[[नाडीपरीक्षा Source: EB]]
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[TABLE]
श्रीः
नाड़ीपरीक्षा
हिंदीटीकासहिता
नत्वा धन्वन्तरिं नाडीपरीक्षा प्रोच्यतेऽधुना।
नानातन्त्रानुसारेण भिषगानन्ददायिनी॥१॥
धन्वन्तरिजीको नमस्कार करके अब हम अनेक ग्रंथके अनुसार तथा वैद्यको आनंददायिनी नाड़ीपरीक्षा कहते हैं॥१॥
दोषकोपे घनेऽल्पे च पूर्व नाडीं परीक्षयेत्।
अंते चादौ स्थितिस्तस्या निःशेषा भिषजा स्फुटम्॥२॥
दोषोंके ज्यादे तथा अल्प कोषमें वैद्य पहले नाड़ी की परीक्षा करे। वैद्योंको आदि और अंतमें नाड़ी की स्पष्ट स्थिति जाननी चाहिये॥२॥
यथा वीणागता तंत्री सर्वान् रागान् प्रभाषते।
तथा हस्तगता नाड़ी सर्वान् रोगान्प्रकाशते॥३॥
वीणामेंप्राप्त हुआ तार जैसे सब रागोंको बोलता है तैसेही हस्तमें प्राप्त हुई नाड़ी सब रोगोंको प्रकाश करती है॥३॥
सर्वासां चैव नाड़ीनां लक्षणं यो न विन्दति।
मारयत्याशु वै जन्तून्स वैद्यो न यशो लभेत्॥४॥
जो मूढ़ वैद्य सब प्रकारकी नाड़ियोंके लक्षणको नहीं जानता है वह शीघ्र मनुष्योंको मारता है और ऐसा वैद्य यशको प्राप्त नहीं होता॥४॥
नाडीमंगुष्ठमूलाधःस्पृशेद्दक्षिणगे करे।
ज्ञानार्थं रोगिणो वैद्यो निजदक्षिण पाणिना॥५॥
रोगीके दाहिने हाथ के अंगूठे के मूल के नीचे वैद्य अपने दाहिने हाथसे रोगको जाननेके लिये नाड़ीको छुवे॥५॥
स्थिरचित्तः प्रशांतात्मा मनसा च विशारदः।
स्पृशेवंगुलिभिर्नाडींजानीयाद्दक्षिणे करे॥६॥
स्थिर चित्तवाला प्रसन्न आत्मा और मनसे अच्छा विचार करनेवाला बुद्धिमान् वैद्य तीन अंगुलियों से रोगीके दाहिने हाथ में नाड़ीको जाने॥६॥
प्रायः स्फुटा भवति वाककरे वधूनां
पुंसां च दक्षिणकरे तदियं परीक्षा।
ईषद्विना मितकरं विततांगुलीयं
बाहुं प्रसार्य रहितं परिपीडनेन॥७॥
प्रायः करके स्त्रियोंके बायें हाथमें और पुरुषोंके दाहिने हाथ में नाड़ी स्फुट होती है यह परीक्षा है कछुक नवे (झुके) हुए हाथसे संयुक्त और फैली हुई अंगुलियोंवाला परिपीडनसे रहित बाहुको प्रसारित करके॥७॥
ईषद्विनम्रकृतकूर्परवामभागहस्ते प्रसारितसदंगुलिसंधिकेच।
अङ्गुष्ठमूलपरिपश्चिमभागमध्ये नाडीं प्रभातसमये प्रथमं परीक्षेत्॥८॥
कछुक नई कुहनीके वाम भागवाले और फैली हुई अंगुलियोंकी सधियोंवाले और अंगूठेके मूलसे पश्चिम भागवाले हाथमें प्रभात समय नाड़ीकी प्रथम परीक्षा करे॥८॥
वारत्रयं परीक्षेत धृत्वा धृत्वा विमुञ्चयेत्।
विमृश्य बहुधा बुद्ध्या रोगव्यक्तिं विनिर्दिशेत॥९॥
तीन तीन बार परीक्षा करे और पकड़ पकड़कर नाड़ीको छोड़ता जाय और बुद्धिसे बहुत प्रकारसे विचारकर रोगकी प्रगटताको कहे॥९॥
अंगुलीभिस्त्रिभिः स्पृष्ट्वा क्रमाद्दोषत्रयोद्भवाम्।
मंदांमध्यगतांतीक्ष्णां
त्रिभिर्दोषैस्तु लक्षयेत्॥१०॥
तीन अंगुलियोंसे नाड़ीको स्पर्श कर पीछे क्रमसे वात, पित्त, कफ इन्होंके योग से मंद, मध्य, तीक्ष्ण नाड़ीको तीन दोषोंसे लक्षित करे॥१०॥
वातं पित्तं कफं द्वन्द्वं त्रितयं सान्निपातिकम्।
साध्यासाध्यविवेकं च सर्वं नाडी प्रकाशते॥११॥
वात, पित्त, कफ, वातपित्त, वातकफ, पित्तकफ, सन्निणत और साध्य असाध्यकी विवेचना इन सबोंको नाड़ी प्रकाश करती है॥११॥
स्नायुर्नाडी तथा हिंस्रा धमनी धारिणीधरा।
तंतुकीजीवनज्ञाना शब्दाःपर्यायवाचकाः॥१२॥
स्नायु, हिंस्रा, धमनी, धारिणी, धरा, तंतुकी, जीवनज्ञाना ये सब नाड़ीके नाम हैं॥१२॥
