[[शार्ङ्गधरसंहिता च अञ्जननिदानम् Source: EB]]
[
श्रीः।
श्रीदामोदरसूनुशार्ङ्गधरप्रणीता
शार्ङ्गधरसंहिता।
श्रीमदग्निवेशमहर्षिप्रणीतं
अञ्जननिदानं च
नवरेइत्युपाह्वकृष्णशास्त्रिभिः पिटकरोपाह्व-
विनायकात्मजकेशवशर्मणा च
संस्कृतम् ।
(द्वितीयावृत्तिः)
मुबय्यां
तुकाराम जावजी
इत्येतैर्निर्णयसागराधिपतिभिः स्वीयेकनालये मुद्रिता
शाकः १८२१
प्रास्ताविकम् ।
स्वाभाविकागन्तुककायिकान्तरा
रोगा भवेयुः किल कर्मदोषजाः ।
तच्छेदनार्थ दुरितापहारिणः
श्रेयोमयान्योगवरान्नियोजयेत् ॥
इह जगति स्वस्वपूर्वकर्मप्रवाहपतितप्राणिनां यथास्वंस्वस्वसुकृतवृजिनसाम्यावस्थानिदानभूतमर्त्यशरीरजुषां तत्सनियोगशिष्टविविधरुजागणजुषां च सघोऽतीव बहुत्र दरीदृश्यते। नहि सन्ति विविधपृथग्जातिष्वगदमन्तरा भवनान्याबालवर्षीयांसम् । नच क्वचन दृष्टश्रुतचराः शश्वदाचरितपुण्यपुञ्जाअगदकारनिरपेक्षा भेषजपरापरापराङ्मुखा जना लोके । किबहुना – साभिमानमित्थमुद्घोष्यते प्रतिनगरं प्रतिविषयं प्रतिग्राम प्रतिगृहं प्रत्यवस्थ सर्वेप्यनवरतमामयाविनोऽखिला अपि भिषग्भेषजगणैकशरणाः कथंकथमपि शरीरयात्रा निर्वहन्तीति । अतोऽखिलानां रोगनिबर्हणपूर्वमनामयसिद्धये प्राचीनैः परमकारुणिकैर्महर्षिभिर्मदनमहार्णवकारादिभिर्महर्षिकल्पैरन्यैरष्टांगहृदयकारा( वाग्भटा )दिभिश्चानेके आयुर्वेदग्रन्थाः रोगाणां निदानपूर्वरूपरूपोपशयसप्राप्त्युपद्रवसाध्यासाध्यविचारपरिपूर्णा निजनिजनामधेयाभिधाना विरचिताः सन्ति। तैरेव चिकित्सका व्यवहरन्ति। तथैवेय खण्डत्रयात्मिका शार्ङ्गधरसंहितापि भिषग्वरदामोदरसूनुश्रीमच्छार्ङ्गधरविरचिता लोके वैद्यकग्रन्थेषु श्रैष्ठ्येन वरीवर्ति । यस्याः पूर्वखण्डे– परिभाषा, भैषजाख्यान, नाडीपरीक्षा, दीपनपाचन, कलादिकाख्यान, आहारादिगतिः, रोगाणा गणना च।मध्यमखण्डे-स्वरसः, क्वाथफाण्टौ, हिमः, कल्क, चूर्णानि, गुटिकाः, लेहाः, स्नेहाः, सधान, धातुशुद्धिः, रसाश्च । उत्तरखण्डे- स्नेहपान, स्वेदविधिः, वमन, विरेचन, स्नेहबस्तिः, निरूहण, उत्तरबस्तिः, नस्यविधि, धूमपानं, गण्डूषविधि , लेपादिविधिः, रक्तस्रावः, नेत्रकर्मप्रकारः, इत्यादि विषया यथावत्तत्रतत्र सविस्तर सयोजिताः सन्ति ग्रन्थकृता । तदिय विद्वद्भिषङ्मान्याऽगदकाराणां रोगहारिसज्ञामन्वर्थयन्ती विराजतेतराम्।साच भिषजां आयुर्वेदाध्येतृृणां च सुलभा भूयादिति मनसिकृत्य सप्रति सशोध्यसमुद्यप्राकाश्य नीता । अस्मिन्ग्रन्थकृता निदानभागो न सगृहीतस्तमपि सर्वेऽनेन सत्रा लभेयुरिति ग्रन्थबहिर्भूतमप्यतिमनोहरमग्निवेशमहर्षिप्रणीत अञ्जननिदानमन्ते सयोजितमस्ति । एव बहुतरप्रयासेन कृतेपि सस्करणे भ्रान्तेपुरुषधर्मत्वाद्यदि प्रमादा विदुषां दृष्टिपथमनुगच्छेयुर्मार्जयेयुरिति विज्ञापयतः
शोधनकर्तारौ.
शार्ङ्गधरसंहिताविषयक्रमः।
पूर्वखण्डः।
| **प्रथमोऽध्यायः | ** |
| मंगलाचरण | रसाः |
| समूल ग्रंथप्रयोजन | गुणाः |
| रोगाणां निश्चयपूर्विका चिकित्सा | वीर्य |
| ओषविप्रभावः | विपाकः |
| ग्रंथप्रयोजन | प्रभावः |
| खंडाध्यायानुक्रमः | ऋतुभेदेन वातादीना संचयापचयोपशमादयः |
| ग्रंथसख्या | दोषाणां भोजनादिनाचयकोपापचया |
| मागधीया परिभाषा | |
| योगपरिभाषा | **तृतीयोऽध्यायः |
| मात्रापरिभाषा | तत्र नाडीपरीक्षा |
| कलिंगपरिभाषा | शुभाऽशुभस्वप्नपरी० |
| युक्तायुक्तविचारः | |
| **द्वितीयोऽध्यायः | ** |
| दूतपरीक्षा | विषाजीर्णहेतुकथन मलसरोगत्रैविध्यकथन च |
| शुभाऽशुभशकुनं | विषूची त्रिधा तन्नामानि |
| चिकित्सालक्षण | षड्विधार्शासि तद्भेदौ च |
| **चतुर्थोऽध्यायः | ** |
| विविधौषधयः | एकविंशतिविधकृमिभेदाः |
| **पञ्चमोऽध्यायः | ** |
| शारीर | एकविधा कामला तद्वौ भेदौ च |
| सृष्टिक्रम | रक्तपित्त त्रिधा |
| **षष्ठोऽध्यायः | ** |
| आहारपाकगर्भोत्पत्ति बालपोषणानि | क्षयाः पच |
| वातादिप्रकृतिलक्षणानि | शोषाः षट् |
| **सप्तमोऽध्यायः | ** |
| रोगाणां गणना | पंचविधो हिक्कारोगः |
| ज्वररोगभेदाः | चतुर्विधोऽग्निविकारः |
| अतिसारभेदाः | चतुर्विधोऽरोचकः |
| ग्रहणीपांचविध्यकथनम् | |
| प्रवाहिकाचातुर्विध्यकथनं | |
| विविधाजीर्णनामानिलक्षणानि च |
| सप्तविधश्छर्दिरोगः | त्रयोदशोदावर्ताः |
| षड्विध स्वरभेदरोगः | द्विधाऽऽनाहरोगः |
| तृष्णा षड्विधा | एकधारोग्रहरोगः |
| मूर्च्छारोगश्चतुर्विधः | हृद्रोगाःपचधामताः |
| एकविधो भ्रमरोगः | अष्टविधउदररोगः |
| एकैकधानिद्रातद्रासन्यासग्लानिरोगाः | अष्टधागुल्मरोगः |
| सप्तधा मदरोगः | मूत्राघातास्त्रयोदश |
| चतुर्धा मदात्ययः | अष्टधा मूत्रकृच्छ्रः |
| परमदश्चैकधा | चतुर्धाचाश्मरी |
| एकैकधा पानाजीर्णपानविभ्रमपानात्ययरोगाः | विंशतिधाप्रमेहरोगः |
| सप्तधादाहरोगः | एकधा सोमरोगः |
| षोढाचोन्मादरोगः | दशधाप्रमेहपिटिकारोगः |
| विंशतिधाभूतोन्मादरोगः | एकधा मेदोदोषः |
| चतुर्विधोऽपस्मारः | शोथरोगा नव |
| चत्वारश्चामवाताः | वृद्धिरोगाश्च सप्तधा |
| अष्टधा शूलरोगः | अडवृद्धिस्तथा चैकः |
| अष्टविध परिणामशूलरोगः | गडमालारोगश्चैकः |
| एकधा गंडालजी | |
| नवधा ग्रथिरोगः | |
| षड्विधश्चार्बुदोरोगः | |
| त्रिधा श्लीपदरोगः |
| षड्विधो विद्रधिः | अष्टादशकर्णरोगा |
| पंचदशधा व्रणः | पंचकर्णमूलरोगा |
| सद्योव्रणस्त्वष्टधा | अष्टादशनासारोगाः |
| कोष्ठभेदो द्विधा | दश शिरोरोगा |
| अस्थिभगोऽष्टधा | नव कपालरोगा |
| चतुर्वा वह्निदग्धः | चतुर्णवतिर्नेत्ररोगाः |
| नाडीरोगश्च पंचधा | पंचपुस्त्वदोषरो० |
| अष्टविधो भगंदरः | अष्टौ शुक्रदोषरोगाः |
| पंचविध उपदशः | **स्त्रीरोगनामानि |
| चतुर्विशविध शूकः | अष्टावार्तवदोषरो० |
| अष्टादशविधः कुष्ठः | चतुर्विधरक्तप्रदरं |
| षष्टिधा क्षुद्ररोगा | विशतिर्योनिरोगा |
| विसर्परोगो नवधा | चतुर्धायोनिकदगदाः |
| उदर्दरोगश्चैकधा | अष्टौ गर्भरोगाः |
| शीतपित्तरोगश्चैक | पंच स्तनरोगाः |
| अम्लपित्तं त्रिधा | त्रिधा स्तन्यरोगः |
| वातरक्तमष्टधा | सूतिकागदाः |
| अशीतिर्वातरोगा | द्वाविशतिर्बालरोगाः |
| चत्वारिंशत्पित्तरो० | द्वादशबालग्रहरो० |
| विशतिःकफरो० | अनुक्तरोगाणांसग्रहः |
| रक्तरोगा दश | पंचकर्मणां मिथ्यायोगैर्भवितारो रोगा |
| चतु सप्ततिर्मुखरो० |
[TABLE]
[TABLE]
| ताम्रभस्मप्रकारः | मन शिलाशोधन |
| आरभस्मप्रकारः | तालस्य शोधनम् |
| कास्यभस्मप्रकारः | रसकस्य शुद्धिः |
| ताम्ररीतिध्वनिभस्मप्रकारान्तरम् | सर्वधातूनां सत्वमोचनम् |
| नागभस्मप्रकारौ | **रत्नादीनि |
| वगभस्मप्रकारः | वज्रशुद्धिस्तन्मारणप्रकाराश्च |
| लोहभस्मप्रकाराः | वैक्रांतस्य शोधनमारणे |
| सुवर्णादिसप्तधातूना मारणेऽन्य प्रकारः | सर्वरत्नानां शोधनमारणे |
| **उपधातवः | ** |
| सप्तोपधातुकथनम् | शिलाजतुकृतिः |
| स्वर्णमाक्षिकस्य शोधनमारणे | मंडूरस्य कृतिः |
| रौप्यमाक्षिकस्य शोधनमारणे | क्षारकल्पना |
| तुत्थस्य शोधनम् | **द्वादशोऽध्यायः |
| अभ्रकस्य शोधनमारणप्रकारौ | रसाः |
| नीलांजनस्यशोधनं | पारदस्य गुणास्तन्नामानि च |
| गैरिककासीसटकणवराटिकातोरीशंखककुष्ठानां शोधनम् | सूर्यादिनवग्रहाणां |
| नामभिस्ताम्रादिनवधातूनां नामानि | स्नेहप्रकारस्तत्पानसमयकथन च |
| पारदशोधनम् | स्नेहस्य द्वैविध्यम् |
| गंधकशोधनम् | स्नेहानां परस्परसमीलनेऽभिधानम् |
| हिगुलशोधनम् | स्नेहपानाय वासरकथनम् |
| हिंगुलाच्छुद्धपारदग्रहणम् | स्नेहानां सात्मीभवनकालः |
| विषभेदा | स्नेहमात्राया योग्यस्थले योजना |
| सप्तोपविषजातयः | स्नेहस्यामात्राया ग्रहणेविकृतिकथनम् |
| शुद्धपारदस्य मुखकरणप्रकारौ | दीप्ताग्निमध्याग्निस्वल्पाग्निभ्यो मात्राकथन |
| कच्छपयत्रेण गधकजारणम् | अथवा स्नेहस्य मात्रात्रयकथनम् |
| पारदभस्मप्रकारा इति मध्यमखड | |
| **अनुक्तश्लोकाः | ** |
| जैपालशुद्धि | घृतस्नेहार्हरोगी |
| विषशुद्धिप्रकारौ | |
| **उत्तरखंडः | ** |
| **प्रथमोऽध्यायः | ** |
| स्नेहविधिः |
[TABLE]
| स्वेदनाद्दोषस्य गमनमार्गकथनम् | वमनविरेचनकालः |
| स्वेदनाज्जातविरेकस्य चिकित्सा | वमनार्हाः |
| स्वेदनार्हाः | वमनानर्हाः |
| अल्पधर्मस्य स्थानानि | विशेषेण वमनानर्हाः |
| अतिस्वेदनोत्थोपद्रव चिकित्सा | वमनौषधात्पूर्व सेव्यपदार्थाः |
| तापसज्ञस्वेदलक्षणम् | वमने हितपदार्थाः |
| ऊष्मसंज्ञस्वेदस्य लक्षणम् | वमनौषधस्य क्वाथकरणे प्रमाणम् |
| उपनाहसज्ञस्वेदस्य लक्षणम् | वमनाय सेव्यक्वाथस्य मात्रा |
| महाशाल्वणप्रयोगः | वमनाय कल्कादीनां मात्रा |
| द्रवसज्ञस्वेदस्य लक्षणम् | वमनविषय उत्तममध्यकनिष्ठवेगानां प्रमाणम् |
| स्वेदः केषु कदा कार्य | वमनादौ प्रस्थप्रमाणकथनम् |
| स्वेदनोत्तरोपचाराः | दोषविशेषे वमनौषधविशेषः |
| **तृतीयोऽध्यायः | ** |
| वमनविधिः |
[TABLE]
[TABLE]
| बस्तिनेत्रकरणाय सुवर्णादिकथनम् | सम्यग्युक्तबस्तेर्गुणाः |
| रुग्णस्य वयोनुरूप नेत्रदीर्घीकरणम् | स्नेहविकृतिर्दूरीकरणोपायः |
| नेत्रस्य छिद्रप्रमाणम् | वातादिदोषानुसारेणबस्तिमात्रापरिमाणम् |
| बस्तिनिर्माणम् | |
| व्रणबस्तेर्नेत्रप्रमाणम् | बस्तेर्गुणाः |
| बस्तेर्गुणाः | अनुवासननिरूहार्हाः |
| बस्तिकर्मणः कालकथनम् | केवलस्नेहेबहिरायाते प्रतीकारः |
| बस्तेर्हीनमात्रायाअतिरिक्तमात्रायाश्चगुणाः | स्नेहोबहिर्नायातितदुपद्रवास्तदुपायश्च |
| उत्तमादेर्मात्राकथनं | अनुवासनउपेक्ष्यरोगी |
| स्नेहेसैधवादिमात्रायाः परिमाणम् | अहोरात्राद्बहिर्नायातस्नेहोपायः |
| विरेचनोत्तरमनुवासनवस्तिविधानम् | अनुवासनतैलम् |
| बस्तियोजनाप्रकारः | अनुवासनेविपर्यासेन |
| बस्तेः पीडनकालः | रोगोत्पत्तिस्तदुपायकथन च |
| मात्राकालस्यप्रमाण | बस्तिकर्मणिपथ्यम् |
| बस्तिकर्मणउत्तरकरणीयम् |
[TABLE]
[TABLE]
[TABLE]
[TABLE]
[TABLE]
[TABLE]
| तर्पणमात्राप्रमाण | अजनमात्राप्र० |
| तर्पणेन स्नेहयोगात्कफ वृद्धेरुपाय | अजने रसप्रमाण |
| तर्पणवासरमर्यादा | वैरेचनांजने चूर्णप्रमाणम् |
| तर्पणेनतृप्तिलक्षण | अजनशलाकाविधानम् |
| अतितर्पणलक्षणम् | लेखनादौ शलाकाप्रमाणम् |
| हीनतर्पणलक्षणम् | अजनयोग्यकाल |
| तर्पणेनातिस्निग्धहीनस्निग्धोपायः | अंजन क्व कार्यम् ? |
| पुटपाककल्पना | रसक्रियाविधिः |
| नेत्रयोःपुटपाकरसनिषेकविधानम् | स्वाभिमानप० |
| स्नेहनादिभेदेन पुटपाकयोजना | ग्रथपाठनफलम् |
| स्नेहनपुटपाकः | इति शार्ङ्गधरानुक्रमणिका |
| लेखनपुटपाकः | औषधगुणाः॥ |
| रोपणपुटपाकः | अरतिहरमधूकपुष्पादिफांटः |
| अंजनविधान तत्समयकथन च | आयुष्य चंदनादितैलम् |
| अंजनभेदाः | कान्तिकृत्कैशोरगुग्गुलुः |
| अंजनप्रकाराः | |
| अंजनानर्हाः |
| **केशोत्पादकानि | ** |
| यष्टिमधुतैलम् | बलादितैलम् |
| केशस्थिरीकरणनीलिकादितैलम् | दशमूलारिष्ट |
| केशवृद्धौ लेपः | **ग्राहि |
| केशोत्पादकलेपः | गुडूच्यादिक्वाथः |
| केशोत्पादकप्रलेपः | न्यग्रोधादिक्वाथ |
| केशश्यामीकरणलेपः | तंडुलादियवागू |
| **केशशातनम् | ** |
| करवीरादितैलम् | लघुगंगाधरचूर्णम् |
| लोमशातनलेपौ | दाडिम्यादिचूर्णम् |
| क्षारगुणाः | **तर्पणकरम् |
| **गर्भप्रदम् | ** |
| योगराजगुग्गुलुः | विलेपीपानम् |
| वध्यायै कामदेवघृतम् | लवंगादिचूर्णम् |
| वंध्यायै पुत्रद त्रिफलाघृतम् | **त्रिदोषहरम् |
| शतायु पुत्रद फलघृतम् | धान्यादिमडः |
| गर्भपुष्टिद लाक्षादितैलम् | अभयादिकल्कः |
| सुदर्शनचूर्णम् | |
| लवंगादिचूर्णम् | |
| चंद्रप्रभागुटी |
| त्रिफलामोदकः | ग्रहणीदीपनोद्राक्षासवः |
| उत्कटदोषेषु प्रधमननस्यम् | ग्रहणीकपाटरसः |
| त्रिफलालक्षणगुणा | मधुतैलबस्तिः |
| त्र्यूषणलक्षण तद्गुणाश्च | दीपनबस्ति |
| दीपनानि | **पाचनानि |
| धान्यादिक्वाथः | धान्यादिक्वाथः |
| धान्यादिक्काथः | धान्यादिक्वाथः |
| गुडूच्यादिक्वाथः | ह्रिबेरादिकषायः |
| उष्णोदकपानम् | गुडच्यादिक्वाथ |
| शुठ्यादिमडः | शुंठ्यादियुक्तमंड |
| धान्यादिमडः | पथ्यादिकल्कः |
| पथ्यादिकल्कः | आमलक्यादिक्वा |
| आमलक्यादिचूर्णम् | पचकोलचूर्णम् |
| त्रिफलाचूर्णम् | तालीसादिचूर्णम् |
| त्र्यूषणचूर्णम् | भास्करलवणचूर्णम् |
| पचकोलचूर्णम् | **पुष्टिकराणि |
| लवणपचकचूर्णम् | धान्यादिमडः |
| दाडिम्यादिचूर्णम् | चंदनादितैलम् |
| भास्करलवणचूर्ण | प्रतिमर्शनस्यम् |
| **बल्यानि | ** |
| तडुलादियवागूः | कूष्मांडकावलेह |
| लवंगादिचूर्णम् | कुमारिकासवः |
| चंद्रप्रभागुटी | **मेध्यानि बुद्धिहितानि च |
| कूष्मांडकाव० | सूरणादिवटकोमे० |
| आगस्त्यहरी० | च्यवनप्राशावलेहोमेध्यः |
| कामदेवघृतम् | बुद्धिहित नारायणतैलम् |
| चंदनादितैलम् | स्वर्णभस्म |
| कुमारिकासव | सर्पिष्पानम् |
| द्राक्षारिष्टः | **रसायनानि |
| दशमूलारिष्टः | त्रिफलाचूर्णम् |
| मृगांकपोटली० | पचनिम्बचूर्णम् |
| लोहरसायनम् | बाहुशालगुड |
| मधुतैलबस्ति | सूरणादिवटकः |
| बृंहणनस्यम् | चंद्रप्रभागुटी |
| इन्द्रियबलदप्रतिमर्शनस्यम् | च्यवनप्राशावले० |
| **भेदीनि | ** |
| आमलक्यादि० | कामदेवघृतम् |
| त्रिफलादिचूर्णम् | सुवर्णभस्म |
| **बृंहणम् | ** |
| विलेपीपानम् |
| अभयामोदकः | कामदेवघृतम् |
| **रोपणम् | ** |
| कासीसादिघृत | कुमारिकासव |
| **वशीकरणम् | ** |
| चन्दनादितैलम् | मधुतैलबस्ति |
| वचादिलेप | मुखकांतिकृल्ले० |
| **वृष्याणि | ** |
| जीवनीयगण | **वाजीकरणम् |
| लवंगादिचूर्णम् | शतावर्यादिचूर्णम् |
| सूरणादिवटक | मापादिमोदक |
| चंद्रप्रभागुटी | च्यवनप्राशावले० |
| कूष्मांडकावले० | तारादिरसः |
| फलघृतम् | कदर्पसुदरो रस |
| शतावरीतैलम् | **शुक्रदम् |
| कुमारिकासव | कामदेवघृतम् |
| लोहरसायनम् | दशमूलारिष्ट |
| मधुतैलबस्ति | शुक्रस्तभनमाकारकरभादिचूर्णं |
| **वर्णकरम् | ** |
| चातुर्जातचूर्णम् | कठहृद्बस्तिशोधन कुलित्थादियू० |
| च्यवनप्राशावलेह | |
| अगस्त्यहरीतकी |
| बस्तिशोधनमुष्णोदकपानम् | अग्निविकाररोगे |
| बस्तिशोधनो धान्यादिर्मड | विषमाग्नौ हपुषादिचूर्णम् |
| स्रोत शोधनो धान्यादिहिमः | **मंदाग्नौ |
| कासीसादिघृत | अरलुत्वक्पुट० |
| मलशोधनोद्राक्षारिष्टः | गुडूच्यादिगण० |
| **हृद्यम् | ** |
| विलेपीपानम् | हरीतक्यादिचूर्ण |
| मरिचादिचूर्णम् | मरिचादिचूर्णम् |
| कामदेवघृतम् | दाडिमाष्टकचूर्णम् |
| **सर्वरोगहरम् | ** |
| सुदर्शनचूर्णम् | मरिचादिचूर्णम् |
| चंद्रप्रभागुटी | चित्रकादिविरे० |
| कैशोरगुग्गुलुः | लवणत्रितयादि० |
| अग्निदग्धरोगे | चित्रकादिचूर्णम् |
| तुगाक्षीर्यादि० | वडवानलचूर्णम् |
| रोपणो यवादिर्लेपः | यवानीखांडवचूर्ण |
| सर्पिष पयसो वा गंडूषः | सितोपलादिचूर्ण |
| भास्करलवणचूर्ण | |
| चित्रकादिचूर्णम् | |
| सूरणादिवटक | |
| पिप्पलीमोदकः |
| चंद्रप्रभागुटी | अजीर्णरोगे |
| योगराजगुग्गुलुः | निदिग्धिकादि० |
| कैशोरगुग्गुलुः | चित्रकादिविरे० |
| कूष्मांडखंडकावलेहः | हपुषादिचूर्णम् |
| पिप्पल्यादिघृत | विडगादिगुटी |
| त्रिफलादिघृतम् | गुडपिप्पलीयोगः |
| कुमारिकासवः | त्रिफलादिवटकः |
| लोहासवः | लोकनाथो रसः |
| कुटजारिष्ट | सूतादिवटी |
| दशमूलारिष्टः | अजीर्णकटक० |
| लोकनाथरस | कनकसुन्दरो रसः |
| हेमगर्भपोटली० | वमनम् |
| सूतादिवटी | अतिसाररोगे |
| लोहरसायनम् | स्थूलबब्बूलिकापत्ररस |
| वमनम् | स्योनाककुटजत्वग्रसः |
| अभयामोदकः | कुटजत्वक्पुट० |
| निरूहबस्तिः | तडुलवारि |
| **महाग्नये | ** |
| वसास्नेहपानम् | न्यग्रोधादिकल्कपुटपाकः |
| **दीप्ताग्नये | ** |
| मज्जास्नेहपानम् |
| सोपद्रवातिसारे कुटजादिक्वाथः | हेमगर्भपोटलीरसः |
| चिरोत्थातिसारे ह्रीबेरादिकषायः | वमनम् |
| बालानामतिसारे धातक्यादिशृतः | **आमातिसारे |
| यवादिक्वाथः | शुंठीपुटपाकः |
| आम्रास्थ्यादि० | वत्सकादिशृतः |
| अकोलमूलकल्कः | शुंठ्यादिचूर्णम् |
| मुस्तादिचूर्णम् | हरीतक्यादिचूर्णम् |
| मुस्तादिचूर्णम् | **त्रिदोषोत्थातिसारे |
| कपित्थादिचूर्णम् | आनदभैरवो |
| दाडिमाष्टकचूर्णम् | **रक्तातिसारे |
| लवंगादिचूर्णम् | जम्ब्वाम्रामलकीना पल्लवरसः |
| मरिचादिचूर्णम् | मुस्तादिप्रपथ्या |
| यवानीखांडवचूर्णं | बदरीमूलकल्कः |
| तालीसादिचूर्णम् | वमनम् |
| कुटजत्वगाद्यव० | अपस्माररोगे |
| कुटजत्वगाद्यव० | पक्वरसोनकल्कः |
| मसूरादिघृतम् | योगराजगुग्गुलुः |
| बब्बूल्यरिष्टः | त्रिफलादिघृत |
| लोकनाथरसः | लाक्षादितैलम् |
| चंदनादितैलम् |
| कुमार्यासवः | **अंसरोगे |
| वमनम् | बृहणनरयम् |
| रेचननस्यम् | अम्लपित्तरोगे |
| द्वितीय रेचननस्यम् | कुटजत्वगाद्यव० |
| **अंगपाकरोगे | ** |
| रक्तस्रावविधि | निरूहबस्तिः |
| **अंडवृद्धिरोगे | ** |
| चंद्रप्रभागुटी | आर्द्रकस्वरस |
| नारायणतैलम् | गुडूच्यादिगण० |
| लोहरसायनम् | निदिग्धिकादि० |
| वमनम् | वर्धमानपिप्प० |
| निरूहबस्तिः | आमलक्यादि० |
| मुष्कशोथे शिरादाहः | सामाऽरुचौत्र्यूषणचूर्णम् |
| अंत्रवृद्धौ | पंचकोलचूर्णम् |
| रास्नादिक्वाथः | चातुर्जातचूर्णम् |
| रास्नादिक्वाथः | कटूफलादिचूर्णम् |
| कुरंडरोगे | कटूफलादिचूर्णम् |
| अजाज्यादिले० | दाडिम्यादिचूर्णम् |
| लवंगादिचूर्णम् | |
| जातिफलादिचूर्णम् |
| चित्रकादिचूर्णम् | अर्बुदरोगे |
| हिग्वादिचूर्णम् | चंद्रप्रभागुटी |
| यवानीखांडवचूर्ण | कांचनारगुग्गुलु |
| तालीसादिचूर्णम् | खदिरारिष्टः |
| सितोपलादिचूर्ण | वमनम् |
| चित्रकादिचूर्णम् | सर्षपादिलेप |
| व्योषादिगुटिका | रक्तस्रावः |
| चंद्रप्रभागुटिका | अर्शरोगे |
| योगराजगुग्गुलु | सूरणपुटपाकः |
| अगस्त्यहरीतकी | वर्धमानपिप्पलीकल्क |
| कुटजत्वगाद्यवलेह | मरिचादिचूर्णम् |
| पिप्पल्यादिघृतम् | मरिचादिचूर्णम् |
| कुमारिकासवः | चित्रकादिविरेचन |
| लोहासव | हपुषादिचूर्णम् |
| रोहितारिष्ट | पचसम चूर्णम् |
| दशमूलारिष्ट | लवणत्रितयादिचूर्णम् |
| लोकनाथरस | हिग्वादिचूर्णम् |
| मृगांकपोटली | यवानीखांडवचूर्ण |
| हेमगर्भपोटली | भास्करलवणचूर्ण |
| वमनविधि | चित्रकादिचूर्णम् |
| विरेकविधि | |
| रेचननस्यम् |
| बाहुशालगुडः | रोहितारिष्टः |
| गुडाभयायोगः | दशमूलारिष्ट |
| वृद्धदारुकादिमोदक | लोकनाथरसः |
| सूरणादिपिडिका | पूर्वस्वेद्य |
| सूरणादिवटक | विरेकविधिः |
| त्रिफलादिवटकः | अभयामोदकः |
| चंद्रप्रभागुटी | रक्तार्शःसु |
| कांकायनगुटिका | अपामार्गबीजाना कल्कः |
| योगराजगुग्गुलुः | नवनीततिलक० |
| त्रिफलागुग्गुलुः | महातिक्तघृतम् |
| कूष्माडावलेहः | अश्मरीरोगे |
| अगस्त्यहरीतकी | चंद्रप्रभागुटी |
| कुटजत्वगाद्यवलेहः | गोक्षुरादिगुग्गुलुः |
| कुटजत्वगाद्यवले० | कुमार्यासवः |
| चागेरीघृतम् | विडंगारिष्टः |
| वृषाद्यघृतम् | त्रिविक्रमो रसः |
| कासीसादितैल | पूर्वस्वेद्यः |
| उशीरासवः | अभयामोदकः |
| पिप्पल्यासवः | निरूहबस्ति |
| लोहासव | आनाहरोगे |
| द्राक्षासव | पचकोलचूर्णम् |
| देवदार्वरिष्टः |
| हिग्वादिचूर्णम् | आर्तवरोगे |
| यवानीखांडवचूर्ण | चंद्रप्रभागुटी |
| चंद्रप्रभागुटी | योगराजगुग्गुलुः |
| चागेरीघृतम् | इन्द्रियध्वंसरोगे |
| निरूहबस्ति | नारायणतैलम् |
| आमरोगे | उदर्दरोगे |
| चित्रकादिचूर्णम् | सिद्धार्थादिलेपः |
| व्योषादिगुटिका | उदररोगे |
| गडशुठीयोगः | पुनर्नवादिक्वाथः |
| विरेकविधिः | चव्यादिक्वाथः |
| आमवातरोगे | पुनर्नवादिक्वाथः |
| शुठीकल्कपुटपाक | वर्धमानपिप्पलीकल्कः |
| धान्यादिक्वाथः | पंचकोलचूर्णम् |
| रास्नादिक्वाथः | मरिचादिचूर्णम् |
| रास्नादिक्वाथः | मरिचादिचूर्णम् |
| कुलित्थादियूष | चित्रकादिविरे० |
| उष्णोदकम् | हपुषादिचूर्णम् |
| शुठ्यादिकल्कः | पचसमचूर्णम् |
| पचसमचूर्णम् | कृष्णादिचूर्णम् |
| अजमोदादिचूर्ण | लवणत्रितयादिचूर्णम् |
| भास्करलवणचूर्ण | |
| बाहुशालगुडः |
| तुबर्वादिक्वाथः | वातोदरे |
| भास्करलवणचूर्णम् | बाहुशालगुड |
| चित्रकादिचूर्णम् | उदावर्तरोगे |
| योगराजगुग्गुलुः | योगराजगुग्गुलुः |
| कैशोरगुग्गुलुः | बिन्दुघृतम् |
| त्रिफलामोदकः | कुमार्यासव |
| बिन्दुघृतम् | द्राक्षासव |
| कुमारिकासव | नाराचरस |
| पिप्पल्यासव | निरूहबस्ति |
| लोहासव | मधुतैलबस्ति |
| द्राक्षासव | उपदशरोगे |
| रोहितारिष्ट | पटोलत्रिफलाक |
| महावह्निरसः | मंजिष्ठादिक्वाथ |
| विरेकविधि | अश्वत्थादिशृत |
| अभयादिमो० | कासीसादिघृत |
| निरूहबस्ति | करवीरादिलेप |
| प्लीहोदरे | रोपणस्त्रिफलाले० |
| पथ्यादिक्वाथ | रसांजनादिलेप |
| चंद्रप्रभागुटी | रक्तस्रावविधि |
| खदिरारिष्ट | उन्मादरोगे |
| लोकनाथरस | ब्राह्मीरवरस |
| षडग्रंथास्वरस | **उरोघातरोगे |
| शखिनीस्वरसः | लाक्षाकल्कः |
| कूष्माडस्वरसः | कूष्मांडकावले |
| पक्वरसोनकल्क | **ऊर्ध्वजत्रुरोगे |
| त्रिफलादिघृतम् | प्रतिमर्शनस्यम् |
| लाक्षादितैलम् | कपालरोगभेदेऽरु पिकारोगे |
| चंदनादितैलम् | पिण्याकादिप्रले |
| वमनविधिः | खदिरादिप्रलेपः |
| रेचननस्यम् | कफरोगे |
| भूतोन्मादे | वासास्वरसः |
| भूतयक्षरक्षोहरत्रिफलादिघृतम् | क्षुद्राया पुटपाक |
| यक्षराक्षसदूरीकरणं लाक्षादितैलम् | वरुणादिगणक्वाथ |
| पिशाचराक्षसजिद्धूपनम् | कुलित्थादियूषः |
| उरोग्रहरोगे | उष्णोदकपानम् |
| वर्धमानपिप्पलीकल्कः | यवमंडः |
| हिग्वादिचूर्णम् | लाजमडः |
| योगराजगुग्गुलुः | वर्धमानपिप्पलीक |
| च्यवनप्राशावलेहः | निबकल्कः |
| आमलक्यादिचूर्ण | |
| त्रिफलाचूर्णम् |
| त्र्यूषणचूर्णम् | रेचननस्यम् |
| चातुर्जातचूर्णम् | बृहणनस्यम् |
| कट्फलादिलेहः | नीलोत्पलादिलेखनीवर्ति |
| कट्फलादिचूर्णम् | जातिपुष्पाद्यजन |
| जातीफलादिचूर्ण | निद्रारोगे |
| कृष्णादिचूर्णम् | नीलोत्पलादिलेखनीवर्तिः |
| चित्रकादिचूर्णम् | क्षौद्रादिलेखनीरसक्रिया |
| अजमोदादिचूर्णम् | कर्णरोगे |
| त्रिफलादिवटकः | बलादिघृतम् |
| योगराजगुग्गुलुः | क्षारतैलम् |
| चांगेरीघृतम् | विरेकविधि |
| प्रसारणीतैलम् | रेचननस्यम् |
| मृगांकपोटलीर० | सर्जिकादितैल |
| हेमगर्भपोटलीर० | कर्णकीटहरयोगाः |
| मथानुभैरवोर० | कर्णनाडीरोगे शंबूकतैलम् |
| लोहरसायनम् | कर्णनादरोगे |
| तैलस्नेहपानम् | |
| वमनम् | |
| रेचननस्यम् | |
| सैधवादिगंडूष | |
| त्रिफलादिगंडूषः | |
| तंद्रारोगे |
| बृंहणनस्यम् | फलत्रिकादिक्वाथ |
| यष्टयादितैलं | सुदर्शनचूर्णम् |
| अपामार्गक्षारतैलम् | हपुषादिचूर्णम् |
| कर्णपाकरोगे | त्रिफलादिवटकः |
| कोष्णवस्तमूत्रपूरणम् | चंद्रप्रभागुटी |
| दाहे च रक्तस्रावः | कुटजत्वगावले० |
| पूतिकर्णे आम्रादितैलम् | कामदेवघृतम् |
| बाधिर्यरोगे | शतावरीतैलम् |
| बिल्वादितैलम् | दशमूलारिष्ट |
| अपामार्गक्षारतैल | कासरोगे |
| कर्णस्रावे दाहे च | वासास्वरसः |
| कर्णस्रावे चूर्णम् | आर्द्रकस्वरसः |
| कर्णस्रावदाहयोः सर्जिकाचूर्णयो० | वृषपत्रपुटपाकरसः |
| कामलारोगे | क्षुद्रायाः पुटपाकरस |
| वासास्वरसः | बिभीतकत्वक्पुटपा० |
| त्रिफलारसः | निदिग्धिकादिक |
| दार्वीरसः | पुनर्नवादिक्वाथः |
| निबरसः | वासादिक्वाथः |
| अलबुषास्वरसः | वासकक्वाथः |
| वासादिक्वाथः | |
| क्षुद्रादिक्वाथः | |
| क्षुद्राक्वाथः |
| दशमूलशृतः | शुठ्यादिगुटीबिभीतकत्वक्च |
| उष्णोदकपानम् | व्योषादिगुटिका |
| पंचमूलीक्षीरपाकः | सूरणादिवटकः |
| वासाहिमः | पिप्पलीमोदकः |
| वर्धमानपिप्पली | चंद्रप्रभागुटी |
| सुदर्शनचूर्णम् | योगराजगुग्गुलुः |
| त्रिफलादिचूर्णम् | कैशोरगुग्गुलुः |
| कट्फलादिचूर्णम् | कटकार्याद्यवलेहः |
| कट्फलादिचूर्णम् | च्यवनप्राशावलेहः |
| कट्फलादिलेहः | कूष्माडकावलेहः |
| दाडिम्यादिचूर्णम् | अगस्त्यहरीतकी |
| दाडिमाष्टकचूर्णम् | त्रिफलादिघृतम् |
| लवंगादिचूर्णम् | लाक्षादितैलम् |
| जातीफलादिचूर्णम् | लोहासव |
| मरिचादिचूर्णम् | खदिरारिष्टः |
| चित्रकादिविरेचन | बब्बूल्यरिष्ट |
| लवणत्रितयचूर्ण | द्राक्षारिष्टः |
| हिग्वादिचूर्णम् | दशमूलारिष्टः |
| तालीसादिचूर्णम् | लोकनाथरसः |
| सितोपलादिचूर्ण | द्वितीयलोकनाथरसः |
| भास्करलवणचूर्ण | |
| मरिचादिगुटी |
| मृगाकपोटली | योगराजगुग्गुलुः |
| हेमगर्भपोटली | कैशोरगुग्गुलुः |
| द्वितीयहेमगर्भपोटलीरस | त्रिफलामोदक |
| स्वयमग्निरस | कांचनारगुग्गुलुः |
| लोहरसायनम् | अमृताघृतम् |
| वमनम् | महातिक्तघृतम् |
| अभयामोदकः | कासीसादिघृतम् |
| धूमः | बिन्दुघृतम् |
| कुष्ठरोगे | वृषाद्य घृतम् |
| मजिष्ठादिक्वाथः | वज्रतैलम् |
| मजिष्ठादिक्वाथः | उशीरासवः |
| त्रिफलाचूर्णम् | लोहासव |
| त्र्यूषणचूर्णम् | द्राक्षासवः |
| चित्रकादिविरेचनम् | खदिरारिष्टः |
| हपुषादिचूर्णम् | बुब्बूल्यरिष्ट |
| भास्करलवणचू० | रोहितारिष्ट |
| पचनिबचूर्णम् | दशमूलारिष्टः |
| चित्रकादिचूर्णम् | महातालरसः |
| त्रिफलादिवटकः | कुष्ठकुठाररसः |
| चंद्रप्रभागुटी | स्वर्णक्षीरीरसः |
| कनकसुदररसः | |
| वमनम् |
| विरेकः | रक्तव्यङ्गे |
| अभयामोदकः | मरिचादितैलम् |
| रेचननस्यम् | श्वित्रकुष्ठे |
| रक्तस्रावः | पटोलादिक्वाथः |
| दद्रुरोगे | मरिचादितैलम् |
| कासीसादिघृत | श्वित्रहरलेपौ |
| देवदार्वरिष्टः | श्वेतकुष्ठे |
| उदयादित्यः | उदयादित्योरसः |
| प्रपुन्नाटादिलेपः | सिध्मकुष्ठे |
| हेमक्षीर्यादिलेपः | मरिचादितैलम् |
| दूर्वादिलेपः | सिध्महरप्रलेपौ |
| पामारोगे | कृमिरोगे |
| कासीसादिघृत | त्रिफलादिक्वाथः |
| सार्पपतैलम् | निबदलकल्कः |
| मरिचादितैलम् | त्रिवृतादिकल्कः |
| प्रपुन्नाटादिलेपः | मरिचादिचूर्णम् |
| हेमक्षीर्यादिलेपः | मुसलीकदादिचूर्ण |
| पुंडरीककुष्ठे | कांकायनगुटिका |
| मरिचादितैलम् | गौराद्य घृतम् |
| मंडलकुष्ठे | वृषाद्यघृतम् |
| सर्वेश्वरो रसः | उशीरासवः |
| कुमार्यासवः | जातीफलादिचूर्ण |
| द्राक्षासवः | यवानीखांडवचू० |
| खदिरारिष्टः | तालीसादिचूर्णम् |
| विरेक | सितोपलादिचूर्णम् |
| कृमिकोष्ठे तैलस्नेहपानम् | भास्करलवणचूर्णम् |
| मधुतैलबस्तिः | बाहुशालगुडः |
| अवपीडननस्यम् | सूरणादिवटकः |
| क्षयरोगे | योगराजगुग्गुलुः |
| वासास्वरस | च्यवनप्राशावलेहः |
| वृषपत्रपुटपाकर० | कूष्मांडकावलेह |
| वासकक्वाथ | अगस्त्यहरीतकी |
| धान्यकादिहिम | त्रिफलादिघृतम् |
| वर्धमानपिप्पलीक | नारायणतैलम् |
| लाक्षाकल्क | शतावर्यादितै० |
| जीवनीयगणः | चंदनादितैलम् |
| अष्टवर्गचूर्णम् | कुमारिकासव |
| कट्फलादिचूर्णम् | पिप्पल्यासवः |
| कट्फलादिचूर्णम् | बब्बूल्यरिष्टः |
| कपित्थादिचूर्णम् | द्राक्षारिष्टः |
| दाडिमाष्टकचूर्णम् | दशमूलारिष्टः |
| लवंगादिचूर्णम् | लोकनाथरसः |
| मृगाकपोटलीर० |
| हेमगर्भपोटलीर | कंडूरोगे |
| द्वितीयहेमगर्भपोटलीरस | चंद्रप्रभागुटी |
| राजमृगाकरसः | त्रिफलादिघृतं |
| स्वयमग्निरस | लाक्षादितैलम् |
| लोहरसायनम् | मरिचादितैलम् |
| अभयामोदकः | भृंगराजतैलम् |
| उरःक्षतरोगे | लोहासव |
| वासादिक्वाथः | हेमक्षीर्यादिले |
| लवंगादिचूर्णम् | दूर्वादिलेपः |
| च्यवनप्राशावलेहः | नीलिकारोगे |
| कूष्माडकावलेहः | मातुलुगादिले |
| कामदेवघृतम् | वटपत्रादिलेपः |
| द्राक्षारिष्टः | रकसरोगे |
| क्षुद्ररोगे | हेमक्षीर्यादिले |
| महातिक्तघृतम् | विचर्चिकारोगे |
| रक्तस्राव | चंद्रप्रभागुटी |
| कच्छूरोगे | कासीसादिघृतम् |
| सार्पषादितैलम् | सार्षपादितैलम् |
| मरिचादितैलम् | मरिचादितैलम् |
| जात्यादितैलम् | उदयादित्योरसः |
| प्रपुन्नाटादिलेपः | महातिक्तघृतम् |
| हेमक्षीर्यादिलेप | वचादितैलम् |
| विदारीरोगे | निर्गुंडीतैलम् |
| वमनम् | विडंगारिष्ट |
| रक्तस्त्राव | सर्षपादिलेपः |
| विस्फोटरोगे | गंडापचीरोगे |
| कासीसादिघृत | कन्यास्वरस |
| गौराद्यघृतम् | अलवुषास्वरस |
| विरेकः | कांचनारगुग्गुलुः |
| दशागलेपः | वमनम् |
| लागल्यादिलेपः | सर्षपादिलेपः |
| व्यगरोगे | रक्तस्रावविधि |
| चन्दनादिलेपः | गुदरोगे |
| मातुलुगादिलेपः | लवणत्रितयादिचूर्णम् |
| अर्जुनत्वगादिले | विरेकः |
| वटपत्रादिलेपः | गुदभ्रंशरोगे |
| गंडमालारोगे | चांगेरीघृतम् |
| अलवुषास्वरस | लोहरसायनम् |
| कांचनारत्वचः क्वाथः | गुल्मरोगे |
| वरुणत्वच क्वाथः | दशमूलशृतः |
| कांचनारगुग्गुलुः |
| पथ्यादिक्वाथः | बिन्दुघृतम् |
| वरुणादिगणक्वाथः | पिप्पल्यासवः |
| त्र्यूषणचूर्णम् | लोहासवः |
| मरिचचूर्णम् | द्राक्षासवः |
| कपित्थादिचूर्णम् | खदिरारिष्ट |
| दाडिमाष्टकचूर्णम् | रोहितारिष्ट |
| लवंगादिचूर्णम् | दशमूलारिष्ट |
| मरिचादिचूर्णम् | लोकनाथरसः |
| चित्रकादिविरेचन | विद्याधररसः |
| हपुषादिचूर्णम् | विरेकः |
| लवणत्रितयचू० | अभयामोदकः |
| तुवर्वादिचूर्णम् | मधुतैलबस्तिः |
| चित्रकादिचूर्णम् | कफगुल्मरोगे |
| बाहुशालगुडः | हिंग्वादिचूर्णम् |
| विडंगादिगुटिका | भास्करलवणम् |
| काकायनगुटिका | वातगुल्मरोगे |
| योगराजगुग्गुलुः | हिंग्वादिचूर्णम् |
| कैशोरगुग्गुलुः | भास्करलवणचूर्ण |
| त्रिफलागुग्गुलुः | ग्रन्थिरोगे |
| त्रिफलामोदकः | कांचनारगुग्गुलुः |
| कांचनारगुग्गुलुः | खदिरारिष्टः |
| महातिक्तघृतम् |
| विरेकः | अगस्त्यहरीतकी |
| रक्तस्रावविधिः | कुटजाद्यवलेह |
| संग्रहणीरोगे | चांगेरीघृतम् |
| आम्रादियवागूः | मसूरादिघृतम् |
| नवनीतादियुक्तकल्कः | पिप्पल्यासवः |
| बृहतीकल्कः | लोहासवः |
| मुस्तादिचूर्णम् | देवदार्वरिष्ट |
| मरिचादिचूर्णम् | रोहितारिष्टः |
| कपित्थादिचूर्णम् | दशमूलारिष्टः |
| दाडिमाष्टकचूर्णम् | लोकनाथरसः |
| लवंगादिचूर्ण | मृगांकपोटली |
| जातीफलादिचूर्णम् | हेमगर्भपोटली |
| चित्रकादिविरेचन | द्वितीयहेमगर्भपोटलीरस |
| चित्रकादिचूर्णम् | हसपोटलीरसः |
| हिंग्वादिचूर्णम् | ग्रहणीकपाटरसः |
| यवानीखांडवचूर्णं | ग्रहणीवज्रकपाटरसः |
| तालीसादिचूर्णम् | लोहरसायनम् |
| भास्करलवणचूर्णं | आमसंग्रहण्याम् |
| बाहुशालगुडः | गुडूच्यादिक्वाथः |
| कांकायनगुटिका | वातग्रहण्याम् |
| योगराजगुग्गुलुः |
| शालिपर्ण्यादि | लोकनाथरसः |
| पिप्पल्यादिचूर्ण | विरेक |
| सूरणादिवटकः | त्रिदोषच्छर्दिरोगे |
| कफग्रहणीरोगे | बिल्वत्वकूक्वाथः |
| सूरणादिवटकः | गुडूचीक्वाथः |
| छर्दिरोगे | मसूरसक्तुमथ |
| वीजपूरपुटपाक० | एलादिचूर्णम् |
| आम्रपुटपाकरस | पित्तच्छदौ पर्पटक्वाथः |
| जवुजटापुटपाकर० | ज्वररोगे |
| गुडूच्यादिगण० | वासकस्वरस |
| आम्रादिफांट | वृषपत्रपुटपाकः |
| मरिचादिहिमम् | गुडूच्यादिगणः |
| निबदलकल्कः | क्षुद्रादिक्वाथः |
| कट्फलादिचूर्ण | निदिग्धिकादिक्वाथः |
| कट्फलादिचूर्णम् | ह्रीबेरादिक्वाथः |
| मरिचादिचूर्णम् | वासादिक्वाथः |
| यवानोखांडवचूर्ण | उशीरादिपानम् |
| तालीसादिचूर्णम् | उष्णोदकपानम् |
| कूष्मांडकाव० | |
| दशमूलारिष्टः |
| धान्यादिमडः | नारायणतैलम् |
| लाजामडः | चंदनादितैलम् |
| आम्रादिफांट | कुटजारिष्ट |
| वासाहिमः | ज्वरांकुशोरसः |
| धान्याकादिहिमः | ज्वरारिरसः |
| वर्धमानपिप्पलीक० | ज्वरघ्नीगुटिका |
| आमलक्यादि० | लोकनाथरसः |
| जीवनीयगणचूर्ण | कनकसुदरोरसः |
| सुदर्शनचूर्णम् | वमनम् |
| त्रिफलादिचूर्णम् | मयूरपिच्छादिधू० |
| कट्फलादिचूर्णम् | नवज्वरे |
| कट्फलादिलेहः | पूर्वनागरादिपाचन |
| दाडिम्यादिचूर्ण | पाचनाय पटोलादि कटकार्यादिश्च क्वाथः |
| चित्रकादिविरेचन | पटोलादिक्वाथः |
| यवानीखांडवचूर्ण | वातज्वरे |
| तालीसादिचूर्ण | गुडूच्यादिक्वाथः |
| सितोपलादिचूर्ण | शालिपर्ण्यादिक्वाथः |
| कूष्मांडकावले० | काश्मर्यादिक्वाथः |
| अगस्त्यहरीतकी | लोकनाथरसः |
| त्रिफलादिघृतम् | |
| महातिक्तघृतम् | |
| अगारकतैलम् |
| पित्तज्वरे | आरग्वधादिः |
| कट्फलादिक्वाथः | शालिपर्ण्यादिः |
| पर्पटादिक्वाथः | पिप्पल्यादिक्वाथः |
| द्राक्षादिक्वाथः | हिग्वादिचूर्णगु० |
| पर्पटादिक्वाथः | पित्तकफज्वरे |
| पर्पटक्वाथः | अमृताष्टकक्वाथः |
| लोकनाथरसः | पटोलादिक्वाथः |
| कफज्वरे | वासकक्वाथः |
| पाचनायबीजपूरादिक्वाथः | त्रिदोषज्वरे |
| भूनिबादिक्वाथः | क्षुद्रादिक्वाथः |
| पटोलादिक्वाथः | अभयादिक्वाथः |
| त्रिकटकादियुक्तदुग्धपाकः | सन्निपातज्वरे |
| लोकनाथरसः | शालिपर्ण्यादिः |
| वातपित्तज्वरे | पिप्पल्यादिक्वाथः |
| पर्पटपचभद्रक्वा० | कैरातादिक्वाथः |
| मधूकपुष्पादिफां | कुलित्थादियूष |
| नीलोत्पलादिहिम | सजीवनीगुटी |
| वातकफज्वरे | लघुसूचिकाभरणरसः |
| क्षुद्रादिक्वाथः | जलचूडामणिः |
| पचवक्त्ररसः | |
| उन्मत्तरसः |
| अजनरसः | पिप्पलीमोदकः |
| कनकसुदरसः | पिप्पल्यादिघृत |
| सन्निपातभैरवोरसः | वृषादिघृतम् |
| अवपीडननस्य | लाक्षादितैलम् |
| रेचननस्यम् | ज्वरारिरस |
| प्रबोधायशिरीषबीजाद्यजनम् | महाज्वरांकुशो रसः |
| जीर्णज्वररोगे | अभयामोदकः |
| गुडूचीक्वाथः | निरूहबस्तिः |
| पचमूलीक्षीर० | अवपीडननस्य |
| अमृताहिमः | शीतज्वरे |
| विरेकः | क्षुद्रादिक्वाथः |
| विषमज्वररोगे | शीतारिरसः |
| तुलसीपत्ररसः | एकाहिकज्वरे |
| द्रोणपुष्पीरसः | पटोलादिक्वाथः |
| क्षुद्रादिक्वाथः | तृतीयकज्वरे |
| मुस्तादिक्वाथः | गुडूच्यादिक्वाथः |
| पटोलादिक्वाथः | त्रिफलादिघृत |
| रसोनकल्कः | चातुर्थकज्वरे |
| त्रिफलाचूर्णम् | देवदार्वादिक्वाथः |
| धातुस्थसर्वज्वरेषु | त्रिफलादिघृत |
| ज्वरातिसाररोगे | कूष्माडकावले. |
| गुडूच्यादिक्वाथः | सभक्तस्नेहसेवन |
| नागरादिक्वाथः | निरूहबस्तिः |
| तारुण्यपि-रो० | प्रतिमर्शनस्य |
| लोध्रादिलेप | मधुगडूष |
| वटपत्रादिलेप | दाहरोगे |
| तृष्णारोगे | गुडूच्यादिगणक्वा० |
| गुडूच्यादिगण | त्रिफलादिक्वाथः |
| उशीरादिपानम् | न्यग्रोधादिक्वाथः |
| लाजमड | मधूकपुष्पादिफा. |
| मधूकपुष्पादिफा० | मधूकपुष्पादिफाट. |
| आम्रादिफाटः | यवसक्तुमथः |
| मधूकपुष्पादिफांटः | अन्तर्दाहे धान्याकहिमः |
| यवसक्तुमथः | धान्यकादिहिम |
| मरिचादिहिम | जीवनीयगणचूर्ण |
| धान्याकहिमः | हस्तपादाङ्गदाहे |
| धान्यकादिहिमः | सितोपलादिचूर्ण |
| जीवनीयगणः | उरोदाहे कामदेवघृतम् |
| अमलादिगुटी | |
| च्यवनप्राशावलेहः |
| अभयामोदकः | कुष्ठादितैल वा घृतम् |
| मधुगडूषः | नासादाहे |
| बिभीतकमज्जाले | रक्तस्राव |
| रक्तस्रावविधिः | नासापाके |
| द्विजिह्वकरोगे | वमनम् |
| वमनम् | रक्तस्रावविधिः |
| धातुक्षयरोगे | पीनसरोगे |
| पिप्पलीमोदकः | निदिग्धिकादिक्वा. |
| शुक्रोजःक्षये | वासाठिक्वाथः |
| कामदेवघृतम् | त्र्यूषणचूर्णम् |
| नष्टशुक्रे | दाडिमाष्टकचूर्ण० |
| नारायणतैलम् | लवंगादिचूर्णम् |
| दशमूलारिष्टः | बाहुशालगुडः |
| नासारोगे | व्योषादिगुटिका |
| बलादिघृतम् | अगस्त्यहरीतकी |
| विरेकविधि | पाठादितैलम् |
| रेचननस्यम् | रेचननस्यम् |
| बृहणनस्यम् | पूतिनासारोगे |
| नासाऽर्शोरोगे | व्याघ्य्रादितैलम् |
| गृहधूमादितैलं | रक्तस्रावः |
| क्षवथुरोगे |
| प्रतिश्यायरोगे | त्रिफलादिघृतम् |
| आर्द्रकस्वरसः | बलादिघृतम् |
| बिभीतकत्वकूपा० | द्राक्षासवः |
| जातीफलादिचूर्ण | अभयामोदकः |
| बाहुशालगुड | रेचननस्यम् |
| व्योषादिगुटिका | बृहणनस्यम् |
| त्रिफलाघृतम् | हरीतक्यादि० |
| लाक्षादितैलम् | रसाजनादिलेपः |
| रेचननस्यम् | यष्टयादिलेपः |
| नासारक्तस्राव रोगे | रसाजनादिलेपः |
| लोकनाथरस | सैधवादिलेपः |
| आमलादिलेपः | निम्बुरसलेपः |
| रक्तस्रावविधिः | तर्पणम् |
| नेत्ररोगे | चंद्रोदयावर्तिः |
| मजिष्ठादिक्वाथः | मृदुचूर्णाञ्जम् |
| अमृतादिक्वाथः | सौवीरांजनम् |
| त्रिफलाचूर्णम् | नानौषधसिक्तनागशलाका |
| चंद्रप्रभागुटी | प्रत्यजनप्रयोजनम् |
| योगराजगुग्गुलुः | प्रसादनचूर्णावकाशः |
| कैशोरगुग्गुलुः | नयनामृतप्रत्यजनम् |
| नयनप्रसादनपाणितलस्पर्शप्रकारः |
| नयनप्रसादनशीतोदकसेचनप्रकारः | पिडिका |
| नेत्राभिघातरोगे | त्रिफलापिडिका |
| शाबरादिसेकः | श्लेष्माभिष्यंदे |
| नेत्राधिमंथरोगे | शिरोविरेचनम् |
| रक्तस्रावविधिः | पिंडिका |
| शिरोविरेचनम् | पिडिका |
| अधिमथोपचारौ | त्रिफलापिडिका |
| अभिष्यंदरोगे | रक्ताभिष्यंदरोगे |
| वाताभिष्यंदरोगे | रक्तस्रावः |
| एरंडादिसेकः | सेकौ |
| बिल्वाद्याश्चोतन | आश्चोतनम् |
| आश्चोतनम् | स्त्रीस्तन्याश्चोतन |
| पिडिका | आश्चोतनम् |
| स्त्रीस्तन्याश्चोतनम् | पिडिका |
| आश्चोतनम् | सर्वाभिष्यंदरो० |
| पिडिका | आश्चोतनम् |
| पित्ताभिष्यंदरोगे | पिडिकाबधनम् |
| आश्चोतनम् | अश्रुरोगे |
| स्त्रीस्तन्याश्चोतनं | दार्व्यादिक्रिया |
| पिंडिके | अंजननामिकारोगे |
| प्रतिसारणम् |
| अन्धत्वरोगे | लेखनांजनम् |
| अंजनम् | क्लेदरोगे |
| अर्जुनरोगे | रोपणीरसक्रिया |
| रोपणीवर्तिः | तिमिररोगे |
| अर्मरोगे | स्नेहपानम् |
| मरिचादिलेपः | रोपणीवर्ति |
| तुत्थादिरसः | तुत्थादिरसः |
| लेखनचूर्णम् | गुडूच्यादिरसः |
| नेत्रस्यकफादिमलरोगे | नेत्रदाहरोगे |
| लेखनांजनम् | दार्व्यादिरसः |
| नेत्रकंडूरोगे | नक्तान्ध्यरोगे |
| शुठ्यादिपिडिका | पथ्यादिक्वाथः |
| रोपणीरसक्रिया | रसांजनादिवर्ति |
| गुडूच्यादिरसक्रिया | सानुपानः पुनर्नवायोगः |
| सानुपानः पुनर्नवायोगः | लेखनांजनम् |
| लेखनांजनम् | पटलरोगे |
| काचरोगे | पथ्यादिक्वाथः |
| तुत्थादिरसः | पक्ष्मरोगे |
| गुडूच्यादिरसः | रोपणीरसक्रिया |
| नेत्रपाकरोगे |
| पयआदिसेकः | नेत्रवातरोगे |
| पित्तविकारे | पयआदिसेकः |
| शाबरादिसेकः | धात्र्यादिस्नेहव० |
| नेत्रपुष्परोगे | नेत्रशिरोत्पातरोगेऽजन |
| द्विमासिककुसुमहरीवटक्षीरादिरस | शुक्ररोगे |
| सानुपानःपुनर्नवायोगः | पथ्यादिक्वाथः |
| लेखनचूर्णाजनम् | शुक्रादिरोगेंऽ- |
| भ्रूरोगे | जनवर्तिप्रकारौ |
| त्रिफलामोदकः | लेखनीदतवर्ति |
| मांसवृद्धिरोगे | रोपणी वर्तिः |
| रोपणी वर्तिः | तुत्थादिरसक्रिया |
| नेत्ररक्तरोगे | शुक्लकृष्णमार्गरोगे |
| शाबरादिसेकः | गुडूच्यादिक्रिया |
| धात्र्यादिस्नेहनी वर्तिः | शुष्कनेत्ररोगे |
| दार्व्यादिक्रिया | पयआदिसेकः |
| लिङ्गनाशरोगे | नेत्रशोथरोगे |
| गुडूच्यादिक्रिया | शुंठ्यादिपिडिका |
| वर्त्मरोगे | नेत्रस्त्रावरोगे |
| तुत्थादिरसक्रिया | धात्र्यादिस्नेहव० |
| सानुपानपुनर्नवायोगः |
| रोपणीरसक्रिया | कुटजत्वगावले. |
| रोपणीरसक्रिया | कामदेवघृत |
| परिकर्तिकरोगे | त्रिफलादिघृतं |
| चित्रकादिविरेचनं | महातिक्तघृतम् |
| परिणामशूलरोगे | वृषाद्यघृतम् |
| विष्णुकान्ताजटाकल्क | शतावरीतैल |
| पांडुरोगे | उशीरासवः |
| पुनर्नवादिक्वाथः | पिपल्यासव. |
| वर्धमानपिप्पली | लोहासवः |
| चित्रकादिविरेचन | खदिरारिष्टः |
| हपुषादिचूर्णम् | रोहितारिष्टः |
| हिग्वादिचूर्णम् | दशमूलारिष्टः |
| यवानीखांडवचूर्णं | लोहरसायनम् |
| तालीसादिचूर्णम् | विरेक |
| चित्रकादिचूर्णम् | अभयामोदकः |
| बाहुशालगुड | पित्तरोगे |
| त्रिफलादिवटकः | वासास्वरसः |
| पिप्पलीमोदकः | पर्पटज क्वाथः |
| चंद्रप्रभागुटी | विलेपीपानम् |
| योगराजगुग्गुलुः | यवमंड |
| कैशोरगुग्गुलुः | लाजमड |
| मधूकपुष्पफां० |
| निबजकल्कः | पूतिदेहरोगे |
| त्रिफलाचूर्णम् | रक्तस्रावः |
| सितोफलादिचूर्ण | प्रदररोगे |
| योगराजगुग्गुलुः | सशूलप्रदरेदार्व्यादिक्वाथः |
| च्यवनप्राशावलेहः | गोक्षुरादिगुग्गुलुः |
| लाक्षादितैलम् | महातिक्तघृतम् |
| वसंतकुसुमाकरोरसः | रक्तप्रदरे |
| सर्पिष्पानम् | तदुलीयजटाकल्कः |
| वमनम् | शतावरीतैलम् |
| विरेकः | निरूहबस्ति |
| बृंहणनस्यम् | प्रमेहरोगे |
| शमनसज्ञगडूषः | अमृतास्वरस |
| विड्भंगरोगे | धात्र्याः स्वरसः |
| चित्रकादिविरेचनम् | वंरादिक्वाथः |
| मसूरादिघृतम् | न्यग्रोधादिक्वाथः |
| शरीरदुर्गधरोगे | त्रिफलाचूर्णम् |
| लाक्षादितैलम् | त्र्यूषणचूर्णम् |
| लेपौ | लवंगादिचूर्णम् |
| पृष्ठरोगे | बाहुशालगुडः |
| प्रधमननस्यम् | सूरणादिवटकः |
| त्रिफलादिवटकः | मातुलुगादिलेपः |
| चंद्रप्रभागुटी | रक्तस्त्राव |
| योगराजगुग्गुलुः | प्रवाहिकारोगे |
| कैशोरगुग्गुलुः | मुस्तादिचूर्णम् |
| गोक्षुरादिगुग्गुलुः | मुस्तादिचूर्णम् |
| त्रिफलादिघृतम् | कुटजत्वगाद्यवले |
| शतावर्यादितैल | कुटजत्वगाद्यवले |
| उशीरासव | चांगेरीघृतम् |
| कुमार्यासव | मसूरादिघृतम् |
| विडंगारिष्टः | प्लीहरोगे |
| देवदार्वरिष्टः | कन्यास्वरसः |
| दशमूलारिष्टः | मरिचादिचूर्ण |
| वसंतकुसुमाकरोरसः | हपुषादिचूर्णम् |
| प्रमेहबद्धरसः | लवणत्रितयादिचूर्णम् |
| वमनम् | हिग्वादिचूर्णम् |
| विरेकः | यवानीखांडवचूर्ण |
| अभयामोदकः | तालिसादिचूर्ण |
| निरूहबस्ति | भास्करलवणचूर्ण |
| प्रमेहपिटिकारोगे | सूरणादिवटकः |
| कैशोरगुग्गुलुः | त्रिफलादिवटकः |
| त्रिफलामोदकः | चंदनादितैल |
| पिप्पल्यादिघृतं | धूपनम् |
| शतावर्यादितैल | बालप्लीह्निदाहः |
| लोहासवः | भगन्दररोगे |
| रोहितारिष्टः | चित्रकादिविरेचनचूर्णम् |
| विद्याधरोरसः | भारकरलवणचूर्ण |
| वमनम् | चित्रकादिचूर्णम् |
| विरेकः | सूरणादिवटकः |
| अभयामोदकः | चंद्रप्रभागुटी |
| मधुतैलबस्तिः | योगराजगुग्गुलुः |
| रक्तस्रावः | त्रिफलागुग्गुलुः |
| बालरोगे | त्रिफलामोदकः |
| अतिसारेधातक्यादिशृत | कांचनारगुग्गुलुः |
| कासश्वासज्वरहर कटूफलादिचूर्ण | कासीसादिघृत |
| कासज्वरच्छर्दिषुशृग्यादिलेहो वा विषालेहः | बिन्दुघृतम् |
| कासेषु यवक्षारादिलेहः | लोहासवः |
| बालग्रहेषु | विडंगारिष्टः |
| दशमूलारिष्टः | |
| कनकसुंदरोरसः | |
| पूर्वस्वेद्यः |
| विरेकः | मनोविकाररोगे |
| अभयामोदकः | अवपीडननस्यम् |
| भग्नरोगे | मुखरोगे |
| न्यग्रोधादिक्वाथः | मरिचादिचूर्णम् |
| भुजरोगे | इरीभेदादितैल |
| रेचननस्यम् | क्षारतैलम् |
| बृहणनस्यम् | विरेकः |
| रक्तस्रावविधिः | ताल्वोष्ठपाकेवम. |
| भ्रमरोगे | मुखपाके गडूषः |
| मधूकपुष्पादिफा० | ओष्ठवक्रपाके दाहे च रक्तस्रा० |
| मधूकपुष्पादिफांटः | मुखकार्ष्ण्येलेपः |
| कूष्माडकावलेहः | मुखव्रणेमधुग० |
| वमनम् | मुखशोषवैरस्ययोर्गडूप |
| अभयामोदकः | पूतिमुखेरक्तस्रा. |
| मदात्ययरोगे | गलरोगे |
| मद्यविकारेखर्जूरादिमथः | त्र्यूषणचूर्णम् |
| मदरोगे | कपित्थादिचूर्णम् |
| दुष्टकाद्रवोत्थमदे कूष्मांडकस्वरसः | लवंगादिचूर्णम् |
| मधूकपुष्पादिफांट. | मरिचादिचूर्णम् |
| यवानीखांडवचूर्ण |
| त्रिफलामोदकः | त्रिफलामोदकः |
| बलादिघृतम् | बलादिघृतम् |
| द्राक्षासवः | उपजिह्वकरोगे |
| द्राक्षारिष्टः | नीलिकादितैल |
| अवपीडननस्य | सुप्तजिह्वारोगे |
| रेचननस्यम् | सितोपलादिचूर्ण |
| गलगंडरोगे | तालुरोगे |
| अभयामोदकः | त्रिफलामोदकः |
| सर्षपादिलेपः | दंतरोगे |
| वातगलगडे निचूलादिलेप | चंद्रप्रभागुटी |
| कफगलगडेदेवदार्वादिलेपः | नारायणतैल |
| गलग्रहरोगे | इरिभेदादितैल |
| दाडिमाष्टकचूर्णम् | बृहणनस्यम् |
| चित्रकादिविरेचन | दंतचालेगडूष |
| हिग्वादिचूर्णम् | दंतपातेपथ्यादिक्वाथः |
| गलशुंडीरोगे | दंतरक्तस्रुतिपीडाशोथदाहेषु प्रतिसारणचूर्णम् |
| वमनम् | मूत्ररोगेविरेकः |
| जिह्वारोगे | मूत्रकृच्छ्ररोगे |
| यवानीखांडवचूर्ण |
| सदाहमूत्रकृच्छ्रेहरीतक्यादिक्वाथः | मधूकपुष्पादिफां० |
| गोक्षुरक्वाथः | आम्रादिफाटः |
| हिग्वादिचूर्णम् | मधूकपुष्पादिफांटः |
| जीरगुडयोगः | योगराजगुग्गुलुः |
| चंद्रप्रभागुटी | निरूहबस्ति |
| गोक्षुरादिगुग्गुलुः | मेढ्ररोगे |
| च्यवनप्राशावलेह | रास्नादि |
| चांगेरीघृतम् | मेहनव्यथायामेरडादिक्वाथः |
| कामदेवघृतम् | मेहनग्रंथिरोगे चंद्रप्रभागुटी |
| त्रिफलादिघृत | विरेकः |
| कुमार्यासवः | लिंगस्तनवृद्धिकरौ लेपौ |
| देवदार्वरिष्टः | मेदोरोगे |
| दशमूलारिष्टः | न्यग्रोधादिक्वाथः |
| लोहरसायनम् | बिल्वादिक्वाथः |
| अभयामोदकः | त्रिफलाक्वाथः |
| निरूहबस्तिः | उष्णशीताम्बुशाखोटकादिक्वाथः |
| मूत्राघातरोगे | वरुणादिगणक्वाथः |
| वीरतर्वादिक्वाथः | मंजिष्ठादिक्वाथः |
| चंद्रप्रभागुटी | |
| गोक्षुरादिगुग्गुलुः | |
| मूर्छारोगे |
| उष्णोदकपान | जीवनीयचूर्णं |
| त्र्यूषणचूर्णम् | पुत्रदशतावरीतैलम् |
| योगराजगुग्गुलुः | रक्तरोगे |
| तैलस्नेहपानम् | ह्रीबेरादिक्वाथः |
| वमनम् | ऊर्ध्वगरक्तेसितोपलादिचूर्णं |
| मधुतैलबस्तिः | कुटजत्वगवले० |
| यकृद्रोगे | रक्तक्षयरोगे |
| लवणत्रितयादिचूर्णम् | धान्यादिमडः |
| हिंग्वादिचूर्ण | लाक्षाकल्कः |
| रक्तस्रावः | वसास्नेहपान |
| शिशोर्यकृद्दाहः | स्नेहपानम् |
| योनिरोगे | रक्तपित्तरोगे |
| न्यग्रोधादिक्का० | वासास्वरसः |
| लघुफलघृत | वृषपत्रपुटपाकः |
| विरेकः | गुडूच्यादिक्वा० |
| योनिगाढीकरणलेपौ | वासादिक्वाथः |
| योनिद्रावणे लेपः | वासकक्वाथः |
| वंध्यायोनौ | त्रिफलादिक्वा० |
| रास्नादिक्वाथः | यवमडः |
| मधूकपुष्पफां० | वीरतर्वादिक्वा० |
| यवसक्तुमंथः | गोक्षुरक्वाथः |
| आम्रादिहिमः | कुलित्थादियूषः |
| वासाहिमः | तंडुलादियवागूः |
| धान्यकादिहिमः | वर्धमानपिप्पलीकल्कः |
| जीवनीयगणः | रसोनस्यकल्कः |
| कूष्मांडकावलेहः | जीवनी यगणचू० |
| कुटजत्वगवलेहः | कट्फलादिचूर्णं |
| कामदेवघृतम् | कटूफलादिचूर्ण |
| महातिक्तघृतम् | जातीफलादिचूर्ण |
| शतावरीतैलम् | चित्रकादिरेचन |
| चन्दनादितैल | अजमोदादिचूर्णं |
| उशीरासवः | योगराजगुग्गुलुः |
| कुमार्यासवः | गोक्षुरादिगुग्गुलुः |
| लोकनाथोरसः | च्यवनप्राशावले० |
