कुशाग्र-टिप्पनी
These are suspect. The Vedic sources are obviously suspect. Even the Puranic verses are not found in the extant versions.
If the verses were found in medieval nibandhas such as त्रिस्थलीसेतु, they might still be acceptable. But yesterday I was reading the Prayaga section of the book and I couldn’t find them.
Even the name प्रयागराज (instead of प्रयाग) is suspect and based on a citation which isn’t found anywhere. In short, there is a major lack of research on this matter.
कुम्भपर्व माहात्म्य
( हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन तथा नासिक माहात्म्य सहित )
विघ्नौघध्वान्तविध्वंस–
भास्करायित-विग्रहम् ।
अवलम्बे निरालम्बः
साम्बं शिवम् अहर्निशम् ॥ १ ॥
वेद-विद्याधरं साक्षाच्
छ्री-विद्याधर-संज्ञकम् ।
पितरं स्व-पितृव्यञ्च
शिवदत्तम् उपास्महे ॥ २ ॥
श्रीकुम्भ-पर्व माहात्म्यं
शास्त्रसिद्धान्तसम्मितम् ।
कुम्भ-तत्त्वम् अभीप्सूनां
मोदायेदं वितन्वते ॥ ३ ॥
कुम्भ-शब्दार्थ
- १ – कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्कन्या- ग्यादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बृहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वार- प्रयागादितत्तत्पुण्यस्थानविशेषानुद्दिश्य सः कुम्भः । यस्मिन्
- यद्यपि योगार्थ मात्र से कुम्भ शब्द वाच्य अनेक पदार्थ कहे जा सकते हैं तथापि वर्णित कुम्भ-शब्द योगरूढ़ि ही है ।
२
- २ – कं जलं उम्मति पूरयति अवर्षणादिदुर्भिक्षेम्यो दूरयतीति कुम्भः ।
- ३ – कुं पृथ्वीं उम्मति पूरयति मङ्गलसम्मानादि- भिरिति कुम्भः ।
- ४ – कुः पृथ्वी उभ्यतेऽनुगृह्यते उत्तमोत्तममहात्मस- ङ्गमैः तदीयहितोपदेशैः यस्मिन् सः कुम्भः ।
- ५ - कुः पृथ्वी उभ्यते लघूक्रियते पापप्रक्षालनैः पुण्य- परिवद्धनैश्व येन सः कुम्भः ।
- ६ – ॐ पृथ्वों भापपति दीपयति तेजोवद्ध नेनेति वा कुम्भः । ( भातेर्ण्यर्थः )
- ७ – कुं पृथ्वीं भावयति पोपयति विविधयागादि- भिरिति वा कुम्भः । ( एयर्थे भुवः )
- ८ – कु कुत्सितं उम्मति दूरयति जगद्धितायेति वा कुम्भः ।
‘पृथ्वी को भविष्यत्कल्याण की सूचना देने के लिये हरिद्वार, प्रयाग आदि पुण्यस्थान विशेष के उद्देश्य से निर्मल महाकाश में वृहस्पत्यादि प्रहराशि एकत्र हों जिसमें उसे कुम्भ कहते हैं । समय-समय पर जलपूर्ति द्वारा अनावृष्टि प्रभृति दुर्भिक्षों से निवृत्त करने वाले को कुम्भ कहते हैं । पृथ्वी को मङ्गल सम्मान आदि से पूर्ण करने वाले को कुम्भ कहते हैं । उत्तम उत्तम महात्माओं के सङ्गम तथा उनके हितोपदेशों द्वारा पृथ्वी ( जगती ) अनुगृहीत होती हो जिसमें उसे कुम्भ कहते हैं। पापों के प्रक्षालन तथा
पुण्यों के परिवर्धन द्वारा पृथ्वी का भार हलका किया जाय जिससे उसे कुम्भ कहते हैं। पृथ्वी को सुख प्रदान तथा तेजोवृद्धि द्वारा दीप्त करने वाले को कुम्भ कहते हैं। पृथ्वी (राष्ट्र) को विविध यागादि सदनुष्ठानों द्वारा सम्भावित करने वाले को कुम्भ कहते हैं। कुत्सित दोपों को जगत्कल्याण की भावना से प्रेरित होकर दूर करने वाले को कुम्भ कहते हैं ।’
कुम्भ का स्वरूप
कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः । मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्थिताः ॥ कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा । ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः !!