सद्यः स्नातस्य मुक्तस्य तथा स्नेहावगाहिनः।
क्षुत्तृषार्तस्य सुप्तस्यनाडीसम्यक् न बुध्यते॥१३॥
तत्काल न्हाये हुए की और भोजन किये हुए की और तेल घृत आदि स्नेह लगाकर स्राव करनेवाली की भूख और तृषासे पीडित हुएकी और निद्रामें सोते हुएकी नाड़ी अच्छी तरह नहीं जानी जाती है॥१३॥
अङ्गुष्ठमूलभागे या धमनी जीवसाक्षिणी।
तच्चेष्टया सुखं दुःख ज्ञेयं कायस्य पंडितैः॥१४॥
अंगूठेके मूल भागमें जो जीवसाक्षिणी धमनी है, तिसकी गतिसे पंडितोंको शरीरका सुख दुःख जानना चाहिये॥१४॥
स्त्रीणां भिषग्वामहस्ते वामे पादे च यत्नतः।
शास्त्रेण संप्रदायेन तथा स्वानुभवेन वै॥१५॥
परीक्षेद्रत्नवच्चा सावभ्यासादेव ज्ञायते॥१६॥
शास्त्रकी संप्रदायकरके तथा अपने अनुभवसे वैद्य स्त्रियोंके बायें हाथमें और बायें पैरमें रत्नकी समान नाड़ीकी परीक्षा करे, यह नाड़ी अभ्याससे जानी जाती है॥१५॥१६॥
वातनाडी भवेद् ब्रह्मा पित्तनाडी च शंकरः।
श्लेष्मनाडी भवेद्विष्णुस्त्रिदेवानाडिदेवताः॥१७॥
वायुकीनाड़ी के ब्रह्मा देवता है, पित्त की नाड़ी के महादेव, कफकी नाड़ी के विष्णु देवता हैं, ऐसे ये तीनों देवता नाड़ी के हैं॥१७॥
अग्रे वातवहा नाडी मध्ये भवति पित्तला।
अंतेश्लेष्मविकारेण नाडी ज्ञेया बुधैः सदा॥१८॥
वायुको बहनेवाली नाड़ी अग्र भाग में होती है, पित्त को बहने वाली नाड़ी मध्य भागमें होती है और कफको बहनेवाली नाड़ी अंतमें होती है, ऐसे वैद्यको सब कालमें नाड़ी जाननी चाहिये॥१८॥
वाताद्वक्रगतिर्नाडी पित्तादुत्प्लुत्य गामिनी।
कफान्मंदगतिर्ज्ञेया संनिपातादतिद्रुतम्॥१९॥
वायुके कोपसे नाड़ी टेढ़ी गतिवाली होती है, पित्तके कोपसे नाड़ी कूद कूदकर चलती है, कफके कोपसे नाड़ी मंद गतिवाली जाननी, सन्निपातके कोपसे नाड़ी अति शीघ्र चलती है॥१९॥
सर्पजलौकादिगतिंवदंति विबुधाः प्रभंजननाडीम्।
पित्तेन काकलावकमंडूकादेस्तथा चपलाम्॥२०॥
वैद्यजन वायुके कोषमें सर्प जलौका आदिके समान चलनेवाली नाड़ी होती है ऐसा कहते हैं और पित्तके कोपमें काक, लावा, मेंडक आदिके समान चलनेवाली और चपल नाड़ी होती है ऐसा कहते हैं॥२०॥
राजहंसमयूराणां पारावतकपोतयोः।
कुक्कुटस्य गतिं धत्ते धमनी कफसंगिनी॥२१॥
कफके कोपमें राजहंस, मोर, परेवा, कपोत, मुरगा इन्होंके समान चलनेवाली नाड़ी होती है॥२१॥
पित्ते व्यक्ता मध्यमायां तृतीयांगुलिगा कफे।
वातेऽधिके भवेन्नाडी प्रव्यक्तातर्ज्जनीतले॥२२॥
पित्तके कोपमें मध्यमा अंगुलीमें नाड़ी प्रकट होती है, कफके कोपमें अनामिका अंगुलीमें नाड़ी प्रकट होती है और वायुके कोपमें तर्ज्जनी अंगुलीमें नाड़ी प्रकट होती है॥२२॥
मुहूः सर्पगतिर्नाडी मुहुर्भेकगतिस्तथा।
तर्जनीमध्यमामध्ये वातपित्तेऽधिकेस्फुटा॥२३॥
बातपित्तकी अधिकतामें वारंवार सर्पकी तरह चलनेवाली और वारंवार मेंडकके समान चलनेवाली नाड़ी तर्ज्जनी और मध्यमा अंगुलीके मध्यमें प्रकट होती है॥२३॥
वक्रमुत्प्लुत्य चलति धमनी वातपित्ततः।
सर्पहंसगतिं तद्वद्वातश्लेष्मवतीं वदेत्॥२४॥
वातपित्तके कोपसे टेढी होती हुई और कूदती हुई नाड़ी चलती है सर्प और हंसके समान चलनेवाली नाड़ी वातकफकी अधिकतासे होती है॥२४॥
अनामिकायां तर्जन्यां व्यक्ता वातकफे भवेत्।
वहेद्वक्रं च मन्दं च वातश्लेष्माधिके त्वतः॥२५॥