| त्रिफलादिगडू० | चांगेरीघृतम् |
| चंदनादिलेपः | लाक्षादितैलम् |
| रक्तस्राव | नारायणतैलम् |
| लूतारोगे | बलादितैलम् |
| कासीसादिघृत | प्रसारण्यादितैल |
| गौराद्यघृतम् | भाषादितैलम् |
| वातरोगे |
| देवदार्वरिष्टः | शिरोबस्तिः |
| दशमूलारिष्टः | सपीडदुर्जयेऽनिले रक्तस्रावविधिः |
| हेमगर्भपोटली | वृषणवातेआर्द्रकस्वरसः |
| द्वितीयहेमगर्भ पोटलीरसः | उष्णवायौगोक्षुरक्वाथः |
| स्वच्छदभैरवः | मूढवातेसूरणावलेहः |
| वातनाशनोरसः | मूढवातेमहावह्निरसः |
| लोहरसायनम् | अनतवातरोगे वर्यादिलेपः |
| सर्पिष्पानम् | अपतंत्रकरोगे |
| तैलस्नेहपानम् | पक्वरसोनकल्कः |
| वसास्नेहपानम् | रेचननस्यम् |
| भज्जास्नेहपानम् | अपबाहुकरोगे |
| स्नेहपानम् | नस्यम् |
| महाशाल्वणप्र योगः | गुजापिष्टलेपः |
| वमनम् | अंगपीडारोगे |
| विरेकः | गात्राणांसादगौरवेरक्तस्राव |
| अभयामोदकः | |
| अनुवासनतैल | |
| निरूहबस्ति | |
| बृहणनस्यम् | |
| स्नैहिकगंडूषः |
| अंगशोषे | शतावर्यादितैलं |
| नारायणतैलम् | नाराचरसः |
| अर्दितवायुरोगे | इच्छाभेदीरसः |
| निदिग्धिकाक्वाथः | विरेकः |
| मंजिष्ठादिक्वाथः | अभयामोदकः |
| पक्वरसोनकल्कः | ऊरुग्रहरोगे |
| बलादिघृतम् | पार्श्वपृष्ठोरुपीडायांरास्नादिक्वाथः |
| नस्यम् | पक्वरसोनकल्कः |
| अष्ठीलिकारोगे | पिप्पल्यादिकक० |
| हिंग्वादिचूर्णम् | त्रिफलावटकः |
| आध्मानरोगे | विडंगारिष्टः |
| रास्नादिक्वाथः | कटिग्रहरोगे |
| मरिचादिचूर्णम् | जघाकटिग्रहे रास्नादिक्वाथः |
| चित्रकादिरेचन | स्तनस्कधकटिमेढहृदयोत्थव्यथोपरि एरंडमूलादिक्वा० |
| हपुषादिचूर्णम् | संधिकटिपृष्ठगुदजघानांरुजिअजमोदादिचूर्ण |
| पचसमचूर्णम् | |
| कृष्णादिचूर्णम् | |
| लवणत्रितयचूर्णं | |
| तुंबर्वादिचूर्णम् | |
| तालीसादिचूर्ण | |
| बिंदुघृतम् |
| त्रिकपृष्ठग्रहेलाक्षादितैलम् | आजमोदारिचूर्ण |
| कंपरोगे | नारायणतैलम् |
| हस्तशिरोमन्या शिराकपे वारुण्यादितैलम् | शातावर्यादितै० |
| कार्श्यरोगे | गुजापिष्टलेपः |
| कुटजत्वगवलेहः | तूणीरोगे |
| कामदेवघृतम् | अजमोदादिचूर्णं |
| पिप्पल्यासवः | दंडापतानकरो० |
| दशमूलारिष्टः | शतावर्यादितै० |
| लोकनाथरसः | निद्रानाशरोगेलोकनाथरसः |
| मृगाकपोटली | पक्षघातरोगे |
| कोष्ठवायुरोगे | मंजिष्ठादिक्वाथः |
| बीजपूररसः | माषादिनस्यम् |
| गृध्रसीरोगे | प्रतूणीरोगे |
| दशमूलशृतः | अजमोदादिचूर्णं |
| शेफालीपत्रशृतः | प्रत्यष्ठीलारोगे |
| रास्नादिक्वाथः | विडंगारिष्टः |
| महानिम्बजटाक० | प्रसुप्तिरोगे |
| पक्वरसोनकल्कः | मंजिष्ठादिक्वाथः |
| सर्वेश्वरो रसः | |
| स्वर्णक्षीरीरसः |
| बद्धविट्करोगे | गात्रस्फुरणरो० |
| कृष्णादिचूर्णम् | लाक्षादितैलम् |
| मन्यास्तंभरोगे | हनुस्तंभरोगे |
| मन्यापृष्ठग्रहे बलादिघृतम् | विडंगारिष्टः |
| रेचननस्यम् | रेचननस्यम् |
| बृहणनस्यम् | विविधवातरो० |
| नस्यम् | रास्नादिक्वाथः |
| विड्ग्रहरोगे | सपीडदुर्जयेनिले |
| हरीतक्यादिक्वा० | रक्तस्रावविधिः |
| लवणपंचकचूर्णं | वातरक्तरोगे |
| लवणत्रितयादिचूर्णम् | अमृतादिक्वाथः |
| यवानीखांडवचू० | सदाहेपटोलादि० |
| भास्करलवणचू० | मंजिष्ठादिक्वाथः |
| चंद्रप्रभागुटी | वर्धमानपिप्पली |
| नाराचरसः | योगराजगुग्गुलुः |
| इच्छाभेदीरसः | त्रिदोषवातरक्ते |
| विश्वाचीरोगे | कैशोरगुग्गुलुः |
| अजमोदादिचूर्ण | गोक्षुरादिगुग्गुलुः |
| गुंजापिष्टलेपः | च्यवनप्राशावले० |
| कामदेवघृतम् |
| त्रिफलादिघृतं | वरुणादिगणक्वा० |
| अमृताघृतम् | अभ्यंतरविद्रधौ |
| महातिक्तघृतम् | वरुणादिगणक्वाथः |
| कासीसादिघृतम् | वातविद्रधौशिग्व्रादिलेपः |
| सदाहेशतावरीतैलम् | पित्तविद्रधौ |
| पिडतैलम् | लाजादिलेपः |
| लोकनाथोरसः | कफविद्रधाविष्टकादिलेपः |
| कुष्ठकुठारोरसः | आगन्तुकरक्तवि० |
| लोहरसायनम् | रक्तचंदनादिलेपः |
| विरेकः | विषरोगे |
| निरूहबस्ति | न्यग्रोधादिक्वाथः |
| पित्तवातरक्ते | अकोलमूलकल्कः |
| मांस्यादिलेपः | चातुर्जातचूर्णम् |
| रक्तस्रावविधिः | विरेचननारायणचूर्णम् |
| विद्रधिरोगे | गौराद्यघृतम् |
| विडंगारिष्टः | शतावर्यादितैल |
| विरेकः | सुवर्णभस्म |
| रक्तस्रावः | कनकसुंदररसः |
| मध्यविद्रधिरो० | सर्पिष्पानं |
| शिग्रुक्वाथः |
| वमनम् | लघुसूचिकाभरणरसः |
| गरव्याप्तेविरेकः | अंजनम् |
| दुग्धस्यसर्पिषोवागंडूषः | विषूचिकारोगे |
| दशांगलेपः | मरिचादिचूर्णम् |
| विपघ्नलेपौ | विडंगादिगुटि० |
| विषदुष्टशोणिते | अजीर्णकंटकः |
| रक्तस्रावविधिः | विरेकः |
| द्विविधविषरोगे | पार्ष्णिदाहकर्म |
| वंध्याकर्कोटिकामूलकल्कः | विसर्परोगे |
| पाटलाजटाकल्कः | त्रिफलादिघृतम् |
| बिल्वजटाकल्कः | महातिक्तघृतम् |
| चित्रकादिविरे० | कासीसादिघृत |
| त्रिफलादिघृतम् | गौरादिघृतम् |
| कीटविषरोगे | वृषाद्यं घृतम् |
| लांगल्यादिलेपः | कनकसुदरोरसः |
| मूषकविषे | वमनम् |
| योगराजगुग्गुलुः | दशांगलेपः |
| सर्पविषे | रक्तस्रावः |
| संजीवनीगुटिका | वातविसर्पेरास्नादिलेपः |
| पित्तविसर्पेमृणालादिलेपः | जात्यादितैलम् |
| कफविसर्पे त्रिफलादिलेपः | द्राक्षासवः |
| विसंज्ञरोगे | सर्पिष्पानम् |
| प्रधमननस्यम् | विरेकः |
| रेचननस्यम् | अभयामोदकः |
| व्रणरोगे | धूमपानम् |
| गांगेरुकीमूलरसः | दुष्टव्रणे |
| न्यग्रोधादिक्वाथः | दशांगलेपः |
| अश्वत्थादिशृतः | शोथगंभीरव्रणे रात्रौप्रलेपः |
| व्रणशोधनरोपणोनिंबदलक० | व्रणेषु लेपक्रमः |
| कैशोरगुग्गुलुः | व्रणवातशोथे प्रलेपः |
| कांचनारगुग्गुलुः | व्रणपित्तशोथे प्रलेपः |
| नाडीदुष्टव्रणेषु | व्रणकफशोथे प्रलेपः |
| कासीसादिघृतम् | व्रणस्याऽऽगंतुकरक्तशोथयोःले० |
| जात्यादिघृतम् | व्रणपक्तये |
| गौराद्यघृतम् | शणादिर्लेपः |
| त्रिफलादितैलं | व्रणदारणलेपाः |
| व्रणशोधन प्रलेपः | जरापलितरोगेऽभ्रकभस्म |
| व्रणशोधनरोपणप्रलेपः | लोहरसायनम् |
| व्रणकृमिहरले० | अभयामोदकः |
| दुष्टव्रणशोधनरोपणार्थले० | बृंहणनस्यम् |
| शिरोरोगे | वलीपलितघ्नंप्रतिमर्शनस्यं |
| त्रिफलामोदकः | नस्यम् |
| बलादिघृतम् | पलितहरलेपाः |
| द्राक्षासवः | अर्धशिरोरोगे |
| विरेकः | पथ्यादिक्वाथः |
| रेचननस्यम् | अर्धावभेदकरो० |
| बृंहणनस्यम् | बृंहणनस्यम् |
| चंदनादिलेपः | सारिवादिलेपः |
| वर्यादिलेपः | कफशिरोरोगे |
| रक्तस्रावः | प्रलेपो |
| अकालपलितरो० | शिरःकंपादिरो० |
| निंबबीजतैलम् | शिरोबस्तिः |
| नीलिकादितैल | शिरोग्रहरोगे |
| भृंगराजतैलम् | नारायणतैलं |
| दारुणरोगे |
| नीलिकादितैल | योगराजगुग्गुलुः |
| प्रियालादिप्रले० | गोक्षुरादिगुग्गुलुः |
| खाखसबीजले० | च्यवनप्राशावले० |
| **पित्तशिरोरोगे ** | क्षीणरेतसिबलादितैल |
| धात्र्यादिलेपः | कुमार्यासवः |
| वातशिरोरोगे | शुष्कशुक्रेवसापानम् |
| प्रलेपौ | क्षीणरेतसिस्नेहपानम् |
| शंखकरोगे | शूकरोगे |
| वर्यादिलेपः | कासीसादिघृतं |
| सूर्यावर्तरोगे | शूलरोगे |
| बृंहणनस्यम् | निदिग्धिकाक्वा० |
| सारिवादिलेपः | पुनर्नवादिक्वाथः |
| शिरःस्फोटरोगे | दशमूलक्वाथः |
| कासीसादिघृतं | कट्फलादिचूर्ण |
| शर्कराश्मरीरोगे | कट्फलादिचूर्णं |
| वीरतर्वादिक्वाथः | पंचसमचूर्णम् |
| एलादिक्वाथः | तुंबर्वादिचूर्णम् |
| दशमूलारिष्टः | यवानीखांडवचूर्णं |
| शुक्ररोगे | भास्करलवणचूर्ण |
| रास्नादिक्वाथः | |
| चंद्रप्रभागुटी |
| चंद्रप्रभागुटी | चंद्रप्रभागुटी |
| काकायनगुटिका | त्रिफलादिघृत |
| बिन्दुघृतम् | कफशूले |
| दशमूलारिष्टः | एरडमूलक्वाथः |
| लोकनाथोरसः | कर्णशूले |
| नाराचरसः | पथ्यादिक्वाथः |
| स्वच्छदभैरव | हिंग्वादितैलम् |
| शूलगजकेसरी | प्रयोगा.पंच |
| विरेकः | दीपिकादितैलं |
| निरूहबस्तिः | स्योनाकतैलम् |
| अंगशूले | गुदशूले |
| शतावरीतैलम् | हिंग्वादिचूर्णम् |
| आमशूले | जानुशूले |
| धान्यादिक्वाथः | सुदर्शनचूर्णम् |
| ह्रीवेरादिक्वाथः | त्रिकशूले |
| दुग्धपाकविधिः | सुदर्शनचूर्णम् |
| उदरशूले | नाभिशूले |
| मदनफलादिले० | योगराजगुग्गुलुः |
| कटिशूले | नेत्रशूले |
| सुदर्शनचूर्णम् | लोध्रादिसेकः |
| लवणत्रितयादिचूर्णम् | पक्तिशूले |
| कुमार्यासवः | फलघृतम् |
| त्रिनेत्रो रसः | शतावरीतैलम् |
| पार्श्वशूले | रक्तशूले |
| बीजपूररसः | वत्सकादिशृतः |
| एरडमूलक्वाथः | वातशूले |
| पंचमूलीक्षीरपा० | नागरादिक्वाथः |
| सुदर्शनचूर्णम् | शिरःशूले |
| सितोपलादिचूर्ण | वरुणादिगणक्वा० |
| कामदेवघृतम् | पथ्यादिक्वाथः |
| नारायणतैलम् | शतावरीतैलम् |
| पित्तशूले | रेचननस्यम् |
| शतावरीरसः | हृदयशूले |
| त्रिफलादिक्वाथः | बीजपूरोरसः |
| कृष्णादिचूर्णम् | हरिणशृंगपुटपा० |
| पृष्ठशूले | एरंडमूलक्वाथः |
| सुदर्शनचूर्णम् | हिंग्वादिचूर्णम् |
| बस्तिशूले | शोथरोगे |
| बीजपूररसः | सर्वाङ्गशोथेपुनर्नवादिक्वाथः |
| हिंग्वादिचूर्णम् | पुनर्नवादिक्वाथः |
| योनिशूलरोगे | अश्वत्थादिशृतः |
| हिंग्वादिचूर्णम् |
| त्रिफलाचूर्णम् | वातकफकृतवृषणशोथेफलत्रिकक्वा० |
| हपुषादिचूर्णम् | |
| अजमोदादिचूर्ण | शोषरोगे |
| भास्करलवणचूर्ण | जीवनीयगणचूर्णं |
| चित्रकादिचूर्णम् | अष्टवर्गचूर्णं |
| सूरणादिवटकः | कूष्मांडावलेहः |
| त्रिफलावटकः | मुखशोषे |
| योगराजगुग्गुलुः | अमलादिगुटी |
| कैशोरगुग्गुलुः | बृंहणनस्यम् |
| त्रिफलागुग्गुलुः | प्रतिमर्शनस्यम् |
| कुजत्वगवले० | व्यवायशोषे |
| कासीसादिघृतं | च्यवनप्राशावले० |
| बिन्दुघृतम् | व्यायामकर्पिते |
| उशीरासवः | वसापानम् |
| लोहासवः | श्लीपदरोगे |
| रोहितारिष्टः | रास्नादिक्वाथः |
| विरेकः | शाखोटकादिक्वा० |
| रेचननस्यम् | मंजिष्ठादिक्वाथः |
| दोषघ्नलेपः | सूरणादिवटकः |
| दशांगलेपः | वमनम् |
| रक्तस्रावविधिः | धत्तूरादिलेपः |
| पाणिपादोदरमुखशोथेपुनर्नवादिक्वा० |
| रक्तस्रावविधिः | मरिचादिचूर्णम् |
| श्वासरोगे | चित्रकादिविरेचनं |
| आर्द्रकस्वरसः | लवणत्रितयादिचूर्णम् |
| बिभीतकत्वक्पुटपाकः | शुंठ्यादिचूर्णम् |
| निदिग्धिकाक्वाथः | हिंग्वादिचूर्णम् |
| पुनर्नवादिक्वाथः | तालीसादिचूर्ण |
| वासादिक्वाथः | सितोपलादिचूर्णं |
| क्षुद्रादिक्वाथः | भास्करलवणचूर्ण |
| दशमूलशृतः | शुंठ्यादिगुटी वाबिभीतकत्वक् |
| वासादिक्वाथः | |
| उष्णोदकपानम् | व्योषादिगुटिका |
| पंचमूलीक्षीरपाकः | सूरणादिवटकः |
| वर्धमानपिप्पलीकल्कः | पिप्पलीमोदकः |
| सुदर्शनचूर्णम् | चंद्रप्रभागुटी |
| त्रिफलादिचूर्णम् | योगराजगुग्गुलुः |
| कट्फलादिचूर्णम् | कंटकार्याद्यवलेहः |
| कट्फलादिचूर्णम् | च्यवप्राशावलेहः |
| कट्फलादिलेहः | कूष्मांडकावलेहः |
| लवंगादिचूर्णम् | अगस्त्यहरीतकी |
| जातीफलादिचूर्णं | लक्षादितैलम् |
| लोहासवः |
| खदिरारिष्टः | वमनम् |
| बब्बुल्यरिष्टः | स्तन्यनाशे |
| द्राक्षारिष्टः | जीवनीयगणचूर्णं |
| दशमूलारिष्टः | स्वरभंगरोगे |
| लोकनाथरसः | बिभीतकत्वचः पुटपाकः |
| मृगांकपोटली | वासादिक्वाथः |
| हेमगर्भपोटली | कट्फलादिचूर्णं |
| द्वितीयहेमगर्भपोटलीरसः | दाडिम्यादिचूर्णं |
| लोहरसायनम् | व्योषादिगुटिका |
| वमनम् | स्वरक्षीणैच्यवनप्राशावलेहः |
| तमकरोगे | कामदेवघृतम् |
| लवंगादिचूर्णम् | रेचननस्यम् |
| सूतिकारोगे | हलीमकरोगे |
| सूतिकायाःशूलकासज्वरश्वासमूर्च्छाकपशिरोर्तिजिद्देवदार्वादिक्वाथः | हपुषाद्यचूर्णम् |
| बलादितैलम् | चंद्रप्रभागुटी |
| स्तनरोगे | कामदेवघृतम् |
| रक्तस्रावविधिः | हिक्कारोगे |
| स्तन्यरोगे | रेणुकादिक्वाथः |
| लवङ्गादिचूर्णं | यवानीखांडवचू० |
| लवणत्रितयचू० | भास्करलवणचू० |
| हिंग्वादिचूर्णम् | चित्रकादिचूर्णं |
| सूरणादिवटकः | कांकायनगुटिका |
| कंटकार्याद्यवलेहः | च्यवनप्राशावले० |
| अगस्त्यहरीतकी | महातिक्तघृतम् |
| लोकनाथोरसः | लोहासवः |
| हृद्रोगे | खदिरारिष्टः |
| एरंडादिक्वाथः | रोहितारिष्टः |
| दशमूलशृतः | वमनम् |
| सुदर्शनचूर्णम् | विरेकः |
| लवंगादिचूर्णम् | निरूहबस्तिः |
| मरिचादिचूर्णम् | हल्लासरोगे |
| चित्रकादिविरे० | गुडूच्यादिगणक्वा० |
| लवणत्रितयचू० | वमनम् |
| शुंठ्यादिचूर्णम् |
इति श्रीशार्ङ्गधरानुक्रमणिका समाप्ता ।
अथाञ्जननिदानविषयानुक्रमः ।
| विषयः | श्लो. | विषयः | श्लो. |
| अञ्जननिदानम् | सन्निपातज्वरम० | २१ | |
| ग्रन्थप्रयोजनम् | १ | कर्णकसन्निपातसाध्यासाध्यत्वम् | २२ |
| रोगकारणम् | २ | विषमज्वरलक्षण | २३ |
| वायुकोपकारण | ३ | विषमज्वरभेदाः | २४ |
| कुपितवायुलक्षण | ४ | विषमज्वरसंप्राप्तिः | २५ |
| पित्तकोपकारण | ५ | विषमज्वरावधिस्तथावैपरीत्य | २६ |
| कुपितपित्तलक्षण | ६ | धातुगतज्वरलक्षणम् | २७ |
| कफकोपकारण | ७ | धातुगतज्वरस्य साध्यासाध्यत्व | २८ |
| कुपितकफलक्ष० | ८ | प्रलेपकज्वरलक्ष० | २८ |
| पंचप्रकाररोगज्ञा० | ९ | आगन्तुज्वरल० | २९ |
| ज्वरसंप्राप्तिः | १० | कामविषप्रहारजन्यज्वरलक्षणम् | ३० |
| ज्वरपूर्वरूपम् | ११ | असाध्यज्वरलक्ष० | ३१ |
| वातज्वरलक्षणं | १२ | ज्वरभेदाः | ३२ |
| पित्तज्वरलक्षणं | १३ | लघुगुरुप्राकृतवैकृतज्वरलक्षण | ३३ |
| कफज्वरलक्षणं | १४ | सामनिरामज्वरलक्षणम् | ३४ |
| वातपित्तज्वरल० | १५ | ||
| वातकफज्वरलक्षणम् | १६ | ||
| पित्तकफज्वरल० | १७ | ||
| सन्निपातज्वरल० | १८ | ||
| असाध्यसन्निपातलक्षणम् | २० |
| विषयः | श्लो. | विषयः | श्लो. |
| अतर्वेगिवहिर्वेगिज्वरलक्षणम् | ३५ | अर्शोलक्षणम् | ५२ |
| ज्वरस्यदशोपद्रवाः | ३६ | अर्शसासाध्यासाध्यत्वम् | ५३ |
| धातुपाकिज्वरलक्ष० | ३७ | अजीर्णनिदानम् | ५४ |
| पच्यमानज्वरदोषपाकिज्वरल० | ३८ | अजीर्णेसाध्यासाध्यत्वम् | ५७ |
| ज्वरमुक्तिलक्षण | ३९ | कृमिरोगनिदानं | ५८ |
| विगतज्वरलक्षणं | ४० | पाण्डुरोगनिदानं | ५९ |
| अतिसारनिदान | ४१ | पाण्डुरोगस्वरूपं | ६० |
| वातपित्तकफजनितातिसारल० | ४२ | पाण्डुरोगस्यासाध्यलक्षणम् | ६१ |
| शोकातिसारल० | ४३ | कामलालक्षणम् | ६२ |
| अतिसारप्रवाहिकयोर्लक्षणम् | ४४ | रक्तपित्तनिदानं | ६३ |
| अतिसारस्यासाध्यलक्षणम् | ४५ | साध्ययाप्यासाध्यानि | ६४ |
| ग्रहणीनिदानम् | ४६ | रक्तपित्तलक्षणं | ६५ |
| संग्रहणीभेदाः | ४७ | क्षयरोगनिदान | ६६ |
| संग्रहण्याउपद्रवाः | ४८ | क्षयलक्षणम् | ६७ |
| संग्रहणीभेदाः | ४९ | क्षयेसाध्यासाध्य | ६९ |
| अर्शोनिदानम् | ५० | कासनिदानम् | ७० |
| अर्शसामुपद्रवाः | ५१ | कासलक्षणसाध्ययासाध्यत्वच | ७१ |
| विषयः | श्लो. | विषयः | श्लो. |
| हिक्कानिदानं | ७२ | अपस्मारनिदा० | ९८ |
| श्वासनिदानम् | ७४ | वातव्याधिनि० | १०० |
| पंचविधश्वासनामानि | ७५ | साध्यसाध्यत्वं | १११ |
| स्वरभेदनिदान | ७७ | वातरक्तनिदा० | ११२ |
| अरोचकनिदा० | ७८ | वातरक्तलक्षणम् | ११३ |
| छर्दिनिदानम् | ८० | वातादीनां पृथक्पृथग्लक्षण | ११४ |
| छर्दिस्वरूपम् | ८१ | असाध्यलक्षण | ११५ |
| छर्देरुपद्रवाः | ८२ | आमवातनि० | ११६ |
| तृष्णारोगनि० | ८३ | आमवातरूप | ११७ |
| तृष्णासंप्राप्तिः | ८४ | आमवातपृथग्ल० | ११८ |
| उक्ततृषालक्ष० | ८५ | आमवातोपद्र० | ११९ |
| साध्यासाध्यत्वं | ८६ | शूलरोगनिदान | १२० |
| मूर्च्छानिदानम् | ८७ | पृथक्पृथग्लक्ष० | १२१ |
| संन्यासलक्षण | ८९ | शूलरोगोपद्रवाः | १२२ |
| पानात्ययनि० | ९० | उदावर्तनिदान | १२४ |
| दाहलक्षणम् | ९१ | अनेकविधोदावर्तलक्षणम् | १२५ |
| उन्मादरोगनि० | ९२ | गुल्मनिदानम् | १२८ |
| उन्मादरोगल० | ९३ | रक्तजगुल्मल० | १३१ |
| भूतोन्मादल० | ९६ | गुल्मे साध्यल० | १३३ |
| उन्मादरोगेऽसाध्यलक्षणम् | ९७ | हृद्रोगनिदानम् | १३४ |
| विषयः | श्लो. | विषयः | श्लो. |
| मूत्रकृच्छ्रनि० | १३६ | कुष्ठनिदानम् | १९६ |
| मूत्रकृच्छ्रसंप्रा० | १३७ | उपदशनिदान | २०४ |
| मूत्राघातनिदा० | १४० | उदर्दनिदानम् | २०६ |
| अश्मरीनिदानं | १४१ | अम्लपित्तनिदा० | २०७ |
| प्रमेहनिदानम् | १४४ | विसर्पनिदानम् | २०८ |
| प्रमेहनामानि | १४६ | मसूरिकानिदा० | २०९ |
| साध्यासाध्यत्वं | १४७ | विस्फोटकनि० | २१० |
| मेदोनिदानम् | १५० | बालरोगनि० | २११ |
| कार्श्यनिदानम् | १५१ | गर्भनिदानम् | २१४ |
| उदररोगनिदानं | १५२ | सूतिकानिदानं | २१६ |
| शोथनिदानम् | १६० | प्रदरावलोकः | २१७ |
| कुरण्डकनिदान | १६५ | षांढ्यनिदानम् | २१९ |
| श्लीपदनिदानं | १६९ | क्षीणशुक्रलक्षण | २२१ |
| व्रणशोथनिदान | १७० | साध्यासाध्यत्व | २२२ |
| व्रणनिदानम् | १७६ | नेत्ररोगनिदानं | २२३ |
| भग्ननिदानम् | १८१ | शिरोरोगनि० | २२७ |
| नाडीव्रणनिदान | १८४ | कर्णरोगनि० | २२८ |
| भगंदरनिदानम् | १८५ | नासारोगनि० | २२९ |
| गलगंडनिदानम् | १८८ | मुखरोगनिदा० | २३० |
| ग्रन्थ्यर्बुदनिदानं | १८९ | विषरोगावलोकः | २३१ |
| गंडमालापचीनि | १९० | ग्रंथकारनियमः | २३४ |
| विद्रधिनिदानम् | १९१ | ग्रथान्तेशिवप्रा० | २३५ |
श्रीः ।
शार्ङ्गधरसंहिता।
पूर्वखण्डे प्रथमोऽध्यायः ।
धन्वन्तरये नमः ।
मङ्गलाचरणम्
श्रियं स दद्याद्भवतां पुरारि-
र्यदङ्गतेजःप्रसरे भवानी ।
विराजते निर्मलचन्द्रिकायां
महौषधीव ज्वलिता हिमाद्रौ॥१॥
समूलं ग्रन्थप्रयोजनम्
प्रसिद्धयोगा मुनिभिः प्रयुक्ता
श्चिकित्सकैर्ये बहुशोऽनुभूताः ।
विधीयते शार्ङ्गधरेण तेषां
सुसंग्रहः सज्जनरञ्जनाय ॥ २ ॥
रोगनिश्चयपूर्वकं चिकित्सा
हेत्वादिरूपाकृतिसात्म्यजाति-
भेदैः समीक्ष्यातुरसर्वरोगान् ।
चिकित्सितं कर्षणबृंहणाख्यं
कुर्वीत वैद्यो विधिवत्सुयोगैः ॥ ३ ॥
ओषधिप्रभावाः
दिव्यौषधीनां बहवः प्रभेदा
वृन्दारकाणामिव विस्फुरन्ति ।
ज्ञात्वेति संदेहमपास्य धीरैः
संभावनीया विविधप्रभावाः ॥ ४ ॥
ग्रन्थप्रयोजनम्
स्वाभाविकागन्तुककायिकान्तरा
रोगा भवेयुः किल कर्मदोषजाः ।
तच्छेदनार्थं दुरितापहारिणः
श्रेयोमयान्योगवरान्नियोजयेत् ॥ ५ ॥
प्रयोगानागमासिद्धान्प्रत्यक्षादनुमानतः।
सर्वलोकहितार्थाय वक्ष्याम्यनतिविस्तरात् ॥ ६ ॥
खण्डाध्यायानुक्रम
प्रथमं परिभाषा स्याद्भैषज्याख्यानक तथा ।
नाडीपरीक्षादिविधिस्ततो दीपनपाचनम् ॥ ७ ॥
ततः कलादिकाख्यानमाहारादिगतिस्तथा।
रोगाणां गणना चैव पूर्वखण्डोऽयमीरितः ॥ ८॥
स्वरसः क्वाथफाण्टौच हिमः कल्कश्च चूर्णकम् ।
तथैव गुटिकालेहौस्नेहः सन्धानमेव च ॥ ९ ॥
धातुशुद्धी रसाश्चैव खण्डोऽयं मध्यमः स्मृतः।
स्नेहपानं स्वेदविधिर्वमनं च विरेचनम् ॥ १० ॥
ततस्तु स्नेहबस्तिःस्यात्ततश्चापि निरूहणम् ।
ततश्चाप्युत्तरो बस्तिस्ततो नस्यविधिर्मतः ॥ ११ ॥
धूमपानविधिश्चैव गण्डूषादिविधिस्तथा ।
लेपादीनां विधिः ख्यातस्तथा शोणितविस्रुतिः ॥ १२ ॥
नेत्रकर्मप्रकारश्च खण्डः स्यादुत्तररत्वयम् ।
ग्रन्थसंख्या
द्वात्रिंशत्संमिताध्यायैर्युक्तेयं संहिता स्मृता ॥ १३ ॥
षड्विंशतिशतान्यत्र श्लोकानां गणितानि च ।
मागधीय मानम्
न मानेन विना युक्तिर्द्रव्याणां जायते क्वचित् ॥ १४ ॥
अतः प्रयोगकार्यार्थं मानमत्रोच्यते मया ।
त्रसरेणुर्बुधैःप्रोक्तस्त्रिंशता परमाणुभिः॥ १५ ॥
त्रसरेणुस्तु पर्यायनाम्ना वंशी निगद्यते ।
जालान्तरगते भानौयत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः ॥ १६ ॥
तस्य त्रिंशत्तमो भागः परमाणुः स कथ्यते ।
जालान्तरगतैः सूर्यकरैर्वशी विलोक्यते ॥ १७ ॥
षड्वंशीभिर्मरीचिः स्यात्ताभिः षड्भिस्तु राजिका।
तिसृभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधैः ॥ १८॥
यवोऽष्टसर्षपैः प्रोक्तो गुञ्जा स्यात्तच्चतुष्टयम् ।
षड्भिस्तु रक्तिकाभिः स्यान्माषको हेमधान्यकौ॥ १९ ॥
माषैश्चतुर्भिः शाणः स्याद्धरणः स निगद्यते ।
टङ्कः स एव कथितम्तद्द्वयंकोल उच्यते ॥२०॥
क्षुद्रको वटकश्चैव द्रङ्क्षणः स निगद्यते ।
कोलद्वयं च कर्षःस्यात्सप्रोक्तः पाणिमानिका ॥ २१ ॥
अक्षं पिचुः पाणितलं किंचित्पाणिश्च तिन्दुकम् ।
बिडालपदकं चैव तथा षोडशिका मता ॥ २२ ॥
करमध्यो हंसपदं सुवर्ण कवलग्रहः।
उदुम्बरं च पर्यायैः कर्ष एवं निगद्यते ॥ २३ ॥
स्यात्कर्षाभ्यामर्धपलं शुक्तिरष्टमिका तथा ।
शुक्तिभ्यां च पलं ज्ञेयं मुष्टिराम्रंचतुर्थिका ॥ २४ ॥
प्रकुञ्चः षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते ।
पलाभ्यांप्रसृतिर्ज्ञेया प्रसृतश्च निगद्यते ॥ २५ ॥
प्रसृतिभ्यामञ्जलिः स्यात्कुडवोऽर्धशरावकः ।
अष्टमानं च स ज्ञेयः कुडवाभ्यां च मानिका ॥ २६ ॥
शरावोऽष्टपलं तद्वज्ज्ञेयमत्र विचक्षणैः।
शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुष्प्रस्थैस्तथाढकम् ॥ २७ ॥
भाजनं कंसपात्रं च चतुःषष्टिपलं च तत् ।
चतुर्भिराढकैर्द्रौणः कलशो नल्वणोन्मनौ॥ २८ ॥
उन्मानश्च घटो राशिर्द्रोणपर्यायसंज्ञकाः ।
द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौच चतुःषष्टिशरावकाः ॥ २९ ॥
शूर्पाभ्यां च भवेद्द्रोणी वहो गोणी च सा स्मृता ।
द्रोणीचतुष्टयं ग्वारी कथिता सूक्ष्मबुद्धिभिः॥ ३० ॥
चतुःसहस्रपलिका षण्णवत्यधिका च सा ।
पलानां द्विसहस्रं च भार एकः प्रकीर्तितः ॥ ३१ ॥
तुला पलशतं ज्ञेया सर्वत्रैवैषनिश्चयः ।
माषटङ्काक्षबिल्वानि कुढवः प्रस्थमाढकम् ॥ ३२ ॥
राशिर्गोणी खारिकेति यथोत्तरचतुर्गुणाः ।
मानपरिभाषा
गुञ्जादिमानमारभ्य यावत्स्यात्कुडवस्थितिः ॥ ३३ ॥
द्रवार्द्रशुष्कद्रव्याणां तावन्मानं समं मतम् ।
प्रस्थादिमानमारभ्य द्विगुणं तद्द्रवार्द्रयोः ॥ ३४ ॥
मानं तथा तुलायास्तु द्विगुणं न क्वचित्स्मृतम् ।
मृद्वृक्षवेणुलोहादेर्भाण्डं यच्चतुरङ्गुलम् ॥ ३५ ॥
विस्तीर्ण च तथोच्चं च तन्मानं कुडवं वदेत् ।
योगपरिभाषा
यदौषधं तु प्रथमं यस्य योगस्य कथ्यते ॥ ३६ ॥
तन्नाम्नैव स योगो हि कथ्यतेऽत्र विनिश्चयः।
कालिङ्गं मागधं चैव द्विविधं मानमुच्यते ॥ ३७ ॥
कालिङ्गान्मागधं श्रेष्ठं मानं मानविदो विदुः ।
मात्रापरिभाषा
स्थितिर्नास्त्येव मात्रायाः कालमग्निं वयो बलम् ॥३८॥
प्रकृतिं दोषदेशौच दृष्ट्वा मात्रां प्रकल्पयेत् ।
कलिङ्गमानम्
यतो मन्दाग्नयो ह्रस्वाहीनसत्त्वानराः कलौ ॥ ३९ ॥
अतस्तु मात्रा तद्योग्या प्रोच्यते सुज्ञसंमता ।
यवो द्वादशभिर्गौरसर्षपैःप्रोच्यते बुधेः॥ ४० ॥
यवद्वयेन गुञ्जास्यात्रिगुञ्जोबल्ल उच्यते।
माषोगुञ्जाभिरष्टाभिः सप्तभिर्वा भवेत्क्वचित्॥ ४५ ॥
स्याच्चतुर्माषकैः शाणः स निष्कष्टङ्कएव च ।
गद्याणो माषकैः षड्भिः कर्षः स्यादृशमाषकः ॥ ४२ ॥
चतुष्कर्षैःपलं प्रोक्तं दशशाणमितं बुधैः ।
चतुष्पलेश्च कुडवं प्रस्थाद्याः पूर्ववन्मताः ॥ ४३ ॥
औषधपरिभाषा
नवान्येव हि योज्यानि द्रव्याण्यखिलकर्मसु ।
विना विडङ्गकृष्णाभ्यां गुडधान्याज्यमाक्षिकैः॥ ४४ ॥
गुडूची कुटजो वासा कूष्माण्डश्च शतावरी ।
अश्वगन्धा सहचरी शतषुप्पा प्रसारिणी ॥ ४५ ॥
प्रयोक्तव्या सदैवार्द्राद्विगुणा नैव कारयेत् ।
शुष्कं नवीनं यद्द्रव्यं योज्यं सकलकर्मसु ॥ ४६ ॥
आर्द्रंच द्विगुणं युञ्ज्यादेषसर्वत्र निश्चयः ।
कालेऽनुक्ते प्रभातं स्यादङ्गेऽनुक्ते जटा भवेत् ॥ ४७ ॥
भागेऽनुक्ते तु साम्यं स्यात्पात्रेऽनुक्तेच मृन्मयम् ।
द्रवेऽनुक्तेजलं ग्राह्यं तैलेऽनुक्तेतिलोद्रवम् ॥ ४८ ॥
एकमप्यौषधं योगे यस्मिन्यत्पुनरुच्यते।
मानतो द्विगुणं प्रोक्तं तद्द्रव्यं तत्त्वदर्शिभिः॥ ४९॥
चूर्णस्नेहासवा लेहाः प्रायशश्चन्दनान्विताः।
कपायलेपयोः प्रायो युज्यते रक्तचन्दनम् ॥ ५० ॥
गुणहीनं भवेद्वर्षादूर्ध्वंतद्रूपमौषधम् ।
मासद्वयात्तथा चूर्णं हीनवीर्यत्वमाप्नुयात् ॥ ५१ ॥
हीनत्वं गुटिकालेहौलभेते वत्सरात्परम् ।
हीनाः स्युर्घृततैलाद्याश्चतुर्मासाधिकात्तथा ॥ ५२ ॥
ओषध्यो लघुपाकाः स्युर्निर्वीर्या वत्सरात्परम् ।
पुराणाः स्युर्गुणैयुक्ता आसवा धातवो रसाः ॥ ५३ ॥
व्याधेरयुक्तं यद्द्रव्यं गणोक्तमपि तत्त्यजेत् ।
अनुक्तमपि यद्युक्तं योजयेत्तत्र तद्बुधः ॥ ५४ ॥
आग्नेया विन्ध्यशैलाद्याः सौम्यो हिमगिरिर्मतः ।
अतस्तदौषधानि स्युरनुरूपाणि हेतुभिः ॥ ५५ ॥
अन्येष्वपि प्ररोहन्ति वनेषूपवनेषु च ।
गृह्णीयात्तानि सुमनाः शुचिः प्रातः सुवासरे ॥ ५६ ॥
आदित्यसंमुखोमौनी नमस्कृत्य शिवं हृदि ।
साधारणधराद्रव्यं गृह्णीयादुत्तराश्रितम् ॥ ५७ ॥
वल्मीककुत्सितानूपश्मशानोपरमार्गजाः।
जन्तुवह्निहिमव्याप्ता नौषध्यः कार्यसिद्धिदाः ॥ ५८ ॥
शरद्यखिलकार्यार्थं ग्राह्यं सरसमौषधम् ।
विरेकवमनार्थंच वसन्तान्ते समाहरेत् ॥ ५९ ॥
अतिस्थूलजटा याः स्युस्तासां ग्राह्यास्त्वचो बुधैः ।
गृह्णीयात्सूक्ष्ममूलानि सकलान्यपि बुद्धिमान् ॥ ६० ॥
न्यग्रोधादेस्त्वचो ग्राह्याः सारः स्वाद्वीजकादितः ।
तालीसादेश्च पत्राणि फलं स्यात्रिफलादितः ॥ ६१ ॥
धातक्यादेश्च पुष्पाणि स्नुह्यादेः क्षीरमाहरेत् ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां पूर्वखण्डे परिभाषा
नाम प्रथमोऽध्यायः।
द्वितीयोऽध्यायः।
औषधग्रहणकाला
भैषज्यमभ्यवहरेत्प्रभाते प्रायशो बुधः ।
कषायांश्च विशेषेण तत्र भेदस्तु दर्शितः ॥ १ ॥
ज्ञेयः पञ्चविधः कालो भैषज्यग्रहणे नृणाम् ।
किंचित्सूर्योदये जाते तथा दिवसभोजने ॥२॥
सायन्तने भोजने च मुहुश्चापि तथा निशि ।
प्रायः पित्तकफोद्रेके विरेकवमनार्थयोः ॥ ३ ॥
लेखनार्थं च भैषज्यं प्रभाते तत्समाहरेत् ।
एवं स्यात्प्रथमः कालो भैषज्यग्रहणे नृणाम् ॥ ४ ॥
भैषज्यं विगुणेऽपाने भोजनाग्रेप्रशस्यते ।
अरुचौचित्रभोज्यैश्च मिश्रं रुचिरमाहरेत्॥ ५ ॥
समानवाते विगुणे मन्देऽग्नावग्निदीपनम् ।
दद्याद्भोजनमध्ये च भैषज्यं कुशलो भिषक् ॥ ६ ॥
व्यानकोपे च भैषज्यं भोजनान्ते समाहरेत् ।
हिक्काक्षेपककम्पेषु पूर्वमन्ते च भोजनात् ॥ ७ ॥
एवं द्वितीयकालश्च प्रोक्तो भैषज्यकर्मणि ।
उदाने कुपिते वाते स्वरभङ्गादिकारिणि ॥ ८ ॥
ग्रासे ग्रासान्तरे देयं भैषज्यं सांध्यभोजने ।
प्राणे प्रदुष्टे सांध्यस्य भुक्तस्यान्ते च दीयते ॥ ९ ॥
औषधं प्रायशो धीरैः कालोऽयं स्यात्तृतीयकः।
मुहुर्मुहुश्च तृट्छर्दिहिक्काश्वावासगरेषुच ॥ १० ॥
सान्नं च भेषज दद्यादिति कालश्चतुर्थकः ।
ऊर्ध्वजत्रुविकारेषुलेखने बृंहणे तथा ॥ ११ ॥
पाचनं शमनं देयमनन्नं भेषजं निशि ।
इति पञ्चमकालश्च प्रोक्तोभैषज्यकर्मणि ॥ १२ ॥
रसादयः
द्रव्ये रसो गुणो वीर्यं विपाकः शक्तिरेव च ।
संवेदनक्रमादेताः पञ्चावस्थाः प्रकीर्तिताः ॥ १३ ॥
मधुरोऽम्लः पटुश्चैव कटुतिक्तकषायकाः।
इत्येते षड्रसाः ख्याता नानाद्रव्यसमाश्रिताः ॥ १४ ॥
धराम्बुक्ष्मानलजलज्वलनाकाशमारुतैः।
वाय्वग्निक्ष्मानिलैर्भूतद्वयै रसभवः क्रमात् ॥ १५ ॥
गुणाः
गुरुः स्निग्धश्च तीक्ष्णश्च रूक्षो लघुरिति क्रमात् ।
धराम्बुवह्निपवनव्योम्नां प्रायो गुणाः स्मृताः ॥ १६ ॥
एष्वेवान्तर्भवन्त्यन्ये गुणेषु गुणसंचयाः ।
वीर्यम्
वीर्यमुष्ण तथा शीतं प्रायशो द्रव्यसंश्रयम् ॥ १७ ॥
तत्सर्वमग्नीपोमीयं दृश्यते भुवनत्रये ।
अत्रैवान्तर्भविष्यन्ति वीर्याण्यन्यानि यान्यपि ॥ १८ ॥
विपाकः
त्रिधा विपाको द्रव्यस्य स्वाद्वम्लकटुकात्मकः ।
मिष्टः पटुश्च मधुरमम्लोऽम्लं पच्यते रसः॥ १९ ॥
कषायकटुतिक्तानां पाकः स्यात्प्रायशः कटुः ।
मधुराज्जायते श्लेष्मा पित्तमम्लाच्च जायते ॥ २० ॥
कटुकाज्जायते वायुः कर्माणीति विपाकतः ।
प्रभावः
प्रभावस्तु यथा धात्री लकुचस्य रसादिभिः ॥ २१ ॥
समापि कुरुते दोषत्रितयस्य विनाशनम् ।
क्वचित्तु केवलं द्रव्यं कर्म कुर्यात्प्रभावतः ॥ २२ ॥
ज्वरं हन्ति शिरोबद्धासहदेवीजटा यथा ।
क्वचिद्रसो गुणो वीर्यं विपाकः शक्तिरेव च ॥ २३ ॥
कर्म स्वं स्वं प्रकुर्वन्ति द्रव्यमाश्रित्य ये स्थिताः ।
ऋतुभेदन वातादीनां सचयकोपोपशमाः
चयकोपशमा यस्मिन्दोषाणां संभवन्ति हि ॥ २४ ॥
ऋतुषट्कं तदाख्यातं रवे राशिषुसंक्रमात् ।
ग्रीष्मोमेषवृषौप्रोक्तौप्रावृड्मिथुनकर्कयोः ॥ २५ ॥
सिंहकन्ये स्मृता वर्षास्तुलावृश्चिकयोः शरत् ।
धनुर्ग्राहौच हेमन्तो वसन्तः कुम्भमीनयोः ॥ २६ ॥
ग्रीष्मेसंचीयते वायुः प्रावृट्काले प्रकुप्यति ।
वर्षासु चीयते पित्तं शरत्काले प्रकुप्यति ॥ २७ ॥
हेमन्ते चीयते श्लेष्मा वसन्ते च प्रकुप्यति ।
प्रायेण प्रशमं याति स्वयमेव समीरणः ॥ २८ ॥
शरत्काले वसन्ते च पित्तं प्रावृड्ऋतौ कफः ।
कार्तिकस्य दिनान्यष्टावष्टावाग्रयणस्य च ॥ २९ ॥
यमदंष्ट्रा समाख्याता स्वल्पभुक्तो हि जीवति ।
दोषाणा भोजनादिना चयकोपापचयाः
चयकोपशमा दोषाविहाराहारसेवनैः ॥ ३० ॥
समानैर्यान्त्यकालेऽपि विपरीतैर्विपर्ययम् ।
लघुरूक्षमिताहारादतिशीताच्छ्रमात्तथा ॥ ३१ ॥
प्रदोषेकामशोकाभ्यां भीचिन्तारात्रिजागरैः।
अभिघातादपांगाहाज्जीर्णेऽन्ने धातुसंक्षयात् ॥ ३२ ॥
वायुः प्रकोपं यात्येभिः प्रत्यनीकैश्च शाम्यति ।
विदाहिकटुकाम्लोष्णभोज्यैरन्युष्णसेवनात् ॥ ३३ ॥
मध्याह्ने क्षुत्तृषारोधाज्जीर्यत्यन्नेऽर्धरात्रके ।
पित्तं प्रकोपं यात्येभिः प्रत्यनीकैश्च शाम्यति ॥ ३४ ॥
मधुरस्निग्धशीतादिभोज्यैर्दिवसनिद्रया।
मन्देऽग्नौच प्रभाते च भुक्तमात्रे तथाऽश्रमात् ॥ ३५॥
श्लेष्मा प्रकोपं यात्येभिः प्रत्यतीकैश्च शाम्यति ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां पूर्वखण्डे भैषज्या-
ख्यानक नाम द्वितीयोऽध्यायः।
तृतीयोऽध्यायः।
**नाडीपरीक्षा **
करस्याङ्गुष्ठमूले या धमनी जीवसाक्षिणी ।
तच्चेष्टया सुखं दुःखं ज्ञेयं कायस्य पण्डितैः॥ १ ॥
नाडी धत्ते मरुत्कोपे जलौकासर्पयोर्गतिम् ।
कलिङ्गकाकमण्डूकगतिं पित्तस्य कोपतः ॥ २ ॥
हंसपारावतगतिं धत्ते श्लेष्मप्रकोपतः ।
लावतित्तिरवर्तीनां गमनं संनिपाततः ॥ ३ ॥
कदाचिन्मन्दगमना कदाचिद्वेगवाहिनी।
द्विदोषकोपतो ज्ञेया हन्ति च स्थानविच्युता ॥४॥
स्थित्वा स्थित्वा चलति या सा स्मृता प्राणनाशिनी ।
अतिक्षीणा च शीता च जीवितं हन्त्यसंशयम् ॥ ५ ॥
ज्वरकोपे तु धमनी सोष्णावेगवती भवेत्।
कामक्रोधाद्वेगवहा क्षीणा चिन्ताभयप्लुता ॥ ६ ॥
मन्दाग्नेः क्षीणधातोश्च नाडी मन्दतरा भवेत् ।
असृक्पूर्णा भवेत्कोष्णा गुर्वी सामा गरीयसी ॥ ७ ॥
लघ्वी वहति दीप्ताग्नेस्तथा वेगवती मता ।
सुखितस्य स्थिरा ज्ञेया तथा बलवती स्मृता ॥८॥
चपला क्षुधितस्य स्यात्तृप्तस्य वहति स्थिरा।
शुभाशुभस्वप्नपरीक्षा
स्वप्नेषुनग्नान्मुण्डांश्च रक्तकृष्णाम्बरावृतान् ॥ ९ ॥
व्यङ्गांश्च विकृतान्कृष्णान्सपाशान्सायुधानपि।
बन्धतो निन्घतश्चापि दक्षिणां दिशमाश्रितान् ॥ १० ॥
महिषोष्ट्रग्वरारूढान्स्त्रीपुंसो यस्तु पश्यति ।
स स्वस्थो लभते व्याधि रोगी यात्येव पञ्चताम् ॥११॥
अधो यो निपतत्युच्चाज्जलेऽग्नौ वा विलीयते ।
श्वापदैर्हन्यते योऽपि मत्स्याद्यैर्गिलितो भवेत् ॥ १२ ॥
यस्य नेत्रे विलीयेते दीपो निर्वाणतां व्रजेत् ।
तैलं सुरां पिबेद्वापि लोहं वा लभते तिलान् ॥ १३ ॥
पक्वान्नंलभतेऽश्नाति विशेत्कूपं रसातलम् ।
स स्वस्थो लभते रोगं रोगी यात्येव पञ्चताम् ॥ १४ ॥
दुःस्वप्नानेवमादींश्च दृष्ट्वा ब्रूयान्न कस्यचित् ।
स्नानं कुर्यादुपस्येव दद्याद्धेमतिलानयः ॥ १५ ॥
पठेत्स्तोत्राणि देवानां रात्रौदेवालये वसेत् ।
कृत्वैवं त्रिदिनं मर्त्योदुःस्वप्नात्परिमुच्यते ॥ १६ ॥
स्वप्नेषुयः सुरान्भूपाञ्जीवतः सुहृदो द्विजान् ।
गोसभिद्धाग्नितीर्थानि पश्येत्सुखमवाप्नुयात्॥ १७ ॥
तीर्त्वाकलुपनीराणि जित्वा शत्रुगणानपि ।
आरुहा सौधगोशैलकरिवाहान्सुखीभवेत्॥ १८ ॥
शुभ्रपुष्पाणि वासांसि मांसमत्स्यफलानि च ।
प्राप्त्यातुरः सुखीभूयात्स्वस्थो धनमवाप्नुयात्॥ १९ ॥
अगम्यागमनं लेपो विष्ठया रुदितं मृतिः ।
आममांसाशनं स्वप्ने धनारोग्याप्तये विदुः ॥ २० ॥
जलौका भ्रमरी सर्पोमक्षिका वापि यं दशेत ।
रोगी स भूयादुल्लाघः स्वस्थो धनमवाप्नुयात् ॥ २१ ॥
दूतपरीक्षा
दूताः स्वजातयोऽव्यङ्गाः पटवो निर्मलाम्बराः ।
सुखिनोऽश्ववृषारूढाः शुभ्रपुष्पफलैर्युताः ॥ २२ ॥
सुजातयः सुचेष्टाश्च सजीवदिशि संश्रिताः।
भिषजं समये प्राप्ता रोगिणः सुखहेतवे ॥ २३ ॥
यस्यां प्राणमरुद्धाति सा नाडीजीवसंयुता।
शुभाशुभशकुनम्
वैद्याह्वानाय दूतस्य गच्छतो रोगिणः कृते ॥ २४ ॥
न शुभं सौम्यशकुनं प्रदीप्तं च सुखावहम् ।
चिकित्सां रोगिणः कर्तुं गच्छतो भिषजः शुभम् ॥२५॥
यात्रेयं सौम्यशकुनं प्रोक्तं दीप्तं न शोभनम् ।
चिकित्स्यलक्षणम्
निजप्रकृतिवर्णाभ्यां युक्तः सत्त्वेन संयुतः ॥ २६ ॥
चिकित्स्यो भिषजा रोगी वैद्यभक्तो जितेन्द्रियः ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसहितायां पूर्वखण्डे नाडीपरीक्षादिविधिर्नाम तृतीयोऽध्यायः ।
चतुर्थोऽध्यायः।
विविधौषधयः
पचेन्नामं वह्निकृच्चदीपनं तद्यथा मिशिः ।
पचत्यामं न वह्निं च कुर्याद्यत्तद्धि पाचनम् ॥ १ ॥
नागकेसरवद्विद्याच्चित्रो दीपनपाचनः ।
न शोधयति यद्दोपान्समान्नोदीरयत्यपि ॥ २ ॥
समीकरोति विषमाञ्शमनं तद्यथाऽमृता ।
कृत्वापाकं मलानां यद्भित्त्वा बन्धमधो नयेत् ॥ ३॥
तच्चानुलोमनं ज्ञेयं यथा प्रोक्ता हरीतकी।
पक्तव्यं यदपक्त्वैव श्लिष्टं कोष्ठे मलादिकम् ॥ ४ ॥
नयत्यधः स्नंसनं तद्यथा स्यात्कृतमालकः ।
मलादिकमबद्धं यद्बद्धं वा पिण्डितं मलैः ॥ ५ ॥
भित्त्वाधः पातयति तद्भेदनं कटुकी यथा ।
विपकं यदपक्वंवा मलादि द्रवतां नयेत् ॥ ६ ॥
रेचयत्यपि तज्ज्ञेयं रेचनं त्रिवृता यथा ।
अपक्वपित्तश्लेष्माणौबलादूर्ध्व नयेत्तु यत् ॥ ७ ॥
वमनं तद्धि विज्ञेयं मदनस्य फलं यथा ।
स्थानाद्बहिर्नयेदूर्ध्वमधो वा मलसंचयम् ॥ ८ ॥
देहसंशोधनं तत्स्याद्देवदालीफलं यथा ।
श्लिष्टान्कफादिकान्दोषानुन्मूलयति यद्बलात् ॥ ९॥
छेदनं तद्यवक्षारो मरिचानि शिलाजतु ।
धातून्मलान्वा देहस्य विशोष्योल्लेखयेच्च यत् ॥ १० ॥
लेखनं तद्यथा क्षौद्रं नीरमुष्णं वचा यवाः ।
दीपनं पाचनं यत्स्यादुष्णत्वाद्द्रवशोषकम् ॥ ११ ॥
ग्राहि तच्च यथा शुण्ठी जीरकं गजपिप्पली।
रौक्ष्याच्छैत्यात्कषायत्वाल्लघुपाकाच्च यद्भवेत् ॥ १२ ॥
वातकृत्स्तम्भनं तत्स्याद्यथावत्सकटुण्टुकौ।
रसायनं च तज्ज्ञेयं यज्जराव्याधिनाशनम् ॥ १३ ॥
यथाऽमृता रुदन्ती च गुग्गुलुश्च हरीतकी ।
यस्माद्द्रव्याद्भवेत्स्त्रीषुहर्षोवाजीकरं च तत् ॥ १४ ॥
यथा नागबलाद्याः स्युर्बीजं च कपिकच्छुजम् ।
यस्माच्छुक्रस्य वृद्धिः स्वाच्छुक्रलं च तदुच्यते ॥ १५॥
यथाऽश्वगन्धा मुसली शर्करा च शतावरी ।
दुग्धं माषाश्च भल्लातफलमज्जामलानि च ॥ १६ ॥
प्रवर्तकानि कथ्यन्ते जनकानि च रेतसः।
प्रवर्तनं स्त्री शुक्रस्य रेचनं बृहतीफलम् ॥ १७ ॥
जातीफलं स्तम्भकं च शोषणी च हरीतकी ।
देहस्य सूक्ष्मच्छिद्रेषु विशेद्यत्सूक्ष्ममुच्यते ॥ १८ ॥
तद्यथा सैन्धवं क्षौद्रं निम्बस्तैलं रुबूद्भवम् ।
पूर्वं व्याप्याखिलं कायं ततः पाकं च गच्छति ॥ १९॥
व्यवायि तद्यथा भङ्गा फेनं चाहिसमुद्भवम् ।
सन्धिबन्धांस्तु शिथिलान्यत्करोति विकाशि तत् ॥२०॥
विश्लेष्यौजश्च धातुभ्यो यथा क्रमुककोद्रवाः ।
बुद्धिं लुम्पति यद्द्रव्यं मदकारि तदुच्यते ॥ २१ ॥
तमोगुणप्रधानं च यथा मद्यं सुरादिकम् ।
व्यवायि च विकाशि स्यात्सूक्ष्म छेदि मदावहम् ॥२२॥
आग्नेयं जीवितहरं योगवाहि स्मृतं विषम् ।
निजवीर्येण यद्द्रव्यं स्रोतोभ्यो दोषसंचयम् ॥ २३ ॥
निरस्यति प्रमाथि स्यात्तद्यथा मरिचं वचा।
पैच्छिल्याद्गौरवाद्द्रव्यं रुद्ध्वारसवहाः शिराः ॥ २४ ॥
धत्ते यद्गौरवं तत्स्यादभिष्यन्दि यथा दधि ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां पूर्वखण्डे दीपनपाचनादिकथन नाम चतुर्थोऽध्यायः ।
पञ्चमोऽध्यायः॥
शारीरम्
धात्वाशयान्तरस्थस्तु यः क्लेदस्त्वधितिष्ठति ।
देहोष्णा विपक्वोयः सा कलेत्यभिधीयते ॥ १ ॥
कलाः सप्ताशयाः सप्त धातवः सप्त तन्मलाः ।
सप्तोपधातवः सप्त त्वचः सप्त प्रकीर्तिताः ॥ २ ॥
त्रयो दोषानवशतं स्नायूनां संधयस्तथा ।
दशाऽधिकं च द्विशतमरनां च त्रिशतं तथा ॥ ३ ॥
सप्तोत्तरं मर्मशतं शिराः सप्तशतं तथा।
चतुर्विंशतिराख्याता धमन्यो रसवाहिकाः ॥ ४ ॥
मांसपेश्यः समाख्याता नृणां पञ्चशतं बुधैः ।
स्त्रीणां च विंशत्यधिकाः कण्डराश्चैव षोडश ॥ ५ ॥
नृदेहे दश रन्ध्राणि नारीदेहे त्रयोदश ।
एतत्समासतः प्रोक्तं विस्तरेणाधुनोच्यते ॥६॥
मांसासृङ्भेदसां तिस्रो यकृत्प्लीह्नोश्चतुर्थिका ।
पञ्चमी च तथाऽस्त्राणा षष्ठीचाग्निधरा मता ॥ ७ ॥
रेतोधरा सप्तमी स्यादिति सत कलाः स्मृताः ।
श्लेष्माशयः स्यादुरसि तस्मादामाशयस्त्वधः ॥ ८ ॥
ऊर्ध्वमग्न्याशयो नाभेर्वामभागे व्यवस्थितः ।
तस्योपरि तिलं ज्ञेयं तदधः पवनाशयः ॥ ९॥
मलाशयस्त्वधस्तस्माद्बस्तिर्मूत्राशयस्त्वधः ।
जीवरक्ताशयमुरो ज्ञेयाः सप्ताशयास्त्वमी ॥ १० ॥
पुरुषेभ्योऽधिकाश्चान्ये नारीणामाशयास्त्रयः ।
धरा गर्भाशयः प्रोक्तः स्तनौस्तन्याशयौ मतौ॥ ११ ॥
रसासृकांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः ।
जायन्तेऽन्योन्यतः सर्वे पाचिताः पित्ततेजसा॥ १२ ॥
रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते ।
भेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्जायाः शुक्रसंभवः ॥ १३ ॥
जिह्वानेत्रकपोलानां जलं पित्त च रञ्जकम् ।
कर्णविडसनादन्तकक्षाभेदादिजं मलम् ॥ १४ ॥
नखनेत्रमलं वक्रे स्निग्धत्वं पिटिकास्तथा।
जायन्ते सप्तधातूनां मलान्येवमनुक्रमात् ॥ १५॥
स्तन्यं रजश्च नारीणां काले भवति गच्छति ।
शुद्धमांसभवः स्नेहः सा वसा परिकीर्तिता ॥ १६ ॥
स्वेदो दन्तास्तथा केशास्तथैवौजश्च सप्तमम् ।
इति धातुभवा ज्ञेया एते सप्तोपधातवः ॥ १७ ॥
ओजः सर्वशरीरस्थंशीतं स्निग्धं स्थिरं मतम् ।
सोमात्मकं शरीरस्य बलपुष्टिकरं मतम् ॥ १८॥
ज्ञेयावभामिनी पूर्वं सिध्मस्थानं च सा मता।
द्वितीया लोहिता ज्ञेया तिलकालकजन्मभूः ॥ १९ ॥
श्वेता तृतीया संख्याता स्थानं चर्मदलस्य सा।
ताम्रा चतुर्थी विज्ञेया किलासश्वित्रभूमिका ॥२०॥
पञ्चमी वेदनी ख्याता सर्वकुष्ठोद्भवस्ततः ।
विख्याता रोहिणी षष्ठी ग्रन्थिगण्डापचीस्थितिः ॥२१॥
स्थूला त्वक्सप्तमी ख्याता विद्रध्यादेस्थितिश्च सा।
इति सप्त त्वचः प्रोक्ताः स्थूला व्रीहिद्विमात्रया ॥२२॥
वायुः पित्तं कफो दोषाधातवश्च मलास्तथा ।
तत्रापि पञ्चधा ख्याताः प्रत्येक देहधारणात् ॥ २३ ॥
शरीरदूषणाद्दोषाधातवो देहधारणात् ।
वातपित्तकफा ज्ञेया मलिनीकरणान्मलाः ॥ २४ ॥
पित्तं पङ्गु कफः पङ्गुः पङ्गवो मलधातवः।
वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत् ॥ २५ ॥
पवनस्तेषुबलवान्विभागकरणान्मतः ।
रजोगुणमयः सूक्ष्मः शीतो रूक्षो लघुश्चलः ॥ २६ ॥
मलाशये चरेत्कोष्ठे वह्निस्थाने तथा हृदि ।
कण्ठे सर्वाङ्गदेशेषु वायुः पञ्चप्रकारतः ॥ २७ ॥
अपानः स्यात्समानश्च प्राणोदानौतथैव च ।
व्यानश्चेति समीरस्य नामान्युक्तान्यनुक्रमात् ॥ २८ ॥
पित्तमुष्णं द्रवं पीतं नीलं सत्त्वगुणोत्तरम् ।
कटुतिक्तरसं ज्ञेयं विदग्धं चाम्लतां व्रजेत् ॥ २९ ॥
अग्न्याशये भवेत्पित्तमग्निरूपं तिलोन्मितम् ।
त्वचि कान्तिकरं ज्ञेयं लेपाभ्यङ्गादिपाचकम् ॥ ३० ॥
दृश्यं यकृति यत्पित्तं तद्रसं शोणितं नयेत् ।
यत्पित्तं नेत्रयुगुले रूपदर्शनकारि तत् ॥ ३१ ॥
यत्पित्तं हृदये तिष्ठेन्मेधाप्रज्ञाकरं च तत् ।
पाचकं भ्राजकं चैव रञ्जकालोचके तथा ॥ ३२॥
साधकं चेति पञ्चैवपित्तनामान्यनुक्रमात् ।
कफः स्निग्धो गुरुः श्वेतः पिच्छिलः शीतलस्तथा ॥३३॥
तमोगुणाधिकः स्वादुर्विदग्धो लवणो भवेत् ।
कफश्चामाशये मूर्ध्निकण्ठे हृदि च संधिषु॥ ३४ ॥
तिष्ठन्करोति देहस्य स्थैर्य सर्वाङ्गपाटवम् ।
क्लेदनः स्नेहनश्चैव रसनश्चावलम्बनः ॥ ३५॥
श्लेष्मकश्चेति नामानि कफस्योक्तान्यनुक्रमात् ।
स्नायवो बन्धनं प्रोक्ता देहे मांसास्थिमेदसाम् ॥ ३६ ॥
सन्धयश्चाङ्गसन्धानाद्देहे प्रोक्ताः कफान्विताः।
आधारश्च तथासारः कायेऽस्थीनि बुधा विदुः ॥३७ ॥
मर्माणि जीवाधाराणि प्रायेण मुनयो जगुः ।
संधिबन्धनकारिण्यो दोषधातुवहाःशिराः ॥ ३८ ॥
धमन्यो रसवाहिन्यो धमन्ति पवनं तनौ ।
मांसपश्यो बलाय स्युरवष्टम्भाय देहिनाम् ॥ ३९ ॥
प्रसारणाकुञ्चनयोरङ्गानां कण्डरा मताः।
नासानयनकर्णानां द्वे द्वेरन्ध्रे प्रकीर्तिते ॥ ४० ॥
मेहनापानवक्राणामेकैकं रन्ध्रमुच्यते ।
दशमं मस्तके प्रोक्तं रन्ध्राणीति नृणां विदुः ॥ ४१ ॥
स्त्रीणां त्रीण्यधिकानि स्युः स्तनयोर्गर्भवर्त्मनः ।
सूक्ष्मच्छिद्राणि चान्यानि मतानि त्वचि जन्मिनाम् ॥४२॥
तद्वामे फुप्फुसप्लीहौदक्षिणाङ्गेयकृन्मतम् ।
उदानवायोराधारः फुप्फुसः प्रोच्यते बुधैः ॥ ४३ ॥
रक्तवाहिशिरामूलं प्लीहा ख्याता महर्षिभिः ।
यकृद्रञ्जकपित्तस्य स्थानं रक्तस्य संश्रयः ॥ ४४ ॥
जलवाहि शिरामूलं तृष्णाच्छादनकं तिलम् ।
वृक्कौपुष्टिकरौ प्रोक्तौजठरस्थस्य मेदसः ॥ ४५ ॥
वीर्यवाहिशिराधारौ वृषणौपौरुषावहौ।
गर्भाधानकरं लिङ्गमयनं वीर्यमूत्रयोः ॥ ४६॥
हृदयंचेतनास्थानमोजसश्चाश्रयो मतम् ।
शिरा धमन्यो नाभिस्थाः सर्वांव्याप्य स्थितास्तनुम् ॥४७॥
पुष्णन्ति चानिशं वायोः संयोगात्सर्वधातुभिः ।
नाभिस्थः प्राणपवनः स्पृष्ट्वा हृत्कमलान्तरम् ॥ ४८ ॥
कण्ठाद्बहिर्विनिर्याति पातुं विष्णुपदामृतम् ।
पीत्वा चाम्बरपीयूषंपुनरायाति वेगतः ॥ ४९ ॥
प्रीणयन्देहमखिलं जीवयञ्जठरानलम् ।
शरीरप्राणयोरेवं संयोगादायुरुच्यते ॥ ५० ॥
कालेन तद्वियोगाच्च पञ्चत्वं कथ्यते बुधैः।
न जन्तुः कश्चिदमरः पृथिव्यां जायते क्वचित् ॥ ५१ ॥
अतो मृत्युरवार्यः स्याकिंतु रोगान्निवारयेत् ।
याप्यत्वं याति साध्यस्तु याप्यो गच्छत्यसाध्यताम्॥५२॥
जीवितं हन्त्यसाध्यस्तु नरस्याऽप्रतिकारिणः ।
अतो रुग्भ्यस्तनुं रक्षेन्नरः कर्मविपाकवित् ॥ ५३ ॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां शरीरं साधनं यतः ।
धातवस्तन्मला दोषानाशयन्त्यसमास्तनुम् ॥ ५४॥
समाः सुखाय विज्ञेया बलायोपचयाय च ।
सृष्टिक्रमः
जगद्योनेरनिच्छस्य चिदानन्देकरूपिणः ॥ ५५ ॥
पुंसोऽस्तिप्रकृतिर्नित्या प्रतिच्छायेव भास्वतः ।
अचेतनापि चैतन्ययोगेन परमात्मनः ॥ ५६ ॥
अकरोद्विश्वमखिलमनित्यं नाटकाकृति ।
प्रकृतिर्विश्वजननी पूर्वं बुद्धिमजीजनत् ॥ ५७ ॥
इच्छामयीं महद्रूपामहङ्कारस्ततोऽभवत् ।
त्रिविधः सोऽपि संजातो रजःसत्वतमोगुणैः ॥ ५८ ॥
तस्मात्सत्वरजोयुक्तादिन्द्रियाणि दशाभवन् ।
मनश्च जातं तान्याहुः श्रोत्रत्वङ्नयनं तथा ॥ ५९ ॥
जिह्वाघ्राणवचोहस्तपादोपस्थगुदानि च ।
पञ्च बुद्धीन्द्रियाण्याहुः प्राक्तनानीतराणि च ॥ ६०॥
कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैव कथ्यन्ते सूक्ष्मबुद्धिभिः ।
तम.सत्त्वगुणोत्कृष्टादहङ्कारादथाभवत् ॥ ६१ ॥
तन्मात्रपञ्चकं तस्य नामान्युक्तानि सूरिभिः ।
शब्दतन्मात्रकं स्पर्शतन्मात्रं रूपमात्रकम् ॥ ६२ ॥
रसतन्मात्रकं गन्धतन्मात्रंचेति तद्विदुः।
तन्मात्रपञ्चकात्तस्मात्संजातं भूतपञ्चकम् ॥ ६३ ॥
व्योमानिलानलजलक्षोणीरूपं च तन्मतम् ।
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसगन्धावनुक्रमात् ॥ ६४ ॥
तन्मात्राणां विशेषाः स्युः स्थूलभावमुपागताः ।
बुद्धीन्द्रियाणां पञ्चैव शब्दाद्या विषया मताः ॥ ६५ ॥
कर्मेन्द्रियाणां विषया भाषादानविहारिताः ।
आनन्दोत्सर्गकौचैव कथितास्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ६६ ॥
प्रधानं प्रकृतिः शक्तिर्नित्या चाविकृतिस्तथा ।
एतानि तस्याः नामानि शिवमाश्रित्य या स्थिता ॥६७॥
महानहङ्कृतिः पञ्चतन्मात्राणि पृथक्पृथक् ।
प्रकृतिर्विकृतिश्चैव सप्तैतानि बुधा जगुः ॥ ६८ ॥
दशेन्द्रियाणि चित्तं च महाभूतानि पञ्ज च ।
विकाराः षोडश ज्ञेयाः सर्वं व्याप्य जगत्स्थिताः ॥६९॥
एवं चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः सिद्धे वपुर्गृहे ।
जीवात्मा नियतो नित्यो वसति स्वान्तदूतवान् ॥ ७० ॥
स देही कथ्यते पापपुण्यदुःखसुखादिभिः ।
व्याप्तो बद्धश्च मनसा कृत्रिमैः कर्मबन्धनैः ॥ ७१ ॥
कामक्रोधौलोभमोहावहङ्कारश्च पञ्चमः ।
दशेन्द्रियाणि बुद्धिश्च तस्य बन्धाय देहिनः ॥ ७२ ॥
आप्नोति बन्धमज्ञानादात्मज्ञानाच्चमुच्यते ।
तद्दुःखयोगकृद्व्याधिरारोग्यं तत्सुखावहम् ॥ ७३ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां पूर्वखण्डे कलादिकाख्यानं
नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥
षष्ठोऽध्यायः।
आहर पाकगर्भोत्पत्तिबालपोषणानि
यात्यामाशयमाहारः पूर्व प्राणानिलेरितः।
माधुर्य फेनभावं च षड्रसोऽपि लभेत सः ॥ १ ॥
अथ पाचकपित्तेन विदग्धश्चारलतां व्रजेत् ।
ततः समानमरुता ग्रहणीमभिनीयते ॥ २ ॥
षष्ठीपित्तधरा नाम या कला परिकीर्तिता।
पक्वामाशयमध्यस्था ग्रहणीत्यभिधीयते ॥३॥
ग्रहण्यां पच्यते कोष्ठवह्निना जायते कटुः ।
रसोभवति संपक्वादपक्वादामसंभवः ॥ ४ ॥
वह्नेर्बलेन माधुर्यं स्निग्धतां याति तद्रसः।
पुष्णाति धातूनखिलान्सम्यक्पक्वोऽमृतोपमः ॥ ५॥
मन्दवह्निविदग्धश्च कटुश्चाम्लो भवेद्रसः।
विषभावं व्रजेद्वापि कुर्याद्वा रोगसंकरम् ॥ ६ ॥
आहारस्यरसः सारः सारहीनो मलद्रवः ।
शिराभिस्तज्जलं नीतं बस्तौमूत्रत्वमाप्नुयात् ॥ ७ ॥
तत्किट्टंच मलं ज्ञेयं तिष्ठेत्पक्वाशये च तत् ।
बलित्रितयमार्गेण यात्यपानेन नोदितम् ॥ ८॥
प्रवाहिणी सर्जनी च ग्राहिकेति बलित्रयम् ।
रसस्तु हृदयं याति समानमरुतेरितः ॥ ९॥
रञ्जितः पाचितस्तत्र पित्तेनायाति रक्तताम् ।
रक्तं सर्वशरीरस्थं जीवस्याधार उत्तमः ॥ १० ॥
स्निग्धं गुरु चलं स्वादु विदग्धं पित्तवद्भवेत् ।
पाचिताः पित्ततापेन रसाद्या धातवः क्रमात् ॥ ११ ॥
शुक्रत्वं यान्ति मासेन तथा स्त्रीणां रजो भवेत् ।
कामान्मिथुनसंयोगे शुद्धशोणितशुक्रजः ॥ १२ ॥
गर्भः संजायते नार्याः स जातो बाल उच्यते ।
आधिक्ये रजसः कन्या पुत्रः शुक्राधिके भवेत् ॥ १३ ॥
नपुंसकं समत्वेन यथेच्छा पारमेश्वरी ।
बालस्य प्रथमे मासि देया भेषजरक्तिका ॥ १४ ॥
अवलेहीकृतैकैव क्षीरक्षौद्रसिताघृतैः।
वर्धयेत्तावदेकैकां यावद्भवति वत्सरः ॥ १५ ॥
माषैर्वृद्धिस्तदूर्ध्वंस्याद्यावत्षोडशवत्सरः।
ततः स्थिरा भवेत्तावद्यावद्वर्षाणि सप्ततिः ॥ १६ ॥
ततो बालकवन्मात्रा हासनीया शनैः शनैः ।
मात्रेयं कल्कचूर्णानां कषायाणां चतुर्गुणा ॥ १७ ॥
अञ्जनं च तथा लेपः स्नानमभ्यङ्गकर्म च ।
वमनं प्रतिमर्शश्च जन्मप्रभृति शस्यते ॥ १८ ॥