अङ्गैश्व सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः ॥
‘कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र, मूल भाग में ब्रह्मा, मध्य भाग में मातृगण, कुक्षि में समस्त समुद्र, पहाड़ और पृथ्वी रहते हैं । और अङ्गों के सहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद भी रहते हैं ।’
कुम्भ-प्रार्थना के मन्त्र
देवदानवसंवादे मध्यमाने महोदधौ ।
उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम् । त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः । त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः ॥ शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः ।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः । त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः ॥
‘हे कुम्भ ! देव-दानव के विवादरूप में समुद्र के मथे जाने पर तुम्हारी उत्पत्ति हुई जिसे साक्षात् भगवान् विष्णु ने धारण किया। उस तुम्हारे जल में समस्त तीर्थ, समस्त देवता, समस्त प्राणी, प्राण आदि स्थित रहते हैं। तुम साक्षात् शिव, विष्णु और ब्रह्मा हो। आदित्य, वसु, रुद्र, सपैतृक विश्वेदेव आदि समस्त कार्योंके फलप्रद दबता तुम्हारे में सर्वदा स्थित रहते हैं ।’
वेदों में कुम्भ पर्व का वर्णन
कुम्भ-पर्व के सम्बन्ध में वेदों में अनेक महत्त्वपूर्ण मन्त्र मिलते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि ‘कुम्भ-पर्व’ अत्यन्त प्राचीन और वैदिकधर्म से श्रोतप्रोत है । व हम पाठकों के लाभार्थ चारों वेदों के कतिपय मन्त्र उधृत करते हैं-
जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून् । विभेद गिरिं नवभिन्न कुम्भभागा इन्द्रो अकृणुता स्वयुग्भिः ॥
(ऋग्वेद १०८६७)
‘कुम्भ पर्व में जानेवाला मनुष्य स्वयं अपने में फलरूप से प्राप्त होनेवाले दान- होमादि सत्कर्मों से काष्ठ काटनेवाले कुठारादि की तरह अपने पापों का प्रक्षालन करता है। जिस प्रकार गङ्ग- नहर आदि अपने तटों को नष्ट करती हुई प्रवाहित होती है उसी प्रकार कुम्भ पर्व अपने पूर्वसति कर्मों से प्राप्त हुए शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन बनावटी पर्वत की तरह बादल को नष्ट-भ्रष्ट कर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है ।’
‘कुम्भी वेषां मा व्यथिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषिक्ता ।’
(ऋग्वेद १२।३।२३ )
‘हे कुम्भ पर्व ? तुम यज्ञीय वेदी में यज्ञीय आयुधों से घृत द्वारा तृप्त होने के कारण कष्टानुभव मत करो ।’ युवं नरा स्तुवते पचियाय कक्षीवते अरदतं पुरन्धिम् । कारोतराच्छकादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भां असिञ्चतं सुरायाः ॥
(ऋग्वेद १२८/६/२)
कुम्भो वनिष्टुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्र े योन्यां गर्भोऽअन्तः । प्लाशिर्व्यक्तः शतधारऽउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधां पितृभ्यः ॥