वातकफकी अधिकतामें अनामिका और तर्ज्जनी अंगुलीमें नाड़ी प्रकट होती है, वातकफकी अधिकतासे टेढ़ेपने और मंदपनेकीनाड़ी बहती है॥२५॥
हरिहंसगतिं धत्ते पित्ते श्लेष्मान्विता धरा।
मध्यमानामिकामध्ये स्फुटा पित्तकफेऽधिकं॥२६॥
कफपित्तसे युक्त हुई नाड़ी मेंडक और हंसके समान चलती है, पित्तकफकी अधिकतामें मध्यमा और अनामिकाके मध्यमें नाड़ी प्रकट होती है॥२६॥
उत्प्लुत्य मन्दं चलति नाडी पित्ते कफेऽधिके।
काष्ठकुट्टो यथा काष्ठं कुट्टते चातिवेगतः॥२७॥
पित्तकफकी अधिकतामें कूदकुदके मंद होती हुई नाड़ी चलती है और जैसे खातीचिड़ा (कठफोरा) काष्ठको अतिवेगसे कूटता है तैसे चलती है॥२७॥
स्थित्वा स्थित्वा तथा नाडीसन्निपाते भवेद् ध्रुवम्।
अंगुली त्रितयेऽपि स्यात्प्रव्यक्तासन्निपाततः॥२८॥
सन्निपातमें निश्चय ठहरके ठहरके नाड़ी चलती है और सन्निपातसे तीनों अंगुलियोंमें नाड़ी प्रगट होती है॥२८॥
स्पन्दते चैकमानेन त्रिंशद्वारं यदा धरा।
स्वस्थाने न तदा नूनं रोगीजीवति नान्यथा॥२९॥
जो एक स्थानमें नाड़ी तीस(३०) बार फरके तब निश्चय रोगी न जीवता है यह निश्चय जानना॥२९॥
स्थित्वास्थित्वावहति या सा ज्ञेया प्राणघातिनी।
तस्यमृत्युं विजानीयाद्यस्येदं नाडिलक्षणम्॥३०॥
जो नाड़ी ठहर ठहरके चलती है वह प्राणोंको नाशनेवाली जान लेना चाहिये जिसकी नाड़ीके ये लक्षण होवें तिसकी मृत्यु जान लेना चाहिये॥३०॥
मन्दं मन्दं शिथिलशिथिलं व्याकुलं व्याकुलं वा
स्थित्वा स्थित्वा वहति धमनी याति सूक्ष्माच सूक्ष्मा।
नित्यं स्कन्धे स्फुरतिपुनरप्यंगुलीः संस्पृशेद्वा
भावैरेवंबहुविधतस्सन्निपातादसाध्या॥३१॥
हौले हौले(धीरे २) और शिथिल शिथिल और व्याकुल व्याकुल होती हुई नाड़ी ठहर ठहरके चले अथवा मिहीन मिहीन हुई नाड़ी कंधेमें फुरे, फिर अंगुलियोंको स्पर्श करे, इन भावोंसे सन्निपातकी नाड़ी असाध्य होती है॥३१॥
पूर्वं पित्तगतिं प्रभञ्जनगतिं श्लेष्माणमाबिभ्रती
स्वस्थानाद्भ्रमणं मुहुर्विदधतीचक्राधिरूढेव या।
भीमत्वं दधती कदाचिदपि वा सूक्ष्मत्वमातन्वती
नोसाध्यांधमनींवदंतिमुनयोनाडीगतिज्ञानिनः॥३२॥
पहले पित्तकी गतिको धारनेवाली, पीछे वायुकी गतिको धारने वाली, पीछे कफकी गति को धारनेवाली, अपने स्थानसे वारंवार भ्रमती हुई और चक्रपै चढ़ी हुई की भांति फिरती हुई और भयानकपनेको धारण करती हुई और कदाचित् सूक्ष्म अपनेको प्राप्त होती हुई नाड़ीको नाड़ीकी गतिको जाननेवाले मुनिजन असाध्य कहते हैं॥३२॥
गंभीरा या भवेन्नाडी सा भवेन्मांसवाहिनी।
ज्वरबेगेन धमनी सोष्णा वेगवती भवेत्॥३३॥
जो नाड़ी गंभीर होवे वह मांस में बहनेवाली होती है और ज्वरके वेगसे नाड़ी गर्मी के सहित और वेगवाली होती है॥३३॥
कामक्रोधाद्वेगवहा क्षीणा चिन्ताभयान्विता।
मंदाग्नेःक्षीणधातोश्च नाडी मंदतरा भवेत्॥३४॥
काम और क्रोधसे नाड़ी शीघ्र बहनेवाली होती है चिंता और भयसे नाड़ी क्षीण होती है, मंदाग्नि और क्षीण धातुवालेकी नाड़ी अति मंद होती है॥३४॥
असृवपूर्णा भवेत् सोष्णा गुर्वोसामां गरीयसी।
लघ्वी भवति दीप्ताग्नेस्तथा वेगवती मता॥३५॥
रक्तसे पूरित हुई नाड़ी गरम और भारी होती है और आमसे पूरित हुई नाड़ी अति भारी होती है, दीप्त अग्निवाले की नाड़ी हलकी और वेगवाली कही है॥३५॥
चपला क्षुधितस्यापि तृप्तस्य वहति स्थिरा।
मरणे डमर्वाकारा भवेदेकदिनेन च॥३६॥
