[[गदनिग्रहः प्रथमः प्रयोगखण्डः Source: EB]]
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[TABLE]
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मूल्यं सार्धरूप्यकः।
भूमिका।
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गदनिग्रहकर्ताऽयं सोढलवैद्यो गुर्जरदेशनिवासी, रायैकवालाख्यब्राह्मनातापः1, वैद्यनन्द- नपुत्रः,वत्सगोत्रोत्पन्नश्चेति तेन स्वविरचिते गुणसंग्रहापरपर्याये सोढर्लनिघण्टुनाम्नि ग्रन्थे प्रोक्तादात्मवृत्तान्तात् प्रेतीयते^(२)। स चायं सोढलवैद्यः कस्मिन् समये समजनीत्येतन्निर्णेतुं न किंचिदपि साधनमुपलब्धमस्माभिः। सोढलविरचितो गदनिग्रहव्यतिरिक्तो गुणसंग्रहापरपर्यायः सोढल-निघण्टुरिति प्रसिद्धोऽन्योऽपि ग्रन्थः समुपलभ्यते। तत्र धन्वन्तरिनिघण्टुराजनिघण्टुप्रभृतिष्व- नुक्तानां प्रायो गुर्जरदेशप्रसिद्धानामेकशतद्रव्याणां नामानि सगुणान्यधिकान्युक्तानि। यद्यपि चिकित्साविषयकाश्चक्रदत्तवङ्गसेनयोगरत्नाकरप्रभृतयो बहवो ग्रन्थामुद्रितास्तथापि भूरिप्रयोगवत्वात्, सरलत्वाच्चायमेव सर्वानतिशेते। ग्रन्थेऽस्मिन् प्रयोग–कायचिकित्सा–शालाक्य–शल्य–भूततन्त्र–बालतन्त्र–विषतन्त्र–रसायन–वाजीकरण–पञ्चकर्माधि–काराख्या दश खण्डाः सन्ति। तत्र प्रथमे प्रयोगखण्डे घृततैलचूर्णगुटीलेहासवाख्याः षडधिकारा विद्यन्ते। तेषु षट्स्वधिकारेषु पञ्चाशीत्यधिकपञ्चशतमिताः प्रत्यक्षफलप्रदाश्चिकित्सायां नित्योपयोगिनश्च प्रयोगरत्ना उक्ताः। अत्रोक्तप्रयोगेषु बहवः प्रयोगा मुद्रितेषु चिकित्साग्रन्थेष्वनुक्ताः। अतोऽयं खण्डो वैद्यानां चिकित्सायामतीवोपयुक्तो भविष्यतीति पृथगेवायं प्रसिद्धीकृतः। ग्रन्थस्यास्य आदर्शपुस्तकद्वयमुपलब्धं;एकं अस्मत्परमसुहृदां स्वर्गवासिनां वैद्यमुरारजी- शर्मणां,अपरं च बुन्दीनगरनिवासिनां राजवैद्यानां श्रीप्रसादशर्मणाम्। प्रथमोपलब्धपुस्तकापेक्षया द्वितीयेऽनन्तर- मुपलब्धे पुस्तके यः पाठ अधिक उपलब्धः स परिशिष्टे संनिवेशितः। घृततैलचूर्णगुटीलेहासवानां परिभाषाः सोढलेनानुक्ता अप्यस्माभिर्ग्रन्थान्ते संनिवेशिताः। ग्रन्थस्यास्य शुद्धीकरणे यथामति कृतो यत्नः। तथापि भ्रमप्रमादादिवशाज्जातं स्खलनं क्वाप्युपलभ्येत चेत्सुधीभिः संशोधनीयं क्षन्तव्यश्चाहं, सफलीकर्तव्यश्च ममायं प्रयासो ग्रन्थस्यास्य पठनपाठनपर्यालोचनादिनेति॥
**सं. १९६८ कार्तिकशुक्ल ११.
कोट होलीचकला मुंबई. **
** ** यादवशर्मा,
^(२).यथा—“वत्सगोत्रान्वयस्तत्र वैद्यनन्दननन्दनः। शिष्यः संघदयालोश्च रायकवालवंशजः॥सोढलाख्यो भिषक् भानुपादपङ्कजषड्पदः। चकारेमं चिकित्सायां समग्रं गुणसंग्रहम्-” इति॥
गदनिग्रहान्तर्गतविषयानुक्रमणिका।
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| विषयः | विषयः |
| मङ्गलाचरणम् | |
| ग्रन्थानुक्रमणिका | |
| **घृताधिकारः प्रथमः | ** |
| ज्वरे मञ्जिष्ठाद्यं घृतम् | कुष्ठेद्वितीयंघृतम् |
| ज्वरे द्वितीयंघृतम् | प्लीह्वि रोहितकं घृतम् |
| ज्वरे तिल्वकाद्यंघृतम् | प्लीह्विबिल्वाद्यंघृतम् |
| जीर्णज्वरे कटुकंघृतम् | सर्वोदरे द्विपञ्चमूलाद्यंघृतम् |
| अग्निमान्द्ये अग्निघृतम् | उदरे ब्राह्मं घृतम् |
| ग्रहण्यां चाङ्गेरीघृतम् | कासे कण्टकारीघृतम् |
| गुदभ्रंशे द्वितीयंघृतम् | कासेद्वितीयंघृतम् |
| गुल्मे दाधिकं घृतम् | कासेत्र्यूषणाद्यं घृतम् |
| गुल्मेहपुषाद्यंघृतम् | व्रणे गौर्याद्यंघृतम् |
| रक्तपित्ते वासाद्यंघृतम् | व्रणेगुग्गुलुतिक्तकंघृतम् |
| रक्तपित्ते महावासाद्यंघृतम् | शोषे द्राक्षाद्यंघृतम् |
| गुल्मे दशाङ्गंघृतम् | नेत्ररोगे त्रिफलाद्यंघृतम् |
| गुल्मेलशुनघृतम् | नेत्ररोगेपटोलाद्यं घृतम् |
| गुल्मे नाराचकं घृतम् | उदरे बिन्दुघृतम् |
| कुष्ठे नलिनीघृतम् | गुल्मे महाबिन्दुघृतम् |
| गुल्मे विश्वाद्यं घृतम् | गुल्मे बिन्दुघृतम् |
| गुल्मे षट्पलंघृतम् | गुल्मेद्वितीयं महाबिन्दुघृतम् |
| गुल्मे महाषट्पलंघृतम् | कुष्ठे बिन्दुघृतम् |
| कुष्ठे नीलंघृतम् | कुष्ठेपञ्चतिक्तकं घृतम् |
| कुष्ठे महानीलंघृतम् | शूले लशुनघृतम् |
| कुष्ठे त्रिफलाद्यंघृतम् | पाण्डुरोगे दाडिमाद्यं घृतम् |
| कुष्ठेआवर्तकीघृतम् | गुल्मे चित्रकाद्यंघृतम् |
| गुदभ्रंशे चव्याद्यं घृतम् | शोफे द्वितीयंचित्रकाद्यंघृतम् |
| प्रमेहे धान्वन्तरंघृतम् | प्लीहि तृतीयं रोहीतकघृतम् |
| बालरोगे कुमारकल्याणकंघृतम् | कुष्ठे गुग्गुलुपञ्चतिक्तकं घृतम् |
| उन्मादे ब्राह्मीघृतम् | रक्तपित्ते शीतकल्याणकंघृतम् |
| शूले बीजपूरकाद्यं घृतम् | हिक्काश्वासे शठ्याद्यंघृतम् |
| व्रणे महागौर्याद्यंघृतम् | रसायनार्थे नारसिंहंघृतम् |
| रक्तपित्ते दूर्वाद्यंघृतम् | विषेऽमृतंघृतम् |
| नेत्ररोगे महात्रैफलं घृतम् | ग्रहण्यामग्निघृतम् |
| वातव्याधौ शतावरीघृतम् | ग्रहण्यां भल्लातकाद्यं घृतम् |
| बाधिर्ये सारस्वतं घृतम् | जीर्णज्वरे पिप्पल्याद्यंघृतम् |
| सन्तानार्थं फलघृतम् | शिरोरोगे मायूरघृतम् |
| क्षतक्षीणे श्वदंष्ट्राद्यं घृतम् | तिमिरे जीवन्त्याद्यंघृतम् |
| कामलायां द्राक्षाद्यंघृतम् | अपस्मारे पञ्चगव्यंघृतम् |
| कुष्ठे महावज्रकंघृतम् | ज्वरे महापञ्चगव्यंघृतम् |
| कुष्ठे द्वितीयंघृतम् | वातरोगे बिन्दुसाराद्यंघृतम् |
| कुष्ठे तिक्तकाद्यंघृतम् | कासे दशमूलाद्यंघृतम् |
| कुष्ठे महातिक्तकं घृतम् |
| विषयः | विषयः |
| **तैलाधिकारो द्वितीयः | ** |
| कुष्ठे कटुकालाबुतैलम् | शिरोरोगेद्वितीयंषड्बिन्दुतैलम् |
| कुष्ठेभद्राद्यं तैलम् | दन्तरोगे बकुलाद्यं तैलम् |
| वातव्याधौ बलातैलम् | दन्तरोगेनीलसहचराद्यंतैलम् |
| वातव्याधौबृहद्बलातैलम् | मुखरोगे इरिमेदाद्यंतैलम् |
| वातव्याधौतृतीयं बलातैलम् | दन्तरोगे द्वितीयमिरिमेदाद्यंतैलम् |
| मूढवर्मेचतुर्थं बलातैलम् | दन्तरोगेखदिराद्यंतैलम् |
| वातव्याधौ प्रसारणीतैलम् | ज्वरे बृहल्लाक्षादितैलम् |
| वातव्याधौद्वितीयंतैलम् | ज्वरेलघुलाक्षादितैलम् |
| वातव्याधौतृतीयंतैलम् | सन्निपातज्वरे जात्यादितैलम् |
| वातव्याधौ चतुर्थं प्रसारणीतैलं | ज्वरे षट्चरणं तैलम् |
| वातरक्ते शतावरीतैलम् | शोषे शिरीषाद्यं तैलम् |
| वातव्याधौ द्वितीयंशतावरीतैलम् | शोषे सुकुमारतैलम् |
| वातव्याधौरास्नातैलम् | अर्शसि लघुकासीसाद्यं तैलम् |
| वातव्याधौशताह्वातैलम् | अर्शसिपृथुकासीसाद्यंतैलम् |
| वातव्याधौमूलकतैलम् | अर्शसिचित्रकाद्यंतैलम् |
| वातव्याधौसहचरतैलम् | कुष्ठे शिंशपासारतैलम् |
| वातव्याधौद्वितीयं | कुष्ठेवज्रकं तैलम् |
| वातव्याधौश्योनाकतैलम् | कुष्ठेमहावज्रकंतैलम् |
| सर्वाङ्गवातव्याधौ श्वदंष्ट्राद्यंतैलम् | कुष्ठेश्वेतकरवीराद्यंतैलम् |
| वातरक्ते खुड्डाकपद्मकंतैलम् | कुष्ठेसिन्दूराद्यंतैलम् |
| वातरक्तेमहापद्मकंतैलम् | कुष्ठेकुष्ठकालानलंतैलम् |
| ज्वरे तृतीयंतैलम् | कुष्ठेकनकक्षीर्याद्यंतैलम् |
| वातव्याधौ बृहन्माषतैलम् | पामायामार्द्रकाद्यंतैलम् |
| बाहुरोगे लघुमाषतैलम् | दद्रुरोगे दार्व्याद्यं सूर्यपाकतैलम् |
| वातव्याधौ तृतीयं महामाष० | कुष्ठे गुग्गुल्वाद्यं तैलम् |
| वातव्याधौ दशाङ्गतैलम् | कुष्ठेविद्रावणंतैलम् |
| ऊरुस्तम्भे सैन्धवाद्यं तैलम् | कुष्ठेमहासुगन्धंतैलम् |
| वातरोगे कुसुम्भाद्यं तैलम् | कुष्ठेमरीचाद्यंतैलम् |
| भगन्दरे मागध्याद्यं तैलम् | कुष्ठेभ्रामरिकंतैलम् |
| भगन्दरे चित्रकाद्यंतैलम् | व्रणे महाकषायं तैलम् |
| गण्डमालायामजमोदाद्यंतैलम् | वल्मीके मनःशिलाद्यंतैलम् |
| वातव्याधावश्वगन्धाद्यंतैलम् | गण्डमालायां फणिज्जकाद्यंतैलम् |
| वातरोगे द्वितीयमश्वगन्धाद्यंतैलम् | गण्डमालायां काकादनीतैलम् |
| कुङ्कुमाद्यं मुखकान्तिदंतैलम् | रक्तपित्ते मूर्वाद्यं तैलम् |
| वातरक्तेयष्टीमधुकाद्यंतैलम् | कुष्ठे विषादनंतैलम् |
| कर्णरोगे लघुक्षारतैलम् | कुष्ठेजीवन्त्याद्यंतैलम् |
| कर्णरोगेबृहत्क्षारतैलम् | पामायां जीरकाद्यं तैलम् |
| नेत्ररोगे भृङ्गसजतैलम् | कृमिरोगे विडङ्गाद्यं तैलम् |
| केशवृद्धौ द्वितीयंतैलम् | वातरोगे गुडूचीतैलम् |
| केशवृद्धौ तृतीयं भृङ्गराज तैलं | वातरोगे द्वितीयंगुडूचीतैलम् |
| केशवृद्धौबृहद्भृङ्गराजाद्यं तैलम् | वातरोगेसहचरंतैलम् |
| केशरोगे असनाद्यंतैलम् | वातरोगेनीलसहचरतैलम् |
| शिरोरोगे षड्बिन्दुतैलम् | वातरोगेदशमूलाद्यं तैलम् |
| भग्ने गन्धतैलम् |
| विषयः | विषयः |
| **चूर्णाधिकारस्तृतीयः | ** |
| गुल्मे हिङ्ग्वाद्यं चूर्णम् | गलरोगे कालकंचूर्णम् |
| शूले द्वितीयंहिङ्ग्वाद्यं चूर्णम् | मुखरोगे द्वितीयं पीतकंचूर्णम् |
| गुल्मे शार्दूलंचूर्णम् | कासे जीवन्त्याद्यंचूर्णम् |
| गुल्मे नाराचकं चूर्णम् | अतिसारे भूनिम्बाद्यंचूर्णम् |
| गुल्मेपूतिकाद्यंचूर्णम् | ग्रहण्यां पाठाद्यंचूर्णम् |
| गुल्मेहिङ्ग्वाद्यं चूर्णम् | ग्रहण्यांनागराद्यंचूर्णम् |
| श्वासे विजयंचूर्णम् | राजयक्ष्मणि सितोपलाद्यंचूर्णम् |
| वातरोगे अजमोदाद्यं चूर्णम् | योनिदोषे पुष्यानुगंचूर्णम् |
| वातरोगेआभाद्यंचूर्णम् | पाण्डुरोगे योगराजंचूर्णम् |
| अतिसारे कपित्थाष्टकंचूर्णम् | कुष्ठे त्रिफलाद्यंचूर्णम् |
| ग्रहण्यां द्वितीयंकपित्थाष्टकंचूर्णम् | मन्दाग्नौ व्योषाद्यंचूर्णम् |
| ग्रहण्यां दाडिमाष्टकम्चूर्णम् | पाण्डुरोगे खण्डसमकंचूर्णम् |
| अतिसारे द्वितीयंचूर्णम् | शोफे पाठाद्यंचूर्णम् |
| गलरोगे एलाद्यं चूर्णम् | कुष्ठेबाकुचिकाद्यंचूर्णम् |
| अरोचके वृद्धैलाद्यंचूर्णम् | कुष्ठेपृथुनिम्बपञ्चकंचूर्णम् |
| अरोचकेकर्पूराद्यंचूर्णम् | कुष्ठेबृहत्पञ्चनिम्बकंचूर्णम् |
| अरोचकेत्वगेलाद्यंचूर्णम् | मन्दाग्नौलवणभास्करंचूर्णम् |
| गुल्मे त्रिलवणाद्यंचूर्णम् | शूले सामुद्राद्यं चूर्णम् |
| अरोचकेसूक्ष्मैलाद्यंचूर्णम् | शूले तुम्बर्वाद्यं चूर्णम् |
| अरोचकेलवङ्गाद्यंचूर्णम् | शूलेहिङ्ग्वष्टकंचूर्णम् |
| अरोचकेद्वितीयंसूक्ष्मैलाद्यंचूर्णम् | अरोचके द्वितीयंचूर्णम् |
| अरोचकेतृतीयं सूक्ष्मैलाद्यंचूर्णम् | मन्दाग्नौ रामठाद्यंचूर्णम् |
| रक्तपित्ते चन्दनाद्यंचूर्णम् | सर्वाङ्गशूले चित्रकाद्यंचूर्णम् |
| प्रतिश्याये व्योषादि चूर्णम् | मन्दाग्नौ सैन्धवाद्यंचूर्णम् |
| शोषे षाडवंचूर्णम् | वातव्याधौ सामुद्राद्यंचूर्णम् |
| शोषेमहाषाडवंचूर्णम् | रसायनार्थं नारसिंहंचूर्णम् |
| अरोचके दाडिमाद्यंचूर्णम् | अतिसारे गङ्गाधरंचूर्णम् |
| कासे लघुतालीसाद्यंचूर्णम् | गुल्मे कटुत्रिकाद्यंचूर्णम् |
| गुल्मे शार्दूलंचूर्णम् | स्थौल्ये व्योषाद्यंचूर्णम् |
| उदरे नारायणंचूर्णम् | वातकासे विडङ्गाद्यंचूर्णम् |
| उदरेहपुषाद्यंचूर्णम् | गुल्मे वचाद्यं चूर्णम् |
| उदरेनराचकंचूर्णम् | पाण्डुरोगे किराततिक्ताद्यंचूर्णम् |
| उदरेसुवर्णसमकंचूर्णम् | कुष्ठादौ खण्डसमंचूर्णम् |
| कुष्ठे पटोलाद्यंचूर्णम् | कुष्ठे बाकुच्याद्यंचूर्णम् |
| कुष्ठेद्राक्षाद्यंचूर्णम् | उदरे भस्मार्कचूर्णम् |
| आमवाते अलम्बुषाद्यंचूर्णम् | अर्शसि पूतीकरञ्जाद्यंचूर्णम् |
| आमवातेद्वितीयमलम्बुषाद्यंचूर्णम् | गुल्मे यवक्षाराद्यंचूर्णम् |
| श्वासकासे विडङ्गाद्यंचूर्णम् | ज्वरातिसारे व्योषांद्यंचूर्णम् |
| मन्दाग्नौवडवानलंचूर्णम् | शोफे कृष्णाद्यंचूर्णम् |
| मन्दाग्नौद्वितीयंवडवानलंचूर्णम् | श्वासहृद्रोगयोर्हिङ्गुपञ्चकम्चूर्णम् |
| ग्रहण्यामग्निमुखंचूर्णम् | शोषे तिलाद्यंचूर्णम् |
| गुल्मे द्वितीयमग्निमुखंचूर्णम् | वर्घ्मरोगे बिल्वमूलाद्यंचूर्णम् |
| गुल्मेबृहदग्निमुखंचूर्णम् | सर्वमेहेष्विन्द्रयवाद्यंचूर्णम् |
| अग्निमान्द्ये वैश्वानरं चूर्णम् | शूलेशर्कराद्यंचूर्णम् |
| गुल्मे द्वितीयंवैश्वानरं चूर्णम् | आनाहेद्विरुत्तरंहिङ्ग्वाद्यंचूर्णम् |
| गुल्मेतृतीयंवैश्वानरं चूर्णम् | पानीयच्छायायांमुस्ताद्यंचूर्णम् |
| अग्निदीप्त्यर्थं ज्वालामुखंचूर्णम् | मन्दाग्नौ शतपुष्पाद्यंचूर्णम् |
| उदावर्ते नाराचकंचूर्णम् | गुल्मे नारायणंचूर्णम् |
| मेधावृद्ध्यर्थं सारस्वतंचूर्णम् | गुल्मेत्र्यूषणाद्यंचूर्णम् |
| मेधावृद्ध्यर्थं बृहत्सारस्वतंचूर्णम् | मन्दाग्नौ सैन्धवाद्यंचूर्णम् |
| अर्शोरोगे यवानिकाद्यंचूर्णम् | आमातीसारे पिप्पल्याद्यंचूर्णम् |
| कासश्वासे बिभीतकाद्यंचूर्णम् | पीनसे चव्याद्यंचूर्णम् |
| हिक्काश्वासे रेणुकाद्यंचूर्णम् | कासेऽजमोदादिभस्मचूर्णम् |
| हिक्काश्वासेसुरसाद्यंचूर्णम् | दाहरोगे द्राक्षादिचूर्णम् |
| तमकश्वासे शठ्याद्यंचूर्णम् | पाण्डुरोगे नवायसं चूर्णम् |
| दन्तरोगे तिक्तकंचूर्णम् | राजयक्ष्मणि द्वितीयं बृहन्नवायसंचूर्णम् |
| दन्तरोगेपीतकंचूर्णम् |
| विषयः | विषयः |
| **गुटिकाधिकारश्चतुर्थः | ** |
| अग्निमान्द्येऽभयाद्यागुटिका | भ्रमे कृष्णाञ्चागुटिका |
| अर्शसि काङ्कायनवटकः | ज्वरातिसारे कट्वङ्गाद्या वटकाः |
| गुल्मे काङ्कायनगुटिका | प्लीहोदरे रोहितकवटकाः |
| गुल्मेनिकुम्भाद्या गुटिका | गुडपाकविधिः |
| विड्बन्धेऽभयावटकाः | धातुक्षये महाकल्याणकोगुडः |
| पाण्डुरोगे वज्रकगुटिका | ग्रहण्यां कल्याणकोगुडः |
| शूले शम्बूकाद्या गुटिका | ग्रहण्यांयवान्याद्या गुटिका |
| अग्निमान्द्ये कल्याणवटकाः | प्रमेहे चन्द्रप्रभा गुटिका |
| क्षतक्षीणे एलाद्या गुटिका | पित्ते कल्याणकागुटिका |
| क्षतक्षीणेसर्पिर्गुटिका | अर्शसि प्राणदागुटिका |
| पाण्डुरोगे मण्डूरवटकाः | अग्निमान्द्ये वार्ताकगुटिका |
| पाण्डुरोगेद्वितीयोमण्डूरवटकाः | पाण्डुरोगेऽभयाद्यो मोदकः |
| शोषे क्षारगुटिका | गुल्मेऽभयाद्या वटकाः |
| कुष्ठे विडङ्गसाराद्या गुटिका | विषूचिकायां जीरकाद्यागुटिका |
| कुष्ठे विडङ्गसाराद्यागुटिका | बृहच्छिवगुटिका |
| कुष्ठेमणिभद्रवटकः | पाण्डुरोगे लघुशिवगुटिका |
| अर्शसिसूरणवटकाः | कुष्ठे वज्रकगुटिकाः |
| अर्शसिलघुसूरणवटिकाः | विषे सर्षपाद्या गुटिका |
| अर्शसिमरीचाद्या गुटिकाः | भूतदोषे सिद्धार्थकाद्या |
| अर्शसि कलिङ्गाद्या गुटिकाः | शोषेऽश्वत्थवटकाः |
| गुल्मे गुडवटकाः | पाण्डुरोगे पुनर्नवामण्डूरः |
| अतिसारेऽभयाद्या वटकाः | वातव्याधौ रसोनपिण्डः |
| सर्वातिसारेऽङ्कोकोलवटिका | वातव्याधौबृहल्लशुनपिण्डः |
| सर्वातिसारे बृहदङ्कोलवटिका | वातव्याधौ व्योषाद्या गुटिका |
| अतिसारे कट्वङ्गाद्या गुटिका | कुष्ठे स्वायम्भुवो गुग्गुलुः |
| ग्रहण्यां चित्रकाद्यागुटिका | कुष्ठेसप्तविंशतिकागुग्गुलुवटिका |
| ग्रहण्यां क्षारगुटिका | रास्नाद्यो गुग्गुलुः |
| ग्रहण्यांतालीसाद्या गुटिका | आमवाते द्वात्रिंशकागुग्गुलुवटिका |
| क्षयरोगे लघुतालीसादिवटिका | वातव्याधौ बिल्वाद्योगुग्गुलुः |
| लवङ्गाद्या गुटिका | अर्शसि योगराजो गुग्गुलुः |
| कुष्ठे तुवरास्थिवटकाः | नाडीव्रणे त्रिफलाद्योगुग्गुलुः |
| कुष्ठेखदिरादिवटिका | प्रमेहे गोक्षुरगुग्गुलुवटिका |
| कुष्ठे विषगुटिकाः | वातगुल्मवातरक्तयोःकैशोरको गुग्गुलुः |
| कुष्ठेलाङ्गलीगुटिकाः | वातरोगे त्रिफलाद्योगुग्गुलुः |
| कण्ड्वां त्रिजातगुटिकाः | गृध्रस्यां कंसाख्यो गुग्गुलुः |
| मुखरोगे खदिरगुटिका | गण्डमालायां त्रिफलाद्यागुग्गुलुवटिका |
| मुखरोगे द्वितीयाखदिरगुटिका | वातरक्ते बृहत्स्वायम्भुवगुग्गुलुः |
| मुखरोगे तृतीयाखदिरगुटिका | कासे सप्तचत्वारिंशतिकागुग्गुलुगुटिका |
| गलरोगे मरीचाद्या गुटिका | वातरक्ते कन्थडिकागुग्गुलुगुटिका |
| गलरोगेपिप्पलाद्यादि क्षारगुटिका | गण्डमालायामष्टचत्वारिंशत्संज्ञा गुग्गुलगुटिका |
| कफरोगे वत्सनाभाद्यागुटिका | भगन्दरे अमृताद्या गुटिका |
| श्वासे भार्ङ्ग्याद्यागुटिका | शोफे गुडार्द्रकगुटिकाः |
| ज्वरे त्रिवृताद्यो मोदकः | गुल्मे आरोग्यलवणम् |
| तृषायां कम्पिल्लाद्योमोदकः | गण्डमालायां काञ्चनारगुग्गुलुः |
| पार्श्वशूले त्रिफलाद्योमोदकः | गण्डमालायांकाश्चनगुटिकाः |
| ज्वरेसप्तलाद्योगुटिका |
| विषयः | विषयः |
| **लेहाधिकारः पञ्चमः | ** |
| अर्शसि पथ्यावलेहः | कामलायां विडङ्गाद्यवलेहः |
| अर्शसिचित्रकावलेहः | श्वासे हरीतक्यवलेहः |
| अर्शसिद्वितीयःचित्रकावलेहः | अर्शसि कुटजावलेहः |
| रक्तपित्तेकूष्माण्डावलेहः | अर्शसिद्वितीयःकुटजावलेहः |
| रक्तपित्ते खण्डकूष्माण्डावलेहः | अर्शसि कुटजाष्टकोऽवलेहः |
| अर्शसि खण्डंसूरणावलेहः | ग्रहण्यां मधुपाकविधिः |
| क्षये गुडकूष्माण्डकावलेहः | कासे कष्टकार्यवलेहः |
| शोषे एलाद्यवलेहः | शोषे निदिग्धिकाद्योऽवलेहः |
| अर्शसि भल्लातकावलेहः | उदावर्ते पटोलमूलावलेहः |
| ग्रहण्यां कल्याणकोगुडावलेहः | मुखरोगे दार्व्यवलेहः |
| कार्श्ये पञ्चजीरकावलेहः | आमवाते नागराद्योऽवलेहः |
| योनिरोगेपञ्चजीरकावलेहः | कासे कसेर्वाद्योऽवलेहः |
| अर्शसि बाहुशालोगुडावलेहः | अर्शसि भल्लातकावलेहः |
| श्वासकासे बिभीतकावलेहः | पीनसे चित्रकावलेहः |
| कासेऽगस्त्यहरीतक्यवलेहः | रक्तपित्ते खण्डखाद्योऽवलेहः |
| कासे द्वितीयो | रक्तपित्तेद्वितीयो वासावलेहः |
| वासिष्ठहरीतक्यवलेहः | श्वासकासयोर्भार्ङ्गीगुडावलेहः |
| वासाहरीतक्यवलेहः | श्वासकासयोर्भार्ङ्गीकुलत्थगुडावलेहः |
| गुल्मे दन्तीहरीतक्यवलेहः | श्वासकासयोर्भार्ङ्गी पिप्पलीगुडावलेहः |
| कासे व्याघ्रीहरीतक्यवलेहः | अतीसारे कुटजावलेहः |
| सर्वकासे द्वितीयोव्याघ्रीहरीतक्यवलेहः | अतीसारेद्वितीयःकुटजावलेहः |
| प्लीहोदरे रोहीतकावलेहः | अर्शस्तुकुटजावलेहः |
| शोफे पुनर्नवाहरीतक्यवलेहः | जरायां च्यवनप्राशावलेहः |
| शोफेकंसहरीतक्यवलेहः | जरायांब्राह्मरसायनावलेहः |
| शोफेहरीतक्यवलेहः | क्षतक्षीणेऽमृतप्राशावलेहः |
| अर्शःपीनसयोश्चित्रकहरीतक्यवलेहः | लघुच्यवनप्राशोऽवलेहः |
| मन्दाग्नौ द्वितीयश्चित्रकहरीतक्यवलेहः | शोषेऽमृतप्राशोऽवलेहः |
| हलीमके आमलकावलेहः |
| विषयः | विषयः |
| आसवाधिकारः षष्ठः | |
| उदरेकुमार्यासवः | शोफे पुनर्नवासवः |
| गुल्मे द्वितीयः | शोफेत्रिफलारिष्टः |
| नवविधा आसवयोनिः | सर्वशोफे वासकासवः |
| षड्धान्यासवाः | अर्शस्सु शर्करासवः |
| षड्विंशतिः फलासवाः | ग्रहण्यां द्राक्षासवः |
| एकादश मूलासवाः | अर्शसि द्वितीयोद्राक्षासवः |
| विंशतिः सारासवाः | ग्रहण्यांबीजकासवः |
| दश पुष्पासवाः | अर्शसि पील्वासवः |
| चत्वारः काण्डासवाः | रक्तपित्ते उशीरासवः |
| द्वौ पत्रासवौ | श्वासकासयोस्त्रायमाणासवः |
| चत्वारस्त्वगासवाः | गुल्मे चविकासवः |
| शर्करासवः | ग्रहण्यां मूलासवः |
| आसवानां विकल्पसंस्कारगुणाः | क्षयरोगे बृहन्मूलासवः |
| वातव्याधौ विडङ्गासवः | धातुक्षये भृङ्गराजासवः |
| प्रमेहे रोध्रासवः | भगन्दरे गुग्गुल्वासवः |
| प्रमेहे देवदार्वासवः | अर्शस्सु ताम्बूलासवः |
| कुष्ठे कनकारिष्टः | अपस्मारे पञ्चमूत्रासवः |
| अर्शसि द्वितीयःकनकारिष्टः | धातुक्षये हरीतक्यासवः |
| ग्रहण्यां दुरालभारिष्टः | दद्रौ आवर्तक्याद्यासवः |
| अर्शसिदन्त्यारिष्टः | क्षये दशमूलासवः |
| अर्शसिअभयारिष्टः | राजयक्ष्मणिखर्जूरासवः |
| ग्रहण्यां द्वितीयोअभयारिष्टः | ग्रहण्यां मस्त्वासवः |
| प्रमेहे तृतीयोअभयारिष्टः | ज्वरे कुब्जकासवः |
| पाण्डुरोगे मण्डूरारिष्टः | धातुक्षये नालिकेरासवः |
| क्षयरोगे पिप्पल्यरिष्टः | धातुक्षयेकूष्माण्डासवः |
| शोफेऽष्ठशतारिष्ठः | धातुक्षयेरसायनारिष्टः |
| अर्शसि तक्रारिष्टः | ज्वरे धान्यकाद्यरिष्टः |
| अरोचके लघुचुक्रसन्धानम् | धातुक्षये लवङ्गासवः |
| मन्दाग्नौ बृहच्चुक्रसन्धानम् | विद्रधौ वरुणासवः |
| मन्दाग्नौलवङ्गासवः | प्लीहरोगे रोहीतकासवः |
| प्लीहेरोहीतकासवः | शोषादौ गण्डीरासवः |
| अर्शस्तुगण्डिकाद्रोणः | प्लीहरोगे रोहीतकासवः |
| कुष्ठे खदिरासवः | क्षये योगराजासवः |
| कुष्ठे द्वितीयः खदिरारिष्टः | अर्शोरोगे पील्वासवः |
| क्षयरोगे बब्बुल्यासवः | प्रमेहे मध्वासवः |
| क्षयरोगेपुष्करमूलासवः | पाण्डुरोगे लोहासवः |
| क्षयरोगेमाचिकासवः |
[TABLE]
| विषयः | विषयः |
| **परिशिष्टे तैलाधिकारो द्वितीयः | ** |
| बृहत्सहचर तैलम् | पलिते नील्याद्यंतैलम् |
| तरक्ष्याद्यंतैलम् | ऊरुस्तम्भे द्विपञ्चमूल्याद्यं तैलम् |
| व्याघ्रतैलम् | अर्शसि कासीसाद्यंतैलम् |
| वातारितैलम् | कृमिरोगे महावीर्यं तैलम् |
| दारुणके सारिवाद्यंतैलम् | अन्त्रवृद्धौ गन्धर्वतैलम् |
| वातरोगे दशाङ्गतैलम् | कर्णरोगेलाङ्गल्याद्य तैलम् |
| वातरोगेकर्पूराद्यंतैलम् | शिरोरोगे महानीलंतैलम् |
| ज्वरे लाक्षादिकंतैलम् | कुष्ठे गुञ्जाद्यंतैलम् |
| कुष्ठे अन्वासनं तैलम् | मञ्जिष्ठाद्यंतैलम् |
| कुष्ठेमहानीलंतैलम् | कुष्ठे सिद्धार्थकतैलम् |
| विषयः | विषयः |
| **परिशिष्टे तैलाधिकारस्तृतीयः | ** |
| मन्दाग्नौ शुण्ठ्याद्यं चूर्णम् | मन्दाग्नौसिंहणचूर्णम् |
| ह्रुद्रोगे तिक्तकंचूर्णम् | अर्शसि सूरणाद्यंचूर्णम् |
| कुष्ठे लाक्षाद्यंचूर्णम् | वातरोगे हरीतकीयोगः |
| ग्रहण्यां पञ्चामृतरसःचूर्णम् | विद्रधौ भूनिम्बाद्यं चूर्णम् |
| मन्दाग्नौ पञ्चसमंचूर्णम् | ज्वरे किराततिक्ताद्यंचूर्णम् |
| छर्द्यां बदराद्यंचूर्णम् | कासे दुरालभाद्यंचूर्णम् |
| उदरे नवक्षारकंचूर्णम् | ग्रहण्यांपिप्पलीमूलाद्यंचूर्णम् |
| मन्दाग्नावजमोदाद्यंचूर्णम् | ग्रहण्यां कुठेरकाद्यं |
| दन्तरोगे जातीपत्राद्यंचूर्णम् | शोफे अयोरजश्चूर्णम् |
| कासे जातीफलाद्यंचूर्णम् | पाण्डुरोगे नवायसं चूर्णम् |
| ग्रहण्यां दाडिमाद्यंचूर्णम् | प्रवाहिकायां कुटजाद्यंचूर्णम् |
| मन्दाग्नावामलक्यादिचूर्णम् | गुल्मे समशर्करंचूर्णम् |
| स्त्रीरोगे मेथिकाद्यंचूर्णम् | शोषे तिलाद्यंचूर्णम् |
| कामवृद्धौ राजयोगः | मन्दाग्नौ आमलकादिचूर्णम् |
| क्षये आभाद्यंचूर्णम् | मन्दाग्नौसौवर्चलाद्यंचूर्णम् |
| पिप्पल्याद्यंचूर्णम् | मन्दाग्नौअग्निचूर्णम् |
| मन्दाग्नौरुचकाद्यंचूर्णम् | मन्दाग्नौसिंहणचूर्णम् |
| विषयः | विषयः |
| **परिशिष्टे गुटिकाधिकारश्चतुर्थः | ** |
| क्षतक्षीणे सर्पिर्गुटिका | पाण्डुरोगे क्षारवटकाः |
| क्षतक्षीणेक्षीरादिलेहगुटिका | कुष्ठे पथ्या वटकाः |
| सर्वरोगे प्रभावतीवटिका | ज्वरे फलत्रिकाद्योमोदकः |
| वातरोगे अग्निमुखवटी | रसायने त्रिफलाद्यावटकाः |
| श्वासादौ सूर्यचन्द्रप्रभागुटिका | अरुचौ लाजाद्यो मोदकः |
| अतिसारे विशल्यागुटिका | राजयक्ष्मणि त्रिफलाद्या गुटिका |
| वातरोगेत्रोटहरीगुटिका | अर्शसि चित्रकगुटिका |
| कासे चन्द्रप्रियागुटिका | प्रमेहे वामदेवेन कथितागुटिका |
| मुखरोगे खादिरगुटी | जरायां गुग्गुलुगुटिका |
| मुखरोगेद्वितीयाखादिरगुटी | शोफे लघुत्रिफलागुग्गुलुगुटिका |
| वातरोगे त्वगेलाद्या गुटिका | वातव्याधौ पृथुत्रिफलाद्यागुग्गुलगुटिका |
| रसायनार्थे विजया गुटिका | गुग्गुलुगुटिका |
| वातरोगे योगोत्तमागुटिका | गुल्मे त्रिवृताद्या गुटिका |
| प्रमेहे कर्पूरादिगुटिका | भ्रमरोगे कृष्णाद्यागुटिका |
| गुल्मे गुडवटकाः |
[TABLE]
गदनिग्रहपाठसंशोधनम्
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| अपपाठः | सुपाठः |
| वन्ध्या च | वन्ध्यात्वं |
| हिङ्गुतश्चाक्षमात्रेण त– | हिङ्गुश्चैषामक्षमात्रैस्त |
| पाण्डुरोगतां | पाण्डुरोगकं |
| सुकृतादतः | त्रिवृतस्तथा |
| दत्वा | दत्त्वा |
| नक्तमालं च | नक्तमालश्च |
| कटुरोहिणीम् | कटुरोहिणी |
| हपुषा | हपुषां |
| अजमोदा | अजमोदां |
| कृष्णामजाजीपूतिकं | कृष्णामजाजीं पूतीकं |
| शुद्धात् | शुद्धः2 |
| आगन्तुसहजाश्चैव शिरःश्लिष्टाश्च ये व्रणाः | आगन्तुसहजांश्चैव शिरःश्लिष्टांस्तथा व्रणान् |
| निदिष्टं | निर्दिष्टं |
| –गोक्षुरकं तथा | –गोक्षुरकस्तथा |
| पृष्ठसर्पिणा– | पीठसर्पिणा– |
| शूलहृत् | शूलहा |
| यष्टाह्वं | यष्ट्याह्वं |
| चतुर्थभागो | तुर्यभागो |
| –बदराढके | –बदराढकम् |
| द्रव्यानिमांश्चैव | दद्यादिमांश्चैव |
| एभिर्द्रव्यैर्घृतप्रस्थं | एतत्सिद्धं घृतप्रस्थं |
| सभार्गीं | सभार्गीं |
| शिलाह्वयं | सुराह्वयं3 |
| देवदार्वृद्धिः | देवदार्वृद्धी |
| जातीक्षीरक– | जातीक्षारक– |
| मारुतास्रक्प्रभेदि | मारुतासृक्प्रभेदि |
| अपपाठः | सुपाठः |
| पिप्पली शर्करा द्राक्षा त्रिफला नीलमुत्पलम् | पिप्पलीशर्कराद्राक्षात्रिफलानीलकोत्पलैः |
| मधुकं क्षीरकाकोली मधुपर्णी निदिग्धिका | मधुकक्षीरकाकोलीमधुपर्णीनिदिग्धिकैः |
| चित्रकं तथा | चित्रकस्तथा |
| अशीतिर्वातजान् | अशीतिं वातजान् |
| विंशतिः | विंशतिं |
| दाडीमयावशूकं | दाडिमयावशूकं |
| विषया | त्रिवृता |
| चाक्षकसंमितम् | चाक्षसंमितम् |
| शिंशपाखदिरं तथा | शिंशपाखदिराक्षकान् |
| जीवकं च तथाऽक्षकम् | बीजकश्चूर्णमायसम् |
| विदारी | विदारीं |
| वचा | वचाम् |
| काकोलीमेदे | काकोलिमेदे |
| कृषातिवृद्धाः | कृशातिवृद्धाः |
| यौवनपुष्टिवन्तो | यौवनपुष्टिमन्तो |
| पेष्य विपाचयेत् | निष्पेष्य पाचयेत् |
| सनागरकेशरैः | सनागकेशरैः |
| –स्तदैकतः | –स्तदेकतः |
| मृन्मयेऽपि | मृण्मयेऽपि |
| अशीतिर्वातरोगाणां | अशीतिं वातरोगाणां |
| पलाशतं | पलशतं |
| अशीतिर्वातजान् | अशीतिं वातजान् |
| विंशतिः | विंशतिं |
| मेधाग्निजनता शुभा | मेधाग्निजनताः शुभाः |
| तथा जनकपूजिता | ?) |
| अशीतिर्नरनारीणां | अशीतिं नरनारीणां |
| कुष्ठमेल्यांचांशुमती | कुष्ठमेला चांशुमती |
| –च्छक्ष्णकुष्टित | –च्छ्लक्ष्णकुट्टितम् |
| कमलोत्पलैः | –कमलोत्पलम् |
| अपपाठः | सुपाठः |
| मिश्रितं तु | मिश्रितं |
| केशवर्धनं | केशवर्धनकरं |
| दन्तानाबद्धमूलांश्च | दन्तानाबद्धमूलांश्च |
| शिरीषाद्द्वितुले | शिरीषाद्द्वे तुले |
| स्याद्वृद्धः | तु वृद्धः |
| समधुच्छिष्टो | समधूच्छिष्टो |
| –गुल्मोदरादीनयं | –गुल्मोदरादीनिदं |
| –नवस्य | नवानां |
| आमातीसारशमनं | आमातीसारशमनः |
| –शूलनुत् | –शूलहा |
| सुगन्धी हृद्यः क्षयरोहन्ता | सुगन्धिहृद्यः क्षयरोगहन्ता |
| कामदयग्निवृद्धिं | कामदमग्निविवृद्धिं |
| यथाक्रमकृतान् भागां– | यथाक्रमकृता भागा– |
| कवलः प्रतिसारिणम् | केवलं प्रतिसारणात् |
| वातश्लेष्मामयाहम् | वातश्लेष्मामयापहम् |
| हिङ्गु | हिङ्गुं |
| अशीतिर्वातजान् | अशीतिं वातजान् |
| विंशतिः | विंशतिं |
| संजनयेद्धिमा– | संजनयेद्धीमा– |
| शक्तुमिः | शक्तुभिः |
| दशेन्दुराज्या | दशेन्दुराज्याः |
| खादेद्यथाग्निः | खादेद्यथाग्नि |
| द्विजीरकं | द्वे जीरके |
| पलमानि | पलमानानि |
| क्षयविबन्धं | क्षयं विबन्धं |
| पथ्याभिसहितं | पथ्याभिः सहितं |
| स्थौल्याम्लवात– | स्थौल्यामवात– |
| तत्रैव भक्षयेत्कल्के | तत्रैकं भक्षयेत्कल्यं |
| पार्श्वशूलसमरोचकम् | पार्श्वशूलमरोचकम् |
| कृमिप्लीहानमुदरं | कृमीन् प्लीहानमुदरं |
| सहिङ्गकर्षत्वणु– | सहिङ्गुकर्षं त्वणु– |
| अपपाठः | सुपाठः |
| –पाण्डाययारोचक | –पाण्ड्वामयारोचक |
| पूत्वा | पूतं |
| स्वर्जिकसंज्ञिकं | खर्जिकसंज्ञकं |
| –युक्ताः खदिरगुटिकाश्च रोगघ्न्यः | –युक्ता खादिरगुटिकाऽऽस्यरोगघ्नी |
| मुखेन धारिता | मुखे सुधारिता |
| वत्सनाभवल्लयुगं वल्लषट्कंत्रिकटुकचूर्णस्य | वत्सनाभं वल्लयुगं षड् वल्लानित्रिकटुचूर्णस्य |
| पिप्पलीमूलस्य | कृष्णामूलस्य |
| –र्दशमुली | –र्दशमूली |
| –जब्वाम्रकपित्थं | –जम्ब्वाम्रकपित्थं |
| क्षिप्तोऽप्सु | क्षिप्तस्तु |
| विंशतिः | विंशतिम् |
| व्याधिसमूह– | व्याधिगणं च |
| हन्यादशासि | हन्यादर्शांसि |
| चेति | चैव |
| वलीपलितरोगरहितो | वलिपलितरोगरहितो |
| रसायनवरिष्ठम् | रसायनश्रेष्ठम् |
| मधुत्रिफल– | मधुत्रिपल– |
| भुक्तैस्तथाऽभुक्तवति | भुक्ते तथाऽभुक्तवति |
| उच्चटा | सूच्चटा |
| भक्षयित्वा तु | भक्षयित्वा |
| नाडीव्रणाक्लेद– | नाडीव्रणक्लेद |
| पलमेकं | पलमेकं तु |
| उपयोस्त्रियो | उपयोगात्स्त्रियो |
| –चिरिबिल्वमूलं | –चिरबिल्बमूलं |
| त्रिकटुं तथा | च कटुत्रयम् |
| मासद्वयोपयोगादेद्विनाशय– | मासद्वयोपयोगाद्विनाशय– |
| एतान्येक्पलीकानि | एतेषां पलिकान् भागान् |
| तद्यथाग्निबलं | तं यथाग्निबलं |
| –दौबल्यानाहनाशनः | –दौर्बल्यानाहनाशनम् |
| अपपाठः | सुपाठः |
| यथाविधिः | यथाविधि |
| तन्मात्रया | तं मात्रया |
| पलविंशतिः | पलविंशतिम् |
| –त्पेयं तत्र | –त्पेयस्तस्य |
| विंशतिः | विंशतिम् |
| आमहृत्कफहृद्रोग– | आमहा कफहृद्रोग– |
| द्रवो पेयः | द्रवः पेयः |
| ^(१)नत्रभेषज– | ^(१)नेत्रभेषज– |
| पलमितमिति | पलमिह हि |
| सूर्यातपे स्थाप्य ततस्तु | संस्थाप्य सूर्यातप एष |
| प्रस्थमुत्तमम् | प्रस्थमुत्तमा |
| अशीतिवातजाम् | अशीतिं वातजान् |
| गजानां शिशूनामपि | शिशूनां दन्तिनामपि |
| –मञ्जिष्ठारवग्व– | –मञ्जिष्ठारग्वध– |
| –गरादिशमनं | –गरादिदोषशमनं |
| वचा | |
| दतांश्च | दन्तांश्च |
| सिंहचूर्णम् | |
| पित्तरक्तातिसारं | पित्तरक्तातीसारं |
| चतुः पलमिदं | चतुः पलमितं |
| भागश्चार्धस्तापितरोद्भवस्य | भागश्चार्धस्तापितीरोद्भवस्य |
| परिफ्लुताम् | परिप्लुताम् |
| शोषे द्वितीयो | शोषे द्वितीयः |
१.पञ्चमपृष्ठे एकादेशपङ्क्त्यनन्तरं ‘चाङ्गेरीस्वरसं तुल्यं दधि सर्पिश्चतुर्गुणम्’इत्यधिकं पठनीयम्।
२.अष्टाविंशत्यधिकद्विशततमे पृष्ठे एकोनविंशतिपङ्क्त्यनन्तरं ‘सर्वरोगान्निहन्त्याशु अनुपानविशेषतः’इत्यधिकं पठनीयम्।
३.भूमिकायां चतुर्दशपञ्चदशपङ्कयोः ‘नित्योपयोगिनश्च प्रयोगरत्ना उक्ताः’इत्यत्र ‘नित्योपयोगीनि प्रयोगरत्नान्युक्तानि’इति पठनीयम्।
समाप्तमिदं गदनिग्रहप्रयोगखण्ड शुद्धिपत्रम्।
———————————————
गदनिग्रहकारेण प्रयोगखण्डे उपात्तानां ग्रन्थानां
ग्रन्थकर्तृणां च नामानि।
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[TABLE]
आयुर्वेदीयग्रन्थमाला।
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श्रीशोढलविरचितो
गदनिग्रहः।
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मङ्गलाचरणम्।
करकिशलयसङ्गीयस्य पीयूषकुम्भः
परममरवधूनां भूयसे मङ्गलाय।
स खलु निखिलदुग्धाम्भोधिरत्नेषु रत्नं
हरतु दुरितराशीनाशु धन्वन्तरिर्वः॥१॥
त्रिभुवनजनरोगग्रामसंग्रामजेताऽ-
मृतभृतधृतकुम्भोद्गूर्णहस्तायुधश्रीः।
अमरमथितदुग्धाम्भोधिलब्धोदयोऽसौ
दलयतु दुरितौघानाद्यवैद्याधिपो वः॥२॥
नानामुनिकृतैः श्लोकैः शोढलेनाल्पमेधसा।
विबुधप्रतिबोधाय ग्रथ्यते गदनिग्रहः॥३॥
ग्रन्थानुक्रमणिका।
घृतं तैलं च चूर्णानि गुटीलेहौ तथासवाः।
आदावेते ह्यनेकार्था ग्रन्थेऽसिन् गदनिग्रहे॥४॥
ज्वरोऽतिसारो ग्रहणी चार्शोऽजीर्णंविषूचिका।
अलसश्च विलम्बी च कृमिरुक् पाण्डुकामले॥५॥
हलीमकं रक्तपित्तं राजयक्ष्मोरसः क्षतम्।
कासो हिक्का सह श्वासैः स्वरभेदस्त्वरोचकः॥६॥
छर्दिस्तृषा च मूर्छा च रोगाः पानान्मदात्ययः।
दाहो वातविकाराश्च वातरक्तोरुरुक् तथा॥७॥
आमवातस्तथा शूलं शूलं च परिणामजम्।
जरत्पित्तमथानाह उदावर्तोऽथ गुल्मरुक्॥८॥
हृद्रोगो मूत्रकृच्छ्रंच मूत्राघातस्तथाऽश्मरी।
प्रमेहो मधुमेहश्च पिटिकाश्च प्रमेहजाः॥९॥
मेदोदोषोदरं शोफो विद्रधिर्वृद्धिरेव च।
कुष्ठं श्वित्रं शीतपित्तमुदर्दः कोठ एव च॥१०॥
अम्लपित्तं विसर्पश्च विस्फोटोऽथ मसूरिका।
इति कायचिकित्सायां मया रोगाः प्रकीर्तिताः॥११॥
शालाक्ये शिरसो रोगाः कर्णनेत्रामयास्तथा।
नासामुखामयाश्चैव द्वितीयेऽङ्गे चिकित्सिताः॥१२॥
गण्डमालाऽपची गण्डः पिटिकार्बुदग्रन्थयः।
श्लीपदं व्रणशोफश्च सद्योव्रणचिकित्सितम्॥१३॥
भग्ननाडीव्रणौ चैव भगन्दरोपदंशकौ।
शूकदोषः क्षुद्ररोगाः शल्ये चाङ्गे चिकित्सिताः॥१४॥
भूतोन्मादस्तथोन्मादस्तथाऽपस्मार एव च।
भूततन्त्रे चतुर्थेऽङ्गेसनिदानाश्चिकित्सिताः॥१५॥
प्रदरो योनिव्यापच्च गर्भास्रावचिकित्सितम्।
मूढगर्मोऽथ वन्ध्या च योनिशुक्रमदास्तथा॥१६॥
सूतिका स्तन्यदोषाश्च गाढनिर्लोमभेषजम्।
बालरोगचिकित्सा च बालतन्त्रेऽथ पञ्चमे॥१७॥
सर्पलूतविषे चैव वृश्चिकोन्दुरुजं विषम्।
नखदन्तविषं चैव स्थावरं कृत्रिमं विषम्॥१८॥
षष्ठे त्वङ्गे विषाख्ये च प्रोक्तं चैषां चिकित्सितम्।
रसायनं सप्तमं च वाजीकरणमष्टमम्॥१९॥
पञ्चकर्माधिकारे च स्नेहखेदविधिस्तथा।
वमनं च विरेकश्च नस्यकर्मेत्यनुक्रमः॥२०॥
अथातो घृताधिकारः प्रारभ्यते॥
ज्वरे मञ्जिष्ठाद्यं घृतम्।
मञ्जिष्ठाऽतिविषा पथ्या वचा नागररोहिणी॥१॥
देवदारु हरिद्रा च द्रोणेऽपां पलिकान् पचेत्।
क्वाथेऽस्मिन् साधयेत् पिष्टैर्घृतप्रस्थं पिचून्मितैः॥२॥
शृङ्गवेरकणाहिङ्गुद्विक्षारपटुपञ्चकैः।
तत्कफावृतसर्वोत्थज्वरिणाममृतोपमम्॥३॥
वर्ध्मगुल्मानिलश्वासकासपाण्डुविकारिणाम्।
गलग्रन्थिप्रमेहार्शः प्लीहापस्मारशोफिनाम्॥४॥
उदावर्तपरीतानां मन्दाग्निकृमिकुष्ठिनाम्।
द्वितीयं मञ्जिष्ठाद्यं घृतम्।
मञ्जिष्ठा च हरिद्रा च देवदारु हरीतकी॥५॥
शृङ्गवेरं ह्यतिविषा वचा कटुकरोहिणी।
हिङ्गुतश्चाक्षमात्रेण तत्सिद्धमवतारयेत्॥६॥
एतन्माञ्जिष्ठकं सर्पिर्बहून् रोगान्नियच्छति।
हिक्कां श्वासं ज्वरं दुष्टं ग्रहणीं पाण्डुरोगताम्॥७॥
प्रमेहान्मधुमेहांश्च कृमीन् कुष्ठमरोचकम्।
कासं शोषमुदावर्तमपस्मारं तथैव च॥८॥
अर्शांसि श्वयथुं चैव गण्डमालां प्लिहोदरम्।
ज्वरे तिल्वकाद्यं घृतम्।
तिल्वकस्य पलान्यष्टौ त्वचस्तु सुकृतादतः॥९॥
अंशुमत्युरुबूकं च बिल्वाद्यं च पृथक् पलम्।
यवकोलकुलत्थानां प्रस्थं प्रस्थं फलत्रिकात्॥१०॥
तत्साधयेज्जलद्रोणे चाष्टभागावशेषितम्।
घृतप्रस्थं पचेत्तेन दत्वा दध्नस्तथाढकम्॥११॥
कर्षेण यावशूकस्य पक्वं तदवचूर्णयेत्।
एतत्तु तैल्वकं नाम जीर्णज्वरविषापहम्॥१२॥
कृमिकुष्ठहरं चैव शोफपाण्ड्वामयापहम्।
जीर्णज्वरे हारीतात्कटुकं घृतम्।
त्रिफलां पञ्चमूल्यौ द्वे कुलत्थान् बदरान् यवान्॥१३॥
द्विपलिकान् जलद्रोणे त्वष्टभागावशेषितम्।
निःस्राव्य विपचेत्कल्कं दत्वा प्रस्थं च सर्पिषः॥१४॥
पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरम्।
पुष्करातिविषे भार्गींं शठी सप्तच्छदं वचा॥१५॥
रजन्यौ नक्तमालं च पाठे द्वे शिग्रुतुम्बरु।
सोमवल्कोऽर्कमूलानि मदनं कटुरोहिणी॥१६॥
तेजस्विनी सगोजिह्वा चन्दनं कण्टकारिका।
किराततिक्तकं मुस्तं पटोलंसदुरालभम्॥१७॥
वयस्यांपिचुमन्दं च कटुकं हिङ्गुना सह।
एतानक्षसमान् दत्वा क्षारौ ह्यर्धपलोन्मित्तौ॥१८॥
लवणानां च पञ्चानां कर्षंकर्षं प्रदापयेत्।
सिद्धं तन्मात्रया पीतं सर्वजीर्णज्वरापहम्॥१९॥
हृत्प्लीहग्रहणीदोषश्वासकासार्शसां हितम्।
गुल्मघ्नं कटुकं नाम कृष्णात्रेयेण पूजितम्॥२०॥
दीर्घकालप्रयुक्तानां ज्वराणाममृतोपमम्।
अग्निमान्द्ये अग्निघृतम्।
भल्लातकान्पलशतं जलद्रोणे विपाचयेत्॥२१॥
चतुर्मागावशेषं तु कषायमवतारयेत्।
त्र्यूषणं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली॥२२॥
हिङ्गुचव्याजमोदं च पञ्चैव लवणानि च।
द्वौ क्षारौ हपुषां चात्र दद्यादर्धपलोन्मितान्॥२३॥
मस्त्वम्लरसचुक्राणां ग्रस्थं ग्रस्थं प्रदापयेत्।
आर्द्रकस्य रसप्रस्थं घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥२४॥
एतदग्निघृतं नाम मन्दाग्नीनां प्रशस्यते।
अर्शांसि वातरोगं च प्लीहोदरजलोदरम्॥२५॥
ग्रन्थ्यर्बुदापचीशोफकुष्ठमेदोऽनिलांस्तथा।
ये च कुक्षिगता रोगा ये च बस्तिसमाश्रिताः॥२६॥
तान् सर्वान्नाशयत्येतत्सूर्यस्तम इवोदितः।
ग्रहण्यां चाङ्गेरीघृतम्।
पिप्पली नागरं पाठा यवानी विश्वभेषजम्॥२७॥
भागांस्त्रिपलिकान् कृत्वा कषायमुपकल्पयेत्।
भार्गींं च पिप्पलीमूलं व्योषं चव्यं सचित्रकम्॥२८॥
श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका।
एतैः पलार्धकैर्द्रव्यैः कृत्वा कल्कं विपाचयेत्॥२९॥
पलानि सर्पिषस्तस्मिन् चत्वारिंशत्समावपेत्।
मृद्वग्निना ततः साध्यं सिद्धं सर्पिर्निधापयेत्॥३०॥
ग्रहण्यर्शोविकारघ्नं गुल्महृद्रोगनाशनम्।
शोफप्लीहोदरानाहमूत्रकृच्छ्रज्वरापहम्॥३१॥
कासहिक्कारुचिश्वाससूदनं सर्वगुल्मनुत्।
अग्निवेशात् गुदभ्रंशे द्वितीयं चाङ्गेरीघृतम्।
नागरं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली॥३२॥
श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका।
चाङ्गेरीस्वरसे सर्पिः कल्कैरेभिर्विपाचयेत्॥३३॥
चतुर्गुणेन दध्ना तु तद्धृतं कफवातनुत्।
अर्शांसि ग्रहणीरोगं मूत्रकृच्छ्रंप्रवाहिकाम्॥३४॥
गुदभ्रंशार्तिमानाहं घृतमेतद्व्यपोहति।
गुल्मे दाधिकं घृतम्।
बिडदाडिमसिन्धूत्थहुतभुग्व्योषजीरकैः॥३५॥
हिङ्गुसौवर्चलक्षाररुग्वृक्षाम्लाम्लवेतसैः।
बीजपूररसोपेतं सर्पिर्दधि चतुर्गुणम्॥३६॥
साधितं दाधिकं नाम गुल्महृत् प्लीहशूलनुत्।
हपुषाव्योषमृद्वीकाचव्यचित्रकंसैन्धवैः॥३७॥
साजाजीपिप्पलीमूलदीप्यकैर्विपचेद्धृतम्।
सकोलमूलकरसं सदधिक्षीरदाडिमम्॥३८॥
तत् परं वातगुल्मघ्नं शूलानाहविनाशनम्।
योन्यर्शोग्रहणीदोषश्वासकासारुचिज्वरान्॥३९॥
बाहुहृत्पार्श्वशूलं च घृतमेतद्व्यपोहति।
अग्निवेशाद्रक्तपित्ते वासाद्यं घृतम्।
समूलपत्रशाखस्य तुलां कुर्याद्वृषस्य च॥४०॥
जलद्रोणे विपक्तव्यमष्टभागावशेषितम्।
कल्केन वृषपुष्पाणामाढकं सर्पिषः पचेत्॥४१॥
तत्सिद्धंपाययेद्युंक्त्यामधुपादसमायुतम्।
श्वासं कासं प्रतिश्यायं तृतीयकचतुर्थकम्॥४२॥
रक्तपित्तं क्षयं चैव विषं सर्पिर्नियच्छति।
हारीताद्रक्तपित्ते महावासाद्यं घृतम्।
वासकस्वरसे सर्पिः पयसा सह पाचयेत्॥४३॥
कल्कैर्भूनिम्बकुटजमुस्तयष्ट्याह्वचन्दनैः।
उदीच्यमधुकीनन्ता सारिवोत्पलपद्मकैः॥४४॥
त्रायन्त्युत्पलमूर्वाभिर्मदयन्त्याश्च पल्लवैः।
सिताक्षौद्रयुतं हन्याद्रक्तपित्तं सुदारुणम्॥४५॥
पित्तं कासं च गुल्मंच स्वरभेदं हलीमकम्।
ये चान्ये कीर्तिता रोगा रक्तपित्तकफाश्रयाः॥४६॥
तान् सर्वान्नाशयत्येतत्पीयमानं हिताशिनः।
हारीताद्गुल्मे दशाङ्गं घृतम्।
यावशूकं वचा व्योषं विडङ्गं कटुरोहिणीम्॥४७॥
सौवर्चलं हरीतक्यश्चित्रकं चाक्षसंमितैः।
एभिः पचेद्धृतप्रस्थं दत्वा क्षीरजलाढकम्॥४८॥
तत्पक्वं वातगुल्मघ्नं कृमिप्लीहज्वरापहम्।
कासहिक्कारुचिहरं दशाङ्गं नाम दीपनम्॥४९॥
गुल्मे हारीताल्लशुनघृतम्।
लशुनाण्डस्य शुद्धस्य तुलार्धं निस्तुषस्य च।
तदर्धं पञ्चमूलस्य ह्याढकेऽपां विपाचयेत्॥५०॥
पादशेषे घृतप्रस्थं लशुनस्स रसं तथा।
दाडिमाम्लसुरामस्तुकाञ्जिकाम्लैस्तदर्धकैः॥५१॥
साधयेत्त्रिफलादारुलवणव्योषदीप्यकैः।
यवानीचव्यहिङ्ग्वम्लवेतसैश्च पलार्धकैः॥५२॥
सिद्धमेतद्धविः कल्कैर्गुल्मार्शोजठरापहम्।
वर्ध्मपाण्ड्वामयप्लीहयोनिदोषज्वरापहम्॥५३॥
वातश्लेष्मामयांश्चान्यान् घृतमेतद्व्यपोहति।
हारीताद्गुल्मे नाराचकं घृतम्।
चित्रकं त्रिफला दन्ती त्रिवृता कण्टकारिका॥५४॥
स्नुहीक्षीरं विडङ्गानि घृतं दशममुच्यते।
एकैकस्य च कर्षेण घृतस्य कुडवं पचेत्॥५५॥
चतुर्गुणेन तोयेन सम्यगेतत्सुखाग्निना।
तस्य काले पिबेन्मात्रां पलार्धसंमितां नरः॥५६॥
उष्णोदकं चानुपिबेदल्पत्वादस्य सर्पिषः।
विरिक्ते च यवागूः स्यात्सर्पिषा परिवर्जिता॥५७॥
रसेन वा जाङ्गलानां भोजयेन्मतिमान् भिषक्।
वातगुल्ममुदावर्तं प्लीहार्शोवर्ध्मकुण्डलम्॥५८॥
ग्रहणीं दीपयेन्मेहान् कुष्ठदोषांश्च नाशयेत्।
नाराचमिति विख्यातं सपिर्नाराचसंज्ञितम्॥५९॥
भैषज्यं संप्रयोक्तव्यं नाराचमिव शत्रवे।
कुष्ठे नीलिनीघृतम्।
नीलिनीं त्रिफलां रास्त्रां वचांकटुकरोहिणीम्॥६०॥
पचेद्विडङ्गं व्याघ्रीं च पलिकानि जलाढके।
रसेऽष्टभागशेषे तु घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥६१॥
दध्नः प्रस्थेन संयोज्यं सुधाक्षीरपलेन च।
ततो घृतपलं दद्याद्यवागूमण्डमिश्रितम्॥६२॥
जीर्णे सम्यग्विरिक्तं च भोजयेद्रसभोजनम्।
कुष्ठगुल्मोदरव्यङ्गशोफपाण्ड्वामयज्वरान्॥६३॥
श्वित्रं प्लीहानमुन्मादं हन्त्येतन्नीलिनीघृतम्।
सिद्धसाराद्गुल्मे विश्वाद्यं घृतम्।
पलांशैर्विश्वचव्याग्निपिप्पलीक्षारसैन्धवैः॥६४॥
क्वाथेन चिरबिल्वस्य घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
गुल्मोदावर्तपाण्डुत्वग्रहणीश्वासकासजित्॥६५॥
कुष्ठज्वरप्रतिश्यायप्लीहार्शःशमनं परम्।
अग्निवेशाद्गुल्मे षट्पलं घृतम्।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः॥६६॥
पलिकैः सयवक्षारैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
क्षीरप्रस्थेन संयुक्तं हन्ति गुल्मं कफात्मकम्॥६७॥
ग्रहणीपाण्डुरोगघ्नं प्लीहकासज्वरापहम्।
हारीताद्गुल्मे महाषट्पलं घृतम्।
सौवर्चलं पञ्चकोलं सैन्धवं हवुषा विडम्॥६८॥
अजमोदा यवक्षारहिङ्गुजीरकमौद्भिदम्।
कृष्णामनाजीपूतिकं कल्कीकृत्य पलार्धतः॥६९॥
शृङ्गवेररसं चुक्रंवृत्तप्रस्थं समीकृतम्।
कृमिप्लीहोदराजीर्णज्वरगुल्मप्रमेहकम्॥७०॥
वातरोगं तथा शोफं दौर्बल्यं वह्निसंक्षयम्।
महाषट्पलमातङ्कान् भिनत्त्यशनिवद्गिरिम्॥७१॥
कुष्ठे भेडान्नीलं घृतम्।
द्वौ प्रस्थौ लोहचूर्णस्य त्रिफला त्र्याढकं तथा।
वायसीकाकमाचीभ्यां द्वे पले शङ्खिनीतुला॥७२॥
त्रिद्रोणेऽपां विपक्तव्यं चतुर्भागावशेषितम्।
घृतप्रस्थं पचेत्तेन गर्भ4ंचैनं समावपेत्॥७३॥
वरुणं वत्सकफलं त्र्यूषणं देवदारु च।
अवल्गुजफलं दन्तीफलान्यारग्वधस्य च॥७४॥
निदग्धिका भृङ्गरजः पारावतपदी तथा।
नीलकं नाम विख्यातमित्येतत्कुष्ठनुद्धृतम्॥७५॥
श्वित्राणि रञ्जयेच्चैव पानाभ्यङ्गे प्रयोजितम्।
पामाविचर्चिकासिध्मकिटिमानि च नाशयेत्॥७६॥
भेडात्कुष्ठे महानीलं घृतम्।
आरग्वधं वायसीं च बीजकं मदयन्तिका।
एकैकस्य तुला देया प्रत्येकं त्रिफलाढकम्॥७७॥
दन्ती दार्वी हरिद्रा च वरुणं कुटजत्वचम्।
चित्रकं चार्कमूलं च काकमाची निदग्धिका॥७८॥
एषां दशपलान् भागान् त्रिद्रोणेऽपां विषाचयेत्।
अष्टभागावशिष्टं तु पुनरग्नावधिश्रयेत्॥७९॥
धात्रीरसं वृषरसं जातीस्वरसमेव च।
दधि सर्पिषश्च दुग्धं च गोमूत्रं गोशकृद्रसः॥८०॥
आढकाढकमेतेषां गर्भंचेमं समावपेत्।
अवल्गुजं त्रिकटुकं नक्तमालफलानि च॥८१॥
पिचुमर्दं च जात्याश्च पीलुतिल्वकपल्लवाः।
किराततिक्तकं श्यामा नीलिकानीलपल्लवाः॥८२॥
एतैः सिद्धं परिस्राव्य पाययेत्कुष्ठरोगिणम्।
महानीलमिति प्रोक्तमेतत्कुष्ठापहं घृतम्॥८३॥
भगन्दरमथार्शांसि कृमींश्चापि विनाशयेन्।
अष्टादशैव कुष्ठानि सपिरेतन्नियच्छति॥८४॥
अथर्वप्रहितो दीप्तो ब्राह्म्योदण्ड इवासुरान्।
विशेषतस्तु श्वित्राणि रञ्जयेच्चभिनत्ति च॥८५॥
प्रसङ्गतः सेव्यमानं पानेनाभ्यञ्जनेन च।
कुष्ठे त्रिफलाद्यं घृतम्।
त्रिफला मदनं कुष्ठं शार्ङ्गेष्टा रजनीद्वयम्॥८६॥
शुकनासा काकमाची हपुषाऽतिविषा वचा।
पाठा कोशातकी मूर्वा तिक्ता काकादनी घृतम्॥८७॥
एतत्कषायकल्काभ्यां सिद्धं पीतं घृतोत्तमम्।
विशीर्यमाणं विध्वस्तस्नायुकेशनखं नरम्।
कुष्ठातुरं तु जनयेन्मुमूर्षुमपि निर्गदम्॥८८॥
हारीतात्कुष्ठे आवर्तकीघृतम्।
आवर्तकीमूलशतं सुसिद्धं
क्वाथीकृतं कल्कपलाष्टयुक्तम्।
प्रस्थं पुराणाद्धविषः सुगव्यात्
पक्वं शनैः साधु तदावतार्य॥८९॥
मात्रां पिबेद्व्याधिबलानुरूपां
भुञ्जीत चान्नं सह काञ्जिकेन।
द्रकोत्तरं कोद्रवजं सुजीर्णे
कामं पुरस्तादपरेऽह्नि शुद्धात्॥९०॥
त्रिसप्तरात्रंविधिनैवमाशु
पीतं निहन्यादचिरेण कुष्ठम्।
प्रवद्व्रणं भग्ननखाङ्गदेहं
मण्डानुपूर्व्या विधिनाऽथ चैतत्॥९१॥
अग्निवेशादुदभ्रंशे चव्याद्यं घृतम्।
चव्यंत्रिकटुकं पाठां क्षारं कुस्तुम्बरूणि च।
यवानी पिप्पलीमूलमुभे चविडसैन्धवे॥९२॥
चित्रकं विल्वममयां पिष्ट्वा सर्पिर्विपाचयेत्।
शकृद्वातानुलोमार्थंजले दध्नश्चतुर्गुणे॥९३॥
प्रवाहिकां गुदभ्रंशं मूत्रकृच्छ्रंपरिस्रवम्।
गुदवंक्षणशूलं च घृतमेतद्व्यपोहति॥९४॥
भेडात्प्रमेहे धान्वन्तरं घृतम्।
दशमूलं करञ्जौ द्वौ देवदारु हरीतकी।
वर्षाभूर्वरुणो दन्ती चित्रकः सपुनर्नवः॥९५॥
कपित्थोऽर्कसुधाक्षीरं बिल्वं भल्लातकानि च।
शठी पुष्करमूलं च पिप्पलीमूलमेव च॥९६॥
पृथग्दशपलानेषां भागांस्तोयार्मणे पचेत्।
यवकोलकुलत्थानां प्रस्थं प्रस्थं प्रदापयेत्॥९७॥
तेन पादावशिष्टेन घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
निचुलं त्रिफला भार्गींं रोहिषं गजपिप्पली॥९८॥
शृङ्गवेरं विडङ्गानि वचा कम्पिल्लकं तथा।
गणेनानेन तत्सिद्धं पाययेद्धि यथाबलम्॥९९॥
एतद्धान्वन्तरं नाम विख्यातं सर्पिरुत्तमम्।
कुष्ठं प्रमेहं गुल्मांश्च श्वयथुंवातशोणितम्॥१००॥
प्लीहानमुदरार्शांसि विद्रधिं पिडकांस्तथा।
अपसारं तथोन्मादं सर्पिरेतन्नियच्छति॥१०१॥
खरनादात्कुमारकल्याणकं घृतम्।
शङ्खपुष्पी वचा ब्राह्मी कुष्ठं त्रिफलया सह।
द्राक्षा, सशर्करा शुण्ठी जीवन्ती जीवको बला॥१०२॥
शठी दुरालभा बिल्वं दाडिमं सुरसा स्थिरा।
मुस्तं पुष्करमूलं च सूक्ष्मैला पिप्पली जलम्॥१०३॥
पाठा श्वदंष्ट्राऽतिविषा विडङ्गं दारु मालती।
मधूकपुष्पं खर्जूरं बदरं वंशरोचना॥१०४॥
कल्कैरेषां समांशानां घृतं क्षीरचतुर्गुणम्।
कषायेकण्टकार्याश्च साधयेत्सौम्यदैवते॥१०५॥
एतत्कुमारकल्याणं घृतरत्नं सुखप्रदम्।
बलवर्णकरं धन्यं पुष्ट्यग्निरुचिकारकम्॥१०६॥
छायासर्वग्रहालक्ष्मीदन्तकर्णगदापहम्।
सर्वबालामयहरं मेध्यमायुष्यमुत्तमम्॥१०७॥
रसायनमिदं सेव्यं विशेषाद्दन्तजन्मनि।
वाग्भटाद्ब्राह्मीघृतम्।
द्वौ प्रस्थौ स्वरसाह्ब्राहया घृतप्रस्थंच साधयेत्॥१०८॥
व्योषश्यामात्रिवृह्ब्राह्मीशङ्खपुष्पीनृपद्रुमैः।
ससप्तलाकृमिहरैः कल्कितैरक्षसंमितैः॥१०९॥
पलवृद्ध्या प्रयुञ्जीत यावन्मात्रा चतुष्पलम्।
उन्मादकुष्ठापस्मारहरं वन्ध्यासुतप्रदम्॥११०॥
वाक्स्मृतिस्वरमेधाकृद्धन्यं ब्राह्मीघृतं शुभम्।
शूले बीजपूरकाद्यं घृतम्।
घृताच्चतुर्गुणो देयो मातुलुङ्गरसो दधि॥१११॥
शुष्कमूलककोलाम्लकषायो दाडिमाद्रसः।
बिडङ्गलवणक्षीरपञ्चकोलयवानिभिः॥११२॥
पाठामूलककल्कैश्च सिद्धं पूरकसंज्ञितम्।
हृत्पार्श्वशूलवैसर्यहिध्माश्वासभमन्दरान्॥११३॥
वर्ध्मगुल्मप्रमेहार्शोवातव्याधीन् विनाशयेत्।
कृष्णात्रेयाद्ब्रणे महागौर्याद्यं घृतम्।
गौरी हरिद्रा मञ्जिष्ठा मांसी कटुकरोहिणी॥११४॥
प्रपौण्डरीकं मधुकं भद्रमुस्तं सचन्दनम्।
जातीनिम्बपटोलं च कारञ्जं बीजमेव च॥११५॥
कटूफलं समधूच्छिष्टं समभागानि कारयेत्।
पञ्चवल्ककषायेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥११६॥
क्षीरविप्रस्यसंयुक्तं शनैर्मुद्वग्निना पचेत्।
एतद्गौरं महावीर्यं सर्वंव्रणविशोधनम्॥११७॥
आगन्तुसहजाश्चैव शिरःश्लिष्टाश्च ये व्रणाः।
विषमामपि नाडीं च रोहयेच्छीघ्रमेव च॥११८॥
रक्तपित्ते दूर्वाद्यं घृतम्।
दुर्वामुत्पलकिञ्जल्कं मञ्जिष्ठा चैलवालुकम्।
श्वेतदूर्वा तथोशीरं मुस्ता चन्दनपद्मकम्॥११९॥
द्राक्षा मधूकयष्ट्याह्वं काश्मरी सितचन्दनम्।
पिष्टैस्तैः कार्षिकैर्द्रव्यैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥१२०॥
अजाक्षीरं तण्डुलाम्बु पृथग्दद्याच्चतुर्गुणम्।
तत्पानं वमतो रक्तं नावनं नासिकागते॥१२१॥
कर्णाभ्यां यस्य गच्छेत तस्य कर्णौ प्रपूरयेत्।
चक्षुर्गते च रक्ते वै पूरयेत्तेन चक्षुषी॥१२२॥
मेढ्रपायुगते चापि बस्तिकर्म प्रयोजयेत्।
प्रवृत्ते रोमकूपेभ्यस्त्वभ्यङ्गे योजयेद्धृतम्॥१२३॥
वैदेहान्नेत्ररोगे महात्रैफलं घृतम्।
त्रिफलाया रसप्रस्थं प्रस्थं भृङ्गरसस्य च।
पीडयित्वा वृषं बालं रसप्रस्थं च दापयेत्॥१२४॥
अजाक्षीरस्य च प्रस्थं, प्रस्थं तैः सर्पिषः पचेत्।
त्रिफला चन्दनं द्राक्षा पिप्पली मधुकं बला॥१२५॥
काकोलीक्षीरकाकोलीमेदामरिचसैन्धवैः॥
शर्करा पुण्डरीकं च हरिद्रोत्पलनागरैः॥१२६॥
कल्कैः सिद्धं भिषग्दद्यान्नेत्ररोगविनाशनम्।
