनः—७४९/१५
पाणिनिः—१०१/९
सांख्यायनः—५८/८, ६०/९
ब्रह्मा—७१/१९
संग्रहकारनामानि।
जैमिनिः—३५३/११, ३८२/१२
वैजवापः—३५३/१९, ३५७/१
अगस्त्यः—५४७/११
_____
संग्रहकारनामानि।
नारायणः—६/१७, ७१/१०, ७२/१२, ५६५/८
गाङ्गेयः— ९६/७, ९६/१०
यज्ञपार्श्वः—५४३/२१, ५७६/३
गृह्यकारः—५८६/८
शिवस्वामी—६१९/१०
सुरेश्वरः—१७/२०, ११४/१२, १८६/१२, ३५८/११
मण्डनमिश्रः—१८३/७, १८५/१४
सङ्ग्रहकारः—२१/११
भाष्यार्थसङ्ग्रहकारः—५९४/११, ५९५/६
_____
श्रुतिग्रन्थनामानि ।
श्रुतिः—३५/१, ३६/२२, ७३/७, १७७/१, २७/१७, २८१/१४, २८२/९, ३७४/१६, ४८८/५, ५०७/६. ६०२/२०
निगमः—८५/५, २५१/१३, २५१/२२, ३९६/२०
तैत्तिरीयशाखा—६४/८
____
स्मृतिग्रन्थनामानि ।
बह्वृचगृह्यपरिशिष्टम्—८४/१३, ८७/२०
मह्यपरिशिष्टम्—३५५/१४, ५४५/२१, ६३२/१०
काठकगृह्यपरिशिष्टम्—५४७/५
छन्दोगपरिशिष्टम्—२१/१, ९२/८
भरद्वाजगृह्यम्—८७८/२०
साङ्ख्यायनगृह्यम्—४२/१९, ११८/१९
षट्त्रिंशन्मतम्—४२१/५, ४७१/३, ४८३/१, ७५०/१, ८२८/८, ८३५/१७, ८९०/२, ८९२/१७, ९३४/२, ९४३/१५
____
संग्रहग्रन्थनामानि।
चतुर्व्विंशतिमतम्—६३८/३, ७५४/३, ८३४/५, ८८२/३
धर्मविवृत्तिः – ७५३/१३, ७७२/११
कल्पतरुः– ५९५/२२, ६९७/८
विष्णुसमुच्चयः- २९१/१९
आचारसागरः—५८/१३
पैङ्गिरहस्यम् –३७२/१०
चमत्कारखण्डम् – ३१०/३
परिशिष्टम् – ३१४/९, ३१४/१३
स्मृतिमहार्णवः-९३/५
स्मृतिसङ्ग्रहः—६१।१७
स्मृत्यन्तरम् – २४/१०, ३६/१३, ९२/१५, ३७८/६, ४४९/९, ५०६/३, ५७२/७, ६१०/५, ८४८/१४, ८७९/४, ८९४/११, ९६१/२०
स्मृत्यर्थसारः – २९५/७, ३२९/५
पुराणनामानि।
ब्रह्मपुराणम्—२५/५, ५७/१३, ७९/१६, ८०/३, ३२८/५, ३३०/१०, ३३३/१, ४१४/१, ४२२/७, ४३८/१०, ४८७/६, ५२१/१७, ५७०/१२, ५७०/१६, ५७६/१३, ५७७/८, ५८०/१३, ५९०/१३, ६०१/१५, ६१४/१७, ६२२/१, ६३४/१९, ६३९/५
पद्मपुराणम्—२९९/६
विष्णुपुराणम्—४३।४, ४४२, ४५१६, ६७/१६, ११७/२२, १२१/२०, २०४/८, २१११२, २१२/१४, २४६/१३, २७६५, २८४/६, ३२५/७, ३३३/४, ३४३/१७, ३४४/७, ३४८ ७, ४२०११, ४७८।१४, ५१५११६, ५३८।१८
विष्णुधर्मोत्तरपुराणम्—३५३/१४, ४८४/१०,५३८/३
वायुपुराणम्—२४/१६, ४८६/१९, ५५२/१६, ५५८/१०, ५७९/८, ५८१/८, ५८५/१३, ५९१/३, ५९६/१६, ६००/८, ६२५/१५
नारदीयपुराणम्—२६५/१, ५०७/२, ५३९/४
मार्कण्डेयपुराणम्—६१/२, ६७/९, ११९/११, १२२/११, १२५/८, २४८/११, २६४/१६, ३०८/५, ३२६/६, ३२९/२०, ४७३/८
भविष्यपुराणम्—३३/१९, ७३/२, २६२/१४, ३२४/३, ३२५/२, ३३२/१७, ३५५/१०, ३५५/१०, ३५८/२, ४११/१५, ४४०/१२,
पुराणनामानि।
४७६/१, ५४३/३, ६१९/७, ६३०/१८, ६३६/१५, ७९०/१३, ७९१।१०, ८०१/१, ८०२/३, ८०२/६, ८१६/१७, ८३१/११
भविष्योत्तरपुराणम् –८७/१०, ९०/२
लिङ्गपुराणम्—५३५।१, ५३८/१०
स्कन्दपुराणम्—७९/१९, १२३/३, १९३/१७, २०५/९, २९६/९, ३०३/३, ४९५/११, ५०४/९, ६२२/१६, ८७८/१०
गरुड़पुराणम् – ३०२/१८
ब्रह्माण्डपुराणम्– ६९/७, १०५/६, २५५/९, २७६/५, २७९/८, ३२२/२२, ५१५/१६, ५२५/१०, ५२६/२२, ५५५/७, ५६५/१६, ५६७/१८, ५७१/१४
मत्स्यपुराणम्—१३/९, २६४/१, ३०८/१७, ३७५/४, ५२५/७, ५३४/१८, ५३७/३, ५४०/८, ५४०/१३, ५५८/७, ५६८/८, ५७५/१०, ६१२/९, ६३१/१२
कूर्म्मपुराणम्—७४/३, २०६३/९, २५८/२३, २७२/१३, २८२/४, २८४/१५, २८६/१९, ३०९/६, २१२/१३, ८७८/१४
वराहपुराणम्– २१०/५, ५६१/२, ६११/११
नरसिंहपुराणम्—२११/१२, २९८/१, ३०१/१
वामनपुराणम्—६२/१८
आदिपुराणम्—४८/४, ३३३/११, ४४९/११, ४५६/१४, ५५२/१२
आदित्यपुराणम्—४७/२०, ३३१/३
देवीपुराणम्—१२२/१, ३०४/७
कालिकापुराणम्—९०१/५, २२८/३
अन्यान्यग्रन्यनामानि
ज्योतिःशास्त्रम्—९८/५, ३५४/२०, ३५९/२, ५२४/४
ब्रह्मसिद्धान्तम्–५०५/१७, ५३४/७
महाभारतम् – ११८/१८, १९१/१२, १९७/१, २१३/२, ५२३/१९, ५३६/१७
उमासंवादः—८०/१२
————
शुद्धाशुद्धनिर्णयः।
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मूलस्य।
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| पञ्चशाब्दक्रमं | पञ्चषाब्दक्रमं |
| आका्ङ्खय तत्र च | आकाङ्क्षतेऽत्र च |
| परस्य | वरस्य |
| यस्मिन्यस्मिन् | यस्मिन् कस्मिन् |
| न्यासोऽय नाशनः | नासोऽधनाशनः |
| सन्ध्या नित्यमुपासते | सन्ध्यां नित्यमुपासते |
| मासाद्विप्रोऽर्द्धपञ्चमात् | मासान्विप्रोऽर्द्धपञ्चमान् |
| अधीष्य | अधीष्व |
| भार्य्येव न सा | भार्य्यैव न सा |
| यद्वागामिक्रियामुख्यः | यद्वागामिक्रियामुख्य |
| कार्य्यन्तया | कार्य्यस्तया |
| कुसीदमपि तं | कुसीदमपि तत् |
| नमत्येतावानेव | नम इत्येतावानेव |
| शूद्राः | शूद्रः |
| ग्रन्थिं | ग्रन्थिः |
शुद्धाशुद्धनिर्णयः।
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| धर्म्मद्रवाः | धर्म्मद्रवी |
| सर्व्वतीराणि | सर्व्वतीर्थानि |
| मनुष्ययज्ञस्य | मनुष्ययज्ञश्च |
| शध्येन | शुद्धेन |
| अतन्त्रित | अतन्द्रित |
| अयस्रस्तरे | अघस्रन्तरे |
| अयश्रस्तर | अघस्रस्तर |
| संग्रणं | संग्रहणं |
| बालमूली | तालमूली |
| वंशान्तराणां | वंशाग्राणां |
| प्रसिद्धत्वा | प्रतिषिद्धत्वे |
| कुण्डगोलो | कुण्डगोलौ |
| श्येनाजीवी | श्येनजीवी |
| एतान्वै | एतान्ये |
| स्यावदन्त | श्यावदन्त |
| पार्षद | पर्षदि |
| एवमुत्कृष्टवणषु | एवमुत्कृष्टवर्णेषु |
| कीर्णा | कीर्णि |
| भिक्षासम्भावे | भिक्षासम्भवे |
| शाली | शालि |
| जहोमि | जुहोमि |
मूलस्य।
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| होमा | लोमा |
| यायि | याजि |
| र्च्चना | र्च्चला |
| यायि | याजि |
| वस्त्रद्वयं | वस्त्रबद्धं |
| राजन्य | राजान |
| निर्गुणं | निर्गुणः |
| अनल्पे | अत्यल्पे |
| आत्मानं | आत्मनो |
| ङ्गत्वा | कृत्वा |
| O | उपमन्धुः |
| स्वशुः | स्वसुः |
| प्रयुक्तस्त्वस्त्येव | प्रयुक्तन्त्वस्त्येव |
| शृङ्गानां | शृङ्गाणां |
| ब्रह्मशब्दवाच्या | ब्रह्महशब्दवाच्या |
| पुरुषानां | पुरुषाणां |
| ताञ्चैवोपच्छेत् | ताञ्चैवोपयच्छेत् |
| कल्प्यो, प्रसूतावत्सा | कल्प्यौ, प्रसूतवत्सा |
| सत्सरञ्च | वत्सरश्च |
| ब्रह्मचार्य्यं | ब्रह्मचार्य्यः |
X1द्विचनादस्त्विति2 चेन्न। एका लिङ्ग इत्यस्यांशस्य केवलमूत्रोत्सर्गविषयत्वेनाप्युपपत्तेः। अगतिका हीयं गतिः।3 यददृष्टकल्पनम् अतो विशिष्टोत्सर्ग एवेति युक्तम्। तत्रापि4 लिङ्गशौचं पूर्वम्5। वचनप्रतीतक्रमातिक्रमे6कारणाभावात्सन्निहितत्वात्प्रथमत7एतदकरणे8साक्षान्मूत्रलेपस्य मणिबन्धोपरिभागेऽपि संसर्गप्रसक्तेश्च।हस्तपादादिशौचन्तु तन्त्रेणैव देशकालकर्त्रैक्याच्छौचरूपोपकारस्यैकत्वाच्च।
अथ विण्मूत्रव्यतिरिक्तशारीरमलशौचम्।
मनुः।
उर्द्धं नाभेर्यानि खानि तानि मेध्यानि सर्व्वशः।
यान्यधस्थान्यमेध्यानि देहाच्चैव मलाश्च्युता इति॥
खानीन्द्रियच्छिद्राणि।
मलानपि स एवाह।
वसा शुक्रमसृङ्मज्जा मूत्रं विट् कर्णविण्नखाः।
प्रथमः स्तवकः
श्लेष्मासुदूषिका खेदो द्वादशैते नृणां मलाः॥
वसा कायस्नेहः। मज्जा शिरोभवमेदः। कर्णविट् कर्णमलम्। दूषिकाक्षिमलम्।
एतैरुपघाते बौधायनःप्राह।
आददीत मृदोऽपश्चषट्सु पूर्वेषु शुद्धये।
उत्तरेषु च षट्स्वद्भिः केवलाभिर्विशुध्यतीति॥
मनुस्तु।
विण्मुत्रोत्सर्गशद्ध्यर्थं मृद्वार्य्यादेयमर्थवत्।
दैहिकानां मलानाञ्चशुद्धिषु द्वादशस्वपि॥
विण्मूत्रमुत्सृज्य तोयेन9तत्तादृशं तच्छुद्ध्यर्थमर्थवत्प्रयोजनवत्। एवञ्च बौधायनमनुवचनयोर्विकल्पः। स च देशकालाद्यपेक्षया।
तथाच बौधायनः।
देशं कालं तथात्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयोजनम्।
उपपत्तिमवस्थाञ्च ज्ञात्वा शौचं प्रकल्पयेत्॥
यमः।
मूत्रे तिस्रः पादयोस्तु हस्तयोस्तिस्रएव च।
मृदः पञ्चदशामेध्ये हस्तादीनां विशेषतः॥
एतदात्मीयमूत्रादिस्पर्शशौचमुदाहृतम्।
उत्सर्गकालादन्यत्र परकीये तु पठ्यते॥
शुद्धाशुद्धनिर्णयः।
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| देशा | ग्रन्था |
| अभ्यज्ञनुज्ञात | अभ्यनुज्ञात |
| लौगाक्षि | लोगाक्षि |
| चाहुतिद्वयं | चाहुतिधयं |
| पिण्डान्नाहार्य्यकञ्च | पिण्डान्वाहार्य्यकञ्च |
| अन्नाहार्य्यश्राद्धे | अन्वाहार्य्यकश्राद्धे |
| दश | दर्श |
| पणि | पाणि |
| रुद्र | रुद्रा |
| मिताक्षराया पाठः | मिताक्षरायां पाठः |
| दम्पतिं भवतीति | दम्पतिर्भवतीति |
| अत्यल्पे | अनल्पे |
| मिताक्षयां | मिताक्षरायां |
| घातजा | ऋतजा |
| यस्मिन्नन्ने च रथः कृतः | यस्मिन्नन्ने च चुतं कृतं |
| जीवितः | जीवी |
मदनपारिजातः।
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प्रथमः स्तवकः।
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प्रबालाद्रिप्रस्थद्युतिनिचयपर्य्यायवपुषे
नमो विघ्नश्रेणीविघटनपटिष्ठाय महसे।
जगत्प्रादुर्भावस्थितिलयनिरायासरचना-
विनोदासक्ताय प्रणतफलसिद्धिप्रतिभुवे॥ १॥
प्रकृष्टचलकुण्डलस्तवकवृष्टगण्डस्थलं
महार्हमणिमेखलं मरकताङ्कुरश्यामलम्।
करोतु करुणां सदा कलितपञ्चभशाव्दक्रमं
महः किमपि मोहनं कपटशैशवं केशवम्॥ २॥
कान्ते कृतागसि रुषा परुषं ब्रुवाणा
कुण्ठीकृतात्मवसनार्द्धनियन्त्रणेन।
मौलेन मानमधिगच्छति या ददातु
सा पार्व्वती हरविभक्ततनुः शिवं वः॥ ३॥
अस्ति प्रशस्तविभवोपगतप्रशस्ति-
विस्तारिणी भुवि शकाधिपराजधानी।
दिल्लीति विश्वविदिता नगरीमतल्ली
पल्लीव भाति पुरतस्त्रिदिवोऽपि यस्याः॥ ४।
तामुत्तरेण यमुनातटदेशनिष्ठा
काष्ठेत्यभूदनुपमा नगरी गरिष्ठा।
यस्यामनल्पविभवोपचिता बभूवुः
काष्ठान्वया महितकीर्त्तियुषो महीशाः॥ ५॥
तस्मिन्नभूद्विमलकाष्ठकुलाम्बुराशा-
वुद्यत्प्रभूतशुभकीर्त्तिघनप्रकाशः।
लोकैःसदा हृदि धृतो गुणसन्निविष्टः
श्रीरत्नपालनृपतिर्भुवनैकरत्नम्॥ ६॥
तस्यात्मजो भवहपाल इति प्रसिद्धः
सिद्धाङ्गनाजनसमाजसमिद्धकीर्त्तिः।
दानेन यः सुकृतिनां क्षिपति स्म दैन्यं
सैन्यञ्च वैण्यसदृशः प्रतिभूपतीनाम्॥ ७॥
सुतोऽस्य जातः सुकृतोन्नतस्य
न तस्य कश्चित्सदृशो बभूव।
यमस्खलत्सत्यमवेक्ष्य तातो
नाम्ना हरिश्चन्द्र इति व्यवत्त॥ ८॥
सत्यान्वितो हरिरतो गिरिजेशयोगो
लक्ष्मीयुतो जगति वर्णचतुष्टयेन।
वर्ण्यान्वयः स तु हलाविधया10 प्रतीत-
स्तत्रावतेरुरमराः पुरुषाः पवित्राः॥९॥
तस्यात्मजोऽभूदनलप्रतापो-
ऽसाधारणो भूमिपतिर्वदान्यः।
अभूतपूर्व्वामवनीश्वराणा-
मजीजयद्योगगतिञ्च कीर्त्तिम्॥ १०॥
यस्मिन्रसाधारणधैर्य्यशौर्य-
गाम्भीर्य्यसौन्दर्यगुणैकधुर्य्यै।
गिरीन्द्रभीमानुजसिन्धुराज-
स्मराश्चसाधारणतां भजन्ते॥ ११॥
लक्ष्मींलक्ष्मवतीं विधाय विबुधाहारस्य हारस्य च
ज्योतिर्गर्व्वमपास्य पार्व्वणशरञ्चन्द्रस्य चन्द्रस्य च।
उन्मीलन्नवसौरसैन्धवलसडिडण्डीरपिण्डोपमा
यस्यैता भुवि नो मृजन्त्यनुदिनं सन्मूर्त्तयः कीर्त्तयः॥ १५
बन्धच्छिदां द्विरदकीर्त्ति11 मिहान्वितार्थां
कृत्वा परत्र च तथैव विधातुमिच्छुः।
कीनाशपाशचय12बन्धविमोचनार्थं
तीर्थत्रयीकर विमुक्ति13 मचीकरद्यः॥ १३॥
पुरोहित श्रीरामदेवकृतमिदं श्लोकत्रयोदशकम्।
महीपतेस्तस्य महानुभावौ
सुतावभूतां सुकृतोन्नतस्य।
आद्यो महौजाःसहजेन्द्रनामा
तदाश्रयः श्रीमदनो द्वितीयः॥ १४॥
अपारदः सिद्धरसो जनाना-
मनभ्रवृष्टिर्विभवौषधीनाम्।
अनन्तको मृत्युरहो रिपूणा-
मासीदसौ श्रीसहजाधिनाथः॥ १५॥
तस्यानुजः श्रीमदनो नु नाम्ना
धाम्ना च रूपेण च सङ्गतार्थः।
रोषारुणे चक्षुषि यद्विपक्षो
नितान्तकान्तारसमाश्रितोऽभूत्॥ १६॥
विश्राणनेषु व्यसनं यदीयं
विद्याप्रसङ्गेषु विनोदसौख्यम्।
यस्यावदातञ्च यशोवितानं
दिङ्मण्डलीमण्डलमेकमास्ते॥ १७॥
परिशीलयता कलाकलापं
विदधानेन च भूरिशः प्रबन्धान्।
मदनेन महीभृताथ येन
प्रथिता नूतनभोजराजकीर्त्तिः॥ १८॥
यः कूपानारामान्धर्म्मायतनानि सन्निबन्धांश्च।
कृत्वा स्वकीर्त्तिमेकामदीदशन्मूर्त्तिभेदेन॥ १८॥
श्रीमानयं मदनपूर्व्वकपारिजात
नामाङ्कितं स्मृतिपथानुगतं निबन्धम्।
वर्णाश्रमप्रमुखधर्म्मविवेचनाय
विहन्मुखेन सुकृती मितमातनोति॥२० ॥
मतिर्येषां शास्त्रे प्रकृतिरमणीया व्यवहृतिः
परं शीलं श्लाघ्यं जगति ऋजवस्ते कतिपये।
चिरं चित्ते तेषां मुकुरतलभूते स्थितिमिया-
दियं व्यासारण्यप्रवरमुनिशिष्यस्य भणितिः॥२१ ॥
माता पुण्यपवित्रकीर्त्तिविभवा यस्याम्बिका नामतः
सा कन्या परमूर्त्तिरार्य्यचरितः श्रीपेदिभट्टः पिता।
सोऽयं कौशिकवंशभूषणमणिः श्रीभट्टविश्वेश्वरो
वेदस्मार्त्तमते नये च सपदे वाक्ये कृती वर्द्धते॥२२ ॥
हेमाद्रिकल्पद्रुमसापरार्क
स्मृत्यर्थसारान् स्मृतिचन्द्रिकाञ्च।
मिताक्षरादीनवलोक्य यत्ना-
न्निबध्यते संग्रहतो निबन्धः॥२३ ॥
स्तवकः प्रथमो ह्यत्र ब्रह्मचर्य्याभिधोऽपरः।
गृहस्थाख्यस्तृतीयः स्यादाह्निकं तदनन्तरम्॥२४ ॥
गर्भाधानादिसंस्कारास्तुरीयस्तवको मतः।
अशौचस्तवकः पश्चात् द्रव्यशुद्ध्यादयो मताः॥२५ ॥
सप्तमः श्राद्धसंज्ञो हि विभागाख्योऽष्टमस्ततः।
नवमस्तवकश्चात्र प्रायश्चित्ताभिधो मतः॥२६ ॥
स्तवका नव निर्द्दिष्टा निबन्धेऽस्मिन्ननुक्रमात्॥२७॥
स्मृतिप्रदर्शनं कर्म्मप्रशंसा तदनन्तरम्।
धर्म्माःसाधारणाः कालादयो मौञ्जीविधिर्विधिः॥२८॥
नमस्कारस्य गुर्व्वादिलक्षणानि ततः परम्।
भिक्षाचर्य्याप्रकारादिनियमा ब्रह्मचारिणः॥२८॥
उच्चारस्य विधिः शौचविधिश्वाचमनस्य च।
प्रातःस्नानस्य सन्ध्यायाः प्राणायामस्य चैव हि॥३०॥
मार्जनादिविधिः सन्ध्या मध्याह्नस्य तथापरा।
जपसंख्याविधानाद्या उपाकर्म्म ततः परम्॥३१॥
उत्सर्जनं तथा वेदव्रतान्यध्ययने विधिः।
ततः परमनध्यायाः कुले वासो गुरोस्ततः॥
नैष्ठिकस्य तथा धर्माःसमावर्त्तनमेव च।
स्नातकस्य व्रतादीनीत्येवं प्रकरणानि तु॥
स्तवके ब्रह्मचर्य्याख्ये प्रथमे सप्तविंशतिः।
सापिण्डावर्णनं पश्चाल्लक्षणानि वरस्य च॥
दारानुकल्पोदत्तस्य निरूपणमतः परम्।
विवाहभेदास्त्वाधानमावसथ्यानलस्य च॥
आवसथ्यस्य कालाद्या गौणकालनिरूपणम्।
द्विरागमनकालश्च ततः स्यादाधिवेदनम्॥
स्त्रीधर्म्माश्च द्वितीयेऽस्मिन् स्तवके गृहमेधिनः।
एवं प्रकरणान्येकादशाख्यातानि संग्रहात्॥
ब्राह्मे मुहूर्त्ते कर्त्तव्यं ततः स्याद्दन्तधावनम्।
केशप्रसाधनाद्याश्च पोष्यवर्गस्य चिन्तनम्॥
वृत्तिः क्षत्रस्य वैश्यस्य शूद्रवृत्तिस्ततः परम्।
आयवृत्तिश्च मध्याह्नेस्नानं नैमित्तिकं तथा ॥
काम्यस्नानं ततः प्रोक्तं माघस्रानविधिस्ततः।
मलापकर्षणस्नानं क्रियास्नानमतः परम्॥
गौणस्नानानि वासांसि तिलकस्य विधिस्तथा।
ब्रह्मयज्ञविधानञ्च तर्पणं यमतर्पणम् ॥
अर्च्चनं देवतानाञ्च पुष्पाध्यायस्तथैव च।
नित्यश्राद्धमहायज्ञस्वरूपाणि ततः परम्
नित्यश्राद्धं ततो वैश्यदेवं तत्पाकनिर्णयः।
तत्कालनिर्णयःपूजा चातिथेर्भोजने विधिः॥
भोज्याभोज्यं तथा भोज्याभोज्यान्नाः शयने विधिः।
एवं प्रकरणान्यत्र द्वाविंशच्चाह्निकाह्णये॥
तृतीये स्तवके सम्यग्वर्णितानि यथाक्रमात्।
ऋतुकालस्तथा गर्भाधानं पुंसवनं ततः॥
सीमन्तोन्नयनं जातकर्म्मस्यान्नामकर्म्मच।
ततो निष्क्रमणाख्यस्य संस्कारस्य विधिः स्मृतः ॥
कर्णवेधस्तथैवानप्राशनं चौड़कर्म्म च।
स्त्रीसंस्कारास्ततो विद्यारम्भो वैखानसाश्रमः॥
तुर्य्याश्रमस्तुरीयेऽस्मिन्नेवं प्रकरणानि तु।
गर्भाधानादिसंस्कारास्तवके दश पञ्च च।
शावाशौचन्तु पूर्व्वं स्यात्प्रसवाशौचमेव च।
अशौचमनुपेतस्य दशाहप्रमुखास्ततः॥
अनुलोमसपिण्डस्य त्वशौचं स्यादतः परम्।
समानसलिलानाञ्च प्रोषितोपरतौ तथा॥
मृतस्य प्रोषितस्यैव दाहे विधिरतः परम्।
उपाध्यायाद्युपरतौ क्षेत्रजादिमृतौ तथा॥
अनुगच्छत्सु वाशौचमशौचानां परस्परम्।
सङ्करे निर्णयोदाहकालेऽग्नौ विरते विधिः॥
दशाहमध्ये दर्शस्य सम्पाते कल्पनिर्णयः।
देशान्तरे गते जीवद्वार्त्तानाकर्णने विधिः॥
एवं प्रकरणान्यत्र स्तवके दश पञ्च च।
पञ्चमे च विनिर्दिष्टान्यशौचपदसंज्ञिते॥
शुद्धिः सौवर्णपात्रादेर्वस्त्रादेस्तदनन्तरम्।
धान्यादेश्वापि शुद्धिः स्यास्तिद्धान्नादेस्ततः परम्॥
भूम्यादेश्च ततः शुद्धिरपवादस्तथेति षट्।
षष्ठेऽस्मिंस्तवके द्रव्यशुद्धीप्रकरणानि तु॥
आदौश्राद्धस्य महिमा तत्स्वरूपञ्च तद्भिदा।
तत्राधिकारिणस्तद्वदादामश्राद्धाधिकारिणः॥
श्राद्धदेशास्तथा काला अन्नाधानस्य चैव हि।
अन्नाधानस्य पिण्डादि पितृयज्ञस्य चाप्यथ॥
दर्शश्राद्धस्य चेत्येषामेकस्मिन्वासरे कृतिः।
अपराह्नस्य समय अमावास्याविनिर्णयः॥
मृताहकालस्तस्यैवाज्ञाने कालविनिर्णयः।
आमश्राद्धस्य कालश्च नित्ये नैमित्तिके तथा॥
प्रत्याम्नातं श्राद्धयोश्च ततस्त्वापरपक्षिकम्।
काम्यकालाश्च संक्रान्तिकाला राहुग्रहे तथा॥
काला युगादिमन्वाद्याः श्राद्धेजीवत्पितुस्तथा।
विहितानि निषिद्धानि मलमासे ततः पुनः॥
हविर्विशेषा वर्ज्यानि ब्राह्मणानां परीक्षणम्।
पङ्क्त्यग्रा ब्राह्मणास्तेषामनुकल्पस्वतः परम्॥
वर्ज्या विप्रा ब्राह्मणानामामन्त्रणविधिस्ततः।
दिने श्राद्धस्य पूर्वाह्नेकृत्वा यच्चापराह्निकम्॥
अग्नौकृत्यग्निमीमांसा तथाग्नौकरणे विधिः।
परिवेशनकर्म्मादि श्राद्धं द्विपितृकस्य च॥
सङ्कल्पसंज्ञकं श्राद्धमेकोद्दिष्टमतः परम्।
नवाश्राद्धानि तद्वच्चसपिण्डीकरणं ततः॥
वृद्धिश्राद्धविधानञ्च जीवच्छ्राद्धमतः परम्।
इत्थंप्रकरणान्येकचत्वारिंशदनुक्रमात्॥
श्राद्धाह्वयेसप्तमेऽस्मिंस्तवके तु समासतः।
आदौविभागकालाः स्युर्मुख्यगौणसुतास्ततः॥
विजातीयसुतानाञ्च विभागस्तदनन्तरम्।
पैतामहधने पौत्रभागमात्रंशसम्मितिः।
असुतस्त्रीधनग्राहे त्वधिकारिनिरूपणम्।
तथापुत्रधनग्राहे भागःसंसृष्टिनां ततः॥
अंशानर्हास्ततो द्रव्यमविभाज्यमतः परम्।
शेषःसर्व्वविभागस्येत्येवं प्रकरणानि तु॥
एकादशास्मिंस्तवके दायभागपदेऽष्टमे।
पूर्व्वंपापफलोद्देशो नरकास्तदनन्तरम्॥
विपांकःकर्म्मणां प्रायश्चित्तकर्त्तव्यनिर्णयः।
कामाकाममहापापप्रायश्चित्तविकल्पनम्॥
कृच्छ्रचान्द्रायणादीनां लक्षणानि पृथक् पृथक्।
इतिकर्त्तव्यता तेषां प्रत्याम्नायास्तथैव च॥
सामान्येन तथा सर्व्वपापनिष्कृतिहेतवः।
पर्षत्पर्षदुपस्थानं प्रायश्चित्ते विनिर्णयः॥
व्रतस्य ग्रहणे कालो विप्रशस्त्रग्रहे तथा।
उद्देशः पातकानाञ्च ब्रह्महत्यादिनिष्कृतिः॥
उपपातकनिर्द्देशस्तन्निष्कृतिरतः परम्।
असत्प्रतिग्रहादीनां निष्कृतिस्तदनन्तरम्॥
जातिभ्रंशकरादीनां निष्कृतिश्च ततः परम्।
प्रकीर्णकेषु पापेषु प्रायश्चित्तमिति क्रमात्॥
एवं प्रकरणान्येकविंशतिर्नवमे पुनः।
प्रायश्चित्ताभिधानेऽस्मिंस्तवके तु समासतः॥
धर्म्मशास्त्रप्रवृत्तानां तदधिगमोपायतया तच्छास्त्रप्रणेतारः प्रदर्शनीयाः।
तत्र मनुर्वै यत्किञ्चिदवदत्तद्भेषजम्भेषजताया इति मनोर्वेदाहतत्वेन तत्प्रमुखा धर्म्मशास्त्रप्रणेतारः प्रथमं प्रदर्श्यन्ते।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
मन्वत्रिविष्णुहारीतयाज्ञवल्क्योशनोऽङ्गिराः।
यमापस्तम्बसंवर्त्ताःकात्यायनवृहस्पती॥
पराशरव्यासशङ्खलिखिता दक्षगौतमौ।
शातातपो वशिष्ठश्च धर्म्मशास्त्रप्रयोजकाः ॥
इति, नेयं परिसंख्या किन्तु प्रदर्शनार्थमेतत्, यती बौधायनादयोऽपि धर्म्मशास्त्रप्रयोजका भवन्ति। न चैतेषां मन्वादि-धर्म्मशास्त्राणं वेदमूलत्वेन परस्परमनपेक्षप्रमाणत्वान्नान्योऽन्यमाकाङ्क्ष्यतत्र च क्वचिदधिकाङ्गकविधिः क्वचित् न्यूनाङ्गकर्म्मविधिरिति परस्परविरोधादप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेत्। मैवं, सर्व्वशाखाप्रत्ययमेकं कर्म्मइति न्यायेन सयंत्र विधेयस्य कर्म्मण एकत्वेन प्रधानविरोधाभावादङ्गेषु प्रातीतिको यःपरस्परविरोधस्तत्परिहारो मृग्यः। स च परिहार आकाङ्क्षावशात्, आकाङ्क्षा चेतिकर्त्तव्यतायां, सा चेतिकर्त्तव्यता यस्मिच्छास्त्रे न्यूना तच्छ्रास्त्रंस्वावगतार्थेऽनपेक्षप्रमाणमप्यनवगतांशे शास्त्रान्तरमपेक्षत इति नात्यन्तमनपेक्षा, अतएवाविरोधान्नाप्रामाण्यम्। एवं समग्राङ्गकर्मण्यनुष्ठिते धर्म्मोऽपि समग्रो भवेत्। धर्म्माच्चेष्टसिद्धिः। धर्म्मश्चाचारायत्तः।
तथाच मनुः।
आचारः परमो धर्म्मोविद्वद्भिःपरिकीर्त्तितः। इति।
अत्र कार्य्यकारणयोरभेदोपचारः।धर्म्मस्तज्जन्यं सुकृतापूर्व्वम्।
तथा।
श्रुतिस्मृत्युदितः सम्यक् साधुभिर्यश्च सेवितः।
तमाचारं निषेवेत धर्मर्मकामो जितेन्द्रियः॥इति
आचारश्च मध्यदेशादिप्रसूतेभ्यो विज्ञेयः।
यथाह मनुः।
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्त्तं प्रचक्षते॥
तस्मिन्देशे य आचारः पारम्पर्य्यक्रमागतः।
वर्णनां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते॥
हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये यत्प्राग्विनशनादपि।
विनशनं सरस्वत्या अन्तरालदेशः।
प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्त्तितः॥
आसमुद्रात्तु वैपूर्व्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।
तयोरेवान्तरं गिर्य्योरार्य्यावर्त्तंविदुर्बुधाः॥ इति
शङ्खस्तु प्रकारान्तरेणार्य्यावर्त्तमाह।
कृष्णमृगो यावद्विचरति तावदार्य्यावर्त्तः स्यादिति।
यावद्विचरति स्वत इत्यर्थः।
आर्य्यावर्त्त इत्यनुवृत्तौ वशिष्ठोऽपि।
यावद्वाकृष्णमृगो विचरतीति।
अन्यच्च मनुराह।
कुरुक्षेत्रञ्च मत्स्याश्च पाञ्चालाः शूरसेनकाः।
एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्त्तादनन्तरः॥
अनन्तर ईषदून इत्यर्थः।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व्वमानवाः॥
आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।
आचारेण तु संयुक्तःसंपूर्णफलभाग्भवेत्॥
तथा।
एवमाचारतो दृष्ट्वा धर्म्मस्य मुनयो गतिम्।
सर्व्वस्य तपसोमूलमाचारं जगृहुः परमिति॥
अथ कर्म्मप्रशंसा।
तत्र मत्स्यपुराणम्।
ज्ञानयोगसहस्राद्धिकर्म्मयोगः प्रशस्यते।
कर्म्मयोगोद्भवं ज्ञानं तस्मात्तु परमं पदम्।
कर्म्मज्ञानोद्भवं ब्रह्म न च ज्ञानमकर्म्मणः।
तस्मात्कर्म्मणि युक्तात्मा तत्त्वं प्राप्नोति शाश्वतम्॥
वेदोऽखिलोधम्ममूलमाचारश्चैव तद्विदाम्।
अष्टावात्मगुणास्तस्मिन् प्रधानत्वेन संस्थिताः॥
दया सर्व्वेषु भूतेषु क्षान्ती रक्षातुरस्य च।
अनसूया तथा लोके शौचमन्तर्वहिर्द्विजाः॥
अनायासस्तुकायेषु मङ्गलाचारसेवनम्।
न च द्रव्येषु कार्पण्यमात्मपाण्यर्जितेषु च।
तथास्पृहा परस्त्रीषु परार्थेषु च सर्व्वदा।
अष्टावात्मगुणाः प्रोक्ताः पुराणे चैव कोविदैः॥
अयमेव क्रियायोगो ज्ञानयोगस्य साधकः।
कर्म्मयोगं विना ज्ञानं कुत्रचिन्नेह दृश्यते॥
देवानाञ्च मनुष्याणां पितृृणाञ्चैव सर्व्वदा।
तृप्तिं करोति विपुलां कर्म्म कुर्व्वन्यथोदितम्॥
अथ साधारणधर्म्मः।
तत्र मनुः।
यद्यत्परवशं कर्म्म तत्तद्यत्नेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं कर्म्म तत्तसेवेत यत्नतः॥
सर्व्वं परवशं दुःखं सर्व्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्याद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥
यत्कर्म्म कुर्व्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयत्नेन कुर्व्वीत विपरीतन्तु वर्ज्जयेत् ॥
यत्कर्म्मकुर्व्वत इति शास्त्राविरुद्धमित्यर्थः। शास्त्राविरुद्धेऽपि क्वचिदपवादो दृश्यते।
यथाह याज्ञवल्क्यः।
कर्म्मणा मनसा वाचा यत्नाद्धर्म्मंसमाचरेत्।
अस्वर्ग्यंलोकविद्विष्टं धर्म्ममप्याचरेन्न तु॥
तच्च कर्म्म कथं कार्य्यमित्याकाङ्क्षायां सारसंग्रहे।
यज्ञोपवीतिना कार्य्यं सर्वं कर्म्म प्रदक्षिणम्।
मनःप्रमोदात्सत्योक्त्या तपसा ज्ञानकर्म्मणा॥
आचान्तोऽप्याचमेच्छुद्धिं कृत्वा कर्म्म समारभेत्।
कर्म्मायथाकृतं ज्ञात्वा तावदेव पुनश्चरेत्॥
प्रधानस्याक्रियायान्तु साङ्गं तत्क्रियते पुनः।
तदङ्गाकरणे कुर्य्यात्प्रायश्चित्तं न कर्म्म तत्॥
प्राची दिशामनुक्तौ स्यादुदीचीशानदिक् तथा
तिष्ठत्वप्रहृतानुक्तावासीनत्वञ्च कर्म्मसु॥
कर्त्रङ्गाना14 मनुक्तौ तु दक्षिणाङ्गं भवेत्तथा।
कुत्सिते15 वामहस्तः स्यादक्षिणः स्यादकुत्सिते॥
प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पेन वर्त्तते।
स नाप्नोति फलं तस्य परत्रेति श्रुतिः स्मृतिः16॥
बह्वल्पं वा स्वगृह्योक्तं यस्य यत्कर्म्मचोदितम्।
तस्य तावति शास्त्रार्थे कृते सर्व्वंकृतं भवेत्॥
श्रौतेषु सर्व्वशास्त्रोक्तं सर्व्वस्यैवं यथोदितम्।
स्मार्त्तं साधारणं तेषु ग्राह्यं श्रौतेषु कर्म्मसु।
ग्रामाचाराः परिग्राह्याये च विध्यविरोधिनः।
युगधर्म्माःपरिग्राह्याः सर्व्वत्रैव यथोचितम्।
देवरेण सुतोत्पत्तिर्वानप्रस्थाश्रमग्रहः।
दत्ताक्षतायाः कन्यायाः पुनर्दानं परस्य वै॥
समुद्रयात्रास्वीकारः कमण्डलुविधारणम्।
कमण्डलुविधारणमिति नैष्ठिकब्रह्मचारी गृह्यते।
महाप्रस्थानगमनं गोपशुश्च सुराग्रहः।
सुराग्रह इति सौत्रामणी।
अग्निहोत्रहरण्याश्च लेहो नीचापरिग्रहः।
अग्निहोत्रहरणी यज्ञपात्रविशेषः, तत्र स्थितस्य हविषो लेहआस्वादनं चमसस्थितसोमवत् ।नीचाया अग्निहोत्रहरण्याःपरिग्रहः स्वीकारः।
असवर्णासु कन्यासु विवाहश्च द्विजातिषु।
वृत्तस्वाध्यायसापेक्षमघसङ्कोचनं तथा॥
वृत्तं यायावरगृहस्थाद्याचारः, स्वाध्यायो वेदः, अघमशौचम् ।
प्रायश्चित्तविधानञ्च विप्राणां मरणान्तिकम्।
संसर्गदोषःपापेषु मधुपर्के पशोर्वधः ॥
दत्तौरसेतरेषान्तु पुत्रत्वेन परिग्रहः।
शामित्रञ्चैव विप्राणां सोमविक्रयणं तथा ॥
शमिता यज्ञपशुहिंसकःतस्य कर्म्मशामित्रम् ।
दीर्घकालं ब्रह्मचर्य्यंनरमेधाश्वमेधकौ।
कलौ युगे त्विमान्धर्म्मान्वर्ज्ज्यानाहुर्मनीषिणः ॥
इत्याचारदमाहिंसादानस्वाध्यायकर्म्मणाम्।
अयन्तु परमो धर्म्मोयद्योगेनात्मदर्शनम् ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
दानं दमो दया क्षान्तिः सर्व्वेषां धर्म्मसाधनम् ॥
अथोपनयनकालादयः।
द्विजन्मनामुपनीतानामेव श्रौतस्मार्त्तकर्म्माधिकारात्साधारणधर्म्मानन्त17रमुपनयनकालो निरूप्यते।
तत्र मनुः।
गर्ब्भाष्टमेऽव्देकुर्व्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्ब्भादेकादशे राज्ञो गर्ब्भात्तु द्वादशे विशः॥
अथ काम्यकालाः।
ब्रह्मवर्च्चसकामस्य कार्य्यंविप्रस्य पञ्चमे इति।
तथा। सप्तमे ब्रह्मवर्च्चसकाममष्टमे आयुष्कामं नवमे तेजस्कामं दशमे अन्नाद्यकाममेकादशे इन्द्रियकामं द्वादशे पशुकाममुपनयेदिति।
तथाच।
वसन्ते ब्राह्मणमुपनयेद्ग्रीष्मे राजन्यं शरदि वैश्यमिति।
पारस्करोऽपि।
ब्राह्मणस्याष्टवार्षिकस्य गर्ब्भाष्टवर्षस्य वा क्षत्रियस्यैका-
दशवार्षिकस्य वैश्यस्य द्वादशवार्षिकस्य उपनयनं कुर्य्यात्।
यथामङ्गलं वा सर्व्वेषामुपनयनमिति।
यथामङ्गलं पूर्वोक्तब्रह्मवर्च्चसादिकामानतिक्रमेण।
तथा मासविशेषादपि फलविशेषः।
तत्र सुरेश्वरे।
माघे मासि महाधनो धनपतिः प्राज्ञो बली फाल्गुने
मेधावी भवति व्रतोपनयने चैत्रे च वेदान्वितः।
वैशाखे सुभगः सुखी पटुमतिर्ज्यैष्ठे बलिष्ठो बुधः
आषाढ़ेऽपि महाविपक्षविजयी ख्यातो महापण्डितः।
तथा नक्षत्रादिविशेषा अपि।
हस्तत्रये दैत्यरिपुत्रये च
शक्रेन्दुपुष्याश्विनिरेवतीषु।
वारेषु शुक्रार्कवृहस्पतीनां
हितानुबन्धी द्विजमुञ्जबन्धः॥
तृतीयैकादशी ग्राह्या पञ्चमी दशमी तथा।
द्वितीयायाञ्च मेधावी भवेद्दर्पबलान्वितः॥
रिक्तायामर्थहानिः स्यात्पौर्णमास्यां तथैव च।
प्रतिपद्यपि चाष्टम्यां कुलबुद्धिविनाशकृत्18॥
सप्तम्यामष्टम्याञ्च प्रतिपदि रिक्ताचतुर्द्दश्याम्।
आयुर्विद्यानाशो व्रतबन्धे पञ्चदश्यां वा॥
न च षष्ठ्यामथाष्टम्यां पञ्चदश्यां न पर्व्वणि।
प्रतिपत्सु न कर्त्तव्यो न विष्टिकरणे तथा॥
रिक्तासु च न कर्त्तव्यस्त्र्यहस्मृग्दिवसे तथा।
न विपज्जन्मतारासुनैधने प्रत्यरौतथा॥
सम्पत्करे तथा क्षेमे साधके मित्रसंज्ञके।
मित्रं परममित्रञ्च ताराः सर्व्वत्र शोभनाः॥
मेषे भवति सुरायो धीमान् गवि रोगशोकपरिहीनः।
गदवान्मन्मथलग्ने विधुरोऽधीरःकुलीरे च॥
करिकुलवैरिणि बलवान्विद्यावान्नैव19योषिति क्रूरः।
सुभगः सुखोपभोक्ता तौलिनि कीटे विनाशमुपयाति।
धनुषि धनाढ्यःश्रेयान्यादसि सघटे धनैः परित्यक्तः।
षट्कर्म्माभिरतः स्यान्मीने धनवान् प्रवक्ता च।
वृषभश्चतुला कन्या ब्राह्मणानामुदाहृताः।
सिंहो धन्वी तथा मीनःक्षत्त्रियाणां प्रकीर्त्तितः॥
युग्मन्तथा कर्कटको वैश्यानां परिकीर्त्तितः।
कुर्यात्राकालवर्षे च व्रतोपनयनं द्विजः।
नानध्याये न भूकम्पे निर्घाते न गलग्रहे॥
एवंविधे पूर्वोक्तेविशिष्टकाले आचार्य्योमाणवकं पूर्व्वंभोजयित्वा कर्म्म समारभते।
तथाच गोभिलः।
प्रगे एवैनं तदहर्भोजयन्ति इति।
प्रगेप्रातःपूर्व्वमित्यर्थः। पूर्वता च स्वस्वगृह्योक्ता विज्ञेया।
अपरो विशेषःशौनकेनोक्तः।
अलङ्कृतं कुमारं कुशलीकृतशिरसमाहतेन वाससा संवीतमिति।
कुशलीकृतशिरसं कृतशिरोवपनम्। वस्त्रधारणादिकर्म्मक्रमस्तु
स्वस्वग्गृह्योक्तोविज्ञेयः।
वासांसि च मनुनोक्तानि।
वसीरन्नानुपूर्व्वेण शाणक्षौमाविकानि चेति।
आनुपूर्व्वेण वर्णानुपूर्व्वेण।
गौतमः।
वासांसि शाणक्षौमचीरकुतपाः सर्व्वेषां कार्पासं वा विकृतमिति।
चीरं वस्त्रखण्डः।
वशिष्ठः।
शुक्लमाहतं वासी ब्राह्मणस्य माञ्जिष्ठं क्षौमञ्च क्षत्रियस्य पीतकौशेयं वैश्यस्येति।
कौशेयं पट्टविशेषः।
मौञ्जीलक्षणञ्च मनुराह।
मौञ्जीत्रिवृत्तमा श्लक्ष्णा कार्य्या विप्रस्य मेखला।
क्षत्रियस्य तु मौर्व्वीज्या वैश्यस्य भणतान्तवीति॥
मुञ्जाभावे तु कर्त्तव्या कुशाश्मन्तकवल्वजैः।
त्रिवृता ग्रन्थिनैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव वा इति।
मौर्व्वीमुर्व्वा तेजनी20 तन्मयी ज्या धनुर्गुणः। अत्र चत्रिवृत्तं नास्ति ज्याविनाशप्रसङ्गात्। मुञ्जाद्यभावे वर्णक्रमेण कुशाद्या ग्राह्याः। अश्मन्तकाख्यं तृणं तथा वल्वजमपि। ग्रन्थिभेदस्तु मुख्यासु गौणीषु च।
यज्ञोपवीतलक्षणं छन्दोगपरिशिष्टे।
त्रिवृदूर्द्धवृतं कार्य्यं तन्तुत्रयमधोवृतम्।
त्रिवृतं चोपवीतं स्यात्तस्यैको ग्रन्थिरिष्यते।
तथा।
पृष्ठवंशञ्च नाभिञ्च धृतं यद्विन्दते कटिम्।
तत्कार्य्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम् ॥
मनुः।
कार्पासमुपवीतं स्याद्विप्रस्योर्द्धवृतं त्रिवृत्।
शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसूत्रजम्॥
ऊर्द्धवृतलक्षणमाह
संग्रहकारः।
करेण दक्षिणेनोर्द्धगतेन त्रिगुणीकृतम्।
बलितं मानवे सूत्रं शास्त्र ऊर्द्धवृतं स्मृतम्॥
ऊर्द्ध्वगतेनोर्ध्वस्थितेन दक्षिणकरेण यद्वलितं तदूर्ध्ववृतमित्यर्थः।
उक्तोपत्रीताभावे देवलः।
कार्पासक्षौमगोबालशणवल्कवृतोद्भवम्।
सदाऽसम्भवती धार्य्यमुपवीतं द्विजातिभिः॥
क्षुमा अतसी। वल्कं तरुत्वक्।असम्भवतः सार्व्वविभक्तिकस्तसिल्।मुख्यासम्भव इत्यर्थः।
तथा।
शुचौ देशे शुचिः सूत्रं संहताङ्गुलिमूलके।
आवर्त्त्यषणवत्यातु त्रिगुणीकृत्य यत्नतः।
अब्लिङ्गकैस्त्रिभिः सम्यक् प्रक्षाल्योर्द्धवृतं त्रिवृत्।
सप्रदक्षिणमावृत्य सावित्र्यंत्रिगुणीकृतम्॥
ततः प्रदक्षिणावर्त्तं समं स्यान्नवसूत्रकम्।
त्रिरावेष्ट्यदृढ़ं बद्ध्वाब्रह्मविष्ण्वीश्वरान्नमेत्॥
अजिनान्याह मनुः।
कार्ष्णरौरववास्तानि चर्म्माणि ब्रह्मचारिणः।
तथा दण्डानपि।
ब्राह्मणो वैल्वपालाशौक्षत्त्रियो वाटखादिरौ।
पैलवौडुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हति21 धर्म्मतः॥
तथा।
केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्य्यः प्रमाणतः।
ललाटसम्मितो राज्ञां तथा नासान्तिको विशः॥
ऋजवस्ते तु सर्व्वे स्युरव्रणाः22सौम्यदर्शनाः ।
अनुद्वेगकरा नृृणां सत्वचोऽनग्निदूषिता इति॥
यथासमयञ्च गायत्रीमुपदिशेत्ताञ्च प्रणवव्याहृतिपूर्व्विकां23। पादार्द्धर्चशस्ततः सर्व्वामिति ।गायत्रीच्छन्दस्कां वेदमातरं सूर्य्यदैवतां महाव्याहृतिपूर्व्विकां ब्राह्मणाय ब्रह्मचारिणे क्षत्त्रियाय त्रिष्टुुप्छन्दस्कां बृहस्पतिदृष्टां सवितृदैवतां देवसवित
रित्यादिकां वाजपेयनिर्युक्तां वैश्याय प्रजापतिदृष्टां जगतीच्छन्दस्कांसवितृदैवतां रुक्मपाशमोचने उषाभरणे विनियुक्तां विश्वारूपाणि प्रतिमुञ्च इति तामृचं ब्रूयात्। सर्वेषां वा ब्रह्मक्षत्रविशां गायत्रीमेवं ब्रूयात्। गायत्रीच्छन्दस्कांसावित्रीमुक्तलक्षणाम्।
आह शातातपः।
तत्सवितुर्वरेण्यमिति सावित्री ब्राह्मणस्य।
देवसवितरिति राजन्यस्य विश्वारूपाणीति वैश्यस्येति॥
कात्यायनोऽपि।
सावित्र्याब्राह्मणमुपनयेत्त्रिष्टुभा राजन्यं जगत्या वैश्यं
सर्व्वेषां वा सावित्रीति।
आह लोकाक्षिः।
ओंभूर्भुवःस्वरित्युक्त्वा तत्सवितुरिति सावित्रीं त्रिर-
न्वाह। पच्छोऽर्द्धर्च्चशः24सर्व्वामन्तत इति।
अथ समिदाधानमुपनयनाङ्गभूतं कर्त्तव्यम्। स्वस्वशाखोक्तविधिना एवं प्रतिदिनमपि अग्निकार्यञ्च कुर्व्वीत। मेधावी तदनन्तरमिति संवर्त्तस्मरणात्तदनन्तरं सन्ध्योपासनादनन्तरम्। एतच्च कालद्वयेऽपि कार्यम्।
आह याज्ञवल्क्यः।
अग्निकार्य्यं ततः कुर्य्यात्सन्ध्ययोरुभयोरपि इति।
केचित्सायमेवेच्छन्ति।
तथाच लोकाक्षिः।
सायमेवाग्निमिन्धते इत्येक इति।
मनुस्तु।
दूरादाहृत्य समिधः सन्निदध्याद्विहायसि।
सायं प्रातश्च जुहुयात्ताभिरग्निमतन्द्रितः॥
दूरादन्यापरिगृहीतदेशादित्यर्थः। विहायसि मण्डपदौ।
अन्यपरिगृहीतनिषेधमाह आपस्तम्बः।
यथाकथञ्चित्परपरिग्रहमभिमन्यते स्तेनी हि भवतीति।
अत्र विशेषः स्मृत्यन्तरे।
पुरास्तमयात्प्रागुदीचीं दिशंगत्वा समिध आहरेदिति।
पुरास्तमयादित्यभिधानादस्ते निषेधः।
अतएवापस्तम्बः।
नास्तमिते समिद्धरो गच्छेदिति।
समिन्नियमो वायुपुराणे।
पालाश्यः समिधः कार्य्याःखादिर्य्यस्तदलाभतः।
शमीरोहितकाश्वत्थास्तदभावेऽर्कवेतसाविति॥
समिल्लक्षणं कात्यायन आह।
नाङ्गुष्ठादधिका कार्य्यासमित्स्थूलतया क्वचित्।
न वियुक्ता त्वचा चैव न सकीटा न पाटिता॥
प्रादेशान्नाधिका नोना तथा नैव द्विशाखिकेति॥
अथाभिवादनम्।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
ततोऽभिवादयेद्वृद्धानसावहमिति ब्रुवन्।
ततोऽग्निकार्य्यादनन्तरमित्यर्थः।
ब्रह्मपुराणे।
उत्थाय मातापितरौ पूर्व्वमेवाभिवादयेत्।
आचार्य्यश्च ततो नित्यमभिवाद्यो विजानता॥
मनुः।
लौकिकं वैदिकं वापि तथाध्यात्मिकमेव वा।
आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्व्वमभिवादयेत्॥
अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयेत्।
असौ नामाहमस्मीति स्वं नाम परिकीर्त्तयेत्॥
अभिवादादभिवादय इत्येतस्माच्छब्दात्परममुकनामाहमस्मीति स्वं नाम परिकीर्त्तयेत्। विप्रग्रहणं द्विजात्युपलक्षणार्थम्।
आपस्तम्बः।
स्वदक्षिणबाहुं25 श्रोत्रसमं प्रसार्य्यब्राह्मणोऽभिवादयेत्।
उरःसमं राजन्यो मध्यसमं वैश्यो नीचैः शूद्रः प्राञ्जलिः सर्व्वत्र।
मनुः।
भोः शब्द कीर्त्तयेदन्ते स्वस्य नाम्नोऽभिवादने।
नाम्नां स्वरूपभावोहि भोः शब्द ऋषिभिः स्मृतः॥
आयुष्मान् भव सौम्येति वाच्चोविप्रोऽभिवादने।
अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः पूर्व्वाक्षरःप्लुतः॥
भोः शब्दो नाम्नांस्वकीयानां स्वरूपभावः स्वरूपस्य संबोध्यं प्रति प्राप्तिहेतुः। अयमर्थः भोःशब्देन हि बोधितोऽसावस्य नाम बुध्यत इति।अत्र भूधातुः प्राप्त्यर्थः। भो भाव इति पाठे भोः शब्दस्य भावः सत्ता। आयुष्मान् भव सौम्येति वाक्यस्यान्ते अस्याभिवादकस्य नाम वाच्यं विष्णुशर्म्मन्निति। तस्य चान्ते अकारो वाच्यः तस्य चाकारस्य पूर्व्वाक्षरः प्लुतः।पूर्व्वाक्षरंप्लुतंछान्दसो लिङ्गव्यत्ययः। यद्यपि पूर्व्वाक्षरं नकारस्तथापि तस्य व्यञ्जनत्वेन प्लुतत्वायोगात् शर्म्मन्वित्यत्र योऽयमकारः स एव पूर्व्वपदाभिधेय इति तस्यैव प्लुतता। पूर्व्वाक्षरं प्लुतमित्यपि पाठः। तत्र पूर्व्वमक्षरं प्लुतमस्येति चतुरस्रम्। अथवा अकारश्चास्य नाम्रोऽन्त इत्यस्यायमर्थः।अस्याभिवादकस्य नाम्नोऽन्ते योऽयमकार अकार इति स्वरमात्रोपलक्षणं सर्वेषां नाम्नामकारान्तत्वनियमाभावात्।स एवान्त्यस्वरः पूर्व्वाक्षरम्। पूर्व्वाणि नामगतान्यक्षराणि यस्य स तथोक्तः एवंविधः प्लुतो वाच्योन पुनरन्य एवाकारो नामान्ते वा इति।
तथाच वशिष्ठः।
आमन्त्रिते स्वरोऽन्त्योऽस्य प्लुत इति।
आमन्त्रिते कर्त्तव्ये अभिवादकनाम्नोऽन्ते यः स्वरः सप्लुतः त्रिमात्रीभवतीत्यर्थः। ततश्चाभिवादनप्रत्यभिवादनयोरेवं प्रयोगो भवति। अभिवादये चैत्रनामाहमस्मि भोइति। आयुष्मान् भव सौम्य विष्णुशर्म्मन्इति। क्षत्रियवैश्ययोस्तु वर्म्मगुप्तशब्दप्रयोगः।यौ तु स्वनाम गुप्तं भवति।
आत्मनाम गुरोर्नाम यन्नाम कृपणस्य च।
आयुष्कामो न गृह्णीयाज्ज्येष्ठपुत्रकलत्रयोः॥
इत्यादिविधिनिषेधौ तयोरभिवादनव्यतिरिक्तं स्थलं विषय इति विज्ञेयम्। एतच्चाभिवादनं हस्तद्वयेन कार्य्यमन्यथाकरणे विष्णुना दोषसंकीर्त्तनात्।
जन्मप्रभृति यत्किञ्चिच्चेतसा धर्म्ममाचरेत्।
सर्व्वं तन्निष्फलं याति एकहस्ताभिवादनादिति॥
एतदपि विद्वद्विषयम्।
यतः स एवाह।
अजाकर्णेन विदुषो मूर्खाणामेकपाणिना इति।
अजाकर्णेन श्रोत्रसमौ करौकृत्वा पुनःसंपुटितेन करद्वयेनेत्यर्थः। अपि वाऽजाकर्णौसम्पुटितौ यथा तथैव सम्पुटितकरद्वयमपीत्यजाकर्णोक्तिः। प्रत्यभिवादनेऽपि दीक्षितस्य नाम न ग्राह्यम्।
अवाच्योदीक्षितो नाम्ना यवीयानपि यो भवेत्।
भो भवत्-पूर्व्वकं त्वेनमभिभाषेत धर्म्मवित्॥
भो दीक्षित भवन् दीक्षित इति। भो-भवत्-पूर्व्वकं यौगिकैः शब्दैरेनं प्रत्यभिवादनादिष्वभिभाषेतेत्यर्थः।
यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।
नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः॥
यमः।
अभिवादे तु यो विप्र आशिषं न प्रयच्छति।
श्मशाने जायते वृक्षःकाकगृध्रादिसेवितः॥
शातातपः।
पाषण्डं पतितं व्रात्यं महापातकिनं शठम्।
सोपानकं कृतघ्नञ्च नाभिवादेत्कदाचन॥
धावन्तञ्च प्रमत्तञ्च मूत्रोच्चारकृतं तथा।
भुञ्जानमाचमनार्हञ्च नास्तिकं नाभिवादयेत्॥
वमन्तं26 जृम्भमाणञ्च कुर्व्वन्तं दन्तधावनम्।
अभ्यक्तशिरसं चैव स्नातं नैवाभिवादयेत्॥
बृहस्पतिः।
जपयज्ञगणस्थञ्च समित्पुष्पकुशानलान्।
उदपात्रार्ध्यभैक्षैन्नंवहन्तं नाभिवादयेत्॥
उदक्यां सूतिकां नारीं भर्त्तृघ्नीं ब्रह्मघातिनीम्।
अभिवाद्य द्विजोमोहादहोरात्रेण शुद्ध्यति॥
यमदग्निः।
देवताप्रतिमां दृष्ट्वा यतिं दृष्ट्वा त्रिदण्डिनम्।
नमस्कारं न कुर्य्याच्चेत्प्रायश्चित्तीभवेन्नरः॥
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुःप्रज्ञा यशो बलम्॥
एतच्चाभिवादनमधिकवयसामेव कार्य्यम्।
तथाच मनुः।
ज्यायांसमभिवादयेदिति।
अतएव गौतमः।
ऋत्विक्श्वशुरपितृव्यमातुलादीनां यवीयसां प्रत्युत्थानमभिवाद इति।
ज्यायस्त्वञ्च कियता कालेनेत्याकाङ्क्षायाम्
मनुः।
दशाव्दाख्यं पौरसख्यं पञ्चाव्दाख्यं कलाभृताम्।
त्र्यव्दपूर्व्वं श्रोत्रियाणामल्पेनापि स्वयोनिषु॥
दशाव्दपर्य्यन्तमाख्यायत इति दशाव्दाख्यं, एवं पञ्चाव्दाख्यमिति घञर्थे कविधानमिति कप्रत्ययः। पुरे भवाः पौराः। एकपुरनिवासिनां विद्याहीनानां दशभिर्व्वषैः पूर्व्वः सखा भवति। ततोऽधिकःज्यायान्। कलाभृतां गीतादिविद्यावतां पञ्चाव्दपूर्व्वः सखा श्रोत्रियाणां त्र्यव्दपूर्व्वस्ततोऽधिको ज्यायान्। स्वयोनिषु भ्रात्रादिषु स्वल्पेनापि कालेन एकदिनपूर्व्वत्वेनापि ज्येष्ठता। ण्कदिनजातत्वे त।
तदुक्तमापस्तम्बेन
वयस्यःसमानेऽहनि जात इति।
अथ प्रसङ्गाद्गुर्व्वादिलक्षणम्।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
स गुरुर्यःक्रियां कृत्वा वेदमस्मैप्रयच्छति।
उपनीय ददद्वेदमाचार्य्यःस उदाहृतः॥
एकदेशमुपाध्याय ऋत्विग्यज्ञक्तदुच्यते।
एते मान्या यथापूर्व्वमेभ्यो माता गरीयसी ॥
मनुः।
उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्विजः।
सकल्पं सरहस्यञ्च तमाचार्य्यं प्रचक्षते॥
एकदेशन्तु वेदस्य वेदाङ्गान्यथवा पुनः।
योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥
एकस्यैकदेशं27संहितां28।ब्राह्मण29ं वेदाङ्गमात्रं वा धर्मार्थ30मध्यापयति अपरिभाषितवृत्त्यभिधानेन वा पूर्व्वोक्तमध्यापयतिएते त्रयोऽप्युपाध्याया31 इत्यर्थः।
निषेकादीनि कर्म्माणि यः करोति यथाविधि।
संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥
विप्रपदं पित्रुपलक्षणम्32, अतश्चानेवंविधः33पितैव न गुरु34रिति गम्यते।
अग्न्याधानं पाकयज्ञमग्निष्टोमादिकान् मखान्।
यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते॥
तथा।
उपाध्यायाद्दशाचार्य्य आचार्य्याणां शतं पिता।
सहस्रन्तु पितुर्म्माता गौरवेणातिरिच्यते॥
उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान् ब्रह्मदः पिता।
ब्रह्मजन्मनि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्॥
ब्रह्मजन्मनि ब्रह्मणो वेदाज्जन्म उपनयनम्। प्रेत्य मोक्षसाधनपर्य्यन्तयोग्यतापादकत्वात्। इह च सर्व्वकर्म्माधिकारापादकत्वात् शाश्वतं स्थायिफलं भवति।
अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः।
तमपीह गुरुं विद्याच्छ्रुतोपक्रियया तया।
ब्राह्मस्य जन्मनः कर्त्ता स्वधर्म्मस्य च शासिता।
बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्म्मतः॥
विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यंक्षत्रियाणां तु वीर्य्यतः।
धनधान्येन वैश्यानां शूद्राणामेव जन्मतः।
अथ भिक्षाचरणम्।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
आदिमध्यावसानेषु भवच्छब्दोपलक्षिता।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां भैक्षचर्य्यायथाक्रमम्॥
भैक्षंभिक्षाकदम्बकम्।भिक्षादिभ्यो णः।
मनुः।
प्रतिगृह्येप्सितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम्।
प्रदक्षिणं परीत्याग्निं चरेद्भैक्षंयथाविधि॥
ईप्सितं यद्यस्य विहितम्। वचनान्तरप्रतिनियतदण्डविधानादनेन विजातीयग्रहणनिषेधः। भास्करं सौरैर्मन्त्रैरुपस्थाय। अग्निं प्रदक्षिणीकृत्य एतत्त्रितयं भिक्षाङ्गं विधाय यथाविधि वक्ष्यमाणविधिना भैक्षं चरेत्।
भवत्पूर्व्वंचरेद्भैक्षमुपनीतोद्विजोत्तमः।
भवन्मध्यन्तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम् ॥
चरेदित्यनेन याच्ञालक्ष्यते। अमुमेवार्थंद्योतयति। भैक्षमिति कर्म्मविभक्त्या तेन चार्थसिद्धांभिक्षां देहीतिवाक्यरचना। तत्रगौरवसम्बोधनार्थं35भवत्पदमादिमध्यावसानेषु
ब्राह्मणादिभिः क्रमेण कार्य्यंतञ्च सम्बुद्ध्यान्तम्। प्रायशोगृहमेधिनां गृहे स्त्रिय एव भिक्षांददतीति सामर्थ्यात्स्त्रीप्रत्ययवच्च तत्पदं भवति। तत्रायं प्रयोगः।भवति भिक्षां देहीति ब्राह्मणः।भिक्षांभवति देहीति क्षत्रियः। भिक्षां देहि भवतीति वैश्यः। नायं नियमः। स्त्रिय एव भिक्षणीया इति।
अतएवाह शौनकः।
अप्रत्याख्यायिनमग्रे भिक्षेताप्रत्याख्यायिनीञ्चेति।
भिक्षाचरणे विशेषमाह याज्ञवल्क्यः।
ब्राह्मणेषु चरेद्भैक्षमनिन्द्येष्वात्मवृत्तये।
आत्मवृत्तये स्वशरीरयात्रार्थमेव नाधिकाम्। यदा त्वाचार्यःसीदद्वृत्तिर्नेत्रादिविकलस्तदा तत्पोषणार्थमपि भैक्षं चरेत्। अन्यथा प्रधानभूतवेदाध्ययनविरोधात्। ब्राह्मणेषु चरेदित्येतद्ब्राह्मणविषयम्।
अतएव व्यासः
ब्राह्मणक्षत्रियविशश्वरेयुर्भेक्षमन्वहम्।
सजातीयगृहेष्वेव सार्व्ववर्णिकमेव चेति॥
सर्व्वशब्दः, प्रकृतवर्णत्रयपरः। नायमैच्छिको विकल्पः, अपितु व्यवस्थितो विकल्पः।
तथाच भविष्यपुराणे।
सर्व्वं वा विचरेद्ग्रामंपूर्व्वोक्तानामसम्भवे।
अन्त्यवर्ज्जं महाभाग इति॥
अन्त्यः शूद्रः।
उक्तेष्वपि क्वचिदपवादमाह मनुः।
गुरोः कुले न भिक्षेत न ज्ञातिकुलबन्धुषु।
मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनींनिजाम्॥
भिक्षेत भिक्षां प्रथमम्।
इत्यनेन विरोधःस्यादिति चेन्मैवम्। एतदुपनयनाङ्गभिक्षाविषयम्36। पूर्व्वोक्तंतु नित्यभिक्षाविषयम्।एवं भिक्षां भिक्षित्वा ब्रह्मचारी गुरवे भैक्षं निवेद्य अहःशेषं वाग्यतस्तिष्ठेत् आसीनःशयानो वा भवेत्। ततः सायंसन्ध्यां विधाय यस्मिन्नुपनयनहोमो विहितस्तस्मिन्नेवाग्नौ समिधं स्वगृह्योक्तप्रकारेणाधाय वाचं विसृजेत्। ततश्च तद्भैक्षंभुञ्जीत।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
कृताग्निकार्य्योभुञ्जीत वाग्यतो गुर्व्वनुज्ञया।
आपोशानक्रियापूर्व्वं सत्कृत्यान्नमकुत्सयन्॥
अमृतोपस्तरणमसीत्यादिका आपोशानक्रिया तां पूर्व्वंकृत्वा भुञ्जीतेत्यर्थः।
गौतमः।
सायं प्रातस्त्वन्नमभिपूजितमनिन्दन् भुञ्जीतेति।
सायं37प्रातरित्यनेन मध्ये भोजननिषेधः।
तथा च श्रुतिः।
सायं प्रातराश्येव स्यादिति।
अत्र वशिष्ठः।
अष्टौ ग्रासान्मुनेर्भुक्तं38 वानप्रस्थस्य षोड़श।
द्वात्रिंशत्तु गृहस्थस्य अमितं ब्रह्मचारिणः ॥
भोक्तृनियममाह मनुः।
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः।
श्रियं प्रत्यङ्मुखो भुङ्क्तेऋतमिच्छन् ह्युदमुखः॥
आयुषे हितमायुष्यं यशसे हितं यशस्यं श्रियमिच्छन् ऋतमिच्छन्नित्यन्वयः।
पात्रनियमो हारीतेनोक्तः।
लौहे39मृण्मये वा पात्रे भुञ्जीतेति।
तच्च स्वयमेव प्रक्षालयेत्। भुक्त्वा स्वयममन्त्रं प्रक्षालयेदित्यापस्तम्बस्मरणात्। एवं भैक्षेण वर्त्तयेन्नित्यमित्युक्तम्।
तत्रापवादमाह याज्ञवल्क्यः।
ब्राह्मणःकाममश्नीयाच्छ्राद्धेव्रतमपीड़यन्निति।
व्रतमपीड़यन्मधुमांसादि वर्ज्जयन्नित्यर्थः।
अकामापन्नेमधुनि अदोषमाह वशिष्ठः।
अकामापन्नंमधु वाजसनेयके न दुष्यतीति।
उपनयनकालस्य परमावधिमाह
मनुः।
आषोड़शाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्त्तते।
आद्वाविंशात्क्षत्त्रियस्य आचतुर्व्विंशतेर्व्विंशः॥
अत ऊर्द्धं त्रयोऽप्येते यथाकाले न संस्कृताः।
सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्य्यविगर्हिताः ॥
उक्तपरमावध्यतिक्रमे व्रात्यस्तोमरूपप्रायश्चित्तानन्तरं संस्कार्य्याएव।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
सावित्रीपतिता व्रात्या व्रात्यस्तोमादृते क्रतोरिति।
तथान्योऽपि विशेषः स्मृत्यन्तरे।
षण्डान्धबधिरस्तब्धजड़गद्गदपङ्गुषु।
कुब्जवामनरोगार्त्तशुष्काङ्गविकलाङ्गियु।
मत्तोन्मत्तेषु मूकेषु भयनस्थे निरिन्द्रिये।
स्तब्धपुंस्त्वेऽपि चैतेषु संस्काराः स्युर्यथोचितम्॥
यस्मिन्यस्मिन् संस्कारे क्रियमाणे तद्विहित कर्म्मसु समर्थो भवति तैः संस्कार्य्य एवेत्यर्थः। मूकोन्मत्तौन संस्कार्य्या वित्येके। एतेषामसंस्कारेऽपि पातित्यंनास्ति कर्म्मस्वनधिकारात्। तदपत्यन्तु संस्कार्य्यमेव।
ब्राह्मण्यां ब्राह्मणेनोत्पन्नो वा ब्राह्मण एवेति श्रुतेः। अत्र
ब्राह्मणत्वजात्या क्षत्रियत्वादि अप्युपलक्ष्यते40। असंस्कृतेऽपि जातिमात्रस्यानपायात्41। ब्राह्मण एव भवति न द्विजातिरेवेत्यर्थः। स्त्रीणान्तु विवाह एवोपनयनम्।
तथाच मनुः।
वैवाहिको विधिः स्त्रीणामौपनायनिकः स्मृत इति।
यत्तु हारीतेनोक्तम्।
द्विविधाः स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योबध्वञ्च। तत्र ब्रह्मवादिनीनामुपनयनमग्नीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे च भिक्षाचर्य्येति। सद्योबधूनां तूपस्थिते विवाहे कथञ्चिदुपनयनमात्रं कृत्वा विवाहः कार्य्य इति।
तत्कल्पान्तराभिप्रायः।
पुराकल्पे कुमारीणां मौज्जीबन्धनमिष्यते।
अध्यापनञ्च वेदानां सावित्रीवचनं तथा॥
इति यमस्मरणात्। यदा तु मेखलादीनि चुटितानि तदा तेषां प्रतिपत्तिकर्म्म मनुनाभिहितम्।
मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्।
अप्सु प्रास्य42 विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवदिति॥
यस्य गृह्येयो मन्त्र उदितस्तन्मन्त्रवत् ग्राह्यम्।
इत्युपनयनम्।
अथ ब्रह्मचारिनियमाः।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
मधुमांसाञ्जनोच्छिष्टशुक्तस्त्रीप्राणिहिंसनम्।
भास्करालोकनाश्लीलपरिवादादि वर्जयेत्॥
मांसवर्जनं व्याधिराहित्ये वेदितव्यम्।
तथाच वशिष्ठः।
स चेद्व्याधीयीत कामं गुरोरुच्छिष्टं शेषमौषधार्थं सर्व्वं प्राश्नीयादिति।
व्याधीयीत व्याधिमत्तामनुभवतीत्यर्थः। अञ्जनं तैलादिना शरीरस्य कज्जलादिना नेत्रयोः। एतन्निषेधोऽप्यौषधादन्यत्र।
तथा स्मर्य्यते।
अष्टौ तान्यव्रतघ्नानि आपो मूलं फलं पयः।
हविर्ब्राह्मणकाम्या च गुरोर्व्वचनमौषधम् ॥
उच्छिष्टं गुरुव्यतिरिक्तं स्वस्य परस्य च वर्ज्जयेत्।
तथाच वशिष्ठः।
उच्छिष्टमगुरोरभोज्यं स्वमुच्छिष्टमुच्छिष्टीपहृतं चेति। गुरुस्तूक्तलक्षणो निषेकादिकृत्। शक्तं परुषवचः पर्य्युषितान्नञ्च। स्त्रीशब्देन तद्विषयप्रेक्षणालम्भने लक्ष्येते।
तथाच गौतमः।
स्त्रीप्रेक्षणालम्भने मैथुनशङ्कायामिति।
भास्करालोकने तु मनुना विशेषो दर्शितः।
नेक्षेतोद्यन्तमादित्यं नास्तं यान्तं कहाचन।
नोपरक्तं न वारिस्थं न मध्यनभसो गतमिति॥
अश्लीलं सभाऽयोग्यं वचः। परिवादःसदसद्रूपपरदोषकथनम्। आदिशब्दाद्गन्धमाल्यादिनिषेधः।
मनुः।
वर्ज्जयेन्मधु मांसञ्च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः।
शतानि चैव सर्व्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम्॥
अभ्यङ्गमञ्जनं वाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणे।
कामं क्रोधञ्च लोभञ्च नर्त्तनं गीतवादनम्॥
द्यूतञ्च जनवादञ्च परिवादं तथानृतम्।
स्त्रीणाञ्च प्रेक्षणालापमुपघातं परस्य वै॥
एकः शयीत सर्व्वत्र न रेतः स्कन्दयेत्क्वचित्।
कामाद्धिस्कन्दयवेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः॥
व्रतं ब्रह्मचर्य्यम्।
स्वप्ने सिक्का ब्रह्मचारी द्विजः शुक्रमकामतः।
स्नात्वार्कमर्चयेद्विप्रःपुनर्म्ममित्यृचं जपेत्॥
पुनर्म्मा तस्मादेनसो विश्वान मुञ्चत्वंहसः।
यदि दिवा यदि नक्तमेनांसि चक्रमावयमिति॥
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु।
संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्43॥
बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैषां श्रोत्रादीन्यनुपूर्व्वशः।
कर्म्मेन्द्रियाणि पञ्चैव पाय्वादीनि प्रचक्षते॥
एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम्।
यस्मि़ञ्जिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौगणौ॥
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्।
सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति॥
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते।
यश्चैतान् प्राप्नुयात्सर्व्वान् यश्चैतान् केवलांस्त्यजेत्।
प्रापणात्सर्व्वकामानां परित्यागो विशिष्यते॥
न तथैतानि शक्यन्ते सन्नियन्तुमसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः॥
इन्द्रियाणान्तु सर्व्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम्।
तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम्॥
वशीकृत्येन्द्रियग्रामं संयम्य च मनस्तथा।
सर्व्वान् संसाधयेदर्थानक्षिण्वन् योगतस्तनुम्॥
सेवेतेमांस्तु नियमान् ब्रह्मचारी गुरौ वसन्।
संनियम्येन्द्रियग्रामं तपोवृद्ध्यर्थमात्मनः॥
इन्द्रियाणां विचरतामित्यारभ्याभिहिता धर्म्मान केवलं ब्रह्मचारिणामपित्वितरेषामपि सम्भवति।
अथौञ्चारविधिः।
तत्र विष्णुः।
ब्राह्मे मुहूर्त्ते उत्थाय मूत्रपुरीषोत्सर्गं कुर्य्यादिति।
ब्राह्ममुहूर्त्तलक्षणं पितामह आह।
रात्रेस्तु पश्चिमे यामे मुहूर्त्तोब्राह्म उच्यते इति।
पश्चिमे यामे पश्चिमार्द्धप्रहरे ब्राह्ममुहूर्त्त इत्यर्थः।
अङ्गिराः।
उत्थाय पश्चिमे यामे रात्रेराचम्य चोदकम्।
अन्तर्द्धाय तृणैर्भूमिं शिरः प्रावृत्य वाससा॥
वाचं नियम्ययत्नेन निष्ठीवोच्छासवर्ज्जितः।
कुर्य्यान्मूत्रपुरीषे तु शुचौ देशे समाहित इति॥
आचम्य स्वापाद्याचमननिमित्ते सति। तृणैरयज्ञीयैः तृणग्रहणं काष्ठादेरप्युपलक्षणार्थम्। तिरस्कृत्योच्चारेत्काष्ठं पत्रं लोष्ट्रं तृणानि वेति मनुस्मरणात्।
पराशरः।
ततः प्रातः समुत्थाय कुर्य्याद्विण्मूत्रमेव च।
नैर्ऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्य ह्यधिकं भुवः॥
ग्रामात्क्रमशतं44गच्छेन्नगरा45च्च46चतुर्गुणमिति।
याज्ञवल्क्यः।
दिवासन्ध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्र उदङ्मुखः।
कुर्य्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ चेद्दक्षिणामुखः॥
यमः।
प्रत्यङ्मुखस्तु पूर्व्वाह्ने पराह्णेप्राङ्मुखस्तथा।
उदङ्मुखस्तुमध्याह्ने निशायां दक्षिणामुखः॥
देवलोऽपि।
सदैवोदङ्मुखः प्रातः सायाह्नेदक्षिणामुखः।
विण्मूत्रमाचरेन्नित्यं सन्ध्यासु परिवर्ज्जयेत्॥
सन्ध्यासु वर्ज्जनं निरुद्धेतरविषयम्। न वेगं धारयेन्नोपरुद्धः क्रियां कुर्य्यादिति मनुस्मरणात्। दिङ्नियमे विकल्पो वेदितव्यः।
यच्च मनुनोक्तम्।
छायायामन्धकारे वा रात्रावहनि वा द्विजः।
यथासुखमुखः कुर्य्यात्प्राणबाधभयेषु चेति॥
तन्नीहाराद्यन्धकारजनितदिङ्मोहविषयम्
विष्णुः।
घ्राणास्ये समावेष्टयित्वा मृद्धारीग्रीवायामासज्योच्चरेत्।
मृद्धारी मृत्तिकाधारी ग्रीवायां यज्ञोपवीतमासज्य।
अङ्गिराः।
कृत्वा यज्ञोपवीतन्तु पृष्ठतः कण्ठलम्बितम्।
विण्मूत्रन्तु गृही कुर्य्याद्यद्वाकर्णे समाहितः॥
कर्णे निधानमेकवस्त्रविषयम्।
तथाच सांख्यायनगृह्ये।
यद्येकवस्त्रो यज्ञोपवीतं कर्णे कृत्वा मूत्रपुरीषोत्सर्गं कुर्य्यादिति।
हारीतः।
उच्चारे मैथुने चैव प्रस्रावे दन्तधावने।
स्नाने भोजनकाले च षट्सु मौनं समाचरेत्॥
उच्चारे पुरीषोत्सर्गे।
विष्णुपुराणे।
दूरादावसथान्मू47त्रं48 पुरीषञ्च विवर्ज्जयेत्।
पादावनेजनोच्छिष्टं49 न क्षिपेच्च गृहाङ्गने॥
वृहद्विष्णुः।
अन्तर्धाय तृणैर्भूमिं शिरः प्रावृत्य वाससा।
वाचं नियम्य यत्नेन निष्ठीवोच्छासवर्ज्जितः॥
मनुः।
वाय्वग्निविप्रमादित्यमपः पश्यंस्तथैव माम्।
न कदाचित्प्रकुर्व्वीत विण्मूत्रस्य विसर्ज्जनम्॥
पश्यन्सम्मुखः।
न फालकृष्टे न जले न चित्यां न च पर्व्वते।
न जीर्णदेवायतने न वल्मीके न शाद्वले॥
न ससत्त्वेषु गर्त्तेषु न गच्छन्न पथि स्थितः।
न नदीतीरमासाद्य न भस्मनि न गोमये।
न च पर्व्वतमस्तक इति पाठे पूर्व्वकृतपर्व्वतग्रहेणेनैव तन्मस्तकसिद्धावपि पुनर्ग्रहणाद्दोषाधिक्यं द्योत्यते। तद्भाष्येतु
अत्यन्तार्त्तस्य पर्व्वते दोषाभावप्रतिपादनार्थमित्युक्तम्।
विष्णुपुराणे।
उत्सर्गे वै पुरीषस्य मूत्रस्य च विसर्ज्जने।
तिष्ठेन्नातिचिरं तत्र न च किञ्चिदुदीरयेत्॥
भरद्वाजः।
अपकृष्य च विण्मूत्रं काष्ठलोष्ट्रतृणादिना।
उदस्तवासा50 उत्तिष्ठेदृढ़ं विधृतमेहनः॥
अथ शौचविधिः
याज्ञवल्क्यः।
गृहीतशिश्वश्चोत्थाय मृद्भिरभ्युद्धृतैर्जलैः।
गन्धलेपक्षयकरं शौचं कुर्य्यादतन्द्रितः।
उद्धृतैरिति जलान्तर्निषेधः। गन्धलेपक्षयकरमिति सर्व्वेषां साधारणं शौचम्। वक्ष्यमाणमृत्संख्यानियमस्त्वदृष्टार्थः।
दक्षः।
शौचे यत्नः सदा कार्य्यःशौचमूलो द्विजः स्मृतः।
शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः॥
यमः।
आहरेन्मृत्तिकां प्राज्ञः कूलात्ससिकतात्तथा।
कूलग्रहणमनुपहतदेशो51पलक्षणार्थम्।
वापीकूपतड़ागेषु नाहरेद्वाह्यतो मृदम्।
आहरेज्जलमध्यात्तु परतो मणिबन्धनात्॥
शातातपः।
शुचिदेशात्तु संग्राह्या शर्कराश्मादिवर्ज्जिता।
रक्ता गौरा तथा श्वेता मृत्तिका त्रिविधा स्मृता॥
कश्यपः।
विप्रे गौरा मृदः प्रोक्ताः क्षत्रे रक्तास्तथोदिताः।
वैश्यस्य हरिताः प्रोक्ताः कृष्णाः स्त्रीशूद्रयोस्तथा॥
विष्णुपुराणे।
वल्मीकमूषिकोत्खातान्मृदमन्तर्जलात्तथा।
शौचावशिष्टां गेहाच मृदः शौचे विवर्ज्जयेत्॥
विष्णुः।
अन्तःप्राण्यवपन्नाञ्च हलोत्खातां न चाहरेत्।
मनुः।
आहृतामन्यशौचार्थं बालुकां पांशुरूपिणीम्।
न मार्गान्न श्मशानाच्च नादद्यात्कुड्यतः क्वचित् ॥
तथा
यस्मिन्देशे च यत्तोयं या च यत्र च मृत्तिका।
सैव तत्र प्रशस्ता स्यात्तया शौचं विधीयते॥
मृत्संख्यानियममाह
दक्षः52।
एका लिङ्गे करे तिस्र उभयोर्मृद्वयं स्मृतमिति।
करे सव्ये एतच्च मूत्रशौचविषयम्।
एका लिङ्गे करे सव्ये तिस्रो हे हस्तयोर्द्वयोः।
मूत्रशौचं समाख्यातं शुक्रे तद्विगुणं भवेत्॥
इति शातातपस्मरणात्।
विट्शौचे तु मनूक्तो विशेषः।
एका लिङ्गे गुदे तिस्रो दश वामकरे तथा।
उभयोः सप्त दातव्या मृदः शौचोपपादिकाः॥
यमदक्षौ।
द्वेलिङ्गे मृत्तिके देये गुदे पञ्च करे दश।
उभयोः सप्त दातव्या इति।
शङ्खः।
अपाने मृत्तिकाः सप्त लिङ्गे हे परिकीर्त्तिते।
एकस्मिन् विंशतिर्हस्ते द्वयोर्ज्ञेया53 चतुर्द्दश॥
तिस्रस्तु मृत्तिका देया कर्त्तुं वै नखशोधनम्।
तिस्रस्तु पादयोर्जेयाः शौचकामस्य सर्व्वदा॥
शौचमेतद्गृहस्थानां तथा गुरुनिवासिनाम्।
द्विगुणं स्याद्वनस्थानां यतीनां त्रिगुणं स्मृतम्॥
मृत्तिका तु समुद्दिष्टा त्रिपर्व्वी पूर्य्यते ययेति।
अत्र मृत्तिकाधिक्यं यत्तन्मूत्रपुरीषनिर्हरणाशङ्कायाम्। यदा त्वेवमपि गन्धलेपक्षयो न भवति, तदोक्तसंख्यातिक्रमेणापि कार्य्यम्।
यदाह मनुः।
यावन्नापैत्यमेध्याक्तो गन्धलेपश्चतत्कृतः।
तावन्मुद्वारि वा देयं सर्व्वासु द्रव्यशुद्धिष्विति॥
हस्तशौचे तु हारीतो विशेषमाह।
दश सव्ये षट् च पृष्ठे सप्तोभाभ्यां च तिसृभिः।
पादौ प्रक्षालयेदिति।
पृष्ठे सव्यपश्चाद्धागे।
लिङ्गभौचे तु मृत्प्रमाणमाह
दक्षः।
लिङ्गे तु मृत्समाख्याता त्रिपर्व्वीपूर्य्यते यया इति।
विट्शौचे तु मनुः।
अर्द्धप्रसृतिमात्रा तु प्रथमा मृत्तिका स्मृता।
द्वितीया च तृतीया च तदर्द्धार्द्धा प्रकीर्त्तिता॥
एतच्छौचं गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम्।
वानप्रस्थस्य त्रिगुणं यतीनाञ्च चतुर्गुणम्॥
न्यूनाधिकं न कर्त्तव्यं शौचे शुद्धिमभीप्सता।
प्रायश्चित्तेन युज्येत विहितातिक्रमे कृते॥
वाथुलः।
तीर्थे शौचं न कुर्व्वीत कुर्व्वीतोद्धृतवारिणा।
कथमप्युद्धरणाशक्तौ आदित्यपुराणे।
रत्निमात्रं जलं त्यक्त्वा कुर्य्याच्छौचमनुद्धृते।
पश्चात्तु शोधयेत्तीर्थमन्यथा त्वशुचिर्भवेत् ॥
दक्षः।
यद्दिवा विहितं शौचं तदर्द्धञ्च निशि स्मृतम्।
तदर्द्धमातुरे प्रोक्तमातुरस्यार्द्धमध्वनि॥
आदिपुराणे।
स्त्रीशूद्रयोरर्द्धमानं शौचं प्रोक्तं मनीषिभिः।
यो विण्मूत्रोत्सर्जनायोपविष्टः सत्र करोति तस्याप्यर्द्धशौचमाह वृद्धपराशरः।
उपविश्य तु विण्मूत्रं कर्त्तुं यस्तन्न54 विन्दति ।
स कुर्य्यादर्द्धशौचन्तु स्वस्य शौचस्य सर्व्वदेति॥
यत्र संख्याया विषमत्वेनाङ्गीकरणासम्भवस्तत्र साध्या मृदर्द्धपरिमाणा ग्राह्या।
आर्त्तः कुर्य्याद्यथाशक्ति सुस्थःकुर्य्याद्यथोचितम्।
बालस्यानुपनीतस्य गन्धलेपक्षयावहम्॥
वृद्धपराशरः।
अरण्ये निर्जने रात्रौ चौरव्यालाकुले पथि।
कृत्वा मूत्रपुरीषञ्च द्रव्यहस्तोन दूष्यति॥
मृदादिकं हस्ते धारयित्वा न दूष्यतोत्यर्थः। अन्ये तु द्रव्यहस्तो न दूष्यतीत्यस्यान्यथार्थं वर्णयन्ति। एवंविधस्थले अदनीयद्रव्यं हस्ते गृहीत्वा मूत्रपुरीषकरणेऽपि तद्रव्यं शुद्धमेवेति । तद्रव्यं हस्ते गृहीत्वैवाचमने कृते शुद्धं भवतीत्यर्थः।
भोजनकाले गुदस्रावे विशेषमाह
बृहस्पतिः।
भुञ्जानस्य तु विप्रस्य कदाचित्प्रच्यवेद्गुदम्।
उच्छिष्टमशुचित्वञ्च तस्य शौचं विधीयते॥
पूर्व्वंकृत्वा तु शौचन्तु ततः पश्चादुपस्पृशेत्।
ततः कृत्वोपवासञ्च पञ्चगव्येन शुध्यतीति॥
विप्रग्रहणमुपलक्षणार्थम्।
शौचे हस्तनियममाह देवलः।
धर्म्मविद्दक्षिणं हस्तमधःशौचे न योजयेत्55।
तथा च वामहस्तेन नाभेरूर्द्धंन शोधयेत्॥
अत्रेदं विचारणीयं विण्मूत्रयोर्मिलितयोः करणे एका लिङ्गे गुदे तिस्र इत्येतच्छौचं प्रवर्त्तते, आहोस्वित्56 प्रत्येककरणमपीति57। प्रत्येककरणं तावन्न युक्तं केवलमूत्रोत्सर्गे शातातपवचनविरोधात्। वचनन्तु
एका लिङ्गे करे सव्ये तिस्रो द्वेहस्तयोर्द्वयोः।
मूत्रशौचं समाख्यातमिति॥
अथ केवलपुरीषोत्सर्गविषयत्वमुच्यते। लिङ्गशौचनिमित्ताभावेऽपि58 नैमित्तिकं तच्छ्रौच59मापद्येत तच्चायुक्तमदृष्टार्थप्रस
ङ्गाद्वचनादस्त्विति60 चेन्न। एका लिङ्ग इत्यस्यांशस्य केवलमूत्रोसर्गविषयत्वेनाप्युपपत्तेः। अगतिका हीयं गतिः61। यददृष्टकल्पनम् अतो विशिष्टोत्सर्ग एवेति युक्तम्। तत्रापि62 लिङ्गशौचं पूर्वम्63। वचनप्रतीतक्रमातिक्रमे64कारणाभावात्सन्निहितत्वात्प्रथम7।एतदकरणे8 साक्षान्मूत्रलेपस्य मणिबन्धोपरिभागेऽपि संसर्गप्रसक्तेश्च। हस्तपादादिशौचन्तु तन्त्रेणैव देशकालकर्त्रैक्याच्छौचरूपोपकारस्यैकत्वाच्च।
अथ विण्मूत्रव्यतिरिक्तशारीरमलशौचम्।
मनुः।
ऊर्द्धं नाभेर्यानि खानि तानि मेध्यानि सर्व्वशः।
यान्यधस्थान्यमेध्यानि देहाच्चैव मलाश्च्युता इति॥
खानीन्द्रियच्छिद्राणि।
मलानपि स एवाह।
वसा शुक्रमसृङ्मज्जा मूत्रं विट् कर्णविण्नखाः।
श्लेष्मासु दूषिका स्वेदो द्वादशैते नृणां मलाः॥
वसा कायनेहः। मज्जा शिरोभवमेदः। कर्णविट् कर्णमलम्।
दूषिकाक्षिमलम्।
एतैरुपघाते बौधायनः प्राह।
आददीत मृदोऽपश्च षट्सुपूर्वेषु शुद्धये।
उत्तरेषु च षट्स्वद्भिः केवलाभिर्विशुध्यतीति॥
मनुस्तु।
विण्मूत्रोत्सर्गशुद्ध्यर्थं मृद्धार्य्यादेयमर्थवत्।
दैहिकानां मलानाञ्च शुद्धिषु द्वादशस्वपि॥
विष्मूत्रमुत्सृज्य तोयेन*65तत्तादृशंतच्छुद्ध्यार्थमर्थवत्प्रयोजनवत्। एवञ्च बौधायनमनुवचनयोर्विकल्पः। स च देशकालाद्यपेक्षया।
तथाच बौधायनः।
देशं कालं तथात्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयोजनम्।
उपपत्तिमवस्थाञ्च ज्ञात्वा शौचं प्रकल्पयेत्॥
यमः।
मूत्रे तिस्रः पादयोस्तु हस्तयोस्तिस्नएव च।
मृदः पञ्चदशामेध्ये हस्तादीनां विशेषतः॥
एतदात्मीयमूत्रादिस्पर्शशौचमुदाहृतम्।
उत्सर्गकालादन्यत्र परकीये तु पठ्यते॥
परस्य शोणितस्पर्शेरेतोविण्मूत्रजे तथा।
चतुर्णामपि वर्णानां द्वात्रिंशन्मृत्तिकाः स्मृताः॥
विष्णुः।
नाभेरधस्तात्प्रवाहुषु कायिकैर्मलैः सुराभिर्मद्यैर्वोपहतो मृत्तोयैस्तद प्रक्षात्याचान्तः शुध्येत्। अन्यत्रोपहतो मृत्तायैस्तदङ्गं प्रक्षाल्यस्नात्वैव इन्द्रियोपहतस्तूपोष्य स्नात्वा पञ्चगव्येन दशनच्छदोषहतः श्चेति66 शौचप्रकरणम्।
अथाचमनम् ।
तत्र वृद्धपराशरः।
कृत्वाथ शौचं प्रक्षाल्य पादौहस्तौच मृज्जलैः।
निबद्धशिखकच्छन्तु द्विज आचमनञ्चरेत्॥
प्रचेताः।
अनुष्णफेनशीताभिराचामेदिति।
आतुराणामुष्णोदकमप्यविरुद्धम् ।
तथाचापस्तम्बः।
उदकेनातुराणाञ्च तथोष्णेनोष्णपायिनामिति।
अत्राचमनं भवतीति शेषः।
योगीश्वरः।
अन्तर्जानु शुचौ देशे उपविष्ट उदङ्मुखः।
प्राग्वा ब्राह्मेण तीर्थेन द्विजी नित्यमुपस्पृशेत्॥
तथा।
कनिष्ठादेशिन्यङ्गुष्ठमूलान्यग्रं करस्य च।
प्रजापतिपितृब्रह्मदेवतीर्थान्यनुक्रमात्॥
दक्षः।
प्रक्षाल्यपादौ हस्तौच त्रिः पिवेदम्बु वीक्षितम्।
संवृत्याङ्गुष्ठमूलेन द्विः प्रमृज्यात्ततो मुखम्॥
वीक्षितमित्येतदहर्विषयम्।
रात्रावनीक्षितेनैव शुद्धिरुक्ता मनीषिभिरिति यमस्मरणात्।
मनुः।
त्रिराचामेदपः पूर्वं द्विःप्रमृज्यात्ततो मुखम्।
खानि67* चोपस्पृशेदद्धिरात्मानं68शिर एव च॥
गौतमः।
त्रिश्चतुर्वा अप आचामेदिति।
चतुर्ग्रहणं दैवपित्र्यकर्म्मपेक्षयेति केचित्। त्रिर्ग्रहणेन69तुष्ट्यभाव70 इत्यन्ये।
भरद्वाजः।
संहताङ्गुलिभिस्तोयं गृहीत्वा दक्षिणेन तु।
मुक्ताङ्गुष्ठकनिष्ठे तु शेषेणाचमनं चरेत्॥
ब्राह्म्येण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत्।
कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन॥
कायंप्राजापत्यं। वैदशिकं दैवं। यस्मिन् आचमनप्रयोगे यद्ब्राह्म्यादितीर्थं स्वीकृतं तेनैव स प्रयोगः कार्य्योन तीर्थान्तरेण।
दक्षः।
संहताङ्गुलिभिः पूर्वमास्यमेवस्पृशेत्।
अङ्गुष्ठेन प्रदेशिन्या घ्राणं पञ्चादनन्तरम्॥
अङ्गुष्ठानामिकाभ्याञ्च चक्षुःश्रोत्रे पुनः पुनः।
नाभिं कनिष्टाङ्गुष्ठाभ्यां हृदयन्तु तलेन वै।
सर्वाभिस्तुशिरः पञ्चाद्वाह चाग्रेण संस्पृशेत्।
याज्ञवल्क्यः।
अद्भिस्तु प्रकृतिस्थाभिर्हीनाभिःफेनवुहुदैः।
त्रिःप्राश्यापो द्विरुन्मृज्य खान्यद्भिः समुपस्पृशेत्।
अत्र विशेषमाह पैठीनसिः।
सव्ये पाणौशेषा अपो निनयेदिति।
शेषा आचमनावशिष्टाः।
बृहच्छङ्घत्स्वन्यथोपस्पर्शनमाह।
तर्ज्जन्यङ्गुष्ठयोगेन स्पृशेत्रासापुटद्वयम्।
मध्यमाङ्गुष्ठयोगेन सृशेन्नेत्रद्वयं ततः॥
अङ्गुष्ठस्यानामिकाया योगेन श्रवणे स्पृशेत्।
कनिष्ठाङ्गुष्ठयोगेन स्मृशेत् स्कन्धद्वयं ततः॥
नाभिञ्च हृदयं तद्वत् स्मृशेत्याणितलेन तु।
संस्पृशेच्च तथा शीर्षमिति॥
शङ्खस्तु।
ततोऽङ्गुलिचतुष्केणस्पृशेन्मूर्द्धानमादितः।
तर्ज्जन्यङ्गुष्ठयोगेन स्पृशेनेत्रहयं पृथक्॥
मध्यमानामिकाभ्यान्तु स्पृशेवासापुटे क्रमात्।
अङ्गुष्ठेन कनीयस्याः कर्णौ संयोगतः स्पृशेत्।
तर्ज्जन्यङ्गुष्ठयोगेन नाभिं हृदितलं स्मृशेत्॥
पैठीनसिः।
अग्निरङ्गुष्ठस्तस्मात्तेनैव सर्वाणि स्थानानि सुशेदिति। अत्र स्वस्वशाखानुसारेण व्यवस्थितो विकल्पः। यत्र शाखायामङ्गस्पर्शनमेव नाम्नातम्, अङ्गुष्ठादिविशेषो वा नात्रातः, तच्छाखीयानां त्वैच्छिको विकल्पः। येषान्तु स्वभाखायां कतिपयाङ्गस्पर्शनमाम्नातं, तेषान्तु खशाखोक्तक्रमानुसारी शाखान्तरोतक्रमः अनुक्ताङ्गस्पर्शे भवतीति व्यवस्था।
उदकपरिमाणमाह
याज्ञवल्क्यः।
हृत्कण्ठतालुगाभिश्च यथासंख्यं द्विजातयः।
शुध्येरन् स्त्री च शूद्रश्च सकृत्स्पृष्टाभिरन्ततः॥
अन्ततस्तालुगाभिः।हृद्गनां परिमाणमाह उशना।
माषमज्जनमात्रा हृदयङ्गमा भवन्ति।
आचमनप्रसङ्गात्सपवित्राचमने कश्चन विशेषः प्रदर्श्यते।
तत्र मार्कण्डेयः।
सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम्।
नोच्छिष्टं तत्पवित्रन्तु भुक्तोच्छिष्टन्तु वर्जयेत्॥
एतद्दक्षिणकराभिप्रायम्। हारीतेन वामेनिषेधात्।
वामहस्ते कुशान् कृत्वा समाचामति यो दिजः ।
उपस्पृष्टं भवेत्तेन रुधिरेण मलेन चेति॥
एतत्केवलवामहस्ताभिप्रायम्। हस्तदयाश्रयणे गोभिलेन फल स्मरणात्।