कवलः पञ्चमाद्वर्षादष्टमान्नस्यकर्म च ।
विरेकः षोडशाद्वर्षाद्विंशतेश्चैव मैथुनम् ॥ १९ ॥
बाल्यं वृद्धिश्छविर्मेधा त्वग्दृष्टिः शुक्रविक्रमौ ।
बुद्धिः कर्मेन्द्रियं चेतो जीवितं दशतो ह्रसेत् ॥ २० ॥
वातादिप्रकृतिलक्षणानि
अल्पकेशः कृशो रूक्षो वाचालश्चलमानसः ।
आकाशचारी स्वप्नेषुवातप्रकृतिको नरः ॥ २१ ॥
अकाले पलितैर्व्याप्तो धीमान्स्वेदी च रोषणः ।
स्वप्नेषु ज्योतिषां द्रष्टा पित्तप्रकृतिको नरः ॥ २२ ॥
गम्भीरबुद्धिः स्थूलाङ्गः स्निग्धकेशो महाबलः ।
स्वप्नेजलाशयालोकी श्लेष्मप्रकृतिको नरः ॥ २३ ॥
ज्ञातव्या मिश्रचिह्नैश्च द्वित्रिदोषोल्बणा नराः ।
निद्रादयः
तमःकफाभ्यां निद्रा स्यान्मूर्छापित्ततमोभवा ॥ २४ ॥
रजःपित्तानिलैर्भ्रान्तिस्तन्द्रा श्लेष्मतमोऽनिलैः ।
ग्लानिरोजक्षयाद्दुःखादजीर्णाश्चश्रमाद्भवेत् ॥ २५ ॥
यः सामर्थ्येऽप्यनुत्साहस्तदालस्यमुदीर्यते ।
चैतन्यशिथिलत्वाद्यः पीत्वैकश्वासमुद्वमेत् ॥ २६ ॥
विदीर्णवदनः श्वासं जृम्भासा कथ्यते बुधैः ।
उदानप्राणयोरूर्ध्वयोगान्मौलिकफस्रवात् ॥ २७ ॥
शब्दः संजायते नस्तः क्षुतं तत्कथ्यते बुधैः ।
उदानकोपादाहारसुस्थिरत्वाच्च यद्भवेत् ॥ २८ ॥
पवनस्योर्ध्वगमनं तमुद्गारंप्रचक्षते ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां पूर्वखण्डे आहारा-
दिगतिकथनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥
सप्तमोऽध्यायः।
रोगगणना
रोगाणां गणना पूर्वं मुनिभिर्या प्रकीर्तिता।
मयात्रप्रोच्यते सैव तद्भेदा बहवो मताः ॥ १ ॥
पञ्चविंशतिरुदृिष्टा ज्वरास्तद्भेदउच्यते ।
पृथग्दोषैस्तथा द्वन्द्वभेदेन त्रिविधः स्मृतः ॥ २ ॥
एकश्च सन्निपातेन तद्भेदा बहवः स्मृताः ।
प्रायशः सन्निपातेन पञ्च स्युर्विषमज्वराः ॥ ३ ॥
सन्ततः सततश्चैव अन्येद्युष्कस्तृतीयकः ।
चातुर्थकश्च पञ्चैते कीर्तिता विषमज्वराः ॥ ४ ॥
तथागन्तुज्वरोऽप्येकस्त्रयोदशविधो मतः ।
अभिचारग्रहावेशशापैरागन्तुकस्त्रिधा ॥ ५ ॥
श्रमाच्छेदात्क्षताद्दाहाच्चतुर्धा धातजो ज्वरः।
कामाद्भीतेः शुचो रोषाद्विपादौषधगन्धतः ॥ ६ ॥
अभिषङ्गज्वराः षट्स्युरेवं ज्वरविनिश्चयः।
पृथक्त्रिदोषैःसर्वैश्च शोकादामाद्भयादपि ॥ ७ ॥
अतीसारः सप्तधा स्याद्ग्रहणी पञ्चधा मता।
पृथग्दोषैःसन्निपातात्तथा चामेन पञ्चमी ॥ ८ ॥
प्रवाहिका चतुर्धा स्यात्पृथग्दोषैस्तथास्रतः ।
अजीर्णं त्रिविधं प्रोक्तं विष्टब्धं वायुना मतम् ॥ ९ ॥
पित्ताद्विदग्धं विज्ञेयं कफेनामं तदुच्यते ।
विषाजीर्णं रसादेकं दोषैःस्यादलसस्त्रिधा ॥ १० ॥
विषूची त्रिविधा प्रोक्ता दोषैःसा स्यात्पृथक्पृथक् ।
दण्डकालसकश्चैक एकैव स्याद्विलम्बिका ॥ ११ ॥
अर्शांसि षड्विधान्याहुर्वातपित्तकफास्रतः ।
सन्निपाताच्च संसर्गात्तेषांभेदो द्विधा स्मृतः ॥ १२ ॥
सहजोत्तरजन्मभ्यां तथा शुष्कार्द्रभेदतः ।
त्रिधैव चर्मकीलानि वातात्पित्तात्कफादपि ॥ १३ ॥
एकविंशतिभेदेन कृमयःस्युर्द्विधा च ते ।
बाह्यास्तथाभ्यन्तराः स्युस्तेषुयूका बहिश्चराः ॥ १४ ॥
लिक्षाश्चान्येऽन्तरचराः कफात्ते हृदयादकाः।
अन्त्रादा उदरावेष्टाश्चुरवश्च महागुहाः ॥ १५ ॥
सुगन्धा दर्भकुसुमास्तथा रक्ताच्च मातरः ।
सौरसा लोमविध्वंसा रोमद्वीपा उदुम्बराः ॥ १६ ॥
केशादाश्च तथैवान्ये शकृज्जाता मकेरुकाः।
लेलिहाश्च सलूनाश्च सौसुरादाः ककेरुकाः ॥ १७ ॥
तथान्यः कफरक्ताभ्यां संजातः स्नायुकः स्मृतः ।
व्रणस्य कृमयश्चान्ये विषमा बाह्ययोनयः॥ १८ ॥
पाण्डुरोगाश्च पञ्च स्युर्वातपित्तकफैस्त्रिधा ।
त्रिदोषैर्मृत्तिकाभिश्च तथैका कामला स्मृता ॥ १९ ॥
स्यात्कुम्भकामला चैका तथैकं च हलीमकम् ।
रक्तपित्तं त्रिधा प्रोक्तमूर्ध्वगं कफसंभवम् ॥ २० ॥
अधोगं मारुतं ज्ञेयं तद्द्वयेन द्विमार्गगम् ।
कासाः पञ्च समुद्दिष्टास्ते त्रयः स्युस्त्रिभिर्मलैः ॥ २१ ॥
उरःक्षताच्चतुर्थः स्यात्क्षयाद्धातोश्च पञ्चमः ।
क्षयाः पञ्चैव विज्ञेयास्त्रिभिर्दोषैस्त्रयश्च ते ॥ २२ ॥
चतुर्थः सन्निपातेन पञ्चमः स्यादुरःक्षतात् ।
शोषाःस्युः षट्प्रकारेण स्त्रीप्रसङ्गाच्छुचो व्रणात् ॥ २३ ॥
अध्वश्रमाच्च व्यायामाद्वार्धक्यादपि जायते ।
श्वासाश्च पञ्च विज्ञेयाः क्षुद्रस्यात्तमकस्तथा ॥ २४ ॥
ऊर्ध्वश्वासो महाश्वासश्छिन्नश्वासश्च पञ्चमः ।
कथिताः पञ्च हिक्कास्तुतास्तु क्षुद्राऽन्नजा तथा ॥ २५ ॥
गम्भीरा यमला चैव महती पञ्चमी तथा ।
चत्वारोऽग्नेर्विकाराः स्युर्विषमो वातसंभवः ॥ २६ ॥
तीक्ष्णः पित्तात्कफान्मन्दो भस्मकोवातपित्ततः।
पञ्चैवारोचका ज्ञेया वातपित्तकफैस्त्रिधा ॥ २७ ॥
सन्निपातान्मनस्तापाच्छर्दयः सप्तधा मताः ।
त्रिभिर्दोषैःपृथक्तिस्रः कृमिभिः सन्निपाततः ॥ २८ ॥
घृणया च तथा स्त्रीणां गर्भाधानाच्च जायते ।
स्वरभेदाः षडेव स्युर्वातपित्तकफैस्त्रयः ॥ २९ ॥
मेदसा सन्निपातेन क्षयात्षष्ठःप्रकीर्तितः।
तृष्णा च षड्विधा प्रोक्ता वातात्पित्तात्कफादपि ॥ ३० ॥
त्रिदोषैरुपसर्गेण क्षयाद्धातोश्च षष्ठिका ।
मूर्च्छाचतुर्विधा ज्ञेया वातपित्तकफैः पृथक् ॥ ३१ ॥
चतुर्थी सन्निपातेन तथैकश्च भ्रमः स्मृतः।
निद्रा तन्द्रा च संन्यासो ग्लानिश्चैकैकशः स्मृताः ॥ ३२ ॥
मदाः सप्त समाख्याता वातपित्तकफैस्त्रयः।
त्रिदोषैरसृजा मद्याद्विषादपि च सप्तमः ॥ ३३ ॥
मदात्ययश्चतुर्धा स्याद्वातपित्तकफादपि ।
त्रिदोषैरपि विज्ञेय एकः परमदस्तथा ॥ ३४ ॥
पानाजीर्णं तथा चैकं तथैकः पानविभ्रमः ।
पानात्ययस्तथा चैको दाहाः सप्त मतास्तथा ॥ ३५ ॥
रक्तपित्तात्तथा रक्तात्तृष्णायाः पित्ततस्तथा ।
धातुक्षयान्मर्मघाताद्रक्तपूर्णोदरादपि ॥ ३६॥
उन्मादाः षट् समाख्यातास्त्रिभिर्दोषैस्त्रयश्च ते ।
सन्निपाताद्विषाज्ज्ञेयः षष्ठो दुःखेन चेतसः ॥ ३७ ॥
भूतोन्मादा विंशतिः स्युस्ते देवाद्दानवादपि ।
गन्धर्वात्किंनराद्यक्षात्पितृभ्यो गुरुशापतः ॥ ३८ ॥
प्रेताच्च गुह्यकाद्वृद्धात्सिद्धाद्भृतात्पिशाचतः।
जलाधिदेवतायाश्च नागाच्च ब्रह्मराक्षसात् ॥ ३९ ॥
राक्षसादपि कूष्माण्डात्कृत्यावेतालयोरपि ।
अपस्मारश्चतुर्धा स्यात्समीरात्पित्ततस्तथा ॥ ४० ॥
श्लेष्मणोऽपि तृतीयः स्याच्चतुर्थः सन्निपाततः।
चत्वारश्चामवाताः स्युर्वातपित्तकफैस्त्रिधा ॥ ४१ ॥
चतुर्थः सन्निपातेन शूलान्यष्टौ बुधा जगुः ।
पृथग्दोषैस्त्रिधा द्वन्द्वभेदेन त्रिविधान्यपि ॥ ४२ ॥
आमेन सप्तमं प्रोक्तं सन्निपातेन चाष्टमम् ।
परिणामभवं शूलमष्टधा परिकीर्तितम् ॥ ४३ ॥
मलैर्यैःशूलसंख्या स्यात्तैरेव परिणामजम् ।
अन्नद्रवभवं शूलं ज्वरपित्तभवं तथा ॥ ४४ ॥
एकैकं गणितं सुज्ञैरुदावर्तास्त्रयोदश ।
एकः क्षुन्निग्रहात्प्रोक्तस्तृष्णारोधाद्द्वितीयकः ॥ ४५ ॥
निद्राघातात्तृतीयः स्याच्चतुर्थः श्वासनिग्रहात् ।
छर्दिरोधात्पञ्चमः स्यात्षष्ठः क्षवथुनिग्रहात् ॥ ४६ ॥
जृम्भारोधात्सप्तमः स्यादुद्गारग्रहतोऽष्टमः ।
नवमः स्यादश्रुरोधादृशमः शुक्रधारणात् ॥ ४७ ॥
मूत्ररोधान्मलस्यापि रोधाद्वातविनिग्रहात् ।
उदावर्तास्त्रयश्चैते घोरोपद्रवकारकाः ॥ ४८ ॥
आनाहो द्विविधो ज्ञेय एकः पक्वाशयोद्भवः ।
आमाशयोद्भवश्चान्यः प्रत्यानाहः स कथ्यते ॥ ४९ ॥
उरोग्रहस्तथा चैको हृद्रोगाः पञ्च कीर्तिताः ।
वातादिभिस्त्रयः प्रोक्ताश्चतुर्थः सन्निपाततः ॥ ५० ॥
पञ्चमः क्रिमिसंजातस्तथाष्टावुदराणि च ।
वातात्पित्तात्कफात्त्रीणि त्रिदोषेभ्यो जलादपि ॥ ५१ ॥
प्लीह्नःक्षताद्बद्धगुदादष्टमं परिकीर्तितम् ।
गुल्मास्त्वष्टौ समाख्याता वातपित्तकफैस्त्रयः ॥ ५२ ॥
द्वन्द्वभेदास्त्रयः प्रोक्ताः सप्तमः सन्निपाततः।
रक्तादष्टमकः ख्यातो मूत्रघातास्त्रयोदश ॥ ५३ ॥
वातकुण्डलिका पूर्वा वाताष्ठीला ततः परा।
वातबस्तिस्तृतीयः स्यान्मूत्रातीतश्चतुर्थकः ॥ ५४ ॥
पञ्चमं मूत्रजठरं षष्ठोमूत्रक्षयः स्मृतः ।
मूत्रोत्सर्गः सप्तमः स्यान्मूत्रग्रन्थिस्तथाष्टमः ॥ ५५ ॥
मूत्रशुक्रं तु नवमं विड्घातो दशमः स्मृतः।
मूत्रासादश्चोष्णवातो बस्तिकुण्डलिका तथा ॥ ५६ ॥
त्रयोऽप्येते मूत्रघाताः पृथग्घोराः प्रकीर्तिताः ।
मूत्रकृच्छ्राणि चाष्टौस्युर्वातपित्तकफैस्त्रिधा ॥ ५७ ॥
सन्निपाताच्चतुर्थं स्याच्छुक्रकृच्छ्रंच पञ्चमम् ।
विट्कृच्छ्रंषष्ठमाख्यातं घातकृच्छ्रंच सप्तमम् ॥ ५८ ॥
अष्टमं चाश्मरीकृच्छ्रंचतुर्धा चाश्मरी मता ।
वातात्पित्तात्कफाच्छुकात्तथा मेहाश्च विंशतिः ॥ ५९ ॥
इक्षुमेहः सुरामेहः पिष्टमेहश्च सान्द्रकः ।
शुक्रमेहोदकाख्यौ च लालामेहश्च शीतकः ॥ ६० ॥
सिकताख्यः शनैर्मेहो दर्शैते कफसंभवाः ।
मञ्जिष्ठाख्यो हरिद्राख्यो नीलमेहश्च रक्तकः ॥ ६१॥
कृष्णमेहः क्षारमेहः षडेते पित्तसंभवाः ।
हस्तिमेहो वसामहो मज्जामहो मधुप्रभः ॥ ६२ ॥
चत्वारो वातजा मेहा इति मेहाश्च विंशतिः ।
सोमरोगस्तथा चैकः प्रमेहपिटिका दश ॥ ६३ ॥
शराविका कच्छपिका पुत्रिणी विनतालजी।
मसूरिका सर्षपिका जालिनी च विदारिका ॥ ६४ ॥
विद्रधिश्च दशैताः स्युः पिटिका मेहसंभवाः ।
मेदोदोषस्तथा चैकः शोथरोगा नव स्मृताः ॥ ६५ ॥
दोषैःपृथग्द्वयैः सर्वैरभिघाताद्विपादपि ।
वृद्धयः सप्त गदिता वातात्पित्तात्कफेन च ॥ ६६ ॥
रक्तेन मेदसा मूत्रादत्त्रवृद्धिश्च सप्तमी।
अण्डवृद्धिस्तथा चैका तथैका गण्डमालिका ॥ ६७॥
गण्डालजीति चैका स्याद्ग्रन्थयो नवधा मताः।
त्रिभिर्दोषैस्त्रयो रक्ताच्छिराभिर्मेदसो व्रणात् ॥ ६८ ॥
अस्थ्नामांसेन नवमः षड्विधं स्यात्तथार्बुदम् ।
वातात्पित्तात्कफाद्रक्तान्मांसादपि च मेदसः ॥ ६९ ॥
श्लीपदं च त्रिधा प्रोक्तं वातापित्तात्कफादपि ।
विद्रधि षड्विधः ख्यातो वातापित्तकफैस्त्रयः ॥ ७० ॥
रक्तात्क्षतात्त्रिदोषैश्च व्रणाः पञ्चदशोदिताः ।
तेषां चतुर्धा भेदाः स्युरागन्तुर्देहजस्तथा ॥ ७१ ॥
शुद्धो दुष्टश्च विज्ञेयस्तत्संख्या कथ्यते पृथक् ॥
वातव्रणः पित्तजश्चकफजो रक्तजो व्रणः ॥ ७२ ॥
वातपित्तभवश्चान्यो वातश्लेष्मभवस्तथा ।
तथा पित्तकफाभ्यांच सन्निपातेन चाष्टमः ॥ ७३ ॥
नवमो वातरक्तेन दशमो रक्तपित्ततः ।
श्लेष्मरक्तभवश्चान्यो वातपित्ताराृगुद्भवः ॥ ७४ ॥
वातश्लेष्मासृगुत्पन्नः पित्तश्लेष्मास्त्रसंभवः ।
सन्निपातासृगुद्भूत इति पञ्चदश व्रणाः ॥ ७५ ॥
सद्योव्रणस्त्वष्टधा स्यादविक्लृप्तविलम्बितौ।
छिन्नभिन्नप्रचलिता घृष्टविद्धनिपातिताः ॥ ७६ ॥
कोष्ठभेदो द्विधा प्रोक्तश्छिन्नात्त्रो निःसृतान्त्रकः ।
अस्थिभङ्गोऽष्टधा प्रोक्तो भग्नपृष्ठविदारितौ॥ ७७ ॥
विवर्तितश्च विश्लिष्टस्तिर्यक्क्षिप्तरत्वधो गतः ।
ऊर्ध्वगः संधिभग्नश्च वह्निदग्धश्चतुर्विधः ॥ ७८ ॥
प्लुष्टो विदग्धो दुर्दग्धः सम्यग्दग्धःप्रकीर्तितः ।
नाड्यः पञ्च समाख्याता वातपित्तकफैस्त्रिधा ॥ ७९ ॥
त्रिदोषैरपि शल्येन तथाष्टौस्युर्भगन्दराः ।
शतपोनस्तु पवनादुष्ट्रग्रीवश्च पित्ततः ॥ ८० ॥
परिस्रावी कफाज्ज्ञेय ऋजुर्वातकफोद्भवः।
परिक्षेपी मरुत्पित्तादर्शोजःकफपित्ततः ॥ ८१ ॥
आगन्तुजातश्चोन्मार्गी शङ्खावर्तस्त्रिदोषजः ।
मेढ्रेपञ्चोपदंशाः स्युर्वातपित्तकफैत्रिधा ॥ ८२ ॥
सन्निपातेन रक्ताच्चमेढ्रेशूकामयास्तथा ।
चतुर्विशतिराख्याता लिङ्गार्शोग्रथितं तथा ॥ ८३ ॥
निवृत्तमवमन्थश्च मृदितं शतपोनकः ।
अष्ठीलिका सर्षपिका त्वक्पाकश्चावपाटिका ॥ ८४ ॥
मांसपाकः स्पर्शहानिर्विरुद्धमणिरुत्तमा ।
मांसार्बुदं पुष्करिका संमूढपिटिकालजी ॥ ८५ ॥
रक्तार्बुद विद्रधिश्च कुम्भिका तिलकालकः।
निरुद्धप्रकशः प्रोक्तस्तथैव परिवर्तिका ॥ ८६ ॥
कुष्ठान्यष्टादशोक्तानि वातात्कापालिकं भवेत् ।
पित्तेनोदुम्बरं प्रोक्तं कफान्मण्डलचर्चिके ॥ ८७ ॥
मरुत्पित्तादृक्षजिह्वं श्लेष्मवाताद्विपादिका ।
तथा सिध्मैककुष्ठं च किटिभं चालसं तथा ॥ ८८ ॥
कफपित्तात्पुनर्दद्रूःपामा विस्फोटकंतथा ।
महाकुष्ठंचर्मदलं पुण्डरीकं शतारुकम् ॥ ८९ ॥
त्रिदोषैः काकणं ज्ञेयं तथान्यच्छ्वित्रसंज्ञितम् ।
तथा वातेन पित्तेन श्लेष्मणा च त्रिधा भवेत् ॥ ९० ॥
क्षुद्ररोगाः षष्टिसख्यास्तेष्वादी शर्करार्बुदम् ।
इन्द्रवृद्धा पनसिका विवृतान्धालजी तथा ॥ ९१ ॥
वराहदष्ट्रो वल्मीकं कच्छपी तिलकालकः ।
गर्दभी रकसा चैव यवप्रख्या विदारिका ॥ ९२ ॥
कदरं मसकश्चैव नीलिका जालगर्दभः।
इरिवेल्ली जतुमणिर्गुदभ्रंशोऽग्निरोहिणी ॥ ९३ ॥
सन्निरुद्धगुदः कोठः कुनखोऽनुशयी तथा ।
पद्मिनीकण्टकश्चिप्यमलसो मुखदूषिका ॥ ९४ ॥
कक्षा वृषणकच्छूश्च गन्धः पाषाणगर्दभः ।
राजिका च तथा व्यङ्गश्चतुर्धा परिकीर्तितः ॥ ९५ ॥
वातात्पित्तात्कफाद्रक्तादित्युक्तं व्यङ्गलक्षणम् ।
विस्फोटाः क्षुद्ररोगेषुतेऽष्टधा परिकीर्तिताः ॥ ९६ ॥
पृथग्दोषैस्त्रयो द्वन्द्वैस्त्रिविधः सप्तमोऽसृजः ।
अष्टमः सन्निपातेन क्षुद्ररुक्षु मसूरिका ॥ ९७ ॥
चतुर्दशप्रकारेण त्रिभिर्दोषैस्त्रिधा च सा ।
द्वन्द्वजा त्रिविधा प्रोक्ता सन्निपातेन सप्तमी ॥ ९८॥
अष्टमी त्वग्गता ज्ञेया नवमी रक्तजा स्मृता ।
दशमी मांससंजाता चतस्रोऽन्याश्च दुतिराः ॥ ९९ ॥
मेदोऽस्थिमज्जाशुक्रस्थाः क्षुद्ररोगा इतीरिताः।
विसर्परोगो वनधा वातपित्तकफैस्त्रिधा ॥ १००॥
त्रिधा स द्वन्द्वभेदेन सन्निपातेन सप्तमः ।
अष्टमो वह्निदाहेन नवमश्चाभिघातजः ॥ १ ॥
तथैकः श्लेष्मपित्ताभ्यामुदर्दः परिकीर्तितः ।
वातपित्तेन चैकस्तु शीतपित्तामयः स्मृतः ॥ २॥
अम्लपित्तं त्रिधा प्रोक्तं वातेन श्लेष्मणा तथा।
तृतीय श्लेष्मवाताभ्यांवातरक्तं तथाष्टधा ॥३॥
वाताधिक्येन पित्ताच्च कफाद्दोषत्रयेण च ।
रक्ताधिक्येन दोषाणां द्वन्द्वेन त्रिविधः स्मृतः ॥ ४॥
अशीतिर्वातजा रोगाः कथ्यन्ते मुनिभाषिताः ।
आक्षेपको हनुस्तम्भ ऊरुस्तम्भः शिरोग्रहः ॥ ५॥
बाह्यायामोऽन्तरायामः पार्श्वशूलं कटिग्रहः ।
दण्डापतानकः खल्ली जिह्वास्तम्भस्तथार्दितम् ॥ ६ ॥
पक्षाघातः क्रोष्टुशीर्षोमन्यास्तम्भश्च पङ्गुता ।
कलायखञ्जता तूनी प्रतितूनी च खञ्जता ॥ ७ ॥
पादहर्षोगृध्रसी च विश्वाची चापबाहुकः ।
अपतानो व्रणायामो वातकण्टोऽपतत्त्रकः ॥ ८ ॥
अङ्गभेदोऽङ्गशोषश्च मिभ्मिणत्वं च गद्गदुः।
प्रत्यष्ठीलाऽष्ठीलिका च वामनत्वं च कुब्जता ॥ ९ ॥
अङ्गपीडाङ्गशूलं च संकोचस्तम्भरूक्षता।
अङ्गभङ्गोऽङ्गविभ्रंशो विड्ग्रहो बद्धविट्कता ॥ ११० ॥
मूकत्वमतिजृम्भास्यादत्युद्गारोऽत्त्राकूजनम् ।
वातप्रवृत्तिः स्फुरणं शिराणां पूरणं तथा ॥ ११ ॥
कम्पः कार्श्यंश्यावता च प्रलापः क्षिप्रमूत्रता।
निद्रानाशः स्वेदनाशो दुर्बलत्वं बलक्षयः ॥ १२ ॥
अतिप्रवृत्तिः शुक्रस्य कार्श्यं नाशश्च रेतसः ।
अनवस्थितचित्तत्वं काठिन्यं विरसास्यता ॥ १३ ॥
कषायवक्रताध्मानं प्रत्याध्मानं च शीतता ।
रोमहर्षश्च भीरुत्वं तोदः कण्डूरसाज्ञता ॥ १४ ॥
शब्दाज्ञता प्रसुप्तिश्च गन्धाज्ञत्वं दृशः क्षयः ।
अथ पित्तभवा रोगाश्चत्वारिंशदिहोदिताः ॥ १५॥
धूमोद्गारो विदाहः स्यादुष्णाङ्गत्वं मतिभ्रमः ।
कान्तिहानिः कण्ठशोषोमुखशोषोऽल्पशुक्रता ॥ १६ ॥
तिक्तास्यताम्लवक्रत्वं स्वेदस्रावोऽङ्गपाकता ।
क्लमो हरितवर्णत्वमतृप्तिः पीतकायता ॥ १७ ॥
रक्तस्रावोऽङ्गदरणं लोहगन्धास्यता तथा ।
दौर्गन्ध्यं पीतमूत्रत्वमरति पीतविट्कता ॥ १८ ॥
पीतावलोकनं पीतनेत्रता पीतदन्तता।
शीतेच्छा पीतनखता तेजोद्वेपोऽल्पनिद्रता ॥ १९ ॥
कोपश्च गात्रसादश्च भिन्नविट्कत्वमन्धता ।
उष्णोच्छ्वासत्वमुष्णत्वं मूत्रस्य च मलस्य च ॥ १२० ॥
तमसो दर्शनं पीतमण्डलानां च दर्शनम् ।
निःसरत्वं च पित्तस्य चत्वारिंशद्रुजः स्मृताः ॥ २१ ॥
कफस्य विंशतिः प्रोक्ता रोगास्तन्द्रातिनिद्रता ।
गौरवं मुखमाधुर्यं मुखलेपःप्रसेकता ॥ २२ ॥
श्वेतावलोकनं श्वेतविट्कत्वं श्वेतमूत्रता ।
श्वेताङ्गवर्णता शैत्यमुष्णेच्छा तिक्तकामिता ॥ २३ ॥
मलाधिक्यं च शुक्रस्य बाहुल्यं बहुमूत्रता।
आलस्यं मन्दबुद्धित्वं तृप्तिर्घर्घरवाक्यता ॥ २४ ॥
अचैतन्यं च गदिता विंशतिः श्लेष्मजा गदाः ।
रक्तस्य च दश प्रोक्ता व्याधयस्तेषुगौरवम् ॥ २५॥
रक्तमण्डलता रक्तनेत्रत्वं रक्तमूत्रता ।
रक्तष्ठीवनता रक्तपिटिकानां च दर्शनम् ॥ २६ ॥
औष्ण्यंच पूतिगन्धित्वं पीडा पाकश्च जायते ।
चतुःसप्ततिसंख्याका मुखरोगास्तथोदिताः ॥ २७ ॥
तेष्वोष्ठरोगा गणिता एकादशमिता बुधैः ।
वातपित्तकफैस्त्रेधा त्रिदोषैरसृजा तथा ॥ २८ ॥
क्षतान्मांसार्बुदं चैव खण्डोष्ठंच जलार्बुदम् ।
भेदोऽर्बुदं चार्बुदं च रोगा एकादशौष्ठजाः ॥ २९ ॥
दन्तरोगा दशाख्याता दालनः कृमिदन्तकः ।
दन्तहर्षःकरालश्च दन्तचालश्च शर्करा ॥ १३० ॥
अधिदन्तः श्यावदन्तो दन्तभेदः कपालिका ।
तथा त्रयोदशमिता दन्तमूलामयाः स्मृताः ॥३१॥
शीतादोषकुशौ द्वौ तु दन्तविद्रधिपुप्पुटौ।
अधिमांसो विदर्भश्च महासौषिरसौषिरौ ॥ ३२ ॥
तेष्वेव गतयः पञ्च वातात्पित्तात्कफादपि ।
रान्निपाताद्गतिश्चान्या रक्तनाडी चपञ्चमी ॥ ३३ ॥
तथा जिह्वामयाः षट्स्युर्वातपित्तकफैस्त्रिधा ।
अलसश्च चतुर्थः स्यादधिजिह्वश्च पञ्चमः ॥ ३४॥
षष्टश्चैवोपजिह्वः स्यात्तथाष्टौ तालुजा गदाः ।
अर्बुदं तालुपिटिका कच्छपी तालुसंहतिः ॥ ३५ ॥
गलशुण्डी तालुशोषस्तालुपाकश्च पुप्पुटः ।
गलरोगास्तथाख्याता अष्टादशमिता बुधैः ॥ ३६॥
वातरोहिणिका पूर्वं द्वितीया पित्तरोहिणी।
कफरोहिणिका प्रोक्ता त्रिदोषैरपि रोहिणी ॥ ३७ ॥
भेदोरोहिणिका वृन्दो गलौघो गलविद्रधिः।
स्वरहा तुण्डिकेरी च शतघ्नी शालुकोऽर्बुदम् ॥ ३८ ॥
गलायुर्वलयश्चापि वाताद्गण्डः कफात्तथा ।
मेदोगण्डस्तथैव स्यादित्यष्टादश कण्ठजाः ॥३९॥
मुखान्तःसंभवा रोगा अष्टौ ख्याता महर्षिभिः ।
मुखपाको भवेद्वातात्पित्तात्तद्वत्कफादपि ॥ १४० ॥
रक्ताच्च सन्निपाताच्च पूत्यास्योर्ध्वगदावपि ।
अर्बुदं चेति मुखजाश्चतुःसप्ततिरामयाः ॥ ४१ ॥
कर्णरोगाः समाख्याता अष्टादशमिता बुधैः ।
वातात्पित्तात्कफाद्रक्तात्सन्निपाताच्चविद्रधिः ॥ ४२ ॥
शोथोऽर्बुदं पूतिकर्णः कर्णाशः कर्णहल्लिका ।
बाधिर्य तन्त्रिका कण्डूः शष्कुली कृमिकर्णकः ॥ १३ ॥
कर्णनादः प्रतीनाह इत्यष्टादश कर्णजाः ।
कर्णपालीसमुद्भूता रोगाः सप्त इहोदिताः ॥ ४४ ॥
उत्पातः पालिशोषश्च विदारी दुःखवर्धनः ।
परिपोटश्च लेही च पिप्पली चेति संस्मृताः ॥ ४५ ॥
कर्णमूलामयाः पञ्च वातात्पित्तात्कफादपि ।
सन्निपाताच्च रक्ताच्च तथा नासाभवा गदाः ॥ १६ ॥
अष्टादशैव संख्याताः प्रतिश्यायारतु तेष्वपि।
वातात्पित्तात्कफाद्रक्तात्सन्निपातेन पञ्चमः ॥ ४७ ॥
अपीनसः पूतिनासो नासार्शोभ्रंशथुः क्षयः।
नासानाहः पूतिरक्तमर्बुदं दुष्टपीनसम् ॥ ४८ ॥
नासाशोषोघ्राणपाकः पूयस्रावश्च दीप्तकः ।
तथा दश शिरोरोगा वातेनार्धावभेदकः ॥ ४९ ॥
शिरस्तापश्च वातेन पित्तपीडा तृतीयका ।
चतुर्थी कफजा पीडा रक्तजा सन्निपातजा ॥ १५० ॥
सूर्यावर्ताच्छिरःकम्पात्क्रिमिभिः शङ्खकेन च ।
तथा कपालरोगाः स्युर्नव तेषूपशीर्षकम् ॥५१॥
अरुंषिका विद्रधिश्च दारुणं पिटिकाऽर्बुदम्।
इन्द्रलुप्तं च खलतिः पलितं चेति ते नव ॥ ५२ ॥
तथा नेत्रभवाः ख्याताश्चतुर्नवतिरामयाः ।
तेषु वर्त्मगदाः प्रोक्ताश्चतुर्विंशतिसंज्ञकाः ॥ ५३ ॥
कृच्छ्रोन्मीलः पक्ष्मपातः कफोत्क्लिष्टश्च लोहितः।
अरुङ्मिमेषःकथितो रक्तोत्क्लिष्टः कुकूणकः ॥ ५४ ॥
पक्षमार्शः पक्ष्मरोधश्च पित्तोत्क्लिष्टश्च पोथकी।
क्लिष्टवर्त्माच बहलः पक्ष्मोत्संगस्तथार्बुदम् ॥ ५५ ॥
कुम्भिका सिकतावर्त्मलगणोऽञ्जननामिका ।
कर्दमः श्याववर्त्माच बिसवर्त्मातथाऽलजी ॥ ५६ ॥
उत्क्लिष्टवर्त्मेति गदाः प्रोक्ता वर्त्मसमुद्भवः ।
नेत्रसंधिसमुद्भूता नव रोगाः प्रकीर्तिताः ॥ ५७ ॥
जलस्रावः कफस्रावो रक्तस्रावश्च पर्वणी ।
पूयस्त्रावः क्रिमिग्रन्थिरुपनाहस्तथाऽलजी ॥ ५८ ॥
पूयालस इति प्रोक्ता रोगा नयनसंधिजाः ।
तथा शुक्लगता रोगा बुधैः प्रोक्तास्त्रयोदश ॥ ५९ ॥
शिरोत्पातः शिराहर्ष शिराजालं च शुक्लिका।
शुक्लार्म चाधिमांसार्म प्रस्तार्यर्मच पिष्टकः ॥ १६० ॥
शिराजपिटिका चैव कफग्रथितकोऽर्जुनः ।
स्नाय्वर्म शोणितार्मस्यादिति शुक्लगता गदाः ॥ ६१ ॥
तथा कृष्णसमुद्भूताः पञ्च रोगाः प्रकीर्तिताः ।
शुद्धशुक्रं शिराशुक्रं क्षतशुक्रं तथाऽजका ॥ ६२ ॥
शिरासंगश्च सर्वेऽपि प्रोक्ता कृष्णगता गदाः।
काचं तु षड्विधं ज्ञेयंवातात्पित्तात्कफादपि ॥ ६३ ॥
सन्निपाताच्च रक्ताच्चषष्ठंसंसर्गसंभवम् ।
तिमिराणि पडेव स्युर्वातपित्तकफैस्त्रिधा ॥ ६४ ॥
संसर्गेण च रक्तेन षष्ठं स्यात्संनिपाततः ।
लिङ्गनाशः सप्तधा स्याद्वातात्पित्तात्कफेन च ॥ ६५ ॥
त्रिदोषैरुपसर्गेण संसर्गेणासृजा तथा ।
अष्टधा दृष्टिरोगाः स्युस्तेषुपित्तविदग्धकम् ॥ ६६ ॥
अम्लपित्तविदग्धं च तथैवोष्णविदग्धकम् ।
नकुलान्ध्यं धूसरान्ध्यं रात्र्यान्ध्यं ह्रस्वदृष्टिकः ॥ ६७ ॥
गम्भीरदृष्टिरित्येते रोगा दृष्टिगता मताः ।
चत्वारश्चाधिमन्थाः स्युर्वातपित्तकफास्रतः ॥ ६८ ॥
अभिष्यन्दाश्च चत्वारो रक्ताद्दोषैस्त्रिभिस्तथा।
सर्वाक्षिरोगाश्चाष्टौ स्युस्तेषुवातविपर्ययः ॥ ६९ ॥
अल्पशोफोऽन्यतोवातस्तथा पाकात्ययः स्मृतः ।
शुष्काक्षिपाकश्च तथा शोकोऽध्युपित एव च ॥ १७० ॥
हताधिमन्थ इत्येते रोगाः सर्वाक्षिसंभवाः ।
पुंस्त्वदोषास्तु पञ्चैव प्रोक्तास्तत्रेर्ष्यकः स्मृतः ॥ ७१ ॥
आसेक्यश्चैव कुम्भीकः सुगन्धिः षण्ढसंज्ञकः।
शुक्रदोषास्तथाष्टौ स्युर्वातापित्तात्कफेन च ॥ ७२ ॥
कुणपं श्लेष्मवाताभ्यां पूयाभं श्लेष्मपित्ततः।
क्षीणं च वातपित्ताभ्यां ग्रन्थिलं श्लेष्मवाततः ॥ ७३ ॥
मलाभं संनिपाताच्च शुक्रदोषाइतीरिताः।
अथ स्त्रीरोगनामानि प्रोच्यन्ते पूर्वशास्त्रतः ॥ ७४ ॥
अष्टावार्तवदोषाःस्युर्वातपित्तकफैस्त्रिधा।
पूयाभं कुणपं ग्रन्थिं क्षीणं मलसमं तथा ॥ ७५ ॥
तथा च रक्तप्रदरं चतुर्विधमुदाहृतम् ।
वातपित्तकफैस्त्रेधा चतुर्थंसनिपाततः ॥ ७६ ॥
विंशतिर्योनिरोगाः स्युर्वातात्पित्तात्कफादपि ।
संनिपाताच्च रक्ताच्च लोहितक्षयतस्तथा ॥ ७७ ॥
शुष्काच वामिनी चैव पण्डितान्तर्मुखी तथा ।
सूचीमुखी विप्लुता च जातघ्नी च परिप्लुता ॥ ७८ ॥
उपप्लुता प्राक्वरणा महायोनिश्च कर्णिनी ।
स्यान्नन्दा चातिचरणा योनिरोगा इतीरिताः ॥ ७९ ॥
चतुर्विधं योनिकन्दं वातपित्तकफैस्त्रिधा ।
चतुर्थ संनिपातेन तथाष्टौ गर्भजा गदाः ॥ १८० ॥
उपविष्टकगर्भः स्यात्तथा नागोदरः स्मृतः ।
मक्कल्लो मूढगर्भश्च विष्कम्भो गूढगर्भकः ॥ ८१ ॥
जरायुदोषोगर्भस्य पातश्चाष्टमकः स्मृतः ।
पञ्चैव स्तनरोगाः स्युर्वातापित्तात्कफादपि ॥ ८२ ॥
संनिपातात्क्षताच्चैव तथा स्तन्योद्भवा गदाः।
बालरोगेषु कथिताः स्त्रीदोषाश्च त्रयः स्मृताः ॥ ८३ ॥
अदक्षपुरुषोत्पन्नः सपत्नीविहितस्तथा ।
दैवाज्जातस्तृतीयस्तु तथा च सूतिकागदाः ॥ ८४ ॥
ज्वरादयश्चिकित्स्यास्ते यथादोषंयथाबलम् ।
द्वाविंशतिर्बालरोगास्तेषुक्षीरभवास्त्रयः ॥ ८५ ॥
वातात्पित्तात्कफाच्चैव दन्तोद्भेदश्चतुर्थकः ।
दन्तघातो दन्तशब्दोऽकालदन्तोऽहिपूतनम् ॥ ८६ ॥
मुखपाको मुखस्त्रावो गुदपाकोपशीर्षके ।
पद्मारुणस्तालुकण्टो विच्छिन्नं पारिगर्भिकः ॥ ८७ ॥
दौर्बल्यं गात्रशोषश्च शय्यामूत्रं कुकूणकः ।
रोदनं चाजगल्ली स्यादिति द्वाविंशतिः स्मृताः ॥ ८८ ॥
तथा बालग्रहाः ख्याता द्वादशैव मुनीश्वरैः ।
स्कन्दग्रहो विशाखः स्याच्छ्वग्रहश्च पितृग्रहः ॥ ८९ ॥
नैगमेयग्रहस्तद्वच्छकुनिः शीतपूतना ।
मुखमण्डिनिका तद्वत्पूतना चान्धपूतना ॥ १९० ॥
रेवती चैव संख्याता तथा स्थाच्छुष्करेवती ।
तथा चरणभेदास्तु वातरक्तादिकाश्च ये ॥ ९१ ॥
द्विचत्वारिंशदुक्तास्ते रोगेष्वेव मुनीश्वरैः।
द्विषष्टिर्दोषभेदाः स्युः संनिपातादिकाश्च ये ॥ ९२ ॥
तेऽपि रोगेषुगणिताः पृथक्प्रोक्तान ते क्वचित् ।
हीनमिथ्यातियोगानां भेदैःपञ्चदशोदिताः ॥ ९३ ॥
पञ्चकर्मभवा रोगा रोगष्वेव प्रकीर्तिताः।
स्नेहस्वेदौतथा धूमो गण्डूषोऽञ्जनतर्पणे ॥ ९४ ॥
पीडा अष्टादशैतज्जास्ताश्च रोगेषुलक्षिताः।
शीतोपद्रव एकः स्यादेकश्चोष्णोद्भवो मतः ॥ ९५ ॥
शल्योपद्रव एकश्च क्षाराच्चैकः स्मृतस्तथा ।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं च त्रिधा विषम् ॥ ९६ ॥
तेषां च कालकूटाद्यैर्नवधा स्थावरं विषम् ।
जङ्गमं बहुधा प्रोक्तं तत्र लूता भुजङ्गमाः ॥ ९७ ॥
वृश्चिका मूषिकाः कीटाः प्रत्येकं ते चतुर्विधाः ।
दंष्ट्राविषनखविषंवालशृङ्गास्थिभिस्तथा ॥ १८ ॥
मूत्रात्पुरीषाच्छुक्राच्चदृष्टेर्निश्वासतस्तथा ।
लालायाः स्पर्शतस्तद्वत्तथा शङ्काविषंमतम् ॥ ९९ ॥
कृत्रिमं द्विविधं प्रोक्तं गरदूषीविभेदतः।
सप्तधातुविषंज्ञेयं तथा सप्तोपधातुजम् ॥ २०० ॥
तथैवोपविषेभ्यश्च जातंसप्तविधं मतम् ।
दुष्टनीरविषं चैकं तथैकं दिग्धजं विषम् ॥ १ ॥
कपिकच्छुभवा कण्डूर्दुष्टनीरभवा तथा ।
तथा सूरककण्डूश्च शोथो भल्लातजस्तथा ॥ २ ॥
मदश्चतुर्विधश्चान्यः पूगभङ्गाक्षकोद्रवैः।
चतुर्विधोऽन्यो द्रव्याणां फलत्वङ्मूलपत्रजः ॥३॥
इति प्रसिद्धा गणिता ये किलोपद्रवा भुवि ।
असंख्याश्चापरे धातुमूलजीवादिसंभवाः ॥ २०४ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां पूर्वखण्डे रोगगणना
नाम सप्तमोऽध्यायः।
पूर्वखण्डः समाप्तः ॥ श्लोकसंख्या ॥ ४५३ ॥
मध्यमखण्डः।
प्रथमोऽध्यायः ।
पञ्च कषायाः
अथातः स्वरसः कल्कः क्वाथश्च हिमफाण्टकौ।
ज्ञेयाः कषायाः पञ्चैते लघवः स्युर्यथोत्तरम् ॥ १ ॥
स्वरसः
अहतात्तत्क्षणाकृष्टाद्द्रव्यात्क्षुण्णात्समुद्धरेत् ।
वस्त्रनिष्पीडितो यः स रसः स्वरस उच्यते ॥ २ ॥
कुडवं चूर्णितं द्रव्यं क्षिप्तं च द्विगुणे जले ।
अहोरात्रं स्थितं तस्माद्भवेद्वा रस उत्तमः ॥ ३ ॥
आदाय शुष्कद्रव्यं वा स्वरसानामसंभवे ।
जलेऽष्टगुणिते साध्यं पादशिष्टं च गृह्यते ॥ ४ ॥
स्वरसस्य गुरुत्वाच्च पलमर्धंप्रयोजयेत् ।
निशोषितं चाग्निसिद्धं पलमात्रंरसं पिबेत् ॥ ५ ॥
मधुश्वेतागुडक्षाराञ्जीरकं लवणं तथा ।
घृतं तैलं च चूर्णादीन्कोलमात्रानूरसे क्षिपेत् ॥ ६ ॥
अमृताया रसः क्षौद्रयुक्तः सर्वप्रमेहजित् ।
हरिद्राचूर्णयुक्तो वा रसो धात्र्याःसमाक्षिकः ॥ ७ ॥
वासकः स्वरसः पेयो मधुना रक्तपित्तजित्।
ज्वरकासक्षयहरः कामलाश्लेष्मपित्तहा ॥ ८॥
त्रिफलाया रसः क्षौद्रयुक्तो दार्वीरसोऽथ वा।
निम्बस्य वा गुडूच्या वा पीतो जयति कामलाम् ॥ ९ ॥
पीतो मरिचचूर्णेन तुलसीपत्रजो रसः।
द्रोणपुष्पीरसो वापि निहन्ति विषमज्वरान् ॥ १० ॥
जम्ब्वाम्रामलकीनां च पल्लवोत्थो रसो जयेत् ।
मध्वाज्यक्षीरसंयुक्तो रक्तातीसारमुल्बणम् ॥ ११ ॥
स्थूलबब्बूलिकापत्ररसः पानाव्द्यपोहति ।
सर्वातिसारान्स्योनाककुटजत्वग्रसोऽथवा ॥ १२ ॥
आर्द्रकस्वरसः क्षौद्रयुक्तो वृषणवातनुत् ।
श्वासकासारुचीर्हन्ति प्रतिश्यायं व्यपोहति ॥ १३ ॥
बीजपूररसः पानान्मधुक्षारयुतो जयेत् ।
पार्श्वहृद्बस्तिशूलानि कोष्ठवायुं च दारुणम् ॥ १४ ॥
शतावर्याश्च मधुना पित्तशूलहरो रसः ।
निशाचूर्णयुतः कन्यारसः प्लीहापचीहरः ॥ १५ ॥
अलम्बुपायाः स्वरसः पीतो द्विपलमात्रया ।
अपचीगण्डमालानां कामलायाश्च नाशनः ॥ १६ ॥
शशमुण्डरसः कोष्णो मरीचैरवधूलितः ।
जयेत्सप्तदिनाभ्यासात्सूर्यावर्तार्धभेदकौ॥ १७ ॥
ब्राह्मीकूष्माण्डषड्ग्रन्थाशङ्खिनीस्वरसाःपृथक्।
मधुकुष्ठयुताः पीताः सर्वोन्मादापहारिणः ॥ १८ ॥
कूष्माण्डकस्य स्वरसो गुडेन सह योजितः ।
दुष्टकोद्रवसंजातमदं पानाव्द्यपोहति ॥ १९ ॥
खड्गादिच्छिन्नगात्रस्य तत्कालं पूरितो व्रणः ।
गाङ्गेरुकीमूलरसैर्जायते गतवेदनः ॥ २० ॥
पुटपाकः
पुटपाकस्य कल्कस्य स्वरसो गृह्यते यतः ।
अतस्तु पुटपाकानां युक्तिरत्रोच्यते मया ॥ २१ ॥
पुटपाकस्य मात्रेयं लेपस्याङ्गारवर्णता।
लेपं चव्द्यङ्गुलं स्थूलं कुर्याद्वाङ्गुष्ठमात्रकम् ॥ २२ ॥
काश्मरीवटजम्ब्वादिपत्रैर्वेष्टनमुत्तमम् ।
पलमात्रं रसो ग्राह्यः कर्षमात्रंमधु क्षिपेत् ॥ २३ ॥
कल्कचूर्णद्रवाद्यास्तु देयाः स्वरसवद्बुधैः।
तत्कालाकृष्टकुटजत्वचं तण्डुलवारिणा ॥ २४ ॥
पिष्टां चतुष्पलमितां जम्बूपल्लववेष्टिताम् ।
सूत्रेण बद्धां गोधूमपिष्टेन परिवेष्टिताम् ॥ २५॥
लिप्तां च घनपङ्केन गोमयैर्वह्निना दहेत् ।
अङ्गारवर्णांच मृदं दृष्ट्वा वह्नेः समुद्धरेत् ॥ २६ ॥
ततो रसं गृहीत्वा च शीतं क्षौद्रयुतं पिबेत् ।
जयेत्सर्वानतीसारान्दुस्तरान्सुचिरोत्थितान् ॥ २७ ॥
कण्डितं तण्डुलपलं जलेऽष्टगुणिते क्षिपेत् ।
भावयित्वा जलं ग्राह्यं देयं सर्वत्र कर्मसु॥ २८॥
अरलुत्वक्कृतश्चैव पुटपाकोऽग्निदीपनः ।
मधुमोचरसाभ्यां च युक्तः सर्वातिसारनुत् ॥ २९॥
न्यग्रोधादेश्च कल्केन पूरयेद्गौरतित्तिरेः ।
निरन्त्रमुदरं सम्यक्पुटपाकेन तत्पचेत् ॥ ३० ॥
तत्कल्कस्य रसः क्षौद्रयुक्तः सर्वातिसारनुत् ।
पुटपाकेन विपचेत्सुपक्वंदाडिमीफलम् ॥ ३१ ॥
तद्रसो मधुसंयुक्तः सर्वातीसारनाशनः ।
बीजपूराम्रजम्बूनां पल्लवानि जटाः पृथक् ॥ ३२ ॥
विपचेत्पुटपाकेन क्षौद्रयुक्तश्च तद्रसः ।
छर्दि निवारयेद्घोरां सर्वदोषसमुद्भवाम् ॥ ३३ ॥
पिष्टानां वृषपत्राणां पुटपाकरसो हिमः ।
मधुयुक्तो जयेद्रक्तपित्तकासज्वरक्षयान् ॥ ३४ ॥
पचेत्क्षुद्रां सपञ्चाङ्गां पुटपाकेन तद्रसः ।
पिप्पलीचूर्णसंयुक्तः कासश्वासकफापहः ॥ ३५ ॥
बिभीतकफलं किचिद्धृतेनाभ्यज्य लेपयेत् ।
गोधूमपिष्टेनाङ्गारैविपचेत्पुटपाकवत् ॥ ३६॥
ततः पक्वं समुद्धृत्य त्वचं तस्य मुखे क्षिपेत् ।
कासश्वासप्रतिश्यायस्वरभङ्गाञ्जयेत्ततः ॥ ३७ ॥
चूर्णं किंचिद्धृताभ्यक्तं शुण्ठ्या एरण्डजैर्दलैः।
वेष्टितं पुटपाकेन विपचेन्मन्दवह्निना ॥ ३८ ॥
तत उद्धृत्य तच्चूर्णं ग्राह्यंप्रातः सितासमम् ।
तेन यान्ति शमं पीडा आमातीसारसंभवा ॥ ३९ ॥
शुण्ठीकल्कं विनिक्षिप्य रसेरेरण्डमूलजैः।
विपचेत्पुटपाकेन तद्रसः क्षौद्रसंयुतः ॥ ४० ॥
आमवातसमुद्भूतां पीडां जयति दुस्तराम् ।
सौरणं कन्दमादाय पुटपाकेन पाचयेत् ॥ ४१ ॥
सतैललवणस्तस्य रसश्चार्शोविकारनुत् ।
शरावसंपुटे दग्धं शृङ्गं हरिणजं पिबेत् ॥ ४२ ॥
गव्येन सर्पिषायुक्तं हृच्छुलं नाशयेद्ध्रुवम् ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे स्वरसादि
कल्पनानाम प्रथमोऽध्यायः ॥
द्वितीयोध्यायः।
क्वाथकल्पना
पानीयं षोडशगुणं क्षुण्णे द्रव्यपले क्षिपेत् ।
मृत्पात्रे क्वाथयेद्ग्राह्यमष्टमांशावशेषितम् ॥ १ ॥
तज्जलं पाययेद्धीमान्कोष्णं मृद्वग्निसाधितम् ।
शृतः क्वाथः कषायश्च निर्व्यूहः स निगद्यते ॥ २॥
आहाररसपाके च संजाते द्विपलोन्मितम् ।
वृद्धवैद्योपदेशेन पिबेत्क्वाथं सुपाचितम् ॥ ३ ॥
क्वाथे क्षिपेत्सितामंशैश्चतुर्थाष्टमषोडशैः।
वातपित्तकफातङ्के विपरीतं मधु स्मृतम् ॥ ४ ॥
जीरकं गुग्गुलुं क्षारं लवणं च शिलाजतु ।
हिङ्गु त्रिकटुकं चैव क्वाथे शाणोन्मितं क्षिपेत् ॥ ५ ॥
क्षीरं घृतं गुडं तैलं मूत्रंचान्यद्द्रवं तथा ।
कल्कं चूर्णादिकं क्वाथे निक्षिपेन्कर्षसंमितम् ॥ ६॥
अपिधानमुखे पात्रे जलं दुर्जरतां व्रजेत् ।
तस्मादावरणं त्यक्त्वा क्वाथादीनां विनिश्चयः ॥ ७ ॥
गुडूचीधान्यकारिष्टरक्तचन्दनपद्मकैः।
गुडूच्यादिगणक्वाथः सर्वज्वरहरः स्मृतः ॥ ८ ॥
दीपनो दाहहृल्लासतृष्णाछद्यरुचीर्जयेत् ।
नागरं देवकाष्ठं च धान्यकं बृहतीद्वयम् ॥ ९ ॥
दद्यात्पाचनकं पूर्वं ज्वरितानां ज्वरापहम् ।
क्षुद्रा किराततिक्तं च शुण्ठी छिन्ना च पौष्करम् ॥१०॥
कषाय एषांशमयेत्पीतश्चाष्टविधं ज्वरम् ।
गुडूचीपिप्पलीमूलनागरैःपाचनं स्मृतम् ॥ ११॥
दद्याद्वातज्वरे पूर्णलिङ्गे सप्तमवासरे।
शालिपर्णी बला द्राक्षा गुडूची सारिवा तथा ॥ १२ ॥
आसां क्वाथं पिबेत्कोष्णं तीव्रवातज्वरच्छिदम् ।
काश्मरीसारिवाद्राक्षात्रायमाणामृताभवः ॥ १३ ॥
कषायः सगुडः पीतो वातज्वरविनाशनः ।
कट्फलेन्द्रयवापाठातिक्तामुस्तैः शृतं जलम् ॥ १४ ॥
पाचनं दशमेऽह्नि स्यात्तीव्रेपितज्वरे नृणाम् ।
पर्पटो वासकस्तिक्ता कैरातो धन्वयासकः ॥ १५ ॥
प्रियङ्गुश्च कृतः क्वाथ एषांशर्करया युतः ।
पिपासादाहपित्तास्त्रयुतं पित्तज्वरं जयेत् ॥ १६ ॥
द्राक्षा हरीतकी मुस्तं कटुकी कृतमालकः ।
पर्पटश्च कृतः क्वाथ एषांपित्तज्वरापहः ॥ १७ ॥
तृण्मूर्च्छादाहपित्तासृक्शमनो भेदनः स्मृतः ।
एकः पर्पटकः श्रेष्ठः पित्तज्वरविनाशनः ॥ १८ ॥
किं पुनर्यदि युज्येत चन्दनोशीरवालकैः ।
बीजपूरशिफापथ्यानागरग्रन्थिकैः शृतम् ॥ १९ ॥
सक्षारं पाचनं श्लेष्मज्वरे द्वादशवासरे ।
भूनिम्बनिम्बपिप्पल्यः शठी शुण्ठी शतावरी ॥ २० ॥
गुडूची बृहती चेति क्वाथो हन्यात्कफज्वरम् ।
पटोलत्रिफलातिक्ताशठीवासामृताभवः ॥ २१ ॥
क्वाथो मधुयुतः पीतो हन्यात्कफकृतं ज्वरम् ।
पर्पटाब्दामृताविश्वकैरातैः साधितं जलम् ॥ २२ ॥
पञ्चभद्रमिदं ज्ञेयं वातपित्तज्वरापहम् ।
क्षुद्राशुण्ठीगुडूचीनां कषायः पौष्करस्य च ॥ २३ ॥
कफवाताधिके पेयो ज्वरे वापि त्रिदोषजे ।
कासश्वासारुचिकरे पार्श्वशूलविधायिनि ॥ २४ ॥
आरग्वधकणामूलमुस्तातिक्ताभयाकृतः ।
क्वाथः शमयति क्षिप्रं ज्वरं वातकफोद्भवम् ॥ २५ ॥
आमशूलप्रशमनो भेदी दीपनपाचनः।
अमृतारिष्टकटुकामुस्तेन्द्रयवनागरैः॥ २६ ॥
पटोलचन्दनाभ्यां च पिप्पलीचूर्णयुवशृतम् ।
अमृताष्टकमेतच्च पित्तश्लेष्मज्वरापहम् ॥ २७ ॥
छर्द्यरोचकहृल्लासदाहतृष्णाविनाशनम् ।
पटोलं चन्दनं मूर्वातिक्तापाठामृतागणः ॥ २८ ॥
पित्तश्लेष्मज्वरच्छर्दिदाहकण्डूविपापहः ।
कण्टकारीद्वयं शुण्ठी धान्यकं सुरदारु च ॥ २९ ॥
एभिः शृतं पाचनं स्यात्सर्वज्वरविनाशनम् ।
शालिपर्णीपृष्ठिपर्णीबृहतीद्वयगोक्षुरैः ॥ ३० ॥
बिल्वाग्निमन्थस्योनाककाश्मरीपाटलायुतैः ।
दशमूलमिति ख्यातं क्वथितं तज्जलं पिबेत् ॥ ३१ ॥
पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं वातश्लेष्मज्वरापहम् ।
संनिपातज्वरहरं सूतिकादोषनाशनम् ॥ ३२ ॥
शोषशैत्यभ्रमस्वेदकासश्वासविकारनुत् ।
हृत्कण्ठग्रहपार्श्वार्तितन्द्रामस्तकशूलहृत् ॥ ३३ ॥
अभयामुस्तधान्याकरक्तवन्दनपद्मकैः।
वासकेन्द्रयवोशीरगुडूचीकृतमालकैः ॥ ३४ ॥
पाठानागरतिक्ताभिः पिप्पलीचूर्णयुक्शृतम् ।
पिबेन्त्रिदोषज्वरजित्पिपासाकासदाहनुत् ॥ ३५ ॥
प्रलापश्वासतन्द्राघ्नं दीपनं पाचनं परम् ।
विण्मूत्रानिलविष्टम्भवमिशोषारुचिच्छिदम् ॥ ३६ ॥
“पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचिसकनागरैः ।
वचासातिविषाजाजीपाठावत्सकरेणुकैः ॥ ३७ ॥
किराततिक्तकं मूर्वा सर्षपा मरिचानि च ।
कटुकं पुष्करं भार्ङ्गीविडङ्गं कर्कटाह्वयम् ॥ ३८ ॥
अर्कमूलं बृहत्सिंही श्रेयसी सदुरालभा।
दीप्यकं चाजमोदा च शुकनासादिहिङ्गुभिः ॥ ३९॥
एतानि समभागानि गणोऽष्टाविंशको मतः ।
कषायमुपभुञ्जीत वातश्लेष्मज्वरापहम् ॥ ४० ॥
हन्ति वातं तथा शीतं छेदजं प्रबलं कफम् ।
प्रलापं चातिनिद्रां च रोमहर्षारुची तथा ॥ ४१ ॥
महावातेऽपतन्त्रे च सर्वगात्रेच शून्यताम् ।
अयं सर्वज्वरान्हन्ति संनिपातांस्त्रयोदश ॥ ४२ ॥”
कैरातकटुकीमुस्ताधान्येन्द्रयवनागरैः।
दशमूलमहादारुगजपिप्पलिकायुतैः ॥ ४३ ॥
कृतः कषायः पार्श्वर्तिसंनिपातज्वरं जयेत् ।
कासश्वासदमीहिक्कातन्द्राहृद्ग्रहनाशनः ॥ ४४ ॥
कटूफलाम्बुदभार्ङ्गीभिर्धान्यरोहिपपर्पटैः ।
वचाहरीतकीशृङ्गीदेवदारुमहौषधैः ॥ ४५ ॥
क्वाथः कासं ज्वरं हन्ति श्वासश्लेष्मगलग्रहान् ।
क्वाथो जीर्णज्वरं हन्ति गुडच्याः पिप्पलीयुतः ॥ ४६ ॥
तथा पर्पटजः क्वाथः पित्तज्वरहरः परः ।
किं पुनर्यदि युज्येत चन्दनोदीच्यनागरैः ॥ ४७ ॥
निदिग्धिकामृताशुण्ठीकषायं पाययेद्भिषक्।
पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं श्वासकासार्दितापहम् ॥४८॥
पीनसारुचिवैस्वर्यशूलाजीर्णज्वरच्छिदम् ।
देवदारु वचा कुष्ठंपिप्पली विश्वभेषजम् ॥ ४९ ॥
कटूफलं मुस्तभूनिम्बतिक्तधान्या हरीतकी ।
गजकृष्णा च दुःस्पर्शा गोक्षुरुर्धन्वयासकम् ॥ ५० ॥
बृहत्यतिविषा छिन्ना कर्कटं कृष्णजीरकम् ।
क्वाथमष्टावशेषं तु प्रसूतां पाययेत्स्त्रियम् ॥ ५१ ॥
शूलकासज्वरश्वासमूर्छाकम्पशिरोऽर्तिजित् ।
क्षुद्राधान्यकशुण्ठीभिर्गुडूचीमुस्तपद्मकैः ॥ ५२ ॥
रक्तचन्दनभूनिम्बपटोलवृषपौष्करैः ।
कटुकेन्द्रयवाऽरिष्टभार्ङ्गीपर्पटकैः समैः॥ ५३ ॥
क्वाथं प्रातर्निषेवेत सर्वशीतज्वरच्छिदम् ।
मुस्ताक्षुद्रामृताशुण्ठीधात्रीक्वाथः समाक्षिकः ॥ ५४ ॥
पिप्पलीचूर्णसंयुक्तो विषमज्वरनाशनः ।
पटोलेन्द्रयवादारुत्रिफलामुस्तगोस्तनैः ॥ ५५ ॥
मधुकामृतवासानां क्वाथं क्षौद्रयुतं पिबेत् ।
संतते सतते चैव द्वितीयकतृतीयके ॥ ५६ ॥
ऐकाहिके वा विषमे दाहपूर्वे नवज्वरे।
पटोलत्रिफलानिम्बद्राक्षाशम्याकवासकैः ॥ ५७ ॥
क्वाथः सितामधुयुतो जयेदैकाहिकं ज्वरम् ।
गुडूचीधान्यमुस्ताभिश्चन्दनोशीरनागरैः ॥ ५८ ॥
कृतं क्वाथं पिबेत्क्षौद्रसितायुक्तं ज्वरातुरः ।
तृतीयज्वरनाशाय तृष्णादाहनिवारणम् ॥ ५९॥
देवदारुशिवावासाशालिपर्णीमहौषधैः ।
धात्रीयुतं शृतं शीतं दद्यान्मधुसितायुतम् ॥ ६० ॥
चातुर्थिकज्वरे श्वासे कासे मन्दानले तथा ।
गुडूचीधान्यकोशीरशुण्ठीवालकपर्पटैः ॥ ६१ ॥
बिल्वप्रतिविषापाठा रक्तचन्दनवत्सकैः ।
किरातमुस्तेन्द्रयवैः क्वथितं शिशिरं पिबेत् ॥ ६२ ॥
सक्षौद्रं रक्तपित्तघ्नं ज्वरातीसारनाशनम् ।
नागरं कुटजो मुस्तममृतातिविषातथा ॥ ६३ ॥
एभिः कृतं पिबेत्क्वाथःज्वरातीसारनाशनम् ।
धान्यवालकबिल्वाब्दनागरैः साधितं जलम् ॥ ६४ ॥
आमशूलहरं ग्राही दीपनं पाचनं परम् ।
धान्यनागरजः क्वाथः पाचनो दीपनस्तथा ॥ ६५ ॥
एरण्डमूलयुक्तश्च जयेदामानिलव्यथाम् ।
वत्सकातिविषाबिल्वमुस्तवालकजः शृतः ॥६६॥
अतीसारं जयेत्सामं चिरजं रक्तशूलजित् ।
कुटजातिविषापाठाधातकीलोध्रमुस्तकैः ॥ ६७ ॥
ह्रीबेरदाडिमयुतैः कृतः क्वाथः समाक्षिकः ।
पेयो मोचरसेनैव कुटजाष्टकसंज्ञकः ॥ ६८॥
अतीसाराञ्जयेद्दाहरक्तशूलामदुस्तरान् ।
ह्रीबेरधातकीलोध्रपाठालज्जालुवत्सकैः ॥ ६९ ॥
धान्यकातिविषामुस्तागुडूचीबिल्वनागरैः ।
कृतः कषायः शमयेदतीसार चिरोत्थितम् ॥ ७० ॥
अरोचकामशूलास्रज्वरघ्नः पाचनः स्मृतः ।
धातकीबिल्वरोध्राणि वालकं गजपिप्पली ॥ ७१ ॥
एभिः कृतं शृतं शीतं शिशुभ्यः क्षौद्रसंयुतम् ।
प्रदद्यादवलेहं वा सर्वातीसारशान्तये ॥ ७२ ॥
शालिपर्णीबलाबिल्वधान्यशुण्ठीकृतः शृतः ।
आध्मानशूलसहितां वातजां ग्रहणीं यजेत् ॥ ७३ ॥
गुडूच्यतिविषाशुण्ठीमुस्तैः क्वाथः कृतो जयेत् ।
आमानुपक्तां ग्रहणीं ग्राही पाचनदीपनः ॥ ७४ ॥
यवधान्यपटोलानां क्वाथः सक्षौद्रशर्करः ।
योज्यः सर्वातिसारेषुबिल्वाम्रास्थिभवस्तथा ॥ ७५ ॥
त्रिफला देवदारुश्च मुस्ता मूषककर्णिका ।
शिग्रुरेतैः कृतः क्वाथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः ॥ ७६ ॥
विडङ्गचूर्णयुक्तश्च कृमिघ्नः क्रिमिरोगहा।
फलत्रिकामृतातिक्तानिम्बकैरातवासकैः ॥ ७७ ॥
जयेन्मधुयुतः क्वाथः कामलां पाण्डुतां तथा।
पुनर्नवाभयानिम्बदार्वीतिक्तापटोलकैः ॥ ७८ ॥
गुडूचीनागरयुतैः क्वाथो गोमूत्रसंयुतः।
पाण्डुकासोदरश्वासशूलसर्वाङ्गशोथहा ॥ ७९ ॥
वासाद्राक्षाभयाक्वाथः पीतः सक्षौद्रशर्करः।
निहन्ति रक्तपित्तार्तिश्वासकासान्सुदारुणान् ॥ ८० ॥
रक्तपित्तं क्षयं कासं श्लेष्मपित्तज्वरं तथा।
केवलो वासकक्वाथः पीतः क्षौद्रेण नाशयेत् ॥ ८१ ॥
वासाक्षुद्रामृताक्वाथः क्षौद्रेण ज्वरकासहा ।
कासघ्नःपिप्पलीचूर्णयुक्तः क्षुद्राशृतस्तथा ॥ ८२ ॥
क्षुद्राकुलित्थवासाभिर्नागरेण च साधितः ।
क्वाथः पुष्करचूर्णाढ्यः श्वासकासौनिवारयेत् ॥ ८३ ॥
रेणुकापिप्पलीक्वाथो हिङ्गुकल्केन संयुतः ।
पानादेव हि पञ्चापि हिक्का नाशयति क्षणात् ॥ ८४ ॥
बिल्वत्वचो गुडूच्या वा क्वाथः क्षौद्रेण संयुतः।
जयेत्त्रिदोषजां छर्दिं पर्पटः पित्तजां तथा ॥ ८५ ॥
हिङ्गुपुष्करचूर्णाढ्यं दशमूलशृतं जयेत् ।
गृध्रसीं केवलः क्वाथः शेफालीपत्रजस्तथा ॥ ८६ ॥
रास्नामृतामहादारुनागरैरण्डजैः शृतम् ।
सप्तधातुगते वाते सामे सर्वाङ्गजे पिबेत् ॥ ८७ ॥
रास्ना गोक्षुरकैरण्डदेवदारु पुनर्नवा ।
गुडूच्यारग्वधश्चैव क्वाथमेषांविपाचयेत् ॥ ८८ ॥
शुण्ठीचूर्णेन संयुक्तं पिबेज्जङ्घाकटीग्रहे ।
पार्श्वपृष्ठोरुपीडायामामवाते सुदुस्तरे ॥ ८९॥
रास्ना द्विगुणभागा स्यादेकभागास्ततः परे ।
धन्वयासबलैरण्डदेवदारुशठीवचा ॥ ९० ॥
वासको नागरं पथ्या चव्यामुस्तापुनर्नवा ।
गुडूची वृद्धदारुश्च शतपुष्पा च गोक्षुरः ॥ ९१ ॥
अश्वगन्धा प्रतिविषाकृतमालः शतावरी।
कृष्णा सहचरश्चैव धान्यकं बृहतीद्वयम् ॥ ९२ ॥
एभिः कृतं पिबेत्क्वाथंशुण्ठीचूर्णेन संयुतम् ।
कृष्णाचूर्णेन वा योगराजगुग्गुलुनाथ वा ॥ ९३ ॥
अजमोदादिना वापि तैलेनैरण्डजेन वा ।
सर्वाङ्गकम्पे कुब्जत्वे पक्षाघाते वबाहुके ॥ ९४ ॥
गृध्रस्यामामवाते च श्लीपदे चापतानके ।
अन्त्रवृद्धौतथाध्माने जङ्घाजानुगतेऽर्दिते ॥ ९५॥
शुक्रामये मेढ्ररोगे वन्ध्यायोन्यामयेषु च ।
महारास्नादिराख्यातो ब्रह्मणा गर्भकारणम् ॥ ९६ ॥
एरण्डो बीजपूरश्च गोक्षुरो बृहतीद्वयम् ।
अश्मभेदस्तथा बिल्व एतन्मूलैः कृतः शृतः ॥ ९७ ॥
एरण्डतैलहिड्ग्वादयः सयवक्षारसैन्धवः ।
स्तनस्कन्धकटीमेढ्रहृदयोत्थांव्यथां जयेत् ॥ ९८ ॥
नागरैरण्डजः क्वाथः क्वाथ इन्द्रयवस्य च ।
हिङ्गुसौवर्चलोपेतो वातशूलनिवारणः ॥ ९९ ॥
त्रिफलारग्वधक्वाथः शर्कराक्षौद्रसंयुतः।
रक्तपित्तहरो दाहपित्तशूलनिवारणः ॥ १०० ॥
एरण्डमूलं द्विपलं जलेऽष्टगुणिते पचेत् ।
तत्क्वाथो यावशूकाढ्यःपार्श्वहृत्कफशूलहा ॥ १ ॥
दशमूलकृत क्वाथः सयवक्षारसैन्धवः ।
हृद्रोगगुल्मशूलानि कासं श्वासं च नाशयेत् ॥ २ ॥
हरीतकीदुरालम्भाकृतमालकगोक्षुरैः।
पाषाणभेदसहितैः क्वाथो माक्षिकसंयुतः ॥३॥
विबन्धे मूत्रकृच्छ्रे च सदाहे सरुजे हितः।
वीरतरुर्वृक्षवन्दा काशः सहचरत्रयम् ॥ ४ ॥
कुशद्वयं नलो गुन्द्रा बकपुष्पोऽग्निमन्थकः ।
मूर्वा पाषाणभेदश्च स्योनाको गोक्षुरस्तथा ॥ ५॥
अपामार्गश्च कमलं ब्राह्मी चेति गणो वरः ।
वीरतर्वादिरित्युक्तः शर्कराश्मरिकृच्छ्रहा ॥ ६ ॥
मूत्राघातं वायुरोगान्नाशयेन्निखिलानपि ।
एलामधुकगोकण्टरेणुकैरण्डवासकाः ॥ ७ ॥
कृष्णाश्मभेदसहिताः क्वाथ एषांसुसाधितः ।
शिलाजतुयुतः पेयः शर्कराश्मरिकृच्छ्रहा ॥ ८ ॥
समूलगोक्षुरक्वाथः सितामाक्षिकसंयुतः।
नाशयेन्मूत्रकृच्छ्राणि तथा चोष्णसमीरणम् ॥ ९ ॥
वरादार्व्यब्ददार्वीणां क्वाथः क्षौद्रेण मेहहा।
वत्सकत्रिफलादार्वीमुस्तकोबीजकस्तथा ॥ ११० ॥
फलत्रिकाब्ददार्वीणां विशालायाः शृतं पिबेत् ।
निशाकल्कयुतं सर्वप्रभेहविनिवृत्तये ॥ ११ ॥
दार्वी रसाञ्जनं भुस्तंभल्लातः श्रीफलं वृषः।
कैरातश्च पिबेदेषां क्वाथं शीतं समाक्षिकम् ॥ १२ ॥
जयेत्सशूलं प्रदरं पीतश्वेतासितारुणम् ।
न्यग्रोधप्लक्षकोशाम्रवेतसा बदरी तुणिः ॥ १३ ॥
मधुयष्टी प्रियालश्च लोध्रद्वयमुदुम्बरः ।
पिप्पलश्च मधूकश्च तथा पारिसपिप्पलः ॥ १४ ॥
सल्लकी तिन्दुकी जम्बूद्वयमाम्रतरुः शिवा ।
कदम्बककुभौ चैव भल्लातकफलानि च ॥ १५ ॥
न्यग्रोधादिगणक्वाथं यथालाभं च कारयेत् ।
अयं क्वाथो महाग्राही व्रण्यो भग्नं च साधयेत् ॥ १६ ॥
योनिदोषहरो दाहमेदोमेहविषापहः ।
बिल्वोऽग्निमन्थः स्योनाकः काश्मरी पाटला तथा ॥१७॥
क्वाथ एषांजयेन्मेदोदोषंक्षौद्रेण संयुतः।
क्षौद्रेण त्रिफलाक्वाथः पीतो मेदोहरः स्मृतः ॥ १८ ॥
शीतीभूतं तथोष्णाम्बु मेदोहृत्क्षौद्रसंयुतम् ।
चव्यचित्त्रकविश्वानां साधितो देवदारुणा ॥ १९ ॥
क्वाथस्त्रिवृच्चूर्णयुतो गोमूत्रेणोदराञ्जयेत् ।
पुनर्नवामृतादारुपथ्यानागरसाधितः ॥ १२० ॥
गोमूत्रगुग्गुलुयुतः क्वाथः शोथोदरापहः।
पथ्यारोहितकक्वाथं यवक्षारकणायुतम् ॥ २१ ॥
पिबेत्प्रातर्यकृत्प्लीहगुल्मोदरनिवृत्तये ।
पुनर्नवा दारुनिशा निशा शुण्ठी हरीतकी ॥ २२ ॥
गुडूची चित्रको भार्ङ्गीदेवदारु च तैःशृतः।
पाणिपादोदरमुखप्राप्तं शोफं निवारयेत् ॥ २३ ॥
फलत्रिकोद्भवं क्वाथं गोमूणैव पाययेत् ।
वातश्लेष्मकृतं हन्ति शोथं वृषणसंभवम् ॥ २४ ॥
रास्नामृताबलायष्टीगोकण्टैरण्डजः शृतः।
एरण्डतैलसंयुक्तो वृद्धिमन्त्रभवां जयेत् ॥ २५ ॥
काञ्चनारत्वचः क्वाथः शुण्ठीचूर्णेन नाशयेत् ।
गण्डमालां तथा क्वाथः क्षौद्रेण वरुणत्वचः ॥ २६ ॥
शाखोटवल्कलक्वाथं गोमूत्रेण युतं पिबेत् ।
श्लीपदानां विनाशाय भेदोदोषनिवृत्तये ॥ २७ ॥
पुनर्नवावरुणयोः क्वाथोऽन्तर्विद्रधीञ्जयेत् ।
तथा शिग्रुभवः क्वाथो हिङ्गुसैन्धवसंयुतः ॥ २८ ॥
वरुणादिगणक्वाथमपक्वेमध्यविद्रधौ।
ऊषकादिरजोयुक्तं पिबेच्छमनहेतवे ॥ २९ ॥
वरुणो बकपुष्पश्च बिल्वापामार्गचित्रकाः।
अग्निमन्थद्वयं शिग्रुद्वयं च बृहतीद्वयम् ॥ १३० ॥
सैरेयकत्रयं मूर्वा मेषशृङ्गी किरातकः ।
अजशृङ्गी च बिम्बी च करञ्जश्चशतावरी ॥ ३१ ॥
वरुणादिगणक्वाथः कफमेदोहरः स्मृतः ।
हन्ति गुल्मं शिरःशूलं तथाभ्यन्तरविद्रधीन् ॥ ३२॥
खदिरत्रिफलाक्वाथो महिषीघृतसंयुतः।
विडङ्गचूर्णयुक्तश्च भगन्दरविनाशनः ॥ ३३ ॥
पटोलत्रिफलानिम्बकिरातखदिरासनैः।
क्वाथः पीतो जयेत्सर्वानुपदंशान्सगुग्गुलुः ॥ ३४ ॥
अमृतैरण्डवासानां क्वाथ एरण्डतैलयुक्।
पीतः सर्वाङ्गसंचारि वातरक्तं जयेद्ध्रुवम् ॥ ३५ ॥
पटोलं त्रिफला तिक्ता गुडूची च शतावरी ।
एतत्क्वाथो जयेत्पीतो वातास्रं दाहसंयुतम् ॥ ३६ ॥
क्वाथोऽवल्गुजचूर्णाढ्यो धात्रीखदिरसारयोः।
जयेत्सुशीलितो नित्यं श्वित्रं पथ्याशिनां नृणाम् ॥ ३७॥
मञ्जिष्ठा त्रिफला तिक्ता वचा दारुनिशामृता ।
निम्बश्चेषांकृतः क्वाथो वातरक्तविनाशनः ॥ ३८॥
पामाकपालिकाकुष्ठरक्तमण्डलजिन्मतः ।
मञ्जिष्ठामुस्तकुटजगुडूचीकुष्ठनागरैः ॥ ३९ ॥
भार्ङ्गीक्षुद्रावचानिम्बनिशाद्वयफलत्रिकैः ।
पटोलकटुकीमूर्वाविडङ्गासनचित्रकैः ॥ १४० ॥
शतावरीत्रायमाणाकृष्णेन्द्रयववासकैः ।
भृङ्गराजमहादारुपाठाखदिरचन्दनैः ॥ ४१ ॥
विवृद्वरुणकैरातबाकुचीकृतमालकै ।
शाखोटकमहानिम्बकरञ्जातिविषाजलैः ॥ ४२ ॥
इन्द्रवारुणिकानन्तासारिवापर्पटैः समैः ।
एभिः कृतं पिबेत्क्वाथंकणागुग्गुलुसंयुतम् ॥ ४३ ॥
अष्टादशसु कुष्ठेषुवातरक्तार्दिते तथा ।
उपदंशे श्लीपदे च प्रसुप्तौ पक्षघातके ॥ ४४ ॥
मेदोदोषे नेत्ररोगे मञ्जिष्ठादिप्रशस्यते ।
पथ्याक्षधात्रीभूनिम्बनिशानिम्बामृतायुतैः ॥ ४५ ॥
कृतः क्वाथः पडङ्गोऽयं सगुडः शीर्षशूलहृत् ।
भ्रूशङ्खकर्णशूलानि तथार्धशिरसो रुजम् ॥ ४६ ॥
सूर्यावर्तंशङ्खकं च दन्तपातं च तद्रुजम् ।
नक्तान्ध्यं पटलं शुक्रं चक्षुःपीडां व्यपोहति ॥ ४७ ॥
वासाविश्वामृतादार्वीरक्तचन्दनचित्रकैः ।
भूनिम्बनिम्बकटुकापटोलत्रिफलाम्बुदैः ॥ ४८ ॥
यवकालिङ्गकुटजैः क्वाथः सर्वाक्षिरोगहा ।
वैस्वर्यंपीनसं श्वासं नाशयेदुरसः क्षतम् ॥ ४९ ॥
अमृतात्रिफलाक्वाथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः।
सक्षौद्रःशीलितो नित्यं सर्वनेत्रव्यथां जयेत् ॥ १५० ॥
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षवटवेतसजं शृतम् ।
व्रणशोथोपदंशानां नाशनं क्षालनात्स्मृतम् ॥ ५१ ॥
प्रमथ्यादिकषायभेदः
प्रमथ्या प्रोच्यते द्रव्यपलात्कल्कीकृताच्छृतात् ।