भूखवालेकी नाड़ी चपल होती है, तृप्त हुएकी नाड़ी स्थिर होती है, मरनेके समय नाड़ी एक दिन करके डमरूके आकारवाली हो जाती है॥३६॥
कंपतेस्पन्दतेऽत्यन्तं पुनः स्पृशति चांगुलीः।
तामसाध्यां विजानीयान्नाडीं दूरेण वर्जयेत्॥३७॥
जो नाड़ी कम्पे और फुरे और वारंवार अंगुलियोंको छुवे तिस नाड़ी को असाध्य जानना ऐसी नाड़ी को वैद्य दूरसे वर्जित करे॥३७॥
स्थिरा नाडी भवेद्यस्य विद्युद्द्युतिरिवेक्षते।
दिनैकं जीवितं तस्य द्वितीय मृत्युरेव च॥३८॥
जिसकी नाड़ी स्थिर रहके बिजलीकी भांति गति दर्शावे वह एक दिन जीवे, दूसरे दिनमें मृत्यु होती है ऐसे नाडीको जाननेवालोंने कहा है॥३८॥
शीघ्रा नाडी मलोपेता शीतला वाऽथ दृश्यते।
द्वितीयेदिवसे मृत्युर्नाडी विज्ञातृभाषितम्॥३९॥
मलसे युक्त हुई नाड़ी शीघ्र चले वा शीतल दीखे वह एक दिन जीवता है पीछे दूसरे दिन मृत्युको प्राप्त होता है॥३९॥
मुखे नाडी भवेत्तीव्रा कदाचिच्छीतला वहेत्।
आयाति पिच्छिलस्वेदःसप्तरात्रं न जीवति॥४०॥
मुखमें शीघ्र चलती हुई नाड़ी कदाचित् शीतल हुई बहे और जिस रोगी को सचिक्कन पसीना आवे वह रोगी सात रात्रि नहीं जीवता॥४०॥
देहे शैत्यं मुखे श्वासो नाडी तीव्रा विदाहिनी।
मासार्द्धजीवितं तस्यनाडी विज्ञातृभाषितम्॥४१॥
जिसके देहमें शीतलपना हो, मुखमें श्वास चले, दाडवाली हुई नाड़ी शीघ्र चले वह रोगी १५ दिन जीवता है ऐसे नाडियोंके जाननेवालोंने कहा है॥४१॥
मुखे नाडी यदा नास्ति मध्ये शैत्यं बहिःक्लमः।
यदा मंदा वहेन्नाडी त्रिरात्रं नैव जीवति॥४२॥
जब अग्र भागमें नाड़ी न हो तो और मध्यभागमें शीतल बहे और शरीरमें ग्लानि हो तो इस अवस्थामें नाड़ी मंद होनेसे ऐसा रोगी तीन रात्रि नहीं जीवता॥४२॥
अतिसूक्ष्मातिवेगा च शीतला च भवेद्यदि।
तदावैद्योविजानीयात् स रोगीत्वायुषःक्षयी॥४३॥
जोकदाचित अति सूक्ष्म अतिवेगवाली और शीतल नाडी होवे तो वैद्यको जानना चाहिये कि इस रोगीकी आयुका क्षय हो चुका॥४३॥
विद्युद्वद्रोगिणो नाड़ी दृश्यते न च दृश्यते।
अकालविद्युत्पातेव स गच्छेद्यमसादनम्॥४४॥
जिस रोगीकी नाडी बिजलीकी तरह दीखे तथा अकालमें बिजली के पड़नेकी तरह नहीं दीखे, वह रोगी यमपुरको जाता है ॥४४॥
तिर्यगुष्णा च या नाडी सर्पगा वेगवत्तरा।
कफपूरितकंठस्य जीवितं तस्य दुर्लभम्॥४५॥
कफसे पूरित हुए कंठवाले मनुष्यकीनाड़ी तिरछी और गरम सर्पके समान चलनेवाली और अति वेगसे चलनेवाली होवे तिसका जीना दुर्लभ है॥४५॥
चला चलितवेगा च नासिकाधारसंयुता।
शीतला दृश्यते या च याममध्ये च मृत्युदा॥४६॥
चलती हुई, चलित वेगवाली और नासिकाके आधारसे संयुत हुई शीतल नाड़ी दीखे तब एक प्रहरमें मृत्यु जानना॥४६॥
शीघ्रा नाड़ी मलोपेता मध्याह्नेऽग्निसमोज्वरः।
दिनैकंजीवितंतस्य द्वितीयेऽह्निम्रियेति सः॥४७॥
जिसकीनाड़ी मलसे युक्त होके शीघ्र चले और मध्याह्नमें अग्निके समान ज्वर उपजे तिसका जीवना एक दिन है वह दूसरे दिन मर जाता है॥४७॥
दृश्यते चरणे नाड़ी करे नैवाधिदृश्यते।
मुखं विकासितं यस्य तं दूरं परिवर्जयेत्॥४८॥
जिसके चरण में नाड़ी दीखे और हाथमें नहीं दीखे और खिला हुआ मुख होवे तिस रोगीको दूरसे वजें॥४८॥
वातपित्तकफाश्चापि त्रयो यस्यां समाश्रिताः।
कृच्छ्रसाध्यामसाध्यांवाप्राहुर्वैद्यविशारदाः॥४९॥
जिसमें बात, पित्त, कफ ये तीनो पूर्ण वृद्धि होते हैं तिस नाड़ीको आयुर्वेदके जाननेवाले कष्टसाध्य अथवा असाध्य कहते हैं॥४९॥