( शुक्लयजुर्वेद, १६८७ ) ‘कुम्भ-पर्य सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इहलोक में शारीरिक सुख देनेवाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देनेवाला है ।" आविशन्कलशर्ट • सुतो विश्वा अर्पन्न मिश्रियः ।
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इन्दुरिन्द्राय धीयते ॥
( सामवेद, पू०, ६ ३ )
पूर्णः कुम्भोऽधिकाल अहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः । स इमा विश्वा भुवनानि कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥
(अथर्ववेद १६५३३ )
‘हे सन्तगण ! पूर्ण कुम्भ समय पर ( बारह वर्ष के बाद ) आया करता है जिसे हम अनेकों बार प्रयागादि तीर्थों में देखा. करते हैं । कुम्भ उस समय को कहते हैं जो महान् आकाश में. ग्रह राशि आदि के योग से होता है ।’
और भी कहा है-
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(क) ‘चतुरः कुम्भांवतुर्धा ददामि ।’
(अथर्व ९ ४|३४|७ )
ब्रह्मा कहते हैं - ‘हे मनुष्यो ! में तुम्हें ऐहिक तथा श्रमु- ष्मिक सुखों को देनेवाले चार कुम्भ पर्वों का निर्माण कर चार -स्थानों ( हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक ) में प्रदान करता हूँ ।"
(ख) ‘कुम्भीका दूषीकाः पीयकान् ।’
(अथर्व ० १६६८)
कुम्भपर्व या कुम्भोत्पत्ति की कथा अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कलशोत्पत्तिमुत्तमाम् । उत्तरे हिमवत्पार्श्वे श्रीरोदो नाम सागरः ॥ १ ॥ आरब्धं मन्थनं तत्र देवैर्दानवपूर्वकैः ।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम् ॥२॥ मूले कूर्मन्तु संस्थाप्य विष्णोर्वा च मन्दरे । एकत्र देवताः सर्वे बलिमुख्यास्तथैकतः ॥ ३ ॥ मध्यमाने तदा तस्मिन् क्षीरोदे सागरोत्तमे । उत्पन्नं गरलं पूर्व शम्भुना भक्षितं च तत् ॥ ४ ॥ अथ स्वास्थ्यं गते लोके प्रकथ्यन्तेऽद्य तानि हि । उत्पन्नानि च रत्नानि यानि तत्र महान्ति च ॥५॥ विमानं पुष्पकं पूर्वमुत्तमं हंसवाहनम् ।
नाग ऐरावतश्चैव पादपः पारिजातकः ॥ ६ ॥
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वीणावाद्यान्तरं चैव रम्भा नृत्यगुणान्विता । मणिरत्नं कौस्तुभाख्यं बालचन्द्रस्तथैव च ॥ ७ ॥ कुण्डलानि धनुश्चैव गावः पञ्च शिवास्तथा । लक्ष्मीः सुरूपा यमुना सुशीला सुरभिस्तथा ॥ ८ ॥ उचैःश्रवाः समुत्पन्नो लक्ष्मीश्च वरवर्णिनी । तथा धन्वन्तरिर्देवो विश्वकर्मा कलाविदः ॥ ६॥ कलशश्च समुद्भूतो धन्वन्तरिकरोल्लसन् । सुखान्तं सुधया पूर्णः सर्वेषां हि मनोहरः ॥ १० ॥ अजितस्य पदाम्भोज कृपयैव समुद्गतम् । क्षीराब्धिलोडनोद्भूतं कलशान्तेन्द्ररत्नकम् ॥ ११ ॥
दृष्ट्वा तु तत्क्षणादेव महाबलपराक्रमः । जयन्तोऽमृतमादाय गतो देवप्रचोदितः ॥ १२ ॥ देवकर्मसमालोच्य तदा दैत्यपुरोधसा । नागोच्छ्वासप्रव्यथिता दैत्याः शुक्रेण सूचिताः ॥ १३॥ जग्मुस्ते पृष्ठतो लग्ना भीतः सोऽपि पलायितः । दिशो दश दिवारात्रं द्वादशाहं प्रपीड़ितः ॥ १४ ॥ दैत्यै गृहीतस्तद्धस्तात् तेनापि पुनेश्व सः ।
अहं पिवेयं पूर्वं तु न त्वञ्चेति विचुक्र धुः ॥ १५ ॥ एवं धिवदमानेषु काश्यपेषु सुधाग्रहे ।
