निरंजनदेव तीर्थ

अनन्तश्रीविभूषित जगद्गुरु शंकराचार्यवर्य पुरीपीठाधीश्वर
श्री निरंजनदेव तीर्थ जी महाराज का वक्तव्य

वेद भगवान् अधिकारानुसार प्राणी मात्र के कल्याणकारक हैं। वे अनादि, अनन्त और अपौरुषेय हैं। अतः पुरुषाश्रित भ्रम, प्रमाद, करणापाटव, विप्रलिप्सा आदि पुरुषसाधारण दोषों से रहित हैं।

कोई भी व्यक्ति यदि कोई ग्रन्थ लिखता है, तो वह उसमें निहित सामग्री का ज्ञान प्रमाणान्तरों से करता है, किन्तु वैदिक सामग्री का ज्ञान किसी भी प्रमाणान्तर से हो सकता नहीं।

सन्ध्यावन्दन, योग, होम आदि उपात्तदुरितक्षय तथा स्वर्गादि के साधन हैं, इत्यादि बातें किसी भी पुरुष को किसी भी प्रकार से ज्ञात नहीं हो सकतीं। जब ज्ञात नहीं हो सकती, तो कोई पुरुष इन बातों को लिख कैसे सकता है ?

अतः वेदों में पुरुष-सम्बन्ध के गन्ध की भी आशंका की सम्भावना ही नहीं है । वेदों का तात्पर्य ब्राह्मण भाग, ६ अंङ्ग, ६ शास्त्र एवं पुराणेतिहास आदि के द्वारा ही जाना जा सकता है।

आचार्य भगवत्पाद ही नहीं, अपितु श्रीमद् रामानुजाचार्य आदि वैष्णव आचार्यों का भी यही मत है । आचार्य वेंकट माधव (सायण से भी प्राचीन), सायण-माधव, उव्वट, महीधर आदि सभी की यह स्पष्ट घोषणा है ।

किन्तु डा० आफ्रेक्ट, बेवर, मेक्समूलर, याकोवी, कीथ, विन्टरनित्ज, मेकडोनल्ड आदि कुछ पाश्चात्य विद्वानों और तदनुयायी लोकमान्य तिलक, डा० कैलाशचन्द्र, डा० पी० वी० काणे, स्वामि दयानन्द आदि कुछ भारतीय विद्वानों ने भी वेदों के सम्बन्ध में मनमानी की है।

अनन्त श्री स्वामीजी महाराज ने उन सबका यथार्थ उत्तर देकर यह ‘वेदार्थपारिजात’ सुविज्ञ पाठकों को सुलभ कराने का स्वर्णमय अवसर दिया है ।

आशा है इससे सारा संसार उपकृत होगा ।
निरंजनदेव तीर्थ