कंदमध्ये स्थिता नाड़ी सुषुम्नेति प्रकीर्तिता।
तिष्ठन्ते परितः सर्वाश्चक्रेऽस्मिन्नाडिकास्ततः॥५०॥
सूंडी(नाभि) के बीचमें सुषुम्नानाड़ी स्थित कही है और एक नाड़ीके सब भागों विषे सूंडी अर्थात नाभीचक्रमें सब नाड़ी स्थित हैं॥५०॥
सार्द्धत्रिकोट्योनाड्योहिस्थूलाः सूक्ष्माश्चदेहिनाम्।
नाभिकन्दनिबद्धास्तास्तिर्यगूर्ध्वमधः स्थिताः॥५१॥
देहधारियोंके शरीरमें साढ़े तीन करोड़ स्थूल और सूक्ष्म नाड़ी हैं और सब नाड़ी नाभीके मूलमें बंधी हुई और टेढ़ी, ऊपरको नीचे को ऐसे स्थित हैं॥५१॥
तिस्रः कोट्यर्द्धकोटी च यानि लोमानि मानुषे।
नाडीमुखानि सर्वाणि धर्मबिदुं क्षरंति च॥५२॥
मनुष्योंके शरीरमें साढे तीन करोड़ रोम हैं वे सब नाड़ियोंके मुख हैं तिन्होंके द्वारा पसीना निकलता है।॥५२॥
नानानाडीप्रसवजं सर्वभूतान्तरात्मनि।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखं वायुमार्गेण सर्वगम्॥५३॥
सब मनुष्योंके अंतरात्मामें ऊपरको मूलवाला ब्रह्म है, नीचेका शाखावाला हिरण्यगर्भादि हैं, सो प्राण आदि वायुके मार्गके द्वारा सर्वव्यापी हैं॥५३॥
द्विसप्ततिसहस्राणि नाड्यः स्युर्वायुगोचराः।
तर्पयन्ति रसैर्देहं नद्यस्तोयैरिवार्णवम्॥
द्विसप्ततिसहस्रन्तुतासांस्थूलाः प्रकीर्तिताः॥५४॥
१००२ नाडी वायुके अनुकूल हैं सब नाड़ीरसोंकरके देहको तृप्त करती है, जैसे नदी जलसे समुद्रको। तिन्हें में १०७२ स्थूल नाड़ी कही हैं॥५४॥
देहे धमन्यो धन्यास्ताः पंचेन्द्रियगुणावहाः।
नाभिकंदस्थितास्तास्तुनाभौचक्रेप्रवेष्टिताः॥५५॥
शरीरमें सब धमनी नाड़ी धन्य हैं, पांचों इन्द्रियोंके गुणको वहती हैं, नाभिमूलमें स्थित हैं और नाभिचक्र में प्रवेष्टित हो रही हैं॥५५॥
इडा च पिङ्गला चैव सुषम्ना च सरस्वती।
वारुणी चैवपूषा च हस्तिजिह्वा यशस्विनी॥५६॥
इडा, पिंगला, सुषुम्ना, सरस्वती, वारुणी, पूषा, हस्तिजिह्वा यशस्विनी॥५६॥
विश्वोदरी कुहुश्चैव शंखिनी च पयस्विनी।
अलंबुषा च गांधारी मुख्याश्चैताश्चतुर्दश॥५७॥
विश्वोदरी, कुहु, शखिनी, पयस्विनी, अलंबुषा, गांधारी ये चौदह नाड़ी प्रधान हैं॥५७॥
इडा च पिंगला चैव सुषम्ना च सरस्वती।
गांधारी हस्तिजिह्वा च कुहुःपूषायशस्विनी॥५८॥
इडा, पिंगला, सुषुम्ना, सरस्वती, गांधारी, हस्तिजिह्वा, कुहु, पूषा, यशस्विनी॥५८॥
चारनालम्बुषा विश्वा शंखिनी च पयस्विनी।
एताः प्राणवहानाड्योजीवकोशे प्रतिष्ठिताः॥५९॥
चारना, अलंबुषा, विश्वा, शंखिनी, पयस्विनी ये नाड़ी प्राणोंको वहनेवाली जीवकोश में स्थित हैं॥५९॥
तत्र प्रधाना नाड्यस्तु दश वायुप्रवाहिकाः।
इडा च पिंगला चैव सुषम्ना चोर्ध्वगामिनी॥६०॥
उनमें प्रधान दश नाड़ी वायुको वहती हैं, इडा पिंगला सुषुम्ना ये नाड़ी ऊपरको गमन करती हैं॥ ६०॥
गांधारी हस्तिजिह्वा च प्रसारगमना स्थिता।
अलम्बुषा यशा चैव दक्षिणाङ्गे समन्विता॥६१॥
गांधारी और हस्तिजिह्वा ये नाड़ी फैलकर गमन करती हैं, अलंबुधा और यशस्विनी नाड़ी दाहिने अंगमें लगी हुई हैं॥६१॥
कुहुश्च शंखिनी चैव वामाङ्गे चावलम्बिता।
एतासु दशनाडीषु नानाकार्ये प्रसूतिका॥६२॥
कुहु और शंखिनी नाड़ी वाम अंगमें लगी हुई हैं, इन दश नाड़ियोंमें प्रसूतिका नाड़ि अनेक कार्यमें कुशल है॥६२॥
इडा च वामनासायां दक्षिणे पिंगला मता।
सुषुम्ना ब्रह्मरन्ध्रेचं गान्धारी वामचक्षुषि॥६३॥