-भगवान् मोहयित्वा तान् मोहिन्या विभजत् सुधाम् ॥ १६ ॥
विवादे काश्यपेयानां यत्र यत्रावनिस्थले । कलशो न्यपतचत्र कुम्भपर्व तदोच्यते ॥ १७ ॥ गुर्वीन्द्वर्कस्वपुत्रैश्च कुम्भोऽरक्षि निपातितः । कलहाक्रान्तचेतोभिदैत्यैः शुक्रप्रचोदितैः ॥ १८ ॥ चन्द्रः प्रस्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ । दैत्येभ्यश्च गुरू रक्षां शौरिदवेन्द्रजाद् भयात् ॥ १६ ॥ सूर्येन्दुगुरुसंयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे ।
सुधाकुम्भप्लवे भूमौ कुम्भो भवति नान्यथा ॥ २० ॥ देवानां द्वादशाहो भिर्मत्यैर्द्वादशवत्सरैः ।
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया ॥ २१ ॥ तत्राधनुत्तये नृणां चत्वारो भुवि भारते ।
अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवर्गभ्या न चेतरैः ॥ २२ ॥ तान्येति यः पुमान् योगे सोऽमृतत्वाय कल्पते । देवा नमन्ति तत्रस्थान् यथा रङ्का धनाधिपान् ॥२३॥ पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते । विष्णुद्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरीतटे ॥ सुधाविन्दुविनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति विश्रुतम् ॥ २४ ॥
( स्कन्द पुराण ) ‘पूर्वकाल में पृथिवी के उत्तर भाग में हिमालय के समीप ‘क्षीरोद’ नामक समुद्र के किनारे देवता और दानवों ने उसका मन्थन किया, जिसमें मन्थराचल ‘मन्यन- दण्ड’ था,
कुम्भपर्व- माहात्म्य
बासुकी ‘नेती’ थे, कच्छप- रूपधारी भगवान् मन्दराचल के पृष्ठ- भाग थे और भगवान् विष्णु उक्त मन्थन दण्ड को पकड़े हुए थे. पश्चात् उस क्षीर सागर से चौदह रत्न निकले। उन्हीं रत्नों में से अमृत- कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र ‘जयन्त’ अमृत कलश को छीनकर आकाश में उड़ गया । शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को
पश्चात् दैत्यगुरु वापिस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने वीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा । पश्चात् अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा । परस्पर इस मारकाट के समय में पृथिवी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश गिरा था, उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शशि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की । कलह शान्त करने के लिए भगवान् ने मोहिनीरूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँट कर पिला दिया । इस प्रकार देव-दानव का अन्त किया गया ।
अमृत प्राप्ति के लिये देव-दानवों में परस्पर बारह दिन पर्यन्त निरन्तर युद्ध हुआ था, अतः देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। कुम्भ भी वारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथिवी पर होते हैं और अवशिष्ट आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, - नहीं है । जिस समय में चन्द्रादिकों ने
मनुष्यों की वहाँ पहुंच कलश की रक्षा की थी,