उभयत्र स्थितैर्द्दर्भैःसमाचामति यो हिजः।
सोमपानफलं तस्य भुक्तायज्ञफलं भवेदिति॥
अत्र विशेषमाह हारीतः।
सव्यापसव्यौ कुर्वीत सपवित्री करी बुधः।
ग्रन्थिर्यस्य पवित्रस्य न तेनाचमनं भवेदिति॥
पवित्रलक्षणमाह कात्यायनः।
अनन्तर्गर्भिणं सायं कौशंद्विदलमेव च।
प्रादेशमात्रं विज्ञेयं पवित्रं यत्र कुत्रचित्।
मार्कण्डेयः।
चतुर्भिर्द्दर्भपिञ्चल्यैर्ब्राह्मणस्य पवित्रकम्।
एकैकं न्यूनमुद्दिष्टं वर्णे वर्णे यथाक्रमम्॥
त्रिभिः शान्तिकर्म्म पञ्चभिः पौष्टिकं तथा।
चतुर्भिश्चाभिचाराख्यं कुर्व्वन् कुर्य्यात्पवित्रकमिति॥
अथाचमननिमित्तानि।
तत्र मनुः।
उत्तीर्य्योदकमाचामेदवतीर्य्यतथैव च।
हारीतः।
स्त्रीशूद्रोच्छिष्टाभिभाषणे मूत्रपुरीषोत्सर्गदर्शने देवतामभिगन्तुकाम आचामेत्।
अथ द्विराचमननिमित्तानि।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
स्नात्वा पीत्वा क्षुते सुप्ते भुक्त्वारथ्योपसर्पणे।
आचान्तः पुनराचामेद्वासो विपरिधाय च॥
बौधायनः।
भोजने हवने दाने उच्चारे च प्रतिग्रहे।
हविर्भक्षणकाले वा तद्विराचमनं स्मृतमिति॥
ब्रह्मपुराणे।
होमे भोजनकाले च सन्ध्ययोरुभयोरपि।
आचान्तः पुनराचामेदन्यत्र च सकत्सकृत्॥
अङ्गिराः।
चाण्डालादीन् जपे होमे दृष्ट्वाचम्य विशुद्धति।
खादीन् स्मृष्ट्वापि वाचामेत्कर्णं वा दक्षिणं स्मृशेत॥
जानुनोरवस्तात्खादिस्पर्शे आचमनम्।अन्यत्र स्नानविधानात्।उदकाभावे असामर्थे वा दक्षिणकर्णस्पर्शः।
अनेनैवाभिप्रायेण वृहस्पतिः।
पितृमन्त्रोचरे रौद्रे आत्मालम्भेऽधमेक्षणे।
अधोवायुसमुत्सर्गे आक्रन्दे क्रोधसम्भवे॥
मार्ज्जारमूषिकस्पर्शे प्रहाऽनृतभाषणे।
निमित्तेष्वेषु सर्वेषु दक्षिणं श्रवणं स्पृशेत्॥
तथा।
आर्द्रंतृणं गोमयं वा भूमिं वा संस्पृशेद्द्विज इति।
सांख्यायनः।
क्षुते निष्ठीवने चैव दन्तोच्छिष्टे तथानृते।
पतितानाञ्च सम्भाषे दक्षिणं श्रवणंस्पृशेत्॥
आदित्या वसवो रुद्रा वायुरग्निश्च धर्म्मराट्।
विप्रस्य दक्षिणे कर्णे ह्येते तिष्ठन्ति सर्वदा॥
आचारसागरे।
अपो जग्ध्वैषधं जग्ध्वा कृत्वा ताम्बूलचर्ववणम्।
सौगन्धिकानि सर्व्वाणि नाचामेत विचक्षणः॥
अपो जग्ध्वेति अमृतापिधानमसीत्यादिभिर्मन्तैरपो जग्ध्वातन्निमित्तं नाचामेदित्यर्थः।
बौधायनः।
पादचालनशेषेण नाचामेदारिणा द्विजः।
शुद्धाभावेऽपि71 वै किञ्चित्क्षित्वा भूमौ जलं स्पृशेत्॥
आपस्तम्बः।
सन्ध्यार्थे भोजनार्थे वा पित्रर्थे वा तथैव च।
शूद्राहृतेन नाचामेज्जपेज्याहवनेषु72 च॥
यमः।
तावन्नोपस्पृशेद्विप्रो यावद्वामेन संस्पृशेत्।
वामे हि द्वादशादित्या वरुणस्त्रिदशेश्वरः॥
उदके चोदकस्थस्तु स्थलस्थस्तु स्थले शुचिः।
पादौ स्थाप्योभयत्रापि त्राचान्तोभयतः73 शुचिः॥
जले स्थले चैकैकं पादं कृत्वाचान्त उभयत्र जलकर्मणि स्थलकर्म्मणि च शुद्धो भवतीत्यर्थः।
अकृत्वा पादयोः शौचं तिष्ठन्74सुक्तशिखोऽपि वा।
विना यज्ञोपवीतेन आचान्तोऽप्यशुचिर्भवेत्॥
तिष्ठन्निति स्थलविषयं विष्णुना तिष्ठतोऽपि जलेऽभ्यनुज्ञानात्।
जान्वोरुद्धेजले तिष्ठन्नाचान्तः शुचितामियात्।
अधस्ताच्छतकृत्वोऽपि समाचान्तो न शुद्ध्यति॥
इति अधस्ताविषेधाज्जानुदघ्नेऽप्यविरुद्धम्75।
तथाच स्मर्य्यते।
जानुमात्रे जले तिष्ठत्रिति।
अत्राचान्तः शुचिरिति वाक्यशेषः।
तथा।
सोपानको न चोष्णीषी पर्य्यङ्कासनयानगः।
दुर्देशे प्रपदंश्चैव नाचामन्76 शुद्धिमाप्नुयात्॥
नरगोवरयानाम्वहस्त्यधी रोहकस्तथा77।
आचान्तःकर्म्मशुद्धः स्यात्ताम्बूलौषषजधिकृत।
भुक्तासनस्थोऽप्याचामेन्नान्यकाले कदाचन।
न पादुकस्थो न त्वरितो न चायज्ञोपवीतवान्॥
साङ्ख्यायनः।
दानमाचमनं होमं भोजनं देवतार्च्चनम्।
प्रौढपादो न कुर्व्वीत स्वाध्यायं पितृतर्पणम्॥
आसनारूढपादस्तु जानुनोर्वाथ जङ्घयोः।
कृतावसक्थिको78 यश्च प्रौढपादः स उच्चते॥
स्पृशन्ति विन्दवः पादौ य आचामयतः परान्।
भौमिकैस्ते समा ज्ञेया न तैरप्रयतो भवेत्॥
परेषामाचमनायोदके दीयमाने ये विन्दवः पादयोः पतन्ति तैर्नाशद्ध इत्यर्थः।
इत्याचमनविधिः।
अथ प्रातः स्नानम्।
तत्र मार्कण्डेयपुराणे।
अस्त्रातस्य क्रियाःसर्व्वा भवन्ति ह्यफला यतः।
प्रातः समाचरेत्सानं तच्च नित्यमिति स्मृतम्॥
प्रातःस्त्रानं मन्त्रवर्जं मध्याह्णेमान्त्रिकी विधिः।
नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्य्याहेवर्षिपितृतर्पणम्॥
योगीश्वरः।
स्नानमब्दैवतैर्स्मन्त्रैर्मार्ज्जनंप्राणसंयमः।
सूर्य्यस्य चाप्युपस्थानं गायत्र्याःप्रत्यहं जपः॥
योगियाज्ञवल्क्यः।
प्रातर्मध्याह्नयोः स्रानं वानप्रस्थगृहस्थयोः।
यतेस्त्रिसवनं स्रानं सकृत्तु ब्रह्मचारिणः॥
वानप्रस्थस्य कालद्वये स्नानं ब्रह्मचारिणच्च सकृत्स्नानमशविषयम्। अतएव
याज्ञवल्क्यः।
दान्त79 स्त्रिसवननायी निवृत्तश्च प्रतिग्रहादिति।
स्मृतिसंग्रहे।
स्नायात्प्रातश्च मध्याह्नेब्रह्मचारी तथा गृहीति।
शङ्खः।
प्रातःस्रानं प्रशंसन्ति दृष्टादृष्टकरं हि तत्।
सर्व्वमर्हति शुद्धात्माप्रातःस्त्रायी जपादिकम्॥
दृष्टं मलापनयनादङ्गशुद्धिः। अदृष्टं नित्यत्वेन पापक्षयः।
अलक्ष्मीःकालकर्णी च दुःस्वप्नाद्दुर्विचिन्ततम्।80
याम्यं हि पातनाद्दुःखं नित्यस्नायी न पश्यति81॥
कालकर्णी दुःसहदुःखिता।
नित्यस्नानेन पूयन्ते अपि पापकृतो नराः॥
कात्यायनः।
यथाहनि तथा प्रातर्नित्यं स्नायादनातुरः।
दन्तान् प्रक्षाल्य नद्यादौ गेहे च तदमन्त्रवत्॥
अमन्त्रवदिति प्रातःस्राने न सर्व्वमन्त्रनिषेधः। अपि तु मन्त्रबहुत्वनिषेधः। यतः
स एवाह।
अल्पत्वाहोमकालस्य बहुत्वात्मानकर्म्मणः।
प्रातर्न तनुयात्स्नानं होमलोयो विगर्हितः इति॥
दक्षः।
अत्यन्तमलिन कायो नवच्छिद्रसमन्वितः।
स्रवत्येव दिवारात्रौप्रातःस्नानं विशोधनम्॥
वामनपुराणे।
निषिच्य तीरङ्कुशपिञ्जलानि
पूर्व्वोत्तराग्राणि मृदं न्यसेच्च।
प्रक्षाल्य पादौ च मुखञ्च कण्ठे।
यज्ञोपवीतञ्च जलं पिवेत्त्रिः॥
कण्ठे यज्ञोपवीतमासज्येत्यध्याहारः।
एवं चैतदुक्तं भवति।
उपवीतं निवीतं कृत्वा प्रक्षालयेदिति।
त्रिर्जलं पिवेदाचामेदित्यर्थः।
कराभ्यां धारयेद्दर्भान् शिखाबन्धं विधाय च।
प्राणायामांस्तथा कुर्य्यात्कालज्ञानं यथाविधि॥
यथाविधि कालज्ञानं तिथिनक्षत्रादिज्ञानं कुर्य्यादित्यर्थः।
मृत्तिकान्तु त्रिधा कृत्वा भागेनैकेन लेपयेत्।
दक्षिणेनैव हस्तेन अष्टावेताननुक्रमात्॥
अष्टौ वक्ष्यमाणाः।ललाटमंसद्वयं हृदयं पृष्ठमुदरं कुक्षिचेत्यष्टौ विज्ञेयाः।
ललाटमंसौ हृत्पृष्ठमुदरञ्च सकुक्षिकम्।
ततो वामक्रमेणैव नाभिवस्त्युरुजङ्घकम्॥
दक्षिणादिक्रमेणैव चरणौ च त्रिभिस्त्रिभिः।
मृदा तृतीयभागेन करौ च त्रिः स मार्ज्जयेत्॥
इति तूष्णीं मृदा स्रानं कृत्वाचम्य जलं विशेत्।
नाभिमात्रे जले गत्वा कृत्वा केशान्द्विधा द्विजः॥
निरुद्वकर्णौनासाञ्च त्रिः कृत्वोन्मज्जनं ततः।
द्विराचम्याभिषेकञ्च कुर्य्यादष्टाक्षरेण तु॥
आयं गौरिति सूक्तेन द्विज आवर्त्तयेदपः।
जुम्बुकायेति मन्त्रेण विदध्यात्त्वघमर्षणम्॥
जुम्बुकायेति नायं नियमःअपि तु भाववृत्तादिसूक्तानामुपलक्षणार्थम्।
जपं द्वादशवारांस्तु महापापापनुत्तये।
अघमर्षणक्रियया धूतपापः समाहितः॥
ततो निमज्ज्य वारांस्त्रीस्ततस्तर्पणमारभेत्।
तर्पणमिति सानाङ्गतर्पणम्।
तथा तैत्तिरीयशाखायाम्।
ओं भूर्देवांस्तर्पयामि भुवो देवांस्तर्पयामि स्वर्देवांस्तर्पयामि।
भूर्भुवः स्वर्देवांस्तर्पयामि। एवं भूर्ऋषीस्तर्पयामि।
एवं भूः पितृृस्तर्पयामीत्यादि।
शङ्खः।
आब्रह्मस्तम्बपर्य्यन्तं जगत्तप्यत्विति क्रमात्।
जलाञ्जलित्रयं दद्यादेतत्संक्षेपतर्पणमिति॥
एवमेव माध्याहिकस्नानमपि विशेषस्त्वाह्निके प्रदर्श्यते।
अथ प्रातःसन्ध्या।
तत्र व्यासः।
प्रातःसन्ध्यां सनक्षत्रां मध्यमां स्नानकर्म्मणि।
सादित्यां पश्चिमां सन्ध्यामुपासीत यथाविधि॥
मध्यमां स्नानकर्म्मणीति माध्याह्णिकमाने जाते इत्यर्थः।
सन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हःसर्व्वकर्म्मसु।
स यद्यत्कुरुते कर्म्म न तस्य फलभाग्भवेत्॥
संवर्त्तः।
अथाचम्य कुशैर्युक्त आसने समुपस्थितः।
करसंपुटकं कृत्वा सन्ध्यां नित्यं समारभेत्॥
नत्वा तु पुण्डरीकाक्षमुपात्तावप्रशान्तये।
ब्रह्मवर्च्चसकामार्थं प्रातः सन्ध्यामुपास्महे॥
इत्थं कृत्वा तु सङ्कल्पं कुशानादाय पाणिना।
नद्यां नद्युत्तोयैस्तु गृहे वामकरे स्थितैः॥
चिभिर्व्याहृतिमन्तैस्तु प्रत्येकं मिलितैश्च तैः।
गायत्र्याच ततः कुर्य्यादभिषेकन्तु तज्जलैः॥
आर्यच्छन्दोदैवतञ्च विनियोगविधिं स्मरेत्।
आवाहनञ्चगायत्र्याःप्राणायामं समभ्यसेत्।
गायत्रीं त्र्यक्षरां बालां साचसूत्र कमण्डलुम्॥
त्र्याक्षरांप्रणवात्मिकाम्।
रक्तवस्त्रां चतुर्व्वक्तां हंसवाहनसंस्थिताम्।
ब्रह्माणीं ब्रह्मदैवत्यां ब्रह्मलोकनिवासिनीम्॥
आवाहयाम्यहं देवीं गायत्रींसूर्य्यमण्डलात्।
ओङ्कारस्य ब्रह्म ऋषिर्देवोऽग्निस्तस्य कथ्यते॥
गायत्री च भवेच्छन्दो नियोगः सर्व्वकर्म्मसु।
त्रिमात्रस्तु प्रयोक्तव्य आरम्भे सर्व्वकर्मणाम्॥
व्याहृतीनाञ्च सर्व्वासामार्षञ्चैव प्रजापतिः।
गायत्र्यष्णिगनुष्टबुवृहती त्रिष्ट्ववेव च॥
पंक्तिश्च जगती चैव छन्दांस्येतानि सप्त वै।
अग्निर्वायुस्तथा सूर्य्योवृहस्पतिरपांपतिः॥
इन्द्रश्चविश्वेदेवाश्च देवताःसमुदाहृताः।
प्राणस्यायमने चैव विनियोग उदाहृतः॥
भूर्लोकं पादयोर्न्यस्य भुवर्लोकन्तु जानुनोः।
स्वर्लोकं गुह्यदेशे तु नाभिदेशे महस्तथा॥
जनलोकन्तु हृदये कण्ठदेशे तपस्तथा।
भ्रुवोर्ललाटसन्धौ तु सत्यलोकं प्रतिष्ठितम्॥
सविता देवता यस्या मुखमग्नित्रयात्मकम्।
विश्वामित्र ऋषिश्छन्दोगायत्री सा विशिष्यते।
जपहोमोपनयने विनियोगो विधीयते॥
व्यासः।
ओं भूर्विन्यस्य हृदये भुवः शिरसि विन्यसेत्।
स्वरितीदं शिखायान्तु गायत्रयाः प्रथमं पदम्॥
विन्यसेत्कवचेनैव द्वितीयं नेत्रयोर्न्यसेत्।
तृतीयेनास्त्रविन्यास एष न्यासोऽथ नाशनः॥
या सन्ध्या सा च गायत्री त्रिधा भूत्वा व्यवस्थिता।
पूर्व्वा भवेत्तु गायत्री सावित्री मध्यमा स्मृता॥
या भवेत्पश्चिमा सन्ध्या सा च देवी सरस्वती।
आगच्छ वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायत्रीच्छन्दसां मातर्ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥
कात्यायनः।
भूर्भुवः सुवरित्यापः82अभिमन्त्र्या परिक्षिपेत्। रक्षार्थमिति शेषः।
अथ प्राणायामः।
तत्र योगीश्वरः।
सव्याहृतिकां सप्रणवां गायत्रीं शिरसा83 सह।
त्रिः पठेदायतप्राणः प्राणायामः स उच्चते॥
गायत्रीशब्दनिरुक्तिमाह व्यासः।
गायन्तं त्रायते यस्माद्गायत्री त्वं ततः स्मृतेति।
मार्कण्डेयपुराणे।
प्रथमं साधनं कुर्य्यात्प्राणायामस्य योगवित्।
प्राणापाननिरोधस्तु प्राणायाम उदाहृतः॥
लघुमध्योत्तरीयाख्यः प्राणायामस्विधोदितः।
तस्य प्रमाणं वक्ष्यामि तदलर्क84 श्रृणुष्व मे॥
लघु द्वादशमावस्तु द्विगुणः स तु मध्यमः।
त्रिगुणाभिस्तु मात्राभिरुत्तरः स उदाहृतः॥
विष्णुपुराणे।
प्राणाख्यमनिलं वश्यमभ्यासात्कुरुते तु यः।
प्राणायामः स विज्ञेयः सवीजोऽवीज एव वा॥
पूरकःपूरणं वायोःकुमकःस्थापनं क्वचित्।
वहिर्निःसारणं तस्य रेचकः परिकीर्त्तितः॥
सवीजो ध्यानजपसहितः सगुणोपास्तिः। अवीजो निर्गुणोपासनं तच्च परमहंसविषयम्।
यथाह पराशरः।
सालम्बा भगवन्मूर्त्तिः स्थूलं रूपं द्विजोत्तम।
अनालम्बमनन्तस्य योगिनोऽभ्यासतःस्मृतम्॥
इड़या कर्षयेद्वायुं वाह्यात् षोड़शमात्रया।
धारयेत्पूरितं योगी चतुःषष्ट्यातु मात्रया॥
सुषुम्ना मध्यमं सम्यग्दात्रिंशन्मात्रया शनैः।
नाड्या पिङ्गलया चैनं रेचयेद्योयोगविग्रहात्॥
व्यासः।
अङ्गुष्ठेन पुटं ग्राह्यं नासाया दक्षिणं पुनः।
कनिष्ठानामिकाभ्यान्तु वामं प्राणस्य संग्रहे॥
अङ्गुष्ठतर्ज्जनीभ्यान्तु ऋग्वेदी सामगायनः।
अङ्गुष्ठानामिकाभ्यान्तु ग्राह्यः सर्वैरथर्व्वभिः॥
मनुः।
प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत्कृताः।
व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः॥
प्राणायामत्रयं कार्य्यसन्ध्यासु च तिसृष्वपि।
प्राणस्यायमनं कृत्वा आचामेत्प्रयतोऽपि सन्।
अन्तरं स्विद्यते यस्मात्तस्मादाचमनं स्मृतम्॥
अथमार्ज्जनम्।
योगियाज्ञवल्क्यः।
आपोहिष्ठेति तिसृभिः ऋग्भित प्रयतः शुचिः।
नवप्रणवयुक्ताभिर्जलं शिरसि निःक्षिपेत्॥
प्रतिपादमादौ प्रणव उच्चार्य्यमाणेऋक्त्रयेऽपि नव प्रणभवन्तीति नवप्रणवयुक्तत्वं भवति।
ब्रह्माण्डपुराणे।
नद्यां वाथ ह्रदे वाथ भाजने मृण्मयेऽथवा।
औडुम्बरे च सौवर्णे राजते दारवे जलम्।
कृत्वाथ वामहस्ते वा सन्ध्योपास्तिं समाचरेत्85॥
एवञ्च वामहस्तोदक सन्ध्यानिषेधवचनानि पात्रान्तरससावकाशानि।
द्वैपायनः।
दत्त्वा चाभिमुखं तोयं मूर्द्धिब्रह्ममुखेन तु।
आपो हिष्ठेति सूक्तेन दर्भैर्मार्ज्जनमाचरेत्॥
यस्य क्षयायेति जलं सकुशं प्रक्षिपेत्त्वधः।
नारायणः।
ऋगन्ते मार्ज्जनं कुर्य्यात्पादान्ते वा समाहितः।
आपो हिष्ठेत्यृचं का मार्ज्जनञ्च कुशोदकैः॥
प्रतिप्रणवयुक्तञ्च क्षिपेन्मूर्द्ध्नि पदे पदे।
ऋचस्यान्तेऽथवा कुर्य्यादृषीणां मतमीदृशम्॥
आपोहिष्ठेति सूक्तस्य सिन्धुदीप ऋषिः स्मृतः।
आपो वै देवता च्छन्दो गायत्री मार्ज्जनंस्मृतम्॥
मार्ज्जने तीर्थविशेषमाह हारीतः।
मार्ज्जनार्च्चनबलिकर्म्मभोजनानि दैवतीर्थेन कुर्य्यादिति।
एवं मार्ज्जनं कृत्वा सूर्यवेत्यपःपिवेत्।
शौनकः।
सायमग्निश्च मेत्युक्त्वा प्रातः सूर्य्यत्यपः पिवेत्।
आपः पुनन्तु मध्याह्ने एतैश्चाचमनं चरेत्॥
तत्र सूर्य्यञ्च मा मन्युश्च इत्यस्य मन्त्रस्य प्रकृतिच्छन्दः अग्निऋषिः मन्युमन्युपतिराजयो देवताः प्रातःसन्ध्याचमने विनियोगः। केचन नारायणार्ष त्रैष्टुभं छन्द्य मन्यन्ते। अग्निश्च सूर्यश्चेति यजुर्व्वेदिकीमन्त्री।
बौधायनोऽपि।
अथातः सन्ध्योपासनविधिं व्याख्यास्यामः। तीर्थं गत्वा प्रयतोऽभिषिक्तः प्रक्षालितपाणिपाद अप आचम्य अग्निश्च मामन्युश्चेति सायमपः पीत्वा सूर्य्यश्च मा मन्युश्वेति प्रातरपः पीत्वा सपवित्रेण पाणिना सुरभि मदब्लिङ्गाभिर्वारुणीभिर्हिरण्यवर्णाभिः पावमानीभिर्व्याहृतिभिरन्यैश्च प्रोक्ष्यवित्रैरात्मानं प्रोक्ष्य प्रयतोभवतीति।
सुरभिमती दधिक्रावृमिति। अस्या वामदेव्य ऋषिरनुष्टुप्छन्दः दधिक्रावा देवता मार्जने विनियोगः।—अब्लिङ्गाभि-
रापोहिष्ठीयाभिः। हिरण्यवर्णाभिः, हिरण्यवर्णाः शुचययासां राजा यासां देवा शिवेन माचक्षुषा इति चतसृभि आसां त्रिष्टुप् छन्दः। अग्निऋषिःआपो देवता मान विनियोगः। केचनात्र ऋषिं कश्यपं मन्यन्ते। पावमानी स्वादिष्टयेत्यादिभिः पावमानीनां बहुत्वादृषिच्छन्दोदेवतान भिन्नत्वाद्विस्तरभयान्नोक्ता। तत्स्वरूपं छन्दोगानान्तु सन्ध्यामने गौतमोक्तौ मन्त्रौ द्रष्टव्यौ।अहश्च मादित्यश्च पुनात्वि प्रातः रात्रिश्च मा वरुणञ्च पुनात्विति सायमिति।प्रजापतिदृष्टौ लिङ्गोक्तदैव च।
सन्ध्याचमनानन्तरं नारायणः।
स्पृष्ट्वा चाभिप्लुतं तोयं मूर्ध्नि ब्रह्ममुखेन तु।
आपोहिष्ठेति सूक्तेन दर्ब्भैर्मार्ज्जनमाचरेत्॥
स्पृष्ट्वाआचम्य ब्रह्ममुखं मनुनोक्तम्।
ओङ्कारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्ययाः।
त्रिपदा चैव गायत्री विज्ञेयं ब्रह्मणो मुखमिति॥
सूक्तऋक्संख्या दिकमाह भृगुः।
आपो हिष्ठानवस्वृक्षु सिन्धुद्वीप ऋषिः स्मृतः।
अन्दैवत्यासु सप्तर्च्च्योगायत्र्योदे त्वनुष्टुभाविति॥
मार्ज्जनानन्तरं ब्रह्मा।
जलपूर्णं तथा हस्तं नासिकाग्रे समर्पयेत्।
ऋतञ्चेति पठित्वा तु तज्जलन्तु चितौ चिपेत्॥
यमः।
गृहीत्वा पाणिना वारि स्वशाखोक्तामृचं जपेत्।
बिभृयात्रासिकाग्रे तु निरुध्य प्राणमारुतम्॥
य एवं द्रुपदां नित्यं त्रिरह्नःप्रयतो जपेत्।
न च तिष्ठन्ति पापानि तस्य देहे दिजन्मनः॥ इति।
ऋतञ्च सत्यञ्चेति सूक्तं त्र्यृचमघमर्षण्टृष्टम्।द्रुपदादिव मुमुचान इति द्रुपदाः। अस्या कोकिलीराजपुत्त ऋषिः आपो देवता अनुष्टप् छन्दः। ततः सूर्य्यार्ध्यंनिवेदयेत्।
व्यासः।
कराभ्यां तोयमादाय गायत्र्या चाभिमन्त्रितम्।
आदित्याभिमुखस्तिष्ठंस्त्रिरूर्द्धं सन्ध्ययोः क्षिपेत्।
मध्याह्णेतु सकृदेव क्षेपणीयं द्विजातिभिः॥
अर्घ्यदाने मन्त्रान्तरमाह नारायणः।
कराभ्यामञ्जलिं कृत्वा जलपूर्णं समाहितः।
उदुत्यमिति मन्त्रेण तत्तोयन्तु क्षिपेत्ततः॥
इति शाखानुसारेण व्यवस्था ।
उदकक्षेपणे कारणमाह काश्यपः।
त्रिंशत्कोट्योमहावीर्य्यामन्देहा नाम राक्षसाः।
कृष्णातिदारुणा घोराः सूर्य्यमिच्छन्ति खादितुम्॥
ततो देवगणाः सर्व्वेऋषयश्च तपोधनाः।
उपासते सदा सन्ध्यां प्रतिपन्त्युदकाञ्जलिम्॥
दह्यन्ते तेन ते दैत्या वज्रीभूतेन वारिणा।
एतस्मात्कारणाद्विप्राः सन्ध्या नित्यमुपासते॥
ततः प्रदक्षिणमावृत्य जलं स्पृशेत्।
तथाच भविष्यपुराणम्।
सायं मन्त्रवदाचम्य प्रोक्ष्यसूर्य्यस्य चाञ्जलिम्।
दत्त्वा प्रदक्षिणं कृत्वा जलं स्पृष्ट्वा विशुध्यति॥
सार्यामित्युपलक्षणं सूर्य्यार्घ्यदानरूपनिमित्तस्य सर्व्वत्र विमानत्वात्।
श्रुतिरपि।
यत्प्रदक्षिणं प्रक्रमन्ति तेन पाप्मानवधुन्वन्तीति।86
अथ सूर्य्योपस्थानम्।
तत्र काश्यपः।
हस्ताभ्यां स्वस्तिकं87 कृत्वा प्रातस्तिष्ठेद्दिवाकरम्।
मध्याह्णेतु ऋजू बाहू सायं मुकुलितौ करो॥
देवलः
मित्रस्य चर्षणी तिस्रो वसवस्वेति चोदये।
इमं मेति88 चतुष्केण सायं कुर्य्यादुपस्थितिम्॥
व्यासः।
सन्ध्यात्रयेऽप्येकमेव उपस्थानं प्रचक्ष्यते।
उद्वयं89 उदुत्यं90 चित्रं91 तच्चक्षु92स्तिष्ठेद्दिवाकरम्॥
एतच्चोपस्थानं प्रातर्जपानन्तरमेव कार्य्यम्।
तदुक्तं कूर्म्मपुराणे।
ओङ्गारव्याहृतियुतां गायत्रींवेदमातरम्।
कृत्वा जलाञ्जलिं दद्याद्भास्करं प्रति जन्मना93॥
वेदमातरमुच्यार्येत्यध्याहारः। जन्मना दिजन्मना
ध्यात्वार्कमण्डलगतां सावित्रों वै जपेद्वुषः।
अथोपतिष्ठेदादित्यमुद्यन्तं94तं समाहितः॥ इति।
अथ जपः।
तत्र व्यासः।
तेजोसीति च मन्त्रेण गायत्रीमावहेद्विजः।
उपस्थाय तुरीयेण नमस्कृत्य जपेच्च ताम्॥
योगियाज्ञवल्क्यः।
ओसारपूर्व्वमुच्चार्य भूर्भुवः स्वस्तथैव च।
गायत्रीं प्रणवञ्चान्ते जपोह्येष उदाहृतः॥
गायत्र्या विश्वामित्र ऋषिःसविता देवता गायत्रीच्छन्दःज विनियोगः।
ध्यायेच्च मनसा मन्त्रं जिह्नौठौ न विचालयेत्।
न कम्पयेच्छिरोग्रीवां दन्तात्रैव प्रकाशयेत्॥
मध्यमादिद्वयं पर्व्व जपकाले तु वर्ज्जयेत्।
एवं मेरुं विजानीयाद्दूषितं ब्रह्मणा स्वयम्॥
विश्वतश्चक्षुरिति मन्त्रेण जपान्ते भास्करं दिजः।
कुर्य्यात्प्रदक्षिणञ्चैव उपविश्यासने ततः॥
देवागातुविदो मन्त्रात्कुर्य्याज्जपविसर्जनम्।
प्रातःसन्ध्याङ्गभूतेन गायत्र्या जपितेन च।
यथासङ्घ्येन जप्येन ब्रह्मा मे प्रीयतां रविः॥
उत्तरे शिखरे जाता भूम्यांपर्वतवासिनी।
ब्राह्मणैः समनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखमिति॥
अकृतसन्ध्यस्य सूर्य्योदये सति प्रायश्चित्तं स्मर्य्यते।
आदित्योऽभ्युदियाद्यस्य सन्ध्योपास्तिमकुर्व्वतः।
स्नात्वा प्राणांस्त्रिरायम्य गायत्र्याष्टमतं जपेत्॥
प्राणायामवयं कृत्वेत्यर्थः।
अथ मध्यासन्धप्रायां सौकर्य्याय विशेषःकथ्यते।
सङ्गल्यावाहनाचमनोपस्थानजपनिवेदनेषु।
तद्यथा। यथोक्तफलप्राप्तये माध्याह्निकींसन्ध्योपास्तिमहं करिष्ये। इति सङ्कल्प्य।
सावित्री युवतीं शुक्लां शुक्लवस्त्रां त्रिलोचनाम्।
त्रिशूलहस्तां वृषभाधिरूढ़ां रुद्राणींरुद्रदैवताम्॥
यजुर्व्वेदकृतोत्सङ्गां जटामुकुटमण्डिताम्।
कैलाशविहितावासामायान्तीं सूर्य्यमण्डलात्।
वरदां त्र्यक्षरां साक्षाद्देवीमावाहयाम्यहम्।
त्र्यक्षरां प्रणवात्मिकाम्। इत्यावाहनम्।
आपःपुनन्त्वित्याचमनमन्त्रः।
अस्य नारायण ऋषिरापो देवता अनुष्टुप् छन्दस्त्वाचमने विनियोगः। एकाञ्जलिं प्रक्षिपेत्। ऊर्द्धबाहुःसूर्य्यमुदीचमाणः उपतिष्ठेत्। उपस्थानमन्त्रशेषः स्मृत्यन्तरे प्रदर्शितः।
गायत्र्या च यथाशक्त्या उपस्थाय दिवाकरम्।
विभाड़ित्यनुवाक्येन सूक्तेन पुरुषस्य च॥
शिवसङ्कल्पेन तथा मण्डलब्राह्मणेन च।
पवित्रैविविधैश्चान्यैर्गुह्योपनिषदैस्तथा।
जपयज्ञो हि कर्त्तव्यः सर्व्ववेदप्रणीतकैः॥
इति स्वस्वशाखाभिप्रायमुपस्थानं स्वकैर्मन्त्रैरादित्यस्य तु कारयेदिति वशिष्ठस्मरणात्।
मध्याह्णसन्ध्याङ्गत्वेन गायत्र्या जपितेन च।
यथासंख्येन जप्येन रुद्रा मे प्रीयतामिति॥
अथ क्रमप्राप्तसायंसन्धप्राविशेषः।
सङ्कल्पावाहनाचमनोपस्थानजपनिवेदनेषु।
उपात्तदुरितक्षयार्थं ब्रह्मप्राप्त्यैसायंसन्ध्योपासनमहं करिष्ये।
वृद्धां सरस्वतींकृष्णां पीतवस्त्रां चतुर्भुजाम्।
शङ्खचक्रगदापद्महस्तां गरुड़वाहनाम्॥
वदर्य्याश्रमवासान्तामायान्तों सूर्य्यमण्डलात्।
सामवेदवकृतोत्सङ्गां वनमालाविभूषिताम्।
वैष्णवीं त्र्यक्षरींशान्तां देवीमावाहयाम्यहम्॥
अग्निश्च मेति नारायण ऋषिःअग्निर्देवता अनुष्टुप् छन्द आचमने विनियोगः। इमं मे वरुण श्रूधीति चतसृभि उपस्थानम्। अवशिष्टोपस्थानं प्रातर्व्वत्।
सायंसन्ध्याङ्गभूतेन गायत्र्याजपितेन च।
यथासंख्येन जप्येन विष्णुर्मे प्रीयतामिति॥
नोदकस्थो जपेत्प्राज्ञो गायत्रीं वेदमातरम्।
अग्नित्रयमुखी95 यस्मात्तस्मादुत्थाय तां जपेत्॥
उत्थायेति न सायंसन्ध्याविषयम्।
जपन्नासीत सावित्रीं प्रत्यगातारकोदयात्।
इति याज्ञवल्कास्मरणात्। मध्याह्णेतु योगियाज्ञवल्क्योक्तं विशेषः।
तिष्ठंश्चेद्वीक्षमाणोऽर्कंजपं कुर्य्यासमाहितः।
अन्यथा प्राङ्मुखः कुर्य्यादिति।
अथ जपसंख्याविधिः।
तत्र मनुः।
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च शतमष्टोत्तरं जपेत्।
वानप्रस्थो यतिश्चैव द्विसहस्राधिकं जपेत्॥
योगियाज्ञवल्क्यः।
पूर्व्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमर्कदर्शनात्।
पश्चिमान्तु समासीनःसम्यगृक्षविभावनात्॥
यक्षराक्षसभूतानि सिद्धविद्याधरोरगाः।
हरन्ति प्रसभं यस्मात्तस्मादप्तं सुकारयेत्॥
न चङ्ग्रमन्त्र च हसत्र पार्श्वमवलोकयन्।
उपातिन कुड्यादीन्न नग्नः प्रयतो नरः॥
नाबाश्रितो96न जल्पंश्च न प्रावृतशिरा97 स्तथा।
न पदा पदमाक्रम्य न चैव हि तथा करो।
न चासमाहितमना न च संश्रावयञ्जपेत्॥
वृहस्पतिः।
मनःसंहरणं शौचं मौनं मन्त्रार्थचिन्तनम्।
अव्यग्रत्वमनिर्व्वेदो98 जपसम्पत्तिहेतवः॥
न क्लिन्नवासाःस्थलगो जपादीनाचरेद्बुधः।
जपकाले न भाषेत स्रानहोमादिकेषु च॥
तूष्णीमासीत च जंपश्चाण्डालपतितादिकान्।
दृष्ट्वा तान्नद्युपस्पृश्याभाष्य स्नात्वा विशुध्यति॥
विधियज्ञाज्जपयज्ञो99 विशिष्टो दशभिर्गुणैः।
उपांशःस्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥
विना शब्दं जपो यस्तु चलज्जिह्वाद्विजच्छदः100।
उपांशुं तं जपं प्राहुर्मनसा मानसं बुधाः॥
वशिष्ठः।
मानसः शान्तिको जप्य उपांशःपौष्टिकः स्मृतः।
सशब्दश्चाभिक्षाराय त्रिविधो जप उच्यते॥
गृहे तु प्राकृती सन्ध्या गोष्ठे दशगुणा भवेत्।
नदीषु शतसाहस्रा अनन्ता शिवसन्निधौ॥
प्राकृती यथावस्थिता नाधिकफलेति यावत्।
शातातपः।
अनृतं मद्यगन्धञ्च दिवामैथुनमेव च।
पुनाति वृषलस्यान्नंसन्ध्या वहिरुपासिता॥
ब्रह्मपुराणे।
अङ्गुष्ठेन जपन्मोक्षंतर्ज्जन्यामाभिचारिकम्।
मध्यमा धनसम्पत्तिः शान्तिः पुष्टिरनामिका॥
स्कन्दपुराणे।
सौवर्णं राजतं ताम्रंस्फाटिकं रत्नजं तथा।
अरिष्टं101 पुत्र्यजीवंञ्च102। शङ्खं पद्मं तथा मणिम्।
कुशग्रन्थिञ्च रुद्राक्षमुत्तमं चोत्तरोत्तरम्॥
ब्रह्मपुराणे।
अक्षुणा समरन्ध्रा च परिपूर्ण दृढ़ा नवा।
निखिला ग्रथिताव्यङ्गा अन्योऽन्यं सृष्टिवर्ज्जिता॥
सशब्दा चञ्चला या तु चुटिता ग्रथिता तु या।
भिन्नसूत्रेण ग्रथिता पाषण्डस्य पुरातनी॥
पाषण्डस्य पाषण्डसम्बन्धिनीत्यर्थः।
माला दुःखप्रदायिन्यो ग्रथिता निन्द्यतन्तुभिः।
अष्टोत्तरशती कार्य्या चतुःपञ्चाधिकाथवा।
सप्तविंशतिका कार्य्याततो नैवाधमाहिता॥
उमासंवादे।
उच्छिष्टो वा विकर्म्मस्थःसंलिप्तः सर्व्वपातकैः।
नासौ लिप्यति पापेन रुद्राक्षस्य तु धारणात्॥
लक्षन्तु स्पर्शने पुण्यं कोटिर्भवति चालनात्।
दशकोटिसहस्राणि धारणाल्लभ्यते फलम्॥
लक्षकोटिसहस्रस्य लक्षकोटिशतस्य च।
जपे तु लभ्यते पुण्यं नात्र कार्य्या विचारणा॥
योगियाज्ञवल्क्यः।
अभावे त्वक्षमालायाः कुशग्रन्थया च पाणिना।
जप एव हि कर्त्तव्य एकाग्रमनसा सदा॥
पाणिरेखाभिः परिगणनाप्रकारमाह
स एव।
अनामिकामध्यरेखामादिं कृत्वा क्रमेण तु।
तर्ज्जन्यादिगतान्ते च अक्षमाला करे स्थिता।
अस्यार्थः।
अनामिकामध्यरेखामादिं कृत्वा तदधःक्रमेण प्रदक्षिणावर्त्ततर्ज्जन्यादिरेखा अन्ते कर्त्तव्या इयं करस्थिता अक्षमाला भवतीति।
मध्यमादिद्वयं पर्व्व जपकाले तु वर्ज्जयेत्।
एतम्मेरुं विजानीयादृूषितं ब्रह्मणा स्वयम्॥
तर्ज्जन्या न स्पृशेत्सूत्रं न कम्पेन्न विधूनयेत्।
अङ्गुष्ठस्य तु मध्यस्थं परिवर्त्तंसमाचरेत्॥
नार्द्र
वासा जपं कुर्य्याद्धोमं दानं प्रतिग्रहम्।
सर्व्वं तद्राक्षसं ज्ञेयं वहिर्जानु च यत्कृतम्॥
अङ्गुष्ठाग्रेण यज्जप्तं यज्जप्तं मेरुलङ्घितम्।
असंख्यातं तु यज्जप्तं तत्सर्व्वं निष्फलं भवेत्॥
यमः।
जातके मृतके वापि सन्ध्याकर्म्म न सन्त्यजेत्।
मनसोच्चारयेन्मन्त्रान् प्राणायामं विवर्जयेत्॥
योगीश्वरः।
सन्ध्यां स्नानं त्यजन्विप्रः सप्ताहाच्छूद्रतां व्रजेत्।
तस्मात्सन्ध्याञ्च स्नानञ्च सूतकेऽपि न सन्त्यजेत्॥
शिव्रविष्ण्वर्च्चनं दीक्षा यस्य चाग्निपरिग्रहः।
श्रोतकर्म्माणि कुर्वीत स्रातः शद्धिमवाप्नुयात्॥
सहस्रकत्वस्तु वहिर्जपनेतत्त्रिकं द्विजः।
महतोऽप्येनसो मासात्त्वचेवाहिर्विमुच्यते॥
योऽधीते चान्वहं चेतां त्रीणि वर्षाणि मानवः।
स ब्रह्मपद103मभ्येति वायुभूतः खमूर्त्तिमान्॥
एतदक्षरमेताञ्च जपन् व्याहृतिपूर्व्विकाम्।
सन्ध्ययोरुभयोर्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते॥
सप्तावर्त्तात्पुनात्येषा दशभिः प्राप्नुयाद्दिवम्।
विंशावृत्त्या तु सा देवी नयते ईश्वरालयम्॥
अष्टोत्तरशतं जप्त्वातारयेज्जन्मसागरात्।
सर्वेषाञ्चैव पापानां सङ्गरे समुपस्थिते॥
दशसाहस्रिकोऽभ्यासो गायत्र्याःशोधनं परम्104।
वायुभक्षौदिनं तिष्ठेद्रात्रिं नीत्वा तु सूर्य्यदृक्105॥
जप्त्वासहस्रं गायत्र्याःशुचिर्ब्रह्मवधाट्टते।
न गायत्र्यासमोमन्त्रो न जपो वैदिकात्परः॥
वासुदेवात्परो देवो नेति व्यासः समब्रवीत्।
अथोपाकर्म्म।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
अध्यायानामुपाकर्म्म श्रावण्यां श्रवणेन वा।
हस्तेनौषधिभावे वा पञ्चम्यां श्रावस्तु तु॥
अधीयन्त इत्यध्याया वेदाः। तेषां संस्कारकं कर्म्मोपाख्यं ततश्रावण्यांश्रावणस्य पौर्णमास्यां कार्य्यं चन्द्रमसायुक्तं श्रवण नक्षत्रं यस्यां सा श्रावणी। श्रवणेन वा श्रवणेन युक्तेऽहनि व हस्तेन युक्तायां पञ्चम्यां वा उपाकर्म्म कार्य्यम्। अन्येन तु हस्तेन युक्तेऽहनि वा पञ्चम्यां वेति व्याचक्ष्यते। अथवा श्रवणशब्दा सप्तम्यर्थे एन प्रत्ययः। एवं हस्तादपि श्रवणे नक्षत्रे हस्ते नक्षत्रं इत्यर्थः। ओषधिभावः ओषधीनां व्रीहिप्रभृतीनां प्रादुर्भाव अङ्कुरोदय इति यावत् एतच्च विशेषणं श्रावणस्येति च सर्व्वैसम्बध्यते। यदा त्वौषधिप्रादुर्भावाभावो
ग्रहसंक्रान्त्यादिदोषो
वा स्यात्तदा भाद्रपदपौर्णमास्यादिषु कार्यम्।
तथाच मनुः।
श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासादिप्रोऽर्द्धपञ्चमात्॥
अर्द्धः पञ्चमोमासो येषां ते तादृशः। उपाकर्मप्रभृति अर्द्धसहितांश्चतुरी मासान्।शुक्लकृष्णपक्षेतु खाध्यायदिने स्वाध्यायमधीयीतेत्यर्थः। एतच्च ग्रहणाध्ययनं गृहस्थस्थापि भवति।
यथाह शौनकः।
समावृत्तौ ब्रह्मचारिकल्पेन यथान्यायमितरे जायेोपेयीत्येक इति। इतरे ब्रह्मचारिणः106 जायोपेयी107। गृहस्थःअपिशब्दाद्भाद्रपदश्रवणहस्तपञ्चमीनामुपसंग्रहः।
तथा वह्वृचगृह्यपरिशिष्टकारिका।
अतृष्ट्यौषधयस्तस्मिन्मासेन तु भवन्ति चेत्।
तदा भाद्रपदे मासि श्रवणेन तदिष्यते॥
गोभिलः।
प्रौष्ठपदींहस्तेनोपाकरणम्।
प्रौष्ठपदींप्राप्य इत्यर्थः।
शौनकः।
तद्वार्षिकमित्येतदाचक्षत इति।
वर्षाकाले भवं वार्षिकम् \।
बौधायनः।
श्रावण्यां पौर्णमास्यामाषाढ्यांवोपाकृत्य छन्दांस धीयीतेति।
निगमः।
श्रावण्यां श्रावणीकर्म्म यथाविधि समाचरेत्।
उपाकर्म्म तु कर्त्तव्यं कर्कटस्थे दिवाकरे॥
हस्तेन शुक्लपञ्चम्यां श्रावण्यां वय श्रवणेन चेति।
अत्र स्वस्वगृह्यानुसारेण व्यवस्थेति साधारण निर्णयः। तत्रा ऋच्छाखिनां108 श्रवणे अपि। यजुःशाखिनां पौर्णमास्याम् तत्रापि तैत्तिरीयाणामौदयिके109पर्व्वणि इतरेषान्तु पूर्व्ववि पर्व्वणि सामगानान्तु हस्ते। अयञ्च निर्णयः श्रवणादि प्राधान्य निर्देशागम्यते। असति ग्रहसंक्रान्त्यादिरूपप्रतिबन् श्रावण मास्येव। तत्र प्रतिबन्धे प्रौष्ठपद्यामुभयत्रापि प्रति बन्धसद्भावे यदि स्वशाखायांशृङ्गग्राहिकतया110न निषेध स्तदा सर्व्वमाखाधिकरण न्यायेन कर्मण एकत्वात् बौधायनोक्तत्वेन पारक्यमविरोधवदिति111 वचनाञ्चाषायां पौर्णमास्यां यजुःशाखिनां भवति। बह्वृचानां सामगानां चाषाढ़
मासश्रवणहस्तनक्षत्रयोर्न भवति। कस्मिंश्चिदपि ऋच्छाग्द्धविशेषे112 सामशाखाविशेषे वा आषाढमासे विध्यदर्शनात् शिष्टपरम्परायामश्रुतत्वाञ्च कालवृह्वावप्युपाकर्म्मोत्कर्षोभवति।
यदाह कात्यायनः।
उत्कर्षःकालवृद्धौ स्यादुपाकर्मादिकमणि।
अभिषेकादिवृद्धीनां न तूत्कर्षो युगादिषु॥
यत्तु ऋष्यशृङ्गवचनम्।
दशहरासु नोत्कर्षश्चतुर्ष्वपि युगादिषु।
उपाकर्म्मणि चेति तच्छन्दोगविषयम्। यतः कालवृक्षावपि तेषां सिंहार्क एवोपाकर्म्म।
तथाच गार्ग्यः।
सिंह रवौ च पुष्पर्क्षे पूर्व्वाह्ने विचरेद्वहिः।
छन्दोगा मिलिताः कुर्य्यरुत्सर्गंस्वस्वच्छन्दमाम्113।॥
शुक्लपक्षे तु हस्तेन उपाकर्म्मपिराह्निकमिति।
सिंहे रवावुपाकर्म्म पुष्यर्क्षेउत्सर्ज्जनमित्यन्वयः।
अत्रेति कर्त्तव्यतामाह कार्ष्णजिनिः।
उपाकर्म्मणि चोत्सर्गे यथाकालं समेत्य च।
ऋषीन्दर्ब्भमयान् कृत्वा पूजयेत्तर्पयेत्ततः॥
वृहत्प्रचेताः
भवदुपाकृतिःपोर्णमास्यांववतु।
बाह्मणान् भोजयेत्तत्र पितृनुद्दिश्य देवताः॥
बौधायनः।
गीतमाहीनृषीन् सप्तकृत्वा दर्व्भमयान्पुनः।
पूजयित्वा यथाशक्ति पूजयेट्टचमृगेत्॥
गौतमादीनिति स्वम्वशाखोऋर्षिप्रदर्शनार्थंपूजयेट्टचमिति ऋषमृग्वेदं पूजयेत् तथा उत्पत्। एतज्ञवेदान्तरायणमपि प्रदर्शनार्थम्।
भविष्योत्तरपुराणे।
अप्राप्ते श्रावणस्यान्ते पौर्णमास्यां दिनोदये।
स्नानं कुर्व्वीतमतिमान् श्रुतिस्मृतिविधानतः॥
ततोदेवान् पितृृथैवतर्पयेत्परमाम्भमा।
उपाकर्म्मदिवेवोक्तमृषाणामैवतर्पणम्॥
कुर्व्वीत ब्राह्मणः श्राद्धंवेदादिश्य शक्तितः।
अप्राप्ते यावणस्यान्त इति शुक्लप्रतिपदादिमामाभिप्रायेण संप्राप्ते श्रावस्यान्त इत्यपि पाठः तदा कृष्णप्रतिपदादिमामाभिप्रायः॥ दिनोदयइति ओदविरूपचभिप्रायम्। एतम तैत्तिरीयाणामेव
तथाच बहुचपरिमिष्टकारिका।
मासश्रवणहस्तनक्षत्रयोर्न भवति। कस्मिंश्चिदपि ऋच्याखाविशेषे114सामशाखाविशेषे वा आषाढ़मासे विध्यदर्शनात् शिष्टपरम्परामतत्वाच्च कालवृद्धावप्युपाकर्म्मोत्कर्ष भवति।
यदाह कात्यायनः।
उत्कर्षःकालवृद्धौ स्यादुपाकर्म्मादिकर्म्मणि।
अभिषेकादिवृद्धीनां न तूत्कर्षो युगादिषु॥
यत्तु ऋष्यशृङ्गवचनम्।
दशहरासु नोत्कर्षश्चतुर्ष्वपि युगादिषु।
उपाकर्म्मणि चेति तच्छन्दोगविषयम्। यतः कालवृद्धावपि तेषां सिंहार्क एवोपाकर्म्म।
तथाच गार्ग्यः।
सिंहे रवौ च पुष्पर्क्षे पूर्व्वाह्णेविचरेद्वहिः।
कृन्दोगा मिलिताः कुर्य्यरुसर्गं स्वस्वच्छन्दसाम्115॥
शुक्लपक्षे तु हस्तेन उपाकर्म्मापराह्णिकमिति।
सिंहे रवावुपाकर्म्मं पुष्यर्क्षेउत्सर्ज्जनमित्यन्वयः।
अत्रेति कर्त्तव्यतामाह कार्ष्णीजिनिः।
उपाकर्म्मणि चोत्सर्गे यथाकालं समेत्य च।
ऋषीन्दर्ब्भमयान् कृत्वा पूजयेत्तर्पयेत्ततः॥
वृहत्प्रचेताः।
भवेदुपाकृतिःपौर्णमास्यां पूर्वाह्न एव तु।
बाह्मणान् भोजयेत्तत्र पितॄनुद्दिश्य देवताः॥
बौधायनः।
गौतमादीनृषीन् सप्त कृत्वा दर्ब्भमयान्पुनः।
पूजयित्वा यथाशक्ति पूजयेदृचमुच्चरेत्॥
गौतमादीनिति स्वस्वशाखोक्तर्षिप्रदर्शनार्थंपूजयेट्टचमिति ऋचमृग्वेदं पूजयेत्। तथा उच्चरेत् पठेत्। एतच्च वेदान्तराणामपि प्रदर्शनार्थम्।
भविष्योत्तरपुराणे।
अप्राप्ते श्रावणस्यान्ते पौर्णमास्यां दिनोदये।
स्नानं कुर्व्वीत मतिमान् श्रुतिस्मृतिविधानतः॥
ततो देवान् पितृृंश्चैव तर्पयेत्परमाम्भसा।
उपाकर्म्मदिवैवोक्तमृषीणञ्चैव तर्पणम्॥
कुर्व्वीत ब्राह्मणःश्राद्धं वेदानुद्दिश्य शक्तितः।
अप्राप्ते श्रावणस्यान्त इति शुक्ल
प्र
तिपदादिमासाभिप्रायेण। संप्राप्तेश्रावणस्यान्त इत्यपि पाठःतदा कृष्ण
प्रतिपदादिमासाभिप्रायः। दिनोदय इति औदयिकपर्व्वाभिप्रायम्। एतच्च तैत्तिरीयाणामेव।
तथाच बह्वृचपरिमिष्टकारिका।
पर्वण्यौदयिके कुर्य्युःश्रावण्यां तैत्तिरीयकाः।
बह्वृचः श्रावणे कुर्य्यर्ग्रहसंक्रान्तिवर्जि्जते॥ इति।
तैत्तिरीयव्यतिरिक्तैर्यजुःशाखीयैः पूर्व्वविदैव पौर्णमासी ग्राह्या।
श्रावणी दौर्गनवमी दूर्व्वाचैव हुताशनी।
पूर्व्वविधा तु कर्त्तव्या शिवरात्रिर्बलेर्दिनमितिस्मरणात्।
नत्वेतदनुपपत्रम्।औदयिके पर्व्वणि तैत्तिरीयका एव कुर्युरिति वक्तुमशक्यत्वात्। तथाहि श्रदायिकत्व विशेषणविशिष्टे पर्व्वणि यदुपाकर्म्म तदनुवादेन हि तैत्तिरीयकाः कर्त्तारो विधीयन्ते तथाच वाक्यभेदप्रसङ्गः। किञ्च ओदयकत्वस्याप्राप्तत्वादनुवादोऽपि न घटते। नापि तैत्तिरीयकरूपकर्त्तृविधिः न हि कर्मणि कर्तृविधानमपि तु कर्तुहकर्म्मं विधीयते। किञ्च वह्वृचगृह्य एवोपाकर्म्मणस्तकालन्य पौर्णमास्याश्च विधानादत्र कारिकायामङ्गस्य पौर्णमासीकालस्य औदयिकत्वसम्बन्धी विधेयः। तथाङ्गरूपकर्तॄणां तैत्तिरीयकाणामौदयिकत्वेनापरः सम्बन्धोविधेयः सम्बन्धद्वयस्याप्राप्तत्वात्। तथाच दुष्परिहरणीयो वाक्यभेदः प्राप्ते कर्म्मण्यनेकगुणविधानात् नचारुणैकहायनीन्यायेन पार्श्विकान्वयः116। कर्म्मणःप्राप्तत्वाद्दव्यगुणरूपत्वाभावाच्च। तत्र ह्यारुण्यं गुणो द्रव्यरूपगोद्वारा सोमक्रयणाय उपयुज्यते। अत्र तु
तैत्तिरीयकरूपकर्त्तरि औदयिकत्वं चेत्युभयं परस्परनिरपेक्षाङ्गम्। न च निरपेक्षयोर्गुणयोर्मिथः सम्बन्धःगुणानाञ्च परार्थत्वादसम्बन्धः समत्वात्स्यादिति सूत्रकारवचनात्। कर्त्तुश्च शेषत्वमुपदिष्टं117गुरुणा।
अधिकारी हि यज्ञेषु कर्त्तुःशेषस्य118 चिन्त्यत इति। तस्मात्तैत्तिरीयकपदं हविरुभयत्ववदुपलक्षकम्। ततएवानुवादः। तथाचौदयिकत्वमात्रं विधेयमिति। तैत्तिरीयकव्यतिरिक्तानामपि यजुःशाखिनामौदयिक एर्व्वण्युपाकर्म्मप्राप्तम्। श्रावणी दौर्गनवमीत्यस्य तु हिरण्यगर्ब्भपवित्रारोपणविषयः119। उपाकर्म्माङ्गभूतमाम्युद्धिकं श्रावणीकर्म्म चेति। एवं प्राप्तेऽभिधीयते। न तावद्विशिष्टानुवादे वाक्यभेदः। उद्देश्यविशेषणविवक्षायामेव वाक्यभेदो न तु विशिष्टोद्देशेनेति भवदेवेनोक्तत्वात्। यदुक्तमौदयिकत्वस्या-
प्राप्तत्वादनुवादो न घटत इति तदयुक्तम्। वाक्यान्तरेणौ-
दयिकपर्व्वप्राप्तेः।
तथाच भविष्योत्तरे।
संप्राप्ते श्रावणस्यान्ते पौर्णमास्यां दिनोदय इति।
वाक्यशेषस्तु पूर्व्वमेव दर्शितः।
तथा कालिकापुराणे।
चतुर्द्दश्यां समुत्पन्नावसुरौमधुकैटभौ।
वेदान् स्वीकुर्व्वतः पद्मयोनेस्तौ जह्रतुः श्रुतीः॥
हत्वा तावसुरौ देवः पातालतलवासिनौ।
आहृत्य ताः श्रुतीस्तस्मैददौ लोकगुरुः स्वयम्॥
स प्राप्तवान् श्रीनीर्ब्रह्मा पर्व्वण्यौदयिके पुनः।
अतो भूतयुते120 तस्मिन्नौपाकरणमिष्यते॥
असुखं वर्ज्जयेत्कालं वेदाहरणशङ्खया। इति।
तस्मात्।
पर्वण्यौदयिके कुर्य्युःश्रावण तैत्तिरीयकाः॥
इत्यत्र तैत्तिरीयककर्त्तृत्वमात्रं विधीयत इति न वाक्यभेदः। प्राप्ते कर्म्मणि गुणद्वयविध्यभावात्। न हि कर्म्मणि कर्त्तुर्विधानमिति चेत्। न अप्राप्तांशे विधिः। अत्र कर्त्तृविशेषस्याप्राप्तत्वादुपपद्यते अपित्वनुपादेयपञ्चकमध्यस्थत्वात् कर्म्मविधीयते कर्त्तुर्द्देशेनविधेःपर्य्यवसानं न तु कर्त्तृविशेषएव
अथवा विशिष्टविधिरेव कारिकायाम्। ननु गृह्ये उपाकर्म्मादीनां विहितत्वेन प्राप्तत्वात्कथं विशिष्टविधिः, उच्यते ग्रन्थकर्त्तृ भेदेन विशिष्ट विध्याश्रयणं न च कारिकाकारणोपाकर्मादि विहितम्। अन्यथा सर्वस्मृत्युच्छेदापत्तेः। न च
सर्वशाखा
धिकरणन्यायेन कर्मणः प्रधानस्यैकत्वाद्विशिष्टविधौ गौरवप्रसक्तेश्य तैत्तिरीयकपदे लक्षणाश्रयणमुचितम् \। तथा सति तैत्तिरीयकपदस्य वैयथ्यापत्तेः। तथाहि पर्वण्य दयिके श्रवणीं कुर्य्युरित्येतावता सर्वेषां प्राप्तत्वात्तैत्तिरीयकपदं व्यर्थमेव किञ्च विशिष्टविधौ गौरवभयाल्लक्षणास्वीकारे अनवस्था प्रसज्येत।
यदुक्तम्।
नाङ्गानां मिथः सम्बन्ध इति।
तदप्यनुपपन्नं कर्तृविशेषस्य कालाकाङ्क्षायामौदयिकत्वरूपकालसम्बन्धोपपत्तेः, न चायं नियमः, द्रव्यगुणयोरेव सम्बन्ध इति। अद्रव्यगुणयोरप्याकाङ्क्षावशात्सम्बन्धोपपत्तेः। पूर्वोक्तदोषाणां बह्वृचपदेऽपि समानत्वात्तदपि विवक्षितमेव। तस्मात्तैत्तिरीयका औदयिके पर्वणि तैत्तिरीयकव्यतिरिक्तयजुः-शाखीयानां पूर्वविद्धैव पौर्णमासी बह्वृचानान्तु श्रवण एवेति सिद्धम्।तच्च श्रवणनक्षत्रमुत्तराषाढ़ाविद्धं न ग्राह्यम्।
तथा च व्यासः
श्रवणेन तु यत्कर्म्मं उत्तराषाढ़संयुतम्।
संवत्सरकृतोऽध्यायस्तत्क्षणादेव नश्यति॥
धनिष्ठासंयुतं कुर्य्याच्छ्रावणं कर्म्मं यद्भवेत्।
तत्कर्म्मंसफलं विद्यादुपाकर्म्मेति संज्ञितमिति॥
तैत्तिरीयशाखिनां बह्वृचानां सामगानां चौदयिक एव स्वोक्तः कालो भवति।
तथाच परिशिष्टम्।
धनिष्ठाप्रतिपयुक्तं त्वाष्ट्रऋक्षसमन्वितम्।121
श्रावणे कर्म्म कुर्व्वीरन्नृग्यजुःसामपाठकाः॥
धनिष्ठायुक्तं श्रवणनक्षत्रं प्रतिपद्युक्तं पर्व्वचित्रायुक्तं हस्तनक्षत्रं वेधश्च षड़्घटिकात्मको ज्ञेयः।
वेधः षड़्घटिको ज्ञेय इति स्मरणात्।
एतच्चोपाकर्म्म ग्रहणादिरहिते कार्य्यम्।
तथाच स्मृत्यन्तरे।
उपाकर्म्म प्रकुर्व्वन्ति क्रमात्सामर्ग्यजुर्विदः।
ग्रहसंक्रान्त्ययुक्तेषु हस्तश्रवणपर्व्वसु॥
तथा।
संक्रान्तौ ग्रहणे चैव सूतके मृतकेऽथवा।
गणस्नानंं122 न कुर्वीत नारदस्य वचो यथा॥
अथ चेद्दोषसंयुक्त पर्व्वणि स्यादुपाक्रिया।
दुःखशोकामयंग्रस्ता राष्ट्रे तस्मिन्द्विजातयः॥
तथा।
यदि स्याच्छ्रवणं पर्व्व ग्रहसंक्रान्तिदूषितम्।
स्यादुपाकरणं शुक्लपञ्चम्यां श्रावणस्य तु॥
शुक्लपञ्चमीति वाजसनेयाभिप्रायम्123।
तथाच स्मृतिमहार्णवे।
संक्रान्तिर्ग्रहणं वापि पौर्णमास्यां यदा भवेत्।
उपाकृतिस्तु पञ्चम्यां कार्य्या वाजसनेयिभिरिति॥
तथा।
संक्रान्तिर्ग्रहणं वापि यदि पर्व्वणि जायते।
तन्मासे हस्तयुक्तायां पञ्चम्यां वा तदिष्यते॥
हस्तयुक्तायामन्यस्यां तिथौ पञ्चम्यां वेति विकल्पः। न तु पर्व्वणि ग्रहणे चतुर्दश्यां श्रवणे नोपाकर्म्मंकार्य्यं वेधदोषसम्भवात्।
तथाच स्मर्य्यते।
त्रयोदश्यादितो वर्ज्यं दिनानां नवकं124 ध्रुवम्।
माङ्गल्येषु समस्तेषु ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः॥
तथा।
द्वादश्यादितृतीयान्तो वेध इन्दुग्रहे स्मृतः।
एकादश्यादिकःसौरे चतुर्थ्यन्तः प्रकीर्त्तितः॥
खण्डे ग्रहे तयोः प्रोक्तमुभयत्र दिनद्वयमिति।
दिनद्वयं पूर्वोत्तरम्।
उत्तरम्।
नित्यनैमित्तिके जप्ये होमयज्ञक्रियासु च।
उपाकर्म्मणि चोत्सर्गे ग्रहवेधो न विद्यते॥
इति न दोषः। गुरुशक्रास्तमयादिष्वपि उपाकर्म्मं केचन नेच्छन्ति। तेषामयमभिप्रायः। विद्यारम्भो गुरुशुक्रमौव्यादिषु125 निषिद्धः। उपाकर्म्म च वेदारभरूपः। ततश्चप्रथमो-
पाकर्म्मणिगुरुशुक्रास्तमयप्राप्तावुपाकर्म्म न कर्त्तव्यम्। अन्यत्रदोष इति।
अथोत्सर्ज्जनम्।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
पौषमासस्य रोहिण्यामष्टकायामथापि वा।
जलान्ते च्छन्दसां कुर्य्यादुत्सर्गं विधिवद्वहिः॥
रोहिणीयुक्तायामन्यस्यां तिथौ रोहिणीयुक्तायामष्टकायां कृष्णाष्टम्यां वा। वहिःग्रामाद्वहिः। जलसन्निधौ।अत्र च्छन्दसामुसर्ज्जनं न सर्व्वात्मना126।
अतएव मनुः।
अतः परन्तु च्छन्दांसि शुक्लेषु नियतः पठेत्।
वेदाङ्गानि रहस्यञ्च कृष्णपक्षेषु संपठेत्॥
तथा।
पुष्येषु च्छन्दसां कुर्य्याद्वहिरुत्सर्ज्जनं द्विजः।
माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्व्वाह्ने प्रथमेऽहनि॥
श्रावणे यदोपाकर्म्म तदा पुष्ये उत्सर्जनम्। यदा भाद्रपदे तदामाघे शुक्लप्रतिपदि।
हारीतः।
अर्द्धपञ्चमान्मासानधीत्योर्द्धमुत्सृजति पञ्चार्द्धषष्ठान्वेति।
अर्द्धषष्ठान् पञ्चमासान् वेत्यर्थः। अयञ्च पक्षआषाढस्य पौर्णमास्यामुपाकर्म्माभिप्रायः।
अथ वेदव्रतानि।
एतान्यप्युदगयने आपूर्य्यमाणपक्षे प्राजापत्याग्नेयवैश्वदेवसौम्याख्यानि कुर्य्यात्। प्राजापत्यादिस्वरूपप्रदर्शनमुपलक्षणार्थम्। अतः स्वस्वशाखाविहितव्रतानि कर्त्तव्यानि।
अत्र कालविशेषमाह गाङ्गेयः।
वेदव्रतानामुदगयनादिककाल इति।
आदिशब्दादापूर्य्यमाणपक्षाद्युपसंग्रहः।
यदाह स एव।
पर्व्वण्युदगयनआपूर्य्यमाणपक्षस्य चोदगयन इति।
दक्षः।
स्वीकरोति यदा वेदांश्वरेद्वेदव्रतानि च।
ब्रह्मचारी भवेत्तावदूर्द्धंस्नातो भवेद्गृही॥
गौतमोऽपि।
गर्ब्भाधान-पुंसवन-सीमन्तोन्नयन-जातकर्म्म-नामकरण -
निष्क्रमणान्नप्राशन-चूड़ोपनयनं चत्वारि वेदव्रतानीति।
ब्रह्मचर्य्यव्रतकालविधिमाह देवलः।
अतः परमष्टचत्वारिंशद्वार्षिकींवेदव्रतचर्य्यामातिष्ठेद-
शक्तश्चेत् षट्त्रिंशद्वार्षिकीं चतुर्विंशतिर्द्वादशवा प्रति-
वेदमिति।
मनुः।
षट्त्रिंशदाव्दिकं कार्य्यं गुरो त्रैवेद्यकं व्रतम्।
तदर्द्धिकं पादिकं वा ग्रहणन्तिकमेव च॥ इति।
अस्यार्थः, त्रिवेदा एव त्रैवेद्यम्। वेदत्रयविषयं ब्रह्मचर्य्यंषट्त्रिंशदाव्दिकं कार्य्यं प्रतिवेदं द्वादश वर्षाणि ब्रह्मचर्य्यंचरेदित्यर्थः। अर्द्धिके षड्वर्षाणि पादिके तु त्रीणीति। एवमुपनीतं तत्काण्डोपयुक्तव्रतधारिणं माणवकमध्यापयेत्।
याज्ञवल्क्यः।
उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहृतिपूर्व्वकम्।
वेदमध्यापयेदेनमिति।
तत्र यदा ऋग्वेदमारभते तदा स्वगृह्योक्तविधिनाग्निं प्रतिष्ठाप्य पृथिव्यै स्वाहा अग्नये स्वाहा इति आज्यातीर्हुत्वा ब्रह्मणे च्छन्दोभ्य इत्याद्या नवाहुतीर्हुत्वा शेषं समापयेत्। यदि यजुर्वेदं तदान्तरीक्षाय स्वाहा वायवे स्वाहा। यदा सामवेदं तदा दिवे स्वाहा सूर्य्याय स्वाहेति। यदाथर्व्ववेदं तदादिग्भ्यः स्वाहा चन्द्रमसे स्वाहेति विशेषः। यद्येकदैव सर्व्ववेदारम्भःतदाज्यभागानन्तरं प्रतिवेदं पूर्वोक्तप्रधानाहुतिद्वयं हुत्वा प्रजापतये स्वाहा देवेभ्यःऋषिभ्यः श्रद्धायै मेधायै सदसस्पतये अनुमतये स्वाहेति सम्पूज्याहुतीर्जुहुयात्। अनन्तरं महाव्याहृतिस्विष्टिकृतं द्वादशाहुतीर्हुत्वा शेषं समाप्य यथाविधि वेदमध्यापयेत्। तत्रापि माणवककुलपरम्परया तं वेदमध्यापयेत्। तस्यैवाध्येतव्यत्वनियमात्।
वशिष्ठः।
पारम्पर्य्यागतो येषां वेदः सपरिवृंहणः।
तच्छाखं कर्म्म कुर्व्वीत तच्छाखाध्ययने तथेति॥
स्वशाखाध्ययनानन्तरं शाखान्तराध्ययनमपि भवति।
तथाच वशिष्ठः।
अधीत्य शाखामात्मीयामन्यां शाखां ततः पठेत्। इति आरम्भश्चशुभदिनादौ कार्य्यः।
तथा ज्योतिःशास्त्रम्।
विद्यारम्भः प्रशस्तो भवति मधुरिपौ प्राप्तबोधे127 सुधांशौ
शस्ते तीक्ष्णद्युतौ128 च त्रिदशपतिगुराबुद्गते चापि शुक्रेः129।
अप्राप्ते सिंहराशौ दशशतकिरणे130 चापि दैत्यारिपूज्ये131
स्वाध्याये भानुशुक्रत्रिदशगुरुदिने लग्नसंस्थे च जीवे॥
षष्ठींप्रतिपदञ्चैव वर्ज्जयित्वा तथाष्टमीम्।
रिक्तां पञ्चदशीञ्चैव शौरभौमदिनं तथा॥
विद्यारम्भः सुरगुरुसितज्ञेष्वभीष्टार्थदायी
कर्त्तुश्चायुश्चिरमपि करोत्यंशुमान्132 मध्यमोऽत्र।
नीहारांशौभवति जड़ता पञ्चता भूमिपुत्रे
छायासूनावपि च मुनयः कीर्त्तयन्त्येवमाद्याः॥
मृगादिपञ्चस्वपि भेषु मूले
हस्तादिके च त्रितयेऽश्विनीषु।
पूर्व्वात्रयेषु श्रवणे च तत्त्व-
विद्यासमारम्भमुशन्ति सिद्धौ॥
अथाध्ययनविध्यादयः।
याज्ञवल्क्यः।
गुरुञ्चैवाप्युपासीत स्वाध्यायार्थं समाहितः।
मनुः।
अध्येष्यमानः स्वाचान्तो यथाशास्त्रमुदङ्मुखः।
प्राञ्जलिश्च कृतोऽध्याप्यो लघुवासा जितेन्द्रियः॥
ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा।
व्यत्यस्तपाणिना कार्य्यमुपसंग्रहणं गुरोः॥
सव्येन सव्यः स्पृष्टव्यो दक्षिणेन तु दक्षिणः।
ब्रह्मणः133प्रणवं कुर्य्यादादावन्ते च सर्व्वदा॥
श्रवत्य134नोङ्गतं पूर्व्वं परस्ताच्च विशीर्य्यते।135
प्राञ्जलिःपर्य्युपासीत पवित्रैश्चैव136 पावितः॥
प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्तत ओङ्कारमर्हति।
मनुः।
अध्येष्यमानश्च गुरुर्नित्यकालमतन्द्रितः।
अधीष्य भो इति ब्रूयाद्विरामोऽस्त्विति चारमेत्137॥
नोदितो138 गुरुणा नित्यमप्रणोदित एव वा139।
कुर्य्यादध्ययने योगामाचार्य्यस्य140 हितेषु च॥
दक्षः।
द्वितीये तु तथा भागे141 वेदाभ्यासो विधीयते।
वेदस्वीकरणं142पूर्व्वंविचारोऽभ्यसनं जपः॥
तद्दानं चैव शिष्येभ्यो वेदाभ्यासो हि पञ्चधा।
मनुः।
नित्यमुद्धृतपाणिः स्यात्स्वाध्यायार्थं समाहितः।
आस्यतामिति143 चोक्तः144सन्नासीताभिभुखं गुरोः॥
हीनान्नवस्त्रवेशः स्यात्सर्व्वदा गुरुसन्निधौ।
गुर्व्वपेक्षया हीनान्नवस्त्रवेशत्वम्।
उत्तिष्ठेत्प्रथमं चास्य चरमं145 चैव संविशेत्146।
याज्ञवल्क्यशिक्षा।
हस्तौ तु संयतौ धार्य्यौजानुभ्यामुपरि स्थितौ।
गुरोरनुकृतिं कुर्व्वन् पठन्नान्यमतिर्भवेत्॥
शरीरञ्चैव वाचञ्च बुद्धीन्द्रियमनांसि च।
नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥
पाणिनीयशिक्षायाम्।
हस्तेन147 वेदं योऽधीते स्वरवर्णार्थसंयुतम्।
ऋग्यजुःसामभिः पूतो ब्रह्मलोके महीयते॥
हस्तहीनन्तु योऽधीते स्वरवर्णविवर्ज्जितम्।
ऋग्यजुःसामनिर्दग्धो वियोनिमभिगच्छति148॥
पराशरः।
ज्ञातव्यः सर्व्वदैवार्थो वेदानां कर्म्मसिद्धये।
पाठमात्र149मधीती च पङ्केगौरिव सीदति॥
व्यासः।
वेदस्याध्ययनं सर्व्वंधर्मशास्त्रस्य चैव हि।
अजानतोऽर्थं तद्व्यर्थंतुषाणां खण्डनं150 यथा॥
मनुः।
योऽनधीत्य द्विजो वेदानन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः॥
यमः।
य इमां पृथिवीं सर्व्वांसर्व्वरत्नोपशोभिताम्।
दद्याच्छास्त्रञ्च शिष्येभ्यस्तच्च तच्च द्वयं समम्॥
मनुः।
ब्रह्म योऽभ्यननुज्ञातः151अधीयानादवाप्नुयात्152।
स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते॥
गुरोरनुमतिं कृत्वा वेदाध्ययनमारभेत्।
अध्यापयेत्ततः शिष्यान्मायशीलान्153 गुणान्वितान्॥
याज्ञवल्क्यः।
कृतज्ञाद्रोहिमेधाविशुचिकल्याणसूचकाः।
अध्याप्या धर्म्मतः साधुमक्ताप्तज्ञानवित्तदाः॥
एते अध्याप्या इति ग्रहणादेद्व्यतिरिक्तानां निषेधः।
तथाच मनुः।
धर्म्मार्थौयत्र न स्यातां शुश्रूषा चापि तद्विधा।
तत्र विद्या न वक्तव्या उप्तं वीजमिवोषरे॥
विद्ययैव समं कामं मर्त्तव्यं ब्रह्मवादिना।
आपद्यपि हि कष्टायां नत्वेनामिरिणे154 वपेत्।
विद्या ब्राह्मणमित्याह सेवधि स्तेऽस्मि155 रक्षमाम्।
असूयकाय मां मादास्तथा स्यां वीर्य्यवत्तमा॥
निधिर्ना सेवधिरित्यमरः। असूया गुणाविष्कारेण दोषाविष्करणशीलः।
यमेव तु शुचिं विद्यान्नियतं ब्रह्मचारिणम्।
तस्येमां ब्रूहि विप्राय निधिपायाप्रमादिने॥
न निन्दाताड़ने कुर्य्यात्पुत्रं शिष्यञ्च ताड़येत्।
अधोभागे शरीरस्य नोत्तमाङ्गे न वक्षसि।
अतोऽन्यथा तु प्रहरन्न्याययुक्तो भवेन्नरः॥
न्याययुक्तो दण्ड्यः।
सर्व्वधर्म्ममयं ब्रह्म प्रदानेभ्योऽधिकं156 यतः।
तद्ददत्समवाप्नोति ब्रह्मलोकमविच्युतम्॥
अथानध्यायाः।
तत्र उशना।
अयने विषुवे चैव शयने बोधने तथा।
अनध्यायं प्रकुर्व्वीत मन्वादिषु युगादिषु157॥
याज्ञवल्क्यः।
चाहं प्रेतेष्वनध्यायः शिष्यादिगुरुबन्धुषु।
उपाकर्म्मणि चोत्सर्गे स्वशाखाश्रोत्रिये मृते॥
पञ्चदश्यां चतुर्द्दश्यामष्टभ्यां राहुसूतके।
ऋतुसन्धिषु भुक्त्वाच श्राद्धिकं प्रतिगृह्य च॥
सन्ध्यागर्ज्जिचनिर्घातभूकम्पोल्कानिपातने।
समाप्य वेदं द्युनिशमारण्यकमधीत्य च॥
पशुमण्डूकनकुलश्वाहिमार्ज्जारमूषिकैः।
कृतेऽन्तरे त्वहोरात्रं शक्रपतितथोच्छ्रये॥
अत्र विशेषस्तु शिष्टाचारादवगन्तव्यः।
खरोष्ट्रगर्द्दभोलूकसामवाणार्त्तनिस्वने॥158
अमेध्यशवशूद्रान्त्यश्मशानपतितान्तिके॥
देशेऽशुचावात्मनि च विद्युत्स्तनितसंप्लवे।
भुक्त्वार्द्रपाणिरम्भोऽन्त159रर्द्धरात्रेऽतिमारुते।
पांशुवर्षे दिशान्दाहे सन्ध्यानीहारभीतिषु।
धावतःपूतिगन्धे च शिष्टे च गृहमागते।
खरोष्ट्रयानहस्त्यश्वनौवृक्षगिरिरोहणे160॥
सप्तत्रिंशदनध्याया न तांस्तात्कालिकान्विदुः।
ब्रह्माण्डपुराणे।
रात्रौ यामद्वयादर्व्वाग्यदि पश्येत्त्रयोदशीम्।
प्रदोषःस तु विज्ञेयः सर्व्वस्वाध्यायवर्जितः॥
षष्ठी च द्वादशी चैव अर्द्धरात्रोननाड़िका।
प्रदोषे न त्वधीयीत तृतीया नवनाड़िका।
अष्टमी हन्त्युपाध्यायं शिष्यं हन्ति चतुर्द्दशी।
अमावास्योभयं हन्ति प्रतिपद्बुद्धिनाशिनी॥
अष्टकास्तु समाख्याताः सप्तम्यादिदिनत्रयम्।
शास्त्रं तत्र नाधीयीत ब्रतबन्धं विवर्ज्जयेत्॥
मनुः।
वेदोपकरणे161 चैव स्वाध्याये चैव नित्यके।
नानुरोधस्त्वनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥
अथ गुरुकुले वासचर्य्या।
तत्र मनुः।
शरीरं चैव वाचञ्च बुद्धीन्द्रियमनांसि च।
नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥
प्रतिश्रवणसंभाषे162 शयानो न समाचरेत्।
नासीनो न च भुञ्जानो न तिष्ठन्न पराङ्मुखः।
कथं कुर्य्यादित्यत आह।
आसीनस्य स्थितः कुर्य्यादभिगच्छंस्तु तिष्ठतः।
प्रत्युगम्याथ व्रजतः पश्चाद्धावंस्तु धावतः॥
पराङ्मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्थेत्य चान्तिकम्।
प्रणम्य तु शयानस्य निर्द्देशे चैव तिष्ठतः॥
अभिगच्छन् संमुखं गच्छन्, प्रत्युद्गमनं पश्चाद्गमनम्। दूरस्थस्येत्येति। अत्र तु माङश्चेति पररूपत्वाद्वृद्ध्याभावः। प्रणम्येति निर्द्देशे तिष्ठत इत्यनेन सम्बध्यते, निर्द्देशे स्वस्थानान्निम्नदेशे गर्त्तादौ, निर्द्देशे निकटदेशे इत्यपरे।
नीचं शय्यासनं चास्य नित्यं स्याद्गुरुसन्निधौ।
गुरोश्च चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्163॥
नोदाहरेदस्य नाम परोक्षेणापि केवलम्।
न चैवास्यानुकुर्व्वीत गतिभाषितचेष्टितम्॥
गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा वापि प्रवर्त्तते।
कर्णौ तत्र पिधातव्यौगन्तव्यं वा ततोऽन्यतः॥
परीवादात्खरो भवति श्वा वै भवति निन्दकः।
परिभोक्ता कृमिर्भवति कीटो भवति मत्सरी॥
अननुज्ञातगुरुधनोपभोक्ता परिभोक्ता।
दूरस्थो नार्च्चयेदेनं न क्रुद्धोनान्तिके स्त्रियाः।
यानासनस्थश्चैवैनमवरुह्याभिवादयेत्॥
प्रतिवातेऽनुवाते च नासीत गुरुणा सह।
असंभवे चैव गुरोर्न किञ्चिदपि कीर्त्तयेत्॥
गुरुदेशाच्छिष्यदेशं प्रत्यभिमुखो वातः प्रतिवातः तत्र नासीत तद्रोषाग्निनिर्गमसम्भवात्। शिष्यदेशाद्गुरुदेशं प्रत्यनुगतो वातः अनुवातः। तत्रापि नासीत उदीरितशब्दाश्रवणात्। असम्भवे अननुज्ञायाम्।
गोऽश्वोष्ट्रयानप्रासादप्रस्तरेषु कटेषु च।
आसीत गुरुणासार्द्धंशिलाफलकनीषु च॥
गुरोर्गुरौ सन्निहिते गुरुवद्वृत्तिमाचरेत्।
न चानिसृष्टो गुरुणा स्वान् गुरूनभिवादयेत्॥
गुरोराचार्य्यस्य समीपे गुरावुपाध्यायादौ सन्निहिते सति गुरुतुल्यं वृत्तिमाचरेत्। गुरुणाचार्य्येण नानुज्ञातः स्वान् गुरूनुपाध्यायादीन्नाभिवादयेत्।
अध्यापयन् गुरुसुतो गुरुवन्मानमर्हति।
उत्सादनन्तु164 गात्राणां स्नापनोच्छिष्टभोजने।
न कुर्य्याद्गुरुपुत्त्रस्य पादयोश्चावनेजनम्॥
गुरुवत्प्रतिपूज्याः स्युः सवर्णा गुरुयोषितः।
असवर्णास्तु सम्पूज्याः प्रत्युत्थानाभिवादनैः॥
अभ्यञ्जनं स्नापनञ्च गात्रोत्सादनमेव च।
गुरुपत्न्या न कार्य्याणि केशानाञ्च प्रसाधनम्॥
गुरुपत्नी तु युवती नाभिवाद्येह पादयोः।
पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता॥
यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्य्यधिगच्छति।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति॥
अब्राह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते।
अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्ययनं गुरोः॥
ब्रह्मचारी द्विविधः उपकुर्व्वाणको नैष्ठिकश्च, तत्रोक्ता आ165द्यधर्माः।166
अथ द्वितीयधर्म्माःप्रस्तूयन्ते।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
नैष्ठिको ब्रह्मचारी च वसेदाचार्य्यसन्निधौ।
तदभावेऽस्य तनये पत्न्यां वैश्वानरेऽपि वा॥
उपकुर्व्वाण उक्तविधिना आत्मानं निष्ठां मुक्त्यान्तकालं गमयतीति नैष्ठिक उच्यते। स आचार्य्यसन्निधौवसेन्नसमावर्त्तयेत्। तदभाव इति सर्व्वत्रानुषज्यते। ततश्च पत्न्यभावे गुरुसपिण्डे वसेत्। तदभावे स्वाग्निशुश्रूषा कर्त्तव्या।
तथाच मनुः।
आचार्य्येतु खलु प्रेते गुरुपुत्रे गुणान्विते।
गुरुदारे सपिण्डे वा गुरुवद्वृत्तिमाचरेत्॥
एषु त्वविद्यमानेषु स्थानासनविहारवान्।
प्रयुञ्जानोऽग्निशुश्रूषां साधयेद्देहमात्मनः॥
अयञ्च वासः अनूचानब्राह्मणगुर्व्वादिषुः।167
यथाह मनुः।
नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं वसेत्।
ब्राह्मणे चाननूचाने168
काङ्क्षन् गतिमनुत्तमामिति॥
अस्य धर्म्मानाह देवलः।
ब्रह्मसूत्राक्षमालादण्डकाष्ठकुण्डिकाः169 मौञ्जमेखलाधारणं सकृद्भोजनमसकृदवगाहनं त्रिषवणास्नानं उभयकालमग्निहोत्रं सन्ध्योपासनमनुप्तलोमकेशनखत्वं गन्ध-
माल्यस्नेहाभ्यञ्जनाञ्जनवेशालङ्कारच्छत्रोपानद्वाहन लङ्घन170प्लवन171। धावन चिकित्सा ज्योतिष-लक्षणवास्तुविधान172 मङ्गलपौष्टिकशान्तिकर्म्म गन्धर्व्वसङ्गसमयसम्बन्धन173शिल्प लेखन कारुकर्म्म वेश्म क्षेत्र द्174युम्न175धान्य परिच्छद शस्त्र द्यूत व्यवहारज्ञभाव176।लीला परिहास प्रणय कुहक विस्मापन विड़म्ब विवादोत्सेक परिदेवन पादोद्वर्त्तनवर्ज्जनमिति।
अग्निपरिचर्य्याप्रकारमाह हारीतः।
यज्ञियाः समिध आहृत्य संमार्जनोपलेपनोद्वोधनोपगूहन समिन्धन पर्य्यग्निकरण परिक्रमोपस्थानहोमस्तत्र नमस्कारादिभिरग्निं परिचरेदिति।
एवं कुर्व्वतः फलमाह याज्ञवल्क्यः।
अनेन विधिना देहं साधयन्विजितेन्द्रियः।
ब्रह्मलोकमवाप्नोति न चेह जायते पुनः॥
अवेदं चिन्त्यं किमिष्टं नैष्ठिकं ब्रह्मचर्य्यंकुब्जादिपुरुषविशेषाधिकारकमिति। कुब्जादिविषयमिति तावद्ब्रूमः।वैष्णवे नियमाभिधानात्।
तथाहि।
कुब्जवामनजात्यन्धक्लीवपङ्ग्वार्त्तरोगिणाम्।
ब्रह्मचर्य्या भवेत्तेषां यावज्जीवमनंशतः॥ इति।
अनंशतःअंशाभावादित्यर्थः। किञ्च उपनीतमात्रविषयत्वे यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयादिति गृहस्थधर्म्मप्रतिपादिकायाःश्रुतेः सङ्कोचआपद्येत। एवं प्राप्ते विधीयते उपनीतमात्रविषयमेव। तदन्यथा मनुवचनविरोधात्।
तथाहि।
यदि त्वात्यन्तिको वासो रोचेतास्मै गुरोः कुले।
युक्तः परिचरेदेनमाशरीरविमोक्षणादिति॥
तत्र यदीत्यनेन पाक्षिकत्वं द्योत्यते। विष्णुवचने च यावज्जीवमित्यनेन पङ्ग्वादीनां नित्यमेतदित्यवगम्यते। एवञ्च पङ्ग्वादिविषये मनु विष्णुवचनयोर्विरोधः। तत्परिहाराय मनुवचनं पङ्ग्वादिव्यतिरिक्तविषयम्। ततश्च पङ्ग्वादिव्यतिरिक्तोनीतमात्रत्वं पाक्षिकमिति पक्षे नैष्ठिकपक्षेनैत्ययमर्थः सिद्धः। एवञ्चकेवलं कुब्जादिविषयत्वे विरोधो दुष्परिहृतः स्यात्। यच्चोक्तं श्रुतिसङ्कोच इति। तत्तु श्रुत्यन्तरविरोधपरिहारार्थमृष्यामहे यमिच्छेत्तमावसेत्। यदहरेव विरज्येत्तदहरेव
ज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयादित्यनेनापि ये रागवशात्कृतोपयमास्तेषामेव रागानिवृत्तौयावज्जीवं गार्हस्थ्यनिष्ठत्वेनाग्निहोत्रकर्त्तव्यता प्रतिपाद्यते। न तु सर्व्वेषामतोयो रागाभावेन नैष्ठिकब्रह्मचर्य्यंकामयते तस्याग्निहोत्राधिकाराभावादेव न तद्विषये यावज्जीवश्रुतिः प्रवर्त्तते।
तथाच जाबालश्रुतिः।
यदि गृहमेव कामयते तदा यावज्जीवमिति।
केचन नैवं मन्यन्ते नैष्ठिकस्य स्मार्त्तत्वेन श्रौताग्निहोत्रादिना बाध इति। तत् स्वाध्यायवैधुर्य्यनिबन्धनमित्युपेक्षणीयम्।
तस्यापि श्रुतिमूलत्वात्।
ब्रह्मचार्य्याचार्य्यकुलवासी
द्वितीयोऽत्यन्तमात्मानमाचार्य्यकुलेऽवसादयन्निति श्रुतिः।
ननु ब्रह्मचारिद्वैविध्ये चत्वार आश्रमा इत्यापस्तम्बवचनविरोधः स्यादिति चेत्सत्यम्।सङ्कल्पभेदमात्रेण नित्यकाम्यदर्शपौर्णमासादिवदभेदोपपत्तेः।
तथाच दक्षः।
द्वितीयो नैष्ठिकश्चैव तस्मिन्नेवाश्रमे स्थितः।
अथ समावर्त्तनम्
तत्र याज्ञवल्क्यः।
गुरवे तु वरं दत्त्वा स्नायीत तदनुज्ञया।
वेदं व्रतानि वा पारं नीत्वा ह्युभवमेव वा॥
त्रितय इति, वरोऽभिलषितार्थः। वेदशब्दो वेदाध्ययनतदर्थजिज्ञासानामप्युपलक्षणार्थः।
तथाच स्मर्य्यते।
वेदस्वीकरणं पूर्व्वंविचारोऽभ्यसनं जपः।
तद्दानञ्चैव शिष्येभ्यो वेदाभ्यासो हि पञ्चधा॥
व्यासः।
वेदस्याध्ययनं सर्व्वधर्म्मशास्त्रस्य वापि यत्।
अजानतोऽर्थं तत्सर्व्वं तुषाणां खण्डनं यथा॥
योऽधीत्य विधिवद्विप्रो वेदार्थं न विचारयेत्।
स सान्वयः शूद्रसमः पात्रतां न प्रपद्यते॥
अधीत्य यत्किञ्चिदपि वेदार्थाधिगमे रतः।
स्वर्गलोकमवाप्नोति धर्म्मानुष्ठानवान्द्विजः॥
ऋक्पादमप्यधीयानो न्यायतश्च तदर्थवित्।
सम्यग्व्रतानि संसेव्य समावर्त्तनमर्हति॥
त्रिविधोहि स्नातकः।
तथाच हारीतः।
त्रयः स्नातका भवन्ति विद्यास्नातको व्रतस्नातको विद्याव्रतस्नातक इति।
यो वेदमेव समाप्य समावर्त्तते स विद्यास्नातकः। यश्चव्रतान्येव समाप्य स व्रतस्नातकः। यश्चोभयं स विद्याव्रतस्नातकः। एवञ्च व्रतस्नातकस्य विवाहोत्तरकालमध्ययनसमापनं वेदार्थज्ञानञ्चेति
तत्र गौतमः।
विद्यान्ते गुरुरर्थेन निमन्त्र्यइति।
अर्थेन हेतुना निमन्त्र्यःप्रष्टव्यः।
यत्तु मनुनोक्तम्।
स्नास्यंस्तु गुरुणाज्ञप्तःशक्त्या गुर्व्वर्थमाहरेत्। इति।
तद्व्रतस्नातकेतरविषयम्। गुरवे तु वरं दत्त्वा स्नायादित्युक्तम्। न चैतत्स्नानकर्म्मविषयनियतं विरक्तस्य विवाहरागाभावात्।
तथाच नृसिंहपुराणे।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्वयमिच्छेत्तु मा विशेत्।177
विरक्तः प्रव्रजेद्विद्वान् सरागस्तु गृहे वसेत्178 ॥इति।
एतच्च समावर्त्तनमुक्तदिने कार्य्यम्।
तथाच सुरेश्वरः।
भौमभानुजयोर्व्वारे नक्षत्रे च व्रतोदिते।
ताराचन्द्रविशुद्धौस्यात्समावर्त्तनकक्रिया॥
अथ स्नातकव्रतानि।
तत्र पारस्करः।
स्नातकस्य नियमान् वक्ष्यामः। कामादितरो नृत्यगीतवादित्राणि न कुर्य्यान्न गच्छेत्। कामस्तु179 गीतं
गायति चैवं गीतेन रमत इत्यपरम्। क्षेमे नक्तं ग्रामान्तरं न गच्छेन्नधावेदिति।
ब्रह्मचर्य्यात्समावृत्तस्य नियमान् व्रतान् वक्ष्यामः। कामादिच्छया गीतनृत्यवादित्राणि न कुर्य्यात्। न गच्छेद्द्रष्टुमिति शेषः। इतरोब्रह्मचारी सोऽपि न कुर्य्यान्न गच्छेदित्येव। इच्छया180 गायेत् शृणुयात्। यथाश्वमेधे दिवा ब्राह्मणोगायतीति यजमानं श्रावयति चेति गाने श्रवणे चाधिकारः। एवमन्यत्रापि यत्र विशेषविधिरस्ति तत्रैवाधिकारो नान्यत्रेत्यर्थः। क्षेमे नक्तं ग्रामान्तरं न गच्छेत्। क्षेमे आपदभावे सति न च धावेत् क्षेमे सतीत्यनुषज्यते।181
तथा ।
उदपानावेक्षणवृक्षारोहणफलप्रचयनसन्धिसर्पणविवृत्तस्नानविषमलङ्घनशुक्तवदनसन्ध्यादित्यप्रेक्षणमाभोक्ष्ण्येन न कुर्य्यात्।
उदपानं कूपादि \। वृक्षाग्रोपरि गमनेन फलप्रचयनं फलग्रहणम्।सन्धिसर्पणं सन्धिभूमिगमनम्182। अथवा सन्ध्याया-
मपमार्गे गमनम्। विवृत्ते वृत्ता183दौ स्नानम्। विषमं गर्त्तादि। शुक्तमश्लीलम्। तत्त्रिविधं लज्जाकरं दुःखकरममङ्गलसूचकम्।आभीक्ष्ण्यंवारंवारमादित्यमण्डलं न पश्येदित्यर्थः। तथा न ह वै स्नात्वा भिक्षेत वर्षत्यप्रावृतो न गच्छेत्। अयं मे वज्र184इत्यनेन मन्त्रेण गच्छेत्।
छत्री यष्टिर्नरपाणिस्तुचरेत्। रात्रौतच्छादिवातच्छायाशब्दवित्रस्ताः185 प्रशाम्यन्ति हि पत्रगाः। अप्सु स्वमुखं नावेक्ष्येत गर्भिणीं विजयन्तीति ब्रूयात्। सकुलमिति नकुलम्। भगालमिति कपालम्।इन्द्रधनुर्मणिधनुरिति ब्रूयात्। परस्य गां वत्सं वा पाययन्तीं नाचक्षीत। खानिते अनास्तृते भूमौ शस्यवत्यां वा उपसर्पस्तिष्ठन्नमूत्रपुरीपे कुर्य्यात्। स्वयं जीर्स्मेन काष्ठेन लोष्ट्रेणप्रसृजीत गुदं विकृतम्।वासो नाच्छादयीत मञ्जिष्ठादिरक्तंनील्यादिरक्त186ं वा।गूढ़व्रतोवधत्रः स्यात्सर्व्वषामिति।
मित्रमिव वधात्पापात्त्रायते इति वधत्रः। इत्यादि व्रतलोपे एकरात्रं तिस्रो रात्रीर्व्वाव्रतं चरेत्।
संवर्त्तः।
कुर्य्याद्गृह्याणि कर्म्माणि स्वभार्य्यापोषणं परम्।
ऋतुकालाभिगामी स्यात्प्राप्नोति परमाङ्गतिम्॥
शेषान्नमृतुगामित्वं पञ्चयज्ञाः स्वकर्म्मच।
तुल्यैश्च सह सम्बन्धो गृहस्थस्य विधीयते॥
गृहस्थस्यापि स्नातकत्वमस्तीति स्नातकस्य गृहस्थसाधारणकर्म्मकथनमविरुद्धम्।
बृहस्पतिः।
सख्यं समाधिकैः कुर्य्यादुपेयादीश्वरं सदा।
वैरं निर्हेतुकं वादं न कुर्य्यात्केनचित्सह।
वशिष्ठः।
आहारनिर्हारविहारयोगाः
सुसंवृता धर्म्मविदा तु कार्य्याः।
वाम्बुद्धिगुप्तानि नयस्तथैव
धनायुषी गुप्ततमे च कार्य्ये॥
निर्हारो मूत्रपुरीषोत्सर्गःविहारः स्त्रीसेवा योगः समाधिः। वाग्गुप्तिरशुभैरालापादिपरिवर्ज्जनेन।बुद्धिगुप्तिरशुभसंकल्पादिपरिवर्ज्जनेन।
मनुः।
भद्रं भद्रमिति ब्रूयाद्भद्रमित्येव वा वदेत्।
शुष्कवैरं विवादञ्च न कुर्य्यात्केनचित्सह॥
विरोधं नोत्तमैर्गच्छेन्नाधमैश्च सदा बुधः।
विवाहश्च विवादश्च तुल्यरूपे नृपेक्षते॥
नारभेत कलिं187 प्राज्ञः शुष्कवैरञ्च188 वर्ज्जयेत्।
अप्यल्पहानिःसोढ़व्या वैरेणार्थागमं त्यजेत्॥
जीवेति क्षुवतां ब्रूयाज्जीवेत्युक्तः सहेति च।
पैठीनसिः।
मत्तप्रमत्तोन्मत्तैःसह संभाषं न कुर्व्वोत \। न परस्त्रियं रहसि संभाषेत।
सांख्यायनगृह्ये।
सूतिकोदक्यां न संवदेत्।
गौतमः।
न म्लेच्छाशुच्यधार्म्मिकैःसह संभाषेत संभाष्य पुण्यकृतो मनसा ध्यायेत्। ब्राह्मणेन सह संभाषेत।
यमः।
तिथिं पक्षस्य न ब्रूयात्189नक्षत्राणिन निर्द्देशेत्।
गौतमशङ्खलिखिताः।
न परक्षेत्रे चरन्तींगां पाययन्तीं वान्यस्मिन् कथयेत्।
महाभारते।
सम्पन्नं भोजने ब्रूयात्पानीये तर्पणं तथा।
सुशृतं पायसे ब्रूयाद्यवाग्वां कृशरे तथा॥
महात्मनाञ्च गुह्यानि न वक्तव्यानि कर्हिचित्।
त्वंकारं नामधेयञ्च ज्येष्ठानां परिवर्ज्जयेत्।
अधराणां190 समानानामुभयेषां न दुष्यति॥
तथाच नारदः।
गुरोर्ज्येष्ठकलत्रस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य चात्मनः।
आयुष्कामो न गृह्णीयान्नामानि कृपणस्य च॥
पैठीनसिः।
अनिन्द्या ब्राह्मण गावः सलिलं काञ्चनं स्त्रियः।
पृथिवी च षड़ेतानि यो निन्दति स निन्दितः॥
मार्कण्डेयपुराणे।
वेददेवद्विजातीनां साधुसत्यतपस्विनाम्।
गुरोः पतिव्रतायाश्चतथा यज्ञतपस्विनाम्॥
परिवादं न कुर्व्वीत परिहासेऽपि पुत्त्रकाः।
कुर्व्वतामविनीतानां श्रोतव्यं न कथञ्चन॥
हारीतः।
विवादं वर्ज्जयेद्विप्रेसर्व्वेषाञ्चैव सूचनम्191।
परिभोगं यथोक्तेषु192 मत्सरं पुत्त्रशिष्ययोः॥
तथा।
तस्मान्नैव परिवदेद्यजन्तं याज्यमीश्वरम्।
आदत्तेसुकृतं तेषां ये वै परिवदन्ति तम्॥
मनुः।
ऋत्विक्पुरोहिताचार्य्येर्मातुलातातिथिसंश्रितैः।
वृद्धबालातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसम्वन्धिबान्धवैः॥
मातापितृभ्यां जामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्य्यया।
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्॥
न च वाचं वदेद्दुष्टां न दीनां न च कर्कशाम्।
अथानाक्रमणीयानधिष्ठेयानि।
तत्र मनुः।
देवतानां गुरो राज्ञः स्नातकाचार्य्ययोस्तथा।
नाक्रामेत्काम
तश्छ्कायां बभ्रुणोदीक्षितस्य च॥
बभ्रुःकपिलः।
यमः।
स्वान्तु नाक्रामयेच्छायां क्लीवेन पतितेन च।
चाण्डालेन द्विषद्भिद्यनित्यरोगान्वितेन च॥
याज्ञवल्क्यः।
देवर्त्विक्स्नातकाचार्य्य राज्ञां छायां परस्तियः।
नाक्रामिद्रक्तविण्मूचष्ठीवनोदत्तनानि च॥
मनुः।
* क्लीवेन इत्यादिगततृतीया षष्ठीक
मध्यन्दिनेऽर्द्धरात्रे च श्राद्धं भुक्त्वाच सामिषम्।
सन्ध्ययोरुभयोश्चैव न सेवेतेचतुष्पथम्॥
उद्वर्त्तनमपस्नानं विण्मूत्रेरक्तमेव च।
श्लेष्मानिष्ठ्यूतवान्तानि नाधितिष्ठेत कामतः॥
वैरिणं नोपसेवेत सहायञ्चैव वैरिणः।
अधार्म्मिकंतस्करञ्च परस्यैव च योषितम्॥
उद्वर्त्तनं कृतमलापकर्षणं कुङ्कुमादि। अपस्नानं स्नानत्यक्तजलम्।निष्ठ्यूतमुद्गीर्णताम्बूलादि।
शङ्खलिखितौ।
नोद्धतकुहकैः सहैकत्र तिष्ठेत्।
उद्धतः अविनीतः कुहकःवशीकरणादिनिष्ठः।
विष्णुः।
न चतुष्पथमभितिष्ठेन्न रात्रौ वृक्षमूलं शून्यालयं न तृणं न बन्धनागारम्।
हारीतः।
आवपनापमार्ज्जनास्नानतुषभस्मास्थिकपालसञ्चयं नाधितिष्ठेत्।
आवपनं गोप्यादिभाण्डम्, अपमार्ज्जनं मार्ज्जनोपयुक्तकुशादि, कपालः खर्परः।
विष्णुपुराणे।
पूज्यदेवध्वजज्योतिश्छायान्नातिक्रमेद्बुधः।
देवीपुराणे।
न चैव गोःप्रसूताया विश्वासः स्त्रीजनस्य च।
न मुखेन धमेदग्निं193 न खङ्गं लङ्घयेत्तथा॥
अथानवलोकनीयानि।
तत्र विष्णुः।
नोद्यन्तमादित्यमीक्षेत नास्तं यान्तं नोपरक्तं194 न वाससातिरोहितम्। न चादर्शजलाद्युपगतं न मध्येऽ195ङ्कि।
याज्ञवल्क्यः।
नेक्षेतार्कन्न नग्नांस्त्रीन च संयुक्तमैथुनाम्।
न च सूत्रं पुरीषं वा नाशुचीराहुतारकाः।
मार्कण्डेयपुराणे।
देवतापितृसच्छास्त्रयज्ञसत्यादिनिन्दकैः।196
कृत्वा स्पर्शनमालापं शुध्येतार्कविलोकनात्॥
अवलोक्य तथोदक्यामन्त्यजं197पतितं शठम्।