नासिकाके वाम भागमें नाड़ी इडा स्थित है, और दक्षिण भागमें पिंगला नाडी स्थित हैशिरविषे सुषुम्ना नाडी स्थित है, बामनेत्रमें गांधारी नाड़ी स्थित है॥६३॥
दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णेऽथ दक्षिणे।
वामे यशस्विनी ज्ञेया मुखे चालंबुषा मता॥६४॥
दाहिने नेत्रमें हस्तिजिह्वा नाड़ी स्थित है. दाहिने कानमें पूषा नाड़ी स्थित है. वाम कानमें यशस्विनी नाड़ी स्थित है. मुखमें अलंबुषा नाड़ी स्थित है॥६४॥
कुहुश्च लिङ्गमूले स्याच्छङ्खिनीशिरसोपरि।
एवं द्वारं समाश्रित्य तिष्ठंति दशनाडिकाः॥६५॥
लिंगकी जड़में कुहु नाड़ी स्थित है, शिरके ऊपर शंखिनी नाड़ी स्थित है, इस प्रकार द्वारोंके आश्रित होके दश नाड़ी स्थित हो रही हैं॥६५॥
प्राणोऽपानःसमानश्च उदानो व्यान एव च।
नागः कूर्मोऽथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः॥६६॥
प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त, धनंजय ॥६६॥
एते नाडीषु सर्वासु चरन्ति दश वायवः।
तेषु वायवः पंचमुख्याः प्राणादयः स्मृताः॥६७॥
ये दश वायु सब नाड़ियोंमें विचरते हैं इन्होंमें प्राण आदि पांच वायु प्रधान कहे हैं॥६७॥
तेषु मुख्यतमावेतौप्राणापानौ नरोत्तमे।
प्राण एवैतयोर्मुख्यः सर्व प्राणभृतां सदा॥६८॥
और उन पांच वायुओं में भी प्राण और अपान ये दोनों प्रधान और इन दोनों में भी सब प्राणियोंके सब कालविषे प्राणवायु प्रधान है॥६८॥
शब्दग्रहाश्रुतौ नाडी रूपग्रहा च लोचने।
गंधग्रहा नासिकायां रसनायां रसावहा॥६९॥
कानमें नाड़ी शब्दको ग्रहण करती है, नेत्रमें नाड़ी रूपको ग्रहण करती है, नासिकामें नाड़ी गंधको ग्रहण करती है, जीभमें नाडी रसको ग्रहण करती है॥६९॥
एवं त्वक्षु स्पर्शवहा शब्दकृद्धदयान्मुखे।
मनो बुद्ध्यादिकं सर्वं हृदयेषु प्रतिष्ठितम्॥७०॥
इस प्रकार स्वचामें नाड़ी स्पर्शका ग्रहण करती है, हृदयसे मुखके द्वारा नाड़ी शब्दों को उच्चारण करती है, मन और बुद्धि आदि सब हृदय में प्रतिष्ठित है॥७०॥
गान्धारी हस्तिजिह्वाख्या सपूषालंबुषा मता।
यशस्विनी शंखिनी च कुहुःस्युःसप्तनाडयः॥७१॥
गांधारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, अलंबुषा, यशस्विनी, शंखिनी ये सात नाड़ी हैं॥७९॥
इडापृष्ठे तु गान्धारी मयूरगलसन्निभा।
सव्यपादादिनैत्रांता गांधारी परिकीर्तिता॥७२॥
इडा नाड़ीके पृष्ठ भागमें गांधारी नाडी मोरके गलेके समान कांतिवाली है और (बायें) पैरसे लेके नेत्रपर्यन्त स्थित है॥७२॥
हस्तिजिह्वोत्पलप्रेक्षा नाड़ी तस्याः पुरः स्थिता।
सव्यभागस्य मूर्द्धादिपादांगुष्ठांतमाश्रिता॥७३॥
हस्तिजिह्वा नाड़ी कमलके समान है और इडा नाड़ीके आगे स्थित और वाम भागके मस्तक आदिसे लेकर पैरके अंगुठेके अंततक आश्रित है॥७३॥
पूषा तु पिंगलापृष्ठे नीलजीमूतसन्निभा।
याम्यभागस्य नेत्रांता यावत्पादतलङ्गत्ता॥७४॥
पिंगला नाड़ीके पृष्ठभागमें बादलके समान कांतिवाली और दाहिने पैरके तलुएसे लेके नेत्रपर्यन्त स्थित पूषा नाडी हैं॥७४॥
यशस्विनी शंखवर्णा पिंगला पूर्वदेशगा।
गांधार्याश्च सरस्वत्या मध्यस्था शंखिनी मता॥७५॥
शंखके समान वर्णवाली और पिंगला नाड़ीसे पूर्व भागमें स्थित यशस्विनी नाड़ी है, गांधारी नाड़ी और सरस्वती नाड़ी के मध्यमें शंखिनी स्थित है॥७५॥
सुवर्णवर्णा पादादिकर्णांता सव्यभागके।
पादांगुष्ठादिमूर्द्धान्ता याम्यभागे कुहुर्मता॥७६॥