तोयेऽष्टगुणिते तस्याः पानमाहुः पलद्वयम् ॥ ५२ ॥
मुस्तकेन्द्रयवैः सिद्धा प्रमथ्या द्विपलोन्मिता।
सुशीता मधुसंयुक्ता रक्तातीसारनाशिनी ॥ ५३ ॥
साध्यं चतुष्पलं द्रव्यं चतुःषष्टिपले जले।
तत्क्वाथेनार्धशिष्टेन यवागूं साधयेद्धनाम् ॥ ५४ ॥
आम्राम्रातकजम्बूत्वक्कपाये विपचेद्दुधः।
यवागूं शालिभिर्युक्तां तां भुक्त्वा ग्रहणीं जयेत् ॥५५॥
कल्कद्रव्यपलं शुण्ठी पिप्पली चार्धकार्पिकी।
वारिप्रस्थेन विपचेत्स द्रवो यूप उच्यते ॥ ५६ ॥
कुलित्थयवकोलैश्च मुद्गैर्मूलकग्रन्थिकैः ।
शुण्ठीधान्याकयुक्तैश्च यूपश्लेष्मानिलापहः ॥ ५७ ॥
सप्तमुष्टिक इत्येषसंनिपातज्वरं जयेत् ।
आमवातहरः कण्ठहृद्वक्राणां विशोधनः ॥ ५८ ॥
क्षुण्णं द्रव्यपलं साध्यं चतुःषष्ठिपले जले।
अर्धशिष्टं च तद्देयं पाने भक्तादिसंविधौ ॥ ५९॥
उशीरपर्पटोदीच्यमुस्तनागरचन्दनैः ।
जलं शृतं हिमं पेयं पिपासाज्वरनाशनम् ॥ १६० ॥
अष्टमेनांशशेषेण चतुर्थेनार्धकेन वा ।
अथवा क्वथनेनैव सिद्धमुष्णोदकं वदेत् ॥ ६१ ॥
श्लेष्मामवातमेदोघ्नं बस्तिशोधनदीपनम् ।
कासश्वासज्वरहरं पीतमुष्णोदकं निशि ॥ ६२ ॥
क्षीरमष्टगुणं द्रव्यात्क्षीरान्नीरं चतुर्गुणम् ।
क्षीरावशेषंतत्पीतं शूलमामोद्भवं जयेत् ॥ ६३ ॥
सर्वज्वराणां जीर्णानां क्षीरं भैषज्यमुत्तमम् ।
श्वासात्कासाच्छिरःशूलात्पाचशूलात्सपीनसात् ॥ ६४ ॥
मुच्यते ज्वरितः पीत्वा पञ्चमूलीशृतं पयः।
त्रिकण्टकबलाव्याघ्रीगुडनागरसाधितम् ॥ ६५॥
वर्चोमूत्रविबन्धघ्नं कफज्वरहरं पयः।
अन्नप्रक्रिया
अथान्नप्रक्रियान्नैव प्रोच्यते नातिविस्तरा ॥ ६६ ॥
यवागूः षड्गुणजले सिद्धा स्यात्कृशरा घना ।
तण्डुलैर्मुद्गमाषैश्च तिलैर्वा साधिता हिता ॥ ६७ ॥
यवागूर्ग्राहिणी बल्या तर्पणी वातनाशिनी ।
विलेपी घनसिक्था स्यात्सिद्धा नीरे चतुर्गुणे ॥ ६८ ॥
बृंहणी तर्पणी हृद्या मधुरा पित्तनाशिनी।
द्रवाधिका स्वल्पसिक्था चतुर्दशगुणे जले ॥ ६९ ॥
सिद्धा पेया बुधैर्ज्ञेया यूपः किंचिद्धनः स्मृतः ।
पेया लघुतरा ज्ञेया ग्राहिणी धातुपुष्टिदा ॥ १७० ॥
यूपो बल्यस्ततः कण्ठ्यो लघुपाकः कफापहः।
जले चतुर्दशगुणे तण्डुलानां चतुष्पलम् ॥ ७१ ॥
विपचेत्स्रावयेन्मण्डं स भक्तो मधुरो लघुः ।
नीरे चतुर्दशगुणे सिद्धो मण्डस्त्वसिक्थकः ॥ ७२ ॥
शुण्ठीसैन्धवसंयुक्तः पाचनो दीपनः परः ।
धान्यत्रिकटुसिन्धूत्थमुद्गतण्डुलयोजितः ॥ ७३ ॥
भृष्टश्च हिङ्गुतैलाभ्यां स मण्डोऽष्टगुणः स्मृतः ।
दीपनः प्राणदो बस्तिशोधनो रक्तवर्धनः ॥ ७४ ॥
ज्वरजित्सर्वदोषघ्नो मण्डोऽष्टगुण उच्यते ।
सुकण्डितैस्तथा भृष्टैर्वाढ्यमण्डो यवैर्भवेत् ॥ ७५ ॥
कफपित्तहरः कण्ठ्यो रक्तपित्तप्रसादनः ।
लाजैर्वा तण्डुलैर्भृष्टैर्लाजमण्डः प्रकीर्तितः ॥ १७६ ॥
श्लेष्मपित्तहरो ग्राही पिपासाज्वरजिन्मतः ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे क्वाथादि
कल्पना नाम द्वितीयोऽध्यायः ।
तृतीयोऽध्यायः।
**फाण्टकल्पना **
क्षुण्णे द्रव्यपले सम्यग्जलमुष्णं विनिक्षिपेत् ।
मृत्पात्रे कुडवोन्मानं ततस्तु स्रावयेत्पटात् ॥ १ ॥
स स्याच्चूर्णद्रवः फाण्टस्तन्मानं द्विपलोन्मितम् ।
मधुश्वेतागुडादींश्च क्वाथवत्तत्र निक्षिपेत् ॥ २॥
मधूकपुष्पं मधुकं चन्दनं सपरूषकम् ।
मृणालं कमलं लोध्रं गम्भारीं नागकेशरम् ॥३॥
त्रिफलां सारिवां द्राक्षां लाजान्कोष्णजले क्षिपेत् ।
सितामधुयुतः पेयः फाण्टो वासौ हिमोऽथवा ॥ ४ ॥
वातपित्तज्वरं दाहं तृष्णामूर्छारतिभ्रमान् ।
रक्तपित्तं मदं हन्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥ ५॥
आम्रजम्बूकिसलयैर्वटशृङ्गप्ररोहकैः ।
उशीरेण कृतः फाण्टः सक्षौद्रो ज्वरनाशनः ॥ ६ ॥
पिपासाछर्द्यतीसारान्मूर्छांजयति दुस्तराम् ।
मधूकपुष्पगम्भारीचन्दनोशीरधान्यकैः ॥ ७ ॥
द्राक्षया च कृतः फाण्टः शीतः शर्करया युतः ।
तृष्णापित्तहरः प्रोक्तो दाहमूर्छाभ्रमाञ्जयेत् ॥ ८ ॥
मन्थः
मन्थोऽपि फाण्टभेदः स्यातेन चात्रैव कथ्यते ।
जले चतुष्पले शीते क्षुण्णं द्रव्यपलं क्षिपेत् ॥ ९॥
मृत्पात्रे मन्थयेत्सम्यक्तस्माच्चद्विपलं पिबेत् ।
खर्जूरदाडिमीद्राक्षातित्तिडीकाम्लिकामलैः ॥ १० ॥
सपरूषैः कृतो मन्थः सर्वमद्यविकारनुत् ।
क्षौद्रयुक्ता मसूराणां सक्तवो दाडिमाम्भसा ॥ ११ ॥
मथिता वारयन्त्याशु छर्दिंदोषत्रयोद्भवाम् ।
प्लावितैः शीतनीरेण सघृतैर्यवसक्तुभिः ॥ १२ ॥
नातिसान्द्रद्रवैर्मन्थस्तृष्णादाहास्रपित्तहा।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे फाण्टादि-
कल्पना नाम तृतीयोऽध्यायः ।
चतुर्थोऽध्यायः।
हिमकल्पना
क्षुण्णं द्रव्यपलं सम्यक्षड्भिर्नीरपलैः प्लुतम् ।
निशोषितं हिमः स स्यात्तथा शीतकषायकः ॥ १॥
तन्मानं फाण्टवज्ज्ञेयं सर्वत्रैवैष निश्चयः ।
आम्रंजम्बूं च ककुभं चूर्णीकृत्य जले क्षिपेत् ॥ २॥
हिमं तस्य पिबेत्प्रातः सक्षौद्रं रक्तपित्तजित् ।
मरिचं मधुयष्टी च काकोदुम्बरपल्लवाः ॥ ३ ॥
नीलोत्पलं हिमस्तज्जस्तृष्णाछर्दिनिवारणः ।
नीलोत्पलं बला द्राक्षा मधूकं मधुकं तथा ॥ ४ ॥
उशीरं पद्मकं चैव काश्मरी च परूषकम् ।
एतच्छीतकषायश्च वातपित्तज्वराञ्जयेत् ॥ ५ ॥
सप्रलापनमच्छर्दिमोहतृष्णानिवारणः ।
अमृताया हिमः पेयो जीर्णज्वरहरः स्मृतः ॥ ६॥
वासायाश्च हिमः कासं रक्तपित्तज्वराञ्जयेत् ।
प्रातः सशर्करः पेयो हिमो धान्याकसंभवः ॥ ७ ॥
अन्तर्दाहं तथा तृष्णां जयेत्स्रोतोविशोधनः ।
धान्याकधात्रीवासानां द्राक्षापर्पटयोर्हिमः ॥ ८॥
रक्तपित्तज्वरं दाहं तृष्णां शोषं च नाशयेत् ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे हिमकल्पना
नाम चतुर्थोऽध्यायः।
पञ्चमोऽध्यायः।
कल्ककल्पना
द्रव्यमार्द्रं शिलापिष्टं शुष्कं वा सजलं भवेत् ।
प्रक्षेपावापकल्कास्ते तन्मानं कर्षसंमितम् ॥ १ ॥
कल्के मधु घृतं तैलं देयं द्विगुणमात्रया।
सितागुडौ समौ दद्याद्द्रवादेयाश्चतुर्गुणाः ॥ २ ॥
विवृद्ध्या पञ्चवृद्ध्या वा सप्तवृद्ध्याथवा कणाः ।
पिबेत्पिष्ट्वादशदिनं तास्तथैवापकर्षयेत् ॥३॥
एवं विंशद्दिनैः सिद्धं पिप्पलीवर्धमानकम् ।
अनेन पाण्डुवातास्रकासश्वासारुचिज्वराः ॥ ४ ॥
उदरार्शःक्षयश्लेष्मवाता नश्यन्त्युरोग्रहाः ।
लेपान्निम्बदलैः कल्को व्रणशोधनरोपणः ॥ ५॥
भक्षणाच्छर्दिकुष्ठानि पित्तश्लेष्मकृमीञ्जयेत् ।
महानिम्बजटाकल्को गृध्रसीनाशनः स्मृतः ॥ ६ ॥
शुद्धकल्को रसोनस्य तिलतैलेन मिश्रितः।
वातरोगाञ्जयेत्तीव्रान्विषमज्वरनाशनः ॥ ७ ॥
पक्वकन्दरसोनस्य गुलिका निस्तुषीकृताः ।
पाटयित्वा च मध्यस्थं दूरीकुर्यात्तदङ्कुरम् ॥ ८॥
तदुग्रगन्धनाशाय रात्री तक्रेविनिक्षिपेत् ।
अपनीय च तन्मध्याच्छिलायां पेपयेत्ततः ॥ ९॥
तन्मध्ये पञ्चमांशेन चूर्णमेषांविनिक्षिपेत् ।
सौवर्चलं यवानीं च भर्जितं हिङ्गु सैन्धवम् ॥ १० ॥
कटुत्रिकं जीरकं च समभागानि चूर्णयेत् ।
एकीकृत्य ततः सर्वं कल्कं कर्षप्रमाणतः ॥ ११ ॥
खादेदग्निबलापेक्षी ऋतुदोषाद्यपेक्षया ।
अनुपानं ततः कुर्यादेरण्डशृतमन्वहम् ॥ १२ ॥
सर्वाङ्गैकाङ्गजं वातमर्दितं चापतन्त्रकम् ।
अपस्मारमथोन्मादमूरुस्तम्भं च गृध्रसीम् ॥ १३ ॥
उरःपृष्ठकटीपार्श्वकुक्षिपीडां क्रिमीञ्जयेत् ।
अजीर्णमातपं रोषमतिनीरं पयो गुडम् ॥ १४ ॥
रसोनमश्नन्पुरुषस्त्यजेदेतन्निरन्तरम् ।
मद्यं मांसं तथाम्लं च रसं सेवेत नित्यशः ॥ १५ ॥
पिप्पली पिप्पलीमूलं भल्लातकफलानि च ।
एतत्कल्कश्च सक्षौद्र ऊरुस्तम्भनिवारणः ॥ १६ ॥
विष्णुक्रान्ताजटाकल्कः सिताक्षौद्रघृतैर्युतः।
परिणामभवं शूलं नाशयेत्सप्तभिर्दिनैः ॥ १७ ॥
शुण्ठीतिलगुडैः कल्कं दुग्धेन सह योजयेत् ।
परिणामभवं शूलमामवातं च नाशयेत् ॥ १८ ॥
अपामार्गस्य बीजानां कल्कस्तण्डुलवारिणा ।
पीतो रक्तार्शसां नाशं कुरुते नात्र संशयः ॥ १९ ॥
बदरीमूलकल्केन तिलकल्कश्च योजितः ।
मधुक्षीरयुतः कुर्याद्रक्तातीसारनाशनम् ॥ २० ॥
कूष्माण्डकरसोपेतां लाक्षां कर्षद्वयं पिबेत् ।
रक्तक्षयमुरोघातं क्षयरोगं च नाशयेत् ॥ २१ ॥
तण्डुलीयजटाकल्कः सक्षौद्रः सरसाञ्जनः ।
तण्डुलोदकसंपीतो रक्तप्रदरनाशनः ॥ २२॥
अङ्कोलमूलकल्कश्च सक्षौद्रस्तण्डुलाम्बुना ।
अतीसारहरः प्रोक्तस्तथा विषहरः स्मृतः ॥ २३ ॥
वन्ध्याकर्कोटिकामूलं पाटलाया जटा तथा ।
घृतेन बिल्वमूलं वा द्विविधं नाशयेद्विषम् ॥ २४ ॥
अभयासैन्धवकणाशुण्ठीकल्कस्त्रिदोषहा ।
पथ्यासैन्धवशुण्ठीभिः कल्को दीपनपाचनः ॥ २५ ॥
त्रिवृत्पलाशबीजानि पारसीययवानिका ।
कम्पिल्लकं विडङ्गं च गुडश्च समभागकः ॥ २६ ॥
तक्रेण कल्कमेतेषां पिबेत्क्रिमिगणापहम् ।
नवनीततिलैः कल्को जेता रक्तार्शसां स्मृतः ॥ २७ ॥
नवनीतसितानागकेशरैश्चापि तद्विधः ।
पीतो मसूरयूषेण कल्कः शुण्ठीशलाटुजः ॥ २८ ॥
जयेत्संग्रहणींतद्वत्तक्रेण बृहतीभवः ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे कल्ककल्पना
नाम पञ्चमोऽध्यायः।
षष्ठोऽध्यायः ।
चूर्णकल्पना
अत्यन्तशुष्कं यद्द्रव्यं सुपिष्टं वस्त्रगालितम् ।
तत्स्याच्चूर्णं रजः क्षोदस्तन्मात्राकर्षसंमिता ॥ १ ॥
चूर्णे गुडः समो देयः शर्करा द्विगुणा भवेत् ।
चूर्णेषु भर्जितं हिङ्गु देयं नोत्क्लेदकृद्भवेत् ॥ २॥
लिहेच्चूर्णं द्रवैःसर्वैर्घृताद्यैर्द्विगुणोन्मितैः ।
पिबेच्चतुर्गुणैरेव चूर्णमालोडितं द्रवैः॥३॥
चूर्णावलेहगुटिकाकल्कानामनुपानकम् ।
वातपित्तकफातङ्के त्रिद्व्येकपलमाहरेत् ॥ ४ ॥
यथा तैलं जले क्षिप्तं क्षणेनैव प्रसर्पति ।
अनुपानबलादङ्गे तथा सर्पति भेषजम् ॥ ५॥
द्रवेण यावता सम्यक्चूर्णं सर्वं प्लुतं भवेत् ।
भावनायाः प्रमाणं तु चूर्णे प्रोक्तं भिषग्वरैः॥ ६ ॥
आमलं चित्रकः पथ्या पिप्पली सैन्धवं तथा।
चूर्णितोऽयं गणो ज्ञेयः सर्वज्वरविनाशनः ॥ ७ ॥
भेदी रुचिकरः श्लेष्मजेता दीपनपाचनः।
मधुना पिप्पलीचूर्णं लिहेत्कासज्वरापहम् ॥ ८॥
हिक्काश्वासहरं कण्ठ्यं प्लीहघ्नंबालकोचितम् ।
एका हरीतकी योज्या द्वौ च योज्यौबिभीतकौ॥ ९ ॥
चत्वार्यामलकान्येव त्रिफलैषाप्रकीर्तिता।
त्रिफला मेहशोथघ्नी नाशयेद्विषमज्वरान् ॥ १० ॥
दीपनीश्लेष्मपित्तघ्नीकुष्टहन्त्री रसायनी ।
सर्पिर्मधुभ्यां संयुक्ता सैव नेत्रामयाञ्जयेत् ॥ ११ ॥
पिप्पली मरिचं शुण्ठी त्रिभिस्त्र्यूषणमुच्यते ।
दीपनं श्लेष्ममेदोघ्नं कुष्ठपीनसनाशनम् ॥ १२ ॥
जयेदरोचकं सामं मेहगुल्मगलामयान् ।
पिप्पलीचव्यविश्वाह्वापिप्पलीमूलचित्रकैः ॥ १३ ॥
पञ्चकोलमिति ख्यातं रुव्यं पाचनदीपनम् ।
आनाहप्लीहगुल्मघ्नंशूलश्लेष्मोदरापहम् ॥ १४ ॥
त्रिगन्धमेलात्वक्पत्रैश्चतुर्जातं सकेशरैः ।
त्रिगन्धं सचतुर्जातं रूक्षोष्णं लघु पित्तकृत् ॥ १५ ॥
वर्ण्यंरुचिकरं तीक्ष्णं विषश्लेष्मामयाञ्जयेत् ।
काकोली क्षीरकाकोली जीवकर्षभकौतथा ॥ १६ ॥
मेदा चान्या महाभेदा जीवन्ती मधुकं तथा ।
मुद्गपर्णी माषपर्णी जीवनीयो गणस्त्वयम् ॥ १७ ॥
जीवनीयगणः स्वादुर्गर्भसंधानकृद्गुरुः ।
स्तन्यकृद्बृहणो वृष्यः स्निग्धः शीतस्तृषापहः ॥ १८ ॥
रक्तपित्तं क्षतं शोषं ज्वरदाहानिलाञ्जयेत् ।
द्वे मेदे द्वे च काकोल्यौ जीवकर्षभकौतथा ॥ १९ ॥
ऋद्धिवृद्धी च तैः सर्वैरष्टवर्ग उदाहृतः ।
अष्टवर्गोबुधैः प्रोक्तो जीवनीयसमो गुणैः ॥ २० ॥
सिन्धु सौवर्चलं चैव बिडं सामुद्रिकं गडम् ।
एकद्वित्रिचतुष्पञ्चलवणानि क्रमाद्विदुः ॥ २१ ॥
तेषुमुख्यं सैन्धवं स्यादनुक्ते तत्प्रयोजयेत् ।
सैन्धवाद्यं रोमकान्तं ज्ञेयं लवणपञ्चकम् ॥ २२ ॥
मधुरं सृष्टविण्मूत्रं स्निग्धं सूक्ष्मं बलापहम् ।
वीर्योष्णं दीपनं तीक्ष्णं कफपित्तविवर्धनम् ॥ २३ ॥
स्वर्जिका यावशूकश्च क्षारयुग्ममुदाहृतम् ।
ज्ञेयौ वह्निसमौ क्षारौ स्वर्जिकायावशूकजौ॥ २४ ॥
क्षाराश्चान्येऽपि गुल्मार्शोग्रहणीरुक्छिदः सराः।
पाचनाः कृमिपुंस्त्वघ्नाः शर्कराश्मरिनाशनाः ॥ २५ ॥
सुदर्शनचूर्णम्
त्रिफला रजनीयुग्मं कण्टकारीयुगं शठी।
त्रिकटु ग्रन्थिकं मूर्वागुडूची धन्वयासकः ॥ २६ ॥
कटुका पर्पटो मुस्तं त्रायमाणा च वालकम् ।
निम्बः पुष्करमूलं च मधुयष्टी च वत्सकम् ॥ २७ ॥
यवानीन्द्रयवो भार्ङ्गीशिग्रुबीजं सुराष्ट्रजा ।
वचा त्वक्पाकोशीरं चन्दनातिविषाबलाः ॥ २८॥
शालिपर्णी पृष्ठिपर्णी विडङ्गं तगरं तथा ।
चित्रको देवकाष्ठं च चव्यं पत्रं पटोलजम् ॥ २९ ॥
जीवकर्षभकौचैव लवङ्गं वंशलोचना ।
पुण्डरीकं च काकोली पत्रकं जातिपत्रकम् ॥ ३० ॥
तालीसपत्रं च तथा समभागानि चूर्णयेत् ।
सर्वचूर्णस्य चार्धांशकैरातं निक्षिपेत्सुधीः ॥ ३१ ॥
एतत्सुदर्शनं नाम चूर्ण दोषत्रयापहम् ।
ज्वरांश्च निखिलान्हन्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥ ३२ ॥
पृथग्द्वन्द्वागन्तुजांश्च धातुस्थान्विषमज्वरान् ।
संनिपातोद्भवांश्चापि मानसानपि नाशयेत् ॥ ३३ ॥
शीतज्वरैकाहिकादीन्मोहं तन्द्रां भ्रमं तृषाम् ।
श्वासं कासं च पाण्डुंच हृद्रोगं हन्ति कामलाम् ॥३४॥
त्रिकपृष्ठकटीजानुपार्श्वशूलनिवारणम् ।
शीताम्बुना पिबेद्धीमान्सर्वज्वरनिवृत्तये ॥ ३५ ॥
सुदर्शनं यथा चक्रं दानवानां विनाशनम् ।
तद्वज्वराणां सर्वेषामिदं चूर्णं प्रणाशनम् ॥ ३६॥
कासश्वासज्वरहरा त्रिफला पिप्पलीयुता ।
चूर्णिता मधुना लीढा भेदिनी चाग्निबोधिनी ॥ ३७ ॥
कट्फलं मुस्तकं तिक्ता शठी शृङ्गी च पौष्करम् ।
चूर्णमेषां च मधुना शृङ्गाबेररसेन वा ॥ ३८ ॥
लिहज्जव्ररहर कण्ठ्य कासश्वासारुचीर्जयेत् ।
वायुंछर्दिंतथा शूलं क्षयं चैव व्यपोहति ॥ ३९ ॥
कट्फलं पौष्करं शृङ्गी मुस्ता त्रिकटुकं शठी।
समस्तान्येकशो वापि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ ४० ॥
आर्द्रकस्वरसक्षौद्रैलिह्यात्कफविनाशनम् ।
शूलानिलारुचिच्छर्दिकासश्वासक्षयापहम् ॥ ४१ ॥
कट्फलं पौष्करं कृष्णा शृङ्गी च मधुना सह ।
श्वासकासज्वरहरः श्रेष्ठो लेहः कफान्तकृत् ॥ ४२ ॥
शृङ्गी प्रतिविषा कृष्णा चूर्णिता मधुना लिहेत् ।
शिशोः कासज्वरच्छर्दिशान्त्यै वा केवला विषा ॥ ४३॥
यवक्षारविषाशृङ्गीमागधीपौष्करोद्भवम् ।
चूर्णं क्षौद्रयुतं लीढं पञ्च कासाञ्जयेच्छिशोः ॥ ४४ ॥
शुण्ठीप्रतिविषाहिङ्गुमुस्ताकुटजचित्रकैः।
चूर्णमुष्णाम्बुना पीतमामातीसारनाशनम् ॥ ४५ ॥
हरीतकी प्रतिविषासिन्धु सौवर्चलं वचा ।
हिङ्गु चेति कृतं चूर्णं पिबेदुष्णेन वारिणा ॥ ४६ ॥
आमातीसारशमनं ग्राहि चाग्निप्रबोधनम् ।
मुस्तमिन्द्रयवं बिल्वं लोध्रंमोचरसं तथा ॥ ४७ ॥
धातकीं चूर्णयेत्तक्रगुडाभ्यां पाययेत्सुधीः ।
सर्वातीसारशमनं निरुणद्धि प्रवाहिकाम् ॥ ४८॥
लघुगङ्गाधरं नाम चूर्णं संग्राहकं परम् ।
मुस्तारलुकशुण्ठीभिर्धातकीलोध्रवालकैः ॥ ४९ ॥
बिल्वमोचरसाभ्यां च पाठेन्द्रयववत्सकैः ।
आम्रबीजं प्रतिविषालज्जालुरिति चूर्णितम् ॥ ५० ॥
क्षौद्रतण्डुलपानीयैः पीतैर्याति प्रवाहिका ।
सर्वातिसाराग्रहणी प्रशमं यांति वेगतः ॥ ५१ ॥
वृद्धगङ्गाधरं चूर्णं सरिद्वेगविबन्धकम् ।
अज मोदामोचरसं सशृंगबेरं सधातकी कुसुमम् ।
गोदधिमंथित युक्तं गंगामपिवाहिनीं रुंध्यात् ॥ ५ ॥
तक्रेण यः पिबेन्नित्यं चूर्णं मरिचसंभवम् ।
चित्रसौवर्चलोपेतं ग्रहणी तस्य नश्यति ।
उदरप्लीहमन्दाग्निगुल्मार्शोनाशनं भवेत् ॥ ५३ ॥
अष्टौ भागाः कपित्थस्य षड्भागा शर्करा मता ।
दाडिमं तित्तिडीकं च श्रीफलं धातकी तथा ॥५४ ॥
अजमोदा च पिप्पल्यः प्रत्येकं स्युस्त्रिभागिकाः ।
मरिचं जीरकं धान्यं ग्रन्थिकं वालकं तथा ॥ ५५॥
सौचर्वल यवानी च चातुर्जातं सचित्रकम् ।
नागरं चैकभागाः स्युः प्रत्येकं सूक्ष्मचूर्णितम् ॥ ५६ ॥
कपित्थाष्टकसंज्ञं स्याच्चूर्णमेतद्गलामयान् ।
अतीसारं क्षयं गुल्मं ग्रहणीं च व्यपोहति ॥ ५७ ॥
दाडिमी द्विपला ग्राह्या खण्डा चाष्टपलापि च।
त्रिगन्धस्य पलं चैकं त्रिकटु स्यात्पलत्रयम् ॥ ५८ ॥
एतदेकीकृतं सर्वं चूर्णं स्याद्दाडिमाष्टकम् ।
रुचिकृद्दीपनं कण्ट्यं ग्राहि कासज्वरापहम् ॥ ५९॥
दाडिमस्य पलान्यष्टौ शर्करायाः पलाष्टकम् ।
पिप्पली पिप्पलीमूलं यवानी मरिचं तथा ॥ ६० ॥
धान्यकं जीरकं शुण्ठी प्रत्येकं प्रलसंमितम् ।
कर्षमात्रा तुगाक्षीरीत्वक्पत्रैलाश्च केसरम् ॥ ६१ ॥
प्रत्येकं कोलमात्राः स्युस्तच्चूर्णं दाडिमाष्टकम् ।
अतीसारं क्षयं गुल्मं ग्रहणीं च गलग्रहम् ॥ ६२ ॥
मन्दाग्निं पीनसं कासं चूर्णमेतव्द्यपोहति ।
पिप्पली बृहती व्याघ्री यवक्षारकलिङ्गकाः ॥ ६३ ॥
चित्रकं सारिवा पाठा शठी लवणपञ्चकम् ।
तच्चूर्णं पाययेद्दध्ना सुरयोष्णाम्बुनापि वा ॥ ६४ ॥
मारुतग्रहणीदोषशमनं परमं हितम् ।
लवङ्गं शुद्धकर्पूरमेलात्वङ्नागकेशरम् ॥ ६५ ॥
जातीफलमुशीरं च नागरं कृष्णजीरकम् ।
कृष्णागरुस्तुगाक्षीरी मांसी नीलोत्पलं कणा ॥ ६६ ॥
चन्दनं तगरं वालं कङ्कोलं चेति चूर्णयेत् ।
समभागानि सर्वाणि सर्वेभ्योऽर्धा सिता भवेत् ॥ ६७॥
लवङ्गाद्यमिदं चूर्णं राजार्हं वह्निदीपनम् ।
रोचनं तर्पणं वृष्यं त्रिदोषघ्नं बलप्रदम् ॥ ६८॥
हृद्रोगं कण्ठरोगं च कासं हिक्कां च पीनसम् ।
यक्ष्माणं तमकं श्वासमतीसारमुरःक्षतम् ॥ ६९ ॥
प्रमेहारुचिगुल्मादीन्ग्रहणीमपि नाशयेत् ।
जातीफललवङ्गैलापत्रत्वङ्नागकेशरैः ॥ ७० ॥
कर्पूरचन्दनतिलैस्त्वक्क्षीरीतगरामलैः।
तालीसपिप्पलीपथ्यास्थूलजीरकचित्रकैः ॥ ७१ ॥
शुण्ठीविडङ्गमरिचैः समभागविचूर्णितैः ।
यावन्त्येतानि सर्वाणि कुर्याद्भङ्गां च तावतीम् ॥ ७२ ॥
सर्वचूर्णसमा देया शर्करा च भिषग्वरैः ।
कर्षमात्रं ततः खादेन्मधुना प्लावितं सुधीः ॥ ७३ ॥
अस्य प्रभावाद्ग्रहणीकासश्वासारुचिक्षयाः।
वातश्लेष्मप्रतिश्यायाः प्रशमं यान्ति वेगतः ॥ ७४ ॥
मरिचं नागपुष्पाणि तालीसं लवणानि च ।
प्रत्येकमेकभागाः स्युः पिप्पलीमूलचित्रकैः ॥ ७५॥
त्वक्कणा तिन्तिडीकं च जीरकं च द्विभागिकम् ।
धान्याम्लवेतसौ विश्वं भद्रैला बदराणि च ॥ ७६ ॥
अजमोदा जलधरः प्रत्येकं स्युस्त्रिभागिकाः ।
सर्वौषधिचतुर्थांशं दाडिमस्य फलं भवेत् ॥ ७७ ॥
द्रव्येभ्यो निखिलेभ्यश्च सिता देयार्धमात्रया ।
महाखाण्डवसंज्ञं स्याच्चूर्णमेतत्सुरोचनम् ॥ ७८ ॥
अग्निदीप्तिकरं हृद्यं कासातीसारनाशनम् ।
हृद्रोगकण्ठजठरमुखरोगप्रणाशनम् ॥ ७९ ॥
विषूचिकां तथाध्मानमर्शोगुल्मकृमीनपि ।
छर्दि पञ्चविधां श्वासं चूर्णमेतद्व्यपोहति ॥ ८० ॥
चित्रकस्त्रिफला व्योषं जीरकं हपुषा वचा ।
यवानी पिप्पलीमूलं शतपुष्पाऽजगन्धिका ॥ ८१ ॥
अजमोदा शठी धान्यं विडङ्गं स्थूलजीरकम् ।
हेमाह्वा पौष्करं मूलं क्षारौ लवणपञ्चकम् ॥ ८२ ॥
कुष्ठं चेति समांशानि विशाला स्याद्द्विभागिका।
त्रिवृत्त्रिभागा विज्ञेया दन्त्या भागत्रयं भवेत् ॥ ८३ ॥
चतुर्भागा सातला स्यात्सर्वाण्येकत्र चूर्णयेत् ।
पाचनस्नेहनाद्यैश्च स्निग्धकोष्ठस्य रोगिणः ॥ ८४ ॥
दद्याच्चूर्णं विरेकाय सर्वरोगप्रणाशनम् ।
हृद्रोगे पाण्डुरोगे च कासे श्वासे भगन्दरे ॥ ८५ ॥
मन्देऽग्नौ च ज्वरे कुष्ठेग्रहण्यां च गलग्रहे ।
दद्याद्युक्तानुपानेन तथाध्माने सुरादिभिः ॥ ८६ ॥
गुल्मे बदरनीरेण विट्सङ्गे दुधिमस्तुना।
उष्णाम्बुभिरजीर्णे च वृक्षाम्लैः परिकर्तिषु ॥ ८७ ॥
उष्ट्रीदुग्धेनोदरेषुतथा तक्रेण वा गवाम् ।
प्रसन्नया वातरोगे दाडिमाम्भोभिरर्शसि ॥ ८८ ॥
द्विविधे च विषे दद्याद्घृतेन विषनाशनम् ।
चूर्णं नारायणं नाम दुष्टरोगगणापहम् ॥ ८९ ॥
हपुषा त्रिफला चैव त्रायमाणा च पिप्पली।
हेमक्षीरी त्रिवृच्चैव सातला कटुका वचा ॥ ९० ॥
नीलिनी सैन्धवं कृष्णं लवणं चेति चूर्णयेत् ।
उष्णोदकेन मूत्रेण दाडिमत्रिफलारसैः ॥ ९१ ॥
तथा मांसरसेनापि यथायोग्यं पिबेन्नरः ।
अजीर्णे प्लीह्नि गुल्मेषु शोफार्शोविषमाग्निषु ॥ ९२ ॥
हलीमकामलापाण्डुकुष्ठाध्मानोदरेष्वपि ।
शुण्ठी हरीतकी कृष्णा त्रिवृत्सौवर्चलं तथा ॥ ९३ ॥
समभागानि सर्वाणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।
ज्ञेयं पञ्चसमं चूर्णमेतच्छूलहरं परम् ॥ ९४ ॥
आध्मानजठरार्शोघ्नमामवातहरं स्मृतम् ।
कर्षमात्रा भवेत्कृष्णा त्रिवृता स्यात्पलोन्मिता ॥ ९५ ॥
खण्डात्पलं च विज्ञेयं चूर्णमेकत्र कारयेत् ।
कर्षोन्मितं लिहेदेतत्क्षौद्रेणाध्माननाशनम् ॥ ९६ ॥
गाढविट्कोदरकफान्पित्तशूलं च नाशयेत् ।
लवणत्रितयं क्षारौ शतपुष्पाद्वयं वचा ॥ ९७ ॥
अजमोदाऽजगन्धा च हपुषाजीरकद्वयम् ।
मरिचं पिप्पलीमूलं पिप्पली गजपिप्पली ॥ ९८ ॥
हिङ्गुश्च हिङ्गुपत्री च शठी पाठोपकुञ्चिका ।
शुण्ठी चित्रकचव्यानि विडङ्गं चाम्लवेतसम् ॥ ९९ ॥
दाडिमं तित्तिडीकं च त्रिवृद्दन्ती शतावरी ।
इन्द्रवारुणिका भार्ङ्गी देवदारु यवानिका ॥ १०० ॥
कुस्तुम्बुरुस्तुम्बुरूणि पौष्करं बदराणि च ।
शिवा चेति समांशानां चूर्णमेकत्र कारयेत् ॥ १ ॥
भावयेदार्द्रकरसैर्बीजपूररसैस्तथा ।
तत्पिबेत्सर्पिषाजीर्णमद्येनोष्णोदकेन वा ॥ २ ॥
कोलाम्भसा वा तक्रेण दुग्धेनौष्ट्रेण मस्तुना ।
यकृत्प्लीहकटीशूलगुदकुक्षिहृदामयान् ॥ ३ ॥
अर्शोविष्टम्भमन्दाग्निगुल्मप्लीहोदराणि च ।
हिक्काध्मानश्वासकासाञ्जयेदेतान्न संशयः ॥ ४ ॥
एतैरेवौषधैः सम्यग्घृतं वा साधयेद्भिषक् ।
तुम्बरूणि त्रिलवणं यवानी पुष्कराह्वयम् ॥ ५ ॥
यवक्षाराभयाहिङ्गुविडङ्गानि समानि च ।
त्रिवृत्त्रिभागा विज्ञेया सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ ६॥
पिबेदुष्णेन तोयेन यवक्वाथेन वा पिबेत् ।
जयेत्सर्वाणि शूलानि गुल्माध्मानोदराणि च ॥ ७ ॥
चित्रको नागरं हिङ्गु पिप्पली पिप्पलीजटा ।
चव्याजमोदामरिचं प्रत्येकं कर्षसंमितम् ॥ ८॥
स्वर्जिका च यवक्षारः सिन्धु सौवर्चलं बिडम् ।
सामुद्रकं रोमकं च कोलमात्राणि कारयेत् ॥ ९ ॥
एकीकृत्याखिलं चूर्णं भावयेन्मातुलुङ्गजैः ।
रसैर्दाडिमजैर्वापि शोषयेदातपेन च ॥ १० ॥
एतच्चूर्णं जयेद्गुल्मं ग्रहणीमामजां रुजम् ।
अग्निं च कुरुते दीप्तं रुचिकृत्कफनाशनम् ॥ ११ ॥
सैन्धवं पिप्पलीमूलं पिप्पलीचव्यचित्रकम् ।
शुण्ठी हरीतकी चेति क्रमवृद्धानि चूर्णयेत् ॥ १२ ॥
वडवानलनामैतच्चूर्णं स्यादग्निदीपनम् ।
अजमोदा विडङ्गानि सैन्धवं देवदारु च ॥ १३ ॥
चित्रकः पिप्पलीमूलं शतपुष्पा च पिप्पली ।
मरिचं चेति कर्षांशं प्रत्येकं कारयेद्बुधः ॥ १४ ॥
कर्षास्तु पञ्च पथ्याया दश स्युर्वृद्धदारुकात् ।
नागराच्च दशैव स्युः सर्वाण्येकत्र चूर्णयेत् ॥ १५॥
पिबेत्कोष्णजलेनैव चूर्णं श्वयथुनाशनम् ।
आमवातरुजं हन्ति संधिपीडां च गृध्रसीम् ॥ १६ ॥
कटिपृष्ठगुदस्थां च जङ्घयोश्च रुजं जयेत् ।
तूनीप्रतूनीविश्वाचीकफवातामयाञ्जयेत् ॥ १७ ॥
समेन वा गुडेनास्य वटकान्कारयेद्भिषक् ।
शुण्ठी सौवर्चलं हिङ्गु दाडिमं चाम्लवेतसम् ॥ १८॥
चूर्णमुष्णाम्बुना पेयं श्वासहृद्रोगशान्तये ।
हिङ्गु पाठाऽभया धान्यं दाडिमं चित्रकः शठी ॥ १९ ॥
अजमोदा त्रिकटुकं हपुषाचाम्लवेतसम् ।
अजगन्धा तिन्तिडीकं जीरकं पौष्करं वचा ॥ १२० ॥
चव्यं क्षारद्वयं पञ्च लवणानि विचूर्णयेत् ।
प्राग्भोजनस्य मध्ये वा चूर्णमेतत्प्रयोजयेत् ॥ २१ ॥
पिबेद्वा जीर्णमद्येन तक्रेणोष्णोदकेन वा।
गुल्मे वातकफोद्भूते हृद्ग्रहेऽष्ठीलिकासु च ॥ २२ ॥
हृद्बस्तिपार्श्वशूलेषु शूले च गुदयोनिजे ।
मूत्रकृच्छ्रे तथानाहेपाण्डुरोगेऽरुचौ तथा ॥ २३ ॥
हिक्कायां यकृति प्लीह्नि कासे श्वासे गलग्रहे ।
ग्रहण्यर्शोविकारेषु चूर्णमेतत्प्रशस्यते ॥ २४ ॥
भावितं मातुलुङ्गस्य बहुशः स्वरसेन वा।
कुर्याच्च गुटिका बह्वयोवातश्लेष्मामयापहाः ॥ २५ ॥
यवानी दाडिमं शुण्ठी तिन्तिडीकाम्लवेतसौ।
बदराम्लं च कुर्वीत चतुःशाणमितानि च ॥ २६ ॥
सार्धद्विशाणं मरिचं पिप्पली दशशाणिका ।
त्वक्सौवर्चलधान्याकं जीरकं द्विद्विशाणकम् ॥ २७ ॥
चतुःषष्टिमितैः शाणैः शर्करामत्र योजयेत् ।
चूर्णितं सर्वमेकत्र यवानीखाण्डवाभिधम् ॥ २८ ॥
चूर्ण जयेत्पाण्डुरोगं हृद्रोगं ग्रहणीं ज्वरम् ।
छर्दिशोषातिसारांश्च प्लीहानाहविबन्धताः ॥ २९॥
अरुचिं शूलमन्दाग्निमर्शोजिह्वागलामयान् ।
तालीसं मरिचं शुण्ठी पिप्पली वंशरोचना ॥ १३० ॥
एकद्वित्रिचतुःपञ्चकर्षैर्भागान्प्रकल्पयेत् ।
एलात्वचोस्तु कर्षार्धप्रत्येकं भागमाहरेत् ॥ ३१ ॥
द्वात्रिंशत्कर्षतुलिता प्रदेया शर्करा बुधैः ।
तालीसाद्यमिदं चूर्णं रोचनं पाचनं स्मृतम् ॥ ३२ ॥
कासश्वासज्वरहरं छर्द्यतीसारनाशनम् ।
शोषाध्मानहरं प्लीहग्रहणीपाण्डुरोगजित् ॥ ३३ ॥
पक्त्वा वा शर्करां चूर्णं क्षिपेत्स्याद्गुटिका ततः ।
सितोपला षोडश स्यादष्टौ स्याद्वंशरोचना ॥ ३४ ॥
पिप्पली स्याच्चतुष्कर्षास्यादेला च द्विकार्षिकी ।
एकः कर्षस्त्वचः कार्यश्चूर्णयेत्सर्वमेकतः ॥ ३५ ॥
सितोपलादिकं चूर्णं मधुसर्पियुतं लिहेत् ।
श्वासकासक्षयहरं हस्तपादाङ्गदाहजित् ॥ ३६॥
मन्दाग्निं सुप्तजिह्वत्वं पार्श्वशूलमरोचकम् ।
ज्वरमूर्ध्वगतं रक्तं पित्तमाशु व्यपोहति ॥ ३७ ॥
सामुद्रलवणं कार्यमष्टकर्षमितं बुधैः ।
पञ्च सौवर्चलं ग्राह्यं बिडं सैन्धवधान्यके ॥ ३८॥
पिप्पली पिप्पलीमूलं कृष्णजीरकपत्रकम् ।
नागकेशरतालीसमम्लवेतसकं तथा ॥ ३९ ॥
द्विकर्षमात्राण्येतानि प्रत्येकं कारयेद्बुधः ।
मरिचं जीरकं विश्वमेकैकं कर्षमात्रकम् ॥ १४० ॥
दाडिमं स्थाच्चतुष्कर्षं त्वगेला चार्धकार्षिकी ।
एतच्चूर्णीकृतं सर्वं लवणं भास्कराभिधम् ॥ ४१॥
शाणप्रमाणं देयं तु मस्तुतक्रसुरासवैः ।
वातश्लेष्मभयं गुल्मं प्लीहानमुदरं क्षयम् ॥ ४२ ॥
अर्शांसि ग्रहणीं कुष्ठं विबन्धं च भगन्दरम् ।
शोफं शूलं श्वासकासावामवातं च हृद्रुजम् ॥ ४३ ॥
मन्दाग्निं नाशयेदेतद्दीपनं पाचनं परम् ।
सर्वलोकहितार्थाय भास्करेणोदितं पुरा ॥ ४४ ॥
एलाप्रियङ्गुमुस्तानि कोलमज्जा च पिप्पली ।
श्रीचन्दनं तथा लाजा लवङ्गं नागकेशरम् ॥ ४५ ॥
एतच्चूर्णीकृतं सर्वं सिताक्षौद्रयुतं लिहेत् ।
वातपित्तकफोद्भूतां छार्दिंहन्त्यतिवेगतः ॥ ४६ ॥
व्याघ्रीजीरकधात्रीणां चूर्णं मधुयुतं लिहेत् ।
ऊर्ध्ववातमहाश्वासतमकैर्मुच्यते क्षणात् ॥ ४७ ॥
मूलं पत्रं फलं पुष्पंत्वचं निम्बात्समाहरेत् ।
सूक्ष्मचूर्णमिदं कुर्यात्पलैः पञ्चदशोन्मितैः॥ ४८ ॥
लोहभस्महरीतक्यौ चक्रमर्दकचित्रकौ।
भल्लातकं विडङ्गानि शर्करामलकं निशा ॥ ४९॥
पिप्पली मरिचं शुण्ठी बाकुची कृतमालकः ।
गोक्षुरश्च पलोन्मानमेकैकं कारयेद्बुधः ॥ १५० ॥
सर्वमेकीकृतं चूर्णं भृङ्गराजेन भावयेत् ।
अष्टभागावशिष्टेन खदिरासनवारिणा ॥ ५१ ॥
भावयित्वा च संशुष्कंकर्षमात्रं ततः पिबेत् ।
खदिरासनतोयेन सर्पिषापयसाथवा ॥ ५२ ॥
मासेन सर्वकुष्ठानि विनिहन्ति रसायनम् ।
पञ्चनिम्बमिदं चूर्णं सर्वरोगप्रणाशनम् ॥ ५३ ॥
शतावरी गोक्षुरश्च बीजं च कपिकच्छुजम् ।
गाङ्गेरुकी चातिबला बीजमिक्षुरकोद्भवम् ॥ ५४ ॥
चूर्णितं सर्वमेकत्रगोदुग्धेन पिबेन्निशि ।
न तृप्तिं याति नारीभिर्नरश्चूर्णप्रभावतः ॥ ५५ ॥
अश्वगन्धा दशपला तन्मात्रो वृद्धदारकः ।
चूर्णीकृत्योभयं विद्वान्घृतभाण्डे निधापयेत् ॥ ५६ ॥
कर्षैकं पयसा पीत्वा नारीभिर्नैव तृष्यति ।
अगत्वा प्रमदां भूयाद्वलीपलितवर्जितः ॥ ५७ ॥
मुसलीकन्दचूर्णं तु गुडूचीसत्त्वसंयुतम् ।
वानरीगोक्षुराभ्यां च शाल्मलीशर्करामलैः ॥ ५८ ॥
आलोड्य घृतदुग्धेन पाययेत्कामवर्धनम् ।
चित्रकं त्रिफला मुस्तं विडङ्गं त्र्यूषणानि च ॥ ५९॥
समभागानि कार्याणि नव भागा हतायसः ।
एतदेकीकृतं चूर्णंमधुसर्पिर्युतं लिहेत् ॥ १६० ॥
गोमूत्रमथवा तक्रमनुपाने प्रशस्यते ।
पाण्डुरोगं जयत्युग्रं हृद्रोगं च भगन्दरम् ॥ ६१ ॥
शोथकुष्ठोदरार्शासि मन्दाग्निमरुचिं कृमीन् ।
आकारकरभः शुण्ठी कोङ्कोलं कुङ्कुमं कणा ॥ ६२ ॥
जातीफलं लवङ्गं च चन्दनं चेति कार्षिकान् ।
चूर्णानि मानतः कुर्यादहिफेनं पलोन्मितम् ॥ ६३ ॥
सर्वमेकीकृतं चूर्णं माषैकं मधुना लिहेत् ।
शुक्रस्तम्भकरं चूर्णं पुंसामानन्दकारकम् ॥ १६४ ॥
नारीणां प्रीतिजननं सेवेत निशि कामुकः ।
इति श्रीशार्ङ्गधर० मध्यमखण्डे चूर्णकल्पना नाम षष्ठोऽध्यायः॥
सप्तमोऽध्यायः
वटककल्पना
वटकाश्चाथ कथ्यन्ते तन्नाम गुटिका वटी।
मोदको वटिका पिण्डी गुडो वर्तिस्तथोच्यते ॥ १ ॥
लेहवत्साध्यते वह्नौ गुडो वा शर्कराथवा।
गुग्गुलुर्वा क्षिपेत्तत्र चूर्ण तन्निर्मिता वटी ॥ २ ॥
कुर्यादवह्निसिद्धेन क्वचिद्गुग्गुलुना वटीम् ।
द्रवेण मधुना वापि गुटिकां कारयेद्बुधः ॥ ३ ॥
सिता चतुर्गुणा देया वटीषुद्विगुणो गुडः ।
चूर्णाच्चूर्णसमः कार्यो गुग्गुलुर्मधु तत्समम् ॥ ४ ॥
द्रवं च द्विगुणं देयं मोदकेषुभिषग्वरैः ।
कर्षप्रमाणा तन्मात्रा बलं दृष्ट्वा प्रयुज्यताम् ॥ ५ ॥
इन्द्रवारुणिका मुस्तं शुण्ठी दन्ती हरीतकी।
त्रिवृच्छठी विडङ्गानि गोक्षुरश्चित्रकस्तथा ॥ ६ ॥
तेजोह्वाच द्विकर्षाणि पृथग्द्रव्याणि कारयेत् ।
सूरणस्य पलान्यष्टौ वृद्धदारु चतुष्पलम् ॥ ७ ॥
चतुष्पलं स्याद्भल्लातः क्वाथयेत्सर्वमेकतः ।
जलद्रोणे चतुर्थांशं गृह्णीयात्क्वाथमुत्तमम् ॥ ८॥
क्वाथ्यद्रव्यात्त्रिगुणितं गुडं क्षिप्त्वा पुनः पचेत् ।
सम्यक्पक्वंच विज्ञाय चूर्णमेतत्प्रदापयेत् ॥ ९॥
चित्रकत्रिवृतादन्तीतेजोह्वापलिकाः पृथक् ।
पृथक्त्रिपलिकाः कार्या व्योषैलामरिचत्वचः ॥ १०॥
निक्षिपेन्मधु शीते च तस्मिन्प्रस्थप्रमाणतः ।
एवं सिद्धो भवेच्छ्रीमान्बाहुशालगुडः शुभः ॥ ११ ॥
जयेदर्शासि सर्वाणि गुल्मं वातोदरं तथा ।
आमवातप्रतिश्यायग्रहणीक्षयपीनसान् ॥ १२ ॥
हलीमकं पाण्डुरोगं प्रमेहं च रसायनम् ।
मरिचं कर्षमात्रं स्यात्पिप्पली कर्षसंमिता ॥ १३ ॥
अर्धकर्षोयवक्षारः कर्षयुग्मं च दाडिमम् ।
एतच्चूर्णीकृतं युञ्ज्यादष्टकर्षगुडेन हि ॥ १४ ॥
शाणप्रमाणां गुटिकां कृत्वा वक्रे विधारयेत् ।
अस्याः प्रभावात्सर्वेऽपि कासा यान्त्येव संक्षयम् ॥ १५॥
गुडशुण्ठीशिवामुस्तैर्गुटिकां धारयेन्मुखे ।
श्वासकासेषुसर्वेषु बिभीतं वापि केवलम् ॥ १६ ॥
आमलं कमलं कुष्ठंलाजाश्च वटरोहकम् ।
एतच्चूर्णस्य मधुना गुटिकां धारयेन्मुखे ॥ १७ ॥
तृष्णां प्रवृद्धां हन्त्येषामुखशोषं च दारुणम् ।
विडङ्गं नागरं कृष्णा पथ्यामलबिभीतकौ॥ १८ ॥
वचा गुडूची भल्लातं सविषंवात्र योजयेत् ।
एतानि समभागानि गोमूत्रेणैव पेषयेत् ॥ १९ ॥
गुञ्जाभा गुटिका कार्यादद्यादार्द्रकजैरसः ।
एकामजीर्णगुल्मेषुद्वे विषूच्यां च दापयेत् ॥ २० ॥
तिस्रश्च सर्पदष्टे तु चतस्रः सांनिपातिके ।
वटी संजीवनी नाम्ना संजीवयति मानवम् ॥ २१ ॥
व्योषाम्लवेतसं चव्यं तालीसं चित्रकं तथा ।
जीरकं तिन्तिडीकं च प्रत्येकं कर्षभागिकम् ॥ २२ ॥
त्रिसुगन्धं त्रिशाण स्याद्गुडः स्यात्कर्षविंशतिः।
व्योषादिगुटिका सामपीनसश्वासकासजित् ॥ २३ ॥
रुचिस्वरकरा ख्याता प्रतिश्यायप्रणाशिनी।
आमेषु सगुडां शुण्ठीमजीर्णे गुडपिप्पलीम् ॥ २४ ॥
कृच्छ्रे जीरगुडं दद्यादर्शःसु सगुडाभयाम् ।
वृद्धदारुकभल्लातशुण्ठीचूर्णेन योजितः ॥ २५ ॥
मोदकः सगुडो हन्यात्षड्विधार्शःकृतां रुजम् ।
शुष्कसूरणचूर्णस्य भागान्द्वात्रिंशदाहरेत् ॥ २६ ॥
भागान्षोडश चित्रस्य शुण्ठ्या भागचतुष्टयम् ।
द्वौ भागौ मरिचस्यापि सर्वाण्येकत्रचूर्णयेत् ॥ २७ ॥
गुडेन पिण्डिकां कुर्यादर्शसां नाशनीं पराम् ।
सूरणो वृद्धदारुश्च भागैः षोडशभिः पृथक् ॥ २८ ॥
मुसलीचित्रकौज्ञेयावष्टभागमितौपृथक् ।
शिवा बिभीतकी धात्री विडङ्गं नागरं कणा ॥ २९ ॥
भल्लातः पिप्पलीमूलं तालीसं च पृथक्पृथक् ।
चतुर्भागप्रमाणानि त्वगेला मरिचं तथा ॥ ३० ॥
द्विभागमात्राणि पृथक्ततस्वेकत्र चूर्णयेत् ।
द्विगुणेन गुडेनाथ वटकान्कारयेद्बुधः ॥ ३१ ॥
प्रबलाग्निकरा एते तथार्शोनाशनाः पराः।
ग्रहणीं वातकफजां श्वासं कासं क्षयामयम् ॥ ३२ ॥
प्लीहानं श्लीपदं शोथं हिक्कां मेहं भगन्दरम् ।
निहन्युः पलितं वृष्यास्तथा मेध्या रसायनाः ॥ ३३ ॥
त्रिफला त्र्यूषणं चव्यं पिप्पलीमूलचित्रकौ।
दारु माक्षिकधातुस्त्वग्दार्वी मुस्त विडङ्गकम् ॥ ३४ ॥
प्रत्येकं कर्षमात्राणि सर्वद्विगुणितं तथा ।
मण्डूरं चूर्णयेत्सर्वं गोमूत्रेऽष्टगुणे क्षिपेत् ॥ ३५ ॥
पक्त्वा च वटकान्कृत्वा दद्यात्तक्रानुपानतः ।
कामलापाण्डुमेहार्शःशोथकुष्ठकफामयान् ॥ ३६॥
ऊरुस्तम्भमजीर्णंच प्लीहानं नाशयन्ति च ।
क्षौद्राद्द्विगुणितं सर्पिर्घृताद्द्विगुणपिप्पली ॥ ३७ ॥
सिता द्विगुणिता तस्याः क्षीरं देयं चतुर्गुणम् ।
चातुर्जातं क्षौद्रतुल्यं पक्त्वा कुर्याच्चमोदकान् ॥ ३८ ॥
धातुस्थांश्च ज्वरान्सर्वान्श्वासं कासं च पाण्डुताम् ।
धातुक्षयं वह्निमान्द्यं पिप्पलीमोदको जयेत् ॥ ३९ ॥
चन्द्रप्रभा वचा मुस्तं भूनिम्बामृतदारुकम् ।
हरिद्रातिविषा दार्वीपिप्पलीमूलचित्रकौ॥ ४० ॥
धान्यकं त्रिफला चव्यं विडङ्ग गजपिप्पली ।
व्योषंमाक्षिकधातुश्च द्वौ क्षारौ लवणत्रयम् ॥ ४१ ॥
एतानि शाणमात्राणि प्रत्येकं कारयेद्बुधः ।
त्रिवृद्दन्तीपत्रकं च त्वगेला वंशरोचना ॥ ४२ ॥
प्रत्येकं कर्षमात्राणि कुर्यादेतानि बुद्धिमान् ।
द्विकर्षंहतलोहं स्थाच्चतुष्कर्षा सिता भवेत् ॥ ४३ ॥
शिलाजत्वष्टकर्षंस्यादष्टौ कर्षाश्च गुग्गुलोः ।
एभिरेकत्रसंक्षुण्णैः कर्तव्या गुटिका शुभा ॥ ४४ ॥
चन्द्रप्रभेति विख्याता सर्वरोगप्रणाशिनी ।
प्रमेहान्विंशतिं कृच्छ्रे मूत्राघातं तथाश्मरीम् ॥ ४५ ॥
विबन्धानाहशूलानि मेहनग्रन्थिमर्बुदम् ।
अण्डवृद्धिं तथा पाण्डुंकामलां च हलीमकम् ॥ ४६ ॥
अन्त्रवृद्धिं कटीशूलं श्वासं कासं विचर्चिकाम् ।
कुष्ठान्यर्शांसि कण्डूं च प्लीहोदरभगन्दरम् ॥ ४७ ॥
दन्तरोगं नेत्ररोगं स्त्रीणामार्तवजां रुजम् ।
पुंसां शुक्रगतान्दोषान्मन्दाग्निमरुचिं तथा ॥४८॥
वायुंपित्तं कर्ंहन्याद्बल्या वृष्या रसायनी ।
चंन्द्रप्रभायां कर्षस्तु चतुःशाणो विधीयते ॥ ४९ ॥
यवानी जीरकं धान्यं मरीचं गिरिकर्णिका ।
अजमोदोपकुञ्ची च चतुःशाणाः पृथक्पृथक् ॥ ५० ॥
हिङ्गु षट्शाणिकं कार्यं क्षारौ लवणपञ्चकम् ।
त्रिवृच्चाष्टमितैः शाणैः प्रत्येकं कल्पयेत्सुधीः ॥ ५१ ॥
दन्ती शठी पौष्करं च विडङ्गं दाडिमं शिवा ।
चित्रोऽम्लवेतसः शुण्ठी शाणैः षोडशभिः पृथक् ॥ ५२ ॥
बीजपूररसेनैषां गुटिकां कारयेद्बुधः ।
घृतेन पयसा मद्यैरम्लैरुष्णोदकेन वा ॥ ५३ ॥
पिबेत्काङ्कायनप्रोक्तां गुटिकां गुल्मनाशिनीम् ।
मद्येन वातिकं गुल्मं गोक्षीरेण च पैत्तिकम् ॥ ५४ ॥
मूत्रेण कफगुल्मं च दशमूलैस्त्रिदोषजम् ।
उष्ट्रीदुग्धेन नारीणां रक्तगुल्मं निवारयेत् ॥ ५५ ॥
हृद्रोग ग्रहणीं शूलं क्रिमीनर्शांसि नाशयेत् ।
नागरं पिप्पलीमूलं पिप्पली चव्यचित्रकौ ॥ ५६ ॥
भृष्टं हिङ्ग्वजमोदा च सर्षपा जीरकद्वयम् ।
रेणुकेन्द्रयवाः पाठा विडङ्गं गजपिप्पली ॥ ५७ ॥
कटुकातिविषाभार्ङ्गी वचा मूर्वेति भागतः।
प्रत्येकं शाणिकानि स्युर्द्रव्याणीमानि विंशतिः ॥ ५८ ॥
द्रव्येभ्यः सकलेभ्यश्च त्रिफला द्विगुणा भवेत् ।
एभिश्चूर्णीकृतैः सर्वैः समो देयश्च गुग्गुलुः ॥ ५९ ॥
वङ्ग रौप्यं च नागं च लोहसारस्तथाभ्रकम् ।
मण्डूरं रससिन्दूरं प्रत्येकं पलसंमितम् ॥ ६०॥
गुडपाकसमं कृत्वा इमं दद्याद्यथोचितम् ।
एकपिण्डं ततः कृत्वा धारयेद्घृतभाजने ॥ ६१ ॥
गुटिकाः शाणमात्रास्तु कृत्वा ग्राह्या यथोचिताः ।
गुग्गुलुर्योगराजोऽयं त्रिदोषघ्नोरसायनः ॥६२॥
मैथुनाहारपानानां त्यागो नैवात्रविद्यते ।
सर्वान्वातामयान्कुष्ठानर्शांसि ग्रहणीगदम् ॥ ६३ ॥
प्रमेहं वातरक्तं च नाभिशूलं भगन्दरम् ।
उदावर्तं क्षयं गुल्ममपस्मारमुरोग्रहम् ॥ ६४ ॥
मन्दाग्निश्वासकासांश्च नाशयेदरुचिं तथा ।
रेतोदोषहरः पुंसां रजोदोषहरः स्त्रियाम् ॥ ६५॥
पुंसामपत्यजनको वन्ध्यानां गर्भदस्तथा ।
रास्नादिक्वाथसंयुक्तो विविधं हन्ति मारुतम् ॥ ६६ ॥
काकोल्यादिशृतात्पित्तं कफमारग्वधादिना ।
दार्वीशृतेन मेहांश्च गोमूत्रेण च पाण्डुताम् ॥ ६७ ॥
मेदोवृद्धिं च मधुना कुष्ठं निम्बशृतेन वा ।
छिन्नाक्वाथेन वातास्त्रं शोथं शूलं कणाशृतात् ॥ ६८ ॥
पाटलाक्वाथसहितो विषं मूषकजं जयेत् ।
त्रिफलाक्वाथसहितो नेत्रार्तिं हन्ति दारुणाम् ॥ ६९ ॥
पुनर्नवादिक्वाथेन हन्यात्सर्वोदराण्यपि ।
त्रिफलायास्त्रयः प्रस्थाः प्रस्थैकममृता भवेत् ॥ ७० ॥
संकुट्य लोहपात्रे तु सार्धद्रोणाम्बुना पचेत् ।
जलमर्धशृतं ज्ञात्वा गृह्णीयाद्वस्त्रगालितम् ॥ ७१ ॥
ततः क्वाथे क्षिपेच्छुद्धं गुग्गुलुं प्रस्थसंमितम् ।
पुनः पचेदयःपात्रे दर्व्यासंघट्टयेन्मुहुः ॥ ७२ ॥
सान्द्रीभूतं च तं ज्ञात्वा गुडपाकसमाकृतिम् ।
चूर्णीकृत्य ततस्तत्र द्रव्याणीमानि निक्षिपेत् ॥ ७३ ॥
त्रिफला द्विपला ज्ञेया गुडूची पलिका मता ।
षडक्षं त्र्यूषणं प्रोक्तं विडङ्गानां पलार्धकम् ॥ ७४ ॥
दन्ती कर्षमिता कार्या त्रिवृत्कर्षमिता स्मृता।
ततः पिण्डीकृतं सर्वं घृतपात्रे विनिक्षिपेत् ॥ ७५ ॥
गुटिकाः शाणिकाः कार्यायुञ्ज्याद्दोषाद्यपेक्षया ।
अनुपाने भिषग्दद्यात्कोष्णं नीरं पयोऽथवा ॥ ७६ ॥
मञ्जिष्ठादिशृतंवापि युक्तियुक्तमतः परम् ।
जयेत्सर्वाणि कुष्ठानि वातरक्तं त्रिदोषजम् ॥ ७७ ॥
सर्वव्रणांश्च गुल्मांश्च प्रमेहपिटिकास्तथा ।
प्रमेहोदरमन्दाग्निकासश्वयथुपाण्डुजान् ॥ ७८ ॥
हन्ति सर्वामयान्नित्यमुपयुक्तो रसायनः ।
कैशोरकाभिधानोऽयं गुग्गुलुः कान्तिकारकः ॥ ७९ ॥
वासादिना नेत्रगदान्गुल्मादीन्वरुणादिना ।
क्वाथेन खदिरस्यापि व्रणकुष्ठानि नाशयेत् ॥ ८०॥
अम्लं तीक्ष्णमजीर्णं च व्यवायं श्रममातपम् ।
मद्यं रोपं त्यजेत्सम्यग्गुणार्थी पुरसेवकः ॥ ८१ ॥
त्रिपलं त्रिफलाचूर्णंकृष्णाचूर्णं पलोन्मितम् ।
गुग्गुलुः पाञ्चपलिकः क्षोदयेत्सर्वमेकतः ॥ ८२ ॥
ततस्तु गुटिकां कृत्वा प्रयुञ्ज्याद्वह्न्यपेक्षया ।
भगन्दरं गुल्मशोथावर्शांसि च विनाशयेत् ॥ ८३ ॥
अष्टाविंशतिसंख्यानि पलान्यानीय गोक्षुरात् ।
विपचेत्षड्गुणे नीरे क्वाथो ग्राह्योऽर्धशेषितः ॥ ८४ ॥
ततः पुनः पचेत्तत्र पुरं सप्तपलं क्षिपेत् ।
गुडपाकसमाकारं ज्ञात्वा तत्र विनिक्षिपेत् ॥ ८५॥
त्रिकटु त्रिफला मुस्तं चूर्णितं पलसप्तकम् ।
ततः पिण्डीकृतस्यास्य गुटिकामुपयोजयेत् ॥ ८६ ॥
हन्यात्प्रमेहं कृच्छ्रंच प्रदरं मूत्रघातकम् ।
वातास्रंवातरोगांश्च शुक्रदोर्धं तथाश्मरीम् ॥ ८७ ॥
त्रिफलाष्टपला कार्या भल्लातं च चतुष्पलम् ।
बाकुची पञ्चपलिका विडङ्गानां चतुष्पलम् ॥ ८८ ॥
हतलोहं त्रिवृच्चैव गुग्गुलुश्च शिलाजतु ।
एकैकं पलमात्रंस्यात्पलार्धं पौष्करं भवेत् ॥ ८९ ॥
चित्रकस्य पलार्धंस्याद्द्विशाणं मरिचं भवेत् ।
नागरं पिप्पली मुस्ता त्वगेलापत्रकुङ्कुमम् ॥ ९० ॥
शाणोन्मितं स्यादेकैकं चूर्णयेत्सर्वमेकतः ।
ततस्तत्प्रक्षिपेच्चूर्णं पक्वखण्डे च तत्समे ॥ ९१ ॥
मोदकान्पलिकान्कृत्वा प्रयुञ्जीत यथोचितान् ।
हन्युः सर्वाणि कुष्ठानि त्रिदोषप्रभवामयान् ॥ ९२ ॥
भगन्दरप्लीहगुल्माञ्जिह्वातालुगलामयान् ।
शिरोऽक्षिभ्रूगतान् रोगान्मन्यापृष्ठगतानपि ॥ ९३ ॥
प्राग्भोजनस्य देयं स्यादधःकायस्थिते गदे ।
भेषजं भक्तमध्ये च रोगे जठरसंस्थिते ॥ ९४ ॥
भोजनस्योपरि ग्राह्यमूर्ध्वजत्रुगदेषु च।
काञ्चनारत्वचो ग्राह्यं पलानांदशकं बुधैः ॥ ९५ ॥
त्रिफला षट्पला कार्या त्रिकटु स्यात्पलत्रयम् ।
पलैकं वरुणं कुर्यादेलात्वक्पत्रकं तथा ॥ ९६ ॥
एकैकं कर्षमात्रंस्यात्सर्वाण्येकत्र चूर्णयेत् ।
यावच्चूर्णमिदं सर्वं तावन्मात्रस्तु गुग्गुलुः ॥ ९७ ॥
संकुट्य सर्वमेकत्र पिण्डं कृत्वा च धारयेत् ।
गुटिकाः शाणिकाः कार्याः प्रातर्ग्राह्या यथोचिताः ॥९८॥
गण्डमालां जयत्युग्रामपचीमर्बुदानि च ।
ग्रन्थीन्व्रणांश्च गुल्मांश्च कुष्ठानि च भगन्दरम् ॥ ९९ ॥
प्रदेयश्चानुपानार्थं क्वाथो मुण्डनिकाभवः ।
क्वाथः खदिरसारस्य पथ्याक्वाथोष्णकं जलम् ॥ १०० ॥
निस्तुषं माषचूर्ण स्यात्तथा गोधूमसंभवम् ।
निस्तुषंयवचूर्णं च शालितण्डुलजं तथा ॥ १ ॥
सूक्ष्मं च पिप्पलीचूर्णं पलिकान्युपकल्पयेत् ।
एतदेकीकृतं सर्व भर्जयेद्गोघृतेन च ॥ २॥
अर्धमात्रेण सर्वेभ्यस्ततः खण्डं समं क्षिपेत् ।
जलं च द्विगुणं दत्त्वा पाचयेत शनैः शनैः ॥ ३॥
ततः पक्वंसमुद्धृत्य वृत्तान्कुर्वीत मोदकान् ।
भुक्त्वा सायं पलैकं च पिबेत्क्षीर चतुर्गुणम् ॥ ४ ॥
वर्जनीयौ विशेषेण क्षाराम्लो द्वौ रसावपि ।
कृत्वैवं रमयेन्नारीर्बह्वीर्नक्षीयते नरः ॥ १०५ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे
वटककल्पना नाम सप्तमोऽध्यायः।
अष्टमोऽध्यायः।
**अवलेहकल्पना **
क्वाथादीनां पुनः पाकाद्धनत्वं सा रसक्रिया ।
सोऽवलेहश्च लेहः स्यात्तन्मात्रा स्यात्पलोन्मिता ॥ १ ॥
सिता चतुर्गुणा कार्या चूर्णाच्च द्विगुणो गुडः ।
द्रवं चतुर्गुणं दद्यादिति सर्वत्र निश्चयः ॥ २ ॥
सुपक्वेतन्तुमत्त्वं स्यादवलेहोप्सु मज्जति ।
खरत्वं पीडिते मुद्रागन्धवर्णरसोद्भव्रः॥३॥
दुग्धमिक्षुरसो यूषःपञ्चमूलकपायजः ।
वासाक्वाथो यथायोग्यमनुपानं प्रशस्यते ॥ ४ ॥
कण्टकारीतुलां नीरद्रोणे पक्त्वा कषायकम् ।
पादशेषंगृहीत्वा च तस्मिंश्चूर्णानि दापयेत् ॥ ५ ॥
पृथक्पलानि चैतानि गुडूचीचव्यचित्रकाः ।
मुस्तं कर्कटशृङ्गी च त्र्यूषणं धन्वयासकः ॥ ६॥
भार्गी रास्ना शठी चैव शर्करा पलविंशतिः ।
प्रत्येकं च पलान्यष्टौ प्रदद्याद्घृततैलयोः ॥ ७ ॥
पक्त्वा लेहत्वमानीय शीते मधुपलाष्टकम् ।
चतुष्पलं तुगाक्षीर्याः पिप्पलीनां चतुष्पलम् ॥ ८॥
क्षिप्त्वा निदध्यात्सुदृढे मृन्मये भाजने शुभे ।
लेहोऽयं हन्ति हिक्कार्तिश्वासकासानशेषतः ॥ ९ ॥
पाटलाऽरणिकाश्मर्यबिल्वारलुकगोक्षुराः ।
पर्ण्यौबृहत्यौ पिप्पल्यः शृङ्गी द्राक्षामृताभयाः॥ १० ॥
बला भूम्यामली वासा ऋद्धिर्जीवन्तिका शठी ।
जीवकर्षभकौमुस्तं पौष्करं काकनासिका ॥ ११ ॥
मुद्गपर्णी माषपर्णी विदारी च पुनर्नवा ।
काकोल्यौ कमलं मेदे सूक्ष्मैलागरुचन्दनम् ॥ १२ ॥
एकैकं पलसंमानं स्थूलचूर्णितमौषधम् ।
एकीकृत्य बृहत्पात्रे पञ्चामलशतानि च ॥ १३ ॥
पचेद्द्रोणजले क्षिप्त्वा ग्राह्यमष्टांशशेषितम् ।
ततस्तु तान्यामलानि निष्कुलीकृत्य वाससा ॥ १४ ॥
दृढहस्तेन संपीड्य क्षिप्त्वा तत्र ततो घृतम् ।
पलसप्तमितं तानि किंचित्भृष्ट्वाल्पवह्निना ॥ १५ ॥
ततस्तत्र क्षिपेत्क्वाथं खण्डं चार्धतुलोन्मितम् ।
लेहवत्साधयित्वा च चूर्णानीमानि दापयेत् ॥ १६ ॥
पिप्पली द्विपला देया तुगाक्षीरी चतुष्पला ।
प्रत्येकं च त्रिशाणं स्यात्त्वगेलापत्रकेशराः ॥ १७ ॥
ततस्त्वेकीकृते तस्मिन्क्षिपेत्क्षौद्रं च षट्पलम् ।
इत्येतच्च्यवनप्रोक्तं च्यवनप्राशसंज्ञितम् ॥ १८॥
लेहं वह्निबलं दृष्ट्वा खादेत्क्षीणो रसायनम् ।
बालवृद्धक्षतक्षीणा नारीक्षीणाश्च शोषिणः ॥ १९ ॥
हृद्रोगिणः स्वरक्षीणा ये नरास्तेषु युज्यते ।
कासं श्वासं पिपासां च वातास्रमुरसो ग्रहम् ॥ २० ॥
वातपित्तं शुक्रदोषंमूत्रदोषं च नाशयेत् ।
मेधां स्मृतिं स्त्रीषुहर्षं कान्तिं वर्णप्रसन्नताम् ॥ २१ ॥
अस्य प्रयोगादाप्नोति नरोऽजीर्णविवर्जितः ।
निष्कुलीकृत्य कूष्माण्डखडान्पलशतं पचेत् ॥ २२ ॥
निक्षिप्य द्वितुलं नीरमर्धशिष्टं च गृह्यते ।
तानि कूष्माण्डखण्डानि पीडयेदृृढवाससा ॥ २३ ॥
आतपे शोषयेत्किंचिच्छूलाग्रैर्बहुशो व्यधेत् ।
क्षिप्त्वाताम्रकटाहे च दद्यादष्टपलं घृतम् ॥ २४ ॥
तेन किंचिद्भर्जयित्वा पूर्वोक्त च जलं क्षिपेत् ।
खण्डं पलशतं दत्त्वा सर्वमेकत्र पाचयेत् ॥ २५ ॥
सुपक्वेपिप्पली शुण्ठी जीरकं द्विपलं पृथक् ।
पृथक्पलार्धं धान्याकं पत्रैला मरिचं त्वचम् ॥ २६ ॥
चूर्णीकृत्य क्षिपेत्तत्र घृतार्धंक्षौद्रमावहेत् ।
खादेदग्निबलं दृष्ट्वा रक्तपित्ती क्षयी ज्वरी ॥ २७ ॥
शोषतृष्णाभ्रमच्छर्दिश्वासकासक्षतातुरः ।
कूष्माण्डकावलेहोऽयं बालवृद्धेषुयुज्यते ॥ २८ ॥
उरःसन्धानकृद्वृष्यो बृंहणो बलकृन्मतः ।
युक्त्या कूष्माण्डखण्डस्य सूरणं विपचेत्सुधीः ॥ २९ ॥
अर्शसां मूढवातानां मन्दाग्नीनां च युज्यते ।
हरीतकीशतं भद्रं यवानामाढकं तथा ॥ ३० ॥
पलानि दशमूलस्य विंशतिं च नियोजयेत् ।
चित्रकः पिप्पलीमूलमपामार्गः शठी तथा ॥ ३१ ॥
कपिकच्छूः शङ्खपुष्पी भार्ङ्गीच गजपिप्पली ।
बला पुष्करमूल च पृथग्द्विपलमात्रया ॥ ३२ ॥
पचेत्पञ्चाढके नीरे यवैः स्विन्नैः शृतं नयेत् ।
तच्चाभयाशतं दद्यात्क्वाथे तस्मिन्विचक्षणः ॥ ३३ ॥
सर्पितैलाष्टपलकं क्षिपेद्गुडतुलां तथा ।
पक्त्वा लेहत्वमानीय सिद्धेशीते पृथक्पृथक् ॥ ३४ ॥
क्षौद्रं च पिप्पलीचूर्णं दद्यात्कुडवमात्रया ।
हरीतकीद्वयं खादेत्तेन लेहेन नित्यशः ॥ ३५ ॥
क्षयं कासं ज्वरं श्वासं हिक्कार्शोऽरुचिपीनसान् ।
ग्रहणीं नाशयेदेषवलीपलितनाशनः ॥ ३६॥
बलवर्णकरः पुंसामवलेहो रसायनम् ।
विहितोऽगस्त्यमुनिना सर्वरोगप्रणाशनः ॥ ३७ ॥
कुटजत्वक्त्तुलां द्रोणे जलस्य विपचेत्सुधीः ।
कषायं पादशेषंच गृह्णीयाद्वस्त्रगालितम् ॥ ३८॥
त्रिंशत्पलं गुडस्यात्र दत्त्वाच विपचेत्पुनः ।
सान्द्रत्वमागतं ज्ञात्वा चूर्णानीमानि दापयेत् ॥ ३९ ॥
रसाञ्जनं मोचरसं त्रिकटु त्रिफलां तथा ।
लज्जालुं चित्रकं पाठां बिल्वमिन्द्रयवं वचाम् ॥ ४० ॥
भल्लातकं प्रतिविषां विडङ्गानि च वालकम् ।
प्रत्येकं पलसंमानं घृतस्य कुडवं तथा ॥ ४१ ॥
सिद्धशीते ततो दद्यात्मधुनः कुडवं तथा ।
जयेदेषोऽवलेहस्तु सर्वाण्यर्शांसि वेगतः ॥ ४२ ॥
दुर्नामप्रभवान्रोगानतीसारमरोचकम् ।
ग्रहणीं पाण्डुरोगं च रक्तपित्त च कामलाम् ॥ ४३ ॥
अम्लपित्तं तथा शोथं कार्श्यंचैव प्रवाहिकाम् ।
अनुपाने प्रयोक्तव्यमाजं तक्रं पयो दधि ॥ ४४ ॥
घृतं जलं वा जीर्णे च पथ्यभोजी भवेन्नरः ।
कुटजत्वत्क्तुलामार्द्रांद्रोणनीरे विषाचयेत् ॥ ४५ ॥
पादशेषंशृतं नीत्वा चूर्णान्येतानि दापयेत् ।
लज्जालुर्धातकी बिल्वं पाठा मोचरसस्तथा ॥ ४६ ॥
मुस्तं प्रतिविषा चैव प्रत्येकं स्यात्पल पलम् ।
ततस्तु विपचेद्भूयो यावद्दर्वीप्रलेपनम् ॥ ४७ ॥
जलेन छागदुग्धेन पीतो मण्डेन वा जयेत् ।
सर्वातिसारान्घोरांस्तु नानावर्णान्सवेदनान् ॥ ४८ ॥
असृग्दरं समस्तं च सर्वार्शांसि प्रवाहिकाम् ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डेऽवलेहकल्पना
नामाष्टमोऽध्यायः।
नवमोऽध्यायः।
**घृततैलकल्पना **
कल्काच्चतुर्गुणीकृत्य घृतं वा तैलमेव वा ।
चतुर्गुणे द्रवे साध्यं तस्य मात्रा पलोन्मिता ॥ १ ॥
निक्षिप्यक्वाथयेतोयं क्वाथ्यद्रव्याच्चतुर्गुणम् ।
पादशिष्टं गृहीत्वा च स्नेहं तेनैव साधयेत् ॥ २ ॥
चतुर्गुणं मृदुद्रव्ये कठिनेऽष्टगुणं जलम् ।
तथा च मध्यमे द्रव्ये दद्यादष्टगुणं पयः ॥३॥
अत्यन्तकठिने द्रव्ये नीरं षोडशकं मतम् ।
कर्षादितः पलं यावत्क्षिपेत्षोडशकं जलम् ॥ ४ ॥
तदूर्ध्वंकुडवं यावद्भवेदष्टगुणं पयः ।
प्रस्थादितः क्षिपेन्नीरं खारी यावच्चतुर्गुणम् ॥ ५॥
अम्बुक्वाथरसैर्यत्र पृथक्स्नेहस्य साधनम् ।
कल्कस्यांशं तत्र दद्याच्चतुर्थ षष्ठमष्टमम् ॥ ६ ॥
दुग्धे दध्निरसे तक्रेकल्को देयोऽष्टमांशकः।
कल्कस्य सम्यक्पाकार्थंतोयमत्र चतुर्गुणम् ॥ ७ ॥
द्रवाणि यत्र स्नेहेषु पञ्चादीनि भवन्ति हि ।
तत्र स्नेहसमान्याहुर्यथापूर्वं जतुर्गुणम् ॥ ८ ॥
