स्वप्नप्रकाशिका

[[स्वप्नप्रकाशिका Source: EB]]

[

[TABLE]

अथ
स्वप्नप्रकाशिकास्थ-

विषयानुक्रमणिका।

विषय विषय
सप्तविध स्वप्न स्वप्नका परिहार
तहां पचविध स्वप्न निष्फल ग्रन्थान्तरे
स्वप्न देखनेका कारण पाराशरस्मृतौ
प्रमाणान्तर सुश्रुते
तत्रादौ रोगभाविस्वप्न चरके
रक्तपित्तसभव शुभस्वप्न
रक्तरोग बृहद्यात्राग्रंथमे वराहका प्रमाण
गुल्मरोग आचारमयूखे
कुष्ठरोग
प्रमेहरोग वृहस्पतिकेमतसे
उन्मादरोग पराशरसंहिता
अपस्माररोग निष्फल स्वप्न
बहिरायामरोग प्रकृतिजन्य स्वप्न
अनेक रोगोमें विविध स्वप्न स्वप्नका प्रहरपरत्वसे फल
अशुभ स्वप्न स्वप्नप्रदर्शनकी विधि
सुश्रुतके मतसे अशुभ स्वप्न शयनके समय जपनीय मन्त्र.
विष्णुपुराणके मतसे अशुभ स्वप्न शयनके नियम
वराहपुराणमत स्वप्नप्रकाशिकाके पाठका फल
मार्केण्डेयपुराणमत

इति अनुक्रमणिका समाप्ता ।

श्रीः।

श्रीशं वन्दे।

श्रीनिकुञ्जविहारिणे नमः ।

अथ स्वप्नप्रकाशिकाप्रारम्भः।

—————♦—————

स्वप्नाधिपंहरि नत्वा स्वप्नविज्ञानहेतवे।

स्वप्नप्रकाशिकां वक्ष्ये सर्वचित्तानुगामिनीम् ॥ १॥

अर्थ- स्वप्नाधिप श्रीहरिको नमस्कार करस्वप्नविज्ञानके लिये सबके चित्तमे गमन करनेवाली अर्थात् सबको प्रिय ऐसी स्वप्नप्रकाशिकाको कहते हैं ॥ १ ॥

स्वप्नानतः प्रवक्ष्यामि मरणाय शुभाय च।

सुहृदो यांश्च पश्यन्ति व्याधितो वा स्वयं तथा ॥ २॥

अर्थ - अब में स्वप्नको कहूंगा जिनको मरणके अर्थ अथवा अच्छा होनेके अर्थ रोगीके सुहृद्अथवा स्वय रोगी देखता है ॥२॥

सप्तविधस्वप्नाः।

दृष्टः श्रुतोऽनुभूतश्च प्रार्थितः कल्पितस्तथा।

भाविको दोषजश्चैव स्वप्नः सप्तविधो विदुः ॥ ३ ॥

अर्थ - तहा कहते हैं कि स्वम सात प्रकारका हे। १ दृष्ट ( जो दिनमें देखा हो उसीको रात्रिको स्वप्नमें देखे) २ श्रुत (जो बात सुनी हो उसीको स्वममें देखे) अनुभूत (जो बात जाग्रत अवस्थामें अनुभव करी हो उन्हीं स्वप्नमें देखे ) ४ प्रार्थित ( जो वस्तुको जाग्रत् अवस्थामें इच्छा की हो उसीको स्वप्नमें देखना) ५ कल्पित ( जो दिनमें किसी वस्तुको कल्पना करे उसे स्वप्नमेंदेखे) ६ भाविक (जो दृष्टान्त से विलक्षण देखे और उसको उसका वैसाही फल हो उसको भाविक जानना ) ७ दोषज ( वात पित्त कफ इनकी प्रकृतिके अनुसार स्वप्नदीखना) ॥ ३ ॥

तंत्र पञ्चविधं पूर्वमफलं भिपगादिशेत्।

दिवास्वप्नमतिहस्वमतिदीर्घंच बुद्धिमान् ॥ ४ ॥

दृष्टः प्रथमरात्रे यः स्वप्नः सोऽल्पफलो भवेत्।

न स्वप्याद्यं पुनर्दृष्ट्वा स सद्यः स्यान्महाफलः ॥ ५॥

अर्थ-

तिन दृष्टादिक सात स्वप्नोमें प्रथमके पांच स्वप्नको वैद्य निष्फल कहे।तथा दिनका स्वप्नएवं अति छोटाअथवा अत्यंत बडा स्वप्नकोभी वैद्य निष्फल जाने और जो स्वम प्रथम रात्री में देखा हो वह अल्प फलको देता है जिस स्वप्नको देखकर फिर न सोवे वह स्वप्नशीघ्र महाफलको देता है ॥ ४ ॥ ५ ॥

वाग्भट लिखते है कि जो प्रकृतिसंबंधि स्वप्नअर्थात् जैसे दोषकी प्रकृति हो उसी प्रकारका स्वप्नादेखाहुआ भी निष्फल है जैसे वातप्रकृतिवाला वातप्रकृति के अनुरूप स्वप्नदेखे। पित्तप्रकृतिवाला पित्तप्रकृति के और कफ प्रकृति कफप्रकृति के एवं द्वंद्वज और त्रिदोषज जो द्वंद्वजके और त्रिदोषज प्रकृतिके अनुरूप स्वप्नदेखेतो निष्फल है और जिसस्वप्नको देखाउसकी विस्मृति हो जावे वह भी निष्फल हैं शेप समान है ।

मनोवहानां पूर्णत्वाद्दोषैरतिबलैस्त्रिभिः ।

स्रोतसां दारुणान् स्वप्नान् काले पश्यत्यदारुणान् ॥ ६ ॥

___________________________________________________________________________

तेष्वाद्याःनिष्फलाः पच यथास्वप्रकृतिर्दिनी। विस्मृतो दीर्घस्वप्नऽपिपूर्वरात्रे चिरा फलम् ॥ करोति तुच्छ च गोसर्गे तद्हर्महन्। निद्रयास्वानुपहतः प्रती

र्वचनेस्तथा ॥

अर्थ- मनोवंहअर्थात् मनके बहनेवाली नाडियों के छिद्र जिस समय अतिबली तीनों दोषोंमेपूर्ण हो जाते हैं उस कालमें यह मनुष्य दारुण (खोटे) और अदारुण (शुभ) स्वप्नोंको देखता है \।\। ६ \।\।

नातिप्रसुप्तः पुरुषः सफलानफलानपि ।

इन्द्रियेशेन मनसा स्वप्नान् पश्यत्यनेकधा ॥ ७ ॥

अर्थ- जिस समय यह पुरुष न अत्यंत सोता हो और न जानता हो उस समय इन्द्रियाके अधिपति मन करके सुफल और निष्फल अनेक प्रकारकेस्वप्नोकोदेखता है। जिसमें स्वप्नदेखता है उस अवस्थाको स्वप्नावस्थाकहते हैं ॥७॥

तथाच ग्रन्थान्तरे।

सर्वेन्द्रियाण्युपरतौमनो ह्युपरतं तथा ।

विषयेभ्यस्तदा स्वप्नंनानारूपं प्रपश्यति॥ ८॥

अर्थ- और ग्रंथान्तरोमेंभी लिखा है कि जिस समय संपूर्ण इन्द्री और मन विषयासे उपरामको प्राप्त होते हैं, तब यह प्राणी अनेक प्रकारके भले वुरे स्वप्नोकोदेखता है ॥ ८ ॥

तत्रादौ रोगमाविस्वप्नाः

श्वभिरुष्ट्रैःखरैर्वापि याति यो दक्षिणां दिशम्।

स्वप्ने यक्ष्मा तमाविश्य न जीवन्नवसृज्यते॥९॥

अर्थ - तह प्रथम रोग होनहार व कहते हैं । जो मनुष्य स्वप्नमें कुत्ता, उंट और गधेपर चढके दक्षिणदिशाकोजाता है; उसके राजयक्ष्माको रोग होस मरता है ॥ ९ ॥

रक्तपित्तसंभवे ।

लाक्षारक्ताम्बराभं यः पश्यत्यम्बरमन्तिकान्।

स रक्तपित्तमासाद्य तेनैवान्ताय नीयते॥ १०॥

अर्थ-

जो मनुष्य स्वप्नमें लाख और लाल वस्रके समान आका- शको देखता है वह रक्तपित्तरोगों को प्राप्त हो और उसी रक्तपित्तसे मरणको प्राप्त होता है ॥ १० ॥

रक्तरोगे।

रक्तस्रग्रक्तसर्वाङ्गो रक्तवासा मुहुर्हसन् ।

यः स्वप्नं ह्रियते नार्या स रक्तं प्राप्य सीदति ॥ ११ ॥

अर्थ- जो मनुष्यस्वप्नमें लाल फूलमाला और अपने संपूर्ण अंगोंकोलाल और लाल वस्त्रोकाधारण करता वारंवार हँसता है- एवं जिसको स्वप्नमे लाल वस्त्र धारण करनेवाली स्त्रीखींचती वह रुधिरके रोगसे मरता है ॥ ११ ॥