यह सुवर्णके समान वर्णवाली और वाम पैरसे लेके कान पर्यंत है, दाहिने पैरके अंगुठेसे आदि लेके मस्तकपर्यन्त कुहुनाड़ी स्थित है॥७६॥
मुक्तिमार्गे सुषम्ना सा ब्रह्मरन्ध्रेति कीर्तिता।
अव्यक्तासाचविज्ञेयासुषम्नावैष्णवीस्थिता॥७७॥
सुषुम्ना नाड़ी मुक्तिमार्गमें स्थित है, शिरमें अव्यक्त रूप वैष्णवी नाड़ी स्थित है॥७७॥
तासां तिस्रः प्रधानास्तु तिसृष्वेकोत्तमा मता।
इडा च पिंगला चैव सुषम्ना च तृतीयका॥७८॥
सब नाड़ियों में इडा पिंगला सुषुम्ना ये तीन नाड़ी प्रधान हैं और तीनोंमें एक सुषुम्ना नाड़ी प्रधान है॥७८॥
तत्रैका वामतो याति द्वितीया दक्षिणे तथा।
मध्ये वायुपथं विद्यास्त्रिभिस्तुल्यंगतागतम्॥७९॥
तहां एक नाड़ी वामावर्तमें गमन करती है और दूसरी नाड़ी दक्षिणावर्तमें गमन करती है और तीसरी नाड़ी मध्यमें गमन करती है. इन तीनोंके द्वारा तुल्य गमन और आगमनवाला वायुमार्ग जानना॥७९॥
इडा च शंखचंद्राभा तस्या वामे व्यवस्थिता।
पिंगला सितरक्ताभा दक्षिणं पार्श्वमाश्रिता॥८०॥
शंख और चंद्रमाके समान प्रकाशवाली इडा नाड़ी सुषुम्नाके वाम भागमें व्यवस्थित है, सफेद और लाल कांतिवाली पिंगला नाड़ी सुषुम्नाके दक्षिण भाग में व्यवस्थित है॥८०॥
चन्द्रः सूर्यो मरुच्चैव त्रयस्तिसृष्ववस्थिताः।
तथा रजस्तमः सत्त्वं रात्र्यहःकाल एव च॥८१॥
चंद्रमा, सूर्य, वायु ये तीन इन तीनों नाडियोंमें व्यवस्थित हैं. रजोगुण, तमोगुण सत्त्वगुण, रात्रि, दिन काल ये भी युक्त जानने॥८१॥
इडा दोषमयी प्रोक्ता पिंगला वह्निरूपिणी।
वाय्वाग्नेयीसुषुम्ना च ब्रह्मद्वारपयानुगा॥८२॥
इडा नाड़ी दोषोंवाली है, पिंगला नाड़ी अग्निरूपवाली है, सुषुम्ना नाड़ी वायु और अग्निरूपवाली है और ब्रह्मद्वारके मार्गमें गमन करती है॥८२॥
पद्यकोषप्रतीकाशं सुषिरैश्च विभूषितम्।
हृदयं तद्विजानीयाद्विश्वस्यायतनं हि तत्॥८३॥
पद्म कोशके समान और छिद्रोंसे विभूषित हृदय जानना यह विश्वका स्थान है॥८३॥
दक्षिणा पिंगला नाडी वह्निमंगलगोचरा।
देवयानमिति ज्ञेया पुण्यकर्मानुसारिणी॥८४॥
शरीरके दक्षिण भागमें पुण्यकर्मानुसारिणी और अग्निमंडलमें प्राप्त और मूलाधारसे दक्षिणावधि सहस्रदलपर्यन्त जो पिंगला नाड़ी है तहां देवयान नाम नाड़ी जानना॥८४॥
इडा च वामनिःश्वासः सोममण्डलगोचरा।
पितृयानमिति ज्ञेया वाममाश्रित्य तिष्ठति॥८५॥
वाम नासापुटके द्वारा चंद्रमण्डलमें प्राप्त और मूलाधारावधि सहस्रदलपर्यन्त जो इडा नाड़ी है तिसको पितृयान कहतेहैं॥८५॥
गुदस्य पृष्ठ मागेऽस्मिन्वीणादण्डस्य देहभृत्।
दीर्घास्थिमूर्ध्निपर्यन्तं ब्रह्मदण्डेति कथ्यते॥८६॥
इसी शरीरमें मूलाधारके पृष्ठभागमें वीणादंडके समान स्थित मस्तकपर्यन्त ब्रह्मदंडा नाड़ी कही जाती है॥८६॥
तस्यान्ते सुषिरं सूक्ष्मं ब्रह्मनाडीति सूरिभिः।
इडापिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना सूक्ष्मरूपिणी।
सर्वं प्रतिष्ठितं यस्मिन्सर्वगं सर्वतोमुखम्॥८७॥
तिस ब्रह्मदंडा नाड़ीके अंतमें एक महीन छिद्र है तिसको पंडित ब्रह्मनाड़ी कहते हैं इडा और पिंगलाके मध्यमें सूक्ष्म रूपवाली सुषुम्ना नाड़ी है जिसमें सर्वरूप और सर्वव्यापी और सब तर्फको भूखवाला ब्रह्म प्रतिष्ठित है॥८७॥
तस्या मध्यगताः सूर्यसोमाग्निपरमेश्वराः।
भूतलोका दिशः क्षेत्रं समुद्राः पर्वताः शिलाः॥८८॥