विधर्म्मसूतिकाषण्ढविवस्त्रान्त्यावशायिनः198॥
मृतनिर्यातकांश्चैव परदाररतांस्तथा।
एतदेव199 हि कर्त्तव्यं प्राज्ञैः शोधनमात्मनः॥
स्कन्दपुराणे।
कृतघ्नं मानवं दृष्ट्वा नरकेष्वपि200कुत्सितम्।
शुध्यर्थं देवि द्रष्टव्याः सोमानलदिवाकराः॥
सोमादीनां यथासम्भवं विकल्पः।
विष्णुः।
न क्रुद्धस्य गुरोर्मुखं न तैलोदकयोः स्वांछायां मलवत्यादर्शे न पत्नीं भोजनसमये न स्त्रियं नग्नां न किञ्चन गूहमानं न बालां न भ्रष्टकुञ्जरनरविषमस्थौ201 न वृषादियुद्धं नोन्मत्तं न प्रमत्तम्।202
मनुः
नाश्रीयाद्भार्य्यया सार्द्धंनैनामीक्षेत चाश्नतीम्।
क्षुवतीं जृम्भमानाञ्च न वासीनां203यथासुखम्॥
नाज्जयन्तींस्वके नेत्रे न चाभ्यक्ता204मनावृताम्।
न पश्येत्प्रसवन्तीञ्च205 तेजस्कामो द्विजोत्तमः॥
अथाकुलकरणानि।
क्रमेण च यमव्यासशातातपाः।
देवद्रव्यविनाशेन ब्रह्मस्वहरणेन च।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥
गोभिरश्वैश्च यानैश्च कृष्या राजोपसेवया।
अयाज्ययाजनेनैव नास्तिक्येन च कर्म्मणा।
कुलान्यकुलतां यान्ति यानि हीनानि मन्त्रतः॥
मन्त्रतस्तु समृद्धानि कुलान्यल्पधनान्यपि।
कुलसंख्याञ्च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद्यशः॥
अनृतं पारदार्य्यञ्च तथाभक्ष्यस्य भक्षणम्।
अगम्यागमनञ्चैव हिंसा स्तेयं तथैव च॥
अश्रौतधर्म्माचरणं मन्त्रधर्म्मवहिष्कृतम्।
एतानि चैव कर्म्माणि वर्ज्जयेन्मानवः सदा॥
अथ निवासः।
अत्र वृहस्पतिः।
भूरिमान्य206कुशेध्मान्नशष्याम्बु207द्विजनैगमे।
निष्कण्टके धार्म्मिके च वसेत्स्थाने निरामये॥
नैगमो बाणिजिकः।
एककूपोदके ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः।
वर्षेण शूद्रो भवति कृष्णवर्णमुपाश्रितः॥
व्यासः।
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते चिरं तत्र न संवसेत्208॥
मार्कण्डेयपुराणे।
जितामित्रो नृपो यत्र बलवान्धर्म्मतत्परः।
तत्र नित्यं वसेत्प्राज्ञः कुतः कुनृपतौ सुखम्॥
यस्मिन् कृषीवला राष्ट्रे प्रायशो नातिभोगिनः।
यत्रौषधान्यशेषाणि वसेत्तत्र विचक्षणः॥
प्रीयमाणा नरा यत्र प्रयच्छेद्गुरुयाचितम्।
सुस्थचित्ते वसेत्तत्र कृतकृत्य इवात्मवान्॥
दण्डो यत्राविनीतेषु सत्कारश्च कृतात्मसु।
वसेत्तत्र वसेञ्चैव धर्म्मशीलेषु साधुषु॥
देवलः।
अरण्यं देवतास्थानं तीर्थान्यायतनानि च।
तस्मात्तेषु वसल्ँलोको याति लोकं दिवौकसाम्॥
अरण्यं नैमिषादि तीर्थं गङ्गादि आयतनमविमुक्तादि।209
अथ गमने वर्ज्ज्यानि।
तत्र मनुः।
नाविनीतैर्व्रजेद्धुर्य्यैर्न च क्षुद्व्याधिपीड़ितैः।
न भिन्नशृङ्गाक्षिखुरैर्नं बालधिविरूपितैः210॥
विनीतैश्च व्रजेन्नित्यमाशुगैर्लक्षणान्वितैः।
वर्णरूपोपसम्पन्नैः प्रतोदेनातुदन् भृशम्॥
नातिकल्यं211 नातिसायं नातिमध्यन्दिने स्थिते।
नाज्ञातेन समं गच्छेन्नैको न वृषलैः सह॥
गवाञ्च यानं पृष्ठेन212 सर्व्वथैव विगर्हितम्।
विष्णुः।
नैकोऽध्वानं प्रपद्येत नाधार्म्मिकैः साकम्।
विष्णुः।
वर्षातपादिषु च्छत्रीदण्डी रात्र्यटवीषु च।
शरीरत्राणकामो वै सोपानकःसदा व्रजेत्॥
नाधो न तिर्य्यगूर्द्धं वा निरीक्षन् पर्य्यटेद्बुधः।
युगमात्र213ंमहीपृष्ठं नरो गच्छेद्विलोकयन्॥
तथा।
न दुष्टं यानमारोहेत्कुलच्छायां214न संश्रयेत्।
नैकःसुप्याटवीं215 गच्छेन्न तु शून्यगृहेवसेत्॥
नासहायो व्रजेद्रात्रौ नोत्पथे न चतुष्पथे।
वशिष्ठः।
नाग्निब्राह्मणान्तरे व्यपेयान्नाग्न्योर्न ब्राह्मणयोर्गुरुशिष्ययोरनुज्ञया
व्यपेयान्न बाहुभ्यां नदीं तरेन्न नावं सांशयिकीमारोहे216त्।
आपस्तम्बः।
प्रतिमुखमाद्रियमाणं प्रतिष्ठितं भूमौ प्रदक्षिणीकृत्य अभ्युपेयात्।
ब्रह्मचारिप्रकरणे सूतकप्रकरणे ये साधारण धर्म्माअभिहितास्ते अनिषिद्धागृहस्थादीनामपि भवन्त्येव। उक्तं वक्ष्यमाणाश्रमोपयोगित्वाद्ब्रह्मचर्य्यरूपं तद्भेदश्च प्रदर्श्यते।
तत्र हारीतः।
ब्रह्मचर्य्यंनामाप्रार्थनमस्मरणमसङ्कल्पनमनभिप्रेक्षणम–
सङ्कीर्त्तनमनभिभाषणमनभिगमनमसन्दर्शनमसमागमश्चासाम्।
अप्रार्थनं सा मे भूयादित्याशाविरहः। असङ्कल्पनमेवं करिष्यमीत्यभिधानाभावः।अनभिप्रेक्षणमाभिमुख्यानावलोकनम्।असन्दर्शनं कन्यावयवावलोकनाभावः।
तच्च ब्रह्मचर्य्यंचतुर्विधं भवति। कृष्णं रक्तं शुक्लं विमलमिति। तत्र परदारवर्ज्जनं नित्यम्। स्वदाराभिगमनं कृष्णम्। पर्व्ववर्ज्जंतदेव रक्तम्। ऋतुकालाभिगमनं शुक्लम्। ऊर्द्धरेतस्त्वं विमलम्।
कृष्णे भौमाञ्जयेल्लोकान्मध्यमं रक्तकाज्जयेत्।
शुक्लेन तु जयेत्स्वर्गं विमलान्मोक्षमाप्नुयात्॥ इति।
इह मदनपारिजाते मदने क्षितिपालदानजलरूढ़े।
स्तवकोऽयमाद्य आसीदामोदाकृष्टपण्डितभ्रमरः॥
मतिर्येषां शास्त्रे प्रकृतिरमणीया व्यवहृतिः
परं शीलं श्लाघ्यं जपति ऋजवस्ते कतिपये।
चिरं चित्ते तेषां मुकुरतलभूते स्थितिमया-
दियं व्यासारण्यप्रवरमुनिशिष्यस्य भणतिः॥
इति पण्डितपारिजात भट्टारमल्लेत्यादि विरुदराजीविराजमानस्य
श्रीमदनपालस्य निबन्धे मदनपारिजाताभिधेये
प्रथमः स्तवकः।
—————
द्वितीयःस्तवकः।
अथ ब्रह्मचारिस्तवकानन्तरं क्रमप्राप्तो गृहस्थस्तवक आरभ्यते। तत्रोपयुक्ता सापिण्ड्यमीमांसा प्रथमं प्रक्रम्यते।
तस्य सापिण्ड्य केचिदेवं वर्णयन्ति। एकस्यां पिण्डदानक्रियायां दातृत्वेन यजमानस्य देयत्वेन पितृपितामहप्रपितामहानां लेपभोक्तृत्वेन प्रपितामहस्वपितृपितामहप्रपितामहानां यजमानादिभार्य्याणां पत्या सह कर्त्तृत्वे217नैकशरीरारम्भकत्वेन218च। भ्रातृभार्य्याणां परस्परमेकशरीरारम्भकत्वेन यजमानप्रभृतिपितृपरम्पराणां सप्तमपुरुषावधिकसन्ततिजातानां मध्ये केषाञ्चित्पिण्डदेवतात्वेनोद्दिश्यमानान्वयेन केषाञ्चिल्लेपभागित्वेनोद्दिश्यमानान्वयेन चेति।
दात्रादिसापिण्ड्यविषये मत्स्यपुराणे वचनमप्युदाहरन्ति।
लेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः।
पिण्डदः सप्तमस्तेषांसापिण्ड्यंसाप्तपौरुषमिति॥
अत्र ते प्रष्टव्याः कल्पनागुरुलघुभावयोः को वा ज्यायानिति।
यदि कल्पनागौरवं ज्यायस्तर्हि सपिण्डशब्दवृत्तौ219 पूर्व्वोक्तनिमित्तान्येव स्युः।
अथ कल्पनालाघवं ज्यायस्तत्रवयं ब्रूमः।पिण्डी देहःसमान एकःपिण्डो देहोयस्य स सपिण्डः। तस्य भावः सापिण्ड्यं तच्चपुत्त्रादीनामेकशरीरावयवान्वयेन पत्न्यादीनां भ्रातृभार्य्यादीनाञ्चैकशरीरारम्भकत्वेनैकशरीरावयवान्वितैः सहैककार्य्यकर्त्तृत्वेन च भवति एवञ्च शब्दप्रवृत्तौ220निमित्तत्रय221मेवाङ्गीकृतं स्यात्। अथैवं मन्यसे एकपिण्डदानक्रियान्वयित्वमेकपिण्डदानक्रियान्वयान्वयित्वञ्चेति निमित्तद्वयमिति न कल्पनागौरवमिति।तर्हि अस्मत्पक्षेऽपि एकमेव निमित्तमिति ततोऽपि लाघवम्। तच्चैकशरीरावयवान्वयित्वमेव।अवयवान्वयश्च पित्रादिषु अवयवानां समवायकरणत्वेन पत्न्यादिष्वेकशरीरावयवान् प्रति साक्षात्परम्परावयवाऽधिकरणत्वेनेति निमित्तैक्याल्लाघवम् ।
कल्पनागौरवञ्च गर्हितमाचार्य्यैःकल्पनालाघवं यत्र तत्पक्षं रोचयामहे तदेकतरत्र निपुणं सम्प्रधार्य्यतामिति। ततश्चनिर्मथ्य पङ्कजादिवद्योगरूढ़ोऽयं शब्दः222 शरीरावयवान्वयस्य
द्वितीयः स्तवकः।
श्रुतौ श्रूयते। आत्मा हि यज्ञ आत्मन इति तथा प्रजामनु प्रजायस इति। तथा गर्भोपनिषद्यपि।तथा गर्भोपनिषद्यपि। एतत्षाट्कौशिकं शरीरं त्रीणि पितृतस्त्रीणि मातृतः अस्थिस्नायुमज्जानःपितृतस्त्वङ्मांसरुधिराणि मातृत इति।
आपस्तम्बोऽपि।
स एवायं विरूढ़प्रत्यक्षेणोपलभ्यत इति।
मत्स्यपुराणवचनस्य त्वयमर्थः। लेपभाजश्चतुर्थाद्याः प्रपितामहपिता चतुर्थस्तदाद्याःप्रतिलोमक्रमेण त्रयो लेपभाजः।पिण्डदानं कृतवतः स्ववंशजस्य हस्तलेपं कुशेषु दत्तं भुञ्जते इति। पित्राद्याः पिण्डभागिनःपिण्डदाने देवताभूताः। पिण्डदः सप्तमस्तेषां तेषां पिण्डदाता सप्तमः।सापिण्ड्यं साप्तपौरुषम्। एतान् सप्तपुरुषान् सापिण्ड्यंव्याप्नोति इत्युक्तं भवति। ननु सापिण्ड्येपूर्वोक्तं लेपभाक्त्वादिकं निमित्तमिति।तथा सति पूर्व्वोक्तगौरवदोषापत्तेः। अतोऽम्मदुक्तमेव युक्तम्।
अथ प्रकृतमनुसरामः।
तत्र मनुः।
वेदानधीत्य वेदौवा वेदं वापि यथाक्रमम्।
अविप्लुतब्रह्मचर्य्योगृहस्थाश्रममाश्रयेत्
उद्वहेत द्विजो भार्य्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्।
कश्यपः।
दाराधीनाःक्रियाः सर्व्वाःब्राह्मण्यास्तु विशेषतः।
दारान्सर्व्वप्रयत्नेन विशुद्धानुद्वहेत्ततः॥
विशुद्धान् कुलतो रूपतश्च।
याज्ञवल्क्यः।
अविप्लुतब्रह्मचर्य्योलक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत्।
अनन्यपूर्व्विकां कान्तामसपिण्डां यवीयसीम्॥
अरोगिणीं भ्रातृमतीमसमानार्षगोत्रजाम्।
अविस्खलितब्रह्मचर्य्योवाह्याभ्यन्तरलक्षणयुक्तां स्त्रियमुद्वहेत्। वाह्यलक्षणानि मनुराह।
अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम्।
तनुलोमकेशदशनां मृद्वङ्गीमुद्वहेत्स्त्रियम्॥ इति।
यान्यभ्यन्तराणि सन्दिग्धानि च तज्ज्ञानोदयाय आश्वलायनेनोक्तोद्रष्टव्यः।
अथाऽविज्ञेयानि223 लक्षणानि।
अष्टौ पिण्डान् कृत्वा कृतमग्नेः प्रथमं यज्ञे ऋतेसत्यं प्रतिष्ठितम्। यदियं कुमार्य्यभिजाता तदिदमिह प्रतिपद्यतां यत्सत्यं तद्दृश्यतामिति। पिण्डानभिसंमन्त्र्यकुमारींब्रूयादेषामेकं गृहाणेति क्षेत्राच्चेदुभयतः शस्याद्गृह्णीयात्।अन्नवत्यस्याः प्रजाभविष्यतीति विद्याद्गोष्ठात्पशुमती वेदिपुरीपुद्व्रह्मवादिनी अविनाशिनो ह्रदात्सर्व्वसम्पन्ना देवनात्कितवी चतुष्पथाद्विप्रब्राजिनी ईरिणादधन्या श्मशानात्पतिघ्नीति।
अस्यायमर्थः। कृतमग्नइत्यारभ्य यत्सत्यं तद्दृश्यतामित्यनेन मन्त्रेण मृत्पिण्डाभिमन्त्रणं कुर्य्यात्। मृदाहरणस्थानमाह।क्षेत्राच्चेदिति। पार्श्वद्वयेऽपि शस्यपरिपूर्णात्क्षेत्रादाहृता या मृत्तत्कृतं पिण्डं यदि गृह्णाति तदा अस्याः प्रजा अन्नवती भविष्यतीति विद्यात्। एवं गोष्ठादित्येवमादि वेदिपुरीषं वेदिमृत्तिका देवनं द्युतस्थानं विप्रव्राजिनी विविधप्रव्रजनशीला स्वैरिणीति यावदीरिणमूषरमधन्या धनरहितेत्यर्थः। अनन्यपूर्व्विकां दानेनोपभोगेन वा पुरुषान्तरापरिगृहीताम्। असपिण्डां समानमेकं पितुः शरीरं यस्याः सा सपिण्डा न सपिण्डा असपिण्डा तां सपिण्डता चैकशरीरावयवान्वयेनेति निरूपितं प्राक्।
मनुरपि।
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्म्मणि मैथुने॥
अस्यार्थः। या मातुरसपिण्डा चकारादमगोत्रा च या च पितुरसगोत्रा चकारादसपिण्डा च सा दारकर्म्मणि मैथुने च प्रशस्ता।प्रशस्ता परिणयनार्हेत्यर्थः। एतदुक्तं भवति। अनुलोमक्रमेणद्विजातीनां सवर्णापाणिग्रहणसमनन्तरं क्षत्रियादिकन्यापरिणयो विहितस्तत्र च सवर्णविवाहोमुख्यः इतर- स्त्वनुकल्पः। सदारस्य विहितं कर्म्मद्वयमेकं यज्ञादिकमपरंनिधुवनम्। यज्ञादिके तु सवर्णदारैः सहितस्यैवाधिकारः सवर्णायांतु वयसा वर्णेन वा ज्येष्ठत्वेन तस्यां सत्यामन्यस्या-
अनधिकारः। असत्यां ज्येष्ठायां नित्ययज्ञादिकेष्वेवासवर्स्मासहितस्य गौणाधिकारी न काम्येषु। तथा ज्येष्ठापरित्यागेनान्याग्रहणनिषेधाच्च। सुरतन्तु विवाहिताम्विति नियमः। एवं स्थिते दारकर्म्मणि मैथुन इत्यत्र गोबलीवर्द्दन्यायेन दारकर्म्मशब्दो मैथुमव्यतिरिक्ते या दौ वर्त्तते। तथाच ।दारकर्म्मणि प्रशस्तेत्युक्त्वा यज्ञादिकर्म्मणि सवर्णामात्रस्याधिकारातद्विवाह224 एवासपिण्डा च या मातुरित्यादि ग्राह्यं स्यात्। न त्वसवर्णांविवाहे तन्निवृत्त्यर्थं मैथुनपदग्रहणम्। एवञ्जामवर्णा परिणयेऽपि पूर्वोक्तवाक्यमनुषज्यते। यदि मैथुने प्रशस्तेत्युच्यते तदा तस्मिन् कर्म्मणि पूर्व्वोक्ताग्राह्या नान्यत्रेति स्यात्। ततश्च
अनाश्रमी न तिष्ठेत्तु क्षणमेक225मपि द्विजः।
इति कृतसमावर्त्तनस्य पञ्चमहायजनित्योपासनादिदारकर्म्म निष्पत्यर्थं पूर्वोक्तगुणरहृितापि परिणेयास्यात्। तन्माभूदिति दारकर्म्मग्रहणम्। ननु च
एकत्वं सा गता भर्त्तुः पिण्डगोत्रे च सूतके।
इति मातुर्गोत्रान्तराभावादसपिण्डा च या मातुरित्येतावतेवालं किमिति चकारान्मातुरसगोत्राग्रहणं कृतं मनुना ।उच्यते। सत्यमेवं तथापि दत्तपुत्री यस्य माता भवति सा च
पुत्रिका कृता दत्तपुत्रीप्रतिग्रहीत्रा इयमेव मम पुत्रस्थानीयेति तदा तस्याः परिणेतुर्दत्तपुत्री प्रतिग्रहीटसपिण्डा असपिण्डा भवतीति तत्र परिणयो मा प्रशांतीदिति चकारेण मात्रसगोत्रापरिणेयेत्युच्यते।
उक्तञ्च दत्त्रिमाणां जनकगोत्रादिनिवृत्त्या अन्यगोत्रादिप्राप्तिर्मनुना।
गोत्रऋक्थे जनवितुर्न हरेद्दत्रिमः सुतः।
गोत्रऋक्थानुगः पिण्डो व्यपैति ददतः स्वधा॥ इति
एवं तर्हि असपिण्डा च या मातुरिति न वक्तव्यम्। चकारलभ्यासगोत्राग्रहणेनैवासपिण्डाया अपि प्राप्तत्वादाढ़म् सापत्नामातृपितृकुलजास पिण्डामात्रसगोत्रापि भवति मातृ सपिण्डा चेति तत्र विवाहप्राप्ताविदमुच्यते मातुरसपिण्डेति। तथा च समास पिण्डेश्वपि मातुलादिव्यवहारं दर्शयति सुमन्तुः।
पितृपत्न्यःसर्व्वमातरस्तद्भातरी मातुलास्तहु हितरच
भगिन्यस्तदपत्यानि भागिनेयानि226 अन्यथा सङ्करका-
रिकाः स्युरिति।
असगोत्रा च या पितुरित्यत्र चकारेण पितुरसपिण्डाया ग्रहणं न कर्त्तव्यम्। असगोत्रपदेनैव लभ्यत्वादुच्यते। यस्य पिता दत्तिमपुत्रस्तस्य दत्तिमस्य यज्जनककुलं तत्र जाता परिणेतृ
अनधिकार। असत्यां ज्येष्ठायां नित्ययज्ञादिकेष्वेवासवर्म्मा.सहितस्य गौणाधिकारी न काम्येषु। तथा ज्येष्ठापरित्यागेनान्याग्रहण निषेधाच्च। सुरतन्तु विवाहितास्विति नियमः। एवं स्थिते दारकर्मणि मैथुन इत्यत्र गोवलीवई न्यायेन दारकर्म्मशब्दो मैथुन व्यतिरिक्त यज्ञादी वर्त्तते। तथाच।दारकर्मणि प्रशस्तेत्युक्त्वा यज्ञादिकमणि सवर्णामात्रस्याधिकारातद्विवाह227 एवासपिण्डा च या मातृरित्यादि ग्राह्यं स्यात्। त्वसवर्णाविवाहें तनिवृत्त्यर्थ मैथुनपदग्रहणम् एवामव परिणयेऽपि पूर्वोक्तवाक्यमनुषज्यते। यदि मैथुने प्रशस्तेत्य तदा तस्मिन् कम्मणि पूर्वका ग्राह्या नान्यत्रेति स्यात्।
ततञ्च
अनाश्रमी न तिष्ठेत्तु क्षणमेक 225मपि द्विजः।
इति कृतसमावर्त्तनस्य पञ्चमहायज्ञनित्योपासनाहिदारकर्म्म निष्पत्त्यर्थं पूर्वोक्तगुणरहितापि परिणेया स्यात्। तन्माभूदिति दारकग्रहणम्। ननु च
एकत्वं सा गता भर्तुः पिण्डगोत्रे च मृतके।
इति मातुर्गोत्रान्तराभावादसपिण्डा च या मातृरित्येतावतेवालं किमिति चकारान्मातुरसगोत्राग्रहणं कृतं मनुना। उच्यते। सत्यमेवं तथापि दत्तपुत्री यस्य माता भवति सा च
पुत्रिका कृता दत्तपुत्रीप्रतिग्रहीना इयमेव मम पुत्रस्थानीयेति तदा तस्याः परिणेतुर्दत्तपुत्री प्रतिग्रहीटसपिण्डा असपिण्डा भवतीति तत्र परिण्यो मा प्रशांतीदिति चकारेण मात्रसगोत्रा परिणयेत्युच्यते।
उक्तञ्च दत्त्रिमाणां जनकगोत्रादिनिवृत्त्या अन्यगोत्रादिप्राप्तिर्मनुना।
गोत्रऋकथे जनवितुर्न हरेद्दत्रिमः सुतः।
गोत्रऋक्थानुगः पिण्डी व्यपैति ददतः स्वधा ॥ इति
एवं तर्हि असपिण्डा च या मातुरिति न वक्तव्यम्। चकारलभ्यासगोत्राग्रहणेनैवास पिण्डाया अपि प्राप्तत्वादाढ़म्।सापत्नामाटपिटकुलजासपिण्डा मात्रसगोत्रापि भवति मातृसपिण्डा चेति तत्र विवाहप्राप्ताविदमुच्यते मातुरसपिण्डेति। तथा च सापत्न मातृसपिण्डेश्वपि मातुलादिव्यवहारं दर्शयति सुमन्तुः।
पितृपत्नाः सर्व्वमातरस्तद्भ्रातरी मातुलास्तहु हितरश्च भगिन्यस्तद्पत्यानि भागिनेयानि228 अन्यथा सङ्करकारिकाः स्युरिति।
असगोत्रा च या पितुरित्यत्र चकारेण पितुरसपिण्डाया ग्रहणं न कर्त्तव्यम्। असगोत्रपदेनैव लभ्यत्वादुच्यते। यस्य पितादत्तिमपुत्रस्तस्य दत्तिमस्य यज्जनककुलं तत्र जाता परिणेतृ-
पितुरसगोत्रा दानेन जनकगोत्रनिवृत्तेरुक्तत्वात्। एवंविधाया मातुरसगोत्राया विवाहप्रसक्तौचकारणेवमुच्यते पितुरसपिण्डा ग्राह्येति। यदेवं नाभविष्यदमगांवा च यात्मन इत्येवावच्यत्। तस्मान्मातुरसपिगडा असगोत्रापि पितुरमपिण्डा असगोत्रा च परिणेयेति सिद्धम् यवीवमी वयमा
प्रमाणेन च। अरोगिणीमचिकित्सनीयव्याविरहितां भ्रातृमतौं पुत्रिकाकरणशङ्कानिवृत्तये।
अत्र मनुः।
यस्यास्तु न भवेद्भ्राता न विज्ञायेत वैपिता।
नोपयच्छेत तां प्राज्ञः पुत्रिकाधर्म्मशङ्क्येति॥
यस्याः पिता पुत्रिकाकरणाभिप्रायवान वेति न विज्ञायते तां नोपयच्छेतेत्यर्थः। एवञ्च यत्र शङ्का नास्ति ताम्रपत्रचीतेत्यर्थः उक्तो भवति। असमानार्षगोत्रजामपेरिदमार्प मर इत्यर्थः। गोत्रं वंशपरम्पराप्रसिद्धम्।आर्षञ्च गोत्रञ्च आर्पगोत्रे समाने आगोत्रे यस्य स तादृशस्तस्मादुत्पना समानार्पगोत्रजा अनेवंविधा असमानार्षगोत्रजा।गोत्रं प्रवरश्यपृथक् पृथक पदा से निमित्तम्।
परिणीय सगोत्रान्तु समानप्रवरां तथा।
त्यागं कृत्वा द्विजस्तस्यास्ततश्चान्द्रायणं चरेत् ॥
इति पार्थक्येन परिगणनात्यागश्योपभोगस्यैव न तु तस्याः।
समानप्रवरां कन्यामेकगोत्रामथापि वा।
विवाहृयति यो मूढ़स्तस्य वक्षामि निष्कृतिम्॥
उत्सृज्य तां ततो भायां मातृवत्परिपालयेत्।
इति शातातपस्मरणात्।
तत्रापस्तम्बः।
समानगोवप्रवरां कन्यामूढ्वीपगम्य229 च।
तस्यामुत्पाद्य चाण्डालं ब्राह्मण्यादेव हीयते ॥ इति।
समानप्रवरस्वरूपञ्च बौधायन आह।
एक एव ऋषिर्यावत्प्रवरेष्वनुवर्त्तते।
तावत्समानगोत्रत्वमृते भृग्वङ्गरोगणात्॥
समानगोवत्वं समानप्रवरत्वमित्यर्थः।
भृग्वङ्गिरोगणेषु विशेषमाह संग्रहकारः।
पञ्चानां त्रिषु सामान्यादविवाहस्त्रिषु ये।
भृग्वङ्गिरोगणेष्वेव शेषेष्वेकोऽपि वारयेत् ॥ इति।
पञ्चार्षेयाणामषित्रयानुवृत्ती230 न मिथो विवाहस्त्र्यार्षेयाणा सृषिदयानुवृत्तौ न शेषेष्वेकानुवृत्ती न विवाह इत्यर्थः।
बौधायनोऽपि।
द्व्यर्षियः231 सन्निपातेऽविवाहस्त्यार्षेयाणां त्रार्षेय232सन्निपातेऽविवाहः पञ्चार्षेयाणामिति।
सन्निपाते साम्य इत्यर्थः।
गोत्रभेदेऽपि प्रवरैक्यमस्ति तद्यथा संकृतिपूतिमापनणद्धि.शम्बुशैवगवानां गोत्राणामाङ्गिरसगोरिवीतसांकृत्यत्रिप्रवरेक्यम्। तथा यास्कवाधूलमौना मौकानाङ्गीनभेटेपि भार्गव वीतहव्यसावेतसेति प्रवरैक्यम्। एतेषां मिश्रो विवाहो मा भूदित्यसमानार्षग्रहणम्। यत्र तु प्रवरविकल्पो यथा आङ्गिर साम्बरीषयौवनमान्धात्रम्बरीषयौवनाश्येति, अत्रास्ति प्रवरभेदः न तु गोत्रभेदः, तन्निरासार्थ समानगोत्रग्रहणम्। एवं प्रवर गोत्रयोः पृथक् पृथक् पर्य्युदासनिमित्तत्वं ज्ञेयम्।
एवं साक्षात्परम्परया वा अवयवानुष्टत्तेर्निर्मव्यदत्वात्सर्व्वत्र निषेधप्राप्ताववधिमाह याज्ञवल्क्यः।
पञ्चमात्सप्तमादूर्धं’ मातृतः पितृतस्तथा।
मातृतःमातृकुले पञ्चमादूई पितृतःपितृकुले सप्तमादूर्द्धं सापिण्डा निवर्त्तते इत्यर्थः। पित्रादयः षट् सपिण्डाद्यातस्यैव स्वपुत्रादयश्च षट् आत्मा च सप्तमः।तथा मात्रादवचत्वारः आत्मा च पञ्चमः।
सन्तानभेदेऽपि यतः सन्तानभेदम्तमादाय गणवेद्यावत्सप्तमो भवति पित्रादिवीजतो नियोगादिना या कुलान्तरे जाता तत्रापि ऊर्द्धसप्तमाजातायां विवाहः।
पितृबन्धुभ्यःसप्तमान्मातृबन्धुभ्यश्च पञ्चमादाहवशिष्ठः।
असमानार्षेयी मस्पृष्टमैथुनामवरवयस्कां सदृशीं भायां विन्देत ।
पञ्चमीं मातृबन्धुभ्यः सप्तमीं पिटबन्धुभ्य इति बन्धुशब्दोपादानादयमर्थो गम्यते । अन्यथा कुलादित्येव ब्रूयात् ।
यच्च वशिष्ठेनोक्तम् ।
पञ्चमीं सप्तमीञ्चैव मातृतःपितृतस्तथा । इति ।
तत्सवर्णसापत्न मातृकुल विषयम् ।ब्राह्मणादीनां क्षत्रियादिदारसमुत्पन्नपितृकुलविषयञ्च233 । एकत्रा234 वयवानुवृत्तेरभावादन्यत्र235 सावभावाच्च ।
यत्तु पैठीनसिराह \।
पञ्च मातृतःसप्त पितृतस्वीनतीत्य मातृतः पञ्चातीव्यवा पितृत इति ।
अत्र चीनतीवेत्यादिकस्यायं विषयः ।यस्य माता दत्तपुची तां यः प्रतिग्रहीता पुत्तत्वेन स्वीकरोति तत्कुलम्।यस्य दत्तपुत्रः पिता तस्य दत्तिमस्य जनककुलञ्च236 एकत्रा237 वयवानु-
वृत्तेरभावादन्यत्र238 गोत्रानुवृत्तेरभावाञ्च \।
यत्तु शङ्खवचनम् \।
यद्येकजाता बहवः पृथक्षेत्राः पृथक्जनाः।
एकपिण्डाः पृथक्शौचाः पिण्डस्त्वावर्त्तत त्रिषु ॥ इति।
अस्यार्थः239। एकस्माद्ब्राह्मणादेर्जाताः पृथक् भिन्नमातृजनाः पृथग्जनाः भिन्नजातीयास्ते एकपिण्डाः सपिण्डापृथक्शौचाः पिण्डस्त्वावर्त्तते त्रिषु त्रिपुरुषमेव सापिण्ड्यमिति। एतद्भिन्नजातीयसापत्नमातृकुलविषयम्।तत्रापकृष्टजातीयानामुत्तमजातीयविवाहप्राप्तिरेव नास्ति।अनुलोमतः प्राप्तिरस्ति तत्र त्रिषु पुरुषेष्वेव240 सापिण्ड्याःयुक्तम्। उत्कृष्टजातीयावयवसंयोगेतरजातीयावयवविपरिणामात्। एवं पूर्व्वोक्तगुणविशिष्टा परिणेयेत्युक्तम्।
तत्र येषु विधिनिषेधेषु दृष्टगुणदोषी241 न स्तः केवलं शास्त्रैकसमधिगम्यौ तौ। यथा अमपिण्डा च या मातुरित्यत्र शास्त्रसमधिगम्यो गुणस्तदतिक्रमे च दोषीऽपि।अत्रातिक्रान्तशास्त्रस्य भार्य्येव न सा भवति242।भार्य्याशब्दस्याहव
नीयादिवसंस्कारशब्दत्वात्243 प्रायश्चित्तीयते च। तथाच पुत्तिकायाश्च न परिपूर्ण भार्यात्वं प्रदानाभावात्244 तथा गोत्रमपि न निवर्त्तते। एवमासुरादिविवाहेष्वपि गोत्रानिवृत्तिः,अभाव पुंस एति प्रतीचीमिति मन्त्रलिङ्गाञ्च न परिपूर्ण पुत्तिकाया भार्ग्यात्वं व्याख्यातं निरुक्तकृता। अभ्रातृकेव पुंसः पितृनेत्यभिमुखी सन्तानकण पिण्डदानाय वेति।
वशिष्ठः।
अभ्रातृका पुंसः किं पितृलभ्येति प्रतीचीं न गच्छति पुत्चत्वमेति। यत्र पुनर्दृष्टगुणदोषदर्शनेन विधिनिषेधाभिधानं यथा हीनक्रियमित्यादिना न तदतिक्रमे भार्यात्वाभावः। किन्तु नियमातिक्रमात्प्रायश्चित्तमात्रं भवति। तथा प्रसिद्ध श्रोत्रियकुलजा परिणया।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
दशपौरुषविख्याताच्छ्रोत्रियाणां महाकुलात्। इति।
मातृतः पञ्च पितृतः पञ्चेति दश।
एवं सर्व्वत्र प्राप्तापवादमाह स एव।
स्फीतादपि245 न सञ्चारिरोगदोषसमन्वितात्।
सञ्चारिणो रोगाःकुष्ठापस्मारायः। मातृसापिण्याभावेऽपि मातृगोत्राया अपि पाक्षिका निषेधो व्यासेन दर्शितः।
सगोत्रां मातुरप्येके नेच्छन्त्युद्वाहकमणि।
एके नेच्छन्तीत्यनेन पक्षे विवाहप्राप्तिर्दर्शिता।
अमेवार्थ हेतुपूर्वकं उत्तरार्द्धस एवाह।
जन्मनाम्नोरविज्ञानादुहहेदविशङ्गितः ॥
अत्र देशाचारावस्था विज्ञेया।
अथ वरलक्षणानि।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
एतैरेव गुणैर्युक्तः सवर्णः श्रोत्रियो वरः।
यत्नात्परीक्षितः पुंस्त्वे युवा धीमाञ्जनप्रियः॥
एतैः कन्यागुणैःअनन्यपूर्वकत्वयवीयस्त्वम्भ्रातृमत्त्वव्यतिरिक्तौ246 # र्युक्तः सवर्णः उत्कृष्टवर्णेवा नहीनवर्णः श्रोत्रियः श्रुताध्ययनसम्पन्नः।
कात्यायनः।
उन्मत्तः पतितः कुष्ठी षण्डश्चैव सगोत्रजः।
चक्षुः श्रोत्रविहीनश्च तथापस्मारपितः॥
वरदोषाः स्मृता ह्येते कन्यादोपाः प्रकीर्त्तिताः।
नारदः।
परीक्ष्य पुरुषं पुंस्वे निजैरेवाङ्गलक्षणैः।
पुमांश्चेदविकल्पेन247* स कन्यां लब्धुमर्हति ॥
सुबडजत्रु248जान्वस्थिसुबडांसशिरोधरः \।
यस्यापि प्लवते रेतो ह्रादि249मूत्रञ्च फेनिलम्।
पुमान् स्याल्लक्षणैरेभिर्विपरीतस्तु षण्टकः॥
अपत्यार्थ स्त्रियः सृष्टाः स्त्री क्षेत्रं वीजिनो नराः।
क्षेत्रं वीजवते देयं नावीजी क्षेत्रमर्हति ॥
अथ दारानुकल्पः।
तत्र मनुः।
सवर्णा द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।
कामतस्तु प्रवृत्तानां इमाः स्युः क्रमशोऽवराः ॥
अवरा जवन्याः।
शूद्रैव भार्ग्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृता।
ते च स्वा चैव राजस्तु ताथ स्वा चाग्रजन्मनः ॥
अथ शूद्राविषये पक्षान्तराणि स चाह।
शूद्रावेदी पतत्यवेरुतथ्यतनयस्य च।
मीनकस्य सुतोत्पत्त्या तदपत्यतया भृगोः ॥
शूद्राया वोढ़ा पततीति अत्रेरुतथ्यतनयस्य गोतमस्य च मतम्। अत एतयोर्मते शूद्राविवाह एव नास्ति। शौनकमते तु शूद्राविवाहान्न पातित्यं किन्तु सुतोत्पत्त्या, अतः शूद्रामृतुकाले नोपयच्छेदिति। एवञ्च ऋतुगमनप्रापकाणि अगमने दोषप्रापकाणि च वचनान्येतद्व्यतिरिक्तविषयाणि। भृगुमते तु न तत्र सुतोत्पत्तिरपि पातित्यहेतुः। अपि तु ब्राह्मण्यादिभार्य्यास पुत्ररहितस्य केवलशूद्रापत्यत्वं पातित्यहेतुः। ततश्च ब्राह्मण्यादिष्वप्रसूतासु शूद्रामृतौ नोपगच्छेत्। तदपत्यतयेति तान्येव शूद्रायामुत्पन्नान्येव चापत्यानि यस्य स तदपत्यस्तस्य भावस्तदपत्यता। एष एवार्थो वचनान्तरेण स्पष्टीकृतः।
शिल्पेन व्यवहारेण शूद्रापत्यैश्च केवलैरिति।
अत्र वाक्यशेषः। कुलान्चकुलतां यान्ति इति।
यच्च मनुनैवोक्तम्।
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि च तिष्ठतोः।
कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्य्योपदिश्यते॥इति।
तत्प्रथमत एव शूद्रापरिणयनविषयम्। आपद्यपि हि तिष्ठतोः सवर्णामलभमानयोरित्यर्थः। एतद्वैश्यस्यापि नियतम्।
यतः स एवाह।
हीनजातिस्त्रियं मोहादुद्वहन्तोद्विजातयः।
कुलान्येव नयन्त्याशु ससन्तानानि शूद्रुताम् ॥ इति।
हीनजातिं शूद्राम्।
सवर्णलाभे तु क्षत्त्रियादिविवाहमाह पैठीनसिः।
अभावे कन्यायाःस्नातकव्रतञ्चरेदपि वा क्षत्रियायान्तु
पुत्रानुत्पादयीत वैश्यायां वा शूद्रायां वेत्यन्ये इति ।
सर्वात्मना250 शूद्रापरिणयनिषेधमाहयाज्ञवल्क्यः।
यदुच्यते द्विजातीनां शूद्रादारोपसंग्रह।
नैतन्मम मतं यस्मात्तत्रात्मा जायते स्वयम्॥
एषु पक्षेषु यच्छाखीयस्मार्त्तो यः पक्षआट्टतस्तच्छाखीयस्यापि स एव पक्ष इत्येवंविधस्थितो विकल्पः।251
अथ दातृनिरूपणम्।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
पिता पितामहो भ्राता सकुल्यो जननी तथा।
कन्याप्रदः पूर्व्वनाशे प्रकृतिस्थः परः परः॥
सकुल्यो दायादः, दायादेष्वपि सन्निहित एवाधिकारी। प्रकृतिस्थः पातित्योन्मत्तादिदोषरहितः, अप्रकृतिस्थेन पित्रादिना कृतमप्यकृतमेव।
यथाह नारदः।
स्वतन्त्रोऽपि हि यत्कर्म्म कुर्य्यादप्रकृतिं गतः।
तदप्यकृतमेव स्यादस्वातन्त्र्यस्य हेतुतः॥
पितृत्वादिना स्वतन्त्रोऽपि सन्नप्रकृतिस्थत्वेन हेतुना परतन्त्रो
भवति। तदीयकृतं वाग्दानादिकं कार्य्यमक्कृतमेव वेदितव्यं यदि तस्मिन्वरे पतनीयदोषा अचिकित्स्यरोगा वा भवेयुः, अभावे तु252 तथैवोपरितनं कर्म्म253 प्रकृतिस्थोनिर्ब्वहेद्दष्टादृष्ट दोषाभावात्। यद्यप्रकृतिस्थदत्ताया विवाहसंस्कारोनिर्व्यूढ़स्तदा प्रधानकर्म्मणोनिष्पनत्वेनाधिकरित्वमात्रवैकल्यात्तचापि न सर्व्वात्मना प्रत्यावर्त्तनीया कन्या, एवं तर्हि अनधिकारिणां कृतमकृतमेवेत्येतद्विरुध्येत सत्यंतद्विरोधपरिहाराय परिवेत्तृविवाह इव254 तां प्रत्यावृत्य255 पुनस्तम्माएवाधिकारी दद्यात्। अत्र पुनर्विवाहोऽपि परिवेत्तृविवाहवद्विज्ञेयः। तथाच नारदोऽपि दातृक्रममाह।
पिता दद्यात्स्वयं कन्यां भ्राता वानुमते पितुः।
मातामही मातुलश्च सकुल्यो बान्धवास्तथा॥
माता त्वभावे सर्वेषां प्रकृतौयदि वर्त्तते।
तस्यामप्रकृतिस्थायां दद्युःकन्यां स्वजातयः॥
सकुल्याःपितृपक्षीयाः, बान्धवा मातृपक्षीयाः, स्वजातीयाः ब्राह्मणादयः। यस्य वर्णस्य या कन्या तज्जातीया अधिकारि256णा257
इत्यर्थः। अस्मिन्वचने भ्रात्रनन्तरं मातामहमातुलयोःक्रमेणाधिकारं प्रतिपद्येत, तदनन्तरं पितृबन्धूनामधिकारःप्रदर्शितः। अयञ्च क्रम औरसकन्यकाविषये पुत्रिकादिविषये च वेदितव्यः। पुत्रिकाप्यौरससमैव।
औरसो धर्म्मपत्नीजस्तत्समःपुत्रिकासुतः।
इति याज्ञवल्क्यस्मरणात्।
क्षेत्रजायान्तु क्रमान्तरमाह कात्यायनः।
स्वयमेवौरसींदद्यात्पित्रभावे स्वबान्धवाः।
मातामहस्ततोऽन्यां हि माता वा धर्म्मजां सुताम्॥
अस्यार्थः। औरसीं पिता स्वयमेव दद्यात्पित्रभावे बान्धवाः पितृबान्धवा दद्युः ।ततोऽन्यामौरसीव्यतिरिक्तां धर्म्मजां नियोगेन जातां क्षेत्रजान्तु पित्रभावे मातामहोदद्यात्। मातामहोदद्यादिति मातामहग्रहणं मातुलस्याप्युपलक्षणं अतस्तदभावे मातेति क्रमः। युक्तञ्चैतत्क्षेत्रजायां मातामहावयवप्राधान्यात्। एवञ्च मातामहादीनामौरसीपुत्रीदाने पितृबन्धुषु विद्यमानेष्वधिकारी नास्तीत्युक्तम्। तत्र च विषयविशेषे अपवादः श्रूयते।
दीर्घप्रवासयुक्तेषु पौगण्डेषु च बन्धुषु।
मातुलःसमये दद्यादौरसीमपि कन्यकाम्॥
पौगण्डो व्यवहाराद्यसमर्थः। समये रजोदर्शनोचितसमयात्पूर्व्वकाले पूर्व्वोक्तसकलाधिकार्य्यभावे।
मनुः।
यदा नैव तु कश्चित्258 स्यात्कन्या राजानमाव्रजेत्
अनुज्ञया तस्य वरं सवर्णं वरयेत्स्वयम्॥
वरयेदित्यनुवृत्तौ नारदः।
सवर्णमनुरूपञ्च कुलरूपवयःश्रुतैः259॥
सह धर्म्मं चरेत्तेन पुत्रांश्चोत्पादयेत्ततः ॥
पित्रादिषु सत्स्वपि कालविशेषे260 विद्यत एव स्वयंवरः।
यदाह बौधायनः।
त्रीणि वर्षाण्यृतुमती काङ्क्षेत पितृशासनम्।
ततश्चतुर्थे वर्षे तु विन्देत सदृशं पतिम्।
अविद्यमाने सदृशे गुणहीनमपि श्रयेत्261 ॥
यत्तु विष्णुनोक्तं।
ऋतुत्रयमुपास्यैव262कन्या कुर्य्यात्स्वयंवरम्। इति
तद्गुणवद्वरलाभे वेदितव्यम्।
अत्र विशेषान्तरमाह मनुः।
अलङ्कारं नाददीत पितृदत्तं स्वयंवरा।
मातृदत्तं भ्रातृदत्तं स्तेयं स्याद्यदि तं हरेत् ॥
वरं प्रत्यपि स एवाह।
पित्रे न दद्याच्छुल्कन्तु कन्यामृतुमतीं हरन्।
स हि खाम्यादतिक्रामेदृतूणां प्रतिरोधनात्॥
यमः।
कन्या द्वादश वर्षाणि या प्रदत्तार्त्तवे गृहे263।
भ्रूणहत्या पितुस्तस्याः सा कन्या वरयेत्स्वयम्॥
एवं चोपगतां पत्नीं नावमन्येत्कदाचन।
न तु तां बन्धकीं264 विद्यान्मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥
एवंविधायां बन्धकीत्वाभावी देगकालादिप्रतिबन्धाभावे सति।
अन्यथा कालातिक्रमे दोषश्रवणात्।
तथाच बौधायनः।
दयाद्गुणवते कन्यां नग्निकां धर्म्मचारिणीम्।
अपि वा गुणहीनाय नोपरुन्ध्याद्रजस्वलाम्॥
कुलीनायः265 रूपादिगुणरहिताय266।
नग्निका च दर्शिता वायुपुराणे।
पश्यत्यलज्जा याङ्गानि कन्या पुरुषसन्निधौ।
योन्यादीन्नावगूहेत तावद्भवति नग्निका॥ इति।
अमरसिंहस्त्वन्यथा प्राह।
नग्निकानागतार्त्तवा इति।
अत्रिकश्यपौ।
पितुर्गृहे तु या कन्या रजः पश्येदसंस्कृता।
भ्रूणहत्या पितुस्तस्याः सा कन्या वृषली स्मृता॥
यस्तु तां वरयेत्कन्यां ब्राह्मणी ज्ञानदुर्बलः।
अश्राद्धेयमपाङ्क्तेयं तं विद्याद्वृषलीपतिम्॥
संवर्त्तः।
रामकाले तु संप्राप्ते सोमोभुञ्जीत कन्यकाम्।
रजःकाले तु गन्धर्व्वा वह्निस्तु कुचदर्शने।
तस्मात्तामुद्वहेत्कन्यां यावन्नर्त्तुमती भवेत्।
विवाहस्त्वष्टवर्षायाः कन्यायाः शस्यतेबुधैः॥
कश्यपः।
अष्टवर्षा भवेद्भौरी नववर्षा तु रोहिणी।
दशवर्षा भवेत्कन्या अत ऊर्द्धं रजस्वला॥
एवं कन्यादाने अधिकारिणो निरूपिताः। साम्प्रतं दत्तायाः कन्यायाः क्वचित्प्रत्याहरणं निरूप्यते।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
दत्तामपि हरेत्पूर्व्वाच्छ्रेयांश्चेद्वर आव्रजेत्।
दत्तामपि हरेद्यदि पूर्व्वस्य पातकादिदोषोपसृष्टत्वमितरस्य गुणयुक्तत्वं स्यात्। तच्च सप्तपदात्प्राग्द्रष्टव्यम्।
यथाह नारदः।
स्त्रीपुंसयोस्तु सम्बन्धाद्वरणं प्राग्विधीयते।
वरणाद्ग्रहणं पाणेःसम्बन्धोऽयं त्रिलक्षणः।
तयोरनियतं प्रोक्तं वरणाद्दोषदर्शनात् ॥
पाणिग्रहणिका मन्त्रा नियतं दारलक्षणम्।
तेषां निष्ठा च विज्ञेया विद्वद्भिः सप्तमे पदे ॥ इति।
अस्यार्थः। स्त्रीपुंसयोः सम्भोगाद्वरणं प्राग्भवति। वरणात् पाणिग्रहणं, एवं सम्बन्धस्त्रिलक्षणः। वरणं पाणिग्रहणमुपभोगश्चेति त्रिविधः। गान्धर्व्वादिषु नायं क्रमः। तयोः कन्यावरयोरनियतमनियमः। वृतोऽपि न परिणीयते, वाग्दत्तापि न दीयते इत्येवंरूपः। तत्र हेतुर्व्वरणाद्दोषदर्शनादिति। वरणादूर्द्धं कन्यावरयोरन्योऽन्यं दोषदर्शनात्। अनेन च
विवाहादूर्द्धंनानियम इत्युक्तं भवति।
तत्र नियमे हेतुमाह।
पाणिग्रहणिका मन्त्रा इति।
तैर्मन्त्रैरुत्पादितसंस्कारयोर्न परित्याग इत्यर्थः।
पाणिग्रहण मन्त्रोत्पाद्यसंस्कारावधिमाह।
तेषामिति।
केचनास्मिन्वचने पाठान्तरं व्याख्यान्तरञ्च कुर्व्वते।
तद्यथा।
वरणाद्ग्रहणं पाणेःसंस्कारो ह्यग्निलक्षणः।
तयोरनियतं प्रोक्तं वरणाद्दोषदर्शनात्।
पाणिग्रहणेयः सोऽग्निलक्षणःसंस्कारोऽग्निचिह्नितो होमादिनिष्पाद्यः संस्कारः। तयोर्वरणदानपाणिग्रहणयोर्मध्ये वरण-
मेव दोषदर्शनादनियतं, न पाणिग्रहणम्।तम्मादर्व्वाक् पतित्वानुत्पत्तिरिति।
यमोऽपि।
पाणिग्रहणसंस्कारात्यतित्वं सप्तमे पदे।
एवञ्च सप्तपदादर्व्वाक् परिणेतृमरणेऽपि न विधवात्वमवगम्यते।
उक्तञ्च वशिष्ठेन।
अद्भिर्वाचा च दत्तायां म्रियेतोर्द्धं वरो यदि।
न च मन्त्रोपनीता स्यात्कुमारी पितुरेव सा।
सा पितुरेव न प्रतिग्रहीतुरित्यर्थः। सा च तद्देवराय प्रदेया तदभावे तद्गोत्राय तदभावे अन्यस्मै।इदमपि लोकविद्विष्टत्वाद्देशाचारानुसारेण भवति।
बलादपहृतायान्तु विशेषमाहतुर्यमवशिष्ठौ।
बलाद्यपहृता कन्या मन्त्रैर्यदि न संस्कृता।
अन्यस्मै विधिवद्देया यथा कन्या तथैव सा॥
बहुभ्यो वाग्दाने कात्यायनेनोक्तविशेषो द्रष्टव्यः।
अनेकेभ्यो हि दत्तायामनूढ़ायान्तु यत्र वै।
वरागमश्च सर्व्वेषां लभेतादिवरस्तुताम्॥
सर्व्वेषां वराणामागमे सतीत्यर्थः स च पूर्व्ववरोयदि दोषरहितो गुणवांश्च भवति।
वरयित्वा देशान्तरगमने नारदः।
प्रतिगृह्य च यः कन्यां वरो देशान्तरं व्रजेत्।
श्रीनृतून् समतिक्रम्य सा चान्यं वरयेद्वरम्॥
प्रतिगृह्य वरयित्वेत्यर्थः।
प्रमदाय शुल्कं गच्छेद्यः कन्यायाः स्त्रीधनं तथा।
धार्य्यासा वर्षमेकन्तु देयान्यस्मै विशेषतः267॥
अत्र विशेषमाह मनुः।
कन्यायां दत्तशुल्कायां म्रियते यदि शुल्कदः।
देवराय प्रदातव्या यदि कन्यानुमन्यते॥
कुलादिरहितेभ्योऽपि कन्या प्रत्याहरणीयेत्याह
वशिष्ठः।
कुलशीलविहीनस्य षण्डादिपतितस्य च।
अपस्मारिविधर्म्मस्य रोगियां वेशधारिणाम्।
दत्तामपि हरेत्कन्यां स्वगोत्रोढ़ां तथैव च॥
अत्र पुनर्विवाहादिविशेषस्तु पूर्व्वमेव निरूपितः।
अदुष्टकन्यापरित्यागे विशेषमाह नारदः।
प्रतिगृह्य तु यः कन्यामदुष्टामुत्सृजेद्वरः।
विनेयः सोऽर्थदण्डेन कन्यां तामेव चद्वहेत्॥
कात्यायनः।
वरदोषमनाख्याय पाणिं गृह्णाति यो नरः।
याचनं च प्रकुर्व्वीत तद्दानं नाप्नुयात्तु सः।
कन्यादापेऽप्येवमेव दाता दण्ड्यो वरस्तथा॥
नारदः।
नादुष्टां दूषयेत्कन्यां नादुष्टं दूषयेद्वरम्।
दोषे सति न दोषः स्यादन्योऽन्यं त्यजतस्तयोः॥
मनुः।
विधिवप्रतिगृह्यापि त्यजेत्कन्यां विगर्हिताम्।
व्याधितां विप्रदुष्टाञ्च छद्मना चोपपादिताम्॥
विप्रदुष्टामन्यगतभावां छद्मना अन्यकन्योपदर्शनेन। एवमुक्तलक्षणाय वरायोक्तलक्षणकन्या देयाधिकारिणेत्युक्तो विवाहः सप्रपञ्चः। सोऽपि ज्येष्ठानुक्रमेणेति शास्त्रनियमः।
अत्र क्वचिदपवादविषये मनुः।
जड़ान्धवधिरादीनां विवाहोऽस्ति यथोचितम्।
विवाहासम्भवे तेषां कनिष्ठो विवहेत्तदा।
पितृव्यपुत्रे सापत्नेपरदारसुतादिषु।
विवाहाधानयज्ञादौ परिवेदो न दूषणम्॥
शातातपोऽपि।
नाग्नयः परिविन्दन्ति न च दानतपांसि268 च।
न च श्राद्धं कनिष्ठस्य या च कन्या विरूपिका269 ॥
अन्येऽपि विशेषा आवसथ्याधानप्रकरणे वक्ष्यन्ते।
अथ विवाहभेदः।
तत्र मनुः।
यो यस्य धर्म्मो वर्णस्य गुणदोषौ च यस्य यौ।
तद्वःसर्व्वं प्रवक्ष्यामि प्रसवे च गुणागुणान्॥
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।
गान्धर्व्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चष्टमोऽधमः॥
ब्राह्मविवाहलक्षणं तत्सन्ततिफलञ्चाह
याज्ञवल्क्यः।
ब्राह्मी विवाह आहूय दीयते शक्त्यलङ्कृता।
तज्जः पुनात्युभयतः पुरुषानेकविंशतिम्॥
उभयतः पित्रादीन्दश पुत्रादीन्दश आत्मानं चैकमित्येकविंशतिं पुनाति। यद्वाउभयतो मातृतो दश पितृतो दश आत्मानञ्चेत्येकविंशतिम्।
यथा।
यज्ञस्थऋत्विजे दैव आदायार्षस्तु गोद्वयम्270।
यज्ञे प्रारब्धे कन्यामलङ्कृत्ययत्रर्त्विजे दीयते स दैवः। वैराय देयामिथुनं वृषभं गाञ्च गृहीत्वा यथाशक्कालङ्कृता यत्र तस्मै दीयते स आर्षः। गोद्वयग्रहणं प्रदर्शनार्थम्।
यतः मनुः।
एकं गोमिथुनं द्वेवा वरादादाय धर्म्मतः। इति।
एतद्गोमिथुनं पित्रादिश्चेद्गृह्णाति तदा विक्रय एव।
तथाच मनुः।
आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैव तत्।
अल्पोऽपि वा महान्वापि विक्रयस्तावदेव सः॥ इति
कन्यार्थं यदि गृह्णाति तदा न दोष इत्याह स एव।
यासान्नाददते शुल्कं ज्ञातयो न स विक्रयः।
अर्हणं तत्कुमारीणामानृशंस्यं हि केवलम्॥
यच्छुल्कंकन्यार्थं तत्कुमारीणामर्हणं पूजनमानृशंस्यमपापिष्ठम्।
तच्छुल्कंकन्यायै दद्यादित्यर्थः।
दैवार्षयोः फलमाह याज्ञवल्क्यः।
चतुर्द्दश प्रथमजः पुनात्युत्तरजश्च षट्।
प्रथमजो दैवविवाहजः, उत्तरज आर्षविवाहजः। सप्त पूर्व्वान् सप्तावरान् इति चतुर्द्दश। त्रीन्पूर्व्वान्त्रीनवरानिति षट्। पुनाति उभयत्र स्वस्य मध्यस्थितत्वादेव पवित्रता।
तथौ।
इत्युक्त्वा चरतां धर्म्मं सह या दीयतेऽर्थिने।
सकायःपावयेत्तज्जः षट् षट् वंश्यान् सहात्मना॥
सह धर्म्मंचरतामिति परिभाषणपूर्व्वकमलङ्कृता कन्या यत्र दीयते सकायःप्राजापत्यस्तस्यां जातः षट् पूर्व्वान् षट् परानात्मानं चेति त्रयोदश पावयेत्। अथवान्योऽर्थः आत्मना सह षट् पूर्व्वानात्मना सह षट् परानिति एकादश पावयेत्।
तथा।
आसुरो द्रविणादानाद्गान्धर्व्वःसमयान्मिथः।
राक्षसोयुद्धहरणात्पैशाचः कन्यकाच्छलात्॥
आत्मार्थं द्रविणमादाय कन्यार्पणं स आसुरः अस्य मानुष इत्यपि संज्ञा।
तथाच हारीतः।
शौल्केन मानुष इति।
कन्यावरयोरन्योऽन्यरागेण यः समयः त्वं मे भार्य्यात्वं मे पतिरिति स गान्धर्व्वः। समयपूर्व्वकमुपभोगोऽपि गान्धर्व्वएव। युद्धहरणा द्राक्षसः क्षात्रइत्यभिधीयते।
यथाह हारीतः।
अलङ्कृतामभिजयः क्षात्र इति।
कन्यकाच्छलाच्छलनं छलः, कपटेन स्वापाद्यवस्थासु कन्यकायामछलेनोपहरणं पैशचोविवाहः।कन्यकां छलादित्यपि पाठः।न चासुरादिविवाहेषु सप्तपादातिक्रमणाभावात्पतित्वभार्य्यात्वयोरनुत्पत्तिरित्याशङ्कनीयम्। तत्रापि स्वीकारानन्तरमेव संस्कारविधानात्।
तथाच देवलः।
गान्धर्व्वादिविवाहेषु पुनर्वैवाहिको विधिः।
कर्त्तव्यश्च त्रिभिर्वर्णैः समयेनाग्निसाक्षिकः॥
गृह्यपरिशिष्टेऽपि ।
गान्धर्व्वासुरपैशाचो विवाहोराक्षसश्च यः।
पूर्व्वं परिणयस्तेषां ततो होमो विधीयते॥
परिणयः स्वीकारादि।
एवं स्थिते वर्णव्यवस्थया विवाहनियममाह
मनुः।
षड़ानुपूर्व्या विप्रस्य क्षत्त्रस्य चतुरोऽवरान्।
विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद्धर्म्म्यानराक्षसान्॥
अस्थार्थः। ब्राह्मादीन् षड़ानुपूर्व्या क्रमेण ब्राह्मणस्य धर्म्म्यान् धर्म्मादनपेतान्विद्यात्, ते च षट् बाह्म्यो दैव आर्ष्यःप्राजापत्य आसुरो गान्धर्व्वश्चेति।
यत्तु कश्यपेनोक्तम्।
क्रीता द्रव्येन या नारी न पत्नी सा विधीयते।
न सा दैवे न सा पित्रे दासीं तां कश्यपोऽब्रवीत् ॥ इति
तद्वक्ष्यमाणशास्त्रविवाहासम्भवे सति द्रष्टव्यम्। क्षत्रस्य अवरान् पश्चादुक्तानासुरगान्धर्व्वराक्षसपैशाचान्धर्म्म्यान् जानीयात् विट्शूद्रयोस्तु अराक्षसान्राक्षसवर्ज्जितान्तानेवासरादिपैंशाचान्तान्धर्म्म्यान्विद्यात्।केचनैवं व्याचक्षते—षट् ब्राह्मादि गान्धर्व्वान्तान्विप्रस्य, क्षत्रस्य प्राजापत्यादिराक्षसान्तांश्चतुरः। विट्शूद्रयोस्तु आसुराराक्षसादीन् प्राजापत्यादीन्तानेव धर्म्म्यान्विद्यात्। पैशाचपरित्यागे च हेतुमप्युपदिशन्ति। हेतुश्च नारदमनुवचने।
चत्वारो ब्राह्मणस्याद्याः शस्ता गान्धर्व्वराक्षसौ।
राज्ञस्तथासुरो वैश्ये शूद्रे चान्यस्तु गर्हितः॥
स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचःकथितोऽष्टमः। इति।
एषामपि मध्ये प्रशस्तानाह मनुः।
चतुरो ब्राह्मणस्याद्यान् प्रशस्तान् कवयो विदुः।
राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयोः॥
अयमर्थः। ब्राह्मो दैव आर्षःप्राजापत्यश्चेति चतुरो ब्राह्मणस्य प्रशस्तानाहुः।क्षत्रियस्यैकं राक्षसमेव प्रशस्तं, वैश्यशूद्रयोः आसुरमेव।ब्राह्मणस्य ब्राह्मादिप्राजापत्यान्तो मुख्यःकल्पः, राक्षसोऽनुकल्पः अनन्तक्षत्त्रधर्म्मत्वात्271। क्षत्रस्य राक्षसो मुख्यः चतुरोऽवरानित्यत्र मते272 आसुरगान्धर्व्वराक्षसपैशाचा इति चत्वारः273। एतन्मते274 आसुरगान्धर्व्वपैशाचोऽनुकल्पः275। यन्मते तु276 प्राजापत्यादयश्चत्वारः प्राजापत्यासुरगान्धर्व्वराक्षसाइति, तन्मते तु प्राजापत्यादयस्त्रयोऽनुकल्पः। तथा वैश्यशूद्रयोरासुरो मुख्यः कल्पः, गान्धर्व्वपैशाचावनुकल्पःप्राजापत्यगान्धर्व्वौवा।
एवं स्थिते ब्राह्मणस्यापत्कल्पमाह
मनुरेव ।
पञ्चानान्तु त्रयो धर्म्म्य द्वावधर्म्म्यौ स्मृताविह।
पैशाचआसुरश्चैव न कर्त्तव्यौ कदाचन॥
प्राजापत्यासुरगान्धर्व्वराक्षसपैशाचानां मध्ये त्रयःप्राजापत्यगान्धर्व्वराक्षसाः। अधर्म्म्यतावेव दर्शयति पैशाचआसुरश्चेति। मुख्यकल्पमध्ये277 परिगणितस्यापि प्राजापत्यस्यापत्कल्पमध्यपरिगणन278मार्षापेक्षया प्राजापत्यस्यापकृष्टताद्योतनार्थं पुनात्युत्तरजश्चषड़ित्यार्षविवाहजापेक्षया सकायः पावयेत्तज्जः षट् षट्वंशान् सहात्मनेति प्राजापत्यविवाहस्याधिक्यश्रवणात्प्राजापत्यस्याधिक्यं द्योतयति तन्मा भूदिति ।
क्षत्रियस्यापत्कल्पमाह।
पृथक् पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौपूर्व्ववेदिनौ।
गान्धर्व्व्योराक्षसश्चैव धर्म्मौ क्षत्रस्य तौस्मृतौ॥
पृथक् पृथक् मुख्योऽनुकल्पश्चेति व्यवस्थितविकल्पत्वेनाभिहितः, तत्र पूर्व्वोक्तविवाहौ यदि मिश्रौ भवतः स मिश्रविवाहउच्चते। मिश्रविवाहमेवोदाहृत्यदर्शयति गान्धर्व्वो राक्षसश्चेति। यथा प्रथमं गान्धर्व्वेणपरिगृह्यतद्बन्धुषु विरुद्वेषु युद्धेन हरणमेतच्च प्रदर्शनार्थं अतश्चानेदैव न्यायेन वर्णा-
न्तराणामप्यूहनीयम्। वैश्यशूद्रयोरप्यापकल्पेऽतिनिन्दितोऽपि पैशाचोग्राह्यः।तथा वैश्यशूद्रवृत्तेरपि विप्रादेः।
तथाच वत्सः।
सर्व्वोपायैरसाध्या स्यात्सुकन्या पुरुषस्य वै।
चौर्य्येणापि विवाहेन सा विवाह्या रहःस्थिता॥ इति।
चौर्य्येण पैशाचेन।
सकलविवाहोपयोगविशेषो यज्ञपार्श्वेनोक्तः।
विवाहे वितते तन्त्रे होमकाल उपस्थिते।
कन्याया ऋतुरागच्छेत्कथं कुर्व्वन्ति याज्ञिकाः॥
स्नापयित्वा तु तां कन्यामर्च्चयित्वा यथाविधि।
युञ्जान279 आहुतिं दत्त्वा280 ततस्तन्त्रं281प्रवर्त्तयेदिति॥
याज्ञवल्क्योनाप्यन्यो विशेषो दर्शितः।
पाणिर्ग्राह्यःसवर्णासु गृह्णीयात्क्षत्त्रिया शरम्।
वैश्या प्रतोदमादद्याद्वदने त्वग्रजन्मनः॥
स्त्री शरादिकं गृह्णाति तत्पाणिस्थितञ्च वरी गृह्णीयादित्यर्थः।
अग्रजन्मन इत्युत्कृष्टोपलक्षणम्।
तथाच मनुः।
वसनस्य दशा ग्राह्या शूद्रयोत्कृष्टवेदन इति।
विधवानियोगो नात्र विचारसरणिमारोपितो282 युगान्तरविषयत्वात्।
विवाहे वर्षमासादिशुद्धिर्ज्योतिःशास्त्रेऽभिहिता।
सिंहस्थं मकरस्थञ्च गुरुं यत्नेन वर्ज्जयेत्।
सिंहस्थे तु मघासंस्थं गुरुं यत्नेन वर्ज्जयेत्॥
अन्यत्र सिंहभागे तु विवाहादि विधीयते।
मनुः।
नर्म्मदापूर्व्वभागे तु शोणस्योत्तरदक्षिणे।
गण्डक्याःपश्चिमे पारे मकरस्थो न दोषभाक्॥
ज्योतिःसारसागरे।
अतिचारगतो जीवः स्वं राशिं नैति चेद्यदि।
लुप्तसंवत्सरो ज्ञेयः सर्व्वकर्म्मवहिष्कृतः॥
माघफाल्गुनवैशाखज्यैष्ठाषाढ़मृगाह्वयाः।283
षड़ेते पूजिता मासाश्चातुर्व्वर्ण्यस्य नित्यशः।
मार्गे मासि तथा ज्यैष्ठे क्षीरं परिणयं व्रतम्।
ज्येष्ठपुत्रदुहित्रोस्तु यत्नेन परिवज्र्जयेत्॥
श्रेष्ठं पक्षमुशन्ति शुक्लमसितस्याद्यं विभाग284ं तथा
रिक्तां प्रोह्य तिथिं तथर्त्त्वयनयोः सन्धिञ्च शेषाः शुभाः।
अमायाञ्चैव भद्रायां285 करणे विष्टिसंज्ञिते।
यः करोति विवाहं स शीघ्रं याति यमालयम्॥
प्रतिपद्दुःखजननी द्वितीया प्रीतिवर्द्धिनी।
सौभाग्यदा तृतीया स्याच्चतुर्थी चार्थनाशिनी॥
पञ्चम्यां सुखवित्तानि षष्ठी विघ्नप्रदा मता।
विद्याशीलसुखाप्तिःस्यात्सप्तम्यामफलाष्टमी॥
नवमी शोकभयदा आनन्दो दशमीदिने।
सुखदैकादशी ज्ञेया द्वादशी सफला स्मृता।
मानपुत्तौ त्रयोदश्यां चतुर्द्दश्यौ286 तु दोषदे॥
फलं बहुविधं ज्ञेयं पञ्चदश्यां287विशेषतः।
न चेह शुक्लप्रतिपदुदयन्ती निषिध्यते॥
अत्रापि कृष्णपक्षस्य दशमीं ह्यविवाहिकीम्।
वदन्त्यन्ये तु दशमीमुभयोरविवाहिकीम् ॥
गुरुशुकेन्दुपुत्राणां दिनेषु परिणीयते।
या कन्या सा भवेन्नित्यं भर्तुश्चित्तानुवर्त्तिनी।
अर्कार्किभौमवाराणां दिनेषु कलहप्रिया।
सापत्न्यं समवाप्नोति तुषारकरवासरे॥
तत्र दिनेत्यभिधानाद्रात्रावभ्यनुज्ञा गम्यते।
तथाच स्मरन्ति।
न वारदोषाः प्रभवन्ति रात्राविति।
यावज्जीवन्तु कन्या सा भर्त्रासह वियुज्यते।
दुःखं पश्चादामरोगैरश्विन्यां याति पञ्चताम्॥
याम्ये288 षड्भिर्मासैर्वैधव्यं याति निर्धनत्वञ्च।
धनकनकभूषणयुता पाणिग्रहणे तु कृत्तिकायाञ्च॥
पश्चात् षष्ठेऽब्दे याति पञ्चत्वम्।
प्राजापत्ये289 सुभगा पतिव्रता भामिनी प्रिया भर्तुः।
शुचिरनुकूला भर्त्तुः प्रियंवदा सोमदैवतेः290 कन्या।
आर्द्रापाणिग्रहणे वर्षेणैकेन याति पञ्चत्वम्।
त्रिभिरव्दैरादित्ये291कन्या समुपैति पतिमन्यम्॥
अ्ब्दचतुष्कात्कन्या कुलविद्वेषिणी भवति पुष्ये।
अश्लेषास्वपि कन्या पाणिग्रहणे समेत्य भर्त्तारम्॥
सप्तभिरव्दैर्दुष्येत्292अथ कुलटात्वं समाप्नोति।
भवति त्रिवर्गयुक्ता293पित्रे294पाणिग्रहे हि सम्प्राप्ते॥
भाग्ये295सत्यसौभाग्यं दासीत्वं याति निर्भया कन्या।
अव्दैकेऽतिक्रान्ते पतिमरणं प्राप्नुयाच्चैव॥
व्यपगतशोका सुभगा भोगवती सुप्रजा प्रिया भर्तुः।
अर्य्यम्णि296 शशियुक्ते कन्या वर्षद्वयेनेतीति297॥
हस्ते पाणिग्रहणं समेत्य कन्या पतिव्रता नित्यम्।
आत्मप्राणवियोगमवाप्नुयात्कन्यका चाव्दात्॥
अथवा शीलभ्रंशं स्वाष्ट्रे298 प्राप्नोति बान्धवकुलात्।
स्वातौधर्म्मसमेता पतिदयिता बन्धुवल्लभा साध्वी॥
ऐन्द्राग्न्याख्ये299 कन्या बुद्धिभ्रष्टा प्रयाति पतिमन्यम्।
अव्दचतुष्केऽतीते, मैत्रे300कन्याप्नुयाद्धनं सौख्यम्॥
भर्त्तुरवज्ञां कृत्वा दुःखान्यनुभूय शक्रमे301॥ कन्या।
दशमेंऽब्दे वैधव्यं प्रयाति यद्यष्टमे न मृता॥
मूले सधना साध्वी पत्युरतिप्रियतमा प्रहृष्टा च।
अशुचिरनाचारा दासरतान्यथा302 समेति भर्तारम्॥
अब्दद्वयेन कन्या ज्ञेया सा पूर्व्वाषाढ़ासु।
विदधाति वैश्वदैवे303 भर्त्तुर्वित्तञ्च गुरुजनानुरता॥
पाणिग्रहणमुपयाते श्रवणे नैकत्र सा रमते।
विभ्रष्टस्मृतिशौचा मृत्युमुखं याति वसुदैवे304॥
ईर्षारोगेण हता यमसदनं याति वारुणे305पश्चात्।
आजैकपादे306 कन्या दुःशीला दुर्भगा दरिद्रा च॥
अहिब्रध्ने307कन्या मणिकनकविभूषणं प्रभूतमाप्नोति।
प्राप्नोति शीलं शौचं पौष्णे308 शय्यासनोपकरणानि॥
वैधृतिके परिणीता कन्या विकलेन्द्रिया, व्यतीपाते।
विद्यान्मरणं नित्यं सुभगा षट्स्वपि वरेषु309करणेषु
ध्रुवकरणैः शकुनाद्यैः पाणिग्रहणणध्रुवं मृत्युः।
दुष्टपूर्व्वमपहाय दिनार्द्धभागं
विष्टिप्रदुष्टमपि नष्टविधुं310 तिथिश्च।
शेषाःशुभा अशुभास्तथान्ये
पूर्वोक्तमत्र सकलं हि विचिन्तनीयम्॥
शनैश्चरदिने प्राप्ते यदि रिक्ता तिथिर्भवेत्।
तस्मिन्विवाहिता कन्या पतिसन्तानवर्द्धिनी॥
मेषे कुमारेष्वनुरक्तचित्ता311
विहीनवित्ता गवि, गोव्रता च।
कुलद्वयानन्दकरी तृतीये
कुलीरलग्ने कुलटा नृशंसा।
हरौ312 प्रसूता सुकृताश्रिता पितुः
पितुःप्रिया च श्वशुरस्य षष्ठे313।
रूपाभिमानार्थवती तुलाधरे
तथालिनि क्रन्दति नित्यमस्थिरा।
धनुषि कुलटा तत्पूर्व्वार्द्ध सत्यपरे314 जगुः।
मृगघटभषेष्वन्यासक्ता315 जरामुपगच्छति॥
पञ्च पाणिग्रहे दोषा वर्ज्जनीयाः प्रयत्नतः।
दारिद्रा मरणं व्याधिः पुंश्चल्यमनपत्यता ॥ इति।
तथा गुरुशुक्रास्तादिष्वपि विवाहादिनिषेधो ज्योतिःसारसागरे।
बाले शुक्रे वृद्धेशुक्रे जीवे नष्टे वृद्धे जीवे।
बाले जीवे जीवे सिंहे जीवादित्ये सिंहादित्ये॥
तथा मलिम्लुचे मासि सुराचार्य्येऽतिचारगे।
वापीकूपतड़ागादिक्रियाः316प्रागुदितास्त्यजेत्॥
अस्तादिलक्षणं ब्रह्मसिद्धान्ते।
रविणा सन्धिरन्येषां ग्रहाणामस्त उच्यते।
अर्व्वागूर्द्धमवस्था स्यान्मौढ्याद्वार्द्धकशैशवे॥ इति।
बालवृद्धद्वयोरवधिर्दामोदरीये।
प्राग्बालो दिवसत्रयं दशदिनं पश्चात्सितो वृद्धताम्
पक्षे वासरपञ्चके च लभते पक्षे गुरुः सर्व्वतः।
तत्पश्चाद्गुरुशक्रयोर्विमलयोः कुर्य्याद्विवाहं सिते
कृष्णे वासरपञ्चकञ्च शिववन्न स्याद्दशाहः परः॥ इति।
वार्हस्पत्ये तु।
प्राक् पश्चादुदितः शुक्रः पञ्च सप्तदिनं शिशुः।
विपरीतन्तु वृद्धत्वं तद्वदेव गुरोरपीति॥
अत्र देशभेदेन आपदा च व्यवस्थामाह गार्ग्यः।
शुक्रो गुरुः प्रागपरार्ककालो।317
विन्ध्ये दशावन्तिषु सप्तरात्रम्।
वङ्गेषु हूनेषु318 च षट् च पञ्च
शेषे च देशे त्रिदिनं वदन्ति॥ इति।
अस्मिन्वचने येऽधिककालास्ते देशभेदेन व्यवस्थिता इति न विरोधः।
मिहिरोऽपि।
बहवो दर्शिताः काला ये बाल्ये वार्द्धकेऽपि वा।
ग्राह्यास्तत्राधिकाः शेषा देशभेदात्तथापदेति ॥
इति विवाहविधिः।
अथावसथ्याधानम्।
आवसथ्यस्य गृह्यस्य अग्नेराधानमावसथ्याधानम्।
तद्विवाहकाले चतुर्थीकर्म्मानन्तरं कुर्य्यात्। प्रयोगमध्ये प्रयोगान्तरकरणाधिकाराभावाद्वैवाहिकोऽग्निरेव औपासनाग्निरित्याश्वलायनादीनां पक्षः, दायाद्यकाले आवसथ्याधानम् इत्येकेषां मतम्। दायाद्यकालो नाम भ्रातॄणां पितृधनस्य विभागकालः। अविभक्ते पितृधने सर्व्वेषां भ्रातृणां स्वत्वस्य साधारणत्वेन विनियोगानर्हत्वात्319 धनविनियोगसाध्य320 मावसप्यादिकर्म्मानुष्ठानमतो भ्रातृमतो विभक्तस्यैवाधानेऽधिकारइति तेषामभिप्रायः, अन्येषान्तु मते समुदितधनस्यापि स्वत्वमस्तीतरानुज्ञया विवाहकालो भवतीत्यभिप्रायः।
तथा पारस्करः।
आवसथ्याधानं दारकालेवा321 दायकाल322 एकेषामिति।
व्यासोऽपि।
अग्निर्वैवाहिको येन न गृहीतः प्रमादतः।323
पितर्य्युपरते तेन ग्रहीतव्यः प्रयत्नतः॥
यो गृहीत्वा विवाहाग्निं गृहस्थः प्रतिमन्यते।324
अन्नंतस्य न भोक्तव्यं वृथापाको हि स स्मृतः॥
एतच्च ज्येष्ठाधिकारिणो द्रष्टव्यम्। कनीयांस्तु ज्येष्ठे कृताग्निपरिग्रहे विद्यमाने स्वयमध्ययनादिनिष्ठो325ऽग्निपरिग्रहमकुर्व्वन्नपि न प्रत्यवैति।326
तथाच गर्गः।
पितृपाकोपजीवी वा भ्रातृपाकोपजीवकः।
ज्ञानाध्ययननिष्ठो वा न दुष्येताग्निना विना॥
अध्ययननिष्ठ इति प्रथमाध्ययनपरम्। अत्र च ज्येष्ठे विद्यमाने न कनीयसामधिकारः।
तथाच मनुशातातपौ।
दाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुते योऽग्रजे स्थिते।
परिवेत्ता स विज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्व्वजः॥
अग्रजश्च सोदर एव, अन्यमातृजो न।
तथाह वशिष्ठः।
पितृब्यपुत्रान् सापत्नान् परनारीसुतांस्तथा।
दाराग्निहोत्रसंयोगो न दोषः परिवेदने॥
परनारीसुता दत्तकादयः।
अन्यमपिविशेषं छन्दोगपरिशिष्टे
कात्यायन आह।
देशान्तरस्थक्लीवैकवृषणांश्चासहोदरान्।
वेश्यानिष्ठान्त्त्य327 पतितशूद्रतुल्यातिरोगिणः॥
जड़मूकान्धवधिरकुब्जवामनखञ्जकान्॥328
अतिवृद्धानभार्य्यांश्च कृषिसक्कान्नृपस्य च ॥
धनवृद्धिप्रसक्तांश्च329 कामतः कारिणस्तथा।
कुटिलोन्मत्तरोगांश्च परिविन्दन्न दुष्यति ॥
एतेषामाधानाद्यधिकाराभावादेव न दोष इत्यर्थः। देशान्तरस्थिते सोदरे वशिष्ठेन विशेषः कथितः।
अष्टौ दश द्वादश वर्षाणि ज्येष्ठं भ्रातरमनिर्विष्टमप्रतीक्षमाणः प्रायश्चित्ती भवति।
अनिर्विष्टमकृतविवाहाग्निहोत्रम्। कालविकल्पस्त्वेवं ज्ञेयः।
तत्र पुनः पुनः श्रूयमाणे सुप्रदेशे स्थिते द्वादश वर्षाणि, किञ्चित् श्रूयमाणे नातिसुप्रदेशस्थिते दश, नदीपर्व्वतचौराद्याकुलदूरतरदेशस्थिते अश्रुयमाणे वाष्टौ वर्षाणीति।यत्र ज्येष्ठोऽधिकार्य्यपि आधानं न करोति, तत्र तदनुज्ञया कनीयसा कर्त्तव्यम्।
यथाह सुमन्तुः।
ज्येष्ठभ्राता यदा तिष्ठेदाधानं नैव चाश्रयेत्।330
अनुज्ञातस्तु कुर्व्वीत शङ्खस्य वचनं यथा॥
वृद्धवशिष्ठोऽपि।
अग्रजस्तु यदानग्निः प्रकुर्य्यादनुजः331कथम् ।
अग्रजानुमतः कुर्य्यादग्निहोत्रं यथाविधि॥
हारीतोऽपि।
अधिकारिभ्रातुरनुज्ञापूर्व्वकमाधानमनुजानीते न विवाहम्।
सोदराणान्तु सर्वेषां परिवेत्ता कथं भवेत्।
दारैस्तु परिविद्यन्ते नाग्निहोत्रेण नेज्यया॥
पितृविषयेऽपि सुमन्तुः।
पित्रा यस्य तु नाधीतं कथं पुत्रः स कारयेत्।
अग्निहोत्रेऽधिकारोऽस्ति शङ्खस्य वचनं यथा॥
नाधीतमग्निरहित इत्यर्थः। अत्राप्यनुज्ञापूर्व्वकमित्यवगन्तव्यं
समानन्यायत्वात्।
आधानार्थमग्निः कुतो ग्राह्य इत्याकाङ्क्षायां स्मृत्यन्तरे दर्शितम्।
आधानं विधिवद्वैश्यकुलाट्राष्ट्रादथापि वा।
महानसादरण्युत्थद्दारदायादकालयोः332॥
वैश्यस्य पशुसमृद्धस्य गृहात्, महानसाद्वहुपाकवतो ब्राह्मणस्य महानसात्।
तथाच कात्यायनः।
वैश्याद्वहुपशोरम्बरोषा333द्वहुयाजिनो ब्राह्मणस्येति।
अरणिलक्षणं स्मृत्यन्तरेऽभिहितम्।
अश्वत्यो यः शमीगर्ब्भःप्रशस्तोर्व्वीसमुद्भवः।
तस्य या प्राङ्मुखी शाखा चोदीची चोर्द्धगाऽपि वा।
अरणिस्तन्मयी ज्ञेया तन्मय्येवोत्तरारणिः।
सारवद्दवारवं चत्रमोविली च प्रशस्यते॥
सारवद्धलवत्, खदिरादिदृढ़काष्ठनिर्म्मितमित्यर्थः।चत्रं यस्मिन् काष्ठे रज्जुं वेष्टयित्वा प्रमध्यते तत्। ओविली चत्रस्योपरि विलयुक्तं, तन्नियन्त्रणार्थं यद्दीयते तत्।
संसक्तामूली यः शम्याः शमीगर्ब्भःस उच्यते।
अलामे त्वशमीगर्ब्भादुद्धरेदविलम्बितः॥
चतुर्व्विंशाङ्गुला दीर्घा विस्तारेण षङ्गुला।
चतुरङ्गुलमुत्सेधा अरणिर्याज्ञिकैः स्मृताः334॥
मूलादष्टाङ्गुलं त्यक्त्वा अग्राच्च द्वादशाङ्गुलम्।
औविली द्वादशैव स्यादेतन्मन्थनयन्त्रकम्335॥
प्रमन्थश्चत्रस्याधोभागेऽरणिकाष्ठनिर्म्मितमग्निप्रमथनार्थं यद्दीयते स उच्यते। अधोभागे प्रमन्थकाष्ठसंबद्धचत्रस्योपरि ओविलीं निधाय चत्रं नेत्रेण वेष्टयित्वा प्रमथनं कुर्य्यात्।
गोबालैः शणमिश्रैस्तु336 त्रिवृत्तममलात्मकम्।
व्यामप्रमाणं337 ने338त्रंस्यात्तेन मन्थ्यो हुताशनः॥
क्षत्रवृध्ने प्रमन्थाग्रं गाढ़ङ्कृत्वा विचक्षणः।
इत्यत्र नक्षत्रनियमञ्च ज्योतिः शास्त्रे !
उत्तरात्रितय339पौष्ण340 रोहिणीपौरुहत341 बहुला342
द्विदैवतैः343 पुष्यसोम344 सहितैर्द्विजन्मनःस्याद्हुताशनपरिग्रहो हितः।
इत्यावसथ्याधानम्।
अथोपासनस्य चोपासनम्।
कुत आरम्येत्याकाङ्क्षायामाह
पारस्करः।
उदयप्रभृतीनि।
अथ स एव कालनियममाह।
अस्तमितानुदितयोरिति।
अस्तमितञ्च अनुदितञ्च अस्तमितानुदितं तयोः।
अस्तमितलक्षणं छन्दोगपरिशिष्टे।
यावत्सम्यक् न भाव्यन्तेः345 नभस्यृक्षाणि सर्व्वतः।
न च लौहित्यमापैति तावत्सायञ्च हूयते॥
अनुदितस्य तु द्वैविध्यं, अनुदितः समयाध्युषितश्च।
तथाच मनुः।
उदितानुदिते चैव समयाध्युषिते तथा।
सर्व्वथा वर्त्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिरिति।
अनुदितसमयाध्युपितलक्षणमाह
कात्यायनः।
रात्रेः षोड़शमे भागे ग्रहनक्षत्रदूषिते।346
कालन्त्वनुदितं ज्ञात्वा होमं कुर्य्याद्विचक्षणः॥
तथा प्रभातसमये नष्टे नक्षत्रमण्डले।
रविर्यावन्न दृश्येत समयाध्युषितं चरेत्॥347
रेखामात्रश्च दृश्येत रश्मिभिश्चसमन्वितः।
उदितं तं विजानीयात्तत्र होमं प्रकल्पयेत्॥
तत्र वाजसनेयिनां नियमेनानुदितहोमः। सूर्य्यें हवा अग्निहोत्रमित्यारभ्य तस्मादुदितहोमिनां विच्छिन्नमग्निहोत्रमह इति। उदितहोमनिन्दापूर्व्वकमनुदितहोमसमर्थनात्, तथा तत्समानतन्त्राणां छन्दोगादीनामपि, आश्वलायनादीनामुदितहोमः।तथा तैत्तिरीयके ब्राह्मणे अनुदितहोमे निन्दा श्रूयते।
प्रातः प्रातरनृतं ते वन्दिपुरोदयः। जुह्वति ये चाग्निहोत्रं दिवाकीर्त्त्यमदिवा कीर्त्तयन्तः सूर्य्यज्योतिर्न तदा ज्योतिरेषामिति।
होमद्रव्याणि च स्मृत्यन्तरे प्रदर्शितानि।
दर्ब्भात्तण्डुलैरक्षतैर्वा तदभावे श्यामाक, नीवार. वेणु, यव, कन्द, मूल, फलादीनि इति। तण्डुलशब्दो व्रीहियवोपलक्षणार्थः।
अतएव श्रुतौ
व्रीहिभिर्यजेत यवैर्व्वायजेत वा।
वेणुयवा वेणुवीजानि।
आहुतिपरिमाणञ्च स्मृत्यर्थसारे।
वीहीणाञ्च यवानाञ्च शतमाहुतिरिष्यते।
व्रीहिवदेव तण्डुला अपि।
यद्दा धान्यं348 चतुःषष्टिराहुतेःपरिकीर्त्तितम्।
तिलानान्तु तदर्द्धंस्यात्तदर्द्धंस्याद्धृतस्य च॥
यावति प्रदेश उक्तसंख्यकास्तिलास्तिष्ठन्ति, तदर्द्धदेशव्यापिघृतमाहुतौ भवतीत्यर्थः। एवं सायं प्रातर्नित्यहोमो निवर्त्तनीयः।
होमे कर्त्तारो दर्शिताः स्मृत्यर्थसारे।
यजमानः प्रधानं स्यात्पत्नी पुत्तश्च कन्यका।
ऋत्विक्शिष्यो349। गुरुभ्राता भागिनेयः सुतापतिः350॥
एतैरेव हुतं यत्तु तद्भुतं स्वयमेव तु।
पत्नी कन्या च जुहुयादिना पर्य्युक्षणक्रियाम्॥
असमक्षन्तु दम्पत्योर्होतव्यं नर्त्विगादिना॥
द्वयोरप्यसमक्षं चेद्भवेद्भुतमनर्थकम्।
सन्निधौ यजमानः स्यादुद्देशत्यागकारकः॥
असन्निधौ तु पत्नी स्यादध्वर्य्युस्तदनुज्ञया।
उन्मादे प्रसवे चर्त्तौकुर्व्वोतानुज्ञया विना॥
नोपवासी प्रवासे स्यात्पत्नी धारयते ध्रुवम्351।
सर्व्वदा यजमानो वा त्यजेत्तद्दिङ्मुखः शुचिः॥
अग्निधमने च विशेषो दर्शितः कात्यायनेन।
जुहूषंश्च हुते चैव पाणिसूर्पाश्मदारुभिः।
न कुर्य्यादग्निधमनं न कुर्य्याद्व्यजनादिना352॥
मुखेनैव धमेदग्निं मुखादेष ह्यजायत।353
तथा।
नाग्निं मुखेनेति वचो लौकिके योजयन्ति तत्।
यदा मुखेन धमनं तदा न नलिकादिव्यवधानेन साक्षादिति ज्ञेयम्।
बौधायनः।
आसायं कर्म्मणः प्रातराप्रातः सायकर्म्मणः।
आहुतिर्नातिपद्येत पार्व्वणं पार्व्वणान्तरात्॥
मैत्रायनीयपरिशिष्टेऽपि।
ऋषयो हस्तप्राप्ता युका आसंस्ते अग्निहोत्रेणातर्प्यन्ते
समस्तहोमानपश्यंस्तथा द्विरात्रायषड्रात्रायार्द्धमासायमासायाग्निहोत्रमनुजुहुवुः।तस्माद्यायावर354 आमयाव्यार्तो355।वार्द्धमासाग्निहोत्रं जुहुयात्। पक्षादौ पर्व्वणोऽन्ते सायञ्च प्रातरेव चतुर्द्दश चतुर्गृहीतानि सकृदुन्नयनमेका समित्सकद्होमः। सकृत्पाणिमार्जनमिति। पक्षादौ यजनीयेऽहनि प्रतिपदि पर्व्वणोऽन्ते पक्षान्तेऽमावस्यादावौपवसध्ये अग्न्याधानदिने.356 अत्र च पक्षान्ते सायंकाले चतुर्द्दश पञ्चदश वा आगामिदिनपरिगणनेन357 स्वशाखोक्तप्रकारेण चतुरात्तादीनि358हवींष्युपापादाय सकृच्च सम्मार्ज्जनादिकं विधाय सकृदेव होमः कर्त्तव्यः। देशकालकर्त्तृदेवताहविषामेकत्वात्तन्त्रम्। एवं पक्षादौ यजनीयेऽहनि प्रातराप्रातश्च गौणकालाश्रयणं पक्षहोमञ्च दैवात्कम्मण उत्कर्षे प्रवासादिनिमित्तेच वेदितव्यम्। न सर्व्वदा एवं द्वित्य्रादिदिनार्थमपि निमित्तसद्भावे तन्त्रेण होम।
पक्षहोमे विशेष359माह।
मरीचिः।
पक्षहोमानथो दत्त्वा गत्वा कस्मान्निवर्त्तते360।
होमं पुनः प्रकुर्व्वीत भवेच्च न च दोषभाक्॥
पक्षहोमानित्युपलक्षणमतोऽन्यत्राप्येवमेव, अत्र च सायंहोमेयद्द्रव्यं स्वीकृतं हविष्केण तदेव प्रातर्होमेऽपि नान्यत्। यतः सायमुपक्रमः प्रातरपवर्गोऽयमेक एव प्रयोगः। एकस्मिंश्चप्रयोगे प्रक्रान्तद्रव्यपरित्यागेन द्रव्यान्तरस्वीकरणं न युज्यते, इति व्रीहियववाक्यमीमांसायाममीमांसि मीमांसकैः। अथ दैवात्सायंहोमगृहीतद्रव्यं प्रातर्होमे न प्राप्येत तदा तद्द्रव्यप्रतिनिधिभूतं द्रव्यान्तरं गृह्णीयान्न तूक्तव्रीह्यादिमध्ये अन्यतमं ग्राह्यम्।अप्रतिनिधिद्रव्यान्तरे प्रकृतिद्रव्यावयवाभावात्प्रतिनिधौप्रकृतिद्रव्यावयवसम्भवाच्च। एतदपि प्रतिनिधिपदे निर्णोतम्।
स्मृत्यर्थसारे।
हव्यार्थेगोघृतं ग्राह्यं तदभावे तु माहिषम्।
आजं वा तदभावे तु साक्षात्तैलं ग्रहीयते॥
तैलाभावे ग्रहीतव्यं तैलं यत्तिलसम्भवम्।
तदलाभे तु सस्नेहःकौसुम्भः सर्षपोद्भवः॥
वृक्षस्नेहोऽथवा ग्राह्यः पूर्व्वीलाभे परः परः।
तदलाभे यवव्रीहिश्यामाकान्यतमोद्भवम्॥
पिष्टमालोड्य यत्नेन361 घृतार्थे योजयेत्सुधीः।
वृक्षतैलेषु पुत्रागनिम्बैरण्डोद्भवं त्यजेत्॥
येषां केषाञ्चिदन्येषां हविषामप्यसम्भवे।
सर्व्वत्राज्यमुपादेयं भरद्वाजमुनेर्मतात्॥
अथ प्रसङ्गात्सकलनित्यनैमित्तिककर्म्मोपयोगितया मुख्यकालातिक्रमे गौणकालो निरूप्यते। ननु को मुख्यः को वा गौणः उच्यते। यो विहितः स मुख्यः, यथा वृद्धिश्राद्धादौ प्रातरादिः, यश्च विहितसमीपवर्त्ती उपरितनस्तेष्वेव कर्मस्वङ्गत्वं नीयमानः सङ्गवादिकालः स गौणः।
तदाहुःत्रिकाण्डमण्डनमिश्राः।
यश्चागामियागीयमुख्यकालादधस्तनः।
स्वकालादुत्तरी गौणः कालःपूर्व्वस्य कर्म्मणः॥
यद्वागामिक्रियामुख्यः कालस्याप्यन्तरालवत्।
गौणकालत्वमिच्छन्ति केचिप्राक्तनकर्म्मणि ॥ इति।
अस्थायमर्थः। पूर्व्वोत्तरयोः कर्म्मणोर्मध्ये पूर्व्वस्य कर्म्मणः स्वकालादुत्तरो यः कालः उत्तरकर्म्मकालावधिकः स पूर्व्वकर्मणो गौणकालः, अथवा आगामिक्रियाया उत्तरक्रियाया मुख्यकालस्तस्यापि प्राक्तनकर्म्मणि पूर्व्वकर्म्मणि केचिद्गौणकालत्वमिच्छन्ति। तत्र दृष्टान्तः अन्तरालवदिति। यथा
पूर्व्वोत्तरकर्म्मणोर्मध्यकालःपूर्व्वकर्म्मणि गौणःतद्वदुत्तरकर्म्ममुख्यकालोऽपि पूर्व्वकर्म्मऩणणि गौण इत्यर्थः362। न तूत्तरकर्म्ममुख्यकालः पूर्व्वकर्म्मानुष्ठाने363।हि न स्वीकर्त्तुमुचितः तथाहि पूर्व्वंकर्म्म तावत्स्वकालातप्र्च्युतं विनष्टप्रायं तदुत्तरकर्म्मकाले क्रियमाणं तस्मादुत्तरकर्म्मापसारयति364। ततश्च स्वकालाद्विच्युतं तदपि प्रनष्टरूपं भवति। तदपिउत्तरकर्म्मकाले365 यदि क्रियते तर्हि विनष्टसमाधानशतं प्रसज्येतेति366चेद्वाढमेवम्।उत्तरकर्म्मकाले पूर्वोत्तरयोः कर्म्मणोरवकाशे367॥ सतीदमुच्यते। न पुनरसतीति368 न दोषः। एवं स्थितेविचार्य्यते किमयं
गौणः काल सर्व्वेषां नित्यनैमित्तिककाम्यकर्म्मणां मुख्यकालासम्भवे अङ्गमुत नेति तत्र ब्रूमः। काम्यवर्ज्यं नित्यनैमित्तिकानि सर्व्वाण्यपि मुख्यकालातिक्रमे गौणकाले कर्त्तव्यानीति। आवश्यकेषु नित्यनैमित्तिकेषु यथा शक्नुयात्तथा कुर्य्यादित्यभिधानाद्विहिताङ्गाभावे तत्सदृशप्रतिनिधिग्रहणस्य न्याय्यत्वान्मुख्यकालातिक्रमे गौणकालो ग्राह्यः।
तथाच मण्डनमिश्रः।
मुख्यकाले यदावश्यं कर्म्मकर्त्तुं न शक्यते।
गौणकालेऽपि कर्त्तव्यं गौणोऽप्यत्रैदृशो भवेत्॥ इति।
ईदृशःमुख्यकाल सदृशः।
अत्रापि विशेषस्तेनैवोक्तः।
गौणेष्वेतेषु कालेषु कर्म्म चोदितमाचरन्।
प्रायश्चित्तप्रकरणप्रोक्तां निष्कृतिमाचरेदिति॥
निष्कृतिं प्रायश्चित्तम्।
तथा।
प्रायश्चित्तमकृत्वा वा गोणकालं समाचरेत्।
देशकालशक्त्यप्रेक्षयाप्रायश्चित्तकरणमकरणं वेति व्यवस्था।
तथा स्मृत्यन्तरमपि।
यथा कथञ्चिकर्त्तव्यं369 नित्यकर्म्म विजानता।
न प्राप्तस्य विलोपोऽस्ति पैतृकस्य विशेषतः॥
तथा।
दिवोदितानि कर्म्माणि प्रमादादकृतानि वै।
यामिन्याःप्रहरं यावत्तावत्सर्व्वाणि कारयेत्॥
श्राद्धे तु विशेषः।
सन्ध्यारात्र्योर्न कर्त्तव्यं श्राद्धं खलु विचक्षणैः। इति। सन्ध्यायां रात्रौ च श्राद्धं न कर्त्तव्यमित्यर्थः। एतदुक्तं भवति यदा शक्नुयात्तदा कुर्य्यात्। इत्युपबन्धात्370 काम्येषु न गौण स्वीकारः नित्यनैमित्तिके तु यथा शक्नुयादित्युपबन्धद्गौणपरिग्रह इति।
तथाच पैठीनसिः ।
प्रधानसचिवान्यङ्गानि भवन्ति न भवन्ति वेति।
काम्ये प्रधानसचिवत्वमितरत्रासचिवत्वम्। सचिवत्वं सदृशत्वम्। प्रधानमिवाङ्गान्यपि मुख्यान्येव न गौणानीत्यर्थः। यदि एवं तर्हि दर्शपौर्णमासपार्व्वणश्राद्धादीनाममावास्यादिविहितकालातिक्रमे तदनन्तरगौणकालकर्त्तव्यता प्रसज्येतेति चेत्। अस्तु नाम का नो हानिर्गौणकालस्वीकारवादिनां, एवं प्राप्ते सिद्धान्तोऽभिधीयते। काले हि कर्म्म विधीयते, न कर्म्मणि कालः, यत्स्वेच्छाविनियोगा371हे। तदुपादेयम्। यदुपादेयं तद्विधेयम्। कालस्तु स्वेच्छया कर्त्तुं न शक्यः372। अतएवानुपा-
देवपञ्चकमध्ये मीमांसकैः कालः परिगणितोऽतः कालोद्देशेन कर्म्मविधातव्यम्। तथाच कालो निमित्तं निमित्तभूतकालाभावेऽधिकाराभावात्कालान्तरे कृतमक्कतमेवेति। गौणकालग्रहणं नोचितम्। विहितकालाभावे चाधिकाराभावः स ह्यफलाधिकरणे373 प्रापणाच्च निमित्तस्येत्यस्मिन् सूत्रे प्रतिपादितः।
लोकाक्षिरपि गौणस्यापरिग्राह्यत्वमाह।
गणिताज्ज्ञायते कालः काले तिष्ठन्ति देवताः।
वरन्त्वेकाहुतिः काले नाकाले लक्षकोटयः॥
यत्तु मण्डनमिश्रैरभिहितम्।
गौणकालेऽपि कर्त्तव्यं गौणोऽप्यत्रेदृशो भवेत्। इति।
तद्दिवोदितानि कर्म्मणीत्यादिना यत्र गौणकालाभ्यनुज्ञानं वाचनिकं तद्विषयम्।
अतएव मण्डनमिश्राः।
मुख्यकाले हि मुख्यञ्चेत्साधनं नैव लभ्यते।
तत्कालद्रव्ययोः कस्य मुख्यत्वं गौणतापि वा॥
मुख्यकालमुपाश्रित्य गौणमप्यतु374 साधनम्।
न मुख्यद्रव्यलाभेन375 गौंयकालप्रतीक्षणम्॥ इति।
यत्तु।
यथाकथञ्चित्कर्त्तव्यं नित्यं कर्म्म विजानता। इति।
तस्यायमभिप्रायः। स्वकालं प्राप्तस्य कर्म्मणो मुख्यद्रव्याभावेन विलोपो न कर्त्तव्यः। अपि तु मुख्यकाल एव मुख्यद्रव्याभावेऽषि प्रतिनिधिद्रव्येन कर्म्म निवर्त्तनीयमिति। अतो वचनमन्तरेण संवसरर्त्तुमासतिथ्यादिकालविशेषविहितानि कर्म्माणि स्वकालातिक्रमे कालान्तरे कर्त्तुं न युज्यन्ते अपि तु तदतिक्रमे प्रायश्चित्तमेव कुर्य्यात् यच्च गौणकालानुष्ठानं दृश्यते तच्छिष्टगर्हापरिहरर्णाय स्वमनः परितोषाय वेति। एवं सर्व्वमनवद्यम्।
इति गौणमुख्यकालनिर्णय \।
अथ समाचारप्राप्तद्विरागमने शुभाशुभकालादिः।
तत्र सुरेश्वरः।
वैशाखे सुभगा प्रभूतधनिनी मार्गे च पुत्त्रान्विता
फाल्गुन्ये प्रियवल्लभा प्रियतमा नित्यं प्रिया पुत्रिणी।
बन्ध्या निर्धनदुर्भगा विरहिणी सोद्वेगता नित्यमो
नूनं देवसमापि दुःखमतुलं लेमेऽन्यमासे गता ॥
मार्गफाल्गुनवैशाखे शुक्लपक्षे शुभे दिने।
गुर्व्वादित्यविशुद्धौ स्यान्नित्यं पत्नीदिरागमः॥
बादरायणः।
बीहारांशुधनोत्तरादितिगुरुत्वाष्ट्रानुराधाश्विनी
शक्रे भास्करवायुविष्णुवरुणब्राह्मे376 प्रशस्ते तिथौ।
कुम्भाजालिगते रवौ शुभकरे प्राप्तोदये377 भार्गवे.
