[[बृहन्निघण्टुरत्नाकरः पञ्चमः भागः Source: EB]]
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॥श्रीः॥
बृहन्निघंटुरत्नाकरः।
हिंदीभाषानुवादसमेतः
पाठकज्ञातीयमाथुरश्रीकृष्णलालतनयदत्तरामेण
संकलितः स्वकृतभाषाटीकाविभूषितः।
लक्ष्मीवेंकटेश्वरमुद्रणालयस्थशास्त्रिभिः संस्कृतः खंडित-
ग्रंथ-भाषापूरणयोजनादिपूर्वकं संशोधितश्च ।
तस्यायम्
पञ्चमो भागः
स च
श्रीकृष्णदासात्मज-गंगाविष्णुना
स्वकीये “लक्ष्मीवेंकटेश्वर" मुद्रणालये
मुद्रयित्वा प्रकाशितः।
शकाब्दाः१८१९, संवत् १९५४
कल्याण-मुंबई.
इस पुस्तकका रजिस्टरी सच – सन् १८६७ के - – २५ के —- –
अधिकारीने अपने स्वाधीन —- है
सूचना.
मैअपने प्रियबांधवबृहन्निघंटुरत्नाकरग्राहकोंकेप्रति प्रार्थना करता हूँ कि, आप लोग कृपाकर मेरे अपराधको क्षमा करेंगे कारण कि, यह बृहन्निघंटुरत्नाकरका पंचम भाग बहुत जल्दी छापकर आप लोगोंके प्रति समर्पण करना चाहता था पर अनेक विघ्नवश होनेके कारण वह मेरी आशा शीघ्र नही पूर्ण होसकी इसीसे आपको आजतक वंचित करना पड़ा अब यह पंचम भाग भगवानकीकृपासे शुद्धता और स्वच्छताके साथ छापकरतैयार किया गया है यह भाग पहिले चार भागोंसे बहुतही बृहत्हो गया है अर्थात् प्रथम तथाद्वितीय भागमेंसाठ २ फारिम हैऔरतृतीय भागमें ७० फारेिम है एव चतुर्थ भागमे ७३ फारिम है इस पंचम भागमें तो १०९ फार्म है यह बहुतही बड़ा होनेके कारण इसमें बहुत विषयोंका संग्रह हुआहै जिन विषयोंकीसूचीके फार्म ६ हो गये है सर मिलके११५ फार्म हो गये हैं इसमें अजीर्ण रोगसे उदररोग तक सर्व रोग कर्मविपाक, ज्योति शास्त्राभिप्राय, निदान,चिकित्सा, प्रत्येक रोगपर क्वाथ, कल्क,आसव, अरिष्ट, चूर्ण, मात्रा, रसायन आदि छोटी बड़ी सर्वप्रकारकीदवासहित वर्णित है बहुत लिखनाआपलोगोंके आगे व्यर्थ है. अब तो यह पुस्तक आपकेहस्तगत है जो कुछ भला बुराहै वह प्रत्यक्ष है । इसके आगेका छहवा भागभी छापना आरंभहो गया है।
आपका अनुग्रहाकांक्षी
गंगाविष्णुश्रीकृष्णदास
लक्ष्मीवेंकटेश्वर छापाखाना,
कल्याण-मुंबई.
श्रीः।
अथ बृहन्निघण्टुरत्नाकरपंचमभागविषयानुक्रमणिका ।
| विषय | विषय |
|---|---|
| अजीर्ण | शमन |
| मन्दाग्निहर | विरेचन |
| पाराशर | सामान्ययत्न |
| कर्मविपाकसंग्रह | कोलास्थियोग |
| जठराग्निनिदान | क्षीर |
| विषूच्यादि निदान | विदारिकल्क |
| चतुर्विध अग्नि के कार्य | त्रिफलावलेह |
| प्रकारांतर | अपामार्गादि योग |
| हिंग्वाष्टकचूर्ण | कदलीफलयोग |
| जीरकादि चूर्ण | अजीर्ण के भेद |
| विडंगादि चूर्ण | गुडाष्टक |
| वडवानल चूर्ण | पथ्यादि चूर्ण |
| वह्निनामक रस | बृहच्छंखवटी |
| कर्मविपाक | लघुक्रव्याद रस |
| दूसरा प्रकार | विदग्धाजीर्णलक्षण |
| भस्मकनिदान | विदग्धाजीर्ण की चिकित्सा |
| भस्माकलक्षण | निद्रानियम |
| चिकित्साक्रम | दिवा निद्रा |
| भस्मकचिकित्सा | विष्टब्धाजीर्णलक्षण |
| अजीर्णका निदान | विष्टब्धाजीर्ण में सामान्य उपचार |
| आमाजीर्णलक्षण | रसशेषाजीर्णलक्षण |
| वचादि वमन | रसशेषाजीर्ण मेंसामान्य उपचार |
| लवंगादि क्वाथ | अजीर्ण |
| वैश्वानरक्षार | अजीर्णके सामान्य लक्षण |
| सामुद्रादि चूर्ण | अजीर्णके उपद्रव |
| हरीतक्यादि योग | लवणभास्करचूर्ण |
| विषय | विषय |
| अग्निमुख चूर्ण | पाशुपतरस |
| वृद्धाग्निमुख चूर्ण | आदित्यरस |
| यावशूकादि चूर्ण | हुताशनरस |
| लघुचित्रकादि चूर्ण | अजीर्णकंटकरस |
| शुंठ्यादि चूर्ण | रामबाणरस |
| कणाद्य चूर्ण | दूसरा प्रकार |
| कपित्थादि योग | ज्वालानलरस |
| ज्वालामुख चूर्ण | चिंतामणिरस |
| व्योषादि चूर्ण | पंचमूल्यादिघृत |
| शुण्ठ्यादि चूर्ण | दशमूल्यादि घृत |
| विश्वादि चूर्ण | धान्यादि घृत |
| चित्रकादि चूर्ण | अग्निघृत |
| बिडलवणादि चूर्ण | शार्दूलकांजिक |
| वडवानल चूर्ण | विषूचिकादि की संप्राप्ति निदान |
| पंचाग्नि चूर्ण | विषूचिका के लक्षण |
| विश्वभेषज चूर्ण | विलंबिका व अलसक इन की चिकित्सा |
| संजीवनी गुटी | अलसक की निरुक्ति |
| धनंजय वटी | अलसक व दंडालसकलक्षण |
| शंखवटी | विलंबिका लक्षण |
| लवंगामृतवटी | अजीर्ण से उत्पन्न हुए आम के कार्य |
| व्योषादि गुटी | विषूची और अलसक इन के असाध्य लक्षण |
| हरीतक्यादि वटी | जीर्णआहारलक्षण |
| अमृत हरीतकी | विषूचिका के उपद्रव |
| चित्रकगुड | विषूचिकाचिकित्सा |
| द्राक्षादि योग | लशुनाद्य चूर्ण |
| यवागू | अपामार्गादि योग |
| क्रव्यादकल्क | बालमूत्रादि काढा |
| क्षारयोग | तक्रयोग |
| आग्निमुखरस | बिल्वादि काढा |
| अजीर्णादि रस |
| विषय | विषय |
| यवपिष्टलेप | कृमिरोगाधिकारः |
| कुष्ठादि लेप | कृमिनिदान |
| साधारणलेप | बाह्यकृमि के नाम |
| लवंगादि चूर्ण | कृमि रोग का कारण |
| पथ्यादि चूर्ण | पुरीषकफरक्तजकृमिकारण |
| शंखद्राव | पेट में कृमि हुए के लक्षण |
| दालचिनीतैल | कफकृमि का लक्षण |
| चुक्रतैल | रक्तकृमिका लक्षण |
| अर्कादि तैल | पुरीषज कृमी का लक्षण |
| तक्र | कृमिरोगचिकित्सा |
| पानी | पूडी |
| विलंबिका व अलसिकाचिकित्सा | अन्न |
| हस्तिकर्णयोग | कृमिलेप |
| निंबुरसयोग | यवागू |
| करंजादि कषाय | त्रिवृत्तादि कल्क |
| उत्क्लेशलक्षण | पलाशबीजरस व कल्क |
| कटुत्रयरस | स्वरस |
| व्योषादि अंजन | तैल |
| अपामार्गाद्यंजन | विडंगादि तैल |
| बिल्वादि अंजन | धतूरपत्रतैल |
| अजीर्णादिकों पर पथ्य | दाडिमादि काढा |
| अपथ्य | नियमनादि काढा |
| दूसरा प्रकार | विडंगादि काढा |
| नित्योदितरस | मुस्तादि काढा |
| अर्शकुठार | खदिरादि काढा |
| षडाननरस | रस |
| पीयूषसिंधू | पारदादि योग |
| चक्रबन्धरस | कृमिकुठाररस |
| पर्पटीरस | कृमिमुद्गरस |
| भल्लातकावलेह | विडंगादि चूर्ण |
| विषय | विषय |
| दूसरा प्रकार | पूर्वरूप |
| पारसिकयवानी चूर्ण | पांडुरोगचिकित्सा |
| निंबादि चूर्ण | वातपांडुनिदान |
| त्रिफलाद्य घृत | मंडूराद्यरिष्ट |
| विडंगघृत | पित्तपांडुनिदान |
| सारनालयोग | आमलक्यवलेह |
| भल्लातकयोग | दुग्धयोग |
| पलशबीजयोग | कफपांडुनिदान |
| किरमानी अजमायन का कल्क | दशमूलादिकाढा |
| निशोतरादि योग | नागरादि योग |
| पिप्पल्याद्य चूर्ण | लोहभस्मयोग |
| आखुपर्ण्यादि चूर्ण | मधुमंडूर |
| निंबादि चूर्ण | मंडूरवटक |
| सुवर्चकादि चूर्ण | मंडूरलवण |
| जूंआ इत्यादि कों पर तैल | सन्निपातपांडुनिदान |
| विडंगादि तैल | पांडु का असाध्य लक्षण |
| कपिलाचूर्ण | असाध्यलक्षण |
| निंबादि रस | दूसरा प्रकार |
| हरीतकी चूर्ण | तीसराप्रकार |
| सावित्रवटक | त्रिफलादि लेह |
| विशालादि धूप | फलत्रिकादि काढा |
| अष्टसुगंधधूप | पुनर्नवादि काढा |
| ककुभादि धूप | वासादि काढा |
| कृमिरोग पर पथ्य | दर्व्यादिवटक |
| अपथ्य | किरातादि मंडूर |
| दूसरा प्रकार | अभयादि मोदक |
| पांडुरोगकर्मविपाकः | पाण्ड्वारिरस |
| शिरोवेदनासहित पांडुरोगहरण | पुनर्नवादि वटक |
| पांडुरोगनिदान | लोहासव पांडुरोगादिकों पर |
| निदानपूर्वक संप्राप्ति | गोमूत्रलोह |
| विषय | विषय |
| गोमूत्रसिद्धमंडूर | कामलाकर्मविपाकः |
| नवायसादि चूर्ण पांडुरोगादिकों पर | प्रतिमादान |
| दूसरा नवायसचूर्ण | कामलानिदान |
| लोहादि चूर्ण जीर्णपांडु पर | लक्षण |
| शिलाजितादि योग | कामलाचिकित्साक्रम |
| मंडूरवज्रवटक | नस्य व अंजन |
| हंसमंडूर | जालिनीफलादि नस्य |
| सिद्धमंडूर | कुमारीकंदनस्य |
| अमृतहरीतकी | कामला पर अन्न |
| पंचकोलघृत | कामला पर काढा |
| साधारणयोग | पुनर्नवादि काढा |
| देवदालीयोग | त्रिफलादि काढा |
| गोमूत्रहरीतकीयोग | गोदुग्धपान |
| भूनिंबादि गुटी | हरीतक्याद्यंजन |
| मदेभसिंहसूत | खरविट्स्वरस |
| त्रैलोक्यनाथरस | गुडूचीकल्क |
| उदयभास्कर | धात्र्यादि चूर्ण |
| कामेश्वररस | अयोरजादि चूर्ण |
| कालविध्वंसकरस | व्योषादि चूर्ण |
| पांड्वरि | अयोरजादि योग |
| पांडुसूदन | अंजन |
| वगेश्वर | नस्य |
| पांडुनिग्रहरस | लोहादि चूर्ण |
| अनिलरस | एलादि चूर्ण |
| लोहसुंदररस | हरिद्राचूर्ण |
| चंदनादि तैल | दार्व्यादि चूर्ण |
| मृत्तिकाभक्षणज पांडुनिदान | घृत |
| केशरादि काढा | एरंडस्वरस |
| घृत | कटुकीयोग |
| कुंभकामलानिदान |
| विषय | विषय |
| कामला का असाध्य लक्षण | दूर्वादि घृत |
| दूसरा प्रकार | शतावर्यादि पेय |
| कुंभकामला का असाध्य लक्षण | पैत्तिकरक्तपित्तनिदान |
| कुंभकामलाचिकित्साक्रम | त्रिफलादि काढा |
| शिलाजितयोग | अतस्यादि काढा |
| मंडूर | वासादि लेह |
| नस्यादि योग | कूष्मांडकावलेह रक्तपित्तादिकों पर |
| पांडुरोग में कब हलीमक होता है | अभयारक्षण |
| पानकीलक्षण | आज्यपान |
| हलीमकपरीभाषा | ह्रीबेरादि जल |
| अयोभस्मयोग | मृद्वीकादि गुटी |
| सितादि लेह | पारावतादि यूष |
| अमृतादि घृत | घृतसैंधवयोग |
| गुडूचीस्वरसयोग | पथ्य और जलपान |
| पांडु कामला कुंभकामला हलीमक इन पर पथ्य | द्वंद्वजसन्निपातरक्तपित्तनिदान |
| अपथ्य | असाध्यरक्तपित्तलक्षण |
| पांडुरोग पर दंभ | असाध्यलक्षण |
| कामला पर दंभ | रक्तपित्त के उपद्रव |
| रक्तपित्तिकर्मविपाकः | असाध्यलक्षण |
| ज्योतिःशास्त्राभिप्राय | वृषादि स्वरस |
| दूसरा प्रकार | मातुलिंग्यादि पेय |
| ज्योतिःशास्त्रोक्त चिकित्सा | उदुंबरादि योग |
| रक्तपित्तनिदान | अश्वत्थपत्रयोग |
| पूर्वलक्षण | चित्रकचूर्णयोग |
| असाध्यलक्षण | गंधकादि प्राशन |
| वातरक्तपित्तनिदान | दुग्धादि योग |
| भोजन | वासास्वरस |
| रक्तपित्तशास्त्रार्थ | लाक्षादि योग |
| रक्तपित्तादिक पर कामदेवघृत | मध्वादि पेय |
| विषय | विषय |
| मधुकादि कल्क | चौथा प्रकार |
| ऱ्हीबेरादि काढा | वासाखंड |
| पद्मोत्पलादि काढा | उशीरासव रक्तपित्तादिकों पर |
| इक्ष्वादिकाढा | वमन |
| चन्दनादि काढा | यष्ट्यादि वमन |
| उशीरादिकाढा | आरग्वधादि रेचन |
| अमृतादिकाढा | विरेचन |
| ह्रीबेरादिकाढा | अपतर्पण |
| मुद्गादिकाढा | दूसरा प्रकार |
| यष्ट्यादिकाढा | पारावतशकृल्लेह |
| पलाशकल्क वकाढा | केशरलेह |
| आटरूषादि काढा | खदिरादि लेह |
| वासादिकाढा | उदुंबरादि लेह |
| उशीरादि चूर्ण | खंडकाद्यवलेह |
| मृद्वीकादिचूर्ण | रक्तपित्तकुठाररस |
| चंदनादिचूर्ण | वासासुत |
| पत्रकादिचूर्ण | बोलपर्पटीरस |
| कर्पूरादिचूर्ण | सुधानिधिरस |
| वासापुटपाक | आटरूषाद्यर्क |
| एलादिगुटी रक्तपित्तादिकों पर | शतावरीघृत |
| हरीतक्यादि नस्य | दूर्वादि तैल |
| मस्तकलेप | दूसरा प्रकार |
| कल्क व घृत | रक्तपित्त पर पथ्य |
| नस्य | रक्तपित्त पर अपथ्य |
| दूसरा प्रकार | क्षयकर्मविपाकः |
| आर्द्रकादि नस्य | कदलीदान |
| हरीतक्यादि नस्य | ब्रह्मचर्यादि योग |
| कूष्मांडकावलेह | ज्योतिःशास्त्राभिप्राय |
| दूसरा प्रकार | दूसरा प्रकार |
| तीसरा प्रकार | देवपूजादि योग |
| विषय | विषय |
| शास्त्रार्थ | अश्वत्थवल्कलादि लोह |
| गीतादि उपाय | ककुभाद्य चूर्ण |
| राजयक्ष्माक्षयनिदान | अश्वगंधाद्यचूर्ण |
| अनुलोम व प्रतिलोम क्षय की संप्राप्ति | तालीसाद्यचूर्ण |
| पूर्वरूप | नवनीतयोग |
| क्षय का सामान्य त्रिरूप लक्षण | सितोपलादिचूर्ण |
| एकादशरूप षड्रूप और त्रिरूप क्षयों का कारण | तवराजादि चूर्ण |
| पुनः असाध्यलक्षण | अडूसायोग |
| साध्यलक्षण | द्राक्षादिचूर्ण |
| असाध्यलक्षण | स्वर्णमाक्षिकादि चूर्ण |
| क्षयरोगी को वर्ज्य पदार्थ | शिलाजितादि चूर्ण |
| क्षयहारक पदार्थ | लाक्षाकूष्मांडरस |
| षडंगयूष | मार्कवादि चूर्ण |
| ज्वरदाहक्रिया | बलादि चूर्ण |
| वर्खभक्षण के माहात्म्य | जातीफलादि चूर्ण |
| च्यवनप्राश्यावलेह | शिवगुटी |
| एलाद्यचूर्ण | लघुशिवगुटी |
| अश्वगंधाचूर्ण | सूर्यप्रभागुटी |
| द्राक्षादि चूर्ण | गुडूच्यादि मोदक |
| कर्पूरादि चूर्ण | इक्ष्वादि मोदक |
| यवादि चूर्ण | द्राक्षासव |
| त्रिकट्वादि चूर्ण | खर्जूरासव |
| शंखपोटलीरस | दशमूलासव |
| शिलाजतुयोग | कुमारीपाक |
| पिप्पल्यासव क्षयादिकों पर | धात्रीपाक |
| कृष्णाद्यवलेह | शेवंतीपाक |
| रास्नादि चूर्ण | महाकनकसुंदररस |
| अगस्त्यहरीतकी क्षयादिकों पर | क्षयकेसरीरस |
| आटरूषादि कषाय | शंखेश्वररस |
| हररुद्ररस |
| विषय | विषय |
| नीलकंठरस | हेमगर्भपोटलीरस कफक्षयादिकों पर |
| शंखगर्भपोटलीरस | दूसरा प्रकार |
| हेमगर्भरस | लोकनाथरस |
| नागेश्वररस | लघुलोकनाथरस |
| कालांतकरस | मृगांकपोटलीरस |
| चांद्रायतनरस | गोक्षुराद्य घृत |
| प्राणनाथरस | जीवंत्यादि घृत |
| सुवर्णपर्पटीरस | बलाद्य घृत |
| प्राणदापर्पटीरस | कोलाद्य घृत |
| कुमुदेश्वररस | कणाद्य घृत |
| पंचामृताख्यरस | पारशर घृत |
| स्वयमग्निरस | जलाद्य घृत |
| राजमृगांक | वासाद्य घृत |
| दूसरा प्रकार | खार्जूरादि घृत |
| लोकेश्वर | पिप्पल्याद्य घृत |
| नवरत्नराजमृगांक | दूसरा प्रकार |
| मृगांकरस | दशमूलद्यघृत |
| कनकसिंदूर | तिलों का तैल |
| हेमाभ्रकरससिंदूर | चंदनादि तैल |
| सुवर्णभूपति | लक्ष्मीविलासतैल |
| लक्ष्मीविलासरस | व्यवायजन्यशोष |
| शिलाजत्वादि लोह | व्यवायशोषिलक्षण |
| पंचामृतरस | व्यवायदोषचिकित्सा |
| अमृतेश्वररस | शोकशोषिलक्षण |
| चिंतामणिरस | शोकशोषिचिकित्सा |
| दूसरा त्रैलोक्यचिंतामणि | जराशोषलक्षण |
| वसंतकुसुमाकर | अध्वशोषलक्षण |
| लोकेश्वरपोटली | अध्वशोषचिकित्सा |
| लोहरसायन क्षयादिकों पर | व्यायामशोषलक्षण |
| रत्नगर्भपोटली | व्यायामशोषचिकित्सा |
| विषय | विषय |
| व्रणशोषलक्षण | पथ्यादि घृत |
| व्रणशोष | गोक्षुराद्य घृत |
| रसवर्द्धन | अमृतप्राश्यावलेह |
| रक्तवर्द्धन | रसराज |
| मांसवर्द्धन | क्षयरोग में पथ्य |
| मेदवर्धन | क्षय पर अपथ्य |
| दूसरा प्रकार | कासकर्मविपाकः |
| अस्थिवर्धन | दूसरा प्रकार |
| शुक्रवृद्धि | तीसरा प्रकार |
| दूसरा प्रकार | ज्योतिःशास्त्राभिप्राय |
| ककडी का रस वांति पर | कारण सम्प्राप्ति और निरुक्ति |
| दूसरा प्रकार | संख्यारूपसंप्राप्ति |
| रक्तवांति पर | पूर्वरूप |
| उशीरादि चूर्ण | वातिक कासनिदान |
| श्लेष्मा पर | कासचिकित्सापरिभाषा |
| कुस्तुंबर्यादि चूर्ण | रुद्रपर्पटी |
| अरुचि पर | भूतांकुशरस |
| दाहपर | सठ्यादि लेह |
| शोषपर | भार्ङ्यादि लेह |
| उरःक्षतक्षयनिदानम् | विश्वादि लेह |
| उरःक्षत के पूर्वरूप | दशमूली घृत |
| क्षतक्षीण के असाध्यलक्षण | कट्फलादि पेय वातकफकासों पर |
| असाध्यलक्षण | शुंठ्यादि चूर्ण |
| उरःक्षतक्षयचिकित्साक्रम | चित्रकादि लेह |
| चिकित्साक्रम | शुंठ्यादिलेह वातकास पर |
| दशमूलादि काढा | दशमूल का काढा |
| बलादि काढा | पंचमूलकाढा |
| एलादि गुटिका | कर्कटरस |
| द्राक्षादि घृत | शुंट्यादि चूर्ण |
| बलादि घृत | पित्तकासनिदान |
| विषय | विषय |
| सिहास्यादि काढा | दंतीधूम |
| बलादिकाढा | उरःक्षतकासनिदान |
| शठ्यादिकाढा | क्षतकासलक्षण |
| शरादि काढा | क्षयकासनिदान |
| शठ्यादिकाढा | क्षयकासलक्षण |
| त्वकूक्षीरलेह | साध्यासाध्यविचार |
| कंटकार्य्यादि काढा | चिकित्साप्रक्रिया |
| पिप्पल्यादि चूर्ण | इक्ष्वाद्यावलेह |
| मधुकादि चूर्ण | मजिष्ठाद्य चूर्ण |
| अर्धावर्तितकाढा | क्षुद्रावलेह |
| मातुलिंगादि लेह | तारेश्वररस |
| खर्जूरादि लेह | सूर्यरस |
| द्राक्षामलकादि लेह | पिप्पल्यादि लेह |
| क्षीरामलकघृत | कुलित्थगुड |
| रस | वासाकूष्मांडावलेह |
| लोकेश्वररस | ककुभलेह |
| कफकासनिदान | पिप्पल्यादि घृत |
| कफकाससामान्यचिकित्सा | पिप्पल्यादि लेह |
| नवागयूष | स्वयमग्निरस |
| पिप्पल्यादि काढा | सन्निपातकास |
| पित्तश्लेष्मकास | अमृतादि काढा |
| अवलेह | भार्ङ्ग्यादि काढा |
| बिभीतकधारण | स्वरसादि योग |
| भद्रमुस्तादि चूर्ण | मरीच्यादि चूर्ण |
| पथ्यादि चूर्ण | कुलित्थादि काढा |
| चित्रकादि चूर्ण | पुष्करादि काढा |
| शिलादि लेह | कुनट्यादि लेह |
| व्योषादि घृत | बर्हिपादादि और मरीचादि लेह |
| कटुत्रयादि चूर्ण | भार्ङ्ग्यादि चूर्ण |
| बोलबद्धरस | घनादि गुटी |
| विषय | विषय |
| निर्गुंड्यादि घृत | जातिमूलादि धूम |
| धूमपान | हरिद्राधूम |
| वारुणीपत्रधूम | बिभीतकावलेह |
| हेमगर्भपोटली | कंटकार्यवलेह |
| कासविधूननरस | अगस्तिहरीतक्यवलेह |
| ताम्रपर्पटी | व्याघ्र्यादि घृत |
| कंटकार्यादि चूर्ण | गुडूच्यादि घृत |
| लवंगादि चूर्ण | त्र्यूषणादि घृत |
| बिभीतकादि चूर्ण | कंटकारि घृत |
| पंचकोलादि चूर्ण | दूसरा प्रकार |
| बदरीकल्क | भागोत्तरवटी |
| कर्पूरादि चूर्ण | अगंधखर्परपर्पटी |
| त्रिकटुकादिचूर्ण | कासश्वासविधूननरस |
| देवदार्वादि चूर्ण | गुरुपंचमूलीकाढा |
| द्विक्षारादि | वासादि काढा |
| ग्रंथिकादि | सिंहीकषाय |
| कटुत्रिकादि | वृषादि काढा |
| हरीतक्यादि गुटी | आर्द्रकावलेह |
| त्रिजातादि | व्याघ्रीहरीतक्यवलेह |
| मरीच्यादि गुटी | कासकंडनावलेह |
| लवंगादि गुटी | हेमगर्भपोटली |
| धनंजयवटी | हेमगर्भ |
| खदीरादि गुटी | दूसरा प्रकार |
| व्योषादि गुटी | कासकेसरी |
| पिप्पल्यादि गुटी | रसेंद्रवटी |
| अर्कमूलादि धूम | नीलकंठ रस |
| मनःशिलादि धूम | लोकनाथपोटली |
| दूसरा प्रकार | अमृतार्णवरस |
| धत्तूरादि धूम | अग्निरस |
| जातिपत्रादि धूम | कासकर्त्तरी |
| विषय | विषय |
| कफाग्निवटी | कटुकादि भस्म |
| कासपथ्य | कोलमज्जालेह |
| अपथ्य | हेममात्रा |
| हिक्ककर्मविपाकः | पिप्पल्यादि लोह |
| हिक्कानिदान | शंखचूलरस |
| संप्राप्ति | मेघडंबर रस |
| हिक्क के भेद | महाहिक्कानिदान |
| पूर्वरूप | कटुत्रिकलेह |
| सामान्यचिकित्सा | असाध्यहिक्कानिदान लक्षण |
| त्याज्यहिक्का | असाध्य लक्षण |
| अन्नजाहिक्कानिदान | यष्ट्यादि चूर्ण |
| यूष | विश्वादि चूर्ण |
| कुलित्थादि काढा | रक्तचंदन योग |
| हरिद्रादि लेह | कृष्णाचूर्ण |
| अभयादि कल्क | शृंग्यादि चूर्ण |
| चंद्रसूरकाढा | भार्ङ्ग्यादि चूर्ण |
| यमलाहिक्कानिदान | हिक्कानस्य |
| दशमूला यवागू | मधुकनस्य |
| हिंग्वादि यवागू | मक्षिकानस्य |
| क्षुद्रहिक्कानिदान | शिलाजीतधूम |
| दशमूलीकाढा | श्वासावरोध |
| कुलित्थादि काढा | माषादि धूम |
| धात्र्यादि काढा | हिंग्वादि धूम |
| गंभीराहिक्कानिदान | हिक्कारोग में पथ्य |
| पाटल्यादि योग | हिक्कारोग में अपथ्य |
| दशमूलीकाढा | श्वासकर्मविपाकः |
| छागदुग्धयोग | दूसरा प्रकार |
| मधुसौवर्चलयोग | तीसरा प्रकार |
| शिखीलेह | श्वासनिदान |
| पिप्पल्यादि लेह | प्राग्रूप |
Page no. १४ and १५ missing in this Book.
| विषय | विषय |
| कफजन्यअरोचक निदान | पिप्पल्यादि चूर्ण |
| गंडूप | छत्रादि चूर्ण |
| कवलग्राह | अम्लिकादि पेय |
| विडंगचूर्ण | शुंठ्यादि चूर्ण |
| अम्लिकाकवल | त्र्यूषणादि वंटी |
| कुष्ठादि कवल | अमृतप्रभावटी |
| नींब का पन्हा | आकल्लकादि चूर्ण |
| मुखधावन | लवणार्द्रकयोग |
| दूसरा प्रकार | शृंगवेरादि लेह |
| तीसरा प्रकार | त्वङ्मुस्तादि चूर्ण |
| शर्करादि भक्ष | दाडिमरस |
| पानक | जीरकादि चूर्ण |
| तालीसादि चूर्ण | कपित्यादि चूर्ण |
| खांडवचूर्ण | शुंठ्यादि गुटी |
| यवानीखांडवचूर्ण अरोचकादि पर | अरुचि रोग में पथ्य |
| कारव्यादि गुटिका | अरुचि पर अपथ्य |
| खंडार्द्रक योग | छर्दिरोगकर्मविपाकः |
| राजिकादि शिखरिणी | अन्यच्च |
| आर्द्रक योग | ज्योतिषशास्त्राभिप्राय |
| ताम्रशिखरिणी | छर्दिनिदान संप्राप्ति व लक्षण |
| आमलकादि चूर्ण | पूर्वरूप |
| कर्पूरादि चूर्ण | वातछर्दिलक्षण |
| चव्यादि चूर्ण | सैंधवयोग |
| आर्द्रकमातुलुंगावलेह | लवणत्रययोग |
| जीरकादि घृत | धान्याकयूष |
| सूतादि गुंटिका | पित्तच्छर्दिकलक्षण |
| लघुचुक्रसंधान | तंदुलजलपान |
| केसरादि लेह | लाजादि यूष |
| आर्द्रकदाडिमयोग | पर्पटादि काढा |
| दाडिमचूर्ण | माक्षिकाविडवलेह |
| विषय | विषय |
| गुडूच्यादि काढा | असाध्यच्छर्दिलक्षण |
| लाजसक्तुपान | आगंतुकच्छर्दिलक्षण |
| कफछर्दिलक्षण | असाध्यलक्षण |
| सामान्यचिकित्सा | उपद्रव |
| शालिभक्त | सामान्यचिकित्सा |
| विडंगादि चूर्ण | आम्रास्थिकाढा |
| जांबवादि योग | जंबूपल्लवादि काढा |
| सन्निपातछर्दिलक्षण | मयूरपक्षभस्मावलेह |
| बिल्वादि काढा | गोण्याद्यभस्म योग |
| कोलाद्यवलेह | पटोलाद्य घृत |
| सुरसापान | दधित्थरसादि लेह |
| मनःशिलादि योग | रंभाकंदयोग |
| अश्वत्थवल्कलादि योग | करंजादि लेह |
| लाजादि योगत्रय | करंजबीजादि योग |
| धात्रीफलपान | शंखपुष्पीरसादि पान |
| मसूरसक्त | जीरकादि धूप |
| एलाद्यचूर्ण | वांतिहृद्रस |
| पद्मकादि घृत | जातीरसपान |
| चंदनादि पान | यष्ट्यादि पान |
| उदीच्यजल | गुडूच्यादि हिम |
| चंदनपान | पारदादि चूर्ण |
| मुद्गकाढा | जीरकादि रस |
| कोलमज्जा | वमनामृत योग |
| बीजपूरादि पुटपाक | छर्दिपथ्य |
| हरीतकी चूर्ण | अपथ्य |
| जंब्वाम्रपल्लवरस | तृष्णाकर्मविपाकः |
| हिंग्वादि पान | शांति |
| उग्रगंधादि योग | तृष्णानिदान |
| सामान्यचिकित्सा | तृष्णार्दित का स्वरूप |
| जातीपत्रचूर्ण | तृष्णासंप्राप्ति |
| विषय | विषय |
| वातजतृष्णानिदान | दूसरा प्रकार |
| वाततृष्णाजय प्रकार | अवलेह |
| दूसरा प्रकार | ताम्रादि रस |
| तेल | श्रीखंड योग |
| जल | आमलक्यादि गुटिका तृष्णादि पर |
| पित्ततृष्णानिदान | वटी |
| पित्ततृष्णाचिकित्सा | गुटी |
| तंदुलोदकपान | काश्मर्यादि काढा |
| मधुकादि फांट | जीरकादि चूर्ण |
| कफतृष्णानिदान | आम्रादि काढा |
| कफतृष्णासामान्यचिकित्सा | द्राक्षादि नस्य |
| बिल्वादि काढा | जीरकादि काढा |
| कफतृष्णाप्रयोग | कोष्ठादि योग |
| क्षतजन्यतृषानिदान | तप्तलोष्टादि योग |
| क्षतजतृष्णाचिकित्सा | मंदादि योग |
| क्षयजतृष्णानिदान | रसादि गुटी |
| क्षयजतृष्णा | रसादि चूर्ण |
| आमजतृष्णानिदान | लेप |
| आमजतृष्णा | गुटी |
| अन्नजातृष्णानिदान | उपसर्गतृष्णासामान्यविधि |
| अन्नजाचिकित्सा | अभ्यंजन और स्नान |
| उपद्रव व असाध्यलक्षण तृष्णा | कसेर्वादि काढा |
| जलपाननियम | क्षौद्रादि गंडूप |
| गंडूष | लेप |
| गंडूष | दूसरा प्रकार |
| लेप | पानात्ययजतृष्णा |
| चूर्ण | तृष्णारोग पथ्य |
| कुष्ठादि चूर्ण | तृषारोग अपथ्य |
| चूर्ण | मूर्च्छाभ्रमनिद्रासंन्यासनिदानम् |
| वटाद्यवलेह | संप्राप्ति |
| विषय | विषय |
| पूर्वरूप | पथ्यादिघृत मदजन्यमूर्च्छा पर |
| वातादि मूर्च्छालक्षण | रस |
| पित्तमूर्च्छानिदान | ताम्रादि चूर्ण |
| कफमूर्च्छा | शुंठ्यादि गुटी |
| सन्निपातमूर्च्छानिदान | मूर्च्छारोग में पथ्य |
| रक्तमूर्च्छानिदान | मूर्च्छा अपथ्य |
| विषमद्यमूर्च्छानिदान | पानात्ययपरमदपानाजीर्णपानविभ्रमनिदानम् |
| रक्तादिमूर्च्छादिओं के लक्षण | मद्य का सेवन प्रकार |
| मूर्च्छाभेदकारण विषेश करके कहता हूं | विधि से मद्य पीने के दूसरे गुण |
| संन्यासकथन | त्रिविधमद के लक्षण |
| संन्यासलक्षण | मध्यममद के लक्षण |
| मूर्च्छा | तृतीयमद के लक्षण |
| चिकित्साक्रम | चतुर्थमद लक्षण |
| दुरालभादि काढा | अविधि से सेवित मद्य के अन्य विकार |
| पंचमूलकाढा | अन्न के साथ मद्यपान करने के विकार |
| क्षुद्रादिकाढा | उन विकारों को कहते हैं |
| द्राक्षादिकाढा | वातादि संबंधमदात्ययलक्षण |
| रक्तजादि का मूर्च्छा पर शास्त्रार्थ | पित्तजन्यमदात्ययनिदान |
| कोलादि योग | कफमदात्यय निदान |
| त्रिफलादि योग | त्रिदोषमदात्यय निदान |
| दुरालभादि काढा | परमदलक्षण |
| सामान्य | वातमदात्यय में सौवर्चलादि |
| आत्मगुप्तादि योग | सूक्तशृंग्यादि |
| नारिकेलादि योग | आम्लस्निग्धादि |
| प्रकारांतर | पित्तमदात्यय |
| मृणालाद्यवलेह | क्षुद्रमलकादि पान |
| अंजन | सामान्य |
| दूसरा प्रकार | कफदात्यय सामान्य |
| सामान्य उपचार अंजन | अष्टांगलवण |
| स्विन्नामलकादि लेह |
| विषय | विषय |
| सुपारी के मद पर | चंद्रकलारस |
| दूसरा प्रकार | तृष्णानिरोधजदाहलक्षण |
| कोद्रवधत्तूर | तृष्णानिरोधजदाह |
| जायफल के मद पर | यवादि मंथ |
| दूसरा प्रकार | मृतसंजीवनी गुटी |
| कज्जलीरस | रक्तपूर्णकोष्ठजदाह |
| सामान्य | रक्तपूर्णकोष्ठजदाह |
| पानाजीर्ण के लक्षण | दूसरा प्रकार |
| पानविभ्रम लक्षण | दशसारचूर्ण |
| असाध्यलक्षण | धातुक्षयजन्य दाह |
| पानोपद्रव | खर्जूरादि चूर्ण |
| मथिततैल | धातुक्षयज दाह |
| मद्योपशम | पित्तदाह |
| कृष्णादि पने | क्षतजदाह |
| सर्वजमदात्यय में त्रिफलादि पान | चंदनादि चूर्ण |
| दुःस्पर्शादि योग | रक्तजदाह पर |
| चव्यादि चूर्ण | चंदनादि चूर्ण |
| शतावरीपुनर्नवा घृत | योग |
| माष घृत | लाजादि काढा |
| सामान्यशास्त्रार्थ | कमलादि पान |
| खर्जूरादि मंथ | कोष्ठपूर्णरक्त दाह |
| मदात्यय अपथ्य | दाहरोग तैल |
| दाहरोगकर्मविपाकः | तिलतैल |
| ज्योतिःशास्त्राभिप्राय | पुनर्नवादि तैल |
| दाहनिदान | तंदुलीयकमूलादि पान |
| सामान्यचिकित्सा | लेप |
| दूसरा प्रकार | स्नान |
| रक्तजदाहलक्षण | दाहहरणकर्त्ता योग |
| रसादि गुटी | धान्यहोम |
| घृत लेप |
| विषय | विषय |
| निंबप्रवाल लेप | धूप |
| अन्य उपाय | पर्पटीरस |
| बालाआलिंगन | शिरीषाद्यंजन |
| दूसरा चद्रकलारस | ब्राहयादि रस |
| मर्माभिघातज दाह | ब्राहयादि कल्क |
| असाध्य लक्षण | सितकुसुमबलादि योग |
| दाह रोग में पथ्य | दशमूलादि योग |
| दाहरोग में अपथ्य | भूतोन्मादलक्षण |
| उन्मादरोगकर्मविपाकः | देवजुष्टउन्मादलक्षण |
| उन्माद व भूतोन्माद निदान | असूरउन्माद |
| उन्मादभेद व निदान के हेतु कहते है | गंधर्वजुष्टउन्माद |
| संप्राप्तिक्थन | यक्षग्रस्तउन्मादलक्षण |
| उन्माद का रूप | पितृग्रहग्रस्तउन्मादलक्षण |
| वातो मादलक्षण | सर्पग्रहग्रस्तउन्मादलक्षण |
| पित्तोन्माद निदान | राक्षसजुष्टउन्मादलक्षण |
| कफोन्माद | ब्रह्मराक्षसउन्मादलक्षण |
| सन्निपातज उन्माद निदान | पिशाच्यजन्यउन्मादलक्षण |
| दुःखोन्माद लक्षण | असाध्य लक्षण |
| विषजउन्मादलक्षण | देवादीनामावेशसमयः |
| असाध्यलक्षण | निशादि घृत |
| उन्मादशास्त्रार्थ | कल्याण घृत |
| सामान्य उपचार | हिंग्वादिघृत |
| सामान्यचिकित्सा | सारस्वतघृत |
| सामान्य उपचार | उन्मादगजकेसरी रस |
| शास्त्रार्थ | विगतो माद लक्षण |
| लशुनादि घृत | भूतोन्माद पर अंजन वा नावन |
| चंदनादि तैल | भूतभैरव रस |
| अंजन | भूतराव घृत |
| शिरीषादि नस्य | धूप |
| व्योषाद्यंजन | भूतोन्मादचिकित्सा शास्त्रार्थ |
| विषय | विषय |
| महापैशाचिक घृत | त्रिकत्रय लेह |
| कल्याणक घृत | कल्याण चूर्ण |
| उन्मादपथ्य | लेप व दाग |
| उन्माद अपथ्य | चंदनादि अवलेह |
| अपस्मारकर्मविपाकः | द्राक्षाद्यवलेह |
| ज्योतिःशास्त्राभिप्राय | शास्त्रार्थ |
| अपस्मार निदान | पलंकषा तैल |
| पूर्वरूप | कटभ्यादि तैल |
| वातजन्य अपस्मार | शिग्रु तैल |
| पैत्तिक अपस्मार | अपस्मार पथ्य |
| कफापस्मार | अपस्मार अपथ्य |
| सन्निपातापस्मार निदान | वातव्याधिकर्मविपाकः |
| अपस्मार का कालनियम कहते हैं | वातरोगहर |
| मधुक घृत | धनुर्वातहर |
| काश घृत | पक्षवातहर |
| कफअपस्मार पर वचाद्य घृत | रक्तवातहर |
| मधुवचायोग | रक्तवातपित्तहर |
| मुस्तकमूल योग | वातपित्तहर |
| कूष्मांडकादियोग | वातव्याधि निदान |
| भैरवरसायन | वायु का पूर्वरूप |
| स्मृतिसागर रस | रूपकथन |
| पानीयकल्याणघृत अपस्मारादिकों पर | वातचिकित्सोपक्रम |
| शंखपुष्पी घृत | दूसरा प्रकार |
| सैंधवादि घृत | तीसरा प्रकार |
| ब्राह्मी घृत | कोष्ठगत वातलक्षण |
| कूष्मांड घृत | कोष्ठलक्षण |
| पंचगव्य घृत | आमाशयोक्त |
| अपस्मार नस्य | कोष्ठवातचिकित्सा क्रम |
| अंजन | चिकित्सा |
| आमाशयगत लक्षण |
| विषय | विषय |
| आमाशय लक्षण | किरातादि क्लक |
| आमाशयगतवातचिकित्सा | त्वक्शून्यता निदान |
| आमाशयगतवात | चिकित्सा |
| षट्चरण योग | रसगतवायु के लक्षण |
| तीन काढे | रक्तगतवायु के लक्षण |
| पक्वाशयवायु | मांसगत वायु |
| चिकित्सा | मेदाश्रित वातलक्षण |
| हृदयवात | अस्थि वात लक्षण |
| सर्वांगवात लक्षण | मज्जागत वातलक्षण |
| चिकित्सा | शुक्रगतवातलक्षण |
| अवशिष्टवात | सप्तधातुगत वातचिकित्सा |
| कुरंटकादि काढा | मांसमेदोगत |
| महारस्नादि काढा | अस्थिमज्जागत |
| दूसरा प्रकार | केतकादि तैल |
| महबलादि काढा | शुक्रगत |
| पंचमूलादि योग | शिरागतवायु |
| वाजिगंधादि काढा | चिकित्सा |
| समीरदानवानल | स्नायुगत वातलक्षण |
| गुदस्थितवायुकार्य | चिकित्सा |
| चिकित्सा | संधिगतवात निदान |
| चिकित्सा | सामान्य चिकित्सा |
| श्रोत्रादिगत लक्षण | इंद्रवारुणि चूर्ण |
| चिकित्सा | पित्तकफाश्रित प्राण |
| जृंभा ( जंभाई ) | पित्तकफाश्रित उदान |
| चिकित्सा | पित्तकफाश्रित समान |
| जृंभाचिकित्सा | पित्तकफाश्रित अपान |
| मलापक | पित्तकफाश्रित व्यान |
| चिकित्सा | चिकित्सा |
| रसज्ञान चिकित्सा | आक्षेप के सामान्य लक्षण |
| चिकित्सा | आक्षेप के चार भेद |
| विषय | विषय |
| केवल वातजाक्षेप | गुग्गुल पक्षाघात पर |
| सामान्य चिकित्सा | रालतैल |
| आक्षेपक चिकित्सा | शुंठी चूर्ण |
| आक्षेप के भेद अपतंत्रक | अर्दित निदान |
| चिकित्सा | वातार्दित |
| हरीतक्यादि लेह | चिकित्सा |
| मरीचादि चूर्ण | पित्तार्दित |
| दंडापतानक | कफार्दित |
| अपतानक | अर्दितसाध्यासाध्य |
| असाध्यत्व कहते हैं | दूसरा प्रकार |
| चिकित्सा | लशुनविधि |
| चिकित्साप्रक्रिया | हनुग्रह निदान |
| धनुस्तंभलक्षण | चिकित्सा |
| दूसरा प्रकार | हनुग्रहचिकित्सा |
| कुब्जलक्षण | रसोनवटक |
| अंतरायामलक्षण | अभ्यंजन |
| बह्यायामलक्षण | प्रसारणीतेल वातकफजन्यवायुपर |
| सामान्य | मन्यास्तंभ |
| दूसरा प्रकार | चिकित्सा |
| चिकित्सा | जिह्वास्तंभ |
| सर्ज तैल | चिकित्सा |
| एरंडादि काढा | दूसरा प्रकार |
| पक्षवध | कल्याणकावलेह |
| सर्वांगरोग लक्षण | शिरोग्रह |
| माषादि काढा | चिकित्सा |
| ग्रंथिकादि तैल | गृध्रसीलक्षण |
| माषादितैल | वातजगृध्रसीनिदान |
| माषादि सप्तक | वातश्लेश्मजगृध्रसीनिदान |
| माषतैल | गृध्रसीचिकित्सा |
| कपिकछ्वादि काढा | एरंडतैलयोग |
| विषय | विषय |
| गृध्रसीहरतैल | अवबाहुकलक्षण |
| शिरावेधगृध्रसी पर | चिकित्सा |
| निंबकल्क | माषतैल |
| गृध्रसीचिकित्सा | माषतैलादि मर्दन |
| रास्नागुग्गुलु | मूक मिम्मिण व गद्गदनिदान |
| रास्नाकाढा | सारस्वत घृत |
| पथ्यागुग्गुलु | तूनीलक्षण |
| एरंडतैलयोग | प्रतूनीलक्षण |
| विश्वाचीलक्षण | इन दोनों पर चिकित्सा |
| चिकित्सा | आध्मानलक्षण |
| माषतैल | चिकित्सा |
| क्रोष्ठुशीर्षलक्षण | नाराचचूर्ण |
| चिकित्सा | दारुषट्कलेप |
| सामान्यचिकित्सा | महानारचरस |
| खंज व पंगु के लक्षण | प्रत्याध्माननिदान |
| चिकित्सा | चिकित्सा |
| कलायखंजलक्षण | वाताष्ठीलानिदान |
| चिकित्सा | प्रत्यष्ठीला |
| चिकित्साक्रम | हिंग्वादि चूर्ण |
| वातकंटकनिदान | प्रत्यष्ठीलादिचिकित्सा |
| चिकित्सा | दूसरा प्रकार |
| पाददाहलक्षण | हिंग्वादि योग |
| चिकित्सा | नादेयादि काढा |
| पाददाह पर लेप | विडंगासव |
| पादहर्षलक्षण | बस्तिवातलक्षण |
| चिकित्सा | चिकित्सा |
| बाहुशोषनिदान | हरीतक्यादि चूर्ण |
| चिकित्सा | यवाक्षारचूर्ण |
| रसोनकल्क | कूष्मांडबीजयोग |
| बाहुशोषचिकित्सा | आमलक्यादि योग |
Pege no. २६ to २९ are missing from this Book.
| विषय | विषय |
| वृद्ध्यादि तैल | महौषधादि क्वाथ |
| त्रिफलाचूर्ण | महारास्नादि क्वाथ |
| शिलाजतुयोग | रास्नादि क्वाथ |
| ग्रंथिकादि कल्क | रास्नाद्वादशकाढा |
| पिप्पल्यादि कल्क | रास्नासप्तक क्वाथ |
| पिप्पलीयोग | शुंठ्यादि क्वाथ |
| ऊरुस्तंभ पर योग | शठ्यादि क्वाथ |
| प्रकारांतर | पिप्पल्यादि क्वाथ |
| ऊरुस्तंभ पर लेप | दशमूलादि काढा |
| कुष्ठादि तैल | अजमोदादि चूर्ण |
| सैंधवादि तैल | पंचसमचूर्ण |
| कटुतिक्त तैल | पंचकोलचूर्ण |
| त्रिफलादि गुग्गुलु | त्रिफलादि चूर्ण |
| गुंजागर्भ रसायन | आरग्वधपत्र चूर्ण |
| लशुन योग | पुनर्नवादि चूर्ण |
| ऊरुस्तंभरोग पर पथ्य | त्र्युट्यादिचूर्ण |
| ऊरुस्तंभरोग पर अपथ्य | अलंबुषादि चूर्ण |
| आमवातकर्मविपाकः | भल्लातादि चूर्ण |
| आमवात पर वैदिककर्म | वैश्वानरचूर्ण |
| ज्योतिश्शास्त्राभिप्रायमाह | हिंग्वादिचूर्ण |
| आमवातनिदान | चित्रकादिचूर्ण |
| आमवात के सामान्य लक्षण | नागरचूर्ण |
| अत्यंत बढे हुए आमवात के सामान्य लक्षण | अजमोदादि गुटिका वाचूर्ण |
| आमवात के विशेष लक्षण | सिंहनागगूगल |
| आमवात में साध्यासाध्य विचार | हरीतकीगूगल |
| आमवात की सामान्य चिकित्सा | योगराजगूगल |
| रास्नादि क्वाथ | सिंहनादगूगल |
| रास्नादि क्वाथ | अभयादि गुटी |
| रास्नादि क्वाथ | एरंडादि गुटी |
| आमवातारि गुटिका |
| विषय | विषय |
| एरंडयोग | शमन |
| एरंडयोग | अरुचिशूल |
| हरीतकी योग | शमन |
| अहिंस्रादि योग | शमन |
| जल | कटिशूल का कर्मविपाक |
| एरंडमूलयोग | कर्णशूल |
| रसोनयोग | शमन |
| पारदभस्मप्रयोग | हस्तशूल |
| आमवातविध्वंस रस | शमन |
| आमवातारिरस | नेत्रशूल |
| उदयभास्कर रस | शमन |
| शतपुष्पादि लेप | शूलरोग मेंकर्मविपाक |
| रसोनाद्य तैल | शूल निदान |
| रसोनासव | वातशूल की चिकित्सा |
| लशुनरस | वातशूल में यूष |
| रसोनासव | दशमूलादि क्वाथ |
| बृहत्सैंधवादि तैल | विश्वादि काढा |
| एरंडतैल | बलादि क्वाथ |
| शुंठीघृत | वातशूल पर कल्क |
| शुंठीखंड | बीजपूरस्वरस |
| प्रकारांतर | तुंबरुआदि चूर्ण |
| मेथीपाक | हरीतक्यादि चूर्ण |
| सौभाग्यशुंठी | सौवर्चलाद्यचूर्ण |
| शुंठ्यादि पुटपाक | उशीराद्यचूर्ण |
| आमवातरोग पर पथ्य | श्वेतएरंडादिचूर्ण |
| आमवातरोग पर अपथ्य | मंदारमूलिकाद्यचूर्ण |
| शूलरोगकर्मविपाकः | यवान्यादिचूर्ण |
| अजीर्णशूल का कर्मविपाक | करंजाद्यचूर्ण |
| प्लीहशूल | गुडूच्यादिचूर्ण |
| जठरशूल | प्रकारांतर |
| विषय | विषय |
| उशीरादि चूर्ण | कट्फलादि चूर्ण |
| सुवर्चलादि चूर्ण | बृहत्कट्फलादि चूर्ण |
| प्रकारांतर | पथ्यादिचूर्ण |
| एरंडमूलदि चूर्ण | मुस्तादिचूर्ण |
| सौवर्चलादि गुटिका | लवणादिचूर्ण |
| बिल्वादि गुटिका | सर्वांगसुंदर रस |
| सोमाग्निमुखरस गुटी | आमशूल |
| मृगशृंगोद्भव भस्म | आमशूल की सामान्य चिकित्सा |
| अग्निमुख रस | चित्रकादि क्वाथ |
| उदयभास्कर रस | त्रिफलादि चूर्ण |
| नाभिशूल पर लेप | दीप्यादि चूर्ण |
| वातशूल पर लेप | बिल्वमूलादि चूर्ण |
| मृत्तिकासेक | दार्वादि लेप |
| नाभिलेप | आमशूल पर |
| पैत्तिकशूलनिदान | हिंग्वादि योग |
| सामान्यचिकित्सा | कूष्मांडक्षार |
| नाभी के उपर पात्र धरना | द्वंद्वजशूल लक्षण |
| सामान्ययत्न | द्वंद्वजशूल की सामान्य चिकित्सा |
| शतावर्यादि क्वाथ | द्वंद्वजशूल पर क्वाथ |
| बृहत्यादि क्वाथ | पटोलादि क्वाथ |
| त्रिफलादि क्वाथ | द्राक्षादि क्वाथ |
| त्रिफलादि क्वाथ | एरंडमूलादि क्वाथ |
| त्रायमाणादि क्वाथ | लशुन कल्क |
| शतावर्यादि रस | सन्निपातशूल के लक्षण |
| धात्र्यादि चूर्ण | त्रिदोषशूल चिकित्सा |
| धात्र्यादि स्वरस | विदारि रस योग |
| कफजन्य शूल के लक्षण | अक्षादि स्वरस |
| कफशूल की सामान्य चिकित्सा | वैश्वानर योग |
| एरंडमूलादि क्वाथ | सर्वजशूल पर शस्त्रार्थ |
| बीजपूररस | शूले स्वरसमाह |
| विषय | विषय |
| बीजपूरादि स्वरस | गोमूत्रमंडूर |
| मातुलुंगस्वरस | सूर्यप्रभावटी |
| बृहत्यादि क्वाथ | शंखादि चूर्ण |
| एलादि क्वाथ | क्षारयोग |
| मातुलुंगादि क्वाथ | चित्रकादि वटक |
| अजमोदादि क्वाथ | हरीतक्यादि वटी |
| एरंडादि क्वाथ | कुबेराक्षवटी |
| त्रिफलादि क्वाथ | अगस्तिवटी |
| पथ्यादि क्वाथ | गरलादिवटी |
| शूलमात्र पर यवागू | वचादिवटी |
| रेचन के वास्ते बत्ती | कुबेराक्ष पाक |
| अश्वीपुरीष रस योग | सप्तविंशति गुग्गुलु |
| विश्वजलादि क्वाथ | लोहभस्म योग |
| कुबेरादि चूर्ण | गंधक रसायन |
| हिंग्वादि चूर्ण | शूलकुठार रस |
| नाराच चूर्ण | अग्निकुमार रस |
| क्षार योग | क्षारताम्र रस |
| हिंग्वादि चूर्ण | सोमनाथी ताम्र |
| तुंबरुआदि चूर्ण | गदमददहन |
| पंचसमचूर्ण | शंखादि चूर्ण |
| विश्वादि चूर्ण | विद्याधराम्रलोह |
| विश्वादिचूर्ण | पीडारि रस |
| वचादिचूर्ण | शुल्बसुंदर रस |
| अजमोदादिचूर्ण | षण्मुख रस |
| वचादिचूर्ण | महाशूलहर रस |
| यवान्यादिचूर्ण | त्रिनेत्र रस पक्तिशूलादिकों पर |
| अजमोदादिचूर्ण | गजकेसरी |
| रुचकादिचूर्ण | शूलगजकेसरी |
| हिंग्वादि चूर्ण | गजकेसरी |
| शंखवटी | पथ्यादि रस |
| विषय | विषय |
| परिणामशूल निदान | कृष्णाद्य लोह |
| शूल के स्थान | कृष्णादि लोह |
| वातिकशूल के लक्षण | शंबूकादि गुटिका |
| पैत्तिकशूल के लक्षण | चतुःसमलोह |
| कफजन्यशूल के लक्षण | विडंगादि मोदक |
| द्वंद्वजसन्निपातशूल के लक्षण | तिलादि वटी |
| शूल के उपद्रव | खंडामलकरस |
| शूल के असाध्य लक्षण | जीर्णशूल पड गुड |
| परिणामशूल की सामान्यचिकित्सा | योगांतर |
| वातादिकों परसामान्यचिकित्सा | शंबूकभस्म योग |
| त्रिफलादि क्वाथ | नाभि पर मदनादि लेप |
| वमन | रसादि लेप |
| परिणामशूल पर कल्क | शतपुष्पादि लेप |
| शुंठीकल्क | कुबेराक्षयोग |
| विरेचन | क्षारयोग |
| वमन | खंडपिप्पली |
| गुडादि चूर्ण | मातुलुंगादि घृत |
| सामुद्रादि चूर्ण | तैल |
| इंद्रवारुण्यादि चूर्ण | अन्नद्रवशूल निदान |
| एरंडादि भस्म योग | अन्नद्रवशूल के लक्षण |
| पिप्पल्यादि योग | वमन-विरेचन |
| त्रिपुरभैरवरस | सामान्य यत्न |
| शूलदावानलरस | माषेंडरी |
| परिणामशूल पर मंडूर | धात्रीलोह |
| तारमंडूर | पायस |
| भीममंडूर | अन्न |
| लोहगुग्गुलु | अन्न |
| नारिकेलक्षार | अन्न |
| पथ्याद्य लोह | सामान्यचिकित्सा |
| लोहादि लेह | सामान्यचिकित्सा |
| विषय | विषय |
| भक्षण | उद्गारछर्दिनिरोधजउदावर्त्त की चिकित्सा |
| गुडमंडूर | उद्गार (डकार) जन्यउदावर्त्त पर |
| शतावरीमंडूर | छर्दिजन्यउदावर्त्त पर |
| शूलरोग में पथ्य | क्षुधातृषोत्थउदावर्त्त पर |
| शूलरोग में अपथ्य | श्रमनिद्रोत्थउदावर्त्त पर |
| आनाहोदावर्त्तकर्मविपाकः | सामान्य चिकित्सा |
| ज्योतिःशास्त्र का अभिप्राय | विधारादि लेप |
| उदावर्त्तनिदान | रसोनादि प्राश |
| वातनिरोधजन्यउदावर्त्त | कदलीफल योग |
| मल रोकने काउदावर्त्त | पंचमूलक्षीर |
| मूत्र रोकने काउदावर्त्त | सुवर्चलादि पेय |
| जंभाईरोकने काउदावर्त्त | धात्रीस्वरस |
| अश्रुपातरोकने काउदावर्त्त | वट्यादि यूष |
| छींकरोकने काउदावर्त्त | शामादि क्वाथ |
| डकाररोकने काउदावर्त्त | नाराचचूर्ण |
| वमनरोकने काउदावर्त्त | दंत्यादिक वर्ती |
| वीर्यरोकने काउदावर्त्त | हिंग्वादि चूर्ण |
| भूँकरोकने काउदावर्त्त | भद्रदार्वादि चूर्ण |
| प्यासरोकने काउदावर्त्त | हरीतक्यादि चूर्ण |
| श्वासोच्छ्वासरोकने काउदावर्त्त | गुडाष्टक |
| निद्राविघातजन्य उदावर्त्त | शुष्कमूलादि घृत |
| रूक्षादि कुपितवातजउदावर्त्त | त्रिकटुकाद्या वर्ति |
| अधोवातजन्यउदावर्त्त की चिकित्सा | मदनफलादिक फलवर्ति |
| मलनिरोधजउदावर्त्त की चिकित्सा | हिंग्वादि वर्ति |
| मूत्रनिरोधजउदावर्त्त की चिकित्सा | उदावर्त्त पर पथ्य |
| जंभाईनिरोधजउदावर्त्त की चिकित्सा | उदावर्त्त पर अपथ्य |
| बाष्पावरोधजव छींक के रोकने केउदावर्त्त की चिकित्सा | आनाहरोग निदान |
| जंभाईजनितउदावर्त्त की चिकित्सा | आमजन्य आनाह |
| छींकजन्य उदावर्त्त की चिकित्सा | पक्वाशयज आनाह |
| विषय | विषय |
| उदावर्त्त के असाध्य लक्षण | वातगुल्म पर हबुषादि घृत |
| सामान्यविधि | चित्रकादिघृत |
| चिकित्सापरिभाषा | हिंग्वादिघृत |
| आनाह | त्र्यूषणादिघृत |
| हिंग्वादि चूर्ण | तैल |
| फलचूर्ण | कुष्ठादि तैल |
| तुंबुरूचूर्ण | विडंगादि कल्क |
| वचादि चूर्ण | गुग्गुल योग |
| त्रिवृंतादि गुटिका | कुलत्थादि क्वाथ |
| श्नुह्यादि वटी | हिंग्वादि चूर्ण |
| दारुषट्कादि लेप | वातगुल्म पर विरेचन |
| दारुषट्कादि योग | शिखिवाडवरस |
| स्थिरादि घृत | पथ्य |
| उदावर्त्त पर पथ्य | पित्तगुल्म के लक्षण |
| उदावर्त्त पर अपथ्य | द्राक्षादि चूर्ण |
| अथ गुल्मरोगकर्मविपाकः | पित्तगुल्मपर विरेचन |
| गुल्मरोग निदान | पित्तगुल्मपर पथ्य |
| गुल्मरोग के स्थान | द्राक्षादि घृत |
| गुल्म का रूप | आमलक्यादि घृत |
| संप्राप्ति | त्रायमाणादि घृत |
| पूर्वरूप | कफगुल्मनिदान और लक्षण |
| गुल्म के साधारण रूप | सामान्य चिकित्सा |
| वातगुल्म के लक्षण | यवानी चूर्ण |
| वातगुल्म पर साधारणक्रिया | हिंग्वादि चूर्ण |
| सामान्यचिकित्सा | पंचकोलादि घृत |
| सामान्य उपचार | कफगुल्म पर पथ्य |
| मातुलुंगादि योग | तिलादि लेप और सेक |
| शून्यादि योग | सेक |
| केतकीक्षार योग | दशमूलादि तेल |
| वारुणीमंड योग | त्रिवृतादि घृत |
| विषय | विषय |
| विद्याधर रस | मूलिकादि धारण |
| नाराच रस | निंबादि वटी |
| द्वंद्वजगुल्म निदान और लक्षण | सठ्यादि कांकायन वटी |
| द्राक्षादि कल्क | यवान्यादि गुटीका |
| सैंधवादि तैल | स्वर्जिका वटी |
| नाराच रस | प्रवालपंचामृत |
| करंजादि पुटपाक | हिंग्वादि घृत |
| सन्निपातगुल्म | धात्री घृत |
| सामान्य | षट्पलघृत |
| वरुणादि क्वाथ | दधिक योग |
| वरुणक्वाथ मध्यविद्रधि पर | स्नुहिक्षीराद्य घृत |
| वरुणादि क्वाथ | अग्निमुख चूर्ण |
| जयंत्यादि दो क्वाथ | पिप्पल्यादिचूर्ण |
| राजवृक्षादि पुटपाक | हिंग्वादिचूर्ण |
| अभयादि योग | चित्रकादिचूर्ण |
| संप्राप्तिपूर्वक स्त्रीगुल्म | त्रिफलादि चूर्ण |
| दंत्यादि वटी | कुमारी योग |
| पलश घृत | नाराच चूर्ण |
| शताह्वादि कल्क | पूतिकादिचूर्ण |
| तिलक्वाथ | हस्तिकर्णादिचूर्ण |
| भार्ङ्ग्यादि चूर्ण | हिंग्वादिचूर्ण |
| तिलमूलादि चूर्ण | विद्याधर रस |
| मुंड्यादि चूर्ण | वडवानल रस |
| गुल्म के असाध्य लक्षण | गुल्मोदरगजाराति रस |
| दूसरे लक्षण | उद्दामाख्य रस |
| तीसरा लक्षण | नाराच रस |
| पुनर्नवादि कल्क | गुल्मकुठार रस |
| चित्रकादि क्वाथ | गुल्ममदेभसिंह रस |
| नादेयादि क्वाथ | वज्रक्षार |
| पारदादि वटी | गुल्मरोग पर क्षार |
| विषय | विषय |
| बत्ती | कफज हृद्रोगपरसामान्य चिकित्सा |
| चविकासव | त्रिवृतादि चूर्ण |
| कुमारी आसव | सूक्ष्मैलादिचूर्ण |
| दंतीहरीतकी लेह | सन्निपातज हृदायरोग निदान |
| चिंचाशंख वटी | त्रिदोषजहृद्रोग कीचिकित्सा |
| क्षारादि चूर्ण | कृमिजहृद्रोग निदान |
| सूर्यपुट से शंखद्राव | हृदायरोग के उपद्रव |
| द्वितीयशंखद्राव | कृमिहृद्रोग कीसामान्य चिकित्सा |
| तीसराशंखद्राव | गोमूत्रपान |
| क्षाराष्टक | दुग्धपान |
| शरपुंखक्षार | पौष्करादि क्वाथ |
| गुल्मरोग पर पथ्य | दशमूलादिक्वाथ |
| गुल्मरोग पर अपथ्य | एरंडादिक्वाथ |
| हृद्रोगकर्मविपाकः | बाल्हीकादिक्वाथ |
| ज्योतिःशास्त्रद्वारा निर्णय | नागरादिक्वाथ |
| हृद्रोग निदान | नागबलादिदुग्धपान |
| संप्राप्ति | हिंगुपंचकचूर्ण |
| वातजन्य हृदयरोग | पुष्करचूर्ण |
| पंचमूल क्वाथ | हरीणशृंगचूर्ण |
| पिप्पल्यादि चूर्ण | हिंग्वादिचूर्ण |
| पुष्करादि कल्क | ककुभत्वक्चूर्ण |
| पुनर्नवादि तैल | कटुक्यादिचूर्ण |
| पित्तजन्यहृदयरोग निदान | हरीतक्यादिचूर्ण |
| सामान्य चिकित्सा | पाठादिचूर्ण |
| द्राक्षादि चूर्ण | गोधूमादिचूर्ण |
| श्रीपर्ण्यादि रेचन और वमन | वल्लभ घृत |
| हारहूरादि चूर्ण | यष्ट्यादिघृत |
| अर्जुनादि क्षीर | बलादिघृत |
| कासेरुकादि क्वाथ | हृदयार्णव रस |
| कफजहृद्रोग निदान | रसायन |
| विषय | विषय |
| हृद्रोग पर पथ्य | सामान्य क्रम |
| हृद्रोग पर अपथ्य | लोहभस्म योग |
| मूत्रकृच्छ्रकर्मविपाकः | रसपान |
| ज्योतिष | पुरीषज मूत्रकृच्छ्र |
| मूत्रकृच्छ्र निदान | सामान्य चिकित्सा |
| संप्राप्ति | गोक्षुरक्वाथ |
| वातमूत्रकृच्छ्र निदान | आमलक्यादि क्वाथ |
| वातमूत्रकृच्छ्र पर सामान्ययत्न | एलाचूर्ण |
| क्वाथ | खर्जूरादि चूर्ण |
| त्रिकंटकादिक्वाथ | त्रिफलादि कल्क |
| एलादि चूर्ण | अश्मरीजन्यमूत्रकृच्छ्र |
| पित्तमूत्रकृच्छ्र निदान | अश्मरीजन्यमूत्रकृच्छ्र |
| कुशकाशादि क्वाथ | क्वाथ |
| शतावरीक्वाथ | एलदि क्वाथ |
| एर्वारुबीजपान | शुक्रज मूत्रकृच्छ्र |
| द्राक्षादि कल्क | सामान्य चिकित्सा |
| नारिकेलजलपान | तृणपंचमूल घृत |
| रक्तनारिकेलजलपान | बलादि क्षीर |
| कफजन्यमूत्रकृच्छ्र निदान | पथरी और शर्करा का निदान |
| कफजन्यमूत्रकृच्छ्र की सामान्य चिकित्सा | मूलपंचक योग |
| एलादि चूर्ण | दाडिमादि रसपान |
| सितदारुकादि चूर्ण | निदग्धिकारसपान |
| सन्निपातमूत्रकृच्छ्र निदान | यवक्षारपान |
| बृहत्यादि क्वाथ | यवक्षारपान |
| शतावर्यादि क्वाथ | पाषाणभेद क्वाथ |
| दुग्ध योग | हरीतक्यादिक्वाथ |
| यवक्षार | पाषाणभेदादिक्वाथ |
| गोकंटकादि लेह | गोक्षुरादिक्वाथ |
| शल्पज मूत्रकृच्छ्र | हरीतक्यादिक्वाथ |
| यवादि क्वाथ |
| विषय | विषय |
| कंटकादि घृत | मूत्राघात के असाध्य लक्षण |
| शतावर्यादि घृत | बस्तिकुंडलिका के लक्षण |
| त्रिकंटकादि गुग्गुल | साध्यासाध्यत्वकथन |
| गोक्षुरादि लेप | मूत्राघात की सामान्य चिकित्सा |
| किंशुकस्वेद | गोक्षुरादि वटी |
| आखुविट्कल्क | पयादि |
| त्रपुसादि बीजपूर रस | ऐर्वारुबीजादि कल्क |
| मंथादि योगत्रय | सामान्य यत्न |
| हरिद्रादि योग | वीरतर्वादि क्वाथ |
| भृष्टेक्षुरसपान | सशूलमूत्राघात पर |
| कुटज योग | त्रिफलादि क्वाथ |
| लघुलोकेश्वर | गोधावन्यादिक्वाथ |
| चंद्रकला रस | दशमूलदि क्वाथ |
| बृहद्गोक्षुराद्य लेह | गोक्षुरादि क्वाथ |
| मूत्रकृच्छ्र पर पथ्य | प्रकारंतर |
| मूत्रकृच्छ्र पर अपथ्य | वरुणादि क्वाथ |
| मूत्राघातनिदानचिकित्सा | शतावर्यादि स्वरस |
| मूत्राघात के १२ भेद | तिलक्षार योग |
| वातकुंडलिका के लक्षण | कर्पूरवर्ती |
| अष्ठीलाके लक्षण | निदग्धिका स्वरस |
| वातबस्तिके लक्षण | शिलाजतु योग |
| मूत्रातीतके लक्षण | कर्कटीबीजादि चूर्ण |
| मूत्रजठरके लक्षण | भद्रादि चूर्ण |
| मूत्रोत्संगके लक्षण | स्वगुप्तादि चूर्ण |
| मूत्रक्षयके लक्षण | उशीरादि चूर्ण |
| मूत्रग्रंथके लक्षण | क्षौद्राद्य घृत |
| मूत्रशुक्र के लक्षण | धान्यकादि घृत |
| उष्णवात के लक्षण | चित्रकाद्य घृत |
| मूत्रसादके लक्षण | मूत्राघात पर पथ्य |
| विड्विघात लक्षण | मूत्राघात पर अपथ्य |
| विषय | विषय |
| अश्मरीरोगकर्मविपाकः | त्रिविक्रम रस |
| शांति | रसभस्म योग |
| ज्योतिःशास्त्र का मत | लघुलोकेश्वर रस |
| अश्मरी ( पथरी ) निदान | गंधर्वादि कल्क |
| संप्राप्ति | तिलादि क्षार |
| अश्मरी का पूर्वरूप | शिलाजतु योग |
| अश्मरी के सामान्य लक्षण | हिंग्वादि योग |
| वाताश्मरी के लक्षण | शृंगबेरादि कल्क |
| अश्मरी की सामान्य चिकित्सा | आनंदभैरवीवटी |
| शुंठ्यादि चूर्ण | मंजिष्ठादि चूर्ण |
| यवादि घृत | त्रिकंटकादि चूर्ण |
| वीरवर्तादि क्वाथ | केशरयोग |
| अन्न | पाषाणभेदि रस |
| वरुणमूल क्वाथ | तिलपुष्पक्षारयोग |
| पित्ताश्मरी | गोपालकर्कटीमूल योग |
| पाषाणभेदि क्वाथ | अर्कपुष्पी कल्क |
| कफ की पथरी का लक्षण | शतावरीमूल रस |
| इस का बालकों के होना | वरुणादि क्वाथ |
| शिग्रुक्वाथ | क्वाथ |
| शुक्राश्मरी निदान | शिगृमूल क्वाथ |
| शुक्राश्मरी के कार्य | तुषकषाय |
| शुक्राश्मरी की सामान्य चिकित्सा | शुंठ्यादि क्वाथ |
| यवक्षार योग | आकल्लकादिक्वाथ |
| कुटज योग | पाषाणभेदादि क्वाथ |
| शर्कराश्मरी निदान | कुलित्थक्वाथ |
| शर्करा के असाध्य लक्षण | कूष्मांडस्वरस |
| पाषाणभेद रस | वरुणादि घृत |
| विषय | विषय |
| पाषाणभेद पाक | स्त्रियों के प्रमेह न होने में कारण |
| वरुणादि गुड | प्रमेह के असाध्यलक्षण |
| अश्मरी ( पथरी ) पर पथ्य | मधुमेहोत्पत्ति और कारण |
| पथ्य | दो प्रकार के मधुमेहों के कारण |
| अश्मरीपर अपथ्य | आवरण के लक्षण |
| प्रमेहरोगकर्मविपाकः | मधुमेहप्रवृत्तिनिमित्त |
| सशूलप्रमेह का कर्मविपाक | लोध्रादि क्वाथ |
| वातप्रमेह कर्मविपाक | कफजन्यमेहों पर क्रम से दश क्वाथ |
| मधुमेह का कर्मविपाक | शनैमेंह |
| प्रमेह निदान | पिष्टप्रमेह |
| कफादि प्रमेहों की संप्राप्ति | सिकताप्रमेह |
| कफादि प्रमेहों का साध्यासाध्यत्व | उदकप्रमेह |
| प्रमेहों मे दोष और दूष्य तथा संख्या | सांद्रप्रमेह |
| पूर्वरूप | लालाप्रमेह |
| प्रमेह के सामान्य लक्षण | शुक्रमेह |
| प्रमेह के वीस भेद | शीतप्रमेह |
| कफजन्य उदकादि दश प्रमेह | इक्षुप्रमेह |
| पित्तप्रमेह के छः भेद | सुराप्रमेह |
| क्षारादि प्रमेहों के लक्षण | पित्तप्रमेह पर चार क्वाथ |
| वातजन्यमेह | पित्त की छः प्रमेहों पर क्रम से छः क्वाथ |
| वसादि मेहों के लक्षण | क्षारप्रमेह |
| कफप्रमेहों के उपद्रव | हरिद्राप्रमेह |
| पित्तप्रमेहों के उपद्रव | मंजिष्ठप्रमेह |
| वातप्रमेहों के उपद्रव | शोणितप्रमेह |
| असाध्यलक्षण | दुष्टरक्तज प्रमेह |
| नीलप्रमेह |
| विषय | विषय |
| सर्पिप्रमेह वातजन्य | एलादि चूर्ण |
| छिन्नादि क्वाथ | कर्कट्यादि चूर्ण |
| हस्तिमेह | त्रिफलाचूर्ण |
| हस्तिमेह पर क्षार | गुग्गुलु |
| वसामेह और हस्तिमेह पर क्वाथ | गोक्षुरादि गुग्गुलु |
| क्षौद्रमेह और सर्पिमेह पर क्वाथ | चंद्रकलावटी |
| द्वितीययोग | चंद्रप्रभावटी |
| वसामेह | सिंहामृतघृत |
| कफपित्तप्रमेह पर | हरिद्रादि तैल |
| कफवातजन्यप्रमेह पर | सुपारीपाक |
| पित्तवातज प्रमेह | असगंधपाक |
| त्रिफलादि क्वाथ | शाल्मलीपाक |
| त्रिफलादि क्वाथ दूसरा | द्राक्षापाक |
| पलाशपुष्प क्वाथ | अभ्रकयोग |
| प्रमेहनाशक योगत्रय | नागभस्मयोग |
| विडंगादि क्वाथ | गंधकयोग |
| प्रकारांतर | शिलाजतुयोग |
| चणकयोग | स्वर्णमाक्षिकभस्मयोग |
| योगचतुष्टय | बहुसूत्रमेह का निदान |
| शालादि कल्क | दूसरा प्रकार |
| वंग तथा नागभस्म | त्रिफलादि योग |
| द्विनिशादि हिम | देवदर्व्यारिष्ट |
| गुडूची तथा धात्रीरसयोग | लोध्रासव |
| अंकोल्यादि योग | तालकेश्वर रस |
| भूवात्र्यादि योग | वंगेश्वर रस |
| कतकबीजयोग | आनंदभैरव रस |
| शाल्मलीस्वरस | प्रमेहबद्ध रस |
| विषय | विषय |
| हरिशंकर रस | संप्राप्ति |
| मेघनाद रस | बढी हुई मेद के उपद्रव |
| निंबबीज कल्क | मेद रहने के स्थान |
| मेहारि रस | मेदरोग में जठराग्नि प्रदीप्त होने में कारण |
| चंद्रोदयरस | बढी मेद नाश का कारण होती है यह कथन |
| वंगेश्वर रस | अत्यंत मेद बढने का परिणाम |
| मेहकुंजरकेसरीरस | स्थूल लक्षण |
| पंचलोहरसायन | उवटना |
| महवंगेश्वररस | सामान्य योग |
| वंगभस्म | चव्यादि चूर्ण |
| वसंतकुसुमाकर रस | फलत्रिकादि चूर्ण |
| जलजामृत रस | मेद पर सामान्य चिकित्सा |
| प्रमेह की उपेक्षा से प्रमेह पिटकाओं का होना | नवकगुग्गुल |
| पिटिका के कारण | मेद पर उपचार |
| दश पिटिकाओं के लक्षण | तालपत्र का क्षार |
| असाध्य पिटिका | मोचरसादि लेप |
| प्रमेह के साध्य लक्षण | हरीतक्यादि उद्वर्तन |
| पिडिका के उपद्रव | उवटना |
| पिडिका की सामान्य चिकित्सा | क्वाथ |
| न्यग्रोधादि चूर्ण | त्र्यूपणाद्य लेह |
| पिटिकाओं पर लेप | उवटना |
| प्रमेह पर पथ्य | बब्बूलादि उद्वर्तन |
| प्रमेहरोग में अपथ्य | वासादि लेप |
| मेदोरोगनिदानचिकित्सा | त्रिफलादि तैल |
| मेदरोग निदान |
| विषय | विषय |
| महासुगंधि तैल | पित्तोदर के लक्षण |
| वडवाग्नि रस | पित्तोदर का समान्य यत्न |
| रसभस्म योग | सातलादि घृत |
| त्रिमूर्ति रस | त्रिवृतादि घृत |
| मेद पर सामान्य उपचार | कफोदर के लक्षण |
| मेदरोग पर पथ्य | कफोदर का यत्न |
| मेदरोग पर अपथ्य | सन्निपातोदर का निदान |
| उदररोगकर्मविपाकः | सन्निपातोदर |
| शांति | नागरादि तैल |
| जलोदर का कर्मविपाक | दूप्योदरसंज्ञा |
| शांति | शंखिनी घृत |
| प्रकारांतर | प्लीहोदर |
| शांति | प्लीहोदर पर सामान्य यत्न |
| प्लीहोदरकर्मविपाक | शरपुंखामूल कल्क |
| शांति | तक्र |
| उदर निदान | रोहितादि कल्क |
| उदररोग की संप्राप्ति | पिप्पल्यादि क्वाथ |
| उदररोगों का सामान्य लक्षण | शाल्मलीपुष्पपाक |
| उदर की संख्या | लवणादि तक्र |
| वातोदर के लक्षण | शुक्तिक्षार योग |
| वातोदर का सामान्य यत्न | एरंडभस्म योग |
| तक्रपान | भल्लातकादि मोदक |
| चूर्ण कषाय | लशुनादि |
| शिलाजतुचूर्ण | सौभांजनक योग |
| कुष्ठादि चूर्ण | रक्त्रस्राव और दाग |
| समुद्रादि चूर्ण | प्लीहोदर पर शंखनाभि चूर्ण |
| वातोदर पर घृत | कुष्ठादि चूर्ण |
| विषय | विषय |
| लघुहिंग्वादि चूर्ण | जल निकालने में नियम |
| सिंध्वादि चूर्ण | जल निकालने पर व्रण पर लेप |
| नागवटी | जलोदर लक्षण |
| विडंगादि चूर्ण | छाछ |
| यवान्यादि चूर्ण | जलोदरारि रस |
| वज्रक्षार | जलोदर पर रेचन |
| क्षारादि योग | पेट फूलने पर यत्न |
| क्षारभावितपिप्पली | छः महिने तक नियम |
| अर्कपत्रक्षार | अन्न |
| अग्निमुखलवण | साध्यासाध्य विचार |
| रोहितकघृत | असाध्य लक्षण |
| चित्रकाद्य घृत | असाध्य लक्षण |
| रक्तस्राव | यत्न |
| शिरावेध | रेचन |
| यकृतोदर | ज्योतिष्मतीतैल |
| दोषसंबंध | गोमूत्र योग |
| यकृद्दल्युदर | उदर पर यत्नांतर |
| पिप्पली कल्क | वर्द्धमान पीपल |
| समान्यकृतोपचार | जलोदर पर योग |
| बद्धगुदोदर | देवदार्व्यादि लेप |
| हपुषादि चूर्ण | प्रयोगांतर |
| बस्तिप्रकार | चव्यादि क्वाथ |
| उत्तरबस्ति | देवद्रुमादि |
| क्षतोदर | नारयण चूर्ण |
| वेधक्रिया तथा पाटनक्रिया | हपुषादिचूर्ण |
| वेधस्थान | उदररोग परचूर्ण |
| वेध करने का प्रकार | पटोलादिचूर्ण |
| विषय | विषय |
| उदर पर बिंदु घृत | इच्छाभेदी रस |
| पंचमूल घृत | शोफोदर |
| नाराच घृत | हरीतक्यादि क्वाथ |
| बिंदुघृत | पुनर्नवादि योग |
| त्रिवृतादि घृत | पुनर्नवादि क्वाथ |
| हिंग्वादि घृत | शोथोदर चिकित्सा |
| उदर पर वंगेश्वर रस | माहिषमूत्रपान |
| त्रैलोक्यडंबर | बिल्वादि क्वाथ |
| रेचन | उदररोग पर पथ्य |
| उदररोग पर अपथ्य |
इत्यनुक्रमणिका समाप्ता.
पुस्तक मिलनेका ठिकाना -
गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर छापखाना
कल्याण- मुंबई.
वैद्यकग्रन्थाः।
१ हारीतसंहिता भाषटीकासहित
२ अष्टाङ्गहृदय ( वाग्भट ) भाषाटीका अत्युत्तम
३ बृहन्निघण्टुरत्नाकर प्रथमभाग
४बृहन्निघण्टुरत्नाकर द्वितीयभाग
५बृहन्निघण्टुरत्नाकर तृतीयभाग
६ बृहन्निघण्टुरत्नाकर चतुर्थभाग
७ रसराजसुन्दरभाषाटीकासहित
८ शार्ङ्गधर निदानसह भाषाटीका पं. दत्तराम चौबेकृत
९अमृतसागर कोशसहित हिन्दी भाषामें नवीन छपके तैयार है की. रु.२ आ. ८, तथा रफ्
१०अमृतसागर मारवाडी भाषा
११ चिकित्साखण्ड भाषाटीका प्रथमभाग
१२चिकित्साक्रमकल्पवल्ली संस्कृत काशिनाथकृत
१३ माधवनिदान उत्तम भाषाटीका
१४ अंजननिदानभाषाटीकाअन्वयसहित
१५ योगतरङ्गिणी बहोतही उत्तम
१६ वीरसिंहावलोकन ज्योतिषशास्त्रादिकर्मविपाकचिकित्सा नवीन टाइपमें अतिउत्तम
१७ राजवल्लभनिघंटु भा. टी.
१८ लोलिंबराज वैद्यजीवन संस्कृतटीका और भा.टी.
१९ अनुपामदर्पणभाषाटीकासह
२० मदनपालनिघंटु भा. टी.
२१ ज्ञानभैषज्यमञ्जरीभाषाटीकासह
पुस्तकें मिलनेका ठिकाना.
लक्ष्मीवेंकटेश्वर छापखाना कल्याण- मुंबई.
Pege no. ५९ to ५९७ are missing from this Book.
अजीर्ण रोगाधिकारः।
अजीर्ण
मन्दाग्निहर
मन्दोदराग्निर्भवति सति द्रव्येण वै यजेत् ।
प्राजापत्यत्रयं कृत्वा भोजयेत्स शतं द्विजान् ॥
अर्थ-जो पुरुष धनवान होकर (बलि वैश्वदेवादि) यज्ञ नहीं करे उस के मंदाग्नि का रोग होता है । इस पाप के कारण इस का प्रायश्चित्त यह है कि वहतीन प्राजापत्य व्रत करे और सौ ब्राह्मणों को भोजन करावे ॥
पाराशर
गोमांसभक्षको मन्दजठराग्निर्भवेन्नरः। प्राजापत्यं चरेत्कृछ्रमतिकृछ्रंतथैव च॥ अग्निमन्त्रंजपेन्नित्यं श्रीसूक्तं च विचक्षणम् ॥
अर्थ-पाराशर संहिता में लिखाहै कि जो प्राणी पूर्व जन्म में गोमांस भक्षण करता है उस के इस जन्म में मंदाग्निका रोग होता है. इस पाप के दूर करने को कृच्छ्रातिकृछ्रप्राजापत्य व्रत करे और**“अग्निरश्मि”** इस मंत्र का तथा श्रीसूक्त का जप करे तो यह रोग नष्ट होवे॥
कर्मविपाकसंग्रह
अकारणं गरं दत्त्वा प्रमारयति यः पुनः। स मन्दाग्निर्भवेदेव मृतकल्पश्च जायते॥याते रुद्रेण सूक्तेन चरुं च जुहु-याद्घृतम्। अष्टोत्तरयुतं सम्यक् तत्पापस्यापनुत्तये॥ तामग्निवर्णामिति चजपेत्सुक्तं सहस्रकम्। भोजयेद्ब्राह्मणान् सम्यक् चत्वारिंशत्सुखी भवेत्॥
अर्थ-जो प्राणी पूर्वजन्म में बिना कारण दूसरे को विष (जहर) देकर मार डालता है वो इस जन्म में मंदाग्निवाला होता है।उस का जीना मुर्देके समान है। उस को इस का प्रयश्चित्तयह करना चाहिये कि “याते रुद्र” इस सूक्त से चरुऔर घृत का एक सौ आठ बारहवन करे तथा**“तामग्निवर्णा”** इम सूक्त का एक हजार जप करे । तथा४० ब्राह्मणों को भोजन करावेतो इस प्राणीका मंदाग्निरोग दूर होवे॥
जठराग्निनिदान
मन्दस्तीक्ष्णोतिविषमः समश्चेति चतुर्विधः।
कफपित्तानिलाधिक्यात्तत्साम्याज्जाठरोऽनलः॥
अर्थ-मनुष्य के कफ की प्रकृति से मंदाग्नि, पित्त की प्रकृति से तीक्ष्णाग्नि, वात की प्रकृति से विषमाग्नि, तथा वात, पित्त, कफ इन के समान होने से समाग्नि होती है। ऐसे अग्नि चार प्रकार की है-इस में मन्दाग्नि को दुर्जय होने से प्रथम कहीं और(जाठर) शब्द कहने से धातु की अग्नि का त्याग जानना ॥
विषूच्यादिनिदान
अजीर्णमामं विष्टब्धं विदग्धं च यदीरितम् ।
विषूच्यलसको तस्माद्भवेच्चापि विलम्बिका ॥
अर्थ-आम, विष्टब्ध और विदग्ध ये जो अजीर्ण कहे हैं उन से विषूचिका (हैजा), अलस और विलंबिका पैदा होय हैं । इन में चौथे रंस शेषअजीर्ण को विषूच्यादि उत्पादक नहीं लिखा है इस का कारण यह है कि उस रसाजीर्णको अपरिणाममात्रत्वकरके विषूचिका आदि के आरंभत्व स्वभावादिकीके कहने से आम, विदग्ध और विष्टब्धइन से क्रमपूर्वक विषूचिका, अलस, विलंबिका ये प्रगट होती हैं ऐसे कार्तिककुंड आचारी कहता है सो असत्य है क्यौंकि विदग्धाजीर्ण को विलंबिका का प्रगट करना असम्भव है क्यौंकि उस विलंबिका को आगे कफवात से प्रगट होना कहैंगेऔर विदग्धभावकीपित्तजन्यता है यासे ये मत मन्तव्य नहीं है । इसी कारण तीनों अजीर्ण मिलकर विषूचिका आदि को प्रगट करते हैं यह बकुल आचारी का मत है॥
चतुर्विध अग्नि के कार्य
विषमो वातजान्रोगांस्तीक्ष्णः पित्तनिमित्तजान् ।
करोत्यग्निस्तथा मन्दो विकारान्कफसंभवान्॥
अर्थ-विषमाग्नि वातजन्य ८० रोगों में से किसी रोगको प्रगट करे और सामान्य ज्वरातिसारादिक को प्रगट करे। तीक्ष्णाग्नि पित्त के ४० रोगों में सैंकिसी रोगको प्रगट करे। उसी प्रकार मन्दाग्नि कफजन्य २० रोगों में से किसी रोग को पैदा करे और मालस्यादिक को उत्पन्न करे ॥
प्रकारांतर
समासमाग्नेरशिता मात्रा सम्यग्विषच्यते । स्वल्पापि नैव-
मन्दाग्नेर्विषमाग्नेस्तु देहिनः॥ कदाचित्पच्यते सम्यक्कदाचिन्न विषच्यते। मात्रातिमात्राप्यशिता सुखं यस्य-विषच्यते॥तीक्ष्णाग्निरिति तं विद्यात्समाग्निः श्रेष्ठ उच्यते।
अर्थ-समाग्निवाले पुरुष के यथोचित आहार भले प्रकार पाचन होता है और मन्दाग्निवाले पुरुष के थोडा भी आहार यथार्थ नहीं पचता और विषमाग्निवाले मनुष्य के कभी अच्छी तरह से अन्न पचे और कभी नहीं पचे और बहुतभोजन करा भी जिस के सुखपूर्वक पच जावेउस को तीक्ष्ण अग्नि कहते हैं। इन चारों प्रकार की अग्नि में समाग्निउत्तम है। तीक्ष्णाग्नि के कहने से भस्मक का ग्रहण नहीं करना चाहिये क्यौंकि अत्यंत तीक्ष्णाग्नि को भस्मक कहते हैं उस के लक्षण चरक में कहे है॥
हिंग्वाष्टकचूर्ण
त्रिकटुकमजमोदा सैन्धवं जीरके द्वे समचरणधृतानामष्टमो हिङ्गुभागः। प्रथमकवलभुक्तं सर्पिषाचूर्णमेतज्ज-नयति जठराग्निं वातगुल्मं निहन्ति॥
अर्थ-सोंठ, काली मिरच, छोटी पीपल, अजमोद ( अजमायन ) सैंधानिमक, सफेद जीरा, काला जीरा और हींग ये सब औषध समान भाग लेवे । इस चूर्ण को भोजन के समय दालभात या खिचडी में डाल घी मिलाय के पहले इस का ग्रास (गस्सा) लेवे फिर यथेच्छ भोजन करे तो जठराग्नि प्रबल हो और वायगोला आदि अनेकरोग दूर हो । इस में हींग को घी में भून के डालनी चाहिये ॥
जीरकादिचूर्ण
जरणरुचकशुण्ठीपिप्पलीतीक्ष्णवेल्लंसलवणमजमोदाहिङ्गुपथ्येतिकर्षम्। पृथगथ पलमात्रा स्यात्त्रिवृच्चूर्ण-मेषांजननमुदरवह्नेःपाचनं रोचनं च॥
अर्थ-जीरा, संचरनिमक, सोंठ, पीपल, काली मिरच, वायविडंग, सैंधानमक, [अजमोद1, हींग और हरड ये प्रत्येक औषधी एक २ तोले लेवे; तथा निसोथ ४तोले लेवे । इन सब को कूटपीस चूर्ण करे । इस का सेवन करे तोजठराग्निको दीपन करे, पाचक और रुचि को उत्पन्न करता है॥
Pege no. ६०० and ६०१ are missing from this Book.
ग्निसंभवान्। पक्वान्नमाशु धात्वादीन्संक्षिप्तं नाशयेत्तनुम् ॥ क्षणाद्भुक्तं भवेद्भस्म स रोगो भस्मकः स्मृतः।
अर्थ-इस प्राणीका कफ क्षीण होवे तंब पित्त वातके साथ अपने स्थानमें प्राप्त हो जठराग्निको अत्यंत बढावे उसको भस्मकरोग कहते है । यह तृषा, दाह, श्वास, मूर्छा, आदि अति अग्निके रोगोंको करे है । यह अन्नको पचाय कैफिर रसरक्तादि धातुओंको पचाय देहको नष्ट करे । इस रोगमें भोजन कराहुआ पदार्थ क्षणमात्रमें पच जाता है इसीसे इसको भस्मकरोग कहा है।
चिकित्साक्रम
तं भस्मकं गुरुस्निग्धसान्द्रमण्डहिमस्थिरैः ।
अन्नपानैर्नयेच्छान्तिं पित्तघ्नैश्च विरेचनैः॥
अर्थ-भस्मक रोगवाले को भारी और चिकने ऐसे अन्न तथा कठोर पदार्थ, मंड, हिम, तथा बहुत देर में पचनेवाले अन्न और पान तथा पित्तनाशकारी यत्न इन से दूर करे तथा पित्तनाशक जुलाबदेवे ॥
भस्मकचिकित्सा
कफे पूर्व जिते पित्तं मारुते चानलः समः।
समधातोः पचत्यन्नं पुष्टचायुर्बलवर्धनः॥
अर्थ-कफपित्त और वायुको प्रथम जीतनेपर समानधातु मनुष्य की अग्नि को समान कर देती हैं इसीसैंअन्न उत्तम प्रकारसैंपचाकर आयुष्य पुष्टी और बलको बढाने वाली होती है ॥
अजीर्ण का निदान
अत्यम्बुपानाद्विपमाशनाच्च संधारणात्स्वमविपर्ययाच्च । कालेपि सात्म्यं लघुचापि भुक्तमन्नं न पाकं भजते नरस्य॥ ईर्ष्याभयक्रोधपरिक्षितेन लुब्धेन शुग्दैन्यनिपीडितेन । प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक्प-रिपाकमेति ॥
अर्थ- बहुतजल पीने से, भोजन के समय को छोड़ पीछे भोजन करने सें, मल-मूत्र आदि वेगों के रोकने से, दिन में सोमने से, रात में जागने से-इन कारणों से भोजन के समय यदि लघु और हितकारी पदार्य खाय तो भी अन्नअच्छीरीति से नहीं पचे ये देह के कारण कहे। अबअजीर्ण के कारण जो मन से सम्बंध रखते हैं उन को कहते हैं
ईर्ष्या कहिये परद्रव्य को न देख सकना, डरना, क्रोध करना इन कारणों से तथा लोभ शोक दीनता इन कारणों से और मत्सरता करना इन कारणों से मनुष्य के भोजन करा हुआ अन्न भले प्रकार पचता नहीं है ॥
आमाजीर्णलक्षण
तत्रामे गुरुतोक्लेदः शोथो गण्डाक्षिकूटगः ।
उद्गारश्च यथाभुक्तमविदग्धं प्रवर्तते॥
अर्थ-उन चारों अजीर्णों में प्रथम आमाजीर्ण के लक्षण कहते है, पेट और अंग भारी होंय, वमन का होना ऐसा पतीत हो, कपोल और नेत्रों में सूजन होवे और इसी अजीर्ण के प्रभाव से जैसा मीठा आदि भोजन करा होयउसी प्रकार की ड़कार आवेहै॥
वचादिवमन
वचालवणतोयेन वान्तिरामे प्रशस्यते। धान्यनागरसिद्धं वा तोयं दद्याद्विचक्षणः॥आमाजीर्णप्रशमनं शूलघ्नं बस्ति-शोधनम् ।
अर्थ-आमाजीर्ण पर वच और सैधानिमक इन के चूर्ण को गरम जल के साथ देवे । यह वमन कराने में उत्तम है । फिर धनिया, और सोंठ इन का काढा देवे तो आमाजीर्ण का नाश होय तथा बस्ति का शोधन होवें ॥
लवंगादि क्वाथ
लवङ्गपथ्ययोः क्वाथः सैन्धवेनावधूलितः।
पीतःप्रशमयत्युग्रमजीर्णं रेचयत्यपि ॥
अर्थ-लौग और हरड़ इन का काढा सैधानिमक डालके देवे ते आमाजीर्ण का नाश करे तथा दस्त कराता है॥
वैश्वानरक्षार
स्नुह्यर्कचित्रकैरण्डलवणं सपुनर्नवम् । तिलापामार्गकदलीपला शंतिन्तिणी तथा ॥ गृहीत्वा ज्वालयेदेतत्प्रस्थं भस्माखिलं च तत् । जलाढके विपक्तव्यं यावत्पादावशेषितम् ॥ स प्रसन्नं विनिःश्राव्य लवणप्रस्थसंयुतम् । पक्वंनिर्धूमकठिनं सूक्ष्मं चूर्णं कृतं पुनः ॥ यवानीजीरकव्योपस्थूलजीरकहिङ्गुभिः । पृथगर्धपलैरोभिश्चूर्णितै-स्तद्विमिश्रयेत् ॥ आर्द्रकस्वरसेनापि
भावयेच्छोषयेत्पुनः। शीतोदकेन तच्चूर्णं पिबेत्प्रातर्हि मात्रया॥ तस्मिन् जीर्णेन्नमश्नीयाद्यूपैर्जाङ्गलजै रसैः। ईषदम्लैः सलवणैः सुखोष्णैर्वह्निदीपनैः॥ एतेनाग्निश्च वर्धेत बलमारोग्यमेव च । तत्रानुपानं शस्तं हि तक्रंवा भोजने हितम्॥ मन्दाग्न्यर्शोविकारेषु वातश्लेष्मामयेषु च। सर्वाङ्गशोथरोगेषु शूलगुल्मोदरेषु च॥ आमार्शः-शर्करायां तु विण्मूत्रानिलरोगिषु ।
अर्थ-थूहर, आक, चीते की छाल, अरंड, निमक, पुनर्नवा (सांठ), तिल, ओंगा, केला, पलास (ढाक ) और इमली की छाल इन सब की भस्म करके २५६ तोले लेवे । इस को १०२४ तोले जल में डालके औटावे. जब चतुर्थांश काढा रहे तब उस को उतारके छान लेवे। इस में ६४ तोले निमक मिलाके और फिर ओंटावे. तो निर्धूम और कठोर ऐसा क्षार बनके तयार होवे \। उस को लेकर बारीक चूर्ण करे उसमें अजमायन, जीरा, सोंठ, काली मिरच, पीपल, मगरेला और हींग ये प्रत्येक दो तोले मिलायके अदरख के रस की भावना देकर सुखाय ले । इस में से प्रातःकाल में बलाबलविचार शीतल जल के साथ देवे । फिर जबऔषध पचजावे तब जंगली जीवों का मांसरस और यूप कुछ २ खट्टे और नमक मिलायके मंदोष्णतथा अग्नि के प्रदीप्त , करनेवाले ऐसे पदार्थ देवे तो अग्नि, बल, आरोग्य इन की वृद्धि करे । इस औषध पर पश्चात् छाछ पीवे अथवाभोजन के समय देवे । मंदाग्नि, बवासीर, वादी, कफ, सर्वोग की सूजन, शूल, गोला, उदररोग, आम, अर्श, शर्करा और मल तथा मूत्र संबंधी एवं वादी के रोग इन को दूर करे। यह वैश्वानर नामक क्षार परम चमत्कारी है॥
सामुद्रादि चूर्ण
सामुद्रसौवर्चलसैन्धवानां क्षारो यवानां च तथाजमोदा। हरीतकीपिप्पलिशृङ्गवेरं हिङ्गुर्विडङ्गं च समानि कुर्यात् ॥ एतानि चूर्णानि घृतप्लुतानि भुञ्जीत ग्रासान्प्रथमं च पञ्च। अजीर्णवातं गुदगुल्मवातं वातप्रमेहं विषमं च वातम् ॥ विषूचिकाकामलपाण्डुरोगं श्वासं च कासं च हरेत्प्रयुक्तम्॥
अर्थ- समुद्रनमक, संचरनोन, सैंधानोन, जवाखार, अजमायन, हरड, पीपलछोटीसोंठ घाड़की, हींग और वायविटंग ये समान भाग लेवे। सब का चूर्ण करके घी में सानलेवे। इस को भोजन के समय पाहले पांच ग्रास (पांच गस्सों) में
मिलायके खाय तो अजीर्ण, वादी, गुदा की वादी, वायगोला, वातप्रमेह, विषमवात, विषूचिका, कामला, पांडुरोग, श्वास और खांसी इन का नाश करे ॥
हरीतक्यादि योग
हरीतकी तथा शुण्ठी भक्ष्यमाणा गुडेन वा ।
सैन्धवेन युता वा स्यात्सातत्येनाग्निदीपनी॥
अर्थ-हरड अथवा सोंठ को गुड में मिलायके अथवा सैधेनमक के साथ नित्य नेम से भक्षण करे तो अग्नि को दीपन करे ॥
गुडादि चतुष्क आमाजीर्णादि के ऊपर
गुडेन शुण्ठीमथवोपकुल्यां पथ्यां तृतीयामथ दाडिमं वा।
आमेष्वजीर्णेषु गुदामयेषु वर्चोविवन्धेषु च नित्यमद्यात्॥
अर्थ-गुड के साथ सोंठ अथवा पीपल अथवा हरड अथवा अनारदाना खाय यह आमाजीर्ण, बवासीर, मल की रुकावट इन पर परमोत्तम प्रयोग है ॥
आहारं पचति शिखी दोपानाहारवर्जितः पचति ।
दोपक्षये च धातून्धातुक्षैण्ये तथा प्राणान्॥
अर्थ-जठराग्नि प्रथम आहार को पचाता है, जब आहार पचाने को नहीं रहे तब वातादि दोषोंको पचावे, जब दोषभी पच जाते है तब वहींअग्नि धातुओं का पाचन करे, जब धातु भी पच जाते है तब इस प्राणी के प्राणों का नाश करे है।
मुहुर्मुहुरजीर्णेपि भोज्यान्यस्योपहारयेत् ।
निरिन्धनोन्तरं लब्ध्वा यथैनं न विपादयेत्॥
अर्थ-वारंवार अजीर्ण होने पर भी वैद्य को उचित है कि इस प्राणी को थोडा बहुत भोजन कराता रहे इसका कारण यह है कि यदि जठराग्नि को भोजन न मिलने से क्दाचित् शांति होकर इस प्राणी को न मार डाले। जैसे अग्नि में जबतक इंधन गेरे जाओंगे तो बराबर अग्नि बनी रहेगी अन्यथा शांति हो जावेगी। इसी प्रकार इस जगे जानना परंतु यह आज्ञा मंदाग्नि में नहीं है भस्मकादिक में है॥
शमन
अत्युद्धताग्निशान्त्यै माहिपदधिदुग्धसर्पींषि।
संसेवेत यवागूं समधूच्छिष्टां ससर्पिष्काम्॥
अर्थ-अत्यंत बढीहुई अग्नि कीभैस के दही, दूध और घी आदि के सेवन से अथवा घी और मोम मिलायकर करी हुई कांजी का सेवन करने से शांति करे ॥
विरेचन
असकृत्पित्तहरणं पायसं प्रतिभोजनम् ।
श्यामानिवृद्विपक्वंच पयो दद्याद्विरेचनम्॥
अर्थ-वारंवार पित्तनाशकारी औषध देवे, पायस (खीर) का भोजन करावे काली और सपेद निसोथ को गैरके ओंटा हुआ दूध दस्त कराने को देवे तो भस्मक रोग शांति होवे ॥
सामान्ययत्न
यत्किंचिन्मधुरं मेध्यं श्लेष्मलं गुरु भोजनम् ।
सर्व तदत्यग्निहितं भुक्त्वा प्रस्वपनं दिवा॥
अर्थ-यावन्मात्र मधुर (मीठी) कफकारी, और भारी भोजन है वो सब बढीहुई अग्निवाले को हितकारी है तथा भस्मक रोगवाले को यथेष्ट दिन में निद्रा लेना हितकारी है ॥
कोलास्थियोग
कोलास्थिमज्जकल्कस्तु पीतो वाप्युदकेन वै।
अचिराद्विनिहन्त्येनं प्रयोगो भस्मकं नृणाम्॥
अर्थ-बेर के भीतरकी मिंगी को बारीक पीस पानी के साथ फक्की लेवे तो मनुष्यों के भस्मक रोग को शीघ्र दूर करे यह प्रयोग भस्मक रोग नाशक है ॥
क्षीर
नारीक्षीरेण संपिष्ट्वापिबेदौदुम्बरत्वचम् ।
ताभ्यां वा पायसं सिद्धं पिबेदत्यग्निशान्तये॥
अर्थ-स्त्री के दूध में गूलर की छालको पीस के पीवे अथवा स्त्री का दूध गूलरकी छाल इन से बनाई हुई खीर को खाना अत्यंत अग्नि का नाश करे ॥
सिततण्डुलसितकमलं छागक्षीरेण पायसं सिद्धम् ।
भुक्त्वा घृतेन पुरुषोद्वादश दिवसान्बुभुक्षितो न भवेत्॥
अर्थ-सपेद चावल, सपेद कमल और बकरी का दूध इन की खीरकर घी मिलाय बारह दिन तक नित्य भोजन करे तो भस्मक रोग अवश्य दूर होवे॥
विदारीकल्क
विदारीस्वरसं क्षीरे पचेदष्टगुणं घृतम्।
माहिषंजीवनीयेन कल्केनात्यग्निनाशनम् ॥
अर्थ-विदारीकंद का रस आठ भाग, दूध ११ भाग, भैस का घी १ भाग, तथा जीवनीय (मुलहटी, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक , और ऋषभक इन) औषधों का कल्क १ भाग मिलाय के पचावेजब घृत मात्र शेषरहे तब उतार के सेवन करे तो भस्मक रोग दूर होवे ॥
त्रिफलावलेह
त्रिफलामुस्तविडङ्गैः कणया सितया समैः।
स्यात्खरमजिरिबीजैर्लेहो भस्मकनाशनः॥
अर्थ-त्रिफला, नागरमोथा, वायविडंग, पीपल, खांड और सपेद ओंगा के बीज इन को डालके अवलेह बनाये इस अवलेह के सेवन करने से भस्मक रोग दूर होवे ॥
अपामार्गादि योग
अपामार्गस्य बीजानि पिष्ट्वा क्षीरेण साधयेत् ।
तत्पायसं महाघोरे भस्मके संप्रशस्यते॥
अर्थ-ओंगा के बीजों को पीसके दूध में डालके खीर सिद्ध करे इस को महाघोर भस्मक रोग पर देना उत्तम कहा है ॥
कदलीफलयोग
कदलिफल सुपक्वं षट्पलं सुप्रभाते घृतसममभिनित्यं भक्षयेन्मण्डलं च । हरति सकलमग्नेस्तीव्रतां भस्मरोगमनुभवि रिदमुक्तमग्निमान्द्यंकरोति ॥
अर्थ-इकतालिस दिन पर्यंत प्रातःकाल २४ तोले पकी हुई केले की गहरों को घी में मिलाय के खाय तो संपूर्ण अग्नी की तीव्रता तथा भस्मक रोग इन का नाश करे तथा अनिमांद्य ( मंदाग्नि ) करे यह मेरा अनुभव करा हुआ प्रयोग कहा है ॥
अजीर्ण के भेद.
आमं विदग्धं विष्टब्धंकफपित्तानिलैस्त्रिभिः। अजीर्णं केचिदिच्छन्ति चतुर्थं रसशेषतः ॥अजीर्णं पञ्चमं केचिन्निर्दोषंदिनं पाकि च । वदन्ति षष्ठं चाजीर्णंप्राकृतं प्रतिवासरम्॥
अर्थ-मनुष्य के कफ से आम, पित्त से विदग्ध, वात से विष्टब्धऐसे तीन प्रकार का अजीर्ण रोग होता है- और जो भोजन करा सो पक्वहोय नहीं रस शेष रहे सो
रसशेष से चतुर्थ अजीर्ण होय है, और रात्रिदिन में जो आहार पचे और जिस में अफरा हड़ फूटन कुछ न होय ये पांचवा अजीर्ण किसी के मत से है और जो नित्य ही स्वाभाविक अजीर्ण रहै ( विकृतिजन्य न होय ) उस को छटा अजीर्ण कहते हैं । इस अजीर्ण के पचाने के अर्थ (सुश्रुत) में वामपार्श्वशयनादिक उपाय कहेहैं सो करने चाहिये ॥
गुडाष्टक
व्योपदन्तीत्रिवृच्चित्रं कृष्णामूलं विचूर्णितम्। तच्चूर्णं गुडसंमिश्रं भक्षयेत्प्रातरुत्थितः॥ एतद्गुडाष्टकं नाम बलवर्णाग्निवर्धनम्। शोथोदावर्तशूलघ्नंप्लीहपाण्ड्वामयापहम् ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, दंती, निसोथ, चित्रक की छाल और पीपलामूल इन के चूर्ण को गुड में मिलाय के प्रातःकाल उठके नित्य भक्षण को। इस को गुडाष्टक कहते हैं । यह बल देवेअग्नि को बढावे; तथा सूजन, उदावर्त्त, शूल, प्लीहा और पांडुरोग इन को नाश करे ॥
पथ्यादि चूर्ण
पथ्यापिप्पलिसंयुक्तं चूर्णं सौवर्चलं पिबेत् । मस्तुनोष्णोदकेनाथ मत्वा दोषगतिं भिषक् ॥ चतुर्विधमजीर्णंच मन्दानलमथारुचिम् । आध्मानं वातगुल्मं च शूलं चाशु विनाशयेत् ॥
अर्थ-हरड़ और पीपल के साथ संचर निमक का चूर्ण अथवा दही के जल के मास संचर निमक अथवा गरम जल के साथ जैसी दोषोंकी गति होवे उस के अनुसार इन में से एक वस्तु का सेवन करे तो चार प्रकार के अजीर्ण, मंदाग्रि, अरुचि, अफरा गोला और शूल इन को तत्काल दूर करे ॥
बृहच्छंखवटी
स्नुगर्कचिञ्चापामार्गरम्भातिलपलाशजान्। क्षारांश्चभिषगो दद्यात्प्रत्येकं पलमात्रया॥ लवणानि पृथक्पञ्चग्राह्याणि पलमात्रया। सर्जिका च यवक्षारं टङ्कणं त्रितयं पलम् ॥ सर्वेत्रयोदशपलं सूक्ष्मं चूर्णं विधाय तु । निम्बूफलरसे प्रस्थसंमिते तत्परिक्षिपेत् ॥ तत्र शङ्खस्य शकलं पलं वह्नौप्रताप्य तु । वारान्निर्वापयेत्सप्त सर्वेद्रवति तद्यथा॥ नागरं त्रिपलं ग्राह्यं मरीचं च पलद्वयम् । पिप्पली पलमानास्यात्पलार्धं भ्रष्टहिङ्गुनः॥ ग्रन्थिकं
चित्रकं चापि यवानीजीरकं तथा। जातीफलं लवङ्गं च पृथक्कर्षद्वयोन्मितम् ॥ रसो गन्धो विषंचापि टङ्कणं च मनःशिला। एतानि कर्षमात्राणि सर्वं संचूर्ण्य मिश्रयेत्॥ शरावार्धेन चुक्रेण सन्नीय वटिकां चरेत्। माषप्रमाणा सा वैद्यैर्बृहच्छङ्खवटी स्मृता॥ सर्वाजीर्णप्रशमनी सर्वशूलनिवारिणी । विषूच्यलसकादीनां सद्यो भवति नाशिनी॥
अर्थ-थूहर, आक, इमली, ओंगा, केला, तिल और पलास ( ढाक), इन सब के क्षार चार २ तोले लेवे, और नमक, सुहागा, सैंधा नमक, बिडनमक और संचर नमक ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे, सज्जीखार, जवाखार, सुहागा ये तीनों मिलाकर चार तोले । सब ५२ तोले हुए। सब का बारीक चूर्ण कर ६४ तोले नींबू के रस में डालके फिर ४ तोले शंख के टुकडे अग्निमें तपाय के उस में डाले। इस प्रकार वारंवार तपाय २ के सात बार बुझाने से उस में मिल जावेगा । पश्चात् सोंठ १२ तोले, काली मिरच ८ तोले, पीपल छोटी ४ तोले, भुनी हुई हींग २ तोले, पीपरामूल, चीते की छाल, अजमायन, जीरा, जायफल, लौंग, ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे; पारा, गंधक, सिंगियाविष, सुहागा और मनसिल ये प्रत्येक एक एक तोला लेवे । इस प्रकार सब औषध लेकर १६ तोले चूका के रस सें खरल करके १ मासे की गोली बनावे ! इस में से एक गोली खाय तो अजीर्ण, शूल, विषूचिका, अलसक इन कीतत्काल दूर करेे। इस कीबृहच्छंखवटीकहते हैं॥
लघुक्रव्यादरस
पारदाद्द्विगुणं गन्धमर्धांशं मृतलोहकम् । पिप्पली पिप्पलीमूलमग्निशुण्ठी लवङ्गकम् ॥ लोहसाम्यं पृथक् कुर्याद्रससाम्यं सुवर्चलम् । टङ्कणं मरिचं चापिगन्धतुल्यं प्रदापयेत् ॥ एतद्विचूर्ण्य यत्नेन भावयेत्सप्तधाम्लकैः। एतद्रसायनं श्रेष्ठं माषमात्रंप्रदापयेत् ॥ तक्रेण केवलं वापि दद्याद्भोजनपाचने। क्षिप्रं तज्जीर्यते भुक्तं दीपनं भवति ध्रुवम्। सर्वाजीर्णप्रशमनं लघुक्रव्यादसंज्ञितम् ॥
अर्थ-पारा ४ तोले, गंधक ८ तोले, लोहे की भस्म २ तोले, तथा पीपल, पीपरामूल, चित्रक, सोंठ और लौंग प्रत्येक आठ २ तोले लेवे; संचरनोन, सुहागा, काली
मिरच ये सब प्रत्येक चार चार तोले लेवे इन सब का चूर्ण कर नींबू के रस की . इस में सात भावना देवे तो लघुक्रव्याद नामक रस सिद्ध होवे। इस में से १ मासे भर छाछ के साथ लेवे अथवा बिना छाछ के ही भोजन के पचने के वास्ते देय तो भोजन तत्काल पचे और अग्निप्रदीप्त होवेतथा संपूर्ण अजीर्णोंका नाश हों॥
विदग्धाजीर्णलक्षण
विदग्धे भ्रमतृण्मूर्च्छाः पित्ताच्च विविधा रुजः।
उद्गारश्च सधूमाम्लः स्वेदो दाहश्च जायते॥
अर्थ-विदग्ध अजीर्ण में भ्रम प्यास और मूर्च्छाये लक्षण होते हैं। और पित्त के अनेक रोग प्रगट हों तथा धूएं के साथ खट्टी डकार आवें, पसीना आवेंऔर दाह होय॥
विदग्धाजीर्णकीचिकित्सा
अन्नं विदग्धं च नरस्य शीघ्रं शीताम्बुना वै परिपाकमेति ।
तदास्य शैत्येन निहन्ति पित्तमाक्लेदिभावाच्च नयत्यधस्तात् ॥
अर्थ-मनुष्य का विदग्ध अन्न शीतल जल पीने से अवश्य पचे;तथा शीत के योग से पित्त भी शांति होता है तथा आर्द्रता (गीलापन) उस पचे अन्न को नीचे को गेरता है॥
निद्रानियम
भोजनात्प्राक् दिवा स्वापात्पाषाणोपि च जीर्यति। भोजनान्ते दिवास्वापाद्वातपित्तकफैः कृतम् ॥ आलिप्य जठरं प्राज्ञो हिङ्गुत्र्यूपणसैन्धवैः। दिवा स्वापं प्रकुर्वीत सर्वाजीर्णप्रणाशनम्॥
अर्थ-प्रातःकाल भोजन के प्रथम निद्रा लेने से यदि पाषाण (पत्थर) भी खाया होवे तो वो भी पच जावे, तथा भोजन करने पश्चात् निद्रा वादी, पित्त और कफ को कुपित करती है। इस वास्ते चतुर मनुष्य हींग, सोंठ, काली मिरच, पीपल और सैधानमक इन को जल में पीस के उदर (पेट) पर लेप करे फिर सोय जावे तो संपूर्ण अजीर्णोंका नाश होयइस में संदेह नहीं है॥
दिवा निद्रा
व्यायामप्रमदाध्ववाहनरतान्क्लिन्नानतीसारिणः शूलश्वासवतस्तृपापरिगतान् हिक्कामरुत्पीडितान् । क्षीणान्क्षीणकफान् शिशून्मदहतान्वृद्धांस्तथा जीर्णिनो रात्रौ जागरितान्नरान्निरशनान्कामं दिवा स्वापयेत्॥
अर्थ-व्यायाम ( दण्ड कसरत ), स्त्रीसंग, मार्गगमन, सवारी इन के सेवन करने से जो थके हुये हैं जो अतिसार, शूल, श्वास, प्यास, हिचकी और बादी के विकारवाले हैं। तथा क्षीण, क्षीणकफ, बालक, मद से व्याप्त, वृद्ध, अजीर्णवाला, रात्रि में जगा हुआ, उपवास किया हुआ इन को दिन में यथेच्छ सुलाना चाहिये॥
विष्टब्धाजीर्णलक्षण
विष्टब्धे शूलमाध्मानं विविधा वातवेदनाः।
मलवाताप्रवृत्तिश्च स्तम्भो मोहोङ्गपीडनम् ॥
अर्थ-विष्टब्ध अजीर्ण के यह लक्षण हैं। शूल, अफरा, अनेक वात की पीड़ा, मल और अधोवायु का रुक जाना, देह जकड़ जाय,मोह और देह में पीड़ा होय ॥
विष्टब्धाजीर्ण में सामान्य उपचार
विष्टब्धेस्वेदनं कार्यं पेयं च लवणोदकम्॥
अर्थ-विष्टब्धाजीर्ण में पसीने निकाले और नमक का मिला जल पीना चाहिये॥
रसशेषाजीर्णलक्षण
रसशेषेन्नविद्वेषोहृदयाशुद्धिगौरवे॥
अर्थ-रसशेष अजीर्ण के यह लक्षण है। अन्नमें अरुचि, हृदय में शुद्धि न होय और देह भारी होय॥
रसशेषाजीर्ण में सामान्य उपचार
रसशेषेदिवा स्वापं लङ्घनं वातवर्जनम् । आलिप्य जठरं प्राज्ञो हिङ्गुत्र्यूपणसैन्धवैः॥ दिवा स्वापं प्रकुर्वीत सर्वाजीर्णप्रणाशनम् ।
अर्थ-रेसशेष अजीर्ण में दिन में सोना और लंघन करना, जहां बहुत पवन आती होवे उस जगह न बैठना तथा हींग, सोंठ, मिरच, पीपल और सैंधा नमक इन को जल में पीसके पेट पर लेप दिन में सौना हितकारी है।
अजीर्ण
अनात्मवन्तः पशुवद्भुञ्जन्तेशनलोलुपाः।
रोगानीकस्य ते मूलमजीर्णं प्रप्नुवन्ति हि॥
अर्थ-जिन मनुष्यों की इन्द्री स्वाधीन नहीं है वे पशु के समान अप्रमाण भोजन करते है । उन्हों के अनेक रोगों का कारण अजीर्ण रोग प्रगट होता है॥
अजीर्ण के सामान्य लक्षण
ग्लानिगौरवविष्टम्भभ्रममारुतमूढता।
विवन्धोतिप्रवृत्तिर्वा सामान्याजीर्णलक्षणम् ॥
अर्थ-ग्लानि, भारीपना, विष्टंभ, भौर, अधोवातका रुकना, मलरोध अथवा अत्यंत दस्त हो. ए सामान्य अजीर्णके लक्षण हैं ।
अजीर्ण के उपद्रव
मूर्छा प्रलापो वमथुः प्रसेकः सदनं भ्रमः।
उपद्रवा भवन्त्येते मरणं चाप्यजीर्णतः॥
अर्थ-मूर्छा, बड़बड़, ओकारी अर्थात् वमन, लार का गिरना, ग्लानी, भ्रम ये अजीर्ण के उपद्रव हैं। और बहुत बढा अजीर्ण मनुष्य को मार भी डालता है॥
स्वल्पं यदा दोषविबन्धमामं लीनं न तेजःपथमावृणोति।
भवत्यजीर्णेपि तदा बुभुक्षा सा मन्दबुद्धि विषवन्निहन्ति ॥
अर्थ-जिस समय दोषयुक्त अल्प ऐसा आमाजीर्ण आग्नि के मार्ग का अवरोध नहीं करे तब इस प्राणी को अजीर्ण में भी भोजन करने की इच्छा होती है। वह भोजनेच्छा2अल्प बुद्धिवाले पुरुष को विष के समान मारती है॥
प्रायेणाहारवैषम्यादजीर्णं जायते नृणाम् ।
तन्मूलो रोगसंघातस्तद्विघाताद्विनश्यति॥
अर्थ-प्रायः भोजन के न्यूनाधिकपनसे मनुष्यों के अजीर्ण रोग होता है उस अजीर्ण से इस प्राणी के अनेक प्रकार के रोग होते हैं और इस अजीर्ण के नष्ट होने से संपूर्ण रोग नष्ट होते हैं ।
लवणभास्करचूर्ण
पिप्पली पिप्पलीमूलं धान्यकं कृष्णजीरकम्। सैन्धवं च विडं चैव पत्रं तालीसकेसरान् ॥ एषांद्विपलिकान्भागान् पञ्च सौवर्चलस्य च। मरीचाजाजिशुण्ठीनामेकैकस्य पलं पलम् ॥ त्वगेला चार्धभागा स्यात्सामुद्रं कुडवद्वयम्। दाडिमात्कुडवं चैव द्विपलं चाम्लवेतसम्॥ एतच्चूर्णीकृतं श्लक्ष्णंगन्धाढ्यममृ
तोपमम् । लवणो भास्करो नाम भास्करेण विनिर्मितः॥ जगतोस्य हितार्थाय वातश्लेष्मामयापहः। वातगुल्मं निहन्त्येप वातशूलानि यानि च ॥ तक्रमस्तुसुरासिन्धुयुक्तः काञ्जिकयोजितः। मन्दाग्नितां विनाश्यैवशक्तो भवति पावकः॥ हृद्रोगमामदोषंच विविधान्युदराणि च । अन्यान्यपि निहन्त्याशु रोगान् लवणभास्करः॥
अर्थ-पीपर, पीपरामूल, धनिया, काला जीरा, सैधा नमक, बिडनमक, पत्रज, ताली सपत्र, नागकेशर ये प्रत्येक आठ २ तोले लेवे। संचरनमक २० तोले और काली मिरच, अजमायन और सोंठ ये प्रत्येक ४ चार तोले, दालचीनी और इलायची बडी दो दो तोले, नमक ३२ तोले और अनारदाना १६ तोले, अमलवेत्त ८ तोले । सब का चूर्ण करके एकत्र करे तो यह लवणभास्कर चूर्ण बनके तयार होवे । यह उत्तम गंधयुक्त अमृत के समान त्रिलोकी के हित करने के वास्ते सूर्य भगवान ने निर्माण किया है। यह वादी, कफ, वादीगोला, वातशूल इन का नाश करे । तथा छाछ, दहीका जल, मद्य, सैधानमक किंवा कांजी इन में से किसी एक के साथ मंदाग्निवाला प्राणी सेवन करे तो अग्निवृद्धि होय तथा हृद्रोग, आमदोष, संपूर्ण उदर के विकार और इन से पृथक् अनेक रोगों को यह नष्ट करता है ।
अग्निमुख चूर्ण
हिङ्गुभागो भवेदेको वचा च द्विगुणा भवेत् । पिप्पली त्रिगुणा ज्ञेया शृङ्गवेरंचतुर्गुणम् ॥ यवानिका पञ्चगुणा षड्गुणा च हरीतकी। चित्रकं सप्तगुणितं कुष्टं चाष्टगुणं भवेत्॥ एतद्वातहरं चूर्णं पीतमात्रंप्रसन्नया । पिबेद्दध्नामस्तुना वा सुरया कोष्णवारिणा ॥ उदावर्तमजीर्णं च प्लीहानमुदरं तथा। अङ्गानि यस्य शीर्यन्ति विषंवा येन भक्षितम् ॥ अर्शोहरो दीपनश्च शूलघ्नो गुल्मनाशनः । कासं श्वासं निहन्त्याशु तथैव क्षयनाशनः॥ चूर्णो ह्यग्निमुखो नाम्ना न कस्मिन्प्रतिहन्यते।
अर्थ-हींग १ भाग, वच २ भाग, पीपल ३ भाग, अदरख ४ भाग, अजमायन ५ भाग, जंगी हरड ६ भाग, चित्रक ७ भाग, ओर कूठ ८ भाग । इस प्रकार सब औषध
लेकर कूट पीसके चूर्ण बनावे, इस को मद्य, दही अथवा दही के पानी, सुरा अथवा गरम जल से पीवे तो उदावर्त्त, अजीर्ण, प्लीहा, उदर, तथा अंगों का गिरना एवं विष खाय लिया हो तथा बवासीर, शूल, गोला, खाँसी, श्वास और क्षय इन का नाश करे।. यह अग्निमुख चूर्ण दीपन है ॥
वृद्धाग्निमुख चूर्ण
द्वौ क्षारौ चित्रकं पाठा करञ्जोलवणानि च । सुक्ष्मैलापत्रकं भार्ङ्गीकृमिघ्नं हिङ्गुपुष्करम् ॥ शठी दार्वी त्रिवृन्मुस्ता वचा चेन्द्रयवास्तथा। धात्री जीरकवृक्षाम्लयवासा चोपकुञ्चिका॥ आम्लवेतसमम्लीका दाडिमं सकटुत्रिकम् । भल्लातकाजमोदाच यवानी सुरदारु च ॥ आपश्चातिविपाःश्यामा हवुपारग्वधं समम् । तिलमुष्ककशिग्रूणां कोकिलाक्षपलाशयोः ॥ क्षीराणि लोहकिट्टंच तप्तं गोमूत्रभावितम् । समभागानि सर्वाणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ मातुलुङ्गरसेनैव भावयेत्तु दिनत्रयम्। दिनत्रयं तु सूक्तेन तथैवार्द्ररसेन च॥ अत्यन्ताग्निकरं चूर्णं प्रदीप्ताग्निसमप्रभम् । उपयुक्तं विधानेन नाशयत्यचिराद्दान्॥ अजीर्णकमथो गुल्मं प्लीहानमुदराणि च । ग्रहणीं पाण्डुरोगांश्च श्वासं कासं च दारुणम् ॥ प्रतिश्यायं क्षयं शोषंविद्रधिं कफजं तथा । जठराण्यन्त्रवृद्धिं च अष्ठीलां वातशोणितम् ॥ प्रणुदत्युल्बणान् दोषान् नष्टमग्निंच दीपयेत् । समस्तव्यञ्जनोपेतं भक्तं दत्त्वा तु भोजयेत्॥ दापयेदस्य चूर्णस्य बिडालपदमात्रकम् । गोदोहमात्रंतत्सर्वं द्रवेपक्त्वातिसोष्मकम् ॥ एषोह्यग्निमुखश्चूर्णश्चूर्णराजो निगद्यते । ब्रह्मणा निर्मितो ह्येपअश्विभ्यां परिकीर्तितः॥
अर्थ-सुहागा, जवाखार, चीते की छाल, पाढ, कंजा, पांचों नमक, छोटी इलायची, तमालपत्र, भारंगी, वायविडंग, हींग, पुहकरमूल, कचूर, दारुहलदी, निसोय नागरमोथा, बच, इन्द्रजव, आँवले, जीरा, तिंतडीक, धमासा, कलौंजी, काला जीरा,
अमलवेत, इमली, अनारदाना, सोंठ, काली मिरच, पीपल, भिलाए, अजमोद, अजमायन, देवदारु, नेत्रवाला, अतीस, पीपल, हाऊवेर और अमलतास का गूदा ये सब औषधी समान भाग लेवे तथा तिल, घंटापाटलीवृक्ष (मोखावृक्ष), सहजना, तालमखाने, पलासपापडा, आक आदि का दूध, तपायके गोमूत्र में बुझाया हुआ मंडूर ये सब समान भाग एकत्र करके इस में विजोर निंबू के रस की तीन दिन भावना देवे । तथा कांजी की और अदरख के रस की तीन तीन भावना देवे । यह चूर्ण अग्नि को अत्यंतबढाता है। इस को नित्यप्रति सेवन करने से थोडे ही दिन में व्याधि दूर होवे तथा अजीर्ण, गोला, प्लीहा, उदररोग, संग्रहणी, पांडुरोग, श्वास, खांसी, पीनस, क्षय, शोष, कफजन्य विद्रधि, अंत्रवृद्धि, अष्ठीला, वातरक्त, त्रिदोष तथा नष्टाग्रिइन को नष्ट करे । इस पर संपूर्ण पदार्थ भोजन करने को देवे्। इस चूर्ण की मात्रा एक तोले की है परंतु वैद्य अपने बुद्धि से रोगी के बलाबल को विचार के न्यूनाधिक देवे। यह अग्निमुखचूर्ण संपूर्ण औषधोंमें श्रेष्ठ है । इस प्रकार ब्रह्मदेव और अश्विनीकुमार ने कहा है । यह चूर्ण जितनी देर में गौ दुही जाती है इतनी देर में संपूर्ण भोजन को पचाय देता है॥
यावशूकादि चूर्ण
स यावशूकनागरं शिवाजलं च सादरम् ।
निहन्त्यजीर्णजं दरं वदामि ते पुरन्दर॥
अर्थ-जवाखार, सोंठ, हरडै इन का काढा अजीर्ण से होनेवाले भय को नष्ट करता है। हे इन्द्र! यह मैं तेरे आगे कहता हूं॥
लघुचित्रकादि चूर्ण
दहनाजमोदसैन्धवनागरमरिचाम्लतक्रेण ।
सप्ताहादग्निकरं यदर्शोनाशनं परं कथितम् ॥
अर्थ-चित्रक की छाल, अजमोद, सैंधा नमक, सोंठ और काली मिरच इन का चूर्ण करके खट्टी छाछ के साथ सात दिन सेवन करे तो अग्निवृद्धिकरे और बवासीर को नष्ट करे ॥
शुंठ्यादि चूर्ण
यवक्षारान्वितं शुण्ठीचूर्णं लीढं घृतान्वितम् ।
उष्णोदकेन वा पीतं शुण्ठीचूर्ण क्षुधाकरम् ॥
अर्थ-सोंठ और जवाखार इन का एकत्र चूर्ण करके घी के साथ अथवा गरम जल के साथ देवे तो क्षुधा को उत्पन्न करे ॥
कणाद्य चूर्ण
कणासिन्धुशिवावह्निचूर्णमुष्णेन वारिणा।
पीतं प्रातः क्षुधां कुर्यात्पावकस्यापि दीपनम् ॥
अर्थ-पीपल, सैंधा नमक, हरड और चीते की छाल इन के चूर्ण को गरम जल के साथप्रातःकाल लेवे तो क्षुधा तथा अग्निवृद्धि इन को करे ॥
कपित्थादियोग
कपित्थतकचाङ्गेरीमरिचाजाजिचित्रकैः।
कफवातहरो ग्राही बल्यो दीपनपाचनः॥
अर्थ-कैथ का गूदा, छाछ, चूका, काली मिरचऔर चीते की छाल इन का योग कफवात हारक, ग्राहक, बल देनेवाला, दीपन और पाचन है ॥
ज्वालामुख चूर्ण
हिङ्ग्वाम्लवेतसकटुत्रिकचित्रकाणां कर्षाःपृथक् गुडपलं यवचूर्णकं च । ज्वालामुखोपमनलस्य करोति दीप्तिं चाजीर्णमात्रशमने हि कृशानुरेपः॥
अर्थ-हींग, अमलवेत, त्रिकुटा, चित्रक की छाल और जवाखार ये प्रत्येक एक एक तोले और उस में गुड चार तोले मिलावे । इस को ज्वालामुखचूर्ण कहते है। यह अग्निवृद्धि तथा अजीर्ण का नाश करे ॥
व्योषादि चूर्ण
व्योषैला हिङ्गुमार्ङ्गीविडलवणयवक्षारपाठा यवानी चिञ्चात्वग्भस्म चव्यं दहनगजकणात्वक् पटुग्रन्थजाजी । एतच्चूर्णं घृताव्यं त्रिदिवसमशने हुन्यते रोगजालम् विश्वं वैश्वानरोयं दहति सरभसं किं पुनर्भुक्तमन्नम् ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, बडी इलायची, हींग, भारंगी, बिडनमक, जवाखार, पाढ, अजमायन, इमली की छाल की भस्म, चव्य, चित्रक, गजपीपल, दालचीनी, नमक, पीपरामूलऔर जीरा; इन सब के चूर्ण को घी में सान के तीन दिन खाय तो संपूर्ण रोगजालों को नष्ट करे, फिर भोजन का तो क्या कहना है, इस को वैश्वानर चूर्ण कहते हैं॥
शुण्ठ्यादि चूर्ण
शुण्ठी बाणमिता कणार्णवमिता दीप्या यवानी क्रमाद्भागानां त्रितयं द्वयं च लवणं भागैः शिवा तत्समा। कोष्ठाटोपरुगामगुल्ममलहृल्लोलिम्बराजोदितश्चूर्णोऽद्रीनपि भस्मसात्प्रकुरुते किं भोजनं भो जनाः॥
अर्थ-सोंठ ५, पीपल ४, अजमोद ३, अजमायन २, नमक १, तथा हरड की छाल १६ भाग; इन सब का चूर्ण करके खाय तो पेट का गुडगुडाहट, आम, गोला और मल इन को नाश करे यह चूर्ण लोलिंबराज कविका कहा हुआ पर्वतों को भी भस्म कर देता है, फिर भोजन का भस्म कर देना क्या बड़ी बात है॥
विश्वादि चूर्ण
विश्वकणोपणनागदर्लेश्च त्वक्त्रुटिभिर्विहितं क्रमबद्धम् ।
चूर्णमिदं समखंडमरोचश्वासगुदोद्भवगुल्मवमीषु ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, नागरवेल के पान, दालचीनी तथा छोटी इलायची; ये संपूर्ण पदार्थ क्रमवृद्धि करके लेवे । सब का चूर्ण करे और सब चूर्ण की बराबर खांड मिलावेइस को सेवन करने से अरुचि, श्वास, बवासीर, गोला और वांति इन का नाश होता है॥
चित्रकादि चूर्ण
कृशानुश्चव्यंवा मरिचमगधाहिंगुचपला शठीदीप्यो विश्वा यवजयुगुलं पञ्चलवणम्। समं वीजद्रावैर्लुलितमथवा दाडिमरसैर्जयेदामान् रोगान्ग्रहणिकफतां वह्नितनुताम्॥
अर्थ-चित्रक, चव्य, काली मिरच, पीपल, हींग, गजपीपल, कचूर, अजमायन, सोंठ, जवाखार, सैंधानमक से आदि ले पांचो नमक;ये प्रत्येक समभागलेवे, सब का चूर्ण करविजोरे के रस का पुट देवे । यह आमरोग, संग्रहणी, कफ, वादी और मंदाग्नि इन का नाश करें॥
विडलवणादि चूर्ण
विडं चित्रकं जाजियुग्मं यवानी शिवा त्र्यूषणंधान्यसौवर्चलं च।
त्वचा तिंतिडीकाजमोदाम्लवेतं समं योज्यमेतत्समं चाविडङ्गम् ॥
विडादिरोगदारकं गदार्तिनां च तारकं
ह्यनेन जीर्यते धरा कथं न जानते नराः॥
अर्थ-विडनमक, चित्रक, जीरा, काला जीरा, अजमायन, हरड की छाल, सोंठ, काली मिरच, पीपल, धनियां, संचरनमक, दालचीनी, इमली, अजमोद, अमलवेत और वायविडंग; इन को समान भाग लेकर चूर्ण करे। यह विडादिचूर्ण सर्व प्रकार की व्याधिन का नाशक है॥
वडवानल चूर्ण
शिवाकरञ्चचित्रकं कणाजटाकटुत्रिकम् ।
सशर्करं समांशकं त्विदं हि वाडवाग्निकम् ॥
अर्थ-हरड की छाल, कंजा की छाल, चीते की छाल, पीपरामूल, सोंठ, मिरच, पीपल और खांड इन का समान भाग ले चूर्ण करे। इस को वडवानल चूर्ण कहते हैं। यह अजीर्ण पर पाचन है ॥
पंचाग्निचूर्ण
अम्लवेतसधनंजयवज्री मोरटा तदनु सूरण एषः।
पञ्चवह्निजठरानलवृद्ध्यैतक्रसाकमिदमाशु हि पेयम् ॥
अर्थ-अमलवेत, कोह वृक्ष की छाल, थूहर, मरोरफली और जमीकंद इन पांचों का चूर्ण छाछ के साथ देवे तो अग्निवृद्धि करता है॥
विश्वभेषजचूर्ण
विश्वभेषजं हिङ्गुटङ्कणं मागधी च सौवर्चलं त्विदम् ।
शिग्रुपादजैर्भावितं रसैः शूलनाशनं क्षुत्प्रबोधनम्॥
अर्थ-सोंठ, हींग, सुहागा, पीपल और संचरनमक, इन के चूर्ण को सहजने की जड के रस की भावना देवे तो यह शूल (पेट के दर्द ) को नष्ट तथा क्षुधा को उत्पन्न करे।
संजीवनी गुटी
विडङ्गनागरं कृणा पथ्या वह्निविभीतकाः।
वचा गुडूची भल्लातं विषंचात्रप्रयोजयेत् ॥
एतानि समभागानि गोमूत्रेणैव पेषयेत् ।
गुञ्जाभां वटिकां कुर्याद्दद्यादार्द्रकजै रसैः॥
एकामजीर्णयुक्तस्य द्वे विषूच्यांप्रदापयेत् ।
तिस्रो भुजङ्गदष्टस्य चतस्रःसन्निपातिनः ॥
गुटिका जीवनी नाम्ना संजीवयति मानवम् ।
अर्थ-वायविडंग, सोठ, पीपल, हरड की छाल, चित्रक, बहेडे, वच, गिलोय मिलाए और अतीस; ये सब समान भाग लेके सब का चूर्ण करके गोमूत्र में खरल करे। फिर १ रत्ती के प्रमाण गोली बनावे । इस को अदरख के रस से अजीर्ण पर एक देवे, तथा विषूचिका (हैजा) में दो गोली देवे, सांप के काटनेपर तीन गोली और सन्निपात में चार गोली देनी चाहिये । यह संजीवनी नामक गोली मनुष्य को संजीवन करती है॥
धनंजय वटी
जीरकं चित्रकं चव्यं ससुगन्धं वचात्वचौ ।
एलाकर्पूरहपुषाकारवीनागकेसरम् ॥
पृथक्कर्षमितं ख्यातमिति कर्षार्धसंमितम् ।
यवानी पिप्पलीमूलं स्वर्जिका च हरीतकी ॥
जातीफललवङ्गं च पृथक्कर्षयुगं मतम् ।
धान्यकं पत्रकं चापि कर्षत्रयमितं पृथक् ॥
कृष्णा पलप्रमाणं स्यात्पलमानं तु रोमकम् ।
मरीचानि च नः सप्त त्रिवृन्मूलं पलद्वयम् ॥
पृथग्दशाक्षं सामुद्रं सैन्धवं नागरं तथा।
शरावसंमितं चुक्रंतदर्धंतिन्तिणीफलम्॥
धनंजयवटी ह्येषाधनंजयविवर्धिनी।
जीर्णं च जरयत्याशु शूलमुन्मूलयेद्द्रुतम् ॥
हरेद्विबन्धेन सममाध्मानं कर्षयत्यपि ।
ग्रहण्या निग्रहं कुर्याद्रचयेद्रुचिमुत्तमाम्॥
अर्थ-जीरा, चित्रक, चव्य, संचरनमक, वच, दालचीनी, इलायची, कपूर, हंसपदी, अजमोद, और नागकेशर ये प्रत्येक औषधी एक २ तोला लेवे; अजमायन, पीपरा मूल, सज्जीखार, हरड ये प्रत्येक आधे २तोला लेवे, जायफल और लौंग ये दोनों दो दो तोले तथा धनियां, पत्रज ये दोनों तीन २ तोले, पीपर, सांभरनमक ये चार २ तोले, काली मिरच ७ तोले, निसोथ८ तोले, नमक १० तोले, सैंधानमक और सोंठ १० तोले एवं चूका ३२ तोले तथा इमली १६ तोले । इन सब का चूर्ण करके गोली बनावे । यह धनंजयवटी अग्निको बढावे तथा अजीर्ण को नष्ट करे शूल को उखाड देवे तथा विड्बंध, अफरा और संग्रहणी इन को नष्ट करे एवं रुचि को उत्पन्न करे है॥
शंखवटी
चिञ्चाश्वत्थस्नुहिक्षारादपामार्गार्ककं तथा।
लवणं पञ्च संगृह्य ततो लवणपञ्चकात् ॥
सैन्धवाद्यान्समादाय सर्वमेतत्पलद्वयम् ।
दौ धौ कर्षौपृथक्कार्यौतथा द्वौ शङ्खचूर्णतः॥
फलत्रयाच्च कर्षैकं द्विकर्षंतु लवङ्गकम् ।
एतत्सर्वं समासाद्य श्लक्ष्णचूर्णीकृतं शुभम् ॥
भावयेदम्लयोगेन सप्तधा च प्रयत्नतः।
रसशङ्खवटी नाम सेवितः सर्वरोगजित् ॥
गुञ्जामात्रमिमं खादेद्भवेद्दीपनपाचनम् ।
अजीर्णं वातसंभूतं पित्तश्लेष्मभवं तथा ॥
विषूचीं शूलमानाहं हन्यादन्न न संशयः।
अर्थ-इमली, पीपल थूहर, ओंगा, आंक इन का क्षार, सैंधवादिक पांचों नमक प्रत्येक आठ २ तोले; शंखभस्म २ तोले, त्रिफला १ तोले और लौंग २ तोले इन सब का चूर्ण करके नींबू के रस की सात भावना देवे । यह शंखवटी रस १ रत्ती नित्यप्रति सेवन करने से संपूर्ण रोगों को दूर करे तथा दीपन और पाचन है। तथा अजीर्ण,वात, पित्त और कफ इन से उत्पन्न हुए अजीर्णतथा विषूचिका, शूल तथा आनाहवायु इन का नाश करे॥
लवंगामृतवटी
सर्वार्धंदेवपुष्पंमरिचमगधयोस्त्रिस्त्रिकर्षेयवान्यो-
रष्टावष्टाग्नितांपित्रिपटुरथ पलं ग्रन्थिकं सप्तकर्षम्॥ शुण्ठी पथ्या दशाक्षामलककलिफलाजाजिचव्याच्च षट् षट्सुत्रामप्रीतिपात्रं नखमितमखिलं चूर्णितं वस्त्रपूतम् । निर्भाव्यं चाकस्य द्रवमपि विधिवन् मापयुग्मप्रमाणा बद्धा चुक्रेण सिद्धा प्रभवति गुटिकासौलवङ्गामृताख्या॥ भुक्ता युक्ता सकलसुखकरी दीप्तिमग्नेर्विधत्ते वृष्या पुष्या वपुष्याऽमयनिचयहृतिख्यातिपूर्णाविभाति।
अर्थ-काली मिरच और पीपल ये प्रत्येक ३ तोले अजमायन और चित्रक ८ तोले, तीनों नमक ४ तोले, पीपरामूल ७ तोले, सोंठ और हरड १० तोले, बहेडा, आँवला, भिलाए, जीरा और चव्य ये प्रत्येक छः छः तोले; इंद्रजव २० तोले; इन सबका चूर्ण करे और सब चूर्ण के बराबर लौंग का चूर्ण लेवे। सब को अदरखके रस की तथा चूका के रस की तीन २ भावना देवे, फिर दो दो मासे की गोली बनावे। यह लवंगामृत-नामक वटी भक्षण करने से अग्नि को प्रदीप्त करती है तथा वृष्य (वीर्य बढानेवाली) और संपूर्ण सुख के देनेवाली है; तथा स्त्रियों के रजोदर्शन संबंधी व्याधियों का नाश करती है ॥
व्योपादि गुटी
त्रिकटु पिप्पलीमूलमेला लवणपञ्चकम् । द्विजीरधान्यकं नागकेसरं सारत्वक्समैः॥चुक्राह्वातिंतिडीकाद्रिलवणं मर्द्यचार्द्रकम् । निम्बुनीरेण तद्भाव्यं रोगहृद्वह्निदीपनम् ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, पीपगमूल, बडी इलायची, पाचों नमक, जीरा, काला जीरा, धनिया, नागकेशर, कत्या, दालचीनी, चूका, इमली और सैंधानमक, ये समान समान भाग लेके चूर्ण करे । फिर अदरखऔर नींबूकेरस की भावना देवे। यह व्योपादि वटी रोगनाशक और अग्निदीप्त करनेवाली है॥
हरीतक्यादि वटी
हरीतकी हरिहरतुल्यषड्गुणा चतुर्गुणा चतुरविशालपिप्पली।
चित्रकं वरवरैकसैन्धवं रसायनं कुरु नृप वटिंवह्निदीपनीम्॥
अर्थ-हरड की छाल ६ भाग, तथा पीपल और गजपीपल ४ भाग, चित्रक १ भाग और सैंधानमक १ भाग; ये सब एकत्र कर गोली बनावे। यह अग्नि को प्रदीप्त करनेवाली तथा रसायन है ॥
अमृतहरीतकी
तक्रेसुसंस्वेद्य शिवाशतानि तद्वोजमुद्धृत्य च कौशलेन । षडूषणंपञ्च पटूनि हिङ्गुक्षारावजाजीमजमोदकं च॥ षडूषणादिस्त्रिवृदर्धभागं गणे प्रदेयं पटगालितस्य । विभाव्य चुक्रेण रजांस्यमीषांक्षिपेच्छिवां बीजनिवासगर्भे॥ समूह्य घर्मेषु विशोष्य तासां हरीतकीमन्यतमां निषेवेत्। अजीर्णमन्दानलजाठरामयान्समूलशुलग्रहणीगुदाङ्कुरान् ॥ विबन्धमानाहरुजो जयत्यसौ स आमवातावमृता हरीतकी।
अर्थ-मोटी २ बडीहरड १०० लेकर उन को छाछ में भिगो देवे; फिर उन कोअग्निपर रखके पचावे जब नरम हो जावें तबचतुराई से उन की गुठली निकाल डालेऔर पीपल, पीपरामूल, चव्य, चित्रक की छाल, सोंठ, मिरच, नमक, सुहागा, सैंधानमक, विडनमक, संचरनोन, हींग, जवाखार, जीरा और अजमोद ये प्रत्येक एवएक तोले लेवे और निसोथ छः मासे लेवे । इन सब को कूटपीस कपड़छान चूर्ण कर लेवे । फिर इस को चूका को रस की भावना देके पूर्वोक्त चिरी हुई हरडों में भर देवेऔर उन को डोरे से बांधके सुखाय देवे। इन में से ? हरड नित्य खाय तो अजीर्ण मंदाग्नि, उदररोग, शूल, संग्रहणी, बवासीर, विडबंध, अफरा, वादी, और आमवात इन का नाश करे। इस को अमृतहरीतकी अथवा तक्रहरीतकी कहते हैं।
चित्रकगुड
वह्नेर्द्विपञ्चमूलस्य क्वाथे पलशतद्वये। अमृताया रसस्यैकं पूतेस्मिन्नभयाढकम् ॥ पचेद् गुडतुलां दत्त्वा यावदापाकलक्षणम् । अन्येद्युस्तु सुशीतस्मिन्मधुनः कुडवद्वयम्। प्रत्येकं स्याद्यवक्षाराच्छुक्तिस्तस्मिन् रसायने । उत्तमं कथितं पुंसामश्विभ्यामनिवृद्धये॥
जीर्यन्त्यपि च काष्ठानि कासश्वासकृमिक्षयान्। गुल्मोदरार्शःकुष्ठानि सान्त्रवृद्धीनि हन्ति च ॥ योगैः शतैरप्याजितान् त्र्यहाज्जयति पीनसान्।
अर्थ-चित्रक और दशमूल का काटा ८०० तोले और गिलोय का रस २५६ तोले तथा हरड़ की छाल का चूर्ण २५६ तोले और गुड ४०० तोले; इन सब को कढाई में भर चूल्हे पर चढायके पाक करे। जब पाक हो जाये तब उतारके धरलेवे। फिर दूसरे दिन इनमें ३२ तोले सहत ओर जवाखार २ तोले मिलायके सब को एकत्र करे यह उत्तम चित्रकगुड अश्विनीकुमार ने पुरुषों की अग्निवृद्धि करने के वास्ते कहा है। इस को भक्षण करके काष्ठभी खाय ले वीभी पचजावे तथा श्वास, खाँसी, कृमि, क्षय, गोला, उदर, बवासीर, सर्व प्रकार के कुष्ठ और अंडवृद्धिइन का नाश करे तथा तीन दिन में पीनस रोग को दूर करे ।
द्राक्षादियोग
विदह्यते यस्य तु भुक्तमात्रंदह्यन्ति हृत्कोष्ठगता मलाश्च ।
द्राक्षासितामाक्षिकसंप्रयुक्ता लीढ्वाभयां वाससुखंलभेच्च॥
अर्थ-जिस प्राणी के भोजन करने के उपरांत पेट में जलन होवे और कोष्ठतथाहृदय में दाह होय वह दाख, खांड, सहत और हरड़ इन को भक्षण फरे तो सुखी होवे॥
यवागू
चित्रकचाविकानागरभागाभ्यधिकाग्रकैर्यवागूः स्यात्।
गुल्मानिलशूलहरी सचित्रदा वह्निजननी च॥
अर्थ-चित्रक १ भाग, चव्य २ भाग और सोंठ ३ भाग लेवे इन की यवागू बनावे । यह गुल्म, वादी और शूल इन को नाश करे तथा अग्निप्रदीप्तकरे। यह यवागू आश्चर्यकारक है॥
क्रव्यादकल्क
एलालवङ्गगमरिचं कृष्णाशुक्तिसमन्वितम्। चुकनागरसिन्धूत्थशूकं लवणपञ्चकम्॥ एषांचूर्णं वस्त्रपूतं क्रव्यादीनतिरिच्यते।
अर्थ-इलायची, लोग, काली मिरच, सीप की भस्म, चूका, सोंठ, सैंधानमक, जवागार और पांचोनमक इन का कपडछन चूर्ण करे।यह क्रव्यादरस के समान गुण करनवालो है ॥
क्षारयोग
द्वौक्षारौ टङ्कणं सूतं लवङ्गं लवणत्रयम्। पिप्पली गन्धकं शुण्ठी मरीचं पलसंमितम्॥ कर्षमेकं विषंदत्त्वा सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । अर्कदुग्धस्य दातव्या भावनाः सप्तवासरम्॥ अन्धमूषागजपुटे स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । ततो लवङ्गं मरिचं स्फटिकानां पलं पलम्॥ सर्वंसंमर्द्यसुदृढं दृढभाण्डे निधापयेत्। सोयं गुञ्जाद्वयंखादेद्भुक्तंद्रावयति क्षणात्॥ पुनर्भोजनवाञ्छां च जनयेत्प्रहरोपरि। आममांसं द्रावयतिश्लेष्मरोगनिकृन्तनः॥
अर्थ-सज्जीखार और जवाखार, सुहागा, पारा, लौंग, सैंधानमक, विडनमक, कचियानमक, पीपल, गंधक, सोंठ, और मिरच ये प्रत्येक चार २ तोले तथा सींगियाविष१ तोले; इन सब का बारीक चूर्ण करके आक के दूध की ७ भावना देवे । फिर अंधमूषामें रखके गजपुट में फूंक देवे। जबशीतल हो जावेतब निकास ले फिर लौंग, कालीमिरच, तथा फिटकरी इन का चार २ तोले चूर्ण करके उस में मिलाय देवे फिर सब को खरल करके उत्तम पात्र में भरके रख देवे इस में से दो रत्ती की मात्रा खाने को देय तो एक क्षणभर में भोजन करे हुए को भस्म कर देवे तथा फिर भोजन करने की इच्छा उत्पन्न करे तथा कच्चे मांस को द्रवरूप कर देवे और कफरोग के शमन करता है॥
अग्निमुखरस
सूतं गन्धं विषंतुल्यं मर्दयेदार्द्रकद्रवैः। अश्वत्थचिञ्चापामार्गक्षारंक्षारौ च टङ्कणम्॥ जातीफलं लवङ्गं च त्रिकटु त्रिफलासमम् ! शङ्खक्षारं पञ्चपलं हिङ्गुजीरंद्विभागकम्॥ मर्दयेदम्लयोगेन गुञ्जामात्रा वटी कृता॥ पाचनी दीपनी सद्यो जीर्णशूलविषूचिकाः॥ हिक्कां गुल्मं चोदरंच नाशयेन्नात्र संशयः। रसेन्द्रसंहितायाश्च नाना वह्निमुखो रसः॥