द्रवेण केवलेनैव स्नेहपाको भवेद्यदि ।
तत्राम्बुपिष्टः कल्कः स्याज्जलं चात्र चतुर्गुणम् ॥ ९॥
क्वाथेन केवलेनैव पाको यत्रेरितः क्वचित् ।
क्वाथ्यद्रव्यस्य कल्कोऽपि तत्र स्नेहे प्रयुज्यते ॥ १० ॥
कल्कहीनस्तु यः स्नेहः स साध्यः केवले द्रवे।
पुष्पकल्कस्तु यः स्नेहस्तत्र तोयं चतुर्गुणम् ॥ ११ ॥
स्नेहे स्नेहाष्टमांशश्च पुष्पकल्कः प्रयुज्यते ।
वर्तिवत्स्नेहकल्कः स्याद्यदाङ्गुल्या विमर्दितः ॥ १२ ॥
शब्दहीनोऽग्निनिक्षिप्तः स्नेहः सिद्धो भवेत्तदा ।
यदा फेनोद्गमस्तैले फेनशान्तिश्च सर्पिषि॥ १३ ॥
गन्धवर्णरसोत्पत्तिः स्नेहसिद्धस्तदा भवेत् ।
स्नेहपाकस्त्रिधा प्रोक्तोमृदुर्मध्यः खरस्तथा ॥ १४ ॥
ईषत्सरसकल्कस्तु स्नेहपाको मृदुर्भवेत् ।
मध्यपाकस्य सिद्धिश्च कल्के नीरसकोमले ॥ १५ ॥
ईषत्कठिनकल्कश्च स्नेहपाको भवेत्खरः ।
तदूर्ध्वंदग्धपाकः स्याद्दाहकृन्निष्प्रयोजनः ॥ १६ ॥
आमपाकश्च निर्वीयो वह्निमान्द्यकरो गुरुः ।
नस्यार्थंस्यान्मृदुः पाको मध्यमः सर्वकर्मसु ॥ १७ ॥
अभ्यङ्गार्थ खरः प्रोक्तो युञ्जयादेवं यथोचितम् ।
घृततैलगुडादींश्च साधयेन्नैकवासरे ॥ १८॥
प्रकुर्वन्त्युषिता ह्येते विशेषाद्गुणसंचयम् ।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः ॥ १९ ॥
ससैन्धवैश्च पलिकैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत् ।
क्षीरं चतुर्गुणं दत्त्वा तद्घृतं प्लीहनाशनम् ॥ २० ॥
विषमज्वरमन्दाग्निहरं रुचिकरं परम् ।
पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली ॥२१॥
श्वदंष्ट्रा नागरं धान्यं पाठा बिल्वं यवानिका ।
द्रव्यैश्च पलिकैरेतैश्चतु षष्टिपलं घृतम् ॥ २२ ॥
घृताच्चतुर्गुण दद्याच्चाङ्गेरीस्वरसं बुधः ।
तथा चतुर्गुणं दत्त्वा दधि सर्पिर्विपाचयेत् ॥ २३ ॥
शनैः शनैर्विपक्तव्यं चाङ्गेरीघृतमुत्तमम् ।
तद्घृतं कफवातघ्नं ग्रहण्यर्शोषिकारनुत् ॥ २४ ॥
हन्त्यानाहगुदभ्रंशं मूत्रकृच्छ्रंप्रवाहिकाम् ।
भसूराणां पलशतं नीरद्रोणे विपाचयेत् ॥ २५ ॥
पादशेष शृतं नीत्वा दत्त्वा बिल्वपलाष्टकम् ।
घृतप्रस्थं पचेत्तेन सर्वातीसारनाशनम् ॥ २६ ॥
ग्रहणीं भिन्नविट्कं च नाशयेच्च प्रवाहिकाम् ।
अश्वगन्धा तुलैका स्यात्तदर्धोगोक्षुरस्मृतः ॥ २७ ॥
बलाऽमृता शालिपर्णी विदारी च शतावरी ।
पुनर्नवाश्वत्थशुण्ठी काश्मर्यास्तु फलान्यपि ॥ २८ ॥
पद्मबीजं माषबीजं दद्याद्दशपलं पृथक् ।
चतुर्द्रोणाम्भसा पक्त्वा पादशेषं शृतं नयेत् ॥ २९ ॥
जीवनीयगणः कुष्ठंपद्मकं रक्तचन्दनम् ।
पत्रकं पिप्पली द्राक्षा कपिकच्छुफल तथा ॥ ३० ॥
नीलोत्पलं नागपुष्प सारिवे द्वे बले तथा ।
पृथक्कर्पसमा भागाः शर्करायाः पलद्वयम् ॥ ३१ ॥
रसश्च पौण्ड्रकेक्षूणामाढकैकं समाहरेत् ।
घृतस्य चाढकं दत्त्वा पाययेन्मृदुनाग्निना ॥ ३२ ॥
घृतमेतन्निहन्त्याशु रक्तपित्तमुरक्षतम् ।
हलीमकं पाण्डुरोगं वर्णभेदं स्वरक्षयम् ॥ ३३ ॥
वातरक्तं मूत्रकृच्छ्रंपार्श्वशूलं च कामलाम् ।
शुक्रक्षयमुरोदाहं कार्श्ययमोजःक्षयं तथा ॥ ३४ ॥
स्त्रीणां चैवाप्रजातानां गर्भदं शुक्रदं नृणाम् ।
कामदेवघृतं नाम हृद्यं बल्यं रसायनम् ॥ ३५॥
त्रिफला द्वे निशे कौन्ती सारिवे द्वे प्रियङ्गुका ।
शालिपर्णी पृष्ठिपर्णी देवदार्व्येलवालुकम् ॥ ३६ ॥
नतं विशाला दन्ती च दाडिमं नागकेशरम् ।
नीलोत्पलैला मञ्जिष्ठा विडङ्गं कुष्ठपद्मकम् ॥ ३७ ॥
जातिपुष्पं चन्दनं च तालीसं बृहती तथा ।
एतैः कर्षसमैः कल्कैर्जलं दत्त्वा चतुर्गुणम् ॥ ३८ ॥
घृतप्रस्थं पचेद्धीमानपस्मारे ज्वरे क्षये।
उन्मादे वातरक्ते च कासे मन्दानले तथा ॥ ३९ ॥
प्रतिश्याये कटीशूले तृतीयकचतुर्थके ।
मूत्रकृच्छ्रे विसर्पे च कण्डूपाण्ड्वामये तथा ॥ ४० ॥
विषद्वये प्रमेहेषु सर्वथैवोपयुज्यते ।
वन्ध्यानां पुत्रदं भूतयक्षरक्षोहरं स्मृतम् ॥ ४१ ॥
अमृताक्वाथकल्काभ्यां सक्षीरं विपचेद्घृतम् ।
वातरक्तं जयत्याशु कुष्ठं जयति दुस्तरम् ॥ ४२ ॥
सप्तच्छदः प्रतिविषा शम्याकः कटुरोहिणी ।
पाठा मुस्तमुशीरं च त्रिफला पर्पटस्तथा ॥ ४३॥
पटोलनिम्बमञ्जिष्ठाःपिप्पली पद्मक शठी।
चन्दनं धन्वयासश्च विशाले द्वे निशे तथा ॥ ४४ ॥
गुडूची सारिवे द्वे च मूर्वा वासा शतावरी ।
त्रायन्तीन्द्रयवायष्टीभूनिम्बश्चाक्षभागिकाः ॥ ४५ ॥
घृतं चतुर्गुणं दद्याद्घृतादामलकीरसः।
द्विगुणसर्पिषश्चात्र जलमष्टगुणं भवेत् ॥ ४६॥
तत्सिद्धं पाययेत्सर्पिर्वातरक्तेषुसर्वथा ।
कुष्ठानि रक्तपित्तं च रक्तार्शांसि च पाण्डुताम् ॥ ४७ ॥
हृद्रोगगुल्मवीसर्पप्रदरं गण्डमालिकाम् ।
क्षुद्ररोगान् ज्वरांश्चैव महातिक्तमिदं जयेत् ॥ ४८ ॥
कासीसं द्वे निशे मुस्तं हरितालं मनःशिलाम् ।
कम्पिल्लकं गन्धकं च विडङ्गं गुग्गुलुं तथा ॥ ४९ ॥
सिक्थकं मरिचं कुष्ठंतुत्थकं गौरसर्षपापान् ।
रसाञ्जनं च सिन्दूरं श्रीवासा रक्तचन्दम् ॥ ५० ॥
इरिमेदं निम्बपत्रं करञ्जंसारिवां वचाम् ।
मञ्जिष्ठांमधुकं मांसीं शिरीषंलोध्रपद्मकम् ॥ ५१ ॥
हरीतकीं प्रपुन्नाटं चूर्णयेत्कार्षिकान्पृथक् ।
ततस्तच्चूर्णमालोड्य त्रिंशत्पलमिते घृते ॥ ५२ ॥
स्थापयेत्ताम्रपात्रेच धर्मे सप्त दिनानि वै ।
अस्याभ्यङ्गेन कुष्ठानि दद्रूपामाविचर्चिकाः ॥ ५३ ॥
शूकदोषा विसर्पाश्च विस्फोटा वातरक्तजाः ।
शिरःस्फोटोपदंशाश्च नाडीदुष्टव्रणानि च ॥ ५४ ॥
शोथो भगन्दरश्चैव लूताः शाम्यन्ति देहिनाम् ।
शोधनं रोपणं चैव सवर्णकरणं घृतम् ॥ ५५ ॥
जातीनिम्बपटोलाश्च द्वे निशे कटुरोहिणी ।
मञ्जिष्ठा मधुकं सिक्थं करोञ्जोशीरसारिवाः ॥ ५६ ॥
तुत्थं च विपचेत्सम्यक्कल्कैरेभिर्घृतं बुधः ।
अस्य लेपात्प्ररोहन्ति सूक्ष्मनाडीव्रणा अपि ॥ ५७ ॥
मर्माश्रिताः क्लेदिनश्च गम्भीराः सरुजो व्रणाः ।
चित्रकः शङ्खिनी पथ्या कम्पिल्लस्त्रिवृतायुगम् ॥ ५८ ॥
वृद्धदारुश्चशम्याको दन्ती दन्तीफलं तथा ।
कोशातकी देवदाली नीलिनी गिरिकर्णिका ॥ ५९ ॥
सातला पिप्पलीमूल विडङ्ग कटुकी तथा ।
हेमक्षीरी च विपचेत्कल्कैरेभिः पिचून्मितैः॥ ६० ॥
घृतप्रस्थं स्त्रुहीक्षीरे षट्पले तु पलद्वये ।
अर्कक्षीरस्य मतिमांस्तसिद्धं गुल्मकुष्ठहृत् ॥ ६१ ॥
हन्ति शूलमुदावर्तं शोथाध्मानं भगन्दरम् ।
शमयत्युदराण्यष्टौ निपीतं बिन्दुसंख्यया ॥ ६२ ॥
गोदुग्धेनोष्ट्रदुग्धेन कौलत्थेन शृतेन वा ।
उष्णोदकेन वा पीत्वा बिन्दुवेगैर्विरेचयेत् ॥ ६३ ॥
एतद्बिन्दुघृतं नाम नाभिलेपाद्विरेचयेत् ।
त्रिफलाया रसप्रस्थं प्रस्थं वासारसोद्भवम् ॥ ६४ ॥
भृङ्गराजरसप्रस्थं प्रस्थमाजं पयः स्मृतम् ।
दत्त्वा तत्र घृतप्रस्थं कल्कैः कर्षमितैः पृथक् ॥ ६५ ॥
त्रिफला पिप्पली द्राक्षा चन्दनं सैन्धवं बला ।
काकोली क्षीरकाकोली भेदा मरिचनागरम् ॥ ६६ ॥
शर्करा पुण्डरीकं च कमलं च पुनर्नवा ।
निशायुग्मं च मधुक सर्वैरेभिर्विपाचयेत् ॥ ६७ ॥
नक्तान्ध्यं नकुलान्ध्यं च कण्डूं पिल्लं तथैव च ।
नेत्रस्रावं च पटलं तिमिरं चाजकं जयेत् ॥ ६८ ॥
अन्येऽपि प्रशमं यान्ति नेत्ररोगाः सुदारुणाः ।
त्रैफलं घृतमेतद्धि पाने नस्यादिपूचितम् ॥ ६९ ॥
द्वे हरिद्रे स्थिरा मूर्वा सारिवा चन्दनद्वयैः ।
मधुपर्णी च मधुकपद्मकेशरपद्मकैः ॥ ७० ॥
उत्पलोशीरमेदाभिस्त्रिफलापञ्चवल्कलैः ।
कल्कै कर्षमितैरेतैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ७१ ॥
विसर्पलूताविस्फोटविषकीटव्रणापहम् ।
गौराद्यमिति विख्यातं सर्पिर्विषहर परम् ॥ ७२ ॥
बलामधुकरास्नाभिर्दशमूलफलत्रिकैः ।
पृथग्द्विपलिकैरेभिर्दोणनीरेण पाचयेत् ॥ ७३ ॥
मयूरं पक्षपित्तान्त्रयकृत्पादास्यवर्जितम् ।
पादशेषं शृतं नीत्वा क्षीरं दत्त्वा च तत्समम् ॥ ७४ ॥
घृतप्रस्थं पचेत्सम्यग्जीवनीयैःपिचून्मितैः।
तत्सिद्धं शिरसः पीडां मन्यापृष्ठग्रहं तथा ॥ ७५ ॥
अर्दितं कर्णनासाक्षिजिह्वागलरुजो जयेत् ।
पाने नस्येतथाभ्यङ्गे कर्णपूरेषु युज्यते ॥ ७६ ॥
हेमन्तकालशिशिरवसन्तेषुच शस्यते ।
त्रिफला मधुकं कुष्ठं द्वे निशे कटुरोहिणी ॥ ७७ ॥
विडङ्गं पिप्पली मुस्ता विशाला कट्फलं वचा ।
द्वे मेदे द्वे च काकोल्यौ सारिवे द्वे प्रियङ्गुका ॥ ७८ ॥
शतपुष्पा हिङ्गु रास्नाचन्दनं रक्तचन्दम् ।
जातीपुष्पं तुगाक्षीरी कमलं शर्करा तथा ॥ ७९ ॥
अजमोदा च दन्ती च कल्कैरेतैश्व कार्षिकैः।
जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतप्रस्थं च गोः क्षिपेत् ॥ ८० ॥
चतुर्गुणेन पयसा पचेदारण्यगोमयैः।
सुतिथौ पुष्यनक्षत्रे मृद्भाण्डे ताम्रजे तथा ॥ ८१ ॥
ततः पिबेच्छुभदिने नारी वा पुरुषोऽथवा ।
एतत्सर्पिर्नरः पीत्वा स्त्रीषुनित्यं वृषायते ॥ ८२ ॥
पुत्रानुत्पादयेद्धीमान्वन्ध्यापि लभते सुतम् ।
अनायुषं या जनयेद्या च सूता पुनः स्थिता ॥ ८३ ॥
पुत्रं प्राप्नोति सा नारी बुद्धिमन्तं शतायुषम् ।
एतत्फलघृतं नाम भारद्वाजेन भाषितम् ॥ ८४ ॥
अनुक्तं लक्ष्मणामूलं क्षिपेत्तत्र चिकित्सकः ।
वृषनिम्बामृताव्याघ्रीपटोलानां शृतेन च ॥ ८५ ॥
कल्केन पक्वंसर्पिस्तु निहन्याद्विषमज्वरान् ।
पाण्डुं कुष्ठं विसर्पं च कृमीनर्शांसि नाशयेत् ॥ ८६ ॥
सहचरे द्वे त्रिफलां गुडूचीं सपुनर्नवाम् ।
शुकनासां हरिद्रे द्वे रास्नामेदां शतावरीम् ॥ ८७ ॥
कल्कीकृत्य घृतप्रस्थं पचेत्क्षीरे चतुर्गुणे ।
तत्सिद्धं पाययेन्नारी योनिशूलनिपीडिताम् ॥ ८८ ॥
पीडिता चलिता या च निःसृता विवृता च या ।
पित्तयोनिश्च विभ्रान्ता षण्ढयोनिश्च या स्मृता ॥ ८९ ॥
प्रपद्यन्ते हि ताःस्थानं गर्भं गृह्णन्ति चासकृत् ।
एतत्फलघृतं नाम योनिदोषहरं परम् ॥ ९० ॥
लाक्षाढकं क्वाथयित्वा जलस्य चतुराढकैः ।
चतुर्थांशं शृतं नीत्वा तैलप्रस्थे विनिक्षिपेत् ॥ ९१ ॥
मस्त्वाढकं च गोदध्नस्तत्रैव विनियोजयेत् ।
शतपुष्पामश्वगन्धां हरिद्रां देवदारु च ॥ ९२ ॥
कटुकीं रेणुकां मूर्वांकुष्ठं च मधुयष्टिकाम् ।
चन्दनं मुस्तकं रास्नांपृथक्कर्षप्रमाणतः ॥ ९३ ॥
चूर्णयेत्तत्र निक्षिप्य साधयेन्मृदुवह्निना ।
अस्याभ्यङ्गात्प्रशाम्यन्ति सर्वेऽपि विषमज्वराः ॥ ९४ ॥
कासश्वासप्रतिश्यायत्रिकपृष्ठग्रहास्तथा ।
वातं पित्तमपस्मारमुन्मादं यक्षराक्षसान् ॥ ९५ ॥
कण्डूं शूल च दौर्गन्ध्यं गात्राणां स्फुरणं जयेत् ।
पुष्टगर्भा भवेदस्य गर्भिण्यभ्यङ्गतो भृशम् ॥ ९६ ॥
मूर्वा लाक्षा हरिद्रे द्वे मञ्जिष्ठासेन्द्रवारुणी ।
बृहती सैन्धवं कुष्ठंरास्नामांसी शतावरी ॥ ९७ ॥
आरनालाढके तत्र तैलप्रस्थं विपाचयेत् ।
तैलमङ्गारकं नाम सर्वज्वरविमोक्षणम् ॥ ९८ ॥
अश्वगन्धा बला बिल्वं पाटला बृहतीद्वयम् ।
श्वदंष्ट्रातिबला निम्बं स्योनाकं च पुनर्नवा ॥ ९९ ॥
प्रसारिणीमग्निमन्थं कुर्याद्दशपलं पृथक् ।
चतुर्द्रोणे जले पक्त्वा पादशेषं शृतं नयेत् ॥ १०० ॥
तैलाढकेन संयोज्य शतावर्या रसाढकम् ।
क्षिपेत्तत्र च गोक्षीरं तैलात्तस्माच्चतुर्गुणम् ॥ १ ॥
शनैर्विषाचयेदेभिः कल्कैर्द्विपलिकैः पृथक् ।
कुष्ठैला चन्दनं मूर्वा वचा मांसी ससैन्धवैः ॥ २ ॥
अश्वगन्धाबलारास्नाशतपुष्पेन्द्रदारुभिः ।
पर्णीचतुष्टयेनैव तगरेण च साधयेत् ॥३॥
तत्तैलं नावनेऽभ्यङ्गे पाने बस्तौ च योजयेत् ।
पक्षाघातं हनुस्तम्भं मन्यास्तम्भं गलग्रहम् ॥ ४ ॥
खल्लत्वं बधिरत्वं च गतिभङ्गं कटिग्रहम् ।
गात्रशोषेन्द्रियध्वंसावसृक्शुक्रज्वरक्षयान् ॥ ५॥
अन्त्रवृद्धिं कुरण्डं च दन्तरोगं शिरोग्रहम् ।
पार्श्वशूलं च पाङ्गुल्यं बुद्धिहानिं च गृध्रसीम् ॥ ६ ॥
अन्यांश्च विषमान्वाताञ्जयेत्सर्वाङ्गसंश्रयान् ।
अस्य प्रभावाद्वन्ध्यापि नारी पुत्रं प्रसूयते ॥ ७ ॥
मर्त्योगजो वा तुरगस्तैलादस्मात्सुखी भवेत् ।
यथा नारायणो देवो दुष्टदैत्यविनाशनः ॥ ८ ॥
तथैव वातरोगाणां नाशनं तैलमुत्तमम् ।
वारुण्या औत्तरं मूलं कुट्टितं तु पलत्रयम् ॥ ९॥
पलद्वादशकं तैलं क्षणं वह्नौ विपाचितम् ।
निष्कत्रयं भक्तयुक्तं सेवेतास्माद्विनश्यति ॥ ११०॥
हस्तकम्पः शिरःकम्पः कम्पो मन्याशिराभवः ।
बलामूलकषायेण दशमूलशृतेन च ॥ ११ ॥
कुलत्थयवकोलानां क्वाथेन पयसा तथा ।
अष्टाष्टभागयुक्तेन भागमेकं च तैलकम् ॥ १२ ॥
गणेन जीवनीयेन शतावर्येन्द्रदारुणा ।
मञ्जिष्ठाकुष्ठशैलेयतगरागरुसैन्धवैः॥ १३ ॥
वचापुनर्नवामांसीसारिवाद्वयपत्रकैः ।
शतपुष्पाश्वगन्धाभ्यामेलया च विपाचयेत् ॥ १४ ॥
गार्भार्थिनीनां नारीणां नराणां क्षीणरेतसाम् ।
व्यायामक्षीणगात्राणां सूतिकानां च युज्यते ॥ १५ ॥
राजयोग्यमिद तैलं सुखिनां च विशेषतः ।
बलातैलमिति ख्यातं सर्ववातामयापहम् ॥ १६ ॥
प्रसारिणीपलशतं जलद्रोणे विपाचयेत् ।
पादशिष्टः शृतो ग्राह्यस्तैलं दधि च तत्समम् ॥ १७ ॥
काञ्जिकं च समं तैलात्क्षीरं तैलाच्चतुर्गुणम् ।
तैलात्तथाष्टमांशेन सर्वकल्कानि योजयेत् ॥ १८ ॥
मधुकं पिप्पलीमूलं चित्रकः सैन्धवं वचा ।
प्रसारिणी देवदारु रास्ना च गजपिप्पली ॥ १९ ॥
भल्लातः शतपुष्पा च मांसी चैभिर्विपाचयेत् ।
एतत्तैल वरं पक्वंवातश्लेष्मामयाञ्जयेत् ॥ १२० ॥
कौब्जं पङ्गुत्वखञ्जत्वे गृध्रसीमर्दितं तथा ।
हनुपृष्ठशिरोग्रीवाकटिस्तम्भं च नाशयेत् ॥ २१ ॥
अन्यांश्च विषमान्वातान्सर्वानाशु व्यपोहति ।
माषा यवातसी क्षुद्रा मर्कटी च कुरण्टकः॥ २२ ॥
गोकण्टष्टुण्टुकश्चैषांकुर्यात्सप्तपलं पृथक् ।
चतुर्गुणाम्बुना पक्त्वा पादशेषंशृतं नयेत् ॥ २३ ॥
कार्पासास्थीनि बदरं शणबीजं कुलत्थकम् ।
पृथक्चतुर्दशपलं चतुर्गुणजले पचेत् ॥ २४ ॥
चतुर्थांशावशिष्टं च गृह्णीयात्क्वाथमुत्तमम् ।
प्रस्थैकं छागमांसस्य चतुःषष्टिपले जले ॥ २५ ॥
निक्षिप्य पाचयेद्धीमान्पादशेषं शृतं नयेत् ।
तैलप्रस्थे ततः सर्वान्क्वाथानेतान्विनिक्षिपेत् ॥ २६ ॥
कल्कैरेभिश्च विषवेदमृताकुष्ठनागरैः ।
रास्नापुनर्नवैरण्डैः पिप्पल्या शतपुष्पया ॥ २७ ॥
बलाप्रसारिणीभ्यां च मांस्या कटुकया तथा ।
पृथगर्धपलैरेतैः साधयेन्मृदुवह्निना ॥ २८ ॥
हन्यात्तैलमिदं शीघ्रं ग्रीवास्तम्भापबाहुकौ।
अर्धाङ्गशोषमाक्षेपमूरुस्तम्भापतानकौ॥ २९ ॥
शाखाकम्पं शिरःकम्पं विश्वाचीमर्दितं तथा ।
माषादिकमिदं तैलं सर्ववातविकारनुत् ॥ १३० ॥
शतावरी बलायुग्मं पर्ण्यौगन्धर्वहस्तकः ।
अश्वगन्धा श्वदंष्ट्रा च बिल्वः काशः कुरण्टकः ॥ ३१ ॥
एषां सार्धपलान्भागान्कल्पयेच्च विपाचयेत् ।
चतुर्गुणेन नीरेण पादशेषंशृतं नयेत् ॥ ३२॥
नियोज्य तैलप्रस्थे च क्षीरप्रस्थं विनिक्षिपेत् ।
शतावरीरसप्रस्थं जलप्रस्थं च योजयेत् ॥ ३३ ॥
शतावरीदेवदारुमांसीतगरचन्दनम् ।
शतपुष्पा बला कुष्ठमेला शैलेयमुत्पलम् ॥ ३४ ॥
ऋद्धिर्मेदा च मधुकं काकोली जीवकस्तथा ।
एषांकर्षसमैः कल्कैस्तैलं गोमयवह्निना ॥ ३५ ॥
पचेत्तेनैव तैलेन स्त्रीषुनित्यं वृषायते ।
नारी च लभते पुत्रं योनिशूलं च नश्यति ॥ ३६॥
अङ्गशूलं शिरःशूलं कामलां पाण्डुतां गरम् ।
गृध्रसीप्लीहशोषांश्च मेहान्दण्डापतानकम् ॥ ३७॥
सदाहं वातरक्तं च वातपित्तगदार्दितम् ।
असृग्दरं तथाध्मानं रक्तपित्तं च नश्यति ॥ ३८ ॥
शतावरीतैलमिदं कृष्णात्रेयेण भाषितम् ।
ॐ नारायण्यै स्वाहा ॥
उत्तराभिमुखो भूत्वा खनेत्खदिरशङ्कुना ॥ ३९ ॥
ॐ सर्वव्याधिनाशिन्यै स्वाहा ।
इत्युत्पाटनमन्त्रः ।
ॐ कुमारजीविन्यै स्वाहा । इति पाचनमन्त्रः ।
कासीसं लाङ्गली कुष्ठंशुण्ठी कृष्णा च सैन्धवम् ।
मनःशिलाश्वमारश्च विडङ्गं चित्रको वृषः॥ १४० ॥
दन्ती कोशातकीबीजं हेमाह्वा हरितालकम् ।
कल्कैः कर्षमितैरेतैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ४१ ॥
स्नुह्यर्कपयसी दद्यात्पृथग्द्विपलसमिते ।
चतुर्गुणं गवां मूत्रं दत्त्वा सम्यक्प्रसाधयेत् ॥ ४२ ॥
कथितं खरनादेन तैलमर्शोविनाशनम् ।
क्षारवत्पातयत्येतदर्शांस्यभ्यङ्गतो भृशम् ॥ ४३ ॥
वलीर्न दूषयत्येतत्क्षारकर्मकरं स्मृतम् ।
मञ्जिष्ठासारिवासर्जयष्टीसिक्थैः पलोन्मितैः॥ ४४ ॥
पिण्डाख्यं साधयेत्तैलमैरण्डं वातरक्तनुत् ।
अर्कपत्ररसे पक्वहरिद्राकल्कसंयुतम् ॥ ४५ ॥
नाशयेत्सार्षपंतैलं पामां कच्छूं विचर्चिकाम् ।
मरिचं हरितालं च त्रिवृतं रक्तचन्दनम् ॥ ४६ ॥
मुस्तं मनःशिला मांसी द्वे निशे देवदारु च ।
विशाला करवीरं च कुष्ठमर्कपयस्तथा ॥ ४७ ॥
तथैव गोमयरस कुर्यात्कर्षमितान्पृथक् ।
विषंचार्धपलं देयं प्रस्थं च कटुतैलकम् ॥ ४८ ॥
गोमूत्रं द्विगुणं दद्याज्जलं च द्विगुणं भवेत् ।
मरिचाद्यमिदं तैलं सिध्मकुष्ठहरं परम् ॥ ४९ ॥
जयेत्कुष्ठानि सर्वाणि पुण्डरीकं विचर्चिकाम् ।
पामां श्वित्राणि रक्तं च कण्डूं कच्छूं प्रणाशयेत् ॥ १५०॥
त्रिफलारिष्टभूनिम्बं द्वे निशे रक्तचन्दनम् ।
एतैः सिद्धमरुंषीणां तैलमभ्यञ्जने हितम् ॥ ५१ ॥
भावयेन्निम्बबीजानि भृङ्गराजरसेन हि ।
तथासनस्य तोयेन ततैलं हन्ति नस्यतः ॥ ५२ ॥
अकालपलितं सद्यः पुंसां दुग्धान्नभोजिनाम्।
यष्टीमधुकक्षीराभ्यां नवधात्रीफलैः शृतम् ॥ ५३ ॥
तैलं नस्यकृतं कुर्यात्केशान्श्मश्रूणि सर्वशः ।
करञ्जश्चित्रको जाती करवीरश्च पाचितम् ॥ ५४ ॥
तैलमेभिर्द्रुतं हन्यादभ्यङ्गादिन्द्रलुप्तकम् ।
नीलिका केतकीकन्दं भृङ्गराजः कुरण्टकः ॥ ५५ ॥
तथार्जुनस्य पुष्पाणि बीजकात्कुसुमान्यपि ।
कृष्णास्तिलाश्च तगरं समूलं कमलं तथा ॥ ५६ ॥
अयोरजः प्रियङ्गुश्च दाडिमत्वग्गुडूचिका ।
त्रिफला पद्मपङ्कश्च कल्कैरेभिः पृथक्पृथक् ॥ ५७ ॥
कर्षमात्रैः पचेत्तैलं त्रिफलाक्वाथसंयुतम् ।
भृङ्गराजरसेनैव सिद्धं केशस्थिरीकृतम् ॥ ५८ ॥
अकालपलितं हन्ति दारुणं चोपजिहिकाम् ।
भृङ्गराजरसेनैव लोहकिट्टं फलत्रिकम् ॥ ५९ ॥
सारिवां च पचेत्कल्कैस्तैलं दारुणनाशनम्।
अकालपलितं कण्डूमिन्द्रलुप्तं च नाशयेत् ॥ १६० ॥
इरिमेदत्वच क्षुण्णां पचेच्छतपलोन्मिताम् ।
जलद्रोणे ततः क्वाथं गृह्णीयात्पादशेषितम् ॥ ६१ ॥
तैलस्यार्धाढकं दत्त्वा कल्कैः कर्षमितैः पचेत् ।
इरिमेदलवङ्गाभ्यांगैरिकागरुपद्मकैः ॥ ६२ ॥
मञ्जिष्ठालोध्रमधुकैर्लाक्षान्यग्रोधमुस्तकैः ।
त्वग्जातीफलकर्पूरकङ्कोलखदिरैस्तथा ॥ ६३ ॥
पतङ्गधातकीपुष्पसूक्ष्मैलानागकेशरैः ।
कट्फलेन च संसिद्धं तैलं मुखरुजं जयेत् ॥ ६४ ॥
प्रदुष्टमांसं पलितं शीर्णदन्तं च सौषिरम् ।
श्यावदन्तं प्रहर्षंच विद्रधिं कृमिदन्तकम् ॥ ६५ ॥
दन्तस्फुटं च दौर्गन्ध्यं जिह्वाताल्वोष्ठजां रुजम् ।
जातीनिम्बपटोलानां नक्तमालस्य पल्लवाः ॥ ६६ ॥
सिक्थं समधुक कुष्ठंद्वेनिशे कटुरोहिणी ।
मञ्जिष्ठा पद्मकं लोध्रमभया नीलमुत्पलम् ॥ ६७ ॥
तुत्थक सारिवा बीजं नक्तमालस्य दापयेत् ।
एतानि समभागानि पिष्ट्वातैलं विपाचयेत् ॥ ६८ ॥
नाडीव्रणे समुत्पन्ने स्फोटके कच्छुरोगिषु।
सद्यःशस्त्रहारेषु दग्धविद्धेषुचैव हि ॥ ६९॥
नखदन्तक्षते देहे व्रणे दुष्टे प्रशस्यते ।
हिङ्गुतुम्बुरुशुण्ठीभिः कटुतैलं विपाचयेत् ॥ १७० ॥
तस्य पूरणमात्रेण कर्णशूलं प्रणश्यति ।
बालबिल्वानि गोमूत्रे पिष्ट्वा तैलं विपाचयेत् ॥ ७१ ॥
साजक्षीरं च नीरं च बाधिर्यं हन्ति पूरणात् ।
बालमूलकशिंबीनां क्षारः क्षारयुगं तथा ॥ ७२ ॥
लवणानि च पञ्चैव हिङ्गु शिग्रु महौषधम् ।
देवदारु वचा कुष्ठं शतपुष्पा रसाञ्जनम् ॥ ७३ ॥
ग्रन्थिकं भद्रमुस्तं च कल्कैः कर्षमितैः पृथक् ।
तैलप्रस्थं च विपचेत्कदलीबीजपूरयोः ॥ ७४ ॥
रसाभ्यां मधुसूक्तेन चातुर्गुण्यमितेन च ।
पूयस्रावं कर्णनादं शूलं बधिरतां कृमीन् ॥ ७५ ॥
अन्यांश्च कर्णजान्रोगान्मुखरोगांश्च नाशयेत् ।
जम्बीराणां फलसरः प्रस्थैकः कुडवोन्मितम् ॥ ७६ ॥
माक्षिकं तत्र दातव्यं पलैका पिप्पली स्मृता ।
एतदेकीकृतं सर्वं मृद्भाण्डे च निधापयेत् ॥ ७७ ॥
धान्यराशिस्थितं मासं मधुसूक्तमुदाहृतम् ।
पाठा द्वे च निशे मूर्वापिप्पली जातिपल्लवैः ॥ ७८ ॥
दन्त्या च तैलं संसिद्धं नस्यं स्यादृुष्टपीनसे ।
कुष्ठं बिल्वकणाशुण्ठीद्राक्षाकल्ककषायवत् ॥ ७९ ॥
साधित तैलमाज्यं वा नस्यात्क्षवथुनाशनम् ।
व्याघ्रीदन्तीवचाशिग्रुतुलसीव्योपसैन्धवैः ॥ १८० ॥
कल्कैश्च पाचनं तैलं पूतिनासागदापहम् ।
गृहधूमकणादारुक्षारनक्ताह्वसैन्धवैः ॥ ८१ ॥
सिद्धं शिखरिबीजैश्च तैलं नासार्शसां हितम् ।
वज्रीक्षीरं रविक्षीरं द्रवं धत्तूरचित्रजम् ॥ ८२ ॥
महिषीविड्भवं द्रावं सर्वांशं तिलतैलकम् ।
पचेत्तैलावशेषंच गोमूत्रेऽथ चतुर्गुणे ॥ ८३ ॥
तैलावशेषं पक्त्वा च तत्तैलं प्रस्थमात्रकम् ।
गन्धकाग्निशिलातालं विडङ्गातिविषाविषम् ॥ ८४ ॥
तिक्तकोशातकीकुष्ठवचामांसीकटुत्रयम् ।
पीतदारु च यष्ट्याह्वंस्वर्जिकाक्षारजीरकम् ॥ ८५ ॥
देवदारु च कर्षाशं चूर्णं तैले विनिक्षिपेत् ।
वज्रतैलमिदं ख्यातमभ्यङ्गात्सर्वकुष्ठनुत् ॥ ८६ ॥
करवीरशिफादन्तीत्रिवृत्कोशातकीफलम् ।
रम्भाक्षारोदके तैलं प्रशस्त लोमशातनम् ॥ ८७ ॥
चन्दनाम्बुनखैर्याम्यं यष्टीशैलेयपद्मकम् ।
मञ्जिष्ठासरलं दारु सेव्यैलं पूतिकेसरम् ॥ ८८ ॥
पत्रकैलं मुरामांसी कङ्कोलं वनिताम्बुदम् ।
हरिद्रा सारिवा तिक्ता लवङ्गागरुकुङ्कुमम् ॥ ८९ ॥
त्वग्रेणुनलिका चेति तैलं मस्तुचतुर्गुणम् ।
लाक्षारससमं सिद्धं ग्रहघ्नंबलवर्धनम् ॥ १९० ॥
अपस्मारज्वरोन्मादकृत्यालक्ष्मीविनाशनम् ।
आयुःपुष्टिकरं चैव वशीकरणमुत्तमम् ॥ ९१ ॥
विशेषात्क्षयरोगघ्नं रक्तपित्तहरं परम् ।
वचांशठी हरिद्रे द्वे देवदारुमहौषधी ॥ ९२ ॥
हरीतकीमतिविषामुस्तकेन्द्रयवान्समान् ।
एतान्दशपलान्भागांश्चतुर्द्रोणेऽम्भसः पचेत् ॥ ९३ ॥
चक्रमर्दरसैस्तैल कटुकं मृदुनाऽग्निना।
पादशेषेविनिक्षिप्य सिन्दूरमवतारयेत् ॥ ९४ ॥
एतत्तैलं निहन्त्याशु गण्डमालां सुदारुणाम् ।
निर्गुण्डीस्वरसे तैलं लाङ्गलीमूलकल्कितम् ॥ १९५ ॥
तैलं नस्यान्निहन्त्याशु गण्डमालां सुदारुणाम् ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे घृतातैल-
कल्पना नाम नवमोऽध्यायः ।
दशमोऽध्यायः।
अरिष्टकल्पना
द्रवेषुचिरकालस्थंद्रव्यं यत्संधितं भवेत् ।
आसवारिष्टभेदैस्तु प्रोच्यते भेषजोचितम् ॥ १ ॥
यदपक्वौषधाम्बुभ्यां सिद्धं मद्य स आसवः ।
अरिष्टः क्वाथसाध्यः स्यात्तयोर्मानं पलोन्मितम् ॥ २ ॥
अनुक्तमानारिष्टेषुद्रवद्रोणे तुलां गुडम् ।
क्षौद्रं क्षिपेद्गुडादर्धंप्रक्षेपं दशमांशकम् ॥ ३ ॥
ज्ञेयः शीतरसः सीधुरपक्वमधुरद्रवैः।
सिद्धः पक्वरसः सीधुः सपक्वमधुरद्रवैः ॥ ४ ॥
परिपक्वान्नसंधानसमुत्पन्नां सुरां जगुः ।
सुरामण्डः प्रसन्ना स्यात्ततः कादम्बरी घना ॥ ५ ॥
तदधो जगलो ज्ञेयो भेदको जगलाद्धनः ।
पक्वोसौ हृतसारः स्यात्सुराबीजं च किण्वकम् ॥ ६॥
यत्तालखर्जूररसै संधिता सा हि वारुणी ।
कन्दमूलफलादीनि सस्नेहलवणानि च ॥ ७ ॥
यत्र द्रवेऽभिपूयन्ते तत्सूक्तमभिधीयते ।
विनष्टमम्लतां यातं मधु वा मधुरद्रवः ॥ ८॥
विनष्टः संधितो यस्तु तच्चुक्रमभिधीयते ।
गुडाम्बुना सतैलेन कन्दमूलफलैस्तथा ॥ ९॥
संधितं चाम्लतां यातं गुडसूक्तं तदुच्यते ।
एवमेवेक्षुसूक्तं स्यान्मृद्वीकासंभव तथा ॥ १० ॥
तुषाम्बु संधितं ज्ञेयमामैर्विदलितैर्यवैः ।
यवैस्तु निस्तुषैःपक्वैःसौवीरं संधितं भवेत् ॥ ११ ॥
कल्माषधान्यमण्डादि संधितं काञ्जिकं विदः
सण्डाकी संधिता ज्ञेया मूलकैः सर्पषादिभिः॥ १२॥
उशीरं वालकं पद्मं काश्मरीं नीलमुत्पलम् ।
प्रियङ्गुपद्मकं लोध्रं मञ्जिष्ठांधन्वयासकम् ॥ १३ ॥
पाठां किराततिक्तं च न्यग्रोधोदुम्बरं शठीम् ।
पर्पट पुण्डरीकं च पटोलं काञ्चनारकम् ॥ १४ ॥
जम्बूशाल्मलिनिर्यासं प्रत्येकं पलसंमितान् ।
भागान्सुचूर्णितान्कृत्वा द्रक्षायाः पलविशतिम् ॥ १५ ॥
धातकीं षोडशपलां जलद्रोणद्वये क्षिपेत् ।
शर्करायास्तुलां दत्त्वा क्षौद्रस्यैकतुलां तथा ॥ १६ ॥
मासं च स्थापयेद्भाण्डे मांसीमरिचधूपिते ।
उशीरासव इत्येषरक्तपित्तविनाशनः ॥ १७ ॥
पाण्डुकुष्ठप्रमेहार्शःकृमिशोथहरस्तथा ।
सुपक्वरससंशुद्धं कुमार्याः पत्रमाहरेत् ॥ १८ ॥
यत्नेन रसमादाय पात्रे पाषाणमृन्मये ।
द्रोणे गुडतुलां दत्त्वा घृतभाण्डे निधापयेत् ॥ १९ ॥
माक्षिकं पक्वलोहं च तस्मिन्नर्धतुलां क्षिपेत् ।
कटुत्रिकं लवङ्गं च चातुर्जातकमेव च ॥ २० ॥
चित्रकं पिप्पलीमूलं विडङ्गं गजपिप्पली ।
चविकं हपुषाधान्यं क्रमुकं कटुरोहिणी ॥ २१ ॥
मुस्ता फलग्रिक रास्नादेवदारु निशाद्वयम् ।
मूर्वामधुरसा दन्ती मूलं पुष्करसंभवम् ॥ २२ ॥
बला चातिबला चैव कपिकच्छुस्त्रिकण्टकम् ।
शतपुष्पा हिङ्गुपत्री आकल्लकमुटिङ्गणम् ॥ २३ ॥
पुनर्नवाद्वयं लोध्रंधातुमाक्षिकमेव च ।
एषांचार्धपलं दत्त्वा धातक्यास्तु पलाष्टकम् ॥ २४ ॥
पलं चार्धपलं चैव पलद्वयमुदाहृतम् ।
वपुर्वयःप्रमाणेन बलवर्णाग्निदीपनम् ॥ २५ ॥
बृंहणं रोचनं वृष्यं पक्तिशूलनिवारणम् ।
अष्टावुदरजात्रोगान्क्षयमुग्रं च नाशयेत् ॥ २६ ॥
विंशतिं मेहजात्रोगानुदावर्तमपस्मृतिम् ।
मूत्रकृछ्रमपस्मारं शुक्रदोषंतथाश्मरीम् ॥ २७ ॥
कृमिजं रक्तपित्तं च नाशयेत्तु न संशयः ।
पिप्पली मरिचं चव्यं हरिद्रा चित्रको घनः ॥ २८ ॥
विडङ्गं क्रमुको लोध्रः पाठा धात्र्येलवालुकम् ।
उशीरं चन्दनं कुष्ठंलगङ्गं तगरं तथा ॥ २९ ॥
मांसी त्वगेलापत्रं च प्रियङ्गुर्नागकेशरम् ।
एषामर्धपलान्भागान्सूक्ष्मचूर्णीकृतान्शुभान् ॥ ३० ॥
जलद्रोणद्वये क्षिप्त्वा दद्याद्गुडतुलात्रयम् ।
पलानि दश धातक्या द्राक्षा षष्टिपला भवेत् ॥ ३१ ॥
एतान्येकत्र संयोज्य मृद्भाण्डे व विनिक्षिपेत् ।
ज्ञात्वा गतरसं सर्वं पाययेदग्न्यपेक्षया ॥ ३२ ॥
क्षयं गल्मोदरं कार्श्यं ग्रहणीं पाण्डुतां तथा ।
अर्शांसि नाशयेच्छीघ्र पिप्पल्याद्यासवस्त्वयम् ॥ ३३ ॥
लोहचूर्णं त्रिकटुकं त्रिफलां च यवानिकाम् ।
विडंङ्ग मुस्तक चित्रं चतुःसंख्यापलं पृथक् ॥ ३४ ॥
धातकीकुसुमानां तु प्रक्षिपेत्पलविंशतिम् ।
चूर्णीकृत्य ततः क्षौद्रं चतु षष्टिपलं क्षिपेत् ॥ ३५ ॥
दद्याद्गुडतुलां तत्र जलद्रोणद्वयं तथा ।
घृतभाण्डे विनिक्षिप्य निदध्यान्मासमात्रकम् ॥ २६ ॥
लोहासवममुं मर्त्यः पिबेद्वह्निकरं परम् ।
पाण्डुश्वयथुगुल्मानि जठराण्यर्शसां रुजम् ॥ ३७ ॥
कुष्ठं प्लीहामयं कण्डूं कासं श्वासं भगन्दरम् ।
अरोचकं च ग्रहणीं हृद्रोगं च विनाशयेत् ॥ ३८॥
मृद्वीकायाः पलशतं चतुर्द्रोणेऽम्भसः पचेत् ।
द्रोणशेषेसुशीते च पूते तस्मिन्प्रदापयेत् ॥ ३९ ॥
तुले द्वे क्षौद्रखण्डाभ्यां धातक्याः प्रस्थमेव च ।
कङ्कोलकं लवङ्ग च फलं जात्यास्तथैव च ॥ १० ॥
पलांशकं च मरिचत्वगेलापत्रकेसराः ।
पिप्पली चित्रकंचव्यं पिप्पलीमूलरेणुके ॥ ४१ ॥
घृतभाण्डे विनिक्षिप्य चन्दनागरुधूपिते ।
कर्पूरवासितो ह्येषग्रहण्या दीपनः परः ॥ ४२ ॥
अर्शसां नाशने श्रेष्ठउदावर्तस्य गुल्मनुत् ।
जठरक्रिमिकुष्ठानि व्रणानि विविधानि च ॥ ४३ ॥
अक्षिरोगशिरोरोगगलरोगांश्च नाशयेत् ।
तुलां कुटजमूलस्य मृद्वीकार्धतुलां तथा ॥ ४४ ॥
मधूकपुष्पकाश्मर्यौभागान्दशपलोन्मितान् ।
चतुर्द्रोणेऽम्भसः पक्त्वा क्वाथे द्रोणावशेषिते ॥ ४५ ॥
धातक्या विंशतिपलं गुडस्य च तुलां क्षिपेत् ।
मासमात्रंस्थितो भाण्डे कुटजारिष्टसंज्ञितः ॥ ४६ ॥
ज्वरान्प्रशमयेत्सर्वान्कुर्यात्तीक्ष्णं धनञ्जयम् ।
विडङ्गं ग्रन्थिकं रास्नाकुटजत्वक्फलानि च ॥ ४७ ॥
पाठैलवालुकं धात्री भागान्पञ्चपलान्पृथक् ।
अष्टद्रोणेऽम्भसः पक्त्वा कुर्याद्द्रोणावशेषितम् ॥ १८ ॥
पूते शीते क्षिपेत्तत्र क्षौद्रं पलशतत्रयम् ।
धातकीं विंशतिपलां त्रिजातं द्विपलं तथा ॥ ४९ ॥
प्रियङ्गुकाञ्चनाराणां सलोध्राणां पलं पलम् ।
व्योपस्य च पलान्यष्टो चूर्णीकृत्य प्रदापयेत् ॥ ५० ॥
घृतभाण्डे विनिक्षिप्य मासमेकं विधारयेत् ।
ततः पिबेद्यथार्हं तु जयेद्विद्रधिमूर्जितम् ॥ ५१॥
ऊरुस्तम्भाश्मरीमेहान्प्रत्यष्ठीलाभगन्दरान् ।
गण्डमालां हनुस्तम्भं विडङ्गारिष्टसंज्ञितः ॥ ५२ ॥
तुलार्धं देवदारु स्याद्वासा च पलविंशतिः ।
मञ्जिष्ठेन्द्रयवा दन्ती तगरं रजनीद्वयम् ॥ ५३ ॥
रास्ना कृमिघ्नंमुस्तं च शिरीषंखदिरार्जुनौ ।
भागान्दशपलान्दद्याद्यवान्या वत्सकस्य च ॥ ५४ ॥
चन्दनस्य गुडूच्याश्च रोहिण्याचित्रकस्य च ।
भागानष्टपलानेतानष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत् ॥ ५५ ॥
द्रोणशेषेकषाये च पूते शीते प्रदापयेत् ।
धातक्याः षोडशपलं माक्षिकस्य तुलात्रयम् ॥ ५६ ॥
व्योषस्य द्विपलं दद्यात्त्रिजातस्य चतुष्पलम् ।
चतुष्पलं प्रियङ्गोश्च द्विपलं नागकेशरम् ॥ ५७ ॥
सर्वाण्येतानि सचूर्ण्यघृतभाण्डे निधापयेत् ।
मासादूर्ध्वंपिबेदेनं प्रमेहं हन्ति दुर्जयम् ॥ ५८॥
वातरोगान्ग्रहण्यर्शोमूत्रकृच्छ्राणि नाशयेत् ।
देवदार्वादिकोऽरिष्टः कण्डूकुष्ठविनाशनः ॥ ५९ ॥
खदिरस्य तुलार्धं तु देवदारु च तत्समम् ।
बाकुची द्वादशपला दार्वीस्यात्पलविंशतिः ॥ ६० ॥
त्रिफला विंशतिपलाह्यष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत् ।
कषाये द्रोणशेषेच पूते शीते विनिक्षिपेत् ॥ ६१ ॥
तुलाद्वयं माक्षिकस्य तुलैका शर्करा मता ।
धातक्या विंशतिपलं कङ्कोलं नागकेशरम् ॥ ६२ ॥
जातीफलं लवङ्गैलात्वक्पत्राणि पृथक्पृथक् ।
पलोन्मितानि कृष्णाया दद्यात्पलचतुष्टयम् ॥ ६३ ॥
घृतभाण्डे विनिक्षिप्य मासादूर्ध्व पिबेत्ततः ।
महाकुष्ठानि हृद्रोगं पाण्डुरोगार्बुदे तथा ॥ ६४ ॥
गुल्मं ग्रन्थिं कृमीन्कासं श्वासं प्लीहोदरं जयेत् ।
एषवै खदिरारिष्टः सर्वकुष्ठनिवारणः ॥ ६५ ॥
तुलाद्वयं तु बब्बूल्याश्चतुर्द्रोणे जले पचेत् ।
द्रोणशेषे रसे शीते गुडस्य त्रितुलां क्षिपेत् ॥ ६६ ॥
धातकीं षोडशपलां कृष्णां च द्विपलां तथा ।
जातीफलानि कङ्कोलमेलात्वक्पत्रकेशरम् ॥ ६७ ॥
लवङ्ग मरिचं चैव पलिकान्युपकल्पयेत् ।
मासं भाण्डे स्थितस्त्वेषबब्बूलारिष्टको जयेत् ॥ ६८ ॥
क्षयं कुष्ठमतीसारं प्रमेहश्वासकासनुत् ।
द्राक्षातुलार्धं द्विद्रोणे जलस्य विपचेत्सुधीः ॥ ६९ ॥
पादशेषेकषाये च पूते शीते विनिक्षिपेत् ।
गुडस्य द्वितुलां तत्र त्वगेलापत्रकेशरम् ॥ ७० ॥
प्रियङ्गुर्मरिचं कृष्णा विडङ्गं चेति चूर्णयेत् ।
पृथक्पलोन्मितैर्भागैस्ततो भाण्डे निधापयेत् ॥ ७१ ॥
समंततो घट्टयित्वा पिबेज्जातरसं ततः ।
उरःक्षतं क्षयं हन्ति कासश्वासगलामयान् ॥ ७२ ॥
द्राक्षारिष्टाह्वयः प्रोक्तो बलकृन्मलशोधनः ।
रोहीतकतुलामेकां चतुर्द्रोणे जले पचेत् ॥ ७३ ॥
पादशेषे रसे शीते पूते पलशतद्वयम् ।
दद्याद्गुडस्य धातवयाःपलषोडशिका मता ॥ ७४ ॥
पञ्चकोलं त्रिजातं च त्रिफलां च विनिक्षिपेत् ।
चूर्णयित्वा पलांशेन ततो भाण्डे निधापयेत् ॥ ७५॥
मासादूर्ध्वंच पिबतां गुदजा यान्ति संक्षयम् ।
ग्रहणीपाण्डुहृद्रोगप्लीहगुल्मोदराणि च ॥ ७६ ॥
कुष्ठशोफारुचिहरो रोहितारिष्टसंज्ञितः ।
पर्ण्यौ बृहत्यौ गोकण्टो बिल्वोऽग्निमन्थकोऽरलुः ॥ ७७॥
पाटला काश्मरी चेति दशमूलमिहोच्यते ।
दशमूलानि कुर्वीत भागैः पञ्चपलैः पृथक् ॥ ७८ ॥
पञ्चविंशत्पलं कुर्याच्चित्रकं पौष्करं तथा ।
कुर्याद्विंशत्पलं लोध्रंगुडूची तत्समा भवेत् ॥ ७९ ॥
पलैः षोडशभिर्धात्री रविसंख्यैर्दुरालभा ।
खदिरो बीजसारश्च पथ्या चेति पृथक्पलैः ॥ ८ ॥
अष्टभिर्गणितैः कुष्ठं मञ्जिष्ठादेवदारु च ।
विडङ्गं मधुकं भार्गी कपित्थोऽक्षः पुनर्नवा ॥ ८१ ॥
चव्यं मांसी प्रियङ्गुश्च सारिवा कृष्णजीरकम् ।
त्रिवृता रेणुकं रास्ना पिप्पली क्रमुकः शठी ॥ ८२ ॥
हरिद्रा शतपुष्पा च पद्मकं नागकेशरम् ।
मुस्तमिन्द्रयवाः शृङ्गी जीवकर्षभकौतथा ॥ ८३ ॥
मेदा चान्या महामेदा काकोल्यौ ऋद्धिवृद्धिके ।
कुर्यात्पृथग्द्विपलिकान्पचेदष्टगुणे जले ॥ ८४ ॥
चतुर्थांशं शृतं नीत्वा मृद्भाण्डे संनिधापयेत् ।
चतुःषष्टिपलां द्राक्षां पचेन्नीरे चतुर्गुणे ॥ ८५ ॥
त्रिपादशेषंशीतं च पूर्वक्वाथे शृतं क्षिपेत् ।
द्वात्रिंशत्पलिकं क्षौद्रं दद्याद्गुडचतुःशतम् ॥ ८६ ॥
त्रिंशत्पलानि धातवयाःकङ्कोल जलचन्दने ।
जातीफलं लवङ्गं च त्वगेलापत्रकेशरम् ॥ ८७ ॥
पिप्पली चेति संचूर्ण्य भागैर्द्विपलिकैः पृथक् ।
शाणमात्रां च कस्तूरीं सर्वमेकत्र निक्षिपेत् ॥ ८८ ॥
भूमौ निखातयेद्भाण्डं ततो जातरसं पिबेत् ।
कतकस्य फलं क्षिप्त्वारसं निर्मलतां नयेत् ॥ ८९ ॥
ग्रहणीमरुचिं श्वासं कासं गुल्मं भगन्दरम् ।
वातव्याधिं क्षयं छर्दिंपाण्डुरोगं च कामलाम् ॥ १० ॥
कुष्ठान्यर्शासि मेहांश्च मन्दाग्निमुदराणि च ।
शर्करामश्मरीं मूत्रकृच्छ्रंधातुक्षयं जयेत् ॥ ९१ ॥
कृशानां पुष्टिजननो वन्ध्यानां गर्भदः परः ।
अरिष्टो दशमूलाख्यस्तेजःशुक्रबलप्रदः ॥ ९२ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे आसवारि-
ष्टकल्पना नाम दशमोऽध्यायः ॥
एकादशोऽध्यायः।
**धातवः **
स्वर्णतारारताभ्राणि नागवङ्गौ च तीक्ष्णकम् ।
धातवः सप्त विज्ञेयास्ततस्तान् शोधयेद्बुधः ॥१॥
स्वर्णतारारताम्रायःपत्राण्यग्नौप्रतापयेत् ।
निषिञ्चेत्तप्ततप्तानि तैले तक्रे च काञ्जिके ॥२॥
गोमूत्रे च कुलत्थानां कषायेच त्रिधा त्रिधा ।
एवं स्वर्णादिलोहानां विशुद्धिः संप्रजायते ॥ ३ ॥
नागवङ्गौ प्रतप्तौ च गालितौ तौ निषेचयेत् ।
त्रिधा त्रिधा विशुद्धिः स्वाद्रविदुग्धेन च त्रिधा ॥४॥
स्वर्णाच्च द्विगुणं सूतमम्लेन सह मर्दयेत् ।
तद्गोलके समं गन्धं निदध्यादधरोत्तरम् ॥ ५ ॥
गोलक च ततो रुन्ध्याच्छरावदृढसंपुटे ।
त्रिंशद्वनोपलैर्दद्यात्पुटान्येवं चतुर्दश ॥ ६॥
निरुत्थं जायते भस्म गन्धो देयः पुनः पुनः ।
काञ्चने गालिते नागं षोडशांशेन निक्षिपेत् ॥ ७ ॥
चूर्णयित्वा तथाम्लेन घृष्ट्वा कृत्वा च गोलकम् ।
गोलकेन समं गन्धं दत्त्वा चैवाधरोत्तरम् ॥ ८ ॥
शरावसंपुटे धृत्वा पुटे त्रिंशद्वनोपलेः ।
एव सप्तपुटैर्हेम निरुत्थं भस्म जायते ॥ ९ ॥
काञ्चनाररसैर्घृष्ट्वा समसूतकगन्धयोः ।
कज्जल्या हेमपत्राणि लेपयेत्सममात्रया ॥ १० ॥
काञ्चनारत्वचः कल्को मूपायुग्मं प्रकल्पयेत् ।
धृत्वा तत्संपुटे गोलं मृन्मूषासंपुटे च तत् ॥ ११ ॥
निधाय संधिरोधं च कृत्वा संशोष्यगोमयैः।
वह्निंखरतरं कुर्यादेवं दद्यात्पुटत्रयम् ॥ १२ ॥
निरुत्थं जायते भस्म सर्वकार्येषु योजयेत् ।
काञ्चनारप्रकारेण लाङ्गली हन्ति काञ्चनम् ॥ १३ ॥
ज्वालामुखी तथा हन्यात्तथा हन्ति मनःशिला ।
शिलासिन्दूरयोश्चूर्ण समयोरर्कदुग्धकैः ॥ १४ ॥
सप्तैव भावना दद्याच्छोपयेच्च पुनः पुनः ।
ततस्तु गालिते हेम्नि कल्कोऽयं दीयते समः ॥ १५॥
पुनर्धमेदतितरां यथा कल्को विलीयते ।
एवं वेलात्रय दद्यात्कल्कं हेममृतिर्भवेत् ॥ १६ ॥
पारावतमलैर्लिम्पेदथवा कुक्कटोद्भवैः ।
हेमपत्राणि तेषां च प्रदद्यादधरोत्तरम् ॥ १७ ॥
गन्धचूर्णं सम दत्त्वा शरावयुगसंपुटे ।
प्रदद्यात्कुक्कुटपुटं पञ्चभिर्गोमयोपलः॥ १८॥
एवं नवपुटान्दद्याद्दशमं च महापुटम् ।
त्रिंशद्वनोपलैर्देयं जायते हेमभस्मकम् ॥ १९ ॥
सुवर्णं च भवेत्स्वादु तिक्तं स्निग्धं हिमं गुरु ।
बुद्धिविद्यास्मृतिकरं विषहारि रसायनम् ॥ २० ॥
भागैकं तालकं मर्द्यंयाममम्लेन केनचित् ।
तेन भागत्रयं तारपत्राणि परिलेपयेत् ॥ २१ ॥
धृत्वा मूषापुटे रुध्वा पुटे त्रिंशद्वनोपलैः।
समुद्धृत्य पुनस्तालं दत्त्वा रुध्वा पुटे पचेत् ॥ २२ ॥
एक चतुर्दशपुटैस्तारं भस्म प्रजायते ।
स्नुहीक्षीरेण संपिष्टं माक्षिकं तेन लेपयेत् ॥ २३ ॥
तालकस्य प्रकारेण तारपत्राणि बुद्धिमान् ।
पुटेच्चतुर्दशपुटैस्तारं भस्म प्रजायते ॥ २४ ॥
सूक्ष्माणि ताम्रपत्राणि कृत्वा संस्वेदयेद्बुधः।
वासरत्रयमम्लेन ततः खल्वे विनिक्षिपेत् ॥ २५॥
पादांशं सूतकं दत्त्वा याममम्लेन मर्दयेत् ।
तत उद्धृत्य पत्राणि लेपयेद्द्विगुणेन च ॥ २६ ॥
गन्धकेनाम्लघृष्टेन तस्य कुर्याच्च गोलकम् ।
ततः पिष्ट्वा च मीनाक्षीं चाङ्गेरीं वा पुनर्नवाम् ॥ २७ ॥
तत्कल्केन बहिर्गोलं लेपयेदङ्गुलोन्मितम् ।
धृत्वा तद्गोलकं भाण्डे शरावण च रोधयेत् ॥ २८ ॥
वालुकाभिः प्रपूर्याथ विभूतिलवणाम्बुभिः।
दत्त्वा भाण्डमुखे मुद्रां ततश्चुल्लयां विपाचयेत् ॥ २९ ॥
क्रमवृद्ध्याग्निना सम्यग्यावद्यामचतुष्टयम् ।
स्वाङ्गशीतलमुद्धृत्य मर्दयेत्सूरणद्रवैः ॥ ३०॥
दिनैकं गोलकं कुर्यादर्धगन्धेन लेपयेत् ।
सघृतेन ततो मूषांपुटे गजपुटे पचेत् ॥ ३१ ॥
स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य मृत ताम्रंशुभं भवेत् ।
वान्तिं भ्रान्तिं क्लमं मूर्छांन करोति कदाचन ॥३२॥
अर्कक्षीरेण संपिष्टो गन्धकस्तेन लेपयेत् ।
समेनारस्य पत्राणि शुद्धान्यम्लद्रवैर्मुहुः ॥ ३३ ॥
ततो मूषापुटे धृत्वा पुटेद्गजपुटेन च।
एवं पुटद्वयेनैव भस्मारं भवति ध्रुवम् ॥ ३४ ॥
आरवत्कांस्यमप्येवं भस्मतां याति निश्चितम् ।
अर्कक्षीरं वटक्षीरं निर्गुण्डी क्षीरिका तथा ॥ ३५॥
ताम्ररीतिध्वनिवधे समगन्धकयोगतः ।
ताम्बूलीरससंपिष्टशिलालेपात्पुनः पुनः ॥ ३६॥
द्वात्रिंशद्भिः पुटैर्नागो निरुत्थो याति भस्मताम् ।
अश्वत्थचिञ्चात्वक्चूर्णं चतुर्थाशेन निक्षिपेत् ॥३७ ॥
मृत्पात्रे द्राविते नागे लोहदर्व्याप्रचालयेत् ।
यामैकेन भवेद्भस्म तत्तुल्यां च मनःशिलाम् ॥ ३८ ॥
काञ्जिकेन द्वयं पिष्ट्वा पचेदृढपुटेन च ।
स्वाङ्गशीतं पुनः पिष्ट्वा शिलया काञ्जिकेन च ॥ ३९ ॥
पुनः पुटेच्छरावाभ्यामेवं षष्टिपुटैर्मृतिः ।
मृत्पात्रे द्राविते वङ्गे चिञ्चाश्वत्थत्वचो रजः ॥ ४० ॥
क्षिप्त्वा तेन चतुर्थाशमयोदर्व्याप्रचालयेत् ।
ततो द्वियाममात्रेण वङ्गभस्म प्रजायते ॥ ४१ ॥
अथ भस्मसमं तालं क्षिध्वाम्लेन प्रमर्दयेत् ।
ततो गजपुटे पक्त्वापुनरम्लेन मर्दयेत् ॥ ४२ ॥
तालेन दशमांशेन याममेकं ततः पुटेत् ।
एवं दशपुटैः पक्वोवङ्गस्तु म्रियते ध्रुवम् ॥ ४३ ॥
शुद्धं लोहभवं चूर्णं पातालगरुडीरसैः ।
मर्दयित्वा पुटेद्वह्नौ दद्यादेव पुटत्रयम् ॥ ४४ ॥
पुटत्रयं कुमार्या च कुठारच्छिन्निकारसैः ।
पुटषट्कं ततो दद्यादेव तीक्ष्णमृतिर्भवेत् ॥ ४५ ॥
क्षिपेत्तु द्वादशांशेन दरदं तीक्ष्णचूर्णतः ।
मर्दयेत्कन्यकाद्रावैर्यामयुग्मं ततः पुटेत् ॥ ४६ ॥
एवं सप्तपुटैर्मृत्यु लोहचूर्णमवाप्नुयात् ।
रसैः कुठारच्छिन्नायाः पातालगरुडीरसैः ॥ ४७ ॥
स्तन्येन चार्कदुग्धेन तीक्ष्णस्येव मृतिर्भवेत् ।
सूतकाद्द्विगुण गन्ध दत्त्वा कुर्याच्च कज्जलीम् ॥ ४८ ॥
द्वयोः समं लोहचूर्ण मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः ।
यामयुग्मं ततः पिण्डं कृत्वा ताम्रस्य पात्रके ॥ ४९ ॥
धर्मे धृत्वा ऋबूकस्य पत्रैराच्छादयेद्बुधः ।
यामार्धेनोष्णतां यायाद्धान्यराशौन्यसेत्ततः ॥ ५० ॥
दत्त्वोपरि शरावं तु त्रिदिनान्ते समुद्धरेत् ।
पिष्ट्वा च गालयेद्वस्त्रादेवं वारितरं भवेत् ॥ ५१ ॥
एवं सर्वाणि लोहानि स्वर्णादीन्यपि गालयेत् ।
शिलागन्धार्कदुग्धाक्ताः स्वर्णाद्याः सर्वधातवः ॥ ५२ ॥
म्रियन्ते द्वादशपुटैः सत्यं गुरुवचो यथा ।
उपधातवः
माक्षिकं तुत्थकाभ्रौच नीलाञ्जनशिलालकाः ॥ ५३ ॥
रसकश्चेति विज्ञेया एते सप्तोपधातवः ।
माक्षिकस्य त्रयो भागा भागेक सैन्धवस्य च ॥ ५४ ॥
मातुलुङ्गद्रवैर्वाथ जम्बीरोत्थद्रवेःपचेत् ।
चालयेल्लोहजे पात्रे यावत्पात्रंतु लोहितम् ॥ ५५॥
भवेत्ततस्तु संशुद्धिं स्वर्णमाक्षिकमृच्छति ।
कुलस्थस्य कषायेण घृष्ट्वा तैलेन वा पुटेत् ॥ ५६ ॥
तक्रेण वाजमूत्रेण म्रियते स्वर्णमाक्षिकम् ।
कर्कोटीमेषशृङ्ग्युत्थैर्द्रवैर्जम्बीरजैर्दिनम् ॥ ५७ ॥
भावयेदातपे तीव्रे विमला शुध्यति ध्रुवम् ।
विष्ठया मर्दयेतुत्थं मार्जारककपोतयोः ॥ ५८ ॥
दशाशं टङ्कणं दत्त्वा पचेन्मृदुपुटे ततः ।
पुटं दध्नःपुट क्षौद्रैर्देयं तुत्थविशुद्धये ॥ ५९ ॥
कृष्णाभ्रकं धमेद्वह्नौततः क्षीरे विनिक्षिपेत् ।
भिन्नपत्रं तु तत्कृत्वा तण्डुलीयाम्लयोर्द्रवैः ॥ ६० ॥
भावयेदष्टयामं तदेवं शुद्ध्यति चाभ्रकम् ।
कृत्वा धान्याभ्रकं तत्तु शोषयित्वाथ मर्दयेत् ॥ ६१ ॥
अर्कक्षीरौर्दिनं खल्वे चक्राकार चकारयेत् ।
वेष्टयेदर्कपत्रैश्च सम्यग्गजपुटे पचेत् ॥ ६२ ॥
पुनर्मर्द्यं पुनः पाच्यं सप्तवारं प्रयत्नतः ।
ततोवटजटाक्काथैस्तद्वद्देयं पुटत्रयम् ॥ ६३ ॥
म्रियते नात्र संदेहः सर्वयोगेषु योजयेत् ।
मृतं त्वभ्रंहरेन्मृत्युं जरापलितनाशनम् ॥ ६४ ॥
अनुपानैश्च संयुक्तं तत्तद्रोगहरं परम् ।
शुद्ध धान्याभ्रकं मुस्तशुण्ठीषड्भागयोजितम् ॥ ६५ ॥
मर्दयेत्काञ्जिकेनैव दिन चित्रकजै रसैः ।
ततो गजपुटं दद्यात्तस्मादुद्धृत्य मर्दयेत् ॥ ६६ ॥
त्रिफलावारिणा तद्वत्पुटेदेवं पुटैस्त्रिभिः ।
बलागोमूत्रमुसलीतुलसीसूरणद्रवैः ॥ ६७ ॥
मर्दितं पुटितं वह्नौत्रित्रिवेलं व्रजेन्मृतिम् ।
नीलाञ्जनं चूर्णयित्वा जम्बीरद्रवभावितम् ॥ ३८ ॥
दिनैकमातपे शुद्धं भवेत्कार्येषु योजयेत् ।
एवं गैरिककासीसटङ्कणानि वराटिका ॥ ६९ ॥
तोरी शङ्खं च कङ्कुष्ठं शुद्धिमायाति निश्चितम् ।
पचेन्त्र्यहमजामूत्रैर्दोलायन्त्रेमनःशिलाम् ॥ ७० ॥
भावयेत्सप्तधा पित्तैरजायाः शुद्धिमृच्छति ।
तालकं कणशः कृत्वा तच्चूर्णंकाञ्जिके क्षिपेत् ॥ ७१ ॥
दोलायन्त्रेण यामैकं ततः कूष्माण्डजैर्द्रवैः ।
तिलतैले पचेद्यामं यामं च त्रिफलाजलैः ॥ ७२ ॥
एवं यन्त्रे चतुर्यामं पाच्यं शुध्यति तालकम् ।
नृमूत्रेवाथ गोमूत्रे सप्ताहं रसकं पचेत् ॥ ७३ ॥
दोलायन्त्रेण शुद्धिः स्यात्ततः कार्येषुयोजयेत् ।
लाक्षामीनपयश्छागं टङ्कणं मृगशृङ्गकम् ॥ ७४ ॥
पिण्याकं सर्षपाः शिग्रुर्गुञ्जोर्णागुडसैन्धवाः ।
यवास्तिक्ता घृतं क्षौद्रं यथालाभं विचूर्णयेत् ॥ ७५ ॥
एभिर्विमिश्रिताः सर्वे धातवो गाढवह्निना ।
मूषाध्माता प्रजायन्ते मुक्तसत्त्वा न संशयः ॥ ७६ ॥
रत्नादीनि
कुलत्थकोद्रवक्वाथैर्दोलायन्त्रे विपाचयेत् ।
व्याघ्रीकन्दगतं वज्र त्रिदिन शुद्धिमृच्छति ॥ ७७ ॥
तप्तं तप्तं तु तद्वज्रंखरमूत्रैर्निषेचयेत् ।
पुनस्तप्यं पुनः सेच्यमेवं कुर्यान्त्रिसप्तधा ॥ ७८ ॥
मत्कुणैस्तालकं पिष्ट्वायावद्भवति गोलकम् ।
तद्गोले निहितं वज्रतद्गोलं वह्निना धमेत् ॥ ७९ ॥
सिञ्चयेदश्वमूत्रेण तद्गोले च क्षिपेत्पुनः ।
रुध्वा ध्मातं पुनः सेच्यमेवं कुर्यात्त्रिसप्तधा ॥ ८० ॥
एवं च म्रियते वज्रं चूर्ण सर्वत्र योजयेत् ।
हिङ्गुसैन्धवसंयुक्ते क्वाथे कौलत्थजे क्षिपेत् ॥ ८१ ॥
तप्तं तप्तं पुनर्वज्रं भूयाच्चूर्णं त्रिसप्तधा ।
मण्डूकं कांस्यजे पात्रेनिगृह्य स्थापयेत्सुधीः ॥ ४२ ॥
स भीतो मूत्रयेत्तत्र तन्मूत्रे वज्रमावपेत् ।
तप्तं तप्तं च बहुधा वज्रस्यैवं मृतिर्भवेत् ॥ ८३ ॥
वैक्रान्तं वज्रवच्छोध्यं नीलं वा लोहितं तथा ।
हयमूत्रेण तत्सेच्यं तप्तं तप्तं द्विसप्तधा ॥ ८४ ॥
ततस्तु मेषशृङ्गयुक्तपञ्चाङ्गे गोलके क्षिपेत् ।
पुटेन्मूषापुटे रुध्वा कुर्यादेवं च सप्तधा ॥ ८५ ॥
वैक्रान्तं भस्मतां याति वज्रस्थाने नियोजयेत् ।
स्वेदयेद्दोलिकायन्त्रेजयन्त्या स्वरसेन च ॥ ८६ ॥
मणिमुक्ताप्रवालानां यामैक शोधनं भवेत् ।
कुमार्यास्तण्डुलीयेन स्तन्येन च निषेचयेत् ॥ ८७ ॥
प्रत्येकं सप्तवेलं च तप्ततप्तानि कृत्स्नशः ।
मौक्तिकानि प्रवालानि तथा रत्नान्यशेषतः ॥ ८८ ॥
क्षणाद्विविधवर्णानि म्रियन्ते नात्र संशयः।
उक्तमाक्षिकवन्मुक्ताः प्रवालानि च मारयेत् ॥ ८९ ॥
वज्रवत्सर्वरत्नानि शोधयेन्मारयेत्तथा ।
शिलाजतु समानीय ग्रीष्मतप्तशिलाच्युतम् ॥ ९० ॥
गोदुग्धैस्त्रिफलाक्वाथैर्भृङ्गद्रावैश्च मर्दयेत् ।
आतपे दिनमेकैकं तच्छुष्कं शुद्धतां व्रजेत् ॥ ९१ ॥
मुख्यां शिलाजतुशिलां सूक्ष्मखण्डप्रकल्पिताम् ।
निक्षिप्यात्युष्णपानीये यामैकं स्थापयेत्सुधीः ॥ ९२ ॥
मर्दयित्वा ततो नीरं गृह्णीयाद्वस्त्रगालितम् ।
स्थापयित्वा च मृत्पात्रे धारयेदातपे बुधः ॥ ९३ ॥
उपरिस्थं घनं यत्स्यात्तत्क्षिपेदन्यपात्रके ।
धारयेदातपे धीमानुपरिस्थं घनं नयेत् ॥ ९४॥
एवं पुनः पुनर्नीत्वा द्विमासाभ्यां शिलाजतु ।
भूयात्कार्यक्षमं वह्नौ क्षिप्तं लिङ्गोपमं भवेत् ॥ ९५॥
निर्धूमं च ततः शुद्धं सर्वकर्मसु योजयेत् ।
अधःस्थितं च यच्छेषं तस्मिन्नीरं विनिक्षिपेत् ॥ ९६ ॥
विमर्द्यधारयेद्धर्मे, पूर्ववच्चैव तन्नयेत् ।
अक्षाङ्गारैर्धमेत्किट्टंलोहजं तद्गवांजलैः ॥ ९७ ॥
सेचयेत्तप्ततप्तंच सप्तवारं पुनः पुनः ।
चूर्णयित्वा ततः क्वाथैर्द्विगुणैस्त्रिफलाभवैः ॥ ९८ ॥
आलोड्य भर्जयेद्वह्नौ मण्डूरं जायते वरम् ।
क्षारकल्पना
क्षारवृक्षस्य काष्ठानि शुष्काण्यग्नौ प्रदीपयेत् ॥ ९९ ॥
नीत्वा तद्भस्म भृत्पात्रे क्षिप्त्वा नीरे चतुर्गुणे ।
विमर्द्यधारयेद्रात्रौप्रातरच्छं जलं नयेत् ॥ १०० ॥
तन्नीरं क्वाथयेद्वह्नौ यावत्सर्वं विशुष्यति ।
ततः पात्रात्समुल्लिख्य क्षारो ग्राह्यः सितप्रभः ॥ १ ॥
चूर्णाभः प्रतिसार्यः स्यात्पेयःस्यात्क्वाथवत्स्थितः ।
इति क्षारद्वयं धीमान्युक्तकार्येषु योजयेत् ॥ १०२ ॥
इति शार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे धातुशोधनमारणं
नामैकादशोऽध्यायः ॥
द्वादशोऽध्यायः।
**रसाः **
पारदः सर्वरोगाणां जेता पुष्टिकरः स्मृतः ।
सुज्ञेन साधितः कुर्यात्संसिद्धिं देहलोहयोः ॥ १ ॥
रसेन्द्रः पारदः सूतोहरजः सूतको रसः ।
मुकुन्दश्चेति नामानि ज्ञेयानि रसकर्मसु ॥२॥
ताम्रतारारनागाश्च हेमवङ्गौच तीक्ष्णकम् ।
कांस्यकं कान्तलोहं चधातवो नव ये स्मृताः ॥ ३ ॥
सूर्यादीनां ग्रहाणां ते कथिता नामभिः क्रमात् ।
राजीरसोनमूषायां रसं क्षिप्त्वा विबन्धयेत् ॥ ४॥
वस्त्रेण दोलिकायन्त्रे स्वेदयेत्काञ्जिकैस्त्रयहम् ।
दिनैकं मर्दयेत्सूतं कुमारीसंभवैर्द्रवैः ॥ ५॥
तथा चित्रकजै क्वाथैर्मर्दयेदेकवासरम् ।
काकमाचीरसैस्तद्वद्दिनमेक च मर्दयेत् ॥ ६ ॥
त्रिफलायास्तथा क्वाथै रसो मर्द्यःप्रयत्नतः ।
ततस्तेभ्यः पृथक्कुर्यात्सूतं प्रक्षाल्य काञ्जिकैः॥ ७ ॥
ततः क्षिप्त्वा रसं खल्वेरसादर्धं च सैन्धवम् ।
मर्दयेन्निम्बुकरसैर्दिनमेकमनारतम् ॥ ८ ॥
ततो राजी रसोनश्च मुख्यश्च नवसादरः ।
एतै रससमैस्तद्वत्सूतो मर्द्यस्तुपाम्बुना ॥ ९ ॥
ततः संशोष्य वक्राभंकृत्वा लिप्त्वा च हिङ्गुना ।
द्विस्थालीसंपुटे धृत्वा पूरयेल्लवणेन च ॥ १० ॥
अथ स्थाल्यां ततो मुद्रां दद्याद्दृढतरां बुधः ।
विशोष्याग्निं विधायाधो निपिञ्चेदम्बुनोपरि ॥ ११ ॥
ततस्तु कुर्यात्तीव्राग्निंतदधः प्रहरत्रयम् ।
एवं निपातयेदूर्ध्वरसो दोषविवर्जितः ॥ १२ ॥
अथोर्ध्वपिठरीमध्ये लग्नो ग्राह्यो रसोत्तमः ।
लोहपात्रेविनिक्षिप्य वृतमग्नौ प्रतापयेत् ॥ १३ ॥
तप्ते घृते तत्समानं क्षिपेद्गन्धकजं रजः ।
विद्रुतं गन्धक ज्ञात्वा दुग्धमध्ये विनिःक्षिपेत् ॥ १४ ॥
एवं गन्धकशुद्धिः स्यात्सर्वकार्येषु योजयेत् ।
मेषीक्षीरेण दरदमम्लवर्गैश्च भावितम् ॥ १५॥
सप्तवारं प्रयत्नेन शुद्धिमायाति निश्चितम् ।
निम्बूरसैर्निम्बपत्ररसैर्वा याममात्रकम् ॥ १६ ॥
पिष्ट्वा दरदमूर्ध्वंच पातयेत्सूतयुक्तिवत् ।
ततः शुद्धरसं तस्मान्नीत्वा कार्येषु योजयेत् ॥ १७ ॥
कालकूटो वत्सनाभः शृङ्गकश्च प्रदीपकः ।
हालाहलो ब्रह्मपुत्रो हारिद्रः सक्तुकस्तथा ॥ १८ ॥
सौराष्ट्रिक इति प्रोक्ता विषभेदा अमी नव ।
अर्कसेहुण्डधत्तुरलाङ्गलीकरवीरकम् ॥ १९॥
गुञ्जाहिफेनावित्येताः सप्तोपविषजातयः ।
एतैर्विमार्दितः सूतश्छिन्नपक्षः प्रजायते ॥ २० ॥