गुल्मरोगे।

शूलाटोपान्त्रकूटाश्च दौर्बल्यं चातिमात्रया।

नखादिषु च वैवर्ण्यं गुल्मेनान्तकरो नरः ॥ १२॥

अर्थ- जिस मनुष्य के स्वप्नमें शूलरोग, अफरा, आतोंका रोग, अत्यन्त दुर्बलताका रोग और जिसके नखदुष्ट रंगके हो जाय उस मनुष्यकी मृत्यु गुल्मरोगसे होती है ॥ १२ ॥

लताकण्टकिनी यस्य दारुणा हृदि जायते।

स्वप्नेगुल्मस्तमन्ताय क्रूरो विशति मानवम्॥ १३॥

अर्थ- जिस ‘स्वप्नसेमे मनुष्य के हृदय में घोर काटेवाले उता (वेल ) उत्पन्न होय उस मनुष्य के माग्नेको कुर गुल्मरोग उसकी देहमें प्रवेश करता है ॥ १३॥

कायेऽल्पमपि संस्पृष्ट सुभृशं यस्य दीर्यते।

क्षतानि च नरो हन्ति कुष्ठैर्मृत्युर्हिनस्ति तम् ॥ १४॥

नग्नस्याज्यावसिक्तस्य जुह्वतोऽग्निमनर्चिपम्।

पद्मान्युरसि जायन्ते स्वप्ने कुष्ठैर्मरिष्यतः॥ १५॥

**अर्थ-**जिसकी देह ने भी स्पर्श करनेसे फंसजावे और घावहो जावे वह मनुष्य कुष्ठकरके मरण पाता है । यह जाग्रत् अवस्थामे जानना और यही मनुष्य स्वप्नमें नग्न हो घृतको देहमे लगावे और ज्वालारहित अग्निमें हवन करे तथा उसके हृदय में कमल प्रगट होय वह कुछ करके मरेगा ऐसा जानना ॥ १४ ॥ १५ ॥

प्रमेहरोगे।

स्नातानुलिप्तगात्रेऽपि यस्मिन् गृध्यन्ति मक्षिकाः।

स प्रमेहेण संस्पर्श प्राप्य तेनैव हन्यते ॥ १६॥

स्नेहं बहुविधं स्वप्ने चांडालैः सह यः पिबन्।

बध्यते स प्रमेहेण स्पृश्यतेऽन्ताय माधवः ॥ १७॥

अर्थ-

जो मनुष्य स्नान कर चुका हो और तैल आदिका मालिस करचुकाहो तथापि उसकी देहमें मक्खी आकर बैठे, वह मनुष्य प्रमेहरोगको प्राप्त हो और उसी प्रमेह रोगकरके मारा जाता है यह जाग्रत् अवस्थामें जानना \। अब कहते हैं कि वही मनुष्य स्वप्नमें चाडाल (मंगी डोम आदि) के साथ अनेक प्रकारके घृततैलादि स्नेहका पान करता है वह प्रमेह करके मरता है उसको मधुमेह होता है ॥ १६ ॥ १७ ॥

ध्यानायामौ तयोद्वेगश्चोहश्च स्थानसम्भवः।

अरतिर्बलहानिश्चमृत्युरुन्मादपूर्वकः॥ १८ ॥

आहारे द्वेषिणं पश्यन् प्लुतचित्तं मुदर्दितम्।

विद्याद्वीनो मुमूर्षुं तमुन्मादेनातिपातिनः।

पुटत्रयःलुप्ताः सन्ति।

रोग होनेवाल मनुष्यनयामिले पदार्थ माना है। समय। और बारिपोयो व्यग्ये ॥ ४५ ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥

एतानि पूर्वरूपाणि यः सम्यगवबुध्यते ।

स एषामनुबंधं च फलं व ज्ञातुमर्हति ॥ २८ ॥

इमांश्चाप्यपराः स्वप्नान्दारुणानुपलक्षयेत्।

व्याधितानां विनाशाय क्लेशाय मदतेऽपि वा ॥२९॥

अर्थ- जो पुरुष इन रोगोके पूर्वरुपोंकोउत्तम गतिसेजानताहै वह इन दुष्ट पूर्वस्थाका यत्न और इनके फलकोभी जानता है इस प्रकार यह मनुष्य इनको और अन्य दुष्ट स्वप्नोको रोगीके मृत्युके अर्थ

अथवा यष्टके लिये देखता है॥ २८॥ २९॥

अथान्वाशुभस्वप्नाः।

यस्योत्तमाङ्गे जायन्ते वंशगुल्मलतादयः।

वयांसि च विलीयन्ते स्वप्ने मोण्डयमियाच्च यः॥ ३०॥

गृध्रोलृकचकाकाद्यैःस्वप्नेयः परिवार्यते ॥ ३१ ॥

अर्थ- जब अन्य अशुभ स्वप्नोंकोंकहनेहैं। जैसे कि जिसकेमस्तकपर बांसकावृक्ष, गुल्म (छोटा जवासेके सदृश वृक्ष) और लता प्रगट होऔर जिसके देहमें पक्षी प्रवेश करे, तथा स्वप्नमें मुंढित होकर गमन करे और जिसको गीध कुठा और कौआ यादि त्रास देवे॥ ३०॥ ३१॥

रक्षः प्रेतपिशाच स्त्रीचाण्डालद्रमडादिकैः ।

वंशवेत्रलतापाशतृणकण्टकसङ्कटे॥ ३२ ॥

प्रमुह्यन्ति हि यः स्वप्नेलगति प्रपतत्यपि

भूमौ पांसुपधानायां वल्मीके वाथ भस्मनि ॥ ३३ ॥

श्मशानायतनश्वभ्रे स्वप्ने यः प्रपतत्यपि।

कलुपेऽम्भसि पड्केवा कूपे वा तमसावृते।

स्वप्नेमज्जति शीघ्रेण स्रोतसा ह्रियते च यः ॥ ३४ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमे राक्षस, प्रेत, पिशाच, स्त्री, चाडाल द्रमडादिकोंकर के वास, वेत, लता, फास, तिनका और कांटेके संकटमें मोहित हो लगकर गिर पडे, तथा रेतली पृथ्वी से तथा सर्पकी बांबीमे, राखमे, स्मशानमें, देवस्थानोमें, गड्ढे में, दुष्ट जलमें, कीचमे अधोए कूपमें गिरे और पानीके वेगकरके जो हरण करा जाय जर्थात् वह जावे ॥३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥

स्नेहपानं तथाभ्यङ्गप्रच्छर्दनविरेचने ।

हिरण्यलाभः कलहः स्वप्ने बन्धपराजयौ ॥ ३५ ॥

उपानद्युगनाशश्च प्रपातः पांसुचर्मणोः ।

हर्पस्वप्नेप्रकुपितैः पितृभिश्चावभर्त्सनम् ॥ ३६ ॥

दन्तचन्द्रार्कनक्षत्रदेवतादीपचक्षुषाम्।

पतनं वा विनाशो वा स्वप्ने भेदो नगस्य वा ॥ ३७ ॥

अर्थ- स्वप्नमें तेलका पीना तथा देद्दमे लगाना, उलटी करना, दस्त होना, तथा सुवर्णका मिलना, कलह होना, बंधनमें पडना ओर हारना, जोडियाेका नाश, पांसू और चमडेका गेरना तथा स्वप्नमे सुखी होना और कुपित हुए पिनीश्वरोंकरके पुरुष देखे तो संशयको प्राप्तहो, ऐसे दुष्टस्वप्नोसे कोईभीपुण्यवान पुरुष वचता है ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४१ ॥

तथा च सुश्रुते।

स्नेहाभ्यक्तशरीरस्तु करभव्यालगर्दभैः।

वराहेर्महिपैर्वापि यो यायाद्दक्षिणामुखः॥ ४३ ॥

रक्ताम्बरधरा कृष्णा हसन्ती मुक्तमूर्धजा।

यंवा कर्षति बद्धा स्त्रीनृत्यन्ती दक्षिणामुखम्॥ ४४॥

अन्त्यावसायिभियों वा कृष्यते दक्षिणामुखः।

परिष्वजेरन्यं वापि प्रेताः प्रवजितास्तथा ॥ ४५॥

अर्थ- अब सुश्रुतके मतसे दुष्ट स्वप्नकहते हैं जैसे कि देहमें तेलका लगाना, तथा ऊंट, सर्प, गधा, सूकर और भैंसा इनपर बैठकर जो दक्षिणदिशाको जाय तथा लाल वस्त्रके धारण करने वाली, बाल जिसके खुले रहे ऐसी स्त्री हँसती नाचती जिस मनुष्यको बांधकर दक्षिणदिशाको घसीटे अथवा जो चांडालोंकरके दक्षिणदिशाको घसीटाजावे अथवा जिसको मृतपुरुष और संन्यासी आलिंगन करे ॥४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥

मूर्द्धन्याध्रायते यस्तु श्वापदैर्विकृताननैः।

पिबेन्मधु च तैलं च यो वा पङ्केऽवसीदति ॥ ४६ ॥

पङ्कग्रदिग्धगात्रो वा प्रनृत्येत्महसेत्तथा।

निरम्बरश्च यो रक्तां धारयेच्छिरसि स्रजम् ॥ ४७॥

**अर्थ-**स्वप्नमें जिसके मस्तककोविकराल मुखके कुत्ते सूंघे, जो सहत तैल पीवे, अथवा कोचमें डूब जावे, अथवा जिसके संपूर्ण अंगों में कोच लग जावे, नांचे, हंसे, तथा भग्नहो मस्तकपर लालपुष्पकी माला धारण करे ॥ ४६ ॥ ४७॥

यस्य वंशो नलो वापि तालो वोरसि जायते॥ ४८॥

यं वा मत्स्यो ग्रसेद्यो वा जननीं प्रविशेन्नरः।

पर्वताग्रात्पतेद्यो वा श्वभ्रे वा तमसावृते॥ ४९॥

ह्रियते स्रोतसायो वा यो वा मौढ्यमवाप्नुयात्।

पराजीयेत वध्येत काकाद्यैर्वाभिभूयते॥ ५०॥

अर्थ- स्वप्नमे जिसकी छातीमें मांसका नरसलका अथवा ताडका वृक्ष उत्पन्न हो, तथा जिसको मछली निगल जावे, अथवा अपनी मातामें प्रवेश कर जावे, पर्वतके अग्रभागसे अंधकारयुक्त गड्ढे में गिरे, अथवा पानीके वेगसे वह जावे वा मुंडन हो, तथा शत्रुसे पराजित हो वा बंधनको प्राप्त हो, एवं जो काक (चील, गीध, घू घृ) आदिसे पीडित होवे॥ ४८ ॥ ४९ ॥ ५० ॥

यः पश्येद्देवतानां वा प्रकम्पमवनेस्तथा।

शाल्मलीकिंशुकं यूपं वल्मीकं पारिभद्रकम्॥ ५१॥

पुष्पाढ्यंकोविदारं वा चितां यो वाधिरोहति ॥

कार्पासतैलपिण्याकलोहानि लवणं तिलान् ॥ ५२ ॥

लभेताश्नाति वा पक्व- मन्नं यश्च पिबेत्सुराम्।

स्वस्थः स लभते व्याधिं व्याधितो मृत्युमृच्छति॥ ५३ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें देवप्रतिमाको और पृथ्वीको हिलती देखे, तथा सेमरका वृक्ष, ढाक्कावृक्ष, यूप ( यज्ञमें पशु

नेका स्तंभ ), बमई, नीमका वृक्ष और फूला हुआ कचनारका वृक्ष इनको देखे अथवा अपनेको चितामे बैठा देखे, कपास, तेल, खल, लोहेके पदार्थ, नोन, तिल ये प्राप्त होय अथवा पक्वअन्न (पूडी, कचोडी, लड्डू आदि) को स्वप्नमें भक्षण करे, दारु पीवेइत्यादि स्वप्नोसे स्वस्थ पुरुष रोगी हो और रोगी पुरुषकी मृत्यु होय ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ ५३ ॥

विष्णुपुराणे।

देवद्विजादिभूपानां प्रजानां क्रोध एव च।

आलिङ्गनंकुमारीणां प्राणिनां चैव मैथुनम् ॥ ५४ ॥

हानिश्चैव स्वगात्राणां वीरकण्ठमनः प्रियान्।

दक्षिणाशाभिगमनं व्याधिर्नानभिभवस्तथा ॥ ५५ ॥

फलापहारश्च तथा शाङलानां विशोधनम्।

कापायवस्त्रधारित्वं तद्वत्क्रीडनके तथा॥ ५६ ॥

स्नेहपानावगाहौ च रक्तं माल्यानुलेपनम्।

एवमादीनि चान्यानि दुःस्वप्नानि विनिर्दिशेत् ॥ ५७ ॥

अर्थ- विष्णुपुराणमेंलिखा है कि स्वप्नमें देव ब्राह्मण आदिका, राजाका और प्रजाका क्रोधितहोना, कुमारी (कन्याओं) का आलिंगन करना, पशु आदि प्राणियों का मैथुन देखना, अपने देहकी हानि, वीर, कंठओर मनवाछित पायोका नादा देखना, अपनेको दक्षिणदिशामें जाता हुआ देखे, तथारोगमें बकातदेखे, फ्लोंका करण, घासका काटना, तथागेरुआ कपड़े पहने, उसी प्रकार अपने को खेलता खेलता, तेल पीता, तेलमेंस्नानकरवा, लाल पुष्प - माला और लाल चंदन धारण को हुए देखना इनसे आदि के और बहुतसेंदुःस्वप्न जानने चाहिये ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥

वराहः।

हरिणारोहे भ्रमणं मृत्युर्न चिरेण सुकरारोहे।

उष्ट्रारोहे व्याधिर्वृद्धिः स्यात्कुञ्जरारोहे॥ ५८॥

अर्थ- वराहमिहिर लिखते हैं कि स्वप्नमें हरिणके ऊपर अपनेको बैठा देखे तो भ्रमण करे, शूकरके ऊपर बैठा देखे तो थोडेही कालमें मृत्यु हो, उसी प्रकार ऊटपै बैठनेसे रोग और हाथीपर बैठनेसे कुटुंबवृद्धि होय ॥ ५८ ॥

मार्केडेयः।

वान्त्यामूत्रपुरीपं तु सुवर्णं रजतं तथा।

प्रत्यक्षमथवा स्वप्नेजीवेत दशमासिकम् ॥ ५९ ॥

लोहदण्डयुतं कृष्णं नरं कृष्णपरिच्छदम् ।

स्वप्नेच पार्श्वतो दृष्ट्वा त्रिरात्रान्मृत्युमादिशेत्॥ ६० ॥

अर्थ- मार्केडेय ऋषि लिखते है कि जो मल, मूत्र, सुवर्ण और चांदीको वमनको जागते अथवा स्वप्नमे देखे वह मनुष्य दश महीने जीवे। जो मनुष्य स्वप्नमें लोहदंडका धारण करनेवाला और संपूर्ण परिच्छेद ( हाथी घोडा आदि), जिसके काले हो पुरुषको अपने पास खडा देखेवह तीन रात्रिमे मरेगा ऐसा जानना ॥ ५९ ॥ ६० ॥

करालैर्विकटैःकृष्णैः पुरुषैरुद्यतायुधैः।

पापाणैस्ताड्यते स्वप्ने सद्यो मृत्युर्भवेन्नरः॥ ६१ ॥

अर्थ- जो स्वप्नमे कराल, विक्ट, काले पुरुष, हाथमें शस्त्र ले रक्खे हो तवपत्थर मारते हो ऐसा देखे वह शीघ्र मरे ॥ ६१॥

रक्तकृष्णाम्बरधरा गायन्ती च हसन्ती च।

दक्षिणाशां नयेन्नारी स्वप्ने सोऽपि न जीवति ॥ ६२॥

**अर्थ-**लाल अथवा काले वस्त्रको धारण करनेवाली स्त्री गाती हँसती जिसको स्वप्नमें दक्षिणदिशाको ले जावे वह मनुष्य नहीं जीवे ॥ ६२ ॥

यस्तु प्रावरणं शुक्लंस्वप्ने पश्यति मानवः।
कृष्णरक्तमपि स्वप्ने तस्य मृत्युरुपस्थितः॥ ६३ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें अपने ओढने बिछोनेके वस्त्रांको सफेद वा काले और लाल देखे उसकी मृत्यु उपस्थित है ऐसा जानना ॥ ६३ ॥

श्वभ्रे यो निपतेत्स्वप्ने द्वारं चास्य विधीयते।
न चोत्तिष्ठति यस्तस्मात्तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ ६४ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमे गड्ढे में गिर पड़े, जिसके घरके किवाड रुक जावेवह पुरुष जबतक शय्यासे नहीं उठे तबतकही उसका जीवन है ऐसा जानना ॥ ६४ ॥

रक्तगन्धप्रलिप्ताङ्गो रक्तमाल्योपशोभितः।

तैलाभ्यक्तोऽतिपीतश्च मुण्डितो रक्तवस्त्रधृक् ॥ ६५ ॥

खरमारुह्य वेगेन दक्षिणां दिशमाव्रजेत्।

स्वात्मा च दृश्यते स्वप्ने स याति यममन्दिरम् ॥ ६६ ॥

अर्थ- रक्तगंध और लाल फूल माला जिसने पहिर रक्खी हो तथा तेलको लगावे तथा पीवे, मुंडित हो लाल वस्त्रको धारण कर गदहेके ऊपर बैठ वेगसे दक्षिणदिशामें जाय इस प्रकार जो मनुष्य अपने आपको स्वप्नमें देखे वह अवश्य यमराजके घरको पधारे ॥ ६५ ॥ ६६ ॥