जीवारास्फुजितां378 दिने नववधूसद्मप्रवेशः शुभः ॥
भर्तुः शोभनगोचरे हिमकरे नास्तं गते भार्गवे
सूर्य्येकीटवटाजगे शुभदिने पक्षे तु कृष्णेतरे।
हित्वा दिक्प्रतिलोमगौ बुधसितौलालाटगं379 दिक्पतिं
चानीता गुणशालिनी नववधूर्नित्योत्सवैर्नन्दते ॥
पूर्व्वतोऽभ्युदिते शुक्रे प्रयायाद्दक्षिणोत्तरे।
पश्चादभ्युदिते चैव यायात्पूर्व्वोत्तरे दिशौ ॥
पवनपुनःप्रवेशे देशानां विप्लवे तथोद्वाहे नववध्वा गृहापने प्रतिशक्राविचारणा नास्ति।
इति द्विरागमनम्।
अथाधिवेदनम्।
तत्र मनुः।
मद्यपासत्यवृत्ता च प्रतिकूला च या भवेत्।
व्याधिताप्यधिवेत्तव्या हिंस्रार्थघ्नी च सर्व्वदा॥
मद्यपेति यज्जातीयाया यन्निषिद्धं मद्यं तत्पानकर्त्र्यभिधीयते।असत्यवृत्ता असाध्वाचारा प्रतिकूला भर्त्तुरनिष्टकारिणी हिंस्रा पुत्रदासादिताड़नशीला अर्धघ्नी उपेक्षादिना अर्थविनाशकारिणी। अधिवेदनं भार्यान्तरपरिग्रहः।
याज्ञवल्क्यः।
सुरापी व्याधिता धूर्त्ता बन्ध्यार्थघ्न्यप्रियंवदा।
स्त्रीप्रसूश्चाधिवेत्तव्या पुरुषद्वेषिणी तथा॥
धूर्त्ता वञ्चनप्रधाना स्त्रीप्रसूः स्त्रीमात्रजननी।
अधिवेदनप्रतीक्षणे काला मनुनोक्काः।
बन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याव्दे दशमे तु मृतप्रजा।
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥
अधिवेत्तव्येति शेषः।
देवलः।
आकाङ्क्षेताष्टवर्षाणि भत्तातिप्रसवां स्त्रियम्।
दश बन्ध्याञ्च निन्याञ्च द्वादश स्त्रीप्रसूयतीम्॥
ततो विन्देत विधिना पुत्रार्थे धर्म्मतः स्त्रियम्।
पुत्रलाभात्परं लोके नास्ति हि प्रसवा हि ते॥
अतिप्रसवा प्रसवः पुष्पं रजः तद्योग्यकालमतिक्रान्ता। निन्द्या
श्वित्रादियुक्ता। प्रसवाःफलानि ते पुत्राः।
एकामूढ्वा तु कामार्थमन्यां वोढुं य इच्छति।
समर्थस्तोषयित्वार्थैः पूर्व्वोढ़ामपरां वहेत्॥
अष्टदशकालप्रतीक्षा380 विकल्पा वयःशक्त्यपेक्षया व्यवस्थिता बोद्धव्याः। समर्थस्तोषयित्वार्थैरित्यत्रार्थैरित्युपलक्षणम्। अत उपायान्तरेणापि सा परितोषणीया, येषु तु अधिवेदननिमितेषु न कालविशेषः श्रूयते तेषु यावता कालेन तद्दोषनिश्चयो भवति तावत्कालं प्रतीक्षेत।
याज्ञवल्क्यः।
अधिविनस्त्रियै दद्यादाधिवेदनिकं समम्।
न दत्तं स्त्रीधनं यस्यै दत्ते त्वर्द्धं प्रकीर्त्तितम्॥
आधिवेदनिकमधिवेदनप्रयोजनमलङ्करणादि यस्यै पूर्वं विवाहादिसमये स्त्रीधनमलङ्कारादि न दत्तं तस्यै समं दातव्यम्। पश्चादुह्यमानाया यावद्दीयते तावदित्यर्थः। दत्ते तु पूर्व्वमेवालङ्कारादिके दत्ते अर्द्धं, अत्रार्द्धशब्दोऽशमात्रपरो न तु समांशपरः पूर्व्वस्यै दत्तमलङ्कारादिकं नवोढ़ालङ्कारात्र्यूनं चेद्यावता तत्साम्यं भवति तावद्दातव्यमित्यर्थः।
मनुः।
अधिविन्नातु या नारी निर्गच्छेदुषिता गृहात्।
सा सद्यः सन्निरोद्धव्या त्याज्यावा कुलसन्निधौ॥
याज्ञवल्क्यः।
अधिविन्नातु भर्त्तव्या महदेनोऽन्यथा भवेत्।
यत्रानुकम्पं दम्पत्यो स्त्रिवर्गस्तत्र381 वर्द्धते॥
मनुः।
चतस्रतु परित्याज्याः शिष्यगा गुरुगा च या।
पतिघ्नी च विशेषेण जुङ्गितोपगता च या॥
जुङ्गितःप्रतिलोमजः।
अत्र विशेषमाह याज्ञवल्क्यः।
हृताधिकारां मलिनीं पिण्डमात्रो382 पजीविनीम्।
परिभूतामधःशय्यां वासयेद्व्यभिचारिणीम्॥
इत्यधिवेदनम् \।
अथ स्त्रोधर्म्मः
।
तत्रादौ तासामवश्यरक्षणीयत्वं प्रदर्श्यते।
तत्र मनुः।
प्रजनार्थंमहाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः।
स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥
उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम्।
प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्रीनिबन्धनम्॥
अपत्यं धर्म्मकार्य्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा।
दाराधीनास्तथा स्वर्गःपितृृणामात्मनस्त्विह॥
तस्माद्यत्नेन रक्ष्येत भर्त्तव्या मनुरब्रवीत्॥
अस्वतन्त्राः स्त्रियः कार्य्याः पुरुषैः स्खैर्दिवानिशम्।
विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या ह्यात्मनो वशे॥
पिता रक्षति कौमारे भर्त्ता रक्षति यौवने।
पुत्त्रा रक्षन्ति वार्द्धक्योन स्वातत्न्यं क्वचित्स्त्रियः॥
सूक्ष्मेभ्योऽपि प्रमादेभ्यः स्त्रियो रक्ष्या विशेषतः।
द्वयोर्हि कुलयोः शोकमावहेयुररक्षिताः।
भारते।
पानं दुर्ज्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्।
स्वप्नोऽन्यगेहे वासश्च स्त्रीणां वै दूषणानि षट्॥
नैता रूपं परीक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः।383
सुरूपं वा कुरूपं वा पुमानित्येव भुञ्जते॥
एवं स्वभावं ज्ञात्वासां प्रजापतिनिसर्गजम्।
परमं यत्नमातिष्ठेत् पुरुषो रक्षणं प्रति॥
शय्यासनमलङ्कारं कामं क्रोधमनार्ज्जवम्।
द्रोहभावं कुकार्य्यञ्च स्त्रीभ्यो मनुरकल्पयत्॥
यादृग्गुणेन भर्त्रास्त्री संयुज्येत यथाविधि।
तादृग्गुणा सा भवति समुद्रेणेव निम्नगा384 ॥
अथ रक्षोपायाः।
न कश्चिद्योषितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम्।
एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम्॥
अर्थस्य संग्रह चैनां व्यये चैव नियोजयेत्।
शौचे धर्म्मेऽन्नपक्त्यां385 च पारिणावय्यस्य386 रक्षणे॥
अथ स्त्रीकर्त्तव्यधर्म्माः।
तत्र मनुः।
बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता।
न स्वातन्त्र्येण कर्त्तव्यं किञ्चित्कार्य्यंगृहेष्वपि ॥
पित्रा भर्त्रासुतेनापि नेच्छेद्विरहमात्मनः।
एतेषां विरहेण स्त्री गर्हिता स्यात्कुलद्वये॥
सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्य्येषु दक्षया।
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया॥
याज्ञवल्क्याः।
संयतोपस्क387रे दक्षा हृष्टा व्ययपराङ्मुखी।
कुर्य्यात्श्वशरयोः पादवन्दनं भर्त्तृतत्परा॥
स्त्रीभिर्भर्त्तृवचः कार्य्यमेष धर्म्मःपरः स्त्रियः।
आशुद्धेः सम्प्रतीक्षोहि महापातकटूषितः॥
मनुः।
विशीलकामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्ज्जितः।
उपच388र्य्यःस्त्रिया साध्य्वासततं देववत्पतिः
नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम्।
पतिःसंसेव्यते येन389 तेन स्वर्गे महीयते॥
पत्यौजीवति या स्त्री स्यादुपोप्य व्रतचारिणी।
आयुष्यं हरते भर्तुर्नरकं चाधिगच्छति॥
पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री जीवती वा मृतस्य च।
पतिलोकमभीप्सन्ती नाचरेत्किञ्चिदप्रियम्।
मृतेजीवति पत्यौच या नान्यमुपगच्छति।
सेह कीर्त्तिमवाप्नोति मोदते चोमया सह॥
स्कान्दे।
प्रसुप्तन्तु सुखासीनं रममाणं यदृच्छया।
आतुरेष्वपि कार्य्येषु390पतिं नोत्सापयेत्त391्क्वचित्॥
स्त्रीधर्म्मिणी त्रिरात्रन्तु स्वमुखं नैव दर्शयेत्।
स्वं वाक्यं श्रावयेन्नापि यावत्स्नाता392 न शुध्यति॥
सुस्नाता भर्तृवदनमीक्षेन्नान्यस्य कस्यचित्।
अथवा मनसि ध्यात्वा पतिं भानुं विलोकवेत्॥
हरिद्रां कुङ्कुमञ्चैव सिन्दूरं कज्जलं तथा।
कूर्पासकञ्च393 ताम्बूलं मङ्गल्याभरणं शुभम्॥
केशसंस्कारकबरीकरकर्णविभूषणम्।
भर्त्तुरायुष्यमिच्छन्ती दूरयेन394्नक्वचित्सती॥
न रजक्या न कामुक्या395तथा श्रमण्यापि396 च।
न च दुर्भगया वापि सखित्वं कुरुते तु सा॥
भर्त्तृविद्वेषिणीं नारीॆ न सम्भाषेत कर्हिचित्॥
नैकाकिनो क्वचिद्भूयान्नानग्ना स्नााति वै क्वचित्।
नोटूखले न मूषले न वर्द्धन्यां397 दृषद्यपि398।
न यन्त्रके न देहल्यां399 न स्त्री चोपविशेत्क्वचित्।
उक्ता प्रत्युत्तरं दद्याद्या नारी क्रोधतत्परा।
सा शुनी जायते ग्रामे शृगाली विजने वने॥
अपराधो न वक्तव्यः कलहं दूरतस्त्यजेत्।
गुरूणां सन्निधौ क्वापि नो ब्रूयाच्च न वा हसेत्॥
ताड़िता ताड़ितुं चेच्छेत्सा व्याघ्री वृषदंशिका400।
कटाक्षैर्वीक्षते या तु भर्त्तारं कुपिता हठात्।
केकराक्षी401 तु सा नूनं भवेद्वैनात्र संशयः॥
भर्त्तारं या समुत्सृज्य मिष्टमश्नाति केवलम्।
ग्रामे वा शूकरी वा स्याद्गर्द्दमी वा श्वविड्भुजा॥
याज्ञवल्क्यः।
पतिप्रियहिते युक्ता स्वाचारा विजितेन्द्रिया।
इह कीर्त्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमां गतिम् ॥
शङ्खः।
नानुक्ता गृहान्निर्गच्छेन्नानुत्तरीया न त्वरितं व्रजेत् न परपुरुषं भाषेतान्यत्र बणिक्प्रव्रजितवृद्धवैद्येभ्यो न नाभिं दर्शयेत्। आगुल्फाद्वासपरिदध्यान्न स्तनौ विवृतौ कुर्य्यान्नहसेदनपावृतं न भर्त्तारं तद्बन्धून्वाद्वियान्नगणिका402धूर्त्ताभिचारिणी403प्रवजिताप्रेक्षणिका404 मायामूलकूहककारुका405रिकादुःशीलादिभिः सहैकत्र तिष्ठेत्संसर्गे चारित्रं दुयतीति।
अयञ्च सकलस्त्रीधर्म्मोविवाहाटूर्द्धंवेदितव्यः।
अथ पतिव्रताविशेषधर्म्माः।
तत्र मनुः।
कन्यां विवाहसमये वाचयेयुरिति द्विजाः।
भर्तुः सहचरी भूयाज्जीवतोऽजीवतोऽपि वा।
भर्त्ता देवो गुरुर्भर्त्ता धर्म्मतीर्थव्रतानि च।
तस्मात्सर्व्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्च्चयेत्॥
भुङ्क्ते भुक्ते पतौ या तु ह्यासीना चापि वासिते।
विनिद्रिते विनिद्राति प्रथमं परिवुध्यते॥
अनलङ्कृतमात्मानं पत्युर्नो दर्शयेत्क्वचित्।
कार्य्यार्थे प्रोषिते पत्यौसर्व्वमङ्गलवर्ज्जिता॥
न च तन्नाम गृह्णीयात्तस्यायुष्यं विवर्द्धयेत्।
पुरुषान्तरनामापि न गृह्णीयात्कदाचन॥
आक्रुष्टापि न चाक्रोशेताड़ितापि प्रसीदति।
इदं कुरु कृतं स्वामिन्मन्यतामिति च क्वचित्॥
आहूता गृहकार्य्याणि त्यक्त्वा गच्छति सत्वरम्।
पूजोपकरणं सर्व्वमनुक्ता शोधयेत्स्वयम्॥
नियमोदकवह्नींश्चपत्रपुष्पादिकञ्च यत्।
सा च ते भर्त्तुरुच्छिष्टं मिष्टमन्नफलादिकम्॥
महाप्रसादमित्युक्त्वा पतिदत्तं प्रतीच्छति।
हारीतः।
मातृकं पैतृकञ्चैव यत्र चैव प्रदीयते।
कुलत्रयं पुनात्येषा भर्त्तारं यानुगच्छति॥
अयञ्च सर्व्वासां स्त्रीणां पतिव्रतानामगर्ब्भिणीनामबालापत्यानामाचाण्डालं साधारणोधर्म्मः। अपतिव्रतादीनामधिकारात्। ननु च अपतिव्रतादीनामप्यधिकारोऽनुगमने श्रूयते।
तथाच महाभारते।
अवमन्य च या पूर्व्वं पतिं दुष्टेन चेतसा।
वर्त्तते या च सततं भर्तॄणां प्रतिकूलतः॥
भर्त्रानुमरणं406 काले याः कुर्व्वन्ति यथाविधि।
कामात्क्रोधाद्भयान्मोहात्सर्व्वाःपूताः भवन्त्युत॥
आदिप्रभृति407। या साध्वी पत्युःप्रियपरायणा।
ऊर्द्धं गच्छति सा तत्र भर्त्रानुमरणं गता॥ इति।
नैतत्सारं408 उतशब्दश्रवणात्सर्व्वाःपूता भवन्त्युतेति पत्यवमानकर्त्र्यादीनामपि पापक्षयोऽस्ति किमुतादिप्रभृति या साध्वी तस्याः पापक्षयः परलोकश्च विद्यत इति। साध्व्याउत्तमलोकप्राप्तिविधायकवाक्यशेषत्वेन तच्छ्रावकत्वेनापि चरितार्थत्वात्। साधारणार्थत्वञ्च भर्त्तारं यानुगच्छतीत्यविशेषोपादानादेव गम्यते। यानि च ब्राह्मण्यनुगमननिषेधपराणि पैठीनस्यङ्गिरःप्रभृतीनां वाक्यानि।
मृतानुगमनं नास्ति ब्राह्मण्या ब्रह्मशासनात्।
या स्त्री ब्राह्मणजातीया मृतं पतिमनुव्रजेत्।
सा स्वर्गमात्मघातेन नात्मानं न पतिं नयेत्॥
इत्येवमादीनि तानि पृथत्चितिविषयाणि।
पृथक्चितिं समारुह्य न विप्रा गन्तुमर्हति॥
अन्यासाञ्चैव नारीणां स्त्रीधर्म्मोऽयं परः स्मृतः।
इत्युशनसो विशेषस्मरणात्। इत्थञ्चान्वारोहस्य स्वर्गादिफलयुक्तत्वेन काम्यत्वात्।
अतएव विकल्पमाह विष्णुः।
मृते भर्त्तरि ब्रह्मचर्य्यं तदन्वारोहणञ्चेति।
देशान्तरमृते पत्यौ ब्राह्मण्यास्तदस्थिभिः सहानुगमनं भवत्येव। इतरासान्तु अस्थ्यभावेऽपि पतिपादुकादिकचिह्नं किमपि गृहीत्वा चिह्नाभावेऽपि भवति। पृथक्चित्यनुज्ञानाननु च पतिव्रताया इदमनुगमनं नित्यमेव।
तथाच हारीतः।
आर्त्तार्त्ते मुदिते हृष्टा प्रोषिते मलिना कृशा।
मृते म्रियेत या पत्यौ सा स्त्री ज्ञेया पतिव्रता409 ॥
अतो मृते या म्रियेत पतिव्रतेत्यनेन नित्यत्वं द्योत्यते। अतः अनित्यत्ववर्स्मनमयुक्तमिति चेन्मैवम्।
मृतें भर्त्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्य्येव्यवस्थिता।
स्वर्गं गच्छेदपुत्त्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः ॥ इति।
मनुना पतिव्रताया अननुगमनस्याभिहितत्वात्।अत्र साध्वीत्यनेन पतिव्रताभिधीयते। अन्यथा ब्रह्मचर्य्येव्यवस्थितेत्यनेन पौनरुक्त्यप्रसक्तः410। तथा महाभारते भगवान्व्यासः।
पतिव्रतायाःसत्या अग्निप्रवेशं दर्शयति न चाग्निप्रवेशेन पतिव्रतात्वम्।
पतिव्रता संप्रदीप्तं प्रविवेश हुताशनम्।
तत्र चित्राङ्गदधरं भर्त्तारं सानुपद्यते॥ इति।
न च तस्माद्दहनपुरुषायुषः स्वकामी प्रेयादिति श्रुतिविरोधःविषयभेदात्। श्रुतिर्हि सामान्येन शास्त्राविहितं स्वेच्छामरणं निषेधति। स्मृतिस्तु भर्त्तरि मृते ज्वलनप्रवेशविशेषेण मरणविशेषं विधत्ते। अतो विषयभेदान्नविरोधः। यथा न411 हिंस्यात् सर्व्वभूतानि सामान्यशास्त्रमग्निषोमीयं पशुमालभेतेति विशेषशास्त्रविषयनुत्सृज्य प्रवर्त्तते तद्वदत्रापि इति न कश्चिद्विरोधः। ननु
ब्रह्मोघ्नो वाकृतघ्नो वा मित्रघ्नो वा भवेत्पतिः।
पुनात्यविधवा412नारी तमादाय म्रियेत या॥
इत्येवमादि हारीतादिवाक्यानि ब्रह्महत्यादिदोषनिवृत्तिमनुगमनेनाभिदधति। एतदनुपपन्नं शास्त्रफलं413 प्रयोक्तृविलक्षणत्वादिति न्यायेनापूर्व्वफलयोः कर्त्तृसमवेतत्वात्। पतिगतदुरितापूर्व्वस्य पत्नीगतानुगमनेनानिवृत्तिः। निवृत्त्यम्युपगमे तु कार्य्यकारण्योःसामानाधिकरण्यं शास्त्रसिद्धं
व्याहृत्येतेति चेत् वाढम्। ब्रह्मघ्नो वेत्यादीनि वाक्यानि अनुगमनविधिशेषत्वेनार्थवादादनुगमनस्य प्राशस्त्यं वर्ण्ययन्ति।अतो स्वार्थे प्रमाणानि युक्तमेवार्थवादत्वम्। ब्रह्महननादिदोषदुष्टस्य पतितत्वेनासौ संस्कारमेव तावन्नार्हति दूरेऽनुगमनमतः प्राशस्त्यपराणीति न कदाचिदनुपपत्तिः। एवं वा द्विविधं कर्म्म प्रारब्धमप्रारब्धञ्चेति। तत्र प्रारब्धकर्म्मणां भोगादेव क्षयात्प्रारब्धमपि अनुगमनरूपप्रतिबन्धकेन प्रतिबद्धम्। विद्यमानम प्यविद्यमानमिव सदुदास्ते। तथाचानुगमनस्वर्गादिकमनुभूय पश्चात्प्रारब्धशेषमुपभुङ्क्ते। अप्रारब्धकर्म्म द्विविधं फलदानोन्मुखममुन्मुखञ्च यदुन्मुखं प्रारब्धं414 कर्म्म तदनुगमनेनापनुद्यते प्रायश्चित्तेनेव, अन्यथा पतिपत्न्योःस्वर्गसाधनत्वेनोपदिश्यमानानुगमनेन साध्व्याः स्वर्गानुपपत्तेः। पुनात्यविधवा415 नारी तमादाय म्रियेत येत्यत्र च पुनात्येतदप्यनुपपद्यते। यत्तु416 दानायोन्मुखमप्रारब्धं कर्म्म तस्यनिवृत्तिरनुगमने भवतीत्येतदेव मनसि कृत्वा व्यासोऽप्याह।
यदि प्रविष्टो नरकं बद्धःपाशैः सुदारुणैः।
सम्प्राप्तो यातनास्थानं गृहीतो यमकिङ्करैः।
तिष्ठते विवशो दीनो वेथ्यमानः स्वकर्म्मभिः॥
व्यालग्राही यथा व्यालं बलादुद्धरते विलात्।
तद्वद्भर्त्तारमादाय दिवं याति च सा बलात्॥ इति।
फलदानोन्मुखप्रारव्धं417कर्म्मानुगमनसाध्यस्वर्गोपभोगानन्तरं उपभुज्यते इति न विरोधः418। ननु फलदानोन्मुखप्रारब्धं प्रायश्चित्तस्थानीयेनानुगमनेन यथा विनश्यति तथा फलदानानुन्मुखमपि419 तेन वापगच्छतु विशेषाभावादिति चेन्न। पुनातीत्युक्त्या पापनिवृत्तिः कल्प्यते420 कल्पना चानुपपत्तिवशात्, सा चानुपपत्तिः यावति कल्पिते शाम्यति तावत्कल्पनीयं,421 तथापि422 फलोन्मुखप्रारब्धकर्म्मनिवृत्त्यापि पुनातीत्यस्य चरितार्थत्वान्नसकलपापनिवृत्तिः423 परिकल्पनीया424 तूक्तकर्म्मण्य निष्ठेनानुमानेना425 निवृत्त्यापि पुनातीत्यस्यान्यगतदुरितनिवृत्ति426 रयुक्तेति तदपेशलम्427पतिपत्न्योः सहकर्त्तृत्वे-
ना428 ग्निहोत्रादिसाध्यवर्गादिवदुपपत्तेः429 । इदञ्च दुरितं जन्मान्तरकृतमेव निवर्त्त्यम्। एतज्जन्मकृतदुरितयुक्तञ्च पतितत्वेन तेन430 सहानुगमनानधिकारात्। वैधव्यपालनेऽपि स्वर्गादिफलविशेषः स्मृत्यन्तरे स्मर्य्यते।
पत्यौ मृतेऽपि या योषिद्वैधव्यं पालयेत्क्वचित्।
सा पुनःप्राप्य भर्तारं स्वर्गाल्ँलोकान् समश्रुते।
विधवा कवरीबन्धा431 भर्त्तृबन्धाय जायते।
शिरसो वपनं तस्मात्कार्य्यं विधवया सदा॥
एकाहारः सदा कार्य्योन द्वितीयः कदाचन।
त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा पक्षव्रतमथापि वा॥
मासोपवासं वा कुर्य्याच्चान्द्रायणमथापि वा।
कृच्छ्रं पराकंवा कुर्य्यात्तप्तकृच्छ्रप्नथापि वा॥
यवान्नेन फलाहारैःशाकाहारैः पयोव्रतैः।
प्राण्यात्रांप्रकुर्व्वोत यावत्प्राणः स्वयं व्रजेत्॥
पर्य्यङ्कशायिनी नारी विधवा पातयेत्पतिम्।
तस्माद्भूशयनङ्कार्य्यं पतिसौख्यं समीहिता॥
नैवाङ्गोद्वर्त्तनं कार्य्यं स्त्रिया विधवया क्वचित्।
गन्धद्रव्यस्य सम्भोगो नैव कार्य्यन्तया पुनः॥
तर्पणं प्रत्यहङ्कार्य्यंभर्त्तुः कुशतिलोदकैः।
तर्पणं पुत्रपौत्ताभावविषयम्।
विष्णोस्तु पूजनङ्कार्य्यंपतिबुद्ध्यान चान्यथा।
पतिमेव सदा ध्यायेद्विष्णुरूपधरं परम्॥
यद्यदिष्टतमं लोके यद्यत्पत्युः समीहितम्।
तत्तद्गुणवते देवं पतिप्रीणनकाम्यया॥
वैशाखे कार्त्तिके माघे विशेषनियमञ्चरेत्।
स्नानं दानं तीर्थयात्रां विष्णोर्नामग्रहं मुहुः॥
एवंविधैश्व विधिवद्विधिस्थैर्नियमैर्व्रतैः।
वैशाखात्कार्त्तिकान्माघानेवमेवातिवाहयेत्॥
नाधिरोहेदनड्वाहं प्राणैः कण्ठगतैरपि।
कञ्चूकन432्न परीदध्याद्वासो न विकृतं433 वसेत्॥
अदृष्ट्वा च434 तासु न किञ्चित्435 न कुर्य्याद्भर्त्तृतत्परा।
एवंधर्म्मसमायुक्ता विधवापि पतिव्रता।
पतिलोकानवाप्नोति न भवेत्क्वापिदुःखिता॥ इति।
इति मदनपारिजाते मदनक्षितिपालनदानजलरूढ़े।
स्तवको द्वितीय आसीदामोदाकृष्टपण्डितभ्रमरः॥
मतिर्येषांशास्ते प्रकृतिरमणीया व्यवहृतिः
परा436शीलं श्लाघ्यं जगति ऋजवस्ते कतिपये।
चिरं चित्ते तेषां मुकुरतलभूतं स्थितिमिया-
दियं व्यासारण्यप्रवरमुनिशिष्यस्य भणितिः437॥
इति पण्डितपारिजातकटीरमल्लेत्यादिविरुदराजीविराजमानस्य
श्रीमदनपालस्य निबन्धे पारिजाताभिधेयेद्वितीय स्तवकः।
तृतीयः स्तवकः।
अय गृहस्थस्तवकानन्तरं गृहस्थोपयोगित्वादाह्निकमारभ्यते।
तत्र विष्णुः।
गृहमेधिनि यत्प्रोक्तं स्वर्गसाधनमुत्तमम्।
ब्राह्म्यो मुहूर्त्ते चोत्थाय तत्सर्व्वं सम्यगाचरेत्॥
मनुरपि।
ब्राह्म्ये मुहूत्ते बुध्येत धर्म्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।
कायक्लेशांश्च तन्मूलान्वेदतत्त्वार्थमेव च॥
विष्णुपुराणे।438
मैत्रं प्रसाधनं स्नानं दन्तधावनमञ्जनम्।
पूर्व्वाह्न एव कुर्व्वीत देवतानाञ्च पूजनम्॥
मैत्रञ्च मित्रदैवत्यं मूत्रपुरीषोसर्गः। प्रसाधनं केशानाम्, अञ्जनं
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बुद्धिःप्रकृत्या स्वभावेन रमणीया, व्यवहतिः स्वभावः परा श्रेष्ठा श्लाघ्यं शीलं शीलता व प्रशंसनीयं ते प्रधानपुरुषाः जगति जगन्मध्ये ऋजवःसारल्ययुक्ताः कतिपये कियन्तः।व्यासारण्यप्रवरमुनिशिष्यस्येति उपाधिविशिष्टगुरोःशिष्यस्य ग्रन्थरचयितुरियं भणिति रूक्तिः तेषां प्रधानपुरुषाणां मुकुरतलभूते निर्मलं चित्ते मनसि चिरं स्थितिं द्वयात् स्थानम् वाप्नुयात्।
सौवीराद्यञ्जनम्। ब्राह्ममुहूर्त्तलक्षणं ब्रह्मचारिप्रकरणेऽभिहितम्।
विष्णुः।
उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं महद्भयमुपस्थितम्।
मरणव्याधिशोकानां किमद्य निपतिष्यति439॥
इति सञ्चिन्त्येष्टदेवतां स्मरेत्।
शयनादुत्थितो यस्तु कीर्त्तयेन्मधुसूदनम्।
कीर्त्तनात्तस्य पापानि नागमायान्ति शेषतः॥
स्कन्दपुराणे।
अविमुक्तचरणयुगलं दक्षिणमूर्तेश्च कुक्कुटचतुष्कम्।
स्मरणमपि वाराणस्याः निहन्ति दुःस्वप्नमपशकुनम्440॥
कात्यायनः।
रोचनां चन्दनं गन्धं मृदङ्गं दर्पणं मणिम्।
गुरुमग्निं रविम्पश्येन्नमस्येप्रातरेव हि॥
क्षोत्रियं सुभगामग्निं गां मृगं441 धार्मिकं महीम्।442
प्रातरुत्थाय यः पश्येत्स आपद्भ्यःप्रमुच्यते॥
मूत्रपुरीषोत्सर्गादिविधिस्तु ब्रह्मचारिप्रकरणेऽभिहितः।
अथ दन्तधावनम्।
विष्णुः।
कण्टकीक्षीरवृक्षोत्थं द्वादशाङ्गुलमव्रणम्।
कनिष्ठिकाग्रवत्स्थूलं कूर्च्चाग्र443मग्रपर्व्वकम्444॥
दन्तकाष्ठाग्रं भक्षयित्वा प्रशिथिलावयवं कर्त्तव्यमित्यर्थः। यद्यर्थिकृतकूर्च्चकमित्यपि पाठः। यदि दन्तकाष्ठं पर्व्वगुक्तम्भवति तदा पर्व्वद्वयमध्यभागं छित्वा तत्र कूर्च्चकम् प्रशिथिलावयवं कर्त्तव्यमिति तात्पर्यम्। दन्तधावनं चाग्रेण कर्त्तव्यम्।
तथाच कूर्म्मपुराणे।
मध्याङ्गुलसमस्थौल्यं द्वादशाङ्गुलसम्मितम्।
सत्वचं दन्तकाष्ठं स्यात्तद्ग्रेण तु धावयेत्॥
मनुः।
तिक्तं कटुकषायं वा सुगन्धं कण्टकान्वितम्।
क्षीरवृक्षात्तथा गुल्माङ्भक्षयेद्दन्तधावनम्॥
कात्यायनः।
उत्याय नेत्रे प्रक्षाल्य शुचिर्भूत्वा समाहितः।
परिजप्य च मन्त्रेण भक्षयेद्दन्तधावनम्॥
मन्त्रमाह विष्णुः।
आयुर्बलं यशो वर्च्चःप्रजाः पशुवसूनि च।
ब्रह्मप्रज्ञाञ्च मेधाञ्च त्वन्नो धेहि वनस्पते॥ इति।
गर्गः।
दशाङ्गुलन्तु विप्राणां क्षत्रियाणां नवाङ्गुलम्।
अष्टाङ्गुलन्तु वैश्यानामितरेषां षडङ्गुलम्॥
चतुरङ्गुलमानन्तु नारीणां नात्र संशयः।
विष्णुः।
द्वादशाङ्गुलकं विप्रे काष्ठमाहुर्मनीषिणः।
क्षत्रविट्शूद्रजातीनां नवषट्चतुरङ्गुलम्॥
एवं विकल्पः परिमाणे, तथान्योऽपि विशेषस्ते नोक्तः।
कनिष्ठिकाग्रतस्थूलं पर्व्वार्द्धकृतकूर्च्चकम्।
दन्तधावनमुद्दिष्टमित्युक्ता
सुमूक्ष्मं हीनदन्तस्य समदन्तस्य मध्यमम्।
स्थूलं विषमदन्तस्य त्रिविधं दन्तधावनम्॥
गर्गः।
प्राङ्मुखस्य धृतिः सौख्यं शरीरारोग्यमेव च।
दक्षिणेन तथा कष्टं पश्चिमेन पराजयः॥
उत्तरेण गवां नाशः स्त्रीणां परिजनस्य च।
मार्कण्डेयः।
उदङ्मुखः प्राङ्मुखी वा कषायं तिक्तकण्टकम्। इति।
उदङ्मुखः प्रागुदङ्मुख445 इत्यर्थः। अन्यथा गर्गवचनविरोधात्।
अनेनैवाभिप्रायेणैव कात्यायनः।
पूर्व्वोत्तरे तु दिग्भागे सर्व्वान् कामानवाप्नुयात्। इति।
महाभारतेदन्तधावनप्रकरणे।
प्रक्षाल्य हस्तो पादौ च प्राङ्मुखः सुसमाहितः।
दक्षिणं वाहुमुदधृत्य कृत्वा जान्वेतरा ततः॥
मनुः।
प्रक्षाल्येदं शुचौदेशे दन्तधावनमुत्सृजेत्।
पतितेऽभिमुखे सम्यक् भोज्यप्राप्नोत्यसंशयः॥
यमः।
आम्रपलाशविल्वानामपामार्गशिरीपयोः।
भक्षयेत्प्रातरुत्थाय वाग्यती दत्तधावनम्॥
पौलस्त्यः।
आम्रातक446 पलाशाम्रविल्वापामार्गक्षीरिणाम्।
भक्षयेद्दन्तधवनं दन्तमांसान्यबाधयन्॥इति।
मार्कण्डेयोऽपि।
प्रातर्भूत्वा च यतवाक् भक्षयेद्दन्तधावनम्।
प्रक्षाल्यभक्षयेत्पूर्व्वंप्रक्षाल्यैवञ्च सन्त्यजेत्॥
नारदः।
खादिरश्च करञ्जश्च करवीरकदम्बयोः।
सर्व्वकण्टकिन पुण्याःक्षीरिणो ये च शाखिनः॥
जम्बूनिम्बकचूताश्चकदम्बो लोध्रचम्पकाः।
वदरीतिन्दुका447 स्त्वेके448 प्रशस्ता दन्तधावने॥
कोविदारःकरञ्जश्च कुटजःप्लक्षमालती।
शालोर्कश्च प्रियङ्गुश्च तमालःशाक एव च॥
पाकःशाकवृक्षः, शाकवन इति लोके प्रसिद्धः।
आम्रातकोऽरिमेदश्व प्रशस्ता वापि ये द्रुमाः।
वर्ज्ज्यास्तु शाल्मलीपीलुभव्यकिंशुकतिन्दुकाः॥
अरिष्टोक्षः449 पारिभद्रो गुग्गुलुस्तिन्तिड़ी तथा।
आसने शयने याने पादुके दन्तधावने॥ .
पलाशाश्वत्थकौ वृक्षौ सर्व्वकर्म्मसु कुत्सितौ।
अभावे दन्तकाष्ठानां निषिद्धायां तिथौ तथा॥
अपां द्वादशगण्डूषैःपत्रैर्वा दन्तधावनम्।
चतुर्द्दश्यष्टमीदर्शपूर्णिमासंक्रमेषु च॥
नन्दासु च नवम्याञ्च दन्तकाष्ठं विवर्ज्जयेत्।
श्राद्धेयज्ञे च नियमे तथा प्रोषितभर्तृका।
विष्णुः।
प्रतिपद्दर्शषष्ठी च चतुर्द्दश्यष्टमीषु च।
नवम्यां भानुवारे च दन्तकाष्ठञ्च वर्ज्जयेत्॥
मरीचिः।
नाद्यादजीर्णवमथुकाशश्वासज्ज्यरार्द्दितः।
तृष्णास्यपादहृन्नेत्रशिरःकर्णामयी450 तथा ॥
वृद्धयाज्ञवल्क्यः।
इष्टकालोष्ट्रपाषाणैर्नखैरङ्गुलिभिस्तथा।
मुक्ताचानामिकाङ्गुष्ठौ वर्ज्जयेद्दन्तधावनम्॥
वराहपुराणे।
अज्ञातपूर्व्वाणि च दन्तकाष्ठा-
न्याद्यान्न पत्रैश्च समन्वितानि।
न युग्मवर्णानि451 न पाटितानि
न चोर्द्धशुष्काणि विना त्वचा वा॥
व्यासः।
यो मोहात्स्नानवेलायां भक्षयेद्दन्तधावनम्।
निराशास्तस्य गच्छन्ति देवताः पितृभिः सह॥
एतच्च मध्याह्नस्नानविषयम्।
तथाच यमः।
मध्याह्नस्नानवेलायां भक्षयेद्दन्तधावनम्।
निराशास्तस्य गच्छन्ति देवताः पितृभिः सह ॥
इति दन्त धावनम्।
अथ केशप्रसाधनादिमाङ्गल्यविधिः।
तत्र विष्णुपुराणे।
स्नातकञ्च ततः पश्येद्दीर्घायुश्चिरजीविनम्।
प्रातःस्नानं ततः कुर्य्यात्संक्षेपेण यथोदितम्452॥
सन्ध्याञ्चापि ततः कुर्य्यात्। इति प्रातःसन्ध्यानन्तरम्।
याज्ञवल्क्यः।
हुत्वाग्नीन् सूर्य्यदैवत्याज्जपेन्मन्त्रान् समाहितः।
वेदार्थानधिगच्छेच्च शास्त्राणि विविधानि च॥
प्रातः सन्ध्यावन्दनानन्तरमग्नीनावहनीयादीनौपासनाग्निं वा विधिवत् हुत्वा सूर्य्यदैवत्यानुदुत्यं जातवेदसमित्यादिकान् जपेत्। प्रातःसन्ध्यादिकं ब्रह्मचारिस्तवके प्रपञ्चितम्।
नरसिंहपुराणे।
दिवसस्याद्यभागे तु सर्व्वमेतत्समाचरेत्।
दिवसस्याद्यभागे पूवीह्णस्याद्यभागे।
दक्षः।
द्वितीये च तथा भागे वेदाभ्यासो विधीयते।
वेदस्वीकरणम्पूर्व्वंविचारोऽध्ययनं453 जपः॥
तद्दानञ्चैव शिष्येभ्यो वेदाभ्यासो हि पञ्चधा।
समित्पुष्पकुशादीनां स कालःसमुदाहृतः॥
उपादानस्येति विशेषः, द्वितीयभागे पूर्वाह्णस्य द्वितीयभागे
अथ पोष्यवर्गचिन्तादि।
तत्र दक्षः।
तृतीये च तथा भागे पोष्यवर्गस्य शोधनम्454।
तृतीयो भागः पूर्व्वाह्णस्यैव।
पोष्यवर्गतु।
माता गुरुः पिता भार्य्याप्रजा दीनः समाश्रितः।
अभ्यागतोऽतिथिञ्चाग्निः455पोष्यवर्ग उदाहृतः॥
याज्ञवल्क्यः।
उपेयादीश्वरञ्चैव योगक्षेमार्थसिद्धये।
ईश्वरमभिषेकादिगुणयुक्तम्। अन्धं वा श्रीमन्तमकुत्सितम्। अलब्धस्य प्रापणं योगः।लब्धस्य रक्षणं क्षेमः। अष्टाङ्गहृदये गन्तव्यं राजकुलं द्रष्टव्या राजपूजिता लोकाः। यद्यपि न भवन्त्यर्थास्तदम्यर्थास्तदप्यनर्था निवर्त्तन्ते।
विष्णुपुराणे।
ततः सवर्णधर्म्मेणवृत्त्यर्थञ्च धनार्ज्जनम्।
कुर्व्वीत श्राद्धकर्म्मापि यजेत पृथिवीपते॥
सोमसंस्था हविःसंस्थाःपाकसंस्थाञ्च संज्ञिताः।
धने यत्नान्मनुष्याणां यतेत च धनार्ज्जनम्॥
धनमूलाःक्रियाःसर्व्वायत्नस्तस्यार्ज्जने मतः।
रक्षणं वर्द्धनं मानभोगस्तत्र विधिक्रमात्॥
महाभारते।
धर्म्मेनार्थःपरीहार्य्योधर्म्मलव्धंविधानकम्।
कर्त्तव्यं धर्म्मपरमं मानवेन प्रयत्नतः॥
एकेनांशेन कामस्तु एवमंशं विवर्द्धयेत्।
मार्कण्डेयः।
पादेन तस्य पारक्यं कुर्य्यात्सञ्चयमात्मवान्।
अर्द्धेन चात्मभरणन्नित्यनैमित्तिकान्वितम्।
पादञ्चार्थोऽयमर्थस्य456 मूलभूतं विवर्द्धयेत्॥
तत्पुनस्त्रिविधं ज्ञेयं शुद्धं शबलमेव च।
कृष्णं तस्य457 तु विज्ञेयो विभागः सप्तधा पुनः॥
श्रुतशौर्य्यतपःकन्याशिष्ययाज्यान्वयागतम्।
धनं सप्तविधं शुद्धमुदयोऽप्यस्य तद्विधः458 ॥
कुसीदकृषिबाणिज्यशुल्क459 शिल्पानुवृत्तिभिः460।
कृतोपकाराद्ययनं शबलं समुदाहृतम्॥
पार्ष्णिक461 ञ्चैव चौरार्त्ति462प्रतिरूपक463साहसैः464।
व्याजेनोपार्ज्जितं यच्च तत्कृष्णं समुदाहृतम्॥
यथाविधेन द्रव्येण यत्किञ्चित्कुरुते नरः।
तथा विधमवाप्नोति स फलं प्रेत्य चेह च।
श्रुतेनाध्ययनेनशौर्य्येण याजनादिना।तपसा जपहोमेन देवतार्च्चनादिना।कन्यागतं कन्यया सहागतं श्वशुरारादेर्लब्धं शिष्यागतं गुरुदक्षिणादि। व्याजेन दूतव्याजेन तैलादिकन्दत्त्वा यदुपार्ज्जितम्।
भारद्वाजः।
तत्पुनर्द्वादर्शविधं प्रतिवर्णाश्रयान्वितम्।
साधारणं स्थात्त्रिविधं विदुस्तच्च क्रमागतम्॥
प्रतिदानन्तथैवात्र प्राप्तञ्च सह भार्य्यया।
अविशेषेण वर्णानां सर्व्वेषान्त्रिविधं धनम्॥
वैशेषिकन्धनं विद्यादत्राह्मणस्य त्रिलक्षणम्।
प्रतिग्रहेण यल्लब्धं याज्यतः शिष्यतस्तथा॥
त्रिविधं क्षत्त्रियस्यापि प्राहुर्वैशेषिकन्धनम्।
युद्धोपलब्धं काराच्च दण्डाच्चव्यवहारतः॥
कारः करः।
वैशेषिकं धनं ज्ञेयं वैश्यस्यापि त्रिलक्षणम्।
कृषिगोरक्षवाणिज्यैः शूद्रस्थापि त्वनुग्रहात्॥
इतरवर्णानुग्रहदानेन शूद्रस्यापि कृषिगोरक्षवाणिज्यैः वैशेषिकं धनं भवतीत्यर्थः।
सर्व्वेषामेव वर्णानामेष वर्णोधनागमः।
विपर्य्ययाद465 धमं स्यान्नचेदापद्गरीयसी॥
अथ प्रसाङ्गद्वर्णत्तिरभिधीयते।
तत्र मनुः।
अद्रोहेण च भूतानामल्पद्रोहण वा पुनः।
या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि॥
याज्ञवल्क्यः।
इज्याध्ययनदानानि वैश्यस्य चत्त्रियस्य च।
प्रतिग्रहोऽधिको विप्रे याजनाध्ययने तथा॥
अत्र चकाराद्विप्रो गृह्यते। ब्राह्मणस्यैव प्रतिग्रहयाजनाध्ययनानि भवन्ति। नान्यस्य, अतएव विप्र इति विषयसप्तमी। अन्यत्र भावश्च विषयः। ब्राह्मणस्यैव प्रतिग्रहादिकं त्रयं वृत्तिरित्यर्थः।
यत्तु गौतमेनोक्तम्।
आपत्कल्पो ब्राह्मणत्या ब्राह्मणाद्विद्योपयोगोऽनुगमनं शुश्रूषा वा समाप्तेः समाप्ते तु ब्राह्मणो गुरुरिति466 तत्तु क्षत्त्रियवैश्ययोव्रीह्मणप्रेरितयोर467। ध्यापनमात्रकर्त्तृत्वाभ्यनुज्ञानम्। न तु वृत्तित्वेनाभिधानम्। अनुगमनं शुश्रूषा अनुगमनमेव शुश्रूषा इत्यर्थः।
मनुः।
षस्मान्तु कर्म्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका।
याजनाध्यापने चैव विशुद्वाच्च प्रतिग्रहः॥
देवलः।
द्विविधो गृहस्थो यायावरः शालीनश्च तयोर्यायावरो याजनाध्ययनप्रतिग्रहरिक्थस्य च वर्ज्जनात्। शालीनस्तु प्रेष्यचतुष्पादधनधान्ययुक्तशालायांलोकानुवर्त्ती स चतुर्विधः।
यथाह मनुः।
कुशूलधान्यको468 वा स्यात्कुम्भीधान्यक469 एव वा॥
त्र्यहैहिको वापि भवेदश्वस्तनिक एव वा॥
चतुर्णामपि सर्व्वेषां द्विजानां गृहमेधिनाम्।
यायावरः परो ज्ञेयो धर्म्मतो लोकजित्तमः॥
षट्कर्म्मको भवेत्तेषां त्रिभिरन्यः प्रवर्त्तते।
द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रेण जीवति॥
एकःकुशूलधान्यः षट्कर्म्मा470 उञ्छशिलायाचितयाचितकृषिबाणिज्यैः। अन्यः कुम्भीधान्यः त्रिभिकञ्छशिलायाचितैः। अपरस्त्र्यहैहिको द्वाभ्यामुञ्छशिलाभ्यां चतुर्थस्त्वश्वस्तनिको ब्रह्मसत्रेण ब्रह्मलोकप्राप्तिहेतुत्वेन सत्रयागतुल्यफलेनोज्छेन जीवति।
मनुः।
ऋतामृताभ्यां जीवेत न श्वहत्या कदाचन।
ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्॥
सृतन्तु याचितम्भैक्ष्यं प्रमृतङ्कर्षणं स्मृतम्।
सत्यानृतन्तु बाणिज्यं तेन चैवोपजीव्यते॥
सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्ज्जयेत्।
अथापदि प्रतिग्रहवृत्तिः।
याज्ञवल्क्यः।
राजान्तेवासिशिष्येभ्यः सीदन्निच्छेद्धनं क्षुधा।
दम्भिहेतुकपाषण्डवकवृत्तींश्च वर्ज्जयेत्॥
राजा न्यायपरःशिष्यो यथोक्तलक्षणः। याज्यःयाजनार्हस्त्रैवर्णिकः।
शङ्खः।
एतैरव गुणैर्युक्तं धर्म्मार्ज्जितधनं तथा।
याजयेत सदा विप्रो ग्राह्यस्तस्मात्प्रतिग्रहः॥
एतैरिति जन्मकर्म्मादिभिःशुद्धः।
मनुः।
राजतो धनमन्विच्छेत्संसीदन् स्नातकः क्षुधा।
याज्यान्तेवासिनो वापि नत्वन्यत इति स्थितिः॥
नत्वन्यत इति एषां सद्भावे।
व्यासः।
द्विजातिभ्यो धनं लिप्सेच्छिष्टेभ्यो द्विजसत्तमः।
अपि वा द्विजमात्रेभ्यो न शूद्रात्तु कथञ्चन॥
द्विजमात्रेभ्य इति, निर्गुणधर्म्मरहितेभ्योऽपि।
नारदः।
ब्राह्मणश्चैव राजा च द्वावप्येतौधृतव्रतौ\।
नैतयोरन्तरं किञ्चित्प्रजाधर्म्माभिरक्षणात्॥
धर्म्मस्य कृतकृत्यस्य धर्म्मर्थं शासतोऽशुचीन्।
अशुचीन् कृतापराधान्।
मध्यमेव धनम्प्राहुस्तीक्ष्णस्यापि महीपतेः।
शुचीनामशुचीनान्तु सन्निपाता यथाम्भसाम्॥
समुद्रे समतां याति तद्वद्राज्ञां धनागमः।
अथाग्नौ संस्थिते दीप्ते शुद्धिमायाति काञ्चनम्॥
एवं धनागमाः सर्व्वेशुद्धिमायान्ति राजनि।
अशुचिर्वचनाद्यस्य शुचिर्भवति पूरुषः॥
शचिश्चैवाशुचिः सद्यः कथं राजा न दैवतम्।
विदुर्य एवन्दैवत्यं राज्ञोऽस्तमिततेजसः॥
तस्य ते प्रतिग्गृह्णन्तो न लिप्यन्ते कथञ्चन।
दैवत्यमष्टलोकपालरूपेण।
मनुः।
न राज्ञः प्रतिग्गृह्णीयादराजन्यप्रसूतितः।
सूनाचक्रध्वजवतां वेशेनैव च जीवताम्471॥
नः राज्ञ इति लोभात्प्रजापीड़कस्य, अराजन्यप्रसूतित इति।
सूनाचक्रध्वजवतां वेशेनैव च जीवताम्।
न राज्ञः प्रतिगृह्णीयाल्लुब्धस्योच्छास्त्रवर्त्तिनः॥
स पर्य्यायेण यातीमान्नरकानेकविंशतिम्।
यमश्व।
अराजन्यप्रसूतस्य राज्ञः स्वच्छन्दवर्त्तिनः।
घोरप्रतिग्रहस्यापि लब्धास्वादो विषोपमः॥
तथैव राजमहिषीराजामात्यपुरोहिताः।
पापेनार्थेन संयुक्ताः सर्व्वे ते राजधर्म्मिणः॥
याज्ञवल्क्यः।
प्रतिग्रहे सुनिचक्रिध्वजिवैश्यनराधिपाः।
दुष्टा दशगुणाः पूर्व्वात्पूर्व्वादेते यथोत्तरम्472॥
हारीतः।
दश सूना सहस्राणि अह्नाराजा करोति च।
तान्येव कुरुते रात्री घोरस्तस्य प्रतिग्रहः॥
अर्द्धेनतु ततोऽमात्या सेनानोदण्डनायकौ।
ततोऽर्द्धार्द्धतदर्द्धार्द्धमाश्रितोपाश्रितेषु च॥
यदि यदा कथञ्चिदेतेभ्यो गृह्णाति।
तत्र वृहस्पतिः।
असतोऽपि स्वमादाय साधुभ्यः सम्प्रयच्छति।
धनस्वामिनमात्मानं सन्तारयति दुस्तरात्॥
अथ प्रतिग्रहविषये आपदनापत्माधारणं
किञ्चिदुच्यते।
तत्र मनुः।
एधोदकं मूलफलमन्नमभ्युद्यतञ्च यत्।
सर्व्वतः प्रतिग्गृह्णीयान्मध्वयाभयदक्षिणाम्॥
एध इन्धनमतएव यद्दक्षिणव्यतिरिक्तमभ्युद्यतमिति सम्बध्यते। अभ्युद्यतमभ्यर्थंदत्तम्। सर्व्वतः शूद्रादपि अयञ्चोपदेशः प्रतिग्रहवृत्तस्यैव न तु निवृत्तस्य अभयदक्षिणन्तु म्लेच्छादिभ्योऽपि।
शय्यासनं कुशान् गन्धान् पुष्पम्पत्रं मणीन्दधि।
धाना मत्स्यान् पयो मांसं शाकञ्चैव न निर्नुदेत्॥
मणीन् विषादिनिवारकी473 धाना लाजा, न निनुदेत्प्रत्याख्यायते474।
तिलो धेनुर्गजो वाजी प्रेतान्न475मजिनं मणिम्476।
सुरभी सूयमाना477च घोराः सप्त प्रतिग्रहाः॥
प्रतिग्राहक किं गुणविशिष्टोऽधिकारी को वानेत्याकाङ्क्षायां निषेधमुखे नानधिकारिणामर्थादधिकारिणञ्चाह।
याज्ञवल्क्यः
विद्यातपोभ्यां हीनेन न तु ग्राह्यः प्रतिग्रहः।
गृह्णन् प्रदातारमधो नयत्यात्मानमेव च॥
मनुः।
हिरण्यम्भूमिमश्वं वा अन्नंवासस्तिलान् घृतम्।
अविद्वान् प्रतिगृह्णीयाद्भस्मीभवति दारुवत्॥
याज्ञवल्क्यः।
ग्रहादीनां नरेन्द्राणामुच्छ्रायाः पतितानि च।
भावाभावौ च जगतस्तस्मात्पूज्यतमा ग्रहाः478॥
महोत्साहःस्थललक्षः कृतज्ञो वृद्धसेवकः।
विनीतः सत्वसम्पन्नः कुलीनःसत्यवाक् प्रियः॥
स्थूललक्षोबहुदेयार्थदर्शी, बहुप्रद इति यावत्।
अदीर्घसूत्रः स्मृतिमान् अक्षुद्रोऽपरुषस्तथा।
धार्म्मिकोऽव्यसनश्चैव प्राज्ञः शूरो रहस्यवित्॥
अदीर्घसूत्रः, अनारब्धकर्म्मणामारम्भे आरव्धानाञ्च परिसमापने यो न विलम्बते479। सः। रहस्यविह्नोपनीयार्थगोपननिपुणः।
स्वरन्ध्रगोप्तान्वीक्षिक्यान्दण्डनीत्यां तथैव च।
विनीतस्त्वर्थवार्त्तायां त्रय्याञ्चैव नराधिपः॥
आन्वीक्षिकी तर्कविद्या आत्मविद्या च।
तथाच मनुः \।
त्रैविद्येभ्यस्त्रयींविद्यां दण्डनीतिञ्च तद्विदः480।
आन्वीक्षिकींचात्मविद्यां वार्त्तारम्भाच्च लोकतः॥
दण्डनीतिरर्थशास्त्रं वार्त्ताकृषिवाणिज्यपशुपालनादिरूपा \।
त्रयी ऋग्यजुःसामरूपा।
स मन्त्रिणस्तु कुर्व्वीत प्राज्ञान्मौलान् स्थिरान् शुचीन्।
तैः सार्द्धञ्चिन्तयेद्राज्यं विप्रेणाथ ततः स्वयम्॥
मौलान् राज्ये वंशपरम्परायातान्। विप्रेण पुरोहितेन।
पुरोहितन्तु कुर्व्वीत दैवज्ञसुदितोदितम्।
दण्डनीत्याञ्च कुशलमथर्वाङ्गिरसे तथा॥
उदितोदितं शास्त्रोदितैर्विद्यादिभिरुदितं समृद्धम्।
श्रौतस्मार्त्तक्रियाहेतोवृणुयादेव ऋत्विजः।
यज्ञांश्चैव प्रकुर्व्वीत विधिवद्भूरिदक्षिणान्॥
भोगांश्च दद्याद्विप्रेभ्यो वसूनि विविधानि च।
अक्षयोऽयं विधीराज्ञां यद्विप्रेषूषपादितम्॥
भोगान् सुखधनानि।
अस्कन्नमव्यथञ्चैव प्रायश्चित्तैरढूषितम्।481
अग्नेः सकाशाद्विप्राग्नौ482हुतं श्रेष्ठमिहोच्यते॥
अस्कन्नं क्षररहितम्, अव्ययं पशुहिंसारहितम्।
अलब्धमोहेत्483 धर्मेण लब्धं धर्म्मेण पालयेत्।
पालयन्वर्द्धयेत्रीत्या वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत्॥
दत्त्वा भूमिं निबन्धं वा कृत्वा लेख्यन्तु कारयेत्।
आगामितत्तन्484नृपतिपरिज्ञानाय पार्थिवः॥
निबध्यत इति निबन्धःपर्णभरकादि। स्वदत्तं परदत्तं वा भूम्यादि नापहरेत्।
स्वदत्तां परदत्ताञ्च यो हरेत वसुन्धराम्।
षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः॥
इति ब्रह्मपुराणस्मरणात्।
पटे वा ताम्रपट्टे वा समुद्रोपरि चिह्नितम्।
अभिलेख्यात्मनो वंश्यानात्मानञ्च महीपतिः॥
प्रतिग्रहपरीमाणं दानच्छेदोपवर्णनम्।
स्वहस्तकालसम्पन्नं शासनं कारयेत् स्थिरम्।
आत्मानञ्च चशब्दात् प्रतिग्रहीतारमपि। प्रतिगृह्यत इति प्रतिग्रहो निषेधः, तस्य परिमाणम्। दीयते इति दानं क्षेत्रादि तस्य छेदः छिद्यत इति छेदो नयादिः।
नातः परतरो धर्म्मोनृपाणां यद्रणार्जितम्।
विप्रेभ्यो दीयते द्रव्यं प्रजाभ्यश्चाभयं सदा॥
य आहवेषु वध्यन्ते भूम्यर्थमपरांमुखः।
अकूटैरायुधैर्यन्ति ते स्वर्गं योगिनो यथा॥
पदानि क्रतुतुल्यानि भग्नेष्वविनिवर्त्तिनाम्।
राजा सुकृतमादत्ते हतानां विपलायिनाम्॥
तवाहं वादिनं क्लीवं निर्हेति परमङ्गतम्।
न हन्याद्विनिवृत्तञ्च युद्धप्रेक्षणकादिकम्॥
कृतरक्षः समुत्थाय पश्येदायव्ययौ स्वयम्।
व्यवहारांस्वतोदृष्ट्वा स्नात्वा भुज्जीत कामतः॥
प्रतिदिनम्प्रातःकाले पुरश्च आत्मनश्च रक्षां विधाय स्वयमेवायव्ययौ पश्येत्। ततो व्यवहारान् दृष्ट्वा मध्याह्नकाले स्नात्वा यथारुचि भुञ्जीत।
हिरण्यं व्यापृतानीतं भाण्डागारेषु निःक्षिपेत्।
पश्येच्चारांस्वतोदूतान् प्रेषयन्मन्त्रिसङ्गतम्॥
व्यापृता हिरण्याद्यानयने नियुक्ताः।
ततः स्वैरविहारी स्यान्मन्त्रिभिर्वासमागतः।
बलानान्दर्शनङ्गत्वा सेनान्या सह चिन्तयेत्॥
ततोऽपराह्नेस्वैरविहारी, अन्तःपुरे।
तथाच मनुः।
भुक्तवान्विहरेच्चैव स्त्रीभिरन्तःपुरे सह।
विहृत्य च यथाकामं485 पुनःकार्य्याणि चिन्तयेत्॥ इति॥
सन्ध्यामुपास्य शृणुयाच्चाराणां गूढ़भाषितम्।
गीतनृत्यैश्च भुञ्जीत स्वाध्यायञ्च ततः पठेत्486॥
स्वाध्यायमिति स्मरणार्थं पठेत्।
संविशेत्तूर्य्यघोषेण प्रतिबुध्येत्तथैव च।
शास्त्राणि चिन्तयेद्वुद्ध्यासर्व्वकर्त्तव्यता तथा॥
संविशेत् सुप्यात्।
ब्राह्मणेषु क्षमा स्त्रिग्487धेष्वजिह्मः क्रोधनोऽरिषु।
स्याद्राजा मृत्यवर्गेषु प्रजासु च तथा पिता॥
पुण्यात् षड्भागमादत्ते न्यायेन परिपालयेत्।
सर्व्वदा नाधिकं यस्मात्प्रजानां परिपालनम्॥
अन्यायेन नृपो राष्ट्रात्वकोषं योऽभिवर्द्धयेत्।
सोऽचिराद्विगतश्रीको नाशमेति सबान्धवः॥
प्रजापीड़नसन्तापात्समुद्भूतो हुताशनः।
राज्ञः त्रियङ्गुलं प्राणान्नादग्ध्वा विनिवर्त्तते॥
आह विष्णुः।
निधिञ्च ब्राह्मणोलब्ध्वा सर्व्वमादद्यात्क्षत्रियश्चतुर्थमंशंराज्ञेदद्याच्चतुर्थमंशं ब्राह्मणेभ्योऽर्द्धमादद्याद्वैश्यश्चतुर्थमंशं राजे दयाद्ब्राह्मणेभ्योऽंशमादद्यात्।स्वनिहितानाज्ञे488 ब्राह्मणवर्ज्जं द्वादशमंशं दद्युः।
आह वशिष्ठः।
अज्ञायमानं वित्तं योऽधिगच्छेद्राजा तड्वरेदधिकन्तु षष्ठ-
मंशं प्रदाय ब्राह्मणश्चेदधिगच्छेत् षटकर्म्मसु वर्त्तमानो न राजा हंरेत्।
आह मनुः।
प्रणष्टस्वामिकं रिक्थं राजा अव्दं489निधापयेत्।
अर्व्वागव्दात्।490 हरेत्स्वामी परेण नृपतिर्हरेत्॥
परेण नृपतेर्भोगानुज्ञामात्रमिदमिति व्याचक्षते। स्वाम्यागमनेतदर्पणमेव।
ममेदमिति यो ब्रूयात्सोऽनुयोज्यो यथाविधि।
संवाद्य रूपसंख्यादीन् स्वामी तद्रव्यमर्हति॥
आददीताथ षड्भागं प्रनष्टाधिगतान्नृपः।
दशमं द्वादशं वापि सतां धर्म्ममनुम्मरन्॥
ममायमिति यो ब्रूयान्निधिं सत्येन मानवः।
तस्याददीत षड्भागं राजा द्वादशमेव वा॥
विद्वांस्तु ब्राह्मणो दृष्ट्वा पूर्व्वोपनिहितं निधिम्।
अशेषमप्याददीत सर्व्वस्याधिपतिर्हि सः॥
यन्तु पश्येन्निधिं राजा पुराणं निहितं क्षितौ।
तस्माद्विजेभ्यो दत्त्वार्द्धमर्द्धंकोशे प्रवेशयेत्॥
आह नारदः।
परेण निहितं लब्ध्वा राजैवोपहरेन्निधिम्।
राजगामी निधिः सर्व्वः सर्व्वेषां ब्राह्मणाद्दृते॥
ब्राह्मणोऽपि निधिं लब्ध्वा क्षिप्रंराज्ञे निवेदयेत्।
तेन दत्तन्तु भुञ्जीत स्तेनः स्यादनिवेदयन्॥
अथ वैश्यवृत्तिः।
मनुः।
वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृतदारपरिग्रहः।
वार्त्तायां491 नित्ययुक्तः स्यात्पशूनाञ्चैव रक्षणे॥
मणिमुक्ताप्रबालानां लोहानान्तान्तवस्य492 च।
लोहानां धातूनाम्।
गन्धानाञ्च493रसानाञ्च494 विद्यार्थबलाबलम्495।
वीजोप्तिविधि496 युक्तः स्यात् क्षेत्रवीजगुणस्य497 च॥
मानयोगांश्च498जानीयात्तुलायोगांश्च सर्व्वशः।
सारासारञ्च भाण्डानां देशानाञ्च गुणागुणम्॥
भाण्डानां विक्रेयद्रव्याणाम्।
लाभालाभञ्च पण्यानां पशूनां वृद्धिरर्जनम्।499
भृत्यानाञ्च भृतिं500 विद्याद्भाषाश्च विविधानृणाम्॥
द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च।
धर्मेण हि द्रव्यवृद्धौआतिष्ठेद्यत्नमुत्तमम्।
विद्याञ्च सर्व्वभूतानां भक्ष्यमेव501 प्रयत्नतः502॥
कालिकापुराणे।
कृषिगोरक्षवाणिज्यमेतद्वैश्यस्य सम्मितम्।
तथाप्यनडुद्युग्माभ्यां503कृषिं नैव समाचरेत्॥
द्विगवाभ्यां द्विषटकाभ्यां प्रहरार्द्धप्रमाणतः।
द्वौ द्वौयोज्यान्तरे चैकं कारयेद्धर्म्मतो द्विजः504॥
पिण्याकं505तृणतोयन्तु तेषां यत्नात्स दापयेत्।
धूमकण्डूयनञ्चैव कृत्वैवं कारयेत्ततः॥
वैणवीमपि506 भूमिन्नु अधोमूत्रगमाय च।
कुर्व्वन्नेवं न सीदेत कृषिं वैश्यो महामुने॥
राज्ञां षड्भागमुत्सृज्य पञ्चमङ्कर्षकस्य च।
शिल्पिनःप्रकृतीश्चैव दीनान्धांस्तर्पयेत्ततः।
शेषमात्मनि युञ्जीत खलु क्षेत्रेष्वयं विधिः॥
हारीतः।
अष्टागवं धर्म्महलं षङ्गवं जीविकार्थिनाम्507।
चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवं ब्रह्मघातिनाम्॥
बालानां508दमनञ्चैव वाहनञ्च न शक्यते।
वृद्धानान्दुर्ब्बलानाञ्च प्रजापतिवचो यथा॥
पुंस्त्वोपघातनं नासौ वाहानाङ्कारयेत्ततः।
वृद्धं युग्मे509 न युञ्जीत जीर्णं व्याधितमेव च॥
अथ कुसीदम्।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
अशीतिभागो वृद्धिःस्यान्मासि मासि सबन्धके।
वर्णक्रमाच्छतं द्वित्रिचतुःपञ्चकमन्यथा॥
अन्यथेति असबन्धके।
मनुः।
नातिसांवत्सरीं वृद्धिं नाभीष्टान्तु510 पुनर्हरेत्।
चक्रवृद्धिःकालिका च कारिका कायिका च या511
[]511
याज्ञवल्क्यः।
वृद्धेर्वृद्धिश्चक्रवृद्धिः प्रतिमासन्तु कालिका \।
ईहाकृता कारिका स्यात्कायिका कायकर्म्मणि॥
बृहस्पतिः।
बहवो वर्त्तनोपाया ऋषिभिः परिकीर्त्तिताः।
सर्वेषामपि चैतेषां कुसीदमपि तं विदुः॥
अनावृष्ट्यागजभयान्मूषिकाद्यैरुपद्रवैः।
वृष्ट्यादिके भवेद्धानिः सा कुसीदेन घातयेत्॥
अथ शूद्रवृत्तिः।
तत्र मनुः।
विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।
शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्म्मोनिःश्रेयसः परः॥
बृहस्पतिः।
शौचं ब्राह्मणशुश्रूषा सत्यमक्रोध एव च।
शूद्रकर्म्म तथा मन्त्रोनमस्कारोऽस्य चोदितः॥
पराशरः।
शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा प्रथमं धर्म्मलक्षणम्।
यदन्यत्कुरुते कर्म्मतद्भवेत्तस्य निष्फलम्॥
द्विजशुश्रूषा त्रिवर्णशुश्रूषा। तसयनिष्फलमिति। द्विजसेवाया विरोधि यदन्यत्कुरुते तन्निरर्थकमित्यर्थः।
गौतमः।
चतुर्व्वर्ण एकजातिस्तस्याः सत्यमक्रोधः शौचमाचमनार्थे पाणिपादप्रक्षालनमेके श्राद्धकर्म्म भृत्यभरणं स्वदारवृत्तिः परिचर्य्या चेतरेषामेभ्यो वृत्तिं लिप्सेत्।
इतरेषां द्विजातीनाम्।
याज्ञवल्क्यः।
भार्ग्यारतिः शुचिर्भृत्यभर्त्ता श्राद्धक्रियारतः।
नमस्कारेण मन्त्रेण पञ्चयज्ञान्नहापयेत्॥
नमत्येतावानेव मन्त्रः।
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः॥
इति मन्त्रः। न चानग्नेःशूद्रस्य कथमग्निसाध्यकर्म्माधिकारः। विवाहादाविति चेत्। शूद्रस्य विवाहहोमाभावात्। न ह्यमन्त्रकोऽस्ति होमो न च शूद्रो मन्त्रवान् न च नमस्कारमन्त्रेणैव मन्त्रवत्तेति वाच्यं तस्य पञ्चयज्ञेष्वेव हेतुत्वात्। तस्मादग्निसाध्यकर्म्मसु वक्तव्योऽस्याधिकारहेतुः उच्यते। अनग्नेरपिशूद्रस्य लौकिकेऽग्नौ वैश्वदेवादीनि कर्म्माणि कार्य्याणि तं प्रति साक्षाद्विधानात्। निषादस्थपतीष्टिवत्। किञ्च द्विजातीनामपि न विवाहोऽग्नौ नियतम्। वैश्वदेवकर्म्म किमुत शूद्रस्य एवञ्च शूद्रस्य यत्र यत्र होमस्तत्र तत्र लोकिकाग्नावेव मन्त्रान्तराविधानेन नमस्कारमन्त्र एवेति सिद्धम्।
अथापद्वृत्तिः।
तत्र मनुः।
अजीवंस्तु यथोक्तेन ब्राह्मणःस्वेन कर्म्मणा।
जीवेत्क्षत्रियधर्म्मेण स ह्र्यस्य प्रत्यनन्तरम्॥
उभाभ्यामध्यजीवंस्तु कथं स्यादिति चेद्भवेत्।
कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद्वैश्यस्य जीविकाम्॥
वैश्यवृत्त्यापि जीवन्तो विक्रेयमाह स एव।
सर्व्वात्रसान् व्यपोहेत कृतान्नञ्च512 तिलैः सह।
व्यपाहेत वर्ज्जयेन्न विक्रीणीतेत्यर्थः। व्यपाहतेति सर्व्वत्रानुपज्यते।
अश्मनो लवणञ्चैव पशवो ये च मानुषाः।
सर्व्वञ्च तान्तवं रक्तं शणक्षौमाविकानि च॥
अपि चेत्स्युररक्तानि फलमूले तथौषधीः।
अपः शस्त्रं विषं मांसं सोमं गन्धांश्च सर्व्वशः॥
क्षीरं क्षौद्रं दधि घृतं तैलं मधु गुड़ं कुशान्।
आरण्यांश्च पशून् सर्व्वान्दष्ट्रिणश्चवयांसि च।
मद्यं नीलं बलाकाञ्च द्विशफैकशफांस्तथा513॥
अत्र रसग्रहणेनेव लवणस्यापि ग्रहणे सिद्धे पुनर्ग्रहणं दोषाधिक्यप्रतिपादनार्थम्। एतेनान्यदपि पुनरुक्तं व्याख्यातम्।514क्षौद्रं मधु कल्कसिक्थकं515 माक्षिकस्य मधुशन्देनैवोपादानात्।
सद्यः पतति मांसेन लाक्षयालवणेन च।
त्र्यहेण शूद्रो भवति ब्राह्मणःक्षीरविक्रयात्॥
इतरेषान्तु पण्यानां विक्रयादिह कामतः।
ब्राह्मणःसप्तरात्रेण वैश्यभावं नियच्छति॥
रसारसैर्निमातव्या न त्वेव लवणं रसैः।
कृतान्नं वाकृतान्नेन तिला धान्येन तत्समाः॥
निमातव्याः परिवर्त्तनीयाः। जीवेदेतेन य आपत्।
वैश्योऽजीवन् स्वधर्म्मेण शूद्रवृत्त्यापि वर्त्तयेत्।
अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्राः कर्त्तु द्विजन्मनाम्॥
पुत्रदारात्ययप्राप्तौ जीवेत्कारुक कर्म्मभिः।
यैः कर्म्मभिः प्रचरितैः शुश्रूष्यन्ते द्विजातयः॥
तानि कारुककर्म्माणि शिल्पानि विविधानि च।
कुर्व्वीतेति शेषः। आपद्यप्यन्यवृत्तिभ्योऽपि स्ववृत्तिरेव ब्राह्मणस्य ज्यायसीत्याह
मनुरेव।
वरं स्वधर्म्मो विगुणः परधर्म्मात्खनुष्ठितात्।
परधर्म्मेण जीवन् हि सद्यः पतति जातितः॥
वैश्यवृत्तिमनातिष्ठन् ब्राह्मणः स्वेपथि स्थितः।
श्रवृत्तिकर्षितः सीदन्निमं धर्म्मं समाचरेत्।
सर्व्वतः प्रतिगृह्णीयात् ब्राह्मणस्त्वनयं516 गतः॥
नाध्यापनाद्याजनाद्वागर्हिताद्वाप्रतिग्रहात।
दोषो भवति विप्राणां ज्वलनाम्बुसमा517 हि ते॥
तथा।
जीवितात्ययमापन्नो योऽन्नमत्ति यतस्ततः।
आकाशमिव पङ्केन न स पापेन लिप्यते॥
तथार्थवादोऽपि।
क्षुधार्त्तश्चात्तुमभ्यागाद्विश्वामित्रःश्वजाघनीम्।
चण्डालहस्तादादाय धर्म्मधर्म्मविचक्षणः॥
श्वजाघनी श्वश्रोणिः।
आपद्यत्यन्तागत्या आवश्यककर्म्मणःसम्पत्यर्थंचौर्य्यमपिक्व चानुजानाति।
वानस्पत्यं मूलफलं दार्व्वग्न्यर्थं तथैव च।
तृणञ्च गोभ्यो ग्रासार्थमस्तेयं मनुरब्रवीत्॥
वानस्पत्यं पत्रपुष्पादि।
द्विजोऽध्वगःक्षीणवृत्तिर्द्वाविक्षू द्वेच मूलके।
आददानः परक्षेत्रान्न दण्डं दातुमर्हति॥
तथैव सप्तमे भक्ते भक्तानि पड़नश्नता।
अश्वस्तनविधानेन हर्त्तव्यं हीनकर्म्मणः518॥
ब्राह्मण519व्यतिरिक्तः अश्रोत्रियो520 हीनकर्म्मत्यभिधीयते।
उत्कृष्टं वापकृष्टञ्च तयोः कर्म्मन विद्यते।
मध्यमे कर्म्मणोहित्वा सर्व्वसाधारणे हिते521॥
तयोर्ब्राह्मणशूद्रयोरुत्कष्टं ब्राह्मणकर्म्म अपकृष्टं शूद्रकर्म्म न विद्यते। मध्यमे कर्म्मणी क्षत्रवैश्यकर्म्मणी सर्व्वसाधारणे इत्यर्थः। एवमापदं निस्तीर्य्य प्रायश्चित्तं कृत्वा स्वर्गमार्गनिरतो भवेत्।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
निस्तीर्य ताप्रथात्मानं पावयित्वा पथि न्यसेत्। इति।
तामापदं पावयित्वा प्रायश्चित्तैः पथि स्ववर्णधर्म्मे।
स्ववर्णधर्म्मनिरतानां फलमाह
पैठीनसिः।
ब्राह्मणस्य प्राजापत्यमैन्द्रम्पदं क्षत्रियस्य मारुतं वैश्यस्य गान्धर्व्वंशूद्रस्य स्वस्वस्थानं व्रजन्ति स्वेस्वे कर्म्मण्यभिरताश्च ये522।
इति वर्णवृत्तिकथनम्।
अथ प्रासङ्गिकं परिसमाप्य प्रकृतमनुसरामः।
तत्र मध्याह्नविधिः। तत्रादौ तावत्प्ररोचनायें523। स्नानप्रशंसा।
योगियाज्ञवल्क्यः।
अगम्यागमनात्स्तेयात्पापिभ्यश्च प्रतिग्रहात्।
रहस्याचरिता524 त्यापान्मुचते स्नानमाचरन्॥
मनःप्रसादजननं रूपसौभाग्यवर्द्धनम्।
शौचन्दुःस्वप्नहं स्रानं मोक्षदं ह्लादनं525 तथा॥
स्नानभेदानाह
शङ्खः।
स्नानन्तु द्विविधम्प्रोक्तं गौणमुख्यप्रभेदतः।
तयोस्तु वारुणं मुख्यं तत्पुनः षड्विधम्भवेत्॥
नित्यं नैमित्तिकङ्काम्यं क्रियाङ्गं मलकर्षणम्।
क्रियास्नानं तथा षष्ठं षोढ़ास्नानम्प्रकीर्त्तितम्॥
एतेषां लक्षणान्यपि स एवाह।
अस्नातस्तु पुमान्नार्हो जप्यादिहवनादिषु।
प्रातःस्रानं तदर्थन्तु नित्यस्नानं प्रकीर्त्तितम्॥
प्रातरित्युपलक्षणम्। अतो माध्यन्दिनस्यापि नित्यत्वमेव।
तथाच स्नानप्रकरणे
गोभिलः।
नित्यं सततनिर्वर्त्त्यमिति।
वैयाघ्रपादोऽपि।
प्रातः स्नायी भवेन्नित्यं526 मध्ये527ऽस्नानं सदा528 भवेत्। इति।
चाण्डालशवसूत्यादि स्पृष्ट्वाऽस्नातां रजस्वलाम्।
स्नानार्हस्तु यदा स्नाति स्नानं नैमित्तिकं हि तत्॥
पुष्पस्नानादिकं529 यत्तु दैवज्ञविधिनोदितम्530।
तद्धिकाम्यं समुद्दिष्टं नाकामस्तु531 प्रयोजयेत्॥
जप्तुकामःपवित्राणि अर्च्चिष्यन्देवतान् पितॄन्।
स्रानं समाचरेद्यत्तु क्रियाङ्गं तत्प्रकीर्त्तितम्॥
पवित्राणि सूक्तानि।532
मलापकर्षणं नाम स्नानमभ्यङ्गपूर्व्वकम्533।
मलापकर्षणार्थीत्तु प्रवृत्तिस्तस्य नान्यथा।
सरःसु देवखातेषु तीर्थेषु च नदीषु च।
क्रियास्त्रानं समुद्दिष्टं स्नानन्तत्र मता क्रिया। इति।
स्नानमेव तत्र क्रिया कर्त्तव्यतया विहितेत्यर्थः।
दक्षः।
चतुर्थे तु तथा भागे स्नानार्थं मृदमाहरेत्।
तिलपुष्पकुशादीनि स्नानं वाऽकृत्रिमे जले।
चतुर्थभागो हि पूर्व्वाह्णस्यैव।
रक्ता गौरा तथा श्वेता विविधा मृत्तिका स्मृता।
शुद्धिदेशात्तृ संग्राह्या शर्कराश्मा दिवर्ज्जिता534॥
विशेषलक्षणं मृत्तिकायाः शौचप्रकरणे बोद्धव्यम्। तिलाः कृष्णाःपुष्पाणि यथोक्तानि। कुशा वक्ष्यमाणलक्षणाः। कुशग्रहणे कालविशेषमाह
कात्यायनः।
मासे नभस्यमावास्या तस्यां दर्ब्भोच्चयः स्मृतः।
अयातयामा535 स्ते दर्ब्भानियोक्तव्याः पुनः पुनः॥
एतञ्च प्रतिदिनाशक्तौ बोद्धव्यम्।
कुशीपादानविधिः।
शुचौ देशे शुचिर्भूत्वा स्थित्वा पृर्व्वोत्तरामुखः।
ओंकारेण तु मन्त्रेण सकृदेव कुशंस्पृशेत्॥
सकृदेव प्रथमत एव।
दर्ब्भोत्पाटनविधिमन्त्रः।
विरिञ्चिना सहोत्पन्नपरमेष्ठिनिसर्गजः536।
नुद सर्व्वाणि पापानि मम स्वस्तिकरोभव॥
कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये तु केशवः।
कुशाग्रे शङ्करो देवस्त्रयो देवाः कुशे स्मृताः॥
अच्छिन्नाग्रान् सप्तपर्णान् समूलान् कोमलान् शुभान्।
पितृदेवजपार्थञ्च समादद्यात्कुशान्द्विजः॥
सप्तपर्साःशुभा दर्ब्भास्तिलक्षेत्रसमुद्भवाः।
ते प्रशस्ता नियोक्तव्या दैवे पित्र्येच कर्म्मणि॥
जातिमात्रोभवेद्दर्ब्भःसाग्रमूलः कुशः स्मृतः।
सप्तपत्रस्तु कुतपश्छिन्नाग्रस्तृणमुच्यते॥
अच्छिन्नाग्रा अशुष्काग्रा ह्रस्वाश्चैव प्रमाणतः।
कुतपा इति विज्ञेयास्तैस्तु श्राद्धं समाचरेत्॥
छन्दोगपरिशिष्टे।
अनन्तर्गर्ब्भिणं साग्रं कौशं द्विदलमेव च।
प्रादेशमात्रं विज्ञेयं पवित्रं यत्र कुत्रचित्॥
कौशेयं बिभृयान्नित्यं पवित्रं दक्षिणे करे।
भुज्जानस्तु विशेषेण गर्हितान्नस्य शोधनम्॥
द्वो कुशौ दक्षिणे हस्ते सव्ये त्रीण्यासने सकृत्।
उपवीते शिखायान्तु पादमूले सकृत् सकृत्॥
सकृत् एक इत्यर्थः।
कौशिकः।
पवित्रस्य च नाशौचं आचान्ते तु कदाचन।
पितॄणां तर्पणे त्याज्यमुच्चारे पूजने तथा।
शङ्खः।
उभयत्र स्थितैर्दर्ब्भैः समाचामति यो द्विजः।
सोमपानफलं तस्य भुक्ता यज्ञफलं भवेत्537॥
ग्रन्थिर्यस्य पवित्रस्य न तेनाचमनं भवेत्।
आचामेद्यस्तु मोहाच्च यथा भोक्ता तथा तु मः॥
यथा भोक्तति दृष्टान्तः। अतो भोजनकाले ग्रन्थिनिषेधः।
ब्रह्मयज्ञे जपे चैव ब्रह्मग्रन्थिं विधीयते।
भोजने वर्त्तुलः प्रोक्तः एवं धर्म्मो न हीयते॥
वामहस्ते कुशान् कृत्वा दक्षिणेनोदकं पिवेत्।
रुधिरं तद्भवेत्तोयं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत्॥
कुशाभावे तथा काशान्दृव्वीत्रीहियवानपि।
तदभावे तु नीवारान्श्यमाकान्वा नियोजयेत्॥
हारीतः।
जपे दाने तथा होमे स्वाध्यायेऽपि च तर्पणे।538
अशून्यन्तु करङ्कुर्य्यात्सुबर्णरजतैः कुशैः॥
आपस्तम्ब।
ब्रह्मयज्ञे चयेदर्ब्भाये दर्ब्भाःपितृतर्पणे।
धृता मूत्रपुरीषेतु तेषान्त्यागोविधीयते॥
चितौ539 दर्ब्भाश्च ये मार्गेः540स्वाध्यायें541पितृतर्पणे।
स्तरणासनपिण्डेषु न ग्राह्याः सप्त वै कुशाः।
अपूता गर्ब्भिता दर्ब्भाये चाग्रे छिन्दिता नखैः।
कथितां542 श्चाग्निदग्धांश्च कुशान्यत्नेन वर्ज्जयेत्॥
नीवीमध्ये स्थिता दर्ब्भाब्रह्मसूत्रेण ये धृताः।
पवित्रान्तान्विजानीयाद्यथा कायस्तथा कुशाः॥
अत्र विशेषमाह कात्यायनः।
हरिता यज्ञिया दर्ब्भाःपीतकाःपाकयज्ञिकाः।
समूलाःपितृदैवत्याः कल्माषा543 वैश्वदेविकाः॥
पितृदैवत्याः पित्रर्थाः।
गोबालपवित्रं प्रकृत्य कौशिकः।
गवां बालपवित्रेण धार्य्यमाणेन नित्यशः।
न स्पृशन्तीह पापानि श्रीश्च गात्रेषु तिष्ठति॥
गवां बालपवित्रेण वह्न्युपास्तिं करोति यः।
पञ्चाग्नयो हुतास्तेन यावज्जीवं न संशयः॥
गवां बालपवित्रेण सन्ध्योपास्तिङ्करोति यः।
सवै द्वादश वर्षाणि कृतसन्ध्यो भवेदिति॥
हारीतः।
समित्पुष्पकुशादीनि श्रोत्रियः स्वयमाहरेत्।
शूद्रानीतैः क्रयक्रीतैः कर्म्मकुर्व्वन् पतत्यधः॥
कुशपुष्पानि समिध औषधन्तु विशेषतः।
निषेधेऽपि च गृह्णीयादमावास्यामपि द्विजः॥.
यत्तु वचनम्।
अमावास्यां न हिंस्यात्तु कुशांश्च समिधस्तथा।
सर्वत्राक्स्थिते सोमे हिंमायां ब्रह्महा भवेत्॥ इति
तत्तु यस्मिन्काले वनस्पत्यादिषु सोमो नमति तन्मुहूर्त्तनिषेधपरं सर्व्वत्रावस्थित इति हेतृपादानात्।
सर्व्वत्र वनस्प्रतिकुशादिषु अवस्थानकालविशेषश्च सोपर्णेनाभिहितः।
त्रिमुहूर्त्तं वसेद्दर्भे त्रिमुहूर्त्तं जले वसेत।
त्रिमुहूर्तं वसेद्गोषु त्रिमुहूर्त्तं वनस्पतौ॥
वनस्पतिगते सोमे यस्तु हिंस्याद्वनस्पतिम्।
घोरायां भ्रूणहत्यायां युज्यते नात्रसंशयः॥ इति।
वनस्पतिरिति कुशादीनामपि प्रदर्शनार्थम्।
इति कुशविधिः।
अथ वाशिष्ठे स्नानविधिः।
अथ स्नानविधिङ्कृत्स्नं प्रवक्ष्याम्यनुपूर्व्वशः।
येन स्नानाद्दिवं यान्ति श्रद्धधाना द्विजोत्तमाः॥
नदीषु देवखातेषु तड़ागेषु सरःसु च।
स्रानं समाचरेन्नित्यं गर्त्तप्रस्रवर्णषु544च॥
पारक्येषु545निपानेषु546 न स्नायाद्विकदाचन।
निपानकर्त्तुःस्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते॥
अलाभे देवखातानां सरसां सरितान्तथा।
उद्धृत्य चतुरः पिण्डान् पारक्ये स्नानमाचरेत्॥
याज्ञवल्क्यः।
पञ्च पिण्डाननुडूत्य न स्नायात्परवारिषु।
योगियाज्ञवल्क्यः।
अरुग्दिवा चरेत्स्नानं मध्याह्नात्प्राग्विशेषतः।
प्रयतो मृदमादाय दूर्व्वामाद्रवगोमयम्॥
अरुग् नातुरः। विशेषत इति वचनादपराह्णेऽप्यनुज्ञानमस्तीतिगम्यते।
स्थापयित्वा547 तथाचम्य ततः स्नानं समाचरेत्।
प्रक्षाल्य हस्तौ पादौ च शिखाबन्धं समाचरेत्॥
शिखाबन्धनप्रकारमाह व्यासः।
स्मृत्वोङ्कारञ्च गायत्रीं निबध्नीयाच्छाखां ततः548।
पुनराचम्य हृदयम्बाहू स्कन्धौ च संस्पृशेत्॥ इति।
मृदैकया शिरः क्षाल्यं द्वाभ्यां नाभेरथोपरि।
अथ चतसृभिः कायं षड्भिः पादौ तथैव च॥
प्रक्षाल्य सर्व्वकायञ्च द्विराचस्य यथाविधि।
ततः सम्मार्ज्जनङ्कुर्य्यान्मृदापूर्व्वन्तु मन्त्रवित्॥
अङ्गान्युक्तविधिना मृदाङ्गं मार्ज्जयेदित्यर्थः।
अश्बक्रान्ते रथकान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे।
उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना॥
मृत्तिके त्वाञ्च गृह्णामि प्रजया च धनेन च।
मृत्तिके ब्रह्मदत्तासि काश्यपनाभिमन्त्रिता॥
मृत्तिके देहि तत्सर्व्वंयन्मया दुष्कृतङ्कृतम्।
मृत्तिके देहि मे पुष्टिं त्वयि सर्व्वंप्रतिष्ठितम्॥
ततश्च गोमयेनैवमग्रमग्रमिति ब्रुवन्।
अग्रमग्रं चरन्तीनां रसं यन्निर्गतं वने549॥
तासामृषभपत्नीनां पवित्रङ्कायशोधनम्।
तन्मे रोगांश्च शोकांश्च नुद गोमय सर्वदा॥
ततो दूर्व्वया।
काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषः परि।
एवा नो दूर्ब्बेप्रतनु सहस्रेण शतेन च॥
या शतेन प्रतनोसि सहस्रेण विरोहमि।
तस्य मे देवि दूर्विके विधेम हविषा वयम्॥
कृत्वैवं मार्ज्जनं मन्त्रैरश्वक्रान्तादिभिस्तुतः।
ईहेत देवीरमृतं पारावतस्य रात्रिषु।
देव्याः परःपारावतःरात्रिष्वित्यादि मन्त्रैर्देवीरापौऽमृतमीहेत550एभिरभिमन्त्रिताप्रसृष्टं भवतीत्यर्थः।
ये ते शतमिति द्वाभ्यां तीर्थान्यावाहयेत्ततः।
कुरुक्षेत्रादीन्यावाहयेत्।
कुरुक्षेत्रं गयाङ्गङ्गां प्रभासम्पुष्कराणि च।
तथा महाव्याहृतिभिर्गायत्र्यावाभिमन्त्रयेत्॥
आपो हिष्ठादयः551पश्चाद्द्रुपदादिव552इत्यपि।
तथा हिरण्यवर्णाभिः पावमानीभिरन्ततः।
ततोऽर्कमीक्ष्यवौङ्कारं निमज्ज्यात्त्रिज्जैले बुधः॥
प्राणायामांश्च कुर्व्वीत गायत्रीञ्चाघमर्षणम्।
यथोक्तैःक्षोभितस्तैतु मज्जेत्रिर्द्दण्डवत्ततः॥
यथोक्तैः प्राणायामादिभिः क्षोभितः क्षुब्धः पूर्व्वावस्थामतिक्रान्तो विगतपाप इति यावत्। अन्ये पि स्नाानविधयो बहवःसन्ति ते ग्रन्थगौरवभयान्न प्रदर्शिताः। एतच्च स्नानं सर्व्वसाधारणम्। विशेषः स्वस्वशाखाभ्यो विज्ञेयः।
अत्र चापवादः।
भानौ भौमे त्रयोदश्यां नन्दाभृगुमघासु च।
पिण्डदानं मृदा स्रानं न कुर्य्यात्तिलतर्पणम्॥ इति।
पिण्डदानन्तु काम्यं न नित्यम्।
योगियाज्ञवल्क्यः।
मृदा स्रानं न कुर्व्वीत रात्रिसन्ध्यागृहेषु च।
विधिज्ञःस्नानकालेषु तथा भौमार्कवारयोः॥
तिलतर्पणस्य प्रतिप्रसवस्तर्पणप्रकरणे वक्ष्यते।
संक्षेपस्नानविधिमाह योगियाज्ञवल्क्यः।
एष विस्तरतः प्रोक्तः स्नानस्य विधिरुत्तमः।
असामर्थ्यान्न कुर्य्याञ्चित्तत्रायं विधिरुच्यते॥
स्नानमन्तर्ज्जले चैव मार्ज्जनाचमने तथा।
जलाभिमन्त्रणञ्चैव तीर्थस्य परिकल्पनम्॥
अघमर्षणसूक्तेन त्रिरावृत्तेन नित्यशः।
स्नानाचरणमित्येतदुपदिष्टं स्वयम्भुवा॥
जाबालिः।
प्रवाहाभिमुखो मज्जेद्यत्राप प्रवहन्ति वै।
स्थावरेषु553 च सर्व्वेषु आदित्याभिमुखस्तथा॥
विष्णुपुराणे।
कूपेषु धृततोयेन554 स्रानं कुर्व्वीत वा भुविः555।
स्नायीतोद्धृततोयेन यदि वा भुव्यसम्भवे556॥
मनुः।
न स्नानमाचरेद्भुक्त्वा नातुरो न महानिशि।
न वासोभिः सहाजस्रं नाविज्ञाते जलाशये॥
व्यासः।
अनुत्सृष्टेषु न स्नायात्तथैवासंस्कृतेषु च।
असंस्कृतमप्रतिष्ठितम्। अनुत्सृष्टमदत्तं557 परकीयमिति यावत्।
जाबालिः।
न पारक्ये सदा स्नायान्न भुक्त्वान महानिशि।
नार्द्रमेकञ्च वसनं परिदध्यात्कथञ्चन558॥
देवलः।
राहुदर्शनसंक्रान्तिविवाहात्ययवृद्धिषु।
स्नानदानादिकङ्कुर्य्यानिशिकाम्यव्रतेषु च॥
भरद्वाजः।
विद्यमानेन सूर्य्येण सङ्गृहीतन्तु यज्जलम्।
तत्सुवर्णोदकङ्कृत्वा स्नायात्स्थाप्यात्मनोऽन्तिके।
पराशरः।
अपो रात्रौ न गृह्णीयात्प्रविष्टा वरुणालयम्।
आवश्यकेऽथो मन्त्रेण धाम्नो धाम्न इति स्वयम्॥
धाम्रो धाम्न इति मन्त्रेण स्वयमेव गृह्णीयादित्यर्थः।
योगियाज्ञवल्क्यः।
दर्शेस्नानं न कुर्व्वीत मातापित्रोश्च जीवतोः।
त्रयोदश्यां तृतीयायां दशम्याञ्च विशेषतः॥
शूद्रविट्क्षत्रियाः स्नानं नाचरेयुः कथञ्चन।
एतत्नित्यनैमित्तिकादिस्नानव्यतिरिक्तविषयम्।
अतएव भरद्वाजः।
भोगार्थं क्रियते यत्तु स्नानं यादृच्छिकञ्च यत्।
दशम्यान्तु प्रकर्त्तव्यं न तु यादृच्छिकं559क्वचित्560॥
यादृच्छिकलक्षणं गर्गेणोक्तम्।
क्रियतां वा न कुर्य्याद्वाशास्त्रयन्त्रणया561विना।
मलव्यपोहनफलं562 स्रानं यादृच्छिकन्तु तत्॥
पैठीनसिः।
पुत्रजन्मनि संक्रान्तौश्राद्धेजन्मदिने तथा।
नित्यस्नाने च कर्त्तव्ये तिथिदोषो न विद्यते॥ इति।
मार्कण्डेयपुराणे।
मातरं पितरं जायाम्भ्रातरं मुहृद्ङ्गुरुम्।
यमुद्दिश्य निमज्जेत अष्टभागं लभेत सः॥
नादशैकेन563 वस्त्रेण स्रायात्कौपीनकादृते।
नान्यदीयेन नार्द्रेण न सूच्या ग्रथितेन च॥
स्रानङ्कृत्वार्द्रवासास्तु विण्मूत्रं कुरुते यदि।
प्राणायामत्रयं कुर्य्यात्पुनः स्नानेन शुध्यति॥
मनुः।
स्नातस्य वह्नितप्तेन तथैव परवारिणा।
शरीरशुद्धिर्विज्ञेया न तु स्नानफलं लभेत्॥
यत्तु षट्त्रिंशन्मते।
आपः स्वभावतो मेध्याः किम्पुनर्वह्निसंयुताः।
तेन सन्तः प्रशंसन्ति स्नानमुष्णेन वारिणा॥ इति।
तदातुरविषयम् अनातुरस्यापि नद्याद्यसम्भवे उष्णोदकस्नानमविरुद्धमित्याह।
यमः।
नित्यं नैमित्तिकञ्चैव क्रियाङ्ग मलकर्षणम्।
तीर्थाभावे तु कर्त्तव्यमुष्णोदकपरोदकैः॥
अत्र मलापकर्षणं स्रानं तीर्थे कर्त्तव्यमिति न विधीयते। अपि तु प्रायश उष्णोदकसाध्यत्वादुष्णोदकप्रकरणे परिगणितम्।
उष्णोदकस्नाने कर्त्तव्ये व्यासः।
शीतास्वप्सु निशि चोष्णमन्त्रसम्भारसम्भृतम्।
गृहेऽपि शस्यते स्रानं तद्धीनमफलम्भवेत्564॥
सम्भारा मृदादयः।
अग्राह्यास्त्वागता ह्यापो नद्याः प्रथमवेगजाः565।
प्रक्षोभिताश्व केनापि तथा तीर्थाद्विनिर्गताः॥
तथा।
प्रत्यावृत्तोदके566 स्नानं वर्ज्ज्यं नद्यां द्विजातिभिः।
तस्यां रजकतीर्थेषु दशहस्तेन567
वर्ज्जयेत्॥
प्रतिस्रोतो रजोयोगी रथ्याजलनिवेशनम्।
गङ्गायान्नप्रदुष्यन्ति सा हि धर्म्मद्रवी स्वयम्॥
देवलः।
नभोनभस्ययोर्मध्ये568 सर्व्वा नद्यो रजस्वलाः।
तासु स्रानं न कुर्व्वीत वर्ज्जयित्वा समुद्रगाः॥
कात्यायनः।
नभोनभस्ययोर्मध्ये सर्व्वानद्यो रजस्वलाः।
तासु स्नानं न कुर्व्वीत देवर्षिपितृतर्पणम्॥
श्रावणभाद्रपदयोर्मध्ये सर्व्वासु नदीषु स्नााननिषेधे प्रसक्ते क्वचिद्विशेषोऽभिहितो भविष्यपुराणे।
आदौ कक्कटके देवि महानद्यो रजस्वलाः।
त्रिदिनन्तु चतुर्थेऽह्नि शुद्धा स्याज्जाह्नबी यथा ॥ इति।
नद्यश्च ब्रह्मपुराणे प्रदर्शिताः।
गोदावरी भीमरथी तुङ्गभद्रा च वैशिका569
तापी पयोष्णी विन्ध्यस्य दक्षिणे तु प्रकीर्त्तिताः॥
भागीरथी नर्म्मदा च यमुना च सरस्वती।
विशोका च विहस्ता च विन्ध्यस्योत्तरतः स्थिताः।
द्वादशैता महानद्यो देवर्षिक्षेत्रसम्भवाः॥ इति।
एवं गङ्गादिष्वपि प्रसक्तावपवादमाह देवलः।
गङ्गा च यमुना चैव प्लक्षजाता सरस्वती।
कुरुक्षेत्रे या सरस्वती सा प्लक्षजाता।
रजसा नाभिभूयन्ते ये चान्ये नदसंज्ञकाः॥
शोणसिन्धुहिरण्याक्षकोकलोहितघर्घराः।
शतद्रुश्च नदाः सप्त पावनाः ब्रह्मणः सुताः॥
निगमाः।
गङ्गाधर्म्मद्रवाः पुण्या यमुना च सरस्वती।
अन्तर्गतरजोयोगाःसर्व्वावस्थासु चामलाः॥
गङ्गारजस्वलेत्यादि गङ्गायमुनासरस्वतीनां रजोदोषप्रापकाणि यानि तान्यपि अन्तर्गतरजोविषयाणि। अतो न दोषः।
ततः।
कर्क्कटादौ रजादुष्टागोमती वासरत्रयम्।
चन्द्रभागा सती सिन्धुः सरयूर्नर्म्मदा तथा॥
यासु नदीषु रजोदोषोऽस्ति तास्वपि तत्तीरवासिनां न दोषः।
तथा निगमः।
न तु तत्तीरवासिनामिति।
अत्र विशेषमाह व्याघ्रपादः।
अभावे कूपवापीनामनपायिपयोभृताम्570।
रजोदुष्टेऽपि पयसि ग्रामभागी न दुष्यति॥ इति।
वशिष्ठः।
उपाकर्म्मणि चोत्सर्गे प्रेतस्नाने तथैव च।
चन्द्रसूर्य्यग्रहे चैव रजोदोषो न विद्यते॥
याज्ञवल्क्यः।
न स्नायादुत्सवेऽतीते मङ्गलं विनिवर्त्त्यच।
अनुव्रज्य सुहृद्वन्धूनर्च्चयित्वेष्टदेवताम्॥
प्रसङ्गात्प्रत्यग्रदुष्टं प्रति कश्चन विशेषः कथ्यते।तत्र
स्मृतिसङ्ग्रहे।
काले नवोदकं शुद्धं प्रत्यग्रमशुवि त्र्यहम्।
अकाले तु दशाहन्तु पीत्वा नाद्यादहर्निशम्॥ इति।
काले वर्षाकाले। अकाले तद्विपरीते।
अत्रापि विशेषी भविष्योत्तरं।
महदम्बु समं571वात्र यदि तिष्ठेत्पुरातनम्।
नवांशुमिश्रितं तेन न दुष्टमिति सूरयः॥
इति उक्तं नित्यस्नानम्।
अथ नैमित्तिकानि स्नानानि।
याज्ञवल्क्यः।
उदक्याऽशुचिभिः स्नायात्संसृष्टस्तैस्तु संस्पृशेत्।
अब्लिङ्गानि जपेञ्चैव गायत्रींमनसा सकृत्॥
उदक्या रजस्वला। अशुचयःशवपतितचाण्डालसूतिकाशावाशौचिनः। एतैः स्पृष्टः स्नायात्। तैरुदक्यादिस्पृष्टैरुपस्पृष्टमाचमेत्। आचम्य चाब्लिङ्गानि आपो हिष्ठेत्येवमादीनित्रीणि सूक्तानि वाक्यानि जपेत्। त्रिष्वेव बहुवचनस्य कपिञ्जलाधिकरणन्यायेन चरितार्थत्वात् सूक्तवाक्ययोर्हेशकालानुसारेण व्यवस्था। ततो गायत्रीं मनसा सकृज्जपेत्।
पराशरः।
दुःस्वप्ने मैथुने वान्ते विरक्ते572 क्षुरकर्म्मणि।
चितियूपश्मशानास्थ्रां स्पर्शने स्नानमाचरेत्॥
मैथुन इति ऋतुकाले, ऋतुकाले वृहस्पतिना शौचमात्रविधानात्।
अनृतौ573 तु यदा गच्छेच्छौचं मूत्रपुरीषवदिति।
अनृतावपि कालविशेषे स्रानमेव च।
तथाच स्मृतिः।
अष्टम्याञ्च चतुर्द्दश्यां दिवा पर्व्वणि मैथुनम्।
कृत्वा सचेलं स्नात्वा तु वारुणीभिश्च574मार्ज्जयेत्॥ इति।
अष्टमीचतुर्द्दशीपर्व्वषु रात्रावपिअन्यत्र दिवा। अत्र गोवलीवर्द्दन्यायेन अष्टमीचतुर्द्दशीव्यतिरिक्तामावास्यादिषु पर्व्वशब्दो वर्त्तते।
अजीर्णादिषु स्नाानमात्रमेव न च सचेलस्नानम्।
यथाह यमः।
अजीर्णेऽभ्युदिते वान्ते तथाप्यस्तमितेरवौ।
दुःस्वप्ने दुर्ज्जनस्पर्शेस्नानमात्रं विधीयते॥ इति।
अजीर्णे स्रानं तदुपशमे सति। अभ्युदित इति निद्रायां निद्रायां क्रियमाणायां रवावभ्युदिते तथा चास्तमिते च एतत्सर्व्वमकामतः स्पर्शेवेदितव्यम्।
शवस्पर्शं चितिं यूपं575
रजस्वलाम्।
स्पृष्ट्वा त्वकामतोविप्रः स्नानङ्कृत्वा विशुध्यति॥ इति।
बृहस्पतिना अकामत इत्युपादानात् कामतस्तुच्यवनीक्तंद्रष्टव्यम्।
श्वानं श्वपाकं प्रेतधूमं देवद्रव्योपजीविनं ग्रामवाजिकं सोमविक्रयिं यूपं चितिं चितिकाउं मद्यभाणाडं सस्नेहं मानुषास्थिस्पर्शं रजस्वलां महापातकिनं शवं स्पृष्ट्वा सचेलमम्मोवगाह्योत्तीर्य्याग्निमुपस्पृश्य गायत्र्याष्टशतं जपेत्। घृतं प्राश्य पुनः सात्वा त्रिराचमेदिति।
कश्यपः।
उदयास्तमथो क्रन्दित्वाक्षिस्पन्दने कर्णाक्रोशने576 चित्यारोहणे यूपसंस्पर्शने577। सचेलं स्नात्वा पुनर्मेति जपेत्। महाव्याहृतिभिः सप्ताहुती र्जुहुयादि ति।
तथा।
स्पृष्ट्वा देवलकञ्चैव सवासा जलमाविशेत्।
देवार्च्चनपरो विप्रो वित्तार्थो बत्सरत्रयम्।
असौ देवलको नाम हव्यकव्येषु गर्हितः॥
ब्रह्माण्डपुराणे।
शैवान् पाशुपतान् स्पृष्ट्वा लोकायतिकनास्तिकान्578।
विकर्म्मस्थान्द्विजान् शूद्रान् सवासा जलमाविशेत्॥
अधिकारी अविद्यमाने ये शैवाःपाशुपता वा भवन्ति। संस्पर्शने स्नानमित्यवगन्तव्यम्। अन्यथा तद्दीक्षाविधायकपुराणनिचयविरोधात्। अथवा श्रोत्रियादीनां साक्षिवदननिषेधो यथा वाचनिकः श्रोत्रियादिषु दोषाभावेऽपि तथा वाचनिकस्पर्शनिषेधः। विकर्म्मस्थानित्येतद्द्विजानित्यनेनैव सम्बध्यते। शूद्रानित्यनेन अस्वर्ग्या ह्याहुतिः साम्याच्छूद्रसंस्पर्शदूषिता इति शूद्रमात्रस्पर्शेनास्वर्ग्यत्वप्रतिपादनसामर्थ्यात्।
व्याघ्रपादः।
चाण्डालम्पतितञ्चैव दूरतः परिवर्ज्जयेत्॥
गोबालव्यजनादर्व्वाक579्सवासा जलमाविशेत्॥
एतच्चातिसङ्गीर्णस्थानविषयम्।
असङ्कीर्णे तु वृहस्पत्युक्तम्।
युगञ्च द्वियुगञ्चैव त्रियुगञ्च चतुर्यु
गम्।
चाण्डालसूतिकोदक्यापतितानामधःक्रमात्॥ इति।
अधःक्रमात्प्रतिलोमक्रमात्। चतुर्युगं580 चाण्डाले त्रियुगं सूतिकायामित्येवम्।
पैठीनसिः।
अनुदकसूत्रकरणे सचेलस्नानं व्याहृतिहोमश्च।
एतच्च शौचमकृत्वा चिरकालावस्थितोवेदितव्यम्।
भासवायसमार्ज्जारखरोष्ट्रश्वाामशूकरान्।
अमेध्यानि च संस्पर्शन् सचेलोजलमाविशेत्॥
मार्ज्जारस्य स्पर्शने स्नानमुद्दिष्टं समये कर्म्मकाले।
मार्ज्जारश्चैव दर्व्वोच मारुतच सदा शुचिः।
इति यमस्मरणात्। संस्पर्शे नाभेरुर्द्धं स्नानम्।
नाभेरुर्द्धंकरौमुक्वा शुना यद्युपहन्यते।
तत्र स्नानमधस्ताच्चेत्प्रक्षाल्याचम्य शुध्यति॥
इति अङ्गिरःस्मरणात्।
अस्पृश्यपक्षिस्पर्शे जातूकर्म्मः।
ऊर्द्धंनाभेः करो मुक्ता यदङ्गं संस्पृशेत्खगः581।
स्नानं तंत्र प्रकुर्व्वीत शेषं प्रक्षाल्य शुध्यति॥
अमेध्यस्पर्शे तु शौचप्रकरणे विशेषो दर्शितः पूर्व्वमेव।
शङ्खः।
रथ्याकर्द्दमवर्षासु प्रविश्य ग्रामसङ्करम्।
जङ्घयोर्मृत्तिकास्तिस्रः पादयोर्द्विगुणस्ततः॥
ग्रामसलिलप्रवाहदेशो ग्रामसङ्गरः तं सकर्द्दमं प्रविश्य।
मनुः।
नारं स्पृष्ठ्वास्थि सस्नेहं स्नात्वा विप्रो विशुध्यति।
आचम्यैव तु निस्रेहं गां स्पृष्ट्वा वीक्ष्यवा रविम्॥
एतच्च द्विजातिविषयम्। अन्यत्र तु मानुषास्थि स्निग्धं स्पृष्ट्वा त्रिरात्रमशौचम्। अस्निग्धे त्वहोरात्रमिति वशिष्ठोक्तम्।
मानुषेऽमानुषे त्वस्थ्नि विष्णूक्तम्।
भक्ष्यवर्ज्ज्यं पञ्चनखं582 शवं तदस्थिच सस्नेहं स्पृष्ट्वा
स्नानपूर्व्वं वस्त्रं स्वयं प्रक्षालितं बिभृयादिति।
अन्येष्वेवंविधाः स्नानार्हाः स्मृत्यन्तरेऽवगन्तव्याः ग्रन्थगौरवभयान्नेह लिखिताः। उदक्यादिभिः स्पृष्टानां मनुष्याणां स्नानम्। अचेतनानां पीठादीनां प्रक्षालनम्। तत्रोदक्यादिं स्पृष्ट्वा चेतनस्पर्शवतामाचमनम्।
उदक्याशुचिभिः स्नायात्संस्पृष्टस्तैरुपस्पृशेत्।
इति याज्ञवल्क्यस्मरणात्। उक्यादिस्पृष्टचेतनस्पर्शे तु द्वितीयस्थापि स्नानमेव।
तथाच मनुः।
दिवाकीर्त्तिमुदक्याञ्च पतितं सूतिकां तथा।
शवं तत्स्सृष्टिनञ्चैव स्पृष्ट्वा स्रानेन शुध्यति।
सानार्हचेतनस्पर्शे द्वितीयस्य क्वचित्स्नानापवादमाह संग्रहकारः।
शवधूमं स्पृशन्वान्त्यं विरक्तं क्षुरकर्म्मणि।
मैथुनाचरितारञ्च स्पृष्ट्वा स्नानं न विद्यते॥ इति।
एतदुपलक्षणम्। अतो यस्य स्नानमात्रमेव प्राप्तं न सचेलं तत्स्पर्शे द्वितीयस्थाप्येवमेव सिद्धम्।
तृतीये त्वाचमनं यथाह संवर्त्तः।
तत्स्सृष्टिनं स्पृशेद्यस्तु स्नानं तस्य विधीयते।
ऊर्द्धमाचमनं प्रोक्तं द्रव्याणां प्रोक्षणं तथा॥ इति।
एतच्चाकामकारिविषयम्। कामकृते तु तृतीयस्यापि स्नानमेव।
पतितचाण्डालसूतिकोदक्याशवस्पृष्टितत्स्पृष्ट्युपस्पर्शे सचेलमुदकोपस्पर्शनात्।
इति गौतममरणात्।
चतुर्थस्थाचमनं यथा देवलः।
उपस्पृष्टाशुचिस्सृष्टं तृतीयं वापि मानवः।
हस्तौ पादौ च तोयेन प्रक्षाल्याचम्य शुध्यति॥
यत्तु कूर्म्मपुराणे।