*लक्ष्मी, कौस्तुभ पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चन्द्रमा, गरल, पुष्पक, ऐरावत, पांचजन्य शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैःश्रवा और अमृत- कुम्भ ।
१०
कुम्भपर्व -माहात्म्य
उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करनेवाले चन्द्र सूर्यादिक मह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और वृहस्पति का संयोग होता है उसी वर्ष उसी राशि के योग में जहाँ जहाँ अमृत- कुम्भ- गिरा था वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व होता है ।’
कुम्भ पर्व का उद्देश्य
हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार कुम्भ पर्व के निर्णीत स्थानों में कुम्भ-योग के समय तत्तत्सम्प्रदाय सम्मानित साधु-महात्माओं के समवाय द्वारा संसार के सर्वविध कष्टों के निवृत्यर्थ देश, समाज, राष्ट्र, और धर्म आदि समस्त विश्व के कल्याण - सम्पादनार्थ निष्काम भावनापुरस्सर वेदादि शास्त्रानुकूल अमूल्य दिव्य उपदेशों से जगत्कल्याण करना ही ‘कुम्भ पर्व’ का महान् उद्देश्य है ।
कुम्भ पर्व का आध्यात्मिक रहस्य
कुम्भ-पर्व के विषय में आध्यात्मिक रहस्य पाठकों के समक्ष उपस्थित किया जाता है, आशा है कि धार्मिक सज्जन इस पर विश्वास कर पर्व के समय स्नान, दान, यज्ञ तथा तप आदि के आचरण तथा विद्वानों के उपदेश द्वारा अपना जन्म सफल करेंगे । जो गृहस्थ मनुष्य ‘पंचाग्नि विद्या’ को जानते हैं तथा जो वानप्रस्थी, संन्यासी या नैष्ठिक ब्रह्मचारिगण सांसारिक विषयवासनाओं से विरक्त होकर श्रद्धापूर्वक तप तथा सत्य- पालनादि का आचरण करते हैं वे उत्तरायण मार्ग से अर्थात् अर्चिमार्ग से सूर्यलोक होते हुए ‘ब्रह्मलोक’ जाते हैं । वहाँ अनेक कल्प तक निवास कर पुनः जिस मार्ग से वे गए थे उसीकुम्भपर्व- माहात्म्य
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मार्ग से लौटकर इन्द्रादि लोकों में ही रहते हैं और वे भूलोक में नहीं आते । इन्द्रादि लोकों में रहते हुए सौभाग्यवश गुरूपदेश द्वारा ज्ञान-प्राप्ति हो जाने के कारण मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है जिससे वे इस संसार में नहीं आते हैं प्रत्युत ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं। और जो साधारण गृहस्थजन ग्राम में ही रहते हुए (इष्ट) अग्निहोत्रादि वैदिक कर्म तथा ( पूर्त्त ) वापी कूप-तड़ागादि प्रतिष्ठा तथा दान, यज्ञ आदि का आचरण करते हैं वे दक्षिणायन-मार्ग से अर्थात् धूम-मार्ग से ‘चन्द्रलोक’ जाते हैं यहाँ वे पुण्यक्षय पर्यन्त निवास कर फिर बादल आदि बनकर इस पृथ्वी पर औषध, तृण तथा वनस्पतिरूप में वृष्टि द्वारा पैदा होते हैं और पुनः पूर्व कर्म के अनुसार उत्तम या अधम योनि के जीव से भक्षित होकर वीर्य बनकर उस योनि में पैदा होते हैं । जो मनुष्य ‘पखामि विद्या’ आदि से तथा अभिहोत्र, वापी, कूप, तड़ागादि प्रतिष्ठा, दान, यज्ञ आदि से भी वचित रहते हैं वे कीट, पतङ्ग आदि की योनियों में जाते हैं और बार बार जन्म-मरण जन्य क्लेश को भोगते हैं। इस प्रकार मरने के