दन्ता यस्य विशीर्यन्ते केशा यस्य पतन्ति च।

धननाशो भवेत्तस्य व्याधिपीडाप्यसंशयम्॥ ६७ ॥

अर्थ -

जिस मनुष्य के स्वप्नमें दात और वाल गिर जावेउसका धननाश और व्याधिपीडा होय ॥ ६७ ॥

अभिद्रवन्ति यं स्वप्ने शृङ्गिणी दंष्ट्रिणोऽथवा।

वानरा वा वराहा वा तस्य राजकुलाद्भयम् ॥ ६८ ॥

अर्थ- स्वप्नमें जिसके पीछे सींगवाले (बैल, भैंसा आदि) और डाढोंवाले (सिंह

घेरा कुत्ता आदि) और वंदर तथा सूक्ष्मर दोडे। उसको राजकुलसे भय होय ॥ ६८॥

स्वप्नेऽभ्यक्तस्तु रजसा तैलेन च घृतेन च।

स्नेहेन वा तथान्येन व्याधिं तस्य विनिर्दिशेत् ॥ ६९॥

अर्थ- जो स्वप्नमें धूल वा तेल तथा घीको देहमें लगाता है एवं और प्रकारका स्नेह (चरबी आदि) को लगाता है वह अवश्य रोगी होय ॥ ६९ ॥

रक्ताम्बरधरा नारी रक्तगन्धानुलेपना।
अवगूहति यं स्वप्ने तस्य मृत्युं विनिर्दिशेत् ॥ ७० ॥

अर्थ- लाल वस्त्रऔर लाल चंदनको धारण करनेवाली स्त्री जिस पुरुषका आलिंगन करे उसकी मृत्यु हो ॥ ७० ॥

कृष्णाम्बरधरा नारी कृष्णगन्धानुलेपना।

अवगूहति यं स्वप्नेऽकल्याणं तस्य निर्दिशेत् ॥ ७१ ॥

अर्थ- काले वस्त्रऔर काले चंदनको धारण करनेवाली स्त्रीजिस पुरुपको आलिंगन करे उसका अकल्याण जानना ॥ ७१ ॥

स्वप्नेषु नग्नान्मुण्डांश्च रक्तकृष्णाम्बरावृतान्।

व्यंगांश्च विकृतान्कृष्णान्सपाशान्सायुधानपि ॥ ७२ ॥

बघ्नतो निघ्नतश्वापि दक्षिणां दिशमाश्रितान्।

महिपोष्ट्रवरारूढान्स्त्रीपुंसोर्यस्तु पश्यति।
स स्वस्थो लभते व्याधिं रोगी यात्येव पञ्चताम् ॥

अर्थ- स्वप्नमें नंगे, मुंडित, लाल काले वस्रके धारण करनेवाले, अंगहीन, विकराल, काले, फांसी और शस्त्रोंको लिये ऐसे पुरुष बांधते मारते दक्षिणदिशाको ले जाते तथा भैंसा ऊंठ और गधेपर चढे हुए जिस स्त्रीपुरुषको दीखे वह नैरोग्य रोगी होय और जो रोगी है वह मृत्यु पावे ॥ ७२ ॥ ७३ ॥

अधोयोनिं पतत्युच्चाज्जलेऽग्नौ वा विलीयते।

श्वापदैर्हन्यते योऽपि मत्स्याद्यैर्गिलितो भवेत् ॥ ७४ ॥

यस्य नेत्रे विलीयेते दीपो निर्वाणतां व्रजेत् ।

तैलं सुरां पिवेद्वापि लोहंवा लभते तिलान्॥ ७५॥

पक्कान्नं लभतेऽश्नाति विशेत्कूपं रसातलम्।

स स्वस्थो लभते व्याधिं रोगी यात्येव पञ्चताम् ॥ ७६॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें अपने को पर्वत वृक्ष आदि ऊंचे स्थानसे गिरा हुआ देखे तथा पानीमें डुवा हुआ, अग्निमें जला हुआ तथा कुत्तेने नखोसे घायल करा हुआ मछलीकरके भक्षिव, अकस्मात् नेत्र जाते रहे, तथा अकस्मात् दीपक बुझा हुआ ऐसा देखे तथा तैल, दारू इनको पीवे, लोह, तिल इनका लाभ होय तथा पक्वान्नका लाभ होकर उसको भोजन करे, तथा कूएमें व पातालमें प्रवेश करे, इस प्रकार के दुष्ट स्वप्न देखनेसे जिसकी प्रकृति स्वस्थ है उसको रोग होय और जो रोगी है वह मरे ॥ ७४ ॥ ७५ ॥ ७६॥

दुःस्वप्नानेवमादींश्च दृट्वाब्रूयान्न कस्यचित्।

स्नानं कुर्यादुपस्येव दद्याद्धेमतिलानयः॥ ७७ ॥

पठेत्स्तोत्राणि देवानां रात्रौ देवालये वसेत्।

कृत्वेवं त्रिदिनं मर्त्यों दुःस्वप्नात्परिमुच्यते॥ ७८ ॥

अर्थ- पूर्वोक्त नग्नमुंडादि दुष्ट स्वप्नको देखकर किसीसे न कहे और प्रातः काल स्नानकर सुवर्ण और तिलका और लोहका दान करे फिर दुष्ट स्वप्नका नाशकर्त्ता ऐसे देवताओंके (विष्णुसहस्रनामादि) स्तोत्रोका पाठ करे। इस प्रकार दिनमें कर रात्रिमें देवमन्दिर में स्थित हो जागरण करे इस प्रकार तीन दिन करनेसे। मनुष्य दुःस्वप्नके फलसे छूट जाता है ॥ ७७ ॥ ७८ ॥

ग्रन्थान्तरे च ।

स्तुतिश्च वासुदेवस्य तथा तस्य च पूजनम् ।

नागेन्द्रमोक्षश्रवणं ज्ञेयं दुःस्वप्ननाशनम् ॥ ७९ ॥

अर्थ- औरभी ग्रन्थान्तरो में लिखा है कि श्रीवासुदेवकी स्तुति तथा श्रीवासुदेव भगवान्का पूजन और गजेन्द्रमोक्षका श्रवण कर नेसे दुःस्वप्नका फल नष्ट होता है ॥ ७९ ॥

पराशरस्मृतौ ।

देवद्विजाग्निप्रतिपूजनानि मन्त्रोपवासादिपवित्रमेव।

तिलान्नगोभूमिहिरण्यदानं दुःस्वप्नसंदर्शननाशनानि॥ ८० ॥

अथाम्बुसंस्पर्शनमन्त्रहोमतिलप्रदानं तपनं च भूयः।

शान्तिर्जपो होमस्तथान्नदानं दुःस्वप्रहन्तृृणि पयश्च गाङ्गम्॥ ८१ ॥

अर्थ - पारावारस्मृति में लिखा है कि देव ब्राह्मण और अग्निइनका पूजन, गायत्र्यादि दिव्य मंत्र जप करना, उपवासादि पवित्र कर्मोका अनुष्टान, तथा तिल, अन्न, गौ, पृथ्वी और सुवर्णका दान ये सब दुःस्वप्नदेखनेके फलको नष्ट करे हैं। उसी प्रकार जलोंका स्पर्श, मंत्रजापपूर्वक होम, तिलदान, तप करना, शांति कराना, जप, होम, अन्नदान और श्रीभागीरथी गंगाके जलका सेवन दुःस्वप्नकी शांति करे है ॥ ८० ॥ ८१ ॥

सुश्रुते च।

स्वप्नानेवंविधान् दृष्ट्वा प्रातरुत्थाय यत्नवान्।

दद्यान्माषांस्तिलाॅंल्लो विप्रेभ्यः काञ्चनं तथा ॥ ८२ ॥

जपेच्चापि शुभान्मन्त्रान् गायत्री त्रिपदां तथा।

दृष्ट्वाच प्रथमे यामे सुप्याद्धयात्वा पुनः शुभम् ॥ ८३ ॥

जपेद्वान्यतमं देवं ब्रह्मचारी समाहितः ।

न चाचक्षति कस्मैचिद्दृष्ट्वास्वप्नमशोभनम् ॥ ८४ ॥

देवतायतने चैव वसेद्रात्रित्रयं तथा।

विप्रांश्चपूजयेन्नित्यं दुःस्वप्नात्परिमुच्यते ॥ ८५ ॥

अर्थ- सुश्रुतमें लिखा है कि पूर्वोक्त अशुभ स्वप्नको देखे तो प्रातःकाल उठकर यत्नपूर्वक ब्राह्मणोंको उडद, तिल, लोह और सुवर्णका दान करे ।तथा शुभवैदिक मंत्रोको तथा त्रिपदा गायत्री मंत्र जप करे, यदि त्रिके प्रथमप्रहरसे स्वप्नदेखे तो शुभ वस्तुका स्मरण कर फिर शयन करे या अपनी इच्छा के अनुसार चाहिये जिस देवताका ध्यान करें और ब्रह्मचर्य में रहना, दुष्ट स्वप्नको किसीके आगे नहीं कहे और देवमंदिरमें तीन रात्रि जागरण करे, नित्य ब्राह्मणोंका पूजन करा करे तो दुःस्वप्नसे फुट जावे ॥ ८२ ॥ ८३ ॥ ८४ ॥ ८५ ॥