काचं शुक्रं नीलिकां च वर्त्मरोगांश्च नाशयेत्॥१२७॥
नक्तान्ध्यं नकुलान्ध्यं च कण्डुंपिल्लमथापि च।
अजकां तिमिरांश्चैव नेत्रस्त्रवांश्च दारुणान्॥१२८॥
त्रिफलासर्पिरेतद्धि पाननावनतर्पणैः।
विदेहराज्ञा निदिष्टं दृष्टिनैर्मल्यकारकम्॥१२९॥
वातव्याधौ शतावरीघृतम्।
शतावरीमूलशतं द्विद्रोणेऽपां विपाचयेत्।
अष्टभागावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥१३०॥
जीवनीयानि सर्वाणि रास्नागोक्षुरकं तथा।
शतपुष्पा वचा कुष्ठं सरलं सपुनर्नवम्॥१३१॥
चन्दनं तगरं मांसी पद्मकं रक्तचन्दनम्।
सुरसं नागरं कृष्णा बिडं नागरमुत्पलम्॥१३२॥
एभिरक्षसमैर्भागैः क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम्।
बृंहणं वातपित्तघ्नं क्षतशोषज्वरापहम्॥१३३॥
पङ्गूनां पृष्ठसर्पिणामर्दितानां च शस्यते॥
पुंस्त्वोपघातिनां नृृणां वन्ध्यानां चैव योजितम्॥१३४॥
बलवर्णकरं ह्येतदलक्ष्मीघ्नं प्रजाकरम्।
शतावरीघृतमिदमश्विभ्यां परिकीर्तितम्॥१३५॥
सारस्वतं घृतम्।
समूलपत्रामादाय ब्राह्मीं प्रक्षाल्य वारिणा।
उलूखलेन संक्षुद्यरसं वस्त्रेण गालयेत्॥१३६॥
चतुर्गुणे रसे तस्मिन् धृतप्रस्थं विपाचयेत्।
औषधानि च पुष्पाणि तत्रेमानि प्रदापयेत्॥१३७॥
हरिद्रा मालती चैव त्रिफला च हरीतकी।
एतेषां पालिकान् भागान् शेषाणां कार्षिकाः स्मृताः॥१३८॥
पिप्पल्योऽथ विडङ्गानि सैन्धवं शर्करा वृषम्।
एतानि तु समालोढ्य शनैर्मुद्वग्निना पचेत्॥१३९॥
ततः पक्वंविजानीय क्षिप्रंतदवतारयेत्।
ततःप्राशितमात्रेण बधिरत्वं प्रणश्यति॥१४०॥
सप्तरात्रोपयोगेन भवेत्कविरसंशयम्।
घृतं सारंस्वतं नाम सरस्वत्या विनिर्मितम्॥१४१॥
मञ्जिष्ठा मधुकं कुष्ठं त्रिफला शर्करा वचा।
अजमोदा हरिद्रे द्वे हिङ्गु तिक्तकरोहिणी॥१४२॥
काकोली क्षीरकाकोली मूलं चैवाश्वगन्धजम्।
जीवकर्षभकौमेदे रेणुका बृहतीद्वयम्॥१४३॥
उत्पलं चन्दनं द्राक्षा पद्मकं देवदारु च।
एभिरक्षसमैर्भागैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥१४४॥
चतुर्गुणेन पयसा विपचेन्मृदुनाऽग्निना।
एतत्सर्पिर्नरः पीत्वा स्त्रीषु नित्यं वृषायते॥१४५॥
पुत्रं जनयते वीरं मेधाढ्यं पुष्करेक्षणम्।
वन्ध्या च लभते गर्भं श्यामा वेगात्प्रसूयते॥१४६॥
या चैव स्थिरगर्भास्यान्मृतापत्या तु या भवेत्।
अल्पायुर्जननी चैव या च सूत्वा पुनः स्थिता॥१४७॥
एतदेव कुमाराणां सर्वाङ्गग्रहमोक्षणम्।
धन्यं यशस्यमायुष्यं कान्तिलावण्यपुष्टिदम्॥१४८॥
ये च कल्याणके प्रोक्तास्ते चापीह गुणाः स्मृताः।
एतत्फलघृतं नाम ह्यश्विभ्यां परिकीर्तितम्॥१४९॥
अग्निवेशात्क्षतक्षीणे श्वदंष्ट्राद्यं घृतम्।
श्वदंष्ट्रोशीरमञ्जिष्ठाबलाकाश्मर्यकट्तृणम्।
दर्भमूलं पृश्निपर्णी जीवकर्षभकौ स्थिरा॥१५०॥
पालिकं साधयेत्तेषां रसे क्षीरचतुर्गुणे।
कल्कैः स्वगुप्ताजीवन्तीमेदकर्षभजीवकैः॥१५१॥
शतावर्यृद्धिमृद्वीकाशर्कराश्रावणीबिसैः।
प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातपित्तनुद्ग्राही शूलहृत्॥१५२॥
मूत्रकृच्छ्रप्रमेहार्शःकांसशोषक्षयापहः।
धनुःस्त्रीमद्यभाराध्वखिन्नानां बलमांसदः॥१५३॥
कामलायां हारीताद्द्राक्षाद्यं घृतम्।
पिष्ट्वा गोस्तनिकायास्तु पलान्यष्टौ समावपेत्।
पुराणसर्पिषः प्रस्थं पचेत्क्षीरे चतुर्गुणे।
कामलापाण्डुरोगार्शोज्वरकासार्तिनाशनम्॥१५४॥
वाग्भटात्कुष्ठे महावज्रकं घृतम्।
वासामृतानिम्बपटोलतिक्ताव्याघ्रीकरञ्जोदककल्कसिद्धम्।
सर्पिर्विसर्पज्वरकामलार्तिकुष्ठापहं वज्रकमामनन्ति॥१५५॥
वाग्भटात्कुष्ठे महावज्रकं घृतम्।
त्रिफलात्रिकटुद्विकण्टकारीकटुकाकुम्भनिकुम्भराजवृक्षैः।
सवचातिविषाग्निकैः सपाठैः पिचुभागैर्नव वज्रदुग्धमुष्ट्याः॥१५६॥
पिष्टैः सिद्धं सर्पिषः प्रस्थमेभिः क्रूरे कोष्ठे स्नेहनं रेचनं च।
कुष्ठश्वित्रप्लीहवर्ध्माश्मगुल्मान्हन्यात्कृच्छ्रांस्तन्महावज्रकाख्यम्॥१५७॥
अग्निवेशात्कुष्ठे तिक्तकं घृतम्॥
निम्बपटोलं दावीं दुरालभां तिक्तरोहिणीं त्रिफलाम्।
कुर्यादर्धपलांशान् पर्पटकं त्रायमाणां च॥१५८॥
सलिलाढकसिद्धानां रसेऽष्टभागस्थिते क्षिपेत्पूते।
चन्दनकिराततिक्तकमागधिकात्रायमाणाश्च॥१५९॥
मुस्तं वत्सकबीजं कल्कीकृत्यार्थकार्षिकान् भागान्।
नवसर्पिषश्च षट्पलमेतत्सिद्धं घृतं पेयम्॥१६०॥
कुष्ठज्वरगुल्मार्शोग्रहणीपाण्ड्वामयश्वयथुहारि।
विसर्पपामापिडकाकण्डूमदगण्डनुत्तिक्तम्॥१६१॥
अग्निवेशात्कुष्ठे महातिक्तकं घृतम्।
सप्तच्छदं प्रतिविषां शम्याकं तिक्तरोहिणीं पाठाम्।
मुखमुशीरं त्रिफलां पटोलपिचुमर्दपर्पटकम्॥१६२॥
धन्वयवासं चन्दनमुपकुल्यां पद्मकं हरिद्रे द्वे।
षड्ग्रन्थांसविशालां शतावरीं सारिवे चोभे॥१६३॥
वत्सकबीजं वासां मूर्वाममृतां किराततिक्तं च।
कल्कान्कुर्यान्मतिमान् यष्टाह्वंत्रायमाणां च॥१६४॥
कल्कस्य चतुर्थभागो जलमष्टगुणं रसोऽमृतफलानाम्।
द्विगुणो घृतात्प्रदेयस्तत्सिद्धं पाययेत्सर्पिः॥१६५॥
कुष्ठानि वातपित्तप्रबलान्यर्शांसि रक्तवाहीनि।
वीसर्पमम्लपित्तं वातासृक् पाण्डुतां गुल्मम्॥१६६॥
विस्फोटकान् सपामानुन्मादं कामलां कृमीन् कण्डूम्।
हृद्रोगं ज्वरपिडकामसृग्दरं गण्डमालां च॥१६७॥
हन्यादेतत्सद्यः पीतं काले यथाबलं सर्पिः।
योगशतैरप्यजितान्महाविकारान्महातिक्तम्॥१६८॥
जतुकर्णात्कुष्ठे द्वितीयं महातिक्तकं घृतम्।
करञ्जसप्तच्छदपिप्पलीनां मूलानि कृष्णा मधुकं विशाला।
यवासकं चन्दनमुत्पलं च स्यात्त्रायमाणा कटुका वचा च॥१६९॥
उशीरपाठातिविषारजन्यः किराततिक्तं कुटजस्य बीजम्॥
निम्बासनारग्वधमालतीनां पत्राणि मूलानि च कण्टकार्याः॥१७०॥
शतावरीपद्मकदेवदारुमुस्तानि कालीयककेसराणि।
वासागुडूचीनतसारिवाश्च बला पटोलंत्रिफला च मूर्वा॥१७१॥
नीपं कदम्बो धववेतसौ च कर्कोटकं पर्पटकं पयस्या।
वाराहकन्दं मदयन्तिका च ब्राह्मी समङ्गार्षभकं बला च॥१७२॥
एतैः समांशैरथ कार्षिकैश्च घृतस्य पात्रं विपचेन्नवं च।
द्रोणं जलस्याकलुषस्य दद्यात् पात्रद्वयं चामलकीरसस्य॥१७३॥
पक्वंप्रशान्तं गतफेनशब्दं प्रयोजयेत् कुष्ठहरं प्रशस्तम्।
तद्रक्तपित्तानिलसन्निपातविस्फोटपाल्यामयविद्रधीनाम्॥१७४॥
किलासकासज्वरगण्डमालाग्रन्थ्यर्बुदानि त्वथ वातरक्तम्।
हृत्पाण्डुरोगान् सभगन्दरांश्च निषेव्यमाणं नियमेन काले॥१७५॥
घृतं महातिक्तमिदं प्रशस्तं निहन्ति सर्वान् श्वयथूपदिष्टान्।
कृष्णात्रेयात् प्लीह्निरोहीतकं घृतम्।
रोहीतकात् पलशतं संक्षुद्य बदराढके।
पाचयित्वा जलद्रोणे चतुर्भागावशेषिते॥१७६॥
घृतप्रस्थं समावाप्य छागं क्षीरं चतुर्गुणम्।
तस्मिन् द्रव्यानिमांश्चैव सर्वान् कर्षप्तमन्वितान्॥१७७॥
व्योषं फलत्रयं हिङ्गु यवानीं तुम्बुरुं बिडम्।
अजाजीकुष्ठलवणं दाडिमं देवदारु च॥१७८॥
पुनर्नवां विशालां च यवक्षारं सपुष्करम्।
विडङ्गं चित्रकं चैव हपुषां चविकां वचाम्॥१७९॥
एभिर्द्रव्यैर्घृतप्रस्थं स्थापयेद्भाजने शुभे।
पाययेच्च पलं मात्रां व्याधीन् शमयते हठात्॥१८०॥
प्लीहं प्लीहोदरं चैव प्लीहशूलं तथैव च।
हृच्छूलं पार्श्वशूलं च कुक्षिशूलमरोचकम्॥१८१॥
विबन्धशूलं शमयेत् पाण्डुरोगं सकामलम्।
छर्द्यतीसारशूलघ्नं तन्द्राज्वरविनाशनम्॥१८२॥
रोहीतकघृतं ह्येतत् प्लीहानं शमयेद्द्रुतम्।
क्षारपाणेः प्लीहनि बिल्वाद्यं घृतम्।
बिल्वं पाठाऽभया धान्यं यवानी सैन्धवं विडम्।
पञ्चकोलं समरिचं क्षारैश्चैभिर्घृतं पचेत्॥१८३॥
दध्ना चतुर्गुणेनैव शकृद्वातविबन्धनुत्।
सर्वामप्लीहवातार्तिगुदभ्रंशरुजापहम्॥१८४॥
हारीतात् सर्वोदरे द्विपञ्चमूलाद्यं घृतम्।
द्वे पञ्चमूल्यौ त्रिवृतानिकुम्भे ससप्तलं चित्रकशिग्रुमूलम्।
क्रुरष्टबीजं त्रिफलां गुडूचीमेरण्डमूलं मदयन्तिकां च॥१८५॥
पाठां समागीं सुषवीं सनीलां सरोहिषां पापकुचेलिकां च।
पृथक्पृथक् पञ्चपलं जलस्य द्रोणे पचेत्तच्चतुरंशशेषम्॥१८६॥
घृतं पपक्वंसकषायकल्कं निहन्ति पीतं सकलोदराणि।
शिलाह्वयं नागरकालशाके काकादनीमूलनिदग्धिके च॥१८७॥
पञ्चैव दद्याल्लवणानि हिङ्गु कृष्णां च तैरक्षसमैः पृथक् च।
प्रस्थं घृतस्याथ पचेन्नवस्य चतुर्गुणं मूत्रमथ प्रदाप्य॥१८८॥
पयश्च दद्याद्द्विगुणं विपक्वं तद्ब्रह्मसृष्टं प्रवदन्ति सर्पिः।
प्लीहोदरं दूष्यमथाङ्गरोगं संसेव्यमानं जठरं निहन्यात्॥१८९॥
कासे कण्टकारीघृतम्।
पाठाविडव्योषविडङ्गसैन्धवत्रिकण्टरास्नाहुतभुग्वलाभिः।
शृङ्गीवचाम्भोधरदेवदारुदुरालभाभार्ग्यभयाशठीभिः॥१९०॥
सम्यग्विपक्वं द्विगुणेन सर्पिर्निदग्धिकायाः स्वरसेन चैतत्।
श्वासाग्निसादस्वरभेदभिन्नान्निहन्त्युदीर्णानपि पञ्चकासान्॥१९१॥
कासे द्वितीयं कण्टकारीघृतम्।
निदिग्धिकायाः स्वरसं ग्राहयेद्यन्त्रपीडितम्।
चतुर्गुणे रसे तस्मिन् घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥१९२॥
गर्भे दद्यात्रिकटुकं रास्नां गोक्षुरकं बलाम्।
पञ्चकासानिदं सर्पिः पीतं सद्यो व्यपोहति॥१९३॥
अग्निवेशात् कासे त्र्यूषणाद्यं घृतम्।
त्र्यूषणं त्रिफलां द्राक्षां काश्मर्यं च परुषकम्।
द्वे पाठे देवदार्वृद्धिः स्वगुप्तां चित्रकं शठीम्॥१९४॥
व्याघ्रीमामलकीं मेदां काकनासां शतावरीम्।
त्रिकण्टकं गुडूचीं च पिष्ट्वा कर्षसमान् घृतात्॥१९५॥
प्रस्थं चतुर्गुणे क्षीरे सिद्धं कासहरं पिबेत्।
ज्वरगुल्मारुचिप्लीहशिरोहृत्पार्श्वशूलनुत्॥१९६॥
कामलार्शोऽनिलार्तिघ्नं क्षतशोषक्षयापहम्।
त्र्यूषणं नामविख्यातमेतद्धृतमनुत्तमम्॥१९७॥
कृष्णात्रेयाद्व्रणे गार्याद्यं घृतम्।
गौर्यारिष्टपटोलरोध्रफलिनीयष्ट्याह्वनीलोत्पलै–
र्मञ्जिष्ठाकटुकेन्द्रवारुणिजपामूर्वाशाचन्दनैः।
जातीक्षीरकपत्रकेशरदलैः पूतीकघोटाफलै–
स्तुल्यैः सिक्थकसारिवाद्वययुतैर्गव्यं घृतं पाचयेत्॥१९८॥
यष्टिक्षीरसपञ्चकोलजलदक्वाथैश्च गौर्यादिभिः
सिद्धं सर्पिरिदं हितं त्रिषु भवेत्सद्यःक्षतेषु ध्रुवम्।
ये गूढाश्चिरकालजातगतयः प्रोच्छिन्नमांसा व्रणाः
सस्त्रावाः सरुजः सदाहपिडिकाः शुष्यन्ति रोहन्ति च॥१९९॥
भेडाद्गुग्गुलुतिक्तकं घृतम्।
निम्बामृतापटोलानां कण्टकार्या वृषस्य च।
पृथग्दशपलान् भागान् जलद्रोणे विपाचयेत्॥२००॥
तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
त्रिकटुत्रिफलामुस्तारजनीद्वयवत्सकम्॥२०१॥
शुण्ठी दारुहरिद्रा च पिप्पलीमूलचित्रकम्।
भल्लातकं यवक्षारं कटुकाऽतिविषा वचा॥२०२॥
विडङ्गं खर्जिकाक्षारः शतपुष्पाऽजमोदकम्।
एषामक्षसमैर्भागैर्गुग्गुलोः पञ्चभिः पलैः॥२०३॥
सुसिद्धं पीयमानं च एतद्गुग्गुलुतिक्तकम्।
विद्रधिं हन्ति सद्यो हि त्वग्दोषानपि दारुणान्॥२०४॥
कुष्ठानि स्वापसङ्कोचवेगवन्ति स्थिराणि च।
वातश्लेष्मसमुत्थानि मारुतास्रक्प्रभेदि च॥२०५॥
गण्डमालांर्बुदग्रन्थिनाडीदुष्टभगन्दरान्।
कासं श्वासं प्रतिश्यायं पाण्डुरोगं ज्वरं क्षयम्॥२०६॥
विषमज्वरहृद्रोगलिङ्गदोषविषक्रिमीन्।
प्रमेहासृग्दरोन्मादशुक्रदोषगदान् जयेत्॥२०७॥
हारीताच्छोषे द्राक्षाद्यं घृतम्।
द्राक्षायाः संमितं प्रस्थं मधुकस्य पलाष्टकम्।
पचेत्तोयार्मणे शुक्ले पादश्शेषेण तेन च॥२०८॥
पालिके मधुकटाक्षे पिष्टे कृष्णापलद्वयम्।
प्रदाय सर्पिषः प्रस्थं पचेत् क्षीरचतुर्गुणम्॥२०९॥
सिद्धे शीते पलान्यष्टौ शर्करायाः प्रदापयेत्।
एतद्द्राक्षाघृतं नाम क्षीणक्षुत्तृड्सुखावहम्॥२१०॥
वातपित्तज्वरश्वासविस्फोटकहलीमकान्।
प्रदरं रक्तपित्तं च हन्यान्मांसबलप्रदम्॥२११॥
विदेहात्सर्वनेत्ररोगे त्रिफलाद्यं घृतम्।
त्रिफलाया रसप्रस्थं प्रस्थं भृङ्गरसस्य च।
पीडयित्वा वृषं बालं रसप्रस्थं प्रदापयेत्॥२१२॥
अजाक्षीरस्य च प्रस्थं कार्षिकैः श्लक्ष्णपेषितैः।
पिप्पली शर्करा द्राक्षा त्रिफला नीलमुत्पलम्॥२१३॥
मधुकं क्षीरकाकोली मधुपर्णी निदिग्धिका।
मञ्जिष्ठापद्मकोशीरसारिवादारुचन्दनैः॥२१४॥
घृतं प्रस्थं पचेत् प्राज्ञः कल्कैरेभिः समन्वितम्।
ऊर्ध्वपानमधः पानं मध्ये पानं विशिष्यते॥२१५॥
अति प्रदुष्टे रक्ते च रक्ते वातिस्रुते तथा।
नक्तान्ध्ये तिमिरे काचे सर्वनेत्ररुजासु च॥२१६॥
बकविद्योतितं भ्रान्तं सूर्यतेजोद्विषं तथा।
गृध्रदृष्टिकरं धन्यं बलवर्णाग्निवर्धनम्॥
त्रिफलाया घृतं सिद्धं सर्वनेत्ररुजान्तकृत्॥२१७॥
पटोलाद्यं घृतम्।
पटोलं मधुकं दावीं निम्बं वासां फलत्रिकम्।
दुरालभां पर्पटकं त्रायन्तीं च पलोन्मिताम्॥२१८॥
प्रस्थमामलकानां च क्वाथयेत्सलिलार्मणे।
तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥२१९॥
कल्कैर्भूनिम्बकुटजमुस्तयष्ट्याह्वचन्दनैः।
सपिप्पलीकैस्तत् सर्पिश्चक्षुष्यं श्रोत्रयोर्हितम्॥२२०॥
घ्राणकर्णाक्षिवर्त्मत्वग्दन्तरोगव्रणापहम्।
रक्तपित्तहरं खेदक्लेदपूयोपशोषणम्॥२२१॥
कामलाज्वरवीसर्पगण्डमालाहरं परम्।
कृष्णात्रेयाद्बिन्दुघृतम्।
त्रिवृता त्रिफला पाठा दन्ती कटुकरोहिणी॥२२२॥
चतुरङ्गुलमज्जा च तथा च कटुकत्रयम्।
चित्रकं च बृहत्यौ च तथा च गजपिप्पली॥२२३॥
स्नुहीक्षीरपलं दद्यात् घृतस्याष्टौ प्रदापयेत्।
यावन्तः स पिवेद्बिन्दून् तावद्वेगान् विरिच्यते॥२२४॥
एतद्धिन्दुघृतं सिद्धमृषिभिः परिकीर्तितम्।
कृष्णात्रेयाद्गुल्मे महाबिन्दुघृतम्।
स्नुहीक्षीरपले द्वे च प्रस्थार्धं चैव सर्पिषः॥२२५॥
कम्पिल्लकपलं चैव शापार्धं सैन्धवस्य च।
त्रिवृतायाः पलं चैव कुडवं घात्रिजाद्रासात्॥२२६॥
तोयप्रस्थेन संयुक्तं शनैर्मृद्वग्निना पचेत्।
वर्षप्रमाणं दातव्यं जठरे प्लीहगुल्मयोः॥२२७॥
तथा कर्णोत्थरोगेषु युञ्जीत कुशलो भिषक्।
एतद्गुल्मादिनिचयान्समूलान् सपरिग्रहान्॥२२८॥
निहन्त्येष प्रयोगो हि वायुर्जलधरानिव।
पञ्चगुल्मवधार्थाय सर्पिरेतत् प्रकीर्तितम्॥२२९॥
सर्वासुरवधार्थाय यथा वज्रं बिडौजसा।
महाविन्दुघृतं सिद्धं सर्वोदरहरं परम्॥२३०॥
गुल्मे विन्दुघृतम्।
श्यामात्रिवृद्वह्निपलत्रयं हि हरीतकीनां तु शतार्धमन्यत्।
तोयार्मणोऽर्धेन विपाचितेन ग्रस्थं पचेद्गव्यघृतस्य वैद्यः॥२३१॥
कम्पिल्लकरवापि पलप्रमाणं सनीलिनीबीजपलद्वयं च।
चतुष्पले स्नुक्पयसश्चदत्त्वा गुल्माषहं विन्दुघृतं विरेकात्॥३३२॥
चिकित्साकलिकाया गुल्मे महाबिन्दुघृतम्।
त्रिवृत्पलं स्नुक्पयसः पलं च कम्पिल्लकस्यापि पलं तृतीयम्।
चतुष्पलं चामलकीरसस्य पलार्धमन्यल्लवणस्य चैव॥२३३॥
प्रस्थार्धमेभिर्हविषो विपक्वं जले महाबिन्दुघृतं प्रसिद्धम्।
निहन्ति गुल्मं जठराणि चैव प्लीहामयानाशु विरेकयोगात्॥२३४॥
कुष्ठे बिन्दुघृतम्।
अर्कक्षीरपले द्वे तु स्नुहीक्षीरं पलानि षट्।
पथ्या कम्पिल्लकं श्यामा श्यामाकं गिरिकर्णिका॥२३५॥
नीलिनी त्रिवृता दन्ती शङ्खिनी चित्रकं तथा।
एतेषां पलिकैर्भागैर्घृतपस्थं विपाचयेत्॥२३६॥
अथास्य मलिने कोष्ठे बिन्दुमात्रं प्रदापयेत्।
यावन्तो ना पिवेद्बिन्दून् तावद्वारान्विरिच्यते॥२३७॥
कुष्ठं गुल्मप्रुदावर्तंश्वयथुं सभगन्दरम्।
शमयत्युदराण्यष्टौ वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा॥२३८॥
एतद्बिन्दुघृतं नाम येनाभ्यक्तो विरिच्यते।
कुष्ठेपञ्चतिक्तकं घृतम्।
निम्बं पटोलं व्याघ्रीं च गडूचीं वासकं तथा॥२३९॥
कुर्यात्तुलां तु संचूर्ण्य क्वाथयेत्तज्जले शुभे।
पादावशेषेण ततो घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥२४०॥
त्रिफलागर्भसंयुक्तं पञ्चतिक्तकमुच्यते।
अशीतिर्वातजान् रोगांश्चात्वारिंशच्च पैत्तिकान्॥२४१॥
विंशतिः श्लेष्मजांश्चैव पानादेवापकर्षति।
स्वरनादाच्छूले लशुनघृतम्।
प्रस्थं लशुनबीजानां कण्टकार्यास्तथैव च॥२४२॥
आटरूषकप्रस्थं च जलद्रोणे विपाचयेत्।
द्राक्षाया गोस्तनायाश्च कुडवं चात्र मिश्रयेत्॥२४३॥
तत्र दद्याद्घृतप्रस्थं गोक्षीरप्रस्थमेव च।
लशुनस्य तु पिष्टस्य पलं निष्पीड्य योजयेत्॥२४४॥
आटरूषकपत्राणां पेषयित्वा पलं तथा।
एतन्मृद्वग्निना सिद्धं सितं पूतमथापि वा॥२४५॥
द्विपलं शर्कराचूर्णं क्षीरार्धकुडवं तथा।
त्वक्क्षीर्याश्च पलार्धं हि तत्सर्वंखजमूर्च्छितम्॥२४६॥
निदध्याद्भाजने शुद्धे काञ्चने राजतेऽपिवा।
एतत्प्रायोगिकं5 सर्पिरिमान् व्याधीन् व्यपोहति॥२४७॥
कासं श्वासं ज्वरं गुल्मं कार्श्यं छर्दिमरोचकम्।
हृद्रोगं पार्श्वशुलं च क्षतक्षीणं प्लिहोदरम्॥२४८॥
जीवनं बृंहणं वृष्यं पाण्डुश्वयथुनाशनम्।
तन्त्रान्तराद्दाडिमाद्यं घृतम्।
दाडिमात्कुडवो धान्यात्कुडवार्धं पलं पलम्॥२४९॥
चित्रकाच्छृङ्गवेराच्च पिप्पल्यष्टमिका तथा।
कल्कैस्तैविंशतिपलं घृतस्य सलिलाढके॥२५०॥
सिद्धं हृत्पाण्डुगुल्मार्शः प्लीहवातार्तिशूलनुत्।
दीपनं श्वासकासघ्नं मूढवातानुलोमनम्॥२५१॥
दुःखप्रसविनीनां च वन्ध्यानां चैव पुत्रदम्।
चित्रकाद्यं घृतम्।
चित्रकस्य तुलाक्वाथे घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥२५२॥
आरनालं च द्विगुणं दधिमण्डं चतुर्गुणम्।
पञ्चकोलकतालीसक्षारैर्लवणसंयुतैः॥२५३॥
द्विजीरकनिशायुग्मैर्मरिचं तत्र दापयेत्।
गुल्मप्लीहोदराध्मानपाण्डुरोगारुचिज्वरान्॥२५४॥
बस्तिहृत्पार्श्वकट्यूरुशूलोदावर्तजान् गदान्।
निहन्यात् पीतमर्शोघ्नं पाचनं वह्निदीपनम्।
बलवर्षकरं चापि भस्मकं च नियच्छति॥२५५॥
शोफे चित्रकाद्यं घृतम्।
चित्रकं धान्ययवान्यजाजीसौवर्चलत्र्यूषणवेतसाम्लम्।
विल्वोत्पलं दाडीमयावशूकं सपिप्पलीमूलमथापि चव्यम्॥२५६॥
षष्ट्वाऽक्षमात्राणि जलाढकेन पक्त्वा घृतप्रस्थमथापि युञ्ज्यात्।
अर्शांसि गुल्मान् श्वयथुं सकृच्छ्रंनिहन्ति वह्निं च करोति दीप्तम्॥२५७॥
प्लीहि तृतीयं रोहीतकघृतम्।
रोहीतकत्वचः श्रेष्ठात्पलानां पञ्चविशतिः।
कोलद्विप्रस्थसंयुक्तं कषायमुपकल्पयेत्॥२५८॥
पालिकैः पञ्चकोलैश्च तैः सर्वैश्चापि तुल्यया।
रोहीतकत्वचा पिष्टैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥२५९॥
प्लीहाभिवृद्धिं शमयेदेतदाशु प्रयोजितम्।
तथा गुल्मज्वरश्वासकृमिपाण्डुत्वकामलान्॥२६०॥
कुष्ठे गुग्गुलुपञ्चतिक्तकं घृतम्।
निम्बामृतावृषपटोलनिदग्धिकानां
भागानिमान्दशपलान्विपचेद्धटेऽपाम्।
अष्टांशशेषितशृतेन पुनश्च तेन
प्रस्थं घृतस्य विपचेद्धृतभागकल्कैः॥२६१॥
पाठाविडङ्गसुरदारुगजोपकुल्या–
द्विक्षारनागरनिशामिशिचव्यकुष्ठैः।
तेजोवतीमरिचवत्सकदीप्यकाग्नि–
रोहिण्यरुष्करवचाकणमूलयुक्तैः॥२६२॥
मञ्जिष्ठयाऽतिविषया विषया यवान्या
संशुद्धगुग्गुलुपलैरपि पञ्चसंख्यैः।
तत्सेवितं विधुवति प्रबलं समीरं
सन्ध्यस्थिमज्जगतमप्यथ कुष्ठमीदृक्॥२६३॥
नाडीव्रणार्बुदभगन्दरगण्डमाला–
जत्रूर्ध्वसर्वगदगुल्मगुदोत्थमेहान्।
यक्ष्मारुचिश्वसनपीनसशोफकास–
हृत्पाण्डुरोगमदविद्रधिवातरक्तान्॥२६४॥
शीतकल्याणकं घृतम्।
कुमुदं पद्मकोशीरं गोधूमा रक्तशालयः।
मुद्गपर्णी पयस्याच काश्मरी मधुयष्टिका॥२६५॥
बलातिबलयोर्मूलमुत्पलं तालमस्तकम्।
विदारी शतपत्री च शालपर्णी सजीवकम्॥२६६॥
फलं त्रपुसबीजानि प्रत्यग्रं कदलीफलम्।
एषामर्धपलान् भागान् गव्यं क्षीरं चतुर्गुणम्॥२६७॥
पानीयं द्विगुणं दत्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
प्रदरे रक्तगुल्मे च रक्तपित्ते हलीमके॥२६८॥
बहुरूपं च यत्पित्तं कामलां च सशोणितम्।
अरोचके ज्वरे जीर्णे पाण्डुरोगे मदे भ्रमे॥२६९॥
तरूणा चानपत्या ये या च गर्भंन विन्दति।
अहन्यहनि च स्त्रीणां भवति प्रीतिवर्धनम्॥२७०॥
शीतकल्याणकं नाम परमुक्तं रसायनम्।
हिक्काश्वासे शद्व्याद्यं घृतम्।
शठिर्वचाऽभया कुष्ठं पिप्पली बिल्वशुष्ठिका॥२७१॥
पलांशं सैन्धवं चव्यं तेजोवत्यथ पुष्करम्।
सौवर्चलं तामलकी भूतीकं चाक्षकसंमितम्॥२७२॥
हिङ्ग्वर्धकर्षकोपेतं घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
चतुर्गुणं जलं चात्र दत्वा मृद्वग्निना पचेत्॥२७३॥
ग्रहण्यर्शोहितं कासहिक्कोरःपार्श्वशूलनुत्।
श्वासान् सन्धिगतांश्चान्यान् हन्याद्वातकफामयान्॥२७४॥
नारसिंहं घृतम्।
वहिर्भल्लातकं चैव शिंशपा खदिरं तथा।
हरीतकीर्विडङ्गानिजीक्कंच तथाऽक्षकम्॥२७५॥
एषामाहृत्य भागांस्तु सम्यग्दशपलोन्मितान्।
जलद्रोणे युतं कृत्वा लोहभाण्डे निधापयेत्॥२७६॥
लोहभाण्डे पचेत्तावद्यावत्पादावशेषितम्।
क्वाथं लोहयुतं कृत्वा स्थापयेद्दिवसत्रयम्॥२७७॥
त्रिगुणं तु शतावर्या रसं धात्र्याश्च निःक्षिपेत्।
निःक्षिपेत्त्रिगुणं चात्र भृङ्गराजरसं शुभम्॥२७८॥
छागक्षीरं च तत्रैव त्रिगुणं च नियोजयेत्।
पक्त्वा घृताढकं तेन मधुना सितयाऽथवा॥२७९॥
गुडेन वा पिबेत्सार्धं केवलं वा पलोन्मितम्।
न किंचित्परिहार्यं स्याद्वातातपनिषेवणम्॥२८०॥
अजीर्णे पिबतश्चापि वनितासेविनस्तथा।
नान्धता नाग्निहानिश्च न वलीपलितं भवेत्॥२८१॥
अनेन च भवत्याशु नरः सिंहपराक्रमः।
भवत्यश्वजवश्चैव हेमवर्णश्च जायते॥२८२॥
कान्ताऽपि सेविता तेन गुणैरेतैश्च युज्यते।
नारसिंहमिति ख्यातं घृतं बलविवर्धनम्॥२८३॥
विषेऽमृतं घृतम्।
शिरीषस्य त्वचं व्योषं त्रिफलां चन्दनोत्पलम्।
द्वे बले सारिवास्फोटासुरभीनिम्बपाटलाः॥२८४॥
बन्धुजीवातसीमूर्वावासासुरसवत्सकम्।
पाठाङ्कोलाश्वगन्धार्कमूलं यष्ट्याह्वपद्मके॥२८५॥
विशालां बृहतीं द्राक्षां कोविदारं शतावरीम्।
कटभीदन्त्यपामार्गपृश्निपर्णीरसाञ्जनम्॥२८६॥
शणाश्वखुरकौ श्वेतौ कुष्ठं दारु प्रियङ्गुकम्।
विदारी मधुकात्सारं करञ्जस्य फलं वचा॥२८७॥
रजन्यौ लोध्रमक्षांशान् पिष्ट्वा साध्यं घृताढकम्।
तुल्याम्बुच्छागगोमूत्रे त्र्याढके तद्विषापहम्॥२८८॥
अपस्मारक्षयोन्मादभूतग्रहगरोदरान्।
पाण्डुरोगान् क्रिमीन् मेहान् सप्लीहोदरकामलान्॥२८९॥
हनुस्तम्भग्रहादींश्च पानाभ्यञ्जननावनैः।
हन्यात्संजीवयेच्चापि विषोदधिमृतान्नरान्॥२९०॥
अभेद्यममृतं सर्वविषाणां स्थाद्धृतोत्तमम्।
ग्रहण्यामग्निघृतम्।
चतुष्पलं चव्यकचित्रपाठातेजस्विनीपिप्पलीमूलमेदाः।
दद्याच्च मुस्तात्रिफलं विशुद्धं मुष्टिं समग्रामथ पल्लवानाम्॥२९१॥
आस्फोटजाती अथ सप्तपर्णंपटोलशाखोटकनक्तमालम्।
निम्बं प्रदद्यादथ कल्कमस्मिन्नधिश्रयेत्ताम्रमये कटाहे॥२९२॥
सुक्वाथितं द्रोणजलेन पूर्णंपादावशिष्टं पुनरुद्धरेत्तत्।
पलार्धतुल्याऽतिविषा सभद्रा कल्कीकृतानि द्विपलानि दद्यात्॥२९३॥
सयावशूकं बिडसैन्धवं च पलानि चत्वारि च पिप्पलीनाम्।
कल्कैः कषायेण च सिद्धमेतन्मृद्वग्निसिद्धं ह्यवतारयेच्च॥२९४॥
पिबेच्च जीर्णे तु घृतस्य कर्षं विष्टम्भदोषे द्विगुणं पिबेच्च।
अनेन सर्वे ग्रहणीविकाराः शाम्यन्ति गुल्माश्च बहुप्रकाराः॥२९५॥
विंशत्क्रिमीणामथ जातयश्च शाम्यन्ति सर्वा विविधप्रयोगात्।
पाण्ड्वामयप्लीहगरोद्भवाश्च रोगा भविष्याश्च समं व्रजेयुः॥२९६॥
सेवेत मद्यं पिशितानि चैव विवर्जकः स्यान्मधुतर्पणस्य।
नाम्ना तदप्यग्निघृतं प्रसिद्धं वह्निं च संदीपयते प्रसह्य॥२९७॥
ग्रहण्यां मल्लातकाद्यं घृतम्।
भल्लातकानां द्विपलं पलांशं विदारिगन्धादिकपञ्चमूलम्।
जलाढके जर्जरितं विपाच्य विस्राव्य पूतं विपचेद्धि कल्कैः॥२९८॥
रास्ना बिडं सैन्धवयावशूकं विडङ्गकृष्णामधुकं वचा च।
सविश्वकर्पूरहुताशहिङ्गु रास्नादिभिः पाणितलप्रमाणैः॥२९९॥
प्रस्थं विषकं पयसा समांशं घृतस्ययोज्यं कफजे विकारे।
प्लीहोदरे यक्ष्यसि वातरोगे श्वासे सकासे च हितं वदन्ति॥३००॥
व्यापन्नवह्नौ कफगुल्मिनां च कण्डूविकारेषु च शस्तमेतत्।
भल्लातकाख्यं नियमेन पीतं जयेच्चसर्वान् ग्रहणीविकारान्॥३०१॥
जीर्णज्वरे पिप्पल्याद्यं घृतम्।
पिप्पल्यतिविषाद्राक्षासारिवाबिल्वचन्दनैः।
कटुकेन्द्रयवोशीरसठीतामलकीघनैः॥३०२॥
त्रायमाणास्थिराधात्रीविश्वभेषजचित्रकैः।
पक्षेनैतैर्घृतं पक्वं विच्छिद्य विषमाग्निताम्॥३०३॥
जीर्णज्वरशिरःशूलगुल्मोदरहलीमकान्।
क्षयकासान् ससंतापान् पार्श्वशूलान्यपास्यति॥३०४॥
मायूरघृतम्।
हेमन्तकाले शिशिरे च सेव्यं वसन्तकाले च मयूरसर्पिः।
औष्ण्याद्धि बर्ही विषभक्षणाच्च वर्षाशरद्ग्रीष्ममुखे व्यपास्य॥३०५॥
आहारजातं हि विहङ्गमस्य कीटाश्च सर्पाश्च सरीसृपाश्च।
पिपीलिकामत्कुणमक्षिकाश्च तेनोष्णकालेष्वहितो मयूरः॥३०६॥
तथैव काले जलदाभिरामे विसृज्य शुक्रं च मदं च बर्ही।
कृशत्वमायाति हि हीनतां च शरन्मुखे तेन बिवर्जनीयः॥३०७॥
अथाऽऽहरेत्स्वस्थमृतं वयस्थं निस्तुण्डपत्रान्त्रनखं मयूरम्।
द्विद्रोणमात्रे पयसो निधाय विपाचयेद्भेषजसंप्रयुक्तम्॥३०८॥
सश्रावणीमंशुमतीमनन्तां काकोलीमेदे वृषभे वयस्थाम्।
सविश्वदेवां सहदेवसाह्वांसप्तच्छदान्मूलफले बलां च॥३०९॥
शतावरीजीवकसोमवल्कमेकैकशः स्युः पलसंमिताश्च।
ततोऽर्धशिष्टे क्वथिते सुपूते घृताढकं तत्र पुनर्विपाच्य॥३१०॥
कल्कैरिमैः कर्षसमप्रमाणैर्द्रोणेन दुग्धस्य युतैः सुपिष्टैः।
मुञ्जातकाक्षोडमथात्मगुप्ता वृद्धिस्तथा तामलकी सबीरा॥३११॥
पियालमज्जा मधुकं तथैव सिद्धं प्रशान्तं गतफेनशब्दम्।
पानेषु भोज्येषु च देयमेतद्भक्तेषु नानाप्रभवेषु चैव॥३१२॥
मन्दाग्निरेतोविषपीडिताश्च क्षीणक्षताश्चापि कृषातिवृद्धाः।
कासार्दिताः शोणितपित्तिनश्च पिबेयुरेते शिखिसर्पिरग्र्यम्॥३१३॥
वृष्यं च बल्यं च रसायनं च सर्वेन्द्रियाणां बलवर्धनं च।
ओजःस्वरं प्रीणयते च मात्रंविषघ्नमेतद्गरनाशनं च॥३१४॥
एतेन वृद्धाः कृशदुर्बलाश्च तथैव वागध्वसमाहताश्च।
प्रक्षीणवीर्याश्च रतिप्रसक्ताः स्त्रियः समागम्य वृषीभवन्ति॥३१५॥
हिमव्यपाये हिमदग्धपल्लवाः पुनः प्ररोहन्ति यथा महीरुहाः।
पुनस्तथा यौवनपुष्टिवन्तो नरा भवन्तीह घृतप्रयोगात्॥३१६॥
तिमिरे जीवन्त्याद्यं घृतम्।
तुलां पचेद्धि जीवन्त्या द्रोणेऽपां पादशेषिते।
दत्वा चतुर्गुणं क्षीरं घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥३१७॥
प्रपौण्डरीककाकोलीपिप्पलीरोध्रसैन्धवैः।
शताह्वामधुकद्राक्षासितादारुफलत्रयैः॥३१८॥
कार्षिकैर्निशि तत्पीतं तिमिरापहरं परम्।
अपस्मारे पञ्चगव्यं घृतम्।
दशमूलेन्द्रवृक्षत्वड्यूर्वाभार्गींफलत्रयैः।
शम्याकश्रेयसीसप्तपर्णापामार्गफल्गुभिः॥३१९॥
शृतैः कल्कैश्च भूनिम्बत्रिफलाव्योषचित्रकैः।
त्रिवृत्पाठानिस्मयुग्मसारिवाद्वयपौष्करैः॥३२०॥
कटुकायासदन्त्युग्रानीलिनीक्रिमिशत्रुभिः।
सर्पिरेभिश्च गोक्षीरदधिमूत्रशकृद्रसैः॥३२१॥
साधितं पञ्चगव्याख्यं सर्वापस्मारभूतनुत्।
चतुश्चतुःक्षयश्वासानुन्मादांश्च नियच्छति॥३२२॥
ज्वरे महापञ्चगव्यं घृतम्।
दशमूलमपामार्गं त्रिफलां कुटजत्वचम्।
सप्तपर्णंहरिद्रे द्वे नीलिनीं कटुरोहिणीम्॥३२३॥
कारम्वधंमुष्ककं च फल्गुमूलं दुरालभाम्।
द्रोणे साधयेत्पादशेषिते॥३२४॥
त्रिवृतां निचुलं भागीं श्रेयसीं मदयन्तिकाम्।
पूतीकं रोहिसं पाठां दन्तीं चित्रकमाढकीम्॥३२५॥
किराततिक्तकं मूर्वांव्योषं द्वे चापि सारिवे।
सकषायं घृतप्रस्थमेभिः पेष्य विपाचयेत्॥३२६॥
गव्यं शकृद्रसं क्षीरं तक्रं मूत्रं तथा दधि।
तदैकध्यं पचेत्सर्पिः सिद्धं चैवावतारयेत्॥३२७॥
एतन्महापञ्चगव्यं विख्यातममृतं यथा।
चातुर्थकान्मोचयति मन्त्रसिद्धो मुनिर्यथा॥३२८॥
श्वयथुंपाण्डुरोगं च प्लीहार्शः सभगन्दरम्।
उदराणि तथा गुल्मं कामलां चापकर्षति॥३२९॥
तस्माद्भिषक् प्रयुञ्जीत विधियुक्तेन योगवित्।
बिन्दुसाराद्यं घृतम्।
शतावरीबलारास्नादशमूलीत्रिकण्टकान्।
अश्वगन्धासमायुक्तान् कुशकाशसमन्वितान्॥३३०॥
दर्भेक्षुमूलसंयुक्तान् शरमूलविमिश्रितान्।
मण्डूक्या च समायुक्तान् द्विपञ्चपलिकान भिषक्॥३३१॥
पुनर्नवायाः श्वेतायाः शिफां पलशतोन्मितान्।
जलद्रोणे प्रयत्नेन पचेत्सम्यक् चतुर्गुणे॥३३२॥
पादावशेषे निःस्राव्य क्वाथमग्नावधिश्रयेत्।
यवानीपिप्पलीद्राक्षाशुण्ठीयष्ट्याह्वसैन्धवान्॥३३३॥
द्विपालिकान् विनिःक्षिप्य श्लक्ष्णं पिष्ट्वा विधानतः।
घृतप्रस्थं पचेत्सम्यक् क्षीरप्रस्थद्वयान्वितम्॥३३४॥
एरण्डतैलप्रस्थाढ्यं त्रिंशद्गुडपलैर्युतम्।
एतदीश्वरपुत्राणां राज्ञां चैव विशेषतः॥३३५॥
स्त्रीसंभोगरतानां च प्राग्भोजनमनिन्दितम्।
ऊरुशूले कटिस्तम्भे योनिशूले च दारुणे॥३३६॥
बस्तिवाते प्रवृद्धे च वातरोगे सुदुःसहे।
घृतमेतत्प्रशंसन्ति सुकुमारं रसायनम्॥३३७॥
कासे दशमूलाद्यं घृतम्।
दशमूल्याढके प्रस्थं घृतस्याक्षसमैः पचेत्।
पुष्कराह्वशठीबिल्वसुरसाव्योषहिङ्गुभिः॥३३८॥
पेयानुपानं तत्पेयं कासे श्वासे कफात्मके।
श्वासरोगेषु सर्वेषु कफवातात्मकेषु च॥३३९॥
इति श्रीसोढलग्रथिते गदनिग्रहे घृताधिकारः प्रथमः।
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अथातो द्वितीयस्तैलाधिकारः प्रारभ्यते।
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कुष्ठे कटुकालाबुतैलम्।
कटुकालाबुबीजं द्वे तुत्थे रोचना हरिद्रे द्वे।
बृहतीफलमेरण्डः सविशालश्चित्रको मूर्वा॥१॥
कासीसहिङ्गुत्र्यूषणसुरदारुतुम्बरुविडङ्गम्।
लाङ्गलकी कुटजत्वक् कटुकाख्या रोहिणी चैव॥२॥
सर्षपतैलं कल्कैर्मूत्रेण चतुर्गुणेन गवां सात्म्यम्।
कण्डूकुष्ठविनाशनमभ्यङ्गाद्वातकफहन्तृ॥३॥
कुष्ठे भद्राद्यं तैलम्।
भद्रश्रीदारुमरिचद्विहरिद्रात्रिवृद्धनैः।
गोमूत्रपिष्टैः पलिकैर्विषस्यार्धपलेन तु॥४॥
ब्राह्मीरसार्कजक्षीरगोशकृद्रससंयुतम्।
प्रस्थं सर्षपतैलस्य सिद्धमाशु व्यपोहति॥५॥
पानाद्यैः शीलितं कुष्ठदुष्टनाडीव्रणापचीन्।
वातव्याधौ बलातैलम्।
बलाया जातसारायास्तुलां कुर्यात्सुकुट्टिताम्॥६॥
रुचेत्तोयचतुर्दोणे चतुर्भागावशेषिते।
पलानि दश पिष्टानि बलायास्तत्र दापयेत्॥७॥
लुञ्चितानां तिलानां च दद्यात्तैलाढकद्वयम्।
चतुर्गुणेन पयसा पाचयेन्मृदुनाऽग्निना॥८॥
वातव्याधिषु सर्वेषु रक्तपित्ताश्रयाश्च ये।
व्यापन्नासु च योनिषु शस्तं नष्टे च रेतसि॥९॥
तालुशोषं तृषां दाहं पार्श्वशूलमसृग्दरम्।
हन्ति शोषमपस्मारं विसर्पं सशिरोग्रहम्॥१०॥
आयुर्वर्णकरं चैव बलातैलं प्रजाकरम्।
वातव्याधौ बृहद्बलातैलम्।
बृहद्बलायास्तु तुलां चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्॥११॥
समुत्तार्य ततः सम्यग्दशभागस्थिते रसे।
दधिमण्डेक्षुनियर्यासयुक्तैस्तैलाढकं समैः॥१२॥
पचेत्साजपयोर्धांशैः कल्कैरेभिः पलोन्मितैः।
शठीसरलदार्वेलामञ्जिष्ठागुरुचन्दनैः॥१३॥
पद्मकातिबलामुस्तासूर्यपर्णीहरेणुभिः।
यष्ट्याह्वसुरसव्याघ्रनखर्षभकजीवकैः॥१४॥
पलाशरसकस्तूरीनलिकाजातिकोशकैः।
स्पृक्काकुङ्कुमशैलेयमालतीकट्फलाम्बुभिः॥१५॥
त्वचाकुन्दुरुकर्पूरतुरुष्कश्रीनिवासकैः।
लवङ्गनखकङ्कोलकुष्ठमांसीप्रियङ्गुभिः॥१६॥
स्थौणेयतगरध्यामवचादमनचोरकैः।
सनागरकेशरैः सिद्धे दद्यात्पात्रावतारिते॥१७॥
तत्र कल्कं ततः पूतं विधिना च प्रयोजयेत्।
कासं श्वासं ज्वरं छदिं शूलं हिक्कां क्षतक्षयम्॥१८॥
प्लीहं शोषमपस्मारमलक्ष्मीं च प्रणाशयेत्।
बलातैलमिदं श्रेष्ठं वातव्याधिहरं परम्॥१९॥
वातव्याधौ तृतीयं बलातैलम्।
बलाशतकषाये तु तैलस्यार्धाढकं पचेत्।
कल्कैर्मधुकमञ्जिष्ठाचन्दनोत्पलपद्मकैः॥२०॥
सूक्ष्मैलापिप्पलीकुष्ठत्वगेलागरुकेशरैः।
गन्धैश्च जीवनीयैश्च क्षीराढकसमायुतम्॥२१॥
एतन्मृद्वग्निना पक्वं स्थापयेद्भाजने शुभे।
सर्ववातविकारांस्तु सर्वधात्वन्तराश्रयान्॥२२॥
तैलमेतत्प्रशमयेच्छिन्नाभ्रमिव मारुतः।
बलातैलं नरेन्द्रार्हमेतद्वातविकारनुत्॥२३॥
मूढगर्भे चतुर्थे बलातैलम्।
बलामूलकषायस्य दशमूलीकृतस्य च।
गवकोलकुलत्थानां क्वाथस्य पयसस्तथा॥२४॥
अष्टावष्टौ शुभा भागास्तैलादेकस्तदैकतः।
पचेदावाप्य मधुरं गणं सैन्धवसंयुतम्॥२५॥
तथागरुं सर्जरसं सबलं देवदारु च।
मजिष्ठां चन्दनं कुष्ठमेलां कालानुसारिवाम्॥२६॥
शतावरीं चाश्वगन्धां शतपुष्पां पुनर्नवाम्।
तत्साधु सिद्धं सौवर्णे राजते मृन्मयेऽपि वा॥२७॥
प्रक्षिप्य कलशे सम्यक् स्वनुगुप्तं निधापयेत्।
बलातैलमिदं ख्यातं सर्ववातविकारनुत्॥२८॥
यथाबलमतो मात्रां सूतिकायै प्रदापयेत्।
या च गर्भार्थिनी नारी क्षीणशुक्रश्च यः पुमान्॥२९॥
धातुक्षीणे मर्महते मथितेऽभिहते तथा।
भग्ने श्रमाभिपन्ने च सर्वथैव प्रयुज्यते॥३०॥
एतदाक्षेपकादींश्च वातव्याधीनपोहति।
प्रत्यग्रधातुःपुरुषो भवेत्सुस्थिरयौवनः॥३१॥
राज्ञामेतत्प्रकर्तव्यं राजमात्राश्च ये नराः।
सुखिनः सुकुमाराश्च धनिनश्चापि ये नराः॥३२॥
वातव्याधौ प्रसारणीतैलम्।
समूलपत्रामुत्पाट्य जातसारां प्रसारणीम्।
कुट्टयित्वा पलशतं कटाहे समधिश्रयेत्॥३३॥
चारिद्रोणसमायुक्तं चतुर्भागावशेषितम्।
कषायसममात्रं तु तैलमत्र प्रदापयेत्॥३४॥
दध्नस्तथाऽऽढकं दत्वा द्विगुणैश्चाम्लकाञ्जिकैः।
यवक्षारपले द्वे च सैन्धवस्य पलद्वयम्॥३५॥
द्वे पले पिप्पलीमूलाच्चित्रकस्य पलद्वयम्।
एतत्सर्वं समालोड्य शनैर्मृद्वग्निना पचेत्॥३६॥
एतदभ्यञ्जनं श्रेष्ठं नस्यकर्मणि शस्यते।
पाने बस्तौ च दातव्यं न क्वचित्प्रतिहन्यते॥३७॥
अशीतिर्वातरोगाणां तैलमेतद्व्यपोहति।
गृध्रसीं सास्थिभङ्गां च मन्दाग्नित्वं च नाशयेत्॥३८॥
अपस्मारमथोन्मादं विद्रधिं मन्दगामिताम्।
त्वग्गताश्चापि ये वाताः शिरासन्धिगताश्च ये॥३९॥
जानुगुल्फगताश्चैव पादपृष्ठगतास्तथा।
अश्वं वा वातसंभग्नं नरं वा जर्जरीकृतम्॥४०॥
सर्वान् प्रशमयत्येतत्तैलमात्रेयपूजितम्।
इन्द्रियैश्वर्यजननं वन्ध्यानां च प्रजाकरम्॥४१॥
एतेनान्धकवृष्णीनां बहुच्छत्रं कुलं कृतम्।
प्रसारणीतैलमिदं बलमांसविवर्धनम्॥४२॥
धन्यं प्रजाकरं श्रेष्ठं वृद्धकालेऽपि सेवितम्।
पङ्गुलः पीठसर्पि वा पीत्वैतत्संप्रधावति॥४३॥
द्वितीयं प्रसारणीतैलम्।
प्रसारण्याः पलाशतं बलामूलार्धभागिकम्।
शतावर्यश्वगन्धा च शतपुष्पा पुनर्नवा॥४४॥
गडूची दशमूलं च चित्रको मदनं शठी।
पलांशकान् समापोथ्य जलद्रोणे विपाचयेत्॥४५॥
चतुर्भागावशेषं तु कषायमवतारयेत्।
रास्नांशताह्वांमधुकं पिप्पलीं नागरं वचां॥४६॥
कुष्ठं हरेणुकां मांसीं प्रियङ्ग्विन्द्रयवान् बिडम्।
सैन्धवं शृङ्गवेरं च यवक्षारं सचित्रकम्॥४७॥
मधूलिकां व्याघ्रनखं पालिकान् श्लक्ष्णपेषितान्।
पचेत्तैलाढकं पूतमारनालपयोयुतम्॥४८॥
एतदभ्यञ्जनं श्रेष्ठं नस्यकर्मानुवासने।
गृध्रसीमस्थिभङ्गं च ये च मन्दाग्नयो नराः॥४९॥
अपस्मारं तथोन्मादं विद्रधिं मन्दगामिताम्।
त्वग्गताश्चापि ये वाताः शिरासन्धिगताश्च ये॥५०॥
अश्वं वा वातसंभग्नं नरं वा जर्जरीकृतम्।
सर्वान् प्रशामयत्येतत्तैलमात्रेयपूजितम्॥५१॥
स्थिरीकरणमेतद्धि वलीपलितनाशनम्।
इन्द्रियाणां बलकरं वर्णौदार्यकरं तथा॥५२॥
बल्यं प्रजाकरं श्रेष्ठं वृद्धकालेऽपि सेवितम्।
पङ्गुर्वाऽप्यथवा खञ्जः पीत्वा तैलं प्रधावति॥५३॥
वातरोगे तृतीयं प्रसारणीतैलम्।
समूलपत्रामुत्पाट्य जातसारां प्रसारणीम्।
कुट्टयित्वा पलशतं कटाहे समधिश्रयेत्॥५४॥
दशमूली बला रास्ना तथा सहचरामृते।
शतावरी श्वदंष्ट्रा च एरण्डः कपिकच्छुका॥५५॥
पृथग्दशपलान् भागांस्तथैव समधिश्रयेत्।
वारिद्रोणे समायुक्तं चतुर्भागावशेषितम्॥५६॥
कफयसमभागं तु तैलमत्र प्रदापयेत्।
प्रशस्तेच दिने कार्यंनक्षत्रे चापि शोभने॥५७॥
देवदारु वचा मुस्तं शताह्वामधुयष्टिका।
पिप्पली मधुकं रास्ना ह्यष्टवर्गेण संयुता॥५८॥
चित्रकं पद्मकोशीरे कुष्ठं व्याघ्रनखं शठी।
शुण्ठीसैन्धवमञ्जिष्ठाः कल्कपेष्याणि कारयेत्॥५९॥
दधिमस्त्वम्लयुक्तानां तथा मांसरसस्य च।
आढकाढकमादाय शनैर्मृद्वग्निना पचेत्॥६०॥
एतदभ्यञ्जनं पानं नस्यकर्मानुवासनम्।
पृष्ठपार्श्वग्रहे शूले सक्थिबङ्क्षणयोस्तथा॥६१॥
एकाङ्गकेपक्षवधे हनुमन्याशिरोग्रहे।
बाधिर्ये कर्णशूले च कर्णनादे च दापयेत्॥६२॥
अभ्यङ्गात्त्वग्गतं हन्ति पानान्मांसगतं तथा।
पङ्काशयगते बस्तिर्निरूहः सार्वकार्मिकः॥६३॥
अशीतिर्वातजान् रोगांश्चत्वारिंशच्च पैत्तिकान्।
विंशतिः श्लेष्मजांश्चैव सर्वानेवापकर्षति॥६४॥
गृध्रसीं वातभग्नं च ऋतुदोषं तथैव च।
ये नरा नष्टशुक्राश्च ऋतुहीनाश्च याः स्त्रियः॥६५॥
वन्ध्या च लभते गर्भमृतुस्नाता न संशयः।
(यस्मात्प्रसारयत्येषा मेधाग्निजनता शुभा॥६६॥
आयुर्वृद्धिकरा चैव तथा जनकपूजिता। १)
वातव्याधौ चतुर्थे प्रसारणीतैलम्।
प्रसारणीशतं क्षुण्णं पचेत्तोयार्मणे शुभे॥६७॥
पादशेषे पचेत्तैलंदधिमस्त्वम्लकाञ्जिकम्।
द्विगुणं श्लक्ष्णपिष्टानि द्रव्याणीमानि योजयेत्॥६८॥
द्विपलाम्यग्रिमधुककणामूलं पटुं वचाम्।
मूलं तथा प्रसारण्याः क्षारं च यवशूकजम्॥६९॥
त्रिंशद्भल्लातकास्थीनि नागरात्पलपञ्चकम्।
सिद्धं मृद्वग्निना तैलं वातश्लेष्मामयाञ्जयेत्॥७०॥
अशीतिर्नरनारीणां वातरोगान्निषूदति।
कुब्जवामनपङ्गुत्वं खञ्जत्वं गृध्रसीं खुडम्॥७१॥
हन्यात्पृष्ठकटिग्रीवास्तम्भं चाशु व्यपोहति।
पीठसर्पी विभग्नश्च पीत्वा तैलं सुखी भवेत्॥७२॥
प्रसारणीतैलमिदं बलवर्णाग्निवर्धनम्।
वातरक्ते शंतावरीतैलम्।
शतावरीरसप्रस्थं क्षीरप्रस्थं तथैव च॥७३॥
शतपुष्पा देवदारु मांसी शैलेयकं बला।
चन्दनं तगरं कुष्ठमेला सांशुमती तथा॥७४॥
एतैः कर्षसमैर्भागैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत्।
कुष्ठवामनपङ्गूनां बधिरव्यङ्गकुष्ठिनाम्॥७५॥
वायुना भग्नदेहानां येऽवसीदन्ति मैथुने।
जराजर्जरदेहानां वर्ध्मार्तमुखशोषिणाम्॥७६॥
त्वग्गताश्चापि ये वाताः सिरास्नायुगताश्च ये।
सर्वांस्तान्नाशयत्याशु तैलं नास्त्यत्र संशयः॥७७॥
नारायणमिदं नाम्ना विष्णुना समुदाहृतम्।
दशाङ्गमिति विख्यातं न क्वचित्प्रतिहन्यते॥७८॥
वातव्याधौ द्वितीयं शतावरीतैलम्।
शतावर्यास्तु मूलानां रसप्रस्थं समाहरेत्।
क्षीरद्विगुणसंयुक्तं तैलप्रस्थं विपाचयेत्॥७९॥
शतपुष्पा देवदारु मांसी शैलेयकं वचा।
मञ्जिष्ठा चन्दनं कुष्ठमेला चांशुमती बला॥८०॥
तुरङ्गगन्धा काकोली मेदा रास्ना पुनर्नवा।
एतैरर्धपलैर्द्रव्यैः शनैर्मृद्वग्निना पचेत्॥८१॥
अस्य तैलस्य पक्वस्य शृणु वीर्यमतः परम्।
कुब्जानां वामनानां च पङ्गूनां पीठसर्पिणाम्॥८२॥
आक्षेपके च भग्नानां तथा भग्नास्थिसन्धिषु।
एकाङ्गं तुद्यते यस्य गतिर्यस्य विहन्यते॥८३॥
रक्तपित्तहरं शस्तं वातघ्नं परमं स्मृतम्।
वातव्याधौ रास्नातैलम्।
रास्नामूलस्य कुर्वीत द्वेशते च बलाशतम्॥८४॥
शतावरीगुडूचीभ्यां वरुणाच्च शतं शतम्।
निर्गुण्डीशिग्नुकैरण्डशिरीषारग्वधादपि॥८५॥
श्वदंष्ट्राभूतिकाभ्यां च पृथक् पञ्चपलं क्षिपेत्।
तोयद्रोणेषु शतसु साधयेत्सूक्ष्मकुट्टितम्॥८६॥
द्रोणावशेषे तैलस्य शुद्धस्यार्धार्मणं पचेत्।
द्रोणा दश च दुग्धस्य घृतस्यार्धाढकं तथा॥८७॥
तदैकध्यं विपक्तव्यं गर्भं चात्र समावपेत्।
मधुकं मालतीपुष्पं मञ्जिष्ठां मदयन्तिकाम्॥८८॥
काश्मर्याण्यजमोदां च लवलीं तालमस्तकम्।
आत्मगुप्ताफलं मूर्वांवार्ताकानि मधूलिकाम्॥८९॥
सहदेवामयैरण्डं रोहिषं नवमालिकाम्।
कायस्थां च वयस्थां च मधुपणीं च चित्रकम्॥९०॥
महापुरुषदन्तां च बलां सकदलीफलाम्।
देवदार्वगरुश्रेष्ठं चन्दनं परिपेलवम्॥९१॥
नीलोत्पलमुशीराणि मृद्वीकां साम्लवेतसाम्।
एभिः पलशतैः पिष्टैः सम्यक् तैलं विपाचयेत्॥९२॥
भोजनाभ्यञ्जने पाने बस्तौ नस्से च शस्यते।
वातव्याधिषु सर्वेषु क्षतक्षीणे शिरोग्रहे॥९३॥
अपस्मारे रक्तगुल्मे पुंसां नष्टे च रेतसि।
रास्नातैलमिदं श्रेष्ठं बलमांसविवर्धनम्॥९४॥
वातव्याधौ शताह्वातैलम्।
जलद्रोणे शताह्वायाः पादशेषे तुलां पचेत्।
क्वाथं तैलाढकोन्मिश्रं पचेत्क्षीरे चतुर्गुणे॥१५॥
हरेष्णुकुष्ठसूक्ष्मैलातगरागरुसैन्धवैः।
पक्वं कल्कैः पलसमैः प्रयोज्यंवातरोगनुत्॥९६॥
योनिशुक्ररजोदोषनाशनं स्त्रीषु पुत्रदम्।
शताह्वातैलमित्येतंद्बृंहणं बलवर्धनम्॥९७॥
वातव्याधौ मूलकतैलम्?
बालः लकानेर्यूहतैलदध्यम्लकाञ्जिकम्।
क्षीरं घाढकीयानि पचेत्कल्कैः पलोन्मितैः॥९८॥
रास्ना भल्लातकं चैव सैन्धवं गजपिप्पली।
बला सातिविषा शुण्ठी पिप्पल्यश्चित्रकं वचा॥९९॥
श्वदंष्ट्रा चेति तत्पक्वंश्लेष्मवातामयापहम्।
वर्ध्ममृध्रसीपङ्गुत्वं कुण्डलं सापतन्त्रकम्॥१००॥
कट्यूरुस्तम्भशोषं च पर्वस्तम्भं सकम्पनम्।
हन्याद्गुल्मं च वातोत्थं बलवर्णाग्निवर्धनम्॥१०१॥
वन्ध्यानां पुत्रदं चैव तैलं मूलकसाह्वयम्।
वातव्याधौ सहचरतैलम्।
समूलपत्रशाखस्य शतं सहचरस्य च॥१०२॥
चतुर्गुणे जलद्रोणे साधयेत्सूक्ष्मचूर्णितम्।
द्रोणावशेषे पूते च पचेत्तैलाढकं शनैः॥१०३॥
सहचरस्यमूलानां पेष्यं दशपलं भवेत्।
परिस्त्राव्य सुखोष्णे तु शर्करायाः प्रदापयेत्॥१०४॥
पलानि दश चाष्टौ च निर्मथ्य च निधापयेत्।
बस्तौ पाने तथाऽभ्यङ्गे नस्ये चैव प्रशस्यते॥१०५॥
एकाङ्गिकं पक्षवधं हनुग्रहशिरोग्रहम्।
अर्दितं वेपथून्मादं सर्वगात्रग्रहं ज्वरम्॥१०६॥
गृद्धसीं वातगुल्मं च भूतोपहतचेतसम्।
अपसारं हनुस्तम्भमूरुस्तम्भंच नाशयेत्॥१०७॥
मण्डकुण्डलवर्ध्मानि हनुजानुविकुञ्चनम्।
संधानं सर्वगात्राणां स्तम्भनं शोधनं तथा॥१०८॥
तैलमेतत्प्रशमयेच्छिन्नाभ्राणीव मारुतः।
वातव्याधौ सहचरतैलम्।
समूलपत्रशाखस्यशतं सहचरस्य च॥१०९॥
क्षोदयित्वा जलद्रोणे क्वाथं पादावशेषितम्।
शतपुष्पा देवदारु मांसी शैलेयकं वचा॥११०॥
चन्दनं तगरं कुष्ठमेलां चांशुमतीं तथा।
एतैः कर्षसमैर्भागैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत्॥१११॥
पयस्तद्द्विगुणं दत्त्वा पलान्यष्टौ च शर्करा।
अथ तैलस्य पक्वस्यशृणु वीर्यमतः परम्॥११२॥
ये च कोष्ठगता वाता ये च वाताः शिरोगताः।
अस्थिमज्जगताश्चैव कर्णमध्यगताश्च ये॥११३॥
मूकानां मिन्मिणानां च पीठकट्यूरुसर्पिणाम्।
स्वभावेन च ये भग्ना अस्थिभग्नाश्च ये नराः॥११४॥
तेषां च संप्रयोक्तव्यं हितमेतदतूपमम्।
वातव्याधौ श्योनाकतैलम्।
श्योनाकमूलस्य शतं दशमूलीशतं तथा॥११५॥
रोहिषं शिग्रुकं रास्नां पृथक् पञ्चशतं क्षिपेत्।
छागलादथगव्याच्च माहिषात्कौक्कुटादपि॥११६॥
पञ्चाशत्पलिकान् भागान् मांसादेषां प्रदापयेत्।
चतुर्षु तोयद्रोणेषु साधयेच्छक्ष्णकुट्टितम्॥११७॥
द्रोणावशेषे पूते च पचेत्तैलाढकं शनैः।
महासहां क्षुद्रसहां जीवन्तीं जीवकं वचाम्॥११८॥
कुष्ठं च शतपुष्पां च सूक्ष्मैलां चैलवालुकम्।
जीवकषर्भकौद्राक्षां शृङ्गीं कर्कटकस्य च॥११९॥
मोचां च निचुलं मुस्तां सारिवे द्वे महौषधम्।
खुड्डाकपद्मकं तैलम्।6
पद्मकोशीरयष्ट्याह्वरजनीक्वाथसाधितम्॥१३३॥
सुपिष्टैः सर्जमज्जिष्ठावीराकाकोलिचन्दनैः।
खुड्डाकपद्मकं तैलं वातासृग्दरदाहजित्॥१३४॥
वातरक्ते महापद्मकं तैलम्।
पद्मवेतसयष्ट्याह्वफलिनीपद्मकोत्पलैः।
पृथक् पञ्चपलैर्दर्भवलाचन्दनकिंशुकैः॥१३५॥
जले शृतैः पचेत्तैलं प्रस्थं सौवीरसंयुतम्।
लोध्रकालीयकोशीरजीवकर्षभकेशरैः॥१३६॥
मदयन्तिलतापत्रपद्मकेशरपत्रकैः।
प्रपौण्डरीककाकोलीमांसीदारुप्रियङ्गुभिः॥१३७॥
कुङ्कुमस्य पलार्धेन मञ्जिष्ठाद्विपलेन च।
महापद्ममिदं तैलं वातासृग्रोगनाशनम्॥१३८॥
ज्वरे तृतीयं महापद्मकं तैलम्।
दर्भवेतसमूलानि चन्दनं मधुकं बला।
फेनिलापद्मकोशीरमञ्जिष्ठाकमलोत्पलैः॥१३९॥
कैंशुकं च विभागाः स्युः पृथक् पञ्चपलोन्मिताः।
जलद्रोणे विपक्तव्यमष्टभागावशेषितम्॥१४०॥
जीवकर्षभकौ मेदां रोध्रं भल्लातकं तथा।
कालीयकं प्रियङ्गुंच दद्यात्केशरमेव च॥१४१॥
प्रपौण्डरीकं मधुकं पद्मकं पद्मकेशरम्।
सुरभिं कुङ्कुमं चैव मञ्जिष्ठां मदयन्तिकाम्॥१४२॥
मांसीं पत्रं च तुल्यांशं द्विगुणं कुङ्कुमं भवेत्।
चतुर्गुणा तु मञ्जिष्ठा सौवीरं तैलसंमितम्॥१४३॥
तैलप्रस्थं पचेदेभिः कषायेणाथ पेषितैः।
एतदभ्यञ्जनं तैलं विषमज्वरनाशनम्॥१४४॥
महापद्ममिदं ख्यातमेतत्तैलं महागुणम्।
वर्णप्रसादजननं सौकुमार्यविवर्धनम्॥१४५॥
पानाभ्यञ्जनबस्तौ च नखकर्मणि च स्मृतम्।
वातपित्तभवं क्षिप्रं ज्वरमेतन्नियच्छति॥१४६॥
वातव्याधौ बृहन्माषतैलम्।
प्रस्थे द्वे खण्डमाषाणां क्वाथयेत्सलिलार्मणे।
चतुर्भागावशेषेण तैलप्रस्थं विपाचयेत्॥१४७॥
मस्तुनस्त्वाढकं दत्त्वा तत्समं चाम्लकाञ्जिकम्।
औषधानि च पेष्याणि तत्रेमानि प्रदापयेत्॥१४८॥
सैन्धवं मदनं रास्ना शताह्वात्र्यूषणं वचा।
तगरं चोरुबुकं च मञ्जिष्ठा पद्मकेशरम्॥१४९॥
बला गोक्षुरकंपाठा सरलं देवदारु च।
साजगन्धाऽश्वगन्धा च पुष्करं सपुनर्नवम्॥१५०॥
एतानि चाक्षमात्राणि कल्कीकृत्य प्रयोजयेत्।
नस्येपाने तथाऽभ्यङ्गे बस्तिकर्मणि योजयेत्॥१५१॥
अर्दितं कर्णशूलं च मन्यास्तम्भं हनुग्रहम्।
वाधिर्यंपक्षघातं च गृध्रसीं खञ्जपङ्गुलम्॥१५२॥
सर्वानेतान् जयेच्छीघ्रं वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा।
माषतैलमिदं नाम्ना सर्ववातविकारनुत्॥१५३॥
बाहुरोगे लघुमाषतैलम्।
कपिकच्छुवाट्यालकशतावरीसितपुनर्नवामूलैः।
सैन्धवजिङ्गिणिकातरुनिर्यासाभ्यां च कुटुतैलम्॥१५४॥
माषक्वाथेन पचेद्द्विगुणेन पूर्वकल्कसंयुक्तम्।
सकृदुपयुक्तमिदं नस्येन निहन्ति बाहुरुजम्॥१५५॥
वातव्याधौ तृतीयं महामाषतैलम्।
भाषातसीपवकुरण्टककण्टकारी-
ण्डुकजटाककच्कुतोयैः
कार्पासिकास्थिशणबीजकुलत्थकोल–
क्वाथेन बस्तपिशितस्यरसेन तैलम्॥१५६॥
शुण्ठ्या समागधिकया शतपुष्पया च
सैरण्डमूलसपुनर्नवया सपर्ण्या।
रास्नाबलामृतलताकटुकैर्विपक्वं
माषाख्यमेतदवबाहुकहारि तैलम्॥१५७॥
अर्धाङ्गशोषमपतानकमाढ्यवात-
माक्षेपकं सभुजकम्पशिरःप्रकम्पम्।
नस्येन बस्तिविधिना परिषेचनेन
हन्यात्कटीजघनजानुरुजः समीरान्॥१५८॥
वातव्याधौ दशाङ्गतैलम्।
शैरेयकोऽमृतलता वाजिगन्धा शतावरी।
प्रसारणी नागबला श्वदंष्ट्रा सपुनर्नवा॥१५९॥
बला चेति समान् भागान् रास्नारससमन्वितान्।
विज्ञाय दोषप्रकृतिं कषायमुपकल्पयेत्॥१६०॥
तेन पादावशेषेण तिलतैलाढकं पचेत्।
दधिमस्त्विक्षुनिर्यासशुक्तलाक्षोदकैः समैः॥१६१॥
चतुर्गुणेन पयसा कल्कैरेभिर्पलोन्मितैः।
मांसीशताह्वामधुकमञ्जिष्ठारक्तचन्दनैः॥१६२॥
शतावरीदेवदारुकौन्तीत्वक्पत्रवारिजैः।
कुष्ठागरुवचायुक्तैस्तैलं सिद्धं प्रदापयेत्॥१६३॥
बस्तौ पाने तथाऽभ्यङ्गे नस्ये च परिषेचने।
सर्वरोगान् जयत्येतत्संसृष्टान् मातरिश्वना॥१६४॥
विशेषतो ह्यपस्मारमुन्मादं वातशोणितम्।
स्त्रीणामपत्यजननं पुंसां चातिबलप्रदम्॥१६५॥
नराणां गद्गदानां च मूकानां वाक्प्रवर्तनम्।
मेधाजननमायुष्यं बलवर्णाग्निवर्धनम्॥१६६॥
सर्वग्रहघ्नं विषजित् सन्निपातहरं परम्।
दशाङ्गमिति विख्यातमश्विभ्यां परिकीर्तितम्॥१६७॥
ऊरुस्तम्भे सैन्धवाद्यं तैलम्।
द्वे पले सैन्धवात्पञ्च शुण्ठ्या ग्रन्थिकचित्रकात्।
द्वे द्वे भल्लातकास्थीनि विंशतिर्द्वे तथाऽढकम्॥१६८॥
आरनालं पचेत्प्रस्थं तैलस्यैरण्डजस्य च।
गृध्रस्यूरुग्रहार्शोर्तिसर्ववातविकारनुत्॥१६९॥
कुसुम्भाद्यं तैलम्।
कुसुम्भकुङ्कुमोशीरमञ्जिष्ठारक्तचन्दनैः।
सिक्थसर्जरसातङ्कगुडूचीसैन्धवाम्बुदैः॥१७०॥
मूर्वाशतावरीलाक्षामधुकैश्च पलांशकैः।
चतुर्गुणेन पयसा पचेत्तैलाढकं भिषक्॥१७१॥
अर्दितं कर्णशूलं च शिरःशूलं च दारुणम्।
गृध्रसीं वातरक्तं च पक्षाघातं व्यपोहति॥१७२॥
तद्बस्तिषु च पानेषु नस्ये च कर्णपूरणे।
अभ्यङ्गे च शिरोरोगे तैलं विद्याद्यथाऽमृतम्॥१७३॥
पाणिपादांसदाहेषु गुदयोनिरुजासु च।
सुप्तिवातेऽस्थिभङ्गे च देवदेवेन पूजितम्॥१७४॥
भगन्दरे मागध्याद्यं तैलम्।
मागधी मधुकं रोध्रं कुष्ठमेला हरेणवः।
समङ्गा धातकी चैव सारिवा रजनीद्वयम्॥१७५॥
प्रियङ्गवःसर्जरसः पद्मकं पद्मकेशरम्।
मातुलुङ्गस्य पत्राणि मधूच्छिष्टं ससैन्धवम्॥१७६॥
एतत्संभृत्य संभारं तेलं धीरो विपाचयेत्।
एतद्धि गण्डमालासु मण्डलेष्वथ मेहिषु॥१७७॥
रोषर्णार्थेहितं तैलं भगन्दरविनाशनम्।
भगन्दरे चित्रकाद्यं तैलम्।
चित्रकार्कत्रिवृत्पाठामलयूहयमारकान्॥१७८॥
सुधां वचां लाङ्गलिकां सप्तपर्णं सुवर्चिकाम्।
ज्योतिष्मतीं च संभृत्य तैलं धीरो विपाचयेत्॥१७९॥
एतदभ्यञ्जनं तैलं भृशं दद्याद्भगन्दरे।
शोधनं रोपणं चैव सवर्णकरणं तथा॥१८०॥
गण्डमालायामजमोदाद्यं तैलम्।
अजमोदा च सिन्दूरं हरितालं निशाद्वयम्।
क्षारद्वयं फेनयुतं सार्द्रकं सरलोद्भवम्॥१८१॥
इन्द्रवारुण्यपामार्गकदलीकन्दकैः समैः।
एभिः सार्षपकं तैलमजामूत्राष्टयोजितम्॥१८२॥
मृद्वग्नौ पाचयेदेतत्स्नुह्यर्कक्षीरसंयुतम्।
अजमोदादिकं तैलं गण्डमालां व्यपोहति॥१८३॥
आमां विदग्धां तु पचेत्पक्वांचैव विशोधयेत्।
रोपणं मृदुभावं च तैलेनानेन कारयेत्॥१८४॥
वातव्याधावश्वगन्धाद्यं तैलम्।
मूलानि चाश्वगन्धायाः शतं स्यात्खण्डशः कृतम्।
द्विद्रोणेऽपां पचेत्क्वाथमष्टभागावशेषितम्॥१८५॥
तैलाढकं समावाप्य क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम्।
एतत्समालोड्य पचेत्कल्कांश्चेमान् समावपेत्॥१८६॥
तगरं शतपुष्पां च मुस्तं व्याघ्रनखं त्वचम्।
मधुकं शृङ्गवेरं च पृश्निपणींबलां स्थिराम्॥१८७॥
रास्नांपुष्करमूलं च भूतीकं सपुनर्नवम्।
मञ्जिष्ठां नलदं पत्रं द्रवन्तीं सुरसां वचाम्॥१८८॥