बाद मनुष्यों की उत्तम, मध्यम तथा अधम ये तीन गतियाँ उपनिषदों में वरिंगत हैं । जो मनुष्य मरण से पहले ही गुरूपदेश द्वारा तत्वज्ञान प्राप्त कर लेते हैं उनकी मरने के समय प्राणों के साथ आत्मा पूर्वोक्क मार्गों में से किसी भी मार्ग का अनुसरण नहीं करती, किन्तु हृदय में ही ब्रह्म में लीन हो जाती है । यह सर्वोत्तम गति ज्ञानियों के लिए उपनिपदों में बतलाई गई है। वस्तुतः पूर्ण-कुम्भ तथा अर्धकुम्भी पर्व मनाने का रहस्य यह है कि हमलोग इस पर्व पर दूर-दूर से अनेक स्थानों से हरद्वार, प्रयाग आदि पवित्र तीर्थों में आकर गङ्गास्नान से पवित्र होकर श्रेष्ठ विद्वानों के उपदेश द्वारा ज्ञान प्राप्त करें तथा तप, सत्य, दान, यज्ञ आदि शुभ कर्मों का यथा-
-१२
धिकार यथारुचि आचरण करें, जिससे मृत्यु के बाद हमें सर्वोत्तम, उत्तम, या मध्यम गति प्राप्त हो और अधम गति कदापि न मिले ।
शङ्का - पुराणों में जो समुद्र मन्थन के समय अमृत कुम्भ को लेकर धन्वन्तरि विष्णु का प्रगट होना और उसके लिए मनुष्य आयु के अनुसार वारह वर्षों तक देवासुर संग्राम होना, चन्द्रमा द्वारा घट के प्रस्रवण से, सूर्य के द्वारा घट के फूटने से, गुरु के द्वारा दैत्यों के अपहरण से अमृत- कुम्भ की रक्षा करना, इत्यादि वृत्तान्त आये हैं इनका वास्तविक रहस्य क्या है ?
पर्व के समय उपस्थित संसारी जीव-समुदाय हो उत्तर- ‘समुद्र’ है, उसमें से प्रकट हुए अमृतरूपी तत्वज्ञान को जानने- वाले श्रेष्ठ विद्वान् ही भगवान् ‘धन्वन्तरि विष्णु’ हैं। अपने शरीर के अन्दर तमोगुण प्रधानरूप इन्द्रिय गण ही ‘असुर’ हैं, ये हौ इन्द्रियाँ जय सत्वप्रधानस्वरूप हो जाती हैं तो वे ‘देव’ मानी जाती हैं। इस प्रकार अपने शरीर के अन्दर इन इन्द्रियों का जो परस्पर विरोध होता रहता है यही ‘देवासुर संग्राम’ है । मनुष्य को चाहिए कि ‘वेदान्तशास्त्र’ के अध्ययन तथा गुरूपदेश, सत्य, तप आदि के आचरण द्वारा अपने इन्द्रियों का निग्रह कर तामस भाव अथवा आसुरी सम्पत्ति पर विजय प्राप्त कर सात्विक भाव अर्थात् देवी सम्पत्ति को प्राप्त करे। ऐसा करने से ही मनुष्य ‘अमृत कुम्भ’ अर्थात् पूर्णज्ञान की प्राप्ति द्वारा ‘मोक्ष’ का भागी बन सकता है। यह पूर्णज्ञान अधिक से अधिक बारह वर्ष में मन्द बुद्धि को भी प्राप्त हो सकता है और तीव्र तथा मध्यम बुद्धि के मनुष्य थोड़े समय में भी पूर्णज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। बारह वर्ष एक अनुमानिक समय रक्खा गया है
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अतः मनुष्य कुम्भ के समय यथारुचि श्रेष्ठ विद्वानों से ‘ज्ञानदीक्षा’ या सत्य, तप आदि आचरण का उपदेश लेकर बारह वर्ष तक उसका अभ्यास करता हुआ प्रथम मन के अधिष्ठातृदेव ‘चन्द्रमा’ की उपासना द्वारा मन को एकाग्र करे । फिर " योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम् " ( शु० य० ४०।