चरके।

अकल्याणमपि स्वप्नंदृष्ट्वा तत्रैव यः पुनः।

पश्येत्सौम्यं शुभाकारं तस्य विद्याच्छुभं फलम्॥ ८६ ॥

अर्थ- चरकमें लिखाहै कि यदि यह प्राणी दुःस्वप्न देखे और उसके पिछाडी शुभस्वप्नदेखे तो उसका शुभही फल जानना ॥८६ ॥

अथ शुभस्वप्नानाह।

अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि प्रशस्तस्व प्रदर्शनम्।

देवद्विजान् गोवृषभान् जीवतः सुहृदो नृपान् ॥ ८७ ॥

समिद्धमग्नि विप्रांश्व निर्मलानि जलानि च।

पश्येत्कल्याणलाभाय व्याधेरपगमाय च ॥ ८८ ॥

अर्थ- अब इसके उपरान्त उत्तम स्वप्नदर्शन को कहते हैं। जैसे कि देवता, ब्राह्मण, गौ, बैल, जीवते हुए अपने सुहृद, राजा, देदीप्यमान अग्नि, विप्र और निर्मल जलाको यह प्राणी कल्याणके लाभार्थ और व्याधिके दूर होनेके लिये देखता है ॥ ८७ ॥ ८८ ॥

मांसं मत्स्यान् स्रजः श्वेता वासांसि च फलानि च।

लभते धनलाभाय व्याधेरपगमाय च॥ ८९ ॥

अर्थ- मास, मछली, श्वेत फूलमाला, श्वेत वस्त्र और फल इनको यह प्राणी स्वप्नमेंधनके लाभार्थ और रोगके दूर होनेके ’ लिये देखता है ॥ ८९ ॥

महाप्रासादसफलवृक्षवारणपर्वतान्।

आरोहेद्द्रव्यलाभाय व्याधेरपगमाय च॥ ९० ॥

अर्थ- बडा भारी मंदिर, मफल वृक्ष, हाथी और पर्वत इनपर स्वप्नमेंयह प्राणी द्रव्यलाभके और रोग दूर होनेके अर्थ चहता॥ ९० ॥

नदीनदसमुद्रांश्चक्षुभितान् कलुषोदकान् ।

तरेत्कल्याणलाभाय व्याधेरपगमाय च ॥ ९१ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें बढेहुए नदी, नट, समुद्र, दूषित जलको तरता है अर्थात् इनके पार जाता है वह कल्याण, लाभ, और रोगमुक्तिके अर्थ है ॥ ९१ ॥

उरगो वां जलौका वा भ्रमरो वापि यं दशेत् ।

आरोग्यं निर्दिशेत्तस्य धनलाभं च बुद्धिमान्॥ ९२ ॥

अर्थ- जिस प्राणीकों स्वप्नमेंसर्प, जोक, अथवा भौंरामक्खी काटे उसको आरोग्य और धनका लाभ बुद्धिवान् पुरुष कहे ॥ ९२ ॥

एवंरूपान शुभान्स्वप्नान् यः पश्येद्वयाधितो नरः ॥

स दीर्घायुरिति ज्ञेयस्तस्मै कर्म समाचरेत् ॥ ९३ ॥

अर्थ- इस प्रकार जो रोगी मनुष्य शुभ स्वप्नदेखता है उसकी दीर्घायु जाननी इसकी चिकित्सा वैद्यको करनी चाहिये ॥ ९३ ॥

ग्रहनक्षत्रताराणां चन्द्रमण्डलदर्शनम्।

भास्करोदयनंचैव प्रज्वलन्तं हुताशनम् ॥ ९४ ॥

हम्येंष्वारोहणं चैव प्रासादशिरसोऽपि वा।

एवमादीनि संदृष्ट्वानरः सिद्धिमवाप्नुयात्॥ ९५ ॥

अर्थ- ग्रह, नक्षत्र, तारागण, चंन्द्रमण्डल, सूर्योदय, प्रज्जलित वह्नि, महलके ऊपर चढना, तथा मंदिरके ऊपर चढना इत्यादि अन्यशुभ स्वप्नदेखनेसेप्राणीको सिद्धिकीप्राप्तिहोती है ॥ ९४ ॥ ९५ ॥

स्वप्ने तु मदिरापानं वसामांसस्य भक्षणम्।

कृमिविष्ठानुलेपं च रुधिरणाभिषेचनम्॥ ९६ ॥

भोजनं दधिभक्तस्य श्वेतवस्त्रानुलेपनम्॥

रत्नान्याभरणादीनि स्वप्ने संदर्शनं शुभम्॥ ९७॥

**अर्थ-**स्वप्नमेंमदिराकापीना, वसा (चरवी) मांसका भक्षण करना, देहमें कृमि पड जावे तथा सर्व अंगमें विष्ठा लगी प्रतीत हो, तथा रुधिरसे स्नान, दही भातका भोजन, सफेद वस्त्र और सफेद चंदनका लगाना, तथा रत्न, भूषण आदिका देखना शुभ है ॥ ९६ ॥ ९७ ॥

देवविप्रद्विजच्छत्रतुपपङ्कजपार्थिवान्।

शुल्कल्पष्पाम्बरधरां प्रशस्ताभरणाङ्गनाम्॥ ९८ ॥

वृषभं पर्वतं क्षीरफलवृक्षाधिरोहणम्।

दर्पणामिप- माल्याप्तिस्तरणं च महाम्भसाम्।

दृष्ट्वा स्वप्नेऽथ लाभः स्याद्रोगमुक्तिश्व जायते॥ ९९ ॥

**अर्थ-**देवता, ब्राह्मण, द्विज (त्रिवर्ण ), छत्र, तुप, कमल, राजा, सफेद पुष्प और सफेद आभूषणके धारण करनेवाली स्त्री, बैल, पर्वत, दूध, फल जिनमें लग रहे ऐसे वृक्षोंपर चढना, दर्पण, मास और माला इनकी प्राप्ति होना, बडे भारी जलाशयके पार होना इत्यादि स्वप्नमें देखने से धनकी प्राप्ति हो और रोगसे मुक्ति होती है ॥ ९८ ॥ ९९ ॥

वृहद्यात्राया वराहः ।

शैलप्रासादनागाश्च वृषभारोहणं हितम् ॥१००॥

___________________________________________________________________________

१ एक प्रकारकी अच्छी मदिरा होती है उसकास्वप्नमें पीना शुभ है।

चन्द्रतारार्कग्रसनं परिमार्गण एव वा।

भूम्यम्बुघीनां ग्रसनं शत्रूणां च वधक्रिया ॥ १०१ ॥

जयो विवाहद्यूतेषु संग्रामेषु तथा जयः।

भक्षणं चैव मांसानां मत्स्यानां पयसस्तथा ॥ १०२ ॥

दर्शनं रुधिरस्यापि स्नानं क्षीरस्य पायसम् ॥ १०३ ॥

अत्रैव वेष्टितं भूमौ निर्मलं गगनं तथा।

मुखेन दोहनं शस्तं महिषीणां तथा गवाम् ॥१०४ ॥

सिंहीनां हस्तिनीनां च वडवानां तथैव च।

प्रासादो देवविप्रेभ्यो गुरुभ्यश्च तथा शुभः ।

अम्भसा त्वभिषेकश्च ज्ञेयो राज्यप्रदो हि सः ॥ १०५ ॥

अर्थ- बृद्दद्यात्राग्रंथमें श्रीवराहमिहिरका वाक्य है जैसे कि स्वप्नमें पर्वत, मंदिर, हाथी, बैल इनपर चढना।चंद्र, तारागण और सूर्यकीग्रसना अथवा स्वप्नमें इनको ढूंढना, पृथ्वी और समुद्रको ग्रसना, शत्रुओंका बंध करना, विवाह और जुआ खेलनेमें जीतहोना तथा लडाई वा कुस्ती में जीत होना।मांस, मछली और दूधका भक्षण करना, रुधिरका देखना, तथा रुधिरसे खान करना, सुरा (दारू) रुधिर, मद्य, दूध और खीरका भोजन अथवा इन्हीदूध खीर आदिसे पृथ्वी में लिहस जाना, निर्मल आकाशका देखना मुखमे गौ, भैंस, सिंहिनो, हथिनी, घोडी आदिका दूध दुहना। देव, ब्राह्मण और गुरुओंका मंदिर ये सब स्वप्नमें दीखना शुभ है। तथा स्वप्नमेंजलसे अभिषेकका देखना राज्यदाता है ॥ १०० ॥१०१ ॥ १०२ ॥ १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥

राष्ट्रेऽभिषेकश्च तथा छेदनं शिरसोऽपिच ॥ १०६॥

मरणं वह्निलाभश्च वह्निदाहो गृहादिषु।

तथोदकानां तरणं तथा विषमलंघनम् ॥ १०७ ॥

हस्तिनीवडवानां च गवां च प्रसवो गृहे।

आरोहणं गजेन्द्राणां रोदनं च तथा शुभम् ॥ १०८॥

अर्थ - राज्यमें अभिषेक, मस्तक्का काटना, मरण, अग्निका मिलना, तथा अग्निसे घरका फूँक्ना, जलाशयोंका तरण और विषमस्थाने (खाई, गड्ढा) आदिका फादना, हथिनी, घोड़ी और गौवा घर में व्याहना ( बच्चा देना ), हाथीपर बैठना तथा स्वप्नमें रुदन करना शुभ है ॥ १०६ ॥ १०७ ॥ १०८ ॥

परस्त्रीणां तथा लाभस्तथालिङ्गनमेव च।

निगडेर्बन्धनं चैव तथा विष्ठानुलेपनम् ॥ १०९ ॥

जीवानां भूमिपालानां सुहृदामपि दर्शनम्।

शुभान्येतानि प्रोक्तानि राज्यलाभकराणि च ॥ ११० ॥

अर्थ- परस्त्रियोंका लाभ होना, तथा परस्त्रियोका आलिंगन करना हाथ पैरों में बेडीनका वधन तथा विष्ठाकादेहमें लेप होना, शुभ, जीव, राजा और सुहृदोंका दर्शन होना ये संपूर्ण स्वप्नशुभ राज्यलाभकारी है ॥ १०९ ॥ ११० ॥

आचारमयूखे।

आरोहणं गोवृषकुंजराणां प्रासादशैलाग्रवनस्पतीनाम्।

विष्ठानुलेपो रुदितं मृतं च स्वप्नेष्वगम्यागमनं प्रशस्तम्॥ १११ ॥

अर्थ- स्वप्नमें गो, बैल, हाथी, मंदिर, पर्वत, वनस्पति(वृक्ष) इनपर चढना, विष्ठाका लेप होना, रुदन करना, मरा हुआ देखना और अगम्या (बहन बेटी आदि ) से गमन करना उत्तम कहा है ॥ १११ ॥

क्षीरिणं फलिनं वृक्षमेकाकी यः प्ररोहति।
तत्रस्थः स विबुध्येत धनं शीघ्रमवाप्नुयात्॥ ११२॥

अर्थ- दूधवाले फलित वृक्षपर अकेला चढे और उसी जगह यदि जग परे तो शीघ्र धनकी प्राप्ति होवे ॥ ११२ ॥

यस्य श्वेतेन सर्पेण ग्रस्तश्चेद्दक्षिणः करः।

सहस्रलाभस्तस्य स्यादपूर्णे दशमे दिने ॥ ११३ ॥

अर्थ-जिस प्राणीकेस्वप्नमेंदहने हाथको श्वेत सर्प काटे उसको दश दिनके भीतर एकसहस्र (१०००) रुपयोका लाभ होय ॥ ११३॥

उरगो वृश्चिको वापि जले ग्रसति यं नरम्।

विजयं चार्थसिद्धिं च पुत्रं तस्य विनिर्दिशेत् ॥ ११४ ॥

अर्थ- जिस प्राणीको स्वप्नमेजलमेसर्प, बिच्छू उसे उसको विजय धनकी और पुत्रकी प्राप्ति कहनी चाहिये ॥११४ ॥

प्रासादस्थस्तु यो भुङ्क्तेयो वा तरति सागरम्।

अपि दासकुले जातः स राजा नियतं भवेत् ॥ ११५ ॥

अर्थ- जो स्वप्नमें महलपर बैठकर भोजन करे और जो समुद्रके पार हो जाय वह यदि दासकुलमेभी उत्पन्न हुआ होती

राजा होय ॥ ११५ ॥

यस्तु मध्ये तडागस्य भुङ्क्तेच घृतपायतम् ।

अखंडे पुष्करे पत्रे तं विद्यात्पृथिवीपतितम्

अर्थ- जो प्राणी स्वप्नमें तालाव के बीचमें बैठकर साबत कमलके पत्तेपर घृत और खीरका भोजन करे उसको राजा जानना चाहिये. अर्थात् राजा होय ॥ ११६ ॥

बलाकां कुक्कुटीं क्रौंचों दृष्ट्वा यः प्रतिबुध्यति।

कुलजां लभते चान्यां भार्यां च प्रियवादिनीम् ॥ ११७॥

अर्थ- जो प्राणी स्वप्नमें बंगली, मुरगी, क्रौंची पक्षीको देखकर जगे तो उसको प्रिय बोलनेवाली कुलवान् भार्याकी प्राप्ति होय ॥ ११७ ॥

नागपत्रं लभेत्स्वप्ने कर्पूरमगरुं तथा।

चन्दनं पाण्डुरं पुष्पं तस्य श्रीः सर्वतोमुखी ॥ ११८॥

अर्थ- जिस मनुष्यको स्वप्नमेपान, कपूर, अगर, चंदन और पीला फूल मिले उसको धनकी प्राप्ति होय ॥ ११८ ॥

क्षीरं पिबति यः स्वप्ने सफेनं दोहने कृते ।

सोमपानं भवेत्तस्य भोक्ता भोगाननेकशः॥ ११९ ॥

अर्थ- जो मनुष्य दुहा हुआ झागसहित दूध पीता है, उसको यज्ञके सोमपानकी प्राप्ति हो और अनेक भोगोंको भोगे ॥ ११९ ॥

दधि दृष्ट्वा भवेत्प्रीतिर्गोधूमांश्च धनागमः।

यवान्यज्ञांगमं विद्याल्लाभः सिद्धार्थकानपि ॥ १२० ॥

**अर्थ-**स्वप्नमें दही देखनेसे सर्व प्राणियोंको प्रिय होय। गेहूं देखनेसे धनकी प्राप्ति और यव देखनेसे यज्ञका आगम अर्थात् यज्ञहोय और पीली सरसोंके देखनेसे लाभ होय ॥ १२० ॥

रथं गोवृपसंयुक्तमेकाकी यः प्ररोहति।

तत्रस्थः स विबुध्येत धनं शीघ्रमवाप्नुयात्॥ १२१ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें बैल जुड़े हुए रथमें अकेला बैठता और उसी समय नींद खुलजावे तो शीघ्र धनकी प्राप्तिहोय ॥ १२१ ॥

दुधिलाभे भवेदर्थोघृतलाभे ध्रुवं यशः ।

घृतं भक्षेत्ध्रुवं क्लेशो यशस्तु दधिभक्षणे ॥ १२२ ॥

अर्थ - स्वप्नमें दहीकी प्राप्ति होनेसे धनकीप्राप्ति हो, घृतके मिलनेसे यश होय और स्वप्नमें घृतके खानेसे क्लेश होय और दही खानेसे यश प्राप्ति होय ॥ १२२ ॥

बृहस्पतिः।

मानुषस्य तु मांसानि यस्तु स्वप्नेषु भक्षयेत्।

अपक्वान्येव सर्वाणि शृणुं तस्य तु यत्फलम् ॥ १२३ ॥

**अर्थ-**बृहस्पति लिखते हैं कि जो मनुष्य स्वप्नमें मनुष्यका प्रपक्कमांसको भक्षण करता है, उसके प्रत्येक अंगके में फल कहता हूँ तू सुन ॥ १२३ ॥

पादे पंचशतं लाभः सहस्रं बाहुभक्षणे।

मस्तकाशनतो राज्य मंत्रिता हृदयाशनात्॥ १२४ ॥

अर्थ- पैरके मांस खानेसे ५०० रुपयोंकी प्राप्ति हो। एवं भुजाके मांस भक्षणसे १००० हजार रुपयोंकी प्राप्ति, मस्तक भक्षणसे राज्य प्राप्ति और हृदय के मांसको स्वप्नमेखानेसेमंत्री होय ॥ १२४ ॥

उपानहोध्वजं चक्रं लब्ध्या यस्तु विबुध्यते ।

अत्पिंवा निर्मलां तीक्ष्णामध्वानं तस्य निर्दिशेत् ॥ १२५ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमेंजूता (जोडी), ध्वजा, चक्र निर्मल और तीक्ष्ण तलवारको प्राप्त होकर और उस समय जाप पजे के उसके मार्ग चलना पडेगा ऐसा जानना ॥ १२२ ॥

नावमारोहयेद्यस्तु नदी वा विपुलां तरेत्।

प्रवासं नियतं तस्य शीघ्रमागमनं पुनः॥ १२६ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें नौकापर बडी भारा नदीको तरताहै। वह अवश्य परदेशको जायगा और उस जगह से शीघ्र आगमन करे ॥१२६ ॥