तत्स्सृष्टस्सृष्टिनं स्पृष्ट्वा शुद्धिपूर्व्वं द्विजोत्तमाः।
आचमेत्तस्यर्थ शुद्ध्यर्थः प्राह देवःपितामहः॥ इति।
एतद्दुर्ब्वलत्वेन स्नानाशक्ततृतीयविषयम्। अन्यथा गोतमादिवचनविरोधादथवा च तत्स्पृष्टपीठादिस्पर्शविषयम्। एवंसर्व्वत्र विषयविवेकोऽवगन्तव्यः।
स्वयमशुचिना उदक्यादिस्पर्शे कृते देवलः।
अशुद्धान् स्वयमप्येतानशुद्धस्तु यदि स्पृशेत्।
विशुद्ध्यत्यत्युपवासेन तथा कृच्छ्रेण वा पुनः॥
कृच्छ्रःश्वपाकादिविषयः। उपवासःश्वादिविषयः।
आतुरस्नानं प्रति पराभरोक्तौ विशेषः।
आतुरे स्नानमुत्पन्ने दशकृत्वो ह्यनातुरः।
स्नात्वा स्नात्वा स्पृशेदेनं ततः शुध्येत्स आतुरः॥
स्नाने नैमित्तिके प्राप्ते नारी यदि रजस्वला।
पात्रान्तरिततोयेन स्नानङ्कृत्वा व्रतञ्चरेत्॥
सिक्तगात्रा भवेदद्भिः साङ्गोपाङ्गं कथञ्चन।
न वस्त्रपीड़नं कुर्य्यान्नान्यद्वासश्च धारयेत्।
उशना।
ज्वराभिभूता या नारी रजसा च परिप्लुता।
कथन्तेभ्यो भवेच्छुद्धिः शौचं स्यात्केन कर्म्मणा॥
चतुर्थेऽहनि सम्प्राप्ते स्पृशेदन्या तु तां स्त्रियम्।
सा सचेला वगाह्यापः स्नात्वा स्नात्वा पुनः स्पृशेत्॥
दश द्वादशकृत्वाे वा आचामेच्च पुनः पुनः।
अन्त्ये च वाससां त्यागस्ततः शुद्धा भवेत्तु सा॥
दद्याच्छक्त्या ततो दानं पुण्याहेन विशुध्यति।
सूतिकामरणे रजस्वलामरणे पूर्व्ववत्स्नानं कारयित्वा पञ्चगव्येन स्नापयेत्।
तथाच संग्रहकारः।
सूतिकायां मृतायान्तु कथं कुर्वन्ति याज्ञिकाः।
कुम्भे सतिलमादाय पञ्चगव्यं तथैव च॥
पुण्याद्भिरभिमन्त्रापाोवाचा शुद्धिं लभेत्ततः।
तेनैव स्नापयित्वा तु दाहं कुर्य्याद्ययाविधि॥
पञ्चभिःस्नापयित्वा तु गव्यैः प्रेतां रजस्वलाम।
वस्त्रान्तराङ्कृताङ्कृत्वाः583 दाहयेद्विधिपूर्व्वकम्॥ इति।
वृद्धशातातपस्तु।
रजस्वलायाःप्रेतायाः संस्कारादीनि नाचरेत्।
ऊर्द्धं त्रिरात्रात्स्नातायाः शवधर्म्मण584दाहयेत्॥
इति त्रिरात्रानन्तरं दाहादिसंस्कारमाह। अत्र देशकालानु साराद्व्यवस्थाः585। विज्ञेया।
शातातपः।
ग्रामे तूभयसंस्पृष्टि586 यात्रायां कलहादिषु।
ग्रामसन्दूषणे587 चैव स्मृष्टिदोषो न विद्यते॥
ग्रामे राजमार्गादौ।
षट्त्रिंशन्मते।
देवयात्राविवाहेषु यज्ञेषु प्रकृतेषु588 च।
उत्सवेषु च सर्व्वेषु स्पृष्टास्षृष्टि न विद्यते॥
वृहस्पतिः।
तीर्थे विवाहे यात्रायां संग्रामे देशविप्लवे।
नगरग्रामदाहे च स्पृष्टास्पृष्टि न दुष्यति॥
एतञ्च यत्राहमनेन स्पृष्ट इति प्रत्यक्षज्ञानं नास्ति तद्विषयम्।
तन्मात्रापवादेऽपि वचनान्तरितार्थत्वात्589।
शातातपः।
रात्रौ स्रानं न कुर्व्वीत स्रानन्दानञ्च590 रात्रिषु।
नैमित्तिकञ्च कुर्व्वीत स्नानन्दानञ्च रात्रिषु॥
एतन्मध्यमयामद्वयाभिप्रायम्।
तथाच पराशरः।
महानिशा तु विज्ञेया मध्यमप्रहरद्वयम्।
प्रदोषपश्चिमौ591यामौ दिनवत्स्नानमाचरेत्॥
एतदप्यापद्विषयं यतः स एव।
दिवाकरकरैः पूतं दिवास्त्रानम्प्रशस्यते।
अप्रशस्तं निशि स्रानं राहोरन्यत्रदर्शनात्॥
राहुदर्शनादिति पुत्रजन्मादिप्रदर्शनार्थम्।
तथाच पराशरः।
पुत्रजन्मनि यज्ञे च तथा संक्रमणे रवेः।
राहोश्च दर्शने स्नानं प्रशस्तं नान्यथा निशि॥ इति।
इति नैमितिकस्नानानि।
अथ काम्यस्नानानि।
तत्र पुलस्त्यः।
पुष्ये तु जन्मनक्षत्रे व्यतीपाते च वैधृतौ\।
अमावास्यां592 नदीस्नानं पुनात्यामप्तमङ्कुलम्॥
चैत्रकृष्णचतुर्द्दश्यां यः स्नायाच्छ्रिवसन्निधौ।
न प्रेतत्वनवाप्नोति गङ्गायान्तु विशेषतः॥
भविष्यपुराणे।
शिवलिङ्गसमीपे तु यत्तीयं पुरतः स्थितम्।
शिवगङ्गेति तज्ज्ञेयं तत्र स्नात्वा शिवं व्रजेत्॥
यमः।
कार्त्तिक्यां पुस्करे स्रातः सर्व्वपापैः प्रमुच्यते।
माध्यां स्रातः प्रयागे तु मुच्यते सर्व्वकिल्विषैः॥
ज्यैष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां हस्तसंयुते।
दशजन्माघहा गङ्गा तेन पापहरा स्मृताः593॥
यमुनायां तथा स्नात्वा माघकृष्णचतुर्द्दशीम्।
वैशाखशुक्लपक्षे तु तृतीयायां तथैव च।
गङ्गातोये नराः स्नात्वा मुच्यन्ते सर्व्वकिल्विषैः॥
कार्त्तिके नवमी शुक्ला पितृृणामुत्सवाय च594।
तस्यां स्नानं हुतन्दानमनन्तफलदम्भवेत्॥
विष्णुः
सूर्य्यग्रहेण तुल्या तु शुक्ला माघस्य सप्तमी।
अरुणोदयवेलायां तस्यां स्नानं महाफलम्॥
पुनर्व्वसौ बुधोपेता चैत्रे मासि सिताष्टमी।
तथा।
स्रोतःसु विधिवत्स्नात्वा वाजपेयफलं लभेत्॥
कार्त्तिकं सकलं मासं नित्यस्नायी जितेन्द्रियः।
जपन्हविष्यभुक् स्नातः सर्व्वपापैः प्रमुच्यते॥
तुलामकरमेषेषु प्रातः स्नायी सदा भवेत्।
हविष्यं ब्रह्मचर्य्यञ्च महापातकनाशनम्॥
यमः।
य इच्छेद्विपुलान् भोगांश्चन्द्रसूर्य्यग्रहोपमान्।
प्रातः स्नायी भवेन्नित्यं मासौ द्वौ माघफाल्गुनौ॥
मत्स्यपुराणे।
आषाढ्यादिचतुर्मासं प्रातःस्रायी भवेन्नरः।
विप्रेभ्यो भोजनं दत्त्वा कार्त्तिक्यां गाोप्रदो भवेत्।
स वैष्णवपदं याति विष्णुव्रतमिदं स्मृतम्॥
मार्कण्डेयः।
गवां कोटिसहस्त्रस्य सम्यग्दत्तस्य यत्फलम।
तत्फलं जाह्नवीस्नाने राहुग्रस्ते दिवाकरे॥
वृद्धवशिष्ठः।
रविसंक्रमणे पुण्ये न स्रायाद्यदि मानवः।
सप्तजन्मान्तरं रोगी दुःखभागी सदा भवेत्॥
मार्कण्डेयः।
तुष्यत्यामलकैर्विष्णुरेकादश्यां विशेषतः।
स्त्रीकामः595 सर्व्वदा स्नानं कुर्व्वीतामलकैर्नरः।
सप्तमीं नवमीञ्चैव सर्व्वकाले च वर्ज्जयेत्॥
कुर्य्यानैमित्तिकं स्नानं शीताद्भिः काम्यमेव च।
नित्यं यादृच्छिकञ्चैव यथारुचि समाचरेत्॥
मार्कण्डेयपुराणे।
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं स्नानमुचते।
तर्पणन्तु भवेत्तस्य अङ्गत्वेन प्रकीर्त्तितम्॥
अङ्गतर्पणं भूदैवांस्तर्पयामि इत्यादिकं याजुर्वेदिकम्।
इति कास्यस्नानानि
नारदीयपुराणे।
सम्प्राप्ते माघमासे तु तपस्विजनवल्लभे।
क्रोशन्ति596 सर्व्वतीराणि समुद्गच्छन्ति भास्करे597।
पुनीमःसर्व्वपापानि त्रिविधानि598 न संशयः॥
तड़ागेषु तु वा स्नायात्कौपे भाण्डाश्चितेतथा।
माघमासे वरारोहे प्रशस्तं निम्नगाजलम्॥
भाण्डाश्रितेषु विशेषः।
सरित्तोयं महावेगं नवकुम्भस्थितं तथा।
वायुना ताड़िता रात्रौ गङ्गास्नानसमं स्मृतम्॥
अधिकवेगयुक्तायाः सरितः आनीतं तोयमित्यर्थः।
स्नातो वह्निं न सेवेत अस्नातो वा कथञ्चन।
सेवेतापि त होमार्थं न शीतार्थं कथञ्चन॥
विष्णुः।
दर्शं वा पूर्णमासं वा प्रारभ्य स्नानमाचरेत्।
पुण्यान्यहानि त्रिंशत्तु मकरस्थे दिवाकरे।
अत्र चोत्थाय नियमं गृह्णीयाद्विधिपूर्व्वकम्॥
माघमासमिमं पुण्यं स्नाम्यहं599 देव माधव।
तीर्थस्यास्य जले नित्यमिति सङ्कल्प्य चेतसि॥
ततः स्नात्वा शुभे तीर्थे दत्त्वा शिरसि वै मृदम्।
वेदोक्तविधिना राजन् सूर्य्यस्यार्घ्यं निवेदयेत्॥
पितॄणां तर्पयित्वा तु अवतीर्य्य्ततो जलात्।
काष्ठापानान्नंसंस्कृत्य600 पूजयेत्पुरुषोत्तमम्।
शङ्खचक्रधरन्देवं नामभिः परिपूजयेत्॥
वह्निं601हुत्वा विधानेन ततस्त्वेकाशनो602भवेत्।
भूशय्यांब्रह्मचर्य्येण शक्तः स्नानं समाचरेत्॥
अशक्तस्याधनाढ्यस्य स्वेच्छा सर्व्वत्र कथ्यते।
अवश्यमेव कर्त्तव्यं माघस्नानमिति श्रुतिः॥
तिलस्नायी तिलोद्वर्त्ती तिलहोमोतिलोदकी603।
तिलदस्तिलभोक्ता च षट्तिली नावसीदति॥
तैलमामलकाश्चैव तीर्थे देय604ास्तु नित्यशः।
तथा प्रज्वालयेद्वह्निंसेवनार्थ द्विजन्मनाम्॥
एवं स्रात्वावसाने तु भोज्यं देयमवारितम्।
भोजयेद्द्विजदाम्पत्यं भूषयेद्वस्त्रभृषणैः॥
कम्बलाजिनरत्नानि वासांसि विविधानि च।
चोलकानि605 च देयानि प्रच्छादनपटांस्तथा॥
उपानही तथा गुप्तमोचकौपापमोचकौ।
अनेन विधिना दद्यान्माधवः प्रीयतामिति॥
अत्र समापनमन्त्रः।
सवित्रे प्रसवित्रे तु परं धाम जले मम।
तत्तेजसा परिभ्रष्टं पापं यातु सहस्रधा॥
दिवाकर जगन्नाथ प्रभाकर नमोऽस्तु ते।
परिपूर्णङ्कुरुष्वेदं माघस्नानं तवाज्ञया।
अहन्यहनि दातव्यास्तिला वा शर्करान्विताः606।
माघावसाने शुभगे षड्रसं भोजनं तथा।
सूर्य्योमे प्रीयतान्देवो विष्णुमूर्त्तिर्निरञ्जनः॥
दम्पत्योर्वाससी सूक्ष्मे सप्तधान्यसमन्विते।
त्रिंशत्तु मोदका दयाःशर्करातिलसंयुताः॥
भागत्रयं तिलानान्तु चतुर्थःशर्करांशकः।
स नाभ्यङ्गी607वरारोहे सर्व्वमासं नयेद्व्रती॥
इति माघस्नानम्।
क्रियाङ्गस्नालक्षणं प्रागभिहितं तत्तु तत्रैव व्याख्यातम्।
अथ मलापकर्षणं स्नानम्।
तत्र गार्ग्यः।
पञ्चमी चैव नवमी तृतीया च त्रयोदशी।
एकादशी द्वितीया च पक्षयोरुभयोरपि।
अभ्यङ्गस्पर्शपानाद्यै608र्यत्र तैलं निषेवते।
चत्वारि तस्य नश्यन्ति आयुः प्रज्ञा यथो बलम्॥
तथा।
पञ्चदश्यां चतुर्द्दश्यामष्टम्यां रविसंक्रमे।
द्वादश्यां सप्तमीषष्ठ्योस्तैलस्पर्शमपि त्यजेत्॥
गार्ग्यः।
त्रयोदश्यां तृतीयायां प्रतिपद्दशमीद्वये।
तैलाभ्यङ्गं न कुर्व्वीत स्पृशेद्वानवमीं विना॥
मोहात्प्रतिपदं षष्ठींकुहुं रिक्तातिथिं तथा।
तैलेनाभ्यङ्गयेद्यस्तु चतुर्भिः परिहीयते॥
व्यासः।
आदित्यादिषु वारेषु तापः कान्तिमृतिर्धनम्।
दारिद्र्यंसुभगत्वञ्च कामप्राप्तिरतः क्रमात्॥
गार्ग्यः।
मांसाशने पञ्चदशीतैलाभ्यङ्गे चतुर्द्दशी।
अष्टमी ग्राम्यधर्म्मे ज्वलन्तमपि पातयेत्॥
षट्यष्टमी त्वमावास्या उभे पक्षेचतुर्द्दशी।
अत्र सन्निहितं पापं तैंले मांसे क्षुरे भगे॥
अत्र प्रतिप्रसवमाह प्रचेताः।
सार्षपं तैलगन्धञ्च609 यत्तैलं पुष्पवासितम्।
अन्यद्रव्ययुतं तैलं न दुष्यति कदाचन॥
तैलाभ्यङ्गनिषेधे तु तिलतैलं निषिध्यते।
अभ्यङ्गस्य निषेधे तु सार्षपादेरपीष्यते॥
स्नेहाभ्यङ्गो भवत्येवसस्नेहःसार्षपादिकः।
न भोजनाय तैलस्य निषेधोऽभ्यङ्ग एव सः॥
तैलशब्दस्तिलस्नेहे सुरुढ़ो नैव यौगिकः।
अतस्तिलविकारऽपि पिण्याकतिलमोदके।
शष्कुलीकृशराद्यैश्च निषेधो नैव जायते610॥
मनुः।
शिरः सातस्तु तैलेन नाङ्गं किञ्चिदुपस्पृशेत्।
अस्यार्थः। तैलेन शिरःस्नातः सन् स्वाङ्गमत्यदपि तैलेन न संस्पृशेन्न प्रक्षालयेदिति। एतच्च तस्मिन्दिन एव।
न रात्रौ विद्यते स्रानं वृद्धिसर्व्वोत्सवेषु च।
स्रेहमात्रसमायुक्तं मध्याह्नात्प्राग्विशिष्यते॥
निषिद्धतिथिशुभवारयोगे तैलस्नानं कार्य्यम् \। तिथ्यपेक्षया वारस्य प्राबल्यात्तदुक्तं ब्रह्मसिद्धान्ते।
तिथिरेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्रञ्च चतुर्गुणम्।
करणं षड्गुणञ्चैव वारस्त्वष्टगुणः स्मृतः॥ इति।
तिलैःस्रानं सदा पुण्यं कुर्य्यादामलकैः प्रिये।
सप्तमी नवमी दर्शरविसंक्रमणाहते॥
व्यासः।
तथा दर्शे च सप्तम्यां संक्रान्तौ च रवेर्दिने।
चन्द्रसूर्य्योपरागे च स्नाानमामलकैस्त्यजेत्॥
सर्व्वकालं तिलौ स्नायादिति व्यामोऽव्रवीन्मुनिः।
शिरःस्नानं तटे कृत्वा मज्जेदप्सुयथाविधि॥
अथ क्रियाङ्गस्नानम्।
तत्र शङ्खः।
क्रियास्त्रानं प्रवक्ष्यामि यथावद्विधिपूर्व्वकम्।
मृद्भिरद्भिश्च कर्त्तव्यं शौचमादी यथाविधि।
जन्ले निमग्नस्तून्मज्ज्यउपस्पृश्य यथाविधि।
तीर्थस्यावाहनङ्कुर्य्यात्तत्प्रवक्ष्याम्यतः परम्॥
प्रपद्ये वरुणन्देवम
स्भमां पतिमूर्ज्जितम्।
याचितन्देहि मे तीर्थं सर्व्वपापापनुत्तये॥
सान्निध्यमस्मिंस्तोये तु रथीयतां मदनुग्रहात्।
रुद्रान्प्रपद्ये वरदान्
सर्व्वा
नप्सुपद स्त्वहम्॥
सर्व्वानप्
सुषदश्चैव प्रपद्ये प्रणतः स्थितः।
देवमप्सुषदं वह्निं प्रपद्ये त्वनिसूदनम्॥
आपःपुण्या पवित्राश्च प्रपद्ये शरणं तथा।
रुद्राश्चाग्निश्च सर्पाश्च वरुणश्चाप एव च।
शमयन्त्वशुभम्पापं रक्षन्तु च सदा शुभम्।
इत्येवमुक्ता कर्त्तव्यं ततः सम्मार्ज्जनङ्कुशैः।
आपो हिष्ठेति तिसृभिर्यथावदनुपूर्व्वशः॥
हिरण्यवर्णा611 इति च ऋग्भिश्चवतसृभिस्तथा।
शन्नो देवीरिति612तथा शन्न आप स्तथैव613 च।
इदमापः प्रवहते614 त्येवं सर्व्वमुदीरयन्॥
एवं सम्मार्ज्जनङ्कृत्वा छन्द आर्षञ्च दैवतम्।
अघमर्षणसूक्तस्य615 संस्मरेत्प्रयतः सदा॥
ततोऽम्भसि निमग्नस्तु त्रिः पठेदघमर्षणम्।
प्रपद्यान्मूर्द्धनि तथा महाव्याहृतिभिर्जलम्॥
इति क्रियाङ्गस्नानम्।
अथ गौणस्नानविधि।
तत्र जावालिः।
असामर्थ्याच्छरीरस्य देशकालाद्यपेक्षया।
मन्त्रस्नानादिकाः सप्त केचिदिच्छन्ति सूरयः॥
योगियाज्ञवल्क्यः।
मान्त्रम्भौमं तथाग्नेयं वायव्यन्दिव्यमेव च।
वारुणं मानसञ्चैव सप्त स्रानान्यनुक्रमात्॥
आपो हिष्ठादिभिर्मान्त्रंमृदालम्भेन पार्थिवम्।
आग्नेयं भस्मना स्नानं वायव्यङ्गोरजः स्मृतम्॥
यत्तु सातपवर्षेण स्रानं तद्दिव्यमुच्यते।
वारुणञ्चावगाह्यञ्च मानसं विष्णुचिन्तनम्।
कालदेशाद616 सामर्थ्यात्सर्व्वन्तुन्यफलं स्मृतम्।
कूर्म्मपुराणे।
सुस्थस्य वारुंणं617। स्नानं ब्राह्मं618 व्याध्ये619 जलक्षये620।
दिव्यं श्रद्धावताम्पुण्यं वायव्यमुपपापिनाम्॥
जाबालिः।
अशिरस्कम्भवेत्स्नानं स्नानाशक्तौतु कर्म्मिणाम्।
आर्द्रेण वाससा वापि मार्ज्जनं दैहिकं विदुः॥
नाभेरधः प्रविश्याप्सु कटिं प्रक्षाल्य मृज्जलैः।
आर्द्रेणकर्पटेनाङ्कं621 कपिलं शोधनं स्मृतम्॥
विद्वत्सरस्वतीस्त्रानं प्राप्तं सारस्वतं मतम्।
विद्वद्वाक्येन पावित्र्यापादनं सारस्वतस्नानमित्यर्थः। गात्राणां वृत्तं प्रासङ्गिकं सम्प्रति प्रकृतं प्रक्रम्यते। एवं स्नात्वा वस्त्रादिभिरङ्गं न प्रमृज्यात्।
तथाच शातातपः।
अपसृज्यान्न च स्नातोगात्राण्यम्वरपाणिभिः622।
न वा विधूनयेत्केशान्वाससी न विधूनयेत्॥
तिस्रःकोट्योऽर्द्ध्कोटी च यावद्रोमाणि मानवे।
स्रवन्ति सर्व्वतीर्थाणि तस्मान्न परिमार्ज्जयेत्॥
देवलः।
देवाः पिवन्ति शिरसो मुखस्य पितरस्तथा।
रक्षसोऽपि च गन्धर्व्वा अधस्तात्सर्व्वजन्तवः॥
अतः।
अङ्गानि शक्तो वस्त्रेण पाणिना न प्रमार्ज्जयेत्।
प्रमार्ज्जयेदिति गोदोहमात्रं तिष्ठेत्। एतच्च623शिष्टाचारादवगम्यते। ततो वाससी परिधायोरू प्रक्षालयेत्।
तथाच योगियाज्ञवल्क्यः।
स्रात्वैवं वाससी धूर्ते अक्लिन्ने परिधाय च।
प्रक्षाल्योरू मृदा वाङभिर्हस्तौ प्रक्षालयेत्तथा।
अथ वस्त्रविधिः।
तत्र भृगुः।
ब्राह्मणस्य सितं वस्त्रं नृपते रक्तमुत्वणम्।
पीतं वैश्यस्य शूद्रस्थ नीलं मलवदिष्यते॥
उल्वणं निविड़ं रक्तम्। रक्तं धातुरक्तम्।
शातातपः।
ईषद्धौतं नवं श्वेतं सदशंयत्र धारितम्।
आहतं तद्विजानीयात्सर्व्वकर्म्मसु पावनम्॥
ईषद्धौतं जलमात्रप्रक्षैलितं यन्त्रादुत्तीर्य्य यदप्रक्षालितं तदप्याहृतम्।
यथाह शातातपः।
आहतं यन्त्रनिर्मुक्तमुक्तं वामः स्वयम्भुवा।
शस्तं तन्माङ्गलिक्येषु तावत्कालं न सर्व्वदा।
माङ्गलिक्यंविवाहादि।
प्रागग्रमुदमग्रं वा धौतं वस्त्रं प्रसारयेत्।
पश्चिमाग्रं दक्षिणाग्रं पुनः प्रक्षालनाच्छुचिः॥
अन्यदेव भवेद्वासः शयनीये नराधिप।
अन्यद्रथ्यास देवानामच्चोयामन्यदेव हि।
अन्यच्च लोकयात्रायामन्यदीश्वरदर्शने।
बौधायनः।
उत्तरं वासः कर्त्तव्यं पञ्चस्वेतेषु कर्म्मसु।
स्वाध्यायोत्सर्गदानेषु भुक्ताचमनयोः स्मृतम्॥
उत्सर्गो मूत्रादेः। स्वाध्यायग्रहणं विहितसकलकर्म्मपलक्षणार्थम्।
योगियाज्ञवल्क्यः।
अभावे धौतवस्त्रस्य पाट्टक्षौमाजिनानि च।
कुतपं624 यज्ञसूत्रं वा द्विवासा येन वा भवेत्॥
यज्ञोपवीते द्वेधार्य्यश्रौते स्मार्तेच कर्म्मणि।
तृतीयमुपवीतं स्याद्वस्त्रालाभे625तदिष्यते॥
जातूकर्ण्यः।
वस्त्रोत्तरीयाभावे द्व्यङ्गुलं त्र्यङ्गुलं वा चतुरङ्गलं वा सूत्रैर्वस्त्राकृतिपरिमण्डलमुत्तरीयं कुर्य्याद्वन्यं626 चीवरं627 वा628। उत्तरीयाभावे तु धौतवस्त्रस्योर्द्धभागेनोत्तरीयं कुर्य्यात्।
तथाच पारस्करः।
एकञ्चेद्वासो भवति तस्यैवोत्तरवर्गेण प्रच्छादयतीति।
उत्तरवर्गेण उत्तरार्द्धेनेत्यर्थः।
योगियोगीश्वरः।
नार्द्रवासा नार्द्धवासा नेकवामा स्थले जपेत्।
कषायङ्कृष्णवस्त्रञ्च मलिनं केशदूषितम्।
छिन्नाग्रञ्चोपवस्त्र629ञ्च सूच्या ग्रथितमेव वा॥
वर्ज्जयेदित्यर्थः। एतच्च सति विभवे।
विष्णुपुराणे।
होमदेवार्च्चनाद्यास्तुक्रियासु स्नानभोजने।
नैकवस्त्रःप्रवर्त्तत द्विजोवाचनिक जपे॥
जातूकर्णः।
परिधानाद्वहिः कक्षा निवद्धाह्यासुरी मता।
धर्म्मकर्म्मणि विद्वद्भिर्वर्ज्जनीया प्रयत्नतः॥
परिधायनवं वस्त्रमुत्तरीयञ्चमन्त्रतः।
आचमेच्च द्विजोवस्त्रे धोते विपरिधाय च॥
तत्रापूर्व्वग्रहण एव630मन्त्रः।
पारस्करेण परिधास्ये यशोधास्येर्दीर्घायुष्टाय जरदृष्टिरस्मि। शतञ्च जीवामि शरदः पुरुचीरायस्यौषमभिवर्द्धयिष्ये631। इति।
उत्तरीयेऽपि।
यशसा मा द्यावापृथिवी यशसामिन्द्रापृथिवी यशसामिन्द्रावृहस्पती। यशसां भगश्च भावि द्रव्यादमशोर्भामा प्रतिपद्यतामिति632।
तथा वासच्छत्रोपानहच्चापूर्व्वाणि633 चेन्मन्त्रत इति।
नववस्त्रपरिधाने वारदोषो ज्योतिःशास्त्रे प्रदर्शितः।
तत्र सुरेश्वरःराजमार्त्तण्डे च।
मार्त्तण्डे च धनं व्रणः शशधरे क्लेशः सदा भूमिजे
वस्त्रं लाभकरम्बुधे सुरगुरौ विद्यागमःसम्पदः।
नानायोगरतिप्रमोदवनिताशय्यादिलाभो भृगौ
दैन्यं शाश्वतरोगवान् किल नरो धृत्वाम्बरं सौरिणा634॥
श्रीपतिः।
रोहिणीषु करपञ्चके शुभे तूत्तरेऽपि च पुनर्व्वसुद्धये।
रेवतीषु वसुदैवते च मे नववस्त्रपरिधानमिष्यते॥
अथ क्रमप्राप्ततिलकविधिः।
ब्रह्माण्डपुराणे भगवानुवाच।
अङ्गुष्ठ पुष्टिदः प्रोक्तो मध्यमायुकरी भवेत्।
अनामिकान्नदा नित्यं मुक्तिदा च प्रदेशिनो॥
एतैरङ्गुलिभेदैस्तु कारयेन्न नखैःस्पृशेत्।
वर्त्तिदीपाकृतिं वापि शङ्गाकारमतः परम्635॥
दशाङ्गुलप्रमाणन्तु उत्तरोत्तरमुच्यते।
नवाङ्गुलं मध्यमं स्यादष्टाङ्गुलमतः परम्॥
सप्तषट्पञ्चभिः पुण्ड्रंमध्यमं त्रिविधं स्मृतम्।
चतुस्त्रिद्व्यङ्गुलैःपुण्ड्रंकनिष्ठं त्रिविधं636 भवेत्॥
ललाटे केशवं विद्यान्नारायणथोदरे।
माधवं हृदि विन्यस्य गोविन्दङ्कण्ठऋकूपर्क॥
विष्णुञ्च दक्षिणे कुक्षौतद्भुजे मधुसूदनम्।
त्रिविक्रमङ्कण्ठदेशेवामकुक्षौतु माधवम्॥
श्रीधरञ्च तथा न्यस्य वामवाहौनरः सदा।
पद्मनाभं पृष्ठदेशे ककुद्दामोदर स्मरेत्।
वासुदेवं स्मरेन्मूर्द्ध्नितिलकङ्कारयेत्क्रमात्॥
व्यासः।
जाह्नवीतीरसम्भूतां मृदं मूर्द्ध्नि637बिभर्त्ति यः।
विभर्त्ति रूपं सोऽर्कस्य तमोनाशाय केवलम्॥
सत्यतपाः।
गोमतीतीरसम्भूतां गोपीदेहसमुद्भवाम्।
मृदं मूर्दध्नाधरेद्यस्तु सर्व्वपापैः प्रमुच्यते॥
ब्रह्माण्डपुराणे।
श्यामं शान्तिकरं प्रोक्तंरक्तं वश्यकरम्भवेत्।
श्रीकरम्पीतमित्याहुवैष्णवं श्वेतमुच्यते॥
ब्रह्माण्डपुराणे।
योगो दानं तपो होमः स्वाध्यायः पितृतर्पणम्।
भस्मीभवति तसर्व्वमूर्द्ध्वपुण्ड्’ विना कृतम्॥
ऊर्द्धपुण्ड्रं तथा कुर्य्यात्रिपुण्ड्रं भस्मना सदा।
तिलकं वै द्विजः कुर्य्याञ्चन्दनेन यदृच्छया॥
ऊर्द्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुर्य्यात्क्षत्रियस्तु त्रिपुण्ड्रकम्।
अर्द्धचन्द्रन्तु वैश्यस्य वर्त्तुलं शूद्रजातिषु॥
अथ माध्याह्निकां सन्ध्यां पूर्वोद्दिष्टां समाचरेत्।
उपस्थानञ्च तत्रोक्तं जपश्च त्रिविधस्तथा638॥
अथ ब्रह्मयज्ञः।
तत्र श्रुतिः।
उदित्यमादित्यं उपस्थायोपविश्य हस्ताववनिज्य त्रिरा-
चमेत् द्विःपरिसृज्य सकृदुन्मज्य शिरश्रक्षुपीनासिके श्रोत्रे हृदये आलभ्येत।
अयमाचमनप्रकारः।
ब्रह्मयज्ञानुष्ठानप्रकारः शौनकेनोक्तः।
प्राग्वोदग्वा ग्रामान्निष्क्राम्याप आप्लुत्य यज्ञोपवीत्याचम्याक्लिन्नवामादर्ब्भाणां महदुपस्तीर्य्य प्राक्कलानान्तेषु प्राङ्मुख उपविश्यपस्थं कृत्वा दक्षिणोत्तरौ पाणी सन्धाय पवित्रवन्तौविज्ञायतेऽपां वा एष औषधीनां रसोयद्दर्भासरसमेव तद्ब्रह्म करोति। द्यावापृथिव्योः सन्धिमीक्षमाणः संमील्यवा यथा वा युक्तमात्मानं मन्येत यथा युक्तोऽधीयीत स्वाध्यायमौङ्कारपूर्व्वा व्याहृतीःसावित्रीमन्वाहपच्छोऽर्द्धर्व्वशः। सर्व्वामिति तृतीयकम्। यावन्मन्येत तावदधीत्यैतया परिदधाति नमोब्रह्मणे इति।
अक्लिव्रवासा अनार्द्रवासाः अनादुवासाःमहदुपस्तीर्य्य महदुपस्तीर्य्य प्राक्कूलैदर्भैर्भुवं निविड़ं यथा भवति तथाच्छाद्य वाम उपस्थं कृत्वा वामपादाङ्गुष्ठे दक्षिणपादाङ्गुष्ठं निधाय पादपार्ष्णिसम्मीलने कृते मध्य उपस्थाकृतिरिव भवति तदुपस्थमित्युच्यते। इतरेतरपादव्यत्या संस्थापनेनोपवेशनमुपस्थकरणमिति मञ्जर्य्याम्। अथवा यथोपदेशं कुर्य्यात्ते तथा वा युक्तात्मानं यथा समाहितमात्मानं मन्यते। औङ्कारपूर्व्वाभूरादिव्याहृतित्रयं क्रमेण गायत्री पादादौक्रमेण ततस्तथैव च। भूरादिव्याहृतिद्वयमर्द्धादौक्रमेण ततस्तथैव च। तृतीयव्याहृति-
पूर्व्विकां सर्व्वांगायत्रीं पठेद्यावन्मन्येत तावद्गायत्रीजपानन्तरं ऋग्यजुःसामादिषु यावत्पठितुं मन्यते तावदधीत्य नमो ब्रह्मणे नमोऽग्नय इत्येतया परिदधाति परिधानं त्रिःपठनम्।
योगियाज्ञवल्क्यः।
आदावारभ्य वेदन्तु स्नात्वोपर्य्युपरिक्रमात्।
यदधीतेऽन्वहं भक्त्या स स्वाध्याय इति स्मृतः॥
ब्रह्मयज्ञप्रसिद्ध्यरर्थं विद्याञ्चाध्यात्मिकीं जपेत्।
जप्त्वाच प्रणवं वापि ततस्तर्पणमाचरेत्॥
मनुः।
अपां समीपे नियतो नैत्यिकींविधिमास्थितः।
सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः॥
अरण्यं गत्वेति यथा छर्दिर्न दृश्यते तथारण्यं गत्वेत्यर्थः।
तथाच श्रुतिः।
ब्रह्मयज्ञेन वक्ष्यमाणः प्राच्यां दिशि ग्रामाद्वहिर्गच्छेद-
च्छर्द्दिदर्श उदीच्यांप्रागुदीच्यांरोदित आदित्य इति।
उदित आदित्य इत्युदयोत्तरकालः। स कालोऽपि गृह्यते न प्रातःकाल एव॥
अतएव बृहस्पतिः।
स चार्व्वाक्तर्पणात्कार्य्यःपश्चाद्वाप्रातराहुतेः।
वैश्वदेवावसाने वा नान्यत्रेति निमित्ततः॥ इति।
स ब्रह्मयज्ञ इत्यर्थः। वैश्वदेवावसान इति मनुष्ययज्ञानन्तरं
मनुष्ययजस्य सनकाद्युद्देशेन हन्तकारी यो दीयते स। एव श्रुतिरपि मनुष्ययज्ञानन्तरं ब्रह्मयज्ञं दर्शयति। नातिथिपूजा।देवयज्ञः पितृयज्ञोभूतयज्ञोमनुष्ययज्ञोब्रह्मयज्ञइति।
कूर्मपुराणे।
यदि स्यात्तर्पणादर्व्वग् ब्रह्मयज्ञः कृतोन हि।
मनुष्ययज्ञङ्कृत्वैव ततः स्वाध्यायमारभेत्॥
यदि दैवादिनिमित्तेनोक्तकाले ब्रह्मयज्ञोन कृतस्तदा कालान्तरेऽपि भवति। यदा ग्राममध्ये तदा मनसा पठत्।
तथाच श्रुतिः।
ग्रामे न स्वाध्यायमधीयीत दिवा नक्तं वेति।
मनुः।
नैत्यिके639नास्त्यनध्यायोब्रह्ममत्रं हि तत्स्मृतम्।
ब्रह्माहुतिहुतं।640 पुण्यमनध्यायवषट्कृतम्॥
तथा।
वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यिके।
नानुरोधस्त्वनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥
वेदोपकरणं वेदाङ्गम्।641
अत्रविशेषो गौतमेनोक्तः।
अथ यदि वातोवायादनये642द्वाविद्युत्पतेद्वाअवस्फु-
र्ज्जेद्वावा एकं643ऋचामेकं वा यजु644 रेकमेकं सामा645 भिव्याहरेत्।भूर्भुवः स्वः सत्यं तपः श्रद्धायां जुहोमीति।
अत्र वातो वायादित्याद्यनध्यायोपलक्षणम्।
अतोऽनध्यायेऽप्येऋर्चादिकमेव पठेन्नाधिकमिति गम्यते। तथा
आदावेवोङ्कृतं646 पूर्व्वे647परस्ताच्च648 विरम्यते।
कुशानुत्तरतः क्षिप्त्वायथाचमनमाचरेत्॥
इति विद्या तपो योनिर्वियोनि649र्विष्णुरीरितः।
वाग्यज्ञेनार्च्चितो देवः प्रीयतां मे जनार्द्दनः॥
इति ब्रह्मयज्ञविधिः।
अथ तर्पणम्।
तत्र वृहस्पतिः।
ब्रह्मयज्ञप्रसिद्ध्यर्थं विद्याञ्चाध्यात्मिकीं जपेत्।
जप्त्वायप्रणवं वापि ततस्वर्पणमाचरेत्॥
शातातपः।
तर्पणन्तु शुचिः कुर्य्यात्प्रत्यहं स्रातको द्विजः।
देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च ऋषिभ्यय यथाक्रमम्॥
अत्राञ्जलिनियममाह।
एकैकमञ्जलिं देवा द्वौद्वौतु सनकादयः।
अश्नन्ति पितरस्त्रीस्तीन् स्त्रियस्वैकेकमञ्जलिम्॥
विष्णुपुराणे।
त्रिरपःप्रीणनार्थाय देवानामपवर्ज्जयेत्।
ऋषीयान्तु यथान्यायं सकृच्चापि प्रजायते॥
यथान्यायमित्यनेन देवानामिवत्रिरित्यर्थोऽवगम्यते। चशब्दोवाशब्दार्थेऽपिशव्दादञ्जलिद्वयं गृह्यते। यत्राञ्जलिसंख्यायां स्वस्वगृह्यानुसारेण व्यवस्था। येषां स्वगाखायां न कोऽपि विशेष आम्नातस्तेषां विकल्पः।
योगियाज्ञवल्क्यः।
अन्वारब्धेन सव्येन नाम्रा गोत्रेण वाप्यय।
कूर्म्मपुराणे।
अन्नारब्धेन सव्येन पाणिना दक्षिणेन तु।
देवर्षीं स्वर्पयेद्वीमानुदकाञ्जलिभिः पितॄन्॥
अत्रापि पूर्व्ववदेव व्यवस्था।
एवञ्च।
एकहस्तेन तोयेन न कुर्य्यात्पितृतर्पणम्।
पितरो न प्रशंसन्ति न प्रशंसन्ति देवताः॥
उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामुदकं यः प्रयच्छति।
स मूढ़ो नरकं याति कालसूत्रमवाशिराः650॥
इति योगियाज्ञवल्क्यव्याघ्रादिवचनानि तानि तत्तच्छाखाप्रयुक्तानि651निषेधकानि न तु सर्व्वसाधारण्येन। अतो न काप्यनुपपत्तिः।
तत्र अन्वारब्धेन सव्येन पाणिना दक्षिणेन तु। देवर्षीं स्तर्पयेदिति कूर्म्मपुराणवचने देवर्षीनिति विशेषोपादानादितराण्यप्येकहस्ततर्पणवचनानि सामान्यानि विशेषविषयकूर्म्मपुराणवचनविषयानि देवर्षितर्पणे तु प्रविशन्ति इति चेन्नैवम् अन्यारब्धेन सव्येन नामगोत्रेण वाप्यथेति योगियाज्ञवल्कोन नामगोत्रसहितसव्यहस्तान्वारम्बदक्षिणहस्ततर्पणविधानात्। गोत्रोच्चारणं पितृष्णामेव न देवानां नाप्यृषीणामिति। एकहस्ततर्पदेवर्षिपितृतर्पणसाधारणम् अत्र पूर्वोक्तैव व्यवस्था652 ज्यायसी। विवाहादावेकहस्तेनैव। तथाच
कार्णाजिनिः।
विवाह श्राद्धकाले च पाणिनैकेन दीयते653। इति।
हारीतः।
वसित्वा654 वसनं शुष्कं स्थले विस्तीर्सवर्हिषि।
विधिवत्तर्पणडुर्य्यान्न तु पात्रे655 कदाचन॥
एतच्चानुद्धृतोदकस्थलतर्पणविषयम्।
उद्धृतोदके तु स एव।
पात्राद्वाजलमादाय शुभे पात्रान्तरं क्षिपेत्।
जलपूर्णोऽथवा गर्त्तेन स्थले न तु वर्हिषि।656
पात्रञ्चात्र पितामहेनोक्तम्।
हेमरूप्यमयं पात्रं ताम्रङ्कास्यसमुद्भवम्।
पितॄणां तर्पणे पात्रं मृण्मयन्तु परित्यजेत्॥ इति।
अत्र योगियाज्ञवल्क्यः।
यद्युद्धृतेन सिञ्चेत्तु तिलान् संमिश्रयेज्जले।
अन्यथा वामहस्तेन ततस्तर्पणमाचरेत्॥
अन्यथा अनुद्धृते। अतोऽन्यथाचरत्सव्ये तिलान्कृत्वा विचक्षण इत्यपि पाठः। अतोऽन्यथा तु मध्येन इत्यपि पाठः। येषां शाखिनां वामहस्तान्वारब्धेनदक्षिणहस्तेन तर्पणं तेषां वामहस्तेन तिलग्रहणमित्यनुसन्धेयम्।
अत्रापि विशेषस्तेनोक्तः।
आवाह्य पूर्व्ववन्मन्त्रैरास्तीर्य्य च कुशान् शुभान्।
प्रागग्रेषु सुरान् सर्व्वान्दक्षिणाग्रेषु वैपितॄन्॥
देववद्देवर्षीणामपि।
कूर्म्मपुराणे।
देवान् ब्रह्मऋषींश्चैव तर्पयेदक्षतोदकैः657॥
पितृभक्त्या तिलैः कृष्णैःस्वशाखोक्तविधानतः॥
गोभिलः।
शुक्लैस्तु तर्पयेद्देवान्मनुष्यान् शबलै स्तिलैः658।
पितृृंस्तु तर्पयेत्कृष्णैस्तर्पयेत्सर्व्वदा द्विजः659॥
तिलग्रहणे त विशेषमाह मरीचिः।
मुक्तहस्तेन दातव्यं न मुद्रां तत्र दर्शयेत्।
वामहस्ते तिला ग्राह्या मुक्तहस्तस्तु दक्षिणः॥
प्रदेशिन्यङ्गुष्ठाग्रसंयोगो मुद्रा। अतएव तर्ज्जन्याङ्गुष्ठेन वा तिला ग्राह्याः। तच्चोभयं दक्षिणहस्तस्थमेव। अतएव मुक्तहस्तेन दातव्यमित्युक्त्वा मुक्तहस्ततु दक्षिण इति पुनरभिहितं मरीचिना। एतच्च येषामञ्जलिना तर्पणं तद्विषयम्। विषयान्तरे660 तु पूर्व्वमभिहितम्661।
तिलस्थापनस्थानन्तु स्मृत्यर्थसारे।
वामहस्ते तिलान् क्षिप्त्वाजलमध्ये तु तर्पयेत्।
स्थले शाद्यन्तने662 पात्रे रोममूले न कुत्रचित्॥
जलतर्पणे रोमरहितप्रदेशे वामपाणौतिलान् संस्थाप्य मुद्रारहितदक्षिणतर्ज्जन्यङ्गुष्ठयोरन्यतरेण तिलान् गृहीत्वावामहस्ततले स्थापयित्वा तर्पयेदित्यर्थः। वामबाहुसलिलसंस्थापनव्यतिरिक्तमन्यजलतर्पणेऽपि समानम्। एवमुक्तप्रकारेण
स्थले स्थित्वा स्थले पात्रे वा तर्पणङ्कर्य्यात्। न तु जल इति सिद्धम्।
तथाच यदुक्तं कार्ष्णजिनिना।
देवतानां पितॄणाञ्च जले दद्याज्जलाञ्जलिम्।
असंस्कृतप्रमीतानां जलस्थितस्येति वचनानां विरोधः परिहरणीयः।
विष्णुस्तु स्थलस्थितस्थापि जलतर्पणं क्वचिदनुजानीते।
यत्राशुचिस्थलं वा स्यादुदके देवताःपितॄन्।
तर्पयेत्तु यथाकाममप्सु सर्व्वम्प्रतिष्ठितम्॥ इति।
हारीतः।
आर्द्रवासा जले कुर्य्यात्तर्पणाचमनं जपम्।
अत्र च अमुकस्तृप्यतु तृप्यतामिति वा। अमुकं तर्पयामीतिवा प्रयोगोभवति।
तथाच योगियाज्ञवल्क्यः।
तृप्यत्विति समुच्चार्य्य तृप्यतामित्ययापि वा।
विधिज्ञः प्रक्षिपेत्तीयं देवादीनामशेषतः॥
बौधायनः।
अथ दक्षिणतः प्राचीनावीती पितॄन् स्वधा नमस्तर्पयामि पितामहानित्यादि।
तथाच स्मृत्यर्थसारेऽपि।
ब्रह्मादयो ये देवास्तान्देवांस्तर्पयामि भूर्देवांस्तर्पयामि भुवर्देवांस्तर्पयामि स्वर्देवांस्तर्पयामि। भूर्भुवःस्वर्देवां-
स्तर्पयामि। एवमृषीन् भूः पितृृनित्यादि।
यमः।
द्वौ हस्तौ युग्मतः कृत्वा पूरयेदुदकाञ्जलिम्।
गोशृङ्गमात्रमुद्धृत्य जलमध्येजलङ्क्षिपेत्॥
गोशृङ्गस्यानियतप्रमाणत्वात्663 विवक्षितं प्रमाणमाह
दक्षः।
प्रादेशमात्रमुद्धृत्य सलिलं प्राङ्मुखः सुरान्।
उदङ्मनुष्यांस्तर्पयेत्664पितॄन् दक्षिणतस्तथा॥
अग्रैतु तर्पयेद्देवान्मनुष्यान् कुशमध्यतः।
पितॄंस्तु कुशमूलाग्रैर्विधिः कौशो यथाक्रमम्॥
मरीचिः।
विना रूप्यसुवर्णेन विना ताम्म्रतिलैस्तथा।
विना मन्त्रैश्च दर्भैश्चपितॄणां नोपतिष्ठते॥
नात्र रजतादिसमुच्चयो विवक्षितः।
अतएव सत्यव्रतः।
खड्गमौक्तिकहस्तेन कर्त्तव्यं पितृतर्पणम्।
मणिकाञ्चनदर्भैर्व्वान शुध्येन कदाचन ॥ इति।
शुध्येन केवलेन खड्डादिरहितेनेति यावत्। अत्र वाशब्दोपादानात्र समुच्चय इत्यर्थः।
तथाच मरीचियोगियाज्ञवल्क्यावपि।
तिलानामप्यभावे तु सुवर्णरजतान्वितम्।
तदभावे निषिञ्चेत्तु दर्ब्भैर्मन्त्रेणवा पुनः ॥ इति।
अथ खड्गादिभिरशून्यो हस्तः कार्य्योन तु खड्गादिपात्रस्वीकरणम्665। तथा सति एकैकमञ्जलिर्देवा इत्याद्यञ्जलिविधायकवाक्यबाधापत्तेः666। एवं तर्हि खड्गादिपात्रप्रशंसापराणां वाक्यानां विध्येकवाक्यताया अभावादप्रामाण्यं स्यादिति चेन्मैवं अर्घ्यदाने खड़्गपात्रविधायकवाक्येकवाक्यत्वेन प्रशंसावाक्यानां सार्थकत्वान्नाप्रामाण्यम्।
यच्च मनुनाभिहितम्।
राजतैर्भाजनैरेषामयवा रजतान्वितैः।
वार्य्यपि श्रद्धया दत्तमक्षयायोपकल्प्यते ॥ इति।
एतदपि श्राद्धप्रकरणपरिपठितत्वादर्घ्यदानविषयमेव। अतश्च तर्पणे खड़्गादिमुद्रिकाभियुक्तो हस्तः कार्य्यः।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
अनामिकाधृतं हेम तर्ज्जन्यां रुप्यमेव च।
कनिष्ठिकाधृतङ्खङ्गंतेन पूतो भवेन्नरः ॥ इति।
यच्च शङ्खेन तर्पणप्रकरण एवाभिहितम्।
सौवर्णेन पात्रेण राजतेनोडुम्बरेण खड्गपात्रेणान्यपात्रेण वोदकं पितृतीर्थं स्पृशन्दद्यादिति।
तदपि तर्पणप्रकरणादुत्कृष्टार्घ्यप्रकरणे योज्यमञ्जलिवाक्याद्यपेक्षया प्रकरणस्य दुर्ब्बलत्वात्। अथवा वाक्यप्रकरणशिष्टाचाराणामविरोधाय यस्मिन् पात्रे ते अञ्जलिः शिथिलो न भवेत्तादृक्पात्रे शिष्टेनाञ्जलिना पितृतीर्थस्मृगुदकं तर्पणेऽपि दद्यात्।
लिखितः।
प्राङ्मुखो यज्ञोपवीती प्रागग्रैः कुशैर्देवतातर्पणं देवतीर्थेन कुर्य्यात्।
देवाश्च योगियाज्ञवल्क्येनोक्ताः।
ब्रह्माणं तर्पयेत्पूर्वी विष्णुं रुद्रप्रजापतिम्।
देवांछन्दांसि वेदांश्च ऋषींश्चैव सनातनान्।
आचार्य्यश्चैव गन्धर्व्वानाचार्य्यतनयांस्तथा।
संवत्सरं सावयवन्देवीश्चाप्सरसस्तथा॥
आचार्य्यान् व्यासादीन् सावयवमवयवा मासादयः।
यदा667 देवानुगान्नागान् सागरान् पर्व्वतानपि।
सरितोऽथ मनुष्यांश्च यक्षान्रक्षांसि चैव हि॥
पिशाचांश्च सुपर्णांश्च भूतानथ पशूंस्तथा।
वनस्पतीनोषधीच भूतग्रामचतुर्व्विधम्668॥
विष्णुसमुच्चये।
ततः कृत्वा निवीतन्तु यज्ञसूत्रमतन्द्रितः।
प्राजापत्येन669 तीर्थेन मनुष्यांस्तर्पयेत्पृथक्॥
कार्ष्णजिनिः।
सनकश्च सनन्दश्चतृतीयश्चसनातनः।
कपिलश्चसुरिश्चैव वोढःपञ्चखिस्तथा।
एवं ब्रह्मसुताः सप्त मनुष्याः परिकीर्त्तिताः॥
ततः स्वस्वशाखानुसारेण मण्डलऋषीन्670 प्राजापत्यादिकान् ऋषींश्च तर्पयित्वा पितृतर्पणमारभेत्।
तत्र योगियाज्ञवल्क्यः।
अपसव्यं ततः कृत्वा भृत्वा च पितृदिङ्मुख।671
पितृन्दिव्यानदिव्यांश्च पितृतीर्थेन672 तर्पयेत्॥
दिव्या वखादयः। अदिव्यश्च पित्रादयः।
ते च दिव्यास्तेनैव दर्शिताः।
ध्रुवोऽध्रुवश्च सौम्यश्च आपश्चैवानिलोऽनलः।
प्रत्यूषश्च प्रभासञ्च वसवोऽष्टौप्रकीर्त्तिताः॥
अजैकपादहिर्व्रध्नोविरूपाक्षोऽथ रैवतः।
हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्च सुरेश्वरः॥
सावित्रश्च जयन्तश्च पिनाकी चापराजितः।
एते रुद्राःसमाख्याता एकादश सुरोत्तमाः॥
इन्द्रो धाता भगः पूषा मैत्रोऽथ वरुणो यमः।
अर्च्चिर्विवस्वान्त्वष्टा च सविता विष्णुरेव च।
एते वै द्वादशादित्या देवानां प्रवरा मताः॥
अत्र वस्वादितर्पणं पृथक् स्वपित्रादितर्पणञ्च पृथगुपात्तमिति वसुरूपं पितरं तर्पयामीत्येवं तर्पणम्।
स्मृत्यर्थसारे।
वसुरूपादित्यरूपान् श्राद्धार्थे तर्पयेत्पितॄन्।
नामगोत्रे समुच्चार्य्य तिलैस्तीर्थेषु संयताः॥ इति।
अथवा श्राद्धशब्दो गोण्या वृत्त्या तर्पणेऽपि वर्त्तत इति। बस्वादिनामसहितानामेव पित्रादीणां तर्पणमस्तु। यतः शिष्टाचार एवमेव प्रायशो दृश्यते।
उदकग्रहणे विशेषमाह योगियाज्ञवल्क्यः।
दक्षिणे पितृतीर्थेन जले सिञ्चेद्ययाविधि।
दक्षिणेनैव गृह्णीयात्पितीर्थेन संयतः॥
तथा।
सवर्णेभ्यो जलं देयं नासवर्णेभ्य एव च।
गोत्रनामस्वधाकारैस्तर्पयेदनुपूर्व्वशः॥ इति।
अनुपूर्व्वशःपित्रादिक्रमेण। अत्र यद्यपि असवर्णेभ्य इत्यत्र विशेषोपादानङ्कृतं तथाप्युत्तमवर्णेन हीनवर्णं प्रति न कार्य्यं हीनवर्णेनोत्तमवर्णेद्देशेन कृते न दोषः। यतस्तद्वर्णतापत्तिर्दोषत्वेनाभिहिता स्मृतिषु। हीनस्योत्कृष्टत्वं673 न दुष्टम्। उत्कृ-
ष्टस्य हीनत्वञ्चदुष्टमेव।सवर्णशब्दोमूर्द्धाभिधिक्तादिजातीनामुपलक्षणार्थम्।यद्यप्यसवर्णसात्र्यमातृभ्रात्रादयोऽप्यसवर्णःतथापि तत्त्तर्पणङ्कार्य्यं सुमन्तुना तेषां मात्रादिममत्वप्रतिपादनात्। पितृपत्न्यः सर्व्वामातरस्तद्भ्रातरोमातृलास्तद्दुहितरश्चभगिन्यस्तद्पत्यानि भागिनेयानि इति। यत्र समत्वोपादानं तत्र मुख्यापेक्षया किञ्चिन्न्यूनता भवतीति। नात्र तत्प्राधान्यमपितु स्वसन्निहितसवर्णतवर्षणानन्तरमेव तत्तर्पणमिति विवेकः। ननु सुमन्तुवचनऽपि सवर्णानामेव674 मात्रा माम्यंभवतु मा नाम भ्रदसवर्णानामिति चैन्नतथा सति पितृपत्न्यः सर्व्वामातरः इति न ब्रूयादुपात्तश्च675सर्व्वशब्दोन पितृपत्न्येवः676। अतः सर्व्वशब्दासङ्गोचायपूर्व्वोक्तएवं युक्त पक्षः। एतेन भीष्मतर्पणमपि तथा।
अग्निष्वात्ताःसोमपाश्चतथा वर्हिषदोऽपि च।
यदि स्याज्जीवत्पितृक एतान्विद्यात्तदा पितॄन्॥
येभ्यो वापि पिता दद्यात्तेभ्यो वापि प्रदापयेत्।
एतांश्चैव प्रमीतांश्च प्रमीतपितृको द्विजः॥ इति।
तथा।
न जीवत्पितृकः कृष्णैस्तिलैस्तर्पणमाचरेत्।
उक्ततिलतर्पणस्य क्वचिद्पवादो मरीचिनोक्तः।
सप्तम्यां रविवारे च गृहे जन्मदिने तथा॥
भृत्यपुत्त्त्रकलत्रार्थीन कुर्य्यात्तिलतर्पणम्॥
तथा।
पक्षयोरुभयो राजन् सप्तम्यां निशि सन्ध्ययोः।
विद्यापुत्त्रकलत्रार्थी तिलान् पञ्चसु677 वर्ज्जयेत्॥
भानौ भौमे त्रयोदश्यां नन्दाभृगुमघासु च।
पिण्डदानं मृदा स्रानं न कुर्य्यात्तिलतर्पणम्॥
स्मृत्यर्थसारे।
विवाहे चोपनयने चौले सति यथाक्रमम्।
वर्षमर्द्धतदर्द्धञ्च678नेत्येके तिलतर्पणम् ॥
तिथितीर्थविशेषेषु कार्य्यं प्रतेऽथ सर्व्वदा।
पिण्डान् सपिण्डा नो दद्युः प्रेतपिण्डं विनात्र तु॥
अत्र विवाहादौ।
पितृयज्ञे च यज्ञे च गयायां दद्युरेव ते।
गयासाम्यं मृताहस्य केचिदाहुः पुराणगाः॥
तथा।
तीर्थे तिथिविशेषे च गयायां679प्रेतपक्षके।
निषिद्धेऽपि दिने कुर्य्यात्तर्पणं तिलमिश्रितम्॥
अकृत्वा तर्पणं यस्तु वस्त्रं निष्पीड़येन्नरः।
निराशाः पितरो यान्ति शापं दत्त्वा सुदारुणम्॥
पराशरः।
द्वादश्यांपञ्चदश्याञ्चसंक्रान्तौ श्राद्धवामरे।
वस्त्रं निष्पीड़येन्नैव न च क्षारेण योजयेत्॥
शङ्खः।
एवं यः सर्व्वभूतानि तपर्येदन्वहन्द्विजः।
स गच्छेत्परमं स्थानं तेजोरूपमनामयम्॥
अथ यमतर्पणम्।
तत्र स्कन्दपुराणे।
कृष्णपक्षचतुर्द्दश्यामङ्गारकदिनं यदा।
तदा स्नात्वा शुभे तोये तर्पयेद्यमनामभिः॥
वृद्धमनुः।
याङ्काञ्चित्सरितम्प्राप्य कृष्णपक्षे चतुर्द्दशीम।
यमुनाञ्च विशेषेण नियतोनियतेन्द्रियः॥
यमाय धर्म्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय सर्व्वभूतक्षयाय च॥
औडुम्बराय दघ्नाय नीलायपरमेष्ठिने।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः॥
इति तर्पवेदिति शेषः।यमाय नमः यमं तर्पयामीतिप्रयोगः।
गद्यव्यासोऽपि।
कृष्णत्रयोदश्यां चतुर्द्दश्यां वा।
यमाय धर्म्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय सर्व्वभूतक्षयाय च॥ इति।
एभिः सप्तभिर्नमस्कारमन्त्रैः सप्तोदकाञ्जलीन्दद्यात्सर्व्वपापैः प्रमुच्यते। इति।
वृद्धमनुः।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् कुर्य्याज्जलाञ्जलीन्।
तथा।
दीपोत्सवचतुर्द्दश्यां कार्य्यञ्च यमतर्पणम्।
अपरोऽपि विशेषःस्कन्दपुराणे।
दक्षिणाभिमुखो भूत्वा तिलैः सव्यं समाहितः।
देवतीर्थेन देवत्वात्तिलैःप्रेताधिपो यतः॥
इति यमतर्पणम्।
अथ देवतार्च्चनम्।
एवं तर्पणानन्तरं सूर्य्यार्घ्यंनिवेद्य जलदेवं नमस्कृत्याचम्याम्युच्य गृहङ्गत्वा विष्ण्वादिपूजां कुर्य्यात्।
योगियाज्ञवल्क्यः।
ततः सूर्य्यमुपस्थाय सम्यगाचम्य च स्वयम्।
अभ्युक्षणं समादाय संयतात्मा गृहं व्रजेत्॥
तथाच नृसिंहपुराणे।
ततोऽर्ध्यं भानवे दद्यात्तिलपुष्पजलान्वितम्।
उत्थाप्य मूर्द्धपर्य्यन्तं हंस शुचिष दुच्चरेत्680।
जलदेवं नमस्कृत्य ततो गच्छेद्गृहस्बुधः।
पौरुषेण तु सूक्तेन ततो विष्णुं समर्च्चयेत् ॥ इति।
हारीतः।
कुर्व्वीत देवतापूजां जपयज्ञादनन्तरम्।
जपयज्ञोब्रह्मयज्ञः।
मरीचिः।
विधाय देवतापूजां प्रातर्होमादनन्तरम्।
पूर्व्वाह्णेएव कुर्व्वीत देवतानाञ्चपूजनमिति॥
अत्र पूर्वाह्नो देवतार्च्चने मुख्यः कालः।
एवकारस्मरणान्माध्याह्निकानन्तरं कालोऽपि मुख्यसदृशः।
तथा कूर्म्मपुराणे।
पौरुषेण तु सूक्तेन ततो विष्णुं समर्च्चयेत्।
वैश्वदेवं ततः कुर्य्याद्वलिकर्म्म तथैव च ॥ इति।
तथा।
कुर्व्वीत देवतापूजां जपयज्ञादनन्तरम्।
करोति तदा पूर्व्वाह्णेएव। अथ तर्पणात्पूर्व्वकाले करोति
तदा तर्पणानन्तरमेव। जलदेवतानमस्कारानन्तरं गृहं गत्वा विष्णुपूजायाःनृसिंहपुराणे विधानात्।
पूज्यदेवता निगमे दर्शिताः।
ब्रह्माणं विष्णुमीशानं सूर्य्यमग्निं गणाधिपम्।
दुर्गां सरस्वतीं लक्ष्मीं गौरीं वा नित्यमर्च्चयेत्॥
पद्मपुराणे।
आदित्यं गणनाथञ्च देवीं रुद्रं यथाक्रमम्।
नारायणं विशुद्धाख्यमन्ते च कुलदेवताम्॥
योगियाज्ञवल्क्यः।
देवानां सवनं कुर्य्याद्व्रह्मादीनाममत्सरः॥
विष्णुर्ब्रह्मा च रुद्रश्च विष्णुर्देवो दिवाकरः।
तस्मात्पूज्यतमं नान्यमहं मन्ये जनार्द्दनात्॥
दयात्पुरुषसूक्तेन यःपुष्पान्यप एव वा।
अर्च्चितं स्याज्जगदिदं तेन सर्व्वं चराचरम्॥
अप्स्वग्नौ हृदये सूर्य्येस्थण्डिले प्रतिमासु च।
षट्स्वेतेषु हरेः सम्यगर्च्चनं मुनिभिः स्मृतम्॥
आनुष्टुभस्य सूक्तस्य त्रिष्टुभं तस्य देवता।
पुरुषो यो जगद्वीजमृषिनरायणः स्मृतः॥
प्रथमां विन्यसेद्यामे द्वितीयां दक्षिणे करें।
तृतीयां वामपादे तु चतुर्थीं दक्षिणे न्यसेत्।
पञ्चमीं वामजानौ तु षष्ठीं वा दक्षिणे न्यसेत्।
सप्तमीं वामभागे तु अष्टमीं दक्षिणे न्यसेत्॥
नवमीं नाभिमध्ये तु दशमीं हृदये तथा।
एकादशींकण्ठदेशेबामवाहोततः परम्॥
त्रयोदशींदक्षिणे तु आस्यदेंशेचतुर्द्दशीम्।
अक्ष्णोःपञ्चदशीञ्चैव ,षोड़शीं मूर्द्ध्नि विन्यसेत्।
एवं न्यासविधिं कृत्वा पश्चाद्योगोविधीयते।
आद्यया वाहयेद्देवं कृत्वा तु पुरुषोत्तमम्॥
द्वितीयवासनं दद्यात्पाद्यं चैत्र तृतीयया।
अर्व्यश्चतुर्थ्यादातव्यः पञ्चम्याचमनीयकम्।
षष्ठ्यास्नानं681 प्रदातव्यं सप्तम्या वस्वमेव च।
यज्ञोपवीतमष्टम्या नवस्या त्वनुलेपनम्॥
पुष्यं दशम्या दातव्यं एकादश्यातु धूपकम्।
द्वादश्या दीपकं दद्यात्त्रयोदश्यानिवेदनम्682।॥
चतुर्द्दश्यानमस्कारं पञ्चदश्याप्रदक्षिणम्।
अर्च्चयित्वा तु देवेशंषोडश्या683 तु विसर्ज्जयेत्।
स्राने वस्त्रे च नैवेद्ये दद्यादाचमनीयकम्684॥ इति।
एवमितरेषामपि ब्रह्मादीनां पूजनं कार्य्यंतत्तप्रकैरेवैदिकैर्मन्त्रैः।तदशक्तौ685 तन्नामधेयमन्त्रैर्नमोऽन्तेः686 पूजयेत्।अथवा वेदाविरुद्धस्वदीक्षानुसारेण687वा देवतार्च्चनम्।
इति देवतार्च्चनम्।
अथ पूजोपयुक्तपुष्पानि।
तत्र नृसिंहपुराणे।
पुष्पैररण्यसम्भूतैः पत्रैर्वा वारिसम्भवैः।
अपर्य्युषितनिच्छिद्रैः प्रोषितै688 र्जन्तुवर्जितैः।
आत्मारामोद्भवैर्वापि पुष्पैः सम्पूजयेद्धरिम्॥
हरिरित्युपलक्षणम्।
शमीपुष्पं विल्वपुष्यं चम्पकं तगरन्तथा।
करवीरं तथाश्वेतं पालाशं कुशपुष्पकम्॥
वनमालाप्यशोकञ्च सेवन्ती कुजमालती।
त्रिसन्ध्यञ्च तथा श्वेतं कुन्दञ्च शतपत्रकम्।
मल्लिका चैव जाती च सर्व्वपुष्पाद्विशिष्यते॥
जातीपुष्पसहस्रेण यच्छेन्माल्यं सुशोभनम्।
विष्णवे विधिवद्भक्त्या तस्य पुष्पफलं शृणु॥
कल्पकोटिसहस्राणि कल्पकोटिशतानि च।
वसेद्विष्णुपुरे श्रीमान्विष्णुतुल्यपराक्रमः॥
पत्राण्यपि।
अपामार्गं भृङ्गराजं शमीपत्रञ्च खादिरम्।
दूर्व्वाच कुशपत्रञ्च दमनं मरुवकन्तथा॥
ततः श्रेष्ठं विल्वपत्रं ततस्तु तुलसी वरा।
एतेषाञ्च यथालाभं पत्रैर्यश्चर्च्चयेद्धरिम्।
सर्व्वपापविनिर्मुक्तोविष्णुलोके महीयते॥
येषां न सन्ति पुष्पाणि प्रशस्तान्यर्च्चने हरेः।
पल्लवान्यपि तेषां स्युः शस्तान्यर्च्चाविधौहरेः॥
वीरुधाना-मभाेव689 तु वर्हिषा चार्च्चयेद्धरिम्।
सर्व्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोक महीयते ॥
अपराधमहस्राणि अपराधशातानि च।
पद्मेनेकेन देवेशमभ्यर्च्चाकमलापतिम्।
वर्षायुतसहस्रस्य पापस्य कुरुते क्षयम्॥
अगस्त्यवृक्षसम्भूतैः कुसुमैरसितैः मितैः।
येऽर्च्चयन्ति च देवेशं तैः प्राप्तम्परमं पदम्॥
सुवर्णकेतकीपत्रं यो ददाति जनार्द्दने।
कोटिजन्मार्ज्जितं पापं दहते गरुड़ध्वजः॥
सकृत्कदम्बपुष्पेण हेलया हरिरर्च्चितः।
सप्तजन्मानि देवर्षे तस्य लक्ष्मीर्न दूरगा॥
कुम्भीपुष्पन्तु देवर्षेयः प्रयच्छति कंशवे।
सुवर्णपलमात्रन्तु पुष्पे पुष्पे भवेन्मुने॥
गरुड़पुराणे।
धात्त्रीफलेन यत्पुण्यं जयन्त्याः समुपोषणे।
खगेन्द्र स लभेन्मर्त्यस्तुलसीपूजनेन तत्॥
यथाकथञ्चिदाहृत्य कुसुमैः पूजयेद्धरिम्।
नाकपृष्ठमवाप्नोति नात्र कार्य्याविचारणा॥
स्कन्दपुराणे।
विष्णुमूर्द्धिस्थितं पुष्पं शिरसा यी वहेन्नरः।
अपर्य्युषितपापः690 स्याद्यावद्युगचतुष्टयम्॥
पुष्पाभावेऽथ पत्राणि देयानि च सुरार्च्चने।
पत्राभावे पयो देयं तेन पुण्यश्रुतेः ध्रुवम्।
वर्ज्ज्यानि च विष्णुधर्म्मे अभिहितानि।
उग्रगन्धीन्यगन्धीनि कुसुमानि न दापयेत्।
अन्यायतनजातानि कोटकानि691तथैव च।
रक्तान्यकालजातानि चैत्यवृक्षोद्भवानि च।
श्मशानजातपुष्पानां दानं देवे विवर्ज्जयेत्॥
क्रकराख्यस्य पुष्पाणि तथान्धकरकस्य च।
कृष्णञ्च कूटजं चार्कं नैव देयं जनारद्दने।
क्रकरः करीरः692।
शाल्मलञ्च शिरीषञ्च वृहतीं गिरिमल्लिकाम्।
सर्ज्जकञ्चैव कुष्माण्डं काञ्चनारिञ्च वर्ज्जयेत्॥
अथ शिवे वर्ज्यानि प्रासाददीपिकायाम्।
जवाबन्धूक सिन्दूरं तथा त्रैसन्ध्यकीयुते।
दमती केतकी यूथी मालती कुटजानि च॥
घुसृणञ्च693 खमारश्च प्रमादेनापि नार्पयेत्।
वर्व्वरी सर्ज्जपत्री च तथा च कुमुद्वयम्॥
अतिपक्वान्यपक्वानि पतितानि विवर्जयेत्।
आरण्यन्यष्यगन्धीनि सकीटं चांग्रगन्धि यत॥
अशुद्धपात्रपाण्यङ्गंवासोभिः कुत्मितात्मभिः।
आनीतं नार्पयेच्छर्म्भौ प्रमादादपि दोषकृत्॥
देवीपुराणे।
शिवे विवर्ज्जयेत्कुन्दमुन्मत्तञ्च हरेः सदा।
देवीनाञ्चार्कमन्दारौआदित्ये तगरं तथा॥
विष्णुरहस्ये।
न शुष्कैः पूजयेद्विष्णुंकुसुमैर्न महीगतैः694॥
न विशीर्णदलैर्मुक्तैमुर्न वा चासुरिकाशितैः॥
आसुरिकाशितैः बलाद्विकाशितैः।
तथा।
जलं पर्य्युषितन्त्याज्यं पत्राणि कुसुमानि च।
तुलस्यगस्त्यविल्वानिः695 गाङ्गं वारि न दुष्यति696॥
स्नानं कृत्वा तु यः कश्चित्पुष्पं वै चिनुतेद्विजः।
देवतास्तन्नगृह्णन्ति भस्मीभवति दारुवत्॥
एतच्च मध्यन्दिनस्नाानोत्तरपरं वेदितव्यम्।
अथ नित्यश्राद्ध-पञ्चमहायज्ञानां खरूपाणि।
तत्र यमः।
पञ्चसूना गृहस्थस्य वर्त्तन्ते बहवः सदा।
कण्डनी पेषणी चुल्ली जलकुम्भ उपस्करः॥
एता निवाहयेद्विप्रो वध्यते वै मुहुर्मुहुः।
एतासां पावनार्थाय पञ्चयज्ञाः प्रकीर्त्तिताः॥
सूना हिंसास्थानं कण्डन्युदूखलादि पेषणी दृषदादि चुल्ली पाकस्थानं जलकुम्भ उदाधानमुपस्करः शूर्पादि। वध्यते पापेन युज्यते इत्यर्थः। न च कण्डन्यादिनिमित्तश्रवणान्नैमित्तिकत्वं पञ्चमहायज्ञानां पञ्चयज्ञविधानन्तु गृही नित्यं न हापयेदिति शङ्खेन नित्यत्वाभिधानात्।
ते च यज्ञाःके इत्याकाङ्क्षायां यमः।
ब्रह्मयज्ञो देवयज्ञः पितृयज्ञस्तथैव च।
भूतयज्ञो नृयज्ञस्तु पञ्चयज्ञाः प्रकीर्त्तिताः॥
एतच लक्षणमाह मनुः।
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।
होमो दैवो बलिर्भौतो तृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥
अध्यापनमध्ययनं तर्पणं पितृश्राद्धमिति यावत्।
यतः स एवाह।
स्वाध्यायेनार्च्चयेट्टषीन् होमैर्देवान्ययाविधि।
पितॄन् श्राद्धेन नृृनन्नै र्भूतानि697 बलिकर्म्मण॥इति।
पितृयजे विकल्पमाह कात्यायनः।
श्राद्धं वा पितृयज्ञःस्यात्पित्त्रोर्बलिरथापि वेति।
नित्यश्चाद्धं वा पितृयज्ञः। अथवा वैशदेवमध्ये पितृभ्यः स्वधास्त्विति यो बलिर्दीरयते स पितृयज्ञ इत्यर्थः। वहृचां गृहो देवपितृभूतमनुष्यत्रह्मयज्ञाः पञ्च महायरज्ञा आद्याश्चत्वार एव वैश्वदेविकं बलिकर्म्म चेत्याहुः। अथवा पृथगिति।
बौधायनोऽपि।
अग्नये स्वाहा इत्यादि षड़ाहुतीः एष वैश्वदेवः सन्तिष्ठते। धर्म्माय स्वाहेत्यादि नमोरुद्राय नमः पशुपतये इत्यादिभिर्बलिहरणं बलवान् हरत्येतत् सन्तिष्ठते। देवेभ्यः स्वाहेत्यग्नौजुहोत्येष देवयज्ञः सन्तिष्ठते। पितॄनुद्दिश्य एकं ब्राह्मणं भोजयेदपि वा दक्षिणेनाग्निं दक्षिणान्दर्ब्भान्संस्तीर्य्य तेषु पिण्डं ददाति पितृभ्यः स्वधास्त्वित्यपि वा आपस्तत्पितृयज्ञःसन्तिष्ठते। उत्तरेणाग्निं शुचौदेशे प्रागग्रान्दर्ब्भान् संस्तीर्य्य गन्धपुष्पधूपदीपैरलङ्कृत्य बलिमुपहरति भृतेभ्यो नम इति भूतेभ्यः तद्भूतयज्ञः सन्तिष्ठते। मनुष्ययज्ञार्थमतिथिं भोजयेदपि वा हन्तकारं698 ब्राह्मणेभ्यो ददाति मनुष्येभ्यो हन्तेति। हन्तकारः पर्य्याप्तान्नदानसमर्थश्च।
कार्णाजिनिः।
भिक्षां वा पुष्कलं वापि हन्तकारमथापि वा।
पुष्कलमग्रिममिति पर्य्यायः।
भिक्षादिलक्षणञ्च मनुनाभिहितम्।
ग्रासमात्रं भवेद्धिक्षाअग्रंग्रासचतुष्टयम्।
अयं चतुर्गुणीकृत्य हन्तकारी विधीयते॥ इति।
आपस्तम्बपरिशिष्टेऽपि।
वैश्वदेवबलिहरणानन्तरमग्रं दत्त्वा देवयज्ञार्थमुद्धृतान्नाद्देवताभ्यः स्वाहेत्येकाहुतिमन्तौ जुहुयुः पितृयज्ञार्थमपि वैश्यदेवबलिहरणशिष्टादन्नात्प्राचीनावीतिना दक्षिणतोऽग्नेःपितृतीर्थेन पितृभ्यःस्वधास्त्विति बलिं हरेयुर्भूतयज्ञार्थं वैश्वदेवशिष्टान्ना699द्देवोत्तरतोऽग्नेर्देवतीर्थेन वलिं दद्युरिति।
एवंविधान्यन्यान्यपि विरुद्धवचनानि ग्रन्थगौरवभयान्न लिखितानि। अत्र च700 सर्व्वत्र स्वशाखाभ्यः701 व्यवस्था।
इति पञ्चयज्ञस्वरूपनिर्णयः।
अथ नित्यश्राद्धम्
।
मनुना दद्यादहरहःश्राद्धमिति नित्यश्राद्धं विधाय वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्याग्नौ विधिपूर्व्वकमित्यादिना पश्चाद्वेश्व-
देवविधानात्। प्रथमं नित्यश्राद्धं पश्चाद्वौश्वदेव इति केचित्। अत्रापि पक्षेयेषान्तु नित्यश्राद्धमेव पञ्चयज्ञान्तःपाति तेषां स्वगाखानुसारेण क्रमः केचन वैश्वदेशादनन्तरं कुर्व्वन्ति।
पाठक्रममनादृत्य श्राद्धविषये
मार्कण्डेयपुराणे।
कुर्य्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा।
पितृृनुद्दिश्य विप्रांस्तु भोजयेद्विप्रमेव च॥ इति।
अत्र विशेषमाह प्रचेताः।
नामन्त्रणं न होमश्चनावाहनविसर्ज्जने।
न पिण्डदानं न सुरान्नित्ये कुर्य्याद्विजोत्तमः॥
उपवेश्यासनं दत्त्वा सम्पूज्य कुसुमादिभिः।
निर्द्दिश्य भोजयित्वा तु किञ्चिद्दत्वा विसजयेत्॥
न सुरान्न वैश्वदेवान् किञ्चिद्दत्त्वा इति दक्षिणार्थम्।
व्यासः।
नावाहनं स्वधाकारः पिण्डाग्नौकरणादिकम्।
ब्रह्मचर्य्यादि नियमो वैश्यदेवास्तथैव च॥
तथा।
तत्तु षट्पुरुषं ज्ञेयं दक्षिणापिण्डवर्ज्जितम्।
मत्स्यपुराणे।
यद्येकं भोजयेद्विप्रन्त्रीनुद्दिश्य पितृृंस्तथा। इति।
त्रीनिति मातामहादीनामपि प्रदर्शनार्थम्।
तत्र कात्यायनोऽनुकल्पमाह।
एकमप्याशयेद्विप्रं पितृयज्ञार्थसिद्धये702।
अदैवं नास्ति वेदेभ्यो703 भोक्तुं भोज्यमथापि वा॥
अप्युद्धृत्य यथाशक्ति किञ्चिदन्नं यथाविधि।
पितृभ्य इदमित्युक्त्वा स्वधाकारमुदाहरेत्॥
एतदुद्धृतान्नं ब्राह्मणायैव दद्यात्तदद्भावे गोभ्यः।
तथाच कूर्म्मपुराणे।
उद्धृत्य वा यथाशक्ति किञ्चिदन्नंसमाहितः।
वेदतत्त्वार्थविदुषे द्विजायैवोपपादयेत्॥
तथा।
सर्व्वेषामप्यलाभे तु दत्तं गोभ्यो निवेदवेत्। इति।
यदा गवामष्यभावस्तदा विष्णूक्तम्।
दयादहरहः श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा।
अन्नाद्येनोदकेन श्राद्धमन्नात्सृष्टेनोदकेन।
पयोमूलफलैर्व्वापि पितॄणां प्रीतिमावहन्॥ इति।
पयः क्षीरम्। एतच्च नित्यश्राद्धं श्राद्धान्तरे नियतम्704।
तथाच मार्कण्डेयः।
नित्य क्रियां पितृृणान्तु केचिदिच्छन्ति मानवाः।
न पितॄणां तथैवान्ये शेषं पूर्व्ववदाचरेत्॥ इति।
नित्यक्रिया नित्यश्राद्धं शेषं वैश्वदेवादिकम्।
अत्रैवं व्यवस्था यत्रामावास्यानान्दीमुखश्राद्धदिनित्याश्राद्धदेवता
दृष्टा भवन्ति न तत्र नित्यश्राद्धंयत्र च सांवत्सरिकादिषु नेष्टा नितश्यराददेवतास्तत्र कर्तवमिति।
तथाच चमत्कारखण्डे।
नित्यश्राद्धंन कुर्व्वोत प्रसङ्गाद्यत्र सिध्यति।
श्राद्धान्तरात्तदान्यत्रनित्यत्वात्तन्न हापयेत्705॥
इतिनित्यश्राद्धविधिः
अथ वैश्वदेवविधि।
तत्र प्रथमोपक्रमे आपस्तम्वः॥
तेषां मन्त्रागामुपयोगे द्वादशाहमुभयोरधाशय्या ब्रह्मचर्य्यं क्षारलवणवर्ज्जनं चोत्तमस्यैकरात्रमुपवास इति।
तेषां वैश्वदेवबल्यर्थमन्त्रागामुपयोगः प्रथमोपक्रमः। उत्तमस्य ये भूताःप्रचरन्तीत्यस्य मन्त्रस्य706। उपयोग एकरात्रमुपवास इति प्रतिवचनमिति। ततो वैश्वदेवादिकं कर्म्म कुर्य्यात्।
एतच्च सायं प्रातः।
तथाच कात्यायनः।
सायं प्रातर्वैश्वदेवः कर्त्तव्यो बलिकर्म्म च।
अनश्नतापि सततमन्यथा किल्विषोभवेत्॥
एतेन पुरुषार्थमुक्तं भवति वैश्यदेवस्य।
अतएव परिशिष्टे प्रवासस्थितस्याप्यवश्यकर्त्तव्यता दर्शिता।
प्रवसेदाहिताग्निश्वेत्कदाचित्कालपर्य्ययात्।707
यस्मिन्नग्नौ भवेत्याको वैश्वदेवस्तु तत्र वै॥
मनुरपि पुरुषार्थत्वमेवाह।
वैश्वदेवे तु निर्वृत्ते यद्यन्योऽतिथिराव्रजेत्।
तस्याप्यन्नंयथाशक्ति प्रदद्दान्न बलिं हरेत्॥
वैश्वदेवानन्तरमतिथिपूजायां कृतायां द्वितीयोऽतिथिर्यदागच्छति अन्नञ्च पक्कं नास्ति तदा पुनः पाकं कृत्वा तस्मै दद्यान्न बलिं हरेत्। वैश्वदेवं न कुर्य्यादित्यर्थः। यद्यन्नसंस्कारार्थत्वं वैश्वदेवस्य तदा पुनःकरणे निषेधो युज्यते इति तात्पर्य्यम्। केचनान्नसंस्कारत्वं पुरुषार्थञ्चेत्युभयार्थमिच्छन्ति। अस्मिन् पक्षे उभयात्मकस्य आश्रयेतिसंज्ञा नान्यपूर्व्वविषयाणि द्रव्यसंस्कारकारीणि च कर्म्मास्विष्टिकृदुत्तमप्रयाजादीनि नान्यान्यपि संज्ञकानीति व्यवहरन्ति मीमांसकाःएतच्च लौकिके विवाहाग्न्यादिषु कुर्व्वीत।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
स्मार्त्तं कर्म्म विवाहाग्नौ कुर्व्वीत प्रत्यहं गृही।
दायकालाहृते708 \। वापि श्रौतं वैतानिकाग्निषु॥
शातातपः।
लौकिके वैदिक वापि हुतोत्त्सृष्टे जले क्षितौ।709
इत्याहृत्य उत्सृज्य जुहुयात् लौकिकाग्नेः पात्रान्तरकरणमाहरणं स्मात्तग्नेम अग्न्युद्वोधनमाहरणमुन्मज्जनं भस्मापकरणम्।
विवाहिकेऽग्नौकुर्व्वीत गृह्यकर्म्म यथाविधि।
पञ्चयज्ञविधानन्तु पङक्तिंचान्वाहिकीं710गृही॥
अत्र विशेषश्चतुर्विंशतिमते
प्रतिहोमन्तु निर्व्वत्ये समुद्धृत्य हुताशनम्।
शेषं महानसेकृत्वा तत्र पाकं समाचरेत्।
समुद्धृत एवं शेषः तं महानसेकृत्वेत्यर्थः।
यम्मिन्नग्नौपाकस्तत्रैव होमः।
तथाच कूर्म्मपुराणे।
यदि स्याल्लौकिके पाकस्ततोऽन्नं तत्र हूयते।
शालाग्नौतत्र चेदन्नं विधिरेप सनातनः॥ इति।
एतदनुसारेणान्यान्यपि वचनानि व्यवस्थापनीयानि।
स होमः कथमित्याङ्क्षायाम्
शौनकः।
सायम्प्रातः सिद्धस्य हविष्यस्य जुहुयादग्निहोत्रं देवताभ्यः
सोमाय वनस्पतये अग्नीषोमाभ्यामिन्द्राग्निभ्यान्द्यावापृथिवी धन्वन्तरये इन्द्राय विश्वेभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मणे स्वाहेति।
हवष्यं हविषे योग्यम्। अग्निहोत्रदेवताः सूर्य्यग्निप्रजापतयः।
आपस्तम्ब।
उपासने पाचने711 वा षड्भिराद्यैः प्रतिमन्त्रं हस्तेन जुहुयादुभयतःपरिषेचनं यथा पुरस्तादिति।
आद्यै अग्नये स्वाहेत्यादिभिः स्विष्टिकृदन्तैःउभयतः परिषेचनं कर्म्मादावन्ते च।
कात्यायनः।
वैश्वदेवादन्नात्पर्य्युक्ष्यस्वाहाकारैर्जुहुयाद्ब्रह्मणे प्रजापत्तये गृह्याभ्यः कश्यपायानुमतय इति।
गोतमः।
अग्नावग्निर्धन्वन्तरिर्विवेदेवाः। प्रजापतिः स्विष्टिकृत् इति होमः इति।
अत्र व्यवस्थामाह श्लोकैःकात्यायनः।
उद्धृतं हविरासिच्य हविष्येण घृतादिना।
स्वशाखाविधिना हुत्वा तच्छेषेण बलिं हरेत् ॥
इति हविष्येण घृतादिना उद्धृतं हविरासिच्यतेन हविषा जुहुयादित्यर्थः। घृताभावे दध्यभ्यक्त712ं हविर्जुहुयात्।
तथाच व्यासः।
जुहुयात्सर्पिषाभ्यतं तैलक्षारविवर्ज्जितम्।
दध्यक्तं पयसाभ्यक्तं तद्भावेऽम्भसापि वा॥इति।
हविष्याभावे चतुर्विंशतिमते विशेषो दर्शितः।
अलाभे येन केनापि फलशाकोदकादिभिः।
पयोदधिघृतैः कुर्य्याद्वैश्वदेवं श्रुवेण तु।
हस्तेनान्नादिभिः कुर्य्यादद्भिरज्जलिना जले॥इति।
अत्रापरोविशेषः
परिशिष्टे।
शाकं वा यदि वा पत्रं मूलं वा यदि वा फलम्।
संकल्पयेद्यदाहारे तैनाग्नौजुहुयादपि॥
पयः प्रभृतिरसद्रव्याणान्तु विशेषोऽभिहितः
परिशिष्टे।
उत्तानेन तु हस्तेन अङ्गुष्ठाग्रेण पीड़ितम्।
संहताङ्गुलिपाणिस्तु वाग्यतो जुहुयाद्धविः॥इति।
हविष्येष्वपि मुख्यहव्यमाह
कात्यायनः।
हविष्ये तु यवा मुख्यास्तदनु व्रीहयः स्मृताः।
माषकोद्रवगौरादीन् सर्व्वालाभेऽपि वर्ज्जयेत्॥
गौराःगौरसर्षपाः।
आपस्तम्बः।
न क्षारलवणैर्होमो विद्यते तथा परान्नसंस्पृष्टहोम-
उदीचीनमुष्णं713 भस्मापोह्यास्मिन् जुहुयाद्धृतमहुतञ्चाग्नौ भवती। क्षारलवणपरान्नसंसृष्टेन हविष्येणाग्नौ होमो न कार्य्यः। अपितूष्णं भस्माग्न्यायतनादुत्तरतोऽपोह्यास्मिन् होतव्यम् \।
उष्णां भस्मेति अङ्गारमिश्रितं भस्मेत्यर्थः।
अतएव बौधायनः।
अङ्गारान् भस्ममिश्रांस्तु उद्धृत्योत्तरतोऽनलात्।
जुहुयाद्वैश्वदेवं तु यदि क्षारादिमिश्रितम्714॥इति।
तथा।
परोक्षमन्नमसंस्कृत715मग्नावधिश्रित्याद्भिः प्रोक्षेत्तदेवपवित्रमित्याचक्षत इति। अधिश्रयणं पुनरग्नेरुपरिस्थापनमात्रसहितस्य वैश्वदेवपात्रस्य अधिश्रित्य संस्कृतं कृत्वा प्रोक्षेदित्यन्वयः। तच्च सायं प्रातः कर्त्तव्यमित्युक्तं तत्र प्रातरूपक्रमःसायमपवर्गः \। यदा सायं मन्त्रकर्म्मकर्त्तृृणामभावस्तदा पत्नी सायममन्त्रकं बलिं हरेत्।
तथाच मनुः।
सायमन्त्रस्य सिद्धस्य पत्नामन्त्रबलिं हरेत्।
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातर्विधीयते॥इति।
अत्र वैश्वदेवं हि नामैतदित्येतत्पर्य्यन्तमेकं वाक्यं सायम्प्रातर्विधीयते इत्येतदपरं वैश्वदेवस्य कालद्वयेऽपि कर्त्तव्यताविधायकम्। अतः सायमेव पत्न्याबलि हरणरुपवैश्वदेवकम्माधिकारः। केचन बलिग्रहणं वैश्वदेवस्याप्युपलक्षणार्थमिति वर्णयन्ति।
एवं कृतवैश्वदेवस्य वहिर्बलिमाह
मनुः।
शुनाञ्च पतितानाञ्च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणाञ्च शनकैर्निक्षिपेद्भुवि।
अत्र मन्त्रः।
ये भूताः प्रचरन्ति दिवा नक्तंबलिमिच्छन्तो विदुरदस्य प्रेष्ठाः716 तभ्यो बलिं पुष्टिकामोहरामि मयि पुष्टिं पुष्टिपतिर्ददातु।
अत्र दिवेति दिने नक्कमिति रात्रौ दिवाचारिभ्य इति दिवा नक्तंचारिभ्य इति नक्तमित्याश्वलायनम्मरणात्। एतच्च वैश्वदेवाख्यं कर्म्म दिवा हिस्तथा रात्रावपि द्विर्न तु कर्त्तव्यम्।
धर्म्मविन्नाचरेतस्नाननमाहिकन्तु पुनःपुनः।
तर्पणं ब्रह्मयज्ञञ्च वैश्वदेवं चरेदिति॥
विष्णुपुराणेऽभिधानाद्वैश्वदेवबलिहृती सायं प्रातः पञ्चयज्ञातुदिवैव।
यथाह यमदग्निः।
वैश्वदेवं तथा रात्रौ कुर्य्याद्वलिहृतिं तथा।
महतः पञ्चयज्ञांस्तु दिवैवेत्याह धर्म्मविदिति॥
येषान्तु शाखिनां ब्रह्मयज्ञव्यतिरिक्तान्यमहायज्ञानां वैश्वदेवबलिहृतौ चान्तर्भावः तेषां दिवैव वैश्वदेवाख्यं कर्म्म न रात्रौ यदि स्वशाखायां कालद्वयेऽपि विधानं नास्ति अथास्ति तदा द्विरपि भवति निर्णयः द्विविधं हि वैश्वदेवादिकं कर्म्म एकं मन्वादिस्मृत्युक्तसाधारणमपरं स्वस्वोगृह्यक्तसाधारणं स्वशाखाऽविरुद्धं सर्व्वैरपि कार्य्यं कर्म्मणःसर्व्वशाखाधिकरणन्यायेनैकत्वात्। अत्राशक्तश्चेत् स्वस्वगृह्योक्तमेव तावता शास्त्रार्थस्य निष्पन्नत्वात्। एतच्चसंसृष्टिनां मध्ये ज्येष्ठ एव कुर्य्यात्। तदशक्त्यादिना तदनुज्ञयेतरस्यापि कर्त्तृत्वमस्ति।
अनग्निकस्य विशेषमाह
वशिष्ठः।
अनग्निकस्तु यो विप्रः सोऽन्नं व्याहृतिभिः स्वयम्।
हुत्वा शाकलमन्त्रैस्तु शिष्टाद्भूतबलिं हरेत्॥
अनग्निकः श्रौतस्मार्त्ताग्निरहितः। यदा वैश्वदेवादर्व्वाक् भिक्षु रागच्छति तदा वैश्वदेवार्थमन्नमुद्धृत्य वैश्वदेवार्थं भिक्षांदत्त्वा विसर्ज्जयेत्। भिक्षुका अपि तेनैव दर्शिताः।
ब्रह्मचारी यतिश्चैव विद्यार्थी गुरुपोषकः।
अध्वगः क्षीणवृत्तिश्च षड़ेते भिक्षुकाः स्मृताः॥
इति वैश्वदेवविधिः।
अथ वैश्वदेवपाकनिर्णयः।
तत्र नित्यश्राद्धस्य वै श्वदेवस्य चैक एव पाकःनित्यश्राद्धेनित्यं विशेषाभावात् न च श्राद्धेष्वेकपाकशुदङ्कैवनास्ति। अशौचमध्ये वैश्वदेवनिपेधादेकादशाहादिकश्राद्धेतु पृथक् पाकःश्राद्धशिष्टान्नस्य ब्राह्मणेभ्यो देयत्वात्।
तथाच देवलः।
एकोदिष्टे तु शेषन्तु ब्राह्मणेभ्यः समुत्सृजेत्। इति।
दर्शश्राद्धंप्रकृतिःअतस्तन्निर्णयेनैव तद्विकृतीनामपि निर्णयः इति प्रकृतौविचार्य्यते किं श्राद्धार्थं वैश्वदेवार्थमेक एव पाकः उत पृथगिति तत्र पृथगिति ब्रूमः।
तथाच लोकाक्षिः।
पित्रर्थं निर्वपेत्याकं वैश्वदेवार्थमेव च। इति।
इयमुक्तिः पाकस्य पृथक्त्वे एकत्वे चैकरूपति विशेषापरि ज्ञानाभिप्राया। विवृणोति स एवोत्तरार्द्धेन।
वैश्वदेवं न पित्रर्थंन दार्शं वैश्वदेविकमिति।
इतरदितरार्थं न भवतीति पृथक् पाकः कर्त्तव्य इत्यर्थः न दार्शमित्यत्र दार्शशब्देन तद्विकृतयो नित्यनैमित्तिककाम्यश्राद्धानि लक्ष्यन्ते वैश्वदेविकमित्यत्र वैश्वदेविकशब्देन भूतयज्ञादयः। अयन्तु पृथक् पाको वैश्वदेवस्य श्राद्धात्पूर्व्वंमध्ये वा वैश्वदेवानुष्ठानेतरत्रानुष्ठाने।
तथाच पैठीनसिः।
पितृपाकात्समुद्धृत्य वैश्वदेवं करोति यः।
आसुरं तद्भवेच्छाद्धं पितॄणां नोपतिष्ठति॥ इति।
नन्वेतद्वचनमुत्तरकालेऽपि निषेधकं तदापि पितृपाकत्वात्। मैवमुत्तरकालं पितृसम्बन्धस्य निवृत्तत्वात्। यदुद्देशेन परिकल्पितं यद्धविस्तस्य तदुद्देशेन त्यागेन कृतेन तदुपभोगसमनन्तरमेव तत्सम्बन्धनिवृत्तेर्न्याय्यत्वात्। एवमेव शिष्टाचारो दृश्यते।
अनेनाभिप्रायेण पैठीनसिरेवाह।
श्राद्धंनिर्व्वर्त्त्यं विधिवद्वैश्वदेवादिकं ततः।
कुर्य्याद्भिक्षां तती दद्याद्धन्तकारादिकं तथा॥
अत्र प्रथमस्तच्छब्दो हेतुपरःद्वितीयस्तु श्राद्धावशिष्टानपरः एवञ्चायमर्थः सम्पद्यते।
पितृपाकात्समुद्धृत्य वैश्वदेवं करोति यः।
आसुरं तद्भवेच्छ्राद्धमिति॥
यतः श्राद्धापूर्व्वं मध्ये वा निषेधः। ततस्तस्माद्धेतोः श्राद्धं निर्व्वर्त्त्य तच्छिष्टाद्वैश्वदेवादिकं कर्त्तव्यमिति। अत्र वचनस्थादिशब्देन नित्यश्राद्धमपि गृह्यते तेन यच्छाखायां नित्यश्राद्धस्य पञ्चयज्ञान्तःपातित्यं नास्ति तच्छाखीयानां श्राद्धपाकशेषेण पृथग्वाक्येन वा नित्यश्राद्धं वैश्वदेवात्प्रागेव।
अत्रोभयत्रापि मार्कण्डेयः।
ततो नित्यक्रियां कुर्य्यादिति।
ततः श्राद्धशेषान्नित्यक्रिया नित्यश्राद्धादि।
तथा।
पृथक्पाकेन नैत्यं स्थादिति।
यदि ब्राह्मणविसर्ज्जनान्ते वैश्वदेवस्तदा तच्छेषेण, इतरत्र पृथगिति निर्णयः।
इति वैश्वदेवपाकनिर्णयः।
अथ वैश्वदेवकालनिर्णयः।
तत्र साग्निः श्राद्धापूर्व्वमेव वैश्वदेवं कुर्व्वोत तदाह
लोकाक्षिः।
पक्षान्त्यकर्म्म निर्व्वर्त्य वैश्वदेवञ्च साग्निकः।
पितृयज्ञं ततः कुर्य्यात्ततोऽन्वाहार्य्यकम्बुधः॥
इति पक्षान्त्यमन्नाधानमन्वाहार्य्यकं दर्शश्राद्धंननु वैश्वदेवस्य पक्षान्तपिण्डपितृयज्ञयोर्मध्यविधिवलादेव साग्निककर्त्तृत्वावगतेः पुनः साग्निकशब्दोपादानमपार्थकमिति चेन्मैवम्। अन्नाधानपिण्डपितृयज्ञकर्त्तुरौपासनाग्निनिवृत्त्यर्थत्वेन सार्थकत्वात्।
देवलोऽपि वैश्वदेवानन्तरमेव पिण्डपितृयज्ञादिकर्त्तव्यतामाह।
अकृते वैश्वदेवे तु स्थालीपाकः प्रकीर्त्तितः।
अन्यत्र पिण्डयज्ञात्तु सोऽपराह्णे विधीयते॥ इति।
स्थालीपाकशब्देन स्थालीपाकसाध्यकर्म्माण्युच्यन्ते। एतानि
पक्षान्तादीनि कर्म्माणि वैश्वदेवात्पूर्व्वमेव कर्त्तव्यानि। पिण्डपितृयज्ञस्यापि स्थालीपाकसाध्यत्वे तस्यापि पूर्व्वत्र कर्त्तव्यतायां प्राप्तायामपवादः अन्यत्रेति पिण्डपितृयज्ञादन्यत्रेत्यर्थः।
दर्शश्राद्धस्य पिण्डपितृयज्ञानन्तर्यमाह
मनुः।
पिण्डयज्ञन्तु निर्वर्त्त्य विप्रश्चन्द्रक्षयेऽग्निमान्।
पिण्डान्वाहार्य्यकं श्रादुङ्कर्य्यान्मासानुमासिकम्॥
एवञ्च यानि श्राद्धात्पूव्वंवैश्वदेवकर्त्तव्यतापादकानि वचनानि तानि सर्व्वाणि लोकाक्षिमनुवचनानुसारेण श्रौताग्निमद्विषयानि व्यवस्थापनीयानि। साग्निकस्याप्ये कादशाहश्राद्धपश्चादेव।
सम्प्राप्ते पार्व्वणे श्राद्धे एकोद्दिष्टे तथैव च।
अग्रतोवैश्वदेवः स्यात्पश्चादेकादशेऽहनि॥इति।
परिशिष्टे विशेषविधानात्।
तथा सालङ्कायनोऽपि।
श्राद्धेप्रागेव कुर्व्वीत वैश्वदेवन्तु साग्निकः।
एकादश्यादिकं मुक्त्वातत्र ह्यन्ते विधीयते॥इति।
एवं वैदिकाग्नेःश्राद्धातप्रागेव नियमादौपासनाग्नेरनग्नेश्वयानि प्रतिषेधाश्च717 यानि श्राद्धमध्ये विकिरान्ते ब्राह्मणविस-
र्ज्जनान्ते च वैश्वदेवविधायकानि तान्यौपासनाग्निविषये अनग्निविषये च व्यवतिष्ठन्ते यानि श्राद्धादौनिषेधकानि तान्यपि तद्विषयः718 एव। अथवा माग्नेरपि श्राद्धपाकविषये अतएवास्य पृथक्पाको वैश्वदेवार्थनिषेधश्च।
षट् त्रिंशन्मते।
प्रतिवासरिको होमः श्राद्धादौ क्रियते यदि।
देवा हव्यं न गृह्णन्ति कव्यानि पितरस्तथा॥इति।
वृद्धगौतमोऽपि।
पितृश्राद्धमकृत्वा तु वैश्वदेवङ्करोति यः।
अकृतं तद्भवेच्छ्राद्धं पितॄणां नोपतिष्ठते।
वशिष्ठः।
वैश्वदेवमकृत्वा तु श्रादुङ्कुर्य्यादनग्निकः।
लौकिकेऽग्नौ हुते शेषं पितॄणां नोपतिष्ठते॥
अनग्निको वैदिकाग्निरहितोऽपि तस्यौपासनाग्नावपि वैश्वदेवो निषिद्धः। अयमर्थो लोकाक्षिवचने साग्निकपदस्य सार्थकत्वप्रतिपादने दर्शितः। अतएवात्र लौकिकाग्निरितिस्मार्त्ताग्नेरप्युपलक्षणम्। औपासनाग्नेरनग्निकस्य च त्रयः काला वैश्वदेवे एक श्राद्धमध्ये अपरो विकिरान्ते अन्यो ब्राह्मणोविसर्जनान्ते।
तत्र मध्यकर्त्तव्यता
ब्रह्माण्डपुराणे।
वैश्वदेवाहुतीरग्नावर्व्वाक् ब्राह्मणभोजनात्।
जुहुयाद्भूतयज्ञादि719 श्राद्धं कृत्वा तु तत् स्मृतम्॥इति।
ब्राह्मणभोजनादर्व्वाक् अग्नौकरणानन्तरमित्यर्थः। अत्र भूतयज्ञादेःश्राद्धानन्तरकर्त्तव्यताभिधानादस्मिन् प्रयोगे यानि भूतयज्ञोत्तरभावीनि कर्माणि सम्बन्धक्रमाणि तानि तदाद्युत्कर्षन्यायेनोत्कृष्टानि720। श्राद्धान्ते कर्त्तव्यानि न तु भूतयज्ञात् पूर्व्वभावीन्युत्कृष्टानीतिः721। यच्छाखायां बलिहरणादिकमेव भुतयज्ञादिकं तेषां बलिहरणादिकस्यैवोत्कर्षः येषान्तु बलिहरणादिव्यतिरिका भूतयज्ञास्तेषां वहिर्बलिव्यतिरिक्तभूतयज्ञावधिकानां बलिहरणादीनामपि श्राद्धमध्ये कर्त्तव्यता भवतीतिविवेकः। न चैवं मन्तव्यं प्रारब्धे पित्र्येकर्म्मण्य कर्म्मण्यसमाप्ते तन्मध्ये कर्म्मान्तरकरणायुक्तमिति निशीष्टिन्यायेना722विरोधात् अतएव
दृश्यते पूर्व्वेद्यर्निमन्त्रितेषु ब्राह्मणेषु श्राद्धापरिसमाप्तावेव साह प्रातर्होमकरणम्।
द्वितीयःकालो भविष्यपुराणे।
पितॄन् सन्तर्प्य विधिवद्वलिं दत्त्वा विधानतः।
वैश्वदेवं ततः कुर्य्यात्पश्चाद्ब्राह्मणभोजनम्॥
बलिरत्र विकिरसंज्ञकः।
यतस्तत्रैव।
ये अग्निदग्धा मन्त्रेण723 भूमौ यन्निक्षिपेद्बुधः।
जानीहि तं बलिं वीर श्राद्धकर्म्मणि सर्व्वदा॥इति।
पश्चाद्व्राह्मणभोजनं भूरिभोजनम्।
तृतीय कालोब्राह्मणविसर्जनान्ते सच मत्स्यपुराणे दर्शितः।
उच्छेषणन्तु724 तत्तिष्ठेद्यावद्विप्राविसर्जिताः।
वेश्वदेवं ततः कुर्य्यान्निवृत्ते पितृकर्म्मणि॥
मनुरपि।
पूर्व्वार्द्धं तदेव।
ततो गृहबलिं कुर्य्यादिति धर्म्मोव्यवस्थितः॥इति।
बलिशब्दो वैश्वदेवप्रदर्शनार्थ इति मतं मेधातिथेः।
भविष्यपुराणे।
कृत्वा श्राद्धं महाबाहो ब्राह्मणांश्च विसर्ज्जयेत्।
वैश्वदेवादिकं कर्म्म ततः कुर्य्यान्नराधिप॥इति।
इति वैश्वदेवकालनिर्णयः।
अथातिथिपूजा।
तत्र विष्णुपुराणे।
ततो गोदोहमात्रन्तु तिष्ठेत्कालं गृहाङ्गने।
अतिथिग्रहणार्थाय तदूर्द्धञ्च यथेच्छया॥
वैयाघ्रपद्यः।
अनिन्दितमनाहूतं वैश्वदेवेष्ववस्थितम्।
अतिथिं तं विजानीयान्नैकग्रामनिवासिनम्॥
क्षुधार्त्तस्तृषितश्चैव स्नातोगृहमुपागतः।
प्रयत्नेन तु सम्पूज्य सोऽतिथिः स्वर्गसंक्रमः725॥
इष्टो वा यदि वा द्वेष्यो मूर्खः पण्डित एव च।
सम्प्राप्ते वैश्वदेवान्ते सोऽतिथिःस्वर्गसंक्रमः॥
न पृच्छेद्गोत्राचरणं726 न स्वाध्यायं व्रतानि च।
चित्तेन भावयेत्तन्तु सर्व्वदेवमयो हि सः॥
विष्णुः।
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहान्प्रतिनिवर्त्तते।
स तस्य दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति॥
याज्ञवल्क्यः।
दिनेऽतिथौ तु विमुखे गतं यत्पातकं भवेत्।
तदेवाष्टगुणं प्रोक्तं सूर्य्योढे727विमुखे गते॥
ऋष्यशृङ्गः।
गवां ग्रामञ्च कुर्व्वीत नित्यमेव समाहितः।
गवाङ्कण्डूयनं स्पर्शं ग्रासमाह्निकमेव च।
मार्कण्डेयपुराणे।
अस्नाताशी मलं भुङक्ते अजापी पूयशोणितम्।
अहुत्वान्नं कृमीन् भुङ्क्तेअदत्त्वा विषभोजनम्॥
आत्मार्थं पचनं यस्य रत्यर्थंयस्य मैथुनम्।
वृत्त्यर्थं यस्य चाधीतं निष्फलं तस्य जीवितम्॥
अथ भोजन विधि।
तत्र देवलहारीती।
आहारन्तु रहः कुर्य्यान्निर्हारञ्चैव सर्व्वदा।
गुप्ताभ्यां लक्ष्म्युपेतः स्यात्प्राकाश्ये हीयते श्रिया॥
मनुः।
उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात्समाहितः।
आपस्तम्बः।
यस्तु भोजनशालायां भोक्तुकामः सन्नासनस्थो वा अन्यत्र आसनस्थो वा न चोपस्पृशेत् यस्तूपस्पृशेत् स पङ्क्ति दूषक इत्यन्वयः।
याज्ञवल्क्यः।
बालं सुवासिनी728 वृद्धगर्ब्भिण्यातुरकन्यकाः।
सम्भोज्यातिथिभृत्यांश्च दम्पत्योः शेषभोजनम्॥
यमः।
विप्रः स्वर्गपरो नित्यमर्च्चयेत्पितृदेवताम्।
गुरुनतिथिबालांय़श्च तर्पयेत्पूर्व्वमेव तु॥
आत्मानं तर्पयेत्पश्चान्नियती वाय्यतः शुचिः।
स्त्रीशूद्रं तर्पयेत्पश्चादेष धर्म्मः सनातनः॥
व्यासः।
पञ्चार्द्रो भोजनं कुर्य्याद्प्रङ्मुखो मौनमास्थितः।
हस्तौ पादौ तथैवास्यमेषां पञ्चार्द्रता मता॥
बौधायनः।
प्राङ्मुखोऽन्नानि भुञ्जीत शुचिःपीठमधिष्ठितः।
विष्णुः।
न भुवि आमनान्तरितायां क्षितावुपविशेदिति।
आसने वर्ज्यान्याह प्रचेताः।
गोशकृन्मृण्मयं भिन्नंतथा पालामपैप्पलम्।
लौहरङ्गं सदैवार्कं वर्ज्जयेदासने बुधः॥
ब्रह्मपुराणे।
उपलिप्ते समे स्थाने शुचौ सिद्धासनान्विते।
मण्डलं गोमयेनेयादथवा गौरमृण्मया॥
अत्र विशेषमाह शङ्खः।
चतुष्कोणं द्विजाग्य्रस्य त्रिकोणं क्षत्रियस्य च।
मण्डलाकृति वैश्यस्य शूद्रस्याभ्युक्षणंस्मृतम्॥
व्यासस्तुशूद्रस्यार्द्धचन्द्राकृति मण्डलं प्राह।
चतुरस्त्रं त्रिकोणञ्च वर्चुलञ्चार्द्धचन्द्रकम्।
कर्त्तव्यमानुपूर्व्वेण ब्राह्मणादिषु मण्डलम्॥
हारीतः।
न कार्ष्णायसे मृण्मये वा पात्रे नाश्रीयात्।
मनुः।
न पादौ धावयेत्कांस्ये कदाचिदपि भाजने।
न भिन्नभाण्डे भुञ्जीत न भावप्रतिदूषिते॥
भिन्नभाण्डे निषेधस्ताम्रादिव्यतिरिक्त विषयः।
तथाच पैठीनसिः।
ताम्ररजतसुवर्णशङ्खमुक्ताश्मस्फाटिकानां भिन्नमभित्रमिति ताम्रपात्रं यतिविषयं गृहस्थस्य निषिद्धत्वात्।
तथाच वृद्धमनुः।
ताम्रपात्रे न भुञ्जीत भिन्नकांस्ये मलाविले।
पलाशपद्मपात्रेषु गृही भुङ्क्त्वैन्दवञ्चरेत्॥
पलाशो वल्लीपलाश इति।
स्मृत्यर्थसारे।
एक एव तु यो भुङ्क्ते विमले कांस्यभाजने।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुःप्रज्ञा यशो बलम्॥
अत्रिः।
आसने पादमारोप्य यो भुङ्क्ते ब्राह्मणः क्वचित्।
मुखेन वान्नमश्नाति तुल्यं गोमांसभक्षणे॥
मुखेन गवादिवदित्यर्थः।
बौधायनः।
भोजनं वन्दनन्दानमुपहारं प्रतिग्रहः।
वहिर्जानु न कार्य्याणि तद्वदाचमनं स्मृतम्॥
हारीतः।
मार्जनाचमनबलिकर्म्मभोजनानि देवतीर्थेन कुर्य्यात्।
वृद्धमनुः।
न पिवेन्न च भुञ्जीत द्विजः सव्येन पाणिना।
एकहस्तेन न जलं शूद्रेनावर्ज्जितं पिवेत्॥
मार्कण्डेयपुराणे।
पादप्रसारणं कृत्वा न च वेष्टितमस्तकः।
विष्णुः।
नाश्रीयाद्भार्य्यया सार्द्धंनाकाशे न तथोत्थितः।
शयानःप्रौढ़पादश्चकृत्वा चैवावसक्थिकम्॥
आकाशे मञ्चादौ।
अच विशेषमाह मार्कण्डेयः।
न्यस्तपात्रस्तु भुञ्जीत पञ्च ग्रासान् महामुने।
शेषमुद्धृत्य भोक्तव्यमिति।
उहृत्य मञ्चादौ पात्रं निक्षिप्येत्यर्थः।पित्रर्थभोजने तु भूमौ पात्रस्थापनमावश्यकम्। पित्र्यर्थन्तु न लुप्यत इति अत्रैव वाक्यशेषे तेनैवाभिधानात्। पादारोपितपादः प्रौढ़पादः।
ब्रह्मपुराणे।
पञ्च ग्रासांस्तु भुञ्जीत क्वचिद्वेश्मनि सङ्करे।
पात्रमुद्धृत्य शेषन्तु भक्षयेत्सङ्कराङ्भयात्।
पित्र्येकर्म्मणि भुञ्जानो भूमौपात्रं न चालयेत्॥
विष्णुः।
न भिन्नभाजनोत्सङ्गे न भुवि न पाणौ।
उत्सङ्गे ऊर्व्वोरुपरि पात्रं स्थापयित्वा।
वशिष्ठः।
सर्व्वाभिरङ्गुलीभिरश्नीयात्पाणिञ्च नावधुनीयात्।
मार्कण्डेयः।
यस्तु पाणितले भुङ्क्ते यः सवायुं समश्नुते।