श्वदंष्ट्रां च मृणालं च वयस्थां बहुपुत्रिकाम्।
श्लक्ष्णपिष्टार्धपलिकान् दत्त्वा गर्भं विपाचयेत्॥१८९॥
तत्सिद्धमविदग्धं च ततः समवतारयेत्।
वस्तौ पाने तथाऽभ्यङ्गे नस्यकर्मणि भोजने॥१९०॥
यत्र यत्र विधातव्यं तन्मे निगदतः शृणु।
खञ्जमूकजडत्वे च तिमिरे च तथाऽर्बुदे॥१९१॥
पक्षाघाते तथाऽऽयामे च्युतभग्नास्थिसन्धिषु।
विधेयं पृष्ठभग्नेषु हनुमन्याग्रहे तथा॥१९२॥
स्तम्भकम्पेषु शोफेषु रुजासु विविधासु च।
ज्वरे च विषमे गुल्मे तथा मारुतशोणिते॥१९३॥
प्लीह्निप्लीहोदरे चैव विद्रधिगृध्रसीषु च।
क्षीणेन्द्रिया नष्टशुक्रा ये चान्ये षण्ढका नराः॥१९४॥
भूतोपहतचित्ताश्च शस्यते तेषु नित्यशः।
व्यापन्नयोनौ वन्ध्यासु पाययेत तदा भिषक्॥१९५॥
पुत्रदं परमं प्रोकं धन्वन्तरिवचो यथा।
वातव्याधावश्चागन्धाद्यं तैलम्।
अश्वगन्धाशतं क्षुण्णं क्वाथ्य द्रोणे जलस्य च॥१९६॥
निःस्राव्य विपचेत्तैलं क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम्।
कल्कैर्मृणालशालूकबिशकिञ्जल्कमालती-॥१९७॥
पुष्पैर्ह्रावेरमधुकवक्रसारिवकैशरैः।
भेदापुनर्नवाद्राक्षामञ्जिष्ठाबृहतीद्वयैः॥१९८॥
वचैलापत्रत्रिफलामुस्तचन्दनपद्मकैः।
पित्तरक्ताश्रयान्वातान् रक्तपित्तमसृग्दरम्॥१९९॥
हन्यात्पुष्टिकरं चैव कृशानां मांसवर्धनम्।
रेतोयोनिविकारघ्नं व्रणदोषापकर्षणम्॥२००॥
षण्ढानपि वृषान् कुर्यात्यानाभ्यङ्गानुवासनैः।
कुङ्कुमाद्यं मुखकान्तिदं तैलम्।
कुङ्कुमं चन्दनं पत्रमुशीरं कमलोत्पले॥२०१॥
गोरोचना हरिद्रे द्वे मञ्जिष्ठा मधुयष्टिका।
सारिवारोसबापत्रगैरिककेशरम्॥२०२॥
स्वर्णक्षीरी प्रियङ्गुश्च कालेयं रक्तचन्दनम्।
एभिरक्षसमैर्भागैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत्॥२०३॥
अभ्यङ्गाद्राजपत्नीनां ये चान्ये धनिनो नराः।
तिलकान् पिडकान् व्यङ्गान् नीलिकां मुखदूषिकाम्॥२०४॥
कार्श्यंचापि शरीरस्य दुश्छायां च विवर्णताम्।
नाशयेच्चाशु जनयेद्रूपं चाथ मनोहरम्॥२०५॥
पद्मकेशरवर्णाभं मुखं भवति कान्तिमत्।
वातरक्ते यष्टीमधुकाद्यं तैलम्।
मधुयष्ट्याः पलशतं कषाये पादशेषिते॥२०६॥
तैलाढकं समक्षीरं पचेत्कल्कैः पलोन्मितैः।
शतपुष्पावरीकुष्ठपयस्यागुरुचन्दनैः॥२०७॥
स्थिराहंसपदीमांसीद्विमेदामधुपर्णिभिः।
काकोलीक्षीरकाकोलीतामलक्यर्धिपद्मकैः॥२०८॥
जीवन्तीजीवकवचात्वत्पत्रनखवालकैः।
प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठासारिवैन्द्रीवितुन्नकैः॥२०९॥
चतुष्प्रयोगात्तद्धन्ति7 तैलं मारुतशोणितम्।
सोपद्रवं साङ्गशूलं सर्वगात्रानुगं तथा॥२१०॥
वातासृक्पित्तदाहार्तिज्वरघ्नं बलवर्णकृत्।
कर्णरोगे लघुक्षारतैलम्।
शुष्कमूलकशुण्ठीनां क्षारो हिङ्गु महौषधम्॥२११॥
शतपुष्पा वचा कुष्ठं दारु शिग्रु रसाञ्जनम्।
मातुलुङ्गरसश्चैव कदल्या रस एव च॥२१२॥
तैलमेभिर्विपक्तव्यं कर्णशूलहरं परम्।
बाधिर्यं कर्णनादश्च पूयास्रावश्च दारुणः॥२१३॥
कृंमयश्च विनश्यन्ति तैलस्यास्य प्रपूरणात्।
कर्णरोगे बृहत्क्षारतैलम्।
शुष्कमूलकशुण्ठीनां क्षारो हिङ्गु महौषधम्॥२१४॥
शतपुष्पा वचा कुष्ठं दारु शिग्रू रसाञ्जनम्।
मातुलुङ्गरसश्चैव कदल्या रस एव च॥२१५॥
तैलमेभिर्विपक्तव्यं कर्णशूलहरं परम्।
बाधिर्यं कर्णनादश्च पूयास्रावश्च दारुणः॥२१६॥
पूरणादस्य तैलस्य कृमयः कर्णसंश्रिताः।
क्षिप्रं विनाशं गच्छन्ति कृष्णात्रेयस्य शासनात्॥२१७॥
क्षारतैलमिदं श्रेष्ठं मुखदन्तामयापहम्।
नेत्ररोगे भृङ्गराजतैलम्।
भृङ्गरसस्य प्रस्थं तैलात्कुडवं पलं च मधुकस्य॥२१८॥
क्षीरप्रस्थविषक्वंगतमपि चक्षुर्निवर्तयति।
केशवृद्धौ द्वितीयं भृङ्गराजाद्यं तैलम्।
भृङ्गरसत्रिफलोत्पलसारि लोहपुरीषसमन्वितकारि॥२१९॥
तैलमिदं पच दारुणहारि लुञ्चितकेशघनस्थिरकारि।
केशवृद्धौ तृतीयं भृङ्गराजतैलम्।
मार्कवस्वरसमावितगुञ्जाबीजचूर्णपरिपाचिततैलम्॥२२०॥
मिश्रितं तु त्रुटिजटासुरकाष्ठैः केशवर्धनं वनितायाः।
बृहद्धृङ्गराजाद्यं तैलम्।
आनूपदेशजं पुष्टं गृहीत्वा मार्कवं शुभम्॥२२१॥
प्रक्षाल्य जर्जरीकृत्य रसं तस्य प्रपीडयेत्।
चतुर्गुणेन तेनैव तैलप्रस्थंविपाचयेत्॥२२२॥
क्षीरपिष्टैरिमैर्द्रव्यैः संयोज्य मतिमान् भिषक्।
मञ्जिष्ठा पद्मकं रोध्रं चन्दनं गैरिकं बलाम्॥२२३॥
रजन्यौ केसरं दारु प्रियङ्गुमधुयष्टिके।
प्रपौण्डीरीकं सौम्यं च पलिकान्यत्र दापयेत्॥२२४॥
कुष्ठं तगरमाषांश्च सिद्धार्थांश्चागुरुं तथा।
मुस्तकं चाथ शैलेयं कर्चूरं परिकल्कितम्॥२२५॥
सम्यक्पक्वं ततो ज्ञात्वा शुभे भाण्डे निधापयेत्।
केशशाते शिरोदुःखे मन्यास्तम्भे हनुग्रहे॥२२६॥
अकालपलिते चैव दारुणे चैव दारुणे।
दन्तकर्णाक्षिरोगेषु नस्यमेतत्प्रदापयेत्॥२२७॥
नस्यप्रयोगान्मासेन क्षीरान्नप्रतिभोजिनः।
सुकुञ्चिताग्रान् केशांश्च स्निग्धान्कुर्याद्बहूंस्तथा।
खालित्ये सेन्द्रलुप्ते च तैलमेतद्यथाऽमृतम्॥२२८॥
केशरोगे असनाद्यं तैलम्।
असनसारकषायविपाचितं त्रिफलया मधुकेन च संयुतम्।
भवति नावनतैलमनुत्तमं पलितनेत्रविकाररुजापहम्॥२२९॥
शिरोरोगे षड्बिन्दुतैलम्।
एरण्डमूलं तगरं रास्ना यष्टी च सैन्धवम्।
जीवन्ती शतपुष्पा च विडङ्गं नागरं तथा॥२३०॥
मधुकसारमित्येभिः कल्कपिष्टैस्तिलोद्भवम्।
तैलं पचेद्भृङ्गरसे द्विगुणे च पयस्यथ॥२३१॥
षड्बिन्दुनस्यदानेन हन्याच्छीर्षामयान् बहून्।
चलतां द्विजकेशानां पततां दार्ढ्यमानयेत्॥२३२॥
दृग्बलं परमं तेषां बाह्वोःस्यादुत्तमं बलम्।
वलिपलितहृत्तैलमिदं षड्बिन्दुसंज्ञितम्॥२३३॥
शिरोरोगे द्वितीयं षड्बिन्दुतैलम्।
एरण्डमूलं तगरं शताह्वा जीवन्ती रास्ना लवणोत्तमं च।
भृङ्गं विडङ्गंमधुयष्टिका च विश्वौषधं कृष्णतिलस्य तैलम्॥२३४॥
आजं पयस्तैलविमिश्रितं च चतुर्गुणे भृङ्गरसे विपक्वम्।
षड्बिन्दुवोनासिकया प्रयुक्ता निघ्नन्ति सर्वांञ्छिरसो विकारान्॥२३५॥
च्युतांश्च केशान्पतितांश्च दन्तानाबद्धमलांश्च दृढीकरोति।
सुपर्णदृष्टिप्रतिमं च चक्षुर्बाहोर्बलं चाभ्यधिकं करोति॥२३६॥
दन्तरोगे बकुलाद्यं तैलम्।
बकुलस्य फलं लोध्रं बला वल्ली कुरण्टकम्।
चतुरङ्गुलबब्बूलवाजिकर्णारिमेदकम्॥२३७॥
एषां कल्ककषायाभ्यां तैलं पक्वंमुखे धृतम्।
स्थैर्यं करोति दन्तानां चलतां नावनेन च॥२३८॥
दन्तरोगे नीलसहचराद्यं तैलम्।
तुलां धृतां नीलसहाचरस्य संक्षुद्य द्रोणे श्रपयेज्जलस्य।
दत्त्वा चतुर्भागरसेन तेन तैलं पचेदर्धपलप्रयुक्तैः॥२३९॥
कल्कैरनन्ताखदिरेरिमेदजम्ब्वाम्रयष्टीमधुकोत्पलानाम्।
तत्तैलमाश्चेव धृतं मुखेन स्थैर्यंद्विजानां चलतां विदध्यात्॥२४०॥
मुखरोगे इरिमेदाद्यं तैलम्।
इरिमेदत्वक्पलशतमभिनवमापोथ्य खण्डशः कृत्वा।
तोयाढकैश्चतुर्भिनिष्क्वाथ्य चतुर्थशेषेण॥२४१॥
क्वाथेन भिषङ्मतिमान् तैलस्यार्धाढकं शनैर्विपचेत्।
कल्कैरक्षसमांशैर्मञ्जिष्ठारोध्रमधुकानाम्॥१४२॥
इरिमेदखदिरकट्फललाक्षान्यग्रोधमुस्तसूक्ष्मैला-।
कर्पूरागुरुपद्मकलवङ्गकङ्कोलजातीफलानाम्॥२४३॥
पत्तङ्गगैरिकवराङ्गगजकुसुमधातकीनां च।
सिद्धं भिषग्विदध्यादिदं मुखोत्थेषु रोगेषु॥२४४॥
परिशीर्णदन्तविद्रधिशौषिरशीताददन्तहर्षेषु।
कृमिदन्तदरणचलितप्रहृष्टमांसावदीर्णेषु॥२४५॥
मुखदौर्गन्ध्ये च तथा प्रागुक्तेष्वामयेषु नृणाम्।
सुखेन जेष्व संसेर्थाय॥२४६॥
दन्तरोगे द्वितीयमिरिमेदाद्यं तैलम्।
न वृद्धान्नातिबालाच्च त्वक्तुलामिरिमेदकात्।
अपां द्रोणे समावाप्य पचेत्पादावशेषितम्॥२४७॥
ततस्तेन कषायेण क्षीरप्रस्थसमन्वितम्।
लाक्षारससमायुक्तं तैलप्रस्थं पचेन्नरः॥२४८॥
लोध्रकट्फलमञ्जिष्ठापद्मकेसरपद्मकैः।
चन्दनोत्पलयष्ट्याह्वैःपालिकैर्धातकीसमैः॥२४९॥
एतद्रुजापहं नाम तैलं गण्डूषधारणात्।
दारणं दन्तचालं च हनुमोक्षं कपालिकाम्॥२५०॥
शीतादं पूतिवक्रं च शौषिरं विरसास्यताम्।
हन्यादाशु गदानेतान् कुर्याद्दन्तांस्थिरानपि॥२५१॥
दन्तरोगे खदिराद्यं तैलम्।
शतं खदिरसारस्य जलद्रोणेन साधितम्।
पादशेषे रसे लोध्रमञ्जिष्ठारक्तचन्दनैः॥२५२॥
कट्वङ्गोशीरलाक्षैलात्वक्पत्रामरदारूभिः।
समङ्गाकुङ्कुमनस्वपरिपेलववालुकैः॥२५३॥
वालुकागुरुमुस्तैलास्पृक्कातगरपद्मकैः।
कल्कीकृतैः पचेदेभिस्तैलप्रस्थं भिषग्वरः॥२५४॥
धार्यं स्यात्कृमिदन्तेषु दन्तेषु चलितेषु च।
शौषिरे दन्तनाडीषु विद्रध्यां मुखजेषु च॥२५५॥
हन्यादाशु तदभ्यङ्गात्कुष्ठं च कफपित्तजम्।
वातजानि तु कुष्ठानि व्यङ्गप्लीहातिसुप्तिताम्॥२५६॥
त्वग्दोषपिटकाकण्डूरजस्रं वातशोणितम्।
व्रणं मासं च नखेन वलिपलितनाशनम्॥२५७॥
ज्वरे बृहल्लाक्षादितैलम्।
लाक्षा हरिद्रा मञ्जिष्ठा फलिनी मधुकं बला।
लामञ्जकं चन्दनं च गैरिकं नीलमुत्पलम्॥२५८॥
एषां भागान् समान् कृत्वा पक्त्वा तोये चतुर्गुणे।
तुर्यभागावशेषं तु गर्भंचैनं समावपेत्॥२५९॥
हरेणुका पद्मकं च हयगन्धा तथैव च।
वेतसं चोरकं कुष्ठं देवदारु नखत्वचम्॥२६०॥
शतपुष्पा पुण्डरीकं मांसी मधुकमेव च।
एभिरक्षसमैः कल्कैः कषायेनाथ पेषितैः॥२६१॥
दधिशुक्तारनालानामाढकाढकमावपेत्।
क्षीराढकसमायुक्तं तैलप्रस्थं विपाचयेत्॥२६२॥
तदभ्यङ्गे प्रशंसन्ति तैलं दाहनिवारणम्।
वातपित्तोद्भवं क्षिप्रं ज्वरमेतन्नियच्छति॥२६३॥
सप्रलापं सतृष्णं च तालुशोषमथ भ्रमम्।
ग्रहोपसृष्टं बालं च रक्तसंदूषिताश्च ये॥२६४॥
एतत्तैलं प्रशमयेल्लाक्षादिकमिति स्मृतम्।
ज्वरे लघुलाक्षादितैलम्।
लाक्षारसं समादाय तैलप्रस्थाच्चतुर्गुणम् ॥२६५॥
मस्तुनश्चाढकं दद्याद्द्रव्यैरेभिश्च कार्षिकैः।
मधुकेन हरिद्राभ्यां मुस्तेन सह मूर्वया॥२६६॥
रास्नाया कटुरोहिण्या चन्दनेनाश्वगन्धया।
शताह्वया च कुष्ठेन हरेण्वा देवदारुणा॥२६७॥
मञ्जिष्ठापद्मकोशीरबलामांसीभिरेव च।
तत्सिद्धमथ पूतं च स्थापयेद्भाजने शुभे॥२६८॥
जीर्णज्वरपरीतानां श्वासकासार्तिनां तथा।
गर्भिणीनां च नारीणां बालानां शुष्यतामपि॥२६९॥
क्षीणानां शोषिणां चाथ तैलं लाक्षादिकं हितम्।
विषमज्वरमोक्षार्थंसर्वज्वरग्रहापहम्॥२७०॥
सन्निपातज्वरे जात्यादितैलम्।
नवपत्राङ्कुरा जाती द्वे हरिद्रे शतावरी।
जीवकर्षभकौरास्ना सरलं देवदारु च॥२७१॥
मुस्तातालीशमञ्जिष्ठापाठावरुणचित्रकाः।
कुब्जंसर्पसुगन्धं च मधुकं द्वे च सारिवे॥२७२॥
अनन्ताऽऽमलकं मूर्वा मधुकं करवीरकम्।
देवपुष्पं शिरीषस्य मूलं स्योनाकमेव च॥२७३॥
चव्यं लाक्षा पयस्याच कल्कीकृत्याक्षसंमितान्।
पक्त्वा चाथ कषायेण तैलप्रस्थं विपाचयेत्॥२७४॥
एतदभ्यञ्जनाद्धन्यात्सन्निपातात्मकं ज्वरम्।
तैलं जात्यादिकं नाम वातपित्तकफापहम्॥२७५॥
ज्वरे षट्चरणं तैलम्।
लाक्षाविश्वानिशामूर्वामञ्जिष्ठास्वर्जिकामयैः।
षङ्गुणेन च तक्रेण सिद्धं तैलं ज्वरान्तकृत्॥२७६॥
शोषे शिरीषाद्यं तैलम्।
मूलं त्वचं च पत्रं च प्रवालं स्कन्धमेव च।
शिरीषाद्द्वितुले दद्याद्गर्भस्त्वेष प्रकीर्तितः॥२७७॥
वरुणः पारिभद्रश्च ककुभश्चतुरङ्गुलः।
विल्वोऽग्निमन्थः श्योनाकः करघाटः सवञ्जुलः॥२७८॥
गन्धर्वहस्तः काकोली काश्मरी पाटली तथा।
निदिग्धिकाऽथ वार्ताकी शालिपर्णी मयूरकः॥२७९॥
तुरगी श्रेयसी चैव शतावर्युदकं तथा।
सुषव्यतिवला चैव दन्ती सिंहमुखी तथा॥२८०॥
पञ्चाशत्पलिकान् भागान्मूलं पुष्पं च रोहिषात्।
निष्क्वाथस्त्रिफलायाश्च प्रस्थस्त्रिगुणितो भवेत्॥२८१॥
कोलकानां कुलत्थानां यवानां तत्समं तथा।
द्राक्षायाः शतपुष्पायाः कुर्याच्चाढकमाढकम्॥२८२॥
छागलस्य तु मांसस्य द्वे तुले तत्र दापयेत्।
एतत्सर्वं समालोड्य तोयद्रोणेषु पञ्चसु॥२८३॥
द्विद्रोणशेषं पूतं च तैलद्रोणेन संसृजेत्।
पाठा मगधजा रास्ना सुषवी गोक्षुरं बला॥२८४॥
प्रियङ्गुर्द्वे हरिद्रे च मांसी चैला कुटन्नटम्।
देवदारु वचा लोध्रं कुष्ठं व्याघ्रनखं शठी॥२८५॥
मञ्जिष्ठा मधुकं मुस्तं रोध्रं द्वे चापि सारिवे।
सश्रीप्रियं चन्दनं च रक्तकं तैलपर्णिकम्॥२८६॥
समृणालत्वचं पत्रं पतङ्गं नीलमुत्पलम्।
एषां द्विपालिकान् भागान् रम्भागर्भं समावपेत्॥२८७॥
दध्नो दद्याच्च त्रीन्द्रोणान् ततः सिद्धं निधापयेत्।
शैरीषमिति विख्यातमेतत्तैलं क्षायापहम्॥२८८॥
प्रशस्तममृताकारं पानाभ्यञ्जनबस्तिषु।
अपस्मारं तथोन्मादं शोषान् सोपद्रवानपि॥२८९॥
अङ्गमर्दमथो दाहं पाण्डुत्वं स्वरवैकृतम्।
अर्दितं गृधसीं गुल्मान् कम्पं पक्षवधं तथा॥२९०॥
हनुग्रहं खुडावातमाढ्यवातापतानकौ।
मूकत्वं गद्गदत्वं च बाधिर्यंकर्णवेदनाम्॥२९१॥
उरौ जानुनि कुक्षौ च विसर्पंवातशोणितम्।
हन्याद्वर्णबलोपेतो जीवेच्च शरदां शतम्॥२९२॥
प्रयोगादस्यतैलस्य न च रोगाः क्रमन्ति तम्।
विषपीताश्च दुष्टाश्च भूतोपहतचेतसः॥२९३॥
ये पिबन्ति शिरीषाद्यं नीरुजस्ते भवन्ति हि।
मूलकर्मविकाराणां भूतानां दंष्ट्रिणामपि॥२९४॥
अकृष्यं तद्गृहं यत्र तैलमेतद्विधीयते।
शोषे सुकुमारतैलम्।
मधुकस्य शतं दद्यात्काश्मर्याश्च तथाऽऽढकम्॥२९५॥
परूषकाणां द्राक्षायाः खर्जुरौदनपाक्ययोः।
मधूकपुष्पस्य तथा तथा मौञ्जातमाढकम्॥२९६॥
द्विद्रोणेऽपां विपक्तव्यं चतुर्भागावशेषितम्।
तस्मिन् कषाये पूते च पुनरग्नावधिश्रयेत्॥२९७॥
आर्द्रामलककाश्मर्यविदारीक्षुरसाढकम्।
तैलाढकं च संयोज्य पचेत्क्षीरे चतुर्गुणे॥२९८॥
तस्मिंस्तथा पच्यमाने कल्कांश्चेमान् समावपेत्।
पिप्पलीं शृङ्गवेरं च कदलीं च शतावरीम्॥२९९॥
बलां तालं कदम्बं च सूक्ष्मैलां पद्मबीजकम्।
शृङ्गाटकं कसेरुं च जीवनीयानि यानि च॥३००॥
द्विपालिकान् पृथग्दत्त्वा विपचेन्मृदुनाग्निना।
तत्सिद्धं स्रावयित्वाशु शीतं क्षैद्रेण संसृजेत्॥३०१॥
नस्ये चाभ्यञ्जने पाने प्रशस्ते बस्तिकर्मणि।
वातव्याधिषु सर्वेषु क्षतक्षीणे शिरोग्रहे॥३०२॥
पार्श्वशूले प्रमेहे च गुल्मे चार्शोभगन्दरे।
वातभग्नाङ्गहीनानां कासे श्वासे च हृद्ग्रहे॥३०३॥
ज्वरातिसारे ह्यरुचौ कर्णनादे स्वरक्षये।
सुकुमारमिदं तैलं बालवृद्धसुखावहम्॥३०४॥
एतद्धि वृष्यं बल्यं च रक्तमांसविवर्धनम्।
स्वरवर्णकरं चैव शोषिणाममृतोपमम्॥३०५॥
प्रपाकस्यास्यतैलस्य सम्यक्सिद्धस्य यो भवेत्।
उदश्विदि विमध्यार्थं(?) सोऽपि कृत्यकरो भवेत्॥३०६॥
एकादश च षट् चैव शोषिणां य उपद्रवाः।
सुकुमारं प्रशमयेन्मेघोऽग्निमिव वृष्टिमान्॥३०७॥
अर्शसि लघुकासीसाद्यं तैलम्।
काशीसलाङ्गलीदन्तीकरवीरामलैः पचेत्।
तैलमर्कपयोन्मिश्रमभ्यङ्गात्पायुकीलजित्॥३०८॥
अर्शसि पृथुकासीसाद्यं तैलम्।
कासीसं सैन्धवं कृष्णा शुण्ठी कुष्ठं च लाङ्गली।
शिला द्रेक्काश्वमारश्च जन्तुहृद्दन्तिचित्रकौ॥३०९॥
हरितालं तथा स्वर्णक्षीरी चैतैः पचेत्समैः।
तैलंसुधार्कपयसा गवां मूत्रे चतुर्गुणे॥३१०॥
एतदभ्यङ्गतोऽर्शांसि क्षारवत्पातयेद्ध्रुवम्।
क्षारकर्मकरो ह्येष न च दूषयते वलिम्॥३११॥
अर्शसि चित्रकाद्यं तैलम्।
चित्रकं मदनं पीलुंशृङ्गवेरं शुकाननाम्।
स्रोतोजं सैन्धवं दन्तीं हरितालं मनःशिलाम्॥३१२॥
तालीसं करवीरस्य मूलं लाङ्गलिकां वचाम्।
भद्रकं क्षीरिकां चैव स्वर्णक्षीरीं च पेषयेत्॥३१३॥
स्रुह्यर्कक्षीरकुडवौ पाच्यमाने प्रदापयेत्।
मूत्रे चतुर्गुणे तैलं पक्वमर्शोहरं भवेत्।
क्षारकर्मकरं ह्येतदभ्यङ्गात्तैलमुत्तमम्॥३१४॥
कुष्ठे शिंशपासारतैलम्।
दवद्रुदार्वीप्रपुनाटबाकुची–
तुम्बीफलोन्मत्तहयारिदारूभिः।
तुङ्गाफलत्वग्घरिमन्थवह्निजैः
प्रस्थोन्मितैः श्यामलसारषड्गुणैः॥३१५॥
तैलाढकार्धेन परिप्लुतैस्तैस्तैलं विदध्याद्बलिबन्धयन्त्रे।
ततैलमभ्यङ्गविधौ प्रदिष्टं पथ्याशिनां कुष्ठविघातकृत्स्यात्॥३१६॥
कुष्ठे वज्रकं तैलम्।
मूलं शताह्वात्त्वक् शिरीषाश्वमारा-
दर्कान्मालत्याश्चित्रकास्फोतनिम्बात।
बीजं कारञ्जं सार्षपं प्रापुनाटं
श्रेष्ठं जन्तुघ्नं त्र्यूषणं द्वे हरिद्रे॥३१७॥
तैलं पक्वं साधितं तैः समूत्रैस्त्वग्दोषाणां कुष्ठनाडीव्रणानाम्।
अभ्यङ्गेन श्लेष्मवातोद्भवानां नाशायालं वज्रकं वज्रतुल्यम्॥३१८॥
कुष्ठे महावज्रकं तैलम्।
एरण्डतार्क्ष्यघननीपकदम्बभार्गीं–
कम्पिल्लवेल्लफलिनीसुरवारिणीभिः।
निर्गुण्ड्यरुष्करमुराह्वसुवर्णदुग्धा–
श्रीवेष्टगुग्गुलुशिलापटुतालुकैश्च॥३१९॥
तुल्यं स्नुगर्कदुग्धं सिद्धं तैलं महावज्रकाह्वम्।
अतिशयति वज्रकगुणान् श्वित्रार्शोग्रन्थिमालाघ्नम्॥३२०॥
कुष्ठे श्वेतकरवीराद्यं तैलम्।
श्वेतकरवीरपल्लवमूलत्वक्पुष्पचित्रकविडङ्गानि।
कुष्ठार्कमूलसर्षपशिग्रुत्वग्रोहिणीकटुकाः॥३२१॥
एतैस्तैलं सिद्धं कल्कैः पादांशकैर्गवां मूत्रम्।
दत्त्वा तैलचतुर्गुणमभ्यङ्गात्कुष्ठकण्डूघ्नम्॥३२२॥
कुष्ठे सिन्दूराद्यं सूर्यपाकं तैलम्।
सिन्दूरशङ्खचूर्णकहरितालमनःशिलायवक्षारैः।
कासीसकच्छसंभवगन्धाह्वयसंयुतैस्तैलम्॥३२३॥
दिनकरतप्तं पामाविचर्चिकादद्रुकुष्ठकिटभादीन्।
नाशयति लेपमात्राद्भूयो भूयः कपालकुष्ठमपि॥३२४॥
कुष्ठे कुष्ठकालानलं तैलम्।
क्षारद्वयं कटुत्रीणि पञ्चैव लवणानि च।
वचा कुष्ठं हरिद्रे द्वे विडङ्गं चित्रकं विषम्॥३२५॥
हरितालं शिला गन्धं सिन्दूरं तुत्थखर्परम्।
रामठं च रसोनं च मदनं च रसाञ्जनम्॥३२६॥
एतत्सर्वं समांशं च स्नुह्यर्कपयसा प्लुतम्।
षड्गुणं सार्षपं तैलं तैलान्मूत्रं चतुर्गुणम्॥३२७॥
सर्वं मन्दानले पक्वंग्राह्यं तैलावशेषकम्।
हन्त्यष्टादश कुष्ठानि मांसमेदोगतानि च॥३२८॥
दुष्टव्रणानि शातानि जीर्णनाडीव्रणानि च।
हन्ति श्वित्रमसाध्यं च दद्रुपामाविचर्चिकाः॥३२९॥
एतत्तैलं सदाऽभ्यङ्गात्कुष्ठव्याधिहरं नृणाम्।
कुष्ठे कनकक्षीर्याद्यं तैलम्।
कनकक्षीरी शैलं भार्गींं दन्तीफलानि मूलं च॥३३०॥
जातीप्रवालसर्षपलशुनविडङ्गं करञ्जत्वक्।
सप्तच्छदार्कपल्लवमूलत्वङ्निम्बचित्रकास्फोताः॥३३१॥
गुञ्जैरण्डो बृहतीमूलकसुरसार्जकफलानि।
कुष्टं तुम्बरु पाठा मूर्वा मुस्तं निशा च षड्ग्रन्था॥३३२॥
एडगजबीजशिग्रुत्र्यूषणभल्लातकक्षवकाः।
हरितालमवाक्पुष्पी तुत्थं कम्पिल्लकोऽमृतासङ्गः॥३३३॥
सौराष्ट्री कासीसं दार्वी त्वक् स्वर्जिका लवणम्।
कल्कैरेतैस्तैलं करवीरकमूलपल्लवकषाये॥३३४॥
सार्षपमथवा तैलं गोमूत्रे चतुर्गणे साध्यम्।
कटुकालावौ स्थाप्यं तत्सिद्धं तेन मण्डलान्याशु॥३३५॥
छिन्द्याद्भिषगभ्यङ्गात्कण्डूकोठांश्च विनिहन्यात्।
पामायां आर्द्रकाद्यं तैलम्।
आर्द्रकस्यार्कदुग्धस्स स्रुक्क्षीरस्य पृथक् पृथक्॥३३६॥
द्वे द्वे पले तु द्विपलं सिन्दूरं च समाहरेत्।
भूर्जकर्षविमिश्राणि कटुतैलस्य पाचयेत्॥३३७॥
पलानि दश चाभ्यङ्गात्कच्छुरोगविनाशनम्।
दद्रूरोगे दार्व्याद्यं सूर्यपाकतैलम्।
दार्वीगण्डीरसंयुक्तैः कासमर्दकसंभवैः॥३३८॥
मूलैर्महोटिकायास्तु स्वरसेन समन्वितैः।
स्नुहीक्षीरनिशामूर्वागृहधूमफणिज्जकैः॥३३९॥
रालाविडङ्गमगधागौरसर्षपनागरैः।
चक्रमर्दकनाडीकाबाकुचीनक्तमालकैः॥३४०॥
मूलकस्य च बीजैस्तु सुरसारग्वधच्छदैः।
सक्षारलवणोपेतैर्गोमूत्रैः परिपेषितैः॥३४१॥
कटुतैलस्थितैः पक्वैःसम्यग्रविगभस्तिभिः।
कृतमाशु नराणां तु हन्यादेभिः प्रलेपनम्॥३४२॥
दद्रूं विचर्चिकां कण्डूं पामां दुर्भक्तकं (?) तथा।
कुष्ठे गुग्गुल्वाद्यं सूर्यपाकतैलम्।
गुग्गुलुमरिचविडङ्गैः सर्षपकासीसमुस्तसर्जरसैः॥३४३॥
श्रीवेष्टतालगन्धैर्मनःशिलाकुष्ठकम्पिल्लैः।
उभयहरिद्रासहितैः कटुतैलं विमिश्रितैरेभिः॥३४४॥
आदित्यरश्मिपक्वैःकुष्ठं विनिहन्ति संस्पर्शात्।
कुष्ठे विद्रावणं तैलम्।
मनःशिलाले सिन्दूरं सौराष्ट्री गन्धकस्तथा॥३४५॥
ससिक्थकं सर्जरसं कासीसं पुरकुन्दरू।
श्र्याह्वः शल्लकिकम्पिल्लं कङ्कुष्ठं चाप्यरुष्करम्॥३४६॥
गवां मूत्रेण संसिद्धं कटुतैलं प्रयोजयेत्।
पामाविचर्चिकादद्रूकण्डूकुष्ठक्रिमीन् व्रणान्॥३४७॥
अभ्यङ्गाच्छमयत्येतन्नाम्ना विद्रावणं मतम्।
कुष्ठे महासुगन्धं तैलम्।
चन्दनं कुङ्कुमोशीरं प्रियङ्गुत्रुटिरोचनाः॥३४८॥
तुरुष्कागुरुकस्तूर्यः कर्पूरं जातिपत्रिका।
जातीकङ्कोलपूगानां लवङ्गस्य फलानि च॥३४९॥
नलिका नलदं कुष्ठं हरेणुस्तगरः प्लवम्।
नखं व्याघ्रनखं स्पृक्का बोलो दमनको मुरा॥३५०॥
स्थोणेयकं चोरकं च शैलेयं सैलवालुकम्।
सरलः सप्तपर्णश्च च लाक्षा तामलकी तथा॥३५१॥
लामज्जकं पद्मकं च धातक्याः कुसुमानि च।
प्रपौण्डरीकं कर्चुरः समांशैः शाणमात्रकैः॥३५२॥
महासुगन्धमित्येतत्प्रस्थं तैलस्य साधयेत्।
प्रस्वेदमलदौर्गन्ध्यकण्डूकुष्ठहरं परम्॥३५३॥
अनेनाभ्यक्तगात्रः स्याद्वृद्धः सप्ततिकोऽपि वा।
युवा भवति शुक्राढ्यः स्त्रीणां चात्यन्तवल्लभः॥३५४॥
सुभगो दर्शनीयश्च गच्छेच्च प्रमदाशतम्।
वन्ध्यापि लभते गर्भं षण्ढोऽपि पुरुषायते॥३५५॥
अपुत्रः पुत्रमाप्नोति जीवेच्च शरदां शतम्।
कुष्ठे मरीचाद्यं तैलम्।
मरीचं त्रिवृता मुस्तं हरितालं मनःशिला॥३५६॥
देवदारु हरिद्रे द्वे मांसी कुष्ठं सचन्दनम्।
विशाला करवीरश्च भानुक्षीरं शकृद्रसः॥३५७॥
एतेषां कार्षिकान् भागान् विषस्यार्धपलं भवेत्।
प्रस्थं च कटुतैलस्य गोमूत्रे द्विगुणे पचेत्॥३५८॥
मृत्पात्रे लोहपात्रे वा शनैर्मृद्वग्निना भिषक्।
तैलेनानेन नश्यन्ति रोगा देहे शरीरिणाम्॥३५९॥
पामा विचर्चिका चैव दद्रुविस्फोटकानि च।
अभ्यङ्गेन प्रणश्यन्ति श्यामलत्वं प्रजायते॥३६०॥
प्रच्छिन्नान्यपि श्वित्राणि तैलेनानेन म्रक्षयेत्।
चिरोत्थमपि यच्छ्वित्रं सवर्णं म्रक्षणाद्भवेत्॥३६१॥
कुष्ठे भ्रामरिकं तैलम्।
गुञ्जामूलं फलं कुष्ठं विषं सिन्दूरसिक्थकम्।
द्वे हरिद्रे सलाङ्गल्यौगुग्गुलूग्रे तथैव च॥३६२॥
कृकलाससमायुक्तं कटुतैलं विपाचयेत्।
क्षिपेत्स्वरूपद्रव्याणि सुदग्धान्यवतारयेत्॥३६३॥
उद्धृत्य तैलमध्यात्तु सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्।
चूर्णं तैले पुनः कृत्वा त्रिशूलीं दापयेत्ततः॥३६४॥
जीवन्तीं जीवनीमूलं तथा च व्रणरोहिणीम्।
एतच्चूर्णं समालोड्य त्वेकरात्रं तु धारयेत्॥३६५॥
शिरोरोगं व्रणं कुष्ठं पामां चैव विचर्चिकाम्।
ये व्रणा न प्ररोहन्ति गम्भीरा भैरवाश्च ये॥३६६॥
तांस्तु नाशयते सर्वान् सप्ताहेन न संशयः।
भिषजां नात्र सन्देहस्तैलं भ्रामरिकं खलु॥३६७॥
व्रणे महाकषायं तैलम्।
उदुम्बरो वटश्चैव प्लक्षः पिप्पल एव च।
मधूक आम्रः सर्जश्च जम्बूद्वयमथार्जुनः॥३६८॥
कम्पिल्लकः पियालश्च कदम्बस्तिन्दुकस्तथा।
पलाशो रोध्रसंमिश्रं बदरं पद्मकेसरम्॥३६९॥
शिरीषो बीजकश्चैव तथा रक्तं च चन्दनम्।
अमीषां क्वाथकल्काभ्यां तैलं मन्दाग्निसाधितम्॥३७०॥
नाम्ना महाकषायं तु क्षिप्रमभ्यञ्जनाद्धरेत्।
व्रणांस्तु देहिनामेतच्चिरकालभवानपि॥३७१॥
वल्मीके मनःशिलाद्यं तैलम्।
मनःशिलालभल्लातसूक्ष्मैलागुरुचन्दनैः।
जातीपल्लवपत्रैश्च निम्बतैलं विपाचयेत्॥३७२॥
वल्मीकं नाशयत्येतद्बहुच्छिद्रं बहुस्रवम्।
गण्डमालायां फणिज्जकाद्यं तैलम्।
फणिज्जकः सक्षवको नादेयं नवमालिका॥३७३॥
अश्मन्तको विडङ्गानि मयूरकफलानि च।
वितुन्नकं देवदारु सहदेवा च कट्वलः॥३७४॥
बीजं कारञ्जपालाशं मूलकस्यार्जकस्य च।
महापर्पटको मुस्तं त्रिकटु त्रिफला वचा॥३७५॥
सुवर्चला च हिङ्गुश्च समभागानि कारयेत्।
अक्षमात्रैः पचेदेभिस्तैलप्रस्थं सुखाग्निना॥३७६॥
अजाक्षीरेण संयुक्तमजाक्षीरे चतुर्गुणे।
तदस्य नस्यं दद्याच्च गण्डमालाविनाशनम्॥३७७॥
विदारिकां गलग्रन्थिं गलगण्डं च नाशयेत्।
गण्डमालायां काकादिनीतैलम्।
काकादनीलाङ्गलिकानदीहतुण्डिकाफलैः॥३७८॥
जीमूतबीजकर्कोटैर्विशालाकृतवेधनैः।
पाठान्वितैः पलार्धांशैर्विषकर्षयुतैः पचेत्॥३७९॥
प्रस्थं करञ्जतैलस्यनिर्गुण्डीस्वरसाढके।
अनेन गण्डमाला हि चिरजा पूयवाहिनी॥३८०॥
सिद्ध्यत्यसाध्यकल्पापि पानाभ्यञ्जननावनैः।
रक्तपित्ते मूर्वाद्यं तैलम्।
मूर्वामधूकद्राक्षेक्षुरसचन्दनपद्मकैः॥३८१॥
सारिवाद्वयनक्ताह्वैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत्।
क्षीरे चतुर्गुणे पक्त्वा कल्कैरक्षसमैर्भिषक्॥३८२॥
रक्तपित्तहरं त्वेतद्वर्ण्यंवातघ्नमुत्तमम्।
मूर्वातैलमिदं नाम्ना सवर्णकरणं परम्॥३८३॥
कुष्ठे विषादनं तैलम्।
कम्पिल्लकनिशायुग्मैः शालनिर्यासचित्रकैः।
पुरकीटारिसंयुक्तैः पालिकैः सुविचूर्णितैः॥३८४॥
एकीकृत्य समैरेभिर्विषयस्य च पलद्वयम्।
आतपे स्थापयेद्धीमान् कटुतैलपरिप्लुतम्॥३८५॥
विषादनमिदं तैलं लेपास्तिध्मविचर्चिके।
हन्ति पामापचीव्यङ्गदुष्टव्रणभगन्दरान्॥३८६॥
**कुष्ठे जीवन्त्याद्यं तैलम्। **
जीवन्ती मञ्जिष्ठा दार्वी कम्पिल्लकः पयस्तुत्थम्।
एष घृततैलपाकः सिद्धः सर्जरससंयुक्तः॥३८७॥
देयः समधुच्छिष्टो विपादिका तेन शाम्यतेऽभ्यक्ता।
चर्मैककुष्ठं किटिभं सिध्मं शाम्यत्यलसकं च॥३८८॥
पामायां जीरकाद्यं तैलम्।
जीरकस्य पलं पिष्टं सिन्दूरार्धपलं तथा।
कटुतैलं पचेदेभिः सद्यः पामाहरं परम्॥३८९॥
कृमिरोगे विडङ्गाद्यं तैलम्।
विडङ्गानि स्नुहीक्षीरमर्कक्षीरं तथैव च।
गुञ्जाफलानि गण्डीरं श्यामा निर्दहनी तथा॥३९०॥
एतैर्गोमूत्रसंपिष्टैस्तैलं मूर्ध्नि निधापयेत्।
कृमयः पूरणादेव नश्यन्त्यपि विमार्गगाः॥३९१॥
वातरोगे गडूचीतैलम्।
तुलां पचेज्जलद्रोणे गडूच्याः पादशेषितम्।
क्षीरद्रोणयुतं कल्कैः पचेत्तैलाढकं शनैः॥३९२॥
पिष्टैर्मधुकमञ्जिष्ठाजीवनीयैर्युतं तथा।
कुष्ठैलागुरुमृद्वीकामांसीव्याघ्रीनखैर्नवैः॥३९३॥
हरेणुश्रावणीव्योषशताह्वाशृङ्गिसारिवैः।
त्वक्पत्रागुरुविक्रान्तास्थिरातामलकीघनैः॥३९४॥
नतकेसरह्रीबेरपद्मकोत्पलचन्दनैः।
सिद्धं तच्छनकैस्तैलं पानाभ्यञ्जनबस्तिषु॥३९५॥
धन्यं पुंसवनं स्त्रीणां गर्भदं वातपित्तनुत्।
तोदकम्परुजायामशिरःकम्पामयार्दितान्॥३९६॥
हन्याद्व्रणकृतान्दोषान् गडूचीतैलमुत्तम्।
वातरोगे द्वितीयं गडूचीतैलम्।
अमृतायास्तुलाः पञ्च द्रोणेष्वष्टास्वपां पचेत्॥३९७॥
पादशेषं तु सक्षीरं तैलस्यार्धाढकं पचेत्।
एलामांसीनतोशीरसारिवाकुष्ठचन्दनैः॥३९८॥
शतपुष्पाबलामेदामहामेदर्धिजीवकैः।
काकोलीक्षीरकाकोलीश्रावण्यतिबलानखैः॥३९९॥
महाश्रावणिजीवन्तीविदारीकपिकच्छुभिः।
शतावरीतामलकीकर्कटाख्याहरेणुभिः॥४००॥
वचागोक्षुरकैरण्डरास्नाकालासहाचरैः।
द्विजीरकर्षभसहादारुभिश्चापि कार्षिकैः॥४०१॥
मञ्जिष्ठायास्त्रिकर्षेण मधुकाष्टपलेन तु।
कल्कैस्तत्क्षीणवीर्याग्निबलसंमूढचेतसः॥४०२॥
उन्मादवेपापस्मारैर्युक्तांश्च प्रकृतिं नयेत्।
वातव्याधिहरं श्रेष्ठं तैलाग्र्यममृताह्वयम्॥४०३॥
वातरोगे सहचरं तैलम्।
समूलशाखस्य सहाचरस्य तुलां समेतां दशमूलतश्च।
पलानि पञ्चाशदभीरुतश्च पादावशेषं विपचेद्वहेऽपाम्॥४०४॥
तत्र सेव्यनखकुष्ठहिमैलास्पृक्प्रियङ्गुनलिकाम्बुशिलाजैः।
लोहितानलदलोह्यमुराह्वैःकोपनामिशितुरुष्कनखैश्च॥४०५॥
तुल्यक्षीरे पालिकैस्तैलपात्रं
सिद्धं कृच्छ्रान् शीलितं हन्ति वातान्।
कम्पाक्षेपस्तम्भशोषादियुक्तान्
गुल्मोन्मादान् पीनसं योनिरोगान्॥४०६॥
वातरोगे नीलसहचरतैलम्।
सहचरहस्ती नीलोत्पलशतगात्रस्तृषातुरः पतितः।
सलिलद्रोणतडागे सुतप्तधर्मांशुतप्त इव॥४०७॥
तैलप्रस्थमतोऽस्मैदद्यात्तैलाच्चतुर्गुणं च पयः।
यद्गन्धसुरभिसैन्धवकल्कैश्चाक्षोन्मितैर्लिप्तः॥४०८॥
एलामृणालकुष्ठप्रियङ्गुकाश्मीरपुरलोहैः।
श्रीवेष्टकसर्जरसैश्चन्दनशैलेयरजनीभिः॥४०९॥
दारुशताह्वापथ्यैः केसररसपेलवघनैश्च।
तीर्णो मालतीकुसुमैः सहचरनीलाशवनपतितः॥४१०॥
मेदोस्थिमज्जमांसासृग्रुधिरशुक्रसंश्रयांश्चिरोत्पन्नान्।
^(१)हन्याद्वातविकारानशीतिमेतन्महानीलम्॥४११॥
वातरोगे दशमूलाद्यं तैलम्।
दशाङ्घ्रिकेशरारिष्टब्राह्मीपाठाकटुत्रिकैः।
शठीपुनर्नवाभार्गींसुरसाम्बुफलत्रिकैः॥४१२॥
शङ्खपुष्पीत्वगेलार्कमुनिपादपपल्लवैः।
अङ्कोटवरुणास्फोतशिरीषकटभीफलैः॥४१३॥
कृमिघ्नमूलशम्पाकसर्षपामरदारुभिः।
प्रियङ्गुहिङ्गुमञ्जिष्ठासुमुखातन्दुलीयकैः॥४१४॥
गिरिकर्णीवचाकुष्ठकङ्कुष्ठरजनीद्वयैः।
मधूकसारसिन्धूत्थसितनीलोत्पलाम्बुदैः॥४१५॥
कटुतैलं समैरेभिः पक्वं क्षीरे चतुर्गुणे।
सोन्मादं हन्त्यपस्मारं पानाभ्यञ्जननावनैः॥४१६॥
डाकिनीभूतवेतालनैगमेषादिकान् ग्रहान्।
कृत्याभिचाररक्षांसि नाशयत्यखिलान्यपि॥४१७॥
तैलमेतत्सुरेन्द्रेण नन्दस्य कथितं पुरा।
बालस्य किल रक्षार्थं विष्णोरमिततेजसः॥४१८॥
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^(१)अनेकनीलपुष्पयुक्तं सहचरं शतपलमितं समूलपत्रशाखमुत्पाट्यखण्डशः प्रकल्पयित्वा संक्षुद्य द्रवद्वैगुण्यग्रहणविधानात् द्विदोणमिते जले प्रक्षिप्य तीव्रातपे शोषयेत् । पादशेष कषाये गालयित्वा, तैलप्रस्थद्वयं, अष्टप्रस्थमितं दुग्धं , मदगन्धा (सप्तपर्णा )दीनां मालतीपुष्पान्तानां प्रत्येकं कर्षमितानां कल्कं च दत्त्वा मन्दाग्निना तैलं साधयेदिति भावः ।
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अभ्यज्य सर्वगात्राणि भोक्तव्यं रिपुवेश्मनि।
तैलमभ्यञ्जनं श्रेष्ठं वसतोऽरातिसङ्कटे॥४१९॥
अथ विलिप्तभगा भगशालिनी यदि रमेत नरं दिवसे शुभे।
मदनसायकजर्जरितोरसो भवति तस्य तयाऽपहृतं मनः॥४२०॥
ताम्बूलमुखवासेषु व्यञ्जनाहारयोगतः।
अनामिकाग्रसंयुक्तं वशीकरणमुत्तमम्॥४२१॥
भग्ने गन्धतैलम्।
रात्रौ रात्रौ तिलान् कृष्णान् वासयेदस्थिरे जले।
दिवा दिवा शोषयित्वा गवां क्षीरेण भावयेत्॥४२२॥
तृतीयं सप्तरात्रं तु भावयेन्मधुकाम्बुना।
ततः क्षीरं पुनः पीत्वा सुशुष्कांश्चूर्णयेद्बुधः॥४२३॥
काकोल्यादिं सयष्ट्याह्वंमञ्जिष्ठां सारिवां तथा।
कुष्ठं सर्जरसं मांसीं सुरदारु सचन्दनम्॥४२४॥
शतपुष्पां च संचूर्ण्य तिलचूर्णेन योजयेत्।
पीडनार्थे प्रकर्तव्यं सर्वगन्धशृतं पयः॥४२५॥
चतुर्गुणेन पयसा तत्तैलं विपचेद्भिषक्।
एलामंशुमतीं पत्रं जीरकं तगरं तथा॥४२६॥
रोध्रं प्रपौण्डरीकं च तथा कालानुसारिवाम्।
शिरीषकं क्षीरशुक्लामनन्तां समधूलिकाम्॥४२७॥
पिष्ट्वा शृङ्गाटकं चैव पूर्वोक्तान्यौषधानि च।
एभिस्तद्विपचेत्तैलं शास्त्रविन्मृदुनाग्निना॥४२८॥
एतत्तैलं सदा पथ्यं भग्नानां सर्वकर्मसु।
आक्षेपके पक्षघाते तालुशोषे तथार्दिते॥४२९॥
मन्यास्तम्भे शिरोरोगे कर्णशूले हनुग्रहे।
बाधिर्ये तिमिरे चैव ये च स्त्रीषु क्षयं गताः॥४३०॥
पथ्यं पाने तथाऽभ्यङ्गे नस्ये बस्तिषु भोजने।
ग्रीवास्कन्धोरसां वृद्धिरमुनैवोपजायते॥४३१॥
मुखं च पद्मप्रतिमं ससुगन्धिसमीरणम्।
गन्धतैलमिदं नाम्ना सर्ववातविकारनुत्।
राजार्हमेतत्कर्तव्यं राज्ञामेव विचक्षणैः॥४३२॥
इति श्रीसोढलग्रथिते गदनिग्रहे तैलाधिकारो द्वितीयः।
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अथातस्तृतीयश्चूर्णाधिकारः।
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गुल्मे हिङ्ग्वाद्यं चूर्णम्।
हिङ्गु त्रिकटुकं पाठां हपुषामभयां सठीम्।
अजमोदाजगन्धे च तिन्तिडीकाम्लवेतसम्॥१॥
दाडिमं पौष्करं धान्यमजाजीं चित्रकं वचाम्।
द्वौ क्षारौ लवणे द्वे च चव्यं चैकत्र चूर्णयेत्॥२॥
चूर्णमेतत्प्रयोक्तव्यमन्नपानेऽप्यनत्ययम्।
प्राग्भक्तमथवा पेयं मद्येनोष्णोदकेन वा॥३॥
पार्श्वहृद्बस्तिशूलेषु गुल्मे वातकफात्मके।
आनाहे मूत्रकृच्छ्रे च गुदयोनिरुजासु च॥४॥
ग्रहण्यर्थोविकारेषु प्लीहपाण्ड्वामयेऽरुचौ।
उरोविबन्धे हिक्कायां श्वासे कासे गलग्रहे॥५॥
भावितं मातुलुङ्गस्य चूर्णमेतद्रसेन वा।
बहुशो गुटिकाः कार्याः कार्मुकाः स्युस्ततोऽधिकाः॥६॥
शूले द्वितीयं हिङ्ग्वाद्यं चूर्णम्।
हिङ्गुग्रन्थिकधान्यकाग्निकवचाचव्याग्निपाठाः सठी
वृक्षाम्लं लवणत्रयं त्रिकटुकं क्षारद्वयं दाडिमम्।
पथ्यापुष्करवेतसाम्लहपुषाजाज्याजगन्धैः कृतं।
चूर्णं भावितमेतदार्द्रकरसे स्याद्बीजपूरस्य च॥७॥
आध्मानग्रहणीविकारगुदजान् गुल्मानुदावर्तकान्
प्रत्याध्मानगरोदराश्मरिरुजस्तूणीद्वयारोचकान्।
ऊरुस्तम्भमतिभ्रमं च मनसो बाधिर्यमष्ठीलिकां
प्रत्यष्ठीलिकया सहापहरति प्राक्पीतमुष्णाम्बुना॥८॥
रुक्कुक्षिवङ्क्षणकटीजठरान्तरेषु।
बस्तिस्तनांसफलकेषु च पार्श्वयोश्च।
शूलानि नाशयति वातबलासजानि
हिङ्ग्वाद्यमाद्यमिदमाश्विनसंहितायाम्॥९॥
गुल्मे शार्दूलं चूर्णम्।
हिङ्गूग्राबिडशुण्ठ्यजाजिविजयावाट्याभिधानामयै–
श्चूर्णं कुम्भनिकुम्भमूलसहितैर्भागोत्तरं वर्धितैः।
पीतं कोष्णजलेन कोष्ठकरुजागुल्मोदरादीनयं
शार्दूलं प्रसभं प्रमथ्य हरति व्याधीन्मृगौघानिव॥१०॥
गुल्मे नाराचकं चूर्णम्।
सिन्धुत्थपथ्याकणदीप्यकानां चूर्णानि तोयैः पिबतां कवोष्णैः।
प्रयाति नाशं कफवातजन्मा नाराचनिर्भिन्न इवामयौघः॥११॥
गुल्मे पूतीकाद्यं चूर्णम्।
पूतीकपत्रगजचिर्भटचव्यवह्नि–
व्योषं च संस्तरचितं लवणोपधानम्।
दग्ध्वा विचूर्ण्य दधिमस्तुयुतं प्रयोज्यं
गुल्मोदरश्वयथुपाण्डुगुदोद्भवेषु॥१२॥
मुल्मे हिङ्ग्वाद्यं चूर्णम्।
हिङ्गुत्रिगुणं सैन्धवमस्मात्त्रिगुणं च तैलमैरण्डम्।
तत्त्रिगुणरसोनरसं गुल्मोदावर्तशूलघ्नम्॥१३॥
श्वासे विजयं चूर्णम्।
त्रिकत्रयं वचा हिङ्गुः पाठा क्षारो निशाद्वयम्।
चव्यतिक्ताकलिङ्गाग्निशताह्वालवणानि च॥१४॥
ग्रन्थिबिल्वाजमोदं च गणोऽष्टाविंशको मतः।
एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥१५॥
एरण्डतैलसंयुक्तं सद्यो लिह्यात्ततो नरः।
बिडालपदकं चापि पिबेदुष्णेन वारिणा॥१६॥
श्वासं हन्यात्तथा शोषमर्शांसि च भगन्दरम्।
हृच्छूलं पार्श्वशूलं च बस्तिशूलमरोचकम्॥१७॥
प्लीहकासप्रमेहांश्च कामलां पाण्डुरोगताम्।
आमवातमुदावर्तमन्त्रवृद्धिं गुदकृमीन्॥१८॥
हन्याच्च ग्रहणीरोगान् ये मया परिकीर्तिताः।
महाज्वरोपसृष्टानां भूतोपहतचेतसाम्॥१९॥
अप्रजानां च नारीणां प्रजावर्धनमेव च।
विजयं नाम चूर्णेदं सर्वव्याधिहरं परम्॥२०॥
वातरोगे अजमोदाद्यं चूर्णम्।
अजमोदमरिचपिप्पलिविडङ्गसुदारुचित्रकशताह्वाः।
सैन्धवपिप्पलिमूलं भागा नवस्य पलिकाः स्युः॥२१॥
शुण्ठी दशपलिका स्यात्पलानि तावन्ति वृद्धदारुकस्यापि।
अभया पलानि पञ्च सर्वाण्यकत्र कारयेच्चूर्णम्॥२२॥
समगुडवटकानदतस्तच्चूर्णं कोष्णवारिणा पिबतः।
नश्यन्त्यामानिलजाः सर्वे रोगाः सुदारुणाः शीघ्रम्॥२३॥
विश्वाचीप्रतूनीतूनीरोगाश्च गृध्रसी चोग्रा।
कटिपृष्ठगुदस्फुटनं स्फुटनं चैवास्थिजङ्घयोस्तीव्रम्॥२४॥
श्वयथुः स्तब्धोऽङ्गसन्धिषु ये चान्ये चामवातसंभूताः।
सर्वे प्रयान्ति नाशं तम इव सूर्यांशुविध्वस्तम्॥२५॥
क्षुद्बोधमरोगित्वं स्थिरयौवनतां च वलीपलितनाशम्।
कुरुते च तदभ्यासाद्बहूनन्यानपि गुणांश्च॥२६॥
वातरोगे आभाद्यं चूर्णम्।
आभा रास्ना गडूची च शतावर्यौमहौषधम्।
शतपुष्पाऽश्वगन्धा च हपुषा वृद्धदारकम्॥२७॥
यवानी चाजमोदं च समभागानि कारयेत्।
सूक्ष्मचूर्णमिदं कृत्वा बिडालपदकं पिबेत्॥२८॥
मद्यैर्मांसरसैर्यूषैस्तक्रेणोष्णोदकेन वा।
सर्पिषा वापि लेह्यं तु दधिमण्डेन वा पुनः॥२९॥
अस्थिसन्धिगतं वायुं स्नायुमज्जाश्रितं तथा।
कटिग्रहं गृध्रसीं च मन्यास्तम्भं हनुग्रहम्॥३०॥
ये च कोष्ठगता रोगास्तांश्च सर्वान् प्रणाशयेत्।
आभाद्यं नाम चूर्णेदं सर्वव्याधिविनाशनम्॥३१॥
अतिसारे कपित्थाष्टकम्।
यवानीपिप्पलीमूलचातुर्जातकनागरैः।
मरिचेन्द्रयवाजाजीधान्यसौवर्चलैः समैः॥३२॥
वृक्षाम्लधातकीकृष्णाबिल्वदाडिमदीप्यकैः।
त्रिगुणैः षड्गुणसितैः कपित्थाष्टगुणीकृतैः॥३३॥
चूर्णोऽतिसारग्रहणीक्षयगुल्मगलामयान्।
कासश्वासाग्निसादार्शःपीनसारोचकाञ्जयेत्॥३४॥
ग्रहण्यां द्वितीयं कपित्थाष्टकम्।
कनकत्रुटिवराङ्गविश्वौषधं धान्यका
चव्याजाजीयवान्यश्च तुल्यांशकाः।
मरिचदहनदाडिमं धातकी चुक्रिका
बिल्वसौवर्चलं पिप्पलीमूलवृक्षाम्लकम्॥३५॥
अपरमपि कपित्थाष्टकं षड्गुणा
पिप्पली सर्वतुल्यांशका शर्करा।
ग्रहणिगदनाशनं वह्निसन्दीपनं।
कासहृद्रोगगुल्मार्शसां नाशनम्॥३६॥
ग्रहण्यां दाडिमाष्टकम्।
कर्षोन्मिता तुगाक्षीरी चातुर्जातं द्विकार्षिकम्।
यवानीधान्यकाजाजीग्रन्थिव्योषं पलांशकम्॥३७॥
पलानि दाडिमादष्टौ सितायाश्चैकतः कृतः।
गुणैः कपित्थाष्टकवच्चूर्णोऽयं दाडिमाष्टकः॥३८॥
अतिसारे द्वितीयं दाडिमाष्टकचूर्णम्।
दाडिमस्य पलान्यष्टौ चातुर्जातं पलद्वयम्।
अजाजीनां पलार्धं तु पलार्धं धान्यकस्य च॥३९॥
पृथक्पलांशकान् भागान् त्रिकटोर्ग्रन्थिकस्य च।
त्वक्क्षीरी वालकं चैव दद्यात्कर्षसमान् भिषक्॥४०॥
शर्करायाः पलान्यष्टौ तदेकस्थं विचूर्णयेत्।
आमातीसारशमनं कासहृत्पार्श्वशूलनुत्॥४१॥
हृद्रोगमरुचिं गुल्मं ग्रहणीमग्निमार्दवम्।
प्रयुक्तो नाशयत्येष चूर्णोऽयं दाडिमाष्टकः॥४२॥
गलरोगे एलाद्यं चूर्णम्।
एला त्वग्दलनागपुष्पमरिचं स्यात्पिप्पली नागरं
भागैर्भागविवर्धितं क्रमयुतैः सर्वैश्च तुल्या सिता।
एतच्चूर्णमजीर्णगुल्मजठरेऽप्यर्शःसुहृद्रोगिषु
कासश्वासिषु रक्तपित्तिषु हितं कण्ठे विकाराश्च ये॥४३॥
अरोचके वृद्धैलाद्यं चूर्णम्।
वृद्धैला पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरम्।
मरिचं दीप्यकं चैव वृक्षाम्लं चाम्लवेतसम्॥४४॥
अजमोदाऽजगन्धा च कपित्थं चार्धकार्षिकम्।
अत्यन्तपरिशुद्धायाः शर्करायाश्चतुष्पलम्॥४५॥
चूर्णं सेव्यमिदं पुम्भिः परमं रुचिवर्धनम्।
प्लीहकासमथार्शांसि श्वासशूलं वमिज्वरम्॥४६॥
निहन्ति दीपयत्यग्निं बलवर्णकरं परम्।
वातानुलोमनं हृद्यं कण्ठजिह्वाविशोधनम्॥४७॥
अरोचके कर्पूराद्यं चूर्णम्।
कर्पूरचोचकङ्कोलजातीफलदलाः समाः।
लवङ्गनागमरिचकृष्णाशुण्ठ्यो विवर्धिताः॥४८॥
चूर्णं सितासमं हृद्यं रोचनं क्षयकासजित्।
वैस्वर्यश्वासगुल्मार्शश्छर्दिकण्ठामयापहम्॥४९॥
प्रयुक्तं चान्नपाने हि भेषजद्वेषिणां वरम्।
अरोचके त्वगेलाद्यं चूर्णम्।
त्वगेलाव्योषधान्याम्लनागकेसरजीरकम्।
लवलीफलकङ्कोलं लवङ्गं जातिपत्रिका॥५०॥
भागानिमान् समान् कृत्वा दद्याद्द्विगुणितां सिताम्।
ईषत्कर्पूरसंयुक्तं चूर्णं रुचिकरं परम्॥५१॥
गुल्मे त्रिलवणाद्यं चूर्णम्।
त्रि8लवणहपुषाजमोदाजगन्धावचाहिङ्गुपाठोपकुञ्चीशठी जीरकाजाजिकुस्तुम्बरीबाष्पिकाः कारवी तुम्बरुः स्वर्जिका यावशूको जटा पौष्करं दाडिमं तिन्तिडीकं विडङ्गानि भार्गींं वरी वेधको, मिशिमरिचगजोपकुल्याऽभया पञ्चकोलं निकुम्भा विशाला यवानी मुराह्वंच तत्सर्वमेकत्र चूर्णीकृतं बीजपूरार्द्रकेनासकृद्भावितं यः पिबेत्प्रातराहारकालेऽथवा मासमात्रं हिताशी नरः। प्लुतमशिशिरवारिणा जीर्णमद्येन तक्रेण मूत्रेण कोलाम्भसा मस्तुना सर्पिषौष्ट्रेण दुग्धेन कौलत्थयूषेण वा क्षारनिश्चोततोयेन वा दाडिमाद्वारसेनात्मवानेभिरेवौषधैः साधितं वा घृतं, हृदयगुदकटीयकृत्प्लीहजं तस्य शूलं प्रणश्येत्तथागुल्मविष्टम्भदुर्नामकृच्छ्रोदराध्मानहिध्मारुचि- श्लीपदश्वासकासाः प्रपक्तुं च शक्तो भवेत्पावकः प्राश्यमानानि पाषाणचूर्णान्यपि॥५२॥
अरोचके सूक्ष्मैलाद्यं चूर्णम्।
सूक्ष्मैला केसरं त्वक्क पत्रं तालीसकं तुगा।
पृथ्वीका दाडिमं धान्यं जीरकं च द्विकार्षिकम्॥५३॥
पिप्पल्यः पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरम्।
मरिचं दीप्यकं चैव वृक्षाम्लं साम्लवेतसम्॥५४॥
अजमोदाजगन्धे च दधित्थं चेति कार्षिकम्।
प्रदेयमिह शुद्धायाः शर्करायाश्चतुष्पलम्।
चूर्णमग्निप्रदं ह्येतत्परमं रुचिवर्धनम्॥५५॥
अरोचके लवङ्गाद्यं चूर्णम्।
लवङ्गकक्कोलमुशीरचन्दनं
शुद्धं सनीलोत्पलकृष्णजीरकम्।
एला सकृष्णाऽगुरुभृङ्गकेसरं
कणा सविश्वा नलदं सहाम्बुना॥५६॥
कर्पूरजातीफलवंशरोचनाः
सिताष्टभागं समसूक्ष्मचूर्णितम्।
सुरोचनं तर्पणमग्निदीपनं
बलप्रदं वृष्यतमं त्रिदोषजित्॥५७॥
उरोविबन्धं तमकं गलग्रहं
सकासहिध्मारुचियक्ष्मपीनसम्।
ग्रहण्यतीसारमथासृजः क्षयं
प्रमेहगुल्मांश्च निहन्ति सत्वरम्॥५८॥
अरुचौ द्वितीयं लवङ्गाद्यं चूर्णम्।
लवङ्गजातीफलपिप्पलीनां भागं समं कर्षमितं प्रकुर्यात्।
पलार्धमेकं मरिचस्यदद्यात्पलानि चत्वारि महौषधस्य॥५९॥
सितासमं चूर्णमिदं प्रयोजयेत्प्रसह्य रोगान्प्रबलान्निहन्यात्।
कासक्षयारोचकमेहगुल्ममर्शांसि चोग्रान्ग्रहणीप्रदोषान्॥६०॥
हृत्कण्ठनासावदनप्रबोधं करोति सन्दीपयते च वह्निम्।
तृतीयं लवङ्गाद्यं चूर्णम्।
लवङ्गकङ्कोलकणावराङ्गतालीसचव्यत्रुटिग्रन्थिकौन्त्यः।
शृङ्ग्येलवालुंलवली तुरङ्गी सकेसरा सोषणपत्रिका च॥६१॥
द्विदाडिमं तिन्तिडिकोलमम्लं रोध्रत्वचा ^(१)तूणभवं च तैलम्।
कर्षांशमानानि पलं च शुण्ठ्याः सिता समांशा कलचन्द्रसंज्ञः॥६२॥
लवङ्गनामा रुचिपक्तिदाता सुगन्धी हृद्यः क्षयरोहन्ता।
बलाग्निसंवर्धन एष चूर्णोवरः प्रयोज्यो नृपतेर्हिताय॥६३॥
रक्तपित्ते चन्दनाद्यं चूर्णम्।
चन्दनं नलदं रोध्रमुशीरं पद्मकेसरम्।
नागपुष्पं तथा बिल्वंभद्रमुस्तं सशर्करम्॥६४॥
ह्रीबेरं चैव पाठा च कुटजस्य फलं त्वचम्।
शृङ्गवेरं चातिविषा घातकी च रसाञ्जनम्॥६५॥
आम्रास्थि जम्बूसारं च तथा मोचरसोद्भवम्।
नीलोत्पलं समङ्गा च सूक्ष्मैला दाडिमत्वचः॥६६॥
चतुर्विंशतिरेतानि समभागानि कारयेत्।
तन्दुलोदकसंयुक्तं क्षौद्रेण सह योजयेत्॥६७॥
चलतां चामगर्भाणां स्तम्भनं परमुच्यते।
अश्विभ्यां विहितं पूर्वं रक्तपित्तविनाशनम्॥६८॥
हितं लोहितपित्तिनामर्शस्सु लोहितेषु च।
मूर्छातमोपसृष्टानां तृषार्तानां च दापयेत्॥६९॥
प्रतिश्याये व्योषादिचूर्णम्।
व्योषचित्रकतालीसतिन्तिडीकाम्लवेतसैः।
अजाजीचव्यतुल्यांशैरेलात्वक्पत्रपादिकैः॥७०॥
^(१)‘कर्पूरवलिसंभूतं तोयं तूणोद्भवं विदुः। महाग्निकरकं तव दन्तदार्ढ्यकरं परम् ।’इति हस्तलिखितपुस्तके टिप्पणमुपलभ्यते।
व्योषादिकमिदं नाम पुराणगुडसंयुतम्।
पीनसश्वासकासघ्नं रुचिस्वरकरं परम्॥७१॥
शोषे षाडवं चूर्णम्।
पिप्पलीनां शतं चैकं द्वे शते मरिचस्य च।
सिता पलचतुष्कं च नागरार्धपलं तथा॥७२॥
धान्यसौवर्चलाजाजीत्वगेलाश्चार्धकार्षिकाः।
कोलदाडिमवृक्षाम्लयवान्यश्चाम्लवेतसः॥७३॥
कार्षिकांश्चूर्णयेत्सर्वान् हृद्यं त्वन्नप्ररोचकम्।
प्लीहहृद्ग्रहणीदोषपञ्चकासनिबर्हणम्॥७४॥
खाडवं नाम गुल्मार्तिविबन्धानाहशूलनुत्।
शोषे महाषाडवं चूर्णम्।
तालीसोषणचव्यनागलवणैस्तुल्यांशकैर्द्विस्ततः
कृष्णाग्रन्थिकतिन्तिडीकहुतभुक्त्वग्जीरकाख्यैर्युतः।
विश्वैलाबदराम्लवेतसघनैर्धान्याजमोदायुतै–
स्त्र्यंशैर्दाडिमबीजपादसहितैः श्रेष्ठः सितार्धांशकः॥७५॥
कण्ठास्योदरहृद्विकारशमनः कायाग्निसन्दीपनो
गुल्माध्मानविषूचिकागुदरुजाश्वासकृमिच्छर्दिहा।
कासारुच्यतिसारमूढमरुतां हृद्रोगिणां कीर्तित–
श्चूर्णोऽयं भिषजामतीव दयितः ख्यातो महापाडवः॥७६॥
अरोचके दाडिमाद्यं चूर्णम्।
द्वे पले दाडिमादष्टौ खण्डाद्व्योषात्पलत्रयम्।
त्रिसुगन्धिपलं चैकं चूर्णमेतच्च कारयेत्॥७७॥
रोचनं दीपनं स्वर्यं पीनसश्वासकासजित्।
कासे लघुतालीसाद्यं चूर्णम्।
तालीसपत्रंमरिचं नागरं पिप्पली शुभा॥७८॥
यथोत्तरं भागवृद्धास्त्वगेले चार्धभागिके।
पिप्पल्यष्टगुणा चात्र प्रदेया सितशर्करा॥७९॥
श्वासकासारुचिहरं चूर्णं दीपनकं परम्।
हृत्पाण्डुग्रहणीदोषप्लीहशोफज्वरापहम्॥८०॥
छर्द्यतीसारशूलघ्नं मूढवातानुलोमनम्।
कल्पयेद्गुटिकां चैव चूर्णं पक्त्वा सितोपलाम्॥८१॥
गुटिका ह्यग्निसंयोगाच्चूर्णाल्लघुतरा मता।
गुल्मे शार्दूलं चूर्णम्।
भागवृद्ध्युत्तरं हिङ्गुवचाबिडमहौषधम्॥८२॥
यवानीमभयां चैव चूर्णं मस्त्वादिभिः पिबेत्।
विबन्धानाहशूलार्शोवर्ध्मश्वासोदरापहम्॥८३॥
ग्रहणीरोगशूलघ्नं शार्दूलं नाम दीपनम्।
उदरे नारायणं चूर्णम्।
यवानी त्रिफला धान्यं हपुषा सोपकुञ्चिका॥८४॥
पृथ्वीका पिप्पलीमूलमजगन्धा सठी वचा।
शताह्वाजीरकं व्योषं स्वर्णंक्षीरी सचित्रका॥८५॥
द्वौ क्षारौ पौष्करं मूलं कुष्ठं लवणपञ्चकम्।
विडङ्गं च समांशानि दन्तीभागत्रयं तथा॥८६॥
त्रिवृद्विशाले द्विगुणे सातला च चतुर्गुणा।
एष नारायणो नाम चूर्णो रोगगणापहः॥८७॥
एनं प्राप्य निवर्तन्ते रोगा विष्णुमिवासुराः।
तक्रेणोदरिभिः पेयो गुल्मिभिर्बदराम्बुना॥८८॥
आबद्धवाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया।
दधिमण्डेन विट्सङ्गेदाडिमाम्बुभिरर्शसि॥८९॥
परिकर्तरि तिक्ताम्लैरुष्णाम्भोभिरजीर्णके।
भगन्दरे पाण्डुरोगे कासे श्वासे गलग्रहे॥९०॥
दंष्ट्राविषे मूलविषे सगरे कृत्रिमे विषे।
यथार्हस्त्रिहंकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम्॥९१॥
उदरे हपुषाद्यंचूर्णम्।
हपुषां काञ्चनक्षीरीं त्रिफलां कटुरोहिणीम्।
नीलिनीं त्रायमाणां च सप्तलां त्रिवृतां वचाम्॥९२॥
सैन्धवं काचलवणं पिप्पलीं चेति चूर्णयेत्।
दाडिमत्रिफलामांसरसमूत्रसुखोदकैः॥९३॥
पेयोऽयं सर्वगुल्मेषु प्लीह्निसर्वोदरेषु च।
श्वित्रकुष्ठेष्वजरके सदने विषमाग्निषु॥९४॥
शोफार्शःपाण्डुरोगेषु कामलायां हलीमके।
वातपित्तकफोद्भूतान् विकारान् सन्निवारयेत्॥९५॥
उदरे नाराचकं चूर्णम्।
विडङ्गाजाजिकाचव्यत्रिफलाधान्यकं वचा।
द्वौ क्षारौ पञ्चलवणं ग्रन्थिकं पुष्करं सठी॥९६॥
यवानी कुञ्चिकी कुष्ठं विशाला धान्यकं वचा।
शतपुष्पाऽजगन्धा च हेमक्षीरी सनीलिका॥९७॥
हपुषा त्रिवृता दन्ती सातला द्विगुणोत्तरा।
चूर्णं नाराचकं पीतं मद्यमस्त्वम्लकाञ्जिकैः॥९८॥
गुल्मार्शोग्रहणीरोगान् श्वासकासोदराञ्जयेत्।
उदरे सुवर्णसमकं चूर्णम्।
पञ्चकोलं समरिचं द्वौ क्षारौ त्रिफला वचा॥९९॥
यवानी कुञ्चिका हिङ्गु तिन्तिडीकाम्लवेतसौ।
धान्याजगन्धात्रायन्तीदाडिमं सयवाग्रजम्॥१००॥
कटुका कौटजं बीजं सैन्धवं च समान् पृथक्।
त्रिवृता सप्तला दन्ती कम्पिल्लो नीलिकाऽभया॥१०१॥
स्वर्णंक्षीरी च द्विगुणा सर्वमेकत्र चूर्णयेत्।
उष्ट्रमूत्रे तथा गव्ये सप्ताहं परिभावयेत्॥१०२॥
द्विगुणां शर्करां चात्र दापयेत्तत्पिबेत्र्यहम्।
गोमूत्रत्रिफलाक्षाररसैर्मद्यैःसुखाम्बुना॥१०३॥
गुल्मे द्वितीयमग्निमुखं चूर्णम्।
चित्रकहपुषाग्रन्थिकसैन्धवसौवर्चलाजमोदाभिः।
बिडधान्यसठीपुष्करकर्चूराजाजितिन्तिडीकैश्च॥१२५॥
चव्ययवानीदाडिमपृथ्वीकैलाम्लवेतसैश्च समैः।
अग्निमुखोऽयं चूर्णः काञ्जिकमस्तूष्णवारिसीधूनाम्॥१२६॥
पीतोऽन्यतमेन नृभिर्गुल्मारुचिवह्निसादशूलानि।
दुर्नामप्लीहोदरकफवातगदान्विनाशयति॥१२७॥
गुल्मे बृहदग्निमुखं चूर्णम्।
द्वौ क्षारौ चित्रकं पाठा विडङ्गं लवणानि च।
सूक्ष्मैला तगरं भार्गींं कारवी हिङ्गु पौष्करम्॥१२८॥
सठी दार्वी त्रिवृन्मुस्ता वचा चेन्द्रयवास्तथा।
धात्रीजीरकवृक्षाम्लश्रेयस्यः सोषकुञ्चिकाः॥१२९॥
अम्लवेतसमम्लीका दाडिमं सकटुत्रयम्।
भल्लातकाजमोदं च यवानी सुरदारु च॥१३०॥
अभयाऽतिविषा चव्या हपुषारग्वधस्तथा।
तिलमुष्ककशिग्रूणां कोकिलाक्षपलाशयोः॥१३१॥
क्षाराण्यमूनि तुल्यानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्।
लोहकिट्टं च सप्ताहं तप्तं गोमूत्रसेचितम्॥१३२॥
विद्वान्सुभावितं कृत्वा योगेऽस्मिन्प्रक्षिपेत्ततः।
मातुलुङ्गरसेनैव भावयेत्तु दिनत्रयम्॥१३३॥
दिनत्रयं तु शुक्तेन तथाऽऽर्द्रकरसेन च।
सुभावितं ततः कृत्वा भक्तमध्ये प्रयोजयेत्॥१३४॥
एषोऽग्निकल्पचूर्णस्तु नाशयत्यचिराद्गदान्।
अजीर्णकं तथाऽऽनाहं पञ्च गुल्मान् सुदुस्तरान्॥१३५॥
ग्रहणीपाण्डुरोगांश्च श्वासकासांश्च दारुणान्।
अवस्मारं तथोन्मादं विभ्रमं च मदात्ययम्॥१३६॥
प्रणुदत्युल्बणानेतान्नष्टमग्निं च दीपयेत्।
समस्तव्यञ्जनोपेतं भक्तं कृत्वा तु भोजने॥१३७॥
प्रदद्यादस्य चूर्णस्स विडालपदकं भिषक्।
ततस्तद्द्रवतां याति कोष्णत्वं च प्रपद्यते॥१३८॥
एतदग्निमुखं चूर्णं चूर्णराजो निगद्यते।
ब्रह्मणा निर्मितं ह्येतदश्विभ्यां परिकीर्तितम्॥१३९॥
अग्निमान्द्ये वैश्वानरं चूर्णम्।
लवणयवानीदीप्यककणनागरमुत्तरोत्तरं वृद्धम्।
सर्वसमांशा पथ्या चूर्णो वैश्वानरः साक्षात्॥१४०॥
गुल्मे द्वितीयं वैश्वानरं चूर्णम्।
सैन्धवलवणात्कर्षौ द्वौ च यवान्यास्त्रयोऽजमोदायाः।
पिप्पल्याश्चापि पलं पञ्चकर्षाणि शुण्ठ्याश्च॥१४१॥
द्वादश हरीतकीनां चूर्णमिदं कारयेच्छ्लक्ष्णम्।
मद्योष्णोदकयूषैः पिबेद्धि तक्रेण सर्पिषा वापि॥१४२॥
गुल्मे तथा रुजायां पार्श्वोदरबस्तियोनिशूलेषु।
वातानुलोमनकरं चूर्णं वैश्वानरं नाम॥१४३॥
गुल्मे तृतीयं वैश्वानरं चूर्णम्।
माणिमन्थस्य भागौ द्वौ यवान्यास्तद्वदेव च।
भागास्त्रयोऽजमोदाया नागराद्भागपञ्चकम्॥१४४॥
दश चैव हरीतक्याः सूक्ष्मचूर्णीकृताः शुभाः।
मस्त्वारनालमद्येन सर्पिषोष्णोदकेन वा॥१४५॥
पीतं जयत्यामवातं गुल्मं हृद्बस्तिजं गदम्।
वातानुलोमनं श्रेष्ठं चूर्णं वैश्वानरं स्मृतम्॥१४६॥
अग्निदीप्त्यर्थंज्वालामुखं चूर्णम्।
हिङ्ग्वम्लवेतसकटुत्रिकचित्रकेभ्यः
सक्षारपौष्करफलत्रिकदाडिमेभ्यः।
कर्षान्पृथग्गुड9पलान्यवचूर्ण्य बद्ध्वा
ज्वालामुखोऽयमनलस्य करोति दीप्तिम्॥१४७॥
उदावर्ते नाराचकं चूर्णम्।
हिङ्गु कुष्ठं वचा चैव स्वर्जिका बिडमेव च।
एको द्वावथ चत्वारस्तथाऽष्टौ षोडशैव च॥१४८॥
यथाक्रमकृतान् भागांश्चूर्णमानाहभेदनम्। .