१७ ) अर्थात् जो आदित्य विश्व में विराजमान ब्रह्म है वह मैं ही हूँ, इस प्रकार अभ्यास करे । इस प्रकार के अभ्यास से गुरूपदेश द्वारा प्राप्त ज्ञानरूपी अमृत- कुम्भ का प्रस्रवण तथा फूटना अर्थात् नाश नहीं हो सकता, अतः वह ज्ञान सदा अक्षय रहता है । पुराणों में जो बारह स्थानों में कुम्भ पर्व माने गए हैं वे अपने शरीर के अन्दर ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय, १ मन तथा १ शरीर ही अमृतकुम्भरूपी पूर्णज्ञानप्राप्तिसाधक होने के कारण कुम्भ-पर्व के बारह स्थान माने गए हैं। कुम्भपर्व में सूर्य, चन्द्रमा तथा गुरु के संयोग होने का यही मुख्य रहस्य है ।
कुम्भपर्व के प्रवर्त्तक
जिस ‘कुम्भ पर्व’ का उल्लेख वेदों और पुराणों में मिलता है, उसकी प्राचीनता के सम्बन्ध में तो किसी को सन्दिग्ध होने का अवसर ही नहीं प्राप्त हो सकता । किन्तु यह बात अवश्य विचारणीय है कि - कुम्भ मेले का धार्मिकरूप में संसार के लोगों में प्रसार करने का श्रीगणेश किसने किया ! इस विषय में बहुत अन्वेषण करने पर सिद्ध होता है कि कुम्भमेले को प्रवर्तित करने वाले भगवान् शङ्कराचार्य है। अतः इस पर्व के प्रवर्त्तक आद्य शङ्कराचार्य ही है। उन्होंने कुम्भ पर्व के प्रचार की व्यवस्था केवल धार्मिक संस्कृति को सुदृढ़ रखने के लिए तथा जगत्कल्याण की दृष्टि से किया था। उन्हीं के आदर्शानुसार
२
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अद्यावधि कुम्भपर्व के चारों सुप्रसिद्ध तीर्थों में सभी सम्प्रदायों के साधु-महात्मा गण देश-काल-परिस्थित्यनुरूप लोककल्याण की दृष्टि से धर्म रक्षार्थ धर्म का प्रचार करते हैं जिससे सभी जाति और सभी सम्प्रदाय का कल्याण होता है ।
भगवान् आद्य शङ्कराचार्यजी के कुम्भ-प्रवर्त्तक होने के कारण ही आज भी कुम्भ का मेला मुख्यतः साधुओं का ही माना जाता है। वस्तुतः साधु-मण्डली ही कुम्भ का जीवन है। भगवान् शङ्करा- चार्य ने जिस महान् सदुद्देश्य की पूर्ति के लिए कुम्भपर्व को प्रवर्तित किया था, आज उसमें आवश्यकता से अधिक जो कमी आ गई है वह किसी से छिपी नहीं है। अतः प्रत्येक मनुष्य को विशेषतः शङ्कराचार्य स्वरूप साधु-महात्माओं को चाहिए कि पुनः भगवान् शङ्कराचार्यजी के सदुद्देश्य की पूर्ति में मनसा कर्मणा, वाचा प्रवृत्त होकर अपना और देश का कल्याण कर कुम्भपर्व के महत्त्व को सुरक्षित रक्खें ।
पूर्णाकुम्भ और अर्धकुम्भ
हिन्दू समाज में प्राचीनकाल से ही कुम्भ पर्व मनाने की प्रथा चली आ रही है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चारों स्थानों में क्रमशः बारह बारह वर्ष में पूर्ण - कुम्भ’ का मेला लगता है और हरिद्वार तथा प्रयाग में ‘अर्ध कुम्भ’ पर्व भी मनाया जाता है । किन्तु यह ‘अर्धकुम्भ-पर्व’ उज्जैन और नासिक में नहीं होता है। अर्धकुम्भ पर्व हरिद्वार और प्रयाग में ही क्यों मनाया जाता है ? और यह उज्जैन एवं नासिक में क्यों नहीं मनाया जाता ? इसके बारे में कोई शास्त्रीय विशेष प्रमाण प्राप्त नहीं होते, अतः ‘अर्धकुम्भ पर्व’ का मेला शास्त्रीय दृष्टि से विशेष महत्त्व नहीं रखता । यह किसी कारण सम्प्रदाय - विशेष के उद्योग-