मुखं च जायते तस्य धातूंश्च ग्रसते क्षणात् ।
अथवा त्रिकटु क्षारौ राजी लवणपञ्चकम् ॥ २१ ॥
रसोनो नवसारश्च शिग्रुश्चैकत्रचूर्णितैः।
समांशैः पारदादेतैर्जम्बीरेण द्रवेण वा ॥ २२॥
निम्बुतोयैः काञ्जिकैर्वा सोष्णखल्वे विमर्दयेत् ।
अहोरात्रत्रयेण स्याद्रसे धातुचरं मुखम् ॥ २३ ॥
अथवा बिन्दुलीकीटै रसो मद्यस्त्रिवासरम् ।
लवणाम्लैर्मुखं तस्य जायते धातुघस्मरम् ॥ २४ ॥
अथ कच्छपयन्त्रेण गन्धजारणमुच्यते ।
मृत्कुण्डे निक्षिपेत्तोयं तन्मध्ये च शरावकम् ॥ २५ ॥
महत्कुण्डपिधानाभं मध्ये मेखलया युतम् ।
लिप्त्वाच मेखलामध्यं चूर्णेनात्र रसं क्षिपेत् ॥ २६ ॥
रसस्योपरि गन्धस्य रजो दद्यात्समांशकम् ।
दत्त्वोपरि शरावं चभस्ममुद्रां प्रदापयेत् ॥ २७ ॥
तस्योपरि पुटं दद्याच्चतुर्भिर्गोमयोपलैः ।
एवं पुनः पुनर्गन्धं षड्गुणं जारयेद्बुधः ॥ २८ ॥
गन्धे जीर्णे भवेत्सूतस्तीक्ष्णाग्निः सर्वकर्मकृत् ।
धूमसारं रसं तोरीं गन्धकं नवसादरम् ॥ २९ ॥
यामैकं मर्दयेदम्लैर्भागं कृत्वा समं समम् ।
काचकुप्यां विनिक्षिप्य तां च मृद्वस्त्रमुद्रया ॥ ३० ॥
विलिप्य परितो वक्रे मुद्रां दत्त्वा च शोषयेत् ।
अध सच्छिद्रपिठरीमध्ये कूपीं निवेशयेत् ॥ ३१ ॥
पिठरीं वालुकापूरैर्भूत्वा चाकूपिकागलम् ।
निवेश्य चुल्ल्यांतदधः कुर्याद्वह्निंशनैः शनैः ॥ ३२ ॥
तस्मादप्यधिकं किंचित्पावकं ज्वलयेत्क्रमात् ।
एवंद्वादशभिर्यामैर्म्रियते सूतकोत्तमः ॥ ३३ ॥
स्फोटयेत्स्वाङ्गशीतं तमूर्ध्वगं गन्धकं त्यजेत् ।
अधस्थ मृतसूतं च सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ ३४ ॥
अपामार्गस्य बीजानां मूषायुग्मं प्रकल्पयेत् ।
तत्संपुटे न्यसेत्सूतं मलयूदुग्धमिश्रितम् ॥ ३५॥
द्रोणपुष्पीप्रसूनानि विडङ्गमिरिमेदकः ।
एतच्चूर्णमधोर्ध्वंच दत्त्वा मुद्रां प्रदीयते ॥ ३६॥
तं गोलं सन्धयेत्सम्यग्मृन्मूषासंपुटे सुधीः ।
मुद्रां दत्त्वा शोषयित्वा ततो गजपुटे पचेत् ॥ ३७ ॥
एवमेकपुटेनैव जायते भस्म सूतकम् ।
काकोदुम्बरिकादुग्धै रसं किंचिद्विमर्दयेत् ॥ ३८ ॥
तद्दुग्धघृष्टहिङ्गोश्च मूषायुग्मं प्रकल्पयेत् ।
क्षिप्त्वा तत्संपुटे सूतं तत्र गुद्रांप्रदापयेत् ॥ ३९॥
धृत्वा तं गोलकं प्राज्ञो मृन्मूषासंपुटेऽधिके ।
पचेन्मृदुपुटेनैव सूतको याति भस्मताम् ॥ ४० ॥
नागवल्लीरसैर्घृष्टः कर्कोटीकन्दगर्भतिः ।
मृन्मूषासंपुटे पवत्वा सूतो यात्येव भस्मताम् ॥ ४१ ॥
खण्डितं मृगशृङ्ग च ज्वालामुख्या रसैः समम् ।
रुध्वा भाण्डे पचेच्चुल्यां याममुग्मं ततो नयेत् ॥ ४२ ॥
अष्टांशंत्रिकटुं दद्यान्निष्कमात्र च भक्षयेत् ।
नागवल्लीरसैःसार्ध वातपित्तज्वरापहम् ॥ ४३ ॥
अयं ज्वरांकुशो नाम रस सर्वज्वरापहः ।
पारदं रसक ताल तुत्थं टङ्कणगन्धके ॥४४॥
सर्वमेतत्समं शुद्धं कारवल्लीरसैर्दिनम् ।
मर्दयेल्लेपयेत्तेन ताम्रपात्रोदरं भिषक् ॥ ४५ ॥
अङ्गुल्यर्धप्रमाणेन ततो रुध्वा च तन्मुखम् ।
पचेत्त वालुकायत्रेक्षिप्त्वाधान्यानि तन्मुखे ॥ ४६॥
यदा स्फुटन्ति धान्यानि तदा सिद्धं विनिर्दिशेत् ।
ततो नयेत्स्वाङ्गशीतं ताम्रपात्रोदराद्भिषक् ॥ ४७ ॥
रसं ज्वरारिनामानं विचूर्ण्य मरिचैः समम् ।
माषैकं पर्णखण्डेन भक्षयेन्नाशयेज्ज्वरम् ॥ ४८ ॥
त्रिदिनैर्विषमं तीव्रमेकद्वित्रिचतुर्थकम् ।
तालकं तुत्थकं ताम्ररसं गन्धं मनःशिलाम् ॥ ४९ ॥
कर्षं कर्षं प्रयोक्तव्यं मर्दयेत्त्रिफलाम्बुभिः ।
गोल न्यसेत्संपुटके पुटं दद्यात्प्रयत्नतः ॥ ५० ॥
ततो नीत्वार्कदुग्धेन वज्रीदुग्धेन सप्तधा ।
क्वाथेन दन्त्याः श्यामाया भावयेत्सप्तधा पुनः ॥ ५१ ॥
माषमात्र रसं देयं पञ्चाशन्मरिचैर्युतम् ।
गुडगद्याणकं चैव तुलसीदलयुग्मकम् ॥ ५२ ॥
भक्षयेत्त्रिदिनं भक्त्या शीतारिर्दुर्लभः परः ।
पथ्यं दुग्धोदनं देयं विषमं शीतपूर्वकम् ॥ ५३ ॥
दाहपूर्वं हरत्याशु तृतीयकचतुर्थकौ।
द्व्याहिक सतत चैव वैवर्ण्यंच नियच्छति ॥ ५४ ॥
भागैकः स्याद्रसाच्छुद्धादैलेयः पिप्पली शिवा ।
आकारकरभो गन्धः कटुतैलेन शोधितः ॥ ५५ ॥
फलानि चेन्द्रवारुण्याश्चतुर्भागमिता अमी ।
एकत्र मर्दयेच्चूर्णमिन्द्रवारुणिकारसैः ॥ ५६ ॥
माषोन्मितां गुटीं कृत्वा दद्यात्सर्वज्वरे बुधः ।
छिन्नारसानुपानेन ज्वरघ्नीगुटिका मता ॥ ५७ ॥
शुद्धो बुभुक्षितः सूतो भागद्वयमितो भवेत् ।
तथा गन्धस्य भागौ द्वौ कुर्यात्कज्जलिकां तयोः ॥ ५८ ॥
सूताच्चतुर्गुणेष्वेव कपर्देषुविनिक्षिपेत् ।
भागैकं टङ्कणं दत्त्वा गोक्षीरेण विमर्दयेत् ॥ ५९॥
तथा शङ्खस्य खण्डानां भागानष्टौप्रकल्पयेत् ।
क्षिपेत्सर्व पुटस्यान्तश्चूर्णलिप्तशरावयोः ॥ ६० ॥
गर्ते हस्तोन्मिते धृत्वा पुटेद्गजपुटेन च ।
स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य पिष्ट्वा तत्सर्वमेकतः ॥ ६१ ॥
षड्गुञ्जासंमित चूर्णमेकोनत्रिंशदूषणैः ।
घृतेन वातजे दद्यान्नवनीतेन पित्तजे ॥ ६२ ॥
क्षौद्रेण श्लेष्मजे दद्यादतीसारे क्षये तथा ।
अरुचौ ग्रहणीरोगे कार्श्येमन्दानले तथा ॥ ६३ ॥
कासश्वासेषुगुल्मेषु लोकनाथरसोहितः ।
तस्योपरि घृतान्नं च भुञ्जीत कवलत्रयम् ॥ ६४ ॥
मञ्चे क्षणैकमुत्तानः शयीतानुपधानके ।
अनम्लमन्नं सघृतं भुञ्जीत मधुरं दधि ॥ ६५ ॥
प्रायेण जाङ्गलं मांस प्रदेयं घृतपाचितम् ।
सुदुग्धभक्तं दद्याच्च जातेऽग्नौ सांध्यभोजने ॥ ६६ ॥
सघृतान्मुद्गवटकान्व्यञ्जनेष्ववचारयेत् ।
तिलामलककल्केन स्नापयेत्सर्पिषाऽथवा ॥ ६७ ॥
अभ्यञ्जयेत्सर्पिषा च स्नानं कोष्णोदकेन च ।
क्वचित्तैलं न गृह्णीयान्न बिल्वं कारवेल्लकम् ॥ ६८॥
वार्ताकं शफरींचिञ्चां त्यजेद्व्यायाममैथुने ।
मद्यंसधानकं हिङ्गु शुण्ठीं माषान्मसूरकान् ॥ ६९॥
कूष्माण्डं राजिकां कोपं काञ्जिक चैव वर्जयेत् ।
त्यजेदयुक्तनिद्रां च कांस्यपात्रेच भोजनम् ॥ ७० ॥
ककारादियुतं सर्वं त्यजेच्छाकफलादिकम् ।
पथ्योऽयं लोकनाथस्तु शुभनक्षत्रवासरे ॥ ७१ ॥
पूर्णातिथौ सिते पक्षे जाते चन्द्रबले तथा ।
पूजयित्वा लोकनाथं कुमारीं भोजयेत्ततः ॥ ७२ ॥
दानं दत्वा द्विघटिकामध्ये ग्राह्यो रसोत्तमः ।
रसाच्चेज्जायते तापस्तदा शर्करया युतम् ॥ ७३ ॥
सत्त्वं गुडूच्या गृह्णीयाद्वंगरोचनया युतम् ।
खर्जूरं दाडिम द्राक्षामिक्षुखण्डानि चारयेत् ॥ ७४ ॥
अरुचौ निस्तुषं धान्यं घृतभृष्ट सशर्करम् ।
दद्यात्तथा ज्वरे धान्यगुडूचीक्वाथमाहरेत् ॥ ७५ ॥
उशीरवासकक्वाथं दद्यात्समधुशर्करम् ।
रक्तपित्ते कफे श्वासे कासे च स्वरसंक्षये ॥ ७६ ॥
अग्निभृष्टजयाचूर्णं मधुना निशि दीयते ।
निद्रानाशेऽतिसारे च ग्रहण्यां मन्दपावके ॥ ७७ ॥
सौवर्चलाभयाकृष्णाचूर्णमुष्णोदकैः पिबेत् ।
शूलेऽजीर्णे तथा कृष्णा मधुयुक्ता ज्वरे हिता ॥ ७८ ॥
प्लीहोदरे वातरक्तेछर्द्यांचैव गुदाङ्कुरे ।
नासिकादिषु रक्तेषुरसं दाडिमपुष्पजम् ॥ ७९ ॥
दूर्वायाः स्वरसं नस्ये प्रदद्याच्छर्करायुतम् ।
कोलमज्जा कणा बर्हिपक्षभस्म सशर्करम् ॥ ८० ॥
मधुना लेहयेच्छर्दिहिक्काकोपस्य शान्तये ।
विधिरेषप्रयोज्यस्तु सर्वस्मिन्पोटलीरसे ॥ ८१ ॥
मृगाङ्के हेमगर्भेच मौक्तिकाख्ये रसेषुच ।
इत्ययं लोकनाथाख्यो रसः सर्वरुजो जयेत् ॥ ८२ ॥
वराटभस्म मण्डूरं चूर्णयित्वा घृते पचेत् ।
तत्समं मारिचं चूर्णं नागवल्या विभावितम् ॥ ८३ ॥
तच्चूर्णंमधुना लेह्यमथवा नवनीतकैः ।
माषमात्रं क्षयं हन्ति यामे यामे च भक्षितम् ॥ ८४ ॥
लोकनाथरसो ह्येषमण्डलाद्राजयक्ष्मनुत् ।
भूर्जवत्तनुपत्राणि हेम्नः सूक्ष्माणि कारयेत् ॥ ८५ ॥
तुल्यानि तानि सूतेन खल्वे क्षिप्त्वाविमर्दयेत् ।
काञ्चनाररसेनैव ज्वालामुख्या रसेन वा ॥ ८६ ॥
लाङ्गल्या वा रसैस्तावद्यावद्भवति पिष्टिका ।
ततो हेम्नश्चतुर्थांशं टङ्कणं तत्र निक्षिपेत् ॥ ८७ ॥
पिष्टमौक्तिकचूर्ण च हेमद्विगुणमावपेत् ।
तेषुसर्वसमं गन्धं क्षिप्त्वा चैकत्र मर्दयेत् ॥ ८८ ॥
तेषां कृत्वा ततो गोलं वासोभिः परिवेष्टयेत् ।
पश्चान्मृदा वेष्टयित्वा शोषयित्वा च धारयेत् ॥ ८९ ॥
शरावसपुटस्यान्तस्तत्र मुद्रां प्रदापयेत् ।
लवणापूरिते भाण्डे धारयेत्तं च संपुटम् ॥ १० ॥
मुद्रां दत्त्वा शोषयित्वा बहुभिर्गोमयैः पुटेत् ।
ततः शीते समाहृत्य गन्धं सूतसमं क्षिपेत् ॥ ९१ ॥
वृष्ट्वा च पूर्ववत्खल्वे पुटेद्गजपुटेन च ।
स्वाङ्गशीतं ततो नीत्वा गुञ्जायुग्मं प्रयोजयेत् ॥ ९२ ॥
अष्टभिर्मरिचैर्युक्तः कृष्णात्रययुतोऽथवा ।
विलोक्य देयो दोषादीनेकैका रसरक्तिका ॥ ९३ ॥
सर्पिषा मधुना वापि दद्याद्दोषाद्यपेक्षया ।
लोकनाथसमं पथ्यं कुर्यात्स्वस्थमनाः शुचिः ॥ ९४ ॥
श्लेष्माणं ग्रहणीं कासं श्वासं क्षयमरोचकम् ।
मृगाङ्कोऽयं रसो हन्यात्कृशत्वं बलहीनताम् ॥ ९५ ॥
सूतात्पादप्रमाणेन हेम्नः पिष्टं प्रकल्पयेत् ।
तयोः स्याद्द्विगुणो गन्धो मर्दयेत्काञ्चनारिणा ॥ ९६ ॥
कृत्वा गोलं क्षिपेन्मूषासंपुटे मुद्रयेत्ततः ।
पचेद्भूधरयन्त्रेण वासरत्रितयं बुधः ॥ ९७ ॥
तत उद्धृत्य तत्सर्वं दद्याद्गन्धं च तत्समम् ।
मर्दयेदार्द्रकरसैश्चित्रकस्वरसेन च ॥ ९८ ॥
स्थूलपीतवराटांश्च पूरयेत्तेन युक्तितः।
एतस्मादौषधात्कुर्यादष्टमांशेन टङ्कणम् ॥ ९९ ॥
टङ्कणार्धं विषं दत्त्वा पिष्ट्वासेहुण्डदुग्धकैः।
मुद्रयेत्तेन कल्केन वराटानां मुखानि च ॥ १०० ॥
भाण्डे चूर्णप्रलिप्ते च धृत्वा मुद्रां प्रदापयेत् ।
गर्ते हस्तोन्मिते धृत्वा पुटेद्गजपुटेन च ॥ १ ॥
स्वाङ्गशीतं रसं ज्ञात्वा प्रदद्याल्लोकनाथवत् ।
पथ्यं मृगाङ्कवज्ज्ञेयं त्रिदिनं लवणं त्यजेत् ॥ २॥
यदा छर्दिर्भवेत्तस्य दद्याच्छिन्नाशृतंतदा ।
मधुयुक्तं तथा श्लेष्मकोपे दद्याद्गुडार्द्रकम् ॥ ३ ॥
विरेके भर्जिता भङ्गा प्रदेया दधिसंयुता ।
जयेत्कासं क्षयं श्वासं ग्रहणीमरुचिं तथा ॥ ४ ॥
अग्निं च कुरुते दीप्तं कफवातं नियच्छति ।
हेमगर्भः परो ज्ञेयो रसः पोटलिकाभिधः ॥ ५ ॥
रसस्य भागाश्चत्वारस्तावन्तः कनकस्य च ।
तयोश्च पिष्टिकां कृत्वा गन्धो द्वादशभागिकः ॥ ६ ॥
कुर्यात्कज्जलिकां तेषां मुक्ताभागाश्च षोडश ।
चतुर्विंशच्च शङ्खस्य भागैकं टङ्कणस्य च ॥ ७ ॥
एकत्रमर्दयेत्सर्व पक्वनिम्बूकजै रसैः ।
कृत्वा तेषांततो गोलं मूषासंपुटके न्यसेत् ॥ ८ ॥
मुद्रां दत्त्वा ततो हस्तमात्रे गर्तेच गोमयैः ।
पुटेद्गजपुटेनैव स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ॥ ९ ॥
पिष्ट्वागुञ्जाचतुर्मानं दद्याद्गव्याज्यसंयुतम् ।
एकोनत्रिंशदुन्मानमरिचैः सह दीयते ॥ ११० ॥
राजते मृन्मये पात्रे काचजे वाऽवलेहयेत् ।
लोकनाथसमं पथ्यं कुर्याच्च स्वस्थमानसः ॥ ११ ॥
कासे श्वासे क्षये वाते कफे ग्रहणिकागदे ।
अतीसारे प्रयोक्तव्या पोटली हेमगर्भिका ॥ १२ ॥
शुद्धसूतो विषं गन्धः प्रत्येकं शाणसंमिताः ।
धूर्तबीजं त्रिशाणं स्यात्सर्वेभ्यो द्विगुणा भवेत् ॥ १३ ॥
हेमाह्वा कारयेदेषां सूक्ष्मं चूर्णंप्रयत्नतः ।
देयं जम्बीरमज्जाभिश्चूर्णं गुञ्जाद्वयोन्मितम् ॥ १४ ॥
आर्द्रकस्वरसैर्वापि ज्वरं हन्ति त्रिदोषजम् ।
ऐकाहिकं द्व्याहिकं वा त्र्याहिकं वा चतुर्थकम् ॥ १५ ॥
विषमं च ज्वरं हन्याद्विख्यातोऽयं ज्वराङ्कुशः ।
दरदं वत्सनाभं च मरिचं टङ्कणं कणा ॥ १६ ॥
चूर्णयेत्समभागेन रसो ह्यानन्दभैरवः ।
गुञ्जैकं वा द्विगुञ्जंवा बलं ज्ञात्वा प्रयोजयेत् ॥ १७ ॥
मधुना लेहयेच्चानु कुटजस्य फलं त्वचम् ।
चूर्णितं कर्षमात्रं तु त्रिदोषोत्थातिसारजित् ॥ १८ ॥
दध्यन्नं दापयेत्पथ्यं गवाज्यं तक्रमेव च ।
पिपासायां जलं शीतं विजया चहिता निशि ॥ १९ ॥
विषं पलमितं सूतः शाणिकश्चूर्णयेद्द्वयम् ।
तच्चूर्णं संपुटे क्षिप्त्वा काचलिप्तशरावयोः ॥ १२० ॥
मुद्रां दत्त्वा च संशोष्य ततश्चुल्यां निवेशयेत् ।
वह्निंशनैः शनैः कुर्यात्प्रहरद्वयसंख्यया ॥ २१ ॥
तत उद्घाटयेन्मुद्रामुपरिस्थां शरावकात् ।
संलग्नो यो भवेत्सूतस्तं गृह्णीयाच्छनैः शनैः ॥ २२ ॥
वायुस्पर्शोयथा न स्यात्तथा कुप्यां निवेशयेत् ।
यावत्सूच्या मुखे लग्नं कूप्या नियोति भेषजम् ॥ २३ ॥
तावन्मात्रारसो देयो मूर्छिते संनिपातिनि ।
क्षुरेण प्रच्छिते मूर्ध्नि तत्राङ्गुल्या च घर्षयेत् ॥ २४ ॥
रक्तभेषजसंपर्कान्मूर्छितोऽपि हि जीवति ।
तथैव सर्पदष्टस्तु मृतावस्थोऽपि जीवति ॥ २५ ॥
यदा तापो भवेत्तस्य मधुरं तत्र दीयते ।
सूतभस्मसमं गन्धं गन्धात्पादं मनःशिला ॥ २६ ॥
माक्षिकं पिप्पली व्योषंप्रत्येकं शिलया समम् ।
चूर्णयेद्भावयेत्पित्तैर्मत्स्यमायूरसंभवैः ॥ २७ ॥
सप्तधा भावयेच्छुष्कंदेयं गुञ्जाद्वयं हितम् ।
तालपर्णीरसश्चानु पञ्चकोलशृतोऽथवा ॥ २८ ॥
जलचूडो रसो नाम संनिपात नियच्छति ।
जलयोगश्च कर्तव्यस्तेन वीर्यं भवेद्रसे॥ २९ ॥
शुद्धसूतं विषं गन्धं मरिचं टङ्कणं कणा ।
मर्दयेद्धूर्तजद्रावैर्दिनमेकं च शोषयेत् ॥ १३० ॥
पञ्चवक्रो रसो नाम द्विगुञ्जः संनिपातजित् ।
अर्कमूलकषायं तु स त्र्यूषमनुपाययेत् ॥ ३१ ॥
युक्तं दध्योदनं पथ्यं जलयोगं च कारयेत् ।
रसेनानेन शाम्यन्ति सक्षौद्रेण कफादयः ॥ ३२॥
मध्वार्द्रकरसं चानु पिबेदग्निविवृद्धये ।
यथेष्टं घृतमांसाशी शक्तो भवति पावकः ॥ ३३ ॥
रसं गन्धकतुल्यांशं धत्तूरफलजद्रवैः ।
मर्दयेद्दिनमेकं तु तत्तल्यं त्रिकटु क्षिपेत् ॥ ३४ ॥
उन्मत्ताख्यो रसो नाम्नानस्ये स्यात्संनिपातजित् ।
निस्त्वग्जैपालबीजं च दशनिष्क विचूर्णयेत् ॥ ३५ ॥
मरिचं पिप्पलीं सूतं प्रतिनिष्कं विमिश्रयेत् ।
भाव्यो जम्बीरजैर्द्रावैः सप्ताहं संप्रयत्नतः ॥ ३६ ॥
रसोऽयमञ्जने दत्तः संनिपात विनाशयेत् ।
सूतं टङ्कणकं तुल्यं मरिचं सूततुल्यकम् ॥ ३७ ॥
गन्धकं पिप्पलीं शुण्ठीं द्वौ द्वौ भागौ विचूर्णयेत् ।
सर्वतुल्यं क्षिपेद्यन्तीबीजं निस्तुपितं भिषक् ॥ ३८ ॥
द्विगुञ्जंरेचनं सिद्ध नाराचोऽयं महारसः ।
आध्मानं मलविष्टम्भानुदावर्त च नाशयेत् ॥ ३९ ॥
दरदं टङ्कणं शुण्ठी पिप्पली चेति कार्षिकाः ।
हेमाह्वा पलमात्रा स्यादृन्तीबीजं च तत्समम् ॥ १४० ॥
विचूर्ण्यैकत्र सर्वाणि गोदुग्धेनैव पाययेत् ।
त्रिगुञ्जं रेचनं दद्याद्विष्टम्भाध्मानरोगिषु ॥ ४१ ॥
द्वौ भागौ हेमभूतेश्च गगनं चापि तत्समम् ।
लोहभस्मत्रयो भागाश्चत्वारो रसभस्मनः ॥ ४२ ॥
वङ्गभस्म त्रिभागंस्यात्सर्वमेकत्र मर्दयेत् ।
प्रवालं मौक्तिकं चैव रससाम्येन दापयेत् ॥ ४३ ॥
भावना गव्यदुग्धेन रसैर्घृष्वाटरूपकैः ।
हरिद्रावारिणा चैव मोचकन्दरसेन च ॥४४॥
शतपत्ररसेनापि मालत्याः स्वरसेन च ।
पश्चान्मृगमदश्चन्द्रतुलसीरसभावितः ॥ ४५ ॥
कुसुमाकर इत्येषवसन्तपदपूर्वकः ।
गुञ्जाद्वयं ददीतास्य मधुना सर्वमेहनुत् ॥ ४६ ॥
सिताचन्दनसंयुक्तश्चाम्लपित्तादिरोगजित् ।
सूतभस्मत्रयो भागा भागैकं हेमभस्मकम् ॥ ४७ ॥
मृताभ्रस्य च भागैकं शिलागन्धकतालकम् ।
प्रतिभागद्वयं शुद्धमेकीकृत्य विचूर्णयेत् ॥ ४८॥
वराटान्पूरयेत्तेन छागीक्षीरेण टङ्कणम् ।
पिष्ट्वातेन मुखं रुद्ध्वामृद्भाण्डेतन्निरोधयेत् ॥ ४९ ॥
शुष्कं गजपुट पक्त्वा चूर्णयेत्स्वाङ्गशीतलम् ।
रसो राजमृगाङ्कोऽयं चतुर्गुञ्जःक्षयापहः ॥ १५० ॥
दशपिप्पलिकाक्षौद्रैरेकोनत्रिंशदूषणैः ।
सघृतं दापयेत्पथ्यं स्त्रीकोपाग्निश्रमांस्त्यजेत् ॥ ५१ ॥
पथ्यं वा लघुमांसानि राजरोगप्रशान्तये ।
शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं कुर्यात्खल्वेन कज्जलीम् ॥ ५२ ॥
तयोः समं तीक्ष्णचूर्णं मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः ।
द्वियामान्ते कृतं गोलं ताम्रपात्रेविनिक्षिपेत् ॥ ५३ ॥
आच्छाद्यैरण्डपत्रेण यामार्धेऽत्युष्णता भवेत् ।
धान्यराशौ न्यसेत्पश्चादहोरात्रात्समुद्धरेत् ॥ ५४ ॥
संचूर्ण्य गालयेद्वस्त्रे सत्यं वारितर भवेत् ।
भावयेत्कन्यकाद्रावैः सप्तधा भृङ्गजैस्तथा ॥ ५५ ॥
काकमाचीकुरण्टोत्थद्रवैर्मुण्ड्या पुनर्नवैः ।
सहदेव्यमृतानीलीनिर्गुण्डीचित्रजैस्तथा ॥ ५६ ॥
सप्तधा तु पृथग्द्रावैर्भाव्यं शोष्यंतथातपे ।
सिद्धयोगो ह्ययं ख्यातः सिद्धानां च मुखागतः ॥ ५७ ॥
अनुभूतो मया सत्यं सर्वरोगगणापहः ।
स्वर्णादीन्मारयेदेवं चूर्णीकृत्य तु लोहवत् ॥ ५८ ॥
त्रिफलामधुसयुक्तः सर्वरोगेषुयोजयेत् ।
त्रिकटुत्रिफलैलाभिर्जातीफललवङ्गकैः ॥ ५९॥
नवभागोन्मितैरेतैः समः पूर्वरसो भवेत् ।
संचूर्ण्य लोडयेत्क्षौद्रैर्भक्ष्यं निष्कद्वयं द्वयम् ॥ १६० ॥
स्वयमग्निरसो नाम्ना क्षयकासनिकृन्तनः ।
पारदं गन्धकं शुद्धं मृतलोहं च टङ्कणम् ॥ ६१ ॥
रास्त्राविडङ्गत्रिफलादेवदारुकटुत्रयम् ।
अमृता पद्मकं क्षौद्रं विश्वं तुल्यांशचूर्णितम् ॥ ६२ ॥
त्रिगुञ्जंसर्वकासार्तः सेवयेदमृतार्णवम् ।
सूतार्धोगन्धको मर्द्योयामैकं कन्यकाद्रवैः ॥ ६३ ॥
द्वयोस्तुल्यं ताम्रपत्रं पूर्वकल्केन लेपयेत् ।
दिनैकं स्थालिकायन्त्रेपक्वमादाय चूर्णयेत् ॥ ६४ ॥
सूर्यावर्तोरसो ह्येष द्विगुञ्जः श्वासजिद्भवेत् ।
शुद्धं सूतं मृतं लोहं ताप्यं गन्धकतालके ॥ ६५ ॥
पथ्याग्निमन्थं निर्गुण्डी त्र्यूषणं टङ्कणं विषम् ।
तुल्यांशं मर्दयेत्खल्वे दिनं निर्गुण्डिकाद्रवैः ॥ ६६ ॥
मुण्डीद्रावैर्दिनैकं तु द्विगुञ्जंवटकीकृतम् ।
भक्षयेद्वातरोगार्तोनाम्ना स्वच्छन्दभैरवम् ॥ ६७ ॥
रास्नामृतादेवदारुशुण्ठीवातारिजं शृतम् ।
सगुग्गुलुं पिबेत्कोष्णमनुपानं सुखावहम् ॥ ६८ ॥
दग्धान्कपर्दिकान्पिष्ट्वा त्र्यूषणंटङ्कणं विषम् ।
गन्धकं शुद्धसूतं च तुल्यं जम्बीरजैर्द्रवैः ॥ ६९॥
मर्दयेद्भक्षयेन्माषंमरिचाज्यं लिहेदनु ।
निहन्ति ग्रहणीरोगं पथ्यं तक्रौदनं हितम् ॥ १७ ॥
मृतं ताम्रमजाक्षीरैः पाच्यं तुल्यैर्गतद्रवम् ।
तत्ताम्रंशुद्धसूतं च गन्धकं च समं समम् ॥ ७१ ॥
निर्गुण्डीस्वरसैर्मर्द्यंदिनं तद्गोलकं कृतम् ।
यामैकं वालुकायन्त्रेपाच्यं योज्यं द्विगुञ्जकम् ॥ ७२ ॥
बीजपूरकमूलं तु सजलं चानुपाययेत् ।
रसस्त्रिविक्रमो नान्ना मासैकेनाश्मरीप्रणुत् ॥ ७३ ॥
तालं ताप्यं शिला सूतं शुद्धं सैन्धवटङ्कणे ।
समांशं चूर्णयेत्खल्वे सूताद्द्विगुणगन्धकम् ॥ ७४ ॥
गन्धतुल्यं मृतं ताम्रंजम्बीरैर्दिनपञ्चकम् ।
मर्द्यषड्भिः पुटैः पाच्यं भूधरे संपुटोदरे ॥ ७५ ॥
पुटे पुटे द्रवैर्मर्द्यसर्वमेतत्तु षट्पलम् ।
द्विपलं मारित ताम्र लोहभस्म चतुष्पलम् ॥ ७६ ॥
जम्बीराम्लेन तत्सर्वं दिनं मर्द्यंपुटेल्लघु ।
त्रिंशदंशं विषं चास्य क्षिप्त्वा सर्वं विचूर्णयेत् ॥ ७७ ॥
माहिषाज्येन संमिश्रं निष्कार्धं भक्षयेत्सदा ।
मध्वाज्यैर्बाकुचीचूर्णं कर्षमात्रं लिहेदनु ॥ ७८ ॥
सर्वकुष्ठानि हन्त्याशु महातालेश्वरो रसः ।
भस्मसूतसमो गन्धो मृतायस्ताम्रगुग्गुलूः ॥ ७९ ॥
त्रिफला च महानिम्बश्चित्रकश्च शिलाजतु ।
इत्येतच्चूर्णितं कुर्यात्प्रत्येक शाणषोडश ॥ १० ॥
चतुःषष्टिः करञ्जस्य बीजचूर्णं प्रकल्पयेत् ।
चतुःषष्टिर्मृतं चाभ्रंमध्वाजाभ्यां विलोडयेत् ॥ ८१ ॥
स्निग्धभाण्डे धृतं खादेद्द्विनिष्क सर्वकुष्ठनुत् ।
रसः कुष्ठकुठारोऽयं गलत्कुष्ठनिवारणः ॥ ८२ ॥
शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं मर्द्यंकन्याद्रवैर्दिनम् ।
तद्गोलं पिठरीमध्ये ताम्रपात्रेण रोधयेत् ॥ ८३ ॥
सूतकाद्द्विगुणेनैव शुद्धेनाधोमुखेन च ।
पार्श्वे भस्म निधायायपात्रोर्ध्वंगोमयं जलम् ॥ ८४ ॥
किंचित्किंचित्प्रदातव्यं चुल्ल्यां यामद्वयं पचेत्।
चण्डाग्निना तदुद्धृत्य स्वाङ्गशीतं विचूर्णयेत् ॥ ८५॥
काष्ठोदुम्बरिकावह्नित्रिफलाराजवृक्षकम् ।
विडङ्ग बाकुचीबीजं क्वाथयेत्तेन भावयेत् ॥ ८६ ॥
दिनैकमुदयादित्यो रसो देयो द्विगुञ्जकः ।
विचर्चिकां दद्रुकुष्ठं वातरक्तं च नाशयेत् ॥ ८७ ॥
अनुपानं च कर्तव्यं बाकुचीफलचूर्णकम् ।
खदिरस्य कषायेण समेन परिपाचितम् ॥ ८८ ॥
त्रिशाणं तद्गवां क्षीरैः क्वाथैर्वा त्रैफलेः पिबेत् ।
त्रिदिनान्ते भवेत्स्फोटः सप्ताहाद्वा किलासके ॥ ८९॥
नीलींगुञ्जां च कासीसं धत्तूरं हंसपादिकाम् ।
सूर्यभक्तां च चाङ्गेरीं पिष्ट्वामूलानि लेपयेत् ॥ १९० ॥
स्फोटस्थानप्रशान्त्यर्थं सप्तरात्रंपुनः पुनः ।
श्वेतकुष्ठं निहन्त्याशु साध्यासाध्यं न संशयः ॥ ९१॥
अपरः श्वित्रलेपोऽपि कथ्यतेऽत्र भिषग्वरैः ।
गुञ्जाफलाग्निचूर्णं च लेपितं श्वेतकुष्ठनुत् ॥ ९२ ॥
शिलापामार्गभस्मापि लिप्तं श्वित्रं विनाशयेत् ।
शुद्धं सूतं चतुर्गन्धं पलं यामं विचूर्णयेत् ॥ ९३ ॥
मृतताम्राभ्रलोहानां दरदस्य पलं पलम् ।
सुवर्णं रजतं चैव प्रत्येकं दशनिष्ककम् ॥ ९४ ॥
माषैकं मृतवज्रं च तालं शुद्धं पलद्वयम् ।
जम्बीरोन्मत्तवासाभिः स्नुह्यर्कविषमुष्टिभिः ॥ ९५॥
मर्द्यंहयारिजैर्द्रावैः प्रत्येकेन दिनं दिनम् ।
एवं सप्तदिनं मर्द्यतद्गोलं वस्त्रवेष्टितम् ॥ ९६ ॥
वालुकायन्त्रगं स्वेद्यंत्रिदिनं लघुवह्निना ।
आदाय चूर्णयेच्छ्लक्ष्ण पलैकं योजयेद्विषम् ॥ ९७ ॥
द्विपलं पिप्पलीचूर्ण मिश्रं सर्वेश्वरो रसः ।
द्विगुञ्जोलिह्यते क्षौद्रैः सुप्तिमण्डलकुष्ठनुत् ॥ ९८ ॥
बाकुची देवकाष्ठंच कर्षमात्रंसुचूर्णयेत् ।
लिहेदैरण्डतैलाक्तमनुपानं सुखावहम् ॥ ९९ ॥
हेमाह्वां पञ्चपलिकां क्षिप्त्वा तक्रघटे पचेत् ॥
तक्रेजीर्णे समुद्धृत्य पुनः क्षीरघटे पचेत् ॥ २०० ॥
क्षीरे जीर्णेसमुद्धृत्य क्षालयित्वा विशोषयेत् ।
तच्चूर्ण पञ्चपलिकं मरिचानां पलद्वयम् ॥ १॥
पलैकं मूर्छितं सूतमेकीकृत्य तु भक्षयेत् ।
निष्कैकं सुप्तिकुष्ठार्तः स्वर्णक्षीरीरसो ह्ययम् ॥ २ ॥
भस्मसूतं मृतं कान्तं मुण्डभस्म शिलाजतु ।
शुद्धं ताप्यं शिला व्योषं त्रिफलांकोलबीजकम् ॥ ३ ॥
कपित्थं रजनीचूर्णं भृङ्गराजेन भावयेत् ।
विंशद्वारं विशोष्याथ मधुयुक्तं लिहेत्सदा ॥४॥
निष्कमात्रोहरेन्मेहान्मेहबद्धो रसो महान् ।
महानिम्बस्य बीजानि पिष्ट्वा षट्संमितानि च ॥ ५॥
पलतण्डुलतोयेन घृतनिष्कद्वयेन च ।
एकीकृत्य पिबच्चानु हन्ति मेहं चिरंतनम् ॥ ६॥
चतुःसूतस्य गन्धाष्टौ रजनी त्रिफला शिवा ।
प्रत्येकं च द्विभागं स्यान्त्रिवृज्जैपालचित्रकम् ॥ ७ ॥
प्रत्येकं च त्रिभागं स्यात्र्यूषणं दन्तिजीरके ।
प्रत्येकमष्टभागं स्यादेकीकृत्य विचूर्णयेत् ॥ ८ ॥
जयन्तीस्नुक्पयोभृङ्गवह्निवातारितैलकैः ।
प्रत्येकेन क्रमाद्भाव्यं सप्तवारं पृथक्पृथक् ॥ ९॥
महावह्निरसो नाम निष्कमुष्णजलैः पिबेत् ।
विरेचनं भवेत्तेन तक्रभक्तं ससैन्धवम् ॥ २१० ॥
दिनान्ते दापयेत्पथ्यं वर्जयेच्छीतलं जलम् ।
सर्वोदरहरः प्रोक्तो मूढवातहरः परः ॥ ११ ॥
गन्धकं तालकं ताप्यं मृतताम्रंमनःशिलाम् ।
शुद्धं सूतं च तुल्यांशं मर्दयेद्भावयेद्दिनम् ॥ १२ ॥
पिप्पल्यास्तु कषायेण वज्रीक्षीरेण भावयेत् ।
निष्कार्धं भक्षयेत्क्षौद्रैर्गुल्मं प्लीहादिकं जयेत् ॥ १३ ॥
रसो विद्याधरो नाम गोमूत्रं च पिबेदनु ।
टङ्कणं हारिणं शृङ्गं स्वर्णं शुल्बं मृतं रसम् ॥ १४ ॥
दिनैकमार्द्रकद्रावैर्मर्द्यंरुद्ध्वापुटे पचेत् ।
त्रिनेत्राख्यरसस्यैकं माषंमध्वाज्यकैर्लिहेत् ॥ १५ ॥
सैन्धवं जीरकं हिङ्गुमध्वाज्याभ्यां लिहेदनु ।
पक्तिशूलहरः ख्यातो मासमात्रान्न संशयः ॥ १६ ॥
शुद्धं सूत द्विधा गन्धं यामैकं मर्दयेद्दृढम् ।
द्वयोस्तुल्यशुद्धताम्रसंपुटे तन्निरोधयेत् ॥ १७ ॥
ऊर्ध्वाधो लवणं दत्वा मृद्भाण्डे धारयेद्भिषक् ।
ततो गजपुटे पक्त्वा स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् ॥ १८ ॥
संपुटं चूर्णयेत्सूक्ष्मं पर्णखण्डे द्विगुञ्जकम् ।
भक्षयेत्सर्वशूलार्तोहिङ्गुशुण्ठी च जीरकम् ॥ १९ ॥
वचामरिचजं चूर्णं कर्षमुष्णजलैः पिबेत् ।
असाध्यं नाशयेच्छूलं रसोऽयं गजकेसरी ॥ २२० ॥
शुद्धं सूतं विषं गन्धमजमोदां फलत्रयम् ।
स्वर्जिक्षारं यवक्षारं वह्निसैन्धवजीरकम् ॥ २१ ॥
सौवर्चलं विडङ्गानि सामुद्रं त्र्यूषणं समम् ।
विषमुष्टिं सर्वतुल्यं जम्बीराम्लेन मर्दयेत् ॥ २२ ॥
मरिचाभां वटीं खादेद्वह्निमान्द्यप्रशान्तये ।
शुद्धसूतं विषंगन्धं समं सर्वं विचूर्णयेत् ॥ २३ ॥
मरिचं सर्वतुल्यांशं कण्टकार्याः फलद्रवैः ।
मर्दयेद्भावयेत्सर्वमेकविंशतिवारकम् ॥ २४ ॥
वटी गुञ्जात्रयं खादेत्सर्वाजीर्णप्रशान्तये ।
अजीर्णकण्टकः सोऽयं रसो हन्ति विषूचिकाम् ॥ २५ ॥
मृतं सूतं मृतं ताम्रंहिङ्गुपुष्करमूलकम् ।
सैन्धवं गन्धकं तालं कटुकीं चूर्णयेत्समम् ॥ २६ ॥
पुनर्नवादेवदालीनिर्गुण्डीतण्डुलीयकैः ।
तिक्तकोशातकीद्रावैर्दिनैकं मर्दयेद्दृढम् ॥ २७ ॥
माषमात्रंलिहेत्क्षौद्रे रसं मन्थानभैरवम् ।
कफरोगप्रशान्त्यर्थं निम्बक्वाथं पिबेदनु ॥ २८॥
सूतहाटकवज्राणि ताम्रंलोहं च माक्षिकम् ।
ताल नीलाञ्जनं तुत्थमहिफेनं समांशकम् ॥ २९॥
पञ्जानां लवणानां च भागमेकं विमर्दयेत् ।
वज्रीक्षीरैर्दिनैक तु रुद्ध्वाधो भूधरे पचेत् ॥ २३० ॥
माषैकमार्द्रकद्रावैर्लेहयेद्वातनाशनम् ।
पिप्पलीमूलजक्वाथं सकृष्णमनुपाययेत् ॥ ३१ ॥
सर्वान्वातविकारांस्तु निहन्त्याक्षेपकादिकान् ।
कनकस्याष्ट शाणाः स्युः सूतो द्वादशभिर्मतः ॥ ३२ ॥
गन्धोऽपि द्वादश प्रोक्तस्ताम्रंशाणद्वयोन्मितम् ।
अभ्रकं स्याच्चतुःशाणं माक्षिकं च द्विशाणिकम् ॥ ३३ ॥
वङ्गो द्विशाणः सौवीरं त्रिशाणं लोहमष्टकम् ।
विषं त्रिशाणिकं कृत्वा लाङ्गली पलसंमिता ॥ ३४ ॥
मर्दयेद्दिनमेकं तु रसैरम्लफलोद्भवैः ।
दद्यान्मृदुपुटं वह्नौ ततः सूक्ष्मं विचूर्णयेत् ॥ ३५॥
माषमात्रो रसो देयः संनिपाते सुदारुणे ।
आर्द्रकस्वरसेनैव रसोनस्य रसेन वा ॥ ३६ ॥
किलासं सर्वकुष्ठानि विसर्पं च भगन्दरम् ।
ज्वरं गरमजीर्णं च जयेद्रोगहरो रसः ॥ ३७ ॥
रसो गन्धस्त्रित्रिकर्षौकुर्यात्कज्जलिकां तयोः ।
ताराभ्रताम्रवङ्गाहिसाराश्चैकैककार्षिकाः ॥ ३८ ॥
शिग्रुज्वालामुखीशुण्ठीबिल्वेभ्यस्तण्डुलीयकात् ।
प्रत्येकं स्वरसैः कुर्याद्यामैकैकं विमर्दनम् ॥ ३९ ॥
कृत्वा गोलं वृतं वस्त्रे लवणापूरिते न्यसेत् ।
काचभाण्डे ततः स्थाल्यां काचकूपीं निवेशयेत् ॥२४०॥
वालुकाभिः प्रपूर्याथ वह्निर्यामद्वयं भवेत् ।
तत उद्धृत्य तं गोलं चूर्णयित्वा विमिश्रयेत् ॥ ४१ ॥
प्रवालचूर्णकर्षेण शाणमात्रविषेण च ।
कृष्णसर्पस्य गरलैर्द्विवेलं भावयेत्तथा ॥ ४२ ॥
तगरं मुशली मांसी हेमाह्वा वेतसः कणा ।
नीलिनी पत्रकं चैलाचित्रकश्च कुठेरकः ॥ ४३ ॥
शतपुष्पा देवदाली धत्तुरागस्त्यमुण्डिकाः ।
मधूकजातीमदनरसैरेषां विमर्दयेत् ॥ ४४ ॥
प्रत्येकमेकवेलं च ततः संशोष्य धारयेत् ।
बीजपूरार्द्रकद्रावैर्मरिचैः षोडशोन्मितैः॥ ४५ ॥
रसो द्विगुञ्जाप्रमितः संनिपातेषु दीयते ।
प्रसिद्धोऽयं रसो नाम्ना संनिपातस्य भैरवः ॥ ४६ ॥
तारमौक्तिकहेमानि सारश्चैवैकभागकाः ।
द्विभागो गन्धकः सूतस्त्रिभागो मर्दयेदिमान् ॥ ४७ ॥
कपित्थस्वरसैर्गाढं मृगशृङ्गे ततः क्षिपेत् ।
पुटेन्मध्यपुटेनैव तत उद्धृत्य मर्दयेत् ॥ ४८॥
बलारसैः सप्तवेलमपामार्गरसैस्त्रिधा ।
लोध्रप्रतिविषामुस्तधातकीन्द्रयवामृताः ॥ ४९ ॥
प्रत्येकमेषांस्वरसैर्भावना स्यात्त्रिधा त्रिधा ।
माषमात्रो रसो देयो मधुना मरिचैस्तथा ॥ २५० ॥
हन्यात्सर्वानतीसारान्ग्रहणीं सर्वजामपि ।
कपाटो ग्रहणीरोगे रसोऽयं वह्निदीपनः ॥ ५१ ॥
मृतसूताभ्रकं गन्धं यवक्षारं सटङ्कणम् ।
अग्निमन्थं वचांकुर्यात्सूततुल्यानिमान्सुधीः ॥ ५२ ॥
ततो जयन्तीजम्बीरभृङ्गद्रावैर्विमर्दयेत् ।
त्रिवासरं ततो गोल कृत्वा संशोष्य धारयेत् ॥ ५३ ॥
लोहपात्रे शरावं च दत्त्वोपरि विमुद्रयेत् ।
अधो वह्निं शनैः कुर्याद्यामार्धं तत उद्धरेत् ॥ ५४ ॥
रसतुल्यां प्रतिविषां दद्यान्मोचरसं तथा ।
कपित्थविजयाद्रावैर्भावयेत्सप्तधा भिषक् ॥ ५५ ॥
धातकीन्द्रयवा मुस्ता लोध्रंबिल्वं गुडूचिका ।
एतद्रसैर्भावयित्वा वेलैकैकं च शोषयेत् ॥ ५६ ॥
रसं वज्रकपाटाख्यं शाणैकं मधुना लिहेत् ।
वह्निंशुण्ठीं बिडं बिल्वं लवणं चूर्णयेत्समम् ॥ ५७ ॥
पिबेदुष्णाम्बुना चानु सर्वजां ग्रहणीं जयेत् ।
तारं वज्रं सुवर्णं च ताम्रंसूतकगन्धकम् ॥ ५० ॥
लोहं क्रमविवृद्धानि कुर्यादेतानि मात्रया ।
विमर्द्यकन्यकाद्रावैर्न्यसेत्काचमये घटे ॥ ५९ ॥
विमुच्य पिठरीमध्ये धारयेत्सैन्धवावृते ।
पिठरीं मुद्रयेत्सम्यक्ततश्चुल्ल्यांनिवेशयेत् ॥ २६० ॥
वह्निंशनैः शनैः कुर्याद्दिनैकं तत उद्धरेत् ।
स्वाङ्गशीतं च संचूर्ण्य भावयेदर्कदुग्धकैः ॥ ६१ ॥
अश्वगन्धा च काकोली वानरी मुशली क्षुरा ।
त्रित्रिवेलं रसैरासां शतावर्याश्च भावयेत् ॥ ६२ ॥
पद्मकन्दकसेरूणां रसैः काशस्य भावयेत् ।
कस्तूरी व्योषकर्पूरकङ्कोलैलालवङ्गकम् ॥ ६३ ॥
पूर्वचूर्णादष्टमांशमेतच्चूर्णं विमिश्रयेत् ।
सर्वैः समां शर्करां च दत्त्वा शाणोन्मितं पिबेत् ॥ ६४ ॥
गोदुग्धद्विपलेनैव मधुराहारसेवकः ।
अस्य प्रभावात्सौन्दर्यं बलं तेजोऽभिवर्धते ॥ ६५॥
तरुणी रमयेद्वह्नीः शुक्रहानिर्न जायते ।
सूतो वज्रमहिर्मुक्ता तारं हेमासिताभ्रकम् ॥ ६६ ॥
रसैः कर्षांशकानेतान्मर्दयेदिरिमेदजैः ।
प्रवालचूर्णं गन्धश्च द्विद्विकर्षं विमिश्रयेत् ॥ ६७ ॥
ततोऽश्वगन्धास्वरसैर्विमर्द्यमृगशृङ्गके।
क्षिप्त्वा मृदुपुटे पक्त्वा भावयेद्धातकीरसैः ॥ ६८ ॥
काकोली मधुकं मांसी बलात्रयबिसेङ्गुदम् ।
द्राक्षापिप्पलीवन्दाकं वरी पर्णीचतुष्टयम् ॥ ६९॥
परूपकं कसेरुश्च मधूकं वानरी तथा ।
भावयित्वा रसैरेषां शोषयित्वा विचूर्णयेत् ॥ २७० ॥
एलात्वक्पत्रकं मांसी लवङ्गागरुकेशरम् ।
मुस्तं मृगमदः कृष्णा जलं चन्द्रश्च मिश्रयेत् ॥ ७१ ॥
एतच्चूणैः शाणमितै रसं कन्दर्पसुन्दरम् ।
खादेच्छाणमितं रात्रौसिता धात्री विदारिका ॥ ७२ ॥
एतासां कर्षचूर्णेन सर्पिष्कर्षेण संयुतम् ।
तस्यानु द्विपलं क्षीरं पिबेत्सुस्थितमानसः ॥ ७३ ॥
रमणी रमयेद्वह्वीर्न हानिं क्वापि गच्छति ।
शुद्धं रसेन्द्रं भागैकं द्विभागं शुद्धगन्धकम् ॥ ७४ ॥
क्षिपेत्कज्जलिकां कुर्यात्तत्र तीक्ष्णभवं रजः।
क्षिप्त्वा कज्जलिकातुल्यं प्रहरैकं विमर्दयेत् ॥ ७५ ॥
ततः कन्याद्रवैर्घर्मेत्रिदिनं परिमर्दयेत् ।
ततः संजायते तस्य सोष्णो धूमोद्गमो महान् ॥ ७६ ॥
अत्यन्तं पिण्डितं कृत्वा ताम्रपात्रेनिधापयेत् ।
मध्ये धान्यैकशूकस्य त्रिदिनं धारयेद्बुधः ॥ ७७ ॥
उद्धृत्य तस्मात्खल्वे च क्षिप्त्वा धर्मे निधाय च ।
रसैः कुठारच्छिन्नायास्त्रिवेलं परिभावयेत् ॥ ७८ ॥
संशोष्यधर्मे क्वाथैश्च भावयेत्त्रिकटोस्त्रिधा ।
वासामृताचित्रकाणां रसैर्भाव्यं क्रमात्त्रिधा ॥ ७९ ॥
लोहपात्रे ततः क्षिप्त्वा भावयेत्त्रिफलाजलैः ।
निर्गुण्डीदाडिमत्वग्भिर्बिसभृङ्गकुरण्टकैः ॥ २८० ॥
पलाशकदलीद्रावैर्बीजकस्य शृतेन च ।
नीलिकालम्बुपाद्रावैर्बब्बूलफलिकारसैः ॥ ८१ ॥
भावयेत्त्रित्रिवेलं च ततो नागबलारसैः ।
शतावरीगोक्षुरुभिः पातालगरुडीद्रवैः॥ ८२ ॥
त्रित्रिवेलं यथालाभं भावयेदेभिरौषधैः ।
ततः प्रातर्लिहेत्क्षौद्रघृताभ्यां कोलमात्रकम् ॥ ८३ ॥
पलमात्रंवराक्वाथं पिबेदस्यानुपानकम् ।
मासत्रयं शीलितं स्याद्वलीपलितनाशनम् ॥ ८४ ॥
मन्दाग्निं श्वासकासौ च पाण्डुतां कफमारुतौ ।
पिप्पलीमधुसंयुक्तं हन्यादेतन्न संशयः ॥ ८५ ॥
वातास्रंमूत्रदोषांश्च ग्रहणीं गुदजां रुजम् ।
अण्डवृद्धिं जयेदेतच्छिन्नासत्त्वमधुप्लुतम् ॥ ८६ ॥
बलवर्णकरं वृष्यमायुष्यंपरमं स्मृतम् ।
जयेत्सर्वामयान्कालादिदं लोहरसायनम् ॥ ८७ ॥
कूष्माण्डं तिलतैलं च माषान्नं राजिकां तथा ।
मद्यमम्लरसं चैव त्यजेल्लोहस्य सेवकः ॥ २८८ ॥
इति शार्ङ्गधरसंहितायां मध्यमखण्डे रसकल्पना
नाम द्वादशोऽध्यायः।
मध्यमखण्डः समाप्तः॥श्लोकसंख्या ॥ १२६४ ॥
अनुक्तसंग्रहश्लोका
जैपालं रहितं त्वगङ्कुररसज्ञाभिर्मले माहिषे
निक्षिप्त त्र्यहमुष्णतोयविमलं खल्वे सवासोऽर्दितम् ।
लिप्तं नूतनखर्परेषु विगतस्नेहं रजःसंनिभं
निम्बूकाम्बुविभावितं च बहुशः शुद्धं गुणाढ्यं भवेत् ॥१॥
विषं तु खण्डशः कृत्वा वस्त्रखण्डेन बन्धयेत् ।
गोमूत्रमध्ये निक्षिप्य स्थापयेदातपे त्र्यहम् ॥ २ ॥
गोमूत्रं च प्रदातव्यं नूतनं प्रत्यहं बुधैः ।
त्र्यहेऽतीते समुद्धृत्य शोषयेन्मृदु पेषयेत् ॥ ३॥
शुद्ध्येत्येवं विषं तच्च योग्यं भवति चार्तिजित् ।
खण्डीकृत्य विषं वस्त्रपरिबद्धं तु दोलया ॥ ४ ॥
अजापयसि संस्विन्नं यामतः शुद्धिमाप्नुयात् ।
अजादुग्धाभावतस्तु गव्यक्षीरेण शोधयेत् ॥ ५ ॥
उत्तरखण्डः ।
प्रथमोऽध्यायः।
स्नेहविधिः
स्नेहश्चतुर्विधः प्रोक्तो घृतं तैलं वसा तथा ।
मज्जाच तं पिबेन्मर्त्यः किंचिदभ्युदिते रवौ ॥ १ ॥
स्थावरो जङ्गमश्चैव द्वियोनिः स्नेह उच्यते ।
तिलतैलं स्थावरेषु जङ्गमेषुघृतं वरम् ॥ २ ॥
द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिस्तैर्यमकस्त्रिवृतो महान् ।
पिबेत्त्र्यहं चतुरहं पञ्चाहं षडहं तथा ॥ ३ ॥
सप्तरात्रात्परं स्नेहः सात्मीभवति सेवितः ।
दोषकालाग्निवयसां बलं दृष्ट्वा प्रयोजयेत् ॥ ४ ॥
हीनां च मध्यमां ज्येष्ठांमात्रां स्नेहस्य बुद्धिमान् ।
अमात्रया तथाऽकाले मिथ्याहारविहारतः ॥ ५॥
स्नेहः करोति शोफार्शम्तन्द्रानिद्राविसंज्ञताः ।
देया दीप्ताग्नये मात्रा स्नेहस्य पलसंमिता ॥ ६॥
मध्यमाय त्रिकर्षा स्याज्जघन्याय द्विकार्षिकी ।
अथवा स्नेहमात्राः स्युस्तिस्रोऽन्याः सर्वसंमताः ॥ ७ ॥
अहोरात्रेण महती जीर्यत्यह्नि तु मध्यमा ।
जीर्यत्यल्पा दिनार्धेन सा विज्ञेया सुखावहा ॥ ८॥
अल्पा स्याद्दीपनी वृष्या स्वल्पदोषेषु पूजिता ।
मध्यमा स्नेहनी ज्ञेया बृंहणी भ्रमहारिणी ॥ ९ ॥
ज्येष्ठा कुष्ठविषोन्मादग्रहापस्मारनाशिनी ।
केवलं पैत्तिके सर्पिर्वातिके लवणान्वितम् ॥ १०॥
पेयं बहुकफे वापि व्योषक्षारसमन्वितम् ।
रूक्षक्षतविषार्तानां वातपित्तविकारिणाम् ॥ ११ ॥
हीनमेधास्मृतीनां च सर्पिष्पानं प्रशस्यते ।
कृमिकोष्ठानिलाविष्टाः प्रवृद्धकफमेदसः ॥ १२ ॥
पिबेयुस्तैलसात्म्या ये तैलं दार्ढ्यार्थिनस्तु ये ।
व्यायामकर्षिताः शुष्करेतोरक्ता महारुजः ॥ १३ ॥
महाग्निमारुतप्राणा वसायोग्या नराः स्मृताः ।
क्रूराशयाः क्लेशसहा वातार्ता दीप्तवह्नयः ॥ १४ ॥
मज्जानमापिबेयुस्ते सर्पिर्वासर्वतो हितम् ।
शीतकाले दिवा स्नेहमुष्णकाले पिबेन्निशि ॥ १५॥
वातपित्ताधिके रात्रौ वातश्लेष्माधिके दिवा ।
नस्याभ्यञ्जनगण्डूषमूर्धकर्णाक्षितर्पणे ॥ १६ ॥
तैलं घृतं वा युञ्जीत दृष्ट्वा दोषबलाबलम् ।
घृते कोष्णजलं पेयं तैले यूषः प्रशस्यते ॥ १७ ॥
वसामज्ज्ञोः पिबेन्मण्डमनुपानं सुखावहम् ।
स्नेहद्विषः शिशून्वृद्धान्सुकुमारान्कृशानपि ॥ १८॥
तृष्णाकुलानुष्णकाले सह भक्तेन पाययेत् ।
सर्पिष्मती बहुतिला यवागूः स्वल्पतण्डुला ॥ १९ ॥
सुखोष्णा सेव्यमाना तु सद्यः स्नेहनकारिणी ।
शर्कराचूर्णसंभृष्टे दोहनस्थे घृते तु गाम् ॥ २० ॥
दुग्ध्वा क्षीरं पिबेदुष्णं सद्यः स्नेहनमुच्यते ।
मिथ्याचाराद्बहुत्वाद्वा यस्य स्नेहो न जीर्यति ॥ २१ ॥
विष्टभ्य वापि जीर्येत वारिणोष्णेन वामयेत् ।
स्नेहस्याजीर्णशङ्कायां पिबेदुष्णोदकं नरः ॥ २२ ॥
तेनोद्गारो भवेच्छुद्धो भक्तंप्रति रुचिस्तथा ।
स्नेहेन पैत्तिकस्याग्निर्यदा तीक्ष्णतरीकृतः ॥ २३ ॥
तदास्योदीरयेत्तृष्णां विषमांतस्य पाययेत् ।
शीतं जलं वामयेच्च पिपासा तेन शाम्यति ॥ २४ ॥
अजीर्णी वर्जयेत्स्नेहमुदरी तरुणज्वरी ।
दुर्बलोऽरोचकी स्थूलो मूर्च्छार्तोमदपीडितः ॥ २५ ॥
दत्तबस्तिर्विरिक्तश्च वान्तस्तृष्णाश्रमान्वितः ।
अकालप्रसवा नारी दुर्दिने च विवर्जयेत् ॥ २६ ॥
स्वेद्यसंशोध्यमद्यस्त्रीव्यायामासक्तचिन्तकाः ।
वृद्धा बालाः कृशा रूक्षाः क्षीणास्राः क्षीणरेतसः ॥२७॥
वातार्तास्तिमिरार्ता ये तेषां स्नेहनमुत्तमम् ।
वातानुलोम्यं दीप्तोऽग्निर्वर्चःस्निग्धमसंहतम् ॥ २८॥
मृदुस्निग्धाङ्गता ग्लानिः स्नेहावेगोऽथ लाघवम् ।
विमलेन्द्रियता सम्यक्स्निग्धे रूक्षे विपर्ययः ॥ २९ ॥
भक्तद्वेषो मुखस्रावो गुदे दाहः प्रवाहिका ।
तन्द्रातिसारः पाण्डुत्वं भृशं स्निग्धस्य लक्षणम् ॥ ३०॥
रूक्षस्य स्नेहनं स्नेहैरतिस्निग्धस्य रूक्षणम् ।
श्यामाकचणकाद्यैश्च तक्रपिण्याकसक्तुभिः ॥ ३१ ॥
दीप्ताग्निः शुद्धकोष्ठश्च पुष्टधातुर्दृढेन्द्रियः।
निर्जरो बलवर्णाढ्यः स्नेहसेवी भवेन्नरः ॥ ३२ ॥
स्नेहे व्यायामसंशीतवेगाघातप्रजागरान् ।
दिवा स्वप्नमभिष्यन्दि रूक्षान्नं च विवर्जयेत् ॥ ३३ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे स्नेहविधिर्नाम प्रथमोऽध्यायः ।
द्वितीयोऽध्यायः।
**स्वेदविधिः **
स्वेदश्चतुर्विधः प्रोक्तस्तापोष्मौ स्वेदसंज्ञितौ ।
उपनाहो द्रवः स्वेदः सर्वे वातार्तिहारिणः ॥ १ ॥
स्वेदौतापोष्मजौ प्रायः श्लेष्मघ्नौ समुदीरितौ ।
उपनाहस्तु वातघ्नः पित्तसङ्गे द्रवो हितः ॥ २ ॥
महाबले महाव्याधौ शीते स्वेदो महान्स्मृतः ।
दुर्बले दुर्बलः स्वेदो मध्ये मध्यतमो मतः ॥ ३ ॥
बलासे रूक्षणः स्वेदो रूक्षस्निग्धः कफानिले ।
कफमेदोवृते वाते कोष्णं गेहं रवेः करान् ॥ ४ ॥
नियुद्धं मार्गगमनं गुरुप्रावरणं ध्रुवम् ।
चिन्ताव्यायामभारांश्च सेवेतामयमुक्तये ॥ ५॥
येषांनस्यं विधातव्यं बस्तिश्चापि हि देहिनाम् ।
शोधनीयाश्च ये केचित्पूर्वं स्वेद्याश्च ते मताः ॥ ६ ॥
स्वेद्या पूर्वंत्रयोऽपीह भगन्दर्यर्शसस्तथा ।
अश्मर्या चातुरो जन्तुः शमयेच्छस्त्रकर्मणा ॥ ७ ॥
पश्चात्स्वेद्या गते शल्ये मूढगर्भगदे तथा ।
काले प्रजाताऽकाले वा पश्चात्स्वेद्या नितम्बिनी ॥ ८॥
सर्वान्स्वेद्यान्निवाते च जीर्णाहारे च कारयेत् ।
स्वेदाद्धातुस्थिता दोषाः स्नेहक्लिन्नस्य देहिनः ॥ ९॥
द्रवत्वं प्राप्य कोष्ठान्तर्गता यान्ति विरेकताम् ।
स्विद्यमानशरीरस्य हृदयं शीतलैः स्पृशेत् ॥ १० ॥
स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य शीतैराच्छाद्य चक्षुषी।
अजीर्णी दुर्बलो मेही क्षतक्षीणः पिपासितः ॥ ११ ॥
अतिसारी रक्तपित्ती पाण्डुरोगी तथोदरी ।
मदार्तोगर्भिणी चैव न हि स्वेद्या विजानता ॥ १२ ॥
एतानपि मृदुस्वेदैः स्वेदसाध्यानुपाचरेत् ।
मृदुस्वेदं प्रयुञ्जीत तथा हृन्मुष्कदृष्टिषु ॥ १३ ॥
अतिस्वेदात्सन्धिपीडा दाहस्तृष्णा क्लमो भ्रमः ।
पित्तासृक्पिटिकाकोपस्तत्र शीतैरुपाचरेत् ॥ १४ ॥
तेषु तापाभिधः स्वेदो वालुकावस्त्रपाणिभिः ।
कपालकन्दुकाङ्गारैर्यथायोग्यं प्रयुज्यते ॥ १५॥
ऊष्मस्वेदः प्रयोक्तव्यो लोहपिण्डेष्टकाश्मभिः ।
प्रतप्तैरम्लसिक्तैश्च काये रल्लकवेष्टिते ॥ १६ ॥
अथवा वातनिर्नाशिद्रव्यक्वाथरसादिभिः ।
उष्णैर्घटं पूरयित्वा पार्श्वे छिद्रं निधाय च ॥ १७ ॥
विमुद्र्यास्यं त्रिखण्डां च धातुजां काष्ठवंशजाम् ।
पडङ्गुलास्यां गोपुच्छां नलीं युञ्ज्याद्द्विहस्तिकाम् ॥१८॥
सुखोपविष्टं स्वभ्यक्तं गुरुप्रावरणावृतम् ।
हस्तिशुण्डिकया नाड्या स्वेदयेद्वातरोगिणम् ॥ १९॥
पुरुषायाममात्रां वा भूमिमुत्कीर्य खादिरैः ।
काष्ठैर्दग्ध्वा तथाभ्युक्ष्य क्षीरधान्याम्लवारिभिः ॥ २०॥
वातघ्नपत्रैराच्छाद्यशयानं स्वेदयेन्नरम् ।
एवं माषादिभिः स्विन्नै शयानं स्वेदयेन्नरम् ॥ २१ ॥
अथोपनाहः स्वेदं च कुर्याद्वातहरौषधैः ।
प्रदिह्य देहं वातार्तं क्षीरमांसरसान्वितैः ॥ २२ ॥
अम्लपिष्टैः सलवणैः सुखोष्णैः स्नेहसंयुतैः ।
उपग्राम्यानूपमांसैर्जीवनीयगणेन च ॥ २३ ॥
दधिसौवीरकक्षारैर्वीरतर्वादिना तथा ।
कुलत्थमाषगोधूमैरतसीतिलसर्षपैः ॥२४॥
शतपुष्पादेवदारुशेफालीस्थूलजीरकैः ।
एरण्डमूलबीजैश्च रास्नामूलकशिग्रुभिः ॥२५॥
मिशिकृष्णाकुठेरैश्च लवणैरम्लसंयुतैः ।
प्रसारिण्यश्वगन्धाभ्यां बलाभिर्दशमूलकैः ॥ २६ ॥
गुडूचीवानरीबीजैर्यथालाभं समाहृतैः ।
क्षुण्णैः स्विन्नैश्च वस्त्रेण बद्धैः संस्वेदयेन्नरम् ॥ २७ ॥
महाशाल्वणसंज्ञोऽयं योगः सर्वानिलार्तिहृत् ।
द्रवस्वेदस्तु वातघ्नद्रव्यक्वाथेन पूरिते ॥ २८ ॥
कटाहे कोष्ठके वाऽपि सूपविष्टोऽवगाहयेत् ।
नाभेः षडङ्गुलं यावन्मग्नः क्वाथस्य धारया ॥ २९ ॥
कोष्णया स्कन्धयोः सिक्तस्तिष्ठेत्स्निग्धतनुर्नरः ।
एवं तैलेन दुग्धेन सर्पिषा स्वेदयेन्नरम् ॥ ३०॥
एकान्तरे द्व्यन्तरे वा स्नेहो युक्तोऽवगाहने ।
शिरामुखैर्लोमकूपैर्धमनीभिश्च तर्पयेत् ॥ ३१ ॥
शरीरे बलमाधत्ते युक्तः स्नेहोऽवगाहने ।
जलसिक्तस्य वर्धन्ते यथा मूलेऽङ्कुरास्तरोः ॥ ३२ ॥
तथा धातुविवृद्धिर्हि स्नेहसिक्तस्य जायते ।
नातः परतरः कश्चिदुपायो वातनाशनः ॥ ३३ ॥
शीतशूलाद्युपरमे स्तम्भगौरवनिग्रहे ।
दीप्ताग्नौ मार्दवे जाते स्वेदनाद्विरतिर्मता ॥ ३४ ॥
सम्यक्स्विन्नं विमृदितं स्नानमुष्णाम्बुभिः शनैः ।
भोजयेच्चानभिष्यन्दि व्यायामं च न कारयेत् ॥ ३५ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे स्वेदविधिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ।
तृतीयोऽध्यायः।
वमनविधि
शरत्काले वसन्ते च प्रावृट्काले च देहिनाम् ।
वमनं रेचनं चैव कारयेत्कुशलो भिषक् ॥ १ ॥
बलवन्तं कफव्याप्तं हृल्लासार्तिनिपीडितम् ।
तथा वमनसात्म्यं च धीरचित्तं च वामयेत् ॥२॥
विषदोषेस्तन्यरोगे मन्देऽग्नौ श्लीपदेऽर्बुदे ।
हृद्रोगकुष्ठवीसर्पमेहाजीर्णभ्रमेषु च ॥ ३ ॥
विदारिकापचीकासश्वासपीनसवृद्धिषु ।
अपस्मारे ज्वरोन्मादे तथा रक्तातिसारिषु ॥ ४॥
नासाताल्वोष्ठपाकेषु कर्णस्रावे द्विजिह्वके ।
गलशुण्ड्यामतीसारे पित्तश्लेष्मगदे तथा ॥ ५ ॥
मेदोगदेऽरुचौ चैव वमनं कारयेद्भिषक् ।
न वामनीयस्तिमिरी न गुल्मी नोदरी कृशः ॥ ६ ॥
नातिवृद्धो गर्भिणी च न स्थूलो न क्षतातुरः ।
मदार्तोबालको रूक्षः क्षुधितश्च निरूहितः ॥ ७ ॥
उदावर्त्यूर्ध्वरक्ती च दुश्छर्दिः केवलानिली ।
पाण्डुरोगी कृमिव्याप्तः पठनात्स्वरघातकः ॥ ८ ॥
एतेऽप्यजीर्णव्यथिता वाम्या ये विषपीडिताः ।
कफव्याप्ताश्च ते वाम्या मधुकक्वाथपानतः ॥ ९॥
सुकुमारं कृशं बालं वृद्धं भीरुं न वामयेत् ।
पीत्वा यवागूमाकण्ठं क्षीरतक्रदधीनि वा ॥ १०॥
असात्म्यैः श्लेष्मलैर्भोज्यैर्दोषानुत्क्लिश्य देहिनः ।
स्निग्धस्विन्नाय वमनं दत्तं सम्यक्प्रवर्तते ॥ ११ ॥
वमनेषु च सर्वेषु सैन्धवं मधु वा हितम् ।
बीभत्सं वमन दद्याद्विपरीतं विरेचनम् ॥ १२ ॥
क्वाथ्यद्रव्यस्य कुडवं श्रपयित्वा जलाढके ।
अर्धभागावशिष्टं च वमनेष्ववचारयेत् ॥ १३ ॥
क्वाथपाने नवप्रस्था ज्येष्ठा मात्रा प्रकीर्तिता ।
मध्यमा षण्मिता प्रोक्ता त्रिप्रस्था च कनीयसी ॥१४॥
कल्कचूर्णावलेहानां त्रिपलं श्रेष्ठमात्रया ।
मध्यमं द्विपलं विद्यात्कनीयस्तु पलं भवेत् ॥ १५ ॥
वमने चापि वेगाः स्युरष्टौ पित्तान्तमुत्तमाः ।
षड्वेगा मध्यमा वेगाश्चत्वारस्त्ववरे मताः ॥ १६ ॥
वमने च विरेके च तथा शोणितमोक्षणे ।
सार्धत्रयोदशपलं प्रस्थमाहुर्मनीषिणः ॥ १७ ॥
कफंकटुकतीक्ष्णेन पित्तं स्वादुहिमैर्जयेत् ।
सुस्वादुलवणाम्लोष्णैः संसृष्टं वायुना कफम् ॥ १८॥
कृष्णां राठफलं सिन्धु कफे कोष्णजलैः पिबेत् ।
पटोलवासानिम्बैश्च पित्ते शीतजलं पिबेत् ॥ १९ ॥
सश्लेष्मवातपीडायां सक्षीरं मदनं पिबेत् ।
अजीर्णे कोष्णपानीयैः सिन्धु पीत्वा वमेत्सुधीः ॥ २०॥
वमनं पाययित्वा च जानुमात्रासने स्थितम् ।
कण्ठमेरण्डनालेन स्पृशन्तं वामयेद्भिषक् ॥ २१ ॥
ललाटं वमतः पुंसः पार्श्वे द्वे च प्रबोधयेत् ।
प्रसेको हृद्ग्रहः कोठः कण्डूर्दुश्छर्दिताद्भवेत् ॥ २२ ॥
अतिवान्ते भवेत्तृष्णा हिक्कोद्गारौ विसंज्ञता ।
जिह्वानिःसरणं चाक्ष्णोर्व्यावृत्तिर्हनुसंहतिः ॥ २३ ॥
रक्तच्छर्दिः ष्ठीवनं च कण्ठे पीडाच जायते ।
वमनस्यातियोगे तु मृदु कुर्याद्विरेचनम् ॥ २४ ॥
वमनान्तःप्रविष्टायां जिह्वायां कवलग्रहः ।
स्निग्धाम्ललवणैर्हृद्यैर्घृतक्षीररसैर्हितः ॥ २५ ॥
फलान्यम्लानि खादेयुस्तस्य चान्येऽग्रतो नराः ।
निःसृतां तु तिलद्राक्षाकल्कं लिप्त्वाप्रवेशयेत् ॥ २६॥
व्यावृत्तेऽक्ष्णिघृताभ्यक्ते पीडयेच्च शनैः शनैः ।
हनुमोक्षे स्मृतः स्वेदो नस्यं च श्लेष्मवातहृत् ॥२७॥
रक्तपित्तविधानेन रक्तच्छर्दिमुपाचरेत् ।
धात्रीरसाञ्जनोशीरलाजचन्दनवारिभिः ॥ २८ ॥
मन्थं कृत्वा पाययेच्च सघृतक्षौद्रशर्करम् ।
शाम्यन्त्यनेन तृष्णाद्याः पीडाश्छर्दिसमुद्भवाः ॥ २९ ॥
हृत्कण्ठशिरसां शुद्धिर्दीप्ताग्नित्वं च लाघवम् ।
कफपित्तविनाशश्चसम्यग्वान्तस्य चेष्टितम् ॥ ३० ॥
ततोऽपराह्णेदीप्तानिं मुद्गषष्टिकशालिभिः ।
हृद्यैश्च जाङ्गलरसैः कृत्वा यूषंच भोजयेत् ॥ ३१ ॥
तन्द्रा निद्राऽऽस्यदौर्गन्ध्यं कण्डूश्च ग्रहणी विषम् ।
सुवान्तस्य न पीडायै भवन्त्येते कदाचन ॥ ३२ ॥
अजीर्णं शीतपानीयं व्यायामं मैथुनं तथा ।
स्नेहाभ्यङ्गं प्रकोपं च दिनैक वर्जयेत्सुधीः ॥ ३३ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे वमन-
विधिर्नाम तृतीयोऽध्यायः ।
चतुर्थोऽध्यायः।
**विरेचनविधि **
स्निग्धस्विन्नस्य वान्तस्य दद्यात्सम्यग्विरेचनम् ।
अवान्तस्य त्वधःस्रस्तो ग्रहणीं छादयेत्कफः ॥ १ ॥
मन्दाग्निं गौरवं कुर्याज्जनयेद्वा प्रवाहिकाम् ।
अथवा पाचनैरामं बलासं च विपाचयेत् ॥ २॥
स्निग्धस्य स्नेहनैःकार्यं स्वेदैः स्विन्नस्य रेचनम् ।
शरदृतौ वसन्ते च देहशुद्ध्यै विरेचयेत् ॥ ३ ॥
अन्यदात्ययिके काले शोधनं शीलयेद्बुधः ।
पित्ते विरेचनं युञ्ज्यादामोद्भूते गदे तथा ॥ ४ ॥
उदरे च तथाध्माने कोष्ठशुद्ध्यै विशेषतः ।
दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः ॥ ५ ॥
ये तु संशोधनैः शुद्धा न तेषांपुनरुद्भवः ।
बालवृद्धावतिस्निग्धः क्षतक्षीणो भयान्वितः ॥ ६ ॥
श्रान्तस्तृषार्तः स्थूलश्च गर्भिणी च नवज्वरी ।
नवप्रसूता नारी च मन्दाग्निश्च मदात्ययी ॥ ७ ॥
शल्यार्दितश्च रूक्षश्च न विरेच्या विजानता ।
जीर्णज्वरी गरव्याप्तो वातरक्ती भगन्दरी ॥ ८ ॥
अर्शःपाण्डूदरग्रन्थिहृद्रोगारुचिपीडिताः ।
योनिरोगप्रमेहार्तागुल्मप्लीहव्रणार्दिताः ॥ ९॥
विद्रधिच्छर्दिविस्फोटविषूचीकुष्ठसंयुताः ।
कर्णनासाशिरोवक्रगुदमेढ्रामयान्विताः ॥ १० ॥
प्लीहशोथाक्षिरोगार्ताकृमिक्षीणानिलार्दिताः ।
शूलिनो मूत्रघातार्ता विरेकार्हानरा मताः ॥ ११ ॥
बहुपित्तो मृदुः कोष्ठोबहुश्लेष्मा च मध्यमः ।
बहुवात क्रूरकोष्ठो दुर्विरेच्यः स कथ्यते ॥ १२ ॥
मृद्वी मात्रा मृदौ कोष्ठे मध्यकोष्ठेच मध्यमा ।
क्रूरे तीक्ष्णा मता द्रव्यैर्मृदुमध्यमतीक्ष्णकैः ॥ १३ ॥
मृदुर्द्राक्षापयश्चञ्चुतैलैरपि विरिच्यते ।
मध्यमस्त्रिवृतातिक्ताराजवृक्षैर्विरिच्यते ॥ १४ ॥
क्रूरः स्नुक्पयसा हेमक्षीरीदन्तीफलादिभिः ।
मात्रोत्तमा विरेकस्य त्रिंशद्वेगैः कफान्तिका ॥ १५॥
वेगैर्विंशतिभिर्मध्या हीनोक्ता दशवेगिका ।
द्विपलं श्रेष्ठमाख्यातं मध्यमं च पलं भवेत् ॥ १६ ॥
पलार्धं च कषायाणां कनीयस्तु विरेचनम् ।
कल्कमोदकचूर्णानां कर्षंमध्वाज्यलेहतः ॥ १७ ॥
कर्षद्वयं पलं वापि वयोरोगाद्यपेक्षया ।
पित्तोत्तरे त्रिवृच्चूर्णं द्राक्षाक्वाथादिभिः पिबेत् ॥ १८ ॥
त्रिफलाक्वाथगोमूत्रैः पिबेद्व्योषं कफार्दितः ।
त्रिवृत्सैन्धवशुण्ठीनां चूर्णमम्लेः पिबेन्नरः ॥ १९ ॥
वातार्दितो विरेकाय जाङ्गलानां रसेन वा ।
एरण्डतैलं त्रिफलाक्वाथेन द्विगुणेन च ॥ २० ॥