एष नाराचविवृतो योगो नाराचको मतः॥१४९॥
उदावर्तेषु शूलेषु गुल्मेष्वथ भगन्दरे।
हृद्रोगे च प्रमेहे च योगोऽयं शमनः परः॥१५०॥
सारस्वतं चूर्णम्।
कुष्ठाश्वगन्धसैन्धवपिप्पलिमरिचं द्विजीरकं शुण्ठी।
पाठाऽजमोदसहिता समभागा चूर्णिता च वचा॥१५१॥
प्रातर्मधुसर्पिभ्यो बिडालपदमात्रमेतदवलिह्य।
सप्ताहं पथ्याशी किन्नरमधुरस्वरो भवति मर्त्यः॥१५२॥
द्विगुणीकृते च तस्मिन्मेधावी भवति मृष्टवाक्यश्च।
त्रिगुणीकृते च तस्मिञ्छ्लोकसहस्रं पठत्याशु॥१५३॥
दुर्मेधसः किलायं भिक्षोराचार्यलोकसेनेन।
अप्रार्थितेन दत्तो योगवरो नन्दनविहारे॥१५४॥
बृहत्सारस्वतं चूर्णम्।
कुष्ठाश्वगन्धे लवणाजमोदे द्वे जीरके त्रीणि कटूनि पाठा।
माङ्गल्यपुष्पी च समानि चूर्णं कृत्वा तु चूर्णेन वचोद्भवेन॥१५५॥
तुल्येन युक्तं बहुशो रसेन तद्भावितं ब्रह्मविनिर्मितायाः।
सर्पिर्मधुभ्यां च ततोऽक्षमात्रं लिह्यान्नरः सप्तदिनं हिताशी॥१५६॥
सौखर्यमिच्छन्मनसश्च धैर्यं मेधां तथेच्छन्द्विगुणं च कालम्।
पठेन्नरः श्लोकसहस्रमह्नातद्वत्प्रयुक्तं त्रिगुणं च कालम्॥१५७॥
सारस्वतमिदं चूर्णं ब्रह्मणा निर्मितं स्वयम्।
जगद्धितार्थं लोकानां दुर्मेधसां विचेतसाम्॥१५८॥
अर्शोरोगे यवानिकाद्यं चूर्णम्।
यवान्यतिविषा कुष्ठं वचा हिङ्गु हरीतकी।
कत्तृणं रोहिषं मुस्तं रास्ना विबुधदारु च॥१५९॥
पिप्पल्यः शृङ्गवेरं च मरिचं चव्यचित्रकौ।
मातुलुङ्गस्य मूलानि पलाशमूलकानि च॥१६०॥
त्रिफला पुष्करसठी सूक्ष्मैला त्वग्घरीतकी।
अजाजी चेति तच्चूर्णं पिबेदुष्णोदकासवैः॥१६१॥
एतदर्शोविबन्धानां प्रयोगादमृतोपमम्।
श्वासकासे बिभीतकाद्यं चूर्णम्।
बिभीतकं सातिविषं भद्रमुस्तं च पिप्पली।
भार्गींं च शृङ्गवेरं च सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥१६२॥
तानि चूर्णानि मद्येन पीतान्युष्णोदकेन वा।
नाशयन्ति नृणां क्षिप्रं श्वासकासापतन्त्रकान्॥१६३॥
हिक्काकासे रेणुकाद्यं चूर्णम्।
हरेणुश्चोरकं मुस्तं सूक्ष्मैलासठिनागरम्।
त्वगेला पुष्करं शृङ्गी ह्रीबेरागरुकेसरम्॥१६४॥
यवान्यामलकी भार्गींं पिप्पली सुरसा तथा।
सिताचतुर्गुणं चूर्णं तत्पीतं लीढमेव वा॥१६५॥
अन्नपानप्रयुक्तं वा भक्षितं वापि केवलम्।
कासहिक्काज्वरश्वासपार्श्वशूलं च नाशयेत्॥१६६॥
हिक्काश्वासे सुरसाद्यं चूर्णम्।
सुरसा चोरकं शृङ्गी सूक्ष्मैला पुष्करं सठी।
पिप्पलीत्वग्बिडक्षारशुण्ठीहिङ्ग्वम्लवेतसम्॥१६७॥
भार्गींं तामलकी जीवा वृक्षाम्लश्चेति चूर्णितम्।
हिक्काश्वासविबन्धार्शःकासहृत्पार्श्वशूलनुत्॥१६८॥
तमकश्वासे शठ्याद्यं चूर्णम्।
शठीचोरकजीवन्तीत्वङ्मुस्तापुष्कराह्वयम्।
सुरसातामलक्येलापिप्पल्यगरुनागरम्॥१६९॥
वालकं च समं चूर्णं कृत्वाष्टगुणशर्करम्।
सर्वथा तमके श्वासे हिक्कायां च प्रयोजयेत्॥१७०॥
दन्तरोगे तिक्तकं चूर्णम्।
मुस्तं त्रिकटुकं पाठां त्वग्बीजं वत्सकस्य च।
निम्बं पटोलं कटुकां हरिद्रां धन्वयासकम्॥१७१॥
जातीप्रवालं भूनिम्बं मधुकं सरसाञ्जनम्।
त्रायमाणां गुडूचीं च त्रिफलां चेति चूर्णयेत्॥१७२॥
चूर्णोऽयं तिक्तको नाम कवलः प्रतिसारिणम्।
दन्तमूलास्यगलजात्रोगानाशु व्यपोहति॥१७३॥
दन्तरोगे पीतकं चूर्णम्।
पटोलदार्वीमधुकं प्रियङ्ग्वतिविषा धनम्।
सनागपुष्पं त्रायन्ती भूनिम्बं तिक्तरोहिणी॥१७४॥
बिभीतकं दाडिमत्वग्घरितालं मनःशिला।
समांशानि त्रिभागांशं सशैलेयं रसाञ्जनम्॥१७५॥
पीतकं चूर्णमेतद्धि मध्वाक्तं प्रतिसारणम्।
दन्तमूलगलास्योष्ठजिह्वातालुविकारिणाम्॥१७६॥
गलरोगे कालकं चूर्णम्।
गृहधूमो यवक्षारः पाठा व्योषं रसाञ्जनम्।
तेजोह्वात्रिफला रोध्रं चित्रकं चेति चूर्णयेत्॥१७७॥
सक्षौद्रं धारयेदेतद्गलरोगविनाशनम्।
कालकं नाम चूर्णं तु दन्तास्यगलरोगनुत्॥१७८॥
मुखरोगे द्वितीयं पीतकं चूर्णम्।
मनःशिला यवक्षारो हरितालं ससैन्धवम्।
दार्वी त्वक्केति तच्चूर्णं माक्षिकेन समायुतम्॥१७९॥
मूर्छितं घृतमण्डेन कण्ठरोगेषु धारयेत्।
मुखरोगेषु च श्रेष्ठं पीतकं नाम चूर्णकम्॥१८०॥
कासे जीवन्त्याद्यं चूर्णम्।
जीवन्ती मधुकं पाठा त्वक्क्षीरी त्रिफला सठी।
मुस्तैलापद्मकं द्राक्षा द्वे बृहत्यौ वितुन्नकम्॥१८१॥
सारिवा पौष्करं मूलं कर्कटाख्यं रसाञ्जनम्।
पुनर्नवा लोहरजस्त्रायमाणा यवानिका॥१८२॥
भार्गींं तामलकी वृद्धिर्विडङ्गं धन्वयासकम्।
क्षारचित्रकचव्याम्लवेतसव्योषदारु च॥१८३॥
चूर्णीकृत्य समांशानि लेहयेन्मधुसर्पिषा।
चूर्णं पाणितलं कृत्वा पञ्चकासान्व्यपोहति॥१८४॥
अतिसारे भूनिम्बाद्यं चूर्णम्।
भूनिम्बकटुकाव्योषमुस्तकेन्द्रयवान् समान्।
द्वौ चित्रकाद्वत्सकत्वग्भागान् षोडश चूर्णयेत्॥१८५॥
चूर्णं मस्त्वम्बुना पीतं ग्रहणीदोषगुल्मज़ित्।
कामलाज्वरपाण्डुत्वमेहारुच्यतिसारजित्॥१८६॥
ग्रहण्यां पाठाद्यं चूर्णम्।
पाठा प्रतितिषा मुस्तं व्योषभूनिम्बवत्सकाः।
तिक्ताचित्रकदुस्पर्शास्तुल्यैस्तैः कुटजः समः॥१८७॥
गुडशीताम्बुना पीतो ग्रहणीहाऽग्निकारकः।
ग्रहण्यां नागराद्यं चूर्णम्।
नागरातिविषामुस्तं भूनिम्बं सरसाञ्जनम्।
वत्सकत्वक्फलं बिल्वं पाठां कटुकरोहिणीम्॥१८८॥
पिबेत्समांशकं चूर्णं सक्षौद्रं तण्डुलाम्बुना।
पैत्तिके ग्रहणीदोषे रक्तं यश्चोपवेश्यते॥१८९॥
राजयक्ष्मणि सितोपलाद्यं चूर्णम्।
सितोपलां तवक्षीरीं पिप्पलीं बहुलां त्वचम्॥१९०॥
अन्त्यादूर्ध्वं द्विगुणितं लेहयेत्क्षौद्रसर्पिषा।
चूर्णकं प्राशयेच्चैतच्छ्वासकासकफातुरम्॥१९१॥
सुप्तजिह्वारोचकिनं मन्दाग्निं पार्श्वशूलिनम्।
हस्तपादांशदाहेषु ज्वरे रक्ते तथोर्ध्वगे॥१९२॥
योनिदोषे पुष्यानुगं चूर्णम्।
पाठा जम्बाम्रयोर्मज्जा शिलोद्भेदं रसाञ्जनम्।
अम्बष्ठकी मोचरसः समङ्गा पद्मकेशरम्॥१९३॥
बाह्लिकातिविषे बिल्वं रोध्रं मुस्तं सगैरिकम्।
कट्फलं मरिचं शुण्ठी मृद्वीका रक्तचन्दनम्॥१९४॥
कट्वङ्गवत्सकानन्ताधातकीमधुकार्जुनम्।
पुष्येणोद्धृत्य तुल्यानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥१९५॥
तानि क्षौद्रेण संयोज्य पाययेत्तण्डुलाम्बुना।
अर्शःसु चातिसारेषु रक्तं यश्चोपवेश्यते॥१९६॥
दोषा दन्तकृता ये च बालानां तांश्च नाशयेत्।
योनिदोषं रजोदोषं जलं श्वेतं सपाण्डुरम्॥१९७॥
स्त्रीणां श्यावारुणं यच्च प्रसह्य विनिवर्तयेत्।
चूर्णं पुष्यानुगं नाम हितमात्रेयपूजितम्॥१९८॥
पाण्डुरोगे योगराजं चूर्णम्।
त्रिफलायास्त्रयो भागास्त्रयस्त्रिकटुकस्य च।
भागश्चित्रकमूलस्य विडङ्गानां तथैव च॥१९९॥
मूस्ताकम्पिल्लयोर्भागो देयश्चापि पृथक् पृथक्।
पञ्चाश्मजतुनो भागास्तथा रूप्यमलस्य च॥२००॥
माक्षिकस्य तु शुद्धस्यलोहस्य रजसस्तथा।
अष्टौ भागाः सितायाश्च तत्सर्वं सूक्ष्मचूर्णितम्॥२०१॥
माक्षिकेणाप्लुतं स्थाप्यमायसे भाजने शुभे।
उदुम्बरसमां मात्रां नरः खादेद्यथाग्निना॥२०२॥
दिने दिने प्रयोक्तव्यं जीर्णे भोज्यं यथेप्सितम्
वर्जयित्वा कुलत्थांश्च काकमाचीं कपोतकान्॥२०३॥
योगराजोऽयमाख्यातो योगोऽयममृतोपमः।
रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं शिवम्॥२०४॥
पाण्डुरोगं विषं कासं यक्ष्माणं विषमज्वरम्।
कुष्ठान्यजरकं मेहान् श्वासं हिक्कामरोचकम्।
विशेषाद्धन्त्यपस्मारं कामलां गुदजानि च॥२०५॥
कुष्ठे त्रिफलाद्यं चूर्णम्।
त्रिफलातिविषाकटुकानिम्बकलिङ्गवचापटोलानाम्।
मागधिकरजनीद्वयपद्मकभार्गींमूर्वाविशालानाम् ॥२०६॥
भूनिम्बपलाशानां दद्याद्द्विपलं त्रिवृत्त्रिगुणा।
तैश्च समाना ब्राह्मी तच्चूर्णं सुप्तिनुत् परमम्॥२०७॥
मन्दाग्नौ व्योषाद्यं चूर्णम्।
सव्योषं क्रिमिजित्सपञ्चलवणं साजाजिकं साभयं
सक्षारं सहुताशनं सचविकं सग्रन्थिकं सत्रिवृत्।
एतच्चूर्णमुदश्विता प्रपिबतामुष्णेन वा वारिणा
वह्निर्वृद्धिमुपैति सर्वगदजिद्भाजिष्णुतामावहेत्॥२०८॥
पाण्डुरोगे खण्डसमकं चूर्णम्।
त्रिफलाव्योषबिल्वाब्दपिप्पलीमूलचित्रकैः।
त्वगेलापत्रचविकातिन्तिण्डीकाम्लवेतसैः॥२०९॥
समांशैर्धातुमाक्षीकं सर्वैस्तुल्यं प्रदापयेत्।
लोहचूर्णं समं तैश्च सर्वैः खण्डं समांशकम्॥२१०॥
चूर्णितं मधुना लेह्यं वटकान् वा समाक्षिकान्।
भक्षयित्वा यथासात्म्यमनुपानं प्रयोजयेत्॥२११॥
नाशयेत्कुष्ठमालस्यं प्रमेहोदरकामलाः।
पाण्डुरोगं तथा कासं हलीमकशिरोरुजम्॥२१२॥
प्रसेकमरुचिं मूर्च्छां हृल्लासं मन्दवह्निताम्।
रक्तपित्तं परीसर्पं श्वयथुं च नियच्छति॥२१३॥
शोफे पाठाद्यं चूर्णम्।
पाठा सकृष्णा गजपिप्पली च निदग्धिका नागरचित्रकौ च।
सपिप्पलीमूलमजाजीरात्रिमुस्तं च चूर्णं सुखतोयपीतम्।
हन्यात्त्रिदोषं चिरजं च शोफं कुष्ठं च चूर्णस्य हि सुप्रयोगात्॥२१४॥
कुष्ठे बाकुचिकाद्यं चूर्णम्।
बाकुची त्रिफला वह्निर्भल्लातं च शतावरी।
सिन्दुवारोऽश्वगन्धा च निम्बः पञ्चाङ्गसंयुतः॥२१५॥
मासैकं भक्षितं हन्ति चूर्णमेषां समांशकम्।
सर्वकुष्ठानि वातांश्च रोगिणां नात्र संशयः॥२१६॥
कुष्ठे पृथुनिम्बपञ्चकं चूर्णम्।
काले त्वक्छदसारबीजकुसुमैर्निम्बस्य तुल्यांशकैः
कृत्वा चूर्णमदः कटुत्रिकनिशाधात्र्यक्षपथ्यायुतैः।
पञ्चारिष्टमिदं पयोमधुघृतैरुष्णाम्बुना वा पुमान्
पीत्वा कासगरप्रमेहपिटिकाकुष्ठादिभिर्मुच्यते॥२१७॥
कुष्ठे बृहत्पञ्चनिम्बकं चूर्णम्।
रसायनं प्रवक्ष्यामि ब्रह्मणाऽमिततेजसा।
प्रोक्तं यच्च्यवनादिभिरुपयुक्तं महर्षिभिः॥२१८॥
पुष्पकाले तु निम्बस्य कुसुमानि समाहरेत्।
कलकाले फलं चैव मूलं पत्रं त्वचं तथा॥२१९॥
चित्रकोऽथ विडङ्गानि व्याधिघातकशक्रजौ।
भल्लातकं हरीतक्यः शुण्ठी चामलकैः सह॥२२०॥
श्वदंष्ट्रा लोहचूर्णं च भृङ्गस्वरसभावितम्।
अरिष्टखदिराभ्यां च भावयेत्पञ्चनिम्बकम्॥२२१॥
भावयित्वा पुनः पिष्टमेकस्थाने च कारयेत्।
ततो विडालपदकं सर्पिषा माक्षिकेण वा॥२२२॥
सुखाम्बुना वा तत्पीतं तत्क्षणादेव जीर्यति।
हन्यात्कुष्ठानि सर्वाणि सप्त चैव महाक्षयान्॥२२३॥
अर्शांसि वातगुल्मं च खालित्यं पलितानि च।
वातरक्तं विशेषेण श्वित्रं कुष्ठं तथैव च॥२२४॥
कुष्ठनाशनमेतद्धि ब्रह्मणा गदितं पुरा।
वातातपसहो ह्येष न चात्र नियमः क्वचित्॥२२५॥
ग्राम्यधर्मं च कुर्वाणो भोजनं सार्वकार्मिकम्।
मासमात्रोपयोगेन जीवेद्वर्षशतं पुमान्॥२२६॥
सर्वकामप्रसक्तोऽपि सर्वरोगैः प्रमुच्यते।
षण्मासमुपपयोगेन सर्पैरपि न दश्यते॥२२७॥
वर्षमात्रोपयोगेन जीवेद्वर्षशतत्रयम्।
नास्मात्परममस्त्यन्यत्कुष्ठरोगस्य भेषजम्॥२२८॥
साध्यानि यानि कुष्ठानि तान्येवामुं प्रकुर्वतः।
निवर्तन्ते यथा क्रुद्धे सौपर्णे पवनाशिनः॥२२९॥
मन्दाग्नौ लवणभास्करं चूर्णम्।
पिप्पली पिप्पलीमूलं धान्यकं कृष्णजीरकम्।
सैन्धवं च बिडं चैव पत्रं तालीसकेसरम्॥२३०॥
एषां द्विपलिकान् भागान् पञ्च सौवर्चलस्य च।
सारिवाजाजिशुण्ठीनामेकैकस्य पलं पलम्॥२३१॥
त्वगेला चार्धभागे च सामुद्रात्कुडवद्वयम्।
दाडिमात्कुडवं चैकं द्वे पले चाम्लवेतसात्॥२३२॥
एतच्चूर्णीकृतं श्लक्ष्णं गन्धाढ्यममृतोपमम्।
लवणं भास्करं नाम भास्करेण विनिर्मितम्॥२३३॥
जगतोऽस्य हितार्थाय वातश्लेष्मामयाहम्।
तक्रमस्तुसुराशुक्तसीधुकाञ्जिकयोजितम्॥२३४॥
जाङ्गलानूपमांसेषु भक्ष्येषु विविधेषु च।
मन्दाग्नीनां खादयतां शक्तो भवति पावकः॥२३५॥
अर्शांसि ग्रहणीदोषशोषकुष्ठभगन्दरान्।
हृद्रोगमामदोषांश्च विविधानुदरस्थितान्॥२३६॥
प्लीहानं वातगुल्मं च श्वासकासोदरक्षयान्।
शूलं च नाशयत्येतत्तुष्टो नृप इवापदः॥२३७॥
परिणामशूले सामुद्राद्यं चूर्णम्।
सामुद्रं सैन्धवं क्षारौ रुचकं रोमकं बिडम्।
दन्ती लोहरजः किट्टं त्रिवृत्सूरणकं समम्॥२३८॥
दधिगोमूत्रपयसा मन्दपावकपाचितम्।
तं यथाग्निबलं चूर्णं किंचिदुष्णेन वारिणा॥२३९॥
जीर्णे जीर्णे तु भुञ्जीत मांसादिस्निग्धभोजनम्।
नाभिशूलमुरःशूलं गुल्मप्लीहभवं च यत्।
परिणामसमुत्थस्य शूलस्य च हितं परम्॥२४०॥
तुम्बर्वाद्यं चूर्णम्।
चूर्णं तदेतदिति तुम्बरुपुष्कराह्व–
पथ्याम्लवेतसबिडं रुचकं सहिङ्गु।
सिन्धुद्भवेन सहितं यववारिपीतं
शूलापतन्त्रकविकारहरं यदुक्तम्॥२४१॥
शूले हिङ्ग्वष्टकं चूर्णम्।
व्योषाजमोदयुतजीरकयुग्मसिन्धु–
चूर्णं सरामठविभागमिति प्रयुक्तम्।
हिङ्ग्वष्टकं हरति हृज्जठरान्तराल–
शूलानि गुल्मगुदजग्रहणीविकारान्॥२४२॥
अरोचके द्वितीयं हड्ग्वष्टकं चूर्णम्।
त्रिकटुकमजमोदा सैन्धवं जीरके द्वे
समधरणधृतानामष्टमो हिङ्गुभागः।
प्रथमकवलभुक्तं सर्पिषा चूर्णमेत–
ज्जनयति जठराग्निं वातगुल्मं निहन्ति॥२४३॥
मन्दाग्नौ रामाठाद्यं चूर्णम्।
रामठं रुचकं वह्निर्वचाजीरकनागरम्।
विडङ्गं चित्रकं कुष्ठं कणामरिचवेतसम्॥२४४॥
दीप्यकं चेति सर्वाणि समभागानि कारयेत्।
चूर्णमुष्णाम्बुना पीतं वह्निवृद्धिकरं परम्॥२४५॥
सर्वाङ्गशूले चित्रकाद्यं चूर्णम्।
चित्रकं पिप्पलीमूलं पिप्पली गजपिप्पली।
हिङ्गु पुष्करमूलं च दाडिमं कृष्णजीरकम्॥२४६॥
विडङ्गधान्यहपुषाशताह्वाहिङ्गुपत्रिकाः।
चव्याम्लवेतसाजाजीबस्तगन्धाशठीवचाः॥२४७॥
तुम्बरूण्यजमोदा च यवानी रुचकं तथा।
समभागानि सर्वाणि सर्वैस्तुल्यं तु नागरम्॥२४८॥
सूक्ष्मचूर्णं ततः कृत्वा मातुलुङ्गेन भावयेत्।
ततो बिडालपदकं पिबेदुष्णेन वारिणा॥२४९॥
मद्येन मस्तुना वापि यूषेणापि रसेन वा।
जयेत्सर्वाङ्गजं शूलं कोष्ठगं कुक्षिगं तथा॥२५०॥
अर्शोजठरगुल्मघ्नं दीपनीयं विशेषतः।
चित्रकाद्यमिदं चूर्णमामवातहरं परम्॥२५१॥
मन्दाग्नौ सैन्धवाद्यं चूर्णम्।
सिन्धुसौवर्चलव्योषपथ्याजीरकचित्रकैः।
विडङ्ग्यावशूकाह्वपाक्यग्रन्थिकरोमकैः॥२५२॥
तृवृच्चव्ययुतैश्चूर्णं तक्रेणाम्लाम्बुना पिबेत्।
कल्पितं वह्निदीप्त्यर्थं प्रातरुत्थाय मानवः॥२५३॥
वातव्याधौ सामुद्राद्यं चूर्णम्।
सामुद्रसौवर्चलसैन्धवानां क्षारो यवानामजमोदभागः।
हरीतकीपिप्पलीशृङ्गवेरं हिङ्गु विडङ्गं च समानि कुर्यात्॥२५४॥
एतानि चूर्णानि घृतप्लुतानि भुञ्जीत पिण्डान् प्रथमं तु पञ्च।
अजीर्णवातं ग्रहगुल्मवातं वातप्रमेहं विषमं च वातम्।
विषूचिकाकामलपाण्डुरोगान् श्वासं च कासं च हरेत्प्रयुक्तं॥२५५॥
नारसिंहं चूर्णम्।
प्रस्थं शतावरीचूर्णं प्रस्थं गोक्षुरकस्य च।
वाराह्या विंशतिपलं गडूच्याः पञ्चविंशतिः॥२५६॥
भल्लातकानां द्वात्रिंशच्चित्रकस्य दशैव तु।
तिलानां लुञ्चितानां च प्रस्थं दद्यात्सुचूर्णितम्॥२५७॥
त्र्यूषणस्य पलान्यष्टौ शर्करायाश्च सप्ततिः।
माक्षिकं शर्करार्धेन तदर्धेन च वै घृतम्॥२५८॥
शतावरीसमं देयं विदारीकन्दचूर्णकम्।
एतानि सूक्ष्मचूर्णानि स्त्रिग्धे भाण्डे निधापयेत्॥२५९
पलार्धमुपयुञ्जीत यथेष्टं चात्र भोजनम्।
एष मासोपयोगेन जरां हन्ति रुजामपि॥२६०॥
वलीपलितखालित्यप्लीहव्याधींश्च पीनसान्।
भगन्दरं मूत्रकृच्छ्रमश्मरींश्च भिनत्त्यपि॥२६१॥
अष्टादशैव कुष्ठानि तथाष्टावुदराणि च।
प्रमेहं च महाव्याधिं पञ्चकासान् सुदुस्तरान्॥२६२॥
अशीतिर्वातजान् रोगांश्चत्वारिंशच्च पैत्तिकान्।
विंशतिः श्लैष्मिकांश्चैव संसृष्टान् सान्निपातिकान्।
एतान् सर्वरुजो हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा॥२६३॥
सकाञ्चनाभो मृगराजविक्रमस्तुरङ्गवेगो जलदौघनिःस्वनः।
स्त्रीणां शतं गच्छति सोऽतिरम्यः सुरूपवान् सत्ववतां वरिष्ठः॥२६४॥
पुत्रान् संजनयेद्धिमान्नरसिंहनिभांस्तथा।
नारसिंहति विख्यातश्चूर्णो रोगगणापहः॥२६५॥
अतिसारे गङ्गाधरं चूर्णम्।
अरलुकघनशुण्ठीधातकीविल्वरोघ्रं
कुटजफलसमेतं मोचनिर्यासयुक्तम्।
अतिविषजलपाठाः साहकारं च बीजं
मसृणमधुविमिश्रं तण्डुलाम्बुप्रपीतम्॥२६६॥
कफोद्भवं मारुतपित्तसंभवं जयेदतीसाररयं तथाऽऽमजम्।
प्रवृद्धगङ्गाधरनाम चूर्णकं तथा हि दोषं ग्रहणीभवं च॥२६७॥
गुल्मे कटुत्रिकाद्यं चूर्णम्।
कटुत्रिकं तिक्तकरोहिणीघनं किराततिक्तोऽथ शतक्रतोर्यवाः।
ससप्तपर्णातिविषादुरालभाः पटोलमूलं सह त्रायमाणया॥२६८॥
गडूचिचव्यं सविडङ्गनिम्बकं प्रियङ्गुनीलोत्पलरोध्रमञ्जनम्।
सधातकीमोचरसं सुचूर्णितं बुभुक्षितेऽद्यान्मृदुभोजनं हितम्॥२६९॥
शशैःसलावैरथवापितित्तिरैर्निहन्ति गुल्मान् कफपित्तसंभवान्।
ज्वरातिसारग्रहणीगदारुचीन् प्रमेहमूत्रक्षयवर्ध्मविद्रधीन्॥२७०॥
अजीर्णपाण्डुक्षतकासशोफान् सदा प्रयुक्तः सगुडः कटुत्रिकः।
स्थौल्ये व्योषाद्यं चूर्णम्।
व्योषकट्वीवराशिग्रुविडङ्गातिविषास्थिराः।
हिङ्गुसौवर्जलाजाजीयवानीधान्यचित्रकाः॥२७१॥
निशे बृहत्यौ हपुषा पाठा मूलं च केबुकात्।
एतच्चूर्णं मधु घृतं तैलं चापि दशांशकम्॥२७२॥
शक्तुमिः षोडशगुणैर्युक्तं पीतं निहन्ति तत्।
नृृणां स्थौल्यादिकान्दोषान् कफमेदोभवांस्तथा॥२७३॥
हृद्रोगकामलाश्वित्रश्वासकासगलग्रहान्।
बुद्धिमेधास्मृतिकरं सन्नस्याग्नेश्च दीपनम्॥२७४॥
वातकासे विडङ्गाद्यं चूर्णम्।
विडङ्गं नागरं रास्ना पिप्पली हिङ्गु सैन्धवम्।
भार्गींं क्षारश्च तच्चूर्णं पिबेद्धि घृतमात्रया॥२७५॥
सकलेऽनिलजे कासे ह्निक्कायामनिलार्तिषु।
गुल्मे वचाद्यं चूर्णम्।
वचा वत्सकबीजं च कुष्ठं चित्रकमेव च॥२७६॥
पिप्पली शृङ्गवेरं च पाठा कटुकरोहिणी।
यवानी च पटोलं च सैन्धवातिविषे तथा॥२७७॥
हपुषा चाजगन्धा च शठी पौष्करमेव च।
एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥२७८॥
ततो बिडालपदकं पिबेदुष्णेन वारिणा।
गुल्मान् पञ्च च हृद्रोगान् कुक्षिशूलं च नाशयेत्॥२७९॥
पाण्डुरोगे किराततिक्तकाद्यं चूर्णम्।
किराततिक्तं सुरदारु दार्वी मुस्ता गडूची कटुका पटोलम्।
दुरालभा पर्पटकं सनिम्बं फलत्रिकं वह्निकटुत्रिकं च॥२८०॥
विडङ्गसारं च समांशकानि ह्ययोरजोऽर्धेन विचूर्णितानि।
खादन्नरः क्षौद्रघृतेन ईषत्स्थिरांश्च घोरानथ पाण्डुरोगान्॥२८१॥
आमोद्भवान् वातसमुत्थितांश्च पित्तोद्भवांश्छ्लेष्मसमुद्भवांश्च।
दुष्टव्रणान्वै कफविद्रधींश्च श्वित्राणि हन्याच्छतशः प्रयोगः॥२८२॥
कुष्ठादौ खण्डसमं चूर्णम्।
त्रिफलाव्योषविल्वाब्दपिप्पलीमूलचित्रकैः।
त्वगेलापत्रचविकातिन्तिडीकाम्लवेतसैः॥२८३॥
समांशं धातुमाक्षीकं सर्वैस्तुल्या सिता भवेत्।
भक्षयित्वा यथा सम्यगनुपानं प्रयोजयेत्॥२८४॥
चूर्णितं मधुना लेह्यं वटकान् वा समाक्षिकान्।
नाशयेत्कुष्ठमालस्यं प्रमेहोदरकामलान्॥२८५॥
पाण्डुत्वं ग्रहणीदोषं हलीमकशिरोरुजम्।
प्रसेकमरुचिं मूर्छां हृल्लासं मन्दवह्निताम्॥२८६॥
रक्तपित्तं परीसर्पं श्वयथुं चाङ्गतापताम्।
नयेत्प्राणमुत्साहं बलवर्णस्थिराङ्गताम्॥२८७॥
चूर्णं खण्डसमं नाम समस्तान्नाशयेद्गदान्।
कुष्ठे बाकुच्याद्यं चूर्णम्।
पलानि संगृह्य दशेन्दुराज्या फलत्रयस्यापि समानमेतत्।
विडङ्गसारस्य पलानि सप्त शिलाजतोऽर्धंच पुरस्य चैकम्॥२८८॥
शतं च भल्लातकसत्फलानां पलं तथा पुष्करमूलनाम्नः।
पलत्रयं लोहभवं सुचूर्णं तुरी पलार्धं ह्यथ कर्षभागाः॥२८९॥
सपत्रमुस्ताकणयष्टिकानां सचित्रकग्रन्थिककेशराणाम्।
न्यग्रोधमूलोषणकुङ्कुमानामेकत्र संचूर्ण्य समं तु खण्डम्॥२९०॥
खादेद्यथाग्निः प्रयतस्तु मात्रां कुष्ठान्यशेषाण्यपयान्ति नाशम्।
अर्शोविकाराः षडपि प्रवृद्धाः श्वित्राणि चित्राण्युदराणि चाष्टौ॥२९१॥
क्षयाश्च कृच्छ्रः खलु पाण्डुरोगः कण्ठामया विंशतिरेव मेहाः।
उन्मादरोगज्वरनेत्ररोगा नासोद्भवा पञ्चविधाश्च गुल्माः॥२९२॥
वातमशीतिविकारं चत्वारिंशत्प्रभेदजं पित्तम्।
श्लेष्माणं विंशतिकं विनाशमायाति दुष्टमपि॥२९३॥
भवति रुचिरदीप्तिर्गौरवर्णो मनुष्यः
समधिकशतवर्षंजीवतीह प्रगल्भम्।
विघटितघनरोगो मासमात्रप्रयोगा–
द्युवतिनयनहारी हृष्टपुष्टो वृषश्च॥२९४॥
उदरे भस्मार्कचूर्णम्।
युगर्तुसंख्यानि दलानि भानोश्चत्वारि काण्डानि सुधाद्रुमस्य।
सुरेन्द्रवल्ल्या दश सत्फलानि पञ्चैव पत्राणि कुमारिकायाः॥२९५॥
चत्वारि वृन्ताकतरोः फलानि व्याघ्रीचतुःषष्टिफलानि युक्या।
पञ्चाङ्गमेकं हरिपर्णकन्दं सिद्धार्थतैलं च पलप्रमाणम्॥२९६॥
यवाह्वसौवर्चलधूर्तवार्धेःपलं पलं स्यात्क्रमशश्चतुर्णाम्।
पलानि पञ्चैव शिवाह्वयस्य गोक्षूरकं चाऽपि वदन्ति वैद्याः॥२९७॥
गुरूपदेशादधिगम्य सम्यग्भाण्डे खबुद्ध्याऽर्कदलानि मुक्त्वा।
सर्वाणि चान्यानि महौषधानि सिद्धार्थतैलेन विमिश्रितानि॥
प्रक्षिप्य संरुद्ध्य मुखं तदीयं मृत्कर्पटं सन्धिषु वेष्टनीयम्।
गम्भीरगर्ते कुहरे निवेश्य प्रच्छादनीयं छगणैः प्रभूतैः॥२९९॥
उत्तार्य यत्नेन सुशीतलं तं क्षारं चतुर्भिः प्रहरैः सुसिद्धम्।
सूक्ष्मीकृतं जीरककर्षषट्कंमध्ये क्षिपेदर्धपलं क्षवस्य॥३००॥
तदाढ्यवाते ह्यथ पाण्डुरोगे भगन्दराजीर्णविषुचिकासु।
आनाहबन्धे ग्रहणीविकारे पाषाणिके विद्रधिमूत्रकृच्छ्रे॥३०१॥
तक्रेण कर्षार्धमिदं प्रदेयं भस्मार्कचूर्णं दधिमस्तुना वा।
श्चासे सकासे हृदयोपरोधे कण्ठग्रहे जीर्णगुडेन देयम्॥३०२॥
तैलेन शूले मधुनोदरेषु गुल्मप्रकोपे फलपूरकेण।
सौवीरकेणाथ सदा प्रयोज्यमुष्णेन सर्वत्र जलेन देयम्॥३०३॥
यथा मृगेन्द्रो द्विपदर्पहन्ता वज्रं यथा भूधरमध्यभेदि।
अग्रंतथा योगवरो जनानां निहन्ति दुष्टानपि रोगसंघान्॥३०४॥
योगप्रदीपो मुनिभिः पुराणैर्निवेदितो मूलमसौ हितानाम्।
अनेन भीमादपि गाढवह्निर्नरो भवेत्पथ्यहितोपचारैः॥३०५॥
अर्शसि पूतीकरञ्जाद्यं चूर्णम्।
पूतीकरञ्जसूरणसुरदालिकरञ्जसिन्धुजातानाम्।
मौसल्यभयाशीतककङ्कुष्ठकाग्नीनां च तुल्यांशम्॥३०६॥
चूर्णं तक्रेणैनं पिबतस्तेनैव चाश्नतो भुक्तम्।
पक्वफलानीव तरोरर्शांसि पतन्ति मासेन॥३०७॥
गुल्मे यवक्षाराद्यं चूर्णम्।
यवक्षारं यवानी च पिबेदुष्णेन वारिणा।
एतेन वातजं शूलं गुल्मश्चैव चिरोत्थितः॥३०८॥
भिद्यते सप्तरात्रेण पवनेन यथा घनः।
जीर्णे रसादिभिर्भोज्यं शशलावकपिञ्जलैः॥३०९॥
ज्वरातिसारे व्योषाद्यं चूर्णम्।
व्योषं वत्सकबीजं च निम्बभूनिम्बमार्कवम्।
चित्रकं रोहिणी पाठा दार्वी चातिविषा समाः॥३१०॥
सूक्ष्मचूर्णीकृताः सर्वास्तत्तुल्या वत्सकत्वचः।
सर्वमेकत्र संयोज्य प्रपिबेत्तण्डुलाम्बुना॥३११॥
सक्षौद्रं वा लिहेदेतत्पाचनं ग्राहि भेजषजम्।
तृष्णारुचिप्रशमनं ज्वरातीसारनाशनम्॥३१२॥
कामलां ग्रहणीदोषान् गुल्मं प्लीहानमेव च।
प्रमेहं पाण्डुरोगं च श्वयथुं च विनाशयेत्॥३१३॥
शोफे कृष्णाद्यं चूर्णम्।
कृष्णाग्निविश्वघनजीरककण्टकारी–
पाठानिशाकरिकणामगधाजटानाम्।
चूर्णं कवोष्णसलिलैरवलोड्य पीतं
नातः परं श्वयथुरोगहरं नराणाम्॥३१४॥
श्वासहृद्रोगयोर्हिङ्गुपञ्चकं चूर्णम्।
हिङ्गु सौवर्चलं विश्वं दाडिमं साम्लवेतम्।
श्वासहृद्रोगशमनमिदं स्याद्धिङ्गुपञ्चकम्॥३१५॥
शोषे तिलाद्यं चूर्णम्।
तिलकर्कन्धुलाजानां चूर्णं मध्वाज्यलेहितम्।
क्षीरानुपानं मासेन शोषघ्नं नास्त्यतः परम्॥३१६॥
वर्ध्मरोगे बिल्वमूलाद्यं चूर्णम्।
मूलं बिल्वकपित्थयोररलुकस्याग्नेर्बृहत्योर्द्वयोः
श्यामापूतिकरञ्जशिग्रुकतरोर्विश्वौषधारुष्करम्।
कृष्णाग्रन्थिकवेल्लपञ्चलवणक्षाराजमोदान्वितं
पीतं काञ्जिककोष्णतोयमथितैश्चूर्णीकृतं वर्ध्मजित्॥३१७॥
सर्वमेहेष्विन्द्रयवाद्यं चूर्णम्।
इन्द्रयवतीक्ष्णबीजासौवर्चलयावशूककर्षांशम्।
मधुरसपाठाशुण्ठीद्विचतुरष्टांशकैर्भागैः॥३१८॥
हिङ्ग्वर्धकर्षयुक्तं पेयं मण्डेन दध्ना वा।
नाशयति सर्वमेहानर्शांसि च दीपयत्यग्निम्॥३१९॥
शूले शर्कराद्यं चूर्णम्।
शर्कराहिङ्गुमरिचं सूक्ष्मचूर्णीकृतं पिबेत्।
सुखोदकेन तद्ध्याशु शूलघ्नममृतोपमम्॥३२०॥
आनाहे द्विरुत्तरं हिङ्ग्वाद्यं चूर्णम्।
द्विरुत्तरं हिङ्ग्वचाग्निकुष्ठं सुवर्चिका चैव विडङ्गचूर्णम्।
सुखाम्बुनानाहविषूचिकार्तिहृद्रोगगुल्मोर्ध्वसमीरणघ्नम्॥३२१॥
पानीयच्छायायां मुस्ताद्यं चूर्णम्।
मुस्ताजमोदबृहतीद्वयवाजिगन्धा–
द्विजीरकं दहनभृङ्गविडङ्गरास्नाः।
भूनिम्बनिम्बभववल्कलराजवृक्ष–
सौवर्चलं त्रिकटुकं त्रिफला सभार्गीं॥३२२॥
सुधाकराख्यो जरणः सकुष्ठस्तथाऽपरो मालवदेशजातः।
शतावरी सैन्धवमेथिके च निर्गुण्डिमुण्डीमुशलीगुडूच्यः॥३२३॥
वातव्याधिं विषूचीं च छायामपरदेशजाम्।
निहन्ति सेवितं चूर्णमेतेषां पथ्यभोजिना॥३२४॥
मन्दाग्नौ शतपुष्पाद्यं चूर्णम्।
शतूपुष्पा विडङ्गानि सैन्धवं मरिचं समम्।
चूर्णमुष्णाम्बुना पीतमग्निसंदीपनं परम्॥३२५॥
गुल्मे नारायणं चूर्णम्।
शतपुष्पावचाकुष्ठकारव्योऽजाजिधान्यकम्।
द्वौ क्षारौ पिप्पलीमूलं यवानी कुञ्चिका सठी॥३२६॥
स्वर्णक्षीर्यजगन्धा च विशाला चित्रकः समाः।
बृहद्दन्ती सप्तला च देया द्वित्रिचतुर्गुणाः॥३२७॥
नारायणमिति ख्यातं चूर्णं श्रेष्ठं विरेचने।
गुल्मानाहविषाजीर्णश्वासकासगलग्रहान्॥३२८॥
शोफार्शोग्रहणीदोषभगन्दरगदान् जयेत्।
गुल्मे त्र्यूषणाद्यं चूर्णम्।
त्र्यूषणत्रिफलाहिङ्गुकार्षिकं त्रिवृता पलम्॥३२९॥
सौवर्चलार्धकर्षं च पलार्धं चाम्लवेतसम्।
तच्चूर्णंशर्करायुक्तं मद्येनाम्लेन पाययेत्॥३३०॥
गुल्मपार्श्वर्तिनुत्सिद्धं जीर्णे चास्मिन् रसोदनम्।
मन्दाग्नौ सैन्धवाद्यं चूर्णम्।
पालिकं सैन्धवं शुण्ठी द्वे च सौवर्चलात्पले॥३३१॥
कुडवांशानि वृक्षाम्लं दाडिमं तिन्तिडीफलम्।
एकैकं मारिचाजाज्योर्धान्यकार्धचतुर्थिका॥३३२॥
कृत्वा चूर्णमतो मात्रामन्नपानेषु दापयेत्।
रुच्यं तद्दीपनं बल्यं पार्श्वार्तिश्वासकासजित्॥३३३॥
आमातीसारे पिप्पल्याद्यं चूर्णम्।
पिप्पली चन्दनं मुस्तामुशीरं कटुरोहिणी।
पाठा वत्सकबीजं च हरीतक्यो महौषधम्॥३३४॥
एतदामसमुत्थानमतीसारं सवेदनम्।
कफात्मकं सपित्तं च पुरीषं चाशु रुन्धति॥३३५॥
पीनसे चव्याद्यं चूर्णम्।
चव्याम्लवेतसकटुत्रिकतिन्तिडीक–
तालीसजीरकरुजादहनैः समांशैः।
चूर्णं गुडप्रमृदितं त्रिसुगन्धियुक्तं
वैस्वर्यपीनसकफारुचिषु प्रशस्तम्॥३३६॥
कासेऽजमोदादिभस्मचूर्णम्।
अजमोदा पलद्वन्द्वं हरिद्रा च बिडं तथा।
सारस्तु खदिरस्यापि औद्भिदं लवणं तथा॥३३७॥
अभया पौष्करं भार्गींं एलाटङ्कणकट्फलम्।
वृषापामार्गयोर्मूलं क्षारयुग्मं तथैव च॥३३८॥
प्रत्येकं पलमानि रविपुष्पचतुष्पलम्।
चूर्णीकृत्य ततो दद्यात्कुमारीरसभावनाम्॥३३९॥
सान्तर्धूमं घटे दग्ध्वा चूर्णितं वस्त्रगालितम्।
मधुना लीढमेतद्धि पञ्चकासनिवारणम्॥३४०॥
दाहरोगे द्राक्षादिचूर्णम्।
द्राक्षालाजसितोत्पलं समधुकं खर्जूरगोपीतुगा–
ह्रीवेरामलकाब्दचन्दननतं कक्कोलजातीफलम्।
चातुर्जातकणं सधान्यकमिदं चूर्णं समां शर्करां
दत्त्वा शीतजलेन भक्षितमिदं पित्तं सदाहं जयेत्॥३४१॥
मूर्च्छां छर्दिमरोचकं च प्रदरं पाण्डुंभ्रमं कामलां
यक्ष्माणं समदात्ययं सतमकं तृष्णास्त्रपित्तं तथा॥३४२॥
पाण्डुरोगे नवायसं चूर्णम्।
त्र्यूषणत्रिफलामुस्तविडङ्गदहनाः समाः।
नवायोरजसो भागास्तच्चूर्णं मधुसर्पिषा॥३४३॥
भक्षयेत्पाण्डुहृद्रोगकुष्ठार्शःशमनं परम्।
राजयक्ष्मणि द्वितीयं बृहन्नवायसचूर्णम्।
त्रिकटुत्रिफलैलाभिर्जातीफललवङ्गकैः॥३४४॥
नवभागोन्मितैरेतैः समं तीक्ष्णं मृतं भवेत्।
संचूर्ण्यालोडयेत्क्षौद्रे नित्यं यः सेवते नरः॥३४५॥
कासं श्वासं क्षयं मेहं पाण्डुरोगं भगन्दरम्।
ज्वरं मन्दानलं शोफं संमोहं ग्रहणीं जयेत्॥३४६॥
इति श्रीशोढलग्रथिते गदनिग्रहे चूर्णाधिकारस्तृतीयः संपूर्णः॥३॥
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अथातो गुटिकाधिकारः प्रारभ्यते।
अग्निमान्द्येऽभयाद्या गुटिका ।
हरीतकीनां कुडवं त्र्यूषणाच्च पलत्रयम्।
द्वे पले पिप्पलीमूलात्तथा चैवाम्लवेतसात्॥१॥
चविकां चित्रकं धान्यमजाजीं हपुषामपि।
यवानीं चाजमोदं च तिन्तिडीकं च दाडिमम्॥२॥
सौवर्चलं कारवीं च पलिकानि प्रदापयेत्।
त्वंगेलापत्रकनकं कर्षांशं चात्र दापयेत्॥३॥
गुडस्य च पलान्यत्र दापयेद्द्विगुणानि च।
अभयागुटिका ह्येषा मन्दस्याग्नेस्तु दीपिनी॥४॥
वातशोणितमानाहं गुल्मं पञ्चविधं तथा।
चतुरो ग्रहणीदोषानर्शांसि षड्विधानि च॥५॥
कासं क्षयविबन्धं च शूलं हृज्जठराश्रयम्।
भक्षिता नाशयत्येषा भोज्या निर्यन्त्रणा स्मृता॥६॥
अर्शसि काङ्कायनवटकः।
पथ्या पञ्चपलान्येकमजाज्या जीरकस्य च।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरम्॥७॥
पलाभिवृद्ध्याक्रमशो यवक्षारपलद्वयम्।
भल्लातकफलान्यष्टौ कन्दस्तद्विगुणो मतः॥८॥
द्विगुणेन गुडैनैषां वटकानक्षसंमितान्।
एकैकं भक्षयेत्प्रातस्तक्रमम्लं पिबेदनु॥९॥
वह्निं संदीपयत्याशु ग्रहणीपाण्डुरोगजित्।
काङ्कायनेन शिष्येभ्यः शस्त्रक्षाराग्निभिर्विना॥१०॥
कथितो वटको ह्येष गुदजानां विनाशनः।
गुल्मे काङ्कायनगुटिका।
सठीं पुष्करमूलं च वह्निं लवणपञ्चकम्।
शृङ्गवेरं वचांचैव पलिकानि समाहरेत्॥११॥
त्रिवृतायाः पलं कुर्यात्त्रीन् कर्षानथ हिङ्गुतः।
यवक्षारपले द्वे च द्वे पले चाम्लवेतसात्॥१२॥
यवान्यजाजिमरिचं धान्याकं शीतपुष्पकम्।
उपकुञ्च्यजमोदाभ्यां तथैवाष्टमिकामपि॥१३॥
मातुलुङ्गरसेनैता गुटिकाः कारयेद्भिषक्।
तासामेकां पिबेद्द्वे वा तिस्रोऽथ च सुखाम्बुना॥१४॥
अम्लैश्च मद्यैः पातव्या घृतेन पयसा तथा।
एषा काङ्कायनेनोक्ता गुटिका गुल्मनाशिनी॥१५॥
अर्शोहृद्रोगशमनी कृमीणां च विनाशनी।
गोमूत्रयुक्ता शमयेत्कफगुल्मं चिरोत्थितम्॥१६॥
क्षीरेण पित्तगुल्मं च मद्यैरम्लैश्च वातिकम्।
त्रिफलारसमूत्रैश्च नियच्छेत्सान्निपातिकम्॥१७॥
रक्तगुल्मे च नारीणामुष्ट्रीक्षीरेण पाययेत्।
गुल्मे निकुम्भाद्या गुटिका।
निकुम्भरजनीपाठात्रिकटुत्रिफलाग्निकाः।
बाला वृक्षकबीजं च चूर्णं स्यादनवो गुडः॥१८॥
पथ्याभिसहितं चूर्णं गवां मूत्रयुतं पचेत्।
घनीभूतं तु गुटिकां कृत्वा खादेदभुक्तवान्॥१९॥
गुल्मप्लीहाग्निसादांस्ता नाशयेयुरशेषतः।
हृद्रोगं ग्रहणीदोषं पाण्डुरोगं च दारुणम्॥२०॥
विड्बन्धेऽभयावटकाः।
पथ्याकटुत्रिकविडङ्गदलत्वगेलाः
सग्रन्थिकाः सचविकामलकाः समस्ताः।
अष्टौ त्रिवृद्भवजटाचरणास्त्रिभागा
दन्त्याश्च षड्गुणसितामधुमोदकाः स्युः॥२१॥
विड्भेदनाय सुकमारतराः सुहृद्याः
प्रोक्ताः प्रगाढतरविड्भिदिकारिणस्ते।
तावद्विरेचनकरा न भवन्ति याव–
देभिरतः पिबति वारि नरः सुखोष्णम्॥२२॥
हृद्रोगगुल्मगुदजश्वयथुप्रमेह–
पाण्ड्वामयोदरविकारभगन्दरघ्नाः।
स्थौल्याम्लवातविकृतिप्रशमार्थमेते–
तृषां भिषग्भिरभयावटकाः प्रदिष्टाः॥२३॥
पाण्डुरोगे वज्रकगुटिका।
रोहिणी चिरबिल्वं च कुटजं च फलत्रिकम्।
मुस्तकं पिप्पलीमूलं यष्ट्याह्वंनिम्बनागरम्॥२४॥
पक्वेनैषां कषायेण भावयेच्च शिलाजतु।
शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा॥२५॥
वांश्याः कर्कटशृङ्ग्याश्च मागध्याश्च पलं पलम्।
धात्रीफलपलार्धं च व्याघ्रीमूलत्वचं तथा॥२६॥
पत्रत्वगेला गन्धार्थे दत्त्वा चूर्णानि कारयेत्।
तं विमर्द्य यथान्यायं दद्यान्मधुपलत्रयम्॥२७॥
वर्तयेद्वटकानेतानुदुम्बरफलोपमान्।
तत्रैव भक्षयेत्कल्के सानुपानं यथाबलम्॥२८॥
विडङ्गरसयूषैश्च सुरारिष्टासवादिभिः।
क्षीरैर्वा दाडिमाम्लैर्वा पथ्यभोजी पिबेन्नरः॥२९॥
स जयेत्पाण्डुरोगास्रदुष्टमेहगलग्रहान्।
यक्ष्मकासांश्च वातादीन् श्वासशोषोदरामयान्॥३०॥
रोगानीकप्रणाशार्थं सृष्टा भगवता पुरा।
वज्रकेति समाख्याता वटिकेऽयं महागुणा॥३१॥
नैव दद्यात्कृतघ्नाय नास्तिकायोद्धताय च।
इष्टाय संप्रयोक्तव्या ब्राह्मणाय विशेषतः॥३२॥
शूले शम्बूकाद्या गुटिका।
पलानि त्रीणि शम्बूकाल्लोहचूर्णात्पलद्वयम्।
रसाञ्जनात्पलं चैकं लोहकिट्टात्पुनः पलम्॥३३॥
सर्वैः समां शर्करां च मधुना च परिप्लुताम्।
सर्वमेतत्समाहृत्य मोदकान्कारयेद्भिषक्॥३४॥
तान् भक्षयेत्प्रयत्नेन शूलेगुल्मे हृदामये।
विशेषतः पित्तशूले शोफे पाण्डूदरे भ्रमे॥३५॥
दुर्नाम्नि कासे कृच्छ्रे च प्रमेहाश्मरिवृद्धिषु।
अग्निमान्द्ये स्मृतिभ्रंशे पीनसार्धावभेदके॥३६॥
कल्याणवटकाः।
विडङ्गं पिप्पलीमूलं त्रिफलाधान्यचित्रकान्।
मरिचेन्द्रयवाजाजीपिप्पलीहस्तिपिप्पली-॥३७॥
लवणान्यजमोदं च चूर्णितं कार्षिकं पृथक्।
तिलतैलं त्रिवृच्चूर्णं भागौ चाष्टपलोन्मितौ॥३८॥
धात्रीरसस्य प्रस्थांस्त्रीन् गुडार्धकतुलां तथा।
पक्त्वा मृद्वग्निना खादेदुत्तार्योदुम्बरोपमान्॥३९॥
गुडान् कृत्वा विचार्या स्याद्विहाराचारयन्त्रणा।
मन्दाग्नित्वं ज्वरं मूर्च्छां मूत्रकृच्छ्रमरोचकम्॥४०॥
अस्वप्नं च यकृच्छूलं कासं शोषं गरं विषम्।
कुष्ठार्शःकामलामेहगुल्मोदरभगन्दरम्॥४१॥
ग्रहणीपाण्डुरोगांश्च हन्युः पुंसवनाश्च ते।
कल्याणका इति ख्याताः सर्वेष्वृतुषु यौगिकाः॥४२॥
क्षतक्षीणे एलाद्या गुटिका।
एलापत्रत्वचोऽर्धाक्षाः पिप्पल्यर्धपलं तथा।
सितामधुकखर्जूरमृद्वीकाश्च पलोन्मिताः॥४३॥
संचूर्ण्य मधुना युक्त्या गुटिकाः संप्रकल्पयेत्।
अक्षतुल्यां ततश्चैकां भक्षयेत्तां दिने दिने॥४४॥
कासं श्वासं ज्वरं हिक्कां छर्दिं मूर्च्छां मदभ्रमम्।
रक्तनिष्ठीवनं तृष्णां पार्श्वशूलसमरोचकम्॥४५॥
शोषप्लीहाढ्यवातांश्च स्वरभेदं तथा क्षयम्।
गुटिका तर्पणी वृष्या रक्तपित्तं च नाशयेत्॥४६॥
क्षतक्षीणे सर्पिर्गुटिका।
बला विदारी ह्रस्वा च पञ्चमूली पुनर्नवा।
पञ्चानां क्षीरवृक्षाणां शुङ्गा मुष्ठ्यंशका अपि॥४७॥
एषां कषाये द्विक्षीरे विदार्याः स्वरसांशके।
जीवनीयैः पचेत् कल्कैरक्षमात्रैर्घृताढकम्॥४८॥
सितापलानि पूतेऽस्मिञ्छीते द्वात्रिंशदावपेत्।
गोधूमपिप्पलीवांशीचूर्णं शृङ्गाटकस्य च॥४९॥
सक्षौद्रं कुडवं शीतं तत्सर्वं खजमूर्च्छितम्।
स्त्यानं सर्पिर्गुडान् कृत्वा भूर्जपत्रेण वेष्टयेत्॥५०॥
ताञ्जग्ध्वा पलिकान्क्षीरं मद्यं चानुपिबेत्कफे।
शोषे कासे क्षतक्षीणे भ्रमस्त्रीभारकर्शिते॥५१॥
रक्तनिष्ठीवने तापे पीनसे चोरसि स्थिते।
शस्ता पार्श्वशिरःशूले भेदे च हस्तपादयोः॥५२॥
पाण्डुरोगे मण्डूरवटकाः।
पञ्चकोलं समरिचं देवदारुफलत्रिकम्।
विडङ्गमुस्तं तुल्यानि भागांस्तु पलसंमितान्॥५३॥
यावन्त्येतानि चूर्णानि मण्डूरं द्विगुणं ततः।
पक्त्वाऽष्टगुणिते मूत्रे घनीभूते तदुद्धरेत्॥५४॥
ततोऽक्षमात्रान्वटकान् पिबेत्तक्रेण तक्रभुक्।
पाण्डुरोगं जयत्येष मन्दाग्नित्वमरोचकम्॥५५॥
अर्शांसि ग्रहणीदोषशोफमूत्रहलीमकम्।
कृमिप्लीहानमुदरं हृद्रोगं चाशु नाशयेत्॥५६॥
मण्डूरवटका ह्येते रोगानीकप्रणाशनाः।
पाण्डुरोगे द्वितीयो मण्डूरवटकः।
त्र्यूषणं त्रिफला मुस्तविडङ्गं चव्यचित्रकौ॥५७॥
दार्वीत्वङ्माक्षिको धातुर्ग्रन्थिकं देवदारु च।
एतान् द्विपलिकान् भागांश्चूर्णं कृत्वा पृथक् पृथक्॥५८॥
मण्डूरं द्विगुणं चूर्णाच्छुद्धमञ्जनसन्निभम्।
मूत्रमष्टगुणं कृत्वा तस्मिंश्च प्रक्षिपेत्ततः॥५९॥
शनैः सिद्धं ततः शीताः कार्याः कर्षसमागुडाः।
यथाग्नि भक्षणीयास्ते प्लीहपाण्ड्वामयापहाः॥६०॥
ग्रहण्यर्शोनुदश्चैव तक्रवाट्याशिनः स्मृताः।
शोषे क्षारगुटिका।
क्षारद्वयं स्याल्लवणानि चत्वार्ययोरजो व्योषफलत्रिके च।
सपिप्पलीमूलविडङ्गसारं मुस्ताजमोदामरदारुबिल्वम्॥६१॥
कलिङ्कजं चित्रकमूलपाठे यष्ट्याह्वयं सातिविषं पलांशम्।
सहिङ्गुकर्षत्वणु शुष्कचूर्णं द्रोणं तथा मूलकशुण्ठिकानाम्॥६२॥
स्याद्भस्मनस्तं सलिलेन साध्यमालोड्य यावद्धनमप्रदग्धम्।
वटीं ततः कोलसमानमात्रां कृत्वा सुशुष्कां विधिना प्रयुञ्ज्यात्॥६३॥
प्लीहोदरश्वित्रहलीमकार्शः पाण्डामयारोचकशोषशोफान्।
विषूचिकागुल्मगराश्मरींश्च सश्वासकासान् प्रणुदेत्सकुष्ठान्॥६४॥
कुष्ठे विडङ्गसाराद्या गुटिकाः।
विडङ्गसारामलकाभयानां पलं पलं स्यात्त्रिवृतात्रयं च
गुडस्य च द्वादश एष योगो मासेन त्रिंशद्गुटिकोपयोगः॥६५॥
इयं हि कुष्ठज्वरगुल्मपाण्डुता–
भगन्दरश्वासगरोदरार्शसाम्।
प्रणाशनी यक्षपतिः स्वयं ददौ
स माणिभद्रः किल शाक्यभिक्षवे॥६६॥
कुष्ठे माणिभद्रवटकः।
विडङ्गामलकं पथ्या पलांशाश्च समा त्रिवृत्।
गुडश्च सर्वद्विगुणो मासस्य10 वटकाः कृताः॥६७॥
कुष्ठानि पिडकार्शांसि कृमिगुल्मोदराणि च।
कासं श्वासं च शमयेद्विशेषान्माणिभद्रकः॥६८॥
अर्शसि सूरणवटकाः।
षोडश सूरणभागा वह्नेरष्टौ महौषधस्यापि।
अर्धेन भागयुक्तिर्मरिचस्य ततोऽपि चार्धेन॥६९॥
त्रिफला कणा समूला तालीसारुष्करकृमिघ्नानाम्।
भागा महौषधसमा दहनांशा तालमूली च॥७०॥
भागः सूरणतुल्यो दातव्यो वृद्धदारुकस्यापि।
भृङ्गैले मरिचांशे चूर्णेऽस्मिन्योजयेन्मतिमान्॥७१॥
द्विगुणेन गुडेन युतः सेव्योऽयं मोदकः प्रकामधनैः।
गुरुवृष्यभोज्यरहितेष्वितरेषूपद्रवान्कुरुते॥७२॥
भस्मकमनेन जनितं पूर्वमगस्त्यस्य योगराजेन।
भीमस्य मारुतेरपि येन ते महाशना जाताः॥७३॥
अग्निवलवृद्धिहेतुर्न केवलं सूरणो महावीर्यः।
प्रभवति शस्त्रक्षाराग्निभिर्विनाप्यर्शसामेषः॥७४॥
श्वयथुश्लीपदगरजिद्ग्रहणीं च कफानिलाज्जाताम्।
नाशयति वलीपलितं मेघां कुरुते वृषत्वं च॥७५॥
हिक्कां कासं श्वासं सराजयक्ष्मप्रमेहांश्च।
प्लीहानमप्यथोग्रं हन्ति च रसायनं पुंसाम्॥७६॥
अर्शसि लघुसूरणवटिकाः।
चूर्णीकृताः षोडश सूरणस्य भागास्ततोऽर्धा नवचित्रकस्य।
महौषधाद्द्वौ मरिचस्य चैको गुडेन दुर्नामजयाय पिण्डी॥७७॥
अर्शोरोगे मरिचाद्या गुटिकाः।
मरिचपिप्पलिनागरचित्रकान्
क्रमविवर्धितभागसुचूर्णितान्।
शिखिचतुर्गुणसूरणयोजितान्
कुरु गुडेन गुडान् गुदजच्छिदे॥७८॥
अर्शसि कलिङ्गाद्या गुटिकाः।
कलिङ्गलाङ्गलीकृष्णायष्ट्यपामार्गपिप्पली-।
भूनिम्बसैन्धवगुडैर्गुडा गुदजनाशनाः॥७९॥
गुल्मे गुडवटकाः।
गुडविश्वौषधपथ्यामागधिकादाडिमैः कृता गुटिकाः।
विनिहन्ति भक्ष्यमाणा गुल्मार्शोवह्निसादगदान्॥८०॥
अतिसारेऽभयाद्या वटकाः।
अभयागुडपिप्पल्याः समांशा वटकीकृताः।
भक्षिता हन्त्यतीसारमर्शःपाण्ड्वामयज्वरान्॥८१॥
सर्वातिसारेऽङ्कोलवटिका।
पलमङ्कोलमूलस्य पाठां दावीं च तत्समाम्।
पिष्ट्वा तण्डुलतोयेन वटिकामक्षसंमिताम्॥८२॥
छायाशुष्कां पिबेत्क्षिप्रं पिष्ट्वा तण्डुलवारिणा।
वातपित्तकफप्रायान् द्वन्द्वजान् सान्निपातिकान्॥८३॥
हन्यात्सर्वातिसारांस्तु वटिकेयं प्रयोजिता।
सर्वातिसारे बृहदङ्कोलवटिका।
सदार्व्यङ्कोलपाठानां मूलं तु कुटजस्य च।
शाल्मलेरथ निर्यासो घातकीरोध्रदाडिमम्॥८४॥
पिष्ट्वाऽक्षसंमितान् कृत्वा वटकांस्तण्डुलाम्भसा।
तानेव मधुसंयुक्तानेकैकान् प्रातरुत्थितः॥८५॥
पिबेदत्यन्तमापन्नो विधिसर्गेण मानवः।
अङ्कोलवटका नाम्ना सर्वातीसारनाशनाः॥८६॥
अतिसारे कट्वङ्गाद्यागुटिका।
पलानि दश कट्वङ्गाद्द्वे पले पद्मकत्वचः।
स्थिराया बिल्वपेश्याश्च पलान्यष्टौ पृथक् पृथक्॥८७॥
कटुकाह्वाञ्जनोशीररोध्रयष्ट्याह्वामुस्तकान्।
कालीयकं व्याघ्रनखं हरिद्रारक्तचन्दनम्॥८८॥
करञ्जफलचूतास्थिदाडिमत्वग्वितुन्नकाः
केतक्यर्जुनपुष्पाणि वल्कान्यक्षपियालयोः॥८९॥
समङ्गाशालबीजानि ग्रन्थिश्चाप्यरिभेदतः।
फलस्य, वत्सकफलं संक्षुद्य पलसंमितम्॥९०॥
द्विद्रोणं विपचेदम्भः पूत्वा क्वाथं पचेदनु।
पिण्डमक्षसमं तस्माद्धृतमादाय बुद्धिमान्॥९१॥
कारयेद्गुटिकां श्लक्ष्णां असतोऽर्धां सुखाम्बुना।
अवृक्षतैलसंयुक्तां कफपित्तानिलार्तिषु॥९२॥
केवले सन्निपाते च ततस्तक्रं पिबेदनु।
तक्रेणैवानुभुञ्जीत नरोऽतीसारपीडितः॥९३॥
मृत्युपाशान् जयेच्छीघ्रमियं सम्यक् प्रयोजिता।
अतिसारसमुत्थानं मृत्युमप्यागतं जयेत्॥९४॥
ग्रहण्यां चित्रकाद्या गुटिका।
चित्रकं पिप्पलीमूलं द्वौ क्षारौ लवणानि च।
व्योषं हिङ्ग्वजमोदं च चव्यं चैकत्र चूर्णयेत्॥९५॥
गुटिका मातुलुङ्गस्य दाडिमस्य रसेन वा।
कृता विपाचयत्यामं दीपयत्याशु चानलम्॥९६॥
ग्रहण्यां क्षारगुटिका।
द्वे पञ्चमूल्यौ त्रिवृता निकुम्भा पाठा वचास्फोटबलाश्च रास्ना।
सकारवीचित्रकमर्कमूलं पृथक् पृथक् तानि पलैर्दशाख्यैः ॥९७॥
भस्मीकृतान्यम्भसि गालयित्वा पचेत्तुलां जीर्णगुडस्य सम्यक्।
द्वे पञ्चमूल्यौ यवशूकजं च क्षारं तथा स्वर्जिकसंज्ञिकं च॥९८॥
व्योषं वचां चैव हरीतकीं च पृथक् पलानां सह चित्रकेण।
हिङ्ग्वम्लभल्लातकमक्षतुल्यं विपाचयेत्क्षारगुडं यथावत्॥९९॥
ततोऽक्षमात्रा गुटिका प्रयोज्या कायाग्निहीनैरबलैर्नरैश्च।
सश्लेष्मकासारुचिगुल्मवृद्धौ कफश्च कण्ठोरसि यस्य तिष्ठेत्॥१००॥
कुष्ठग्रमेहान् श्वयथुं च हन्याद्वातामयप्लीहयकृद्भवांश्च।
अन्नं हि भुक्तं जरयेच्च शीघ्रं युक्तो रसैः क्षारगुडप्रयोगः॥१०१॥
तालीसाद्या गुटिका।
तालीसचव्यं मरिचं पलार्धांशानि नागरात्।
अध्यर्धं पिप्पलीमूलात्पिप्पल्याश्च पलं पलम्॥१०२॥
कर्षं तु नागपुष्पस्य त्रुटीकर्षार्धमेव च।
त्वक्पत्रोशीरकर्षस्तु चूर्णात्त्रिगुणितो गुडः॥१०३॥
ततोऽक्षमात्रा गुटिका मद्ययूषपयोरसैः।
पीवाऽम्भसा भक्षिता वा सर्वान् हन्याद्गुदोद्भवान्॥१०४॥
शूलं पानात्ययं छदिं प्रमेहं विषमज्वरान्।
गुल्मं पाण्डुरुजं शोफं हृद्रोगं ग्रहणीगदान्॥१०५॥
कासहिक्कारुचिश्वासकृम्यतीसारकामलाः।
मन्दाग्नितां मूत्रकृच्छ्र्ंहन्याच्छोफं च सा भृशम्॥१०६॥
एतदेव भवेच्चूर्णं सिताचूर्णचतुर्गुणम्।
सपित्तेषु विकारेषु विशेषेणामृतोपमम्॥१०७॥
सा चैव गुटिका पथ्या फलत्रयविशेषिता।
शोफार्शोग्रहणीरोगपाण्डुशूलापहारिणी॥१०८॥
क्षयसेगे लघुतालीसादिवटिका।
तालीसपत्रमरिचचविकानां पलं पलम्।
कृष्णा तन्मूलयोर्द्वे द्वे पले शुण्ठीपलत्रयम्॥१०९॥
चातुर्जातमुशीरं च कर्षांशं श्लक्ष्णचूर्णितम्।
तत्र त्रिंशत्पलं दद्यात्क्वथितादमलाद्गुडात्॥११०॥
तालीसवटका ह्येते क्षयघ्ना दीपनाः परम्।
लवङ्गाद्या गुटिका।
पलार्धंतु लवङ्गस्य तालीसत्रुटिवल्कलम्॥१११॥
यवानीचव्यकाजाजीधान्यकं च पलोन्मितम्।
द्विपलं मरिचं कृष्णा वृक्षाम्लं साम्लवेतसम्॥११२॥
कृष्णायाश्च जटा शुण्ठी पथ्या च कुडवोन्मिता।
एतत्सर्वं समाहृत्य त्रिगुणेन गुडेन तु॥११३॥
ततोऽर्धपलिकाः कार्या गुटिकास्तु भिषग्वरैः।
एकैकशस्तास्तु पिबेन्मद्यतक्ररसासवैः॥११४॥
भक्षिता येन तस्यार्शःपाण्डुहृत्पार्श्वशूलनुन्।
कासगुल्मारुचिश्वासहिक्कामयगलग्रहान्॥११५॥
ज्वरातिसारं तन्द्रां च सेविता हन्ति वेगतः।
कुष्ठे तुवरास्थिवटकाः।
हरीतकी शक्रयवाः पटोलफलपुष्करम्॥११६॥
बाकुची राजवृक्षश्च वह्न्यर्कमूलमेव च।
आवर्तकीफलं चैव भागवृद्ध्या यथोत्तरम्॥११७॥
यावन्त्यमूनि तुल्यानि तुवरास्न्थां च संभवा।
मज्जा खदिरसंसिद्धा गोमूत्रक्वथिता पुनः॥११८॥
सर्वैरेभिः कर्षमात्रां गुटिकां कारयेद्भिषक्।
प्राश्यैनामनुगोमूत्रं पिबेच्चापि पलत्रयम्॥११९॥
जीर्णज्वरे तत्क्षीणे वा घृतमुष्णोदनं भजेत्।
सप्ताहं तिलतैलेन निष्पावकङ्गुसेवनम्॥१२०॥
तक्रानुपानं मासं च तत्परं सर्वभुग्भवेत्।
क्षाराम्लवर्जी जयति सर्वकुष्ठानि मानवः॥१२१॥
कुष्ठे खदिरादिवटिका।
खदिराद्बीजकान्निम्बात्कुटजाच्छालसारतः।
पञ्चाशत्पलिकान् भागान् गोमूत्रस्थाढकद्वयम्॥१२२॥
जलद्रोणद्वये चापि सुगुप्तं दिवसान् दश।
दशरात्रस्थितं तत्तु कषायमनुसाधयेत्॥१२३॥
अध्यर्धाढकशेषं तु पुनरग्नावधिश्रयेत्।
चूर्णीकृतान्यथेमानि भेषजान्यत्र दापयेत्॥१२४॥
भल्लातकानि त्रिफलां विडङ्गानि वचांतथा।
चित्रकावल्गुजौ चैव भागान् दशपलांशकान्॥१२५॥
दद्याद्वायसिमूलाच्च पलानां पञ्चविंशतिः।
घनीभूतं तु तं ज्ञात्वा गुटिकां कारयेद्भिषक्॥१२६॥
तां भक्षयेत कुष्ठार्तः पथ्यभोजी जितेन्द्रियः।
कृष्ठानि नाशयत्येषा छिन्नाभ्राणीव मारुतः॥१२७॥
कुष्ठे विषगुटिकाः।
त्रिफलाव्योषयष्ट्याह्वविषं तुल्यानि पेषयेत्।
भृङ्गाम्बुना तु गुटिकाः कुर्याच्चणकसंमिताः॥१२८॥
एकैकां वर्धयेत्तावदष्टावस्मान्न वर्धयेत्।
आस्तिकेन कृतो योगो विजयेद्वातजान् गदान्॥१२९॥
अशीतिं विंशतिं श्लेष्मभवान्सप्त महाक्षयान्।
अष्टादशैव कुष्ठानि सन्नमग्निं च दीपयेत्॥१३०॥
कुष्ठे लाङ्गलीगुटिकाः।
लाङ्गलीत्रिवृतालोहचूर्णं दशपलं पृथक्।
त्रिंशत्तु गुटिकाः पथ्याः कुर्याद्भृङ्गरसप्लुताः॥१३१॥
छायाशुष्कां च तत्रार्धां गुटिकां भक्षयेत्ततः।
जीर्णे रसेन रूक्षेण पेया, पूर्वं न भोजयेत्॥१३२॥
यन्त्रितो ब्रह्मचर्याद्यैः क्रमेण गुटिकामपि।
खादेत्प्रातस्तु मासैकं भवेत्कामचरः क्रमात्॥१३३॥
एवं सर्वाणि कुष्ठानि जयत्यतिबलान्यपि।
धीमेधास्मृतियुक्तस्तु नित्यं जीवेत्समाः शतम्॥१३४॥
**कण्ड्वां त्रिजातगुटिकाः। **
त्रिजातत्रिफलाव्योषं सूक्ष्मचूर्णं तु कारयेत्।
तत्तुल्यं त्रिवृताचूर्णं शर्कराक्षौद्रमेव च॥१३५॥
बद्ध्वात्र मोदकान्वै तान् भक्षयेच्च यथाबलम्।
विरेक एष प्रबलस्तथा कण्डूविनाशनः॥१३६॥
मुखरोगे खदिरगुटिका।
तुलां खदिरसारस्य द्विगुणां त्वरिमेदतः।
प्रक्षाल्य जर्जरीकृत्य चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्॥१३७॥
द्रोणशेषं कषायं तु पूत्वा भूयः पचेच्छनैः।
ततस्तस्मिन्घनीभूते चूर्णं कृत्वाऽक्षभागिकम्॥१३८॥
चन्दनं पद्मकोशीरं मञ्जिष्ठाघातकीघनम्।
प्रपौण्डरीकयष्ट्याह्वत्वगेलापत्रकेसरम्॥१३९॥
लाक्षां रसाञ्जनं मांसीत्रिफलारोध्रवालुकम्।
रजन्यौ फलिनीमेलां समङ्गां कट्फलं वटम्॥१४०॥
यवासागरुपत्तङ्गगैरिकाञ्जनमावपेत्।
लवङ्गजातीकङ्कोलजातीकोशान् पलोन्मितान्॥१४१॥
कर्पूरकुडवं चापि पुनः शीतेऽवतारयेत्।
ततस्तु गुटिकाः कार्याः शुष्कास्त्वास्ये निधापयेत्॥१४२॥
तैलमेतेन कल्केन कषायेण समावपेत्।
शूलप्रबलविभ्रंशशौषिर्यकृमिदन्तनुत्॥१४३॥
जाड्यदौर्गन्ध्यतिक्तत्वमुखप्रक्लेदपाकजित्।
गलशोषपरीदाहसादसंदोहलेपहृत्॥१४४॥
दन्तास्यगलपाकेषु सर्वेष्वेतत्परायणम्।
मुखरोगे द्वितीयखदिरगुटिका।
खदिरस्य तुलां शुद्धां जलद्रोणे विपाचयेत्॥१४५॥
शेषेऽष्टभागे तस्यैव पुनः कल्कं प्रदापयेत्।
जातीकपूर्रपूगानि सकङ्कोलपलानि च॥१४६॥
इत्येषां गुटिका कार्या मुखसौभाग्यवर्धनी।
दन्तोष्ठमुखरोगेषु जिह्वाताल्वामयेषु च॥१४७॥
मुखरोगे तृतीया खादिरगुटिका।
कुङ्कुमलवङ्गपत्रत्वक्त्रुटिशङ्खाम्बुजानि तुल्यानि।
कङ्कोलजातिमृगमदभागैस्त्रिगुणीकृतैः सम्यक्॥१४८॥
पञ्चाशत्खदिरस्य भागाः सप्तैव शशधरस्यापि।
सहकारतैलयुक्ताः खदिरगुटिकाश्च रोगघ्न्यः॥१४९॥
गलरोगे मरिचाद्या गुटिका।
मरिचं पिप्पली पाठा यवक्षारं सनागरम्।
एलापत्रत्वचं पथ्या सैन्धवं चाम्लवेतसम्॥१५०॥
मधुना गुटिका ह्येषा कण्ठरोगविनाशिनी।
गलरोगे पिप्पल्यादिक्षारगुटिका।
पिप्पलीनामेक कर्षं मरिचानां तथैव च।
दाडिमस्य पलार्धं च गुडस्य च पलद्वयम्॥१५१॥
यवक्षारार्धकर्षं च गुटिकां कारयेद्भिषक्।
मुखेन धारिता हन्ति कासश्वासगलामयान्॥१५२॥
कफरोगे वत्सनाभाद्या गुटिका।
वत्सनाभवल्लयुगं वल्लषट्कं त्रिकटुकचूर्णस्य।
चित्रकवल्लद्वितयं पिप्पलीमूलस वल्लयुगम्॥१५३॥
अभयावल्ला द्वादश द्वादशद्विगुणा च गुग्गुलोर्वल्लाः।
गुटिका धार्या वदने क्षणदायां कफविनाशार्थम्॥१५४॥
त्रिकटुकाद्या गुटिका।
त्रिकटुत्रिफलादुरालभाद्विनिशादारुवचाः सचित्रकाः।
रसगन्धककर्कटाह्वया रुचककट्वलहिङ्गुपत्रिकाः॥१५५॥
इति दर्शितभेषजैर्गुटी मधुना कर्षमिता कृता नृणाम्।
प्रणिहन्ति निषेविता नरैः पवनासृक्कफकोपजान्विकारान्॥१५६॥
भार्ग्यादिगुटिका।
भार्गींं सकृष्णा द्विनिशेन्दुकान्तापथ्याबिभीतत्वचकुष्ठविश्वाः।
कन्यारसेनापि गुटिर्विधेया सश्वासकासामरुचिं निहन्ति॥१५७॥
ज्वरे त्रिवृताद्यो मोदकः।
त्रिवृतापिप्पलीयुक्तो गुडसर्पिर्विभावितः।
मण्डानुपानो दातव्यो मोदकः सन्निपातहा॥१५८॥
कम्पिल्लकाद्यो मोदकः।
कम्पिल्लकत्रिवृत्कृष्णापथ्यानागरकैरपि।
सितागुडयुतो ह्येष मोदको ज्वरिणां हितः॥१५९॥
शीतानुपानस्तृट्छर्दिनाशनः पित्तरोगजिन्।
त्रिफलाद्यो मोदकः।
सगुडव्योपत्रिफलं शर्करात्रिवृतार्धकम्॥१६०॥
मोदकं भक्षयित्वा तु पिबेच्चोष्णं जलं पुनः।
पार्श्वशूलेऽरुचौ कासे ज्वरे चानिलसंभवे॥१६१॥
ज्वरे सप्तलाद्यो मोदकः।
सप्तला पिप्पलीमूलं श्यामा दन्ती पृथक् पृथक्।
समं दशपलैर्भागैर्दशमुली तुलासमा॥१६२॥
हरीतक्यक्षधात्रीणां प्रस्थं प्रस्थं समावपेत्।
जलद्रोणद्वये पक्वंपूतं पादावशेषितम्॥१६३॥
विडङ्गं मुस्तकं श्यामां शङ्खिनीं मालतीमपि।
त्रिवृद्व्योषयुतं ह्येतत्कृत्वा चूर्णं रसे क्षिपेत्॥१६४॥
वटकानक्षमात्रांस्तु वातश्लेष्मकृते ज्वरे।
शूले पक्वाशयस्थे च शुद्ध्यर्थे भक्षयेदिमान्॥१६५॥
भ्रमे कृष्णाद्या गुटिका।
कृष्णाशताह्वाशुण्ठीनामभयानां पलं पलम्।
गुडस्य षट्पलान्येषां गुटिका भ्रमनाशिनी॥१६६॥
ज्वरातिसारे कट्वङ्गाद्या वटकाः।
कट्वङ्गबिल्वजब्वाम्रकपित्थं सरसाञ्जनम्।
लाक्षा हरिद्रे ह्रीबेरं कट्वलं शुकनासिकाम्॥१६७॥
रोध्रं मोचरसं शङ्खं धातकीवटशुङ्गकान्।
पिष्ट्वा तण्डुलतोयेन वटकानक्षसंमितान्॥१६८॥
छायाशुष्कान्पिबेत्क्षिप्रं ज्वरातीसारशान्तये।
रक्तपित्तप्रशमनान् शूलातीसारनाशनान्॥१६९॥
प्लीहोदरे रोहितकवटकाः।
भागा पञ्चदशार्धकोलकभवा रोहीतकस्यत्रयः
पथ्यायास्त्रय एव तद्द्विगुणितं संयोज्य सिद्धं गुडम्।
चातुर्जातकभागसंगसुरभीनश्नन्नरो मोदकान्
प्लीहार्शःश्वयथूदरज्वरवमीन् गुल्माग्निसादाञ्जयेत्॥१७०॥
यदा दर्वीप्रलेपः स्याद्यावद्वा तन्तुली भवेत्।
तोयपूर्णे यदा पात्रे क्षिप्तो न प्लवते गुडः॥१७१॥
क्षिप्तोऽप्सु निश्चलस्तिष्ठेत्पतितश्च न शीर्यति।
एष पाको गुडादीनां सर्वेषां परिकीर्तितः॥१७२॥
सुखमर्द्यः सुखस्पर्शो गन्धवर्णरसान्वितः।
पीडितो भजते मुद्रां गुडः पाकमुपागतः॥१७३॥
धातुक्षये महाकल्याणको गुडः।
पिप्पलीं पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्पलीम्।
धान्यकान् सविडङ्गानि यवानीमरिचानि च॥१७४॥
त्रिफलां चाजमोदां च नीलिनीं जीवकं तथा।
सौवर्चलं सैन्धवं च सामुद्रं चौद्भिदं वचाम्॥१७५॥
आरग्वधं त्वचं पत्रं सूक्ष्मैलामुपकुञ्चकम्।
नागरेन्द्रयवांश्चैव षड्विंशत्येककार्षिकम्॥१७६॥
मृद्वीकायाः प्रधानाया दद्यात्पलचतुष्टयम्।
त्रिवृतायाः पलान्यष्टौ रसमामलकस्य च॥१७७॥
प्रस्थं द्विगुणितं कृत्वा शनैर्मृद्वग्निना पचेत्
यदा पक्वं विजानीयात्तदैनमवतारयेत्॥१७८॥
उदुम्बरं ह्यामलकं बदरं वा प्रयोजयेत्।
यथाबलं प्रयुञ्जीत समीक्ष्य मतिमान् भिषक्॥१६९॥
सर्वांश्च ग्रहणीदोषान्प्रमेहांश्चैव विंशतिः।
अर्शांसि वातगुल्मांश्च कुष्ठानाहभगन्दरम्॥१८०॥
उरोघातं प्रतिश्यायं हृद्रोगं चैव नाशयेत्।
धातुक्षीणे बलक्षीणे स्त्रीभिः क्षीणे क्षये तथा॥१८१॥
ज्वराणां चैव सर्वेषां वन्ध्यानां चाप्यपत्यदम्।
रूपौदार्यस्वरौदार्यमेधामाविन्दते स्थिराम्॥१८२॥
महाकल्याणको ह्येष रसायनमनुत्तमम्।
ग्रहण्यां कल्याणको गुडः।
कृष्णात्वग्ग्रन्थिकं वह्निं दीप्यकोषणसैन्धवम्।
कृमिघ्नत्रिफलाधान्यकोलाजाज्यजमोदकाः॥१८३॥
पालिकानि त्रिवृच्चूर्णतैलयोश्च पलाष्टकम्।
रसप्रस्थत्रयं धात्र्या गुडस्यार्धशतं क्षिपेत्॥१८४॥
एतत्कल्याणको नाम ग्रहणीपाण्डुजित्परम्।
ग्रहण्यां यवान्याद्या गुटिका।
यवानीं धान्यकं बिल्वं चविकात्रुटिवल्कलम्।
अम्लवेतसवृक्षाम्लं त्रिफला शिखिग्रन्थिकम्॥१८५॥
सौवर्चलं सैन्धवं च हपुषां च हरीतकीम्।
यष्टिकां सातलां स्पृक्कां पलमानानि चूर्णयेत्॥१८६॥
गुडस्य तु पलान्यत्र दापयेद्द्विगुणानि तु।
यवानीगुटिका ह्येषा ग्रहणीनाशनी परा॥१८७॥
चन्द्रप्रभा गुटिका।
कीटघ्नेभकणाग्निमागधिजटामुस्ताशठीताप्यकं
भूनिम्बत्रिफलासुराह्वचविकाव्योषं वचा धान्यकम्।
रात्रीयुग्मविषात्रिवृत्त्रिलवणं क्षारत्रिजातान्वितं
कर्षं कर्षमतः पुराद्दशपलं शैलेयकाष्टान्वितम्॥१८८॥
लोहात्तत्र सिताचतुष्पलयुतं स्याद्वंशिकायाः पलं
हन्त्यर्शांसि षडेव गुल्ममजयं शोषं क्षयं कामलाम्।
नाडीमर्मगदाञ्जलोदररुजो दीर्घज्वरान्विद्रधीन्
यक्ष्माणं सभगन्दरं कफमरुत्पित्तोद्भवं पाण्डुताम्॥१८९॥
तं तं व्याधिसमूहशुक्रविकृतीन्ग्रन्थ्यर्बुदश्लीपदान्
मेहांश्छुक्रविनाशमश्मरिरुजस्त्वन्यांश्च देहस्थितान्।
व्याधीन्हन्ति दृढाननेन विधिना चन्द्रप्रभा सेविता
मन्दाग्नेः परमं प्रदीपनमियं कुर्याज्जरां जर्जराम्॥१९०॥
स्वेच्छाहारविधौ च पानविषये शीतातपे मैथुने।
भुक्तं नास्ति विरोधितं च सततं प्रोक्ता पुरा ब्रह्मणा॥१९१॥
पित्ते कल्याणका गुटिका।
द्राक्षां नियोज्य विधिना द्विगुणां शिवायाः
संचूर्ण्य ह्यक्षफलमात्रमितां प्रभाते।
कल्याणकारककृतां गुटिकामिमां यः
संसेवते भवति तस्य हि पित्तनाशः॥१९२॥
हृद्रोगरक्तविषमज्वरपाण्डुवान्ति–
कुष्ठानि कासकमलारुचिमेहमुख्याः।
आनाहगुल्मपिटकप्रभवा विकाराः
सर्वेपि ते विलयमाशु सुखेन यान्ति॥१९३॥
अर्शसि प्राणदा गुटिका।
त्रिपलं शृङ्गबेरस्य चतुर्थं मरिचस्य च।
द्वे पले पिप्पलीमूलाच्चित्रकस्य पलं तथा॥१९४॥
सूक्ष्मैला कर्षमेकं तु कर्षं चोचमृणालयोः।
अजमोदामजाजीं च सूक्ष्माण्येकत्र चूर्णयेत्॥१९५॥
गुडात्पलानि विंशच्च सर्वमेकत्र कारयेत्।
अक्षप्रमाणगुटिकाः प्राणदा इति विश्रुताः॥१९६॥
पूर्वं भक्ष्यास्तु पश्चाच्च भोजनस्य यथाबलम्।
मद्यं मांसरसं यूषं क्षीरं तोयं पिबेदनु॥१९७॥
हन्यादशासि सर्वाणि सहजान्यस्रजान्यपि।
वातपित्तकफोत्थानि सन्निपातोद्भवानि च॥१९८॥
पानात्यये मूत्रकृच्छ्रे वातरोगे गलग्रहे।
मन्दाग्नौ पाण्डुरोगे चतथैव विषमज्वरे॥१९९॥
कृमिहृद्रोगिणां चैव एताः स्युरमृतोपमाः।
शुण्ठ्याः स्वानेऽभया देया विङ्ग्रहे पित्तवायुजे॥२००॥
प्राणदायां सितां दत्त्वा चूर्णमानाच्चतुर्गुणाम्।
अम्लपित्ते सशूले च प्रयोज्या गुदजातुरे॥२०१॥
अनुपानं प्रयोक्तव्यं व्याधौ श्लेष्मभवे पलम्।
पलद्वयं चानिलजे पित्तजे तु पलत्रयम्॥२०२॥
वार्ताकगुटिका।
चतुष्पलं सुधाकाण्डात्त्रिपलं लवणत्रयात्।
वार्ताकात्कुडवं चार्कादष्टौ द्वे चित्रकात्पले॥२०३॥
दग्ध्वा रसेन वार्ताक्या वटिका भोजनोत्तरम्।
कृता भुक्तं पचत्याशु कासश्वासार्शसां हिता॥२०४॥
विषूचिकाप्रतिश्यायहृद्रोगघ्नी च सा स्मृता।
पाण्डुरोगेऽभयाद्यो मोदकः।
अभया पिप्पलीमूलं मरिचं विश्वभेषजम्।
पत्रत्वक्पिप्पलीमुस्ताविडङ्गामलकानि च॥२०५॥
एतानि समभागानि दन्ती च त्रिगुणा भवेत्।
त्रिवृदष्टगुणा देया शर्करा चैव षड्गुणा॥२०६॥
मधुना मोदकान् कृत्वा मानतः कर्षसंमितान्।
एकैकं भक्षयेत्प्रातः शीतं चानुपिबेज्जलम्॥२०७॥
तावद्विरच्यते जन्तुर्यावदुष्णं न सेवते।
पाण्डुत्वकासविषमज्वरवह्निसादान्
प्लीहाक्षिरोगमथ चाश्मरिकामले च।
हन्याद्रसायनमिदं भिषजा प्रयुक्त-
मल्पव्यथं बहुफलं सततोपयोज्यम्॥२०८॥
गुल्मेऽभयाद्या वटकाः।
हरीतकीनां द्विपलं ग्रन्थिकं वेतसं तथा।
पलार्धं चार्धकर्षांशा व्योषवृक्षाम्लवाष्पिकाः॥२०९॥
यवानी चाजमोदा च कारवीशठिपौष्करम्।
चव्यसौवर्चलबिडं हपुषाजाजिधान्यकम्॥२१०॥
कोलाम्लं दाडिमं चेति चातुर्जातं च कार्षिकम्।
चूर्णं गुडद्विगुणितं कृत्वा तु वटकान्भजेत्॥२११॥
गुल्मानाहोदरप्लीहपाण्ड्वर्शोग्रहणीगदान्।
कासातीसारपार्श्वार्तिश्वासरोगं च कामलाम्॥२१२॥
मदात्ययवमीमेहहिक्कापीनसपित्तजान्।
शूलं ज्वरं च शमयेदग्निदीप्तिकराः परम्॥२१३॥
कृष्णात्रिस्मृतियुक्तस्तु नित्यं जीवेत्समाः शतम्।
विषूचिकायां जीरकाद्या गुटिका।
जीरकभागद्वितयमेको भागस्तथैव मरिचस्य।
द्वौ भागौ सिन्धूत्थाद्धिङ्गोर्भागश्चतुर्थांशः॥२१४॥
कार्या गुडेन वटिकाजीर्णालसकौविषूचिकाध्मानौ।
हन्ति सुखोदकपीताऽनुलोमनी मूढवातस्य॥२१५॥
बृहच्छिवगुटिका।
काले रवितापाढ्ये कृष्णायसे शिलाजतुप्रवरम्।
त्रिफलारससंयुक्तं त्र्यहं विशुद्धं पुनः शुष्कम्॥२१६॥
दशमूलस्य गुडूच्या रसे बलायास्तथा पटोलस्य।
मधुकरसे गोमूत्रे प्रहरं भावयेत्क्रमश एकाहम्॥२१७॥
क्षीरेण तु तत्परतो भावयित्वा गवां पुनः शुष्कम्।
सप्ताहं भाव्यं सात्क्वाथेनैषां यथालाभम्॥२१८॥
काकोल्यौद्वे मेदे विदारि युग्मं शतावरी द्राक्षा।
ऋद्धियुगर्षभवीरामुण्डीतिकाजीरकांशुमत्यश्च॥२१९॥
रास्नापुष्करचित्रकदन्तीभकणाकलिङ्गचव्याब्दाः।
कटुका शृङ्गी पाठा चेति पलांशानि कार्याणि॥२२०॥
अब्द्रोणसाधितानां रसेन पादांशकेन भाव्यानि।
गिरिजस्यैव भावितशुद्धस्य पलानि दश षट् च॥२२१॥
द्विपलं च विश्वधात्रीमागधिकाकर्पटाख्यमरिचानाम्।
चूर्णपलं च विदार्या तालीसपलानि चत्वारि॥२२२॥
षोडश सितापलानि तु चत्वारि घृतस्य माक्षिकस्याष्टौ।
तिलतैलस्य द्विपलं चूर्णस्य पलानि पञ्च पञ्चानाम्॥२२३॥
त्वक्क्षीरिपत्रत्वङ्गागैलानां च मिश्रयित्वा तु।
गिरिजस्य षोडशपलैर्गुटिकाः कार्यास्ततोऽक्षसमाः॥२२४॥
ताः शुष्का नवकुम्भे जातीपुष्पाधिवासिते स्थाप्याः।
तासामेका काले भक्ष्या पेयापि वा सततम्॥२२५॥
क्षीररसदाडिमरसाः सुखासवा हिमकरशिशिरतोयानि।
आलोडनाय तासामनुपाने वा प्रशस्यन्ते॥२२६॥
जीर्णे लघ्वन्नपयोजाङ्गलनिर्यूहयूषभोजी स्यात्।
सप्ताहं भोजनमेवमतः परं भवेत्सर्वसामान्यम्॥२२७॥
भुक्त्वाऽपि भक्षितेयं यदृच्छया नावहेद्भयं किंचित्।
निरुपद्रवा प्रयुक्ता सुकुमारैः कामिभिश्चैव॥२२८॥
संवत्सरं प्रयुक्ता हन्त्येषा वातशोणितं प्रवलम्।
बहुवार्षिकमपि गाढं यक्ष्माणं चाढ्यवातं च॥२२९॥
ज्वरयोनिशुक्रदोषान् प्लीहार्शःपाण्डुहृद्ग्रहणीरोगान्।
वर्ध्मवमिगुल्मपीनसहिक्काश्वासारुचिकासान्॥२३०॥
जठरं श्वित्रं कुष्ठं षाण्ढ्यं क्लैब्यं क्षयं मदं शोषम्।
उन्मादापस्मारौ वदनाक्षिशिरोगतान्रोगान्॥२३१॥
आनाहमतीसारमसृग्दरकामलां प्रमेहांश्च।
गलगण्डापच्यर्बुदविद्रधिभगन्दरं रक्तपित्तं च॥२३२॥