अर्थ-पारा, गंधक और सींगिया विष इन को अदरखके रस में खरल करें फिर पीपल, इमली, ओंगा इन का खार, जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, जायफल, लौंग,
सोंठ मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आँवला ये समान भाग लेवे शंख की भस्म ५पल लेवे, हींग और जीरा दो दो पल लेवे इन सब को नींबू के रस में खरल कर एक २ रत्ती की गोली बनावे यह पाचन करता है, जठराग्नि को दीपन करता है, तत्काल अजीर्ण, शूल, विषूचिका, हिचकी, गोला, उदर इन को नष्ट करता है इस में संदेह नहीं है यह वह्निमुखरस रसेन्द्रसंहिता में लिखा है।
अजीर्णारिरस
शुद्धं सूतं गन्धकं च पलमानं पृथक् पृथक् । हरीतकी च द्विपला नागरस्त्रिपलः स्मृतः ॥ कृष्णा च मरिचं तद्वत्सिन्धूत्थं त्रिपलं पृथक् । चतुःपला च विजया मर्दयेन्निम्बुकद्रवैः॥ पुटानि सप्त देयानि घर्ममध्ये पुनः पुनः। अजीर्णारिरयं प्रोक्तः सद्यो दीपनपाचनः ॥ भक्षयेद्द्विगुणं भक्ष्यं पाचयेद्रेचयेदपि।
अर्थ-पारा शुद्ध, गंधक शुद्ध दोनों चार २ तोले लेवे; हरड८ और सोंठ १२ तोले पीपल, काली मिरच, सैंधानमक ये प्रत्येक बारह २ तोले और भांग १६ तोले इन सब का बारीक चूर्ण कर नींबू के रसके धूप में धरके सात पुट देवे। यह अजीर्णारि रस दीपन पाचन है इस के भक्षण करने से पाणी दूना भोजन करे और उस का पाचन करके रेचन भी करता है।
पाशुपतरस
कर्पेसूतं द्विधा गंधं त्रिभागं भस्म तीक्ष्णकम् । त्रिभिः समं विषं योज्यं चित्रकद्रवभावितम्॥ द्विधा त्रिकटुकंयोज्यं लवंङ्गैला तु तत्समे। जातीफलं जातिपत्री चार्धभागमितं समम्॥ तथार्धपञ्चलवणं स्नुह्यर्कोवापि तितिणी। अपामार्गाश्वत्थ एषांलवणं च पलार्धकम्॥ टङ्कणं यावकक्षारं स्वर्जिकां हिंगुजीरकम्। हरीतकी सूतस्तुल्या मर्दयेदम्लयोगतः॥ धूर्त्तवीजस्य भस्म तु स वै सप्तमभागतः। रसः पाशुपतो नाम प्रोक्तः प्रत्ययकारकः॥ गुंजामात्रा वटी कार्या सर्वाजीर्णविनाशिनी । तालमूलीत
क्रयोगादुदरामयनाशिनी॥ मोचरसेनातिसारं ग्रहणीं तक्रसैंधवैः। शूले नागरकं शस्तं हिंगुसौवर्चलान्वितम्॥ अर्शस्सु तक्रेण हिता पिप्पली राजयक्ष्मणि । वातरोगं निहंत्याशु शुंठी सौवर्चलान्विता ॥ गुडूची शर्करायोगात्पित्तरोगविनाशिनी ! पिप्पली क्षौद्रयोगेन श्लेष्मरोगं निकुंतति॥ अतः परतरा नास्ति धन्वन्तरमते वटी।
अर्थ-शुद्ध पारा १ तोला, गंधक २ तोले तथा कांतिलोह की भस्म ३ तोले, इन सब की बराबर शुद्ध सीगिया विष लेवे सब को चित्रक के रस में खरल करे तथा सोंठ, मिरच और पीपल ये दो दो भाग, लौंग, इलायची दो दो भाग, जायफल और जावित्री येएक २ भाग लेवे पॉचों नमक ५ तोले तथा थूहर, आक, इमली, ओंगा और पीपर वृक्ष इन का क्षार प्रत्येक दो दो तोले ले,सुहागा, जवाखार, सज्जीखार, हींग, जीरा और हरड ये प्रत्येक एक एक तोला लेवे सब का चूर्ण करके अम्लवर्ग की भावना देवे । फिर इस में धतूरे के बीजों की भस्म ७ भाग मिलाकर एक २ रत्ती के प्रमाण गोली बनावे । यह पाशुपत नामक रस तत्काल परचा देनेवाला है। यह संपूर्ण अजीर्णों का नाश करे तथा मूसली और छाछ इन के साथ उदर रोग पर, अतिसार में मोवरस के साथ, संग्रहणी में छाछ और सैंधे नमक के साथ, शूल रोग में सोंठ, हींग और संचर नमक के साथ, बवासीर में छाछ के साथ, क्षयरोग में पपिल के साथ, वादी में सोंठ और संचर नमक के साथ, पित्त के रोग में गिलोय और मिश्री के साथ, कफरोग में पीपल और सहत के साथ देना चाहिये । इस पाशुपतरस से बढके दूसरा उत्तम रस धन्वंतरी के मत से नहीं है॥
आदित्यरस
दरदं च विषं गन्धं त्रिकटु त्रिफलासमम्। जातीफलं लवङ्गं चलवणानि च पञ्च वै॥ सर्वमेकीकृतं चूर्णमम्लयोगेन सप्तधा। भावयित्वा वटीकुर्याद्गुंजार्धप्रमिता बुधैः॥ रसोह्यादित्यसंज्ञोयमजीर्णक्षयकारकः। भुक्तमात्रंपाचयति जठरानलदीपनः॥
अर्थ-हींगलू, विष, गंधक, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आँवला, जायफल लौग, रेहका नमक, सैंधानमक, सञ्चरनमक, कचियानमक, कालानमक, इन सब को एकत्र कर अम्लवर्गकी सात भावना व फिर चार २ रत्ती की गोली बनावे। यह
आदित्य नामक रस अजीर्ण का नाशक है तथा जो खायउसी, को पचावे तथा अग्निको प्रदीप्त करता है ॥
हुताशनरस
एकं च दिग्द्वादशभागमानं योज्यं विषंटङ्कणमूषणं च।
हुताशनो नाम हुताशनस्य करोति वृद्धिं कफवातहंता॥
अर्थ- सींगियाविष १ भाग, सुहागा ८ भाग और काली मिरच १२ भाग लेवे सबको एकत्र कर चूर्ण करे और जल से घोटके गोली बनावे यह हुताशन नामक रस अग्नि की वृद्धि करे तथा कफ वादी के रोगों को नष्ट करे॥
अजीर्णकण्टकरस
शुद्धसूतविषगन्धकं समं तुल्यभागमरिचंच चूर्णितम्।
मर्दयेत्तु बृहतीफलद्रवैरेकविंशतिविभावितं पुनः॥
गुञ्जिकात्रयमिदं सुभक्षितं सद्यएव जठराग्निवर्धनम्।
एषकण्टकरसो विषूचिकाजीर्णमारुतगादन्निहन्ति ॥
अर्थ-शुद्धपारा, शुद्धविष, शुद्धगंधक, तीनों समान भाग लेवे तथा काली मिरच सब के समान लेवे । इन सब का चूर्ण कर कटेली के फल के रस की २१ भावना देवे फिर तीन २ रत्ती की गोली बनावे, एक गोली नित्य खाय तो अग्नि की वृद्धि करे। यह अजीर्णकंटकरस हैजा, अजीर्ण और वादी के रोगों को दूर करे ॥
रामबाणरस
पारदामृतलवङ्गगन्धकं भागयुग्ममरिचेन मिश्रितम्। तत्र जातिफलमर्धभागिकं तिन्तिणीफलरसेन मर्दितम्॥ वह्निमांद्यदशवक्रनाशनो रामबाण इति विश्रुतो रसः। संग्रहग्रहणिकुम्भकर्णयोः सामवातखरदूषणं जयेत्॥ दीयते तु चणकानुमानतः सद्य एव जठराग्निदीपनः । रोचनो कफकुलान्तकारकः श्वासकासवमिजन्तुनाशनः॥
अर्थ-पारा, सांगिया विष, लौग, गंधक ये समान भाग ले तथा काठी मिरच२ भागऔरजायफल आधा भाग। सबको एकत्र कर इमली के रस में खरल करे यहरामबाणरस की चना के समान गोली बनायके देवे यह मंदाग्निरूप रावण, संग्र-
हणीरूप कुंभकर्ण, आमवातरूप खरदूषण को नष्ट करे, तत्काल जठराग्निको दीपन करे, रुचि प्रगट करे, कफ रोग, श्वास, खांसी, वमन और कृमिरोग इनको नष्ट करे॥
दूसरा प्रकार
त्रिनिष्कं शुद्धजेपालं विषं गन्धेश टङ्कणम् । भृङ्गराजरसैः पिष्ट्वाभूयो वटकसाधितः॥ रामबाणरसः ख्यातो द्विगुंजः श्लेष्मवातहा। अजीर्णाध्मानविष्टम्भशूलेषु श्वासकासयोः॥
अर्थ-शुद्ध जमालगोटा ४ मासे तथा सींगियाविष, गंधक और पारा ये एक एक मासे सब को एकत्र कर भांगरे के रस में खरल करे इस में से दो दो रत्ती की गोली बनावे यह कफ, वादी, अजीर्ण, अफरा, विष्टंभ, शूल, श्वास, और खांसी इन का नाश करे॥
ज्वालानलरस
एलात्वक्गगनपुष्पाणामत्रोत्तरविवर्धिताः। मरीचं पिप्पली शुण्ठी चतुः पञ्चषडुत्तरा॥ द्रव्याण्येतानि यावंति तावद्धि सितशर्करा । चूर्णमेतत्प्रयोक्तव्यमग्निसंदीपनं परम् ॥ क्षारत्रयं सूतगन्धौ पंचकोलमिदं शुभम् । सर्वैस्तुल्या जया भ्रष्टा तदर्धंशिग्रुजा जटा ॥ एतत्सर्वेजयाशिग्रुवह्निमार्द्रकजैर्द्रवैः। भावयेत्त्रिदिनं घर्मेततो लघुपुटे क्षिपेत्॥ सप्तधार्द्रद्रवैर्घृष्टो रसो ज्वालानलो भवेत् । निष्कं च मधुना लिह्यानुपानं गुडनागरम्॥ हन्त्यजीर्णमतीसारं ग्रहणीमग्निमार्दवम्। श्लेष्महृल्लासवमनमालस्यमरुचिं जयेत्॥
अर्थ-इलायची १ दालचीनी २ अभ्रक भस्म ३ लौंग काली मिरच ४ पीपल ५ सोंठ इस प्रकार सबऔषध लेवेऔर सब के बराबरसपेद खाँड मिलावे सब को एकत्र करके चूर्णतयार करे इस के सेवन करने से अग्निदीपन हो, सज्जीखार, जवाखार, सुहागा, पारा, गंधक, पीपल, पीपरामूल, चन्य, चित्रक
की छाल और सोंठ ये सबसमान भाग लेवे, सब का चूर्ण करे और सब चूर्ण के बराबरभुनी हुई भांग तथा भांग से आधी सहजने की जड लेवे, सब को खरल कर अरनी, सहजना, चित्रक,और अदरख इन के रस में भिगोयके धूप में धर देवे, फिर उस को सराव संपुट में रखके लघुपुटदेवे जब शीतल हो जावेतबइस में अदरख के रस की सात भावना देवे यह ज्वालानलरस ४ मासे सहत में मिलाय कर देवे और ऊपर सेसोंठऔर गुड खवावे तो अजीर्ण, अतिसार, संग्रहणी, मंदाग्नि, कफ, हल्लास, वमन, अलस, और अरुचि इन का नाश करे ॥
चिन्तामणिरस
रसं गंधं मृतं शुल्बंमृतमभ्रं फलत्रिकम् । त्र्यूपणंजयपालं च समं खल्वे विमर्दयेत् ॥ द्रोणपुष्पीरसं भाव्यं शुष्कं तद्वस्त्रगालितम् । चिन्तामणिरसो ह्येषअजीर्णे शंसते सदा ॥ ज्वरमष्टविधं हंति सर्वशूलहरः परः।गुञ्जैकंवा द्विगुञ्जंवा आमवातहरः परः॥
अर्थ-पारा, गंधक, तामे की भस्म, अभ्रक की भस्म, हरड, बहेडा,आवला, सौंठ, मिरच, पीपल और जमालगोटा ये सबसमान भाग लेके गोमा के रस में खरलकरे जब सूख जावे तब पीसके कपरछन कर लेवे यह चिंतामणिरस अजीर्ण पर कहा है यह आठ प्रकार के ज्वर, संपूर्ण शूल और आमवात इन का नाश करे इस रस की मात्रा दो रत्ती की है॥
पञ्चमूल्यादिघृत
पञ्चमूल्याभयाव्योपपिप्पलीमूलसैंधवम् । रास्नाक्षारद्वयाजाजीविडङ्गसठिभिर्घृतम्॥ युक्तेन मातुलिंगस्य स्वरसेनार्द्रकस्य च। तक्रमस्तुसुरामण्डसौवीरकतुपोदकैः॥ काञ्जिकेन तु यत्पक्वंपीतमग्निकरं स्मृतम् । गुल्मशूलोदरश्वासकासानिलकफापहम् ॥
अर्थ-पंचमूल, हरड, सोंठ, मिरच, पीपल, पीपरामूल, सैंधानिमक, रासना, जवाखार, सज्जीखार, जीरा, वायविडंग, सोंठ की जड इन का काढा करके फिर घीको विजोरे का रस, भाँगरे का रस, छाछ, दही का जल, मद्य, गेंहूकी काँजी, तुपोंका काढाऔर काँजी इन सब को मिलायके पचन करावेजब घृत मात्र शेषरहे तबउतार लेवे इस के सेवन करने से अग्निकी वृद्धि होवेतथा गोला, शुल, उदररोग, श्वास, खाँसी, वादी और कफ इन का नाश करे॥
दशमूलादिघृत
मरीचं पिप्पलीमूलं नागरं पिप्पली तथा। भल्लातकयवानी च विडंगं गजपिप्पली ॥ हिंगुसौवर्चलं चैव अजाजीबिडधान्यकम् । सामुद्रसैंधवं क्षारं चित्रकं वचया सह ॥ एभिरर्धपलैर्भागैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत् । दशमूलरसे सिद्धं पयसाष्टगुणेन वा ॥ मंदाग्नेश्च हितं सिद्धं ग्रहणीदोषनाशनम् । विष्टंभमामं दौर्बल्यं प्लीहानमपि कर्षयेत् ॥ कासं श्वासं क्षयं वापि दुर्नामानं भगंदरम् । कफजान्हंति रोगांश्च वातजान् कृमिसंभवान् ॥ तान् सर्वान्नाशयत्याशु शुष्कं दावानलो यथा।
अर्थ-मिरच, पीपरामूल, सोंठ, पीपर, भिलाए, अजमायन, वायविडंग, गजपीपर हींग, संचरनिमक, जीरा, विडनिमक, धनिया, समुद्रनिमक, सैंधानिमक, जवाखार चीते की छाल और वचये प्रत्येक दो दो तोले लेवे इन का काढा करके इसमें गौ का घी ६४ तोले, दशमूल का रस, दूध ये अठगुने मिलावे-फिर मंदाग्नि पर रखके सिद्ध करे यह संग्रहणी, विष्टंभ, आम, दुर्बलता, प्लीहा, श्वास, खासी, क्षय, बवासीर, भगंदर, कफ के रोग, कृमिरोग, इन को जैसे वन को अग्नि दहन करे है इस प्रकार नाश करे ॥
धान्यादिघृत
धान्यजीरकसंसिद्धं घृतममिविवर्धनम् ।
रोचनं दोपशमनं वातपित्तविनाशनम्॥
अर्थ-धनिया और जीरा इन के काढेमें घी मिलायके सिद्ध करे यह अग्नि को बढावेरोचक तथा दीपनाशक है तथा बादी और पित्त इन को नाश करे॥
अग्निघृत
पिप्पलीपिप्पलीमूलं चित्रकं गजपिप्पली। हिंगुचव्याजमोदा च पंचैते लवणानि च॥ द्वौ क्षारौ हपुषाचैव दद्यादर्धपलोन्मिता। दधिकांजिकसूक्तानि स्नेहमात्रसमानि च ॥ आर्द्रकस्वरसप्रस्थं घृतप्रस्थे विपाचयेत्।
एतदग्निघृतं नामं मंदाग्नीनां प्रशस्यते॥ अर्शसांनाशनं श्रेष्ठं तथा गुल्मोदरापहम्। नाशयेद् ग्रहणी-दोषंश्वयथुंसभगंदरम्॥ ये च वस्तिगता रोगा ये च कुक्षिसमाश्रयाः। सर्वांस्तान्नाशयत्याशु सूर्यस्तम इवोदितः॥
अर्थ-पीपल, पीपरामूल, चित्रक, गजपीपल, हींग,चव्य, अजमोद, पांचों निमक, सज्जीखार, जवाखार, हौवेर ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे इन का काढा करके अथवा कल्ककरके इसमें दही,कांजी, सूक्त, घी और अदरख का रस ये प्रत्येक ६४ तोले मिलाय के मंदाग्नि पर चढायके पचन करे, ये अग्निनामक घृत मंदाग्निको उत्तम है तथा बवासीर,गोला,जलंधर,संग्रहणी, सूजन, भगंदर, बस्ति और कूखइन के रोग इन सब को नाश करे जैसे सूर्योदयके होने से अंधकार का नाश होता है उसी प्रकार यह सब रोगों को नाश करे है॥
शार्दूलकांजिक
पिप्पली शृंगवेरं च देवदारुं सचित्रकम्। चव्यं सबिल्वपेशी च अजमोदां हरीतकीम्॥ महौषधिंयवानीं च धान्यकं मरिचं तथा। जीरकं चापि निहितं काजिकं साधयेद्भिपक् ॥ एषशार्दूलको नाम कांजिकोग्निबलप्रदः। सिद्धार्थतैलसंभृष्टो दश रोगान्व्यपोहति॥ कासं श्वासमतीसारं पांडुरोगं च कामलाम्। आमं च गुल्मशूलं च वातशुलं सवेदनम्॥ अर्शोसिश्वयथुंचैव भुक्तपातं च शाश्वतम्। क्षीरपाकविधानेन कांजिकस्यापि साधनम्॥
अर्थ-पीपर. अदरख, देवदारु, चीते की छाल, चव्य, बेलगिरी, अजमोद, हरड, सोंठ, अजमायन, धनिया. काली मिरच और जीरा, इन सबवस्तुओं को डालके कांजी सिद्ध करे तो यह शार्दूल नामक कांजीअग्नि और बलको बढावे. यदि इस को कडुए तेल में छोकके लेवेतो खांसी, श्वास, अतिसार, पांडुरोग, कामला, आम, गोले का शूल, वातशूल, बवासीर, परिणामशूलऔर सूजन इन को दर करे कांजीको बनावेतो क्षीरपाक की विधि से बनावे॥
विषूचिकादिकीसंप्राप्तिनिदान
सूचीभिरिव गात्राणि तुदन्संतिष्ठतेनिलः।
यत्राजीर्णेच सा वैद्यैर्विषूचीति निगद्यते॥
अर्थ-अजीर्ण में वादी-सूई के से चवका देह में करे उस को वैद्यों ने विषूची (हैजा) रोग कहा है इंग्रजी में इस को कौलेरा कहते हैं ॥
न तां परिमिताहारा लभंते विदितागमाः।
मूढास्तामजितात्मानो लभंतेशनलोलुपाः॥
अर्थ-इस विषूचीका रोग को परिमाण का भोजन करनेवाले और वैद्यशास्त्र के ज्ञाता नहीं प्राप्त होते, किंतु जो मूढ हैं और आत्मा जिन की वशीभूत नहीं तथा भोजन के लालची है वो प्राणी इस विषूचिका रोग को प्राप्त होते हैं॥
विषूचिकाकेलक्षण
मूर्छातिसारो वमथुः पिपासा शूलभ्रमो द्वेष्टनजृंभदाहाः।
वैवर्ण्यकंपौ हृदये रुजश्च भवंति तस्यां शिरसश्च भेदः॥
अर्थ-मूर्च्छा, अतिसार, वमन, प्यास, शूल, भ्रम, जांघोंमें पीडा, जंभाई, दाह, देह का विवर्ण, कम्प, हृदय में पीडा और मस्तक में पीडा ये लक्षण हों उस को विषूचिका कहते हैं इसीको महामारी अथवा हैजा कहते हैं॥
विलंबिका व अलसक इन की चिकित्सा
विलंबिकालसकयोरुर्ध्वाधःशोधनं हितम्।
नालेन फलवर्त्याच तथा शोधनभेषजैः॥
दंडाद्यलसकेप्युच्चैरयमेव क्रियाक्रमः।
अर्थ-विलंबिका और अलसक इन दोनोंको क्रमसे वमन और विरेचन हितकारी है तथाफलवर्त्तीऔर शोधन देना हित है. दंडालसक परभी यही क्रिया जाननी चाहिये॥
फलवर्त्तिवमिस्वेदं लंघनं चापतर्पणम्।
विशेपादलसे कुर्याद्विषूच्यामतिसारवत् ॥
अर्थ-कपडेकी बत्ती वनायके उस को रंचक औषधोंमें भिगोकर गुदा मेंरक्खे, वमन करावे, पसीने निकाले, लंघन करावे, अतृप्त करना, ये उपाय अलसरोगपर विशेषकरके करे । बाकीकेअतिसारोक्त यत्न करने चाहिये॥
अलसककीनिरुक्ति
प्रयाति नोर्ध्वंनाधस्तादाहारो न विपच्यते।
आमाशये लसीभूतस्तेनासौ लसको मतः॥
अर्थ-जिस व्याधि में ऊपर और नीचे दोष न जावे तथा आमांश पचे नहीं वो दोष आमाशयमें लसी (ल्हस्सी)के समान होकर रहे उसको अलसक रोग कहते हैं॥
अलसक व दंडालसकलक्षण
कुक्षिरानह्यतेत्यर्थेप्रताम्येत्परिकूजति । निरुद्धो मारुतश्चैवं कुक्षावुपरि धावति ॥ वातवर्चोनिरोधश्च यस्यात्यर्थंभवेदपि । तस्यालसकमाचष्टे तृष्णोद्गारौ तु यस्य च ॥
अर्थ-कूख में और पेटमें अफरा हो, मोह होय, पीड़ासे पुकारे, पवन चलने से रुककर कुख में और कंठादि स्थानों में फिरे, मलमूत्र और गुदा की पवन रुके, प्यास बहुत लगे, डकार आवे ये लक्षण जिस में होय उस को अलसक रोग कहते हैं॥
वायुः कंपभ्रमानाहशूलादीन्प्रकरोति च। पितं ज्वरातिसारौ च दाहादीन्स्वेदनानि च ॥ श्लेष्मांगगुरुता-छर्दिवाक्संगष्टीवनानि च। लुब्धास्ते लसको दोषाश्छर्द्यतीसारवर्जिता॥ कारकास्तत्त्रिशूलादेःस्रोतसः सनिरोध-काः। तिर्यग्गतास्तनुं स्तब्धा दंडवत्स्तंभयंति च ॥ स दंडालसकस्त्याज्यः शीघ्रं देहविनाशकृत् ।
अर्थ-इस दंडालसकरोगमें कफ, भ्रम, अफरा, और शूल आदि रोगोंको करती है । तथा पित्तज्वर, अतिसार, दाह, पसीने आना, कफ, देहका भारी होना, वमन, वाणीका रुकना, वारंवार थूकना, इनको करे, यदि वातादि दोषकुपित्त हो वमन और अतिसारको न करावे तो वो त्रिक स्थानमें शूल, और छिद्रोंका रुकना यह करे. तथा तिरछे मार्गमें प्राप्त हो देहको दंडक (लकडीके) समान देहको स्तंभित करदेवे. यह दंडालसक रोग तत्काल देहको नष्ट करे इसवास्ते वैद्य इस रोगीको त्याग देवे॥
विलंबिका लक्षण
दुष्टं च भुक्तं कफमारुताभ्यां प्रवर्तते नोर्ध्वमधश्च यस्याम् ।
विलंबिकां तां भृशदुश्चिकित्स्यामाचक्षते शास्त्रविदः पुराणाः॥
अर्थ-जिस मनुष्य के भोजन करा भया, अन्न, कफ वातकरके दूषित होय ऊपर नीचे नहीं जाय अर्थात् वमन, विरेचन न होय, उस को वैद्यविद्या के जाननेवाले जिस की चिकित्सा नहीं ऐसा विलंबिका रोग कहते हैं । * कोई शंका करे कि अलसक और विलंबिका इन दोनों की वातकफ के प्रबल होने से ऊपर नीचे प्रवृत्ति होती है इन दोनों में भेद क्या है सो कहो। * उत्तर-अलसकमेंशूल आदि घोर पीडाकर्त्तारोग होते हैं और विलंबिका में नहीं हों इतनाही भेद है॥
अजीर्णसें उत्पन्न हुए आम के कार्य
यत्रस्थमामं विरुजे तमेव देशं विशेषेण विकारजातैः।
दोषेण येनावततं शरीरं तल्लक्षणैरामसमुद्भवैश्च॥
अर्थ-जिस ठिकानेपर आम रहता है उस ठिकानेपर जिस दोष से वह स्थान व्याप्त हो उस के लक्षण करके ( पीडा, दाह, गौरव आदि ) और आमजन्य विकारकरके (आमवातादिक) विशेष पीडा होती है। इससे जाना गया कि और ठिकानेपर थोडी पीडा होती है और (यत्र) इस सर्वनाम शब्द से कुपित भये वातादिकों के सदृश आम का कोई स्थान नहीं है ये दिखाया॥
विषूची और अलसक इन के असाध्य लक्षण
यः श्यावदंतोष्ठनखोल्पसंज्ञो वम्यर्दितोभ्यंतरयातनेत्रः।
क्षामस्वरः सर्वविमुक्तसंधिर्यायानरोसौ पुनरागमाय॥
अर्थ-जिस रोगी के दांत, नख, होंठ काले पड़ जावे और संज्ञा जाती रहे वमन से पीडित होवेऔर नेत्र भीतर को बैठ जाय मन्द स्वर हो तथा हाथपैर की संधि ढीली पड जाय वो मनुष्य बचे नहीं, विलम्बिकास्वरूप से ही असाध्य है यह जैज्जट आचारी का मत है॥
जीर्णआहारलक्षण
उद्गारशुद्धिरुत्साहो वेगोत्सर्गो यथोचितः।
लघुता क्षुत्पिपासा च जीर्णाहारस्य लक्षणम्॥
अर्थ-शुद्ध डकार आवे, शरीर मन का प्रसन्न होना, जैसा भोजन करा हो उस के सदृशमलमूत्र की भले प्रकार प्रवृत्ति होना, शरीर हलका होय परंतु कोष्ठ विशेष हलका हो,भूंखऔर प्यास लगे, यह भोजन पचने के उत्तर लक्षण होते हैं॥
विषूचिका के उपद्रव
निद्रानाशोरतिः कंपो मूत्राघातो विसंज्ञिता।
अमी उपद्रवा घोरा विषूच्यां पंच दारुणाः॥
अर्थ-निद्रा का नाश, मन का न लगना, कम्प, मूत्र का रुकना, संज्ञा का नाश ये विषूचिका के घोर पांच उपद्रव हैं ॥
विषूचिकाचिकित्सा
विषूच्यामतिवृद्धायां पाण्योर्दाहःप्रशस्यते ।
गंधकं कुंकुमं वापि दद्यान्निंबुजलेन वा॥
अर्थ-विषूचिका अत्यंत बढने पर हाथोंमें दाग देवे अथवा गंधक वा केशर को नींबू के रस में मिलायके पीवे तो विषूचिका रोग दूर हो॥
लशुनाद्यचूर्ण
लशुनजीरकसैंधवसंचलं त्रिकटुरामठचूर्णमिदं समम् ।
सपदि निंबुरसेन विषूचिकां हरति भो रतिभोगविचक्षणे ॥
अर्थ-लहसन, जीरा, सैधानिमक, संचरनिमक, सोंठ, काली मिरच, पीपल, और हींग इन के चूर्ण को नीबू के रस में मिलायके खाय तो हे रतिभोगविचक्षणे! विषूचिका (हैजा) का नाश होवे॥
अपामार्गादियोग
जलपीतमपामार्गमूलं हन्याद्विषूचिकाम् ।
सतैलं कारवेल्लांबु विधुनोति विषूचिकाम्॥
अर्थ-ओगा की जड़ को जल में औटायके पीवे, अथवा करेले का रस तेल मिलायके पीवे तो विषूचिका रोग नष्ट होवे ॥
बालमूत्रादिकाढा
बालमूत्रस्य निःक्वाथःपिप्पलीचूर्णसंयुतः।
विषूचिनाशनः श्रेष्ठो जठराग्निविवर्द्धनः॥
अर्थ-बछडे के मूत्र के काढेमें पीपल का चूर्ण डालके पीवे, तो विषूचिका रोग नष्ट होवे और जठराग्नि वर्द्धितहोवे ॥
तक्रयोग
तक्रेण युक्तं यवचूर्णमुष्णं सक्षारमार्तिं जठरस्य हन्यात् ।
स्वेदो घटैर्वा बहुबाष्पपूर्णैरुष्णैस्तथान्यैरपि पाणितोयैः॥
अर्थ-जौ के चूर्ण को छाछ में मिलाय गरम कर उस में जवाखार मिलायके पीवेउसी प्रकार गरम जल की वाफ अथवा शेक किवा हाथों को सेकना ये सब उपचारविषूचिका रोग नाशक है॥
बिल्वादिकाढा
बिल्वनागरनिःक्वाथो हन्याच्छर्दिविषूचिकाम् ।
बिल्वनागरकैडर्यक्वाथः स्यादधिको गुणैः॥
अर्थ-बेलगिरी और सोंठ इन का काढा वमन, विषूचिका, इन का नाशक है तथा बेलगिरी और सोंठ तथा कायफर इन का काढा पहले काढे की अपेक्षा अधिक गुणकारीहै॥
यवपिष्टलेप
यवपिष्टजवक्षारलेपस्तक्रेणसंयुतः।
उष्णीकृतो हरेत्सद्यो जठरार्तिं सुदुर्जयाम्॥
अर्थ-जों का चून और जवाखार इन को छाछ में मिलायके ओटावे फिर इस का सुहाता लेप करे तो कैसा ही उदरशूल हो वो तत्काल शांति होवे ॥
कुष्ठादिलेप
कुष्टसैंधवयोः कल्कं चुक्रतैलसमन्वितम् ।
विषूच्यामर्दनं कोष्णं खल्लीशूलनिवारणम्॥
अर्थ-कूठ, और सेंधानिमक, इन के चूर्ण को चूका के तेल में मिलायके मंदोष्णकर अंगमें लेप करे तो विषूचिका और खल्लीशूल इन को दूर करे है॥
साधारणलेप
सरुग्वानद्धमुदरमम्लपिष्टैःप्रलेपयेत्।
दारुहैमवतीकुष्ठशताह्वाहिंगुसैंधवैः॥
अर्थ-शूल्युक्त फूले हुए पेट पर खट्टे रस में दारुहलदी, हरड, कूट, शतावर, हींग और सैधानिमक पीसके लेप करे तो शूल और पेट का फलना दूर होवे॥
लंवगादिचूर्ण
शाणद्वयं स्यात्तु लवंगमेलाजातीफलं कोलसुनागफेनम् । माषप्रमाणं सकलं विचूर्ण्य शाणं कवोष्णेन जलेन पीतम् ॥ विषूचिकां हंति सुदारुणां च शूलातिसारौ वमथुः प्रसक्तः।
अर्थ-लौग ८ मासे, इलायची और जायफल ये दोनों आधे २ तोले, अफीम एक मासे; इन सब का चूर्ण एकत्र करके गरमजल के साथ छः मांस सेवन करे तो दारुण विषूचिका, शूल, अतिसार और वांति इन का नाश करे॥
पथ्यादिचूर्ण
पथ्यावचाहिंगुकलिंगभृंगसौवर्चलैःसातिविषैःसचूर्ण्य।
सुखांबुपीतो विनिहंत्यजीर्णशूलं विषूचीं कसनं च सद्यः॥
अर्थ-हरड, वच, हींग, कूडा की छाल, भांगरा, संचरनिमक, और अतीस इन के पूर्ण को सुहाते २ गरमजल के साथ पीवे तो अजीर्ण, शूल, हैजा, और खांसी इन को तत्काल दूर करे ॥
शंखद्राव
लवणानि तथा क्षाराः प्रत्येकं पंचभागिका। कासीसं टंकणं तुत्थं गंधकं निंबुकद्रवम्॥ तिलापामार्गजं क्षारप्रत्येकं वेदभागिकम्। नवसागरसौराष्ट्रीसर्जिकानेत्रभागिका॥ एतत्सर्वं समालोड्यभाव्यं जंबीरनीरतः। सरंध्रे नलिकायंत्रे यामयुग्मं विपाचयेत्॥ शंखद्रावो भवेदेष सर्वदोपनिकृंतनः। लोहपाषाणशंखानां द्रावकोयं न संशयः॥
अर्थ-पांचों निमक, तथा संपूर्णक्षार, ये प्रत्येक पांच २भाग ले, हीराकसीस, सुहागा, नीला थोथा, गंधक, नींबू का रस, तिल,ओंगा, इन का सार प्रत्येक ४ भाग लेवे, नौसादर, फिटकरी, और सज्जीखार ये प्रत्येक दो २ भाग लेवे इन सब को एकत्रकर नीबू के रस में खरल करे, फिरन लिका यंत्र में भरके दो प्रहर पचावेतो यह शंखद्रावसिद्ध होवेयह संपूर्ण दोषोंका नाश करेहै, यह लोह, पत्थर, शंखइत्यादि जो वस्तु इसमें डालो उसी का पानी कर देता है इस में संदेह नहींहै ॥
दालचिनीतैल
त्वक्पत्ररास्नागुरुशिग्रुकुष्ठैरम्लप्रपिष्टैः सवचाशताह्वैः।
उद्वर्तनं खल्लिविषूचिकाघ्नंतैलं विपक्वंच तदर्थकारी॥
अर्थ-दालचीनी, पत्रज, रास्ना, अगर, सहजने की जड़, कूट, वच, और शतावर इन सब को नीबू के रस में पीसके देह में मालिस करे अथवा तेल बनाय लेवे इस तेलको देह में लगावे तो वादी और हैजा इन को नष्ट करै ॥
चुक्रतैल
पलं चुक्रंकुष्ठंपिचुयुगमितं सैंधवकणा तदर्धंप्रत्येकं करतलमितं जातिफलकम्। कटुं तैलं किंचित्कुडव-मितिमग्नावधिशतं तदेतच्चुक्रद्यंशमयति विषूचींच गदहम् ॥ कुष्ठसैधवयोः कल्कं चुक्रतैलसमन्वितम् । विषूच्यां मर्द्दनंकोष्णं खल्लीशूलनिवारणम् ॥
अर्थ-चूका ४ तोले, कूठ ४ तोले,नीम की छाल २ तोले, सैधानिमक १ तोले,पीपल १ तोले, जायफल १ तोले, सरसों का तेल १६ तोले अथवा सर्व चूर्ण बूड जावे इतना तेल मिलायके सिद्ध करे इस को विषूचिका में लगावे तो नष्ट होवे-तथा कूठऔर सैंधानिमक इन का कल्क और चूका का तेल डालके विषूचिका पर गरम करके मालिस करे तो वायु रोग तथा शूल इन को नष्ट करे॥
अर्कादितैल
अर्कस्य च रसप्रस्थं प्रस्थं धत्तूरकस्य च । श्वेतस्नुहिरसप्रस्थं प्रस्थं सौभांजनाद्रसात् ॥ कुष्ठसैंधवयोः कल्कं पले द्वे द्वे प्रमाणतः। तैलप्रस्थं कांजिकेन पचन् मृद्वग्निना समम् ॥ खल्लीं विषूचिकां हंति पक्षाघातं च गृध्रसीम्
अर्थ-आक का दूध ६४ तोले, धतूरे का रस ६४ तोले, सपेद थूहर का रस ६४ तोले, सहजने का रस ६४ तोले, कूठ और सैधानिमक इन का कल्क दो दो पल तेल ६४ तोले, और कांजी ८४ तोले सब को मिलाय के मंदाग्नि से पचावे जय तेल मात्र आय रहे तब उतारके लगावे तो यह खल्लीवात,विषूचिका, पक्षाघात और गृध्रसी इन का नाश करे॥
तक्र
विषूच्यामतिवृद्धायां तक्रंदधिसमं जलम् ।
नारिकेरांबुपेयां वा प्राणत्राणाय योजयेत् ॥
अर्थ-अत्यंत बढी हुई विषूचिका में छाछ अथवा दही ले उस में समान भाग जल मिलाय ले अथवा नारियल के पानी से पेया करे और पीवे तो प्राणों की रक्षाहोवे॥
पानी
पिपासायां तथोत्क्लेशे लवंगस्यांबु शस्यते।
जातीफलस्य वा शोतं शृतं भद्रघनस्य वा॥
अर्थ-तृषा अथवा उत्क्लेशइन में लौंग अथवा जायफल अथवा नागरमोथा इन का जल औटायके शीतल करके देवे॥
विलंबिका व अलसिकाचिकित्सा
विलंबिकालसकयोरयमेव क्रियाक्रमः।
अतएव तयोरुक्तं पृथङ् नैव चिकित्सितम्॥
अर्थ-विलंबिका और अलसक इन पर विषूचिका के ऊपर जो चिकित्सा कही है वही इन दोनों में करे इन दोनों में विषूचिकारोगसे भिन्न चिकित्सा नहीं कहीं॥
हस्तिकर्णयोग
हस्तिकर्णाश्च दंतश्च पिप्पलीकंदसंयुतः ।
पीता कोष्णेन तोयेन क्षिप्रं हन्याद्विषूचिकाम् ॥
अर्थ-हस्तिकर्णपलास की जड़ और हाथीदांत पीपल और प्याज इन को गरम जल में पीसके पीने को देवे तो विषूचिका का नाश होवे ॥
निंबुरसयोग
निंबूरसं चिंचिणिकासमेतं विषूचिकाशोषहरं कफंच ।
दुग्धेन पीतो यदि टंकणोसौ प्रशाम्यतेयं वमनं निरुध्यात्॥
अर्थ-नींबू के रस में पुरानी इमली को मिलायके पीवे तो विषूचिका शोषऔर कफ इन का नाश होवे तथादूध में सुहागा डालके पीवे तो विषूचिका तथा वमन करना बंद होवे ॥
करंजादिकषाय
करंजं निंबुशिखरीगुडूच्यर्जुनवत्सकैः ।
पीतः कषायो वमनात् घोरां हन्याद्विषूचिकाम्॥
अर्थ-कंजे की छाल, नीम की लकडी, ओंगा की जड, गिलोय, कोह और कूड की छाल इन का काढादेय तो वमनहोकर विषूचिका नाश होवे ॥
उत्क्लेशलक्षण
उत्क्लिश्यानं न निर्गच्छेत्प्रसेकष्ठीवनेरितम् ।
हृदयं पीड्यते चास्य तमुत्क्लेशं विनिर्दिशेत्॥
अर्थ-वमन होने की सी भ्रांति तथा मुख में से पानी छूटे, वारंवार थूके, हृदय दूखे परंतु वमन न होवे उस को उत्क्लेश कहते है ।
कटुत्रयरस
कटुत्रयं जीरकहिंगुसिंधूरसोनगंधं च समं विमर्द्य।
निंबुद्रवेणाशु निहंति तूर्णं विषूचिकां दुष्टविलंबिकां च॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, जीरा, हीग, सैंधानिमक, लहसन और गंधक ये संपूर्ण वस्तु समान भाग लेके पीसे कल्क करके नीबू के रस से देवे तो दुष्ट विषूचिका और विलंबिका इन का नाश होवे॥
व्योषादिअंजन
व्योषंकरंजस्य फलं हरिद्रे मूलं समावाप्य च मातुलुंग्याः।
छायाविशुष्का गुटिकाः कृतास्ता हन्युर्विषूची नयनांजनेन॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, कंजे के बीज, दारुहलदी, हलदी, और विजोरे की जड़ इन सब को कूट पीस गोली बनावे उस को छाया में सुखाय के घर रक्खे फिर जल में घिसके नेत्रों में अंजन करे तो विषूचिका का नाश होय॥
अपामार्गाद्यंजन
अपामार्गस्य पत्राणि मरीचानि समानि च ।
अश्वस्य लालया पिष्टान्यंजनाद्धंति सूचिकाम् ॥
अर्थ-ओंगा के पत्ते और काली मिरच ये दोनों समान भाग लेवे दोनों को घोडे की लार में पीसके अंजन करे तो विषूचिका ( हैजे की बिमारी ) दूर होवे॥
बिल्वादिअंजन
बिल्वस्य मूलं शिरसस्य मूलं फलं करंजस्य नतं सुराह्वम्।
फलत्रयं व्योषनिशाद्वयं च वस्तस्य मूत्रेण सुसूक्ष्मपिष्टम् ॥
भुजंगलूतोदरवृश्चिकादिविषूचिकाजीर्णहरं ज्वरघ्नम्।
अर्थ-बेल की जड, सिरस की जड, कंज के बीज, तगर, देवदारु, हरड, बहेडा, आवला, सोंठ,मिरच, पीपल,हरदी, दारुहरदी इन सब को बकरेके मूत्र में खरल करके गोली बनावे इस को जल में घिसके अंजन करे तो सांप, लूता, बीछू, इत्यादिकों का विष तथा जलंधर, विषूचिका, अजीर्ण और ज्वर इन का नाश होवे ॥
अजीर्णादिकों पर पथ्य
श्लैष्मिके वमनं पूर्वं पैत्तिके मृदुरेचनम्। वातिके स्वेदन वाष्यं पथ्यापथ्यं हितं हि यत्॥ नानाप्रकारो व्यायामो दीपनानि लघूनि च। बहुकालसमुत्पन्ना मुद्गलोहितशालयः॥ विलेपी लाजमंडश्च मंडो मुद्गरसस्तथा। एणो बर्हिः शशो लावःक्षुद्रमत्स्याश्च सर्वशः॥ शालिं च शाकं वेत्राग्रं वास्तुकं बालमूलकम्। लशुनं वृद्धकूष्मांडं नवीनं कदलीफलम् ॥ सोभांजनं पटोलं च वार्त्तकंललदंबुजम् । कर्कोटकं कारवेलंबार्हतंच महार्द्रकम्॥ प्रसारणी काकमाची चांगेरी सुनिषण्णकम् । धात्रीफलं नागरं च दाडिमं यवपर्पटाः॥ अम्लवेतसजंबीरमातुलुंगानि माक्षिकम् । नवनीतं घृतं तक्रंसौवीरकतुपोदकम् ॥ धान्याम्लं कटुतैलं च रामठंलवणार्द्रकम्। यवानी मरिचं मेथी धान्यकं जीरकं दधि॥ तांबूलं तप्तसलिलं कटुतिक्तौरसस्तथा । मन्दानलेप्य
जीर्णे च पथ्यमेतन्नृणां भवेत्॥
अर्थ-मंदाग्नि, अजीर्ण (विषूचिका औरभस्मकरोग ) ये यदि कफजन्यहोवेतो प्रथम वमन देवे, और पित्तजन्यहोय सो नरम विरेचनदेवे।और वात जनित
होय तो स्वेदन कर्म करे, ये यथा काल में हितकारी होते हैं । तथा अनेक प्रकार के व्यायाम (मेहनत) दीपन, हलके और बहुत दिन के लाल चावल, बिलेपी, खीलों का मॉंढ, मंड (चावल आदि का) मूंग का रस (पानी) (मद्य ) तथा कालाहरिण, मोर, शशा, लवा, सब प्रकार की छोटी मछली, शालिंच शाक, वेत की आगे की कोपल, वथुआ, नरम २ मूली, लहसन, पुराना पेठा, नवीन केला की फली (गहर) सौभांजन (सहजना,) परवल, वैगन, (खसका सुगंधित जल) कमल, ककोडा, करेला, कटेरीका फल, अदरख, प्रसारणी, मकोय, लोनिया का साग, चौपतिया, आवले, सोंठघाडकी, (नारंगी) अनार, (क्षार) जों, पित्तपापडा ( पापड ) अमलवेत, जंभीरी, बिजोरानिंबू, सहत, मक्खन, घृत, छाछ, कांजी, तुषोदक, धान्याम्ल, (धान की कांजी) कडवा तेल, हींग, निमक और अदरक, अजमायन, काली मिरच, मेथी, धनिया, जीरा, दही, पान, गरम जल कडुए और चरपरे रस, मंदाग्निपर और अजीर्णपर ये पदार्थ पथ्यकारी हैं॥
अपथ्य
विरेचनानि विण्मूत्रवातवेगविधारणम् । अतिवेलं चाध्यशनं जागरं विषमाशनम् ॥ रक्तस्रुतिं शिंबिधान्यं मत्स्यं मांसमुपोदिकाम्। जलपानं च विष्टंभंजांबवं सर्वशालुकम्॥ कूर्चिका मोरटं क्षीरं किलाटं च प्रपानकम् । लालनं सस्यतद्वालस्नेहनं दुष्टवारि च॥ विरुदासात्म्यपानानां विष्टंभीनि गुरूणि च। अग्निमांद्येप्यजीर्णे च सर्वाणि परिवर्जयेत्॥
अर्थ- विरेचन, मल, और मूत्र इन के वेग का धारण करना, भोजन करने के अनंतर तत्काल फिर भोजन करना, जागना, विषमाशन, (विषम भोजन करना) रुधिर का निकालना, दीदल (जैसे मूंग मोठ चना आदि) का खाना, मछली, मांस, पोई का साग, जल पीना, विष्टंभकारी (जिसे अफरा होवे ऐसे पदार्थ) पिसा अन्न (चून मैंदा आदि) जामुन, सर्व प्रकार के कमलों के कंद, कूर्चिका ( चावलों को घी में औटाना) सात दिन की व्याही हुई गी का दूध, किलाट (फटे दूध का खोहा)पना, चिरोजी ( तालफल की मिंगी, धनिया, नेत्रवाला, स्नेहपदार्थ) वा स्नेहन कर्म ( बुरा-पानी ) विरुद्ध और असात्म्य ऐसे अन्न, तथा जल, विष्टंभी और भारी पदार्थ, ये अग्निमांद्यऔर अजीर्णरोग पर त्याग देने चाहिये॥
दूसरा प्रकार
मृतसूताभ्रलोहार्कविषमं गंधकं समम्। सर्वतुल्यांशभल्लातफलमेकत्रचूर्णयेत् ॥ द्रवैः सूरणकंदोत्थैः खल्वे मर्द्यंदिनत्रयम्। मापमात्रां लिहेदाज्यैरसश्चार्शांसि नाशयेत् ॥ रसोनित्योदितो नाम गुदोद्भवकुलांतकः। हस्ते नाभौमुखे पादे गुदे वृषणयोस्तथा॥ शोथो हृत्पार्श्वशूलं च यस्यासाध्यार्शसांहितः। असाध्यस्यापि कर्तव्या चिकित्सा शंकरोदिता ॥
अर्थ-पारे की भस्म, अभ्रक, लोहभस्म, तामे की भस्म, सिंगिया विष, और गंधकये समान भाग लेवे सब की बराबर भिलाए का चूर्ण मिलावेसब को एकत्र पीसके जमीकंद के रस से तीन दीन खरल करे इस को १ मासे घी के साथदेवे यहनित्योदितरस बवासीर का नाश करे तथा हाथ, पैर, नाभि, मुख, गुदा, औरवृषण इन की सूजन और हृदय तथा पसवाडे इन का शूल और असाध्य बवासीर इन को नाश करे तथा असाध्य बवासीर चिकित्सा शंकरोदित करनी चाहिये॥
नित्योदितरस
विषरविगगनायः सूतगंधं समांशं समहुतभुजद्रावैर्भावितं सप्तवारम्। प्रबलगुदजकीलं हंति नित्योदितोसौ मलहति मलबंधे मापमानः ससर्पिः।
अर्थ-सिंगिया विष, तामे की भस्म, अभ्रक, लोहभस्म, शुद्ध पारा, और गंधक येसमान भाग लेवे सब को कूट पीस चित्रक के रस की सात भावना देवे यह नित्योदितरस बवासीर और मलबंध इन पर एक मासे भर घी के साथ देवेतो बवासीर का नाश करे॥
अर्शकुठार
भागः शुद्धरसस्य भागयुगुलं गंधस्य लोहाभ्रयोः षट्बिल्वाग्निहत्र्यूपणाभयरजोदंतीच भागैः पृथक्। पंचस्युः स्फुटटंकणस्य च यवक्षारस्य सिंधूद्भवा भागाः पंच गवांजलेषु विमले द्वात्रिंशदेतत्पचेत्॥ स्रुक्दुग्धं च गवां जलावधिशनैःपिंडीकृतं तद्भवेद्द्वौ माषौगुदकीलकाननजटाच्छेदे कुठारो रसः।
• यह विषय बवासीर रोगमेंलिखनेकाथा।
अर्थ-शुद्धपारा १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, लोहभस्म और अभ्रकभस्म ६ भाग, बेलगिरी, चित्रक, सोंठ, मिरच, पीपल, हरीतकी और जमालगोटा ये प्रत्येक एक २ भाग लेवे सुहागा, जवाखार, सैंधानिमक ये पांच २ भाग लेवे सब को एकत्र कर, गोमूत्र ३२ भाग में डालके पचावेतथा थूहर का दूध ३२ तोले डालके फिर पचावे जब गाढाहो जावेतब दो दो मासे की गोली बनावे यह रस गुदा के अंकुरों को तोडने में कुठारीके समान है इसी से इस रस को वैद्यजन अर्शकुठार कहते हैं॥
षडाननरस
वैक्रांतताम्राभ्रकगंधकानां रसस्य कांतस्य समानभागम् ।
चूर्णंभवेत्तेन षडाननोयमर्शोविनाशाय च वल्लमात्रम्॥
अर्थ-वैक्रांतमणी, तांमे की भस्म, अभ्रकभस्म, शुद्ध गंधक, पारा और कांतलोह की भस्म ये सब समान भाग लेवे सब को घोट लेवे तो यह षडाननरस बने इस को बवासीर दूर करने के वास्ते तीन रत्ती के प्रमाण देवे ॥
पीयूषसिंधुः
शुद्धं सूतं षट्गुणं जीर्णगंधं, काचे पात्रेवालुकायंत्रयोगात् ।
भस्मीकृत्वा योजयेदत्रहेम तत्तुल्यांशं भस्म लोहाभ्रयोश्च ॥
सूतस्तुल्यं गंधकं मेलयित्वा खल्वे मर्द्यं सूरणस्य द्रवेण ।
दंती मुंडी काकमाची हलाख्या भृंगार्को निःसप्तमैषां रसेन ॥
क्षिप्त्वा पश्चाद्धान्यराशौ त्रिघस्त्रं चूर्णं कृत्वा माषमात्रं ददीत ।
अर्शोरोगे दारुणे च ग्रहण्यां शूले पांड्वामम्लपिते क्षये च ॥
श्रेष्ठं क्षौद्रं चानुपानं प्रशस्तं रोगोक्तं वा माषषट्कप्रयोगात् ।
सर्व रोगा यांति नाशं जरायां वर्षे द्वंद्वसेवनीयं प्रयत्नात् ॥ .
पथ्यं साम्लं चाम्लयोगादियोषिद्वर्ज्यादेयं सर्वरोगप्रशांत्यै।
पुष्टिं कांतिं वीर्यवृद्धिं सदा च सेवायुक्तो मानवः संलभेत॥
अर्थ-शुद्ध पारे को लेकर वालुकायंत्र में षड़गुण गंधक जारण करे फिर उस पारे के समान भाग सुवर्णभस्म, लोहभस्म, अभ्रकभस्म और गंधक ये मिलायके जमीकंद के रस में-दंती, गोरखमुंडी, मकोय, मद्य, भांगरा, आक और चित्रक इन प्रत्येक के रसकी सात २ भावना देवे फिर गोला बनाय के तीन दिन धान की राशि में दाबके धरदेवे चौथे दिन निकालके इस में से १ मासे की मात्रा देवे यह उन बवासीर का
रोग, संग्रहणी, शूल, पांडुरोग, अम्लपित्त और क्षय इन में सहत के साथ देवे। अथवा रोगोक्त अनुपान के साथ देवे। यह छःमासे भक्षण करने से संपूर्ण रोग तथा बुढापा दूर होवे । इस वास्ते प्रयत्न से सेवन करना चाहिये इस के सेवन करनेवाले को खटाई और स्त्रीसंग इन को त्यागके और जो सात्म्य होवे सो देवे तो पुष्टि, कांति और वीर्य वृद्धि ये प्राप्त होवे ॥
चक्रबन्धरस
दिनत्रयं गंधसमं रसेंद्रं विमर्दयेच्छ्वेतवसुद्रवेण। ताम्रस्य चक्रेण निबध्य वह्निहरीतकीभृंगरसैर्विमर्द्य॥ कटुत्रयेणापि ददीत गुंजाद्वयं मरुत्पायुरुहप्रशांत्यै॥चक्रबंधरसोयं हि सर्वरोगोपकारकः। एतैस्तु गंधकेनैकं पुटं चैव प्रदापयेत्॥
अर्थ-पारा और गंधक इन दोनों को सपेद पुनर्नवा के रस में तीन दिन खरल करे फिर इस में तामे की भस्म डालके खरल करे तो चक्र के समान पारा बद्ध होवे फिर उस को चित्रक, हरड, भांगरा, सोंठ, काली मिरच और पीपल इन के रस में तथा काढेमें खरल कर दो दो रत्ती की गोली बनावे१ गोली वातार्श (वादी की बवासीर) दूर करने को देवे। यह चक्रबंध रस सर्व रोगनाशक है इस में गंधक की एक पुट देनी चाहिये॥
पर्पटीरस
रसेंद्रगंधं सुदृढं विमर्द्यसर्पिर्युतं तत् द्विगुणं च बोलम्।
तावत्क्षिपेल्लोहमये द्रवं स्यात् क्षिपेच्च रंभादलयुग्ममध्ये॥
ततो रसः पर्पटिकाभिधानः समस्तदुर्नामनिकृंतनः स्यात् ।
संसेवितोवल्लचतुष्कमात्रः शोथातिसारंवगिरंगसादनम्॥
तृष्णाज्वरारोचकवह्निमांद्यंगुदस्य पाकं हृदयं हि शूलम्।
अर्थ-पारा, गंधक इन दोनों की कजली करके इस में घी और बीजाबोल का भूनाचूर्ण डालके सबको लोह के पात्र में भरके अग्नि पर चढावे और पतला करेफिरइस को केले के पत्ते पर ढाल देवे और तत्काल दूसरे पत्ते से ढक्केगौके गोबर का दाबदेवे। यह पर्पटीरस चार वल्ल (१२ रत्ती) अनुपान के साथ देवे तो संपूर्ण प्रकार की बवासीर, सूजन, अतिसार, वांति, अंगों का रह जाना, प्यास, ज्वर,अरुचि, मंदाग्नि, गुदापाक, हृदय का शूल, संपूर्ण बवासीर के विकारऔर शूल इनको नाश करे॥
भल्लातकावलेह
चित्रकं त्रिफला मुस्तं ग्रंथिकं चविकामृता। हस्तिपिप्पल्यपामार्गोदंडोत्पलकुठेरकः॥ एषां चतुःपलान्भागान् जलद्रोणे विपाचयेत् । भल्लातकसहस्रेद्वेछित्त्वा तत्रैव दापयेत् ॥ तत्र पादावशेषेण लोहपात्रेपचेद्भिषक् । तुलार्धंतीक्ष्णलोहस्य घृतस्य कुडवद्वयम् ॥ त्र्यूपणं त्रिफला वह्निसैंधवं बिडमौद्भिदम् । सौगंधिकविडंगानि पलिकांशानि कल्पयेत्॥ कुडवं वृद्धदारोश्च तालमूल्यास्तथैव च । सूरणस्य पलान्यष्टौ चूर्णीकृत्वा विनिःक्षिपेत्॥ सिद्धे सति प्रदातव्यं मधुनः कुडवद्वयम्। प्रातर्भोजनकाले वा ततः खादेद्यथाबलम् ॥ अर्शांसि ग्रहणी-दोषंपांडुरोगमरोचकम्। कृमिगुल्माश्मरीनाहान् शूलं चापि व्यपोहति॥ भवेच्छुकोपमं चक्षुर्वलीपलितनाशनम्। रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं परम्॥
अर्थ-चीते की छाल, हरड, बहेडा, आंवला, नागरमोथा, पीपरामूल, चव्य, गिलोय, गजपीपल, ओंगा की जड, कमल, सहदेई की जड और आजबला ये प्रत्येक सोलह २ तोले लेवे सब को २०४ तोले जल में डाले तथा २००० भिलाओं को तोड़ के उस में गेरे फिर लोहे के कढाव में चढायके चतुर्थांश काढा करे इस में तीक्ष्ण (खेरी) लोह की भस्म २०० तोलेडाले; घी ३२ तोले तथा त्रिकुटा, त्रिफला, चित्रक, सैंधानिमक, विडनिमक, सोरा, संचरनिमक, और वायविडंग ये प्रत्येक चार २ तोले तथा वृद्धदारु (विधायरो) १६ तोले, तालमूली (मूसली) १६ तोले और जमीकंद ३२ तोले इन सब का चूर्ण करके उस में डाल देवे फिर चूल्हे पर चढाय गाढा होने पर्यंत औटावे, जब गाढा हो जावेतब उतारके शीतल करे फिर इस में सहत ३२ तोले डाले तो यह भल्लातकावलेह सिद्ध होवे । इस को प्रातःकाल अथवा भोजन के समय बलाबल विचारके देखें तो बवासीर, संग्रहणी, पांडुरोग, अरुचि, कृमिरोग, गोला, पथरी, अफरा और शूल इन को नाश करे तथा शुक्र के समान नेत्र होवे और वली तथा पलित इन का नाश करे यह सर्वरोगनाशक उत्तम रसायन है॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे अजीर्णरोगनिदानचिकित्सा समाप्ता ॥
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कृमिरोगाधिकारः।
कृमिनिदान
कृमयस्तु द्विधा प्रोक्ता बाह्याभ्यंतरभेदतः। बहिर्मलकफासृग्विट्जन्मभेदाच्चतुर्विधाः॥ नामतो विंशतिविधा-
अर्थ-कृमिरोग दो प्रकार का है एक बाहर का दूसरा भीतरका तहां बाहर के मल (पसीना आदि) और कफ, रुधिर, विष्ठा इन कारणों से बहिः कृमिरोग चारि प्रकार का है उन के नाम वीस प्रकार के है यह कृमिरोग के वीस न म से वीस भेद है॥
बाह्यकृमी के नाम
बाह्यस्तत्र मलोद्भवाः । तिलप्रमाणसंस्थानवर्णाः केशांबराश्रयाः॥ बहुपादाश्च सूक्ष्माश्च यूकालिक्षादिनामतः । द्विधा ते कुष्टपिटिका कंडूगंडान्प्रकुर्वते॥
अर्थ-तहां बाहर के मल से प्रगट कृमि, तिल के प्रमाण श्वेत, काली, केश और वस्त्र में रहनेवाली होती है तथा बहुत पैर की और छोटी जूं लीखनामसे प्रसिद्ध दो प्रकार की है ये कृमि कोढ, पीडिका, खाज, गांठ इत्यादि रोग प्रगट करे है ॥
कृमि रोग का कारण
अजीर्णभोजी मधुराम्लनित्यो द्रवःप्रियपिष्टगुडोपभोक्ता।
व्यायामवर्जी च दिवा शयानो विरुद्धभुक् संलभते कृमींश्च॥
अर्थ-अजीर्णमें भोजन करे प्रतिदिन मीठा, खट्टा, खावे तथापतला पदार्थ (जैसे कढी, रायता आदि ) खावे पिसा अन्न मैदा आदि और गुड के पदार्थखावे और भोजन करके परिश्रम न करे दिन में सोवे, विरुद्ध भोजन से दूध मछली आदि को खावे ऐसे पुरुष के कृमिरोग प्रगट होता है ॥
पुरीषकफरक्तजकृमिकारण
मापपिष्टान्नलवणगुडशाकैःपुरीषजाः। मांसमापगुडक्षीरदधिसूक्तैः कफोद्भवाः॥ विरुद्धाजीर्णशाकाद्यैःशोणि-तोत्था भवंति हि।
अर्थ-उरद, पिसाअन्न(लड्डू, घेवरगृंझाआदि) नोन के, गुड के तथाशाक आदि ऐसे पदार्थ खानेसे मल की कृमि प्रगट होतीहै। मांस, उढद,गुड, दूध, दही,
कांजी ऐसे पदार्थ खाने से कफ की कृमि पैदा होती है। विरुद्ध पदार्थ जैसे दूध मछली और आधा कच्चा आधा पक्वाशाक (जैसे हरा चने का आदि) ऐसे भोजन से रुधिरजन्य कृमि पैदा होती है ॥
पेट में कृमि हुए के लक्षण
ज्वरो विवर्णता शूलं हृद्रोगः सदनं भ्रमः।
भक्तद्वेपोतिसारश्च संजातकृमिलक्षणम्॥
अर्थ-ज्वर हो शरीर का रंग औरही प्रकार का हो जावे शूल हृदय दूखे वमन कीसी इच्छा हो भ्रम भोजन बुरा लगे दस्त होय ये लक्षण जिस के पेट में गिंडीहा आदि कृमि पड जातें उस कैहोते हैं॥
कफजकृमि का लक्षण
कफादामाशये जाता वृद्धाः सर्पंति सर्वतः। पृथुव्रध्ननिभाः केचित्केचिद्गंडूपदोपमाः॥ रूढधान्यांकुरा-कारास्तनुदीर्घास्तथाणवः। श्वेतास्ताम्रावभासाश्च नामतः सप्तधा तु ते॥ अंत्रादा उदरावेष्टाहृदयादा महारुजः। चुरवोदर्भकुसुमाः सुगंधास्ते च कुर्वते॥ हृल्लासमास्यस्रवणमविपाकमरोचकम्। मूर्छाछर्दितृषानाहकार्श्य-श्वयथुपीनसान्॥
अर्थ-कफ से आमाशय में प्रगट हुई कृमि जब बढजाती है तब चारों तरफ डोलती है-कोई चाम के सदृश, कोई गिंडोहे के आकार, कोई धान्य के अंकुर के समान होती है। कितनी ही छोटी, बडी, चौडी होती है और किसी का वर्ण श्वेत, किसी का तामे के समान होय है उन्हों के सात नाम हैं सो इस प्रकार १ अंत्राद, २ उदरावेष्ट, ३ हृदयाद, ४ महारुज, ५ चुरु, ६ दर्भकुसुम और ७ सुगंध ये नाम कोई सार्थक है और कोई निरर्थक है । व्यवहार के निमित्त पहले आचार्यों ने कहे हैं इन कृमियों से वमन कीसी इच्छा होय मुख से पानी गिरै अन्न का पाक नहोना, अरुचि, मूर्च्छा, वमन, प्यास, अफरा, शरीर कृश होवे, सूजन और पीनस इतने विकार होते हैं॥
रक्तकृमि का लक्षण
रक्तवाहशिरस्थाना रक्तजा जंतवोणवः। अपादावृत्तताम्राश्च सौक्ष्म्यात्केचिदर्शनाः॥ केशादा रोमविध्वंसा रोमद्वीपा उदुंबराः। पटू ते कुष्ठैककर्माणः सहसौरभमातरः ॥
अर्थ-रुधिर की बहनेवाली नाडीन में रुधिर से प्रगट कृमि बारीक, पादरहित, गोल, तामे के रंग के होते हैं; कोई बहुत बारीक होती हैं वो देखने सेभी नहीं दीखे ये कृमिछः प्रकार की है उन के नाम ये हैं १ केशाद, २ रोमविध्वंस, ३ रोमद्वीप, ४ उदुंबर, ५ सौरभ, और ६ मातर ये कुछ को पैदा करती है ॥
पुरीषजकृमी का लक्षण
पक्वाशये पुरीपोत्था जायंतेधोविसर्पिणः। प्रवृद्धाः स्युर्भवेयुश्चतेयदामाशयोन्मुखाः॥ तदास्योद्गारनिश्वासा विड्गंधानुविधायिनः । पृथुवृत्ततनुस्थूलाः श्यावपीतसितासिताः॥ ते पंच नाम्नाकृमयः ककेरुकमकेरुकाः। सौसुरादामलूनाश्च लेलिहा जनयंति च॥ विड्भेदशूलविष्टंभकार्श्यपारुष्यपांडुताः। रोमहर्षाग्निसदनगुदकंडू-विमार्गगाः॥
अर्थ-पक्वाशय में विष्ठा से प्रगट कृमि गुदा के मार्ग होकर बाहर निकसती है जब यह बढजाती है तब आमाशय में प्राप्त होकर डकार और श्वास से विष्ठा कीसी वास, आने लगती है। ये कृमिबडी, छोटी, गोल, मोटी, रंग में काली, पीली, सफैद, नीली होती है इन के पांच नाम हैं १ ककेरुक, २ अकेरुक, ३ सौसुरादा, ४ मलून, ५ लेलिह । जब ये कृमि मार्ग को छोड अन्यमार्ग में जाते है तबइतने रोग प्रगट करे हैं दस्तका पतला होना, शूल, अफरा, देह में कृशता तथा देह में कठोरता पांडुरोग, रोमांच, मंदाग्नि और गुदा में खुजली का होना।
कृमिरोगचिकित्सा
कृमीणां विट्कफोत्थानामेतदुक्तंचिकित्सितम्।
रक्तजानां तु संहारं कुर्यात्कुष्ठचिकित्सया ॥
अर्थ-यह चिकित्सा विष्ठा और कफ से उत्पन्न होनेवाली कृमियों की कही है तथारुधिर से प्रगट होनेवाली कृमि (कीडा) की चिकित्सा करना होवेतो कुष्ठ रोग के समान करे ॥
तेषामन्यतमो वैद्यो जिघांसुः स्निग्धमातुरम्। सुरसादिविपक्वेन
सविषंवांतआदिभिः॥ विरेचयेत्तीक्ष्णतरैर्योगैरास्थापयेद्धि च।
अर्थ-उस अभ्यंतर ( भीतरी ) अथवा बाह्य (बाहर की) कृमि के नाश करने को प्रथम निर्गुंडी इत्यादिक में सिद्ध करे हुए घृतादिक से रोगी को स्निग्ध करके वमन कराय फिर तीक्ष्ण जुलाबदेवे अथवा पिचकारी आदि क्रिया करे॥
पूडी
शालिपिष्टंकणासिंधु विडंगं भोपनीत्वचैः।
सुपक्वापोलिका जंतून्पातयेन्मधुभक्षिता॥
अर्थ-चावलों का चून, पीपर, सैंधानिमक, वायविडंग इन को एकत्र कर भोपनी के रस से पूडी बनाये इन को सहतके साथ खायतो संपूर्ण पेट की कृमि गिर जावे ॥
अन्न
प्रत्यहं कटुकं तिक्तं भोजनं कफनाशनम् ।
कृमीणां नाशनं रुच्यमग्निसंदीपनं परम् ॥
अर्थ-कृमिरोगवाले को नित्य तीक्ष्ण, कडुआ और कफ, कृमि इन के नाशकारी और अग्निदीपक ऐसे भोजन करने चाहिये॥
पथ्याखुपर्णिकायुक्ता गोधूमैश्च क्रमाद्धृता।
सुपक्वापोलिका जंतून्पातयेन्मधुभक्षिता॥
अर्थ-हरड, मूसाकर्णी, गैंहू का चून इन की पूडी घी में उतारके सहत के साथ भोजन करे तो संपूर्ण पेट के कीडे झड जावे॥
कृमिलेप
पारदं मर्दयेन्निष्कंकृष्णधत्तूरकद्रवैः। नागवल्लीद्रवैर्वाथ वस्त्रखंडं प्रलेपयेत् ॥ तद्वस्त्रं मस्तके वध्वा धार्यं यामत्रयं ततः। यूकाः पतंति निश्चेष्टाः पारीक्ष्यं नात्र संशयः॥
अर्थ-काले धतूरे के अथवा नागरवेल पान के रस में पारे को खरल करे फिर उस को बारीक वस्त्र में लेप करके उस को मस्तक पर दो प्रहर बांधे तो माथे की जितनी जूंआं लिख है सब मरके गिर पडेइसी लेप से जमजूआ भी मरके गिर पडते हैं यह अनुभव करा हुआ है॥
यवागू
विडंगतंदुलव्योपशिग्रुभिर्मरिचं नतम् ।
तक्रसिद्धा यवागूः स्यात्कृमिघ्नोससुवर्चिका ॥
अर्थ-वायविडंग, चावल, सोंठ, मिरच, पीपल, सहजने की छाल, लालमिरच,
तगर इन सब को छाछ में यवागू (छः गुना जल डालके पतला भात करते हैं) इस प्रकार की बनावे इस में काला निमक मिलायकेपिलावे तो यह कृमिनाश करे ॥
त्रिवृतादि कल्क
त्रिवृत्पलाशबीजं च पारसीकयवानि च। कंपिल्लकं विडंगं च गुडश्च समभागिकः॥ तक्रेण कल्कमेतेषां कृमिकोटगणापहः।
अर्थ-निसोथ, पलासपापडा, किरमानी अजमायन, कवीला, वायविडंग इन के चूर्णतथा चूर्ण के समान गुड लेवे इस का छाछ में कल्क करे यह कृमिकोटगण अर्थात् कीडों के समूह को नष्ट करे \।\।
पलाशबीजरस व कल्क
पलाशबीजस्वरसं पिबेन्माक्षिकसंयुतम् ।
पिबेत्तद्बीजकल्कं वा तक्रेण कृमिनाशनम्॥
अर्थ-पलास (ढाक) के बीजों का स्वरस सहत से अयवा पासपापडे का कल्क छाछ के साथ पीने से कीडामात्र का नाश होवे॥
स्वरस
पारिभद्रकपत्रोत्थरसं क्षौद्रयुतं पिबेत् ।
रुबूकस्य रसं वापि धत्तूरस्यापि वा रसम्॥
अर्थ-कडुए नींबके पत्तों का स्वरस तथा अंडअथवा धतूरा इन का रस सहत मिलायके पीवे तो पेट के कीड़े मर जावें ॥
तैल
विडंगं च शिलया शुद्धं सुरभिजलेन कटु तैलम् ।
निखिलान्नयति विनाशं लाक्षासहिता दिनैर्यूकाः॥
अर्थ-वायविडंग, मनसिल इन का कल्क औरगोमूत्र इन में सरसों का तेल मिलायकेतेल सिद्ध करे यह एक दिन में लीख और जूआं इन को नाश करे॥
विडंगादि तैल
विडंगगोमूत्रमनःशिलानां सुगंधिकाभिः परिपाचितं यत्।
तैलं भवेत्सर्पपसंभवं च यूकासु लीक्षासु हित हि सद्यः॥
अर्थ-वायविडंग, गोमूत्र, मनसिल और काली निर्गुंडी इन के कल्क से सरसों के तेल को सिद्ध करे यह तेल जूआं, लीख इन को तत्काल नष्ट करे॥
धत्तूरपत्रतैल
धत्तूरपत्रकल्केन तद्रसेनैव पाचितम् ।
तैलमभ्यंगमात्रेण यूका नाशयति क्षणात्॥
अर्थ-धतूरे के पत्तों का कल्क अथवा रस इस में तेल डालके सिद्ध करे इस की देह में मालिस करे तो तत्काल जूआं जमजूंआ नष्ट होवे ॥
दाडिमादि काढा
दाडिमत्वक्कृतः क्वाथस्तिलतैलेन संयुतः।
त्रिदिनात्पातयत्येव कोष्ठतः कृमिजालकम् ॥
अर्थ-अनार की छाल का काढा करके उस में तिली का तेल मिलायके पीने को देवे तो तीन दिन में पेट की संपूर्ण कृमियों के बाहर निकालके गेर देवे॥
नियमनादि काढा
नियमनस्त्रिफला कुटजो वचा त्रिकटुकं खदिरा त्रिवृतं युतम्।
मुनिदिनं हि गवां सलिलेन च शृतमिदं कृमिनाशकरं पिबेत्॥
अर्थ-कडुआनीम, हरड, बहेडा, आमला, कूडा की छाल, सोंठ, वच, मिरच,पीपल, खैर की छाल और निसोथ इन का गौ के मूत्र में काढाकरके देवे तो सात दिन में संपूर्ण पेट के कीडे मरके गिर जावें ॥
विडंगादि काढा
विडंगशृतपानीयं विडंगेनावधूलितम् ।
पीतं कृमिहरं कुष्ठं कृमिजातान्प्रदापयेत्॥
अर्थ-वायविडंग का काढा कर उस में वायविडंग का ही चूर्ण डालके पिलावे तो कृमिमात्र मरके गिर जावे ॥
मुस्तादि काढा
मुस्ताखुपर्णीफलदारुशिग्रुक्वाथः सकृष्णाकृमिशत्रुकल्कः।
मार्गद्वयेनापि चिरप्रवृत्तान्कृमीन्निहन्यात्कृमिजांश्च रोगान् ॥
अर्थ-नागरमोथा, मूसाकर्णी, इंद्रजो, देवदारु और सहजना इन का काढा करके इस में पीपल और वायविडंग का चूर्ण डालके पिलावे तो दोनों द्वार (गुदा-
और मुख ) करके बहुत दिन की पडे हुए कीडे उन को और उन कीडों के होने से जो रोग होवे उन को नाश करे॥
खदिरादिकाढा
खदिरः कुटजः पिचुमंदवचात्रिकटुत्रिफलात्रिवृतासहितम् ।
पशुमूत्रयुतं पिबसप्त दिनं कृमिकोटिशतान्यपि हंत्यचिरात् ॥
अर्थ-खैर की छाल, कूडा की छाल, नीम की छाल, वच, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आमला, और निसोथइन का चूर्ण अथवा काढा गोमूत्र में मिलायके सात दिन पीवे तो कोट्यावधि अर्थात् करोडों भी कृमि होवे तो तत्काल दूर होवे ॥
रस
हिंगुलः कर्षमानंस्याद्दंतिबीजं तदर्धकम् । अर्कक्षीरेण संमर्द्यदापयेद्भावना दश॥ मापमात्रंप्रदातव्यमर्कमूलरसं पुनः । प्रपिबेद्धिंगुसंयुक्तं कृमिजालनिपातनम्॥
अर्थ-हींगलू १ तोले और जमालगोटा ६ मासे दोनों का चूर्ण करके आक के दूध की १० भावना देवे इस में से एक मासे औषध आक की जड के रस और हींग के साथ देवे तो पेट की संपूर्ण कृमि झरके गिर पडे ॥
पारदादियोग
शुद्धसूतमिंद्रयवमजमोदमनःशिला। पलाशबीजतुल्यांशं देवदाल्याद्रवैर्दिनम्॥ मर्दयेद्भक्षयेन्नित्यं मूपपर्णि-कषायकम् । सितायुक्तं पिबेच्चानु कृमिपातो भवत्यलम्॥
अर्थ-शुद्ध पारा, इन्द्रजों, अजमायन, मनसिल, पलासपापडा ये समान भाग लेके चूर्ण करे इस को बंदाल के रस से १ दिन सरल करे इसमें से ४मासे औषध मूसाकर्णीऔषध के काढेमें खांडमिलाय के देवेतो पेढके कीडेसबगिर पडे॥
कृमिकुठाररस
कर्पूरं चाष्टभागं च कुटजश्चैकभागकः । तत्समानं त्रायमाणामजमोदा विडंगकम् ॥ हिंगुलं विषभागं च तत्समानं च केसरम्। सर्वेदृढं च संमर्द्य भृंगराजरसैस्तथा॥ पलाशबीजसंमिश्रं उंदरीरसभावितम्। ब्राह्मीरसं ततो दत्त्वासिद्ध्ययत्कृमिकुठारकः॥
वल्लमात्रांवटींकुर्याद्दद्याद्धेमसमन्विताम्। कुर्यात्कृमिविनाशं च एवं सप्तविधं दृढम्॥
अर्थ-कपूर आठ भाग, कूडा की छाल, त्रायमाण, अजमायन, वायविडंग, हींगलू, सिंगियाविष, केशर और पलासपापडा ये सब एक २ भाग लेके एकत्र करे फिर इस को भांगरे के रस, मूसाकर्णीके रस और ब्राह्मी के रस की भावना देवे यह कृमिकुठाररस तीन रत्ती धतूरे के रस के साथ देवे तो सर्व प्रकार के कृमि का नाश करे॥
कृमिमुद्गररस
क्रमेण वृद्धं रसगंधकाजमोदाविडंगं विषमुष्टिका च ।
पलाशबीजस्य च चूर्णमस्य निष्कप्रमाणं मधुनावलीढम्॥
पिबेत् कषायं घनजं तदूर्ध्वरसो प्रयुक्तः कृमिमुद्गराख्यः।
अर्थ-पारा १ भाग, गंधक २ भाग, अजमोद ३ भाग, वायविडंग ४ भाग, बकायन की छाल ५ भाग, पलासपापडा ६ भाग, इन का चूर्ण एक तोले अथवा शक्ति के प्रमाण सहत के साथ चाटे फिर इस के ऊपर नागरमोथे का काढा पीवे इस को कृमिमुद्गररस कहते हैं ॥
विडंगादिचूर्ण
विडंगसिंधूद्भवहिंगुपथ्याकंपिल्लसौवर्चलपिप्पलीनाम् ।
चूर्णं कवोष्णोदकसंगृहीतं कृमीन् निहंत्याशु दहेद्वमिं च॥
अर्थ-वायविडंग, सैंधानिमक, हींग, हरड, कवीला, संचरनिमक और पीपल इन के चूर्ण को गरम जल के साथ पीवेतो कृमि और वमन इन को दूर करे॥
दूसरा प्रकार
विडंगानां तु चूर्णं च कर्षार्धाकर्षमेव च।
मधुना सहितं लिह्यात् कृमिकोटिनिवृत्तये॥
अर्थ-वायविडंग का चूर्ण तोले अथवा छः मासे लेकर सहत के साथ सेवन करे तो कृमिके समुदाय को नाश करे ॥
पारसिकयवानीचूर्ण
पारसिकां यवानीं तु पर्णेन सह भक्षयेत्।
कृमिजालं निहंत्याशु पीतो निंबरसेन वा॥
अर्थ-किरवानी अजमायन को पान में रखके खाय अथवा नीम के रस के साथ पीवे तो कृमि रोग नष्ट होवे॥
निंबादिचूर्ण
निंबाजमोदा जंतुघ्नं ब्रह्मबीजं सचोरकम् ।
सहिंगुकं समगुडं सद्यो जंतुविनाशनम् ॥
अर्थ-नीम की छाल, अजमायन, वायविडंग, किरमानी अजमायन और हींग इन के चूर्ण की बराबर गुड मिलायके भक्षण करे तो उदर की संपूर्ण कृमि नष्ट होवे ॥
विडंगव्योषसंयुक्तं भक्तमंडं पिबेन्नरः।
दीपनं कृमिनाशाय जठराग्निविवृद्धये॥
अर्थ-वायविडंग, सोंठ, मिरच, पीपल इन का चूर्ण डालके चावल का मांढपीवे तो दीपन करे और कीडों को नष्ट करके जठराग्निको बढावे॥
त्रिफलाद्यघृत
फलत्रयंवचा दंती त्रिवृत्कंपिल्लकैः समैः।
सिद्धं सर्पिर्गवां मूत्रे पीतं च कृमिनाशनम्॥
अर्थ-हरड, बहेडा, आंवला, वच, दंती के बीज, निसेथ, कवीला और गोमूत्र इन के कल्क से घृत पचावे इस घृत के सेवन करने से कृमि का नाश होवे॥
विडंगघृत
त्रिफलायास्त्रयः प्रस्था विडंगं प्रस्थमेव च। दीपनं दशमूलं च लाभतः समुपाहरेत्॥ पादशेषेजलद्रोणे युते सर्पिर्विपाचयेत्। प्रस्थोन्मितं सिंधुयुतं तत्परं कृमिनाशनम्॥ विडंगघृतमेतत्तु लेह्यंशर्करया सह। सर्वान्कृमीन्प्रणदति वज्रं मुक्तमिवासुरान्॥
अर्थ-त्रिफला १९२ तोले, वायविडंग ६४ तोले, दीपनीय गण की औषधी और दशमूल इन में से जो जो औषध मिले वो सबलेकर उन को २०४८ तोलेजल में डालके चतुर्थांशकाढा करे उस में ६४ तोले घीऔर सैधानिमक डालकेघृतसिद्ध करे इस घृत में वायविडंग डालके घृत और सांडके साथ कृमि रोग दूर होवे॥
सारनालयोग
सारनालाखुपर्णी वा तक्रंपालाशबीजयुक् ।
हिंग्वाजमोदातक्रंवा कृमिरोगं विनाशयेत्॥
अर्थ-कांजी में मूसाकर्णी और छाछ में पलासपापडा अथवा छाछ में हीगऔर अजमायन मिलायके पीवे तो कृमिरोग का नाश करे ॥
भल्लातकयोग
भल्लातकं वा दध्नाच चिंचाम्लेन हरेत्कृमीन्।
अर्थ-भिलाए को दही के साथ अथवा इमली के साथ खाने से उदर की कृमि मर जावे ॥
पलाशबीजयोग
पलाशबीजं वल्लैकंस्नुहिक्षीरेण जंतुजित्॥
अर्थ-ढाक के बीज, थूहर के दूध के साथ खावे तो पेट के सब कीडे मरके दस्त की राह निकल जावे ॥
किरमानी अजमायन का कल्क
पारसी यवानी पीता पर्युषितावारिणा प्रातः।
गुडपूर्वा कृमिजालं कोष्ठगतं पातयत्याशु॥
अर्थ-किरमानी अजमायन को वासे पानी में पीसके उस में गुड मिलायके पीवे तो पेट की सब कृमियों के जाल को तत्काल गिराय देवे ॥
निशोतरादियोग
भिंडीपिष्ट्वारनालेन गोमूत्रेणातिमुक्ततः।
कुनटीकटुतैलेन योज्या यूकापहास्त्रयः॥
अर्थ-सफेद निसोथ को कांजी में अथवा तैदू को गोमूत्र में अथवा मनसिलको सरसों के तेल में मिलायके पीवे ये तीनों योग जूँलीख के नाशक है ॥
पिप्पल्याद्यचूर्ण
पिप्पली पिप्पलीगुलं सैंधवं कृष्णजीरकम् । चव्यचित्रकतालीसपत्रकानागकेसरम् ॥ एषांद्विपलिकान्भागान्पंच सौवर्चलस्य च । मरीचाजाजिशुंठीनामेकैकस्य पलं पलम्॥ दाडिमात्कुडवं
चैव द्विदलं चाम्लवेतसात्। सर्वमेकत्र संयुक्तं योजयेत्कुशलो भिषक्॥ पिप्पल्यादिरिति ख्यातं नष्टवन्हेश्चदीपनम्। अर्शांसि ग्रहणीगुल्ममुदरं सभगंदरम् ॥ कृमिकंडुरुचिहरं सुरयोष्णोदकेन वा । नातः परतरं किंचिदामशोथनिषूदनम्॥
अर्थ-पीपल, पीपरामूल, सैंधानिमक, काला जीरा, चव्य, चित्रक, तालीसपत्र, नागकेशर, ये प्रत्येक आठ २ तोले लेवे, संचरनिमक ५ तोले तथा काली मिरच, जीरा, सोंठ, ये चार २ तोले अनारदाना १६ तोले, अमलवेत ८ तोले ले सब को एकत्र चूर्ण बनावेइस चूर्ण को कुशलवैद्य अपने बुद्धि के साथ देवे यह मंदाग्नि को दीपन करे और बवासीर, संग्रहणी, गोला, जलंधर, भगंदर, कृमि, खुजली, अरुचि इन पर मद्य के साथ अथवा गरम जल के साथ देवे इस से बढकर दूसरी आम और सूजन इन के नाश करनेवाली औषध नहीं है॥
आखुपर्ण्यादिचूर्ण
आखुपर्णदलैः पिष्टैः पिष्टकेन च पूपकान् ।
भुक्ता सौवीरकं चानु पिबेत्कृमिहरं परम्॥
अर्थ-मूसाकर्णीके पत्तों को कूट चूर्ण कर उस में गेहू का चून मिलाय पूआबनावे और खाय इस के ऊपर यदि जोंकी कांजी पीवे तो कृमि रोग का नाश होवे॥
निंबादिचूर्ण
निंबुवत्सकविडंगसंयुतं रामठेन सह जंतुनाशनम् ।
निंबपत्रमजमोदकान्वितं चूर्णमेव मधुना प्रशस्यते॥
अर्थ-नींबू, कूडा की छाल, वायविडंग और हींगइन का चूर्ण जंतु (कीडा) नाशक है । अथवा नीबू के पत्तेऔर अजमायन इन के चूर्ण को सहत के साथ खावेतो भी संपूर्ण कीडे नष्ट हो जावे ॥
सुवर्चकादिचूर्ण
सुवर्चिकारामठपत्रिकाह्वविडंगबाल्हीककणामिविश्वा।
यवानिकाग्रंथिकभद्रमुस्ता तक्रेण चूर्णी कृमिकोटिहारी॥
अर्थ-सज्जीखार, हींग, जावित्री, वायविडंग, केशर, पीपल, चीतेकी छाल, सोंठ, अजमायन, पीपरामूल और नागरमोथाइन का चूर्ण छाछ के साथपीवेतो कोट्यावधि कृमि का नाश होवे॥
जूंआ इत्यादि कों पर तैल
चित्रकं दंतिनीमूलं कोशातकिसमन्विंतम्।
कल्कं पिष्ट्वा च तैलं च केशशत्रुविनाशनम् ॥
अर्थ-चित्रक, दंती की जड, कडूई तोरई इन का कल्क डालके तेल बनावे इस तेल के लगाने से जूंआ, लीख नष्ट होवे॥
विडंगादि तैल
सविडंगं जतुशिलया सिद्धं सुरभेर्जलेन कटुतैलम् ।
निखिला नयति विनाशं लिक्षासहिताश्च वै यूकाः॥
अर्थ-वायविडंग, शिलाजीत, और गोमूत्र इन में सरसों का तेल डालके तैलविधि से सिद्ध करे यह तेल लीख और जूआं इन को नाश करे ॥
कपिलाचूर्ण
कांपिल्यचूर्णकर्षार्धंगुडेन सह भावितम्।
पातयेत्तु कृमीन्सर्वानुदरस्थान्नसंशयः॥
अर्थ-कबीले का चूर्ण आधा तोला लेकर गुड में मिलायके खावे तो पेट कीयावन्मात्र कृमि है सब निकल जावेइस में संशय नहीं है ॥
निंबादिरस
निंबपत्रसमुद्भूतं रसं क्षौद्रयुतं पिबेत् ।
धत्तूरपत्रजंवापि कृमिनाशनमुत्तमम्॥
अर्थ-कडुए नीम के पत्तों का रस अथवा धतूरे के पत्तों के रस को सहत मिलायके पीवे तो कृमिरोग नष्ट होवे॥
हरीतकीचूर्ण
हरीतकी चैव तथा हरिद्रा सौवर्चलं चैव समं विचूर्णितम् ।
इंद्रवारुणिजलेन भावितं कीटसंधविनिवारणं परम् ॥
अर्थ-हरड, हलदी और संचर निमक ये समान भाग लेवे चूर्ण कर उस में इंद्रायन के काढ़े की भावना देवे यह चूर्ण कृमिसमुदाय को नाश करे ॥
सावित्रवटक
पलंकपापले द्वे च कार्ष्णायसपलद्वयम् । पथ्यामृताक्षधात्रीणां
पृथगेकैकशः पलम्॥ पूतीकचव्यव्योपाग्निकारवीकृमिनाशनैः। चूर्णितैरर्धपलकैस्तिलतैलं पलद्वयम्॥ त्रिफलाया रसप्रस्थे खंडं प्रस्थयुगं भवेत् । दात्रीं प्रलेपात्पाकश्च चातुर्जातकसंयुतम् ॥ सावित्रवटकाद्येते यथाग्निबलभक्षिताः । कृमिकोष्ठाग्निदौर्बल्यशोथे गुल्मोदरव्रणान् ॥ कामलापांडुरोगार्शोभगंदरगदव्रणान् । निहंत्येतद्धि संधित्थं बलस्थैर्यसुखप्रदम् ॥ वायुमेहप्रशमनाश्चक्षुषःप्रीतिवर्धनाः। भवंत्यतिस्निग्धभुजो वातातपनिषेविणः॥
अर्थ-ढाक के बीज ८ तोले, लोहे की भस्म ८ तोले, हरड, गिलोय, बहेडा, आवला, ये प्रत्येक चार २ तोले तथा पूतीकरंज, चव्य, सोंठ, काली मिरच, पीपल, चित्रक, अजमायन, वायविडंग, ये प्रत्येक दो दो तोले और तिलों का तेल ८ तोले, त्रिफले का काढा अथवा त्रिफले का रस १६ तोले, मिश्री ३२ तोले इन सब को एकत्र कर जबतक कलछी से न चिपटे तब तक पकावे, जब कलछी से लिपटने लगे तब उतार लेवे और इस में चातुर्जात ( दालचीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर) ये डालके मिलाय देवे इस को सावित्रवटककहते हैं यह अग्नि और बलाबलविचार के देवे तो कृमि, मंदाग्नि, दुर्बलता, सूजन, उदररोग, व्रण, कामला, पांडुरोग, बवासीर, भगंदर इन का नाश करे । तथा अवस्था, बलऔर स्थिरता इन को करे तथादुष्ट अधोवायु और प्रमेह इन को नाश करे। तथा नेत्रों को हितकारी है इस पर स्निग्ध भोजन और पवन तथा धूप इन का सेवन करना चाहिये ॥
विशालादिधूप
विशालायाः फलं पक्वंतप्तलोहोपरि क्षिपेत् ।
तद्धूमोदंतलग्नश्चेत् कीटानां पातनः परः॥
अर्थ-इन्द्रायन के पके हुए फलों को गरम तवेपर गेरे इस का धूआंदांतों कोदेवे तो दांतों में जो कीडा होता है वोतत्काल मरके गिर पडे यह प्रयोग परमोत्तम है॥
अष्टसुगंधधूप
लाक्षा भल्लातकश्च श्रीवासः श्वेतापराजिता । अर्जु-
नस्य फलं पुष्पं विडंगं सर्जगुग्गुलुः॥ एभिः कृतेन धूपेन शांम्यंते निहिते गृहे। भुजंगमूपकादंशाघुणामशक-मत्कुणाः॥
अर्थ-लाख, भिलाए, श्रीवास (सरलधूप) सपेद कोयल की जड, कोहवृक्ष के फल और फूल वायविडंग, राल और गूगल इन की धूनी घर में देवे तो सांप, मूंसे, डाँस, मच्छर, छोटे कीडे और खाट के खटमल ये सब मर जावे ॥
ककुभादिधूप
ककुभकुसमविडंगं लांगली भल्लातकं तथोशीरम् ।श्रीवेष्टकं सर्ज्जरसं चंदनमथ कुष्ठमष्टमंदद्यात्॥ एषसुगंधो धूपः सकृत्कृमीनां विनाशकः प्रोक्तः। तथा स मत्कुणानां शिरसि च गात्रेषु यूकानाम् ॥
अर्थ-कोहवृक्ष के फूल, वायविडंग, पिठवन, भिलाए, नेत्रवाला, राल, चंदन, कूठ यह सुगंधधूप एकवार के देने से कृमिनाश करे तथा यह धूप शय्या (सेज) में देने से खटमल मर जावे और अपनी देह को यह धूनी देवे तो मस्तक के जूंआ, लीख और देह की जमजूआ आदि को नष्ट करे है ॥
कृमिरोगपर पथ्य
आस्थापनं कायशिरोविरेचनं धूपः कफघ्नानि शरीरशोधनम्।
चिरंतना वैणवरक्तशालयः पटोलवेत्रागरसोनवास्तुकम् ॥
हुताशमन्दारदलानि सर्षपा नवीनमोचं बृहतीफलान्यपि।
तिक्तानि नालीचफलानि मौषिकं माषंविडंगं पिचुमन्दपल्लवम्॥
तैलं तिलानामथ सर्षपोद्भवं सौवीरसूक्तं च तुपोदकं मधु ।
पचेलिमं तारमरुष्करं गवां मूत्रं च तांबूलसुरामृगं रजः॥
औष्ट्राणि मूत्राज्यपयांसि रामठं क्षारोजमोदाखदिरश्च वत्सकम् ।
जंबीरनीरं सुषवीयवानिकासाराः सुराह्वागुरुशिंशिपोद्भवः॥
तिक्तः कषायः कटुको रसोयं वर्गोनराणां कृमिरोगिणां सुखः।
अर्थ-आस्थापनवस्ती, शरीर और मस्तकका विरेचन अर्थात् जुल्लाबदेकर शुद्ध
करना, धूमपान,कफनाशक पदार्थ, देह का शोधन, बहुत दिन के बांस के बीज,( वासांठी चावल ) लाल चावल, परबल, वेत के अग्रभाग, लहसन, बथुआ, चीता, मंदार (आक) के पत्ते, सरसो, नवीन केला, कटेरी के फल, कडुए पदार्थ, नाली के फल (वा तालीसपत्र), मूंसे का मांस, उडद,वायविडंग, नीम के पत्ते (हरड) तिल और सरसों का तेल, कांजी, दही का तोड, तुपोदक,सहत, पचेलिम.चांदी के वर्क भिलाए, गोमूत्र, पान का बीडा, मदिरा, कस्तूरी, ऊँट का मूत्र, घी और दूध, हींग, क्षार,अजमोद, खैरसार,कूडा की छाल, जँभीरीनीबू का रस, सुपवी (कलौजी), अजमायन, देवदारु, अगर और सीसों का खार, कडुए और कपेले तथा चरपरे सब रसयह संपूर्णवर्ग कृमिरोगहरणकारी जानना॥
अपथ्य
छर्दिं च तद्वेगविधारणं च विरुद्धपानाशनमह्नि निद्राम्। द्रवं च पिष्टान्नमजीर्णभोजनं घृतानि मापान्दधि-पत्रशाकम् ॥ मांसं पयोम्लं मधुरं रसञ्च कृमीन् जिघांसुः परिवर्जयेत्तु॥
अर्थ-वमन करना, तथा वमन के वेग को रोकना,विरुद्ध अन्न पान,दिन में निद्रा, द्रवपदार्थ, पिष्टान्न ( मेंदा चून), अजीर्ण में भोजन करना, घी, उडद,दही, पत्तों का साग,मांस,दूध, खटाई और मीठारस ये कृमिनाशकर्ता प्राणी को त्याग करने योग्य हैं॥
दूसरा प्रकार
शीतांबु मधुरक्षीरं दधिक्षीरघृतादिकम् ।
सौवीरं शाकपत्रांश्च वर्जयेत्कृमिवान्नरः॥
अर्थ-शीतल जल, मीठा दही, दही दूध और घृतादिक, कांजी, पत्तेेके साक इनको कृमिरोगवाला त्याग देवे ॥
इति श्रीआयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघंटुरत्नाकरे कृमिरोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
__________
पांडुरोगकर्मविपाकः।
देवद्विजद्रव्यहारी पांडुरोगी भवेन्नरः।
कृच्छ्रातिकृच्छ्रे कुर्य्याच्च चांद्रायणमतंद्रितः॥
कुर्यात्कूष्माण्डहोमं च स्वर्णचंद्रेण वाससी।
ब्राह्मणेभ्यो यथाशक्ति पांडुरोगस्य शांतये॥
अर्थ-देवता,ब्राह्मण, इन के द्रव्य हरण करने से यह प्राणी इस जन्म में पांडुरोगी होता है, इस पाप के प्रायश्चित्त करने को कृच्छ्रऔर अतिकृच्छ्र चांद्रायण व्रत करे अथवा कूष्मांडहोम अथवा सुवर्ण का चंद्रमा और वस्त्र दान करे तथा यथाशक्ति द्रव्य देवे तो यह प्राणी पांडुरोग से छूट जावे ॥
शिरोवेदनासहित पांडुरोगहरण
अग्निष्टोमादिकर्माणि प्रक्रम्य न समापयेत्।
स पांडुरोगी भवति शिरोवेदनवांस्तथा॥
कृच्छ्रतिकृच्छ्रं कुर्य्याच्चचांद्रायणमतंद्रितः।
शतं च भोजयेद्विप्रान्मिष्टान्नेन यथेप्सितम्॥
अर्थ-जो अग्निष्टोमादि कर्म का प्रारंभ करके समाप्ति नहीं करे वह मस्तकपीडावाला पांडुरोगी होता है उस को कृच्छ्र अतिकृच्छ्र चांद्रायण व्रत करना चाहिये अथवा सौ ब्राह्मणों को मिठाई से तथा इच्छित भोजन करावे तो यह प्राणी का पांडुरोग जाता रहे ॥
पांडुरोगनिदान
पांडुरोगाः स्मृताः पंच वातपित्तकफैस्त्रयः।
चतुर्थः सन्निपातेन पंचमो भक्षणान्मृदः॥
अर्थ-मलसे प्रगट कृमिरोग-पांडु( पीलिया ) रोग को प्रगट करे है इसी कारण कृमिरोग के अनन्तर पांडुरोग का निदान कहे हैं तहां प्रथम पांडुरोग की संख्यारूप सम्प्राप्ति कहते हैं १ वात का,२ पित्त का,३ कफ का, ४ सन्निपात का और ५ माटी के खाने से ऐसे पाण्डुरोग पांच प्रकार का कहा है ॥
निदानपूर्वकसंप्राप्ति
व्यवायमम्लं लवणानि मद्यं मृदं दिवास्वप्नमतीव तीक्ष्णम्।
निषेव्यमाणस्य विदूष्यरक्तं कुर्वंति दोषास्त्वचि पांडुभावम्॥
अर्थ-अति मैथुन,खट्टे पदार्थ का भोजन, नोन का पदार्थ खाने से,बहुत मद्य पीने से,मिट्टी खाने से, दिन में सोने से,अत्यंत तीखा पदार्थ खाने से इन कारणों सेतीनोंदोषरुधिरकोबिगाड देहकीत्वचा कोपीलेरंग कीकर देते हैं इस जगह रुधिर कातौउपलक्षणमात्र है रक्त के कहने से त्वचा, मांस इन को दूषित करते हैं॥
पूर्वरूप
त्वक्स्फोटनिष्ठीवनगात्रसादोमृद्भक्षणप्रेक्षणकूटशोथाः।
विण्मूत्रपीतत्वमथाविपाको भविष्यतस्तस्य पुरःसराणि॥
अर्थ-त्वचा का फटना,मुख से वारंवार थूकना, अंगों का जिकढना,माटी खानेकी इच्छा, नेत्रोंपर सूजन, मलमूत्र पीले हों, अन्न का परिपाक न होय ये लक्षण पांडुरोग प्रगट होनेवाला होय है तब होते हैं॥
पांडुरोगचिकित्सा
साध्यं च पांड्वामयिनं समीक्ष्य स्निग्धं घृतेनोर्ध्वमधुश्च शुद्धम् । संपादयेत्क्षौद्रघृतप्रगाढैर्हरीतकीचूर्णमयप्रयोगैः॥ पिबेत्घृतं वारजनीविपक्वंयस्त्रैफलं तैल्वकमेकमेव । विरेचनं द्रव्यकृतं पिबेद्वा योगांश्च वै रेचनिकान्घृतेन ॥ विधिः स्निग्धोत्र वातोत्थेतिक्तः शीतश्च पैत्तिके । श्लेष्मिके कटुरूक्षोष्णः कार्योमिश्रस्तु मिश्रजे॥
अर्थ-यदि पांडुरोगी साध्य होवे तो उसको घीपिलायकेस्निग्ध करे तया रेचनऔर वमन कराकर उस को शुद्ध करे फिर सहत, घी और हरड ये जिस चूर्ण में अधिक होवे ऐसी औषधोंका उपचार करे, तथा हलदी डालकेऔटाए हुए घीको पीवेकिंवा त्रिफला और इन से सिद्ध करा हुआ घीपिलावे अथवा किसी एक औषधसे दस्त लानेवाली औषध सिद्ध करके पीवेअथवा रेचक औषध घृत के साथपीवे। अब सामान्य उपचार कहते हैं कि वातपांडुरोग पर स्निग्ध, पित्त पांडुरोग पर कडुए और शीतल तथाकफपांडुरोग पर तीक्ष्णरूक्षऔर उष्ण, द्वंद्वजअतिसार पर मिश्रित यत्न करेइस प्रकार यत्नकरने चाहिये॥
वातपांडुनिदान
त्वङ्मूत्रनयनादीनां रक्षकृष्णारुणात्मता।
वातपांड्वामये कंपतोदानाहभ्रमादयः॥
अर्थ-वातके पांडुरोग में त्वचा, मूत्र, नेत्रने इन में सूखापना, कालापना और लालीहोय है तथा कंप सुईछेदनेका सा चभका, अफरा,भ्रम, आदि शब्दसेभेढ औरशुलादिक भी होते है॥
मंडूराद्यरिष्ट
मंडूरस्य तु शुद्धस्य तुलार्द्धंपरिकीर्तितम्। तद्वल्लोहस्य पत्राणि तिलोत्सेधप्रमाणतः॥ पुराणगुडपंचाशत्कोलप्रस्थत्रयं तथा। निकुंभचिनकाभ्यां च पले द्वे द्वे सुचूर्णिते॥ पिप्पलीनां विडंगानां कुडवं च पृथक्पृथक्। त्रींश्चापि त्रिफलाप्रस्थाञ्जलद्रोणे समावपेत् ॥ अर्धमासस्थितो धान्ये पेयोरिष्टप्रमाणतः। दोषानुभयतः स्राव्यपांडुरोगं नियच्छति॥ कृमीनर्शांसिकुष्ठं च कासं श्वासकफामयान्। एषोरिष्टस्तु मंडूरः सर्वपांड्वामयापहः॥
अर्थ-शुद्ध मंडूर २०० तोले, तिल के बराबर मोटे लोहे के पत्र २०० तोले, पुराना गुड २९२ तोले, जलवेत और चित्रक का चूर्ण प्रत्येक ८ तोले, पीपल और वायविडंग प्रत्येक १६ तोले, हरड ६४ तोले, बहेडे ६४ तोले, आवला ६४ तोले ले इन सब औषधों को १०२४ तोले पानी में डालके पंद्रह दिन धान की राशि मेंधर रक्खे फिर जिस प्रकार अरिष्ट देने का प्रमाण लिखा है उस प्रकार देवे तो यह दोनों मार्गों से दोषों को निकाल पांडुरोग का नाश करे उसी प्रकार कृमिरोग, बवासीर,कोढ, खांसी, श्वास और कफरोग इन को यह नाश करे । इस को अरिष्टमंडूरकहते हैं यह सर्व प्रकार के पांडुरोगों का नाशक है ॥
पित्तपांडुनिदान
पीतमूत्रसकृन्नेत्रो दाहतृष्णाज्वरान्वितः ।
भिन्नविट्कोतिपीताभः पित्पांड्वामयी नरः॥
अर्थ-पित्तपांडुरोगी के ये लक्षण होते हैं मल मूत्र और नेत्र पीले हों, दाह, प्यास, ज्वरइन से पीडित हो मल पतला हो और उस रोगी के देह की कांति अत्यंत पीली होती है ॥
आमलक्यवलेह
रसमामलकानां तु संशुद्धं यंत्रपीडित्तम् । द्रोणं पचेच्च मृद्वग्नौतत्रेमानि प्रदापयेत्॥ चूर्णितं पिप्पलीप्रस्थं मधुकं द्विपलं तथा। प्रस्थं गोस्तनिकायाश्च द्राक्षायाः कल्कषेषितम् ॥ शृंगबेरपले द्वेतुतुगाक्षीर्याःफलद्वयम् । तुलार्धं शर्करायाश्च घनीभूतं
समुद्धरेत्॥ मधु प्रस्थसमायुक्तं लेहयेत्पलसंमितम् । हलीमकं कामलां च पांडुत्वं चापकर्षति॥
अर्थ-आमलों का रस शुद्ध १०२४ तोले लेके अग्नि पर चढावे उस में पीपल का चूर्ण ६४ तोले, मुलहटी ८ तोले, काली मुनक्कादाख बीज निकाली हुई और पीसी हुई ६४ तोले, सोंठ और वंशलोचन ८ तोले तथा खांड २०० तोले इतने पदार्थ डालके गाढा करे जब गाढा हो जावेतब उतार लेवे इस में ६४ तोले सहत डालके धर देवे चार तोले के प्रमाण नित्यं खावे तो हलीमक, कामला और पांडुरोग ये दूर हों॥
दुग्धयोग
लोहपात्रस्थितं क्षीरं सप्ताहं पथ्यभोजनम् ।
पिबेत्पाण्ड्वामयी शोषीग्रहणीदोषपीडितः॥
अर्थ-लोहे के पात्र में औटाए हुए धरे हुए दूध को सात दिन पीवेऔर पथ्य करे तो पांडुरोग, क्षय और संग्रहणी ये रोग दूर होवें ॥
कफपांडुनिदान
कफप्रसेकश्वयथुस्तंद्रालस्यातिगौरवैः।
पांडुरोगी कफाच्छुक्लैस्त्वङ्मूत्रनयनाननैः॥
अर्थ-मुख से कफ का गिरना, सूजन,तन्द्रा, आलस्य,शरीर का भारी होना, त्वचा, मूत्र,नेत्र,मुख इन का सफेद होना इन लक्षणों से कफ का पांडुरोग जानना ॥
दशमूलादिकाढा
द्विपंचमूलीक्वथितं सविश्वं कफात्मके पांडुगदे पिबेत्तत् ।
ज्वरेतिसारे श्वयथौ ग्रहण्यां कासेऽरुची कंठहृदामयेषु॥
अर्थ-दशमूल और सोंठ इन का काढाकफयुक्त पांडुरोग, ज्वरअतिसार,सूजन, संग्रहणी,खांसी अरुचि, कंठरोग और हृदयरोग इन को नाश करने को पिलावे॥
नागरादियोग
नागरं लोहचूर्णं वा कृष्णां पथ्यामयोष्मजाम् ।
गुग्गुलं वाथ मूत्रेण कफपांड्वामयी नरः॥
अर्थ-सोंठ और लोहभस्मअथवापीपल, हरड और लोहभस्म, शिलाजीत अथवा गूगल, गोमूत्र ये सब योग कफ पांडुरोग के नाशक हैं ॥
लोहभस्मयोग
अतिशुद्धमयोभस्म सर्पिः क्षौद्रयुतं लिहेत् ।
पांडुरोगस्य नाशाय कामलानां च सर्वशः॥
अर्थ-अत्युत्तम लोहभस्म-सहत और घी इन के साथ देवे तो पांडुरोग और कमला इन का नाश करे ॥
मधुमंडूर
गृहीत्वा भिषक्प्रस्थमंडूरभागं शृते त्रैफले मर्दयित्वा च यामम्। पुटे पाचयेद्यामयुग्मं कृशानौ पुटानीह देयानि चंद्राक्षिवारम्॥ तथा धेनुमूत्रे कुमारीरसेच विधेयश्च पंचामृते योगराजः। भवेसिंधुनागैः पुटैः सिद्धिदोयमचिंत्यप्रभावश्च मंडूर एषः॥मधुमंडूरक एषकणामधुना चिरपांडुगदं ननु हे गदिनः । जनको रुधिरस्य निहांत परं विविधार्तिहरस्त्वनुपानबलैः॥
अर्थ-६४ तोले लोह की कीट का चूर्ण त्रिफले के काढ़े में डालके प्रहरभर खरल करे फिर सराव संपुट में रखके दो प्रहर अग्निपुट देवे । इस प्रकार इक्कीस पुट देवे फिर गोमूत्र ग्वारपठ्ठेका रस और पंचामृत3 इन के काढेकी प्रत्येक की इक्कीस २ पुट देवे अर्थात् ८४ पुट देने से सर्व सिद्धि देनेवाला अचिंत्यप्रभाव ऐसा यह मंडूर सिद्ध होवे इस प्रकार सिद्ध हुआ मधुमंडूर पीपल और सहत इन के साथ छः रत्ती सेवन करने से पांडुरोग को तत्काल नष्ट करे तथा देह में रुधिर उत्पन्न करे हैं और भी अनुपानभेदों करके अनेक प्रकार के रोग दूर करे ॥
मंडूरवटक
सुराब्ददार्वीकटुषट्कताप्यं वेल्लं वरा चेति समांशचूर्णम् । मंडूरभागद्वयमष्टमूत्रे पक्त्वा गवां तक्रसमं च देयम् ॥ कामलापांडुमेहार्शःशोफकुष्टकफामयान् । ऊरुस्तंभमजीर्णं च प्लीहानां नाशयेद्धिच ॥
अर्थ-देवदारु, नागरमोथा, दारुहलदी, सोंठ, मिरच, पीपल, चव्य, चित्रक, - पीपरामूल, सुवर्णमाक्षिक की भस्म, वायविडंग और त्रिफला ये सब औषध एक एक
भाग लेवे और मंडूरभस्म २ भाग ले सब का चूर्ण एकत्र करके अष्ट4 प्रकार के मूत्रोमें अथवा गौ की छाछ मे मिलायके पीवे तो कामला, पांडुरोग, प्रमेह, बवासीर, सूजन, कोढ, कफरोग, ऊरुस्तंभ, अजीर्ण, प्लीहा इन का नाश होवे॥
मंडूरलवण
कृत्वाग्निवर्णं मलमायसंतु मूत्रेभिषिंचेद्बहुशो गवां च ।
तत्रैव सिंध्त्थसमं विपाच्यं निरुद्धधूमं च बिभीतकाग्नौ॥
तक्रेण पीतं मधुनाथवापि बिभीतकाख्यं लवणं प्रयुक्तम् ।
पांड्वमयिभ्यो हितमेतदस्मात्पांड्वामयघ्नंनहि किंचिदन्यत् ॥
अर्थ-लोहे की कीटी को अग्नि में अग्नि के समान लाल करके गोमूत्र में भिगो देवे इस प्रकार अनेक बार करे फिर सेधानिमक और वह लोहकीट को गोमूत्र में डालके धूंआ न निकले इस प्रकार भिलाए की अग्नि से पचावे इस को बिभीतकाख्यलवण कहते है इसे छाछ के साथ अथवा सहत के साथ पीवे यह पांडुरोग पर हितकारी है इस के समान पांडुनाशक दूसरी औषध नहीं है \।\।
सन्निपातपांडुनिदान
सर्वान्नसेविनः सर्वे दुष्टा दोषास्त्रिदोषजम् ।
लिंगैः कुर्वंति दोषाणां पांडुरोगं सुदारुणम् ॥
अर्थ-जो प्राणी सर्व प्रकारके (खट्टे चरपरे आदि) रसोका सेवन करता है उसके तीनों दोष कुपित हो त्रिदोषके लक्षणवाले ऐसे त्रिदोषज पांडुरोगको करे है ॥
पांडु का असाध्य लक्षण
ज्वरारोचकहृल्लासच्छर्दितृष्णाक्लमान्वितः।
पांडुरोगी त्रिभिर्दोषैस्त्याज्यः क्षीणो हतेद्रियः॥
अर्थ-ज्वर, अरुचि, ओकारी, प्यासऔर क्लम तथा वमन इतने उपद्रवयुक्त जो त्रिदोषजन्य पांडुरोगी और क्षीण हो गया हो और जिस रोगी के इन्द्रियों की अपने अपने विषय ग्रहण करने की शक्ति जाती रही हो ऐसे रोगी को वैद्य त्याग दे॥
असाध्यलक्षण
शूनाक्षिकूटगंडभूः शूनपन्नाभिमेहनः। कृमिकोष्ठोतिसार्येतमलं चासृक्कफान्वितम्॥ पांडुरोगश्चिरोत्पन्नः खरीभूतो न सिध्यति।
कालप्रकर्षाच्छूनांगो यो वा पीतानि पश्यति॥ बद्धाल्पविट्सहरितं सकफंयोतिसार्यते। दीनः श्वेतादि-दिग्धांगच्छर्दिमूर्छातृडर्दितः॥
अर्थ-नेत्र, कपोल, भृकुटी, पैर, नाभि और लिंग इन में सूजन हो और कोठे में कृमि पड जाय तथा रुधिर और कफ मिला दस्त उतरे. सब पांडुरोगों में जब पेट में कृमि पड जाय है तब ये पूर्वोक्त लक्षण होते हैं यह ( जैज्जट आचारीका मत है और कोई कहता है ये मृत्तिकाजन्य पांडुरोग के लक्षण हैं क्योंकि मृत्तिकाजन्य पांडुरोग लक्षण के अनंतर लिखें हैं परंतु विदेहने तो ये मृत्तिकाजन्य पांडुरोग के लक्षण स्पष्ट कहे हैं) बहुत दिन का पांडुरोग-काल बहुत बीतने से पुराना हो जाय है सो अच्छा नहीं होय । अथवा-सबदेह में सूजन आ गई होवे और उस को पदार्थ पीले दीखें सो भी असाध्य है । अथवा-जिस मनुष्य का बंधा हुआ मल थोडा हरे रंग का कफमिश्रित उतरे सो भी असाध्य है । अथवा-जो पुरुषदीन कहिये ग्लानियुक्त हो और जिस की देह का श्वेत वर्ण हो और वमन, मूर्च्छा, प्यास इन से पीडित होवे सो पांडुरोगी नष्ट होवे ॥
दूसरा प्रकार
सनास्त्यसृग्क्षयादींश्च पांडुश्वेतत्वमाप्नुयात् ।पांडुदंतनखो यस्तु पांडुनेत्रश्च यो भवेत्॥पांडुसंघातदर्शी च पांडुरोगी विनश्यति॥
अर्थ-जो रुधिरक्षय होने से पांडुरोग उत्पन्न होय सोभी असाध्य है जिस के दांत, नख और नेत्र पीले होय वो रोगी असाध्य है \। जिस को सबपदार्थ पीले ही पीले दीखे वो रोगी मरे। हाथ, पैर,शिर इन में सूजन हो और जिस का मध्य पतला होय ऐसा पांडुरोगी असाध्य है-या से विपरीत साध्य है॥
तीसरा प्रकार
अंतेषुशूनं परिहीनमध्यं म्लानं तथांतेषु च मध्यशूनम् । गुदे च शेफस्यथ मुष्कयोश्च शूनं प्रताम्यं तमसंज्ञकल्पम्॥ विवर्ज्जयेत्पांडुकिनं यशोर्थी तथातिसारज्वरपीडितं च॥
अर्थ-जिस रोगी के देह के मध्य में सूजन हो ओर हाथ,पग, शिर ये सूख जाय तथागुदा,लिंग इन में सूजन होय तथा मरे के समान हो गया होय ऐसे पांडुरोगी को जिस वैद्य को यश की इच्छा हो सो त्याग दे । उसी प्रकार अतिसार और ज्वर इन से पीडित रोगी को वैद्य त्याग देवे ॥
त्रिफलादिलेह
त्रिफलायास्त्रयो भागास्त्रयस्त्रिकटुकस्य च। भागश्चित्रकमूलस्य विडंगानां तथैव च ॥ पंचाश्मजतुनो भागास्तथा रूप्यमलस्य च। शुद्धलोहस्य रजसो भागाश्चाष्टोप्रकल्पयेत् ॥ अष्टौ भागाः सतापस्तु तत्सर्वं मधुसंयुतम् । श्लक्ष्णचूर्णं सुसंस्थाप्यमायसे भाजने शुभे॥ उदुंबरसमां मात्रां ततः सादेद्यथाग्निना । दिने दिने प्रयोक्तव्यं जीर्णभोज्यं यथोचितम् ॥ वर्जयित्वा कुलित्थांस्तुकाकमाचीकपोतकान् । पांडुरोगं विषंकासं यक्ष्माणं विषमज्वरम्। कुष्ठानि जठरं मेहं श्वासं शोफमरोचकम्। विशेपाच्चह्यपस्मारं कामलागुदजानि च ॥
अर्थ-हरड, बहेडा, आमला, सोंठ, मिरच, पीपल, चीते की छाल, वायविडंग ये सब औषध एक २ भाग लेवे तथा शिलाजीत, रूपे की भस्म ओर मंडूर ये पांच २ भाग लेवे, शुद्ध लोह की भस्म और सुवर्णमाक्षिक ये प्रत्येक आठ २भाग लेवे इन सबका चूर्ण सहत डालके सब को लोहे के पात्र में भर देवे फिर इस में से अग्निबलविचारके एक तोले पर्यंत की मात्रा प्रतिदिन देवे, जब पच जावे तब यथायोग्य पथ्य देवे परंतु कुलथी, मकोय, कबूतर ये खाना वर्जित है यह पांडुरोग, विष, खांसी, राजरोग, विषमज्वर, कोढ, जलंधर, प्रमेह, श्वास, सूजन, अरुचि, मृगी, कामला और बवासीरये रोग नाश करे॥
फलत्रिकादिकाढा
फलत्रिकामृता वासा तिक्ता भूनिंबनिंबजः।
क्वाथः क्षौद्रयुतो हन्यात्पांडुरोगं सकामलम् ॥
अर्थ-हरड, बहेडा, आमला, गिलोय, अडूसा, कुटकी, चिरायता, नीम के पत्ते न सब के काढ़े में सहत डालके पीवे तो पांडुरोग और कामला इन का नाश करे॥
पुनर्नवादिकाढा
पुनर्नवानिंबपटोलशुंठीतिक्तामृता दार्व्यभयाकषायः।
सर्वांगशोफोदरपांडुरोगं स्थौल्यप्रसेकोर्ध्वकफामयेषु ॥
अर्थ-सांठी की जड, नीम की छाल, पटोलपत्र, सोंठ, कुटकी, गिलोय, दारुहलदी और हरड इन का काढा सर्वांग की सूजन, जलंधर, पांडुरोग, स्थूलता, मुख से पानी का गिरना और कफरोग इन का नाश करे ॥
वासादिकाढा
वासामृतानिंबकिरातकट्वीकषायकोयं समधुर्निपीतः।
सकामलं पांडुमयास्रपित्तं हन्याद्धलीमं च कफादिकान् गदान्॥
अर्थ-अडूसा, गिलोय, नीम की छाल, चिरायता और कुटकी इन का काढा, सहत और घी डालके देवे तो कामला, पांडुरोग, रक्तपित्त, हलीमक और कफादिक व्याधि इन को नाश करे ॥
दार्व्यादिवटक
दार्वीत्वङ्माक्षिको धातुग्रंथिको देवदारु च । एषांद्विदलिकाभागान्कृत्वा चूर्णं पृथक् पृथक् ॥ मंडूरं द्विगुणं चूर्णं शुद्धमंजनसन्निभम् । मूत्रे चाष्टगुणे पक्त्वा तस्मिंस्तत्प्रक्षिपेन्नरः॥ उदुंबरसमान्कृत्वा वटकांस्तान्यथाग्नि च । उपयुंजीत तक्रेण जीर्णसात्म्यं च भोजनम्॥ मंडूरवटका ह्येते प्राणदाः पांडुरोगिणः। कुष्ठानि प्रवरं शोथमूरुस्तंभं कफामयान् ॥ अर्शांसि कामलामेहं प्लीहानं शमयंति च॥
अर्थ-दारुहलदी, दालचीनी, सोनामक्खी की भस्म, पीपरामूल, देवदारु ये औषध आठ २ तोले ले और मंडूर १६ तोले इन सब को एकत्र करके आठ गुणे गोमूत्र मे पचाके इस में से एक २ तोले की गोली करे इस को रोगी का बलाबल विचारके देवे इस के ऊपर पुराने और आत्मा को हितकारी ऐसे पदार्थपथ्यमें देवे यह मंडूरवटक पांडुरोगी को प्राणदायक है तथा कोढ, सूजन, ऊरुस्तंभ, कफरोग, बवासीर, कामला, प्रमेह और प्लीहा इन की शांति करे॥
किरातादिमंडूर
किराततिक्तं सुरदारुदार्वीमुस्तागुडूची कटकापटोलम् । दुरालभापर्पटकं सनिंबाकटुत्रिकं वन्हिफलत्रिकं च ॥ फलं विडंगस्य समांशकानि सर्वैःसमं चूर्णमथायसं च ॥ सर्पिर्मधुभ्यां वाटिका विधेया तत्रानुपानाद्भिषजा प्रयोज्या॥ निहंति पांडुं च हलीम-
कं च शोथं प्रमेहं ग्रहणीरुजं च। श्वासं च कासं च सरक्तपित्तमर्शांस्यथोर्वोर्ग्रहमामवातम्॥ व्रणांश्च गुल्मान् कफविद्रधीश्च श्वित्रंच कुष्ठंसततप्रयोगात् ॥
अर्थ-चिरायता, देवदारु, दारुहलदी, नागरमोथा, गिलोय, कुटकी, पटोलपत्र, धमासा, पित्तपापडा, नीम की छाल, सोंठ, मिरच, पीपल, चित्रक, हरड, बहेडा, आमला और वायविडंग ये सब समान भाग ले लोहभस्म सब पूर्ण के समान लेके उस की सहत और घी के साथ गोली बनावे इस को अनुपान के साथ देवे तो पांडुरोग, हलीमक, सूजन, प्रमेह, संग्रहणी, श्वास, खांसी, रक्तपित्त, बवासीर, ऊरुग्रह, आमवात, व्रण, गोला, कफरोग, विद्रधिऔर सपेद कोढइन सब को नष्ट करे॥
अभयादिमोदक
अयस्तिलत्र्यूपणकोलभागैः सर्वैः समं माक्षिकधातुचूर्णम् ।
तैर्मोदकः क्षौद्रयुत्तो हि भक्तः पांड्वामये दूरगतोपि शस्तः॥
अर्थ-लोहभस्म, तिल, सोंठ, मिरच, पीपल और बेर के फल की छाल ये समान भाग लेवे इन सब की बरबरसुवर्णमाक्षिक की भस्म डालके गोली बनावेइस को सहत में मिलायके खावे तो असाध्य भी पांडुरोग नष्ट होवे ॥
पाण्ड्वरिरस
रसगंधाम्रलोक्यं पांड्वरिःपुटितं त्रिधा ।
कुमार्यास्तु चतुर्वल्लं पांडूकामलपूर्वहृत् ॥
अर्थ-पारा, गंधक, अभ्रकभस्म, लोहभस्मये समान भाग ले इन को घीगुवार के रस की तीन भावना देवे तो यह पांड्वरिरस सिद्ध होय इस को चार वल्ल ( १२ रत्ति) के प्रमाण सेवन करने से कामला और पांडु इन का नाश करे॥
पुनर्नवादिवटक
पुनर्नवात्रिवृव्द्योषविडंगं दारुचित्रकम्। कुष्टं हरिद्रे त्रिफला दंती चव्यं कलिंगकम् ॥ कटुकापिप्पलीमूलं मुस्तं शृंगी च कारवी। यवानी कट्फलं चेति पृथक्पलमितं मतम्॥ मंडूरं द्विगुणं चूर्णं गोमूत्रेष्टगुणे पचेत्। गुडवटकान्कृत्वा तक्रणालोड्य तान्पिबेत्॥ पुनर्नवादिमंडूरवटोश्विभ्यां विनिर्मितः । पांडुरोगं पुराणं च कामलां च हलीमकम् ॥ श्वासं कासं च यक्ष्माणं
ज्वरं शोथं तथोदरम् । शूलप्लीहप्रदध्मानमर्शांसि ग्रहणीं कृमीन्॥ वातरक्तं च कुष्ठंच सेवनान्नाशयेद्ध्रुवम् ॥
अर्थ-पुनर्नवा ( सांठ), निसोथ, सोंठ, मिरच, पीपल, वायविडंग, देवदारु, चित्रक, कूट, हलदी, दारुहलदी, हरड, बहेडा, आमला, दंति, चव्य, इन्द्रजो, कुटकी, पीपलमूल, नागरमोथा, काकडासिंगी, बडीसोफ (मगरेला), अजमायन, कायफल, ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे और मंडूर ८ तोले ले सबको एकत्र करके आठ गुने गोमूत्र में पचावे जब गुड के समान पाक हो जाये तब उस की गोली बनायके इस को छाछ के साथ देवे यह पुनर्नवादि मंडूर अश्विनीकुमार ने पुराने पांडुरोग, हलीमक, श्वास, खांसी, क्षय, ज्वर, सूजन, जलंधर, शूल, प्लीहोदर, अफरा, बवासीर, संग्रहणी, कृमि, वातरक्त और कोढइन के नाश करने को उत्पन्न करा है इस के सेवन करने से पूर्वोक्त सर्व व्याधि नष्ट होवे ॥
लोहासव पांडुरोगादिकों पर
लोहचूर्णं त्रिकटुकं त्रिफलां च यवानिकाम्। विडंगं मुस्तकं चित्रं चतुःसंख्यापलान् पृथक् ॥ धातकीकुसुमानां तु प्रक्षिपेत्पलविंशतिः। चूर्णीकृत्वा ततः क्षौद्रं चतुःषष्टिपलं क्षिपेत् ॥ दद्यात् गुडे तुलां तत्र जलद्रोणद्वयंतथा। घृतभांडे विनिक्षिप्य निदध्यान्मासमात्रकम् ॥ लोहासवममुं मर्त्यः पिबेदग्निकरं परम्। पांडुश्च पृथुगुल्मानि जठराण्यर्शसां रुजम् ॥ कुष्ठंप्लीहामयं कंडूं कासश्वासभगंदरम्। अरोचकं च ग्रहणीं हृद्रोगं च विनाशयेत्॥
अर्थ-लोहभस्म, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, अजमायन, वायविडंग, नागरमोथा और चीते की छाल ये ग्यारह औषधीचार चार पल लेवे तथा घाय के फूल २० पल ले सब का चूर्ण करके ६४ पल सहत और १ तुला गुड ले इस में पूर्वोक्त चूर्ण मिलायके दो द्रोण जल डाले फिर सब को घी के चिकने वासन में भरके और मुख पर मुद्रा देकर एकांत में धर देवे इस प्रकार एक महीने तक धरा रहने देवे फिर मुद्रा को दूर करे इस को लोहासवकहते है यह आसव पीवे तो जठराग्निप्रदीप्तहोवे तथा पांडुरोग, सूजन, पेट के गोले का रोग, बवासीर, कोढ, प्लीहा ( पिलही ), खुजली, खांसी, श्वास, भगंदर, अरुचि, संग्रहणी, हृदय का रोग इन सब रोगों को यह लोहासवदूर करे है॥
गोमूत्रलोह
सप्तरात्रंगवां मूत्रं भावितं चायसो रजः।
पांडुरोगप्रशांत्यर्थं पयसा प्रपिबेन्नरः॥
अर्थ-गौ के मूत्र में लोहे को सात रात दिन भीगने देवे फिर इस मूत्र को दूध के साथ मिलायके पांडुरोगी मनुष्यको पिलावे तो पांडुरोग दूर हो॥
गोमूत्रसिद्धमंडूर
गोमूत्रसिद्धमंडूरचूर्णं सगुडमिश्रितम् ।
पांडुरोगः क्षयं याति पंक्तिशूलं च दारुणम्॥
अर्थ-गोमूत्र में मंडूर को पचायके उस को गुड में मिलायके पांडुरोगी को खिलावे तो पांडुरोग पक्तिशूल (परिणाम शूल ) नष्ट होवे ॥
नवायसादिचूर्ण पांडुरोगादिकों पर
चित्रकं त्रिफला मुस्तं विडंगं त्र्यूपणानि च। समभागानि कार्याणि नव भागा हतायसः॥ एतदेकीकृतं चूर्णं मधुसर्पिर्युतं लिहेत्। गोमूत्रमथवा तक्रमनुपाने प्रशस्यते॥ पांडुरोगं जयत्युग्रं त्रिदोषंच भगंदरम्। शोथकुष्ठोदरार्शांसि मंदाग्निमरुचिं कृमीन्॥
अर्थ-चीते की छाल, हरड, बहेडा, आमला, नागरमोथा, वायविडंग, सोंठ, मिरच, पीपल ये नौऔषध समान भाग लेकर चूर्ण करे इस चूर्ण के समान लोह भस्म ले उस चूर्णमें मिलाय देवे फिर यह चूर्ण सहत और घी मिलाके सेवन करे अथवा गौमूत्र में किंवा गौकी छाछके साथ सेवन करे तो घोर पांडुरोग दूर होवे तथा त्रिदोष, भगंदर,सूजन, कोढ, उदररोग बवासीर, मंदाग्नि और कृमिरोग ये सबरोग दूर होवें॥
दूसरा नवायसचूर्ण
त्र्यूपणं त्रिफला मुस्ता विडंगंचित्रकं समम्। नवायोरजसो भागास्तच्चूर्णं मधुसर्पिषा॥ भक्षयेत्पांडुहृद्रोग-कुष्ठार्शःकामलापहम्। गोमूत्रेण पिबेद्वातपांडुरोगं च नाशयेत्॥ शोथहृद्रोगमुदरं कृमिकुष्ठंभगंदरम्। नाशयेदग्निमांद्यं च दुर्नामकमरोचकम्॥ आर्द्रकस्य रसेनापि लिह्यात्कफसमृद्धिमान्। गुंजामेकां समारभ्य यावत्स्युर्नवरक्तिका॥ प्रलिह्यान्मधुसर्पिर्भ्यांपिबेत्तक्रेण वा सह॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आमला, नागरमोथा, वायविडंग और चित्रक ये समान भाग लेवे तथा लोहभस्म ९ भाग, सब को एकत्र करके इसे सहत और घी में मिलायके पांडुरोग, हृदयरोग, कोढ, बवासीर, कामला इन पर देवे यदिगोमूत्र के साथ इस को देवे तो वादी का पांडुरोग, सूजन, हृदयरोग, जलंधर, कृमिरोग, कोढ, भगंदर, मंदाग्नि, बवासीर और अरुचि ये रोग नष्ट होवे तथा अदरख के रस से दिया जाय तो कफरोग नष्ट हो यह चूर्ण एक रत्ती से लेकर नौ रत्ती पर्यंत देना चाहिये अथवा अठारह रत्ती पर्यंत बलाबल विचारके सहतघी अथवा छाछ के साथ देवे ॥
लोहादिचूर्ण जीर्णपांडुपर
लोहं कटुत्रिकंकोलं तिलं वा चूर्णंसमं कीलकमाक्षिकसंयुक्तं। क्षौद्रयुतं च सतक्रमेव हि जीर्णतरे खलु पांडुगदेपि ॥
अर्थ-लोह की भस्म, सोंठ, मिरच, पीपल, कंकोल, तिल, सुवर्णमाक्षिक की भस्म इन का चूर्ण १ तोले को सहत अथवा छाछ इन के साथ देवे तो बहुत दिनतक पांडुरोग नष्ट होवे ॥
शिलाजितादियोग
शिलाजतुक्षौद्रविडंगसर्पिर्लैहोभयाशर्करया समक्षम् ।
आपूर्यते दुर्बलदेहधारी त्रिपंचरात्रेण यथा शशांकः॥
अर्थ-शिलाजीत, सहत, वायविडंग, घी, हरड और खांड इन सब का समान भाग चूर्ण करके देवे तो पंद्रह दिन में देह बलवान् होवे जैसे चंद्रमा परिपूर्ण होता है॥
मंडूरवज्रवटक
पंचकोलमरिचं देवदारुफलत्रिकम् । विडंगमुस्तायुक्ताश्चभागास्त्रिफलसंमिताः ॥ यावंत्येतानि चूर्णानि मंडूरं द्विगुणं ततः । पक्त्वाष्टगुणिते मूत्रे तद्वनीभूतमुद्धरेत् ॥ ततोक्षमात्रान् वटकान्पिबेत्तक्रेणतक्रभुक्। पांडुरोगं जयेत्तद्वन्मंदाग्नित्वमरोचकम्॥ मंडूरवज्रवटको रोगानीकप्रभेदतः। अर्शांसि ग्रहणीशोफमूरुस्तंभं हलीमकम्॥ कृमिप्लीहानमुदरं गलरोगं च नाशयेत् ॥
अर्थ-पीपर, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, काली मिरच, देवदारु, हरड, ब-
हेडा, आवला, वायविडंग और नागरमोथा ये सब औषध समान भाग ले सब से दूना मंडूर लेवे सब से आठ गुने गोमूत्र में डालके पचावे जब गाढा हो जावे तब उतारके एक २ तोले की गोली बनायके एक गोली छाछ के साथ देवे तथा छाछ भात पथ्यमें देवे तो पांडुरोग, मंदाग्नि, अरुचि, बवासीर, संग्रहणी, सूजन, ऊरुस्तंभ, हलीमक, कृमिरोग, प्लीहा, उदररोग, गलरोग तथा यह अनेक रोगों को नाश करे है॥
हंसमंडूर
मंडूरं चूर्णयेत् श्लक्ष्णं गोमूत्रेष्टगणे पचेत् । पंचकोलं देवदारुमुस्तव्योपफलत्रयं॥ विडंगं स्यात्प्रतिपलं पाकांते चूर्णितं क्षिपेत्। भक्षयेत्कर्षमात्रं च तक्रेतक्रंच भोजने ॥ पांडुशोफंहलीमं च ऊरुस्तंभं च कामलां । अर्शांसि हंति नो चित्रं हंसमंडूर उच्यते॥
अर्थ-मंडूर में आठ गुना गोमूत्र डालके पचावे जब गाढा हो जाये तब उस में पीपल, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, देवदारु, नागरमोथा, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आवला और वायविडंग इन प्रत्येक को चार २ तोले लेके सबका चूर्णकरके उस अवलेह में मिलाय एक २ तोले की गोली बनाये इस को छाछ के साथ देवे तथापथ्य में छाछ भात देवे तो पांडुरोग, सूजन, हलीमक, ऊरुस्तंभ, कामला और बवासीर इन को नाश करे इस को हंसमंडूर कहते हैं॥
सिद्धमंडूर
मंडूरस्य पलान्यष्टौ गोमूत्रेष्टगुणे पचेत् । पुनर्नवात्रिवृत्र्यूपं विडंगं देवदारुकम् ॥ द्विनिशा पुष्करं वह्निर्दंती चव्यं फलत्रिकम् । कुटजस्य फलं तिक्ता पिप्पलीमूलमुस्तकम्॥ विषंच प्रतिकर्षस्य चूर्णं कृत्वा विमिश्रयेत्। मंडूरस्य च पाकांते अक्षमात्रं वटीकृतम्॥ पांडुशोफोदरानाहशूलसत्कृमिगुल्मनुत् । इत्येवं सिद्धमंडूरःसर्वरोगविनाश-कृत् ॥
अर्थ-मंडूर ३२ तोले और गोमूत्र २५६ तोले दोनों को एकत्र कर अग्निपर रखके पचन करे जब गाढा हो जाये तब इस में पुनर्नवा, निशोथ, सोंठ, मिरच, पीपल, वायविडंग, देवदारु. हलदी, दारुहलदी, पुहकरमूल, चीतेकी छाल, दंती, चव्य, हरड, बहेडा, आवला, इन्द्रजो, कुटकी, पीपरामूल, नागरमोथा, अतीस इन प्रत्येक का तोले २ चूर्ण उस में मिलाये जब पाक हो जाये तब एक एक तोले की
गोली बांधे यह सिद्धमंडूरवटक पांडुरोग, सूजन, उदर, अफरा, शूल, कृमि और गोला तथा सर्व रोगों का नाश करे है॥
अमृतहरीतकी
शतावरीभृंगराजपुनर्नवकुरंटकैः। प्रतिसप्तपलं चूर्णं जले क्वाथ्यं चतुर्गुणे॥ पादशेषंकषायंतु वस्त्रपूतं समाहरेत् । हरीतकीपलं तस्मिन् षष्ठंचाधिशतत्रयम् ॥ पाचयेद्विधिवच्चैव त्रिंशद्दुग्धपलं पचेत् । भित्वा निवारयेदंडं तद्गर्भे सर्वमौषधम्॥ षट्पलं रसगंधौ च शुद्धेपात्रे क्षणं पचेत्। उत्तार्यचालयेत्तावद्यावत्कठिनतां व्रजेत्॥ चूर्णयित्वामृतासर्वं पलं सप्त विमिश्रयेत्। मधुना वटिका कार्या षष्ट्याधिकशतत्रयम् । एकैका ह्यमया गर्भेक्षिप्त्वा सूत्रेण बंधयेत् । मधुभांडे क्षिपेत्पश्चादेकैकां भक्षयेद्विजम् ॥ शुष्कपांडुहरं सम्यगमृताया हरीतकी॥
अर्थ-शतावर, भांगरा, पुनर्नवा और पियावांसा ये प्रत्येक अठाईस २ तोले लेवे इन को चौगुने जल में चढाय काढाकरके उतार लेवे, फिर काढेको छान के इस में हरड १४४० तोले डालके १२० तोले गौ का दूध डाले फिर चूल्हे पर चढायके हरडों को सिजावे जब नरम हो जावें तब उन को फोडके गुठली निकालके फैक देखे और पारा २४ तोले, गंधक २४ तोले दोनों को एक पात्र में चढायके पचन करावे जब दोनों सघन हो जावें तब उन का चूर्णकर उस में गिलोय का सत्व २८ तोले मिलायके सहत से ३६० गोली चनावे इन को गुठली निकाली हुई हरडोंमें भरे और सूत से लपेटदेवे फिर इन को सहत के वासन में मेरे देवे इस में से नित्य प्रति एक हरड खायतो यह अमृतहरीतकी शुष्क पांडुरोग का नाश करे ॥
पंचकोलघृत
पंचकोलं यवायं च क्षीरं दध्ना घृतं पुनः । समांशानि तु योज्यानि भार्गी कुष्ठंच पौष्करम् ॥ शतं तत्र हरीतक्या जलेनैव चतुर्गुणम् । क्वाथं नैकत्र योज्यांतेक्वाथयेन्मृदुवन्हिना॥ मृदुपाकघृतं सिद्धं पाने नस्ये च वस्तिषु। गुणाधिक्यं भवेन्नृणां पांडुरोगे हलीमके ॥ क्षये च राजयक्ष्मे च शस्तमुक्तं भिषग्वरैः॥
अर्थ-पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, जों के अग्रभाग (अर्थात् जों के तुस), दूध, दही, घी, भारंगी, कूठ, पुहकरमूल ये समान भाग लेवे और ३०० सौ जवाहरड ले इन सब के काढेमें घी मिलायके मंद २ अग्निपर पचावे; इस घीके पीने से नस्य और बस्ति इन में देवे यह मनुष्य को उत्तम गुणकारक है, यह पांडुरोग, हलीमक, क्षय और राजरोग इन रोगों में देना वैद्यों ने उत्तम कहा है॥
साधारणयोग
वन्हिचूर्णनिशाभाव्यं धात्रीफलकषायकैः।
गव्येनाज्येन दातव्यं निशायां पांडुरोगिणाम् ॥
अर्थ-चित्रक को चूर्ण के आंवले को काढेमें तीन भावना देवे फिर गौ के घी में मिलायके पांडुरोगवाले को रात्रि के समय देवे तो पांडुरोग नष्ट होय ॥
देवदालीयोग
देवदाल्यास्तु पंचांगचूर्णं क्षीरेथ वा जले ।
निष्कमात्रंपिबेन्नित्यं मासात्पांडुगदापहम्॥
अर्थ-देवदाली ( वंदाल वा घघरवेल ) के पंचांग के चूर्ण को दूध अथवा जल के साथ ४ मासे एक महीने पर्यंत देवे तो पांडुरोग को नाश करे ॥
गोमूत्रहरीतकीयोग
त्रिःसप्ताहं गवां मूत्रैरभयां च विभावयेत् ।
एकैका भक्षिता नित्यं पांडुरोगविनाशिनी॥
हस्तिकर्ण्याःसमूलायाश्चूर्णपानेन पांडुजित्॥
अर्थ-हरडों को २१ दिन पर्यंत गोमूत्र में भीगने देवे फिर इस में से एक एक नित्य भक्षण करे तो पांडुरोग का नाश करे। अथवा समूल हस्तिकर्ण (कासालू) लेकर चूर्ण करके देवे तो पांडुरोग का नाश होय॥
भूनिंबादिगुटी
भूनिंबाब्दपटोलनिंबकटुकादार्वीविडंगामृतावासाक्षामलकाभयामरकणाविश्वोषधैश्चूर्णितैः।तुल्यैः पर्पटचूर्णितैःसदहनैःसल्लोहचूर्णार्द्रकैः कर्तव्या मधुसंयुता च गुटिका पांड्वामयग्राहहा॥
अर्थ-चिरायता, नागरमोथा, पोलपत्र, नीम की छाल, कुटकी, दारुहलदी, वायविडंग, गिलोय, धमासा, बहेडा, आमले, हरड, पीपल, सोंठ, पित्तपापडा, चीते की
छाल, लोहे की भस्म इन सब, को समान भाग ले चूर्ण करे फिर इस की अदरख के रस में गोली बनावे इस को सहत के साथ खाने को देवे तो घोर पांडुरोग का नाश करे॥
मदेभसिंहसूत
रसगंधवराताम्रशंखविषनंगाभ्रकांतीक्ष्णमुंडं। अथा हिंगुलं टंकणं समांशं सकलतस्त्रिगुणं पुराणकिट्टं ॥ पशुमूत्रविशोधितं तु भृष्ट्वात्रिफलाभृंगतथार्द्रकोत्थनीरैः। सुविशोध्य नरामृतालिवासास्वरसैरष्टगुणैःपुनर्नवोत्थैः ॥ पृथगाग्निघृतं विपाच्यं गुटिका गुंजमिता निजानुपानैः। ज्वरपांडुतृषास्त्रपैत्त्यगुल्मक्षयकासस्वरमग्निसाद-मूर्छाः॥ पवनादिषु दुस्तराष्टरोगान् सकलं पित्तहरेमदावृतं च । बहुना किमयं यथार्थनामा सकलव्याधिहरो मदेभसिंहः॥
अर्थ-पारा, गंधक, हरड, बहेडा, आंवला, तामे की भस्म, शंखभस्म, सिंगियाविष, अभ्रक, कांतीलोह, तीक्ष्णलोह, मुंडलोह इन की भस्म और हींगलूतथा सुहागा ये सबसमान भाग लेवे इन सब से तिगुना मंडूर ले सब को गोमूत्र में शोधन कर भूनके निकाल लेवे फिर हरड, बहेडा, आंवला, भांगरा और अदरख इन के रस में खरल करके सुखाय ले फिर त्रिफला, गिलोय इन के अठगुने रसों की भावना देकर फिर पुनर्नवा के स्वरस को डालके अग्निपर रखके पचावेजब गाढा हो जावेतबएक २ रत्ती की गोली बनावेइस को रोग २ के अनुपान से देवे तो ज्वर, पांडुरोग, तृषा, रक्तपित्त, गोला, क्षय, खांसी, स्वरभेद, मंदाग्नि, मूर्च्छा, वातव्याधि आदि आठ असाध्य रोग, पित्तव्याधि इन को नाश करे यह संपूर्ण व्याधिरूप हाथी के मारने को सिंहरूप है॥
त्रैलोक्यनाथरस
पलानि चत्वारि रसस्य पंच गंधस्य सत्वस्य गुडूचिकायाः।
व्योषस्य चूर्णस्य सतालमूल्याः सशाल्मलस्येह पलक्यं स्यात् ॥
पृथक् पृथक् षड्गगनस्य चाष्टौलोहस्य सर्वेत्रिफलाजलेन ।
घृष्टं चतुःषष्टिमितं तदर्धाः स्युर्भावनायार्द्रकजद्रवस्य॥
शिग्रूत्थनीरेण च षोडशाष्टौतथानलोत्था गृहकन्यकायाः।
आर्द्रद्रवस्येति रसोयमुक्तो पांडुक्षयश्वासगदार्तिहंता॥
क्षौद्रेण वै शर्करया घृतेन कर्षार्धमेतस्य भजेत्प्रयुंजात् ॥
अर्थ-पारा १६ तोले, गंधक २० तोले, गिलोय का सत्व, सोंठ, मिरच, पीपल, मूसली और सेमर का गोंद ये प्रत्येक १२ तोलेलेवे.अभ्रक २४ तोले, लोहभस्म ३२ तोले, सब को एकत्र करके चूर्ण करके त्रिफला के काढे की ६४ भावना देवे, अदरख के रस की ३२ भावना सहजने के रस की १६, चित्रक के रस की ८, घीगुवारके रस की ८, फिर अदरख के रस की ८ इस प्रकार देकर उस में से सहत खांड और घी इन के साथ छः मासे देवे तो पांडुरोग, क्षय, श्वास इन सब रोगों को नाश करे॥
उदयभास्कर
भागैकं रसगंधकं द्विगुणितं शुल्बंच भागाष्टकं शैलेयास्त्रयतालकद्वयमिदं शुद्धं च खल्वे कृतं। अर्धंव्योपजवेदभागसहितं भागद्वयं चामृतं निर्गुण्ड्यार्द्रकभृंगराजसहितं भाव्यंजयंतीरसैः॥ प्रत्येकं दिनसप्तकं तु सुदृढं शोष्यं च सूर्यातपे योज्यं गुंजमितं रसार्द्रसहितं व्योषेण संमिश्रितं । पांडूकामलरोगशोकदहनं सन्नेत्रिदोषेज्वरेमेहप्लीहजलोदरं ग्रहणिका कुष्ठं धनुर्वातजं॥ पथ्यं षष्टिकतंदुलं नवनितं तक्रंच शाल्योदनं देयश्चोदयभास्करः क्षितितले संबंधिकारान् जयेत्॥
अर्थ-पारा १, गंधक २, तामे की भस्म ८, शिलाजीत ३, हरताल २, सोंठ, मिरच, पीपल तीनों ४ तथा सिंगियाविष२ भाग लेवे इन सब को एकत्र करके निर्गुंडी, अदरख, भांगरा और अरनी इन के रस की पृथक्२ सात २ भावना देवे अर्थात् खरल करे और धूप में सुखाय लेवे. इस में से १ रत्ती यह रस अदरख के रस और त्रिकुटा इन के साथ देवे तो पांडुरोग, कामला, सूजन, मंदाग्नि, त्रिदोषज्वर, प्रमेह, प्लीहा, जलंधर, संग्रहणी, कोढ, धनुर्वात इन का नाश करे इस पर पथ्यमें सांठी चावल का भात, छाछ औरशाल्योदन ( पुराने चावलों का भात ), यहउदयभास्कर संपूर्ण रोगरूप अंधकार को नाशकरे है इसी से इस की उदयभास्कर संज्ञा है ॥
कामेश्वररस
पलं सूतं पलं गंधं बन्हिपथ्यात्रयं त्रयं । मुस्तैलापत्रकानां च
मितं चार्धपलं पलम्।त्र्यूपणं पिप्पलीमूलं विषंचैव पलं पलम् । नागकेसरकर्षैकंरेणुकार्धपलं तथा॥ पुरातनगुडेनैव तुलार्धेन प्रपाचयेत्। मर्दयेच्चार्द्रकद्रावैर्यामैकं तद्घृतेन च॥ गुटिका बदराकारा कारयेद्भक्षयेत्सदा । शोफपांडुहरः सोयं रसः कामेश्वरो ह्ययम्॥
अर्थ-पारा, गंधक दोनों चार २ भाग, चीते की छाल और हरड हर एक बारह २ भाग, नागरमोथा, इलायची और पत्रज ये दो दो भाग और त्रिकुटा (सोंठ, मिरच, पीपल), पीपरामूल और सिंगियाविषहर एक चार २ भाग, नागकेशर १ तथा रेणुकबीज२ तोले ले इस प्रकार सबऔषध लेकर चूर्ण कर लेवे; इस में पुराना, गुड २०० तोले मिलाकर पचावे अर्थात् पक्वकरे फिर शीतल करके अदरख के रस में १ प्रहर तथा गौ के घी में १ प्रहर मर्दन करके बेर के बराबर गोली बनावे एक गोली नित्य सेवन करे तो सूजन, पांडुरोग इन को नाश करे इस को कामेश्वर रस कहते हैं॥
कालविध्वंसकरस
शुद्धसूतं हेमतारं ताम्रं तुल्यं विमर्दयेत् । जंबीरनीरसंयुक्तमातपे शोषयेद्दिनम् ॥ सर्वतुल्यं पुनःसूतं क्षित्वा पिष्टिंप्रकल्पयेत् । आदाय वंधयेद्वस्त्रे इष्टिकायंत्रगं पचेत्॥ जंबीरैर्गंधकं पिष्ट्वाअधश्चोर्ध्वं च दापयेत् । तुल्यं तुल्यं पुनर्देयं रुध्वालघुपुटे पचेत्॥ षड्गुणैर्गंधके जीर्णे तदुद्धृत्य विचूर्णयेत्। लोहभस्म समांशं च दत्त्वामर्द्यद्रवैर्दिनम् ॥ कंटकार्या बृहत्या च तथाग्निधमनद्रवैः। प्रतिदावैर्दिनं मर्द्यपचेत्पंचभिरुत्पलैः॥ एवं नवपुटं देयं द्रवद्रावेस्त्रिधा त्रिधा । वन्ह्यकं चिरबिल्वानां द्रावैर्द्विर्द्विःपुटे पचेत् ॥ अंधमूपागतं पाच्यमादायाचूर्णयेत्पुनः। दशांशेन विषंयोज्यं गुंजामात्रंप्रयोजयेत् ॥ कालविध्वंसको नाम रसः पांड्वामयापहः॥
अर्थ-शुद्धपारा और सुवर्ण, चांदी, ताम्रइन की भस्मसमान भाग लेवे सबको जंभीरीके रस में एक दिन धूप में के रखके खरलकरे तथा इन सबकी बराबर
फिर पारा लेवे सब की कजली करे और कपडे में पोटली बांध लेवे पश्चात् जंभीरी के रस में गंधक घोटकर उस पोटली के ऊपर नीचे देकर इष्टिकायंत्र में धरके पचावे इस प्रकार समान गंधक दे देकर षड्गुण गंधक जारण करे फिर निकालके चूर्ण कर लेवे इस चूर्ण के समान लोहभस्म डालके कटेरी, बड़ी कटेरी और नीम इन के रस में एक एक दिन खरल करे और पांच उपलों में रख २ के फूंकता जावे इस प्रकार प्रत्येक की तीन २ पुट देवे ऐसे नौ पुट हुईं, फिर चित्रक, आंक और कंजा इन की दो दो भावना देवे परंतु प्रत्येक भावना में अंधमूषासंपुट में रख २ के अग्नि में पचाता जावे फिर इस का चूर्ण करके इस का दशमांशशुद्ध सिंगिया विष मिलावे तो यह रस सिद्ध होवे. इस में से १ रत्ती की मात्रा देवे तो यह कालविध्वंसकरस पांडुरोग का नाश करे ॥
पांड्वरि
रसगंधकलोहैकं पांड्वरिः पुटितस्त्रिधा।
कुमार्याक्तश्चतुर्वल्लपांडुकामलपूर्ववत् ॥
अर्थ-पारा, गंधक, लोहभस्म ये समान भाग लेवे सब का चूर्ण करके घीगुवार के रस की तीन भावना देकर प्रत्येक भावना में गजपुट में रखके फूंकता जावे तो यह तैयार हो. इस पांड्वारिरस चार वल्ल रोगी को देवेतो पांडुरोग और कामला इन का नाश करे॥
पांडुसूदन
रसं गंधं मृतं ताम्रंजयपालं च गुग्गुलम्।
समांशमाज्यसंयुक्तं गुटिकां कारयेन्मिताम्॥
एकैकां प्रदद्वैद्यः शोथपांडूपनुत्तये।
शीतलं च जलं चाम्लं वर्जयेत्पांड्वसूदने॥
अर्थ-पारा, गंधक, तामे की भस्म, जमालगोटा और गूगल ये समान भाग लेकर इस की घी में गोली बनावे यह बलाबल विचारके एक एक देवे या न्यूनाधिक दे तो सूजन, पांडुरोग इन का नाश करे इस पर शीतलजल और खट्टा रस खाना वर्जित है॥
वंगेश्वर
वंगसूतकयोः कृत्वा सारणं कन्यकाद्रवैः। संमर्द्यवटिकाः कृत्वा पाचयेत्काचभाजने ॥ यावच्चंद्रनिभः शुभ्रो वंगेश्वरसमो गुणैः । पांडुप्रमेहदौर्बल्यकामलांतकनाशनः॥
अर्थ-वंग (रांगा) और पारा दोनों को घीगुवार के रस में खरल करके कांचकी आतसी शीशी में पचन करे तो यह चंद्रमा के तुल्य सुंदर वर्ण तथा गुणों में वंगेश्वर की समान और पांडुरोग, प्रमेह, दुर्बलता, कामला इन का नाश करनेवाला यह दूसरा वंगेश्वर है ॥
पांडुनिग्रहरस
अभ्रभस्म रसभस्म गंधकं लोहभस्म मुसलीविमर्दितम् ।
शाल्मलीरसततो गुडूचिकाक्वाथकैश्च परिमर्द्दितं दिनम् ॥
भावयेत्त्रिफलयार्द्रकन्यकावन्हिशिग्रुजरसैश्च सप्तधा।
जायते हि भवजो विवर्जनं शोथपांडुनिवृत्तिदायकम् ॥