युक्तं पीतं पयोभिर्वा न चिरेण विरिच्यते ।
त्रिवृता कौटजं बीजं पिप्पली विश्वभेषजम् ॥ २१ ॥
समृद्वीकारसक्षौद्रं वर्षाकाले विरेचनम् ।
त्रिवृद्दुरालभामुस्ताशर्करोदीच्यचन्दनम् ॥ २२ ॥
द्राक्षाम्बुना सयष्टीकं शीतलं च घनात्यये ।
त्रिवृता चित्रकं पाठा ह्यजाजी सरला वचा ॥ २३ ॥
हेमक्षीरी च हेमन्ते चूर्णमुष्णाम्बुना पिबेत् ।
पिप्पली नागरं सिन्धु श्यामा त्रिवृतया सह ॥ २४ ॥
लिहेत्क्षौद्रेण शिशिरे वसन्ते च विरेचनम् ।
त्रिवृता शर्करा तुल्या ग्रीष्मकाले विरेचनम् ॥ २५ ॥
अभया मरिचं शुण्ठीविडङ्गामलकानि च ।
पिप्पली पिप्पलीमूलं त्वक्पत्रं मुस्तमेव च ॥ २६ ॥
एतानि समभागानि दन्ती च द्विगुणा भवेत् ।
त्रिवृदष्टगुणा ज्ञेया षड्गुणा चात्र शर्करा ॥ २७ ॥
मधुना मोदकान्कृत्वा कर्षमात्रप्रमाणतः ।
एकैकं भक्षयेत्प्रातः शीतं चानुपिबेज्जलम् ॥ २८ ॥
तावद्विरिच्यते जन्तुर्यावदुष्णं न सेवते ।
पानाहारविहारेषु भवेन्निर्यन्त्रणः सदा ॥ २९ ॥
विषमज्वरमन्दाग्निपाण्डुकासभगन्दरान् ।
दुर्नामकुष्ठगुल्मार्शोगलगण्डभ्रमोदरान् ॥ ३० ॥
विदाहप्लीहमेहांश्च यक्ष्माणं नयनामयान् ।
वातरोगांस्तथाध्मानं मूत्रकृच्छ्राणि चाश्मरीम् ॥ ३१ ॥
पृष्ठपार्श्वोरुजघनजङ्घोदररुजं जयेत् ।
सततं शीलनादेषां पलितानि प्रणाशयेत् ॥ ३२ ॥
अभयामोदका ह्येते रसायनवराः स्मृताः ।
पीत्वा विरेचनं शीतजलैः संसिच्य चक्षुषी ॥ ३३ ॥
सुगन्धिं किंचिदाघ्राय ताम्बूलं शीलयेन्नरः ।
निर्वातस्थो न वेगांश्च धारयेन्न स्वपेत्तथा ॥ ३४ ॥
शीताम्बु न स्पृशेत्क्वापि कोष्णनीरं पिबेन्मुहुः ।
बलासौषधपित्तानि वायुर्वान्ते यथा व्रजेत् ॥ ३५ ॥
रेकात्तथा मलं पित्तं भेषजं च कफो व्रजेत् ।
दुर्विरिक्तस्य नाभेस्तु स्तब्धत्वंकुक्षिशूलता ॥ ३६ ॥
पुरीषवातसंगश्च कण्डूमण्डलगौरवम् ।
विदाहोऽरुचिराध्मानं भ्रमश्छर्दिश्च जायते ॥ ३७ ॥
तं पुनः पाचनैः स्नेहैः पक्त्वा संस्नेह्य रेचयेत् ।
तेनास्योपद्रवा यान्ति दीप्तोऽग्निर्लघुता भवेत् ॥ ३८ ॥
विरेकस्यातियोगेन मूर्छा भ्रंशो गुदस्य च ।
शूलं कफातियोगः स्यान्मांसधावनसंनिभम् ॥ ३९ ॥
मेदोनिभं जलाभासं रक्तं वापि विरिच्यते ।
तस्य शीताम्बुभिः सिक्त्वा शरीरं तण्डुलाम्बुभिः ॥ ४० ॥
मधुमिश्रैस्तथा शीतैः कारयेद्वमनं मृदु ।
सहकारत्वचः कल्को दध्ना सौवीरकेण वा ॥ ४१ ॥
पिष्टो नाभिप्रलेपेन हन्त्यतीसारमुल्बणम् ।
अजाक्षीरं रसं वापि वैष्किरं हारिणं तथा ॥ ४२ ॥
शालिभिः षष्टिकैः स्वल्पं मसूरैर्वापि भोजयेत् ।
शीतैः संग्राहिभिर्द्रव्यैः कुर्यात्संग्रहणं भिषक् ॥ ४३ ॥
लाघवे मनसस्तुष्टावनुलोमे गतेऽनिले ।
सुविरक्तं नरं ज्ञात्वा पाचनं पाययेन्निशि ॥ ४४ ॥
इन्द्रियाणां बलं बुद्धेः प्रसादो वह्निदीपनम् ।
धातुस्थैर्यं वयःस्थैर्यं भवेद्रेचनसेवनात् ॥ ४५ ॥
प्रवातसेवा शीताम्बु स्नेहाभ्यङ्गमजीर्णताम् ।
व्यायामं मैथुनं चैव न सेवेत विरेचितः ॥ ४६॥
शालिषष्टिकमुद्गाद्यैर्यवागूं भोजयेत्कृताम् ।
जाङ्गलैर्विष्किराणां वा रसैः शाल्योदनं हितम् ॥ ४७ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे विरेचन-
विधिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः ।
पञ्चमोऽध्यायः॥
**बस्तिविधिः **
बस्तिर्द्विधाऽनुवासाख्यो निरूहश्च ततः परम् ।
यः स्नेहैर्दीयते स स्यादनुवासननामकः ॥ १ ॥
कषायक्षीरतैलैर्योनिरूहः स निगद्यते ।
बस्तिभिर्दीयते यस्मात्तस्माद्बस्तिरिति स्मृतः ॥ २ ॥
तत्रानुवासनाख्यो हि बस्तिर्यः सोऽत्र कथ्यते ।
पूर्वमेव ततो बस्तिर्निरूहाख्यो भविष्यति ॥ ३ ॥
निरूहादुत्तरश्चैव बस्तिः स्यादुत्तराभिधः ।
अनुवासनभेदश्च मात्राबस्तिरुदीरितः ॥ ४ ॥
पलद्वयं तस्य मात्रा तस्मादर्धापि वा भवेत् ।
अनुवास्यस्तु रूक्षः स्यात्तीक्ष्णाग्निः केवलानिली ॥ ५॥
नानुवास्यस्तु कुष्ठी स्यान्मेही स्थूलस्तथोदरी ।
नास्थाप्या नानुवास्याः स्युरजीर्णोन्मादतृड्युताः ॥ ६॥
शोकमूर्छाऽरुचिभयश्वासकासभयातुराः ।
नेत्रं कार्यंसुवर्णादिधातुभिर्वृक्षवेणुभिः ॥ ७ ॥
नलैर्दन्तैर्विषाणाग्रैर्मणिभिर्वा विधीयते ।
एकवर्षात्तु षड्वर्षं यावन्मानं षडङ्गुलम् ॥ ८॥
ततो द्वादशक यावन्मानं स्यादष्टसंमितम् ।
ततः परं द्वादशभिरङ्गुलैर्नेत्रदीर्घता ॥ ९ ॥
मुद्गच्छिद्रं कलायाभं छिद्र कोलास्थिसंनिभम् ।
यथासंख्यं भवेन्नेत्र श्लक्ष्णं गोपुच्छसंनिभम् ॥ १० ॥
आतुराङ्गुष्ठमानेन मूले स्थूलं विधीयते ।
कनिष्ठिकापरीणाहमग्रेच गुटिकामुखम् ॥ ११ ॥
तन्मूले कर्णिके द्वे च कार्ये भागाच्चतुर्थकात् ।
योजयेत्तत्र बस्तिं च बन्धद्वयविधानतः ॥ १२ ॥
मृगाजशूकरगवां महिषस्यापि वा भवेत् ।
मूत्रकोशस्य बस्तिस्तु तदलाभेन चर्मजः ॥ १३ ॥
कषायरक्तः सुमृदुर्बस्तिः स्निग्धो दृढो हितः ।
व्रणबस्तेस्तु नेत्रं स्याच्छ्लक्ष्णमष्टाङ्गुलोन्मितम् ॥ १४ ॥
मुद्गच्छिद्रं गृध्रपक्षनलिकापरिणाहि च ।
शरीरोपचयं वर्णं बलमारोग्यमायुषः॥ १५ ॥
कुरुते परिवृद्धिं च बस्तिः सम्यगुपासितः ।
दिवसान्ते वसन्ते च स्नेहबस्तिःप्रदीयते ॥ १६ ॥
ग्रीष्मवर्षाशरत्काले रात्रौ स्यादनुवासनम् ।
न चातिस्निग्धमशनं भोजयित्वानुवासयेत् ॥ १७ ॥
मदं मूर्छांच जनयेद्द्विधा स्नेहः प्रयोजितः ।
रूक्षं भुक्तवतोऽत्यन्नं बलं वर्णश्च हीयते ॥ १८ ॥
हीनमात्रावुभौ बस्ती नातिकार्यकरौ स्मृतौ ।
अतिमात्रौतथानाहक्लमातीसारकारकौ॥ १९॥
उत्तमस्य पलैः षड्भिर्मध्यमस्य पलैस्त्रिभिः ।
पलाध्यर्धेन हीनस्य युक्ता मात्रानुवासने ॥ २० ॥
शताह्वासैन्धवाभ्यां च देयं स्नेहे च चूर्णकम् ।
तन्मात्रोत्तममध्यान्त्याः षट्चतुर्द्वयमाषकैः ॥ २१ ॥
विरेचनात्सप्तरात्रेगते जातबलाय च ।
भुक्तान्नायानुवास्याय बस्तिर्देयोऽनुवासनः ॥ २२ ॥
अथानुवास्यं स्वभ्यक्तमुष्णाम्बुस्वेदितं शनैः ।
भोजयित्वा यथाशास्त्र कृतचङ्क्रमणं ततः ॥ २३ ॥
उत्सृष्टानिलविण्मूत्रं योजयेत्स्नेहबस्तिना ।
सुप्तस्य वामपार्श्वेन वामजङ्घाप्रसारिणः ॥ २४ ॥
कुञ्चितापरजङ्घस्य नेत्रं स्निग्धगुदे न्यसेत् ।
बद्ध्वा बस्तिमुखं सूत्रैर्वामहस्तेन धारयेत् ॥ २५ ॥
पीडयेद्दक्षिणेनैव मध्यवेगेन धीरधीः ।
अनुवासनभेदश्च मात्राबस्तिरुदीरितः ॥ ४ ॥
पलद्वयं तस्य मात्रा तस्मादर्धापि वा भवेत् ।
अनुवास्यस्तु रूक्षः स्यात्तीक्ष्णाग्निः केवलानिली ॥ ५॥
नानुवास्यस्तु कुष्ठी स्यान्मेही स्थूलस्तथोदरी ।
नास्थाप्या नानुवास्याः स्युरजीर्णोन्मादतृड्युताः ॥ ६॥
शोकमूर्छाऽरुचिभयश्वासकासभयातुराः ।
नेत्रं कार्यंसुवर्णादिधातुभिर्वृक्षवेणुभिः ॥ ७ ॥
नलैर्दन्तैर्विषाणाग्रैर्मणिभिर्वा विधीयते ।
एकवर्षात्तु षड्वर्षं यावन्मानं षडङ्गुलम् ॥ ८॥
ततो द्वादशक यावन्मानं स्यादष्टसंमितम् ।
ततः परं द्वादशभिरङ्गुलैर्नेत्रदीर्घता ॥ ९ ॥
मुद्गच्छिद्रं कलायाभं छिद्र कोलास्थिसंनिभम् ।
यथासंख्यं भवेन्नेत्र श्लक्ष्णं गोपुच्छसंनिभम् ॥ १० ॥
आतुराङ्गुष्ठमानेन मूले स्थूलं विधीयते ।
कनिष्ठिकापरीणाहमग्रेच गुटिकामुखम् ॥ ११ ॥
तन्मूले कर्णिके द्वे च कार्ये भागाच्चतुर्थकात् ।
योजयेत्तत्र बस्तिं च बन्धद्वयविधानतः ॥ १२ ॥
मृगाजशूकरगवां महिषस्यापि वा भवेत् ।
मूत्रकोशस्य बस्तिस्तु तदलाभेन चर्मजः ॥ १३ ॥
कषायरक्तः सुमृदुर्बस्तिः स्निग्धो दृढो हितः ।
व्रणबस्तेस्तु नेत्रं स्याच्छ्लक्ष्णमष्टाङ्गुलोन्मितम् ॥ १४ ॥
मुद्गच्छिद्रं गृध्रपक्षनलिकापरिणाहि च ।
अष्टमो नवमश्चापि मज्जानं च यथाक्रमम् ॥ ३७॥
एवं शुक्रगतान्दोषान्द्विगुणः साधु साधयेत् ।
अष्टादशाष्टादशकान्बस्तीनां यो निषेवते ॥ ३८॥
स कुञ्जरबलोऽप्यश्वं जयेत्तुल्योऽमरप्रभः ।
रूक्षाय बहुवाताय स्नेहबस्तिं दिने दिने ॥ ३९ ॥
दद्याद्वैद्यस्तथान्येषामन्यां बाधामपाहरेत् ।
स्नेहोऽल्पमात्रो रूक्षाणां दीर्घकालमनत्ययः ॥ ४० ॥
तथा निरूहः स्निग्धानामल्पमात्रः प्रशस्यते ।
अथवा यस्य तत्कालं स्नेहो निर्याति केवलः ॥ ४१ ॥
तस्यान्योऽल्पतरो देयो न हि स्निह्यत्यतिष्ठति ।
अशुद्धस्य मलोन्मिश्रः स्नेहो नैति यदा पुनः ॥ ४२ ॥
तदा शैथिल्यमाध्मानं शूलं श्वासश्च जायते ।
पक्वाशये गुरुत्वं च तत्र दद्यान्निरूहणम् ॥ ४३ ॥
तीक्ष्णं तीक्ष्णौषधैर्युक्ता फलवर्तिर्हिता तथा ।
यथानुलोमलं वायुर्मलं स्नेहश्च जायते ॥ ४४ ॥
तथा विरेचनं दद्यात्तीक्ष्णं नस्यं च शस्यते ।
यस्य नोपद्रवंकुर्यात्स्नेहबस्तिरनिःसृतः ॥ ४५ ॥
सर्वोऽल्पो वा वृते रौक्ष्यादुपेक्ष्यः स विजानता।
अनायातं त्वहोरात्रे स्नेहं संशोधनैर्हरेत् ॥ ४६॥
स्नेहबस्तावनायाते नान्यः स्नेहो विधीयते ।
गुडूच्येरण्डपूतीकभार्ङ्गीवृषकरोहिषम् ॥ ४७ ॥
शतावरीं सहचरं काकनासां पलोन्मिताम् ।
यवमाषातसीकोलकुलत्थान्प्रसृतोन्मितान् ॥ ४८ ॥
चतुर्द्रोणेऽम्भसः पक्त्वा द्रोणशेषेण तेन च ।
पचेत्तैलाढकं पेष्यैर्जीवनीयैः पलोन्मितैः ॥ ४९ ॥
अनुवासनमेतद्धि सर्ववातविकारनुत् ।
षट्सप्ततिव्यापदस्तु जायन्ते बस्तिकर्मणः ॥ ५० ॥
दूषितात्समुदायेन ताश्चिकित्स्यास्तु सुश्रुतात् ।
पानाहारविहाराश्च परिहाराश्च कृत्स्नशः ॥ ५१ ॥
स्नेहपानसमाः कार्या नात्र कार्या विचारणा ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे स्नेहबस्तिवि-
धिर्नाम पञ्चमोऽध्यायः ।
षष्ठोऽध्यायः।
निरूहबस्तिविधि
निरूहबस्तिर्बहुधा भिद्यते कारणान्तरैः ।
तैरेव तस्य नामानि कृतानि मुनिपुङ्गवैः ॥ १ ॥
निरूहस्यापरं नाम प्रोक्तमास्थापनं बुधैः ।
स्वस्थानस्थापनाद्दोषधातूनां स्थापनं मतम् ॥ २ ॥
निरूहस्य प्रमाणं च प्रस्थं पादोत्तरं परम् ।
मध्यमं प्रस्थमुद्दिष्ट हीनस्य कुडवास्त्रयः ॥ ३ ॥
अतिस्निग्धोत्क्लिष्टदोषौ क्षतोरस्कः कृशस्तथा ।
आध्मानच्छर्दिहिक्कार्शःकासश्वासप्रपीडितः ॥ ४ ॥
गुदशोफातिसारार्तोविषूचीकुष्ठसंयुतः ।
गर्भिणी मधुमेही च नास्थाप्यश्च जलोदरी ॥ ५ ॥
वातव्याधावुदावर्ते वातासृग्विषमज्वरे ।
मूर्छातृष्णोदरानाहमूत्रकृच्छ्राश्मरीषु च ॥ ६ ॥
वृद्धासृग्दरमन्दाग्निप्रमेहेषु निरूहणम् ।
शूलेऽम्लपित्ते हृद्रोगे योजयेद्विधिवद्बुधः ॥ ७ ॥
उत्सृष्टानिलविण्मूत्रं स्निग्धस्विन्नमभोजितम् ।
मध्याह्ने गृहमध्ये च यथायोग्यं निरूहयेत् ॥ ८ ॥
स्नेहबस्तिविधानेन बुधः कुर्यान्निरूहणम् ।
जाते निरूहे च ततो भवेदुत्कटकासनः ॥ ९ ॥
तिष्ठेन्मुहूर्तमात्रंतु निरूहागमनेच्छया ।
अनायातं मुहूर्तं तु निरूहं शोधनैर्हरेत् ॥ १० ॥
निरूहैरेव मतिमान्क्षारमूत्राम्लसैन्धवैः ।
यस्य क्रमेण गच्छन्ति विपित्तकफवायवः ॥ ११ ॥
लाघवं चोपजायेत सुनिरूहं तमादिशेत् ।
यस्य स्याद्बस्तिरल्पाल्पवेगो हीनमलानिलः ॥ १२ ॥
मूत्रार्तिजाड्यारुचिमान्दुर्निरूहं तमादिशेत् ।
विविक्तता मनस्तुष्टिः स्निग्धता व्याधिनिग्रहः ॥ १३ ॥
आस्थापनस्नेहबस्त्योः सम्यग्दाने तु लक्षणम् ।
अनेन विधिना युञ्ज्यान्निरूहं बस्तिदानवित् ॥ १४ ॥
द्वितीयं वा तृतीयं वा चतुर्थं वा यथोचितम् ।
सस्नेह एकः पवने पित्ते द्वौ पयसा सह ॥ १५ ॥
कषायकटुरूक्षाद्याः कफे कोष्णास्त्रयो हिताः ।
पित्तश्लेष्मानिलाविष्टं क्षीरयूषरसैः क्रमात् ॥ १६ ॥
निरूहंयोजयित्वा च ततस्तदनुवासयेत् ।
सुकुमारस्य वृद्धस्य बालस्य च मृदुर्हितः ॥ १७ ॥
बस्तिस्तीक्ष्णः प्रयुक्तस्तु तेषां हन्याद्बलायुषी ।
दद्यादुत्क्लेशनं पूर्वं मध्ये दोषहरं ततः ॥ १८ ॥
पश्चात्संशमनीयं च दद्याद्बस्तिं विचक्षणः ।
एरण्डबीजं मधुकं पिप्पली सैन्धवं वचा ॥ १९ ॥
हपुषाफलकल्कश्च बस्तिरुत्क्लेशनः स्मृतः ।
शताह्वा मधुकं बिल्वं कौटजं फलमेव च ॥ २० ॥
सकाञ्जिकः सगोमूत्रो बस्तिर्दोषहरः स्मृतः ।
प्रियङ्गुर्मधुकं मुस्ता तथैव च रसाञ्जनम् ॥ २१ ॥
सक्षीरः शस्यते बस्तिर्दोषाणां शमनः स्मृतः ।
शोधनद्रव्यनिक्वाथैस्तत्कल्कैः स्नेहसैन्धवैः ॥ २२ ॥
युक्त्या खजेन मथिता बस्तयः शोधनाः स्मृताः ।
त्रिफलाक्वाथगोमूत्रक्षौद्रक्षारसमायुताः ॥ २३ ॥
ऊषकादिप्रतीवापैर्बस्तयो लेखनाः स्मृताः ।
बृंहणद्रव्यनिष्क्वाथैः कल्कैर्मधुरकैर्युताः ॥ २४ ॥
सर्पिर्मांसरसोपेता बस्तयो बृंहणाः स्मृताः ।
बदर्यैरावतीशेलुशाल्मलीधन्वनागराः ॥ २५ ॥
क्षीरसिद्धाः क्षौद्रायुक्ता नाम्ना पिच्छिलसंज्ञिताः ।
अजोरभ्रैणरुधिरैर्युक्ता देया विचक्षणैः ॥ २६ ॥
मात्रा पिच्छिलबस्तीनां पलैर्द्वादशभिर्मता ।
दत्त्वादौ सैन्धवस्याक्षं मधुनः प्रसृतिद्वयम् ॥ २७ ॥
विनिर्मथ्य ततो दद्यात्स्नेहस्य प्रसृतित्रयम् ।
एकीभूते ततः स्नेहे कल्कस्य प्रसृतिं क्षिपेत् ॥ २८ ॥
संमूर्छिते कषायं तु चतुःप्रसृतिसंमितम् ।
क्षिप्त्वा विमथ्य दद्याच्चनिरूहं कुशलो भिषक् ॥ २९॥
वाते चतुष्पलं क्षौद्रं दद्यात्स्नेहस्य षट्पलम् ।
पित्ते चतुष्पलं क्षौद्रं स्नेहं दद्यात्पलत्रयम् ॥ ३० ॥
कफे च षट्पलं क्षौद्रं क्षिपेत्स्नेहं चतुष्पलम् ।
एरण्डक्वाथतुल्यांशं मधुतैलं पलाष्टकम् ॥ ३१ ॥
शतपुष्पापलार्धेन सैन्धवार्धेन संयुतम् ।
मधुतैलकसंज्ञोऽयं बस्तिः खजविलोडितः ॥ ३२॥
मेदोगुल्मकृमिप्लीहमलोदावर्तनाशनः ।
बलवर्णकरश्चैव वृष्यो दीपनबृंहणः ॥ ३३ ॥
क्षौद्राज्यक्षीरतैलानां प्रसृतिः प्रसृतिर्भवेत् ।
हपुषासैन्धवाक्षांशौ बस्तिः स्याद्दीपनः परः ॥ ३४ ॥
एरण्डमूलनिष्क्वाथो मधु तैलं ससैन्धवम् ।
एष युक्तरथो बस्तिः सवचापिप्पलीफलः ॥ ३५ ॥
पञ्चमूलस्य निष्क्वाथस्तैलं मागधिका मधु ।
ससैन्धवः समधुकः सिद्धबस्तिरिति स्मृतः ॥ ३६ ॥
स्नानमुष्णोदकैः कुर्याद्दिवा स्वप्नमजीर्णताम् ।
वर्जयेदपरं सर्वमाचरेत्स्नेहबस्तिवत् ॥ ३७ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे निरूहब-
स्तिविधिर्नाम षष्ठोऽध्यायः ।
सप्तमोऽध्यायः।
उत्तरबस्तिविधि
अतः परं प्रवक्ष्यामि बस्तिमुत्तरसंज्ञितम् ।
द्वादशाङ्गुलकं नेत्रं मध्ये च कृतकर्णिकम् ॥ १ ॥
मालतीपुष्पवृन्ताभं छिद्रं सर्षपनिर्गमम् ।
पञ्चविंशतिवर्षाणामधोमात्रा द्विकार्षिकी ॥ २ ॥
तदूर्ध्वं पलमात्रा च स्नेहस्योक्ता भिषग्वरैः ।
अथास्थापनशुद्धस्य तृप्तस्य स्नानभोजनैः॥ ३ ॥
स्थितस्य जानुमात्रेच पीठे त्विष्टशलाकया ।
स्निग्धया मेढ्रमार्गे च ततो नेत्रं नियोजयेत् ॥ ४ ॥
शनैः शनैर्घृताभ्यक्तं मेढ्ररन्ध्रेऽङ्गुलानि षट् ।
ततोऽवपीडयेद्बस्ति शनैर्नेत्रं च निर्हरेत् ॥ ५ ॥
ततः प्रत्यागते स्नेहे स्नेहबस्तिक्रमो हितः ।
स्त्रीणां कनिष्ठिकास्थूलं नेत्रं कुर्याद्दशाङ्गुलम् ॥ ६ ॥
मुद्गप्रवेशं योज्यं च योन्यन्तश्चतुरङ्गुलम् ।
द्व्यङ्गुलं मूत्रमार्गे च सूक्ष्मं नेत्रं नियोजयेत् ॥ ७ ॥
मूत्रकृच्छ्रविकारेषु बालानां त्वेकमङ्गुलम् ।
शनैर्निष्कम्पमाधेयं सूक्ष्मंनेत्रं विचक्षणैः ॥ ८॥
योनिमार्गेषु नारीणां स्नेहमात्रा द्विपालिकी ।
मूत्रमार्गे पलोन्माना बालानां च द्विकार्षिकी ॥ ९ ॥
उत्तानायै स्त्रियै दद्यादूर्ध्वजान्वै विचक्षणः ।
अप्रत्यागच्छति भिषग्बस्तावुत्तरसंज्ञिते ॥ १० ॥
भूयो बस्तिं निदध्याच्च संयुक्तैः शोधनैर्गणैः ।
फलवर्तिं निदध्याद्वा योनिमार्गे दृढां भिषक् ॥ ११ ॥
सूत्रैर्विनिर्मितां स्निग्धां शोधनद्रव्यसंयुताम् ।
दह्यमाने तथा बस्तौ दद्याद्बस्तिं विशारदः ॥ १२ ॥
क्षीरिवृक्षकषायेण पयसा शीतलेन वा ।
बस्तिः शुक्ररुजः पुंसां स्त्रीणामार्तवजां रुजम् ॥ १३ ॥
हन्यादुत्तरबस्तिस्तु नोचितो मेहिनां क्वचित् ।
सम्यग्दत्तस्य लिङ्गानि व्यापदः शम एव च ॥ १४ ॥
बस्तेरुत्तरसंज्ञस्य शमनं स्नेहबस्तिना ।
घृताभ्यक्ते गुदे क्षेप्या श्लक्ष्णा स्वाङ्गुष्ठसंनिभा ॥ १५ ॥
मलप्रवर्तिनी वर्तिः फलवर्तिश्च सा स्मृता ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे उत्तरबस्ति-
विधिर्नाम सप्तमोऽध्यायः ।
अष्टमोऽध्यायः।
**नस्यविधिः **
नस्यं तत्कथ्यते धीरैर्नासाग्राह्यं यदौषधम् ।
नावनं नस्यकर्मेति तस्य नामद्वयं मतम् ॥ १ ॥
नस्यभेदो द्विधा प्रोक्तो रेचनं स्नेहनं तथा ।
रेचनं कर्षणं प्रोक्त स्नेहनं बृंहणं मतम् ॥ २ ॥
कफपित्तानिलध्वंसे पूर्वमध्यापराह्णके ।
दिने तु गृह्यते नस्यंरात्रावप्युत्कटे गदे ॥ ३ ॥
नस्यं त्यजेद्भोजनान्ते दुर्दिने चापतर्पणे ।
तथा नवप्रतिश्यायी गर्भिणी गरदूषितः ॥ ४ ॥
अजीर्णी दत्तबस्तिश्च पीतस्नेहोदकासवः ।
क्रुद्धः शोकाभिभूतश्च तृषार्तो वृद्धबालकौ ॥ ५॥
वेगावरोधी स्नातश्च स्नातुकामश्च वर्जयेत् ।
अष्टवर्षस्य बालस्य नस्यकर्म समाचरेत् ॥ ६ ॥
अशीतिवर्षादूर्ध्वं च नावनं नैव दीयते ।
अथ वैरेचनं नस्यं ग्राह्यं तैलैः सुतीक्ष्णकैः ॥ ७ ॥
तीक्ष्णभेषजसिद्धैर्वा स्नेहैः क्वाथै रसैस्तथा ।
नासिकारन्ध्रयोरष्टौषट् चत्वारश्च बिन्दवः ॥ ८॥
प्रत्येकं रेचने योज्या मुख्यमध्यान्त्यमात्रया ।
नस्यकर्मणि दातव्यं शाणैकं तीक्ष्णमौषधम् ॥ ९॥
हिङ्गु स्याद्यवमात्रंतु माषैकं सैन्धवं मतम् ।
क्षीरं चैवाष्टशाणं स्यात्पानीयं च त्रिकार्षिकम् ॥ १० ॥
कार्षिकं मधुरं द्रव्यं नस्यकर्मणि योजयेत् ।
अवपीडः प्रधमनं द्वौ भेदावपरौ स्मृतौ ॥ ११ ॥
शिरोविरेचनस्यात्र तौ तु देयौ यथायथम् ।
कल्कीकृतादौषधाद्यः पीडितो निःसृतो रसः ॥ १२ ॥
सोऽवपीडः समुद्दिष्टस्तीक्ष्णद्रव्यसमुद्भवः ।
षडङ्गुला द्विवक्रा या नाडी चूर्णं तया धमेत् ॥ १३ ॥
तीक्ष्णं कोलमित वक्रवातैप्रधमनं हि तत् ।
ऊर्ध्वजत्रुगते रोगे कफजे स्वरसंक्षये ॥ १४ ॥
अरोचके प्रतिश्याये शिरःशूले च पीनसे ।
शोफापस्मारकुष्ठेषुनस्यं वैरेचनं हितम् ॥ १५ ॥
भीरुस्त्रीकृशबालानां नस्यं स्नेहेन दीयते ।
गलरोगे संनिपाते निद्रायां विषमज्वरे ॥ १६ ॥
मनोविकारे कृमिषु युज्यते चावपीडनम् ।
अत्यन्तोत्कटदोषेषु विसंज्ञेषु च दीयते ॥ १७ ॥
चूर्णं प्रधमनं धीरैस्तद्धि तीक्ष्णतरं यतः ।
नस्यं स्याद्गुडशुण्ठीभ्यां पिप्पल्या सैन्धवेन च ॥ १८ ॥
जलपिष्टेन तेनाक्षिकर्णनासाशिरोगदाः ।
हनुमन्यागलोद्भूता नश्यन्ति भुजपृष्ठजाः ॥ १९ ॥
मधूकसारकृष्णाभ्यां वचामरिचसैन्धवैः ।
नस्यं कोष्णजले पिष्टं दद्यात्संज्ञाप्रबोधनम् ॥ २० ॥
अपस्मारे तथोन्मादे संनिपातेऽपतन्त्रके ।
सैन्धवं श्वेतमरिचं सर्षपाः कुष्ठमेव च॥ २१॥
बस्तमूत्रेण पिष्टानि नस्यं तन्द्रानिवारणम् ।
रोहीतमत्स्यपित्तेन भावितं सैन्धवं वचा ॥ २२॥
मरिचं पिप्पली शुण्ठी कङ्कोलं लशुनं पुरम्।
कट्फलम् चेति तच्चूर्णं देयं प्रधमनं बुधैः॥ २३॥
अथ बृंहणनस्यस्य कल्पना कथ्यतेऽधुना।
मर्शश्च प्रतिमर्शश्च द्वौ भेदौ स्नेहनौ मतौ॥ २४॥
मर्शश्च तर्पणी मात्रा मुख्या शाणैः स्मृताऽष्टभिः।
मध्यमा च चतुःशाणैर्हीना शाणमिता स्मृता॥ २५ ॥
एकैकस्मिंस्तु मात्रेयं देया नासापुटे बुधैः।
मर्शस्य द्वित्रिवेलं वा वीक्ष्य दोषबलाबलम् ॥ २६ ॥
एकान्तरं द्व्यन्यरं वा नस्यं दद्याद्विचक्षणः।
त्र्यहं पञ्चाहमथवा सप्ताहं वा सुयन्त्रितम्॥ २७॥
मर्शे शिरोविरेके च व्यापदो विविधाः स्मृताः ।
दोषोत्क्लेशात्क्षयाच्चैव विज्ञेयास्ता यथाक्रमम्॥ २८॥
दोषोत्क्लेशनिमित्तासु युञ्ज्याद्वमनशोधनम्।
अथ क्षयनिमित्तासु यथास्वं बृंहणं हितम्॥ २९॥
शिरोनासाक्षिरोगेषु सूर्यावर्तार्धभेदके।
दन्तरोगे बले हीने मन्याबाह्वंसजे गदे॥ ३०॥
मुखशोषे कर्णनादे वातपित्तगदे तथा।
अकालपलिते चैव केशश्मश्रुप्रपातने॥ ३१॥
युज्यते बृंहणं नस्यं स्नेहैर्वा मधुरद्रवैः ।
सशर्करं पयःपिष्टं भृष्टमाज्येन कुङ्कुमम् ॥ ३२ ॥
नस्यप्रयोगतो हन्याद्वातरक्तभवा रुजः ।
भ्रूशङ्खाक्षिशिरःकर्णसूर्यावर्तार्धभेदकान् ॥ ३३ ॥
नस्यं स्यादणुतैलेन तथा नारायणेन वा ।
माषादिना वा सर्पिर्भिस्तत्तद्भेषजसाधितैः ॥ ३४ ॥
तैलं कफे स्याद्वाते च केवले पवने वसा ।
दद्यान्नस्यं सदा पित्ते सर्पिर्मज्जानमेव च ॥ ३५ ॥
माषात्मगुप्तारास्नाभिर्बलाऋबुकरोहिषैः ।
कृतोऽश्वगन्धया क्वाथो हिङ्गुसैन्धवसंयुतः ॥ ३६ ॥
कोष्णो नस्यप्रयोगेण पक्षाघातं सकम्पनम् ।
जयेदर्दितवातं च मन्यास्तम्भापबाहुकौ॥ ३७ ॥
प्रतिमर्शस्य मात्रा तु द्विद्विबिन्दुमिता मता ।
प्रत्येकशो नस्तकयोः स्नेहेनेति विनिश्चितम् ॥ ३८ ॥
स्नेहे ग्रन्थिद्वयं यावन्निमग्नाचोद्धृता ततः ।
तर्जनी यं स्रवेद्बिन्दुंसा मात्रा बिन्दुसंज्ञिता ॥ ३९ ॥
एवंविधैर्बिन्दुसंज्ञैरष्टभिः शाण उच्यते ।
स देयो मर्शनस्ये तु प्रतिमर्शोद्विबिन्दुकः ॥ ४० ॥
समयाः प्रतिमर्शस्य बुधैः प्रोक्ताश्चतुर्दश ।
प्रभाते दन्तकाष्ठान्ते गृहान्निर्गमने तथा ॥ ४५ ॥
व्यायामाध्वव्यवायान्ते विण्मूत्रान्तेऽञ्जने कृते ।
कवलान्ते भोजनान्ते दिवासुप्तोत्थिते तथा ॥ ४२ ॥
वमनान्ते तथा सायं प्रतिमर्शः प्रयुज्यते ।
ईषदुच्छिन्दनात्स्नेहो यदा वक्त्रं प्रपद्यते॥ ४३ ॥
नस्ये निषिक्तं तं विद्यात्प्रतिमर्शप्रमाणतः ।
उच्छिन्दन्न पिबेच्चैतन्निष्ठीवेन्मुखमागतम्॥ ४४ ॥
क्षीणे तृष्णास्यशोषार्ते बाले वृद्धे च युज्यते।
प्रतिमर्शेन शाम्यन्ति रोगाश्चैवोर्ध्वजत्रुजाः॥ ४५ ॥
वलीपलितनाशश्च बलमिन्द्रियजं भवेत्।
बिभीतनिम्बगम्भारी शिवा शेलुश्च काकिनी॥ ४६ ॥
एकैकं तैलनस्येन पलितं नश्यति ध्रुवम्।
अथ नस्यविधिं वक्ष्ये नस्यग्रहणहेतवे॥ ४७ ॥
देशे वातरजोमुक्ते कृतदन्तनिघर्षणम्।
विशुद्धं धूमपानेन स्विन्नभालगलं तथा॥ ४८ ॥
उत्तानशायिनं किञ्चित्प्रलम्बशिरसं नरम्।
आस्तीर्णहस्तपादं च वस्त्राच्छादितलोचनम्॥ ४९ ॥
समुन्नमितनासाग्रं वैद्यो नस्येन योजयेत् ।
कोष्णमच्छिन्नधारं च हेमतारादिशुक्तिभिः॥ ५०॥
शुक्त्या वा यत्र युक्त्या वा प्लोतैर्वा नस्यमाचरेत्।
नस्येष्वासिच्यमानेषु शिरो नैव प्रकम्पयेत्॥ ५१॥
न कुप्येन्न प्रभाषेत नोच्छिदेन्न हसेत्तथा।
एतैर्हि विहितः स्नेहो नैवान्तः संप्रपद्यते॥ ५२॥
ततः कासप्रतिश्यायशिरोऽक्षिगदसंभवः।
शृङ्गाटकमभिप्लाव्य स्थापयेन्न गिलेद्द्रवम्॥ ५३॥
पञ्च सप्त दशैव स्युर्मात्रा नस्यस्य धारणे।
उपविश्याथ निष्ठीवेन्नासावक्त्रगतं द्रवम् ॥ ५४ ॥
वामदक्षिणपार्श्वाभ्यां निष्ठीवेत्संमुखे न हि ।
नस्ये नीते मनस्तापं रजः क्रोधं च संत्यजेत् ॥ ५५ ॥
शयीत निद्रां त्यक्त्वा च प्रोत्तानो वाक्शतं नरः ।
तथा वैरेचनश्चान्ते धूमो वा कवलो हितः ॥ ५६ ॥
नस्ये त्रीण्युपदिष्टानि लक्षणानि प्रयोगतः ।
शुद्धिहीनातियोगानि विशेषाच्छास्त्रचिन्तकैः ॥ ५७ ॥
लाघवं मनसः शुद्धिः स्रोतसां व्याधिसंक्षयः ।
चित्तेन्द्रियप्रसादश्च शिरसः शुद्धिलक्षणम् ॥ ५८ ॥
कण्डूषदेहो गुरुता स्रोतसां कफसंस्रवः ।
मूर्ध्निहीनविशुद्धे तु लक्षणं परिकीर्तितम् ॥ ५९ ॥
मस्तुलुङ्गागमो वातवृद्धिरिन्द्रियविभ्रमः ।
शून्यता शिरसश्चापि मूर्ध्नि गाढं विरेचिते ॥ ६० ॥
हीनातिशुद्धे शिरसीकफवातघ्नमाचरेत् ।
सम्यग्विशुद्धे शिरसि सर्पिर्नस्ये निषेचयत् ॥ ६१ ॥
कफप्रसेकः शिरसो गुरुतेन्द्रियविभ्रमः ।
लक्षणं तदतिस्निग्धे तत्र रूक्षं प्रदापयेत् ॥ ६२ ॥
भोजयेच्चानभिष्यन्दि नस्याचरिकमादिशेत् ।
वमनं रेचनं नस्यं निरूहश्चानुवासनम् ॥ ६३ ॥
एतानि पञ्च कर्माणि कथितानि मुनीश्वरैः ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे नस्यविधि-
र्नामाष्टमोऽध्यायः ।
नवमोऽध्यायः।
**धूमपानविधिः **
धूमस्तु षड्विधः प्रोक्तः शमनो बृंहणस्तथा ।
रेचनः कासहा चैव वामनो व्रणधूपनः ॥ १ ॥
शमनस्य तु पर्यायौ मध्यः प्रायोगिकस्तथा ।
बृंहणस्यापि पर्यायौ स्नेहनो मृदुरेव च ॥ २ ॥
रेचनस्यापि पर्यायौ शोधनस्तीक्ष्ण एव च ।
अधूमार्हाश्चखल्वेते श्रान्तो भीतश्च दुःखितः ॥ ३ ॥
दत्तबस्तिर्विरिक्तश्च रात्रौजागरितस्तथा ।
पिपासितश्च दाहार्तस्तालुशोषी तथोदरी ॥ ४ ॥
शिरोऽभितापी तिमिरी छर्द्याध्मानप्रपीडितः ।
क्षतोरस्कः प्रमेहार्तः पाण्डुरोगी च गर्भिणी ॥ ५ ॥
रूक्षः क्षीणोऽभ्यवहृतक्षीरक्षौद्रघृतासवः ।
भुक्तान्नदधिमत्स्यश्च बालो वृद्धः कृशस्तथा ॥ ६ ॥
अकाले चातिपीतश्च धूमः कुर्यादुपद्रवान् ।
तत्रेष्टं सर्पिषः पानं नावनाञ्जनतर्पणम् ॥ ७ ॥
सर्पिरिक्षुरसं द्राक्षां पयो वा शर्कराम्बु वा ।
मधुराम्लौ रसौ वापि शमनाय प्रदापयेत् ॥ ८॥
धूमस्तु द्वादशाद्वर्षाद्गृह्यतेऽशीतिकान्न च ।
कासश्वासप्रतिश्यायान्मन्याहनुशिरोरुजः ॥ ९ ॥
वातश्लेष्मविकारांश्च हन्याद्धूमः सुयोजितः ।
धूमप्रयोगात्पुरुषः प्रसन्नेन्द्रियवाङ्मनाः ॥ १० ॥
दृढकेशद्विजश्मश्रुः सुगन्धिवदनो भवेत् ।
धूमनाडी भवेत्तत्र त्रिखण्डा च त्रिपर्विका ॥ ११ ॥
कनिष्ठिकापरीणाहा राजमाषागमान्तरा ।
धूमनाडी भवेद्दीर्घा शमने रोगिणोऽङ्गुलैः ॥ १२ ॥
चत्वारिंशन्मितैस्तद्वद्द्वात्रिंशद्भिर्मृदौ मता ।
तीक्ष्णे चतुर्विशतिभिः कासघ्नी षोडशोन्मितैः॥ १३ ॥
दशाङ्गुलैर्वामनीये तथा स्याद्व्रणनाडिका ।
कलायमण्डलस्थूला कुलित्थागमरन्ध्रिका ॥ १४ ॥
अथेषिकां प्रलिम्पेच्च सुश्लक्ष्णां द्वादशाङ्गुलाम् ।
धूमद्रव्यस्य कल्केन लेपश्चाष्टाङ्गुलः स्मृतः ॥ १५ ॥
कल्कं कर्षमितं लिप्त्वा छायाशुष्कं च कारयेत् ।
ईषिकामपनीयाथ स्नेहाक्तां वर्तिमादरात् ॥ १६ ॥
अङ्गारैर्दीपितां कृत्वा धृत्वा नेत्रस्य रन्ध्रके ।
वदनेन पिबेद्धूमं वदनेनैव संत्यजेत् ॥ १७ ॥
नासिकाभ्यां ततः पीत्वा मुखेनैव वमेत्सुधीः ।
शरावसंपुटे क्षिप्त्वा कल्कमङ्गारदीपितम् ॥ १८॥
छिद्रे नेत्रं निवेश्याथ व्रणं तेनैव धूपयेत् ।
एलादिकल्कं शमने स्निग्धं सर्जरसं मृदौ ॥ १९ ॥
रेचने तीक्ष्णकल्कं च कासघ्नंक्षुद्रिकोषणम् ।
वामने स्नायुचर्माद्यं दद्याद्धूमस्य पानकम् ॥ २० ॥
व्रणे निम्बवचाद्यं च धूपनं संप्रशस्यते ।
अन्येऽपि धूमा गेहेषु कर्तव्या रोगशान्तये ॥ २१ ॥
मयूरपिच्छं निम्बस्य पत्राणि बृहतीफलम् ।
मरिचं हिङ्गु मांसी च बीजं कार्पाससंभवम् ॥ २२ ॥
छागरोमाहिनिर्मोकं विष्ठा बैडालिकी तथा ।
गजदन्तश्च तच्चूर्णं किंचिद्धृतविमिश्रितम् ॥ २३ ॥
गेहेषु धूपनं दत्तं सर्वान्बालग्रहाञ्जयेत् ।
पिशाचान्राक्षसाञ्जित्वा सर्वज्वरहरं भवेत् ॥ २४ ॥
परिहारस्तु धूमेषु कार्योरेचननस्यवत् ।
नेत्राणि धातुजान्याहुर्नलवंशादिजान्यपि ॥ २५ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे धूमपान-
विधिर्नाम नवमोऽध्यायः।
दशमोऽध्यायः।
**गण्डूषकवलप्रतिसारणविधिः **
चतुर्विधः स्याद्गण्डूषः स्नैहिकः शमनस्तथा ।
शोधनो रोपणश्चैव कवलश्चापि तद्विधः ॥ १ ॥
स्निग्धोष्णैः स्नैहिको वाते स्वादुशीतैः प्रसादनः ।
पित्ते कट्वम्ललवणैरुष्णैः संशोधनः कफे ॥ २ ॥
कषायतिक्तमधुरैः कदुष्णो रोपणो व्रणे ।
चतुष्प्रकारो गण्डूषः कवलश्चापि कीर्तितः ॥३॥
असंचारी मुखे पूर्णे गण्डूषः कवलश्चरः ।
तत्र द्रवेण गण्डूषः कल्केन कवलः स्मृतः ॥ ४ ॥
दद्याद्द्रवेषुचूर्णं च गण्डूषे कोलमात्रकम् ।
कर्षप्रमाणः कल्कश्च दीयते कवले बुधैः ॥ ५ ॥
धार्यन्ते पञ्चमाद्वर्षाद्गण्डूषकवलादयः ।
गण्डूषान्सुस्थितः कुर्यात्स्विन्नभालगलादिकः ॥ ६ ॥
मनुष्यस्त्रींस्तथा पञ्च सप्त वा दोषनाशनान् ।
कफपूर्णास्यता यावच्छेदो दोषस्य वा भवेत् ॥ ७ ॥
नेत्रघ्राणस्रुतिर्यावत्तावद्गण्डूषधारणम् ।
तिलकल्कोदकं क्षीरं स्नेहो वा स्नैहिके हितः ॥ ८ ॥
तिला नीलोत्पलं सर्पिः शर्करा क्षीरमेव च ।
सक्षौद्रो हनुवक्त्रस्थो गण्डूषो दाहनाशनः ॥ ९ ॥
वैशद्यंजनयत्यास्ये संदधाति मुखव्रणान् ।
दाहतृष्णाप्रशमनं मधुगण्डूषधारणम् ॥ १० ॥
विषक्षाराग्निदग्धे च सर्पिर्धार्यंपयोऽथवा ।
तैलसैन्धवगण्डूषो दन्तचाले प्रशस्यते ॥ ११ ॥
शोषं मुखस्य वैरस्यं गण्डूषः काञ्जिको जयेत् ।
सिन्धुत्रिकटुराजीभिरार्द्रकेण कफे हितः ॥ १२ ॥
त्रिफलामधुगण्डूषःकफासृक्पित्तनाशनः ।
दार्वी गुडूची त्रिफला द्राक्षा जात्याश्च पल्लवाः ॥ १३ ॥
यवासश्चेति तत्क्वाथः षष्ठांशक्षौद्रसंयुतः ।
शीतो मुखे धृतो हन्यान्मुखपाकंत्रिदोषजम् ॥ १४ ॥
यस्यौषधस्य गण्डूषस्तस्य वै प्रतिसारणम् ।
कवलश्चापि तस्यैव ज्ञेयोऽत्र कुशलैर्नरैः ॥ १५ ॥
केसरं मातुलुङ्गस्य सैन्धवोषणसयुतम् ।
हन्यात्कवलतो जाड्यमरुचिं कफवातजाम्॥ १६ ॥
कल्कोऽवलेहश्चूर्णं च त्रिविधं प्रतिसारणम् ।
अङ्गुल्यग्रगृहीतं च यथास्वं मुखरोगिणाम् ॥ १७ ॥
कुष्ठं दार्वी समङ्गाच पाठा तिक्ता च पीतिका ।
तेजनी मुस्तलोध्रेच चूर्णं स्यात्प्रतिसारणम् ॥ १८ ॥
रक्तस्रुतिं दन्तपीडां शोथं दाहं च नाशयेत् ।
हीनयोगात्कफोत्क्लेशो रसाज्ञानारुची तथा ॥ १९ ॥
अतियोगान्मुखे पाकः शोषस्तृष्णा क्लमो भवेत् ।
व्याधेरपचयस्तुष्टिर्वैशद्यंवक्त्रलाघवम् ॥ २० ॥
इन्द्रियाणां प्रसादश्च गण्डूषे शुद्धिलक्षणम् ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे गण्डूषादिविधि-
र्नाम दशमोऽध्यायः।
एकादशोऽध्यायः।
लेपविधि
आलेपस्य च नामानि लिप्तो लेपश्च लेपनम् ।
दोषघ्नो विषहा वर्ण्योमुखलेपस्त्रिधा मतः ॥ १ ॥
त्रिप्रमाणश्चतुर्भागत्रिभागाऽर्धाङ्गुलोन्नतः ।
आर्द्रोव्याधिहरः स स्थाच्छुष्कोदूषयति च्छविम् ॥ २ ॥
पुनर्नवां दारु शुण्ठींसिद्धार्थं शिग्रुमेव च ।
पिष्ट्वा चैवारनालेन प्रलेपः सर्वशोथजित् ॥ ३ ॥
बिभीतफलमज्जाया लेपो दाहार्तिनाशनः ।
शिरीषं मधुयष्टी च तगरं रक्तचन्दनम् ॥ ४ ॥
एला मांसी निशायुग्मं कुष्ठंवालकमेव च ।
इति संचूर्ण्यंलेपोऽयं पञ्चमांशघृतप्लुतः ॥ ५ ॥
जलेन क्रियते सुज्ञैर्दशाङ्ग इति संज्ञितः ।
विसर्पान्विषविस्फोटाञ्शोथान्दुष्टव्रणाञ्जयेत् ॥ ६ ॥
अजादुग्धतिलैर्लेपो नवनीतेन संयुतः ।
शोथमारुष्करं हन्ति लेपो वा कृष्णमृत्तिकैः ॥ ७ ॥
लाङ्गल्यतिविषालाबुजालिनीमूलबीजकैः ।
लेपो धान्याम्बुसंपिष्टः कीटविस्फोटनाशनः ॥ ८ ॥
रक्तचन्दनमञ्जिष्ठालोध्रकुष्ठप्रियङ्गवः ।
वटाङ्कुरा मसूराश्च व्यङ्गघ्ना मुखकान्तिदाः ॥ ९ ॥
मातुलुङ्गजटा सर्पिः शिला गोशकृतो रसः ।
मुखकान्तिकरो लेपः पिटिकाव्यङ्गकालजित् ॥ १० ॥
लोध्रधान्यवचालेपस्तारुण्यपिटिकापहः ।
तद्वद्गोरोचनायुक्तं मरिचं मुखलेपनम् ॥ ११ ॥
सिद्धार्थकवचालोध्रसैन्धवैश्चप्रलेपनम् ।
व्यङ्गेषु चार्जुनत्वग्वा मञ्जिष्ठा वा समाक्षिका ॥ १२ ॥
लेपः सनवनीतो वा श्वेताश्वखुरजा मषी ।
अर्कक्षीरहरिद्राभ्यां मर्दयित्वा विलेपनात् ॥ १३ ॥
मुखकार्ष्ण्यं शमं याति चिरकालोद्भवं ध्रुवम् ।
वटस्य पाण्डुपत्राणि मालती रक्तचन्दनम् ॥ १४ ॥
कुष्ठं कालीयकं लोध्रमेभिर्लेप प्रयोजयेत् ।
तारुण्यपिटिकाव्यङ्गनीलिकादिविनाशनम् ॥ १५ ॥
पुराणमथ पिण्याकं पुरीषं कुक्कुटस्य च ।
मूत्रपिष्टः प्रलेपोऽयं शीघ्रं हन्यादरुंषिकाम् ॥ १६ ॥
खदिरारिष्टजम्बूनां त्वग्भिर्वा मूत्रसंयुतैः ।
कुटजत्वक्सैन्धवैःच लेपो हन्यादरुंषिकाम् ॥ १७ ॥
प्रियालबीजमधुककुष्ठमाषैः ससैन्धवैः ।
कार्यों दारुणके मूर्ध्निप्रलेपो मधुसंयुतः ॥ १८ ॥
दुग्धेन खाखसं बीजं प्रलेपाद्दारुणं जयेत् ।
आम्रबीजस्य चूर्णं तु शिवाचूर्णंसमं द्वयम् ॥ १९ ॥
दुग्धपिष्टः प्रलेपोऽयं दारुणं हन्ति दारुणम् ।
रसस्तिक्तपटोलस्य पत्राणां तद्विलेपनात् ॥ २० ॥
इन्द्रलुप्तं शमं याति त्रिभिरेव दिनैर्ध्रुवम् ।
इन्द्रलुप्तापहो लेपो मधुना बृहतीरसः ॥ २१ ॥
गुञ्जामूलं फलं वापि भल्लातकरसोऽपि वा ।
गोक्षुरस्तिलपुष्पाणि तुल्ये च मधुसर्पिषी ॥ २२ ॥
शिरः प्रलेपनं तेन केशसंवर्धनं परम् ।
हस्तिदन्तमषीं कृत्वा छागीदुग्धं रसाञ्जनम् ॥ २३ ॥
रोमाण्यनेन जायन्ते लेपात्पाणितलेष्वपि ।
यष्टीन्दीवरमृद्वीकातैलाज्यक्षीरलेपनैः ॥ २४ ॥
इन्द्रलुप्तं शमं याति केशाः स्युः सघना दृढाः ।
चतुष्पदानां त्वग्रोमनखशृङ्गास्थिभस्मभिः ॥ २५ ॥
तैलेन सह लेपोऽयं रोमसंजननः परः ।
इन्द्रवारुणिकाबीजतैलेनाभ्यङ्गमाचरेत् ॥ २६ ॥
प्रत्यहं तेन जायन्ते कुन्तला भृङ्गसंनिभाः ।
अयोरजो भृङ्गराजस्त्रिफला कृष्णमृत्तिका ॥ २७ ॥
स्थितमिक्षुरसे मासं लेपनात्पलितं जयेत् ।
धात्रीफलत्रयं पथ्ये द्वे तथैकं बिभीतकम् ॥ २८ ॥
पञ्चाम्रमज्जालोहस्य कर्षैकं च प्रदीयते ।
पिष्ट्वा लोहमये भाण्डे स्थापयेदुषितं निशि ॥ २९ ॥
लेपोऽयं हन्ति नचिरादकालपलितं महत् ।
त्रिफला नीलिकापत्रं लोहं भृङ्गरजः समम् ॥ ३० ॥
अविमूत्रेण संपिष्टं लेपाकृष्णीकरं स्मृतम् ।
त्रिफला लोहचूर्ण च दाडिमत्वग्बिसं तथा ॥ ३१ ॥
प्रत्येकं पञ्चपलिकं चूर्ण कुर्याद्विचक्षणः ।
भृङ्गराजरसस्यापि प्रस्थषट्कं प्रदापयेत् ॥ ३२ ॥
क्षिप्त्वा लोहमये पात्रे भूमिमध्ये निधापयेत् ।
मासमेकं ततः कुर्याच्छागीदुग्धेन लेपनम् ॥ ३३ ॥
कूर्चे शिरसि रात्रौ च संवेष्ट्यैरण्डपत्रकैः ।
स्वपेत्प्रातस्ततकुर्यात्स्नानं तेन च जायते ॥ ३४ ॥
पलितस्य विनाशश्च त्रिभिर्लेपैर्नसंशयः ।
शङ्खचूर्णस्य भागौ द्वौ हरितालं च भागिकम् ॥ ३५ ॥
मनःशिला चार्धभागा स्वर्जिका चैकभागिका ।
लेपोऽयं वारिपिष्टस्तु केशानुत्पाट्य दीयते ॥ ३६ ॥
अनया लेपयुक्त्या च सप्तवेलं प्रयुक्तया ।
निर्मूलं केशस्थानं स्यात्क्षपणस्य शिरो यथा ॥ ३७ ॥
तालकं शाणयुग्मं स्यात्षट्शाणं शङ्खचूर्णकम् ।
द्विशाणिकं पलाशस्य क्षारं दत्त्वा प्रमर्दयेत् ॥ ३८ ॥
कदलीदण्डतोयेन रविपत्ररसेन वा ।
अस्यापि सप्तभिर्लेपै रोम्णां शातनमुत्तमम् ॥ ३९ ॥
सुवर्णपुष्पी कासीसं विडङ्गानि मनःशिला ।
रोचना सैन्धवं चैव लेपनाच्छ्वित्रनाशनम् ॥ ४० ॥
वायस्येडगजाकुष्ठकृष्णाभिर्गुटिका कृता ।
बस्तमूत्रेण संपिष्टा प्रलेपाच्छ्वित्रनाशिनी ॥ ४१ ॥
तालकं शाणमात्रं स्याच्चतुः शाणा च बाकुची ।
गोमूत्रपिष्टं तच्चूर्णं लेपनाच्छ्वित्रनाशनम् ॥ ४२ ॥
बाकुची वेतसो लाक्षा काकोदुम्बरिका कणा ।
रसाञ्जनमयश्चूर्णं तिलाः कृष्णास्तदेकतः ॥ ४३ ॥
चूर्णयित्वा गवां पित्तैः पिष्ट्वा च गुटिका कृता ।
अस्याः प्रलेपाच्छ्वित्राणि प्रणश्यन्त्यतिवेगतः ॥ ४४ ॥
धात्री सर्जरसश्चैव यवक्षारश्च चूर्णितः ।
सौवीरेण प्रलेपोऽयं प्रयोज्यः सिध्मनाशने ॥ ४५ ॥
दार्वी मूलकबीजानि तालकं सुरदारु च ।
ताम्बूलपत्रं सर्वाणि कार्षिकाणि पृथक्पृथक् ॥ ४६ ॥
शङ्खचूर्णं शाणमात्रंसर्वाण्येकत्र कारयेत् ।
लेपोऽयं वारिणा पिष्ट सिध्मनां नाशनः परः ॥ ४७ ॥
हरीतकी सैन्धवं च गैरिकं च रसाञ्जनम् ।
बिडालको जले पिष्टः सर्वनेत्रामयापहः ॥ ४८ ॥
रसाञ्जनं व्योषयुतं संपिष्टं वटकीकृतम् ।
कण्डूपाकान्वितां हन्ति लेपादञ्जननामिकाम् ॥ ४९ ॥
प्रपुन्नाटस्य बीजानि बाकुची सर्षपास्तिलाः ।
कुष्ठं निशाद्वयं मुस्तं पिष्ट्वातक्रेण चैकतः ॥ ५० ॥
प्रलेपादस्य नश्यन्ति दद्रूकण्डूविचर्चिकाः ।
हेमक्षीरी विडङ्गानि दरदं गन्धकस्तथा ॥ ५१ ॥
दद्रुघ्नः कुष्ठसिन्दूरे सर्वाण्येकत्र मर्दयेत् ।
धत्तूरनिम्बताम्बूलीपत्राणां स्वरसैः पृथक् ॥ ५२ ॥
अस्य प्रलेपमात्रेण पामादद्रूविचर्चिकाः ।
कण्डूश्चरकसश्चैव प्रशमं यान्ति वेगतः ॥ ५३ ॥
दूर्वाऽभया सैन्धवं च चक्रमर्दः कुठेरकः ।
एभिस्तक्रयुतो लेपः कण्डूदद्रूविनाशनः ॥ ५४ ॥
दूर्वानिशायुतो लेपः कण्डूषामाविनाशनः ।
कृमिदद्रूहरश्चैव शीतपित्तापहः स्मृतः ॥ ५५ ॥
सिद्धार्थरजनीकुष्ठप्रपुन्नाटतिलैः सह ।
कटुतैलेन संमिश्रं दद्रुघ्नं च प्रलेपनम् ॥ ५६ ॥
रास्ना नीलोत्पलं दारु चन्दनं मधुकं बला ।
घृतक्षीरयुतो लेपो वातवीसर्पनाशनः ॥ ५७ ॥
मृणालं चन्दनंलोध्रमुशीरं कमलोत्पलम् ।
सारिवामलकी पथ्या लेपः पित्तविसर्पनुत् ॥ ५८ ॥
त्रिफला पद्मकोशीरं समङ्गाकरवीरकम् ।
नलमूलमनन्ता च लेपः श्लेष्मविसर्पहा ॥ ५९ ॥
मांसी सर्जरसो लोध्रंमधुकं सहरेणुकम् ।
मूर्वा नीलोत्पलं पद्मंशिरीषकुसुमैः सह ॥ ६० ॥
प्रलेपः पित्तवातास्रेशतधौतघृतप्लुतः ।
आमलं घृतभृष्टं तु पिष्टं काञ्जिकवारिभिः ॥ ६१ ॥
जयेन्मूर्ध्नि प्रलेपेन रक्तं नासिकया सृतम् ।
कुष्ठमेरण्डतैलेन लेपात्काञ्जिकपेषितम् ॥ ६२ ॥
शिरोऽर्ति वातजां हन्यात्पुष्पं वा मुचुकुन्दजम् ।
देवदारु नतं कुष्ठं नलदं विश्वभेषजम् ॥ ६३ ॥
सकाञ्जिकः स्नेहयुक्तो लेपो वातशिरोऽर्तिनुत् ।
चन्दनोशीरयष्ट्याह्वबलाव्याघ्रनखोत्पलैः ॥ ६४ ॥
क्षीरपिष्टैः प्रलेपः स्याद्रक्तपित्तशिरोऽर्तिजित् ।
धात्रीकसेरुह्रीबेरपद्मपद्मकचन्दनैः॥ ६५ ॥
दूर्वोशीरनलानां च मूलैः कुर्यात्प्रलेपनम् ।
शिरोऽर्तिपित्तजां हन्याद्रक्तपित्तरुजं तथा ॥ ६६ ॥
हरेणुनतशैलेयमुस्तैलागरुदारुभिः ।
मांसीरास्नारुबूकैश्च कोष्णो लेपः कफार्तिनुत् ॥ ६७ ॥
शुण्ठीकुष्ठप्रपुन्नाटदेवकाष्ठैःसरोहिषैः ।
सुखोष्णैर्मूत्रपिष्टैश्च लेपः श्लेष्मशिरोऽर्तिनुत् ॥ ६८ ॥
सारिवाकुष्ठमधुकवचाकृष्णोत्पलैस्तथा ।
लेपःसकाञ्जिकस्नेहः सूर्यावर्तार्धभेदयोः ॥ ६९ ॥
वरी नीलोत्पलं दूर्वां तिलाः कृष्णाः पुनर्नवा ।
शङ्खकेऽनन्तवाते च लेपः सर्वशिरोऽर्तिजित् ॥ ७० ॥
अथ लेपविधिश्चान्यः प्रोच्यते सुज्ञसंमतः ।
द्वौ तस्य कथितौ भेदौ प्रलेपाख्यप्रदेहकौ॥ ७१ ॥
चर्मार्द्रं माहिषं यद्वत्प्रोन्नतं सा मितिस्तयोः ।
शीतस्तनुर्विशोषी च प्रलेपः परिकीर्तितः ॥ ७२ ॥
आर्द्रो घनस्तथोष्णः स्यात्प्रदेहः श्लेष्मवातहा ।
रोमाभिमुखमादेयौ प्रलेपाख्यप्रदेहकौ॥ ७३ ॥
वीर्यं सम्यग्विशत्याशु रोमकूपैः शिरामुखैः ।
न रात्रौ लेपनं कुर्याच्छुष्यमाणं न धारयेत् ॥ ७४ ॥
शुष्यमाणमुपेक्षेत प्रदेहं पीडनं प्रति ।
तमसा पिहितो ह्यूष्मा रोमकूपमुखे स्थितः ॥ ७५ ॥
विना लेपेन निर्याति रात्रौ नो लेपयेदतः ।
रात्रावपि प्रलेपादिविधिः कार्योविचक्षणैः ॥ ७६ ॥
अपक्वशोथे गम्भीरे रक्तश्लेष्मसमुद्भवे ।
आदौ शोथहरो लेपो द्वितीयो रक्तसेचनः ॥ ७७ ॥
तृतीयश्चोपनाहः स्याच्चतुर्थः पाटनक्रमः ।
पञ्चमः शोधनो भूयात्षष्ठोरोपण इष्यते ॥ ७८ ॥
सप्तमो वर्णकरणो व्रणस्यैते क्रमा मताः ।
बीजपूरजटा हिंस्रा देवदारु महौषधम् ॥ ७९ ॥
रास्नाग्निमन्थो लेपोऽयं वातशोथविनाशनः ।
मधुकं चन्दनं मूर्वा नलमूलं च पद्मकम् ॥ ८० ॥
उशीरं वालकं पद्मं पित्तशोथे प्रलेपनम् ।
कृष्णा पुराणपिण्याकं शिग्रुत्वक्सिकता शिवा ॥ ८१ ॥
मूत्रपिष्टः सुखोष्णोऽयं प्रदेहः श्लेष्मशोथहा ।
द्वे निशे चन्दने द्वे च शिवा दूर्वा पुनर्नवा ॥ ८२ ॥
उशीरं पद्मकं लोध्रंगैरिकं च रसाञ्जनम् ।
आगन्तुजे रक्तजे च शोथे कुर्यात्प्रलेपनम् ॥ ८३ ॥
शणमूलकशिग्रूणां फलानि तिलसर्षपाः ।
सक्तवः किण्वमतसी प्रदेहः पाचनः स्मृतः ॥ ८४ ॥
दन्ती चित्रकमूलत्वक्स्नुह्यर्कपयसी गुडः ।
भल्लातकास्थि कासीसं सैन्धवं दारणे स्मृतः ॥ ८५ ॥
चिरिबिल्वोऽग्निको दन्ती चित्रको हयमारकः ।
कपोतकङ्कगृध्राणां मलं लेपेन दारणम् ॥ ८६ ॥
स्वर्जिकायावशूकाद्याः क्षारा लेपेन दारणाः ।
हेमक्षीर्यास्तथा लेपो व्रणे परमदारणः ॥ ८७ ॥
तिलसैन्धवयष्ट्याह्वनिम्बपत्रनिशायुगैः ।
त्रिवृद्धृतयुतैः पिष्टैः प्रलेपो व्रणशोधनः ॥ ८८ ॥
निम्बपत्रघृतक्षौद्रदार्वीमधुकसंयुतः ।
तिलैश्च सह संयुक्तो लेपः शोधनरोपणः ॥ ८९ ॥
करञ्जारिष्टनिर्गुण्डी लेपो हन्याद्व्रणक्रिमीन् ।
लशुनस्याथवा लेपो हिङ्गुनिम्बभवोऽथवा ॥ ९० ॥
निम्बपत्रं तिला दन्ती त्रिवृत्सैन्धवमाक्षिकम् ।
दुष्टव्रणप्रशमनो लेपः शोधनरोपणः ॥ ९१ ॥
मदनस्य फलं तिक्तां पिष्ट्वाकाञ्जिकवारिणा ।
कोष्णं कुर्यान्नाभिलेपं शूलशान्तिर्भवेत्ततः ॥ ९२ ॥
शिग्रुशेफालिकैरण्डयवगोधूममुद्गकैः ।
सुखोष्णो बहलो लेपः प्रयोज्यो वातविद्रधौ॥ ९३ ॥
पैत्तिके सर्पिषा लाजामधुकैः शर्करान्वितैः ।
प्रलिम्पेत्क्षीरपिष्टैर्वा पयस्योशीरचन्दनैः ॥ ९४ ॥
इष्टिका सिकता लोहकिट्टं गोशकृता सह ।
सुखोष्णः स्यात्प्रदेहोऽयं मूत्रैः स्याच्छ्लेष्मविद्रधौ॥ ९५॥
रक्तचन्दनमञ्जिष्ठानिशामधुकगैरिकैः ।
क्षीरेण विद्रधौ लेपो रक्तागन्तुनिमित्तजे ॥ ९६ ॥
निचुलः शिग्रुबीजानि दशमूलमथापि वा ।
प्रदेहो वातगण्डेषु सुखोष्णः संप्रदीयते ॥ ९७ ॥
देवदारु विशाला च कफगण्डे प्रदेहकः ।
सर्षपारिष्टपत्राणि दग्ध्वा भल्लातकैः सह ॥ १८ ॥
छागमूत्रेण संपिष्टमपचीघ्नं प्रलेपनम् ।
सर्षपाः शिग्रुबीजानि शणबीजातसीयवाः ॥ ९९ ॥
मूलकस्य च बीजानि तक्रेणाम्लेन पेषयेत् ।
गण्डमालार्बुदं गण्डं लेपेनानेन शाम्यति ॥ १०० ॥
तक्षयित्वा क्षुरेणाङ्गंकेवलानिलपीडितम् ।
तत्र प्रदेहं दद्याच्च पिष्टं गुञ्जाफलैः कृतम् ॥ १ ॥
तेनापबाहुजा पीडा विश्वाची गृध्रसी तथा ।
अन्यापि वातजा पीडा प्रशमं याति वेगतः ॥ २ ॥
धत्तूरैरण्डनिर्गुण्डीवर्षाभूशिग्रुसर्षपैः ।
प्रलेपः श्लीपदं हन्ति चिरोत्थमपि दारुणम् ॥ ३ ॥
अजाजीहपुषाकुष्ठमेरण्डबदरान्वितम् ।
काञ्जिकेन तु संपिष्टं कुरण्डघ्नं प्रलेपनम् ॥ ४ ॥
करवीरस्य मूलेन परिपिष्टेन वारिणा ।
असाध्यापि व्रजत्यस्तं लिङ्गोत्था रुक्प्रलेपनात् ॥ ५॥
दहेत्कटाहे त्रिफलां सा मषी मधुसंयुता ।
उपदंशे प्रलेपोऽय सद्यो रोपयति व्रणम् ॥ ६ ॥
रसाञ्जन शिरीषेण पथ्यया च समन्वितम् ।
सक्षौद्रं लेपनं योज्यमुपदंशगदापहम् ॥ ७ ॥
अग्निदग्धे तुगाक्षीरीप्लक्षचन्दनगैरिकैः ।
सामृतैः सर्पिषा स्निग्धैरालेपं कारयेद्भिषक् ॥ ८ ॥
तिन्दुकीत्वक्कषायैर्वा घृतमिश्रैःप्रलेपयेत् ।
यवान्दग्ध्वा मषी कार्या तैलेन युतया तया ॥ ९ ॥
दद्यात्सर्वाग्निदग्धेषु प्रलेपो व्रणरोपणः ।
पलाशोदुम्बरफलैस्तिलतैलसमन्वितैः ॥ ११० ॥
मधुना योनिमालिम्पेद्गाढीकरणमुत्तमम् ।
माकन्दफलसंयुक्तमधुकर्पूरलेपनात् ॥ ११ ॥
गतेऽपि यौवने स्त्रीणां योनिर्माढाऽतिजायते ।
मरिचं सैन्धवं कृष्णा तगरं बृहतीफलम् ॥ १२ ॥
अपामार्गस्तिलाः कुष्ठं यवा माषाश्च सर्षपाः ।
अश्वगन्धा च तच्चूर्णंमधुना सह योजयेत् ॥ १३ ॥
अस्य संततलेपेन मर्दनाच्च प्रजायते ।
लिङ्गवृद्धिः स्तनोत्सेधः संहतिर्भुजकर्णयोः ॥ १४ ॥
सिताश्वगन्धासिन्धूत्थछागक्षीरैर्घृतं पचेत् ।
तल्लेपान्मर्दनाल्लिङ्गवृद्धिः संजायते परा ॥ १५ ॥
इन्द्रवारुणिकापत्ररसैः सूतं विमर्दयेत् ।
रक्तस्य करवीरस्य काष्ठेन च मुहुर्मुहुः ॥ १६ ॥
तल्लिप्तलिङ्गसंयोगाद्योनिद्रावोऽभिजायते ।
ताम्बूलपत्रचूर्णं तु चूर्णं कुष्ठशिवाभवम् ॥ १७ ॥
वारिणा लेपनं कुर्याद्गात्रदौर्गन्ध्यनाशनम् ।
कुलित्थसक्तवः कुष्ठं मांसी चन्दनजं रजः ॥ १८ ॥
सक्तवश्चणकस्यैव त्वक्कैवैकत्र कारयेत् ।
स्वेददौर्गन्ध्यनाशश्च जायतेऽस्यावधूलनात् ॥ १९ ॥
वचा सौवर्चलं कुष्ठं रजन्यौ मरिचानि च ।
एतल्लेपप्रभावेण वशीकरणमुत्तमम् ॥ १२० ॥
अभ्यङ्गः परिषेकश्च पिबुर्बस्तिरिति क्रमात् ।
मूर्धतैलं चतुर्धा स्याद्बलवच्चयथोत्तरम् ॥ २१ ॥
त्रयोऽभ्यङ्गादयः पूर्वे प्रसिद्धाः सर्वतः स्मृताः ।
शिरोबस्तिविधिश्चात्र प्रोच्यते सुज्ञसंमतः ॥ २२ ॥
शिरोबस्तिश्चर्मणः स्याद्द्विमुखो द्वादशाङ्गुलः ।
शिरःप्रमाणं तं बध्वा मस्तके माषपिष्टकैः ॥ २३ ॥
सन्धिरोधं विधायादौ स्नेहैः कोष्णैःप्रपूरयेत् ।
तावद्धार्यस्तु यावत्स्यान्नासाकर्णमुखस्नुतिः ॥ २४ ॥
वेदनोपशमो वापि मात्राणां वा सहस्रकम् ।
विना भोजनमेवात्रशिरोबस्तिः प्रशस्यते ॥ २५ ॥
प्रयोज्यस्तु शिरोबस्तिः पञ्चसप्ताहमेव वा ।
विमोच्य शिरसो बस्तिं गृह्णीयाच्चसमन्ततः ॥ २६ ॥
ऊर्ध्वकायंततः कोष्णनीरैः स्नानं च कारयेत् ।
अनेन दुर्जया रोगा वातजा यान्ति संक्षयम् ॥ २७ ॥
शिरःकम्पादयस्तेन सर्वकालेषुयुज्यते ।
स्वेदयेत्कर्णदेशं तु किञ्चिन्नुः पार्श्वशायिनः ॥ २८ ॥
मूत्रैः स्नेहै रसैः कोष्णैस्ततः श्रोत्रं प्रपूरयेत् ।
कर्णं च पूरितं रक्षेच्छतं पञ्च शतानि वा ॥ २९ ॥
सहस्रं वापि मात्राणां श्रोत्रकण्ठशिरोगदे ।
स्वजानुनः करावर्तं कुर्याच्छोटिकया युतम् ॥ १३० ॥
एषा मात्रा भवेदेका सर्वत्रैवैषनिश्चयः ।
रसाद्यैः पूरणं कर्णे भोजनात्प्राक्प्रशस्यते ॥ ३१ ॥
तैलाद्यैः पूरणं कर्णे भास्करेऽस्तमुपागते ।
पीतार्कपत्रमाज्येन लिप्तं वह्नौ प्रतापयेत् ॥ ३२ ॥
तद्रसः श्रवणे क्षिप्तः कर्णशूलहरः परः ।
कर्णशूलातुरे कोष्णं बस्तमूत्रं ससैन्धवम् ॥ ३३ ॥
निक्षिपेत्तेन शाम्यन्ति शूलपाकादिका रुजः ।
शृङ्गबेरं च मधुकं मधु सैन्धवमामलम् ॥ ३४॥
तिलपर्णीरसस्तैलं टङ्कणं निम्बुकद्रवम् ।
कदुष्णंकर्णयोर्देयमेतद्वा वेदनापहम् ॥ ३५॥
कपित्थमातुलुङ्गाम्लशृङ्गबेररसैः शुभैः ।
सुखोष्णैः पूरयेत्कर्णं कर्णशूलोपशान्तये ॥ ३६ ॥
अर्काङ्कुरानम्लपिष्टांस्तैलाक्तांल्लवणान्वितान् ।
संनिदध्यात्स्नुहीकाण्डे कोरिते तच्छदावृते ॥ ३७ ॥
पुटपाकक्रमं कृत्वा रसैस्तच्च प्रपूरयेत् ।
सुखोष्णैस्तेन शाम्यन्ति कर्णपीडाः सुदारुणाः ॥ ३८ ॥
महतः पञ्चमूलस्य काण्डान्यष्टाङ्गुलानि च ।
क्षौमेणावेष्टय संसिच्य तैलेनादीपयेत्ततः ॥ ३९ ॥
यत्तैलं च्यवते तेभ्यः सुखोष्णं तेन पूरयेत् ।
ज्ञेयं तद्दीपिकातैलं सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ १४० ॥
एवं स्याद्दीपिकातैलं कुष्ठे देवतरौ तथा ।
तैलं स्योनाकमूलेन मन्देऽग्नौ परिपाचितम् ॥ ४१ ॥
हरेदाशु त्रिदोषोत्थं कर्णशूलं प्रपूरणात् ।
कल्कक्वाथेन यष्ट्याह्वकाकोलीमाषधान्यकैः ॥ ४२ ॥
सूकरस्य वसां पक्त्वा कर्णनादार्तिनाशिनी ।
स्वर्जिका मूलकं शुष्कं हिङ्गु कृष्णासमन्वितम् ॥ ४३ ॥
शतपुष्पा च तैस्तैलं पक्वंसूक्तचतुर्गुणम् ।
प्रणादं शूलबाधिर्यं स्रावं कर्णस्य नाशयेत् ॥ ४४ ॥
अपामार्गक्षारजले तत्क्षारं कल्कितं क्षिपेत् ।
तेन पक्वंजयेत्तैलं बाधिर्यं कर्णनादकम् ॥ ४५ ॥
शम्बूकस्य तु मांसेन पचेत्तैलं तु सार्षपम् ।
तस्य पूरणमात्रेण कर्णनाडी प्रशाम्यति ॥ ४६ ॥
चूर्णंपञ्चकषायाणां कपित्थरसमेव च ।
कर्णस्रावे प्रशंसन्ति पूरणं मधुना सह ॥ ४७ ॥
तिन्दुकान्यभया लोध्रः समङ्गा चामलक्यपि ।
ज्ञेयाः पञ्च कषायास्तु कर्मण्यस्मिन्भिषग्वरैः ॥ ४८ ॥
स्वर्जिकाचूर्णसंयुक्तं बीजपूररसं क्षिपेत् ।
कर्णस्रावरुजादाहाः प्रणश्यन्ति न संशयः ॥ ४९ ॥
आम्रजम्बूप्रवालानि मधूकस्य वटस्य च ।
एभिः संसाधितं तैलं पूतिकर्णोपशान्तिकृत् ॥ १५० ॥
पूरणं हरितालेन गवां मूत्रयुतेन च ।
अथवा सार्षपं तैलं कर्णकीटहरं परम् ॥ ५१ ॥
स्वरसं शिग्रुमूलस्य सूर्यावर्तरसं तथा ।
त्र्यूषणं चूर्णितं चैव कपिकच्छूजटारसम् ॥ १५२ ॥
कृत्वैकत्र क्षिपेत्कर्णे कर्णकीटहरं परम् ।
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे लेपादि-
विधिर्नामैकादशोऽध्यायः॥
द्वादशोऽध्यायः।
**शोणितस्रावविधिः **
शोणितं स्रावयेज्जन्तोरामयं प्रसमीक्ष्य च ।
प्रस्थं प्रस्थार्धकं वापि प्रस्थार्धार्धमथापि वा ॥ १ ॥
शरत्काले स्वभावेन कुर्याद्रक्तस्तुतिं नरः ।
त्वग्दोषग्रन्थिशोथाद्या न स्यू रक्तस्रुतेर्यतः ॥ २ ॥
मधुरं वर्णतो रक्तमशीतोष्णं तथा गुरु ।
शोणितं स्निग्धविस्त्रं स्याद्विदाहश्चास्य पित्तवत् ॥३॥
विस्रता द्रवता रागश्चलनं विलयस्तथा ।
भूम्यादिपञ्चभूतानामेते रक्तगुणाः स्मृताः ॥ ४ ॥
रक्ते दुष्टे वेदना स्यात्पाको दाहश्च जायते ।
रक्तमण्डलता कण्डूः शोथश्च पिटिकोद्गमः ॥ ५ ॥
वृद्धे रक्ताङ्गनेत्रत्वं शिराणां पूरणं तथा ।
गात्राणां गौरवं निद्रा मदो दाहश्च जायते ॥ ६ ॥
क्षीणेऽम्लमधुराकाङ्क्षा मूर्छा च त्वचि रूक्षता ।
शैथिल्यं च शिराणां स्याद्वातादुन्मार्गगामिता ॥ ७ ॥
अरुणं फेनिलं रूक्षं परुषं तनु शीघ्रगम् ।