पीताम्बरधरा नारी पीतमाल्यानुलेपना।

अवगूहति यं स्वप्ने कल्याणं लभते हि सः ॥ १२७॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें पीले वस्त्र और पीले चंदन तथा पीले फूलमालाको धारण करनेवाली स्त्रीका आलिंगन करना देखे तो वह कल्याणको प्राप्त होता है ॥ १२७ ॥

श्वेताम्बरधरा नारी श्वेतमाल्यानुलेपना।

अवगूहति यं स्वप्नेतस्य श्रीः सर्वतोमुखी ॥ १२८॥

अर्थ - उसी प्रकार सपेद वस्त्र सपेद चंदन तथा सपेद फूल - मालाको धारण करनेवाली स्त्री जिसको स्वप्नमें आलिंगन करे, उसको चारों तरफसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होय ॥ १२८ ॥

सर्वाणि शुक्लान्यतिशोभनानि कार्पासभस्मौदनतक्रवर्ज्यम्।

सर्वाणि कृष्णान्यतिनिन्दितानि गोहस्तिदेवद्विजवाजिवर्ज्यम्॥ १२९ ॥

अर्थ- स्वप्नमें कपास, भस्म (राख), भात और छाछकोत्यागकर संपूर्ण सपेद वस्तु शुभकारी हैं और गौ, हाथी, देव, ब्राह्मण और घोडा इनको परित्याग कर संपूर्ण कृष्णवस्तु स्वप्नमें दीखना अशुभ है ॥ १२९ ॥

देवा द्विजास्तथा गावः पितरो लिङ्गिनो नृपाः।

यद्वदन्ति नरं स्वप्ने तत्तथैव भवेद्ध्रुवम् ॥ १३० ॥

अर्थ- देव, ब्राह्मण, गौ, पितर, विरक्तपुरुष और राजा ये स्वप्नमें जो बात कहे वह उसी प्रकार होय इसमें संदेह नहीं ॥ १३० ॥

आसने शयने याने शरीरे वाहनेऽपि वा ।
‘ज्वलमाने विबुध्येत तस्य श्रीः सर्वतोमुखी ॥ १३१ ॥

अर्थ- जो मनुष्य आसन, शय्यापर, सवारीमें, देहमें और वाहन (घोडा हाथी आदि) में अपनेको पजरता देखेऔर उसी वक्त जग परे तो उसको चारों तरफसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होय ॥ १३१ ॥

वडवां कुकुटीं दोलां लब्ध्वा यस्तु विवुध्यते ।

सकामां लभते भार्या सुभगां प्रियवादिनीम्

१३२

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें घोडी, मुरगी और हिडोला इनको प्राप्त हो जग परे तो वह सकामा और प्रिय बोलनेवाली ऐसे स्त्रीको प्राप्त होवे ॥ १३२ ॥

निगडेर्बध्यते यस्तु पाशैर्वा बध्यते भृशम्।

सुपुत्रो जायते तस्य सुप्रतिष्ठां च विन्दति ॥ १३३ ॥

अर्थ- जो मनुष्य स्वप्नमें घोडी और फॉंसोसे बंध जावे उसके सुन्दर पुत्र होय और वह उत्तम प्रतिष्ठाको प्राप्त होता है ॥ १३३ ॥

पराशरसंहितायाम् ।

स्वाङ्गप्रज्वलनं परोपशमनं शक्रध्वजालिङ्गकृत्

संयुक्तोऽपि नरैर्वियत्यथवियत्प्रक्षेपणं दिक्षु च ।

बद्धो वा निगडैर्ग्रसेज्चदहनं नारीक्षितो बाहुन।

छत्रं वाद्विरदांदिरोहणविधो दिव्योऽपि च ब्राह्मणः॥ १३४॥

अर्थ- सुंदर सुगंधित सफेद चंदन आदिका लेप और फूलमाला तथा वस्त्रका धारण करना, ब्राह्मण देवता राजा इनका दर्शन होना तथा आशीर्वाद देना तथा मणि, चांदी, सुवर्ण और कमल आदिके

घी, दही, खीर का भोजन इत्यादि स्वप्न देखना शुभ है ॥ १३७ ॥

निष्फल स्वप्न।

यथास्वप्रकृतिस्वप्नोविस्मृतो विहतश्चयः।

चिन्ताकृतो दिवा दृष्ट्वा भवन्त्यफलदास्तु ते ॥ १३८॥

अर्थ- यथा प्रकृति के अनुसार अर्थात् जैसी जिसकी वातपित्तादिक प्रकृति ऐसा स्वप्नऔर जो खप्नदेखा हो उसकी याद भुल गई हो और जो विहत हो अर्थात् प्रथम दुष्ट स्वप्न देखे फिर उसके

शुभ स्वप्न देखे और जो चिंतवन करा हुआ तथा दिनका ये स्वप्न निष्फल है ॥ १३८ ॥

तथा च ।

आयुस्तृतीयभागे शेषे पतितः प्रकीर्त्तितः स्वप्नः।

अतिहासशोककोपोत्साहजुगुप्साभयाद्गुणोत्पन्नः।

वितथःक्षुधापिपासासूत्रपुरीषोद्भवः स्वप्नः॥ १३९ ॥

अर्थ- अत्यंत वृद्धावस्थाका स्वप्न, अत्यंत हास्य, शोक, कोप,

निंदा, भय इन कारणोंसे तथा जो भूख प्यास और मलकी बाधामें स्वप्नदीखे वह निष्फल है ॥ १३९ ॥

प्रकृतिजन्यस्वप्न।

वाताधिकेऽभ्रेभ्रमतिर्विपश्येत्कृष्णानि वर्णानि प्रचण्डवातम्।

पित्ताधिके काञ्चनरत्नमाल्यदि-

वाकराग्निज्वलनानि पश्येत् ॥ १४०॥ श्लेष्मा-

अर्थ- पराशरसंहिता में लिखा है कि स्वप्नमेंव्यपने अंगोंको फुंकता देखना, शत्रुको जीतना, बिजलीको छूना, वियत् में भीवियत्का पडना, दिशाओंमें फेंकना, पैरोंमें बेडीपरना, अग्निको ग्रसना, भुजाओ से शत्रुदमन छत्रऔर हाथीपर बैठना तथा दिव्य ब्राह्मणका दर्शन होना ॥ १३४ ॥

दिनकरशशिताराभक्षणस्पर्शनानि विशरणमपि

मूर्ध्नसप्तपंचत्रिधा वा।

वृषभगृहनरेन्द्रश्वेतसिहाधिरोहाग्रसनमुदधिभूमौ भूमिराज्यप्रदानि

१३५

** अर्थ-** सूर्य, चंद्र, तारागणोंका भक्षण करना, मस्तकके सात पाच अथवा तीन टुक होना, बैल, घर, राजा इनका दर्शन, सफेद सिंहासनपर बैठना तथा समुद्र और पृथ्वीको ग्रस लेना इत्यादि स्वप्नपृथ्वीके राज्यदाता हैं ॥ १३५ ॥

विपुलरणविमर्दद्यूतवादैर्जयश्च पशुमृगमनुजानां लब्धिरध्यासनं वा ।

विवसनपरिलेपोऽगम्यनारीगमो वा स्वमरणशिखिलाभः सस्यसंदर्शनं च

१३६

अर्थ- स्वप्नमें बडा भारी रण, जुआ और वादमें जीत होना तथा पशु मृग और मनुष्योंकी प्राप्ति तथा सिंहासनकी प्राप्ति, दिव्यवस्त्रोंका और चंदनादिककापहरना लगाना एव अगम्यास्त्रीसे गमन, अपना मरण देखना, अग्निकी प्राप्ति और हरी हरी घासका देखता ॥ १३६ ॥

सितसुरभिमनोज्ञालेपमाल्याम्बराणां द्विजसुरगुरुराज्ञां दर्शनं ह्याशिपश्च।

मणिरजतसुवर्णाम्भोजपात्रेषु भुङ्क्तेघृतदधिपरमान्नं सर्वमेतच्छुभं च ॥ १३७ ॥

स्वप्नदर्शनविधिः ।

दुकूलमुक्तामणिभिर्नरेन्द्राः सामंतदेवज्ञपुरोहिताश्च ।

तद्देवतागारमनुप्रविश्य प्रवेशतस्तत्रदिगीश्वरं च ॥ १४५ ॥

अभ्यर्च्य मैत्रस्तु पुरोहितस्तु संयम्य सस्यां भुवि संयतात्मा।

ब्राह्मी- शपूर्वामथ भोगपुष्पं कृत्वोपधानं शिरसि क्षितीशः।

तथैकभुग्दक्षिणपार्श्वशायी स्वप्नं परीक्षेत यथोपदेशम् ॥ १४६॥

अर्थ- अबस्वप्नदेखनेकी विधि कहते हैं कि, राजा वस्त्र मोती, मणिको ले और सामंत (सूबेदार), ज्योतिषी, पुरोहित इनक्ते साथ ले देवता के मंदिर में जाय और उस जगह पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य तथा वस्त्र रत्नादिक्सेमंत्रपाठपूर्वक इष्ट देवका पूजन करें फिर उस राजाका पुरोहित इन्द्रियोको जीत उसी मंदिरके पूर्व की ओर. अथवा ईशानकी ओरविस्तार करके और पुष्पोको तथा सुगंधित वस्तुको अपने सिराने धरके सोवे उसीप्रकार स्वयं राजा एक बार भोजन करे और दहनी करवट सोवे इस प्रकार यथोपदेश उस मंदिर में स्वप्नकी परीक्षा करे ॥ १४५ ॥ १४६ ॥