वल्लयुग्मपरिमाणतस्त्विमं लेहयेच्चघृतमाक्षिकान्वितम् ।
पथ्यमात्रपरिभाषितं पुरा एतदेव परिवर्जितं हितम्॥
शोथपांडुविनिवृत्तिदायकः सेवितस्तु यवचिंचिकाद्रवैः।
नागराग्निजयपालकैस्तु वा वर्ज्यदुग्धपरिपक्वसर्पिषा॥
तक्रभक्तमिह भोजयेदतिस्निग्धमन्नमतिनूतनं त्यजेत् ॥
अर्थ-अभ्रकभस्म, पारे की भस्म, गंधक, लोहभस्म और मूसली का चूर्ण ये समानभाग ले सब को एकत्र करके सेमर के रस से तथा गिलोय के काढे से एक एक दिन सरल करके फिर त्रिफले का काढा, अदरख, घीगुवार, चीता, सहजने का रस इन सब की पृथक् २ सात २ भावना देवे तो यह पांडुनिग्रह रस बने. इस में से दो वल्ल (छः रत्ती) रस सहत और घी के साथदेवे तो सूजन, पांडुरोग इन का नाश कर इस पर जो, इमली, सोंठ, चित्रक, जमालगोटा और दूध इन को औटायके तथा उस में घी डाला हुआ ये तथाअतिस्निग्धान्न और नूतनान्नये वर्जित हैंपथ्य में छाछ भात देवे॥
अनिलरस
ताम्रभस्म रसभस्म गंधकं वत्सनाभमपि तुल्यभागिकम्।
वन्हितोयपरिमर्द्दितं पचेवामपादमथ मंदवन्हिना ॥
रक्तिकायुगलमानतोनिलः शोथपांडुघनपंकशोषिता॥
अर्थ-ताम्रभस्म, पारे की भस्म, गंधक, सिंगियाविषये सब समान भाग लेवे इन सबको चित्रक के रस में मंदाग्निपर रखके दो घडी पर्यंत घोटे फिर दो २ रत्ती की
गोली बनावे सेवन करने से यह अनिलरस सूजन और पांडुरोग तथा देह के भीतर की कीच अर्थात् तरी को सुखाय देता है ॥
लोहसुंदररस
सूतभस्म मृतलोहगंधकौभागवर्धितमिदं विनिक्षिपेत्।
दीर्घनालदृढकूपिकोदरे मृत्स्नया च परिवेष्टितां क्षिपेत् ॥
चुल्लिकोपरि सुकूपिकामुखे प्रक्षिपेच्च परशाल्मलिद्रवं।
त्रैफलं वसुगुडूचिकारसं पाचयेच्च मृदुवन्हिना दिनं॥
स्वांगशीतलमिदं प्रगृह्य च त्र्यूषणार्द्रकरसेन भावयेत् ।
लोहसुंदररसोयमीरितः शुष्कपांडुविनिवृत्तिदः परः॥
अर्थ-पारे की भस्म १, लोहभस्म २, तथा गंधक ३ भाग इस प्रकार लेकर खरल करे और उस कजली को कांच की आतसी शीशी में भरके मुख बंद करे ऊपर कपडमिट्टी करके वालुकायंत्र में रखके एक दिन मंदाग्निसे पचन करे और उसी चूल्हे पर उस शीशी के मुख में सेमर का रस, त्रिफले का काढा, वसु का काढा और गिलोय का रस ये डाले जब पचन होकर तैयार हो जावे तबसांग शीतल होने पर उतारके उस में त्रिकुटाऔर अदरख के रस की भावना देवे यह लोहसुंदररस शुष्क पांडुरोग का नाश करे ॥
चंदनादितैल।
चंदनं सरलं दारु यष्ट्येला वालकं सठी । नखशैलेयकं पक्त्वा पद्मकं घनकेसरं॥ कंकोलकं मुरा मांसी शैलेये द्वे हरीतकी । त्वरेण्डका किरातं च सारिवातिक्तका गुरुः ॥ नलिकावालकं द्राक्षाकषायं सुपरिशृतं।तैलमस्तु तथा लाक्षारसेन समभागिकं॥ मंदाग्नौपाचयेत्तैलं सिद्धं पानेषु बस्तिषु। नस्ये चाभ्यंजने चैव योजयेच्च भिषग्वरः॥ हंति पांडुं क्षयं कासं ग्रहाग्नि बलवर्णकृत् । मंदज्वरमपस्मारं कुष्ठपामाहरं पुनः॥ करोति बलपुष्ट्योजोमेधाप्रज्ञाविवर्धनं। रूपसौभाग्यदं प्रोक्तं सर्वभूतवशीकरं॥
अर्थ-चंदन, सरल, देवदारु, मुलहटी, इलायची, नेत्रवाला, कचूर, नखद्रव्य, शिलाजित, पद्माख, नागरमोथा नागकेशर, कंकोल, मुरा, जटामांसी, पत्थर का फूल,
छोटी हरड, बडी हरड, दालचीनी, रेणुकबीज, चिरायता, सरवन, कुटकी, अगर, नलिका सुगंध द्रव्य, सुगंधवाला और दाख इन का काढा करके इस में मीठी तिली का तेल, दही का तोड, लाख का सीरा, ये समानभाग डालके मंदाग्नि पर रखके तेल सिद्ध करे. इस के पीने, बस्तिकर्म, नस्य, तथा देह में मालिस करना इन कर्मों में काम लावे तो पांडुरोग, क्षय, खांसी, ग्रहबाधा, मंदज्वर, मृगी, कोढतथा खुजली इन को नाश करे. तथा बल, वर्ण, पुष्टि, तेज, बुद्धि, स्मृति, रूप, सौभाग्य इन को देवे. तथासर्व प्राणियों को वशीकरण करनेवाला तेल है ॥
मृत्तिकाभक्षणजपांडुनिदान
मृत्तिकादनशीलस्य कुप्यत्यन्यतमोमलः। कषया मारुतं
पित्तमूपरामधुराकफोकोपयेन्मृद्रसादींश्च रौक्षाद्रक्तं च रूक्षयेत् । पूरयत्यविपक्वैश्च स्रोतांसि निरुणद्ध्यपि॥ इंद्रियाणां बलंहत्वा तेजो वीर्यौजसीतथा। पांडुरोगं करोत्याशु बलवर्णाग्निनाशनं ॥
अर्थ-मिट्टी खाने का जिस मनुष्य को अभ्यास पड़ जाय उस के वातादिक दो कुपित होवे कषेली माटी से वात कुपित होय खारी माटी से पित्त और मीठी माटी से कफ कुपित होवे फिर वही मिट्टी पेट में जायकर रसादिक धातुओं को रूखाकरे. जबरौक्ष्य गुण प्रगट हो जाय तबजो अन्न खाय सो रूखा होजाय। फिर वही मिट्टी पटे में विना पके रस को रस वहनेवाली नसों में प्राप्त कर उन के मार्ग को रोक दे रसके वहनेवाली नसों का मार्ग जब रुक जाय तब इन्द्रियों का पल अर्थात् अपने अपने विषय ग्रहण करने की शक्ति नाश होय शरीर की कांति तेज और मोज कहिये सब धातुओं का सार ( हृदय में रहता है सो ) क्षीण होकर पांडुरोग प्रगट कर उस में बल, वर्ण और अग्नि इन का नाश होता है ॥
केशरादिकाढा।
तद्वत्केसरयष्ट्यार्धपिप्पलीसुरसाह्वयैः।
मृद्धेपणाय तल्लोल्ये वितरेद्भावितां मृदं ॥
अर्थ-नागकेशर, मुलहटी, पीपल और निसोथ इन का काढा करके इस की भावना चिकनी सफेद मिट्टी में देवे, फिर इस मिट्टी को खवावे तो वह खाई हुई मिट्टी दस्तों की राह निकलकर विकार को दूर कर देवे॥
घृत
व्योषबिल्वद्विरजनीत्रिफला द्विपुनर्नवा। मुस्ता चायोरजः पाठा
विडंगं देवदारु च ॥ वृश्चिकाली च भार्ङ्गी च साक्षीरैस्तैर्घृतं शृतं । सर्वान्प्रशमयत्याशु विकारान् मृत्तिकाकृतान् ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, बेलगिरी, हरदी, दारुहरदी, हरड, बहेडा, आंवला, सपेद पुनर्नवा, लाल पुनर्नवा, नागरमोथा, लोहभस्म, पाढ, वायविडंग, देवदारु, मेढासिंगी, भारंगी और दूध इतनी औषधों के काढेमें सिद्ध करा हुआ घी मट्टी खाने से हुए सर्व विकारों को नाश करे ॥
इति श्रीआयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघंटुरत्नाकरे पांडुरोगनिदानचिकित्सा समाप्ता॥
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कामलाकर्मविपाकः।
कामली भक्तचोरः स्यात्तस्य वक्ष्यामि निष्कृतिं । कुर्य्याच्च पक्षिराजानं विष्णोर्वाहनमुत्तमं ॥ सुवर्णेन यथाशक्त्या पक्षयोमौक्तिकद्वयं । नासिकायां तथा वज्रमुत्तरीयं च राजतं ॥ एवं कृत्वा गरुत्मंतं घृतद्रोणोपरि न्यसेत् । श्वेतवस्त्रेण संवेष्ट्यश्वेतमाल्यैः समर्चयेत् ॥ सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो वैष्णवो धर्मपाठकः। ब्राह्मणस्त्वर्चितो भक्त्यायजमानेन शक्तितः॥उपचारैः षोडशभिर्द्विजमभ्यर्चयेत्तथा॥
अर्थ-जो प्राणी पूर्वजन्म में भात की चोरी करे है वो कामलारोगी होवे उस पापके दूर करने को प्रायश्चित कहते हैं सुवर्ण का गरुड पक्षी बनायके उस के पंखों मेंमोती, नाक में हीरा और उस को चांदी के वस्त्र उढावे. ऐसा गरुड करके १०२४ तोले घी के ऊपर रखके और सपेद वस्त्रो से लपेट कर सपेद फूलमाला से सुशोभित कर पूजा करे. फिर इस को सर्वशास्त्र के तत्ववेत्ता वैष्णव धर्म और पाठ करनेवाला ऐसे ब्राह्मण का पूजन करके यथाशक्ति षोडशोपचार से पूजा करके उस को उस गरुड का दान देवे तो कामलारोग नष्ट होवे ॥
प्रतिमादान
पीनांगः कामलारोगः कपालमुसलान्वितः।
पूजाविधानं त्वातंको देवतात्वमुदाहृतः॥
अर्थ-कामलारोगी को आतंकदेवी की प्रतिमा पीले रंग की और जिस के हाथों में कपाल और मूसल धारण करे होवे ऐसी बनायके उस की पूजा करके ब्राह्मण को देवे ॥
कामलानिदान
पांडुरोगीति योत्यर्थं पित्तलानि निषेवते।
तस्य पित्तमसृङ् मांसं दग्ध्वारोगाय कल्पते ॥
अर्थ-जो पांडुरोगी अत्यंत पित्तकारक वस्तुओं का सेवन करे उस के पित्त, रुधिर, मांस को जलाय ( दुष्ट कर ) कामलारूप रोग प्रगट करने को समर्थ होय ॥
लक्षण
हारिद्रनेत्रः सुभृशं हारिद्रत्वङ्नखाननः। रक्तपित्तशकृन्मूत्रो भेकवर्णोहतेंद्रियः॥ दाहाविपाकदौर्बल्यसदना-रुचिकर्षितः। कामला बहुपित्तैषाकोष्ठशाखाश्रया मता॥
अर्थ-उस मनुष्य के नेत्र अत्यंत पीले होय. त्वचा, नख और मुख ये पीले होम मल मूत्र काले होय, अथवा पीले होय, वह मनुष्य वर्षाऋतु के मेंडक के समान पीला होवे, इन्द्रियों की शक्ति नष्ट होय, दाह, अन्न पचे नहीं दुर्बलता, अंगग्लानि, अन्न मेंअरुचि इन से पीडित होय जिस में पित्त प्रबलऐसी यह कामला एक कोष्ठाश्रय और दूसरी शाखा ( रक्तादि धातु ) आश्रित है. उसी प्रकार कामला स्वतंत्र होय है॥
कामलाचिकित्साक्रम
रेचनं कामलार्तस्य स्निग्धस्यादौप्रयोजयेत् ।
ततःप्रशमनी कार्या क्रिया वैद्येनजानता॥
अर्थ-ज्ञाता वैद्य होवे उस को कामलारोग से पीडित ऐसे मनुष्य को दूध, घी, कोईसा स्निग्ध पदार्थ पिलायके दस्त करावे फिर दोष शमन करनेवाली औषध देनी चाहिये ॥
नस्य व अंजन
हिंगु वा लोचने न्यस्तं कामलोन्मूलने क्षमं ।
कामलार्तस्य चैरंडंपिप्पल्यो नविनांजने॥
अर्थ-कामला के नाश करने को हींगका अंजन करे. अथवा अंड का रस तथापीपल का चूर्ण इन की नस्य देवे ॥
जालिनीफलादि नस्य
जालिनीफलमाध्मानं नस्यं वा तंडुलांभसा ।
जालिनीफलमध्यस्थं श्यामासर्पपनस्यतः॥
अर्थ-कडुई तोरई के फल के बीजों के धोवन के जल की नस्य देवे अथवा कडुई तूंबीके बीच में पीपल और सरसों भरके थोडी देर रख देवे फिर उस को पीसके उस की नस्य देवे तो कामलारोग दूर हो ॥
कुमारीकंदनस्य
किंवा तोयेन सा पिष्टः कुमारीकंदनस्यतः।
जायते कामलोपेता पित्तनेत्रांतकामला॥
अर्थ- घीगुवार का रस निकालके उस में घी डालके नस्य देवे तो कामला करके नेत्र पीले भी हो गये हों तो भी उस का नाश करे ॥
कामलापर अन्न
यवगोधूमशाल्यन्नं रसैर्जांगलजैः शुभैः।
मुग्दाढकामसूराद्यैस्तयोर्भोजनमिष्यते ॥
अर्थ-जों, गैहूं और शालीचावल, ये अन्न, जांगली जीवों के मांसरस करके युक्त अथवा मूंग, मसूर इत्यादि करके युक्त जो भोजन वो कामलावालेरोगी को और पांडुरोगी को देना चाहिये॥
कामलापर काढा
त्रिफलाया गुडूच्या वा दार्व्यानिंबस्य वा रसं ।
प्रातर्मधुयुतं वैद्यः कामलार्ताय योजयेत्॥
अर्थ -हरड, बहेडा, आमला, इन का काढा, अथवागिलोय का काढाअथवा दारुहलदी वा नीम के काढेमें सहद डालके प्रातःकाल वैद्य कामलारोगपीडित को देवे तो कामलारोग दूर होवे ॥
पुनर्नवादि काढा
पुनर्नवानिंबपटोलतिक्ताविश्वाभयादारुनिशामृतानाम् ।
कषायकः पांडुगदं निहंति सश्वासकासोदरशूलशोथम् ॥
अर्थ-पुनर्नवा, नीम, पटोलपत्र, कुटकी, सोंठ, हरड, दारुहलदी, हलदी और
गिलोय इन का काढा पांडुरोग, श्वास, खांसी, उदररोग, शूल और सूजन इन को नाश करे॥
त्रिफलादि काढा
त्रिफलानिंबकैराततिक्तावासामृताभवैः।
क्वाथो मधुयुतो हंति कामलां पांडुतामपि॥
अर्थ-हरड, बहेडा, आंवला, नीम की छाल, चिरायता, कुटकी, अडूसा और गिलोय इन का काढा सहत डालके पीवे तो कामलारोग और पांडुरोग नष्ट होवे ॥
गोदुग्धपान
अये मनोज्ञकुंडले स्फुरन्मुखेंदुमंडले।
गवां पयः सनागरं प्रिये निहंति कामलां॥
अर्थ-हे मनोज्ञकुंडले ! हे स्फुरन्मुखेन्दुमंडले प्यारी ! गौ के दूध में सोंठ डालके पीवे तो कामलारोग निश्चय दूर होवे ॥
हरीतक्याद्यंजन
हरीतकी च धात्रिका तथा मनोज्ञगैरिका।
इति प्रयोजितांजनं निहंति कामलाननं ॥
अर्थ-हरड, वच, आंमला और स्वर्णगेरु इन की नस्य कामलारोग का नाश करे है॥
खरविट्स्वरस
खरविड्दधिना सार्धंसम्यक् संमर्द्यपाययेत् ।
महत्पित्तोद्भवं रोगं कामलां च प्रणश्यति ॥
अर्थ-गधे की लीद दही के साथ पीसके उस का रस निकाल लेवे इस के पीने से घोर पित्त के दोष से उत्पन्न कामलारोग नष्ट होवे ॥
गुडूचीकल्क
गुडूचीपत्रकल्कं वा पिबेत्तक्रेणकामली॥
अर्थ-कामलारोगवाला गिलोय के पत्ते के कल्क को छाछ के साथ पीवे तौ कामला दूर हो ॥
धात्र्यादिचूर्ण
धात्रीलोहरजोव्योषनिशाक्षौद्राज्यशर्करा।
लीढानिवारयंत्याशु कामलामुद्धतामपि॥
अर्थ-आंवले, लोहे की भस्म, सोंठ, मिरच, पीपल, हलदी, सहत, घी और खांड इन को मिलायके नित्य पीवे तो घोर बढीहुई कामलारोग को तत्काल दूर करे॥
अयोरजादिचूर्ण
अयोरजोव्योषविडंगचूर्णं लिह्याद्धरिद्रात्रिफलान्वितं वा।
सशर्करा कामलिनां त्रिभंडी हिता गवाक्षी सगुडा च शुंठी ॥
अर्थ-लोहे की भस्म, सोंठ, मिरच, पीपल, वायविडंग, हलदी, हरड, बहेडा, आंमला इन का चूर्ण अथवा निशोथ और मिश्री अथवा इन्द्रायन का गूदा, सोंठ और गुड ये देवे तो कामलारोग नष्ट होय ॥
व्योषादिचूर्ण
व्योषाग्निवल्यत्रिफलामुस्तैस्तुल्यमयोरजः।
चूर्णितं तक्रमध्वाज्यं कोष्णतोयोपयोजितम् ॥
कामलापांडुहृद्रोगकुष्ठार्शोमेहनाशनम् ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, चित्रक, काली मिरच, हरड, बहेडा, आंवला और नागरमोथा ये सबसमान भाग लेवे तथा सब की बराबरलोहे की भस्म लेवे सब को एकत्र चूर्ण कर छाछ सहत और घी अथवा गरम जल इन के साथ देवे तो कामला, पांडुरोग, हृदयरोग, कोढ, बवासीर और प्रमेह इन को नष्ट करे ॥
अयोरजादियोग
तुल्यमयोरजः पथ्या हरिद्रा क्षौद्रसर्पिषा।
चूर्णितं कामली लिह्याद्गुडक्षौद्रेण वाभया॥
अर्थ-लोहे की भस्म, हरड, हलदी इन का चूर्ण सहत और घी से देवे अथवा हरड के चूर्ण को सहत मे मिलायके देवे तो कामलारोग नष्ट होवे ॥
अंजन
अंजनं कामलार्तानां द्रोणपुष्पीरसं शुभम् ।
निशागैरिकधात्रीणां चूर्णवासं प्रकल्पयेत् ॥
अर्थ-गोमा का रस अथवा हलद, गेरू और आंवले इन को पीसके अंजनकरे तोकामलारोग नष्ट होवे इस मे संदेह नहीं ॥
नस्य
वेणीफलरसः स्वच्छो नस्यतस्तस्य सादरम् ।
कामला कामलोपेता याति दूरं च सर्पिषा॥
अर्थ-देवदाली (वंदाल) के फलों का रस स्वच्छ निकालके नस्य देवे तो कामला दूर होवे अथवा कुछ २ दोषों करके युक्त जो कामला वोघी के पीने से नष्ट होती है॥
लोहादिचूर्ण
लोहचूर्णनिशायुग्मं त्रिफलाकटुरोहिणी ।
प्रलिह्य मधुसर्पिर्भ्यांकामलार्तः सुखी भवेत्॥
अर्थ-लोहे की भस्म, हलदी, दारुहलदी, हरड, बहेडा, आंवला और कुटकी इन के चूर्ण को सहत औरघीइन में मिलायकर देवे तो कामलारोगी अच्छा होय ॥
एलादिचूर्ण
एलाजीरकभूधात्रीसिता गव्येन भावयेत् ।
प्रातः संसेवनं कुर्यात् कामलानाशनं परं॥
अर्थ-इलायची, जीरा, भूयआंवला और मिश्री इन को दूध में औटायके प्रातःकाल के समय सेवन करे तो कामला का नाश होवे॥
हरिद्राचूर्ण
निशाचूर्णं कर्पमितं दध्नः पलमितं तथा ।
प्रातः संसेवनं कुर्यात् कामलानाशनं परं॥
अर्थ-हलदी का चूर्ण १ तोले और दही ४ तोला दोनों को मिलायके प्रातःकाल सेवन करे तो कामलारोग का नाश होवे ॥
दार्व्यादिचूर्ण
दार्वीपत्रिफलाव्योषविडंगानयसो रजः।
मधुसर्पिर्युतं लिह्यात्कामलापांडुरोगवान्॥
अर्थ-दारुहलदी, हरड, बहेडा, आंवला, सोठ, मिरच, पीपल और लोहे की भस्म ये समान भाग लेवेचूर्ण करके सहत और घी के साथ पांडुरोगी और कामलावाले रोगी को सेवन करना चाहिये॥
घृत
हरिद्रात्रिफलानिंबवलामधुकसाधितम् ।
सक्षीरं माहिषंसर्पिः कामलापहमुत्तमं ॥
अर्थ-हलदी, हरड, बहेडा, आंवला, नीम की छाल, खिरेटी और मुलहटी इन के काढेमें सिद्ध करा हुआ भैंसका घी उस को भैंस के दूध के साथ पीवे तो कामलारोग नष्ट होवे॥
एरंडस्वरस
वातारेश्च जटाद्रावं कर्पांर्धंदुग्धमिश्रितं ।
पाययेत्तुप्रतिदिनमेवमेव दिनत्रये ॥
घृतं दुग्धोदनं पथ्यं कुर्याद्वैलवणं विना।
कामलां नाशयत्याशु वायुनाभ्रंहरेद्यथा॥
अर्थ-अंड की कोमल २ डंडीले उन का रस निकालके छः मासे लेवे उस कोदूध में मिलाय प्रतिदिन रोगी को पिलावेइस प्रकार तीन दिन देवे और पथ्य में घी दूधऔर भात देवे.तो यह कामलारोग को नष्ट करे जैसे पवन बादलों को नष्ट करदेती है. इस पर निमक खाना वर्जित है ॥
कटुकीयोग
पिबेत्कवोष्णेन जलेन तिक्तां सशर्करां पाणितलप्रमाणां ।
निहंति दुष्टामपि कामलां सा हरीतकी वा मधुना प्रयुक्ता ॥
अर्थ-गरम जल के साथ कूठ के चूर्ण में मिश्री मिलायके एक तोले के प्रमाण पीवे. अथवा सहत में मिलायके हरड देवे तो कामलारोग नष्ट होवे ॥
कुंभकामलानिदान
कालांतरात्खरीभूता कृच्छ्रास्यात्कुंभकामला॥
अर्थ-बहुत काल से पुरानी पड़ने से जो कुंभकामला होवे सो कृच्छ्रसाध्य होती है. कुम्भ कहिये कोष्ठ तद्गत जो कामला अर्थात् कोष्ठाश्रय कामला ॥
कामलाका असाध्य लक्षण
कृष्णपीतशकृन्मूत्रो भृशं शूनश्च मानवः ।
सरक्ताक्षिमुखच्छर्दिविण्मूत्रो यश्च ताम्यति॥
अर्थ-जिसमनुष्य का मल काला और मूत्र पीला हो और शरीरपर सूजन विशेष होवे और नेत्र, मुख, वमन, मल और मूत्र ये अत्यंत लाल होयमोह होयवो कामलावान रोगी बचे नहीं॥
दूसरा प्रकार
दाहारुचितृडानाहतंद्वामाहेसमान्वितः ।
नष्टाग्निसंज्ञः क्षिप्रं हि कामलावान्विपद्यते ॥
अर्थ-दाह, अरुचि, प्यास, अफरा, तंद्रा, मोह इन लक्षणयुक्त तथा मन्दाग्निऔर विस्मृतिवान् कामलावाला रोगी तत्काल मरे॥
कुंभकामलाका असाध्य लक्षण
छर्द्यरोचकहृल्लासज्वरल्कमनिपीडितः।
नश्यति श्वासकासार्तो विड्भेदी कुंभकामली॥
अर्थ-वमन, अरुचि, ओकारी का आना, ज्वर, अनायासश्रम इन से पीडित तथा श्वास, खांसी इन से जर्जरित और अतिसारयुक्त ऐसा कुम्भकामलावाला रोगी मर जावे ॥
कुंभकामलाचिकित्साक्रम
कुंभाख्यकामलायां तु हितः कामलको विधिः॥
अर्थ-कुंभकामलारोग में जो चिकित्सा कामलारोग में कही है वो करना हित है. अर्थात् वो कुंभकामलारोग को दूर करती है ॥
शिलाजीतयोग
गोमूत्रेण पिबेत्कुंभकामलायां शिलाजतु ॥
अर्थ-गोमूत्र के साथ शिलाजीत को मिलायके पीवे तो कुंभकामलारोग नष्ट होवे॥
मंडूर
दग्ध्वाक्षकाष्ठैर्मलमायसं तु गोमूत्रनिर्बाधितमष्टवारान् ।
विचूर्ण्य लीढं मधुना चिरेण कुंभाह्वयं पांडुगदं निहंति॥
अर्थ-बहेडे के काष्ठ में लोहे की कीटी को फूंक देवे. जब लाल हो जावे तबनिकालके गोमूत्र में बुझाय दे इस प्रकार आठवार करे.फिर उस को बारीक पीस दो अथवा तीन रत्ती के अनुमान सहत के साथ चाटे तो कुंभकामला का शीघ्र ही नाश करे ॥
नस्यादियोग
अर्कमूलं हरेन्नस्यात्कामलां तंदुलोदकं।एरंडमूलिका पीता मधुना हंति कामलां ॥ अपामार्गशिफा पीता सतक्राकामलापहा । विष्णुक्रांतशिफा तक्रपीता वा तद्विनाशिनी ॥ लांगलीपत्रचूर्णं वा पिबेत्तक्रेणकामली। गुडार्द्रकयुतं हंति कामलां त्रिफलाशिता॥
अर्थ-कामला (वा कुंभकामला) पर आक की जड को चावलों के घोंवन में पीसकेनस्य करे और अंड की जड़ का चूर्ण सहत में मिलाय खाने को देवे, तथा आंगा की जड को छाछ में औटायके देवे तथा कोयलजड पीसके छाछ में मिलायके देवे अथवा कलियारी के पत्तों का चूर्ण छाछ में मिलायके देवे.अथवा त्रिफला
के चूर्ण को गुड और अदरख में मिलायके देवे तो कामलारोग नाश होवे ये छःयोग कहे हैं ॥
पांडुरोग में कबहलीमक होता है
यदा तु पांडुवर्णः स्याद्धरितस्यावपीतकः। बलोत्साहक्षयस्तंद्रा मंदाग्नित्वं मृदुज्वरः ॥ स्त्रीष्वहर्षोङ्गमर्दश्च दाहस्तृष्णासचिर्भ्रमः । हलीमकं तदा तस्य विद्यादनिलपित्ततः॥
अर्थ-जिस समय पांडुरोगी का वर्ण हरा, काला, पीला होय और बल व उत्साह इन का नाश, तंद्रा, मन्दाग्नि, महीनज्वर, स्त्रीसंभोग की इच्छा का नाश, अंगों का टूटना, दाह, प्यास, अन्न मे अप्रीति और भ्रम ये उपद्रव वातपित्त से प्रगट हलीमक रोग के हैं ॥
पानकीलक्षण
संतापो भिन्नवर्चस्त्वं बहिरंतश्च पीतता।
पांडुता नेत्रयोर्यस्य पानकीलक्षणं भवेत्॥
अर्थ-सन्ताप कहिये इन्द्री मन इन का ताप, मल का पतला होना, भीतर, बाहर पीला हो जावेऔर नेत्रों का पीला होना ये पानकीरोग के लक्षण है॥
हलीमकपरिभाषा
पांडुरोगक्रियां सर्वांयोजयेच्च हलीमके ।
कामलायां तु या दृष्टा सापि कार्या भिषग्वरैः॥
अर्थ-जो यत्न पांडुरोग पर तथा कामलारोग पर कहे है वो दोनों उपचार वैद्य को हलीमकरोग पर करने चाहिये ॥
अयोभस्मयोग
मारितस्यायसश्चूर्णं मुस्ताचूर्णेन संयुतम् ।
खदिरस्य कषायेण पिबेद्धर्तुंहलीमकम् ॥
अर्थ-लोहभस्म और नागरमोथे का चूर्ण ये एकत्र करके सैर के काढेके साथ पिलावे तो हलीमक रोग नष्ट होवे॥
सितादिलेह
सितातिक्ताबलायष्टीत्रिफलारजनीयुगैः ।
लेहं लिह्यात्समध्वाज्यं हलीमकनिवृत्तये॥
अर्थ-मिश्री, कुटकी, खिरेटी, मुलहटी, त्रिफला, हलदी और दारुहलदी इन की अवलेह बनायके सहत और घी डालके चाटे तो हलीमक रोग दूर होवे ॥
अमृतादिघृत
अमृतलतारसकल्कं प्रसाधितुं तुरगविद्विषःसर्पिः।
क्षीरचतुर्गुणमेतद्वितरेच्च हलीमकार्तेभ्यः॥
अर्थ-गिलोय का स्वरस अथवा कल्क इन से सिद्ध करा हुआ भैंस का घी उस में उस से चौगुना दूध मिलायके हलीमकरोगवाले को पिबावे तो यह रोग दूर होवे ॥
गुडूचीस्वरसयोग
गुडूचीस्वरसे सर्पिः सक्षीरं माहिषं घृतम् ।
चतुर्गुणेन पयसा पाययेत्तद्धलीमके ॥
अर्थ-गिलोय का रस, घी और दूध इनको मिलायके पीवे अथवा भैस के घी में चौगुना दूध डालके पीवे तो हलीमकरोग नष्ट होवे ॥
पांडु कामला कुंभकामला हलीमक इन पर पथ्य
छर्दिर्विरेचनं जीर्णा यवगोधूमशालयः। मुद्गाढकीमसूराणां यूषाजांगलजा रसाः॥ पटोलं वृद्धकुष्मांडं तरुणं कदलीफलम्। जीवंतीक्षुरमत्स्याक्षी गुडूची तंदुलीयकम् ॥ पुनर्नवा द्रोणपुष्पी वार्ताकं लशुनद्वयम् । पक्वाभ्रमभया बिंबीशृंगी मत्स्यो गवां जलम् ॥ धात्री तक्रं घृतंतैलं सौवीरकतुषोदकम् । नवनीतं गंधसारो हरिद्रा नागकेसरम् ॥ यवक्षारो लोहभस्म कषायाणि च कुंकुमम् । यथादोषमिदं पथ्यं पांडुरोगवतां नृणाम् ॥
अर्थ-वमन, रेचन, पुराने जों, गेहूं और चावल, मूंग, अरहर, मसूर इन का यूप. जंगली जीवों का मांसरस, परवर, पुराना पेठा, नवीन केला की फली, जीवंति (डोडी), कालाईख, ( तालमखाना), मछेली, गिलोय, चौलाई, पुनर्नवा(सांठ), द्रोणपुष्पी(गोंमा), बैंगन, दोनों लहसन (प्याज और एक पोतिया उसन), पका हुआ आप, हरड, बिंबी(कंदूरी ), शृंगीनामक अर्थात् सींगवाली मछली, गोमूत्र, आंवले, छाछ, घृत, तेल, कांजी, तुपोदक, मक्खन, मलयागिरिचंदन, हलदी, नागकेशर, जवाखार, लोहे की भस्म (शीशे की भम्म ), कषेले रस, केशर ये सब पांडुरोग में दोषों के अनुसार मनुष्यों को पथ्य देना॥
अपथ्य
रक्तस्रुतिर्धूमपानं वमिवेगविधारणम् । स्वेदनं मैथुनं शिंबीपत्रशाकानि रामठम् ॥ मापोंबुपानं पिण्याकं तांबूलं सर्षपं सुरा । सर्वाण्यम्लानि दुष्टानि विरुद्धाध्यशनानि च । गुर्वन्नं च विदाहीनि पांडुरोगवतां विषम् ॥
अर्थ-रुधिर का निकालना, धूमपान, वमन, मलमूत्रादि वेगों का धारण, स्वेदनकर्म, मैथुन करना, सेम ( फली) और पत्ते का शाक, हींग, उडद, जलपान, खल, नागरवेल के पान, सरसों, दारु, सर्व प्रकार के खट्टे रस, पुष्ट अन्न, विरुद्ध भोजन, अध्यशन ( भोजन के ऊपर तत्काल भोजन), भारी अन्न और दाह करता अन्न ये पांडुरोगवाले को विषके सदृश अपथ्य हैं ॥
पांडुरोगपर दंभ
दाहश्चरणयोः संधौ नाभेर्द्व्यंगुलकादधः ।
मस्तके हस्तयोर्मूले मध्ये च स्तनकुक्षयोः॥
अर्थ-पांडुरोगवाले रोगी के दोनों पैरों की संधिपर और नाभी के नीचे दो अंगुल पर तथा मस्तक, स्तन और कूख इन में डाग देवे ॥
कामलापर दंभ
कामलेषु करपृष्ठविभागे दंभयेद्रविशलाकयैव ।
कूर्परार्धमितमध्यप्रदेशे द्रावितं द्रवति निश्चयेन रोगः॥
अर्थ-कामलारोग में हाथों के पिछाडी पहुँचे के नीचे तथा पहुँचे के आधे भाग मेंअर्थात् कलाई में तामे की पट्टी से दाग देवे तथा उस को वहने देवे तो निश्चय कामला, कुंभकामला, हलीमकादि रोग नष्ट होवें॥
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रक्तपित्तिकर्मविपाकः।
मद्यपो रक्तपित्ती स्यात्स दद्यात्सर्पिषोघटम् ।
मधुनोर्धघटं चैव सहिरण्यं विशुद्धये॥
अर्थ-जो प्राणी पूर्वजन्म मे मद्य पीता (दारु पीता) है वो इस जन्म में रक्त-
पित्तरोगी होता है उस को घी गगरीभर और सहत से दूसरा आधा घडा भरके उस घी के घडे पर रख. उस को सुवर्ण युक्त दान करे तो रक्तपित्तरोग शांत होवे ॥
ज्योतिःशास्त्राभिप्राय
चंद्रक्षेत्रे यदा भौमो जायते मनुजस्तदा ।
रक्तपित्तेन दुर्नाम्नोनानाव्याधिसमाकुलः॥
अर्थ-जिस के जन्मलग्नमें चन्द्रमा के क्षेत्र में मंगल बैठा होवे तो रक्तपित्त और बवासीर ऐसी अनेक व्याधि करके युक्त होता है॥
दूसरा प्रकार
रक्तपित्तं ज्वरं दाहमग्निवाय्वोरुपद्रवम् । लभते नात्र संदेहश्चंद्रमध्ये यदा अजः ॥ भौममंत्रजपः कार्योहोमः खादिरजैस्तिलैः। घृतेन च समायुक्तं दानं रक्तवृषस्य च ॥
अर्थ-चंद्रमा की दशा में भौम के आने से रक्तपित्त, ज्वर, दाह, वादी इन उपद्रवों कोकरे. उस दोष के दूर करने को मंगल का जप करे और खैर की समिधा, तिल, घी इन का होम करे तथा लाल वैल का दान करे ॥
ज्योतिःशास्त्रोक्तचिकित्सा
बिल्वचंदनबलाशणपुष्पैर्हिंगुलूकफलिनीवकुलैश्च ।
स्नानमद्भिरिदमग्नियुताभिर्भौमदोषविनिवारणमाशु ॥
अर्थ-बेलफल, चंदन, खिरेटी, सन, हींगलु, कठूमर, मौरसिरी के फल इन एदार्थों को डालके पानी औटावे फिर इस जल से रोगी को न्हिलावे तो चंद्रमा के स्थान में स्थित भौमदोष की शांति होय ॥
रक्तपित्तनिदान
घर्मव्यायामशोकाध्वव्यवायैरतिसेवितैः। तीक्ष्णोष्णक्षारलवणैरम्लैःकटुभिरेव च ॥ पित्तं विदग्धं स्वगुणैर्विदह-त्याशु शोणितम् । ततः प्रवर्तते रक्तमूर्ध्वंचाधो द्विधापि वा ॥ ऊर्ध्वंनासाक्षिकर्णास्यैर्मेढ्रयोनिगुदैरधः । कुपितं रोमकूपैश्च समस्तैस्तत्मवर्तते ॥
अर्थ-धूप में बहुत डोलने से, अति परिश्रम करने से, शोक से, बहुत मार्ग चलने से, अतिमैथुन करने से, मिरच आदि तीखीवस्तु खानेसे, अग्नि के तपने से
जवाखार आदि खारे पदार्थ, नोन से आदि ले लवण के पदार्थ, खट्टी, कडुवी ऐसी वस्तु के खाने से कोप को प्राप्त भया जो पित्त सो अपने तीक्ष्ण द्रव पूति इत्यादि गुणों से रुधिर को बिगाडे तबरुधिर ऊपर के अथवा नीचे के मार्ग अथवा दोनों मार्ग होकर प्रवृत्त हो (निकले). ऊपर के मार्ग नाक, कान, नेत्र, मुख इन के द्वारा निकले और अधोमार्ग कहिये लिंग, गुदा और योनि इन के रास्ते होकर निकले और जब रुधिर अत्यंत कुपित होय तब दोनों मार्ग और सब रोमांचों से निकले है ॥
पूर्वरूपलक्षण
सदनं शीतकामित्वं कंठधूमायनं वमिः ।
लोहगंधिंश्च निःश्वासो भवत्यस्मिन्भविष्यति॥
अर्थ-ग्लानि, शीतकी इच्छा, कंठसे धुआं निकलना, वमन और तपाये भये लोहपर जल गेरने से जैसी गंध आवे ऐसी श्वास लेने से गंध का आना, जिस मनुष्यमें इतने लक्षण मिलते होंयउस के जानना कि इस के रक्तपित्त प्रगट होवेगा ॥
असाध्य लक्षण
मांसप्रक्षालनाभं क्वथितमिव च यत्कर्दमांभोनिभं च मेदः पूयास्रकल्पं यकृदिव यदि वा पक्वजंबूफलाभम् । यत्कृष्णं यच्च नीलं भृशमतिकुणपं यत्र चोक्ता विकारास्तद्वर्ज्यंरक्तपित्तं सुरपतिधनुषायच्च तुल्यं विभाति॥
अर्थ-जो रक्तपित्त मांस धोये हुए जल के समान हो अथवा सडे पानी के समान अथवा कीच के समान, अथवा जल के समान, उसी प्रकार मेद राध रुधिर इन के समान, अथवा कलेजे के टुकडे के समान, अथवा पकी जामन के समान, किंवा काले रंग का किंवानील कहिये पपैया पक्षी के पंख के समान अथवा जिस में मेरखठ मलकिसी वास आवे और जिस में पूर्वोक्त कहे श्वासकासादि विकारयुक्त हों ऐसा रक्तपित्त वर्जित है और जो रक्तपित्त इन्द्रधनुष के वर्णसमान रंग हो तो भी त्याज्य है अर्थात् ऐसे रक्तपित्त का वैद्य चिकित्सा न करे ॥
वातरक्तपित्तनिदान
श्वावारुणं सफेनं च तनु रूक्षं च वातकम् ॥
अर्थ-नीला वर्ण, लाल वर्ण, कुछ झागयुक्त, पतला और रूखा ऐसा रक्तपितवात का जानना ॥
भोजन
शालिषष्टिकनीवारचणमुद्गामसूरकाः।
श्यामाकाश्च प्रियंगुश्च भोजनं रक्तपित्तजाम् ॥
अर्थ-सांठी चावल, समा, पसाई, चना, मूंग, मसूर, सामखिया और प्रियंगू इतने धान्य रक्तपित्तवाले रोगी को भोजन करने को देवे ॥
रक्तपित्तशास्त्रार्थ
अतिप्रवृद्धदोषस्य पूर्वं लोहितपित्तिनः ।
अक्षीणबलमांसाग्नेःकर्त्तव्यमपतर्पणम् ॥
अर्थ-जिस के दोष अत्यंत बढे रहे हो, तथा बल, मांस और जठराग्नि क्षीण न हुई हो उस रोगी का यत्न वैद्य को करना चाहिये ॥
ऊर्ध्वगे रेचनं शस्तमधोगे वमनं हितम् ॥
अर्थ-ऊपर होके जानेवाले रक्तपित्त में दस्त कराने और अधोगामी अर्थात् नीचे होकर जानेवाले रक्तपित्त में वमन करना चाहिये ॥
पित्तास्त्रं शमयेन्नादौ प्रवृत्तं बलिनः सुतम् ।
हृत्पांडुग्रहणीरोगप्लीहगुल्मोदरादिकृत् ॥
अर्थ-बली पुरुष के रक्तपित्त को प्रथम ही बंद न करे यदि ऐसे मनुष्य का रोग होते ही रुधिर बंदकर दिया जावे तो हृदयरोग, पांडु, संग्रहणी, प्लीहा, गोला और उदर ( जलंधर ) ये रोग उत्पन्न होवें ॥
क्षीणमांसबलं बालं वृद्धं शोषानुबंधिनम् ।
अवाम्यमविरेच्यं च शमनीयैरुपाचरेत् ॥
अर्थ-जिस का मांस और बलक्षीण है तथा जो बाल तथा वृद्ध तथा जिस के शोषरोग का उपद्रव होवे तथा जो वमन अथवा विरेचनयोग्य नहीं है ॥
शालिपर्ण्यादिना सिद्धो पेयो यूपस्त्वधोगते ।
रक्तातिसारहंता च योज्यो विधिरशेषतः॥
अर्थ-अधोगत रक्तपित्तपर सालवण इत्यादि औषधों से सिद्ध करा हुआमंड पिलावे रक्तातिसार पर सबउपचार करने चाहिये ॥
पयांसि शीतानि रसाश्च जांगलाः सतीनयूपाश्च सशालिपष्टिकाः।
हितानि चैतानि सरक्तपित्ते चान्यान्यपि स्युः किल पित्तहानि॥
अर्थ-रक्तपित्त पर शीतल दूध, जंगली जीवों का मांसरस, सांठी चावलों का मंड हितकारी कहा है. तथा जितनी पित्तशांति करनेवाली वस्तु हैं वह सब रक्तपित्तपर हित करनेवाली जाननी ॥
मसूरमुद्गचणकाः समकुष्टाढकीफलाः ।
प्रशस्ताः सूपयूपार्थे कल्किता रक्तपित्तिनाम् ॥
अर्थ-रक्तपित्तवाले मनुष्य को मसूर, मूंग, चना, मोंठ और अरहर इन की दाल अथवा इन का मंड बनाने के लिये उत्तम है॥
दाडिमामलकं बिल्वानम्लाथै चापि दापयेत् ॥
अर्थ-रक्तपित्तवाले मनुष्य को खटाई देनी होवे तो अनारदाना, आवलेऔर बेलफल ये देवे॥
पटोला निंबवेत्राग्रप्लक्षवेत्तसपल्लवाः ।
शाकार्थंशाककामानां तंडलीयादयो हिताः॥
अर्थ-रक्तपित्तवाले रोगी को शाक (तरकारी ) खाने की इच्छा होवे तो परवल, नीम, वेत की कोपल तथा जलवेतस, पाखर के पत्ते अथवा चोलाई इन की तरकारी हितकारक है ॥
रक्तपित्तादिकपर कामदेवघृत
अश्वगंधा तुलैका स्यात्तदर्धोगोक्षुरः स्मृतः। बलामृता शालिपर्णी विदारी च शतावरी ॥ पुनर्नवाश्वत्थशुंठी काश्मर्यास्तु फलान्यपि । पद्मबीजं माषबीजं दद्याद्दशपलं पृथक् ॥ चतुद्रोणांभसा पक्त्वा पादशेषंशृतं नयेत् । जीवनीयगणः कुष्ठंपद्मकं रक्तचंदनम् ॥ पत्रकं पिप्पली द्राक्षा कपिकच्छूफलं तथा। नीलोत्पलं नागपुष्पं सारिवेद्वेबले तथा ॥ पृथक् कर्षसमाभागाः शर्करायाः पलद्वयम् । रसश्च पौंड्रकेक्षूणामाढकैकं समाहरेत् ॥ घृतस्य चाढकं दत्त्वा पाचयेन्मृदुनाग्निना। घृतमेतन्निहंत्याशु रक्तपित्तमुरःक्षतम् ॥ हलीमकं पांडुरोगं वर्णभेदं स्वरक्षयम् । वातरक्तं मूत्रकृछ्रंपार्श्वशूलं च कामलाम् ॥ शुक्रक्षयमुरोदाहंकार्श्यमोजःक्षयं तथा । स्त्रीणां चैवाग्रजातानां गर्भदं शुक्रदं नृणाम् ॥ कामदेवघृतं नाम हृद्यं बल्यं रसायनम्॥
अर्थ-असंगंध १०० पल, गोखरू ५० पल, खिरेटी की जड, गिलोय, शालपर्णी, विदारीकंद, शतावर, पुनर्नवा, पीपल वृक्ष की मूल, सोंठ, कंभारी के फल, कमलगट्टा और उडद ये ग्यारह औषध दश दश पल लेवे जब कूट करके सब को एकत्र करके इस में कल्क बनाकर डालने की औषध इस प्रकार हैं. मुलहटी, विदारीकंद, असगंध, मुद्गपर्णी; माषपर्णी यह जीवनीय गण है. कूठ, पद्माख, लालचंदन, पत्रज, पीपल, दाख, कौंच के बीज, नीला कमल, नागकेशर, गौरीशर, कालीशर, बला, नागबला ये वीस औषधएक एक कर्षलेवे सब का कल्क करके काढे में डाल देवे. फिर उस काढे में खांड दो पल डाले. एवं सपेद ईखका रस और घीये दोनों एक २ आढक मिलाने चाहिये फिर उस काढेको चूल्हे पर चढाय मंद २ अग्निसे पचायके घृत शेष रखे. इस को छानके उत्तम चीनी अथवा अमृतवान आदि उत्तम पात्र में भरके धररखे. इस घृत के सेवन करने से रक्तपित्त, उरःक्षतरोग, पांडुरोग का भेद हलीमकरोग, स्वरभंग, वातरक्त, मूत्रकृच्छ्र, पीठ का शूल, नेत्रों में कामला होता है वह, धातुक्षय, उर में जो रोग होता है वह, देह की कृशता, शरीर के तेज का क्षय ये संपूर्ण रोग दूर होवें. यह घीजिस स्त्री के संतान नहीं होती उस को संतान देता है. तथा पुरुषों के धातु उत्पन्न करे है. हृदय को हितकारी है तथा बल देता है. यह कामदेवघृतरसायन है अर्थात् रोगऔर बुढापे का नाश करनेवाला है ॥
दूर्वादिघृत
दूर्वामुत्पलकिंजल्कं मंजिष्ठांचैलवालुकम् । शिवां लोध्रमुशीरं च मुस्ताचंदनपद्मकैः॥ विपचेत्कार्षिकैः कल्कैर्घृतप्रस्थं सुखाग्निना। तंदुलांबुमजाक्षीरं दत्त्वा चैव चतुर्गुणम् ॥ तत्पानाद्वमतो रक्तं नावनान्नासिकागतम् । कर्णाभ्यां यस्य गच्छेच्च तस्य कर्णौप्रपूरयेत् ॥ चक्षुस्त्राविणि रक्ते च पूरयेत्तेन चक्षुषी। मेढ्रपायुप्रवृत्तेषु बस्तिकर्म प्रकारयेत् ॥ रोमकूपे प्रवृत्ते च तदभ्यंगे प्रयोजयेत् । सर्वेषु रक्तपित्तेषु तस्माच्छ्रेष्ठमिदं घृतम् ॥
अर्थ-दूब, कमल की केशर, मजीठ, नेत्रवाला, हरड, लोध पठानी, खस, नागरमोथा, चंदन और पद्माखये प्रत्येक तोला २ लेवे इन का कल्क और घी६४ तोले। तथा चावलोंका धोवन, बकरी का दूध ये चौगुने डालके मंदाग्निसे पचन करावे.जबघृत मात्र शेषरहे तबउतारके छान लेवे इस के खानेसे रुधिर की उलटी, नाक से रुधिर का गिरना, कान से निकलनेवाला रुधिर, नेत्र से गिरनेवाला
रुधिर तथा स्त्री की भग, लिंग, गुदा इन से निकलनेवाला रुधिर इन पर तथासमस्त रोमकूपों से जानेवाला रुधिर इन पर इस की मालिस करे. उलटीवाले को पिलावेऔर कान नाक से जाय तो काननाक में इस को डाले और लिंग-गुदा से जाताहोवे तो बस्ति कर्म करावे. यह सर्व रक्तपित्त विकारों पर देना श्रेष्ठकहा है ॥
शतावर्यादिपेय
शतावरी बला रास्ना काश्मर्यंसपरूपकम् ।
पाययेद्रक्तपित्तघ्नं सद्यः शूलहरं परम्॥
अर्थ-शतावरी, बला, रास्ना, कंभारी और फालसे इन का काढा करके पीवे तो रक्तपित्त का नाश करके शूल का भी नाश करे है ॥
पैत्तिकरक्तपित्तनिदान
रक्तपित्तं कषायाभं कृष्णं गोमूत्रसन्निभम् ।
मेचकांगारधूमाभमंजनाभं च षैत्तिकम् ॥
अर्थ-जो रक्तपित्त काढेके रंगसमान हो काला गौ के सूत्रसमान हो अथवा मोर की चन्द्रिका के समान नीलवर्ण होय अर्थात्बैजनी रंग के सदृश होय घर के धूभां के सुर्मा के समान होय ये रक्तपित्त के लक्षण है. शंका-क्यौंजी केवल पैत्तिक रक्तपित्त नहीं हो सके है कारण इसका यह है कि जैसे कफ के रक्तपित्त का मार्ग कहा है इस प्रकार पित्त के रक्तपित्त का नहीं कहा ? उत्तर-तुम ने कहा सो ठीक है परंतु यह मार्ग जो कहा है सो वातकफ के लक्षण प्रति नहीं कहा है ॥
त्रिफलादिकाढा
त्रिफलाकृतमालभवं क्वथनं सितया मधुना मिलितं हरति ।
ननु शोणितपित्तरुजं विविधाघनदाहकपित्तशुलहरम् ॥
अर्थ-हरड, बहेडा, आंवला और अमलतास का गूदा इन का काटा कर उस में खांडऔर सहत मिलायकेपीवे तो अनेक प्रकार के रक्तपित्त, दाह और पित्तशूल इन को नष्ट करे॥
अतस्यादिकाढा
अतसीकुसुमसमंगा वटप्ररोहास्तृणांभसा पीताः।
साधयंति रक्तपित्तं यदि भुंक्ते मुद्गयूपेण ॥
अर्थ-अलसी के फूल, मजीठ, बड की कोंपल और रोहिसतृण इन का काढापीवेऔर इस पर मूंग के यूप के साथ भात खायतो रक्तपित्त का नाश करे ॥
वासादिलेह
वासकस्वरसैः पथ्या सप्तधा परिभाविता।
कृष्णा वा मधुना लीढारक्तपित्तं द्रुतं जयेत् ॥
अर्थ-अडूसे के रस की सात भावना दीनी हुई हरड सेवन करने से रक्तपित्त दूर होवे अथवा पीपल के चूर्ण को सहत में मिलायके चाटे तो रक्तपित्त का नाश होवे॥
कूष्मांडकावलेह रक्तपित्तादिकों पर
निष्कुलीकृतकूष्मांडखंडं पलशतं पचेत् । निक्षिप्य द्वितुलं नीरमर्धशिष्टं च गृह्यते ॥ तानि कूष्मांडखंडानि पीडयेत् दृढवाससा । आतपे शोषयेत्किंचिच्छूलाग्रैर्बहुशो व्यधेत् ॥ क्षिप्त्वाताम्रकटाहे च दद्यादष्टपलं घृतम् । तेन किंचिद्भर्जयित्वा पूर्वोक्तं तज्जलं क्षिपेत् ॥ खंडापलं शतं दत्त्वा सर्वमेकत्रपाचयेत् । सुपक्वेपिप्पली शुंठी जीरकं द्विपलं पृथक् ॥ पृथक् पलार्धधान्याकं पत्रैलामरिचत्वचम् । चूर्णीकृत्य क्षिपेत्तत्रघृतार्धंक्षौद्रमावहेत्॥ खादेदग्निबलं दृष्ट्वा रक्तपित्ती क्षयी ज्वरी। शोषस्तृषातमश्छर्दिकासश्वासक्षतातुरः॥ कूष्मांडकावलेहोयं बालवृद्धेषु युज्यते । उरःसंधानकृत् वृष्योग्रहणीबलकृन्मतः॥
अर्थ-पुराने पके हुए पेठे की ऊपर की छिलका छीले फिर वनारके उस के बीज दूर कर टुकड़े कर १०० पल लेवे. इस को प्रथम चूने के पानी में गेरके शुद्ध कर लेवे फिर दो तुला (२०० पल) जल में गेरके औटावेजब आधा जल रहे तब उतारके जल को छान लेवे.औरउसजल को अलग धर रखे और उन पेठे के कतलान को मजबूत कपड़े में बांधके निचोड लेवे. फिर उन टुकड़ों को किंचित् धूप देकर छेदने के कांटे से खूब छेद लेवे. फिर तांबे के कलईदार पात्र में ८ पल घी डालके उन टुकड़ों को डाल आंच पर रखके भून लेवेफिर पूर्वोक्त पेठे से निकाले हुए जल को कढाई में चढायके मिश्री २०० पल गेरके दुतारी चासनी करे. फिर इस में वर्ण डालने की औषधइस प्रकार लेवे. पीपल, सोंठ, जीरा ये तीनों औषध दो दो पल तथा धनियां, पत्रज, इलायची, काली मिरच, दालचीनी ये पांच औषध दो दो तोले लेवे सब को एकत्र चूर्णकर प्रथमपेठे के टुकडे डाले फिर इस
चूर्ण को डालके सब को एक जीव कर देवे इस में सहत चार पल डाले. इस को कूष्मांडावलेह कहते हैं यह अवलेह रोगीकी शक्ति और अग्निका बलाबल विचारके देवे तो रक्तपित्त, क्षय, ज्वर, शोष, प्यास, नेत्रों के सामने अंधेरी का आना, वमन, २ श्वास, खांसी, उरःक्षत ये रोग दूर हों. यह अवलेह बालकों को तथा वृद्धों को उपयोगी होता है. तथा हृदय में अन्न का रस आता है उस का साधक होता है तथा स्त्रीसंग करने की इच्छा उत्पन्न करे. तथा धातुवृद्धि करे और बल देता है ॥
कफयुक्त रक्तपित्तनिदान
सांद्रं सपांडु सस्नेहं पिच्छलं च कफान्वितम् ॥
अर्थ-सघन कुछ पीला और कुछ चिकना तथा गाढा ऐसा रक्तपित्त कफमिश्रित जानना ॥
अभयाभक्षण
अभया मधुसंयुक्ता पाचनी दीपनी मता ।
श्लेष्माणं रक्तपित्तं च हंति शूलातिसारजित् ॥
अर्थ-हरड का चूर्ण कर सहत के साथ सेवन करने से पाचक, दीपक और कफ, रक्त तथा पित्त इन का नाशक शूल, अतिसार इन के जीतनेवाली है॥
कफवायु के संबंध से रक्त का प्रवर्त्तनमार्ग
ऊर्ध्वगं कफसंसृष्टमधोगं मारुतानुगम् ॥
अर्थ-ऊपर के मार्ग से कफ का और नीचे के मार्ग होकर वात का रक्तपित्त जानना ॥
आज्यपान
शृतेनाज्येन पयसा सुपिष्टं कुंकुमं भवेत् ।
ऊर्ध्वरक्तविनाशाय तेनैवाज्येन भोजनम् ॥
अर्थ-बकरी के दूध में केशर मिलायके पीवे औरबकरीके दूध के वा घीके साथ भात भोजन करे तो ऊर्ध्वगत रक्तपित्त बंद होवे ॥
ह्रीबेरादिजल
ह्रीबेरचंदनोशीरं मुस्तपर्पटकैः शृतम् ।
केवलं शृतशीतं वा दद्यात्तोयं पिपासिते ॥
अर्थ-नेत्रवाला, चंदन, खस, नागरमोथा और पित्तपापडा इन का काढा अथवा इन का चाह के सदृश जल उतारके शीतल करके पीने को देवेतो तृषा दूर होवे॥
मृद्वीकादिगुटी
लोहगंधनिभश्वासे डकारे रक्तगंधिनि ।
मृद्वीकोषणमात्रात्तु खादेद् द्विगुणशर्कराम् ॥
अर्थ-जिस रक्तपित्तवाले की श्वास में गरम लोह पर जल छिडकने से जैसी दुर्गंधआती है और डकार में रुधिरकीसी दुर्गंध आवे उस पर गोस्तनी दाख, मिरच इन से दुगुनी खांड डालके गोली बनावे और भक्षण करे तो पूर्वोक्त रक्तपित्त के उपद्रव नहीं होवे ॥
पारावतादियूष
पारावतकपोतांश्च लावान् रक्ताक्षवर्तकान् ।
शशान्कपिंजलानेणान्हरिणाकालपुच्छकान् ॥
रक्तपित्तहरान्विद्याद्रसं तेषांप्रयोजयेत् ॥
अर्थ-परेवा, कपोत (पिंडुकिया), लवा, खबूतरतथा बटेर ये पक्षी और ससा, सपेद तीतर, काला हरिण, दुंवा ये पशु रक्तपित्तनाशक हैं इसवास्ते इन के मांस का रस तयार करके पीवे ॥
घृतसैंधवयोग
ईषदम्लाननम्लांश्च घृतभ्रष्टान् ससैंधवान् ।
कफानुगे यूपशाकं दद्याद्वातानुगे रसम्॥
अर्थ-कफजन्य रक्तपित्त पर कुछ खट्टे किंवा मीठे पदार्थ घी में भून सेंधेनिमक मिलायके देवे. किंवा यूप तथा शाक देवे. यदि वातानुबंध होवे तो उस को मांसरस देवे ॥
पथ्य और जलपान
पथ्यं सतीनयूषेणससितैर्लाजसक्तुभिः ।
जलं खर्जूरमृद्धीकामधुकैः सपरूपकैः ॥
अर्थ-मटर का यूप, खील, सत्तू और खांडये पथ्यमें देवे. तथा खजूर, दाख, मुलहटी और फालसे इन का काढा कर छान लेवे और शीतल करके यह जल पीने को देवे ॥
द्वंद्वजसन्निपातरक्तपित्तनिदान
संसृष्टलिंगं संसर्गात्त्रिलिंगं सान्निपातिकम् ॥
अर्थ-दो दोष के मिलने से जो रक्तपित्त होय है उस में दोनों दोषों के लक्षण मिलने से द्विदोषज जानना और जिस में तीनों दोषों के लक्षण मिलते हों उस को सन्निपात का रक्तपित्त जानना ॥
असाध्यरक्तपित्तलक्षण
द्विमार्गं कफवाताभ्यामुभाभ्यामनुवर्तते। ऊर्ध्वंसाध्यमधो याप्यमसाध्यं युगपद्गतम् ॥ एकमार्गं बलवतो नातिवेगं नवोत्थितम् । रक्तपित्तं सुखे काले साध्यं स्यान्निरुपद्रवम् ॥ एकदोषानुगं साध्यं द्विदोषंयाप्यमुच्यते । त्रिदोषजमसाध्यं स्यान्मंदाग्नेरतिवेगितम्॥
अर्थ-दोनों मार्ग से जो रत्तपित्त निकले सो वात और पित्त इन दोषोंसे प्रगट भयाजानना. ऊपर के मार्ग से लोही निकले सो साध्य है ( क्योंकि कफ से प्रगट है सो कफके रक्तपित्त में क्वाथ तीखे रस कफ पित्त के हरण कर्त्ता होते हैं ) और नीचे के मार्गसे जिस में रुधिर गिरे सो याप्य ( साध्यासाध्य ) है. [ इस का कारण यह है किपित्त के हरण में विरेचन मुख्य है और इस पर वातपित्त शमन करनेवाला मधुर रस प्रधानहै वमन देने से विरुद्धमार्गी होय है अर्थात् वेगमात्र का अवरोधक है. परंतुपित्त का हरण करनेवाला नहीं है ] और दोनों मार्ग से गिरनेवाला रक्तपित्त असाध्य है. कारण इस पर विरुद्ध चिकित्सा करनी पड़ती है. बलवान् पुरुषके एकमार्ग ( अर्थात् ऊपर के मार्ग ) से जाता होय अति वेग नहीं होवे नवीन प्रगट भयाहोय, और हेमन्त शिशिर काल में प्रगट भया हो और दुर्बलता आदि उपद्रव रहितहोय, ऐसा रक्तपित्त साध्य होय है. एक दोष का रक्तपित्त साध्य है द्विदोष कायाप्य है और तीनों दोषोंका असाध्य है. मन्दाग्नि अतिवेग से होय है ॥
असाध्यलक्षण
व्याधिभिः क्षीणदेहस्य वृद्धस्यानश्नतश्च यत् ॥
अर्थ-रोग से क्षीण देहवाले का बूढे मनुष्य के और जिस का आहार थक गया होय से मनुष्य के रक्तपित्त असाध्य होय है ॥
रक्तपित्त के उपद्रव
दौर्बल्यं श्वासकासज्वरवमथुमदाः पांडुतादाहमूर्छाभुक्ते घोरो विदाहस्त्वधृतिरपि सदा हृद्यतुल्या च पीडा । तृष्णा कोष्ठस्य भेदः शिरसि च तपनं पूतिनिष्ठीवनत्वं भक्तद्वेषाविपाकौविकृतिरपि भवेद्रक्तपित्तोपसर्गाः॥
अर्थ-अशक्तता, श्वास, खांसी, ज्वर, वमन, धतूरे के फूल,खाने से जैसी अवस्था होय ऐसी अवस्था, शरीर का पीला वर्ण हो जावे, दाह, मूर्च्छा, अन्न खाने से अत्यंत दाह होय, अधीरजपना, सर्व काल हृदय में विलक्षण पीडा, प्यास, कोष्ठभेद ( अर्थात् मल पतला होय ), मस्तक में पीडा, दुर्गंधयुक्त थूकना, अन्न में अरुचि, आहार का परिपाक न होना, ये रक्तपित्त के उपद्रव हैं और उसी प्रकार उस रक्तपित्त की विकृति भी होय है ॥
असाध्यलक्षण
येन चोपहतो रक्तं रक्तपित्तेन मानवः । पश्येदृश्यं वियच्चापि तच्चासाध्यमसंशयम् ॥ लोहितं छर्दयेद्यस्तु बहुशो लोहितेक्षणः । लोहितोद्गारदर्शी च म्रियते रक्तपैत्तिकः॥
अर्थ-जिस रक्तपित्त ने मनुष्य को ग्रस लिया होय वो दृश्य कहिये घटपटादि और अदृस्यकहिये आकाश इन को रक्तवर्ण का देखे वो रोगी निःसन्देह असाध्य जानना. जो वारंवार रुधिर की वमन करे और जिस के लाल नेत्र होय तथा डकार भी लाल आवे सो रक्तपित्तवाला रोगी मर जावे ॥
वृषादिस्वरस
वृषपत्राणि निष्पीड्य रसं समधुशर्करम् ।
अनेन प्रशमं याति रक्तपित्तं सुदारुणम् ॥
अर्थ-अडूसे के स्वरस में सहत और मिश्री मिलायके पावे तो भयंकर भी रक्तपित्तरोग दूर होवे ॥
मातुलिंग्यादि पेय
मूलानि पुष्पाणि च मातुलिंग्याः समं पिबेत्तंदुलधावनेन ।
घ्राणप्रवृत्ते जलमाशु देयं सशर्करं नासिकयोः पयो वा॥
अर्थ-बिजोरे की जड और फूल को चावल के घोवन में पीसके पीवे. अथवा बिजोरे की जड का वाफूल का रस निकाल उस में मिश्री किंवा दूध डालके नाक में डाले तो नाक से रुधिर का गिरना बंद हो॥
उदुंबरादियोग
उदुंबराणि पक्वानिगुडेन मधुनापि वा।
उपभुक्तानि निघ्नंति नासारक्तं नृणां ध्रुवम् ॥
अर्थ-गूलर के पके हुए फलों को बराबरके गुड में मिलायके खाय तो नाक से रुधिर का गिरना बंद होय॥
अश्वत्थपत्रयोग
अश्वत्थपत्राग्ररसात् षडंशो बोलोथ तस्माद् द्विगुणं मधु स्यात् ।
रक्तप्रवाहं हृदयस्थितं वा वातो यथाभ्रंहरते तथैव ॥
अर्थ-पीपल के पत्तों के अग्रभाग का रस एक भाग और रक्तबोल छः भाग इस का दुगना सहतले सबको एकत्र करके पीवे तो रुधिर का प्रवाह तथा हृदय में संचित रुधिर को दूर करे जैसे पवन बादलों को नष्ट करें है ॥
चित्रकचूर्णयोग
जयेन्नासाश्रितं रक्तं लीढं वा क्षौद्रपावकम् ॥
अर्थ-सहत के साथ चित्रक के चूर्ण को चाटे तो नाक से रुधिर का जाना बंद होवे ॥
गंधकादिप्राशन
गंधं सूतं माक्षिकं लोहचूर्णं सर्वं घृष्टं त्रैफलेनोदकेन ।
लौहे पात्रे गोपयसा च धृत्वा रात्रौ दद्याद्रक्तपित्तप्रशांत्यै॥
अर्थ-गंधक, पारा, सुवर्णमाक्षिकभस्म, लोहभस्म, सब को एकत्र करके लोहे के पात्र में त्रिफले के काढेसे खरल करे तथा गौ के दूध के साथ रात्रि के समय पीवेतो रक्तपित्त दूर होवे॥
दुग्धादियोग
पयः सिताढ्यं शृतशीतमाज्यं गव्यं पयो वा प्रसमीक्ष्य वह्निम्।
यष्टीमधूकार्जुनभावनीयं द्राक्षाथ वा गोक्षुरकैः शृतं वा ॥
द्राक्षया फलिनीमिव विलयान्तागरेण वा ।
श्वदंष्ट्रया शतावर्या रक्तजित्साधितं पयः ॥
अर्थ-गौ का अथवा बकरी का दूध, मुलहटी, महुआ, अथवा कोह इन से किंवा दाख, खिरेटी और गोखरू इन से अथवा दाख और फूलप्रियंगु इन से अथवा खिरेटी और सोंठइन से तथा गोखरू और शतावर इन को डालके औटावेफिर शीतल करके देवेतो रक्तपित्त को शमन करे ॥
वासास्वरस
वासायां विद्यमानायामाशायां जीवितस्य च।
रक्तपित्ती क्षयी कासी किमर्थमवसीदति ॥
अर्थ-पृथ्वी पर अडूसा है इस आशा से जीवनेवाले जो रक्तपित्ती, क्षयरोगी औरखांसीरोगवाले क्यौं व्यर्थ दुःख पाते हैं ? अर्थात् जब अडूसा पृथ्वीपर है तब आप लोग उस को क्यों नहीं सेवन करते कि जिस से तुम्हारा रोग नष्ट हो जावे ॥
लाक्षादियोग
क्षीरेण लाक्षां मधुमिश्रितेन प्रपीय जीर्णे पयसानुमद्यम् ।
सद्यो निहन्याद्रुधिरं क्षतोत्थं कांतार्जुनानामथवापि कल्कः॥
अर्थ-दूध में लाख और सहत डालके पीवे. जब यह पच जावे तबदूध में मद्य मिलायके पीवे तो तत्काल घाव से निकलनेवाला रुधिर बंद होवे अथवा कांतलोह की भस्म, कोह वृक्ष की छाल के चूर्ण के साथ मिलायके देवे तो वो निकलते हुए रुधिर को बंद करे ॥
मध्वादिपेय
मध्वाटरूषकरुसौ यदि तुल्यभागौ कृत्वा नरः पिबति पुण्यतरः प्रभाते। तद्रक्तपित्तमतिदारुणवश्यमाशु यद्वत्प्रशाम्यति जलैरिव वह्निपुंजः॥
अर्थ-सहत और अडूसे का रस दोनों को समान भाग लेकर प्रातःकाल यदि पीवे तो दारुण भी रक्तपित्त तत्काल दूर होय. जैसे जल अग्नि के समूह को शांति करता है॥
मधुकादिकल्क
कल्कं मधूजत्रिफलार्जुनानां निशि स्थितं लोहमये सुपात्रे।
साज्यं विलिह्यानुपिबेत्सुशीतं सशर्करं छागपयः क्षतार्तः ॥
अर्थ-मुलहटी, हरड, बहेडा, आवला और कोहवृक्ष इन का कल्क रात्रि के समय लोहे के पात्र में धरदेवे प्रातःकाल घी मिलायके देवे तथा इन के ऊपर बकरी का दूध औटा हुआऔर मिश्री मिला हुआ देवे तौ रक्तपित्त का नाश होवे ॥
ऱ्हीवेरादि काढा
ऱ्हीवेरमुत्पलं धान्यं चंदनं यष्टिकामृता । उशीरं च तृषश्चैषां। क्वाथः समधुशर्करः॥ पाययेत्तेन सद्यो हि रक्तपित्तं प्रणश्यति ॥ रक्तपित्तं जयत्युग्रं तृष्णां दाहं ज्वरं तथा ॥
अर्थ-नेत्रवाला, कमल, धनिया, चंदनवाला, मुलहटी, गिलोय, खस, अडूसा इन का काढा सहत और मिश्री डालके देवे यह उग्र रक्तपित्त, तृषा, दाह और ज्वर इन को नाश करे ॥
पद्मोत्पलादिकाढा।
पद्मोत्पलानांकिञ्जल्कः पृष्ठिपर्णी प्रियंगुका।
वासापत्रसमुद्भूतो रसः समधुशर्करः।
क्वाथो वा हरते पीतो रक्तपित्तं सुदारुणम् ॥
अर्थ-सफेद कमल और नीला कमल इन की केशर, पृष्ठिपर्णी, फूलप्रियंगु और अडूसे के पत्ते इन का स्वरस अथवा काढा पीवे तो अतिकठिन भी रक्तपित्त नाश होवे ॥
इक्ष्वादिकाढा
इक्षूणां मध्यकाण्डानि सकंदं नीलमुत्पलम्। केसरं पुण्डरीकस्य मोचं मधुकपद्मके ॥ वटप्ररोहशुंगाश्च द्राक्षा खजूरमेव च । एतानि समभागानि कषायमुपकल्पयेत् ॥ ह्युषितं मधुसंयुक्तं कषायंशर्करान्वितम् । स प्रमेहं रक्तपित्तं क्षिप्रमेतन्नियच्छति॥
अर्थ-ईख की बीच की पोई, कंदसहित नीलाकमल, सफेद कमल की केशर,मोचरस, मुलहटी, पद्माख, वड की कोपल और बड़ी की मुहमुदीकली, दाख औरखजूर ये सब समान भाग लेवे सब का काढा करे. फिर उतारके शीतल करे पश्चात् इस में सहत और मिश्री डालके पिलावे तो प्रमेह और रक्तपित्त इन का नाश करे ॥
चन्दनादिकाढा
चंदनेन्द्रयवा पाठा कटुका सुदुरालभा । गुडूची वालकं लोध्रंपिप्पली क्षौद्रसंयुतम् ॥कफान्वितं जयेद्रक्तं तृष्णाकासज्वरापहम् ॥
अर्थ-लालचंदन, इन्द्रजो, पाढ, कुटकी, धमासा, गिलोय, नेत्रवाला, पठानी शोध, और पीपल इन का काढा करके उस में सहत डालके पिलावे तो कफ, रक्तपित्त, तृषा, खासी और ज्वर इन को दूर करे ॥
उशीरादिकाढा
उशीरं चंदनं पाठा द्राक्षा मधुकपिप्पली ।
सक्षौद्रं पाययेत् क्वाथं रक्तपित्तहरं ध्रुवम्॥
अर्थ-खस, लालचंदन, पाढ, दाख, मुलहटी और पीपल इन के काढ़े में सहत डालके पीवे तो निश्चय रक्तपित्त को हरण करे ॥
अमृतादिकाढा
अमृता मधुकं चैव खर्जूरं गजपिप्पली ।
क्वाथः क्षौद्रयुतो ह्येषरक्तपित्तविकारनुत् ॥
अर्थ-गिलोय, मुलहटी, खजूर और गजपीपल इन के काढ़े में सहत डालके पीवे तो रक्तपित्तसंबंधी विकारोंका नाश करे।
ह्रीबेरादिकाढा
ह्रीबेरधान्यकं शुंठी चंदनं मधुयष्टिका।
वृषोशीरयुतः क्वाथः शर्करामधुयोजितः॥
रक्तपित्तं जयत्युग्रंतृष्णां दाहंज्वरं तथा ॥
अर्थ-नेत्रवाला, धनिया, सोंठ, लालचंदन, मुलहटी, अडूसे के पत्ते और खस इन का काढासहत और मिश्री डालके पीवे तो घोर अतिसार, प्यास, दाह और ज्वर इन को दूर करे ॥
मुद्गादिकाढा
मुद्गाःसलाजाः सयवाः सकृष्णाः सोशीरमुस्ताः सह चंदनेन ।
बलाजलैः पर्युषितः कषायः स रक्तपित्तं शमयत्युदीर्णम्॥
अर्थ-मूंग, खील चावल की, जों, पीपल, खस, नागरमोथा, चंदन और खिरेटी इन सब को जो कूट करके रात्रि के समय कोरे कुल्हडे में भिगो देवे. दूसरे दिन प्रातःकाल काढा करके पीवे तो रक्तपित्त शांत होवे ॥
यष्ट्यादिकाढा
यष्टीमधुसमायुक्तं क्षीरं संक्वाथ्यशीतलम् ।
शर्करामधुसंमिश्रं रक्तपित्तापहं पिबेत् ॥
अर्थ-मुलहटी और दूध इन का काढा करके शीतल कर लेवे. फिर इस में मिश्री और सहत डालके पीवेतो रक्तपित्त का नाश होय ॥
पलाशकल्क व काढा
पलाशकल्कः क्वाथो वा सुशीतः शर्करान्वितः।
पिबेद्वामधुसर्पिर्भ्यांगवाश्वशकृतो रसम् ॥
अर्थ-पलाश ( ढाक ) के फूलों को पीस उस में मिश्री मिलायके पीवे. अथवा उन फूलों का काढा करके उस में खांड मिलायके पीवे अथवा गौ के गोबर का रस अथवा घोडे की लीद के रस में सहत और घी डालके पीवे तो रक्तपित्त दूर होय ॥
आटरूपादिकाढा
आटरूपकनिर्यूहः प्रियंगूमृत्तिकांजने ।
विनीय लोध्रंसक्षौद्रं रक्तपित्तहरं पिबेत् ॥
अर्थ-अडूसे का रस, फूलप्रियंगू, फिटकरी, रसोत और लोध इन के काढेमें सहत डालके पीवे तो रक्तपित्त का नाश करे ॥
वासादिकाढा
वासाकषायोत्पलमृत्प्रियंगुलोध्रांजनांभोरुहकेसराणि ।
पीत्वा सितक्षौद्रयुतानि जह्यात् पित्तासृजो वेगमुदीर्णमाशु ॥
अर्थ-अडूसा, कमल, फिटकरी, फूलप्रियंगू, लोध, रसोत, कमल की केशर इन का काढा सहत डालके और मिश्री मिलायके पीवे तो रक्तपित्त नाश होय ॥
उशीरादिचूर्ण
उशीरकालीयकलोध्रपद्मकं प्रियंगुकाकट्फलशंखगैरिकम् ।
पृथक्पृथक्चंदनतुल्यभागिकं सशर्करं तंदुलधावनप्लुतम् ॥
सरक्तपित्तं तमकं पिपासां दाहं च पीतं शमयेद्धि सद्यः॥
अर्थ-खस, दारु हलदी, लोध, पद्माख, फूलमियगू, कायफल, शंख, गेरु ये सब समान भाग लेके चूर्ण करे इस में मिश्री मिलाय चांवलों के धोवन के साथ देवे सो रक्तपित्त, तमकश्वास, प्यास और दाह ये नष्ट होंय ॥
मृद्वीकादिचूर्ण
मृद्वीका चंदनं लोध्रंप्रियंगुं च विचूर्णयेत् । चूर्णमेतत्पिबेत्क्षौद्रवासारससमन्वितम् ॥ नासिकामुखपायुभ्यो योनिमेढ्राच्च वेगतः। रक्तपित्तं स्रवद्धंतिसिद्धये स प्रयोगराट् ॥ यच्च शस्त्रक्षतेनैव रक्तं स्रवति वेगतः । तदप्यनेन चूर्णेन तिष्ठत्येवावचूर्णितम् ॥ मेढ्रतोतिप्रवृत्तेस्रेबस्तिरुत्तर इष्यते ॥
अर्थ-दाख, चंदन, लोधपठानी, फूलप्रियंगू इन का चूर्ण करके इस को अडूसे के रस और सहत के साथ पीवे तो नाक, मुख. शिश्न, गुदा और योनि इन से गिरने-
वाला रुधिर, स्रवनेवाला रक्तपित्त, घाव में से वहनेवाला रक्तपित्त इन को बंद करे. अथवा शिश्नेन्द्रिय से यदि रुधिर वहने लगे तो इस औषधी से उत्तर बस्ति करे तो रुधिर बंद होवे ॥
चंदनादिचूर्ण
चंदनं नलदं लोध्रमुशीरं पद्मकेसरम् । नागपुष्पं च बिल्वंच भद्रमुस्तं सशर्करम् ॥ ह्रीबेरंचैव पाठा च कुटजोत्पलमेव च । शृंगवेरं सातिविषाधातकी सरसांजना ॥ आम्रास्थि जंबुसारास्थि तथा पाचरसोपि च । नीलोत्पलं समंगा च सूक्ष्मैला दाडिमत्वचः ॥ चतुर्विंशतिरेतानि समभागानि कारयेत् । तंदुलोदकसंयुक्तं मधुना सह योजयेत् ॥ अतिसारान्तथा छर्दिंस्त्रीणां चापि रजोग्रहम् । प्रच्युतानां च गर्भाणां स्थापनं परमिष्यते ॥ अश्विनोः संमतो योगो रक्तपित्तनिबर्हणः॥
अर्थ-चंदन, जटामांसी, लोध, नेत्रवाला, कमल की केशर, नागकेशर, बेलफल, भद्रमोथा, मिश्री, खस, पाढ, कूडे के बीज( इन्द्रजो ), कमलं, सोंठ, अतीस, धाय के, फूल, रसोत, आम की गुठली, जामुन की गुठली, पाच, नीले कमल, मजीठ, इलायची, अनार की छाल, ये वीस पदार्थ समान भाग लेवे सब का चूर्ण कर चावल के धोवन के साथ सहत मिलायके पीवेतो सम्पूर्ण अतिसार, वांति, स्त्रियों का प्रदर इन को नष्ट करे. तथा यह गर्भस्थापन करनेवाला है. यह योग रक्तपित्त नाश करने को अश्विनीकुमार का संमति करा हुआ है ॥
पत्रकादिचूर्ण
पत्रत्वगेलानतचंदनानां श्यामाकशुंठीमधुकोत्पलानाम् । स्याद्धात्रिवासाद्विगुणोत्तराणां चूर्णं सिताक्षौद्र-समन्वितानाम् ॥ खादेज्ज्वरे लोहितरक्तपित्ते कासे क्षये लोहितमूत्रकृच्छ्रे। रक्तेतिनिष्ठीवति गात्रसादेदाहे च सद्यः स्मृतिविभ्रमे च ॥ देहस्थिते तूर्ध्वगतेच वाते श्वासे सहिक्कासु हृदामयेषु। मनोभितापे सततांगतापे योन्यामये सप्रदरे च रोगे ॥ रक्तेतिमात्रंपतिते मुखाभ्यां गुदेथ नासामुखमेढ्रयोनौ । रक्तस्य पित्तस्य विनाशनार्थं सूक्तं च शिष्टेन महद्गदघ्नम् ॥
अर्थ-पत्रज २, दालचीनी ४, इलायची ६, तगर ८, चंदन १०, समा १२, सोंठ १४, मुलहटी १६ कमल १८, आवले २० और अडूसा २२ भाग लेवे. तथा इन सब ओषधोंके द्विगुणोत्तर भाग के अनुसार चूर्ण करे इस मे मिश्री और सहत मिलायके देवे तो ज्वर, रक्तपित्त, खांसी, क्षय, रक्तकृच्छ्र, रुधिर की उलटी, देह का रह जाना, स्मृतिनाश ( भूल का रोग ), ऊर्ध्व वात (डकारो का बहुत माना), श्वास, खांसी, हृदयरोग, मन का संताप, अंगताप, योनिरोग, प्रदररोग, मुख, गुदा, नाक, शिश्न ओर योनि इन से अत्यन्त रुधिर का जाना और रक्तपित्त इन सब रोगो का नाश करे ॥
कर्पूरादिचूर्ण
कर्पूरकं च कंकोलं जातीफलदलं समम् । लवंगं स्यात्समरिचं कृष्णा शुंठी विवृद्धितः ॥ चूर्ण समसितं हृद्यं दीपनं वह्निकारकम् । रक्तपित्त प्रतिश्यायं श्वासं कासमरोचकम् ॥ हृद्रोगं च जयेच्छ्रीघ्रमिंद्रारिमशनिर्यथा ॥
अर्थ-कपूर भीमसेनी, कंकोल, जायफल, जावित्री, लोग काली मिरच, पीपल और सोठये पदार्थ एक, दूसरा दूना इस क्रम से लेवे सब को एकत्र कर उस चूर्ण के समान मिश्री मिलाय के देवे तो हदय को हितकारी( दिल को कुवत देनेवाला), दीपन और अग्निकारक है तथा रक्तपित्त, पीनस, श्वास, खासी, अरुचि तथा हृदयका रोग इन को नाश करे जैसे इन्द्र का वज्र शत्रुओं का नाश करे है ॥
वासापुटपाक
पिष्टानां वृषपत्राणां पुटपाको रसो हिमः ।
मधुयुक्तो जयेद्रक्तपित्तकासज्वरक्षयान् ॥
अर्थ-अडूसे के पत्ता को पीस पुटपाक से उन को भूनके रस निकाल शीतल कर लेवे फिर इस मे सहत डालके पीवे तो रक्तपित्त, खासी, ज्वर, क्षय इन का नाश करे ॥
एलादिगुटी रक्तपित्तादिकों पर
एलापत्रत्वचो द्राक्षाःपिप्पल्यर्धपलं तथा। शिलामधुकखर्जूरमृद्वीकाश्च पलोन्मिताः॥ संचूर्ण्य मधुना युक्तां गुटिकां संप्रकल्पयेत् । अक्षमात्रां ततश्चैकां भक्षयेत्तां दिने तथा ॥ कासश्वासं ज्वरं हिक्कां छर्दि मृर्छा मदं भ्रमम्। रक्तनिष्ठीवनं तृष्णां पार्श्वशूल-
मरोचकम् ॥ शोषंप्लीहं मूढवातं स्वरभेदं क्षतक्षयम् । गुटिका तर्पणी वृष्या रक्तपित्तं विनाशयेत् ॥
अर्थ-इलायची, पत्रज, दालचीनी, दाख और पीपल ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे; शिलाजीत, मुलहटी, खजूर और मुनक्का दाख ये प्रत्येक चार ४ तोले, लेवे; सब को कूट पीस सहत डालके १ तोले की गोली बनायके इस में से नित्यप्रति एक गोली खाया करे तो खांसी, श्वास, ज्वर, हिचकी, वमन, मद, मूर्च्छा, भ्रम, मुख से रुधिर का गिरना, प्यास, पार्श्वशूल ( पशली का दर्द ) अरुचि, शोष, प्लीहा, ( तील्ली ), मूत्रघात, स्वरभंग, क्षतक्षय और रक्तपित्त इन का नाश करे. तथा वृष्य और तृप्तिका देनेवाला है ॥
हरीतक्यादिनस्य
हरीतकीदाडिमपुष्पदूर्वालाक्षारसो नस्यविधानयोगात् ।
निवारयत्येव चिरप्रवृत्तमप्याशु नासांतरशोणितौघम् ॥
अर्थ-हरड, अनार का फूल, दूबका रस और लाख इन सब के रस को एकत्र कर नाक में डाले तो बहुत दिन का व पडनेवाला नाक से रुधिर बंद होवे ॥
मस्तकलेप
नासाप्रवृत्तं रुधिरं घृतभ्रष्टं श्लक्ष्णपिष्टमामलकम् ।
सेतुरिव रुधिरवेगं रुणद्धि मूर्ध्नि प्रलेपः॥
अर्थ-आवले को घी में भूनके उस का बारीक चूर्ण करे फिर पानी मिलायके मस्तक पर लेप करे तो यह लेप नाक से रक्तपित्त का जो रुधिर गिरता है उस को बंद करे ॥
कल्क व घृत
शीतलामलकल्केन शतधौतघृतेन च ।
मुंडयित्वा शिरो लेपः करणीयः पुनः पुनः ॥
अर्थ-शीतल आवलों का कल तथा सौवार धुला हुआघी इन का मस्तक मुंडायके उस पर शीतल २ लेप वारंवार करे ॥
नस्य
नस्यं दाडिमपुष्पोत्थं रसो दूर्वाभवोऽथ वा । आम्रास्थिजं पलां-
डूत्थं नासिकास्त्राविरक्तजित् ॥ नासाप्रवृत्ते रुधिरे जलनस्य प्रशस्यते ॥
अर्थ-अनार के फूल के रस की अथवा दूब के रस की अथवा आम की गुठली लहसन के रस की अथवा शीतल जल इन की नस्य देवे तो नासिका से रुधिर का गिरना दूर होवे ॥
दूसरा प्रकार
भृंगीगृहं तु क्षीरेण नारीणां नावनाज्जयेत् ।
लोहं खदिरसारेण नासिकारक्तनाशनम् ॥
अर्थ- भृंगी ( पीले रंग की मक्खी ) के घर को स्त्रियो के दूध में मिलायके नस्यदेवे तथा लोहभस्म और कत्थादोनों को मिलायके नस्य देवे तो नाक से रुधिर का गिरना अर्थात् नकशीर बंद होय ॥
आर्द्रकादिनस्य
शृंगगैरिकयोः कल्कं धातक्या मधुकस्य च ।
घ्राणस्रुतेसृजि प्रोक्तं योषित्क्षीरेण नावनम् ॥
अर्थ-अदरख, गेरू वा फिटकरी, धाय के फूल, मुलहटी इन के चूर्ण को स्त्रियों के दूध में मिलायके नस्य देवे तो नकशीर बंद होवे ॥
हरीतक्यादिनस्य
अभयादाडिमीपुष्पं लांगलीपिष्टमंभसा। नस्यतो हंति नासाया रक्तस्रावमतिस्रुतम् ॥ त्रिदिनं शर्कराक्षारप्लुतं गोधूमचूर्णकम् । नासारक्तं वारयति वेगतो वहमानकम् ॥
अर्थ-हरड, अनार का फूल, कलपारी इन को जल में पीसकेनस्य देवे;अथवाखांड और दूध डालके गेहूका चून मिलायकेनस्य देवे तो नक्सीरके जाते हुएरुधिर को बंद करे ॥
कूष्मांडकावलेह
खंडकामलकेभ्यस्तु रसः प्रस्थद्वयोन्मितः। खंडकूष्मांडमेकैकं संस्विद्य रसमाहरेत् ॥ अन्यत्र खंडकूष्मांडे संमतः सकलो रसः। पंचाशच्च पलं स्विन्नं कूष्मांडात्प्रस्थमाज्यतः॥ पक्वंपलशतं
खंडं वासाक्वाथाढके पचेत्। शिवा धात्रीफलं भार्ङ्गीत्रिसुगंधैश्च कार्षिकैः॥ तालीसविश्वधान्याकमरिचैश्च पलांशकैः। पिप्पली कुडवं चैव मधुना संप्रदापयेत्॥ कासं श्वासं ज्वरं हिक्कां रक्तपित्तं हलीमकम् । हृद्रोगमम्लपित्तं च पीनसं च व्यपोहति ॥
अर्थ-मिश्री और आवलों का रस प्रत्येक १२८ तोले तथा पेठे के टुकड़ों को भूनके उन का रस २०० तोले, वी गौ का ६४ तोले,पके हुए पेठे के टुकडे ४०० तोले, अडूसे का रस २५६ तोले लेके काढ़े में पचावे. जब गाढा हो जावेतब हरड, आंवला, भारंगी, तज, पत्रज और इलायची ये प्रत्येक तोला तोला लेके तथा तालीसपत्र, सोंठ, धनिया, और काली मिरच ये प्रत्येक चार २ तोले लेवेऔर पीपल १६ तोले तथा सहत ३२ तोले डालके धर रक्खे. इस में से रोगी का अग्निबलविचारके खाने को देवे तो खांसी, श्वास, ज्वर, हिचकी, रक्तपित्त, हलीमक, हृदयरोग, अम्लपित्त और पीनस इन को दूर करे ॥
दूसरा प्रकार
पुराणं पीनमानीय कूष्माण्डस्य फलं दृढम्। तद्बीजाधारबीजत्वक्शिराशून्यं च कारयेत् ॥ ततस्तस्य च खण्डानि पचेज्जलतुलाद्वये । तस्मिन्नीरार्धशिष्टे तु यत्नतः शीतलीकृते ॥ तानि कूष्मांडखंडानि पीडयेत् दृढवाससा । यत्नतस्तज्जलं नीत्वा पुनः पाकाय धारयेत्॥ कूष्माण्डं शोषयेद्वर्मेताम्रपात्रे ततः क्षिपेत् । क्षिप्त्वा तप्तघृतप्रस्थं कूष्माण्डं तेन भर्जयेत् ॥ मधुवर्णं तदालोक्य तज्जलं तत्र निःक्षिपेत् । सितायाश्च तुलां तत्र क्षिप्त्वातल्लेहवेत्पचेत् ॥ सुपक्वेपिप्पलीशुंठीजीराणां द्वे पले पृथक् । पृथक् पलार्द्धंधान्याकपत्रैलामरिचत्वचा ॥ चूर्णमेषांक्षिपेत्तत्र घृतार्धं क्षौद्रमाहरेत्। क्षौद्राधिका सिता केचित्क्षौद्रात्केचित्सितार्धकम् ॥ द्राक्षार्धानि लवंगानि कर्षंकर्पूरकं क्षिपेत् । तद्यथाग्निबलंखादेद्रक्तपित्तक्षतक्षयी ॥ कासश्वासी ततश्छर्दितृष्णाज्वरनिपीडितः । वृष्यं पुनर्नवकरं बलवर्णप्रसादनम् ॥ उरःसंधानकरणं बृंहणं स्वरबोधनम् । अश्विभ्यां निर्मितंश्रेष्ठंकूष्माण्डकरसायनम् ॥
अर्थ-पुराना और पका हुआ पेठा लेकर उस के ऊपर का छिलका और भीतर के बीजों को दूर करके छोटे २ कतरा कर लेवे उन तुकडों को ८००तोले जल में डालके औटावे जबआधा जल रहे तब उतारके उन पेठे के टुकड़ों को कपड़े में बांधके निचोड लेवे, इस जल को कढाई में डालके फिर चुल्हे पर चढावे. और पेठे के टुकड़ों को धूप में सुखाय एक तामे की कढाई में चढाव और ६४ तोले घीडालके मंद २ अग्निसे भूने जब लालरंग का हो जावेतब उतार लेवे और पूर्वोक्त पेठे के पानी में देवे. तथा मिश्री ४०० तोले डाले और मंद २ अग्निसे पाक करे. जब अवलेह के समान पाक हो जावे तब इतनी औषध और डाले. पीपल, सोंठ और जीरा ये प्रत्येक ८ तोले लेवे तथा धनिया, पत्रज, इलायची, काली मिरच, दालचीनी इन का चूर्ण दो दो तोले लेवे और सहत ३२ तोले मिलावे और मिश्री किसी के मत से सहत से अधिक और किसी के मत से सहत से आधी डाले तथा १६ तोले दाख, लोंग और कपूर एक एक तोला डाले इस को घी के बरतन में भरके घर रखे. यह कूष्माण्डकरसायन अग्निबलविचारके देवे. यह रक्तपित्त, क्षतक्षय, खांसी, श्वास, वमन, प्यास और ज्वरइन पर देवे यह वृष्य, तथा तारुण्य कारक, बल, वर्ण इन को करनेवाला, उरःक्षत को भरनेवाला, पुष्टिकरता और खर को साफ करे है. यह अश्विनीकुमार ने उत्पन्न करा है ॥
तीसरा प्रकार
पुराणं पीनमानीय कूष्मांडस्य फलं दृढम् । तद्बीजाधारबीजत्वक्शिराशून्यं च कारयेत् ॥ ततोतिसूक्ष्मखंडानि कृत्वा तस्य तुलां पचेत् । गोदुग्धस्य तुलायुग्मे मंदाग्नौचालयेच्छनैः॥ शर्करायास्तुलार्धंच गोघृतं प्रस्थमारकम् । प्रस्थार्धमाक्षिकं चापि कुडवं नारिकेरतः॥ प्रियालफलमज्जानां द्विपलं त्रिखुरीपलम्। क्षिपेदेकत्र विपचेल्लेहयेत्साधु साधयेत् ॥ भिषग्भिषक्त्वमालोक्य ज्वलनादवतारयेत्। काष्ठौपध्यः क्षिपेदेषांचूर्णं तानि वदाम्यहम् ॥ एकोक्षः शतपुष्पाया अथ जीरो यवानिका । गोक्षुरः क्षुरकः पथ्या कपिकच्छूफलानि च ॥ सप्तमी त्वक्च सर्वेषामेपामक्षयुगं पृथक्। धान्यकं पिप्पली मुस्तमश्वगंधाशतावरी ॥ तालमूली नागबला वालकं पत्रकं शठी। जातीफलं लवंगं च सूक्ष्मैलाबृहदेलिकान् ॥ शृंगाटकं पर्पटकं
सर्वंपलमितं पृथक्। चंदनं नागरं धात्रीफलं चापि कसेरुकम्॥ प्रत्येकं पंचकर्षाणि चोत्तार्यैतानि निःक्षिपेत्। पलद्वयमुशीरस्य पलान्यष्टोपणानि च॥ कूष्मांडस्यावलेहोयं भक्षितः पलमात्रकः । किंवा यथावह्निबलं भुंजन्
रोगान्विनाशयेत्॥ रक्तपित्तं शीतपित्तमाम्लपित्तमरोचकम्। वह्निमांद्यं सदाहं च तृष्णां प्रदरमेव च॥ रक्तार्शोपित्तजिच्छर्दि पांडुरोगं च कामलाम् । उपदंशं विसर्पं चजीर्णं च विषमज्वरम्॥ लेहोयं परमो वृष्यो बृंहणो बलवर्धनः। स्थापनीयो विशेषेणभाजने मृन्मये नवे॥
अर्थ-पका हुआ पुराना पेठा लेकर उस को छील बना रक्खे बीज निकाल डाले और छोटे २ टुकड़े कर लेवे उन को ४०० तोले लेय और ८०० तोले दूध में डालके मंदाग्निपर पचन करे. तथा धीरे २ कौचे से हिलाता जावे जब सीज जाय और गाढे होने लगे तब २०० तोले मिश्री डाले, गौ का घी ६४ तोले, सहत ३२ तोले नारियलकी गिरी कतरी हुई १६ तोले, चिरोंजी ८ तोले और गोखरू ४ तोले डालके एकजीव कर लेवे जब चाटने योग्य गाढा हो जाये तब उतारके इस में सोंफ : तोला, तथा जीरा, अजमायन, गोखरू, तालमखाना, हरड,कौछ के बीज, दालचीनीये प्रत्येक दो दो तोले ले, और धनिया, पीपल, नागरमोथा, असगंध, शतावर, मूसली, नागबला, नेत्रवाला, पत्रज, कचूर, जायफल, लोंग, इलायची बडी, इलायची छोटी, सिंघाडे, पित्तपापडा, ये प्रत्येक चार २ तोले लेय और चंदन, सोंठ, आवले, नागकेशर ये प्रत्येक पांच २ तोले ले, खस दो तोले, काली मिरच ८ तोले. इन का पूर्ण करके उस अवलेह को नीचे उतारके डाले यह कूष्माण्डकावलेह चार तोले प्रातःकाल सेवन करे. अथवा अग्निका बलाबलविचारके अधिक अथवा कम मात्र देवे सो रक्तपित्त, शीतपित्त, अम्लपित्त, अरुचि, मंदाग्नि, दाह, तृषा, मदर खूनी बवासीर, पित्तजन्य वमन का होना, पांडुरोग, कामला, उपदंश, विसर्प, जीर्णज्वर और विषमज्वर इन का नाश करे यह अवलेह अत्यन्त वृष्यहै, पौष्टिक तथा बल के बढानेवाला है. इस अवलेह को मिट्टीके बरतन में भरके धर रक्खे, अथवा किसी उत्तम चीनी के बासन में भरके धर देवे ॥
चौथा प्रकार
कूष्मांडकस्य स्वरसं पलानां शतमात्रकम्। रसतुल्यं गवां क्षीरं
धात्रीचूर्णं षडाष्टकम्॥ मृद्वग्निना पचेतावद्यावद्भवति पिंडवत्। धात्रीतुल्या सिता योज्या पलार्धंलेहयेदनु॥ खंडकूष्मांडकं ह्येतद्भुक्तमभ्यासतो हरेत् । रक्तपित्तं ह्यम्लपित्तं दाहं तृष्णां च कामलाम् ॥
अर्थ-पेठे का स्वरस ४०० तोले, गौ का दूध४०० तोले और आवलों का चूर्ण ३२ तोले इन सब को मंदाग्निपर पक्वकरे जब गोला बंधने लगे तब इस में मिश्री बत्तीस तोले डालके मिलाय देवे. फिर इस में से दो तोले नित्य प्रातःकाल भक्षण किया करे यह खंडकूष्माण्डकावलेह अभ्यास के साथ सेवन करने से रक्तपित्त, अम्लपित्त, दाह, तृषाऔर कामला इन को नाश करे ॥
वासाखंड
तुलामादाय वासायाः पचेदष्टगुणे जले । तेन पादावशेषेण पाचयेदाढकं भिषक् ॥ चूर्णानामभयानां तु खंडं शतपलं तथा। शीतीभूते तन्निध्यात्क्षौद्रस्याष्टौपलानि च ॥ वंशोद्भवा च चत्वारि पिप्पली द्विपलं तथा । चातुर्जातं पलं त्वेकं चूर्णितं तत्र दापयेत् ॥ रक्तपित्तं निहंत्याशुकासश्वासं क्षतक्षयम् । विद्रधिं जाठरं गुल्मं तृष्णाहृद्रोगपीनसान्॥ पलार्धभोजनं चास्य यथेष्टं तत्र भोजनम् ॥
अर्थ-अडूसा चार सौ तोले लेकर ३२०० बत्तीस सौ तोले जल में डालके औटावे जब चतुर्थाश जल शेषरहे तब उतारके छान लेय इस काढे में हर का चूर्ण १०२४ तोले तथा मिश्री ४०० तोले डालके पवावे जब सिद्ध हो जाये तब उतारके शीतल कर लेवे और ३२ तोले सहत १६ तोले वंशलोचन ८ तोलेपीपल और ४ तोले चातुर्जात ले इन सब का चूर्ण करके चासनी में डाल देवे. इस में से दो तोलेयह वासाखंड सेवन करे तो रक्तपित्त, खांसी, श्वास, क्षतक्षय, विद्रधि, उदररोग,गोला, प्यास, हृदयरोग और पीनस इनका नाश करे इस पर यथेष्ट भोजन करे ॥
उशीरासव रक्तपित्तादिकोंपर
उशीरं वालकं पद्मं काश्मरीनीलमुत्पलम्। प्रियंगुपद्मकं लोध्रंमंजिष्ठा धन्वयासकः॥पाठ किराततिक्तं च न्यग्रोधोदुंबरं शठी। पर्पटं पुंडरीकं च पटोलं कोचनारकम्॥ जंबूशाल्मलिनिर्यासं
प्रत्येकं पलसंमितान्। भागान्सुचूर्णितान्कृत्वा द्राक्षायाः पलविंशतिः ॥ धातकीं षोडशपलां जलद्रोणद्वये क्षिपेत् । शर्करायास्तुलां दत्त्वा क्षौद्रस्यैकतुला तथा॥ मासं च स्थापयेत् भांडे मांसीमरिचधूपिते। उशीरासव इत्येष रक्तपित्तनिवारणः॥ पांडुकुष्ठप्रमेहार्शःकृमिकोशापहस्तथा ॥
अर्थ-खस, नेत्रवाला, लालकमल, कंभारी, नीला कमल, फूल प्रियंगू, पद्माख,लोध, मजीठ, जवासों, पाठ, चिरायता, कुटकी, वड की छाल, गूलर की छाल, कचूर, पित्तपापडा, सपेद कमल और पटोलपत्र, कचनार की छाल, जामुन की छाल, सेमर का गोंद ये बाइस औषध चार २ तोले लेवे तथा दाख २० पल,धाय के फूल १६ पल ले सब का कूट पीसके चूर्ण बनावे इस को दो द्रोण जल में डाले तथा मिश्री १ तुला डाले. फिर जटामांसी और मिरच इन की धूनी देकर उस वासन में ये सब वस्तु भर देवे उस पात्र का मुख बंदकर मुद्रा देकर १ महिने पर्यंत रक्खा रहने दे बादमहिने के मुद्रा को दूर करके इस को निकास लेवे. इसे उशीरासवकहते हैं इस आसव के पीने से रक्तपित्त, पांडुरोग, कोढ, प्रमेह, बवासीर, कृमिरोग और शोष(देह का दुबला हो जाना ) इन सब रोगों को यह दूर करे ॥
वमन
मुस्तेंद्रयवयष्ट्याह्वमदनाह्वंपयो मधु ।
शिशिरं वमनं योज्यं रक्तपित्तहरं परम् ॥
अर्थ-नागरमोथा, इन्द्रजो, मुलहटी, मैनफल, दूध और सहत इन को शीतल करके वमनकरनेको देवेतो रक्तपित का नाश होय॥
यष्ट्यादिवमन
यष्टीमधुकसंयुक्तं सक्षौद्रं वमनं हितम् ॥
अर्थ-मुलहटी और सहत इन का वमन करना रक्तपित्तवाले को हितकारी है ॥
आरग्वधादिरेचन
आरग्वधेनधात्र्यावा त्रिवृता पथ्ययाऽथवा ।
विरेचनं प्रयोक्तव्यं शर्करामाक्षिकोत्तरम् ॥
अर्थ-अमलतास और क्लेि भयवा निखोत और हरडइन का काढाकर उस में सहतऔर मिश्री मिलायके पीवे तो दस्त होकर ऊर्ध्वगामी रक्तपित्त बंद होवे॥
विरेचन
द्राक्षामधुककाश्मर्यः सितायुक्तं विरेचनम्॥
अर्थ-ऊर्ध्वगत रक्तपित्तपर दाख, मुलहटी और कंभारी इन में खांड मिलाय के दस्त कराने को देवे तो ऊर्ध्वगत रत्तपित्त दूर होवे॥
आपतर्पण
जलं खर्जूरमृद्वीकामधूकैः सपरूषकैः ।
शृतं जलं प्रयोक्तव्यं तर्पणाय सशर्करम् ॥
अर्थ-नेत्रवाला, खिजूर, दाख, मुलहटी और फालसा इन औषधों को काढे में मिश्री मिलायके पीवे तो रक्तपित्त दूर होवे ॥
दूसरा प्रकार
तर्पणं सघृतक्षौद्रं लाजाचूर्णैः प्रदापयेत् ।
ऊर्ध्वगे रक्तपित्ते तत्काले देयं पिपासिते ॥
अर्थ-धान की खीलों का चूर्ण कर उस में घी और सहत ये एकत्र करके ऊर्ध्वजरक्तपिक्त में जब प्यास लगे तब पीने को देवे ॥
पारावतशकृल्लेह
सक्षौद्रंग्रंथिते रक्ते लिह्यात्पारावतं शकृत् ॥
अर्थ-यदि देह में रुधिरकी गांठ पड गई हो तो सहत के साथ कबूतरकी वीट सेवनकरे ॥
केशरलेह
अतिनिःसृतरक्तो वा क्षौद्रेण रुधिरं पिबेत्॥
अर्थ-जिस के देह से अत्यन्त रुधिर निकल गया हो वो सहत के साथ केशर पीवे।
खदिरादिलेह
खदिरस्य प्रियंगूनां कोविदारस्य शाल्मलेः।
पुष्पचूर्णानि मधुना लिह्याद्वारक्तापित्तनुत् ॥
अर्थ-खैर फूल, प्रियंगू, कोविदार ( कचनार का भेद), सेमल इन के फूलें केचूर्ण केसहत में मिलायके चाटेतो रक्तपित्त दूर होवे ॥
उदुंबरादिलेह।
पक्वोदुंबरकाश्मर्यपथ्या खर्जूरगोस्तनीः।
मधुना घ्नंति संलीढारक्तपित्तं पृथक् पृथक्॥
अर्थ-पके हुए गूलर के फल, कंभारी के फल, हरड, खजूर और दाखइन में से किसी एक को सहत के साथ खाय तो रक्तपित्त दूर होवे ॥
खंडकाद्यवलेह
शतावरी मुंडितका बलामृता पलं त्वचः पुष्करमूलभांर्गी। वृषोबृहत्यौ खदिरस्य मूली पृथक् पृथक् पंचपलानि मात्रा ॥ पक्वं जले द्रोणमितेऽष्टमांशं यावद्भवेच्छेषमथैव पूतम् । विमूर्छितस्यापि निधाय धीमान्पलानि च द्वादश माक्षिकस्य ॥ तथा सुवर्णस्य च लोहजस्य विंद्याद्धितंखंडघृतस्य तुल्यम् । देयं पलं षोडशकं विधिज्ञो विपाचयेल्लोहमये कटाहे ॥ गुडेन तुल्यं च यदा भवेत्तदा तुगा विडंगं मगधा च शुंठी। द्वे जीरके कर्कटकं फलत्रिकं धान्यं मरीचं सकणा सकेसरम् ॥ पलेन मात्रा विदधीत तत्पृथक् सुवट्टितं चूर्णमिदं घृतेन। स्निग्धे कटाहे प्रणिधाय युंज्यात्कर्षप्रमाणं विदधीत चूर्णम् ॥ प्रभातकाले च सदुग्धपानं गुरूणि चान्नानि च भोजनानि। रक्तं सपित्तं सहसा निहंति रक्तप्रवाहं च सरक्तशूलम् ॥ रक्तातिसारं रुधिरप्रमेहं तथैव वस्तौविहितं नराणाम्। भगंदरार्शः श्वयथुंनिहंति तथाम्लपित्तं किल राजरोगम् ॥ विशेषतः कुष्ठयुजश्च गुल्मान् बलप्रदं वृष्यतमं प्रदिष्टम्। वातरक्तं प्रमेहं च शीतपित्तं वमिंकृमीन्॥ श्वयथुंपांडुरोगं च कुष्ठं प्लीहोदरं तथा। आनाहो मूत्रसंस्रावमम्लपित्तं निहंति च॥ चक्षुष्यं वृंहणं वृष्यं मांगल्यं प्रीतिवर्द्धनम्। आरोग्यपुत्रदं श्रेष्ठंकामाग्निबल-वर्द्धनम्॥ श्रीकरं लाघवकरं खंडकाद्यं प्रकीर्तितम्। छागं पारावतं मांसं तित्तिरं कृकराशशम्॥ कुरंगाः कृष्णसाराश्च मांसमेषांप्रयोजयेत्। नारिकेलपयः-पानं सुनिषण्णकवास्तुकम् ॥ शुष्कमूलकजीवाख्यं पटोलंबृहतीफलम् । फलं वार्ताकपक्काम्रं खर्जूरंस्वादु दाडि-
मम्॥ ककारपूर्वकं पंच मांसं चानूपसंभवम्। वर्जनीयं विशेषेण खंडकाद्यंसमश्नता॥
अर्थ-सतावर, गोरखमुंडी, खिरेटी और गिलोय ये औषध चार चार तोले, दालचीनी, पोहकरमूल, भारंगी, अडूसा, कटेरी, बडी कटेरी, खैर की जड ये प्रत्येक तीस २ तोले ले इन को १०२४ तोले जल में डालके अष्टावशेष काढा करे फिर छानके जल अलग निकास लेवे. इस में ४८ तोले स्वर्णमाक्षिक की भस्म ४८ तोले सुवर्ण की भस्म, १६ तोले लोह भस्म और मिश्री तथा ६४ तोले घी इस प्रकार सब को एकत्र कर लोहे की कढाई में पाक करे. जब गुड के समान पाक हो जावेतब इस में वंशलोचन, वायविडंग, पीपल, सोंठ, जीरा, काला जीरा, काकडी के बीज, हरड, बहेडा, आमला,धनिया,काली मिरच, पीपल, नागकेशर ये प्रत्येक चार चार तोले ले सब का चूर्ण करके चासनी में मिलाय एकजीव कर देवे. इस खंडकावलेह को घी के शुद्ध चिकने बासन में भरके धररखे और नित्य १ तोलाखाय ऊपर से दूध पीवे तथा भारी अन्न भोजन करे तो रक्तपित्त, रक्त का प्रवाह, रक्तशूल, रक्तातिसार, रक्तप्रमेह, भगंदर, बवासीर, सूजन, अम्लपित्त, क्षय, कोढ, गोला, वातरक्त, प्रमेह, शीतपित्त, वमन, कृमिरोग, पांडुरोग, प्लीहा, उदररोग, अफरा, मूत्र का रोग और अम्लपित्त इन सब रोगों को दूर करे तथा नेत्रों को हितकारी, पौष्टिक, मांगल्य, प्रीति को बढावे, आरोग्य तथा पुत्र देनेवाला और कामदेव, जठराग्नि, बल, श्री और लाघव इन को करे. इस के ऊपर बकरा, कबूतर, तीतर, कृकिर, ससा, हरिण, काला हरिण इन का मांस भक्षण करे और नारियल, दूध, चौपतिया, बथुआ, सूखी मूली, जीवंती, परवल, कटेरी के फल, बैगन, पका आम, खजूर, मीठे अनार, ककारपंचक, आनूपदेश का मांस ये संपूर्ण पदार्थ खंडकाद्यवलेह सेवन करनेवाले को खाना निषेध है॥
रक्तपित्तकुठाररस
शुद्धपारदबलिप्रवालकं हेममाक्षिकभुजंगरंगकम्। मारितं सकलमेतदुत्तमं भावयेच्च विततं द्रवैस्त्रिशः॥ चंदनस्य कमलस्य मालतीकोरकस्य वृषपल्लवस्य च। धान्यवारणकणाशतावरीशाल्मलीवटजटामृतस्य च॥ रक्तपित्तकुल-कंडनाभिधो जायते रसपरोसपित्तिनाम्। प्राणदो मधुवृपद्रवैरयंसेवितस्तु वसुकृष्णलोमतः॥ नास्त्यनेनसममत्र भूतले भेषजंकिमपि रक्तपित्तिनाम् ॥
अर्थ-शुद्धपारा, गंधक, मूंगा, सुवर्णमाक्षिक, शीसा, रांगा इन सब की शुद्ध भस्म
समान भाग लेवे. सब को एकत्र करे फिर चंदन, कमल, मालती ( चमेली ) के फूल, अडूसा, धनिया, गजपीपल, सतावर, सेमर और वडकी कोपल, गिलोय इन प्रत्येक के रसों की तीन २ भावना देवे. यह रक्तपित्तकुलकुठार रस एक, मासे को अडूसे का रस और सहत इन के साथ देवेतो रक्तपित्त का नाश करे ॥
वासासुत
आटरूपनवपल्लवद्रवं पालिकारसकभस्मवल्लकम् ।
कर्षसंमितमधुप्रयोजितं प्राश्य नश्यति च रक्तपित्तकम् ॥
अर्थ-अडूसे के कोमल पत्तों का रस चार तोले, तथा पारे की भस्म इन को एकत्र कर सहत मिलायके एक तोले की मात्रा खाने को दे तो रक्तपित्त का नाश होवे ॥
बोलपर्पटीरस
सूतगंधकसुकज्जलिकायाः पर्पटीसमयुतासमभागम्। बोलचूर्णविहितं प्रतिवाप्यं स्याद्रसोयमसृगामयहारी॥ वल्ल-युग्मयुगलंप्रति देयं शर्करामधुयुतः किल दत्तः। रक्तपित्तगुदजस्रुतियोनिस्रावमाशु विनिवारयतीशः॥
अर्थ-शुद्धपारा, गंधक दोनों की काजली करके फिर इस कजली के बराबर बोलका चूर्ण ले इन को एकत्र करके लोह के पात्र में तपायके गोबरपर केले का पत्ता बिछाय देवे उसपर उस को ढाल देना चाहिये और ऊपर से केले का पत्ता ढक गोबरसे दाबदेवे तो यह रक्तरोग नाश करनेवाली बोलपर्पटी बने. इसमें से ६ रत्ती पर्पटी और मिश्री तथा सहत इन में मिलायके देवे तो रक्तपित्त, बवासीर, रक्त का बहना और योनिस्राव इन को नाश करे ॥
सुधानिधिरस
गंधं सूतं माक्षिकं लोहचूर्णंसर्वं घृष्टं त्रैफलेनोदकेन।
लौहे पात्रे गोलिका सा च कृत्वा रात्रौ दद्याद्रक्तपित्तप्रशान्त्यै॥
अर्थ-गंधक, पारा, सुवर्णमाक्षिक की भस्म और लोह भस्म ये समान भाग ले इनको लोह के खरल में डालके त्रिफले के काढेसे खरल करके गोली बनाय ले पह रक्तपित्त दूर करने के वास्ते देवे ॥
आटरूपाद्यर्क
आटरूपकमृद्वीका पथ्यार्कश्च सशर्करः। वृषार्कोवा समधुको
रक्तपित्तनिवारणः॥ लोध्रप्रियंगुमृद्वीकाचंदनार्को रसान्वितः। वासायाः क्षौद्रसंयुक्त ऊर्ध्वाधो रक्तपित्तहृत्। अर्को दाडिमपुष्पोत्थो मृद्वीकासंभवोपि वा । पानात्तस्य हरेन्नासारक्तमाम्रास्थिजोपि वा॥
अर्थ-अडूसा, दाखऔर हरड इन के अर्क में मिश्री मिलायके देवे अथवा अडूसा और मुलहटी का अर्क देवे. अथवा लोध, फूल प्रियंगू, दाख और चंदन इन के अर्क में अडूसे का रस और सहत मिलाकर देवे. अथवा अनार के फूल और दाख इन का अर्क देवे किंवा आम के गुठली का अर्क देवे तो रक्तपित्त दूर होवे॥
शतावरीघृत
शतावरी दाडिमतिंतिडीकं कांकोलिकं वा मधुकं विदारी।
पिष्ट्वाच मूलं फलपूरकस्य पचेत्घृतं क्षीरचतुर्गुणं तत् ॥
कासज्वरोन्मादविबंधशूलं तद्रक्तपित्तं विविधं निहंति ॥
अर्थ-सतावर, अनार, इमली, कंकोल, मुलहटी, विदारीकंद और बिजोरे का पंचांग लेकर उन का कल्क करके उस में चौगुना दूध डाले. फिर गौ का घी डालके अग्निपर सिद्ध करे यह शतावरीघृतखांसी, ज्वर, उन्मत्तता, विबंध, शूल और अनेक प्रकार के रक्तपित्त का नाश करे ॥
दूर्वादितैल
दूर्वामधुकमंजिष्ठाद्राक्षेक्षुरसचंदनैः। सारिवाघननक्ताह्वैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ क्षीरं चतुर्गुणं दत्त्वा सिद्धमभ्यंजने हितम् । रक्तपित्तहरं ह्येतद्बल्यं वातघ्नमुत्तमम् ॥ दूर्वातैलमिति ख्यातं सुवर्णकरणं महत् ॥
अर्थ-दूब, मुलहटी, मजीठ, दाख, ईखका रस, चंदन, सारिवा, नागरमोथाऔर हलदी ये समान भाग लेवे. १ सेर तेल और ४ सेर दूध डालके घीबनावे इसकी देह में मालिस करना हितकारी है, रक्तपित्त को नाश करे, बल चढावे ये उत्तम वातनाशक है यह दूर्वातैलदेह की उत्तम कांती करे है ॥
दूसरा प्रकार
दूर्वा भव्यफलं माषकुलित्थौवंशपत्रिका । जलस्थलोद्भवौ
कर्णमोचकौ खरमंजरी॥ दंडोत्पलस्य मूलं तु निःक्वाथ्याष्टगुणेंभसि। तत्पादशेषितं तैलं तुल्यं कृत्वा विपाचयेत्॥ तत्तैलं प्रतिघर्षेणआनाहाख्यं गदं जयेत् ॥
अर्थ-दूव, नीम के फल, उडद, कुलथी, वंशपत्रिका ( बांस जाति की एक घास ), जल और स्थल में उत्पन्न होनेवाला केला, ओंगा और सहदेई की जड ये सब समान भाग लेवे औषधों से आठ गुना जल ले चतुर्थांश काढा करके छान लेवे इस काढे में बराबर का तेल मिलाय फिर पाक करे इस तेल की देह में मालिस करने से आनाहाख्य रोग को दूर करे है॥
रक्तपित्तपर पथ्य
अधोगते छर्दनमूर्ध्वनिर्गमे विरेचनं स्यादुभयत्र लंघनम् । पुरातनाः षष्टिकशालिकोद्भवा प्रियंगुनीवारयव-प्रसादकाः ॥ मुद्गा मसूराश्चणकास्तुवर्यो मकुष्टकश्चागडुवर्मिमत्स्याः। शशः कपोतो हरिणैणलावः शरारिपाराव-तवर्तिकाश्च॥ बका उरभ्राश्च सकालपुच्छाः कपिंजलाश्चापि कषायवर्गाः । गवामजायाश्च पयो घृतं च घृतं माहिष्याः पनसं प्रियालम् ॥ रंभाफलं कंचनतंदुलीयपटोलवेत्राग्रमहार्द्रकाणि । पुराणकूष्मांडफलं च पथ्यं तालानि तद्बीजजलानि वासा॥ स्वादूनि चिल्लानि च दाडिमानि खर्जूरधात्रीमिशिनारिकेरम्। कसेरुशृंगाटक-पौष्कराणि कपित्थशालूक-परूपकाणि॥ भूनिंबशाकं पिचुमंदपत्रं तुंबी कलिंगानि च लाजसक्तु। द्राक्षा सिता माक्षिकमिक्षवश्च शीतोदकं चोद्भिदवारि चापि ॥ सेकावगाहः शतधौतसर्पिरभ्यंगयोगः शिशिरः प्रदेशः । हिमानिलश्चंदनमिंदुपादाः कथा विचित्राश्च मनोनुकूलाः॥ धारागृहं भूमिगृहं सुशीतं वैडूर्यमुक्तामणिधारणं च। रक्तोत्पलांभोरुहपत्रशय्या क्षौमांबरंचोपवनं सुशीतम्॥ प्रियंगुकाचंदनपिकांतामालिगितं चापि वरांगनानाम्। पद्माकराणां सरितोद्गतानां चंद्रोदयानां हिमशीक-
Pege no. ७२८ and ७२९ are missing from this Book.
राणाम्॥ सुशीतलानां गिरिनिर्झराणामतिप्रशस्तानि च कीर्तनानि। प्रतीरनीरं हिमवालुकानि मित्रं नृणां शोणितपित्तरोगे॥
अर्थ-अधोगत ( गुदालिंगेद्री द्वारा रुधिर जानेवाले ) रक्तपित्त रोगी को वमन करावे, तथा उर्द्ध्वगत रक्तपित्त मे जुलाब देवे, और ऊपर नीचे दोनों मार्ग से रुधिर जानेवाले को लंघन कराना चाहिये । एवं पुराने सांठी चावल, कोदों, कांगनी, समा पसाई, जों, तीनी, मूंग, मसूर, चना, अरहर तथा मोठ, ये धान्य. तथा गडजाति और वर्मोजात की मछली ( जो सूप के आकार होती है ) तथा ससा, कपोत ( पिंडुकिया ), हरिण, काला हरिण, लवा, बगला, कबूतर, बटेर, ( वनका चिडा ), ( मुरगा वा बगला ), मेंढा, दुंबा, सपेद तीतर और कषेले वर्ग तथा गौ का और बकरी का घी, और दूध, भैस का घी,पनस ( कटहर ), चिरोंजी, केला की गहर,जलचोलाई, चौलाई, पटोल ( परवर ), वेत की कोंपल, अदरख, पुराना पेठा, ताडफल, ताडफल के बीज, ताडीरस, अडूसा,स्वादु चिल्ली का साग ( स्वादिष्ट तथा तीखेरस ), अनार, खजूर ( छुहारा), आमले, सोंफ, नारियल, कसेरू, सिंघाडे, पुहकरमूल, कैथ, भसीडा, फालसे, चिरायता ( साग ), नीमके पत्ते, सपेद तुंबी, तरमूजया इंद्रजो, चावल, की खील, सतुआ ( सतू ), दाख, मिश्री,सहत, ईख, शीतल जल, झरने का पानी, जल का सींचन ( छिरकना ), जल में गोता मारना, सौवार का धुला हुआ घी, तेल की मालिस, शीतल वस्तु का उवटना, शीतल पवन, चंदन उगाना, चंद्रकिरण ( चांदनी ), विचित्र और मनोनुकूल ( मनोहर ) कथा कहानी, फब्बारेदार घर भूमिगृह ( तहखान ), वैदूर्य, मोती और हीरा, पन्ना आदि मणियों का धारण, लाल कमल, ( केला के भीतर के नम्र पत्ते ), कमल के पत्ते, इन से रचित शय्या ( सेज ), रेशमी कपडे, शीतल वनबाग, प्रियंगु, चंदनचर्चित उत्तम स्त्रियों का आलिंगन, जिन में कमल फूल रहें ऐसा सरोवर अथवा नदी, चंद्रोदय, हिम ( बरफ ) की फुंहार ( वा पर्वत के झरने ), अत्यंत सुंदर गान, नदीतट का जल, शीतल वालू( रेत ) अथवा कपूरये संपूर्ण वस्तु रक्तपित्त रोगपर पथ्य कारक है ॥
रक्तपित्तपर अपथ्य
व्यायामाध्वनिषेवणं रविकरास्तीक्ष्णानि कर्माणि च। स्रोतोवेगविधारणं चपलता हस्त्यश्वयानानि च॥ स्वेदांबुप्रतिधूमपानसुरतक्रोधः खलु स्याद्गुडो। वार्ताकीतिलमाषसर्पपदधिक्षीराणि कोपं पयः॥ तांबूलं ललदंवु मधलशुनं शिम्बी विरुद्धाशनम् । कट्वम्लं लवणं विदाहि च गणस्त्याज्योस्रपित्ते नृणाम् ॥
शास्त्रार्थ
नित्यं स्वदेवपूजाभक्तिर्भैषज्यदेवतागुरुषु ।
छागलमांसपयोश्नन्जीवति यक्ष्मी चिरं धृतिमान् ॥
अर्थ-नित्य इष्ट देवपूजन और औषधी, देवता और गुरु इन की भक्ति तथा बकरे का मांस तथा बकरी का दूध इन का सेवन इन उपायों से क्षयरोगी बहुत काल इस रोग से बचा रहता है ॥
उपद्रवान्सत्वरवैकृतादीन् जयेद्यथा क्षिप्रसमीक्ष्य शास्त्रम् ।
त्यजेत्कुवैद्यप्रतिपादितानि बुद्धेर्विरुद्धानि च भेषजानि ॥
अर्थ-तत्काल जो विकृति आदि उपद्रव होते हैं उन को शास्त्र में कहे मार्गसे कुशल वैद्य के द्वारा नाश कराना चाहिये. कुवैद्य ( मूर्खवैद्य की ) औषध न खाय तथा बिना समझे और विचारे हर किसी औषध को नर न खाने लगे ऐसा करने से इस रोगी का हित हो अन्यथा अहित हो ॥
गीतादिउपाय
गीतवादित्रैरिष्टैश्च प्रियस्तुतिभिरेव च ।
हर्षणाश्वासनैर्नित्यगुरूणां समुपासनैः॥
अर्थ-उत्तम गीत गाना, बाजे बजाना, इष्ट पदार्थ, प्रिय लगे ऐसी बडाई करना और आनंददायक पदार्थ तथा आश्वासन ( दिलासा देना ) ऐसा वाक्य कहना तथा नित्य गुरु की उपासना इन उपायों से क्षयरोग को जीते ॥
राजयक्ष्माक्षयनिदान
वेगरोधात्क्षयाच्चैव साहसाद्विषमाशनात् ।
त्रिदोषोजायते यक्ष्मा गदो हेतुचतुष्टयात् ॥
अर्थ-वात, मूत्र, पुरीषआदि वेगों के रोकने से, अति मैथुन, उपवास, ईर्ष्या, खेद इत्यादिक धातुक्षय के कारणों से बलवान से वैर करने से विषमाशन कहिये कुसमयं थोडा अथवा बहुत भोजन करने से इन चार कारणों से तीनों दोषों के कोप से मनुष्य के राजयक्ष्मा रोग होय है. वेग का रोकना ही वातकोप का कारण है यह सत्य है तथापि वातकोप से अग्नि दुष्टहोकर कफ पित्त का कोप होय है इन चार हेतुओं में असंख्य हेतु अन्तर्भाव होय हैं. रसादि धातुओं के शोषण ( सुखाने) से इस रोग को ( शोष)कहते हैं. तथा शरीर में पाचनादि सर्व क्रियाओं को क्षय करे है इसी से इस रोग को (क्षय) कहते हैं. और राजा ( चन्द्र )इस रोग से अति पीडित भया इसी से
इस को ( राजयक्ष्मा ) कहते है. यह ( सुश्रुत) का आशय है और ( वाग्भट ) ने इस को सर्व रोगो का राजा कहा हे इसी से इस को ( राजयक्ष्मा ) नाम कहा हैइस श्लोक में जो कहा है कि त्रिदोष का एक ही यक्ष्मारोग प्रगट होय है उस का तात्पर्य यह है कि तीनों दोषों के कारण भेद से अनेक प्रकार का नही है सो (सुश्रुत) में कहा भी है और इस श्लोक में ( वेगरोधात् ) इस पद से केवल वात, मूत्र, मल इन का ही ग्रहण करना चाहिये. भ्रमादिक सबो का ग्रहण नहीं है सो ( चरक ) में लिखा है इति ॥
अनुलोम व प्रतिलोम क्षयकी संप्राप्ति
कफप्रधानैर्दोषैस्तु रुद्धेषु रसवर्त्मसु । अतिव्यवायिनो वापिक्षीणे रेतस्यनंतराः ॥ क्षीयंते धातवः सर्वे ततः शुष्यति मानवः । राज्ञश्चंद्रमसो यस्मादभूदेष किलामयः॥ तस्मात्तं राजयक्ष्मेतिकेचिदाहुर्मनीषिणः॥
अर्थ-कफ है प्रधान जिनमें ऐसे जो वातादिक दोष तिन करके रसके बहनेवाली नाडियोंकेमार्ग रुक जानेसे ( इससे यह सूचना करी कि रसमार्ग बंद होनेसे हृदयमें स्थित जो रस उस को बिगाड और उसी स्थानमें विकृति कहिये और प्रकारका स्वरूप करके खांसीके वेगसे मुखमार्ग होकर निकाले ) सो ( चरक ) में लिखाभी है “इस से अनुलोम क्षय दिखाया” “अब प्रतिलोम क्षय कैसा होय है उस को कहते हैं " अथवा अति मैथुन करनेसे मनुष्यका वीर्य क्षीण होय है. जब शुक्र क्षीण हो जाय तब समीपकी धातुक्षीण होय तब पुरुषसूखने लगे जैसे शुक्र क्षीणकेअनन्तर मज्जा क्षीण होय मज्जा क्षीणके अनन्तर हड्डी क्षीण होय ऐसे पूर्व पूर्व धातु क्षीण होय जाय \। * शंका- क्योंजी रस, रुधिर, मांस, मेदा,हड्डी, मज्जा,शुक्र इनमें क्रमसेप्रत्येकके क्षीण होनेसेशुक्रकाक्षय होना उचित है परंतु कार्यभूत शुक्रका क्षय होनेसे करणभूत धातुओंका नाश कैसे होय है? *उत्तर- जब शुक्र काक्षय होय है तब वात कुपित होत है सो तंत्रान्तरोंमें लिखा है अर्थात् धातुके नष्ट होनेसेपवनके बहनेवाली नाडियोंका मार्ग बन्द होकर वायुको कुपित करे तब वही पवन समीपकी मज्जाधातुको सुखावे है इस जगहपर * दृष्टांत- है जैसे अग्निमेंतपाया भया लोहका गोला गीली पृथ्वीमें धरनेसे प्रथम समीपकी पृथ्वीके आर्द्रपनेको शोषण करे पीछे दूरका गीलापना शोषण करे उसी रीतिसे यहां जानना चाहिये॥
पूर्वरूप
श्वासांगसादकफसंस्रवतालुशोषवम्यग्निसादमदपीनसकासनिद्राः। शोषो भविष्यति भवंति स चापि जंतुः शुक्लेक्षणो भवति मांसपरो रिरंसुः ॥ स्वप्नेषु काकशुकशल्लकिनीलकंठगृध्रास्तथैव कपयः कृकलासकाश्च । तं वाहयंति स नदीर्विजलाश्च पश्येत् शुष्कां स्तरून्पवनधूमदवार्दितांश्च ॥
अर्थ-श्वास, हाथ पैर का गलना, कफ का थूकना, तालुवे का सूखना, वमन, मन्दाग्नि, उन्मत्तता, पीनस, खांसी और निद्रा ये लक्षण धातुशोष होनेवाले के होते हैं और उस मनुष्य के नेत्र सपेद होते हैं और उस मनुष्य की मांस खानेपर तथा स्त्रीसंग करने की इच्छा होती है और सपने में कौआ, तोता, सेह, नीलकंठ ( मोर ), गीध, बन्दर, करकैटा इनपर अपने को बैठा देखे और जलहीन नदी को देखे तथा पवन धूर और धूंआं इन से पीडित ऐसे वृक्ष देखे. चकार से तृण, केश आदि का गिरना ये होते हैं ये सब स्वप्न क्षईरोग होने के पहले दीखते हैं ( सो चरक में लिखा है) *शंका-क्यौंजी शुक्र का तो क्षय हो जाय है फिर ( रिरंसुः) यह पद क्यौंधरा ? *उत्तर-यह केवल व्याधि के बढने से मन के दोष से जानना चाहिये॥
क्षय का सामान्य त्रिरूप लक्षण
अंशपार्श्वाभिसंतापः संतापः करपादयोः।
ज्वरः सर्वांगगश्चैव लक्षणं राजयक्ष्मणः ॥
अर्थ-कन्धा और पसवाडे में पीडा, हाथपैर में जलन और सर्व अंगों में ज्वर ये राजयक्ष्मा के लक्षण ये तीन लक्षण अवश्य होते हैं ऐसे चरक ने कहा है ॥
एकादशरूप षड्रूपऔर त्रिरूप क्षयोंका कारण
स्वरभेदोनिलाच्छूलं संकोचश्चांसपार्श्वयोः। ज्वरो दाहोतिसारश्च पित्ताद्रक्तस्य चागमः॥ शिरसः परिपूर्णत्वमभक्त-श्छंद एव च। कासः कंठस्य च ध्वंसो विज्ञेयः कफकोपतः॥ एकादशभिरेतैर्वा षड्भिर्वापि समन्वितम्। कासातिसारपार्श्वार्तिस्वरभेदारुचिज्वरैः॥ त्रिभिर्वा पीडितं लिंगैर्ज्वरकासासृगामयैः॥ जह्यच्छेषा-र्दितं जंतुमिच्छन्सु-विपुलं यशः॥
अर्थ-राजयक्ष्मा ये त्रिदोष से उत्पन्न है इस में दोषोंको न्यारे न्यारे मिलाकर सब ग्यारह रूप हैं ये व्याधि के प्रभाव से होते हैं सन्निपातज्वरके सदृश सर्व लक्षण सब दोषोंसे नहीं होते पृथक् पृथक् होते हैं सो दिखाते हैं. वादी के प्रभाव से स्वरभेद, कन्धा और पसवाडे इन में संकोच और पीडा होय. पित्त से ज्वर, दाह, अतिसार और मुख से रुधिर का गिरना और कफ के कोप से मस्तक का भारीपना, अन्न से द्वेष, खांसी, स्वरभेद ये लक्षण होते हैं. इस में तीन तो वात से और चार लक्षण पित्त से तथा चार ही लक्षण कफ से ऐसे सब ग्यारह लक्षण से अथवा खांसी, अतिसार, पसवाडे में पीडा, स्वरभेद, अरुचि और ज्वर ये छः लक्षणों से अथवा ज्वर, खांसी और रुधिरविकार इन तीन लक्षणों से पीडित क्षई रोगवाले मनुष्य तथा जिस का बल, मांस क्षीण हो गया होय ऐसे रोगी को यशेच्छवैद्य त्याग देय ऐसा रोगी असाध्य है ॥
पुनः असाध्यलक्षण
सर्वैरर्धैस्तिभिर्वापि लिंगैर्मांसबलक्षयैः। युक्तो वर्ज्यश्चिकित्स्यैस्तु सर्वरूपस्ततोन्यथा॥ महाशनं क्षीयमाणमती-सार-निपीडितम्।शूनमुष्कोदरं चैव यक्ष्मिणं परिवर्जयेत् ॥
अर्थ-स्वरभेदादिक जो ग्यारह लक्षण कहे वो सब लक्षण करके अथवा उन में से आधे ( अर्थात् छः लक्षणों से ) अथवा तीन लक्षण कहे इन से युक्त जो खईरोगी बल, मांस क्षीण होने पर त्याज्य है. यदि बल मांस जिसका क्षीण न भया हो परंतु सर्व लक्षणयुक्त भी है तथापि त्याज्य नहीं है उसकी चिकित्सा करनी चाहिये. जो बहुत भोजन करे परंतु दिनदिनप्रति क्षीण होता जाय ( ये असाध्य रोगी है ) अतिसार करके अत्यन्त पीडित होय सो रोगी भी असाध्य होय है क्यौंकि खईरोगवाले का जीना मल के आधीन है ( जैसे लिखा है ) उक्तंच यथा-मलायत्तं बलंपुंसां शुक्रायत्तं तु जीवितम्। तस्माद्यत्नेन संरक्षेद्यक्ष्मिणो मलरेतसी ॥ इति ॥ और जिस के अंडकोश और उदर ये सूजगये हों ऐसा रोगी असाध्य है क्यौंकि शोथवाला दस्त के कराने से अच्छा होय है सो इस परदस्त करना वर्जित है इसी से ऐसे रोगीको वैद्य त्याग देय ॥
साध्यलक्षण
ज्वरानुबंधरहितं बलवंतं क्रियासहम् ।
उपक्रमेदात्मवंतं दीप्ताग्निमकृशं नरम् ॥
अर्थ-जिस खईरोगवाले मनुष्यको ज्वरका सम्बन्ध होय नहीं बलवान् औषधादि उपचारका सहनेवाला और जिसकी इन्द्री बलमेंहो तथा जठराग्नि जिसकी दीप्त होय और कृश न होय ऐसे रोगीकी चिकित्सा ( उपचार ) करना चाहिये । इस श्लोकमें ( अकृशं ) इस पदके धरनेका यह प्रयोजन है कि पुष्ट देहवालाभीइस खईरोगसे हजार दिन बचसके है सोई ग्रन्थान्तरमेंलिखा5 है ॥
असाध्यलक्षण
शुक्लाक्षमन्नद्वेष्टारं ऊर्ध्वश्वासनिपीडितम् ।
कृच्छ्रेण बहु मेहंतं यक्ष्मा इति च मानवम् ॥
अर्थ-सपेद नेत्र जिस के हो गये होंय अन्न जिस को बुरा लगे ऊर्ध्वश्वास से पीडित और कष्ट से बहुत मूतनेवाला अर्थात् मल सुख से उत्तरे इस से ये दिखाया कि जो आहारखाय सो मल हो जाय तबआहार का मल हो गया तब उस के मांस, रुधिर इन का क्षय होय इसी से यह असाध्य है ॥
क्षयारोगीको वर्ज्यपदार्थ
वृंताकं कारवेल्लं च तैलं बिल्वं च राजिकाम् ।
मैथुनं च दिवा निद्रां क्षयी कोपं विवर्जयेत् ॥
अर्थ-बैगन, करेले, तेल, बेलफल, राई, स्त्रीसंग, दिन में सोना और क्रोध करना ये सब कर्म खईरोगवाले के लिये निषेध है॥
क्षयहारक पदार्थ
सधान्ययवगोधूमा मुग्दाश्चापि सदा हिताः।
स्त्रियश्चतुष्पदे श्रेष्ठाः पुंमासो विहगा मताः॥
अर्थ-सुंदर धान, जौ, गेहू, मूंग, चौपाये स्त्री जाति के पशुओं का मांस और पक्षियों में पुरुष जाति का मांस ये क्षय रोग में हितकारी हैं ॥
छागं मांसं पयश्छागं सर्पिश्छागं सशर्करम्।
छागोपसेवा सततं छागमध्ये तु यक्ष्मनुत् ॥
अर्थ-बकरी का मांस, बकरी का दूध, बकरी का घी, इन में मिश्री मिलायके सेवनकरना,तथा बकरीकी टहल चाकरी करना. तथा उन बकरियोंमें रहना ये सबक्षयरोगनाशक यत्न हैं ॥
गीतवादित्रशब्दैश्च प्रियस्तुतिभिरेव च । हर्षणाश्वासनैर्नित्यं
गुरूणां समुपासनैः॥ ब्रह्मचर्येण दानेन तपसा देवतार्चनैः। सत्येनाचारयोगेन रविमंडलसेवया ॥ वैद्यविप्रार्चना-च्चैव रोगराजो निवर्तते ॥
अर्थ-गीत, बाजे, आदि का घोष , प्रियस्तुति, हर्ष, आश्वासन, गुरु की सेवा, ब्रह्मचर्य, तप, देवपूजन, सत्य बोलना, आचार, सूर्यनारायण की सेवा, वैद्य और ब्राह्मण की सेवा और पूजा करना ये सब कर्म राजयक्ष्मा को दूर करते है ॥
षडंगयूप
द्रव्यतो द्विगुणं मांसं सर्वतोष्टगुणं जलम् ।
पदस्थं संस्कृतं चाज्यं षडंगो यूप उच्यते ॥
अर्थ-औषधकी अपेक्षा दुगना मास लेवे तथा सब से आठ गुना जल डालेजब औटते २ चौथाई रहे तब इस मे घी डाले इसे षडंगयूप कहते है ॥
ज्वरदाहक्रिया
ज्वराणां शमनीयो यः पूर्वमुक्तो क्रियाविधिः।
क्षयिणां ज्वरदाहेषु स सर्वोपि प्रशस्यते ॥
अर्थ-जो प्रथम ज्वरों के शमनार्थ क्रिया का प्रकार लिखा है वह संपूर्ण क्षयमें ज्वर और दाह इत्यादि कों पर करे॥
वर्खभक्षण के माहात्म्य
नवनीतसितामधुप्रयुक्तो वरखो हेमभवः क्षयं क्षिणोति ।
वितथः प्रभवेदयं प्रयोगो यदि तन्मे शपथः सदाशिवस्य॥
अर्थ-मक्खन, मिश्री, सहत इन मेसोने के वर्खको मिलायके सेवन करे तो क्षयरोग का नाश होवे यदि यह कहा हुआ मेरा प्रयोग असत्य होवे तो मुझे मेरे उपास्य श्रीशिवजी की शपथ ( सौगंध ) है यह वैद्यामृत ग्रंथ में लिखा है ॥
च्यवनप्राश्यावलेह
पाटलारणिकाश्मर्यबिल्वारलुकगोक्षुराः। पर्ण्यौबृहत्यौपिप्पल्यः शृंगी द्राक्षामृताभयाः॥ बला भूम्यामली वासा ऋद्धिर्जीवंतिका सठी। जीवकर्षभकौमुस्तं पौष्करंकाकनासिका॥मुद्गपर्णी माषपर्णी विदारी च पुनर्नवा।कांकोल्यौ कमलं मेदे
सूक्ष्मैलागरुचंदनम् ॥ एकैकं पलसम्मानं स्थूलचूर्णितमौषधम्। एकीकृत्य बृहत्पात्रे पंचामलशतानि च ॥ पचेत् द्रोणजले क्षिप्त्वाग्राह्यमष्टांशशेषितम् । ततस्तु तान्यामलानि निष्कुलीकृत्य वाससा ॥ दृढहस्तेन संमर्द्य क्षिप्त्वा तत्र ततो घृतम्। पलसप्तमितं तोयं किंचित् भृष्ट्वाल्पवह्निना। ततस्तत्र क्षिपेत्वाथंखंडं चार्धपलोन्मितम्। लेहवत्साधयित्वा च चूर्णानीमानि दापयेत् ॥ पिप्पली द्विपला ज्ञेया तुगाक्षीरी चतुःपला। प्रत्येकं च त्रिशाणा स्युस्त्वगेलापत्रकेशराः ॥ ततस्त्वेकीकृते तस्मिन्क्षिपेत्क्षौद्रं च पट्पलम् । इत्येवं च्यवनप्रोक्तं च्यवनप्राश्य-संज्ञकम् ॥ लेहं वह्निबलं दृष्ट्वा खादेत्क्षीणो रसायनम्। बालवृद्धक्षतक्षीणा नारीक्षीणाश्च शोषिणः॥ हृद्रोगिणः स्वरक्षीणा ये नरास्तेषु युज्यते । कासं श्वासं पिपासां च वातास्रमुरसो ग्रहम्॥ वातपित्तं शुक्रदोषंमूत्रदोषंच नाशयेत्। मेधां स्मृतिं स्त्रीषुहर्षंकांतिं वर्णं प्रसन्नताम् ॥ अस्मात्प्रयोगादाप्नोति नरो जीर्णविवर्जितः॥
अर्थ-पाठ, अरनी, कंभारी, बेलगिरी, टेंटू, गोखरू, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेरी बडीकटेरी, पीपल, कांकडासिंगी, दाख, गिलोय, हरड, बला.भूय आवला, अडूसा, ऋद्धि, सिद्धिके अभावमें वारहीकंद, जीवंती ( डोडी ), कचूर, जीवक ऋषभक इन दोनों के अभावमें विदारीकंद, नागरमोथा, पुहकरमूल, काकनासा ( कौआडोडी ), मुद्गपर्णी, माषपर्णी, विदारीकंद, पुनर्नवा ( सांठ ), काकोली, क्षीर काकोली इन दोनों के अभावमें असगंध, कमल, मेदा, महामेदा इन दोनों के भाव में मुलहटी, छोटी इलायची, अगर, लालचंदन, इन सब औषधोंको एकत्र एक एक पल लेवेसब को जब कूटकर लेवे फिर बडे२ आंवले ५०० लेवेइन सबको बडेभारी पात्रमें भरके १ द्रोण जलमें औटावे जबआठवां हिस्सा जल शेष रहे तबउन आवलोंको उतार लेवे और मोटे गाढेकपडेमें उन आवलों को डारके मथ डाले तोउस वस्त्रमेंसेआवलों का सीरा छनके नीचेके पात्रमें गिरेगा उसको अलग रखलेवे. फिर कलईकेबासनमें २८ तोले घी डाल अग्निपर चढावे और आवलोंकासीरा डालके मंद२ अग्निसे भून लेवे. और फिर पूर्वोक्त आवलोंका
जल डालके तथा ५० पल मिश्री डालके पक्वकरे जब अवलेहकेमाफिक चासनी हो जावे तब इन औषधोंका चूर्ण डाले. पीपल ८ तोले, वंशलोचन १६ तोले, दालचीनी, इलायची, पत्रज, नागकेशर, प्रत्येक तीन शाण लेवे सब का चूर्ण करके उस चासनीमें डाल देवे और सहत छः पल मिलावे, तौच्यवनऋषिका कहा हुआ यह अवलेह सिद्ध होवे इसे च्यवनप्राश्य अवलेह कहते हैं इस अवलेहको रोगीका बलाबल देखके देवे तथा उस का अग्निबलभी विचार लेना चाहिये तो इससे क्षीणत्वदूर होवे. बाल, वृद्ध और क्षत ( घाव ) करके जो क्षीण है तथा स्त्रीसंग अत्यन्त करने से जिन की धातु नष्ट हो गई है. तथा जिन मनुष्योंके शोषरोग है. जिनके हृदयका रोग है वा एवं जिनके कंठका स्वर क्षीण हो गया है वो इतने मनुष्योंको यह अवलेह देनी चाहिये, श्वास, खांसी, प्यास, वातरक्त, उरोग्रह, वात, पित्तविकार, धातुदोष, तथा मूत्र दोष ये संपूर्ण रोग दूर होवें तथा इस अवलेहके सेवन करने से बुद्धि बढती है. स्मरणशक्ति ( याद ) ठीक रहे है. तथा स्त्रियोंसे मैथुन करनेकी इच्छा बढती है. शरीरकी कांति और शरीरका वर्ण ये उत्तम होते हैं मन प्रसन्न रहता है तथा मनुष्यके सब रोग दूर करे है यह रसायन है ॥
एलाद्यचूर्ण
एलापत्रं नागपुष्पं लवंगा भागस्त्वेषां द्वौ च खर्जूरकस्य ।
द्राक्षायष्टीशर्करापिप्पलीनां चत्वार्येतत्क्षौद्रयुक्तं क्षये स्यात् ॥
अर्थ-इलायची, पत्रज, नागकेशर और लौग इन को एक २ भाग ले, खजूर दो भाग लेवे, मुनक्का दाख, मुलहटी, मिश्री और पीपल इन को चार भाग लेवे सब का एकत्र चूर्ण कर सहत के साथ खाने को देवे. यह चूर्ण क्षयरोगपर उत्तम है ॥
अश्वगंधाचूर्ण
अश्वगंधा दशपलं तदर्धंनागरान्वितम्। तदर्धकणसंयुक्तं मरीचं च चतुर्थकम्॥ चातुर्जातं वरांगं च भांर्ङ्गीतालीसपत्रकम्। कचोराजाजिकैटर्यं मांसीकं कोलमुस्तकम् ॥ रास्ना कटुकरोहिण्याजीवंती कुष्ठकं तथा। प्रायः कर्षमितं चूर्णं चूर्णेन समशर्करा॥ प्रातःकाले त्विदं चूर्णं जलेनोष्णेन सेवयेत्। वातपित्तक्षये चैव अजागोघृतसंयुतम्॥ श्लेष्मक्षये क्षौद्रयुक्तं नवनीतेन मेहजित् । शिरोभ्रमणपित्तार्ते गोक्षुरेण समन्वितम्॥
क्षतक्षीणं च देहं च विशेषबलवर्द्धनम्। मेदोदरं च मंदाग्निं कुक्षिशूलोदरापहम्॥ अनुपानविशेषेण सर्वरोगहरं परम्॥
अर्थ-असगंध ४० तोले, सोंठ २० तोले, पीपल १० तोले, काली मिरच ४ तोले तथा चातुर्जात, दालचीनी, भारंगी, पत्रज, कचूर, जीरा, अजमायन, कायफल, जटामांसी, कंकोल, नागरमोथा, रास्ना, कुटकी, जीवंती, कूठ ये संपूर्ण औषधी एक.एक तोला लेकर चूर्ण करे तथा सब चूर्ण की बराबरमिश्री मिलावे. इस चूर्ण को प्रातःकाल गरम जल के साथ देवे तथा वातक्षय, पित्तक्षय, इन पर बकरी का अथवा गौ के घी के साथ देवे तथा कफक्षय पर सहत के साथ देवे प्रमेह में लोनी ( मक्खन ) के साथ शिरोभ्रमण ( मस्तक के घूमने ) पर तथा पित्तव्याधि इन पर गोखरू के साथ देवे यह विशेष करके क्षतक्षीण तथा क्षीणदेह इन के बल की वृद्धि करे है तथा मेद, उदर, मंदाग्नि, कुक्षिशूल, जलंधर इन का तथा सर्व रोगों का नाश करे॥
द्राक्षादिचूर्ण
द्राक्षालाजसितोपलं समधुकं खर्जूरगोपीतुगा ह्रीवेरामलकाब्दचंदननतं कंकोलजातीफलम्। चातुर्जातकणा सधान्यकमिदं चूर्णं समं शर्करा प्रातर्भक्षितमात्मकेन विधिना पित्तं सदाहं जयेत्॥ मूर्छाछर्दिमरोचकं च शमयेत्कायस्य कांतिप्रदं पांडूकामिलरक्तपित्तमुदरं दाहज्वरारोचकम्। यक्ष्माणं रुधिरप्रमेहरणं तद्योनिदोपापहं रक्तार्शोत्रविवृद्धिविद्रधिहरं द्राक्षादिचूर्णोत्तमम्॥
अर्थ-दाख, खील, मिश्री, मुलहटी, खजूर, सीखन, वंशलोचन, नेत्रवाला, आमले, नागरमोथा, चंदन, छज, कंकोल, जायफल, दालचीनी, पत्रज, इलायची नागकेशर, पीपल और धनिया ये सबसमान भाग ले इनकी बराबरमिश्री मिलावेइस चूर्ण को प्रातःकाल सेवन करने से पित्त, पित्तदाह, मूर्च्छा, वमन और अरुचि इनको शमन करे शरीरकी कांति बढावे और पांडुरोग, कामला, रक्तपित्त, उदर, दाह, ज्वर, अरोचक, खई, रुधिरकाविकार, प्रमेह, योनिके दोष, खूनीबवासीर, अंत्रवृद्धिऔर बढी हुई विद्रधिकारोग इन सब रोगोंको यह द्राक्षादिचूर्ण दूर करे है ॥
कर्पूरादिचूर्ण
कर्पूरं चोचकंकोलजातीफलदलैः समैः। लवंगमांसीमरिचैः
कृष्णाशुंठीविवर्धितैः॥ चूर्णं सितासमं हृद्यं सदाहक्षयकासजित्। वैवर्णपीनसश्वासछर्दिकंठामयापहम्॥ प्रयुक्तं चानुपानैर्वा। भेषजद्वेषिणांहितम् ॥
अर्थ-कपूर, दालचीनी, कंकोल, जायफल और पत्रज ये समान भाग लेवे तथा लौंग १, जटामांसी २, काली मिरच ३, पीपल ४, सोंठ ५ भाग इस प्रकार सब औषध लेकर चूर्ण करे चूर्णके बराबर मिश्री मिलायके देवे. यह हृदयको हितकारी है तथा दाह, क्षय, खांसी, विवर्णता, पीनस, प्यास, वमन और कंठके रोग इन पर अनुपानके साथ देवे यह औषधसे द्वेष करनेवालेको भी प्रियलगे है ॥
यवादिचूर्ण
यवगोधूमचूर्णं वा क्षीरसिद्धं घृतप्लुतम् ।
तत्कृत्वा सर्पिषाक्षौद्रसिताक्तं क्षयशांतये ॥
अर्थ-जव और गेंहू इन का चून दूधमें पक्क करके उसमें घी सहत और मिश्री मिलायके पीनेको देवे तो क्षयरोगकी शांति होवे॥
त्रिकट्वादिचूर्ण
त्रिकटुत्रिफलैलाभिर्जातीफललवंगकैः। नवभागोन्मितैरेतैः समं तीक्ष्णं मृतं भवेत्॥ संचूर्ण्यालोडयेत्क्षौद्रे नित्यं यः सेवतेनरः। कासं श्वासं क्षयं मेहं पांडुरोगं भगंदरम् ॥ ज्वरं मंदानलं, शोथंसंमोहं ग्रहणीं जयेत् ॥
अर्थ-त्रिकुटा, त्रिफला, इलायची, जायफल, लौंग, इनका चूर्ण बराबर करके इन सबकी बराबरपोलादलोह की भस्म लेवे सब को एकत्र कर नित्य प्रति सहत के संग खाय तो श्वास, खासी, क्षय, प्रमेह, पांडुरोग, भगंदर, ज्वर, मंदाग्नि, सूजन, मोह, संग्रहणी इन का नाश करे ॥
शंखपोटलीरस
रसं गंधं कंबोर्भसितमपि कापर्दभसितं मरीचं भूचंद्रांबुधिरससहस्रांशुलविकम्। रसाघ्र्यंशं टंकं सकलमपि चूर्णीकृतमिदंक्रमाद्यावन्निष्कं घृतसहितमद्यात्क्षयहरम् ॥
अर्थ-पारा १, गंधक १, शंखकी भस्म ४, कौडी की भस्म ६, काली मिरच १२ औरसुहोगका चूर्ण १॥ भाग ले सबका बारीक चूर्ण करके नित्यप्रति एक मासेके अनुमान घीके साथ सेवन करे तो क्षयरोगको नष्ट करे॥
Pege no. ७४० to ७४३ are missing from this Book.