अतिकार्श्यमतिस्थौल्यं स्वेदमपि श्लीपदं च विनिहन्ति।
दंष्ट्राविषमतिभीमं गरलानि बहुप्रकाराणि॥२३३॥
मन्त्रौषधिप्रयुक्तानरियुक्तान् कौलिकांस्तथा सर्पान्।
पापमलक्ष्मीं चेयं शमयेद्गुटिका शिवा नाम॥२३४॥
बल्या वृष्या धन्या कान्तियशःश्रीप्रजाकरी चेयम्।
दद्यान्नृपवल्लभतां जयं विवादे मुखस्था च॥२३५॥
श्रीमान्प्रकृष्टमेधास्मृतिबुद्धिबलान्वितो दृढशरीरः।
पुष्ट्योजोवर्णेन्द्रियतेजोबलसंपदोपेतः॥२३६॥
वलीपलितरोगरहितो जीवेच्छरदां शतद्वयं पुरुषः।
संवत्सरप्रयोगात्, द्वाभ्यां शतानि चत्वारि॥२३७॥
सर्वामयजिन्महितं मुनिभिर्भक्त्या रसायनवरिष्ठम्।
शिवगुटिकेति प्रथितमुक्तं गिरिशेन गणपतये॥२३८॥
पाण्डुरोगे लघुशिवगुटिका।
कुटजत्रिफलानिम्बपटोलघननागरैः।
भावितानि दशाहानि रसैर्द्वित्रिगुणानि वै॥२३९॥
शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा।
त्वक्क्षीरीपिप्पलीधात्रीकर्कटाख्यान् पलोन्मितान्॥२४०॥
निदिग्ध्याः फलमूलाभ्यां पलं युञ्ज्यात्त्रिगन्धिकात्।
मधुत्रिफलसंयुक्तान्कुर्यादक्षसभान् गुडान्॥२४१॥
दाडिमाम्बुपयःक्षीररसयूषसुरासवान्।
तान् भक्षयित्वानुपिबेन्निरन्नो भुक्त एव च॥२४२॥
पाण्डुकुष्ठज्वरप्लीहतमकार्शोभगन्दरान्।
हृच्छूलशुक्रमूत्राग्निदोषशोफगरोदरान्॥२४३॥
कासासृग्दरपित्तासृक्छोषगुल्मगलामयान्।
नेत्रेवर्त्मगतान्हन्युःसर्वरोगहराःशिवाः॥२४४॥
कुष्टे वज्रकगुटिकाः।
शैलस्य धातो रजसां शिलाभ्यः सूर्यप्रतापाज्जतुसंनिकाशम्।
कृष्णं स्रवेन्मूत्रसमानगन्धि शिलाजतु प्राज्ञतमास्तमाहुः॥२४५॥
रूप्यादिधातोर्गलितं दृषद्भ्यस्तेभ्यः प्रशस्तं प्रवदन्ति पूर्वम्।
विशोधयेत्तत्सुदिने सुपूते द्विपञ्चमूलीसलिले कटाहे॥२४६॥
लौहेसमालोड्य दिवाकरस्य संतापनं रश्मिभिरेव कुर्यात्।
प्रणीततावात्सरवद्गृहीत्वा पुनः पुनस्तप्तमथोद्धरेच्च॥२४७॥
तावत्प्रदेयं सलिलं क्रमेण गाढस्य संदर्शनमेव तावत्।
तावच्छिलाजत्वमिसन्निविष्टं समुद्धृतं यावदशेषतश्च॥१४८॥
अष्टौ पलान्यस्य विशोधितस्य ततः क्रमाद्भावयितुं यतेत।
द्विपञ्चमूल्यौ चिरबिल्वमुस्तापटोलनिम्बत्रिफलाः पलांशाः॥२४९॥
सपिप्पलीरोहिणिजीरकं च द्रोणेऽम्भसस्तान्द्विपलान्यथोक्तान्।
प्रक्वाथ्य चैवाष्टमभागशेषं तस्मात्सृजेद्भावनमल्पमल्पम्॥२५०॥
पात्रेऽथ लौहे परिशोषयेत्तत्पुनः पुनर्भावितमेव यावत्।
पलद्वयं मागधिकर्कटाख्येचूर्णीकृते लोहरजःसमांशे॥२५१॥
पलं बृहत्याः सनिदिग्धिकायाः सितोपलामष्टपलोन्मितां तु।
पलत्रयं वेणुजरोचनाया मधुत्रयं तद्विनिवेश्य कृत्वा॥२५२॥
त्रिषष्टिसंख्यान्वटकान्विधिज्ञः खादेत्सुखवारिपयोनुपानात्।
रसेन वा लावकपिञ्जलानां तोयेन वा दाडिमसंस्कृतेन॥२५३॥
भुक्तैस्तथाऽभुक्तवति प्रदेया रोगार्दिते निष्परिहारिणी च।
कुष्ठोदरश्वासगलामयांश्च भगन्दरान्मूत्रविबन्धगुल्मान्॥२५४॥
यक्ष्माणमर्शांसि सकासहिक्कां प्लीहां च हन्याद्विषमज्वरांश्च।
वह्नेश्चदीप्तिं परमां करोति वलींश्च हन्यात्पलितानि चैव॥२५५॥
सेव्या त्वियं वज्रकनामधेया मुनिप्रदिष्टा वटिका प्रधाना।
वर्ज्याः कुलत्थाश्च सकाकमाच्यः कपोतमांसं च सदा प्रयोगे॥२५६॥
विषे सर्षपाद्या गुटिकाः।
सर्पपाः पृष्ठिपर्णी च तगरं पद्मकेसरम्।
हरितालं विडङ्गानि रोध्रद्राक्षाप्रियङ्गवः॥२५७॥
चन्दनं वालकं मांसी विशाला समनःशिला।
श्रीवासकनिशादार्वीपद्मकं ध्याममेव च॥२५८॥
सुरसप्रसवाः स्पृक्का रोचना गन्धनाकुली।
अम्लकं कुङ्कुमं दारु स्थौणेयं गिरिकर्णिका॥२५९॥
जात्याः पुष्पं प्रवालं च पिप्पली मरिचानि च।
सूक्ष्मैला सिन्दुवारं च यष्ट्याहं रोघ्रमेव च॥२६०॥
एतान्यङ्गानि षट्त्रिंशत्पुष्येण परिपेषिताम्।
गुटिकां कोलमात्रां च छायाशुष्कां हि कारयेत्॥२६१॥
नस्यपानाञ्जने चैषा सम्यग्लेषे च पूजिता।
पुंसां सर्वविषार्तानां राजद्वारे रणेतथा॥२६२॥
वणिजां लाभकामानां विवादे च सदा हिता।
सरीसृपा न तिष्ठन्ति यत्र तिष्ठति वेश्मनि॥२६३॥
अनया संप्रलिप्तस्य चौरवह्निभयं कुतः।
सर्पदष्टभयं चापि जलराशिभयं न च॥२६४॥
भूतदोषे सिद्धार्थकाद्या गुटिक।
सिद्धार्थकव्योषवचाश्वगन्धानिशाद्वयं हिङ्गु पलाशकं च।
बीजं करञ्जात्कुसुमं शिरीषात्फलं च वल्कश्च कपित्थवृक्षात्।
समाणिमन्थं सनतं च कुष्ठं श्यानाकरलं किणिही सिता च।
बस्तस्य मूत्रेण सुमावितं तत्पित्तेन गव्यंगुडान्विदध्यात्॥
दुष्टव्रणोन्मादनिशान्ध्ययुक्ता उद्बन्धका वारिनिमग्नदेहाः।
दिग्धाहताः सर्पितसर्पदष्टास्तान्साधयत्यञ्जनपानलेपैः॥२६७॥
शोषेऽश्वत्थवटकाः।
मूलत्वक्पत्रशुङ्गानामश्वत्थस्य समाहरेत्।
शतं शतावरीं मेदां मधुपणीं पुनर्नवाम्॥२६८॥
महासहां क्षुद्रसहां गुडूचीं श्रेयसीं शिवाम्।
स्थिरां वयस्थां बृहतीं काकोलीं काकनासिकाम्॥२६९॥
क्षीरद्रोणेषु दशसु पचेत्तत्सममात्रया।
सिद्धं शीतं पुनः क्षीरं मन्थानेन विमन्थयेत्॥२७०॥
जायते यद्धृतं तत्र तदुद्धृत्य पुनः पचेत्।
कल्कैर्मधुकजीवन्तीमधुकोत्पलजीवकैः॥२७१॥
द्राक्षामेदामहामेदावार्ताकीकण्टकारिका-।
उच्चटात्रायमाणाख्यशृङ्गाटककसेरुकैः॥३७२॥
मज्ज्ञा तालस्य बीजानां पुष्करस्यच कैसरैः।
धात्रीफलविदारीक्षुरसैः काश्मर्यजैः सह॥२७३॥
तत्सिद्धं कलशे ताम्रे कृतकौतुकमङ्गलः।
उच्चटेक्षुरसक्षौद्रतुगाक्षीर्याश्च बुद्धिमान्॥२७४॥
प्रस्थं प्रस्थं पृथग्दद्याच्छर्करार्धतुलां तथा।
आत्मगुप्ताफलानां च कुडवं मरिचस्य च॥२७५॥
त्रिसुगन्धिकृतावापं मन्थानेन विमन्थितम्।
पलिकान्मोदकान्कृत्वा स्थापयेन्मृण्मये नवे॥२७६॥
तेभ्यो द्वावप्यथवाप्येकं खादेद्योऽग्निबलं प्रति।
मोदकं नियताहारो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः॥२७७॥
संहन्याद्यक्ष्मणः सद्य एकादशविधं बलम्।
स्वरवर्णबलौदार्यतुष्टिपुष्टिविवर्धनम्॥२७८॥
आयुष्यं परमं चाग्र्यं भूतोपहतचेतसाम्।
व्याकुलीकृतधातूनां वृद्धानां क्षीणरेतसाम्॥२७९॥
वाजीकरणमप्येतद्वन्ध्यानां पुत्रदं परम्।
धनुस्त्रीमद्यभाराध्वखिन्नानां बलवर्धनम्॥२८०॥
हृत्पार्श्वग्रहणीदोषमूत्रकृच्छ्रापतन्त्रकान्।
अपस्मारं तथोन्मादं नाशयेत्तद्रसायनम्॥२८१॥
पाण्डुरोगे पुनर्नवामण्डूरः।
पुनर्नवा त्रिवृच्छुण्ठी पिप्पली मरिचानि च।
विडङ्गं देवकाष्ठं च चित्रकं पुष्कराह्वयम्॥२८२॥
हरिद्राद्वितयं दन्ती त्रिफला चविका तथा।
कुटजस्य फलं तिक्ता पिप्पलीमूलमुस्तकम्॥२८३॥
एतानि समभागानि मण्डूरं द्विगुणं ततः।
मूत्रे चाष्टगुणे पक्त्वा स्थापयेत्सिग्धभाजने॥२८४॥
पाण्डुशोषोदरानाहशूलार्शः कृमिरोगनुत्।
वातव्याधौ रसोनपिण्डः।
पलं शतं रसोनस्य तिलस्य कुडवं तथा।
हिङ्गु त्रिकटुकं क्षारौ द्वौ पञ्चलवणानि च॥२८५॥
शतपुष्पा वचा कुष्ठं पिप्पलीमूलचित्रकौ।
अजमोदा यवानी च धान्यकं चापि बुद्धिमान्॥२८६॥
प्रत्येकं च पलं चैषां सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्।
घृतभाण्डे दृढे चैव स्थापयेद्दिनषोडशम्॥२८७॥
प्रक्षिप्य तैलमाणीं च प्रस्थार्धं काञ्जिकस्य च।
खादेत्कर्षप्रमाणं च तोयं मद्यं पिबेदनु॥२८८॥
आमवाते तथा वाते सर्वाङ्गैकाङ्गसंसृते।
अपस्मारेऽनले मन्दे कासे श्वासे गलेषु च॥२८९॥
सोन्मादे वातसंभग्ने शूले शत्रुषु शस्यते।
**वातव्याधौ बृहल्लशुनपिण्डः। **
चव्यचित्रकतालीसं यवानी धान्यकंवचा।
अजमोदाऽश्वगन्धा च दाडिमं चाम्लवेतसम्॥३९०॥
रास्नाग्रन्थिविडङ्गाह्वमभयाजीरकद्वयम्।
क्षारद्वयसमायुक्तं लवणत्रयसंयुतम्॥२९१॥
शतमूली नतं कुष्ठं व्योषं पूतीकरञ्जकम्।
शतपुष्पाऽजगन्धा च शठी रामठसंयुतम्॥२९२॥
निस्तुषं लशुनं कृत्वा द्रव्याणां च चतुर्गुणम्।
घृतेन मिश्रितं पिण्डमक्षमात्रं तु भक्षयेत्॥२९३॥
आढ्यवाते हनुस्तम्भे मन्यास्तम्भे गलग्रहे।
कोष्ठशीर्षगते वाते सर्वाङ्गानिलसंग्रहे॥२९४॥
तूनीप्रतूनीगुल्मेषु सप्तस्वेव क्षयेषु च।
कृमिकोष्ठापहारी च ह्यशीतिपवनापहः॥२९५॥
क्षीराहारो भवेत्तस्य मांसाहारोऽथवापिका।
पुरुषस्य भवेद्देहस्तप्तहेमसमप्रभः॥२९६॥
वातव्याधौ व्योषाद्या गुटिका।
व्योषं सग्रन्थिकं पथ्यां चित्रकं जीरकद्वयम्।
अजमोदां यवानीं च वचां चैवमवल्गुजम्॥२९७॥
लवणत्रितयं क्षारं समभागानि चूर्णयेत्।
यावन्त्येतानि द्रव्याणि तावन्तं गुग्गुलुं शुभम्॥२९८॥
पलार्धसंमितं चात्र योजयेच्चाम्लवेतसम्।
गुटिकैषा हिता वाते सामे सन्ध्यस्थिमज्जगे॥२९९॥
नवं करोति भग्नं च जठरानलदीपनम्।
पूजिता देवदेवेन कालपादेन शम्भुना॥३००॥
कुष्ठे स्वायम्भुवो गुग्गुलुः।
शशिरेषा पञ्चपलं तावद्गिरिजश्च गुग्गुलोर्दश च।
ताप्यस्य पलत्रितयं द्वे लोहाच्छ्रवणिकायाश्च॥३०१॥
त्रिफलाकरञ्जपल्लवखदिरगुडूचीवचात्रिवृद्दन्ती-।
मुस्ताविडङ्गरजनीचतुरङ्गुलवह्निकुटजैश्च॥३०२॥
पलिकैश्चूर्णमेतन्मूत्रेण गवां पिबेन्नरः प्रातः।
कुष्ठी घृतमधुमिश्रं जयत्यसृग्वातमचिरेण॥३०३॥
श्वित्राणि कुष्ठकोठौ विषगरगुल्मोदरप्रमेहांश्च।
उन्मादभगन्दरमपस्मृतिश्लीपदकृमिश्वासान्॥३०४॥
जयति वलीपलितानि च योगः स्वायम्भुवः प्रोक्तः।
कुष्ठे धन्वन्तरीया सप्तविंशतिका गुग्गुलुगुटिका।
त्रिकटुत्रिफलामुस्तं विडङ्गं चव्यचित्रकौ।
सूक्ष्मैला पिप्पलीमूलं माक्षिकं सुरदारु च॥३०५॥
तुम्बरुं पौष्करं कुष्ठं विषा च रजनीद्वयम्।
सौवर्चलं बिडं चैव सैन्धवं हस्तिपिप्पली॥३०६॥
यावन्त्येतानि द्रव्याणि तावन्तं गुग्गुलं पचेत्।
प्रक्षिप्य सर्पिषा सार्धं गुटिकां कारयेद्बुधः॥३०७॥
अजमोदा विडङ्गं च दाडिमं साम्लवेतसम्।
वाष्पिका पौष्करं दारु त्वगेलापत्रकेसरम्॥३०८॥
एषामर्धपलैर्भागैः पलानि दश गुग्गुलोः।
संमिश्र्य सर्पिषा सार्धं गुटिकां कारयेद्बुधः॥३०९॥
भक्षयित्वा ससर्पिष्कां जीर्णेच प्रमिताशनम्।
वातश्लेष्मविकारेषु नाडीदुष्टव्रणेषु च॥३१०॥
श्लेष्मकासे च शोफे च योगमेनं प्रयोजयेत्।
जठरं योनिशूलं च ह्यन्तर्भूतं च विद्रधिम्॥३११॥
पार्श्वशूलं कृमीन् गुल्मान्प्रमेह्यांश्छर्द्यरोचकौ।
केवलानिलजान्रोगान् शीतजान् श्लैष्मिकानपि॥३१२॥
सेविता नाशयत्याशु रसायनमनुत्तमम्।
रास्नाद्यो गुग्गुलुः।
रास्नामृतैरण्डसुराह्वविश्वं तुल्यं पुरेणाथ विमृद्य खादेत्।
वातामयी कर्णशिरोगदी च नाडीयुतश्चैव भगन्दरी च॥३१३॥
आमवाते धन्वन्तरीया द्वात्रिंशका गुग्गुलगुटिका।
त्रिकटुत्रिफलामुस्तं विडङ्गं चित्रकं वचा।
चव्यैलापिप्पलीमूलं हपुषा सुरदारु च॥३१४॥
तुम्बुरुं पौष्करं कुष्ठं विशाला रजनीद्वयम्।
वाष्पिका जीरकं शुण्ठी सपत्रा च दुरालभा॥३१५॥
सैन्धवं च बिडं क्षारौ विषा च हस्तिपिप्पली।
भागानेषां समान्कृत्वा तुल्यं कृत्वा तु गुग्गुलुम्॥३१६॥
ततो बदरमात्रां तु गुटिकां कारयेद्बुधः।
तां भक्षयित्वा तु मेधावी मधुना सह योजिताम्॥३१७॥
आमं हन्यात्सुदुर्वारमन्त्रवृद्धिं गुदकृमीन्।
आनाहं च तथोन्मादं कुष्ठानि गुदजानि च॥३१८॥
गृध्रसीं च हनुस्तम्भपक्षाघातापतानकान्।
शोफं प्लीहामयं मेहं कामलामपचीं तथा॥३१९॥
नाम्ना द्वात्रिंशको ह्येष गुग्गुलुः कथितो महान्।
धन्वन्तरिकृतो योगः सर्वरोगनिषूदनः॥३२०॥
वातव्याधौ बिल्वाद्यो गुग्गुलुः।
बिल्वैलापटुहेमचव्यहपुषाद्राक्षाकणादाडिमं
मूलं पौष्करमक्षपाक्यमरिचं शुण्ठी यवानी वचा।
कर्चूरेन्द्रयवाम्लवेतसत्रुटित्वक्तिन्तिडीकाग्निकं
नैम्बं पत्रमजाजियुग्मरुचकं क्षुद्राम्बुधात्रीफलम्॥३२१॥
पाठाधान्ययवासदीप्यककणामूलं दलं बाष्पिका
मुस्ता कर्षसमैश्चतुष्पलयुतैः क्षौद्रस्य जीर्णस्य वै।
दत्त्वा गुग्गुलुमत्र चाष्टपलिकं कृत्वा वटान्भक्षयेत्
ते जग्धा विनिहन्ति वातकफजान् व्याधीनशेषानपि॥३२२॥
अर्शसि योगराजो गुग्गुलुः।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः।
पाठाविडङ्गेन्द्रयवहिङ्गुभार्गींवचान्वितैः॥३२३॥
सर्षपातिविषाजाजिजीरकै रेणुकायुतैः।
गजकृष्णाजमोदाभ्यां कटुमूर्वासमन्वितैः॥३२४॥
समभागान्वितैरेतैस्त्रिफला द्विगुणा भवेत्।
त्रिफलासहितरेतैः समभागस्तु गुग्गुलुः॥३२५॥
एतच्चूर्णीकृतं सर्वं मधुना च परिप्लुतम्।
योगराजमिमं विद्वान्भक्षयेत्प्रातरुत्थितः॥३२६॥
अर्शांसि वातगुल्मं च पाण्डुरोगमरोचकम्।
नाभिशूलमुदावर्तं प्रमेहान्वातशोणितान्॥३२७॥
कुष्ठं क्षयमपस्मारं हृद्रोगं ग्रहणीगदम्।
महान्तमग्निसादं च श्वासकासभगन्दरान्॥३२८॥
रेतोदोषाश्च ये पुंसां योनिदोषाश्च योषिताम्।
निहन्याच्चाशु तान्सर्वान्दुर्वारानप्यसंशयम्॥३२९॥
एष निष्परिहारस्तु पानभोजनमैथुने।
सतताभ्यासयोगेन वलीपलितनाशनः॥३३०॥
नाडीव्रणे त्रिफलाद्यो गुग्गुलुः।
हन्ति नाडीब्रणाक्लेदभगन्दरगलामयान्।
विद्रधिगुल्मपिटका गुग्गुलुस्त्रिफलान्वितः॥३३१॥
प्रमेहे गोक्षुरगुग्गुलगुटिका।
त्रिकटुत्रिफले तुल्ये गुग्गुलं च समांशकम्।
गोक्षुरक्वाथसंयुक्तं गुटिकां कारयेद्बुधः॥३३२॥
देशकालबलापेक्षी भक्षयेच्चानुलोमिनीम्।
न चात्र परिहारोऽस्ति कर्म कुर्याद्यथेप्सितम्॥३३३॥
प्रमेहान्वातरोगांश्च वातशोणितमेव च।
मूत्राघातं मूत्रदोषं प्रदरं चापि नाशयेत्॥३३४॥
वातगुल्मे वातरक्तेच कैशोरकी गुग्गुलुः।
वरमहिषलोचनोदरसन्निभवर्णस्य गुग्गुलोः प्रस्थम्।
प्रक्षिप्य तोयराशौ त्रिफलां च यथोक्तपरिमाणाम्॥३३५॥
द्वात्रिंशच्छिन्नरुहापलानि देयानि यत्नेन।
संसाधयेत्प्रयत्नाद्दर्व्यासंघट्टयेच्च तद्यावत्॥३३६॥
अर्धक्षयितं जातं तोयं ज्वलनस्य संपर्कात्।
अवतार्य वस्त्रपूतं पुनरपि संसाधयेदयःपात्रे॥३३७॥
सान्द्रीभूते तस्मिन्नवतार्य हिमोपलस्पर्शे।
पथ्याचूर्णं द्विपलं त्रिकटुकचूर्णं षडक्षपरिमाणम्॥३३८॥
कृमिरिपुचूर्णार्धपलं कर्षं कर्षं त्रिवृद्दन्त्योः।
पलमेकं गुडूच्या दत्त्वा संमूर्छ्ययत्नेन॥३३९॥
संस्थापयेच्च गुप्तं स्निग्धे भाण्डे घृतेन सुरभीणाम्।
आदाय तस्य मात्रां विहितातिथिदेवताप्रणतिः॥३४०॥
स्वादेद्यथाग्नि मनुजो व्याधिबलापेक्षया सम्यक्।
उपयुज्य चाजुयानं यूषं क्षीरं सुगन्धिसलिलं च॥३४१॥
इच्छाहारविहारो भेषजकालश्च सर्व एवात्र।
तनुरोधि वातशोणितमेकद्वित्र्युल्बणं चिरोत्थमपि॥३४२॥
भग्नस्रुतपरिशुष्कं स्फुटितमपि तन्निहन्ति यत्नेन।
व्रणकासकुष्ठगुल्मश्वयथूदरपाण्डुरोगमेदांसि॥३४३॥
मन्दाग्नित्वविबन्धं प्रमेहदोषांश्च नाशयति।
सततं निषेव्यमाणः कालेन निहन्ति रोगगणम्॥३४४॥
अभिभूय जरादोषं करोति कैशोरिकं रूपम्।
त्रिफलाद्यो गुग्गुलुः।
पलानि क्वाथयेत्षष्टिं त्रिफलायास्तु गुग्गुलोः।
पलैः षोडशभिः सार्धमपां द्रोणद्वयेन तु॥३४५॥
चतुर्भागावशेषं तु कृत्वा भूयोऽप्यधिश्रयेत्।
घनीभूतं कषायं तु ज्ञात्वा चोद्धृत्य निःक्षिपेत्॥३४६॥
छिन्नाविडङ्गव्योषाणां चूर्णानि पलिकानि च।
ततो मात्रां बलापेक्षी भक्षयेद्वातरक्तिनम्॥३४७॥
कुष्ठिनं श्वित्रिणं चैव गुल्मिनं मेहिनं तथा।
बलं मेघां स्मृतिं ज्ञानं तेज आयुर्विवर्धयेत्॥३४८॥
गृध्रस्यां कंसाख्यो गुग्गुलुः।
पथ्याबिभीतामलकीफलानां शतं क्रमेण द्विगुणाभिवृद्धम्।
प्रस्थेन युक्तं तु पलङ्कषस्य द्रोणे जलस्य स्थितमेकरात्रम्॥३४९॥
अर्धावशेषं क्वथितं कषायं भाण्डे पचेत्तं पुनरेव लौहे।
अमूनि पश्चादवतार्य दद्याद्द्रव्याणि संचूर्ण्य पलार्धकानि॥३५०॥
विडङ्गदन्तीत्रिफलागुडूचीकृष्णात्रिवृत्त्र्यूषणचित्रकाणि।
यथेष्टचेष्टस्य नरस्य शीघ्रं हिमाम्बुपानाहितभोजनानि॥३५१॥
निषेवमाणस्य निहन्ति रोगाञ्जङ्घागतान्गृध्रसिवातजान्गदान्।
प्लीहानमुग्रं जठराणि गुल्मं पाङ्गुल्यकण्डूकृमिवातरक्तम्॥३५२॥
कंसाह्वयो गुग्गुलुरेष नाम्ना ख्यातः क्षितौ तत्प्रथितप्रभावः।
बलेन नागेन्द्रसमं मनुष्यं वेगेन कुर्याद्धरिवेगतुल्यम्॥३५३॥
आयुष्प्रदो हर्षकरोऽतिपथ्यश्चक्षुष्प्रदः पुष्टिकरो विषघ्नः।
क्षतस्य सन्धानकरो विशेषाद्गरेषु शस्तः सकलेषु चैव॥३५४॥
गण्डमालायां त्रिफलाद्या गुग्गुलुगुटिका।
त्रिफलात्रिवृतादन्तीनीलिनीचतुरङ्गुलाः।
एषां तु भिषजा ग्राह्या प्रत्येकं पलविंशतिः॥३५५॥
कुट्टितैः क्वथितैरेभिश्चतुर्द्रोणममाणतः।
पचेत्तु सलिलं तावद्यावद्द्रोणावशेषितम्॥३५६॥
पञ्चाशत्तत्र निक्षिप्य गुग्गुलोस्तु पलान्यपि।
ततः पाकघनीभूते त्वगेलानागकेसरम्॥३५७॥
त्रिकटुत्रिफलामुस्तं यवानीजीरकानि च।
पिप्पलीमूलदहनहपुषाकृष्णजीरकम्॥३५८॥
बाष्पिका साजमोदा च तिन्तिडीकाम्लवेतसौ।
सौवर्चलं च कृत्वैषां श्लक्ष्णचूर्णं विनिक्षिपेत्॥३५९॥
प्रत्येकमर्धपलिकैर्भागैः सम्यग्विचक्षणः।
ततोऽक्षमात्रां गुटिकां भक्षयेत्तां दिने दिने॥३६०॥
गण्डमालार्बुदग्रन्थ्यूरुस्तम्भोदरपीडितः।
अनेनैव विधानेन गिरिजं वा प्रयोजयेत्॥३६१॥
वातरक्ते बृहत्स्वायम्भुवगुग्गुलुः।
अलम्बुषालोहचूर्णमनयोर्द्वेपले पले।
पलत्रयं च ताप्युत्थाद्बाकुची पलपञ्चकम्॥३६२॥
शिलाजतु तयोस्तुल्यं पलानि दश गुग्गुलोः।
सर्वोण्येकत्र संचूर्ण्यगुटिकां कारयेद्बुधः॥३६३॥
शाणं कर्षार्धकर्षं वा ततः खादेत्प्रयत्नतः।
वातरक्तं च कुष्ठानि श्वित्राणि विविधानि च॥३६४॥
भगन्दरान् क्षुद्ररोगानर्शांसि ग्रहणीगदान्।
वस्तिजांश्छुक्रदोषांश्च पाण्डुतामुदराणि च॥३६५॥
शोफश्लीपदमानाहं यक्ष्माणं च विशेषतः।
नाडीव्रणांश्च सर्वांस्तु हन्याद्विद्रधिहृद्गदान्॥३६६॥
वृष्यो बल्यश्च धन्यश्च केश्यो मेधाग्निवर्धनः।
आयुर्वर्णकरस्त्वच्यः पुत्रसौभाग्यदस्तथा॥३६७॥
गर्भसन्धानकृत्प्रोक्तो गर्भपुष्टिकरः परम्।
कालपादेन विख्यातो नाम्ना स्वायंभुवो भुवि॥३६८॥
कासे सप्तचत्वारिंशतिका गुग्गुलुगुटिका।
त्रिकटुत्रिफलामुस्तं कुटजं गजपिप्पलीम्।
त्वगेलापत्रहपुषाग्रन्थिकं जीरकद्वयम्॥३६९॥
विडङ्गं चित्रकं पाठां त्रायमाणां दुरालभाम्।
पटोलेन्द्रयवान् दारु पञ्चैव लवणानि च॥३७०॥
यवानीं बाष्पिकां भार्गींं हरिद्रे सारिवाद्वयम्।
दाडिमं पौष्करं धान्यं वचां क्षारद्वयं तथा॥३७१॥
हरेणुकाजमोदं च तिन्तिडीकाम्लवेतसौ।
सतुम्बरूणि सर्वाणि कार्षिकाण्युपकल्पयेत्॥३७२॥
गुग्गुलुश्च समो देयो हविषा सह योजयेत्।
अक्षमात्रां तु गुटिकां भक्षयेन्मधुना सह॥३७३॥
कासं श्वासं तथा शोफमर्शांस्यथ भगन्दरम्।
हृत्पृष्ठपार्श्वशूलं च हन्ति मन्दाग्नितामपि॥३६४॥
आमवातमुदावर्तमेदोवृद्धिगुदकृमीन्।
आनाहं च तथोन्मादं कुष्ठपाण्डूदरामयान्॥३७५॥
नाडीदुष्टव्रणान् सर्वान्प्रमेहश्लीपदानपि।
वातरक्ते कन्थडिका गुग्गुलुगुटिका।
त्रिफलातिविषादारुदार्वीमुस्ताटरूषकैः।
खदिरासननक्ताह्वागुडूचीनृपपादपैः॥३७६॥
भूनिम्बनिम्बकटुकाकलिङ्गकुलकैः समैः।
क्वाथं कृत्वा ततः पूर्वं शीतमष्टगुणेऽम्भसि॥३७७॥
गुडूच्याः कारयेत्क्वाथमर्धे शिष्टेऽथ वारिणि।
क्षिप्त्वा पुरं नवे भाण्डे स्थापयेद्रजनीमथ॥३७८॥
आतपेनैव तीव्रेण कौशिकं परिशोषयेत्।
शुष्कस्य तु पलान्यष्टौ तावन्मानं शिलाजतु॥३७९॥
ताप्यचूर्णात्पलं चैकं द्वे पले मधुसर्पिषोः।
एकीकृतं सुसंक्षुद्य लिह्यात्तं त्रिफलाम्बुना॥३८०॥
तनुना मुद्गयूषेण जाङ्गलानां रसेन च।
जीर्णे यूषेण भुञ्जीत पुराणं शालिषष्टिकम्॥३८१॥
यथारोगं यथासात्म्यं रसैर्यूषैश्च संस्कृतैः।
त्रिसप्ताहप्रयोगेण वातरक्तं सुदारुणम्॥३८२॥
निहन्ति वीर्यतः शीघ्रं कुष्ठरोगं व्रणानपि।
छिन्नभिन्नांश्च संधत्ते दरिद्र इव कन्थडीम्॥३८३॥
गण्डमालायामष्टाचत्वारिंशत्संज्ञा गुग्गुलुमुटिका।
त्रिकटुत्रिफलामुस्तं कुटजं गजपिप्पलीम्।
त्वगेलापत्रहपुषाग्रन्थिकं जीरकद्वयम्॥३८४॥
विडङ्ग चित्रकं पाठां त्रायमाणां दुरालभाम्।
पटोलेन्द्रयवान् दारु पञ्चैव लवणानि च॥३८५॥
यवानीं बाष्पिकां भार्गींं हरिद्रे सारिवाद्वयम्।
दाडिमं पौष्करं धान्यं वचां क्षारद्वयं तथा॥३८६॥
पिप्पलीं चाजमोदं च तिन्तिडीकाम्लवेतसम्।
तुम्बरूणि च सर्वाणि कार्षिकाण्युपकल्पयेत्॥३८७॥
सूक्ष्मचूर्णीकृतेष्वेषु पलानि दश पञ्च च।
महिषाक्षस्य मतिमान् तत्पादेन च माक्षिकम्॥३८८॥
अष्टचत्वारिंशत्संज्ञः कृष्णात्रयेण भाषितः।
गण्डमालापचीग्रन्थिमूकमुन्मिणगद्गदान्॥३८९॥
क्षयाढ्यवातशोफांश्च मन्यास्तम्भं तथार्दितम्।
अर्शांसि च प्रमेहांश्च स्थौल्यदोषगुदामयान्॥३९०॥
अर्बुदं घ्राणरोगं च बाधिर्यं गृध्रसीं तथा।
पूतिनासं प्रतिश्यायं पिटकां क्षतविद्रधिम्॥३९१॥
सोदरामत्त्रवृद्धिं च जयेदग्निं च दीपयेत्।
अमृताद्या गुग्गुलुगुटिका।
अमृतात्रुटिवेल्लवत्सकं कलिपथ्यामलकानि गुग्गुलुः।
क्रमवृद्धमिदं मधुप्लुतं पिटिकास्थौल्यभगन्दराञ्जयेत्॥३९२॥
शोफे गुडार्द्रकगुटिकाः।
गुडार्द्रकं वा गुडनागरं वा गुडाभयां वा गुडपिप्पलीं वा।
कर्षाभिवृद्ध्या त्रिपलप्रमाणं खादेन्नरः पक्षमथापि मासम्॥३९३॥
शोफप्रतिश्यायगलास्यरोगान् सश्वासकासारुचिपीनसादीन्।
जीर्णज्वरार्शोग्रहणीविकारान् हन्यात्तथान्यान्कफवातरोगान्॥३९४॥
**गुल्मे आरोग्यलवणम्। **
पलानि दश वारुण्याः स्नुक्काण्डात्पलविंशतिः।
शतं सिंहीफलानां तु कुमार्याश्च पलद्वयम्॥३९५॥
अर्कपत्रशतं चैकं शतं पूतीकपत्रकात्।
महिषाख्यात्पाणिमानीं रसोनात्पलपञ्चकम्॥३९६॥
पलानि पञ्च सिन्धूत्थाच्चिरबिल्वत्वचस्तथा।
सौवर्चलात्तथा त्रीणि व्योषात्पञ्च पलानि च॥३९७॥
पलद्वयं तु काचस्यसामुद्रलवणाद्दश।
पलमेकं बिडाख्यस्य कुडवं दरकृष्णतः॥३९८॥
यवान्याश्चाजमोदायाः पलार्धं तु पृथक् पृथक्।
रामठस्य पलं चैकं पलैकं जीरकद्वयात्॥३९९॥
कुडवं राजिकायाश्च प्रस्थार्धं चित्रकस्य च।
सर्वमेकत्र संयोज्य कुट्टयित्वा ह्युलूखले॥४००॥
प्रस्थार्धं चार्कदुग्धस्य मानीं सर्षपतैलतः।
एकत्र मिलितं कृत्वा चान्तर्धूमं ततो दहेत्॥४०१॥
मस्तुना तं पिबेत्क्षारं कर्षार्धं कर्षमेव वा।
गुल्मं शूलं तथानाहमरुचिं पाण्डुतां तथा॥४०२॥
हृद्रोगं ग्रहणीदोषमर्शोजीर्णं विषूचिकाम्।
अष्ठीलामूर्ध्ववातं च वातकुण्डलिकां तथा॥४०३॥
मूत्रग्रन्थिं प्रतिश्यायं कासं श्वासं तथाऽश्मरीम्।
प्लीहानमामदोषांश्च वातश्लेष्मोद्भवान् गदान्॥४०४॥
हन्यादारोग्यलवणं सन्नस्याग्नेश्च दीपनम्।
गण्डमालायां काञ्चनारगुग्गुलुः।
पलानां दशकं ग्राह्यं काञ्चनारत्वचो बुधैः।
षट्पला त्रिफला ग्राह्या व्योषं ग्राह्यं पलत्रयम्॥४०५॥
पलैकं वरुणस्यापि त्वगेलापत्रकं तथा।
कर्षकर्षमितं ग्राह्यं सर्वाण्येकत्र चूर्णयेत्॥४०६॥
सर्वं चूर्णमिदं यावत्तावन्मात्रस्तु गुग्गुलुः।
संमर्द्यगुटिकाः कार्याः शाणमात्रास्ततो बुधः॥४०७॥
भक्षयेत्प्रातरेकैकामनुपानविशेषतः।
गण्डमालां जयेदुग्रामपचीमर्बुदानि च॥४०८॥
ग्रन्थीन्नृणां सगुल्मांश्च विद्रधिं च भगन्दरम्।
अनुपाने प्रयोक्तव्यः क्वाथो मुण्डीसमुद्भवः॥४०९॥
क्वाथो वा खदिरस्याथ पथ्याक्वाथोष्णकं जलम्।
गण्डमालायां काञ्चनगुटिका।
त्रिफलायास्त्रयो भागा व्योषाच्च द्विगुणो मतः॥४१०॥
तस्माच्च द्विगुणं ज्ञेयं काञ्चनारस्य वल्कलम्।
एकीकृते तु चूर्णेऽस्मिन् समो देयोऽथ गुग्गुलुः॥४११॥
क्षौद्रं दशगुणं दद्यात्त्रिफलाचूर्णतो भिषक्।
सर्वासु गण्डमालासु गलगण्डे तथैव च॥४१२॥
नाडीव्रणे विद्रधौ च गुटिकेयं प्रशस्यते।
इति श्रीशोढलग्रथिते गदनिग्रहे गुटिकाधिकारश्चतुर्थः।
—————————
अथातः पञ्चमो लेहाधिकारः प्रारभ्यते।
अर्शसि पथ्यावलेहः।
श्यामागुडूच्यामलचित्रकाणां भागान् पलानां शतसंमितांश्च।
सर्वान्पृथक्संपरिकल्प्य युक्त्या द्रोणद्वयेऽपां तु विपाच्य पात्रे॥१॥
लौहे दृढे मन्दहुताशने च पादावशिष्टं विधिवद्विधिज्ञः।
भूयः पचेत्तं तुलया गुडस्य शुक्लेन वस्त्रेण विशोधितस्य॥२॥
चूर्णीकृतैर्जीरकयुग्मदन्तीपाठात्रिवृत्त्र्यूषणग्रन्थिकाह्वैः।
धान्याजमोदेभकणायवानीभल्लातकाख्यैश्च पलप्रमाणैः॥३॥
प्रस्थत्रयेणाथ हरीतकीनाभैकध्यमालोड्य शनैस्तु दर्व्या।
ज्ञात्वा सुपक्वंरसगन्धवर्णैः कुम्भे निदध्यात्त्रिसुगन्धियुक्तम्॥४॥
प्रस्थार्धयुक्तं मधुनोत्र शीते भल्लातकास्थिप्रभवाच्च तैलात्।
दत्त्वा पलार्धं यवशूकजस्य चाष्टौ पलान्येव सितोपलायाः॥५॥
एनं लिहेदक्षफलप्रमाणमर्शोविकारी प्रसमीक्ष्य वह्निम्।
कुष्ठानि सर्वाणि निहन्ति हिक्कां श्वासं च कासारुचिपाण्डुरोगान्॥६॥
मन्दानलत्वं ग्रहणीविकारान् गुल्मान्सशोफानुदरामयांश्च।
शूलानि यक्ष्माणमसृक्प्रवृत्तिं पथ्यावलेहोऽयमिति प्रदिष्टः॥७॥
अर्शसि चित्रकावलेहः।
चित्रकस्य शतं दद्यात्तत्तुल्यो ग्रन्थिको मतः।
पञ्चाशद्दशमूलस्य शेषान् पञ्चपलान् पृथक्॥८॥
बलां भार्ङ्गीं शठीं पाठां पौष्करं मूलमेव च।
चतुर्द्रोणेऽम्भसां पक्त्वा द्रोणशेषे तथैव च॥९॥
पचेद्गुडशतं दत्त्वा लेहवत्साधु साधयेत्।
चतुष्पलं तु पिप्पल्यास्तुगाक्षीर्याः पलद्वयम्॥१०॥
त्रिजाताच्च पलं चैकं मरिचस्य पलं तथा।
सूक्ष्मचूर्णं ततः कृत्वा दर्व्या सम्यग्विघट्टयेत्॥११॥
पलमात्रं ततः खादेत्प्लीहगुल्मोदरार्शसाम्।
हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं शीतार्तिं चाम्लपित्तकम्॥१२॥
भारद्वाजेन कथितो लेहश्चित्रकसंज्ञकः।
अर्शसि चित्रकावलेहः।
तोयद्रोणे चित्रकमूलतुलार्धं
साध्यं यावत्पाददलस्थमथेदम्।
अष्टौ दत्त्वा जीर्णगुडस्य पलानि
क्वाथ्यं भूयः सान्द्रतया समवेतम्॥१३॥
त्रिकटुकमिशिपथ्याकुष्ठमुस्तावराङ्ग–
कृमिरिपुदहनैलाचूर्णकीर्णोऽवलेहः।
जयति गुदजकुष्ठप्लीहगुल्मोदराणि
प्रबलयति हुताशं शश्वदभ्यस्यमानः॥१४॥
रक्तपित्ते कुष्माण्डकावलेहः।
कूष्माण्डकात्पलशतं सुस्विन्नं निष्कुलीकृतम्।
पचेत्तप्ते घृतप्रस्थे पात्रे ताम्रमये दृढे॥१५॥
यदा मधुनिभः पाकस्तदा खण्डशतं क्षिपेत्।
पिप्पलीशृङ्गवेराच्च द्वे पले जीरकस्य च॥१६॥
त्वगेलापत्रमरिचधान्यकानां पलार्धकम्।
न्यसेच्चूर्णीकृतं तत्र दार्व्या संघट्टयेत्ततः॥१७॥
तत्पक्वं स्थापयेद्भाण्डे क्षौद्रं दत्त्वा घृतार्धकम्^(१)।
तद्यथाग्निबलं खादेद्रक्तपित्ती क्षतक्षयी॥१८॥
श्वासकासारुचिच्छर्दितृष्णाज्वरनिपीडितः।
वृष्यं पुनर्नवकरं बलवर्णप्रसादनम्॥१९॥
उरःसन्धानकरणं बृंहणं स्वरबोधनम्।
अश्विभ्यां निर्मितं सिद्धं कूष्माण्डकरसायनम्॥२०॥
^(१)अस्याग्रे ‘क्षौदार्धकां सितां केचित् केचिद्द्राक्षां सितार्धकाम् । द्राक्षार्धानि लवङ्गानि मनाक् कपूरकं क्षिपेत्’इति योगरत्नाकरेऽधिकः पाठः।
रक्तपित्ते खण्डकूष्माण्डकावलेहः।
प्रस्थेनाज्यस्य भृष्टं पलशतमलघुच्छिन्नकूष्माण्डकस्य
पक्तव्यं खण्डतुल्यं मधु शिशिरतरे तत्र दद्याद्धृतार्धम्।
व्योषं धान्यं सजीरं प्रसृतिमितमथ स्याच्चतुर्जातकं च
प्रक्षेप्यं रक्तपित्तं हरति बलकरः खण्डकूष्माण्डकोऽयम्॥२१॥
अर्शसि खण्डसूरणावलेहः।
कूष्माण्डकविधानेन शस्यते सूरणं सदा।
अर्शसां मूढवातानां मन्दाग्नीनां विशेषतः॥२२॥
गुडकूष्माण्डकावलेहः।
कूष्माण्डकात्पलशतं सुखिन्नं निष्कुलीकृतम्।
प्रस्थं तैलघृताद्देयं तसिंस्तप्ते प्रदापयेत्॥२३॥
त्वक्पत्रधान्यकं व्योषं जीरकैलाह्वयानलम्।
ग्रन्थिकं चव्यमातङ्गपिप्पलीशृङ्गवेरकम्॥२४॥
शृङ्गाटकं कसेरुं च पेलवं तालमस्तकम्।
चूर्णीकृत्य पलांशेन गुडस्य तुलया पचेत्॥२५॥
शीतीभूते पलान्यष्टौ मधुनः संप्रदापयेत्।
कफपित्तानिलहरं मन्दाग्नीनां च दीपनम्॥२६॥
कृशानां बृंहणं श्रेष्ठं वाजीकरणमुत्तमम्।
प्रमदासु प्रसक्तानां ये चान्ये क्षीणरेतसः॥२७॥
क्षयेणैव गृहीतानां परमुक्तं भिषग्जितम्।
कासं श्वासं ज्वरं हिक्कां हन्ति छर्दिमरोचकम्॥२८॥
गुडकूष्माण्डकं ख्यातं कृष्णात्रेयेण पूजितम्।
शोषे एलाद्यवलेहः।
एलाजमोदामलकाभयाक्षगायत्र्यरिष्टासनसारसालान्।
विडङ्गभल्लातकचित्रकोग्राकटुत्रिकाम्भोदसुराष्ट्रजांश्च॥२९॥
पक्त्वा जलेनैव पचेद्धि सर्पिस्तस्मिन्सुसिद्धे त्ववतारिते च।
त्रिंशत्पलं चात्र सितोपलाया दद्यात्तुगायाश्च पलानि षट्च॥३०॥
प्रस्थं घृतस्य द्विगुणं च कुर्यात्क्षौद्रं ततो मन्थहतं निदध्यात्।
पलं पलं प्रातरतः प्रलिह्यात्पश्चात्पिबेत्क्षीरमतन्द्रितश्च॥३१॥
एतद्धि मेध्यं परमं पवित्रं चक्षुष्यम्व्यमथो यशस्यम्।
यक्ष्माणमाशु व्यपहन्ति चैव पाण्डुतनयचैव भगन्दरे च॥३२॥
श्वासंच हन्ति स्वरभेदकासं हृत्प्लीहगुल्मग्रहणीगदान्।
न चात्र किंचित्परिवर्जनीयं रसायनं चैतदुपास्यमानम्॥३३॥
अर्शसि भल्लातकावलेहः।
भल्लातकसहस्रं तु द्रोणेऽपां विधिवत्पचेत्।
ततः पादावशिष्टं तु पुनरग्नावधिश्रयेत्॥३४॥
गुडस्य तु तुलां दत्त्वा तत्र भूयो विपाचयेत्।
त्र्यूषणं त्रिफला दन्ती चित्रको हस्तिपिप्पली॥३५॥
चव्याजमोदापाठाश्च पिप्पलीमूलमेव च।
एषां द्विपालिकान्भागान् सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥३६॥
लेहीभूते ततः पश्चात्प्रक्षिपेन्मतिमान्भिषक्।
शीतीभूते ततः पश्चाच्चातुर्जातपलं क्षिपेत्॥३७॥
उदुम्बरसमां मात्रां खादयेच्च यथाबलम्।
अर्शांसि ग्रहणीदोषं प्लीहानं विषमज्वरम्॥३८॥
दुष्टगुल्मोदरं हन्ति मन्दाग्नित्वमरोचकम्।
कासश्वासहरो हृद्यो भल्लातकगुडः स्मृतः॥३९॥
ग्रहण्यां कल्याणको गुडावलेहः।
प्रस्थत्रये ह्यामलकीरसस्य शुद्धस्य दत्त्वाऽर्धतुलां गुडस्य।
चूर्णीकृतैर्ग्रन्थिकजीरचव्यव्योषेभकृष्णाहपुषाजमोदैः॥४०॥
विडङ्गसिन्धुत्रिफलायवानीपाठाग्निधान्यैश्च पलप्रमाणैः।
दत्त्वा त्रिवृच्चूर्णपलानि चाष्टौ ह्यष्टौ च तैलस्य पचेद्यथावत्॥४१॥
तं भक्षयेदक्षफलप्रमाणं यच्चेष्टचेष्टं त्रिसुगन्धियुक्तम्।
अनेनसर्वे ग्रहणीविकाराः सश्वासकासस्वरभेददोषाः॥४२॥
पाण्डूदरं गुल्मभगन्दरार्तिमेदःसमुत्थं च विकारजातम्।
शाम्यन्ति, चायं चिरमन्दवह्नेर्हतस्य पुंस्त्वस्य च वृद्धिहेतुः ॥४३॥
स्त्रीणां च वन्ध्यामयनाशनः स्यात्कल्याणको नाम गुडः प्रतीतः।
भृष्ट्वेषत्त्रिवृतां तैले त्रिसुगन्धि पिचुं पिचुम्।
सिद्धे विधेयमत्रैव गुडे कल्याणपूर्वके॥४४॥
कार्श्ये पञ्चजीरकावलेहः।
कुस्तुम्बर्यो यवानी समरिचमगधा दीप्यकाजाजिचव्याः
पथ्या श्यामा च मूलं कृमिहरहपुषे कारवी शीतकश्च।
शुण्ठीवन्दाकनागोद्भवशतकुसुमा मेथिका चाक्षभागाः
कंसेल्लाद्भागयुग्मं सकलगणमिदं चूर्णयेदौषधानाम्॥४५॥
सर्पिःप्रस्थं प्रदद्याद्गुडपलदशभिः साधयेन्मन्दवह्नौ
क्षीरप्रस्थैश्चतुर्भिः स च सकलगदान्हन्ति युक्तस्त्रिगन्धैः।
लेहोऽयं चानिलघ्नः कुशबलजननः शोधनश्चार्तवस्य
या स्त्री गर्भं न धत्ते जनयति तनयं दीर्घजीवानुयुक्तम्॥४६॥
योनिरोगे पञ्चजीरकावहलेहः।
जीरकं हपुषा धान्यं यवानी बदराणि च।
शताह्वा मेथिका हिङ्गुपत्रिका कामवृक्षकम्॥४७॥
पिप्पलीपिप्पलीमूलमजमोदा च बाष्पिका।
चित्रकं च पलांशानि तथा चैव चतुःपलम्॥४८॥
कसेरुकं नागरं च कृष्णा जीरकमेव च।
गुडस्यार्धशतं दद्याद्धृतप्रस्थं तथैव च॥४९॥
क्षीरद्विप्रस्थसंयुक्तं शनैर्मुद्वग्निना पचेत्।
पञ्चजीरक इत्येष सूतिकानां प्रशस्यते॥५०॥
गर्भार्थिनीनां नारीणां प्रदुष्टे चैव मारुते।
विंशतिर्व्यापदो योनेः कासं श्वासं स्वरक्षयम्॥५१॥
हलीमकं पाण्डुरोगं दौर्गन्ध्यं कृच्छ्रमूत्रताम्।
हन्ति पीनोन्नतकुचाः पद्मपत्रायतेक्षणाः॥५२॥
उपयोगास्त्रियो नित्यमलक्ष्मीकलिवर्जिताः।
श्रीबाहुशालो गुडावलेहः।
त्रिवृत्तेजोवतीदन्तीश्चदंष्ट्राचित्रकं शठी।
गवाक्षीमुस्तबिल्वाहं विडङ्गानि हरीतकी॥५३॥
पलानि षड् वृद्धदारोः षोडशैव तु सूरणात्।
जलद्रोणद्वये क्वाथ्य चतुर्भागावशेषितम्॥५४॥
पूतं रसं तु तं दत्त्वा क्वाथेभ्यस्त्रिगुणो गुडः।
लेहं पचेद्धि तं यावद्दर्वीलेपं व्रजेद्बुधः॥५५॥
अवतार्य ततः पश्चाच्चूर्णानीमानि दापयेत्।
त्रिवृत्तेजोवतीकट्वीचित्रकं द्विपलांशकम्॥५६॥
एलात्वक्पत्रनागाह्वंषट्पलं परिकीर्तितम्।
द्वात्रिंशच्च पलानीह चूर्णीकृत्वा प्रदापयेत्॥५७॥
ततो मात्रां प्रयुञ्जीत जीर्णे क्षीरं रसायनम्।
पञ्चगुल्मान् प्रमेहांश्च पाण्डुरोगं हलीमकम्॥५८॥
जयेदर्शांसि सर्वाणि तथा सर्वोदराणि च।
अयं सर्वान् गदांश्चैव कल्याणो लेह उत्तमः॥५९॥
दुर्नामान्तकरश्चैव मेधाजनन उत्तमः।
गुडः श्रीबाहुशालोऽयं दुर्नामारिः प्रकीर्तितः॥६०॥
सर्वरोगं निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा।
श्वासकासे बिभीतकावलेहः।
प्रस्थं बिभीतकानामनस्थ्नांसाधयेद्रवां मूत्रे।
लेहवदवलेहो मधुसहितः श्वासकासहरः॥६१॥
कासेऽगस्त्यहरीतक्यवलेहः।
द्विपञ्चमूलेभकणात्मगुप्ताभार्ङ्गीशठीपुष्करमूलविश्वाः।
पाठामृताग्रन्थिकशङ्खपुष्पीरास्नाग्न्यपामार्गबलायवासाः॥६२॥
द्विपालिकास्तच्च यवाढकं च हरीतकीनां च शतं गुरूणाम्।
द्रोणे जलस्याढकसंयुते तु क्वाथीकृते पूतचतुर्थभागे॥६३॥
पचेत्तुलां शुद्धगुडस्य दत्त्वा पृथक्सतैलात्कुडवं घृताच्च।
चूर्णं च तावन्मगधोद्भवानामनेकरोगौघमथाशु हन्यात्॥६४॥
तद्राजयक्ष्मग्रहणीप्रदोषशोफाग्निमान्द्यस्वरभेदकासान्।
पाण्ड्वामयश्वासशिरोक्षिरोगान्हृद्रोगहिक्काविषमज्वरांश्च॥६५॥
मेधाबलोत्साहमतिप्रदं च चकार चैतद्भगवानगस्त्यः।
कासे द्वितीयोऽगस्त्यहरीतक्यवलेहः।
दशमूलीं स्वयङ्गुप्तां शङ्खपुष्पीं शठीं बलाम्।
हस्तिपिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकान्॥६६॥
भार्गींपुष्करमूलं च द्विपलांशान् यवाढकम्।
हरीतकीशतं चैकं जले पञ्चाढके पचेत्॥६७॥
यवैः खिन्नैः कषायं तं पूतं तच्चाभयाशतम्।
पचेद्गुडतुलां दत्त्वा कुडवं च पृथग्घृतात्॥६८॥
तैलाच्च पिप्पलीचूर्णात्सिद्धे शीते च माक्षिकात्।
कुडवं, पलमानं च चतुर्जातं समावपेत्॥६९॥
लिह्याद्द्वे चाभये नित्यं ततः खादेद्रसायनात्।
वलीं च पलितं हन्याद्वर्णायुर्बलवर्धनम्॥७०॥
पञ्च कासान् क्षयं श्वासं सहिध्मं विषमज्वरम्।
गुल्ममेहग्रहण्यर्शोहृद्रोगारुचिपीनसान्॥७१॥
अगस्त्यविहितं धन्यमिदं श्रेष्ठं रसायनम्।
यथोद्दिष्टान् गुणं कुर्वन्पित्तं चेत्कुरुते यदि॥७२॥
तदा सायं गुडो योज्य एष एवाल्पमात्रया।
पादशेषे कषायेऽत्र खिन्ना विद्याद्धरीतकीः॥७३॥
भर्जितास्तिलतैलस्य कुडवे गोघृतस्य वा।
पचेत्ताम्रमये पात्रे आपाकाल्लोहितोदयात्॥७४॥
सङ्ख्या फलानां शतशश्चातुर्जातं पृथक्पलम्।
बद्ध्वा पोटलके पथ्या यवान् खिन्नांश्च कारयेत्॥७५॥
वासिष्ठहरीतक्यवलेहः।
यवाढकं सप्त जलाढकानि हरीतकीनां च शतं गुरूणाम्।
दन्त्यश्वगन्धाचिरिबिल्वमूलं भल्लातकांश्चापि च पक्वबिल्वम्॥७६॥
उभे हरिद्रे गजपिप्पली च मूलानि पत्राणि च चित्रकस्य।
पिप्पल्यपामार्गमथात्मगुप्ता सर्वाणि कुर्यात्पलसंमितानि॥७७॥
लौहे समादाय पचेत्कटाहे द्विपञ्चमूलं च यवप्रमाणम्।
मृद्वग्निसिद्धांश्च यवान्विदित्वा शनैः प्रयत्नादवतारयेच्च॥७८॥
निःस्राव्य तेनैव जलेन सम्यक् सार्धं पुराणस्य शतं गुडस्य।
भूयो गुरूणामथ तत्र दद्याद्धरीतकीनां च सहस्रमन्यत्॥७९॥
प्रस्थं पुराणस्य घृतस्य चैव नवस्य तैलस्य च तावदेव।
शीते मधु स्नेहसमं च दद्यात्पलानि चाष्टावथ पिप्पलीनाम्॥८०॥
पथ्ये11 सलेहे त्वथ भक्ष्यमाणे सर्वा रुजो नाशयतो हि मासात्।
मासद्वयेनैव च नेत्ररोगान्निहन्ति गार्ध्रं लभते च चक्षुः॥८१॥
मासैस्त्रिभिर्नाशयतो हि कुष्ठं विशीर्णतां चाङ्गुलिनासिकानाम्।
भगन्दरश्लीपदवातगुल्मानार्शांस्यथो मासचतुष्टयेन॥८२॥
केशान्घनान्कुञ्चितदीर्घनीलान्स पञ्चभिश्चैव करोति मासैः।
सहस्रसङ्ख्यां च तथोपयुज्य बलं लभेदुत्तमकुञ्जरस्य॥८३॥
स्वरं मयूरस्य जवं हयस्यशरच्छशाङ्कस्य तथैव कान्तिम्।
सौभाग्यमेधास्मृतिसत्वतेजःशोभान्वितः पद्मसमानगन्धः॥८४॥
जीवेत्समानां च सहस्रमन्यत्प्रयोगकालादिति सिद्धवाक्यम्।
न चान्नपानेऽध्वनि मैथुने वा नरेण किंचित्परिहार्यमस्मिन्।
समीक्ष्य कल्पं तु रसायनानां चकार योगं भगवान्वसिष्ठः॥८५॥
वासाहरीतक्यवलेहः।
तुलामादाय वासायाः संक्वाथ्याष्टगुणे जले।
तेन पादावशेषेण पाचयेदाढकं भिषक्॥८६॥
गुरूणामभयानां तु खण्डाच्छुद्धात्तथा शतम्।
शीतीभूते निदध्यात्तु क्षोद्रस्याष्टौ पलानि च॥८७॥
वंशोद्भवायाश्चत्वारि पिप्पल्यर्धपलं तथा।
चातुर्जातपलं चैव सर्वदा हन्ति सेवितः॥८८॥
विद्रधिं जठरं गुल्मं रक्तपित्तं सुदारुणम्।
श्वासं क्षयं तथा कासं तृष्णाहृद्रोगपीनसान्॥८९॥
पलार्धं भक्षयेदस्य यथेष्टं चात्र भोजनम्।
गुल्मे दन्तीहरीतक्यवलेहः।
जलद्रोणे विपक्तव्या विंशतिः पञ्च चाभयाः॥९०॥
दन्त्याः पलानि तावन्ति चित्रकस्य तथैव च।
अष्टभागावशेषं च रसं पूतमधिश्रयेत्॥९१॥
दन्तीसमं गुडं पूतं क्षिपेत्तत्राभयाश्च ताः।
तैलार्धकुडवं चैव त्रिवृतायाश्चतुष्पलम्॥९२॥
चूर्णितं चार्धपलिकं पिप्पलीविश्वभेषजम्।
लेहवत्साधयेत्तं च शीते तैलसमं मधु॥९३॥
क्षिपेच्चूर्णं पलं चैकं त्वगेलापत्रकेसरात्।
ततो लेहपलं लिह्याज्जग्ध्वा चैकां हरीतकीम्॥९४॥
सुखं विरिच्यते स्निग्धो दोषान् प्रशमयत्यलम्।
गुल्मं श्वयथुमर्शांसि पाण्डुरोगमरोचकम्॥९५॥
हृद्रोगं ग्रहणीदोषं कामलां विषमज्वरम्।
कुष्ठं प्लीहानमानाहं तथा हन्त्युपसेवितः॥९६॥
निरत्ययक्रमश्च स्याद्भोज्यो मांसरसौदनः।
कासे व्याघ्रीहरीतक्यवलेहः।
व्याघ्रीशतं हरीतक्यो दत्त्वा च शतसंमिताः॥९७॥
जले चतुर्गुणे पक्त्वा चतुर्भागावशेषिते।
आलोड्यार्धतुलां तस्मिन् गुडस्य त्वभयाश्च ताः॥१८॥
प्रक्षिप्यास्मिन् घनीभूते त्वगेलापत्रकेसरम्।
मगधोषणसंयुक्तं पालिकं, चार्धकार्षिकम्॥९९॥
यवक्षारं च संचूर्ण्य तस्मिंस्तत्प्रक्षिपेत्पुनः।
मधुनः पलषट्केन युक्तः कासामयापहः॥१००॥
स्वरवर्णावहः पुंसामग्नेर्दीप्तिकरः परम्।
सर्वकासे द्वितीयो व्याघ्रीहरीतक्यवलेहः।
समूलपुष्पच्छदकण्टकार्यास्तुलां जलद्रोणपरिप्लुतां च।
हरीतकीनां च शतं विदध्यादथात्र पक्त्वा चरणावशेषम्॥१०१॥
गुडस्य दत्त्वा शतमेतदग्नौ विपक्वमुत्तार्य ततः सुशीते।
कटुत्रिकं च त्रिपलप्रमाणं पलानि षट् पुष्परसस्य तत्र॥१०२॥
क्षिपेच्चतुर्जातपलं यथाग्नि प्रयुज्यमानो विधिनाऽवलेहः।
वातात्मकं पित्तकफोद्भवं च द्विदोषजं कासमपि त्रिदोषम्॥१०३॥
क्षतोद्भवं च क्षयजं च हन्यात्सपीनसश्वासमुरःक्षितं च।
यक्ष्माणमेकादशरूपमुग्रं भृगूपदिष्टं हि रसायनं स्यात्॥१०४॥
प्लीहोदरे रोहीतकावलेहः।
पक्त्वा शतं रोहितवल्कलानां पथ्याशतं माहिषमूत्रमग्नौ।
पादावशेषं तु सपञ्चकोलैरुद्धृत्य मूत्रं सह दन्तिनीभिः॥१०५॥
भूयः पचेद्यावदुपैति लेहः पथ्याद्वयं नित्यमथोपयुज्य।
यश्चाल्लिहेल्लेहहितं हिताशी प्लीहोदरं हन्ति यकृच्च शीघ्रम्॥१०६॥
शोफे पुनर्नवहरीतक्यवलेहः।
पुनर्नवायाः प्रस्थं तु चित्रकस्य तथैव च।
पाठानागरदन्तीनां भागान्दशपलोन्मितान्॥१०७॥
दशमूलतुलार्धं तु पथ्यानां शतमेव च।
चतुर्गुणेऽम्भसः पक्त्वा पूतं पादावशेषितम्॥१०८॥
गुडस्यैकां तुलां क्षिप्त्वा लेहवत्साधु साधयेत्।
क्षिपेच्चूर्णीकृतं तत्र त्रिजातं त्रिकटुं तथा॥१०९॥
नागकेसरसंयुक्तं पलांशमुपकल्पितम्।
शीतीभूते ततो दद्यात्कुडवं माक्षिकस्य च॥११०॥
अतो लेहपलं लीढ्वापथ्यां चैकां च भोजयेत्।
शोफगुल्मोदरार्शोघ्नी पुनर्नवहरीतकी॥१११॥
शोफे कंसहरीतक्यवलेहः।
द्विपञ्चमूलस्य तुलाकषाये कंसोऽभयानां च शतं गुडाच्च।
लेहे सुसिद्धे च विनीय चूर्णं व्योषं त्रिसौगन्ध्यमुपस्थिते च॥११२॥
प्रस्थार्घमात्रं मधुनः सुशीते किंचिच्च चूर्णादपि यावशूकात्।
एकां ततः प्राश्य तथा च लेहाच्छुक्तिं निहन्ति श्वयथुं प्रवृद्धम्॥११३॥
कासज्वरारोचकमेहहिक्काप्लीहत्रिदोषोदरपाण्डुरोगान्।
कार्श्यामवातानसृगम्लपित्तवैवर्ण्यमूत्रानिलशुक्रदोषान्॥११४॥
शोफे हरीतक्यवलेहः।
दशमूलकषायस्य कंसे पथ्याशतं पचेत्।
दत्त्वा गुडतुलां तस्मिंल्लेहे दद्यात्सुचूर्णितम्॥११५॥
त्रिजातकं त्रिकटुकं किंचिच्च यवशूकजम्।
प्रस्थार्धं च हिमे क्षौद्रात्स निहन्त्युपयोजितः॥११६॥
प्रवृद्धशोफज्वरमेहगुल्मकार्श्यामवाताम्लकरक्तपित्तम्।
वैवर्ण्यमूत्रानलशुक्रदोषश्वासारुचिप्लीहगरोदरांश्च॥११७॥
अर्शःपीनसयोश्चित्रकहरीतक्यवलेहः।
चित्रककषायपलशतममृताधात्रीरसं च तुल्यांशम्।
संमिश्र्य गुडशतं च हि द्विपञ्चमूलीकषायेण॥११८॥
तत्तुल्येन हरीतक्याढकमेकं विपाच्य गुडपाकम्।
अर्धप्रस्थं मधुनस्तस्मिन्दत्त्वा ततोऽन्येद्युः॥११९॥
द्वे द्वे पले निदध्यादेलात्वक्पत्रत्रिकटुकानाम्।
सयवक्षारार्धपलं यथाग्नि पश्चात्प्रयुञ्जीत॥१२०॥
एतद्रसायनोत्तममश्विभ्यामग्निवृद्धये प्रोक्तम्।
उपयुक्तवतां पुंसामपि काष्ठतृणानि जीर्यन्ति॥१२१॥
अर्शःश्वासभगन्दरकासकृमिशोफकुष्ठगुल्मांश्च।
मासद्वयोपयोगादेद्विनाशयत्यन्त्रवृद्धिमपि॥१२२॥
रोगानीकसमेतं विशेषतो हन्ति राजयक्ष्माणम्।
अजितमपि भेषजशतैः पीनसरोगें त्र्यहाज्जयति॥१२३॥
मन्दाग्नौ द्वितीयश्चित्रकहरीतक्यक्लेहः।
चित्रकपलशतमभिनवमाहृत्य कषायमेव कुर्वीत।
धात्रीरसस्य पलशतममृत्तायाः स्वरसमेव तत्तुल्यम्॥१२४॥
दशमूलस्य पलशतमष्टाविंशत्तथा जलद्रोणे।
अभयाढकं च भिषजा साध्यं पूते कषायेऽस्मिन्॥१२५॥
शुद्धगुडस्य शतं स्याद्रसेन चालोड्य सपदि तत्रैव।
अभयाश्च ताः समस्ता मृदुना ज्वलनेन मार्दवं नेयाः॥१२६॥
मधुनः पलानि षोडश तस्मिन्देयानि शीतलीभूते।
त्वक्पत्रमरिचकेसरमागधिकैलापले द्वे स्युः॥१२७॥
यवक्षारपलैकमेतत्प्राश्याग्निमात्रया विद्वान्।
जरयति तृणकाष्ठान्यपि त्रिसप्तदिवसोपयोगेन॥१२८॥
कासश्वासभगन्दरकुष्ठान्यष्टादशोदराण्यष्टौ।
मासोपयोगादेतत्क्षतक्षयं हन्ति राजयक्ष्माणम्॥१२९॥
षण्ढोऽप्यषण्ढतां च याति वर्षमात्रोपयोगेन।
सुरलोकरोगनिचयप्रशमनकरणैकलक्ष्यमाहात्म्यौ॥१३०॥
दिव्यं रसायनमिदं कृतवन्तावश्विनौ देवौ।
हलीमके आमलकावलेहः।
रसमामलकानां तु सुशुद्धं यन्त्रपीडितम्।
द्रोणं पचेत्तु मृद्वग्नौ तत्र चेमानि दापयेत्॥१३१॥
चूर्णितं पिप्पलीप्रस्थं मधुकद्विपलं तथा।
प्रस्थं गोस्तनिकायाश्च द्राक्षायाः कल्कपेषितम्॥१३२॥
शृङ्गवेरपले द्वे च तुगाक्षीर्याः पलद्वयम्।
तुलार्धं शर्करायाश्च तद्धनीभूतमुद्धरेत्॥१३३॥
मधुप्रस्थसमायुक्तं लेहयेत्पलसंमितम्।
हलीमकं कामलां च पाण्डुत्वं चापकर्षति॥२३४॥
कामलायां विडङ्गाद्यवलेहः।
विडङ्गत्रिफलामुस्तमधुकं कटुरोहिणी।
अयोरजो हरिद्रे च चित्रकं गुडशर्करा॥१३५॥
खदिरस्य कषायेण चूर्णान्येतानि साधयेत्।
मृद्वग्निसिद्धं तं लेहं लेहयेन्मधुसर्पिषा॥१३६॥
स लेहः कामलां हन्यादपि संवत्सरोत्थिताम्।
पाण्डुरोगं च नुदति श्वयथुं चापि पैत्तिकम्॥१३७॥
श्वासे हरीतक्यवलेहः।
भार्गीजटापलशतं सलिलार्मणाभ्यां
युक्तं च मूलतुलया12 सहितं विपाच्य।
पादस्थिते तु शतमत्र हरीतकीनां
पक्तव्यमुज्ज्वलगुडस्य शतेन सार्धम्॥१३८॥
उत्तार्य तत्र शिशिरे मधुनः पलानि
चत्वारि च त्रिगुणितानि पलत्रयं च।
व्योषं त्रुटित्वगिभकेसरपत्रकाणा–
मेषां पलं खलु निधेयमथोपयुज्य॥१३९॥
श्वासं सकासमपि शोषमथातिहिक्का
मेकाहिकं ज्वरमपीनसमुत्कटं च।
हन्याद्रसायनमिदं हि पुरन्दरस्य
प्रोक्तं सहस्रकरपुत्रभिषग्वराभ्याम्॥१४०॥
अर्शसि कुटजावलेहः।
कुटजत्वक्पलशतं जलद्रोणे विपाचयेत्।
चतुर्भागावशेषं तु कषायमुपकल्पयेत्॥१४१॥
वस्त्रपूतं पुनः क्वाथं पचेल्लेहत्वमागतम्।
भल्लातकं विडङ्गानि त्रिकटु त्रिफलां तथा॥१४२॥
रसाञ्जनं चित्रकं च कुटजस्य फलानि च।
वचामतिविषां बिल्वं प्रत्येकं तु पलं पलम्॥१४३॥
त्रिंशत्पलं गुडस्यात्र चूर्णीकृत्य प्रदापयेत्।
मधुनः कुडवं दद्याद्धृतस्य कुडवं तथा॥१४४॥
एष लेहस्तु शमयेदर्शो रक्तसमुद्भवम्।
वातिकं पैत्तिकं चैव श्लैष्मिकं सान्निपातिकम्॥१४५॥
ये च दुर्नामजा रोगास्तांश्च सर्वान् व्यपोहति।
रक्तपित्तमतीसारं पाण्डुरोगमरोचकम्॥१४६॥
ग्रहणीमार्दवं कार्श्यं श्वयथुं कामलामपि।
अनुपाने घृतं दद्याद्दधि तक्रं जलं पयः॥१४७॥
जीर्णे तु पथ्यभोजी स्यादर्शोभ्यः प्रविमुच्यते।
रोगानीकवधार्थाय कौटजो लेह उच्यते॥१४८॥
अर्शसि द्वितीयः कुटजावलेहः।
कुटजत्वचं विपाच्य पलशतमात्रां महेन्द्रसलिलेन।
यावत्स्याद्धि शृतस्तद्द्रव्यं स्वरसस्ततो ग्राह्यः॥१४९॥
मोचरसश्च समङ्गा फलिनी च पलांशकास्त्रिभिस्तैश्च।
वत्सकबीजं तुल्यं चूर्णीकृतमत्र दातव्यम्॥१५०॥
पूतः क्वथितः सान्द्रः स रसो दर्वीप्रलेपको ग्राह्यः।
मात्रा कालोपहिता रसक्रियैषा जयति रक्तम्॥१५१॥
छगलीपयसा युक्ता पेयामण्डेन वा यथाग्निबलम्।
जीर्णौषधश्च शालीन् पयसा छागेन भुञ्जीत॥१५२॥
रक्तार्शांस्यतिसारं रक्तं सासृग्दरं निहन्त्याशु।
बलवच्च रक्तपित्तं रसक्रियैषा ह्युभयभागम्॥१५३॥
अर्शसि कुटजाष्टकोऽवलेहः।
तुलामथार्द्रांगिरिमल्लिकायाः संक्षुद्य पक्त्वा रसमाददीत।
तस्मिन्सुपूते पलसंमितानि श्लक्ष्णानि पिष्टा सह शाल्मलेन॥१५४॥
पाठा समङ्गाऽतिविषा समुस्ता बिल्वं च पुष्पाणि च धातकीनाम्।
प्रक्षिप्य भूयो विपचेत्तु तावद्दर्वीप्रलेपस्तु रसस्तु यावत्॥१५५॥
पीतस्त्वसौ कालविदा जलेन मण्डेन वाऽजापयसाऽथवापि।
निहन्ति सर्वं त्वतिसारमुग्रं कृष्णं सितं लोहितपीतकं वा॥१५६॥
दोषं ग्रहण्या विविधं च रक्तं पित्तं तथाऽर्शांसि सशोणितानि।
असृग्दरं चैवमसाध्यरूपं निहन्त्यवश्यं कुटजाष्टकोऽयम्॥१५७॥
ग्रहण्यां मधुपाकविधिः।
पाठाऽजमोदा मधुकं समङ्गा मुस्ता जलोशीरविडङ्गधान्यम्।
बिल्वाग्निशुण्ठीमगधाः सरोध्रश्यामाः कुधात्री करिकुङ्कुमं च॥१५८॥
जम्ब्वाम्रयोरस्थि सवल्कलं च सर्वाणि चैतानि पलांशकानि।
द्रोणे जलस्य प्रपचेत्कषायमष्टावशेषं सितवस्त्रपूतम्॥१५९॥
क्षौद्रं क्षिपेदष्टपलप्रमाणं पलार्धनागाह्वयचन्दनैलाः।
सहैव संमर्द्यविधाय चूर्णं क्षौद्रान्वितं तच्च पुनर्विपाच्यम्॥१६०॥
उत्तार्य लेहं घृतभाजने च निधापयेत्सप्त दिनानि गुप्तम्।
तं पाययेद्व्याधिबलं समीक्ष्य जयेच्च सर्वान् ग्रहणीविकारान्।
अरोचकं जीर्णमथातिसारं तृष्णाम्लपित्तं वमिहृद्ग्रहंच॥१६१॥
कासे कण्टकार्यवलेहः।
समूलफलशाखां तु कुट्टयेत्कण्टकारिकाम्।
तां पचेत्सलिलद्रोणे चतुर्भागावशेषिताम्॥१६२॥
कषायं तं परिस्राव्य पुनरग्नावधिश्रयेत्।
घृतं च युक्त्या दातव्यं कल्कं चैव प्रदापयेत्॥१६३॥
दुरालभा छिन्नरुहा त्र्यूषणं चित्रकं तथा।
रास्ना कर्कटशृङ्गी च पिप्पलीमूलमेव च॥१६४॥
एतान्येकपलीकानि तथा फाणितशर्कराम्।
पलानां विंशतिं दत्त्वा तं लेहं सान्द्रमुद्धरेत्॥१६५॥
शीते दद्यात्पिप्पलीनां चूर्णं तत्तु गुडोन्मितम्।
तुगाक्षीर्यास्तु कुडवं मधुनः कुडवं तथा॥१६६॥
तं लिह्यान्मात्रया लेहं पञ्चकासनिवारणम्।
हृद्रोगानाहहिक्काश्च श्वासं चैवापकर्षति॥१६७॥
शोषे निदिग्धिकाद्योऽवलेहः।
निदिग्धिकापलशतं तदर्धं ग्रन्थिकस्य च।
चित्रकस्य तदर्धं च दशमूलं च तत्समम्॥१६८॥
द्रोणद्वयेऽम्भसः क्वाथ्यमष्टभागावशेषितम्।
पूते क्षिपेत्तदर्धं तु पुराणस्य गुडस्य च॥१६९॥
सर्वमेकत्र कृत्वा तु लेहवत्साधु साधयेत्।
अष्टौ पलानि पिप्पल्यस्त्रिजातत्रिपलं तथा॥१७०॥
मरिचानां पलं चैकं सर्वमेकत्र चूर्णयेत्।
मधुनः कुडवं दत्त्वा भक्षयेत यथाबलम्॥१७९॥
स्वरबुद्धिकरं चैव प्रतिश्यायहरं परम्।
कासश्वासाग्निमान्द्यार्शोगुल्ममेहगलामयान्॥१७२॥
आनाहमूत्रकृच्छ्रांश्च हन्याद्ग्रन्थ्यर्बुदानि च।
उदावर्ते पटोलामूलावलेहः।
पटोलमूलं रजनीं त्रिफलां चतुरङ्गुलम्॥१७३॥
नीलिनीं त्रिवृतां दन्तीं कृमिघ्नं सपुनर्नवाम्।
कटुकां सातलां रोध्रं भागान्दशपलोन्मितान्॥१७४॥
दत्त्वा द्रोणचतुष्कं तु सलिलं पादशेषितम्।
तैलस्य कुडवं तत्र गुडस्य तु शतं तथा॥१७५॥
त्रिवृच्चूर्णपलान्यष्टौ लेहवत्साधु साधयेत्।
चूर्णीकृतं क्षिपेत्तत्र व्योषस्य पलपञ्चकम्॥१७६॥
पलत्रयं त्रिजातस्य दत्त्वा संघट्टयेत्पुनः।
ततो यथाबलं खादेत्पलार्धंपिचुमेव वा॥१७७॥
नाहारे यन्त्रणा काचिन्न विहारे तथैव च।
उदावर्तविबन्धार्शोगुल्मपाण्डूदरकृमि-॥१७८॥
कुष्ठमेहारुचिहरो विड्विबन्धेषु शस्यते।
लेहः पटोलमूलाख्यः सर्वकर्मसु युज्यते॥१७९॥
मुखरोगे दार्व्यवलेहः।
दार्व्यास्तु मूलार्धतुलां जलस द्रोणे शृतां पूतचतुर्थशेषाम्।
भूनिम्बदार्वीखदिरारिमेदैः पुनर्विपक्वंपलिकैश्चतुर्भिः॥१८०॥
पूतं ततो गैरिकचूर्णपादं मन्दानले तच्च पुनर्विपक्वम्।
सन्नीय शीतं मधुशर्कराभ्यां सदा प्रयोज्यं घृतभाजनस्थम्॥१८१॥
नानाप्रकारेषु मुखामयेषु सुदारुणेषूग्ररुजेषु चैव।
प्रशीर्णजीर्णेष्वबलद्विजेषु कृच्छ्रेषु दुष्टेषु व्रणेषु चैव॥१८२॥
कल्पोऽयमिष्टो मधुकस्य चैव प्रपौण्डरीकस्य वृषस्य चैव।
जातीरिमेदत्रिफलासमङ्गारोध्रस्य जम्बोः खदिरस्य चैव॥१८३॥
नागराद्योऽवलेहः।
नागरस्य पलान्यष्टौ घृतस्य पलविंशतिः।
क्षीरद्विप्रस्थसंयुक्तं खण्डस्यार्धशतं तथा॥१८४॥
व्योषं त्रिजातकं चैव पलांशमुपकल्पयेत्।
बल्यं च वर्ण्यमायुष्यं वलीपलितनाशनम्॥१८५॥
आमवातप्रशमनं सौभाग्यकरमुत्तमम्।
कासे कसेर्वाद्योऽवलेहः।
कसेरोस्तु तुलार्धं हि द्विद्रोणेऽपां विपाचयेत्॥१८६॥
द्रोणार्धशेषे पूते च दद्याद्गुडतुलां तथा।
सर्पिषः कुडवं दद्याल्लेहवत्साधु साधयेत्॥१८७॥
चतुष्पलं तु व्योषस्य त्रिजातं त्रिपलं तथा।
पलद्वयं केसरस्य चूर्णं कृत्वा विनिःक्षिपेत्॥१८८॥
तद्यथाग्निबलं खादेत्कासकृमिज्वरापहः।
हृत्पाण्डुरोगवैवर्ण्यदौर्बल्यानाहनाशनः॥१८९॥
कसेरुकावलेहोऽयं स्वरपुष्टिविवर्धनः।
अर्शसि भल्लातकावलेहः।
चित्रकं त्रिफला मुस्तं ग्रन्थिकं चविकाऽमृता॥१९०॥
हस्तिपिप्पल्यपामार्गदण्डोत्पलकुठेरकाः।
एषां चतुष्पलान् भागान् जलद्रोणे विपाचयेत्॥१९१॥
भल्लातकसहस्रे द्वे छित्त्वा तत्रैव दापयेत्।
तेन पादावशेषेण लोहपात्रे पचेद्भिषक्॥१९२॥
तुलार्धं तीक्ष्णलोहस्य घृतस्य कुडवद्वयम्।
त्र्यूषणं त्रिफलावह्निसैन्धवं बिडमौद्भिदम्॥१९३॥
सौवर्चलं विडङ्गं च पलिकांशान् प्रकल्पयेत्।
कुडवं वृद्धदारस्य तालमूल्यास्तथैव च॥१९४॥
सूरणस्य पलान्यष्टौ चूर्णं कृत्वा विनिक्षिपेत्।
सिद्धशीते प्रदातव्यं मधुनः कुडवद्वयम्॥१९५॥
प्रातर्भोजनकाले च ततः खादेद्यथाबलम्।
अर्शांसि ग्रहणीदोषं पाण्डुरोगमरोचकम्॥१९६॥
कृमिगुल्माश्मरीमेहांश्छूलं चाशु व्यपोहति।
करोति शुक्रोपचयं वलीपलितनाशनम्॥१९७॥
रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम्।
पीनसे चित्रकावलेहः।
वह्निद्विपञ्चमूलस्य क्वाथे पलशतद्वये॥१९८॥
अमृताया रसस्यैके13 पूतेऽस्मिन्नभयाशतम्।
पचेद्गुडतुलां तावद्यावदापाकलक्षणम्॥१९९॥
अन्येद्युस्तत्र मधुनः सुशीते कुडवद्वयम्।
प्रक्षिपेत्त्रिसुगन्धस्य त्रिकटोश्च पलद्वयम्॥२००॥
प्रत्येकं स्याद्यवक्षारः शुक्तिस्तस्मिन्नसायने।
उत्तमं कथितं पुंसामश्विभ्यामनिवृद्धये॥२०१॥
जीर्यन्त्यपि च काष्ठानि कासश्वासक्षयकृमीन्।
गुल्मोदरार्शःकुष्ठं च जयेच्छोषं भगन्दरम्॥२०२॥
योगशतैरप्यजितं त्र्यहाज्जयति पीनसम्।
रक्तपित्ते खण्डखाद्योऽबलेहः।
शतावरीच्छिन्नरुहावृषमुण्डितिकाभयाः॥२०३॥
तालमूली च गायत्री त्रिफलायास्त्वचस्तथा।
भार्गींं पुष्करमूलं च पृथक्पञ्च पलानि च॥२०४॥
जलद्रोणे विपक्तव्यमष्टभागावशेषितम्।
दिव्यौषधिहतस्यापि माक्षिकेण हतस्य वा॥२०५॥
पलद्वादशकं देयं रुक्मलोहस्य चूर्णितम्।
खण्डं घृतं समं देयं पलषोडशकं बुधैः॥२०६॥
पचेत्ताम्रमये पात्रे गुडपाको मतो यथा।
प्रस्थार्धं मधुनो देयं शुभाश्मजतुकं त्वचम्॥२०७॥
शृङ्गी विडङ्गं कृष्णा च शुण्ठ्यजाजी पलं पलम्।
त्रिफला धान्यकं पत्रं त्र्यक्षं मरिचकेसरम्॥२०८॥
चूर्णं दत्त्वा सुमथितं स्निग्धे भाण्डे निधापयेत्।
यथाकालं प्रयुञ्जीत बिडालपदकं ततः॥२०९॥
गव्यक्षीरानुपानं च सेव्यं मांसरसं पयः।
गुरुवृष्यान्नपानानि स्निग्धं मांसादिबृंहणम्॥२१०॥
रक्तपित्तं क्षयं कासं पक्तिशूलं तथैव च।
वातरक्तं प्रमेहं च शीतपित्तं वमिं क्लमम्॥२११॥
श्वयथुं पाण्डुरोगं च कुष्ठं प्लीहोदरं तथा।
आनाहं मूत्रसंस्रावमम्लपित्तं निहन्ति च॥२१२॥
चक्षुष्यं बृंहणं वृष्यं मङ्गल्यं प्रीतिवर्धनम्।
आरोग्यपुत्रदं श्रेष्ठं कायाग्निबलवर्धनम्॥२१३॥
श्रीकरं लाघवकरं खण्डखाद्यं प्रकीर्तितम्।
छागं पारावतं मांसं तित्तिरिः कृकरः शशः॥२१४॥
कुलिङ्गः कृष्णसारश्च तेषां मांसानि योजयेत्।
नालिकेरपयःपानं सुनिषण्णंकवासुकम्॥२१५॥
शुष्कमूलकजीवाख्यं पटोलं बृहतीफलम्।
फलं वार्ताकपक्वाम्रं खर्जूरं स्वादुदाडिमम्॥२१६॥
ककारपूर्वकं यच्च मांसं चानूपसंभवम्।
वर्जनीयं विशेषेण खण्डखाद्यं प्रकुर्वता॥२१७॥
रक्तपित्ते द्वितीयो वासावलेहः।
तुलामादाय वासायाः पचेदष्टगुणे जले।
तेन पादावशेषेण पाचयेदाढकं भिषक्॥२१८॥
चूर्णानामभयानां तु खण्डाच्छुद्धाच्छतं तथा।
द्वे पले पिप्पलीचूर्णात्सिद्धशीते च माक्षिकात्॥२१९॥
कुडवं पलमानं तु चातुर्जातं सुचूर्णितस्।
क्षिप्त्वा विलोडितं खादेद्रक्तपित्ती यथाबलम्॥२२०॥
श्वासकासक्षतच्छर्दीन् यक्ष्माणं च नियच्छति।
श्वासकासयोर्भार्गीगुडावलेहः।
शतं संग्राह्य भार्ग्यास्तु दशमूल्यास्तथा परम्॥२२१॥
शतं हरीतकीनां च पचेत्तोये चतुर्गुणे।
पादशेषे च तस्मिंस्तु रसे वस्त्रपरिस्रुते॥२२२॥
आलोड्य च तुलां पूतां गुडस्य त्वभयां ततः।
पुनः पचेत्तु मृद्वग्नौ यावल्लेहत्वमागतम्॥२२३॥
शीते तु मधुनश्चात्र षट्पलानि प्रदापयेत्।
त्रिकटु त्रिसुगन्धं च पालिकं च पृथक् पृथक्॥२२४॥
कर्षद्वयं यवक्षारं संचूर्ण्य प्रक्षिपेत्ततः।
भक्षयेदभयामेकां लेहस्यार्धपलं लिहेत्॥२२५॥
श्वासं सुदारुणं हन्ति कासं पञ्चविधं तथा।
स्वरवर्णप्रदो ह्येष जठरानलदीपनः॥२२६॥
हरीतकीशतैकस्य वारिप्रस्थमिहाधिकम्।
श्वासकासयोः कुलत्थगुडावलेहः।
कुलत्थो दशमूलं च तथैव द्विजयष्टिका॥२२७॥
शतं शतं च संग्राह्य चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्।
अष्टभागावशेषे तु गुडस्यार्धतुलां क्षिपेत्॥२२८॥
शीतीभूते च पक्वे च मधुनोऽष्टौ पलानि च।
पलानि षट् तुगाक्षीर्याः पिप्पल्या द्वे पले तथा॥२२९॥
त्रिसुगन्धिसुगन्धं तं खादेदग्निबलं प्रति।
श्वासं कासं ज्वरं हिक्कां नाशयेत्तमकं तथा॥२३०॥
मानसान्निध्यसंवादाद्द्विपलं त्रिसुगन्धिनः।
श्वासकासयोः पिप्पलीगुडावलेहः।
पिप्पली मधुसंयुक्ता मेदःकफविनाशिनी॥२३१॥
श्वासकासज्वरहरा पाण्डुप्लीहोदरापहा।
कासाजीर्णरुचिश्वासहृत्पाण्डुकृमिरोगिषु॥२३२॥
जीर्णज्वरेऽग्निसादे च शस्यते गुडपिप्पली।
अतिसारे कुटजावलेहः।
कुटजस्य तुलां दत्त्वा चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्॥२३३॥
द्रोणशेषे रसे तस्मिन्पूते गुडतुलार्धकम्।
घृतस्य कुडवं तत्र क्षिप्त्वा मृद्वग्निनापचेत्॥२३४॥
प्रतिवापे च देयानि द्रव्याण्येतानि धीमता।
समङ्गा बिल्वपेशी च मज्जा जम्ब्वाम्रसंभवा॥२३५॥
पिप्पली चाजमोदं च शुण्ठीमरिचवत्सकम्।
मुस्ता भल्लातकं रोध्रं धातकी गजपिप्पली॥२३६॥
अम्बष्ठा वालकं चैव द्वे बृहत्यौ सचित्रकौ।
षड्ग्रन्था पिप्पलीमूलं विडङ्गानि हरीतकी॥२३७॥
नागकेसरयष्टीकारलुत्वक्पत्रकेसरम्।
विषा चेन्द्रयवाः पाठा सूक्ष्मैला जीरकद्वयम्॥२३८॥
एभिः कर्षसमैर्भागैर्लेहवत्संप्रसाधयेत्।
मधुनः कुडवं सिद्धे शीते तस्मिन्विनिक्षिपेत्॥२३९॥
अपेक्ष्य कायाग्निबलं मात्रया योजयेद्भिषक्।
तक्रेण वा सतक्रं वा भोजनं हितमिष्यते॥२४०॥
एतद्धि ग्रहणीरोगमतीसारान् सुदारुणान्।
प्रवाहिकां निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा॥२४१॥
अतीसारे कुटजावलेहः।
शतं कुटजमूलस्य क्षुण्णं तोयार्मणे पचेत्।
क्वाथे पादावशेषेऽस्मिन्पूते लेहं पुनः पचेत्॥२४२॥
सौवर्चलयवक्षारबिडसैन्धवपिप्पली-।
धातकीन्द्रयवाजाजीचूर्णं दत्त्वा पलद्वयम्॥२४३॥
लिह्याद्बदरमात्रं तु शीतं क्षौद्रेण संयुतम्।
पक्वापक्वमतीसारं नानावर्णं सवेदनम्॥२४४॥
दुर्वारं ग्रहणीदोषं जयेच्चैव प्रवाहिकाम्।
अर्शस्सुकुटजावलेहः।
कुटजत्वक्तुलां द्रोणे पचेदष्टांशशेषितम्॥२४५॥
कल्कीकृत्य क्षिपेत्तत्र तार्क्ष्यशैलं कटुत्रिकम्।
रोध्रद्वयं मोचरसं बालदाडिमजां त्वचम्॥२४६॥
बिल्वं कर्कटिकां मुस्तं समङ्गांधातकीफलम्।
पलोन्मितं दशपलं कुटजस्यैव च त्वचः॥२४७॥
विंशतिः सर्पिषः पूते पलानि त्रिंशतिर्गुडात्।
तत्पक्वंलेहतां यातं धान्ये पक्षस्थितं लिहन्॥२४८॥
सवातं ग्रहणीदोषं कासश्वासं निबर्हति।
जरायां च्यवनप्राशावलेहः।
बिल्वाग्निमन्थश्योनाककाश्मर्यः पाटला बला॥२४९॥
पर्ण्यश्चतस्रः पिप्पल्यः श्वदंष्ट्रा बृहतीद्वयम्।
श्रृङ्गी तामलकी द्राक्षा जीवन्ती पुष्करागुरु॥२५०॥
अभया चामृता मुस्ता जीवकर्षभकौशठी।
ऋद्धिः पुनर्नवा मेदा सेव्यं चन्दनमुत्पलम्॥२५१॥
विदारी वृषमूलानि काकोली काकनासिका।
एषां पलोन्मितान् भागान् शतान्यामलकस्य च॥२५२॥
पञ्च दद्यात्तदैकध्यं जलद्रोणे विपाचयेत्।
ज्ञात्वा गतरसान्येतान्यौषधान्यथ तं रसम्॥२५३॥
तच्चामलकमुद्धृत्य निष्कुलं तैलसर्पिषोः।
पलद्वादशके भृष्ट्वा दद्याच्चार्धतुलां भिषक्॥२५४॥
मत्स्यण्डिकायाः शुद्धाया लेहवत्साधु साधयेत्।
षट्पलं मधुनश्चात्र सिद्धशीते प्रदापयेत्॥२५५॥
चतुष्पलं तुगाक्षीर्याः पिप्पल्या द्विपलं तथा।
पलमेकं निदध्याच्च त्वगेलापत्रकेसरात्॥२५६॥
इत्ययं च्यवनप्राशः परमुक्तो रसायनः।
कासश्वासहरश्चैष विशेषेणोपदिश्यते॥२५७॥
क्षीणक्षतानां वृद्धानां बालानां चाङ्गवर्धनः।
स्वरक्षयसुरोरोगं हृद्रोगं वातशोणितम्॥२५८॥
पिपासां मूत्रशुक्रस्थान्दोषांश्चाप्यपकर्षति।
अस्य मात्रां प्रयुञ्जीत योपरुध्यान्न भोजनम्॥२५९॥
अस्य प्रयोगाच्च्यवनः सुवृद्धोऽभूत्पुनर्युवा।