शयनके समय जपनीय मन्त्र।

नमः शम्भो त्रिनेत्राय रुद्राय वरदाय च।

वाम- नाय विरूपाय स्वप्नाधिपतये नमः ॥ १४७ ॥

भगवन् देवदेवेश शुलभृद्वपवाहन।

इष्टानिष्टे ममाचक्ष्व स्वप्ने सुप्तस्य सन्त्वतः ॥ १४८॥

अर्थ - जिस समय मंदिरमें सोवे उस समय " नमः शंभो त्रिनेत्राय " इस मंत्र को जपे इसका यह अर्थ है कि त्रिनेत्र, रुद्र,वरद, वामन, विरूप स्वप्नाधिपके अर्थ नमस्कार है, है भगवन्।हे देवदेवेश।हे शुलके धारणकर्त्ता।हे वृषवाहन \। निद्रामें मुझको निरंतर इष्ट और अनिष्ट भवितव्यको कहो ॥ १४७ ॥ १४८ ॥

एकवस्त्रः कुशास्तीर्णे सुप्तः प्रयतमानसः।

निशान्ते पश्यते स्वप्नंशुभं वा यदि वाऽशुभम्॥

अर्थ- स्वप्नदेखनेकी इच्छावाला पुरुष एक वस्त्रको धारण करे कुशाके आसनपर मनको एकाग्र कर शयन को इस प्रकार करनेसे उस प्राणीको रात्रीके अंतरमे जैसा कुछ शुभाशुभ भवितव्य हो ऐसा स्वप्नदीखे \।\। १४९ ॥

एतत्पवित्रं परमं पुण्यदं पापनाशनम् ।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय दुःस्वप्नंतस्य नश्यति ॥ १५० ॥

अर्थ - परम पवित्र पुण्यदायक और पापनाशक इस स्वप्नप्रकाशिकाग्रंथको प्रातःकाल उठकर जो पाठ करता है उस प्राणीका दुःस्वप्नदेखा हुआ नष्ट हाकरशुभ फलकी प्राप्ति होती है॥ १५० ॥

इति श्रीआयुर्वेदोद्धारकमाथुरकृष्णलालोगजदत्तरामकृतभाषा टीकासहिता स्वप्नकाशिकासमाप्ता ।

________________________________

पुस्तक मिलनेका ठिकाना -

गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास,

" लक्ष्मीवेंकटेश्वर " छापखाना,

कल्याण- मुंबई.

जाहिरात।

अर्धप्रकाश ज्योतिषभापाटीका इसमें तेजी मंदी वस्तु देखनेका विचार है
अयोध्याजातक ज्योतिष भाषाटीका (इसमें बालकका जन्मजातकादि भलीभांति वर्णित है)
कालज्ञान भाषाटीका
कररेखासंख्यावली (छंदबद्ध सुगमसामुद्रिक)
गंगास्थित्वनिर्णय भाषाटीका
केरलमत प्रश्नसंग्रह इसमें प्रश्न देखनेके है
गर्गमनोरमा भाषा और संस्कृत टीकासह
गर्गजातक भाषा टीका
ग्रहगोचर भाषा टीका
ग्रहलाघव भा. टी.
ग्रहशान्ति - (शुक्लयजुर्वेदोक्त) यह यज्ञोपवीत तथा विवाहादि शुभकर्ममें बहुत उपयोगी है
चमत्कारचिन्तामणि भाषा टीका
जन्मपत्र और वर्षपत्रके फार्म प्रत्येकका
जातकालङ्कार भाषा टीका
जातकालङ्कारसटीक
जातकाभरण मूल ग्लेज १२ आ.रफ.
जातकाभरण भा.टी. चिकना कागज
जातकाभरण भा.टी. रफ.
जातकचन्द्रिका भा.टी (अत्तुत्तम्जन्मजातक तन्यादि भावफल पूर्णफल अनेकानेक योग दशादिवर्णित पासमें अवश्य रखने योग्य है )
जातकसंग्रह भाषाटीका इसमें जिन विषयोंकी कित्रफलादेशमें आवश्यकता होती है वेही समस्त विषय अनेक संस्कृत जातकग्रंथों से सार २ लेकर भाषाटीकासहित छपे हैं
जैमिनिसूत्रसटीक चार अध्याय
जैमिनीसूत्र भा० टी०
ज्योतिषश्यामसंग्रह भा० टी० ग्ले० ( इसमें बहुत प्रकारसे जन्मपुत्रका भाव योगानुयोग उच्चादेिषल शशा अरिष्ट राजयोगादि भाव भलीप्रकार कह सकते हैं )
"""" """" रफ
ज्योतिषसार भाषाटीका सहित
ज्योतिषकी लावणी
ज्योतिःशास्त्र निघंटु .
ज्योतिषकी चाभी भाषामें
तत्त्वप्रदीप ( जातक ग्रन्थ देखने योग्य )
ताजिकनीलकण्ठी सटीक तन्त्रत्रयात्मक संस्कृत टीकासह खुलापाना.
संस्कृत टीकासह जिल्दकी
ताजिकनीलकण्ठी महीधरकृत भाषाटीका
ताजिकभूषण भाषाटीका
तिथिनिर्णय मूल संस्कृत
नष्टजन्माङ्गदीपिका और पंचागदीपिका गद्य- पद्यटीका समेत ( ऐसी उपयोगी कुंजी हैं जो हजारों रु० खर्चसेभी अलभ्य हैं ज्योतिषी इससे अमूल्य लाभ पावेंगे )
परीक्षा चक्रावली प्रश्नग्रंथ भा. टी.
पल्लीपतन भाषा. टी.
पत्रीवर्षदीपक भा. टी. (महीधरशर्माकृत)
पत्रीमार्गदीपिका और वर्षदीपक मूल मात्र
पञ्चाङ्गतिथिपत्र संवत् १९७६
डायरी (रोजनामचा ) सन १९२० की
पंचपक्षी सटीक
पंचपक्षांसपरिहार भाषाटीकासमेत
पद्मकोश भा० टी० वर्षफलका भावाध्याय
प्रश्नशिरोमणि भा० टी० नूतन छपा है ( इस ग्रंथमें संपूर्ण द्वादश भावोंक प्रश्न, और उन्हीका फल लाभ प्रश्न, संतान- प्रश्न, स्त्रीप्रातिप्रश्न, यात्राप्रश्न, द्रव्यप्राप्ति- प्रश्न आदि लिखे हैं)
प्रारब्धमकाश
प्रश्नचंडेश्वर भाषाटीका
प्रश्नवैष्णवभाषा टीका
प्रश्नपयोनिधि भाषाटीका
बालबोधज्योतिष मूलमात्र
बालबोध ज्योतिष भाषाटीका
बृहदवकहडाचक्र (होडाचक्र) भा० टी०
बृहज्जातक - दशाध्यायी (नौका) टीका- सहित | इस टीकामें एक एक लोकके कई २ अर्थ किये गये हैं और उनमे अनेकानेक उत्तम के प्रमाण दिये है
जाननेके लिये यही एक टीका है कि फिर जराभी सन्देह न रहे
बृहत्पाराशरहोराशास्त्र-पूर्वखण्ड सारांश उत्तरखण्ड संस्कृत टीका तथा भाषा- टीकासहित दशान्तदेशा इसमें यहां के पृथक २ भावफलादेश इत्यादि अपूर्व है
बृहत्संहिता भा० टी० ग्लेज ( पं० बलदेवप्रसादमिश्रकृत भाषाटीकासमेत वराहमिहिराचार्य प्रणीत इसमें नवग्रह अगस्त्य और सप्तऋषियोंके चालका फल सूर्य चंद्र ग्रह धूमकेतुके फल ग्रहयुद्ध ग्रहसमागम ग्रहवर्षफल पानी बरसनेका अनेक विचारदिग्दाह भूमिकम्प उल्कापरिवेष इन्द्रधनुष गन्धर्वनगर खंजनदर्शन उत्पातक मयूरचित्र पुष्पस्तान पट्टलक्षण मकान बनानेकी विधि और प्रतिष्ठापन इत्यादि १०८ विषय हैं )
"""" """" तथा रफ
बृहजातकसटीक जिल्दका
बृहजातकसटीकखुलापत्रा
बृहज्जातकभाषाटीक महीधरकृत ग्लेज
बृहज्जातकभाषाटीक तथा रफ

पुस्तकें मिलनेका ठिकाना -

गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास,

“लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर " छापाखाना

कल्याण- मुंबई.

]