सितोपलादिचूर्ण
सितोपला षोडश स्यादष्टौ स्याद्वंशरोचना । पिप्पली स्याच्च तुःकर्षाएला स्याच्च द्विकर्षिका॥ एककर्षाच त्वग्ग्राह्या चूर्णयेत्सर्वमेकतः। सितोपलादिकं चूर्णं मधुसर्पिर्युतं लिहेत्॥कासश्वासक्षयहरं हस्तपादांगदाहजित्। मंदाग्निं सुप्तजिह्वत्वं पार्श्वशूलमरोचकम् ॥ ज्वरमूर्ध्वगतं रक्तं पित्तमाशु व्यपोहति॥
अर्थ-मिश्री १६ तोले, वंशलोचन ८ तोले,पीपल ४ तोले, इलायची २ तोले, और दालचीनी १ तोलाइन सबका चूर्ण करे इसे शीतोपलादि चूर्णकहते हैं इस को सहत और घी के साथ देवे तो खांसी, श्वास, क्षय और हाथ, पैर, अंग इन का दाह, मंदाग्निजिव्हाका रसअज्ञान, पसलीकी पीडा, अरुचि, ज्वर, ऊर्ध्वगत रक्तविकार और पित्त इनको शीघ्र नाश करे ॥
तवराजादिचूर्ण
तवराजकणा द्राक्षा खर्जूरंमधुकं त्रुटी। लवंगं पत्रकं चैव नागकेसरनामतः॥ मधुना भक्षितं हंतिचूर्णमेषांहि निश्चितम् । भ्रमं दाहं शिरःपीडां क्षयरोगं न संशयः॥
अर्थ-मिश्री, पीपल,दाख, खजूर, मुलहटी, इलायची, छोटी लौंग, पत्रज और नागकेशर इन का चूर्ण कर सहतके साथ देवेतो यह भ्रम, दाह, मस्तकशूल और क्षयरोग इन का नाश करे ॥
अडूसायोग
आयुर्यदा स्याद्बलवन्नराणां सरक्तपित्तश्वसनक्षयीणाम् ।
मधुप्रयुक्ता यशसा प्रतीता वासा तदा किं न करिष्यतीयम् ॥
अर्थ-यदि रोगीकी आयु बलवान् होवेतो उस के रक्तपित्त, श्वास, क्षय ये रोग अडूसेकेस्वरस वा काढेमें सहत डालके पीनेसे क्या परचा नहीं देवे. अर्थात् अवश्य अपना परचा देता है ॥
द्राक्षादिचूर्ण
द्राक्षाखर्जूरसर्पिर्भिः पिप्पल्या च सह स्मृतम् ।
सक्षौद्रं ज्वरकासघ्नं श्वयथुंच प्रयोजयेत् ॥
अर्थ- दाख,खजूर औरपीपल इनके चूर्णकोसहत और घी डालके सेवनकरे इसको ज्वर, खांसीऔर सूजन पर देवेतो इन रोगोंको नष्ट करे॥
स्वर्णमाक्षिकादिचूर्ण
मधुताप्यविडंगाश्मजतु लोहं घृतं मतम् ।
हंति यक्ष्माणमत्युग्रं सेव्यमानं हिताशिनः॥
अर्थ-सुवर्णमाक्षिक, वायविडंग, शिलाजीत, लोह इन का चूर्ण कर इस को घीऔर सहत में मिलायके देवे तो क्षय और श्वास इन को नाश करे ॥
शिलाजितादिचूर्ण
शिलाजतुमधुव्योषताप्यलोहरजांसि च ।
क्षारयुग्लोहिनः श्वासः क्षयः क्षयमवाप्नुयात् ॥
अर्थ-शिलाजीत, सोंठ, मिरच, पीपल, सुवर्णमाक्षिककी भस्म और कांति लोह की भस्म ये दूध, सहत और मिश्री इन में मिलायके देवेतो क्षय तथा श्वास इन का नाश होय ॥
लाक्षाकूष्मांडरस
कूष्मांडकगिरोत्थेन रसेन परिपेषितम् ।
लाक्षाकर्षद्वयं पीत्वा जयेद्रक्तक्षयं तथा ॥
अर्थ-कुह्मडा( पेठे ) के गूदेके रसमें दो तोले लाखका चूर्ण डालके पीवे तो रक्तक्षय का नाश होवे. परंतु पेठा पका हुआ लेवे ॥
मार्कवादिचूर्ण
द्वे पले मार्कवं धात्री माक्षिकं सपुनर्नवा । तुगा स्पृक्का शालिपर्णी वासकं सदुरालभम् ॥ चूर्णार्धेनसमं योज्यं त्रिगंधंमरिचानि च। तालीसं मगधा चैव तदर्धेन शिलोद्भवम् ॥ शिलाभेदं तदर्धेन सर्वंचैकत्र मिश्रयेत् । समेन तिलचूर्णेन शर्करा च समाहृता। भक्षयित्वा पयःपानं शस्यते घृतसंयुतम् । तेन क्षयो राजयक्ष्मा कामला च विनश्यति ॥ अर्शाश्मरींजयत्याशु बलवीर्याधिको भवेत् । शाम्यंति च महारोगाःशुक्राढ्योजायते नरः॥
अर्थ-भांगरा, आवले, स्वर्णमाक्षिक, पुनर्नवा, वंशलोचन, लजालु कंद शालपर्णी अडूसा और धमासा ये समान भाग लेवे इन सबसे आधी दालचीनी, पत्रज, इला-
यची, काली मिरच, तालीसपत्र, पीपर लेवे तथा इन से आधा शिलाजीत, पाषाणभेद और सब चूर्ण के बराबरतिलोंका चूर्ण और खांड ले सबको एकत्र कर चूर्ण करे इसको भक्षण करे ऊपरसे घी डालके दूध पीवेतो क्षय,राजयक्ष्मा,कामला, बवासीर, पथरी, मूत्रकृच्छ्रऔर अष्ट महारोग इन को नाश करे तथा रोगी को बल आनकर धातु पुष्ट होवे ॥
बलादिचूर्ण
बला विदारी लघुपंचमूली पंचैव क्षीरावृतत्वक् प्रयोज्या । पुनर्नवा मेघतुगा च भृंगः संजीवनीयैर्मधुकैः समांशैः॥अक्षप्रमाणानि च मानिकानि सर्वाणि चैतानि विचूर्णयित्वा । विमिश्रयेत्तक्रकणाशतानि पंचाशगोधूमयवाश्च पिष्ट्वा॥ तुगासमांशं सिततंदुलानां पिष्टं सशृंगाटकमिश्रितं तु । प्राक् चूर्णं क्वाथेन वियोजनीयं सर्वांशकेनाप्यथ वा प्रयोज्यम् ॥ विभावयेच्चामलकीरसेन वारत्रयं गोपयसा विभाव्यम् । ततोस्य सर्वैः समशर्करा वा घृतेन चैवं पुनरेव भाव्यम् ॥ तद्भक्षयेत्क्षौद्रयुतं पलार्द्धंजीर्णं च भोज्यं कटुकाम्लवर्ज्यम् । क्षीरं घृतं वा सितशर्करं वा यवान्नगोधूमकशालिमद्यान् ॥ ज्ञात्वाग्निपाकं जठरे नरस्य देयो विधिज्ञैः क्षयरोगशांत्यै ॥
अर्थ-बला, विदारीकंद, लघुपंचमूल, वड, गूलर, पीपलवृक्ष, पाईर,नांदरूखइन की छाल, पुनर्नवा, नागरमोथा, वंशलोचन, भांगरा और जीवनीयगण, मुलहटी, ये सब समान भाग लेकर चूर्ण करे इस चूर्ण का पांचवां भाग गेंहूऔर जौकाआटा तथा वंशलोचनके समान चावल औरसिंघाडेकाचूर्ण लेवेये सब चूर्णको एकत्र करके ऊपर कही हुई बलासे लेकर मुलहटी पर्यंत वो फिर लेके उन का काढा करके पूर्वोक्त चूर्णमें भावना देवे फिर चूर्णमें बराबरकी मिश्री मिलाय लेवे इसमेंसे छः मासे चूर्णको सहतके साथ देवे जब चार घडी बीत जावेतब चरषरेऔर खट्टेपदार्थ त्यागकर दूध, घी, खांड, गेहूं, जौ, चावल और मद्य ये पथ्य में देवे. इस प्रकारअग्निबलजानके क्षयरोगकानाश करनेके अर्थ देवे तो राजरोग नष्ट होवे ॥
जातीफलादिचूर्ण
जातीफलंविडंगानि चित्रकं तगरं तिलाः । तालीसं चंदनं शुंठी
लवंगमुपकुंचिका॥ कर्पूरश्चाभया धात्री मरीचं पिप्पली तुगा। एषामक्षसमा भागाश्चातुर्जातकसंयुताः॥ पलानि सप्त भंगायाः सिता सर्वसमा मता। चूर्णमेतत्क्षयं कासं श्वासं च ग्रहणीगदम्॥ अरोचकं प्रतिश्यायं तथा चानलमंदताम्। एतान् रोगान् निहंत्येव वृक्षानिंद्राशनिर्यथा॥
अर्थ-जायफल, वायविडंग, चीते की छाल, तगर, तिल, तालीसपत्र, चंदन, सोंठ, लौंग, इलायची, भीमसेनी कपूर, हरड, आवला, काली मिरच, पीपल, वंशलोचन तथा चातुर्जातये प्रत्येक एक २ तोला लेवे तथा भांग सात तोले ले और सबके बराबर मिश्री लेवे इस चूर्णके खाने से क्षय, खांसी, श्वास, संग्रहणी, अरुचि, प्रतिश्याय और मंदाग्नि इनका नाश करे ॥
शिवगुटी
त्रीन्वारान्प्रथमे शिलाजतुजले भाव्यं भवे त्रैफले निःक्वाथेदशमूलजेथ तदनु च्छिन्नोद्भवाया रसैः। क्वाथे वालकजेपटोलसलिले यष्टीकषाये पुनर्गोमूत्रेथ पयस्यथापि च गवामेषांकषाये ततः॥ द्राक्षाभीरुविदारिकाद्वय-पृथक्पर्णीस्थिरापौष्करैः पाठाकर्कटकोटजाख्यकटुकारास्नांबुदालंबुदैः। दंतीचित्रकचव्यवारुणकणावीराष्टवर्गौ-षधैरष्टोर्णे चरणस्थिते पलमितैराभः पृथक् भावयेत्॥ धात्रीमेषविशाणिकात्रिकटुकैरेभिः पृथक् पंचकैर्द्रव्यैश्च द्विपलोन्मितैरपि पलं चूर्णं विदारीभवम् । तालीसात्कुडवं चतुःपलमिह प्रक्षिप्यते सर्पिषस्तैल-स्यार्धपलंपलाष्टकमथ क्षौद्रं भिषग्योजयेत्॥ तुल्यं पलैः षोडशभिः शितायास्त्वकक्षीरिकापत्रककेसरैश्च। बिल्वांशकैस्त्वक्तृटिसंप्रयुक्तै-रित्यक्षमात्रा गुटिका प्रकल्प्या॥ तासामेकतमां प्रयोज्य विधिवत्प्रातः पुमान्भोजनात्प्राग्वा मुद्गदलांबुजांगलरसं शीतं शृतं वा जलम् । माक्षिकं मदिरामगुर्वशनभुक् पीत्वा पयो वागवां प्राप्नोत्यंग मनोभवः सुभवनं संपन्नमानंदकृत् ॥
शोफग्रंथिविबंधवेपथुवमिं पांड्वामयं श्लीपदं प्लीहार्शं प्रदरं प्रमेहपिटिकां मेहाश्मरींशर्कराम्। हद्रोगार्बुदवृद्धि-विद्रधियकृद्योन्यामयः सानिलश्चोरुस्तंभभगंदरज्वररुजस्तूणी प्रतूणी तथा॥ वातासृक् प्रबलं प्रवृद्धमुदरं कुष्ठं किलासं कृमीन् कासं श्वासमुरःक्षतक्षयमसृक्पित्तं समानात्ययम् । उन्मादं मदमप्यपस्मृतिमति स्थौल्यं कृशत्वं तनोः सालस्यं च हलीमकं च शमयेन्मूत्रस्य कृच्छ्राणि च ॥
अर्थ-शोधा शिलाजीत लेकर उसको त्रिफले के काढेकी ३ भावना देवे फिर दशमूल का काढा, गिलोयका रस, नेत्रवालाका काढा, पटोल पत्र का रस, मुलहटी, गोमूत्र, गौ का दूध, दाख, शतावर, विदारीकंद, कोहडा, सालपर्णी, पृष्ठपर्णी, पुहकरमूल, पाढ, कूडे के बीज ( इन्द्रजौ ), कांकडी, कुटकी, रास्ना, नागरमोथा, खस, दंती, चीते की छाल, चव्य, गजपीपल, भूंयआवला, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, काकोली, क्षीरकाकोली ये औषधी प्रत्येक चार चार तोले लेकर इन के रस की अथवा काढेकी पृथक् भावना देवे, फिर आंवला, मेढासिंगी,सोंठ, मिरच, पीपल ये प्रत्येक ८ तोले, विदारीकंद का चूर्ण ४ तोले, तालीसपत्र, १६ तोले और घी १५ तोले, तेल २ तोले, सहत ३२ तोले और मिश्री ६० वंशलोचन, पत्रज, नागकेशर, दालचीनी, छोटी इलायची, ये सब चार २ तोले लेवे सब को एकजीव करके एक २ तोले की गोली बनावेइस को प्रातःकाल में सेवन करे और भोजन करने के प्रथम देवे और पथ्य में मूंग की दाल अथवा मूंग का जल देवे जंगली जीवों का मांसरस औटायके शीतल करा हुआ जल सहत, मद्य, हलके अन्न, तथा गौ का दूध ये पदार्थ देने चाहिये तो कामदेव को प्रपल करे तथा सूजन, गांठ, विडूबंध, कफ, वांति, पांडुरोग, श्लीपद, प्लीहा, बवासीर, प्रदर, प्रमेह, प्रमेह पिटिका, मूत्राश्मरी, हृदयरोग, अर्बुद अंडवृद्धि, विद्रधि, यकृत्, योनिरोग, वातरोग, ऊरुस्तंभ, भगंदर, ज्वर तथा तूणीऔर प्रतूनी, वातरक्त, बढा हुआ जलंधरका रोग,कुष्ठ, किलासकुष्ठ, कृमिरोग, खांसी, श्वास, उरःक्षत, क्षय, रक्तपित्त, मद, उन्माद, ( बावलापना ), अपस्मार (मृगी), अतिस्थूलता, अत्यंत कृशता, आलकस, हलीमक, मूत्रकृच्छ्र, बली ( देहमें गुजलटोंका पडजाना ), पलित ( बालोंका सपेद हो जाना) इन सब रोगों को यह शिवगुटी दूर करे है ॥
लघुशिवगुटी
कौटजंत्रिफलां निंबंपटोलं घननागरैः । भावितानि दशाहानि
रसैर्द्वित्रिगुणानि च॥ शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा। त्वक्षीरी पिप्पली धात्री कर्कटाख्या पलोन्मिता॥ निदिग्धी फलमूलाभ्यां पलं युंज्यात् त्रिजातकात्। मधुत्रिपलसंयुक्ता कुर्यादक्षसमा गुटी ॥ दाडिमाम्लपयः-क्षीररसयूषसुरासवान्। तान्भक्षयित्वानुपिबेनिरन्नो हितभक्ष्यभाक्॥ पांडुं कुष्ठज्वरप्लीहतमकार्शोभगंदरम्। नाशयन्मूत्रकृच्छ्राणि मूत्रस्थानविबंधनुत् ॥ यद्यत्र मेलितं येन कांतलोहं तथाभ्रकम् । पलं पलंच मिलितं तदा स्याकिमतः परम् ॥ तीव्रदुःखप्रदं पांडुं प्रमेहमपरिग्रहम् । राजरोगं च व्याधिं च जयेदिति किमद्भुतम् ॥
अर्थ-शुद्ध शिलाजीत बत्तीस तोले को कुडा की छाल, हरड, बहेडा, आवला, नीम, पटोलपत्र, नागरमोथा और सोंठ इन के काटे में एक महीना खरल करे फिर इस में मिश्री ३२ तोले तथा वंशलोचन, पीपल, आंवला, ककोडा ये प्रत्येक चार चार तोले और कटेरी का पंचांग ४ तोले तथा दालचिनी, पत्रज, इलायची और सहतये बारह २ तोले ले इन को खरल करके दश मासे की गोली खायकर अनारदाना, दूध, खीर, रस, यूष, मद्य अथवा आसव इन में से किसी एक को भक्षण करे. तथा हितकारी भोजन करे तो पांडुरोग, कोढ, ज्वर, प्लीहा, तमक, बवासीर, भगंदर, मूत्रकृच्छ्र, मूत्रसंबंधी रोग तथा मूत्रबंध इन को नाश करे इस गोली में किसी २ वैद्य की आज्ञा है कि इस में कांतलोह और अभ्रक इन की भस्म ये चार २ तोले और मिलावे फिर इस के गुणों का क्या ही कहना है. यह पांडुरोग, सर्व प्रकार के प्रमेह, क्षय और अनेक व्याधियों को नाश करे इस में आश्चर्य ही क्या है ॥
सूर्यप्रभागुटी
दार्वी व्योषविडंगचित्रकवचा पीता करंजामृता देवाह्वातिविषात्रिवृत्सकटुका कुस्तुंबरुःकारवी । द्वौ क्षारौ लवणत्रयं गजकणा चव्यं तथारुष्करं तालीसं कणमूलपुष्करजटाभूनिंबसंज्ञैर्युतम्॥ भार्ङ्गी पद्मकजीरकोशकुटजो दंतीत्वचा भद्रकं सर्वं कर्षसमांशकं सुभिषजा सूक्ष्मं च संचूर्णितम् । तद्वत्पंचपलं वरा गिरिजतु स्यात्पंचमुष्टिः पुरोर्लोहस्य द्विपलं पलद्वयमथो ताप्यस्य
Pege no. ७५० and७५१ are missing from this Book.
पत्रज, इलायची ये प्रत्येक १६ तोले लेवे इन सब का चूर्ण कर उस पूर्वोक्त रसों में मिलाय देवे फिर रई से मंथन करके चार २ तोले के लड्डू करके धर रखे इस में से दोनों वख्त अथवा एक बार इस मोदक को अग्नि का बल विचारके खाने को देवे.इस पर पथ्य उत्तम करे तथा जितेन्द्री और ब्रह्मचर्य से रहे तो यह संग्रहणी, ग्यारह प्रकार की क्षय रोग इन को नष्ट करे और जो वृद्ध व्याकुल है तथा धातु क्षीण हो गए हैं उन को यह वाजीकरण कर्त्ताहैं वंध्याओं को पुत्र देय है और युद्ध (लढाई ), स्त्रीसंग, मद्य और भार इन से श्रमित पुरुषों को बलबढावेऔर हृद्रोग, प्लीहा, संग्रहणी, मूत्रकृछ्र, अपतंत्रक, अपस्मार, विष, उन्माद इन को नाश करे यह रसायन है ॥
द्राक्षासव
मृद्वीकायास्तुलार्द्धंतु द्विद्रोणेषां विपाचयेत् । पादशेषेकषाये च पूते शीते प्रदापयेत् ॥ गुडस्य द्वितुला भाविधातक्या घृतभाजने। विडंगं फलिनी कृष्णा त्वगेलापत्रकेसरम्॥ मरिचं च भिषक्चूर्णं सम्यक् दत्त्वा विचक्षणः। क्षिपेच्च पलिकैर्भागैःस्थापयेच्चातपे दिने॥ ततो यथाबलंपीत्वा कासश्वासगलामयान्। हंति यक्ष्माणमत्युग्रमुरःसंधान-कारकम्॥ चतुर्थभागोद्राक्षाया धातकीमत्र केचन। प्रयच्छंति ततो वीर्यमेतस्योर्च्चैः प्रजायते ॥
अर्थ-मुनक्का दाख दो सौ तोलेन को चार हजार छियाणव तोले जल में डालके औटावे जव चतुर्थांश जल रहे तब उतारके जल को छान लेवे जब काढे का जर शीतल हो जावे तब गुड आठ सौ तोले डाले और धाय के फूलों का चूर्ण ८०० तोले डालके सब को घी के चिकने वासन में भरके उस में वायविडंग, त्रायमाण, पीपल, दालचीनी, इलायची, पत्रज, नागकेशर और काली मिरच इन प्रत्येक के चार चार तोले चूर्ण डालके १ दिन धूप में धरा रहने दे फिर मुख बंद करके १ महिने पर्यंत धरा रहने देवे इस को बलाबलविचार करके पीवे तो घोर खाई का रोग, खांसी, श्वास, गलेके रोग, उरःक्षत, इन को दूर करे इस आसव में कोई २ वैद्यचतुर्थांश धाय के फूल गेरते है कि जिस से आसव अधिक वीर्यवाली हो जावे ॥
खर्जूरासव
पंचप्रस्थं समादाय खर्जूरस्य विचक्षणः। द्रोणांभसिपचेत्सम्यक्ततोत्तार्य च गालयेत्॥ कुंभं सुधूपितं कृत्वा प्रक्षिपेत्तं
रसं शुभम् । हपुषाताम्रपुष्पी च कषायं तत्र निःक्षिपेत् ॥ द्वारं निरुध्य सुदृढं निक्षिपेद्वसुधातले । सप्तकद्वय-योगेन सिद्धोयमासवो रसः ॥ रोगराजं तथा शोफं प्रमेहं पांडुकामलाम् । ग्रहणीं पंचगुल्मार्शोनाशयत्यति-वेगतः॥
अर्थ-खजूर ३२० तोले को २०४८ जल में डालके औटावे जब चतुर्थांश जल रहे तब उतारके छान लेवे फिर एक मिट्टीकी गगरी ले उस को अगरआदि की धूनी देके उस काढे के जल को उस मे भर देवे फिर हाऊबेर, धाय के फूल, इन का काढाउस में डालके मुख बंद कर उस गागर को धरती खोदके गाड देवे १४ चौदह दिन के उपरान्त निकाल लेय तो यह खर्जूरासव तयार हो यह क्षय, सूजन, प्रमेह, पांडुरोग, कामला, संग्रहणी, पांच प्रकारके गोले का रोग, बवासीर इन सब रोगो का नाश करे ॥
दशमूलासव
दशमूलं तुलार्द्धंच पौष्करं च तदर्धकम्। हरीतकीनां प्रस्थार्द्धं धात्री प्रस्थद्वयं तथा॥ चित्रकं पुष्करमितं चित्रकार्धंदुरालभा। गुडूच्यादिः शतपलं विशालापलपंचकम् ॥ खदिरस्य पलान्यष्टौ तदर्धं बीजकं तथा। मंजिष्ठा मधुकं कुष्ठं कपित्थं देवदारु च ॥ विडंगं चविकं लोध्रंभागं चाष्टकवर्गकम् । कृष्णाजाजी पिप्पली च क्रमुकं पद्मकं सठी ॥ प्रियंगुसारिवामांसी रेणुका नागकेसरम् । त्रिवृता रजनी रास्नामेषशृंगी पुनर्नवा ॥ शतावरी चेंद्रयवा मुस्ता द्विपलिकान् जले। चतुर्गुणे पादशेषेद्राक्षाषष्टिपलं क्षिपेत्॥ त्रिंशत्पलानि धातक्या गुडं पलचतुष्टयम्। मधु द्वात्रिंशत्पलं च सर्वमेकत्र कारयेत् ॥ भांडे पुराणे स्निग्धे वा मांसीमरिचधूपिते । पृथक् द्विपलिकानेतान् पिप्पली चंदनं जलम् ॥ जातीफलं लवंगं च त्वगेलापत्रकेशरान् । कर्षमात्रां च कस्तूरी दत्त्वा पक्षं निधापयेत् ॥ कनकद्रुपलं चूर्णं क्षिपेन्निर्मलभावितम् । पक्षादूर्ध्वं पिबेद्यस्तु मात्रया च यथाबलम् ॥ धातुक्षयं जयत्येव कासं पंचविधंतथा। अर्शांसि षट्प्रकाराणि तथाष्टा-
Pege no. ७५४and७५५ are missing from this Book.
धात्रीपाक
धात्रीफलानि पक्वानि तीक्ष्णलोहेन वेधयेत्। विश्वावरणपत्रैश्चफलानि स्वेदयेद्भृशम्॥ ततो दुग्धे च संस्वेद्यं जले च तदनंतरम्। मधुमध्ये क्षिपेद्भांडे स्थापयेद्दिनविंशतिः॥ विनष्टं मधु संत्यज्य मधुमध्यं पुनः क्षिपेत्। सिता धात्रीफलान्येव पेषयेत्करिणा सह॥ एला चैव तुगा क्षीरी लोहं वंगं तथैव च। मेलयित्वा सुनक्षत्रे प्रातः कर्षमितं भजेत् ॥ बलेक्षीणे क्षये चैव पथ्यं मधुरमाचरेत्। प्रमेहं मूत्रकृच्छ्रंच नाशयेत्तत्क्षणादपि॥ वीर्यवृद्धिकरं चैव वाजीकरणमुत्तमम्। कुष्ठंपित्तप्रकोपं च नाशयेन्नात्र संशयः॥ एतेन्ये पित्तजा रोगाः शोणिताद्यास्तथैव च। ते सर्वेप्रशमं यांति धात्रीपाकस्य सेवनात् ॥
अर्थ-मोटे २ और पके हुए आवले लेके उन को कांटे से खूब गोद लेवे फिर अदरक के पत्ते जल में डालके और आवले डालके औटावे जब सीज जावे तबनिकालके फिर दूध में औटावे फिर स्वच्छ जलमें औटायके सहत से भरे हुए बासन में गेर देवे और वीस दिन पर्यंत धरे रहने दे फिर उस खराबसहत को निकाल नवीन ताजा सहत भरे तथा मिश्री, आवले, गजपीपर, इलायची, वंशलोचन, लोहभस्म, वंग भस्म, ये सब डाल के शुभदिन में प्रातःकाल १ तोले बलक्षय और रोग इन पर देवे तया मधुर पदार्थ पथ्य में देवे तो प्रमेह, मूत्रकृछ्र, कोढ, पित्तका कोप, पित्तजन्य सर्व रोग और रुधिरविकार ये नष्ट होवे तथा वीर्यवृद्धि करके उत्तम वाजीकरण करे है ॥
शेवंतीपाक
श्वेतपुष्पसहस्रं तु घृतप्रस्थे विपाचयेत्। घृते पक्वीकृते तत्र निःक्षिपेदौषधं भिषक्॥ सितोपलाचतुष्कं च चातुर्जातं पलं पलम् । मृद्वीका षट्पलं चैव क्षित्वा मधु पलाष्टकम्॥ धारासत्वं तवक्षीरं श्वेतजीरं पृथक् पृथक्। नागं वंगं पलार्द्धंच सर्वमेकत्रकारयेत् ॥ कर्पूरंवल्लमात्रंच दत्त्वा स्थाप्य सुकुंभके।
भक्षयेन्निष्कमात्रंतु प्रातरेव हि पथ्यभुक्॥ जीर्णज्वरे क्षये कासे अग्निमांद्येप्रमेहके। दिनरात्रिज्वरे चैव शिरोरोगे प्रशस्यते॥ प्रदरं रक्तजान् रोगान् कुष्ठार्शांसि च नाशयेत्। नेत्ररोगान्सुदुष्टांश्च तथा सर्वान्मुखे स्थितान् ॥ नाशयेन्नात्र संदेहो मंडलस्य च सेवनात् ॥
अर्थ-सपेद सेवती के फूल १००० ले इन को ६४ तोले घी में पचावे फिर मिश्री २५६ तोले, चातुर्भात १६ तोले, दाख २४ तोले, सहत ३२ तोले, गिलोय सत्व, तवाखीर, सपेद जीरा, नागेश्वर, बंग ये प्रत्येक दोदो तोले लेवे इस प्रमाण सबको एकत्र कर तीन रत्ती भीमसेनी कपूर इस में और मिलावे इस को अमृतवान् आदि में अथवा चीनी के बरतन में भरके धरदे. इसमेंसे छः मासे नित्य सेवन करें. और पथ्य से रहे तो जीर्णज्वर, क्षय, खांसी, मंदाग्नि, प्रमेह, दिन का ज्वर, रात्रिज्वर, मस्तकरोग, रक्तप्रदर, रक्तजन्य रोग, कोढ, बवासीर, नेत्ररोग, तथा मुखरोग, इन को नाश करे॥
महाकनकसुंदररस
रसगंधकनागाश्च रसको माक्षिकाभ्रके। कांतविद्रुममुक्तानां वंगभस्म च तालकम्॥ भस्म कृत्वा प्रयत्नेन प्रत्येकं कर्षसमितम्। सर्वतुल्यं शुद्धहेमभस्म कृत्वा प्रयोजयेत्॥ मर्दयेत्त्रिदिनं सर्वं हंसपादीरसैर्भिषक्।ततो वै गोलकान्कृत्वा काचकुप्यां विनिःक्षिपेत्॥ रुध्वा तत्काचकूप्यां च सप्तवस्त्रेण वेष्टितम्। ततो वै सिकतायंत्रे त्रिदिनं चोक्तवह्निना॥ पश्चात्तं स्वांगशीतं च मर्द्यंपूर्वोदिते रसे। विनिःक्षिप्य करंडेथ संपूज्य रसराजकम्॥ महाकनक-सिंदूरो राजयक्ष्महरः परः। पांडुरोगं श्वासकासकामलाग्रहणीगदान्॥ कृमिशोफोदरावर्तगुल्म-मेहगुदांकुरान्। मंदाग्निच्छर्दिमरुचिमामशूलहलीमकान्॥ ज्वरान्द्वंद्वादिकान्सर्वान्सन्निपातांस्त्रयोदश। पैत्तरोग-मपस्मारं वातरोगा-न्विनिःक्षिपेत् ॥ रक्तपित्तप्रमेहांश्च स्त्रीणां रक्तस्रुतिंतथा । विंशतिश्लेष्मरोगांश्च
Pege no. ७५८ and७५९ are missing from this Book.
अर्थ-शंखकी नाभी ८ तोले ले बारीक चूर्ण करके उसकी मूस बनावे उस में पारे की भस्म भरके ऊपर से १॥ तोले गंधक का चूर्ण डाल देवे फिर इस मूसा के मुखको बंद कर ऊपर से ७ कपड मिट्टी करे. इस को धूप में सुखाय के गजपुट में रख के फूंक देवे जब स्वांगशीतल हो जावे तब निकाल मूसा समेत को खरल में डालके पीस डाले और उत्तम शीशी में भर के धर देवे यह शंखगर्भपोटली रस एक रत्तीदेवे और पथ्य मृगांकरस के समान करे तो क्षय और वातपित्त इन का नाश करे ॥
हेमगर्भरस
रसभस्म द्विनिष्कं तु निष्कैकं स्वर्णभस्मकम् । शुद्धगंधक द्वौ निष्कौ मर्द्दयच्चित्रकद्रवैः॥ द्वियामांते विशोष्याथ तेन पूर्य वराटिका । गोक्षीरैष्टंकणं पिष्ट्वातेन रोध्य वराटिका ॥ वराटी मृन्मये भांडे रुध्वागजपुटे पचेत् । स्वांगशीतो विचूर्ण्याथपोटलीहेमगर्भकः॥ मृगांकवच्चतुर्गुंजा भक्षितो राजयक्ष्मनुत्॥
अर्थ-पारद की भस्म १ तोले, सुवर्ण की भस्म छः मासे, शुद्ध गंधक १ तोले इन सब को एकत्र करके चीते के रस में दो प्रहर खरल करे फिर इस को सुखायकौडियों में भरे और गौ के दूध में सुहागा घोटके उन कौडियों के मुख को बंद करेऔर उन कौडियों को मिट्टी के बासन में बंद कर ढक देवे गजपुट में फूंक देवेंजबस्वयं शीतल हो जावे तब निकाल खरल में बारीक चूर्ण कर धर रखे इस का नामहिरण्यगर्भपोटलीरस है यह चार रत्ती अनुपान के साथ देवे तथा पथ्य और अनुपान मृगांकरस के समान करने चाहिये ॥
नागेश्वररस
मृतसूतं मृतं नागं गंधकं तूत्थटंकणम्। प्रत्येकं कर्षनिष्कंस्यान्मृतशुल्बंद्विनिष्कम्॥ शंखचूर्णं द्विनिष्कं स्यान्नवनिष्कं वराटिका । पूरयेत् पूर्ववच्चूर्णं पुटयेल्लोकनाथवत् ॥ ततश्चार्कदलद्रावैर्मर्द्यंरुध्वा पुटे पचेत् । आदाय चूर्णयेत् श्लक्ष्णं तुल्यांशैमरिचैर्युतम् ॥ चूर्णाच्चतुर्गुणं गंधमेकीकृत्य विचूर्णयेत् । पंचमाषघृतैर्लेह्य-मसाध्यराजयक्ष्म-जित् ॥ शोफोदरार्शोग्रहणीज्वरं गुल्मं च नाशयेत् ॥
अर्थ-पारे की भस्म, शीशे की भस्म, गंधक, लीलाथोथाऔर सुहागा ये प्रत्येक डेढ२ तोलेलेवे. तामे की भस्मऔर शंख की भस्म ये एक २ तोले ले पीली कौडि ४॥ तोले
पारेआदि की भस्म को इन कौडियों में पूर्व प्रकार से भरे और लोकनाथ रस के समान पुट देवे. फिर आक के पत्तों के रस में खरल कर गजपुट में रखके फूक देवे जबस्वांगशीतल हो जावे तब निकाल बराबरकी मिरच मिलाय बारीक खरल करे फिर इस में चौगुनी गंधक मिलावेतो यह नागेश्वर रस तयार होवे इस को पांच मासे लेकर घी के साथ देवे तो असाध्य क्षयरोग, सूजन, उदर, बवासीर, संग्रहणी, ज्वर, और गोले का रोग इन को नाश करे ॥
कालांतकरस
कुर्याल्लोहमयींमूषामुन्नतां द्वादशांगुलाम्। मर्दितं स्वर्णवाराहिग्रहकन्यारसै रसम्॥ लशुनैर्याममात्रं च पिंडीकृत्वा निवेशयेत्। कृत्वा पूर्वोक्तमूषायां सूतपादं च गंधकम्॥ निर्गुंडीरससंपिष्टं तन्मूपायां विनिःक्षिपेत्। आच्छाद्य लोहचक्रेण रुद्रयंत्रेण जारयेत्॥ एवमष्टगुणे जीर्णे समुद्धृत्य विचूर्णयेत् । पंचगुंजामितं खादेदनुपानं मृगांकवत् ॥ अयं कालांतको नाम रसोयं राजयक्ष्मजित् ॥
अर्थ-बारह अंगुली ऊंची लोहे की मूस बनावे उस में धतूरा, बाराहीकंद, घीगुवार और लहसन इन प्रत्येक में एक एक प्रहर घुटे हुए पारे का गोला करके उस पूर्वोक्त मूसा में चतुर्थांश गंधक निर्गुंडी के रस में खरल करके उस मूसा में डालके उस पर उस पारे को रखे. ऊपर से गंधक देकर लोहे के पत्र उस मूस के मुख पर देकर उस को रुद्रयंत्र में पचावे इस प्रकार अष्ट गुण गंधक जारन करे फिर रस को निकालके घोट डाले फिर इस को मृगांक के समान अनुपान के साथ पांच रत्ती देवे यह कालांतकरस क्षय का नाश करे है ॥
चंद्रायतनरस
शुद्धसूतसमं गंधं सूततुल्यं च सैंधवम्। शमीश्वेतदलाद्रावैर्मर्दितंगोलकीकृतम्॥ नागवल्लीदलव्योषैःपाच्यं पाचनयंत्रके। दिनांते ऊर्ध्वलग्नं तु ग्राह्यं भक्ष्यं त्रिगुंजकम् ॥ पर्णखंडेन संयुक्तं माषैकं राजयक्ष्मजित् । रसश्चंद्रायतो नाम ह्यनुपानं मृगांकवत् ॥
अर्थ-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, और सेंधानिमक ये समान भाग लेवे. इन को सपेदशमीके पत्तों के रस में घोटगोला बनाय ले उस को सोंठ, मिरच, पीपल,
तथा नागरवेल पान इन के साथ डमरूयंत्र में भरके एक दिन चूल्हे पर रखके नीचे अग्निदेवे सांयकाल को उस डमरूयंत्र में से ऊपर लगे हुए पारे निकाल ले इस को तीन रत्ती पान में रख के १ महिनेतक खाने को देय इस रस का भी अनुपान और पथ्य मृगांक रस के समान है ॥
प्राणनाथरस
लोहभस्म पलैकं तु द्विपलं भृंगजद्रवैः। वराभांर्गीभवं द्रावं पलैकैकं नियोजयेत् ॥ पलैकं त्रैफले क्वाथे सर्वं भर्ज्यच खर्परे। लोहांशं माक्षिकं शुद्धं मर्द्यंपूर्वोदितैर्द्रवैः॥ रुद्ध्वात्रिभिः पुटैः पाच्य द्रवैर्मर्द्यंपुनः पुनः । मृतं सूतं मृतं वंगं निष्कं निष्कं विमिश्रयेत् ॥ द्वौ निष्कौशुद्धगंधस्य चतुर्निष्का वराटिका । एकीकृत्य पुटे पाच्यं पूर्वं लोहविमिश्रितम् ॥ पूर्वोक्तैस्तु द्रवैर्मर्द्यंपुटेनैकेन पाचयेत्। चूर्णयेन्मरिचं सप्त तूत्थटंकणयोर्दश॥ मेलयेच्च पृथङ्निष्कं प्राणनाथाह्वयो रसः। भक्षयेन्निष्कपादार्धमसाध्यराजयक्ष्मनुत् ॥ शोफोदरार्शोग्रहणीज्वरगुल्महरं तथा ॥
अर्थ-लोहभस्म ४ तोले लेवें. उस को ८ भांगरे के रस में खरल करे. फिर गिलोय और भारंगी इन का काढा तथा त्रिफले का काढा ४-४ तोले ले सब को एकत्र कर अग्नि पर रख खिपडे में भून तथा जितना लोहा हो उतनी शुद्ध माक्षिक भस्म डाल पूर्वोक्त रसों से घुटावें और पुट देवें इस प्रकार तीन पुट देवें. फिर पारे की भस्म और तामे की भस्म प्रत्येक ६-६ मासे शुद्ध गंधक १ तोले, पीली कौडी ४ तोले उन को एकत्र कर उन को पुट देकर उन्हेंउस लोह में मिलावेंफिर पूर्वोक्त रसों की भावना देकर फिर १ पुट देवें पश्चात् निकालके इस में ३॥ तोले काली मिरच, लीलाथोथाऔर सुहागा ५-५ तोले लेकर मिलावें तो यह प्राणनाथरस तयार हो इस में से ६ रत्ती की मात्रा देवेंतो असाध्य क्षय, सूजन, उदर, बवासीर संग्रहणी, ज्वर, और गोला इन को नाश करें ।
सुवर्णपर्पटीरस
शुद्धं सुवर्णदलमष्टगुणेन शुद्धसूतेन पिंडितमयोवसुभागभाजम् । गंधे द्रुते दरदवन्हितुलोहपात्रेदत्त्वा विलोड्य लघुलो-
शलाकया तत्॥ मंदं निरस्य सुरभीमलमंडलस्थं रंभादले तदुपरि प्रणिधाय चान्यत्। रंभादलं लघु नियंत्र्यतदाददीत शीतं सुवर्णरसपर्पटिकाभिधानम्॥ पित्तोल्बणे ससितया तुगयाथ वातश्लेष्मोल्बणे किल तुगामधुपिप्पलीभिः। क्षीणे विरेकिणिच शोषिणि मंदवह्नौपांडौप्रमेहिणि चिरज्वरिणि ग्रहण्याम्॥ वृद्धेशिशौ सुखिनि राज्ञि तदेवमार्यं भैषज्यमेतदुदितं हितमामयघ्नम्॥
अर्थ-सोने के वर्क १ भाग, शुद्ध पारा ८ भाग, और लोहभस्म ८ भाग, इन सबको एकत्र खरल कर लोहे के पात्र में गंधक को ताय उस में हिंगुल १ और चित्रक १ भाग इन के साथ पूर्वोक्त औषधी मिलाय कर्छी की डांडी से १ मेल करे फिर पृथ्वी में गोबर का चौका दे उसे केले के पत्ते बिछाय उस पर उस कजली की चासनी को उलट देवे और तत्काल दूसरे केले के पत्ते से ढक गोबर से दाबदेवें जब शीतलहो जावे तब निकास ले इस को सुवर्णपर्पटी कहत हैं यह पित्तादिक व्याधी परवंशलोचनऔर मिश्री इन से तथा वात श्लेष्मादिक व्याधी पर वंशलोचन, सहत औरपीपल इन से खाय और यह क्षीणत्व, दस्त होनेपर, क्षय पर, मंदाग्नि पाण्डुरोग, प्रमेह, संग्रहणी, वृद्ध, बालक, और राजा इन को देने योग्य यह संपूर्ण रोगोकानाश करे है ॥
प्राणदापर्पटी
सूताभ्रायोहिवंगोषणविषमखिलांशेन गंधेन कृत्वा कोलाग्नौविद्रुतेन क्षणममलमिदं ढालितं गोमयस्थे। रंभापत्रेमुनान्येनच दृढपिहितं प्राणदा पर्पटी स्यात्पांडौ रेके ग्रहण्यां ज्वररुजि कसने यक्ष्ममेहाग्निमांद्ये॥ प्राणदा पर्पटी सैषाभाषिता शंभुना स्वयम् ॥ तत्तद्रोगानुपानेन सर्वरोगविनाशिनी॥
अर्थ-पारा, अभ्रक, लोह, वंग, मिरच, और सिंगिया विष यह सम भाग तथा सब के बराबर गंधक लेकर लोहे के पात्र में वेर की अग्नि पर पतली करके उस में सबऔषधी डालके गोबर के चौके में केले के पत्ते बिछाय देवेंऔर उस पर उस कजली की चासनी को उडेल देवे और तत्काल दूसरे पत्ते से ढकके दाबदेवे जब शीतल हो जावेतबनिकाल ले इस औषधी को प्राणदापर्पटी कहते है यह पां-
डुरोग, अतिसार, संग्रहणी, ज्वर, अरुचि, कास, क्षय, प्रमेह, तथा मंदाग्नि इन पर देवे यह प्राणदापर्पटी महादेवजी ने स्वयं अपने मुख से कही है यह योग्य अनुपान के साथ देने से संपूर्ण रोगों का नाश करे ॥
कुमुदेश्वररस
पारदं शोधितं गंधमभ्रकं च समं समम् । तदर्धंदरदं दद्यात्तदर्धं च मनःशिलाम् ॥ सर्वार्धंमृतलोहं च खल्वमध्ये विनिःक्षिपेत् । द्विः सप्त भावना देया शतावर्या रसेन च ॥ ततः सिद्धो भवत्येष कुमुदेश्वरसंज्ञकः । सितया मरिचेनाथ गुंजाद्वित्रिप्रमाणतः ॥ भक्षयेत्प्रातरुत्थाय पूजयित्वेष्टदेवताः । यक्ष्माणमुग्रं हंत्येव वातपित्तकफामयान् ॥ ज्वरादीनखिलान् रोगान् यथा दैत्यान् जनार्दनः । सतताभ्यासयोगेन वलीपलितनाशनः॥
अर्थ-शुद्धपारा, शुद्ध गंधक, तथा अभ्रकभस्म, ये समान भाग इन से आधाहिंगुल तथा इस से आधी मनशील तथा सबऔषधों से आधा मृत लोह इन सबको खरल में डालके सतावरी के रस की १४ भावना देवे तो यह कुमुदेश्वररससिद्ध होय इस को मिश्री और काली मिरच इन के साथ दो अथवा तीन रत्ती प्रातःकाल इष्टदेव का पूजन करके सेवन करे तो उग्रक्षय, वातपित्तरोग और ज्वरादि सबरोगों का नाश करे जैसे विष्णु दैत्यों को नष्ट करे है उसी प्रकार यह सब रोगों कोनष्ट करे इस रस को निरंतर सेवन करने से बली ( गुजलट ) और पलित ( सपेद बाल ) इन को नष्ट करे ॥
पंचामृताख्यरस
भस्मीभूतसुवर्णतारदिनकृत्सूताभ्रसत्त्वैः क्रमात्संवृद्धैस्त्रितयं त्रयः कृमिहरांभोदैर्युतः कट्फलैः। निर्गुंडीदशमूल-वन्हिरजनीव्योषार्द्रकैर्भावितो गोलं कृत्य विशेषतो निगदितःपंचामृताख्यो रसः॥ नानेन सदृशः कोपि रसोस्ति भुवनत्रये । निहंति सकलान् रोगान् भवरोगमिवाच्युतः ॥ सर्वरोगहरः सूतस्तत्तद्रोगानुपानतः। अयं पंचामृतो नॄणां त्रिदशानामिवामृतम् ॥
अर्थ-सुवर्ण भस्म, रौप्य भस्म, तामे की भस्म, पारे की भस्म, अभ्रक सत्व येप्रत्येक वृद्धिके क्रम से लेवे. तया वायविडंग, नागरमोथा, कायफल, ये तीन
भाग लेवे सब को एकत्र कर निर्गुंडी, दशमूल, चित्रक, हलदी, त्रिकुटा और अदरख इन के रस की भावना देकर गोली बांध लेवे तो यह पंचामृताख्यरस होवे. इस रस के समान त्रिलोकी में दूसरा रस नहीं है यह संपूर्ण रोगों को नाश करे.जैसे विष्णु जन्म मरण का नाश करे है उसी प्रकार यह संपूर्ण रोगों को योग्य अनुपान करके नाश करे है. यह पंचामृत रस मनुष्य को अमृत के प्रमाण है ॥
स्वयमग्निरस
शुद्धसूतं द्विधा गंधं कुर्यात् खल्वेन कज्जली । तयोः समं तीक्ष्णचूर्णं मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः॥ द्वियामांते कृतं गोलं ताम्रपात्रेविनिःक्षिपेत्। आच्छाद्यैरंडपत्रेण यामार्धेत्युष्णतां भवेत्॥ घान्यराशौन्यसेत्पश्चादहोरात्रात्समुद्धरेत्। संचूर्ण्य गालयेद्वस्त्रेसत्यं वारितरं भवेत्॥ भावयेत्कन्यकाद्रावैः सप्तधा भृंगजैस्तथा। काकमाची-कुरंटोत्थद्रवैर्मुंड्या पुनर्नवैः ॥ सहदेव्यमृतानील्या निर्गुंड्याश्चिनजैस्तथा ॥ सप्तधातु पृथक्द्रावैर्भाव्यं शोष्यं तथातपे ॥ सिद्धयोगो ह्ययं ख्यातः सिद्धानां च मुखागतः। अनुभूतो मया सत्यं सर्वरोगगणापहः॥ स्वर्णादीन्मारयेदेवं चूर्णीकृत्य तु लोहवत्। त्रिफलामधुसंयुक्तः सर्वरोगेषु योजयेत्॥ त्रिकटुत्रिफलै-लाभिर्जातीफललवंगकैः। नवभागोन्मितरतैः समः पूर्वरसो भवेत्॥ संचूर्ण्य लोडयेत्क्षौद्रर्भक्ष्यं निष्कद्वयं द्वये । स्वयमग्निरसो नाम्ना क्षयकासनिकृंतनः॥
अर्थ-शुद्ध पारा १ भाग, गंधक २ भाग, दोनों को एकत्र खरलकर कजली करें इस में समान भाग खेरी लोह की भस्म डाले फिर घीगुवार के रस से २ प्रहर खरल कर गोला बनावे. इस को तामे के पात्र में रखकर चारों तरफ अंडीके पत्ते ढककर चार घडी पर्यंत धूप में रहने दे तो ये गोला अत्यंत उष्ण हो जावेगा इसको धान की रास में गाढदेवे १ दिन रात के उपरान्त निकाल ले तो इस की भस्म होय उसको खरल कर कपडे में छान ले. इस को पानी में डालने से निश्चय करके तरनेलगे इस में संदेह नहीं फिर इस भस्म को खरलमें डालके जिन २ वनस्पतियों की पुट देना चाहिये वो इस प्रकार जाननी घीगुवारके रस में खरलकर धूप में सुखाय लेसूखने पर फिर उसी के रस में खरल कर धूप में सुखावे इस प्रकार सात पुट घीगुवारके देवे फिर उसी प्रकार भांगरे के रस की, मकोय के रस की,
पीयावांसे के रस की, और मुंडी के रस की और पुनर्नवा के रस की तथा सहदेई, गिलोय, मील, निगुडी और चित्रक इन के रस की पृथक् २ सात २ पुट देवे तो ये रसायन सिद्ध हो इसे स्वयमग्निरस कहते हैं. यह रस विख्यात है ये बडे २ सिद्ध पुरुषों ने कहा है इसी वास्ते मैंने अनुभव करके कहा है यह स्वयमग्निरस संपूर्ण रोग दूर करने के वास्ते त्रिफले के चूर्ण और सहत इस अनुपान से दो निष्क प्रमाण खाय तो संपूर्ण रोग दूर होय. सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्ड, बहेडा, आंवला, इलायची, जायफल, लौंग ये नउ औषध समान भाग ले चूर्ण करे इस चूर्ण के बराबर यह स्वयमग्निरस ले दोनों को एकत्र कर २ निष्क प्रमाण खाने को दे तो क्षय रोग और खांसी का रोग ये दूर होंय तथा रसायन की रीत से सुवर्णादिक धातुओं का चूर्ण कर के भस्म करे तो होय \।\।
राजमृगांक
रसभस्म त्रिभागं स्याद्भागैकं हेमभस्मकम्। मृतताम्रस्य भागैकंशिलागंधकतालकम्॥ प्रतिभागद्वयं शुद्धमेकी-कृत्वावचूर्णयेत् । वराटान्पूरयेत्तेन चानाक्षीरेण टंकणम् ॥ पिष्ट्वातेन मुखं रुध्वा मृद्भांडे सन्निधापयेत् । शुष्कं गजपुटे पाच्यं चूर्णयेत्स्वांगशीतलम् ॥ रसो राजमृगांकोयं चतुर्गुंजःक्षयापहः । एकोनत्रिंशन्मरिचैर्घृतेनसह भक्षयेत् ॥ दशानां पिप्पलीनां च चूर्णं दत्त्वा प्रदापयेत् । क्षये कासे ज्वरे पांडौ ग्रहण्यां चातिसारके ॥
अर्थ-पारद भस्म ३ भाग, सुवर्ण भस्म १, ताम्र भस्म १ भाग, और मनसिल, गंधक, हरताल ये प्रत्येक दो दो भाग लेवे सबको एकत्र सरल कर कौडियों में भरके बकरीके दूध में सुहागा पीस उन कौडियों को मुख को मूंद देवे फिर धूप में सुखाय संपुट में भरके उस का मुख बंद कर देवे फिर उस को गजपुट में धरके फूक देवे जबस्वांगशीतल हो जावेतब इस को खरल करके धररखे इसे राजमृगांक कहते हैं. २९ मिरचोंका चूर्ण कर अथवा १० पीपल का चूर्ण और घी इन में मिलायके चार रत्तीके प्रमाण देवेतो क्षय, खांसी, ज्वर, पांडु, संग्रहणी, और अतिसार इन को नाशकरे ॥
दूसराप्रकार
रसेन तुल्यं कनकं तयोस्तु साम्येन युज्यान्नवमौक्तिकानि । रसप्रमाणो बलिरग्निभागः क्षारश्च सर्वं तुपवारिणा तु ॥ संमर्द्य
वस्त्रे तु विधाय गोलं दिनं पचेत्तं लवणेन पूर्णे। भांडे मृगांकोयमतिप्रगल्भःक्षयाग्निमांद्यग्रहणीगदेषु॥ साज्योष-णाभिर्मधुपिप्पलीभिर्वल्लोस्य देयो न ततोधिकस्तु। पथ्यं हितं शीतलमेव योज्यं त्याज्यं सदा पित्तकरं विदाहि॥
अर्थ-पारा, सुवर्ण इन दोनों की बराबरमोती और पारे के समान गंधक खपरिया ३ भाग ले इस प्रकार सब को लेकर धान के तुषाम्ल के काढेसे खरल करे वस्त्र में उस गोले को बांधके एक सराव लेवे प्रथम आधा निमकसे भर बीच में इस को धरके ऊपर से फिर इस को निमक से भर देवे और उस का मुख बंद कर गजपुट धरके फूक देवे तो यह मृगांक अत्यन्त उत्कृष्ट बने यह क्षय, मंदाग्नि,संग्रहणी इन पर घी और मिरच का चूर्ण अथवा सहत और पीपल इन के साथ ३ रत्ती देवे अधिक न देवेइस पर शीतल पथ्य में पदार्थ देवे पित्तकारक और गरम ऐसे पदार्थ नदेवे तो क्षयादि सर्व रोगों को नाश करे॥
लोकेश्वर
पलं कपर्दचूर्णस्य पलं पारदगंधयोः। माषष्टंकणकस्यैको जंबीराद्भिर्विमर्दयेत्॥ पुटेल्लोकेश्वरो नाम्ना लोकनाथो-यमुत्तमः। ऋते कष्टं रक्तपित्तमन्यरोगान्क्षयं जयेत्॥ पुष्टिवीर्यप्रसादौजःकांतिलावण्यदः परः। कोस्ति लोकेश्वरा-दन्यो नृणां शंभुमुखोद्गतात् ॥
अर्थ-कौडी की भस्म, पारा और गंधक ये प्रत्येक चार २ तोले, सुहागा १ मासा इस क्रम से लेकर नीबू के रस से खरल करे फिर पुट देवे तो यह लोकेश्वर रस तयार हो इस को लोकनाथरसभी कहते है यह विना कष्ट के रक्तपित्त, क्षय इत्यादि रोग नाश करें और पुष्टि वीर्य की निर्दोषता करे कांति, सुंदरता इन को करे यह लोकेश्वररस श्री शंभु के मुख से निकला इस से परे मनुष्य को सुख का देनेवाला कौन है॥
नवरत्नराजमृगांक
सूतं गंधकहेमताररसकं वैक्रांतकांतायसं वंगं नागपविप्रवालविमलामाणिक्यगारुत्मतम्। ताप्यं मौक्तिकपुष्प-रागजलजंवैडूर्यकं शुल्बकं शुक्तिस्तालकमभ्रहिंगुलसिलागोमेदनीलं समम्॥ गोक्षूरैः फणिवल्लिसिंह-वदनामुंडी-कणाचित्रर्केरिक्षुच्छिन्नरुहाहर-
Pege no. ७६८ and७६९ are missing from this Book.
श्वघृतयोजितः सकलमत्र पथ्यं हितं मृगांकवदथापरं किमपि नैव योज्यं क्वचित्॥
अर्थ-पारद, सुवर्ण, सुवर्णमाक्षिक, हरताल, मनसिल, खपरिया, गंधक और लीलाथोथा ये समान भाग लेवे पारा और गंधक की कजली करे इस कजली में सब औषध मिलाय आक के दूध में खरल करे फिर अरनी, अगस्तिया, बहेडा, चित्रक, भांगरा और अडूसा इन प्रत्येक के रस में एक एक दिन खरल करे फिर गोला बनाय भूधर यंत्रमें मृगांक के समान पुट देवे फिर निकाल के अदरख के रस की सात भावना देवे पश्चात् सोंठ, मिरच, पीपल इन के काढे की सात २ भावना देवे यह कनकसुंदररस क्षयरोग का नाश करे यह अदरख के रस से सन्निपात पर देवे और सोंठ, तथा घी इन से वातव्याधि पर देवे इस पर भी राजमृगांक के समान पथ्य करे इस से सिवाय और कुछ न खाय ॥
हेमाभ्रकरससिंदूर
अभ्रकं रससिंदूरं मिश्रितं हेमभस्मना। समभागं प्रकुर्वीत रसेनार्द्रकयोजितम्॥ क्षयं च क्षयपांडं च क्षयकासं च कुंभकम्। जयेन्मडलपर्यंतं पूर्वकर्मविपाकवित् ॥
अर्थ-अभ्रक भस्म, रससिंदूर और सुवर्ण भस्म ये समान भाग लेवे सब को अदरख के रस में खरल कर दो रत्ती की मात्रा सेवन करे तो क्षय, क्षयपांडुरोग खांसी, कुंभकामला इन को दूर करे कर्मविपाक का जाननेवाला उस को एक मंडल पर्यंत सेवन करना चाहिये ॥
सुवर्णभूपति
शुद्धं सूतं समं गंधं मृतशुल्बंतयोःसमम् । अभ्रलोहकयोर्भस्म कान्तभस्म सुवर्णजम् ॥ रजतं च विषंसम्यक्पृथक् सूतसमं भवेत्। हंसपादीरसैर्मर्द्यंदिनमेकं वटीकृतम् ॥ काचकुप्यां विनिःक्षिप्य मृदा संलेपयेद्बहिः । शुष्का सा वालुकायंत्रे शनैर्मृद्वग्निनापचेत् ॥ चतुर्गुंजमितं देयं पिप्पल्यादिद्रवेण तु । क्षयं त्रिदोषजंहन्ति सन्निपातांस्त्रयोदशः॥ आमवातं धनुर्वातं शृंखलावातमेव च। आढ्यवातं पंगुवातं कफवाताग्निमांद्यनुत् ॥ कटीवातं सर्वशूलं नाशयेन्नात्र संशयः। गुल्मशूलमुदावर्तंग्रहणीमतिदुस्तराम् ॥
प्रमेहमुदरं सर्वामश्मरीं मूत्रविट्ग्रहम्। भगंदरं सर्वकुष्ठं विद्रधिंमहतीं तथा॥ श्वासं कासमजीर्णंच ज्वरमष्टविधंतथा । कामलां पांडुरोगं च शिरोरोगं च नाशयेत् ॥ अनुपानविशेषेण सर्वरोगान्विनाशयेत्। यथा सूर्योदये नश्येत्तमः सर्वगतं तथा॥ सर्वरोगविनाशाय सर्वेषां स्वर्णभूपतिः॥
अर्थ-पारा १, गंधक १, ताम्रभस्म २ और अभ्रक, लोह, कांति, सुवर्ण और चांदी इन प्रत्येक की भस्म एक एक भाग और सिंगियाविष १ भाग, इस प्रकार सब औषध लेकर हंसपदी (लाल लालू) के रस में १ दिन खरल कर गोली बनावे इन को कांच की आतसी शीशी में भर मुख बंद करे और उस के ऊपर कपडमिट्टी करके सुखाय लेवे इस को वालुकायंत्र में मंद मंद अग्नि से धीरे पचावे तो रस सिद्ध होवे. इस को पीपल और अदरख के रस के साथ १ रत्ती देवे तो त्रिदोष, क्षय, तेरह प्रकार के संनिपात, आमवात, धनुर्वात, शृंखलावात, आढ्यवात, पंगु वात, कफवात, मंदाग्नि, कटिवात, सर्व प्रकार के शूल, गुल्मशूल उदावर्त्त, संग्रहणी, प्रमेह, उदररोग, सर्व प्रकार की पथरी, मूत्रकृछ्र, विडूग्रह, भगंदर, सर्व प्रकार के कुष्ठरोग, घोर विद्रधि का रोग, श्वास, खांसी, अजीर्ण, आठ प्रकार के ज्वर, कामला, पांडुरोग और मस्तकरोग इत्यादि सब रोगों को अनुपान विशेष करके नाश करे है. जैसे सूर्योदय होनेसे अंधकार सर्वत्र का नष्ट होता है इसी प्रकार यह सुवर्णभूपति रस सर्व रोग नाश करके प्रगट हुआ है ॥
लक्ष्मीविलासरस
सुवर्णताराभ्रकताम्रवंगं त्रिलोहनागानृतमौक्तिकं च। एतत्समंयोज्य रसस्य भस्म खल्वेकृतं स्यात्कृतकज्जलीकम् ॥ संमर्द्दयेन्माक्षिकसंप्रयुक्तं तच्छोषयेत् द्वित्रिदिनं च घर्मे। तत्कल्कमूषोदरमध्यगामी यत्नात्कृतं तायपुटेन पक्वम् ॥ यामाष्टकं पावकमर्दितंच लक्ष्मीविलासो रसराज एषः। क्षये त्रिदोषप्रभवे च पांडौ सकामलासर्वसमीरणेषु॥ शोकप्रतिश्यायविनष्टवीर्यं मूलामयं सर्वसशूलकुष्ठम्। हत्वाग्निमांद्यं क्षयसन्निपातं श्वासंच कासं च हरेत्प्रयुक्तम् ॥ तारुण्यलक्ष्मीप्रतिबोधनाय श्रीमद्विलासो रसराज एषः॥
अर्थ-सुवर्ण, रूपा, अभ्रक, ताम्र, रांगा, वट्टलोह, शीसा, सिंगियाविष औरमोती इन प्रत्येक की भस्म समान भाग ले. तथा सबकी बराबर पारे की भस्म लेवेसब को एकत्र कर सहत डालके खरल करे और सुखावे फिर मूस में भरके गरुड पुट में फूंक देवे. शीतल होने पर निकालके चीते के काटे में आठ प्रहर खरल करे तो यह लक्ष्मीविलासरस बने यह संपूर्ण रसोंका राजा है यह त्रिदोष से प्रगट क्षयरोग, पांडुरोग, कामला, सर्व प्रकार के वादी के रोग, सूजन, प्रतिश्याय, विनष्टवीर्य, बवासीर, सर्व प्रकार के शूल कोढ, मंदाग्नि, सन्निपात, श्वास और खांसी इन को नष्ट कर तथा तारुण्यलक्ष्मी को बढावे, धनवान् ( सेठ, साहुकार, राजा, महाराजाओं) को यह विलास के अर्थ है ॥
शिलाजत्वादिलोह
शिलाजतुयुतं लोहं वल्लं तु विधिमारितम् ।
पथ्याशी सेवते यस्तु स यक्ष्माणं व्यपोहति ॥
अर्थ-लोह भस्म २ रत्ती शिलाजित के साथ सेवन करे और पथ्य से रहे तो राजयक्ष्मा ( खई का) रोग नाश होवे ॥
पंचामृतरस
भस्मसूताभ्रलोहानां शिलाजतुविषं समम् । गुडूचीत्रिफलाक्वाथसंकृतं गुग्गुलं तथा ॥ मृतनैपालतानं वा सूततुल्यं नि योजयेत्। एकीकृत्य द्विगुंजं तु भक्षयेद्राजयक्ष्मनुत् ॥ पंचामृतो रसो नाम ह्यनुपानंच पूर्ववत् ॥
अर्थ-पारा, अभ्रक, लोह इन की भस्म, शिलाजीत धीर सिंगियाविष ये समान भाग लेवे इन को गिलोय, हरड, बहेडा, आवला इन के रस में खरल कर गूगल और नेपाली तामें की भस्म ये पारे के समान मिलायके घोटे फिर दो रत्ती इस में से अनुपान के संग देय तो यह पंचामृतरस राजयक्ष्मा को नाश करे ॥
अमृतेश्वररस
रसभस्मामृतासत्वं लोहं मधुघृतान्वितम् ।
अमृतेश्वरनामायं षड्रगुंजा राजयक्ष्माजित् ॥
अर्थ-पारे की भस्म, गिलोय का सत्वऔर लोह इन को एकत्र कर सहतऔर घीके साथ १ रत्ती के प्रमाण देवे. इसको अमृतेश्वररस कहते हैं यह क्षयनाशक है ॥
चिंतामणिरस
रसेंद्रवैक्रांतकरौप्यताम्रसलोहमुक्ताफलगंधहेम्नाम्। त्रिर्भावितं चार्द्रकमार्कवन्हिरसैरजा गोपयसा तथैव॥ अर्शंक्षयं कासमरोचकं च जीर्णज्वरं पांडुमपि प्रमेहान्। गुंजाप्रमाणं मधुमागधीभ्यां लीढं निहन्याद्विषमं च वातम्॥ चिंतामणिरिति ख्यातः पार्वत्या निर्मितः स्वयम् ॥
अर्थ-पारा, वैक्रांत, रूपा, तांबा, लोहा, मोती और सुवर्ण इन की भस्म तथाधक ये समान भाग लेवे सब को खरल में डालके अदरख, भांगरा और चित्रक इन के रस की तीन २ भावना देवे और बकरी, गौ इन के दूध की तीन २ भावना देवे तो यह चिंतामणि रस सिद्ध होवे यह १ रत्ती सहत और पीपल के साथ खाय तो बवासीर, क्षय, खांसी, अरुचिं, अजीर्ण, ज्वर, पांडुरोग, और प्रमेह इन को नाश करे यह पहले पार्वती ने स्वयं निर्माण करा है ॥
दुसरा त्रैलोक्यचिंतामणि
सूताभ्रस्वर्णतारारुणभिदुरशिलाताप्यगंधप्रवालायोमुक्ताशंखतालं वरमिदमनलक्वाथतः सप्तभाव्यम्। निर्गुंडी-सूरणांभःपविरविपयसा त्रिःपृथग्भावयित्वा चापूर्यैतैर्वराटानथ मिहिरपयष्टंकणालिप्तवक्त्रान्॥ कृत्वा भांडे च रुद्ध्वागजपुटजठरे युक्तितस्तत्तु पक्त्वोद्धृत्यैतन्मर्दयित्वा तदखिलतुलितं सूतभस्म प्रदद्यात्। वैक्रांतं सूर्यतुर्यांशकमथ मिलितं सप्तशः शिग्रुमूलं त्वग्बाणस्तेन तुल्यं विषमनलवरं टंकणं चोषणं च ॥ पथ्या जातीफलं चामरकुसुमकणानागरं वत्सनाभं तुर्यांशंमेलयित्वा पृथगथ दिवसं मर्द्दयेल्लुंगतोयैः। एषत्रैलोक्य-चिंतामणिरखिलगदध्वांतविध्वंसहंसस्तत्तद्द्रोगानुपानादुषसि कवलितः सार्धवल्लप्रमाणः॥वातव्याध्यामवात-ज्वर-जठरकृमिश्वासशूलात्रवातासृक्पित्तक्षैण्यकासक्षयकफजगदोरःक्षताजीर्णमेहे। कुष्ठातीसारपांडुग्रहणिषुतमकेषु व्रणार्शः-प्रकृष्टे खांजे खंजाढ्यवाते श्रुतिभगजगदे सर्वथैषप्रशस्तः॥
अर्थ-पारा, अभ्रक, सुवर्ण, चांदी, माणिक, हीरा, मनशिल, सुवर्णमाक्षिक, गंधक, मूंगा, लोह,मोती, शंख और हरताल इन की भस्म, पारा और गंधक इन की कजली इन सब को एकत्र करके चित्रक के काढे की सात भावना देवे फिर निर्गुंडी, सूरण ( जमीकंद ) इनके रस, थूहर और आक इन का दूध इन प्रत्येक की तीन तीन भावना देवे फिर इन को कौडियोंमें भर आक के दूध में सुहागा पीसके उन कौडियों के मुख को बंद कर देवे फिर इन को एक सराव में बंद कर संपुट में धरके गजपुट में फूंक देवेजबशीतल हो जावे तबनिकालके घोट डाले फिर सब चूर्णके समान पारे की भस्म और वैक्रांत की भस्म पारे की भस्म से चतुर्थांश ले सब को एकत्र कर सब से सातगुना सहजने के जड का चूर्ण डाले. दालचीनी पांच भाग तथा लाल बोल, चित्रक, सुहागा, काली मिरच ये सब पाव २ भाग लेवे जंगी हरड, जायफल लौंग, पीपल, सोंठ और सिंगिया विषये प्रत्येक चतुर्थांश मिलावे फिर इस को बिजोरे के रस में १ दिन खरल करे यह त्रैलोक्यचिंतामणिरस संपूर्ण रोगरूप अंधकार नाश करने में सूर्य के समान है यह रोगोक्त अनुपान से तीन रत्ती सेवन करने से संपूर्ण रोगों का नाश करे यह वातव्याधि, आमवात, ज्वर, उदर, कृमि, श्वास, शूल, रक्तवात, रक्तपित्त, क्षीणता, खांसी, क्षय, कफरोग, उरःक्षत, अजीर्ण, प्रमेह, कोढ, अतिसार, पांडु, संग्रहणी, तमकश्वास, व्रण, बवासीर, पंगुवात, आढ्यवात, कर्णरोग और योनिरोग इन पर उत्तम है ॥
वसंतकुसुमाकर
प्रवालरसमौक्तिकाभ्रकमिदं चतुर्भागभाक् पृथक्पृथगथ स्मृते रजतहेमनी द्व्यंशके। अयोभुजगरंगकं त्रिलवकं विमर्द्याखिलं शुभेहनि विभावयेद्भिषगियं धिया सप्तशः॥ द्रवैर्वृषनिशेक्षुजैः कमलमालतीपुष्पजै रसैः कदलि-कंदजैर्मलयचंदनादुद्भवैः। वसंतकुसुमाकरो रसपतिर्द्विवल्लोशितः समस्तगदहृद्भवेत्किलनिजानुपानैरयम्॥ क्षिपेच्चसमधूषणैः क्षयगदेषु सर्वेष्वपि प्रमेहरुजि रात्रिभिः समधुशर्कराभिः सह। सितामलयजद्रवैर्महति रक्तपित्तेथ वा सितामधुसमन्वितैर्वृषभपल्लवानां द्रवैः॥ त्रिजातगुरुचंदनैरपि च तुष्टिपुष्टिप्रदो मनोभवकरः परो वमिषु शंखपुष्पीरसैः । अभीरुरसशर्करामधुभिरम्लपित्तामये परेषु च यथोचितं ननु गदेषु संसेवयेत् ॥
अर्थ-मूंगा, पारा, मोती और अभ्रक ये चार २ तोले, रौप्यभस्म और सुवर्णभस्म, ये दो दो तोले, लोहेकी भस्म शीशे की तथा रांग इन की भस्म तीन २ तोले लेवे सब को - एकत्र खरल कर अडूसेका रस, हलदी का काढा ईखका रस,कमल और मालती इनके फूलों का रस, केले के कंद का रस, काली अगर और चंदन उन का काढा इन प्रत्येक की सात २ भावना देवे तो यह वसंतकुसुमाकररस बनकर तयार होवे. इस में से ४ या ६ रत्ती रोगोक्त अनुपान के साथ सेवन करे तो संपूर्ण व्याधि का नाश करे. सहत औरकाली मिरच इन के साथ क्षय पर देवे. प्रमेह पर हलदी के चूर्ण तथा सहत और मिश्री इन से चंदन का काढा और मिश्री इन के सात रक्तपित्ति पर दे. अथवा मिश्री, सहत, अडूसेके रस के साथ देवे तथा दालचीनी, पत्रन, इलायची इन के चूर्णे से देवे तो तुष्टि तथा पुष्टि देकर कामोद्दीपन करे तथा शंखाहूली के रस से वांति पर, शतावर का रस, मिश्री और सहत इन से अम्लपित्त पर तथा सर्वरोगों पर योग्य अनुपानों के साथ सेवन करे ॥
लोकेश्वरपोटली
रसस्य भस्म वा हेम पादांशेन प्रकल्पयेत्। द्विगुणं गंधकंदत्त्वा मर्द्दयेच्चित्रकांबुना॥ वराटकांश्च संपूर्य टंकणेन निरुध्य च। भांडे चूर्णप्रलिप्तेथ शीघ्रं रुन्ध्यात्तु मृन्मये ॥ शोषयित्वा पुटे गर्तेरत्निमात्रेपराह्णिके। स्वांगशीतलमुद्धृत्य चूर्णयित्वाथ विन्यसेत् ॥ एषलोकेश्वरो नाम वीर्यपुष्टिविवर्धनः। गुंजाचतुष्टयं खादेत्पिप्पलीमधुसंयुतः॥ भक्षयेत्परया भक्त्या लोकेशः सर्वदर्शनः। अंगकार्श्येग्निमांद्ये च कासे पित्ते रसः स्वयम् ॥ मरीचैर्घृतसंयुक्तः प्रदातव्यो दिनत्रयम् । लवणं वर्जयेत्तत्र साज्यं दधिच योजयेत् ॥ एकविंशद्दिनं यावन्मरीचं सघृतं विबेत्। पथ्यं मृगांकवत् ज्ञेयं शयीतोत्तानपादतः ॥ ये शुष्का विषमाशनैः क्षयरुजा व्याप्ताश्च ये कुष्ठिनो ये पांडुत्वहताःकुवैद्यविधिना ये शोषिणो दुर्भगाः । ये तप्ता विविधज्वरैर्धर्भ्रमदोन्मादैः प्रमादं गतास्ते सर्वेविगता यया हि परया स्युः पोटलीसेवया॥
अर्थ-पारदभस्म ४, सुवर्णभस्म १ और गंधक ८ इस प्रकार भाग लेकर चित्रक के काढे से खरल करे फिर कौडियों में भरे और उन के मुख को आक के दूध में सुहागे को पीस उस सुहागे से बंद करे फिर १ हांडी लेय उसको आधी चूने सेभरे फिर इन कौंडियों को भरे और ऊपर से चूना फिर भर दे फिर उस का मुखबंद कर फिर १ हाथ का गढ्ढा खोद उस में उस पात्र को रख आरने उपरों से भर देवे ३ पहर के अनंतर पुट देकर भस्म करे जब स्वांगशीतल हो जाये तब निकाल खरल कर धर रक्खे इसे लोकेश्वर रस कहते हैं यह पीपर और सहत इन के साथ ४-४ रत्ती सेवन करे तो तथा भक्तिपूर्वक सेवन करने से सर्व सुख का दिखानेवालाहै देह की कृशता, मंदाग्नि, खांसी, पित्त इन पर घीऔर मिर्च के चूर्ण के साथ ३ दिन देवेनिमक खाना वर्जित है तथा इस के ऊपर घी और दही खाय और २१ दिनतक घी और मिर्चका चूरा मिलाकर पीया करे और मृगांक के समान पथ्य करे तथा पैरों को सीधे करके लेटे और जो कोई विषमाशन करके शुष्क, क्षय रोग करके व्याप्त, कोढी, पांडुरोगी, कुत्सित वैद्यों के उपचार करके शोषयुक्त, दुर्भग, अनेक प्रकार के ज्वरों करके तप्त, भ्रमरोगवाला, उन्मादरोगवाला और बावला ऐसे सर्व रोग इस लोकेश्वरपोटली के सेवन करने से निरोगी होय ॥
लोहरसायन क्षयादिकोंपर
शुद्धं रसेंद्रं भागैकं द्विभागं शुद्धगंधकम् । क्षिपेत्कज्जलिकां कुर्यात्तत्रतीक्ष्णभवं रजः ॥ क्षिप्त्वाकज्जलिकातुल्यं प्रहरैकं विमर्द्दयेत् । ततः संजायते तस्य सोष्णो धूमोद्गमोमहान् ॥ अत्यंतं पिंडितं कृत्वा ताम्रपात्रेनिधायच। मध्ये धान्येकशूकस्य त्रिदिनं धारयेद्बुधः । उद्धृत्य तस्मात्खल्वे च क्षिप्त्वाघर्मे निधाय च । रसैः कुठारच्छिन्नायास्त्रिवेलं परिभावयेत्॥ संशोष्य घर्मक्वाथैश्च भावयेत्त्रिकटोस्त्रिधा। लोहपात्रे ततः क्षिप्त्वा भावयेत्त्रिफलाजलैः॥ निर्गुंडीदाडिमत्वग्भिर्बिसभृंगकुरंटकैः। पलाशकदलीद्रावैर्बीजकस्य शृतेन वा॥ नीलीकालंबुषाद्रावैर्बूब्बूलफलिका-रसैः । त्रित्रिवेलं यथालाभं भावयेदेभिरौषधैः॥ ततः प्रातर्लिहेत्क्षौघृताभ्यां कालमात्रकम्। पलमात्रंवरक्वाथं पिबेदस्यानुमानकम्॥ मासत्रयं शीलितं स्याद्वलीपलीत-
नाशनम् । मंदाग्निश्वासकासांश्च पांडुतां कफमारुतौ ॥ पिप्पलीमधुसंयुक्तं हन्यादेतन्न संशयः । वातास्त्रं मूत्रदोषांश्च ग्रहणीं तोयजां रुजम् ॥ अंडवृद्धिं जयेदेतच्छिन्नासत्त्वमधुप्लुतम् । बलवर्णकरं वृष्यमायुष्यं परमं स्मृतम् ॥ कूष्मांडं तिलतैलंच मापान्नंराजिका तथा। मद्यमम्लरसं चैव त्यजेल्लोहस्य सेवकः ॥
अर्थ-शुद्धपारा १ भाग, शुद्धगंधक २ भाग, दोनों को खरल में डाल खरल करे उस के समान भाग काली मिर्च का चूर्ण लेकर उस कजली में मिलाय १ प्रहर खरल करे फिर धीगुवार के रस में ३ दिन पर्यंत खरल करे ऐसा करने से इस औषधी में से गर्म २ घोर धुंआ, निकलता है तब इसका प्रथम गोला करके तामे के पात्रमें धरके धानी में गाढ देवे जब ३ दिन बीत जाय ४दिन उस गोला को निकाल कर खरल कर धूप में रख वनतुलसी के रस की ३ पुट देवे फिर सोंठ, मिर्च, पीपर इन का काढाकरके पृथक् २ तीन दिन पुट देवे फिर अडूसा, गिलोय और चित्रक इन तीनों का रस पृथक् २ निकाल क्रम से एक २ की पुट तीन २ देवेपश्चात् इस रसायन को लोहे की कढाई में डालके आगे लिखी औषधों की पुट देवे जैसे हरड, बहेडा, आवला, निर्गुंडी, अनार की छाल, कमलकंद, भांगरा, पीयावांसा, पलास, केला का कंद, विजेसार, नीलपुप्पी, मुंडी, बबूरकेफली का रस. इन चौदह औषधों के न्यारे २ रस निकाल कर क्रम पूर्वक एक एक रस की तीनभावना देकर गोली छडिया बेर की बरबरबनावे १ गोली सहत और घी इन को एकत्र कर इस में मिलायके खाय और तत्काल इस के ऊपर त्रिफले का काढाएक पल के प्रमाण पीवे इस प्रकार तीन महिने पर्यंत इस रसायन को सेवन करेतो देह की गुजलट और छोटी उम्र (अवस्था) में बालों का सफेद होना ये दूर हो और देह हृष्टपुष्ट हो तथा बालकाले हों तथा सहत और पीपल के साथ सेवन करे तो मंदाग्नि, श्वास, खांसी, पांडुरोग, कफवायु ये रोग दूर हों तथा गिलोय के सत्वके साथ मिलायकर खाय तो वातरक्त, मूत्रदोषदुष्ट पानीपीनेसे हुई जो संग्रहणी, तथा अंडवृद्धि ये रोग दूर हों. यह रसायन है. बल, कांति, तथा स्त्रीगमन में इच्छा देनेवाला तथा आयुष्यकी वृद्धि करनेवाला है. तथापेठा, तिलों का तेल, उडद, राई, मद्य(दारू) और खट्टे पदार्थये सब इस रस के सेवन करनेवाले को खाना वर्जितअर्थात् अपथ्य हैं ॥
रत्नगर्भपोटली
रसं वज्रं हेम तारं नागं लोहं तथाभ्रकम् । तुल्यांशं मारितं यो-
ज्यं मुक्तामाक्षिकविद्रुमम्॥ राजावर्तंच वैक्रांतं गोमेदं पुष्पराजकम्। शंखं च तुल्यतुल्यांशं सप्ताहं चित्रकद्रवैः। म-र्दयित्वा विचूर्ण्याथतेनापूर्य वराटकान्। टंकणं रविदुग्धेन पिष्ट्वा तन्मुखमालिपेत्॥ मृद्भांडे तान्सुसंयन्त्र्य सम्यग्ग-जपुटे पचेत्। आदाय चूर्णयेत्सम्यङ् निर्गुंड्याः सप्तभावनाः॥ आर्द्रकस्य रसैः सप्त चित्रकस्यैकविंशतिः। द्रवैर्भाव्यं ततः शुष्कं देयं गुंजाचतुष्टयम्॥ क्षयरोगं निहंत्याशु सत्यं शिव इवांधकम्। योजयेत्पिप्पली-क्षौद्रैःसघृतैर्मरिचैश्च वा ॥ पोटलीरत्नगर्भोयंसर्वरोगहरो मतः॥
अर्थ-पारा, हीरा, सुवर्ण, चांदी, शीशी, लोह, अभ्रक, मोती, सुवर्णमाक्षिक, मूंगा, राजावर्त्त, वैक्रांत, गोमेद, पुखराज और शंख इन सब की भस्म समान भाग लेवे सात दिन पर्यंत चित्रक के काढ़े में खरल करे फिर इस चूर्ण को कौडियों में भरे उन का मुख आक के दूध में पिसे सुहागे से बंद करे. फिर उन कौडियों को मिट्टी के हांडिया में बंद कर उस के मुख को बंद कर देवे और इस हांडी को गजपुट में धरके फूंक देवे. शीतल होने पर निकालके चूर कर लेवे और निर्गुंडी के रस की सात भावना देकर सुखाय ले. इस में से ४ रत्ती रस ले सहत, पीपल अथवा घी और काली मिरचों की बुकनी इन के साथ देवे तो जैसे शिवने अंधक दैत्य का नाश करा उसी प्रकार यह रत्नगर्भपोटली रस क्षय रोग का नाश करे तथा सर्व रोगों का भी नाश करे ॥
हेमगर्भपोटलीरस कफक्षयादिकोंपर
सूतात्पादप्रमाणेन हेम्नःपिष्टं प्रकल्पयेत् । तयोः स्याद्विगुणो गधो मर्दयेत्कांचनारिणा ॥ कृत्वा गोलं क्षिपेन्मूषासंपुटे मुद्रयेत्ततः। पचेद्भूधरयंत्रेण वासरत्रितयं बुधः॥ तत उद्धृत्य लाशक दद्याद्गंधंच तत्समम्। मर्द्दयेच्चार्द्रकरसैश्चित्र-कस्वरसेन ब्बूलफांबूलपीतवराटांश्च पूरयेत्तेन युक्तितः। एतस्मादौषधाततः अष्टमांशेन टंकणम् ॥ टंकणार्धंविषं द-त्त्वापिष्ट्वासेहुंडदुग्धक्वाथं पिदयेत्तेन कल्केन वराटानां मुखानि च ॥ भांडे चूर्णप्र-
लिप्तेथ धृत्वा मुद्रां प्रदापयेत् । गर्ते हस्तोन्मिते धृत्वा पुटेद्गजपुटेन च ॥ स्वांगशीतं रसं ज्ञात्वा प्रदद्याल्लोकनाथवत्। पथ्यं मृगांकवत् ज्ञेयं त्रिदिनं लवणं त्यजेत् ॥ यदा छर्दिर्भवेत्तस्य दद्याच्छिन्नाशृतं तदा । मधुयुक्तं तथा श्लेष्मकोपे दद्यागुडार्द्रकम् ॥ विरेके भर्जिता भंगा प्रदेया दधिसंयुता । जयेत्कासं क्षयं श्वासं ग्रहणीमरुचिं तथा ॥ अग्निं च कुरुते दीप्तं कफवातं नियच्छति । हेमगर्भः परो ज्ञेयो रसः पोटलिकाभिधः॥
अर्थ-शुद्ध पारा १ भाग तथा पारे का चतुर्थांश खरल करा हुआ सुवर्ण का वरक और दोनों से दुगुनी गंधक लेवेइन तीनों को कचनार के रस में खरल करे और इस का गोला बनाय लेवे इस गोले को मिट्टी सराव संपुट में रख कपडमिट्टी करके उस को भूधर यंत्र में पचावे. जब शीतल हो जावेतब बाहर निकाल उस के समान गंधक ले दोनों को अदरख के रस में छोटे फिर चित्रक के रस में पोटे फिर इस को सुखायके बडी२ पीली कौडियों में युक्तिपूर्वक भर देवे. फिर सब औषधोका आठवां हिस्सा सुहागा ले और सुहागे से आधा सिंगियाविष लेवे दोनों को थूहर के दूध में खरल करके उन कौडियों के मुख पर मुद्रा देवे. फिर इन कौडियों को एक चूने भरे हुए पात्र के बीच में रख ऊपर से फिर दाबके चूने को भर देवे फिर इस पात्र के मुख पर दूसरा पात्र औंधारखके उस की संधियों को कपडमिट्टीसे ल्हसे देवे. फिर एक हाथ भर का गड्ढा खोद के आरनेउपले भरे और बीच मेंइस पात्र को रखके ऊपर से फिर आरने उपले भर देवे और अग्नि लगाय देवे जबइस गजपुट की अग्नि स्वांगशीतल हो जाये तब बड़ी होसयारी से उन कौडियों को निकाल के सरल में डाल के पीस डाले. इस रस को हेमगर्भपोटली कहते है यह हेमगर्भपोटली लोकनाथ रस के समान सेवन करे और पथ्य मृगांक रसायन के समान सेवनकरे. तथा इस से भी विशेषता यह है तीन दिन अधिक नोन न खावेपश्चात् इस औषध से उलटी आने लगती है तब गिलोय का काढा कर उस में सहत मिलायके देवेतो उलटी दूर हो. तथा कफ का प्रकोप होने से गुडऔर अदरक का रस मिलायके देवे तो कफप्रकोप दूर होवेतथा दस्त होने लगे तो भांगकोभूनदधीमेंमिला-यकेदेवेइस से दस्तों को होना बंद होवे, तथाइस हेमगर्भ पोटली से खांसी, क्षय, श्वास, संग्रहणी और अरुचिये रोग सब दूर होवे तथाअग्निप्रदीप्त होय तथा कफ और वायु का प्रकोप दूर होवे।
दूसरा प्रकार
रसस्य भागाश्चत्वारस्तावंतः कनकस्य च। तयोश्च पिष्टिकां कृत्वा गंधो द्वादशभागिकः ॥ कुर्यात्कज्जलिकां तेषांमुक्ताभागाश्च षोडश । चतुर्विंशच्च शंखस्य भागैकं टंकणस्य च ॥ एकत्र मर्दयेत्सर्वंपक्वनिंबूकजै रसैः । कृत्वा तेषां ततो गोलं मूषासंपुटके न्यसेत् ॥ मुद्रां दत्त्वा ततो हस्तमात्रे गर्ने च गोमयैः। पुटेद्गजपुटेनैव स्वांगशीतं समुद्धरेत् ॥ पिष्ट्वागुंजाचतुर्मानं दद्याद्गव्याज्यसंयुतम् । एकोनत्रिंशदुन्मानमरिचैः सह दीयते ॥ राजते मृन्मये पात्रेकाचजे वावलेहयेत् । लोकनाथसमं पथ्यं कुर्यात् शुचितमानसः ॥ कासे श्वासे क्षये वाते कफग्रहणिकागदे । अतिसारे प्रयोक्तव्या पोटली हेमगर्भिका ॥
अर्थ-पारा ४ भाग, सुवर्णके वर्क ४ भाग, दोनों को एकत्र करके खरल करे जब उत्तम पिठ्ठीहो जावे तब पारे के बारह भाग शुद्ध गंधक लेवे इस को मिलायके फिर घोटकर कजली करे पश्चात् पारे के सोलह भाग मोती, चौवीस भाग शंख, एकभागसुहागा लें पूर्वोक्त कजली में मिलाय पके हुए नींबूके रसमें मिलायके खरलकरे गोला बनाय ले इस गोले को मिट्टीके सराव संपुट में रख कपडमिट्टी करके गौ के गोवरों के गजपुट में धरके फूंक देवे. जबशीतल हो जाये तब बाहर निकाल उसमेंसे युक्तिपूर्वक औषध को निकाल लेवे और रस को खरल में डालके पीसडाले. इस को भी हेमगर्मपोटली रस कहते हैं यह हेमगर्भ ४ रत्ती के अनुमान उनतीस मिरच की बुकनी के साथ चांदी के पात्र में अथवा मिट्टी के अथवा शीशे के प्याले में गौ का घी डालके सब मिलायके सेवन करे तथा अंतःकरण को स्वस्थ कर लोकनाथ रस के समान पथ्य करे सो श्वास, क्षयरोग, वात के विकार, कफ और संग्रहणी, तथा अतिसार ये रोग दूर होवें।
लोकनाथरस
शुद्धो बुभुक्षितः सूतो भागद्वयमितो भवेत्। तथा गंधस्य भागौद्वौकुर्य्यात्कज्जलिकांतयोः॥ सूताच्चतुर्गुणेष्वेव कपर्देषु विनिक्षिपेत् । भागैकंटंकणं दत्त्वा गोक्षीरेण विमर्द्दयेत् ॥ तथा शंखस्य खंडानां भागानष्टौ प्रकल्पयेत् । क्षिपेत्सर्वपुटस्यांतश्चूर्णलिप्तशरावयोः ॥ गर्ते हस्तोन्मिते धृत्वा पचेद्गजपुटेन च । स्वांगशीतं समुद्धृत्य पिष्ट्वा तत्सर्वमेकतः ॥ षड्गुंजासंमितं चूर्णमेकोनत्रिंशदूषणैः । घृतेन वातजे दद्यान्नवनीतेन पित्तजे ॥ क्षौद्रेण श्लेष्मजे दद्यादतीसारे क्षये तथा। अरुचौ ग्रहणीरोगे कार्श्येमंदानले तथा ॥ कासे श्वासेषु गुल्मेषु लोकनाथो रसो हितः । तस्योपरि घृतान्नं च भुंजीत कवलत्रयम् ॥ मंचे क्षणैकमुत्तानः शयीतानुपधानके। अनम्लमन्नं सघृतं भुंजीत मधुरं दधि ॥ प्रायेण जांगलं मांसं प्रदेयं घृतपाचितम् ॥ सुदुग्धभक्तं दद्याच्च जातेग्नौ सांध्यभोजने। सघृतान् मुद्गवटकान् व्यंजनेष्वेव चारयेत् ॥ तिलामलककल्केन स्नापयेत्सर्पिषाथवा। अभ्यंजयेत्सर्पिषाच स्नानं कोष्णोदकेन च ॥ क्वचित्तैलं न गृह्णीयान्नबिल्वं कारवेल्लकम् । वार्ताकं शफरीं चिंचां त्यजेद् व्यायाममैथुने ॥ मद्यंसंधानकं हिंगुशुंठीमापान् मसूरकान् । कूष्मांडराजिकां कापं कांजिकं चैव वर्जयेत् ॥ त्यजेच्चयुक्तनिद्रां च कांस्यपात्रे च भोजनम् । ककारादियुतं सर्वं त्यजेच्छाकफलादिकम् ॥ पथ्योयं लोकनाथस्तु शुभनक्षत्रवासरे । पूर्णातिथौ शुक्लपक्षजाते चंद्रबले तथा ॥ पूजयित्वा लोकनाथं कुमारीं भोजयेत्ततः । दानं दद्याद्द्विघटिकामध्ये ग्राह्यो रसोत्तमः ॥ रसात्संजायते तापस्तदा शर्करया युतम् । सत्वं गुडूच्या गृह्णीयाद्वंशरोचनया युतम् ॥ खर्जूरं दाडिमं द्राक्षामिक्षुखंडानि चारयेत् । अरुचौ निस्तुपं धान्यं घृतभृष्टं सशर्करम् ॥ दद्यात्तथा ज्वरे धान्यं गुडूचीक्वाथमाहरेत् । उशीरवासकक्वाथं दद्यात्समधुशर्करम् ॥ रक्तपित्ते कफे श्वासे कासे च स्वरसंक्षये। अग्निभृष्टंजयाचूर्णं मधुना निशि दीयते ॥ निद्रानाशेतिसारे च ग्रहण्यां मंदपावके । सौवर्चलाभयाकृष्णाचूर्ण-मुष्णजलैः पिबेत् ॥
शूले जीर्णे तथा कृष्णा मधुयुक्ता ज्वरे हिता। प्लीहोदरे वातरक्ते छर्द्यांचैव गुदांकुरे ॥ नासिकादिषु रक्तेषु रसदाडिमपुष्पजम् । दूर्वायाः स्वरसं नस्ये दद्याच्छर्करया युतम् ॥ कोलमज्जाकणाबर्हियक्षभस्म सशर्करम् । मधुना लेहयेच्छर्दिहिक्काकोपस्य शांतये ॥ विधिरेप प्रयोज्यस्तु सर्वस्मिन् पोटलीरसे । मृगांके हेमगर्भे च मौक्तिकाख्ये रसेषु च ॥ इत्ययं लोकनाथोक्तोरसः सर्वरुजो जयेत् ॥
अर्थ-शुद्ध और बुभुक्षित पारा दो भाग तथा शुद्ध करी हुई गंधक दो भागइन दोनों की एकत्र कजली करे फिर पारे से चौगुनी पीली कौडी ले उन में इस कजली को युक्ति से भर देवे और सुहागा एक भाग लेके गौ के दूध खरल करके इस से उन कौडियों के मुख बंद कर देवे. फिर शंख के टुकडे वजन में आठ भाग ले. और मिट्टी के दो सराव लेकर एक में चूना भरके उस चूने के बीच में शंख के टुकडे को रखके और उस पर उन कौडियों रखके आधे शंख के टुकडे को उन कौडियों के ऊपर रख देवे और चूने से दाबऊपर दूसरे सराव से ढक देवे और कपडमिट्टी करके एक हाथ के गड्ढे में आरने उपले भर बीच में इस संपुट को धर देय और ऊपर फिर ऊपले भरके फूंक देवे. जबगजपुट स्वयं शीतल हो जावे तबसंपुट को निकाल उस के भीतर से चूना दूर कर बाकी सब की भस्म को निकाल के खरल में डाल के घोट डाले और उत्तम पात्र में भरके रख देवे इस को लोकनाथरस कहते हैं यह लोकनाथ रस छः रत्ती लेकर उन्नीस काली मिरचों के चूर्णमें मिलायके शादी का रोग होवेतो घीके साथ देवेतथा पित्तरोग होय तो मक्खन के साथ और कफ का रोग होय तो सहत में मिलाकर देवे तथा अतिसार, क्षय, अरुचिसंग्रहणी, कृशता, मंदाग्नि, खांसी, श्वास और गोला इतने रोग दूर होने को यह रस देवे इस की मात्रा लेकर इस के ऊपर घी भात के तीन ग्रास खायफिर शय्या ( खाट ) पर विना बिछैया के एक क्षण मात्रचीत लेट जावे. खट्टेपदार्थ को त्यागके घृत से भोजन करे तथा उत्तम मीठा दही भोजन में खाय. जंगली जीवों का अर्थात् हरिण आदि के मांस घी में तलके खाय. सायंकाल में जब भक लगे तब दूधभात खाय, मूंग के बडे घी में तल के खाय तिल और आवले. इन का कल्क करके देह में मालिस कर फिर स्नान करे, अथवा घी की देह में मालिस करके स्नान करे. स्नान के शिवाय देह में लगाना होय तो घी को ही लगावेऔर स्नान को जल सुहाता २ गरम लेवे. तेल का स्पर्श न करे तथा बेलफल,
करेला, बैगन, छोटी मछली, इमली, परिश्रम करना, मैथुन, मद्यपान, संधान ( अचार ), हींग, सोठ, उडद, मसूर, पेठा, राई, कांजी इन सब वस्तुओं का सेवन त्याग देय. क्रोधकरना, दिन में सोना, त्याग देवे कांसे के पात्र में भोजन न करे ककार है आदि में जिन के ऐसे शाक और फल इत्यादिक वर्जित है इस प्रकार लोकनाथ की पथ्य करे शुभदिन, शुभवार, पूर्णतिथि, शुक्लपक्ष, और अपने को जिस दिन उत्तम चंद्रमा होवे उस दिन लोकनाथरस की पूजाकरके फिर कुमारी स्त्री को भोजन करावे तथा सुवर्णादिक दान करके लोकनाथरस को खाय इस के खाने से दो घडी पश्चात् देह में संताप होता है उस के दूर करने को मिश्री और गिलोय का सत्त्व और वंशलोचन इन तीनो को एकत्र मिलायके सेवन करे तो संताप दूर हो. खजूर, अनार, दाख, ईख के टुकडे ये पदार्थ थोडे थोडे खाय तो संताप और अरुचि का होना दूर होवे तथा धनियों को कूट उस की गिरी निकालके घी में भून और मिश्री मिलायके उस के साथ लोकनाथरस खाय तो अरुचि दूर हो. धनिया, गिलोय इन का काढा कर इस काढेमे इस रस को मिलायके पीवे तो ज्वर दूर होय. खस और अडूसा इन दोनों का काढा कर सहत और मिश्री मिलाय उस में लोकनाथ रस को मिलायके पीवे रक्तपित्त और कफ, श्वास, खांसी, स्वरभंग ये रोग दूर हो, भांग को भूनके चूर्ण करे उस में इस रस को मिलायके और सहत डालके रात्रि में सेवन करे वो जिस को निद्रा न आती हो उस को निद्रा आवे अतिसार और संग्रहणी ये रोग दूर हो, जठराग्निप्रदीप्त होवेसंचरनिमक, जंगीहरड, पीपल इन तीन औषधोका चूर्ण कर इस में इस लोकनाथ रस को मिलायके गरम जल के साथ पीवे, शूलऔर अजीर्ण ये दूर हो, सहत और पीपल के साथ लोकनाथ सेवन करे तो ज्वर दूर हो, अनार के फल के रस के साथ सेवन करे तो पेट में दहने तरफ जो तिल्ली का रोग होता है वह और वातरक्त, वमन, बवासीर, नाक से रुधिर का गिरना ये सब रोग दूर हो. दूब का रस निकाल उस में सांड मिलाय तथा लोकनाथ को डालके नाक मेंनस्य देवे तो नाक से रुधिर गिरना बंद होवे बेर की गुठली के भीतर की मींगी, पीपल, मोरचंद्रका की भस्म इन तीन औषधीको एकत्र कर उस में मिश्री और सहत डाल लोकनाथरस मिलायके सेवन करे तो वमन और हिचकी ये दूर हों इस प्रकार संपूर्ण जितने पोटली रस है उन मे तथा मृगांक तथा हेमगर्भ और मौक्तिकारय रसायन इन में इसी प्रकार विधि करनी चाहिये. इस प्रकार लोकनाथरस कहा है यह लोकनाथ संपूर्ण रोगों को दूर करता है यह शार्ङ्गधरसंहिता मे लिखा है और अन्य ग्रंथों में भी लिखा है ॥
लघुलोकनाथरस
वराटभस्म मंडूरं चूर्णयित्वा घृते पचेत् । तत्समं मरिचं चूर्ण
नागवल्या विभावितम् ॥ तच्चूर्णं मधुना लेह्यमथवा नवनीतकैः । माषमात्रंक्षयं हंतियामे यामे च भक्षितम् ॥ लोकनाथरसो ह्येषमंडलाद्राजयक्ष्मनुत् ॥
अर्थ-कौडी की भस्म १ भाग, मंडूर १ भाग, काली मिरच २ भाग इन को एकत्र करके घी में खरल करे जब घीगाढाहो जावे तब नागरवेलपान में खरल करके मासे २ भर की गोली बनावे इस को सहत अथवा नवनीत के संग एक एक प्रहर में सेवन करे तो सामान्य क्षय को दूर करे इसी प्रकार एक मंडल सेवन करने से राजयक्ष्मा को भी दूर करे इसे लघुलोकनाथरस कहते हैं इस की भी पथ्य लोकनाथ के समान करे ऐसी किसी आचार्य की संमति है ॥
मृगांकपोटलीरस
भूर्जवत्तनुपत्राणि हेम्नः सूक्ष्माणि कारयेत् । तुल्यानि तानि सूतेन खल्वेक्षिप्त्वा विमर्द्दयेत् ॥ कांचनाररसेनैव ज्वालामुख्यारसेन वा। लांगल्या वा रसैस्तावद्यावद्भवति पिष्टिका ॥ ततो हेम्नश्चतुर्थांशं टंकणं तत्र निक्षिपेत् । पिष्टमौक्तिकचूर्णं च हेमद्विगुणमावपेत् ॥ तेषु सर्वसमं गंधं क्षिप्त्वाचैकत्र मर्द्दयेत् । तेषां कृत्वा ततो गोलं वासोभिः परिवेष्टयेत् ॥ पश्चान्मृदा वेष्टयित्वा शोषयित्वा च धारयेत् । शरावसंपुटस्यान्ते तत्र मुद्रां प्रदापयेत् ॥ लवणापूरिते भांडे धारयेत्तं च संपुटम् । मुद्रां दत्वा शोषयित्वा बहुभिर्गोमयैः पुटेत् ॥ ततः शीते समाहृत्य गंध सूतसमं क्षिपेत् ॥ घृष्ट्वा च पूर्ववत्खल्वेपुटेद्गजपुटेन च ॥ स्वांगशीतं ततो नीत्वा गुंजायुग्मं प्रकल्पयेत् । अष्टभिर्मरिचैर्युक्तो कृष्णात्रययुताथवा ॥ विलोक्य देयो दोषादीनेकैका रसरक्तिका । सर्पिषामधुना वापि दद्याद्दोषाद्यपेक्षया ॥ लोकनाथसमं पथ्यं कुर्यात्स्वस्थमनाः शुचिः ॥ श्लेष्माणं ग्रहणीं - कासं श्वासं क्षयमरोचकम् । मृगांकोयं रसो हन्यान्कृशत्वं बलहानिताम् ॥
अर्थ-सोने के भोजपत्र के समान बारीक पत्र करके उस के समान भाग शुद्ध पारा लेवे दोनों को एकत्र करके कचनार के रस में अथवा ज्वालामुखी के रस में तथा कटियारी के रस में जबतक सब मिलकर उत्तम पिठ्ठीन होवे तबतक खरल करे फिर सुवर्ण की चतुर्थांश सुहागा और सुवर्ण से दूना मोती का बारीक चूर्ण तथा सोने के बराबर गंधक ले सब को एकत्र खरल कर गोला बनावे उस के चारों तरफ कपडा लपेट उस पर मिट्टी का लेप करके धूप में सुखाय ले. फिर मिट्टी के दो सराव ले एक में उस गोले को रखके उस के ऊपर दूसरा रख देवे और दोनों को मिलाय कपडमिट्टी कर देवे मिट्टी के मटके में नोमभरके उस में इस सराव संपुट को रखके ऊपर से फिर निमक भर देवे फिर इस के मुख को बंद कर उस की संधियों को कपडमिट्टी से बंद कर देवे फिर इस को गजपुट से अधिक आरने उपलों की अग्नि में रखके फूंक देवे. जब शीतल हो जावे तब निकालके फिर उस पारे की बराबरगंधक लेकर सब को खरल में डालके पहले जो औषध कहीं है उन्हों के रसों में खरल करे और पूर्वविधि से गजपुट की अग्नि देवे जबशीतल हो जावेतबबाहर निकाल फिर इस संपुट में से औषधी निकाल लेवे इस को मृगांकपोटली रस कहते हैं यह पोटली रस दो रत्ती के अनुमान आठ मिरचों के अथवा तीन पीपलों के साथ देवे तथा दोषों का तारतम्य देखकर एकरत्तीभी देवे जैसी दोषोंकी अपेक्षा होवे उसी प्रकार घी में अथवा सहत में मिलायके सेवन करे तथा अंतःकरण को स्वच्छ करके पवित्र हो लोकनाथरस के समान पथ्य करे. इस प्रकार आचरण करने से इस रसायन से कफरोग, संग्रहणी, खांसी, श्वास, क्षयरोग, अरुचि, शरीर की कृशता तथा बलहानी ये रोग दूर होवें ॥
गोक्षुराद्यघृत
दुरालभा स्वदंष्ट्रा च चतस्रः पर्णिनी बला । भागान्पलन्मितान् कृत्वा पलं पर्पटकस्य च ॥ पचेद्दशगुणे तोये दशभागावशेषितम् । रसे पूते तु द्रव्याणामेषांकल्कं समावपेत् ॥ सठीपुष्करमूलानां पिप्पलीत्रायमाणयोः । तामलक्या किरातस्य तिक्तस्य कटुकस्य च ॥ पलानां सारिवायाश्च तत्पिष्ट्वा कर्षसंमितान् । तैः साधयेद्धृतप्रस्थं क्षीरं द्विगुणितं भिषक् ॥ ज्वरं दाहं तमः श्वासं कासं पार्श्वशिरोरुजम् । तृष्णां छर्दिमतीसारमेतत्पानं व्यपोहति ॥
अर्थ-गोखरू,धमासा, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, खरेटी, पित्तपापडा , ये आठ ओषध चार २ तोले लेवे इन को दस गुने जल में डालके औटाये और काढा करे जब दशांश शेष रहे तब उतारके छान लेवे फिर कचूर, पुहकरमूल, पीपल, त्रायमाण, हरड, चिरायता, तेजबल, कुटकी, सारिवा ये प्रत्येक एक एक तोला लेवे इन का कल्क तथा ६४ तोले घी, १२८ तोले दूध डालके घृतपाक की विधि से इस घृत को सिद्ध करे यह गोक्षुरादिघृत ज्वर, दाह, तमकश्वास, पसली और मस्तक इन के शुल को तथा प्यास, वमन और अतिसार इन को नाश करे ॥
जीवंत्यादिघृत
जीवंतिकावत्सकयष्टिकानां सपौष्करं गोक्षुरके बलेद्वे । नीलोत्पलं तामलकं यवासा सत्रायमाणा मगधा च कुष्ठं॥ द्राक्षामलक्या रसमेकप्रस्थं प्रस्थद्वयं छागलकं पयश्च । प्रस्थं तथा योज्य दधिश्च धीमान् पचेत् घृतं वा मृदुवह्निना तत् ॥ पाने प्रशस्तं हितमेतदेव नस्ये च बस्तौ विनियोजयेत्तु । विनाशयत्याशु च राजयक्ष्महलीमकं कामलपांडुरोगम् ॥ मूर्छाभ्रिमश्लेष्मशिरोतिशूलं मदाश्मरी वा गुदकीलकुष्ठम् । शिरोगदं नाशमुपैति तस्य नस्यप्रदानेन नियोजितेन ॥ पानेन पाण्ड्वामयराजयक्ष्मा नाशं समायाति हलीमकं च । बस्तिप्रदानेन गुदोद्भवश्च रोगो विनाशं समुपैति पुंसाम् ॥ विसर्पविस्फोटकमृंक्षणेन नश्यंत्यनेनैव गदाः समस्ताः॥
अर्थ-गिलोय, कुडे की छाल, मुलहटी, पुहकर मूल,गोखरू, खिरेटी, गगेरन, नील कमल, भूय आवला, धमासा, त्रायमाण, पीपल, कूठ, दाख और आमले इन का रस ६४ तोले बकरी का दूध १२८ तोले, दही ६४ और घी ६४ तोले ले सबको एकत्र करके लोहे की कढाई में भरके चूल्हे पर चढावे और मंद २ अग्नि से पचावे इस घृत केनस्य देने से तथा पान करने से तथा बस्ति इन कर्मों में देवे तो तत्काल राजयक्ष्मा हलीमक, कामला, पांडुरोग इन को तथा बस्तिकर्म से गुदासंबंधी रोगोंका तथा देनेमें लगाने से विसर्प, विस्फोटक इन को और अनेक व्याधियों को नाश करे ॥
बलाद्यघृत
बला श्वदंष्ट्रा कलशी बृहती धावनी स्थिरा। निंबपर्पटकं मुस्ता त्रा-
यमाणं दुरालभा ॥ कृत्वा कषायं पेयार्थंदद्यात्तामलकी सठी ॥ द्राक्षा पुष्करमूलं च मेदा ह्यामलकानि च ॥ घृतं पयश्च तत्सिद्धं सर्पिर्ज्वरहरं परम् । क्षयकासप्रशमनं शिरःपार्श्वरुजापहम् ॥
अर्थ-खिरेटी, गोखरू,पिठवन, कटेरी, बड़ी कटेरी, सालपर्णी, नीम की छाल, पित्त पापडा, नागरमोथा, त्रायमाण, धमासा, हरड, कचूर, दाख, पुहकरमूल, मेदा और आवला इन का काढा, तथा दूध, घी, डालके घृतपाक की विधि से इस घृत को सिद्ध करे तो यह अत्यंत ज्वरनाशक, मोह और क्षय, मस्तक और पसली इन के शूल को नाश करे इस को बलादिघृत कहते हैं ॥
कोलाद्यघृत
कोललाक्षारसे तद्वत्क्षीराष्टगुणसाधितम् ॥ कल्कैः षडंगदार्वीत्वग्द्राक्षाक्षोटफलान्वितम् ॥ घृतं खर्जूरमृद्वीकामधूकैः सपरूपकैः। सपिप्पलीकं वैस्वर्यकासश्वासरुजापहम्॥
अर्थ-बेर की लाख के काढेमें अष्टमांश दूध तथा गोखरू,दारुहलदी,दालचीनी, दाख, अखरोट, खजूर, गोस्तनी मुनक्का, मुलहटी, फालसे और पीपल इन का कल्क करके इस में घीसिद्ध करे यह घृत स्वरभंग, खांसी और श्वास इस का नाश करे है ॥
कणाद्यघृत
कणापलं पंचगुडांभसश्च सज्यं घृतं वै विपचेत्समांशम्।
पानेथवा भोजनके प्रशस्तं क्षये च राजक्षयनाशहेतु ॥
अर्थ-पीपल २० तोले, गुड का जल २० तोले और घी ये सब समान माग ले सब को एकत्र कर घृत सिद्ध करे इस को पीने के वास्ते अथवा भोजन करने को देवे तो क्षय और राजयक्ष्मा इन को दूर करे ॥
पाराशरघृत
यष्टी बला गुडूची च पंचमूलं समांशकम् । क्वाथेन सदृशं धात्रीरसं चेक्षुरसं तथा ॥ विदार्याया रसं चैव घृतं च समभागिकम्। क्षीरं दधिसमं चात्र नवनीतं तु तत्समम् ॥ द्राक्षातालीससंयुक्तं पथ्यालाभेन योजयेत् ॥ सिद्धं घृतं च पानीये नस्ये बस्तौप्रदापयेत् । हरते राजयक्ष्माणं पांडुरोगं च दारू-
णम् ॥ हलीमकार्शसी नित्यं रक्तपित्तनिवारणम् । लेपनं दुष्टवीसर्पपित्तदग्धव्रणापहम् ॥
अर्थ-मुलहटी, खिरेटी, गिलोय, और पंचमूल इन सब को समान भागलेकर काढा करे इस काढे के समान आवले का रस ईख का रस विदारी कंद का रस और घी, दूध, दही, मक्खन, दाख, तालीसपत्र ये यथालाभ करके घी को सिद्ध करे इस घी के खाने से नस्य अथवा बस्ति इन में देवे तो क्षय, पांडुरोग, कामला, हलीमक, बवासीर, रक्तपित्त, इन को नाश करे. तथा इस की देह में मालिस करने से पित्त और दग्ध व्रण इन को दूर करे ॥
जलाद्यघृत
जलद्रोणे विपक्तव्यं यावत्पादावशोषितम् । पिप्पली चंदनं लोघ्रंह्रीबेरोशीरपर्पटम् ॥पागभूनिंबयष्ट्याह्वात्रायंती नीलमुत्पलम् । मुस्तकेंद्रयवा शुंठी कटुकं सदुरालभम् ॥ त्वक्पत्रं वृषमूलं च कल्पैरर्धपलैर्भिषक् । अजाक्षीरेण तूष्णेन घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ हंति यक्ष्माणमत्युग्रं रक्तपित्तं त्रिदोषजम्। श्वासकासक्षतक्षीणदाहशोकरुजापहम् ॥
अर्थ-१०२४ तोले जल में पीपल, रक्तचंदन, लोध्र, नेत्रवाला, खस, पित्तपापडा, पाढ, चिरायता, मुलहटी, त्रायंती, कालाकमल, नागरमोथा, इन्द्रजो, सोंठकुटकी, धमासा, दालचीनी और अडूसे की जड ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे सब को एकत्र करके चतुर्थांश शेष काढा करे. फिर इस को छान लेय और काढे के समान बकरी का दूध तथा ६४ तोले घी इन सब को एकत्र करके औटावे जबघृतमात्रशेष रहे तब उतार लेवे यह घी क्षयरोग, त्रिदोषजन्य रक्तपित्त, श्वास, खांसी, क्षतक्षीण, दाह, तथा शोक इन को नाश करे ॥
वासाद्यघृत
वासामृतारिष्टनिदिग्धिकानां रसेश्वगंधेभवलार्जुनानाम् । सिद्धं सपंचोपणपुष्कराणां कल्कैर्घृतं छागपयस्तु शोषे॥
अर्थ-अडूसा, गिलोय, नीम की छाल, कटेरी, असगंध, अतिबला, कोह, इन, के काढेमें घी, सोंठ, मिरच, पीपल, चव्य, पीपरामूल, पुहकरमूल, इन के कल्ककी बराबरबकरी का दूध डालके घी को सिद्ध करे तो यह वासादिघृत क्षयरोग को नाश करे है ॥
खर्जूरादिघृत
घृतं खर्जूरमृद्वीकामधूकैः सपरूपकैः।
सपिप्पलीकैर्वैस्वर्यकासश्वासज्वरापहम् ॥
अर्थ-खजूर, दाख, मुलहटी, फालसे और पीपल इन से सिद्ध करे हुए घीके सेवन करने से स्वरभंग ( आवाज का बैठ जाना ), खांसी, श्वास, ज्वर इन का नाश करे ॥
पिप्पल्याद्यघृत
पिप्पलीगुडसंयुक्तं छागमांसयुतं घृतम् ।
एतदग्निविवृद्ध्यर्थं प्रदेयं क्षयकासिनाम् ॥
अर्थ-पीपल और गुड तथा बकरे का मांस इन से सिद्ध करा हुआ घीक्षयरोग और खांसी इनपर देना चाहिये ॥
दूसरा प्रकार
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः।
सयावशूकैश्च क्षीरं स्रोतसां शोधनं परम् ॥
कल्कोत्र पादिकःकार्यः क्षीरं वापि चतुर्गुणम् ॥
अर्थ-पीपल, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठऔर जवाखारइन से सिद्ध करा हुआ घृत स्रोत ( देह की छिद्रों ) की शुद्धि करे है इस जगह औषधोंका कल्क १ भाग और घी४ भाग इस प्रमाण से लेकर घी बनावे॥
दशमूलाद्यघृत
दशमूलीशृतात्क्षीरात्सर्पिर्यदुदियान्नवम् ।
सपिप्पलीकं सक्षौद्रं तत्परं स्वरशोधनम् ॥
शिरःपार्श्वांगशूलघ्नं कासश्वासज्वरापहम् ॥
अर्थ-दशमूल डालके औटे हुए दूध को जमाय घी निकाल लेवे यह घी, सहत और पीपल इन के साथ सेवन करे तो स्वर को शुद्ध करता और मस्तक, कूखइन के शूल का, खांसी, श्वास और ज्वरइन का नाशकहै ॥
तिलोंका तैल
क्षीरे चतुर्गुणे तैलं प्रस्थद्वयतिलोद्भवम् ।
शतशपावितं यष्टीपलकल्केन यत्नतः॥
पाननस्यादिभिर्यक्ष्महरमामयपांडुजित् ।
ऊर्ध्वजत्रुगरोन्मादरक्तपित्तविसर्पनुत् ॥
अर्थ-१२८ तोले तिलों का तेल, ५१२ तोले दूध, १ तोले मुलहटी का चूरा इन को एकत्र कर बहुत बार औटावे फिर छानके पीवे तो राजयक्ष्मा, पांडुरोग, हसली के ऊपर के भाग में होनेवाले रोग, विष के रोग, उन्माद, रक्तपित्त और विसर्प इन रोगों को दूर करे ॥
चंदनादितैल
चंदनांबुनखैर्याम्यं यष्ट्याशैलेयपद्मकम् । मंजिष्ठा सरलं दारु सेव्यैलं पूतिकेसरम् ॥ हरिद्रा सारिवातिक्ता लवंगागुरुकुंकुमम् । त्वग्रेणुनलिका चेति तैलं मस्तु चतुर्गुणम् ॥ लाक्षारससमं सिद्धं ग्रहघ्नं बलवर्धनम् । अपस्मारज्वरोन्मादकृत्यालक्ष्मीविनाशनम् ॥ आयुःपुष्टिकरं चैव वशीकरणमुत्तमम्। विशेषात्क्षयरोगघ्नं रक्त-पित्तहरं परम् ॥
अर्थ-चंदन, नेत्रवाला, नख ( सुगंधद्रव्य ), लालचंदन, मुलहटी, शिलाजीतपद्माख, मजीठ, सरलद्रव्य, देवदारु, खस, जवाद, हलदी, सारिवा, कुटकी, लौंग, अगर, केशर, दालचीनी, रेणुकबीज और नलिका ये सब वस्तु समान भाग लेऔर इन सब से चौगुना तेल तथा दही का जल और सब की बराबरलाख काकाढा लेवे सब को एकत्र करके तेल सिद्ध करे यह ग्रहनाशक, बल बढानेवाला मृगी, ज्वर, उन्माद रोग, कृत्या ( घातमूढ ) और अलक्ष्मी इन को नाश करे तथाआयुष्य, पुष्टि और वशीकरण इन को करे है तथा विशेष करके क्षयरोग और रक्तपित्त इन को नाश करे है ॥
लक्ष्मीविलासतैल
एलाश्रीखंडरास्नाजतुनखशशितक्कोलकं चाथ मुस्ता वल्लत्वग्दारुकृष्णागरुतगरजटाकुष्ठमेतत्समांशम्। त्रैगुण्यं कालरालं सुदृढडमरुकायंत्रसिद्धं तु तैलं गंधैः पुष्पैश्च भाव्यं परिमलललितं नामतो गंधतैलम्॥ एतल्लक्ष्मीविलासं जनयति जगतीनायकैः संप्रयोगं युक्त्या रोगान् निखिलगदहरं वातसंघातहंतृ। पीतं तांबूलवल्लीदलमिलितमलं जाठरे वह्निसिद्धं कुर्याद्दुर्नामयक्ष्मक्षयमपि नितरामंगसंमर्द्दनेन ॥
अर्थ-इलायची, चंदन, रासना, लाख, नखद्रव्य, कपूर, कंकोल, नागरमोथा, खिरेटी, दालचीनी, हलदी, पीपल, अगर, तगर, जटामांसी, कूठ ये समान भाग ले. तिगुनी राल लेवे. इन सब पदार्थों को डमरूयंत्र में डालके तेल निकाल लेवे. इसे लक्ष्मीविलासतैल कहते हैं यह अत्यंत सुगंध करके युक्त इस को गंधतैल भी कहते हैं. यह स्त्रीपुरुषों में प्रीति उत्पन्न करे है. युक्तिपूर्वक इस का उपयोग करने से अनेक रोग तथा अनेक वादी के रोग इन को नाश करे. इस को पान में लगायके खाय तो जठराग्नि को दीप्त करे तथा देह में लगाने से बवासीर, क्षयरोग इन को नाश करे है ॥
व्यवायजन्यशोष
व्यवायशोकवार्धक्यव्यायामाध्वप्रशोषितान्।
व्रणोरःक्षतसंज्ञौ तु शोषिणो लक्षणं शृणु ॥
अर्थ-आति मैथुन का शोष, शोकशोषी, वार्द्धक्यशोषी, व्यायामशोषी, मार्गशोषी, व्रणशोषी और उरःक्षितशोषी इन के न्यारे न्यारे लक्षण कहता हूं ॥
व्यवायशोषिलक्षण
व्यवायशोषी शुक्रस्य क्षयलिंगैरुपद्रुतः।
पांडुदेहो यथापूर्वं क्षीयंते चास्य धातवः ॥
अर्थ-व्यवायशोषी( अति मैथुन से क्षीण भया ), ( सुश्रुत ) के कहे अनुसार शुक्रक्षयलक्षणों से ( शुक्रक्षय होने से लिंग और अंडकोश में पीडा होय मैथुन करने में अशक्ति और बल से मैथुन करे तौबहुत देर में शुक्र का स्राव होयऔर वह स्राव बहुत अल्प होय अथवा रुधिर का स्त्राव होय ) पीडित होय उस के देह का वर्णपीला हो जायऔर शुक्र से मज्जा, मज्जा से हड्डी ऐसे उलटे धातु क्षीण होते जाते हैं ॥
व्यवायदोषचिकित्सा
व्यवायशोषिणं क्षीररसमांसाज्यभोजनैः।
सकलैर्मधुरैर्हृद्यैर्जीवनीयैरुपाचरेत् ॥
अर्थ-जो प्राणी अत्यन्त मैथुन के करने से क्षीण हो गया हो उस को दूध, मांस, घी इन करके युक्त भोजन करे तथा संपूर्ण मिष्ट पदार्थ, हृदय को जो प्रिय हो, आयुष्यवर्धकऐसी औषधों का उपचार करे ॥
शोकशोषिलक्षण
प्रध्मानशीलः स्रस्तांगः शोकशोप्यपि तादृशः।
विना शुक्रक्षयकृतैविकारैरुपलक्षितः॥
अर्थ-शोकशोषीअर्थात् शोच से जिस को क्षय हो वह चिंता करे और हाथ, परै गलने लगे तथा शुक्रक्षयव्यतिरिक्त शोषवान् हो और पांडु देह होय ऐसा शोच से क्षयवाला पुरुष होता है ॥
शोकशोषिचिकित्सा
हर्षणाश्वासनैः क्षीरैः स्निग्धैर्मधुरशीतलैः ।
दीपनैलघुभिश्चान्नः शोकशोषमुपाचरेत् ॥
अर्थ-जो प्राणी शोक के कारण क्षीण हो गया हो उस को हर्ष ( प्रसन्न करना ), आश्वासन ( धीरज बधाना ) तथा क्षीर, स्निग्ध, मधुर, शीतल, दीपन और हलके ऐसे अन्न इन पदार्थो करके उपचार करे ॥
जराशोषलक्षण
जराशोषीकृशो मंदवीर्यबुद्धिबलेंद्रियः ।
कंपनो रुचिमान्भिन्नः कांस्यपात्रहतस्वरः ॥
ष्ठीवति श्लेष्मणा हीनो गौरवारुचिपीडितः।
संप्रस्रुतास्यनासाक्षिः शुष्करूक्षमलच्छविः॥
अर्थ-जरा( बुढापा ) शोषीमनुष्य कृश होय है उस के वीर्य, बुद्धि, चल और इन्द्रियेंमन्द हो जाँय, कंप होय, अन्न में अरुचि, फूटे कांसे के बासन को लकड़ी से , बजाने से जैसा शब्द होय ऐसा शब्द होय, कफरहित वारंवार थूके ( अर्थात् कफ के निकालने के वास्ते यत्न करे तथापि कफ नहीं निकले ) शरीर भारी रहे अरुचि से पीडित ( पुनः अरुचि ग्रहणविशेषताद्योतक के वास्ते कही है ) मुख, नाक औरनेत्र इन से स्त्राव होय मल शुष्क उतरे और देह की कांति निस्तेज होय ॥
अध्वशोषलक्षण
अध्वप्रशोषीस्रस्तांगः संभृष्टपरुषच्छविः।
प्रसुप्तगात्रावयवः शुष्कक्लोमगलाननः ॥
अर्थ-अध्वप्रशोषी( अति मार्ग चलने से क्षीण हुआ ) मनुष्य के हाथ, पैर शिथिल हो जावेंउस के देह का वर्ण भूजेपदार्थके सदृश और खरदार होय हैसर्वदेहमें प्रसुप्तता दृदय में प्यास का स्थान है सो गला और मुख इन का सूखना *शंका-क्यौजी जराशोषीके अनन्तर व्यायामशोषी के लक्षणकहने चाहिये अध्व( मार्ग ) शोषी के लक्षण नहीं कहने चाहिये फिर माधवाचार्य ने अध्यशोषी के लक्षण क्यौं कहे। *उत्तर-अध्वशोषी के लक्षण इस वास्ते पहले कहे कि व्यायामशोषी में
इस के सब लक्षण मिलते है \। अच्छा आप ऐसे कहोगे तो व्यायामशोषीमें अध्वशोषीके कौनसे लक्षण नहीमिलते ? *उत्तर-तुम ने कहा सो ठीक है परंतु अध्वशोषी मे उरःक्षत आदि चिन्ह नहीं है इस से पूर्व अध्वशोषी के लक्षण कहे ॥
अध्वशोषचिकित्सा
आस्यासुखैर्दिवास्वप्नैः शीतैर्मधुरबृंहणैः ।
अन्नमांसरसाहारैरध्वशोषमुपाचरेत् ॥
अर्थ-बैठने का सुख, दिन में सोना और शीतल, मधुर, पौष्टिक ऐसे अन्न, मांस का रस इन के सेवन इन उपायों से अध्वशोष( रास्ते के चलने करके जो सूख गयाहो उस ) की चिकित्सा करे ॥
व्यायामशोषलक्षण
व्यायामशोषीभूयिष्ठमेभिरेवमुपद्रुतः।
लिंगैरुरःक्षतसमैः संयुक्तश्च क्षतं विना ॥
अर्थ-व्यायामशोषी ( अत्यंत दंड कसरत आदि श्रम से क्षीण ) मनुष्य, विशेष करकेअध्वशोषी के लक्षण स्रस्तांगतादियुक्त होय है, अर्थात् जो लक्षण अध्वशोषी में थोडे थोडे होते है वे व्यायामशोषी मे अधिक होते है और उस मनुष्य के घावके विना ही उरःक्षतके लक्षण मिलते है उरःक्षतके लक्षण सुश्रुत में लिखे है ॥
व्यायामशोषचिकित्सा
व्यायामशोषिणं स्निग्धैः क्षतक्षयकृतैर्हितैः।
उपाचरेज्जीवनीयैर्विधिना श्लैष्मिकेण तु ॥
अर्थ-जो प्राणी दंड, कसरत आदि परिश्रम के करने से क्षीण हो गया हो उस कोस्निग्ध, क्षतक्षय पर जो पदार्थ हितकारी है तथा शरी को हितकारी, कफ करनेवाले और जीवनीयगणोक्त औषध इत्यादिक उपचार करे ॥
व्रणशोषलक्षण
रक्तक्षयाद्वेदनाभिस्तथैवाहारयंत्रणात् ।
व्रणिनश्च भवेच्छोपः स चासाध्यतमो मतः ॥
अर्थ-रुधिर के क्षय से फोडा की पीडा से तैसे ही आहार के घटने से व्रणी पुरूषके जोशोषहोयसो अत्यंत असाध्य जानना॥
व्रणशोष
व्रणशोषंजयेत्स्निग्धैर्दीपनैः स्वादुशीतलैः ।
ईषदम्लैरनम्लैर्वायूषमांसरसादिभिः ॥
अर्थ-चिकने, दीपन, मीठे, कुछ २ खट्टे और मिष्ट ऐसे यूष मांस रस इत्यादि से व्रणशोष अर्थात् जिस के घाव होने से क्षीण हो उस का यत्नकरे ॥
रसवर्द्धन
गुडूची शृंगबेरंच यवानां क्वथितं जलम् ।
मरीचैः क्वथितं दुग्धं पाने रात्रौ प्रशस्यते ॥
रसस्य तेन वृद्धिः स्यात्क्षयं शीघ्रं विमुंचति॥
अर्थ-गिलोय, अदरख और जो इन का काढा अथवा काली मिरच डालकेतपाया हुआ दूध पीवे तो रसधातु की वृद्धि होवे और तत्काल रसक्षय का नाश होय॥
रक्तवर्द्धन
गोधूमयवशालीनां जांगलानि विशेषतः ।
घृतदुग्धसिताक्षौद्रमरीचानि च पिप्पली ॥
पानं शस्तं मनुष्याणां रक्तवृद्धिकरं परम् ॥
अर्थ-गेहूं, जो, शालीधान्य, जंगली जीवों का मांस, घी, दूध, मिश्री, सहत , काली मिरच और पीपल इन का सेवन करे तो मनुष्यों के रुधिरवृद्धि करने को यह यत्न उत्तम है ॥
मांसवर्द्धन
अनूपानि च धान्यानि लशुनादीनि कल्पयेत् ।
कुल्यासघृतदुग्धादीन् सेवयेन्मधुराणि च ॥
अर्थ-जलसमीप रहनेवाले जीवों का मांस और अनूपदेश के धान्य, लहसन, घी, दूध और मधुर पदार्थये भक्षण करे तो मांसवृद्धि होय ॥
मेदवर्धन
तालिसाद्यंहितं चूर्णसेवनं मधुरांस्तथा ।
रसांश्च जांगलान्दद्यात् सेवनार्थं भिषग्वरः॥
अर्थ-तालीसादिक चूर्ण, मधुर रस, तथा जंगली जीवों के मांस का रस ये पदार्थ जिस प्राणी की मेदाधातु क्षीण हो गई हो उस को देवे ॥
दूसरा प्रकार
सीतोपलादिकं चूर्णमजाक्षीरं सकोलकम् ।
हितं पानं क्षये चैव कल्पयेत्प्रातराशनैः॥
अर्थ-सितोपलादि चूर्ण, बकरी का दूध, वन में रहनेवाला सूअर का मांस तथा हितकारी पदार्थों का पान ये सब वस्तुओं को वैद्य प्रातःकाल खाने को देवे तो मेदाधातुकी वृद्धि होवे॥
अस्थिवर्धन
घृतपक्वानि शस्तानि क्षीराणि विविधानि च ।
चंदनादीनि द्राक्षादिचूर्णानि च भिषग्वरैः॥
जांगलानि च सर्वाणि सेवनीयानि पुत्रक।
मधुराणि तथान्नानि सर्वाणि संप्रयोजयेत्॥
अर्थ-घृतपक्वपदार्थ ( मोमन की पूडी, कचौडी), दूध के पदार्थ, चंदनादि और द्राक्षादि चूर्ण, जंगली जीवों का मांस, मधुर अन्न और पान ये सब कुशलवैद्यहड्डी क्षीण हो गई हो उस के बढाने को देवे ॥
शुक्रवृद्धि
शुक्राक्षयेम्लपक्वानि सराणि च विशेषतः।
नवनीतं तथा क्षीरं मधुराणि च सेवयेत् ॥
अर्थ-जिस प्राणी का शुक्र (वीर्य) क्षीण हो गया हो उस को अम्ल पदार्थोंसे सिद्ध करा हुआ अन्न तथा विशेष करके दस्तावर पदार्थ, मक्खन, दूध और मधुर रस ये देने चाहिये ॥
दूसरा प्रकार
कर्कटीमूलपयसा विदारीकंदशाल्मली ।
सिताढ्यंच हितं पानं शस्यते मधुना सह ॥
अर्थ-ककडी की जड को पीसके दूध में मिलाय लेवे तथा विदारीकंद, सेमर को मूसला तथामिश्री औरसहत मिलायके पीवे तो शुक्र की क्षीणतादूर होवे ॥
ककडी का रस वांतिपर
पिबेद्वांतिप्रशांत्यर्थंक्षौद्रंछिन्नरुहारसम्।
मातुलुंगस्य मूलं वा लाजाचूर्णं ससैंधवम् ॥
पिप्पलीमधुसंयुक्तं खादेद्वांतिप्रशांतये ॥
अर्थ-क्षयरोग में वांति ( वमन ) नाश करने को गिलोय का रस, सहत अथवाबिजोरे की जड, खीलों का चूरा, सैंधा निमक, पीपल और सहत इन को एकत्र करके पीवे तो वमन होना शांति होवे ॥
दूसरा प्रकार
रजनी पूगखंडं च निष्कैकं वांतिनाशकम् ।
निष्कार्धंटंकणं वाथ काकमाचीद्रवैः पिबेत् ॥
सुगंधं वा पिबेत्खादेत्सर्वं वांतिप्रशांतये ॥
अर्थ-हलदी, सुपारी और मिश्री इन का एक तोला चूर्ण सेवन करे तो वांति को नाश करे अथवा आधा तोला मकोय के रस में सुहागा मिलायके पीवे अथवा सुगंधित पदाथों को पीवेवा खाय तो सर्व प्रकार की वांति ( रद्दों) की शांति होवे ॥
रक्तवांतिपर
आलक्तकरसैः क्षौद्रं रक्तवांतिहरं परम् ।
पुष्यार्के काकतुंड्यास्तु मूलं गोक्षीरमर्कटम् ॥
रक्तवांतिहरं पेयं सदाहे निष्कनिष्ककम् ॥
अर्थ-लाख का रस और सहत इन को एकत्र करके पिलावे अथवा काकडोडी की जड पुष्य नक्षत्र पर जब सूर्य आवे तब उखाडी हो उस को गौ के दूध में भी औटायकेदेवे वह दाहयुक्त रुधिर की वांति को नाश करे ॥
उशीरादिचूर्ण
उशीरं तगरं शुंठीकंकोलं चंदनद्वयम् । लवंगं पिप्पलीमूलं कृष्णैला नागकेसरम्॥ मुस्तामलककर्पूरं तवक्षीरं च पत्रकम् । कृष्णागरुसमं चूर्णंसितास्यादष्टमांशतः ॥ रक्तवांतिं च हृत्तापं नाशयेन्नात्र संशयः ॥
अर्थ-खस, तगर, सोंठ, कंकोल, लाल चंदन,सपेद चंदन, लौंग, पीपरामूल, पीपल, इलायचीे, नागकेशर, नागरमोथा, आवला, तवाखीर, पत्रज, काली अगर ये समान भाग लेवे तथा इन सबके अष्टमांशमिश्री मिलायके चूर्ण करे यह रक्तवांति तथा हृदयका संताप इनको नष्ट करे॥
श्लेष्मापर
विकारे श्लेष्मणो जाते भक्षयेत्कदलीफलम् ।
भृष्टं तन्मरिचैः साज्यं हंति श्लेष्माणमुल्बणम् ॥
अर्थ-कफविकार होने से केला की पकी हुई फली को भून सहत और काली मिरच के चूर्ण में मिलायके खाय तो बढे हुए कफ को नाश करे ॥
कुस्तुंबर्यादिचूर्ण
घृतं कुस्तुंबरीचूर्णं पाययेच्छर्करायुतम् ।
एलामरीचसंयुक्तं खादेदरुचिशांतये॥
अर्थ-धनिया इलायची, काली मिरच इन के चूर्ण को घीमिश्रीमेंमिलायके खाय तो अरुचिनाश होय ॥
अरुचिपर
खादेदरुचिशांत्यर्थमार्द्रकंवा समाक्षिकम् ॥
अर्थ-अरुचिदूरकरने को अदरखका रस मिलायके पीवे॥
दाहपर
कांचनारस्य त्वक्पिष्टं सजीरं तापनाशकम् ।
कर्पूरेण समायुक्तं रसं तापे प्रयोजयेत् ॥
अर्थ-कचनार की छाल को कूटकर रस निकाल लेवे उस में जीरे का चूर्ण् और कपूर डालके देवे तो संताप का नाश होय ॥
शोषपर
कोलिलाक्षस्य बीजैर्वाजीरकेणगुडेन वा ।
वमने चास्य शोषेवा फलं जात्याः प्रशस्यते ॥
मत्स्याक्षीपाटला मेघनादमूलं च शोषजित् ॥
अर्थ-तालमखाने, जीरा और जायफल इन का चूर्ण गुड के साथ देवे किंवामत्स्याक्षी( मछेली ), पाढर और चौलाई इन की जडदेवेतो शोषरोग नष्टहोवे॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरेराजयक्ष्मरोगनिदानचिकित्सा समाप्त ।
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उरःक्षतक्षयनिदानम् ।
धनुरायम्यतोत्यर्थं भारमुद्वहतो गुरुम् । युध्यमानस्य बलिभिः पततो विषमोच्चतः ॥ वृषंहयं वा धावंतं दम्यं चान्यं निगृह्णतः। शिलाकाष्ठाश्मनिर्घातान्क्षिपतो निघ्नतः परान् ॥ अधीयानस्य वात्युच्चैर्दूराद्वाव्रजतो भृशम् । महानदीं चातरतो हयैर्वा सह धावतः॥ सहसोत्पततो दूरं तूर्णं वापि प्रनृत्यतः। तथान्यैः कर्मभिःक्रूरैर्भृशमभ्याहतस्य च ॥ वीक्ष्यते वक्षसि व्याधिर्बलवान्समुदीर्यते। स्त्रीषु चातिप्रसक्तस्य रुक्षाल्पप्रमिताशिनः॥ उरो विरुज्यतेत्यर्थंभिद्यतेथ विदह्यते। प्रपीड्यते तथा पार्श्वे शुष्यत्यंगं प्रवेषते ॥ क्रमाद्वीर्यंबलं वर्णो रुचिरग्निश्च हीयते । ज्वरो व्यथा मनोदैन्यं विड्भेदाग्निवधावपि ॥ दुष्टः श्यावः सदुर्गंधः पीतो विग्रथितो बहु। कासमानस्य चाभीक्ष्णं कफस्रावः प्रवर्तते॥ स क्षती क्षीयतेत्यर्थंतथा शुक्रौजसः क्षयात् ॥
अर्थ-बहुत तीरंदाजी करने से बहुत भारी वस्तु उठाने से बलवान्पुरुष के साथ युद्धकरने से ऊंचे स्थान से गिरने से बैल घोडा हाथी ऊंट इत्यादिक दौडते हुओं को थामनेसे भारी शिला लकड़ी पत्यरनिर्घात (अस्त्रविशेष) इन के फेंकने से शत्रु को मारनेवालाजोर से वेदादिक शास्त्र को पढने से अथवा दूर दिशावर शीघ्र चलकर जाने से गंगायमुनादि महानदी को तरनेवाला अथवा घोडे के साथ दौडनेवाला अकस्मात् कलाखानेवाला जल्दी जल्दी बहुत नाचने से इस प्रकार दूसरे मल्लयुद्धादि कर कर्म करनेसेउर (छाती) फट जाती है ऐसे पुरुष की छाती दूखने से बलवान्उरःक्षतरूप व्याधीउत्पन्न होय है और बहुत मैथुन करे तथा रूखाथोडा कुसमय तथा छाती में चोटलगने से अत्यंत स्त्रीरमण करने से और रूखा थोडा और अनमानका भोजन करनेवाले के पूर्वोक्त लक्षणयुक्त ऐसे पुरुषका हृदय फटेकेसदृश मालूम हो अथवाहृदय के दो टूक कर डाले ऐसा मालूम होय औरहृदय में अत्यंत पीडा होयभी उस के पसवाडामें अत्यंत पीडा होय अंग सब सूखने लगे तथा थरथर कांपने लगेऔर शक्ति मांस वर्ण रुचि और अग्नि ये सब क्रम से घटने लगे ज्वर रहे व्यथा होय.मन में सन्ताप दीन हो जाय अग्नि मन्द होने से दस्त होने लगे औरवारंवार खांसते
खांसते दुष्ट काला अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त पीला गांठ के समान बहुत और रुधिर मिला ऐसा कफ गिरे इस प्रकार क्षतरोगी अत्यंत क्षीण होय सो केवल क्षत से ही क्षीण हो जायऐसा नहीं किन्तु स्त्रीसेवन करने से शुक्र और ओज (सबधातुओं का तेज) इनका क्षय होने से ये मनुष्य क्षीण होय है ॥
उरःक्षत के पूर्वरूप
अव्यक्तं लक्षणं तस्य पूर्वरूपमिति स्मृतम् ॥
अर्थ-उस उरक्षित के अप्रगट लक्षणों को पूर्वरूप कहते हैं ।
क्षतक्षीण के असाध्यलक्षण
उरोरुक्छोणितच्छर्दिकासो वैशेषिकःक्षते ।
क्षीणे सरक्तमूत्रत्वं पार्श्वपृष्ठकटिग्रहः ॥
अर्थ-क्षतक्षीण रोगी के हृदय में पीडा होय रुधिर की उलटी करे और विशिष्ट कास ( अर्थात् पूर्व कहे जो दुष्टश्वासादि लक्षण उन्हों से युक्त होय ) और रुधिरयुक्त मूत्र का उतरना पसवाडे पीठ और कमर इन में पीडा होय ॥
असाध्यलक्षण
अल्पलिंगस्य दीप्ताग्नेः साध्यो बलवतो नवः । परिसंवत्सरो याप्यः सर्वलिंगं विवर्जयेत्॥ परं दिनसहस्रं तु यदि जीवति मानवः । सुभिषग्भिरुपक्रांतस्तरुणः शोषपीडितः ॥
अर्थ-जिस में थोडे लक्षण मिलते हों और जिस को अग्निदीप्तहोय ऐसे पुरुष बलवान्के होय तथा रोग नवा हो तो वह साध्य है और रोग को भये एक वर्षव्यतीत हो गया होयसो याप्य( साध्यासाध्य ) है और जिस में सर्व लक्षण मिलतेहोयसो असाध्य है उसको वैद्य त्याग देय ॥
उरःक्षतक्षयचिकित्साक्रम
यद्यच्चतर्पणं शीतमविदाहि हितं लघु ।
अन्नपानं निपेव्यं तत्सतक्षीणेः सुखार्थिभिः ॥
अर्थ-जो जो पदार्थ तृप्ति करनेवाले, शीतल, अविदाही अर्थात्जो दाह न करे, तकारी, हलके हो वह यह अन्नऔर जल सेवन उरःक्षतसे क्षीणहुआतथा सुख इच्छा करनेवाले को करना चाहिये॥
चिकित्साक्रम
शोकं स्त्रियः क्रोधमसूयतां च त्यजेदुदारान्विषयान्भजेच्च।
तथा द्विजातींस्त्रिदशान्गुरूंश्च वाचश्च पुण्याः शृणुयाद् द्विजेभ्यः ॥
अर्थ-उरःक्षत से क्षीण हुए मनुष्य को शोक करना, स्त्री सेवन, दूसरे के गुणों में दोष लगाना ये छोड देवे. तथा कथा, पुराण इत्यादि विषय सेवन करे. देव, ब्राह्मण और गुरु इन की सेवा करे ब्राह्मणों से पुण्यकारक वाणी को श्रवण करे ये सब कर्म हितकारी हैं ॥
दशमूलादिकाढा
दशमूलबलारास्नापुष्करामरदारुनागरैः क्वथितम् ।
पेयं पार्श्वांसशिरोरुक्क्षतकासादिशांतये सलिलम् ॥
अर्थ-दशमूल, खिरेटी, रास्ना, पोहकरमूल, देवदारु, नागरमोथा इन का काढापीवेतो पसवाडा, कंधा, मस्तक इन स्थानों की पीडा, उरःक्षित, खांसी, श्वास ये शांति होवे ॥
बलादिकाढा
बला विदारी श्रीपर्णी बहुपुत्री पुनर्नवा। पयसा नित्यमभ्यस्ताः शमयंति क्षतक्षयम् ॥ शृतं पयो मधुयुतं सिद्धार्थानां पिबेत्क्षयी ॥
अर्थ-बला, विदारीकंद, श्रीपर्णी ( कंभारी ), कांटेसेवंती वा सतावर, पुनर्नवा इन को पीसके दूध और सहत इन के साथ पीवे तो उरःक्षत क्षय का नाश होय ॥
एलादिगुटिका
एलापत्रत्वचो द्राक्षा पिप्पल्यर्धपलं पृथक्। सितामधुकखर्जूरमृद्वीकाश्च पलोन्मिताः॥ संचूर्ण्य मधुना युक्ता वटिकाः संप्रकल्पयेत् । अक्षमात्रास्ततश्चैव भक्षयेच्च दिने दिने ॥ क्षतक्षयं ज्वरं कासं श्वासं हिक्कां वमिं भ्रमम् । मूर्च्छांमदं तृषां शोषं पार्श्वशूलमरोचकम् ॥ प्लीहानमाढ्यवातं च रक्तपित्तं ज्वरं क्षयम् ।एलादिगुटिका हंति वृष्या संतर्पणी परा ॥
अर्थ-इलायची, पत्रज, दालचीनी, दाख, पीपल ये प्रत्येक दो दो तोले लेवेमिश्री, मुलहटी, खर्जूर और दाखये प्रत्येक चार २ तोले लेय सर का चूर्ण करके
उस में सहत मिलायके गोली एक २ तोले की बनावेइस में से नित्य प्रती एक एक सेवन करे तो उरःक्षत, क्षय, ज्वर, खांसी, श्वास, हिचकी, वमन, भ्रम, मूर्छा, मद, तृषा, शोष, पसवाडेका शूल, अरुचि का रोग, प्लीहा ( तापतिल्ली ), आढ्यवात, रक्तपित्त, ज्वर और क्षय इन का नाश करे ऐसी यह एलादिगुटिका वृष्य और तृप्ति करनेवाली है ॥
द्राक्षादिघृत
द्राक्षायाः प्रस्थमेकं तु मधुकस्य पलाष्टकम्। पचेत्तोयाढके शुद्धेपादशेषेण तेन तु ॥ पलिके मधुकद्राक्षे पिष्टं कृष्णापलद्वयम् प्रदाय सर्पिषःप्रस्थं पचेत्क्षीरे चतुर्गुणे ॥ सिद्धे शीते पलान्यष्टौ शर्करायाः प्रदापयेत्। एतद् द्राक्षाघृतं सिद्धं क्षतक्षीणसुखावहम्॥ वातपित्तज्वरश्वासविस्फोटकहलीमकान्। प्रदरं रक्तपित्तं च हन्यान्मांस-बलप्रदम् ॥
अर्थ-दाख ६४ तोले, मुलहटी ३२ तोले और जल २५६ तोले इन तीनों को एकत्र कर औटावे. जब चतुर्थांश जल रहे तबइस काढेको उतारके छान लेवे इस में मुलहटी और दाख इन को कूट २ कर चार चार तोले डालेपीपल का चूर्ण ८ तोले घी ६४ तोले और सबसे चौगुना दूध डाले फिर चूल्हे पर चढायके घृतको सिद्ध करे अर्थात् बनावे जब तयार हो जावेतबउतारके शीतल कर लेवे फिर इस में ३२ तोले मिश्री मिलावे और सब को चलायकेएक जीवकर लेय तो यह द्राक्षाघृत बनके तयार हो यहउरःक्षत करके क्षीण मनुष्यों को हितकारी है और वातपित्तज्वर, श्वास, विस्फोटक, हलीमक, प्रदर और रक्तपित्त इन को नाश करे तथा मांस को बलवान्करे ॥
बलादिघृत
घृतं बलानागबलार्जुनांबुसिद्धं सयष्टीमधुकल्कपादम् ।
हृद्रोगशूलक्षतरक्तपित्तं कासानिलार्शान् शमयत्युदीर्णान् ॥
अर्थ-खिरेटी, गगेरन और कोह इन के काढेमें मुलहटी का कल्कमिलाय के घृत को बनावेइस घृत के सेवन करने से हृदयरोग, शूल, उरःक्षत, रक्तपित्त, खांसी, वादीऔर बवासीर ये अत्यंत बढे हुए हो तोभी नाश करे॥
पथ्यादिघृत
पथ्याह्वनागबलयोः क्वाथे शीरसमे घृतम्।
पयसा पिप्पलीवासाकल्कसिद्धं क्षते हितम् ॥
अर्थ-हरड और गगेरन इन के काढेमें बराबरका दूध पीपल और अडुसा। इन का कल्क डालके घृत बनावे यह घृत उरःक्षत क्षय को नाश करे ॥
गोक्षुराद्यघृत
श्वदंष्ट्रोशिरमंजिष्ठाबलाकाश्मर्यकट्तृणम् । दर्भमूलं पृष्ठिपर्णी बला सर्षपका स्थिरा ॥ पलिकान्साधयेत्तेषां रसे क्षीरे चतुर्गुणे । कल्कैः स्वगुप्तर्षभकमेदाजीवंतिजीवकैः ॥ शतावर्यादिमृद्वीकाशर्कराश्रावणीवृषैः। प्रस्थं सिद्धं घृतं वातपित्तहृद्रोगगुल्मनुत् ॥ मूत्रकृछ्रप्रमेहार्शकासशोषक्षयापहम् । धनुःस्त्रीसंगभाराध्वखिन्नानां बलमांसदम् ॥
अर्थ-गोखरू, खस, मजीठ, खिरेटी, कंभीरा, कट्तृण, डाभ की जड, पृष्ठपर्णी, अतिबला, सरसों और सालपर्णी ये सब औषध चार २ तोले लेय इन का रस और चौगुणा दूध तथा सपेद लाजालू, सपेद सांठ, मेदा, जीवंती, जीवक, सतावर,दाख, मिश्री, मुंडी और अडूसा इन का कल्क और १ सेर घी इन को एकत्र करके घृतपाक करे इस घी के खाने से वात, पित्त, हृदयरोग, गोला, मूत्रकृच्छ्र, प्रमेह, बवासीर, खांसी, शोषऔर क्षय इन को नाश करे ॥
अमृतप्राश्यावलेह
क्षीरधात्रीविदारीक्षुक्षीरीणां च तथा रसे। पचेत्समे घृतप्रस्थे मधुकैरिक्षुणान्वितैः॥ द्राक्षाद्विचंदनोशीर-शर्करोत्पलपद्मकैः। मधूककुसुमानताकाश्मरीतृणसंज्ञकैः॥ प्रस्थार्धंमधुनः शीतशर्करायास्तुलां तथा।पलार्धकांश्च संचूर्ण्य त्वगेलापद्मकेसरान्॥ विनीय तस्य संलिह्यान्मात्रां नित्यं सुयंत्रितः। अमृतप्राश्य-मित्येतन्निर्मितं त्रिपुरारिणा॥ क्षीरमांसाशिनो हंति रक्तपित्तक्षतक्षयान्। तृष्णारुचिश्वासकासछर्दिहिक्का-प्रमर्द्दनम्॥ मूत्रकृच्छ्रज्वरघ्नं च बल्यं स्त्रीरतिवर्द्धनम् ॥
अर्थ-दूध, आवलों का रस, विदारी कंद का रस, ईख का रस, क्षीर वृक्षों का रस २, तथा १ सेर घीइन सब को मिलायके उत्तम विधि से पचावे. फिर, इस में मुलहटी,
ईख,दाख, चंदन, लालचंदन, नेत्रवाला, मिश्री, कूट, पद्माख, महुआ के फूल, धमासा, कंभारी और कत्तृण इन का चूर्ण डालके अवलेह बनावे जब शीतल हो जावे तब ३२ तोले सहत और ४०० तोले मिश्री और दालचीनी, पत्रज, नागकेशर इन प्रत्येक का चूर्ण दो दो तोले डालके धर रखे. इस में से अग्नि का बलाबलविचारके मात्रा खाने को देवे. दूध और मांस इत्यादिक पदार्थ पथ्य में देवे तो रत्तपित्त, क्षतक्षय, प्यास, अरुचि, श्वास, खांसी, वांति, हिचकी, मूत्रकृच्छ्र और ज्वर इन का नाश करे और बल तथा स्त्रियों में प्रीति इस के सेवन से बढती है. इस को अमृतमाश्यावलेह कहते हैं ॥
रसराज
मुक्ताप्रवालरसहेमशिताभ्रकांतं वंगं मृतं सकलमेतदलं विभाव्य । छिन्नारसेन च वरीसलिलेन सप्त पश्चाददेन्मधुहविर्मरिचेन साकम् ॥ लिह्यादुरःक्षतहरं रसराजकाख्यंमाषप्रमाणमतनूद्भवहेतुमेनम् ॥
अर्थ-मोती, मूंगा, पारा, सुवर्ण, काला अमृत, कांतलोह और वंगइन सब की भस्म समान भाग लेवे इन को गिलोय और सतावर के रस की पृथक् २ सात सात दिन भावना देवे फिर इस रसराज में से १ मासे की मात्रा सहत, घीऔर काली मिरचों का चूर्ण इन के साथ देवे तो उरःक्षत का नाश करे तथा कामदेव को प्रदीप्त करे है ॥
उरोमंथिक्षती लाजान्पयसा मधुसंयुतान्। सद्य एव पिबेत् जीर्णेपयसाद्यात्सशर्करम्॥ पार्श्वबस्तिरुजि त्वल्पपित्ताग्निस्तान् सुरायुतान् ॥
अर्थ-उरःक्षत क्षयरोगी को खीलों को दूध और सहत के साथ भक्षण करे, जब ये पच जावे तब मिश्री मिलायकर दूध पीवेतथा पसवाडा और बस्ती इन में शूल तथा अग्नि और पित्त ये मंद होवे तो उन रोगियों को मद्यके साथ धान की खील खानी चाहिये॥
क्षयरोग में पथ्य
दोषाधिकस्य बलिनो मृदुशुद्धिरये गोधूममुद्गचणकावनशालयश्च। छागानि मांसनवनीतपयोघृतानि-क्रव्यादमांसमपि जांगलजा रसाश्च ॥ मार्त्तंडचन्द्रकिरणैःप्रतिशोषितानि लेह्यानि
पक्वपललानि सुचूर्णितानि। रागाः सकांबलिकखांडववेसवारा भक्ष्याः शशांककिरणैर्मधुरो रसश्च ॥ पक्वानि मोचपनसाम्रफलानि धात्रीखर्जूरपौष्करपरूषकनारिकेरम्। सौभाञ्जनं बकुलकं नवतालसस्यद्राक्षाफलानि भिषजापि इमानि दद्यात्॥ सिंहास्यपत्रमपि गोमहिषीघृतं च छागाश्रयश्च हितदंतकमूत्रलेपः। मत्स्यंडिकाशिखरणीमदिरारसालाः कर्पूरकं मृगमदःशितिचंदनं च॥ अभ्यंजनानि सुरभीण्यनुलेपनानि स्थानानि वेश्मरचनान्यवगाहनानि । हर्म्यं स्त्रजः स्मरकथा मृदुगंधवाहः शीतानिलास्यमपि चंद्ररुजोविपंची ॥ संदर्शनं मृगदृशामपि हेमपूर्णं मुक्तामणिप्रचुरभूषणधारणं च । होमप्रदानममरद्विजपूजनानि दिव्यानुपानमपि पथ्यगणः क्षयार्त्ते॥
अर्थ-जो दोषाधिक क्षयरोगी बलवान् हो तो प्रथम मृदु विरेचन आदि से शुद्धि करे तथा गेहूँ, मूंग, चना, वन के शाली ( लाल चावल ), बकरे का मांस, मक्खन, दूध, घी, कच्चे मांस भक्षण करनेवाले पक्षियों का मांस, जंगली जीवों का मांस. रस, सूर्यकी किरणों से तपे हुए तथा चंद्रमा की किरणों से शीतल ऐसे लेह्य पदार्थ, पक्वकरे हुए तथा बारीक करे हुए मांस, खांडवादि,राग और कांबलिक ( मूल और फल इन के काढेमें समभाग तिल पुष्पोंकी खटाई डालते हैं वह ) वेसवार( गरम मसाला ) [ तर्वड ] पने, चंद्रमा की किरण, मीठे रस, पके हुए केले की गहर, कटहर, पके आम, आंमरे, खजूर( छुहारे ), पुहकर मूल, फालसे, नारियल, सहजना, मौलसरी, नवीन ताल के फल, हरी दाख, अडूसे के पत्ते, गौ और भैस का घी, सर्वदा बकरियों में रहना [ अथवा बकरे की मेंगनी और मूत्र का लेप ], मत्स्यंडी (मिश्री), सिखरन, मद्य ( दारू ), रसाला ( मिश्री काली मिरच मिलायकेबनाते है वह पदार्थ ), कपूर, कस्तूरी, सपेद चंदन, उबटना, सुगंधित लेप, उत्तम मुंदर और मनोहर ऐसे स्थान तथा घर ( न्हाना और वस्त्रालंकारादि से सजना ), गोता मारना, फूल माला का धारण करना, काम के बढानेवाली वार्त्ताका कहना, शीतल मंद सुगंध पवन, नाच, गान, चंद्रमा की चांदनी, वीणा ( बीनबाजा )स्त्रियों का दर्शन तथा सुवर्ण ( सुवर्णके वर्क ), मोती, हीरा पन्नाआदि रत्न के गहनों का धारण तथा होम दान देव औरब्राह्मण इन की पूजा और उत्तम अनुपान, यह सब क्षयरोग में पथ्यगणकहा है. क्षयरोग को भाषा में खई की बिमारी कहते हैं कोई कोई इस को राजरोग कहते है ॥
क्षयपर अपथ्य
विरेचनं वेगविधारणं च श्रमश्च सुस्वेदनमंजनं च।प्रजागरं साहसकर्मसेवा रूक्षं च पानं विषमाशनं च॥ तांबूलकालिंगकुलिंगमांसं रसोनवंशांकुररामठानि । अम्लानि तिक्तानि कषायकाणि कटूनि सर्वाणि च पत्रशाकम् ॥ क्षाराविरुद्धाध्यशनानि बिंबीकर्कोटकं चापि विदाहि सर्वम् । कुटिल्लकं कृष्णमपि क्षयेषु विवर्जयेत्संततमप्रमत्तः॥
अर्थ-विरेचन, मलमूत्रादि वेगों का धारण, परिश्रम, स्वेदन, अंजन, रात्रि में जागना, साहस ( जो अपनी सामर्थ्य से न हो सके उस को करना ) रूखा अन्न, रूखा पान, विषमाशन, तांबूल भक्षण, तरबूज, कुलथी, ( कुलंग पक्षी का मांस ) उडद, लहसन, वंश की कोपल, हीग, खट्टे पदार्थ, कडुए और कपेले पदार्थ, तथा सब चर्परे रस, साग, पत्तो का क्षार, विरुद्ध भोजन, अध्यशन, कंदूरी ( सैम ), ककोडा ( करेला ), संपूर्ण विदाही पदार्थ, लाल और सपेद पुनर्नवाये पदार्थ क्षयरोगी को सेवन करना वर्जित है ॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरेउरःक्षतनिदानचिकित्सा समाप्ता।
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कासकर्मविपाकः.