अङ्गुलिञ्चोद्धरेद्यस्तु गोमांसाशनवत्स्मृतम्॥
सवायुं सशब्दमित्यर्थः।
विष्णुः।
नोच्छिष्टं घृतमादद्यात्।
आदित्यपुराणे।
नोच्छिष्टो ग्राहयेदाज्यं जग्धशिष्टं न सन्त्यजेत्।
शूद्रभुक्तावशिष्टन्तु नाद्याद्भाण्डस्थितन्त्वपि॥
तथा।
न सन्ध्ययोर्न मध्याह्नेनारद्ध्रात्रे कदाचन।
नार्द्रवासा नार्द्रशिरा न चायज्ञोपवीतवान्।
एवञ्च
सायम्प्रातर्द्विजातीनामशनं श्रुतिचोदितम्।
नान्तरा भोजनङ्कुर्य्यादग्निहोत्रसमो विधिः॥इति।
मनुना य सायम्प्रातरित्युपात्तं729 तत्तु रात्रिदिनयोर्ग्रहणार्थं न तु सन्ध्याकालनिर्णयार्थं न सन्ध्ययोरिति निषेधात्। अग्निहोत्रसाम्यविधानाद्दिवा रात्रौ वा द्विर्भोजनं निषिद्धमेव। एवं पूर्व्वोक्तप्रकारेण शुचौ देशे उपविष्टःउक्तनियमयुक्ती भूत्वा व्याहृतिभिः गायत्र्या चान्नमभिमन्त्र्याभ्युक्ष्य परिषिच्य धर्म्मराजादिवलिन्दत्वा आपोशानकियाङ्कृत्वा पञ्च ग्रासान् गृहीत्वा भोजनान्तर।730मग्नौकरणादिकं विधायाचमनङ्कुर्य्यात्।
तथाच गोभिलः।
अथातः प्राणाहुतिकल्पो व्याहृतिभिर्गायत्र्या चाभिमन्त्रा ऋतञ्च सत्येन परिषिञ्चामीति सायं सत्यं त्वर्त्तेन
परिषिञ्चामीति। प्रातः।
अन्तश्चरसि भूतेषु गुहार्या विश्वतोमुखः।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारः त्वं ब्रह्मा त्वं प्रजापतिः।
आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।
अमृतोपस्तरणमसीत्यपः पीत्वा दशहोतारं मनसानु स्मृवात्वरन् पञ्चग्रासान् गृह्णीयात्। प्राणाय स्वाहेति गार्हपत्यमेव जुहोत्यपानाय स्वाहेत्यन्वाहार्य्यपचनमेव तेन जुहोति व्यानाय स्वाहेति आहवनीयमेव जुहोत्युदानाय स्वाहेति सत्यमेव तेन जुहोति समानाय स्वाहेत्यावसथ्यमेव तेन जुहोतीति।
शौनकम्तु विशेषमाह।
स्वाहान्ताः प्रणवाद्याश्च नाम्ना मन्त्रास्तु वायवः।
जिह्वयैव ग्रसेदन्नंदर्शनेन न संस्पृशेत्॥
तर्ज्जनीमध्यमाङ्गुष्ठलग्नःप्राणाहुतौभवेत्।
मध्यप्रानामिकाङ्गुष्ठैरपाने जुहुयाद्बुधः।
समाने सर्व्वहस्तेन समुदायाहुतिर्भवेत्॥
भविष्यपुराणे।
भोजनात्किञ्चिदन्नाग्रं धर्म्मराजाय वै बलिम्।
चित्राय731 चित्रगुप्ताय प्रेतेभ्यश्चेदमुद्धरेत्732॥
ब्रह्मपुराणे।
हस्तेन लङ्गयेन्नान्नं733 सोदकेन कदाचन।
दन्ताद्यो लङ्घयेदन्नं तेनान्नं न हितम्भवेत्734॥
विष्णुपुराणे।
अश्रीयात्तन्मना भूत्वा पूर्व्वन्तु मधुरं रसम्।
लवणाम्लौतथा मध्ये कटुतिक्तादिकांस्ततः॥
प्राग्द्रवंपुरुषोऽश्नीयान्मध्ये तु कठिनाशनम्।
अन्ते पुनर्द्रवाशी तु बलारोग्येण मुञ्चति॥
जठरं पूरयेदर्द्धमनैर्भागञ्जलस्य735 च।
वायोः सञ्चरणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत्॥
आदिपुराणे।
एकपड़क्तेरनुच्छाय736मध्ये चेदाचमेत्परः।
तदा शेषं विहायैव737विप्रः सम्यगपः स्पृशेत्॥
एकपङ्क्तिस्थितानां सर्व्वषां भोजने अपरिसमाप्ते इत्यर्थः।
पक्तिभेदानाह वृहस्पतिः।
अग्निना भस्मना चैव स्तम्भेन सलिलेन च।
द्वारेणैव च मार्गेण पङ्क्तिभेदोबुधैः स्मृतः॥
ग्रासनियममाह आपस्तम्ब।
अष्टौ ग्रासा मुनेर्भक्ष्यंषोड़शारण्यवासिनः।
द्वात्रिंशतं गृहस्थस्य अमितं ब्रह्मचारिणः॥
आहिताग्निरनड्वांश्च ब्रह्मचारी च ये त्रयः।
अश्वन्त एव सिध्यन्ति नैषां सिद्धिरनश्रताम्॥
यदा गृहस्थस्योपवासःप्राप्तस्तदा बौधायनोक्तम्।
प्राणाग्निहोत्रमन्त्रांश्च निरुडी भोजने जपेत्।
त्रेताग्निहोत्रं मन्त्रांश्च निरुद्धो भोजने जपेत्।
त्रेताग्निहोत्रमन्त्रांस्तु द्रव्यालाभे जपेदिति॥
निरुद्धोभोजन इति उपवासेन भोजनरहित इत्यर्थः।
पुलस्त्यः।
भोजने तु न निःशेषं कुर्य्यात्प्राज्ञः कथञ्चन।
अन्यत्र दधिशक्ताज्यपललक्षीरमध्वपः॥
भोजनानन्तरं देवलः।
भुक्तोच्छिष्टं समादाय सर्व्वस्मात्किञ्चिदाचमन्।
उच्छिष्टभागधेयेभ्यः सोदकं निर्वपेद्भुवि॥
अत्र मन्त्रः।
रौरवे पुण्यनिलये पद्मार्ब्वुदनिवासिनाम्।
अर्थिनामुदकं नित्यमक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
गद्यव्यासः।
ततस्तृप्तः सन्नमृतापिधानमसीत्यपः प्राश्य तस्माद्दे
शान्मनागपासृत्य विधिवदाचमेत्।
अपां प्राशने श्लोकव्यासः।
हस्तं प्रक्षाल्य गण्डूषं यः पिवेत्पापमोहितः।
स दैवञ्चैव पित्य्रञ्च आत्मानञ्चैव सादयेत्॥
अर्द्धम्पीत्वा तु गण्डषमर्द्धन्त्याज्यं महीतले।
रसातले गता नागास्तेन प्रीणन्ति नित्यशः॥
देवलः।
आचम्य तु ततः कार्य्यंदन्तकाष्ठस्य भक्षणम्।
भोजने दन्तलग्नानि निर्हित्वाचमनं चरेत्॥
दन्तलग्नमसंस्कार्य्यंलग्न738म्मन्येत दन्तवत्।
न तत्र बहुशः कुर्य्याद्यत्नमुद्धरणम्प्रति॥
दन्तलग्नङ्कालान्तरे स्थानाच्च्युतंयत्तु त्यक्त्वैव शुचिर्नाचमेत्।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
श्मश्रु चास्यगतं दन्तसक्तन्त्यक्त्वा ततः शुचिः।
निगरन्नपि तु तच्छचिरित्याह
मनुः।
दन्तवद्दन्तलग्नेषु जिह्वास्पर्शे शुचिर्न तु।
परिच्युतेषु च स्थानान्निगिरन्नेव तच्छुचिः॥
परित्यागनिगरयोर्विकल्पः।
स्थानचलनात्प्राग्जिह्वाघट्टन्नेऽपि शुचिरित्याह
गौतमः।
दन्तश्लिष्टेषु दन्तवदन्यत्र जिह्वाभिमर्शनात्प्राक्च्युतेरेके इति।
प्राक्च्युतर्जिह्वाभिमर्शने दीपो नास्तीत्यर्थः।
एवं दन्तधावनानन्तरम्
देवलः।
आचान्तोहृदयदेगमभिमृशति प्राणानां ग्रन्थीरुद्रमाविशन्ते कस्तेनान्येनाप्यायस्वेति।
पुनराचम्य दक्षिणे पादाङ्गुष्ठे पाणिं निस्तारयति।
अङ्गुष्ठमात्रःपुरुषो अङ्गुष्ठं वा समाश्रितः।
ईशःसर्व्वस्य जगतः प्रभुः प्रीणातु विश्वभुक्॥
ततः करादिमुपस्पृशेत्। जानू संस्पृशेत्।
तथाच व्यासः।
मा करेण करं स्प्राक्षीर्मा जङ्घेमा च चक्षुषी।
ऊरू संस्पृश्य कौन्तेय भर्त्तव्यस्ते महाजनः॥
ऊरू जानुनी। जानुनी स्पृग राजेन्द्र भर्त्तव्यो बहुरापदीति तेनेवाभिधानात्।
मार्कण्डेयः।
भूयोऽप्याचम्य कर्त्तव्यं ततस्ताम्बुलभक्षणम्।
श्रवणञ्चेतिहासस्य ततः कुर्य्यात्समाहितः॥
याज्ञवल्क्योऽपि।
अहः शेषं सहासीत शिष्टैरिष्टैश्च बन्धुभिः।इति।
इति भोजनविधिः।
अथ भोज्याभोज्यद्रव्याणि।
याज्ञवल्क्यः।
अनर्च्चितं वृथामांसं केशकीटसमन्वितम्।
शुक्तं पर्य्युषितोच्छिष्टं श्वस्पृष्टम्पतितेक्षितम्॥
उदक्यास्पृष्टसङ्गुष्टपर्य्यायान्नानि वर्जयेत्।
गोघ्रातं शकुनोच्छिष्टं पदा स्पृष्टञ्च कामतः॥
अनर्च्चितं अवज्ञापूर्व्वकं दत्तं वृथामांसमनिषिद्धेष्वपि मांसेष्वविहितकालसम्पादितम्। शुक्तङ्कालेनाम्लीभूतम्। पर्य्युषितं रात्र्युन्तरितम्। एतच्च दध्यादिव्यतिरिक्तम्। न शुक्तं न.पर्य्युषितमन्यत्र रागखण्डः739चुक्रदधि गुड़ गोधूम यवपिष्टविकारेभ्य इति शङ्खस्मरणात्। यदुद्वोष्य दीयते तदाघुष्टान्नम्।
अन्ने प्रतिप्रसवः।
अन्नं पर्य्युषितम्भोज्यं स्नेहाक्तं विरसंस्थितम्।
अस्नेहा अपि गोधूमयवगोरसविक्रियाः॥
शङ्खः।
अपूपाः शक्तवो धानास्तक्रं दधि घृतं मधु।
एतत्पण्येषु भोक्तव्यं मण्डलेपो न चेद्भवेत्॥
भक्ष्याणि।
भक्ष्याःपञ्चनखा मेध्या गोधाकच्छपखड्गकाः।
शशश्च मत्स्येष्वपि हि सिंहतुण्डकरोहिताः॥
भक्षणकालमाह।
प्राणत्यये तथा श्राद्धे प्रोक्षितं द्विजकाम्ययाया।
देवान् पितॄन् समभ्यर्च्च्य खाद्न्मांसं न दोषभाक्॥
प्रोक्षितं योगप्रीक्षणाव्यसंस्कारेगा स्मृतम्।द्विजकाम्ययाब्राह्मणभोजनार्थं यत्सम्पादितमतिथिपूजादौतदुच्यते।
यत्तु निगमवचनम्।
क्षेत्रजं गोपशोर्घातं740 श्राद्धे मांसं तथा मधु।
देवराच्च सुतोत्पत्तिः कलौपञ्च विवर्ज्जयेत्।
मांसं विवज्जवेदिति निषेधःकलियुगे ब्राह्मणकर्त्तृकश्राद्धविषयः।
सुन्वन्त्रं ब्राह्मणस्योक्तं मांसं क्षत्रियवैश्ययोः।
मधुप्रधानं शूद्रस्येति
श्राद्धप्रकरणे पुनस्तेन विशेषाभिधानात्। द्विजदेवतापित्र्युद्देशेन कृतस्य यः शेषस्तस्य त्ववश्यभक्षता नास्ति। न दोषभागित्युपादानाद्भक्षणे प्रत्यवायो नास्तीति यतोऽवगम्यते।
उक्तप्रकारव्यतिरेकेण भक्षणे दोषमाह।
वसेत्स नरके घोरे दिनानि पशरोमभिः।
शंसितानि दुराचारो यो हन्त्यविधिना पशून्।
परित्यक्तमांसस्य फलमाह।
सर्व्वान् कामानवाप्नोति हयमेधफलं तथा।
गृहेऽपि निवसन्विप्रो मुनिमांसं विवर्ज्जयेत्॥
इति भोज्याभोज्यद्रव्याणि।
अथ भोज्याभोज्यद्रव्यप्रसङ्गाङ्भोज्याभोज्यान्ना
अपि प्रदर्श्यन्ते।
तत्र गौतमः।
प्रसक्तानां स्वकर्म्मसु द्विजातीनां ब्राह्मणोभुञ्जीत इति।
प्रशस्तानामित्यापि पाठः। स्वकर्म्मसु प्रसक्तानां निष्णातानां स्वकर्म्मनिरतानामिति यावत्।
याज्ञवल्क्योऽपि।
परपाकरुचिर्न स्यादनिन्दामन्त्रणादृते। इति।
यमदग्निपैठीनसी।
ब्राह्मणस्य सदाश्नीयात्क्षत्रियस्य च पर्व्वसु।
प्रकृतेषु च वैश्यस्य शूद्रस्य न कदाचन॥
अत्रापि ब्राह्मणादयः स्वकर्म्मनिष्ठा एव, पर्व्वसु पूर्णिमादिषु। प्रकृतेषु प्रक्रमविशेषेषूत्सवेषु गोमङ्गलादिषु।
तथा।
अमृतं ब्राह्मणस्यान्नंक्षत्त्रियान्नं पयः स्मृतम्
वैश्यस्य त्वन्नमेवान्नं शूद्रस्य रुधिरं स्मृतम्॥
अभोज्यान्ना याज्ञवल्क्योन दर्शिताः।
अग्निहीनस्य विप्रस्य नान्नमद्यादनापदि।
कदर्य्यबद्धचौराणां क्लीवरङ्गावतारिणाम्॥
वैणाभिशस्तवार्द्धुष्यगणिकागणदीक्षिणाम्।
एषामन्नं न भोक्तव्यं सीमविक्रयिणस्तथा॥ इति।
अग्निहीनः श्रौतस्मार्त्ताग्निरहितः741 शूद्रादिः। सत्यपि अधिकारे अग्निहीनो ब्राह्मणादिश्च742॥ कदर्य्यो लुब्धः। बद्धो निगड़ादिना वैणो वीणावादनजीवी वार्द्धुष्यं निषिद्धवृत्त्युपजीवनमात्मनःस्तुतिः परनिन्दाकरणम्।
तथाच विष्णुः।
यस्तु निन्देत्परं जीवं प्रशंसत्यात्मनो गुणान्।
स वै वार्द्धुषिको नाम ब्रह्मवादिषु गर्हितः॥
गणदीक्षीबहुयाजकः।
शूद्रस्य न कदाचन743। अग्निहीनस्य विप्रस्य नान्नमद्यादनापदीत्यादिभिः शूद्रस्याभोज्यत्वे प्राप्ते प्रतिप्रसवमाह
याज्ञवल्क्यः।
शूद्रेषु दासगोपालकुलमित्रार्द्धशीरिग्णः।
भाोज्यान्ना नापितश्चैव यश्चात्मानं निवेदयेत्॥
दासा गर्ब्भदासादयः। गोपालो गोपरिपालनजीवी। कुल-
मित्रं वंशपरम्परायातः। अर्द्धशीरी सम्भूयसमुत्थायितया सहकर्षकःअथवा शीरोपलक्षितकृषिफलार्द्धग्राही। नापितो गृहे व्यापारकारयिता क्षौरकर्त्तापि। यश्च शूद्रः क्रीत एव वाङ्मनःकायकर्म्मभिरात्मानं द्विजाय निवेदयति तवाहमिति ददाति स आत्मनिवेदविता। एते दासादयो यदीयास्तस्यैव ते भोज्यानाः।
हारीतः।
कुलमित्रं कुलपुत्रो भैक्षदःशिक्षकः सुहृत्।
भवेद्यस्य सुखं लाभो भयत्राता च यो भवेत्॥
कुलपुत्रःकुलमित्रपुत्रः।भवेद्यस्य यस्य सम्बन्धी भवेत्इत्यर्थः। अत्र स्वशब्दः744सर्व्वत्रान्वेति एते दासादयोऽपि स्व
विहितनित्यकर्म्मनिरता एव भोज्यान्नाः।
तथाच मनुः।
नाद्याच्छूद्रस्य पक्वान्नंविद्वानश्राद्धिनो द्विजः।
आददीताममे वास्मादवृत्तावेकरात्रिकम्745॥
अश्राद्धीनित्यश्राद्धरहितः। एतच्च नित्यकर्म्मप्रदर्शनार्थम् अस्मादश्राद्धिनः। एकरात्रिकमेकाहपर्य्याप्तम्
पक्वान्नान्यपि विशेषात्746।
सुमन्त्वङ्गिरसौ।
गोरसञ्चैव शक्तूंश्च तैलं पिण्याकमेव च।
अधूपान् भक्षयेच्छूद्राद्यश्चान्यत्पयसा शृतम्747॥
हारीतः।
कन्टुपक्वंस्नेहपक्कं पायसंदधिशक्तवः।
एतान्यशूद्रान्नभुजी भोज्यानि मनुरव्रवीत्॥
एवञ्च यानि शूद्रान्ननिषेधकानि वचनानि तानि शूद्रपरिगणितपक्वान्नव्यतिरिक्तविषयाणि। यानि च दासादिलक्षणानि पराशरस्मृतावभिहितानि तानि च न शूद्राभिप्रायेण। तथा सति परस्परविरोधात्। लक्षणानि च।
शूद्रकन्यासमुत्पन्नोब्राह्मणेन तु संस्कृतः।
संस्कारेतु भवेद्दासः असंस्कारे तु नापितः॥
क्षत्रियाच्छूद्रकन्यायां सुतोजातस्तु नामतः।
गोपालस्तु स विज्ञेयो भोज्योविप्रैर्न संशयः॥
वैश्यकन्यासमुत्पन्नो ब्राह्मणेन तु संस्कृतः।
तदर्द्धिकस्तुविज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशयः॥
गोपालस्य क्षत्रियो जनकःअन्वेषान्तु ब्राह्मणः। अत्र यद्यपि दासनापितगोपालानां मातृद्वारापि शूद्रत्वं तथापि कुलमित्रार्द्धशीरिणोर्न मातृद्वारापि ततः क्वचिन्मातृद्वारा शूद्रत्वं क्वचिन्नेति एते शूद्रेषु भोज्यान्ना इत्यनेन विरोधःस्यात्किञ्च
मूर्द्धसिक्तजात्यन्तः पातित्वादेतेषां न शूद्रत्वं तथा चैतेषांशूद्रत्वे मूर्द्धसिक्तादिजातिप्रतिपादकवचनैः सह विरोधः स्याल्लक्षणवाक्यानान्त्वयमभिप्रायः शूद्ररूपदासादीनां भोज्यान्नत्वकथनं प्रसङ्गात्। डित्थडपित्थसंज्ञान्तराणीव दासादिसंज्ञा अपि सन्तीति प्रदर्शनार्थमिति। अतएव सुतो जातस्तु नामतः गोपालस्तु स विज्ञेय इत्यत्र नामत इति ग्रहणं कृतम्। किञ्च आत्मनिवेदकस्य कुम्भकारादेश्चकेवलशूद्रतान्यायेने748तरेषामपि शूद्रत्वमेव युक्तम्।
इति भोज्याभोज्यान्नर्णयः।
अथ शयनविधिः।
तत्राङ्गिरास्तथा याज्ञवल्क्योऽपि।
उपास्य पश्चिमां सन्ध्यां हुत्वाग्नींस्तानुपास्य च।
भृत्यैः परिवृतो भुक्त्वा नातितृप्त्याथ749 संविशेत्॥
चकारो विश्वेदेवादिसमुच्चयार्थः। एतच्च पाकान्तरेण न दिवावशिष्टेन।
तथाच विष्णुपुराणे।
पुनःपाकमुपादाय साध्यमप्यवनीपते।
वैश्वदेवनिमित्तं वै पत्त्या सार्द्धंबलिं हरेत्॥
व्यासः।
शुचौदेशेविविक्तेतु गोमयेनोपलेपिते।
प्रागुदक्प्लवने चैव संविशेतु सदा बुधः॥
तथा।
मङ्गल्यम्पूर्णकुम्भन्तु शिरःस्थाने निधाय तु।
वैदिकैगरुड़ैर्मन्त्रैराक्षाङ्कृत्वा स्वपेत्ततः॥
विष्णुपुराणे।
गच्छेच्छय्यामधिष्ठाय रात्रिसूक्तं जप्ता विष्णुं नमस्कृत्य सर्पाय सर्प्यभद्रं ते इत्येतच्छ्लोकद्वयं जप्तेष्टदेवतास्मरणङ्कृत्वा समाधिमास्थायान्यांश्चवैश्वदेविकान्मन्त्रान्सावित्रीञ्जप्त्वा मङ्गलश्रुतिशङ्लमञ्च शृण्वन्दक्षिणाभिराःस्वपेदिति।
दक्षिणाशिरा इति प्रदर्शनार्थम्। अतएव पुराणे।
प्राच्यां दिशि शिरः शस्तं यास्यायामथवा नृप।
सदैव स्वपतः पुंसो विपरीतन्तु रोगदम्॥इति।
मार्कण्डेयः750।
शून्यालये श्मशाने च न वह्निसमीपेन वेदसमाप्तौ नाशुचिर्न नग्नी न विशीर्णखट्वा
यां न भूतयक्षगृहायतनेषु श्मशानवल्मीकमहावृक्षच्छायासु च इति।
विष्णुः।
नार्द्रपादः स्वपेन्न पलाशशयने न पञ्चदारुकते न विद्युद्दग्धकृते नाग्निपुष्टे न पटसिक्तद्रुमजे न बालमध्ये नारिमध्ये न धान्यगोगुरुहुताशसुराणामुपरि नोच्छिष्टे न दिवेति।
तथा।
निद्रासमयमासाद्य ताम्बूलं वदनात्त्यजेत्।
पर्याङ्कात्प्रमदां भालात्751पुण्ड्रम्पुष्पाणि मस्तकात्।
गदप्रमादयक्ष्माहिभयदाः सर्व्वदा इमे॥
इति शयनविधि।
इह मदनपारिजाते मदनक्षितिपालदानजलरूढ़े।
स्तवकस्तृतीय आसीदामोदाकृष्टपण्डितभ्रमरः॥
मतिर्येषां शास्त्रे प्रकृतिरमणीया व्यवहृतिः
परं शीलं श्लाघ्यं जगति ऋजवस्ते कतिपये।
चिरं चित्ते तेषां मुकुरतलभूते स्थितिमिया-
दियं व्यासारण्यप्रवरमुनिशिष्यस्य भणितिः॥
इति पण्डितपारिजातभट्टारमल्लेत्यादिविरुदराजीविराजमानस्य
श्रीमदनपालस्य निबन्धे मदनपारिजाताभिधेये
तृतीयस्तवकः।
———
अथ शयनानन्तरं प्राप्तगर्ब्भाधानादिसंस्काराः। तत्र गर्ब्भाधानोपयुक्तत्वेन प्रथममृतुकाला निरुप्यन्ते।
याज्ञवल्क्यः।
षोड़शर्त्तुनिशाः स्त्रीणां तासु युग्मामु संविशेत्।
ब्रह्मचार्य्येवपर्व्वाण्याद्याश्चतस्रस्तु वर्ज्जयेत्॥
स्त्रीणां षोड़शनिशा ऋतुः गर्ब्भाधानयोग्यकालस्तत्रोक्तविधिना गच्छन् ब्रह्मचार्य्येव।
चतुर्द्दश्यष्टमी चैव अमावस्या च पूर्णिमा।
चत्वार्य्येतानि752 पर्व्वाणि रविसंक्रान्तिरेव च॥
मनुः।
अमावास्यामष्टमीञ्च पौर्णमासीञ्चतुर्द्दशीम्।
ब्रह्मचारी भवेन्नित्यमप्यृतौ स्नातको द्विजः॥
तथा।
तासामाद्याश्चतस्रश्च निन्दितैकादशी तथा।
त्रयोदशी च शेषाः स्युः प्रशस्ता दशरात्रयः॥
एकादशी त्रयोदश्यावृतोर्न753 पक्षस्य।
हारीतस्तु।
चतुर्थरात्रावपि गर्ब्भाधानमिच्छति चतुर्थेऽहनि स्रातायां
युग्मासु च गर्ब्भाधानं तदुपेतम्। ब्रह्मगर्ब्भं सन्दधाति इति।
तथा।
शुद्धा भर्त्तुश्तुर्थेऽह्निस्नानेन स्त्री रजस्वला754।
दैवे कर्म्मणि पित्र्येच पञ्चमेऽहनि शुध्यति ॥ इति।
तथा।
ततश्चतुर्थ्यां स्त्रीगमनस्य परिहितप्रतिषेधत्वाद्विकल्पःस च व्यवस्थितः रजोनिवृत्तौ चतुर्थ्यांविधिस्तद निवृत्तौ प्रतिषेधः अनेनैवाभिप्रायेण।
मनुः।
रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला। इति।
साध्वी गर्ब्भधानादिविहितकर्म्मयोग्येत्यर्थः।
याज्ञवल्क्यः।
एवं गच्छन्स्त्रियामां मघां मूलञ्च वर्ज्जयेत्।
सुस्थ इन्दौ सकृत्पुत्तलक्षणं जनयेत्पुमान्॥
एवं सकृद्रात्रावेकवारमेव गच्छेदित्यर्थः। पुमानेकनियमयुक्तः अप्रतिहतपुंस्को भवेत्।
ज्योतिःशास्त्रे।
पित्र पौष्णं नैर्ऋतं वा निधिरूपन्त्यक्त्वेति।
पित्र्यंमघा पौष्णं रेवती नैर्ऋतं मूलम्।
ऋतुगमने स्नानमाहापस्तम्बः।
ऋतौतु गर्ब्भशुद्कित्वात्मानं मैथुनिनः स्मृतम्।
अनृतौ तु सदा कार्य्यं न शौचं सूत्रपुरीषवत्॥
द्वावेतावशुची स्यातान्दम्पती शयनङ्गतौ।
भवनादुत्थिता नारी शचिः स्वादशुचिः पुमान्॥
प्रसङ्गाद्रजस्वलाव्रतानि।
तत्र वशिष्ठः।
त्रिरात्रं रजस्वलाऽशुचिर्भवति। सा नाञ्ज्यान्नाभ्यञ्ज्य़ान्नाप्सु स्नायादधःशयीत न दिवा सुप्यान्न रज्जुं प्रसृजेन्नदन्तान्धाव
येन्नमांसमश्नीयान्नग्रहान्निरीक्षेत न हसेन्नकिञ्चिदाचरेन्नाञ्जलिना जलं पिवेन्नसर्व्वेण पात्रेण लोहितायसेन वेति।
खर्व्वो वामहस्तः। अयञ्चवामहस्तस्य निषेधः केवलस्यैव अथवा खर्व्वपात्रम्। लोहितायसं ताम्रम्।
स्नानानन्तरं पुनरपि रजोदर्शने विशेषमाह
हारीतः।
रजस्वला यदि स्नाता पुनरेव रजस्वला।
अष्टादशदिनादर्व्वागशुचित्वं न विद्यते॥
एकोनविंशतेरर्व्वागेकाहं स्यात्ततो द्व्यहम्।
विंशत्प्रभृत्युत्तरेषु त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्॥इति।
अष्टादशदिनादकर्व्वाक्सप्रदशदिनाभ्यन्तरे इत्यर्थः। एवमुत्तरत्रापि। इयञ्च गणना रजोदर्शनदिनादारभ्य।
यत्तूक्तम्।
चतुर्द्दशदिनादर्व्वागशुचित्वं न विद्यते।इति।
तत्तु स्नानप्रभृति इति न विरोधः। प्रौढ़यौवनावास्तु अष्टादशदिनाभ्यन्तरे रजोदर्शनेऽपि त्रिरात्रमशुचित्वम्।
इति ऋतुकालनिर्णयः।
अथ गर्ब्भाधानम्।
तत्र विष्णुपुराणो।
ऋतावुपगमः शस्तः स्वपत्न्यां मन्त्रतो द्विजः।इति।
मन्त्र इति द्विजातिविषयः। तत्र मन्त्रा गोभिलेनोक्ताः। ऊर्द्धं त्रिरात्रं सम्भवे इत्येके। यदर्त्तुमती भवत्युपरतशोणिता तदा सम्भवकाले इत्युपक्रम्य दक्षिणेन पाणिना उपस्थमभिस्पृशेत्। विष्णुर्योनिं कल्पयात्वित्येतयर्चा गर्ब्भं धेहि सिनीबालीति च समावृतौसम्भवतः।
स्त्रीणां बहुत्वे ऋतुयोगपद्ये गमनक्रममाह
देवलः।
यौगपद्ये तु तीर्थानां विप्रादिक्रमशो व्रजेत्।
रक्षणार्थमपुत्राणां ग्रहणक्रमशोऽपि च॥इति।
तीर्थमृतुर्विप्रादिक्रमो वर्णक्रमःग्रहणक्रमो विवाहक्रमः। ननु वर्णक्रमेणैव विवाहोऽपीति पुनरपि ग्रहणक्रमोपादानमनर्थकमिति चेन्मैवं प्रथमतः स्वजात्यादिक्रमेणोढदारस्य
दैवादन्यतरवर्णदारान्तरितस्य पुनस्तद्वर्णकन्यकापरिणीतस्यसवर्णापुत्रवती दारेषु ऋतुकालयोगपद्ये विवाहक्रमेण गमनं नियम्यत इति ग्रहणक्रमोपादानस्य सार्थकत्वात्।
पराशरः।
ऋतुस्रातान्तु यो भार्य्यां सन्निधौ नोपगच्छति।
घोरायां भ्रूणहत्यायां युज्यते नात्र संशयः॥
अत्रासन्निधौतु न दोषः। सन्निधानेऽपि सुस्थस्यैवायं नियमः।
यः स्वदारामृतस्त्रातां सुस्थःमन्नोपगच्छति।
इति स्मरणात्। अयञ्च ऋतुगमननियमोऽजातपुत्रस्यैव मनुना ज्येष्ठस्य प्राशस्त्याभिधानादितरेषांकामजत्वनिर्द्देशाच्च।
ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः।
यस्मिन्नृणं सन्नयति येन चानन्त्यमश्नुते।
स एव धर्म्मजः पुत्रः कामजानितरान्विदुरिति॥
इति गर्भाधानम्।
अथ पुंसवनम्।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
गर्ब्भाधानमृतौ पुंसः सवनं स्पन्दनात्पुरेति।
पुंसवनमित्यनुवृत्तौ
पारस्करः।
मासे द्वितीये वा यदहः पुंसां नक्षत्रेण चन्द्रमाः स्यादिति।
पुंसां नक्षत्रेण पुंनक्षत्रेण तानि च रत्नकोषे दर्शितानि।
हस्तो मूलं श्रवणः पुनर्व्वसुर्मृगशिरस्तथा।
पुष्यः पुंसंज्ञितेषु कार्य्येषु ह्येतानि शुभानि धिष्ट्यानीति॥
बृहस्पतिस्तु जातगर्बर्भेस्पन्दने पुंसवनमाह।
सवनं स्पन्दिते शिशाविति।
अत्र यथाशाखं व्यवस्था।
इति पुंसवनम्।
अथ सीमन्तोन्नयनम्।
गोभिलः।
प्रथमे गर्भे चतुर्थे मासीति।
बौधायनः।
अथ सीमन्तोन्नयनं मासि चतुर्थे षष्ठे पञ्चमे वेति।
लोकाक्षिः।
तृतीये गर्भमासे तु सीमन्तोन्नयनङ्कारयेत्।इति।
अत्र विशेषमाह शौनकः।
आपूर्य्यमाणे पक्षे यदा पुंसां नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः
स्यादिति पुंसवनसीमन्तोन्नयने स्त्रीसंस्कारौ।
अतएव सकृत्कर्त्तव्याविति केचन।
पारस्करः।
पुंसवनसीमन्तोन्नयनम्प्रथमगर्भे। इति।
तथाच देवलोऽपि।
सकृञ्च संस्कृता नारी सर्व्वगर्भेऽपि संस्कृति।
हारीतः।
सकृत्संस्कृतसंस्काराः755मोमन्तेन द्विजस्त्रियः756।
यं यङ्गर्भं प्रसूयन्ते स गर्भः757 संस्कृती भवेत्॥इति।
विष्णुः।
सीमन्तोन्नयनङ्कर्म्मन स्त्रीसंस्कार इष्यते।
केचि758द्गर्भस्य संस्काराद्गर्भङ्गर्भम्प्रयुञ्जते759॥इति।
अत्रापि स्वस्वगृह्यानुसारेण व्यवस्था।
अकृतसीमन्तायाः प्रसवेसत्यत्रतोक्तौविशेषः।
स्त्री यदाऽकृतसीमन्ता प्रसूतेतु कथञ्चन।
गृहीतपुत्त्राविधिवत्पुनः संस्कारमर्हति॥इति।
इति संमिन्तोन्नयनम्।
अथ जातकर्म्म।
तत्र विष्णुः।
जातकर्म्म ततः कुर्य्यात्पुत्त्रेजाते यथोदितम्।इति।
यथोदितं स्वस्वगृह्योक्तविधिनेत्यर्थः।तच्च स्रानानन्तरम्।
जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचेलन्तु विधीयते।
इति संवर्त्तस्मरणात्। एतच्च स्रानं रात्रावपि भवति।
यथाह व्यासः।
रात्रौ स्नानं न कुर्व्वीत दानञ्चैव विशेषतः।
नैमित्तिकन्तु कुर्व्वीत स्रानन्दानञ्च रात्रिषु॥ इति।
नैमित्तिकदानान्यपि स एवाह।
ग्रहणोद्वाहसंक्रान्तियात्रार्त्तिप्रसवेषु च।
दानं नैमित्तिकं ज्ञेयं रात्रावपि न दुष्यति॥
जातकर्म्मच नाभिनालभेदनात्760 पूर्व्वमेव।
तथाच मनुः।
प्राग्नाभिवर्धनात्पुंसो जातकर्म्म विधीयते। इति।
जैमिनिः।
यावन्नछिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्।
छिन्ने नाले ततः पश्चात्सूतकन्तु विधीयते॥
यच्च विष्णुधर्म्मोत्तरे
अच्छिन्ननाभ्याङ्कर्त्तव्यं श्राद्धं वै पुत्रजन्मनि।
अशौचोपरमे कार्य्यमथवा नियतात्मभिः॥इति।
तत्तु कर्त्तृप्रधानाद्यपेक्षया761। वेदितव्यम्।
तथाच वैजवापः।
जन्मनोऽनन्तरङ्कार्य्यंजातकर्म्म यथाविधि।
दैवादतीतकालश्चेदतीते सूतके भवेत्॥इति।
तच्चश्राद्धमामेन।
अतएव प्रचेताः।
स्त्री शूद्रः श्वपचश्चैव जातकर्म्मणि चाप्पथ।
अमश्राद्धं सदा कुर्य्याद्विधिना पार्व्वर्णन तु॥ इति।
अमाभावे हेम्ना।
तथाच व्यासः।
द्रव्यालाभेद्विजालाभे प्रवासेपुत्त्रजन्मनि।
हेमश्राद्धम्प्रकुर्व्वीत यस्य भार्य्यारजस्वला॥
द्रव्याभावे आमद्रव्यालाभे यस्य भार्य्यत्ययं पक्षः श्राद्धस्तवके व्याख्यास्यते।प्रतिग्रहश्चनाभिवर्द्धनात्पूर्व्वंतद्हर्व्वा।
यथाह शङ्खः।
कुमारप्रसवे नाभ्यामच्छिन्नायां गुड़तिलहिरण्यवस्त्र-
गोधान्यादिप्रतिग्रहेष्वदोषस्त्वदहस्त्वेके कुर्व्वत इति।
सर्व्वेषां सकुल्यानां द्विपदचतुष्पदौधान्यानि हिरण्यानि दद्यात्।
अशौचमध्येऽप्येतत्कार्य्यमित्याह
प्रजापतिः।
अशौचे तु समुत्पने पुत्त्रजन्म यदा भवेत्।
कर्त्तुस्तात्कालिकी शुद्धिः पूर्व्वाशौचेन शुध्यति॥ इति।
यत्तु ज्योतिःशास्त्रे।
मृदुध्रुवक्षिप्रचरेषु भेष्वेषामुद्येऽपि वा।
गुरौ शुक्रेऽथवा केन्द्रे जातकर्म्म च नाम वा॥ इति।
तद्दैवाज्जातकर्म्मनामकरणोत्कर्षे वेदितव्यम्।762अनुत्कर्षे तु नायं नियमः। नित्यस्नानोत्तरभावित्वान्नैमित्तिकस्य।
इति जातकर्म।
अथ नामकरणम्।
तत्र मनुः।
नामधेयं दशम्यान्तु द्वादश्यां वास्य763 कारयेत्।
पुण्ये तिथौ मुहूर्त्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते।
याज्ञवल्क्यः।
अहन्येकादशे नामेति।
भविष्यपुराणे।
नामधेयन्दशम्यान्तु केचिदिच्छन्ति पार्थिव।
द्वादश्यामपरे रात्रौ मासे पूर्णे तथा परे।
अष्टादशेऽहनि तथा वदन्त्यन्ये मनीषिणः॥
गृह्यपरिशिष्टे।
जननाद्दशरात्रे व्युष्टे764शतरात्रे संवत्सरे चेति।
शङ्खः।
अशौचे तु व्यतिक्रान्ते नामकर्म्म विधीयते।इति।
न चायं नियमः, तथाच नामधेयं दशम्यामित्यादिवचनविरोधात्। ततश्चाहन्येकादशेनामेत्यादीनां विवक्षितार्थत्वमेव तेनाशौचमध्येऽपि कार्य्यं स्वगृह्यानुसारेण वैते पक्षा व्यवस्थिताः765 विज्ञेयाः।
शङ्खलिखितो।
दशम्यामुत्थाप्य पिण्डवर्द्धनं पितृृणां तत्र सान्निध्यमिति श्रुतेः। ब्रह्मणे चाहुतिमपूरर्व्वेपितॄननुमान्य तदहरेव नामकरणं कुर्य्याद्देवतानक्षत्रादिस्वन्धं पिता नाम कुर्य्यादन्यो वा कुलवृद्धश्चतुरक्षरं द्वाक्षरं वा घोषवदाद्यन्तस्थ766ं पुंमामीकारान्तं स्त्रीणामेवं कृते नाम्निशुचि तत्कुलं भवतीति।
अयमर्थः। दशमेऽहनि सूतिकां पूर्व्वशय्यादुत्थाप्य पिण्डवर्द्धनमिति नाम कर्म्म तत्कुर्य्यात्। तत्र चायं क्रमः।ब्रह्मणे पूर्व्वमाहुतिं पितॄननुमान्याभ्युदयश्राद्धेन पूजयित्वा पिता तद्भावे सान्निध्यादिना अन्यो नाम कुर्य्यात्। तत्र नियमः चतुरक्षरमित्यादि। वर्गतृतीयचतुर्थान्यक्षराणि गकारघकारादीनि तान्यादौकृत्वा यरलवा अन्तस्थास्तन्मध्ये कुर्य्यादिति।
वैजवापः।
पिता नाम करोत्येकाक्षरं द्व्यक्षरं त्राक्षरं चतुरक्षरं परिमितञ्चेति।
अत्र समसंख्या पुंसः।
शङ्खः।
अयुग्माक्षरमाकारान्तं स्त्रियै तद्विहितमपि।
ईकारान्तं स्त्रीणामिति स्वकुलसम्बद्धं कुर्य्यात्।
तथाच शङ्खः।
कुलदेवतासम्बद्धं पिता नाम कुर्य्यादिति।
कुलसम्बद्धं देवतासम्बद्धं वेत्यर्थः।
मनुः।
मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥
मङ्गलबलधननिन्दाप्रतिपादकानि क्रमेण नामानि भवन्तीत्यर्थः। यथा रुद्रशर्म्मा शक्तिपालो धनपुष्टो हीनदास इति।
यमस्तूत्तरपदनियममाह।
शर्म्मादेवश्च विप्रस्य वर्म्मात्राता च भूभुजः।
भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रस्य कारयेत्॥
त्रातेति रक्षशब्दप्रदर्शनार्थम्। अत्र शक्तिपालेत्यादिशब्दाभवन्ति।
इति नामकरणम्।
अथ निष्क्रमणम्।
भविष्यपुराणे।
उत्तरार्द्धे मनुरपि।
द्वादशेऽहनिः767राजेन्द्र शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्।
चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं यथान्येषां मतं विभो॥
यत्र विशेषमाह यमः।
ततस्तृतीये।768 कर्त्तव्यं मासि सूर्य्यस्य दर्शनम्।
चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं शिशोश्चन्द्रस्य दर्शनम्॥
लोकाक्षिः।
तृतीये मासे आदित्यस्य दर्शनमिति।
अत्रापि पूर्व्ववदेवः769 व्यवस्था।
सुरेश्वरः।
जीवभार्गवसौम्यानां शिशुनिष्क्रमणक्रिया।
दिवसे शस्यतेनित्यमायुर्वृद्धिर्वलं प्रजा॥
अश्विनी रेवती हस्ता धनिष्ठा रोहिणी तथा।
श्रवणं पुष्यसंयुक्तं मृगेणो770त्तरफल्गुनी॥
अनुराधोत्तराषाढ़ा तथाचैव पुनर्व्वसुः।
इमानि भानि शस्तानि शिशुनिष्क्रमणे विधी॥
इति निष्क्रमणम्।
अथ कर्णवेधः।
ज्योतिःशास्त्रे।
कार्त्तिके पौषमासे771 वा चैत्रे वा फाल्गुनेऽपि वा।
कर्णवेधं प्रशंसन्ति शुक्लपक्षे शुभे दिने॥
सुनक्षत्रे शुभे चन्द्रे सुस्थे शीर्षोदये शुभे।
दिनच्छिद्रेऽव्यतीपाते विष्टिवैधृतिवर्ज्जितेन772॥
शिशोरजातदन्तस्य मातुरुत्सङ्गसर्पिणः।
सौचिको वेधयेत्कर्णौ सूच्याद्विगुणसूत्रया॥
हस्ताश्विनीस्वातिपुनर्व्वसौ च
तिष्येन्दुचित्राहरिरेवतीषु।
चन्द्रेऽनुकूले गुरुशुक्रवारे
कर्णौ तु वेध्यौ प्रवरेज्यलग्ने773॥
अयञ्च कर्णवेधः कुलक्रमागतकाले कर्त्तव्यः।
इति कर्णवेधः।
अथान्नप्राशनम्।
तत्र मनुः।
षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मङ्गलं कुले।
लोकाक्षिः।
षड़े मासेऽन्नप्राशनं जातदन्तेषु वेति।
यमः।
ततोऽन्नप्राशनं मासि षष्ठेकार्य्यं यथाविधि।
अष्टमे वाथ कर्त्तव्यमिति।
शङ्खः।
संवत्सरेन्नप्राशनमिति। व्यवस्था च पूर्व्ववत्774।
अत्र विशेषो मार्कण्डेयपुराणे।
देवतापुरतस्तस्य धात्र्युत्मङ्गगतस्य च।
अलङ्कृतस्य दातव्यमन्नंपात्रेय काञ्जने।
मध्वाज्यकनकोपेतं प्राशयेत्यायमैर्युतम्॥
तदनन्तरं शिशोर्जिविकापरीक्षामप्रकारमाह
स एव।
देवाग्रतोऽथ विन्यस्य शालिभाण्डानि सर्व्वगः।
शस्त्राणि चैव शास्त्राणि ततः पश्येत्तुलक्षणम्॥
प्रथमं यत्स्पृशेद्धालस्ततो भाण्डं स्वयं तदा।
जीविका तस्य बालस्य तेनैव च भविष्यति॥इति।
इत्यन्नमाशनम्।
अथ चूड़ाकर्म्म।
तत्र मनुः।
चूड़ाकर्म्म द्विजातीनां सर्व्वेषामेव धर्म्मतः।
प्रथमेऽव्देतृतीये वा कर्त्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥
यमः।
तथा संवत्सरे पूर्णे चूड़ाकर्म्म विधीयते।
द्वितीये वा तृतीये वा कर्त्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥
शङ्खलिखितौ।
तृतीये वर्षे चूडाकर्म्म विधीयते।
द्वितीये वा तृतीये वा कर्त्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥
शङ्खलिखितौ।
तृतीये चूड़ाकर्म्म पञ्चमे वा।
लोकाक्षिः।
तृतीयस्य वर्षस्य भूयिष्ठे गते चूड़ां कारयेत्। दक्षिणतः कमुजा वशिष्ठानामुभयतोऽत्रिकश्यपानां मुण्डा भृगवः पञ्चचूड़ा अङ्गिरसो राजिमेके मङ्गलार्थं शिखिनोऽन्ये च वटपत्रवद्यथा कुलधर्म्मंवा शुद्धपक्षस्य पुण्याहे पर्व्वणि चेति।
कमुजा चूड़ा राजिं केशपङक्ति मङ्गलार्थमिति अन्ये तु मङ्गलार्थं शिखामात्रं वटपत्राकृतिं केचन कुर्व्वन्ति। अत्रापि यथागृह्यं व्यवस्था।
व्यासः।
अश्विनी श्रवणा स्वाती चित्रा पुष्यपुनर्व्वसू।
धनिष्ठारेवती ज्येष्ठामृगहस्तेषु कारयेत्॥
क्षौरमिति शेषः।
तथा।
नक्षत्रे न तु कुर्व्वीत यस्मिञ्जातोभवेन्नरः।
न प्रोष्ठपदयोः कार्य्यंनैवाग्नेये व भारत।
दारुणेषु च सर्व्वेषु दुष्टतारांश्चवर्ज्जयेत्॥
अन्ये सत्तिथिवारादयो विशेष उपनीयते तत्प्रकरणोक्ता अत्र द्रष्टव्याः।
इति चूडाकर्म्म।
अथ स्त्रीसंस्काराः।
तत्र मनुः।
अमन्त्रिता तु कार्य्याच स्त्रीणामावृदशेषतः।
संस्कारार्थं शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम॥
आवृज्जातकर्म्मदिक्रिया। यथाक्रममित्यभिधानात् क्रमातिक्रमो न कर्त्तव्य इत्युक्तं भवति।
अतएव कालातिक्रमणे कात्यायनेन प्रायश्चित्तमभिहितम्।
देवतानां विपर्य्यामे जुहोतिषु कथं भवेत्।
सर्व्वप्रायश्चित्तं हत्वा क्रमेण जहयात्पनः॥
संस्कारा अतिपत्येरन् स्वकालाञ्चेत्कथञ्चन।
हुत्वा तदेव कर्त्तव्या ये तूपनयनादधः॥
सर्व्वप्रायश्चित्तमपि स एवाह।
सर्व्वप्रायश्चित्तञ्च पञ्चभिः प्रत्युचं त्वन्नो अग्न इति।
द्वाभ्यामयाश्चाग्नेश्चेति शतमुत्तममिति वेति।
उपनयनकालातिपत्तौ तु व्रात्यस्तोमाद्येव। एतेष्वेकैकलोपे पादकृच्छ्रः चौड़लोपेष्वर्द्धङ्क्षच्छ्रम्।
स्त्रीसंस्कारे गोभिलो विशेषमाह।
तूष्णीमेताः क्रियाः स्त्रीणां मन्त्रेण तु होम इति।
अथ विद्यारम्भः।
तत्र मार्कण्डेयः।
प्राप्तेऽथ पञ्चमे वर्षे अप्रसूते जनार्द्दने।
षष्ठीम्प्रतिपदञ्चैव वर्ज्जयित्वा तथाष्टमीम्॥
रिक्तां पञ्चदशीञ्चैव सौरभौमदिनं तथा।
एवं सुनिश्चिते काले विद्यारम्भन्तु कारयेत्॥
पूजयित्वा हरिं लक्ष्मीं देवीञ्चैव सरस्वतीम्।
स्वविद्यासूत्रकारांश्च स्वां विद्याञ्च विशेषतः॥
एतेषामेव देवानां नाम्ना तु जुहुयाद्धृतम्।
दक्षिणाभिर्द्विजेन्द्राणां कर्त्तव्यञ्चात्र पूजनम्॥
प्राङ्मुखो गुरुरासीनो वारुणाभिमुखं शिशुम्।
अध्यापयेत प्रथमं द्विजाशीर्भिःप्रपूजितम्॥
ततः प्रभृत्यनध्यायान्वर्ज्जनीयानि775 वर्ज्जयेदिति॥
अस्य शिशोश्व कामचारवादभक्षः776॥
यथाह गोतमः।
प्रागुपनयात्कामचारवाददभक्षइति।
कामचारोऽप्यपतनीयकर्म्मस्वेव। तत्र पादो बालेषु दातव्यइत्यादिप्रायश्चित्तस्मरणात्।
इति गर्ब्भाधानादिसंस्कारः।
अथ तृतीयाश्रमः।
ब्रह्मचर्य्याश्रमो गृहस्थाश्रमश्चेति द्वावाश्रम धर्म्मौ विस्तरेण प्रतिपादितौ। अथतृतीयाश्रमः प्रस्तूयते।
तत्र शङ्खः।
गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः।
अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्॥
पुत्रेदारान्विनिक्षिप्य तथा वानुगतो वने।
अग्नीनुपाचरेन्नित्यं वन्यमाहारमाहरेत्॥
यदाहारो भवेत्तेन पूजयेत्पितृदेवताम्।
तेनैव पूजयेद्विद्वानतिथिं समुपागतम्॥
ग्रामादाहृत्य वाश्रीयादष्टौ ग्रासान् समाहितः।
स्वाध्यायञ्च तथा कुर्य्याज्जटाश्च बिभृयात्तथा॥
तपसा शोषयेन्नित्यं स्वकञ्चैव कलेवरम्।
आर्द्रवासास्तु हेमन्तेग्रीष्मे पञ्चतपास्तथा॥
प्रावृष्याकाशशायी777 च नक्ताशी च सदा वसेत्778।
चतुर्थकालिको779वा स्यात् षष्ठकालिक780 एव वा॥
कृ्च्छ्रैर्वापि नयेत्कालं ब्रह्मचर्य्यञ्च पालयेत्।
एवं नीत्वा वने कालं द्विजो ब्रह्माश्रमी781भवेत्॥इति।
अथ चतुर्थाश्रमः।
तत्र782प्रथमं चैवर्णिकेषु कोऽधिक्रियत783 इति विचार्य्यते।
तत्र छन्दोगसूत्रकारः।
त्रयाणामधिकृतिः।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा प्रव्रजेद्गृहात्।
धर्म्मविवृतावपि।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्ततो गच्छेद्वनङ्कृती।
सन्न्यसेद्वासनाशान्तः सर्व्वभूतदयापरः॥इति।
त्रैवर्णिकस्याधिकारमेतानि वाक्यानि विदधति। अतस्त्रैवर्णिकानामपि तुर्य्याश्रमेऽस्त्येवाधिकारः। या तु जावालश्रुतिः। ब्राह्मणाःप्रव्रजन्तीति तस्येवं गतिः ब्राह्मणशब्दःप्रदर्शनार्थः। अतः क्षत्त्रियवैश्यावप्युपलक्ष्यति तेन न विरोध इति। अथ ब्रह्म वेदस्तन्निष्ठस्तदधीतवान् ब्राह्मण इति व्युत्पत्त्या ब्राह्मणशब्दोवर्णत्रयपरः। एतेन
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद्गृहात्।
इत्यादि मन्वादिवचनान्यपि व्याख्यातानि।
यच्च दत्तात्रेयवचनम्।
मुखजानामयं धर्म्मोयद्विष्णोर्लिङ्गधारणम्।
बाहुजातोरुजातानामयं धर्म्मोन विद्यते॥इति।
तथा।
गतिस्तुर्य्याश्रमे नास्ति बाहुजोरुजयोः क्वचित्।
तुर्य्याश्रमे गतिः प्रोक्ता मुखजानां स्वयम्भुवा॥इति।
एतच्च वचनद्वयं वस्तुतो न विरुध्यते। मुखजाःब्राह्मणाः। बाहुजाः क्षत्त्रियाः। ऊरुजाःवैश्याः। परेषामयं धर्म्मोलिङ्गधारणात्मको न विद्यते। लिङ्गं लक्षणं चिह्नं त्रिदण्डैकदण्डरूपम्।
तथाच दक्षः।
मेखलाजिनदण्डेन ब्रह्मचारीति लक्ष्यते।
गृहस्थो यष्टिवेदाद्यैर्नखरोमैर्वनाश्रितः।
त्रिदण्डेन यतेश्चैव लक्षणनि पृथक पृथक॥इति।
त्रिंदण्डग्रहणमेकदण्डस्यापि प्रदर्शनार्थम्। एवंविधं क्षत्त्रियवैश्ययोर्नेति दण्डधारणनिषेधएव नाश्रमनिषेधः।तथाच गतिस्तुर्याश्रमे नास्तीत्यस्याप्ययमर्थः गतिर्ज्ञानं सर्व्वेगत्यर्था ज्ञानार्था इति स्मरणात्। ज्ञानञ्च ज्ञापकनिष्पाद्यमतएव ज्ञापककार्य्यं तत्तेन ज्ञापकरूपेण कार्य्येण कारणं लक्ष्यते। तथा चैतदुक्तं भवति क्षत्त्रियवैश्ययोर्ज्ञापकं दण्डधारणं नास्तीति लिङ्गनिषेध एव नत्वाश्रमनिषेध इति दण्डधारणं वहिरङ्ग विषयविराग एव मुख्यःविरागाभावे अधिकाराभावात्। यच्च धर्म्मविवृतावेव वचनान्तरम्।
सन्न्यसेद्ब्राह्मणः सम्यक् वानप्रस्थो भवेन्नृपः।
वानप्रस्थो भवेद्वैश्य एवं वर्णक्रमः स्मृतः ॥ इति।
अत्रापि ब्राह्मणःसम्यक् न्यसेदिति सम्यक्शब्दोपादानात् ब्राह्मणस्य वहिरङ्गभूतदण्डधारणोपेत एव सन्न्यासो न तु तद्रहित इति गम्यते। तथाच क्षत्रियवैश्ययोस्तद्रहित आश्रमो भवतीत्यर्थादुक्तम्भवति अन्यथा छन्दोगसूत्रकारादिवचनविरोधापत्तेः। अयञ्च तात्पर्य्यार्थः। अबाधेनोपपत्तौबाधोन न्याय्यइति न्यायेन श्रुतिस्मृतिवाक्यविरोधपरिहाराय विधिवाक्यानामाश्रमस्वरूपविधौतात्पर्य्यम्। निषेधवाक्यानान्तु दण्डग्रहणमात्रनिषेधे तात्पव्यम्। तस्मात् क्षत्तियवैश्ययोर्दण्डग्रहणमात्रनिषेधो न त्वाश्रमनिषेध इति। एवं प्राप्तेऽभिधीयते।
श्रुतिस्मृतिविरोधे तु श्रुतिरेव गरीयसी। इति।
अतः श्रुत्यनुसारेण व्यवस्थात्र विधीयते। ब्राह्मणाः प्रव्रजन्ति इति श्रूयन्ते। अत्र ब्राह्मणशब्दस्य ब्राह्मणत्वं जातिर्व्वाचोऽर्थः784। ब्राह्मणोद्देशेन च प्रव्रज्या अभिधीयते। उद्देश्यविशेषणमेवाविवक्षितं हविरुभवत्ववदुद्देश्यमविवक्षितं,785 तस्मादिह ब्राह्मणांद्देशेन सन्न्यासविधानादुद्देश्यस्य ब्राह्मणत्वस्येह विवक्षितत्वात्तस्यैव प्रव्रज्याधिकारी नान्यस्य। ननु यदि भवेद्ब्राह्मणशब्दस्य ब्राह्मणत्वं जातिर्वाच्यार्थः तर्हि तस्योद्देश्यत्वेन विवक्षितत्वात्क्षत्रियवैश्ययोः प्रव्रज्यायां माभूद्धिकार न च तथा ब्राह्मणत्वजातिरर्थः। अपि तु ब्रह्म वेदस्तुनिष्ठास्तदध्ययनवन्तोब्राह्मणा इति वेदाध्ययनवत्वमेकोऽनुगतो धर्म्मः। सच ब्राह्मणशब्दस्यार्थः। तथाच वेदाध्ययनवत्त्वरूपेणैकेनोपाधिना ब्राह्मणक्षत्त्रियवैश्यास्त्रयोऽपि क्रोड़ीभूताभवेयुः। एवञ्च ब्राह्मणोद्देशेन प्रव्रज्याविधानात्त्रयाणामपि वर्णानां तत्राधिकारोऽस्त्विति चेन्मैवम्। यथा क्षत्त्रियशव्दस्य क्षत्त्रियत्वं वैश्यशव्दस्य वैश्यत्वं गोशब्दस्य च गोत्वमर्थः तथा ब्राह्मणशदस्यापि ब्राह्मणत्वमेवार्थइति शेषः जैमिनिवादरायणदिभिरङ्गीकृतं तद्व्याहन्येत। तथोक्तव्याघातभयात् ब्राह्मणशब्दस्य ब्राह्मणत्वं वेदाध्ययनवत्त्वं वोभयमिति वाचत्वेन परिकल्पेत तदन्यायश्चानेकार्थइति तान्त्रिकैरनेकार्थत्वमेकशब्दस्य निषिद्धं तेन न्यायेन सह विरोधः प्रसज्यते।
अथैवं ब्रूषे अन्यायश्चानेकार्थत्वमिति न्याये जाग्रत्यपि गवादिशब्दानां यथानेकार्थत्वमेवं ब्राह्मणशब्दस्यापि अनेकार्थत्वमस्त्विति। न चैतदुचितमगतिका हीयं गतिर्यदनेकशक्तिपरिकल्पनयानेकार्थत्वस्वीकरणं शब्दार्थज्ञाने हि वृद्धव्यवहारः प्रमाणम्। वृद्धाश्च गवादिशब्दानामनेकशक्तिकल्पनयाप्यनेकार्थत्वमङ्गीकुर्व्वते न ब्राह्मणशब्दस्य। अतएवाभिधानकारैरपि गवादिशब्दा अनेकार्थवर्गे परिगणितास्तेषामपि786 व्यवहारः शब्दश्लेषादिष्वेव शास्त्रं निर्णीय शास्त्रार्थपरिज्ञाने तु प्रसिद्धस्यैव ग्रहणं नेतरस्य787 इतरस्यापि ग्रहणे गोपशुविधायकवाक्येऽपि सास्नाद्युपेनगोपिण्डव्यतिरिक्तस्यापि ग्रहणं स्यान्नच गृह्यते। तस्माच्छास्त्रार्थनिर्णयेषु प्रसिद्धार्थस्यैव ग्रहणं युक्तं विपरीतार्थद्योतकवाक्य शेषाभावादतोऽनेकार्थभक्तिकल्पनादोषभयाब्राह्मणशब्दस्य ब्राह्मणत्वजातिरेवार्थः। ननु च जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिॠणवान् जायत इत्यत्र ब्राह्मणशब्दो यथा वर्णत्रयपर एवमत्राप्यस्त्विति चेन्मैवम्। दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्व्वैषम्यात्तथाहि ब्रह्मचर्य्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्य इति वाक्यशेषे ब्रह्मचर्य्यादिभिर्ऋष्याद्यृणत्रयापकरणप्रतीतर्ब्रह्मचर्य्यादिषु च त्रैवर्णिकस्याधिकारात्। फलचमसवन्मुख्यान्तरेण788 जायमानो वै ब्राह्मण इत्यत्रापि त्रैवर्णि-
कानुप्रवेशाद्युज्यते तत्र त्रैवर्णिकपरत्वम्।प्रकृते तु वाक्यशेषाद्यभावात्तत्रैवान्यो ब्राह्मणशब्देन प्रत्याख्यास्यते789 ततः पूर्व्वमेव लब्धार्थिकाया रूढेः प्राबल्यादनुपपत्त्यभावाच्च रुढ्या ब्राह्मणत्वमेव प्रत्याय्यते।
अतश्च प्रथमप्रतीतब्राह्मणाोद्देशेन प्रव्रज्याविवेश्चरितार्थत्वात् न चरमप्रतीतयौगिकार्थस्वीकरणमुचितम्। ततश्च औडुम्वरीं स्पृष्ट्वौद्गायेत् इति श्रुत्या विरुद्धमौडुम्वरी790 सर्व्वा वेष्टयितव्येति स्मृतिवचनं यथा विरोधाधिकरणे791 अप्रमाणमित्युक्तं एवं ब्राह्मणाः प्रव्रजन्तीति जाबालश्रुतिविरुद्धं तत्र त्रयाणं वर्णानां वेदमधीत्य चत्वार आश्रमा इत्यादिकं स्मार्त्तवचनजातमप्रमाणमेव स्मार्त्तवचननिचयस्य सर्व्वथा प्रामाण्यपरिजिहीर्षया श्रुत्यनुकूलएवार्थः परिकल्पनीयः त्रयाणां वर्णानां वेदमधीत्य चत्वार आश्रमा इति छन्दोगसूत्रस्थायमर्थः। त्रयाणां वर्णानां यथोचितं चत्वार आश्रमा इति। औचित्यं च
श्रुतिविरोधाद्ब्राह्मणस्यैव तुर्य्याश्रमाधिकारविधौनान्यथा792।
त्रैवर्णिकानां सन्न्यासो विद्यते नात्र संशयः।
शिखायज्ञोपवीतानां त्यागपूर्व्वैकदण्डयुक्॥इति
ब्रह्माण्डपुराणवचनमपि छन्दांगसूत्रेण समानार्थः।
यच्च ब्रह्मवैवर्त्तवचनम्॥
वैराग्योत्पत्तिमात्रे च सन्न्यासे परियुज्यते॥
रागवान्न तु विप्रोऽपि वेदवेदाङ्गवित्तमः॥इति॥
वेदवेदाङ्गवित्तमोऽपि विप्रो रागवांश्चेत्स सन्न्यासे न परियुज्यत इत्यन्वयः॥ एवञ्च विप्रस्य विरक्तस्यैवाधिकारोऽभिहितो भवेन्न क्षत्त्रियादेः।
यच्च स्मृत्यन्तरम्॥
ऋणत्रयमपाकृत्य निर्म्ममो793 निरहङ्कृतिः॥
ब्राह्मणः क्षत्त्रियो वाथ वैश्यो वा प्रव्रजेद्गृहात्॥
इत्यस्यायमभिप्रायःगृहात्प्रव्रजेत् वानप्रस्थाश्रमङ्गच्छेत्॥ प्रव्रज्याशब्दो यद्यपि सन्न्यासे रूढ़स्तथापि श्रुतिविरोधपरिहारार्थमत्र तृतीयाश्नमपरः अस्यापि794वैराग्यहेतुकत्वात्795॥यद्वाब्राह्मणःस्ववृत्तावजीवन् क्षत्त्रियवृत्तिमाश्रितः। तत्राप्य जीवन् वैश्यवृत्तिं ततश्च तामापदं निस्तीर्य्यापि न वर्णान्तरवृत्तिं परित्यजति किन्तु तत्रैव वृत्ताववस्थितः तदा तत्तत् क्षत्रियादिवृत्तिः क्षत्रिय इति वैश्य इति च व्यपदिश्यते796 शास्त्रानभ्यनुज्ञानकालेऽपि क्षत्त्रियादिवृत्तिनिरतत्वात् ततः सोऽपि प्रव्रजेद्गृहादिति प्रव्रज्याधिकारं दर्शयति॥ अतएव
ब्राह्मणः क्षत्त्रियो वाथ वैश्यो वा प्रव्रजेद्गृहात्।
इत्ययशव्द उपात्तः। ब्राह्मण एवं अनन्तरं क्षत्रवृत्त्या श्रवणात् क्षत्रियःअथ वैश्य इत्यानन्तर्य्यप्रतिपादनादयमर्थो गम्यत इत्यर्थः। एतेन
ब्राह्मणः क्षत्त्रियो वैश्यस्ततो गच्छेद्वनङ्कृती।
सव्यसेद्वाथ वा शान्त
इत्येतदपि व्याख्यातम्। एवञ्च मनुदत्तात्रेयादिवचनान्यप्यानु कूल्यानि नेयानि।
यश्च जड़भरतम्प्रत्युपदेशः
पैङ्गिरहस्ये।
यदि मृत्योः परं शान्तमनामयं शाश्वतं पदमिच्छुरसि
तत्परमहंसो भवार्हति।
अत्रेदं चिन्त्यं किं जड़भरतं प्रत्येवोपदेशउत लक्षण्या क्षत्त्रियमात्रम्प्रति। आद्ये जड़भरतस्यैवेति नेतरक्षत्त्रियप्राप्तिः। किञ्च जड़भरतोऽपि प्रैषोच्चारणपूर्व्वकमाश्रमं797 गृहीतवान् इति न क्वापि श्रूयते। तती ब्राह्मणाः प्रव्रजन्ति इति एतदनुरोधात्परमहंसो भवेत्यस्यायमर्थः परमहंस इवनिर्म्ममो भवेति। नापि द्वितीयः तत्र हि लक्षणासा च न युक्ता न विधौलक्षणेति भट्टगुरुप्रभृतिभिर्विधौलक्षणानिषेधात्। विधि-
रिति वदन् वादी प्रष्टव्यः किं विशिष्टविधिः उत प्राप्ते कर्म्मण्यधिकारिविधिरिति।
पक्षद्वयेऽपि798 लक्षणाप्रसक्तिर्दुर्व्वारा। ननूद्देश्ये लक्षणा न विध्यंशे अतो न दोष इति चेत्तर्हि लक्षणोद्देश्येऽपि न युक्तेति ब्रूमः। तथाहि सम्बन्धानुपपत्तिभ्यां799 हि लक्षणा। न चानुपपत्तिः पूर्व्वोक्तरीत्या वाक्यस्यार्थान्तरपरतयाप्युपपत्तेः800। या च जावालिश्रुतिर्जनकयाज्ञवल्क्यसंवादे तत्र परमहंसरामसंवर्त्त कारुणि श्वेतकेतु दुर्व्वासो रिभु निदाघ जड़भरत दत्तात्रेय रैवतकप्रभृतय इति। अत्रापि विधायकप्रत्ययाभावात्801 परमहंससदृशधर्म्मवन्त इति। अहङ्कारममतयोरभावात्परमहंसा इति व्यपदिश्यन्ते। तस्मात्सिद्धोब्राह्मणस्यैवाधिकार इति।
अथ यतिधर्म्मा
तत्र याज्ञवल्क्यः।
सर्व्वभूतहितः शान्तस्त्रिदण्डी सकमण्डलुः।
एकावासा परिव्रज्य भिक्षार्थी ग्राममाश्रयेत्॥
त्रिदण्डीत्यनेनैकदण्ड्यापि गृह्यते।
अनेनैवाभिप्रायेण मनुः।
वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कर्म्मदण्डश्च ते त्रयः।
यस्यैते नियताः दण्डाः स त्रिदण्डीति कथ्यते॥
बौधायनः।
एकदण्डी त्रिदण्डी वेति।
चतुर्व्विंशतिमते।
एकद्णडी चिदण्डी वा सर्व्वसङ्गविवर्जितः।
ते च दण्डाः वैष्णवाः।
तथाच स्मर्य्यते।
प्राजापत्येष्ट्यनन्तरं त्रीन् वैष्णवदण्डान्मृर्द्धप्रसागान्दक्षिणेन पाणिना धारयेत्। सव्येन सोदकं कमण्डलुमिति।
वशिष्ठः।
मुण्डोऽममोऽपरिग्रह इति।
सशिखान् केशान्निकृत्यविसृज्य यज्ञोपवीतमिति काठकश्रुतिः।
तथा परिशिष्टेऽपि।
अथ यज्ञोपवीतमप्सु जुहोति भूः स्वाहेत्यथ दण्डमादत्तेसखे मा गोपायेति।
देवलः।
काषायी मुण्डस्त्रिदण्डी कमण्डलुपवित्रपादुकासनकन्यामात्र इति।
कण्वः।
एकरात्रं वसेद्ग्रामे नगरे पञ्चरात्रकम्।
वर्षाभ्योऽन्यत्र वर्षासु मासांस्तु चतुरो वसेत्॥
मत्स्यपुराणे।
अष्टौ मासान्विहारःस्याद्यतीनां संयतात्मनाम्।
एकत्र चतुरोमासान्वार्षिकान्निवसेत्पुनः॥
अविमुक्तप्रविष्टानां विहारस्तु न विद्यते।
न देहो भविता तत्र दृष्टं शास्त्रे पुरातने॥ इति।
मनुः।
विधूमे सन्नमुषले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने।
वृत्ते शरावसम्पाते नित्यं भिक्षां यतिश्चरेत्802॥
एककालञ्चरेद्भिक्षां प्रसज्जेन्न तु विस्तरे।
भैक्षप्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि मज्जति॥
तत्राशक्तंप्रति वशिष्ठः।
ब्राह्मणकुले वा यल्लभेत तद्भुञ्जीत सायम्प्रातर्मधुमांसवर्ज्जमिति। तथा सप्तागाराण्यसङ्कल्पितानि चरेत्।
संवर्त्तः।
अष्टौ भिक्षाःसमादाय स मुनिः पञ्च सप्त वा।
अद्भिः प्रक्षाल्य ताः सर्व्वास्तितोऽश्नीयाच्च वाग्यतः॥
यथोक्तान्यपि कर्म्माणि परिहाय द्विजोत्तमः।
आत्मज्ञाने समाचक्षवेदाभ्यामे च यत्नवान्॥
अत्र वेदः प्रणवः।
अतएव स्मृत्यन्तरम्।
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परं तपः।
उपवासात्परं भैक्ष्यं दया दानाद्विशिष्यते॥इति।
तथा।
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवनम्।
कालमेव प्रतीक्षेत निर्व्वशस्मृतको803 यथा।
अतिवादांस्तितिक्षेत804नावमन्येत कञ्चन।
न चेमं देहमाश्रित्य वैरङ्कुर्व्बीत केनचित्॥
याज्ञवल्क्यः।
यतिपात्राणि मृद्वेणुदार्व्वलावुमयानि च।
सलिलं सुचिरे805 तेषां गोबालैश्रावकर्षणम्॥
इयञ्च शुद्धि806र्भिक्षाचरणादिप्रयोगाङ्गभूता न पुनरमेध्याद्युपहतिविषया। अमेध्याद्युपहतौतु द्रव्यशुद्धिप्रकरणे वक्ष्यमाणमनुसन्धेयम्। अतश्चैतदुक्तम्भवति। यदा भिक्षाचरणादिकङ्कर्म्मकरिष्यमाणस्तदा तत्कर्म्मोपयुक्तमृदादिपात्राणि गोबालैश्चावघृष्य प्रक्षाल्य तत्कर्म्मकुर्य्यादिति।
मनुरपि।
अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युर्निर्ब्रणानि च।
तेषामद्भिः स्मृतं शौचञ्चमसानामिवाध्वरे॥
भोजनमपि पात्रान्तराभावे तत्रैव कार्य्यम्।
तथाच देवलः।
तद्भैक्ष्यंगृहीत्वैकान्ते तेन पात्रेणान्येन वा तुष्णीं भुज्जीर्तति।
एवङ्कुर्व्वतः फलमाह
याज्ञवल्क्यः।
सन्निरुद्धेन्द्रियग्रामं रागद्वेषौ प्रहाय च।
भयं हृत्वा च भूतानाममृती भवति द्विजः॥ इति।
इह मदनपारिजाते मदनक्षितिपालदानजलरूढ़े।
स्तवकश्चतुर्थ आसीदामोदाकृष्टपण्डितभ्रमरः॥
मतिर्येषां शास्त्रे प्रकृतिरमणीया व्यवहृतिः
परं शीलं श्लाघ्यं जगति ऋजवस्ते कतिपये।
चिरं चित्ते तेषां मुकुरतलभूते स्थितिमिया-
दियं व्यासारण्यप्रवरमुनिशिष्यस्य भणितिः॥
इति पण्डितपारिजातभट्टारमल्लेत्यादिविरुदराजीविराजमानस्य
श्रीमदनपालस्य निबन्धे मदनपारिजाताभिधेये
चतुर्थस्तवकः।
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उक्ता वर्णाश्रमधर्म्माअधुना तद्धर्म्मसंकोचे सति तेषामशौच कालो निरूप्यते। तत्र च प्रथमं गर्ब्भस्रावादिकालः। मासचतुष्टयाभ्यन्तरे स्रावः पञ्चमषष्टयोश्च पातः।
सप्तमादिषु प्रसवः।
तथाच स्मृत्यन्तरे।
आचतुर्थाद्भवेत्स्रावः पातः पञ्चमषष्ठयोः।
अत ऊर्द्धं प्रसूति स्याहगाहं सूतकं भवेत्॥इति।
तत्र मासत्रयादर्व्वाक् स्रावे त्रिरात्रमशौचम्। स्रंसने गर्भस्य
त्र्यहं चेति गौतमस्मरणात्।
मरीचिरपि।
गर्ब्भस्रावे यथामासमचिरे तृत्तमे त्रयम्।
राजन्ये तु चतूरात्रं वैश्ये पञ्चाहमेव तु।
अष्टाहेन तु शूद्रस्य शुद्धिरेषाप्रकीर्त्तिता॥इति।
अचिरे मासत्रयाभ्यन्तरगर्ब्भस्रावे उत्तमे ब्राह्मणे। अत्र राजन्येतु चतूरात्रमित्याद्यपि विवक्षितम्।
स्रावे मातुस्त्रिरात्रं स्यात्सपिण्डाशौचवर्ज्जनम्।
पाते मातुर्यथामासं पित्रादीनां दिनत्रयम्॥इति
तेनैवाभिधानात्। यद्यचिरस्रावे राजन्यादिषु चतूरात्रादि
पाते मातुर्यथामासमित्युक्तं स्यात्। वैश्यशूद्रयोरचिरस्रावे पञ्चाहाष्टाहाशौचं पञ्चमसासपाते तु पञ्चाहमेवेति विप्रतिषिद्धं न तु पाते मातुर्यथा मासमिति द्वितीयं मरीचिवचनं ब्राह्मणव्यतिरिक्तविषयमस्तु। एवं क्षत्रियादिष्वेकाहाशौचं परिकल्प्यते ततश्च मरीचिवचनयोः परस्परविरोधः। अतएव
ऋष्यशृङ्गोऽपि।
यत्र त्रिरात्रं विप्राणामशौचं सम्प्रदृश्यते।
तत्र शूद्रे हादशाहं षड़हः क्षत्रवैश्ययोः॥
इति कल्पनाप्रकारमुपदिशति। नैतत्समञ्जसं मरीचिवचनाभ्यामेव विरोधान्तरस्य दुष्परिहार्य्यत्वात्।
तथाहि।
गर्ब्भस्रावे यथामासमचिरे तूत्तमे त्रयः।इति।
स्रावे तु त्रिरात्रं स्यादिति च वाक्यद्वयम्। तत्र स्रावे मातुरित्येतच्च विरोधपरिहाराय अचिरे तूत्तमे त्रय इत्येतद्विषय एवोपसंहरणीयम्। तथाच चतुर्थे मासि स्रावे त्रिरात्रापेक्षयाधिकं सार्द्धत्रिरात्रमशौचं कल्पनीयमचिरस्रावत्वाभावात्। पाते मातुर्यथामासमिति पञ्चमषष्ठयोर्यथामासाशौचाभिधानाच्च। ततश्च गर्ब्भस्रावे यथामासमिति चतुर्थे मासेऽपिदिनचतुष्टयाशौचाभिधानं विरुध्येत। अथात्र स्रावशब्दः पातपरः तर्हि पाते मातुरित्यनेन पौनरुक्तं स्यात्।
अतः स्राववचनविरोधपरिहाराय
रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे विशुध्यति।
इत्यादिमन्वादिवचनानुसारेण राजन्ये तु चतूरात्रमित्यादिवचनशेषस्य विवक्षितार्थत्वमिच्छतापि मरीचिनाङ्गीकर्त्तव्यम्।
अतश्च सर्व्ववसाधारणमासत्रयादर्वग्गर्भस्रावे त्रिरात्रमशौचम्। अथवा आपदि न्यूनकल्पानुसरण807मनापदि चतूरात्रादिकमिति व्यवस्था विज्ञेया। स्रावे तु सपिण्डानामशौचं नास्ति पितुस्तु स्नानमेव। सपिण्डाशौचवर्ज्जनमिति मरीचिस्मरणात्। स्रानमात्रं पुरुषस्येति वृद्धवशिष्ठस्मरणाच्च। चतुर्थमासप्रभृति सप्तममामपर्य्यन्तं यावन्ती गर्भधारणमासास्तावन्ति दिनानि शुद्धिहेतुः।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
गर्भस्रावे मासतुल्या निशाः शुद्धेस्तु कारणम्।
तत्र स्रवति इवाद्रवसाधारणःपतने वर्त्तते808।
अत्र च पातरूपे पञ्चमषष्ठमासास्रावे पित्रादीनां दिनत्रयमशौचम्।
पाते मातुर्यथामासं पित्रादीनां दिनत्रयम्। इति
मरीचिस्मरणात्।
यदुक्तं यमेन।
अजातदन्ते तनये मृते गर्भस्रुते809 तथा।
सपिण्डानान्तु सर्व्वेषामेकरात्रमशौचकम्॥इति।
एतच्च गर्भपात एकाहविधानम् गुणवत्पित्रादिविषयम्।
यत्तुक्तमादिपुराणे।
सद्यः शौचं सपिण्डानां गर्भस्य पतने सति।इति।
तत्तु द्रवरूपगर्भस्य810 मासचतुष्टयाभ्यन्तरपतने। एवमन्यान्यपि वचनान्यनुसन्धेयानि।
इति गर्ब्भस्रावाशौचम्।
अथ जननाशौचम्।
सप्तममासप्रभृति प्रसवरूपत्वात्811 पूर्णांशौचमेव भवति।
तत्र मृतजाते जातमृते वा सपिण्डानां दशाहमशौचमिति दशाहमिति तत्तत्पूर्णाशौचोपलक्षणम्812। यच्च जाते मृते कुलस्य सद्यः शौचमिति वृहद्विष्णुवचनम् तत्तु शिशुमरणनिमित्ताशौचाभावप्रतिपादनपरं न
। मरणनिमित्ताशौचमपि स्नानादपैति सपिण्डानां न स्वरूपतोऽभावः813॥
सद्यःशौचमिति प्राप्तस्य
शुद्ध्यभिधानात्। नाभिच्छेदात्प्राङ्मरणे मातुः सम्पूर्णसूतकम्। पित्रादीनान्तु जन्मनिमित्ताशौचं त्रिरात्रम्।
तथाच बृहन्मनुः।
जीवञ्जातो यदि ततो मृतः सूतक एव तु।
सूतकं सकलं मातुः पित्रादीनां त्रिरात्रकम्॥
ततस्तदनन्तरमेव नाभिवर्द्धनार्व्वागित्यर्थः। अत्राप्यग्निहोत्रार्थं सद्यःशौचमस्त्येव अग्निहोत्रार्थं स्नानोपस्पर्शनात् सद्यःशौचमिति शङ्खस्मरणात् नाभिवर्द्धनोत्तरकालं शिशूपरमे पित्रादीनां जननाशौचं सम्पूर्णमेव।
तथाच जैमिनिः।
यावत्र छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्।
छिन्नेनाले ततः पश्चात्सूतकन्तु विधीयते॥ इति।
जनननिमित्तमस्पृश्यत्वं मातुर्द्दशाहादिकं पितुस्तुसचेलस्नानादस्पृश्यत्वमपगच्छति।
तथा च संवर्त्तः।
जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचेलन्तु विधीयते।
माता शुध्येद्दशाहेन स्नाानात्तु स्पर्शनं पितुः॥
अत्रपुत्त्र इत्यपत्यपरम्। अतस्त्वपत्ये पितुः स्रानं भवति। यथा गर्ब्भाधानशङ्कायामृतुकालगमनें स्नानमेवं जननेऽपि समानं पितुरपि स्नानादस्पृश्यत्वं निवृत्तमित्यभिधानात्सपिण्डानामस्पृश्यत्वं नास्त्येव ततो न तेषां स्नानमपि।
तथा चाङ्गिराः।
सूतके सूतिकावर्ज्ज संस्पृशो814 न निषिध्यते। इति।
अष्टार्थकार्य्येषु पैठीनसिर्विशेषमाह।
सूतिकां पुत्त्रवतीं विंशतिरात्रेण815 कर्म्माणि कारयेत्।
मासेन स्त्रीजननवतीति816।
प्रथमषष्ठदशमदिवसेषु दानप्रतिग्रहाधिकारमाह
व्यासः।
सूतिकावासनिलया जन्मनामादिदेवताः817।
तासां यागनिमित्तन्तु शुद्धिर्जन्मनि कीर्त्तिता॥
प्रथमे दिवसे षठे दशमे चैव सर्व्वदा।
त्रिष्वेतेषु न कुर्व्वीत सूतकं पुत्त्रजन्मनि॥
वृद्धयाज्ञवल्क्योऽपि।
तत्र सर्व्वं प्रतिग्राह्यं कृतान्नन्तु न भक्षयेत्।
भक्षयित्वा तु तन्मोहाद्विजश्चिन्द्रायणं चरेत्॥
मार्कण्डेयः।
रक्षणीया तथा षष्ठी निशा तत्र विशेषतः।
रात्रौजागरणं कार्य्यंजन्मदानां तथा बलिः॥
पुरुषाः शस्त्रहस्ताश्च नृत्यगीतैश्च योषितः।
रात्रोजागरणं
कुर्य्युर्दशभ्यांचैव सूतके॥इति।
इति जननाशौचम्।
अथानुपनीताशौचम्।
तत्र नामकरणात्प्राक् सद्यःशौचमेव।
यदाह शङ्खः।
प्राङ्नामकरणात्सद्यः शुद्धिरिति।
नामकरणानन्तरमग्न्युदकदानं बैकल्पिकम्।
तथाच मनुः।
नात्रिवर्षस्य कर्त्तव्या वान्धवैरुकदकक्रिया।
जातदन्तस्य वा कुर्य्यान्नाम्नि वापि कृते सति॥
उदकक्रियेत्येतत्साहचर्य्यादग्निदानमपि लक्षयति। न नामकरणादूरर्द्धं दन्तजननादर्व्वागग्निसंस्कारे कृतेऽप्यकृतेऽपि मातापित्रोस्त्रिरात्रम्। बालानामदन्तजातानां त्रिरात्रेण शुद्धिरिति कश्यपस्मरणात्।
तथा।
वैजिकादभिसम्वन्धादनुरुन्ध्यादघन्त्र्यहम्।
इत्यत्र वैजिकादितिविशेषोपादानाच्च। एवमुपनयनपर्य्यन्तं मातापित्रोस्त्रिरात्रमेव। इतरेषां सपिण्डानामग्निसंस्कार कृते एकाहमशौचम्।
अदन्तजाते तनये शिशोर्गर्भच्युते तथा।
सपिण्डानान्तु सर्व्वेषां एकरात्रमशौचकम्॥
इति यमस्मरणात्। स च
संस्कारस्तूष्णीमेव।
तूष्णीमेवोट्कङ्कुर्य्यात्तूष्णीं संस्कारमेव च।
इति लोकाक्षिस्मरणात्।
जातारणिश्चेद्भवति तदा तन्मथिताग्निना।
तदभावे त्वनिषिद्धलौकिकाग्निना दाहः अग्निसंस्काराद्यभावे सद्यःशौचम्। आदन्तजननात्सद्य इति याज्ञवल्क्यस्मरणात्।अग्निसंस्काररहितस्योनद्विवर्षस्य निखननमेव।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
जनद्विवर्षं निखनेन्न कुर्य्यादुदकं ततः।
आश्मशानादनुव्रज्य इतरोज्ञातिभिर्वृतः॥
इतरःपूर्णद्विवर्षः।
अत्र विशेषमाह।
ऊनद्विवार्षिकम्प्रेतं निदध्युर्बान्धवा वहिः।
अलङ्कृत्यशुचोभूमावस्थिसञ्चयनाद्दृते॥ इति।
वहिःग्रामाद्वहिः। अस्थिसञ्चयनादृते अस्थिसञ्चयनरहितायां भुवीत्यर्थः। अन्ये त्वेवं वर्णयन्ति। अस्थिसञ्चयनप्राप्तेरेवाभावादुपपादितञ्चेत्प्रायश्चित्तञ्चास्माभिर्मिताक्षराटीकायां सुबोधिन्याम्।
यमः।
ऊनद्विवार्षिकम्प्रेतं घृताक्तं निखनेद्भवि।
पुरुषाःशस्त्रहस्ताश्चनृत्यगीतेश्च योषितः।
रात्रौजागरणं कुर्य्युर्दशभ्यांचैव मृतके॥इति।
प्रति जननाशौचम्।
अथानुपनीताशौचम्।
तत्र नामकरणात्प्राक् सद्यःशौचमेव।
यदाह शङ्खः।
प्राङ्नामकरणात्सद्यः शुद्धिरिति।
नामकरणानन्तरमग्न्यदकदानं वैकल्पिकम्।
तथाच मनुः।
नात्रिवर्षस्य कर्त्तव्या वान्धवैरुदकक्रिया।
जातदन्तस्य वा कुर्य्यान्नाम्नि वापि कृते सति॥
उदकक्रियेत्येतत्साहचर्य्यादग्निदानमपि लक्षयति। ततश्चनामकरणादूर्द्धंदन्तजननादर्व्वागग्निसंस्कारे कृतेऽप्यकृतेऽपि मातापित्रोस्त्रिरात्रम्।बालानामदन्तजातानां त्रिरात्रेण शुद्धिरिति कश्यपस्मरणात्।
तथा।
वैजिकादभिसम्वन्धादनुरुन्ध्यादघन्त्र्यहम्।
इत्यत्र वैजिकादितिविशेषांपादानाञ्च। एवमुपनयनपर्य्यन्तं मातापित्रोस्त्रिरात्रमेव। इतरेषां सपिण्डानामग्निसंस्कारे कृते एकाहमशौचम्।
अदन्तजाते तनये शिशोर्गर्भच्युते तथा।
सपिण्डानान्तु सर्व्वेषां एकरात्रमशौचकम्॥
इति यमस्मरणात्। स च संस्कारस्तूणीमेव।
तूष्णीमेवोदकङ्कु
र्य्यात्तूष्णीं संस्कारमेव च।
इति लोकाक्षिस्मरणात्।
जातारणिश्चेेद्भवति तदा तन्मथिताग्निना।
तदभावे त्वनिषिद्धलौकिकाग्निना दाहःअग्निसंस्काराद्यभावे सद्यःशौचम्। आदन्तजननात्सद्य इति याज्ञवल्क्यस्मरणात् अग्निसंस्काररहितस्योनद्विवर्षस्य निखननमेव।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
ऊनद्विवर्षं निखनेन्न कुर्य्यादुदकं ततः।
आश्मशानादनुव्रज्य इतरी ज्ञातिभिर्वृतः॥
इतरःपूर्णद्विवर्षः।
अत्र विशेषमाह।
ऊनद्विवार्षिकम्प्रेतं निदध्युर्बान्धवा वहिः।
अलङ्कृत्य शुचौ भूमावस्थिसञ्चयनादृते॥इति।
वहिःग्रामाद्वहि। अस्थिसञ्चयनाद्दृते अस्थिसञ्चयनरहि तायां भुवीत्यर्थः। अन्ये त्वेवं वर्णयन्ति। अस्थिसञ्चयनप्राप्तेरेवाभावादुपपादितञ्चेत्प्रायश्चित्तञ्चास्माभिर्मिंताक्षराटीकायां सुबोधिन्याम्।
यमः।
जनद्विवार्षिकम्प्रेतं घृताक्तं निखनेद्भुवि।
वैवस्वतं सङ्गमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य॥१।
यमो नी गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्त्तवा उ।
यत्रा नः पूर्व्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या ३ अनु खा॥ २॥
मातली कव्यैर्यमी अङ्गिरोभिर्वृहस्पतिर्ऋक्कभिर्वावृधानः।
यांश्च देवा वावृधुर्य्ये च देवान्तस्वाहान्येस्वधयान्ये मदन्ति॥ ३।
इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः।
आ त्वा मन्त्राःकविशस्ता वहंत्वेना राजन् हविषा मादयस्व॥ ४।
अङ्गिरोभिरागहि यज्ञियेभिर्यम बैरुपैरिह मादयस्व।
विवस्वन्तं हुवे यः पिता तेऽस्मिन्यज्ञे वर्हिष्या निषद्य॥ ५॥
अङ्गिरसो नः पितरो न वग्वा अर्थवाणी भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥ ६।
प्रेहि प्रेहि पथिभिः पूर्व्वेभिर्यत्रा नः पूर्व्वे पितरः परेयुः।
उभा राजाना स्वधया मदन्ता यमं पश्यासि वरुणाञ्च देवम्॥ ७॥
सं गच्छख पितृभिः सं यमेनेष्टापूत्तेन परमे व्योमन्।
हित्वा यावद्यं पुनरस्तमेहि सङ्गच्छस्वतन्वासुवर्च्चाः॥ ८॥
अपेत वीत वि च सर्पतातोऽस्मा एवं पितरी लोकमक्रन्।
अहोभिरद्भिरक्तुभिर्व्यक्तं यमो ददात्यवसानमस्मै॥९।
अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौशबलौ साधना पथा।
अथा पितॄन्त्सुविदत्रो उपेहि यमेन ये सधमादं मदन्ति॥ १०।
यौ ते श्वानौ यमरक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसौ।
ताभ्यामेनं परि देहि राजन्स्वस्ति चास्मा अनमीवञ्च घेहि॥ ११॥
उरुनसावमुतृपा उदुंबलौ यमस्य दूतौ चरती जनाँ अनु।
तावस्मभ्यं दृशये सूर्य्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम्॥१२॥
यमाय सोमं सुनुत यमाय जुहता हविः।
यमं ह यज्ञो गच्छत्यग्रिदूती अरं कृतः॥१३।
यमाय धृतवद्धविर्जुहोत प्र च तिष्ठत।
स नो देवेष्वा यमद्दीर्घमायुः प्र जीवसे॥१४।
यमाय मधुमत्तमं राजे हव्यं जुहोतन।
इदं नम ऋषिभ्यःपूर्व्वजेभ्यः पूर्व्वेभ्यः पथिकङ्भ्यः॥१५॥
त्रिकटुकेभिः पतति षडूव्वीरी कमिद्वृहत्।
त्रिष्टुब्गायत्रीछन्दांसि सर्व्वा ता यम आहिता॥१६। ऋग्वेदसंहिता १०म, १४सू
जातदन्तप्त्य प्रथमे वर्षे अकृतचूड़स्य वर्षत्रयाभ्यन्तरे मृतस्याग्नि संस्कारे सत्यसत्यप्येकाहः। दन्तजातेऽप्यकृतचूड़े त्वहोरात्रेण शुद्धिरिति विष्णुस्मरणात्। प्रथमवर्षचूड़ाकरणे त्वग्निसंस्कारस्य चूड़ाकरणानन्तरं नियतत्वात्त्रिरात्रमेव।
अतएव वशिष्ठः।
ऊनद्विवर्षे प्रेते गर्ब्भपतने वा सपिण्डानां त्रिरात्रमेवेति। वर्षत्रवादूर्द्धं चूड़ाभावेऽपि अग्निसंस्कारो नियतस्तथा त्र्यहमशौचम्।
नात्रिवर्षस्य कर्त्तव्यं वान्धवैरूकक्रिया।इति।
मनुना त्रिवर्षन्यूननस्य संस्कारनिषेधे नात्रिवर्षस्याभ्यनुज्ञानात्। अङ्गिरसा च न्यूनत्रिवर्षरुपकालापेक्षयानैशिक्यभिधानादतऊर्द्धं त्र्यहाभिधानाच्च।
विप्रे न्यूनत्रिवर्षे तु तेषां818 शुद्धिस्तुनैगिकी, इति।
यद्यप्यकृतचूड़ी वै जातदन्ततु संस्थितः।
दाहयित्वा तथाप्येनमशौचं त्न्यहमाचरेत्॥
स्त्रीणामकृतचूड़ानां मृतोसद्यःशौचम्। अकृतचूड़ायान्तु कन्यायां सद्यःशौचमित्यापस्तम्बस्मरणात्। कृतचूड़ानामपि वाग्दानादर्व्वार्गिकाहः
यदाह याज्ञवल्क्यः।
अहस्त्वदत्तकन्यासु बालेषु च विशोधनम्। इति।
अदत्ता वाग्दानरहिता। कन्यासापिण्ड्यं819 पुरुषत्रयपर्य्यन्तमेव।
तथाच वशिष्ठः।
अप्रत्तानाञ्च स्त्रीणां त्रिपुरुषी विज्ञायते।इति।
त्रिपुरुषानन्तरं समानोदकाशौचङ्कल्प्यम्। एतच्चाशौचमविवाहितविषयमेव। विवाहे त्वन्यथा तथैव पूर्व्वं प्रतिपादितत्वात्। वाग्दानादूर्द्धं विवाहसंस्कारात्प्राक् पतिकुले पितृकुले च त्रिरात्रम्।
यथाह मरीचिः।
वारिपूर्व्वम्प्रदत्ता तु या नैव प्रतिपादिता।
असंस्कृता तु सा ज्ञेया त्रिरात्रमुभयोः स्मृतम्॥इति।
या तु प्रतिपादिता वाग्दत्ता वारिपूर्व्वंनैव प्रतिपादितेत्यन्वयः।
उभयोःपतिपितृपक्षयोः।
विवाहानन्तरं विष्णुः।
संस्कृतासु स्त्रीषु नाशौचम्पितृपक्षे तत्प्रसवमरणे चेत्पितृगृहे स्यातां तदैकरात्रञ्चेति।
प्रसव एकरात्रं मरणे त्रिरात्रमिति विवेकः। एतच्च वयोविशेषकतृमशौचं सर्व्ववर्णसाधारणम्।
तथाचाङ्गिराः।
अविशेषेण वर्णानामर्व्वाक्संस्कारकर्म्मणः।
त्रिरात्रन्तु भवेच्छुद्धिरिति॥
व्याघ्रपादोऽपि।
तुल्यं वयसि सर्व्वेषामिति।
यत्त्वङ्गिरसाभिहितम्।
विप्रे न्यूने त्रिभिर्वर्यैर्मृते शुद्धिस्तुनैशिकी।
द्व्यहेन क्षत्त्रिये शुद्धिस्त्रिभिर्वैैश्यसुते तथा॥
तथान्यदपि तेनैव।
निवृत्तचुड़के विप्रे त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते।
निवृत्ते क्षत्त्रिये षड्भिर्वैश्ये नवभिरुच्यते।
शूद्रे त्रिवर्षन्यूने तु मृते शुद्धिस्तुपञ्चभिः।
अत ऊर्द्ध्ं मृते शूद्रे द्वाादशाहो विधीयते॥
षड्वर्षान्तमतीतो यः शूद्रः संम्रियते यदि।
मासिकन्तु भवेच्छोचमित्यङ्गिरसभाषितम्॥इति।
षड्वर्षान्तमतीतो य इत्यनेन च हारीतवचनं विरुध्यते।
वचनन्तु।
आमौञ्जिबन्धनाद्विप्रः क्षत्त्रियश्च धनुर्ग्रहात्।
आप्रतोदग्रहाद्वैश्यः शूद्रो वस्त्रद्वयग्रहात्॥इति।
मौञ्जिबन्धनाद्यनन्तरं मृतः पूर्णामोचनिमित्तं भवतीत्यर्थः। शूद्री वस्त्रदयग्रहणयोग्यो द्वादशदिवर्षदेशीय820 एव न षड्वर्ष-
देशीय इति। शूद्रस्य षड्वर्षानन्तरं मासिकाशौचाभिधानमाङ्गिरसहारीतेन विरुध्यते। तस्माद्वहूनामनुग्रहे त्याज्याइति मन्वाद्यनेकस्मृतिपर्य्यालोचनया विश्वरूपधारेश्वरमेधातिथिविज्ञानेश्वरप्रभृतिभिराचार्य्यैर्वयोऽवस्थाशौचं821 सर्व्ववर्णसाधारणमेवेति व्याख्यातम्।अथवाङ्गिरस ऋष्यशृङ्गवचनान्यधिकाशौचप्रतिपादकान्यनापद्विषयतया व्यवस्थापनीयानि।
अथ जननमरणाशीचे वर्णनियमेन
कालनिर्णयः।822
तत्र मनुः।
दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते।
जननेऽप्येवमेवं स्याद्विपुलां शुद्धिमिच्छताम्॥इति।
महागुरौ त्वाश्वलायनोक्तो विशेषः।
द्वादशरात्रं महागुरुषु दानाध्ययने वर्ज्जयेरनिति।
पुत्त्रानुत्पाद्य संस्कृत्य वेदार्थङ्ग्राहयित्वा वृत्तिञ्च823 यो ददाति स महागुरुः। एतच्च विप्रविषयम्। क्षत्रियादिविषये तु
याज्ञवल्क्यः।
क्षत्त्रस्य द्वादशाहानि विशः पञ्चदशैव तु।
त्रिंशद्दिनानि शूद्रस्य तदर्द्धंन्यायवर्त्तिनः॥इति।
पाकयज्ञद्विजशुश्रूषादिरतः शूद्रो न्यायवर्त्ती तस्य तदर्द्धं मासार्द्धम्।
हतानां नृपगोविप्रैरन्वक्षञ्चात्मघातिनाम्।
अन्वक्षं सद्यःशौचमित्यर्थः। नृपेण प्रमादहते दशाहादिकमेव। क्रोधायुद्धहते सद्यःशौचम्। युद्धक्षतेन कालान्तरहतस्यैकाहः।
अत्र च गौतमः।
गोब्राह्मणहतानामन्वक्षं क्रोधाच्चायुध्यतः824। इति।
क्रोधग्रहणम्प्रमादव्यापादितनिरासार्थम्।
तथा।
ब्राह्मणार्थं विपन्ना ये योषितां गोग्रहेऽपि वा।
आहवेऽपि हतानाञ्च एकरात्रमशौचकम्॥
क्षत्रधर्म्मेण सङ्ग्रामाङ्गनसृतस्य सद्यःशौचम्।
तदाह मनुः।
उद्यतैराहवे शस्त्रैः क्षत्रधर्म्महतस्य च।
सद्यः सन्तिष्ठते यज्ञस्तथाशौचमिति स्थितिः॥
यज्ञः पिण्डदानादिरूपः सन्तिष्ठते समाप्तो भवतीत्यर्थः। दक्षेण दश पक्षाःसूतके मृतके चोपन्यस्ताः।
सद्यः शौचमथैकाहस्त्न्यहश्चतुरहस्तथा।
षड्दशद्वादशाहश्च पक्षो मासस्तथैव च।
मरणान्तं तथा चान्यद्दशपक्षास्तु सूतके॥
सूतकशब्दोऽशौचोपलक्षणार्थः। अत्र सद्यःशौचादि षड़ह-
अर्द्धरात्रावधिःकालःसूतकादौ विधीयते॥
रात्रिङ्कुर्य्यात्रिभागन्तु द्वौभागौ पूर्व्व एव तु।
उत्तमोऽंशः प्रभातेन युज्यते मृतसूतके॥
रात्रावेव समुत्पन्ने मृते रजसि सूतके।
पूर्व्वमेव दिनङ्ग्राह्यं यावन्नाभ्युदिती रविः॥इति।
अत्र देशाचारः प्रमाणम्।
अत्र जनने पूर्व्वेतिकर्त्तव्यता विहिता साम्प्रतमितरत्रामिधीयते।
तत्र मनुः।
न विप्रं स्वेषु825 तिष्ठत्सु मृतं शूद्रेण हारयेत्826॥
अस्वर्ग्या ह्याहुतिः सा स्याच्छूद्रसंस्पर्शदूषिता॥
स्वेषु तिष्ठत्स्वित्यविवक्षितार्थमस्वर्ग्यत्वादिदोषकथनात्।
तथा।
दक्षिणेन मृतं शूद्रं पुरद्वारेण निर्हरेत्।
पश्चिमोत्तरपूर्व्वेस्तु यथायोगं द्विजातयः॥
यथायोगमिति वैश्याप्रतिलोमक्रमेण। अतएव स्वाभिप्रायप्रकटनार्थं प्रथमतः शूद्र एवोपात्तो वचने।
हारीतः।
न ग्रामाभिमुखं प्रेतं निर्हरेयुः।
याज्ञवल्क्यः।
स दग्धव्य उपेतश्चेदाहिताग्न्यावृतार्थवत्।
उपेत उपनीतः। शूद्रस्तुवस्त्रद्वयग्रहणयोग्यकालीन उपनीतसदृशः वस्त्रद्वयग्रहणं द्वादशादिषोडशवर्षमध्ये तु। आहिताग्निदाहप्रक्रियया दाहादिकङ्कार्य्यम्।
तत्रायं विशेषः।
उपनीतस्य लौकिकाग्निना अनाहिताग्नेः स्वगृह्याग्निना आहिताग्नेश्च वैतानाग्निभिरिति।
लौकिकाग्निश्च चाण्डालाग्न्यादिव्यतिरिक्तः।
तथाच देवलः।
चाण्डालाग्निरमेध्याग्निः सृतिकाग्निश्च कर्हिचित्।
पतिताग्निश्चिताग्निश्च न शिष्टग्रहणोचितः827॥इति।
स्वगृह्योक्तविधिना असौस्वर्गाय लोकाय स्वाहेति हुत्वा दग्धव्यः।
प्रचेताः।
स्नानम्प्रेतस्य पुत्राद्यैर्वस्त्राद्येः पूजनं ततः।
नग्नदेहं दहेन्नैव किञ्चिद्देयं परित्यजेत्॥
किञ्चिच्छब्दाद्वस्तैकदेशंश्मशानवास्यर्थं देयं परित्यजेदित्यर्थः। निगमः।
सन्ध्यायां वा तथा रात्रौ दाहः पाथेयकर्म्म च।
नवश्राद्धञ्च नो कुर्य्यात्कृतं निष्फलतां व्रजेत्॥
दाहानन्तरम्प्रचेताः।
प्रेतस्य बान्धवा यथावृद्धमुदकमवतीर्य्य नोद्वर्षयेयु828रुदकाञ्ञ्जलिम्प्रसिञ्चेयुः। अपसव्ययज्ञोपवीतवाससा दक्षिणाभिमुखाः ब्राह्मणस्योदङ्मुखाःप्राङ्मुखाश्च राजन्यवैश्ययोरिति।
याज्ञवल्क्यः।
सप्तमाद्दशमाद्वापि ज्ञातयोऽभ्युपयन्त्यपः।
अप नः शोशुच दघमनेन पितृदिङ्मुखाः॥
सप्तमाद्दिवसादर्व्वाग्दशमदिवसाद्वाअर्व्वाक् ज्ञातय एकसगोत्रपिण्डाःसमानीदकाश्च। एतच्च विषमदिनेषु कार्य्यमेव।
तथाच गौतमः
प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमनवमेषूदक्रियेति।
वशिष्ठः।
सव्योत्तराभ्यां पाणिभ्यामुदकक्रियां कुर्व्वीरन्निति।
उदकदाने संख्यानियममाह
याज्ञवल्क्यः।
सकृत्प्रसिञ्चेदुदकं नामगोत्रेण वाग्यतः।
नामगोत्रेणोपलक्षितमुदकं नामगोत्रे समुच्चार्य्योदकं सिञ्चेयुरित्यर्थः।
पिण्डयज्ञावृता देवं प्रेतायान्नं दिनत्रयम्।
जलमेकाहमाकाशे स्थाप्यङ्क्षीरञ्च मृण्मये॥
पिण्डयज्ञावृता पिण्डयज्ञप्रक्रियया प्राचीनावीतित्वदर्ब्भादिना सहितत्वरूपया च आकाशे शिक्याद829ौ।
प्रचेताः।
प्रेतात्र स्नाहीत्युदकं स्थायम्पिव चेदङ्गीरमिति। पिण्डदानञ्चसंस्कृतानां कुशेषु असंस्कृतानां भूमौ पिण्डं दद्यात्।
संस्कृतानान्तु कुशेषु इति प्रचेतःस्मरणात्पाषाणेऽपि पिण्डो देयः ।
तथाच शङ्खः।
भूमौ माल्यं पिण्डम्पानीयमुपलेष्वादद्युरिति।
याज्ञवल्क्येन पिण्डत्रयवमेवाभिहितम् \। विष्णुस्तु यावन्त्याशौचदिनानि तावत्पिण्डदानमाह।
यावदशौचं तावत्प्रेतस्योदकं पिण्डञ्च दद्युरिति।
पारस्करः।
प्रेतेभ्यः सर्व्ववर्णेभ्यः पिण्डान्दद्युर्दशैव तु।
एवम्पिएडीदकदाने गुरुलघुकल्यावाम्नातौ। तत्र यद्यप्यन्यतरपक्षानुष्ठानेऽपि शास्त्रार्थसिद्धिः तथापि गुरुकल्ये प्रेतोपकारातिशयः कल्यः। अन्यथा गुरुतत्पक्षानुपपत्तेः। एवं दत्तस्य पिण्डस्य प्रतिपत्तिकर्म्माह
वृद्धशातातपः830।
वाग्यताः प्रयता831 श्चैव तिष्ठेयुः पिण्डसन्निधौ।
ततो वास्पेनिवृत्तेऽस्य नद्यान्तु प्रक्षिपेच्चतम्॥ इति
नद्यभावे प्रशस्ताकाशेषु प्रक्षिपेत्। यत्राशौचस्य ह्नासस्तत्रापि दश पिण्डाः दातव्याः।
अशौचस्य च
ह्नासेऽपि पिण्डान्दाद्याद्दशैवतु।
इति शातातपस्मरणात्।
पश्चात्त्रिरात्त्राशौचे पारस्करः।
प्रथमे दिवसे देयास्त्रयः पिण्डाःसमाहितैः।
द्वितीये चतुरोदद्यादस्थिसञ्चयनन्तथा॥
पिण्डे द्रव्यादिनियममाहशुनः पुच्छः।
फलमूलैश्चपयसाशाकेन च गुडेन च।
तिलमिश्रञ्च दर्ब्भेषु पिण्डं दक्षिणतो हरेत्॥
द्वारदेशेप्रदातव्योदेवतायतनेऽपि च।
तृष्णीं प्रसक्तं832 पुष्पञ्च धूपदीपस्तथैव च॥
शालिना शक्तुभिर्व्वापि शाकेर्वाप्यय निर्व्वपेत्।
प्रथमेऽहनि यद्द्रव्यं तदेव स्याद्दशाहकम्833॥इति।
कर्तृनियमो गृह्यपरिशिष्टे।
असगोत्रः सगोत्रोवा यदि स्त्री यदि वा पुमान्।
प्रथमेऽहनि यो दद्यात्स दशाहं समापयेत्॥
दशाहपर्य्यन्तमेवायं नियमः। अतस्तन्मध्ये देशान्तरस्थितसन्निहितसपिण्डपुत्त्राद्यागमनेऽपि प्रथमदिवसोपक्रान्तेनैव834 दशपिण्डाःदातव्याः। न पुत्त्रादिभिः न पुत्रादिभिः सन्निहितैरपि। दाहानन्तरङ्कृत्यमेकादशाहादिकन्तु सन्निहितसपिण्डेन पुत्त्रादिनैव कार्य्यं पुत्त्राद्यभावे प्रथमप्रक्रान्तेनैव835। सपिण्डीकरणे तु विशेषः। स च श्राद्धस्तवके वक्ष्यते।
उदकदानन्तु सर्व्वैःसपिण्डादिभिः कार्य्यंपिण्डदानन्त्वेकेनैव पुत्त्रादिना। पुत्रबहुत्वे त्वितरानुमत्या ज्येष्ठेनैव पातित्यादिदोषरहितेन।
मरीचिः। अनेनैवाभिप्रायेण।
सर्व्वैरनुमतङ्कृत्वा836 ज्येष्ठेनैव तु यत्कृतम्।
द्रव्येण वा विभक्तेन सर्व्वैरेव कृतम्भवेत्॥ इति।
अविभक्तानान्तु द्रव्यमविभक्तमेव। विभक्तैस्तु स्वस्वभक्त्यपेक्षया स्वाद्धनात्किञ्चिदौर्द्ध्वदेहिकोद्देशयुक्तमुद्धृत्य ज्येष्ठाय निवेदयेत्। तदा च द्रव्यमविभक्तमेव भवतीति द्रव्येण वाविभक्तेनेत्यस्य निर्व्वाहः। विभक्तेषु द्रव्यसमीकरणेनैकस्य कर्त्तृत्वं षोड़शश्राद्धादावेव न सांवत्सरिके।
पिण्डदानाधिकारिक्रममाह शङ्खः।
पितुः पुत्त्रेण कर्त्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया।
पुत्त्राभावे तु पत्नी स्यात्पत्न्यभावे तु सोदरः॥
गौतमः।