सुषुम्ना नाड़ीके मध्यमें सूर्य, चंद्रमा, अग्नि, परमेश्वर ये चार देव, पंचभूत, चौदह लोक, दशोदिशा, काशी आदि धर्मक्षेत्र, सात समुद्र, सात पर्वत॥८८॥
द्वीपाश्च निम्नगा वेदाः शास्त्रविद्याकुलाक्षराः।
स्वरमंत्रपुराणानि गुणाश्चैतानि सर्वशः॥८९॥
सब द्वीप, नदी, सब वेद, मीमांसा आदि शास्त्रविद्या, ककार आदि अक्षर, अकार आदि स्वर, गायत्री आदि मंत्र, अठारह पुराण, तीनों गुण॥८९॥
बीजजीवात्मकस्तेषां क्षेत्रज्ञः प्राणवायवः।
सुषुम्नांतर्गतं विश्वं तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्॥१०॥
महादादि जीवात्मक जीव, प्राण आदि पंच, नाग आदि पंच वायु ये सब स्थित हैं और सुषुम्ना नाड़ीके अंतर्गत ही संपूर्ण जगत है॥९०॥
क्वचिच्चक्रं च कोशश्च क्वचिज्जीवगृहं स्थितम्।
अस्मिंश्चक्रेस्थितोजीवःपुण्यापुण्यप्रदेशिताम्॥९१॥
कहीं चक्र है, कहीं कोषके आकार है, कहीं जीवका घर है ऐसे जीवका पुण्य और पाप इस चक्ररूपमें स्थित जानना॥९१॥
प्राणांश्च सममारूढो देहे भ्रमति सर्वदा।
तंतुपंजरमध्यस्था यथा भ्रमति लूतिका॥९२॥
वह जीव सब प्राणोंका आरोहण कर देहविषे सब काल भ्रमता है, जैसे सूतपिंजरके मध्य मकड़ी भ्रमती है॥९२॥
यस्तमभ्यासते नित्यं तच्च तेनान्तरात्मना।
न तस्य जायते मृत्युरिति सर्वागमोदितम्॥९३॥
जो मनुष्य जीवगत मनके द्वारा तिस नित्य ब्रह्मका अभ्यास करता है तिसकी मृत्यु नहीं होती ऐसे सब शास्त्रमें प्रकाशित है॥९३॥
नाभिरोजो गुदं शुक्रं शोणितं शंखकौतथा।
मूर्द्धा स कांडहृदयं प्राणस्यायतनं दश॥९४॥
नाभि, ओज, गुदा, वीर्य, रक्त, दोनों कनपटी, मस्तक, कण्ठ और हृदय ये दश प्राणके स्थान हैं॥९४॥
त्रिंशद्धस्तप्रमाणा तु विश्वोदरी द्वयाधिका।
एकहस्तप्रमाणा स्यात्कण्ठदेशस्यनाडिका॥९५॥
बत्तीस हाथ प्रमाणवाली विश्वोदरी नाड़ी सर्व मनुष्योंके पेटमें स्थित है. एक हाथ प्रमाणवाली नाड़ी कंठदेश में स्थित है॥९५॥
दशहस्ता ततः पश्चादामाशये प्रकीर्तिता।
पच्यमानाशया ज्ञेया दशहस्ता ततः परम्॥९६॥
तिसके पीछे दश हाथ प्रमाणवाली नाड़ी आमाशयमें है तिससे परे दश हाथ प्रमाणवाली नाड़ी पच्यमान आशयमें स्थित है॥९६॥
पक्वाशयात्ततः पक्वाद्दशस्हस्ता प्रकीर्तिता।
एकहस्ता गुह्यदेशे शंखावर्त्ता त्रिनाडिका॥९७॥
तिससे पर दश हाथ प्रमाणवाली नाड़ी पक्वाशयमें स्थित है,एक हाथ प्रमाणवाली और शंखकी आंटीके सदृश नाड़ी गुदा में स्थित है॥१७॥
भुक्तमामाशये तिष्ठेत्पच्यमानाशये पचेत्।
पक्वं पक्वाशये तिष्ठेद्वह्निः पक्वाशयोपरि॥९८॥
भोजन किया आमाशयमें स्थित रहता है और पच्यमाना शयमें जाके पकता है और पककर पक्वाशयमें ठहरता है. पक्वाशयके ऊपर अग्नि है॥९८॥
पच्यमानाशये पक्वं मलपववाशये व्रजेत्।
रसो भक्तादिकानां च नाभिनाड्याकलेवरम्।
सकलं याति मरुता नीयमानः स्वमाश्रयम्॥९९॥
पच्यामानाशयमें पके हुए मलको पक्वाशयमें प्राप्त करता है आहार आदि रस नाभिकी नाड़ीके द्वारा वायुसे प्राप्त होके संपूर्ण शरीर में गमन करते हैं॥९१॥
नाभिस्तु कुर्मरूपःस्यान्महानाड्यष्टपाद्भवेत्॥
चतस्रः पृष्ठदेशे स्युश्चतस्रः क्रोडदेशतः॥१००॥
कछुएके आकार नाभि है तहां आठ पैरवाली महानाड़ी है पृष्ठभागमेंचार नाड़ी और छाती देशमें चार नाड़ी स्थित हैं॥१००॥
इति हिंदीटीका सहित नाड़ीपरीक्षा संपूर्ण।
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