द्रव्याणि चाल्पसाराणां स्तेयं कृत्वान्यवेषतः ।
चरेत्सांतपनं कृच्छ्रमित्येवं मनुरब्रवीत् ॥
अर्थ-जो प्राणी दुर्बल ( गरीब) मनुष्यों का द्रव्य चुराता है इस पाप के प्रभावसे इस जन्म में वह प्राणी कफरोगी होता है. उस को इस पाप के प्रायश्चित्त करने को कृच्छ्रऔर सांतपन व्रत करना चाहिये ऐसे मनुमहाराज की आज्ञा है॥
दूसरा प्रकार
त्रपुहारी च पुरुषोजायते श्लेष्मलः सदा ।
उपोष्यदिवसं सोपि दद्यात्पलशतं त्रषु॥
अर्थ-जो प्राणी पूर्वजन्म में रांगे की चोरी करता है वो इस जन्म में कफरोगी होता है उस को एक दिन उपवास करके ४०० तोले रांगे का दान करना चाहिये ॥
तीसरा प्रकार
नित्यानुष्ठानविमुखः कफरोगी भवेन्नरः । पराभवं स चाप्नोतीत्याह वै भगवान् यमः ॥ तच्छांतये मासमेकं यावकं भक्षयेन्नरः। सहस्रनामपाठश्च होमश्चाष्टोत्तरायुतम् ॥ नाममंत्रेण कुर्वीत चर्वाज्यं च हविर्भवेत् ॥
अर्थ-जो प्राणी नित्यकर्म ( संध्यावंदनादि ) नहीं करे वो कफरोगी होता है.उस को कफ से अथवा शत्रु से पीडा होती है इस प्रकार यमऋषि ने कहा है. इस पाप की शांति के अर्थ १ महीने पर्यंत जो खाय और विष्णुसहस्रनाम का पाठ तथा अष्टाक्षरी वा द्वादशाक्षरीनाममंत्र से चरु और आज्य ( घृत ) इन से १०८ आहुती देवे इस प्रकार विधि करनी चाहिये ॥
ज्योतिःशास्त्राभिप्राय
सूर्ये कुलीरजाते बुधेन दृष्टे विगतनेत्रः ।
कफमारुतरोगार्तः परस्वहारी विलोलमतिचेष्टः॥
अर्थ-जन्मसमय में सूर्य कर्कराशि में बैठा होय और बुध उस को देखता होय तो नष्टदृष्टि अर्थात् अंधा होय अथवा कफवातरोगी होय अथवा चौरी और चंचलपने ( चालाकी ) के कर्म करे ॥
कारणसम्प्राप्ति और निरुक्ति
धूमोपघाताद्रजसस्तथैव व्यायामरूक्षान्नानिषेवणाच्च । विमार्गगत्वादपि भोजनस्य वेगावरोधात्क्षवथोस्तथैव ॥ प्राणो ह्युदानानुगतः प्रदुष्टः संभिन्नकांस्यस्वनतुल्यघोषः। निरेति वक्त्रात्सहसा सदोषोमनीषिभिः कास इति प्रदिष्टः॥
अर्थ-नाक मुखमें धूर वा धूंआजाने से दंड, कसरत, रूक्षान्नइन के नित्य सेवन करने से, भोजन के कुपथ्य से, मलमूत्र के रोकने से, उसी प्रकार छिक्का अर्थात् ( छींक ) आती हुई के रोकने से, प्राणवायु अत्यंत दुष्ट होकर और दुष्ट उदानवायु से मिलकर कफपित्तयुक्त अकस्मात् मुख से बाहर निकले उस का शब्दफूटे कांस्यपात्रके समान होय उस को विद्वान्लोग कांस ( खांसी ) कहते हैं॥
संख्यारूपसंप्राप्ति
पंच कासाः स्मृता वातपित्तश्लेष्मक्षतक्षयैः।
क्षयायोपेक्षिताः सर्वे बलिनश्चोत्तरोत्तरम् ॥
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गोमयम्। दग्धं विचूर्णयेत्पश्चाच्चूर्णपादं विषंक्षिपेत्॥ रुद्रपर्पटिका ह्येषादेयागुंजाद्वयं द्वयम्। चूर्णितं कटुनिर्गुंड्या मूलनिष्कद्वयं पिबेत्॥ भृंगराजरसेनैव लिहेद्वामधुना सह। वातकासान्निहंत्याशु सर्वथैव न संशयः॥
अर्थ-शुद्धपारा १ भाग, गंधक २ भाग, दोनों को मिलायके कजली करे फिर इस को अंड की जड, काकडासींगी, मकोय और इन के रस में एक २ दिन खरल करे फिर इस को अग्निपर तपायके पर्पटी बनावे फिर इस पर्पटी का चतुर्थांश ताम्रभस्म मिलावे और मंदाग्निपर पचन करे जब लालरंग हो जावेतब उतारके केले के पत्तेपर हाल देवे और तत्काल दूसरे पत्ते से ढकके गोबर से दाबदेय तो पतली पर्पट्टी हो जावेगी जब शीतल हो जाय तब निकालके चूर्ण करके धर रखे इस में चतुर्थांश सिंगिया विषमिलावे. यह रुद्रपर्पटी दो रत्ती अनुपान से देवे और इस के ऊपर निर्गुंडी के जड का चूर्ण छः मासे देवे अथवा भांगरे का रस और सहत इन के साथ देवे तो सर्व वादी की खांसी नाश करे॥
भूतांकुशरस
शुद्धसूतस्य भागैकं द्विभागं शुद्धगंधकम्। भागत्रयं मृतं ताम्रंमरीचं दशभागिकम् ॥ मृताभ्रस्य चतुर्भागं भागमेकं विषंक्षिपेत् । भूतांकुशस्य भागैकं सर्वमम्लेन मर्द्दयेत् ॥ रसो भूतांकुशो नाम माषैको वातकासजित् । अनुपानं लिहेत्क्षौद्रं विभीतकफलत्वचः॥
अर्थ-शुद्धपारा १ भाग, गंधक २ भाग, तामे की भस्म ३ भाग, मिरच १० भाग, अभ्रक ४, विष१ और नकछिकनी १ भाग ले इन सब को एकत्र चूर्ण कर नींबू के रस में खरल करे. इस भूतांकुशरस की मात्रा १ तोले की है इस को बहेडे का चूर्ण और सहत इन के साथ देवे तो वादी की खांसी दूर होय ॥
सठ्यादि लेह
सठी शृंगी कणा भार्ङ्गी गुडवारिदयासकैः।
सतैलैतिकासघ्नो लेहोयमपराजितः॥
अर्थ-कचोरा, काकडासिंगी, पीपली, भारंगमूल, गुड, नागरमोथाऔर घमासा इन का लेहकरके तेलडालके सेवन करने से वातका नाश करता है॥
भार्ङ्ग्यादिलेह
भार्ङ्गी द्राक्षा शठी शृंगी पिप्पली विश्वभेषजम् ।
गुडतैलयुतो लेहो हितो मारुतकासिनाम् ॥
अर्थ-भारंगी, दाख, कचूर, काकडासिंगी, पीपल और सोंठ इन का गुड मिलायकेअवलेह बनावे इस में तेल डालके सेवन करे तो वादी की खांसी दूर होय॥
विश्वादिलेह
विश्वा भार्ङ्गी कणा सोमवल्कद्राक्षासठीसिताः।
लीढा तैलेन वातोत्थं कासं जयति दुस्तरम् ॥
अर्थ-सोंठ, भारंगी, पीपल, कायफल, दाख और कचूर इन का अवलेह तेल मिलायके सिद्ध करे इस में मिश्री मिलायके सेवन करे तो घोर दुस्तर वादी की खांसी नाश होय ॥
दशमूलीघृत
दशमूलीकषायेण भार्ङ्गीकल्कैर्घृतं पचेत् ।
दशतित्तिरनिर्व्यूहैस्तत्परं वातकासनुत् ॥
अर्थ-दशमूल का काढा, भारंगी का कल्क तथा दश तीतरों के मांस का काढाइन में घी डालके सिद्ध करे यह वात की खांसी नाश करने में उत्तम है ॥
कट्फलादिपेय वातकफकासोंपर
कट्फलं कट्तृणं भार्ङ्गी मुस्तधान्यं वचाभया । शुंठी पर्पटकं शृंगी सुराह्वंच जले शृतम् ॥ मधुहिंगुयुतं पेयं कासे वातकफान्विते । कंठरोगे मुखे शूले हिक्काश्वासज्वरेषु च ॥
अर्थ-कायफल, रोहिषतृण, भारंगी, नागरमोथा, धनियां, वच, हरड,सोंठ, पित्तपापडा, काकडासिंगी, देवदार इन के कार्ड में सहत, हींग डालके पीवे तो वादी कफ की खांसी, कंठरोग, मुखरोग, शूल, हिचकी, श्वास और ज्वर इनपर परमोत्तम है॥
शुंठ्यादिचूर्ण
शुंठी दुरालभैरंडमूलं कर्कटशृंगिका। चचुंदरो देवदारुचूर्णमेषां समांशतः ॥ उष्णेन वारिणा किंवा तैलेनालोज्य भक्षितम् । वातजंश्लेष्मजं कासं नाशयत्यतिवेगतः॥
अर्थ-सोंठ, जवासा, अंड की जड, काकडासिंगी चचूदर, देवदारु इन का समभाग चूर्ण कर गरम जल से अथवा तेल से सेवन करे तो वातजन्य तथा कफजन्य खांसी का नाश होय ॥
चित्रकादिलेह
चित्रकं पिप्पलीमूलं व्योषंमुस्ता दुरालभा । शठी पुष्करमूलं च श्रेयसी सुरसा वचा ॥ भार्ङ्गी छिन्नरुहा रास्ना कर्कटाख्या च कर्षिका। कल्कोग्निदग्धद्वितुलां कषाये पलविंशतिः॥ मत्स्यंडिकाया दश वा सर्पिषःकुडवं पचेत् । सिद्धे सीते पृथक् क्षौद्रपिप्पलीकुडवान्वितम्॥ चतुःपलं तुगाक्षीर्याश्चूर्णंतत्र प्रदापयेत्। लेहयेत्कास-हृद्रोगश्वासगुल्मनिवारणम् ॥
अर्थ-चीते की छाल, पीपल, पीपरामूल, सोंठ, मिरच, पीपल, नागरमोथा, धमासा, कचूर, पुहकरमूल, हरड, तुलसी, वच, भारंगी, गिलोय, रास्ना, काकडासिंगी इन को समान भाग ले कल्क और राख ८० तोले इन को औषधों के ८०० तोले काढेमें डाले और मिश्री ४० तोले तथा घी६४ तोले डालके उस काढेकोपचावे तो अवलेह सिद्ध होय इस में सहत, पीपल और वंशलोचन ये प्रत्येक १६तोले डाले और सेवन करे तो खांसी, हृदय, वास और गोला इन को दूर करे॥
शुंठ्यादिलेह वातकासपर
चूर्णिता विश्वदुःस्पर्शा शृंगीद्राक्षा शठी सिता।
लिहेत्तैलेन वाताद्यं कासं जयति दुस्तरम् ॥
अर्थ- सोंठ, धमासा, काकडासिंगी, द्राक्षा, कचूर और मिश्री इन को तेल मिलायके अवलेह बनावे इस के सेवन करने से दुस्तर वाताधिक खांसी को नाश करे॥
दशमूलका काढा
दशमूली शृता विश्वा कासहिक्कारुजापहा ।
यवागू दीपनी वृष्या वातरोगविनाशिनी ॥
अर्थ-दशमूल, सोंठ इन का काढा खांसी और हिचकी इन का नाशक है. और यवागू छः गुन पानी डालके करा हुआ पतला भात यह दीपन, कामोद्दीपक तथा वातरोग नाश करनेवाला है ॥
पंचमूलकाढा
पंचमूलीकृतः क्वाथः पिप्पलीचूर्णसंयुतः।
रसान्नमश्नतो नित्यं वातकासमुदस्यति ॥
अर्थ-शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेरी, बडी कटेरी, गोखरू इन का काढा पीपल का चूर्ण डालके सेवन करे तथा रसयुक्त भोजन करे तो वात खांसी का नाश करे ॥
कर्कटरस
रसं कर्कटकानां वा घृतभृष्टं सनागरम् ।
वातकासप्रशमनं शृंगीमत्स्यस्य वा पुनः॥
अर्थ-केकडे के मांसरस को घी में भून उस में सोंठ डालके देवे अथवा शृंगीजाति की मछली का रस घृत में भून सोंठ को डालके देवे तो वातकी खांसी दूर करे॥
शुंठ्यादिचूर्ण
शुंठी दुरालभा द्राक्षा कर्चूरस्तवराजकम् ।
वातकासं निहंत्याशु तैलभुक्तं हि चूर्णकम् ॥
अर्थ-सोंठ, धमासा, दाख, कचूर और यवाशशर्करा ( शीराखिस्त ) इन का चूर्ण में मिलायके देवे तो वादी की खांसी का नाश होय ॥
पित्तकासनिदान
उरोविदाहज्वरवक्रशोषैरभ्यर्दितस्तिक्तमुखस्तृषार्तः।
पित्तेन पीतानि वमेत्कटूनि कासेन पांडुः परिदह्यमानः॥
अर्थ-पित्त की खांसी से हृदय में दाह, ज्वर, मुख का सूखना इन से पीडित हो मुख कडुआ रहे प्यास लगे पीले रंग की और कडुवी ऐसी पित्त के प्रभाव से वमनहोय रोगी का पीला वर्ण हो जाय और सब देह में दाह होय ॥
सिंहास्यादिकाढा
सिंहास्यामृतसिंहीनां क्वाथं मधुयुतं पिबेत् ।
पिबेत्सपित्तकफजे कासे श्वासे ज्वरे क्षये ॥
अर्थ-अडूसा, गिलोय और कटेरी इन के काढेमें सहत डालके पीवे तो पित्तफात्मक खांसी, श्वास, ज्वर और क्षय इन का नाश करे ॥
बलादिकाढा
बलाद्विबृहतीद्राक्षावासाभिः क्लथितं जलम् ।
पित्तकासापहं पेयं शर्करामधुयोजितम् ॥
अर्थ-खिरेटी, कटेरी, बडी कटेरी, दाख और अडूसा इन के काढेमें सहतऔर मिश्री डालके सेवन करे तो यह पित्तकास को नाश करे ॥
शठ्यादिकाढा
शठी ह्रीबेरबृहती शर्करा विश्वभेषजम् ।
पक्त्वा रसे पिबेत्पूतं सघृतं पित्तकासनुत् ॥
अर्थ-कचूर, नेत्रवाला, कटेरी और सोंठ इन के काढेमें बीऔर मिश्री डालके देवे तो पित्त की खांसी को नाश करे ॥
शरादिकाढा
शरादिपंचमूलस्य पिप्पलीद्राक्षयोस्तथा।
कषायेण शृतं क्षीरं पिबेत्समधुशर्करम् ॥
अर्थ-शर, ईख, डाभ, कांस इन की जड का काढा करके उस में दूध डाल औटावे फिर सहत और मिश्री डालके देवे तो पित्त की खांसी का नाश करे ॥
शठ्यादिकाढा
सठीद्विपंचमूलस्य पिप्पलीद्राक्षयोस्तथा ।
कषायेण शृतं क्षीरं पिबेत्समधुशर्करम् ॥
अर्थ-कचूर, दशमूल, पीपल और दाखइन के काढेमें औटा हुआ दूध सहतऔर मिश्री मिलायके देवे तो पित्त की खांसी दूर होय ॥
त्वक्क्षीरलेह
त्वक्क्षीरपिप्पलीलाजाद्राक्षाजलदशर्कराः।
सर्पिर्मध्वावलेहोयं पित्तकासविनाशनः ॥
अर्थ-तवाखीर, पीपल, खील, दाख, नागरमोथा इन के काढेमें मिश्री, घीऔरसहत डालके पीवे तो पित्त की खांसी दूर होवे ॥
कंटकार्य्यादिकाढा
कंटकारीयुगं द्राक्षावासाकर्चूरबालकैः।
नागरेण च पिप्पल्या कथितं सलिलं पिबेत् ॥
शर्करामधुसंयुक्तं पित्तकासहरं परम् ॥
अर्थ-कटेरी. बडी कटेरी, दाख, अडूसा, कचूर, नेत्रवाला, सोंठऔर पीपल इन के काढे में मिश्री और सहत मिलायके देवे तो पित्त की खांसी को दूर करे॥
पिप्पल्यादिचूर्ण
पिप्पलीतवराजश्च तवक्षीरं त्रयं समम् ।
मधुसर्पिर्युतं भुक्तं पित्तकासविनाशनम् ॥
अर्थ-पीपर, यवास, शर्करा और तवाखीर इन को समान भाग लेवे सब का चूर्ण करके सहत और घी मिलायके सेवन करे तो पित्त ( गरमी ) की खांसी दूर हो॥
मधुकादिचूर्ण
मधुकं पिप्पलीमूल दूर्वाद्राक्षाकणासमम् ।
घृतेन मधुना युक्तं पित्तकासविनाशनम् ॥
अर्थ-मुलहटी, पीपरामूल, दूर्वा, दाख और पीपल इन का समान भाग चूर्ण करके सहत के साथ खाय तो पित्त की खांसी को दूर करे ॥
अर्धावर्तितकाढा
अर्धावर्तितपानीयं सलाजंपिप्पली मधु ।
त्रयं सर्पिर्युतं भुक्तं पित्तकासविनाशकृत् ॥
अर्थ-अघोटा पानी, खील और पीपल इन का काढा करके उस में सहतऔर घी डालके पीवेतो पित्त की खांसी का निवारण होय॥
मातुलिंगादिलेह
मातुलिंगरसो हिंगुत्रिफला मधुशर्करा ।
सर्पिर्मध्वावलेहोयं पित्तकासविनाशकृत् ॥
अर्थ-बिजोरे का रस, हींग और त्रिफला इन का काढासहत और मिश्री डाल के देवे तो पित्त की खांसी को दूर करे॥
खर्जूरादिलेह
खर्जूरं पिप्पली द्राक्षा सिता लाजाः समांशकाः ।
मधुसर्पिर्युतो लेहः पित्तकासहरः परैः॥
अर्थ-खजूर, पीपल, दाख, मिश्री और खील इन को समान भाग लेकर लेह
सिद्ध करे इस में सहत घी डालके सेवन करे तो पित्त की खांसी को नाश करे ॥
द्राक्षामलकादिलेह
द्राक्षामलकखर्जूरं पिप्पलीमरिचान्वितम् ।
पित्तकासहरं ह्येतल्लिह्यान्माक्षिकसंयुतम् ॥
अर्थ-दाख, आमला, खजूर, पीपल और मिरच इन को एकत्र चूर्ण कर सहत और घी के साथ खाने से पित्त की खांसी को नाश करे है ॥
क्षीरामलकघृत
महिष्यजाविगोक्षीरधात्रीफलरसैः समैः।
सर्पिः प्रस्थं पचेद्युक्त्या पित्तकासनिबर्हणम् ॥
अर्थ- भैंस, बकरी और गौ इन का दूध और आमले का रस ये समान भाग ले इस में ६४ तोले घी मिलायके युक्ति से पचावे और सेवन करे तो यह घृत पित्त की खांसी को दूर करे ॥
रस
भस्मताम्राभ्रतीक्ष्णानां कासमर्दवरीरसैः।
मुनिजैर्वेतसाम्लेन दिनं मद्ये तु पीडितम् ॥
निष्कार्धंपित्तकासार्तंभक्षयेन्नात्र संशयः॥
अर्थ-ताम्रभस्म, अभ्रकभस्म और कांतभस्म इन को एकत्र करके कसोंदा केरस की, सतावर और अगस्तिया अमलवेत और मद्य इन में घोटके दो मासे पित्तखांसीवाले को देवे तो हित करे ॥
लोकेश्वररस
रसो लोकेश्वरोप्यत्र पिप्पलीमधुना सह ।
दातव्यो विनिहंत्येव पित्तकासं सुदारुणम् ॥
अर्थ-क्षयीरोग में जो लोकेश्वररस कह आये हैं उस को पीपल और सहत के साथ देवे तो दारुण पित्तखांसी को नाश करे ॥
कफकासनिदान
प्रलिप्यमानेन मुखेन सीदन्शिरोरुजार्त्तःकफपूर्णदेहः।
अभक्तरुग्गौरवकंडुयुक्तः कासेद्भृशं सांद्रकफः कफेन ॥
अर्थ-कफ की खांसीसे मुख कफ से लिपटा रहे मथवाय और सब देह कफ से
परिपूर्ण रहे अन्नमें अरुचि शरीर भारी रहे कंठ में खुजली और रोगी वारंवार खांसे कफ की गांठ थूकने से सुख मालूम होवे ॥
कफकाससामान्यचिकित्सा
कफजेवमनं कार्यं कासे लंघनमेव च ।
शस्तापवासाप्रकृतिर्यूषाश्च कटुतिक्तकाः ॥
अर्थ-कफ की खांसी में प्रथम ही वमन करावे तथा लंघन कराना ये उपचार तथा मुख्यत्व करके वातरहित प्रकृति का रखना और चरपरे, कडुए ऐसे यूष देना इत्यादि उपचार करे ॥
नवांगयूष
मुद्गामलाभ्यां यवदाडिमाभ्यां कर्कंधुना मूलसशुष्ककेन ।
शुंठीकणाभ्यां सकुलित्थकेन यूषोनवांगः कफकासहंता॥
अर्थ-मूंग, आमले, जो, अनार, बेर, सूखी मूली, सोंठ, पीपल और कुलथी इन का यूष करे यह नवांगयूषकफकास को नाश करे ॥
पिप्पल्यादिकाढा
पिप्पली कट्फलं शुंठी शृंगी भार्ङ्गी तथोषणम्। कारकं कंटकारी च सिंधुवारो यवानिका॥ चित्रको वासकश्चैषांकषायं विधिवत्कृतम्। कफकासविनाशाय पिबेत्कृष्णारजोयुतम् ॥
अर्थ-पीपर, कायफल, सोंठ, कांकडासिंगी, भार्ङ्गी, मिरच, अजमायन, कटेरी, निर्गुंडी, अजमोद, चित्रक और अडूसा इन के काढेमें पीपल के चूर्ण को बुकनी डालके देवे तोकफकास को नष्ट करे ॥
पित्तश्लेष्मकास
वासकः स्वरसः पेयो मधुयुक्तो हिताशिना।
पित्तश्लेष्मकृते कासे तालीसाद्यंच योजयेत् ॥
अर्थ-पित्तकफ की खांसी पर अडूसे का रस सहत मिलायके देवे और पथ्य रहे अथवा तालीसादि चूर्ण देवे तो इस को नष्ट करे ॥
अवलेह
शठी सातिविषामुस्ता शृंगी कर्कटकस्य च । अभयां
शृंगबेरं च समं शुंठ्यादि पेषयेत्॥ हिंगुसैंधवसंयुक्तं तक्रोदकपरिप्लुतम्। श्लेष्मकासी लिहेदेवमवलेहं मुहुर्मुहुः॥
अर्थ-कचूर, अतीस, नागरमोथा, कांकडासिंगी, हरड, अदरख और सोंठ ये समान भाग लेकर चूर्ण करे इस छाछ के जल में हींग और सेंधानिमक मिलायके वारंवार चाटने को देवेतो कफ की खांसी नष्ट होय इस में संदेह नहीं है॥
बिभीतकधारण
बिभीतकं घृताभ्यक्तं गोशकृत्परिवेष्टितम् ।
स्विन्नमेतन्निहंत्याशु कासमास्यविधारितम् ॥
अर्थ-बहेडे को घृत में भूनके उस पर गोबर लपेट पुटपाक कर लेवे फिर इस से गोबरदूर करके तोडडाले इस के टुकडों को मुख में रखे तो सर्व प्रकार की खांसी नष्ट होय॥
भद्रमुस्तादिचूर्ण
भद्रमुस्ताकणाचूर्णं समांशं मधुना सह।
निहंति भक्षितं शीघ्रं श्लेष्मकासं न संशयः॥
अर्थ-नागरमोथा और पीपल इन का समान भाग चूर्ण कर सहत से खाय तो कफ की खांसी को नष्ट करे इस में संदेह नहीं है॥
पथ्यादिचूर्ण
पथ्या विश्वा कणा मुस्ता देवदारुः समांशकम् ।
एतच्चूर्णं मधूषेतं श्लेष्मकासापनुत्तये॥
अर्थ-हरड, सोंठ, पीपल, नागरमोथा और देवदारु इन का समान भाग चूर्ण करके सहत में मिलायके चाटे तो कफ की खांसी नष्ट होय॥
चित्रकादिचूर्ण
चित्रकं पिप्पलीमूलं पिप्पली गजपिप्पली।
एतच्चूर्णं समं युक्तं मधुना श्लेष्मकासनुत् ॥
अर्थ-चित्रक की छाल, पीपरामूल, पीपल और गजपीपल इन के चूर्णको एकत्र समान भाग लेवे. इस मे यथायोग्य मात्रा सहत मे मिलायके देवे तो कफ की खांसी को नष्ट करे॥
शिलादिलेह
शिला व्योषाभयाहिंगुविडंगं सैंधवं समम्।
लेह्यं साज्यमधुश्वासहिक्काकासेषु शस्यते॥
अर्थ-मनसिल, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, हींग, वायविडंग और सेंधानिमक इन के चूर्ण को सहत और घी इन में मिलायके श्वास, हिचकी और खांसी इन पर देना चाहिये॥
व्योषादिघृत।
व्योषाजमोदचित्रकजीरकषड्ग्रंथिचव्यकल्कितं सर्पिः।
कफकासश्वासहरं वासकरससाधितं समधु ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपर, अजमोद, चित्रक, जीरा, वचऔर चव्य इन को समान भाग ले सब का कल्क करके उस में घी, अडूसे का रस और सहत डालके सेवन करे तो कफ संबंधी खांसी, श्वासों को नाश करे ॥
कटुत्रयादिचूर्ण
कटुत्रयं पावकदेवदारुरास्नाविडंगत्रिफलामृतानाम् ।
चूर्णं समांशं सितया समेतं कासं जयेद्विष्णुगदेव दैत्यान् ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, चीते की छाल, देवदारु, रास्ना, वायविडंग, हरड, बहेडा, आवला इन का चूर्ण मिश्री मिलायके देवे तो खांसी का नाश करे ॥
बोलबद्धरस
रसभस्म विषंतुल्यं बोलाद्याद्द्विगुणं मतम् । बोलातालकपाठाग्निकर्कोटीमाक्षिकं निशा॥ कंटकारीयवक्षारं लांगली जीरसैंधवम् । मधूकसारसं चूर्णं सप्ताहं चार्द्रकद्रवैः॥ छायायां भावयेत्पश्चात्सप्ताहंचिंचकद्रवैः। गुटिका बदराकारा श्लेष्मकासापनुत्तये ॥ भक्षयेदोलबद्धोयं रसः स्यात् श्वासपांडुजित् ॥
अर्थ-पारद की भस्म और सिंगियाविष दोनों समान भाग लेवे तथा बोल, हरताल, पाढ, काकडासिंगी, सुवर्णमाक्षिक, हलदी,कटेरी, जवाखार, कलयारी, जीरा, सैंधानिमक और मूलहटी इन के चूर्ण को सात दिन अदरख के रस में खरल करे फिर छाया में सुखायके सात दिन चीते के रस में खरल कर बेरकी बराबर गोली बनायलेवे इस कोकफरोग, श्वास और पांडुरोग इन पर देवे ॥
दंतीधूम
दंतिमूलस्य धूमंवा निर्गुंडीं चापि योजयेत् ।
श्लेष्मकासं न संदेहो धूमपानेन तत्क्षणात् ॥
अर्थ-दंती की जड का धूआं अथवा निर्गुंडी का धूआं पीवेतो इस धूमपान केकरने से कफ की खांसी दूर हो इस में संदेह नहीं है॥
उरःक्षतकासनिदान
अतिव्यवायभाराध्वयुद्धाश्च गजनिग्रहैः।
रूक्षस्योरःक्षतं वायुर्गृहीत्वा कासमावहेत् ॥
अर्थ-बहुत स्त्रीसंग करने से, भारके उठाने से, बहुत मार्ग चलने से, मल्लयुद्ध (कुस्ती) करने से, हाथी घोडा दौडने को रोकने से रूक्ष पुरुष का हृदय फूटकर वायुकोप होकर खांसी को प्रगट करे॥
क्षतकासलक्षण
स पूर्वं कासते शुष्कं ततः ष्ठीवति शोणितम्। कंठेन रुजतात्यर्थं विभिन्ननेव चोरसा॥ सुचीभिरिव तीक्ष्णाभिस्तुद्यमानेन शूलिना। दुःखस्पर्शेन शूलेन भेदपीडाभितापिना॥ पर्वभेदज्वरश्वासतृष्णावैवर्ण्यपीडितः। पारावत इवाकूजन्कासवेगात्क्षयो भवेत्॥
अर्थ-सो पुरुष प्रथम सूखा खांसे पीछे रुधिर मिला थूके कंठ अत्यन्त दूखेहृदय फूटे सदृश मालम होय और तीखी सुईकेसे चभका चले और उस को हृदय का स्पर्श सुहाय नहीं दोनों पसवाडों में शूलहोय यह वाग्भट का मत है तथादाह हो उस रोगी के गांठ गांठ में पीडा होय. ज्वर, श्वास, प्यास,स्वरभेद इन से पीडित होय क्षतजन्य खांसी के वेग से रोगी कबूतर की तरह घुंघुंशब्दकरे॥
क्षयकासनिदान
विषमासात्म्यभोज्यातिव्यवायाद्वेगनिग्रहात्।
घृणिनां शोचतां नॄणां व्याप्यन्तेऽग्नौ त्रयो मलाः॥
कुपित्ता क्षयजं कासं कुर्युर्देहक्षयप्रदम् ॥
अर्थ-कुपथ्य और विषमाशन के करने से अतिमैथुन मलमूत्रादिक वेगधारण इन से अति दया करने से आति शोक करने से अग्नि मन्द होय ( अर्थात् आहार
थककर वायु कुपित हो अग्नि को नष्ट करे ) तब तीनों दोष कोप को प्राप्त हो क्षयजन्य देह का नाशक ऐसी खांसी को प्रगट करे तब वह खांसी देह को क्षीण करे॥
क्षयकासलक्षण
सगात्रशूलज्वरदाहमोहात्प्राणक्षयं चोपलभेच्च कासी । शुष्कं विनिष्ठीवति दुर्बलस्तु प्रक्षीणमांसो रुधिरं सपूयम् ॥ तं सर्वलिंगं भृशदुश्चिकित्स्यं चिकित्सितज्ञा क्षयजंवदंति ॥ इत्येष क्षयजः कासः क्षीणानां देहनाशनः। साध्यो बलवतां वा स्याद्याप्यस्त्वेवं क्षतोत्थितः॥
अर्थ-शूल, ज्वर, दाह और मोह ये होय तब यह प्राणका नाश करे सूखी खांसी रुधिर मांस शरीर कोसुखावेरुधिर और राध थूके ये सर्व लक्षणयुक्त और चिकित्सा करने में अति कठिन ऐसे इस खांसी को वैद्य क्षयज कहते है. इस प्रकार यह क्षयजकास (खांसी) क्षीण पुरुष की घातक होय है बलवान् पुरुष के असाध्य अथवा याप्य ( साध्यासाध्य ) होय है क्षतज खांसीभी इसी प्रकार की होती है यदि वैद्यादि पादचतुष्टयसंपन्न हो और ये दोनों प्रकार की खांसी नवीन होय तो कदाचित् साध्य होय और बूढे पुरुष के जराकास अर्थात् धातुक्षीण होने से भई जो खांसी सो सब प्रकार की याप्य है सो सब इंद्रियके अंतर्गत जाननी. अब कहते हैं कि वात, पित्त, कफ ये तीन खांसी साध्य हैं और बाकी तीन याप्य हैं वे पथ्य सेवन करने से नाश होती और अवज्ञा करने से असाध्य हो जाती है ॥
साध्यासाध्यविचार
न वै कदाचित्साध्येतामपि पादगुणान्वितौ।
स्थविराणां जराकासः सर्वोयाप्यः प्रकीर्तितः॥
त्रीन्पूर्वान्साधयेत्साध्यापथ्यैर्याप्यांस्तु यापयेत् ॥
अर्थ-यदि नवीनोत्पन्न क्षयकासरोगी वैद्य परिचारक और द्रव्य इत्यादि गुणों करके युक्त होय तो वह रोगी कदाचित् अच्छा होय और वृद्ध रोगी का जो जराकास होय तो सर्व याप्य जानना तथा वातादिक जनित तीन प्रकारके जो खांसी है वह साध्य है यह औषधों करके अच्छी हो तथा याप्य खांसी को पथ्य करके न्यून करे ॥
चिकित्साप्रक्रिया
कासे तु क्षतजे वल्ये पाचनैर्बृंहणैरपि।
शमनैः पित्तकासघ्नैरन्यैश्च मधुरौषधैः॥
अर्थ-क्षयकास को पाचन, पौष्टिक और शमन तथा पित्तकास को शमन करनेवाली औषधों करके तथा दूसरी मधुर औषधों करके शमन करे॥
यवागूं वा पिबेत्सिद्धां क्षतोरस्कः सुशीतलाम्।
इक्ष्विक्षुबालिकापद्ममृणालोत्पलचंदनैः॥
शृतां पेयां मधुयुतां संधानार्थं पिबेत्क्षती॥
अर्थ-उरःक्षत खांसी रोगी ईख, कसोंदीके बीज, कमल का कंद, नीलकमल कंद तथा चंदन इन करके सिद्ध करी शीतल यवागू घाव को संधान करने के अर्थ पीवे॥
इक्ष्वाद्यावलेह
इक्ष्विक्षुबालिकापद्ममृणालोत्पलचंदनैः। मधुकं पिप्पली द्राक्षा लाक्षा शृंगी शतावरी॥ द्विगुणा च तुगाक्षीरी सिता सर्वैश्चतुर्गुणा। लिह्यात्तं सधुसर्पिर्भ्यांक्षतकासनिवृत्तये॥
अर्थ-ईख का रस, कसोंदी के बीज, कमलकंद, कमल, सपेद चंदन, मुलहटी, पीपल, दाख, लाख, कांकडासिंगी और सतावर ये समान भाग ले तथा दो भाग वंशलोचन तथा सब औषधों से चौगुनी मिश्री डालके अवलेह बनावे इस में सहत औरघी डालके चाटे तो खांसी की निवृत्ति अर्थात् नाश होय॥
मंजिष्ठाद्यचूर्ण
मंजिष्ठमूर्वानतवह्निपाठाकृष्णाहरिद्राविदधीतचूर्णाः।
क्षौद्रेण कासे विलिहेत्क्षतोत्थे पिबेद्घृतं चेक्षुरसे विपक्वम्॥
अर्थ-मजीठ, मूर्वा, तगर, चित्रक, पाठा, पीपल और हलदी इन का चूर्ण सहत के साथ चाटे अथवा ईख के रस में घी को औटाकर पीवे ये दोनों योग क्षतज खांसीपर उत्तम हैं॥
क्षुद्रावलेह
समूलकंटकारी च चपला चपलाजटा। अपामार्गस्य बीजानि जीर्णं सामुद्रकं तथा॥ मधुना लेहयेत्सर्वंकासश्वासहरं परम्। उरःक्षतक्षये तीव्रेकफरक्तवमीषु च॥
अथे-कटेरी का पंचांग, पीपल, पीपरामूल, आगा के बीज, जीरा और सैंधानिमक इन से सिद्ध करे अवलेह को सेवन करे तो खांसी, वास, उरःक्षत और कफरक्त की वांति इन को दूर करे॥
तारेश्वररस
रसपादं मृतं तारं शिलाताप्यं चतुर्गुणम्। वासाचेक्षुरसाभ्यां च मर्दयेत्प्रहरद्वयम्॥ द्वियामं वालुकायंत्रे स्वेद्यमादाय चूर्णयेत्। गुंजाद्वयं निहंत्याशु कासं क्षतभवं ध्रुवम्॥ रसस्तारेश्वरो नाम ह्यनुपानं च कथ्यते। दाडिमं त्रिफला व्योषंत्रयाणां च समं गुडम् ॥ चूर्णितं भक्षयेत्कर्षक्षतकासापनुत्तये॥
अर्थ-पारा १ भाग, रूपे की भस्म पारे की चतुर्थांश, मनसिल तथा सुवर्णमाक्षिक ये चतुर्गुण लेकर अडूसा और ईख का रस इन में दो प्रहर खरल करे फिर इस को कांच की शीशी में भरके वालुकायंत्र में दो प्रहर पर्यंत पचायके उतार लेवे इस में से दो रत्ती यह तारकेश्वररस अनार, त्रिफला (हरड, बहेडा, आंवला), सोंठ, मिरच, पीपल तथा इन सब के बराबर गुड मिलाय इन के एक तोले चूर्ण के साथ देवे तो क्षतकास को नष्ट करे॥
सूर्यरस
रसमेकं द्विधा गंधं त्रिताप्यं पंच तालकम्। सर्वशुद्धं विचूर्ण्याथचतुर्भागं मृताभ्रकम्॥ वचा कुष्ठहरिद्राग्निटंकणं सैंधवं विषम्। सपाठालांगलीव्योषंसर्वं प्रत्येककर्षकम्॥ भावितं भृंगसारेण दिनैकं तं च भक्षयेत्। माषः सूर्यरसो नाम हिक्कावैस्वर्यकासजित्॥ अष्टगुंजामितं भक्ष्यं विख्याता रसपर्पटी। त्रिकंटमूलगुंठी च अजाक्षीरसमोदकम्॥ क्षीरावशिष्टं तं क्वाथं सकणं पाययेन्निशि॥
अर्थ-पारा १, गंधक २, सुवर्णमाक्षिक ३, हरताल ५ और अभ्रक ४ भाग लेवे और वच, कूठ, हलदी, चित्रक, सुहागा, सेंधानिमक, बछनाग, विष, पाढ, कलयारी, सोंठ, मिरच और पीपल ये प्रत्येक एक एक तोला लेवे सब का चूर्ण कर भागरे केरस में १ दिन खरल करे यह सूर्यरस एक मासे खाने को देय तो हिचकी, स्वरभंगऔर खासी इन को नष्ट करे अथवा रत्ती रसपर्पटीलेकर रात्रिमें गोखरू,सोंठ,बकरी का दूध तथा दूध की बराबरजल लेकर औटावे जब दूधमात्र शेष रहे तबउतारके उस में पीपल का चूर्ण डालके पीवे ॥
पिप्पल्पादिलेह
पिप्पली पद्मकं लाक्षा सुपक्वंबृहतीफलम्।
घृतक्षौद्रयुतो लेहः क्षयकासनिबर्हणः॥
अर्थ-पीपल, पद्माख, लाख और उत्तम पके हुए कटेरी के फल ये समान भाग लेसब को पीस घी और बहुत इन से अवलेह बनायके सेवन करे तो क्षयजन्य खांसीको नाश करे ॥
कुलित्थगुड
कुलित्थानां शतपलं दशमूलं तथा शतम्। शतब्राह्मणयष्ट्याह्वाचतुर्गुणजले शृतम्॥ पादावशेषतः पूते गुडस्यार्धतुलां पचेत्। पाकं ज्ञात्वावतार्येवं सुशीते श्लक्ष्णचूर्णितम्॥ षट्पलं च तुगाक्षीया पिप्पल्या द्विपलं तथा। कुडवं मधुना दद्यात्स्थापयेद्भाजनेशुभे॥ खादेदग्निबलापेक्षी नाशयेदचिराद्गदान्। यक्ष्माणं पित्तजं कासं श्वासं जीर्णमजीर्णकम्॥ जीर्णज्वरं पांडुरोगं हृद्रोगंश्लेष्ममारुतौ। कुलित्थगुड इत्युक्तः सर्वोपद्रवनाशनः॥
अर्थ-कुलथी ५०० तोले, दशमूल की औषध ४०० तोले और भारंगी ४०० तोले ले १६०० तोले जल में काढाकरके चतुर्थांश शेषरहने पर उतार लेवे इस में गुड२०० तोले डालके पाक करे जब तयार हो जावेतब शीतल करके इस में २४ तोले वंशलोचन, ८ तोले पीपल और १६ तोले सहत डालके उत्तम पात्र में भरके धर रखे. इस में से अग्निबलविचारके खाने को देवे तो क्षय, पित्त की खांसी, श्वास, पका हुआ अजीर्ण, जीर्णज्वर, पांडुरोग, हृदयरोग और कफवात इन को और संपूर्ण उपद्रवों को यह कुलित्थगुड नाश करे॥
वासाकूष्मांडावलेह
पंचाशतपलं स्विन्नं कूष्मांडं प्रस्थमाज्यतः। पक्वंपलशतं खंडं वासाक्वाथाढके पचेत् ॥ शुभ्रा धात्रीघनो भार्ङ्गीत्रिसुगंधिश्चकर्षकैः। एलोपविषधान्याकमरिचैश्च पलांशकैः॥ पिप्पली कुडवं चैव मधुमानं प्रदापयेत्। कासं श्वासं क्षयं हिक्कां रक्तपित्तहलीमकान्॥ हृद्रोगमम्लपित्तं च पीनसं च व्यपोहति॥
अर्थ-पेठे के टुकडे शुद्ध करे हुए २०० तोले उन को ६४ तोले घी में भूने फिर इस में १०० तोले टुकडे लेकर अडूसे के २५६ तोले काढे में सिजावे इस में वंशलोचन, आंवले, नागरमोथा, भारंगी, तज, तमालपत्र और इलायची ये प्रत्येक चार २ तोले ले तथा पीपल १६ तोले और सहत ३२ तोले डालके भरके धररखे. इस में से बलाबलविचारकेमात्रा वैद्य देवे तो खांसी, श्वास, क्षय, हिचकी, रक्तपित्त, हलीमक, हृदयरोग, अम्लपित्त और पीनस इन को दूर करे॥
ककुभलेह
चूर्णं ककुभविपिष्टं वासकरसभावितं सुबहुवारान्।
मधुघृतसितोपलाभिर्लेह्यंक्षयकासपित्तहरम्॥
अर्थ-कोहवृक्ष की छाल को चूर्ण में अडूसे के रस की बहुतसी भावना देवे फिर सहत, घी और मिश्री मिलायके चाटे तो क्षय कास और पित्त इन को नाश करे ॥
पिप्पल्यादिघृत
पिप्पलीगुडसंसिद्धं छागक्षारयुतं घृतम् ।
एतदग्निविवृद्ध्यर्थमुक्तं च क्षयकासिनाम् ॥
अर्थ-पीपल और गुड इन से बनाया हुआ घी बकरी के दूध के साथ पीवे, तो क्षयखांसी के अग्नि प्रदीप्त करने को उत्तम है॥
पिप्पल्यादिलेह
पिप्पलीमधुकं पिष्टं कषायं ससितोपलम्। प्रस्थैकं गव्यमाज्यं च क्षीरमिक्षुरसस्तथा॥ यवगोधूममृद्वीका चूर्णमामलकीरसम्। तैलं च प्रसृतांशानि तत्सर्वं मृदुवह्निना ॥ पचेल्लोहं घृतक्षौद्रयुक्तः सश्वासकासनुत्। क्षयहृद्रोगकासघ्नो हितो वृद्धाल्परेतसाम्॥
अर्थ-पीपल और मुलहटी इन दोनों को कूट इन के चूर्ण का काढा मिश्री मिले हुएगौका दूध, घी और ईख का रस प्रत्येक ६४ तोले जों का गेहूं का चून चून, दाख, आंवले का रस और सरसों का तेल ये प्रत्येक आठ २ तोले लेवे सब को एकत्र कर मंद २ अग्नि पर रखके अवलेह बनावे इस अवलेह में सहत और घी डालके पीवे तो श्वास, खांसी, क्षय और हृदयरोग इन को नाश करे और वृद्धत्वतथा अल्पवीर्य पुरुषों को परम हितकारी है॥
स्वयमग्निरस
शुद्धसूतं द्विधा गंधं कुर्यात्खल्वे च कज्जलीम्। तयोः समं तीक्ष्णचूर्णं मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः॥ द्वियामांते कृतं गोलं ताम्रपात्रे विनिक्षिपेत्। आच्छाद्यैरंडपत्रेण यामार्धेत्युष्णतां व्रजेत्॥ धान्यराशौ न्यसेत्पश्चात् द्विदिनांते समुद्धरेत्। संपेष्य गालयेद्वस्त्रेसत्यं वारितरं भवेत्॥ त्रिकटुत्रिफलाचैलाजातीफललवंगकैः। एतेषां नवभागानां समं पूर्वेरितं भवेत्॥ संचूर्ण्य लोडयेत्क्षौद्रैर्भक्ष्यं निष्कद्वयं द्वयम्। स्वयमग्निरसो नाम क्षयकासनिकृंतकः॥ इंद्रवारुणिकामूलं भृंगीकृष्णातिलैः सह। भक्षयेत्क्षयकासार्तोनिष्कमात्रंप्रशांतये॥
अर्थ-शुद्ध पारा १ भाग और गंधक २ भाग ले दोनों की कजली करे तथाकजली के समान पोलाद लोह की चूर्ण मिलायके उस को घीगुवार के रस में दो प्रहरघोटके गोला बनावेउस को ताम्रसंपुट में रखके उस के ऊपर और नीचेअंडके पत्ते लपेट देवे फिर चार घडी पर्यंत उस को धूप में उसी प्रकार धरा रहने देजब गरम हो जावे तबउठायके धान की राशि में दो दिन पर्यंत गडा रहने देतीसरे दिन निकालके खरल में डालके घोट डाले फिर कपडे में छान ले तो यहजल में तैरनेवाली लोह की भस्म होवे. यह लोहभस्म सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, इलायची, जायफल और लौंग इन नौ औषधोंके चूर्ण के बराबरलोहभस्म मिलायके इस को सहत से आठ मासे पर्यंत देवे यह स्वयमग्निरस क्षयकास का नाश करे अथवा इंद्रायन की जड, भांग, पीपल और तिल इन के साथ ४ मासे देवेतो क्षयजन्य खांसी की शांति होय॥
सन्निपातकास
सन्निपातभवो ह्येषःक्षयकासः सुदारुणः।
सन्निपातहितं तस्मात्कार्यमत्र चिकित्सितम्॥
अर्थ-यह दारुण क्षयकास संनिपात से होती है इसी से जो संनिपात पर हित होवे उसी उपाय को वैद्य करे॥
अमृतादिकाढा
अमृता नागरं फंजी व्याघ्रिपर्णी सुसाधितः।
क्वाथः पिप्पलिचूर्णाढ्यःकासश्वासौ जयत्यलम्॥
अर्थ-गिलोय, सोंठ और सालपर्णीइन के काढेमें पीपल का चूर्ण डालके रोगी को पिलावे तो खांसी और श्वास इन को शीघ्र नाश करे॥
भार्ङ्ग्यादिकाढा
भार्ङ्गी सनागरा सिंही कुलित्थं मूलकं तथा।
पिबेत्पिप्पलिचूर्णेन कासश्वास व्यपोहति॥
अर्थ-भारंगी, सोंठ, कटेरी, कुलथी और मूली इन का काढा पीपल का चूर्ण मिलायके पीवे तो खांसी और श्वास इन को दूर करे ॥
स्वरसादियोग
स्वरसं शृंगबेरस्य माक्षिकेण समन्वितम्।
पाययेच्छ्वासकासघ्नंप्रतिश्यायकफापहम्॥
अर्थ-अदरख के रस में सहत डालके पीवे तो श्वास, खांसी, पीनस और कफ इन का नाश करे परंतु अग्निपर कुछ गरम करके और बडी इलायची का चूरा मिलायके खाय तो अधिक गुण करे ॥
मरीच्यादिचूर्ण
सेवितं मधुखंडाभ्यां चूर्णं मरिचजंयदि।
किमर्थं क्रियते चिंता कासश्वासपराजितैः॥
अर्थ-सहत और मिश्री इन के साथ मिरच का चूर्ण देने से खांसी की और श्वास की दूर होने की फिकर क्यों करते हो ?॥
कुलित्थादिकाढा
कुलित्थंकंटकारी च तथा ब्राह्मणयष्टिका।
शुंठीसुरभिसंयुक्तः कासश्वासज्वरापहः॥
अर्थ-कुलथी, कटेरी, भारंगी, सोंठ और राल इन सब का काढा करके पीवेतो खांसी, श्वास और ज्वर इन का नाश करे॥
पुष्करादिकाढा
पौष्करं कट्फलं भार्ङ्गी विश्वपिप्पलिसाधितम्।
पिबेत्क्वाथंकफोद्रेकं कासे श्वासे च हृद्गदे॥
अर्थ-पुहकरमूल, कायफल, भारंगी, सोठ और पीपल इन सब को समान भाग लेके काढा करे तो कफादिक, श्वास, खांसी और हृदयरोग इन को नाश करे॥
कुनट्यादिलेह
कुनटी सैंधवं व्योषविडंगामरुहिंगुभिः।
लेहः साज्यमधुकासहिक्काश्वासनिवारणः॥
अर्थ-मनसिल, सैंधानिमक, सोंठ, मिरच, पीपल, वायविडंग, देवदारु और हींग इन का अवलेह करके उस में घी और सहत डाल पीवे तो खांसी, हिचकी, श्वास इन को दूर करे॥
बर्हिपादादिऔर मरिचादिलेह
श्वासकासहरा बर्हिपादा च क्षौद्रसर्पिषा।
लिह्यान्मरिचचूर्णं वा सघृतं क्षौद्रशर्करम्॥
अर्थ-पीले टेटू के चूर्ण में सहत और घी मिलायके देवे अथवा काली मिरचों का चूर्ण घी, सहत और मिश्री मिलायकर देवे तो खांसी दूर हो॥
भार्ङ्ग्यादिचूर्ण
भार्ङ्गीशुंठिकणाचूर्णं गुडेन श्वासकासनुत्। संयुतो मधुसर्पिर्भ्यांचूर्णं त्रिकटुसंभवम्॥ निहंति तरसा कासं श्वासानिव सतां हरिः॥
अर्थ-भारंगी, सोंठ, पीपल इन के चूर्ण को गुड में मिलायके अथवा सोंठ, मिरच, पीपल इन के चूर्ण को सहत और घी में मिलायके देवे तो श्वास, खांसीका नाश हो॥
घनादिगुटी
घनविश्वशिवागुडजा गुटिका त्रिदिनं वदनांबुजमध्यधृता।
हरति श्वसनं कसनं ललने ललनेव हिमे हृदये निहिता॥
अर्थ-नागरमोथा, सोंठ और हरड इन का चूर्ण करके उस में गुड मिलायकेअथवा सोंठ, मिरच और पीपल इन का चूर्ण सहत और घी इन के साथ देवे तो श्वास, खांसी का नाश होय॥
निर्गुंड्यादिघृत
निर्गुंडीरसभागैकं रसाच्चतुर्गुणं घृतम्। पाच्यं घृतावशेषंच चव्यं वह्निविडंगकम्॥ चतुर्जातं कटुः कुष्ठंसमं चूर्ण्य घृते पचेत्। अष्टमांशघृतं चूर्णंनिर्गुंड्याख्यं घृतं पिबेत्॥ यवागूः कृष्णशाल्यस्तु तंडुलैः परिपाचितैः। निर्गुंडीघृतसंयुक्तं कासश्वासहरं पिबेत्॥
अर्थ-निर्गुंडी का रस १ भाग ले उस में चौगुना घी डालके घृत शेष रहे तबतक पचावे फिर इस में चव्य, चित्रक, वायविडंग, दालचीनी, इलायची, पत्रज, नागकेशर, महुआ और कूठ इन का चूर्ण घृत का अष्टमांश डालके घृतके साथ पचावे फिर काले चावलों की यवागू डालके पचावे तो यह निर्गुंडीघृत सिद्ध होवे. यह खांसी और श्वासको दूर करे॥
धूमपान
अपामार्गस्य पंचांगं संपिष्टं नलिकारसैः। तल्लिप्तवस्त्रे वा लिप्य तालकं च मनःशिला॥ तं क्षिप्त्वाग्नौ पिबेत्धूमं सप्ताहं श्वासकासजित्॥
अर्थ-ओंगाके पंचांग को बारीक पीस उस को नलिका के रस में खरल करे उस में हरताल और मनसिल घोटके उस का कपडे पर लेप करे जब सूख जावे तब इस को हुक्के में धरके धूआ पीवे तो सात दिन में श्वास और खांसी इन को नाश करे॥
वारुणीपत्रधूम
उत्तरावारुणीपत्रं शालितंडुलतालकम्। संपेष्य गुटिका कार्या बदरांडप्रमाणका॥ मुखी तंदुलपिष्टेन कर्तव्या छिद्रसंयुता। दीप्तांगारे वटीं क्षित्वा मुखमाच्छाद्य यत्नतः॥ धूममेरंडनालेन पिबेद्भुक्तोतरं शनैः। तांबूलपूरितमुखं पथ्यं क्षीरोदनं हितम्॥तत्क्षणान्नाशयेत्कासं सिद्धयोग उदाहृतः॥
अर्थ-इंद्रायन के पत्ते, शालीधान के चावल और हरताल इन को एकत्र पीस बेरकी गुठली के बराबर गोली बनावे उस क
चावलों को पीसके चिलम बनावे
उस में इस गोली को रखके ऊपर अग्निरखेऔर उस को ढकने से ढक देवे. फिर उस चिलम में अंडकी नली ( नै) लगायके भोजन करने के पश्चात् पीवेऔर ऊपर से पान खाय और पथ्य में दूध भात खाने को देवे तो खांसी तत्क्षण दूर होय. यह सिद्ध प्रयोग है॥
हेमगर्भपोटली
रसस्य भागाश्चत्वारस्तावंतः कनकस्य च। तयोश्च पिष्टिका कृत्वा गंधो द्वादशभागिकः॥ कुर्यात्कज्जलिकां तेषामुक्तभागाश्च षोडश। चतुर्विंशच्चशंखस्य भागैकंटंकणस्य च॥ एकत्र मर्दयेत्सर्वं पक्वनिंबूकजै रसैः। कृत्वा तेषां ततो गोलं मूषासंपुटके न्यसेत्॥ मुद्रां दत्त्वा ततो हस्तमात्रे गर्तेच गोमयैः। पुटेद्गजपुटेनैव स्वांगशीतं समुद्धरेत्॥ पिष्ट्वा गुंजाचतुर्मानं दद्याद्गव्याज्यसंयुतम्। एकोनत्रिंशदुन्मानमरिचैः सह दीयते॥ राजते मृन्मये पात्रेकाचजे वावलेहयेत्। लोकनाथसमं पथ्यं कुर्याच्छुचितमानसः॥ कासे श्वासे क्षये वातेकफग्रहणिकागदे। अतिसारे प्रयोक्तव्या पोटली हेमगर्भिका॥
अर्थ-पारा ४ भाग और सुवर्ण का बारीक चूरा ४ भाग लेकर दोनों को एकत्रमर्दन करे जब दोनों की उत्तम पिट्ठी हो जाये तब पारे का १२ भाग गंधक ले. इसीपिट्ठी में मिलायके खरल कर कजली करे फिर पारे का सोलहवां भाग मोती, चौवीसभाग शंक तथा एक भाग सुहागा लेकर उस में मिलाय देवे फिर पके हुए नींबूकेरस में खरल करके उस का गोला बनावे और उस गोले को सराव संपुट में रखेऊपर से कपडमिट्टी करे फिर एक हाथ भर का गड्ढा खोदे उस में गोबर के आरनेउपले भर बीच में उस संपुट को रख गजपुट की अग्नि देवेजबशीतल हो जावेतब बाहर निकाल लेवे और उस में औषध निकाल किसी उत्तम पात्र में भरके धररखे. इस रस को हेमगर्भपोटलीरस कहते हैं. यह हेमगर्भ ४ रत्ती ले २९ नगकाली मिरचों के चूर्ण से चांदी के पात्र में अथवा मिट्टी के पात्र में अथवा कांचकेप्याले में गौ का घी डालके पीवे तथा चित्त को एकाग्र कर लोकनाथरस के समानपथ्य करे तो श्वास, खांसी, क्षयरोग, वादी के विकार, कफ और संग्रहणी तथा अग्निसार इन सब रोगों को दूर करे॥
कासविधूननरस
रसभागो भवेदेको गंधको द्वौ तथैव च। यवक्षारं त्रिभागं स्याद्रुचकं च चतुर्गुणम्॥ मरीचं पंचभागं स्याच्छुद्धं रसविमर्दितम्। कासं पंचविधं हन्याच्छ्वासं पंचविधं हरेत्॥
अर्थ-पारा १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग, जवाखार ३ भाग, पांगानिमक ४ भाग, कालीमिरच ५ भाग ले इन को अदरख के रस में खरल कर तीन २ रत्ती की गोली बनाय ले इसे खाय तो पांच प्रकार की खांसियो का नाश करे ॥
ताम्रपर्पटी
मृतं ताम्रंत्रिभागं च रसं गंधं च तत्समम्। भागमेकं वत्सनाभं कज्जलीं खल्वमध्यगाम्॥ गोघृतेन कृतं कल्कं लोहपात्रे विपाचयेत्। ढालयेदर्कपत्रस्थपर्पटीरससिद्धये॥ गुंजाद्वयं त्रयं चैव पिप्पलीमधुसंयुतम्। त्रिःसप्तरात्रयोगेन रोगराजं च नाशयेत्॥ आर्द्रकस्य रसेनैव सन्निपातं नियच्छति। त्रिफला खंडसंयुक्तं सर्वं पांडुं विनाशयेत्॥ वातारितैलसंयुक्तं सर्वशूलनिवारणम्। कुमारीरसयोगेन वातपित्तोपशांतये॥ बाकूचीरससंयुक्तं सर्वदद्रुविनाशनम्। त्रिफलामधुसंयुक्तं सर्वमेहनिवारणम्॥ खदिरक्वाथपानेन कुष्ठाष्टादशनाशनम्। मंथानभैरवेणोक्ता लोकानां हितकाम्यया॥
अर्थ-तामे की भस्म, पारा, गंधक ये प्रत्येक तीन २ भाग ले सिंगियाविष १ भाग इन सब को एकत्र करके कजली करे इस को गौ के घी मे खरल कर लोहे के पात्र मे पक्वकरके इस को आक के पत्तों पर ढाल देवे और दूसरे पत्ते से तत्काल इस को ढकके दबाय देवे तो यह पर्पटी सिद्ध होय इस को दो अथवा तीन रत्ती लेके सहत और पीपल के चूर्ण के साथ २१ दिन खाय तो राजयक्ष्मा को नाश करे, अदरख के रस के साथ सेवन करे तो सन्निपात का नाश करे, त्रिफला और मिश्री के अनुपान से सर्व प्रकार के पांडुरोग, अंडी के तिल के अनुपान से शूल, घीगुवार के रस के अनुपान से वातपित्त, बावची के रस के अनुपान से सर्वकुष्ठ, त्रिफला और सहत इन के अनुपानसेसर्व प्रकार के प्रमेह, खैर के काढे के अनुपान से अठारह प्रकार के कोढ इस प्रकार अनुपान के भेद से अनेक रोगो का नाश करे यह मंथानभैरव ने लोगों के हितार्थपर्पटीरस कहा है॥
कंटकार्यादिचूर्ण
कंटकार्याः काणायाश्च चूर्णं समधु कासहृत्॥
अर्थ-कटेरी और पीपल इन के चूर्ण को सहत से देवे तो खांसी को दूर करे॥
लवंगादिचूर्ण
लवंगजातीफलपिप्पलीनां भागाश्च कल्प्याक्षसमानपूर्वाः। पलार्द्धमानं मरिचं प्रदेयं पलानि चत्वारि महौषधस्य॥ सितासमस्तेन समाप्य चूर्णं रोगानिमानाशु बलान्निहंति। कासज्वरारोचकमेदगुल्मश्वासाग्निमांद्यं ग्रहणीविकारान्॥
अर्थ-लौंग, जायफल और पीपल ये एक एक तोला, बहेडा ३ तोले, काली मिरच २ तोले तथा सोंठ १६ तोले ले इन सब का चूर्ण कर और इस चूर्ण की बराबरमिश्री मिलावे. यह चूर्ण खांसी, ज्वर, अरुचि, प्रमेह, गोला, श्वास, मंदाग्नि और संग्रहणी को दूर करे॥
बिभीतकादिचूर्ण
द्वौ भागौ च बिभीतक्या भागैकं पिप्पलीयुतम्।
चूर्णं मधुयुतं लेह्यंकासरोगहरं परम्॥
अर्थ-बहेडा २ भाग और पीपल १ भाग इन का एकत्र चूर्ण कर सहत से चाटेतो यह खांसी के दूर करने में सर्वोत्कृष्ट है॥
पंचकोलादिचूर्ण
पिप्पली पिप्पलीमूलं शुंठीचूर्णं बिभीतकम्।
मधुना लेहयेच्चाशु हरेत्कासं त्रिदोषजम्॥
अर्थ-पीपल, पीपरामूल, सोंठ और बहेडा इन का चूर्ण सहत से चाटे तो त्रिदोषजन्य खांसी का नाश होय॥
बदरीकल्क
बदरीपत्रकल्कं वा घृतभृष्टं ससैंधवम्।
ज्वरोपघाते श्वासे च लेहमेतं प्रयोजयेत्॥
अर्थ-बेर के पत्तों का कल्क करके उस में सैंधा निमक मिलायके घी में तल लेवेयह स्वरभंग और श्वास इन पर देवे॥
कर्पूरादिचूर्ण
कर्पूरवालकंकोलजातीफलदलं समम्। लवंगं नागमरिचं कृष्णाशुंठीविवर्द्धिता॥ चूर्णं सितासमं ग्राह्यं रोचनं क्षयकासजित्। वैस्वर्यश्वासकासघ्नं छर्दितृष्णाक्षयापहम्॥
अर्थ-कपूर, नेत्रवाला, कंकोल, जायफल और जावित्री ये समान भाग लेवे तथा लौंग, नागकेशर, काली मिरच, पीपल और सोंठ ये सब१-२-३-४ भाग इस क्रम से लेयसब का चूर्ण कर तथा सब चूर्ण की बराबरमिश्री मिलावे इस के सेवन करने से रुचि करे और क्षय, कास, स्वरभंग, श्वास, खांसी और वमन इन का नाश करे॥
त्रिकटुकादिचूर्ण
कटुत्रिकं छिन्नलताकृशानुफलत्रिकं वेल्लभवं सरासना।
सशर्करं चूर्णमिदं तु सेव्यं कासाटवीदाहदवानलाख्यम्॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, गिलोय, चीते की छाल, हरड, बहेडा, आंवला, मिरचऔर रास्ना इन का चूर्ण कर इस में मिश्री मिलाय खाने को देवे तो खांसीरूप वनको अग्नि के समान नष्ट करनेवाला है॥
देवदार्वादिचूर्ण
देवदारुबलारास्नात्रिफलाव्योषपद्मकैः।
सविडंगैः सितातुल्यं तच्चूर्णं सर्वकासनुत्॥
अर्थ-देवदारु, बला, रास्ना, हरड, बहेडा, आंवला, सोंठ, मिरच, पीपल, पद्माखऔर वायविडंग इन का चूर्ण करके बराबर मिश्री मिलाय खाने को देवे तो संपूर्ण खांसियों का नाश करे ॥
द्विक्षारादि
द्वौक्षारौपञ्चमूलानि पंचैव लवणानि च। सठीनागरकोदीच्यकल्कं वा वस्त्रगालितम्॥ पाययेच्चघृतो-न्मिश्रंसर्वकासनिबर्हणम्॥
अर्थ-जवाखार, सज्जीखार, पंचमूल और पांचों निमक, कचूर, सोंठ, नेत्रवाला इन का कल्क करके वस्त्रसे छान लेवे फिर इस में घी डालके देखें तो संपूर्ण खांसियोंका नाश करे॥
ग्रंथिकादि
ग्रंथिकमागधिकाक्षमहौषधैरचितं चूर्णमिदं मधुना युतम्।
हरतिकासभवंदरमाततं विविधदोषहरं च निषेवितम्॥
अर्थ-पीपरामूल, पीपल, बहेडा और सोंठ इन का चूर्ण सहत में मिलायके देवेतो खांसी की भय को और अनेक दोषोंका नाश करे॥
कटुत्रिकादि
कटुत्रिकं च चूर्णितं गुडेन सर्पिषायुतम् ।
निहंति कासजंदरं निषेवणं निरंतरम्॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल इन का चूर्ण गुड और घी इन के साथ बहुत दिन देवेतो खांसी का भय नष्ट होवे॥
हरीतक्यादिगुटी
हरीतकी कणा शुंठी मरिचं गुडसंयुतम्।
कासघ्नो मोदकः प्राक्तो परं चानलदीपनः॥
अर्थ-हरड, पीपल, सोंठ और काली मिरच इन का चूर्ण गुड में मिलायके खाय तो खांसी नष्ट होय तथा दीपन और पाचन है॥
त्रिजातादि
त्रिजातमर्धकर्षंच पिप्पल्यर्धपलं सिता। द्राक्षामधुकखर्जूरं पलांशं श्लक्ष्णकल्कितम्॥ मधुना गुटिका घ्नंति ता वृष्याः पित्तशोणिते। कासश्वासारुचिच्छर्दिमूर्च्छाहिध्मामदभ्रमान्॥ क्षतक्षये स्वरभ्रंशे प्लीहशोषाढ्यमारुतान्। रक्तनिष्ठीवहृत्पार्श्वरुक्पिपासाज्वरानपि।
अर्थ-दालचीनी, पत्रजऔर इलायची ये छः छः मासे लेवे. पीपल २ तोले और मिश्री, मुलहटी, दाख, खजूर ये प्रत्येक ४ तोले बारीक चूर्ण करके कल्क करे और सहत से गोली बनायके देवे. यह वृष्य है तथा पित्तरक्त, श्वास, खांसी, अरुचि, वांति, मूर्छा, हिचकी, मद, भ्रम, क्षतक्षय, स्वरभंग, प्लीहा, शोष, आढ्यवात, रुधिर की वमन, हृदयरोग, पार्श्वशूल, प्यास और ज्वर इन को दूर करे ॥
मरीच्यादिगुटी
मरीचं कर्षमात्रंच पिप्पली कर्षसंमिता। अर्धकर्षोयवक्षारो कर्षयुग्मं च दाडिमम्॥ एतच्चूर्णीकृतं युंज्यादृष्टकर्ष-गुडेन हि। शाणप्रमाणगुटिका कृत्वा वक्त्रे विधारयन्॥ अस्याः प्रभावात्सर्वेपि कासा यांत्येव संक्षयम्॥
अर्थ-काली मिरच १ तोला, पीपल १ तोला, जवाखार छः मासे, अनार की छाल २ तोले इन सब का चूर्ण करके उस में ८ तोले गुड मिलायके चार २ मासे की गोली बनावेइस को मुख में रखे इस गोली के प्रभाव से संपूर्ण प्रकार की खांसी नष्ट होवे॥
लवंगादिगुटी
तुल्या लवंगमरिचाक्षफलत्वचः स्युः सर्वैः समो निगदितः खदिरस्य सारः। बब्बूलवल्कलकषाययुता विभाव्या-त्कासान्निहंति गुटिका घटिकाष्टकांते॥
अर्थ-लौंग, काली मिरच और बहेडे की छाल लेवे. तथा इन तीनों की बराबरखैरसार लेवे. सब को खरल में डाल बबूर की छाल के काढे से खरल करे तो यह लवंगादिगुटी आठ घडी में सर्व प्रकार की खासियों को दूर करे॥
धनंजयवटी
धनंजयत्रिजातकं कणा जटा कटुत्रिकम्।
रसार्द्रकेन भावितं जयेच्च कासमाततम्॥
अर्थ-कोह की छाल, दालचीनी, पत्रज, इलायची, पीपरामूल, सोंठ, काली मिरच और पीपल इन का चूर्ण अदरख के रस में खरल करेऔर गोली बनाय ले यह धनंजयवटी सर्व प्रकार की खासियों को नष्ट करे ॥
खदिरादिगुटी
खदिरं पौष्करं शृंगी कट्फलं द्विजयष्टिका। हरीतकी लवंगं च व्योषंचातिविषं तथा ॥ कारवीयासममृता बृहत्तीद्वयमक्षकम्। पृथक्कर्षद्वयं ग्राह्यं सूक्ष्मचूर्णं तु कारयेत्॥ सर्वैः समं खादिरं च मेलयित्वा विभावयेत्। दाडिमत्वक् तथा क्षुद्राखादिराभोभिरार्द्रकैः॥ बबूलत्वग्दलैः क्वाथैश्चाटरूषजलं तथा। सप्तधा भावयेद्बध्वा गुटिका खदिराभिधा॥ कासश्वासौ निहंत्याशु दुस्तरौ चिरजावपि॥
अर्थ-कत्था, पुहकरमूल, कांकडासिंगी, कायफल, भारंगी, हरड, लौंग, सोंठ,मिरच, पीपल, अतीस, अजमायन, धमासा, गिलोय, कटेरी, बड़ी कटेरी और बहेडे का बक्कलये प्रत्येक दो दो तोले लेवे. सब का बरीकचूर्ण करके उस सब चूर्ण की
बराबरखैरसार मिलावे. फिर अनार की छाल, कटेरी, खैर की छाल, बबूरकी छाल और पत्ते, अडूसा इन के काढे से अथवा रस से सात बारघोटे फिर मासे भर की गोली बांध ले. इसे खदिरादिवटी कहते हैं इस से खांसी और श्वास ये बहुत दिन के होवे तो भी नष्ट हों ॥
व्योषादिगुटी
व्योषाम्लवेतसं चव्यं तालीसं चित्रकं तथा। जीरकं तित्तिडीकं च प्रत्येकं कर्षभागिकम्॥ त्रिसुगंधित्रिशाणं स्याद्गुडः स्यात्कर्षविंशतिः। सर्वमेकत्र संकुप्ये गुटिका कर्षसंमिता॥ भक्षयेत्प्रातरुत्थाय सर्वान् कासान् व्यपोहति। पीनसं श्वासमरुचिं स्वरभेदं व्यपोहति॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, अमलवेत, चव्य, तालीस, चीता, जीरा, तिंतिडीक, प्रत्येक एक २ तोला ले और तज, पत्रज और इलायची ये चार २ मासे लेवे. और गुड २० तोले इन सब को एकत्र कूटके एक एक मासे की गोली बनावे इस को प्रातःकाल खाय तो संपूर्ण खांसी, पीनस, श्वास, अरुचि और स्वरभेद इन सब को दूर करे ॥
पिप्पल्यादिगुटी
सपिप्पली पुष्करमूलपथ्या शुंठीशठी मुस्तकसूक्ष्मचूर्णम्।
गुडेन युक्ता गुटिका प्रयोज्या श्वासेषु कासेषु विवर्धितेषु॥
अर्थ-पीपल, पुहकरमूल, हरड, सोंठ, कचूर और नागरमोथा इन का बारीक चूर्ण करके इस को गुड में मिलाय गोली बनावे यह बढी हुई खांसी, वास इन को दूर करे॥
क्षवथौ गंधनाशे च धूमपानं प्रयोजयेत् ॥
अर्थ-जिस को छींक और गंध न आती उस को धूमपान कराना चाहिये॥
अर्कमूलादिधूम
अर्कमूलशिलैस्तुल्यं ततोर्धेन कटुत्रिकम्। चूर्णितं वह्निनिक्षिप्तं पिबेद्धूमं तु योगवित्॥ भक्षयेदथ तांबूलं पिबेद्दुग्धमथापि वा। कासः पंचविधो याति शांतिमाशु न संशयः॥
अर्थ-आंक की जड और मनसिल इन से आधी सोंठ, मिरच, पीपल इन
चूर्ण को अग्निपर डालके धूए को पीवे और ऊपर से वीडी खाय अथवा दूध पीवे तो पांच प्रकार की खांसी नष्ट हो. इस में संदेह नहीं है॥
मनःशिलादिधूम
मनः शिलाभिर्मरिचमांसीमुस्तेंगुदीयुतम्। धूमं तस्यानुपचयं सुखोष्णं सगुडं पिबेत्॥ एषकासान्पृथग्द्वंद्वसन्निपातसमुद्भवान्। शतैरपि प्रयोगाणां साधयेदप्रसाधितान्॥
अर्थ-मनसिल, काली मिरच, जटामांसी, नागरमोथा और गोंदी इन के चूर्ण में गुड मिलायके इस को सुखोष्ण पावे तो यह दोषज, द्वंद्वज, सान्निपातिक और सैंकडों औषधों से जो खांसी अच्छी न होवे वे सब इस से नष्ट हों॥
दूसरा प्रकार
मनःशिलालिप्तदलं बदर्यातपशोषितम् ।
सक्षीरं धूमपानं च महाकासनिबर्हणम् ॥
अर्थ-बेरके पत्तों में सनसिल लगाके धूप में धर देवे जब सूख जावे तबइन को चिलम में धरके इन का धूआ पीवे तो घोर खांसी का नाश होय॥
धत्तूरादिधूम
पिष्ट्वात्रिपुटधत्तूरमूलव्योषमनःशिलाः। तेन प्रलिप्य वसनं धूमवर्तिं प्रकल्पयेत्॥ धूमं तस्याः पिबेद्यस्तु कासो नश्येद्दिनत्रयात् ॥
अर्थ-धतूरे की जड, सोंठ, मिरच, पीपल और मनसिल इन को एकत्र जल में पीस कपडे पर लेप कर देवे फिर इस को धूप में सुखायके बत्तीबनाय ले इस का धूआपीवेतो तीन दिन में खांसी दूर होवे अथवा इस को हुक्के में धरके पीवे॥
जातिपत्रादिधूम
जातिपत्रं शिलारालैर्योजयेद्गुगुलंसमम्।
अजामूत्रेण पिष्टोयं धूमः कासहरः परः॥
अर्थ-जावित्री, मनसिल, रार और गूगुल ये समान भाग ले सबको कूट पीसबकरी के मूत्रमें खरल करे फिर इस को हुक्के में रखके इस के धूंए को पीवे तोखांसी को नष्ट करे॥
जातिमूलादिधूम
जातीजटाकिसलयैर्बदरीदलैश्च जाता मसूरकफलैः समनःशिलाभिः। स्याद्धूमवर्तिरिह गुग्गुलुना समेतैः कासे स्थिते बदरिकाग्निविदह्यमानैः॥
अर्थ-चमेली की जड, चमेली के पत्ते, मसूर, मनसिल और गूगुल इन को पीसके बेर की पत्ती पर लेप कर देवे फिर इन को सुखाय हुक्के में रखके इन के धुंए को पीवे तो खांसी को नष्ट करे ॥
हरिद्राधूम
रात्रिद्वयशिलाधूमपानात्कासश्रुतिः कुतः।
जलपानादपि तथा क्षणेन क्षणदाक्षये ॥
अर्थ-हरदी, दारुहरदी और मनसिल इन के धूए को पीवे किंवा उषःपान करे अर्थात् प्रातःकाल उठकर जल को पीवे तो सर्व प्रकार की खांसी दूर हो॥
बिभीतकावलेह
अजस्य मूत्रस्य शतं पलानि शतं पलानांच कलिद्गुमस्य। पक्वंसमध्वाशु निहंति कासं श्वासं च तद्वत्सबलं बलासम्॥
अर्थ-बकरी का मूत्र १०० पल और बहेडे की छाल १०० पल ले दोनों को औटायके अवलेह बनावे इस अवलेह में सहत डालके पीवे तो खांसी,श्वास और कफ इन का नाश करे॥
कंटकार्यवलेह
कंटकारीं तुलानीरे द्रोणे पक्त्वा कषायकम्। पादशेषंगृहीत्वा च तस्मिन् चूर्णानि दापयेत्॥ पृथक्पलांशान्येतानि गुडूचीचव्यचित्रकम्। मुस्तकर्कटशृंगी च त्र्यूषणं धन्वयासकम्॥ भार्ङ्गी रास्ना शठी चैव शर्करापलविंशतिः। प्रत्येकं च पलान्यष्टौ प्रदद्याद्धूतलोहयोः॥ पक्त्वा लेहत्वजाते च शीते मधुपलाष्टकम्। चतुःपलं तुगाक्षीरी-पिप्पलीनां चतुःपलम्॥ क्षिप्त्वानिदध्यात्सुदृढे मृन्मये भाजने शुभे। लेहोयं हंति कासातिहिक्काश्वासानशेषतः॥
अर्थ-कटेरी ४०० तोले, जल २०४८ तोले ले सब को एकत्र कर चतुर्थांश काढा करे उस में गिलोय, चव्य, चित्रक, नागरमोथा, कांकडासिंगी, सोंठ, मिरच, पीपल, धमासा, भारंगी, रास्ना और कचूर ये प्रत्येक चार चार तोले लेवे. तथा मिश्री ८० तोले, घी ३२ तोले लेवे और लोहभस्म ३२ तोले, वंशलोचन १६ तोले और पीपल १६ तोले मिलायके यह अवलेह उत्तम मिट्टी के पात्र में भरके घर रखेइस को खाय तो यह खांसी, हिचकी, सर्व प्रकार के श्वास रोग इन को नाश करे॥
अगस्तिहरीतक्यवलेह
दशमूली स्वयंगुप्ता शंखपुष्पी शठी बला। हस्तिपिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकान्॥ भार्ङ्गी पुष्करमूलं च द्विपलांशं यवाढकम्। हरीतकीशतं चैव जले पंचाढकेपचेत्॥ यवैः स्विन्नैःकषाये च पूतं तच्चाभयाशतम्। पचेद्गुडतुलां दत्त्वा कुडवं च पृथग्घृतम्॥ तैलात्पिप्पलिचूर्णाच्च सिद्धे शीते च माक्षिकात्। लिह्याद्द्वे चाभये नित्यमतः खादेद्रसायनम्॥ बलिं च पलितं हन्याद्वर्णायुर्बलवर्द्धनम् । पंच कासान् क्षयान् श्वासान् हिक्कां च विषमज्वरान् ॥ हन्यात्तथा ग्रहण्यर्शोहृद्रोगारुचिपीनसान्। अगस्तिविहितं धन्यमिदं श्रेष्ठंरसायनम्॥
अर्थ-दशमूल, कौंछ के बीज, संखाहूली, कचूर, खिरेटी, गजपीपर, ओंगा, पीपरामूल, चित्रक की छाल, भारंगी, पुहकरमूल ये प्रत्येक आठ आठ तोले लेवे जौं१०२४ तोले, हरड ४०० तोले और जल ५१२० तोले डालके पक्वकरे जबजौंसीजके काढाहो जावेतब उतारके जल को छान ले उस में ४०० तोले बड़ी २ हरड डालके औटावेऔर गुड ४०० तोले, घी १६ तोले, तेल १६ तोले और पीपल का चूर्ण १६ तोले डालके अवलेह बनावे जब तयार हो जावेतब नीचे उतारलेशीतल होने परसहत१६ तोलेमिलावेऔर शीशे में अथवाचीनी आदि के पात्र में भरके धररखे इस में से दो हरड नित्य खाययह हरडवली, पलित और प्रकार की खांसी, क्षय,श्वास, हिचकी, विषमज्वर, संग्रहणी, बवासीर, हृदयरोग, निस इन को नष्टकरे और वर्ण, आयुष्यतथा बल को बढावे. यह अगस्त्यऋषि कीकहीेहुई है इसी से इस को अगस्त्यावलेह कहते हैं ॥
व्याघ्र्यादिघृत
व्याघ्रीस्वरसविपक्वंरास्नाकट्फलगोक्षुरव्योषैः।
सर्पिः स्वरोपघातं निहंति कासं च पंचविधम् ॥
अर्थ-कटेरी के स्वरस में रास्ना, कायफल, गोखरू, सोंठ, मिरच, पीपल और घी डालके इस घृत को सिद्ध कर लेवे इस के खाने से स्वरभंग और पांच प्रकार की खांसी इन का नाश होवे ॥
गुडूच्यादिघृत
सर्पिर्गुडूचीवृषकंटकारीक्वाथेन कल्केन च सिद्धमेतत् ।
पेयं पुराणज्वरकासशूलप्लीहाग्निमांद्यग्रहणीगदेषु ॥
अर्थ-गिलोय, अडूसा और कटेरी इन का काढा करे तथा कल्क करे इस में घीडालके सिद्ध करे तो यह जीर्णज्वर, खांसी, शूल, प्लीहा, मंदाग्नि और संग्रहणीइन को नष्ट करे॥
त्र्यूषणादिघृत
त्र्यूषणं त्रिफला द्राक्षा काश्मर्याटपरूपकम्। द्वे पाठे देवदार्व्यब्दसगुप्तं चित्रकं सठी॥ व्याघ्री तामलकी मेदा काकनासा शतावरी । त्रिकंटकं विदारी च पिष्ट्वाकर्षसमान् घृतात् ॥ प्रस्थं चतुर्गुणं क्षीरं सिद्धं कासहरं पिबेत्। ज्वरगुल्मारुचिप्लीहशिरोहृत्पार्श्वशूलनुत्॥ कामलार्शोनिलाष्ठीलाक्षतशोषक्षयापहम्। त्र्यूषणं नाम विख्यातं घृतमेतन्महोत्तमम्॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, दाख, कंभारी, अडूसा, पाढ,वल्लीपाढ, देवदारू, नागरमोथा, कौंछ के बीज, चित्रक, कचूर, कटेरी, भूय आंवलाये सब एक २ तोला ले घी ६४ तोले, दूध २५६ तोले डालके धृत सिद्ध करे तोखांसी, ज्वर, गोला, अरुचि, प्लीहा और मस्तक, हृदय, पार्श्वइन का शूल, कामला,बवासीर, वातष्ठीला, क्षतक्षय और क्षय इन का नाश करे यह त्र्यूषणनामक घृतसर्वोत्तम विख्यात है ॥
कंटकारीघृत
समूलफलपत्रायाः कंटकार्या रसाढकम्। घृतप्रस्थं बलान्योषविडंगं शठिदाडिमम्॥ सौवर्चलं यवक्षारं विश्वामलकपौष्करैः॥ वृश्चिवद्बृहतीपथ्या यवानीचित्रकादिभिः॥ मृद्वीका चव्यवर्षाभूदुरालंभाम्लवेतसैः। शृंगीतामलकीभार्ङ्गीरास्नागोक्षुरकैः
पचेत्॥ कल्कैस्तु सर्वकासेषु श्वासहिक्कासु शस्यते। कंटकारीघृतं सिद्धं पंचकासनिषूदनम्॥
अर्थ-कटेरी के पंचांग का रस १०२४ तोले, घी ६४ तोले और खिरेटी का रस, सोंठ, मिरच, पीपल, वायविडंग, कचूर, अनारदाना, संचर निमक, जवाखार, सोंठ, आमले, पुहकरमूल, सोंठ, लाल रंगकी कटेरी, हरड, अजमायन, चित्रक, दाख, चव्य, सपेद सांठ, धमासा, अमलवेत, कांकडासिंगी, भूयआंवला, भारंगी, रास्ना, गोखरू इन का काढाऔर कल्क डालके घृत सिद्ध करे यह संपूर्ण प्रकार की खांसी, श्वास और हिचकी इन पर देना चाहिये यह सिद्धकंटकारीघृत पांच प्रकार की खांसी को नष्ट करे॥
दूसरा प्रकार
कंटकार्यास्तुलां क्षुण्णां कृत्वा द्रोणेंभसः पचेत्। तेनाढकेन क्वाथस्य घृतप्रस्थं पिचून्मितैः॥ रास्नादुस्पर्शषडूग्रंथिं पिप्पलीद्वयचित्रकैः। सौवर्चलयवक्षारकृष्णामूलैश्च तज्जयेत् ॥ कासश्वासकफष्ठीवहिक्कारोचकपीनसान्॥
अर्थ-कटरी ४०० तोले को २०४८ तोले जल में औटावे जब आधा जल रहे तब इस काढेको उतारके छान लेवे फिर इस में ६४ तोले घी तथा रास्ना, धमासा, पीपल बडी, पीपल छोटी, गजपीपल, चित्रक, संचर निमक, जवाखार, पीपरामूल ये एक एक तोला डालके घृत सिद्ध करे. यह कंटकारीघृत खांसी, वास, कफ की वांति, अरुचि और पीनस इन को दूर करे ॥
भागोत्तरवटी
रसगंधकणा पथ्या कलिगुफलयासकः भाङ्गी चेति क्रमादृद्धमेतनवीरजद्रवः अष्टाविंशत्तमानेतान्कुर्यात्सोद्रेण गोलकान् । कर्पप्रमाणमेतस्य तमेकं प्रातरुत्थितः॥ अद्यान्मासत्रयं क्षुद्राक्वाथं दशकणायुतम् । पिबेत्तदनु कासाच्चश्वासाच्च परिमुच्यते॥
अर्थ-पारा, गंधक, पीपल, हरड, बहेडा, आंवलाऔर भारंगी ये क्रमवृद्धिसे लेकर इन का चूर्ण करे और नींबू के रस में खरल करे फिर सहत से तोले २ भर की गोली २८ बनावे और नित्पप्रति १ गोली सेवन को इस प्रकार तीन महीने भक्षण करे और ऊपर से दस पीपल पीसके पीवेतौखांसी और श्वास से छूट जावे॥
अगंधखर्परपर्पटी
भागौरसस्य द्वावेकौद्वावेकौ लोहभस्मनः। एतद्धृते द्रवीभूतं मृद्वग्नौ कदलीदले॥ पातयेद्गोमयगते तथैवोपरि योजयेत्। ततः पिष्ट्वा द्रवैरेभिर्मर्दयेत्सप्तधा पृथक्॥ भार्ङ्गीशुंठीमुनिवराजयानिर्गुंडिकाद्रवैः। व्योपवासककन्यार्द्रद्रवैःशुष्कैः पुटेल्लघुः॥ अगंधखर्परो नाम्ना पर्पटीति रसो भवेत्। सर्वरोगहरः स्वैः स्वैरनुपानैर्द्विमाषतः॥ तांबूलपत्रसहितः कासश्वासहरः परः। सकणः सुरसाक्वाथोनुपानं वा सगोजलम्॥
अर्थ-पारा बारह भाग और लोहभस्म बारह भाग इन की कजली को अग्नि ताय करके लेके पत्रे पर ढाल देवे. फिर उस को पीसके भारंगी, सोंठ, अगस्तिय अरनी, निर्गुंडी, सोंठ, मिरच, पीपल, अडूसा, घीगुवार और अदरख इन के काढेमें अथवा रस में घोटकर लघु पुट देवे तो यह अगंधखर्पर नामक रस बने इनको पर्पटी भी कहते हैं यह अनुपान दो रत्ती के प्रमाण देने से संपूर्ण रोगों को हरणकरे. इस को पान में रखके खाय और ऊपर से तुलसी के काढेमें पीपल का चूर्णडालके पीवेअथवा गोमूत्र पीवे तो खांसी और श्वास इन को नष्ट करे
कासश्वासविधूननरस
रसभागो भवेदेको गंधकद्वौ तथैव च । यवक्षारस्त्रिभागः स्याद्रुचकं च चतुर्गुणम् ॥ मरीचं पंचभागं स्याच्छुद्धं रसविमर्दितम् । कासं पंचविधंहन्याच्छ्वासं पंचविधं तथा ॥
अर्थ-शुद्ध पारा १ भाग, गंधक २ भाग, जवाखार ३ भाग, पागा निमक ४भाग, तथा काली मिरच ५ भाग सब शुद्ध लेवे सब को पारे के साथ खरल करे जब तयार हो जावेतब खाने को देवे तो ५ प्रकार की खासी तथा पांच प्रकार की वास इन को नाश करे॥
गुरुपंचमूलीकाढा
अतः परं कोमलवाणि कासश्वासप्रतीकारमुदीरयांमि।
निहंति कासं गुरुपंचमूलीकृतः कषायश्चपलासहायः॥
अर्थ-लोलिंबराजकवि अपनी स्त्री को संबोधन देकर कहता है कि हे कोमलवाणि ! अब इस के उपरांत मै तेरे आगे खासी और श्वास का प्रतीकार कहता हूँ. बृहत्पंचमूल के काढेमें पीपल का चूर्ण डालके पीवेतो खांसी को नष्ट करे॥
वासादिकाढा
वासाहरिद्राधनिकागुडूचीभार्ङ्गीकणापौष्कररिंगणीनाम्।
क्वाथेन मारीचरजोन्वितेन कासः क्षयं याति न कस्य पुंसः॥
अर्थ-अडूसा, हलदी, धनिया, गिलोय, भारंगी, पीपल, पुहकरमूल और कटेरी इन का काढाकाली मिरची का चूर्ण डालके पीवेतो किस पुरुष की खांसी दूर नहीं होती ?॥
सिंहीकषाय
अयि रत्नकले नीलनलिनच्छदनेक्षणे।
सिंहीकषायः सकणः फासग्रासकरः क्षणात् ॥
अर्थ-हे रत्नकले ! हे नीलनलिनच्छदनेक्षणे ! कटेरी के काढ़े में पीपल का चूर्ण डालके देवे तो खांसी को एक क्षणमात्र में ग्रास कर जावे ॥
वृषादिकाढा
पुलोमजावल्लभसूनुपत्नीतातात्मभूशेखरवाहनस्य ।
सौंदर्यदूरीकृतरामरामे कषायकः काससमरिसर्पः॥
अर्थ-हे सौंदर्यदूरीकृतरामरामे ! इन्द्राणी पति (इन्द्र) का पुत्र (अर्जुन ) की स्त्री (द्रौपदी) का पिता (द्रुपद ) का पुत्र( शिखंडी ) सो है मस्तक में जिस के ऐसे ( शिव ) का वाहन ( वृष) अर्थात् अडूसा इस का काढा खांसीरूप पवन के पीने को सर्परूप है यह श्लोक कूट है और लोलिंबराज में लिखा है ॥
आर्द्रकावलेह
आर्द्रादर्धगुडातुलादपि तथार्धाभ्रंच कुस्तुंबरीदीप्यायोजरणात्रिजातकटुकादेतत्पचेद्युक्तितः। लेहो रत्नकले तवैव कथितः प्राणप्रियाया मया कासार्शौज्वरपीनसश्वयथुरुग्गुल्मक्षयध्वंसनः॥
अर्थ अदरख २०० तोले, गुड २०० तोले, धनिया २ तोले और अजमायन, लोहभस्म, जीरा, दालचीनी, पवन, इलायची, कुटकी इन प्रत्येक का चूर्ण दो दो तोले लेवे सब को युक्तिपूर्वक पचायके अवलेह सिद्ध करे यह खांसी, बवासीर, ज्वर,पीनस, सूजन, गोला और क्षयइन का नाश करे ॥
व्याघ्रीहरीतक्यवलेह
समूलपुष्पच्छदकंटकार्यातुलाजले द्रोणपरिप्लुता च। हरीतकीनां
च शतं निदध्यादेतत्तु पक्त्वा चरणावशेषम् ॥ गुडस्य दत्त्वा शतमेतदग्नौ विपकमुत्तार्यततः सुशीते। कटुत्रिकं च त्रिपलप्रमाणं पलानि षट्पुष्परसस्य चापि ॥ क्षिपेच्चतुर्जातपलं यथाग्निप्रयुज्यमानो विधिनावलेहः । वातात्मकं पित्तकफोद्भवं च द्विदोषकासानपि सन्निपातान् ॥ क्षतोद्भवं कासक्षयं च हन्यात्सपीनसश्वासमुरःक्षतं च । यक्ष्माणमेकादशमुग्रभूयं भृगूपदिष्टंहि रसायनं स्यात् ॥
अर्थ-कटेरी का पंचांग ४०० तोले और ४०० तोले हरड ले इन को २०४८ तोले जल में डालके चतुर्थांशशेषकाढा करे फिर उस में ४०० तोले गुड डालके उत्तम अवलेह योग्य पाक करे जब सिद्ध हो जावे तब उतार लेवे और शीतल होने पर आगे लिखी हुई औषध डाले जैसे सोंठ, काली मिरच और पीपर चार २ तोले, सहत२४ तोले तथा दालचीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर ये चार तोले डाले फिर इस को बलाबलविचारके खाने को देय तो वात, पित्त, कफ, द्विदोष, सन्निपात इन से होनेवाले तथा क्षतकास, क्षयकास, पीनस, उरःक्षत, ग्यारह प्रकार के क्षय इन को नाश करे यह रसायन भृगु ने कहा है ॥
कासकंडनावलेह
अजामूत्रं शतपलं मंदाग्नौ गुडपाकवत् । पक्त्वा बिभीतकं चूर्णं पलद्वयमितं क्षिपेत् ॥ पलं पिप्पलिचूर्ण च पलमाचं मृतायसम् । कंटकारीफलरजो निःक्षिपेच्च पलद्वयम् ॥ ततो माषद्वयं खादेट्टककर्षमथापि वा । क्षौद्ररंभांबुना वापि सर्वकासात्प्रमुच्यते ॥ असाध्यभिपजा त्यक्ताश्चिरजापथ्यवर्जिताः। ये कासास्ते त्वनेनाशु प्रणश्यति न संशयः॥ कासकंडननामायं योग आत्रेयभाषितः॥
अर्थ-बकरी के मूत्र४०० तोले को मंदाग्नि पर रखके गुडपाक के समान पच्च करके उस में चहेडे का चूर्ण ८ तोले, पीपल का चूर्ण ४ तोले, लोह की भस्म ४ तोले, कटेरी के फल का चूर्ण ८ तोले इन सब को एकत्र करके सहत से अवलेहबनावे यह कासकंडनावलेह को दो मासे वा दस मासे अथवा एक तोला नित्य सेवा करे अथवा केले के जल से देवे तो बहुत दिनों से वैद्यों ने छोड़ा तथा पथ्यहीनऐसा खांसी का रोग शीघ्र नष्ट करे यह आत्रेयऋषिने कहा है ॥
हेमगर्भपोटली
शुद्धसूतं विभागं च तत्समं लोहभस्म च । भागैकं गंधकं दद्यात्तदर्धंस्वर्णमेव च ॥ कज्जलीं कारयेत्तत्तु खल्बके सप्तवासरम् । अथ निर्गुंडिकाद्रावैर्मर्द्दयेदिनसप्तकम् ॥ अथवा कनकद्रावैर्गुटिकां कारयेत्ततः। किंचिच्छलिसमायुक्तवस्त्रे गोलं निधाय च ॥ बध्नीेयात्पोटलीमेवं ततश्च त्रिपुटं पचेत् । दृढमृन्मयपात्रस्थेगंधं दत्त्वाधरोत्तरम् ॥ तन्मध्ये पोटलीं न्यस्य निर्वातभवनांतरम् । वितस्तिप्रमितां गर्त्तांतस्यां संस्थाप्य मुद्रयेत् ॥ अंगुलीमुद्रिकाभिश्च ज्वालयेदिंधनानि च ॥ यामेन सिद्धतां याति हेमगर्भाख्यपोटली ॥ अनुपानानुसारेण सर्वरोगेषु योजयेत् ॥
अर्थ- शुद्ध पारा ३ भाग, लोहभस्म ३ भाग, गंधक १ भाग और सुवर्ण की भस्म आधा भाग इन की खरल में कजली करे फिर इस को निर्गुंडी के रस से ७ दिन भावनादेवे फिर धतूरे के रस में खरल करके गोला कर लेवे फिर इस के ऊपर कपडालपेट दे और मिट्टी के बरतन में गंधक विछाय इस गोले को रखदेवे और ऊपर से फिर गंधक बिछाय दे. फिर निर्वात स्थान में एक बितस्तका गड्ढा करकेउस में इस गोले के पात्र को रखके उस पर मुद्रा दे उस के ऊपर १ अंगुल पट्टी डाल देवे और एक प्रहर लकडी की अग्नि देवे तो यह हेमगर्भपोटलीरस सिद्ध होवे इस को अनुपान के साथ सर्व रोग पर देवे तो सब को नष्ट करे ॥
हेमगर्भ
रसस्य भागाश्चत्वारस्तदर्धंकनकस्य च। तदर्धंताम्रकं चैव मौक्तिकं विद्रुमं समम् ॥तत्समानेन बलिना सर्वं खल्वेविमर्द्दयेत् । कृत्वा तु गोलकं पश्चात्पचेद्भूधरयंत्रके ॥ मृदुना वह्निना चैवस्वांगशीतं समुद्धरेत्। बलिमेव च सम्यग्वै षड्गुणं जारयेत्सुधीः॥ हेमगर्भरसो नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतः । कासश्वासेषुसर्वेषु शूलेषु च हितस्तथा ॥ तत्तद्रोगानुपानेन सर्वान् रोगाञ्जयेत्परम्॥
अर्थ-पारा ४ भाग, ताम्रभस्म १ भाग, मोती ११ भाग, मूंगा १ भाग और गंधक १ भाग इन सब को खरल में डालके कजली करे फिर इस का गोला बनाय उस को
भूधरयंत्र में रख मंदाग्निसे पचन करावे. जबस्वांगशीतल हो जावे तब निकाल गंधक के साथ खरल करके फिर पुट देवे. इस प्रकार षड्गुण गंधक जारण करे तो यह हेमगर्भरस त्रिलोकी में खासी, संपूर्ण श्वास और शूल इन का नाशक प्रसिद्ध है तथा रोगोक्त अनुपान के साथ सर्व रोगों का नाश करे ॥
दूसरा प्रकार
शुद्धसूतं पलं चैकं पादांशं शुद्धहेमकम् । शुद्धगंधस्य माषैकंप्रतिकर्षेणयोजयेत् ॥ त्रयमेकत्र कुर्वीत श्लक्ष्णचूर्णं च कारयेत् । सुदृढं बंधयेद्वस्त्रे बहिः सूतं समं बलिम् ॥ वस्त्रं गृहीत्वा गुटिका तदंतर्बंधयेत्पुनः । शरावसंपुटे न्यस्य मुखे मुद्रां च कारयेत् ॥ भूमिसंपुटगं कृत्वा भूधराख्ये पचेत्पुटे । स्वांगशीतं समुत्धृत्य त्यजेज्जीर्णं च गंधकम् ॥ पुनः संचूर्ण्य गुटिकाः सुदृढं बंधयेद्भिषक्तथाबहिर्बलिंदत्त्वा भूधराख्ये पुनः पचेत् ॥ एवं दत्त्वा मुनिपुटं रसः स्याद्धेमगर्भकः। श्वासकासेषु सर्वेषु शूलेषु विहितस्तथा ॥
अर्थ-शुद्ध पारा १ तोले, शुद्ध सुवर्ण १ तोला और शुद्ध गंधक १ मासा तीनों को एकत्र करके बारीक चूर्ण करे फिर इस को दृढ कपडे में बांधे और उसकपडे के बाहर पारे गंधक की कजली कर उस को जल में सानके लेप कर दे औरदूसरा कपडा चढाय देवे फिर गोले को सरावसंपुट में रख मुख को मुद्रा देकर बंदकर देवे. फिर इस को पृथ्वी में गड्ढा खोद भूधरयंत्र में पचन करे जब स्वांगशीतलहो जावे तब निकालके ऊपर जली हुई गंधक को दूर करे फिर चूर्ण करके दृढ गोल बनाय लेवे उसी प्रकार कपडा लपेट कजली की पंक ऊपर से लपेट देवे और भूधर यंत्र में रखके फूंक देवे इस प्रकार सात पुट देवे तो हेमगर्भपोटलीरस सिद्धहोवे. यह खांसी, श्वास, शूल इन पर परम हितकारी है तथा अनुपान के साथ सर्वरोगों का नाश करे है ॥
कासकेसरी
दरदं मरिचं मुस्तं टंकणं च विषंसमम्।
जंबीराद्भिश्च संमर्द्यकुर्यान्मुद्गनिभां वटीम् ॥
आर्द्रकस्वरसेनैव कासं श्वासं व्यपोहति ॥
अर्थ-हिंगुल, काली मिरच, नागरमोथा, सुहागा और सिंगियाविषइन सब को
भीरी के रस में खरल कर मूंग के समान गोली बनावे. इस को अदरखके रस से खानेको देवे तो खांसी और श्वास इन को दूर करे ॥
रसेंद्रवटी
कर्षंशुद्धरसेंद्रस्य गंधकस्याभ्रकस्य च । ताम्रस्य हरितालस्य लोहस्य च विषस्य च ॥ मरिचस्य च सर्वेषांश्लक्ष्णचूर्णं पृथक् पृथक् । मानोल्बौखंडकर्षंच निर्गुंडी काकमाचिका ॥ केशराजभृंगराजस्वरसेन सुभावितम् । कलायपरिमाणं तु गुटिकां कारयेद्भिषक्॥ कृत्वादौ शिवमभ्यर्च्य द्विजादीन्परितोषितान् । जीर्णान्नो भोजयेत्पश्चात्क्षीरमांसरसाशनः ॥ अपि वैद्यशतैस्त्यक्तमम्लपित्तं नियच्छति । कासं पंचविधं इंति श्वासं चैव सुदुर्जयम् ॥
अर्थ-शुद्ध पारा, गंधक, अभ्रक, ताम्र, हरिताल, लोह इन की भस्म और संगियाविषतथा काली मिरच इन का बारीक चूर्ण करके निर्गुंडी, मकोय, काला भांगरा और भांगरा इन के रस की भावना देकर मटर के बराबर गोली बनावेइस को श्रीशिव का पूजन कर तथा ब्राह्मणों को दान देकर सेवन करे और अन्न पचने परफिर भोजन करे, दूध और मांसरस भोजन करे तो सैंकडों वैद्यों से जो अच्छा न होवे ऐसा अम्लपित्त, पांच प्रकार की खांसी और दुर्जय श्वास इन को नाशकरे॥
नीलकंठरस
सूतकं गंधकं लोहं विषंचित्रकपत्रकम् । वरांगं रेणुका मुस्ता ग्रंथिकं नागकेसरम् ॥ फलत्रिकं त्रिकटुकं शुल्बंतुल्यं तथैव च । एतानि समभागानि गुडो द्विगुणमुच्यते ॥ संमर्द्यगुटिकां कृत्वा भक्षयेच्चणमात्रकम् । कासे श्वासे तथा गुल्मे प्रमेहे विषमज्वरे॥ मूत्रकृच्छ्रे मूढगर्भेवातरोगे च दारुणे । नीलकंठरसो नाम शंभुना निर्मितः स्वयम्॥
अर्थ-पारा, गंधक, लोहभस्म, सिंगियाविष, चित्रक, पत्रज, मोटी दालचीनी, पित्तपापडा, नागरमोथा, पीपरामूल, नागकेशर, हरड, बहेडा, आंवला, सोंठ, मिरच, पीपल और ताम्रभस्म ये समान भाग लेवे तथा सब औषधों से दूना गुड डाले सब
को घोटके एक जीव करे और चने के बराबरगोली बनावे यह खांसी, श्वास, गोला, प्रमेह, विषमज्वर, मूत्रकृच्छ्र, मूढगर्भ और वातरोग इन पर भक्षण करे यह नीलकंठ नामक रस श्रीशिव ने स्वयं निर्माण करा है॥
लोकनाथपोटली
कृत्वा जंभरसेन गंधरसयोस्तत्तुल्यताम्रावृतं गोलं लावणयंत्रगर्भनिहितं रुध्वा पचेत्तं शनैः । यामानष्टकपर्दजेन सकलं तुल्येन तद्भस्मना युक्तं चित्रकवारिणा लघुतरं पिष्ट्वापुटं दापयेत् ॥ संशुद्धामिति पोटलीं सहविषंमारीचचूर्णेन तां मृद्वीयादिति लोकनाथविधिना दौर्बल्यकासादिषु । शोफामानिलगुल्मशूलकसनश्वास-ग्रहण्यार्शसी प्रौढे यक्ष्मणि पांडुरोगसहिते संतापमांद्यारुचौ ॥
अर्थ-गंधक और पारा इन दोनों की कजली करके नींबू के रस में खरल करे फिर कजली के समान तामे की डिब्बिया लेवे उस में इस कजली को भरके बंद कर देवे और एक हांडी में निमक भरके बीच में उस डिब्बी को रखे ऊपर फिर निमक भर देवे और उस के मुख को बंद कर देय तथा ऊपर से उस पर कपडमिट्टी देकर सुखाय ले इस को अग्नि के संपुट में रखके आठ प्रहरपर्यंत पचावे जब स्वांगशीतल हो जावेतब निकालके उस के बीच में से उस डिब्बी सहित भस्म को निकाल पीस लेवे और उस में समान भाग कौडी की भस्म मिलावे फिर चित्रक के रस में घोटके पुट देवे उस पुट में से निकालके सिंगियाविषऔर काली मिरच का चूर्ण मिलावे और खरल में डालके बारीक पीस डाले इस लोकनाथपोटलीरस को लोकनाथरस के सदृश देवे तो दुर्बलता, कृशता, सूजन, आमवात, गोला, शूल, खांसी, श्वास, संग्रहणी, बवासीर, क्षयरोग, पांडुरोग, संताप, मंदाग्नि और अरुचि इन को नाश करे ॥
अमृतार्णवरस
पारदं गंधकं शुद्धं मृतलोहं च टंकणम् । रास्नाविडंगत्रिफलादेवदारुकटुत्रयम् ॥ अमृता पद्मकं क्षौद्रं विषंतुल्यांशचूर्णितम् । त्रिगुंजं सर्वकासार्तंसेवयेदमृतार्णवम् ॥
अर्थ-पारा, गंधक, लोहभस्म, सुहागा, रास्ना, वायविडंग, हरड, बहेडा, आंवला देवदारु, सोंठ, मिरच, पीपल, गिलोय, पद्मास, सहत और सिंगियाविषये सब समान
भाग लेवे सब का चूर्ण करके तीन रत्ती सर्वकासयुक्त रोगी को देवे. इसे अमृतार्णवरस कहते हैं ॥
अग्निरस
रसगंधकपिप्पल्यो हरीतस्याक्षवासकः । यष्ट्यांतरगुडं चूर्णं बबूलक्वाथभावितम् ॥ एकविंशतिवारेण शोषयित्वा विचूर्णयेत् । भक्षयेन्मधुना हंति कासमग्निरसो ह्ययम् ॥
अर्थ-पारा, गंधक, पीपल, हरड, बहेडा, अडूसा और मुलहटी इन को समान भाग ले चूर्ण करे फिर इस को बबूर के काढेकी २१ भावना देवे तथा सुखायके चूर्ण लेवे इस को सहत के साथ देवे तो खांसी को दूर करे. इस को अग्निरस कहते है ॥
कासकर्त्तरी
वंग कृष्णाभयाक्षाटरूपभार्ङ्ग्यःक्रमोत्तराः । तत्समं खादिरं क्षारं बब्बूलक्वाथभावितम् ॥ एकविंशतिवारं च मधुना कासकर्तरी । कासं श्वासं क्षयं हिक्कां हंत्येतन्नात्र संशयः ॥
अर्थ-वंग [ लौंग ] , पीपल, हरड, बहेडा, अडूसा और भारंगी ये क्रम से अधिक२ भाग लेवे इन सब के बराबर खैर का क्षारलेवेअथवा क्षार लेवे इन सबको कत्र करके बबूलके काढे की २१ भावना देवे तो यह कासकर्त्तरीरस बने इस रस को सहत में मिलायके देवे तो खांसी, श्वास, क्षय और हिचकी इन का नाशकरे इस में संदेह नहीं ॥
कफाग्निवटी
कर्पूरमर्धकर्षंमृगमदमपि देवकुसुमयुगम् । मरिचं कणाक्षकुलिंजनमेकैकं शुक्तिपरिमाणम् ॥ दाडिमफल-वल्कलपलमखिलसमं सदिरसारमवचूर्ण्य । वटिका मुद्गसमाना कृता धृतास्ये कफघ्नी स्यात् ॥
अर्थ-कपूर और कस्तूरी एक २ सोला, लौंग २ तोले और काली मिरच, पीपल, बहेडा, कुलिंजन ये प्रत्येक आधा २ तोला लेय तथा अनार की छाल ४ तोले इन सब को खैरसार के काढे से खरल करके मूंग के समान गोली बांधेइसको मुख में रखे तो कफ का नाश करे॥
कासपथ्य
शालिषष्टिकगोधूममाषमुद्गकुलित्थकाः । छाग्याः पयो घृतं बिंबीवार्ताकं वालमूलकम् ॥ कासमर्दकजीवंती वास्तुकं बीजपूरकम् । गोस्तनी लशुनं लाजा व्योषमुष्णोदकं मधु ॥ पथ्यमेतद्यथादोषमुक्तं कासगदातुरे ॥
अर्थ-शालीचांवल, गेहूं, उडद, मूग, कुलित्थ, बकरी का दूध व घी, कंदूरी, बैंगन, छोटी मूली, कासमर्द, जीवंती, वास्तुक, विजोरा, मुनक्का, लहसन, खील, सोंठ, मिरच, पीपल, गरम पानी और सहत ये पदार्थ कासरोग में पथ्य हैं ॥
अपथ्य
मैथुनं स्निग्धमधुरं दिवास्वापं पयो दधि ।
भिष्टान्नं पायसादीनि कासी धूमं च वर्जयेत् ॥
अर्थ-मैथुन, स्निग्ध ( चिकना ) और मीठे पदार्थ, दिन में सोना, दूध, दही, पिष्टान्न, पायस और धुआ यह कासरोग में अपथ्य है ॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे कासरोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता.
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हिक्काकर्मविपाकः।
योकृत्वा ब्राह्मणो भुंक्ते स्नानहोमजपादिकम् ।
स हिक्कारोगसंयुक्तस्तत्पापस्यापनुत्तये ॥
चांद्रायणत्रयं कुर्यात् त्रीन् कृच्छ्रांश्च समाचरेत् ॥
अर्थ-जो ब्राह्मण पूर्व जन्म में स्नान, होम, जपादिक नहीं करे और भोजन कर लेय वह हिक्का ( हिचकी ) रोगी होता है इस पाप के दूर करने को तीन चांद्रायण व्रत और तीन कृच्छ्रव्रतये प्रायश्चित्त करे तो हिचकी का रोग दूर होवे ॥
हिक्कानिदान
विदाहिगुरुविष्टंभिरूक्षाभिष्यंदिभोजनैः। शीतपानाशनस्नानरजोधूमातपानिलैः॥ व्यायामकर्मभाराध्यवेगघाता-पतर्पणैःहिक्का श्वासश्च कासश्च नृणां समुपजायते ॥
अर्थ-दाहकारक, भारी, अफराकारक, रूखी, अभिष्यंदी ऐसे भोजन करने से, शीतल जल पीने से, शीतल अन्न खाने से, शीतलजल करके स्नान करने से, रज और धूंआमुख नाक में जाने से, गरमी हवा में डोलने से, दंड कसरत के करने से, भार के उठाने से, बहुत मार्ग के चलने से, मलादिक वेग के रोकने से और उपवास के करने से मनुष्य के हिक्का ( हिचकी ), श्वास (दमा) और कास ( खांसी ) ये रोग उत्पन्न होते है ॥
संप्राप्ति
मुहुर्मुहुर्वायुरुदेति सस्वनोयकृत्प्लिहांत्राणि मुखादि वा क्षिपन्।
सघोषवानाशु हिनस्ति यस्मात्ततस्तु हिक्केत्यभिधीयते बुधैः॥
अर्थ-उदानवायु प्राणवायु के साथ मिलकर जब निकले तब मनुष्य हिगूहिगूऐसा शब्दकरे और कलेजा प्लीह इन को मुखपर्यंत खींच लावे ( इस स्थान में मुखशब्द करके प्राण, जल, अन्न इन के बहनेवाले मार्ग जानने ) औरमुख में आकर बडा शब्द निकले उस को वैद्यवर हिक्का ( हिचकी ) रोग कहते है यह शीघ्र प्राणों का हर्त्ताहोय है ॥
हिक्का के भेद
अन्नजां यमलां क्षुद्रां गंभीरां महतीं तथा।
वायुः कफेनानुगतः पंच हिक्काः करोति च ॥
अर्थ-वात कफ से मिलकर १ अन्नजा, २ यमला, ३ क्षुद्रा, १ गंभीरा और ५ महती ऐसे पांच प्रकार की हिचकी रोग को प्रगट करे ॥
पूर्वरूप
कंठो रसो गुरुत्वं च वदनस्य कषायता ।
हिक्कानां पूर्वरूपाणि कुक्षेराटोप एव च ॥
अर्थ-कंठ और हृदय भारी रहे और वादीसे मुख कसेला रहे, कूखमें अफरा रहे यह हिचकी का पूर्वरूप जानना ॥
सामान्यचिकित्सा
यत्किंचित्कफवातघ्नमुष्णं वातानुलोमनम् ।
भेषजंपानमन्नं वा हिक्काश्वासेषु तद्धितम् ॥
अर्थ-जो कुछ कफवातनाशक, गरम, वादी को अनुलोमन कर्त्ताऐसे औषध, पान और अन्न ये हिचकी तथा श्वास इस विषय में हितकारक है ॥
Pege no. ८५०and ८५१ are missing from this Book.
मधुना कटुकाचूर्णं लीढं हिक्कानिवारणम् ॥
अर्थ-कुटकी के चूर्ण को सहत में मिलायके चाटे तो हिचकी का आना बंद होय ॥
यमलाहिक्कानिदान
चिरेण यमलैर्वेगैर्या हिक्का संप्रवर्तते ।
कंपयंती शिरोग्रीवं यमलां तां विनिर्दिशेत्॥
अर्थ-ठहर ठहरके दो दो हिचकी चलें शिरकंधा को कंपावे उस को यमला हिचकी जाननी ॥
दशमूला यवागू
दशमूली सठी रास्ना पिप्पली विश्वपौष्करैः। शृंगी तामलकी भार्ङ्गी गुडूचीनागरादिभिः ॥ यवागूं मधुना सिद्धां कषायं वा पिबेन्नरः । कासहृद्ग्रहपार्श्वार्तिहिक्काश्वासप्रशांतये ॥
अर्थ-दशमूल, कचूरा, रास्ना, पीपर, सोंठ, पुहकरमूल, काकडासिंगी, भूयआंवला, भारंगी, गिलोय, नागरमोथा इन से सिद्ध करी हुई यवागू को सहत के साथ पीवे अथवा इन का काढापीवेतो खांसी, हृदयरोग, पसली की वादी, श्वास, हिंचकीइन को शांत करे ॥
हिंग्वादियवागू
हिंगुसौवर्चलाजाजीविडपुष्पकचित्रकैः ।
सिद्धा कर्कटशृंग्या च यवागूः श्वासहिक्किनाम् ॥
अर्थ-हींग, संचरनोन, जीरा, विडनिमक, पुहकरमूल, चित्रक और काकडासिंगी इन सब से सिद्ध करी हुई कांजी श्वास वा हिचकी इन को दूर करे ॥
क्षुद्रहिक्कानिदान
विकृष्टकालैर्यावेगैर्मंदैःसमभिवर्तते ।
क्षुद्रिका नाम सा हिक्का जमूलात्प्रधावति ॥
अर्थ-जो हिचकी बहुत देर में कंठहृदय की संधि से मंद मंद चले उस को क्षुद्रानाम हिचकी कहते हैं ॥
दशमूलीकाढा
दशमूलीजलयुतं हितं हिक्कासु योजयेत् ।
श्वासकासहरः सर्वो विधिरत्रापि युज्यते ॥
Pege no. ८५४and ८५५ are missing from this Book.