पुत्त्राभावे सपिण्डामातृसपिण्डाःशिष्याश्च दद्युस्तदभावे ऋत्विगाचार्य्याः।
अत्र शङ्खवचनानुरोधेन पुत्त्राभावे पत्नी तद्भावे सपिण्डा इति क्रमः। पुत्त्राश्चद्वादशविधा औरसादयः।
अतएवौरसादिपुत्त्रपरिगणनानन्तरम्
याज्ञवल्क्यः।
पिण्डदोऽंशहरश्चैव पूर्व्वाभावे परः परः।इति।
तत्रापि औरसाभावे पौत्रः तद्भावे प्रपौत्त्रस्तद्भावे पुत्रिकादिक्रमः।
अतएव स्मृतिसङ्ग्रहे।
पुत्त्रेषुपौत्त्रश्च तत्पुत्त्रःपुत्त्रिकासुत एव च।इति।
ऋष्यशृङ्गः।
पुत्त्रेषु वर्त्तमानेषु नान्यो वै कारयेत्स्वधाम्।
आनुकूल्यादपुत्त्रस्य श्राद्धंकुर्य्यात्समन्त्रकम्॥
बौधायनः।
अपुत्त्रस्य स्त्रिया कार्य्यं पिण्डश्राद्धंतथोदकम्।
क्रियालोपो न कर्त्तव्यः प्रेतस्य गतिकाङ्क्षिभिः॥
यदा त्वनुपनीतःपुत्त्रःसंस्कर्त्तापत्नी वा तदग्निदानमेव समन्त्रकङ्कार्य्यम्।
तथाच कात्यायनः।
असंस्कृतेन पत्न्या च ह्यग्निदानं समन्त्रकम्।
कर्त्तव्यमितरत्सर्व्वङ्कारयेद्न्यमेव837 हि॥इति।
अत्र विशेषमाह सुमन्तुः।
अनुपनीतोऽपि कुर्व्वीत मन्त्रवत्पितृमेधिकम्838।
यद्यसौ कृतचूड़ः स्याद्यदि स्याच्च त्रिवत्सरः।
वर्षत्रयानन्तरं चूड़ाभावेऽपि स एवौर्ङ्वदेहिकं मन्त्रवच्च कुर्य्यात् वर्षत्रयादर्व्वाक् कृतचड़ोऽपि शक्तश्चेत्सर्वं मन्त्रवच्च कुर्य्यात्। यद्यशक्तः अथाकृतचूड़ोवा तदाग्निदानमात्रं कुर्य्यादिति व्यवस्था।
शङ्खः।
भार्य्यापिण्डं पतिर्दद्याद्भर्त्त्रे भार्य्यातथैव च।
श्वश्र्वादेस्तु स्रुषा चैव तदभावे तु सोदरः॥
भार्य्यापिण्डमित्यादि पुत्त्रद्यभावविषयम्।
वीजिक्षेत्त्रिणोर्विषये मरीचिः।
सगोत्रे वान्यगोत्रे839 वा यो भवेद्विधवासुतः।
पिण्डश्राद्धविधानन्तु क्षेत्रिणो प्राग्विनिर्वपेत्॥
वीजिनेऽपि ततः पश्चात्क्षेत्रीजीवति चेत्क्वचित्।
वीजिने ददयुरादौ च मृते पश्चात्प्रदीयते॥
उभौ यदि मृतौ स्यातां वीजिन्यादौ तदा ददेत्।
क्षेत्रिणयादौ न दत्तं स्याद्वीजिने नोपतिष्ठते840॥
क्षेत्रिणे दत्त्वा बीजिने दत्ते तद्वीजिने नोपतिष्ठत इत्यर्थः। एतच्च विधवानियोगविधिना यत्र नियोगस्तद्विषयम्। अनियोगस्थले तु नारदोक्तं द्रष्टव्यम् \।
जाता ये त्वनियुक्तायामेकेन बहुभिस्तथा।
अरिक्थभाजस्ते सर्व्वे वीजिनामेवतेसुताः॥
दद्युप्ते बीजिने पिण्डं माता चेच्छुल्कतोहृता।
अशुल्कोपनीतायान्तु841 पिण्डता वोढ़ुरेव तु॥इति।
पिण्डता बीजिमापिण्डामात्रमेव तेषां न पिण्डदानाद्यधिकारः। ते सुता बो
ढुरेव क्षेत्रिणेएवेत्यर्थः। पिण्डदा वोढुरेव ते इत्यपि पाठः। सापिण्ड्येसत्यपि न ब्रह्मचार्य्यादिभिः पिण्डोदकदानादिङ्कर्त्तव्यम्।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
न ब्रह्मचारिणः कुर्य्युदकं पतितास्तथा।
उदकमिति पिण्डदानाद्युपलक्षणंब्रह्मचारिण842उदकदानादि-
निषेधो मातापित्रादिव्यतिरिक्तविषयः।
तथाच स एव।
आचार्य्यपित्रुपाध्यायान्निर्हत्यापि व्रती व्रती।
शकटान्रञ्च नाश्रीयान्न च तैः सह संविशेत्॥
व्रती ब्रह्मचारी व्रती व्रत्येव नाम्य ब्रह्मचर्य्यव्रतम्भ्रंश इत्यर्थः। स ब्रह्मचारी शकटान्नमाशौच्यन्नं नाश्रीयात्। निर्हत्येत्यनेन दाहाद्यौर्द्धदेहिकं सकलमपि लक्ष्यते।
मात्रादिव्यतिरिक्तविषये मनुः।
आदिष्टी नोदकं कुर्य्यादात्रतस्य समापनात्।
समाप्ते तूदकङ्कृत्वा त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्॥
आदिष्टी ब्रह्मचारी। केचन प्रायश्चित्तिनमादिष्टीति मन्यन्ते। व्रते समाप्ते तूकङ्कृत्वा दिनत्रयमशुचिःस्यादित्यर्थः।
बृद्धमनुः।
क्लीवाद्या नोदकं कुर्य्युःस्तेनव्रात्याविधर्म्मिणः।
गर्भभर्त्तद्रुहश्चैव सुराप्यश्चैव योषितः॥
पूर्व्वोक्तब्रह्मचार्य्यादिव्यतिरिक्तैरपि सपिण्डैर्मृतपाषण्ड्याद्युद्देशेनोदकादिकं न कार्य्यम्।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
पाषण्डाऽनाश्रिताः स्तेना भर्त्तृघ्न्याःकामगादिकाः।
सुराप्य आत्मत्यागिन्यो नाशौचोदकभाजनाः॥
वेदवाह्यलिङ्गधारणं पाषण्डम्। अनाश्रिताःअधिकारी सत्यप्याश्रमविशेषरहिताः। स्तेनाः ब्राह्मणसुवर्णव्यतिरिक्तोत्तमद्रव्य-
हारिणः। पापण्ड्यादिमरणस्याशौचादिनिमित्ताभावान्मरणे सति सपिण्डैरुदकादिकं न कर्त्तव्यमित्यर्थः।सुराप्य इत्यादिषु843 लिङ्गमविवक्षितमुद्देश्यगतत्वात्।
आत्मत्यागिषु विशेषमाह गौतमः
प्रायोऽनाशकशस्त्राग्निविषोदकोद्बन्धनप्रपतनैःस्वेच्छतामिति।
प्रायो महाप्रस्थानम्। अनाशकमनशनम्। प्रपतनं शैलशिखरादवपातनम्। इत्यादिभिर्निमित्तैः शास्त्राविहितमार्गेणेच्छापूव्वेकं मृतानामशौचादिकं न कर्तव्यमित्यर्थः।
अङ्गिराः।
चाण्डालादुदकात्सर्पाद्ब्राह्मणद्वैद्युतादपि।
दंष्ट्रिभ्यश्च पशुभ्यश्च मरणं पापकर्म्मिणाम्॥
उदकं पिण्डदानञ्च प्रेतेभ्यो यत्प्रदीयते।
नोपतिष्ठति तत्सर्व्वमन्तरीक्षेविनश्यति॥
मनुः।
वृथासङ्गरजाताना844म्प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम्।
आत्मनस्त्यागिणाञ्चैव निवर्त्तेतोद्कक्रिया।
वृथासङ्करजातानामिति वृथाजाता पञ्चमहायज्ञादिरहिताः सङ्घरजाताः प्रतिलोमजाः। प्रमादात्पूर्व्वोक्तनि-
मित्तैर्मरणे विद्यत एवाशौचादिकम्।
अतएवाङ्गिराः।
अथ कश्चित्प्रमादेन म्रियेताग्न्युदकादिभिः।
तस्याशौचं विधातव्यं कर्त्तव्या चोदकक्रिया।
चाण्डालादिमृताहिताग्नेरग्न्यादीनांप्रतिपत्तिकर्म्म च स्मृत्यन्तरेऽभिहितम्।
वैतानम्प्रक्षिपेदप्सु आवसथ्यञ्चतुष्पथे।
पात्त्राणि तु दहदग्नौयजमाने वृथामृते॥
वृथामृतः अविहितमार्गेण सृतः।
तथा।
आत्मनस्त्यागिनां नास्ति पतितानां तथा क्रिया।
तेषामपि च गङ्गायास्तीरे संस्थापनं मतम्॥
गङ्गेति पुण्यनद्युपलक्षणम्। एवं पूर्व्वोक्तनिन्दितमरणे मृतानां स्रेहादिनाग्न्याद्यौदेहिककरणे स्मृत्यन्तरे प्रायश्चित्तमाम्नातम्।
कृत्वाग्निमुदकं स्रानं स्पर्शनं वहनं वृथा।
रज्जुच्छेदपतञ्च तप्तकृच्छ्रेण शुध्यति॥इति।
एतच्च बुद्धिपूर्व्वकप्रत्येकाग्न्यादिकरणे।
अबुद्धिपूर्व्वके तु संवर्त्तः।
एषामन्यतमं प्रेतं यो वहेत दहेत वा।
कटोदकक्रियां कृत्वा कृच्छ्रं सान्तपनं चरेत्॥
यच्च सुमन्त्वादिभिर्मासं भैक्षाहारस्त्रिषवणञ्च तथा एकरात्राभोजनादिकञ्चाभिहितम् तदशक्तविषये देशकाला
द्यपेक्षानुसारेण योजनीयम्। यस्तु वृद्धदिर्लुप्तभिषक्रिय845स्त स्यात्महननमप्यनुज्ञातमादिपुराणेषु।
वृद्धः शौचस्मृते846र्लुप्तः प्रत्याख्यातभिषक्क्रियः।
आत्मानङ्घातयेद्येस्तु भृग्वग्न्यशनयनाम्बुभिः॥
तस्य त्रिरात्रमाशौचं द्वितीये त्वस्थिसञ्जयः।
तृतीये तृदकङ्कृत्वा चतुर्थे श्राद्धमारभेत्॥
तथा।
गच्छेन्महापथंवापि तुषारगिरिमादरात्।
प्रयागे वटाशाखायां देहत्यागङ्करोति यः॥
स्वयं देहविनाशस्य काले प्राप्ते महामतिः।
उत्तमान्प्राप्नुयाल्लोकान्नात्मघाती भवेत्क्वचित्॥
एतेषामधिकारस्तु सर्व्वेषां सर्व्वजन्तुषु।
नराणामथनारीणां सर्व्ववर्णेषु सर्व्वदा।
अशौचं स्यात्त्रहं तेषां बज्रानलहतेषु च॥
वाराणस्यां म्रियेद्यस्तु प्रत्याख्यातभिषक्क्रियः।
प्रणवं तारकं ब्रूते नान्यथा कस्यचित्कचित्॥
विवस्वान्।
सर्व्वेन्द्रियविमुक्तस्य स्वव्यापाराक्षमस्य च।
प्रायश्चित्तमनुज्ञातमग्निपातोमहापथः ॥
धर्म्मार्ज्जनासमर्थस्य847 द्वादशवार्षिकादिरूपप्रायश्चित्तासमर्थस्य। एवं शास्त्राविहितमार्गेण मृतानां चाण्डालादिमृतानां संवत्सरादूर्द्धमौर्द्धदेहिकङ्कार्य्यम्।
षट्त्रिंशन्मते।
गोब्राह्मणैर्हतानाञ्च पतितानां तथैव च।
ऊर्द्धंसंवत्सरात्कुर्य्यात्सर्व्वमेवौर्द्धदेहिकम्॥
अत्रापरं विशेषमाह
पराशरः।
चाण्डालेनश्वपाकेन गोभिर्विप्रैर्हतो यदि।
आहिताग्निर्मृतो विप्रो विशेषेणात्मघातकः॥
दहेत ब्राह्मणं विप्रो लोकाग्नौ मन्त्रवर्ज्जितम्।
दग्ध्वास्थीनि पुनर्गृह्य क्षारेण क्षालयेत्ततः।
स्वेनाग्निना स्वमन्त्रेण पृथगेतत्पुनर्दहेत्॥
संवत्सरादर्व्वागपि तत्तत्पापानुसारेण द्विगुणादिकं प्रायश्चित्तं विधाय नारायणबलिञ्च कृत्वा और्द्धदेहिकङ्कार्य्यम्। आयुषोऽनित्यत्वेन848 संवत्सरानन्तरमौर्द्धदेहिकादिलोपप्रसङ्गात्।
तच्च नारायणबलिङ्कृत्वा
तथाच वृद्धयाज्ञवल्क्यः।
नारायणबलिः कार्य्यालोकगर्हाभयान्नरैः।
तथा तेषां भवेच्छौचं नान्यथेत्यत्रवीद्यमः॥
नारायणवल्यौर्द्ध्देहिककरणे भवतीत्यर्थः
सर्पहतेषु विशेषः।
संवत्सरं यावत्पञ्चम्यांनागपूजां विधायतदनन्तरं नारायणबलिङ्कृत्वा सौवर्णनागं प्रत्यक्षाङ्काञ्च व्यासोद्देशेन ब्राह्मणाय दत्त्वा और्द्धहिकङ्कुर्य्यात्।
नारायणबलिस्वरूपञ्चविष्णुनाभिहितम्।
एकादशीं समासाद्य शुक्लपक्षस्य वै तिथिम्।
विष्णुं समर्च्चयेद्देवं यमं वैवस्वतं तथा॥
दश पिण्डान् घृताभ्यक्तान्दर्ब्भेषु मधुसंयुतान्।
तिलमिश्रान् प्रदद्याद्वै संयतोदक्षिणमुखः॥
विष्णुं बुद्धौसमासाद्य नद्यम्भमि ततः क्षिपेत्।
नामगोत्रग्रहङ्कृत्वा पुष्पैरभ्यर्च्चनं तथा
धूपदीपप्रदानञ्च भक्ष्यभोज्यं तथापरम्॥
निमन्त्रयेत विप्रान्वैपञ्चसप्त नवापि वा।
विद्यातपःसमृद्धान्वैकुलोत्पन्नान् समाहितान्॥
अपरेऽहनि सम्प्राप्ते मध्याह्नेसमुपोषितः।
विष्णोरभ्यर्च्चनङ्कृत्वा विप्रांस्तानुपवेशयेत्।
उदङ्मुखान्यथाज्येष्ठं पितृरूपमनुस्मरन्॥
मनो निवेश्य विष्णौवै सर्व्वङ्कुर्य्यादतन्त्रितः।
आवाहनादि यत्प्रोक्तं दैवपूर्व्वंतथाचरेत्।
तृप्तान्ज्ञात्वा ततोविप्रस्तृप्तिं दृष्ट्वा यथाविधि।
हविष्यव्यञ्जनेनैव तिलादिसहितेन च।
पञ्च पिण्डान् प्रदद्याच्च दैवं रूपमनुस्मरन्॥
प्रथमं विष्णवे दयाद्ब्रह्मणे च शिवाय च।
यमाय सानुमाराय चतुर्थं पिण्डमुत्सृजेत्॥
मृतं सङ्कीर्त्त्यमनमा गोत्रपूर्व्वमतःपरम्।
विष्णोर्नाम गृहीत्वैवं पञ्चमं पूर्व्ववत्क्षिपेत्॥
विप्रानाचम्य विधिवद्दक्षिणाभिः समर्च्चयेयेत्।
एकं वृद्धतमं विप्रं हिरण्येन समर्च्चयेत्।
गवा वस्त्रेण भूम्या च प्रेतन्तं मनसा स्मरेत्॥
ततस्तिलाम्भोविप्रास्तुहस्तैर्दर्ब्भसमन्वितैः।
क्षिपेयुर्गोत्रपूर्व्वन्तु नामबुद्धौनिवेश्य च॥
हविर्गंन्धतिलाम्भस्तु तस्मै दद्युः समाहिताः।
मित्रभृत्यजनैः सार्द्धंपश्चाद्भूञ्जीत वाग्यतः॥
भविष्यपुराणे।
सुवर्णभारनिष्पन्नं नागङ्कृत्वा तथैव गाम्।
व्यासाय दत्त्वा विधिवत्पितुरानृण्यमाप्तवान्॥इति।
उदकादिदानानन्तरकर्त्तव्यतामाह
याज्ञवल्क्यः।
कृतोदकान् समुत्तीर्णान्मृदुशाद्वलसंस्थितान्।
स्राता नाववदेयुस्तानितिहाप्तैः पुरातनैः॥
अववदेयुःबोधयेयुः।
इतिहासरूपञ्च।
मानुष्ये कदलीस्तम्भे निःसारे सारमार्गणम्।
करोति यः स मूढात्मा जलबुद्बुदसन्निभे॥इति।
तथाच न रोदितव्यमपीति स एवाह।
श्लेष्माश्रुबान्धवैर्मुक्तं प्रेतोभुङ्क्तेयतोऽवशः।
अतो न रोदितव्यं हि क्रिया कार्य्याःस्वशक्तितः॥
इतिहामश्रवणानन्तरं किङ्कर्त्तव्यमित्यत आह।
इति संश्रुत्य गच्छेयुर्गृहं बालपुरःसराः।
विदश्य निस्बपत्राणि नियता द्वारवेश्मनि849।
आचम्यादाय सलिलं गोमयंगौरसर्षपान्।
प्रविशेयुःसमालभ्य कृत्वाश्मनि850 पटं शनैः॥
धर्म्मार्थप्रेतनिर्हरणादिकर्त्तव्यतायापि स्ननन्तरं प्राणानायम्य निम्बपत्रदंशनप्रभृतिगृहप्रवेशान्तकर्म्मकरणेन सद्यः शुद्धिः851।
यतः स एवाह।
प्रवेशनादिकङ्कर्म्मप्रेतसंस्पर्शिनामपि।
इच्छतां तत्क्षणाच्छुद्धिं परेषां852 स्नानसंयमात्॥
पराशरः।
अनाथं ब्राह्मणम्प्रेतं ये वहन्ति द्विजातयः।
पदेपदेयज्ञफलमानुपूर्व्वगल्लभन्ति ते॥
न तेषामशुभं किञ्चित्पापं वा शुभकर्म्मणाम्853।
जलावगाहनात्तेषां सद्यःशौचं विधीयते॥
यत्तु स्नेहादिवशान्निर्हृत्य854 तदन्नमश्नाति तद्गृहे च निवसति तस्य दशाहाच्छुद्धिर्यस्तत्पूर्व्ववदेव निर्हृत्व तद्गृहे वसति न तदन्नमश्नाति स त्रिरात्राच्छुध्यति। यश्च निर्हरणादिकमेव करोति न तद्गृहवासंन च तद्न्नभोजनं स त्वेकाहात्।
तथाच मनुः।
असपिण्डं द्विजं प्रेतं विप्रो र्निहृत्य बन्धुवत्।
विशुध्यति त्रिरात्रेण मातुराप्तांश्च बान्धवान्॥
यद्यन्नमत्तितेषान्तु दशाहेनैव शुध्यति।
अनदन्नन्नमह्नैव न चेत्तस्मिन् गृहे वसेत्॥
एतच्च सजातीयविषयम्।
विजातीयविषये तु गौतमोक्तो विशेषः।
अवरश्चेद्वर्णाःपूर्व्ववर्णमुपस्पृशेत्पूर्व्वोवावरम। तत्र शावोक्तमाशौचमिति।
उपस्पृशेन्निर्हरेत्। हीनवर्णश्चेदुत्कृष्टं निर्हरति उत्कृष्टश्चेन्नीचं तत्र निर्हरणीयाशौचदिनैः शुद्धिः। ब्राह्मणश्वेच्छूद्रं निर्हरति तदा मासेन शुद्धिः, शूद्रश्चेद्ब्राह्मणं तदा दशभिर्दिनैः, इत्यनेन प्रकारेणानुसन्धेयम्।
ब्रह्मपुराणे।
ब्राह्मणस्त्वन्यवर्णानां न करोति कदाचन।
कामान्मोहाद्भयाल्लोभात्कृत्वा तज्जातितां व्रजेत्॥
पुत्राःकुर्व्वन्ति855विप्राय856 क्षत्त्रविट्शूद्रयोनयः।
स857 तादृशेभ्यः858 पुत्रेभ्यो न करोति कदाचन॥
राज्ञिमृते सपिण्डे तु निरपत्ये पुरोहितः।
मन्त्री वा तदशौचन्तु चीर्त्वापश्चात्करोति सः॥
अनपत्ये अविद्यमानमपिण्डे च राजनि मृतेस्वपुरोहितस्तस्मै राज्ञेश्राद्धं कुर्य्यात्तत्प्रयुक्ताशौचं चीर्त्वित्यर्थःशवसंस्पर्शनिमित्तं चाशौचं स्पर्शवत् एव न तद्भार्य्यादीनां तद्द्रव्याणां वा।
तथाचाङ्गिराः।
आशौचं यस्य संसर्गाज्जायते गृहमेधिनः।
क्रियास्तस्य न लुप्यन्ते गृहाणाञ्च न तद्भवेत्॥
क्रिया वैतानीपासनाद्याः। गृह्याणां गृहे भवानामतिक्रान्ताशौचेऽप्येवमेव।
अतिक्रान्ते दशाहे तु पश्चाज्जानाति चेद्गृही।
त्रिरात्रं मृतकं तस्य न तद्रव्यस्य कर्हिचित्859॥
इति स्मरणात्।त्रिरात्रमिति मातापितृव्यतिरिक्तविषयम्।
आशौचिनां नियमविशेषो याज्ञवल्क्येनदर्शितः।
क्रीतलब्धाशना भूमौस्वपेयुस्तेपृथक् पृथक्।
क्रीताशना अयाचितलव्धाशना भवेयुरिति नियमादर्थादेतदभावे अनशनं सिद्धं दिनत्रयपर्य्यन्तमयं नियमः।
तथाच वशिष्ठः।
गृहाह्नजित्वा अयस्रस्तरे त्न्यहमनश्नन्त आसीरन्।
क्रीतोत्पन्न वर्त्तरन्निति।
आशौचिनां शयनायतृणमयस्रस्तरः अयस्रस्तर इत्युच्यते।
मनुः।
अक्षारलवणान्नाःस्युर्निमज्जेयुश्च ते त्न्यहम्।
मांसाशनञ्च नाश्रीयुरिति॥
गौतमः।
अधःशय्याशायिनोब्रह्मचारिणः सर्व्व इति।
तथा वपनं दुःखानुभाविभिः सर्व्वैःसपिण्डैः पुत्त्रैरेव स्वस्वदेशाचारानुसारेण। प्रथमदिनप्रभृति विषमदिनेषु अपि श्राद्धादिप्रदानात्पूर्व्वङ्कर्त्तव्यम्।
यदाहापस्तम्बः।
अनुभाविनाञ्च परिवापनमिति।
अनुभाविनीऽल्पवयसः सपिण्डाः पुत्त्राश्च।
तथा।
द्वितीयेऽहनि कर्त्तव्यं क्षुरकर्म्म प्रयत्नतः।
तृतीये पञ्चमे वापि सप्तमे वा प्रदानतः॥
तथा।
गङ्गायां भास्करे क्षेत्रे मातापित्रोर्गुरौ मृते।
आधाने सोमपाने860च वपनं सप्तसु स्मृतम्॥इति।
देवलः।
दशमेऽहनि सम्प्राप्ते स्नाानद्वामाद्वहिर्भवेत्।
तत्र त्याज्यानि वासांसि केशश्मश्रुनखानि च॥इति।
प्रथमादिदिनेषु कृतक्षौरस्यापि शुद्ध्यर्थं दशमदिनेऽपि वपनङ्कर्त्तव्यम्। दशमदिनमिति सूतकान्तोपलक्षणम्। अन्ते च वाससां त्याग इति स्मरणात्। सूतकान्तकर्त्तव्य वासस्त्यागसाहचर्य्यात्केशश्मश्र्वादित्यागोऽपि सूतकान्तेऽपि कर्त्तव्यः।
अस्थिसञ्चयनदिनमपि वैकल्पिकम्।
तत्र संवर्त्तः।
प्रथमेऽह्नितृतीये वा सप्तमे नवमे तथा।
अस्थिसञ्चयनङ्कार्य्यं दिने तद्गोत्रजैःसह॥
विष्णुः।
चतुर्थे दिवसेऽस्थिसञ्चयनं कुर्य्यात्तेषाञ्च गङ्गाम्भसि प्रक्षेपः। द्वितीये त्वस्थिमञ्चय इति स्वगृह्यानुसारेण व्यवस्था। अस्थिसञ्चयन दिवसे च श्मशानवासिदेवतानामुद्देशेन पूजा कर्त्तव्या।
अस्पृश्यत्वलक्षणाशौचनिवृत्तिकालनियममाह
देवलः।
दशाहादित्रिभागेन कृते सञ्चयने क्रमात्।
अङ्गस्पर्शनमिच्छन्ति वर्णानां तत्त्वदर्शिनाम्॥
त्रिचतुःपञ्चदशभिः स्पृश्या वर्णक्रमेण तु।
अस्थिसञ्चयकृतएव स्वाशौचत्रिभागतः॥
शुद्धिर्न त्वस्थिसञ्चयनाभाव इति तात्पर्य्यम्।
तथाच स्मर्य्यते।
अस्थिसञ्चयनादूर्द्धमङ्गस्पर्शोन दुष्यति। इति।
एतदुपनीतविषयम्। अनुपनीतेत्वस्थिसञ्चयनमन्तरेण स्वाशौचत्रिभागतः स्पृश्यत्वम्।
तदाह देवलः।
स्वाशौचकालाद्विज्ञेयं स्पर्शनन्तु त्रिभागतः।
शूद्रविट्क्षत्त्रविप्राणां यथाशास्त्रं प्रचोदितम्॥इति।
कर्म्मनधिकारलक्षणं त्वाशौचं स्वस्ववर्णाशौचकालानन्तरं स्नानादिभिरपगच्छति। एतच्चाशौचमाहिताग्नेःसंस्कारदिनप्रभृति अनाहिताग्नेस्तु मरणदिनप्रभृति अस्थिसञ्चयनं तूभयोरपि संस्कारादिदिनप्रभृतीति विवेकः।
तथाचाङ्गिराः।
अनग्निमत उत्क्रान्तैः861 साग्नेः संस्कारकर्म्मणः862॥इति।
पैठीनसिरपि।
अनग्निमत उत्क्रान्तैराशौचादिर्द्विजातिषु।
दाहादग्निमतो विद्याद्विदेशस्थे मृते तथा॥इति।
साग्निकस्य दाहप्रभृत्येवशौचादीनि तत्पुत्त्रादीनामासंस्कारासन्ध्यादिकर्म्मलोपोनास्तिः863।
अशौचे नित्यनैमित्तिकयोर्निवृत्तिः परिस्कारेण दर्शिता।
नित्यानि विनिवत्तेरन्नित्यवेतानवर्जं शालाग्नावेकः अन्य एतानि कुर्य्युः।
अत्र नित्यशब्देनावश्यकनैमित्तिकानामप्युपसंग्रणम्। अतो वैतानानां स्मार्त्तांनाञ्च कर्म्मणां प्रतिप्रसवेपि नैमित्तिकस्यापि प्रतिप्रसवः। काम्यानान्तु सर्व्वत्र सर्व्वस्यापिनिवृत्तिः। वितानाग्नीनां निस्तारः त्रेताग्निः। तत्र क्रियमाणानि नित्याग्निहोत्रादीनि वैतानानि वर्ज्जयित्वा नित्यानि विनिवर्तेरन् इत्ययं निषेधोनित्याग्निहोत्रादिषुन प्रवर्त्ततेइत्यर्थः। अतः स्वयमेव कुर्य्यात्। शालाग्निर्गृह्या ग्निस्तसम्बन्धिनां सायंप्रातर्होमस्थालीपाकादीनां पाक्षिको कर्तव्यता करणमकरणं वा शास्त्रार्थ इत्यर्थः। यदा करणपक्षस्वीकारः तदा अन्य असपिण्डा एतानि कुर्य्युःअन्येनामपिण्डेनैतानि कारयेदित्यर्थः। तत्रापि स्वद्रव्यत्यागात्मकप्रधानं स्वयमेव कुर्य्यात्। तस्यानन्यनिष्पाद्यत्वात्।
पुलस्त्यः।
सन्ध्यामिष्टिं चरुं होमं यावज्जीवं समाचरेत्।
न त्यजेत्सूतके वापि त्यजन् गच्छेदधोद्विजः॥
इष्टिराहिताग्नेर्दर्शपौर्णमासादिकश्चरुः। अनाहिताग्नेःस्थालीपाकादिरूपः।
जातूकर्णः।
सूतके तु समुत्पन्ने स्मार्त्तङ्कर्म्मकथं भवेत्।
पिण्डयज्ञं चक्रं होममसगोत्रेण कारयेत्॥
पिण्डयज्ञःपिण्डपितृयज्ञ। चरुश्नपणकर्म्माखयुज्यादिकःस्थालीपाकश्च। असगोत्रा असपिण्डाः पिण्डनिषेधस्थाशौचनिमित्तत्वात्। अशौचरहितेन ब्रह्मचारिणा सपिण्डेन होतव्यमिति गम्यते।
वृहस्पतिः।
सूतके मृतके चैव अशक्तौश्राद्धभोजने।
प्रवासादिनिमित्तेषु हावये न्न864 तु हापयेत्865॥
अग्निसाध्येऽपि वैश्वदेवस्य निवृत्तिस्तथा पञ्चयज्ञादीनामपि।
तथाच संवर्त्तः।
विप्रो दशाहमासीत वैश्वदेवविवर्ज्जितः।
पञ्चयज्ञविधानन्तु न कुर्य्यान्मृत्युजन्मनोः॥इति।
एवञ्चोक्तनित्यनैमित्तिकव्यतिरेकेणेतरेषां नैमित्तिकानामपि निवृत्तिः। यत्पुनः
दानं प्रतिग्रहो होमः स्वाध्यायश्च निवर्त्तते। इति
तत्काम्यहोमाभिप्रायं वैश्वदेवाभिप्रायं वा।
सन्ध्याविषये विष्णुपुराणे
सर्व्वकालमुपस्थानं सध्यायाःपार्थिवेष्यते।
अन्यत्र सूतकाशौचविभ्रमातुरभीतितः॥
सूतके आशौचे सन्ध्यायाः न स्वरूपतः परित्यागः अपि तु मन्त्रोच्चारणपूर्व्विकायाः। पुलस्त्येन प्राणायामरहितमानसिकसन्ध्याभ्यनुज्ञानात्।
सूतकेमृतकेचैव सन्ध्याकर्म्म समाचरेत्।
मनमा धारयेन्मन्त्रान् प्राणायामादृते द्विजः॥ इति।
अञ्जलिप्रक्षेपस्तु सावित्रीमुत्रार्य्ये कार्य्यः।
तथाच पैठीनसिः
सूतकेसावित्र्याचाञ्जलिं प्रक्षिप्य दक्षिणाङ्कृत्वा सूर्य्यं ध्यायन्नमस्कुर्य्यात्॥इति।
सूतकादौग्रहणे जाते स्नानदानश्राद्धेन दीपः।
तथाच वृद्धवशिष्ठः।
चन्द्रसूर्य्यग्रहे स्नायान्मृतके सूतकेऽपि च।
अस्नायी मृत्युमाप्नोति स्रायो मृत्युं न विन्दति॥
तथा।
सूतके मृतके चैत्र न दोषो राहुदर्शने866।
तावदेव भवेच्छुद्धिर्यावन्मुक्तिर्न दृश्यते॥
सूतके मृतके वाऽसपिण्डैरसमानोदकैश्चाशौचान्नंन भोक्तव्यम्।
उभयत्र दशाहानि867कुलस्यान्नंन भुज्यते।
उभयत्र सूतके मृतके च। सकुल्यानान्तु न दोषः।
सूतकेषु कुलस्यान्नमदोषंमनुव्रवीत्।
इति तेनैवोक्तत्वात्।
षट्त्रिंशन्मते।
उभाभ्यामपरिज्ञाते सूतकं नैव दोषकृत्।
एकेनापि परिज्ञाते भीक्तुर्दोषोऽनुपावहेत्॥
उभाभ्यां दातृभोक्तृभ्यां यद्यपि दात्रा सूतकाद्यपरिज्ञाते दातुः सूतकं नाम्ति ज्ञातस्यैव जननादेर्निमित्तत्वात्।868 तथापि दातृपरिज्ञानमन्तरेण केवलं भोक्तुर्ज्ञनेऽपि वचनाद्भोजने दोषो भोक्तुरेव उपपद्यते भोक्तुरपि ज्ञानं भोजननिवृत्तौ निमित्तम्। सूतकादिस्वरूपनिष्पत्तिरेकोऽशःतज्ज्ञानञ्चापरः एतदुभयविशिष्टं869 निमित्तम्। एवञ्च निमित्तैकदेशस्य प्रसवादेर्भोंक्ताज्ञातत्वादेकदेशविभावितन्यायेना870न्यस्यापि सम्भाव्यमानत्वात्
केवलभोक्तृज्ञानेऽपि भोजननिवृत्तिः। यदा तु दात्राज्ञातं न भोक्ताएकदेशविभावितन्यायात्तदापि भोक्तुरेव वचनाद्भोजन निमित्तो दोषः न दातुः। अपि च दातुः सूतकान्नभोजयितृत्वदीषोऽस्त्येव871 अयञ्चभोजयितृत्वनिमित्तोदोषः मृतके सूतकेविहितप्रथमादिदिननवश्राद्धादिव्यतिरिक्तकाले विज्ञेयः तत्काले विहितत्वात्।
ब्रह्मपुराणे।
अपि दातृगृहीत्रोश्चसूतकेमृतकै तथा।
अविज्ञाते न दोषः स्याच्छ्राद्धादिषु कदाचन872॥
विज्ञातेभोक्तृरेव स्यात्प्रायश्चितादिकं क्रमात्॥
बृहस्पतिः
विवाहोत्सवयज्ञेषु त्वन्तरा मृतसूतके।
परैरन्नंप्रदातव्यं भोक्तव्यञ्च द्विजोत्तमैः॥
भुञ्जानेषु च विप्रेषु त्वन्तरा मृतसूतके।
अन्यगेहोदकाचान्ताः सर्व्वेते शचयः स्मृताः॥
मरीचिः।
लवणे मधुमांसे च पुष्पमूलफलेषु च।
शाककाष्ठतृणोष्वप्सुदधिसर्पिःपयःसु च॥
तिलौपधाजिने873 चैव पक्वापक्वेस्वयङग्रहः874।
पुष्पेषुचैव सर्व्वेषु नाशौचं मृतसूतके॥
स्वयङ्ग्रहः स्वम्यनुज्ञातोगृह्णोयादित्यर्थः। पक्वापक्वइति पक्वंभक्ष्यजातमपक्वंतण्डुलादिकं चान्नसत्रवृत्तादेव ग्राह्यं नान्यस्मात्।
तथाचाङ्गिराः।
अन्नसत्रप्रवृत्ताना875माममन्नमगर्हितम्।
भूक्त्वा पक्वान्नमेतेषांत्रिरात्रन्तु पयःपिवेत्।
अत्र भक्ष्यव्यतिरिक्तोदनादिविषये पक्वशब्दः। इतरथा मरीचिवचनविरोधात्। ब्रतादिष्वारब्धेपु सत्सुपश्चाच्चेत्सुकादिकं भवति तदा तावन्मात्रे सूतकाभावः।
व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धेहोमेऽर्च्चने जपे।876
प्रारब्धेसूतकं न स्यादनारब्धेतु सूतकम्॥
इति स्मरणात्। सूतकमिति मृतकस्याप्युपलक्षणम्। प्रारम्भश्च तेनैवाक्तः।
प्रारम्भोवरणं यज्ञेसङ्कल्पोव्रतजापयोः877।
नान्दीमुखं878 विवाहादौ श्राद्धेपाकपरिष्क्रिया॥
प्रारम्भाभावेऽपि कन्याया अधार्य्यत्वे, सन्निहितलग्नान्तराभावे च विण्णुनैवाभ्यनुज्ञादत्ता।
अनारब्धविशुद्ध्यर्थं कुष्माण्डैर्जुहुयाद्धृतम्।
गां दद्यात्पञ्चगव्याशी ततः शुध्यति सूतिकी॥
कुष्माण्डैःकुष्माण्डमन्त्रैः879।
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यद्देवा देवहेलनं देवासश्चकृमा वयम्।
आदित्यास्तस्मान्मा मुञ्चतर्तस्यर्तेन मामित।
देवा जीवनकाम्या यद्वाचानृतमूदिम।
तस्मान्न इह मुञ्चत विश्वेदेवाः सजोषसः॥
ऋतेन द्यावापृथिवी ऋतेन त्वँसरस्वती।
कृतान्नः पाह्येनसो यत्किञ्चानृतमुदिम्॥
इन्द्राग्नी मित्रावरुणौ सोमो धाता बृहस्पतिः।
ते नो मुञ्चन्त्वेनसो यदन्यकृतमारिम॥
स जात शँसादुत जामिशँसाज्ज्यायसः शँसादुत वा कनीयसः।
अनाष्टृष्टं देवकृतं यदेनस्तस्मात्त्वमस्माञ्जातवेदो मुसुग्धि॥
यद्वाचा यत्मनसा बाहुभ्यानुरुभ्यामष्ठीबाद्भ्याँ शिश्रैर्यदनृतं चकृमा वयम्।
अग्निर्मा तस्मादेनसः गार्हपत्यः प्रमुञ्चतु चक्रम यानि दुष्कृता॥
येन त्रितो अर्णवान्निर्बभूव येन सूर्य्यंतमसो निर्मुमोच।
येनेन्द्रो विश्वा अजहादरातीस्तेनाहं ज्योतिषा ज्योतिरानशान आक्षि॥
यत्कुसीदमप्रतीतं मयेह येन यमस्य निधिना चरामि।
एतत्तदग्ने अनृणोभवामि जीवन्नेव प्रति तत्ते दधामि॥
यन्मयि माता यदा पिपेष यदन्तरिक्षं यदा शमाति।
क्रामामि त्रिते देवा दिवि जाता यदाप इमं मे।
वरुण तत्वायामि त्वन्नी अग्रे सत्वन्नो अग्ने त्वमग्ने अयासि॥
सुगुग्धि, सप्त च॥३॥
तैत्तिरीयं आरण्यके द्वितीयमप्रपाठके तृतीयोऽनुवाकः।
यददीव्यन्नृणमहं बभूवादित्सन्वा सञ्जगर जनेभ्यः।
अथानुलोमजविजातीयसपिण्डाशौचम्।
तत्र बौधायनः।
क्षत्रविट्शूद्रजातीया ये स्युर्विप्रस्य बान्धवाः।
तेषामशौचे विप्रस्य दशाहाच्छुद्धिरिष्यते॥
तेषामशौचे क्षत्रियादिजननादिनिमित्ताशौचे।
हारीतः।
दशाहाच्छुद्ध्यते विप्रोजन्महानौ880स्वयोनिषु।
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अग्निर्ह्यर्मा तस्मादिन्दश्व संविदानौप्रमुजताम्॥
यद्वस्ताभ्यां चक्रर किल्वि
ग्यक्षाणां वग्रुसुपजिघ्नमाणः।
उग्रम्पश्या च राष्ट्रसृच्च तान्यप्सरसावनुदत्तामृणानि॥
उग्रम्पश्ये राष्ट्रमृत्किल्विषाणि यदक्षरत्तमनुदत्तमेतत्।
नेत्र ऋणानृण्व इत्ममानोयमस्य लोके अधिरज्जुराय॥
अवते हेङ उदुत्तममियम्भे वरुण तत्त्वायामि त्वन्नो अग्ने स त्वन्नो अग्ने।
सङ्कुभुको विकुसुकोनिर्ऋथी यश्चनिस्वनः॥
तेयोऽम्मन् युग्ममनागमोदूराद्दूरमचीचतम्।
निर्यक्ष्ममचीचते कृत्यान् निर्ऋतिञ्च॥
तेन योऽम्मसमच्छातैतमस्मे प्रमुवामसि।
दुःशँसानुशँ साभ्यां घणेनामुघणेन च।
तेनान्योऽम्मत्समृच्छातौ तमस्मै प्रसुवामसि॥
संवर्चमा पयसा सन्तनुभिरगन्महि मनसा सँशिवेन।
त्वष्टा नो अत्र विदधातु रायोऽनुमार्ष्टु तन्नोतयद्विलिष्टं॥
कृत्यान् निरृऋतिञ्च पञ्च च॥ ४॥
तैत्तिरीये आरण्यके द्वितीयप्रपाठके चतुर्थोऽनुवाकः।
विष्णुः।
क्षत्त्रियस्य विट्शूद्रेषु सपिण्डेषु षड्रात्रत्रिरात्राभ्यां
वैश्यस्य शूद्रे सपिण्डे षड्रात्रेण शुद्धिर्हीनवर्णानामुत्कृष्टेषु
सपिण्डेषु जाते मृते वा तदाशौचव्यपगमे शुद्धिः।
बौधायनेनोक्तमनापद्विषयं हारीताद्युक्तं त्वापद्विषयमिति व्यवस्था। एतेषां सापिण्ड्यंत्रिपुरुषमेव पिण्डास्त्वावर्त्तन्ते त्रिष्विति सापिण्ड्यप्रकरणेऽभिहितत्वात्।
अपरो विशेषःआपस्तम्बेनोक्तः।
क्षत्रविट्शूद्रजातीनां यावन्मृतकसूतके।
तेषान्तु पैतृकं शौचं विभक्तानान्तु मातृजम्॥
पितृगेहेऽवस्थितानां तदविभक्तानां पितृजातीयमाशौचं विभक्तानान्तु मातृजात्याभिहितमित्यर्थः। प्रतिलोमानान्तु सूतकादिकं नास्त्येव प्रतिलोमा धर्म्महीना इति स्मरणात्। मूत्रपुरीषोत्सर्गवन्मलापकर्षणार्थं शौचं कुर्य्यात्।
अथ समानोदकाशौचम्।
जन्मन्येकोदकानान्तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते।
तत्र मनुः।
दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते।
जननेऽप्येवमेव स्यान्निपुणां शुद्धिमिच्छताम्॥
एकोदकाः समानोदकाःते च सप्तमपुरुषोर्द्धभागिनः881।
समानोदकभावानुवृत्तिश्चयावज्जन्मनाम्नोर्विज्ञानम्।
तथाच मनुः।
सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्त्तते।
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदने॥इति।
वर्त्तत इत्यन्वयः।
अथ प्रोषितमरणजननाशौचम्।
तत्र निर्दशजननश्रवणे पितुः सचेलस्नानाच्छुद्धिः।
यदाह मनुः।
निर्दशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च।
सवासा जलमाप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः॥
पुत्त्रस्य इति सम्बन्धसूचकत्वात्मितुरेव स्नानं सपिण्डानान्तु दशाहादिके व्यतीते सूतकं नास्त्येव।
अतएव देवलः।
नाशुद्धिः प्रसवाशौचव्यतीतेषु882 दिनेष्वपि।
प्रोषितमरणे तु याज्ञवल्क्यः।
प्रोषिते कालशेषः स्यादिति।
देशान्तरस्थ सपिण्डमरणे दशरात्राद्यशौचकाले चानतिक्रान्ते दशरात्रादिशेषं यावदशौचं भवति। न श्रवणप्रभृति पुनर्द
-
शाहिकमित्यर्थः। दशाहाद्यनन्तरं मामत्रयपर्य्यन्तं त्रिरात्रं ततः पण्मासपर्य्यन्तं पक्षिणी ततोनवमादर्व्वार्गिकाहः। ततः संवत्सरपर्य्यन्तं स्नानोदकदानाभ्यामेव शुद्धिःसंवत्सरानन्तरं स्नानेनेति विवेकः।
यदाह बृहद्वशिष्ठः।
मासत्रये त्रिरात्रं स्यात् षण्मासेपक्षिणी तथा।
अहस्तुनवमादर्व्वागूर्द्धं स्नानेन शुध्यति॥
स्रानं सहचरित883मुदकदानमप्याक्षिपति।
मनुः।
संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैपोविशुध्यति।
स्पृष्ट्वा स्नानेनेत्यर्थः। अन्यानि यानि विरुद्धवचनानि तानि पूर्व्वोक्तविषय एव योज्यानि एतन्मातापितृव्यतिरिक्तविषयम्।
अतएव पैठीनसिः।
पितरौचेन्मृतौस्यातां दूरस्थोऽपि हि पुत्त्रकः।
श्रुत्वा तद्दिनमारस्य दशाहं सूतकी भवेत्॥
दशाहमिति द्वादशाहाद्युपलक्षणार्थम्। मृतकी भवेदित्यनेन प्रेतकार्य्यकर्त्तव्यतां दर्शयति। मापत्न्यमातरि विशेषा दक्षेणोक्तः।
पितृपत्न्यामपेतानां मातृवज्जेद्विजोत्तमः।
संवत्सरे व्यतीते तु त्रिरात्रमशुद्धिर्भवेत्॥
एतच्च वक्ष्यमाणदेशान्तरलक्षणरहितदेशान्तरस्थलमृतौ। देशान्तरमृते तु सपिण्डे मासत्रयादर्व्वागपि सद्यः शौचम्।
देशान्तरमृतं श्रुत्वा क्लीवे वैखानसे884 पतौ।885
मृते स्नानेन शुध्यन्ति गर्ब्भस्रावे च गोत्रिणः॥
इति स्मरणात्।
देशान्तरलक्षणमाह वृद्धमनुः।
महानद्यन्तरं यत्र गिरिर्व्वा व्यवधायकः।
वाचो यत्र विभिद्यन्ते तद्देशान्तरमुच्यते॥
बृहस्पतिः।
देशान्तरं वदन्त्येके षष्टियोजनमायतम्।
चत्वारिंशद्वदन्त्यन्ये त्रिंशदन्ये तथैव च॥
अत्रच देशान्तरतो व्यवस्था।
स्मृत्यर्थमारे तु अन्यथा, तद्यथा
स्त्रीपुरुषयोः परस्परं त्वेवं सवर्णोत्तमपत्नीषु चैवम्।
एवमित्यनेन मातापितृसवर्णोशौचमेवेति ग्रन्थकारः परामृष्टवान्। देशान्तरे कालान्तरे च हीनवर्णायाः मातुः सपत्न्या मरणे तु पुत्त्रस्य त्रिरात्रं हीनवर्णपत्नीषु चैवम्। संवत्सरे व्यतीते तु सपत्न्योःपरस्परं चैवमिति। अतिक्रान्ताशौचमुपनीतोपरमएव। एतच्च वयोवस्थाशौचवत्सर्व्ववर्ण साधारणम्।
तथाच व्याघ्रपादः।
तुल्यं वयसि सर्व्वेषामतिक्रान्ते तथैव च।
उपनीते तु विषमं तम्मिन्नेवातिकालजम्॥
अयमर्थः। जन्मप्रभृत्युपनयनादर्व्वाचीन886ेवयसिमहाशौचं तत् सर्व्वेषां ब्राह्मणादीनां तुल्यम्। यच्च दशाहादिके अतिक्रान्ते तदपि तुल्यम्। उपनीतोपरमे दशद्वादशेत्यादिरूपेणविषमम्। तम्मिन्नेव उपनीतीपरम एवातिकालजमतिक्रान्ताशौचम्भवति। न पुनर्व्वयोवस्थाशौचातिक्रम इति।
अथप्रोषितमृतदाहविधिस्तद्रशौचम्।
प्रोषितादिमृतशरीरालाभेतदस्थिभिः प्रतिकृति887ं कृत्वा अस्थामप्यलाभे स्वस्वगृह्योक्तप्रकारेण पर्णशरैः प्रतिकृतिं कृत्वा दाहः कार्य्यः। तत्राहिताग्निर्यदि प्रोषितमृतस्तदा दशाहद्वादशहादिक।888 मेवाशौचं भवति।
तथाच वशिष्ठः।
आहिताग्निश्वेत्प्रवसन् म्रियेत पुनः संस्काराङ्कृत्वा शववदशौचमिति।
संम्पूर्णशौचं सस्कारादूर्द्धमिति शेषः। अनाहिताग्नेस्त्रिरात्रम्।
सुपिष्टै889र्जलसंमिश्रैर्दग्धव्यश्च तथाग्निना।
असौस्वर्गाय लोकाय स्वाहेत्युक्त्वा स्वबान्धवैः॥
एवं पर्णनरं दग्ध्वा त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।
इति स्मरणात्।
अथोपाध्याद्युपरमे।
तत्र सन्निधाने अहरित्यनुवृत्तौ
याज्ञवल्क्यः।
गुर्व्वन्तेवास्य890 नूचान891मातुलश्रोत्रियेषु च।
गुरुरुपाध्यायः। एकग्रामनिवासिनः सन्निहितश्रोत्रियस्यैतदाशौचम्।
तद्यथाश्वलायनः।
एकाहं सब्रह्मचारिणि समानग्रामे च श्रोत्रियः। इति।
सब्रह्मचारी एकाचार्य्योपनीतः।
आचार्य्यविषये मनुः।
त्रिरात्रमाहुराशौचमाचार्य्ये संस्थिते सति।
तस्य पुत्त्रे च पत्न्याञ्च दिवारात्रमिति स्थिति॥
सन्निहितगुणवच्छ्रोत्रियसन्निहितमातुलाद्युपरमे
मनुरेव।
श्रोत्रिये तूपसम्पन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।
मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्वान्धवेषु च॥
उपसम्पन्नोमैत्रादियुक892्तो गुणयुक्तोवा।
बृहस्पतिः
त्न्यहं मातामहाचार्य्यश्रोत्रियेषु शुचिर्भवेत्।
वृद्धप्रचेताः।
संस्थिते पक्षिणीं रात्रिं दौहित्रेभगिनीसुते।
संस्कृतेतु त्रिरात्रंस्यादिति धर्म्मोव्यवस्थितः॥
पित्रोरुपरमे स्त्रीणामूढानान्तु कथं भवत्।
त्रिरात्रेणैव शुद्धिःस्यादित्याहभगवान्यमः॥
श्वशुरयोर्भगिन्याञ्च मातुलान्याञ्चमातुले।
पित्रोःस्वमरि तद्धच्चपक्षिणी क्षपयेन्निशाम्॥
तथा
मातुले श्वशुरे मित्रेगुणे गुर्व्वङ्गनासु च।
अशौचं पक्षिणीं रात्रिं मृता मातामही यदि॥
विदेशस्थभगिन्यादिषु स्नाानाच्छुद्धिः।
तथाच वृद्धविष्णुः।
भगिन्यां संस्कृतायान्तु भ्रातर्य्यपि च संस्कृते।
मित्रे जामातरि प्रेते दौहित्रेभगिनीसुते॥
श्यालके तत्सुतेचैवसद्यःशौचेन शुद्धति।
अत्रभ्रात्रपेक्षया भगिन्यास्तदपेक्षयाच भ्रातुःस्रानाच्छुद्धिः।
न तु भ्रात्रन्तरापेक्षया तस्य पूर्व्वोक्तरीत्या निर्दशादिमरणे893 ज्ञेयं तथा सन्निधाने।
ग्रामेश्वरे कुलपतौ श्रोत्रिये च तपस्विनि।
शिष्ये पञ्चत्वमापन्ने शुचिर्नक्षत्रदर्शनात्॥
अत्र शिष्यश्रोत्रियौ निर्गुणौ। दिवा चेदाशौचमायाति894 तदा नक्षत्रदर्शनाच्छुद्धिः।
विष्णुः।
असपिण्डे स्ववेश्मनि सुतमृत एकरात्रम्।
वृद्धविष्णुः।
ग्राममध्यगतो यावच्छवस्तिष्ठति कस्यचित्।
ग्रामस्य तावदाशौचं निर्गते शुचितामियात्॥
अनेनैव न्यायेन नगरेऽपि स्वस्ववीथीं895यावत् शवस्तिष्ठति तावदाशौचमिति विज्ञेयम्। उक्तप्रकारेण अन्येऽपि गुरुलघ्वाशौचकल्पाः सन्निधिविदेशस्थापेक्षया गुणवद्गुणापेक्षया व्यवस्थापनीयाः। क्षेत्रजादिषु
याज्ञवल्क्यः।
अनौरसेषु पुत्रेषु भार्य्यास्वन्यगतासु च।
अहोरात्रमित्यनुवर्त्तते। अनौरसेषु क्षेत्रजदत्तकादिषु जातेषु मृतेषु च। प्रतिलोमव्यतिरिक्तमन्यमाश्रितासु अन्यगताः। प्रतिलोमाश्रितासु त्वाशौचाभाव एव। एतच्चासन्निधाने।
सन्निधौविष्णुः।
अनौरमेषु पुत्त्रेषु जातेषु च मृतेषु च।
परपूर्व्वासु भार्य्यासु प्रसूतामु मृतासु च॥
अत्र त्रिरात्रमित्यनुवर्त्तते। परः पूर्व्वः पतिर्यामां भार्य्याणां ताःपरपूर्व्वाःएवंविधाः स्वैरिण्याद्या यमाश्रितास्तस्यापि त्रिरात्रमित्यर्थः। भार्य्यापुत्रशब्दयोः सम्बन्धिशब्दत्वात्। यस्य च भार्य्यायस्य च पुत्त्रस्यैवाशौचं सपिण्डानान्तु सद्यः शौचम्।
तथाच प्रजापतिः।
अन्याश्रितेषु दारेषु परपत्नीसूतेषु च।
गोत्रिणः स्नानशुद्धाःस्युस्त्रिरात्रेणेव तत्पिता॥
एतच्च सन्निधाने असन्निधानेतु पूर्वोक्तमेकाहं गोत्रिणःस्रानशुद्धाः स्युरिति। यत्र पितुस्त्रिरात्रात् पूर्णाशौचम् तत्र सपिण्डानां स्नानाशुद्धिः। यत्र तु पितुस्त्रिरात्रं तत्र सपिण्डानामेकाहम्।896
अतएव मरीचिः।
सूतकेमृतकेचैव त्रिरात्रं परपूर्व्वयोः।
एकाहन्तु सपिण्डानां त्रिरात्रं यत्र वैपितुः॥
स्वदेशराजनि मृते
मनुः।
प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद्विषये स्थितः।
ज्योतिषा सह वर्त्तते सज्योतिः अह्निचैवास्तमनपर्य्यन्तं रात्रौचेदुदयपर्य्यन्तमित्यर्थः। राज्ञां विषये विशेषेणैव अशौचाभावमाह।
महीपतीनां नाशौचं हतानां विद्युता तथा।
गोब्राह्मणार्थे सङ्ग्रामे यस्य चेच्छति भूमिपः॥
महीपतीनामाशौचाभावस्तु असाधारणप्रजापरिपालनशान्तिकपौष्टिकादौनित्यनैमित्तिकादिषु तु पूर्व्वोक्तैव व्यवस्था। यस्य च मन्त्रिपुरोहितादेरनन्यसाध्यकर्म्मणि सद्यः शौचम्।
यदाह प्रचेताः।
कारवः शिल्पिनो वैद्या दासी दासास्तथैव च।
राजानोराजभृत्याश्च सद्यःशौचाः प्रकीर्त्तिताः॥
कारवः मूपकारादयः। शिल्पिनःचेलनिर्णेजकचित्रकारादयः। एतेषाञ्च स्त्रीयस्त्रीयासाधारणकर्म्मण्येव सद्यः शौचंनान्यत्र
तथाच विष्णुः।
न राज्ञां राजकर्म्मणि न व्रतिनां व्रते न सत्रिणांसत्रे न कारुणां कारुकर्म्मणि।
शातातपः।
मूल्यकर्म्मकराः शूद्रा दासी दासस्तथैव च।
स्नाने शरीरसंस्कारे गृहकर्म्मण्यदूषिताः॥
एतदापद्विषयम्।
तथाच ।
सद्यः स्पृश्योगर्भदासो भक्तदासस्त्र्यहाच्छुचिः।
चिकित्सको यत्कुरुते तदन्येन न शक्यते॥
तस्माच्चिकित्सकःस्पर्शशुद्धोभवति नित्यशः।
अथानुगमनाशौचम्।
तत्र याज्ञवल्क्यः।
ब्राह्मणेनानुगन्तव्यो न शुद्रोन द्विजः क्वचित्।
अनुगम्याम्भसिस्नात्वास्पष्टाग्निं घृतभुक् शुचिः॥
इयञ्च स्नानादिजन्याशुद्धिः समानोत्कृष्टजातीयानुगमने। ब्राह्मणेन क्षत्त्रियानुगमने कृते
वशिष्ठेनोक्तम्।
मानुषास्थि स्निग्धं स्पृष्ट्वा त्रिरात्रमशौचमस्निग्धं त्वहोरात्रम्। शवानुगमने चैवमिति।
एवमित्यनेनाहोरात्रमतिदिशति। वैश्यानुगमने पक्षिणी परिकल्पनीया। क्षत्त्रियापेक्षया न्यूनत्वात् शूद्रपेक्षयाधिकत्वात्। ब्राह्मणस्य शूद्रानुगमने
पराशरः।
प्रेतीभूतन्तु यः शुद्रं ब्राह्मणो ज्ञानदुर्ब्बलः।
अनुगच्छेन्म्रियमाणं स त्रिरात्रेण शुध्यति।
त्रिरात्रे तु ततश्वीर्णे नदीं गत्वा समुद्रगाम्897।
प्राणायामशतं कृत्वा घृतं प्राश्य विशुध्यति॥
अनेनैव न्यायेन क्षत्रियस्य वैश्यानुगमने एकाहमित्यनुसन्धेयम्।
शङ्कः।
कृच्छ्रपादः सपिण्डस्य प्रेतालङ्करणे कृते।
अज्ञानादुपवासः स्वादशक्तौ स्नानमिष्यते॥
ज्ञाने तु द्विगुणम्।
पारस्करः।
मृतस्य बान्धवैः सार्द्धंकृत्वा तु परिदेवनम्898।
वर्ज्जयेत्तदहोरात्रं दानं श्राद्धादिकर्म्म च॥
अथशौचसन्निपातनिर्णयः
।
तत्र यस्याशौचस्य यावत्कालस्तन्मध्ये तत्समस्य न्यूनस्य वा सन्निपाते पूर्व्वाशौचशेषेण शुद्धिरन्तरापतितस्य च।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
अन्तराजन्ममरणे शेषाहोभिर्विशुध्यति।
स्वल्पाशौचमध्ये तु दीर्घाशौचसन्निपाते पूर्व्वशेषेण शुद्धिः।
यदाहोशना।
स्वल्पाशौचस्य मध्ये तु दीर्घाशौचं भवेद्यदि।
न पूर्व्वेण विशुद्धिः स्यात्स्वकालेनैव शुध्यति॥
अपरो विशेषस्त्वङ्गिरमाभिहितः।
सूतके मृतकञ्चेत्स्यान्मृतके त्वथ सूतकम्।
तत्राधिकृत्य मृतकं शौचं899 कुर्य्यान्नसूतकम्॥
मातर्य्यग्रेप्रमीतायामशुद्धौ900म्रियते पिता।
पितुः शेषेण शुद्धिःस्यान्मातुः कुर्य्यात्तु पक्षिणीम्॥
पितुःशेषेण इतिपित्राशौचकालेनैव शुद्धिःन मात्राशौचशेषेणेत्यर्थः। पित्राशौचकालमध्ये माता यदि म्रियते तदा पित्राशौचगमनानन्तरं मातुः पक्षिणीं कुर्य्यादिति तात्पर्य्यम्।
ब्रह्मपुराणे।
आद्यं भागद्वयंयावत्सूतकस्य तु सूतके।
द्वितीये पतिते चाद्यात्सूतकाच्छुद्धिरिष्यते।
अत उर्द्धं द्वितीयान्तु मृतकान्ताच्छुचिः स्मृता।
एवमेव विचार्य्यं स्यान्मृतकेमृतकान्तरे॥
अस्यार्थः।सूतक्यसम्बन्धिचरमाहोरात्रस्य यदाद्यं भागद्वयं दिवसस्य चतुर्द्धाविभागोयदहोभागात्मकं तत्र द्वितीयसूतके पतित आद्यात् सूतकाच्छुद्धिः। अत ऊर्द्धंमस्तमयानन्तरं सूतकान्तरापाते द्वितीयमृतकविशेषमर्थवदिति।अमुमेवाभिप्रायं प्रकटयन्द्वितीयसूतकान्तरमप्याह
गौतमः।
रात्रिशेपे सति द्वाभ्यां प्रभाते तिसृभिः रात्रिमात्रावशेषेण पूर्व्वाशौचेन शुद्धिः।
अपितु तदनन्तरं द्वाभ्यां प्रभाते रात्रेःपश्चिमयामे जननादिसन्निपाते तिसृभिः रात्रिभिः शुद्धिर्न पूर्व्वशेषेणैव।
शातातपः।
रात्रिशेपे द्व्यहाच्छुद्विः सूतिकामग्निदञ्च हित्वेतरसपिण्डानाम्।
सूतिकामग्निदं हित्वेत्याद्यसंग्रहे स्मरणात्।
शातातपः।
अन्तर्दशाहे जननात्पश्चात्स्यान्मरणं यदि।
प्रेतमुद्दिश्य कर्त्तव्यं पिण्डदानं स्वबन्धुभिः॥
प्रारब्धेप्रेतपिण्डे तु मध्ये चेज्जननं भवेत्।
तथैवाशौचपिण्डैस्तु शेषं दद्याद्यथाविधि॥
एवमेवाशौचसन्निपातेऽपि।
प्रजापतिः।
अशौचे तु समुत्पन्ने पुत्त्रजन्म यदा भवेत्।
कर्तुम्तात्कालिकी शुद्धिः पूर्व्वाशौचेन शुध्यति॥
जातकर्म्मादिकर्म्मणितात्कालिकी शुद्धिः।
अथ दहनकालेऽग्निनाशे।
तत्र यमः।
यजमाने चितारूढ़े पात्रन्यास तथा कृते।
वर्षाद्यभिहते चाग्नौततः पृच्छामि याज्ञिकाः॥
शेषा लब्धावदग्ध्वेन निर्म्मन्थंतत्र कारयेत्।
शेषं लाभे तथा कुर्य्याद्दग्धशेषस्य वा पुनः॥
अप्सु प्राश्वन्ततः शेषमाग्नेय्यस्ताः स्मृता बुधैः901।
शेषं लब्ध्वा अरणिप्रभृतिकाशेषं लब्ध्वादग्धे वाग्न्युत्पादनसमर्थेन निर्मन्थं वा कृत्वाग्निमुत्पाद्य तेनाग्निना दहेत्। अरण्यादिकाष्ठालाभे दग्धशेषकाष्ठस्य सम्बन्धि योमयिताग्निस्तेन तस्याप्यभावे अप्सुप्रक्षिपेत्इत्यर्थः। एवमनाहिताग्नेरपि न्यायस्य समानत्वात्। अयन्तु विशेषः अरण्याभावान्नमन्थीभावइति।
अय दशाहमध्ये दर्शपाते।
तत्र भविष्यपुराणे।
प्रवृत्ताशौचतन्त्रस्तुयदि दर्शः प्रपद्यते।
अशौचसमाप्तिपर्य्यन्तमिति शेषः।
समाप्य चोदकं पिण्डान् स्नानमात्रं समाचरेत्॥
आशौचमन्तरा दर्शोयदि स्याद्वरवर्णिनाम्902।
समाप्तिं प्रेततन्त्रस्य कुर्य्यादित्याह गौतमः।
पैठीनसिः।
आद्योन्दावेव कर्त्तव्याः प्रेत पिण्डोदकक्रियाः।
द्विरैन्दवे तु कुर्व्वाणःपुनःशावं समश्नुते॥
द्विरैन्दवे चन्द्रद्वये एकः प्राचीनःक्षीणः चन्द्रः अपरोभावी वृद्धिमान्। एवं सामान्येन मातापितृविषयेऽपि दर्श एव पिण्डोदकदानादितन्त्रसमाप्तिप्रसक्तौ श्लोको गौतमेनोक्तः।
अन्तर्दशाहे दर्शश्चेत्तत्र सर्व्वं समापयेत्।
पित्रोतु यावदाशौचं दद्यात्पिण्डं तिलाञ्जलीन्॥
पित्रोरित्येकशेषः।
यत्तु।
पित्रीराशौचमध्ये तु यदि दर्शः समापयेत्।
तावतैवोत्तरं तन्त्रं पर्य्यवस्य त्र्यहात्परम्॥
इति गालववचनम्। तस्य त्वयमर्थः पित्राशौचमध्ये दर्शपाते समाप्तिकत्तरतन्त्रस्योचिता किमुतान्याशौचमध्य इति। पितृव्यतिरिक्तसपिण्डविषये तु उत्तरतन्त्रस्यावश्यकसमाप्तिप्रदर्शनार्थंपुनःपितृविषवेऽपि नियमार्थमिति। भवतु वा पितृविषयेऽपि नियामकम्। तथापि
अस्य च पितृमेविकारम्भकालनियमस्त्वेज्ञातमरणदिनस्य सांवत्सरिकस्य कालनियमवद्विज्ञेयः। स च श्राद्धप्रकरणे वक्ष्यते। एवं पैतृमेधिके कृते यदि जीवन्नागच्छेत्तदा तं घृतकुम्भे स्रापयित्वा शुभलग्ने उत्थाप्यजातकर्म्मदिभिश्चूड़ाकरणान्तैः संस्कृत्य उपनयनविधानेनोपनीय वहनपूर्व्वकं द्वादशाहमशक्तौत्रिरात्रं वा व्रतं कारयित्वा स्रानानन्तरं पूर्व्वस्थितभार्य्यांतदभावेअन्यां वा उद्वाहयेत्। ततश्च अग्नय आयुष्मत् पुरोडाशकपालं कुर्य्यादिति विहिताभिष्टिमायुष्मतीङ्कृत्वा यद्याधानेच्छुस्तदाव्रात्यस्तोमेनेष्ट्वा तथैन्द्राग्न्येन पशुना चेष्ट्वा अग्नीनादध्यात्।
यदाह मनुः।
जीवद्यदि समागच्छेद्धृतकुम्भैर्नियोज्य तम्।
उद्धृत्य स्नापयित्वास्य जातकर्म्मदि कारयेत्॥
द्वादशाहं व्रतं कुर्य्यात्रिरात्रमुपवास्य तु।
स्रात्वोद्वेहेनतां भार्य्यांअन्यांवा तदभावतः॥
अग्नोनाधाय विधिवद्व्रात्यस्तोमेन वा यजेत्।
अथेन्द्राग्न्येन पशुना गिरिङ्गत्वा च तत्र तु॥
इष्टिमायुष्मतीं कुर्य्यादीप्सितांश्चक्रतूस्त्ततः। इति।
आहिताग्नेर्यत्र पुरोडाशस्तत्रनाहिताग्निश्चरुः।
तथाच गृह्यप्रायश्चित्ते।
यत्र वाहिताग्नेःपुरोडाशात्तत्र वा नाहिताग्नेश्वरवः।
इति मदनपारिजाते मदनक्षितिपालदानजलरूढे़।
स्तवकः पञ्चम आसीदामोदाकृष्टपण्डितभ्रमरः॥
मतिर्येषां शास्त्रे प्रकृतिरमणीया व्यवहृतिः
परं शीलं श्लाघ्यंजगति ऋजवस्ते कतिपये।
चिरं चित्ते तेषां मुकुरतलभूते स्थितिमियात्
इयं व्यासारण्यप्रवरमुनिशिष्यस्य भणितिः॥
इति पण्डितपारिजातकभट्टारमल्लेत्थादि विरुदराजी
विराजमानस्य श्रीमदनपालस्यनिवन्धेमदन
पारिजाताभिधेये पञ्चमः स्तवकः।
षष्ठः स्तवकः।
दाहादिकरूपकालापगमे चाशौचस्तकेकुलव्यापिनी शुद्धिरभिहिता। तदनन्तरमिह स्तबके द्रव्यशुद्धिरभिधीयते॥
तत्र याज्ञवल्क्यः।
सौवर्स्मराजताजानामुर्द्धपात्रग्रहाश्मनाम्।
शाकरज्जुमूलफलवासो विदलचर्म्मणाम्॥
पात्राणां चमसानाञ्च वारिणा शुद्धिरिष्यते।
सौवर्णं सुवर्णविकारः। राजतं रजतविकारः। अञ्जंशङ्खशुक्तिमुक्ताफलादि। ऊर्द्धंपात्रं यज्ञियोलूखलादि। ग्रहा ऐन्दवा यवादयः। अश्मा दृषदादि। मूलमार्द्रकादि। विदलं वेणुदलादि। विदलग्रहणं तद्विकाराणां छत्रादीनामुपलक्षणार्थम्। चर्म्म अजादीनां तञ्च तद्विकाराणां वरत्रादीनामुपलक्षणार्थम्। पात्राणि प्रोक्षणपात्रादीनि स्नेहरहितानि।चमसा होतृचमसादयः। एतेषां लेपरहितानां मूत्राद्युच्छिष्टस्पर्शमात्रे वारिणा शुद्धिः प्रक्षालनात् शुद्धिः।
तथा।
चरुस्रुक्स्रुवसस्नेहपात्राण्युष्णेन वारिणा।
चरुर्मृण्मयी चरुस्थाली। स्रुक् जुह्लादि। श्रुवः प्रसिद्धः।सस्नेहपात्राणि प्राशित्रहरणादीनि903 लेपरहितानि चर्व्वादीनि
उष्णेन वारिणा शुध्यन्ति। सौवर्णादीनां लेपरहितानामेव पूर्व्वोक्तशुद्धिः।
तथाच मनुः।
निर्लेपङ्काञ्चनं भाण्डमद्भिरेव विशुध्यति।
अब्जमश्ममयञ्चैवराजतञ्चनुपस्कृतम्॥
अनुपस्कृतम् उपस्कृतं उत्कीर्णं रेखाद्युपेतं न उपस्कृतमनुपस्कृतम्। रेखादिखानेषु मूत्राद्युच्छिष्टावस्थानरहितमित्यर्थः।
काकमुखदूषितपात्रस्य शुध्यन्तरमाह
शङ्खः।
कृष्णशकुनिमुखावसृष्टं निर्लिखेच्छापदमुखावसृष्टं904 पात्रं न प्रयुञ्जीतेति।
निर्लेखनं शस्तैरुपरितनावयत्रापकर्षणं त्वक्षणमिति905 यावत्।
यद्वापस्तम्बेनोक्तम्।
गवाघ्रातानि कांस्यीनि शूद्रोच्छिष्टानि यानि च।
शुध्यन्ति दशभिः906 क्षारैः श्वकाकोपहतानि च॥इति।
एतच्च स्वल्पोपहतविषयम्। अत्र च क्षारोभम्म। एवं सर्व्वत्र न्यूनाधिकशौचकल्पाः। स्वल्पाधिकाधिकारविषयत्वेन व्यवस्थापनीयाः। उष्णेन वारिणाशुद्धन्तीत्यनुवृत्तौ
याज्ञवल्क्यः।
स्फासूर्पाजिनधान्यानां मूषलोलूखलानसाम्।
स्फ्यःकाष्ठछुरिका यज्ञाङ्गम्। अनःशकटम्। अत्र पुनरजिनग्रहणं यज्ञाङ्गाजिनप्रात्यर्थम्। एतेषामुष्णेन वारिणा वक्ष्यमाणमृदाद्यन्यतमेन सहितेन शुद्धिरित्यर्थः।
बौधायनः।
तैजमानां मूत्रपुरीषशुक्रासृक्कुणपमद्यैरत्यन्तवासितानामावर्त्तनम्। अल्पसंसर्गे तु परिलेखनम्। स्पर्शमात्रोपघाते तु त्रिःसप्तकृत्वो भस्मना परिमार्ज्जनमतौजसानामेवंभूतानामुत्सर्ग इति।
अग्निसंयोगेन द्रवीकरणमावर्त्तनम्। भस्मना परिमार्ज्जनं कांस्यस्य नियतम्। यत्तु याज्ञवल्क्येन सौवर्णराजताब्जानामित्युपक्रम्य वारिणा शुद्धिरिष्यते इति केवलोदकमेवोपात्तम्। तदपि मृदादिसहितमेव वारिणा शुद्धिहेतुरिति विज्ञेयम्।
तत्र विशेषमाह हारीतः।
अद्भिः काञ्चनरजतशङ्खशुक्तीनां तद्गणवर्ज्जनम्। स्नेहवैवर्णोपहतानां यवगोधूमकलायमाषमभूरमुद्गमयचूर्णैर्धावनम्। अम्ललवणाभ्यां ताम्राणां भस्मना कांस्यानां शाणतैलसिकता वघर्षणैः907 कार्ष्णायसानां908शिलावघर्षणैर्मार्जनैर्मणिमयानामिति।
शाणं909 लौहभैक्षाय साधनम्। तद्गुणवर्ज्जनं तद्गन्धापकर्षणम्।
स्नेहवैवर्णोपहताः उ्च्छिष्टादिस्नेहेन विवर्णं यथा भवति तथोपहता इत्यर्थः। यवादिचूर्णानामेकार्थत्वात्910 विकल्पः। उदकस्य तु पृर्व्वशोधनद्रव्यैः सह समुच्चयः।
शङ्घः।
सूतिकोच्छिष्टभाण्डम्य सुरामाद्यहतस्य च।
त्रिः सप्तमार्ज्जनाच्छुद्धिर्न कांस्यस्य तापनम्॥
सृतिकोच्छिष्टादिभिः कांस्यव्यतिरिक्ततैजसानामल्पकालोपघाते यवचूर्णादिभिर्मार्ज्जनं शुद्धिहेतुःकांसस्य तथा न। अपि तु तापनं मार्जनञ्च शुद्ध्यापादकमित्यर्थः। प्रतिमार्ज्जनमुदकप्रक्षालनमावर्त्तते।
द्विजातिभुक्तोच्छिष्टसंस्पर्शे तु सएवाह
शङ्खः।
ब्रह्मक्षत्त्रविशाञ्चैव सकृत्सम्मार्ज्जनाच्छुचिः।
चतुर्थेन911 तु युद्भुक्तं चतुर्भिर्यत्र मार्ज्जनम्॥
अग्नौप्रक्षिष्य गृह्णीयाद्धस्तौ प्रक्षाल्ययत्नतः।
गोशृङ्गेण तु संस्पृष्टन्त912त्पात्रं शुचितामियात्॥
आहास्तम्बः।
गवाघ्रातानि कांस्मानि शूद्रोच्छिष्टानि यानि च।
मणिमुक्ताप्रबालानां शुद्धिः प्रक्षालनेन तु॥
एतदल्पोपहतविषयम्।
मृद्भाण्डानामल्पोपहतौ
याज्ञवल्क्यः।
पुनःपाकान्महीमयमिति।
मद्याद्युपहतौतु परित्याग एव।
तथाच मनुः।
मद्यैर्मूत्रपुरीषैर्व्वा ष्ठीवनैः913 पूयशोणितैः।
संस्पृष्टं नैव शुध्येत पुनः पाकेन मृण्मयम्॥इति।
स्मृत्यन्तरे
भम्मना शुध्यते कांस्यं सुरया यन्न लिप्यते।
सुरामूत्रपुरीषैस्तु शुध्यते तापलेखनैः914॥
सुरादिग्रहणं शुक्रशोणितादीनामुपलक्षणार्थम्।
तथा।
ताम्रमम्लेन शुध्येत न चेदामिषलेपनम्।
आमिषेण तु यल्लिप्तं पुनर्दाहेन शुध्यति॥
आदिपुराणे।
सुवर्णरौप्यशङ्खाश्मशुक्तिरत्नमयानि च।
कांस्यायस्ताम्ररैत्यानि915 त्रपु916सीसमयानि च॥
निर्लेपानि च शुध्यन्ति केवलेन जलेन च।
शूद्रोच्छिष्टानि शोध्यानि त्रिधा क्षाराम्लवारिभिः॥
अत्र द्रव्याणांत्रिधा त्रिप्रकारं मार्ज्जनम्। न तु त्रिमार्ज्जनम्।
शातातपेन दशकृत्वो मार्ज्जनविधानात्।
गवाघ्रातेषु कांस्येषु शूद्रोच्छिष्टे तु वा पुनः।
दशभिर्भस्मभिः शुद्धिः श्वकाकोपहतेषु च॥
एतच्च भस्माभिः शोधनं श्वकाकाद्युपहतौ भूमौसप्तरात्रखननानन्तरम्।
यथा।
सूतिकाशवविण्मूत्ररजस्वलाहतानि च।
प्रक्षेप्तव्यानि तान्यग्नौयद्यद्यावत्सहेदपि॥
यद्द्रव्यं यावदग्निप्रक्षेपं सहतेयावता अग्निप्रक्षेपेण न नश्यति तावत्कुर्य्यादित्यर्थः।
बौधायनः।
तैजसानां मूत्राद्युपघाते पुनःकरणम् गोमूत्रे वा सप्तरात्रं परिवासनम्917। लेपनिर्हरणा918शक्तौपुनःकरणम्। अन्यथा गोमूत्रे वा वासनमिति व्यवस्था
अङ्गिराः।
गण्डूषंपादशौञ्चयः कुर्य्यात्कांस्यभाजने।
षण्मासं भुवि निक्षिप्य पुनराकारमादिशेत्॥
पुनराकारमादिशेत् पुनराकारः पुनःकरणम्।
तथा।
लौहानां दहनाच्छुद्धिर्भस्मना गोमयेन वा।
दहनात्खननाद्वापि शैलाना919मम्भसापि वा।
काष्ठानां त्वक्षणा920च्छुद्धिर्मृद्गोमयजलैरपि।
याज्ञवल्क्यः।
त्वक्षणं दारुशृङ्गास्थांगोबालैःफलसम्भुवाम्॥
मार्ज्जनं यज्ञपात्राणापाणिना यज्ञकर्म्मणि।
उच्छिष्टस्नेहादिलिप्तानामेतेषांमृदुदकादिभिर्लेपानपाये त्वक्षणं लेपयुक्तावयवापनयनं शुद्धिः। फलसम्भूवां नारिकेलादिफलमम्भूतानां प्रक्षालनेनानपगतलेपानां गोबालैरवघर्षणं शुद्धिः। यज्ञपात्राणां स्रुवादीनां प्रक्षालनादिभिः कृतशौचानां दर्ब्भैर्दशपवित्रेण वा कर्म्माङ्गत्वसिद्ध्यर्थं हस्तेन मार्ज्जनं कर्त्तव्यम्। ततो यज्ञकर्म्मणि विनियोजनीयानीत्यर्थः।
हारीताशातातपौ।
संहतानान्तु पात्राणां यद्येकमुपहन्यते।
तस्यैव शोधनं प्रोक्तं न तु तत्सृष्टिनामपि921।
शङ्खः
मलसंयोगजं तज्जं यस्य येनोपहन्यते।
तस्य तच्छोधनं प्रोक्तं सामान्यं द्रव्यशुद्धिकृत् ॥
यस्य शोध्यद्रव्यस्योच्छिष्टादिसंयोगजं तज्जं स्वभावजं च मलं।
येन भस्मादिनोदकमहितेनोपहन्यते तस्य तच्छोधकं भवतीत्यर्थः।
इति तैजसादिदियाशौचम्।
अथ वस्त्रादेः।
तत्र यमः।
यदि मूत्रपुरीषाभ्यां रेतमा रुधिरेण वा।
चेलं समुपहन्येत अद्भिः प्रक्षालयेत्तु तत्॥
यदम्भसा न शुध्येत्तु वस्तं चोपहतं दृढम्।
छेदनं तस्य दाहोवा यन्मात्रमुपहन्यते॥
एतच्च छेदनादिना शुद्ध्यापादनमत्यन्तामेध्योत्तमवस्तुविषयम्। छिन्नदग्धयोरपि परित्यागविधानाद्दरिद्रस्य च उत्तमेष्वपि छेदनादिना शुद्धिः।
व्यासः।
वस्त्रं मृदम्भमा शुध्येद्रज्जवैदलमेव च।
रज्ज्वादिकञ्चातिदुष्टं त्याज्यं तन्मात्रमेव च॥
वेणुवेत्रनड़ादिविकारोवैदलं सूर्पदि यदातु बहुविधान्यपि वासःप्रभृतीनि राशीकृतानि चाण्डालादिभिः स्पृष्टानि तत्रापि स्पृष्टान्यल्पानि अस्पृष्टानि च स्पृष्टापेक्षायाधिकानि वा तदा सृष्टमात्रमुद्धृत्य तस्योक्तप्रक्षालनादिभिः शुद्धिः कार्य्या। अवशिष्टस्य प्रोक्षणाच्छुद्धिः।
अनेनैवाभिप्रायेण याज्ञवल्क्यः।
प्रोक्षणं मंहतानाञ्च बहूनां धान्यवाससाम्।
तथा स्मृत्यन्तरमपि।
वस्त्रधान्यादिराशीनामेकदेशस्य दूषणे।
तावन्मात्रं नमुद्धृत्य शेषं प्रोक्षणमर्हति॥
शेषस्य प्रोक्षणविधानात् उद्धृतस्य प्रक्षालनादिभिः शुद्धिरिति गम्यते। यदा तुक्तवहूनि राशीकृतानि सर्व्वाण्यपि स्पृष्टानि तदा प्रोक्षणादेव शुद्धिःयदा तु पुनः स्पृष्टानि बहूनि अस्पृष्टानि चाल्पानि तदा सर्व्वेषामपि प्रक्षालनमेव।
यदाह मनुः।
अद्भि्स्तुप्रोक्षणं शौचं बहुनां धान्यवाससाम्।
प्रक्षालनेन त्वल्पानां अद्भिः शौचं विधीयते॥
राशिगतबहुत्वञ्च पुरुषग्राह्यभारादूर्ध्वंवेदितव्यम्। अनेकोद्वाह्येदारुशिले भूमिसमे इति बौधायनेनानेकोद्वाह्यस्यैव द्रव्यान्तरस्य स्वल्पशौचत्वदर्शनात्।
याजवल्क्यः।
सोषरोदकगोमूत्रैः शुध्यसाविककौशिकम्।
मश्रीफलैरंशुपट्टं वारिष्टैः कुतपं तथा।
सगौरसर्षपैः क्षौममिति।
ऊपरं मृत्तिकाविशेषः। तत्सहितेनोदकेन गोमूत्रेण वाविककोशिकं शुष्यति। ऊर्णामयमाविकं कोशप्रभवं तसरीपट्टादि कौशिकम्। वल्कलं तन्तुकृतमंशुपट्टम्। श्रीफलं विल्वफलम्। पर्व्वतच्छागलोमक्कतः कुतपः। अरिष्टफलं फेनकम्। अतसी-
सूत्रनिर्म्मितं क्षौमम्। एतच्चातिघाते अल्पोऽल्पघाते तु प्रोक्षणमेव द्रव्याविनाशोनैव शुद्धेरिष्टत्वादेतेषांक्षालनासहत्वाच्च।
अतएव देवलः।
ऊर्णाकौशेयकुतपपट्टक्षौमदुकूलजाः।
अल्पशौचा भवन्त्येते शेषेण प्रोक्षणादिभिः।
तान्येवामेध्ययुक्तानि क्षालयेच्छोधनैःस्वकैः॥
तृलिकामुपधानञ्चपुष्परक्ताम्वरं तथा।
शोधयित्वातपैः किञ्चित्करैःसम्मार्ज्जयेन्मुहुः॥
पश्चाच्चवारिणा प्रोक्ष्यविनियुञ्जीत कर्म्मणि।
तान्यप्यतिमलिष्ठानि यथावच्छोधयेदिति॥
तुलिकोपधाने चोर्स्मादिमये उर्स्मादिनिर्म्मितानामिवप्रक्षालनेन पूर्व्वरूपनाशात्। पुष्परक्तग्रहणम् प्रक्षालनासहहरिद्रादिरक्तस्यापि प्रदर्शनार्थम्। एतदुक्तंभवति यत्कुसुम्भादिरागरक्तं क्षालनामहं तदातपशोषणादिना शुध्येत। यच्च मञ्जिष्ठादिकं क्षालनेन न विनश्यति तत्क्षालनेनैव नातपशोषणमात्रेण।
आपस्तम्बः।
शुनोपहञ्चैलमवगाहेत प्रक्षाल्यंवा। तं देशमग्निना संस्पृश्यपुनः प्रक्षाल्यपादौवाचम्य प्रयतो भवत।
वस्त्रसहितस्यैव नाभेरूर्द्धस्पर्शेअवगाहः अधस्ताच्चेत्प्रक्षालनमिति विवेकः।
प्रचेताः।
चेलानामुपहतानामुत्स्वेदनं गन्धलेपापनयनं तन्मात्रच्छेदनं वा नवानां वाससामभ्युक्षणादिति।
उत्स्वेदनं काथनम्। नवानां वाससांयन्त्रादुत्तीर्णानाम्।
शङ्खलिखितौ।
अहतानां प्रोक्षणमिति।
अहतं यन्त्रनिर्मुक्तम्।
शङ्खः।
शयनामनयनानां संहतवच्छौचम्।
संहतपद्राशीभूतद्रव्यवत्। अनेन प्रोक्षणाच्छुद्धिरित्युक्तं भवति।
अङ्गिरास्तु शयनादीनामपि संहतशव्दवाच्यत्वमाह।
शयनासनयानानि रोमबन्धानि यानि च।
वस्त्राणि तानि सर्व्वाणि संहतानि प्रचक्षते॥
इति चेलादिशुद्धिः ।
अथ धान्यादेः ।
तत्र बौधायनः।
व्रीहयः प्रोक्षणादद्भिः शाकमूलफलानि च।
तन्मात्रस्यापहाराद्वानिस्तुषीकरणेन वा।
विष्णुः।
असिद्धस्यान्नस्योपहतमुत्सृज्य शेषे कण्डनप्रक्षालने कुर्य्यात्। बहुनान्तु कश्यपोक्तं द्रष्टव्यम्। प्रोक्षण-
पर्य्यग्निकरणावगाहनैर्व्रीहियवगोधूमानां विमर्शनप्रोक्षणैः फलीकृतानां निष्पेषणदलनप्रोक्षणैःशमीधान्यानामिति।
अस्यार्थः। अनेकपुरुषोद्वार्य्याणां वीहियवगोधूमानां प्रोक्षणपर्य्यग्निकरणावगाहनैः शुद्धिः। पर्य्यग्निकरणमग्न्यभिमर्शनम्। अवगाहनं प्रक्षालनम्। अत्र प्रोक्षाणादीनि सर्व्वाणि सर्व्वत्र दोषाल्पत्वमहत्त्वापेक्षयायोज्यानि। ब्रीह्यादितण्डुला
नांफलीकृतानां विमर्शनप्रोक्षणेन च शुद्धिः। विमर्शनमल्पानां वहुनां प्रोक्षणं कण्डनशुक्लीकृता निरस्तक्षुद्रकणास्तण्डुलाःफलीकृता इत्युच्यन्ते। विमर्शनं पाणिभ्यां निर्म्मलीकरणम्। शमीधान्यानां कौशीधान्यानां मुद्गादीनामेकपुरुषोद्धार्य्याणां विघर्षणविमर्शनं ततोऽल्पानां दलनेन अनेकपुरुषोद्धार्य्याणांप्रोक्षणेन च। यच्चतण्डुलांस्तु परित्यजेदिति तदत्यान्ताल्पपरिमाणविषयम्।
आदिपुराणे।
गृहदाहेसमुत्पन्नेदग्धे च पशमानुषे।
अभोज्यस्तद्गतो व्रीहिर्धातुर्व्दरस्य सङ्ग्रहः॥
मृण्मयेनावबद्धानामधोभुवि च तिष्ठताम्।
यवमापतिलादीनां न दीषं मनुस्ब्रवीत्॥
ततः संक्रममाणेऽग्नौ स्थाने स्थाने च दद्यते।
न च प्राणिविधौयत्र केवलं गृहदीपनम्।
तत्र द्रव्याणि सर्व्वाणि गृह्णीयादविचारयेत्॥
शङ्खः।
पुष्पफलानां विष्किरावधूतानां प्रक्षालनमभ्युक्षण922 मित्येके। पर्णानामद्भिः प्रक्षालनं शकृदुपयुक्ताना923मुत्सर्गः।
विष्किरा ग्राम्यकुक्कुटादयः। अवधूतं पादावकीर्णम्924। विष्किरावधूतानामिति सर्व्वत्रान्वेति।
बौधायनः।
असंस्कृतायां भूमौ न्यस्तानां प्रक्षालनं परोक्षाहृताना925 मभ्युक्षणमेवं क्षुद्रसमिधामसंस्कृतानाममेध्याद्युपहतानामेकपुरुषोदभार्य्याणाम्।
क्षुद्रसमिधां यज्ञियत्वेन प्रसिद्धपलाशादिव्यतिरिक्तापामार्गादिसमिधाम्।
विष्णुः।
मृत्पर्णतृकाष्ठानां श्वभिश्चण्डालवायसैः।
स्पर्शने विहितं शौचं सोमसूर्य्याग्निमारुतैः॥
तथा प्रोक्षणेन तु पुस्तकमिति।
व्यासः।
रथ्याकर्द्दमतोयानि नावः पथि तृणानि च।
मारुतेनैव शुध्यन्ति पक्त्त्येष्टकचितानिच926।
इति धान्यादिशौचम्।
अथ सिद्धान्नादेः।
तत्र मनुः।
पक्षिजग्धं गवाघ्रातमञधृतमवक्षुतम्।
दूषितं केशकीटैश्च मृत्क्षेपेण विशुध्यति॥
भक्ष्यपक्षिजग्धविषयमेतत्927 अवधूतं यस्योपरि वामोऽवधूतं928पक्षिभिरुत्क्षिप्योत्क्षिप्य त्यक्तं वा। अवक्षुतंयस्योपरि क्षुतंकृतम्। मृद्रहणमुदकभस्मनोरपि प्रदर्शनार्थम्।
तथाच याज्ञवल्क्यः।
सलिलं भस्म मृद्वापि प्रक्षेप्तव्यं विशुद्धये। इति।
यच्च पाकानन्तरं केशकीटैर्दूषितं तस्य मृदादिप्रक्षेपेण शुद्धिः। यच्च केशकीटावलीभिः सह पक्कं तत्परित्याज्यमेव।
अनेनैवाभिप्रायेण गौतमः।
नित्यमभोज्यं कंगकीटावपन्नम्। इति।
पराशरः।
पक्कं द्रोणाधिकं त्वन्नंकाकश्वाद्युपघातितम्।
ग्राममुद्धृत्य तन्मात्रं यत्तु लालाकृतं929 भवेत्।
हैमोदकेन वाभ्युक्षेद्राजतेनाम्बुनाथ वा॥
अग्निज्वालोपसंस्पर्शात्सुवर्णमधुसर्पिषाम्930।
विप्राणां ब्रह्मघोषेण931पूतं भोज्यञ्च तद्भवेत्॥
द्रोणः घट्पञ्चाशदधिकं पलशतद्वयम्।
यच्च यमदग्निनाभिहितम्।
अन्नमैकाहिकं पक्कं श्वकाकाद्युपघातितम्।
केशकीटावपन्नञ्च तदप्येवं विशुध्यति।
क्रीतस्यापि विधिदृष्टःएष एव मनीषिभिः॥
तदल्पवनविषयम्।
वशिष्ठः।
देवद्रोण्यांविवाहेषु यज्ञेषु प्रकृतेषु च।
काकैःश्वभिश्व संस्पृष्टमन्नंतत्र विवर्ज्जयेत्।
तन्मात्रमन्नमुद्धृत्य शेषं संस्कारमर्हति॥
देवद्रोणी देवयात्रा। एतद्ग्रहणं बह्वन्नकार्य्यप्रदर्शनार्थम्। प्रकृतेषु प्रस्तुतेष्ववश्यम्भाविसर्व्वोत्सवेषु च।
संस्कारमपि स एवाह।
द्रषाणां प्लावनेनैव घनानां प्रोक्षणेन च।
छागेन मुखसंस्पृष्टमन्नन्तु शुचितामियात्॥
घनाःपर्पटवटकादयः।932 द्रवार्णा प्लावनेनैव तेषां शुद्धिर्गोरमस्य।
यदाह शङ्खः।
श्रपणं933 घृततैलानां प्लावनङ्गोरसस्य च।
भाण्डानि प्लावयेदद्भिः शाकमूलफलानि च॥
श्रपणासम्भवे सजातीयद्रव्यप्लावनेनैव शुद्धिः934। तथा घृतदधिपयस्तक्राणामाकरभाण्डस्थितानामदोषः।
तथा।
आधारदोषेतु नयेत्पात्रात्यात्रान्तरं द्रवम्।
घृतञ्च पायसं क्षीरं तथैवेक्षुरसी गुड़ः।
शूद्रभाण्डस्थितं तक्रं तथा मधु न दुष्यति॥
यमः।
आममांसं घृतङक्षौद्रं स्नेहाश्चफलसम्भवाः।
म्लेच्छभाण्डस्थिता दुष्या निष्क्रान्ताः शुचयः स्मृताः॥
एतच्चाकरभाण्डविषयम्। अनाकरेऽपि द्रोणाधिकान्नोपसेचनसमर्थघृतादिविषयमपि। ततो न्यूनस्य देशकालाद्यपेक्षया श्रपणादिभिः शुद्धिर्भवति।
यदाह बौधायनः।
देशङ्कालं तथात्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयोजनम्।
उपपत्तिमवस्थाच्च ज्ञात्वा शौचम्प्रकल्पयेत्॥ इति।
शातातपः।
गोकुले कुण्डशालायां तिलचक्रेक्षुयन्त्रयोः935।
अमीमांस्यानि शौचानि स्त्रीषु वालातुरेषु च॥
कुण्डशाला यज्ञशाला।
शङ्खः।
निर्यासानां गुड़ानाञ्च लवणानान्तथैव च।
कुसुम्भकुङ्कुमानाञ्च ऊर्णाकार्पासयोस्तथा।
शेषेषु936 कविता शुद्धिरित्याह भगवान्यमः॥
निर्यासा हिङ्गुप्रभृतयः। इदं स्वल्पपरिमाणविषयम्। बहूनान्तु वौधायनेनोक्तम्।
बहूनां कुसुम्भकार्पासगुड़लवणानां सर्पिषां कठिनी-
भृतानां चाण्डालादिस्पर्शे प्रोक्षणेनैव शुद्धिः।
अत्यल्पे तु परित्यागः। तत्रापि देशकालाद्यपेक्षया परित्यागः।
मनुः।
उच्छिष्टेनतु संस्पृष्टो द्रव्यहस्तः कथञ्चन।
अनिधायैव तद्द्रव्यमाचान्तः शुचितामियात्॥
इति सिद्धान्नादिशुद्धिः।
अथ भूम्यादेः।
त्रिविधाशौचशोध्या भूमिः।
तथाच देवलः।
यत्र प्रसूयते जन्तुर्म्रियते दह्यतेऽथवा।
चाण्डालेनोषितं937 यत्र यत्र मूत्रादिसङ्गतिः।
एवं कश्मलभूयिष्ठाभूरमेध्या प्रकीर्त्तिता॥
श्वशूकरखरोष्ट्राद्यैः संस्पृष्टा दुष्टतां व्रजेत्।
अङ्गारतुषकेशास्थिभस्माद्यैर्मलिना भवेत्॥
एवं त्रिविधायाः938 अपि शुद्धिप्रकरणमाह
स एव।
पञ्चधा वा चतुर्धा वा भूरमेध्याविशुध्यति।
यत्र मनुष्या जायन्ते म्रियन्ते दह्यन्ते वा यत्र चाण्डालेनैवाध्युषितमेवंविधा अमेध्या भूः पञ्चधा पञ्चभिर्दहनगन्धार्द्रताद्यपनयनकिञ्चित्कालगोक्रमणसेकोल्लेस्वनैः शुध्यति। यत्र च मनुष्या जायन्ते म्रियन्ते वा अत्यन्तविष्ठादिसंसर्गवती वा स्यात्मादहनवर्ज्जितैः पूर्व्वोक्तेश्रतुर्भिरेव शुध्यति।
दुष्टान्विता द्विधात्रिधा शुध्यते मलिनैकधा॥
श्वशूकरखरादिभिः प्रत्येकं मिलित्वा वा चिरकालमधिवामिताया दुष्टायास्तुत्रिभिः गोक्रमणमेकोल्लेस्वनैः। उष्ट्ररग्रामकुक्कुटादिभिश्चिरकालमधिवासिताया भुव उल्लेखेनैकेन शुद्धिः।
श्रतएव याज्ञवल्क्यः।
भृशुद्धिर्मार्ज्जनाद्दाहात्कालाद्गोक्रमगात्तथा।
मेकाटुल्लेखनाल्लेपाद्गृहमार्ज्जनलेपनात्॥
मार्ज्जनं सम्मार्ज्जन्या तृणादीनामपसारणम्। दाहस्तृणकाष्ठादौ। कालः गन्धलेपादिक्षयो यावता भवति सः। सेकः
प्रवर्षणेन क्षीरगोत्सृत्रयोरुदकैर्व्वा। उल्लेखनं खननं त्वक्षणं939 वा। लेपनं गोमयादिभिः। अत्र भूग्रहणेनैव सिद्धे पुनर्गृहग्रहणं प्रतिदिनं मार्ज्जनलेपन प्राप्त्यर्थंमार्ज्जनमुपलेपनञ्च सर्व्वत्रसमुच्चीयते।
यमः।
खननात्पुरणद्दाहाहादद्भिर्घर्षण940 लेपनात्।
गोभिराक्रमणात्कालाद्भूमिःशुध्यति सप्तधा॥
एतच्चपूर्व्वोक्तहेतुभिः पुनःपुनर्दष्टभूविषये समस्तं शुद्धिहेतुः समस्तंव्यस्तं941 यथायोग्यम्।
तथा।
गोचर्म्ममात्रमुद्विन्दुः गोः शोधयति पातितः।
समूढमसमूढं वा यत्र लेपो न दृश्यते॥
यत्रैकादशगावः942उपविशन्ति तावान् भूभागो गोचर्म्म गोः पृथिव्याः समूढं कृतसम्मार्जनमथवा गोःपुच्छसम्बन्धाद्भुवि पातित उदकविन्दुः गोचर्म्ममात्रं शोधयति। गोपुच्छं स्पर्शयित्वा तेनीदकेन सेके कृते एकेन विन्दुनेयती भूः शुद्धाभवतीत्यर्थः।943
संवर्त्तः।
गृहशुद्धिं प्रवक्ष्यामि अन्तस्थशवदूषणे।
प्रोत्सृज्य मन्मयं भाण्डं सिद्धंमन्नंतथैव च॥
गृहादपास्य तत्सर्व्वंलेपनेनोपलेपयेत्।
गोमयेनोपलिष्याथ छागेन घापयेद्बुधः॥
ब्राह्मणैमन्त्रपूतैश्च हिरण्यकुशवारिणा।
सर्व्वमभ्युक्षयेद्वेश्म ततः शुध्वेदसंशयः॥
बौधायनः।
घनाया भूमेरुपघात उपनेपनमुषरायाः944 कर्षणं क्लिन्नाया मेध्यमाहुत्य छादनमूर्द्धन्तु शवोपघाते भित्तिलक्षणं सूर्य्यरश्मिप्रवेशोऽग्निज्वालाभिमर्पणम्।
त्किन्ना कृमिकीटाद्याक्रान्ता तामाच्छादेन्मेध्यांमृद्माहत्य
इत्यर्थः।
व्यासवृहस्पती।
भूमिष्ठमुदकं मेध्यं वैतृष्ट्यं यत्र गोर्भवेत्।
अव्याप्तं चेदमध्ये न तद्वदेव शिलागतम्।
देवलः।
अविगन्धा रसोपेता निर्म्मलाः पृथिवीगताः।
अक्षीणाश्चैव गोपाना दापः शुद्धिकराः स्मृताः॥
उद्धृत्य ताः प्रशस्ताः स्युः शुद्धे पात्रे यथाविधि।
एकरात्रोषितान्तान्तु त्यजेदपः समुद्धृताः॥
ता इति सर्व्वनाम्नोगोतृप्तिमात्रपर्य्याप्ताःअल्पाएव ताः परामृष्यन्ते। अतो बहूदकादेरुद्धृतानां रात्र्युप्रषितानां न दोषः। तड़ागादेरुद्धृता अथापोरात्रावभुषितोदकान्तरसम्भवे अशुद्धा
एष।
तथा।
अक्षौण्यानि945तड़ागानि नदीवापीसरांसि च।
चण्डालाद्यशुचिस्पर्धशोत्तीर्थतः परिवर्ज्जयेत्946॥
तीर्थमदकावतरणमार्गः।
बृहस्पतिः।
मृतपञ्चनखाःकुप्या दम्पत्योपहता947स्तथा।
अपः समुद्धरेत्सर्व्वा948शेषा वस्त्रेण शोधयेत्॥
वह्निप्रज्चालनङ्कृत्वा कूपे पक्त्येष्टकाचिते।
पञ्चगव्यं न्यसेत्पश्चान्नवे तोयसमुद्भवे॥
हारीतः।
वापीकूपतड़ागे तु मानुषं शीर्य्यते यदि।
अस्थिचर्म्मविनिर्मुक्तैर्दूषितञ्च खरादिभिः।
उद्धृत्य तज्जलं सर्व्वंशोधनं परिमार्ज्जनम्॥
अस्थिचर्म्मविनिर्मुक्तैःचिरकालवासेन विशीर्णैरित्यर्थः।
देवलः।
उद्धरेदुदकं सर्व्वंपञ्चपिण्डान्मृदस्तथा।
अचिरकालोपघाते स्वल्पे तु
हारीतः।
घटानां शतमुद्धृत्य पञ्चगव्यं क्षिपेत्ततः।
श्वभिः श्वपाकचण्डालैर्दुषितेषु विशेषतः॥
आपस्तम्बः।
उपानच्छे्लष्मविण्मूत्रस्त्रीरजोमद्यमेव वा।
एभिर्विदूषिते कृपे कुम्भानां पष्टिमुद्धरेत्॥
विष्णुः।
जलाशयेवष्यल्पेषु स्थावरेषु महीतले।
कूपवत्कथिता शुद्धिमर्हत्सुच न दूषणम्॥
स्थावरेषु प्रवाहरहितेषु।
शातातपः।
अन्त्यैरपि कृते कृपे सेतौवाप्यादिके तथा।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च प्रायश्चित्तं न विद्यते।
यमः।
चाण्डालभाण्डसंस्पृष्टं पीत्वा कृपगतं जलम्।
गोमूत्रयावकाहारस्त्रिरात्रेणैव शुध्यति॥
कश्यपः।
दृतीनां व्यञ्जनं शुद्धिः।
ट्टतिश्चर्म्मकोशः। व्यञ्जनङ्कषायद्रव्येण शोधनम्।
यमः।
प्रपास्वरण्येऽवटके च कूपे
द्रोण्या जलं कोषगतास्तथापः।
ऋतेऽपि शूद्रात्तदपेयमाहु-
रापद्गतश्च क्षितिजम्पिवेत्तत्॥
अयमर्थः। यद्यपि शूद्रव्यतिरिक्तब्राह्मणादिवर्णसम्बन्धि प्रपादि तथापि तद्गतं जलं धर्म्मारर्थं दीयमानमनापदि न पेयम्। आपदि तु पेयं यदि चेदरण्यगतं प्रपादि। द्रोणी अश्मादिमयीजलपात्री सर्व्वसाधारणी। कोशोदृतिः।
अजा गावोमहिष्यश्च ब्राह्मणस्य949 प्रसूतिकाः।
दशरात्रेण शुध्यन्ति भूमिष्ठञ्च नवोदकम्॥
बोधायनः।
आत्मशय्यासनं वस्त्रं जायापत्यं कमण्डलुः।
आत्मनः शुचिरेतानि परेषामशचीनि च950॥
हारीतः।
स्वानुपपत्तौ शुद्धेन तदन्तर्द्धाय समामनन्ति संस्पर्शे सचेलं स्नानमेवं ग्राह्यमिति।
अयमर्थः। स्वीयशय्याद्यलाभे शुद्धेन कम्बलादिना तत्परकीयं शय्यादिकमन्तर्द्धायोपयोक्तव्यम्। यतः पतितादेः शय्यादिस्पर्शे
सचेलं स्राने विधीयत इति। एतच्च बलात्पतितादिशय्यादिस्वीकारे प्राप्तौवेदितव्यम्।
इत्युदकादिशुद्धिः
अथाशुद्ध्यपवादः।
तत्र मनुः।
नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्यं यत्र प्रसारितम्।
ब्रह्मचारिगतम्भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः॥
ब्रह्मचारीति विहितभिक्षावृत्तीनामुषलक्षणार्थम्।
भिक्षावृत्तावधिकारिणश्वाह
मनुः।
सान्तानिकं यक्षमाणमध्वगं सर्व्ववेदसम्।
गुर्व्वर्थपितृमात्रर्थःस्वाध्यायार्थ्पुपतापिकः।
नवैतान् स्नातकान्विद्याद्व्राह्मणान्धर्म्मभिक्षुकान्॥
सन्तानप्रयोजनं सान्तानिकः, दत्तसर्व्वस्वः सर्व्ववेदसः। रोग्युपतापी यावता रथ्यप्रमर्पणादिरुपेणोपघातेन विना भैक्षं न सिध्यति तन्मात्रापवादौद्रष्टव्यः।
तथा।
श्वभिर्हतस्य यन्मांसं शुचि तन्मनुरब्रवीत्।
क्रव्याद्भिश्च हतस्यान्यैश्चाण्डालाद्यैश्च दस्युभिः॥
क्रव्यादः श्येनादयः। दस्यवो व्याधाः951।
मक्षिका विप्रुषश्छाया गौरश्वःसूर्य्यरश्मयः।
रजो भूर्वायुरग्निश्च स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत्॥
मक्षिकाग्रहण952 मवर्ज्जनीयस्पर्शानां दंशादीनामुपलक्षणार्थम्। विप्रुषःअविज्ञाताकाराः953। छाया निषिद्धातिरिक्ता रजोऽपि निषिद्धेतरत्।
त्रीणि देवाःपवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन्।
अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते॥
एतश्चोपघातसन्देहे विज्ञेयम्।
शङ्खः।
नारीणाञ्चैव वत्सानां शकुनीनां शुनो मुखम्।
रतौप्रस्रवणे वृक्षेमृगयायां954 सदा शुचिः॥
यमः।
मुखतो गौरमेध्या तु मेध्योऽजो955मुखतस्तथा।
पृष्ठतो गौर्गजःस्कन्धे सर्व्वतोऽश्वः शुचिस्तथा॥
अदूष्यंकाञ्चनङ्गावः स्त्रीमुखं कुतपङ्क्षुरम्।
न दूषयन्ति विद्वांसो यज्ञेषु चमसं तथा॥
काञ्चनस्यालङ्करणीभूतस्य स्वेदादिदोषाभावप्रतिपादनपरम्।
उच्छिष्टाद्युपहतस्य शुद्ध्यभिधानात्।
आकराःशुचयः सर्व्वे शकुनिः फलपातने।
श्वा मृगग्रहणे मेध्यः स्त्रीमुखेषु च वारुणी॥
आकराः सुराकरव्यतिरिक्ताः। आकराःशुचयः सर्व्वेवर्ज्जयित्वा सुराकरमिति पैठीनसिस्मरणात् ब्राह्मणभार्य्यायाअपि शूद्रायाः पीतमद्याया बुद्धिपूर्व्वकं गन्धरसास्वादनरहितं मुखं रतिसंसर्गे शुद्धमेवेत्यर्थः।
दवि सर्पिः पयः क्षौद्रंभाग्डे दोषो न विद्यते।
मार्ज्जारश्चैव दर्ब्वो च मारुतश्वमहा शुचिः॥
मार्ज्जरस्य स्पर्शे शुद्धत्वमेवेत्यर्थः। अशुचित्वं कर्म्मकालादन्यत्र तत्र स्नानविधानात्।
अत्रिः।
मधुपर्के च सोमे च अप्सु प्राणाहुतीषु च
नोच्छिष्टस्य भवेद्दोषस्वत्रेश्चवचनं यथा॥
अप्सुभोजनानन्तममृतापिधानमसीति अग्नौकरणार्थंया आपो गृह्यन्ते ताः मधुपर्काद्युच्छिष्टस्य मन्त्रोच्चारविषयम्।
बृहस्पतिः।
पादौशुची ब्राह्मणानामजाश्वस्य मुखं शुचिः।
गवां पृष्ठानि मेध्यानि सर्व्वगात्राणि योषिताम्॥
उपहृतिरहितब्राह्मणचरणस्पृष्टं वस्तु शुद्धमित्यर्थः। एवञ्च ब्राह्मणव्यतिरिक्तचरणस्पर्शोदोषावह इत्युक्तम्भवति।
अदुष्टा सन्तता धारा वातोद्धृताश्च रेणवः।
स्त्रियो वृद्धाश्य वालाश्च न दुष्यन्ति कदाचन॥
षटत्रिंशन्मते।
ताम्बूले च फले चैव भुक्तस्नेहावशिष्टके।
दन्तलग्नस्य संस्पर्शे नोच्छिष्टस्तु भवेन्नरः॥
दन्तलग्ने तु विशेषो भोजनप्रकरणेऽभिहितः।
अत्रिः।
पत्रैर्मूलफलैः पुष्पैस्तृणकाष्ठमयैस्तथा।
सुगन्धिभिस्तथा द्रव्यैर्नोच्छिष्टस्तु भवेद्विजः॥
याज्ञवल्क्यः।
मुखजा विप्रुषो मेध्यास्तथाचमनविन्दवः।
श्मश्रु चास्यगतं दन्तसक्तं त्यक्त्वा ततः शुचिः॥
मुखजाः विप्रुषः श्लेष्मविन्दवो मुखान्निर्गता आचमनप्रापका न भवन्ति।
अत्र विशेषमाह गौतमः।
न मुख्या956 विप्रुष उच्छिष्टं कुर्व्वन्ति चेदङ्गे निपतन्तीति।
वृहस्पतिः।
द्राक्षेक्षुयन्त्राकरकारुहस्ता-
गोदोहनीयन्त्रविनिःसृतानि।
बालैरथ स्त्रीभिरनुष्ठितानि
प्रत्यक्षदुष्टानि शुचीनि तानि॥
यत्र विनिःसृतानि इक्षुरसादीनि बालैः स्त्रीभिश्च कृतानि रथ्यामसर्परणादिभिर्निमित्तैर्यत्राचमनप्राप्तिस्तत्राचमनमकृत्वापि, यान्यप्यवस्तुस्पर्शपाकादीनि कृतानि तानि प्रत्यक्षतो दुष्टानि957अशुचिभिः कृतानीति ज्ञातान्यपि शुद्धानीत्यर्थः।
इह मदनपारिजाते मदनक्षितिपालदानजलरूढ़े।
स्तवको हि षष्ठ आसीदामोदाक्कृष्टपण्डितभ्रमरः॥
मतिर्येषां शास्त्रे प्रकृतिर्मणीया व्यवहृतिः
परं शीलं श्लाघ्यं जगति ऋजवस्ते कतिपये।
चिरं चित्ते तेषां मुकुरतलभूते स्थितिमियात्॥
इयं व्यासारण्यप्रवरमुनिशिष्यस्य भणितिः॥
इति पण्डितपारिजातभट्टारमल्लेत्यादिविरुदराजी-
विराजमानस्य श्रीमदनपालस्य निबन्धे मदन-
पारिजाताभिधेये षष्ठः स्तवकः।
————
]
- ↩︎
-
“अष्टमिति शेषः।” ↩︎
-
“इयं गतिःअदृष्टकल्पनारूपा गतिः अगतिका नास्ति गतिर्यस्यास्तद्विषयिकेत्यर्थः।” ↩︎
-
“मूत्रपुरीषोभयोत्सर्गकरणेऽपि।” ↩︎
-
“पुरीषशौचात्प्राक ।” ↩︎
-
“एका लिङ्गे गुदे तिस्र इत्यादि वचनप्राप्तक्रमोल्लङ्घने।” ↩︎
-
“* तोयेन तत्तादृशमिति पाठस्य बहुषु पुस्तकेषु दर्शनाद्रक्षितं परन्तु सार्थक्यं नास्तीति।” ↩︎
-
" कृषिव्यापारय।" ↩︎
-
“हस्तिनां विस्तरम्।” ↩︎
-
" यमपाशसमूहः।" ↩︎
-
" काश्यादितोर्थचयेषु दर्शनार्थमागतानां लोकानां करविमुक्तिःकरविमोचनं रस्याग्रहणमिति यावत्।" ↩︎
-
“दक्षिणहस्तादीनाम्” ↩︎
-
" मलप्रक्षालनादौ।" ↩︎
-
“न साम्पराधिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलमिति क्वचित्पाठः।” ↩︎
-