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से चालू हो गया है जो आज तक उसी रूप में जीता-जागता दिखाई दे रहा है। ‘अर्धकुम्भ पर्व’ के प्रारम्भ होने के सम्बन्ध में कुछ लोगों का विचार है कि - ’ मुगल साम्राज्य में हिन्दूधर्म पर जब अधिक कुठाराघात होने लगा उस समय चारों दिशाओं के शङ्कराचार्यों ने हिन्दू धर्म की रक्षार्थ हरिद्वार और प्रयाग में साधु- महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानों को बुलाकर विचार- परामर्श किया था तभी से हरिद्वार और प्रयाग में ‘अर्ध कुम्भी’ मेला होने लगा । इसी प्रकार अर्ध कुम्भी सम्बन्ध की और भी मिलती-जुलती अनेक दन्तकथाएँ सुनने में आती हैं, किन्तु उनमें कौन ठीक है इसका निर्णय करना कठिन है ।
शाखों में जहाँ ‘कुम्भ-पर्व’ की चर्चा प्राप्त है वहाँ ‘पूर्ण- कुम्भ’ का ही उल्लेख मिलता है। देखिये, अथर्ववेद का निम्नलिखित मन्त्र भी ‘पूर्ण कुम्भ’ की ही पुष्टि करता है-
पूर्ण: कुम्भोऽधिकाल अहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः । सइमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ् कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥
( १६।५३/३ ) :
‘हे सन्तगण ! पूर्णकुम्भ समय पर बारह वर्ष के बाद आता है, जिसे हम अनेकों बार हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार तीर्थस्थानों में देखा करते हैं। कुम्भ उस काल- विशेष को कहते हैं, जो महान् आकाश में ग्रह राशि आदि के योग से होता है ।’
यद्यपि चेदादि सच्छास्त्रों के सिद्धान्तानुसार केवल ’ पूर्ण - कुम्भ’ ही सिद्ध होता है, तथापि पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित ‘अर्धकुम्भ- पर्व’ को भी हमें न भूलना चाहिये। क्योंकि ‘अर्ध कुम्भ-पर्व’ का उद्देश्य ‘पूर्ण-कुम्भ’ की तरह विशेष पवित्र और लोकोपकारक
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है । लोकोपकारक - पर्वो से धर्म के प्रचार के साथ-साथ देश का और समाज का महान् कल्याण सुरक्षित है ।
कुम्भ-पर्व के चार तीर्थस्थान
कुम्भ का पर्व हरिद्वार,
प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन जाता है। ये चारों ही एक से एक
चार तीर्थस्थानों में मनाया
बढ़कर परम पवित्र तीर्थ हैं। इन चारों तीथों में प्रत्येक बारह वर्ष के बाद कुम्भ पर्व होता है। लिखा भी है-
गङ्गाद्वारे प्रयागे च धारा-गोदावरीतटे । कुम्भाख्येयस्तु योगोऽयं प्रोच्यते शङ्करादिभिः ॥
‘गङ्गाद्वार ( हरिद्वार), प्रयाग, धारानगरी (उज्जैन) और गोदावरी ( नासिक ) में शङ्करादि देवगण ने ‘कुम्भयोग’ कहा है।’
चारों कुम्भों के पर्व-दिन और स्नान -दिन
हरिद्वार आदि चारों स्थानों के कुम्भ पर्व का अलग-अलग समय तथा महत्त्व आदि ज्ञातव्य विपयों का संक्षिप्त विवरण नीचे लिखा जाता है ।
(१) हरिद्वार
पद्मिनीनायके मेषे कुम्भराशिगते गुरौ । गङ्गाद्वारे भवेद्योगः कुम्भनामा तदोत्तमः ॥
( स्क० पु० )
‘जिस समय बृहस्पति कुम्भराशि पर स्थित हो और सूर्य [ मैपराशि पर रहे, उस समय गङ्गाद्वार ( हरिद्वार) में कुम्भ-योग होता है।’