अर्थ-दशमूल के काढे के साथ हिचकी रोग पर जो हित पदार्थ होवे वह देवे तथा संपूर्ण श्वास और खांसी इन के नाशक जो औषधी हैं वह हिचकी रोग पर देवे ॥
कुलित्थादिकाढा
कुलित्थयवकोलांबुदशमूलबलाजलम् ।
पानार्थंकल्पयेत्कासहिकाश्वासप्रशांतये ॥
अर्थ-कुलथी, जौं, बेर, दशमूल और खिरेटी इन का काढा खांसी, हिचकी तथा श्वास इन की शांति होने के वास्ते पीवे॥
धान्यादिकाढा
धात्री च मागधी शुंठी क्वाथश्चैषां सितायुतः ।
हिनस्ति हृदयोद्भूतां हिक्कां प्राणापनोदिनीम् ॥
अर्थ-आंवले, पीपल और सोंठ इन के काढेमें मिश्री मिलायके पीवे तो प्राणों के नाश करनेवाली घोर हिचकी का नाश होय ॥
गंभीराहिक्कानिदान
नाभिप्रवृत्ता या हिक्का घोरा गंभीरनादिनी । शुष्कास्यकंटजिह्वा स्याच्छ्वासकासरुजाकरी ॥ अनेकोपद्रववती गंभीरा नाम सा स्मृता ॥
अर्थ-जो हिचकी नाभि के पास से उठ घोर गंभीर शब्दकरे और जिस में ज्वरादि अनेक उपद्रव हों उस को गंभीरा हिचकी कहते हैं॥
पाटल्यादियोग
पाटल्याः फलतोयेन क्षौद्रेण च समन्वितम् ।
हेमभस्म निहंत्येव हिक्काःपंचातिदुस्तराः॥
अर्थ-पाढर के फलों का रस और सहत इन के साथ सुवर्ण की भस्म सेवन करे तो अतिकठोर पांच प्रकार की हिचकियों का नाश करे ॥
दशमूलीकाढा
दशमूलीकषायेण मधुना च समन्वितम् ।
कांतायोभस्म हिक्कानां पंचानां पंचतां नयेत् ॥
अर्थ-दशमूल का काढा और सहत इस में कांतलोह का भस्म लेने से पांच प्रकार की हिचकियों का नाश होता है ॥
अर्थ-पीपल, आंवला, दाख, बेर की गुठली, सहत, मिश्री, वायविडंग और पुहकरमूल इन के चूर्ण में लोह की भस्म मिलायके सेवन करे तो तीन दिन में छर्दि ( वमन ), हिक्का ( हिचकी ) और तृषा(प्यास ) इन को नाश करे ॥
शंखचूलरस
रसाभ्रहेमभस्मानि वैक्रांतं सर्वतुल्यकम् । सर्वैः पंचगुणं शंखचूर्णं शुष्कं विमर्द्दयेत् ॥ लेहयेन्मधुना माषचतुष्कं सानुपानकम् । हिक्कां पंचविधां हंति मुमूर्षोरपि तत्क्षणात् ॥
अर्थ-पारा, अभ्रक, सुवर्ण इन तीनों की भस्म समान भाग और इन तीनों की बराबरवैक्रांतभस्म लेवे और चारों से पंचगुनी शंख की भस्म लेवे इस प्रकार सब को एकत्र कर पीस डाले फिर इस में से चार मासे भस्म सहत के साथ अनुपान के साथ खाय तो यदि मरणोन्मुख रोगी होय तोभी उस के पांच प्रकार की हिचकियों को तत्क्षण नाश करे ॥
मेघडंबररस
तंदुलीयद्रवैःपिष्टं सूततुल्यं च गंधकम् । वज्रमूषागतं चैव भूधरे भस्मतां व्रजेत् ॥ दशमूलकषायेण भावयेत्प्रहर-द्वयम् । गुंजाद्वयं हरत्येषहिक्काश्वासं ज्वरं किल ॥ अनुपानेन दातव्यो रसोयं मेघडंबरः॥
अर्थ-चौलाई के रस में पारेगंधक बराबरलेकर खरल करे फिर वज्रमूषा में भरके भूधरयंत्र में पचावे तो भस्म होय. फिर दशमूल के काढ़े में इस भस्म को दो प्रहर खरल करे फिर इस में से दो रत्ती खाने को देवे तो यह मेघडंबररस हिचकी, श्वास और ज्वर इन को नाश करे ।
महाहिक्कानिदान
मर्माण्युत्पीडयंतीव सततं या प्रवर्तते ।
महाहिक्केति सा ज्ञेया सर्वगात्रप्रकंपिनी॥
अर्थ-जो हिचकी मर्मस्थान में पीडा करती हुई और सर्व गात्र को कंपायतीहुई सर्वकाल प्रवृत्त होय उस को महाहिक्का कहते हैं ॥
कटुत्रिकलेह
कटुत्रिकयवासकट्फलककारवीपोष्करैः। सशृंगिभिरतिदृतं
मधुयुतोवलेहो जयेत् ॥ सहिध्मकसनः कफश्वसनमंभसा सिंधुजं प्रदत्तमपि नावनं झटिति सर्व हिक्काहरम् ॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, धमासा, कायफल, अजमायन, पुहकरमूल और काकडासिंगी इन का सहत डालके अवलेह बनावे इस के सेवन करने से हिचकी, खांसी, कफ और श्वास इन को नाश करे अथवा सैंधा निमक और जल इन की नस्य देवे तो ये संपूर्ण हिचकियों का नाश करे ॥
असाध्यहिक्कानिदानलक्षण
आयम्यते हिक्कतो यस्य देहो दृष्टिश्चोर्ध्वंताम्यते यस्य नित्यम् । क्षीणोऽन्नद्विट्क्षौति यश्चातिमात्रं तौ द्वौ चांत्यौ वर्जयेद्धिक्कमानौ ॥ अतिसंचितदोषस्य भक्तच्छेदकृशस्य च । व्याधिभिः क्षीणदेहस्य वृद्धस्यातिव्यवायिनः ॥ आयासाद्या समुत्पन्ना हिक्का हंत्याशु जीवितम् । यमिका च प्रलापार्त मोहतृष्णासमन्विता॥
अर्थ-जिस का हिचकी से देह, तन जावे ऊंची दृष्टि हो जावे और मोह होय क्षीण पड जाय भोजन से अरुचि होय और छीक बहुत आवे ये दोनों हिचकीवाला रोगी अर्थात् जिस को गम्भीरा और महती हिचकी होय सो वैद्य को त्याज्य है जिस के अत्यन्त दोषों का संचय हो गया हो और जिस का अन्नछूट गया हो जो कृश हो गया हो जिस के अनेक व्याधि से देह क्षीण हो गया होय और जो वृद्ध है अति मैथुन करनेवाला हो ऐसे पुरुषकेये दोनों हिचकी उत्पन्न होय तौतत्क्षण उस रोगीके प्राण नाश करे बकवाद करे पीडा होय मोह, प्यास इन लक्षण से युक्त जो यमिका नाम की हिचकी सो तत्काल प्राणहर्त्रीजाननी ॥
असाध्यलक्षण
अक्षीणश्चाप्यदीनश्च स्थिरधात्विंद्रियश्च यः ।
तस्य साधयितुं शक्या यमिका हंत्यतोऽन्यथा ॥
अर्थ-बलवान्, प्रसन्न मन, जिस की धातु और इन्द्रिय स्थिर होय ऐसे पुरुषकी यमिकाहिचकी साध्य है और इस से विपरीत ( अर्थात् क्षीण, दीन इत्यादि ) पुरुषको तत्काल ही नाश करे अन्नजा, क्षुद्रा यह दोनों साध्य ही दो वार आने से यमिका कहाती है चरकोक्त यमला इस जगह नहीं ग्रहण करनी चाहिये ॥
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अर्थ-शिलाजीत और मूली अथवा कस्तूरी और बबूर किंवा कूठ और राल अथवा दर्भ ( डाभ) को घृत योग करके उस को चिलम में रखके धूमपान करे तो यह हिचकी को नाश करे ॥
श्वासावरोध
श्वासावरोधतो हिक्का शमयत्यतिवेगतः।
चूलकैर्वा जलं पीतं धृत्वा श्वासनिवर्तते ॥
अर्थ-श्वास के रोकने से अथवा एक चुल्लूजल पीके तत्क्षण श्वास को रोक लेवेतो बहुत जल्दी हिचकी के रोग का नाश होवे ॥
माषादिधूम
धूमो माषनिशारजोयुतशणत्वक्संभवो हंत्यलम् ।
श्वासोर्ध्वानिलकासहृद्गलरुजोहिध्माःसमस्ता अपि ॥
अर्थ-उडद और हलदी इन के चूर्ण को और सन इन को मिलायके हुक्के में रखके पीवे तो श्वास, ऊर्ध्ववात, खांसी, गले का रोग और सर्व प्रकार की हिचकियों को नाश करे ॥
हिंग्वादिधूम
निर्धूमांगारसंक्षिप्तहिंगुमाषरजोद्भवम् ।
हिक्का पंचापि हंत्याशु धूमः पीतो न संशयः ॥
अर्थ-निर्धूम अंगारों पर हींग और उडद का चूर्ण डालके उस के धुए को पीवे तो पांच प्रकार की हिचकियों का नाश करे ॥
हिक्कारोग में पथ्य
स्वेदनं वमनं नस्यं धूमपानं विरेचनम् । निद्रा स्निग्धानि चान्नानि मृदूनि लवणानि च ॥ जीर्णा कुलित्था गोधूमाः शालयः षष्टिका यवाः । एणतित्तिरलावाद्या जांगला मृगपक्षिणः ॥ उष्णोदकं मातुलुंगं माक्षिकं सुरभीजलम् । पक्वंकपित्थं लशुनं पटोलंबालमूलकम् ॥ पौष्करं कृष्णतुलसी मदिरा नलदंबु च अन्नपानानि सर्वाणि वातश्लेष्महराणि च ॥ शीतांबुसेक सहसा त्रासो विस्मापनं भयम् । क्रोधो हर्षःप्रियोद्वेगः प्राणा-
यामनिषेवणम्॥ दुग्धसिक्तमृदाघ्राणं कूर्चधारा जलार्पणम्। नाभ्यर्धपीडनं दाहो दीपदग्धहरिद्रया॥ पादयोर्द्व्यंगुलान्नभेरूर्ध्वंचेष्टातिहिक्किनाम्॥
अर्थ-स्वेदन, वमन, नास, धूमपान, विरेचन, निद्रा, चिकने और नरम अन्न,निमक, पुराने कुलथी, गेहूं, सांठी चावल, जौं, एण ( काला हिरन ), तीतर, लवा आदि का मांस, जंगली जीव, मृग और पक्षियों का मांस, गरम जल, विजोरा, नींबू, सहत, गोमूत्र, पके हुए कैथ, लहसन, परवल, नरम २ छोटी मूली, पोहकरमूल, काली तुलसी, मदिरा, खस का सुगंधित जल तथा वात और कफनाशक सर्व प्रकार के अन्नपान, शीतल जल का छिडकाव करना, एकसाथ त्रास देना, विस्मापन ( भुलाई में डाल देना), भय दिखाना, क्रोधकरना, हर्ष, प्रियऔर उद्वेग करनेवाले पदार्थ, प्राणायाम ( श्वास का रोकना ), अग्निसे गरमागरम मिट्टी पर जल छिडक के सूंघना, कूर्च ( कुशा की सी गड्डी ) से अथवा धारा से जल का गेरना, नाभी के ऊपर दाबना तथा जली हुई हलदी से नाभि के ऊपर दाग देना अथवा पैरों से ऊपर दो अंगुल पर दाग देना, अथवा नाभि से दो अंगुल उपर दाग देना ये प्रकार हिचकी रोगवाले को हितकारी हैं ॥
हिक्कारोग में अपथ्य
वातमूत्रोद्गारकासशकद्वेगविधारणम्। रजोनिलातपायासान्विरुद्धान्यशनानि च॥ विष्टंभीनि विदाहीनि रूक्षाणि कफदानि च। निष्पावमाषपिण्याकवारिजानूपमामिषम् ॥ अविदुग्धंदंतकाष्ठं बस्तिमत्स्यांश्च सर्षपान्। आम्लं तुंबीफलं कंद तैलभृष्टमुपोदिकाम् ॥ गुरु शीतं चान्नपानं हिक्कारोगी विवर्जयेत् ॥
अर्थ-अधोवायु, मूत्र, डकार, खांसी और मल इन की बाधा को रोकना, धूल, वसन, धूप, परिश्रम ( शीत)विरुद्धभोजन, चौरा, उडद, (विष्ट पदार्थ), पिण्याक ( खल), जल के जीव और जल किनारे रहनेवाले जीवों का मांस, भेड का दूध, दांतन करना, बस्तिकर्म, मछली, सरसों, खटाई, तूंबीका फल, कंद के साग, तैल में छुका पोई का साग, भारी और शीतल ऐसे अन्नऔर पान इन सब को हिचकीरोगवाला त्याग देवे ॥
इति श्रीआयुर्वेदोद्धारेबृहन्निघंटुरत्नाकरेहिक्कारोगस्य निदानचिकित्सासमाप्ता।
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श्वासकर्मविपाकः।
कृतघ्नो जायते मर्त्यः कफवान्श्वाकासवान्। उष्णज्वरो च नित्यं हि पित्तरोगसमन्वितः॥ चांद्रायणत्रयं कुर्यात्पंचाशद्विप्रभोजनम्। विष्णोर्नामजपं कुर्यात्तथा चैव द्विजोत्तमान्॥ पूजयेद्भोजयेद्दद्यात्तन्मना नान्यमानसः॥
अर्थ-जो प्राणी कृतघ्नी ( किसी के करे हुए उपकार को न माने ) वह कफ, श्वास, खांसी, उष्ण ज्वर और पित्तरोग इन से पीडित होता है. इस पाप के दूर करने को तीन चांद्रायण प्रायश्चित्त करके ५० ब्राह्मणों को जिमावे तथा विष्णुसहस्रनाम का पाठ करे और ब्राह्मणों का पूजन करके उन को भोजन करावे तथा दान देवे ॥
दूसरा प्रकार
कुरुक्षेत्रादिदेशेषु कालेषु ग्रहणादिषु। महादानानि गृह्णीयान्निषिद्धान्यथ वा स्वयम् ॥ अपात्रभूतो दातृभ्यो निषिद्धेभ्यश्च मानवः। स पामाश्वासकासश्च कुक्षिस्थकृमिभिस्तथा ॥ कंडूत्या चैव पीड्येत तद्रोगस्य प्रशांतये। महिषीं यमदैवत्यां दद्याद्वित्तानुसारतः॥ काम्यं यद्दीयते दानं तत्समग्रंसुखावहम् । असमग्रंतु दोषाय भवत्तीह परत्र च॥ जपेन्नारायणस्याथ नाम्नां चैव सहस्रकम्। हिरण्यं रक्तवासांसि पंचाशद्विप्रभोजनम्॥ सहस्रक-लशस्त्रानं प्रकुर्याद्रोगशांतये ॥
अर्थ-जो प्राणि कुरुक्षेत्रादि पुण्यदेशों में, ग्रहणादि पुण्य काल में, निषिद्ध मनुष्यसे ( जिस का दान लेना वर्जित है) दान लेवे अथवा जो दान लेने योग्य नहीं है उस को लेवे तो वह खुजली, श्वास, खांसी, कुक्षिरोग, कृमि और कंडू इन में पीडित होता है. उस के दूर करने को यमदेवता जिस का ऐसा भैंस का दान यथाशक्तिकरे. जो काम्य कर्म करे वह संपूर्ण होने से सुख होता है और आधा, रहने से वही कर्म दुखदाई होता है तथा इस लोक और परलोक में पातक लेकरउस को विष्णुसहस्रनाम का जप करना अथवा सुवर्ण, रक्त वस्त्र दान करे और ५ ब्राह्मणों को भोजन करावे. किंवा सहस्र कलशाभिषेक करे तो रोग दूर होय॥
तीसरा प्रकार
पिशुनो नरकस्यांते जायते श्वासकासवान्।
घृतं तेन प्रदातव्यं सहस्रपलसंख्यया ॥
अर्थ-पिशुन (चुगलखोर ) मनुष्य प्रथम नरकों को भोगे पश्चात् नरक भोगने के श्वास और खांसीवाला होवे. उस के दूर करने को इस प्राणी को १००० पल अर्थात् चार सौ तोले घी का दान करे ॥
श्वासनिदान
महोर्ध्वच्छिन्नतमकक्षुद्रभेदैस्तु पंचधा ।
भिद्यते स महाव्याधिः श्वास एको विशेषतः॥
अर्थ-हिक्काश्वास का एक हेतु होने से हिक्काके अनन्तर श्वासरोग को कहते हैं. महाश्वास, ऊर्ध्वश्वास, छिन्नश्वास, तमकश्वास और क्षुद्रश्वास इन भेदों से एक श्वासरोग पांच प्रकार का है ॥
प्राग्रूप
प्राग्रूपं तस्य हृत्पीडा शूलमाध्मानमेव च।
आनाहो वक्त्रवैरस्यं शंखनिस्तोद एव च॥
अर्थ-हृदय दूखे, शूल होय, अफरा होय, पेट तनासा होय, कनपटी दूखे, मुख में रस का स्वाद आवे नहीं यह श्वासरोग का पूर्वरूप है ॥
संप्राप्ति
यदा स्रोतांसि संरुध्य मारुतः कफपूर्वकः ।
विष्वग्व्रजति संरुद्धस्तदा श्वासं करोति सः॥
अर्थ-सर्व देह में विचरनेवाला पवनजब कफ से मिलकर प्राण, अन्न, उदक वहनेवाली सबनसों केमार्ग को रोक देवेतबपवन फिरने से रुककरश्वासरोग को प्रकट करे॥
सामान्यचिकित्सा
यत्किंचित्कफवातघ्नमुष्णंवातानुलोमनम् । भेषजंपानमन्नंवा हिक्काश्वासेषुतद्धितम् ॥ हिक्काश्वासातुरे पूर्वं तैलाक्तेस्वेद इष्यते। ऊर्ध्वाधःशोधनं वह्नेर्दुर्बलेशमनं मतम् ॥
अर्थ-जो कुछ कफ वादी के नाशक, गरम, वादी को अनुलोमन करनेवाले
औषध, पान और अन्न है वह सब हिचकी और श्वास रोग पर देवे अथवा हिचकी और श्वास ये रोग जिस के है उस के प्रथम देह में तेल की मालिस करके पसीने निकाले और वमन तथा अग्निदीपनकर्त्रीक्रिया करें ॥
दूसरा प्रकार
स्नेहबस्तिमृते केचिदूर्ध्वंचाधश्च शोधनम् । मृदुप्राणवतां श्रेष्ठंश्वासिनामादिशंति हि ॥ सर्वेषु श्वासरोगेषु वातश्लेष्मनिबर्हणम् । विदधीत विधिं विद्वानादौ स्वेदं मृदुं तथा॥
अर्थ-स्नेहन और बस्तिकर्म इन के विना ऊर्ध्वाध अर्थात् ऊपर नीचे शोधन करना अल्पप्राणवाले ( निर्बलों ) को उत्तम है. संपूर्ण श्वासरोगों में वात और कफ के नाशक यत्नकरने चाहिये तथा प्रथम विद्वान् वैद्य को उचित है कि मृदु स्वेदन कर्म करे॥
महाश्वासलक्षण
उद्धूयमानवातो यः शब्दवद्दुःखितो नरः । उच्चैःश्वसिति संरुद्धो मत्तर्षभइवानिशम् ॥ प्रनष्टज्ञानविज्ञानस्तथा विभ्रांतलोचनः। निवृत्ताक्ष्याननो बद्धमूत्रवर्चाविशीर्णवाक् ॥ दीर्घंप्रश्वसितं चास्य दूराद्विज्ञायते भृशम् । महाश्वासोपसृष्टस्तु क्षिप्रमेव विपद्यते ॥
अर्थ-जिस का वायु ऊपर को जायके प्राप्त हो ऐसा मनुष्य दुःखित होकर मुख से शब्दयुक्त श्वास को निकाले, ऊंचे स्वर से अथवा जैसे मतवाला बैल शब्द करे रस प्रकार रात्रिदिन श्वास से पीडित होय उस का ज्ञान विज्ञान जाते रहे, नेत्र चंचल होय और जिस का श्वास लेने में नेत्र और मुखफट जाय, मल मूत्र बन्दहो जाय, बोला जाय नहीं अथवा बोले तो मन्द बोले, मन खिन्न होय और जिस का श्वास दूर से सुनाई देय यह महाश्वास जिस पुरुषको होय वह तत्काल मरण को प्राप्त होय॥
शृंग्यादि चूर्ण
शृंगी कटुत्रिकफलवयकंटकारी भार्ङ्गी च पुष्करजटालवणानि पच । चूर्णं पिबेदशिशिरेण जलेन हिकावासोलवातकसनारुचिषुप्रशस्तम्॥
अर्थ-कांकडासिंगी, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, कटेरी, भारंगी, पुहकरमूल, जटामांसी, सैंधानिमक, संचरनिमक, विडनिमक, कचियानिमक और सामुद्रनिमक इन का चूर्ण करके गरम जल से पाये तो हिचकी, श्वास, ऊर्ध्ववात, खांसी और अरुचि इन को नाश करे ॥
शुंठ्यादि चूर्ण
शुंठीकणामरिचनागदलं त्वगेलाचूर्णं कृतं क्रमविवर्धितमूर्ध्वमंत्यात्। खादेदिदं समसितं गुदजाग्निमांद्यकासा-रुचिश्वसनकंठहृदामयेषु ॥
अर्थ-सोंठ, पीपल, काली मिरच ४, पान ३, तज २, इलायची १ क्रम से लेवे सब का चूर्ण करके बराबर की मिश्री मिलाये इस के भक्षण करने से बवासीर, मंदाग्नि, खांसी, अरुचि, श्वास, कंठरोग और हृदयरोग ये दूर हो ॥
मर्कटीचूर्ण
मर्कटीनां तु बीजानां चूर्णं माक्षिकसर्पिषा।
प्रलिह्यात्प्रातरुत्थाय श्वासार्तःस्वास्थ्यमाप्नुयात्॥
अर्थ-कौंच के बीजों के चूर्ण को सहतऔर घी में मिलायके प्रातःकाल सेवन करे तो श्वास से पीडित प्राणी सुखी होय ॥
शठ्यादि चूर्ण
शठी भार्ङ्गीवचा व्योषपथ्यारुचककट्फलम् ।
तेजोह्वापौष्करं शृंगी सक्षौद्रं श्वासकासहृत् ॥
अर्थ-कचूर, भारंगी, वर, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड छोटी, संचर निमक, कायफल, तेजपल, पुहकरमूल और कांकडासिंगी इन के चूर्ण के सहत में मिलायके चाटेतो पचास खांसी का नाश होय॥
गुडादि लेह
गुडोषणानिशा रास्ना द्राक्षा मागधिकाः समाः।
तैलेन चूर्णिता लीढास्तीव्रश्वासनुदः स्मृताः॥
अर्थ-गुड, काली मिरच, हलदी, रास्ना, मुनक्का दाखऔर पीपल इन सबको समान भाग लेकर चूर्ण करे इस को तेल में मिलायके सेवन करे तो तीव्रश्वास का नाश करे॥
भार्ङ्ग्यादि चूर्ण
भार्ङीनागरयोश्चूर्णं लीढमार्द्रकवारिणा।
श्वासं निहंति दुर्धर्षंपंचानन इव द्विषम् ॥
अर्थ-भारंगी और सोंठ इन दोनों के चूर्ण को अदरख के रस से सेवन करे तो घोर दुर्धर भी श्वासरोग का नाश करे. जैसे सिंह हाथी को नष्ट करता है ॥
ऊर्ध्वश्वासनिदान
ऊर्ध्वंश्वसिति योत्यर्थं नच प्रत्याहरत्यधः । श्लोष्मावृतमुखश्रोताः क्रुद्धगंधवहार्दितः॥ ऊर्ध्वदृष्टिविपश्यंश्च विभ्रांताक्ष इतस्ततः। प्रमुह्यन्वेदनार्तश्च शुष्कास्योरतिपीडितः॥
अर्थ-बहुत देर पर्यंत ऊंचा श्वास लेय नीचे आवे नहीं, कफ से मुख भर जाय तथा और सब नाडी के मार्ग कफ से बन्द हो जांय, कुपित वायु से पीडित होय, ऊपर को नेत्र कर चंचल दृष्टि से चारों ओर देखे, मूर्छा से और पीडा से अत्यंत पीडित होय, मुख सूखे तथा बेहोश होय यह ऊर्ध्वश्वास के लक्षण हैं ॥
श्वास नीचे नआनेका कारण
ऊर्ध्वःश्वासे प्रकुपिते ह्यधःश्वासोनिरुध्यते ।
मुह्यतस्ताम्यतश्चोर्ध्वंश्वासस्तस्यैव हंत्यसून् ॥
अर्थ-ऊपर का श्वास कुपित होने से नीचे का श्वास बन्द होय अर्थात् हृदय में रुक जाय अथवा श्वास कहिये वायु सो खाली नीचे नहीं उतरे तब मनुष्य को मोह होय, ग्लानि होय ऐसे पुरुषके ऊर्ध्वश्वास प्राण का हरण करे ॥
दुल्हरीचूर्ण
दुल्हरी सैधवं मांसी लवणं च सुवर्चलम्। त्रिकटुब्रह्मदंडी च त्रिफलैरण्डमूलिका॥ पीतमुष्णांभसा कासमूर्ध्वश्वासं निवारयेत्। बिडादिलवणं सर्वं मासं श्लक्ष्णं विचूर्णितम् ॥
अर्थ-दुल्हरी, सैंधानिमक, जटामांसी, निमक, संचरनिमक, सोंठ, मिरच, पीपल,ब्रह्मदंडी, हरड, बहेडा, आंवला और अंड की जड इन के चूर्ण को गरम जल केसाथपीवेतो ऊर्ध्वश्वास को दूर करे अथवा बिडादि संपूर्ण लवणोंको एक महिने पर्यंत बारीक पीसके गरम जल के साथ सेवन करे तो उक्त रोग दूर हो ॥
शुंठ्यादि चूर्ण
शुंठीदारुकणाचूर्णं पीतमुष्णांभसा समम् ।
ऊर्ध्वश्वासहरं किंवा शुंठीपिप्पलिचूर्णकम् ॥
अर्थ-सोंठ, देवदारु, पीपल इन के अथवा सोंठ और पीपल इन के चूर्ण को गरम जल के साथ पीवेतो ऊर्ध्वश्वास को दूर करे ॥
शिलाद्यवलेह
शिलाहिंगुविडंगं च मरिचं कुष्ठसैंधवम् ।
मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्षंश्वासकासकफापहम् ॥
अर्थ-शिलाजीत, हींग, वायविडंग, काली मिरच, कूठ और सैंधानिमक इन के चूर्ण को सहत और घी में मिलाय एक कर्षसेवन करे तो श्वास, खांसी और कफ इन को नाश करे ॥
विडंगादि चूर्ण
विडंगं पिप्पली चैला त्वचं च प्रतिकर्षकम् । द्विकर्षमरिचं चूर्णंनागरं च चतुः पलम् ॥ सर्वैस्तुल्या सिता योज्या कर्षमात्रं च भक्षयेत् । श्वासकासज्वरप्लीहपांडुरोगज्वरापहम् ॥
अर्थ-वायविडंग, पीपल, इलायची और दालचीनी प्रत्येक तोले तोले भर,काठी मिरच २ तोले और सोंठ १६ तोले सब का चूर्ण करे और सबचूर्णकी बराबरमिश्री मिलावे वो एक तोले नित्यप्रति खाय तो श्वास, खांसी, ज्वर, प्लीहाऔर पांडुरोग इन को नाश करे ॥
दाडिमादिचूर्ण
दाडिमं नागरं हिंगु कृष्णा च लवणं समम् ।
आम्लवेतससंयुक्तं श्वासहृद्रोगजिद्भवेत् ॥
अर्थ-अनारदाना, सोंठ, हींग, पीपर, निमक और अमलवेत ये सब औषध समान भाग लेवेइन का चूर्णकरके खाय तो श्वास, खांसी और हृदयरोग इन का नाश करे ॥
विडंगादिचूर्ण
विडंगं पिप्पली हिंगु साजिसैंधवनागरम् । रास्नया च समं चूर्णं । कर्षमद्याद्धृतप्लुतम् ॥ कफश्वासहरं ख्यातं विडंगादि च नामकम् ॥
अर्थ-वायविडंग, पीपल, हींग, अजमायन, सैंधानिमक, सोंठ औररास्नाइन
कासमान भाग चूर्ण कर १ तोले की मात्रा घी में मिलायके देवे तो कफ और श्वास इन का नाश करे इस को विडंगादि चूर्ण कहते हैं ॥
आर्द्रकस्वरस
एक एवार्द्रकरसः समधु श्वासकासजित् ।
रतिवल्लभचांपेयचापचारुकलेवरे ॥
अर्थ-हे रतिवल्लभचांपेयचापचारुकलेवरे ! एक ही अदरख का रस सहत डालकेपीने से श्वास और खांसी का नाश करे॥
अक्षकवल
रावणस्य सुतो हन्यान्मुखवारिजधारितः ।
श्वसनं कसनं वापि तमिवानिलनंदनः॥
अर्थ-रावण का सुत ( अक्ष अर्थात् बहेडा ) मुख में रखने से श्वास और खांसी को नाश करे जैसे तं ( अक्षकुमारं ) अर्थात् अक्षकुमारको अनिलनंदन हनुमान् नाश करते भये ॥
आटरूपरस
आटरूपरसो गव्यनवनीतेन पाचितः।
तेन त्रिफलजं चूर्णं भक्षितं श्वासवारकम् ॥
अर्थ-अडूसे के रस को गौ के मक्खन में मिलायके औटावे जब रस जलके केवल घृतमात्र रहे तबउतारके इस में त्रिफले का चूर्ण मिलायके सेवन करे तोश्वासको दूर करे ॥
छिन्नश्वासनिदान
यस्तु श्वसिति विच्छिन्नं सर्वप्राणैर्निपीडितः। न वा श्वसिति दुःखार्तोमर्मभेदरुजार्दितः॥ आनाह-स्वेदमूर्छार्तोदह्यमानेन बस्तिना। विप्लुताक्षः परिक्षीणः श्वसन् रक्तैकलोचनः॥ विचेताः परिशुष्कास्यो विवर्णः प्रलपन्नरः। छिन्नश्वासेन विच्छिन्नः स शीघ्रं विजहात्यसून् ॥
अर्थ-जो पुरुष ठहर ठहर कर जितनी शक्ती उतनी शक्ति से श्वास को त्यागकरे, अथवा क्लेश को प्राप्तहो, श्वास को नहीं छोडे और मर्म कहिये हृदयबस्ती( मूत्रस्थान ) और नाडियों को मानों कोई छेदन करे ऐसी पीडा होय, पेट का
फूलना, पसीना और मूर्च्छा, इन से पीडित होय, बस्ती (मूत्रस्थान) में जलन होय, नेत्र चलायमान होय, अथवा नेत्र आंसुओ से भरे होय, श्वास लेते लेते थक नाय, तथा श्वास लेते लेते एक नेत्र लाल हो जाय, ( यह व्याधी के प्रभाव से होय है दोष के प्रभाव से होय तो दोनों हो जाय ) उद्विग्न चित्त हो जाय, मुख सूखे, देह का वर्ण पलट जाय, बकवाद करे, सधि के सब बंध शिथिल हो जाय, इस छिन्नश्वास करके मनुष्य शीघ्र प्राणका त्याग करे॥
तमकश्वासके लक्षण
प्रतिलोमं यदा वायुः स्रोतांसि प्रतिपद्यते। ग्रीवां शिरश्च संगृह्य श्लेष्माणं समुदीर्य च ॥ करोति पीनसं तेन रुद्धोघुर्घुरकं तथा । अतीव तीव्रवेगेन श्वासं प्राणप्रपीडकम् ॥ प्रताम्यति स वेगेन त्रस्यते सन्निरुध्यते । प्रमोहं कासमानश्च स गच्छति मुहुर्मुहुः॥ श्लेष्मणा मुच्यमानेन भृशं भवति दुःखितः । तस्यैव च विमोक्षांते मुहूर्त लभते सुखम् ॥ तथास्योद्ध्वंसते कंठः कृच्छ्राच्छक्नोति भाषितम्। न चापि निद्रा लभते शयानः श्वासपीडितः॥ पार्श्वेतस्यावगृह्णातिशयानस्य समीरणः । आसीनो लभते सौख्यमुष्णं चैवाभिनंदति ॥ उच्छ्रिताक्षो ललाटेन स्विद्यता भृशमार्तिमान् । विशुष्कास्यो बहुश्वासो मुहुश्चैवावधम्यते ॥ मेघांबुशीतप्राग्वातैः श्लेष्मलैश्च विवर्धते ॥ स याप्यस्तमकश्वासः साध्यो वा स्यान्नवोत्थितः॥
अर्थ-जिस काल में शरीर की पवन उलटी गति से नाडियों के छिद्र में प्राप्तहोकर मस्तक तथा कंठ का आश्रय कर कफसंयुक्त होय, तर कफ से रुककर अतिवेगपूर्वक कंठ में घुर घुरशब्दकरे और मस्तक में पीनसरोग करे और अत्यन्त तीव्रवेग से हृदय को पीडा का करनेवाला ऐसा श्वास को उत्पन्न करे, उस श्वास के वेग से मूर्च्छितहोय, त्रास को प्राप्त होय, चेष्टारहित होय और खांसी के उठने से बडेमोह को वारंवार प्राप्त होय और जबकफ छूटे तबदुःख होय और कफ छूटने के बाद दो घडी पर्य्यन्त सुख पावे, कंठ में खुजली चले, बडे कष्ट से बोले, श्वास की पीडासे नीद न आवे, सोवेतौवायु से पसवाडोमें पीडा होय, बैठे ही चैन पडे और गरमी के पदार्थ से खुश होय, नेत्रों में सूजन होय, ललाट में पसीना आवे, अत्यन्त पीडा होय, मुखसूखे, वारंवार श्वास और वारंवार हाथीपर बैठने के
सदृशसर्व देह चलायमान होवे, यह श्वास मेघ के वर्षने से, शीत से, पूर्व की पवन से और कफकारक पदार्थ इन के सेवन करने से बढे है यह तमकश्वास याप्य है. यदि नया प्रगट भया होय तौ साध्य होय है ॥
प्रतमकनिदान
ज्वरमूर्च्छापरीतस्य विद्यात्प्रतमकं तु तम्। उदावर्त्तरजोजीर्णक्लिन्नकायनिरोधजः॥ तमसा वर्धतेऽत्यर्थं शीतैश्चाशु प्रशाम्यति । मज्जतस्तमसीवास्य विद्यात्प्रतमकं तु तम्॥
अर्थ-इस तमकश्वास में श्वास, ज्वर और मूर्च्छाये दोनों लक्षण होने से इस को प्रतमक श्वास कहते हैं. उदावर्त, धूल, आमादि, अजीर्ण, विदग्धान्न, मल, मूत्रादीवेग के रोकने से अथवा क्लिन्नकाय कहिये वृद्ध मनुष्य और निरोध कहिये वेगरोध इन कारणों से प्रगट भई जो श्वास सो अंधकार से अथवा तमोगुण से अत्यन्त बढे और शीतल उपचार से शीघ्र शांति हो जाय, इस श्वास के योग से रोगी को अन्धकार में बूडासदृश मालूम होय, इस को प्रतमकश्वास ऐसे कहते हैं ॥
सठ्यादि चूर्ण
सठी पुष्करजीवंती त्वङ्मुस्तं पुष्कराह्वयम् । सुरसातामलक्येलापिप्पल्यागरुनागरम् ॥ वालुकं च समं चूर्णं कृत्वा द्विगुणशर्करम् । सर्वथा तमकश्वासे हिक्कायां च प्रयोजयेत् ॥
अर्थ-कचूर, कमलकंद, गिलोय, दालचिनी, नागरमोथा, पुहकरमूल, तुलसी, भूयआंवला, इलायची, पीपल, काली अगर, सोंठ और भीमसेनी कपूर इन को समान भाग ले चूर्ण करे और सब चूर्ण से दूनी मिश्री मिलावे. यह चूर्ण प्रायः तमकश्वास और हिचकी इनपर देवे ॥
व्याघ्रीजीरकादिगुटिका
व्याघ्रीजीरकधात्रीणां चूर्णं मधुयुतं लिहेत् ।
ऊर्ध्ववातमहाश्वासतमकैर्मुच्यते क्षणात् ॥
अर्थ-कटेरी, जीरा और आंवला इन तीन औषधोंका चूर्ण करके सहत में मिलायके चाटे तो ऊर्ध्ववायु, महाश्वास और तमकश्वास ये रोग क्षणमात्र में दूर हो॥
क्षुद्रावलेह
व्याघ्रीशतं स्यादभयाशतं च द्रोणे जलस्य प्रपचेत्कषायम्।
तुलाप्रमाणेन गुडेन युक्तं पक्त्वाभयाभिः सह ताभिरत्र ॥ शीते क्षिपेत्षण्मधुनः पलानि पलानि च त्रीणि कटुत्रयस्य। त्वक्पत्रकैलाकरिकेसराणां चूर्णात्पलं चेति विदेहदृष्टः॥ क्षुद्रावलेहः कफजान्विकारान्सश्वासशोषा-नपि पंच कासान् । हिक्कामुरोरोगमपस्मृतिं च हत्वा विवृद्धिं कुरुतेऽनलस्य ॥
अर्थ-कटेरी और हरड प्रत्येक सौ सौ तोले लेवे इन को १०२४ तोले जल में डालके काढा बनावेफिर इस को छानके उस में ४०० तोले गुड मिलायके पक्वकरीहुई हरड मिलायके फिर पक्वकरे जबशीतल हो जावे तब २४ तोले सहत औरसोंठ, मिरच, पीपल ये प्रत्येक चार २ तोले, दालचीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर ये प्रत्येक एक २ तोले मिलायके अवलेह बनावे इस को क्षुद्रावलेह कहते हैं यह विदेह नामक आचार्य ने प्रथम देखा है. यह कफविकार, श्वास, शोष, खांसी, हिचकी, छाती का रोग तथा अपस्मार ( मृगी का रोग ) इन का नाशक और अग्निको दीपन करे है ॥
कंटकार्यावलेह श्वासकासोंपर
कंटकारीतुलां नीरद्रोणे पक्त्वा कषायकम् । पादशेषंगृहीत्वा च तस्मिंश्चूर्णानि दापयेत् ॥ पृथक् पलानि चैतानि गुडूचीचव्यचित्रकाः । मुस्तं कर्कटशृंगी च त्र्यूपणं धन्वयासकः॥ भार्ङ्गी रास्नासठी चैव शर्करा पलविंशतिः। प्रत्येकं च पलान्यष्टौ प्रदद्याद्धृततैलयोः॥ पक्त्वा लेहत्वमानीय शीते मधुपलाष्टकम् । चतुःपलं तुगाक्षीर्याः पिप्पलीनां चतुःपलम्॥ क्षिप्त्वानिदद्यात्सुदृढे मृन्मये भाजने शुभे। लेहोयं हंति हिक्कार्तिश्वास-कासानशेषतः॥
अर्थ-कटेरी ४०० तोले ले जब कूट करके २०२४ तोले जल में डालके औटावे जबचतुर्थांश जल रहे तबउतारके कपडे से छान लेवे. फिर गिलोय, चव्य, चित्रक, नागरमोथा, काकडासिंगी, सोंठ, मिरच, पीपल, धमासा, भारंगी, रास्ना मोर कचूर लेवे बारह औषध एक एक पल लेवे; सबका चूर्ण करके उस काढे में डाल देवे. और मिश्री २० पल मिलावे. घी ८ पल और सरसों का तेल माठ पल इन सब को काटे में मिलायके फिर औटयकेअवलेह बनाय लेवे फिर शीतल होने पर
सहत ८ पल मिलावे. इस को दृढ चीनी के अथवा ईभ्रतवान् आदि उत्तम पात्र में भरके धर रखे चार पल इन का चूर्ण भी उसी अवलेह में मिलाय देवे फिर वंशलो चन ४ पल पीपल इस में से बलाबलविचारके रोगी नित्यमति सेवन करे ते हिचकी तथा सर्व प्रकार के श्वास रोग और खांसी ये दूर हो ॥
क्षुद्रश्वासनिदान
रूक्षायासोद्भवः कोष्ठेक्षुद्रो वातमुदीरयेत् । क्षुद्रश्वासेन सोऽत्यर्थंदुःखेनांगप्रबाधकः॥ हिनस्ति न स गात्राणि न च दुःखं यथेतरे। न च भोजनपानानि निरुणद्ध्युचितां गतिम् ॥ नेंद्रियाणां व्यथां चापि कांचिदापादयेद्रुजम् । स साध्य उक्तो बलिनः सर्वे चाव्यक्तलक्षणाः॥ क्षुद्रः साध्यतमस्तेषां तमकः क्षुद्र उच्यते॥
अर्थ-रूखा पदार्थ खाने से, श्रम के करने से, प्रगट भई जो क्षुद्रश्वास सो पवन को ऊपर ले जाय यह क्षुद्रश्वास अत्यन्त दुःखदायक नहीं है. तथा अंगों को कुछ विकार नहीं करे, जैसे ऊर्ध्वश्वासादिक दुःखदायक है ऐसे यह नहीं है और भोजन पानादिकों की उचित गति को बन्द नहीं करे और इन्द्रीन को भी पीडा नहीं करे और कोई रोग को भी नहीं प्रगट करे. यह क्षुद्रश्वास साध्य कहा है. बलवान् पुरुष के सब महाश्वासादिकों के लक्षण प्रगट न होय तौसाध्य है, तिन में भी क्षुद्रश्वास अत्यंत साध्य है, और तमक को क्षुद्र कहते हैं अथवा “तमकःक्षुद्रउच्यते"इस जगह “तमकः कृच्छ्र उच्यते” ऐसा भी पाठ कोई कहते हैं. उस का अर्थ यह है कि तमक कृच्छ्रसाध्य है महान्, ऊर्ध्वऔर छिन्न ॥
असाध्यलक्षण
त्रयः श्वासा न सिध्यंति तमको दुर्बलस्य च । कामं प्राणहरा रोगा बहवो न तु ते तथा ॥ यथा श्वासश्च हिक्का च हरतः प्राणमाशु च ॥
अर्थ-ये तीन श्वास सम्पूर्ण लक्षणयुक्त साध्य नहीं है और निर्बल पुरुषके तमकश्वास भी साध्य नहीं होय. प्राण हरण करनेवाले ऐसे सन्निपात ज्वरादिक रोगबहुतसे हैं सो ठीक है. परंतु श्वास और हिचकी ये जैसे जल्दी प्राण हरण करते हैंऐसे और ज्वरादिक नहीं करे॥
सामान्यउपचार
श्वासहिक्कातुरं प्रायः स्निग्धैः स्वेदैरुपाचरेत्। युक्तैर्लवणतैलाभ्यां तैरस्य ग्रथितः कफः ॥ श्वासो विलयमायाति मारुतश्चोपशाम्यति। स्निग्धं ज्ञात्वा ततश्चैनं भोजयेच्चरसौदनम् ॥
अर्थ-श्वास और हिचकी इन से आतुर प्राणी को सैधव, निमक और तेल इन से स्निग्ध ऐसा पसीने निकालने का उपचार करे इस प्रकार करने से उस मनुष्य का गाठदार जो कफ हो गया है वो पतला होकर श्वास का नाश करे और वादी को शमन करे फिर वह मनुष्य स्निग्ध हुआ जानके इस को मांसरस और भात भोजन करावे ॥
शृंगबेररस
स्वरसं शृंगबेरस्य माक्षिकेण समन्वितम् ।
पाययेच्छ्वासकासघ्नंप्रतिश्यायकफापहम्॥
अर्थ-अदरख का स्वरस सहत डालके पिलावे तो श्वास, खांसी, पीनस और कफइन को नाश करे॥
बिभीतकावलेह
प्रस्थं बिभीतकानामस्थि विना साधयेदजामूत्रे ।
अयमेव लेहो लीढोमधुसहितः श्वासकासघ्नः॥
अर्थ-एक सेर भिलावे की छाल को बकरी की मूत्र में पचावेजबसिद्ध हो जावेतबइस मे सहत डालके चाटे तो श्वास और खांसी ये दूर हो॥
द्राक्षाद्यवलेह
द्राक्षां हरीतकीं मुस्तां कर्कटाख्यां दुरालभाम् ।
सर्पिर्मधुभ्यां विलिहन् श्वासान् हंति सुदारुणान्॥
अर्थ-दाख, हरड, नागरमोथा, कांकडासिंगी और धमामा इन की अवलेह सहत और घी डालके बनावे इस को भक्षण करने से घोर भयंकर श्वास दूरहो ॥
दशमूला यवागू
दशमूलीसठीरास्नापिप्पलीविश्वपौष्करैः। शृंगी तामलकी भार्ङ्गीगुडूचीनागराग्निभिः॥ यवागूं विधिना सिद्धां कषायं वा पिबेन्नरः। श्वासहृद्ग्रहपार्श्वार्तिहिक्काकासप्रशांतये॥
अर्थ-दशमूल, कचूर, रास्ना, पीपल, सोंठ, अंड की जड, काकडासिंगी, भय आंवला, भारंगी, गिलोय, सोंठ और चित्रक इन औषधों से करी हुई कांजी को पीवे अथवा काढा करके पीवेतो श्वास, हृदयव्यथा, पसली की पीडा, हिचकी और खांसी इन की शांति होय ॥
दशमूलकाढा
दशमूलस्य वा क्वाथः पौष्करेणावचूर्णितः।
श्वासकासप्रशमनः पार्श्वशूलविनाशनः॥
अर्थ-दशमूल का काढा करके उस में पुहकरमूल का ( अथवा अंड की जड का ) चूर्ण डालके पावे तो श्वास, खांसी और पसली की पीडा ये नष्ट होये ॥
रंभादिकुसुमपान
रंभाकुंदशिरीषाणां कुसुमं पिप्पलीयुतम् ।
पिष्ट्वा तंदुलतोयेन पीत्वा श्वासमपोहति ॥
अर्थ-केला का फूल और कुंद का फूल तथा शिरस का फूल इन तीनों पुष्पों में पीपल मिलायके चावलों के धोवन से पीसके पीवे तो श्वास नष्ट होवे ॥
कटुतैलेन संयुक्तो गुडो यावन्न सेवितः।
तावन्नश्यति किं श्वासः पीयूषमधुराधरे॥
अर्थ-जबतक सरसों का तेल और गुड को यह प्राणी सेवन नहीं करता है पीयूषमधुराधरे! क्या इस का श्वासरोग नष्ट होता है कदापि नहीं॥
शृंग्यादिचूर्ण
शृंगीमहौषधकणाघनपुष्कराणां चूर्णं शठीमरिचयोश्च सिताविमिश्रम्। क्वाथेन पीतममृतावृषपंचमूल्याः श्वास त्र्यहेण विनिहंति हि घोररूपम् ॥
अर्थ-काकडासिंगी, सोंठ, पीपल, नागरमोथा, पुहकरमूल, कचूर और काली मिरच इन का चूर्ण समान भाग लेकर करे. फिर गिलोय, अडूसा और पंचमूल इन का काटा करके चूर्ण मिलाय तथा मिश्री डालके पीवेतो बडा भारी घोररूप श्वासतीन दिन में नष्ट होय ॥
शुंठ्यादिकाढा
अयि प्राणप्रिये जातिफललोहितलोचने।
शुंठीभार्ङ्गीकृतः कायः श्वासत्रासाय पाययेत्॥
अर्थ-हे प्राणप्रिये! हे जातिफललोहितलोचने !! श्वास नष्ट करने को सोंठ और भारंगी इन का काढा करके पीवे ॥
पंचमूलीयोग
पंचमूली तु सामान्या पित्ते योज्या कनीयसी।
महती मारुते देया सैव देया कफाधिके॥
अर्थ-सामान्यता करके पित्त की श्वास में लघुपंचमूठ देवे और वातश्वास तथा कफश्वास पर बृहत्पंचमूल देना चाहिये ॥
कूष्मांडशिफाचूर्ण
कूष्मांडकशिफाचूर्णं पीतं कोष्णेन वारिणा।
शीघ्रं शमयति श्वासं कासं चापि सुदारुणम् ॥
अर्थ-पेठे की जड के चूर्ण को गरम जल के साथ पीवे तो घोर दारुण श्वास और खांसी शीघ्र शमन होवे ॥
हरिद्राद्यवलेह
हरिद्रामरिचं द्राक्षां कणां रास्त्रां शठींगुडम्।
कटुतैलं लिहन्हन्याच्छ्वासान्प्राणहरानपि ॥
अर्थ-हरदी, मिरच, दाख, पीपल, रास्ना, कचूर और गुड इन का चूर्ण सरसों के तेल में मिलायके चाटे तो प्राणों के नाश करनेवाली भी श्वास का नाश होवे ॥
भार्ङ्गीगुड
शंतं संगृह्य भागास्तु दशमूल्यास्तथा शतम् । शतं हरीतकीनां च पचेत्तोये चतुर्गुणे ॥ पादावशेषेतस्मिंस्तु रसे वस्त्र निपीडिते । आलोड्य च तुलां पूतां गुडस्याप्यभयां पुनः॥ पुनः पचेत्तु मृद्वग्नौयावल्लेहत्वमति तत्। शीते च मधुनस्तत्रषट्पलानि विनिःक्षिपेत् ॥ त्रिकटुत्रिसुगंधं च पलमात्रंपृथक् पृथक् । यवक्षारं कर्षयुग्मं संचूर्ण्य प्रक्षिपेत्ततः॥ भक्षयेदभयामेकां लेहस्यार्धपलंतथा । श्वासं सुदारुणं हंति कास पंचविधं तथा ॥ अर्शांस्यरोचकं गुल्मं शकृद्भेदं क्षयं तथा । स्वरवर्णप्रदो ह्येषजठराग्नेः प्रदीपनः॥ नाम्ना भार्ङ्गीगुडः ख्यातो भिषग्भिः सकलैर्मतः॥
अर्थ-भारंगी, दशमूल और हरड ये प्रत्येक १०० तोले ले इन को १२०० तोले जल में डालके औटावे जब चतुर्थांश रहे तब उतारके कपडे में छान लेवेफिर इस में ४०० तोले गुड डालके तथा औटाई हुई हरडों को डाल फिर मंदाग्निपर रस को पचावे जब गाढीअवलेह हो जावें तब उतारके इस को शीतल कर लेवे और शीतल होने पर २४ तोले सहत और सोंठ, काली मिरच, पीपल, दालचीनी, इलायची तथा पत्रज ये प्रत्येक चार २ तोले ले जवाखार २ तोले इन सब का चूर्ण करके अवलेह में मिलाय देवे और कड़छी से मिलायके एक कर देवे. तो यह अवलेह सिद्ध होवे. इस में से दो तोले अवलेह और उस में से १ हरड नित्य प्रातःकाल खाय तो बडा भारी भयंकर श्वास, पांच प्रकार की खांसी, बवासीर अरुचि, गोला, अतिसार और क्षय इन को नाश करे तथा स्वर और देह का वर्ण को उत्तम करनेवाला और अग्निदीपक ऐसा है. इस को भांर्गीगुड ऐसा कहते हैं यह सर्ववैद्यों को माननीय है ॥
द्राक्षादिकाढा
द्राक्षामृता नागरमुष्णतोयं कृष्णाविपाकं बहुरोगनिघ्नम् ।
श्वासं च शूलं कसनं च मांद्यं जीर्णज्वरं चैव जयेच्च तृष्णाम् ॥
अर्थ-दाख, गिलोय और सोंठ, इन के काढ़े में पीपल का चूर्ण डालके पीवे तोश्वास, शूल, खांसी, मंदाग्नि, अजीर्ण और प्यास इन को दूर करे॥
कुलित्थादिकाढा
कुलित्थनागरख्याघ्रीवासाभिः क्वथितं जलम्।
पीतं पौष्करसंयुक्तं श्वासकासनिवारणम् ॥
अर्थ- कुलथी, सोंठ, कटेरी, अडूसा और पुहकरमूल इन के काढे को पीवे तो श्वास, खांसी इन को दूर करे॥
देवदार्व्यादिकाढा
देवदारुवचाव्याघ्रीविश्वकट्फलपोष्करैः।
कृतः क्वाथो जयत्याशु श्वासकासावशेषतः॥
अर्थ -देवदारु, वच, कटेरी, सोंठ, कायफल और पुहकरमूलइन का काढाकरकेदेवे तो श्वास और खांसी इन का शीघ्र निवारण करे ॥
सिंह्यादिकाढा
सिंही निशा सिंहमुखी गुडूची विश्वोपकुल्याभृगुजाघनानाम्।
कृष्णामरीचैर्मिलितः कषायः श्वासाटवीदाहपयोद एषः॥
अर्थ-कटेरी, हलदी, अडूसा, गिलोय, सोंठ, पीपल, भारंगी और नागरमोथाइन का काढा कर उस में पीपल और काली मिरच इन का चूर्ण डालके पीवे तो यह श्वासरूप वन के दहन करते अग्नि को मेघ के समान है॥
वासादिकाढा
वासा हरिद्रा मगधा गुडूची भार्ङ्गीघना नागररिङ्गणीनाम्।
कायेन मारिच्यकणान्वितेन श्वासः शमं याति न कस्य पुंसः॥
अर्थ-अडूसा, हरदी, पीपल, गिलोय, भारंगी, नागरमोथा, सोंठ और कटेरी इन के काढेमें काली मिरच और पीपल का चूर्ण डालके पीवे तो इस से किस मनुष्य की श्वास दूर नहीं हो ॥
भार्ङ्ग्यादिलेह
प्रलिह्यान्मधुसर्पिर्भ्यांभार्ङ्गीमधुकसंयुताम्।
पथ्यां तिक्ताकणाव्योपयुक्तां वा श्वासनाशनीम् ॥
अर्थ-भारंगी की जड, ज्येष्ठमध, हरीतकी, पीपल, कुटकी, सोंठ, काली मिरच, पीपल इन का चूर्ण सहत और घी डालके देवे तो श्वास का नाश करता है ॥
गुडाद्यवलेह
गुडदाडिममृद्वीकापिप्पलीविश्वभेषजैः।
मातुलिंगरसं क्षौद्रं लीढं वासनिबर्हणम् ॥
अर्थ-गुड, अनारदाना, दाख, पीपल और सोंठ इन का चूर्ण बिजोरेके रस में देवे तो श्वासरोग को दूर करे ॥
वासाद्यवलेह
वासातुलामष्टगुणे च नीरे विपाच्य तां पादजलेन साकम्। क्षुण्णाढकं तद्विपचेच्छिवानां खंडा प्रयोज्या सकलस्य तुल्या॥ ततःसमुत्तार्य पलानि चाष्टौ क्षौद्रस्य च द्वे किल वंशजायाः। क्षिपेत्तथा मागधिकापलार्धंपलं चतुर्जातभवं प्रयोज्यम्॥ योज्यं पलार्धं श्वसने च कासे क्षयेस्रपित्ते कफपीनसे च। हृद्रोगकार्श्ये किलविद्रघौच उरःक्षते शोणितवांतिकोपे॥
अर्थ-अडूसा४०० तोले ले इस को कुछ कूटके ३२०० तोलेजल में गेरके काढाकरे जब जल चतुर्थांश रहे तब उतारके छान ले फिर इस में २५६ तोले
हरडका चूर्ण डालके फिर पचावे जब गाढा हो जावे तब उतारके शीतल करे और ३२ तोले सहत, वंशलोचन ८ तोले, पीपल २ तोले तथा चातुर्जात४ तोले इन सब का चूर्ण करके मिलाय देवे फिर इस में से दो तोले सेवन करे तो श्वास खांसी, क्षय, रक्तपित्त, कफ, पीनस, हृदयरोग, कृशता, विद्रधि रोग, उरःक्षत और रुधिर की वांति इन का नाश करे ॥
सितादिचूर्ण
सिताद्राक्षाकणाचूर्णं समांशं तैलपाचितम्।
भक्षितं दारुणं श्वासं निवर्तयति वेगतः॥
अर्थ-मिश्री, दाख और पीपल का चूर्ण इन को समान भाग ले चूर्ण को तेल में पचावे फिर इस के भक्षण करने से अतिदारुण श्वास के वेग को नाश करे ॥
शिलाद्यवलेह
शिलाव्योषभयाहिंगुमणिमंथविडंगकैः।
लेहः साज्यमधुः कासहिक्काश्वासेषु शस्यते॥
अर्थ-मनसिल, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, हींग, सैंधानिमक और वायविडंग इन का लेह सहत और घी इन के साथदेवे. यहः श्वास, खांसी और हिचकी, इन पर उत्तम है ॥
राजिकादिगुटी
राजिकाक्षीरकंदश्च चपला च रसोनकम्। ऊषणातिविषादेवकुसुमं च विचूर्णितम्॥ मार्कवार्ककुमारीभिर्निर्गुंडीमुंडिचित्रकैः। भावयित्वा पृथक्सर्वैःश्वासकासनिकृंतनम् ॥
अर्थ-राई, सपेद विदारीकंद, पीपल, लहसन, काली मिरच, अतीस और लौंग इन का चूर्ण करके उस को भांगरे के रस, रंक का दूध, घीगुवार, निर्गुंडी, मुंडी और चित्रक इन प्रत्येक की भावना देवेफिर गोली बनाय लेयह गोली श्वास और खांसी इन का नाश करे ॥
सूर्यावर्तरस
सूतार्धंबलिमेकयाममाभितः कृत्वा रसैर्मर्दयेत्तद्द्वंद्वेन समं तु शुल्बजलदं लिप्त्वावटीयंत्रकैः। पक्त्वैकामथाहरन्निगदितो वल्लोन्मितः श्वासजित्सूर्यावर्तरसोथ गंधमरिचैःसाज्यः कफश्वासजित्॥
अर्थ-पारा १ भाग और गंधक आधा भाग इन दोनों को प्रहर भर तक खूब घोटे फिर इन दोनों की बराबरबहुत बारीक ताम्रपत्र ले उन पर लेप करके संपुटमें रख घटीयंत्र से एक दिन पचावे फिर निकालके एक वल्ल गंधक, काली मिरच और घी इन के साथ देवे तो कफ, श्वास इन को नाश करे॥
अमृतार्णवरस
पारदं गंधकं शुद्धं मृतं लोहं च टंकणम् । रास्ना विडंगविफलादेवदारुकटुत्रयम् ॥ अमृता पद्मकं क्षौद्रं विषं तुल्यं सचूर्णितम् । त्रिगुंजं श्वासकासार्तंसेवयेदमृतार्णवम् ॥
अर्थ-पारा, गंधक, लोहभस्म, सुहागा, रास्ना, वायविडंग, त्रिफला, देवदारु, सोंठ, मिरच, पीपल, गिलोय, पद्माख, सहत, विष इन को समान भाग लेके चूर्ण करे इस को ३ रत्तीश्वास और खांसीरोगवाला सेवन करे इसे अमृतार्णवरस कहते हैं॥
श्वासहेमाद्रिरस
आच्छादितां शिलां ताम्रेदिगुणं वालुकाह्वये। पक्त्वा संचूर्ण्य गंधेशौ दिनार्धंतां पुनः पचेत् ॥ श्वासहेमाद्रिनामायं महाश्वासविनाशनः। वर्णवृद्धिकरो ह्येषसौवर्ण्यश्च न संशयः॥
अर्थ-मनसिल को तामे की डिबीमें भरके वालुकायंत्र में पचावे फिर उस डिबीके साथ चूर्ण करके उस में पारा, गंधक इन की कजली डालके फिर आधे दिन पचावे यह श्वासहेमाद्रिनामक रस महाश्वास को नाश करे इस में संदेह नहीं है॥
उदयभास्कर
धान्याभ्रं सूतकं गंधं श्वेतापामार्गजद्रवैः। तुल्यांशं मर्दयेच्चायःपात्रेपाचनकंपचेत्॥ ऊर्ध्वलग्नं ततो ग्राह्यं रसो त्द्युदयभास्करः। श्वासं पंचविधं हंति गुंजाद्वयानुपानतः॥ निष्कैकं लेहयच्चानु क्षौद्रेण कटुरोहिणीम्॥
अर्थ-धान्याभ्रकलेके उस में पारा और गंधक अभ्रक के बराबर मिलायके सपेद ओंगा के रस से उसको खरल करके फिर डमरूयंत्र में भरके अग्नि देवे. फिर ऊपर के लगे हुए पारे को निकाल लेवेइस को उदयभास्कर सूत कहते हैं यह २ रत्ती अनुपान के साथ देवे और ऊपर से सहत औरकुटकी का चूर्ण चटावे तो पांच प्रकार के श्वासों को नष्ट करे॥
श्वासकालेश्वर
मृतं वंगंमृतं लोहं मृतार्कंमृतमभ्रकम्। शुद्धसूतं तथा गंधं माक्षिकं हिंगुलं विषम्॥ जातीफलं लवंगं च त्वगेलानागकेसरम्। उन्मत्तकस्य बीजानि जैपालं रात्रिदुर्लभम्॥ एतानि समभागानि मरिच हरनेत्रयोः। सर्वंतद्व्याक्षिपेत्खल्वे लोहदंडेन मर्दयेत्॥ तावच्चूर्णीकृतं धीमान् यावत्सूतो न दृश्यते। शक्रासनस्य स्वरसैर्भावना एकविंशतिः॥ द्विगुंजा उत्तमा मात्रा आर्द्रकस्वरसैर्युता। तदर्धंबालवृद्धेषु पथ्यं देयं तदुच्यते॥ पंच श्वासान् क्षयं कासं राजयक्ष्मनिवारणम्। श्वासकालेश्वरो नाम लोकानामपि दुर्लभः॥
अर्थ-वंग की भस्म, लोहभस्म, ताम्रभस्म, अभ्रकभस्म, पारा, गंधक, सुवर्णमाक्षिक की भस्म, हींगलू, विष, जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, धतूरे के बीज, जमालगोटा, हलदी, कचूर ये सब समान भाग लेवे और काली मिरच तीन भाग लेसब को खरल में डालके लोहे के मूसल से खरल करे कि जबतक पारादीखने से न बंद होवे. फिर इस को भांग के स्वरस की २१ भावना देवे इस में से २ रत्ती की उत्तम मात्रा को अदरख के रस से देवे. और बालक वृद्ध होवे उन को आधी मात्रा देनी चाहिये और पथ्य से रहे तो ५ प्रकार के श्वास, क्षय, खांसी,राजयक्ष्मा इन को नाश करे यह श्वासकालेश्वर रस देवताओं को भी दुर्लभ है॥
पारदादिगुटी
पारदं गंधकं नागं ताम्रंव्योषानलैः समम् । सर्जीरसेन संचूर्ण्यप्रदेया भावना दश ॥ पुनः पत्ररसे सम्यक् चाकस्य रसैस्तथा। मिरिप्रमाणा कफजित् कार्या सा गुटिकोत्तमा ॥ मंदानिकफरोगेषु श्वासकासे विशेषतः। आध्मानप्रतिपन्नार्तप्रदेया सुखकारिणी॥
अर्थ-पारा, गंधक, शीशे की भस्म, ताम्रभस्म, सोंठ, मिरच, पीपल, चित्रक और राल ये समान भाग लेकर चूर्ण करे और नागरवेल के पत्तों के रस की १० भावनादेवे. और अदरख के रस की १० भावना देवे फिर मिरच के समान गोली बनावे. यहमंदाग्नि, कफरोग, श्वास, खांसी और पेट का फूलना इन पर देवे तो सुखदायक होय॥
लवंगादिगुटी
लवंगमरिचे तुल्ये त्रिफलारसभाविते।
बबूलत्वचया कार्या गुटी श्वासकफापहा॥
अर्थ-लौंग, काली मिरच और त्रिफला ( हरड, बहेडा, आवला ) का चूर्ण जमान भाग ले उस को बबूल के छाल के काढ़े की भावना देकर गोली बनावे. यह श्वास और कफ इन को नाश करे ॥
दूसरा प्रकार
लवंगचिकटूनाग गोक्षुद्राबिभीतकैः।
कन्यारसेन गुटिका कार्या श्वासनिवारिणी॥
अर्थ-लौंग, सोंठ, काली मिरच, पीपल, सिंगिया विष, भांगरा, कटेरी और बहेडा इन का समान भाग चूर्ण कर घीगुवार के रस में घोटके गोली बनाय ले इस में से एक २ गोली खाने को देय तो यह श्वासरोग को नष्ट करे ॥
त्रिकटुकवटी
त्रिकटूटंकणं नागपत्रेण क्रियते वटी ।
मिरीप्रमाणा कफजिन्नाना त्रिपुरभैरवी॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल और सुहागा इन को एकत्र चूर्ण करके नागरवेल के पानोंके रस में घोटके गोली मिरच के समान बनावे इस के खाने से कफ नष्ट होय इसे त्रिपुरभैरवी गुटी कहते हैं ॥
फलत्रयगुटी
फलत्रयं नागरदारुकृष्णाविपानपावेल्लसुवर्णबीजैः।
दिनत्रयं गरसर्विमर्द्यकार्या गुटी श्वासकफापहारिणी ॥
अर्थ-त्रिफला ( हरड, बहेडा, आंवला ), सोंठ, देवदारु, पीपल, सिंगिया विष, नेत्रवाला, काली मिरच और धतूरे के बीज इन सब को तीन दिन भांगरे के रस में खरल कर गोली बनावेयह श्वास और कफ को दूर करे ॥
स्नुहीदुग्धयोग
वल्लयुग्मं स्नुहीदुग्धं गुडयुक्तनिषेवणात् ।
कासः श्वासः क्षयरोगो हृद्रोगश्च प्रणश्यति॥
अर्थ-दो वल्ल ( ४ रत्ती ) थूहर के दूध को गुड में मिलायके सेवन करे तो श्वास, खांसी, क्षयरोग और हृदयरोग नष्ट होवे॥
श्वासकुठार
रसो गंधो विषंचापि टंकणं च मनःशिला । एतानि कर्षमात्राणि मरिचं चाष्टकर्षकम् ॥ कटुत्रयंकर्षयुग्मं पृथगत्र विनिःक्षिपेत् । रसः श्वासकुठारोयं सर्वश्वासनिवारणः॥
अर्थ-पारा, गंधक, सिंगिया विष, सुहागा और मनसिल इन को एक २ तोले ले सोंठ, मिरच, पीपल ये एक तोले लेकर चूर्ण करे. इस के सेवन करने से यह श्वासकुठाररस संपूर्ण रोगों को नाश करे ॥
दूसरा प्रकार
रसं गंध विषं चैव टंकणं च मनःशिला । एतानि टंकमात्राणि मरिचं चाष्टटंककम् ॥ एकैकं मरिचं दत्त्वा खल्वेसूक्ष्म विमर्दयेत् । त्रिकटुं टंकपट्कं च दत्त्वा पश्चाद्विचूर्णयेत्॥ सर्वमेकत्र संयोज्य काचकूप्यां विनिःक्षिपेत् । श्वासे कासे च मंदाग्नौवातश्लेष्मामयेषु च ॥ गुंजामात्रंप्रदातव्यं पर्णखंडेन धीमता। सन्निपाते च मूर्छायामपस्मारे तथा पुनः ॥ अतिमोहत्वमापन्ने नस्यं दद्याद्विचक्षणः। रसः श्वासकुठारायं सर्वश्वासगदप्रणुत्॥
अर्थ-पारा, गंधक, विष, सुहागा और मनसिल ये एक २ तोले ले काली मिरच ८ तोले और सोंठ, मिरच, पीपल ये प्रत्येक दो दो तोल लेव. फिर एक एक मिरच डालके पीसे फिर सब औपधों को डालके यारीक चूर्ण करें और कपडे से छान लेवे फिर इस को काच की शीशी में भरके धररखे और श्वास, खांसी, मंदाग्नि, वात, कफसंबंधी रोग इन में पान के पीडा में रखके १ रत्ती खाय तथा सन्निपात अपस्मार और अतिमोहयाले रोगी को इस रस की नास देवे यह श्वासकुठाररस संपूर्ण श्वाससंबंधी रोगों को दूर करे॥
मरीच्यादिगुटिका कासादिकोंपर
मरिचं कर्षमानं स्यापिप्पली कर्षसंमिता। अर्धकर्षोयवक्षारः कर्षयुग्मं च दाडिमम् ॥ एतच्चूर्णीकृतं युंज्यादष्टकर्षगुडेन हि।
शाणप्रमाणां गुटिकां कृत्वा वक्रेविधारयेत् ॥ अस्याः प्रभावात्सर्वेपि कासा यांत्येव संक्षयम्॥
अर्थ-काली मिरच १ तोला, पीपल १ तोला, जवाखार छः मासे, अनार का छिलका २ तोले इन चार औषधों का चूर्ण कर आठ तोले गुड में कूट पीसके चार २ मासे की गोली बनाय लेवे इस गोली को मुख में रखे तो सर्व प्रकार की खांसी और श्वास दूर हो इस में संदेह नहीं है ॥
श्वासे पथ्य
विरेचनं स्वेदनधूम्रपानप्रच्छर्दनानि स्वपनं दिवा च। पुरातनाः षष्टिकरक्तशालिकुलित्थगोधूमयवाः प्रशस्ताः॥ शशाहिभुक्तित्तिरिलावदक्षः शुकादयो धन्वमृगा द्विजाश्च। पुरातनं सर्पिरजाप्रभूतं पयो घृतं वापि सुरा मधूनि॥ पटोलवार्त्ताकरसोनबिंबीजबीरतंदूलियवास्तुकं च। द्राक्षा त्रुटिःपौष्करमुष्णवारि कटुत्रयं गोजनितं च मूत्रम्॥ अन्नानि पानानि च भेषजानि श्लेष्मानिलघ्नानि च पथ्यवर्गः॥
अर्थ-विरेचन, स्वेदन, धूमपान, वमन, दिन में सोना, पुराने सांठी चावल और लाल चावल, कुलथी, गेहूं, जौ ये सब अन्न पुराने पथ्य है. ससे, मोर, तीतर, लवा, मुरगा, तोता आदिशब्द से मैना कोयल, मरुभूमि के मृग और पक्षी, पुराना बकरी का घी, दूध, मद्य, सहत, पटोल, बैंगन, लहसन, कँदूरी, जंभीरी, बथुए का साग ( कटेरी का साग, डोडी का साग, मूली, पिंडुकिया ), दाख, [ हरड ]इलायची, पोहकर मूल, गरम जल, त्रिकुटा ( सोंठ, मिरच, पीपल), गौ का मूत्र तथा कफवातनाशक अन्न पान तथा औषधी ये पथ्य हैं ॥
अपथ्य
रक्तस्रावं पूर्ववातान्नपानं मेषीसर्पिर्दुग्धमंभोपि दुष्टम् । मत्स्याः कंदाः सर्षपाश्चान्नपान रूक्षंशीतं गुर्वपि श्वासि वयम् ॥ मूत्रोद्गारश्च्छर्दितट्कामरोधो नस्यं बस्तिर्दंतकाष्ठंश्रमं च॥
अर्थ-रुधिर का निकालना, पूर्व दिशा की पवन, बहुत जल का पीना, भेड का घीऔर दूध, खराबजल, मछली, कंद, सरसों तथा रूखे शीतल और भारी ऐसे अन्न, पान, मूत्र, डकार, वमन, प्यास, कामदेय इन की बाधा को रोकना, नासलेना, बस्तिकर्म, दांतन, परिश्रम श्वासरोग को वर्जित है ॥
दंभ
वक्षःप्रदेशादपि पार्श्वयुग्मे करस्थयोर्मध्यमयोर्धयोश्च । प्रदीप्तलोहेन च कंठकूपे दाहोपि च श्वासिनि दंभ उक्तः॥
अर्थ-वक्षस्थल ( छाती ) के दोनों तरफ, दोनों हाथों के बीच की अंगुलियों तथा कंठ में गरम लोहे से जलाना इत्यादि अन्य जो कर्म हैं वह सब श्वासरोगी व दम्भ है ॥
इति बृहन्निघटनाकरे श्वासरोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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अथ स्वरभेदनिदानम्।
अत्युच्चभाषणविषाध्ययनाभिघातसंदूषणैः प्रकुपिताः पवनादयस्तु । स्रोतःसु तेस्वरवहेषु गताः प्रतिष्ठांहन्युः स्वरं भवति चापि हि षड्विधसः॥ अर्थ-बहुत जोर के बोलने से, विषके खाने से, ऊंचे स्वर के पाठ करने से अर्थात् वेदादि पाठ करने से, कंठ में लकडी काष्ठ आदि की चोट लगने से, कोप को प्राप्त हुए जो वात, कफ, पित्त सो कंठ में स्वर के वहनेवाली चार नसें हैं उन में प्राप्त हो अथवा उन में वृद्धि को प्राप्त स्वर को नाश करे यह स्वरभेद रोग वात, पित्त, कफ, सन्निपात, क्षय और भेद इन भेदों से छः प्रकार का है ॥
चिकित्साप्रक्रिया
वाते सलवणं तैलं पित्ते सर्पिः समाक्षिकम्।
कफे सक्षारकटुकं क्षौद्रं केवलमिष्यते ॥
अर्थ-वादी के स्वरभेद पर क्षार और तेल तथा पित्त के स्वरभेद पर घी और सहत एवं कफ के स्वरभेद पर क्षार और मरिचादिक तीखेरस तथा सहत इत्यादिक उपचार करने चाहिये ॥
गले तालुनि जिह्वायां दंतमूलेषु चाश्रितः ।
तेन निष्क्रमते लेष्मास्वरश्चाशु प्रसीदति ॥
अर्थ-ऊपर कहे हुए कर्म के करने से गला, तालू, जीभ, दांतों की जडइन का आश्रयकरके रहनेवाला कफ निकलकर गिर जाने से सर स्वच्छ होवे॥
स्वरभेदसामान्यचिकित्सा
वातादिजनितश्वासकासना ये प्रकीर्तिताः।
योगास्तानत्र युंजीत यथादोषंचिकित्सकः॥
अर्थ-वातादि दोषों के कुपित होने से जो हुआ स्वरभंग उसपर वातादिजनित श्वास खांसी के जो यत्न लिखे है वो सब यथादोषक्रमसे चिकित्सा करे ॥
स्वरोपघाते मेदोजे कफवद्विधिरिष्यते।
क्षयजे सर्वजे वापि प्रत्याख्याय चरेलियाम्॥
अर्थ-मेदवृद्धिसे जो प्रगट स्वरभेद उसपर कफजन्य स्वरभेद की कही हुई चिकित्सा करे और क्षयज तथा सर्वज (सन्निपातजन्य) सरभेद को असाध्य जानके उस की यथायोग्य चिकित्सा वैद्य को करनी चाहिये ॥
वातिकस्वरभेदनिदान
वातेन कृष्णनयनाननमूत्रवर्चाभिन्नं शनैर्वदति गर्द्धभवत्स्वरं च ।
अर्थ-वायु से स्वरभंग होय तौ रोगी के नेत्र, मूख, मूत्र और विष्ठा यह काले होंय वह पुरुष टूटा हुआ शब्द बोले, अथवा गधा के स्वर प्रमाण कर्कशबोले।
मरीचघृतपान
स्वरोपघातेनिलजेभुक्त्वोपरि घृतं पिबेत्।
मरीचचूर्णसहितं मरुत्स्वरहतिप्रणुत् ॥
अर्थ-वादी से उत्पन्न हुए स्वरभेदपर भोजन करने के उपरांत घी को काली मिरच का चूर्ण डालके पीवे तो यह वादी के स्वरभेद को नष्ट करे ॥
घृतगुडोदन
आद्ये कोष्णजलं पेयं जग्ध्वाघृतगुडौदनम्।
पीतं घृतं हंत्यनिलं सिद्धं मार्कवजे रसे॥
अर्थ-भात में गुड और घीमिलायके भोजन करे फिर ऊपर से गरम २ जल पीवेतो वादी का स्वरभेद अच्छा होय. उसी प्रकार भांगरे के रस में घी डालके औटावेजब घृतमात्र शेष रहे तब इस को पीवेतो वादीका स्वरभंग अच्छा होवे ॥
कासमर्दादिधृत
कासमर्दरसं दत्त्वा भार्ङ्गीकल्कंशनैः शनैः।
सिद्धं सर्पिर्हितंपीतं स्वरभेदं मरुद्भवम्॥
अर्थ-कसोंदी का रस और भारंगी इन का चूर्ण डालके मंदाग्निपर सिद्ध करा हुआ घीपीवे तो वातजन्य स्वरभेद दूर होवे ॥
व्याघ्रीघृत
व्याघ्रीस्वरसविपक्वंरास्नावाट्यालगोक्षुरैः सिद्धम्।
सर्पिः स्वरोपघातं हन्यात् कासं च पंचविधम्॥
अर्थ-कटेरी का स्वरस, रास्ना, खिरेटी और गोखरू इन का कल्क अथवा काढ डालके सिद्ध करा हुआ घी स्वरभंग तथा पांच प्रकार की खांसी इन को नष्ट करे ।
पैत्तिकस्वरभेदनिदान
पित्तेन पीतनयनाननमूत्रवर्चा ब्रूयाद्लेन स च दाहसमन्वितेन ॥
अर्थ-पित्तस्वरभेदवाले मनुष्य के नेत्र, मुख, मूत्र और विष्ठा ये पीले होते है और बोलते समय गले से दाह होय है ॥\
सामान्यचिकित्सा
पैत्तिके तु विरेकः स्यात्पयश्च मधुरैः शृतम् ।
लिह्यान्मधुरवस्तूनां चूर्णं मधुसमन्वितम् ॥
अर्थ-पित्त के स्वरभेदपर रेचन ( जुलाब ) देवे और मिश्री अथवा दूसरे मधुर पदार्थ डालके औटाया हुआ दूध अथवा मीठे २ पदार्थों का चूर्ण करके सहत में मिलायके चाटे तो पित्त का स्वरभेद दूर होवे ॥
जेष्ठीमधकाढा
अश्नीयाच्च ससर्पिष्कं यष्टीमधुकषायकम्॥
अर्थ-पित्त के स्वरभेदपर मुलहटीके काढे में घी मिलायके पीवे तो हित करे ॥
पयःपान
शर्करामधुमिश्राणि शृतानि मधुरैः सह।
पिबेत्पयांसि यस्योच्चैर्वदतोपि हतः स्वरः॥
अर्थ-ऊंचा और बहुत बोलने से जिस का स्वर बैठ गया हो उस को मिश्री, सहत इन से मिला हुआ तथा अन्यमीठे पदार्थ सुनया आदि मिलायके मोटा हुआ दूध पीवे॥
शतावरीचूर्ण
शतावरीचूर्णयोगं बलाचूर्णमथापि वा।
लाजाशतावरीचूर्णं लिह्यान्मधुसितायुतम्॥
अर्थ-सतावर और खिरेटी इन के चूर्ण को अथवा खील और सतावरइन के चूर्ण को सहत और मिश्री मिलायके पीवे तो पित्त के स्वरभंगको दूर करे ॥
शंठीघृत
शुंठीत्वचो दुग्धवतां द्रुमाणां संपिष्य दुग्धे विपचेत्तु तेन ।
कल्केन यष्टीमधुकस्य सर्पिः सशर्करं पित्तरुजामयगघ्नम् ॥
अर्थ-सोंठ और तज इन के चूर्ण को वड आदि क्षीरवृक्ष है उन के दूध में औटाके घी और मिश्री मिलायके भक्षण करे. अथवा मुलहटी के चूर्ण को घी मिश्री के साथ खाय तो पित्तजन्य स्वरभंग को नाश करे ॥
पित्तस्वरभेद
कासमर्दकवार्ताकमार्कवैः स्वरसैर्युतम्।
क्षीरानुपानं पैत्तेषु पिबेत्सर्पिरतंद्रितः॥
अर्थ-कसोंदी, बैंगन और भांगरा इन के स्वरस में घी डालके पीवेऔर ऊपरसेदूध पीवे तो पित्त से उत्पन्न स्वरभेद दूर होय ॥
कफस्वरभेद
ब्रूयात्स्वनेन सततं कफरुद्धकंठः
स्वल्पं शनैर्वदति चापि दिवा विशेषात्॥
अर्थ-कफ के स्वरभेद से, कंठ कफ से रुका रहे, और मंद मंद तथा थोडा बोले दिन में बहुत बोले ॥
पिप्पलीयोग
पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं विश्वभेषजम् ।
पिबेन्मूत्रेण मतिमान्कफजे स्वरसंक्षये ॥
अर्थ-पीपल, पीपरामूल, काली मिरच और सोंठ इन के चूर्ण को गोमूत्र में डालके पीवेतो कफ से प्रगट हुआस्वरभंग नष्ट होय॥
आम्लवेतसादिचूर्ण
चव्याम्लवेतसकटुत्रयतित्तिडीकं तालीसजीरकतुगादहुनैःसमांशैः।
चूर्णं गुडप्रमुदितं त्रिसुगंधियुक्तं वैस्वर्यपीनसकफारुचिषुप्रशस्तम्॥
अर्थ- चव्य, अमलवेत, सोंठ, काली मिरच, पीपल, इमली, तालीसपत्र, जीरा, वंशलोचन, चित्रक, दालचीनी, पत्रजऔर इलायची इन का चूर्ण गुड में मिलायके खायतो स्वरभेद, पीनस, कफ और अरुचि इनपर उत्तम है॥
गंडूष
आर्द्रकस्वरसोपेतं सैंधवं च कटुत्रिकैः।
बीजपूररसैः सार्धंगंडूषःकफकेसरी॥
अर्थ-अदरख का रस, सैंधानिमक, सोंठ, मिरच, पीपल, बिजोरे का रस इन केगंडूष ( कुल्ले ) करे तो कफरूप हाथी के मारने को सिंहरूप है ॥
कटुकादिकाढा
कटुकातिविषापाठादारुमुस्तकलिंगकाः।
गोमूत्रक्वथिताः पेयाः कंठरोगविनाशनाः॥
अर्थ-कुटकी, अतीस, पाढ, दारुहलदी, नागरमोथा और इंद्रजों इन को गोमूत्र में औटायके पीवे तो कंठरोग को नाश करे॥
सन्निपातस्वरभेदनिदान
सर्वात्मके भवति सर्वविकारसंपत् तं चाप्यसाध्यमृषयः स्वरभेदमाहुः॥
अर्थ-सन्निपात के स्वरभेद में तीनों दोषोंके लक्षण होय हैं यह स्वरभेद असाध्य है ऐसे ऋषि कहते हैं ॥
अजमोदादिचूर्ण
अजमोदां निशां धात्रीं क्षारं वह्निं विचूर्णयेत्।
मधुसपिर्युतं लीढ्वात्रिदोषस्वरभंगनुत्॥
अर्थ-अजमोद, हलदी, आंवले, जवाखार और चित्रक इन का चूर्ण सहत और घी डालके चाटे तो सन्निपात के स्वरभंग को नाश करे ॥
फलत्रिकचूर्ण
फलत्रिकत्र्यूषणयावशूकचूर्णानि हन्युः स्वरभंगमाशु।
किं वा कुलित्थं वदनांतरस्थं स्वरामयं हंत्यथ पौष्करं वा॥
अर्थ-हरड, बहेडा, आवला, सोंठ, मिरच, पीपल और जवाखार इन का चूर्ण अथवा कुलथी अथवा पुहकरमूल ये स्वरभेद के नाशक हैं॥
निदिग्धिकावलेह
निदिग्धिका तुला ग्राह्या तदर्धंग्रंथिकस्य तु। तदर्धंचित्रकस्यापि दशमूलं च तत्समम्॥ जलद्रोणद्वये क्वाथ्यंगृह्णीयादाढकं ततः। पूते क्षिपेत्तदर्धंच पुराणस्य गुडस्य च॥ सर्वमेकत्र
कृत्वा तु लेहवत्साधु साधयेत्। अष्टौपलानि पिप्पल्यास्त्रिजातकपलं तथा॥ मरिचस्य पलं चैकं सर्वमेकत्रचूर्णितम् । मधुनः कुडवं दत्त्वा तदश्नीयाद्यथानलम् ॥ निदिग्धिकावलेहोयं भिषग्भिर्मुनिभिर्मतः । स्वरभेदहरो मुख्यः प्रतिश्यायहरस्तथा॥ कासश्वासाग्निमांद्यादीन् गुल्ममेहगलामयान्। आनाहंमूत्रकृच्छ्राणि हन्याद्ग्रंथ्यर्बुदानि च॥
अर्थ-कटेरी ४०० तोले, पीपरामूल २०० तोले, चित्रक १०० तोले और दशमूल १०० तोले ले २०२८ तोले जल में डालके औटावे जब२५६ तोले जल रहे तबउतारके कपडे से छान लेवे. इस में १२८ तोले पुराना गुड डाले फिर मंदाग्नि पर रखके अवलेह बनावे जब तयार हो जावेतब उतारके शीतल होनेपर ३२ तोले पीपल और दालचीनी, इलायची, पत्रज, मिलायके मिरच ४ तोले और सहत १६ तोले उस अवलेह में मिलावे फिर सब को एकजीव करके बलाबल विचारके भक्षण करे यह निदिग्धिकावलेह नाम से विख्यात है वैद्य और ऋषियों को मान्य है मुख्यकरके स्वरभंग को नाश करे और पीनस, खांसी, श्वास, मंदाग्नि, गोला, प्रमेह, कंठके रोग, अफरा, मूत्रकृच्छ्र, गांठ, अर्बुद इन सब रोगों को नाश करे॥
क्षयकृतस्वरभेद और मेदजस्वरभेदनिदान
धूम्येत वाक्क्षयकृते क्षयमाप्नुयाच्चसर्वेषु चापि हतवाक्परिवर्जनीयः । अंतर्गतस्वरमलक्ष्य पदं चिरेण भेदः क्षयाद्वदति दिग्धगलस्तृषार्तः॥
अर्थ-क्षयी के स्वरभेदवाले पुरुष के बोलते समय मुख से धूआंसा निकले और वाणीक्षय हो जाय, अर्थात् यथार्थ स्वर नहीं निकले. इस स्वरभेद में जिस समय वाणी हत हो जाय अर्थात् भोज का क्षय होने से बोलने की सामर्थ्य नहीं हो तब यह असाध्य होय है. और ओज का क्षय ( नाश ) नहीं होय तौसाध्य है. मेद के सम्बन्ध से कफ अथवा मेद इन से गला लिप्त होय अथवा मेद से स्वर के मार्ग रुक जाने से प्यास बहुत लगे, गले के भीतर बोले और मंद बोले ॥
असाध्यलक्षण
क्षीणस्य वृद्धस्य कृशस्य चापि चिरोत्थितो यस्य सहोपजातः।
मेदस्विनः सर्वसमुद्भवश्च स्वरामयो यो न स सिद्धिमेति॥
अर्थ-क्षीण पुरुष के, वृद्ध के, कृश के, बहुत दिन का, जन्म के संग ही प्रगट भया मोटे पुरुष के और सन्निपातोद्भव ऐसा स्वरभेद रोग साध्य नहीं होय॥
क्षयज व मेदजस्वरभंगचिकित्सा
क्षयजे स्वरभेदे तु तत्रोक्तविधिमाचरेत्।
कटुतिक्तकषायाद्यैर्मेदःस्वरहतिं जयेत्॥
अर्थ-क्षय से उत्पन्न स्वरभेद पर क्षयरोग पर जो चिकित्सा कही है वो करे और मेदजन्य स्वरभेदपर तीखे, कडुए और कषेले इत्यादि औषधियोंसे यत्न करे ॥
जातीफलावलेह
जातीफलैलामधुमातुलिंगैः पत्रैश्च लाजैर्युतपिप्पलीकैः।
कृतोवलेहः कुरुते नराणां कंठे ध्वनिं किनरनादतुल्यम्॥
अर्थ-जायफल, इलायची, सहत, बिजोरा, पत्रज, खील और पीपल इन का अवलेह करके सेवन करे तो किन्नरों के स्वर के समान मनुष्य के कंठ का स्वर करे ॥
काकजंघादिधार्य
काकजंघा वचा कुष्ठंपिप्पलीमधुसंयुतम्।
सप्तराचं मुखे धार्यं किन्नरैः सह गीयते॥
अर्थ-काकजंघा, बच, कूठ, पीपल इन के चूर्ण को सहत के साथ सेवन करे तो यह प्राणी सात ही दिन में किन्नरों के समान गान करे. इन औषधों की गोली बनायके ७ दिन बराबरमुख में रखे ॥
जातिदलादिलेह
जातीदलैलापिप्पलिलामज्जकमधुमातुलिंगदललेहः।
सतताभ्यासात्कुरुते किन्नरमधुरस्वरं रुचिरम् ॥
अर्थ-चमेली के पत्ते, इलायची, पीपल, पीलातृण, सहत, बिजोरे की केशर और तमालपत्र इन का अवलेह बनायके निरंतर सेवन करने से किंनर के समान मधुर और सुंदर स्वरवाला होवे ॥
गुडूच्यादिलेह
गुडूच्यपामार्गविडंगशंखिनीवचा तथा शुंठिशतावरी समम् ।
घृतेन लीढं प्रकरोति मानवं त्रिभिर्दिनैःश्लोकसहस्रधारिणम् ॥
अर्थ-गिलोय, ओंगा, वायविडंग, संखाहूली, वच, सोंठ और इन के चूर्ण को घी में मिलायके चाटने से मनुष्य को तीन दिन में नित्य हजार श्लोक धारण करने की शत्ति होवे॥
बदरीकल्क
बदरीपत्रकल्कं वा घृतभृष्टं ससैंधवम्।
स्वरोपघाते कासे च लेहमेनं प्रयोजयेत् ॥
अर्थ-बेर के पत्तों के कल्क में सेंधा निमक डालके घी में भून लेवे वहअवलेह स्वरोपघात, खांसी इन पर देना चाहिये॥
आरनालचूर्ण
विहितमसृणचूर्णान्यास्नालेन सार्धं।
कलितरुफलकृष्णासैंधवानि प्रलित्द्यात् ॥
अर्थ-बहेडा, पीपल और सैंधा निमक इन का चूर्ण कर कांजी में मिलायके पीवे तो स्वरभंग का नाश होवे इस में संदेह नहीं है॥
अभिलषति विजेतुं यः स्वरस्य प्रणाशम् ।
स पिबति सह दुग्धेनामलक्याः फलं वा ॥
अर्थ- जिस प्राणी को स्वरभंग जीतने की इच्छा होवे वह औटे हुए दूध में बारीक आवलों का चूर्ण डालके पीवे ॥
खदिरधार्य
तैलाक्तं स्वरभेदे वा खादिरं धारयेन्मुखे।
पथ्या पिप्पलियुक्तं वा संयुक्तं नागरेण वा॥
अर्थ-सरसों के तेल में कत्थे को भिगोय मुख में रक्खे अथवा हरडा और पीपल इन के चूर्ण में सोंठ का चूर्ण मिलायके मुख में रखे तो स्वर स्वच्छ होवे \।\।
गोरक्षवटी
रसभस्मार्कलोहस्य भावितस्य त्रिसप्तधा। क्षुद्राफलरसैर्मुद्गतुल्या कार्या वटी शुभा ॥ मुखस्था हरते सर्वं स्वरभंगमसंशयम्। गोरक्षनाथैर्गदिता स्वरामयि कृपालुभिः॥
अर्थ-पारे की भस्म, तामे की भस्म और लोहभस्म इन तीनों को एकत्र करके कटेरी के फलों के रस की भावना देकर मूंग के बराबरगोली बनावे इस में से एक गोली मुख में रक्खे और उस के रस को चूसता रहे तो निःसंदेह स्वरभेद को हरण करे यह गोरखनाथ सिद्ध ने कृपा करके प्राणियों के अनुग्रह के वास्ते यह स्वरभेद पर गुटिका कही है ॥
ब्राह्म्यादिचूर्ण
ब्राह्मीमुंडी वचा शुंठी पिप्पली मधुसंयुता।
सेविता सप्तरात्रेण जायते किंकिणिध्वनिः॥
अर्थ-ब्राह्मी, गोरखमुंडी, वच, सोंठ और पीपल इन के चूर्ण को सहत के साथचाटे तो यह चूर्ण मनुष्य के स्वर को कोकिला के स्वर समान, करे ॥
वचादिचूर्ण
ब्राह्मी वचाभया वासा पिप्पली मधुसंयुता।
अस्य प्रयोगात्सहसा किंनरैः सह गीयते॥
अर्थ-ब्राह्मी, वच, हरड, अडूसा और पीपल इन के चूर्ण को सहत में मिलायके चाटे तो किन्नर के समान उत्तम स्वर होय ॥
दुग्धामलकपान
दुग्धं प्रयुक्तामलकं नराणां नष्टस्वराणां सुखमातनोति ।
यथा मृगाक्षी सुरकिंनराणां कंदर्पदर्पप्रतिपीडनं च ॥
अर्थ-आंवले के चूर्ण को दूध में डालके पीवे तो स्वरभंगरोगवाले को सुख होता है जैसे मृगाक्षी सुरकिन्नरों के कामदेव का दलन सुख देता है॥
पथ्य
स्वेदो बस्तिधूमपानं विरेकः कवलग्रहः । नस्यं भालशिरावेधो यवा लोहितशालयः ॥ हंसाटवीताम्रचूडकेकीमांसरसाः सुराः। गोकंटकः काकमाची जीवंती वालमूलकम् ॥ द्राक्षा पथ्या मातुलिंगं लशुनं लवणार्द्रकम् । तांबूलं मरिचं सर्पिः पथ्यानि स्वरभेदिनाम् ॥
अर्थ-स्वेदन, बस्तिकर्म, धूमपान, विरेचन, औषधों का कवड बना कर मुख में रखना, नास, मस्तक की नस का वेधना, जों, लाल चांवल, हंस, वनका मुरगा, मोर, इन के मांस का रस, दारू, गोखरू, मकोय, जीवंती ( डोडी ) का साग, नवीन मूली, दाख, हरड, बिजोरा, लहसन, निमकमिला अदरख, पान की बीडीकाली मिरचऔर घीये स्वरभेद ( आवाजका मंद हो जाना ) रोगवालेकोपथ्य कहेहै॥
स्वरभेदपर अपथ्य
आम्रः कपित्थं बकुलं शालकं जांबवानि च। तिंदुकानि कषायाणिवमिं स्वप्नं प्रजल्पताम्॥अन्नपानं विरुद्धं च स्वरभेदे विवर्जयेत्॥
अर्थ-आम, कच्चा कैथ, मौलसिरी, भसीडा, जामुन, तेंदू के फल और कपेले रस, वमन, सोना, बहुत बोलना तथा विरुद्ध अन्न पान ये सब स्वरभेदरोगी को वर्जित हैं ॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरेस्वरभंगरोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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अरुचिकर्मविपाकः।
श्रद्धाहीनो धनी अदाता दानरतिर्वातामसगुणान्वितो यः॥ सोरुचिमान् शूली वा जायते॥ तस्य प्रायश्चित्तम् ॥ कृच्छ्रमतिकृच्छ्रंचांद्रायणं व्यस्तं समस्तं वा व्याधितारतम्येन कुर्यात् ॥ अत्राशक्तौ धनी च नित्यं पंचाशद्ब्राह्मणभोजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नेन कारयेत् ॥ अत्राप्यशक्तौ॥ जपं होमं तथा तीर्थस्नानं वापि समाचरेत् । तीव्रवैराग्यसंयुक्तः कुर्याद्ब्राह्मणभोजनम् ॥
अर्थ-जो प्राणी धनाढ्यहोकर श्रद्धाहीन, अदाता अथवा दान करे तौभी तामसी दानकरे उस प्राणी के अरुचि ( नफरत ) का रोग अथवा शूलरोग होय इस का प्रायश्चित्त कहताहूं. उस को कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र, चांद्रायणव्रत ये संपूर्ण अथवा इन मेंसे कोईसा एकव्याधि के तारतम्य करके प्रायश्चित्त करे. यदि इन प्रायश्चित्तों के करनेमें अशक्त होवेऔर धनाढ्यहोय तो नित्यप्रति पचास ब्राह्मणों को मिष्टान्न भोजनकरावे. यदि ये भी न हो सके तो जप, होम तथा तीर्थ स्नानये करे तथा तीव्रवैराग्य धारण तथा ब्राह्मणभोजन करावे तो रोगसे छूट जावे॥
ज्योतिःशास्त्राभिप्राय तत्प्रतीकार
अतिपरिभूतक्षपणः सहजयुतो मानवो भवति । जीवे मंदाग्निविजितो दुश्चित्तको पापकर्मा च ॥ दुश्चिकित्स्यस्थानस्थितगुरोः प्रागुक्तजपहोमस्नानादिकं विदध्यात् ॥
अर्थ-जिस प्राणी के जन्मसमय में सहजस्थान ( तीसरे पर में ) क्रूर ग्रह होवे
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सामान्यचिकित्सा
इच्छाविनाशभयजेषु च बाधकेषु भावान्भवाय वितरेत्खलु साध्यरूपान्। अर्थेषु चातिपतितेषु पुनर्भवाय पौराणिकैः श्रुतिपथैरनुमानयेत्तम् ॥
अर्थ-इच्छानाश अथवा भय से उत्पन्न अरुचि पर सुख होने के वास्ते इच्छितपदार्थ जो मिल सके वो देवे और उस के भय को दूर करे और द्रव्यनाश के होनेसेजो अरुचि प्रगट हुई पुराण ( भागवत वेदांतआदि शास्त्रों को ) सुने जिस ज्ञान प्रकट होवे ॥
पित्तजन्यअरोचकनिदान
कट्वाम्लमुष्णं विरसं च पूति पित्तेन विद्याल्लवणं च वक्त्रम्॥
अर्थ-पित्त की अरुचि से कडुआ, खट्टा, गरम, विरस, दुर्गंधयुक्त ऐसा मुख होय॥
कफजन्यअरोचकनिदान
माधुर्यपैच्छिल्यगुरुत्वशैत्यविबद्धसंबद्धयुतं कफेन ॥
अर्थ-कफ की अरुचि से खारा, मीठा, पिच्छल, भारी, शीतल मुख होय है औरमुख बंधा सरीखा अर्थात् खाय नहीं और आंत कफ से लिप्त होय ॥
अरोचके शोकभयातिलोभक्रोधाद्यहृद्याऽशुचिगंधजे स्यात् । स्वाभाविकं चास्यमथारुचिश्च त्रिदोषजे नैकरसं भवेत्तु ॥ हृच्छूलपीडनयुतं पवनेन पित्ततृट्दाहशोषबहुलं सकफप्रसेकम् । श्लेष्मात्मकं बहुरुजं बहुभिश्च विद्याद्वैगुण्यमोहजड़ताभिरथापरं च ॥
अर्थ-शोक, भय, अतिलोभ, क्रोध, अहृद्य ( अर्थात् मन को बूरी लगे ऐसीवस्तु ) अपवित्र वास इन से प्रगट हुई अरुचि में मुखस्वाभाविक रहे अर्थात्वात जादिकों के सदृश कसेला, खट्टा आदि नहीं होय. सन्निपात की अरुचि में अन्न सेअरुचि तथा मुख में अनेक रस मालूम हो. वात की अरुचि से हदय में शूल और वेदना होती है. पित्त से प्यास, दाह और चूषनेके सदृश पीडा ये लक्षण होते हैं कफ की अरुचि में मुखसे कफ गिरे, सन्निपात की अरुचि में पीडा अत्यन्त होय वैगुण्य कहिये मन की व्याकुलता, मोह, जडत्वइन लक्षणों से अपर कहिये आगंतुज अरोचक जाने. भूखहोय परंतु खाने की सामर्थ्य न होना इस को अरुचि कहतेहैं आप को प्रिय भी अन्न किसी ने दिया हो परंतु खायनहीं उस को अन्नाभिनन्दन
कहते हैं. अन्न के स्मरण, श्रवण, दर्शन और वास इन से जिस को त्रास होय, उस को भक्तद्वेषकहते हैं इस प्रकार ये रोग तीन प्रकार का है. इसी वास्ते चरक सुश्रुत ने अरोचक शब्दकरके संग्रह करा है ॥
गंडूष
किंचिल्लवणसंयुक्तमारनालं विपाचयेत्।
तेन गंडूषमात्रेण आस्यवैरस्यमृच्छति॥
अर्थ-कांजी में थोडासा निमक डालके औटावे फिर इस के कुल्ले करे तो मुख की विरसता अर्थात् जायके का न आना दूर होवे ॥
कवलग्राह
सिताव्योपकपित्थानां चूर्णं क्षौद्रेण तद्वटी।
सर्वारोचकशांत्यर्थंधारयेद्वदनांबुजे॥
अर्थ-मिश्री, सोंठ, मिरच, पीपल और कैथ इन का चूर्ण करके सहत में गोली बनावे इस को मुख में रखे तो अरुचि दूर होवे॥
विडंगचूर्ण
विडंगचूर्णकर्षैकं क्षौद्रेश्चतुर्गुणैर्युतम् ।
असाध्यमपि संहन्यादरुचिं वक्रधारणात् ॥
अर्थ-वायविडंग का चूर्ण १ तोले, सहत४ तोले डालके गोलीबनावेतो असाध्य भी अरुचि होवे तो उस का भी नाश होय ॥
अम्लिकाकवल
अम्लिकायुडतोयं च त्वगेलामरिचान्वितम्।
अभक्तच्छंदरोगेषु शस्तं कवलधारणम्॥
अर्थ-जिस प्राणी की अन्न पर अरुचि होवे उस को इमली के पत्ते में गुड, जल, दालचीनी, इलायची और मिरच इन का चूर्ण डालके पीवेतो अरुचि दूर हो॥
कुष्ठादिकवल
कुष्ठसौवर्चलाजाजीशर्करामरिचं बिडम् । धान्यैलापद्मकोशीरपिप्पल्यश्चंदनोत्पलम् ॥ लोध्रतेजोवती पथ्या त्र्यूषणं सयवाग्रजम्। आर्द्रदाडिमनिर्यासः साजाजीशर्करायुतम् ॥ सतैलमाक्षिका ह्येते चत्वारः कवलग्रहाः । चतुरो रोचकान् घ्नंति वाताद्येकजसर्वजान्॥
अर्थ-कूठ, संचरनिमक, जीरा, मिश्री, काली मिरच और विडनिमक इन का चूर्ण तथा धनिया, इलायची, पद्माख, खस, पीपल, चंदन सपेद कमल इन का चूर्ण, लोध, मालकांगनी, हरड, सोंठ, मिरच, पीपल, जवाखार इन का चूर्ण. अदरख अनारदाना, इन के रस में जीरा और मिश्री मिलावे ये चार योग सरसों का तेल और सहत के साथ खाय तो कवल यानी गस्से खाने की शक्ति हो. और वात, पित्त, कफ और सन्निपात इन से उत्पन्न ४ प्रकारकी अरुचि को नाश करे ॥
नींबका पन्हा
भागैकं निंबुजं तोयं षड्भागं शर्करोदकम् । लवंगमरिचोन्मिश्रं पानकं पानकोत्तमम् ॥ निंबूरसभवं पानमत्यम्लं वातनाशनम् । वह्निदीप्तिकरं रुच्यं समस्ताहारपाचकम् ॥
अर्थ-नीबू का रस १ भाग, मिश्री का सरबत ६ भाग लेकर उस में लौंग का और काली मिरचों का चूर्ण डालके पन्हा करे यह सब पन्हों में उत्तम है. यह नीबूका पन्हा अत्यंत खट्टा, वादीनाशक, अग्निप्रदीप्त करता, रुचिकारक तथा सर्व आहार का पाचक है ॥
मुखधावन
अजाजीमरिचं कुष्ठंबिडं सौवर्चलं तथा।
मधुकं शर्करा तैलं वातिके मुखधावनम् ॥
अर्थ-जीरा, काली मिरच, कूठ, विडनिमक, संचरनिमक, मूलहटी, मिश्री और सरसों का तेल इन सब को एकत्र करके मुख को धोवेअर्थात् कुल्ले करे तो वादीकी अरुचि दूर हो ॥
दूसरा प्रकार
कारंजं दंतकाष्ठंच विधेयमरुचौ सदा । किंचिल्लवणसंयुक्तमारनालं विपाचयेत् ॥ तेन गंडूषकं कुर्यादास्य-वैरस्य शांतये ॥
अर्थ-मुख की रुचि चली गई हो तो कंजे की दांतन से दांतों को घिसे अर्थात् दांतन करे तथा कांजी में थोडा निमक मिलायके कुल्लेकरे तो फिर रुचि हो जावे ॥
तीसरा प्रकार
त्रित्र्यूषणानित्रिफलारजनीद्वयं च चूर्णीकृतानि यवशुकविमि-
श्रितानि । क्षौदान्वितानि वितरेन्मुखधावनार्थमन्यानि तिक्तकटुकानि च भेषजानि ॥
अर्थ-दालचीनी, इलायची, पत्रज, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, - हलदी, दारुहलदी, जों के कांटे इन का चूर्ण सहत में मिलायके मुख को धोवे तथा यह कडुए चरपरी औषध लेवे, तो अरुचि इन का नाश होवे ॥
शर्करादिभक्ष
शर्करा दाडिमं चाथ द्राक्षा खर्जूरमेव च । केसरं मातुलिंगस्य सिंधुना मधुनापि वा॥ आस्यवैरस्यशमनं भक्षयेत्कर्षसंमितम् ॥
अर्थ-मिश्री, अनारदाना, मुनक्का, खजूर, बिजोरे की केशर, सैंधा निमक अथवा सहत से युक्त इन में के किसी एक के साथ तोले भर भोजन करने से मुख में रुचि होवे ॥
पानक
पक्वाम्लिका सिता शीतवारिणा वस्त्रगालितम्। एलालवंगकर्पूरमरीचैरवधूलितम्॥ पानकस्यास्य गंडूषंधारयित्वा मुखेतुरः। अरुचिं नाशयत्येव पित्तं प्रशमयेद्यथा ॥
अर्थ-पकी हुई इमली को जल में भिगोकर मसल कर छान लेवे फिर इस में मिश्री, शीतल जल, इलायची, लौंग, कपूर और मिरच इन का चूर्ण डालके पन्हा बनावे इस को मुख में धारण करने से अरुचि का नाश होवे तथा पित्तशांत हो ॥
तालीसादिचूर्ण
तालीसं मरिचं शुंठी पिप्पली वंशरोचना। एकद्वित्रिचतुः पंच कषैर्भागान् प्रकल्पयेत् ॥ एलात्वचोस्तु कर्षार्धंप्रत्येकं भागभावहेत् । मृतं वंगं मृतं ताम्रंसमभागानि कारयेत् ॥ द्वात्रिंशत्कर्षतुलिता प्रदेया शर्करा बुधैः। तालीसाद्यमिदं चूर्णं रोचनं पाचनं स्मृतम्॥ कासश्वासज्वरहरं छर्द्यतीसारनाशनम्। शोषाध्मानहरं प्लीहाग्रहणीपांडुरोगजित् ॥
अर्थ-तालीसपत्र १ तोला, काली मिरच २ तोले, सोंठ् ३ तोले, पीपल ४ तोले वंशलोचन ५ तोले, इलायची, दालचीनी ये दोनों छः छः मासे लेवे, वंग की भरम और तामे की भस्म दोनों आठ आठ तोले. मिश्री ३२ तोले इस को कूट पीस चूर्ण
बनावे. उस में पूर्वोक्त मिश्री को मिलायके सेवन करे तो मुख में रुचि प्रगट हो. तथा अन्न पचे तथा खांसी, श्वास, ज्वर, वमन, अतिसार, शोष, पेटका फूलना, कामला, संग्रहणी और पांडुरोग ये दूर हो ॥
खांडवचूर्ण
तुल्यं तालीसचव्योषणलवणगजाद्विः कणाग्रंथ्यजातीवृक्षाम्लाग्नित्वचं त्रिर्घनबदरधनैलाजमोदाम्लविश्वम्। सार्ध-श्वेतोंघ्रिसारो तिसृतिकृमिवमीखांडवोरुच्यजीर्णे गुल्माध्मानानलास्योदरगलगुदहृन्मृद्गदश्वासकासे॥
अर्थ-तालीसपत्र १, चव्य १, मिरच १, सैंधानिमक १, नागकेशर १, पीपल २, पीपरामूल २, जीरा २, इमली २, चित्रक २, दालचीनी २, नागरमोथा ३, सुखेबेर ३, धनिया ३,इलायची ३, अजमोद ३, अमलवेत ३, सोंठ और मिश्री १९ तोले लेवे तथाअनारदाना ९॥ तोलेइन सब औषधों का बारीक चूर्ण करके अनुपान के साथ अतिसार, कृमि, वांति, अरुचि, अजीर्ण, गोला, पेट का फूलना, मंदाग्नि, मुखरोग, उदररोग, गलरोग, बवासीर, हृदयरोग, मृत्तिकाजन्य रोग, श्वास और खांसी इनपर देवे ॥
यवानीखांडवचूर्ण अरोचकादिपर
यवानी दाडिमं शुंठी तिंतिडीकाम्लवेतसौ । बदराम्लं च कुर्वीत चतुःशाणमितानि च ॥ सार्धद्विशाणं मरिचं पिप्पली दशशाणिका। त्वक्सौवर्चलधान्याकं जीरकं द्विद्विशाणकम् ॥ चतुःषष्टिमितैः शाणैः शर्करामत्रयोजयेत् । चूर्णितं सर्वमेकत्र यवानीखांडवाभिधम् ॥ चूर्ण जयेत्पांडुरोग हृद्रोगं ग्रहणीज्वरम् । छर्दिशोषातिसारांश्च प्लीहानाहविबंधताम् ॥अरुचिं शूलमंदाग्निमशोजिह्वागलामयान् ॥
अर्थ-अजमोद, अनारदाना, सोंठ, इमली, अमलवेत, बेरकी खटाई, ये छः औषध चार चार शाण लेवे. काली मिरच २॥ शाण, पीपल १० शाण, दालचीनी, संचरनिमक, धनिया, जीरा ये प्रत्येक दो दो शाणलेवे. मिश्री ६४ शाण, इन सब औषधोंको कूट पीसके चूर्ण करे इस चूर्ण को यवानीखंड कहते हैं. इस चूर्ण के सेवन करने से पांडुरोग, हृदयरोग, संग्रहणी, ज्वर, छर्दि ( वमन ), शोष, अतिसार प्लीहा, अफरा, मल का रुकना, अरुचि, शूल, मंदाग्नि, बवासीर, जीभऔर गले काविकार इन सब को दूर करे ॥
कारव्यादिगुटिका
कारव्यजाजीमरिचं द्राक्षावृक्षाम्लदाडिमम् । सौवर्चलं गुडः क्षौद्रमेषांकार्या वटी शुभा॥ बदरास्थिमिता सास्ये धार्यारोचकनाशिनी ॥
अर्थ-कलोंजी, जीरा, काली मिरच, दाख, अमलवेत, अनारदाना, संचरनिमक, गुड और सहत ये सब को एकत्र खरल करके बेरकी गुठली के बराबर गोली बनायके मुख में रखे तो अरुचि रोग दूर होय ॥
खंडार्द्रकयोग
आर्द्रकस्य सितायाश्च द्विगुणाष्टपलानि च । निष्कद्वादशक तीक्ष्णमष्टनिष्का च मागधी ॥ अष्टनिष्कं च तन्मूलं पंचनिष्क च नागरम् । जातीफलैलादहनवंशाख्याः पंच निष्ककाः ॥ सर्वाण्येतानि शुष्काणि चूर्णं कृत्वा पृथक पृथक् । आर्द्रकंखंडशः कृत्वा गोघृतेष्टपले पचेत् ॥ शर्करापूर्णचूर्णं च आर्द्रकं सह मेलयेत् । मंडलं सेवयेन्नित्यं महापित्तविनाशनम् ॥ अम्लपित्तं निहंत्याशु सर्वपित्तविकारजित् । सर्वारुचिं वातरोगं मंदाग्नि च नियच्छति ॥
अर्थ–अदरख ६४ तोले, मिश्री ६४ तोले, काली मिरच ४ तोले, पीपल ३ तोले, पीपरामूल ३ तोले, साँठ १॥ तोला, जायफल, इलायची, चित्रक, वंशलोचन ये प्रत्येक डेढ २ तोला लेवे इन सूखी हुई औषधोंका पृथक् २ चूर्ण को फिर अदरख के टुकडे बारीक करके ३२ तोले घी में गेरके तल लेवे फिर मिश्री और सब चूर्ण को खटाई में मिलाय नित्यप्रति ४० दिनपर्यत सेवन करे तो यह खंडार्द्रकलेह घोर पित्त का नाश करनेवाला है. अम्लपित्त को बहुत जल्दी दूर करे और सर्वपित्त के विकारों को नष्ट करे तथा सर्व प्रकार की अरुचि, वादी के रोग, मंदाग्नि इन सब को नष्ट करे
राजिकादिशिखरिणी
राजिका जीरको कुष्ठोभृष्टहिंगु च नागरम् । सैंधवं दधि गोः
सर्वं वस्त्रपूतं प्रकल्पयेत् ॥ तावन्मानं क्षिपेत्तत्र यथा स्याद्रुचिरुत्तमा । तक्रमेतद्भवेत्सद्यो रोचनं वह्निदीपनम्॥
अर्थ-राई, जीरा, कूट, भुनी हुई हींग, सोंठ, सैंधा निमक और गौ का दही ये सबपदार्थ यथायोग्य एकत्र कर वस्त्र में डालके छान लेवे यहां छांछ अरुचि को नाश करे और जठराग्नि को दीपन करे है यह राजिकादि शिखरन कहाती है ॥
आर्द्रकयोग
धौतं खंडितमार्द्रकं च सलिलैः क्षिप्तं सुतप्ते घृते सिंधूत्थं मरिचं सुजीरयुगुलं चूर्णीकृतं प्रक्षिपेत् । चूर्णं भृष्टयवोद्भवं च वितुषंहिंग्वाज्यधूमे दहेदित्थं दोषविहीनमार्द्रकवरं सुस्वादु संजायते ॥
अर्थ-अदरख को जल से धोय स्वच्छ करके उस के टुकडे २ कर लेवे फिर घीको कढाई में चढाय उस में इस अदरख को डालके परिपक्वकरे. फिर सैंधानिमक काली मिरच, जीरा, काला जीरा इन का चूर्ण उस में डालके कुछ गरम करे फिरजौओं को भूनके उन के चून को घी में हींग डालके भून लेवे और सब में मिलायदेवे. इस प्रकार बना हुआ अदरख दोषहीन, स्वादिष्ठऔर अरुचिनाशक होता है ॥
ताम्राशिखरिणी
गव्यमावर्तितं दुग्धं निबद्धं दधि माहिषम् । एकीकृत्य पटे घृष्टं शुभ्रशर्करया शुभम् ॥ एलालवंगकर्पूरमरिचैश्च समन्विता । ताम्रा शिखरिणी कुर्याद्रुचिं सकलवल्लभा ॥
अर्थ-गौ का दूध, भैंस का दही इन दोनों को एकत्र करके कपडे में डाल और सपेद बूरा मिलायके धीरे २ हाथ से मलके छान लेवे उस में इलायची, लौंग, कपूर और काली मिरच ये पदार्थ यथायोग्य डालके सिखरन बनावे. इस का नाम ताम्राशिखरिणी है. यह रुचि को उत्पन्न करे तथा सर्व प्राणियों को प्यारी है ॥
आमलकादि चूर्ण
आमलं चित्रकः पथ्या पिप्पली सैंधवं तथा। चूर्णितोयं गणो ज्ञेयः सर्वज्वरविनाशनः ॥ भेदी रुचिकरः श्लेष्मजेता दीपनपाचनः॥
अर्थ-आंवले १, चित्रक २, छोटी हरड ३, पीपल ४, सैंधानिमक ५ इन पांचऔषधों को समान समान भाग लेकर चूर्ण को यह सर्वज्वरों को दूर करे तथा मलादिकको भेदन करे और रुचिदाई तथा कफ दूर होय, अग्नि प्रदीप्त होय और अन्न पचे॥
कर्पूरादिचूर्ण
कर्पूरचोचकंकोलजातीफलदलैः समैः। लवंगं नागमरिचं कृष्णा शुंठी विवर्धिताः॥ चूर्णं सितासमं ग्राह्यं रोचनं क्षयकासजित् । वैस्वर्यश्वासगुल्मार्शश्छर्दिकंठामयापहम् ॥ प्रयुक्तं चान्नपानेषु भिषजारोगिणां हितम् ॥
अर्थ-कपूर, दालचीनी, कंकोल, जायफल और पत्रजये सब प्रत्येक एक २ तोलालेवे. लोग २ तोले, नागकेशर ३ तोले, काली मिरच ४ तोले, पीपल ५ तोलेऔर सोंठ ६ तोले इस प्रकार लेके चूर्ण करे फिर मिश्री मिलायके सेवन करे तो रुचि करे खांसी, स्वरभेद, श्वास, गोला, बवासीर, छर्दि, कंठरोग इन को नाश करे, इस को भोजन में मिलायके अथवा जल में मिलायकेदेवे॥
चव्यादिचूर्ण
चव्याम्लवेतसकटुत्रयतिंतिडिकतालीसजीरकतुगादहनैः समांशै।
चूर्णंगुडप्रमुदितं त्रिसुगंधियुक्तं वैस्वर्यपीनसकफारुचिषुप्रशस्तम्॥
अर्थ-चव्य, अमलवेत, सोठ, मिरच, पीपल, अमलवेत, तालीसपत्र, जीरा, वंशलोचन, चित्रक, दालचीनी, पत्रज, इलायची इन का चूर्ण गुड में मिलायके देखें तो स्वरभेद, पीनस, कफ, अरुचि को नष्ट करे ॥
आर्द्रकमातुलंगावलेह
आर्द्रकस्वरसं प्रस्थं तदर्धांशं गुडं क्षिपेत् । कुडवं बीजपूराम्लं गालयित्वा विचक्षणः ॥ सर्वंमंदाग्निना पक्त्वा तत्रेमानिविनिःक्षिपेत् । त्रिजातकं त्रिकटुकं त्रिफलायासमेव च॥ चित्रकं ग्रंथिकं धान्यं जीरकद्वयमेव च । कर्षांशं श्लक्ष्णचूर्णं तु मेलयित्वा तु भक्षयेत् ॥ अरोचकक्षयहरमग्निदीप्तिकरं परम्। कामलापांडुशोकघ्नंकासश्वाप्सहरं परम्॥ आध्मानोदरगुल्मांश्च प्लीहंशूलंच नाशयेत् ॥
अर्थ-६४ तोलेअदरखकारस, गुड ३२ तोले, बिजोरे का रस १६ तोले इनसब को मंदाग्निपर पचावेफिर इसमें दालचीनी, पत्रज, इलायची,सोंठ,मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, धमासा, चित्रक, पीपरामूल, धनिया, जीरा इन प्रत्येकका चूर्णसोले२ भर लेवेसबको पूर्वोक्तरस में मिलायकेखाय तो
अरुचि, क्षय, मंदाग्नि, कामला, पांडुरोग, शोष, खांसी, श्वास, अफरा, उदर, गोला, प्लीहा और शूल इन को नष्ट करे ॥
जीरकादिधृत
पिष्ट्वाजाजी सधान्याकं घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
कफपित्तारुचिहरं मंदानलवमिं जयेत् ॥
अर्थ-जीरा और धनिया इन का कल्क ६४ तोले घी में डालके घृत को पक्क करे यह घृत कफपित्त से हुई अरुचि को नाश करे तथा मंदाग्नि और वमन इन को नष्ट करे है ॥
सूतादिगुटिका
सूतं गंधाभ्रमगधाम्लीकामगधसैंधवैः ।
गुटिकारोचकहरी जिह्वावदनशुद्धिकृत् ॥
अर्थ-पारा, गंधक, अभ्रकभस्म, पीपल, इमली, पीपरामूल और सैंधा निमक इन सबकी गोली बनायके मुख में रक्खे तो अरुचि को नष्ट करे तथा जिह्वाऔर मुख की शुद्धि करे ॥
लघुचुक्रसंधान
गुडक्षौदारनालानि समस्तानि यथोत्तरम् । शंसंति द्विगुणान्भागान्सम्यक् सूक्तस्य सिद्धये ॥ यन्मस्त्वादिशुचौ भांडे सक्षौद्रं गुडकांजिकम् । त्रिरात्रं धान्यराशिस्थं सूक्तं चुक्रंतदुच्यते ॥
अर्थ-गुड १ भाग, सहत २ भाग और कांजी ४ भाग इस प्रकार लेकर चिकने बासनमें भरके धान की राशि में तीन दिन रख देवे. इस को सूक्तचुक्रकहते हैं यह सर्व प्रकार की अरुचिरोग को नाश करे ॥
केसरादिलेह
केसरं मातुलुंगस्य सैंधवं मधुनापि वा।
आस्यवैरस्यशमनं भक्षयेत्कर्षसंमितम् ॥
अर्थ-बिजोरे की केसर को सैंधानिमक अथवा सहत इन के साथ एक तोला खायतो मुखकी विरसता ( बुरा स्वाद ) दूर होवे ॥
शमयति केसरमरुचिं सलवणघृतमाशु मातुलुंगस्य।
दाडिमचर्वणमथवा चरको रुचिकारि सूचयामास॥
अर्थ-बिजोरेकी केसर, सैंधा निमक इन को सहत में मिलायके सेवन करे तो अरुचि को दूर करे अथवा अनार का चवाना रुचि करता है इस प्रकार चरक ऋषि ने कहा है ॥
आर्द्रकदाडिमयोग
जिह्वाकंठविशोधनं तदनुच स्याच्छृंगबेरान्वितं सिंधूत्थंहितमत्र चाथ मधुना शस्तो रसो दाडिमः। अग्न्युद्बोधकराण्यजीर्णशमनान्याहुस्तथा भेषजान्यन्नारोचकहृत्प्रयोगमसकृत्तत्तत्प्रदेयानि च ॥
अर्थ-प्रथम जिव्हा और कंठ इन को शुद्धि करनेवाली औषध लेकर फिर अदरख और सैंधा निमक खायअथवा अनारदाना और सहत खाय तथा अग्निप्रदीप्त करनेवाली और अजीर्णनाशक औषध सेवन करने से अरुचि रोग दूर होय॥
दाडिमचूर्ण
द्वे पले दाडिमादष्टौ खंडाद्व्योषात्पलत्रयम्। त्रिसुगंधिपलं चैकंचूर्णमेकत्रकारयेत्॥ दीपनं रोचनं हृद्यं पीनसश्वासकासजित् ॥
अर्थ-अनारदाना ८ तोले, मिश्री ३२ तोले, सोंठ, मिरच, पीपल ये चार २ तोले, दालचीनी, इलायची और पत्रज ये ४ तोले इन सब को एकत्र चूर्ण करके खाय यह दीपन, रोचन और हदय को हितकारी है तथा पीनस, श्वास और खांसी इन को नाश करे ॥
पिप्पल्यादि चूर्ण
पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः। मरिचं दीप्यकं चैव वृक्षाम्लं साम्लवेतसम् ॥ एलालवंगशालूकदधित्यं चेति कार्षिकम्। प्रदेयं चातिशुद्धायाः शर्करायाश्चतुः पलम् ॥ चूर्णमग्निप्रसादः स्यात्परमं रुचिवर्धनम्। पीहकार्यमथार्शांसि श्वासं शूलं वरं वमिम् ॥ निहंति दीपयत्यग्निं बलवर्णरुचिप्रदम्। वातानुलोमनं हृद्यं जिह्वाकंठविशोधनम्॥
अर्थ-पीपर, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, काली मिरच, अजमायन, अमलवेत, डासरा, इलायची, लौंग, जायफल और कैथये एक एक तोला, मिश्री १६ तोले इन को कूट पीस चूर्ण बनावेयह अग्नि को प्रदीप्तकरता, रुचिकारी तथाप्लीह,
कार्श्य(कृशता), बवासीर, श्वास, शूल, ज्वर और वमन इन को दूर करे तथा वायु का अनुलोमन करे अर्थात् बिगडी हुई वायु को शुद्ध करे और हृदय, जीभ और कंठ इन को शुद्ध करेहै ॥
छत्रादिचूर्ण
छत्राबीजं तिन्तिडीकं द्राक्षा दाडिमजीरकम् ।
सौवर्चलं गुडं क्षौद्रं सर्वारोचकनाशनम् ॥
अर्थ-आंवले, इमली, दाख, अनारदाना, जीरा, संचरनिमक, गुड और सहत इन सब को एकत्र करके सेवन करे तो अरुचि को नाश करे ॥
अम्लिकादिपेय
सौवर्चलं गुडं क्षौद्रं सर्वारोचकनाशनम् ॥
अर्थ-संचरनिमक, गुड और सहत इन सब को मिलायके सेवन करे तो सर्व प्रकार का अरुचिरोग दूर हो ॥
शुंठ्यादिचूर्ण
त्रुटित्वक्केसरं पुष्पं वल्लिजंसकणौषधम्। समखंडं भागवृद्धं चूर्णितं भक्षयेद्गदी॥ श्वासकासप्रसेकेषु हत्पार्श्वचिजे गदे। गलामये प्रशस्तं च मुखपाकविधौ हितम् ॥
अर्थ-इलायची, दालचीनी, नागकेशर, लौंग, काली मिरच, पीपर और सोंठ ये पदार्थ एक से दूसरा वृद्धि के क्रम से लेवे. तथा सब चूर्ण के समान मिश्री मिलावे इस चूर्ण को सेवन करे तो श्वास, खांसी, मुख से पानी का छूटना और हृदय, पार्श्व, अरुचि, गले का रोग और मुखपाक ( छाले ) इन सब रोगों को दूर करे ॥
त्र्यूषणादिवटी
यूषणकपित्थशर्करारोचकेन च साधयेद्वटी ।
सेविता च सा जायते जरो भीमसेनवद्भक्षयेल्लालसः॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, कैथ, मिश्री और संचरनिमक इन की गोली बनायके खायतो वृद्धावस्था दूर हो तथा भीमसेन के समान भूंख लगे ॥
अमृतप्रभावटी
मरिचं पिप्पलीमूलं लवंगं च हरीतकी। यवानी तिन्तिडीकं च दाडिमं लवणत्रयम् ॥ एतानि पलमात्राणि मागधीक्षारचित्र-
कम् । त्रिजाजीनागरं धान्य एला धात्रीफलं समम् ॥ एतान्द्विपलिकान् भागान् भावयेद्बीजपूरकैः। भावनात्रितयं दत्त्वा गुटिकां कारयेद्बुधः॥ छायाशुष्कां प्रकुर्वीत अजीर्णस्य प्रशांतये । अग्निं च कुरुते घोरं गुटिका चामृतप्रभा ॥
अर्थ-मिरच, पीपलामूल, लौंग, हरड, अजमायन, इमली, अनारदाना, विडनिमक, कचिया निमक और साह्मर ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे. इन सब का चूर्ण करके इस में बिजोरे के रस की तीन भावना देकर गोली बनाय ले इन को छाया में सुखायके देवे तो अजीर्ण को नष्ट करे. तथा अग्नि को बढाये इस को अमृतप्रभा गुटिका कहते हैं ॥
आकल्लकादिचूर्ण
आकल्लकं सैंधववह्निशुंठीधात्र्यूषणं दीप्यसमांशपथ्या। रसेन भाव्यं फलपूरकेन मंदानलत्वेह्यमृतप्रभेयम्॥ कासे गलामये श्वासे प्रतिश्याये च पीनसे । अपस्मारे तथोन्मादे सन्निपाते सदा हिता ॥
अर्थ-अकरकरा, सैंधानिमक, चीता, सोंठ, आंवले, काली मिरच, अजमायन और हरड ये बराबर लेवे इन सब का चूर्ण करके बिजोरेके रस की भावना देवे तो यह मंदाग्नि रोगपर अमृतप्रभाचूर्ण बने यह खांसी, कंठ के रोग, श्वास, सरेकमा, पीनस, अपस्मार ( मृगी ) उन्माद और सान्निपात रोग इनपर सदैव हित है ॥
लवणार्द्रकयोग
भोजनादौ सदा पथ्यं लवणार्द्रकभक्षणम्।
रोचनं दीपनं वह्नेर्जिह्वाकंठविशोधनम् ॥
अर्थ-भोजन करने के थोडी देर पहले सैंधानिमक और अदरखको मिलायके खाने से रुचि करे, अग्नि को दीपन करे तथा जीभ और कंठ को शोधन करे ॥
शृंगवेरादिलेह
शृंगवेररसं चापि मधुना सह योजयेत्।
अरुचिश्वासकासघ्नं प्रतिश्यायकफापहम्॥
अर्थ-अदरख के रस में सहत डालके देवे तो अरुचि, श्वास, खांसी, पीनस और कफ के विकारों को नष्ट करे॥
त्वङ्मुस्तादिचूर्ण
त्वङ्मुस्तमेलाधान्यानि मुस्तामामलकत्वचा। त्वक् च दार्वीयवान्याश्च पिप्पली तेजवत्यपि ॥ यवानी तिंतिडीकं च पंचैते मुखशोधनाः। श्लोकपादैरभिहिताः सर्वारोचकनाशनाः॥
अर्थ-दालचीनी, नागरमोथा, इलायची, धनिया अथवा नागरमोथा, आंवले, दालचीनी, दारुहलदी, अजमायन अथवा पीपर और जलपीपर अथवा अजमायन और इमली ये पांच योग मुख की शुद्धि और अरुचि इन को नाश करे॥
दाडिमरस
विडंगचूर्णसंयुक्तो रसो दाडिमसंभवः।
असाध्यामपि संहन्यादरुचिं वक्रधारितः॥
अर्थ-अनारदाने के रस में वायविडंग का चूर्ण डालके इस रस को मुख में रखे तो असाध्य भी अरुचि का रोग नष्ट होवे ॥
जीरकादिचूर्ण
अजाजिनिष्कमात्रं च कर्षैकं सितशर्करा ।
पलं क्षौद्रेण संयुक्तं पीतं रुचिकरं मुखे ॥
अर्थ-जीरा ४ मासे और मिश्री १ तोला दोनों को एकत्र करके और सहत ४ तोले मिलायके मुख में रखे तो यह रुचि को प्रगट करे ॥
कपित्थादिचूर्ण
कपित्थमज्जात्रिकटुचूर्णं क्षौद्रसितायुतम्।
अरोचकेषु सर्वेषु प्रशस्तं धारयेन्मुखे ॥
अर्थ-कैथ का गूदा, सोंठ, मिरच, पीपल इन का चूर्ण सहत और मिश्री में मिलायके मुरा में रखे तो सर्व अरुचि पर उत्तम है॥
शुंठ्यादिगुटी
शुंठ्येकभागा द्विगुणा च कृष्णा निशोत्र पथ्या त्रिगुणा तथा च । सार्ध्यैकभागामलकी च तीक्ष्णं चतुर्गुणं सैंधवमम्लमर्द्यम्॥ शाणैकमात्रागुटिका निषेच्या निहंति मंदानलजं प्रकोपम् ॥
अर्थ-सोंठ १, पीपल २, निसोथ३, हरड ३, आंवला १॥, मिरच ४ और सैंधानिमक ४ भाग लेवे. इन सब का चूर्णकरके नींबूके रस में खरल करे फिर चार २ मासे की गोली बनावेये गोली मंदाग्निको नष्ट करेहै और रुचिप्रगट करे ॥
अरुचि रोग में पथ्य
बस्तिर्विरेको वमनं यथाबलं धूमोपसेवा कवलग्रहस्तथा । तिक्तानि काष्ठानि च दंतघर्षणे चित्रान्नपानानि हितैः कृतान्यपि ॥ गोधूममुद्गादकिशालिषष्टिकामांसं वराहालिशशैणसंभवम् । वेगो झषांडं मधुरालिकेलिशः प्रोष्ठी खलेशः कवची च रोहितः॥ कर्कारुवेत्राग्रनवीनमूलकं वार्त्ताकसौभांजनमोचदाडिमम् । भव्यं पटोलं रुचकं पयो घृतं बालानि तालानि रसोनसूरणम् ॥ द्राक्षा रसालं ललदंबु कांजिकं मह्यं रसाला दधि तक्रमादकम् । कंकोलखर्जूरनियालतिंदुकं पक्वं कपित्थं बदरं विकंकतम् ॥ तालास्थिमज्जाहिमवालुकासितापथ्याय-वानीमरिचानि रामठम्। स्वाद्वम्लतिक्तानि च देहमार्जनं वर्गोयमुक्तोऽरुचिरोगिणां हितः॥
अर्थ-रोगी के बलानुसार बस्तिकर्म, विरेचन, वमन का करना तथा धूमपान सुख में औषध का कवल रखना तथा कडुए काष्ठ की दांतनकरना और अनेक प्रकार के हितकारी ऐसे अन्न, पान, गेहूँ, मूंग, अरहर, शालीधान, सांठी चावल और सूअर, बकरा, शशा, काला मृग इन का मांस, चेकु जात की मछली, झषांड, मधुरालिका, इल्लिश, प्रोष्ठी, खलेश, कवयी और रोहू इतने प्रकार की मछली. लाल जात की घीया, वेत की आगे की कोपल, नई कोमल मूली, बैगन, सहजना, केला, अनार, भव्य, परवल, सैंधा निमक, दूध, घी, कोमल ताल के फल, लहसन, जमीकंद, दाख, आँम, खस का अथवा झरने का वहता हुआ जल, कांजी, मदिरा (दारू), सिखरन, दही, छाछ, अदरख, कंकोल, खजूर, चिरोंजी, तेदू( अथवा ढेडस का साग ), पका कैथ का फल, बेर, विकंकत ( कटाई ), ताड के भीतर की गिरी, शीतल वालू, मिश्री, हरड, अजमायन, काली मिरच, हींग, स्वादिष्ठ( मीठे ), खट्टे और कडुए रस तथा स्नानये सब अरुचि रोगवाले को पथ्यवर्ग कहा है ॥
अरुचिपर अपथ्य
तृष्णोद्गारक्षुधानेत्रवारिवेगविधारणम् । अहृद्यान्नमसृङ्मोक्षं क्रोधं लोभं भयं शुचम् ॥ दुर्गंधारूपसेवां च न कुर्यादरुचौ नरः॥
अर्थ-प्यास, डकार, भूंख और रुदन इन के वेग को रोकना, अप्रियअन्न का भोजन, फस्त खोलना, क्रोध, लोभ, भय, शोक, दुर्गंध और कुरूप पदार्थों का देखना ये अरुचि रोगवाले को सेवन नहीं करने चाहिये॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरलाकरे अरुचिरोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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छर्दिरोगकर्मविपाकः।
यो ब्राह्मणाय केशकीटकाकसारमेयाद्युपहतमन्नं
जानन्नेवप्रमादात्प्रयच्छति स च्छर्दिमानन्यजन्मनि ॥
अर्थ-जो प्राणी ब्राह्मण के अर्थ बाल, कीट, कौआ और कुत्ता इन से बिगडे हुए अन्न को अर्थात् निषिद्ध अन्न को उन्मत्तपने से जान कर जो देता है वह दूसरे जन्म में वमन रोग करके पीडित होय ॥
अन्यच्च
विश्वासघातकी च्छर्दियुक्तो भवति तदुपशांतये पंचाशद्ब्राह्मणभोजनं कारयेत् । अन्नदानं च यथाशक्त्या आज्ययुक्तं च कुर्यात् । तेनोपशांतिर्भवति ॥
अर्थ-जो प्राणी विश्वासघात करे है वह वमनरोग से पीडित होता है उस को उस दोष के दूर करने को पचास ब्राह्मणों को भोजन करावे और घृतयुक्त अन्न का दान करें तो यह रोग शांत होय ॥
ज्योतिषशास्त्राभिप्राय
रिपुस्थाने यदा स्यातां चंद्रशुक्रौततो भवेत् । छर्दिमान्मनुजस्तृष्णापक्षं वा इव लोकिते ॥ क्षीणचंद्रावलोकी तु षष्ठस्थानस्थितो बुधः॥ शुक्रबाधोपशांतये बुधस्य पूर्वोक्तमेव सकलं जपादि विदध्यात् ॥
अर्थ-जन्म के समय छठे स्थान में चंद्रमा और शुक्र पडे होवेंअथवा इन की दृष्टि होवे तो वहवमनरोगी होय अथवा तृष्णा ( प्यास ) रोगी होवे अथवा छठे स्थान में बुध पडा होवे और उस को क्षीणचंद्रमा पूर्ण दृष्टिसे देखता होय तो वांतिअथवा तृष्णारोगी होय रस को शुक्र और बुध इन की शांति करने को पूर्वोक्त जपादिक संपूर्ण करे ॥
छर्दिनिदानसंप्राप्ति व लक्षण
दुष्टैर्दोषैःपृथक् सर्वैर्बीभत्सालोकनादिभिः। छर्दयः पंच विज्ञेयास्तासां लक्षणमुच्यते॥ अतिद्रवैरति-स्निग्धैरहृद्यैर्लवणैरपि। अकाले चातिमात्रैश्च तथा सात्म्यैश्च भोजनैः॥ श्रमाद्भयात्तथोद्वेगादजीर्णात्कृमिदोषतः। नार्याश्चापन्नसत्वायास्तथातिद्रुतमश्नतः। बीभत्सैर्हेतुभिश्चान्यैर्दृतमुत्क्लेशितो बलात्। छादयन्नाननं वेगैरर्दयन्न-ङ्गभञ्जनैः॥ निरुच्यते छर्दिरिति दोषोवक्रंप्रधावति ॥
अर्थ-दुष्ट हुए पृथक् और सब दोषोंकरके तथा दुष्ट वस्तुके देखने से आदिशब्दकरके दुष्ट गंध के सूंघने से पांच प्रकार की छर्दि जाननी अर्थात् जिस को रद्द वमन, उलटी कहते हैं उस के लक्षण आगे कहते हैं. अत्यन्त पतले अयवा चिकने अहृद्य ( अप्रिय ) वस्तु, खारके पदार्थ, इन के सेवन करने से, कुसमय भोजन करने से, अथवा अत्यन्त भोजन करने से, अथवा जो न पचे ऐसे भोजन करने से, श्रम, भय, उद्वेग, अजीर्ण, कृमिदोष इन कारणों से गर्भिणी स्त्री के गर्भ की पीडा से तथा जल्दी जल्दी भोजन करने से और बीभत्स ( खोटे ) कारणों से जैसे विष्ठा, राध, आदि का देखना इन से तीनों दोषकुपित हो बल से मुख को आच्छादन करे और अंगों को पीडा कर मुखद्वारा भोजन हुआ सब निकाल देय इस को ( छर्दि ) उलटी ऐसे मनुष्य कहते हैं. इस जगह उदान वायु वमन कराती है ॥
पूर्वरूप
हृल्लासोद्गारसंरोधैः प्रसेको लवणस्तनुः ।
द्वेषोन्नपाने च भृशं वमीनां पूर्वलक्षणम् ॥
अर्थ-दृदय से सारा, खट्टा, प्रथमही निकले अथवासूखीरद्द होय, डकार आवे नहीं, लार गिरे, खारी मुख हो जाय, अन्न और पानी से अत्यन्त अरुचि होय ये छर्दि( छाट ) के पूर्वरूप हैं ॥
वातछर्दिलक्षण
हृत्पार्श्वपीडामुखशोषशीर्षनाभ्यर्तिकासस्वरभेदतोदैः। उद्गारशब्दंप्रबलं सफेनं विभिन्नकृष्णं तनुकं कषायम् ॥ कृच्छ्रेण चाल्पं महता च वेगेनाऽर्तोऽनिलाच्छर्दयतीह दुःखम् ॥
अर्थ-हृदय और पसवाडे में पीडा होय, मुखशोष, मस्तक और नाभि इन में शूल होय, खांसी, स्वरभेद, सुई चुभने की सी पीडा होय, डकार का शब्द प्रबलहोय, वमन में झाग आवे, ठहर २ कर वमन होय, तथा थोडी होय, वमन का रंग काला होयपतली और कसेली होय, वमन का वेग बहुत होय, परंतु वमन थोडा होय औरमें वेग के प्रभाव से दुःख बहुत होय ये लक्षण वायु की छर्दि के हैं
सैंधवयोग
सैंधवं सर्पिषापीतं वातच्छर्दिनिवारणम् ॥
अर्थ-घी में सेंधा निमक डालके पीवे तो वादी की छर्दि रोग दूर हो ॥
लवणत्रययोग
लवणत्रयसंयुक्तं संयुक्तं लवणेन वा ।
हन्यात्क्षीरोदकं पीतं छर्दिंपवनसंभवाम् ॥
अर्थ-सैंधानिमक, विडनिमक, कचियानिमक इन के साथ अथवा केवल निमक को दूध और जल में मिलायके पीवे तो वादी से प्रगट हुई छर्दि को नष्ट करे ॥
धान्याकयूष
धान्याकविश्वदशमूलकषायसिद्धान् यूषान्रसान् पवनवम्यरुचिप्रशांत्यै । पीत्वा सुखानि लभते मधुमिश्रितं वा शंखाह्वयास्वरसमूषणचूर्णयुक्तम् ॥
अर्थ-धनिया, सोंठ और दशमूल इन के काढे, मंड अथवा रस ये वादी की छर्दितथा वादी की अरुचि इन की शांति करने को लेय तो सुख होय अथवा शंखाहूलीके रस में सहत और काली मिरचों का चूर्ण डालके देवे तो सुखहोय ॥
पित्तच्छर्दिलक्षण
मूर्छापिपासामुखशोषमूर्धताल्वक्षिसंतापतमोभ्रमार्तः।
पीतं भृशोष्णंहरितं सतिक्तं धूम्रं स पित्तेन वमेत्सदाहम् ॥
अर्थ-मूर्च्छा, प्यास, मुखशोष, मस्तक, तलुआ, नेत्र इन में सन्ताप अर्थात् तपायमान रहें, अंधेरा आवे, चक्कर आवे, रोगी पीला गरम हारा कडुआ धूआंके रंग का और दाहयुक्त ऐसा पित्त को वमन करे यह पित्त की छर्दि का लक्षण है ॥
तंदुलजलपान
पित्तछर्दिर्व्रजेद्दूर्वातंदुलोदकदानतः।
धात्रीरसेन या पीताः सितालाजाश्च घ्नंति ताम् ॥
अर्थ-चावल के घोवनके जल में दूबका रस डालके पावे तो अथवाआवले का रस, मिश्री और खील इन को एकत्र करके सेवन करे तो पित्त की छर्दि दूर हो ॥
लाजादियूष
लाजामसूरयवमुद्गकृता यवागूश्छर्द्यांहिता मधुयुता बहुपित्तजायाम् । यूषाःसुगंधिमधुतिक्तरसाः प्रयुक्ता मृद्भृष्टलोष्टभवमंबुहितं तृषायाम् ॥
अर्थ-खील, मसूर, जौ और मूंग इन की यवागू बनाय उस में सहत डालके पीवे तो अत्यंत पित्त से जो छर्दि होती है वह दूर होय अथवा सुगंधित पदार्थ, सहत और कडुए रस इन करके युक्त जो मंड वह भी उत्तम है तथा मिट्टी के डेले को अग्निमें डाल करके जल में बुझाय देवे यह जल प्यास में उत्तम है ॥
पर्पटादिकाढा
क्वाथः पर्पटजः पीतः सक्षौद्रः शिशिरीकृतः।
पित्तच्छर्दिशिरस्तापचक्षुहानपोहति ॥
अर्थ-पित्तपापडे के काढेको शीतल कर सहत डालके पीवे तो पित्त की छर्दि, मस्तक की गरमी, नेत्रों का दाह इन को दूर करे ॥
मक्षिकाविडवलेह
सिताचंदनमध्वाढ्यंविलिहेन्मक्षिकाशकृत् ।
सोपद्रवा पित्तभवा च्छर्दिरेतेन शाम्यति॥
अर्थ-मिश्री, चंदन और सहत इन के बराबर मक्खी की वीट लेवे सबको एकत्र करके चाटे तो उपद्रवयुक्त भी पित्त की छर्दि शांत होवे
गुडूच्यादिकाढा
गुडूचीत्रिफलारिष्टपटोलैःक्वथितं जलम् ।
क्षौद्रयुक्तं निहंत्याशु च्छर्दि पित्तसमुद्भवाम्॥
अर्थ-गिलोय, त्रिफला, नीम की छाल और पटोलपत्र इन के काढेमें सहत डालके पीवे तो पित्त की छर्दि का नाश होवे॥
लाजसक्तुपान
सर्पिःक्षौद्रसितोपेतान् लाजसक्तून् लिहेत्ततः।
पित्तच्छर्दिश्चतेनाशु प्रशाम्यति सुदुस्तरा॥
अर्थ-खीलों का चूर्ण, घी, मिश्री और सहत इन सब को एकत्र करके चाटे तो घोर दुस्तर पित्त की छर्दिशांत होवे ॥
कफछर्दिलक्षण
तंद्रास्यमाधुर्यकफप्रसेकं संतोषनिद्राऽरुचिगौरवार्त्तः।
स्निग्धं घनं स्वादु कफादिशुद्धं सरोमहर्षोऽल्परुजं वमेत्तु॥
अर्थ-तन्द्रा, मुख में मिठास, कफ का पडना, संतोष, अन्न में अरुचि, निद्रा, अरुचि, भारीपना इन से पीडित हो. चिकना, गाढा, मीठा, सफेद ऐसे कफ को वमन करे. जब रद्द करे तब पीडा थोडी होय, रोमांच होय ये कफ की छर्दिके लक्षण हैं॥
सामान्यचिकित्सा
छर्द्यांकफोद्भवायां तु वमनं कारयेद्भिषक्। तोयैः सर्षपसिंधूत्थराठनिंबकणायुतैः॥ शस्यंते शालिगोधूमयवमुद्गमकुष्ठकाः। षष्टिकास्तत्र यूषश्च पटोल्याद्याश्च भोजनम् ॥
अर्थ-कफ से उत्पन्न हुई छर्दिरोगपर सरसों, सैंधानिमक, मैनफल, नीम की छाल और पीपल इन के काढे से वमन करावे और शालिचावल, गेहूं, जौ, मूंग, मोठऔर साठी चावल इन के बने पदार्थ और मंड, परवल इत्यादिक भोजन में देवे ॥
शालिभक्त
आरक्तशालिभक्तं गोदधिशर्कराविमिश्रं च।
कुर्याद्भोजनमेतत्कफच्छर्दिच्छिदं जंतोः॥
अर्थ-लाल चावलों का भात, गौ का दही और मिश्री इन का भोजन करे तोउपद्रवयुक्त कफ की छर्दिशांत होवे॥
विडंगादिचूर्ण
विडंगत्रिफलाव्योषचूर्णं मधुयुतं लिहेत् ।
शाम्यत्यनेन कफजा छर्दिः सोपद्रवा नृणाम्॥
अर्थ-वायविडंग, हरड, बहेडा, आंवला, सोंठ, मिरच, पीपल इन के चूर्ण को सहत में मिलायके चाटे तो उपद्रवयुक्त भी कफ की छर्दि शांत होवे
जांबवादियोग
सजांबवंबादरचूर्णमम्लं मुस्तायुतं कर्कटकं सशृंगि।
दुरालभा वा मधुना च युक्ता लिह्यात्कफच्छर्दिविनिग्रहार्थम्॥
अर्थ-जामुन, बेर, बिजौरा और नागरमोथा इन का चूर्ण ईख के रस में मिलायके देवे अथवा काकडासिंगी और धमासा इन का चूर्ण सहत में मिलायके चाटे तो कफ की छर्दि को बंद करे ॥
सन्निपातच्छर्दिलक्षण
शूलाविपाकारुचिदाहतृष्णाश्वासप्रमोहप्रबलाप्रसक्तम् ।
छर्दिस्त्रिदोषाल्लवणाम्लनीलं सांद्रोष्णरक्तं वमतां नृणां स्यात् ॥
अर्थ-शूल, अजीर्ण, अरुचि, दाह, प्यास, श्वास, मोह इन लक्षणों के प्रबल हुई जो वमन सो सन्निपात से होय है. रद्द करनेवाले की वमन खारी, खट्टी, नीली, संघट्ट ( जिस को देशवारी मनुष्य जाडी कहे हैं ), गरम, लाल ऐसी होय है ॥
बिल्वादिकाढा
बिल्वत्वचो गुडूच्या वा क्वाथः क्षौद्रेण संयुतः।
जयेत्त्रिदोषजां छर्दिं पर्पटः पित्तजांतथा ॥
अर्थ-बेल की छाल का अथवा गिलोय का काढा सहत डालके पीवेतो त्रिदोष कीछर्दि को नाश करे अथवा पित्तपापडे के काढे को पीवे तो पित्त की छर्दि दूर हो ॥
कोलाद्यवलेह
कोलामलकमज्जानौ मक्षिकाविट्सिता मधु।
सकृष्णातंदुलो लेहश्च्छर्दिमाशु व्यपोहति ॥
अर्थ-बेर और आंवला इन की मज्जा ( गुठली ), मक्खी की विष्ठा, मिश्री, सहत, पीपल, चांवलों का धोवन इन की बनी हुई अवलेह छर्दि को तत्काल दूर करे॥
सुरसापान
सुरसास्वरसैर्युक्तं तृटिका मर्दिता भृशम्।
वांतिं शमयति क्षिप्रं वातपित्तकफोद्भवाम्॥
अर्थ-तुलसी के स्वरस में छोटी इलायची का चूर्ण डालके पावे तो इस प्राणी की वातपित्तकफ की वांति शमन होवे ॥
मनःशिलादियोग
मनःशिलामागधिकोषणानां चूर्णं कपित्थाम्लरसेन युक्तम्।
लाजैः समांशैर्मधुनावलीढं छर्दिंप्रसक्तामसकृन्निहंति ॥
अर्थ-मनसील, पीपल और काली मिरच ये समान भाग ले और इन को बराबर३ भाग खीलों का चूर्ण ले सच को एकत्र कर कैथ के और बिजौरे के रस में सहत मिलायके चाटे तो तत्काल छर्दिको बंद कर देवे ॥
अश्वत्थवल्कलादियोग
अश्वत्थवल्कलं शुष्कं दग्धं निर्वापितं जले।
तज्जलं पानमात्रेण छर्दि जयति दुर्जयाम् ॥
अर्थ-पीपल की छाल को जलाय के भस्म कर लेवे. फिर इस राख को जल में गेर नितारके छान लेवे. इस जल के पीते ही दुर्जय छर्दि भी नष्ट होय॥
लाजादियोगत्रय
लाजाकपित्थमधुमागधिकोपणानां क्षौद्राभयात्रिकटुधान्यकजीरकाणाम् । पथ्यामृतामरिचमाक्षिकपिप्पलीनां लेहास्त्रयः सकलवम्यरुचिप्रशांत्यै ॥
अर्थ-खील, कैथ, सहत, पीपल और काली मिरच इन का अवलेह उसी प्रकार सहत, हरड, त्रिकुटा, धनिया और जीरा इन का अवलेह तथा हरड, गिलोय, काली मिरच, सहत और पीपल इन का अवलेह ये तीन योग सर्व प्रकार की वमन औरअरुचि इन को शांत करनेवाले हैं ॥
धात्रीफलपान
पिष्ट्वा धात्रीफलं द्राक्षां शर्करां च पलोन्मिताम् । दत्त्वा मधुपलं चैव कुडवंसलिलस्य च ॥ वाससा गालितं पीतं हंति छर्दित्रिदोषजाम् ॥
अर्थ-आंवले, दाख, मिश्री और सहत ये प्रत्येक चार २ तोलेलेवे. इन को ६४ तोले जल में डालके खूब मसलके कपडे में छान ले फिर इस को पीवेतो त्रिदोष की छर्दिदूर होवे ॥
मसूरसक्तु
मसूरसक्तवः क्षौद्रमर्द्दिता दाडिमांभसा।
पीता निवारयंत्याशु छर्दिंदोषत्रयोद्भवाम्॥
अर्थ-मसूर भौर सत्तु तथा सहत इन को अनार के रस में मिलायके देवे तोत्रिदोष की छर्दिको निवारण करे॥
एलाद्यचूर्ण
एलालवंगगजकेसरकोलमज्जालानाप्रियंगुधनचंदनपिप्पलीनाम्। चूर्णंसितामधुयुतं मनुजो विलिह्य छर्दिं निहंति कफमारुतपित्तजाताम्॥
अर्थ-इलायची, लौंग, नागकेशर, बेर की गुठली, खील, फूलप्रियंगु, नागरमोथा, चंदन और पीपल इन के चूर्ण में मिश्री और सहत मिलायके चाटे तो कफ, वादी और पित्तकी छर्दि को दूर करे ॥
पद्मकादिघृत
पद्मकामृतनिंबानां धान्यचंदनयोः पचेत् ।
कल्के क्वाथे च हविषःप्रस्थं छर्दिनिवारणम् ॥
अर्थ-पद्माख, गिलोय, नीम की छाल, धनिया और चंदन इन के काढेमें अथवा कल्क में ६४ तोले घी मिलायकेसिद्ध करे तो यह घी छर्दि को दूर करे ॥्
चंदनादिपान
चंदनं च मृणालं च वालकं नागरं वृषम् ।
सतंदुलोदकक्षौद्रेः पीतः कल्को वमि जयेत् ॥
अर्थ-चंदन, कमलकंद, नेत्रवाला, नागरमोथा और अडूसा इन को चावलों के जल में पीसके और उस में सहत डालके पीवे तो छर्दि( उलटी ) का होना दूर होवे॥
उदीच्यजल
सोदीच्यगैरिकं देयं सेव्यं या तंदुलांबुना । जातीपत्ररसं कृष्णा मरिचं शर्करान्वितम् ॥ एतानि मधुयुक्तानिघ्नंति छर्दि चिरोद्भवाम्॥
अर्थ-नेत्रवाला और गेरू इन को चावल के धोवन में पीस सहत डालके पीवे अथवा चमेली के पत्तों के रस में पीपल, मिरच इन का चूर्ण, सहत और मिश्री डालके पीवेतो बहुत दिन की छर्दि दूर होवे ॥
चंदनपान
चंदने ह्यक्षमात्रेच संयोज्यामलकीरसम्।
पिबेन्माक्षिकसंयुक्तं छर्दिरतेन निवार्यते ॥
अर्थ-१ तोले चंदन का चूर्ण कर उस में आवले का रस और सहत डालके पीवे तो यह होती हुई वमन को बंद कर देवे ॥
मुद्गकाढा
कषायो भृष्टमुद्गानां सलाजमधुशर्करः।
छातीसारदाहघ्नो ज्वरघ्नः संप्रकाशितः॥
अर्थ-भूने हुए मूंगों का काढा, खील और सहततथा मिश्री मिलायके पीवेतो वमन, अतिसार, दाह और ज्वर इन को दूर करे ॥
कोलमज्जा
कोलमज्जाकणाबर्हिपक्षभस्म सशर्करम् ।
मधुना लेहयेच्छर्दिहिक्काकोपस्य शांतये ॥
अर्थ-बेरकी गुठली की मिंगी, पीपल, मोर के पंख की राख, मिश्री, सहत इन सब को एकत्र करके चाटे तो वमन का होना और हिचकी इन के कोप को शांत करे॥
बीजपूरादिपुटपाक
बीजपूराम्रजंबूनां पल्लवानि जटाः पृथक् । विपचेत्पुटपाकेन क्षौद्रयुक्तश्च तद्रसः ॥ छर्दिंनिवारयेत्सद्यः सर्व दोषसमुद्भवाम् ॥
अर्थ-बिजौरा, आम, जामुन इन के पत्ते अथवा इन की जड को पुटपाक विधि से पक्वकरके इन का रस सहतयुक्त सन्निपात की छर्दिको शीघ्र निवारण करे ॥
हरीतकीचूर्ण
हरीतकीनां चूर्णं तु लिह्यान्माक्षिकसंयुतम्।
अधोभागीकृते दोषेछर्दिस्तेन निवार्यते॥
अर्थ-हरड के चूर्ण को सहत में मिलायके चाटे तो दोष( वात कफ) के अधोभागजाने से वमन का होना बंद होय ॥
मृद्भृष्टलोष्टप्रभवं सुशीतं सलिलं पिबेत् ॥
अर्थ-मिट्टी के डेले को आग में तपायके जल में बुझावेजब वह जल शीतलहो जावे तबपीवेतो छर्दिबंद होय ॥
जंब्वाम्रपल्लवरस
जंब्वाम्रपल्लवोशीरवटशृंगावरोहजः। क्वाथः क्षौद्रयुतः शीतः पीतो वा विनियच्छति ॥ छर्दिंज्वरमतीसारं मूर्च्छांतृष्णां च दुर्जयाम् ॥
अर्थ-जामुन, आम इन के नवीन पल्लव ( पत्ते ), खस, वड की कली, अथवा पल्लव इन का काढा करे जब शीतल हो जावेतब शीतल करके सहत मिलायके पीवेतो वमन, ज्वर, अतिसार, मूर्च्छाऔर तृषाये दुर्जय होय तो भी इन का नाश होय ॥
हिंग्वादिपान
हिंगुना’सारिवामूलं सर्ववांतिहरं परम् ।
जातीफलं वमौ शोषेजागरे विप्रयोजयेत्॥
अर्थ-सारिवाकी जड को हींग में मिलायके पीसे इस के सेवन से सर्व प्रकार की वमन नाश करे अथवा जायफल वमन, शोष और जागरण इन पर उत्तम है ॥
उग्रगंधादियोग
उग्रगंधारनालेन पीता छर्दिं निवारयेत् ॥
अर्थ-वच को पीसके कांजी में मिलायके पीवेतो छर्दि को बंद करे॥
सामान्यचिकित्सा
आमाशयोत्क्लेशभवा हि सर्वाः स्युश्छर्दयो लंघनमेव तस्मात्।
प्रकारयेन्मारुतजां विना तु संशोधनं वा कफपित्तहारि॥
अर्थ-आमाशय के उत्क्लेशित होने से संपूर्ण वांति उत्पन्न होती है;इस वास्ते लंघन करे. परंतु वातजन्य वांती के विना लंघन करे अथवा वमन विरेचनद्वारा देह को शुद्ध करे तो यह कफ और पित्त का नाश करे ॥
हितं न लंघनं पुरा वमीषुमारुताभिधे।
अथापि वामयेदमुं विरेचयेद्यधार्हतः॥
अर्थ-वादी की वमन पर प्रथमलंघन नहीं करने.कितु इस रोगी को लटी करानेवाली और दस्त लानेवाली औषध् देवे ॥
जातीपत्रचूर्ण
जातीपत्ररसं कृष्णा मरिचं शर्करान्वितम् ।
एतानि मधुयुक्तानि घ्नंति छर्दिं चिरोद्भवाम् ॥
अर्थ-चमेली के पत्तों का रस, पीपल, काली मिरच, मिश्री और सहत इन को एकत्र करके देवे तो बहुत दिन की भी वांति का नाश होय ॥
असाध्यच्छर्दिलक्षण
विट्स्वेदमूत्रांबुवहानि वायुः स्रोतांसि संरुद्ध्ययदोर्ध्वमेति । उत्पन्नदोषस्य समाचितं तं दोषंसमुद्धूय नरस्य कोष्ठात् ॥ विण्मूत्रयोस्तत्समगन्धवर्णं तृट्श्वासकासार्तियुतं प्रसक्तम् । प्रच्छर्दयेद्दुष्टमिहातिवेगात्तयार्दितश्चाशु विनाशमेत॥
अर्थ-जिस समय यह वायु पुरीष, पसीना, मूत्र और जल इन के वहनेवाली नाडी के मार्ग को रोककर ऊपर आवे तब ऊपर आनेवाला दोष ( मलमूत्रादि ) को कोठे से बाहर निकाल वमन करावे, उस वमन में मल मूत्र की सी दुर्गंध आवे तथा वर्णभी मलमूत्र के सदृश होय, प्यास, श्वास, खांसी और शूल ये होय और यह वमन वारंवार बडे वेग से होय हैं इस वमन से पीडित मनुष्य थोडे काल में नाश को प्राप्त हो, यह भी सन्निपात की है ऐसे कोई आचार्य कहते हैं और अन्य आचार्य कहते हैं कि सब छर्दि प्रबल हैं परंतु ऐसी छर्दि असाध्य है॥
आगंतुकच्छार्दिलक्षण
बीभत्सजा दोर्हृदजाऽमजा च याऽसात्म्यजा वा कृमिजा च या हि । सा पंचमी ताश्च विभावयेत्तु दोषोच्छ्रयेणैव यथोक्तमादौ॥ शूलहृल्लासबहुला कृमिजा च विशेषतः। कृमिहृद्रोगतुल्येन लक्षणेन च लक्षिता॥
अर्थ-बीभत्स पदार्थ कहिये मल, राध, रुधिर सादि अपवित्र वस्तु के देखने से, गंध से, स्वाद से, स्त्री के गर्भ रहने से, आम से, असमान भोजन से अथवा कृमिरोग से इन कारणों से प्रगट भई, आगंतुज पांचवीं छर्दि होय है. उस में पूर्वोक्त लक्षणों में से जिस दोष के अधिक लक्षण मिलें उसी दोषको प्रबल जाने. कृमि की छर्दि में शूल, खाली रद्दये विशेष होते हैं और बहुधा कृमि और हृदयरोग इन के लक्षण सदृश लक्षण जानने. जैसे पिछाडी कह आये हैं. “उत्क्लेदः ष्ठीवनं तोदः शूलं हृल्लासकस्तमः । अरुचिः श्पावनेत्रत्वं शोषश्च कृमिजे भवेत् ॥”
असाध्यलक्षण
क्षीणस्य या च्छर्दिरतिप्रसक्ता सोपद्रवा शोणितपूययुक्ता।
सचंद्रिकां तां प्रवदेवसाध्यां साध्यां चिकित्सेन्निरुपद्रवां च॥
अर्थ-क्षीण पुरुष की अथवा वारंवार एकसी होनेवाली और कासादि उपद्रवयुक्त और रुधिर राध मिली मोरचंद्रिका के समान ऐसी छर्दि असाध्य है और जो उपद्रवरहित हो उस को साध्य समझकर उपाय करे॥
उपद्रव
कासश्वासौ ज्वरो हिक्का तृष्णा वैचित्यमेव च।
हृद्रोगस्तमकश्चैव ज्ञेयाश्च्छर्देरुपद्रवाः॥
अर्थ-खांसी, श्वास, ज्वर, हिचकी, प्यास, बेचेत, हृदयरोग, अंधेरा आना ये छर्दिरोग के उपद्रव हैं॥
सामान्यचिकित्सा
बीभत्सनामबीभत्सैर्हेतुभिः संहरेद्वमिम् ।
दौर्हृदोत्थांवमिंहृद्यैः कांक्षितैर्वस्तुभिर्जयेत्॥
अर्थ-प्राणियों को घिनाने से अथवा दुष्ट पदार्थ के देखने से अथवा दुर्गंध के सूंघने से जो वमन होती होय उस को उत्तम स्वच्छता और पवित्रता आदि कारणों से दूर करनी चाहिये और स्त्रियों के जो दौर्हृद के कारण होती है उस को उत्तम हृदय को प्रिय सुंदर ऐसे पदार्थों के देने करके जीते ॥
लंघनैर्वमनैर्वापि सात्म्यैर्वासात्म्यसंभवाम्।
कृमिहद्रोगवच्चापि साधयेत्कृमिजां वमिम्॥
अर्थ-जो वस्तु अप्रिय अर्थात् न रुचे उस से हुए छर्दिरोगको लंघन, वमन और अपनी प्रकृति को रुचे ऐसे पदार्थों करके जीते तथा कृमिरोग होने से जो छर्दि होवे वह कृमि और हृदयरोग इन के ऊपर जो उपचार कहे है उन उपचारों से बंद करे॥
यथादोषंच विचरेच्छस्तं विधिमनंतरम्।
पवनघ्नीचिरोत्थासु प्रयोज्या छर्दिषुक्रिया॥
अर्थ-कहे हुए उपचार जैसे २ दोष होवे उसी के अनुसार विचारपूर्वक यत्नकरे और जो बहुत दिनों का छर्दिरोग है उसपर वातनाशक उपचार करने चाहिये॥
आम्रास्थिकाढा
आम्रास्थिबिल्वनिर्व्यूहः पीतः समधुशर्करः।
निहंति च्छर्द्यतीसारं वैश्वानर इवाहुतिम् ॥
अर्थ-आम की गुठली और बेलगिरी इन के काढेमें सहत और मिश्री डालके देखे तो छर्दि, अतिसार इन को नष्ट करे जैसे अग्नि होमी हुई आहुति को नष्ट करे॥
जबूपल्लवादिकाढा
जंब्वाम्रपल्लवशतं क्षौद्रं दत्त्वा सुशीतलं तोयम्।
लाजैरवचूर्ण्य पिबेच्छर्द्यतिसारे परं सिद्धम् ॥
अर्थ-जामुन और आम इन दोनों के सौ कोमल २ पत्ते लेवे उन का काढाकर उस में खीलों का चूर्ण और सहत डालके पीवे तो वमन और अतिसार इन पर हितकारी होय॥
मयूरपक्षभस्मावलेह
मयूरपक्षं निर्दग्ध्वा तद्भस्म मधुमिश्रितम्।
लीढं निवारयत्याशु च्छर्दिं सोपद्रवामपि॥
अर्थ-मोर की पांख जलायके भस्म करे इस भस्म को सहत में मिलाय कर चाटे तो उपद्रवयुक्त भी छर्दिनष्ट होवे॥
गोण्याद्यमस्मयोग
पुराणगोणिभस्मांभो मधुयुक्तं निपीय तु।
छर्दिं छिनत्ति मनुजस्तृणान्येव हुताशनः॥
अर्थ-पुरानी टाट की गोन ( थैली ) को जलाय ले इस भस्म को जल में मिलायके छान ले फिर सहत डालके पीवे तो छर्दि को नाश करे जैसे आग्निं तृणों को नाश करे॥
पटोलाद्यघृत
पटोलशुंठ्योःकल्काभ्यां केवलं कुलकेन वा।
घृत्तप्रस्थं विपक्तव्यं कफपित्तवमिं हरेत् ॥
अर्थ-परवल और सोंठ इन के कल्क के साथ अथवा केवल परवल के कल्क के साथ६४ तोले घी को औटावे जबकल्क जलकर केवल घी मात्र शेषरहे तब उतारके पीवेतो कफपित्त से प्रगट हुई वांति बंद होवे॥
दधित्थरसादिलेह
दधित्थरससंयुक्तं पिप्पलीमाक्षिकं तथा।
मुहुर्मुहुर्नरो लिह्याच्छर्दिभ्यः प्रतिमुच्यते॥
अर्थ-कैथ के रस में सहत और पीपल डालके वारंवार चाटे तो छर्दिरोग से छूट जावे॥
रंभाकंदयोग
रंभाकंदरसो वापि मधुना छर्दिनाशकृत ॥
अर्थ-केले के कंद के रस में सहत डालके पीवे तो यह छर्दिनाशक है॥
करंजादिलेह
कोमलकरंजपत्रं सलवणमम्लेन संयुक्तम्।
यः खादति दीनवदनो च्छर्दिकफौतस्य कुत्रेह॥
अर्थ-करंज के कोमल २ पत्ते, बिजोरा और सैंधा निमक इन का कल्क करके खाय तो जो उलटी करते २ दीनवदन हो गया हो उस के छर्दि और कफ कदाचित् नहीं रहे ॥
करंजबीजादियोग
ईषत् भृष्टं करंजस्य बीजं खंडीकृतं पुनः।
मुहुर्मुहुनरो भुक्त्वा छर्दिं जयति दुस्तराम् ॥
अर्थ-करंज के बीजों को कुछ भूनके टुकडे २ करके वारंवार खाय तो दुस्तर छर्दिको निवारण करे॥
शंखपुष्पीरसादिपान
शंखपुष्पीरसं टंकद्वयं समरिचं मुहुः।
सक्षौद्रं मनुजः पीत्वा छर्दिभ्यः किल मुच्यते ॥
अर्थ-संखाहूलीका रस दो तोले सहत और काली मिरच का चूरा डालके पीवेतो छर्दिरोग से निश्चय मुक्त हो॥
जीरकादिधूप
जीरान्वितं पट्टवस्त्रं वर्तिं कृत्वाथ धूपयेत्।
आघ्राणाद्विलयं यांति सर्वाश्छर्द्यश्चिरोद्भवाः॥
अर्थ-पट्टवस्त्र(पीतांबर) में जीरा बांधके बत्ती बनावेफिर इस की धूनी देवे इस धूनी के सूंघते ही बहुत दिन की भी सर्व प्रकार की छर्दि नष्ट होवे॥
वांतिहृद्रस
अयः शंखवली सूतः खल्वे तुल्यं विमर्दयेत्। कन्याकनकचांगेरी-
रसैर्गोलंविधाय च॥ तप्तमृत्कर्पटौर्लिप्त्वापुटितो वांतिहृद्रसः। द्विवल्लः कृमिरोगेपि साजमोदः सवेल्लकः ॥ वांतिहारेण मुनिनाप्रोक्तोयं मधुना युतः। पिप्पलक्षारपानीयं पाययेद्वांतिहृद्भिषक्॥
अर्थ-लोहचूर्ण, शंख का चूर्ण, गंधक, पारा ये सब समान भाग लेवे खरल में डाल घीगुवार के रस में धतूरा और चूका इन के रस में पृथक् २ खरल करके गोला बनावे उस गोले के चारों तरफ सात कपडमिट्टी करके गजपुट में रखके फूंक देवे तो यह वांतिहारस बने इस में से ४ रत्ती रस अजमोदा और वायविडंग इन के साथ कृमिरोग में और सहत के साथ वांति पर देवे तथा पीपल वृक्ष के खार का पानी ऊपर से पिलावे तो वांति को नष्ट करे यह रस वांतिहार नामक ऋषिने कहा है॥
जातीरसपान
जात्या रसः कपित्थस्य पिप्पलीमरिचान्वितः।
क्षौद्रेण युक्तः शमयेल्लेहोयं छर्दिमुल्बणाम् ॥
अर्थ-चमेली का रस, कैथका रस, पीपल और काली मिरच इन का अवलेह भीतर सहत डालके देवेतो घोर उग्रवांति को नाश करे॥
यष्ट्यादिपान
यष्ट्याह्वाचंदनोपेतं सम्यक् क्षीरेण पेषितम्।
तेनैवालोड्यपातव्यं रुधिरच्छर्दिनाशनम् ॥
अर्थ-मुलहटी और चंदन इन दोनों को दूध में पीसे और दूध में ही मिलायके पी जावे तो रुधिर की उलटी होना बंद होवे ॥
गुडूच्यादिहिम
गुडूच्यारचितं हंति हिमं मधुसमन्वितम् ।
दुर्निवारामपि च्छर्दिंत्रिदोषजनितां बलात्॥
अर्थ-गिलोय का हिम करके उस में सहत डालके देवे तो दुर्निवार वांति का नाश होवे॥
पारदादिचूर्ण
रसबलिघनसारकोलमनामरकुसुमांबुधरप्रियंगुलाजाः। मलयजमगधात्वगेलपत्रंदलितमिदं परिभाव्य चंदनान्द्रिः॥ मधुमरिचयुतं रजोस्य माषंजयति वमिंप्रबलां विलिह्य मर्त्यः॥
अर्थ-पारा, गंधक, कपूर, बेर की गुठली, लौंग, नागरमोथा, फूलप्रियंगु, खील, काली अगर, पीपल, दालचीनी, इलायची और तमालपत्र इन के चूर्ण को चंदन के काढे में भावना देकर फिर सहत और काली मिरचों का चूर्ण डालके १ मासा नित्य सेवन करे तो घोर प्रवल वमन का नाश होवे॥
जीरकादिरस
अजाजीधान्यपथ्याभिः सक्षौद्रैःसकटुत्रिकैः।
एतैः सार्धं सूतभस्म सद्यो वांतिं विनाशयेत्॥
अर्थ-जीरा, धनिया, हरड और त्रिकुटा( सोंठ, मिरच, पीपल ) इन का चूर्ण और सहत इन के साथ पारे की भस्म सेवन करे तो तत्काल रद्द होने की बंद कर देवे॥
वमनामृतयोग
गंधकः कमलाक्षश्च यष्टी मधु शिलाजतु । रुद्राक्षो टंकणश्चैव सारंगस्य च शृंगकम् ॥ चंदनं च तवक्षीरी गोरोचनमिदं समम् । बिल्वमूलकपायेणमर्दयेयाममात्रकम् ॥ मात्रां चैव प्रकुर्वीत वल्लस्यैव प्रमाणतः। नानाविधानुपानेन च्छर्दिंहंतित्रिदोषजाम्॥ वमनामृतयोगोयं कमलाकरभाषितः॥
अर्थ-गंधक, कमलाक्ष, मुलहटी, शिलाजीत, रुद्राक्ष, सुहागा, हिरन का सींग, चंदन, तवाखीर और गोरोचन ये सब समान भाग लेके चूर्ण करे फिर बेल की जड के काढेमें एक प्रहर खरल करे पश्चात् २ रत्ती की मात्रा अनेक प्रकार के अनुपानों के साथ देवे तोत्रिदोष की छर्दि नष्ट होय. इस को वमनामृत योग कहते हैं. यह योग कमलाकर नामक आचार्य ने कहा है ॥
छर्दिपथ्य
विरेचनं छर्दनलंघनानि स्नानं जपो लाजकृतश्च मंडः । पुरातना शालिकषष्टिमुद्गाकलायगोधूमयवा मधूनि ॥ शशाहिभुक्तित्तिरिलावकाद्यामृगद्विजा जांगलसंज्ञिताश्च । मनोज्ञनानारसगंधरूपा रसाश्च यूषाअपि खांडवाश्च ॥ गवां जलं कांबलिकाः सुरा च वेत्रामकुस्तुंपरिनारिकेरम् । जंबीरधात्रीसहकारकोलद्राक्षाकपित्थानि पचेलिमानि॥ हरीतकीदाडिमबीजपूरं जा-
तीफलं बालकनिंबवासा। शिताशताह्वाकरिकेशराणि भक्ष्या मनःप्रीतिकरा हिताश्च ॥ भुक्तस्य वक्रेशिशिरांबुसेकः कस्तूरिकाचंदनमिदुपादाः । मनोज्ञगंधान्यनुलेपनानि पानानि पुष्पाणि फलानि चापि॥ रूपाणि शब्दाश्च रसाश्च गंधाः स्पर्शाश्चयोज्याः स्वमनोनुकूलाः । दाहश्च नाभेस्त्रिकपार्श्वपृष्ठे शस्तं हि पथ्यं वमनातुरस्य ॥
अर्थ-विरेचन (जुल्लाब), वमन, लंघन, स्नान, जप, खीलों का मंडर तथापुराने सांठी चावल और लाल चावल, मूंग, मटर, गेहूँ, जौये सब पुराने, सहत,शशा, मोर, तीतर, लवा इत्यादि, जंगली जीवोंमें मृग और पक्षी इन का मांस तथाउत्तम २ अनेक प्रकार के रस तथा सुगंधित रस, यूष, रागखांडव, गोमूत्र औरकांबलिक ( मूल और फल की पेज बनायके उस में समान भाग तिल के फूलों खटाई डाले वह ), मद्य, वांस की कोपल, धनिया, नारियल, जंभीरी, आमले, आम,बेर, दाख, पका हुआ कैथ, हरड, अनार, बिजौरा, जायफल, नेत्रवाला, नीम, अडूसा, खांड, सोंफ, नागकेशर और मन को प्रीति करता पदार्थ तथा हितकारीपदार्थ सेवन करे. भोजन करने के उपरांत मुख में शीतल जल का भरना, कस्तूर चंदन, चांदनी, उत्तम अतर आदि की सुगंध तथा मन को अनुलोमन करता पान और फल, फूल, मन को प्रिय ऐसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ये देवे तथा नाभी,त्रिकस्थान, पसवाडे और पीठ में दाहकर्म करना ये संपूर्ण वस्तु वांतिरोगवालेको पथ्य कहीहैं॥
अपथ्य
नस्यं बस्तिस्वेदन स्नेहपानं रक्तस्रावं दंतकाष्ठंद्रवान्नम् । बीभत्सेच्छाभीतिमुद्वेगमुष्णंस्निग्धासात्म्यं हृद्यवैरोचकान्नम्॥ रम्भा[ लंबा ] बिंबीकोशवत्यौ मधूकं चित्रामलीसर्षपदेवदाली। व्यायामं वा सात्म्यदुष्टान्नपानं छर्द्यांसद्यो वर्जयेदप्रमत्तः॥
अर्ध-नस्य, बस्तिकर्म, पसीने निकालना, स्नेहपान, रक्तस्त्राव, दांतन करना, पतला अन्न, बीभत्स पदार्थ को देखना, भय, उद्वेग, गरम, स्निग्ध, असात्म्य, अप्रिय, अरुचिकारी ऐसे अन्न, केला, घीया कंदुरी, तोरई, मुलहटी या महुआ,मजीठ, इलायची, सरसों, बंदाल, दंड कसरत, अहित तथा दुष्ट अन्न जल का सेवनइन सब को छर्दिरोग में प्रमादरहित होके त्याग कर देवें॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरेछर्दिरोगस्य निदानचिकित्सासमाप्ता।
__________
तृष्णाकर्मविपाकः।
पथि चाध्वपरिश्रांतं ब्राह्मणं गामथापि वा।
न पाययेज्जलं यस्तु स तृष्णामूर्च्छितो भवेत् ॥
अर्थ-जो प्राणी ब्राह्मण अथवा गौको मार्ग ( रास्ते ) में थककर तृषासे पीडित को जल नहीं पिलावे उसके तृष्णारोग उत्पन्न होता है॥
शांति
पानीयं पायसं भुक्त्वा शर्करा घृतसंयुता।
इदमावश्यतो देयं मूर्च्छातृष्णोपशांतये॥
अर्थ-जल, दूध अथवा घीऔर खांड ये पदार्थ ब्राह्मण को अवश्य देवे और आपभी भक्षण करे तो तृष्णाजनित मूर्च्छाका नाश होय॥
तृष्णानिदान
भयश्रमाभ्यां बलसंक्षयाद्वाप्यूर्ध्वंचितं पित्तविवर्धनैश्च। पित्तं सवातं कुपितं नराणां तालुप्रपन्नां जनयत्पिपासाम् ॥
अर्थ-भय से, श्रम से, बल के क्षय से और पित्त के बढानेवाले क्रोध उपवासादिकों से अपने स्थान में संचित हुआ जो पित्त और वातये कुपित होकर ऊपर तालुए ( पिपासास्थान ) में जायतृष्णा ( प्यास ) को उत्पन्न करे. इस जगह तालुका तो उपलक्षणमात्र है तालु के कहने से क्लोमस्थान ( हृदय में जो प्यास का स्थान है उस का भी ग्रहण है क्यों कि वह भी प्यास का स्थान है ) सो चरक में लिखा है॥
तृष्णार्दित का स्वरूप
सततं यः पिबेत्तोयं न तृप्तिमधिगच्छति।
पुनः कांक्षति तोयं च तं तृष्णार्दितमादिशेत्॥
अर्थ-जो आदमी वारंवार जल पीने से तृप्त नहीं होता और वारंवार जल पीने की इच्छा करता है उस को तृषारोगी कहते हैं॥
तृष्णासंप्राप्ति
स्रोतःस्वपावाहिषु दूषितेषु दौषैश्च तृष्णा भवतीह जंतोः। तिस्त्रः स्मृतास्ताः क्षतजा चतुर्थी क्षयात्तथा ह्यामसमुद्भवा च ॥ भक्तोद्भवासप्तमिकेति तासां निबोध लिंगान्यनुपूर्वशश्च॥
अर्थ-जल के वहनेवाली नस के दूषित होने से दोष ( अन्न, कफ और आम ) इन से तृष्णा रोग होय है सो तीन है और चौथी क्षतज तृष्णा जो व्रणवाले पुरुष के होती है, पांचवीं क्षय से होती है, छठी आम से होय है, सातवीं अन्नसे होय है, उन्हों के लक्षण कम से कहता हूं, इन में पहिली चार तृष्णा सुखसाध्य हैं और बाकी की तीन कष्टसाध्य हैं. शंका-क्यौंजी इस श्लोक में स्रोतःसु यह बहुवचन क्यौंधरा ये विरुद्ध है क्यौंकि सुश्रुत में तो जल के वहनेवाली दो ही नाडी मानी हैं. **उत्तर-**अन्न, कफ, आम को दुष्ट करने से तथा दुष्ट रोगों के सम्बन्ध होने से अन्न, आम, कफ को दोषत्व ग्रहण है यह गयदास का मत है अथवा दोष के कहने से वात, पित्त, कफ का ही ग्रहण करना चाहिये॥
वातजतृष्णानिदान
क्षामास्यता मारुतसंभवायां तोदस्तथा शंखशिरःसु चापि। स्रोतोनिरोधो विरसं च वक्रं शीताभिरद्भिश्च विवृद्धिमेति॥ ताल्वोष्ठकंठस्य च तोददाहसंतापमोहभ्रमविप्रलापाः। पूर्वाणि रूपाणि भवंति तासामुत्पत्तिकालेषु विशेषतो हि॥
अर्थ-वात की तृषा( प्यास ) से मुख उतर जाय अथवा दीन होय, कनपटी और मस्तक इन ठिकाने नोचने के समान पीडा होय, रस और जल वहनेवाली नाडियों का मार्ग रुक जाय, मुख से स्वाद जाता रहे और शीतल जल के पीने से प्यास बढेये अनुपशय के लक्षण है. चकार से निद्रा का नाश होय और तालु, होंठ और कंठ इन में शूल व दाह और संताप, मोह, भ्रम और प्रलाप इत्यादि वाततृष्णा का लक्षण समझना ॥
वाततृष्णाजयप्रकार
वातघ्नमन्नपानमिष्टं लघु शीतं च वाततृष्णायाम्।
स्यानीवनीयसिद्ध क्षीरघृतं वातजे तर्पे॥
अर्ध- वातनाशक, हलके और शीतल ऐसे अन्न, पान और जीवनीय गण करके सिद्ध करे हुए दूध और घी ये वाततृष्णा पर उत्तम हैं ।
दूसरा प्रकार
वातोद्भवायां तृष्णायां पानान्नं वातमुद्धतम्।
स्वर्णरूप्यैरग्नितप्तैर्लोश्टैःसोष्टाजलं तथा॥
अर्थ-वादी की तृष्णा पर वातनाशक जल, अन्न अथवासुवर्ण के लोष्ट ( मिट्टीका
डेला) अथवा चांदी को अग्निपर गरम करे हुए को जल में बुझायके पिलावेतो वादी की तृषा दूर होवे ॥
तेल
देयं सुगंधि तैलं शिरसि च गात्रेषु सर्वेषु ॥
अर्थ-मस्तक पर और संपूर्ण अंगों में सुगंधित तेल की मालिस करे तो वादी की तृष्णा दूर हो॥
जल
सुवर्णरौप्यादिभिरग्नितप्तैर्लोष्टैःकृतं वा सिकतोत्करैर्वा।
जलं सुखोष्णं शमयेत्तु तृष्णां सशर्करं शोदयुतं जलं वा॥
अर्थ-सुवर्ण, रूपा, मिट्टी का डेला और वालू ( रेत ) इन में से किसी एक को आग में तपायके जल में बुझाय देवे. इस जल को कुछ गरम २ पीवे अथवा जल में सहत और मिश्री मिलायके पीवे तो तृषाशांत होय ॥
पित्ततृष्णानिदान
मूर्छान्नविद्वेषविलापदाहरक्तेक्षणत्वं प्रततश्च शोषः।
शीताभिनंदा मुखतिक्तता च पित्तात्मिकायां परिदूयनं च॥
अर्थ-पित्त की तृषा में मूर्च्छा, अन्न में अरुचि, बडबड, दाह, नेत्रों में लाली, अत्यंत शोष, शीत पदार्थ की इच्छा, मुख में कडुवाट और सन्ताप यह लक्षण होते हैं॥
पित्ततृष्णाचिकित्सा
पित्तजायां सितायुक्तः पक्वोदुंबरजो रसः॥
अर्थ-यदि पित्तजन्य तृषाहोवे तो पके हुए गूलर का रस मिश्री मिलायके पीवे तो शांति हो॥
स्वादु तिक्तं द्रवं शीतं पित्ततृष्णापहं परम् ।
आतपात्संशृतं पथ्यमुदकं लाजसक्तुभिः॥
अर्थ-मिष्ट, कडुए, पतले और शीतल ऐसी जो वस्तु है वो सर तृष्णानाशक हैं तथा धूप में तपे हुए जल में खीलों का चूरा मिलायके पीवे तो हितकारी होय ॥
तंदुलोदकपान
जीर्णे भुक्ते पिबेद्वापि सक्षौद्रं तंदुलोदकम्॥
अर्थ-भोजन पचने के पश्चात् तृषालगे तो चावलों के घोवन में सहत डालके पीवे॥
मधुकादिफांट
मधूकपुष्पं गंभारी चंदनोशीरधान्यकैः। द्राक्षया च कृतः फांटः शीतः शर्करया पुनः॥ तृष्णापित्तहरः प्रोक्तो दाहमूर्छाभ्रमान् जयेत् ॥
अर्थ-महुआ के फूल, कंभारी, चंदन, खस, धनिया और दाख इन के फांट को शीतल करके उस में मिश्री मिलायके पीवे तो तृषा, पित्त, दाह, मूर्च्छा, भ्रम इन को नष्ट करे ॥
कफतृष्णानिदान
वाष्पावरोधात्कफसंवृतेग्नौ तृष्णावलांशेन भवेत्तथानु । निद्रा गुरुत्वं मधुरास्यता च तृष्णार्दितः शुष्यति चातिमात्रम्॥
अर्थ-अपने कारण से कुपित कफ करके जठराग्नि आच्छादित होय, तब अग्नि की गरमी अधोगत जल के वहनेवाली नाडियों को सुखाय कफ की तृषाको प्रगट करे केवल कफ से तृष्णा को प्रगट होना असंभव है केवल कफ बडे भय का द्रवीभूत धर्म पतला होने से प्यासकर्तृत्व असंभव है और वात पित्त को तृषा करनेवाले होनेसे होयहै सो ग्रंथांतर में लिखा भी है. इसी से चरकाचार्य ने कफ की तृष्णा नहीं, कही, सुश्रुत ने चिकित्सा में भेद होने से कहीं है और हारीत ने भी सपित्त कफ की तृषामानी है, केवल कफ की नहीं मानी, इस तृषामें निद्रा, भारीपना, मुख में मिठास यह लक्षण होते हैं इस तृषा से पीडित पुरुषअत्यन्त सूखजाय है ॥
कफतृष्णासामान्यचिकित्सा
तिक्तं द्रवं कदुष्णं च कफतृष्णानिवारणम्।
अन्नपानौषधं सर्वं प्रदद्यात्कफतृड्युते॥
अर्थ-कडुए, पतले किंचित् उष्ण, कफ और तृषानिवारक ऐसे अन्नपान और औषध कफ कीतृष्णापर देवे ॥
बिल्वादिकाढा
बिल्वाढकीधातकिपंचकोलदर्भेषुसिद्धं कफजां निहंति।
हितं भवेच्छर्दनमेव चात्र तप्तेन निंबप्रसवोदकेन ॥
अर्थ-बेलगिरी, अरहर, धाय के फूल, पीपल, पीपरामूल, भव्य, चित्रक, सोंठडाभ की जड़ इस का काढा करके देवेऔर नीम के काढेका वमन देवे तो कफकी वमन नष्टहोय॥
कफतृष्णाप्रयोग
यथोक्तं कफतृष्णायां छर्द्यांतथैव कार्यं स्यात्। स्तंभारुच्यविपाकालस्यच्छर्दिषु कफानुगां तृष्णाम् ॥ ज्ञात्वा मधुदधितर्पणलवणेन जलैर्वमनमश्लक्ष्णम्। दाडिममम्लफलं वा न्यासकषायमवलेहम्॥ पयोथ वा प्रदद्याद्रजनीमधुशर्करायुक्तम्॥
अर्थ-जैसी कफ की छर्दि में औषधि कही है वहीं कफ तृष्णा पर देवे तथास्तंभ, अरुचि, अजीर्ण, आलस्यऔर छर्दि इन में जो तृषाहोती है वह कफसंबंधी होती है इस वास्ते सहत और दही ऐसे तृप्ति करती वस्तु देवे तथा निमक और जल इन से वमन करावे और अनार, कोकम अथवा और जो कषेले पदार्थ है उन को चटावेअथवा हलदी और मिश्री डालके दूध पिलावे॥
क्षतजन्यतृषानिदान
क्षतस्य रुक् शोणितनिर्गमाभ्यां तृष्णा चतुर्थी क्षतजामता तु ॥
अर्थ-शस्त्रादिक के लगने से घाव होय तब उस पुरुष के पीडा और रुधिर का स्राव होने से जो तृष्णा होय यह चौथी क्षतज तृष्णा जाननी॥
क्षततृष्णाचिकित्सा
क्षतोद्भवां रुग्विनिवारणेन जयेद्रसानाममुजश्चपानैः॥
अर्थ-घाव के कारण जो प्यास लगती है उस को घाव दूर करने से दूर करे तथा औषधीय रसों के पत्रों करके खून को रोके॥
क्षयजतृष्णानिदान
रसक्षयाद्याक्षयसंभवासा तथाभिभूतस्तु निशादिनेषु । पेपीयतेंभः ससुखं न याति तां सन्निपातादिति केचिदाहुः ॥ रसक्षयोक्तानि च लक्षणानि तस्यामशेषेण भिषग्व्यवस्येत् ॥
अर्थ-रसक्षय से जो तृष्णा होय उस में जो लक्षण होय है सो सब क्षयजतृष्णा में होते हैं, तिस से पीडित पुरुषरात्रि दिन वारंवार पानी पीवे, परंतु संतोष नहींहोय. कोई आचारी इस को सन्निपात से प्रगटकहते है. रसक्षयके जो लमाण कहेवे ( सबहोतेहै सो वैद्यों को जानने चाहिये ( रसक्षयलक्षण सुश्रुतमें कहेहै )सो इसप्रकार रसक्षयहोने से हृदय में पीडा, कंप, शोष, बधिरता ( बहरापना ) प्यास होयहै ॥
क्षयजतृष्णा
क्षयोत्थितां क्षीरजलं निहन्यान्मांसोदकं वा मधुकोदकं वा॥
अर्थ-क्षयजन्य तृषा को उस को दूध और जल के काढे से अथवा मांसरसों रके अथवा मुलहटी के काढे से शांत करे॥
आमजतृष्णानिदान
त्रिदोषलिंगाऽमसमुद्भवा तु हृच्छूलनिष्ठीवनसादकर्त्री॥
अर्थ-आमज कहिये अजीर्ण से जो तृष्णा होय उस में तीनों दोषोंके लक्षण होते हैं सो सुश्रुत में लिखा भी है और हृदय में शूल, लार का गिरना, ग्लानि ये सबहोय हैं॥
आमजतृष्णा
आमोद्भवां बिल्ववचायुतानां जयेत्कषायैरपि दीपनानाम्।
उल्लेखनैर्वशनप्रजातां जयेत्क्षतोत्थां तु विना पिपासाम्॥
अर्थ-आमांश से जो तृषाहोती है वह बेलगिरी और वच इन करके युक्त जो दीपन काढे उन से जीते तथा भारी पदार्थों के खाने से जो तृषा होवे उस को लेखन पदार्थदेकर जीते परंतु वह क्षतजन्य न होवे
अन्नजातृष्णानिदान
स्निग्धं तथाम्लं लवणं च भुक्तं गुर्वन्नमेवाशु तृषांकरोति॥
अर्थ-चिकना, खट्टा, खारा, ( चकार से कडुआ, कषेला आदि जानना ) ऐसे भोजन से तथा मात्राधिक और भारी ऐसा अन्न खाने से अवश्य ही शीघ्र प्यास को प्रगट करे. दृढबल आचारी ने पांच ही प्रकार की तृष्णा कही हैं. वात की, पित्त की, क्षय की, आम की, उपसर्ग की, तहां कफ की आम की तृषा के अंतर्गत कही है और क्षतजा वात की तृषाके अंतर्गत जाननी और अन्नजा भी वात की तृषा के अंतर्गत कहीं है क्यौकि भोजन से वात का कोप होय है * शंका-क्यौंजी सुश्रुत ने मद्य के प्रकरण में मद्य की तृष्णा कही है फिर माधवाचार्य ने सात ही तृष्णा कैसे कहीहैं * उत्तर-दृढबलाचारी के मत से मद्य की तृषा को वात की तृषाके अन्तर्गत होने से माधवाचार्य ने सात ही कही हैं ॥
अन्नजाचिकित्सा
स्निग्धान्नेभुक्ते या तृष्णा स्यात्तां गुडांबुना शमयेत्
अतिरूक्षकदुर्बलानां तृषां शमयेन्नृणामिहांबुपयः॥
अर्थ-स्निग्ध ( चिकने ) अन्न के सेवन से जो तृषा होय उस को गुड के पानी से शांत करे और अतिरूक्ष तथा दुर्बल मनुष्य की तृषानेत्रवाले के काढे से दूर करे॥
उपद्रव व असाध्यलक्षण तृष्णा
दीनस्वरः प्रताम्यन्दीनाननशुष्कहृदयगलतालुः । भवति खलु सोपसर्गा तृष्णा सा शोषिणी कष्टा॥ ज्वरमोहक्षयकासश्वासाद्युपसृष्टदेहानाम्। सर्वास्त्वतिप्रसक्ता रोगकृशानां वमिप्रसक्तानाम्॥ घोरोपद्रवयुक्ता-स्तृष्णा मरणाय विज्ञेयाः॥
अर्थ-हीनस्वर, मोह, मन में ग्लान होय, मुख दीन हो जाय, हृदय, गला और तालु मूख जाय यह तृष्णा के उपद्रव से होय है. यह मनुष्य को सुखाय डाले और व्याधि से शरीर कृश होने से यह कष्टसाध्य हो जाय है. वे उपद्रव यह हैं ज्वर, मोह, क्षय, खांसी, श्वास, आदिशब्द से अतिसारादिकों का ग्रहण है. ये रोग जिस के होय उस के तृष्णा कष्टसाध्य जाननी. वातजादि सब प्रकार की तृष्णा अत्यन्त बढी हुई अथवा रोग से कृश भया ऐसे पुरुष के जो तृष्णा है सो अथवा छर्दिसेप्रगट भई जो तृषाऔर जो भयंकर उपद्रव करके युक्त ऐसी तृष्णा मारने का कारण होय है ॥
जलपाननियम
सात्म्यान्नपानभैषज्यैस्तृष्णार्तस्य जयेत्तृषाम्। तस्यां जितायामन्योपि व्याधिः शक्यश्चिकित्सितुम् ॥ तृषितो मोहमायाति मोहात्प्राणान्विमुंचति। तस्मात्सर्वास्ववस्थासु न क्वचिद्वारिवार्यते॥ अन्नेनापि विना जंतुः प्राणान्संधारये त्क्वचित्। तोयाभावे पिपासार्तःक्षणात्प्राणैर्विमुच्यते॥
अर्थ-अपनी प्रकृति को जो रुचे ऐसे अन्न, पान और औषध इन से तृषार्तरोगी की तृषा जीते. यह तृषाके जीतने से और दूसरी व्याधि सहजमें जीती जाती है. अन्यथा तृषावाला मनुष्य मोह को प्राप्त होता है और मोह से प्राणों को छोड़ देता है इसी वास्ते किसी अवस्था में जल का देना बंद न करे. विना अन्नके एकघडी जी सक्ताहै परंतु जल के विना यह प्राणी एक क्षणमात्र भी नहीं जीवे इसवास्ते प्यासे को जल पिलाना ही चाहिये ॥
गंडूष
पटोली मूलिका सार्द्रातुवरी मधुयष्टिका । क्रमुकंचिक्कणं
कंदश्छल्ली च खदिरान्विता॥ कटुकीरवराजोत्थक्काथोमीषांसुशीतलः। गंडूषधारणाद्धंति गलशोषंसुदा-रुणम्॥
अर्थ-परवल, हरें की जड, अरहर, मुलहटी, चिकनी सुपारी, तृषाबंद करने वालाकंद, खैर तथा कुटकी, गठोना इन का काढा करके शीतल करे इस को मुख में रखे तो दारुण गलशोष( गले का सूखना ) इन को नष्ट करे ॥
गंडूष
श्रीखंडं पद्मकं मुस्तधान्यकं निंबवल्कलम्। कूष्मांडं खदिरो दूर्वामूलं कितवराजकम्॥ अष्टावशेषि-तोमीषांक्वाथः शीतलतां गतः। गंडूषकरणाद्धंति रोगिणः शोकमुल्बणम् ॥
अर्थ-चंदन, पद्माख, नागरमोथा, धनिया, नीम की छाल, पेठा, खैर, दूब की जड, गठोना इन का भष्टावशेष काढा करके शीतल कर लेवे. फिर इस काढे के कुल्ले करे तो रोगी के बढे हुए शोषका नाश करे॥
लेप
जलं मलयजंरक्तचंदनं पद्मकेसरम् ।
उशीरेणांचितैर्लेपो मस्तके तृड्निवारणः॥
अर्थ-नेत्रवाला, चंदन, लाल चंदन, कमल की केशर और खस इन को जलमेंपीस मस्तक पर लेप करे तो तृषाको दूर करे॥
चूर्ण
कणा जीरंसिता नागकेसरं दाडिमीफलम्।
मधुना भक्षणादेषांरोगो गच्छति रोगिणः॥
अर्थ-पीपल, जीरा, मिश्री, नागकेशर और अनारदाना इन का चूर्ण करके सहत में मिलायके चाटे तो तृषा जाती रहे ॥
कुष्ठादिचूर्ण
कुष्ठं कासोद्भवं मूलं मधुकं पिष्टमंजसा।
भक्षितं तं द्रुतं हंति पिपासां चिरकालजाम् ॥
अर्थ-कूठ, कसोंदी की जड़ और मुलहटी इन को जल में पीसके देय तो बहुत दिनों की भी तृषा शीघ्र शांत होय ॥
चूर्ण
कुशः कुष्टजतुर्यष्टी लाजातप्तेन वारिणा ।
पीतश्चर्णस्तृषांहंति शोकसंतापसंभवाम् ॥
अर्थ-कुसा, कूठ, लाख, मुलहटी और खील इन के चूर्ण को गरम जल केसाथ पीवे तो शोक और संताप के कारण से प्रगट तृषा को शांत करे॥
वटाद्यवलेह
वटबाला शिवा कृष्णा मधुकं मधुना सह।
अवलेहः कृतोमीषांतृषारोगो विनश्यति॥
अर्थ-वड की कोपल, नेत्रवाला, हरड, पीपल और मुलहटीइन का अवलेह बनाय उस में सहत मिलायके सेवन करे तो तृषारोग नष्ट होय॥
दूसरा प्रकार
वटशृंगा सिता लोध्रंदाडिमं मधुकं मधु ।
पिबेत्तंदुलतोयेन तृष्णाच्छर्दिनिवारणम् ॥
अर्थ-वड की कोपल, मिश्री, लोध, अनारदाना और मुलहटी इन का काढा करे शीतल होने पर सहत डालके पीवे और चावलों के धोवन में मिलायके पिलावेतो प्यास और वमन का होना ये बंद होवे
अवलेह
अर्घावर्तितपानीयं सलाजैः शीतलं मधु ।
तवराजयुता द्राक्षा मुखे क्षिप्ता तृषांजयेत् ॥
अर्थ-जल में खीलों को डालके औटावे जब आधाजल रहे तब उतारके शीतलकरे फिर सहत मिलायके देवे अथवा दाख और मिश्री मिलायके गोली बनाय ले इस को मुख में रखे तो तृषानाश होवे॥
ताम्रादिरस
ताम्रंचक्रिकया बद्धं सूतं तालं सतुत्थकम् ।
वटांकुररसैर्मर्द्यंतृष्णानुलबमात्रया॥
अर्थ-तामे की भस्म, पारा, हरताल गौर लीला थोथा इन को वड की कोपल के रस में खरल कर टिकिया बनायके संपुट में धरकेफूंक देवे इस में लवमात्र की मात्रा देय तो प्यास दूर होय॥
श्रीखंडयोग
अर्धाढकं रुचिरपर्युषितस्य दध्नःखंडस्य पोडश पलानि शशिप्रभस्य। सर्पिः पलं मधु पलं मरिचं द्विकर्षंशुंठ्यापलार्धमपि चार्धपलं तृटेश्च ॥ श्लक्ष्णे पटे ललनया मृदुपाणिघृष्टे कर्पूरधूलिसुरभीकृतचारुभांडे । एषा वृकोदरकृता सुरसा रसाला सुवादिता भगवता मधुसूदनेन ॥
अर्थ-पहली दिन का जमा हुआ गाढा २ सुंदर चिकना दही दो सेर लेय बहुत सपेद चूरा १ सेर, घी ४ तोले, सहत ४ तोले, काली मिरच २ तोले, सोंठ २ तोले तथा छोटी इलायची के दाने २ तोले इतने पदार्थों को उस दही में मिलायके पतले कपडेमें डाल और कपूर के चूर्ण करके सुगंधित ऐसे पात्र में स्त्री अपने कोमल हाथों से उसे छाने, इस को श्रीखंड कहते हैं. इस के सेवन करने से मनुष्यों की तृषाशांत होय इस को कोई रसाला अथवा सिखरन भी कहते हैं इस प्रकार श्रीखंड प्रथम भीमसेन ने बनाई उस को श्रीकृष्ण ने बड़े स्वादपूर्वक भोग लगाई॥
आमलक्यादिगुटिका तृष्णादिपर
आमलं कमलं कुष्ठंलाजाश्च वटरोहकम्। एतच्चूर्णस्य मधुना गुटिकां धारयेन्मुखे॥ तृष्णां प्रवृद्धां हंत्येषामुख-शोषंच दारुणम् ॥
अर्थ-आंवले, कमल, कूट, खील, वड की कोंपल इन पांच औषधों का चूर्ण करके सहत में मिलायके गोली बनावे. इस को मुख में रखे तो बहुत प्यास का लगना तथा मुख का अत्यन्त सूखना इन दोनों को दूर करे॥
वटी
उत्पलं मधु लाजाश्च वटरोहो गदस्तथा।
एतैः कृता वटी नित्यं तृष्णां नाशयति क्षणात्॥
अर्थ-नीला कमल, सहत, सील, वड के अंकुर और कूट इन को कूट पीसके गोली बनावे. इस गोली को मुख में रखे तो क्षणमात्र में तृषाका नाश करे॥
गुटी
खर्जूरमृद्धीकमधुः सखंडं पृथक् पलंमागधिका त्रिगंधे।
तथाविल्ले मधुना गुटीयं तृण्मोहपित्तास्त्रजयेति शस्ता॥
अर्थ-खजूर, दाख, मुलहटी, मिश्री ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे. पीपल, दालचीनी, पत्रज और इलायची ये दो २ पल लेवे इन सब को कूट पीस सहत से गोली बनावे यह तृषा, मोह और रक्तपित्त इन को नाश करे॥
काश्मर्यादिकाढा
काश्मर्यशर्करायुक्तं चंदनोशीरपद्मकम् ।
द्राक्षामधुकसंयुक्तं पित्तवृष्णो जलं पिबेत् ॥
अर्थ-कंभारी के फल, मिश्री, चंदन, खस, पद्माख, मुनका और मुलहटी इन का काढापित्तजन्य तृषावाले को हितकारी है॥
जीरकादिचूर्ण
सजीरधान्यार्द्रक शृंगवेरसौवर्चलान्यर्धपरिप्लुतानि ।
मद्यानि हृद्यानिच गंधवंति पीतानि सद्यः शमयति तृष्णाम्॥
अर्थ-जीरा, धनिया, अदरख, बांस, संचरनिमक इन के चूर्ण को आधा भीगे इतना मद्य (दारु ) उत्तम सुगंध युक्त पीने से तृषाकी शांति होवे॥
आम्रादिकाढा
आम्रजंबूकषायं वा पिबेन्माक्षिकसंयुतम् ।
छर्दिंसर्वां प्रणुदति तृष्णां चैवापकर्षति॥
अर्थ-आम और जामुन की छाल का काढा सहत मिलायके पीने से सबप्रकार वांति, तृषाइन को शमन करे ॥
द्राक्षादिनस्य
गोस्तनीक्षुरसक्षीरयष्टीमधुमधूत्पलैः।
नियतं नस्यतो पीतैस्तृष्णा शाम्यति तत्क्षणात्॥
अर्थ-काली दाख, ईख, दूध, मुलहटी, सहत और कमल इन का नस्यलेने से नियमपूर्वक उसी क्षण में तृषा शांत होवे ॥
जीरकादिकाढा
जीरकुस्तुंबरीद्राक्षाचंदनोत्पलशीतलम् ।
शीतलेन समं दद्यात्तृष्णां हन्त्यतिशीतलम्॥
अर्थ-जीरा, धनिया, मुनक्का दाख, चंदन, कमल, कपूर ये सब पीस शीतल जल के साथ पीने से तृषाका नाश होय॥
कोष्ठादियोग
रुग्लाजाब्दवटप्ररोहमधुकैर्मध्वन्वितैः कल्पितान्युग्रामाशु तृषांभृशं प्रशमयेदास्यांतरस्था गुटी॥
अर्थ-कूठ, खील, नागरमोथा, वड के अंकुर, मुलहटी और सहत इन सब को एकत्र पीस गोली बनायके मुख में रखे तो अत्यंत तृष्णा भी होवे तो शीघ्र शांत होवे ॥
तप्तलोष्टादियोग
निर्वापितं तप्तलोष्टकपालसिकतादिभिः।
तृष्णायां वमनोत्थायां सगुडं दधि शस्यते॥
अर्थ-मिट्टी का डेला, खीपडा और वालू ( रेत ) में से किसी एक को अग्नि में गरम करके दही में बुझ ले. फिर इस में गुड डालके पीवे तो वमन के होने से जो तृषा उत्पन्न हुई वह शांत होवे॥
मंदादियोग
आतपात्ससितं मंथं यवकोलजसक्तुभिः।
सर्वाण्यंगानि विलिपेत्तिलपिण्याककांजिकैः॥
अर्थ-यदि धूप में रहने से तृषालगी होवेतो छाछ में मिश्री, सत्तू और घर का चूर्ण इन को मिलाय के पीवे. तथा सब देह में तिल के खल का और कांजी का लेप करे॥
रोगोपसर्गजातायां धान्यांबुससिता मधु। वटप्ररोहयष्ट्याह्वकणामधुकृता वटी॥ मुखस्था चिरकालोत्थां तृष्णां हन्यात्सुदुस्तराम्॥
अर्थ-रोग के कारण यदि प्यास लगे तो धनिये का जल, सहत और मिश्री डालके पीवे और बहुत देर की प्यास लगकर दुःसाध्य होवे तो वड के पल्लव अथवा कोमल अंकुर, मुलहटी, पीपल और सहत इन की गोली बनायके मुख में रखे॥
रसादिगुटी
रसरजतगुटीं पटीयसीं यो वदनसरोरुहमध्यगां दधाति।
स जयति तृषितस्तृषांमनुष्योभृशमघमिव त्रिमार्गगांभः।
अर्थ-पारा और चांदी इन दोनों को खरल करके गोली बनावे इस को मुख में रखे तो तृषित मनुष्य अपनी तृषा को दूर करे जैसे त्रिपथगा गंगाजी पापों को नष्ट करे है॥
रसादिचूर्ण
रसगंधककर्पूरैः शैलोशीरमरीचकैः। रसितैः क्रमवृद्धैश्चसूक्ष्मं कृत्वा त्वहर्मुखे॥ त्रिगुंजाप्रमितं खादेत्पिबे-त्पर्युपितांबु च। भृशं तृष्णां निहंत्येवमश्विभ्यां च प्रकाशितम् ॥
अर्थ-पारा १ , गंधक २ , कपूर ३ , शिलाजीत ४, खस ५, काली मिरच ६ और मिश्री ७ भाग, इस प्रकार लेकर बारीक चूर्ण करे इस में से तीन रत्ती के अनुमान प्रातःकाल सेवन करे फिर शीतल जल पीवेतो अत्यंत तृषाका नाश होवे यह अश्विनीकुमार ने प्रकाश करा है॥
लेप
अरुणचंदनचंदनवालकैर्नलदपद्मकतुल्यकृतांशकैः।
शिरसि लेपनमाचरतां नृणां तृडपयात्युपशांतिमसंशयम्॥
अर्थ-लाल चंदन, चंदन, नेत्रवाला, खस, पद्माखये समान भाग लेवे सब को जल में पीसके मस्तकपर लेप करे तो निश्चय तृषाशांत होय॥
गुटी
नीलांबुजाब्दमधुलाजवटावरोहैःलक्ष्णीकृतैविरचिता गुटिका मुखस्था। तृष्णां निवारयति तत्क्षणमेव तीत्रां मृत्योः स्पृहामिव यतेः परमार्थचिंता॥
अर्थ-नीला कमल, नागरमोथा, सहत, खील और वडके अंकुर इन सब को पीसके गोली बनावे इस को मुखमें रखेतो तत्क्षण तृषादूर होवे जैसे संन्यस्त( संन्यासी ) परमार्थविषय में चिंता, मृत्यु की इच्छा निवारण करे उसी प्रकार ॥
उपसर्गतृष्णासामान्यविधि
तृष्णातिवृद्धादरे च पूर्णे संछर्दयेन्मागधिकोदकेन ।
विलोमसंचारहितं विधेयं स्याद्दाडिमाम्रातकमातुलिंगैः॥
अर्थ-यदि प्यास अधिक बढगई हो और जल पीते २ पेट अफर गया होवे तो पीपल के काढेसे उलटी करावे और वायु का अनुलोमसंचार होयऐसे हितकारी अनार, अंबाडाऔर बिजोरा इन को सेवनकरे, अभ्यंजन औरसेंककरे॥
Pege no. ९४० and९४१ are missing from this Book.