अस्कन्दि सूचिनिस्तोदि रक्तं स्याद्वातदूषितम् ॥ ८ ॥
पित्तेन पीतं हरितं नीलं श्यावं च विस्रकम् ।
अस्कन्द्युष्णं मक्षिकाणां पिपीलानामनिष्टकम् ॥ ९ ॥
शीतलं बहलं स्निग्धं गैरिकोदकसंनिभम् ।
मांसपेशीप्रभं स्कन्दि मन्दगं कफदूषितम् ॥ १० ॥
द्विदोषदुष्टं संसृष्टं त्रिदुष्टं पूतिगन्धकम् ।
सर्वलक्षणसंयुक्तं काञ्जिकाभं च जायते ॥ ११ ॥
विषदुष्टं भवेच्छ्यावं नासिकोन्मार्गगं तथा ।
विस्रंकाञ्जिकसंकाशं सर्वकुष्ठकरं बहु ॥ १२ ॥
इन्द्रगोपप्रभं ज्ञेयं प्रकृतिस्थमसंहतम् ।
शोथे दाहेऽङ्गपाके च रक्तवर्णेऽसृजः स्त्रुतौ ॥ १३ ॥
वातरक्ते तथा कुष्ठे सपीडे दुर्जयेऽनिले ।
पाणिरोगे श्लीपदे च विषदुष्टे च शोणिते ॥ १४ ॥
ग्रन्थ्यर्बुदापचीक्षुद्ररोगरक्ताधिमन्थिषु ।
विदारीस्तनरोगेषु गात्राणां सादगौरवे ॥ १५ ॥
रक्ताभिष्यन्दतन्द्रायां पूतिघ्राणास्यदेहके ।
यकृत्प्लीहविसर्पेषु विद्रधौ पिटिकोद्गमे ॥ १६ ॥
कर्णौष्ठघ्राणवक्राणां पाके दाहे शिरोरुजि ।
उपदंशे रक्तपिते रक्तस्रावः प्रशस्यते ॥ १७ ॥
एषु रोगेषु शृङ्गैर्वा जलौकालाबुकैरपि ।
अथवापि शिरामोक्षैःकुर्याद्रक्तस्रुतिं नरः ॥ १८ ॥
न कुर्वीत शिरामोक्षं कृशस्यातिव्यवायिनः ।
क्लीबस्य भीरोर्गभिण्याः सूतिकापाण्डुरोगिणाम् ॥ १९ ॥
पञ्चकर्मविशुद्धस्य पीतस्नेहस्य चार्शसाम् ।
सर्वाङ्गशोथयुक्तानामुदरश्वासकासिनाम् ॥ २० ॥
छर्द्यतीसारदुष्टानामतिस्वन्नतनोरपि ।
ऊनषोडशवर्षस्य गतसप्ततिकस्य च ॥ २१ ॥
आघातस्रुतरक्तस्य शिरामोक्षो न शस्यते ।
एषां चात्ययिके रोगे जलौकाभिस्तु निर्हरेत् ॥ २२ ॥
तथा च विषदुष्टानां शिरामोक्षोऽपि शस्यते ।
गोशृङ्गेण जलौकाभिरलाबुभिरपि त्रिधा ॥ २३ ॥
वातपित्तकफैर्दुष्टं शोणितं स्रावयेद्बुधः ।
द्विदोषाभ्यां तु संदुष्टं त्रिदोषैरपि दूषितम् ॥ २४ ॥
शोणितं स्रावयेद्युक्त्या शिरामोक्षैःपदैस्तथा ।
गृह्णाति शोणितं शृङ्गं दशाङ्गुलमितं बलात् ॥ २५ ॥
जलौका हस्तमात्रं तु तुम्बी च द्वादशाङ्गुलम् ।
पदमङ्गुलमात्रस्य शिरा सर्वाङ्गशोधिनी ॥ २६ ॥
शीते निरन्ने मूर्छायां तंद्राभीतिमदश्रमैः ।
युतानां न स्रवेद्रक्तं तथा विण्मूत्रसङ्गिनाम् ॥ २७ ॥
अप्रवर्तितरक्ते च कुष्ठत्रिकटुसैन्धवैः ।
मर्दयेद्व्रणवक्त्रं च तेन सम्यक्प्रवर्तते ॥ २८ ॥
तस्मान्न शीते नात्युष्णे न स्विन्ने नातितापिते ।
पीत्वा यवागूं तृप्तस्य स्रावयेच्छोणितं बुधः ॥ २९ ॥
अतिस्विन्नस्योष्णकाले तथैवातिशिराव्यधात् ।
अतिप्रवर्तते रक्तं तत्र कुर्यात्प्रतिक्रियाम् ॥ ३० ॥
अतिप्रवृत्ते रक्ते च लोध्रसर्जरसाञ्जनैः ।
यवगोधूमचूर्णैर्वा धवधन्वनगैरिकैः ॥ ३१ ॥
सर्पनिर्मोकचूर्णैर्वा भस्मना क्षौमवस्त्रयोः ।
मुखं व्रणस्य बद्ध्वाच शीतैश्चोपचरेद्व्रणम् ॥ ३२ ॥
विध्येदूर्ध्वंशिरां तां च दहेत्क्षारेण वाग्निना ।
व्रणं कषायः संधत्तेरक्तं स्कन्दयते हिमम् ॥ ३३ ॥
व्रणास्यं पाचयेत्क्षारो दाहः संकोचयेच्छिराम् ।
वामाण्डशोथे दक्षस्य करस्याङ्गुष्ठमूलजाम् ॥ ३४ ॥
दहेच्छिरां व्यत्यये तु वामाङ्गुष्ठशिरां दहेत् ।
शिरादाहप्रभावेण मुष्कशोथः प्रणश्यति ॥ ३५ ॥
विषूच्यां पार्ष्णिदाहेन जायतेऽग्नेः प्रदीपनम् ।
संकुचन्ति यतस्तेन रसश्लेष्मवहाः शिराः ॥ ३६ ॥
यदा वृद्धिर्यकृत्प्लीह्नोः शिशोः संजायतेऽसृजः ।
तदा तत्स्थानदाहेन संकुचन्त्यसृजः शिराः ॥ ३७ ॥
रक्ते दुष्टेऽवशिष्टेऽपि व्याधिर्नैव प्रकुप्यति ।
अतः स्राव्यं सावशेषं रक्तं नातिक्रमो हितः ॥ ३८ ॥
आन्ध्यमाक्षेपकं तृष्णां तिमिरं शिरसो रुजम् ।
पक्षाघातं श्वासकासौ हिक्कां दाहं च पाण्डुताम् ॥ ३९ ॥
कुरुतेऽतिस्रुतं रक्तं मरणं वा करोति च ।
देहस्योत्पत्तिरसृजा देहस्तेनैव धार्यते ॥ ४० ॥
विना तेन व्रजेज्जीवो रक्षेद्रक्तमतो बुधः ।
शीतोपचारैः कुपिते स्रुतरक्तस्य मारुते ॥ ४१ ॥
कोष्णेन सर्पिषा शोथ सव्यथं परिषेचयेत् ।
क्षीणस्यैणशशोरभ्रहरिणच्छागमांसजः ॥ ४२ ॥
रसः समुचितः पाने क्षीरं वा षष्टिका हिताः ।
पीडाशान्तिर्लघुत्वं च व्याधेरुद्रेकसंक्षयः ॥ ४३ ॥
मनः स्वास्थ्यं भवेच्चिह्न सम्यग्विस्रावितेऽसृजि ।
व्यायाममैथुनक्रोधशीतस्नानप्रवातकान् ॥ ४४ ॥
एकाशनं दिवास्वप्नं क्षाराम्लकटुभोजनम् ।
शोक वादमजीर्ण च त्यजेदाबलदर्शनात् ॥ ४५ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे शोणितस्राववि-
धिर्नाम द्वादशोऽध्यायः ।
त्रयोदशोऽध्यायः।
**नेत्रकर्मकल्पनाः **
सेक आश्चोतनंपिण्डी बिडालस्तर्पणं तथा ।
पुटपाकोऽञ्चनं चैभिः कल्पैर्नेत्रमुपाचरेत् ॥ १ ॥
सेकः
सेकस्तु सूक्ष्मधाराभिः सर्वस्मिन्नयने हितः ।
मीलिताक्षस्य मर्त्यस्य प्रदेयश्चतुरङ्गुलात् ॥ २ ॥
स चापि स्नेहनो वाते रक्तेपित्ते च रोपणः ।
लेखनश्च कफे कार्यस्तस्य मात्राऽधुनोच्यते ॥ ३ ॥
षड्वाक्शतैः स्नेहनेषु चतुर्भिश्चैव रोपणे ।
वाक्शतैश्च त्रिभिः कार्यः सेको लेखनकर्मणि ॥ ४ ॥
कार्यस्तु दिवसे सेको रात्रौ चात्ययिके गदे ।
एरण्डत्वक्पत्रमूलैः शृतमाजं पयो हितम् ॥ ५ ॥
सुखोष्णं सेचनं नेत्रे वाताभिष्यन्दनाशनम् ।
परिषेको हितो नेत्रे पयः कोष्णं ससैन्धवम् ॥ ६ ॥
रजनीदारूसिद्धं वा सैन्धवेन समन्वितम् ।
वाताभिष्यन्दशमनं हितं मारुतपर्यये ॥ ७ ॥
शुष्काक्षिपाके च हितमिदं सेचनकं सदा ।
साबरं मधुकं तुल्यं घृतभृष्टं सुचूर्णितम् ॥ ८ ॥
छागक्षीरे घृतं सेकात्पित्तरक्ताभिघातजित् ।
त्रिफलालोध्रयष्टीभिः शर्कराभद्रमुस्तकैः ॥ ९ ॥
पिष्टैः शीताम्बुना सेको रक्ताभिष्यन्दनाशनः ।
लाक्षामधुकमञ्जिष्ठालोध्रकालानुसारिवाः ॥ १० ॥
पुण्डरीकयुतः सेको रक्ताभिष्यन्दनाशनः ।
श्वेतलोध्रंघृते भृष्टं चूर्णितं पटविस्रुतम् ॥ ११ ॥
उष्णाम्बुना विमृदितं सेकाच्छूलघ्नमम्बके ।
आश्चोतनम्
अथाश्चोतनकं कार्यं निशायां न कथंचन ॥ १२ ॥
उन्मीलितेऽक्ष्णिदृङ्मध्ये बिन्दुभिर्द्व्यङ्गुलाद्धितम् ।
बिन्दवोऽष्टौ लेखनेषु स्नेहने दश बिन्दवः ॥ १३ ॥
रोपणे द्वादश प्रोक्तास्ते शीते कोष्णरूपिणः ।
उष्णे च शीतरूपाः स्युः सर्वत्रैवैष निश्चयः ॥ १४ ॥
वाते तिक्तं तथा स्निग्धं पित्ते मधुरशीतलम् ।
तिक्तोष्णरूक्षं च कफे क्रमादाश्चोतनं हितम् ॥ १५ ॥
आश्चोतनानां सर्वेषां मात्रा स्याद्वाक्शतं हिता ।
निमेषोन्मेषणं पुंसामङ्गुल्योश्छोटिकाऽथवा ॥ १६ ॥
गुर्वक्षरोच्चारणं वा वाङ्मात्रेयं स्मृता बुधैः ।
बिल्वादिपञ्चमूलेन बृहत्येरण्डशिग्रुभिः ॥ १७ ॥
क्वाथ आश्चोतने कोष्णो वाताभिष्यन्दनाशनः ।
अम्बुपिष्टैर्निम्बपत्रैस्त्वचं लोध्रस्य लेपयेत् ॥ १८ ॥
प्रताप्य वह्निना पिष्ट्वा तद्रसो नेत्रपूरणात् ।
वातोत्थं रक्तपित्तोत्थमभिष्यन्दं विनाशयेत् ॥ १९ ॥
त्रिफलाश्चोतनं नेत्रे सर्वाभिष्यन्दनाशनम् ।
स्त्रीस्तन्याश्चोतनं नेत्रे रक्तपित्तानिलार्तिजित् ॥ २० ॥
क्षीरसर्पिर्घृतं वापि वातरक्तरुजं जयेत् ।
पिण्डिका
पिण्डी कवलिका प्रोक्ता बध्यते पट्टवस्त्रकैः ॥ २१ ॥
नेत्राभिष्यन्दयोग्या सा व्रणेष्वपि निबध्यते ।
अभिष्यन्देऽधिमन्थे च संजाते श्लेष्मसंभवे ॥ २२ ॥
स्निग्धस्विन्नोत्तमाङ्गस्य शिरस्तीक्ष्णैर्विरेचयेत् ।
अधिमन्थेषु सर्वेषु ललाटे व्यधयेच्छिराम् ॥ २३ ॥
अशान्ते सर्वथा मन्थे भ्रुवोरुपरि दाहयेत् ।
अभिष्यन्देषु सर्वेषु बध्नीयात्पिण्डिकां बुधः ॥ २४ ॥
वाताभिष्यन्दशान्त्यर्थंस्निग्धोष्णा पिण्डिका भवेत् ।
एरण्डपत्रमूलत्वङ्निर्मिता वातनाशिनी ॥ २५ ॥
पित्तामिष्यन्दनाशाय धात्रीपिण्डी सुखावहा ।
महानिम्बफलोद्भूता पिण्डी वा पित्तनाशिनी ॥ २६ ॥
शिग्रुपत्रकृता पिण्डी श्लेष्माभिष्यन्दनाशिनी ।
निम्बपत्रकृता पिण्डी श्लेष्मपित्तहरा भवेत् ॥ २७ ॥
त्रिफलापिण्डिका प्रोक्ता नाशने श्लेष्मपित्तयोः ।
पिष्ट्वा काञ्जिकतोयेन घृतभृष्टा च पिण्डिका ॥ २८ ॥
लोध्रस्य हरति क्षिप्रमभिष्यन्दमसृग्भवम् ।
शुण्ठीनिम्बदलैः पिण्डी सुखोष्णा स्वल्पसैन्धवा ॥ २९ ॥
धार्या चक्षुषिसंयोगाच्छोथकण्डूव्यथापहा ।
बिडालकः
बिडालको बहिर्लेपो नेत्रे पक्ष्मविवर्जितः ॥ ३० ॥
तस्य मात्रा परिज्ञेया मुखलेपविधानवत् ।
यष्टीगैरिकसिन्धूत्थदार्वीताक्ष्यैःसमांशकैः ॥ ३१ ॥
जलपिष्टैर्बहिर्लेपः सर्वनेत्रामयापहः ।
रसाञ्जनेन वा लेपः पथ्याविश्वदलैरपि ॥ ३२ ॥
कुमारिकाग्निपत्रैर्वा दाडिमीपल्लवैरपि ।
वचाहरिद्रानिम्बैर्वा तथा नागरगैरिकैः ॥ ३३ ॥
दग्ध्वा ससैन्धवं लोध्रंमधूच्छिष्टयुते घृते ।
पिष्टमञ्जनलेपाभ्यां सद्यो नेत्ररुजापहम् ॥ ३४ ॥
लोहस्य पात्रे सघृष्टो रसो निम्बफलोद्भवः ।
किंचिद्धनो बहिर्लेपान्नेत्रबाधां व्यपोहति ॥ ३५ ॥
संचूर्ण्य मरिचं केशराजस्वरसमर्दनात् ।
लेपनादर्मणां नाशं करोत्येष प्रयोगराट् ॥ ३६ ॥
स्विन्नां भित्त्वा विनिष्पीड्य भिन्नामञ्जननामिकाम् ।
शिलैलानतसिन्धूत्थैः सक्षौद्रैः प्रतिसारयेत् ॥ ३७ ॥
तर्पणम्
अथ तर्पणकं वच्मि नेत्रतृप्तिकरं परम् ।
यद्रूक्षं परिशुष्कं च नेत्रं कुटिलमाबिलम् ॥ ३८ ॥
शीर्णपक्ष्मशिरोत्पातकृच्छ्रोन्मीलनसंयुतम् ।
तिमिरार्जुनशुक्राद्यैरभिष्यन्दाधिमन्थकैः ॥ ३९ ॥
शुष्काक्षिपाकशोथाभ्यां युक्तं वातविपर्ययैः ।
तन्नेत्रं तर्पणे योज्यं नेत्ररोगविशारदैः ॥ ४० ॥
दुर्दिनात्युष्णशीतेषु चिन्तायासभ्रमेषु च ।
अशान्तोपद्रवेचाक्ष्णितर्पणं न प्रशस्यते ॥ ४१ ॥
वातातपरजोहीने देशे चोत्तानशायिनः ।
आधारौ माषचूर्णेन क्लिन्नेन परिमण्डलौ ॥ ४२ ॥
समौ दृढावसंबाधौ कर्तव्यौ नेत्रकोशयोः ।
पूरयेद्धृतमण्डेन विलीनेन सुखोदकैः ॥ ४३ ॥
अथवा शतधौतेन सर्पिषा क्षीरजेन वा ।
निमग्नान्यक्षिपक्ष्माणि यावत्स्युस्तावदेव हि ॥ ४४ ॥
पूरयेन्मीलिते नेत्रे तत उन्मीलयेच्छनैः ।
धारयेद्वर्त्मरोगेषु वाङ्मात्राणां शतं बुधः ॥ ४५ ॥
स्वच्छे कफे सन्धिरोगे मात्रापञ्चशतं हितम् ।
शुक्ले च षट्शतं कृष्णरोगे सप्तशतं मतम् ॥ ४६॥
दृष्टिरोगेष्वष्टशतमधिमन्थे सहस्रकम् ।
सहस्रं वातरोगेषु धार्यमेवं हि तर्पणम् ॥ ४७ ॥
स्विन्नेन यवपिष्टेन स्नेहवीर्येरितं ततः ।
यथास्वंधूमपानेन कफमस्य विशोधयेत् ॥ ४८ ॥
एकाहं वा त्र्यहं वापि पञ्चाहं चेष्यते परम् ।
तर्पणे तृप्तिलिङ्गानि नेत्रेष्वेतानि भावयेत् ॥ ४९ ॥
सुखस्वप्नावबोधं च वैशद्यंवर्णपाटवम् ।
निवृत्तिर्व्याधिशान्तिश्च क्रियालाघवमेव च ॥ ५० ॥
अथ साश्रु गुरु स्निग्धं नेत्र स्यादतितर्पितम् ।
रूक्षमस्राविलं रुग्णं नेत्रं स्याद्धीनतर्पितम् ॥ ५१ ॥
रूक्षस्निग्धोपचाराभ्यामेतयोः स्यात्प्रतिक्रिया ।
पुटपाकः
अत ऊर्ध्वंप्रवक्ष्यामि पुटपाकस्य साधनम् ॥ ५२ ॥
द्वौ बिल्वमात्रौ मांसस्य पिण्डौ स्निग्धौ सुपेषितौ ।
द्रव्याणां बिल्वमात्रं तु द्रवाणां कुडवो मतः ॥ ५३ ॥
तदेकस्थं समालोड्य पत्रैः सुपरिवेष्टितम् ।
पुटपाकेन तत्पक्त्वा गृह्णीयात्तद्रसं बुधः ॥ ५४ ॥
तर्पणोक्तविधानेन यथावदुपचारयेत् ।
दृष्टिमध्ये निषेच्यः स्यान्नित्यमुत्तानशायिनः ॥ ५५ ॥
स्नेहनो लेखनश्चैव रोपणश्चेति स त्रिधा ।
हितः स्निग्धोऽतिरुक्षस्य स्निग्धस्यापि हि लेखनः ॥ ५६ ॥
दृष्टेर्बलार्थमितरः पित्तासृग्व्रणवातनुत् ।
सर्पिर्मांसवसामज्जामेदःस्वाद्वौषधैः कृतः ॥ ५७ ॥
स्नेहनः पुटपाकश्च धार्यो द्वे वाक्शते दृशोः ।
जाङ्गलानां यकृन्मांसैर्लेखनद्रव्यसंयुतैः ॥ ५८ ॥
कृष्णलोहरजस्ताम्रशङ्खविद्रुमसिन्धुजैः ।
समुद्रफेनकासीसस्रोतोजदधिमस्तुभिः ॥ ५९ ॥
लेखनो वाक्शतं धार्यस्तस्यैतावद्विधारणम् ।
स्तन्यजाङ्गलमध्वाज्यतिक्तकद्रव्यपाचितः ॥ ६०॥
लेखनात्त्रिगुणो धार्यः पुटपाकस्तु रोपणः ।
वितरेत्तर्पणोक्तां तु क्रियां व्यापत्तिदर्शने ॥ ६१ ॥
अञ्जनम्
अथ संपक्वदोषस्य प्राप्तमञ्जनमाचरेत् ।
हेमन्ते शिशिरे चैव मध्याह्नेऽञ्जनमिष्यते ॥ ६२ ॥
पूर्वाह्णेचापराह्णेच ग्रीष्मे शरदि चेष्यते ।
वर्षासु नाभ्रे नात्युष्णे वसन्ते च सदैव हि ॥ ६३ ॥
लेखनं रोपणं चैव तथा स्यात्स्नेहनाञ्जनम् ।
लेखनं क्षारतीक्ष्णाम्लरसैरञ्जनमिष्यते ॥ ६४ ॥
कषायतिक्तरसयुक्सस्नेहं रोपणं मतम् ।
मधुरं स्नेहसंपन्नमञ्जनं तु प्रसादनम् ॥ ६५ ॥
गुटिकारसचूर्णानि त्रिविधान्यञ्जनानि च ।
कुर्याच्छलाकयाऽङ्गुल्या हीनानि च यथोत्तरम् ॥ ६६ ॥
श्रान्ते प्ररुदिते भीते पीतमद्ये नवज्वरे ।
अजीर्णे वेगघाते च नाञ्जनं संप्रशस्यते ॥ ६७ ॥
हरेणुमात्रां कुर्वीत वर्तिंतीक्ष्णाञ्जने भिषक् ।
प्रमाणं मध्यमेऽध्यर्धंद्विगुणं तु मृदौ भवेत् ॥ ६८ ॥
रसक्रिया तूत्तमा स्यात्त्रिविडङ्गमिता हिता ।
मध्यमा द्विविडङ्गा स्याद्धीना त्वेकविडङ्गिका ॥ ६९ ॥
वैरेचनिकचूर्णं तु द्विशलाकं विधीयते ।
मृदौ तु त्रिशलाकं स्याच्चतस्रः स्नैहिकेऽञ्जने ॥ ७० ॥
मुखयोः कुण्ठिता श्लक्ष्णा शलाकाष्टाङ्गुलोन्मिता ।
अश्मजा धातुजा वा स्यात्कलायपरिमण्डला ॥ ७१ ॥
ताम्रलोहाश्मसंजाता शलाका लेखने मता ॥
सुवर्णरजतोद्भूता शलाका स्नेहने मता ॥ ७२ ॥
अङ्गुलीव मृदुत्वेन कथिता रोपणे बुधैः ।
साय प्रातर्वाञ्जनं स्यात्तत्सदा नैव कारयेत् ॥ ७३ ॥
नातिशीतोष्णवाताभ्रवेलायां संप्रशस्यते ।
कृष्णभागादधः कुर्यादपाङ्गं यावदञ्जनम् ॥ ७४ ॥
वर्तिः
शङ्खनाभिर्बिभीतस्य मज्जा पथ्या मनःशिला ।
पिप्पली मरिचं कुष्ठं वचा चेति समांशकम् ॥ ७५ ॥
छागीक्षीरेण संपिष्य वर्तिं कृत्वा यवोन्मिताम् ।
हरेणुमात्रां संघृष्य जलैः कुर्यादथाञ्जनम् ॥ ७६ ॥
तिमिरं मांसवृद्धिं च काचं पटलमर्बुदम् ।
रात्र्यान्ध्यं वार्षिकं पुष्पं वर्तिश्चन्द्रोदया जयेत् ॥ ७७ ॥
पलाशपुष्पस्वरसैर्बहुशः परिभाविता ।
करञ्जबीजवर्तिस्तु दृष्टेः पुष्पं विनाशयेत् ॥ ७८ ॥
समुद्रफेनसिन्धूत्थशङ्खदक्षाण्डवल्कलैः ।
शिग्रुबीजयुतैर्वर्तिः शुक्रादींश्छस्त्रवल्लिखेत् ॥ ७९ ॥
दन्तैर्दन्तिवराहोष्ट्रगोहयाजखुरोद्भवैः ।
शङ्खमुक्ताम्भोधिफेनयुतैः सर्वैर्विचूर्णितैः ॥ ८० ॥
दन्तवर्तिः कृता श्लक्ष्णा शुक्राणां नाशिनी परा ।
नीलोत्पलं शिग्रुबीजं नागकेशरकं तथा ॥ ८१ ॥
एतत्कल्कैः कृता वर्तिरतिनिद्रां निवारयेत् ।
तिलपुष्पाण्यशीतिः स्युः षष्टिसंख्याः कणाकणाः ॥ ८२ ॥
जातीकुसुमपञ्चाशन्मरिचानि च षोडश ।
सूक्ष्मं पिष्ट्वाजले वर्तिः कृता कुसुमिकाभिधा ॥ ८३ ॥
तिमिरार्जुनशुक्राणां नाशिनी मांसवृद्धिहृत् ।
एतस्याश्वाञ्जने मात्रा प्रोक्ता सार्धहरेणुका ॥ ८४ ॥
रसाञ्जनं हरिद्रे द्वे मालतीनिम्बपल्लवाः ।
गोशकृद्रससंयुक्ता वर्तिर्वक्तान्ध्यनाशिनी ॥ ८५ ॥
धात्र्यक्षपथ्याबीजानि एकद्वित्रिगुणानि च ।
पिष्ट्वा वर्तिं जलैः कुर्यादञ्जनं द्विहरेणुकम् ॥ ८६ ॥
नेत्रस्रावं हरत्याशु वातरक्तरुजं तथा ।
रसक्रिया
तुत्थमाक्षिकसिन्धूत्थं सिताशङ्खमनःशिलाः ॥ ८७ ॥
गैरिकोदधिफेनं च मरिचं चेति चूर्णयेत् ।
संयोज्य मधुना कुर्यादञ्जनार्थं रसक्रियाम् ॥ ८८ ॥
वर्त्मरोगार्मतिमिरकाचशुक्रहरां पराम् ।
वटक्षीरेण संयुक्तो मुख्यः कर्पूरजः कणः ॥ ८९ ॥
क्षिप्रमञ्जनतो हन्ति कुसुमं तु द्विमासिकम् ।
क्षौद्राश्वलालासंघृष्टैर्मरिचैर्नेत्रमञ्जयेत् ॥ ९० ॥
अतिनिद्रा शमं याति तमः सूर्योदयादिव ।
जातीपुष्पं प्रवालं च मरिचं कटुकी वचा ॥ ९१ ॥
सैन्धवं बस्तमूत्रेण पिष्टं तन्द्राघ्नमञ्जनम् ।
शिरीषबीजगोमूत्रकृष्णामरिचसैन्धवैः ॥ ९२ ॥
अञ्जनं स्यात्प्रबोधाय सरसोनशिलावचैः ।
दार्वी पटोलं मधुकं सनिम्बपद्मकोत्पलम् ॥ ९३ ॥
प्रपौण्डरीकं चैतानि पचेत्तोये चतुर्गुणे ।
विपाच्य पादशेषं तु शृतं नीत्वा पुनः पचेत् ॥ ९४ ॥
शीते तस्मिन्मधु सितां दद्यात्पादांशिकां नरः ।
रसक्रियैषा दाहाश्रुरक्तरागरुजो हरेत् ॥ ९५ ॥
रसाञ्जनं सर्जरसो जातीपुष्पं मनःशिला ।
समुद्रफेनो लवणं गैरिकं मरिचानि च ॥ ९६ ॥
एतत्समांशं मधुना पिष्ट्वा प्रक्लिन्नवर्त्मनि ।
अञ्जनं क्लेदकण्डूघ्नं पक्ष्मणां च प्ररोहणम् ॥ ९७ ॥
गुडूचीस्वरसः कर्षः क्षौद्रं स्यान्माषकोन्मितम् ।
सैन्धवं क्षौद्रतुल्यं स्यात्सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ ९८ ॥
अञ्जयेन्नयनं तेन पिल्लार्मतिमिरं जयेत् ।
काचं कण्डूं लिङ्गनाशं शुक्लकृष्णगतान्गदान् ॥ ९९ ॥
दुग्धेन कण्डूं क्षौद्रेण नेत्रस्रावं च सर्पिषा ।
पुष्पं तैलेन तिमिरं काञ्जिकेन निशान्धताम् ॥ १०० ॥
पुनर्नवा जयेदाशु भास्करस्तिमिरं यथा ।
बब्बूलदलनिःक्वाथो लेहीभूतस्तदञ्जनात् ॥ १॥
नेत्रस्रावं जयत्येष मधुयुक्तो न संशयः ।
हिज्जलस्य फलं घृष्ट्वा पानीये नित्यमञ्जनम् ॥ २ ॥
चक्षुःस्रावोपशान्त्यर्थ कार्यमेतन्महौषधम् ।
कतकस्य फलं घृष्ट्वा मधुना नेत्रमञ्जयेत् ॥ ३ ॥
ईषत्कर्पूरसहितं स्मृतं नेत्रप्रसादनम् ।
सर्पिः क्षौद्रं चाञ्जनं स्याच्छिरोत्पातस्य शान्तये ॥ ४ ॥
कृष्णसर्पवसा शङ्खः कतकात्फलमञ्जनम् ।
रसक्रियेयमचिरादन्धानां दर्शनप्रदा ॥ ५ ॥
दक्षाण्डत्वक्शिलाकाचशङ्खचन्दनसैन्धवैः ।
द्रव्यैरञ्जनयोगोऽयं पुष्पार्मादिविलेखनः ॥ ६ ॥
कणा छागयकृन्मध्ये पक्त्वा नेत्रयुगेऽञ्जिता ।
अचिराद्धन्ति नक्तान्ध्यं तद्वत्सक्षौद्रभूषणम् ॥ ७ ॥
शाणार्धं मरिचं द्वौ च पिप्पल्यर्णवफेनयोः ।
शाणार्धं सैन्धवं शाणा नव सौवीरकाञ्जनात् ॥ ८ ॥
पिष्टं सुसूक्ष्मं चित्रायां चूर्णाञ्जनमिदं शुभम् ।
कण्डूकाचकफार्तानां मलानां च विशोधनम् ॥ ९ ॥
शिलायां रसकं पिष्ट्वा सम्यगाप्लाव्य वारिणा ।
गृह्णीयात्तज्जलं सर्वं त्यजेच्चूर्णमधोगतम् ॥ ११० ॥
शुष्कं च तज्जलं सर्वं पर्पटीसंनिभं भवेत् ।
विचूर्ण्य भावयेत्सम्यक्त्रिवेलं त्रिफलारसै ॥ ११ ॥
कर्पूरस्य रजस्तत्र दशमांशेन निक्षिपेत् ।
अञ्जयेन्नयने तेन सर्वदोषहरं हि तत् ॥ १२ ॥
सर्वरोगहरं चूर्णं चक्षुषोः सुखकारि च ।
अग्नितप्तं हि सौवीरं निषिञ्चेत्त्रिफलारसैः ॥ १३ ॥
सप्तवेलं तथा स्तन्यैः स्त्रीणां सिक्तं विचूर्णितम् ।
अञ्जयेत्तेन नयने प्रत्यहं चक्षुषोर्हितम् ॥ १४ ॥
सर्वानक्षिविकारांस्तु हन्यादेतन्न संशयः ।
त्रिफलाभृङ्गशुण्ठीनां रसैस्तद्वच्च सर्पिषा ॥ १५ ॥
गोमूत्रमध्वजाक्षीरैः सिक्तो नागः प्रतापितः ।
तच्छलाका हरत्येव सर्वान्नेत्रभवान्गदान् ॥ १६ ॥
गतदोषमपेताश्रु संपश्यन्सम्यगम्भसि ।
प्रक्षाल्याक्षि यथादोषं कार्यं प्रत्यञ्जनं ततः ॥ १७ ॥
न वाऽनिर्गतदोषेऽक्ष्णिधावनं संप्रयोजयेत् ।
प्रत्यञ्जनं तीक्ष्णतप्ते नेत्रे चूर्णं प्रसादनम् ॥ १८ ॥
शुद्धे नागे द्रुते शुद्धं तुल्यं सूतं विनिक्षिपेत् ।
कृष्णाञ्जनं तयोस्तुल्यं सर्वमेकत्रचूर्णयेत् ॥ १९ ॥
दशमांशेन कर्पूरं तस्मिंश्चूर्णे प्रदापयेत् ।
एतत्प्रत्यञ्जनं नेत्रगदजिन्नयनामृतम् ॥ १२० ॥
जयपालभवां मज्जां भावयेन्निम्बुकद्रवैः ।
एकविंशतिवेलं तु ततो वर्तिं प्रकल्पयेत् ॥ २१ ॥
मनुष्यलालया घृष्ट्वा ततो नेत्रे तयाऽञ्जयेत् ।
सर्पदष्टविषं जित्वा संजीवयति मानवम् ॥ २२ ॥
भुक्त्वा पाणितलं घृष्ट्वा चक्षुषोर्दीयते यदि ।
जाता रोगा विनश्यन्ति तिमिराणि तथैव च ॥ २३ ॥
शीताम्बुपूरितमुखः प्रतिवासरं यः
कालत्रयेण नयनद्वितयं जलेन ।
आसिञ्चति ध्रुवमसौ न कदाचिदक्षि-
रोगव्यथाविधुरतां भजते मनुष्यः ॥ २४ ॥
आयुर्वेदसमुद्रस्य गूढार्थमणिसंचयम् ।
ज्ञात्वा कैश्चिद्बुधैस्तैस्तु कृता विविधसंहिताः ॥ २५ ॥
किंचिदर्थं ततो नीत्वा कृतेयं संहिता मया ।
कृपाकटाक्षनिक्षेपमस्यां कुर्वन्तु साधवः ॥ २६ ॥
विविधगदार्तिदरिद्रनाशनं या
हरिरमणीव करोति योगरत्नैः।
विलसतु शार्ङ्गधरस्य संहिता सा
कविहृदयेषु सरोजनिर्मलेषु॥ २७ ॥
अल्पायुषामल्पाधियामिदानीं
कृतं समस्तश्रुतिपाठशक्त्या ।
तदत्र युक्तं प्रतिबीजमात्र-
मभ्यस्यतामात्महितं प्रयत्नात् ॥ १२८ ॥
इति श्रीशार्ङ्गधरसंहितायामुत्तरखण्डे त्रयोदशोऽध्यायः ।
उत्तरखण्डः समाप्तः। श्लोकसंख्या ॥ ६१६ ॥
श्रीः
अञ्जननिदानम्
अग्निवेशमहर्षिप्रणीतम्।
ग्रन्थप्रयोजनम्
अबोधतिमिरच्छन्नचक्षुषां भिषजां कृते ।
सूक्ष्मं करोत्यग्निवेशो ग्रन्थमञ्जनमाख्यया ॥ १ ॥
दोषरोषो रुजां हेतुस्तत्प्रकोपे तु कारणम् ।
प्रत्येकं हीनमिथ्यातियोगः कालार्थकर्मणाम् ॥ २ ॥
कटुतिक्तकषायपयोदहतिश्रमरुक्षहिमान्नभयानशनैः ।
स्मरजागरशुक्तरणास्रगमैरपि कुप्यति वेगवधैरनिलः ॥ ३ ॥
शिरःशङ्खभ्रूहृत्त्रिकविटपसंध्यस्थिकटिरुग्
विबन्धः पारुष्यं शयनहतिराध्मानचलने ।
कडारा शोणा वा छविरपि कषायोऽस्य च रसः
श्रमो रुग्वैषम्यं कुपितमरुतो लक्षणमिदम् ॥ ४ ॥
तिलशुक्तसुरादधिमीनशरत्कटुतीक्ष्णपटूष्णरुडम्लतपैः ।
रतिघस्ननिशार्धविदाहकरैरपि कुप्यति पित्तमुपोषणतः५
भ्रमो दाहो मूर्छा मलशिथिलता स्वेददरणं
प्रलापः पीतत्वं मुखनयनविण्मूत्रनखरे ।
मदस्तृट्तिक्तोष्णः पटुकटुरसः पाण्डुरहिता
द्युतिः पाकश्चेत्याकृतिरपि च पित्तस्य सरुषः ॥ ६ ॥
दधिदुग्धनवीनजलान्नहिमाध्यशनाम्लपटूपशमाज्यतिलैः
गुरुमत्स्यवसन्तदिवाशयनैर्मधुरैरपि रोषमुपैति कफः ॥ ७ ॥
गुरुत्वं स्तैमित्यं श्वयथुचिरकर्तृत्वशयने
मलाधिक्यं कण्डूररुचिरुपलेपः शिशिरता ।
अपक्तिस्तृप्तिश्चास्मृतिरिति बलासस्य सरुपः
स्फुटं लिङ्गं स्वादुः पटुरपि रसो भा च धवला ॥ ८ ॥
हेतुप्राग्रूपरूपोपशयाप्तिभिरिहामयः ।
ज्ञेयो रूपेण चैकेन मुख्यमेतेषु तद्यतः ॥ ९ ॥
दोषोऽजीर्णाज्ज्वरं कुर्यात् क्षिप्त्वाऽग्निं कोष्ठतस्त्वचि ।
सोऽष्टधा तैः पृथग्द्वन्द्वसर्वैरागन्तुजोऽपि च ॥ १० ॥
जृम्भाङ्गमर्दावरतिदृग्दाहौगौरवारुची ।
पृथग्ज्वराणां प्राग्रूपं द्वित्रिजे द्वित्रिलक्षणम् ॥ ११ ॥
कम्पः कण्ठोष्ठविट्शोषोऽक्षवो मूर्धोदराङ्गरुक् ।
वैषम्योऽस्वप्नवैरस्यं जृम्भा वातज्वराकृतिः ॥ १२ ॥
पीतता दाहतृट्स्वेदो मूर्छाल्पस्वप्नतिक्तता ।
वमिभ्रमप्रलापाश्चरेकः पित्तज्वराकृतिः ॥ १३ ॥
स्तैमित्योत्क्लेदमाधुर्यं प्रतिश्यारुचिगौरवम् ।
कासालस्ये तृप्तिशौक्ल्यं शैत्यं श्लेष्मज्वराकृतिः ॥ १४ ॥
कण्ठास्यशोषस्तृण्मूर्छा दाहोऽस्वप्नोवमिर्भ्रमः ।
तमः पर्वशिरोरुक् च वातपित्तज्वराकृतिः ॥ १५ ॥
स्तैमित्यं काससन्तापौ गौरवं पर्वमूर्धरुक् ।
स्वापोऽस्वेदः प्रतिश्यायो वातश्लेष्मज्वराकृतिः ॥ १६ ॥
शीतं दाहो मुहस्तन्द्रा मोहः कासोऽरुचिश्च तृट् ।
लिप्ततिक्तास्यता पित्तबलासज्वरलक्षणम् ॥ १७ ॥
खरा जिह्वाऽक्षिणी भुग्ने स्रावी रक्ते तृडस्थिरुक्।
विकृतेहास्वेदनिद्रा शीतदाहाव्यवस्थितिः ॥ १८ ॥
तन्द्रा प्रलापो मोहाङ्गस्त्रस्तता कण्ठशूकता ।
रक्तष्ठीवनमित्यादिः सन्निपातज्वराकृतिः ॥ १९ ॥
अभिन्यासः समस्तैस्तैर्ध्वस्तसर्वेन्द्रियक्रियः ।
सन्निपातज्वरोऽसाध्यो दोषवृद्ध्याग्निहानितः ॥ २० ॥
सप्तदशद्वादशाहाद्धानिर्वा वृद्धिरस्य तैः ।
तत्तद्द्विगुणघस्रैस्तुतन्मर्यादा स्मृता क्रमात् ॥ २१ ॥
सन्निपातज्वरस्यादिमध्यान्ते कर्णमूलयोः ।
शोथोऽसाध्यः कष्टसाध्यः सुखसाध्यः क्रमेण च ॥ २२ ॥
सन्ततः सततोऽन्येद्युस्तृतीयकचतुर्थकौ।
सन्दूष्यास्ररसावस्त्रंक्रव्यं मेदोऽस्थिमज्ज च ॥ २३ ॥
तद्भेदा विषमाः स्युस्ते शीतदाहादयो ज्वराः ।
सन्तत्या सततस्तिष्ठेत्ते सप्तदशरव्यहान् ॥ २४ ॥
द्वौ कालौ सततोऽन्येद्युरेकं कुर्यादहर्निशम् ।
मुक्त्वैकाहं तृतीयोऽथ द्व्यहं त्यक्त्वा चतुर्थकः ॥ २५ ॥
घटीः पञ्चाशदन्येद्युः स्वेह्न्यहस्तु तृतीयकः ।
द्व्यहं चतुर्थो व्याप्नोति त्रय एते विपर्ययाः ॥ २६ ॥
हृद्रुगस्रवमिर्दाहो वैगन्ध्यं चास्थिरुक् क्लमः ।
शुक्रोत्सर्गश्चेति लिङ्गं क्रमाद्धातुगते ज्वरे ॥ २७ ॥
साध्यावाद्यौ कष्टसाध्यास्तत्परेऽन्त्यो न सिद्ध्यति ।
मन्दोऽतिगौरवंस्वेदो ज्वरो नित्यं प्रलेपकः ॥ २८ ॥
चतुर्धाऽऽगन्तुजः शापाभिचारावेशघातजः ।
पूर्वयोर्भूरिविस्फोटमोहावावेशजे तु रुट् ॥ २९ ॥
तत्तद्भूतस्य कामोत्थे ह्रीधीस्वप्नहतिर्ज्वरे ।
दाहातिसारौ क्ष्वेडोत्थे यथास्वं घातजं वदेत् ॥ ३० ॥
बहुहेतूपद्रवोऽतिक्षीणधात्विन्द्रियो ज्वरः ।
असाध्यः शीतलः स्वेदी गात्रान्तर्दाहकृच्च यः ॥ ३१ ॥
लघुर्गुरुर्निरामश्च सामः प्राकृतवैकृतौ ।
बहिरन्तर्वेगिनौ च साध्यासाध्यौ क्रमाज्ज्वरौ ॥ ३२ ॥
लघुरल्पोपद्रवः स्यादनेकोपद्रवो गुरुः ।
वर्षाशरद्वसन्ते तैः प्राकृतोऽन्यस्तु वैकृतः ॥ ३३ ॥
हृल्लासापाकलालाक्षुत्तन्द्रारुच्यङ्गगौरवैः ।
वैरस्यालस्यातिमूत्रैः सामोऽन्यस्मान्निरामकः ॥ ३४ ॥
अन्तर्दाहः प्रलापस्तृट् सन्धिरुक् विड्ग्रहो भ्रमः ।
श्वासस्वेदौ चिह्नमन्तर्वेगिनोऽन्यस्य चान्यथा ॥ ३५ ॥
विरेको विड्ग्रहो वा तृट् कासः श्वासोऽङ्गरुग्वमिः ।
हिक्का मूर्छाऽरुचिश्चापि ज्वरस्योपद्रवा दश ॥ ३६ ॥
अस्वप्नाऽरुच्यरतितृट्स्तम्भवीर्याङ्गगौरवम् ।
यन्त्रणान्नाभिहृन्मध्ये रुक् चाङ्को धातुपाकिनः ॥ ३७ ॥
भ्रमातिज्वरतृट्श्वासाः पच्यमानज्वराकृतिः ।
दोषज्वराङ्गलघुता दोषपाकस्य लक्षणम् ॥ ३८ ॥
दाहः स्वेदो भ्रमस्तृष्णा कम्पो विड्भिदसंज्ञता ।
कूजनं चातिवैगन्ध्यमाकृतिर्ज्वरमोक्षणे ॥ ३९ ॥
देहो लघुर्मुखे पाकः स्वेदः करणसौष्ठवम् ।
कण्डूः क्षवो बुभुक्षा च विगतज्वरलक्षणम् ॥ ४० ॥
वृद्धः सविड्रसः क्षिप्तवह्निर्वातातिसारतः ।
अतिसारः स षोढा तैः पृथक् सर्वैः शुचाऽऽमतः ॥ ४१ ॥
फेनरूक्षारुणं वातात्पित्तात्पीतारुणासितम् ।
कफात्सान्द्रं श्वेतहिमं वर्चः सर्वैस्तु सर्वरुक् ॥ ४२ ॥
शोचतो विट् संविट् वास्त्रंबाष्पक्षुद्रोष्मणेरितम् ।
सृजत्यजीर्णात्तच्चित्रं मुहुर्मुहु सशब्दरुक् ॥ ४३ ॥
अतीसारी सृजत्यस्रं पित्तलाहारसेवनात् ।
अजस्नंविड्वातकफात्प्रवहेच्चेत्प्रवाहिका ॥ ४४ ॥
वमिः कृच्छ्रंज्वरः कासः श्वासस्तृण्मोहशोथरुक् ।
हिक्कारुचिश्चेति लिङ्गं मरणायातिसारिणः ॥ ४५ ॥
गतेऽतिसारेऽप्यामेन दुष्टा चेद्ग्रहणी मुहुः ।
वर्चो मुञ्चत्याममेवोच्यतेऽसौ ग्रहणीगदः ॥ ४६॥
कुप्यति ग्रहणी नित्यं दिवा भूयो रुजामरुक् ।
सान्या संग्रहणी नाम्ना यामं संगृह्य मुञ्चति ॥ ४७ ॥
शोथाग्निमान्द्यवैवर्ण्यज्वरापाकारुचिक्षयाः ।
तृडबल्यरुगाध्मानोद्वाराः स्युर्ग्रहणीगदे ॥ ४८॥
पृथक् सर्वैश्चतुर्धाऽसौ तल्लिङ्गमतिसारवत् ।
विडामं पूत्यप्सु मज्जेत्सद्रवस्निग्धशब्दरुक् ॥ ४९॥
त्वङ्मांसमेदः संदूष्य गुदेऽर्शांस्यङ्कुरान्मलाः ।
कुर्युः षोढा पृथक् दोषाः सर्वैर्द्वे सहजास्त्रजे ॥ ५० ॥
शोथाग्निमान्द्यविष्टम्भसक्थिपीडाऽल्पविट्कता ।
पाण्डुतास्रक्षयाबल्याध्मानोद्गारा रुजोर्शसाम् ॥ ५१ ॥
प्रागुक्त्तहेतुचिह्नैस्तु दोषानर्शस्सुलक्षयेत् ।
त्रिदोषचिह्नं सहजमस्रस्रावि तदस्रजम् ॥ ५२ ॥
बाह्यमन्ध्यान्त्यवलिजान्येकद्वित्रिमलानि च ।
तानि साध्यानि कष्टानि न साध्यानि वदेत्क्रमात् ॥ ५३ ॥
अजीर्णं भुक्तिवैषम्याद्रेको वान्तोऽस्य विड्ग्रहः ।
स्युर्विष्टब्धविदग्धामाख्यान्यजीर्णानि वै क्रमात् ॥ ५४ ॥
रसशेषाच्चतुर्थं तद्विष्टब्धे शूलविङ्ग्रहो ।
विदग्धेऽम्लः सधूमश्चोद्गारो ह्यामे स भुक्तवान् ॥ ५५ ॥
रसशेषेऽन्नविद्वेषः पूर्वत्रिभ्यो विषूचिका ।
वम्यतीसारतृट्शूलभ्रमोद्वेष्टनतोदनी ॥ ५६ ॥
मूत्राघातास्वप्नकम्पारतिमोहैर्न सिध्यति ।
वृद्धातिवृद्धक्षीणैस्तैर्भस्मकोऽत्यशनो गदः ॥ ५७ ॥
ज्वरो विवर्णता शूलो हृद्रोगः श्वसनं भ्रमः ।
अन्नद्वेषोऽतिसारश्च संजातकृमिलक्षणम् ॥ ५८ ॥
अतिव्यवायमद्याम्लदिवास्वप्नमृदादिभिः ।
पाण्डवः पञ्च तैर्भिन्नैरभिन्नैः पञ्चमो मृदः ॥ ५९ ॥
पाण्डुत्वङ्नेत्रविण्मूत्रनखैः शोथवमिज्वरैः ।
कासश्वासाग्निमान्द्यैश्च युक्तः स्यात्पाण्डुरोगवान् ॥ ६०॥
अन्तशोथी मध्यकृशो मध्यशोथ्यन्तदुर्बलः ।
किंवा ज्वरातिसारी च पाण्डुरोगी न सिध्यति ॥ ६१ ॥
पीतत्वङ्मूत्रविण्नेत्रा बहुपित्तात्तु कामला ।
सैव वृद्धा कृष्णपीतत्वगादिः कुम्भकामला ॥ ६२ ॥
दुष्टं पित्तं विदूष्यास्त्रं सह तेन बहिर्बिलैः ।
ऊर्ध्वं चाधो द्विधा वैति रक्तपित्तं तदुच्यते ॥ ६३ ॥
सश्लेष्मार्ध्वमधः स्वैरं द्विमार्ग सकफानिलम् ।
साध्यं याप्यमसाध्यं च रक्तपित्तं क्रमाद्वदेत् ॥ ६४ ॥
ज्वरापाकवमिश्वासतृट्कासाबल्यपाण्डुताः ।
भुक्ते दाहः शिरस्तापो रेकोऽक्षुच्चास्रपित्ततः ॥ ६५ ॥
अतिव्यवायव्यायामव्रणशोकज्वराध्वभिः ।
शोषान्कुर्वन्ति ते क्रुद्धा यक्ष्माणं तु कफोल्बणाः ॥ ६६ ॥
कराङ्घ्रिदाहः पार्श्वांसरुक्कफास्रवभिर्ज्वरः ।
वैस्वर्यक्षुद्रकश्वासकासमस्तकगौरवम् ॥ ६७ ॥
शुक्लेक्षणत्वं मांसेच्छा रिरंसा च क्षयाकृतिः ।
उरःक्षतौ स्याद्रुक्पूतिकफपूयास्रवान्तियुक् ॥ ६८ ॥
कासातिसारपार्श्वार्तिस्वरभेदारुचिज्वरैः ।
षड्भिरेभिः क्षयोऽसाध्यः किंवासृक्कसनज्वरैः ॥ ६९ ॥
प्राणः सघोषः सोदानो वाक्त्रात्प्रैति यदा सतृटू।
स कासः पञ्चधा भिन्नैस्तैः क्षतेन क्षयेण च ॥ ७० ॥
कासते शुष्कमनिलात्पित्तात्पीतं वमेत्कटु ।
कफात्स्वादुकफं चान्त्यावसाध्यावुक्तलक्षणौ ॥ ७१ ॥
पूर्ववत्कुरुते प्राणो हिक्काः पञ्च गतिक्रमात् ।
अन्नजाहारबाहुल्याद्यमिका द्वित्रिवेगिनी ॥ ७२ ॥
हिक्का क्षुद्रा जत्रुमन्दा गम्भीरा नाभिकम्पकृत् ।
कम्पयत्यङ्गमखिलं महत्यन्ते न सिध्यतः ॥ ७३ ॥
अधश्चोर्ध्वंकफो वातो यात्यायाति मुहुर्यदा ।
कफरुद्धगतिर्विष्वक् तदा श्वासान्करोत्यसौ ॥ ७४ ॥
महोर्ध्वच्छिन्नतमकक्षुद्राख्यान्स्वगतिक्रमात् ।
महता निःश्वसत्युच्चैरूर्ध्वेनोर्ध्वमधो न तु ॥ ७५ ॥
विच्छिन्नवेगं छिन्नेन तमकेनातिमूर्धरुक् ।
क्षुद्रेण श्वसनेनाल्पं पूर्वे साध्या न ते त्रयः ॥ ७६ ॥
अत्युच्चभाषाघाताद्यैः क्रुद्धैर्दोषैः स्वरामयः ।
षोढा पृथक् समस्तैः स्यान्मेदसा च क्षयेण च ॥ ७७ ॥
स्वनिदानस्वरूपास्ते न तु साध्यास्त्रयोऽन्तिमाः ।
स्वाद्वप्यन्नं मुखे चेन्न स्वदतेऽसावरोचकः ॥ ७८ ॥
स पञ्चधा पृथक्सर्वैस्तैः परो रुड्भयादिभिः ।
अरोचके मुखं तत्तद्वत्वं प्राकृतमन्तिमे ॥ ७९ ॥
अत्यजीर्णपटुस्निग्धाहृद्यगर्भकृमिद्रुतैः ।
दोषैः पृथक्समस्तैश्चाहृद्यैः पञ्चविधा वमिः ॥ ८० ॥
श्यामं वातेन पित्तेन पीतं श्वेतं कफेन च ।
सर्वैश्चित्रं वमेद्गर्भो बीभत्सादीक्षणादपि ॥ ८१ ॥
कासः श्वासो ज्वरो हिक्का तृष्णा वैचित्यमेव च ।
हृद्रोगस्तमकश्चैव ज्ञेयाश्छर्देरुपद्रवाः ॥ ८२ ॥
सततं यः पिबेद्वारि न तृप्तिमुपगच्छति ।
पुनः काङ्क्षति तोयं यस्तं तृष्णार्दितमादिशेत् ॥ ८३ ॥
पित्तं तालुगतं क्रुद्धं सवातं कुरुते तृषाम् ।
सा सप्तधा पृथक्तैश्च क्षतामक्षयभोजनैः ॥ ८४ ॥
शीताद्भिर्वर्धते वातान्न पित्ताज्जाड्यकृत्कफात् ।
तृट्त्रिलिङ्गामजाघातास्रक्षयाभ्यां क्षतोद्भवा ॥ ८५ ॥
रसक्षयात्सहृत्पीडा पट्वाद्याधिक्यतोन्नजा ।
मोहज्वरश्वासकासकर्त्रीतृष्णा न सिध्यति ॥ ८६ ॥
संज्ञास्रोतांसि ते रुध्वा विशन्ति करणानि चेत् ।
क्रुद्धपित्तास्तदा मर्त्यामूर्च्छन्ति गतचेतनाः ॥ ८७ ॥
सप्त मूर्च्छाःपृथक्सर्वैस्तैश्च मद्यविषास्रतः ।
दोषवर्णं वियत्पश्यन् दोषैर्मूर्च्छति चासवात् ॥ ८८ ॥
आसौम्यः सप्रलापोऽथ दाहहृत्कम्पवान्विषात् ।
पित्तवद्रक्तगन्धेन संन्यासोऽस्तेन्द्रियक्रियः ॥ ८९ ॥
मद्यंपीतमयुक्त्या तैः कुर्यात्पानात्ययांश्चतुः ।
वमिर्मूर्च्छाज्वरो दाहः पलापश्चभ्रमोऽरुचिः ॥ ९० ॥
रेकास्वप्नारतिकफाः पानाजीर्णस्य लक्षणम् ।
पानोष्मा त्वग्गतो दाहं सपित्तास्रः करोत्यति ॥ ९१ ॥
भीशोककामदुष्टान्नैः पूज्यादेश्चावघर्षणैः ।
मदयन्ति मनो दोषाः स्यादुन्मादस्ततोद्धतः ॥ ९२ ॥
अस्थाने हास्यगीताद्यैर्ह्रीधीस्वप्नविपर्ययैः ।
रहस्यकथनोद्वेगभ्रमैरुन्मादमादिशेत् ॥ ९३ ॥
दोषैर्व्यस्तैः समस्तैश्च विषशुग्भ्यां स षड्विधः ।
दोषाङ्काः पूर्ववच्छोकभीकामाद्यैस्तु तत्कथाः ॥ ९४ ॥
देवदैत्यपिशाचाहिरक्षोगन्धर्वयक्षतः ।
पितृतश्च ग्रहेभ्यः स्युरुन्मादाः प्रोक्तलक्षणाः ॥ ९५ ॥
पावित्र्यं देवविद्वेषो नग्नत्वं सर्पवद्गतिः ।
बहुभुक्त्वं गानदाने श्राद्धं चेति तदाकृतिः ॥ ९६ ॥
कम्पनिद्राफेनवमिद्रुमादिपतनादिभिः ।
त्रयोदशेऽब्देऽतीते तु नोन्मादी जातु जीवति ॥ ९७ ॥
दोषोद्रेकात्प्रजातायां स्मृतौ हत्यामपस्मृतिः ।
तदाकृतिस्तमःफेनकम्पनेत्रादिवैकृतम् ॥ ९८ ॥
चतुर्धाऽसौ पृथक्सर्वैस्तैस्तत्कोपः क्रमादिह ।
रविपञ्चदशत्रिंशद्दिनेषु सकलेष्वपि ॥ ९९ ॥
अशीतिर्वातजा रोगा भवन्त्याक्षेपकादयः ।
अतिप्रसिद्धान्कियतस्तेष्वहं तानिह ब्रुवे ॥ १०० ॥
आक्षेपको गतिक्षेपात्खल्लो जङ्घोरुपादरुक् ।
सरुङ्गाभेरधो ग्रन्थिरष्ठीला रुद्धमूत्रविट्॥ १०१ ॥
प्रत्यष्ठीलोदरे चेत्सा सपीडा तिर्यगुत्थिता ।
आध्मानं स्थाद्यदाध्मानं साटोपमुदरं सरुक् ॥ १०२ ॥
कफव्याकुलिते वाते प्रत्याध्मानं प्रजायते ।
विण्मूत्राशयजा पीडाऽधोगता तूणिकोच्यते ॥ १०३ ॥
गुदोपस्थोत्थिता रुक् चेद्यात्यूर्ध्वंप्रतितूणिका ।
वक्रीकरोति वक्त्रार्धं वातश्चेत्सरुगर्दितम् ॥ १०४ ॥
गृध्रसीस्फिक्पायुकटिजानुजङ्घापदव्यथा ।
क्रोष्टुशीर्ष जानुशोथो विश्वाची भुजयोर्व्यथा ॥ १०५ ॥
खाञ्जः स्यान्निग्रहात्सक्थ्नःपङ्गुत्वमुभयोस्तयोः ।
अत्युद्गारस्तूर्ध्ववातो नष्टवाक्त्वं तु मूकता ॥ १०६ ॥
कलायखञ्जः स भवेत्प्रकामं वेपते तु यः ।
आमूलमेकबाहोश्चेद्व्यथा स्यादपबाहुकः ॥ १०७ ॥
विवृतं संवृतं वास्यं यः कुर्यात्स हनुग्रहः ।
सर्वाङ्गैकाङ्गरोगौ स्तः सर्वाङ्गैकाङ्गनिग्रहात् ॥ १०८ ॥
मुहुर्धनुर्वन्नमयेन्मोहयेच्चापतन्त्रकः ।
जिह्वास्तम्भः स येनान्नपानवाक्येष्वनीशता ॥ १०९ ॥
बाह्यायामान्तरायामौ बहिरन्तश्च कर्षणात् ।
स्नायूनामथ विज्ञेयो व्रणायामोऽरुषा यथा ॥ ११० ॥
स्थानानामानुरूपांश्च लिङ्गैः शेषान्विनिर्दिशेत् ।
घ्नन्ति वातामया वृद्धाः क्षीणमांसबलानलम् ॥ १११ ॥
अत्यध्ववाहनविदाह्यन्नादेः सरुषासृजा ।
युज्यते चेन्मरुद्दुष्टस्तथा स्याद्वातशोणितम् ॥ ११२ ॥
दाहगौरवरुक्तोदकण्डूवैवर्ण्यमण्डलम् ।
त्वच्युदर्दाङ्गसंकोचशोथं वातास्त्रलक्षणम् ॥ ११३ ॥
वाताधिकेतिरुक्पित्ते दाहो रक्तेतिशोणता ।
कफेऽतिगौरवं चिह्नं द्वित्रिजे द्वित्रिलक्षणम् ॥ ११४ ॥
मोहदाहज्वरास्वप्नपाङ्गुल्याङ्गुलिवैकृतम् ।
मर्मग्रहभ्रमास्फोटा वातास्रोपद्रवा नव ॥ ११५ ॥
युगपत्कुपितावामवातौ स्वीयप्रकोपनैः ।
आमवातं जनयतः सशोथं सन्धिरुग्ग्रहम् ॥ ११६ ॥
सर्वाङ्गैकाङ्गसन्धिस्थशोथार्तिग्रहगौरवम् ।
ज्वरापाकाग्निमांद्ये च तृष्णा चामानिलाकृतिः ॥ ११७ ॥
आमवाताधिके वातेऽतिरुग्दाहस्तु पित्ततः ।
कफात्स्तैमित्यगुरुते सर्वलक्ष्म त्रिदोषतः ॥ ११८ ॥
जाड्यान्त्रकूजनानाहतृट्छर्दिबहुमूत्रताः ।
शूलं शयननाशोऽष्टोपद्रवा आमवातजाः ॥ ११९ ॥
एकदेशेऽतिरुक् शूलं शिम्बीधान्यादिसेवनात् ।
क्रुद्धैः पृथग्द्वन्द्वसर्वैर्दोषैश्चामात्तदष्टधा ॥ १२० ॥
पित्तान्नाभ्यां चलाद्बस्तौ पार्श्वहृत्कुक्षिजं कफात् ।
द्वित्रिस्थानं द्वित्रिदोषं शूलं चामाशये रसात् ॥ १२१ ॥
वेदनानाहमूर्छायास्तृड्कृच्छ्रे गौरवारुची ।
कासः श्वासश्च हिक्का च शूलस्योपद्रवादश ॥ १२२ ॥
बलासः प्रच्युतः स्थानात्पित्तेन सह मूर्च्छितः ।
वायुमादाय कुरुते शूलं जीर्यति भोजने ॥ १२३ ॥
वातविण्मूत्रजृम्भाश्रुक्षवोद्गारवमीन्द्रियैः ।
क्षुत्तृष्णाश्वासनिद्राणां धृत्योदावर्तसम्भवः ॥ १२४ ॥
वातस्य रोधादाध्मानमूर्ध्वविट्कंविशोथ रुक् ।
बस्तौ मूत्रस्य जृम्भायाः शिरोरुग् दृग्रुजोऽश्रुणः ॥ १२५ ॥
क्षवथोरिन्द्रियग्लानिरुद्गारस्यानिलार्तयः ।
छर्देःकुष्ठानीन्द्रियस्याश्मरी दृड्मन्दता क्षुधः ॥ १२६ ॥
तृषोऽतितृष्णा श्वासस्य हृद्रुक् स्वापस्य जृम्भणम् ।
विड्वान्तिशूलतृड्ग्लानिक्षैण्ययुक्तं त्यजेदभुम् ॥ १२७ ॥
हृन्नाभ्योरन्तरे ग्रन्थिः संचारी यदि वाचलः ।
वृत्तश्चयोपचयवान्स गुल्मः पञ्चधा मतः ॥ १२८ ॥
तस्य पञ्चविधं स्थानं पार्श्वहृन्नाभिबस्तयः ।
दोषैर्व्यस्तैः समस्तैश्च स्त्रीणां रक्तेन पञ्चमः ॥ १२९ ॥
जीर्णेऽन्ने वातजः कुप्येत्तस्मिञ्जीर्यति पित्तजः ।
भुक्ते तु कफजो गुल्मः सर्वदा सर्वदोषजः ॥ १३० ॥
प्रसवार्तवपातानां काले याऽसात्म्यभोजना ।
वायुस्तद्रक्तमादाय गुल्मं निर्माति पैत्तवत् ॥ १३१ ॥
स्पन्दते पिण्डितो नाङ्गैः सशूलो गर्भचिह्नयुक् ।
गुल्मोऽसृजश्चिकित्स्योऽसौ मासे तु दशमे गते ॥ १३२ ॥
श्वासशूलपिपासान्नविद्वेषो ग्रन्थिगूढता ।
जायते दुर्बलत्वं च गुल्मिनो मरणाय वै ॥ १३३ ॥
दूषयित्वा रसं दोषा विगुणा हृदयं गताः ।
हृदि पीडां प्रकुर्वन्ति हृद्रोगं तं प्रचक्षते ॥ १३४ ॥
स पञ्चधा पृथग्दोषैः समस्तैश्च कृमेरपि ।
क्लमःसादो भ्रमः शोषो ज्ञेयास्तेषामुपद्रवाः ॥ १३५॥
नालस्य मूले मध्ये वा रुद्धं वाग्रे सदाहरुक् ।
कणशश्चेत्स्रवेन्मूत्रं मूत्रकृच्छ्रंतदुच्यते ॥ १३६ ॥
मूत्रकृच्छ्राण्यष्ट दोषाश्मरीविट्शल्यशुक्रतः ।
दोषैर्लिङ्गं पृथक्सर्वैः कृच्छ्रे रुग्दाहगौरवम् ॥ १३७ ॥
द्विधारं मूत्रमश्मर्या विट्क्षोभाद्विड्विगन्धि तत् ।
क्षते हते वा शल्येन कृच्छ्रंस्यान्मूत्रवर्त्मनि ॥ १३८ ॥
तत्र रुद्धे मले शुक्रात्प्राप्तात्कृच्छ्रंपरं सरुक् ।
बस्तिमेहनरुग्दाहाटोपैः कृच्छ्रंन सिध्यति ॥ १३९ ॥
मूत्रादि धृत्वा दुष्टेन रुध्वा रुध्वा शनैः शनैः ।
मरुतोत्सृज्यते मूत्रं मूत्राघातस्तदा भवेत् ॥ १४० ॥
वातो मूत्रगतं शुक्रं कफंवा शोषयेद्यदा ।
तदाश्मरी स्यात्क्रमशो गोपित्तेष्विव रोचना ॥ १४१ ॥
रुङ्गाभिसीवनीबस्तिमूर्धगोमेदकोपमम् ।
मूत्रकृच्छ्रंशीर्णधारं ज्वरश्चाश्मरिलक्षणम् ॥ १४२ ॥
बालानां सा पृथक् दोषैर्यूनां शुक्रभवाश्मरी ।
नाभ्यण्डशोथरुग्बद्धमूत्रणात्त्वनया मृति॥ १४३ ॥
आस्यासुखं स्वप्नसुखं दधीनि ग्राम्यौदकानूपरसाः पयांसि ।
नवान्नपानं गुडवैकृतं च प्रमेहहेतुः कफकृच्च सर्वम् ॥ १४४ ॥
मूत्रमिश्रंकेवलं वा शुक्रं मेहति चेन्मुहुः ।
स प्रमेहोऽत्र भेदस्तु मूत्रवर्णविभेदतः ॥ १४५ ॥
जलेक्षुसान्द्रासवशुक्रपिष्टलालाशनैःसैकतशीततस्ते ।
माञ्जिष्ठहारिद्रकनीलकालक्षारास्रतभज्जवसेभपौष्पात् ॥
साध्याः कफोत्था दश पित्तजाः षट्
याप्या न साध्याः पवनाच्चतुष्काः ।
समक्रियत्वाद्विषमक्रियत्वा-
न्महात्ययत्वाच्च यथाक्रमं ते ॥ १४७ ॥
दोषप्रकोपचिह्नानि प्रमेहाणामुपद्रवाः ।
शरावी कच्छपी पुत्रिण्यलजी च विदारिका ॥ १४८ ॥
मसूरी विनता जालिन्यपि विद्रधिसार्षपी ।
नामानुरूपाः पिडिका दशेमास्तदुपेक्षणात् ॥ १४९ ॥
मेदस्तु वर्धते श्लेष्महेतुभिस्तेन ना भवेत् ।
सर्वकर्मासमर्थोऽतिस्थूलस्फिगुदरस्तनः ॥ १५० ॥
स्वभावदुर्बलोह्येकः परो रोगादिदुर्बलः ।
स्वभावदुर्बले नास्ति चिकित्सास्त्यपरत्र सा ॥ १५१ ॥
मन्दाग्नेरहितैरन्नैरुदराण्यष्ट तानि तु ।
पृथग्दोषैः समस्तैश्च प्लीहबद्धक्षतोदकैः ॥ १५२ ॥
वातविट्सङ्गदौर्बल्योदरवृद्ध्यग्निमन्दता ।
पच्छोथबस्तिरुग्दाहाध्मानं सर्वोदराकृतिः ॥ १५३ ॥
कृष्णपीतार्जुना दोषैः शिराः स्युरुदरे क्रमात् ।
दुष्टाम्बुनखविड्लोमार्तवदूषीविषादिभिः ॥ १५४ ॥
दूष्योदरं त्रिलिङ्गं स्यान्नाभेरुर्ध्वंचितं सरुक् ।
वामे जीर्णज्वरात्प्लीहा यकृद्दाल्यस्त्रतोऽन्यतः ॥ १५५ ॥
हृन्नाभिमध्ये निचितं दुष्टं वर्चोऽन्त्रलेपकृत् ।
वातेन न बहिर्याति तद्बद्धगुदमार्तिकृत् ॥ १५६ ॥
अन्नाद्यागतशल्येन भिन्नमन्त्रे जलं गुदात् ।
स्रवेन्नाभेरधोवृद्धं परिस्राव्युदरं हि तत् ॥ १५७ ॥
स्नेहपानाद्वमे रेकादत्यम्बु पिबतो हिमम् ।
अम्बुपूर्णादृतिप्रख्यमधोनाभेर्दकोदरम् ॥ १५८ ॥
पक्षाद्बद्धगुदं तूर्ध्वं सर्वं जातोदकं तथा ।
प्रायो भवत्यभावाय छिद्रान्त्रंचोदरं नृणाम् ॥ १५९ ॥
अतिक्षाराम्लदुष्टाम्बुविरुद्धदधिमृद्गरैः ।
पञ्चकर्मापचाराद्यैर्जायते श्वयथुर्नृणाम् ॥ १६० ॥
शिरातनुत्वं वैवर्ण्यंरोमाञ्चोत्सेधगौरवम् ।
ऊष्मानवस्थितत्वं च सर्वश्वयथुलक्षणम् ॥ १६१ ॥
नवधा तैः पृथग्द्वन्द्वैः सर्वैर्घाताद्विषाच्च सः ।
प्रागुक्तलिङ्गैस्ते ज्ञेया यथाहेतुः स घातजः ॥ १६२॥
विषजः सविषप्राणिदंशमूत्रमलादिभिः ।
ऊर्ध्वगामी नरं पद्भ्यामधोगामी मुखात्स्त्रियम् ॥
उभयं बस्तिसंपातः शोथो हन्ति न संशयः ॥ १६३ ॥
छर्दिः श्वासोऽरुचिस्तृष्णा ज्वरोऽतीसार एव च ।
सप्तकोऽयं सदौर्बल्यः शोथोपद्रवसंग्रहः ॥ १६४ ॥
वायुर्वंक्षणतः प्राप्य मुष्कौ मुष्कधराः शिराः ।
प्रपीड्य वृद्धिं कुरुते मुष्कयोः स कुरण्डकः ॥ १६५ ॥
दोषास्रमेदोमूत्रान्त्रैः स गदः सप्तधा स्मृतः ।
रुग्दाहकण्डूदोषेभ्योऽस्रात्कृष्णस्फोटभागशः ॥ १६६ ॥
मेदोजः कफवन्मौत्रो धृतं तद्यन्त्रणात्सृजेत् ।
आघातादेर्मरुन्नीत्वा क्षुद्रान्त्रंवङ्क्षणादधः ॥ १६७ ॥
अन्नवृद्धिं करोत्यत्रयन्त्रणात्स्यात्सरुग्ध्वनिः ।
वङ्क्षणग्रन्थिमनिलः करोति वर्ध्मनामकम् ॥ १६८ ॥
पादशोफः श्लीपदं तैः पृथक्सर्वैः कफोल्बणैः ।
तत्कर्णकरनेत्रौष्ठशिश्ननासास्वपि क्वचित् ॥ १६९ ॥
प्राग्रूपमरुषः शोथो क्वाप्यङ्गे स्फुटितस्तु सः ।
रूपं षोढा पृथक्सर्वं दोषास्रागन्तुकं च तत् ॥ १७० ॥
विषमं पच्यते वातात्पित्ततस्त्वचिरं चिरम् ।
कफजः पित्तवच्छोथौ रक्तागन्तुसमुद्भवौ ॥ १७१ ॥
मन्दोष्णताल्पशोफत्वं काठिन्यं त्वक्सवर्णता ।
मन्दवेदनता चैतदामशोथस्य लक्षणम् ॥ १७२ ॥
अतिदाहरुजातोदशोषभेदविवर्णताः ।
तृष्णा ज्वरश्च शोथस्य पच्यमानस्य लक्षणम् ॥ १७३ ॥
कण्डूर्वल्युद्भवस्तोदो रुक्शान्त्यारुण्यनम्रता ।
यन्त्रणात्पूयचलनं पक्वशोथस्य लक्षणम् ॥ १७४ ॥
सावर्ण्योरुक्त्वग्गाढत्वमस्रपाकाकृतिः पुनः ।
रुक्पाकपूयास्तैस्तेनारुःपाके तु त्रिदोषरुट् ॥ १७५ ॥
शारीरागन्तुभेदेनारुर्द्विधाद्यं तु दोषजम् ।
परं शस्त्रादिकं त्वत्र दोषै रुग्दाहगौरवम् ॥ १७६ ॥
रक्तस्रावो रक्तजेऽथागन्तुजं तच्च षड्विधम् ।
छिन्नं भिन्नं क्षतं विद्धं पिच्चितं घृष्टमित्यपि ॥ १७७ ॥
पातान्त्रभेदस्वल्पारुर्वेधचूर्णेन घर्षणात् ।
सशल्यं यन्त्रणात्सास्त्रं बुद्बुदं चटूचटध्वनिः ॥ १७८ ॥
तृड्ज्वरोन्मादरुङ्मोहरेकहिक्कापतानिकाः ।
कम्पच्छर्दिश्वासकासपक्षाघातहनुग्रहाः ॥ १७९ ॥
शिरास्तम्भो विसर्पश्चोपद्रवाः षोडशारुषः ।
सर्वैरेतैर्व्रणोऽसाध्यो याप्योऽर्धैश्च सुखस्तथा ॥ १८०॥
भग्नं द्विधा सन्धिकाण्डभेदात्षोढात्र सन्धिजम् ।
विवर्तितं च उत्क्षिप्तं तिर्यक् क्षिप्तमधोपि च ॥ १८१ ॥
विश्लिष्टमुत्पिष्टमिति काण्डे द्वादशधा तु तत् ।
अस्थिझल्लीकर्कटाश्वकर्णचूर्णितपिच्चितम् ॥ १८२ ॥
काण्डभग्नं द्विधा छिन्नवक्रं चाप्यतिपातितम् ।
मज्जागतं च स्फुटितं यथास्वं लक्षयेदिदम् ॥ १८३ ॥
उपेक्षणाद्दूरयाति गतिर्नाडी च यो व्रणः ।
नाडीव्रणः स विज्ञेयः सपूयक्लेददाहरुक् ॥ १८४ ॥
गुदस्य द्व्यङ्गुले क्षेत्रे पार्श्वतः पिडिकार्तिकृत् ।
भिन्नो भगंदरो ज्ञेयः स च पञ्चविधो मतः ॥ १८५ ॥
सरुक्क्लेदोऽनेकमुखो वातात्स्याच्छतपोनकः ।
उष्ट्रग्रीवस्तु पित्तेन परिस्रावी कफेन च ॥ १८६ ॥
शम्बूकावर्तकोन्मार्गगौ तु स्यातां त्रिदोषजौ ।
शुक्रमूत्रवहौ दुःखौ न साध्यौ दूरगौ भृशम् ॥ १८७ ॥
गलैकदेशे श्वयथुरपाको गलगण्डकः ।
मेदोवातकफैस्त्रेधा कण्डूरुग्गौरवं क्रमात् ॥ १८८ ॥
ग्रन्थिः कुत्राप्यपाकोऽङ्गे दोषास्त्रागन्तुमेदसः ।
स एव पाक्यर्बुदः स्यात्तद्वत्षोढा मुहुःस्त्रवत् ॥ १८९ ॥
गण्डमाला गलेऽनैकैर्गण्डैर्मेदकफोस्थितैः ।
चिरपाकिभिरेषैव चिरस्थापचिका भवेत् ॥ १९० ॥
श्वयथुर्मुष्टिवद्दाहरुगाढ्यो विद्रधिर्द्विधा ।
बहिरन्तश्च षोढा तैः पृथक्सर्वैरसृक्क्षतात् ॥ १९१ ॥
बाह्यः सपक्वोरुर्वत्स्यादान्तरस्तु करोत्यसौ ।
बस्तौ कृच्छ्रंक्लोम्न्युदन्यां पार्श्वबन्धं तु वृक्कयोः ॥ १९२ ॥
पायावपानविड्रोधं कुक्षावनिलजा रुजः ।
नाभ्यां हिक्कां हृदि श्वासं प्लीह्निश्वासाप्रवर्तनम् ॥ १९३ ॥
प्रकृत्यजस्रं कसनं वङ्क्षणे तु कटिग्रहम् ।
स पक्वोवामयेदूर्ध्वंनाभेः संचारयेदधः ॥ १९४ ॥
नाद्यः साध्यश्च मर्मोत्थो विद्रधिर्भूर्युपद्रवः ।
विद्रधिः स्त्रीस्तने रक्तः शोथरुग्दाहपाककृत् ॥ १९५ ॥
विरुद्धाहारदुष्कर्मपञ्चकर्मापचारतः ।
दुष्टस्त्रीमद्यमांसाम्बुसेवाद्यैः कुष्ठसंभवः ॥ १९६ ॥
कपालाद्युद्भवो रक्तदुष्टिरिन्द्रियवैकृतम् ।
पाङ्गुल्याबल्यकौण्यं च महाकुष्ठाकृतिश्चिरात् ॥ १९७ ॥
कपालं वातवद्रूक्षं पित्तादौदुम्बरं च तत् ।
कफात्सितं मण्डलं तैर्गुञ्जावत्काकणं सरुक् ॥ १९८ ॥
वातपित्तादृक्षजिह्वंसकम्पमरुणासितम् ।
कफपित्तात्पुण्डरीकं पुण्डरीकदलोपमम् ॥ १९९ ॥
दद्रूःकण्डूत्थपिडिकायुक् सरन् मण्डलात्ततः ।
सप्तैतानि महाकुष्ठानीभचर्मेभचर्मवत् ॥ २०० ॥
किणवत्किटिभं चर्मदलं तु दरणात्त्वचः ।
पामा पाण्योः कड्वरुची विचर्चिः सर्वजस्तु तैः ॥२०१॥
तैर्मेण्ढ्रपार्श्वजैः कच्छूः पाददारैर्विपादिका ।
सिध्मोर्ध्वदेहे कषणाद्दाल्यलाबूप्रसूनवत् ॥ २०२॥
शतारुरल्पारुर्भिः स्यादलसं शोणमण्डलम् ।
एककुष्ठं मत्स्यखण्डोपमं श्वित्रं ततः सितम् ॥ २०३ ॥
हस्तदन्तनखाघातयोनिदोषादिभिर्मलाः ।
पृथक् सर्वैर्व्रणाः कुर्युर्लिङ्गे वर्तिंच पञ्चमीम् ॥ २०४ ॥
अस्थिशोथरुजो दाहसन्धिग्रहमरुंषि च ।
केशलोमप्रपातश्च वैवर्ण्यंचोपदंशतः ॥ २०५ ॥
वरटीदुष्टवच्छोथाः कण्डूछर्दिज्वरप्रदाः ।
शीतपित्तनिमित्ताः स्युरुदर्दा वपुषो बहिः ॥ २०६ ॥
अविपाकक्लमोत्क्लेदतिक्ताम्लोद्गारगौरवैः ।
हृत्कण्ठदाहारुचिभिरम्लपित्तं वदेद्भिषक् ॥ २०७ ॥
अतिदाहरुजारागस्रावारुच्यरतिप्रदाः ।
क्षुद्रव्रणविसर्पाः स्युः सर्वतः परिसर्पणात् ॥ २०८ ॥
ज्वरछर्दिभ्रमाद्याः स्युर्बालानां तु मसूरिकाः ।
पद्धस्ततलदृश्यास्ता न सिध्यन्त्यनलक्षयात् ॥ २०९ ॥
अग्निदाहादिव स्फोटा विस्फोटाः स्युर्महारुजः ।
पृथग्द्वन्द्वसमस्तैस्तैरस्राच्चैते विषोपमाः ॥ २१० ॥
ये गदा महतामुक्ताः स्युस्त एवार्भकेष्वपि ।
किंतु देहाग्निदोषादेर्लाघवाल्लघवः परम् ॥ २११ ॥
क्षीरालसा पृथग्दोषैर्लास्रावोऽतिरोदनम् ।
गुदपाकास्यपाकौ च दन्तोद्भेदादयः परे ॥ २१२ ॥
ऊर्ध्वं पश्येद्दतः खादेत्क्षिपेद्गात्रंवमेत्पयः ।
जागर्ति रोदति श्यावो ग्रहग्रस्तोऽर्भकः कृशः ॥ २१३ ॥
स्रावो गर्भस्याचतुर्थान्मासात्पातस्ततः परम् ।
स मूढगर्भो यः स्थानाच्च्युतो न बहिरापतेत् ॥ २१४ ॥
गर्भास्पन्दो धीविनाशो मृते गर्भेऽपचारतः ।
विरेकशैत्यतृट्कम्पज्वराद्यैः सा न सिध्यति ॥ २१५ ॥
अङ्गमर्दो ज्वरः कम्पः पिपासा गुरुगात्रता ।
दाहः शोथातिसारौ च सूतिकारोगलक्षणम् ॥ २१६ ॥
अस्रस्नुतिः स्यात्प्रदरं योनिः स्त्रीणामनार्तवा ।
रुगङ्गमर्ददौर्बल्याक्षुत्तृपाण्डुत्वदाहकृत् ॥ २१७ ॥
तच्चतुर्धा पृथक्सर्वैर्दोषैः स्यादार्तवं पुनः ।
शशास्रतुल्यं यच्चोक्तं धौतं वासो न रञ्जयेत् ॥ २१८ ॥
अतिव्यवायशीलो यो न च वाजीक्रियारतः ।
ध्वजभङ्गमवाप्नोति स शुक्रक्षयहेतुकम् ॥ २१९ ॥
अल्पशीतोष्णतेजःक्षुत्पिपासाश्रमरुट्सहः ।
पिण्डिकासंधिशिथिलो हीनबुद्धिबलेन्द्रियः ॥ २२० ॥
पाण्डुरोऽल्परतिस्तोयतुल्यरेता श्लथध्वजः ।
मन्दवह्निश्च दीनश्च क्षीणशुक्रो नरो मतः ॥ २२१ ॥
असाध्यं सहजं क्लैब्यं मर्मच्छेदात्तु यद्भवेत् ।
साध्यानामितरेषां च कार्योवाजिक्रियाक्रमः ॥ २२२ ॥
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