मेधां स्मृतिं कान्तिमनामयत्वमायुःप्रकर्षं बलमिन्द्रियाणाम्।
स्त्रीषु प्रहर्षं परमग्निवृद्धिं वर्णप्रसादं पवनानुलोम्यम्॥२६०॥
रसायनस्यास्य नरः प्रयोगाल्लभेत जीर्णोऽपि कुटीप्रवेशात्।
जराकृतं रूपमपास्य सर्वं बिभर्ति रूपं नवयौवनस्य॥२६१॥
जरायां ब्राह्मरसायनावलेहः।
पञ्चानां पञ्चमूलानां भागान्दशपलोन्मितान्।
हरीतकीसहस्रं च त्रिगुणामलकं नवम्॥२६२॥
विदारिगन्धां बृहतीं पृष्ठिपर्णीं निदिग्धिकाम्।
विद्याद्विदारिगन्धाद्यं श्वदंष्ट्रापञ्चमं गणम्॥२६३॥
बिल्वोऽग्निमन्थः स्योनाकः काश्मर्यः पाटलिस्तथा।
पुनर्नवा सूर्पपर्ण्यौबला चैरण्ड एव च॥२६४॥
जीवकर्षभकौ वीरा जीवन्ती सशतावरी।
शरेक्षुदर्भकासानां शालीनां मूलमेव च॥२६५॥
एतेषां पञ्चमूलानां पञ्चानामुपकल्पयेत्।
भागान्यथोक्तान् तत्सर्वं साध्यं दशगुणेऽम्भसि॥२६६॥
दशभागावशेषं तु पूतं तद्ग्राहयेद्रसम्।
हरीतक्यश्च ताः सर्वाः सर्वाण्यामलकानि च॥२६७॥
तानि सर्वाण्यनस्थीनि फलान्यापोथ्य कूर्चकैः।
विनीयतस्मिन्निर्युहे चूर्णानीमानि दापयेत्॥२६८॥
मण्डूकपर्ण्याःपिप्पल्याः शङ्खपुष्प्याः प्लवस्य च।
मुस्तानां सविडङ्गानां चन्दनागुरुणोस्तथा॥२६९॥
मधुकस्य हरिद्राया वचायाः कनकस्य च।
भागान् पञ्चपलान्कृत्वा सूक्ष्मैलायास्त्वचस्तथा॥२७०॥
सितोपलासहस्रं च चूर्णितं तुलयाधिकम्।
तैलं स्याद्व्याढकं तत्र तथा त्रीणि च सर्पिषः॥२७१॥
साध्यं ताम्रमये पात्रे तत्सर्वं मृदुनाऽग्निना।
ज्ञात्वा लेहमदग्धं च शीतं क्षौद्रेण संसृजेत्॥२७२॥
क्षौद्रप्रमाणं स्नेहार्धं तत्सर्वं घृतभाजने।
तिष्ठेत्संमूर्छितं तस्य मात्रां काले प्रयोजयेत्॥२७३॥
या नोपरुन्ध्यादाहारमेवं मात्रा तु सा स्मृता।
षष्टिकः पयसा चात्र जीर्णे भोजनमिष्यते॥२७४॥
वैखासना वालिखिल्यास्तथा चान्ये तपोधनाः।
रसायनमिदं प्राश्य बभूवुरमितायुषः॥२७५॥
मुक्त्वा जीर्णं वपुश्चाग्र्यमवापुस्तरुणं वयः।
वीततन्द्रा-क्लम-श्वासा निरातङ्काः समाहिताः॥२७६॥
मेधास्मृतिबलोपेताश्चिरकालं तपोधनाः।
ब्राह्मं तपो ब्रह्मचर्यं चेरुश्चात्यन्तनिष्ठया॥२७७॥
आयुष्कामः प्रयुञ्जानो ब्राह्मं हीदं रसायनम्।
दीर्घमायुर्बलं चाग्र्यं कामांश्च्छ्रेष्ठान्समश्नुते॥२७८॥
क्षतक्षीणेऽमृतप्राशावलेहः।
जीवकर्षभकौ वीरा जीवन्ती नागरं शठी।
पर्ण्यश्चतस्रो द्वे मेदे काकोल्यौ द्वे निदिग्धिके॥२७९॥
पुनर्नवे द्वे मधुकमात्मगुप्ता शतावरी।
ऋद्धिः पुरुषकं भार्गीमृद्विका बृहती तथा॥२८०॥
शृङ्गाटकी तामलकी पयस्या पिप्पली बला।
बदराक्षोटखर्जूरवातामाभिषुकाणि च॥२८१॥
फलानि चैवमन्यानि कल्कान्कुर्वीत कार्षिकान्।
धात्रीरसविदारीक्षुच्छागमांसरसान् पयः॥२८२॥
दत्त्वा प्रस्थोन्मितान् भागान् घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
प्रस्थार्धं मधुनः शीते शर्करार्धतुलां तथा॥२८३॥
ततो मात्रां प्रयुञ्जीत क्षीरमांसरसाशनः।
नष्टशुक्रक्षतक्षीणदुर्बलान् व्याधिकर्षितान्॥२८४॥
स्त्रीप्रसक्तान् कृशान्वर्णस्वरहीनांश्च बृंहयेत्।
कासहिक्काज्वरश्वासतृष्णादाहान् सपैत्तिकान्॥२८५॥
निहन्ति छर्दिमूर्च्छाहृद्योनिमूत्रामयापहम्।
लघुच्यवनप्राशोऽवलेहः।
बिल्वादिपञ्चमूलाब्दबलापर्णीचतुष्टयम्।
ऋद्धिकृष्णाशठीपथ्याजीवकर्षभकामृताः॥२८६॥
द्राक्षा पुनर्नवा मेदे जीवन्ती काकनासिका।
उत्पलैलाजशृङ्यश्च काकोली वृषचन्दनम्॥२८७॥
विदारीगोक्षुरव्याघ्रीपौष्करं च पलोन्मितम्।
शतानि पञ्च धात्र्याश्च जलद्रोणे विपाचयेत्॥२८८
पलद्वादशके भृष्ट्वा धात्रीस्तास्तैलसर्पिषोः।
सितार्धतुलया युक्ताः क्वाथं लौहे पुनः पचेत्॥२८९॥
द्वे पिप्पल्या पले वांश्याश्चत्वारः षट् च माक्षिकात्।
चातुर्जातपलं तस्मिन् सिद्धशीते नियोजयेत्॥२९०॥
हृद्रोगश्वासहृत्कासवातरक्तक्षयार्तिजित्।
सेव्योऽयं च्यवनप्राशः स्वर्योवृष्यो रसायनः॥२९१॥
शोषेऽमृतप्राशोऽवलेहः।
छागमांसरसक्षीरविदारीक्षुरसाढकम्।
धात्रीफलरसं चैव मृद्वीकानां रसं घृतम्॥२९२॥
पृथक्प्रस्थोन्मितैरेतैः पचेत्कर्षसमैर्भिषक्।
वाताममधुकाक्षोटशृङ्गाटककसेरुकाः॥२९३॥
परूषकं शठी भार्गीजीवन्ती च पुनर्नवा।
खर्जूरं पिप्पली शृङ्गी ह्यात्मगुप्ता सजीवका॥२९४॥
सिंही व्याघ्रपदी स्याच्च द्राक्षा तामलकी स्थिरा।
बदरं कदरं चैव जीवनीयानि यानि च॥२९५॥
तत्सिद्धं राजते पात्रे निधेयं साधु साधितम्।
प्रस्थार्घंमधुनः शीते शर्करार्धतुलां तथा॥२९६॥
त्वगेलापत्रमरिचचूर्णं चार्धपलोन्मितम्।
विनीय भक्षयेन्मात्रां लिह्याद्वापि यथाबलम्॥२९७॥
बलवर्णकरं वृष्यं बृंहणं स्वरबोधनम्।
कासश्वासारुचिं हन्यात्तृणमूर्छासृग्दरं तथा॥२९८॥
परं क्षीणक्षतहितं वन्ध्यापुत्रप्रदायि च।
अमृतप्राशनामेदममृतं देवतास्विव॥२९९॥
इति श्रीवैद्यसोठलग्रथिते गदनिग्रहेऽवलेहाधिकारः पञ्चमः संपूर्णः॥
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॥अथातः षष्ठ आसवाधिकारः प्रारभ्यते॥
कुमार्यासवः।
द्रोणमानं कुमार्यास्तु रसं भाण्डे निधापयेत्।
तुलार्धं दशमूलं तु तदर्धं पौष्करी जटा॥१॥
तत्समं धन्वयासं च चित्रार्धं च परिक्षिपेत्।
प्रस्थार्धममृता ज्ञेया तदर्धमभया तथा॥२॥
लोध्रकामलकं पथ्यं मञ्जिष्ठा च कलिद्रुमः।
चव्यं च कुष्ठमधुकं कपित्थं सुरदारुकम्॥३॥
कृमिशत्रुर्मागधिका भार्गीस्यादष्टवर्गकम्।
जीरकं क्रमुको रास्ना शठी रेणुकमेव च॥४॥
शृङ्गी निशा प्रियङ्गुश्च मांसी मुस्ता च सारिवा।
वासा वरी शक्रबीजं नागकेसरमेव च॥५॥
पुनर्नवा समांशानि षड्भिर्द्रोणर्जलस्य तु।
क्वाथयेदनया रीत्या चतुर्थांशं जलं नयेत्॥६॥
त्रिंशत्पला च मृद्वीका दन्तसंख्यापलं मधु।
गुडस्तुलाचतुष्कं च तदर्धा धातकी भवेत्॥७॥
पलद्वयं लवङ्गानि कङ्कोलं मलयोद्भवम्।
चातुर्जातं तथा कृष्णा मरिचं जातिपत्रकम्॥८॥
आकल्लकं जातिफलं कपिकच्छुश्च दीप्यकम्।
वचा खदिरसारश्च दहनं जीरकं तथा॥९॥
यवानी वालकं विश्वा मुस्ता धान्यं हरीतकी।
हपुषा तिन्तिडीकं च चूर्णमेषां प्रयोजयेत्॥१०॥
भाण्डे पुराणे सुस्निग्धे धूपिते गन्धभेषजैः।
कोष्ठसारे तथा तप्ते भूमौ मासं विनिःक्षिपेत्॥११॥
यो रोगी प्रातरुत्थाय पलमेकं तु भक्षयेत्।
धातुक्षयं जयेत्कासं श्वासं पञ्चविधं तथा॥१२॥
अर्शांसि वातरोगांश्च ग्रहणीपाण्डुकामलाः।
हलीमकमुदावर्तं गुल्मं पञ्चविधं जयेत्॥१३॥
आध्मानं कुक्षिशूलं च प्रत्याध्मानं गुदग्रहम्।
अष्ठीलिकां च हृद्रोगानेतान् व्याधीन्विनिर्जयेत्॥१४॥
कुमार्यासव इत्येष कथितः शूलपाणिना।
द्वितीयः कुमार्यासवः।
रसस्तुलार्धं कौमारस्तदर्धगुडमिश्रितः।
चातुर्जातलवङ्गानां सैन्धवस्य निशाद्वयोः॥१५॥
कुबेरकृष्णामरिचधातकीनां पलं पलम्।
पथ्याचूर्णं पलयुगं पलं चाकल्लकस्य तु॥१६॥
उग्रगन्धाजातिपत्रीविडङ्गानां पलं पलम्।
एकीकृत्य शुचौ भाण्डे पक्षमेकं निधापयेत्॥१७॥
पलार्धं भक्षयेन्नित्यं गुल्मोदावर्तनाशनः।
आध्मानं पार्श्वशूलं च जठरार्ति कफं हरेत्॥१८॥
मन्दाग्निं शमयेच्छ्वासं कासं हिक्कां क्षयं तथा।
यकृत्प्लीहं तथा शोफं नाशयत्येष सेवितः॥१९॥
नवविधा आसवयोनिः।
त्वक्पत्रकाण्डपुष्पाणि सारमूलफलानि च।
धान्यानि च सिता चापि नव आसवयोनयः॥२०॥
द्रव्यसंयोगतः संख्यातीताः पथ्यतमाश्च ते।
द्रव्याणां भेदतो वेदवसु(८४)संख्याः प्रकीर्तिताः॥२१॥
तद्यथा-
षड् धान्यासवाः।
सुरासौवीरमैरेयधान्यकाम्लतुषोदकाः।
समेदा रससंख्यास्ते आसवा धान्यतो मताः॥२२॥
षड्विंशतिः फलासवाः।
द्राक्षाखर्जूरकाश्मर्यजम्ब्वामलबिविभीतकैः।
धन्वराजादनैः पथ्यातृणशून्यपरूषकैः॥२३॥
कपित्थमृगलिण्डिकाकर्कन्धूबदरीफलैः।
पियालपनसप्लक्षन्यग्रोधोदुम्बरैः सह॥२४॥
कपीनपीलुबकुलाजमोदाशङ्खिनीफलैः।
शृङ्गाटाश्वत्थसंयुक्ताः षड्विंशाः फलतो मताः॥२५॥
एकादश मूलासवाः।
विदारिगन्धाश्वगन्धाकृष्णगन्धाशतावरी-।
श्यामोरुबूकदन्तीभिर्बिल्ववह्नित्रिवृत्समैः॥२६॥
मूलैरेकादशैते तु मुनिभिर्मूलतो मताः।
विंशतिः सारासवाः।
शालप्रियङ्गुस्यन्दनचन्दनखदिरार्जुनैश्च कदरयुतैः।
असनाश्वकर्णसप्तपर्णशमीशिंशिपासहितैः॥२७॥
अरिमेदतिन्दुकिणिहीशुक्तिशिरीषैश्च वञ्जुलसमेतैः।
धन्वनमधुकसारैर्विंशतिरात्रेयमुनिनोक्ताः॥२८॥
दश पुष्पासवाः।
पद्मोत्पलनलिनकुमुदसौगन्धिकपौण्डरीकशतपत्रैः।
पुष्पैर्मधूकजातैः प्रियङ्गुना धातकीकुसुमैः॥२९॥
दश पुष्पासवाः पूर्वं मुनिभिः परिकीर्तिताः।
चत्वारः काण्डासवाः।
चत्वारः काण्डकैः पुण्ड्रेक्षुकाण्डेक्ष्विक्षुवालिकैः॥३०॥
द्वौ पत्रासवौ।
पटोलकतमालाभ्यां द्वौ हि पत्रासवौ मतौ।
चत्वारस्त्वगासवाः।
तिल्वैलवालुक्रमुकैः सलोध्रैस्त्वक्कृता हिताः॥३१॥
शर्करासवः।
शर्करासवं एवैको द्रव्यसंयोगभागतः।
आसवानां विकल्पसंस्कारगुणाः।
विकल्पा बहुधा ज्ञेयाः संस्कारश्च यथाविधिः॥३२॥
स्वयोनिसंस्कृता ह्येते स्वं स्वं कर्म प्रकुर्वते।
संयोगसंस्कृतैर्देशकालमात्रस्वभावतः॥३३॥
पृथक्तेषां स्वभावांस्तु ज्ञात्वा कार्ये प्रयोजयेत्।
श्लोकद्वयमिहार्थे तु मुनिरात्रेय उक्तवान्॥३४॥
मनःशरीराग्निबलप्रदानामस्वप्नशोकारुचिनाशनानाम्।
हर्षप्रदानां प्रवरासवानामशीतिरुक्ता चतुरुत्तरैषा॥३५॥
शरीररोगप्रकृतौ मतानि तत्त्वेन चाहारविनिश्चयाय।
उवाच यज्जःपुरुषादिकेऽस्मिन्मुनिस्तथाग्र्याणि वरासवांश्च॥३६॥
वातव्याधौ विडङ्गासवः।
विडङ्गं पिप्पलीमूलं पाठा धात्र्येलवालुकम्।
कुटजत्वक्फलं रास्नां भार्गींं पञ्चपलोन्मितान्॥३७॥
अष्टद्रोणेऽम्भसः पक्त्वा द्रोणशेषं तु कारयेत्।
पूते शीते क्षिपेत्तसिन्माक्षिकस्य शतत्रयम्॥३८॥
धातक्या विंशतिपलं चूर्णं कृत्वा तु दापयेत्।
व्योषस्य तु पलान्यष्टौ त्रिजातद्विपलान्यपि॥३९॥
फलिनीहेमतोयानां सरोध्राणां पलं पलम्।
घृतभाण्डे समाधाय मासमेकं विधारयेत्॥४०॥
एष योगो हरत्येव प्रत्यष्ठीलाभगन्दरान्।
ऊरुस्तम्भाश्मरीमेहगण्डमालां सविद्रधिम्॥४१॥
आढ्यवातं हनुस्तम्भं विडङ्गाख्यो महासवः।
प्रमेहे रोध्रासवः।
रोध्रं शठी पुष्करमूलमेलां मूर्वांविडङ्गं त्रिफलां यवानीम्।
चव्यं प्रियङ्गुं क्रमुकं विशालां किराततिक्तं कटुरोहिणीं च॥४२॥
भार्गीनतं चित्रकपिप्पलीनां मूलं सकुष्ठातिविषां च पाठाम्।
कलिङ्गकान् केसरमिन्द्रसाह्वंनखं सपत्रं मरिचं प्लवं च॥४३॥
द्रोणेऽम्भसः कर्षसमानि पक्त्वा पूते चतुर्भागजलावशेषे।
रसेऽर्धमाषेमधुनः प्रदाय पक्षं निधेयो घृतभाजनस्थः॥४४॥
रोध्रासवोऽयं कफपित्तमेहान्क्षिप्रं निहन्याद्द्विपलप्रयोगात्।
पाण्ड्वामयार्शांस्वरुचिं ग्रहण्या दोषं किलासं विविधं च कुष्ठम्॥४५॥
प्रमेहे देवदार्वासवः।
देवदारुतुलार्धं तु वासायाः पलविंशतिः।
शक्राह्वदन्तीमञ्जिष्ठास्तगरं रजनीद्वयम्॥४६॥
रास्ना मुस्तं शिरीषं च कृमिघ्नं खदिरार्जुनौ।
भागान्दशपलान्कृत्वा गुडूच्याश्चित्रकस्य च॥४७॥
चन्दनस्य यवान्याश्च रोहिण्या वत्सकस्य च।
भागान् पञ्चपलानेतानष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत्॥४८॥
द्रोणशेषे कषाये तु पूते शीते प्रदापयेत्।
धातक्याः षोडशपलं माक्षिकस्य तुलात्रयम्॥४९॥
चतुःपलं त्रिजाताच्च व्योषस्य च पलद्वयम्।
पलद्वयं केसरस्य प्रियङ्गोश्च पलद्वयम्॥५०॥
घृतभाण्डे निदध्याच्च मासमेकं प्रयत्नतः।
प्रमेहान्मूत्रकृच्छ्रांश्च वातरोगान् सुदारुणान्॥५१॥
ग्रहण्यर्शोविकारांश्च देवदार्वासवो जयेत्।
कुष्ठे कनकारिष्टः।
खदिरकषायद्रोणं कुम्भे घृतभाविते समावाप्य।
पलिकां मात्रां क्षेप्यां कृत्वा तामेव सूक्ष्मचूर्णं तु॥५२॥
त्रिफलात्रिकटुकरजनीकतकत्वग्बाकुचीगुडूच्यश्च।
सविडङ्गमत्र मधुपलशतद्वयं प्रक्षिपेत्सर्वम्॥५३॥
धातकीपलान्यष्टौ क्वाथे चास्मिन्प्रदेयानि।
प्रातः प्रातस्तु पिबेन्नाशयति चिरोत्थितं कुष्ठम्॥५४॥
मासेन सर्वरोगान्निहन्ति च शोफमेहांश्च।
निर्जितकासश्वासो गुदकीलभगन्दरैर्विनिर्मुक्तः॥५५॥
कनकारिष्टं प्रपिबन्भवति पुमान्कनककान्तिश्च।
अर्शसि द्वितीयकनकारिष्टः।
नवस्यामलकस्यैकां कुर्याज्जर्जरितां तुलाम्।
कुडवांशश्च मागध्या विडङ्गं मरिचानि च॥५६॥
यवासः पिप्पलीमूलं क्रमुकं चव्यचित्रकौ।
मञ्जिष्ठैल्वालुकं रोध्रं पलिकान्युपकल्पयेत्॥५७॥
कुष्ठं दारुहरिद्रां च सुराह्वं सारिवाद्वयम्।
मुस्तमिन्द्रयवांश्चैव कुर्यादर्धपलोन्मितान्॥५८॥
चत्वारि नागपुष्पस्य पलान्यभिनवस्य च।
जलद्रोणद्वयेनैतत्साधयित्वाऽवतारयेत्॥५९॥
द्रोणावशेषे पूते च शीते तस्मिन्प्रदापयेत्।
मृद्वीकाद्व्याढकरसं शीतं निर्यूहसाधितम्॥६०॥
शर्करायाश्च शुद्धाया दद्याद्द्विगुणितां तुलाम्।
कुसुमस्वरसस्यैकमर्धप्रस्थं नवस्य च॥६१॥
त्वगेलाप्लवपत्राम्बुसेव्यक्रमुककेसरान्।
संचूर्णयित्वा मतिमान्कार्षिकान्संप्रदापयेत्॥६२॥
तत्सर्वं स्थापयेत्पक्षं सुचौक्षे घृतभाजने।
प्रलिप्ते सर्पिषा किंचिच्छर्करागुरुधूपिते॥६३॥
पक्षादूर्ध्वमरिष्टोऽयं कनको नाम विश्रुतः।
पेयः स्वांदुरसो हृद्यः प्रयोगाद्भक्तरोचकः॥६४॥
अर्शांसि ग्रहणीदोषमानाहमुदरं ज्वरम्।
हृत्पाण्डुरोगश्वयथुगुल्मवर्चोनिलग्रहान्॥६५॥
कासान्कफामयांश्चोग्रान्सर्वानेवापकर्षति।
वलीपलितखालित्यं दोषजं तु व्यपोहति॥६६॥
ग्रहण्यां दुरालभारिष्टः।
दुरालभाया द्विप्रस्थं प्रस्थमामलकस्य च।
मुष्टी चित्रकदन्त्योर्द्वे प्रत्यग्रं चाभयाशतम्॥६७॥
चतुर्द्रोणेऽम्भसः क्वाथ्यं शीतं द्रोणावशेषितम्।
गुडस्य द्विशतं पूतं मधुनः कुडवान्वितम्॥६८॥
तद्वत्प्रियङ्गोः पिप्पल्या विडङ्गानां च चूर्णकम्।
कुडवं घृतकुम्भस्थंपक्षादूर्ध्वं पिबेन्नरः॥६९॥
ग्रहणीपाण्डुरोगार्शःकुष्ठवीसर्पमेहनुन्।
स्वरवर्णकरश्चैव रक्तपित्तकफापहः॥७०॥
अर्शसि दन्त्यरिष्टः।
दन्तीचित्रकमूलानामुभयोः पञ्चमूलयोः।
भागान्पलांशानापोथ्य जलद्रोणे विपाचयेत्॥७१॥
त्रिपलं त्रिफलायाश्च दलानां तत्र दापयेत्।
रसे चतुर्थशेषे तु पूते शीते प्रदापयेत्॥७२॥
तुलां गुडस्य तत्तिष्ठेन्मासार्धं घृतभाजने।
तन्मात्रया पिबेन्नित्यमर्शोभ्यः स विमुच्यते॥७३॥
ग्रहणीपाण्डुरोगघ्नं वातवर्चोनुलोमनम्।
दीपनं चारुचिहरं दन्त्यरिष्टमिमं विदुः॥७४॥
अर्शसि अमयारिष्टः।
हरीतकीनां प्रस्थार्धं प्रस्थमामलकस्य च।
कपित्थानां दशपलं ततोऽर्धं चेन्द्रवारुणी॥७५॥
विडङ्गं पिप्पली रोध्रंमरिचं सैलवालुकम्।
द्विपलांशं जलस्यैतच्चतुर्द्रोणे विपाचयेत्॥७६॥
द्रोणशेषे रसे तस्मिन्पूते शीते प्रदापयेत्।
गुडस्य द्विशतं तिष्ठेत्तत्सर्वं घृतभाजने॥७७॥
पक्षादूर्ध्वं भवेत्पेया ततो मात्रा यथाबलम्।
अस्याभ्यासादरिष्टस्य गुदजा यान्ति संक्षयम्॥७८॥
ग्रहणीपाण्डुहृद्रोगप्लीहगुल्मोदरापहः।
कुष्ठशोफारुचिहरो बलवर्णाग्निवर्धनः॥७९॥
सिद्धोऽयमभयारिष्टः कामलाश्वित्रनाशनः।
कृमिग्रन्थ्यर्बुदव्यङ्गराजयक्ष्मज्वरान्तकृत्॥८०॥
ग्रहण्यां द्वितीयोऽभयारिष्टः।
हरीतकीदलप्रस्थं प्रस्थमामलकस्य च।
विशालायाः कपित्थस्य पाठाचित्रकमूलयोः॥८१॥
द्वे द्वे पले समापोथ्य द्विद्रोणे साधयेदपाम्।
पादशेषे च पूते च रसे तस्मिन्प्रदापयेत्॥८२॥
गुडस्यैकां तुलां वैद्यः संस्थाप्य घृतभाजने।
पक्षस्थितं पिबेन्नित्यं ग्रहण्यर्शोविकारनुत्॥८३॥
प्लीहहृत्पाण्डुरोगघ्नः कामलाविषमज्वरान्।
कासं श्वासमुदावर्तं फलारिष्टो व्यपोहति॥८४॥
प्रमेहे तृतीयोऽभयारिष्टः।
पलाष्टकांशा वर्षाभूदशमूलार्कचित्रकाः।
दन्तीश्यामात्रिवृद्रास्नाश्चैवं स्युस्त्रिफलाढका॥८५॥
अम्बुद्रोणाष्टके पक्त्वा पादशेषे रसे हृते।
द्वे गुडस्य तुले पूते तत्पश्चाद्धटके क्षिपेत्॥८६॥
गवां मूत्राढकं, प्रस्थौ द्वावयोरजसस्तथा।
विडङ्गं कुटजं कुष्ठं चित्रकं मरिचं वचा॥८७॥
संचूर्ण्य द्विपलान्यस्मिन्दत्त्वा मासस्थितं पिबेत्।
आभयोऽयमरिष्टेन्द्रो मेहार्शःकुष्ठशोफहा॥८८॥
प्लीहपाण्ड्वामयान् गुल्मान् जठराणि च नाशयेत्।
पाण्डुरोगे मण्डूरारिष्टः।
मण्डूरस्य तु शुद्धस्य तुलार्धंपरिकल्पितम्॥८९॥
तद्वल्लोहस्य पत्राणि तिलोत्सेधप्रमाणतः।
गुडाज्जीर्णात्तु पञ्चाशत्कोलप्रस्थत्रयं तथा॥९०॥
निकुम्भचित्रकाभ्यां च पले द्वे द्वे सुचूर्णिते।
पिप्पलीनां विडङ्गानां कुडवं कुडवं पृथक्॥९१॥
त्रींश्चापि त्रिफलाप्रस्थान् जलद्रोणे विपाचयेत्।
अर्धमासस्थितो धान्ये पेयोऽरिष्टः प्रमाणतः॥९२॥
दोषानुभयतः स्राव्य पाण्डुरोगं नियच्छति।
कृमीनर्शांसि कुष्ठं च कासश्वासकफामयान्॥९३॥
एषोऽरिष्टस्तु माण्डूरः शोफपाण्ड्वामयापहः।
क्षयरोगे पिप्पल्यरिष्टः।
पिप्पलीरोध्रमरिचपाठाधात्र्येलवालुकम्॥९४॥
चव्यचित्रकजन्तुघ्नक्रमुकोशीरचन्दनम्।
मुस्ताप्रियङ्गुलवलीहरिद्रामिशिपेलवम्॥९५॥
पत्रत्वक्कुष्ठतगरं नागकेसरसंयुतम्।
एषामर्धपलान् भागान् द्राक्षां षष्टिपलां क्षिपेत्॥९६॥
पलानि दश धातक्या गुडस्य च शतत्रयम्।
तोयद्रोणद्वये सिद्धो भवत्येष सुखावहः॥९७॥
ग्रहणीपाण्डुरोगार्शःकासगुल्मोदरापहः।
पिप्पल्यादिररिष्टोऽयं ज्वरारुचिविनाशनः14॥९८॥
शोफेऽष्टशतारिष्टः।
काश्मर्यधात्रीमरिचाभयाक्षक्षुद्राफलानां तु सपिप्पलीनाम्।
शतं शतं क्षौद्रगुडात् पुराणात्तुलां च कुम्भे मधुना प्रलिप्ते॥९९॥
सप्ताहमुष्णे द्विगुणं तु शीते स्थितं जलद्रोणयुतं पिबेन्ना।
शोफान्विबन्धान्कफवातजांश्च संहन्त्यरिष्टोऽष्टशतोऽग्निकृच्च॥१००॥
तक्रारिष्टः।
हपुषा सुषवी धान्यमजाजी कारवी शठी।
पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको गजपिप्पली॥१०१॥
यवानी चाजमोदा च तच्चूर्णं तक्रसंयुतम्।
मन्दाम्लकटुकं विद्वान् स्थापयेद्धृतभाजने॥१०२॥
व्यक्ताम्लकटुकं जातं तक्रारिष्टं मुखप्रियम्।
पाययेन्मात्रया कालेष्वन्नस्य तृषितं त्रिषु॥१०३॥
दीपनो रोचनो बल्यः कफवातानुलोमनः।
गुदश्वयथुकण्ठार्तिनाशनो बलवर्धनः॥१०४॥
अरोचके लघुचुक्रसन्धानम्।
गुडक्षौद्रारनालानां समस्तूनां यथोत्तरम्।
शंसन्ति द्विगुणान्भागान्सम्यक्चुक्रस्य सिद्धये॥१०५॥
यन्मस्त्वादि शुचौ भाण्डे सक्षौद्रगुडकाञ्जिकम्।
धान्यराशौ त्रिरात्रस्थं शुक्तं चुक्रंतदुच्यते॥१०६॥
मन्दाग्नौ बृहच्चुक्रसन्धानम्।
प्रस्थं तण्डुलतोयतस्तुषजलात्प्रस्थत्रयं चाम्लतः
प्रस्थार्धं दधितोऽथ मूलकपलान्यष्टौ गुडान्मानिका।
मान्यौ शोधितशृङ्गवेरशकलाद्द्वे सिन्धुजातात्पले
द्वे कृष्णोषणयोर्निशापलयुगं निःक्षिप्य भाण्डे दृढे॥१०७॥
स्निग्धे धान्ययवादिराशिनिहितं त्रीन्वासरान्वासयेत्
ग्रीष्मे तोयधरात्यये च चतुरो वर्षासु पुष्पागमे।
षट् शीतेऽष्टदिनान्यतः परमिदं विस्त्राव्य संचूर्णितै–
श्चातुर्जातपलैः सुसंहितमिदं शुक्तं च चुक्रंततः॥१०८॥
हन्याद्वातकफामदोषजनितान्नानाविधानामयान्।
दुर्नामानिलशूलगुल्मजठरान्हत्वाऽनलं दीपयेत्॥१०९॥
लवङ्गासवः।
लवङ्गपिप्पलीलोहमरिचं सैलवालुकम्।
द्विपलांशं जलस्यैतच्चतुोर्द्रोणे विपाचयेत्॥११०॥
द्रोणशेषे रसे तस्मिन्पूते शीते प्रदापयेत्।
गुडस्य द्विशतं तिष्ठेत्तत्सर्वं घृतभाजने॥१११॥
पक्षादूर्ध्वं जातरसे दद्यान्मात्रां यथाबलम्।
अस्याभ्यासादरिष्टस्य गुदजा यान्ति संक्षयम्॥११२॥
ग्रहणीपाण्डुहृद्रोगप्लीहगुल्मोदरापहः।
कुष्ठशोफारुचिहरो बलवर्णाग्निवर्धनः॥११३॥
सद्यः क्षयहरोऽरिष्टः कामलाश्वित्रनाशनः।
कृमिग्रन्थ्यर्बुदव्यङ्गराजयक्ष्मज्वरान्तकृत्॥११४॥
प्लीहे रोहीतकासवः।
रोहीतकशतमेकं क्वथितं द्रोणे चतुर्थशेषे तु।
तसिन्गुडशतमेकं योज्यं शेषैः सुचूर्णितैरेभिः॥११५॥
पलमेकं त्रिफलाया देयं त्रिपलं च धातकीपुष्पात्।
पलिकं च पञ्चकोलाद्धृतभाण्डे स्थापयेत्पक्षम्॥११६॥
ज्वरगुल्मार्शःप्लीहरुगस्थिग्रहपाण्डुरोगघ्नः।
अर्शस्सु गण्डिकाद्रोणः।
दद्यात्सलिलद्रोणं कृतमन्थेक्षुगण्डिकाद्रोणम्॥११७॥
धान्ययवानीदीप्यकपृथ्वीकाश्चेति कुडवांशाः।
द्विपलीनाः स्युर्देयास्तेजवतीचव्यचित्रकाजाज्यः॥११८॥
मधुनः कुडवं दत्त्वा घृतरूढे भाजने स्थाप्यः।
एष काञ्जिकराजो लवणयुतः कट्तृणार्द्रकसुगन्धः॥११९॥
दशरात्रात्पातव्यः सलिलं च पुनः पुनर्देयम।
अर्शोभगन्दरगदग्रहणीमेदःप्रमेहदोषांश्च॥१२०॥
नाशयति सेव्यमानो वह्निकरो गण्डिकाद्रोणः।
कुष्ठे खदिरासवः।
खदिरस्य तुलार्धं तु तत्तुल्यं देवदार्वपि॥१२१॥
वराया15 विंशतिर्दार्व्याःपलानां पञ्चविंशतिः।
बाकुच्या द्वादशपलान्यष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत्॥१२२॥
द्रोणशेषे कषाये तु पूते शीते विनिक्षिपेत्।
धातक्या विंशतिपलं माक्षिकस्य शतद्वयम्॥१२३॥
शर्करायास्तुलामेकां चूर्णानीमानि दापयेत्।
कङ्कोलकं लवङ्गं च एला जातीफलं त्वचम्॥१२४॥
केसरं मरिचं पत्रं पलिकान्युपकल्पयेत्।
पिप्पलीनां तु कुडवं स्थापयेद्धृतभाजने॥१२५॥
मासादूर्ध्वं पिबेन्मात्रामपेक्ष्याग्निबलाबलम्।
सर्वकुष्ठहरो ह्येष पाण्डुहृद्रोगकासनुत्॥१२६॥
कृमिग्रन्थ्यर्बुदग्रन्थिगुल्मप्लीहोदरान्तकृत्।
एष वै खदिरारिष्टः कृष्णात्रेयेण पूजितः॥१२७॥
कुष्ठे द्वितीयः खदिरारिष्टः।
खदिरस्य तुलामम्भसि विपचेच्चतुर्दोणसंमिते शेषम्।
पादं विगृह्य शीते दद्यान्मधुनस्तुलां सार्धाम्॥१२८॥
वस्त्रविपूते चूर्णं व्योषत्रिफलापिण्डखर्जूरी–।
स्वर्णत्वग्बाकुचिकामृताविडङ्गपलाशानाम्॥१२९॥
धातकिपलषोडशकं दत्त्वा प्रविलोडितं नित्यम्।
यावत्षोडशदिवसाः षोडशके मधुतुलां दद्यात्॥१३०॥
मासात्परतः पेयो दत्त्वा मृगनाभिमाषकं पटेबद्धम्।
कर्पूरमाषद्वयमेष खदिरासवो महाकुष्ठे॥१३१॥
क्षयरोगे बब्बुल्यासवः।
तुलाद्वयं तु बब्बुल्याश्चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्।
द्रोणशेषे रसे शीते गुडस्य त्रिशतं क्षिपेत्॥१३२॥
धातक्याः षोडशपलं पिप्पलीनां पलद्वयम्।
जातीलवङ्गकङ्कोलमेलात्वक्पत्रकेसरम्॥१३३॥
मरिचेन समायुक्तं पलिकांस्तत्र कल्पयेत्।
मासमात्रं स्थितो ह्येष बब्बुल्यासवसंज्ञितः॥१३४॥
क्षयं कुष्ठं प्रमेहांश्च कासश्वासांश्च नाशयेत्।
क्षयरोगे पुष्करमूलासवः।
तुलां पुष्करमूलस्य तदर्धं तु दुरालभा॥१३५॥
तदर्धेन तु धान्याकं व्योषाच्च पलविंशतिः।
मञ्जिष्ठाकुष्ठमरिचं कपित्थं देवदारु च॥१३६॥
रोध्रं कृमिघ्नं चविका पिप्पलीमूलमेव च।
उशीरकाश्मरिफलं रास्ना भार्ङ्गी च नागरम्॥१३७॥
एषां द्विपलिकान्भागांश्चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्।
द्रोणशेषे कषाये तु पूते शीते प्रदापयेत्॥१३८॥
गुडस्य त्रिशतं तत्र धातक्याः पलविंशतिः।
मरिचं केसरं श्यामामेलात्वपत्रकं पलम्॥१३९॥
पिप्पलीनां तु कुडवं चूर्णीकृत्य प्रदापयेत्।
घृतभाण्डे स्थितं मासं पिबेन्मात्रां यथाबलम्॥१४०॥
क्षयापस्मारकासासृक्शोफगुल्मभगन्दरान्।
पुष्करासव इत्येष प्रयोगादेव नाशयेत्॥१४१॥
क्षयरोगे माचिकासवः।
माचिकायाः शतार्धं तु द्रोणेऽपां च विपाचयेत्।
चतुर्थशेषे तस्मिंस्तु पूते शीते प्रदापयेत्॥१४२॥
गुडस्य द्विशतं दत्त्वा तत्सर्वं घृतभाजने।
विडङ्गपिप्पलीकृष्णात्वगेलापत्रकेसरैः॥१४३॥
मरिचैश्च तथा चूर्णं सम्यक्कृत्वा विचक्षणः।
क्षिपेच्च पालिकैर्भागैर्घटनीयं समन्ततः॥१४४॥
ततो यथाबलं पीत्वा कासश्वासगलामयान्।
हन्ति यक्ष्माणमत्युग्रमुरःसन्धानकारकः॥१४५॥
माचिकासव इत्येष ब्रह्मणा निर्मितः पुरा।
शोफे पुनर्नवासवः।
पुनर्नवे द्वे च पले सपाठे दन्ती गुडूची सह चित्रकेण।
निदिग्धिका च त्रिपलानि पक्त्वा द्रोणावशेषे सलिले ततस्तु॥१४६॥
पूत्वा रसं द्वे च तुले पुराणाद्गुडान्मधुप्रस्थयुतं सुशीतम्।
मासं निदध्याद्धृतभाजनस्थं पल्ले यवानां परतश्च मासात्॥१४७॥
चूर्णीकृतैरर्धपलांशकैस्तं हेमत्वगेलामरिचाम्बुपत्रैः।
गन्धान्वितं क्षौद्रघृतप्रदिग्धं जीर्णे पिबेद्व्याधिबलं समीक्ष्य॥१४८॥
हृत्पाण्डुरोगं श्वयथुं प्रवृद्धं प्लीहभ्रमारोचकमेहगुल्मान्।
भगन्दरार्शोजठराणि कासश्वासग्रहण्यामयकुष्ठकण्डूः॥१४९॥
शाखानिलं बद्धपुरीषतां च हिक्कां किलासं च हलीमकं च।
क्षिप्रं जयेद्वर्णबलायुरोजस्तेजोन्वितो मांसरसान्नभोजी॥१५०॥
शोफे त्रिफलारिष्टः।
फलत्रयं चित्रकपिप्पली च सदीप्यकं लोहरजो विडङ्गम्।
चूर्णीकृतं कौडविकं, द्विरंशं क्षौद्रं, पुराणस्य तुलां गुडस्य।
मासं निदध्याद्धृतभाजनस्थं यवेषु तानेव16 निहन्ति रोगान्॥१५१॥
सर्वशोफे वासकासवः।
वासकस्य तुले द्वे तु द्विद्रोणेऽपां विपाचयेत्।
द्रोणार्धशेषं तत्कृत्वा पूते शीते प्रदापयेत्॥१५२॥
गुडस्यैकां तुलां तत्र धातक्यास्तु पलाष्टकम्।
क्षिपेच्चूर्णीकृतं तस्मिन्त्वगेलापत्रकेसरम्॥१५३॥
कङ्कोलव्योषतोयानि पलिकान्युपकल्पयेत्।
सम्यक्पक्वंततो ज्ञात्वा पक्षादूर्ध्वं पिबेदमुम्॥१५४॥
वासकासव इत्येष सर्वश्वयथुनाशनः।
अर्शस्सुशर्करासवः।
दुरालभायाः प्रस्थं च चित्रकस्य वृषस्य च॥१५५॥
पथ्यामलकयोश्चैव पाठाया नागरस्य च।
दद्याद्द्विपलिकान्भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत्॥१५६॥
पादशेषे रसे पूते सुशीते शर्कराशतम्।
दत्त्वा कुम्भेदृढे स्थाप्यं मासार्धं घृतभाजने॥१५७॥
प्रलिप्ते पिप्पलीचव्यप्रियङ्गुमधुसर्पिषा।
तस्य मात्रां पिबेत्काले शार्करस्य यथाबलम्॥१५८॥
अर्शांसि ग्रहणीरोगमुदावर्तमरोचकम्।
शकृन्मूत्रानिलोद्गारविबन्धानग्निमार्दवम्॥१५९॥
हृद्रोगं पाण्डुरोगं च सर्वमेतत्प्रसाधयेत्।
ग्रहण्यां द्राक्षासवः।
मृद्वीकायाः पलशतं चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्॥१६०॥
द्रोणशेषे सुशीते च पूते तस्मिन्प्रदापयेत्।
द्वे शते क्षौद्रखण्डाभ्यां धातक्याः प्रस्थमेव च॥१६१॥
कङ्कोलकलवङ्गे च जातीफलमथैव च।
पलांशकानि मरिचत्वगेलापत्रकेसरम्॥१६२॥
पिप्पली चित्रकं चव्यं पिप्पलीमूलरेणुकम्।
घृतभाण्डे स्थितं चेदं चन्दनागुरुधुपिते॥१६३॥
कर्पूरवासितो ह्येष ग्रहणीदीपनः परः।
अर्शसां नाशनः श्रेष्ठ उदावर्तास्त्रपित्तनुत्॥१६४॥
जठरकृमिकुष्ठानि व्रणांश्च विविधांस्तथा।
अक्षिरोगशिरोरोगगलरोगविनाशनः॥१६५॥
ज्वरं हन्ति महाव्याधिं पाण्डुरोगं सकामलम्।
नाम्ना द्राक्षासवो ह्येष बृंहणो बलवर्णकृत्॥१६६॥
अर्शसि द्वितीयो द्राक्षासवः।
द्राक्षापलशतं दत्त्वा चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्।
द्रोणशेषे रसे तस्मिन्पूते शीते प्रदापयेत्॥१६७॥
शर्करायास्तुलां दत्त्वा तत्तुल्यं मधुनस्तथा।
पलानि सप्त धातक्याः स्थापयेदाज्यभाजने॥१६८॥
जातीलवङ्गकक्कोललवलीफलचन्दनैः।
कृष्णां त्रिगन्धसंयुक्तां भागैरर्धपलांशकैः॥१६९॥
त्रिःसप्ताहाद्भवेत्पेयं तत्र मात्रा यथाबलम्।
नाम्ना द्राक्षासवो ह्येष नाशयेद्गुदकीलकान्॥१७०॥
शोफारोचकहृत्पाण्डुरक्तपित्तभगन्दरान्।
गुल्मोदरकृमिग्रन्थिक्षतशोषज्वरान्तकृत्॥१७१॥
वातपित्तमशमनः शस्तश्च बलवर्णकृत्।
ग्रहण्यां बीजकासवः।
बीजकात्षोडशपलं त्रिफलायाश्च विंशतिः॥१७२॥
द्राक्षायाः पञ्च लाक्षायाः सप्त द्रोणे तथाऽम्भसि।
साध्यं पादावशेषे च पूतशीते प्रदापयेत्॥१७३॥
शर्करायास्तुलां प्रस्थं क्षौद्रं दद्याच्च कार्षिकम्।
व्योषव्याघ्रनखोशीरं क्रमुकं सैलवालुकम्॥१७४॥
मधुकं कुष्ठमित्येतच्चूर्णितं घृतभाजने।
यवेषु दशरात्रस्थं ग्रीष्मे, द्विः शिशिरे स्थितम्॥१७५॥
पिबेत्तद्ग्रहणीपाण्डुरोगार्शःशोफगुल्मनुत्।
मूत्रकृच्छ्राश्मरीकुष्ठकामलासन्निपातनुत्॥१७६॥
अर्शसि पील्वासवः।
द्रोणं पीलुरसस्य वस्त्रगलितं न्यस्तं हविर्भाजने।
युञ्जीत द्विपलैर्मदामधुफलाखर्जूरधात्रीफलैः।
पाठामाद्रिदुरालभाम्लविदुलव्योषत्वगेलोल्लकैः
स्पृक्काकोललवङ्गवेल्लचपलामूलाग्निकैः पालिकैः॥१७७॥
गुडशतविनियोजितं निवाते
निहितमिदं प्रपिबेच्च पक्षमात्रात्।
निशमयति गुदाङ्कुरान्सगुल्मा-
ननलबलं प्रबलं संविधत्ते॥१७८॥
रक्तपित्ते उशीरासवः।
उशीरं पद्मकं रोध्रं प्रियङ्गुं नीलमुत्पलम्।
प्रपौण्डरीकं काश्मीरं ह्रीबेरं धन्वयासकम्॥१७९॥
सेव्यं किराततिक्तं च पटोलं काञ्चनारकम्।
पद्मं शाल्मलिनिर्यासं न्यग्रोधोदुम्बरं शठीम्॥१८०॥
मञ्जिष्ठां पर्पटं जम्बूं भागानेतान्पलोन्मितान्।
सूक्ष्मचूर्णीकृतान् दद्याद्द्राक्षायाः पलविंशतिम्॥१८१॥
धातक्याः षोडशपलं तोयद्रोणे विनिक्षिपेत्।
शर्करायास्तुलां दत्त्वा माक्षिकस्य तुलां तथा॥१८२॥
उशीरासव इत्येष रक्तपित्तविनाशनः।
पाण्डुकुष्ठप्रमेहार्शःकृमिशोफहरस्तथा॥१८३॥
श्वासकासयोस्त्रायमाणासवः।
त्रायन्ती कट्फलं दन्ती पौष्करं कण्टकारिका।
दुरालभाऽञ्जनं सिंही पिप्पलीमूलमेव च॥१८४॥
धात्री कृमिहरं भार्ङ्गी माचिका चैलवालुकम्।
पथ्या शठी विशाला च भागानष्टपलोन्मितान्॥१८५॥
चतुर्दोणेऽम्भसः पक्त्वा शृतं द्रोणावशेषितम्।
धातक्या विंशतिपलं माक्षिकस्य शतत्रयम्॥१८६॥
श्यामापलानि चत्वारि एलात्वक्पत्रकेसरम्।
भागान्द्विपलिकानेषां चूर्णं कृत्वा विनिःक्षिपेत्॥१८७॥
त्रायमाणासवो ह्येष कासश्वासामयप्रणुत्।
पाण्डुहृद्रोगगुल्मार्शःसन्निपातज्वरापहः॥१८८॥
गुल्मे चविकासवः।
तुलार्धं चविकायास्तु तदर्धं चित्रकस्य च।
बाष्पिका पौष्करं मूलं षड्ग्रन्था हपुषा शठी॥१८९॥
पटोलमूलत्रिफलायवानीकुटजत्वचः।
विशाला धान्यकं रास्ना दन्ती दशपलोन्मिता॥१९०॥
कृमिघ्नमुस्तमञ्जिष्ठादवेदारुकटुत्रिकात्।
भागान्पञ्चपलानेतानष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत्॥१९१॥
द्रोणशेषे सुशीते च देयं गुडशतत्रयम्।
धातक्या विंशतिपलं चातुर्जातपलाष्टकम्॥१९२॥
लवङ्गव्योषकङ्कोलं पलिकानि प्रकल्पयेत्।
निदध्यान्मासमेकं तु घृतभाण्डे सुसंस्कृते॥१९३॥
चतुःपलां पिबेन्मात्रां प्रातः पीतो नियच्छति।
सर्वान्गुल्मविकारांश्च प्रमेहांश्चैव विंशतिः॥१९४॥
प्रतिश्यायं क्षयं कासमष्ठीलां वातशोणितम्।
उदराण्यन्त्रवृद्धिं च चविकाख्यो महासवः॥१९५॥
ग्रहण्यां मूलासवः।
द्विपञ्चमूलरजनीजीवकर्षभजीरकम्।
पृथक्पञ्चपलैर्भागैश्चतुर्द्रोणेऽम्भसः पचेत्॥१९६॥
द्रोणशेषे रसे पूते गुडस्य द्विशतं तथा।
चूर्णितान्कुडवार्धांशान्दत्त्वा चात्र समाक्षिकान्॥१९७॥
प्रियङ्गुमुस्तमञ्जिष्ठाविडङ्गमधुकप्लवान्।
रोध्रं सावरकं चैव मासार्धं स्थापयेद्भृशम्॥१९८॥
एष मूलासवः सिद्धो दीपनो रक्तपित्तहा।
आमहृत्कफहृद्रोगपाण्डुरोगाङ्गसादनुत्॥१९९॥
क्षयरोगे बृहन्मूलासवः।
महावृक्षवटार्काणां विनामूलैः17 परैः शुभैः।
अष्टोत्तरशतैरम्भस्त्रिंशद्धटमितं पचेत्॥२००॥
तुलात्रयप्रमाणं च दशमूल्यास्तथैव च।
अष्टावशेषमुत्तार्य गुडस्यानु दिनद्वयम्॥२०१॥
पलानां विंशतिशतं क्षिपेत्तच्च दृढे घटे।
आतपे तं विनिक्षिप्य धारयेत्त्रिदिनं ततः॥२०२॥
उद्धृत्य धूपिते पात्रे वस्त्रपूतं क्षिपेद्भिषक्।
धातकीं विंशतिपलां हरीतक्याः पलाष्टकम्॥२०३॥
पूगानां विंशतिपलं पिप्पल्याः पलपञ्चकम्।
एलालवङ्गकङ्कोलजातीत्वक्पत्रकेसरम्॥२०४॥
पलं पलं समरिचं चूर्णीकृत्य भिषग्वरः।
आसवे निक्षिपेत्तत्र मधुनः कुडवद्वयम्॥२०५॥
संजातेऽष्टदिने तस्मादुद्धृत्यान्यत्र तं न्यसेत्।
आसवे सकषाये तु गुडमन्यं प्रदापयेत्॥२०६॥
निष्कास्य पूर्वचूर्णं तु नवं तत्र नियोजयेत्।
नाम्ना मूलासवो ह्येष रोगराजनिकृन्तनः॥२०७॥
श्वासामवातविध्वंसी पाण्डुप्लीहोदरापहः।
कृमिगुल्मप्रमेहाणां नाशनो वह्निदीपनः॥२०८॥
धातुक्षये भृङ्गराजासवः।
भृङ्गराजरसद्रोणं गुडस्य द्वितुलां तथा।
हरीतकीनां प्रस्थार्धं स्निग्धे भाण्डे निवेशयेत्॥२०९॥
पक्षादूर्ध्वं पिबेदेनं मात्रया च यथाबलम्।
जाते ह्यस्मिन्पुनर्दत्त्वा पिप्पल्याश्च पलद्वयम्॥२१०॥
जातीफलं लवङ्गानि त्वगेलापत्रकेसरम्।
धातुक्षयं जयेत्पीतः कासं पञ्चविधं तथा॥२११॥
कृशानां च महापुष्टिं कुरुते च महाबलम्।
कामवृद्धिं करोत्येव वन्ध्यानां पुत्रदो भवेत्॥२१२॥
भगन्दरे गुग्गुल्वासवः।
शतं हरीतकीनां तु बिभीतकशतं तथा।
प्रस्थमामलकानां च गुग्गुलोश्च चतुष्पलम्॥२१३॥
त्वगेलापिप्पलीमूलचव्यचित्रकदीप्यकम्।
तालीसपत्रत्रिकटुमुस्तकेसरकट्फलम्॥२१४॥
जलद्रोणे विपक्तव्यं पादशेषे जले ततः।
धातक्याः प्रस्थमेकं तु तथा गुडशतद्वयम्॥२१५॥
द्राक्षादाडिमखण्डानां भागान्दशपलोन्मितान्।
सर्वमेतत्समालोड्य स्थापयेद्भाजने शुभे॥५१६॥
यदा युक्तरसः साच्च सुजातो गन्धवर्णतः।
तं पूरयेत्तदा भाण्डे सूक्तस्येक्षुरसस्य तु॥२१७॥
षण्माससंयुतो ह्येष द्रवो पेयः प्रयोगतः॥२१८॥
गुग्गुल्वासव इत्येष देयः सर्वेषु रोगिषु।
प्राग्भक्तं मध्यभक्तं वा ग्रासे ग्रासान्तरे तथा॥२१९॥
दद्यात्क्रमेण योगं तु वयःसात्म्यमपेक्ष्य च।
नाशयेदुदरं प्लीहामूरुस्तम्भं सकामलम्॥२२०॥
चिरोत्थितमपि श्वासं कासशोफभगन्दरान्।
कृमिकुष्ठप्रमेहेषु हितश्चैवाग्निदीपनः॥२२१॥
अर्शस्तु ताम्बूलासवः।
जतुसृतमादौ कृत्वा भाण्डकमर्धप्रवेशितं भूमौ।
तत्तरुणहरितजम्बूपत्रक्वाथेन संशुद्धम्॥२२२॥
शुद्धे च शर्कराभिरगरुं दद्यात्सुगन्धतरम्।
वासार्थं, धातक्याः पलानि खलु सप्त देयानि॥२२३॥
पूगीफलानि खदिरं दशपलिकानि दापयेत्तत्र।
ताम्बूलीपत्रशतैर्दशभिः क्षुण्णैश्च पञ्चभिश्चान्यैः॥२२४॥
पलशतमेकं मधुनः शतं च सार्धं तु वारिणो देयम्।
कङ्कोलककृष्णानां प्रत्येकं द्वे पले च स्युः॥२२५॥
त्रिफलाजातिफलैलालवङ्गकुसुमानि चैकपलिकानि।
दत्त्वाऽवलोड्यमेतत्त्रीणि दिनानि पाणिना पात्रे॥२२६॥
स भवेद्यदा सशब्दस्ततो गुडशतपलानि त्रीणि।
देयानि प्रविलीनमग्नियोगात्तं तु जलद्रोणसंयुक्तम्॥२२७॥
पक्षद्वयेन पेयो रसनाक्षिमनोहरः सुरभिगन्धः।
ताम्बूलासव एष रसायनानां भवेदग्र्यः॥२२८॥
प्रीणयति हन्ति गुदजान् सर्वांश्च कफोद्भवांस्तथा रोगान्॥२२९॥
वलवर्णशुक्रजननो ह्युपयोगादश्मरीं हन्यात्।
संवत्सरमुपयुक्तः स्थिरवयसं मानवं कुरुते॥२३०॥
अपस्मारे पञ्चमूत्रासवः।
अजागोसुरभीणां च चतुःकर्षं खरोष्ट्रयोः।
मूत्रं संग्राह्य कुम्भे च स्थाप्य चूर्णं प्रदापयेत्॥२३१॥
वचाया वातकुम्भस्य लशुनस्यैलया सह।
लवङ्गस्यापि प्रत्येकं पलार्धं कृमिनाशिनः॥२३२॥
व्योषस्यापि पलं सार्धमभयैकपला मता।
चुल्यग्रे वासरान्सप्त18निक्षिप्याशु समुद्धरेत्॥२३३॥
प्लीहोदरहरं दिव्यं मूढवातकफापहम्।
अशीतिवातशमनं पञ्चमूत्रासवं विदुः॥२३४॥
धातुक्षये हरीतक्यासवः।
हरीतकीनां प्रस्थार्धं धात्रीप्रस्थद्वयं तथा।
दशमूलशतार्धं च पौष्करं च तदर्धकम्॥२३५॥
तत्तुल्यं चित्रकं दद्याच्चित्रकार्धा दुरालभा।
गुडूच्या विंशतिपलं विशालापलपञ्चकम्॥२३६॥
खदिरस्य पलान्यष्टौ तदर्धं बीजपूरकम्।
मञ्जिष्ठा मधुकं कुष्ठं कपित्थं देवदारुकम्॥२३७॥
विडङ्गं चविका रोध्रं भार्ङ्गी स्यादेलवालुकम्।
संवर्तकं पिप्पलीं च क्रमुकं शठिसुप्रभम्॥२३८॥
प्रियङ्गुसारिवामांसीनागकेसररेणुकम्।
त्रिवृतां रजनीं रास्नांमेषशृङ्गीं पुनर्नवाम्॥२३९॥
शताह्वांरोहिणीं दन्तीं पलांशान्क्वाथयेज्जले।
चतुर्थपादशेषे तु द्राक्षां षष्टिपलां क्षिपेत्॥२४०॥
त्रिंशत्पलानि धातक्या गुडाच्छुद्धाच्चतुःशतम्।
द्वात्रिंशत्पलिकं क्षौद्रं सर्वमेकत्र कारयेत्॥२४१॥
भाण्डे पुराणे सुस्निग्धे मांसीमरिचधूपिते।
धूपिते च पुनर्दद्यात्पिप्पलीनां पलद्वयम्॥२४२॥
जातीफलं लवङ्गं च त्वगेलापत्रकेसरान्।
कर्षमात्रां च नेपालीं दत्त्वा पक्षं निधापयेत्॥२४३॥
कतकफलचूर्णेऽपि क्षिप्ते निर्मलता भवेत्।
पक्षादूर्ध्वं पिबेद्यस्तु मात्रया च यथाबलम्॥२४४॥
धातुक्षयं जयेत्पीतः कासं पञ्चविधं तथा।
अर्शांसि षट्प्रकाराणि तथाऽष्टावुदराणि च॥२४५॥
प्रमेहं च महाव्याधिमरुचिं पाण्डुतां तथा।
सर्वान् वातान् तथाप्यामं श्वासं छर्दि तथैव च॥२४६॥
अष्टादशैव कुष्ठानि शोषं शूलं भगन्दरम्।
शर्करां मूत्रकृच्छ्रं च ह्यश्मरीं च विनाशयेत्॥२४७॥
कृशानां च महापुष्टिं कुरुते च महाबलम्।
महावेगो महातेजा महावीर्यबलोद्धतः।
कामपुष्टिं करोत्येष वन्ध्यानां पुत्रदो भवेत्॥२४८॥
आवर्तक्याद्यासवः।
नत्रभेषजशिफापलाष्टकं19 सार्धमैलपलमर्धमस्तकीम्।
हेमजार्धपलमेकतः कृतं द्रोणवारिमिलितं दिनत्रयात्॥२४९॥
यः पिबेद्द्विपलिकं दिनोदये नीरमस्तसमये समाहितः।
तस्य नश्यति कटीसमुद्भवं दद्रु मासयुगलेन निश्चितम्॥२५०॥
क्षये दशमूलासवः।
दशमूलतुलार्धं तु पौष्करं च तदर्धकम्।
तत्तुल्यं चित्रकं दद्याच्चित्रकार्धं दुरालभा॥२५१॥
गुडूच्या विंशतिपलं रोध्रं दद्याच्च तत्समम्।
खदिरस्य पलान्यष्टौ तत्समं बीजसारकम्॥२५२॥
प्रस्थमामलकीनां च तदर्धा च हरीतकी।
मञ्जिष्ठा मधुकं कुष्ठं कपित्थं देवदारु च॥२५३॥
^(१)नेत्रभेषजं ‘सना’ ‘सोनामुखी’ इति ख्यातं, तन्मूलं अष्टपलं,ऐलः‘ऐलिया’ ‘मुसव्वर’ इति ख्यातः तस्य सार्धपलं; मस्तकी ‘रुमीमस्तकी’ इति ख्याता, तस्य अर्धपलं; हेमजा ‘रेवंदचीनी’ इति ख्याता, तस्या अर्धपलं; अन्यत्फुटम्।
विडङ्गं चविका ह्यक्षं भार्ङ्गी स्यादष्टवर्गकम्।
त्रिवृता रजनी रास्ना कर्कटाख्या पुनर्नवा॥२५४॥
प्रियङ्गुसारिवामांसीनागकेसररेणुकम्।
शताह्वेन्द्रयवामुस्तं द्विपलान्क्वाथयेञ्जले॥२५५॥
अष्टद्रोणे, पादशेषे सर्वमेकत्र निक्षिपेत्।
षष्टिपलानि द्राक्षायाः क्वाथयित्वा चतुर्गुणे॥२५६॥
जले त्रिभागशेषे तु पूते तस्मिन्विनिक्षिपेत्।
त्रिंशत्पलानि धातक्या गुडाच्छुद्धाच्चतुःशतम्॥२५७॥
द्वात्रिंशत्पलिकं क्षौद्रं सर्वमेकत्र कारयेत्।
भाण्डे पुराणे सुस्निग्धे मांसीमरिचधूपिते॥२५८॥
धूपिते च पुनर्दद्यापिप्पलीनां पलद्वयम्।
जातीफलं लवङ्गं च त्वगेलापत्रकेसरान्॥२५९॥
जातीपत्रीं च कङ्कोलं चन्दनं वालुकं तथा।
कर्षमात्रां च नेपालीं दत्त्वा भूमौ विनिक्षिपेत्॥२६०॥
पक्षादूर्ध्वं पिबेद्यस्तु मात्रया च यथाबलम्।
धातुक्षयं जयेत्पीतः कासं पञ्चविधं तथा॥२६१॥
अर्शांसि षट्प्रकाराणि तथाष्टावुदराणि च।
प्रमेहं च मदव्याधिमरुचिं पाण्डुतां तथा॥२६२॥
सर्वान्वातांस्तथायामं श्वासं छर्दिमरोचकम्।
अष्टादशैव कुष्ठानि शोफं शूलं भगन्दरम्॥२६३॥
शर्करां मूत्रकृछ्र्रं च अश्मरीं च विनाशयेत्।
कृशानां च महापुष्टिं कुरुते च महाबलम्॥२६४॥
महावेगो महावीर्यो महातेजा महाद्युतिः।
कामपुष्टिकरो ह्येष वन्ध्यानां पुत्रदो भवेत्॥२६५॥
खर्जूरासवः।
खर्जूरमुस्तामलकीनिकुम्भाद्राक्षाभयापूगफलानि पाठा।
भार्ङ्गीशठीकुष्ठजलाजमोदपलङ्कषापिप्पलीमूलकानि॥२६६॥
पुनर्नवा कायफलं प्रियङ्गुः कर्चूरकं कृष्णमजाजिविस्त्रे।
त्रिवृच्छिवाच्छलिधमासकं च लज्जालरोहीतकलिञ्जमूलम्॥२६७॥
अमूनि सर्वाणि महौषधानि चत्वारि चत्वारि पलोन्मितानि।
मांसीचतुर्जातकणालवङ्गंजातीफलं चन्दनलोहचूर्णम्॥२६८॥
प्रमाणतो द्विद्विपलान्यमूनि सुधातकीपुष्पमणानि सप्त।
गुडस्य सप्त त्रिगुणानि दद्यान्मणानि संचूर्ण्य ततः समस्तम् ॥२६९॥
घृतस्य भाण्डे विपुले निवेश्य दशोत्तरं शेरशतं जलस्य।
क्षिप्त्वा क्षिपेत्पञ्च दिनानि भूमौ निष्पन्नकल्कं हृदये विचार्य॥२७०॥
षष्ठे दिने तच्च नियोजनीयं ताम्रस्य यन्त्रद्वयमध्यभागे।
शतत्रयं नागलतादलानां सहस्रयुग्मं शतपत्रकानाम्॥२७१॥
प्रक्षाल्य देयं विधिनाथ सन्धिं विमुद्र्यचुल्ल्यां विनिवेश्य यन्त्रं।
निष्काशयेदर्कमतो यथावद्दत्त्वा जलं चोपरि यन्त्रकस्य॥२७२॥
बलाबलं रोगनिपीडितानां विमृश्य देयः पलिकाप्रमाणः।
खार्जूरसंज्ञः खलु आसवोऽयं विषुचिकायक्ष्मभयं निहन्ति॥२७३॥
हृद्रोगकासविषमज्वरशोफतर्षश्वासप्रमेहबलसंक्षयपाण्डुरोगान्।
हिध्माश्च शीर्षगतरोगवियोगकारी रुच्यग्निवर्धनबलप्रदवृष्य एषः॥२७४॥
मस्त्वासवः।
वंशपत्रीप्रतीकाशमस्तुद्रोणे सुनिर्मले।
क्षिपेद्गुडतुलां भाण्डे वचाकुष्ठविलेपिते॥२७५॥
तस्मिन् दद्यात्पिप्पलीनां प्रस्थं प्रस्थत्रयं तथा।
त्रिफलाया विडङ्गानां कुडवं मरिचस्य च॥२७६॥
काश्मरीफलमृद्वीकापरूषकफलानि च।
वत्सकस्य च बीजानि दद्यान्मरिचवत्समान्॥२७७॥
पञ्चमूलं च षड्ग्रन्थां दन्तीं चित्रकमेव च।
भल्लातकानां च पले द्वे द्वे समुपकल्पयेत्॥२७८॥
यवपल्ले स्थितः पेयोऽरिष्टो मात्राबलं प्रति।
पाण्डुरोगोदरहरो ग्रहण्यर्शोविकारनुत्॥२७९॥
परं भगन्दरप्लीहशोषकासामयापहः।
अग्निसंदीपनः पथ्यो बाधिर्यस्थौल्यनाशनः॥२८०॥
मस्त्वासव इति ख्यातो लेखनो मेदुरे हितः।
ज्वरे कुब्जकासवः।
शतं कुब्जकमूलस्य मृद्वीकार्धशतं तथा॥२८१॥
मधूकपुष्पकाश्मर्यभागान् दशपलोन्मितान्।
चतुर्दोणेऽम्भसः पक्त्वा शीते पादावशेषिते॥२८२॥
धातक्या विंशतिपलं गुडस्य च शतत्रयम्।
कनकस्य तु चत्वारि व्योषं कङ्कोलमेव च॥२८३॥
एलात्वक्पत्रजातीनां लवङ्गस्य तथैव च।
भागाः पलप्रमाणाश्च सूक्ष्मचूर्णं तु कारयेत्॥२८४॥
कौब्जमूलासवो ह्येष मासमात्रं विधारितः।
शमयेत्सन्निपातोत्थान् ज्वरान् सर्वान् न संशयः॥२८५॥
नालिकेरासवः।
नालिकेरोदकं चैव द्रोणमात्रं प्रदापयेत्।
इक्षो रसस्य द्रोणार्धं शाल्मल्या रसप्रस्थकम्॥२८६॥
दशमूलरसस्यापि प्रस्थमात्रं तथैव च।
घृतभाण्डे विनिक्षिप्य मध्ये चूर्णं निवेशयेत्॥२८७॥
चातुर्जातकधातक्योः पलान् षोडशसंख्यया।
शाणमात्रा तु कस्तूरी केशरं तगरं तथा॥२८८॥
चन्दनं देवपुष्पं च पलमात्रं पृथक् पृथक्।
मासादूर्ध्वं पिबेच्चामुं रूपे कामसमो भवेत्॥८९॥
वृद्धोऽपि तरुणीं गच्छेत् षण्ढोऽपि पुरुषायते।
वलीपलितसंत्यक्तः शतायुश्चभवेनरः॥२९०॥
नालिकेरासवः प्रोक्तः शम्भुना परमेष्ठिना।
कूष्माण्डासवः।
कूष्माण्डं जर्जरीकृत्य रसमादाय यत्नतः॥२९१॥
द्रोणं, गुडार्धं दातव्यं, चूर्णमेषां विनिक्षिपेत्।
कटुत्रिकं लवङ्गं च चातुर्जातं तथैव च॥२९२॥
कङ्कोलकं जातीफलं जातीपत्री प्रियङ्गुकम्।
कपित्थं वत्सकं चैव बीजं गोक्षुरकस्य च॥२९३॥
सत्वं गुडूच्या भार्गीच बलाबीजं तथैव च।
हपुषा क्रमुकं चैव देवदारु मदावहम्॥२९४॥
गायत्रीसारजलदं चित्रकं च फलत्रिकम्।
रास्ना यष्ट्याह्वकं चापि तुम्बरु नागकेशरम्॥२९५॥
ग्रन्थिकं चाजमोदा च कारवी दीप्यकस्तथा।
कट्फलं च तुगाक्षीरी आकल्लकमुटिङ्गणम्॥२९६॥
कपित्थवल्कलं चैव शताह्वागजशेलुकम्।
कलिङ्गकाश्च काकोली शठी मोचरसं घनम्॥२९७॥
कोकिलाक्षस्य बीजानि कसेरुः सहदेविका।
भूनिम्बं चविका स्पृक्का पद्मकं च निशाद्वयम्॥२९८॥
धान्यकं सुरदाली च क्षीरकन्दं तथैव च।
एतानि चाक्षमात्राणि लोहचूर्णं पलाष्टकम्॥२९९॥
धातक्याः षोडशपलं घृतभाण्डे निधापयेत्।
मासार्धं च तथा भूमौ निक्षिपेदतियत्नतः॥३००॥
अनेन विधिना सिद्ध आसवः परिकीर्तितः।
पीत्वास्य पलमेकं तु प्रातरुत्थाय नित्यशः॥३०१॥
धातुक्षयं च मन्दाग्निं प्रमेहं पाण्डुमेव च।
अर्शांसि ग्रहणीदोषान् प्लीहोदरभगन्दरान्॥३०२॥
आमवातं रक्तपित्तं श्लेष्मरक्तं तथैव।
निहन्ति वातजान् रोगान् मेदःस्थौल्यापहासवः॥३०३॥
रसायनारिष्टः।
समूलां पिप्पली शृङ्गीं बृहतीमश्मभेदकम्।
पाटलां देवकाष्ठं च श्वदंष्ट्रामभयां तथा॥३०४॥
एकैकं षोडशपलं कोलानामाढकं तथा।
दन्तीचित्रकमूलानां पञ्चविंशत्पलं पृथक्॥३०५॥
चतुर्गुणे जले पक्त्वा ग्राह्यमर्धावशेषितम्।
शीते समावपेद्भाण्डे प्रलिप्ते मधुसर्पिषा॥३०६॥
खण्डस्य द्विशतं शुद्धं तद्वल्लोहस्य दापयेत्।
पत्रीकृतं तिलोत्सेधं सूक्ष्मचूर्णान्यमूनि च।
प्रियङ्गुं पिप्पलीं लोध्रं मृद्वीकां चैलवालुकम्॥३०७॥
क्रमुकं शतपुष्पां च निम्बं तेजोवतीमपि।
पलिकं देवदारोश्च खदिराच्च चतुष्पलम्॥३०८॥
क्षौद्रप्रस्थद्वयं चापि समावाप्य घटे शुभे।
सौम्ये पुष्ये तथा हस्ते रोहिण्यामुत्तरासु च॥३०९॥
दशरात्रस्थितः पेयोऽरिष्टश्चात्रेयपूजितः।
अश्विभ्यां कथितः पूर्वं रसायनवरो ह्ययम्॥३१०॥
मात्रामग्निबलापेक्षी पिबेदस्य हिताशनः।
धन्यः पुष्टिकरो बल्यो वलीपलितनाशनः॥३११॥
ज्वरे धान्यकाद्यरिष्टः।
धान्यकोशीरमुस्तानां पलमेकत्र कारयेत्।
द्विपलं पद्मकं कुष्ठं कुर्यान्निम्बं तदर्धकम्॥३१२॥
सर्वांशेन ततो दद्याच्छिन्नाङ्गां च फलत्रिकम्।
जलद्रोणद्वयं दत्त्वा षोडशांशेन संहरेत्॥३१३॥
पलं दर्व्यास्ततस्तस्मिन् शीतपूते भिषग्वरः।
मधुनः षोडशपलं दत्त्वा सर्वं विमन्थयेत्॥३१४॥
स्थापयेद्धृतभाण्डे तु मासादूर्ध्वं प्रयोजयेत्।
धान्यकादिररिष्टोऽयं सर्वज्वरविनाशनः॥३१५॥
धातुक्षये लवङ्गासवः।
देवपुष्पं वराङ्गं च केशरं पृथुका तथा।
कलौञ्जी मर्कटीबीजं मूशलीद्वयगोक्षुरम्॥३१६॥
बलाबीजानि पोस्तत्वक् बीजं च करहाटकम्।
पृथक् पृथक् प्रकुर्वीत पलानां पञ्चकं तथा॥३१७॥
चतुर्द्रोणेऽम्भसः पक्त्वा कुर्यात्पादावशेषितम्।
शठी च पिप्पलीमूलं मरिचं साश्वगन्धकम्॥३१८॥
शुण्ठी जातीफलं चापि कुङ्कुमं जातिपत्रिका।
आकल्लकं कबाबं च एला कृष्णाऽगुरुस्तथा॥३१९॥
तालीसं चन्दनं चैव विजया क्षीरकन्दका।
वृद्धदारुभवं बीजं क्रमुकं वंशरोचना॥३२०॥
धत्तुरस्य च बीजानि पलमात्राणि कारयेत्।
सर्वमेकत्र संचूर्ण्य पूते शीते विनिक्षिपेत्॥३२१॥
द्वात्रिंशत्पलिकं क्षौद्रं धातक्याश्च पलाष्टकम्।
तुलार्धं तु गुडाज्जीर्णाद्धृतभाण्डे विनिक्षिपेत्॥३२२॥
मासादूर्ध्वं पिबेदेनं प्रमेहं हन्ति दुर्जयम्।
धातुक्षयं जयेच्छीघ्रं लवङ्गाद्यासवस्त्वयम्॥३२३॥
विद्रधौ वरुणासवः।
शतं पलानां वरुणस्य मूलं त्वक् शिंशपायाश्च तदर्धमात्रा।
तावत्तथा पुष्करमूलमुक्तं तदर्धमग्निश्च तदर्धमात्रः॥३२४॥
कुरण्टको रोहीतकत्वचश्च तावच्च शिग्रुर्दशमूलकं च।
पलानि विंशत्खलु देवदारोः क्षुद्रा च तुल्या सुरदारुणा च॥३२५॥
दर्भस्य मूलानि पलानि पञ्च हिंस्रातरोस्त्रीणि च कण्टकार्याः।
राजादनस्यापि पलानि सप्त शतावरीमूलपलत्रयं च॥३२६॥
तत्तुल्यकाश्मर्यकमर्जुनश्च शृङ्गी शताह्वा गजपिप्पली च।
बलाशठीनागबलाकरञ्जत्रायन्तिकाकेबुकमेषशृङ्ग्यः॥३२७॥
कुष्ठं च वासासितकर्बुकं च विडङ्गकृष्णातिविषाश्च जीरकम्।
चव्यं च रास्नोत्पलसारिवा च स्यात्कौटजश्चाऽप्यथ दीप्यकं च॥३२८॥
वातार्यरिष्टारुरनार्यतिक्तं रक्ताऽमृता तेजनीवल्कलं च।
सव्याधिघाता हपुषा च भृङ्गी प्रत्येकमेषां हि पलद्वयं तु॥३२९॥
पचेज्जलद्रोणचतुष्टये च तत्पादशेषे पलषट्शतं च।
क्षिपेद्गुडं माक्षिकधातकीनां पलानि त्रिंशत्सकलं पुनस्ततः॥३३०॥
निधापयेच्चागरुमांसीधूपिते भाण्डे ततः कुङ्कुमचन्दनद्वयम्।
पलं क्षिपेद्वै कतकं सचन्द्रं लवङ्गमाकल्लकवंशरोचनम्॥३३१॥
भार्गींसुराष्ट्री तगरं कबाबकं जातीफलं पत्रकजातिपत्रिके।
लोहं चतुर्जातकवालकं च प्रत्येकमेषां हि पलं विनिक्षिपेत्॥३३२॥
मासं निधेयो यवमध्यतस्ततः पेयो यथाव्याधिबलं समीक्ष्य।
प्लीहोदरं विद्रधिगुल्मकासं श्वास तथा रक्तविकारहिक्के॥३३३॥
शूलामवातार्बुदपाण्डुरोगं कुष्ठं तथा छर्दिमरोचकं च।
शोफं तथाध्मानभगन्दरं च शुक्राश्मरीं ग्रन्थिमनेकभेदम्॥३३४॥
शोषापतानार्दितपक्षघातसन्धिग्रहार्तीश्च हलीमकं च।
निहन्ति वन्ध्यासुतदोऽथ वृष्यःप्राणप्रदोऽयं वरुणासवोहि॥३३५॥
पित्तानिलश्लेष्मरुजापहश्च वैतालरक्षोग्रहभीमीतिहन्ता।
ग्रन्थान् समालोक्य चिकित्सकानां हिताय नूनंरचितश्चरोगिणाम्॥३३६॥
प्लीहरोगे रोहीतकासवः।
रोहीतकात्पलशतं चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत्।
द्रोणशेषे रसे तस्मिन् पूते शीते प्रदापयेत्॥३३७॥
धातक्याः षोडशपलं गुडस्य द्विशतं तथा।
पलं पृथक् त्रिजातस्य पञ्चकोलपलं तथा॥३३८॥
चूर्णीकृतं क्षिपेत्सर्वं घृतलिप्तेतु भाजने।
पक्षादूर्ध्वं पिबेच्चापि ततो मात्रां यथाबलम्॥३३९॥
प्लीहं प्लीहोदरं चैव प्लीहशूलं तथैव च।
हृच्छूलं पार्श्वशूलं च तथा सर्वमरोचकम्॥३४०॥
विबन्धशूलं शमयेत्पाण्डुरोगं सकामलम्।
नाशयेच्छर्द्यतीसारं ज्वरं जीर्णं तथैव च॥३४१॥
रोहीतकासवो ह्येष प्लीहं च शमयेद्ध्रुवम्।
गण्डीरासवः।
जातसारं तु गण्डीरं सपुष्पं परिशोषयेत्॥३४२॥
खण्डशः क्षोदितं कृत्वा तस्य पञ्चाढकं पचेत्।
त्रींश्चैव त्रिफलाप्रस्थान् दशमूलीतुलां तथा॥३४३॥
दद्यात्कुटजवल्कस्य पलानां पञ्चविंशतिम्।
भल्लातकानीन्द्रयवं विडङ्गं घनमेव च॥३४४॥
अर्धप्रस्थसमान् भागानेकैकस्य समावपेत्।
पाठा मधुरसा दन्ती षड्ग्रन्था चित्रकस्तथा॥३४५॥
एषां दशपलान् भागान्मृद्वीकायास्तथाढकम्।
तोयद्रोणेषु दशसु पचेद्द्विद्रोणशेषितम्॥३४६॥
तस्मिन्कषाये पूते तु गुडसैकां तुलां क्षिपेत्।
तथा तु शोधितस्यापि, शुभे भाण्डे निधापयेत्॥३४७॥
द्वौ प्रस्थौ मधुनश्चैव द्वावयोरजसस्तथा।
अर्धंप्रस्थो विडङ्गानां कुडवो मरिचस्य च॥३४८॥
एतयोः सूक्ष्मचूर्णानि प्रतिवापार्थमाहरेत्।
चूर्णं मरीचकानां च मधुना सह योजयेत्॥३४९॥
भाण्डप्रलेपः कर्तव्यः समासिच्य निधापयेत्।
एष मासस्थितः पेयो यथाव्याधिबलाबलम्॥३५०॥
गण्डीरारिष्ट इत्येष व्यासतः परिकीर्तितः।
एष शोषान् प्रमेहांश्च गुल्मांश्च जठराणि च॥३५१॥
क्रिमिकुष्ठानि वर्ध्मानि प्लीहार्शांसि भगन्दरम्।
श्वयथून् पाण्डुरोगांश्च ग्रहणीदोषमेव च॥३५२॥
ग्रन्थीश्चगलगण्डं च गण्डमालां तथैव च।
विषमज्वरकासांश्च विद्रधीन् वातशोणितम्।
अरिष्टः शमयत्याशु युधि शक्र इवासुरान्॥३५३॥
प्लीहरोगे रोहीतकासवः।
तुलाद्वयं रोहितमूलकानां द्विद्रोणमात्रेण जलेन पक्त्वा।
क्षेप्यं गुडस्य द्विशतं पलानामष्टादश स्युस्त्रिफलापलानि॥३५४॥
लवङ्गजातीफलधातकीनां पलानि लोहस्य षडेव दद्यात्।
देयं चतुर्जातकपञ्चकोलं पृथक् पृथक् पञ्चपलं तथैव॥३५५॥
गुल्मज्वरारोचकहृद्विकारभगन्दरप्लीहनिपीडितानाम्।
रक्तामयश्वासनिपीडितानां सदासवोऽयं विधिना प्रयोज्यः॥३५६॥
योगराजासवः।
द्राक्षायाः शर्करायाश्च गुडस्य च पृथक् पृथक्।
पलानि दश कार्याणि पथ्यापलचतुष्टयम्॥३५७॥
लवङ्गबदरीसर्जार्जुनानां छल्लिकाभवम्।
पलं पलं पृथग्ग्राह्यं देवदारुपलं तथा॥३५८॥
चित्रकस्य च लोध्रस्य पिप्पलीमूलकस्य च।
धातकीकुसुमानां च तद्वद्देयं पलं पलम्॥३५९॥
तथा पूगफलानां तु कषायाणां पलं मतम्।
मञ्जिष्ठायाः पले द्वे तु क्वाथ्यसंज्ञानि तानि च॥३६०॥
लवङ्गकलिकाजातीपत्रैलानागकेशरम्।
पिप्पलीशुण्ठिमरिचत्वङ्भांसीचव्यमुस्तकम्॥३६१॥
कुष्ठं जातीफलं ग्रन्थिपर्णं स्नुक् कटुरोहिणी।
एषां पलं पलं ग्राह्यं तज्ज्ञेयं चूर्णसंज्ञितम्॥३६२॥
ततस्तु क्वाथ्यद्रव्येभ्यो जलमष्टगुणं क्षिपेत्।
क्वाथं तदुदके कुर्यादर्धभागावशेषितम्॥३६३॥
तत्क्वाथं वस्त्रपूतं तु भाण्डेऽन्यसिन्मनोहरे।
कृत्वाऽत्र प्रक्षिपेच्चूर्णं तद्भाण्डं धान्यराशिगम्॥३६४॥
कृत्वा सप्तदिनं शीते काले चोष्णमये तथा।
यावद्दिनानि त्रीणि स्युः पश्चाद्भाण्डं समुद्धरेत्॥३६५॥
पुनस्तद्वस्त्रपूतं तु भाण्डे कर्पूरवासिते।
निक्षिप्य सेवयेत्प्रातः पलमात्रोपलक्षितम्॥३६६॥
स दत्तो वातपित्तघ्नो दीपनो रक्तरोगनुत्।
योगराज इति ख्यात आसवोऽयं गुणोत्तरः॥३६७॥
अर्शोरोगे पील्वासवः।
मूर्वाखर्जूरपाठानिलरिपुमधुकं कच्छुरा हारहूरा
कोलत्वग्वेतसाम्लं दहनमिशिकणाकृष्णविश्वालवङ्गम्॥
त्वग्लोध्राद्दाडिमाच्च पलमितमिति पृथक् दन्तिमूलेन युक्तं
पीलुद्रोणे20 द्विपक्षं गुडपलशतयुक् धान्यराशौ निदध्यात्॥३६८॥
अर्शः प्लीहंच गुल्मं जठरगदमथो नाशयेच्चाग्निमान्द्यं
कुर्याच्चाग्निं प्रदीप्तं प्रबलबलयुतं पीलुसंज्ञासवोऽयम्॥३६९॥
प्रमेहे मध्वासवः।
विशालातिविषाभार्गीकुष्ठमुस्ताप्रियङ्गवः।
विडङ्गत्रिफलाकृष्णाचव्यग्रन्थिकदीप्यकाः॥३७०॥
अक्षांशान् सलिलद्रोणे पक्त्वा पादावशेषिते।
दत्त्वा तदर्धं क्षौद्रं हि स्निग्धे भाण्डे निधापयेत्।
एष मध्वासवो हन्ति मेहं द्विपलयोजितः॥३७१॥
लोहासवः।
फलत्रिकं निम्बपटोलमुस्तापाठामृताचित्रकचन्दनं च।
विडङ्गमञ्जिष्ठमधूकसारकर्चूरवासात्रिवृताहरिद्राः॥३७२॥
दुरालभापर्पटकण्टकारीशक्राशनं यासकचर्मरङ्गे।
शशाङ्कलेखाकपिकच्छुमूलं मेथी च बिल्वं कुटजश्च तिक्ता ॥३७३॥
त्रायन्तिका पुष्करकस्य मूलं पलैकमानानि महौषधानि।
षष्टिः पलानां खदिरस्य सार अयोरजः स्यात्पलयुग्ममानम्॥
स्याल्लोहकिट्टं च तुलाप्रमाणं तत्पञ्चकं केबुकजीवनीयम्।
प्रक्षिप्य भाण्डे शशियुग्मघस्रान् सूर्यातपे स्थाप्य ततस्तु योज्यः
लोहासवोऽयं भिषजोपदिष्टः सर्वोत्तमो रोगविनाशहेतुः॥३७६॥
इति श्रीशोढलग्रथिते गदनिग्रहे षष्ठआसवाधिकारः संपूर्णः।
समाप्तश्चायं प्रथमः प्रयोगखण्डः।
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प्रयोगखण्डस्य परिशिष्टम्।
घृताधिकारः प्रथमः।
रक्तपित्ते कटुकाद्यं घृतम्।
कटुरोहिणिकां मुस्तां हरिद्रां वत्सकं बलाम्।
पटोलं चन्दनं मूर्वां त्रायमाणां दुरालभाम्॥१॥
पिप्पलीं पर्पटं चैव भूनिम्बं देवदारुकम्।
पिष्ट्वाऽक्षमात्रैस्तैः सर्पिः प्रस्थं क्षीराढके पचेत्॥२॥
रक्तपित्तं ज्वरं दाहं श्वयथुं सभगन्दरम्।
अर्शांस्यसृग्दरं चैव हन्याद्विस्फोटकांस्तथा॥३॥
गुल्मे दाधिकं घृतम्।
द्वे पञ्चमूल्यौ सुषवी साश्वगन्धा पुनर्नवा।
काला छिन्नरुहा चैव रास्ना गोक्षुरको बला॥४॥
शठी पुष्करमूलं च देवदारुस्तथैव च।
एषां द्विपलिकान् भागान् जलद्रोणे विपाचयेत्॥५॥
^(१)प्रयोगखण्डस्य आसवाधिकारमुद्रणारम्भसमय एव बुन्दीनगरनिवासिभिः राजवैद्यैः श्रीप्रसादशर्मभिः गदनिग्रहस्यैकं पुस्तकं प्रेषितं, दृष्टश्च तत्र पूर्वोपलब्धपुस्तकापेक्षयाऽधिकः पाठः, अतः प्रयोगखण्डसमाप्तौ तत्परिशिष्टत्वेन स पाठोऽत्र निवेशितः। संपादकः।
कोलकानां कुलत्थानां माषाणां च यवैः सह।
प्रस्थं प्रस्थं ततः कृत्वा तस्मिन्नेव समावपेत्॥६॥
तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
दद्यादेभिः समं शुक्तमारनालं तुषोदकम्॥७॥
दाडिमाम्रातकरसं मातुलुङ्गरसं तथा।
चतुर्गुणं चात्र दधि गर्भमेषां समावपेत्॥८॥
पुनर्नवौषणं दन्ती त्रीण्येव लवणानि च।
हिंस्रा रास्ना बला चैव यवानी चाम्लवेतसम्॥९॥
विडङ्गं दाडिमं हिङ्गु ग्रन्थिकं त्रिवृता तथा।
द्वौ क्षारावजमोदा च पाठा पाषाणभेदकम्॥१०॥
ऊषकं वृषको भार्गीश्वदंष्ट्रा हपुषा तथा।
त्रपुषैर्वारुबीजानि शतावर्युपकुञ्चिका॥११॥
अजाजी चित्रकं मूर्वा तुम्बरु गजपिप्पली।
धान्यकं सुरसं चैतान् दद्यादक्षसमान् भिषक्॥१२॥
गर्भेणानेन तत्सिद्धं पाययेत्सर्पिरुत्तमम्।
पित्तगुल्मं तथा सर्वान् गुल्मानन्यान्व्यपोहति॥१३॥
एकाङ्गगे पक्षवधे तथा दुष्टे च रेतसि।
हृद्रोगे ग्रहणीरोगे सर्पिरेतद्यथामृतम्॥१४॥
यक्ष्माणं नाशयत्येतदपस्मारं च नाशयेत्।
दाधिकं नाम विख्यातमात्रेयानुमतं स्मृतम्॥१५॥
गुल्मे लशुनघृतम्।
तुलां लशुनकन्दानां पृथक् पञ्चपलांशकान्।
त्र्यूषणत्रिफलाहिङ्गुयवानीचव्यचित्रकान्॥१६॥
साम्लवेतससिन्धूत्थदेवदारुन् पचेद्धृतम्।
तैः प्रस्थं, तत्परं सर्ववातगुल्मविकारनुत्॥१७॥
गुल्मे महाषट्पलं घृतम्।
नागरस्य तुलार्धं तु जलद्रोणे विपाचयेत्।
चतुर्भागावशेषं तु कषायमवतारयेत्॥१८॥
शुक्लेन मस्तुना चैव दाडिमैर्बदरोदकैः।
चतुर्गुणैरिमैस्तोयैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥१९॥
सौवर्चलं बिडं चैव पौतिकं चोषकस्तथा।
अजाजी पिप्पली चैव अजगन्धा यवाग्रजः॥२०॥
सैन्धवं पञ्चकोलं च हिङ्गुचौद्भिदमेव च।
एतैः पलार्धकैद्रव्यैः शनैर्मृद्वग्निना पचेत्॥२१॥
कृमिप्लीहोदराजीर्णज्वरगुल्मप्रसेहकान्।
वातरोगानशेषांश्च हिक्कां शूलमरोचकम्॥२२॥
पाण्डुरोगं प्रतिश्यायं दौर्बल्यं वह्निसंक्षयम्।
महाषट्पलमातङ्कांन् भिनत्त्यशनिवद्गिरिम्॥२३॥
उन्मादे कल्याणकं घृतम्।
विशाला त्रिफला कौन्ती देवदार्वेलवालुकम्।
स्थिराऽनन्ता हरिद्रे द्वे सारिवे द्वे प्रियङ्गवः॥२४॥
नीलोत्पलैलामञ्जिष्ठादन्तीदाडिमवल्कलम्।
तालीसपत्रं बृहती मालत्याः कुसुमं नवम्॥२५॥
विडङ्गं पृश्निपर्णी च कुष्ठं चन्दनपद्मके।
अष्टाविंशतिभिः कल्कैरेतैरक्षप्रमाणकैः॥२६॥
चतुर्गुणं जलं दत्त्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
अपस्मारे ज्वरे कासे शोषे मन्देऽनले क्षये॥२७॥
वातरक्ते प्रतिश्याये तृतीयकचतुर्थके।
वम्यर्शोमूत्रकृच्छ्रे च विसर्पोपहतेषु च॥२८॥
कण्डूपाण्ड्वामयोन्मादविषेष्वसृग्दरेषु च।
भूतोपहतचित्तानां गद्गदानामचेतसाम्॥२९॥
शस्तं स्त्रीणां च वन्ध्यानां धन्यमायुर्बलप्रदम्।
अलक्ष्मीपापरोगघ्नं सर्वग्रहनिवारणम्॥३०॥
कल्याणकमिदं सर्पिः श्रेष्ठं पुंसवनेषु च।
उन्मादे द्वितीयं कल्याणं घृतम्।
सारिवाद्वितयं पर्ण्यौनतं कुष्ठं निशाद्वयम्॥३१॥
दाडिमं चन्दनं व्याघ्री निकुम्भा त्रिफलेन्द्रिका।
तालीसं पद्मकं चैला मञ्जिष्ठोत्पलदारवः॥३२॥
इभोषणा विडङ्गानि प्रियङ्गुश्चाश्मभेदकः।
यवानी जातिमुकुलं मुस्तकं कर्षसंमितम्॥३३॥
कल्कैरेभिर्घृतप्रस्थं सिद्धं कल्याणकं स्मृतम्।
रक्तपित्तज्वरोन्मादकासकण्डूविनाशनम्॥३४॥
उन्मादे तृतीयं कल्याणकं घृतम्।
धराविशालापत्रैलादेवदार्वेलवालुकैः।
द्विसारिवाद्विरजनीद्विस्थिराफलिनीनतैः॥३५॥
बृहतीकुष्ठमञ्जिष्ठानागकेशरदाडिमैः।
वेल्लतालीसपत्रैलामालतीकुसुमोत्पलैः॥३६॥
सदन्तिपद्मकहिमैः कर्षांशैः सर्पिषः पचेत्।
प्रस्थं, भूतग्रहोन्मादकासापस्मारपापनुत्॥३७॥
पाण्डुकण्डूविषे शोषे मेहे मोहे ज्वरे गरे।
अरेतस्यप्रजसि वा देवोपहतचेतसि॥३८॥
अमेधसि स्खलद्वाचि स्मृतिकामेऽल्पपावके।
बल्यं मङ्गल्यमायुष्यं कान्तिसौभाग्यपुष्टिदम्॥३९॥
कल्याणकमिदं सर्पिः श्रेष्ठ पुंसवनेषु च।
उन्मादे महाकल्याणकं घृतम्।
एभ्यो द्विसारिवादीनि जले पक्त्वैकविंशतिम्॥४०॥
रसे तस्मिन्पचेत्सर्पिर्गृष्टिक्षीरं चतुर्गुणम्।
वरीद्विभेदाकाकोलीकपिकच्छुविषाणिभिः॥४१॥