“साधारणकम्मानन्तरमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“कुलवद्धिविनाशकृदिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“बलवानेवेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“धनुर्गुणोपयुक्तो लताविशेषः मुरगा इति ख्याता ।” ↩︎
-
“अर्हन्तीति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" छिद्ररहिताः ।" ↩︎
-
" आदौ गायत्र्याःपादं श्रावयेत्ततोऽर्द्धं ततः सम्पूर्णामित्यर्थः।" ↩︎
-
“पच्छःपादशः।” ↩︎
-
“ब्राह्मणः स्वदक्षिणवाहुं श्रोत्रसममभिवाद्यस्य कर्णसमानं यथा तथा प्रसार्य्य पश्चात्प्राञ्जलिः सन्नभिवादयेत्। एवं क्षत्रियोऽभिवाद्यस्य वक्षःसमानं वैश्यः कटिसमानं शूद्रो नीचैर्मध्यदेशादधःसमानं स्खदक्षिणबाहुं प्रसार्य्य प्राञ्जलिः सन्नभिवादयेदित्यन्वयः।” ↩︎
-
" रमन्तमिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“वेदस्य।” ↩︎
-
“मन्त्रात्मकवेदभागः।” ↩︎
-
" मन्त्रेतरवेदभागः।" ↩︎
-
“वेतननियममकृत्वा इत्यर्थः।” ↩︎
-
“मन्त्रमात्रात्मकवेदाध्यापयिता, मन्त्रेतरवेदभागमात्राध्यापयिता, वेदाङ्गमात्राध्यापयिता ।” ↩︎
-
“* क्षत्रियादिजातीयपित्रुपलक्षणम्।” ↩︎
-
" यथाविधि गर्भाधानादिकर्म्माकारीत्यर्थः।" ↩︎
-
" न महागुरुरित्यर्थः।" ↩︎
-
“भवन् भिक्षां देहि विप्रस्यक्षत्रियस्य भिक्षांभवन् देहि ,भिक्षांदेहि भवन् वैशस्य।” ↩︎
-
“गुरोः कुले न भिक्षेत इत्यादिकम्।” ↩︎
-
“सायं प्रातः पदं रात्रिदिवापरं मध्ये भोजननिषेध इत्यनेन दिवाभोजनादूर्द्धं रात्रिभोजनात् प्रागपरभोजनं न कर्त्तव्यमिति ज्ञापितम्।” ↩︎
-
“ग्रासान् भूक्तमिति की दिशं गन्तव्यमितिवत् भावाख्यातेतरत्वात्साधु। मुनेरिति भावक्तान्तत्वात्कर्त्तृषष्ठी। क्वचिदष्टौग्रासामुनेर्भुक्तमिति पाठः तत्पाठे तु मुनेर्भुक्तं भोजनं कियत्परिमितं - अष्टौ ग्रासा इति।” ↩︎
-
“अत्रलौहपदं सर्व्वतैजसपरं वाच्यं वचनान्तरे लौहनिषेधात् यथा अर्कपत्रे तथा पृष्ठे आयसे ताम्रभाजने।करे कर्पटके चैव भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् अतएव सर्व्वतैजसं लौहमिति स्मरन्ति।” ↩︎
-
“तथाच क्षत्रिवायां क्षत्रियेण जातः क्षत्रिय एव भवति एवं वैश्येनेत्यादि।” ↩︎
-
“जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेय इति स्मरणात्। संस्कारैर्द्विज उच्चते इति स्मरणाच्च।” ↩︎
-
“निक्षिप्य।” ↩︎
-
“वाजिनां घोटकानाम्।” ↩︎
-
“क्रमशतं पादश्तमिति यावत्।” ↩︎
-
" चतर्गणंचतुःशतानि ।" ↩︎
- ↩︎
-
“गृहात्।” ↩︎
- ↩︎
-
“पादपक्षालनावशिष्टजलम्।” ↩︎
-
“कटिदेशादुत्क्षिप्तवसनः।” ↩︎
-
" अशुद्धवस्तुशून्यदेशः।" ↩︎
-
“यम इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
" देयेति क्वचित्पाठः।" ↩︎
-
“यस्विति पाठान्तरम।” ↩︎
-
" विवर्ज्जयेदिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" किमुत ।" ↩︎
-
“केवलमूत्रोत्सर्गकरणं केवलपुरीषोत्सर्गकरणमपीत्यर्थः।” ↩︎
-
“मूत्रोत्सर्गरूपनिमित्ताभावे ।” ↩︎
-
“लिङ्गशौचम्।” ↩︎
-
“अदृष्टमिति शेषः।” ↩︎
-
" इयं गतिः अहटकल्पना गतिः अगतिका मातिगतियंस्थास्तविषयिकेत्यर्थः ।" ↩︎
-
“मूत्रपुरीषोभयोत्सर्गकरणेऽपि” ↩︎
-
“पुरीषशौचात्प्राक्।” ↩︎
-
" एका लिङ्गे गुदे तिस्र इत्यादि वचनप्राप्तक्रमोद्धद्वने। ।" ↩︎
-
“तोयेन तत्तादृशमिति पाठस्य बहुषु पुस्तकेषु दर्शनाद्रक्षितं परन्तु सार्थक्यं” ↩︎
-
“ओष्ठाघरोपत इत्यर्थः।” ↩︎
-
“इन्द्रियाणि ।” ↩︎
-
“आत्मस्थानं हृदयमित्यर्थः ।” ↩︎
-
“निर्ग्रहणेन विवारजलपानेन ।” ↩︎
-
“मनस्तुष्टेरभावे ।” ↩︎
-
" शुद्धजलाभावे तज्जलं भूमौ क्षिप्त्वा तेन जलेन आचमनं कुर्य्यादित्यर्थः ।" ↩︎
-
" जपयज्ञहोमेषु ।" ↩︎
-
“सन्धिरत्र आर्यः ।” ↩︎
-
“दण्डायमानः ।” ↩︎
-
“जानुपरिमिते इत्यर्थः।” ↩︎
-
" प्रपदन् गच्छन् न आचामन् न गुद्धिम् आप्नुयादिन्यन्वयः ।" ↩︎
-
" छन्दसि दीर्घः ।" ↩︎
-
“पर्य्यङ्गबन्धवस्त्रः।” ↩︎
-
“दान्तः इन्द्रियदमनशीलः ।” ↩︎
-
" दुःस्वप्रमिति क्वचित्पाठः।" ↩︎
-
“एवान्र पश्यति इत्यध्याहारेणन्नयः।” ↩︎
-
“बहुपुस्तके आप इति पाठदर्शनाच्छन्दोऽनुरोधाच्च आप इति रचितं पर व्याकरणानुसारेण अप इति समीचीनः पाठः ।” ↩︎
-
“आपो ज्योतीरसोऽमृतमिति मन्त्रेण ।” ↩︎
-
“अलर्क इति अलकंराजसम्बोधनम् ।” ↩︎
-
“समारमेदिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“पाप्मानमवधुन्वन्तीत्येवं भवितुमर्हति परन्तु बहुषु पुस्तकेषु दर्शनावैदिक पाप्मानवधुन्वन्तीति रक्षितम् ।” ↩︎
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“अञ्जलिरूपम्।” ↩︎
-
" इमं मे वरुण इत्यादिमन्त्रः।" ↩︎
-
" उद्वयं तमसः परिज्योतिरित्यादिमन्त्रः " ↩︎
-
" उदुत्यं जातवेदसमित्यादिमन्त्रः ।" ↩︎
-
" चित्रं देवानामित्यादिमन्त्रः।" ↩︎
-
" तच्चनदेवहुतमित्यादिमन्त्रः ।" ↩︎
-
“इति आर्षम् ।” ↩︎
-
" उदयन्तमिति क्वचित्पाठः।" ↩︎
-
" गायत्राभिमुखीति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" अबाश्रितः जलमध्यस्थितः शुकवासा इति शेषः।" ↩︎
-
" आच्छादित शिराः।" ↩︎
-
" विवेकशून्यः।" ↩︎
-
“पशुहिंसाद्यात्मकः पशुयागादिः।” ↩︎
-
" ओष्ठः।" ↩︎
-
“निम्वफलम्।” ↩︎
-
“जीयापुतीतिख्यातम्।” ↩︎
-
“स ब्रह्म परमभ्येति इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“अस्य पूर्व्वंश्लोकार्द्धेनान्वयः तथाच पापानां सद्धरे समुपस्थिते नानाविधपापे न सति गायत्र्याः दशसाहस्रिकः अभ्यास जपरुपः परं शोधनं तत्तत्पापनामाकः।” ↩︎
-
“कल्पान्तरं दर्शयति वायुभव इत्यादि तथाच ब्रह्मवधाहते महतःपातकाहिन तु चार्थे सूर्य्यट्टक सूर्य्यं वीक्षमाणःवायुभक्षःसन्दिनं रात्रिञ्च नीत्वासहस्रं गायत्री जप्त्वा सर्व्वेभ्यः पापेभ्यःशुचिः तिष्ठेन्मुक्तो भवेदित्यर्थः ।” ↩︎
-
“* नैष्ठिकरुपाः।” ↩︎
-
“जायाया उपेयो उपगतः ।” ↩︎
-
“ऋग्वेदिनाम् ।” ↩︎
-
" उदयमाप्ततिथि खण्डे।" ↩︎
-
“प्रातिष्विकतया” ↩︎
-
“परशाखोक्तम्।” ↩︎
-
“ऋग्वेदिविधेरे ।” ↩︎
-
“स्वस्वकर्म्मणामिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“ऋग्वेदिविशेरे ।” ↩︎
-
“खखकर्म्मणामिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“अरुणया एकहायन्या गवा सोमं क्रीणाति पदे जुहोति। इति श्रुतिरस्ति अथ पार्श्वस्थत्वात्पदे इत्यस्य यथा गोपद इति लक्ष्यते इति न्यायः।” ↩︎
-
“प्राधान्येनान्वयित्वमुपदिष्टम्।” ↩︎
-
“नियोज्यतया अन्वयिनः।” ↩︎
-
“हिरण्यगर्भस्य ब्रह्मणःपूजायां पूर्व्वविद्धाश्रावणी ग्राह्या इत्यर्थः तथाच धनदंश्चरमा गौरी गणेशः सोमराड्गुहः। भास्करश्चण्डिकाम्बाश्च बासुकौ च तथर्षयः चक्रपाणिर्ह्यनङ्गश्च शिवी ब्रह्मा तथैव च। प्रतिपत्प्रभृतिष्वेताः पूज्यास्तिथिषु देवताः। यथोक्ताः शुक्लपक्षे तु तिथयः श्रावणस्य चेति।” ↩︎
-
" भूतयुते चतुर्द्दशीयुते तस्मिन् पर्व्वणि औपाकरण इष्यते इत्यर्थः।" ↩︎
-
" त्वाष्ट्रऋक्षसमन्वितमिति छन्दोऽनुरोधादसन्धिः ।" ↩︎
-
“गणानां वेदच्छन्दोब्रह्मादिदिवौकसादीनां सन्निधाने सति यत्स्त्रानं तद्गणसा उपाकमादिनिमित्तंत्रानमित्यर्थः । तथाच च्छन्दोगपरिशिष्टम । वेदाश्छन्दांसि सर्व्वाणि बह्माद्या दिवौकसः । जलार्थिनोऽपि पितरोमरीच्याद्यान्तर्घर्षयः॥ उपाकर्मणि चोत्सर्गे सानार्थ ब्रह्मवादिनः । थियासूननुगच्छन्ति संहृष्टाह्यशरीरिणः॥ समवायश्च यत्रैषां तत्रान्ये बहवीमलाः । न्यूनं सर्वे चयं यान्ति किसुतैकं नदीरजः॥” ↩︎
-
“यजुवेंद्यभिप्रायम्” ↩︎
-
" अत्र पञ्चम्यां उपाकर्म्मविधानात् वचनान्तरे एकादम्बादिचतथ्यंन्तवैधविधानाश्च त्रयोदश्यादिः व्यवहितादिरेकादशी तामारस्य दिनानां नवकं वर्ज्यमित्यर्थः ।" ↩︎
-
" गुरुशुक्रास्तमवादिषु।" ↩︎
-
“सर्व्वांशेन ।” ↩︎
-
“हरेरुत्थाने ।” ↩︎
-
" रविशुद्धौ चैत्यर्थः ।" ↩︎
-
" बृहस्पती शुक्रेच उदिनतेसति ।" ↩︎
-
“सूर्य्ये।” ↩︎
-
“बृहस्पती च सिंहराशिगते इत्यर्थः।” ↩︎
-
“अंशुमानव चन्द्रः सूर्य्यश्च ग्राह्यः शनिमङ्गलयोर्निषेधात् ।” ↩︎
-
" ब्रह्मणोवेदस्य आदौ पाठारम्भे अन्ते पाठसमाप्तौ प्रणवं कुर्य्यादुच्चरेत्।" ↩︎
-
“श्रवति अर्थादभ्यस्तो न भवति ।” ↩︎
-
" स्मरणयोग्यो न भवति ।" ↩︎
-
“कुशादिभिः ।” ↩︎
-
“विरमेत् ।” ↩︎
-
“प्रेरितः ।” ↩︎
-
“चोदितो गुरुणा नित्यमप्रचोदित एव वा इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“यवमिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“यामे ।” ↩︎
-
“अध्ययनम् ।” ↩︎
-
“उपविश्यताम् " ↩︎
-
“गुरुणेति शेषः ।” ↩︎
-
“गुरोः शयनानन्तरम् ।” ↩︎
-
" शय्यायामिति शेषः ।” ↩︎
-
“हस्तचालनेन ।” ↩︎
-
“विरुद्धयोनिं नीचयोनिमित्यर्थः ।” ↩︎
-
“अर्थज्ञानं विनित्यर्थः " ↩︎
-
“कण्डनमिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“गुरोरनुमति विना ।” ↩︎
-
“शण्यात् ।” ↩︎
-
.# “बहुषु पुस्तकेषु दर्शनात् शिष्यान् मायशोलान् इति पाठी रक्षितः परन्तु शिष्यानायशीलान् इति पाठी युक्तःआयशीलान् आयव्ययविज्ञानिति तस्यार्थः।” ↩︎
-
“मूर्खाय ।” ↩︎
-
“निधिस्वरूपः ।” ↩︎
-
“प्रधानदानेभ्यः ।” ↩︎
-
" शिष्यर्त्विगगुरुबन्धुष्विति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“खरनिखनोष्ट्रनिखनोगर्द्धभनिस्वतोलूकनिस्वनसामनिस्वनवाणनिस्वनार्द्धनिस्वनेषु इत्यर्थः।” ↩︎
-
“जलमध्ये।” ↩︎
-
“रणरोहणे इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“वेदाङ्गशस्त्रे।” ↩︎
-
" गुरोः प्रत्युत्तरप्रदाने ।" ↩︎
-
“उच्चासनस्थादिको न भवेत्।” ↩︎
-
“मर्द्दनम्।” ↩︎
- ↩︎
-
" उपकुर्व्वाणस्य धर्म्माः।" ↩︎
-
“साङ्गवेदाध्ययनकुशलब्राह्मणगुरुषु ।” ↩︎
-
" साङ्गवेदानध्येतरि ब्राह्मणेऽपि चिरतरकालं न वसेदित्यर्थः। ।" ↩︎
-
" कमण्डलुः ।" ↩︎
-
“उपवासः तथाच अनड्वान् ब्रह्मचारी च आाहिताग्निस्तथैव च अत्रन्तएव सिध्यन्ति नैषां सिद्धिर्ह्यश्नता॥” ↩︎
-
" सन्तरणम् ।" ↩︎
-
“वास्तुविद्या ।” ↩︎
-
" नृत्यगीतादिसमयसम्बन्धः ।" ↩︎
-
“द्युम्नशब्देन हिरण्यं धनञ्चोच्यते” ↩︎
- ↩︎
-
“व्यवहारज्ञभावः व्यवहारज्ञत्वम्।” ↩︎
-
“स्वयमिच्छेद्गुरुकुले स्थातुमिच्छेत् । मा विशेद्विवाहं न कुर्यात् ।” ↩︎
-
“गृहे वसेद्विवाहं कुर्य्यात्, न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते इति स्मरणात् ।” ↩︎
-
" कामन्त्विति पाठान्तरम् ।" ↩︎
-
" पारस्करसूत्रस्थं कामस्तु गीतं गायति च इत्यपरभागं व्याचष्टे इच्छया इति । गायति इति विध्ययें लट इत्यभिप्रेन्य व्याकरोति गायेत् । चकारस्य सार्थक्यं दर्शयति एण्यादिति ।" ↩︎
-
“एकत्रान्वितस्य पदस्य अन्यत्रान्वयार्थमनुसन्धान मनुषः ।” ↩︎
-
“भमे गति” ↩︎
-
“आच्छादितजलाशयादौ सूर्य्यकररहितादौ ।” ↩︎
-
“अयं मे वज्रपाप्मानमपहन्तु।” ↩︎
-
" बहुषु पुस्तकेषु एकरूप एवं पाठो दृश्यते। परन्तु यष्टिपाणिर्नरन्छची चरेत् रात्रौ तथा दिवा इत्येव पाठी युक्तः।" ↩︎
-
" मञ्जिष्ठादिना रक्तं नीलीमिश्रितरक्तं वासो वस्त्रं नाच्छादयीत इत्यन्वयः।" ↩︎
-
" कलहम् ।" ↩︎
-
“निष्प्रयोजनविवादम।” ↩︎
-
“शुक्लपक्षस्य कृष्णपक्षस्य वा तिथिं न ब्रूयात् परन्तु प्रतिपदादित्वेन ब्रूयात्।” ↩︎
-
“नीचानाम्।” ↩︎
-
" हिंसनमथवा दोषाविष्करणम्।" ↩︎
-
" अनिषिद्धेष्वपि अत्यन्तभोजनं वर्ज्जयेत्।" ↩︎
-
“* फुत्कारेण अग्निं ज्वालयेत्।” ↩︎
-
“राहुग्रस्तम् ।” ↩︎
-
“मध्याङ्ककाले।” ↩︎
-
" सहाथें तृतीया।" ↩︎
-
“रजकश्चम्मकारश्च नटी वरुड़ एवच, कैवतें। मेदभिल्लाश्व मते चान्तजाः कृताः ।” ↩︎
-
“चण्डाल खपचः क्षत्ता सूतोवैदेहकस्तया, तथा मागधायोगी चैव सतेऽन्त्यावशायिनः।” ↩︎
-
" आदित्यदर्शनरूपम्।" ↩︎
-
" नरसमूहेषु मध्ये ।" ↩︎
-
" शङ्खलच्युत हस्तिनं विषद्स्तरञ्च।" ↩︎
-
“मादकद्रव्यमवर्णन मत्तमित्यर्थः।” ↩︎
-
“उपविटाम्।” ↩︎
-
" तैलमहमे आसताम्।" ↩︎
-
“* प्रखवन्तीमिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“+ मान्योमानार्दोजनः । माल्यमिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“ईशप्पमिति पाठातरम् ।” ↩︎
-
“न दिवसं वभेदिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“अविभुक्तादि इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" बण्डलाङ्गलैः।" ↩︎
-
“मातिप्रातः।” ↩︎
-
“गवां पृष्ठेन यानं गमनम्।” ↩︎
-
“चतुर्हस्तमात्रम् ।” ↩︎
-
“वदरीवृक्षच्छायाम्।” ↩︎
-
" बहुषु पुस्तकंषु दर्शनाद्रक्षितं परन्तु नैकः सुप्याद्वनं गच्छेदित्येव साधु।" ↩︎
-
“सांगयिकीमिति नौविशेषणं निमज्जति नवेति संशयविषयिकाम।” ↩︎
-
“सपत्रीको धर्म्माचरेदिति स्मरणात्पत्न्या अपि धर्म्माचरणक्रियायां कर्त्तृत्वस्वीकारेण।” ↩︎
-
“अस्थिभिरस्थीनि मांसैमीमानि त्वचा त्वचमिति श्रुत्या पत्या सह पत्न्या विवाहीत्तरमभिन्नशरीरत्वेन।” ↩︎
-
“सापिण्ड्यनिर्णये।” ↩︎
-
" व्युत्पत्तिनिर्वाचने।" ↩︎
-
“एककार्य्यकर्त्तृत्वैकशरीरारम्भकत्वैकावयवान्वितत्वरूपम्।” ↩︎
-
“निर्मर्थ्य विचार्य्य अयं शब्दः सापिण्ड्यशब्द सम्प्रधार्य्यतामिति पूचोनुषङ्गेमान्वयः।” ↩︎
-
" दुर्विज्ञेयानोति पाठान्तरम्। अवहियानीति पाठान्तरम् ।" ↩︎
-
“* सवर्णया एव।” ↩︎
-
“ताश्चाविवाद्याःअन्यथा सङ्करकारियन्तथाव्यापवितुरेवदेवतीति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" सवर्णाया एव।" ↩︎
-
“* ताश्चापवाया, अन्यथा सरकारन्तयाध्यापयितुरेतदेवतीति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“* समुदायोपगस्येति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“पञ्चमवगणं प्रवरचयैको न विवाहः, एवं परत्र।” ↩︎
-
“झर्षि इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“वार्षेि इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“ब्राह्मणादिः यदा स्वपितुः क्षत्रियादिपुत्रवंशे विवाह करोति तदैव भवति ।” ↩︎
-
" सपनीमातुः पितृवंशे ।" ↩︎
-
“खपिटजातमूवमिक्तादिवंगे ।” ↩︎
-
“दत्तकपुत्ररूपपितुःजनककुले पञ्चमी परिहत्य विवाह कर्तुमर्हतीति ।” ↩︎
-
“दत्तकपुत्रीरूपमातुःग्ररूपपिटकुले ।” ↩︎
-
" दत्तकपुत्ररूपपितुर्जनककुल्ले ।" ↩︎
-
“अस्थायमर्धेति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“त्रिपुरुषमेवेति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
" अधिकाङ्गादिगुणदोषौ ।" ↩︎
-
“भायागम्यगुरूदतिकमे च दोषोऽनीति पाठान्तरम् भाग्यमुनिषिद्ध कन्याविवाहे तस्या भायीत्वमेव न भवति ।” ↩︎
-
“* श्रवा नन्व संस्कृतत्वेन आहवनीयत्वं तथा मन्त्रसंस्कारगण भाय्यीत्वम् ।” ↩︎
-
“प्रकइदानाभावात्पुनिकाया गौणत्वेन और पुत्रगोत्रखत्वयोरानुभविकत्वा- दिति भावः ।” ↩︎
-
“धनमान्यादिसमृद्धादपि ।” ↩︎
-
“लक्षस्यामनन्यपूर्व्विकां कान्तामपिण्डां यवीयमी मित्यादिवचने कन्याया ये गुणा उक्तास्तत्र अनन्यपूर्व्व कत्वादित्रितयं त्यक्त्वा लक्षग्यत्वकान्तत्वासपिउवादिगुपैयुक इत्यर्थः ।” ↩︎
-
“* निःश्न ।” ↩︎
-
“कण्ठस्य पार्श्वदयास्थिविशेषः।” ↩︎
-
“शव्दयुक्तम्।” ↩︎
-
“सर्वप्रकारेण ।” ↩︎
-
“एषु पक्षेषु शूद्राविवाहतदभावपक्षेषु। स्मार्त्तःस्मृत्युक्तः। विकल्पः शाखिभेदेन व्यवस्थितो विकल्पः।” ↩︎
-
“पातित्याचिकित्स्यरोगयोरभावे तु।” ↩︎
-
“वाग्दानोत्तरक्रियमाणप्रकृतदानादि कर्म्मइत्यर्थः।” ↩︎
-
“परिवेत्तृस्थले यथा आनत्यर्थं पुनर्दानम्।” ↩︎
-
“प्रत्यावृत्य तद्दानस्यासम्यक्तेन तत्परिपाटीक्रममास्थाय।” ↩︎
- ↩︎
-
“कन्यादाने इति शेषः।” ↩︎
-
“अधिकारीति शेषः।” ↩︎
-
“कुलमुत्कृष्टत्वादि, रुपं सौन्दर्य्यादि, वयः ज्येष्ठत्वादि, श्रुतं वेदविद्यादि बनुरूपं दानार्हम्।” ↩︎
-
“रजोयोगानन्तरं चतुर्थवर्षे।” ↩︎
-
“विन्देत।” ↩︎
-
“अव्ययानामनेकार्थत्वादवास्येत्यर्थः।” ↩︎
-
“या प्रदत्ता गृहे वसेदिति ग्रन्थान्तरे पाठः।” ↩︎
-
“पुरुषचतुष्टयोपभोक्त्रीतुल्याम्।” ↩︎
-
“गुणवते प्रत्यस्यार्थमाह कुलीनायेति।” ↩︎
-
“गुणहीनाय इत्यस्यार्थमाह रूपादीत्यादि।” ↩︎
-
“विधानत इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“न यज्ञा न तपांसि चेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“विकला या च कन्यकेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“गोयुगमिति क्वचित्पाठ ।” ↩︎
-
“राक्षसं क्षत्रियस्यैकमित्यनेन अव्यवधानेन धर्मज्ञापनायैव क्षत्रियपदस्य निर्दिष्टत्वात्।” ↩︎
-
“षड़ानुपूर्व्वाविप्रस्य क्षत्रस्य चतुरीऽवरानिति वचनानुसरणे।” ↩︎
-
“प्रशस्ता इति शेषः।” ↩︎
-
“एतद्वचनानुसरणोऽपि।” ↩︎
-
“क्षत्रियस्यैकमिति एकपदनिर्द्देशादेते विवाहा अनुकल्पएवेति युक्तम्।” ↩︎
-
“यन्मते अवरानिति अकारप्रश्लेषरहितपाठानुसरणे तु” ↩︎
-
“चत्वारो ब्राह्मणग्याद्या इति वचनेनेति शेषः ।” ↩︎
-
" पञ्चानान्तु क्षयो धर्म्म्याइति वचनेनेति शेषः।" ↩︎
-
“विप्रः।” ↩︎
-
" हत्वा चाज्या तीम्नत्रेति ग्रन्थान्तरोयपाठः।" ↩︎
-
" वैवाहिकहीमादिकम्।" ↩︎
-
" विचारपथम्।" ↩︎
-
" मार्गशीर्षः।" ↩︎
-
" कृष्णपञ्चमीपर्यन्तम्।" ↩︎
-
“विष्टिभद्रायाम् ।” ↩︎
-
“शुक्लकृष्णे” ↩︎
-
“पौर्णमास्याम् ।” ↩︎
-
“भरण्याम् ।” ↩︎
-
“रोहिण्याम् ।” ↩︎
-
" मृगशिरसि ।" ↩︎
-
“पुनर्व्वसौ ।” ↩︎
-
“हन्यादिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“धम्र्म्मार्थकामयुक्ता ।” ↩︎
-
“मघासु ।” ↩︎
-
“पूर्व्व फल्गुन्याम् ।” ↩︎
-
“उत्तर फल्गुन्याम् ।” ↩︎
-
" अधीते इति पाठान्तरम् ।" ↩︎
-
“चित्रायाम्” ↩︎
-
“विशाखायाम् ।” ↩︎
-
“अनुराधायाम् ।” ↩︎
-
“जेष्ठायाम्” ↩︎
-
“ग्रन्थप्रकारम् ।” ↩︎
-
“उत्तराषादानक्षत्रे।” ↩︎
-
" धनिष्ठायाम्।" ↩︎
-
" शतभिषायाम्।" ↩︎
-
“पूर्वभाद्रपदनक्षत्रे ।” ↩︎
-
" उत्तरभाद्रपदनक्षत्रे।" ↩︎
-
“रेवत्याम्।” ↩︎
-
“श्रेष्ठेषु। ववेषु पाठे ववप्रभृतिषु।” ↩︎
-
" चन्द्ररहिताममावास्याम्।" ↩︎
-
“वरेष ।” ↩︎
-
“सिंहलग्ने।” ↩︎
-
“कन्चालग्रे।” ↩︎
-
“ममम्मधनुन्नग्रे दोषः, अपरमते धनुःपूर्व्वार्द्धभावे।” ↩︎
-
“मकर कम्ममाननन्तग्रेषु।” ↩︎
-
“विवाहादीति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“शक्रोगुरुश्च चेत् प्राक् पूर्व्वस्यां दिशि अपरस्मिन् पश्चिमस्यां दिशि अर्ककालः अर्केण सूर्येण युक्तः सन् बालत्वादि प्राप्तम्तदा तन्निमित्तकालः अकालः ।” ↩︎
-
" हूनेषु म्लेच्छदेश विशेषेषु यथा स्वपाकश्च तुरष्कय अनीयवन इत्यपि ।" ↩︎
-
" साधारणधने एकस्य दानाद्यनधिकारात् ।" ↩︎
-
“धनव्ययसाध्यम्।” ↩︎
-
“विवाहकाले ।” ↩︎
-
“पितृधनविभाग काले।” ↩︎
-
“प्रमादिनेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“परित्यजति।” ↩︎
-
“अध्ययनादिकार्य्ये व्यापृतः।” ↩︎
-
“प्रत्यवायी न भवति” ↩︎
-
“वैश्याभिषक्तेति देशान्तीयपाठः।” ↩︎
-
“फुण्ठकानिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" कुलटोन्मत्तचौरश्चिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“कारयेदिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“अधिकार्य्यनुज इति पाठान्तरम ।” ↩︎
-
" विवाहकाले विभागकालेच।" ↩︎
-
“भर्जनस्थानात्।” ↩︎
-
“छन्दोगपरिशिष्टे तु चतुर्विंशतिरङ्गुष्टदैर्ध्वं पडपि पार्श्विकम् । चत्वार उछावमानमरण्याः परिकीर्त्तितमेवं पाठो दृश्यते ।” ↩︎
-
“अष्टाङ्गुलःप्रमन्यःस्याञ्चत्रं स्यावादशाङ्गुलमिति छन्दोग परिशिष्ट विशेषपाठी दृश्यते ।” ↩︎
-
“शणसंमिश्रैरिति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“बाहुद्वयपरिमितम् ।” ↩︎
-
“मन्थनदण्डबद्ध रज्जुः ।” ↩︎
-
" उत्तरफल्गुन्युत्तराषाढ़ोत्तरभाद्रपन् ।" ↩︎
-
" रेवतो" ↩︎
-
“ज्येष्ठा” ↩︎
-
“कृत्तिका ।” ↩︎
-
“विशाखः।” ↩︎
-
“मृगशिराः।” ↩︎
-
“न व्यक्तः भवन्ति।” ↩︎
-
“* भूषिते इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" समयाध्युषितश्च स इति पराशरमाधवेपाठः।" ↩︎
-
“प्रस्थधान्यमिति माधवीयेपाठः।” ↩︎
-
“पत्र इति देशान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
“अत्रविट्पतिरिति देशान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
“* व्रतमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“मुद्रितच्छन्दोगपरिशिष्टपुस्तके पाठान्तरं दृश्यते यथा होतव्ये च हुते चैव पाणिमुपस्फदारुभिः न कुर्यादग्निधमनं कुर्य्याद्वाव्यजनादिना॥” ↩︎
-
“तचैव पाठान्तरं यथा- मुखेनैके धमन्यग्निं मुखद्येपेऽध्यजायत।” ↩︎
-
“पुनः पुनर्गमनशीनः ।” ↩︎
-
" आमवावी रोगी आर्त्तऽन्य प्रकारेण कातरः ।" ↩︎
-
“अन्वाधानदिने इति कचित्पाठः ।” ↩︎
-
“आगामिदिनगणनेन हामवशात्कदाचिञ्चतुर्दशदिनं कदाचिद्वापञ्चदशदिनम् ।” ↩︎
-
" चतुगृहीतादीनि इति क्वचिद्पाठः ।" ↩︎
-
“पक्षहोमिनन्तन्यक्षतमध्येआपन्निवृत्तौतदाप्रभृति पुनर्होमःकर्त्तव्य इत्याह ।” ↩︎
-
“* पक्षहोमानथो कृत्वा गत्वा तस्यान्निवर्त्तितः। होमं पुनः प्रकुर्य्यात्तु न चासौ दोषभाग्भवेत्॥ इति पराशरमाधवीये पाठः।” ↩︎
-
“तौयेन इति क्वचित्पाठः।” ↩︎
-
“पूर्व्वकर्म्मणि स्वकालानुष्ठितपूर्व्वकर्म्मविषये एव उत्तरकर्म्ममुख्यकालस्य शास्त्रे गौणत्वमुक्तं न तु वकालाकृतस्य कर्म्मणोऽनुष्ठानार्थं तदेवीपपादयति नतृत्तरेत्यादिना ।” ↩︎
-
" पूर्व्वकर्म्मानुष्ठानार्थमुत्तरकर्म्ममुख्यकालः न तु गौण इत्यर्थः इत्यनुषोपदे नान्वयः हि यतः स्वोकर्त्तुमुचितो न भवति ।" ↩︎
-
" पूर्व्वकर्म्मानुष्ठानेनैव उत्तरकर्मणो मुख्यकालातिपातादेव तस्मात् स्वमुख्यकालान् उत्तरकर्म्म अपसारयति दूरीकरोति ।" ↩︎
-
" तदपि उत्तरकर्म्मकाले तदुत्तरक्रियमाणकर्म्मणोमुख्यकाले ।" ↩︎
-
“यदि उत्तरोत्तरकाले पूर्व्वपूर्व्वकर्म्मणःकरणं भवेत् तदा कालातीत व सत्कर्म अकृतं तद्विनिर्द्दिशेदिति शास्त्रेण विनष्टस्य अस्य बहुशः कर्मणः समाधानं मिभिः प्रसज्येत प्रसक्तं भवेदित्यर्थः ।” ↩︎
-
" शास्त्रान्तरेण कालान्तरकर्त्तव्यत्वेन विधाने ।" ↩︎
-
“असति शास्त्रान्तराभावे सति इत्यर्थः तयाच यस शास्त्रान्तरं कालान्तरमतं तस्य दैवान्मुख्यकाले अकरणं गौणकाले करणं यस्य नान्ति शास्त्रान्तरं तस्त्र मुख्यकालाकरणे बाध एव न गौणकालकल्पनमिति समुदितार्थः!” ↩︎
-
“गौणकालेऽपि कर्त्तव्यम् ।” ↩︎
-
“उपक्रमात्।” ↩︎
-
" प्राप्तियोग्यम् ।" ↩︎
-
" द्रव्यवत्कर्त्रधीनत्वाभावादिति भावः।" ↩︎
-
“सहि अधिकाराभावीहि अफलाधिकरणं यस्मिन् कर्मणि कृते फलं नास्ति तत् अफलं अफलमधिकृत्य यत्व विचार्य्यते तदफलाधिकरणं तस्मिन्।” ↩︎
-
“प्रतिनिहितद्रव्यम्।” ↩︎
-
" लाभार्थम्।" ↩︎
-
“मृगशिरो धनिष्टोत्तरावय पुनर्व्वम् पुप्या चित्रानुराधाश्विनी स्वाति श्रवण शतभिषा रोहिणी नक्षत्रेषु।” ↩︎
-
" ब्रहस्पति मङ्गल शुक्राणाम्।" ↩︎
-
“जीवजाम्फजितां दिने इत्येव पाठान्तरं साधु तथाच श्रीपतिसंहितायां वारेष्विज्य सितेन्दुवित्मु शुभदे तारे प्रशस्ते विधौ कन्या मन्मथ मौन तोलि मृगभे स्यादङ्गना- ध्यागमः ।” ↩︎
-
“सम्मुग्वगम्” ↩︎
-
" बन्ध्यविषये मनुना अष्टान्दप्रतीक्षणमुक्तं देवलेन दशान्दप्रतीक्षणमुक्तं तद्विरोधपरिहाराय एतदुक्तं भवति।" ↩︎
-
“धर्मार्थकामाः।” ↩︎
-
“ग्रासमात्रेण उपजीव्यते।” ↩︎
-
“वयोनियमः अपेक्षणीयः इत्यर्थः।” ↩︎
-
“नदी।” ↩︎
-
“अन्नपाके।” ↩︎
-
“आदर्शप्रभृति द्रव्यस्थ” ↩︎
-
" पाकीपकरणद्रव्यसंग्रहे" ↩︎
-
" सेव्यः " ↩︎
-
" हेत्वर्थे तृतीया " ↩︎
-
“पौड़ाजनकेषु कार्येषु सत्त्वपि । " ↩︎
-
“आक्रोशं न कुर्य्यात् ।” ↩︎
-
“ऋतुस्नाता ।” ↩︎
-
" कञ्चुलिकां कांचुलि इति यस्य प्रसिद्धिः।” ↩︎
-
“त्यजेत्।” ↩︎
-
“काक कारूक्येति पाठान्तरम्” ↩︎
-
“भिक्षुकया” ↩︎
-
“वाहडुनीति प्रसिद्धिः” ↩︎
-
" प्रस्तरे" ↩︎
-
" द्वाराधीभागे ।" ↩︎
-
“विड़ाली ।” ↩︎
-
“* बक्ताक्षौ” ↩︎
-
“वैश्या” ↩︎
-
“हिंसाकारिणी।” ↩︎
-
“नृत्यगीतदर्शनकारिका।” ↩︎
-
“मायावावृत्त कहककारुणां प्रत्येकं कारिकेत्यनेनान्वयस्मेन मूलकारिका धनवृद्धिकारिका।” ↩︎
-
“भवेति गम्यमानमहायें तृतीया” ↩︎
-
“प्रथमावधि।” ↩︎
-
" श्रेष्ठकल्पः।" ↩︎
-
“साध्वी ज्ञेया पतिव्रतेति देशान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
“पौनरक्तिप्रसक्तेरित्यव पाठः साधुः। तथाच यदि पतिव्रतात्वं मरणनियतं तदतिरिक्तस्थले साध्वौत्वंतदा ब्रह्मचर्य्ये व्यव स्थिता इत्यनेनैव साध्वीत्वप्राप्तौसाध्वी इत्यस्य पुनरुक्तं स्थात् अतोऽपुनरुक्ताय साध्वौत्वनेन पतिव्रतात्वमेव मनुना विधीयते इत्यवश्यं वाच्यम्।” ↩︎
-
“मा हिंस्यामची भतानीति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“पुनाति विधवा नारीत्येव पाठः साधुः। ब्रह्मघ्नौवा कृतघ्नौवा मिवघ्नौवापि यो नरः। तं वै पुनाति सा नारी इत्यङ्गिरसभाषितमिति देशान्तरीयपाठ” ↩︎
-
“शास्त्रफलं शास्त्रोक्तकर्म्मजन्य फलम्। प्रयोक्तृविलक्षणत्वात् अनुष्ठातृनियतत्वात्।” ↩︎
-
“यदुन्मुखं प्रारब्धमिति लिपिकरप्रसाद एवं अप्रारमित्येव माघः अप्रारजं द्विविधमित्युक्त्वा विहितत्वात्। +” ↩︎
-
“पुनाति विधवा इत्येव साधु। ।” ↩︎
-
“यत्व इत्येव साधु यदुन्मुखमित्यस्य उक्तत्वात् पुनक्तापत्तेः।” ↩︎
-
“भोगमात्रनाश्यप्राब्धं मा भुक्तं क्षीयते कर्म्म कल्पकोटिशतैरपीति स्मरणात् ।” ↩︎
-
“सहमरण जन्यस्वर्गंभोगानन्तरं प्रारब्धकर्म्मजन्यफलभोगारम्भेण मा भुक्तं क्षीयत इत्यनेन न विरोधः ।” ↩︎
-
" पुनाति विधवा नारी तमादाय म्रियेत या इत्यत्रेति शेष’ ।" ↩︎
-
" फलदानोन्मुखप्रारब्धकर्म्मजन्यपापफलनिवृत्ति कल्प्यत इत्यर्थः । अन्यथा फलदानोन्मुखप्रारब्ध कर्म्मणासहमरणाद्यनन्तरमपि निन्दितफले नरकादौ जाते सहमरणादिजन्यपतिपूतत्वादिबाधापत्तेः ।" ↩︎
-
“यत्पापफलप्रतिबन्ध्या सहमरणादिजन्यपूतत्वादिबाघस्तत्पापफलानुत्पत्तिः कल्पनीया इत्यर्थः।” ↩︎
-
“तथाच इत्यर्थःपुस्तकान्तरेऽपि एवंविध एव पाठो दृश्यते ।” ↩︎
-
" सहमरणादिजन्यफलाविरोधिफलदानानुन्मुखप्रारब्धकर्म्मजन्यकालान्तरभाविपापफलनिवृत्तिर्न परिकल्पनीया इत्यन्वयः ।" ↩︎
-
" तु किन्तु, उक्तकर्म्मणि सहमरणादिकर्म्मणि इत्यर्थः ।" ↩︎
-
“अनुमानेनेति सहमरणादिना पूर्व्वसञ्चितफलदानोन्मुखप्रारब्धकर्म्मजन्यपापफलनिवृत्तिः कल्पनीया सहमरादिजन्यपतिपूतत्वादिरूपफलबाधादित्येवंरूपमनुमानम् ।” ↩︎
-
“पत्रीगतदुरितफलनिवृत्तिरित्यर्थः ।” ↩︎
-
" असुन्दरम्" ↩︎
-
" सपत्नीको धर्म्ममाचरेदिति स्मरणात्।" ↩︎
-
" पुरुषानुष्ठिताग्निहोत्रकर्म्मजन्यादृष्टेन पत्न्या अपि स्वर्गोपपत्तिः तद्वत्।" ↩︎
-
“पतितेन पत्या ।” ↩︎
-
“कबरीवन्ध इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" काचुनीति प्रसिद्धिः" ↩︎
-
" रञ्जितम्" ↩︎
-
“अदृष्ट्वापि” ↩︎
-
“अप्रियमिति शेषः।” ↩︎
-
“परमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“श्लोकार्थस्तु येषां प्रधानपुरुषाणां शास्त्रे शास्त्रश्रवणे मतिः” ↩︎
-
“एतद्वचनं मनोरिति कृत्वा ग्रन्थकारोर्लिखितं मनुसंहितायाश्चतुर्थाध्याये वचनं लभ्यते च।” ↩︎
-
“मरणयाधिशोकानां सहद्वयं किमद्य उपस्थित निपतिष्यति भविष्यति इति उत्थाय उत्घाय प्रवुध्यप्रवुध्य बोद्धव्यं चिन्तनीयम्। " ↩︎
-
“अविमुक्तचरणयुगलमविमुक्तेश्वरचरणयुगलं, दक्षिणमूर्त्तेःशिवमूर्त्तिविशेषस्य स्मरणं कुक्कुटचतुष्पकंकुक्कुटनामद्विजचतुष्कं वाराणस्याः स्मरणमपि अपशकुनं अनिष्टमूचकं दुःस्वप्नं निहन्ति। तथाच - वाराणस्युत्तरी तीर कुक्कुटो नाम वें द्विजः। तस्य स्मरणमात्रेण दुःस्वप्नश्च विनश्यति इति काशीखण्डम् ।” ↩︎
-
“नृपमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“नदीमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" दलिताग्रम्।” ↩︎
-
“पर्व्वाग्रम्। विष्णुमंहितायान्तु कनीन्यग्रसमस्थौल्यं सकूर्च्च द्वादशाङ्गुलम्। प्रातर्भूत्वा च यतवाक् भक्षयंद्दन्तधावनमित्येवं पाठी दृश्यते।” ↩︎
-
“ईशानकोणाभिमुख इति यावत् ।” ↩︎
-
" आमड़ा इति प्रसिद्धिः।" ↩︎
-
“गाव यस्यप्रसिद्धिः।” ↩︎
-
“एतं इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“अरिष्टो निम्बद्वक्षः, अचः अभीतकवृक्ष बयड़ा इति प्रसिद्धः।” ↩︎
-
“तृष्णा तृष्णातुरः आस्यामयी मुखरोगी पाढामयी हृदयामयी नेत्रामयीशिरआमयी कर्णामयी।” ↩︎
-
“+ वर्णद्वयविशिष्टानि ।” ↩︎
-
" यथोचितमिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" अभ्यसनमिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" पोष्यवर्गार्थसाधनमिति पाठान्तरम्। शोधनं भरणार्थधनोपायचिन्तनं तथाच मनुः भरणं पोष्यवर्गस्य प्रशस्तंस्वर्गसाधनं नरकं पीड़ने चास्य तस्माद्यमेन तं भरेदिति।" ↩︎
-
“अतिथिश्चैव इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेष्वेवं पाठो दृश्यते परन्तु निरर्य एव अतः पादस्यार्द्धार्द्धमर्थस्य इति स्मार्तादिधृतः पाठः साधीयान्।” ↩︎
-
“शुद्धस्य सप्तधा विभागोऽनन्तरीक्त इत्यर्थः। +” ↩︎
-
“उदयउपायोपि अस्य सतप्रकारागतधनस्य तद्विधः सप्तविधः।” ↩︎
-
“मूल्यम्।” ↩︎
-
“सेवाभिः” ↩︎
-
“द्यूतम्” ↩︎
-
" परपीड़नम्" ↩︎
-
“परिवर्त्तः” ↩︎
-
“मारणैः।” ↩︎
-
“वैपरीत्यात्।” ↩︎
-
“गुरुवन्माननीयः ।” ↩︎
-
“ब्राह्मणी यदा ब्राह्मणाध्यापकाभावे अध्ययनार्थं क्षत्रियादिसमीपं गत्वा प्रार्थयते तदैव ब्राह्मणप्रेरितो भवति ।” ↩︎
-
“त्रिवर्षजीविकानिर्व्वाहोपयोगिधान्यविशिष्टः।” ↩︎
-
“वर्षमात्रजीविकानिर्व्वाहोपयोगिधान्यविशिष्टः।” ↩︎
-
" षट्कर्म्मेति षट् कर्म्माणि गणयति उच्छशिल इत्यादि।" ↩︎
-
" राजन्यशब्दःक्षत्रियवचनःअक्षत्रियप्रमूतस्स राज्ञीधनं न प्रतिगृह्णीयादिति कुल्लूकभट्टः। सूनावतां चक्रवतां ध्वजवतां मूना प्राणिवधस्थानं, पशुमारणपूर्व्वेकमांमविक्र योपजीवी। चक्रोपजीवी तैलिकः कलु यस्य प्रसिद्धिः। ध्वजवान् सद्योपजीवी शौण्डिकः। वेशः पण्यस्त्रिया भृतिः, तया जीवति यः स वेशवान्।" ↩︎
-
“सूनिनःमांसविक्रयजीविनः दशगुणं पापं चक्रिणः तैलिकात्प्रतिग्रह एवं तस्मादृशगुणं ध्वजिनःशौण्डिकात्तस्माद्दशगुणं वेशवतः तस्माद्दशगुणं क्षत्त्रियभिन्नराजतः।” ↩︎
-
" प्रस्तरविशेष इति शेषः।" ↩︎
-
“न निषेधं करोति।” ↩︎
-
“प्रेतमुद्दिम्य दत्तमन्नम्।” ↩︎
-
“विषादिनिवारकप्रस्तरभिन्नप्रस्तर विशेषम्।” ↩︎
-
“अर्द्धप्रसूता धेनुरित्यर्थः। अधिकदोषार्थं” ↩︎
-
“ग्रहादीनामनुग्रहेणाध्याहारेणान्वयः । जगतः जगति नरेन्द्राणां नृपाणामुच्छ्राया उन्मतयः पतितानि पतनानि भावाभावौ च यस्मात्तस्माद्गुहाःपूज्यतमा इत्यन्वयः । एवं तद्वचनं याज्ञवल्क्यसंहितायां न लभ्यते ।” ↩︎
-
“न विलम्बङ्करोति ।” ↩︎
-
“शाश्वतीमिति मूले पाठः।” ↩︎
-
“पूतम्।” ↩︎
-
" अग्नेः सकाशात् अर्थात् साक्षादग्नौ हुतमथवा विप्ररूपाग्नौहुतं दत्तमित्यर्थः।" ↩︎
-
“आर्षप्रयोगः” ↩︎
-
“भद्रनृपतिरिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" यथाकालमिति मूले पाठः।" ↩︎
-
" रहस्याख्यायिनाञ्चैव प्रणिधीनाञ्च चेष्टितमिति मूले पाठः" ↩︎
-
“मित्रेषु॥” ↩︎
-
“स्वनिहितानिति निहितधनानि इत्यर्थः।” ↩︎
-
“त्र्यब्दमिति मूले पाठः” ↩︎
-
“त्र्यव्दादिति मूले पाठः” ↩︎
-
“कृषिवाणिज्यादौ।” ↩︎
-
" तन्तुसम्वन्धिवस्त्रस्य।" ↩︎
-
" कर्पूरादीनाम्" ↩︎
-
“लवणादीनाम्” ↩︎
-
“उत्कृष्टत्वमपक्कृष्टत्वम्” ↩︎
-
" बीजवपनविधिः" ↩︎
-
“क्षेत्रगुणस्य वीजगुणस्य च विधिरिति शेषः” ↩︎
-
“द्रव्यादीनां परिमाणयोगः।” ↩︎
-
“परिवर्द्धनमिति मूले पाठः वृद्धिवर्ज्जनमिति पाठान्तरम्। " ↩︎
-
“कस्मिन् भृत्ये किं वेतनं दातव्यमेतज्जानीयात्। धृतिमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“केषाम्भूतानां किं भक्ष्यमाहारीय द्रव्यमेतज्जानीयात्।” ↩︎
-
" दद्यावासर्व्वभूतानामन्त्रमेव प्रयत्तत इति मूले पाठः।” ↩︎
-
“युग्ममात्राभ्याम्।” ↩︎
-
“द्विषट्काभ्यामष्टसंख्यकाभां द्विगवाभ्यां द्वौगावौ कृत्वा एकैकयुगे योजिताभ्यां प्रहरार्द्धप्रमागतः प्रहरार्द्धपर्य्यन्तं कर्म्म कारयेत्।द्वौद्वाविति अर्द्धप्रहरादुर्द्धंद्वौद्वौकृत्वा ततः पुनः योज्य इत्यापेयोजयित्वा अन्तरे अर्द्धप्रहरमध्येऽपि एकं कारयेत्कर्षणमिति शेषः अर्थात् अर्द्धप्रहरमध्येऽपि पूर्व्वापरपरि वर्त्तितभावेन एकं कर्म्म कारयेदित्यर्थः।” ↩︎
-
“खलोति यस्यप्रसिद्धिः” ↩︎
-
“वेणुनिर्म्मित नालम्।” ↩︎
-
" जीवितार्थिनामिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“गोवत्सानाम्।” ↩︎
-
“हले। " ↩︎
-
“न चादिष्टामिति मूले पाठः। शास्त्रीवृद्धनपूर्व्वकाभिलषिताम्।” ↩︎
-
" ममैकस्मिन्मासि मासद्वये मास चये वा गते तस्य वृद्धिं विगणय एकदा दातव्येत्येवंविधिनियमपूर्व्वकवृद्धिग्रहणमुत्तमर्णः संवत्सरपर्य्यन्तं कुर्य्यात्। नातिक्रान्ते संवत्सरे नियमस्य वृद्धिगृह्णीयादिति कुलूकभट्टः।” ↩︎ ↩︎
-
“लड्डुकादि। " ↩︎
-
“द्दिशकं गवादिकम्, एकशफमश्वादिकम् मद्यं नीलिश्च लाक्षाञ्च सर्व्वांश्चैकशफांस्तथा इति मूले पाठः।” ↩︎
-
“अधिकदीषार्थत्वेनेतिशेषः।” ↩︎
-
“थाम् यस्य प्रसिद्धः।” ↩︎
-
" आपङ्गतः।” ↩︎
-
“अग्निंजलतल्याः” ↩︎
-
" षड़श्नता षड्दिनपर्य्यन्तं भोजनमकुर्व्वता जनेन सप्तमे सप्तमदिने भक्ते भोजनेकर्त्तव्ये हीनकर्म्मणः सकाशात् भक्तानि भोजनद्रव्याणि अश्वस्तनप्रमाणन अश्वस्तनवदन्पपरिमाणेन हर्त्तव्यं चौर्य्यंकर्त्तव्यं हर्त्तव्यमिति आव्यतितरत्वात् कर्म्मसत्वे भावप्रत्ययेन साधु।" ↩︎
-
" ब्राह्मणः इति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" ब्राह्मणव्यतिरिक्तः क्षत्रियादिः अक्षोत्रियसाहचर्य्यात्सम्यक् स्वस्वधर्म्मानुष्ठानरहित इति ज्ञापितम्। अश्रोत्रियः प्रणवव्याहृतिपूर्व्वकगायत्रीरहितः ब्राह्मणश्च इन्युच्यते। तथाच ओंकारपूर्व्विकास्तिस्रः सावित्रीर्यश्च विन्दति। चरितव्रतचर्य्यश्च स वै श्रोत्रिय उच्यते॥" ↩︎
-
" मध्यमे कर्म्मणी क्षत्रियवैश्यकर्म्मणी हित्वा त्यक्त्वा तयोर्ब्राह्मणशूद्रयोः उत्कष्टं अपकृष्टञ्च कर्म्म न विद्यते अर्थात् ब्राह्मणस्य अपकृष्टं शुद्रकर्म्म शूद्रस्य पुनः उत्कृष्टं ब्राह्मणकर्म्म नविद्यते हि यतः ते क्षत्रियवैश्यकर्म्मणी सर्व्वसाधारणे चतुर्वर्णानां करणीये।" ↩︎
-
“ये ब्राह्मणादयः स्वेस्वे कर्म्मणि अभिरताः स्वस्वकर्मानुष्ठानं कुर्व्वन्ति ते स्वस्वलोकं व्रजन्ति। कस्य को वा लोकःब्राह्मणस्य ब्रह्मलोकः क्षत्रियस्य इन्द्रलोकः वैश्यस्य मरुल्लोकः शुद्रस्य गन्धर्व्वलोक इत्यर्थः।” ↩︎
-
“रुच्युत्पादनार्थम्।” ↩︎
-
" निर्जनेऽनुष्ठितात्।" ↩︎
-
“आह्लादजनकम्” ↩︎
-
" षट्कारस्नानम्।" ↩︎
-
" मध्याह्ने।" ↩︎
-
“नित्यम्।” ↩︎
-
" आदिना दर्भोंदकादिस्नानपरिग्रह तथाच विष्णुधर्मोत्तरे तथा दर्भोंदकै सानं सर्व्वपापप्रनाशनम्। गोमूत्रेण च यत्त्स्नानं सव्वांघविनिमूदनम्। तथा पुष्पोदकस्नानं भवेदारोग्यकारकम्। केवलैर्वा तिलैः स्नानमथवा गौरसर्षपैः। स्नानं प्रियङ्गुना प्रोक्तं तथा सौभाग्यवर्धनम्। आयुष्यञ्च यशस्यञ्च धर्म्म्यमेधाविवर्द्धनम्। स्नानं पवित्रं माङ्गल्यं तथा काञ्चनवारिणा। पुष्यस्नानादिकमिति पाठे तु आदिना जन्मनक्षत्रादिपरिग्रहः। तथाच पुष्ये वा जन्मनक्षत्रे व्यतीपाते च वैधृतौ। अमावास्यां नदीस्नाानं दहत्या जन्मदुष्कृतम्। पुष्ये पुष्यानक्षत्रे कृतस्नानादिकम्। तथापरमपि पुष्ये स्नात्वा तु गङ्गायां त्रिकोटिकुलमुद्धरेदिति।" ↩︎
-
“दैवं जानाति दैवज्ञो मुनिस्तेन उदितम्॥” ↩︎
-
“नाकामन्तत्प्रयोजवेदिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" वेदोक्तमन्त्ररूपाणि।" ↩︎
-
“तैलमर्द्दनपूर्व्वकम्।” ↩︎
-
" खर्परशिलाखण्डादि॥" ↩︎
-
“अपरित्यक्ताकार्य्यार्हता॥” ↩︎
-
“परमेष्ठिवत् स्वभावज इति प्रशंसार्थमुक्तम्।” ↩︎
-
" लभेदिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“पितृतर्पण इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" चितास्थानीद्भवाः। " ↩︎
-
" पथि समुद्भवा।" ↩︎
-
“यादर्भान् हस्ते कृत्वा स्वाध्यायः पितृतर्पणञ्च कृतं ते वर्ज्जनीया इत्यर्थः।” ↩︎
-
“मर्द्दितान्।” ↩︎
-
“कृष्णवर्णाः।” ↩︎
-
" गर्त्तः द्वात्रिंशत्सहस्रहस्तन्यूनजलाशयः। तथाच धनःसहवाग्यष्टौच गतिर्यासां न विद्यते। न ता नदीशव्दवहा गर्त्तास्ताः परिकीर्त्तिता इति। प्रसवर्ण पर्व्वतीयजलनिर्गमस्थानम्।" ↩︎
-
" परस्वामिकेषु। " ↩︎
-
“जलाशयेषु।” ↩︎
-
" कुशमृत्तिकादीनीति शेषः। ।" ↩︎
-
" यथाविधीति पाठान्तरम्" ↩︎
-
“ओषधीनां वने वन इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" भावयंदित्ययः।" ↩︎
-
“ओं आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्ज्जेदधातन मर्हरणाय चक्षसे। औं योवः शिव तमो रसस्तस्य भाजयतेह न उषतीरिव मातरः।ओंतस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ आपोजनयथाच नः।” ↩︎
-
“ओं द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव पूर्तपवित्रेणेवाजामापःसन्धन्त मैनसः।” ↩︎
-
“प्रवाहरहितेषु।” ↩︎
-
" कृपादुद्धृतजलेन।" ↩︎
-
“भुवि संस्थित इत्यर्थः” ↩︎
-
“भुवि अवगाह्य स्नानासम्भवे इत्यर्थः।” ↩︎
-
“सर्व्वभूतोद्देशे यन्न दत्तं - तथाच यन्नं सर्व्वाय चोत्सृष्टं यच्चाभोज्यनिपानजं, तद्वर्ज्ज्य सलिलं तात सदैव पितृकर्म्मणीति वचनात्।” ↩︎
-
" आर्द्रे वसनं परिधाय न स्नायीत एकं वसनं परिधाय न स्नायादित्यर्थः।" ↩︎
-
“रागप्राप्तम्।” ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेषु दर्शनात् रक्षितं परन्तु हेमाद्रिप्रभृतिधृतपाठः एव साधीयान्। यथा, भोगाय क्रियते यत्तु स्नानं यादृच्छिकं भवेत्। तन्निषिद्धं दशम्यादी काम्यनैमित्तेषु न तु।” ↩︎
-
“शास्त्रविहितेन।” ↩︎
-
“गात्रमलमात्रनाशकम्।” ↩︎
-
“अदशेन दशारहितेन एकवस्त्रेण च।” ↩︎
-
" वहुषु पुस्तकेषु दर्शनादेतद्रक्षितं परन्तु पराशरभाष्ये माधवाचार्य्यष्टतपाठः साधीयान्। यथा शीताम्बापो निषेव्योष्णामन्त्रसम्भारसंस्कृताः। गेहेऽपि शस्यते स्रानं तद्धीनमफलं सातमिति॥" ↩︎
-
“गिलादति गर” ↩︎
-
“स्रोतोवैपरीत्यमुखे ।” ↩︎
-
" यत्र तीरे रजको वस्त्रं धौतं करोति तद्रजकतीर्थे तत्तीररूपं तीर्थमारभ्य दशहतपर्य्यन्तं वर्ज्जयेदित्यर्थः । अतएव तत्र स्थाने निन्दामाह कर्म्मलोचनः । सानं रजकतोर्येषु भोजनं गाणिकालये । शयनं पूर्व्वपादे च ब्रह्महत्या दिने दिने ।" ↩︎
-
" यव्यद्वयं श्रावणादिरिति देशान्तरीयपाठः।" ↩︎
-
" बेणिका इति पाठान्तरम् ।" ↩︎
-
" उपायान्तरेण जलप्राप्तिरहितानाम्।" ↩︎
-
“समं सहितम्।” ↩︎
-
“विगतरक्ते रक्तस्रावे इति यावत् ।” ↩︎
-
" ऋतुभिन्नकाले " ↩︎
-
“इमं मे वरुण इत्यादिमन्त्रैः अथवा मोषु वरुण इत्यादि ऋग्वेदोक्तमन्त्रैः।” ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेषु दर्शनादेवं रक्षितं परन्तु पतितञ्च रजस्वलामित्येव साधु।” ↩︎
-
“कर्णस्पन्दने। " ↩︎
-
“यूपःवृषोत्सर्गादौ निर्मितवृषमौलियूपादिः।” ↩︎
-
“लोकायतिकाश्च नास्तिकाच ते तान्। लोकायतिकाश्चार्व्वाकर, तावलम्बिनः।” ↩︎
-
" एतेन चाण्डालादयो यदा सङ्कीर्णस्थाने गोवालचामरेण व्यजनं कुर्वन्ति तदा दूरतः स्पर्शे न दोष इति ज्ञापितम्।” ↩︎
-
" युगं चतुर्ह मानं चतुर्युगं षोडशहरस्तम्।" ↩︎
-
“कुक्कुटादिः न तु सामान्यतः पक्षी।” ↩︎
-
“कुक्कुरादि” ↩︎
-
" वस्त्रान्तरेण आच्छादितां कृत्वेत्यर्थः।" ↩︎
-
“गयादीनि च तीथोनीयाद्युक्तविधिनास्नाताया इत्यर्थः।” ↩︎
-
“यस्मिन्देश रजस्वलामरणे द्विरात्रात्पर दाहोव्यवह्रियते तद्देशविषयिणीयं व्यवस्था।” ↩︎
-
“परस्परस्पर्शे।” ↩︎
-
“दाहादिनेति शेषः।” ↩︎
-
“आरब्धेषु।” ↩︎
-
" वचनान्तरस्य चरितार्थत्वादित्येव पाठः साधुः।" ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेषु दर्शनादेतद्रक्षितम्। तथा दानञ्च रात्रिषु इत्येव पाठः साधुः१” ↩︎
-
“प्रदोषःअस्तमयादूर्द्धंप्रथमप्रहररूपःपश्चिमःशेषप्रहरःउदयात्प्राक् प्रहररूपः प्रदीपश्च पश्चिमश्च तौ।” ↩︎
-
“अमायाञ्चेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“तस्माद्दशहरा स्मृतेति देशान्तरीयः पाठः” ↩︎
-
“सेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“श्रीकाम इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" क्रोशन्ति आह्वानं कुर्व्वन्ति जनानिति शेषः क्रुश रीदनाह्वानयोरिति धात्वनुसारात्।" ↩︎
-
“भास्करे भास्करक्षेत्रेप्रयागे।” ↩︎
-
" कायिकवाचिकमानसिकानि" ↩︎
-
" स्नास्येऽहमिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“काष्ठा उत्कृष्टं पानं पानीयद्रव्यं अन्नज्ञ संस्कृत्यप्रस्तुत्य। " ↩︎
-
“वह्निविधिपाठान्तरम् ।” ↩︎
-
" एकभक्तव्रतं कुर्य्यात्।” ↩︎
-
" तिलवापीति देशान्तीयः पाठः।" ↩︎
-
“. तैलंदेयमामलका देया ब्राह्मणयेति शेषः।” ↩︎
-
“घाघरा यस्य प्रसिद्धिः।” ↩︎
-
“शर्करयान्विता इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“अनभ्यङ्गीति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“मूर्द्ध्वि दत्तं यदा तैलमित्याद्युक्तमभ्यङ्गं स्पर्शस्तैलस्पर्शःपानं तैलपानमित्यादिभिः।” ↩︎
-
" गन्धद्रव्ययुक्ततैलम्।" ↩︎
-
“तिलस्नेहे द्रवीभूततिलनिर्यासे, सुरुढी योगरूढ़ोत्यर्थः न तु यौगिकः न योगबलेन तिलसम्बन्धिपिण्याकादिसमस्तवाचकः। अतस्तिलतैलमाननिषेधादित्यर्थः। शकुली भाजी तिलतैलेनेति शेषःकृशरःतिलमिश्रितखेचरान्नं तिलघटितत्वेऽपि तैलनिषेधे एतन्न निषिद्ध्यते इति तात्पर्य्यम्।” ↩︎
-
“हिरण्यवर्णाशुचयः यासां राजा यासां देवः शिवेन माचक्षुषा इति।” ↩︎
-
" शन्नोदेवीरभीष्टये आपोभवन्तु पीतये शंयोरभिस्रवन्तु नः इति।" ↩︎
-
“शन्नःआपोधन्वन्याःशमनः सन्तु नूप्याः शन्नः समुद्रिया आपः शमनः सन्तु कूप्या इति।” ↩︎
-
" इदमापःप्रवहत यत्किञ्चिद्दुरितं मयि यद्वाह अभिदुद्रोहयद्वाश्चेप उतानृतमिति। " ↩︎
-
“अघमर्षण ऋषिः भाववृतीदेवता अनुष्टुभ्माधुच्छन्दोऽश्वमेधावभृथे विनियोगः ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धातपतो अध्यजायत ततो रात्रिरजायत तवः समुद्रीऽर्णवः समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरोऽजायत अहोरात्राणि विदध- द्विश्वस्य मिषतीवशी सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्व्वमकल्पयद्दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरीक्षमथो खः इति।” ↩︎
-
“कालेन सह देशःकालदेशःतन्मात्कालदेशात, कालाद्वर्षाकाल प्रयुक्तात् श्लेष्मलदेशप्रयुक्ताच्चेत्यर्थः। कालदोषादिति देशान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
“मन्त्ररहितावगाहनमात्रम्।” ↩︎
-
“ब्रह्म वेदः मन्त्ररूपः तेन क्रियमाणं ब्राह्म्यंमान्त्रिकस्नानमिति यावत्।” ↩︎
-
“स्नानसंवर्द्धनव्याधौ।” ↩︎
-
“स्नानयोग्यजलाभावे।” ↩︎
-
“आर्द्रजोर्णवस्त्रेण। " ↩︎
-
“अम्बरेण परिधानवस्त्रेण पाणिना च अङ्गानि न प्रमृज्यादित्यर्थः। अतएव स्नानसाद्या न पाणिना इत्यन्यत्रोक्तम्।” ↩︎
-
“गोदोहनकालञ्चेत्यर्थः।” ↩︎
-
“सप्तपत्रकुशम् ।” ↩︎
-
“वस्त्राभाव इति पाठान्तरम्” ↩︎
-
“वनसम्बन्धि वत्कलादि।” ↩︎
-
“खण्ड वस्त्रम् ।” ↩︎
-
“वस्त्रस्य चीवरं वेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“वस्त्रसदृशम्।” ↩︎
-
" पूर्व्वाभावे अभिनवग्रहण एवेत्यर्थः।” ↩︎
-
" पुरुचीरायस्यीमभिवर्द्धयिष्ये इत्येव पाठःबहुष पुस्तकेंषु दृश्यते परन्तु लानाम् व्राह्मणसर्व्व अत्र अन्यप्रकारपाठो दर्शितोव्याख्यातश्च यथा सवमगायत्रीयमभिमं अविस्खे इति रायपीषाय धनवृद्ध्ययें अभिसंव्ययिष्ये अभि सर्व्वतोभावेन सम्बरणं करिष्यामि व्यंञ् सम्मरणे इत्यस्य रूपम्।" ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेषु यथा दृष्टं तथा रक्षितं परन्तु हलायुधकृते ब्राह्मणसर्व्वस्वे वैलक्षण्य पाठो दृश्यते साधुर्मन्यते च यथा। यशसा मा द्यावापृथिवी यशसेन्द्रावृहस्पती यशो भगश्च साऽविद्यशो मा प्रतिपद्यतामस्यार्थः। द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ मा मां छादयेतामिति क्रियापदमत्र्याध्याहृतं बोद्धव्यम्। केन यशसा। किञ्च इन्द्रावृहस्पती यशसा मां छादयेताम्। किञ्च यशो मा मां अविदत् प्राप्नोतु। न केवलं यशी भगश्च मामविदत् प्राप्नोतु। किञ्च मा मां प्रतिपद्यतामभिगच्छतु। पुनः पुनरभिधानमादरार्थम्। मदीयवस्त्राच्छादनेनाकाशादयी मां यशसा आच्छादयन्तु। उत्तरोत्तरं यशश्च सौभाग्यञ्च मम भवत्वित्याशंसा वाक्यार्थः।” ↩︎
-
" पूर्व्वागृहीतानि चेत् अभिनवगृहीतानि चेदित्यर्थः॥" ↩︎
-
“विशेषणे तृतीया शनिवारविशिष्ट इत्यर्थ॥” ↩︎
-
“वेणुपत्राकृतिन्तथा इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“विविधमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“मूर्द्ध्इति देशान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
“मानसिकोपांशुवाचनिकरूपः।” ↩︎
-
“नित्यवेदाध्ययने।” ↩︎
-
“ब्रह्मणा वेदोक्तमन्त्रणाहुत्या हुतम्।” ↩︎
-
“शिक्षा कल्पोव्याकरणं निरुक्तं छन्दसाञ्चितिः, ज्योतिषामयनञ्चैव वेदाङ्गानि वदन्ति षट्।” ↩︎
-
“विपत्तिं गच्छेदित्यर्थः।” ↩︎
-
" अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजं होतारं रत्नधातममिति ऋग्वेदमन्त्रः।" ↩︎
-
" इशेत्वोर्ज्जेत्वा वायवः स्थ देवोवः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्म्मणे इति यजुर्वेदमन्त्रः" ↩︎
-
“अग्न आयाहि वीतये गृणानी हव्यदातये निहोता सत्सि वर्हिषि इति सामवेदमन्त्रः।” ↩︎
-
“औंकारपूर्व्वकमादौ पठनीयम्।” ↩︎
-
“पूर्व्वंपूर्व्ववत्।” ↩︎
-
" ओंकारपूर्व्वकं विरम्यते इत्यर्थः।" ↩︎
-
“वियोनिः विराम इत्यर्थः। अयोनिरिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" अधःशिराः।" ↩︎
-
“यस्य स्वशाखायामेकहस्तोविहितः तस्य शाखिनोद्विहस्तनिषेधकं वचनम्। एवं यस्य स्वशाखायां द्विहलौ विहितौ तस्य शाखिन एकहसनिषेधकमित्यर्थः।ब” ↩︎
-
" शाखिभेदेन व्यवस्था इत्यर्थः।" ↩︎
-
" विवाहे वरपाद्यादिकं श्राद्धे कुशासनादिकमिति शेषः।" ↩︎
-
“परिधाय॥” ↩︎
-
“जलं निक्षिपेदिति शेषः।” ↩︎
-
“कुशोपरि।” ↩︎
-
“यावोदकैः।” ↩︎
-
" नानावर्णयुक्तैः।" ↩︎
-
“क्वचिदिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" वामहस्तान्वारब्धदक्षिणहस्ततर्पणे।" ↩︎
-
“येषां शाखिनां वामहस्तान्वारब्धदक्षिणहस्तेन तर्पणं तेषां वामहस्तेन तिलग्रहणमित्यभिहितमित्यर्थः।” ↩︎
-
“नवतृणोयुक्ते।” ↩︎
-
“गवां क्षुद्रवृहद्भेदादिति शेषः।” ↩︎
-
“उदष्मनुष्यानिति सामगभिन्नविषयकं सामगानां पश्चिममुखेन मनुष्यतर्पणविधानात्। तथाच सामवेदीयषट्त्रिंशदृब्राह्मणं मनुष्याणामेषा दिग्या प्रतीचीति।” ↩︎
-
“खड़्गादिपात्रेण तर्पणकरणमित्यर्थः।” ↩︎
-
" तौ युतावञ्जलिः पुमानित्यमरीक्तेःकरद्वयसम्पुटेन तर्पणं प्रतीयते।" ↩︎
-
“तथेति पाठान्तरम्” ↩︎
-
“पिशाची गुह्यकः सिद्धीभृतोऽमी देवयोनय इत्यमरोक्तः भत् ग्राम चतुर्विधमित्यनेन एतच्चतुर्विधं परिगृह्यते।” ↩︎
-
" कनिष्ठाङ्गुलिमुलदेशपंण !" ↩︎
-
" ऋषिमण्डलान् मरीयादिसप्तर्षीनित्यर्थः। तथाच देवीपुराणे ग्रहगतिर्नामाध्यायः यथा सर्व्वेषाञ्च ग्रहाणाञ्च अधस्ताञ्चरते रविः। रवैरुर्द्धं स्थितः सोमः मोमान्नक्षत्रमण्डलम्। नक्षत्रेभ्योबुधस्तूर्द्धं’ बुधादूर्द्धन्तु भार्गवः। तम्मादङ्गारकश्चीर्द्ध तस्य चोर्द्धे बृहस्पतिः। तस्मात् शनैश्चरश्चोर्द्धं तस्योर्द्धसृषिमण्डलमित्यादि।" ↩︎
-
" दक्षिणदिङ्मुखः॥" ↩︎
-
“तर्ज्जन्धङ्गुष्ठयोर्मध्यदेशरुपेण।” ↩︎
-
" उत्कष्टवर्णत्वेन तर्पणम।" ↩︎
-
" सवर्णपितृपत्नीनामेवेत्यर्थः" ↩︎
-
" विहितश्चेत्यर्थः।" ↩︎
-
“पितृपत्त्रीमात्राणामित्यर्थः।” ↩︎
-
" सप्तमीद्वयं निशा सन्ध्याद्वयमिति पञ्च।" ↩︎
-
“विवाह सति एकवर्षं तिलतर्पणं न कार्य्यम् उपनयने षण्मासं चूड़ायां त्रिमासमिति एकेषां मतम्।” ↩︎
-
" गङ्गायामिति देशान्तरीयः पाठः।" ↩︎
-
“हंसः शुचिषद्वसुरन्तरीक्ष सद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरीणसत् नृषद्धरसदृतसद्व्योभसदजा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम्।” ↩︎
-
“स्नानार्थं जलम्।” ↩︎
-
“निवेदनं निवेदनीयद्रव्यं नैवेद्यमिति यावत्।” ↩︎
-
" षोडशा इत्यन्तया ऋचा इति शेषः।" ↩︎
-
“स्नानीयं जलं दत्त्वा आचमनीयं जलं दद्यात् एवं वस्त्रादि दत्वापि।” ↩︎
-
“वैदिकमन्त्राज्ञाने।॥” ↩︎
-
“औं ब्रह्मणे नम इत्यादिमन्त्रैरित्यर्थः।” ↩︎
-
“तन्त्रोक्त मन्त्रानुसारेण।” ↩︎
-
“प्रस्फुटितैः।” ↩︎
-
" लतापुष्पाणाम्।" ↩︎
-
“अक्षयपापःस्यादित्यर्थः” ↩︎
-
" कोटविद्धानि।" ↩︎
-
“कण्टकवृक्षः।” ↩︎
-
“कुङ्कुमम्।” ↩︎
-
“सर्व्वंभूमिगतं दुष्टं शेफालीं वकुलं विनेति शिष्टपरिगृहीतवचनात्एतद्वयातिरिक्तं दुष्टम्।” ↩︎
-
“अगस्यपुष्पं वकपुष्पम्।” ↩︎
-
“न पर्य्युषितं भवति।” ↩︎
-
" तृप्येद्वै इति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“मनुष्येभ्यो यद्दीयते तद्धन्तकारेण दीयते हन्तकारस्यागार्थकः ।” ↩︎
-
" वैश्वदेवावशिष्टादन्नादित्यर्थः " ↩︎
-
" विरुद्धवचनेषु चेत्यर्थः।" ↩︎
-
“स्वस्वशाखानसारेण्येत्यर्थः।” ↩︎
-
“नित्याश्राद्धसिद्धये इत्यर्थः।” ↩︎
-
“वैश्वदेवेभ्यः” ↩︎
-
“श्राद्धान्तरे कृतेऽपि अवश्यं कर्त्तव्यम्।” ↩︎
-
" न त्यजेत्" ↩︎
-
“ये भूताः प्रचरन्ति दिवा बलिमिच्छन्तो विदुरस्य प्रेष्याःतेभ्यी बलिं पुष्टिकामो ददामि मयि पुष्टिं पुष्टिपतिर्ददातु इति मन्त्रः।” ↩︎
-
“कालदोषेण संस्कृताग्न्यलाभात्।” ↩︎
-
“विभागकालाहते इति मिताक्षरा। आहुते आरब्धे।” ↩︎
-
“अपरार्द्धमन्यत्रदृश्यते यथा वैश्वदेवं प्रकुर्व्वीत सूनादोषापशान्तये” ↩︎
-
" प्रतिदिनकरणीयान्।" ↩︎
-
" पाके" ↩︎
-
“दधिमिश्रितम्।” ↩︎
-
“उत्तर दिग्विभागभवम् " ↩︎
-
" बहुषु पुस्तकेषु दर्शनादेव रक्षितः परन्तु यद्यक्षारादिमिश्रितमित्येव पाठः साधु " ↩︎
-
" संस्कृतमिति क्वचित्पाठः” ↩︎
-
“प्रेष्या इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“सर्व्वेषु आदर्शपुस्तकेषु एकरुपपाठदर्शनादेवं रक्षितः परन्तु यान्यप्रतिषिद्धानीत्येव पाठो भवितुमर्हति।” ↩︎
-
“* औपासनाग्निनिरग्निविषय एव ।” ↩︎
-
“बलिद्वरणादि।” ↩︎
-
" आदीनां कर्त्तव्यतायां तदन्तस्यापि कर्त्तव्यता इति तदाद्युत्कर्षन्यायार्थः। तान्युत्कर्षज्ञानेनैवोत्कृष्टानीति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" तदाद्युत्कृष्टन्यायेन करणयानिइत्यर्थः।" ↩︎
-
“निशियज्ञे दर्शतन्त्रं नीताम्वेतन्नदर्शिके। तन्त्रमध्ये विध्यभावादमस्त्वयात्तद्विधानतः॥ अग्नये रक्षोघ्ने पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यो रक्षोभ्यो बिभीग्रादिति विधावेदमाम्नातम्। अमावास्यायां यजेतेति। एतस्मिन् यज्ञे दर्शयागस्याङ्गतन्वं न प्रसज्यते। कुतः दर्शकर्म्मणतन्त्रमयेऽस्य रक्ष्योघ्नस्य विध्यभावात्। यत्तु अमावास्यायामिति पदं तत्कालपरं कर्म्मपरत्वे लक्षणापत्तेः। अतो न वाक्यात् तन्त्रमध्ये विधिः प्रकरणन्तु भिद्यते काम्येष्टिकाण्ड एतस्य पाठादिति प्राप्ते ब्रूमः। मा मुद्वाकोन वा प्रकरणेन वा तन्त्रमध्ये विधिः। तथाप्यभावास्याकाले दर्शकर्म्मणः प्रक्रान्तत्वेन निशि क्रियमाणीयागोऽर्थवशाद्दर्शकर्म्मतन्त्रमध्यपाती भवति तस्मादत्रान्ति प्रसङ्गसिद्धिः इति निशीष्टिन्यायः।” ↩︎
-
“ओं येऽग्निदग्धा येऽनविदग्धा मध्येदिवः स्वधया मादयन्ते। तेभिः स्वराड़मूनीति मेतां यथावतंसं तनुं कल्पयस्व। ओं असंस्कृतप्रमीतानां त्यागिन्यो याः कुलस्त्रियः। ददामि तेभ्योबिकिरमन्नन्ताभ्यश्च पैतृकम्। ओं असीमपाश्च ये जीवा यज्ञभागवहिष्कृताः। तेषामन्नं प्रदातव्यं विकिरं वैश्वदेविकम्। ओं येषां न माता न पिता न बन्धुनैवान्नसिद्धि र्न तथान्नमस्ति। तत्तृप्तयेऽन्नं भुवि दत्तमेतत् प्रयान्तु लोकाय सुखाय तद्वदिति।” ↩︎
-
" सर्व्वेषु आदर्शपुस्तकेषु एकपरूपाठदर्शनादेवं रक्षितः परन्तु उत्सेचनमिति पाठो भवितुमर्हति।" ↩︎
-
“स्वर्गप्रापकः। " ↩︎
-
" चरणं शाखा गोत्रञ्च चरणञ्च द्वयोः समाहार इति समासे दीर्घः।” ↩︎
-
“सूर्यास्ते इत्यर्थः” ↩︎
-
" नवोढ़ा इत्यर्थः।" ↩︎
-
“उपादानं कृतम्। " ↩︎
-
" भोजनमध्ये।” ↩︎
-
" दत्त्वाथेति पाठान्तरम्। " ↩︎
-
" उच्चरदिति पाठान्तरम्। प्रेतेभ्यश्चदमुच्चरेत् – यत्र क्वचनसंस्थानां क्षुत्तृणोपहृतात्मनाम्। प्रेतानां तृप्तयेऽक्षय्यमिदमस्तु यथासुखम्॥ इत्याचार- मयूखे विशेष उक्तः।" ↩︎
-
“सोदकेन हस्तेन अन्नं न लङ्घयेत् न त्यजेत् अर्थात्गृह्णीयादित्यर्थः।” ↩︎
-
“हस्तेन लङ्घयेन्नान्नं नोदकेन कदाचन। हस्ताद्यो लङ्घयेत्भुञ्जस्तेनान्नं निहितं भवेत्। हतञ्जान्नमभक्ष्यत्वं तस्य याति दुरात्मनः ॥ इति ब्राह्मणसर्व्वस्वेहलायुधष्टतः पाठः।” ↩︎
-
“भागं तृतीयभागरुपं जलस्य पानेन पूरयेदित्यनुषङ्गेणान्वयः।” ↩︎
-
“पङक्तिभेदमकृत्वा।” ↩︎
-
“विधायैवेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" लेपमिति देशान्तरीयः पाठः" ↩︎
-
“रागशाड़व इति पाठान्तरम् । अस्थार्थःअवलेहृद्रव्यम् ।” ↩︎
-
“क्षुता इति पाठान्तरम्। अक्षता गोपतिश्चैवेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“स्वभावतः श्रौतस्मातीग्निरहित इत्यर्थः।” ↩︎
-
" विप्रपदस्योपलक्षणत्वेन अग्निहीनपदस्यानुषङ्गेणान्वयस्वीकारेण चाभिप्रेत्य उक्तं ब्राह्मणादिश्चेति।" ↩︎
-
“ब्राह्मणस्य सदाश्रीयादित्यादि यमदग्निपैठिनसिवचनस्थस्येति शेषः।” ↩︎
-
“स्वसम्बन्धित्वेन " ↩︎
-
“अश्राद्धिनः श्राद्धादिपञ्चयज्ञशून्यस्य शूद्रस्य शास्त्रविद्द्विजः पक्वान्नं न भुञ्जीत । किन्त्वन्नान्तराभावे सति एकरात्रानिर्व्वोहोचितमाममेवान्नमस्माद्गृह्णीयात् न तु पक्वान्नमिति कुल्लूकभट्टः।” ↩︎
-
“क्वचित् पुस्तकें पक्वान्नान्यपि विशिष्टमिति पाठो दृश्यते वस्तुतस्तु एकाहपर्याप्तमामान्नं न तु पक्वान्नमित्येव पाठो युक्तः ।” ↩︎
-
“पक्कमित्यर्थः” ↩︎
-
" यथा शूद्रता तद्वदित्यर्थः। " ↩︎
-
" नातितृप्तोऽथ इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“शून्यालये श्मशाने च एकवृक्षेचतुष्पये । महादेवगृहे वापि मातृवेश्मनि न स्वपेदिति पुस्तकान्तरे पाठः। ।” ↩︎
-
" बालामिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" पर्व्वाण्येतानि राजेन्द्रेति पाठान्तरम् ।" ↩︎
-
“स तु प्रथमर्त्तु दिनमारभ्य एकादशनिशात्रयोदशनिशे त्याज्ये इत्यर्थः ।” ↩︎
-
“अशुद्धा दैवपैत्र्ययोरिति क्वचित्पाठः।” ↩︎
-
“सकृच्च कृतसंस्कारा इति पुस्तकान्तरे पाठः।” ↩︎
-
“कुलस्त्रिय इति पुस्तकान्तरे पाठः।” ↩︎
-
“सर्व्वेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“किञ्चिदिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“गर्भे गर्भ इति पाठान्तरम्। Į।” ↩︎
-
“नाभिनालच्छेदनादिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" कर्त्तुप्रधानाद्यभावइति पाठान्तरम्। कर्तुः प्रधानस्य पितुर्विदेशगमनादिना सन्निधानाभावे तदपेक्षयेत्यर्थः।" ↩︎
-
“स्वकालादुत्तरकाले कर्त्तव्ये इत्यर्थः।” ↩︎
-
“स्वकालादूत्तरकाले कर्त्तव्ये इत्यर्थः।” ↩︎
-
“गते।” ↩︎
-
" व्यवस्थितविकल्पाः ।" ↩︎
-
“स्वरवर्णयुक्ताद्यन्तस्थं” ↩︎
-
“नाम कुर्य्यादिति पूर्व्ववचनानुषङ्गेनान्वयः। " ↩︎
-
" तृतीयेमासिइति सामवेदिविषये। जेयः चतुर्थे मासि इति ऋग्वेदियजुर्वेदिविषये ज्ञेयइति स्मार्तः।” ↩︎
-
“कुलानुसारिणी व्यवस्था।” ↩︎
-
" मृगशिरसा सह उत्तरफल्गनी।" ↩︎
-
" पौर्णमासे वा इति संस्कारमयूखे पाठः।" ↩︎
-
" पौषादिविधिःमुख्यकाले कर्णवेधे विज्ञेयः अन्यत्र पौषादिनिषेधात्। शौर्षोदयो यथा अजगोपतियुग्मञ्च कर्किधन्विमृगास्तथा। निशासंज्ञाः स्मृताश्चैते शेषाश्चान्ये दिनात्मकाः। निशासंज्ञाविमिथुनाः स्मृताः पृष्ठोदयास्तथा। शेषाःशोर्षोदया ह्येते मौनश्चोभयसंज्ञक॥ इति। दिनञ्च छिद्रञ्च दिनच्छिद्रं तस्मिन् छिद्रे अष्टमलग्ने छिद्राख्यमष्टमस्थानमिति स्मरणात्" ↩︎
-
" प्रवरे प्रशस्तेदज्यलग्ने बृहस्पतियक्तलग्ने।" ↩︎
-
“कुलाचारानुरूपेणेत्यर्थः।” ↩︎
-
“वर्ज्जनीयानिति पाठान्तरम्। " ↩︎
-
“कामचारवादेन यदृच्छाचारानुगुण्येन भक्षःभक्षणं निषिद्धान्नादेरिति शेषः।” ↩︎
-
" अनावृतस्थलशायी।” ↩︎
-
“भवेदिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“एकदिनोपवासानन्तरं नक्तभोजनम्।” ↩︎
-
“दिनद्वयाभोजनानन्तरं नक्तभोजनम्।” ↩︎
-
“वानप्रस्थाश्रमी” ↩︎
-
“चतुर्थाश्रमे।” ↩︎
-
“शास्त्रेरिति शेषः।” ↩︎
-
“अर्थात् ब्राह्मणत्वजात्यवच्छिन्नव्यक्तिर्ग्राह्या। " ↩︎
-
" बहुषु पुस्तकेषु एकरुपपाठदर्शनात्” ↩︎
-
“अनेकार्थानाम्” ↩︎
-
“अप्रसिद्धस्य।” ↩︎
-
" फलचमसवत् प्रीद्गातॄणां भक्ष्यः फलचमस इत्यत्र होत्रादीनामपि भक्षणाकाङ्क्षितत्वात् यथा प्रोट्गातृपदं होत्रादिग्राहकं तद्वदित्यर्थः।" ↩︎
-
" निषिद्ध्यते ।" ↩︎
-
“ताम्रमयी प्रतिमा” ↩︎
-
“विरोधमधिकृत्य यत्र विचार्य्यते तद्विरीधाधि करणम् ।” ↩︎
-
“श्रुतिविरोधाद्ब्राह्मणमात्रस्य चतुर्थाश्रमाधिकारविधाने औचित्यञ्च न अन्यथा क्षत्रियादिसाधारण्यनेत्यर्थः ।” ↩︎
-
“ममताशून्यः” ↩︎
-
" वानप्रस्थस्थापि" ↩︎
-
" विषयविरागजन्यत्वात्" ↩︎
-
“क्षत्रियवृत्त्युपजीवी ब्राह्मणः क्षत्रियत्वेन व्यपदिश्यते एवं वैश्यवृत्त्युपजीवी ब्राह्मणःवैश्यत्वेन व्यप-” ↩︎
-
" ब्रह्मसूत्रमहमेवत्रिवृतवान् विवृतसूत्रंत्यजेदित्यारुणिरिश्रुत्युक्तमन्त्रोञ्चारणपूव्वंकमाश्रमम्।" ↩︎
-
" विशिष्टविधिपक्षेअधिकारिविधिपक्षेऽपीत्यर्थः ।" ↩︎
-
" शक्यसम्बन्धतात्पर्य्यानुपपत्तिभ्यामित्यर्थः ।" ↩︎
-
“क्षत्रियवृत्त्युपजीवित्वरूपार्थान्तरस्वीकारेणाप्युपपत्तेरित्यर्थः " ↩︎
-
“विधि” ↩︎
-
“विधूम इत्यादि विगतपाकधूमे निवृत्तावहनमुषले निर्व्वाणपाकाङ्गारे गृहस्थपर्य्यन्तभुक्तवज्जने उत्सृष्टशरावेषु त्यक्तेषु सर्व्वदा यतिर्भिक्षां चरेत्। एतच्च दिनशेषमुहूत्तंत्रयरुपसायाह्नोपलक्षणम्। यथाह याज्ञवल्क्यः। अप्रमत्तश्चर्र्ङ्गैक्षंसायाह्ने नाभिसन्धितः इति” ↩︎
-
“निर्व्वेशं वेतनं भृतको दासः। " ↩︎
-
" अग्नियोक्ति सहेत।” ↩︎
-
" चिरतरस्थायिपात्रे।” ↩︎
-
" गोवालैःमार्ज्जनरूपा।" ↩︎
-
“त्रिरात्रकल्पना।” ↩︎
-
" एषोऽतिरिक्तः पाठः क्वचित् क्वचित् प्रामाणिकपुस्तके न दृ्श्यते।" ↩︎
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“च्युत इति पाठान्तरम्।” ↩︎
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“अनाकारितस्येत्यर्थः।” ↩︎
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“प्रसवकालत्वादित्यर्थः” ↩︎
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“क्षत्रियवैश्यशूद्राणां पूर्णाशौचबोधकत्वम्। " ↩︎
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“न स्वभावतोऽशौचाभावःपरन्तु स्नानादेव अशौचस्य नाशइत्यर्थः।” ↩︎
-
“संस्पर्श इति पाठान्तरम्। संस्पर्शो नैव दुष्यतीति देशान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
“स्नातां सर्व्वकर्म्माणीति देशान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
“स्त्रीजननीमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“जन्मदा नाम देवतेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“मृत इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“कन्यकानां सापिण्ड्यमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“ईषन्न्युनार्थे देशीयप्रत्ययविधानात् आदिपदाच्च द्वादशवर्षमारभ्य षोडशवर्षादीषन्न्यूनकालिक इत्यर्थः।” ↩︎
-
“बाल्यादिभेदेनाशौचकल्पनम्।” ↩︎
-
" कालनियम इति पाठान्तरम्। " ↩︎
-
" भक्तादिकम्।” ↩︎
-
“युद्धमकुर्व्वतः।” ↩︎
-
“सजातीयेषु। " ↩︎
-
“वाहयेदिति पाठान्तरम्। सजातीयसत्त्वे शूद्रेण कर्त्रामृतं विप्रं न वाहयेदिव्यर्थः। अत्र हृधातोविंकल्पविधानात् शूद्रेणेति अनुक्तकर्त्तरि तृतीया।” ↩︎
-
“शिष्टकर्त्तृकचण्डालादिकाग्निपरिग्रहोन उचित इत्यर्थः।” ↩︎
-
“गात्रमार्ज्जनं न कुर्य्यात्। नोद्वषंयेरन्निति अन्यत्र पाठः।” ↩︎
-
“रज्जुनिर्मिते पदार्थों यत्रद्रव्यं स्थाप्यते शिका इति प्रसिद्धिः।” ↩︎
-
“वृद्धप्रचेता इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“पुरिता इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“प्रसक्तमिति सकलपुप्तके पाठःपरिदृश्यते परन्तु प्रशस्तमित्येव साधु।” ↩︎
-
“दशमपिण्डदानपर्यन्तम्।” ↩︎
-
" प्रथमपिण्डदेनैव” ↩︎
-
" पूरकपिण्डदात्रा" ↩︎
-
“सर्व्वेषान्तु मतं कृत्वा इति ग्रन्थान्तरीयपाठः।” ↩︎
-
“अन्यद्वारा कारयेदित्यर्थः।” ↩︎
-
" पितुरौर्द्धदेहिककर्म्मकलापम्।" ↩︎
-
“सगोत्राद्वन्यगोत्राद्वाइति चन्द्रिकाधृतपाठः।” ↩︎
-
“क्षेत्रिणे प्राक् प्रदापयेदादौ क्षेत्रिणि मृते इति शेषः ततः। क्षेत्रिमरणानन्तरंवीजिमरणे पश्वाद्वीजिने तुदापयेदित्यनयः। क्वचित् कदाचिदृक्षेत्रे जीवति अर्थादादौ वीजी मृतः तदा वीजीने आदौ दद्युः मृते तु तदनन्तरं क्षेत्राणि चेत् तदा पश्चात् क्षेत्रिणे प्रदीयते। उभौ यदि मृतौ एकदेति शेषः। तत्रादौ वीजिने श्राद्धं पाश्तात् क्षेत्रिणे तत्र हेतुं दर्शयति आदौ न दत्तं स्यादित्यादि।” ↩︎
-
“अशुत्कर्षतायान्तुइति ग्रन्थान्तरीयपाठः ।” ↩︎
-
“ब्रह्मचारिकर्तृृकोदकदानादिनिषेध इत्यर्थः ।” ↩︎
-
" आदिना आत्मत्यागिन्य इत्यत्रस्त्रीत्वमविवक्षितम्।" ↩︎
-
“वृथाजातानां सङ्करजातानाञ्चेत्यर्थः द्वन्द्वात्परः श्रयमाणः प्रत्येकं सम्बुध्यते इति न्यायादिति शेषः।” ↩︎
-
“औषधमेवनादिचिकित्सारहित इत्यर्थः।” ↩︎
-
“शौचेन सह स्मृतिः तस्याःस्मृत्याचाररहित इत्यर्थः” ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेषु दर्शनादेवं रक्षितं परन्तु स्वव्यापाराक्षमस्य इत्येव पाठी युक्तः।” ↩︎
-
“पुत्रादिरूपाधिकारिणामिति शेषः।” ↩︎
-
“द्वारि वेश्मनः इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
-
“: प्रत्यरे” ↩︎
-
“सम्बन्धशून्यानामिति शेषः।” ↩︎
-
“उदासीनानामगौसम्बन्धरहितामिति यावत्।” ↩︎
-
“शुभं कर्म्मे येषां शुभकर्म्मकारिणामित्यर्थः।” ↩︎
-
“दाहं कृत्वा ।” ↩︎
-
“श्राद्धमिति शेषः।” ↩︎
-
“विप्रभिति न पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“विप्र इति शषः” ↩︎
-
" क्षत्रियादिस्त्रीषुजातेभ्यः।" ↩︎
-
“कस्मिन् स्थलेऽपीत्ययः। वस्तुतः कर्म्याविदित्येव साधु।” ↩︎
-
" आधानकाले सोमे च इति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" जननमरणदिनैः।" ↩︎
-
“दाहदिनमारभ्य।” ↩︎
-
“दाहात्प्राक् सन्ध्यादिकर्म्मलोपोनास्तेत्यर्थः।” ↩︎
-
“अन्येन होमं कारयेत्।” ↩︎
-
" न तु त्यजेदित्यर्थः।" ↩︎
-
" राहुदर्शननिमित्तस्नानदानश्राद्धादिकरणं इति ग्रन्थकाराशयः।" ↩︎
-
“दशाहानि इत्युपलक्षणंतेन क्षत्रियादेरपि जननमरणाशौचे जाते असपिण्डैः असमानोदकैश्च द्वादशाहादिपर्य्यन्तम् अशौच्यन्नं न भोक्तव्यम्।” ↩︎
-
“अशौचं प्रतीति शेषः।” ↩︎
-
" मृतकादिस्वरुपोत्पत्तितज्ज्ञानरूपोभयविशिष्टम्।" ↩︎
-
“निह्नुते लिखितं नैकमेकदेशविभावितः। दाप्यः सर्व्वंनृपेणार्थभग्राह्यस्त्वनिवेदितः॥ इति याज्ञवल्क्यवचनम्। यो लिखितानेकं सुवर्णादिकमपलपति स एकद्रव्ये साक्ष्यादिभिर्विभावित सर्व्वं दद्यात्। एकदेशविभावनाद्विजानतः एव तस्य तदपलापेन दुःशीलत्वावधारणादपरांशेऽपि तथात्वमेव सम्भाव्यते। सत्यविभावकस्यापि प्रक्रान्तविषये यथार्थवाक्यनिश्चयादविभावितांशऽपि सत्यवादित्वसम्भावनमित्येव तर्कपरम्परागत एकदेशविभावितन्यायः।” ↩︎
-
“भोजनकारवयितृत्वनिमित्तदोषः।” ↩︎
-
“ग्रन्थकारमते ज्ञातेऽज्ञाते वाश्राद्धादौ ब्राह्मण भोजने कोऽपि दोषोनास्ति।” ↩︎
-
“तिलौषध्यजिनइति पाठान्तरम्” ↩︎
-
“स्वयंग्रहे इति ग्रन्थान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
" अन्नदानरुपयज्ञप्रवृत्तानामशौचिनां सकाशात् आमान्नग्रहणे दोषोनास्तिइति समुदायार्थः।" ↩︎
-
“तथेति पाठान्तरम्॥” ↩︎
-
“व्रवसत्रयोरिति पाठान्तरम्। " ↩︎
-
“नान्दी श्राद्धमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
- ↩︎
-
“* जननमरणेइत्यर्थः ।” ↩︎
-
“गामिन इत्यर्थः।” ↩︎
-
" नाशौचं प्रसवेष्वस्तौति ग्रन्थान्तरीयः पाठः।” ↩︎
-
" स्वसहचरितमिति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“वानप्रस्थाश्रमिणि।” ↩︎
-
“भर्त्तरि, अस्य च क्लीवे वैखानसे च इत्यनेन सम्बन्धः। तयाच क्लीवे पतौवानप्रस्थे च पतौ भर्त्तरि मृते स्नानमात्नमशौचम्।” ↩︎
-
“पूर्वकाले।” ↩︎
-
“शरीरप्रतिनिधिन।” ↩︎
-
“शरीरालाभे अस्थिमात्रदाहे च आहिताग्नेर्ब्राह्मणस्य दशाहाशौचं क्षत्रियस्य द्वादशाहाशौचं वैश्यस्य पञ्चदशाहाौचमिति दाहादूर्द्धमिति शेषः।” ↩︎
-
“यवपिष्टैः। " ↩︎
-
" शिष्यः।” ↩︎
-
“साङ्गवेदाध्यायी।” ↩︎
-
“जपयज्ञादियुक्तः। तथाच मनुः।जप्येनैव तु संसिद्धेदब्राह्मणो नात्र संशयः.कुर्य्यादन्यन्न वा कुर्य्यान्मैत्री ब्राह्मण उज्यते॥” ↩︎
-
" दशाहादिकालोत्तरमरणश्रवणे। " ↩︎
-
" आपततीति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“स्वकीयपथम्।” ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेषु दर्शनात् एष पाठो रक्षितःपरन्तु यत्र पितृस्त्रिरात्रंतवासन्निधाने सपिण्डानां स्नानात् शुद्धिःसन्निधाने तु एकाहमित्येवं भवितमार्हीत।” ↩︎
-
“गङ्गाम् " ↩︎
-
“विलापम्।” ↩︎
-
“शौचं शुद्धितथाच मृतकं मरणाशौचमधिकृत्यशुद्धिकुर्य्यान्नसूतकेजननाशौचमधिकृत्य इत्यर्थः॥” ↩︎
-
“मातृमरणजन्याशौचमध्ये।” ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेषु दर्शनात् पाठो रक्षिता परन्तु अप्मुप्रासन्तु तत शेषं समर्थेन निमथ्य चेति पाठः समचीनः। निर्णयसिन्धौ तु यज्ञम्पाशं इति कृत्वा क्कचित्क्कचिदन्यथा कृत्वा च वचनं लिखितम्। यथा यजमाने चितारूढे़ पात्रन्यासे तथा कृते। वर्षाद्यमिहते वह्नौ कथं कुर्व्वन्ति याज्ञिकाः॥ तदद्धंदग्धकाष्ठेन मथनं तत्र कारयेत्। तच्छेषालाभतोऽन्येन दग्धशेषेण वा पुनः। हुत्वाज्यं लौकिके वह्नौ हुतशेषं दहेत्तु वा इति॥” ↩︎
-
“ब्राह्मणादूनाम्। सर्व्ववर्णिनामिति निर्णयसिन्धौ पाठः।” ↩︎
-
“प्राशितहरणादीनीति पाठान्तरम्। प्राशिविहरणादीनीति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“पशुमुखावशिष्टम्” ↩︎
-
“त्वचां मोचनम्॥” ↩︎
-
" दशभिर्दिनैः।” ↩︎
-
" बालुका।" ↩︎
-
" लौहाकर्षणकारिलौहविशेषाणाम् चुम्बकः यस्य प्रसिद्धिः" ↩︎
-
“घर्षणयन्त्रविशेषः ।” ↩︎
-
“एकरूपेण कार्य्यनिर्व्वाहकत्वात्” ↩︎
-
“शुद्रेण” ↩︎
-
" संस्पृष्टमितिपाठान्तरम्।" ↩︎
-
" मुखामृतेैः।" ↩︎
-
“बहुषु पुस्तकेषु दर्शनादेष रक्षितः परन्तु तापनैः खनैरिति पाठः साधुःखनैः मृत्तिकाभ्यन्तररक्षणैः अथवा लेखनं शाणम्।” ↩︎
-
“पित्तलम्।” ↩︎
-
" रङ्गम्।" ↩︎
-
“रक्षणम्।” ↩︎
-
" निर्हरणं दहनम्।" ↩︎
-
“प्रस्तराणाम् ।” ↩︎
-
“त्वचां मोचनात् " ↩︎
-
“संसर्गिणाम् ।” ↩︎
- ↩︎
-
“कुक्कुटविष्ठोपयुक्तानाम्” ↩︎
-
“स्पृष्टम्” ↩︎
-
" अप्रत्यक्षाहृतानाम्।” ↩︎
-
“पंक्तिक्रमेण द्रष्टकेन रचितानि।” ↩︎
-
“येषां पक्षिणंमांसभक्षणं शास्त्रविहितं तद्विषयम्॥” ↩︎
-
“वस्त्रं कम्पयितम्।” ↩︎
-
“लालायुक्तम्।” ↩︎
-
“संस्पर्शादिति शेषः।” ↩︎
-
“वैदध्वनिता।” ↩︎
-
“अटवटुकचय इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“अग्निना प्रतापनम्।” ↩︎
-
" सजातीयेन पात्रान्तरस्थिततज्जातीयेन सह प्लावनेन वस्त्रान्तरितकरणेन इत्पर्थः।" ↩︎
-
" गोकुले कुन्दशालायां तलयन्तेक्षुश्रन्त्रयोः इति ग्रनथान्तरीयपाठः।" ↩︎
-
“शेषेषु निःशेषेषु परित्यागेषु इति यावत्।” ↩︎
-
" बासः कृतः।" ↩︎
-
“अमेध्यायाःइष्टायाःमलिनायाश्च।” ↩︎
-
“उपरितनानां किञ्चित् कृत्वा मृत्तिकोन्मोचनम्।” ↩︎
-
" वर्षण इति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" व्यस्तं असमस्तं अनेकश इति यावत्।" ↩︎
-
“यत्रैव ता दशगाव इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" एकेन विन्दुनैव तावत्तीर्थमुद्भावयतीत्यर्थंइति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
“ऊपदयाःक्षारमृतिकाया भुमेरित्यर्थः।” ↩︎
-
“अत्र अक्षीणानि इत्येव साधु परन्तु आदर्शपुस्तके अदर्शनान्नलिखितम्।” ↩︎
-
" तीर्थतः परिवर्ज्जयेदित्यनेन तीर्थातिरिक्तेदोषो नास्तीति प्रतीयते। " ↩︎
-
“स्त्रीपुरुषसम्बन्धिरजोरतेसा उपहृताः।” ↩︎
-
“शेषं शस्त्रेण शोधयेदिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“ब्राह्मण्यश्चेति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“आसनं शयनं वस्त्रं जायापत्यं कमण्डलुः। शुचीन्यात्मन एतानि परेषामशुचीनि च इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“दस्युविलः वकः इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“मक्षिकाग्रहणमतिवर्त्तनीयस्पर्शादीनामुपलक्षणर्थमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“वेदपाठकालीनच्युतमुखामृतविन्दव इति शेषः विप्रुषोब्रह्मविन्दव इत्यमरः।” ↩︎
-
“रतिकाले स्त्रीमुखं शुचि स्तनात्ययः प्रस्रवणकाले वत्समुखं वृक्षे वृक्षस्यफलभक्षणे पक्षिमुखं शुचि मृगयाकाले मृगदंशने कुक्कुरमुखं शुचि इत्यर्थः।” ↩︎
-
“छागः।” ↩︎
-
“स्वाध्ययाइति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
“दृष्टानोति क्वचिपाठः। -” ↩︎