जंगली जीवों के मांस का रस, खांडव, मिश्री, रागखांडव ( सहत, मीठा दही इन दोनों को मिलायके बनाया हुआ पदार्थ ) तथा मूंग का, मसूर का अथवा चने का रस, केले के फूल, छाछ ( तैल )कूर्च, दाख, पित्तपापडा, बेल, कैथ, कमरख, बेर,पेठा, पोई का साग, खजूर, अनार, आंवले, ककडी, वहता जल, जँभीरी, कमरख, बिजोरा, गौ का दूध, महुआ के फूल, नेत्रवाला, कडुए रस, मीठे रस, छोटे २ ताल फलों का जल अथवा खस और ताडीरस, शीतल जल, दूध, पना, सहत, तालावका जल, सतावर, नागकेशर, इलायची, जायफल, हरड,धनिया, लालचंदन, कपूर, कपूरकचरी, चाँदनी, शीतलपवन, चंदन लगाए हुए स्त्री, मोती के आभूषण, नदी में स्नान करना तथा लेपन ये तृषा( प्यास ) रोगवाले को पथ्य में देवे ॥
तृषारोगअपथ्य
स्नेहांजनं स्वेदनधूमपानं व्यायामनस्यातपदंतकाष्ठम् । गुर्वन्नमम्लं लवणं कषायं कटुत्रिकं दुष्टजलानि तीक्ष्णम् ॥ एतानि सर्वाणि हिताभिलाषीतृष्णातुरो नैव भजेत्कदाचित्॥
अर्थ-स्नेहन, अंजन, स्वेदन, धूमपान, दंड कसरत, नस्यकर्म, धूप का सेवन दांतन करना, भारी अन्न, खट्टा, निमकीन, कषेला ऐसे रस, त्रिकुटा ( सोंठ, मिरच, पीपल ), दूषित जल, तीक्ष्ण पदार्थ, इन संपूर्ण पदार्थोंको हित की इच्छा करनेवाला तृषा( प्यास का ) रोगी कदाचित् सेवन न करे॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे तृष्णारोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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मूर्च्छाभ्रमनिद्रासंन्यासनिदानम्।
क्षीणस्य बहुदोषस्य विरुद्धाहारसेविनः। वेगाघातादभीघाताद्धीनसत्वस्य वा पुनः॥करणायतनेषूग्रा बाह्येष्वाभ्यंतरेषु च। निविशंते यदा दोषास्तदा मूर्च्छंति मानवाः॥
अर्थ-तृषामें मोह होय है, इसी से तृषाके अनन्तर मूर्च्छाको कहते हैं. की पुरुषके बहुत दोष के संचय होने से, विरुद्ध आहार क्षीरमत्स्यादिक के सेवन करने से, मलमूत्रादि वेग के धारण करने से, लकडी आदि के चोट लगने से अथवाजिस पुरुषका सतोगुण क्षीण हो गया होय, ऐसे पुरुष की बाहर की और भीतरकी मन के वहनेवाली नाडियों में दोषप्रवेश करे तबमनुष्य को मूर्च्छाआती है॥
संप्राप्ति
संज्ञावहासु नाडीषुपिहितास्वनिलादिभिः। तमोभ्युपैति सहसा सुखदुःखव्यपोहकृत् ॥ सुखदुःखव्यपोहाच्च नरः पतति काष्ठवत्। मोहो मूर्च्छेति तामाहुः षड्विधा सा प्रकीर्तिता ॥ वातादिभिः शोणितेन मद्येन च विषेण च । षट्स्वप्येतासु पित्तं तु प्रभुत्वेनावतिष्ठते॥
अर्थ-अर्थात् संज्ञा के वहनेवाली नाडियों में वातादि दोषों करके आच्छादित होने से सुखदुःखका ज्ञान नष्ट होय, तब मनुष्य पृथ्वीपर काष्ठ की सी तरह गिरे इस रोग को मूर्च्छाअथवा मोह ऐसे कहते हैं अथवा बाहर की इन्द्रिय नेत्र, कान आदि कर्मेंद्रिय और बुद्धीन्द्रिय इन में बलवान् दोष( वात, पित्त, कफ ) प्रवेश कर संज्ञा की वहनेवाली जो नाडी तिन को वह वात, पित्त, कफ रोक अंधकार को प्रगट करे तब मनुष्य काष्ठ की भांति पृथ्वीपर गिरे उस को मूर्च्छाकहते हैं अथवा मोह कहते हैं सो मूर्च्छा छः प्रकार की है. वात, पित्त, कफ से तीन प्रकार की और रुधिर, विषऔर मद्य इन भेदों से तीन प्रकार की. इन तीनों मूर्च्छा में पित्त है सो मुख्य ( प्रधान ) है अथवा व्यापक है॥
पूर्वरूप
हृत्पीडा जृंभणं ग्लानिः संज्ञानाशो बलस्य च ।
सर्वासां पूर्वरूपाणि यथास्वं तं विभावयेत् ॥
अर्थ-हृदय में पीडा, जंभाई, ग्लानि, भ्रांति ये मूर्च्छाके पूर्वरूप हैं. आगे उस मूर्च्छा के वातादि भेद जानने.यह प्रगट अवस्था के पूर्वरूप अवस्या के भेद नहीं यह जैय्यटाचार्य का मत है॥
वातादिमूर्च्छालक्षण
नीलं वा यदि वा कृष्णमाकाशमथवाऽरुणम् । पश्यंस्तमः प्रविशति शीघ्रं च प्रतिबुद्ध्यते ॥ वेपथुश्चांगमर्दश्च प्रपीडा हृदयस्य च । कार्श्यं श्यावारुणाच्छाया मूर्च्छांगेवातसंभवे॥
अर्थ-जो मनुष्य नीले रंग का अथवा काले रंग का तथा लाल रंग का आकाशकोदेखेपीछे मूर्च्छा को प्राप्तहोय और जलदी होश हो जाय, देह में कंप, अंगों का टूटना, हदय में पीडा होय, शरीर कृश हो जाय शरीर का रंग काला पड जाय, उसको वात की मूर्च्छा जाननी ॥
पित्तमूर्च्छानिदान
रक्तं हरितवर्णं वा वियत्पीतमथापि वा। पश्यंस्तमः प्रविश सस्वेदश्च प्रबुद्ध्यते॥ सपिपासः ससंतापो रक्तपीताकुलेक्षणः। जातमात्रे च पतति शीघ्रं च प्रतिबुध्यते ॥ संभिन्नवर्चाःपीताभो मूर्च्छांगे पित्तसंभवे ॥
अर्थ-जिस को आकाश लाल, हरा, पीला दीखे पीछे मूर्छा आवे और सावधान होते समय पसीना आवे, प्यास होय, संताप होय, नेत्र लाल, पीले होंय, मल पतला होय, देह का वर्ण पीला होय ये लक्षण पित्त की मूर्च्छाके हैं॥
कफमूर्च्छा
मेघसंकाशमाकाशमावृतं वा तमोघनैः। पश्यंस्तमः प्रविशति चिराच्चप्रतिबुद्ध्यते॥ गुरुभिः प्रावृतैरंगैर्यथैवार्द्रेणचर्मणा। सप्रसेकः सहृल्लासो मूर्च्छांगे कफसंभवे॥
अर्थ-कफ की मूर्च्छामें आकाश को मेघ के समान अथवा अंधकार के समान अथवा बादल इन से व्याप्त देखकर मूर्च्छागत होय, देर में सावधान होय, भारी, बोझासा देहपर भार मालूम होय अथवा गीला चमडा धारण करासामालूम होय,मुख से पानी गिरे, रद्द होयगी ऐसा मालूम होय॥
संनिपातमूर्च्छानिदान
सर्वाकृतिः सन्निपातादपस्मार इवापरः।
स जंतुं पातयत्याशुविना बीभत्सचेष्टितैः॥
अर्थ-सन्निपात की मूर्च्छामें सबदोषोंके लक्षण होते हैं, ये रोग दूसरा अपस्मार ( मृगी ) जानना चाहिये. परन्तु अपस्मार में दातों का चबाना, मुखसे झाग का गेरना, नेत्रों का हाल और ही प्रकार का हो जाना, इत्यादिक लक्षण होते हैं सो इस रोग में नहीं होते, इतना ही भेद है. * शंका-क्यौंजी पूर्व तो छः प्रकार की मूर्छा कह आये फिर सन्निपात की मूर्च्छा कैसे कही. * उत्तर-चरक की अष्टोत्तरीयाध्याय में लिखा है, जैसे अपस्मार चार प्रकार का है. वात का, पित्त का, कफ का, सन्निपात का, उसी प्रकार मूर्च्छारोग भी चार प्रकार का है इसी मत को ग्रहण कर माधवाचार्य ने सन्निपात की मूर्च्छा कहीहैं॥
रक्तमूर्च्छानिदान
पृथिव्यापस्तमोरूपं रक्तगंधश्च तन्मयः । तस्माद्रक्तस्य गंधेन
मूर्च्छंति भुवि मानवाः॥ द्रव्यस्वभाव इत्येके दृष्ट्वायदि च मूर्च्छति॥
अर्थ-पृथ्वी और जल ये दोनों तमोगुणविशिष्ट है सो सुश्रत में लिखा है. और रुधिर की गंध भी उन दोनों से अर्थात् पृथ्वी और जल से प्रगट है. तो रुधिर की गंध भी तमोगुण विशिष्ट हुई इसी से जो तामसी पुरुष है सो रुधिर की गंधीसेमूर्च्छित होते हैं और जो राजसी, सात्विकी पुरुषहैं सो मूर्च्छित नहीं होते* शंका-क्यौंजी चंपक ( चम्पा ) पुष्प की गंध से भी मूर्च्छा होनी चाहिये क्योंकि उस में भी पार्थिव अर्थात् तामसगुणविशिष्ट गंध है इस वास्तेकहते हैं. ( द्रव्यस्वभावमित्येके ) अर्थात् कोई आचार्य कहते हैं कि ये द्रव्य का ही स्वभाव है अर्थात्रुधिर का यही स्वभाव है कि जिस की गंध से ही मनुष्य मूर्च्छित होय है. अबप्रभाव को और भी दृढ करते हैं ( दृष्ट्वा यदभिमुह्यति ) अर्थात् रक्त के देखने से मूर्च्छित होयहै सो लिखा है
विषमद्यमूर्च्छानिदान
गुणास्तीव्रतरत्वेन स्थितास्तु विषमययोः।
त एव तस्मादाभ्यां तु मोहौस्यातां यथेरितौ॥
अर्थ-तैलादिकों में जो दश गुण हैं वे ही गुण विष और मद्य में अत्यंत तीव्रता सेरहते हैं. इसी से विष और मद्य के सेवन करने से मोह होय है, इस में भी मद्य मेंतीव्ररहे और विष में तीव्रतर रहे इसी से विषका मोह स्वयं शांत नहीं होय. क्योंकि विषअपाकी है और मद्य का मोह, मद्य के नसा उतरे पर शांत हो जाय यह भेद विष और मद्य में रहता है॥
रक्तादिमूर्च्छाओं के लक्षण
स्तब्धांगदृष्टिस्त्वसृजा गूढोच्छ्वासश्च मूर्च्छितः। मद्येनविलञ्छेते नष्टविभ्रांतमानसः॥ गात्राणि विलिपन्भूमो जरां यावन्नयाति तत् । वेपथुस्वप्नतृष्णाः स्युस्तमश्च विपमूर्छिते॥ वेदितव्यं तीव्रतरैर्यथास्वं विषलक्षणैः॥
अर्थ-रुधिर की मूर्च्छा में अंग और नेत्र निश्चल हो जांय और श्वास अच्छे प्रकार आवे नहीं. बहुत मद्य के पीने से जो मूर्च्छा हो उस के ये लक्षण हैं. बहुत बके, सोयजाय, संज्ञा जाती रहे, भ्रमयुक्त होय और जबतक मद्य न पचेतबतक पृथ्वीमें हाथ पैर पटके. विषजन्य मूर्च्छामें कांपे, सोवे, प्यास लगे और अंधेर
आवे, एवं मूल, पत्र, दूध इन के भेदकर जो विषभक्षण से लक्षण होते हैं सो सब लक्षण होते हैं॥
मूर्च्छाभेदकारण विशेषकरके कहता हूं
मूर्छा पित्ततमःमाया रजःपित्तानिलाद्भ्रमः । तमोवातकफत्तंद्रा निद्राश्लेष्मतमोभवा ॥ इंद्रियार्थेष्वसंवृत्तिर्गौरवं जृंभणं क्लमः । निद्रार्तस्यैव यस्यैते तस्य तंद्रा विनिर्दिशेत् ॥ योनायासः श्रमो देहे प्रवृद्धश्वासवर्जितः। क्लमः स इति विज्ञेयो इंद्रियार्थप्रबोधकः॥
अर्थ-मूर्च्छा में पित्त और तमोगुण अधिक रहे हैं. रजोगुण पित्त और वायु इन में भ्रम होय है. तमोगुण, वायु और कफ इन से तन्द्रा और कफ तथा तमोगुण इन से निद्रा उत्पन्न होती है. इन्द्रिय अपने अपने विषय को ग्रहण न करे, देह भारी हो जाय अर्थात् सुस्त हो जाय, जंभाई और ,क्लम होय, ये लक्षण निद्रार्त पुरुष के सदृश जिस के होय उस को तन्द्रा कहते है. इस में आधे नेत्र खुले रहते है, निद्रा में इन्द्रिय और मन को मोह होय है, तन्द्रा में केवल इन्द्रियों को ही मोह होय है. निद्रा और भ्रम ये दोनों अतिप्रसिद्ध होने से माधवाचार्य ने नहीं कहे, परंतु चरक में कहे है. सो इस प्रकार की जिस समय मन और इन्द्रिय खेद को प्राप्त होंय और अपने अपने विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) को त्याग देंय, तब यह मनुष्य को निद्रा आती है और शरीर के आयास विना देह को श्रम होवे और अन्य आयास में जो बडा श्वास होता है वह नहीं होता और विषय में इंद्रियों की प्रवृत्ति होती है इस को क्लम कहते है॥
संन्यासकथन
दोषेषु मदमूर्च्छाद्यागतवेगेषु देहिनाम्।
स्वयमेवोपशाम्यति संन्यासो नौषधैर्विना॥
अर्थ-दोषों के वेग नष्ट होने से मदमूर्च्छादिक अपने आप शांत हो जाय हैं परंतु संन्यास यह औषध के विना शांत नहीं होय है॥
संन्यासलक्षण
वाग्देहमनसां चेष्टा आक्षिप्यातिबलान्मलाः । संन्यस्यंत्यबलं जंतुं प्राणायतनमाश्रिताः॥ स ना संन्याससंन्यस्तः काष्ठीभूतो मृतोपमः । प्राणैर्विमुच्यते शीघ्रंमुक्त्वा सद्यःफलां कियाम् ॥
अर्थ-अत्यंत बलिष्ठ भये जो दोष, सो वाणी, देह और मन इन के व्यापार को बंदकर हृदय में प्राप्त हो निर्मल मनुष्य को मूर्च्छित करे, वह संन्यास से पीडित मनुष्य काष्ठकी भांति पृथ्वी पर गिरे उस की सद्यःफल चिकित्सा अर्थात सुई से छेदना, तीखे अंजन का लगाना, अनामिका को पीडित करना, कोंच की फली लगाना, दाह देना, नास देना इत्यादिक क्रिया न करे तो वह रोगी प्राणवियुक्त कहिये मरण को प्राप्त हो, अन्यथा बचे है ॥
मूर्छा
मूर्छा मोहो द्विधा स्यात्प्रभवति सहजागंतुभेदेन भिन्नस्तत्रागंतुस्त्रिधा स्याद्रुधिरविषसुराजन्मभेदादिभिन्ना। प्रत्येकं दोषभेदाद्भवति च सहजा सा त्रिधा षट्सुपित्तं प्रधान्येनेह तिष्ठेदभिधति च तां इंद्रजां सन्निपातात् ॥
अर्थ-मूर्छासंबंध से मोह दो प्रकार का होता है सहज और आगंतुक इन में से आगंतुक रक्त, विषऔर मद्य इन से तीन प्रकार का है और सहज मूर्छामें पित्तप्रधान होता है व यह मूर्छा द्वंद्वज और सन्निपात इन से भी होती है॥
चिकित्साक्रम
सेकावगाहा मणयः सहाराः शीताः प्रदेहा व्यजनानिलाश्च।
शीतानि पानानि च गंधवंति सर्वासु मूर्छास्वनिवारितानि॥
अर्थ-अंग पर जल का तरडा देना, स्नान करना, रत्न और रत्नों के हार धारण करना, शीतल चंदनादिक लेप करना, पंखे से पवन करना, सुगंधित और शीतल पने ये उपचार संपूर्ण मूर्च्छापर अबाध हैं ॥
दुरालभादिकाढा
दुरालभाकषायस्य घृतयुक्तस्य सेवनात्।
भ्रमः शाम्यति गोविंदचरणस्मरणादिव॥
अर्थ-धमासे का काढाकर उस में घी डालके देवे तो भ्रम की शांति होय जैसे गोविंदचरणस्मरण से पाप नष्ट होते हैं ॥
पंचमूलकाढा
पंचमूलकषायं च मधुना सितया पिबेत्।
ज्वरघ्नांस्तु कषायांश्च तान्यथास्वं प्रयोजयेत् ॥
अर्थ-मूर्छा पर पंचमूल काढा, सहत और मिश्री मिलाय ले देवे और जो ज्वरनाशक काढे हैं वह भी यथादोषदेखकर देवे॥
क्षुद्रादिकाढा
क्षुद्रामृताग्रंथिकनागराणां मूर्छांजयेद्दारुणकाकषायः॥
अर्थ-कटेरी, गिलोय, पीपरामूल, सौंठ और बरना इन का काढा मूर्छाका नाश करे है॥
द्राक्षादिकाढा
द्राक्षासितादाडिमलाजवंति कहारनीलोत्पलपद्मवंति ।
पिबेत्कषायाणि च शीतलानि पित्तज्वरं यानि च यापयंति ॥
अर्थ-दाख, मिश्री, अनारदाना, लजालू, लाल कमल, नीले कमल और कमल इन का काढा करके देवे अथवा जो पित्तज्वर पर काढा देना चाहिये सो इसपर देवे ॥
रक्तजादि का मूर्च्छापर शास्त्रार्थ
रक्तजायां च मूर्छायां हितः शीतक्रियाविधिः । मद्यजायां वमेन्मद्यं निद्रां सेवेद्यथासुखम् ॥ विषजायां विषघ्नानि भेषजानि प्रदापयेत्॥
अर्थ-रुधिर के कारण मूर्छा होवे तो शीतल औषधहितकारी होती है. मात्रपीने के कारण मूर्च्छाहोय तो मद्य को रद्द करके निकाल देवे और सोय जावे. यदिविषमक्षणसे मूर्च्छा हो तो विषनाशक औषध सेवन करे॥
कोलादियोग
कोलमज्जाकणोशीरकेसरं शीतवारिणा।
पीतं मूर्छांजयेल्लीढ्वाकृष्णां वा मधुसंयुताम्॥
अर्थ-बेर की गुठली की मिंगी, पीपल, खस, नागकेशर इन को जल में पीसके पीवे, अथवा सहतमें मिलायके पीपल का चूर्ण सेवन करे तो मूर्च्छा दूर होय ॥
त्रिफलादियोग
मधुना हंत्युपयुक्ता त्रिफला रात्रौ गुडार्द्रकंप्रातः।
सप्ताहात्पथ्यभुजो मदमूर्छाकासकामलामोहान्॥
अर्थ-रात्रि के समय सहत में हरड, बहेडा, आवला इन के चूर्ण को मिलायकेखाय और गुड, अदरख मिलायके प्रातःकाल खाय, पथ्य से रहे इस प्रकार सात दिन करे तो मद, मूर्च्छा, कामला और मोह इन का नाश होवे॥
महौषधामृताद्राक्षापौष्करग्रंथिकोद्भवम् ।
पिबेत्कणायुतं क्वाथं मूर्छायां च मदेषु च॥
अर्थ-सोंठ, गिलोय, मुनक्का, पोहकरमूल और पीपरामूल इन के काढेमें पीपलका चूर्ण डालके पीवेतो मूर्च्छा और मद इन को दूर करे
दुरालभादिकाढा
पिबेद्दुरालभाक्वाथं सघृतं भ्रमशांतये ।
अंजनान्यपि पीडाश्च धूमाः प्रधमनानि च॥
अर्थ-धमासे के काढेमें घी मिलायके पीवे अथवा तीव्र अंजन लगावे रोगी को ( नोचने आदि से ) पीडा करना, धूमपान अथवा प्रधमन नस्य देवे तो मूर्छाशांत होवे॥
सामान्य
सूचिभिस्तोदनं शस्तं दाहपीडा नखांतरे।
लुंचनं नसलोनां च दंतैर्दंशनमेव च॥
अर्थ-मूर्छारोगी को सुई से चोटना, दाहकर्म करना, नख आदि को खूबदबाना बाल औरनखोंको खैचना तथा दांतो से काटना ये सब कर्म मूर्च्छारोग पर कारी है॥
आत्मगुप्तादियोग
आत्मगुप्तावघर्षश्च हितस्तस्यावबोधने ॥
अर्थ-मूर्च्छावाले रोगी के देह में कौच की फली घिस देवे तो उस को हो जावे ॥
नारिकेलादियोग
नारिकेलांना पीताः सक्तवः समशर्कराः।
पित्तहृत्कफतृण्मूर्छाभ्रमादीन्हंति दारुणान् ॥
अर्थ-नरियल के जल में सक्तु और सांड मिलायके पीवे तो पित्त, हृदय का तृष्णा, मूर्च्छा, भ्रम ये यदि भयंकर भी होवेंतो इन का नाश होय॥
प्रकारांतर
अंडयोर्घर्षणं चापि हितमेतैर्विबाधनम् । नासावदनरोधेन नस्यैर्मरिचनिर्मितैः॥ नरं जागरयेद्भूमौ मूर्च्छितं मंदमारुतैः॥
अर्थ-अंडकोशों में कौंच की फली आदि का लगाना मूर्छारोग में हितकारी है. मूर्छाआनकर पृथ्वी में गिरे हुए मनुष्य को मिरचों की नस्य देकर उस के मुख और नाक को बंदकर देवे अर्थात् श्वास रोक देवे तो मूर्च्छावाला रोगी तत्काल जाग उठे॥
मृणालाद्यवलेह
शीतेन तोयेन भृशं मृणालं कृष्णा च पथ्या मधुनावलिह्यात् ।
कुर्याच्च नासावदनावरोधं क्षीरं पिबेद्वाप्यथ मानुषीणाम्॥
अर्थ-शीतल जल से कमलकंद, पीपल और हरड इन को पीस सहत डालके चाटे अथवा मुख, नाक इन में वायु का कुछ प्रतिबंध करे अर्थात् इन को रोक देवेअथवा किसी स्त्री का दूध देवे तो मूर्छित मनुष्य जाग उठे॥
अंजन
शिरीषबीजं गोमूत्रं कृष्णामरिचसैंधवैः।
अंजनं स्यात्प्रबोधाय सरसोनशिलावचैः॥
अर्थ-सिरस के बीज, पीपल, काली मिरच और सैधानिमक इन को गोमूत्रमेंपीस इस का अथवा लहसन, मनसिल और वच इन को पीसके अंजन करे तोमूर्छित मनुष्य जगे॥
दूसरा प्रकार
अंजनं सम्यगारब्धं मधुसिंधुशिलोषणैः ।
प्रमोहद्रोहि भवति भाषितं भिषजां वरैः॥
अर्थ-सहत, सैंधानिमक, मनसिल और काली मिरच इन का अंजन करेमोह को नाश करे ऐसा उत्तम वैद्योंने कहा है॥
सामान्य उपचार अंजन
धूमांजनप्रधमनान्यवपीडनानि निस्तोददाहकचलोमविलुंठनानि । संदंशितानि दशनैः कपिकछुघर्षैश्चैतद्धितं सकलमोहविनाशनाय॥
अर्थ-धूम और अंजन नाक में तथा कान में फूंकना, पीडा देना, दुखाना, दाग देना, केश ( बाल )लोम (रुआं) का उखाडना, दांतों से काटना, काछकी फलीका लगाना इत्यदिक उपचारमोहनाश करनेमेंअर्थात्मूर्च्छादूर करने में हितकरी होतें हैं॥
स्विन्नामलकादिलेह
स्विन्नमामलकं पिष्ट्वा द्राक्षया सह संसृजेत्। विश्वभेषजसंयुक्तं मधुना सह लेहयेत् ॥ तेनास्य शाम्यते मूर्च्छाकासः श्वासस्तथैव च॥
अर्थ-औटायके नरम करे हुए आंवलों को पीस दाख और सोंठ तथा सहत मिलायके चाटे तो मूर्च्छा, खांसी और श्वास ये शांत होवें ॥
पथ्यादिघृत मदजन्यर्च्छापर
पथ्याक्वाथेन संसिद्धं घृतं धात्रीरसेन वा।
सर्पिः कल्याणकं वापि मदमूर्च्छापहं पिबेत्॥
अर्थ-हरड के काढे से अथवा आंवले के रस से सिद्ध करा हुआ घी अथवा कल्याण घृत पीवे तो यह मद और मूर्च्छाका नाश करे ॥
रस
कणामधुयुतं सूतं मूर्च्छायामनुशीलयेत् ।
शीतसेकावगाहादि सर्वंवा पीडनं हितम्॥
अर्थ-पीपल, सहत और पारा इन को एकत्र खरल करके सेवन करे तथा शीतल जल अंग पर छिडके तथा नेत्रों पर छिडकादेना इत्यादिक पीडा हितकारी है॥
ताम्रादिचूर्ण
ताम्रचूर्णसमोशीरं केसरं शीतवारिणा ।
पीतं मूर्च्छांद्रुतं हन्याद्वृक्षामिंद्राशनिर्यथा॥
अर्थ-लाल चंदन, खस और नागकेशर इन का चूर्ण करके शीतल जल के साथ पीवेतो शीघ्र मूर्च्छाका नाश करे जैसे वज्र वृक्ष का नाश करे॥
शुंठ्यादिगुटी
शुंठीकणशताह्वानां साभयानां पलं पलम्।
गुडस्य षट्पलान्येषां गुटिका भ्रमनाशिनी॥
अर्थ-सोंठ, पीपल, सतावर और हरड इन प्रत्येक को चार २ तोले लेके चूर्णकरे और गुड २४ तोले मिलायके गोली बनावे. इस को सेवन करे तो भ्रम को निवारण करे॥
मूर्च्छारोग में पथ्य
धूमोंजनं नावनरक्तमोक्षो दाहश्च सूचीपरितोदनानि । रोम्णां कचानामपि लुंचनानि नखांतपीडा दशनोपदंशः ॥ नासामुखद्वारमरुन्निरोधो विरेचनं छर्दनलंघनानि । क्रोधो भयं दुःखकरी च शय्या कथा विचित्रा सुमनोहराश्च॥ छाया नभोम्भः शतधौतसर्पिर्मृदुश्च तिक्तानि च लाजमंडः। जीर्णा यवा लोहितशालयश्च कौंभं हविर्मुद्गसतीनयूषाः॥ धन्वोद्भवा मांसरसाश्च रागाः सखांडवा गव्यपयः सिता च। पुराणकूष्मांडपटोलमोचहरी-तकी दाडिमनारिकेरम् ॥ मधूकपुष्पाणि च तंदुलीयस्तुषोदकान्नानि लघूनि वापि । निरंतरं चंदनचर्चनं च कर्पूरनीरं हिमवालुका च ॥ अत्युच्चशब्दोद्भुतदर्शनानि गीतानि वाद्यान्यपि चोत्कटानि । श्रमः स्मृतिश्चिन्तनमात्मबोधो धैर्यंच मूर्च्छावति पथ्यवर्गः॥
अर्थ-जल के छींटे देना, स्नान, मणियों का और हारों का पहनना, शीतल लेप, पंखे की पवन, शीतल और सुगंधित पानवस्तु, धारागृह अर्थात् जिस में फब्वारे लगे हुए ऐसा मकान, चंद्रमा की किरण, धूमपान, अंजन, नस्य, रक्तमोक्ष, दागना, सुई का चुभाना, छोटे २ बाल और बडे २ बालों का उखाडना, नख( नाखून ) को दबाना, दांतों से काटना, नाक, मुख इन से निकलनेवाली पवन का रोकना, दस्त, वमन का कराना, लंघन, क्रोधकराना, भय ( डरपाना ), दुःखदेनेवाली सेज पर सुलाना, चित्रविचित्र और मनोहर कहानियों का कहना, छाया, वर्षा का जल, सौ वार धुला हुआ घी, नरम और तीखे खीलों के मंड [ अथवा नरम और कडुए खीलों के मंड ], पुराने जौं, लाल चावल, घडे का घी, मूंग और मटर इन का यूष, जंगली जीवों के मांस का रस, रागखांडव, गौका दूध, मिश्री, पुराना पेठा, परवल, केला, हरड, अनार, नारियल, महुए के फूल, चौलाई, तुषोदक, हलके अन्न, नदीकांठ का जल, सपेद चंदन, कपूर, नेत्रवाला, शीतल वालू रेत, अत्यंत ऊंचे स्वर से पुकारके बोलना, अद्भुत पदार्थ का देखना, उत्तम गीत, उत्तम बाजे, उत्कट कर्मोंकोकरना, परिश्रम का न करना, भूल का सोचना, आत्मज्ञान मोर धीरज का धारण करना इत्यादि मूर्छारोगी को पथ्य पदार्थों का वर्ग कहा है॥
मूर्छाअपथ्य
तांबूलं पत्रशाकानि दंतघर्षणमातपम् । विरुद्धान्यन्नपानानि व्यवायं स्वेदनं कटु॥ विण्मूत्रवेगरोधं च तक्रंमृर्च्छामयी त्यजेत्॥
अर्थ-तांबूल ( पान का बीडा ), पत्तों का साग, दांतों का घिसना, धूप खाना, विरुद्ध अन्न पानों का सेवन, मैथुन करना, पसीने निकालना, चरपरे पदार्थों का सेवन, मलमूत्र आदि वेगों का रोकना ( तृषा, निद्रा, इन के वेग को धारण करना), छाछ पीना, इतनी वस्तु मूर्छारोगवाला त्याग देवे॥
इति श्रीआयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघंटुरत्नाकरे मूर्छारोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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पानात्ययपरमदपानाजीर्णपानविभ्रमनिदानम्।
ये विषस्य गुणाः प्रोक्तास्तेपि मद्येप्रतिष्ठिताः।
तेन मिथ्योपयुक्तेन भवत्युग्रो मदात्ययः॥
अर्थ-विषके जो गुण कहे हैं सोई गुण मद्य में हैं अर्थात् यही मद्य अविधि से सेवन करा भया घोर भयंकर मदात्यय रोग प्रगट करे हैं॥
किंतु मद्यं स्वभावेन यथैवान्नं तथा स्मृतम् ।
अयुक्तियुक्तं रोगाय युक्तियुक्तं तथाऽमृतम्॥
अर्थ-कोई ऐसी शंकाकरे कि विषके गुण मद्यमें है इस से विषके समान मद्य को सेवन न करे इस विषय में कहते हैं मद्य यह स्वभाव से ही जैसे अन्न देहधारक है ऐसा ही है, परंतु वह मद्य अविधि से पीवे तौरोगकारक होय है और विधि से सेवन करे तो अमृत के समान गुण करे॥
प्राणाः प्राणभृतामन्नं तदयुक्तं तु हत्यसून् ।
विपं प्राणहरं यत्तु युक्तियुक्तं रसायनम् ॥
अर्थ-मनुष्य आदि सब जीव अन्न के आश्रय से रहते हैं इस से “प्राणाः अन्नं” अर्थात् प्राण ही अन्न है परंतु वह अन्न अप्रमाण सेवन करने से प्राण का नाश करता है. वस्तुतः विषप्राणनाशक है परंतु यथाशास्त्र सेवन करने से रसायनहोता है॥
मद्यका सेवनप्रकार
विधिना मात्रया काले हितैरन्नैर्यथाबलम्। प्रहृष्टो यः पिबेन्मद्यं
तस्य स्यादमृतं यथा ॥ स्निग्धैः सदन्नैर्मांसैश्च भक्ष्यैश्च सह सेवितम् । भवेदायुः प्रकर्षाय बलायोपचयाय च ॥
अर्थ-विधिपूर्वक प्रमाण के संग योग्य काल में चिकना आदि अच्छे अन्न केसंग, बलाबल के अनुसार, अत्यंत हर्ष के साथ, जो मद्यपान करे, उस को अमृत के तुल्य गुण करे इस के पीने की विधि मदात्यय के दूसरे श्लोक की टिप्पणी में लिखआये हैं तथा और ग्रन्थान्तरों में विधि तथा मात्रा काल का नियम लिखा है अर्थात् शुद्धशरीर होकर प्रातःकाल सोपदंश ( अर्थात् मद्यपान करने के बाद जो चटनी आदि पदार्थ खाये जाय हैं सो) करके सहित सोदो पल पीवे, मध्यान्ह को चार पल पीवे, तदनंतर चिकना पदार्थ भोजन करे और सायंकाल को आठ पल पीवेइस जगह पल नाम जैपुरसाई १ टका पक्के को कहते हैं अथवा चिकने अन्न के साथ, मांस के साथ अथवा और भक्ष्य हैं उन के साथ मद्य को सेवन करे तौमनुष्य की आयुष्य बढे, बल बढे तथा देह पुष्ट होय, इस श्लोक में “स्निग्धैः सदन्नैः” यह जो पद धरा सोस्निग्ध का एक उपलक्षण मात्र है अर्थात् जो मद्यसे विपरीत गुण रखते हैं जैसे तीक्ष्णादि दश गुण हैं उन से विपरीत होय उस के साथ मद्य पीना चाहिये सो तीक्ष्णादि दशगुण ग्रन्थांतरों में लिखे है और विशेष देखना होय तो भावप्रकाश में देख लेवे, इस स्थल में ग्रन्थविस्तारभय से हम ने त्यागे हैं॥
विधि से मद्य पीने के दूसरे गुण
काम्यता मनसस्तुष्टिस्तेजो विक्रम एव च।
विधिवत्सेव्यमाने तु मद्येसन्निहिता गुणाः॥
अर्थ-मद्य को विधिपूर्वक पीने से सुन्दर स्वरूप, मन को संतोष, उत्साह, दूसरे कोजीतने की सामर्थ्य इत्यादि हितकारक गुण होय हैं कही हुई विधि से विरुद्ध मद्यपान करने से मदात्यय रोग होय है सो मदात्यय तीन प्रकार का है, पूर्वमद मध्यमद और अन्त्यमद॥
शुद्धकायः पिबेत्प्रातः सोपदंशं पलद्वयम् । मध्याह्नेद्विगुणं तच्च स्निग्धाहारेण पाययेत्॥ प्रदोषेष्टपलं तद्वन्मात्रामद्यरसायने॥
अर्थ-प्रातःकाल में दँतोन आदि शरीरशुद्धि करके ८ तोले मद्य सेवन करना। दुपहरे में स्निग्ध पदार्थोंके साथ द्विगुणित अर्थात् सोलह तोले और सायंकाल में चौगुना अर्थात् ३२ तोलेसेवन करने से रसायन होता है॥
त्रिविधमद के लक्षण
बुद्धिस्मृतिप्रीतिकरः सुखश्च पानान्ननिद्रारतिवर्धनश्च ।
संपाठगीतस्वरवर्द्धनश्चप्रोक्तोऽतिरम्यः प्रथमो मदो हि॥
अर्थ-बुद्धि, स्मरण और प्रीति इन को करे सुखकरे, पान ( पीना ), अन्न, निद्रा और रति इन को बढावे, सुन्दर पाठ और गीत गाने को बढावे, ऐसा प्रथम मद अति रमणीय कहा है * शंका-क्यौंजी मद तोमन में विकार उत्पन्न करे है फिर आप इस को रमणीय कैसे कहते हो? * उत्तर-आप ने कहा सो ठीक है परंतु दुःख को दूर करने से इस को रमणीयता है, इसी कारण सुश्रुत ने हर्ष को मन के विकारों में कहा है॥
मध्यममद के लक्षण
अव्यक्तबुद्धिस्मृतिवाग्विचेष्टः सोन्मत्तलीलाकृतिरप्रशांतः।
आलस्यनिद्राभिहतो मुहुश्च मध्येन मत्तः पुरुषोमदेन॥
अर्थ-मध्यम मद से मतवाले पुरुषकी बुद्धि, स्मरण और वाणी यथार्थ नहीं होय, विरुद्ध चेष्टा करे और बावले की सी चेष्टा करे, प्रचंड हो जाय, वारंवार आलस और निद्रा से पीडित हो जाय॥
तृतीयमद के लक्षण
गच्छेदगम्यां न गुरून्न मन्येत्खादेदभक्ष्याणि च नष्टसंज्ञः।
ब्रूयाच्च गुह्यानि हृदि स्थितानि मदे तृतीये पुरुषोऽस्वतंत्रः॥
अर्थ-तीसरे मद से पुरुष मद के स्वाधीन होकर अगम्या ( गुरु की स्त्रीआदि ) से गमन करे, बडों का तिरस्कार करे, जो वस्तु खाने के योग्य नहीं है उस को खाय, संज्ञा जाती रहे औरजो गुप्त बात हृदय में हैं उन को कहने लगे॥
चतुर्थमद लक्षण
चतुर्थे तु मदे मूढो भग्नदारुविनिष्क्रियः । कार्याकार्यविभागाज्ञो मृतादप्यपरो मृतः॥ को मदं तादृशं गच्छेदुन्मादमिव चापरम् । बहुदोषमिवारूढः कांतारं स्वयशः कृती॥
*अर्थ-चतुर्थ मद से मनुष्य मूढहोकर टूटे वृक्ष के समान क्रियारहित होय, कार्य ( करने योग्य ), अकार्य ( नहीं करने योग्य ) इन को न समझे, वह पुरुषमरे से भी अधिक मरा भया है कौन ऐसा स्ववश अथवा सुकृती पुरुष ऐसे निंद्यमद ( अमल ) का
सहनशील होय है किंतु कोई नहीं होय कैसे कि जैसे सिंह व्याघ्रादि हिंसक पशु जिस वन में बहुत हैं ऐसे निर्जन वन में मार्ग में कौन चतुर मनुष्य जायगा. * शंका-चरक, विदेह, वाग्भट आदि आचार्यों ने तो चतुर्थ मद कहा ही नहीं है और सुश्रुत ने कहा है इन में विरोध क्यौंहै ? * उत्तर-चरक में जो दूसरे और तीसरेमें अन्तर कहा है सोई सुश्रुत ने तृतीयमद को मानकर उस के लक्षण कहे हैं और जो चरक में तृतीय मद के लक्षण कहे हैं सो सुश्रुत ने चतुर्थमद के लक्षण कहे हैंऐसे विरोध नहीं है वास्तव में तीन ही मद हैं. * शंका-क्योंजी एक मद्य से ३ प्रकार के मद होय हैं इस में क्या कारण है ? * उत्तर-मद्य यह अनि के समान हैं जैसे अग्नि में सुवर्ण ( सोना ) तपाने से उत्तम, मध्यम, अधम की परिक्षा होय है ऐसे ही मद्य भी सतोगुण, रजोगुण, तमोगुणवाले पुरुषों की प्रकृतिसूचक है अर्थात् सतोगुणवाले पुरुष को प्रथम मद, रजोगुणवाले पुरुष को दूसरा मद, तमोगुणवाले पुरुष को तीसरा मद प्राप्त होय है. सो चरक में लिखा है ॥
अविधि से सेवित मद्य के अन्य विकारों को कहता हूं
निर्भुक्तमेकान्तत एव मद्यं निषेव्यमाणं मनुजेन नित्यम् ।
आपादयेत्कष्टतमान्विकारानापादयेच्चापि शरीरभेदम्॥
अर्थ-जिस पुरुष ने अन्नरहित निरंतर मद्यपान करा होय, वे अत्यंत दुःखदायक विकार ( पानात्ययादिक ) उत्पन्न करे है और शरीर का विनाश करे है॥
अन्न के साथ मद्यपान करने के विकार
क्रुद्धेन भीतेन पिपासितेन शोकाभितप्तेन बुभुक्षितेन। व्यायामभाराध्वपरिक्षतेन वेगावरोधाभिहतेन चापि॥ अत्यम्लभक्ष्यावततोदरेण साजीर्णभुक्तेन तथाऽबलेन। उष्णाभितप्तेन च सेव्यमानं करोति मद्य विविधान्विकारान्॥
अर्थ-क्रोधयुक्त, भय से पीडित, प्यासा, शोकवान्, क्षुधायुक्त, दंड कसरत और भार से जो क्षीण हो गया होय, मलमूत्र आदि वेग से पीडित हो, अत्यंत अम्लरस खाने से जिस का पेट भर रहा होय, अजीर्ण में भोजन करनेवाले पुरुष के, निर्बल पुरुषके, गरमी से तपायमान ऐसे मनुष्य के मद्य सेवन करने से अनेक विकार उत्पन्न होते हैं॥
उन विकारों को कहते हैं
पानात्ययं परमदं पानाजीर्णमथापि वा।
पानविभ्रममुग्रं च तेषांवक्ष्यामि लक्षणम्॥
अर्थ-पानात्यय, परमद, पानाजीर्ण और पानविभ्रम इत्यादिक भयंकर विकार होते हैं उन के लक्षण कहता हूँ॥
वातादिसंबंधमदात्ययलक्षण
हिक्काश्वासशिरःकंपपार्श्वशूलप्रजागरैः।
विद्याद्बहुप्रलापस्य वातप्रायं मदात्ययम्॥
अर्थ-हिचकी, श्वास, मस्तक का कंप होना, पसवाडों में पीडा, निद्रा का नाश और अत्यंत बकवाद ये लक्षण जिस में होंय उस को वातप्रधान मदात्यय जानना॥
पित्तजन्यमदात्ययनिदान
तृष्णादाहज्वरस्वेदमोहातीसारविभ्रमैः।
विद्याद्धरितवर्णस्य पित्तप्रायं मदात्ययम्॥
अर्थ-प्यास, दाह, ज्वर, पसीना, मोह, अतीसार, विभ्रम ( कुछ कुछ ज्ञान होय ), देह का वर्ण हरा होय इन लक्षणों से पित्तप्रधान मदात्यय जानना॥
कफमदात्ययनिदान
छर्द्यरोचकहृल्लासतन्द्रास्तैमित्यगौरवैः।
विद्याच्छीतपरीतस्य कफप्रायं मदात्ययम्॥
अर्थ-वमन ( रद्द ), अन्न में अरुचि, खाली रह (ओकारी ), तन्द्रा, देह गीली और भारी और शीत लगे, इन लक्षणों से कफप्रधान मदात्यय जानना॥
त्रिदोषमदात्ययनिदान
ज्ञेयस्त्रिदोषजश्चापि सर्वलिंगमदात्ययः॥
अर्थ-जिस में तीनों दोषोंके लक्षण मिलते हों उस को सन्निपातप्रधान मदाय जानना॥
परमदलक्षण
श्लेष्मोच्छ्र्योंऽगगुरुता मधुरास्यता च विण्मूत्रसक्तिरथ तंद्रिररोचकश्च। लिंगं परस्य तु मदस्य वदंति तज्ज्ञास्तृष्णा रुजा शिरसि संधिषु चातिभेदः॥
अर्थ-कफ का कोप ( यह नासास्रावादिक जानना ), देह का जह होना, मुख में
मिठास, मलमूत्र का अवरोध, तन्द्रा, अरुचि, प्यास, मस्तक में पीडा और संधि में कुठारी से तोडने सरीखी पीडा होय, ये परमद के लक्षण जानने॥
वातमदात्यय में सौवर्चलादि
मद्यंसौवर्चलं व्योषयुक्तं किंचिज्जलान्वितम् ।
जीर्णमद्याय दातव्यं वातपानात्ययापहम्॥
अर्थ-मद्य ( दारु), संचर निमक और त्रिकुटे का चूर्ण इन को एकत्र करके थोडासा जल मिलायके जिस के मद्य पिया हुआ जीर्ण हो गया हो उस को देवे तो वातपानात्यय का नाश होय॥
सूक्तशृंग्यादि
सूक्तं सौवर्चलं शृंगीत्रूषणाकदीपकैः।
मद्यं पीत्वा जयत्युग्रं पवनोत्थंमदात्ययम्॥
अर्थ-कांजी, संचर निमक, कांकडासिंगी, त्रिकुटा, अदरख और चित्रक इन के साथ मद्यपीवे तो वातपानात्यय को नाश करे॥
आम्लस्निग्धादि
आम्लं स्निग्धोष्णलवणं रसा जांगलजा हिताः।
पानकानि च मद्यानि हन्युर्वातमदात्ययम्॥
अर्थ-खटाई, चिकने, गरम, निमक, जांगलदेशज जीवों का मांस, पने और ३ मद्य ये वातमदात्यय को दूर करते हैं॥
पित्तमदात्यय
पित्तपानात्यये पेयं वटशृंगं हिमांबुना।
सशकरं पुनर्मद्यं हन्युतिमदात्ययम्॥
अर्थ-पित्त के पानात्यय रोग में वड के कोपल को पीस शीतल जल में छानपीवेतथा मिश्री मिलाय दारु पीवे तो वातमदात्यय दूर होय॥
क्षुद्रामलकादिपान
क्षुद्रामलकखर्जूरपरूषकहिमं पिबेत्।
सिताविमिश्रितं पीतं पानात्ययविकारनुत्॥
अर्थ-कटेरी, आमले, छुहारे, फालसे इन को शीतल जल में छान मिश्री मिलायके पीवेतो सर्वपानात्ययों को दूर करे॥
सामान्य
पित्तोत्थे तु हितं मद्यंमधुरौषधिसाधितम्।
उल्लिखेदथवा मद्यं पीत्वेक्षुरससंयुतम्॥
अर्थ-पित्तजन्य मदात्यय में मिष्ट औषधों करके पना मद्यपीना हितकारी है अथवा ईख के रस को मिलायके मद्य पीवे फिर उस को उलटी कर देवे ॥
कफमदात्ययसामान्य
पानात्यये कफोत्थे तु तत्पीत्वोल्लेखनं चरेत् ।
यथाबलं लंघनं च दीपनीयौषधानि च॥
अर्थ-कफ के पानात्यय में मद्य पीकर वमन कर देवे तथा बलाबल के अनुसार लंघन करावे तथा दीपनीय औषधों को सेवन करे॥
अष्टांगलवण
सौवर्चलमजाजी च वृक्षाम्लं साम्लवेतसम्। त्वगेलामरिचार्धांशं शर्कराभागयोजितम्॥ एतल्लवणमष्टांग-माग्निसंदीपनं परम्। मदात्यये कफोत्थे तु दद्यात्स्रोतोविशोधनम्॥
अर्थ-संचर निमक, जीरा, तिंतडीक, अमलवेत, तज, इलायची और काली मिरच प्रत्येक तोले २ लेवे और मिश्री २ तोले ले. यह अष्टांगलवण अग्नि को दीपन करे इस को कफमदात्यय में स्रोतःशुद्धि के लिये देवे॥
सुपारी के मदपर
पूगान्मदः प्रशमयत्यचिरेण जंतोराघ्राय शंखरजसः प्रबलस्य गंधम् । पानेन वा शिशिरपुष्करणीजलस्य संसेवितैरतिहितैर्व्यजनानिलैश्च॥
अर्थ-सुपारी के खाने से प्रगट मद छोटे शंख के चूर्ण की प्रबल धूनी के सूंघने से नष्ट होवे अथवा शीतल पुष्करणी के जल पीने से अथवा अत्यंत हितकारी पंखेकी पवन करके तत्काल शांत होय॥
दूसरा प्रकार
अवघ्राणेन धूमस्य सितालवणभक्षणात् ।
शर्करा केवला हंति दुःसहां पूगजांरुजम्॥
अर्थ-सुपारी के मदपर नासिका द्वारा धूंआ पीवेअथवा मिश्री अथवा निमक खाय अथवा केवल मिश्री के खाने से सुपारी का दुःसह मद दूर होवे॥
कोद्रवधत्तूर
कूष्मांडरसः सगुडः शमयति मदमाशु कोद्रवजः।
धत्तूरजं च दुग्धं सशर्करं पानयोगेन॥
अर्थ-पेठे के रस में गुड डालके पीवेतो कोदों अन्न का मद नष्ट होवे और धतूरे के मदपर दूध में मिश्री मिलायके पीवे तो धतूरे का मद तत्काल नष्ट होय॥
जायफल के मदपर
जातीफलेषु नवनीतसिताप्रयुक्तां पत्रीं तथा मसृणचंदनशकरां वा ।
रंभाजलेन मदिरा विषमुष्टिगव्यं हन्यान्मदं सकलशीघ्रमिदं प्रयुक्तम्॥
अर्थ-जायफल के उन्माद पर मक्खन, मिश्री और जावित्री खाय अथवा मक्खन, चंदन और मिश्री खाने को देवे तथा मद्य ( दारू) के मद में केले का निकाला हुआ जल पिलावे और कुचले के नसे दूर करने को गो का मक्खन देवे तो बुद्धि गत यह मद तत्काल दूर हो॥
दूसरा प्रकार
जातीफलमदं शीघ्रंहंति पथ्या निषेविता।
शीततोयावगाहश्च शर्करा दधियोजिता ॥
अर्थ-जायफल के मदपर हरड भक्षण करे तो मद शीघ्र दूर हो अथवा शीत जल से स्नान करे अथवा दही बूरा मिलायके भक्षण करे तो जायफल का मदशीघ्रदूर हो॥
कज्जलीरस
धात्री स्वरसनिपीता रसगंधककज्जली सितासहिता।
हरति मदात्ययरोगान् गरुत्मानिवोरगान् सहसा॥
अर्थ-आवले के रस में पारे और गंधक की कजली करके देय ऊपर से मिश्री का सरबत पीवे तो मदात्यय रोग का नाश करे. जैसे गरुड सर्प का नाश करे है॥
सामान्य
सर्वजे सर्वमेवेदं प्रयोक्तव्यं चिकित्सितम्।
आभिः क्रियाभिः सिद्धाभिः शांतिं याति मदात्ययः॥
अर्थ-त्रिदोषजन्य मदात्यय पर ये पूर्वोक्त सर्व कर्म करे. ये सर्व क्रिया सिद्ध होने से मदात्यय शांति को प्राप्त होवे॥
पानाजीर्ण के लक्षण
आध्मानमुग्रमथवोद्गिरणं विदाहः पाने त्वजीर्णमुपगच्छति लक्षणानि। ज्ञेयानि तत्र भिषजा सुविनिश्चितानि पित्तप्रकोपजनितानि च कारणानि॥
अर्थ-अत्यंत पेट का फूलना, वमन अथवा डकार का आना, जलन होना, ये लक्षण जब मद्याजीर्ण होय हैं तबहोते हैं. इस का कारण पित्तप्रकोप है ऐसा वैद्यों ने जानना॥
पानविभ्रमलक्षण
हृद्गात्रतोदकफसंस्रवकंठधूममूर्च्छावमिज्वरशिरोरुजनप्रदाहाः।
द्वेषःसुरान्नविकृतेष्वपि तेषु तेषु तं पानविभ्रममुशंत्यखिलेन धीराः॥
अर्थ-हृदय और गात्र इन में सुई चुभाने की सी पीडा होय, कफ का स्राव होय, कंठ से धूआंसा निकलने की सी पीडा, मूर्च्छा, वमन, ज्वर, सिर में पीडा, मुख कफ से ल्हिसासा होय. अनेक प्रकार की मैरेय, पैष्टिक इत्यादिक सुराविकृति और लड्डू, पेडा आदि अन्नविकृति इन में द्वेष होय, ये सर्व लक्षण से इस रोग को पानविभ्रम ऐसे कहते हैं. सन्निपात के अंतर्गत होने से ये परमदादिक तीनों चरक ने नहीं कहे और पूर्वोक्त मदात्यय के लक्षणों से विलक्षण होने से सुश्रुतने उक्त त्रिदोषज मदात्यय को पृथक् कहा है॥
असाध्य लक्षण
हीनोत्तरोष्टमतिशीतममन्ददाहं तैलप्रभास्यमतिपानहतं त्यजेत्तु। जिह्वौष्ठदंतमसितं त्वथवापि नीलं पीते च यस्य नयने रुधिरप्रभे वा॥
अर्थ-ऊपर के होठ से नीचे का होठ कुछ लम्बाहोय, देह के बाहर अतिशीत लगे और भीतर अत्यन्त दाह होय, तेल में लिप्त सदृश मुखहो, जीभ, होठ, दांत येकाले अथवा नीले होय जाय, नेत्र पीले अथवा रुधिर के समान लाल होय ऐसा अतिपान से अर्थात् अतिमद्यपीने से नष्ट मनुष्य को वैद्यत्याग देय.(चरक में) ध्वंसक, विक्षेपक दो मद्यविकार और कहे हैं॥
पानोपद्रव
हिक्काज्वरौ वमथुवेपथुपार्श्वशूलाः
कासभ्रमावपि च पानहतं त्यजेत्तम्॥
अर्थ-हिचकी, ज्वर, वमन, कम्प, पसवाडों में पीडा होय, खांसी, भ्रम ये उपद्रव जिस के होय उस को वैद्य त्याग दे परन्तु जैज्जट आचारी कहते हैं कि असाध्य लक्षण से पृथक् पाठ होने से यह लक्षण होने से रोगी कृछ्रसाध्य जानना, असाध्य न जानना॥
मथिततैल
मथितं गोदधिसहितं तैलं कर्पूरसंमिश्रम्।
आस्वाद्य पीतमाशु क्षपयति पानात्ययं रोगम्॥
अर्थ-गौ का दही और तेल दोनों को एकत्र करके मथ लेवे. फिर इस में कपूर मिलायके धीरे २ स्वाद ले लेकर चाटे तो पानात्यय रोग का तत्काल नाश करे॥
मद्योपशम
मयं पीत्वा यदि वा तत्क्षणमेव लेह्या शर्करा सघृता।
मदयति न जातु मद्यं मनागपि प्रथितवीर्यमपि॥
अर्थ-मद्य पीकर फिर घी मिश्री मिलायके चाटे तो चढी हुई भी दारु हो तथापि कदाचित् उस का मद नहीं आवे॥
कृष्णादिपने
कृष्णाधान्यपरूषकामरतृटीजीरैः सनागोषणैः संपन्नं ससितं मधूकसहितं युक्तं दधित्थद्रवैः। कर्पूरेण सुवासितं मदगदान्पीतं जयेत् पानकं हृद्यं रोचनमग्निदीपनामिदं पूर्वैर्भिषग्भिः स्मृतम्॥
अर्थ-पीपल, धनिया, फालसा, देवदारु, इलायची, जीरा, नागकेशर, काली मिरच, मिश्री, मुलहटी और कैथका रस इन का पना करके उस को कपूर से वासित करके पावे तो यह पना हृदय को प्रिय, रोचक, दीपक और मदनाशक है इस प्रकार प्राचीन वैद्यों ने कहा है॥
सर्वजमदात्यय में त्रिफलादिपान
मधुना हंत्युपयुक्ता त्रिफला रात्रौ गुडार्द्रकं प्रातः।
सप्ताहात्पथ्यभुजो मदमूर्च्छाकामलोन्मादान्॥
अर्थ-त्रिफले के चूर्ण को सहत में मिलायके रात्रि के समय खायऔर अदरख गुड प्रातःकाल खावे इस प्रकार सात दिन खाय और पथ्य भोजन करे तो यह मद, मूर्छाऔर कामला इन को जीते॥
दुःस्पर्शादियोग
दुःस्पर्शेन समुस्तेन मस्तपर्पटकेन वा। जलमुस्तैः शृतं वापि दद्याद्दोषविपाचनम् ॥ एतदेव च पानीयं सर्वत्रापि मदात्यये। निरंतरं पीयमानं पिपासाज्वरनाशनम्॥
अर्थ-धमासे और नागरमोथे का काढा अथवा नागरमोथा और पित्तपापडा इन का काढा अथवा केवल नागरमोथे का काढा दोषोंके पचाने को देवे और जल पीने के ऐंवज में इसी काढे को मदात्यय रोग में पिलावे. इस को निरंतर पीने से प्यास और ज्वर इन का नाश होय॥
चव्यादिवर्ण
चव्यं सौवर्चलं हिंगु पूरकं विश्वभेषजम्।
चूर्णं मद्येन पातव्यं पानात्ययरुजापहम्॥
अर्थ-चव्य, संचर निमक, हींग, मिजोरा और सौंठ इन का चूर्ण मद्य के साथ : पावे तो पानात्यय व्याधि को नाश करे॥
शतावरीपुनर्नवाघृत
शतावरीरसक्षीरयष्टीकल्कैः शृतं घृतम् ।
पुनर्नवाक्वाथपयो पानात्ययमपोहति॥
अर्थ-शतावर का काटा दूध और मुलहटी का चूर्ण इन के साथ सिद्ध करा हुआ घीअथवा पुनर्नवा के काढे के साथ औटे हुए दूध को पीवे तो पानात्यय रोग दूर हो॥
माषघृत
कट्फलमुस्तगुडूचीमाषैःकमवर्धितैश्च तत्सर्वैः।
घृतमर्दितैर्माषघृतं हन्याद्गंधंसुराभवं सपदि॥
अर्थ-कापफल १, नागरमोथा २, गिलोय ३ और उडद१ भाग इस प्रकार सबको लेकर घी में खरल करे तो इसे माषघृत कहते हैं यह मद्यकी दुर्गंध को दूर करनेवाला है॥
सामान्यशास्त्रार्थ
अहानि सप्त चाष्टौ वा नृणां पानात्ययः स्मृतः। पानं हि मज्जते जीर्णमत उर्ध्वंविमार्गगम्॥ पानाजीर्णविनाशाय कुर्यात्कफहरं विधिम्॥
अर्थ-मनुष्य को पानात्यय सात दिन अथवा आठ दिन होता है. आठ दिन के बाद पानाजीर्ण होकर अंगों में प्रवेश होवे और कुत्सित मार्ग में जाता है. उस को पानाजीर्ण कहते हैं. इस पानाजीर्ण के दूर करने को कफहरणकारी क्रिया करनी चाहिये॥
खर्जूरादिमंथ
मंथः खर्जूरमृद्वीकावृक्षाम्लाम्लीकदाडिमैः।
परूषकैः सामलकैर्युक्तो मद्यविकारनुत्॥
अर्थ-खजूर, दाख, अमलवेत, जलवेत, अनारदाना, फालसा और आवले इन से बना हुआ मंथ सरबत के समान होता है. यह मद्यविकारों को नाश करे॥
मदात्ययपथ्य
संशोधनं संयमनं स्वपनं लंघनं भ्रमः। संवत्सरसमुत्पन्नाः शालयः षष्टिका यवाः॥ मुद्गाश्च माषगोधूमा लावतित्तिरकादयः। वेसवारो विचित्रान्नं हृद्यं मद्यं पयः सिता ॥ तंदुलीयं पटोलं च मातुलुंगं परूषकम् । खर्जूरं दाडिमं धात्री नारिकेरं च गोस्तनी ॥ सर्पिः पुराणं कर्पूरं प्रतीरं शिशिरोनिलः। धारागृहं चन्द्रपादा मणयो मित्रसंगमः ॥ क्षौमांबरं प्रियाश्लेषोगीतं वादित्रमुद्धतम्। शीतांबु चंदनं स्नानं सेव्यमेतन्मदात्यये॥
अर्थ-मदात्यय रोग होने से उस को दस्त करावे, वेगों का नियमन, निद्रा, लंघन, भ्रम, ( श्रम ), एक वर्ष के पुराने चावल, सांठी चावल, जौ, मूंग, उडद, गेहूं, लवापक्षी, तीतरआदि [ मटर, रागखांडव, काला हिरण, बकरा, मुर्गा, मोर, और शशा इन का मांस ], वेसवार ( गरम मसाला ), चित्र विचित्र अन्न, प्रियमद्य, दूध, खांड, चौलाई, परवल, बिजोरा, फांलसे, खिजूर ( छुहारे ), अनार, आंवले, नारियल, मुनक्कादाख, पुराना घी, कपूर, नदी सरोवर आदि का तट, शीतल पवन, फव्वारेवाला घर, चंद्रमा की चांदनी, मणियों का धारण, इष्टमित्रों से मिलाय,
रेसमी वस्त्रों का धारण, प्यारी स्त्री कोआलिंगन करना, गीत गाना, अत्यंत बाजे बजाना, शीतल जल, चंदन और स्नान ये उपचार करे, ये मदात्ययनाशक हैं॥
मदात्यय अपथ्य
स्वेदोञ्जनं धूमपानं नावनं दंतघर्षणम् ।
तांबूलं चाप्यपथ्यं स्यान्मदात्ययविकारिणाम्॥
अर्थ-पसीने निकालना, अंजन, धूमपान, नस्य, दातों का घिसना, बीडा चबाना ये सब मदात्ययरोगवाले को अपथ्य जानना॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे पानात्ययरोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
__________
दाहरोगकर्मविपाकः।
पुनरग्नौष्ठीवति तं कपिलनामग्रहो गृह्णाति। तत्क्षणाज्ज्वरशूलसर्वांगदाहपीतनयनश्च भवति॥ बलिं च निशि चतुष्पथे पिष्टलाजपिण्याकरुधिरतिलाश्वगंधपुष्पर्मिश्रेण दद्यात। गृह्णीष्व च बलिं चेमंकपिलाख्यमहाग्रह। आतुरस्य सुखं सिद्धिं प्रयच्छ त्वं महाबल॥
अर्थ-जो प्राणी अग्नि में थूकता है उस को कपिल नामक ग्रह पीडा करे है तथा तत्क्षण ज्वर, शूल, सर्वांग मे दाह और नेत्रों में पीलापन ये उपद्रव होते हैं. उन उपद्रवों के दूर करने को चौराहे में रात्रि के समय चून, खील, खल, रुधिर, तिल, असगंध और फूल इन को एकत्र करके ‘गृण्हीष्वच बलिं चेमम्’ इस मंत्र करके बलिदान देवे तो दाहरोग शांत होवे॥
ज्योतिःशास्त्राभिप्राय
तनौ भवति भूपुत्रो रंध्रे भवति भास्करः।
जन्मकाले यदा यस्य स दाहज्वरवान्भवेत्॥
अर्थ -जिस के जन्मलग्न में मंगल और अष्टम स्थान में सूर्य बैठा होय वह प्राणी दाह और ज्वररोगी होता है॥
दाहनिदान
त्वचं प्राप्तः समानोष्मा पित्तरक्ताभिमूर्च्छितः।
दाहं प्रकुरुते घोरं पित्तवत्तत्र भेषजम्॥
अर्थ-दाहरोग सात प्रकार का है. तिस में प्रथम मद्यजन्य दाह के लक्षण कहते हैं. मद्यपान करने से कुपित भया जो पित्त उस पित्त की उष्णता पित्तरक्त को बढाय भयंकर दाहरोग उत्पन्न करे. इस में पित्त के समान औषध करे॥
सामान्यचिकित्सा
उत्तुंगकुचसंसर्गवीणानां हरिणीदृशाम् । गायनं सुकुमारीणां दाहमुत्सादयेद् द्रुतम् ॥ रसौषधसमुद्भूते तापेपि सकले हितम्॥
अर्थ-उठे हुए कठोर कुचों का संबंध जिस वीणा को हैं उस वीणा को लेकर गान करनेवाली सुकुमार स्त्री के गान करके, रस और औषध से उत्पन्न हुआ सर्व प्रकार का ताप दूर होय॥
कोलामलकयुक्तैर्वाधान्याम्लैरपि बुद्धिमान्। छादयेत्तस्य सर्वांगमारनालार्द्रवाससा॥ लामज्जकेन युक्तेन चंदनेनानुलेपयेत् । चंदनांबुकणस्यंदितालवृंतोषवीजनम्॥
अर्थ-बेर, आवले इनकरके युक्त खटाई को अंग में लगाने से अथवा इस खटाई को वस्त्र में लगायके उस वस्त्र से सब देह को लपेट देवे अथवा कांजी में भीगे हुए कपड़े से सब देह को ढक देवे अथवा रोहिस तृण और चंदन इस का लेप देह में करे अथवा चंदन के जल को छिडकके उस पंखे की पवन करे तो दाहरोग दूर हो॥
दूसरा प्रकार
सुप्याद्दाहार्दितोंभोजकदलीदलसंस्तर। परिषेवगाही च व्यजनानां च सेवनम् ॥ शस्यते शिशिरं तोयं दाहतृष्णोपशांतये॥
अर्थ-दाहपीडित मनुष्यको कमल के केले के पत्तों की शय्या बनाकर उस पर शयन करावे अंगों में जल छिडके, जल में गोते मारे, पंखे की पवन करावे तथा शीतल जल पीवे तो दाह और तृषारोग शांत होवे॥
रक्तजदाहलक्षण
कृत्स्नदेहानुगं रक्तमुद्रिक्तं दहति ध्रुवम् । संचूष्यते तृष्यते वा ताम्राभस्ताम्रलोचनः ॥ लोहगंधांगनयनो वह्निनैवावरकीर्यते। पित्तज्वरसमः पित्तात्स चाप्यस्य विधिः स्मृतः॥
अर्थ-सर्व देह का रुधिर कुपित होकर अत्यन्त दाह करे और यह रोगी अग्नि के समीप रहने से जैसा तपे है ऐसा तपे, प्यासयुक्त ताम्र के रंगसदृश देह का रंग होय, और नेत्र भी लाल होय, तथा मुखसे और देह से तप्त लोहेपर जल डालने की सी गंध आवे और अंगों में मानों किसी ने अग्नि लगाय दीनी ऐसी वेदना होय, पित्त से जो दाह होय उस में पित्तज्वर के से लक्षण होते हैं. उसपर पित्तज्वर की चिकित्सा करनी चाहिये. पित्तज्वर में और पित्त के दाह में इतना अन्तर है कि पित्तज्वर में अग्नि और आमाशय का दुष्ट होना होय है और पित्त के दाह में नहीं होय और सबलक्षण होते है॥
रसादिगुटी
रसबलिघनसारचंदनानां सनलदसेव्यपयोदनीवनानाम्।
अपहरति गुटी मुखस्थितेयं सकलसमुत्थितदाहमाश्रयेत्ताम्॥
अर्थ-पारा, गंधक, कपूर, चंदन, खस, नागरमोथा और घी इन की गोली बनायके मुखमें रखे. तो त्रिदोषजन्य दाह को नाश करे॥
चंद्रकलारस
गगनदरदयुक्तं शुद्धसूतं च गंधं प्रहरमधुसुपिष्टं वल्लयुग्मं नरोद्यात् । ज्वरहरगदसिंहः शृंगबेरोदकेन प्रथमजनितदाहं तकभक्तं च भोज्यम्॥
अर्थ-अभ्रक भस्म, हिंगलू, पारा और गंधक इन सब को एकत्र कर सहत में १ प्रहर खरल करे फिर इस में से दो वल्ल के अनुमान अदरखके रस से चाटे तो वादी के कोप से हुआ दाह शांत हो. इस प्राणी को छाछ भात पथ्य में देवे. यह ज्वरनाशक भी है इस रस को गदसिंहरस कहते हैं॥
तृष्णानिरोधजदाहलक्षण
तृष्णानिरोधादब्धातौ क्षीणे तेजःसमुद्धतम्। सबाह्याभ्यंतरं देहंप्रदुहेन्मंदचेतसः॥संशुष्कगलता-ल्लोष्टोजिह्वांनिष्कृष्यवेषते॥
अर्थ-प्यास के रोकने से जलरूप धातु क्षीण होकर तेज कहिये पित्त की गरमी को बढावे तब वह गरमी देह के बाहर और भीतर दाह करे, इस दाह से रोगी बेसुध होप और गला, तालू, होठ यह अत्यंत सूखेंऔर जीभ को बाहर काढ दे, कांपे॥
तृष्णानिरोधजदाह
सशर्करं सेंदुशैलं शीतमंभः पिबेन्नरः।
तृष्णानिरोधनं दाहंहंति तोयमिवानिलम्॥
अर्थ-मिश्री, कपूर, शिलाजीत इन का चूर्ण शीतल जल में मिलायकेपीवे तो तृषा के निरोध से उत्पन्न हुए दाह का नाश करता है जैसे पानी अग्निका नाश करता है॥
यवादिमंथ
पाचितैः शीतनीरेण सघृतैर्यवसक्तुभिः।
नातिसांद्रद्रवैर्मंथस्तृषादाहार्तिपित्तहा॥
अर्थ-जौके सत्तू को शीतल जल और घी में मिलाय के पचावे फिर इस को बहुत गाढा न होवे ऐसे मंथ करके पीवे तो तृषा, दाह और पित्त को दूर करे॥
मृतसंजीवनीगुटी
यष्टीमधुलवंगं च शिलाकल्कं त्रुटिस्तथा। सहस्रभावनाः कार्या नवतंदुलवारिणा॥ याममात्रं दृढं मर्द्यवटी कोलसमा स्मृता। कृष्णकार्पासनीरेण तृष्णादाहज्वरान् जयेत्॥ मूर्च्छाद्यमुग्ररोगं च वातं पित्तं च नाशयेत् । मृतसंजीवनी प्रोक्ता पूज्यपादैरुदीरिता॥
अर्थ-मुलहटी, लोग, शिलाजीत और इलायची इन के चूर्ण को नवीन चांवलों के धोवन की हजार भावना देवे फिर एक प्रहर उत्तम खरल करके बेर के बराबरगोली बनावे फिर इस गोली को काले कपास के जल में मिलायके सेवन करे तो तृषा, दाह, ज्वर, मूर्छादि उग्ररोग तथा वातपित्त इत्यादि रोगों को नाश करे इस को मृतसंजीवनी गोली श्रेष्ठपुरुषों ने कही है॥
रक्तपूर्णकोष्ठजदाह
असृजः पूर्णकोष्ठस्य दाहोन्यः स्यात्सुदुस्तरः॥
अर्थ-शस्त्र कहिये तलवार आदि के लगने से प्रगट रुधिर उस रुधिर से कोष्ठ कहिये हृदय भर जाय तबदाह अत्यन्त दुःसह प्रगट होय॥
रक्तपूर्णकोष्ठजदाह
धान्याकधानीवासानां द्राक्षापर्पटयोर्हिमः।
रक्तपित्तं ज्वरं दाहं तृष्णांशोषंच नाशयेत्॥
अर्थ-धनिया, आवले, अडूसा, दाख और पित्तपापडाइन का हिम रक्तपित्त, ज्वर, दाह, तृषाऔर शोषइन को नाश करे॥
दूसरा प्रकार
पीत्वा वेणुत्वचः क्वाथं सक्षौद्रं शिशिरं नरः।
रक्तसंपूर्णकोष्ठोत्थदाहंजयति दुस्तरम्॥
अर्थ-बांस की त्वचा का काढा करके शीतल करे और उस में सहत डालके पीवेतो रुधिर से संपूर्ण कष्ट से उत्पन्न घोर दाह दूर होवे॥
दशसारचूर्ण
यष्टीधात्रीफलाद्राक्षाएलाचंदनवालकम् । मधूकपुष्पं खर्जूरंदाडिमं पेषयेत्समम्॥ सर्वतुल्या सिता योज्या पलार्धंभक्षयेत्सदा। दशसारमिदं ख्यातं सर्वपित्तविकारनुत्॥
अर्थ-मुलहटी, आवला, मुनक्का, इलायची, चंदन, नेत्रवाला, महुआ के फूल, खजूर, अनारदाना इन को समभाग लेकर पूर्ण करे फिर इस चूर्ण के बराबर मिश्री मिलाय सब को मिलाय दो तोले के प्रमाण सेवन करे इस को दशसार चूर्ण कहते हैं. यह सर्व पित्तविकारों को दूर करे॥
धातुक्षयजन्यदाह
धातुक्षयोत्थो यो दाहस्तेन मूर्च्छातृषान्वितः।
क्षामस्वरः क्रियाहीनः स सीदेद्भृशपीडितः॥
अर्थ-धातु के क्षय होने से जो दाह होय उस से रोगी मूर्च्छाप्यास इन से युक्त होय, स्वरभंग और चेष्टाहीन होय और इस दाह से पीडित होकर यदि चिकित्सा न करावे तो वह रोगी मरण को प्राप्त होय॥
खर्जूरादिचूर्ण
खर्जूरामलबीजानि पिप्पली च शिलाजतु । एलामधुकपाषाणचंदनैर्वारुबीजकम्॥ धान्यकं शर्करायुक्तं पातव्यं ज्येष्ठिवारिणा। अंगदाहं लिंगदाहं गुदजंक्षीणशुक्रजम्॥ शर्कराश्मरिशूलघ्नंवृष्यं बलकरं परम्। नाशयेन्मूत्ररोगांश्च तथा शुक्रभवानपि॥
अर्थ-खर्जूर, आंवले, पीपल, शिलाजीत, इलायची, मुलहटी, पाषाणभेद, चंदन, काकडी के बीज, धनिया और मिश्री इन का चूर्ण मुलहटी के काढेके साथपीवे तो अंगों का दाह, लिंगदाह, गुददाह, सीमशुकदाह, शर्करा, पथरी और शूल इन का नाश होवे. तथायह वृष्य तथा पल का देनेवाला है और मूत्ररोग, शुक्र से उत्पन्न हुए रोग इन को नाश करें॥
धातुक्षयजदाह
धातुक्षयोत्थं ‘दाहं तु जयेदिष्टार्थसाधनैः।
क्षीरमांसरसाहारैविधिनोक्तेन तत्र च॥
अर्थ-धातुक्षय से जो दाह होता है वह इष्टसाधनों करके अथवा क्षार, मांसरसइन का आहार इत्यादि विधि से जीते॥
पित्तदाह
पित्तज्वरहरः सर्वो पित्तदाहे विधिर्मतः॥
अर्थ-पित्तदाहपर संपूर्ण पित्तज्वरनाशक विधि करनी चाहिये॥
औदुंबरस्य निर्यासः सितया दाहनाशनः॥
अर्थ-गूलर का दूध मिश्री डालके देवे तो दाह का नाश करता है॥
छिन्नासारः सितायुक्तः पित्तज्वरनिषूदनः॥
अर्थ-गिलोय के सत्वको मिश्री में मिलायके खाय तो पित्तज्वर को दूर करे॥
क्षतजदाह
क्षतजोनश्नतश्चान्यः शोचतो वाप्यनेकधा।
तेनांतर्दह्यतेत्यर्थं तृष्णामूर्छाप्रलापकम्॥
अर्थ-क्षत ( घाव ) के होने से जो दाह होय उस से आहार थोडा रह जावे, और अनेक प्रकार के शोक कर दाह होय और इस दाहकरके अभ्यन्तर दाह होय” तथा प्यास, मूर्च्छाऔर प्रलाप ( बकवाद ) ये लक्षण होय॥
चंदनादिचूर्ण
चंदनोशीरकुष्ठाब्दधात्रीचोरकमुत्पलम् । मधुकं मधुपुष्पं च द्राक्षा खर्जूरकं तथा॥चूर्णंकृत्वा समसितं प्रातः शीतांबुना पिबेत् । रक्तपित्तं तथा श्वासं पैत्तं गुल्मं समुद्धरेत्॥ अंगदाहं शिरोदाहं शिरोविभ्रममेव च। कामलां च प्रमेहांश्च पैत्तज्वरविनाशनम्॥ चंदनाद्यमिदं चूर्णं पूज्यपादेन भाषितम्॥
अर्थ-चंदन, खस, कूठ, नागरमोथा, आवले, गठोना, कमल, मुलहटी, महुआ के फूल, दाखऔर खजूर इन का चूर्ण कर चूर्ण के बराबरमिश्री मिलावे. प्रातःकाल शीतल जल के साथ खाय तो रत्तपित्त, श्वास, पित्तजन्य गोला, अंगों का दाहमस्तकदाह, मस्तक का घूमना, कामला, प्रमेह और पित्तज्वर इन को दूर करे॥ इन को चंदनाद्य चूर्ण कहते हैं या श्रेष्ठ पुरुषने कहा है॥
रक्तजदाहपर
शाखाश्रयां यथान्यायं रोहिणीं व्यधयेच्छिराम्।
रक्तजातस्ततो दाहः प्रशाम्यति न संशयः॥
अर्थ-हाथमें रोहिणी नाम की शिरा ( नस ) है उस को शस्त्र से छेदकर रुधिर निकाले तो रक्तजन्य दाह शांत होवे. इस में संशय नहीं है॥
चंदनादिकाढा
चंदनं पर्पटोशीरनीरनीरदनीरजैः। मृणालमिसिधान्याकपद्मकामलकैः कृतः॥अर्धशिष्टः सितासीतः पीतः क्षौद्रसमन्वितः । क्वाथो विपोथयेद्दाहं तत्क्षणं परमोल्बणम्॥
अर्थ-चंदन, पित्तपापडा, खस, नेत्रवाला, नागरमोथा, कमल, भसीडा, सोंफ, निया, पद्माखऔर आंवले इन का काढा करे जब जल दो भाग जल जावे अर्थात् आधा रहे उस में मिश्री मिलाय जबशीतल हो जावेतब सहत डालके पीवेतो तत्क्षणबडेभारी बढेहुए दाह का नाश करे॥
योग
रसौषधिसमुद्भूते तापेपि सकले हितम्। पानीयामलकी द्राक्षा नारिकेलेक्षुशर्करा॥ सेवनाय हिता तापे कोमलं मूत्रलं फलम्॥
अर्थ-रस सेवन से अथवा औषध के खाने से यदि दाह प्रगट हुआ होवेतो उस दूर करने को जल, आंवले, दाख, नरियल, ईखमिश्री अथवा ककडीये पदार्थ सेवनकरे तो हित होवे॥
लाजादिकाढा
लाजाह्वचंदनोशीरक्वाथोन्तःशर्करान्वितः।
शीतः पीतो निहंत्याशु दाहं पित्तज्वरं नृणाम्॥
अर्थ-नेत्रवाला, लालचंदन और खस इस का काढाकरके उस में मिश्री मिलायके पीवेतो दाह और पित्तज्वर इन को दूर करे॥
शीतांबुचंदनसुगंधिकषाययुक्तमाश्लिष्यचार्द्रवसनोपहतांबुपूर्णाः। तैलैर्मधूककुसुमारुकचंदनाद्यैर्द्रोणी प्रपूर्य शिशिरैरवगाहयेत्तम्॥
Pege no. ९७२ is missing from this Book.
येत् । धूपं षोडशभागं च मरीचाष्टवरालकम्॥ कचोरमुशिरं श्वेतं कृष्णोशीरस्तथैव च। मंजिष्ठं रंगचूर्णं च श्रीगंधं रक्तचंदनम्॥ कृष्णागुरुं च रुद्राक्षान् पलमेंकंप्रयोजयेत् । तच्चूर्णं । तैलमध्ये च निक्षिपेत्पाचयेत्सुधीः॥ मेहारिकाष्ठयुक्तेन पाचयेकोमलाग्निना। सुपक्वंतैलमुद्धृत्य रात्रौ वंगं च मर्दयेत्॥ अंगशूलमंगदाहान्नेत्ररोगान्सपीनसान् । पांडुकामलमुष्णानि सूतिकासन्निपातजित् ॥ करदाहान्पाददाहान् तंद्रां कटिसमीरजान्। क्षयकुष्ठादिकंडूश्च गजकर्णादिकं तथ॥ शिरोरोगान् भ्रमान्पित्तं नेत्राणां दृष्टिगोचरम्। अमृतं मात्रतश्चैव ज्वराणां जीर्णिनामपि॥ अस्थिगतं ज्वरं चैव मेहज्वरप्रशांतये । सर्वांगे मर्दनं चैव मंगलस्नानमाचरेत् ॥ शिवोदितमिदं तैलमश्विभ्यां गोचरीकृतम्। सर्वरोगहरं चैव दुर्लभं भिषजैर्भुवि॥ साधयेद्गुरुमुखेनैव सिद्धिर्भवति नान्यथा॥
अर्थ-श्वेत पुनर्नवा अर्थात् विषखपरा की जड ४०० तोले को काली गौ के ५६ तोले घी और दूध में पीसे तथा ४०० तोले तिलों का तेल और धूप १६, काली मिरच और राल ८ भाग, कचूर, खस, नेत्रवाला, मजीठ, कत्या, चंदन, लाल चंदन, काली अगर और रुद्राक्ष ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे इन सब के चूर्ण को उस तेल में डालके मेहारी नामक लकडी की अग्नि के योग से मंदाग्निपर पचन करे तबतैल सिद्ध हो जावे तब उस को उतार लेवे इस तेल को रात्रि में देह में मालिस करेतो देह का शूल, अंगदाह, नेत्ररोग, पीनस, पांडुरोग, कामला, गरमी, प्रसूत के रोग, संनिपात, हाथ पैरों का दाह, तंद्रा, कमर की वादी, क्षय, कृछ्र, खुजली, गजकर्ण, मस्तकरोग, भ्रम ( भौर ), पित्त, नेत्ररोग, दृष्टिरोग, जीर्णज्वर, अस्थिज्वर और मेहज्वर इन रोगों में इस तेल को सब देह में मालिस करके मंगलस्नान करे. यह तैलप्रथम शिव ने कहा है और अश्विनीकुमारों ने प्रसिद्ध करा है यह संपूर्णरोगनाशक है. यह वैद्यों को पृथ्वीपर दुर्लभ है. इस तेल को सिद्ध करने से प्राणी सिद्ध होताहै. इस को गुरु के बताये हुए मार्ग से बनावेतो सिद्ध होय और विनागुरु के बताए इसकी सिद्धी नहीं होवे. इस में संदेह नहीं है॥
Pege no. ९७४ is missing from this Book.
धान्यहिम
प्रातः पर्युषितं धान्यं लुलितं सितया युतम् ।
अंतर्हाहंहरेत्पीतं दुःखं मृत्युंजयो यथा॥
अर्थ-रात्रि में कोरकुहूडे में कटे हुए धनिये को भिगोय देवे प्रातःकाल उस कोमलके कपडे में छान लेवे इस जल में मिश्री मिलायके पीवे तो देह के भीतर कादाह नष्ट होवे जैसे मृत्युंजय के स्मरण से दुःख॥
घृतलेप
सहस्रधौतेन घृतेन दिग्धदेहस्य दाहः कृशतां बिभर्ति।
अन्यांगनासंगमसादरस्य स्वीयेषु दारेषु यथाभिलाषः॥
अर्थ-हजारबार धुले हुए घी की मालिस देह में करे तो दाह नष्ट होवे. इस में दृष्टांत है कि जैसे परस्त्री से जिस का मन लगा है उस का अपनी घर की स्त्री में जैसे इच्छा नष्ट हो जाती है॥
निंबप्रवाललेप
तृड्दाहमोहाः प्रशमं प्रयांति निम्बप्रवालोत्थितफेनलेपात्।
यथा नराणां धनिनां धनानि समागमाद्वारविलासिनीनाम् ॥
अर्थ-नीम के कोमल २ पत्तों को पीस जल में गेरके रई से मथ डाले उस में जो झाग उठे उन का लेप देह में करे तो तृषा, दाह और मोह ये दूर हों. जैसे वेश्यागामी धनी मनुष्य का धन चला जाता है॥
दाहेतिशिशिरं तोयं क्रिया कार्या सुशीतला॥
अर्थ-अतिशीतल जल पीवे और शीतल ही उपचार करे तो दाह शांत होवे॥
अन्य उपाय
सर्वांगे चंदनालेपश्चंद्रकस्तूरिकायुतः।
सितनीरजलेपो वा धारागारनिवेशनम्॥
अर्थ-कपूर और कस्तूरीयुक्त चंदन का सर्व देह में लेप करे. अथवासपेद कमल को पीस के लेप करे और तलगृह ( तहखाने ) में रहे तो दाहशांति होय
बालआलिंगन
सहजस्नेहसोत्साहमुग्धमंजुललापिनाम्।
बालकानां समाश्लेषस्तापं निर्वापयेज्जवात्॥
अर्थ-स्वाभाविक प्रीतियुक्त और उत्साह करके भोरे और मनोहर बोलनेवाले बालकों के आलिंगन करने से ताप शांत होय॥
उशीरागारशयनं तालवृंतानुवर्तनम्।
साहित्यसरसा वाणी कवीनां तापहृत्त्रयम्॥
अर्थ-खसखस के पडदे पडे हों ऐसे घर मे शयन करना तथा ताड के पंखे की पवन, कवी के साहित्ययुक्त वचन, सुरस भाषण ये तीनों वस्तु ताप को शमन करे है॥
पानीयामलकी द्राक्षा नारिकेलं सुशर्करम्।
गायनं सुकुमारीणां दाहमूर्च्छांहरे द्रुतम्॥
अर्थ-जलआंवला और दाख इन का रस पीवे. अथवा नारियल का जल मिश्री मिलायके पीवे. सुकुमार स्त्रियों का गान सुनना ये सब तापमूर्च्छाइन को हरण करे॥
सेवनाय हितं तापे कोमलं मूत्रलं फलम्॥
अर्थ-जिस के अधिक दाह होता हो वे यह मूत्रकारी ( खीरा, ककडी आदि ) फलों का सेवन करे॥
दूसरा चंद्रकलारस
प्रत्येकं तोलमादाय सूतं ताम्रंतथाभ्रकम् । द्विगुणं गंधकं चैवकृत्वा कज्जलिकां शुभाम्॥ मुस्तादाडिमदूर्वोत्थैः केतकीेस्तनजद्रवैः। सहदेव्याः कुमार्याश्चपर्पटस्यापि वारिणा॥ रामशीतलिकातोयैःशतावर्या रसेन च। भावयित्वा प्रयत्नेन दिवसे दिवसे पृथक्॥ तिक्तागुडूचिकासत्वं पर्पटीशीरमाधवी । श्रीगंधं सारिवा चैषांसमानं सूक्ष्मचूर्णितम्॥ द्राक्षादिककषायेणसप्तधा परिभावयेत् । ततो धान्याश्रयं कृत्वा वट्यःकार्याश्चणोपमाः॥ अयं चंद्रकलानाम्ना रसेंद्रः परिकीर्तितः। सर्वपित्तगदध्वंसी वातपित्तगदापहः॥ अंतर्बाह्यमहादाहविध्वंसनमहाघनः। ग्रीष्मकाले शरत्काले विशेषेण प्रशस्यते ॥ कुरुते नाग्निमांद्यंच महातापज्वरं हरेत्। भ्रमं मूर्च्छांहरत्याशुस्त्रीणां रक्तं महास्रुतिम्॥ ऊर्ध्वाधोरक्तपित्तं च रक्तवांतिंविशेषतः। मूत्रकृच्छ्राणि सर्वाणि नाशयेन्नात्र संशयः॥
अर्थ-पारा, तामे की भस्म और अभ्रक की भस्म ये प्रत्येक एक २ तोले लेय गंधक, २ तोले इन की बारीक कजली करके फिर नागरमोथा, अनार, दूध, केतकी, सहदेई, घीगुवार, पित्तपापडा, आराम, शीतला और सतावर इन के रसों की एक २ दिन पृथक् २ भावना देय. फिर कुटकी, पित्तपापडा, नेत्रवाला, माधवी, चंदन, सारिवा इन का चूर्ण और गिलोय का सत्व इन को समान भाग लेकर भावना दिये हुए औषधों में मिलाय फिर द्राक्षादि काढे की सात भावना देवे फिर इस को धान की राशि में रख देवे जब गाढी हो जावे तब निकालके गोली चने के समान बनाय लेवे. यह चंद्रकलानामक सर्वरसों का राजा है. यह सब पित्त के विकारों को तथा वातपित्त के विकारों को अंतर्दाह और बाहर का दाह इन सब को नष्ट करे. इस को गरमियो में और शरद ऋतु में सेवन करे. यह मंदाग्नि नही करे घोरज्वर के ताप को हरण करे. भ्रम, मूर्छा, स्त्रियों के रुधिर का जाना, ऊर्ध्वगामी और अधोगामी रक्तपित्त, वमन और सर्व प्रकार के मूत्रकृच्छ्र इन सब रोगों को नष्ट करे इस में संदेह नहीं है॥
मर्माभिघातज दाह
मर्माभिघातजोप्यस्ति सोसाध्यः सप्तमो मतः॥
अर्थ-मर्मस्थान ( हृदय, शिर, बस्ति ) मे चोट लगने से जो दाह होय सो सातवां असाध्य है अर्थात् और जो छः दाह है सो साध्य है॥
असाध्य लक्षण
सर्व एव च वर्ज्याःस्युः शीतगात्रस्य देहिनः॥
अर्थ-सबदाहों में शीतल देहवाला रोगी त्याज्य है॥
दाह रोग में पथ्य
शालयः षष्टिका मुद्गामसूराश्चणका यवाः। धन्वमांसं रसालाजमंडं वै सक्तुवासिता ॥ शतधौतं घृतं दुग्धं नवनीतं पयोद्भवम् । कूष्मांडं कर्कटी मोचा पनसः स्वादुदाडिमम्॥ पटोलं पर्पटी द्राक्षा धात्रीफलपरूषकम्। बिंबी तुंबीपयःपेटी खर्जूरं धान्यकं मिशी॥ बालतालं प्रियालं च शृंगाटं च कसेरुकम्। मधूकपुष्पं ऱ्हीबेरं पथ्या तिक्तानि सर्वशः॥ शीताः प्रदेहा भूवेश्म सेकोभ्यंगोक्गाहनम् । फुल्लोत्पलदलक्षौमशय्याशीतलकाननम्॥ कथा विचित्रा गीतानि वाद्यंमंजुलभाषणम्।
उशीरचंदनो लेपः शीतांशुः शिशिरोऽनिलः॥ धारागृहं प्रियास्पर्शः प्रतीरंहिमवालुकम् । सुधांशुरश्मयः स्नानं मणयो मधुरो रसः॥ पुरो यानि विधेयानि पित्तहारीणि तानि च। इति दाहवतां नॄणां पथ्यवर्ग उदाहृतः॥
अर्थ-शाली धान्य, सॉठी चावल, मूंग, मसूर, चने, जो, जंगली जीवों के मांस का रस, खील, सत्तू [ खांड ], वासित ( सुगंधित ) मंड, सौवार धुला हुआ घृत, दूध, दूध का मक्खन, पेठा, ककडी, केला, फनस, मीठा अनार, परवल, पापडी, दाख, आंवले, फालसे, कंदूरी ( गुलकांख ), तुंबी, नारियल का जल, खिजूर, धनिया, सोंफ, छोटा ताडफल,चिरोंजी, सिंघाडे, कसेरू, महुए का फूल, नेत्रवाला, हरड, कुटकी ये सब पदार्थ, तथा शीतल चंदनादि लेप और मालिस, तहखाने में रहना, स्नान, उवटना, जल में धसके सान, फूले कमल के पत्ते, रेसमी कपडे, शीतल सेज, शीतल ही वन, चित्र विचित्र कथा, गीत ( गान ), मनोहर बाजे और सुंदर मिष्ट भाषण, खस, चंदन का लेप, कपूर [ शीतल जल ] शीतल पवन, फुहारों का घर, प्यारी का स्पर्श, नदी का तीर, शीतल वालुका, शीतल चंद्रमा की चांदनी, स्नान, हीरा आदि मणि, मिष्ट रस और जो पहले पित्तहरण कर्त्ता पदार्थ कह आये हैं ये सब दाहरोगवाले को पथ्य कहा है॥
दाहरोग में अपथ्य
विरुद्धान्यन्नपानानि क्रोधो वेगविधारणम् । श्रमं व्यवायमाध्मानं क्षारं पित्तकराणि च॥ व्यायाममातपं तक्रंतांबूलं मधु रामठम्। व्यवायं कटुतिक्तोष्णं दाहवान् परिवर्जयेत्॥
अर्थ-विरुद्ध अन्न पान, क्रोध, वेगों का धारण करना, परिश्रम, मैथुन, अफरा करनेवाले पदार्थ, खार के पदार्थ, पित्तकारी पदार्थ, व्यायाम, धूप, छाछ, तांबूल, सहत, हींग, चरपरे, कडुए और गरम पदार्थ ये सब दाहरोगवाले को वर्जित कहे हैं॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे दाहरोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
__________
उन्मादरोगकर्मविपाकः।
मोहयित्वा परान्यस्तु भुंक्ते वस्तु विगर्हितम्। सोन्मादवातयुक्तः स्यात्कृच्छ्रंचांद्रायणं तथा। कुर्यात्सारस्वतं नाम जपेद्ब्राह्मणतर्पणम्॥
अर्थ-जो प्राणी दूसरे को मोहित (बेहोस ) करके निंद्य वस्तु ( जो नहीं खाने योग्य है उस ) को खाय वह उन्माद तथा वायु इनकरके पीडित होता है. इस पाप के दूर करने के वास्ते चांद्रायण और कृच्छ्रचांद्रायण प्रायश्चित्त करे अथवा सरस्वतीमंत्र का जप करे और ब्राह्मणों को भोजन करावे॥
उन्माद व भूतोन्मादनिदान
मदयंत्युद्गता दोषायस्मादुन्मार्गमाश्रिताः।
मानसोऽयमतो व्याधिरुन्माद इति कीर्त्यते॥
अर्थ-दोष कहिये ( वात, पित्त, कफ ) बढकर अपने अपने मार्ग को छोड अन्य मार्ग अर्थात् मनोवह धमनियों में प्राप्त होकर मन को उन्मत्त करे और यह व्याधि मानसी है अत एव इस को ( उन्माद ) ऐसे कहते है ॥
उन्मादभेद व निदान के हेतु कहते हैं
एकैकशः सर्वशश्च दोषैरत्यर्थमुछ्रितैः। मानसेन च दुःखेन स पंचविध उच्यते॥ विषाद्भवति षष्ठश्च यथास्वं तत्र भेषजम्। स चाप्रवृद्धस्तरुणो मदसंज्ञां बिभर्ति च॥
अर्थ-अत्यन्त कुपित भये पृथक् पृथक् दोषों से ३ सन्निपात और मानसिक दुःख से यह रोग पांचप्रकार का और विष खाने से ६ छटा इन में यथादोषानुसार औषध देनी चाहिये, जबतक यह रोग बढे नहीं और जबतक तरुण रहे तबतक इस रोग को मद ऐसे कहते हैं॥
विरुद्धदुष्टाशुचिभोजनानि प्रधर्षणं देवगुरुद्विजानाम्।
उन्मादहेतुर्भयहर्पपूर्वो मनोविघातो विषमाश्च चेष्टाः॥
अर्थ-विरुद्ध दुष्ट कहिये जहर मिला अन्न आदि, अशुचि चांडालादि से स्पर्श करा ऐसा भोजन, देवता, गुरु, ब्राह्मण इन का तिरस्कार करने से भय और हर्ष के होने से मन को बिगडा, सब चेष्टा विपरीत करे (अर्थात् टेढा तिरछा चले बलवान से वैर करे बकने लगे ) इस श्लोक में पूर्व शब्द करण का है और चकारसे काम क्रोध लोभादिक भी उन्माद रोग के कारण हैं यह जैयट का मत है॥
संप्राप्तिकथन
तैरल्पसत्त्वस्य मलाः प्रदुष्टा बुद्धर्निवासं हृदयं प्रदुष्य।
स्रोतांस्यधिष्ठाय मनोवहानि प्रमोहयंत्याशु नरस्य चेतः॥
अर्थ-इन में कहे जो कारणों से अल्प ( थोडा ) मल गुण पुरुष के वातादिक दोष कुपित होकर बुद्धि का निवासस्थान ( रहने का ठिकाना ) को हृदय कहिये मन उस को बिगाड मन के वहनेवाली नसों में मास हो मनुष्य के अंतःकरण कोमोहित करे॥
उन्माद का रूप
धीविभ्रमः सत्वपरिप्लवश्व पर्याकुला दृष्टिरधीरता च।
अबद्धवाक्यं हृदयं च शून्यं सामान्यमुन्मादगदस्य चिह्नम्॥
अर्थ-बुद्धी में भ्रम, मन का चञ्चल होना, दृष्टि का सर्वत्र चलना, अधीरजपना ( डरपना ), कुछ का कुछ बोलना, हृदय शून्य हो जाय, ( अर्थात् विचार शक्ति का नाश होना ) ये उन्माद रोग के सामान्य लक्षण हैं॥
वातोन्मादलक्षण
रूक्षाल्पशीतान्नविरेकधातुक्षयोपवासैरनिलोतिवृद्धः। चिंतादि दुष्टं हृदयं प्रदुष्य बुद्धिं स्मृतिं चाप्युपहंति शीघ्रम्॥ अस्थानहासस्मितनृत्यगीतवागंगविक्षेपणरोदनानि। पारुष्यकार्श्यारुणवर्णता च जीर्णे बलं चानिलजस्वरूपम्॥
अर्थ-रूखा, थोडा और ‘शीतल’ ऐसा अन्न ‘विरेक’ इस शब्द जगह दस्त और वमन जानना, धातुक्षय और उपवास इन कारणों से अत्यंत बढी जो वायु, सो चिन्ता शोकादि करके युक्त होकर हृदय ( मन को ) अत्यंतदुष्टकर, बुद्धि और स्मरण इन का शीघ्र नाश करे और हँसने के कारण विना हंसे, मंदमुसकान करे, नाचे विना प्रसंग के गीत और बोलना करे, हाथों को सर्वत्र रोवे और शरीर रूखा तथा कृश और लाल हो जाय और आहार का परिपाकभये परज्यादा जोर होय, यह वातज उन्माद के लक्षण हैं॥
पित्तोन्मादनिदान
अजीर्णकट्वम्लविदाह्यशीतैर्भोज्यश्चितं पित्तमुदीर्णवेगम्। उन्मादमत्युग्रमनात्मकस्य हृदि स्थितं पूर्ववदाशु कुर्यात् ॥ अमर्षसंरंभविनमभावाः संतर्जनाभिद्रवणौष्ण्यदोषाः। प्रच्छायशीतान्नजलाभिलाषाःपीतास्यता पित्तकृतस्य लिंगम्॥
अर्थ-अधकच्ची, कडवी, खट्टी, दाह करनेवाली और गरम ऐसा भोजन करने सेसंचित भया जो पित्त सो तीव्र वेग होकर अजितेंद्रिय पुरुष के हृदय में प्रवेश कर
पूर्ववत् अति उग्र उन्माद तत्काल उत्पन्न करे. इस उन्माद से असहनशील, हाथ पैरों को पटकना, नग्नहो जाय, डरपे, भाजने लगे, देह गरम हो जाय, क्रोध करे, छाया में रहे, शीतल अन्न और शीतल जल इन की इच्छा, पीला मुख हो जाय, यह लक्षण पित्तज उन्माद के हैं॥
कफोन्माद
सम्पूरणैर्मन्दविचेष्टितस्य सोष्मा कफो मर्मणि संप्रवृद्धः। बुद्धिं स्मृतिं चाप्युपहन्ति चित्तं प्रमोहयन्संजन-येद्विकारम्॥ वाक्चेष्टितं मंदमरोचकश्च नारी विविक्तप्रियताऽतिनिद्रा। छर्दिश्च लाला च बलं च भुंक्ते नखादिशौक्लयं च कफात्मके स्यात्॥
अर्थ-मंद भूख में पेटभर भोजन कर कुछ परिश्रम न करे, ऐसे पुरुष के पित्तयुक्त कफ हृदय में अत्यन्त बढकर बुद्धि, स्मरण और चित्त इन की शक्ति का नाश करे और मोहित कर उन्मादरूप विकार को उत्पन्न करे, उस विकार से वाणी का व्यापार कहिये बोलना इत्यादि मन्द होय, अरुचि होय, स्त्री प्यारी लगे, एकांत वास करे, निद्रा अत्यंत आवे, वमन होय, मुख से लार वडे, भोजन करे पिछाडी इस रोग का जोर हो, नख, आदिशब्दसे त्वचा, मूत्र नेत्रादिक यह सफेद होंय यह लक्षण कफ के उन्माद के है॥
सन्निपातज उन्मादनिदान
यःसन्निपातप्रभवोऽतिघोरः सर्वैः समस्तैरपि हेतुभिः स्यात्। सर्वाणिरूपाणि बिभर्तितादृक् विरुद्धभैषज्य-विधिर्विवर्ज्यः॥
अर्थ-जो उन्माद वातादिक दोषकरके अथवा तीनों दोषों के कारणकरके होय, सन्निपातजन्य उन्माद बहुत भयंकर होय है. उस में सब दोषोंके लक्षण होते हैं. इस में विरुद्ध औषध की विधि वर्जित है. यह उन्माद वैद्योंकरके त्याज्य है कारणयह कि असाध्य है॥
दुःखोन्मादलक्षण
चौरैर्नरेन्द्रपुरुषैररिभिस्तथान्यैर्वित्रासितस्य धनबांधवसंक्षयद्वा। गाढं क्षते मनसि च प्रियया रिरंसोर्णायेत चोत्कटतमो मनसो विकारः॥ चित्रं ब्रवीति च मनोनुगतं विसंज्ञो गायत्यथो हसति रोदिति चापि मूढः॥
अर्थ-चोरों ने, राज के मनुष्यों ने अथवा शत्रुओं ने, उसी प्रकार सिंह, व्याघ्र, हाथी आदि किसी ने बास दिया होय, अथवा धन, बंधु के नाश होने से, ऐसे पुरुष का अन्तःकरण अत्यन्त दूखे, अथवा प्यारी स्त्री से संभोग करने की इच्छापाले पुरुष के मन में भयंकर विकार उत्पन्न होय, वह पुरुष गुप्त बात को भी कहने लगे और अनेक प्रकार का बोले, विपरीत ज्ञान होय, वह गावे, हंसे और रोवे तया मूर्ख हो जाय ॥
विषजउन्मादलक्षण
रक्तेक्षणो हतबलेन्द्रियभाः सुदीनःश्यावाननो विषकृतेन भवेद्विसंज्ञः॥
अर्थ-विष से प्रगट उन्माद में नेत्र लाल होंय, बल इन्द्री और शरीर की कान्ति नष्ट हो जाय, अति दीन हो जाय, उस के मुखपर कालोंच आ जाय और संज्ञा जाती रहे॥
असाध्यलक्षण
अवाङ्मुखस्तून्मुखो वा क्षीणमांसबलो नरः।
जागरूको ह्यसन्देहमुन्मादेन विनश्यति॥
अर्थ-जिस का मुख नीचे को होय अथवा ऊपर को होय और जिस का मांस और बल क्षीण हो गया होय, तथा जिस की निद्रा जाती रही हो, ऐसा मनुष्य निश्चय इस उन्मादकरके नाश को प्राप्त हो॥
उन्मादशास्त्रार्थ
कामशोकभयक्रोधहर्षेर्ष्यालोभसंभवात् ।
परस्परप्रतिद्वंद्वैरेभिरेव शमं नयेत्॥
अर्थ-काम, शोक, भय, क्रोध, हर्ष, ईर्षा, लोभ इन से प्रगट हुए उन्माद ( बावले पने) को उस के विपरीत जो कामशांति आदि उपायों से निवारण करे जैसे कामज्वर में कामशांति होने से चला जाता है उसी प्रकार शोक को हर्षादिक कर्मों से दूर करे॥
सामान्य उपचार
वातिके स्नेहपानं प्राग्विरेकः पित्तसंभवे ।
कफजे वमनं कार्यं परो बस्त्यादिका क्रमः॥
अर्थ-वादी के उन्माद में प्रथम स्नेहपान, पित्तोन्माद पर विरेचन (जुलाब देना) भौर कफोन्माद पर वमन और जो उन्माद हैं उनपर बस्तिक्रिया इत्यादि कर्म करे॥
सामान्यचिकित्सा
यच्चोपदिश्यते किंचिदपस्मारे चिकित्सितम् ।
उन्मादे तच्च कर्तव्यं सामान्यादोषदृष्ययोः॥
अर्थ-जो कायचिकित्सा अपस्मार ( मृगीरोग ) पर कही है वह सब उन्मादरोग पर करे इस का यह कारण है कि इन दोनों रोगों में दोष और दूष्यपदार्थ एक ही हैं इस वास्ते दोनोंपर एकसा यत्न करे॥
सामान्यउपचार
स्नेहादिना क्रमेणादावुन्मादे समुपाचरेत् ।
बस्तिभिः स्नेहकल्कैश्च निरूहैः स्वेदनांजनैः॥
अर्थ-स्नेहपानादिक क्रम करके, बस्ति, स्नेह और कल्क निरूहबस्ति पसीने निकालना तथा अंजन इत्यादि उपचार करना उन्मादरोग पर हितकारी है॥
शास्त्रार्थ
आश्वासयेत्सुहृद्वाक्यैयादिष्टविनाशनम्।
दर्शयेदद्भुतं कर्म ताडयेच्च कशादिभिः॥
अर्थ-जो प्राणी बावला हो गया हो उस को मीठे २ हितभरे वाक्यों को कहकर आश्वासन ( दिलासा ) देवे. तया उसी की प्यारी वस्तु का नाश कहे अथवा अद्भुत चेष्टा तथा कोडेन पीटना इत्यादि उपचार करे॥
सुबद्धं विजने गेहे त्रासयेदहिभिर्धिया।
बद्धं सर्षपतैलाक्तं न्यसेदुत्तानमातपे॥
अर्थ-उन्मादी ( बावले ) मनुष्य को एकांत स्थान में बांधके त्रास देवे. सर्प दिखायके डरावे सथा देह में सरसों का तेल लगायके धूप में चीता लेटावे तो उन्माद दूर हो॥
कपिकच्छाथ वा तप्तलोहतैलजलैः स्पृशेत् ।
पक्राभिधाने कूपे वा सततं च निवेशयेत्॥
अर्थ-बावले मनुष्य को कौंछ की फली अथवा तपाये हुए लाल लोह की सलाई, गरमतेल, जल इन का स्पर्श करावे अथवा मुख में तपे हुए लोहादिक डालने का भय दिखावे तो रोगी अच्छा होवे॥
सततं धूपयेच्चैनं गोमांसैश्च सपूर्तिभिः।
कामशोकभयकोधहर्षेर्ष्यालक्षसंभवात् ॥
अर्थ-उन्मादरोगी को गौ के मांस की तथा दूषित मांस की धूनी देवे तथा काम, शोक, भय, क्रोध, हर्ष और ईर्षाइत्यादि मनोविकार उत्पन्न करावे तो यह रोग दूर हो॥
परस्परप्रतिद्वंद्वैरेभिरेव शमं नयेत् । जलाग्निद्रुमशैलेभ्यो विषमेभ्यश्च तं सदा ॥ रक्षेदुन्मादिनं चैव सद्यः प्राणहरं हि तत्॥
अर्थ-ऊपर कही हुई परस्पर विरुद्ध चेष्टाओं करके उस को अपने आधीन कर लेना और जल, अग्नि, वृक्ष, पर्वत तथा विषमस्थान ( पहाड चोटी आदि ) इन से उस बावले मनुष्य का संरक्षण करे. क्यौंकि ये स्थान तत्काल उन्मादरोगी के प्राण हरणकर्ता हैं॥
लशुनादिघृत
लशुनस्य विनष्टस्य तुलार्धं निस्तुषीकृतम् । तदर्धंदशमूल्यास्तु चाढके वा विपाचयेत् ॥ पादशेषेघृते प्रस्थं लशुनस्य रसं तथा । कोलामलकवृक्षाम्लमातुलिंगार्द्धकैरसैः ॥ दाडिमांबु सुरा मस्तु कांजिकाम्लैस्तदर्धकै । साधयेत्त्रिफलादारुलवणव्योपदीप्यकैः॥ यवानीचव्यहिंग्वाम्लवेतसैश्च पलार्धकैः। सिद्धमेतत्पिबेच्छूलगुल्मार्शो-जठरापहम्॥ व्रणपांड्वामयप्लीहयोनिदोषकृमिज्वरान् । वातश्लेष्मामयं चान्यमुन्मादं चापकर्षति॥
अर्थ-उत्तमलहसन छिली हुई २०० तोले और दशमूल १०० तोले दोनों को एकत्र कर १०२४ तोले जल में डालके चतुर्थांश काढा करे. फिर इस को छानके इस में घी और लहसन का रस प्रत्येक ६४ तोले तथा बेर, आवले, अमलवेत, बिजोरा, अदरख और अनार इन का रस प्रत्येक ३२ तोले तथा त्रिफला, देवदारु, निमक, सोंठ, मिरच, काली पीपल, अजमोद, अजमायन, चव्य, हींग और अमलवेत ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे. सब का कल्क करके डाले फिर घृत सिद्ध करे. इस घृत के खाने से शूल, गोला, बवासीर, उदर, व्रण, पांडुरोग, प्लीहा, योनिदोष, कृमि, ज्वर और वायु तथा कफ इन के रोग और उन्माद इन को नाश करे॥
चंदनातितैल
चंदनांबु नखं याव्यं यष्टीशैलेयपद्मकम् । मंजिष्ठा सरलं दारु षड्बला पूतिकेसरम् ॥ पत्रं तैल्वं सुरामांसी कंकोलं वनितांबुदम् । हरिद्रे सारिवा तिक्ता लवंगागरुकुंकुमम् ॥ त्वग्रेणुनलि-
काश्चेति तैलान्मस्तु चतुर्गुणम्। लाक्षारसं समं सिद्धं ग्रहघ्नं परमं मतम्॥ अपस्मारहरोन्मादकृत्यालक्ष्मी-विनाशनम्।आयुःपुष्टिकरं चैव वशीकरणमुत्तमम्॥
अर्थ-चंदन, नेत्रवाला, नख ( सुगंधद्रव्य ), जवाखार, मुलहटी, शिलाजीत, पद्माख, मजीठ, सरल, देवदारु, षट्बला( छः प्रकार की बला ), जवाद, नागकेशर, पत्रज, लोध, मुरा, जटामांसी, केकोल, प्रियंगु, नागरमोथा, हलदी, दारुहलदी, सारिवा, कुटकी, लौंग, अगर, केशर, दालचीनी, पित्तपापडा, नलिका और तिलि का तेल तथा तेल से चौगुनी छाछ का जल और लाख का रस इन सब को डालके तेल बनावे. यह ग्रह, अपस्मार, कृत्या उन्माद अलक्ष्मी इन को नाश करे और आयुष्य, पुष्टि तथा लोक को वशीभूत करे है॥
अंजन
त्र्यूषणं हिंगु लवणवचाकटुकरोहिणी । शिरीषनक्तमालानां बीज श्वेतांश्च सर्षपाः॥ गोमूत्रपिष्टैरेतैस्तु वर्तिर्नेत्रांजने हिता। चतुर्थिकमपस्मारमुन्मादं च नियच्छति॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपल, हींग, सैंधानिमक, वच, कुटकी, सिरस, कंजे के बीज तथा सपेद सरसों इन सब को गोमूत्र में पीस उस में बत्ती को भिगोयके उस बत्तीसे नेत्रों में अंजन करे तो चातुर्थिक ज्वर, अपस्मार और उन्माद इन को दूर करे॥
शिरीषादिनस्य
शिरीषंलशुनं हिंगु नागरं मधुकं वचा।
कुष्ठं च बस्तमूत्रेण पिष्टं स्यान्नावनांजनम्॥
अर्थ-सिरस के बीज, लहसन, हींग, सोंठ, मुलहटी, वचऔर कूठ इन सब को बकरे के मूत्र में पीस के नस्य अथवा अंजन करे तो उन्मादरोग दूर हो॥
व्योषाद्यंजन
तद्वद्व्योषंहरिद्रे द्वे मंजिष्ठा गौरसर्षपाः।
शिरीषबीजमुन्मादग्रहापस्मारनाशनम्॥
अर्थ-उसी प्रकार सोंठ, मिरच, पीपल, दारुहलदी, हलदी, मजीठ, सफेद सरसों और सिरस के बीज इन को पीसके अंजन करे तथा नस्य देवे तो उन्माद, ग्रह और अपस्मार इन को नाश करे॥
धूप
कार्पासास्थिमयूरपिच्छबृहतीनिर्माल्यपिंडीतकत्वङ्मांसीवृषदंशविट्तुषवचाकेशाहिनिर्मोचनैः। नागेंद्रद्विजशृंगहिंगुमरिचैस्तुल्यैस्तु धूपः कृतः स्कंदोन्मादपिशाचराक्षससुरावेशज्वरनः स्मृतः॥
अर्थ-कपास के बीज ( विनोले ), मोर की पांख, कटेरी, शिवनिर्माल्य, मैनफल, दालचीनी, जटामांसी, बिल्ली की सूखी विष्टा, तुस, पच, मनुष्य के बाल, सांप की कांचली, हाथीदांत, साबरसींग, हींग और काली मिरच समान भाग लेके धूप बनावे. इस धूनी से स्कंदोन्माद, पिशाचोन्माद, राक्षसोन्माद देवोन्माद, तथा ज्वर इन सर्व का नाश होवे॥
पर्पटीरस
कृष्णाधत्तूरजैर्बीजैः पंचभिः पर्पटीरसः।
साज्यो योज्यः प्रशांत्यर्थमुन्मादस्य शुभानने॥
अर्थ-पीपल, धतूरे के पांच बीज और पर्पटीरस इन को घी में मिलायके देवे तो हे शुभानने ! उन्माद रोग का नाश करे ॥
शिरीषाद्यंजन
सिद्धार्थकवचाहिंगुकरंजो देवदारु च। मंजिष्ठा त्रिफला श्वेता कटभी त्वक् कटुत्रिकाः॥ समांशं च प्रियंगुश्च शिरीषोरजनीद्वयम्। बस्तमूत्रेण विष्ट्वेदमगदं पानमंजनम्॥ नस्यमालेपनं चैव स्नानमुद्वर्तनं तथा। अपस्मारविषोन्मादकृत्यालक्ष्मीज्वरापहम्॥ भूतेभ्यश्च भयं हंति राजद्वारे च शस्यते । सर्पिरेतेन सिद्धं वा सगोमूत्रं तदर्थकृत्॥
अर्थ-सपेदसिरसों, वच, हींग, कंजे के बीज, देवदारु, मजीठ, हरड, बहेडा, आवला, फिटकरी, छोटी कांगनी, दालचीनी, सोंठ, मिरच, पीपल, प्रियंगु, सिरस के बीज, दारुहलदी इन सब को बकरे के मूत्र में पीसके पीवे तथा अंजन, नस्य,लेपऔर स्नान करे तथा अंग में लगावे तो अपस्मार, विष, उन्माद, कृत्या, दुर्दशा, ज्वर और भूतबाधा इन का नाशक है और राजा के सन्मुख जाय तो इस योग को करेइन्हीं औषधों से सिद्ध करा हुआघी गोमूत्र के साथ सेवन करने से गुण करे हैं॥
ब्राह्म्यादिरस
ब्राह्मीकूष्मांडबिलषड्ग्रंथाशंखपुष्पिकास्वरसाः।
दृष्टा उन्मादहराः पृथगेते कुष्ठमधुमिश्राः॥
अर्थ-ब्राह्मी, पेठा, वच और शंखाहूली इन की पृथक् रस कूठ और सहत इन में मिलायके सेवन करे तो उन्माद को दूर करे॥
ब्राह्म्यादिकल्क
ब्राह्मीरसः स्यात्सवचः सकुष्ठःसशंखपुष्पः ससुवर्णचूर्णः उन्मादिनामुन्मदमानसानामपस्मृतो भूतहतात्मनां हि॥ नस्येंजने पानविधौ च शस्तौब्राह्मीरसोयं सवचादिचूर्णः॥
अर्थ-ब्राह्मी के रस को वच, कूठ, शंखाहूली और नागकेशर, इन के चूर्ण करके युक्त कर उस के नस्य, अंजन किवा पीना इन में देवे तो उन्माद, अपस्मार और भूतोन्माद ये रोग दूर हों ॥
सितकुसुमबलादियोग
सितकुसुमबलायाः सार्धकर्षत्रयं यः शिखरिचरणकेन क्षीरपाकेन पक्वम् । पिबति तदनु नित्यं प्रातरुत्थाय शीतं जयति झटिति घोरं व्याधिमुन्मादसंज्ञम्॥
अर्थ-सपेद फूल का बरियारा ३॥ तोले का चूर्ण करके दूध में डाल उस दूधको ओंगा की जड़ के साथ औटावे. जबशीतल हो जावे तब नित्य प्रातःकाल पीवे तो उन्मादरोग को तत्काल पराजय करे॥
दशमूलादियोग
दशमूलांबु सघृतं युक्तं मांसरसेन वा।
ससिद्धार्थकचूर्णं वा केवलं नावनं घृतम्॥
अर्थ-दशमूल का काढा घृतयुक्त अथवामांसरस युक्त उन्मादपर हितकारक है अथवा सपेद सरसों का चूर्ण घी में मिलायके नस्य देवे तो हितकारी होय ॥
उन्मादशांतये पेयो रसो वा कालशाकजः।
प्रयोज्यं सार्षपं तैलं नस्याभ्यंजनयोः सदा॥
अर्थ-उन्मादरोग शांत करने को शंखपुष्पी का रस पीवे अथवा सरसों के तेल की नस्य औरदेह में मालिस करे॥
भूतोन्मादलक्षण
अमर्त्यवाग्विक्रमवीर्यचेष्टाज्ञानादिविज्ञानवलादिभिर्यः।
उन्मादकालो नियतश्च यस्य भूतोत्थमुन्मादमुदाहरेत्तम्॥
अर्थ-वाणी, पराक्रम, शक्ति, देह का व्यापार, तत्त्वज्ञान, शिल्पादि ज्ञान अथवा ज्ञान कहिये शास्त्रज्ञान और विज्ञान नाम तदर्थ निश्चय आदिशब्द से स्मृत्यादिक ये जिसकी मनुष्य की सी न होय और जिस का उन्मत्त होने का काल निश्चय होय, ऐसे उन्माद को भूतोन्माद कहते है भूतशब्द से यहां आगे कहेंगे सो सब देवता जानने॥
देवजुष्टउन्मादलक्षण
सन्तुष्टः शुचिरतिदिव्यमाल्यगंधो निस्तंद्रिस्त्ववितथसंस्कृतप्रभाषी। तेजस्वी स्थिरनयनो वरप्रदाता ब्रह्मण्यो भवति नरः स देवजुष्टः॥
अर्थ-सदा संतोषयुक्त रहे, पवित्र रहे, देह में दिव्यपुष्प के समान सुगंध, नेत्रों के पलक लगे नही, सत्य और संस्कृत का बोलनेवाला हो, तेजस्वी, स्थिरदृष्टी, वर का देनेवाला, ( तेरा कल्याण हो ऐसे वर देय ) ब्राह्मण से प्रीति राखे, ऐसा मनुष्य ( देवग्रह ) पीडित जानना, देवशब्दसे गण मात्रिकादि ग्राह्य है सो विदेहने कहा भी है॥
असुरउन्माद
संस्वेदी द्विजगुरुदेवदोषवक्ता जिह्माक्षो विगतभयो विमार्गदृष्टिः।
संतुष्टो नभवति चान्नपानजातैर्दुष्टात्मा भवति स देवशत्रुजुष्टः॥
अर्थ-पसीने युक्त देह, ब्राह्मण, गुरु और देव, इन में दोषारोपण करनेवाला, टेढी दृष्टि से देखनेवाला, निर्भय, वेदविरुद्ध मार्ग का चलनेवाला और बहुत अन्न जल से भी जिस को संतोषन होय और दुष्टबुद्धि, ऐसा मनुष्य दैत्यग्रह पीडित जानना॥
गंधर्वजुष्टउन्माद
हृष्टात्मा पुलिनवनांतरोपसेवी स्वाचारः प्रियपरिगीतगंधमाल्यः। नृत्यन्वै प्रहसति चारु चाल्पशन्दं गंधर्वग्रहपरिपीडिमनुष्यः॥
अर्थ-गंधर्व ग्रह से पीडित मनुष्य प्रसन्नचित्त, पुलिन और बाहर बगीचा में रहनेवाला, अनिंदित आचार का करनेवाला, गान, सुगंध और पुष्प, ये जिस को प्यारे लगें वह पुरुष नाचे हंसे, सुन्दर बोले, थोडा बोले॥
यक्षग्रस्त उन्मादलक्षण
ताम्राक्षः प्रियतनुरक्तवस्त्रधारी गम्भीरो द्रुतगतिरल्पवाक् सहिष्णुः। तेजस्वी वदति च किं ददामि कस्मै यो यक्षग्रहपरिपीडितो मनुष्यः॥
अर्थ-यक्षग्रह से पीडित मनुष्य के नेत्र लाल हों, सुंदर बारीक ऐसे रक्त वस्त्र का धारण करनेवाला, गंभीर, बुद्धिवान्, जलदी चलनेवाला, प्रमाण का बोलनेवाला, सहनशील, तेजस्वी, किस को क्या देऊं ऐसे बोलनेवाला ऐसा होय
पितृग्रहग्रस्त उन्मादलक्षण
प्रेतानां स दिशति संस्तरेषु पिंडान्भ्रान्तात्मा जलमपि चापसव्यवस्त्रः। मांसेप्सुस्तिलगुडपायसाभिकामस्तद्भक्तो भवति पितृमहाभिजुष्टः॥
अर्थ-कुशा के ऊपर प्रेतों को ( पितरों को ) पिंड देय, चित्त में भ्रांति रहे और उत्तरीय वस्त्र अपसव्य करके तर्पण भी करे, मांस खाने की इच्छा होय, तथातिल, गुड, खीर इनपर मन चले ( इस कहने का प्रयोजन यह है कि जिस की जिस पदार्थपर इच्छा होय उस को उसी पदार्थ की बली देने से उस ग्रह की शांति होती है ऐसे ही सर्वत्र जानना ) ये डल्लन का मत है, और वह मनुष्य पितरों की भक्ति करे ये लक्षण पितृग्रहपीडित मनुष्यके हैं॥
सर्पग्रहग्रस्त उन्मादलक्षण
यस्तूर्व्यांप्रसरति सर्पवत्कदाचित्सृक्किण्यौ विलिहति जिव्हया तथैव । क्रोधालुर्मधुगुडदुग्धपायसेप्सुर्विज्ञेयो भवति भुजंगमेन जुष्टः॥
अर्थ-जो मनुष्यसर्प के समान पृथ्वी से लोटा करे, अर्थात् छाती के बलचले, तथा सर्प के समान अपने ओष्ठप्रांत( होठों को ) चाटा करे, सदा क्रोधी रहे, सहत, गुड, दूध और खीर की इच्छा रहे वह सर्पग्रहग्रस्त जानना॥
राक्षसजुष्ट उन्मादलक्षण
मांसासृग्विविधसुराविकारलिप्सुर्निर्लज्जो भृशमतिनिष्ठुरोऽति-
शूरः । क्रोधालुर्विपुलबलो निशाविहारी शौचद्विट्भवति च राक्षसैगृहीतः॥
अर्थ-जो मनुष्य मांस, रुधिर, नानाप्रकार के मद्य पीने की इच्छा करे और निर्लज्ज, अतिनिष्ठुर, अत्यन्त शूर, क्रोधी, बडा बली, रात्रि में डोलनेवाला, अपवित्र ऐसा होय वह राक्षस करके ग्रस्त जानना॥
ब्रह्मराक्षस उन्मादलक्षण
देवविप्रगुरुद्वेषीवेदवेदांगनिंदकः ।
आशु पीडाकरोऽहिंस्रो ब्रह्मराक्षससेवितः॥
अर्थ-देव, ब्राह्मण, गुरू से द्वेषकर्ता, वेद और वेद के अंग ( शिक्षा, कल्प व्याकरणादि ) का निंदक, शीघ्र पीडा का कर्ता, हिंसा करे नहीं ये लक्षण ब्रह्मराक्षससेवी मनुष्य के हैं॥
पिशाचजन्य उन्माद लक्षण
उद्धस्तः कृशपरुषश्चिरप्रलापी दुर्गंधो भृशमशुचिस्तथाऽतिलोलः । बह्वाशी विजनवनांतरोपसेवी व्याचेष्टन्भ्रमति रुदपिशाचजुष्टः॥
अर्थ-जो अपने हाथ ऊपर को करे, उद्वस्त्र, ऐसा भी पाठ है उस जगह उद्वस्त्र नाम ( नंगा हो जाय ) तेजरहित, बहुत देरपर्यंत बकनेवाला, जिस के देह में दुर्गंध आवे, अपवित्र, तथा अति चंचल कहिये सब अन्नपान में इच्छा करनेवाला, खाने को मिले तो बहुत भोजन करे, एकांत वनांतरों में रहनेवाला, विरुद्ध चेष्टा करनेवाला, रुदन करता, डोलनेवाला ऐसा मनुष्य पिशाचग्रस्त जानना॥
असाध्य लक्षण
स्थूलाक्षो द्रुतमटनः सफेनलेही निद्रालुः पतति च कंपते च योऽति । यश्चाद्रिद्विरदनगादिविच्युतः स्यात्सोऽसाध्यो भवति तथा त्रयोदशेऽब्दे॥
अर्थ-नेत्र भयानक हो जाय, शीघ्र चले, मुख में जो झाग हैं उनको चाटनेवालाऔर जिसको निद्रा बहुत आवे, तथा गिर पडे, कॉंपे और जो पर्वत, हाथी, अथवानगनाम वृक्ष आदिशब्दसे भीत्ति, मन्दिर आदि जानने, इनसे गिरकर ग्रहग्रस्त
होय, वह असाध्य हैं, तैसे ही तेरवे वर्ष में सर्व देवादि उन्मादीअसाध्य जानने, ( विदेह ) ने विशेष लक्षण कहे है सो ग्रन्थान्तरों से जान लेने॥
देवादीनामावेशसमयः
देवग्रहाः पौर्णमास्यामसुराः संध्ययोरपि ।
गन्धर्वाः प्रायशोऽष्टम्यां यक्षाश्च प्रतिपद्दिने॥
अर्थ-देवग्रह पूर्णमासीको प्रवेश करते हैं, असुरग्रह, सायंकाल में अपिशब्दसे पूर्णमासी को भी प्रवेश करते हैं, गंधर्वग्रह बहुधा अष्टमी को, प्रायःशब्द से संध्या को भी गंधर्व ग्रह प्रवेश करते हैं, यक्ष ग्रह पडवा को॥
पितृग्रहास्तथा दर्शे पंचम्यामपि चोरगाः।
रक्षांसि रात्रौ पैशाचाश्चतुर्दश्यां विशंति हि॥
अर्थ-पितृग्रह अमावास्या को सर्पग्रह पंचमी को अपिशब्द से अमावास्या को भी प्रवेश करते हैं, राक्षस रात्रि में और पिशाच चतुर्दशी को, मनुष्य के देह में प्रवेश करते हैं, तिथि कहने का यह प्रयोजन है कि जिस जिस तिथि को जो ग्रहमनुष्य को ग्रस्त करे उस को उसी उसी तिथि में शांति के निमित्त बलिदानादिक कराने चाहिये। * शंका-क्योंजी जब ग्रहग्रस्त मनुष्यों को उन्माद होता है तो वह ग्रह मनुष्य की देह में प्रवेश करते क्यों नहीं दीखते हैं इस वास्ते कहते हैं॥
दर्पणादीन्यथा छाया शीतोष्णं प्राणिनो यथा। स्वमणौभास्करांशुश्च यथा देहं च देहधृक्॥ विशंति न च दृश्यंते ग्रहास्तद्वच्छरीरिणाम्॥
अर्थ-जैसे दर्पण में मनुष्य का प्रतिबिंबपडे है, आदिशब्द इस जगह प्रकारवाची है, अर्थात् जल, तैल आदि में जैसे छाया पडती है और सरदी, गरमी जैसे मनुष्यों को लगती है अथवा जैसे सूर्यकिरण सूर्यकान्त मणि ( आतसीकाच ) में प्रवेश करे है अथवा जैसे जीव देह में प्रवेश करे हैं, इसी प्रकार सब यह मनुष्य के शरीर में प्रवेश करते हैं परंतु दीखते नहीं है, इस लोक के पोषक दृष्टांत जयट आचारी ने बहुत दीने हैं, परंतु हम ने ग्रन्य बढने के भय से नहीं लिखे. इस उन्मादरोग में सर्वत्र देवशब्दकरके देवतान के से आचरणवाले देवतान के अनुचर (दास) जानने चाहिये, क्योंकि देवतान को मनुष्यनके अपवित्र देह में प्रवेश होना असंभव हैसो ( सुश्रुत ) में लिखा है॥
निशादिघृत
निशायुक्त्रिफलाश्यामावचासिद्धार्थहिंगुभिः। शिरीषकटभि-
श्वेतामंजिष्ठान्योषदारुभिः॥ समैः कृतं घृतं मूत्रे सिद्धमुन्मादनाशनम्॥
अर्थ-हलदी, दारुहलदी, हरड, बहेडा, आवला, सारिखा, वच, सपेद सरसों, हींग, सिरस, मालकांगनी, सपेद कचनार, मीठ, सोंठ, मिरच, पीपल और देवदारु ये सब समान भाग ले. गोमूत्र में डाल इस में घी डालके सिद्ध करे यह निशादिघृत उन्मादरोग को नाश करे॥
कल्याणघृत
विशाला त्रिफला कौन्ती देवदार्व्येलवालुकम् । स्थिरानंता हरिद्रे द्वेसारिवेद्वे प्रियंगुका॥ नीलोत्पलैलामंजिष्ठा दंती दाडिमवल्कलम्॥ विडंगं पृश्निपर्णी च कुष्ठचंदनपद्मकैः॥ तालीसं बृहतीपत्रं मालत्याः कुसुमं नवम् । एतैः कर्षसमैः कल्कैर्विंशत्यष्टाभिरेव च॥ चतुर्गुणं जलं दत्त्वा धृतप्रस्थं विपाचयेत् । अपस्मारे ज्वरे शोषेकासे मंदानले क्षये ॥ वातरक्तेप्रतिश्याये तृतीयकचतुर्थके । वातार्शेमूत्रकृच्छ्रे च विसपोपहतेषु च ॥ कंडूपांड्वामयोन्मादविषमेहगदेषु च। भूतोपहतचित्तानां गंडदानामचेतसाम्॥ शस्तं स्त्रीणां च वंध्यानां धन्यमायुर्बलगदम् । अलक्ष्मीपापरक्षोघ्नं सर्वग्रहनिवारणम् ॥ कल्याणकमिदं सर्पिः श्रेष्ठं पुंस्त्वप्रदं नृणाम्॥
अर्थ-इन्द्रायन, हरड, बहेडा, आवला, रेणुकबीज, देवदारु, एलवालुक, सालपर्णी, धमासा, हरदी, सपेद कोयल, कोयल, फूलप्रियंगु, नीला कमल, इलायची, मंजीठ, दंती की जड, अनार की छाल, वायविडंग, पृष्ठपर्णी, कूठ, चंदन, पद्माख, तालीसपत्र, कटेरी, पत्रज और चमेली के ताजे फूल ये प्रत्येक तोले २ लेवे. सब का कल्क कर और कल्क से चौगुना जल डाल उस में ६४ तोले घी डालके औटावे. जबसब रसादिक जलके घृतमात्र शेषरहे तब उतार ले. यह अपस्मार, ज्वर, शोष, खांसी, मंदाग्नि, क्षय, वातरक्त, पीनस, तृतीयक, चातुर्थिकज्वर, वादी की बवासीर, मूत्रकृछ्र, विसर्प, खुजली, पांडुरोग, उन्माद, विष, प्रमेह, भूतोन्माद इत्यादि रोगों का नाशक तथा वंध्या स्त्री को संतान का देनेवाला, आयुष्यऔर बलको देवेतथा दरिद्र, पाप और राक्षसादि सर्व ग्रह इन को दूर करे इस को कल्याणघृतकहते हैं यह बहुत श्रेष्ठ है पुरुषों को पुरुषार्थ देता है॥
हिंग्वादिघृत
हिंगुसौवर्चलव्योषद्विपलांशैर्घृतं शृतम् ।
चतुर्गुणे गवां क्षीरे सिद्धमुन्मादनाशनम्॥
अर्थ-हींग, संचरनिमक और त्रिकुटा ( सोंठ, मिरच, पीपल ) सब मिलायके ८ तोले लेवे और घी तथा घी से चौगुना गौका दूध लेवे इन सब को एकत्र करके घीसिद्ध करे यह हिंग्वादिघृत उन्माद को दूर करे॥
सारस्वतघृत
त्रिफला लक्ष्मणानंता समंगा सारिवा वचा। ब्राह्मी पाठा बृहतिका द्विः स्थिरा द्विः पुनर्नवा॥ सहदेवी सूर्यवल्ली वयस्था गिरिकर्णिका। तोयकुंभे पचेदेतत्पलांशं पादशेषिते॥ न तं कौंति वचा कुष्ठं कृष्णा सैंधवसर्पिषम् । नीरुक् सवर्णवत्सायाः संसिद्धं पयसा च गोः॥ पुष्ययोगे घृतप्रस्थं सुरेहकलशे स्थितम्। पानाभ्यंजनतो मेधास्मृत्यायुःपुष्टिवर्धनम्॥ रक्षोघ्नं च विषघ्नंच सारस्वतमिदं घृतम्॥
अर्थ-हरड, बहेडा,आवला, लक्ष्मणा (सपेद कटेरी), धमासा, मजीठ, सारिवा, वच, ब्राह्मी, पाढ, छोटी कटेरी, बडी कटेरी, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, सपेद पुनर्नवा, लाल पुनर्नवा, सहदेई, सूर्यवल्ली, हरड, सपेद कोयल इन सब को चार २ तोले लेवे १ घडे जल में काढा करे जब चतुर्थाश रहे तब उतार लेवे. इस को कपडे में छान लेवे. फिर छड, रेणुक, वच, कूठ, पीपल, सैंधा निमक, सरसों और रोगरहित तथा जीवित बछडेवाली एक वर्ण गौ का दूध डालके उस में ६४ तोले घी डालके पुष्य नक्षत्र में इस घी को बनावे और चिकने पात्र में भरके रख देवे. फिर इस को पीवे अथवा लगावेतो वाणी, बुद्धि, स्मृति, आयुष्य और पुष्टि इन को बढावे. तथा राक्षसाधा और विषबाधा इन को नाश करे इस को सारस्वत घृत ऐसे कहते हैं॥
उन्मादगजकेसरीरस
सूतगंधं शिलातुल्यं स्वर्णबीजं विचूर्ण्य च । भावयेदुग्रगंधायाः क्वाथे मुनिदिनं पृथक्॥ रानाक्वाथेन सप्तैव भावयित्वा विचूर्णयेत् । रसः संजायते नूनमुन्मादगजकेसरी॥ अस्य माषः
ससर्पिष्को लीढोहंति हठाद्गदम्। उन्मादाख्यमपस्मारं भूतोन्मादमपि ज्वरम्॥
अर्थ-पारा, गंधक, मनसिल और इन सब की बराबर धतूरे के वीज इन सब को एकत्र खरल करके वच और रास्नाइन के काटे की पृथक् २ सात २ भावना देवे फिर सुखायके चूर्ण कर लेवे तो उन्मादगजकेसरी नामक रस बने इस को घी में मिलायके १ मासे के अनुमान चाटे तो घोरउन्माद, अपस्मार, भूतोन्माद और ज्वर इन को हठपूर्वक दूर करे॥
उन्मादे पर्पटींदद्यात्सा चाविषयसान्विताम्।
अपस्मारेपि तत्प्रोक्तमेतत्पाराशरेण च॥
अर्थ-उन्मादरोग पर पर्पटी रस को बकरी के दूध में देवे तो मृगी और उन्माद रोग ( बावलापना ) नाश होवे॥
विगतोन्मादलक्षण
प्रसादश्चेंद्रियार्थानां बुद्ध्यात्ममनसामपि। धातूनां प्रकृतिस्थत्वं विगतोन्मादलक्षणम्। यच्चोपदेशतः किंचिदपस्मारे चिकित्सितम् । उन्मादे तच्च कर्तव्यं दोषसामान्यदूष्ययोः॥
अर्थ-अपस्मार और उन्माद इन दोनों के दोष और दूष्यएकसे हैं इस वास्ते अपस्मार को जितने यत्न कहे हैवह सब उन्मादरोग पर करने चाहिये॥
भूतोन्मादपर अंजन व नावन
शिरीषपुष्पं लशुनं शुंठी सिद्धार्थकं वचा। मंजिष्ठरजनी कृष्णा बस्तमूत्रेण पेषयेत् ॥ वटी छायासु शुष्का या सा हिता नावनांजने॥
अर्थ-सिरस के फूल, लहसन, सोंठ, सपेद सरसो, वच, मजीठ, हलदी और पीपर इन सब को बकरे के मूत्र में पीसके गोली बनावे और छाया में सुखाय ले. इस को नस्य अथवा अंजन रस विषय में योजना करे तो हितकारी होवे॥
भूतभैरवरस
रसः सतालः सशिलः सलोहः स्रोतोंजनं सार्कमिदं हि गंधम्। पिष्ट्वाजमूत्रेण समं समस्ताद्देयो द्विभागोथ बलिः पचेच्च॥ लोहेक्षणं हंति घृतेन माषोपस्मारमस्योन्मदमानसत्वम्। पिबेदनु-
त्र्यूषणहिंगुयुक्तं सर्पिर्नृमूत्रं रुचकेन सार्द्धम्॥ भूतोन्मादेषु सर्वेषु रसोयं भूतभैरवः। स्वर्णजैः पंचभिर्बी-जैर्देयःसर्पिर्विमिश्रितः॥
अर्थ-पारा, हरताल, मनसिल, लोहे का भस्म, सुरमा, तामे की भस्म और गंधक इन सब को समान भाग लेके बकरेके मूत्र में खरल करे और सब से दूनी गंधक लोहे के पात्र में डालके और इन सब औषधों को मिलायके अग्नि पर रखके थोडी देर पचावेफिर एक मासे भर ले घी के साथ खाय तो अपस्मार और उन्माद इन को नाश करे यह औषध सेवन करने त्रिकुटा और हींग इनका चूर्ण घी में मिलायके खाय अथवा मनुष्य के मूत्र में संचरनिमक डालके पिलावे. यह सर्वभूतोन्मादोंपर भूतभैरवरस धतूरे के पांच बीज का चूर्ण और घी इन के साथ खाय॥
भूतरावघृत
फलत्रिकव्योषकलिंगजोग्रानिशाद्वयैला चविका सुराह्वा। तुत्थं प्रियंग्वामषकालमेषीमनःशिलापद्मककंट-कार्याः॥ यवाव्हयष्टीकटुकुंकमांभोरिष्टाव्हसिद्धार्थपुगच्छदानि। रसांजनं ग्रंथिमधूकसारं बला रसोनाह्वनतानि चूर्णात्॥ एषामजामूत्रदधिप्रयुक्तात्संजातमाज्यं ननु भूतरावम्। लोकेषु नाम्ना विदितं समस्तैर्वैद्यैः समुक्तं जगतां हिताय॥ पानेन नस्येन च मर्दनेनानेकोप्रभूतग्रहजातिपीडाम्। निहंति रक्षांसि च डाकिनीनां मंत्रा यथा तारकंनामधेयम्॥
अर्ध-हरड, बहेडा, आवला, सोंठ, मिरच, पीपल, इन्द्रजो, वच, हलदी, दारुहलदी, इलायची, चविका, सुराह्व( देवदारु ), लीलाथोथा, फूलप्रियंगु, कूठ, मजीठ, मनसिल, पद्माख, कटेरी, घमासा, मुलहटी, परवल, केशर, नेत्रवाला, रीठा, सपेद सरसों, रसोत, पीपरामूल, महुए के फूल, कत्था, वरियारा, लहसन और तगर इन के चूर्ण और पकरी का मूत्र और दही इन को एकत्र कर तथा इस में घी मिलायके पाक करे. जब सिद्ध हो जावे तब इसे भोजन नस्य और मर्दन इत्यादि प्रयोगों में देवे तो भूत, ग्रहजाति, राक्षस और डाकिनी इन की पीडा को नाश करे यह वैद्योंने संसार के कल्याण करने को प्रसिद्ध करा है और यह अनुभव करा हुआ है॥
धूप
ऋक्षजंबुकरोमाणि शल्लकीलसमं तथा। हिंगु मूत्रं चबस्तस्य धूपमस्य प्रयोजयेत् ॥ धूपेन शाम्यति क्षिप्रं बलवानपि यो ग्रहः॥
अर्थ-रीछ, स्यार इन के बाल, सेह के कांटे, हींग और बकरे का मूत्र इन की धूनी से तत्काल बलवान् भी ग्रह शांति होवे॥
ये च स्युर्भुवि गुह्यकाश्च प्रमथास्तेषांसमाराधनम्।
देवब्राह्मणपूजनं च शमयेदुन्मादमागंतुकम्॥
अर्थ-इस पृथ्वी में गुह्यक, प्रमथ इत्यादिकों के आराधन तथा देव, ब्राह्मण इन का पूजन करे तो उन का आगंतुक उन्माद की शांति शीघ्र होवे॥
शिरीषनक्तमालानां बीजानि मधुसर्पिषा।
भक्ष्याश्च सर्वे सर्वषांसामान्यो विधिरुच्यते॥
अर्थ-सिरस के बीज और कंजा के बीज इन को सहत और घी के साथ खाय और भक्ष पदार्थ संपूर्ण आरोग्य करते हैं यह सामान्य विधि कहीं है॥
भूतोन्मादचिकित्साशास्त्रार्थ
बुद्धा दोषंवयःसात्म्यं देशं कालं बलाबलम् ।
चिकित्सितमिदं कुर्यादुन्मादे भूतदोषजे॥
अर्थ-वैद्य को उचित है कि भूतोन्माद रोगी का दोष अवस्था और प्रकृति को माने ऐसे देश, काल, बल और अशक्तता इन को विचारके भूतोन्माद की चिकित्सा करे॥
देवर्षिपितृगंधर्वैरुन्मत्तेषु च बुद्धिमान्। त्यजेन्नस्यांजनादीनि तीक्ष्णानि क्रूरकर्म च॥ सर्पिःपानं सूर्यजपहोममंत्रादिरिष्यते॥
अर्थ-देव, ऋषि, पितर और गंधर्वइन की बाधा से उत्पन्न हुए मनुष्य को नस्य और अंजन इत्यादि क्रूर कर्म कदाचित् न करे. उस को घृतपान करावे तथा सूर्य का जप, होम, गायत्रीमंत्र इत्यादिक कर्म करे॥
पूजाबल्युपहारशांतिविषयो होमेष्टिमंत्रक्रियादानं स्वस्त्ययनं व्रतादिनियमः सम्यग् जपो मंगलम्। प्रायश्चित्त-विधानमंजलिरथो रत्नौषधीधारणं भूतानामधिपस्य विष्टरपतेर्गौरीपतेरर्चनम्॥
अर्थ-पूजा, बलि( भेट ), नैवेद्य शांतिनिमित्त होम, मंत्र, दान, पुण्याहवाचन व्रत, नियम, जप, मंगल, प्रायश्चित्त, नमस्कार, मणिऔर औषधी इन का धारण विष्णु और शिव का पूजन इत्यादि भूतोन्माद पर उपचार करें॥
महापैशाचिकघृत
जटिला पूतना केशी चारटी मर्कटी वचा । त्रायमाणा जया वीरा चोरकंकटुरोहिणी॥ कायस्था सूकरी छत्रासातिपत्रा पलं कषा। महापुरुषदंता च वयस्था नाकुलीद्वयम् ॥ कटंभरा वृश्चिकाली स्थिरा चैतैर्घृतं पचेत् ॥ तत्तु चातुर्थिकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम्॥ महापैशाचिकं नाम घृतमेतद्यथामृतम्। बुद्धिमधास्मृतिकरं बालानां चांगवर्धनम्॥
अर्थ-जटामांसी, सुगंध जटामांसी, छोटी नीली, कौछ के बीज, वच, वायमाग, सेवती, भूयआवला, मडोता, कुटकी, हरड, बाराहकंद, सोफ, सालवृक्ष, गोखरू, बडी सतावर, ब्राह्मी, दो प्रकार की नाकुली, कटंभरा, छोटी किवाचऔर सालपर्णी इन सब के कल्क में घी डालके सिद्ध करे यह चातुर्थिक ज्वर, उन्माद, ग्रहबाधा और अपस्मार इन को नाश करे यह महापैशाचघृत अमृत के समान है यह बुद्धि, मति और स्मृति को उत्पन्न करे तथा बालको के देह को पुष्ट करे है॥
कल्याणकघृत
कल्याणकं प्रयुंजीत महद्वाचोत्तमं घृतम् ।
तैलं नारायणं वापि बृहन्नारायणं तथा॥
अर्थ-कल्याण घृत अथवा नारायण तैल अथवा बृहन्नारायण तैल ये उन्मादरोग पर देने चाहिये॥
उन्मादपथ्य
गोधूममुद्गारुणशालयश्च धारोष्णदुग्धं शतधौतसर्पिः। घृतं नवीनं च पुरातनं च कूर्मामिषंधन्वरसा रसाला॥ पुराणकूष्मांडफलं पटोलं ब्राह्मीदलं वास्तुकतंदुलीयम्। द्राक्षा,कपित्थंपनसं च वैद्यैर्विधेयमुन्मादगदेषु पथ्यम्॥
अर्थ-गेहूं, मूंग, लाल चावल, धारोष्ण अर्थात् तत्काल का दुहा हुआ दूध, सौ बार धुला हुआ घी, नवीन घी अथवा पुराना घी, कछुए का मांस, जंगली जीवों कामांसरस, सिखरन, पुराना पेठा, पटोलपत्र, ब्राह्मीके पत्ते, बथुएका साग, चौलाई का साग, दाख, कैथ, कटहर, सब फल वैद्योंने उन्मादरोगों में पथ्य कहे है॥
उन्माद अपथ्य
मद्यंविरुद्धाशनमुष्णभोजनं निद्राक्षुधातृट्कृतवेगधारणम्।
तिक्तानि तीक्ष्णानि भिषक्समादिशेदुन्मादरोगेषु विगर्हितानि॥
अर्थ-मद्य, विरुद्ध पदार्थ भोजन, उष्ण पदार्थ भोजन, निद्रा, भूँख, प्यास इन के वेगों को रोकना, चरपरे पदार्थ सबउन्मादरोग में वर्जित कहे हैं॥
इतिश्री बृहन्निघंटुरत्नाकरे उन्मादरोगस्य निदानचिकित्सा समाता।
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अपस्मारकर्मविपाकः।
गुरौ स्वामिनि वस्ते या प्रतिकूलं समाचरेत्॥
सोपस्मारी भवेत्तत्र कुर्याच्चांद्रायणं नरः॥
अर्थ-जो प्राणी गुरु और स्वामी इन के समीप रहकर इन के प्रतिकूल कार्य करे अर्थात् इन की आज्ञा पालन न करे किंतु इन का अहित करे है उस को अपस्मार ( मृगी ) रोग होता है इस के दूर करने को चांद्रायण व्रत करे॥
ब्राह्मणश्वासरोधेन ह्यपस्मारी भवेन्नरः।
वक्ष्ये तस्य प्रतीकारं दानहोमक्रियाविधिः॥
अर्थ-जो प्राणी ब्राह्मण की श्वास रोकता है वह अपस्मार रोगी होता है उस के दूर करने को यत्न और दान होम आदि क्रिया कहता हूं॥
ज्योतिःशास्त्राभिप्राय