सूर्पपर्णीयुतैरेभिर्महाकल्याणकं परम्।
बृंहणं सन्निपातघ्नं पूर्वस्मादधिकं गुणैः॥४२॥
विसर्पे महागौरं घृतम्।
क्षीरवृक्षप्रवालानि कुमुदान्युत्पलानि च।
सौगन्धिकानि पद्मानि शालूकानि बिसानि च॥४३॥
मृणालकुशकासेक्षुदर्भगुन्द्रेक्षुवालिकाः।
नलवेतसकुम्भीकनालीसर्जार्जुनस्वनाः॥४४॥
कदलीपत्रशेवालकसेरुघोटकानि च।
परूषकमधूकानि श्रीपर्ण्यामलकानि च॥४५॥
लामज्जकं चन्दनं च विदारी च शतावरी।
समङ्गा धातकी रोध्रं जीवनीयानि यानि च॥४६॥
शीतवीर्यास्तु ये केचिज्जलजानूपसंश्रिताः।
एतत्संभृत्य संभारं क्षीरद्रोणेषु सप्तसु॥४७॥
पचेन्निस्राव्य तच्छीतं मन्थानेन विमन्थयेत्।
यत्ततो जायते सर्पिस्तत्पचेत्पुनरेव तु॥४८॥
द्रव्यैस्तैरेव पूर्वोक्तैः शनैर्मुद्वग्निना भिषक्।
हन्यादेतद्विसार्पांस्तु सर्वधातुश्रितान् व्रणान्॥४९॥
तोयमग्निं यथा दीप्तं नाम्ना गौरं घृतं महत्।
सप्ताङ्गं घृतम्।
शङ्खपुष्पीगुडूच्युग्राशतावर्यर्कवल्लिकाः॥५०॥
मलपूं ब्रह्मसोमां च कल्कीकृत्य घृतं पचेत्।
दुग्धं चतुर्गुणं दत्त्वा वातश्लेष्महरं च तत्।
मेधाकरं तथायुष्यं सप्ताङ्गमिति कीर्तितम्॥५१॥
अष्टाङ्गं घृतम्।
मण्डूकीं सवचां सशङ्खकुसुमां ब्राह्मीं गुडूचीं तथा
श्वेतां बाकुचिकां शतावरियुतां सब्रह्मसौवर्चलाम्।
कृत्वांशैः पलिकैरिमानि विधिवद्द्रव्याणि तैः कल्कितैः
सर्पिःप्रस्थमथाढकेन पयसा युक्त्या पचेद्बुद्धिमान्॥५२॥
नाम्नाऽष्टाङ्गमिदं विदेहविहितं ख्यातं घृतं यः पिबेत्
स श्लोकस्य सहस्रमेकदिवसे श्रुत्वाऽखिलं धारयेत्।
अक्षीणप्रतिभः सुचारुवदनः स्पष्टाभिभाषी भवेत्
लोके शुक्रबृहस्पतिप्रतिसमः पूज्यश्च राज्ञो भवेत्॥५३॥
बालग्रहे फलघृतम्।
बर्हिष्ठकुष्ठमञ्जिष्ठाकटुकैलानिशाद्वयैः।
तोयदत्रिफलाकौन्तीवाजिगन्धामरुद्रुमैः॥५४॥
वचाजमोदाकाकोलीमेदामधुकपद्मकैः।
सशर्करैर्हितं सर्पिः पक्वंक्षीरचतुर्गुणम्॥५५॥
बालानां ग्रहजुष्टानां पुंसां दुष्टाल्परेतसाम्।
ख्यातं फलघृतं स्त्रीणां वन्ध्यानां चापि गर्भदम्॥५६॥
चातुर्थकज्वरे महापैशाचकं घृतम्।
त्रायमाणा जया वीरा नाकुली गन्धनाकुली।
कायस्था च वयस्था च चोरकश्च पलङ्कषा॥५७॥
सूकरी चटिला छत्रा सातिच्छत्रा सुमर्कटी।
मोरटा पूतना केशी स्थिरा कटुकरोहिणी॥५८॥
महापुरुषदन्ता च वृश्चिकाली कुटन्नटा।
सिद्धमेभिर्घृतं पेयं चातुर्थकविनाशनम्॥५९॥
महापैशाचकं नाम सर्पिरेतज्ज्वरापहम्।
भूतग्रहमपस्मारमुन्मादं च नियच्छति॥६०॥
शोषे जीवन्त्याद्यं घृतम्।
जीवन्तीं मधुकं द्राक्षां फलानि कुटजस्य च।
शठीं पुष्करमूलं च व्याघ्रीं गोक्षुरकं बलाम्॥६१॥
नीलोत्पलं तामलकीं त्रायमाणां दुरालभाम्।
पिप्यलीं च समां पिष्ट्वा घृतमेभिर्विपाचयेत्॥६२॥
एतद्व्याधिसमूहस्य रोगराज्ञः समुच्छ्रितम्।
रूपमेकादशविधं सर्पिरग्र्यं व्यपोहति॥६३॥
महातिक्तकं घृतम्।
निम्बः सप्तच्छदः पाठा गुडूची सशतावरी।
कृतमालः करञ्जौ द्वौ खदिरो वत्सको धवः॥६४॥
सपटोलः पर्पटको विशाला चित्रकस्तथा।
एतानि समभागानि कषायमुपकल्पयेत्॥६५॥
भेषजानि प्रपेष्याणि तत्रेमानि प्रदापयेत्।
भूनिम्बः कटुका मुस्ता दन्ती पर्पटको वचा॥६६॥
विशालातिविषे मूर्वा यष्ट्याह्वंसारिवाद्वयम्।
अवल्गुजा हरिद्रे द्वे दुःस्पर्शा रक्तचन्दनम्॥६७॥
कृमिघ्नः पिप्पली पाठा चित्रको देवदारु च।
भल्लातकान्युशीरं च सम्पाकः सकलिङ्गकः॥६८॥
एतैरक्षप्रमाणैस्तु घृतस्यार्धाढकं पचेत्।
धात्रीरसस्तु द्विगुणो घृतात्क्वाथश्चतुर्गुणः॥६९॥
सर्पिरेतन्नरः पीत्वा सर्वकुष्ठैर्विमुच्यते।
वातरक्तं सवीसर्पं रक्तस्रावं च दारुणम्॥७०॥
पित्तासृक्कामलाकण्डूगरान् योगशतैरपि।
असाधितान् महारोगान् महातिक्तं प्रसाधयेत्॥७१॥
वातव्याधौ दशमूलाद्यं घृतम्।
द्रोणेऽम्भसः पचेद्भागान् दशमूल्याश्चतुःपलान्।
यवकोलकुलत्थानां भागैः प्रस्थोन्मितैः सह॥७२॥
पादशेषे रसे पिष्टैर्जीवनीयैः सशर्करैः।
तथा खर्जूरकाश्मर्यद्राक्षाबदरफल्गुभिः॥७३॥
सक्षीरैः सर्पिषः प्रस्थं सिद्धं केवलवातनुत्।
निरत्ययं प्रयोक्तव्यं पानाभ्यञ्जनबस्तिषु॥७४॥
कासे बृहत्कण्टकारीघृतम्।
समूलपत्रशाखायाः कण्टकार्या रसाढके।
घृतप्रस्थं बलाव्योषविडङ्गशठिचित्रकैः॥७५॥
सौवर्चलयवक्षारबिल्वामलकपौष्करैः।
सैन्धवग्रन्थिपर्णोग्रादेवदारुपयोधरैः॥७६॥
वृश्चीवबृहतीपथ्यायवानीदाडिमर्द्धिभिः।
द्राक्षापुनर्नवाचव्यदुरालम्भाम्लवेतसैः॥७७॥
शृङ्गीतामलकीभार्गीरास्नागोक्षुरकैः पचेत्।
कल्कैश्च सर्वकासेषु हिक्काश्वासेषु शस्यते।
कण्टकारीघृतं सिद्धं कफव्याधिविनाशनम्॥७८॥
व्रणे जात्याद्यं घृतम्।
जातीनिम्बपटोलपत्रकटुकादार्वीनिशासारिवा-
मञ्जिष्ठाभयसिक्थतुत्थमधुकैर्नक्ताह्वबीजैः समैः।
सर्पिः सिद्धमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताः स्त्राविणो
गम्भीराः सरुजो व्रणाः सगतिकाः शुद्ध्यन्ति रोहन्ति च॥७९॥
प्रवाहिकायां त्र्यूषणाद्यं घृतम्।
त्र्यूषणं त्रिफला निम्बं चित्रको गजपिप्पली।
बिल्वं कर्कोटिका हिंस्त्रा विडङ्गानि निदिग्धिका॥८०॥
घृतप्रस्थं पचेदेभिर्गवां मूत्रे चतुर्गुणे।
पीतं प्रयोगतः काले हन्यादेतत्प्रवाहिकाम्॥८१॥
रक्तपित्ते कसेरुकं घृतम्।
द्राक्षेक्षुकाश्मर्यशतावरीणां तथा विदार्याः स्वरसस्य चैव।
कसेरुकाणां तु तथा कषायं प्रस्थं पृथक् क्षीरचतुर्गुणं च॥८२॥
घृतं तु शेफालिशतावरीणां त्रायन्तिकाया अपि कल्कसिद्धम्।
प्रायोगिकं सर्पिरुदाहरन्ति कसेरुकं मारुतपित्तघाति।
विसर्पदाहज्वररक्तपिते क्षीणक्षतानां च रसायनीयम्॥८३॥
नेत्ररोगे द्राक्षाद्यं घृतम्।
द्राक्षा प्रधाना सितशर्करा च राजादनं स्यान्मधुयष्टिका च।
मञ्जिष्ठनीलोत्पलपुण्डरीकं काकोलियुग्मं त्वथ जीवकश्च॥८४॥
द्व्यक्षप्रमाणैर्विपचेद्धृतस्य प्रस्थंसमग्रं पयसा च तुल्यम्।
नेत्रास्त्रराजीपटलानि काचमश्रुप्रसेकं तिमिरं च हन्ति।
दृष्टिप्रसादं च नवं करोति शिरोर्धरोगे च हितं नराणाम्॥८५॥
रक्तपित्ते दाडिमाद्यं घृतम्।
दाडिमं तिन्तिडीकं च नागपुष्पं शतावरी।
काकोली क्षीरकाकोली विदारीयक्षहस्तकः॥८६॥
बीजपूरकमूलं च राजवृक्षात्मगुप्तयोः।
कुष्ठं चेति समैरेतैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥८७॥
चतुर्गुणेन पयसा जलेनाष्टगुणेन च।
तत्सर्पिः पिबतः सिद्धं कासश्वासापतानकाः॥८८॥
हृद्रोगो रक्तपित्तं च ह्यचिराद्यान्ति संक्षयम्।
योनिरोगे बृहत्मश्चमूलाद्यं घृतम्।
पञ्चमूलं बृहद्व्याध्रीत्रिवृदेरण्डकःबलम्।
प्रत्येकं तिल्वकस्याथ प्रस्थार्धं प्रस्थमुत्तमम्॥८९॥
जलद्रोणे विपाच्यैतद्ग्राह्यं पादावशेषितम्।
पादशेषेघृतप्रस्थं दध्याढकयुतं न्यसेत्॥९०॥
पलत्रयं यवक्षारकल्कं युक्त्या विपाचयेत्।
योनिरोगे गुल्मरोगेवर्ध्मेष्वप्युदरेषु च॥९१॥
अर्शसि पिप्पल्याद्यं घृत्तम्।
पिप्पलीमरिचहिङ्गुनागरं मातुलुङ्गमथ बिल्वशुण्ठिका।
कुष्ठधान्यकमथाम्लवेतसं क्षारवन्ति लवणानि पञ्च च॥९२॥
तिन्तिडीकमथ कारकीवचा दाडिमं च चविका तथैव च।
चित्रकं च सपुनर्नवं भवेद्धस्तिपिप्पलियुता ह्यजाजिका॥९३॥
शुक्तिका बदरमूलपौष्करं पत्रकेण सह तुम्बरु स्मृतम्।
कर्षभागसहितांस्तथा हरेत् श्लक्ष्णपिष्टमथ संनयेत्ततः॥९४॥
प्रस्थमत्र तु घृतस्य दापयेत् दध्न एव च भवेत्तथाढकम्।
सर्वमेतदभिभृश्य शास्त्रतः पाचयेत मृदुनाऽग्निना सुखम्॥९५॥
मारुतोपहतगात्रचेतसां पार्श्वपृष्ठहनुजत्रुरोगिणाम्।
क्षयगरविषदूषितान् मनुष्यान् गतवयसो बलवर्णविप्रयुक्तान्।
घृतमिदमगदान् करोति सद्यः पवनकृतान् शमयेच्च सर्वरोगान्॥९६॥
शोषे जीवन्त्याद्यं घृतम्।
जीवन्तीं मधुकं द्राक्षां फलानि कुटजस्य च।
शठीं पुष्करमूलं च व्याघ्रीं गोक्षुरकं बलाम्॥९७॥
नीलोत्पलं तामलकीं त्रायमाणां दुरालभाम्।
पिप्पलीं च समां पिष्ट्वा घृतं वैद्यो विपाचयेत्॥९८॥
एतद्व्याधिसमूहस्यरोगराज्ञःसमुच्छ्रितम्।
रूपमेकादशविधं सर्पिरग्र्यं व्यपोहति॥९९॥
शिरोरोगे मायूरं घृतम्।
दशमूलीबलारास्नामधुकत्रिफलैः सह।
मायूरं पक्षपादान्त्रशकृत्पित्तास्यवर्जितम्॥१००॥
जले पक्त्वा घृतप्रस्थं तस्मिन् क्षीरसमं पचेत्।
मधुरैः कार्षिकैर्द्रव्यैः शिरोरोगार्दितापहम्॥१०१॥
कर्णनासाक्षिजिह्वास्यगलरोगविनाशनम्।
मायूरमिति विख्यातमूर्ध्वजत्रुगदापहम्॥१०२॥
महामायूरं घृतम्।
एतेनैव कषायेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
चतुर्गुणेन पयसा कल्कैरेभिश्च कार्षिकैः॥१०३॥
जीवन्तीत्रिफलामेदामृद्वीकर्द्धिपरूषकैः।
समङ्गाचविकाभार्गीकाश्मरीसुरदारूभिः॥१०४॥
आत्मगुप्तामहामेदातालखर्जूरमस्तकैः।
मधुरापिण्डखर्जूरशृङ्गीजीवकपद्मकैः॥१०५॥
शतावरीविदारीक्षुबृहतीसारिवायुतैः।
पुनर्नवातुगाक्षीरीकाकोलीधन्वयासकैः॥१०६॥
मधूकाक्षोटवाताममुञ्जाताभिषुकैरपि।
द्रव्यैरेभिर्यथालाभं घृतं सम्यग्विपाचयेत्॥१०७॥
तत्पक्वंनावनेऽभ्यङ्गे पाने बस्तौ च योजयेत्।
शिरोरोगेषु सर्वेषु कासे श्वासे च दारुणे॥१०८॥
मन्यापृष्ठग्रहे शोषे स्वरभेदे तथाऽर्दिते।
योनिशुक्रप्रदोषेषु शस्तं वन्ध्यासुतप्रदम्॥१०९॥
ऋतुस्नाता तथा नारी पीत्वा पुत्रं प्रसूयते।
महामायूरमित्येतद्धृतमात्रेयपूजितम्॥११०॥
अर्शोरोगेऽवाक्पुष्प्याद्यं घृतम्।
अवाक्पुष्पीबला दार्वी पृष्ठिपर्णी त्रिकण्टकः
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थशुङ्गाश्च द्विपलोन्मिताः॥१११॥
कषाय एतैः, पेष्यास्तु जीवन्ती कटुरोहिणी।
पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं देवदारु च॥११२॥
कलिङ्गाः शाल्मलीपुष्पं वीरा चन्दनमञ्जनम्।
कट्फलं चित्रको मुस्ता प्रियङ्ग्वतिविषे स्थिरा॥११३॥
पद्मोत्पलानां किञ्जल्कः समङ्गा सनिदिग्धिका।
बिल्वं मोचरसः पाठा भागाः कर्षसमाः पृथक्॥११४॥
चतुःप्रस्थे शृतं प्रस्थं कषायमवतारयेत्।
(त्रिंशत्पलान्वितः प्रस्थो विज्ञेयो द्विपलाधिकः )॥११५॥
सुनिषण्णकचाङ्गेर्योः प्रस्थौ द्वौ स्वरसस्य च।
सर्वैरेभिर्यथोद्दिष्टैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥११६॥
एतदर्शःस्वतीसारे त्रिदोषे रुधिरस्रुतौ।
प्रवाहणे गुदभ्रंशे पिच्छासु विविधासु च॥११७॥
उन्मादे चापि बहुशः शोफे शूले गुदाश्रये।
मूत्रग्रहे मूढवाते मन्देऽग्नावरुचौ तथा॥११८॥
प्रयोज्यं विधिवत्सर्पिर्बलवर्णाग्निवर्धनम्।
विविधेष्वन्नपानेषु केवलं वा निरत्ययम्॥११९॥
अपतन्त्रके शुकनासाद्यं घृतम्।
शुकनासा नागवल्ली द्वे बृहत्यौ महौषधम्।
निचुलश्चैव भार्गीच काकादन्युपचेलिका॥१२०॥
पुनर्नवा चेति समैरक्षमात्रैः पचेद्भिषक्।
तोयाढके घृतप्रस्थं सिद्धं तच्चापि पाययेत्॥१२१॥
कासं श्वासं महाहिक्कां हृद्रोगं सापतन्त्रकम्।
नातिक्रामेदिदं सर्पिर्वेलामिव महोदधिः॥१२२॥
उन्मादे चेतसं घृतम्।
श्यामा मधुरसा रास्ना दशमूलं शतावरी।
श्वदंष्ट्रा शणमूलं च तैर्युक्त्या क्वाथकल्कितैः॥११३॥
साधितं चेतसं नाम घृतं चेतोविकारनुत्।
उन्मादमदमूर्च्छायज्वरापस्मारभेषजम्॥१२४॥
क्षीणक्षते समदुग्धकं घृतम्।
षोडशभिर्जलपात्रैर्मृद्वीकायाः पलानि दश षट् च।
अष्टौमधुकफलानि छागान्मांसात्तुलार्धं च॥१२५॥
अवशिष्टपादतोयं पूतं शीतं कषायमवतार्य।
दत्त्वा कषायतुल्यं पयोऽथ नवसर्पिषः प्रस्थम्॥१२६॥
ऋषभकजीवकमेदाविदारिवीरात्मगुप्तानाम्।
भव्याक्षोटनिकोचकशृङ्गाटकपद्मकबीजानाम्॥१२७॥
भागानक्षसमानथ संसाधयेत्तु मृद्वग्नौ।
सम्यक् सिद्धे तस्मिन् सितशर्करापलान्यष्टौ॥१२८॥
मधुनश्च पलान्यष्टौ चत्वारि पलानि पिप्पलीचूर्णात्।
समदुग्धकघृतमेतज्जनकेश्वरपूजितं समुद्दिष्टं॥१२९॥
क्षीणक्षतेऽल्पशुक्रे तद्रक्तपैत्तिकेषु रोगेषु।
स्त्रीकामेषु च देयं बल्यं वृष्यं च घृतमेतत्॥१३०॥
वातगुल्मे हिङ्ग्वाद्यं घृतम्।
हिङ्गुसौवर्चलव्योषविडदाडिमदीप्यकैः।
पुष्कराजाजिधान्याम्लवेतसक्षारचित्रकैः॥१३१॥
शठीवचाजमन्धैलासुरसैर्दधिसंयुतैः।
शूलानाहहरं सर्पिः साधयेद्वातगुल्मिनाम्॥१३२॥
इति श्रीशोढलग्रथिते गदनिग्रहे परिशिष्टः प्रथमो घृताधिकारः समाप्तः।
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अथ परिशिष्टो द्वितीयस्तैलाधिकारः।
बृहत्सहचरतैलम्।
क्वाथे साहचरे शतावरियुते क्षुद्रामृतैरण्डजे
श्योनाकारणिबिल्वगोक्षुरयुते सिंहाग्निमन्थोद्भवे।
रास्नोशीरविशालदारुतगरैस्त्वक्पत्रमेदानखैः
स्पृक्काशैलघनैलवालुसरलैः कङ्कोलकुष्ठोत्पलैः॥१॥
कौन्तीकेशीबलाद्विसारिवनिशाश्यामाशताहानतै-
र्मञ्जिष्ठापुरसिह्वचन्दनवरैश्चण्डाह्वस्थौणेयकैः।
श्रीवेष्टागरुरोध्रकुङ्कुमवरैः कल्कैः समांशैरिमै-
स्तैलं क्षीरसमं विपाच्य विधिना बस्तौ च नस्ये ध्रुवम्॥२॥
पानाभ्यङ्गविधौ नियोजितमिदं वातादिसर्वामयान्
गुल्माष्ठीलशिरोर्तिशूलमुदरं श्वासामकासज्वरम्।
शोफं प्लीहगुदामयं च जठरं धातुक्षयाध्मानकं
अर्शःकृष्ठभगन्दरं च शमयेत्सर्वान् व्रणान् हन्ति च॥३॥
जयति पवनरोगान् कामलां विड्विबन्धं।
दिननिशितिमिरान्ध्यं गृध्रसीं मूर्ध्निवातम्।
सहचरमिति नाम्ना तैलमेतत्प्रसिद्धं
धनपतिनृपयोग्यं भाषितं शम्भुनैव॥४॥
तरक्षाद्यं तैलम्।
तरक्षस्य शृगालस्य पादावन्त्राणि संत्यजेत्।
कोष्ठसारादिकं सर्वमुत्क्वाथ्य बहुलेऽम्भसि॥५॥
पादशेषं परिगृह्य छागगव्यपयोन्वितम्।
तैलं रससमं दत्त्वा मदिरामस्तुकाञ्जिकम्॥६॥
देवदारु हरिद्रे द्वे मांसी कुष्ठं सचन्दनम्।
करञ्जस्त्रिवृता मुस्ता पत्राङ्गं रेणुकं त्वचम्॥७॥
क्षारद्वयं त्रिकटुकं पञ्चैव लवणानि च।
वचा तुरगगन्धा च मञ्जिष्ठा सर्जगुग्गुलू॥८॥
मेदा रास्ना च वर्षाभूरेला शैलेयकं बला।
एतैरर्धपलैर्द्रव्यैः शनैर्मृद्वग्निना पचेत्॥९॥
तैलं तेनैव नश्यन्ति रोगा देहे शरीरिणाम्।
अशीतिं वातजान् रोगान् शोफं शूलं कटिग्रहम्॥१०॥
मांसमेदःश्रितं वायुं हर्षं चैव भगन्दरम्।
लूतां सद्योव्रणं चैव नाडीदुष्टव्रणानि च॥११॥
भूतग्रहमपस्मारमुन्मादं च नियच्छति।
हन्ति वातमसाध्यं च पामादद्रुविचर्चिकाः॥१२॥
एतत्तैलं सदाभ्यङ्गात्सर्वरोगहरं नृणाम्।
व्याघ्रतैलम्।
व्याघ्रं शिरः समादाय क्वाथयित्वा जले बहु॥१३॥
उदूखले क्षोदयित्वा रसं नीत्वा सुगालितम्।
दद्यात्कटाहे सुदृढे पचेत्पाकं विधानतः॥१४॥
द्रव्याण्येतानि मतिमान् पादमानेन दापयेत्।
देवदारुवातं कुष्ठं तगरं चन्दनं घनः॥१५॥
मञ्जिष्ठा पुष्करं रास्ना चातुर्जातकसैन्धवम्।
पिप्पली मरिचं शुण्ठी मांसी सहचरो जलम्॥१६॥
अश्वगन्धात्मगुप्ते च क्रमुकश्च शतावरी।
श्वदंष्ट्रा केतकी मूर्वामधुकं चागुरुस्तथा॥१७॥
जातीफलं च सुमनापत्री कटुकरोहिणी।
ग्रन्थिकं शुक्लकन्दा च शतपुष्पा पुनर्नवा॥१८॥
जीवनीयो गणश्चैव रालाकेसरबोलकम्।
नखं च कृष्णसारश्च वत्सनाभस्तथैव च॥१९॥
अस्य तैलस्य सिद्धस्स शृणु वीर्यमतः परम्।
अशीतिवातजान् रोगान् हन्यादाशु प्रयोजितः॥२०॥
अश्वानां वातभग्नानां गजानां शिशूनामपि।
अंशशोषे खुडे वाते क्रोष्टुशीर्षे कटिग्रहे॥२१॥
मन्यास्तम्भे हनुश्रोत्रवाते मन्दे तथाऽनले।
व्यन्ध्यानां पुत्रजननं षण्ढानां कामवर्धनम्॥२२॥
अश्विभ्यां निर्मितं चैव प्रजानां हितकारकम्।
अनेनैव विधानेन तैलंतारक्षजं पचेत्॥२३॥
शतावर्यास्तुलामेकां तुलां गोक्षुरकस्य च।
तुलार्धं तिलतैलस्य चैरण्डस्य पलानि षट्॥२४॥
एरण्डपत्रस्वरसपलानि नव कारयेत्।
बुकशिग्रुकतर्कारीसिन्दुवारसुवर्णकात्॥२५॥
नीलिकाग्रन्थिपर्णाभ्यां करञ्जकेशरञ्जकात्।
षट्पलं गुग्गुलोर्दत्त्वा तैलं मृद्वग्निना पचेत्॥२६॥
कौब्ज्याक्षेपकपाङ्गुल्यसुप्तत्वक्मन्दगामिताः।
पक्षाघातहनुस्तम्भसन्धिरोगादिकानपि॥२७॥
नाशयेत्तत्क्षणादेव तमः सूर्योदये यथा।
तैलं वातारिनामेदं सर्ववातहरं परम्॥२८॥
दारुणके सारिवाद्यं तैलम्।
सारिवोग्रामृतायष्टीत्रिफलानीलमुत्पलम्।
नीलीभृङ्गारकासीसमहानिम्बफलानि च॥२९॥
कटुतैलं पचेदेभिः सार्धं यवरसेन तु।
कण्डूं दारुणकं हन्ति शिरोरोगे च शस्यते॥३०॥
वातरोगे दशाङ्गतैलम्।
तर्कारीभृङ्गशिग्रूणां निर्गुण्डीशणयोस्तथा।
वातघ्नवासाजातीनां निम्बभास्करयोरपि॥३१॥
स्वरसं तु समादाय प्रत्येकं प्रस्थमानतः।
प्रस्थं तु विलतैलस्य शनैर्मुद्वग्निना पचेत्॥३२॥
एरण्डमूलवर्षाभूहयगन्धाशतावरी–
रास्नागोक्षुरकाश्चैव शतपुष्पा च सैन्धवम्॥३३॥
प्रत्येकं कर्षमादाय कर्षार्धं त्रिकटोस्तथा।
एलात्वक्पत्रमांसीनां कर्षार्धं च विनिक्षिपेत्॥३४॥
तैलेनानेन नश्यन्ति वातरोगाः सुदारुणाः।
आक्षेपकं हनुस्तम्भमपतन्त्रकमर्दितम्॥३५॥
अवबाहुकविश्वाचीयक्षाघातापतानकम्।
स्नायुसन्धिगतं वातं सप्तधातुमतं तथा॥३६॥
ऊरुस्तम्भं वातरक्तमामवातं सुदारुणम्।
दशाङ्गसंज्ञकं तैलं हन्यादन्यांश्च वातजान्॥३७॥
कर्पूराद्यं तैलम्।
कर्पूरचन्दनवचासुरुदारुमूर्वा–
गन्धर्वमूलरजनीद्वयसिन्धुजातैः।
मेदाद्वयत्रिकटुपुष्करमूलकुष्ठ–
रास्नाह्वयासुहरितालककुङ्कुमैश्च॥३८॥
पथ्यासकेसतगरागरुसारमेय
शृङ्गिजटाह्वययुतैः खलु कल्कितैश्च
गोदुग्धयुक् कटुकतैलमिदं विपक्वं
ख्यातं निहन्ति सहसा विविधा रुजश्च॥३९॥
जरे लक्षादिकं तैलम्।
लाक्षारससमं तैलं तैलान्मस्तु चतुर्गुणम्।
अश्वगन्धानिशादारुकौन्तीकुष्ठाब्जचन्दनैः॥४०॥
मूर्वारोहिणिकासस्नाशताह्वामधुकैः सह।
सिद्धं लाक्षादिकं नाम तैलमभ्यञ्जनादिभिः॥४१॥
सर्वज्वरविषोन्मादश्वासापस्मारकासनुत्।
यक्षराक्षसभूतघ्नं गर्भिणीनां च शस्यते॥४२॥
पित्तज्वरेण तीव्रण दह्यमानस्य देहिनः।
प्रवातमन्दिरस्थस्य कुर्याच्छीतामिमां क्रियाम्॥४३॥
अन्वासनं तैलम्।
पिप्पली पौष्करं मूलं शतपुष्पा वचा शठी।
यष्ट्याहं देवदारुश्च चित्रको मदनात्फलम्॥४४॥
बिल्वं कुष्ठं च कल्केन तैलात्पादांशकेन हि।
तैलतो द्विगुणं क्षीरं दत्त्वा मृद्वग्निना पचेत्॥४५॥
एतदन्वासनं नाम गुदस्रावं प्रवाहिकाम्।
गुदव्यथां पुरीषस्य प्रवृत्तिं च पुनः पुनः॥४६॥
वङ्क्षणस्यावरोधं च गलरोधं कटिग्रहम्।
निहन्ति वातजान् रोगान् दीपयत्यपि चानलम्॥४७॥
महानीलं तैलम्।
ककुभस्य श्रीपर्ण्याः पुष्पं जम्बूफलं प्रियङ्गुश्च।
मञ्जिष्ठा त्रिफलागरुमदनफलं चित्रकश्चैव॥४८॥
नीलोत्पलमृणालकबीजककर्दमकनील्यश्च।
भल्लातः स्रोतोञ्जनमाम्रास्थिकासीसपौण्डरीकं च॥४९॥
मदयन्ती बाकुंचिका रोध्रं चैतैस्तु समभागैः।
तुलसीपत्रं बीजं सणस्यसूर्यभक्ता च॥५०॥
काकमाचीदारुकयष्टीमधुमार्कवं च सैरेयः।
एतैर्द्विगुणैः कल्कीकृतैर्बिभीतमञ्जतैलं च॥५१॥
कल्काच्चतुर्गुणितं, तच्चतुर्गुणोऽथ धात्रीस्वरसः।
सूर्यातपे विपाच्यं नाम्ना तैलं महानीलम्॥
पलितादिषु प्रयोज्यं जत्रूर्ध्वगेषु च निपुणतरैः॥५२॥
पलिते नील्याद्यंतैलम्।
नीलीदलं भृङ्गरजोऽर्जुनत्वक् पिण्डीतकं कृष्णमयोरजश्च।
बीजोद्भवं साहचरं च पुष्पं पथ्याक्षधात्रीसहितं विपाच्य॥५३॥
एकीकृतं सर्वमदः प्रमाय पङ्केन तुल्यं नलिनीभवेन।
संयोज्य पक्षं कलशे निधाय लौहे दृढे सद्मनि सापिधाने॥५४॥
एतेन तैलं विपचेद्विमृश्य रसेन भृङ्गत्रिफलाभवेन।
आसन्नपाके च परीक्षणार्थंपक्षं बलाकाभवमाक्षिपेच्च॥५५॥
भवेद्यदा तद्भमराङ्गनीलं तदा विपक्वंविनिधाय पात्रे।
कृष्णायसे मासमवस्थितं तदभ्यङ्गयोगात्पलितानि हन्यात्॥५६॥
ऊरुस्तम्भे द्विपञ्चमूल्याद्यं तैलम्।
द्वे पञ्चमूल्यौ त्रिफला चित्रको देवदारु च।
एकाष्ठीला त्वपामार्गः श्रेयसी वायसी सुधा॥५७॥
काला भार्गींपृथक्पर्णी सुवहा मदयन्तिका।
विशल्योशीरकाश्मर्यहिंस्रादार्व्यस्तथाऽम्लिका॥५८॥
चिरबिल्वो विंशोकश्च बला चांशुमती तथा।
पयस्या पीलुपर्णी च सगुडूची शतावरी॥५९॥
एषां पञ्चपलान् भागान् जलद्रोणेषु सप्तसु।
अष्टभागावशेषेण पचेत्तैलं शनैः शनैः॥६०॥
कुष्ठं च शतपुष्पा च चित्रकस्त्र्यूषणं वचा।
देवदार्वगरु श्रेष्ठंविडङ्गं मुस्तमेव च॥६१॥
अश्वगन्धा स्थिरा पाठा मूर्वा श्योनाकमेव च।
पिप्पली शृङ्गवेरं च दन्ती हिङ्ग्वम्लवेतसौ॥६२॥
गर्भेणानेन भिषक्कषायेण च साधयेत्।
सिद्धं शीतं च पूतं च क्षौद्रेण सह संसृजेत्॥६३॥
तदस्य दद्यात्पानार्थं तदेवाभ्यञ्जने भवेत्।
ऊरुस्तम्भश्चिरोत्पन्नस्तैलेनानेन शाम्यति॥६४॥
आढ्यवातं श्लीपदानि खुडवातांश्च नाशयेत्।
अर्शसि कासीसाद्यं तैलम्।
काशीसदन्तीसिन्धूत्थकरवीरानलैः पचेत्॥६५॥
तैलमर्कपयोन्मिश्रमभ्यङ्गात्पायुकीलजित्।
कृमिरोगे महावीर्यंतैलम्।
शशमार्जारयोर्बभ्रोः कपेर्वृषवराहयोः॥६६॥
मांसानां द्वे तुले सम्यक् पचेद्द्रोणेषु सप्तसु।
अष्टभागावशेषेण तेन तैलाढकं पचेत्॥६७॥
भासवायसकाकानां गृध्रस्याखोः शुकस्य च।
कलविङ्ककुलिङ्गानां कुक्कुटस्य च या वसा॥६८॥
मज्जाश्च दापयेदेषां पित्तान्यपि च लाभतः।
अपामार्गफलं भार्गीबीजं शैरीषमेव च॥६९॥
फणिज्झकं बिडङ्गानि शिग्रुकस्स त्वचस्तथा।
त्र्यूषणं हिङ्गुकफलं वचा कुष्ठं सचन्दनम्॥७०॥
हस्तिपर्ण्याः शिरीषस्य ककुभस्यासनस्य च।
पलाशस्यारिमेदस्य मूलं बीजं च संहरेत्॥७१॥
पिचुमन्दस्य निर्यासः शल्लक्या गुग्गुलोस्तथा।
हिङ्ग्वम्लवेतसौ चापि तथा ग्राह्या निदिग्धिका॥७२॥
तुल्यान्येतानि गर्भाणि तैलं कर्णप्रपूरणम्।
नावनं चावगाहश्च शीर्षकृमिविनाशनम्॥७३॥
तैलस्यास्य प्रणीतस्यगन्धेन कृमयः स्थिराः।
नश्यन्ति न विवर्धन्ते बलात्सुबहवोऽपि वा॥७४॥
युक्त्यास्मिन् कृमयस्तैले नस्ये तु प्रतिपादिते।
तालुं भित्वाऽऽशु शिरसः प्रद्रवन्त्युपपीडिताः॥७५॥
सर्वकृमिहरं ह्येतत्तैलं शिरसि देहिनाम्।
बलाबलं चिन्तयित्वा नस्यं तदवचारयेत्॥७६॥
कृमिभिर्भक्ष्यमाणानां नराणामेतदुत्तमम्।
तैलमेतन्महावीर्यं सर्वकृमिविनाशनम्॥७७॥
अन्त्रवृद्धौ गन्धर्वतैलम्।
शतमेरण्डमूलस्य शुण्ठीपलयवाढके।
जलद्रोणेऽथ पयसा पचेदष्टगुणेन तु॥७८॥
प्रस्थमेरण्डतैलस्यसप्तला द्विपलं तथा।
द्विपलं शृङ्गवेरस्य गर्भं दत्त्वा शनैः पचेत्॥७९॥
पिबेत्तन्नियतः शुद्धो नरः क्षीरान्नभुक् भवेत्।
अन्त्रवृद्धिं निहन्त्याशु तैलं गन्धर्वसंज्ञितम्॥८०॥
कर्णरोगे लाङ्गल्याद्यं तैलम्।
लाङ्गलीकुष्ठमरिचं शुण्ठी मागधिका धनम्।
सरसाञ्जनकासीसं जतुसैन्धवगुग्गुलु॥८१॥
मनःशिलाले निर्गुण्डी बिल्वं भल्लातिकं तथा।
कार्षिकैर्देवदारूत्थतैलस्य द्विपलेन च॥८२॥
कुडवं तिलतैलस्य पचेन्मूत्रे चतुर्गुणे।
तत्कर्णपूरणत्क्षिप्रं पूयस्रावनिवारणम्॥८३॥
कृमिघ्नं दुष्टनाडीघ्नं व्रणानां चैव रोपणम्।
शिरोरोगे महानीलं तैलम्।
आदित्यबल्या मूलानि कृष्णसैरेयकस्य च॥८४॥
सुरसस्य च पत्राणि फलं कृष्णसणस्य च।
मार्कण्डःकाकच्चाची च मधुकं देवदारु च॥८५॥
पृथक् दशपलांशानि पिप्पली त्रिफलाऽञ्जनम्।
प्रपौण्डरीकं मञ्जिष्ठा रोध्रं कृष्णागरूत्पलम्॥८६॥
आम्रास्थि कर्दमः कृष्णो मृणालं रक्तचन्दनम्।
नीली भल्लातकास्थीनि कासीसं मदयन्तिका॥८७॥
सोमराज्यसनात्पुष्पं कृष्णपिण्डितचित्रकौ।
पुष्पाण्यर्जुनकाश्मर्योः श्यामा जम्बूफलानि च॥८८॥
पृथक् पञ्चपलांशानि तैः पिष्टैराढ़कं पचेत्।
बिभीतकस्य तैलस्य धात्रीरसचतुर्गुणम्॥८९॥
कुर्यादादित्यपाकं च यावत् शुष्को भवेद्रसः।
लोहपात्रे ततः पूतं संशुद्धमथ योजयेत्॥९०॥
कुष्ठे गुञ्जामूलाद्यं तैलम्।
गुञ्जिकामूलत्रिफलात्रिशूलीपुरतालकैः।
पुत्रञ्जीवास्थिसिन्दूरमधूच्छिष्टनिशायुगैः॥९१॥
बिशानलशिखाकन्दवचापरशुच्छिन्नकैः।
पृथक्पलार्धकैःपिष्टैस्तैलमर्धाढकं कटोः॥९२॥
समालोड्य पचेत्सम्यग्गवां मूत्रे चतुर्गुणे।
विपाच्य मतिमान् वैद्यः सर्वकुष्ठव्रणापहम्॥९३॥
तैलं कुष्ठहरं वर्ण्यं फणिकीटविषापहम्।
कण्डूविचर्चिकासिध्मवातासृक्शमनं परम्॥९४॥
मजिष्ठाद्यं तैलम्।
मञ्जिष्ठा पद्मकं कुष्ठं चन्दनं गैरिकं बला।
हरिद्रे द्वे प्रियङ्गुश्च नागं यष्टी सबाकुची॥९५॥
दारु प्रपौण्डरीकं च पिष्ट्वाऽर्धपलिकानि तु।
तैलप्रस्थं गवां क्षीरं दत्त्वा क्वाथं तथासनात्॥९६॥
चतुर्गुणं भृङ्गरसं शनैर्मुद्वग्निना पचेत्।
अस्य तैलस्य पक्वस्य शृणु वीर्यमतः परम्॥९७॥
केशशाते शिरोदुःखे मन्यास्तम्भेहनुग्रहे।
दन्तकर्णाक्षिशूले च नस्येऽभ्यङ्गे च योजयेत्॥९८॥
सुकुञ्चिताग्रान् सुस्निग्धान् केशान् संजनयेद्बहून्।
पलिते चेन्द्रलुप्तेच तैलमेतत्प्रशस्यते॥९९॥
मञ्जिष्ठाद्यमिदं नाम्ना शिरोरोगनिवारणम्।
कुष्ठे सिद्धार्थकतैलम्।
करवीरवचातुम्बरुरसाञ्जनकरञ्जभृङ्गलाक्षाभिः॥१००॥
सारुष्करसिद्धार्थकमूलकबीजाग्निगण्डीरैः।
रजनीद्वयमञ्जिष्ठारवग्वविडङ्गमाक्षीकैः॥१०१॥
सैन्धवकटुकालाबुपिचुमर्दास्फोटमालतीभिश्च।
सर्षपतैलं कारञ्जं वा गवां मूत्रेण वै सिद्धम्॥१०२॥
द्विगुणेन साधितमचिरादभ्यङ्गाद्धन्ति कुष्ठानि।
अष्टादशापि सिद्धं तैलं सिद्धार्थकं नाम॥१०३॥
इति श्रीसोढलग्रथिते गदनिग्रहे परिशिष्टे द्वितीयस्तैलाधिकारः।
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अथातः परिशिष्टस्तृतीयश्चूर्णाधिकारः।
मन्दाग्नौ शुण्ठ्याद्यंचूर्णम्।
शुण्ठीं ससौवर्चलचित्रकाभयां सरामठां दाडिमसैन्धवान्वितां।
खादन्ति ये मन्दहुताशना भुवि भवन्ति ते वाडवतुल्यवह्नयः॥१॥
हृद्रोगे तिक्तकं चूर्णम्।
मुस्तैलाचन्दनोशीरं यवानी व्योषवत्सकौ।
फलं त्वक् कटुका दारु दार्वी त्वक्पर्पटस्तथा॥२॥
पटोलपत्रं षड्ग्रन्थामूर्वाभूनिम्बशिग्रुकाः।
त्रायमाणा च सौराष्ट्री सुरा प्रतिविषा समाः।
तिक्तकं नाम हृद्गुल्मशूलघ्नं सन्निपातनुत्॥३॥
कुष्ठे लाक्षाद्यंचूर्णम्।
लाक्षा दन्ती च मूर्वा मधुरसवचाद्वीपिपाठाद्रिकर्णी
प्रत्यक्पुष्पीविडङ्गं त्रिकटुकरजनीसप्तपर्णाटरूषम्।
रक्ता निम्बं सुरतरु वचा पञ्चमूल्यौ च चूर्णं।
पीत्वा मासं जयति मितभुक् गव्यमूत्रेण कुष्ठम्॥४॥
ग्रहण्यांपञ्चामृतरसः
कर्षं रसाद्गन्धकतस्तथैव विमर्द्य खल्वेऽभ्रकमेव तावत्।
दद्यात्तथा ताप्यमयोरजश्च गव्येन चाज्येन विमृश्य किञ्चित् ॥५॥
पात्रे मन्दं वह्निना ज्वालयेत्तद्दद्यान्मात्रां रक्तिकैकप्रवृद्ध्या।
यावन्माषो नाधिकं मानवेभ्यः कृत्वा वह्नेर्दीपनं हन्ति रोगान् ॥६॥
पाण्डुप्लीहोन्माददुर्नाममेहान् पित्तं साम्लं सातिसारं ज्वरं च।
सद्यः शूलान् त्वग्ग्रहण्यामयं च तथैव रोगान् खलु सूतिकायाः ॥७॥
अयं हि पञ्चामृतनामधेयो रसेन्द्रराजः क्षयरोगहारी।
वातास्रमुग्रं श्वयथुं च हन्यात्स्वयोगयुक्तः सकलान्विकारान् ॥८॥
पञ्चसमं चूर्णम्।
पथ्यानागरजीरकाख्यरुचकैः श्यामान्वितैः पञ्चभि-
श्चूर्णं पञ्चसमं समस्तरुजहृत्कायाग्निसंदीपनम्।
प्राणोत्साहविवर्धनं रुचिकरं गुल्मघ्नप्लीहापहं
प्रत्याध्मानगरादिशमनं सामानिले पूजितम्॥९॥
छर्द्यांबदराद्यंचूर्णम्।
बदरत्रिफलानां च व्योषस्य च पलद्वयम्।
कर्पूरकर्षो लाजानां पलद्वादशकं भवेत्॥१०॥
एलात्वक्पत्रकाणां तु पलं स्याद्वंशरोचना।
पलाष्टका, वेतसाम्लश्चतुष्पलमुदाहृतः॥११॥
चूर्णं द्विगुणखण्डं तु हृद्यं वमिहरं परम्।
यक्ष्माणं रक्तपित्तं च ज्वरं कासं च नाशयेत्॥१२॥
उदरे नवक्षारकं चूर्णम्।
तुवरीटङ्कणव्योषसामुद्रं सैन्धवं बिडम्।
काचं सौवर्चलं चव्यं क्षारश्चेक्षुरकोद्भवः॥१३॥
एतानि समभागानि चूर्णीकृत्य प्रयोजयेत्।
रक्तवातारुचिप्लीहोदररोगापनुत्तये॥१४॥
मन्दाग्नाावजमोदाद्यं चूर्णम्।
साजमोदलवणा हरीतकी शृङ्गवेरसहिता च पिप्पली।
मद्येन तक्रेण तथोष्णवारिणा चूर्णपानमुदराग्निदीपनम्॥१५॥
दन्तरोगे जातीपत्राद्यं चूर्णम्।
जातीपत्रपुनर्नवातिलकणाकोरण्टपुष्पं वचा।
शुण्ठीदीप्यकपथ्यकाः समधृतं चूर्णं मुखे धारयेत्॥
वातघ्नं कफनाशनं कृमिहरं दुर्गन्धिनिर्नाशनं
शूलं शोफहरं च रक्तशमनं दतांश्च वज्रायते॥१६॥
कासे जातीफलाद्यं चूर्णम्।
जातीफलं विडङ्गं च चित्रकस्तगरस्तिलाः।
तालीसं चन्दनं शुण्ठी लवङ्गं चोपकुञ्चिका॥१७॥
कर्पूरं चाभया धात्री मरिचं पिप्पली शुभा।
एषामक्षसमान् भागान् चातुर्जातकसंयुतान्॥१८॥
पलानि त्रीणि भृङ्गायाः शर्करा समयोजिता।
एतच्चूर्णंतु मधुना कर्षार्धंलेहयेत्तथा॥१९॥
जयेत्कासं क्षयं श्वासं ग्रहणीमग्निमार्दवम्।
वातश्लेष्मोद्भवांश्चान्यान् प्रतिश्यायमरोचकम्॥२०॥
एताः सर्वा रुजो हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा।
दाडिमाद्यं चूर्णम्।
दाडिमस्य पलान्यष्टौ शृङ्गवेरपलत्रयम्॥२१॥
पलद्वयं पिप्पली च कोलचूर्णं पलद्वयम्।
यवानी चाजमोदा च मिशिश्चैवाम्लवेतसम्॥२२॥
वृक्षाम्लं चविका चात्र अभया च पलोन्मिता।
सौवर्चलं धान्यकं च सूक्ष्मैला त्वक्तथैव च॥२३॥
ग्रन्थिकं मरिचं चात्र पत्रकं सतुगाह्वयम्।
एषामर्धपलान् भागान् सर्वैस्तुल्या सिता भवेत्॥२४॥
एतत्प्राक् भोजनाच्चूर्णं दीपनं गुल्मनाशनम्।
अर्शांसि ग्रहणीदोषमतीसारं प्रवाहिकाम्।
पार्श्वशूलमथानाहं प्रमेहांश्च प्रणाशयेत्॥२५॥
मन्दाग्नावामलक्यादिचूर्णम्।
आमलकवह्निपथ्यामागधिकासैन्धवैः कृतं चूर्णम्।
विनिहन्ति कण्ठरोगं मन्दाग्निं रक्तपित्तमपि॥२६॥
स्त्रीरोगे मेथिकाद्यं चूर्णम्।
मेथिका शतपुष्पा च यवानी मधुयष्टिका।
त्रिकटु त्रिफला मुस्ता त्रिजातं च पुनर्नवा॥२७॥
ऋष्यप्रोक्ता समङ्गा च चन्दनं रक्तचन्दनम्।
द्राक्षापुष्करमञ्जिष्ठाः समं चूर्णं प्रकल्पयेत्॥२८॥
घृतखण्डेन पक्तव्यं काले स्त्रीणां च दापयेत्।
वन्ध्यानां गर्भजननं स्त्रीणां बलविवर्धनम्॥२९॥
रक्तवातप्रशमनं पित्तोपद्रवनाशनम्।
त्रिदोषे रुद्धगर्भे च परमं सुखकारकम्॥३०॥
कामवृद्धौ राजयोगः।
अहिफेनं वत्सनागः केशरं चव्यचित्रकम्।
धत्तूरभृङ्गशिग्रूणां बीजानि सितजीरकम्॥३१॥
कपिकच्छुश्चाश्वगन्धा कलिङ्गकलवङ्गकम्।
अजमोदार्ककरभो मुशली च शतावरी॥३२॥
पिप्पली पिप्पलीमूलं चातुर्जातकसंयुतम्।
कटाहे मधुना पक्त्वा कुर्यात्पूगोपमा वटीः॥३३॥
भोजनानन्तरं वक्रे गुटी धार्या घटीद्वयम्।
जातीपत्री विशेषेण धारणीया मुखे सदा॥३४॥
क्षाराम्लदधिवर्जं च कार्यं भोजनमुत्तमम्।
षण्ढत्वं स्वल्पवीर्यत्वं हन्याच्छीतमिवानलः॥३५॥
अतिसारे प्रमेहे च मन्दाग्नौ राजयक्ष्मणि।
आमवाते पाण्डुरोगे महावाते शिरोगदे॥३६॥
प्लीह्निपानीयजे रोगे सर्वाङ्गवात इष्यते।
ईश्वरेण भगवता कार्तिकेयाय सुन्दरः॥३७॥
एष द्वात्रिंशको नाम योगराजः प्रकीर्तितः।
क्षये आभाद्यं चूर्णम्।
आभा च धातुमाक्षीकं गिरिजं च त्रिजातकम्॥३८॥
जीकर्षभकौ मेदा काकोली पुण्डरीयकम्।
व्योषं च वालकं चैव पृथ्वी कालेयकं बिडम्॥३९॥
एतानि समभागानि आयसं द्विगुणं क्षिपेत्।
शर्करा च समा देया मधुना सह लेहयेत्॥४०॥
क्षयमेकादशाकारं श्वासं कासं तथैव च।
स्वरभेदं पार्श्वशूलं ज्वरं कम्पं च दारुणम्॥४१॥
रक्तनिष्ठीवनं तृष्णां पीनसं च हनुग्रहम्।
हिध्मां च कण्ठरोगांश्च नाशयेन्नात्र संशयः॥४२॥
पिप्पल्याद्यं चूर्णम्।
चत्वारि पिप्पलीनां तु पञ्च सौवर्चलोद्भवाः।
जीरकस्य त्रयो भागाः शुण्ठ्या भागत्रयं तथा॥४३॥
सप्त सप्त स्मृता भागास्तीक्ष्णदाडिमसारयोः।
द्वौ भागौ तिन्तिडीकस्य चत्वारश्चाम्लवेतसात्॥४४॥
षड्भागाः सैन्धवस्योक्तास्तथाऽर्धो हिङ्गुतः स्मृतः।
निस्तुषानां विडङ्गानामेको भागः प्रकीर्तितः॥४५॥
तत्सर्वमेकतः कृत्वा सूक्ष्मचूर्णं तु कारयेत्।
लवणं दीपनमिदं वातश्लेष्मविकारनुत्।
रुच्यमन्नेन संयुक्तं केवलं वा हितं तथा॥४६॥
मन्दाग्नौ रुचकाद्यं चूर्णम्।
रुचकमरिचशुण्ठीजीरकैर्भागवृद्धै–
र्बिडलवणविभागः सैन्धवं चापि सार्धम्।
कफपवनविकारे शस्यते वातगुल्मे
जनयति जठराग्निं भोजने चेत्सतक्रम्॥४७॥
मन्दाग्नौ सिंहचूर्णम्।
अर्धं हिङ्गुपलं पलं सुविमलं सौवर्चलं द्वे पले
प्रत्येकं मरिचाम्लदीप्यलवणाम्भोराशिजातान् क्षिपेत्।
शुण्ठ्याश्च त्रिपलं चतुष्पलमपि स्याद्दाडिमं जीरकं
श्रीमत्सिंहणभूमिपालकथितं सेव्यं सदेदं बुधैः॥४८॥
अर्शसि सूरणाद्यं चूर्णम्।
सूरणं दहनं क्षारो मरिचं नागरं क्रमात्।
अर्धार्धकमिदं चूर्णं क्षाराम्लार्द्रकभावितम्॥४९॥
हन्यादर्शांसि शूलं च गुल्मप्लीहोदरकृमीन्।
भुक्तं भुक्तं पचत्याशु शान्तमग्निं च दीपयेत्॥५०॥
वातरोगे हरीतकीयोगः।
धान्यकाञ्जिकयुता हरीतकी हिङ्गुसैन्धवकणासुपूरिता।
भक्षिता भवति वातरोगहा हन्त्यजीर्णमथ च क्षुधाकरी॥५१॥
विद्रधौ भूनिम्बाद्यं चूर्णम्।
भूनिम्बार्धपलं निशापलयुतं दार्व्याः पले द्वे तथा
दार्व्यर्धेन पुनर्नवां कुरु समां दार्वीसमः प्रग्रहः।
सार्धं दुःस्पर्शया तु कटुका योज्या तदर्धेन वै
अश्माह्वंनिशया समानममृता पादाधिकं स्यात्पलम्॥५२॥
एतद्वत्सकसप्तकर्षसहितं सुश्लक्ष्णचूर्णीकृतं
वासायाः स्वरसेन भावितमिदं त्रीन् सप्त वा वासरान्।
भूयस्तद्गुडवारिणा प्रमुदितं पेयं पुरःस्थेरवौ
एतद्विद्रधिरोगिणां विजयकृत् चूर्णं तु गुह्योत्तमम्॥५३॥
ज्वरे किराततिक्ताद्यं चूर्णम्।
किराततिक्तं त्रिफलापटोलं तिक्तेन्द्रबीजं सुरदारु दार्वी।
व्योषं शठीचन्दनयुग्मनिम्बं दुरालभाचन्दनपद्मकं च॥५४॥
पुनर्नवोशीरविषागुडूचीत्रायन्तिकापिप्पलिमूलतुल्यम्।
चूर्णं विलिह्यान्मधुनाऽथ वारिणा तथाऽनुपानं त्वमृतारसेन ॥५५॥
ज्वरं पुराणं विनिहन्ति शीघ्रं तृतीयकं वा वमिदाहयुक्तम्।
चातुर्थकं चास्यगतांश्च रोगान् सपीनसं कामलमाशु हन्ति ॥५६॥
कासे दुरालभाद्यंचूर्णम्।
दुरालभां शृङ्गवेरं शठीं द्राक्षां सितोपलाम्।
लिह्यात्कर्कटशृङ्गीं च कासे तैलेन वातजे॥५७॥
ग्रहण्यां पिप्पलीमूलाद्यं चूर्णम्।
समूला पिप्पली क्षारौ द्वौ पञ्चलवणानि च।
मातुलुङ्गाभयारास्नाशठीमरिचनागरम्॥५८॥
कृत्वा समांशं तच्चूर्णं पिबेत्प्रातः सुखाम्बुना।
श्लेष्मके ग्रहणीदोषे बलवर्णाग्निवर्धनम्॥५९॥
ग्रहण्यां कुठेरकाद्यं चूर्णम्।
कुठेरकश्चामलकी यवानी फलत्रिकं चैव कटुत्रिकं च।
वृन्ताकगण्डीरवृषं सनिम्बं कुष्ठं तथा चेन्द्रयवा विडङ्गम् ॥६०॥
बीजानि दद्यान्निचुलस्य दार्वी दुरालभा तिक्तकरोहिणी च।
दुर्वोग्रगन्धाऽतिविषा गुडूची किराततिक्तं गजपिप्पली च॥६१॥
सर्वाण्युपाहृत्य तु चूर्णमेषां भागांशयुक्तं लवणं द्विरंशम्।
अयोरजः स्यात्त्रिगुणं च युक्तं फलत्रिकं स्याच्चतुरंशयुक्तम्॥६२॥
चूर्णीकृतं तद्धृतभाजनस्थं पिबेच्च मद्येन सुखोदकेन।
चूर्णं यथासात्म्यबलानुरूपं प्लीहाग्निसादारुचिपार्श्वशूलम्॥६३॥
प्रमेहकुष्ठानथ पाण्डुरोगं हृद्रोगगुल्मं विषमज्वरं च।
भगन्दरं श्वासगदांश्च हन्यात् मुदुस्तरान् वातकफोद्भवांस्तु।
एतद्धि चूर्णं बलमांसकारि ओजस्करं रोगगणापहारि॥६४॥
शोफे अयोरजश्चूर्णम्।
त्रिफलायास्तु कुडवं पिप्पलीकुडवं तथा।
विडङ्गमरिचाभ्यां तु द्वे पले च समावपेत्॥६५॥
पलं पलं तु कुर्वीत दन्तीचित्रकयोरपि।
गुडूचीपिप्पलीमूलकुष्ठानां च पलं पलम्॥६६॥
शृङ्गवेरपले द्वे तु पञ्च चव्यात्पलानि च।
शेषाण्यर्धपलीकानि यानि वक्ष्यामि तत्वतः॥६७॥
रास्ना स्थिरा गोक्षुरकं मधुकं देवदारु च।
वचा चातिविषा चैव मुस्तकं कटुरोहिणी॥६८॥
कट्फलं सारिवे द्वे च श्यामा भल्लातकानि च।
पुनर्नवा तेजवती त्वचं पत्रं शतावरी॥६९॥
निदिग्धिका व्याघ्रनखं मञ्जिष्ठा कूटशाल्मली।
निचुलं त्रिवृता भार्गीकुटजस्य फलं त्वचम्॥७०॥
एतदौषधसंभारं सूक्ष्मचूर्णं तु कारयेत्।
यावन्त्येतानि चूर्णानि द्विस्तावत्स्यादयोरजः॥७१॥
तदेकत्र कृतं शोफी लेहयेन्मधुसर्पिषा।
क्षीरं चानुपिबेद्युक्त्या निरन्नक्षीरसेवनः॥७२॥
अयोरजसमित्येतत्ख्यातं सिद्धं रसायनम्।
संवत्सरप्रयोगेण शतवर्षंच जीवति॥७३॥
निहन्ति श्वयथुं चोग्रंवृक्षमिन्द्राशनिर्यथा।
अर्शांसि पाण्डुरोगं च मन्दाग्निं कृमिकोष्ठताम्॥७४॥
भगन्दरं च पामां च कुष्ठानि किटिभानि च।
यस्मिन् यस्मिन् विकारे हि युज्यते त्वयसो रजः।
तं तं निहन्ति वै रोगं देवारीन् केशवो यथा॥७५॥
पाण्डुरोगे नवायसं चूर्णम्।
किराततिक्तं सुरुदारु दार्वी मुस्ता गुडूची कटुका पटोलम्।
दुरालभा पर्पटकं सनिम्बं कटुत्रिकं वह्निफलत्रिकं च॥७६॥
विडङ्गकं चैव समांशकानि सर्वैः समं चूर्णमथापि लौहम्।
सर्पिर्मधुभ्यां गुटिका विधेयाः सेव्या सदा वै बदरप्रमाणाः॥७७॥
निहन्ति पाण्डुंश्वयथुं प्रमेहं हलीमकं संग्रहणीप्रदोषम्।
श्वासं च कासं च सरक्तपित्तमर्शांसि चोर्वोर्ग्रहमामवातम्॥७८॥
प्रवाहिकायां कुटजाद्यं चूर्णम्।
कुटजत्वगिन्द्रयवान् पाठां मुस्तं रसाञ्जनं शुण्ठीम्।
बालं बिल्वमतिविषां कटुकं वै धातकीं समाहृत्य॥७९॥
मधुनाऽऽलोड्य निपीतं तण्डुलपयसा प्रवाहिकां हरति।
अर्शांसि गुदे शूलं पित्तरक्तातिसारं च॥८०॥
गुल्मे समशर्करं चूर्णम्।
त्रिवृत्तुल्यार्धकर्षाणि हिङ्गुसौवर्चलत्वचः।
श्रेष्ठाम्लवेतसव्योषं सर्वैस्तुल्या तु शर्करा॥८१॥
समकं नाम तच्चूर्णं पिबेदुष्णेन वारिणा।
गुल्मान् पञ्च सहृद्रोगान् कुक्षिशूलं च नाशयेत्॥८२॥
शोषे तिलाद्यं चूर्णम्।
तिलकर्कन्धुलाजानां चूर्णं मध्वाज्यसंयुतम्।
क्षीरानुपानं मासेन शोषघ्नं नास्त्यतः परम्॥८३॥
मन्दाग्नौ आमलकादिचूर्णम्।
धात्री भागैकमुक्तं च पथ्या भागत्रयं तथा।
कणाभागत्रयं चैव द्वौ भागौ चित्रकस्य च॥८४॥
भागैकं सैन्धवस्यैतच्चूर्णमामलकादिकम्।
क्षुधाकरमिदं चूर्णं मन्दाग्निं विनिवारयेत्॥८५॥
मन्दाग्नौ सौवर्चलाद्यं चूर्णम्।
सौवर्चलं कणा शुण्ठी रामठं जीरकद्वयम्।
अजमोदा च मरिचमम्लवेतसमेव च॥८६॥
समभागमिदं चूर्णं मन्दाग्निविनिवारणम्।
मन्दाग्नौ अग्निचूर्णम्।
सौवर्चलं सैन्धवं च विडं क्षारः समांशकम्॥८७॥
द्विगुणा च कणा शुण्ठी जीरकं षड्गुणं तथा।
अग्निचूर्णकमेतच्च वातमन्दाग्निवारणम्॥८८॥
मन्दाग्नौ सिंहणचूर्णम्।
सौवर्चलं सैन्धवं च सामुद्रं मरिचं तथा।
दाडिमसारकं चाम्लवेतसं समभागकम्॥८९॥
नागरं त्रिगुणं चैव जीरकं च चतुर्गुणम्।
सिंहणं चूर्णमेतच्च मन्दाग्निविनिवारणम्॥९०॥
इति श्रीवैद्यसोढलग्रथिते गदनिग्रहे परिशिष्टे
**चूर्णाधिकारस्तृतीयः। **
———————
अथातो परिशिष्टो गुटिकाधिकारश्चतुर्थः।
क्षतक्षीणे सर्पिर्गुटिका।
त्वक्क्षीरीश्रावणीद्राक्षामूर्वर्षभकजीवकैः।
वीरर्धिक्षीरकाकोलीबृहतीकपिकच्छुभिः॥१॥
खर्जूरफलमेदाभिः क्षीरपिष्टैः पलोन्मितैः।
धात्रीविदारीक्षुरसग्रस्थैःप्रस्थं घृतात्पचेत्॥२॥
शर्कराऽष्टपलं शीते क्षौद्रार्धप्रस्थमेव च।
दत्त्वा सर्पिगुडान् कुर्यात्कासहिक्काज्वरापहान्॥३॥
यक्ष्माणं तमकं श्वासं रक्तपित्तं हलीमकम्।
शुक्रनिद्राक्षयं तृष्णां हन्युः कार्श्यं सकामलम्॥४॥
क्षतक्षीणे क्षीरादिलेहगुटिका।
नीत्वा विदारिस्वरसं चतुःपलमिदं भिषक्।
प्रस्थं तित्तिरिमांसस्य रसात् प्रस्थं घृतस्य च॥५॥
प्रस्थद्वयं गवां क्षीरं रसादिक्षोस्तथाऽऽढकम्।
पाकार्थं प्रक्षिपेद्भाण्डे तत्र कल्कमिमं क्षिपेत्॥६॥
जीवन्ती चैव काकोल्यौ द्वे मेदे मधुकं तथा।
जीवकर्षभकौमुद्गमाषपर्ण्यौप्रमाणतः॥७॥
प्रत्येकं तत्पलार्धं स्यात्पियालस्य चतुःपलम्।
चतुःपलं मधूकानां द्विपला वंशलोचना॥८॥
मधुयष्ट्या भवेत् कर्षो अक्षमज्जापलं तथा।
कणापलं च खर्जूरं पलानां विंशतिः स्मृतम्॥९॥
कल्कं संपेषयेदिक्षो रसैः पूर्वद्रवे क्षिपेत्।
मन्दाग्निपाचनाल्लेहीभूते शीते क्षिपेत्सिताम्॥१०॥
विंशत्पलप्रमाणां तु मधुनोऽष्टपलं तथा।
अजाजीमरिचानां तु पलमेकं नियोजयेत्॥११॥
क्षीरादिलेहगुटिका कासहिक्काज्वरापहा।
यक्ष्माणं तमकं श्वासं रक्तपित्तं हलीमकम्॥१२॥
शुक्रनिद्राक्षयं तृष्णां हन्यात्कार्श्यं सकामलम्।
प्रभावतीवटिका।
हरिद्रा निम्बपत्राणि पिप्पल्यो मरिचानि च॥१३॥
भद्रमुस्ता विडङ्गानि सप्तमं विश्वभेषजम्।
सैन्धवं चित्रकं चैव कुष्ठं पाठा हरीतकी॥१४॥
एतानि समभागानि छागमूत्रेण पेषयेत्।
कोलास्थिका गुटी छायाशुष्का नाम्ना प्रभावती॥१५॥
अग्निमुखवटी।
हिङ्गुभागो भवेदेको वचा च द्विगुणा भवेत्।
त्रयो भागा विडङ्गानां सैन्धवं च चतुर्गुणम्॥१६॥
अजाज्याः पञ्चभागाश्च षड्भागाश्चैव नागरात्।
मरिचस्यसप्त भागाः पिप्पली चाष्टभागिका॥१७॥
कुष्ठं नवगुणं प्रोक्तं दशभागा हरीतकी।
एकादश तथा वह्नेर्भागा द्वादश दीप्यकात्॥१८॥
गुडेन द्विगुणेनैव गुटिकां कारयेद्बुधः।
ततो वातरुजार्तानां नित्यमेव प्रयोजयेत्॥१९॥
श्वासादौ सूर्यचन्द्रप्रभागुटिका।
त्रिकत्रयं हरिद्रे द्वे तिक्ता तिक्तं शठी वचा।
वेल्लचित्रकतालीसभार्गीपद्मकजीरकम्॥२०॥
द्वौ क्षारौ पिप्पलीमूलं पटूनि त्रीणि तुम्बरु।
देवदारु वचा चव्यं धान्यकं गजपिप्पली।
वत्सकातिविषादन्तीश्यामापुष्करकामृताः॥२१॥
भागोऽमीषां सूक्ष्मचूर्णीकृतानां
भागश्चार्धस्तापितरोद्भवस्य।
तद्वदंश्या, भागवृध्या परे स्यु–
रभ्रं लोहं शैलजं कौशिकश्च॥२२॥
संमर्द्य गुटिका कार्या सूर्यचन्द्रप्रभाभिधा।
पूर्वाह्णे तां प्रयुञ्जीत माक्षिकेण परिप्लुताम्॥२३॥
अनुपाने प्रयुञ्जीत तक्रं मधु रसोत्तमम्।
क्षीरं बदरतोयं वा शर्करामिश्रितं जलम्॥२४॥
घृतं मूत्रं तथा चाम्लखादुदाडिमजं रसम्।
कासं श्वासं तथा शोषमरुचिं पार्श्ववेदनाम्॥२५॥
अर्शांसि कामलां मेहं पाण्डुरोगं हलीमकम्।
हृद्रोगं मूत्रकृच्छं च श्वयथुं ग्रहणीगदम्॥२६॥
यकृत्प्लीहाभिवृद्धिं च कृमिं ग्रन्थिं भगन्दरम्।
श्लीपदं गण्डमालां च व्रणान्नाडीव्रणानपि॥२७॥
अतिस्थौल्यातिकार्श्यं च विद्रधीन्यिटिकामपि।
नासानेत्राश्रितान्रोगान् शिरोरोगान् सुदारुणान्॥२८॥
मुखरोगानशेषांश्च रक्तपित्तं स्वरक्षयम्।
ज्वरं च सन्निपातोत्त्थंविषमं चापि पैत्तिकम्॥२९॥
विंशतिं श्लैष्मिकांश्चैव संसृष्टान् सान्निपातिकान्।
निजानृतुभवांश्चैव ये चान्ये नात्र कीर्तिताः।
तान् तान् प्रशमयत्येषा वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा॥३०॥
मेघां स्मृतिं कान्तिमनामयत्व–
मायुःप्रकर्षं पवनानुलोम्यम्।
स्त्रीषु प्रहर्षं बलमिन्द्रियाणा-
मग्नेश्च कुर्याद्विधिनोपयुक्ता॥३१॥
अतीसारे विशल्या गुटिका।
फलत्रयं त्र्यूषणजीरकं च
कुबेरसंज्ञं पलमात्रमेतत्।
पलद्वयं नूतनधूर्तपत्न्याः
कर्षैककं चैव विषस्य योज्यम्॥३२॥
पलार्धमात्रं करभस्य चूर्णं
ततः समेनैव गुडेन योज्यम्।
गुटी निबद्धा चणकप्रमाणा
नियोजनीया हि सदातिसारे॥३३॥
चतुर्विधाजीर्णभयापहन्त्री
इयं विशल्या गुटिकेति नाम्ना॥३४॥
त्रोटहरी गुटिका।
शुण्ठीसक्तुपुनर्नवात्रिफलिकासैरेयशेफालिका–
मुस्तावासकनिम्बपत्रकटुकाबोलाश्वगन्धावचाः।
व्योषच्छिन्नरुहाविडङ्गसहिताः सर्वाः समांशा बुधै–
र्बिंशांशा च महौषधी परिमिता, खण्डस्य विंशांशकाः॥३५॥
तत्तुल्येन च गोघृतेन मधुना सर्वं च संमर्दितं
बद्धा तेन शिवाप्रमाणगुटिका श्लेष्माणमुग्रं जयेत्।
क्षीणस्यानिलजानि हन्ति सहसा सर्वप्रमेहांस्तथा
नाम्ना त्रोटहरी गुटी च विजया लोके च या विश्रुता॥३६॥
कासे चन्द्रप्रिया गुटिका।
चन्द्रप्रिया लोमशगन्धवत्यौ कटुत्रिकं तिक्तकरोहिणी च।
भूनिम्बभार्ग्यौगिरिमल्लिका च समानभागं खलु सर्वद्रव्यम्।
वासारसेनाथ गुटी विधेया सुदुस्तरं चाशु निहन्ति कासम्॥३७॥
मुखरोगे खदिरगुटी।
जातीफलैलादलकुङ्कुमानि
लवङ्गकङ्कोलकपुष्कराणि।
वराङ्गकर्चूरयुतान्यमूनि
समानि भागानि निशाकरस्य॥३८॥
भागद्वयं स्यान्मृगनाभिजायाः
सपूतिकायाः खलु तुर्यभागः।
षष्टिर्विभागाः खदिरस्य सारात्
भागत्रयं तत्र वरस्य दद्यात्॥३९॥
एकीकृतं घृष्टसुचन्दनेन
सुकामिनीहस्ततलैः प्रमर्द्य।
सुवासितं पुष्पचयैः सुगन्धै-
र्वटी कृता स्यान्मुखरोगहन्त्री॥४०॥
स्त्रीणां प्रमोदं विपुलं ददाति
मुखं सुगन्धं विशदं करोति।
युवातिरेताः सुभगो जनानां
प्राणप्रियः स्यादतिकामिनीनाम्॥४१॥
कण्ठं विपञ्चीनिनदेन तुल्यं
करोत्यसौ खादिरसंज्ञका वटी॥४२॥
मुखरोगे द्वितीया खदिरगुटिका।
पद्माह्ववक्रागुरुकुङ्कुमैश्च
तुल्यांशकैः श्लक्ष्णशिलाविपिष्टैः।
सर्वैः समः स्यात्खदिरस्य सारः।
सारङ्गदर्पस्फटिकाधिवांसिताः॥४३॥
वल्लप्रमाणा गुटिका विधेया-
स्ताः सेविता घ्नन्ति कफप्रमेहम्।
हिक्काग्निसादारुचिपीनसांश्च
रोगानशेषान् खलु चास्य जातान्॥४४॥
सूताभ्रहेमसहितां पूर्वोक्तां भक्षयेत्प्रातः।
नाम्ना खादिरवटिका कथितेयं सिंहगुप्तेन॥४५॥
वातरोगे त्वगाद्या गुटिका।
त्वगेला गन्धकश्चैव गुग्गुलुः समभागतः।
कुर्याद्वातारितैलेन गुटिका वातरोगिणाम्॥४६॥
रसायनार्थे विजयागुटिका।
पलत्रयं हरीतक्याश्चित्रकस्य तथैव तु।
एलात्वक्पत्रमुस्तानां भागोऽर्धपलिकः स्मृतः॥४७॥
व्योषं पिप्पलिमूलं च विषं च पलमात्रकम्।
नागकेसरचूर्णं तु कर्षं दद्याद्विचक्षणः॥४८॥
रेणुकार्धपलं चात्र रसस्य कर्षमेव च।
एतत्संभृत्य संभारं सूक्ष्मचूर्णं तु कारयेत्॥४९॥
गुडस्यार्धतुलां दत्त्वादार्व्या सम्यग्विधट्टयेत्।
ततस्तु गुटिकाः कृत्वा तस्मात्षष्टिशतत्रयम्॥५०॥
एकैकां भक्षयेत्प्रातः कृताहारो यथाबलम्।
मासेन पलितं हन्ति करोत्यग्निं द्वितीयके॥५१॥
शुक्रवृद्धिं तृतीये तु बलवर्णप्रसादनम्।
हन्त्यष्टादश कुष्ठानि सप्त चैव महाक्षयान्॥५२॥
प्लीहानं श्वासकासौ च अन्त्रवृद्धिमरोचकम्।
अशीतिं वातजान्रोगान्मूत्रकृच्छ्रंभगन्दरम्॥५३॥
प्रमेहान्विंशतिं चैव तथाऽर्शांसि गलग्रहम्।
सर्पलूताविषं हन्ति सर्वं स्थावरजङ्गमम्॥५४॥
योनिदोषमपस्मारमुन्मादं विषमज्वरम्।
बलेन गजतुल्योऽसौ वेगेन तुरगोपमः॥५५॥
मायूरस्तु भवेदग्निर्वाराहश्रोत्र एव च।
चटकः स्त्रीविलासेन गृध्रदृष्टिश्च जायते॥५६॥
उपयोगात्परं जीवेन्नरो वर्षशतत्रयम्।
न चान्ने परिहारोऽस्ति न चाध्वनि न मैथुने॥५७॥
ग्राम्यधर्मं च कुर्वाणो भोजनं च यथेच्छया।
विजया नाम गुटिका विख्याता रुद्रभाषिता।
भक्षयन्ति नरा ये तु तेषां सिद्धिर्न संशयः॥५८॥
वातरोगे योगोत्तमा गुटिका।
त्र्यूषणं त्रिफला क्षारौ लवणान्यथ चित्रकम्।
तालीसं चविकं शृङ्गी निशे द्वे गजपिप्पली॥५९॥
एला त्वचं विडङ्गानि पौष्करं नागकेसरम्।
ताप्यकं दीप्यको मुस्ता समभागानि कारयेत्॥६०॥
यावन्त्येतानि द्रव्याणि तावन्मात्रमयोरजः।
तावच्छिलाजतुर्देयः सर्वैस्तुल्यस्तु गुग्गुलुः॥६१॥
संकुट्य गुटिकां कुर्यादक्षमात्रप्रमाणतः।
खादेन्ना मधुना युक्त्या तोयक्षीररसाशनः॥६२॥
निर्यन्त्रितं सदा भोज्यं सर्वर्तुषु निरत्ययम्।
अशीतिं वातजान्रोगांश्चत्वारिंशच्चपैत्तिकान्॥६३॥
विंशतिं श्लैष्मिकांश्चैव प्रमेहांश्चैव विंशतिम्।
उदराणि तथा चाष्टौ श्वयथुं पवनात्मकम्॥६४॥
विंशतिं मूत्रकृच्छ्राणि दुष्टनाडीव्रणानि च।
हन्त्यष्टादश कुष्ठानि सप्त चैव महाक्षयान्॥६५॥
कासं श्वासं तथा हिक्कां हृच्छूलं छर्द्यरोचकम्।
गुल्मांश्च पाण्डुरोगं च जयेत्पञ्च प्रकारजम्॥६६॥
चत्वारो ग्रहणीदोषाः षडार्शांसि तथैव च।
सर्वांस्तान्नाशयत्याशु तमः सूर्योदयो यथा॥६७॥
तथाऽर्बुदं गण्डमालां विद्रधिं सभगन्दरम्।
हरते सर्वरोगांश्च वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा।
योगोत्तमेति विख्याता गुटिका वैद्यपूजिता॥६८॥
प्रमेहे कर्पूरादिगुटिका।
कर्पूरशृङ्गीमनुमत्तबीजं जातीफलं लोहमृताभ्रकं च।
रसोऽथ गंन्धं त्रपु नागशुल्बेएला विषं धान्यकटुत्रिकं च॥६९॥
तालीसपत्रं त्वथ नागपुष्पं तमालपत्रं कपिकच्छुबीजम्।
सत्त्वंगुडूच्याः क्षुरकस्य बीजं वटी विधेया सितया समेता॥७०॥
वातप्रमेहं सकफं सपित्तं श्वासं च कासं बहुसन्निपातान्
बलं च हीनं स्वरभङ्गजाड्यं निहन्ति कामं खलु दीपयत्यपि॥७१॥
गुल्मे गुडवटकाः।
गुडविश्वौषधपथ्यामागधिकादाडिमैः कृता गुटिकाः।
विनिहन्ति भक्ष्यमाणा गुल्मार्शोवह्निसादगदान्॥७२॥
पाण्डुरोगे क्षारवटकाः।
शृङ्गबेरविडङ्गानि पिप्पली मरिचानि च।
नीलीपत्रं पृथक्पर्णी हरिद्राद्वयमेव च॥७३॥
मञ्जिष्ठा भद्रमुस्तं च शिग्रुबीजानि चित्रकम्।
देवदारु वचा दन्ती त्रिफला हस्तिपिप्पली॥७४॥
शालिपर्णी मधुरसा द्राक्षा कटुकरोहिणी।
भल्लातकानीन्द्रयवा वृहत्यौ द्वे दुरालभा॥७५॥
शतावरी विशल्या च पाठा भार्गीहरेणुका।
एतानि समभागानि सर्वाण्येकत्र कारयेत्॥७६॥
यावन्त्येतानि चूर्णानि द्विस्तावत्स्यादयोरजः।
क्षारं च यावशूकानां ततो द्विगुणमावपेत्॥७७॥
गोमूत्रयुक्तांस्तान्कुर्याद्वटकानक्षसंमितान्।
खादेदेकं ततो द्वौ वा सुखं चाशु पिबेज्जलम्॥७८॥
अर्शांसि ग्रहणीदोषं पाण्डुरोगं भगन्दरम्।
श्वयथुं श्वासकासौ च कृमिदोषांश्च नाशयेत्॥७९॥
व्याधितस्य बलं ज्ञात्वा गवां मूत्रेण दापयेत्।
पाण्डुरोगं निहन्त्याशु ब्रह्मदण्ड इवोद्धतम्॥८०॥
विश्रुताः क्षारवटकाः प्रयोज्याः सिद्धिमिच्छता।
एष शङ्करणो योगो वैद्यानामर्थकृत्तथा॥८१॥
कुष्ठे पथ्यावटकाः।
पथ्यां सेन्द्रयवां सकिंशुकफलां सार्कां तथाऽऽवर्तकीं
व्याधिघ्नेन तु योजितां हुतभुजा सारुष्करां बाकुचीम्।
तद्वच्च क्रिमिशत्रुणाप्युपगतामेकैकद्धानिमान्
गोमूत्रेण विमृद्य तुल्यतुवरान्कुष्ठी वटान्भक्षयेत्॥८२॥
निहन्ति हतनासिकाकरजकर्णपादाङ्गुलि–
क्षरद्रुधिरपूतिपूयपरिजग्धजन्तुव्रणान्।
प्रभिन्नचिरलक्षितस्वरमशेषकुष्ठं मह-
न्निहन्ति कुरुतेऽरुणार्कवपुषं नरं योगतः॥८३॥
ज्वरे फलत्रिकाद्यो मोदकः।
फलत्रिकगुडव्योषशर्करात्रिवृतादिकम्।
मोदकं भक्षयित्वाऽनुपिबेत्कोष्णं जलं पुनः।
पार्श्वशूलेऽरुचौ कासे ज्वरे चानिलसंभवे॥८४॥
रसायने त्रिफलाद्या वटकाः।
त्रैफलस तु चूर्णस्य पलानि दश संहरेत्।
सप्त चैव विडङ्गानां लोहचूर्णं पलत्रयम्॥८५॥
शतं भल्लातकानां च पलानि दश बाकुची।
शिलाजतु पले द्वे च गुग्गुलोस्तु पलद्वयम्॥८६॥
पलं पुष्करमूलस्य पलार्धं फलमेव च।
ग्रन्थिकाग्नि समरिचं पिप्पल्यो विश्वभेषजम्॥८७॥
त्वक्पत्रं कुङ्कुमं मुस्ता नागकेसरमेव च।
यष्टीमधुकरोध्रं च कार्षिकान्युपकल्पयेत्॥८८॥
यावन्त्येतानि सर्वाणि तावत्खण्डं प्रदापयेत्।
पलिकान्वटकान्कुर्यात्सर्वव्याधिविनाशनान्॥८९॥
एकैकं भक्षयेत्प्रातर्यथेष्टं चात्र भोजनम्।
प्लीहमर्शांस्यतीसारं वातगुल्मं भगन्दरम्॥९०॥
कुष्ठानि चैव सर्वाणि सप्तरात्राद्व्यपोहति।
एतत्सर्वं प्रयुञ्जानो जीवेद्वर्षशतत्रयम्॥९१॥
अरुचौ लाजाद्यो मोदकः।
द्वादशाष्टचतुस्त्रिंशद्व्येकार्धार्धसमायुतैः।
लाजैस्तुगातिन्तिडीककोलव्योषत्रिजातकैः।
सचन्द्रा मोदका रुच्याः क्रमाद्द्विगुणशर्कराः॥९२॥
त्रिफलाद्या गुटिका।
त्रिफलाबदराणां स्याद्व्योषस्य च पलद्वयम्।
कर्पूरकर्षोलाजानां पलद्वादशकं भवेत्॥९३॥
एलात्वक्पत्रकानां तु पलं स्याद्वंशरोचना।
पलाष्टिका, वेतसश्च चतुष्पल उदाहृतः॥९४॥
चूर्णाद्द्विगुणखण्डं स्याद्धृद्या वमिहरा परम्।
यक्ष्माणं रक्तपित्तं च ज्वरं कासं च नाशयेत्॥९५॥
अर्शसि चित्रकगुटिकाः।
चित्रकस्य पलं दत्त्वा पलं चार्धं त्रिवृत्तथा।
कणाकर्षो गुडस्याष्टौ पलानि समुपाहरेत्॥९६॥
विंशतिश्च हरीतक्यो गुटिका दश कारयेत्।
दशमे दशमे चाह्नित्वेकैकां भक्षयेत् सुधीः।
मण्डलानि च कण्डूंश्च अर्शांसि ग्रहणीं जयेत्॥९७॥
प्रमेहे वामदेवेन कथिता गुटिका।
कटुत्रिकं वचा मुस्ता विडङ्गं चित्रकं विषम्।
एतानि समभागानि पथ्या च द्विगुणा विषात्॥९८॥
पञ्चत्रिंशद्गुडाद्भागाः क्वाथयेन्मृदुनाग्निना।
बदरसमाऽत्र गुटिका कार्या, एषा गुटिका प्रमेहं, आमवातं,
गुल्मं, मन्दाग्निं, हन्ति; विशेषतश्च लालामेहम्॥
गुग्गुलुगुटिका।
गुग्गुलु कुडवादर्द्धं ककुभत्वगयोरजोविडङ्गानि।
भल्लातकगोक्षुरकौत्रिवृता त्रिफला द्वितीयार्धम्॥९९॥
भुक्त्वैनां गुटिकां यथेष्टचरितः षण्मासयोगात्पुमान्
सव्याधीन्सभगन्दरान्सपिटिकानर्शांसि दुष्टव्रणान्।
खालित्यं पलितं जरामपि तनोर्जित्वा प्रदीप्तानलः
सौभाग्याप्तसुखो निरामयतनुर्जीवेत्समानां शतम्॥१००॥
शोफे लघुत्रिफलागुग्गुलगुटिका।
गुग्गुलुस्त्रिफला कृष्णा पञ्चनेत्रत्रिभागिकाः।
गुटिकाः शोषगुल्मार्शो भगन्दरवतां हिताः॥१०१॥
वातव्याधौ पृथुत्रिफलाद्या गुग्गुलुगुटिका।
त्रिफला हपुषा मुस्तं चविका चित्रकः शठी।
यवानीग्रन्थिकव्योषसौवर्चलदुरालभाः॥१०२॥
अजमोदा विडङ्गं च दाडिमं साम्लवेतसम्।
बाष्पिका पौष्करं दारु त्वगेलापत्रकेसरम्॥१०३॥
एषामर्धपलैर्भागैः पलानि दश गुग्गुलोः।
संमिश्र्य सर्पिषा सार्धं गुटिकां कारयेद्बुधः॥१०४॥
भक्षयित्वा ससर्पिष्कां जीर्णो च प्रमिताशनम्।
वातश्लेष्मविकारेषु नाडीदुष्टव्रणेषु च॥१०५॥
श्लेष्मकासे च शोफे च योगमेनं प्रयोजयेत्।
जठरे योनिशूलेषु त्वन्तर्भूतं च विद्रधिम्॥१०६॥
पार्श्वशूलं कृमीन् गुल्मान्प्रमेहान् छर्द्यरोचकौ।
केवलानिलजाव्रोगानशीतिं श्लैष्मिकानपि।
विंशतिं नाशयत्याशु रसायनमनुत्तमम्॥१०७॥
गुल्मे त्रिवृताद्या गुटिका।
त्रिवृत्पलं हिङ्गुकर्षस्त्रिक्षारस्य पलत्रयम्।
यवान्यजाजीमरिचं धान्यकं शितिवारकम्॥१०८॥
उपकुञ्चीविडङ्गाजमोदाश्चार्धपलोन्मिताः।
पृथक्पलद्वयं दद्यादम्लवेतसजं रजः॥१०९॥
मातुलुङ्गरसेनैषां गुटिकां कारयेद्भिषक्।
सुखाम्बुनाम्लैर्मन्थैर्वा पिबेत्क्षीरेण सर्पिषा॥११०॥
काङ्कायनोक्तगुटिका वातगुल्मविनाशिनी।
गोमूत्रयुक्ता कफजं पयसा पित्तसंभवम्॥१११॥
त्रिफलारसमूत्रैस्तु निहन्यात्सान्निपातिकम्।
रक्तगुल्मे तु नारीणामुष्ट्रीदुग्धेन वा पिबेत्॥११२॥
कृष्णाद्या गुटिका।
कृष्णाशताह्वाशुण्ठीनां साभयानां पलं पलम्।
गुडस्य षट्पलान्येषा गुटिका भ्रमनाशिनी॥११३॥
इति श्रीवैद्यसोढलग्रथिते गदनिग्रहे परिशिष्टे गुटिकाधिकारश्चतुर्थः समाप्तः।
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अथ परिशिष्टे पञ्चमोऽवलेहाधिकारः।
शोषे पिप्पल्याद्योऽवलेहः।
कृष्णाचूर्णं क्षिपेत्प्रस्थं सिताप्रस्थद्वयं तथा।
प्रस्थार्धं गोघृतं चैव कुडवं माक्षिकं तथा॥१॥
दुग्धाढकोनसंयुक्तं यथोक्तं विपचेद्भिषक्।
चातुर्जातपलं चैकं चूर्णमेतद्विनिक्षिपेत्॥२॥
प्रत्यूषे भक्षयेन्नित्यं ततः कार्यं समाचरेत्।
हन्त्यष्टादश कुष्ठानि क्षयमेकादशात्मकम्॥३॥
पञ्चकासान् तथा श्वासान् पाण्डुंफ्लीहमपंस्मृतिम्।
मूत्रकृच्छ्रं तथा रक्तं शुक्रदोषं तथा जराम्॥४॥
धातुक्षयं च मन्दाग्निं व्याधिं परमदुस्तरम्।
सर्वांस्तान्नाशयत्याशु तमः सूर्योदयो यथा॥५॥
सुभगो दर्शनीयश्च स गच्छेत्प्रमदाशतम्।
रसायनमिदं श्रेष्ठमश्विभ्यां परिकीर्तितम्॥६॥
शोषे द्वितीयो पिप्पल्याद्यवलेहः।
प्रस्थं पिप्पलीमादाय क्षीरं चैव चतुर्गुणम्।
अर्धाढकं घृतं गव्यं शुद्धखण्डात्तथाऽऽढकम्॥७॥
पचेन्मृद्वग्निना तावद्यावत्पाकमुपागतम्।
शीतीभूते, क्षिपेत्तस्मिंश्चातुर्जातपलत्रयम्॥८॥
योजयेन्मात्रया दोषधात्वग्निबलसात्म्यतः।
बल्यो वृष्यस्तथा हृद्यो धातुपुष्टिकरः परः॥९॥
जीर्णज्वरहरश्चैव स्त्रियं चैव तु बृंहयेत्।
छर्दितृषारुचिश्वासशोषहिध्माः सकामलाः॥१०॥
हृद्रोगं पाण्डुगुल्मं च प्रदरं च त्रिदोषजम्।
शोणितानिलकार्श्यं च रक्तपित्तं नियच्छति॥११॥
सतताभ्यासयोगेन वलीपलितवर्जितः।
क्षयादिरोगे रसाङ्गहरीतक्यवलेहः।
हरीतक्याः शतं द्रोणे पयसि परिसाधयेत्॥१२॥
घृतावशेषमुत्तार्य निष्कुलीकृत्य च क्रमात्।
रसगन्धकलोहानां चूर्णेनापूर्य वेष्टयेत्॥१३॥
सूत्रेण मासमेकं तु मधुमध्ये निधापयेत्।
पथ्याशी भक्षयेदेकां सर्वरोगविमुक्तये॥१४॥
खण्डार्द्रकावलेहः।
सुस्विन्नाच्छृङ्गवेरात्पलशतमनवं निस्तुषं संविधाय
प्रस्थे चाज्यस्य पक्त्वा पलशतसहितं शुद्धमत्स्यण्डिकायाः।
कौरङ्गी देवपुष्पं मधुदलकणानागकिञ्जल्कभृङ्गं
शुक्लाजाजी सघनमरिचतुगा सार्धकर्षद्वयाः स्युः॥१५॥
तस्मिन्नीरं विदित्वा ज्वलनमुखगतं पात्रमुत्तार्य यत्ना-
त्कृत्वा चेषन्मदशशिसुरभितं चूर्णितेनावचूर्ण्य।
प्रातः शीतेऽतिमात्रं मधुकुडक्युगं सार्धमावाप्य सान्द्रं
तल्लीढं हन्ति जीर्णज्वरमथ कसनं राजयक्ष्माणमेव॥१६॥
अतीसारेऽङ्कोलमूलावलेहः।
पलमङ्कोलमूलस्य दशांशं बिल्वमेव च।
तद्भागो राजवृक्षस्य क्वाथ्यमष्टगुणे जले॥१७॥
तेन पादावशेषेण फाणितं कारयेद्भिषक्।
शीतीभूते प्रदातव्यं मस्तुना सहितं बुधैः॥१८॥
फाणिते दीयमाने तु सत्वरं छर्दयेद्यदा।
शीतलं भोजनं देयं दध्यन्नं भक्तमेव च॥१९॥
पक्वापक्वमतीसारं नानावर्णं सवेदनम्।
दुर्वारं ग्रहणीदोषं जयेच्चैव प्रवाहिकाम्॥२०॥
अर्शसि भल्लातकावलेहः।
पर्पटावल्गुजानन्तावचाखदिरचन्दनम्।
पाठाशुण्ठीशठीभार्गींवासाभूनिम्बवत्सकम्॥२१॥
श्यामेन्द्रवारुणीमूर्वाविडङ्गेन्द्रयवं जलम्।
हस्तिकर्ण्यमृताद्राक्षापटोलरजनीद्वयम्॥२२॥
कणारग्वधसप्ता बिल्वश्योनाकपाटलाः।
एषां द्विपलिकान् भागान् जलद्रोणे विपाचयेत्॥२३॥
अष्टभागावशेषं तु कषायमवतारयेत्।
भल्लातकसहस्राणि छित्त्वा द्रोणमितेऽम्भसि॥२४॥
चतुर्भागावशेषं तु कषायं परिकल्पयेत्।
तौ कषायौसमादाय वस्त्रपूतौ तु कारयेत्॥२५॥
गुडस्य च तुलां दत्त्वा लेहवत्साधयेद्भिषक्।
भल्लातकसहस्राणां मञ्जानं तत्र दापयेत्॥२६॥
त्रिकटुत्रिफलामुस्तसैन्धवानां पलं पलम्।
सौगन्धिकस्य दातव्यं चूर्णं पलचतुष्टयम्॥२७॥
दीप्यकस्य पलं चैव चातुर्जातं पलांशकम्।
संचूर्ण्य प्रक्षिपेत्कोष्णे घृतभाण्डे निधापयेत्॥२८॥
महाभल्लातको ह्येष महादेवेन निर्मितः।
प्राणिनां च हितार्थं वै जयेच्छीध्रं निषेवितः॥२९॥
श्वित्रमौडुम्बरं सिध्मं रुक्षजिह्वं च काकणम्।
पुण्डरीकं च चर्माख्यं विस्फोटं रक्तमण्डलम्॥३०॥
कृच्छ्रंकापालिकं कृष्णं पामां चैव विपादिकाम्।
वातरक्तमुदावर्तं पाण्डुरोगं वमिं कृमिम्॥३१॥
अर्शांसि षड्प्रकाराणि कासं श्वासं भगन्दरम्।
समाभ्यासेन पलितमामवातं सुदुर्जयम्॥३२॥
कुरुते च परां कान्तिं प्रदीप्तं जठरानलम्।
अनुपाने प्रयोक्तव्यं छिन्नातोयं पयोऽथवा।
भोजने च सदा त्याज्यमुष्णं चाम्लं विशेषतः॥३३॥
अतीसारे कुटजाष्टकावलेहः।
तुलामथार्द्रांगिरिमल्लिकायाः
संक्षुद्य पक्त्वा रसमाददीत।
तस्मिन् सुपूते पलसंभितानि
श्लक्ष्णानि पिष्ट्वा सह शाल्मलेन॥३४॥
पाठासमङ्गातिविषाः समुस्ता
बिल्वं च पुष्पाणि च धातकीनाम्।
प्रक्षिप्य भूयो विपचेत्तु ताव–
द्दर्वीप्रलेपं सुरसं च यावत्॥३५॥
पीतस्त्वसौ कालविदा जलेन
मण्डेन वाऽजापयसाऽथवाऽपि।
निहन्ति सर्वं त्वतिसारमुग्रं
कृष्णासितं लोहितपीतकं वा॥३६॥
दोषं ग्रहण्या विविधं च रक्त-
पित्तं तथाऽर्शांसि सशोणितानि।
असृग्दरं चैवमसाध्यरूपं
निहन्त्यवश्यं कुटजाष्टकोऽयम्॥३७॥
धातुक्षये मधुपक्कामलकी।
धात्रीफलानि भव्यानि तीक्ष्णलोहेन वेधयेत्।
विश्वावरणपत्रैश्च फलैश्च स्वेदयेद्भृशम्॥३८॥
उष्णदुग्धेन संस्वेद्य पानीयेन ततः परम्।
मधुमध्ये क्षिपेद्भाण्डे स्थापयेद्दिनविंशतिम्॥३९॥
विनष्टं मधु संत्यज्य मधुमध्ये पुनः क्षिपेत्।
अधस्तु शर्करां धात्रीफलान्युपरि च न्यसेत्॥४०॥
सिता धात्रीफलान्येवमुपर्युपरि धारयेत्।
दिनाष्टकमतो दद्याद्धातुक्षीणे वलक्षये॥४१॥
वाजीकरणमत्युग्रं फलानां सेवनं सदा।
वीर्यवृद्धिकराण्याहुर्वह्निवृद्धिकराणि च॥४२॥
त्वग्दोषं पित्तकोपं च शमयन्ति न संशयः।
स्वरभङ्गे कुलिञ्जनाद्योऽवलेहः।
कुलिञ्जनं समानीय नवीनं पलविंशतिम्।
तुलाद्वये जले क्वाथ्यं तुलार्धमवशेषयेत्॥४३॥
वस्त्रपूते जले तस्मिन् चूर्णान्येतानि दापयेत्।
कट्फलं पौष्करं भार्गीपञ्चकोलं कटुत्रिकम्॥४४॥
त्रिफला च विडङ्गं च धान्यकं जीरकद्वयम्।
वासा करञ्जः शिखरी प्रत्येकं च पलद्वयम्॥४५॥
सवार्धांप्रक्षिपेच्छुद्धां शर्करां गुडमेव च।
हन्त्ययं पञ्चकासांश्च हिक्का अपि सवेदनाः॥४६॥
स्वरभङ्गं महाघोरं कण्ठरोगं मुखामयम्।
मन्दाग्निं च प्रतिश्यायं स्वरभङ्गं विशेषतः॥४७॥
कासे भार्ग्याद्यवलेहः।
भार्गीहरीतकीं वासां कण्टकारीं तथैव च।
प्रत्येकं प्रस्थमादाय द्रोणेऽपां साधयेद्भिषक्॥४८॥
क्वाथे पादावशेषे तु गुडं प्रस्थमितं क्षिपेत्।
ततः पाकघनीभूते शीतेऽर्धकुडवं मधु॥४९॥
पिप्पलीं कट्फलं शृङ्गीं मधुयष्टिं लवङ्गकम्।
त्वक्क्षीरीं रजनीं चैव पलार्धप्रमितां क्षिपेत्॥५०॥
एषोऽवलेहः शमेत् पञ्च कासान् सुदारुणान्।
हृद्रोगे चन्दनावलेहः।
मातुलुङ्गरसप्रस्थं प्रस्थार्धं दाडिमाद्रसः॥५१॥
तत्तुल्यं नारिकेलाम्बु शर्करा कुडवद्वयम्।
पाकं कृत्वा यथान्यायं सिद्धे शीते समावपेत्॥५२॥
चन्दनं च तुगाक्षीरीं धान्यकं सारिवां तथा।
कङ्कोलकमुशीरं च कुङ्कुमं शतपत्रिकाम्॥५३॥
सत्त्वं गुडूच्याश्च तथा कर्षमानं पृथक् पृथक्।
एषोऽवलेहो हृद्रोगं भ्रमं मूर्च्छांवमिं तथा॥५४॥
दाहं च सुमहाघोरं शमयेन्नात्र संशयः।
धातुक्षयेऽश्वगन्धाद्यवलेहः।
अश्वगन्धा गोक्षुरश्च शतवीर्या विदारिका॥५५॥
बलाबीजानि यष्ट्याह्वंबीजानीक्षुरकस्य च।
कपिकच्छोश्च बीजानि शाल्मलीमूलकं तथा॥५६॥
वृद्धदारुकबीजानि लवङ्गं जातिपत्रिका।
जातीफलं केशरं च त्वक् पत्रं वंशरोचना॥५७॥
एलाद्वयं कुङ्कुमं च गुडूचीसत्त्वमेव च।
एतेषां कर्षमादाय मधुनः कुडवत्रयम्॥५८॥
कृत्वा लेहं ततो मात्रां यथायोग्यां प्रदापयेत्।
धातुक्षयं तथा वातं ध्वजभङ्गं नियच्छति।
अनेनाशीतिवर्षोऽपि युवेव च वृषायते॥५९॥
इति श्रीवैद्यसोढलग्रथिते मदनिग्रहे परिशिष्टे पञ्चमोऽवलेहाधिकारः।
समाप्तं चेदं प्रयोगखण्डपरिशिष्टम्।
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स्नेहचूर्णगुटीलेहासवानां परिभाषा।
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अत्र गदनिग्रहे वैद्यवरसोढलेन घृतादिसाधनपरिभाषा नोक्ता, अतोऽध्येतृृणां सौकर्यार्थ मया संक्षेपेण परिभाषा निर्दिश्यते। तत्र पूर्वंमानपरिभाषैव ज्ञेया भवति। अतः सोच्यते–
** न मानेन विना युक्तिर्द्रव्याणां जायते क्वचित्। अतः प्रयोगकार्यार्थं मानमत्रोच्यते मया॥यवोऽष्टसर्षपैः प्रोक्तो गुञ्जा स्यात्तच्चतुष्टयम्। षड्भिस्तु रक्तिकाभिः स्यान्माषको हेमधान्यकौ॥ माषैश्चतुर्भिः शाणः स्याद्धरणं तन्निगद्यते। टङ्कः स एव कथितस्तद्द्वयं कोल उच्यते॥ क्षुद्रको वटकश्चैव द्रङ्क्षणः स निगद्यते। कोलद्वयं च कर्षः स्यात्स प्रोक्तः पाणिमानिका॥ अक्षः पिचुः पाणितलं किञ्चित्पाणिश्च तिन्दुकम्। बिडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता॥ करमध्यो हंसपदं सुवर्णं कवडग्रहः। उदुम्बरं च पर्यायैः कर्ष एव निगद्यते॥स्यात्कर्षाभ्यामर्धपलं शुक्तिरष्टमिका तथा। शुक्तिभ्यां च पलं ज्ञेयं मुष्टिराम्रं चतुर्थिका॥प्रकुञ्चः षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते। पलाभ्यां प्रसृतिर्ज्ञेया प्रसृतश्च निगद्यते॥प्रसृतिभ्यामञ्जलिः स्यात्कुडवोऽर्धशरावकः। अष्टमानं च स ज्ञेयः, कुडवाभ्यां च मानिका॥शरावोऽष्टपलं तद्वज्ज्ञेयमत्र विचक्षणैः। शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुः प्रस्थैस्तथाऽऽढकम्॥ भाजनं कंसपात्रे च चतुःषष्टिपलं स्मृतम्। चतुर्भिराढकैर्द्रोणः कलशो नल्वणोऽर्मणः॥ उन्मानं च घटो राशिर्द्रोणपर्यायसंज्ञकाः। द्रोणाभ्यां सूर्पकुम्भौ च चतुःषष्टिशरावकः॥ सूर्पाभ्यां च भवेद्द्रोणी वहो गोणी च सा स्मृता। द्रोणीचतुष्टयं खारी कथिता सूक्ष्मबुद्धिभिः॥चतुःसहस्रपलिका षण्णवत्यधिका च सा। पलानां द्विसहस्रं च भार एकः प्रकीर्तितः॥ तुला पलशतं ज्ञेयं सर्वत्रैष विनिश्चयः। माषटङ्काख्यबिल्वानि कुडवः प्रस्थ आढकम्। राशिर्द्रोणिः खारिकेति यथोत्तरचतुर्गुणाः॥**
युक्तिः योजना, कर्तव्यविधिरिति यावत्। यवेत्यादि अत्र परमाण्वादिमानाकथनं तु तेषां चिकित्सायामनुपयोगादेव। सर्षपोऽत्र गौरसर्षपः। तैरष्टभिरेको यवः। यवोऽत्र निस्तुषो ग्राह्यः। चतुर्भिर्यवैरेका गुञ्जा, सा चात्र रक्ताज्ञेया। षड्भिः रक्तगुञ्जाभिरेको माषकः। अयं च सुवर्णमाषक इति सुश्रुतादौ प्रसिद्धः। चतुर्भिर्माषकैरेकः शाणः। द्वाभ्यां शाणाभ्यामेकः कोलः, द्वाभ्यां कोलाभ्यां चैकः कर्षः। स च संप्रति भारतवर्षे प्रचलितरूप्यकाख्यव्यावहारिकद्रव्यपरिमितः। अतो माषशाणकोला यथाक्रमं एकाणक-आणकचतुष्टय-अर्धरूप्यक( रू० 6/,रू०.।,रू०.॥,) परिमिता ज्ञेयाः। शरावस्य ‘शेर’इति नाम्ना भाषायां व्यवहारः, द्रोणस्य च ‘मण’इति नाम्ना। अन्यत्स्पष्टम्।
** शुष्काणां स्यादिदं मानं द्विगुणं तद्द्रवार्द्रयोः।न द्वैगुण्यं तुलामाने पलोल्लेखागते तथा॥शुष्कंद्रव्येषु यन्मानमार्द्रस्य द्विगुणं हि तत्। शुष्कस्य गुरुतीक्ष्णत्वं तस्मादर्धंप्रयोजयेत्॥ शुष्कं नवीनं यद्द्रव्यं योज्यं सकलकर्मसु। आर्द्रं च द्विगुणं दद्यादेष सर्वत्र निश्चयः॥**
यत्र प्रयोगे यद्द्रव्यं शुष्कमुपयुज्यते तस्य यावन्मानं लिखितं तावन्मितमेव तद्ग्राह्यं;तदेव यद्यार्द्रमुपयुज्यते तदेक्तमानापेक्षया द्विगुणं ग्राह्यं; यच्च द्रव्यं क्षीरतोयादिकं द्रवमेवोपयुज्यते तदप्युक्तमानापेक्षया द्विगुणं ग्राह्यं; एतच्च द्रवार्द्रयोर्द्वैगुण्यं रक्तिकादौ कुडवादौ च सर्वत्रैव ज्ञेयं; परं यत्र तुलामानं यत्र वा पलशब्देन मानोल्लेखः यथा-‘रोहितकत्वचः श्रेष्ठात्पलानां पञ्चविंशतिः’इत्यादौ तत्र तु द्रवार्द्रयोर्द्वैगुण्यं न कार्यम्। यत्तु “**गुञ्जादिमानमारभ्य यावत्स्यात्कुडवस्थितिः। द्रवार्द्रशुष्कद्रव्याणां तावन्मानं समं मतम्॥प्रस्थादिमानमारभ्य द्विगुणं तद्द्रवार्द्रयोः”—**इति तत्तु न प्रमाणं, युक्तिविरोधाच्चरकसुश्रुतविरोधाच्च।येषां तु द्रव्याणामार्द्रतायामेव नियमतः प्रयोगो न शुष्कतायां, तेषामार्द्राणां द्वैगुण्यं न कार्यं; आर्द्रतायामेवैषामुपयोगस्तु तदवस्थायामेवैषामुत्कृष्टवीर्यत्वात्। तानि च यथा—
** “गुडूची कुटजो वासा कुष्माण्डं च शतावरी। अश्वगन्धासहचरौ शतपुष्पा प्रसारणी॥ प्रयोक्तव्या सदैवर्द्राद्विगुणं नैव कारयेत्-”** इति। अन्यच्च—“वासानिम्बपटोलकेतकिबला- कुष्माण्डकेन्दीवरीवर्षाभूकुटजाश्वगन्धसहितास्ताः पूतिगन्धामृताः। मांसं नागबला सहाचरपुरौहिङ्ग्वार्द्रके नित्यशो ग्राह्यास्तत्क्षणमेव न द्विगुणिता ये चेक्षुजाता घनाः”—इति।
** अथ भेषजादिग्रहणसंकेतः—लवणं सैन्धवं प्रोक्तं चन्दनं रक्तचन्दनम्। चूर्णलेहासवस्नेहाः साध्या धवलचन्दनैः॥ कषायलेपयोः प्रायो युज्यते रक्तचन्दनम्। पयःसर्पिःप्रयोगेषु गव्यमेव हि गृह्यते॥ शकृद्रसो गोमयकं मुत्रं गोमूत्रमुच्यते। सिद्धार्थः सर्षपे ग्राह्य उत्पले नीलमुत्पलम्॥ कालेऽनुक्ते प्रभातं स्यादङ्गेऽनुक्तेजटा भवेत्। भागेऽनुक्ते च साम्यं स्यात् पात्रेऽनुक्ते च मृण्मयम्॥ द्रवेऽनुक्ते जलं ग्राह्यं तैलेऽनुक्ते तिलोद्भवम्। एकमप्यौषधं योगे यस्मिन्यत्पुनरुच्यते॥ मानतो द्विगुणं ग्राह्यं तद्द्रव्यं तत्त्वदर्शिभिः। व्याधेरयुक्तं यद्द्रव्यं गणोक्तमपि तत्त्यजेत्॥ अनुक्तमपि युक्तं यद्योजयेत्तत्र तद्बुधः। कदाचिद्द्रव्यमेकं वा यदि योगे न लभ्यते॥ तत्तद्गुणयुतं द्रव्यं परिवर्तेन गृह्यते। द्रव्याभावे तु तत्तुल्यं द्रव्यमेव प्रदीयते॥न्यग्रोधादेस्त्वचो ग्राह्या सारः स्याद्बीजकादितः। तालीसादेश्चपत्राणि फलं स्यात्त्रिफलादितः॥धातक्यादेश्च पुष्पाणि स्नुह्यादेः क्षीरमाहरेत्। महान्ति यानि मूलानि काष्ठगर्भाणि यानि च॥तेषां तु वल्कलं ग्राह्यं सूक्ष्ममूलानि कृत्स्नतः। जाङ्गलानां वयःस्थानां चर्मरोमनखादिकम्॥क्षीरमूत्रपुरीषाणि जीर्णाहारे तु ग्राहयेत्। चतुष्पात्सु स्त्रियःश्रेष्ठाः पुमांसो विहगेषु च॥वल्मीककुत्सितानूपश्मशानोषरमार्गजाः। जन्तुवह्निहिमव्याप्ता नौषध्यः कार्यसाधिकाः॥शरद्यखिलकार्यार्थं ग्राह्यं सरसमौषधम्। विरेकवमनार्थं च वसन्तान्ते समाहरेत्॥**
अथ स्नेहपाकपरिभाषा–अत्राह सुश्रुतः,–“स्नेहाच्चतुर्गुणो द्रवः, स्नेहचतुर्थांशो भेषजकल्कः, तदैकध्यं संसृज्य विपचेदित्येष स्नेहपाककल्पः। भवति चात्र–**स्नेहभेषजतोयानां प्रमाणं यत्र नेरितम्। तत्रायं विधिरास्थेयो निर्दिष्टे तत्तदेव तु”**इति। स्नेहाच्चतुर्गुणो द्रव इति वचनं एकद्वित्रिद्रवेषु चतुर्गुणत्वन्यूने स्नेहसाधननिषेधार्थं, नतु पञ्चप्रभृतिद्रवेषु चतुर्गुणाधिक्ये प्रतिषेधार्थं, तेन यत्रैकेन द्रवेण पाकस्तत्रैकेनैव चातुर्गुण्यं, यत्र द्वाभ्यां द्रवाभ्यां स्नेहपाकस्तत्र स्नेहद्विगुणाभ्यां ताभ्यां चातुर्गुण्यं, यत्र त्रिभिर्द्रवैः स्नेहपाकस्तत्र त्रिभिः मिलितैश्चातुर्गुण्यं, यत्र तु चतुर्भिर्द्रवैः स्नेहपाकस्तत्र स्नेहसमैश्चतुर्भिश्चातुर्गुण्यमिति। यत्र तु पञ्चप्रभृतीनि द्रवाणि तत्र तु सर्वाणि स्नेहसमान्येव ग्राह्याणि। तत्र क्षीरे विशेषः-, यत्र द्रवान्तरं नोक्तं तत्र क्षीरं **चतुर्गुणम्। द्रवान्तरप्रयोगे तु क्षीरं स्नेहसमं मतम्–**इति। अस्यायमर्थः–यत्र केवलेन क्षीरेणैव पाकस्तत्र क्षीरमेव चतुर्गुणं दत्त्वा स्नेहः साधनीयः। यत्र तु एकद्रवान्तरयुतेन क्षीरेण पाकस्तत्र क्षीरं स्नेहसमं द्रवान्तरं च स्नेहत्रिगुणमिति मिलित्वा स्नेहचतुर्गुणेन द्रवेण पाकः, यत्र च द्रवान्तरद्वययुतेन क्षीरेण पाकस्तत्र क्षीरं स्नेहसमं द्रवान्तरद्वयं च स्नेहसार्धमिति मिलित्वा स्नेहचतुर्गुणेन द्रवेण पाकः, यत्र द्रवान्तरत्रययुतेन क्षीरेण पाकस्तत्र क्षीरं द्रवान्तरत्रयं च स्नेहसममिति प्रत्येकं मिलितैश्चतुर्गुणैः स्नेहपाकः। तदूर्ध्वं चतुःप्रभृतिद्रवान्तरयोगेक्षीरं द्रवान्तरं च प्रत्येकं स्नेहसमं दत्त्वा पाको निष्पादनीयः। अथ कल्कमानापवादः “**वृषादिकुसुमैः कल्कैर्यत्रोक्तं स्नेहसाधनम्। कल्काढ्यत्वात्तु पादार्धं तत्र कल्कं प्रदापयेत्”**इति। यत्र स्नेहे कल्को नोक्तस्तत्र केवलेन द्रवेणैव चतुर्गुणेन स्नेहसाधनम्। यदुक्तं–“अकल्कः खलु यः स्नेहः स साध्यः केवले द्रवे”इति। यत्र योगे द्रव्यगण एव निर्दिष्टः क्वाथो वा कल्को वा न निर्दिष्टस्तस्मिन्ननिर्देशे तस्माद्द्रव्यगणात्कल्कक्वाथावुभावपि प्रयोजयेत्। यदुक्तंसुश्रुते –“कल्कक्वाथावनिर्देशे गणात्तस्मात्प्रयोजयेत्”— इति। अत्र च गणशब्दो गणसंज्ञया यो गणः पञ्चमूलादिरुक्तस्तन्मात्रे न विवक्षितः, किंतु त्रिप्रभृतिद्रव्यसमूहे विवक्षितः, गणात्तस्मादित्युक्तेः। एतेन यत्रैकेन द्रव्येण द्रव्यद्वयेन वा पाकस्तत्र कल्केनैव, यत्र तु त्रिप्रभृतिभिर्द्रव्यैः पाकस्तत्र क्वाथकल्काभ्यामुभाभ्यामिति ज्ञेयम्। स्नेहसाधने क्वाथकल्पनोक्तासुश्रुतेन—“तत्र यथायोगं त्वक्पपत्रफलमूलादीनामातपपरिशोषितानां छेद्यानि खण्डशश्छेदयित्वा भेद्यान्यणुशो भेदयित्वाऽवकुट्याष्टगुणेन षोडशगुणेन वाऽम्भसा- ऽभिषिच्य स्थाल्यां चतुर्भागावशिष्टं क्वाथयित्वाऽपहरेदित्येष कषायपाककल्पः”इति। अत्राष्टगुणतोयं मृद्वादिसंघाताभिप्रायेण द्रवद्वैगुण्येनैवोक्तम्। यदुक्तमन्यत्र-“मृदौ चतुर्गुणं देयं कठिनेऽष्टगुणं जलम्। कठिनात्कठिनं यच्च तत्र षोडशिकं जलम्॥ मृद्वादौ द्रव्यसंघाते मानानुक्तौ चिकित्सकाः। मध्यस्योभयभागित्वादिच्छन्त्यष्टगुणं जलमिति। तथा–**क्वाथ्यादष्टगुणं वारि, पादस्थं स्याच्चतुर्गुणम्। स्नेहात्, स्नेहसमं क्षीरं, कल्कस्तु स्नेहपादिकः। चतुर्गुणं त्वष्टगुणं द्रवद्वैगुण्यतो भवेत्”**इति। यत्र क्वाथ्यद्रव्यमानमल्पमष्टगुणे तोये क्वाथकरणे स्नेहचतुर्गुणः क्वाथो न भवति तत्रोक्तमानेन क्वाथ्यद्रव्यं गृहीत्वा षोडशगुणे तोये क्वाथयित्वा पादशेषं स्नेहचतुर्गुणं कुर्यादित्यभिप्रायेणोक्तं षोडशगुणेन वाऽम्भसाऽभिषिच्येति। “अथवा तत्रोकदद्रोणे त्वक्पत्रमूलादीनां तुलामावाप्य चतुर्भागावशिष्टमपहरेदित्येष कषायपाककल्पः। तुलाद्रव्ये जलद्रोणो द्रोणे द्रव्यतुलाऽम्भसि। ततः पलशते द्रव्ये जलद्रोणोऽपि चेष्यते॥” यत्र तुलाद्रव्यं जले पचेदित्युक्तं परं जलप्रमाणं नोक्तं, तत्र द्रोणमितं जलं ग्राह्यं; यत्र तु द्रोणमिते जले द्रव्यं पचेदित्युक्तं परं द्रव्यप्रमाणं नोक्तं, तत्र द्रव्यं तुलाप्रमाणं ग्राह्यमिति भावः। **‘अनिर्दिष्टप्रमाणानां स्नेहानां प्रस्थ इष्यते’**इति।
स्नेहपाककालनियमः–**स्नेहान् विपाच्यैव विरामयेत्तु क्षीरे द्विरात्रं स्वरसे त्रिरात्रम्। कल्के कषायेषु च पञ्चरात्रं दध्यारनाले पुनरेकरात्रम्॥**अस्यायमर्थः–क्षीरादिद्रवाणि कल्कं चैकध्यं संसृज्य विपचेत्। तत्र, क्षीरं कल्कश्च यत्र तत्रैकध्यं द्वयं संसृज्य पक्त्वा द्विरात्रं विश्रामयेत् ; स्वरसः कल्कश्च यत्र तत्रैकध्यं द्वयं संसृज्य पक्त्वा त्रिरात्रं विश्रामयेत्; यत्र केवलः कल्कस्तत्र कल्कं चतुर्गुणं जलं च संसृज्य पक्त्वा पञ्चरात्रं विरामयेत्; यत्र कषायः कल्कश्च तत्रैकध्यं द्वयं संसृज्य पक्त्वा पञ्चरात्रं विरामयेत्; यत्र दधि कल्कश्च तत्रैकध्यं द्वयं संसृज्य पक्त्वा एकरात्रं विश्रामयेत् , यत्र आरनालः कल्कश्च तत्रैकध्यं द्वयं संसृज्य पक्त्वा एकरात्रं विरामयेत्; अत्र दधिशब्दस्तक्रस्य, आरनालशब्दश्च सुरादीनां संधानविशेषाणां मूत्रादीनां च उपलक्षणम्। यत्र कल्कश्च क्षीरादीनां द्वित्र्यादिकानि द्रवाणि च तत्र कल्कं गर्भे दत्त्वा तत्तत् क्षीरादिकं प्रत्येकं दत्त्वा संसृज्य पक्त्वा स्वस्वोक्तकालं विरामयेत् , यथा–क्षीरे द्विरात्रं, स्वरसे त्रिरात्रं, कषाये पञ्चरात्रं, दध्न्येकरात्रं, आरनाले चैकरात्रमिति। एतच्च विशेषेण गुणाधानार्थम्। उक्तं हि—“घृततैलगुडादींश्च नैकाहादवतारयेत्। **व्यूषितास्तु प्रकुर्वन्ति विशेषेण गुणान् यतः”—**इति। विरामरात्रान्न्यूनत्वे तु विशेषेण गुणाधानाभावमात्रं नतु स्नेहपाकासिद्धिः, अधिके च न दोषः। सिद्धं स्नेहं वस्त्रागालयित्वोपयुञ्ज्यात्। तत्र मृदुपाके द्रवसद्भावात्किट्टं सर्वथा न पीडनीयं; मध्यमे मनाक् पीडनीयं, द्रवाभावात् ; स्वरे तु यथेष्टं पीडनीयं, द्रवरहितत्वात्। मध्यपाकस्तु सर्वत्र प्रशस्तः। यदुक्तं,—‘वरं पाको मृदु कार्यः स्नेहादीनां न वैस्वरः। स पूर्णं वीर्यमादत्ते तज्जहाति स्वरः पुनः’।
अथ स्नेहपाकविज्ञानम्। अत्राह सुश्रुतः–अत ऊर्ध्वं स्नेहपाकक्रममुपदेक्ष्यामः। स च त्रिविधः। तद्यथा—मृदुः, मध्यः, खर इति। तत्र स्नेहौषधिविवेकमात्रं यत्र भेषजं स मृदुः, मधूच्छिष्टमिव विशदमविलेपि च यत्र भेषजं स मध्यमः, कृष्णमवसन्नमीषद्विशदं चिक्कणं च यत्र भेषजं स खर इति। अत ऊर्ध्वं दग्धस्नेहो भवति, तं पुनः साधु साधयेत्। तत्र पानाभ्यवहारयोर्मूदुः, नस्याभ्यञ्जनयोर्मध्यमः, बस्तिकर्णपूरणयोस्तु खर इति। भवतश्चात्रशब्दस्योपरमे प्राप्ते फेनस्योपरमे तथा। गन्धवर्णरसादीनां संपत्तौसिद्धिमादिशेत्॥ घृतस्यैवं विपक्वस्य जानीयात्कुशलो भिषक्। फेनोऽतिमात्रं तैलस्य शेषं घृतवदादिशेत्॥इति॥
अथ चूर्णपरिभाषा—अत्यन्तशुष्कं यद्द्रव्यं सुपिष्टं वस्त्रगालितम्। तत् स्याच्चूर्णं रजः क्षोदस्तन्मात्रा कर्षसंमिता। चूर्णे गुडः समो देयः शर्करा द्विगुणा भवेत्। चूर्णेषु भर्जितं हि देयं नोत्क्लेदकृद्भवेत्॥ लिहेच्चूर्णं द्रवैः सर्वैर्घृताद्यैर्द्विगुणोन्मितैः। पिबेच्चतुर्गुणैरेव चूर्णमालोडितं द्रवैः॥ चूर्णविधाने द्विविधः प्रचारो दृश्यते वृद्धवैद्यानाम्। तत्रैके द्वित्र्यादिद्रव्यनिष्पाद्ये चूर्णप्रयोगे प्रत्येकं द्रव्यं संचूर्ण्य वस्त्रगालितंकृत्वा ततो यथोक्तमानेन गृहीत्वा एकीकृत्य प्रयुञ्जन्ति; अपरे तु सर्वाण्यपि द्रव्याणि यथोक्तमानानि संगृह्य एकध्यं संचूर्ण्य वस्त्रगालितं कृत्वा व्यवहरन्ति। बहुषु प्रयोगेषु चूर्णं जम्बीरार्द्रकादीनां रसैर्भावयेदित्युक्तं, तत्र यस्य भावना देयातस्य यदि स्वरस उपलभ्यते तदा स्वरसेनैव भावयेत्, यदा तु स्वरसो नोपभ्येत तदा “भाव्यद्रव्यसमं क्वाथ्यं क्वाथ्यादष्टगुणं जलम्। अष्टांशशेषितः क्वाथो भाव्यानां तेन भावना—” इति परिभाषया क्वाथं निष्पाद्य तेनैव भावयेत्। भावनाविधिस्तु–“द्रवेण यावता सम्यक् चूर्णं सर्वं प्लुतं भवेत्। भावनायाः प्रमाणं तु चूर्णे प्रोक्तं भिषग्वरैः। दिवा दिवातपे शुष्कं रात्रौ रात्रौ निवासयेत्। शुष्कं चूर्णीकृतं द्रव्यं यथोक्तं भावनाविधिः”इति। यथोक्तं भावनाविधिरिति सप्तवारं त्रिवारमेकवारं वा यावद्वारं भावनोक्ता तावद्वारं भावयेदित्यर्थः**।** अनुक्ते तु सप्तवारं भावयन्ति वृद्धवैद्याः**।**
गुटिकापरिभाषा—वटकाश्चाथ कथ्यन्ते तन्नाम गुटिका वटी। मोदको वटकः पिण्डी गुण्डी वर्तिस्तथोच्यते॥ लेहवत्साध्यते वह्नौ गुडो वा शर्कराऽथवा। गुग्गुलुर्वा, क्षिपेत्तत्र चूर्णं तन्निर्मिता वटी॥ कुर्यादवह्रिसिद्धेन क्वचिद्गुग्गुलुना वटीम्। द्रवेण मधुना वाऽपि गुटिकां कारयेद्बुधः॥ यथा लेहार्थं गुडादिकं साध्यते तथैवात्र गुडः शर्करा गुग्गुलुर्वा पक्तव्यः। पाके सति चूर्णं प्रक्षिप्य वटकान् कुर्यादिति भावः। गुडपाकलक्षणं तु गदनिग्रह एव प्रोक्तम् (प्रयोगखण्ड पृ. ११८)। गुडवद्गुग्गुलोः पाकः सबन्धस्तु विशेषतः। मण्डूराणां च सर्वेषां पाकोऽयं परिकीर्तितः॥ पक्षान्तरमाह—क्वचिदिति; न सर्वत्र। अवह्निसिद्धेन कुट्टितेन गुग्गुलुना वटकाः कार्याः। अथवा द्रवेण तोयक्षीरादिना, वा मधुना क्षौद्रेण संप्लाव्य संमर्द्य वटिकां कारयेत्। वटिकायां गुडशर्करादीनां मानं—**सिता चतुर्गुणा देया वटीषु द्विगुणो गुडः। चूर्णाच्चूर्णसमः कार्योगुग्गुलुर्मधु तत्समम्। द्रवं च द्विगुणं देयं मोदकेषु भिषग्वरैः॥**एतच्च शर्करादीनां मानमनुक्तप्रमाणेषु प्रयोगेषु ज्ञेयम्।
अवलेहपरिभाषा–**क्वाथादीनां पुनःपाकाद्धनत्वं सा रसक्रिया। सोऽवलेहश्च लेहश्च तन्मात्रा स्यात्पलोन्मिता॥**अनुक्तेसितादीनां परिमाणमुच्यते—सिता चतुर्गुणादेया चूर्णाच्च द्विगुणो गुडः। द्रवं चतुर्गुणं दद्यादिति सर्वत्र निश्चयः॥ द्रवमिति क्षौद्रघृतादिकम्। चतुर्धा खलु निष्पाद्यते लेहः। तत्र प्रथमः दार्व्यादिद्रव्याणां सामान्यक्वाथपरिभाषया क्वाथं निष्पाद्य तं पुनर्वस्त्रगालितं यावद्धनं भवेत्तावत्पक्त्वा निष्पाद्यते, तस्य विशेषतो ‘रसक्रिया’इति नाम्नाप्रसिद्धिः। तथाहि–“गृहीत्वा क्वाथकल्पेन क्वाथं पूतं पुनः पुनः। **क्वाथयेत्फाणिताकारमेषा प्रोक्ता रसक्रिया”**इति। द्वितीयस्तु क्वाथ्यद्रव्याणि यथोक्तमानेन क्वाथयित्वा तं क्वाथं वस्त्रपूतं कृत्वा, तत्र शर्करादिकं प्रक्षिप्य पुनः पक्त्वा पाके सिद्धे चूर्णं प्रक्षिप्य निष्पाद्यते। तृतीयः केवलं शर्करादिकं जले पक्त्वा सिद्धे पाके चूर्णादिकं प्रक्षिप्य निष्पाद्यते। चतुर्थस्तु चूर्णं यथोक्तमानैः क्षौद्रघृतादिभिः संप्लाव्य निष्पाद्यते। अथ लेहादौचूर्णप्रक्षेपविचारः—प्रायो न पाकश्चूर्णानां भूरिचूर्णस्य तेन हि। आसन्नपाके प्रक्षेपः स्वल्पस्य पाकमागते॥ आसन्नपाक इति उपस्थितपाके नतु पाकमापन्ने, तथा सति प्रचुरचूर्णस्य प्रवेशो न स्यादित्यर्थः। स्वल्पस्य चूर्णस्य पाकान्ते कदुष्णदशायां प्रक्षेप इति। पाकलक्षणं तु—सुपक्वेतन्तुमत्त्वं स्यादवलेहेऽप्सु मज्जनम्। स्थिरत्वं पीडिते मुद्रा गन्धवर्णरसोद्भवः॥ तथा—रसो गन्धः शुभः पाके वर्तिः त्याद्गाढमर्दनात्॥ इति। स्थिरत्वमिति निश्चलत्वम्। एतेन द्रवरहित इत्यर्थः। मुद्राऽत्र निम्नता।
अथ आसवारिष्टपरिभाषा—द्रवेषु चिरकालस्थं द्रव्यं यत्संहितं भवेत्। आसवारिष्टभेदैस्त- त्प्रोच्यते भेषजोचितम्॥यद्पक्वौषधाम्बुभ्यां सिद्धं मद्यं स आसवः। अरिष्टः क्वाथसिद्धः स्यात्तन्मानं द्विपलोन्मितम्॥अनुक्तमानारिष्टेषु द्रवद्रोणे गुडात्तुलाम्। क्षौद्रं दद्याद्गुडादर्धं प्रक्षेपं दशमांशिकम्॥ प्रक्षेपं पश्चाद्देयं द्रव्यं धातकीपुष्पादिकं, दशमांशिकं गुडपरिमाणादित्यर्थः। क्वाथ्यद्रव्याणि द्राक्षादीनि यथोक्तमानैर्जले निष्क्वाथ्य वस्त्रपूतं विधाय गुडादिकं धातकीकुसुमादिकं च यथोक्तमानेन प्रक्षिप्य घृतभाविते दृढे मृण्मये कुम्भे यावदर्धं प्रपूर्य पक्षं मासं वा भूमौ स्थाप्य जातरसे उद्धृत्य वस्त्रगालितं कृत्वा उपयुञ्ज्यादित्यरिष्टविधिः। आसवकरणे तु जलादौ द्रवे एव गुडादीनि प्रक्षिप्य संधानं, न क्वाथकरणम्। शेषं अरिष्टवत्।
अथ भेषजमात्राविचारः–न्यूनं चेन्मात्रया द्रव्यं न व्याधीन् विनिवर्तयेत्। मात्रयाऽधिकया युक्तं जनयेच्चापदं परम्॥मात्राया नास्त्यवस्थानं दोषमग्निं बलं वयः। व्याधिं द्रव्यं च कोष्ठं च वीक्ष्य मात्रां प्रयोजयेत्॥ तथाऽप्यल्पबुद्धीनामवबोधाय तत्र तत्र यथास्थूलं मात्रानिर्देशः कृत इति ज्ञेयम्। संप्रति मनुष्याणां अल्पदेहबलवत्त्वात् प्राचीनग्रन्थेषूक्तमात्रापेक्षया पादप्रमाणा अर्धा वा मात्रा देया।
ॐ
आयुर्वेदीयग्रन्थमाला।
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(दुष्प्रापप्राचीनायुर्वेदग्रन्थानां क्रमशः प्रकाशिका मासिकपत्रिका)
एषा खलु ख्रिस्तीय १९१० वत्सरस्य नॉवेम्बरमासात् प्रतिमासं प्रसिपति। अस्यां मासिकपत्रिकायामद्यावधि क्वाप्यमुद्रिता दुष्प्रापाश्चविविधा आयुर्वेदीयप्रन्था भूयसा यत्नेन संपाद्य, बहूनामादर्शपुस्तकानां साहाय्येन संशोध्य, पाठान्तरादिभिश्च संयोज्य प्रसिद्धिं नीयन्ते। येषां ग्रन्थानां टीकोपलभ्यते ते सटीका एव मुद्राप्यन्ते, अन्येषु च विषमपदोपरि टिप्पणं दीयते। प्रतिग्रन्थं ग्रन्थकतुर्जन्मदेशोत्पत्तिकालादिप्रदर्शिका भूमिका, विषयानुक्रमणिका, शुद्धिपत्रं च दीयते। मासिकेयं भारतवर्षे मुद्रणकार्यार्थं सुविख्यातिमापन्ने निर्णयसागरयन्त्रालये सुपुष्टचिक्कणपत्रोपरि (50 Pounds glaze paper ) मुद्राप्यते। अस्यां प्रतिमासमेतस्या विज्ञापनपत्रिकाया अन्ते प्रदत्तादर्शपृष्ठद्वयरूपाण्यष्टचत्वारिंशत्पृष्ठानि (royal 12 P.4 Forms.) दीयन्ते। पत्रिकेयं प्राचीनविविधायुर्वेदग्रन्थदिदृक्षूणां वैद्यजनानां कियदुपयोगार्हा संग्राह्या चेति अस्यां विज्ञापनपत्रिकायां तृतीयपृष्ठमारभ्य चतुर्दशपृष्ठपर्यन्तं दत्तेभ्यो भारतवर्षस्य नानास्थलनिवासिनां वैद्यमहोदयानां प्रशंसापत्रेभ्य एव विज्ञास्यन्ति विपश्चितः।
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अस्यां पत्रिकायामद्यावधि प्रसिद्धीभूता ग्रन्थाः।
** १.रसहृदयतन्त्रम्–श्रीमद्गोविन्दभगवत्पादाचार्यविरचितं, चतुर्भुजमिश्रविरचितमुग्धावबोधिनी-** व्याख्यासहितम्। अस्मिन् ग्रन्थे रसस्य स्वेदनमर्दनमूर्च्छनादीनामष्टादशसंस्काराणामतिविशदतया वर्णनं कृतमस्ति। रसग्रन्थेषु टीकया सह मुद्रितोऽयमाद्य एव ग्रन्थः। मूल्यमेको रूप्यकः।
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** ३.गदनिग्रहस्य प्रयोगखण्डः।** अस्मिन् खण्डे घृततैलचूर्णगुटीलेहासवाख्याः षडधिकारा विद्यन्ते। तेषु षट्स्वधिकारेषु पञ्चाशीत्यधिकपञ्चशतमिताः प्रत्यक्षफलदा नित्योपयोगिनश्च प्रयोगा उक्ताः। मूल्यं सार्धरूप्यकः।
पुस्तकत्रयमिदं सुवर्णनामाङ्कितपटबद्धं, प्रापणव्ययस्त्वेतेषां क्रेतुरेव देयो भवेत्।
पत्रिकाविषयः सर्वोऽपि व्यवहारः सुवाचैर्नागराक्षरैराङ्ग्लभाषया वा अधोलिखितस्थलोपरि करणीयः।
ता०१-४-१९१२
वैद्य जादवजी त्रिकमजी आचार्य
३७२, बोराबझार स्ट्रीट, फोर्ट, मुंबई
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अथ
ग्रन्थमालाया विषये विद्वद्वर्याणामभिप्रायाः।
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आयुर्वेदीयचिकित्सकानां, जयपुरराजकीयसंस्कृतमहाविद्यालयस्य आयुर्वेदपरीक्षकाणां, चरकसंहितायाः स्वतन्त्रव्याख्याप्रणेत्रृृणां, वङ्गीयरॉयलएशियाटिकसमाजसदस्यानां, ‘एम्. ए. विद्याभूषण’इत्याद्यु पाधिविभूषितानां कविराजश्रीयोगीन्द्रनाथसेनमहोदयानामभिप्रायः—
दुरासदपुराणायुर्वेदग्रन्थप्रकाशने।
महाधनानां जीर्णानां मणीनां संस्कृताविव॥१॥
आचार्योपाह्वयश्रीमद्भिषग्यादवशर्मणः।
अतिशस्ततया भाति साधुरेष समुद्यमः॥२॥
श्रेयसा कर्मणाऽनेन केवलं भिषजां नहि।
आर्याणामेव सर्वेषां सुकृतज्ञत्वमर्हति॥३॥
द्वारकानाथकारुण्यादायुर्वेदविशारदः।
सुसंस्कारेषु जीर्णानामाप्तकामो भवत्वयम्॥४॥
प्रोत्साहनीयो विद्वंद्भिः सर्वैरेष भिषग्वरः।
इति योगीन्द्रनाथस्य भिषजः प्रार्थना सदा॥५॥
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कलिकातानगरवास्तव्यानां ‘एम्. ए; एल्. एम्. एन्ड एस्; विद्यानिधि, कविभूषण’इत्युपाधिविभूषितानां कविराजश्रीयुतगणनाथसेनमहोदयानामभिप्रायः—
हन्त खल्वेष महानेव भाग्योदयो भिषजां यदद्य ह्रीयमानवैद्यकज्योतिःसमुद्दीपनाय समुदिता नवीना मासिकपत्रिका वैद्यजनकण्ठललाममालेयमायुर्वेदीयग्रन्थमाला नाम। सेयं वैद्यवरश्रीमदाचार्ययादव—त्र्यम्बकशर्मभिः सम्पाद्यमाना नवनवग्रन्थरत्नसमुज्ज्वला परां श्रियं पुष्णाति। विशेषतश्चात्र रसहृदयादिकानतिदुर्लभान् ग्रन्थान् प्रकाश्यमानानालोक्य परां कोटिमानन्दस्याध्यगमम्। यथा चास्याः संपादकप्रवरैर्बद्धपरिकरं प्रयत्यते ग्रन्थसंग्रहाय तथा चिरायुष्मत्याऽनया पत्रिकया महानेवोपकारः संपत्स्यतेऽचिरेणेति साग्रहमाशास्ते—
Calcutta,
कलिकातावास्तव्यः
Dt, 1-12-1910.
श्रीगणनाथसेनः
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सुश्रुतसंहितायाः सुश्रुतार्थसंदीपनभाष्याख्यव्याख्याप्रणेतृृणां राजशाहीवास्तव्यानांकविराज- श्रीहाराणचन्द्रशर्मचक्रवर्तिनामभिप्रायः—
श्रीश्रीशः शरणम्।
वैद्य श्रीयादवजी त्रिविक्रमजी महोदयं प्रति यथाविहितसम्मानपुरःसरं विनिवेदयति—
तत्र भवद्भिः प्रेषितामायुर्वेदीयग्रन्थमालानाम्नीं पत्रिकामवाप्य नितरां परितुष्टोऽस्मि। भारतीयानां दौर्भाग्यवशाच्चिरन्तनैर्भिषग्भिरुपनिबद्धा बहवो ग्रन्था विलुप्तिमापुः। ये च केचन लुप्तप्राया राजपुरुषाणां प्रयत्नात् यथाकथमपि मुद्रिताः समुपलभ्यन्ते त एवेदानीं पाश्चात्यविज्ञानदृप्तेऽपि देशे भारतीयार्याणां वैद्यकविद्यायामतितरां नैपुण्यविशेषमाख्यापयन्ति। अधुनापि बहवो ग्रन्था अमुद्रिता आकरगता मणय इव न जातु जनानामुपकारायायुर्वेदस्य गौरववर्धनाय वा प्रभवन्ति। धन्योऽसि त्वं यज्जनहितेच्छया रक्षार्थं चायुर्वेदतन्त्राणाममुद्रितांस्तांस्तान् प्राचीनान् ग्रन्थान् बह्वायासेनोपसंगृह्य प्रतिमासमायुर्वेदीयग्रन्थमालायां प्रकाशयसीति। सांवत्सरिकमूल्यमप्यस्या नातिदुर्वहम्। नाह्यपयान्तरेण रूप्यकत्रयव्ययात् कथमपि रसहृदयादिकास्ते ते दुर्लभा ग्रन्थाः शक्यन्ते नाम दृष्टिपथमप्यारोहयितुम्। प्रतिग्रन्थं सुयुक्तिपूर्णा भूमिका दुरुहार्थबोधिका टिप्पन्यपि वर्तत इति सानन्दमभिनन्दयामि। पत्रिकेयं सर्वथायुर्वेदानुशीलयितृृणामुपयोगिनी भविष्यतीति परमाशासे इति।
राजशाही
श्रीहाराणचन्द्रचक्रवर्ती।
६ डिसें० १९१० सः।
जयपुरराजकीयसंस्कृतमहाविद्यालये आयुर्वेदप्रधानाध्यापकानां, आयुर्वेदाचार्योपाधिभृतां राजवैद्य पं० श्रीलक्ष्मीराम स्वामी महोदयानामभिप्रायः—
अद्य प्रादुर्भूतमान्तरिकमानन्दं बहिः प्रकाशयन् सत्यं सन्तोषमावहामि। यतो हि बहोः कालादुपेक्षापथमारोपिते विषये साम्प्रतं समाजे लोकानां दृष्टिपातः। नैतदवधि परमोपयोगिनः खल्वायुर्वेदशास्त्रस्य पुरातनग्रन्थानां प्रकाशने समभूत्समवधानम्। परमद्य नवीनमाविष्कृतामायुर्वेदीयग्रन्थमालां पश्यन् सन्तुष्यामि हृदये। एषा हि मोहमयीनगरात् प्रचरिष्यन्ती मासिकपत्रिका। एतस्याः खलु सम्पादका मोहमयीनगरमधिवसन्त आचार्योपाह्वायादवशर्माणः। एषा हि परमोपयोगिनः प्राचीनानायुर्वेदग्रन्थान् प्रकाशयितुमाविर्भूता। एवंविधान् ग्रन्थान् प्रकाशयन्ती सैषा कियदुपकरिष्यति लोकानामिति सर्वेऽप्यनुमिनुयुः। अस्यां हि प्रकाशयितुमभिलषितानां विरलपठनपाठनप्रचाराणां ग्रन्थानां परिशोधनकर्मणि बहून्यादर्शपुस्तकान्यपेक्ष्यन्त इति सम्पादकमहाशयैरवश्यमस्मिन्विषये समवधातव्यम्। सुयोग्यसम्पादकमधिगतवतीमिमामायुर्वेदविषयरसिका अवश्यमेव समाद्रियेरन्निति विश्वसिमि। चराचरगुरूः परमेश्वरः कुर्यादेनां यशस्विनीमिति निर्मायं समाशासे-
जयपुर, ता. ६।१।१९११
श्रीलक्ष्मीरामस्वामी
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जयपुरराजकीयसंस्कृतमहाविद्यालये आयुर्वेदाध्यापकानां, तर्कोपाध्यायसाहित्यशास्त्रिणां, अखिलभारतवर्षीयसयाजीआयुर्वेदविद्यापीठस्य द्वितीयवैद्यकसंमेलनसभाधिपतीनामायुर्वेदविद्यानिधीनां व्यासोपाख्यराजवैद्यभट्टगंगाधरशर्मणामभिप्रायः—
अयि सुहृद्गणा उद्धाट्यतां चक्षुर्दृश्यतामनुपमं वस्तु गृह्यतामायुर्यततां त्रिवर्गप्राप्तौ बहुकालात् प्राप्तोऽयमवसरः निष्पन्नोऽद्यैवात्मनामवितर्कितो विचारः माभवन्तु तूर्यशब्द इवार्थशून्याः। यतः शास्त्रमूलं हि ज्ञानं तन्मूला च सिद्धिः सिद्धेः फलमनामयः, तथाहि जीवानन्दनीयः श्लोकः,—
“प्राग्जन्मीयतपःफलं तनुभृतां प्राप्येत मानुष्यकं, तच्च प्राप्तवतः किमन्यदुचितं प्राप्तुं त्रिवर्गं विना। तत्प्राप्तेरपि साधनं प्रथमतो देहो रुजावर्जितस्तेनारोग्यमभीप्सितं दिशतु वो देवः पशूनां पतिः॥” इति।
प्रार्थनीयतमस्य नैरुज्यस्योपजीवनभूता नानाविधाः सद्यःफलप्रदा अदृष्टचरा अश्रुतचरा रसहृदयगदनिग्रहादयः प्राचीना आयुर्वेदग्रन्था यत्र मुद्राप्यन्ते। कृते प्रयत्न उपलभ्यमाना आयुर्वेदप्रकाशराजमार्तण्ड- पाकार्णवशालिहोत्रसमुच्चयरसकल्पलतारसावलि–रसपारिजात–रसेन्द्र-चूडामणयो यन्त्रोद्धारश्च शिवकल्या- णारण्यसंहिता–हितोपदेश–हिकमतप्रदीप–रोगब्बादकामरत्नानि वृक्षचिकित्सा द्रव्याभिधानं शब्दरत्नप्रदीपो निघण्टुर्माधवनिदानस्य पद्यमयी टीका टीकान्तराणीतरेषां राघवपाण्डवीयकाव्यमिव क्रोडीकृतार्थद्वयीकः शृङ्गारातङ्कविलास इत्यादयस्ते ते च वैद्यग्रन्था मुद्रापयितुमाशास्याः। सेयमायुर्वेदीयग्रन्थमाला केषां न प्रमोदमुद्वहेत्। शास्त्ररसिकानां भिषजामवश्यमादरणीया नेतरमासिकपत्रिकेव मूल्यभारं बिभर्तीति सहर्षमुपादेया। इमामायुर्वेदीयमासिकपत्रिकामवलोकमानो बहुलमावहामि संतोषम्।
अस्या मासिकपत्रिकाया असंभावितप्रादुर्भावायाः संपादका आर्चोयापाह्वास्त्रिविक्रमतनुजा वैद्यप्रकाण्डा यादवशर्माणः पुरुषोत्तमाः श्लाघ्यतमाः।
किंत्वेतस्यां तैस्तैराचार्यप्रवरैः समूहितान्यनेकमुनिजनस्वान्तखनिजानि विविधसूत्रस्यूतानि भारतीयानां हृदयङ्गमानि प्रत्नानि योगरत्नानि स्थले स्थले तत्त्वार्थावगमकैस्तत्तदौषधीनां शक्यार्थविशेषाभिधायकैर्नैकार्थानां भेषजनाम्नां तन्त्रान्तरसंवादात् प्रकरणादिवशाच्चैकार्थे नियन्तृभिर्गूढवाक्यप्रसाधकैर्वाक्यैरनु- क्ताव्यक्तलेशोक्तसंदिग्धार्थप्रकाशकैः परिभाषावाक्यैः सांप्रतिकोपयुज्यमानमानादिभिः साधनविधया च पूर्णगर्भया टिप्पण्या तथा संस्कारमर्हन्ति यथाधीयानाश्चिकित्सकानां बटवोपि पटवो भवेयुः। नहि यथायथज्ञानमन्तरा भवन्ति प्राणाभिसरा वैद्याः; अतः संपादकमहोदयैः सहायकमहाशयैरथान्यैर्वा विद्वद्वैद्यवरैः सान्द्रस्नेहैः संभ्रियमाणनानातन्त्रैः साहाय्ये समवधेयम्। यतः सतां विभूतयः परानुपकुर्वन्ति। प्राप्तश्चायुर्वेदोद्धारसमयः। चिरस्थायिनीं क्रियादेनामायुर्वेदीयग्रन्थमालामवांङ्मनसगोचरप्रभावोऽ- स्पष्टरूपोऽनादिमध्यनिधनः कालोनाम भगवानित्याशीः
जयपुरम्
गङ्गाधरभट्टस्य.
ता. २-३-११.
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सर्वतन्त्रापरतन्त्राणां सुप्रसिद्धनामधेयानां मिथिलाभूषणानां नवानीवास्तव्यानां धर्मदत्तापर- नामधेयानांपण्डितश्रीबच्चाझामहोदयानामभिप्रायः—
“जीवनसुखलुण्ठनैकनिरतामयदस्युप्रचयदमननिपुणभिषङ्महारथसूतस्य जराभुजगीकवलितो- त्साहजनदुष्पारविविधव्याधिमकरप्रचारभीषणसंसारजलधिपारदस्य चिकित्सावधूहृद्यहृद्यरसस्य रसस्य विविधप्रक्रियाप्रकाशकानि तन्त्राणि गदनिदानप्राप्त्युपशयोपशमप्रकाशभास्वदपूर्वायुर्वेदग्रन्थाश्च संशोध्य दुर्बोधस्थानव्याख्यानमपि विधाय सन्निवेश्य च मासिकपत्रे मार्मिकजनलोचनगोचरतां नयता भिषग्वरेण श्रीमता यादवशर्मणा यथायमुपकृतो भैषज्यतत्त्वविविदिषुर्जननिवहस्तथा वर्णयितुमपेक्ष्यमाणया शेषतया रहिता वयमेतावदीश्वरादभ्यर्थयामो भुवमल- ङ्कुर्वाणास्सुचिरं भूयासुरेतादृशा विद्वन्मणय इति”
‘तृच्चिनाप्यल्लि’वास्तव्यानां ‘अभिनवभट्टबाण’इत्युपाधिविभूषितानां व्याकरणग्रन्थ- रत्नावलिसंपादकानां पं० रा. च. वि. कृष्णमाचार्याणामभिप्रायः-
‘आर्याः, अधिगता संचिका अतीवानन्दयति माम्। श्रीमतामायुर्वेदग्रन्थप्रकटनव्यवसायश्च नितरामखिलैरप्यभिनन्दनीयः। श्रीमद्भिश्च तन्मुद्रणे शोधनादिषु च सुबहु आधीयते श्रद्धेति मे मतिः’।
ता. ३-१-१९११.
भवतां-कृष्णमाचार्यः
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बलिआमण्डलान्तःपातिपनिचाग्रामवास्तव्यानां व्याकरणसाहित्याद्यनेकशास्त्रावगाहनगम्भीरमतीनां ‘उत्तरमोहनचरित्र’ द्यनेक काव्यविरचयितृणां पं. श्रीरमापतिमिश्राणामभिप्रायः—
अदृष्टालभ्यानां विविधविधरोगौघनिधनं विधातृणामद्यावधि नहि गतानामनुगुणाम् प्रसिद्धिं, ग्रन्थानां प्रकटनपरैर्यादवबुधैर्हृतैतद्देशीयेदृशविषयबाहुल्यविमतिः॥१॥
विधायागम्यानां विषमविषयाणां क्वचिदपि
विशालं व्याख्यानं बुधजनविलोक्याढ्यविषयम्।
उपोद्घातं चादौ हृतमपि महाशोकजनन–
मधीतो नो वैद्येष्विति जनजनव्यापि कुमतम्॥२॥
मूल्याल्पत्वाद्गुणाधिक्यान्मुद्रणासुविधानतः। उपादेयत्वमप्यस्य पत्रस्य सुलभं कृतम्।
**श्रीरमापतिमिश्रः।**
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जयपुरराजकीयमहाविद्यालयस्याऽऽयुर्वेदाचार्यपरीक्षोत्तीर्णानां, पञ्चनदविश्वविद्यालयाल्लब्धशास्त्री- पदवीकानां, इन्द्रप्रस्थीय बी. एल्. आयुर्वेदविद्यालयस्य परीक्षकाणां, जींदराज्याधीशस्थापितराज- कीयधर्मव्यवस्थापककमीटीसीनियरसभासदानां श्रीयुत पं. श्यामलालशर्ममहोदयानामभिप्रायः—
वैद्य यादवजी त्रिकमजी आचार्यमहाशयं प्रति यथोचितमानपुरःसरं निवेदयति– ‘आचार्य’इत्युपाधिभूषितैस्तत्र भवद्भिःश्रीयादवशर्मभिः संपाद्यमानामिमां ‘आयुर्वेदीयग्रन्थमालाख्यां’मासिकपत्रिकामवलोकनेन प्रफुल्लितहृदयोऽहं विज्ञापयामि किञ्चिद्विद्वज्जनेषु। यदत्र मुद्रिता आयुर्वेदग्रन्थादुष्प्राप्या एव, नैवाद्यावधि कुत्रापि मुद्रिताः। स्वल्पव्ययेनैव प्राप्या एषा पत्रिका आयुर्वेदरसिकजनैरवश्यमेव संग्रहणीयेति। श्रीमन्तश्च पुरातनायुर्वेदप्रकाशनद्वारा वैद्यजनो- पकारकरणाय समर्था भवन्त्विति याचते जगदीश्वरम्
संगरूर
भवदीयः
ता. २-१९११
श्रीश्यामलालशर्मा शास्त्री आयुर्वेदाचार्यः।
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जयपुरराजकीयसंस्कृतमहाविद्यालयस्य आयुर्वेदाचार्यपरीक्षोत्तीर्णानां, मुंबईस्थायुर्वेदविद्यालयस्य वाग्भटाध्याप- कानां, पञ्चनदविश्वविद्यालयस्य शास्त्रीपरीक्षोत्तीर्णानां,वैद्यकिशोरीवल्लभशर्मणाम- भिप्रायः–
प्रियसहृदयाः!
भावत्कायुर्वेदीयग्रन्थमालानामकं मासिकपत्रमासाद्यातीव चेतस्तुष्यति। यत्र खलु दुष्प्रलभा योग्याश्चायुर्वेदीया रसाहृदयादिग्रन्थाः प्रकाश्यन्ते। अपि नाम विदितमेवैतद्विदुषां यथा संप्रति प्रारब्धवशात्परम्परा- प्राप्तप्रचुरपुस्तकचयानां स्वयं तान्यनुपयुञ्जानानां परेभ्यश्च प्रेक्षणमात्रार्थ- मप्यददानानां पुस्तककीनाशानां हस्तपतितानि पुस्तकानि शीर्णतामवाप्य घुणानां कीटकान्तराणां चोपभोगभाजनानि भवन्ति। अथ च बहवो मुद्रणाधिकारिणः स्वार्थशेमुष्याअवैद्येभ्यः संशोधय्याशुद्धप्रायाणि पुस्तकानि मुद्रयन्तीत्यादिकारणवशादायुर्वेदीयग्रन्थानां प्रलयत्वमेवापाद्यते। परमीशानुकम्पया सोऽयं महानभावः साम्प्रतमभ्युन्नतिचिकीर्षुणा वैद्यवरश्रीयादवशर्मणा महतायासेन प्राक्तनान् ग्रन्थरत्नानन्वेष्य संशोध्य मुद्रयित्वा च निरस्तः। प्रियवयस्येनायुर्वेदसमुद्धरणे ह्यतीव श्रमः समनुष्ठितः प्राचीनायुर्वेदग्रन्थरत्नलोकलोचनगोचरीभावायेति श्लाध्यः प्रयत्नः। अखिलभारतवर्षीयैवैद्यैर्विद्वद्भिश्चावश्यं ग्राहकसंख्याः संवर्ध्य संवर्धनीयः समुत्साहप्रवाहः किल प्रकाशकमहोदयस्य। येनाभ्युन्नतिमाप्नुयादहरह आयुर्वेदीयग्रन्थमालेति शम्।
पौषकृष्णनवमी सं० १९६७.
** किशोरीवल्लभः।**
देहलीनगरस्थबनवारीलाल—आयुर्वेद विद्यालयाध्यापकानां वैद्यराजपण्डित श्रीमनोहरलाल- शर्मणामभिप्रायः–
श्रीमन्महोदयः!
सानन्दं निवेदयामः—याऽधुनाऽयुर्वेदीयग्रन्थमालाविर्भूता संदृश्यते, साचेयं पुरातनायुर्वेदीय- तन्त्रोद्धृतरत्नैर्ग्रथिता श्रीयादवत्रिविक्रमाचार्यभिषग्भिः सद्भिषजामुपकाराय मालेव प्रतिभाति। किञ्चात्रायुर्वेदीयसद्योगा विविधगदप्रशनक्षमा दरीदृश्यन्ते, यैश्चाशु दाक्ष्यं स्याद्विदुषां भिषजामेवेति॥
इन्द्रप्रस्थ।
पं० मनोहरलाल शर्म्मा वैद्यराजः
ता० २०-१-१९११
**बनवारीलाल-**आयुर्वेदविद्यालयाध्यापकः
भोलादग्रामवास्तव्यानां वैद्यवर्याणां ‘नागरदास मोहनलाल पाठक’इत्येषामभिप्रायः—
प्रिय विद्वन्मण्डन महाशय !
प्राचीनायुर्वेदीयपुस्तकोद्धरणप्रयासं आयुर्वेदीयग्रन्थमालाभिधानमासिकपत्रिकामुखेन कृतं श्रीमद्भि- र्भवद्भिर्वीक्ष्याऽऽनन्दार्णवनिमग्नोऽहं लिखाम्यभिनन्दननम्-
यन्त्रंसमस्तविदुषां मुदमावहन्तं श्रीमद्भवत्कृतमुदीक्ष्य मुदं दधेऽहम्॥
श्रीशैलराजतनयाश्रितवामभागस्त्वां तत्फलेन निजधर्मजुषं युनक्तु॥१॥
योऽङ्गीकृतोऽत्र भवता सुमहान् प्रयासः
प्राचीनपुस्तकगणोद्धरणक्रियायाम्॥
सेवा पृथग्मनुजवर्गसुदुष्करा सा
सम्पादिता हि विदुषां भवता पृथिव्याम्॥२॥
भिषग्वर्याः सर्वे शृणुत वचनं सादरतया
यदा चायुर्वेदोदधितलगतिं लिप्सथ तदा॥
विहायान्यं यत्नं झटिति कुरुत ग्राहकतया
सहायं खल्वस्या इदमभिमतं कर्म विदुषाम्॥३॥
सर्वे भिषजो ग्राहकाः सन्तो भवतां यत्नं पुष्णन्तु। पत्रिकेयं सर्वथायुर्वेदविद्यालिप्सुभिः सज्जनैः संग्रहणीयेति मन्यते।
भूह्लाद-मार्गशीर्षे कृष्णदलनवम्याम्॥
संवत् १९६८
मोहनलालतनुजन्मा पाठकोपाह्वो नागरदासशर्मा।
मुंबईनगरस्थायुर्वेदविद्यालयपरीक्षोत्तीर्णानां ‘भिषग्वरं, ए.ए. एम्. एस्’इत्युपाधिधारिणां कच्छ- अंजारग्रामस्थानां ‘शिवशङ्कर जयानन्द भट्ट’इत्येषामभिप्रायः–
प्रियमहाशय !
प्राचीनायुर्वेदग्रन्थप्रकाशने श्रीमतां प्रयासोऽतीवाभिनन्दनीयः। रसहृदयादिग्रन्थानां प्रकाशनारम्भो मे निकामं जनयति हृदयानन्दम्। सर्वेऽपि भारतीया भिषजो ग्राहकाः सन्तः श्रीमतां यत्नमभिपुष्णन्तु। श्रीमन्तश्चानेकोप्रयुक्तग्रन्थप्रकाशने तद्द्वारा भारतीयवैद्यगणोपरि चानुपमोपकारकरणे च क्षमा भवन्त्विति याचते परमात्मान—
कच्छ अंजार,
भिषग्वरः श्रीशिवशंकरशर्मा.।
ता. ११-११-१९१०
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पुण्यपत्तनस्थानां अष्टाङ्गहृदयमाधवनिदानयोर्महाराष्ट्रभाषानुवादकानां ‘एल्. एम्. एन्ड एस्.’इत्युपाधिधारिणां ‘**डॉ. गणेश कृष्ण गर्दे’**इत्येषामभिप्रायः—
वैद्यवर्य जादवजी त्रिकमजी यांस,
आपण पाठविलेलीं आयुर्वेदीयग्रंथमालेच्या पहिल्या अंकाचीं ४८ पानेंपोंचलीं. आपला उद्योग फार स्तुत्य आहे. उपयुक्त व अप्रसिद्ध असे आयुर्वेदीयग्रंथ जितके प्रसिद्ध होतील तितकी आपल्या जुन्या चिकित्साशास्त्रांतील उपयुक्त भाग कायम राखण्यास मदत होईल. जुनी परंपरा लुप्त होत चालली आहे व रसक्रियेची नुस्ती थट्टा चालली आहे. शास्त्रोक्त रीतीनेंपारदादिकांची सिद्धि न करितां अनेक वैद्यकीच्या कारखान्यांतून वाटेल तशीं रसायनें तयार करून भाविक लोकांच्या गल्यांत बांधलीं जात आहेत व अशा औषधांच्या उपयोगापासून रोग्यांचें नुकसान होतें एवढेंच नव्हे, तर कच्च्या रसायनी औषधामुलें झालेलें नुकसान दृष्टोत्पत्तीस आल्यामुलें लोकांकडून वैद्यशास्त्रालाही दूषण मिलतें, ही स्थिति नाहींशी होण्याला सशास्त्र औषधें तयार झालीं पाहिजेत व ह्या गोष्टीच्या सिद्धतेची पहिली पायरी ह्मटली ह्मणजे रसहृदय, रसार्णव इत्यादि प्राचीन परंपरेचे प्रकाशक असे ग्रंथ प्रसिद्ध झाले पाहिजेत. तें काम आपण हातीं घेतलेलें पाहून व त्यांत आमचे मित्र रा. रा. त्र्यंबक गुरुनाथ काले यांनी मदत करण्याचें कबूल केलें आहे असें ऐकून मला फार समाधान वाटलें. आपल्या ह्या सत्कार्यास चांगला आश्रय मिलून तें सिद्धीस जावें अशी आशा करून हें पत्र संपवितों.
पुणें, ता. २६।१०।१०
गणेश कृष्ण गर्दे.
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पौर्वपाश्चात्योभयचिकित्साशास्त्रनिपुणानां ‘ऑनरेबल, सर डॉ. भालचन्द्र कृष्ण भाटवडेकर’इति विख्यातानामभिप्रायः—
Bombuy, December, 6th 1910.
“VAIDYA. JÂDAVAJI TRICAMJI ÂCHARYA gave me a copy of the 1st volume of the Monthly Magazine called Âyurvediya Granthamâlâ, amonthly Medical Saṇskrit Magazine edited and published by him. It contains 3 different reprints of MSS which he has secured, one of them Rasahṛidayam Tantram is written by Govindâchârya, the Guru of the celebrated Shankarâchârya, who is supposed to have lived about a 1000 years ago. The Magazine is well conceived and if kept up to the standard of the 1st Vol. is calculated to do immense good to the Ayurvedic Literature of the present time. I wish Vaidya Jâdavaji every success in the work he has undertaken.”
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Madras, E. 4-12-1910. *
“Dear sir,
It affords me much pleasure to have gone through the pages of your valuable journal“Ayurvediya Grantha Mâlâ”and I accord my hearty and cordial welcome to it as just the thing that is needed for the resuscitation of Âyurvedas’ lore at present. The valued works, with which you have commenced the journal promise a bright career to your journal, while the beautiful get-up of the periodical leaves nothing to be desired. I have no doubt that the journal conducted by one of your deep and profound erudition can be otherwise than an acquisition and help to the labours of the modern workers in the field of whom I have the privilege of being included as one.”
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मुंबईनगरस्थायुर्वेदविद्यालयव्यवस्थापकानां ‘एल्. एम्. एन्ड एम्.’इत्युपाधिधारिणां ‘**डॉ० पोपट प्रभुराम’**इति विख्यतानामभिप्रायः—
MY DEAR VAIDYA JÂDAVAJI TRICAMJI ÂCHÂRYA, I am very much obliged to you for your kindly sending to me the issues of your Ayurvediya Granthamala. The Sanskrit Medical science is very vast and there are many works which are still not published. It is agreat service done to the profession especially the Aryan Medical practitioners to publish these unknown works. Nobody could do it better than you as your sound knowledge of the science and the earnest wish of yours to publish these works bespeak your fitness to take up the work. Medical practitioners and students of the science will both find many things new in these works which will add a good deal to their knowledge. I have recommended these issues to the students of the Aryan Medical School before whom you have lectured for a period of about two years and who have always been thinking of your interesting lectures on Vagbhatta. I wish you all success in this your undertaking.
I remain,
2/3 Anant Wadi,
Yours truly,
Bombay 17th Jan. 1911.
POPAT PRABHURAM,
Supt. A. M. S
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From PANDIT M. DURAISWAMI AIYANGAR, Ayurveda Bhushan, Certificated Ayurvedic Doctor, Lecturer, Madras. S.K.P.D., Medical College, Assistant Physician S. K. P. D. Ayurvedic Hospital
DEAR SIR,
In regard to the Medical monthly “Ayurvediya Granthamala”edited and published by you, I am glad to perceive that your journal stands unique in the field of Medicine and marks the beginning of sincere attempts to resuscitate the Ancient Lore which has been thrown into oblivion by the unthinking millions. Your journal takes the place of a beacon to lead your benighted brethren along the forgotten paths and to help them considerably to unravel and appreciate fully the profound truths of the Hindu science of Medicine. While wishing you hearty success in your honest efforts, I hope no consideration shall deter you from carrying out fully your desired object, as you would thus be doing a service to the public which would be its own reward.
AYURVEDA VILAS,
Yours Faithfully,
176 Mint Street, Madras, E. 2-3-1911.
M. D. SWAMI.
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FROM, B. MANNARU SASTRIAL,
Pillayar palayam, Madura Post, South India
To,
VAIDYA JADAVAJI TRIKUMJI ACHARYA,
BOMBAY.
DEAR SIR,
I am one of the profound mourners for the long-lost mother of Ayurvedic Lore. I had long lost all hopes of her revival. I went on mourning every day. It was at such a juncture, when I interested in such researches, was about to relinquish every idea of success, that your ‘AyurvedicGrantha Mala conducted by your profound erudition happened to pass before my watery eyes. Immediately I
found that she was already rerived in the learned North and was coming towards me with redoubled brilliance and beauty like the gold subjected to many refinements in fire. It afforded me so much pleasure and satisfaction as would be felt by a small orphan at finding his long dead mother revired to life and standing before it. As a representative of the rest of the mourners who also enjoyed the opportunity of persuing your journal and thus satisfying themselves, I render my heart-felt thanks for the interest that you have taken in its resusciation I perused the 9 issues of your worthy journal and was curious enough to go through the August Issue. I was very much feeling the unexpected and unlucky delay of great length. Wheras I found the August journal came to my hands on the 19th instant. I deeply felt apology for your delay. Deep was my sorrow to see the merciless God afflicting such a divine moon like you, in your divine errand. Deep is my wish that God no more might thus interrupt you in the discharge of your benevolent and national duty. Deep is my anxiety and wish for your longlife, for your interrupted health and for the prosperity of your journal. It would not be too much to add that the worthy journal of yours would stimulate the sluggish spirit of all our Southern Sanskrit Scholars whose combined efforts should contribute their quota to the resusciation of Ayurvedic lore and to the national advancement. With my best wishes for the same.
I remain,
Sir,
PILLAYAR PALAYam,
Yours Sincerely
*28th Septembr 1911.
*B. MANNARU SASTRIAL
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‘वैद्यकुलभूषण’ इति तथा वैद्यरत्न इति च प्राप्तोपाधिद्वयानां कानपुरीयवैद्यपरिषन्मन्त्रिणां श्रीयुत पं० रामेश्वरमिश्रवैद्यशास्त्रिणामभिप्रायः—
ओ३म् श्रीधन्वन्तरये नमस्कृतिः।
श्रीयुक्त यादवजी त्रिकमजी महोदयेषु बहुमानपुरस्सरेयं विज्ञप्तिः—
यच्च शल्यशालाक्याद्यष्टाङ्गभूतं वेदसमकालं किलायुर्वेदशास्त्रं, तद्द्वारैवायुर्निरामयत्वलाभा- द्धर्मादिचतुर्वर्गसाधनत्वं तस्येति धर्मादिचतुर्वर्गलिप्सूनां प्राणिनां रागाद्याध्यात्मिकैरुन्मादाद्याधिदैविकैः कुष्ठाद्याधिभौतिकैश्चानेकविधरोगभुजगैः संदष्टानां समूलरोगनिवृत्तये परमकारुणिकैरात्रेयकश्यप- शाण्डिल्यभरद्वाजादिमहर्षिभिस्त्रिकालज्ञानशालिभिर्मुनिभिः स्वास्थ्यानुवृत्तिपुरःसरं दीर्घायुर्लाभायानेकविधा आरोग्योपजीवनभूता विरचिताः संहिताः। ताः कदाचिदत्युत्तमोन्नतिपदारूढाश्चासन्। याः संहिताः सम्यगधीत्य पुरातनैरतिदुरूहायुर्वेदमर्मज्ञैर्विशुद्धबुद्धिभिश्चिकित्सकवरैरेव रसायनैरन्यैश्च दिव्यौषधितल्लजैश्चयवनादीनां जराराजयक्ष्मादिरोगार्तानामारोग्यं विधायातिजराभिभूतानां नूनं नूतनं वयःस्थापितमिति। तासु समुपलभ्यमानास्वप्यनेकासु संहितासु हन्त बह्वयः संहिताः कुत्रचिद्विद्यमाना अपि इदानीं द्रष्टुमपि नोपलभ्यन्ते। परं संतुष्यति चेतः खलु आयुर्वेदीयग्रन्थमालायां संग्रथिता रसहृदयादिग्रन्थाः, ये हि पुरा लुप्तप्राया अत एव सुदुर्लभाश्च प्रकाश्यन्ते। अन्येषां च ग्रन्थानां तादृशानां संप्रकाशने ह्यस्मत्सुहृद्वरैरायुर्वेदोद्धारकै- राचार्ययादवजीमहोदयैर्महानायासः समनुष्ठितः। स खलु प्रभूतमभिनन्दनीयो धन्यवादार्हश्चार्यमहाशयः। अधुना परिम्लायमानाप्यायुर्विद्यावल्ली कादम्बिन्या इवास्याः प्रादुर्भावेन भूयः पल्लविता पुष्पशालिनी फलसंकुला च स्यादिति वरीवृत्यतेऽस्माकमवितथो मनोरथः। तथाहि-आप्लावत्यस्मिन्नवसरे पण्डितराजवचोवीचिरस्मद्धृदयप्रदेशम्।—
**“आरामाधिपतिर्विवेवकविकलो नूनं रसा नीरसा **
**वात्याभिः परुषीकृता दशदिशश्चण्डातपो दुःसहः। **
एवं धन्वनि चम्पकस्य सकले संहारहेतावपि
त्वं सिञ्चन्नमृतेन तोयद कुतोऽप्याविष्कृतो वेधसा॥”
सर्वेषामेव भारतवर्षीयायुर्वेदारविन्दमलिन्दानामतीव सांप्रतं संप्रति स्वकीयाधिहोमजन्योत्साहधूमस्तोमैरस्याः कादम्बिन्याः संवर्धनमिति साग्रहमभ्यर्थयते, अपि चायुर्वेदीयग्रन्थमाला चिरायुष्मती तत्प्रकाशकश्च चिरायुभूर्यादित्याशास्ते च।
पौषशुक्लद्वादश्यां
चन्द्रे, सं० १९६८ विक्रमाब्दे
श्रीरामेश्वरमिश्रो वैद्यशास्त्री।
नयागंज, कानपुर.
(राजमार्तण्डादुरतोंशः)
वातज्वरे गुडूच्यादिकषायः
वातज्वरोपशमनाय पिबेद्गुडूची
दुस्पर्शनागरघनक्वथितं कषायम्
पित्तज्वरे नलदादिकषायः।
पित्तोद्भवे नलदपर्पटकाब्दशुण्ठी-
श्रीखण्डनिःक्वथितमेतदुशन्ति वैद्याः॥१९९॥
कफज्वरे शुण्ठ्यादिकषायः।
शुण्ठीयवासकवृषाब्दकृतः कषायः
श्लेष्मोद्भवं शमयति ज्वरमाशु पीतः।
सर्वज्वरे शुण्ठ्यादिकषायः।
सर्वज्वरप्रशमनार्थमुदाहरन्ति
विश्वौषधेन सह पर्पटकं मुनीन्द्राः॥२०॥
(ज्वराधिकारः २०)
(रससारादुद्धृतोंशः)
पुरा शुद्धो रसेन्द्रश्च संस्कारैर्यश्च संस्कृतः।
चारयेज्जारयेत्तं21 च महासिद्धिप्रदो भवेत्॥१॥
लोहखल्वे चतुष्पादे रसं तत्र विनिक्षिपेत्।
क्षाराम्लवेतसं काङ्क्षी बिडं द्वात्रिंशदंशकम्॥२॥
चतुःषष्ठ्यंशकं व्योम ग्रासं दत्त्वा रसस्य तु।
टङ्कणं हयलाला च लशुनार्द्रकचित्रकम्॥३॥
मधुनिम्बरसं दत्त्वा यामयुग्मं विमर्दयेत्।
सोष्णखल्वे चरेद्ग्रासं गर्भद्रुतिमवाप्नुयात्॥४॥
नष्टपिष्टं परिज्ञाय यत्नेन क्षालयद्रसः।
सोमानालस्य यन्त्रस्य नाभिमध्ये22 रसं क्षिपेत्॥५॥
दत्त्वाष्टांशं बिडं नाभिं किश्चिदम्लेन पूरयेत्।
क्षाराम्लं त्र्यूषणं मूत्रं राजिकाशिग्रुचित्रकम्॥६॥
(पटलः १९)
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“१. रायकवालब्राह्मणानां वसतिः सांप्रत गुर्जरदेश एवोपलभ्यते।” ↩︎
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“‘चान्नं’ ख” ↩︎
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“पाठान्तरम्” ↩︎
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“गर्भमिति कल्कमित्यर्थः” ↩︎
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“प्रायोगिकमिति प्रयोगः स्वस्थस्य सततोपयोगः, तत्र साधु प्रायोगिकम् ।” ↩︎
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“खुड्डाकशब्दोऽल्पार्थः ।यथा चरके-खुड्डिका गर्भावक्रन्तिः,अल्पेत्यर्थः ।” ↩︎
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“अभ्यङ्गपाननस्यबस्तिषु चतुर्षु प्रयोगादित्यर्थः” ↩︎
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“अत्र दण्डकाख्यश्छन्दः । तत्र प्रथमं द्वौ न गणौ, अनन्तरं द्वाविंशती रगणा ज्ञेयाः।” ↩︎
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“प्रत्येकं कर्षमितानां हिङ्ग्वादीनां यावन्तः कर्षास्वावन्ति गुडपलानीत्यर्थः । " ↩︎
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“शिषद्वदकाः कार्या इत्यर्थः ।” ↩︎
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" प्रत्यहं, हरीतकीद्वयं लेहं च पलप्रमाणं भक्षयेदित्यर्थः ।” ↩︎
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“मूलतुलयेति दशमूलतुलयेत्यर्थः।” ↩︎
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“‘वलशते’ इति शेषः।” ↩︎
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“‘क्षयक्षयकरः परम्’ इति पाठान्तरम्” ↩︎
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“‘वचायाः’ इति पाठान्तरम्” ↩︎
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“पुनर्नवासवपठितानित्यर्थः।” ↩︎
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“मूलरहितैरन्यैस्त्वक्पत्राद्यवयवैरित्यर्थः।” ↩︎
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“‘गुप्तं’ इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
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“नेत्रभेषजं ‘सना’ ‘सोनामुखी’ इति ख्यातं, तन्मूलं अष्टपलं ; ऐलः " ↩︎
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“पीलुद्रोणे इति पीलुरसद्रोणे इत्यर्थः ।” ↩︎
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“’ चारयेज्जारयेद्यन्त्रे’ ग.” ↩︎
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“‘नालिमध्ये’ ग.” ↩︎