शनिभूसुतदिननाथा निधनस्था यस्य जन्मकाले स्युः। नानाव्याधिवधाद्यैः पीडां चापस्मारसंभवां तस्य॥ अष्टमस्थानस्थशनिमंगलसूर्यजनितापस्मारशांतये ग्रहप्रीतये पूर्वोक्तमेव सकलं जपादि कुर्यात्॥
अर्थ-जिस के जन्मकाल में शनि, मंगल और सूर्य ये अष्टमस्थान में पडेहों तो उस के अनेक प्रकार की व्याधि किंवा अपस्मार इन में से कोई पीडा हो. उस प्राणी को अष्टम स्थानस्थ शनि, मंगल और सूर्य इन से उत्पन्न हुए अपस्मार की शांति करने को तथा ग्रहों की प्रसन्नता के अर्थ पूर्वोक्त जपादिक सर्व उपचार करे॥
अपस्मारनिदान
तम प्रवेशः संरंभो दोषोद्रेकहतस्मृतिः।
अपस्मार इति ज्ञेयो गदो घोरश्चतुर्विधः॥
अर्थ-अन्धकार में प्रवेश करने के समान ज्ञान का नाश होना, नेत्र टेढे बांके फिरे, दोषोंके बढने से ज्ञान का नष्ट होना, ये लक्षण जिस रोग मेंहोंयऐसा यह भयंकर ( अपस्मार ) रोग चार प्रकार का है इस को लौकिक में मिरगी ऐसे कहते हैं॥
पूर्वरूप
हृत्कंपः शून्यता स्वेदो ध्यानं मूर्च्छाप्रमूढता।
निद्रानाशश्च तस्मिंस्तु अपस्मारे भविष्यति॥
अर्थ-जब अपस्मार होनेवाला होय है तब ये लक्षण होते है. हृदय कांपे और शून्य पड जाय ( कुछ सूझे नहीं ), चिंता, मूर्च्छा, पसीना आवे, ध्यान लग जाय, मूर्च्छा कहिये मन का मोह और प्रमूढता कहिये इन्द्रिय का मोह होय, निद्रा जाती रहे॥
वातजन्य अपस्मार
कंपते प्रदशेद्दंतान्फेनोद्वामी श्वसत्यपि।
परुषारुणकृष्णानि पश्येद्रूपाणि चानिलात्॥
अर्थ-वात के अपस्मार से रोगी कांपे, दांतों को चंबावे, मुख से झाग गेरे और श्वास भरे तथा कर्कश अरुणवर्ण और काले वर्ण मनुष्यों को देखे अर्थात् कोई नीलवर्ण का मनुष्यमेरे पास दौडा आता है. इसी प्रकार पित से पीले वर्ण का पुरुष दौडा आता है और कफ में सपेद रंग का पुरुष मेरे सामने दौडा आता है ऐसे जानना॥
पैत्तिक अपस्मार
पीतफेनांगवक्राक्षः पीतासृग्रूपदर्शनः।
सतृष्णोष्मानिलव्याप्तलोकदर्शी च पैत्तिकः॥
अर्थ-पित्त की मिरगीवाले के झाग, देह, मुख और नेत्र पीले होते हैं और वह पीले रुधिर के रंग की सी सब वस्तु देखे, प्यासयुक्त और गरमी के साथ अग्निसे व्याप्त भया ऐसा सब जगत को देखे॥
कफापस्मार
शुक्लेफेनांगक्राक्षः शीतहृष्टांगजो गुरुः।
पश्येच्छुक्लानि रूपाणि मुच्यते श्लैष्मिकश्चिरात्॥
अर्थ-कफ की मृगीवाले के झाग, अंग, मुख, और नेत्र सपेद होय, देह शीतल होय, तथा देह के रोमांचखडे रहें, भारी होय और सब पदार्थ सपेद दीखें यह अपस्मार ( मिरगी ) रोग देर में छोडे या से यह सूचना करी कि वातपित्त की मृगी जलदी रोगी को छोड देती है॥
सन्निपातापस्मारनिदान
सर्वैरेतैः समस्तैश्च लिंगैर्ज्ञेयस्त्रिदोषजः।
अपस्मारः स चासाध्यो क्षीणश्चानश्नतश्च यः॥
अर्थ-जिस में तीनों दोषों के लक्षण मिलते हों वो त्रिदोषज अपस्मार जानना यह असाध्य है और जो क्षीण पुरुष के होय वहभी असाध्य है तथा पुराना पड गया होय वहभी अपस्मार ( मिरगी ) रोग असाध्य है॥
असाध्य लक्षण
प्रस्फुरन्तं च बहुशः क्षीणं प्रचलितभ्रुवम्।
नेत्राभ्यां च विकुर्वाणमपस्मारो विनाशयेत्॥
अर्थ-वारंवार कंपयुक्त होय, क्षीण हो गया हो, भ्रुकुटी ( भोंह ) को चलानेवाला और नेत्र टेढे बांके करनेवाला ऐसा अपस्मारी रोगी जीवे नहीं॥
अपस्मार का कालनियम कहते हैं
पक्षाद्वा द्वादशाहाद्वा मासाद्वा कुपिता मलाः।
अपस्माराय कुर्वन्ति वेगं किंचिदथोत्तरम् ॥
अर्थ-कोषको प्राप्त भये जो दोष सो पंद्रहवें दिन अथवा बारहवें दिन अथवा महीनाभर में मिरगी रोग प्रगट करे, तिन में पैत्तिक १५ दिन, वातिक १२ दिन और श्लैष्मिक ३० दिन में आती है. इस जगह बारहवें दिन के पिछाड़ी पक्ष कहना ठीक था फिर पहिले पक्ष धरने का यह प्रयोजन है कि अधिक काल करके ही दोष वेग करते हैं यह कहा.‘किंचिदधोत्तरम्’ इस पद से यह सूचना करी है कि जिस जिस दोष का जो जो काल कहा है उससे पहिले भी दोषोंके तारतम्य से ‘मिरगी रोग’ होय है ऐसे जानना. शंका-वेग उत्पन्न करे अपस्मार के प्रगट कर्त्तादोष देह में सदा रहते है, फिर वह सर्वकाल में वेग क्यौनही करते द्वादशादि दिन में क्यों करते है ? इस विषय में दृष्टांतरूप समाधान कहते है॥
देवेवर्षत्यपि यथाभूमौ बीजानि कानिचित्।
शरदि प्रतिरोहन्ति तथा व्याधिसमुच्छ्रयः॥
अर्थ-जैसे चातुर्मास मे इन्द्र वर्षे भी है परंतु कोई जब गेंहूं चना आदि बीज शरदऋतु मे ही ऊगते है तैसे ही सर्व रोग के बीजरूप वातादिक दोष कदाचित् किसी अपस्मारादि व्याधिविशेष के निदानादिक का संगम होने से उस रोग को प्रगट करते है अथवा इस को मुख्य प्रयोजन यह है कि बीज के अंकुर फूटने में तेज, वायु, पृथ्वी, जल ये सहायक भी है परन्तु वे सब कालविशेष की प्रतीक्षा ( इच्छा ) करते है अंकुर आने को काल ही सहाय चाहिये अर्थात् जिस काल में जिस अंकुर का बीज आता है वह उसी काल में आवेगा बीच में कभी नहीं आनेवाला यहीं न्याय चातुर्थिक ज्वरादि कों मेभी जानना॥
मधुकघृत
मधूकद्विपले कल्के द्रोणे चामलकीरसे।
तस्मिन् सिद्धं घृतप्रस्थं पित्तापस्मारभेषजम्॥
अर्थ-आठ तोले मुलहटी का चूर्ण और १०२४ तोले आवले का रस इस मे ६४ तोले घृत को मिलायके पक्वकरे जब सिद्ध हो जावे तब उतारके छान लेवे यह पित्त के अपस्मार रोग को नाश करे॥
काशघृत
काशक्षीरेक्षुरसयोः काश्मर्यष्टगुणे रसे। कार्षिकैर्जीवनीयैश्च सर्पिः प्रस्थं विपाचयेत्॥ वातपित्तोद्भवं क्षिप्रमपस्मारं नियच्छति॥
अर्थ- काससंज्ञक तृण का काढा और ईख का रस इन से अठगुना कंभारी का रस ले इन में जीवनीयगणोक्त प्रत्येक औषध का चूर्ण तोले २ भर मिलावेफिर इस में ६४ तोले घी डालके औटावे जब सिद्ध हो जावे तबउतारके सेवन करे. यह वातपित्त से प्रगट हुए अपस्मार रोग को तत्काल नाश करे॥
कफ अपस्मारपर वचाद्यघृत
वचाशम्याककैडर्यवयस्थाहिंगुचौरकैः।
सिद्धं पलं कषायुक्तं वातश्लेष्मात्मिकं घृतम्॥
अर्थ-बच, अमलतास, कैडर्य ( कंजा का भेद ), आवला, हींग, गटोना और और छोटे गोखरू इन के कल्क के साथ सिद्ध करा हुआ घी अपस्मारनाशक है॥
मधुवचायोग
यः खादेत्क्षीरभक्ताशी माक्षिकेन वचारजः।
अपस्मारं महाघोरं सुचिरोत्थं जयेध्रुवम्॥
अर्थ-दूधभात का भोजन करनेवाला मनुष्य यदि वच के चूर्ण को सहत में मिलायके चाटे तो बहुत दिन का घोर अपस्मार निश्चय दूर हो परंतु वच को देखके ले इधर मथुरा आदि देश में नहीं मिलती. इस में सुगंध आती है और रंग में कुछ २ काली होती है ॥
मुस्तकमूलयोग
उत्तरदिग्गतमुस्तकमूलं बुद्ध्यासमुद्धृतं पेष्य ।
पीतं पयसा हन्यादपस्मृति गोः सवर्णवत्सायाः॥
अर्थ-नागरमोथे के उत्तर के तरफ की जडको बछरेवाली और एकरंग की गौ के दूध में पीसके पीवे तो अपस्मार ( मृगी ) का नाश करे॥
कूष्मांडकादियोग
कूष्मांडकगिरोत्थेन रसेन परिपेषितम् ।
अपस्मारविनाशाय यष्ट्याह्वंस पिबेत्त्र्यहम्॥
अर्थ-कुह्मडे के गीर के रस में जेठीमध घिसके पीवे तो तीन दिन में अपस्मरा का नाश होता है॥
भैरवरसायन
वचामृताव्योषमधूकसाररुद्राक्षसिंधूद्भवबार्हतानि।फलं समुद्रस्य रसोनकल्कं ध्मातं हि नासापुटमध्यदेशे॥ अपस्मृतिः श्लेष्ममरुच्छिरोरुक्प्रलापतंद्राभ्रमजाड्यमोहान्। ससंनिपातश्रुतिकाक्षिभंगान् सपीनसं हंति हलीमकं च। रसायनं भैरवनामधेयं। ज्ञातं विचारात्कविविठ्ठलेन॥
अर्थ-वच, गिलोय, सोंठ, मिरच, पीपल, महुए का गोद, रुद्राक्ष, सैंधानिमक, कटेरी के फल, समुद्रफल और लहसन इन सब को पीसके कल्क कर लेवे. इसको नाक में टपकावे तो अपस्मार रोग नष्ट होय तथा वादी, कफ, मस्तकपीडा, प्रलाप, तंद्रा, भ्रम, जडता, मोह, सन्निपात, कर्णरोग, नेत्रभंग, पीनस और हलीमक इन सब को नाश करे इस को भैरवरसायन ऐसे कहते हैं इस को विठ्ठलवैद्य ने विचार करके जाना है॥
स्मृतिसागररस
रसगंधकतालानां सशिलाताम्रभस्मनाम् । शुद्धानां मूर्छिरतानां च चूर्णं भाव्यं वचामृतैः॥ एकविंशतिधा पश्चाद्ब्राह्मी
वारा तथैव च। कटभीबीजतैलेन भावयेदेकवारकम्॥ स्मृतिसागरनामायं रसोपस्मारनाशनः। सर्पिषा माषमात्रोयं भुक्तो हन्यादपस्मृतिम्॥
अर्थ-पारा, गंधक, हरताल, मनसिल और तामे की भस्म ये शुद्ध मूच्छिंत कर इन के चूर्ण में वच और ब्राह्मी इन प्रत्येक की इक्कीस २ भावना देवे. फिर मालकांगनी के तेल की एक भावना देय तो यह स्मृतिसागर नामक रस अपस्मार नाशक बने इस को १ मासे के अनुमान घीके साथ नित्य भक्षण करे तो अपस्मार रोग निवारण होवे॥
पानीयकल्याणघृत आपस्मारादिकों पर
त्रिफला द्वेनिशे कौंती सारिवेद्वे प्रियंगुका । शालपर्णी पृष्ठपर्णी देवदार्व्येलवालुकम्॥ न तं विशाला दंती च दाडिमं नागकेशरम् । नीलोत्पलैलामंजिष्ठा विडंगं कुष्ठपद्मकम्॥ जातीपुष्पं चंदनं च तालीसं बृहती तथा। एतैः कर्षसमैः कल्कैर्जलं दत्त्वा चतुर्गुणम्॥ घृतप्रस्थं प्रचेद्धीमानपस्मारे ज्वरे क्षये॥ उन्मादे वातरक्ते च कासे मंदानले तथा। प्रतिश्यायकटीशूले तृतीयकचतुर्थके॥ मूत्रकृछ्रेविसर्पे च कंडूपांड्वामये तथा॥ विषद्वये प्रमेहेषु सर्वथैवोपयुज्यते॥ वंध्यानां पुत्रदं भूतयक्षरक्षोहरं स्मृतम्॥
अर्थ-हरड, बहेडा, आवला, हलदी, दारुहलदी, रेणुकबीज, सारिवा, कालीसर फूल प्रियंगु, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, देवदारु, एलवालुक, तगर, इन्द्रायन की जड, अनार, की छाल, दंती की जड, नागकेशर, नीला कमल, इलायची, मजीठ, वायविडंग, कूठ, पद्माख, चमेली के फूल, चंदन, तालीसपत्र और कटेरी ये प्रत्येक एक २ तोले लेकर कल्क करे और कल्क से चौगुना जल ले तथा घी ६४ तोले डाले सब को एकत्र कर मंदाग्निसे पचावे. जब जल जर जावे केवल घृत रहे तब उतार ले. वह मृगी, ज्वर, क्षई, उन्माद, वातरक्त, खांसी, मंदाग्नि, पीनस, कमर का शूल, तृतीय और चातुर्थिक ज्वर, मूत्रकृच्छ्र, विसर्प, खुजली, पांडुरोग, सर्पादिक जंगम विषऔर बच्छनागादिक स्थावर विष और प्रमेह ये सब रोग दूर हों. वंध्यास्त्रियो को संतान देवे. तथा भूत, यक्ष, राक्षस के दोष को हरण करे है॥
शंखपुष्पीघृत
शंखपुष्पीवचाकुष्ठैःसिद्धं ब्राह्मीरसे घृतम्।
पुराणं हत्यपस्मार मेध्यमुन्मादनाशनम् ॥
अर्थ-संखाहूली, वच, कूठ और ब्राह्मी का रस इन के कल्क में घृत मिलायके बनावे. यह पुराने अपरमार को नष्ट करे बुद्धि बढावे और उन्माद रोग को दूर करे॥
सैंधवादि घृत
घृतसैंधवहिंगुभ्यो कर्षैर्वातैश्चतुर्गुणैः।
मूत्रैः सिद्धमपस्मार हृद्ग्राहग्रामनाशनम्॥
अर्थ-घृत, सैधा निमक और हींग ये एक एक तोले और गोमूत्र बारह तोले ले सब को एकत्र कर सिद्ध करे जबमूत्र जल जावेतबउतार ले. यह घी अपस्मार रोग और हृदय रोग इन का नाश करे॥
ब्राह्मीघृत
ब्राह्मीरसे वचाकुष्ठशंखपुष्पीभिरेव च॥
पक्वंपुरातनं सर्पिरपस्मारहरं घृतम्॥
अर्थ-ब्राह्मी के रस में वच, कूठ, संखाहूली, पुराना घी मिलायके सिद्ध करे. यह घी अपस्माररोग को हरण करता है॥
कूष्मांडघृत
कुष्मांडकरसे सर्पिरष्टादशगुणे पचेत् ।
यष्ट्याव्हकल्कैस्तत्पानादपस्मारविनाशनम्॥
अर्थ-एक भाग घी और अठारह भाग पेठे का रस इस प्रकार लेकर अग्निपर पक्वकरे जब सिद्ध हो जावे तबउतारके मुलहटी के चूर्ण से भक्षण करे तो अपस्मार को नाश करे॥
पंचगव्यघृत
गोशकृद्रसध्यम्लक्षीरमूत्रैः समं घृतम्।
सिद्धं चातुर्थिकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम्॥
अर्थ-गौ के गोबर का पानी, दही खट्टा, दूध और गौ का मूत्र तथा इन सब की बराबर गौ का घी लेवे सब को मिलायके अग्निपर घीसिद्ध करे तो यह चातुर्थिक ज्वर, उन्माद, ग्रह और अपस्मार रोग इन को दूर करे॥
अपस्मारनस्य
अरण्यत्रपुसीचूर्णं नस्येनापस्मृतिं जयेत्॥
अर्थ-वन के खीरे के चूर्ण की नस्य लेने से मृगीरोग दूर होवे॥
निर्गुंडीभवमकूरं नावनांजनयोगतः।
उपैति सहसा नाशमपस्मारो न संशयः॥
अर्थ-निर्गुडी के रस में अखरोट को पीस नस्य अथवा अंजन करने से तत्काल अपस्माररोग को नाश करे इस में संशय नहीं है ॥
श्वशृगालबिडालानां कपिलानां गवामपि ।
पित्तातिनस्यतो हन्युरपस्मार पृथक् पृथक्॥
अर्थ-कुत्ता, स्यार, बिलाव, कपिला गौ इन प्रत्येक के पित्त को पीसके नस्य देवे तो अपस्मार नाश होयपरंतु इन सब को एक न करे॥
अंजन
पुष्योद्धृतं शुनः पित्तमपस्मारनमंजनम्।
तदेव सर्पिषा युक्तं धूपनं परमं हितम्॥
अर्थ-पुष्यनक्षत्र में कुत्ते का पित्त निकालके अंजन करे अथवा घी मिलायके धनी देवे तो अपस्मार को नाश करे॥
मनोव्हा तार्क्ष्यकं चैव शकृत्पारावतस्य च।
अंजनं हंत्यपस्मारमुन्मादं च विशेषतः॥
अर्थ-मनसिल, रसोत और कबूतर की वीट इन का अंजन अपस्मार और उन्मादरोग इन को नाश करे ॥
यष्टिहिंगुवचावज्रीशिरीषलशुनामयैः।
साजमूत्रैरपस्मारे सोन्मादे नावनांजने॥
अर्थ-मुलहटी, हींग, वच, थूहर का दूध, सिरस के बीज, लहसन और कूठ इन को बकरे के मूत्र में पीस अंजन और नस्य देवे तो अपस्मार और उन्मादरोग दूर हो॥
करंजदारूसिद्धार्थकठभी रामठं वचा । समंगा त्रिफला व्योषप्रियंगुश्चसमांशकः॥ बस्तमूत्रेण संपिष्ट्वा नस्यपानांजनादिषु। योज्यो योगोयमुन्मादेपस्मारे भूतरोगिषु॥
अर्थ-कंजा, देवदारु, सपेद सरसों, मालकांगनी, हींग, पच, मजीठ, हरड, बहेडा, आवला, सोंठ, मिरच, पीपल, फूलप्रियंगु ये सबसमान भाग लेवे. सब को बकरे के मूत्र में पीसके पीवे तो वा नस्य करे अथवा अंजन करे तो ग्रहयोग, अपस्मार, उन्माद तथा भूतोन्माद इन पर देवे॥
नकुलोलूकमार्जारगृध्रकीटाहिकाकजैः।
तुंडैः पक्षैःपुरीषैश्च धूपनं कारयेद्भिषक्॥
अर्थ-नोला, घूघू, बिलाव, गीध, कीडा, सांप और कौआ इन के मुख, पाखऔर विष्टा की धूनी अपस्माररोगनाशक है॥
दुश्चिकित्स्यो ह्यपस्मारश्चिरकारी महागदः । तस्मादसायनैरेतैः प्रायशः समुपाचरेत्॥ हृत्कंपोक्षिरुजा यस्य स्वेदो हस्तादिशीतता। दशमूलीजलं तस्य कल्याणाज्यं च योजयेत्॥
अर्थ-अपस्माररोग कष्टसाध्य, बहुत दिन रहनेवाला है. इसी वास्ते अपस्मार रोग प्रकरण पर जो जो रसायन कही है उन को बहुधा उपचार करे तथा हृदय का कंप, नेत्रों की पीडा, देह में पसीने, हाथ पैरों का ठंडा होना ऐसे लक्षण होवें उस को दशमूल का काढा और कल्याणघृत पीने को देवे॥
त्रिकत्रयलेह
त्रिकत्रयसमायुक्तं जीवनीययुतं तथा।
हंत्यपस्मारमुन्मादं वातव्याधिं सुदुस्तराम्॥
अर्थ-हरड, बहेडा, आवला, सोंठ, मिरच, पीपल, दालचीनी, इलायची, पत्रजऔर जीवनीयगण की सब औषध इन का अवलेह करे तो अपस्मार, उन्माद औरदुस्तर वातरोग इन का नाश करे॥अ
कल्याणचूर्ण
पंचकोलं समरिचं त्रिफलाबिडसैंधवम् । कृष्णा विडंगपूतीकयवानीधान्यजीरकम् ॥ पीतमुष्णांबुना चूर्णं वातश्लेष्मामयापहम्। अपस्मारे तथोन्मादे दुर्नामग्रहणीगदे॥ एतत्कल्याणकं चूर्णं नष्टस्याग्नेश्चदीपनम्॥
अर्थ-सोंठ, मिरच, पीपलामूल, चव्य, चित्रक की छाल, त्रिफला, बिड निमक सैंधा निमक, पीपल, वायविडंग, कंजा, अजमायन, धनिया और जीरा इन सबका चूर्ण गरम जल के साथ पीवे तो वातकफ का रोग, अपस्मार, उन्माद, बवासीर संग्रहणी इन को नाश करे और अग्निदीपक है इस को कल्याणचूर्ण कहते हैं॥
लेप व दाग
गोमूत्रयुक्तैः सिद्धार्थैःप्रलेपोद्वर्तनं हितम्।
धूमस्तीक्ष्णानि नस्यानि दाहः सूच्या कपोलयोः॥
अर्थ-अपस्माररोगवाले के गोमूत्र में सपेद सरसों पीसके देह में लेप करे अथवा मालिस करे अथवा धूप, तीक्ष्णनस्य अथवा कपोल ( गालो ) के उपर सूई का दाग देना ये उपचार करने चाहिये॥
द्वौ कीटमेषौविधिवदानीय रविवासरे।
कंठे भुजे वा संधार्य जयेदुग्रामपस्मृतिम्॥
अर्थ-मेढा के चाल में से दो कीडों को रविवार के दिन ले उन को कंठ में अथवा भुजा में यंत्र में रखके बांधे तो वे अपस्मार रोग को जीतते है॥
चंदनादि अवलेह
चंदनं तगरं कुष्ठंत्रिसुगंधी च वास्तुकम्। मंजिष्ठाभीरुमृद्वीकापाठाश्यामाप्रियंगुभिः॥ स्वयंगुप्ता पीलुपर्णीविषरास्नागवादनी। कंकोली जीवकोमेदपुष्करं धनवालकम्॥ शाल्मली तस्य निर्यासस्तुगा कालीयकं तथा। तित्तिडीकं च वृक्षाम्लं त्रिफला काश्मरीफलम्॥ जातीफलं तु गोक्षीरी कृष्णागरु च नागरम्। खर्जूरं च समांशानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥ भावितं बीजपूरस्य स्वरसेन च सप्तधा। समशर्करया युक्तमाटरूपरसेन तु॥ भावितं सप्तधा तत्तु नात्र कार्या विचारणा। एषलेहः सदा शस्तोह्यपस्मारे सुदारुणे॥ उन्मादे कामलारोगे पांडुरोगे हलीमके। रक्तपित्ते राजरोगे पित्तातीसारपीडिते॥ रक्तातिसारशोथे च शिरोरोगे सदाज्वरे। तमके स्तन्यरोगे च च्छर्दौदाहे मदात्यये॥ अष्टादशसु मेहेषु कासे श्वासे सपीनसे। बालानां च हितं तच्च शृणु मात्रामतःपरम्॥ उत्तमा कर्षमात्रा तु पादहीना तु मध्यम। बलवीर्यकरी प्रोक्ता सद्यः सर्वगुणा भवेत्॥ नरकुंजरवाहानां चोपयुक्तो हितो मतः। चंदनायो महायोगः कृष्णात्रेयेण पूजितः॥
अर्थ-चंदन, तगर, कूठ, दालचीनी, इलायची, पत्रज, बथुआ, मजीठ, सतावर, दाख,पाढ, हरड, फूलप्रियंगु, कौच के बीज, मूर्वा, अतीस, रास्ना, इन्द्रायन, कंकोल, जीवक, मेदा, पुहकरमूल, नागरमोथा, नेत्रवाला, सेमर का गोंद, मोचरस, वंशलो-
चन, दारुहलदी, तंतडीक, अमलवेत, त्रिफला, कंभारी काफल, जायफल, तवाखीर, काली अगर, सोंठ और खजूर ये समान भाग लेवे सब का बारीक चूर्ण कर बिजोरे के रस की सात भावना देवे और अडूसे के रस की सात भावना देवे परंतु सब चूर्ण के समान मिश्री मिलायके भावना देवे. यह अवलेह दारुण अपस्मार रोग, उन्माद, कामला, हलीमक, रक्तपित्त, राजरोग, पित्तातिसार, रक्तातिसार, शोथ, मस्तकरोग, सदैव रहनेवाला ज्वर, तमक श्वास, स्त्री के दूध का विकार, छर्दि, दाह, मदात्यय, अठारह प्रकार का कुष्ठरोग, प्रमेह, खांसी, श्वास, पीनस इन को दूर करे है. यह बालकों को हितकारी है. इस की उत्तम मात्रा १० मासे की है ७॥ मासे की मध्यम है यह मात्रा बल वीर्य करे तत्काल सर्वगुणदायक है. यह मनुष्य, हाथी, घोडे इन सब को परमोपयोगी है. यह चंदनादि अवलेह कृष्णात्रेय महर्षि करके पूजित है॥
द्राक्षाद्यवलेह
द्राक्षादारुनिशायुतं समधुकं कृष्णा विशाला त्रिवृत्पृथ्वीका त्रिफला विडंगकटुकं श्रीचंदनं बालकम्। चातुर्जातकनिंबकांचनतुगातालीसपत्रं धनं मेदौद्वौसुरदारुकुष्ठकमलं धात्री समंगा बला॥ भार्ङ्गीकोलकदाडिमाम्लसहितं काश्मर्यशृंगाटकं काचाह्वामलघंटिकालघुतरा क्षुद्रा च रास्ना युतम्। चूर्णं शर्करया समं मधु घृतं खर्जूरकैः संयुतं लियात्कर्षमिदं समस्तबलवान् हन्यादपस्मारकम्॥उन्मादं च सुदारुणं क्षयमथो गुल्मं सपांडुंतथा कासश्वासमसूक्प्रवाहमुदरं स्त्रीणां हितं शस्यते॥
अर्थ-दाख, दारुहलदी, मुलहटी, पीपल, इन्द्रायन, निसोथ, इलायची, हरड, बहेडा, आवला, वायविडंग, कुटकी, चंदन, नेत्रवाला, दालचीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर, नीम की छाल, कचनार की छाल, वंशलोचन, तालीसपत्र, नागरमोथा, मेदा, महामेदा, देवदारु, कूठ, कमल, आवले, मजीठ, खिरेटी, भारंगी, बेर, अनार, कंभारी, सिंघाडे, हलदी, कपूर, सन, बडा सन, कटेरी और रास्ना ये सब पदार्थ समान भाग लेके चूर्ण करे और चूर्ण के समान मिश्री मिलावे तथासहत, घी और खजूर मिलायके अवलेह के समान करके धर रखे. इस में से १० मासे खाने को देवे. तो बलवान्अपस्मार, उन्माद, क्षय, गोला, पांडुरोग, खांसी, श्वास, प्रदर, उदर, और प्रदररोग इन को दूर करे॥
शास्त्रार्थ
पूर्वं युंज्यादपस्मारे बुद्धिमान् छर्दनादिकम्। वातिकं बस्तिभिः प्रायः पैत्तिकीयं विरेचनैः॥ कफजं वमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत्॥
अर्थ-अपस्माररोग पर प्रथम बुद्धिमान वैद्य को वमनादिक कर्म कर्तव्य है. वांतिक अपस्मार पर बस्तिकर्म करे. पैत्तिक अपस्मार में विरेचन देवे और कफ के अपस्मार में वमन प्रायः देना चाहिये॥
पलंकपातैल
पलंकपावचापथ्यावृश्चिकाल्यर्कसर्षपैः। जटिला पूतना केशी लांगली हिंगुरोचकैः॥ लशुनातिरसश्चित्रः कुष्ठरेभिश्च पक्षिणाम्। मांसाशिनां यथालाभं बस्तमूत्रे चतुर्गुणे॥ सिद्धमभ्यंजनं तैलमपस्मारविनाशनम्॥
अर्थ-लाख, वच, पथ्या, कौच, आक, सरसों, जटामांसी, सुगंध जटामांसी, कलियारी, हींग, संचरनिमक, लहसन, मूर्वा, चित्रक और कूठ इन का काढा वा कल्क करके तथा मांस खानेवाला पक्षियों का मांसरस और बकरी का मूत्र सब से चौगुना मिलाय उस में तेल डालके सिद्ध करे तो अपस्मार को नाश करे॥
कटभ्यादितैल
कटभीनिंबकट्वंगमधुशिग्रुत्वचारसे।
सिद्धं मूत्रयुतं तैलमभ्यंगार्थं प्रशस्यते॥
अर्थ-मालकांगनी, नीम की छाल, सहजना मीठा और दालचीनी इन के काढेतथा गोमूत्र इन में तेल डालके सिद्ध करे तो यह तेल अपस्मार रोगपर मालिस करने पर उत्तम है॥
शिग्रुतैल
शिग्रुकुष्ठवचाजाजिलशुनव्योषहिंगुभिः।
बस्तमूत्रे शृतं तैलं नावनं स्यादपस्मृतौ॥
अर्थ-सहजना, कोष्ठ, वचा, जीरा, लहसन, त्रिकटु, ( सोंठ, मिरच, पीपल,) हींग ये सब समभाग लेकर मेढेके मूत्र में डालकर उस में तेल औटावे इस तेल का नस्य करने से अपस्मार दूर होता है॥
तैलप्रस्थं घृतपस्थं जीवनीयैः प्रलेपनैः।
क्षीरद्रोणे पचेत्सिद्धमपस्मारविमोक्षणम्॥
अर्थ-तेल अथवा घी ६४ तोले लेकर जीवनीय गणोक्त औषधों के साथ १०२४ तोले दूध में औटायके सिद्ध करे तो यह अपस्मार रोग को दूर करे॥
अभ्यंगे सार्षपं तैलं बस्तमूत्रे चतुर्गुणे।
सिद्धं स्याद्गोशकृन्मूत्रे स्नानाच्छादनमेव च॥
अर्थ-सरसों के तेल को बकरे के मूत्र में अथवा गौ के गोबर में अथवा गौमूत्र के साथ पचायके सिद्ध करे फिर इस की मालिस करे तो अपस्मार को नष्ट करे॥
अपस्मार पथ्य
लोहिताः शालयो मुद्गागोधूमाः प्रतनं हविः। कूर्मामिषंधन्वरसो दुग्धं ब्राह्मीजलं वचा॥ पटोलं वृद्धकूष्मांडं वास्तुकं स्वादु दाडिमम्। सौभांजनं पयःपेटी द्राक्षा धात्री परूषकम् ॥ अपस्मारे गदे नॄणां पथ्यमेतदुदीरितम्॥
अर्थ-लाल चांवल, मूंग, गेहूं, पुराना घी, कछुए का मांस, धमासेका जल, दूध, ब्राह्मी, खस, वेखंड, परवल, पुराना कुम्हडा, चाकवत, अनारदाना, शेवगा, पयःपेटी, दाख, आंवला और फालसा यह अपस्माररोग पर पथ्य कहा है॥
अपस्मार अपथ्य
चिंताशोकभयक्रोधमद्भुतं दर्शनानि च । मद्यमत्स्यविरुद्धान्नं तीक्ष्णोष्णगुरुभोजनम्॥ अतिव्यवायमायासं पूज्यपूजाव्यतिक्रमम् । पत्रशाकानि सर्वाणि बिंबीमाषाढकं फलम्॥ तृषानिद्राक्षुधावेगानपस्मारी नरस्त्यजेत्॥
अर्थ-चिंता, शोक, भय, क्रोध, अद्भुत प्रकार की वस्तु का दर्शन, मद्यपान, मछली, विरुद्ध अन्न, तीखा, गरम, भारी भोजन, अत्यंत मैथुन, परिश्रम करना, गुरु ब्राह्मण माता पिता आदि पूज्यों की पूजा न करना और भूत प्रेतादि दुष्ट देवों का पूजनकरना, सबपत्ते के साग, कंदूरी, आषाढ महिने में होनेवाले फल, सोने और भूंखके वेग को रोकना ये सब अपस्मार ( मृगी ) रोगवाला त्याग देवे॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे अपरस्माररोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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वातव्याधिकर्मविपाकः।
देवानां ब्राह्मणानां वा धनापहरणात्तथा ।
स्वामिद्रोहाद्वातरोगी भवेदस्यापि निष्कृतिः॥
अर्थ-जो प्राणी देवता, ब्राह्मण इन के धन को हरण ( चोरी ) करे अथवा देव, ब्राह्मण और अपने स्वामी से द्रोह ( वैर ) करे उस के इस पाप के प्रभाव से वातरोग होता है उस की भी निष्कृति इस प्रकार करे॥
वातरोगहर
गुरुप्रत्यर्थितां यातो वातरोगी भवेन्नरः।
नाममंत्रेण कुर्वीत जपं होमं च शांतये॥
अर्थ-ग्रंथांतर में लिखा है कि जो अपने गुरु से द्वेष ( वैर ) करता है वह वातरोगी होय उस को उस वात रोग के शमन करने के वास्ते अच्युत, हरि, नारायण इत्यादि नाममंत्र का जप करे अथवा षडक्षरी, अष्टाक्षरी, द्वादशाक्षरी मंत्र से जप करे और होम करे॥
धनुर्वातहर
अनिच्छंत्यक्षतां यस्तु उपभुंक्ते परस्त्रियम्। बलादाक्रम्य स नरः सर्वसंधिषु वेदनाम्॥ तीव्रामाप्नोत्य-रुचिमान्धनुर्वातयुतो भवेत्। ज्वरी तदुपशांत्यर्थंमहिषीदानमाचरेत् ॥ कृछ्रातिकृछ्रौकुर्वीतचांद्रायणमथापरम्। सूर्यनामजपं चैव शक्त्याब्राह्मणतर्पणम् ॥ नामत्रयं जपेन्मर्त्योरोगशांत्यर्थमात्मनः । सहस्रना मकं चापि स्तोत्रं सम्यग्विधानतः॥ अच्युतानंत गोविंदेत्येतन्नामत्रयं द्विजः। अयुतत्रितयावृत्त्या जपेद्रोगस्य शांतये॥
अर्थ-विना इच्छा करनेवाली स्त्री से जो बलात्कार मैथुन करे अक्षतायोनि ( जिस ने किसी से मैथुनन कराया हो ) ऐसी परस्त्री से जो बलात्कार मैथुनकरे उस के सर्व संधियों में घोर पीडा और अरुचि धनुर्वायुतथाज्वरयेरोग होतेहै. उस की शांति के अर्थ-महिषीदान, कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र और चांद्रायण व्रतोंका करना तथा सूर्यनारायण के नाम का जप, गायत्रीजप, ब्राह्मण भोजन कराना,
विष्णुसहस्रनाम का पाठ ये विधिपूर्वक करे तथा अच्युत, अनंत और गोविंद इन नामों को तीस हजार जपे तो यह प्राणी वादी के रोग से मुक्त होय॥
पक्षवातहर
सभायां पक्षपाती च जायते पक्षघातवान्। निष्कत्रयमितं हेम स दद्याच्च द्विजातये॥ श्राद्धं च वैष्णवं कुर्यादात्मनो हितमिच्छता। सप्त धान्यानि दद्याच्च गोदानं तत्रकारयेत्॥
अर्थ-जो प्राणी सभा में बैठकर पक्षपात करे, धर्म को न कहे वह पक्षाघातरोगीहोता है. उस के दूर करने को तीन निष्कसुवर्ण वेदसंपन्न ब्राह्मण को दान करे. तथाविष्णुश्राद्ध तथा सप्त धान्य ( सतनजा ) और गौ दान करे॥
रक्तवातहर
रक्तवस्त्रप्रवालानां हारी स्याद्रक्तवातवान्।
सवस्त्रां महिषींदद्यात्पद्मरागसमन्विताम्॥
अर्थ-जो प्राणी लाल वस्त्र और मूंगा इत्यादिक चुराता है वह वातरक्तरोगी होय वह पद्मराग ( पुखराज ) के साथ वस्त्रसहित भैस का ज्ञान करे तो वातरक्तरोग दूर हो॥
रक्तवातपित्तहर
सवर्णागमने वातरक्तवान् जायते नरः। सवर्णागमने वातपित्तवानपि जायते॥ लक्ष्मीनारायणं रूपं सुवर्णेन प्रकल्पयेत्। पलेन वा तदर्धेन तदर्धेनाथ वा पुनः॥ लक्ष्मीनारायणं रूपं सर्वदा सर्वकामिकम्॥
अर्थ-अपने जाति की परस्त्री से जो गमन करता है वहवातरक्त अथवावातपित्तरोगी होता है उस को चार तोले वा दो तोले अथवा एक तोले सुवर्ण की लक्ष्मीनारायण की मूर्ति बनायके दान करे. तया यह लक्ष्मीनारायण की मति सदैव और सर्वकामना के देनेवाली है॥
वातपित्तहर
लशुनं गृंजनं तालफलं वाश्नाति यो द्विजः।
स वातपित्तरोगी च भवेच्चांद्रायणं चरेत्॥
अर्थ-लहसन, गाजर, ताड के फल इन को जो ब्राह्मण खाता है वह वातपित्त, रोगी होता है यह चांद्रायण प्रायश्चित्त करे तो यह रोग दूर होय॥
ज्योतिःशास्त्राभिप्रायेण वातव्याधिनिदान
अतिमारुतरोगार्तः परस्वहारी विलोलमतिचेष्टः।
कर्कटसंस्थे भानौ स्वपुत्रदृष्टे पुमान् पिशुनः॥
अर्थ-जन्मकाल में सूर्य कर्कराशि पर स्थित हो और शनैश्चर देखता होय तो वह प्राणी पिशुन ( चुगल ) अत्यंत वादी से पीडित पराये धन का चुरानेवाला औरचंचल मतिवाला होता है॥
वातपित्तोद्भवा पीडा हीनजैरुग्रविग्रहः।
विदेशगमनं चापि सौरीमध्ये यदा शिखी॥
अर्थ-जन्म के समय शनि की दशा में केतु का अंतर आता है तब इस प्राणी के वातपित्त के रोग, हीनजाति से लडाई, परदेश में डोलना इत्यादि फल होता है॥
वायुरायुर्बलं वायुर्वायुर्धाता शरीरिणाम्। वायुर्विश्वमिदं सर्वं प्रभुर्वायुः प्रकीर्तितः॥अशीतिवातजारोगा जायंते तत्प्रकोपतः। सामान्य भेषजं तेषां स्नेहनं स्वेदनं तथा ॥ विशेषेण तु यद्दृष्टमुच्यतेत्र समासतः॥
अर्थ-प्राणियों की वायु ( पवन ) आयु है वायु बल, आधार, पालन पोषणकर्ता सर्वविश्व का आत्मा तथा प्रभु ( सामर्थ्यवान् ) ऐसा है इसी वायु के कुपित होने से प्राणियों की देह में अस्सी प्रकार के वातरोग होते हैं उन की सामान्यचिकित्सा स्नेहन स्वेदन करना है. परंतु मैं ने जो विशेष देखा है उस को कहता हूं॥
वातव्याधिनिदान
रूक्षशीताल्पलध्वन्नव्यवायातिप्रजागरैः। विषमादपचाराच्च दोषासृक्स्रवणादपि॥ लंघनप्लवनात्यध्वव्याया-मातिविचेष्टनैः। धातूनां संक्षयाच्चिन्ताशोकरोगार्तिकर्षणात्॥ वेगसंधारणादामादभिघातादभोजनात्। मर्मबाधा-द्गजोष्ट्राश्वशीघ्रयानादिसेवनात्॥ देहे स्रोतांसि रिक्तानि पूरयित्वाऽनिलो बली। करोति विविधान्व्याधी-न्सर्वांगकांगसंश्रयान्॥
अर्थ-रूखा, शीतल, थोडा और हलका ऐसे अन्न खाने से, अति मैथुन करने से, बहुत जागने से, विषम उपचार करने से दोष( कफ, पित्त, मल, मूत्र इत्यादि ) और रुधिर इन के निकलने से, अर्थात् वमन विरेचन से. लंघन, अर्थात्
अखाडे आदि में कला खेलने से, नदी आदि में तैरने से, बहुत चलने से, अति दंड, कसरत आदि श्रम के करने से, अत्यंत विरुद्ध चेष्टा करने से, रस रुधिर आदि धातुन के क्षय होने से, चिन्ता, शोक और रोगद्वारा कृश होने से मल मूत्रादिकों के वेग रोकने से, आगे से लकडी आदि की चोट लगने से, उपवास ( व्रत ) के करने से आदि ले सब मर्मस्थानों में के लगने से, हाथी, ऊंट, घोडा इत्यादि जल्दी चलनेवाली सवारीपर बैठने से, कोप को प्राप्त भई जो बलवान् वायु सो देह में खाली जो नस उन में प्राप्त हो सर्वांग अथवा एक अंग में व्याप्त होनेवाली ऐसी अनेक प्रकार की यातव्याधि उत्पन्न करे॥
वायुका पूर्वरूप
अव्यक्तं लक्षणं तेषांपूर्वरूपमिति स्मृतम्॥
अर्थ-उस वक्ष्यमाण वातव्याधि के जो प्रगट लक्षण उस को पूर्वरूप ऐसे कहते हैं ज्वरादिकों के सदृश विशिष्ट नहीं है और जो रूप प्रगट होय अर्थात् दोषादि भेदकरके यथार्थ दीखे उस को उस व्याधि का लक्षण जानना॥
रूपकथन
आत्मरूपं तु तद्व्यक्तमपायो लघुता पुनः। संकोचः पर्वणां स्तंभो भंगोऽस्न्थांपर्वणामपि॥ लोमहर्षःप्रलापश्च पार्श्वपृष्ठशिरोग्रहः। खांज्यपांगुल्यकुब्जत्वं शोथोंगानामनिद्रता॥ गर्भशुक्ररजोनाशः स्यंदनं गात्रसुप्तता। शिरोनासाक्षिजत्रूणां ग्रीवायाश्चापि हुंडनम् ॥ भेदस्तोदार्तिराक्षेपो मोहश्चायास एव च। एवंविधानि रूपाणि करोति कुपितोनिलः॥ हेतुस्थानविशेषाच्चभवेद्रोगविशेषकृत्॥
अर्थ-अपानवायु को चंचल होने से स्तंभ संकोच कंपादिक का कदाचित् अभाव होय है और लघुता ( शरीर की उस वायुकरके धातु शोषण करने से ) अथवा अपायलघुता कहिये सब वातविकारों का अपाय कहिये अभाव होय और वातविकारों की लघुता कहिये अल्पत्वकरके जो स्थिति है सो निःशेष निवृत्ति नहीं होय. अब नानाप्रकार की व्याधि करे है ये जो काहि आये हैं उस को आगे के श्लोक में कहते हैं संधीनकीसंकोच और स्तंभ हड्डीन की और संधीन की फूटने की सी पीडा, रोमांच, बाह्यात् बकना, हाथ पैर और मुख इन का जकड जाना, खंजत्व, पांगुरा होना, कुबडापना, अंगों का सूजना, निद्रा का नाश, गर्भ का न रहना, शुक्र और रज ( स्त्री का आर्त्तव )
इन का नाश, कंप, अंगों में शून्यता, मस्तक, नाक, मुख, जन्नु और नाड इन का भीतर जाना, अथवा टेढे हो जाय, भेदसदृश पीडा, नोचने की सी पीडा, शूल,आक्षेपरोग जो आगे कहेंगे, मोह, श्रम, कुपित भई जो वायु या प्रकार लक्षण करे है, वह वायु हेतु और स्थान इन भेद से विशिष्ट रोग उत्पन्न करनेवाली होती है. जैसे कफावृत होने से मन्यास्तंभ रोग करे यदि पक्वाशय में वात स्थित होय तौआंतों का गूंजना इत्यादि रोग करे है॥
वातचिकित्सोपक्रम
अभ्यंगं स्वेदनं बस्तिर्नस्य लेहो विरेचनम्। स्निग्धाम्ललवणस्वादुवृष्यं वातामयापहम्॥ स्वाद्वम्ललवणैः स्निग्धैराहारैर्वातरोगिणः। अभ्यंगस्नेहबस्त्याद्यैः सर्वानेवोपपादयेत् ॥ पित्ते सावरणे वातरोगे शीतोष्णभेषजम्। कफसावरणे वायौरूक्षोष्णं भक्ष्यभेषजम्॥ केवले पवनव्याधौ स्निग्धोष्णं भक्ष्यभेषजम्। स्निग्धोष्णरूक्षशीता-द्यैर्वातजो यो न शाम्यति॥ विकारास्तत्र विज्ञेयादुष्टशोणितसंभवाः॥
अर्थ-देह मे तैलादिक लगाना, पसीने निकालना, बस्तिकर्म, नस्य, अवलेह, जुलाबकराना, यह तथा चिकने, खट्टे, खारी, और मिष्ट ये रस, वृष्यपदार्थ तथा वातनाशक पदार्थ, मीठे, खट्टे, खारी और स्निग्ध पदार्थों का भोजन तथा देह में तेल की मालिस. स्नेहन तथा बस्ति इत्यादिक उपचार करे और पित्तयुक्त वायु होय तो शीतोष्ण ( मातदिल ) औषध देवे. यदि वह वातकफाधिक होवे तो रूक्ष और गरम ऐसीऔषध और आहार वैद्य देय केवल वातविकारपर स्निग्ध और उष्ण ऐसे अन्न और औषध देवे. जो वातव्याधि स्निग्ध, उष्ण, रूक्ष, शीतल इत्यादि उपचारों से शांति नहीं हो तो उस को वैद्य दुष्टरक्ताश्रित विकार जाने॥
दूसरा प्रकार
मधुरलवणमम्लं स्निग्धमस्योष्णनिद्रागुरुरविकरबस्तिस्वेदसंतर्पणानि। दहनदलविशेषाभ्यंगसंमर्दनानि प्रकुपि-तपवमानं शांतमेतानि कुर्युः॥
अर्थ-मिष्ट, लवण, खट्टे, स्निग्ध , उष्ण, निद्रा, धूप, बस्ति, पसीने, तर्पण, अग्नि, गरम जल, मालिस और अंगमर्दन ये उपचार कुपितवायुके शांत करने को करे॥
तीसरा प्रकार
वातरोगस्त्वसाध्योयं दैवयोगात्सुसिद्ध्यति।
अनुमानेन कुर्वंति वैद्यकं तत्प्रतिज्ञया॥
अर्थ-वादी का रोग असाध्य है यह दैवेच्छासे दूर होता है वैद्य इस का यत्नअनुमान ( अंदाजन ) से करते हैं कोई प्रतिज्ञापूर्वक औषधी नहीं देते॥
कोष्ठगत वातलक्षण
वाते कोष्ठाश्रिते दुष्टे निग्रहो मूत्रवर्चसोः।
वर्ध्महृद्रोगगुल्मार्शःपार्श्वशूलं च मारुते॥
अर्थ-कोठे में स्थित वायु दुष्ट होने से मलमूत्र का अवरोध होय. बदरोग, हृदयरोग, गोला, बवासीर और पसवाडों में पीडा इतने रोग उत्पन्न करे॥
कोष्ठलक्षण
स्थानान्यामाग्निपक्वानां मूत्रस्य रुधिरस्य च।
हृदुंदुकः फुप्फुसश्च कोष्ठ इत्यभिधीयते॥
अर्थ-आमाशय, पक्वाशय, अग्न्याशय, मूत्राशय, रुधिराशय, हृदय, उदुक ( पेट ) और फुप्फुस इन को कोष्ठ ऐसी संज्ञा है॥
आमाशयोक्त
अत्र द्वितीयं दिनमारभ्य षड्दिनपर्यंतमामाशयोक्तषट्चरणयोगो देयः॥
अर्थ-दूसरे दिन से लेकर इस व्याधिपर आमशयोक्तषट्चरणयोग देना चाहिये॥
कोष्ठवातचिकित्साक्रम
विशेषतस्तु कोष्ठस्य वाते क्षीरं पिबेन्नरः। व्योषसौवर्चलाजाजीपथ्यालवणपंचकम् ॥ सारिवा बृहती पाठा कलिंगाग्नियवाग्रजम्। चूर्णीकृतं दधिसुरातन्मंडोष्णांबुकांजिकैः॥ पिबेदग्निविवृद्ध्यर्थंकोष्ठवातहरं परम्॥
अर्थ-कोष्ठगत वातविकार के होने से विशेषता करके दूध पिलावे और सोंठ, मिरच, पीपल, संचरनिमक, जीरा, हरड, निमक, सुहागा, सैधानिमक, बिडनोन, संचरनोन, सारिवा, कटेरी, पाढ, इन्द्रजो, चित्रक और जवाखार इन का चूर्ण दही, मध, दहीका
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षट्चरणयोग
चित्रकेंद्रयवा पाठा कटुकातिविषाभया।
महाव्याधिप्रशमनो योगः षट्चरणः स्मृतः॥
अर्थ-चित्रक की छाल, इन्द्रजो, पाढ, कुटकी, अतीस और हरड यह षट्चरण योग महान् व्याधि को शमन करे है॥
तीन काढे
भूतीकपथ्याशठिपुष्कराणि बिल्लामृतादारुकनागराणि।
उग्रा विषा मागधिका बिडानि काथास्त्रयः सामसमीरणनाः॥
अर्थ-अजमायन, हरड, कचूर और पुहकरमूल इन का अथवा बेलगिरी, गिलोय, देवदारु और सोंठ इन का अथवा वच, अतीस, पीपल और बिडनोन इन का काढा देवे. ये तीन काढे आमवातनाशक हैं॥
प्रातः पिबेदुष्णजलेन यत्नाच्छिन्नामरीचं हृदयानिलनम्।
गुडेन वा नागरदारुचूर्णं हद्वातपीडापरिपीडितस्तु॥
अर्थ-गिलोय और काली मिरच इन के चूर्ण को प्रातःकाल गरम-जल के संग पीवे अथवा सोंठ, देवदारु इन का चूर्ण गुड के साथ खाय तो हृदय वायु की पीडा को नाश करे॥
पक्वाशयवायु
पक्वाशयस्थोंऽत्रकूजं शूलाटोपौ करोति च।
मूत्रकृच्छ्रपुरीषत्वंमानाहं त्रिकवेदनाम्॥
अर्थ-वायु पक्वाशय में होय तो आंतों का गूंजना, शूल, आटोप ( गुडगुडाशब्द ) मलमूत्र कष्ट से निकले, अफरा, त्रिकस्थान में पीडा इन लक्षणों को करे॥
चिकित्सा
वह्नेःसंवर्धनं कार्यं कर्मौदावर्तिकं तथा।
देयः स्नेहविरेकश्च पक्वाशयगतेनिले॥
अर्थ-पक्वाशयगत वायु के कुपित होने से अग्नि को प्रदीप्तकरके उदावर्त्तरोगपर जो उपचार कहे हैं वे करने चाहिये तथा स्निग्ध विरेचन देवे॥
वाते जठरगे दद्यात्क्षारचूर्णादिदीपनम्।
शुंठीकुटजबीजाग्निचूर्णं कोष्णांबु कुक्षिगे॥
अर्थ-उदर का वायु कुपित होने से क्षार चूर्णादिक दीपन औषध देवेतथा कुक्षिगत वादी के कुपित होने से सोंठ, इन्द्रजो और चित्रक इन के चूर्ण को गरम जल के साथ पीवे ॥
पक्वाशयगते वाते हितं स्नेहैर्विरेचनम्।
बस्तयः शोधनीयाश्च प्राश्याश्च लवणोत्तराः॥
अर्थ-पक्वाशयगत वादी के कुपित होने से स्निग्ध, विरेचन, शोधन करनेवाले, बस्ती और लवणयुक्त प्राश्यसंज्ञक औषध देवे॥
हृदयवात
हृदयानिलनाशाय गुडूचीं मरिचान्विताम् ।
पिबेत्प्रातः प्रयत्नेन सुखतप्तांभसा सह॥
अर्थ-हृदय की वादी दूर करने को गिलोय, काली मिरच इन के चूर्ण को गरम जल के साथ प्रातःकाल पीवे तो पीडा दूर हो॥
पिबेदुष्णांभसा पिष्टं साश्वगंधं बिभीतकम्।
गुडयुक्तं प्रयत्नेन हृदयानिलनाशनम्॥
अर्थ-असगंध, बहेडा और गुड इन को गरम जल में पीसके पीवे तो हृदय में रहनेवाले दुष्ट वायु नष्ट होवे॥
देवदारुसमायुक्तं नागरं परिपेषितम् ।
हृद्वातवेदनायुक्तः पीत्वा सुखमवाप्नुयात्॥
अर्थ-देवदारु और सोंठ इन के चूर्ण को गरम जल के साथपीवे तो हृदय में रहनेवाले दुष्ट वायु की पीडा दूर होकर सुखपावे॥
सर्वांगवातलक्षण
सर्वांगपवने कुद्धेगात्रस्फुरणभंजनम्।
वेदनाभिः परीतस्य स्फुटंतीवास्य संधयः॥
अर्थ-सब अंग की वायु कुपित होने से अंगों का फरकना, जंभाई और संधि वेदनायुक्त हो, फूटने की सी पीडा होय॥
चिकित्सा
सर्वांगगतमेकांगगतं वास्य समीरणम्।
तैलावगाहनं हंति तोयवेगमिवाचलः॥
अर्थ-दुष्ट वात सर्वांग में होयअथवा एकांग में होय उसपर देह में तेल की मालिस करायके गरम जल से स्नान करे तो सर्वांगतथा एकांगवादी दूर हो. जैसे पर्वत जल के वेग को रोक देता है॥
अवशिष्टवात
प्रलापे भीरुतापे च प्रसुप्तौ चित्तवैकृते।
स्वेदनाशे बलक्षैण्ये कौशिकः सघृतो हितः॥
अर्थ-प्रलाप ( बकवाद ), भीरु ( डरना ), ताप ( ज्वर ), प्रसुप्ति ( सो जाना ), चित्त की विकृति, स्वेदनाश तथा बलक्षीणता इन रोगोंपर घृतयुक्त शुद्ध गूगल का सेवन करना हितकारी है॥
शब्दाज्ञतामये चापि लेहः कल्याणको हितः। शीततां रोमहर्षंच शिरापूरणमेव च॥ कटुतिक्तैर्जयेद्वैद्यः स्नेहस्वेदनमर्दनैः॥
अर्थ-शब्द को न जानना इस रोगपर पूर्वोक्त कल्याणावलेह हितकारी है और शीत का लगना, रोमहर्ष, शिरापूरण इनपर कटु( चरपरा ), तिक्त, ( कडुआ ) ऐसे स्नेह और स्वेदन इत्यादि औषधी तथा मर्दन ये उपचार करे॥
वाताप्रवृतिरुद्गारमंत्रकूजनमेव च।
निरूहबस्तिनाथांगकाठिन्यं स्नेहगाहनात्॥
अर्थ-अघोवायु का न निकालना, डकारों का आना और आंतों का बोलना इनपर निरूहबस्ति देवे. तथा शरीर की कठिनता स्निग्धपदार्थों से स्नान करके दूर करे॥
कुरंटकादिकाढा
सहचरामरदारुसनागरं क्वथितमंभसि तैलविमिश्रितम्।
पवनपीडितदेहगतिः पिबन्द्रुतविलंबितगो भवतीच्छया॥
अर्थ-पियावांसा, देवदारु और सोंठ इन के काढेमें अंडी का तेल मिलायके पीवे तो जिस का देह वादी से जकडगया हो वह तत्काल खुल जावे और शीघ्र अथवा मंद जैसी इच्छा हो ऐसा चलने लगे॥
महारास्रादिकाढा
रास्रैरंडामृतोग्रासहचरचविकारामसेनाब्दभार्ङ्गीदीप्यानंतायवानीवृकिसुरकृमिजिच्छृंगिशुंठीबलाभिः। मूर्वाति-क्तासमंगाद्विविपशठिवरापिप्पलीयावंशुकै रक्तश्रीखंडकारग्वधकटुकफलैर्वत्स-
वृश्चीकयुक्तैः॥ सर्वैरेतैर्दशांघ्रिप्रयुतसमलवैः साधितोष्टावशेषः क्वाथो रास्नादिरादौ महदुपपदवान्कौशिकोक्तो निहंति। सर्वांगैकांगवातान् श्वसनकसनहृत्स्वेदशैत्यातितंद्राशूलं तूनीं प्रतूनीं गलगदनिखिलांगव्यथाकंप-खल्लीः॥ विश्वाचीश्लीपदामानिलनिखिलमहासूतिकारोहसुप्तिर्जिह्वास्तंभापतानं स्फुटनविमथनः क्लीबताक्षेप-कौब्जम्। शोभाटोपापतंत्रार्दितखुडनहनुगृध्रसीपाद शूलं वायुं श्लेष्मोत्थरोगानपि गिरितनयावल्लभेनोपदिष्टः॥
अर्थ-रास्ना, अंड की जड, गिलोय, वच, पीयावांसा, चव्य, कौच के बीज, नागरमोथा, भारंगी, किरमानी अजमायन, धमासा, अजमायन, पाढ, देवदारु, वायविडंग, काकडासिंगी, सोंठ, खिरेटी, मूर्वा, कुटकी, मजीठ, काली और सपेद अतीस, कचूर, हरड, बहेडा, आवला, पीपल, जवाखार, लाल चंदन, अमलतास का गूदा, कायफल, इन्द्रजो, लालघंटाली और दशमूल ये सब समान भाग ले जल में डालके अष्टमांश काढा करे यह महारास्नादि क्वाथ कौशिकऋषि ने कहा है यह सर्वांगवात, एकांगवात, श्वास, खांसी, पसीना, शीत का लगना, अतितंद्रा, शूल, तूनी, प्रतूनी, गले का रोग, सर्वांग की पीडा, कंपवात, खल्लीवात, विश्वाची, श्लीपद, आमवात संपूर्ण प्रसूत के रोग, सुप्तिवात, जिव्हास्तंभ, अपतान वायु, हडफूटन, मयने की सी पीडा, क्लीबवात, आक्षेपक, कुब्जवात, सूजन, आटोप, अपतंत्र, अर्दित, खुडवात, हनुग्रह, गृध्रसी, पादशूल भोर वातश्लेष्मव्याधि इन को नाश करे इस प्रकार श्रीशिव ने कहा है॥
दूसरा प्रकार
रास्ना द्विगुणभागा स्यादेकभागास्तथापरे। धन्वयासबलैरंडदेवदारुशठी वचा॥ वालको नागरं पथ्या चव्यमुस्ता पुनर्नवा। गुडूची वृद्धदारुश्च शतपुष्पा च गोक्षुरः॥ अश्वगंधा प्रतिविषाकृतमालः शतावरी। कृष्णा सहचरश्चैव धान्याकं बृहतीद्वयम् ॥ एभिः कृतं पिवेत्क्वाथं शुंठीचूर्णेन संयुतम्। कृष्णाचूर्णन वा योगराजगुग्गुलुनाथवा॥ अजमोदादिना वापि तेलेनैरंडजेन वा। सर्वांगकंपे कुब्जत्वे पक्षाघातेवबाहुके॥ गृध्रस्यामामवाते च श्लीपदे चापतानके। अंत्रवृद्धौ तथाध्माने जंघाजानुगदे-
र्दिते। शुक्रामये मेढ्रवाते वंध्यायोन्यामयेषु च। महारास्नादिराख्यातो ब्रह्मणा गर्भधारणे॥
अर्थ-रास्ना २ भाग, धमासा १ भाग, खिरेटी, अंड की जड, देवदारु, कचूर, वच, अडूसा, सोंठ, हरड, चव्य, नागरमोथा, पुनर्नवा, गिलोय, विधायरा, सोंफ, गोखरू, असगंध, अतीस, अमलतास, सतावर, पीपल, पियावासा, धनिया, कटेरी और बडी कटेरी ये सब समानभाग लेवे अर्थात् एक २ भाग लेवे. सबकूटकरके काढा करे जब अष्टमांश रहे तब उतारके छान ले फिर इस में सोंठ का अथवा पीपल का चूर्ण अथवा योगराज गूगल, अजमोदादि चूर्ण, किंवा अंड का तेल डालके पीवे तो सर्वांगकंप, कुब्जवात, पक्षाघात. अवबाहुक, गृध्रसी, आमवात, श्लीपद, अपतानवायु, अंत्रवृद्धि, अफरा, जंघा की वादी, जानु की वादी, अर्दित ( लकवा ), शुक्रदोष, मेढ्रवात, वंध्या के योनिरोग इनपर यह महारास्नादि काढा कहा है, यह गर्भधारक है इस प्रकार ब्रह्मदेव ने कहा है॥
महाबलादिकाढा
महाबलामूलमहौषधाभ्यां क्वाथं पिबेन्मिश्रितपिप्पलीकम् ।
शीतं सकंपं परिदाहयुक्तं विनाशयेत् द्वित्रिदिनप्रयुक्तः॥
अर्थ-कगही की जड और सोंठ इनके काढे में पीपलका चूर्ण डालके पीवे तो शीतवात, कंपवात और दाह ये दो तीन दिनमें नष्ट हो जावें॥
पंचमूलादियोग
पंचमूलीकृतः क्वाथो दशमूलीकृतोथ वा ।
रूक्षस्वेदस्तथा नस्यं मन्यास्तंभे प्रशस्यते॥
अर्थ- पंचमूल का काढा अथवा दशमूल का काढा, रूक्ष, स्वेद तथा नस्य ये मान ( गरदन ) के जकड जानेपर यत्न करे॥
वाजिगंधादि काढा
वाजिगंधाबलास्तिस्रो दशमूली महौषधम्।
गृध्रनख्यौ च रास्नाच गणो मारुतनाशनः॥
अर्थ - असगंध, खिरेटी, कंगही, गंगेरन, दशमूल, सोंठ गृध्रनखी, छोटा बेर, रास्नाइनका काढा वादी का नाश करनेवाला है ॥
समीरदावानल
भल्लातकानां शकलानि कृत्वा त्रिकोलमानं परिगृह्य वैद्यः। चतुःपलं तोयसमन्वितोयं क्वाथो चतुर्थांशमितं प्रगृह्य॥ सिता हविर्गोपयमिश्रितं च कोलं पलार्धं पलमेकयुक्तम्। क्रमेण पीतो खलु हंति वातान् समीरदावानलनामधेयः॥
अर्थ- भिलाए के टुकडे १॥ तोला और जल ४ तोले इनका काढा चतुर्थांश रहनेपर उतार ले. इस काढेमें मिश्री छः मासे, घी २ तोले, गौ का दूध ४ तोले डालके फिर औटावे फिर इस में पंचकोल का चूर्ण डालके पीवे तो सर्ववात नाश करे. इसको समीरदावानल अवलेह कहते हैं॥
गुदास्थितवायुकार्य
ग्रहो विण्मूत्रवातानां शूलामानाश्मशर्कराः।
जंघोरुत्रिकहृत्पृष्ठरोगशोफो गुदे स्थिते॥
अर्थ - वायु गुदा में स्थित होनेसे मल मूत्र और वायु का रुकना, शूल, अफरा, पथरी, जंघा ऊरू त्रिकस्थान हृदय पीठ इनमें पीडा और सूजन ये रोग होते हैं॥
चिकित्सा
वाते गुदाश्रिते दुष्टे कर्मौदावर्तिकं हितम्॥
अर्थ-गुदाश्रित वादीके दुष्ट होनेपर जो उदावर्तरोग में चिकित्सा कही है वह चिकित्सा करे॥
चिकित्सा
दशमूलीकषायेण मातुलुंगरसेन वा।
पिबेदेरंडतैलं वा बस्तिकुक्षिगुदे श्रिते॥
अर्थ- दशमूल के काढेसे अथवा विजोरेके रसके साथ अंडी का तेल पीवे तो बस्ति, कांख और गुदा की दूषित पवनको नष्ट करे॥
श्रोत्रादिगत लक्षण
श्रोत्रादिष्विंद्रियवधं कुर्यात्कुद्धः समीरणः॥
अर्थ- कर्णादिक इन्द्रियों में क्रुद्ध हुई वायु इन्द्रियों का नाश करे॥
चिकित्सा
श्रोत्रादिष्वनिले दुष्टे कार्योवातहरः क्रमः।
स्नेहाभ्यंगोपनाहश्चमर्दनालेपनानि च॥
अर्थ-कर्णादिक इन्द्रियों में दुष्ट हुई वायुपर वातनाशक उपचार करे जैसे, स्नेहपान, अभ्यंग, उपनाह, मर्दन और लेप इत्यादिक जानो॥
जृंभा ( जंभाई )
पीत्वैकं श्वासमलिनः पुनस्त्यजति वेगवान् ।
आलस्यनिद्रायुक्तश्च स जृंभ इति कथ्यते॥
अर्थ-एकदफे श्वास लेके वह शांत हुआ न हुआ इतने में दूसरा श्वास आ जावे तिस से रोका हुआसा छोड देवे और आलस्य, निद्रा इन से युक्त हो उस को जृंभा कहते हैं ॥
चिकित्सा
शुंठी पिप्पल्यूषणं दीप्यकश्च सिंधूद्भूतं चेति सर्वंपृथग्वा।
तद्रूपं वा सूक्ष्मचूर्णीकृतं वा जृंभाभंगस्तत्कृतस्यात्तदेव॥
अर्थ-सोंठ, पीपल, मिरच, अजमायन, सैंधानिमक ये सब अथवा एक २ का चूर्ण कर सब का सेवन करे तो तत्काल जंभा ( जंभाई ) के वेग को नाश करे॥
जृंभावेगे समुत्पन्ने शोभने शयने नरम्।
स्वापयेत्तेन नियमाज्जृंभावेगः प्रशाम्यति॥
अर्थ-जंभा वेग के उत्पन्न होनेपर उस प्राणी को उत्तम शय्यापर सुलावे तो निश्चय करके जंभाई का वेग शांत होवे॥
जृंभाचिकित्सा
जृंभावेगः क्षयं याति कटुतैलेन मर्दनात्।
भोजनात्स्वादुभोज्यानां तथा तांबूलभक्षणात्॥
अर्थ-सरसों के तेल की देह में मालिस करने से जंभाइयों का आना दूर होवे. अथवा खादु पदार्थों के भोजन से अथवा तांबूल ( पान की वीडी ) खाने से जंभाई दूर हो॥
प्रलापक
स्वहेतुकुपिताद्वातादसंबद्धं निरर्थकम्।
वचनं यन्नरो ब्रूते स प्रलापः प्रकीर्तितः॥
अर्थ-अपने हेतुन से कुपित भई जो वात तिस से असंबद्ध (अर्थरहित ) वाणी बोले, अर्थात् बकवाद करे अथवा बडबड शब्द करे उस को प्रलाप कहते हैं॥
चिकित्सा
सतगरवरतिक्ता रेवतांभोदतिक्ता नलदतुरगगंधा भारती हारहूराः। मलयजदशमूलाशंखपुष्प्यः सुपक्वाः प्रलप-नमतिहन्युः पानतो नातिदूरात्॥
अर्थ-तगर, पित्तपापडा, अमलतास, नागरमोथा, कुटकी, नेत्रवाला, असगंध ब्राह्मी, दाख काली, चंदन, दशमूल और शंखाहुली इनका काढा लेय तो तत्काल प्रलापकका नाश करे ॥
रसाज्ञाननिदान
भुंजानस्य नरस्यान्नं मधुरप्रभृतीन्रसान् ।
रसना यन्न जानाति रसाज्ञानं तदुच्यते॥
अर्थ- जो मनुष्य भोजन करे उसकी जीभ को मधुर ( मीठा ) खट्टा इत्यादिक रसों का ज्ञान न होय उस रोगको रसाज्ञान कहते हैं॥
चिकित्सा
घर्षेज्जिह्वां जडांसिंधुत्र्यूषणैः साम्लवेतसैः। आम्लवेतसकाभावे चुक्रंदातव्यमीरितम्॥ किराततिक्तकः कट्वीकुटकस्य फलं त्वचा। ब्राह्मी फलं च पालाशं राजिकां कृष्णजीरकम्॥ पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रं नागरमूषणम् । एषां कल्कैर्मुहुर्घर्षेज्जिह्विकामार्दिकारसैः॥ तेन सम्यग्विजानाति रसना सकलान् रसान्॥
अर्थ-जीभके जकडने पर सैंधा निमक, त्रिकुटा और अमलवेत इनके चूर्ण से जीभ को रगडे. यदि अमलवेत न मिले तो चूका लेवे.अथवा कडुआ चिरायता, कुटकी, इन्द्रजो, कुडा की छाल, ब्राह्मी, पलासपापडा, राई, काला जीरा, पीपल, पीपरामूल, चित्रक, सोंठ और काली मिरच इनके चूर्ण से अथवा कही हुई औषधोंका अदरख के रसमें कल्क करके उससे वारंवार जीभ को घिसे. तो जिह्वा सबरसों को जानने लगे॥
किरातादिकल्क
कल्कः किराततिक्तादिर्जिह्वायाः शून्यतां हरेत्॥
अर्थ-किराततिक्तादि कल्क जो पिछाडी कह आये हैं वह जिह्वाकी शून्यता को हरण करे हैं॥
त्वक्शून्यतानिदान
स्पृश्यमाना त्वचा या तु शीतोष्णं मृदु कर्कशम्।
न जानाति बुधैस्त्वक्साशून्येति परिकर्त्यिते॥
अर्थ-त्वचा को स्पर्श करने से शीत, गरम, मृदु और कठीन इनका ज्ञान नहीं होता, इसको त्वक्शून्यता कहते हैं॥
चिकित्सा
सुप्तवाते त्वसृङ्मोक्षं कारयेद्बहुशो भिषक्।
दिह्याच्च लवणागारधूमैस्तैलप्तमन्वितैः॥
अर्थ-सुप्त वातपर वारंवार रुधिर को निकलवाने और सैंधानिमक, घरका धुंआ और तेल इनको मिलायके लेप करे॥
रसगत वायुके लक्षण
त्वग्रूक्षास्फुटिता सुप्ता कृशा कृष्णा च तुद्यते ।
आतन्यते सरागा च मर्मरुक्त्वग्गतेऽनिले॥
अर्थ- वायु त्वग्गत अर्थात् धातुरूप त्वचा में प्राप्त होने से त्वचा रूखी और फटी, शून्य, पतली और काली हो जाय और उसमें चमका चले, तथा तन जाय, कुछ तांबे के समान लाल रंग हो जाय और हृदयादि मर्मोंमें पीडा होय॥
रक्तगत वायु के लक्षण
रुजस्तीत्राः ससंतापा वैवर्ण्यं कृशतारुचिः।
गात्रे चारूंषि भुक्तस्य स्तंभश्चासृग्गतेऽनिले॥
अर्थ- वायु रुधिरमिश्रित होनेसे सन्तापयुक्त तीव्र वेदना होय, देहका विवर्ण होय, कृशता, अरुचि और देहमें फोडा तथा भोजन करनेके उपरांत देहका जकड जाना ये लक्षण हैं॥
मांसगत वायु
गुर्वंगं तुद्यते स्तब्धं दंडमुष्टिहतं यथा।
सरुक् स्तिमितमत्यर्थं मांसमेदोगतेऽनिले॥
अर्थ-मांस और मेद में वायुके पहुँचने से अंग भारी हो जाय, चोटने के समान पीडा होय, अथवा निश्चल हो जाय अथवा मुक्का मारने की सी तथा लकडी मारने की सी पीडा होय॥
मेदाश्रित वातलक्षण
तथा मेदाश्रितः कुर्याद्ग्रंथीन् मंदरुजो व्रणान् ॥
अर्थ-वायु मेदगत हुआ हो तो अंगपर गांठ अथवा अल्प दुःख देनेवाले व्रण को उत्पन्न करे है॥
अस्थिवातलक्षण
मेदोऽस्थिपर्वणां सन्धिशूलं मांसबलक्षयः।
अस्वप्नं संततारुक् च मज्जास्थिकुपितेऽनिले॥
अर्थ-मज्जा और हड्डी इन ठिकानेपर वायु कोप होनेसे हडफूटनी हो, संधिसंधि मेंपीडा होय मांस और बल ये क्षीण हो जाय, निद्रा आवे नहीं और निरन्तर पीडा होय, इस जगह सुश्रुत ने कुछ विशेष लिखा है॥
मज्जागत वातलक्षण
वाते मज्जागते पीडा न कदाचित्प्रशाम्यति॥
अर्थ- दुष्ट वात मज्जाश्रित हुआ हो तो अंगकी वेदना कभी भीशांत नहीं होती है॥
शुक्रगत वातलक्षण
क्षिप्रं मुंचति बध्नाति शुक्रं गर्भमथापि वा।
विकृतिं जनयेच्चापि शुक्रस्थः कुपितोऽनिलः॥
अर्थ- शुक्रस्थान की वायु का कोप होने से वह शुक्र को जल्दी पतन करे और बंधन करे, अथवा गर्भ को जलदी छोडे और बंधन करे और गर्भका अथवा शुक्रका विकार प्रगट करे॥
सप्तधातुगत वातचिकित्सा
वायौ त्वगाश्रिते स्नेहोऽभ्यंगः स्वेदश्च कारयेत्।
रक्तस्थे शीतलाल्ँलेपान्विरेकं रक्तमोक्षणम्॥
अर्थ- त्वचागत वायु के दुष्ट होने से स्नेहपान, अभ्यंग और पसीने निकालना. ये उपचार करे, रक्तगतवातपर शीतल लेप, विरेचन और रक्तमोक्ष ये उपचार करे॥
मांसमेदोगत
मांसमेदोगते वाते सविरकं निरूहणम्॥
अर्थ-मांसगत और मेदोगत वायु कुपित होनेसे विरेक, निरूडबस्ति ये उपचार करे॥
अस्थिमज्जागत
अस्थिमज्जागते स्नेहंबहिरंतश्च योजयेत् ॥
अर्थ - अस्थिगत तथा मज्जागत वायु कुपित होनेसे स्नेहपान तथा स्नेहमर्दन ये उपचार करने चाहिये॥
केतकादि तैल
केतक नागबलातिबलानां यद्बहुलेन रसेन विपक्वम्।
तैलमनल्पतुपोदकसिद्धं मारुतमस्थिगतं विनिहंति॥
अर्थ- केतकी खिरेटी और गगेरन इन का पुष्कल रस और तुसों के पुष्कल ( बहुतसा ) जल में तेल डालके सिद्ध करे यह तेल अस्थिगत वायुका नाश करे॥
शुक्रगत
हर्षोन्नपानं शुक्रस्थे बलशुक्रकरं हितम्॥
अर्थ-शुक्रगत वायु कुपित होनेसे हर्षोत्पादन और बल तथा धातु इन के बढानेवाले ऐसे अन्न और पान देवे तो हितकारी होय॥
शिरागतवायु
कुर्याच्छिरागतः शूलं शिराकुंचनपूरणम्।
स बाह्याभ्यंतरायामं खल्लीं कुब्जत्वमेव च॥
अर्थ- वायु शिरा ( नाडी ) गत होनेसे शूल, नाडीका संकोच और स्थूलत्व करे और बाह्यायाम आभ्यंतरायाम, खल्ली और कुवडापना इन रोगोंको उत्पन्न करे॥
चिकित्सा
स्नेहाभ्यंगोपनाहांश्च मर्दनालेपनानि च ।
वाते शिरागते कुर्यात्तथा चासृग्विमोक्षणम्॥
अर्थ-शिरागत वायु पर स्नेहपान, अंग में तेल की मालिस, उपनाह, मर्दन, लेप और रुधिर निकालना ये उपचार करे॥
स्नायुगत वातलक्षण
शूलमाक्षेपकः कंपः स्तंभः स्त्राखनिले भवेत्॥
अर्थ-स्नायुगत वात में शूल, वातरोग, कंप और स्तंभ यह लक्षण होते हैं॥
सर्वांगैकांगरोगांश्च कुर्यात्स्नायुगतोऽनिलः॥
अर्थ- वायु स्नायुगत होनेसे सर्वांग और एकांग रोगोंको करे॥
चिकित्सा
स्वेदोपनाहाग्निकर्मबंधनोन्मर्दनानि च।
क्रुद्धे स्नायुगते वाते कारयेत्कुशलो भिषक्॥
अर्थ-स्नायुगत वायुपर पसीने निकालना, उपनाह, दाग देना, बांधना, मर्दन करना ये संपूर्ण उपचार करे॥
संधिगतवातनिदान
हंति संधिगतः संधीन्शूलशोथौ करोति च॥
अर्थ-संधिगत होने से संधि का विश्लेष ( जुदा जुदा होना ) और संधि का जकड जाना तथा शूल और सूजन इन रोगोंको प्रगट करे ॥
सामान्यचिकित्सा
कुर्यात्संधिगते वाते दाहस्वेदोपनाहनम्॥
अर्थ- संधिगत वादीपर दागना, पसीने निकालना तथा उपनाहन कर्म करना चाहिये॥
इंद्रवारुणिचूर्ण
इंद्रवारुणिकामूलं मागधीगुडसंयुतम्।
भक्षयेत्कर्षमात्रं तत्संधिवातं व्यपोहति॥
अर्थ - इन्द्रायन की जड, पीपल और गुड इनको एकत्र कर इस में से एक तोलेभर सेवन करे तो संधिवातको नष्ट करे॥
पित्तकफाश्रित प्राण
प्राणे पित्तावृते छर्दिर्दाहश्चैवोपजायते।
दौर्बल्यं सदनं तंद्रा वैरस्यं कफकावृते॥
अर्थ-प्राणवायु पित्तसंयुक्त होनेसे वमन और दाह उत्पन्न हो और कफसंयुक्त होनेसे दुर्बलपना, ग्लानि, तंद्रा और मुख में विरसता ये होंय॥
पित्तकफाश्रित उदान
उदाने पित्तयुक्ते तु दाहो मूर्च्छा भ्रमः क्रमः।
अस्वेदहर्षौमंदाग्निःशीतता च कफावृते॥
अर्थ-उदानवायु पित्तयुक्त होनेसे दाह, मूर्च्छा, भ्रम, अनायास श्रम ये होंय और कफयुक्त होय तौ पसीना नहीं आवे, रोमांच, अग्नि मंद होय और शीत लगे॥
पित्तकफाश्रित समान
स्वेददाहौष्ण्यमूर्च्छाः स्युः समाने पित्तसंयुते॥
कफेन संगो विण्मूत्रे गात्रहर्षश्च जायते॥
अर्थ-समानवायु पित्तयुक्त होनेसे पसीना दाह, गरमी, और मूर्च्छा ये होते हैं. पित्तकफयुक्त होने से मलमूत्रका रुकना और रोमांच होय॥
पित्तकफाश्रित अपान
अपाने पित्तयुक्ते तु दाहौष्ण्यं रक्तमूत्रता।
अधःकाये गुरुत्वं च शीतता च कफावृते॥
अर्थ-अपानवायु पित्तयुक्त होनेसे दाह, उष्णता और लाल मूत्र होय तथा कफयुक्त होनेसे कमर के नीचे के भाग में भारीपना और सरदी का लगना होते हैं॥
पित्तकफाश्रित व्यान
व्याने पित्तवृते दाहो गात्रविक्षेपणं क्लमः।
स्तंभनो दंडकश्वापि शोथशूलो कफावृते॥
अर्थ-व्यानवायु पित्तयुक्त होने से दाह, गात्रों का विक्षेप अर्थात् इधर उधर को फेरना और श्रम होय, कफयुक्त होने से शरीर लकडी के समान स्तंभ होय, सूजन और शूल होय, इस जगह प्राणादि पंच वायुनके परस्पर मिलने से वीस प्रकार के आवर्ण चरकोक्त जान लेने और वाग्भट के मत से आवर्ण बाईस प्रकारके हैं हम ने ग्रंथ के विस्तारभय सेछोड दिये हैं॥
चिकित्सा
वाते सपित्तेकुर्वीत वातपित्तहरीं क्रियाम्।
सकफे तत्र कुर्वीत वातश्लेष्महरी क्रियाम्॥
अर्थ-पित्तयुक्त वातका कोप होने से वातपित्तनाश क्रिया करे और वही वायु कफाश्रित दुष्ट होने से वातकफनाशक चिकित्साकरनी चाहिये॥
आक्षेप के सामान्य लक्षण
यदा तु धमनीः सर्वाः कुपितोऽभ्येति मारुतः। तदाक्षिपत्याशु मुहुर्मुहुर्देहं मुहुश्चरः॥मुहुर्मुहुस्तदाक्षेपादाक्षेपक इति स्मृतः॥
अर्थ-जिस काल में वायु कुपित होकर सब धमनी ( नाडीन) में जायकर प्राप्त होय, तब उस जगेवह वारंवार संचार करके देह को वारंवार आक्षिप्त करती है,
अर्थात् हाथीपर बैठनेवाले पुरुष के समान सब देह को चलायमान करे उस देह के वारंवार चलाने को आक्षेपक रोग कहते हैं॥
आक्षेपके चार भेद
पित्तश्लेष्माचितो वायुर्वायुरेव च केवलः।
कुर्यादाक्षेपकं चान्यश्चतुर्थमभिघातजः॥
अर्थ-पित्तवात, श्लेष्मवात और केवल बात इनसे उत्पन्न भये तीन आक्षेप और चौथा अभिघात से उत्पन्न हुआ ऐसे चार आक्षेप हैं॥
केवल वातजाक्षेप
पाणिपादशिरः पृष्ठश्रोणीः स्तभ्नाति मारुतः।
दंडवत् स्तब्धगात्रस्य दंडकः सोऽनुपक्रमः॥
अर्थ- हाथ, पांव, पीठ, शिर, कमर इनको वायु स्तब्ध करता है और दंडके माफिक अंग को ऐंठाता है यह दंडक नाम आक्षेप चिकित्सा करने योग्य है॥
सामान्य चिकित्सा
आक्षेपके शिरांविध्येत्कुर्याद्वातहरीं क्रियाम्।
तीक्ष्णैः प्रधमनैर्नस्यैस्तथा संज्ञां स विंदति॥
अर्थ-आक्षेपक वायुपर फस्त खोले औरवातनाशक तथा तीक्ष्ण ऐसी औषधी नाक में फूँके तथा प्रधमन नस्य करे तो उसको संज्ञा हो आवे॥अ
आक्षेपक चिकित्सा
बलामूलकषायस्य दशमूलीशतस्य च। यवकोलकुलित्थानां क्वाथस्य पयसस्तथा॥ अष्टावष्टौ स्मृता भागास्तैलादेकस्तदेकतः। पचेदवाप्य मधुरं गणं सैंधवसंयुतम्॥ तथागुरुं सर्जरसं सरलं देवदारु च। मंजिष्ठां पद्मकं कुष्ठमेलां कालां च सारिवाम्॥मांसीं शैलेयकं पत्रं तगरं सारिवां वचाम्। शतावरीमश्वगंधां शतपुष्पां पुनर्नवाम्॥ तत्साधु सिद्धं सौवर्णे राजते मृन्मयेऽपि वा। प्रक्षिप्य कलशे सम्यक् स्वनुगुप्तं निधापयेत्॥ एतन्महाबलातैलं प्रयुक्तमविलंबितम्। सर्वानाक्षेपकादींस्तु वातव्याधीन्व्यपोहति॥ हिक्कां श्वासमधीमंथं गुल्मं कासं
सुदुस्तरम् । षण्मासादुपयुक्तं तदंत्रवृद्धिं च नाशयेत्॥ यथाबलमलं मात्रां सूतिकायैप्रदापयेत् । या च गर्भार्थिनी नारी क्षीणशुक्रश्चयः पुमान् ॥ वातक्षीणे मर्महते मथितेऽभिहते तथा। भग्ने श्रमाभिपन्ने च सर्वथैतत्प्रयुज्यते॥ एतद्धि राज्ञा कर्तव्यं कर्तव्यं राजपूजितैः। सुखिभिः सुकुमारैश्च धनिभिर्मानवैः सदा॥
अर्थ- खिरेटी की जड का काढा, दशमूलका काढा, जौं, बेर और कुलथी इन के काढे और दूध ये सब आठ २ भाग लेवे. तेल १ भाग, मधुर गण, सैंधा निमक, अगर, राल, सरल, देवदारु, मजीठ, पद्माख, कूठ, इलायची, नागबला, सारिवा, जटामांसी, शिलाजीत, तमालपत्र,तगर, कालीसर, वच, शतावर, असगंध, सौंफ, पुनर्नवा ये प्रत्येक एक २ तोला लेवे इन सबका काढा करके मिलावे. फिर इस में तेल डालके पचावे जब तेल सिद्ध हो जावे तब उतारके इस को सुवर्ण के अथवा चांदी के अथवा मिट्टी के चिकने बरतन में भरके रख देवे इस महाबलादितैल के सेवन करनेसे तत्काल संपूर्ण आक्षेपकवायु तथा वातव्याधि इनको नाश करे तथा हिचकी, श्वास, अधिमंथ, गोला और घोर खांसी इनको दूर करे इसको छः महीने पर्यंत मालिस करनेसे अंत्रवृद्धिको नाश करे. तथा प्रसूता स्त्री का बल और दोष काल विचारके मात्रा देवे. जिस स्त्री को गर्भ की इच्छा होवे और क्षीणवीर्य पुरुष किंवा वायु से क्षीण हुआ, मर्मस्थान में जिस के चोट लगी हो, जिस केहड्डी मुड गई हो तथा परिश्रमी इन सबको यह तैल देवे, यह तैल राजाओं को अथवा राजपुरुष हैं उन को तथा सुखी पुरुष, सुकुमार, धनवाले इत्यादि कोदेना चाहिये॥
आक्षेप के भेद अपतंत्रक
क्रुद्धः स्वैः कोपनैर्वायुः स्थानादूर्ध्वं प्रवर्तते । पीडयन् हृदयं गत्वा शिरःशंखौ च पीडयेत्॥ धनुर्वन्नामयेत् गात्राण्याक्षिपेन्मोहयेत्तथा। स कृच्छ्रादुच्छ्वसेच्चापि स्तब्धाक्षोऽथ निमीलकः॥ कपोत इव कूजेच्च निःसंज्ञः सोऽपतंत्रकः॥
अर्थ- रूक्षादि स्वकारण से कोषको प्राप्त भई जो वायु सो अपने स्वस्थान को छोड ऊपर जायकर प्राप्त हो और हृदय में जायकर पीडा करे, मस्तक और कनपटी इन में पीडा करे और देह को धनुष के समान नवाय देवे और चले तो मूर्च्छित कर दे, वोरोगी बडे कष्टसे श्वास लेय, नेत्र मिच जावें, अथवा टेढे हों जाय कबूतर के समान गूंजे, तथा बेहोस होय, इस रोगको अपतंत्रक कहते हैं॥
चिकित्सा
अथापतंत्रकेनार्तमातुरं नापतर्पयेत्। निरूहबस्तिं वमनं सेवयेन्न कदाचन॥ श्वसनाः कफवाताभ्यां रुद्धास्तस्य विमोक्षयेत्। तीक्ष्णैः प्रधमनैः संज्ञां तासु मुक्तासु विंदति॥
अर्थ-अपतंत्र वातसे पीडित मनुष्यको रेचन, निरूह बस्ति और वमन ये कदाचित् न करावे कफ वायु से रुके हुए श्वासके वहनेवाले मार्गोंको तीक्ष्ण नस्य आदिसे शुद्ध करे जब श्वास लेनेके मार्ग खुल जाते हैं तब इस प्राणीको होस होता है॥
हरीतक्यादि लेह
हरीतकी वचा रास्नासैंधवं साम्लवेतसम्। घृतमार्द्रकसंयुक्तमपतंत्रकनाशनम्॥ अम्लवेतसकाभावे चुक्रंदा-तव्यमीरितम्॥
अर्थ- हरड, वच, रास्ना, सैंधानिमक, अमलवेत और घी. तथा अदरख इन का अवलेह अपतंत्रक वायुको नाश करे है यदिअमलवेत न मिले तो चूका डाले॥्
मरीचादि चूर्ण
मरिचं शिग्रुबीजानि विडंगं च फणिज्जकम्।
एतानि सूक्ष्मचूर्णानि दद्याच्छीर्षविरेचनम् ॥
अर्थ- काली मिरच, सहजने के बीज, वायविडंग और फणिज्जग इन का चूर्ण मस्तकरेचनार्थ देवे॥
दंडापतानक
कफान्वितो यदा वायुर्धमनीष्वेव तिष्ठति ।
स दंडवत्स्तंभयति कृच्छ्रो दंडापतानकः॥
अर्थ- वायु अत्यंत कफयुक्त होकर सब धमनी ( नाडी ) में प्राप्त होय तब सब देह को दंड ( लकडी ) के समान तिरछा कर दे यह दंडापतानक कष्टसाध्य है॥
अपतानक
दृष्टिं संस्तभ्य संज्ञां च हत्वा कंठेन कूजति। हृदि मुक्ते नरः स्वास्थ्यं याति मोहं वृते पुनः॥ वायुना दारुणं प्राहुरेके तम पतानकम्॥
अर्थ-दृष्टीका स्तंभन हो जाय, संज्ञा जाती रहे, गलें में घुरघुर शब्द होय, वायु जब हृदय को छोडे तब रोगी को होश होय और वायु हृदय को व्याप्त करैतब फेर मोह हो जाय इस भयङ्कर रोगीको कोई अपतानक ऐसे कहते हैं॥
असाध्यत्व कहते हैं
गर्भपातनिमित्तश्च शोणितातिस्त्रवाच्च यः।
अभिघातनिमित्तश्च न सिद्ध्यत्यपतानकः॥
अर्थ- गर्भपात के होनेसे अथवा अतिरक्तस्राव के होने से अथवा अभिघात कहिये दंडादिकोंकी चोट लगने से जो प्रगट अपतानक रोग सो असाध्य है॥
चिकित्सा
अथापतानकेनार्तमस्त्रस्ताक्षमवेपनम्।
अखट्वापातिनं चैव त्वरया समुपाचरेत्॥
अर्थ- जो रोगी अपतानकवायु से व्याप्त तथा जिस के नेत्र शिथिल और कंपरहित. तथा जो खाट में न पडा हो ऐसे रोगीका बहुत जल्दी यत्न करे देरी करने से रोगी असाध्य हो जाता है॥
अपतानकिने शस्तं दशमूलीशृतं जलम्।
पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं जीर्णे मांसरसौदनम्॥
अर्थ - अपतान रोगपर दशमूलके काढे में पीपलका चूर्ण डालके पीवे जब काढा पच जावे तब मांसरस पथ्यमें देवे तो अपतानवायु नष्ट हो॥
चिकित्साप्रक्रिया
तैलेन मर्दनं स्वेदस्तथा तीक्ष्णेन नावनम्।
स्त्रोतोविशोधनं पश्चात्सर्पिःपानं हितं स्मृतम्॥
अर्थ-अपतानवातवाले रोगी के तेल का मर्दन करे, पसीने निकाले. तीक्ष्ण औषधोंकी नस्य देवे. फस्त खोले फिर घृतपान करावे॥
हंत्यभुक्तवता पीतमम्लं दध्यपतानकम्।
मरीचेन समायुक्तं स्नेहबस्तिरथापि च॥
अर्थ-भोजन के प्रथम खट्टे दहीमें कालीमिरचोंका चूर्ण डाल के पीवे. किंवा स्नेहबस्ती करे. तो अपतानक वायु नष्ट होवे॥
धनुस्तंभलक्षण
धनुस्तुल्यो नमेद्यस्तु स धनुस्तंभसंज्ञितः। विवर्णबद्धवदनः स्रस्तांगो नष्टचेतनः॥ प्रस्विद्यंश्च धनुस्तंभी दशरात्रं न जीवति॥
अर्थ-धनु के समान टेढे होने को धनुस्तंभ कहते हैं. उसमें वर्णका बदलना, दांतोंका जकडना, अंग शिथिल होना, मूर्च्छित होना और स्वेदये विकार होते हैं. धनुस्तंभरोगी दश दिनतक बचता नहीं. इस में अंतरायाम और बाह्यायाम इनके लक्षण न होना ही पहलेसे विशेष कहा है॥
दूसरा प्रकार
कंठावरोधो धनुराकृतिः स्याद्धृदि व्यथा दंतनिबंधनं च।
मुखस्य शोषः शिशिरस्य कांक्षा यस्मिन् धनुर्वायुरुदाहृतः सः॥
अर्थ-कंठ का अवरोध, धनुके समान टेढा होना, हृदय में शूल, दांतों का जकडना, मुखशोष और ठंडी की इच्छा ये लक्षण जिस में हों वह धनुर्वात कहलाता है॥
कुब्जलक्षण
हृदयं यदि वा पृष्ठमुन्नतं क्रमशः सरुक्।
क्रुद्धो वायुर्यदा कुर्यात्तदा तं कुब्जमादिशेत्॥
अर्थ-वायु कुपित होकर जब हृदय या पीठको वेदनाके साथ ऊंचा करे तब वह कुब्ज कहलाता है॥
वातघ्नैर्दशमूल्या च नवं कुब्जमुपाचरेत्।
स्नेहैर्मांसरसैश्चापि प्रवृद्धं तं विवर्जयेत्॥
अर्थ-वातनाशक औषध, दशमूल का काढा, स्नेहपान और मांसरस इत्यादिक उपचार करे. परंतु जो अत्यंत बढा होवे उस का यत्न न करे॥
अंतरायामलक्षण
अंगुलीगुल्फजठरहृद्वक्षोगलसंश्रितः। स्नायुप्रतानमनिलो यदा क्षिपति वेगवान्॥ विष्टब्धाक्षः स्तब्धहनुर्भग्नपार्श्वः कफं वमन् । अभ्यंतरं धनुरिव यदा नमति मानवः ॥ तदासौऽभ्यन्तरायामं कुरुते मारुते बली॥
अर्थ-पैर की ऊंगली, घोंटू, हृदय, पेट, उरःस्थल और गला इन ठिकानों में रहे जो वायु वो वेगवान् होकर जो वहां नसोंके जाल उसको सुखाय बाहर निकाल
दे, उस मनुष्यके नेत्र स्थिर हो जांय, मेडो रहिजाय, पसवाडों में पौडा होय, मुखसे कफ गिरे और जिस समय मनुष्य धनुष के सदृश नीचे को नमजाय तब वह बली वायु ( अंतरायाम ) रोगको करे॥
बाह्यायामलक्षण
महाहेतुर्बली वायुः शिराः सस्नायुकंडराः। मन्यापृष्ठाश्रिता बाह्याः संशोष्यानामयेद्बहिः॥ यत्र तं बहिरायामं प्रवदंति भिषग्वराः । तमसाध्यं बुधाः प्राहुर्वक्षःकट्यूरुभंजनम्॥
अर्थ-बडे कारणों से कुपित हुआ वायु कंधरा और पीठ इनके स्नायु और कंड रों को सुखाकर टेढा करता है. इसी से वैद्यलोग इस वायुको बहिरायाम कहते हैं.यह उर, कमर और जंघा इनको नष्ट करता है. यह असाध्य है॥
सामान्य
बाह्यायामेंतरायामे विधेयार्दितवत् क्रिया॥
अर्थ- बाह्यायाम खोर अंतरायाम वायु पर अर्दितवायु पर जो चिकित्सा कही है वह करे॥
दूसरा प्रकार
बाह्यायामांतरायामपार्श्वशूल कटिग्रहान् ।
खल्लीदंडापतानौ च स्नेहस्वेद पुरैर्जयेत् ॥
अर्थ - बाह्यायाम, अंतरायाम, पसवाडे का शूल, कटिग्रह ( कमरका रह जाना ), खल्लीवात और दंडापतानक इन को स्नेहन तथा पसीने निकालना इत्यादि उपायोंसे जीते॥
चिकित्सा
बाह्यायामेंतरायामे धनुस्तंभे च कुब्जके। योज्यं प्रसारिणीतैलं तेन तेषां शमो भवेत्॥ वातव्याधिषु सामान्या याः क्रियाः कथिताः पुरा। कर्तव्या एव ताः सर्वास्तैलमेताद्विशेषतः॥
अर्थ- बाह्यायाम, अंतरायाम, धनुस्तंभ और कुब्जकवात इन पर आगे कही प्रसारणीतैलकी मालिस करें तो इन की शांति होवे. तथा वातव्याधि की सामान्य चिकित्सा जो पहले लिख आये हैं वह करे, परंतु प्रसारणी तैलकी मालिस विशेष करके करनी चाहिये॥
सर्जतैल
धनुर्वायुः शमं याति सर्जतैलस्य मर्दनात्।
दशमूलीकषायो वा पाने नस्ये च शस्यते॥
अर्थ-राल से बने हुए तेल की मालिस करनेसे धनुर्वात दूर हो, अथवा दशमूल के काढेको पीवे अथवा दशमूलं के काढे की नस्य देवे तो धनुर्वात दूर हो॥
एरंडादिकाढा
एरंडबिल्वं बृहतीद्वयं च सौवर्चलं व्योषविरामठं च।
समातुलुंगीलवणोत्तमं च क्वाथं धनुर्वातहरं प्रशस्तम्॥
अर्थ - अंड की जड, बेलगिरी, छोटी कटेरी, बडी कटेरी, संचरनिमक, सोंठ, मिरच, पीपल, हींग, बिजोरे की जड और सैंधानिमक इनका काढा करके पीवे तो धनुर्वात दूर होवे॥
पक्षवध
गृहीत्वार्धं तनोर्वायुः शिराः स्त्रायुर्विशोष्य च। पक्षमन्यतरं हंति संधिबंधान्विमोक्षयन्॥ कृत्स्रोऽर्धकायस्तस्य स्यादकर्मण्यो विचेतनः। एकांगरोगं तं केचिदन्ये पक्षवधं विदुः॥
अर्थ-वायु आधे शरीर को पकड़ सब शरीरकी नसों को सुखायकर दहने अंग को अर्धनारीश्वर के समान कार्य करने कोअसामर्थ्य कर दे और संधि के बंधनों को शिथिल कर दे, पीछे उस रोगी के सब वा आधे अङ्गहलें चलें नहीं और उस को थोडा भी देखनेका स्पर्शआदि का ज्ञान नहीं रहे इस को एकांगरोग कहते हैं। दूसरे पक्षवध कहते हैं इसीको पक्षाघातकहते हैं॥
सर्वांगरोगलक्षण
सर्वांगरोगं तं केचित्सर्वकायस्थितेऽनिले॥
अर्थ-तद्वत् कहिये शिरास्नायुविशोष्य इत्यादिः सम्प्राप्तिलक्षण इस से जानने, सर्व शिरा ( नाडी ) में वायु प्राप्त होने से उस को सर्वांगरोग कोई कहते हैं. अब साध्यासाध्य के ज्ञानार्थ और दोषों का सम्बन्ध कहते हैं॥
दाहसंतापमूर्च्छाः स्युर्वायौ पित्तसमन्विते। शैत्यशोथगुरुत्वानि तस्मिन्नेव कफान्विते॥ शुद्धवातहतं पक्षं कृच्छ्रसाध्यतमं विदुः। साध्यमन्येन संसृष्टमसाध्यं क्षयहेतुकम्॥ गर्भिणीसूतिकाबालवृद्धक्षीणेष्वसृक्स्रुतौ। पक्षाघातं परिहरेद्वेदनारहितो यदि॥
अर्थ-पक्षवध की वायु कफपित्तयुक्त होय तौ दाह, संताप और मूर्च्छा होय औरवही वायु कफयुक्त होय तौ शीत, सूजन, भारीपन ये लक्षण होंय। और केवल वायुसे प्रगट पक्षाघात अत्यंत कष्टसाध्य होय है और दोषों से संसृष्ट होने से साध्य होय है। क्षय से प्रगट भया पक्षावात असाध्य होय है। गर्भिणी, बालक, वृद्ध और क्षीण इनके भया तथा रुधिर के स्राव सेप्रगट पक्षाघात पीडारहित, होय तौ उसको वैद्य त्याग दे अर्थात् असाध्य जानकर चिकित्सा न करे॥
माषादि काढा
माषात्मगुप्तावातारिवाट्यालकजलश्रितम्। हिंगुसैंधवसंयुक्तं पक्षाघातं विनाशयेत्॥ माषके हिंगुसिंधूत्थे जरणाद्यास्तु शाणिकाः॥
अर्थ-उडद, कौंच के बीज, अंडकी जड और खिरेटीकी जड इनका काढा करके उनमें हींग और सैंधानिमक डालके पीवे तो पक्षाघातका नाश करें इस में हींग और सैंधानिमक ये एक २ मासा तथा जीरा और जीरे आदि तीन २ मासे डाले.( परंतु मूल में जीरे आदि का नाम भी नहीं है )॥
ग्रंथिकादि तैल
ग्रंथिकाग्निकणाशुंठीरास्नासैंधव कल्कितम्।
माषक्वाथाश्रितं तैलं पक्षाघातं व्यपोहति॥
अर्थ-पीपरामूल, चित्रक, पीपल सोंठ, रास्ना और सैंधानिमक इन का कल्क करके उडदों के काढेसे अथवा पूर्वोक्त कल्क में तेल सिद्ध करे इसको देह में लगावे तो पक्षाघात वायु को नष्ट करे॥
माषादि तैल
माषात्मगुप्तातिविषाऋबूकरास्नाशताह्वालवणैः सुपिष्टैः।
चतुर्गुणे माषबलाकषाये तैलं शृतं इति हि पक्षघातम्॥
अर्थ-उडद, कौंच के बीज, अतीस, अंड कीजड, रास्ना, शतावर, सैंधानिमक, उडद और खिरेटी इनके काढे में चतुर्थांश तेल डालके सिद्ध करे तो वह पक्षाघातको दूर करे॥
माषादि सप्तक
माषबलाशूकविंबीकट्तृणरास्नाश्वगंधोरुबूकाणाम्। क्वाथः प्रातः पीतो रामठलवणान्वितः कोष्णः॥ अपनयति पक्षघातं मन्यास्तंभं सकर्णनादरुजम्। दुर्जयमर्दितवातं सप्ताहाज्जयति चावश्यम्॥
अर्थ-उडद, खिरेटी, कौंच के बीज, रोहिषतृण, रास्ना, असगंध और अंड की जड इन का काढ़ा हींग और सैंधानिमक डालके प्रातःकाल पीवे तो पक्षाघात, मन्यास्तंभ कर्णनाद तथा अर्दितवायु इनको सात दिनमें जीत लेवे॥
माषतैल
ग्रंथिकाग्निकणारास्नाकुष्ठं नागरसैंधवम्।
माषं क्वाथेन तत्तैलं पक्षाघातविनाशनम्॥
अर्थ-पीपरामूल, चित्रक की छाल, पीपल, रास्ना, कूठ, सोंठ, सैंधानिमक और उडद इन के काढे में सिद्ध करा हुआ तेल पक्षाघात नाश करे॥
कपिकच्छ्वादि काढा
कपिकच्छुबलैरंडमाषनागरसाधितम्। ससैंधवं पिबेत्क्वाथंनासारंध्रेण मानवः॥ पक्षाघातं निहंत्याशु शिरोरोगं हनुग्रहम्। अर्दितं संधिवातं च मन्यास्तंभं सुदारुणम्॥
अर्थ-कौंच के बीज, खिरेटी, अंडकी जड, सोंठ, उडद इन का काढ़ा, सैंधानिमक डालके नाक के द्वारा पीवे तो पक्षाघात, मस्तकरोग, हनुग्रह, अर्दित, संधिवात और दारुण मन्यास्तंभ इनको नाश करे॥
गुग्गुल पक्षाघातपर
कृष्णाजटानागरचव्यवह्निपाठाविडंगेंद्रयवैः समांशैः। हिंगूग्रग्रंधाद्विजयष्टिकौंती मातंगकृष्णातिविषान्वितश्च॥ ससर्षपाजाजियुगाजमोदान्वितैः समस्तैस्त्रिफला द्विभागा। एभिः समो गुग्गुलुराजमिश्रो भुक्तो हरेत्पक्षभवानिलार्तिम्॥
अर्थ-पीपरामूल, सोंठ, चव्य, चित्रक, पाढ, वायविडंग, इन्द्रजौ, हींग, वच, भारंगी, रेणुकबीज, गजपीपल, अतीस, सरसों, जीरा, काला जीरा और अजमोद ये सब समान भाग लेवे और सब औषधोंसे दूना त्रिफला, तथा सबके समान गूगल मिलायके गोली बनाय लेवे इसको बलाबल विचारके देवे तो पक्षाघातवायुको नष्ट करे॥
रालतैल
समुद्धरेत्सर्जतैलं यंत्रे च नलिकाभिधे।
विमर्दनं तेन तनौपक्षाघातं विनाशयेत्॥
अर्थ-राल का चूर्ण करके उस का नलिकायंत्रद्वारा तेल निकाल लेवे और देह में मालिस करे तो पक्षाघात वायुको नाश करे॥
पक्षाभिघाते कटुतुंबिबीजं तैलं तथा निंबफलोद्भवं च।
गोमायुपारावतकुक्कुटानां पित्तैः प्रलेपः प्रशमाय वायोः॥
अर्थ-पक्षाघात वादी पर कडुए सफेद ( तुंबा के ) बीजों को पीस उन का अथवा निवोरी के तेल का अथवा स्यारिया, कबूतर और मुरगा इनके पित्ते का लेप करे तो पक्षाघात दूर होवे॥
शुंठीचूर्ण
लघुशुंठीकृतं चूर्णं पलसप्तमितं बुधैः। तत्समं गोघृतं दत्त्वा भर्जयित्वा ततो बुधः ॥ शुंठीसमं रसोनं च पिष्ट्वा तत्र विनिक्षिपेत्। पक्षाघातं हनुस्तंभं कटिभंगं तथैव च॥ बाहुपीडां जयेत्तीव्रांवातरोगं च नाशयेत्॥
अर्थ- सोंठ का चूर्ण २८ तोले, गौ का घी २८ तोले डालके उस सोंठ को भून लेवे. फिर लहसनको छील और पीसके २८ तोले ले, उस सोंठ में मिलाय देवे फिर बलाबल विचारके खानेको देवे तो यह सोंठ पक्षाघात, हनुस्तंभ, कटिभंग, बाहुपीडा और वातरोग इन को नाश करे॥
अर्दितनिदान
उच्चैर्व्याहरतोऽत्यर्थं खादतः कठिनानि च। हसतो जृंभमाणस्य विषमाच्छयनाशनात्॥ शिरोनासौष्ठचुबुकललाटेक्षणसंधिगः। अर्दयत्यनिलो वक्रमर्दितं जनयेत्ततः॥ वक्रीभवति वक्रार्धं ग्रीवा चास्यात्प्रवर्त्तते। शिरश्चलति वाक्स्तंभो नेत्रादीनां च वैकृतम्॥ ग्रीवाचुबुकदंतानां तस्मिन्पार्श्वे सवेदना। तमर्दितमिति प्राहुर्व्याधिं व्याधिविशारदाः॥ वातात्पित्तात्कफाच्चास्यात्रिविधं तं समासतः॥
अर्थ-ऊंचे स्वर से वेदादिक का पाठ करने से अथवा कठिन पदार्थ सुपारी आदि के खाने से, बहुत हँसने से, बहुत जंभाई के लेने से, ऊंचे नीचे स्थानमें सोने से, विषमाशन ( भोजन ) के करने से कोपको प्राप्त भई जो वायु मस्तक, नाक, होठ, ठोडी, ललाट और नेत्र इन की सन्धिनमें प्राप्त हो मुख में पीडा करे
अर्थात् आर्दित रोग को उत्पन्न करे उस पुरुष का मुख आधा टेढा हो जाय, उसकी नाड मुडे नहीं, मस्तक हिला करे अच्छी तरह बोल्योजाय नहीं, नेत्र भृकुटी, गाल इन की विकृति कहिये पीडा, फरकना, टेढा होना, इत्यादि होय. और जिस तरफ अर्दित रोग होय उस तरफ नार, ठोडी और दांत इनमें पीडा होय. व्याधि जानने में जो कुशल वैद्य है वह इस व्याधि को अर्दितरोग ऐसे कहते हैं. शंका-क्यौंजी अर्दितरोग में और पक्षाघात में क्या भेद है ? उत्तर-अर्दित से गर्भ में भी पीडा होय है कभी नहीं होय है और पक्षाघात में सदा पीडा होती है। अर्दितरोग चार प्रकारका है॥
वातार्दित
लालास्रावो व्यथा कंपः स्फुरणं हतुवाग्ग्रहः।
ओष्ठयोः श्वयथुः स्थूलश्चार्दिते वातजे भवेत्॥
अर्थ-लार गिरना, पीडा होना, कंप, फुरफुरना, टोडी और भाषण इन का प्रतिबंध व ओष्ठ को बहुत सूजन इतने लक्षण वातार्दित के जानने॥
पित्ताश्रित व कफाश्रित आदतलक्षण
पीतमास्यं ज्वरस्तृष्णा पित्तजे मोहधूपने।
गंडे शिरसि मन्यायां शोथः स्तंभः कफात्मके॥
अर्थ-पित्ताधिक अर्दितवायु में मुख को पीलापन, ज्वर, तृषा, मोह और कफ ये विकार होते हैं और कफात्मक अर्दित में गाल, मस्तक और गरदन इनपर सूजन और स्तंभ ये विकार होते हैं ॥
चिकित्सा
स्नेहपानानि नस्यं च भोज्यान्यनिलहंति च।
उपनाहाश्च शस्यंते स्वेदनं च तथार्दिते॥
अर्थ-स्नेहपान, नस्य, वातनाशक भोजन के पदार्थ तथा पसीने निकालना इत्यादिक उपचार अर्दितवादी पर करे॥
दशमूलीकषायेण मातुलुंगरसेन वा।
बलायाः पंचमूल्या वा क्षीरं वातात्मके हितम्॥
अर्थ- दशमूल काढे के साथ अथवा बिजोरे के रसके साथ अथवा खिरेटी के काढे के साथ अथवा पंचमूल के काढे के साथ दूध पीवे तो वातात्मक आदत रोगपर हित करे॥
पिष्टं माषकृतं जग्ध्वानवनीतेन सोऽर्दिती।
क्षीरं मांसरसैर्भुक्त्वा दशमूलीरसं पिबेत्॥
अर्थ - उडद का चून मक्खन के साथ खाकर अथवा मांसरस के साथ दूध पीकर दशमूलका काढा पीवे तो अर्दितवातपर परमोत्तम है॥
पित्तार्दित
अर्दिते पित्तजे शीतान्स्नेहोत्थांश्चैव निर्दिशेत्।
घृतबस्तिप्रसेकं च रक्तस्रावं तथैव च॥
अर्थ-पित्तजन्य अर्दितवातपर स्निग्ध पदार्थों से उत्पन्न हुए शीतल उपचार करे और घृत से बस्ति तथा सिंचन अथवा रक्तस्राव करे॥
जिह्मीभूताननो मूको दाहवान्योर्दिती भवेत्।
कुर्यात्प्रतिक्रियां तस्य वातपित्तविनाशिनीम्॥
अर्थ-अर्दितवात करके जिसका मुख टेढा हो गया हो और गूंगा हो गया हो तथा दाह होता हो इन उपद्रवों के नाश करने को वातपित्तनाशक उपचार करे॥
कफार्दित
श्लेष्मभागे क्षयं नीते बृंहणैः समुपाचरेत् ।
अर्दिते शोथसंयुक्ते वमनं च प्रशस्यते॥
अर्थ-अर्दितवायुकरके कफ क्षीण होने से बृंहण उपचार करे और शोथयुक्त आर्दितवातपर वमन कराना उत्तम है॥
रसोनकल्कं तिलतैलमिश्रं खादेन्नरो योर्दितरोगयुक्तः।
तस्यार्दितं नाशमुपैति शीघ्रं वृंदं घनानामिव वायुवेगात्॥
अर्थ-लहसन के कल्क मेंतिल का तेल मिलायके खाय तो अर्दित वायु नष्ट हो. जैसे मेघों का समुदाय पवनके वेग से नष्ट होता है॥
फलत्रिकं निंबफलो रसश्च वासापटोलीक्वथितं तु सर्वम्।
सकौशिकं रात्र्यवसानकाले पीतं भवेदर्दितवातहारि॥
अर्थ- हरड बहेडा, आंवला, निबोरी का रस, अडूसा और पटोलपत्र इन का काढा करके उस में गूगल मिलायके प्रातःकाल देवे तो अर्दितवायुका नाश होय॥
अर्दितसाध्यासाध्य
क्षीणस्याऽनिमिषाक्षस्य प्रसक्ताव्यक्तभाषिणः।
न सिद्ध्यत्यर्दितं गाढं त्रिवर्षंवेपनस्य च॥
अर्थ-क्षीण पुरुष के, पलक नहीं लगें ऐसे पुरुष के, अत्यंत शुद्ध बोले नहीं ऐसे पुरुष के, अर्दित रोग को प्रगट भये तीन वर्ष व्यतीत हो गये हों, अथवा त्रिवर्ष कहिये मुख, नाक और नेत्र इन तीनों का स्राव होय ऐसा और कंपयुक्त पुरुष का अर्दित रोग साध्य नहीं होय॥
गते वेगे भवेत्स्वास्थ्यं सर्वेष्वाक्षेपकादिषु॥
अर्थ- सब आक्षेपकादि वायु में वात का वेग न्यून होने से रोगी स्वस्थ अर्थात् प्रसन्न होता है॥
दूसरा प्रकार
नवनीतेन संयुक्तां खादेन्माषेंडरीं नरः।
दुर्वारमर्दितं हंति सप्तरात्रान्न संशयः॥
अर्थ- मक्खन के साथ उडद के वडा खाय तो दुर्निवार अर्दितरोग सात दिनमें दूर होवे इसमें संदेह नहीं है॥
लशुनविधि
पलमर्धपलं वापि रसोनस्य सुकुट्टितम्। हिंगुजीरकासंधूत्थसौवर्चलकटुत्रिकैः॥ चूर्णीतैर्माषकोन्मानैरवचूर्ण्य विलोडितम्। यथाग्निभक्षितं प्राता रुबुक्वाथानुपानतः ॥ दिने दिने प्रयाक्तव्यं मासमेकं निरंतरम्। वातामयं निहंत्येव मर्दितं चापतंत्रकम्॥ एकांगरोगिणां रोग तथा सर्वांगरोगिणाम् । ऊरुस्तंभं गृध्रसीं च शूलद्वंद्वं कृमीनपि॥ कटिपृष्ठामयं हन्याज्जाठरं च समीरणम्॥
अर्थ-चार तोले अथवा दो तोले लहसन के रस में हींग, जीरा, सैंधानिमक, संचरनिमक और त्रिकुटा ( सोंठ, मिरच, पीपल ) ये प्रत्येक एक एक मासा ले चूर्ण करके डाले.फिर यथाशक्ति भक्षण करे इस का अनुपान अंड की जड का काढा है यह प्रातःकाल नित्य एक महीने पर्यंत सेवन करने से सामान्य वातरोग, अर्दित, अपतंत्रक, एकां- गवात, सर्वांगवात, ऊरुस्तंभ, गृध्रसी, शूल, द्वंद्वजरोग, कृमि, कमर का रोग, पीठ कारोग तथा पेठका वायु इन को नाश करे॥
हनुग्रहनिदान
जिह्वानिर्लेखनाच्छुष्कभक्षणादभिघाततः। कुपितो हनुमूलस्थः संसयित्वाऽनिलो हनुम्॥ करोति विवृतास्यत्वमथवा संवृता-स्यताम्। हृनुग्रहः स तेन स्यात्कृच्छ्राच्चर्वणभाषणम्॥
अर्थ-जिह्वाके अतिघर्षण करने से, चनाआदि सुखी वस्तु के खाने से अथवा किसी प्रकार चोट के लगने से, हनुमूल ( कपोल ) के अर्थात् डाढ की जड में रहे जो वायु सो कुपित होकर हनुमुल को नीचेकर मुख को खुला ही रख दे अथवा मुख को बंद कर दे, उस से हनुग्रहरोग कहते हैं तब उस मनुष्य को खाना, बोलना, कठिनता से होय॥
हनुग्रहे हनुस्तंभे मन्यास्तंभेऽर्दिते पिबेत्।
दशमूल्या समा कृष्णा अश्वत्थस्वरसेन च॥
अर्थ- हनुग्रह, हनुस्तंभ, गरदन का रह जाना और अर्दित वायु इन पर दशमूल और पीपल इनका काढा देवे. अथवा पीपल के वृक्ष के छाल के काढे में पीपल का चूर्ण डालके देवे॥
चिकित्सा
संवृतं चबुकं स्निग्धं स्विन्नमुन्नमयेद्भिषक्।
विवृतं नमयित्वा तु कुर्यात्प्राप्तामिह क्रियाम् ॥
अर्थ- मिचे हुए मुख को वैद्य स्निग्धपदार्थों को चुपडकर बफारा देकर उघाड देवे और यदि रोगी का मुख खुला रह गया हो तो पूर्वोक्त उपचारों से उस के मुख को दाग देवे अर्थात् बंद करे॥
पिप्पली चार्द्रकं चापि संचर्व्य च मुहुर्मुहुः।
निष्ठीवेत्तप्ततोयेन शोधयेद्वदनांतरी॥
अर्थ- पीपल और अदरख इनको वारंवार चावकर थूक देवे तथा गरम जल से मुख को धोवे तो मुख का खुलना बंद होना ठीक २ होने लगे॥
हनुग्रह चिकित्सा
निष्कुष्य लशुनं सम्यक् संक्षुद्य तिलतैलके।
सैंधवेनांचितं खादेद्धनुस्तंभार्दितो नरः॥
अर्थ-लहसन को छीलके तिल के तेल में पीस सैंधानिमक मिलायके खाय तो हनुस्तंभ रोग दूर होवे॥
रसोनवटक
रसोनगुटिकां माषविदलंपरिषेच्य च। योजयेत् पिष्टिकां कांतां सैंधवार्द्रकहिंगुभिः॥ ततस्तु वटकान्कृत्वा तिलतैले पचेच्छनैः। भक्षयेत्तान्यथावह्नि हनुस्तंभी सुखी भवेत्॥
अर्थ-लहसनका गोला और उडद की पीसी हुई दाल इनको एकत्र करके उस में सैंधानिमक, हींग और अदरख डालके तेल में बडे बनावे ये बडे खाने से हनुस्तंभ ( ठोडी का जकड जाना ) नाश होय॥
अभ्यंजन
अभ्यज्य पक्वतैलेन स्वेदयेन्मृदुनाग्निना।
बस्तिं विधारयेन्मूर्ध्नि तैलेन परिपूरयेत्॥
अर्थ-औटाये हुए तेल से देह में मालिस करें और मंद २ के अर्थात् पसीने निकाले और शिरोबस्ति देवे तो हनुस्तंभ दूर हो॥
प्रसारणीतेल वातकफजन्यवायुपर
प्रसारणीपलशतं जलद्रोणेन पाचयेत्। पादशिष्टः शृतो ग्राह्यस्तैलं दधिच तत्समम् ॥ कांजिकं च समं तैलात्क्षीरं तैलाच्चतुर्गुणम्। तैलात्तथाष्टमांशेन सर्वकल्कानि योजयेत् ॥ मधुकं पिप्पलीमूलं चित्रकः सैंधवं वचा। प्रसारणी देवदारू रास्नाच गजपिप्पली॥भल्लातःशतपुष्पा च मांसी चैभिर्विपाचयेत्। एतत्तैलं वरं पक्वंवातश्लेष्मामयान् जयेत्॥ कौब्जत्वं खंजपंगुत्वं गृध्रसीमर्दितं तथा। हनुपृष्ठशिरोग्रीवाकटिस्तंभं च नाशयेत्॥ अन्यांश्च विषमान्वातान् सर्वानाशु व्यपोहति॥
अर्थ-प्रसारणी १०० पल को एक द्रोण जल में डालके औटावे जब काढा चौथाई रहे तब उतारके उस को कपडें में छान लेवे. फिर इस में तेल, दही और कांजी काढे सेसमान मिलायके तेल से चौगुना गौका दूध मिलावे फिर इस में कल्क करके डालने की जो औषध हैं उन को मैं लिखता हूं. मुलहटी, पीपरामूल, चित्रक की छाल, सैंधानिमक, प्रसारणी, देवदारु, रास्ना, गजपीपल, भिलाये, सोंफ और जटामांसी ये बारहऔषध तेल सेअष्टमांश ले कल्क करके उस तेल में मिलाय देवे फिर तेल को अग्निपर चढाके मंद २ अग्नि से तेलमात्र शेष करे फिर इस को उतारके
छान लेवे और उत्तम शीशी आदि मेंभरके धर रखे. इसके लगाने से वातश्लेष्मजन्य विकार, कुब्जवायु, खंजवायु,पंगुवायु, गृध्रसी, अर्दित, हनुस्तंभ, पीठ की वायु, मस्तक, ग्रीवा, कमर इन की वायु को नाश करे इस के सिवाय दूसरे जो विषम छोटे बडे वादी के रोग हैं वे सब इस तेललगाने से दूर होते हैं॥
मन्यास्तंभ
दिवा स्वप्नाशनस्नानविकृतोर्ध्वनिरीक्षणैः। मन्यास्तंभं प्रकुरुते स एव श्लेष्मणा युतः॥
अर्थ-दिन में सोने से, अन्न, स्नान, ऊंचे को विकृतिपूर्वक देखने से इन कारणों से कोपको प्राप्त भई जो बात सो कफयुक्त होकर मन्या ( नाडी ) स्तंभन करे इस रोग को मन्यास्तंभन रोग कहते हैं॥
चिकित्सा
दशमूलीकृतं क्वाथं पंचमूल्यापि कल्पितम् ।
रूक्षं स्वेदं तथा नस्यं मन्यास्तंभ प्रयोजयेत्॥
अर्थ- दशमूल का अथवा पंचमूल का कल्क देवे और रूक्ष पदार्थों से स्वेदन कर्म करे, नस्य देवे. ये उपाय मन्यास्तंभ ( गरदन का जकड जाने ) पर करने चाहिये॥
तैलेनाज्येन वा ग्रीवामभ्यज्यार्कदलैरथ।
एरंडपत्रैर्वाच्छाद्य स्वेदयेद्वहुशो भिषक्॥
अर्थ- गरदनपर तेल अथवा घी लगाय आक के पत्ते अथवा अंड के पत्तों को आगपर सेक के बहुतवार सेके तो मन्यास्तंभ दूर हो॥
कुक्कुटांडद्रवैरुष्णैः सैंधवाज्यसमन्वितैः।
ग्रीवां संमर्दयेत्तेन मन्यास्तंभः प्रशाम्यति॥
अर्थ-मुरगे के अंडेका रस, सैंधानिमक और घी इन को गरम करके गर्दनपर मले तो मन्यास्तंभ दूर होवे ॥
जिह्वास्तंभ
वाग्वाहिनी शिरासंस्थो जिह्वां स्तंभयतेऽनिलः।
जिह्वास्तंभः स तेनान्नपानवाक्येष्वनीशता॥
अर्थ-वायु वाणी के वहनेवाली नाडिनमें प्राप्त हो जिह्वाका स्तंभन कर दे, उसको जिह्वास्तंभरोग कहते हैं. यह अन्नपान की तथा बोलने की सामर्थ्य का नाश करे॥
चिकित्सा
जिह्वास्तंभे यथावस्थं वातव्याधिचिकित्सितम्।
सामान्योक्ताः क्रियाश्चात्रार्दितस्यापि हिता मताः॥
अर्थ-जिह्वास्तंभपर जैसे दोष होवें उसी को विचारके वातव्याधि के ऊपर जो चिकित्सा कही है वह करे और वातव्याधिपर तथा अर्दित वादीपर जो सामान्य क्रिया कही है वह हितकारी है॥
दूसरा प्रकार
जिह्वास्तंभे क्रिया श्रेष्ठा सामान्योक्ता तु यार्दिते॥
अर्थ- जो अर्दितवायुपर सामान्य क्रिया कही वह जिह्वास्तंभपर श्रेष्ठ है॥
कल्याणकावलेह
सहरिद्रा वचा कुष्ठं पिप्पली विश्वभेषजम्। अजाजी चाजमोदा च यष्टीमधुयुतं घृतम् ॥ एकविंशतिरात्रेण भवेच्छुतधरो नरः। मेघदुंदुभिनिर्घोषो मत्तकोकिलनिःस्वनः॥ जडवागादिमूकत्वं लेहो कल्याणको जयेत्॥
अर्थ- हलदी, वच, कूठ, पीपल, सोंठ, जीरा, अजमोद, मुलहठी और घी इनका अवलेह २१ दिन सेवन करे तो बहरापना, तोतलापना और गूंगापना दूर होय तथा मेघ के समान अथवा दुदुंभी ( नौबत ) के समान गंभीर तथा कोकिल के समान प्रिय बोलनेवाला होय और सर्वशास्त्रों का धारणकर्त्ताहोवे॥
शिरोग्रह
रक्तमाश्रित्य पवनः कुर्यान्मूर्धधराः शिराः।
रूक्षाः सवेदनाः कृष्णाः सोऽसाध्यः स्याच्छिरोग्रहः॥
अर्थ-वायु रुधिर का आश्रय कर मस्तक के धारण करनेवाली नाडी को रुखी पीडायुक्त और काली कर दे यह शिराग्रहरोग असाध्य है. शिरोग्रह ऐसा भी पाठ है॥
चिकित्सा
शिरोग्रहे तु कर्तव्या शिरागतमरुत्क्रिया। दशमूलीकषायेण मातुलुंगरसेन च॥ शतेन तैलेनाभ्यंगः शिरोबस्तिश्च युज्यते॥
अर्थ-शिरोग्रह वायुपर शिरागत वायु का उपचार करे और दशमूलकाढा तथा बिजोरेका रसइन के साथ तेल को औटायके उसकी मालिस अथवा शिरोबस्ति करे॥
गृध्रसीलक्षण
स्फिक्पूर्वाकटिपृष्टोरुजानुजंघापदं क्रमात् । गृध्रसीस्तंभरुक्तोदैर्गृह्णाति स्पंदते मुहुः॥ वाताद्वातकफात्तन्द्रा गौरवारोचकान्विता॥
अर्थ-प्रथम स्फिक् कहिये कमरके नीचे का भाग जिस को कूला कहते हैं उस को स्तंभित कर दे, पीछे क्रम से कमर, पीठ, ऊरू, जानू, जंघा और पग इनको स्तंभित कर दे अर्थात् ये रह जाय, वेदना और तोद कहिये चोंटने कीसी पीडा होय और वारंवार कम्प होय, यह गृध्रसीरोग वादीसे होय है और वातकफ से होय तो इसमें तंद्रा और भारीपना और अरुचि ये विशेष होंय. इस प्रकार गृध्रसी रोग दो प्रकारका है॥
वातज गृध्रसीनिदान
वातजायां भवेत्तोदो देहस्यातीव वक्रता।
जानुजंघोरुसंधीनां स्फुरणं स्तंभता भृशम्॥
अर्थ- वातजगृध्रसी में वेदना, देह की वक्रता, जंघा, पींडरी और ऊरु इन के संधि में स्फुरण और स्तब्धता होती हैं॥
वातश्लेष्मज गृध्रसीनिदान
वातश्लेष्मोद्भवायां तु गौरवं वह्निमार्दवम्।
तंद्रा मुखप्रसेकश्च भक्तद्वेषस्तथैव च॥
अर्थ-कफ से उत्पन्न गृध्रसी में भारीपन, अग्निमांद्य, तंद्रा, लार का गिरना, अन्नका द्वेष ये लक्षण होते हैं॥
गृध्रसीचिकित्सा
गृध्रस्यां तु नरं सम्यग्रेकेण वमनेन वा। ज्ञात्वा निरामं दीप्ताग्निं बस्तिभिः समुपाचरेत्॥
अर्थ- गृध्रसीरोगवालेको प्रथम रेचन और वमन देवे जब वमन विरेचन से दीप्ताग्नि हो जावे तब बस्त्यादिक उपचार करने चाहिये॥
नादो बस्तिविधिः कुर्याद्यावदूर्ध्वं न शुद्ध्यति।
स्नेहो निरर्थकः स स्यात् भस्मन्येव हुतं तथा॥
अर्थ- गृध्रसीरोग में जबतक ऊर्ध्वभाग की शुद्धि न होवे तबतक बस्तिकर्म न करे यदि प्रमाद वैद्य करे तो स्नेहबस्ति निरर्थक होती है जैसे भस्ममें हवन करा हुआ व्यर्थ जाता है॥
एरंडतैलयोग
तैलमेरंडजं प्रातगोमूत्रेण पिबेन्नरः।
मासमेकं प्रयोगोयं गृध्रस्यूरुग्रहापहः॥
अर्थ- गोमूत्र में अंडी का तेल डालके प्रातःकाल १ महीने पर्यंत नित्य पीवे तो गृध्रसी तथा ऊरुस्तंभ इन को नाश करे॥
तैलं घृतं सार्द्रकमातुलुंगं रसं सचुक्रंसगुडं पिबेद्वा।
ट्युरुपृष्ठत्रिकशूलगुल्मगृध्रस्युदावर्तहरः प्रयोगः॥
अर्थ-तेल अथवा घी इन में से कोई एक के साथ अदरख और बिजोरे का रस अमलवेत और गुड इन सब को एकत्र करके पीवे तो कमर, जांघ, पीठ, त्रिकस्थान इनमें होनेवाला दर्द, गोला, उदावर्त्त और गृध्रसी वायु इनको नष्ट करे॥
निष्कुष्यैरंडबीजानि पिष्ट्वाक्षीरे विपाचयेत्।
तत्पायसं कटीशूले गृध्रस्यां परमौषधम्॥
अर्थ-अंडिनको छीलके कूट डाले. फिर इसको दूध में डालके औटावे जब लपसी हो जाय तब सेवन करे तो कमरका शूल और गृध्रसी इन पर उत्कृष्ट औषधी है॥
गृधसीहरतैल
द्वे पलेसैंधवात्पंच शुंठ्याग्रंथिकचित्रकात्। द्वे पले भल्लकास्थीनि विंशति द्वे तथाढके॥ आरनाले पचेत्प्रस्थं तैलस्यैतेरपत्यम्। गृधस्यूरुग्रहार्शोंतः सर्ववातविकारनुत्॥
अर्थ-सैंधानिमक ८ तोले, पीपरामूल और चित्रक ये प्रत्येक २० तोले भिलाए की गुठली ८ तोले, कांजी ८८ तोले और तेल ६४ तोले सब को एकत्र करके तेल सिद्ध करे. इस को यथाशक्ति पीवे तो यह संतान देवे तथा गृध्रसी, ऊरुस्तंभ, बवासीर और सर्ववाके विकारोंको नाश करे॥
शिरावेध गृध्रसीपर
विध्येच्छिरां मेढ्रबस्तेरधस्ताच्चतुरंगुले।
यदि नोपशमं गच्छेद्दहेत्पादकनिष्ठिकाम्॥
अर्थ-लिंगबस्ति के नीचे चार अंगुल पर शिरावेध करे तो गृध्रसी नष्ट होय यदि नष्ट न होवे तो पैर की छोटी उंगली में दाग देवे तो गृध्रसी अवश्य दूर हो॥
निंबकल्क
महानिंबजटाकल्को गृध्रसीनाशनः स्मृतः॥
अर्थ- बकायन के पत्तों का कल्क गृध्रसीवातनाशक है ॥
पिप्पली पिप्पलीमूलं भल्लातकफलानि च।
एतत्कल्कश्च सक्षौद्र ऊरुस्तभनिवारणः॥
अर्थ- पीपल, पीपरामूल और भिलाए इन का कल्क सहतके साथ सेवन करे तो उरुस्तंभ को दूर करे॥
पंचमूलीकषायं तु सुखोष्णं त्रिवृतायुतम्।
गृध्रसींगुल्ममूलं च सद्यः पीतो नियच्छति॥
अर्थ-पंचमूल के काढे में निसोथ का चूर्ण डालके पीवे तो गृध्रसी और गोले के रोग इनको तत्काल नाश करे॥
गृध्रसीचिकित्सा
एंडमूलं बिल्वं च बृहती कंटकारिका । कषायो रुचकोपेतः पीतो वृषणबस्तिजम् ॥ गृध्रसीजं हरेच्छूलं चिरकालानुबंधि च॥
अर्थ-अंडकी जड, बेल की जड, कटेरी बडी, कटेरी छोटी इनके काढे में संचरनिमक डालके पीवे तो वृषण (अंडकोश), बस्ति, गृध्रसीवात इन में होनेवाले बहुत दिन के दर्द को नाश करे॥
गोमूत्रैरंडतैलाभ्यां कृष्णाचूर्ण पिबेन्नरः।
दीर्घकालस्थितां हंति गृध्रसीं कफवातजाम्॥
अर्थ- गोमूत्र, अंडी का तेल और पीपल का चूर्ण सब को एकत्र करके पीवेतो बहुत दिन की कफवातजन्य गृध्रसी को नाश करे॥
सिंहास्यदंतीकृतमालकानां पिबेत्कषायं ऋभुतैलमिश्रम्।
यो गृध्रसीनष्टगतिः प्रसुप्तः स शीघ्रगः स्याद्धि किमत्र चित्रम्॥
अर्थ-अडूसा, दंती और अमलतास इन का काढा करके उस में अंडी का तेल मिलायके पीवे तो जिस का चलना हलना बंद हो गया हो, स्पर्श प्रतीत न हो ऐसा गृध्रसी कारोगी शीघ्र गमन करनेवाला होवे इस में आश्चर्य नहीं॥
बृहन्निंबतरोः सारो वारिणा परिपेषितः।
स पीतो नाशयेत्क्षिप्रमसाध्यामपि गृधसीम्॥
अर्थ- बकायन के सार को जल में पीसके पीवे तो असाध्य भी गृध्रसी रोग शीघ्र नष्ट होय॥
शेफालिकादलैः क्वाथो मृद्वग्निपरिपाचितः।
दुर्वारं गृध्रसीरोगं पीतमात्रः प्रणाशयेत्॥
अर्थ-काली निर्गुडी के पत्तों का काढा मंदाग्निपर करके पीवे तो दुर्निवार गृध्रसी रोगतत्क्षण दूर हो॥
रास्नागुग्गुलु
रास्नायास्तु पलं चैकं पंचकर्षाणि गुग्गुलोः।
सर्पिषा वटिकां कृत्वा भक्षयेद्गृधसीहरीम्॥
अर्थ- रास्ना४ तोले और गूगल ५ तोले दोनों को खरल करकेगोली करके शक्तिप्रमाण खाय तो गृध्रसीरोगको नष्ट करे॥
रास्नाकाढा
रास्नामृतारग्वधदेवदारुत्रिकंटकैरंड पुनर्नवानाम्।
क्वाथं पिबेन्नागरचूर्णमिश्रं जंघोरुपृष्ठत्रिक पार्श्वशूली॥
अर्थ-रास्ना, गिलोय, अमलतास, देवदारु, गोखरू, अंड की जड और पुनर्नवा इन के काढे में सोंठ का चूर्ण डालके पीवे तो जंघा, ऊरु, पीठ, त्रिकस्थान इन, के शूलको दूर करे॥
पथ्यागुग्गुलु
पथ्याबिभीतामलकीफलानां शतं क्रमेण द्विगुणाभिवृद्धम्। प्रस्थेन युक्तं च पलं कषाणां द्रोणे जले संस्थितमेकरात्रम्॥ अर्धावशेषं क्वथितं कषायं भांडे पचेत्तत्पुनरेव लौहे। अमूनि वह्नेरवतार्य दद्याद् द्रव्याणि संचूर्ण्य पलार्धकानि॥ विडंगदंतीत्रिफलागुडूचीकृष्णात्रिवृन्नागरकोपणानि। यथेष्टचेष्टस्य नरस्य शीघ्रं हिमांबुपानानि च भोजनानि॥ निषेव्यमाणो विनिहंति रोगान् सगृध्रसीं नूतनखंजतां च। प्लीहानमुग्रंजठराणि पंगुपांडुत्वकंडूवमिवातरक्तम्॥ पथ्यादिको गुग्गुलुरेष नाम्ना ख्यातः क्षितावप्रतिमप्रभावः। बलेन नागेंद्रसमं मनुष्यं जवेन
कुर्यात्तरगेन तुल्यम् ॥ आयुःप्रकर्षं विदधाति चक्षुर्बलं तथा पुष्टिकरो विषघ्नः। क्षतस्य संधानकरो विशेषाद्रोगेषु शस्तः सकलेषु तज्ज्ञैः॥
अर्थ- हरड १००, बहेडा २००, आंवले ४००, शुद्ध गूगल ६४ तोले इनको २०२४ तोले जलमें रात्रि के समय भिगो देवे. प्रातःकाल चूल्हेपर चढायके औटावे. जब जल आधा रहे तब इस काढे में वायविडंग, दंती, त्रिफला, गिलोय, पीपल, निसोथ, सोंठ और काली मिरच, इन प्रत्येक का चूर्ण दो दो तोले डाले. जब गाढा हो जावे तब घी से गूगलको कूटके गोली बनाय लेवे तो यह गूगल तैयार हो यह यथेष्ट आचरण तथा यथेष्ट भोजन करनेवाले मनुष्य के सेवन करने से रोग नाश करे. यह गृध्रसी, नवीन खंजता का रोग, प्लीहा, उग्रजठर, पंगुता, पांडुत्व, कंडु, वमन और वातरक्त इन को नाश करनेवाला है. पथ्यादि गुग्गुल पृथ्वीपर अद्वितीय सामर्थ्य रखनेवाला है. और बल में हाथी के समान, वेग में घोडे के समान मनुष्य को करे. आयुष्य, चक्षुर्बल और पुष्टिको करे. तथा विषनाशक, घाव को भरनेवाला तथा सर्व रोगोंपर उत्तम है ऐसा वैद्यों ने कहा है॥
तुरंगगंधा सितखंडयुक्ता घृतेन मुक्ता कटिपृष्ठहन्त्री॥
अर्थ-असगंध और मिश्री इन का चूर्ण घृत के साथ देनेसे कटिशूल का नाश करता है॥
एरंडतैलयोग
वाजिगंधा बला विश्वा दशमूलं विसाधितम्।
गृध्रस्यां तैलभैरंडं बस्तौ पाने च शस्यते॥
अर्थ-असगंध, खिरेटी, सोंठ और दशमूल इन के काढे में अथवा कल्क में अंडी का तेल डालके सिद्ध करे यह गृध्रसीवायुपर बस्तीविषयमें किंवा पीने में उत्तम है॥
विश्वाचीलक्षण
तलं प्रत्यंगुलीनां याः कंडरा बाहुपृष्ठतः।
बाह्वोः कर्मक्षयकरी विश्वाचीतीह सोच्यते॥
अर्थ-बाहु के पिछाडी से लेकर हाथ के ऊपरले भागपर्यंत प्रत्येक उंगली के नीचे मोटी नसहैं उन को दुष्ट कर हाथ से लेना, देना, पसारना, मुट्ठी मारनी इत्यादिक कार्योंका नाशकर्त्ता जो रोग होय उसको विश्वाची रोग कहते हैं॥
चिकित्सा
दशमूली बलामाषक्वाथं तैलाज्यमिश्रितम् ।
सायं भुक्त्वा चरेन्नस्यं विश्वाच्यामवबाहुके॥
अर्थ- दशमूल, खिरेटी और उडद इनका काढा, तेल अथवा घी मिलायके सायं- काल के समय भोजन करनेके पश्चात् नस्य देवे तो विश्वाची तथा अपबाहुक इन को नाश करे॥
माषतैल
माषसिंधुबलारास्नादशमूलक हिंगुभिः। वचाशतजटाख्याभिः सिद्धं तैलं सनागरम्॥ ऊर्ध्वं भक्ताशनादन्याद्बाहु-शोषावबाहुकौ। विश्वाचीमुद्धतां चापि पक्षाघातं तथादितम्॥
अर्थ-उडद, सैंधानिमक, खिरेटी, रास्ना, दशमूल, हींग, वच और शतावर इनके काढे के साथ सिद्ध करा हुआ तेल सोंठ के साथ भोजन करके सेवन करें तो बाहुशोष, अपबाहुक, विश्वाची, पक्षाघात और अर्दितवायु इनको नष्ट करे॥
क्रोष्टुशीर्षलक्षण
वातशोणितजः शोथो जानुमध्ये महारुजः।
ज्ञेयः क्रोष्टुकशीर्षस्तु स्थूलः क्रोष्टुकशीर्षवत्॥
अर्थ- वातरक्त से जानु, घेंटू इन दोनों की संधि में अत्यंत पीडाकारक सूजन हो और स्यार के मस्तकसमान मोटी हो उसको क्रोष्टुशीर्ष ऐसे कहते हैं॥
चिकित्सा
गुग्गुलुं क्रोष्टुशी तु गुडूचीं त्रिफलांभसा।
क्षीरेणैरंडतैलं वा पिबेद्वा वृद्धदारुकम्॥
अर्थ- क्रोष्टुशीर्ष पर गिलोय और त्रिफला इनके काढे में गूगल डाल पीवे अथवा ४ तोले दूध में १ तोला अंडी का तेल डालके पीवेअथवा वृद्धदारु का चूर्ण सेवन करे॥
सामान्यचिकित्सा
रसैस्तित्तिरिमांसस्य पीतैर्गुग्गुलुसंस्थितैः।
वातरक्तक्रियाभिश्व जयेज्जंबुकमस्तकम्॥
अर्थ-तीतरके मांसरस में गूगल डालके पीवेतथा वातरक्त पर जो उपाय कहे हैंवह इसपर करे तो क्रोष्टुशीर्ष नाश होय॥
खंज व पंगुके लक्षण
युः कव्याश्रितः सक्नः कंडरामाक्षिपेद्यदा ।
खंजस्तदा भवेज्जंतुः पंगुः सक्थ्नोर्द्वयोर्वधात्॥
अर्थ-कमर में रहे जो वात सो जंबाकी नसोंको ग्रहण कर एक पगको स्तंभित कर देय, उसको खोडोरोग कहते हैं और दोनों जंघानकी नसों को पकड दोनों पैरों को स्तंभित कर दे उस कोपांगुला कहते हैं॥
चिकित्सा
उपाचरेदभिनवं खंजं पंगुमथापि वा।
विरेकस्थापनस्वेदगुग्गुलुस्नेहवस्तिभिः॥
अर्थ- खंज और पंगु यदि नवीन होवे तो विरेचन आस्थापन करावे, पसीने निकाले, गूगल, स्नेहपान और बस्ति इत्यादिक उपचार करे॥
कलायखंजलक्षण
कंपते गमनारंभेखंजन्निव च लक्ष्यते।
कलायखंजं तं विद्यान्मुक्तसंधिप्रबंधनम्॥
अर्थ- जो पुरुष चलते समय थरथर कांपे और खंज अर्थात् एक पैरसे हीन मालूम होय, इस रोग में संधिके बंधन शिथिल होते हैं इस रोग को कलायखंज कहते हैं॥
चिकित्सा
क्रमः कलायखंजस्य खंजपंग्वोरिव स्मृतः।
विशेषात्स्नेहनं कर्म कार्यमत्र विचक्षणैः॥
अर्थ-कलाय खंजपर खंज और पंगुपर जो चिकित्सा कही है वह करे तथा विचक्षण वैद्य को विशेषकरके स्निग्ध उपचार करे॥
चिकित्साक्रम
जयेत्कलायखंजं तु हेतुत्यागरसोनतः॥
अर्थ-कलायखं जवादीवाले को निदान परिवर्जन करे अर्थात् जिस कारण से हुआ होवे उसको त्याग देवे. तथा लहसन भक्षण से जीते॥
वातकंटकनिदान
रुक्पादे विषमे न्यस्ते श्रमाद्वा जायते यदा।
वातेन गुल्फमाश्रित्य तमाहुर्वात कंटकम्॥
अर्थ-उंची नीची जगह में पैर पडने से अथवा श्रमके होने से वायु कुपित टकना मेंप्राप्त होकर पीडा करे तौइस रोगको वातकंटक ऐसे कहते हैं॥
चिकित्सा
रक्तावसेचनं कुर्यादभीक्ष्णं वातकंटके।
पिबेदैरंडतैलं वा दहत्सुचीभिरेव च॥
अर्थ-वातकंटक रोग वारंवार रुधिरको निकाले, अंडी का तेल पीवे तथा सुईसे दाग देना चाहिये यह उपाय वातकंटक रोगके नाश करनेवाले हैं॥
पाददाहलक्षण
पादयोः कुरुते दाहं पित्तासृक्स हितोऽनिलः।
विशेषजश्चंक्रमणात् पादहर्षं तमादिशेत्॥
अर्थ-जिस के पैर हर्षयुक्त ( कहिये झनझनाहट पीडायुक्त ) होय और अत्यंत सोय जावे, उसको पादहर्षरोग कहते हैं यह कफवातके कोपसे होय है॥
चिकित्सा
वातरक्तक्रमं कुर्यात्पाददाहे विशेषतः। मसूरविदलैः पिष्टैः शृतशीतेन वारिणा॥ चरणौ लेपयेत्सम्यक् पाददाहप्रशांतये। नवनीतेन संलिप्तौ वह्निना परितापितौ॥ मुच्येतेचरणौ क्षिप्रं परितापात्सुदारुणात्॥
अर्थ- पाददाह पर विशेषताकरके वातरक्त का क्रम करे और मसूर की डाल को औटायके शीतल करे हुए जल में पीसके पैरों केलेप करे अथवा पैरों में मक्खनको चुपडके अग्नि से तपावे तो एक क्षणमात्र में पैरों का दाह शांत होय॥
पाददाहपर लेप
गुडूच्यैरंडबीजानि दध्ना पिष्ट्वाप्रलेपयेत्।
पाददाहे हितं प्रोक्तं महानिंबफलानि च॥
अर्थ-गिलोय और अंडी के बीजों को दही मेंपीसके इन का अथवा बकायन के फलोंको जलमें पीसके पैरों में लेप करे तो पाददाह शांत होवे॥
पादहर्षलक्षण
हृष्येते चरणो यस्य भवतश्च प्रसुप्तकौ।
पादहर्षः स विज्ञेयः कफवातप्रकोपजः॥
अर्थ- चरण रोमांचयुक्त होके स्पर्श न समझा जाय उसको पादहर्ष कहते हैं वह कफवात के कोप से होता है॥
चिकित्सा
पादहर्षेतु कर्तव्यः कफवातहरो विधिः॥
अर्थ- पादहर्ष रोगपर वातकफनाशक यत्न करने चाहिये॥
बाहुशोषनिदान
अंसदेशे स्थितो वायुः शोषयेदसबंधनम्।
शिराश्चाकुंच्य तत्रस्थो जनयेदपबाहुकम्॥
अर्थ-कंधा में रहे जो वायु सो कुपित होकर उसके बंधन को सुखाय दे, तब अंसशोषरोग प्रगट होय और कंधा में रहे जो वायु सो नसों को संकोच करके अपबाहुकरोग प्रगट करे॥
चिकित्सा
बाहुशोषे पिबेद्भुक्त्वा सर्पिः कल्याणकं महत्। बलामूलशृतं तोयं सैंधवेन समन्वितम्॥ बाहुशोषकरे वाते मन्यास्तंभे च शस्यते॥
अर्थ- बाहुशोष रोग होनेपर भोजन करके पश्चात् बृहत्कल्याणक घृत पीवे अथवा विरेटीके जडका काढा करके उसमें सैंधानिमक मिलायके पीवे यह बाहुशोष और मन्यास्तंभ नामक वादीपर उत्तम है॥
रसोनकल्क
क्षीरेण तैलेन घृतेन वापि मांसेन सार्धं लशुनानि खादेत्। शाल्योदनेनापि च षष्टिकेन पलार्धवृद्ध्यादिवसानि सप्त॥ वातोत्थरोगान् विषमज्वरांश्च शूलान् सगुल्मान् दहनस्य मांद्यम्। प्लीहानमुग्रं भुजपार्श्वशूलं शिरोव्यथां कृंतति शुक्रदोषान्॥
अर्थ-दूध, तेल, घी अथवा मांस इन में से किसी एक के साथ अथवा सांठी चांवल के भात के संग दो दो तोले लहसन को चाटे इस प्रकार सात दिन भक्षण करे तो वादी से हुए रोग, विषमज्वर इन का शूल, गोला, मंदाग्रि, प्लीहा और भुजा, पीठ और मस्तकइन का शूल और शुक्रदोष इनको नाश करे॥
बाहुशोषचिकित्सा
बलामूलभवक्वाथः सैंधवेन समन्वितः।
बाहुशोषगदं नस्यादन्यान्मापरसोऽथ वा॥
अर्थ- खिरेटी के जड का काढा करके उस में सैंधानिमक डालके देवे. अथवा उडदों के काढे कीनस्य देवे तो बाहुशोषवातको नष्ट करे॥
अवबाहुकलक्षण
शिराः संकोच्य बाहुस्थः स कुर्यादपबाहुकः॥
अर्थ-बाहु का आश्रयकरके जो शिराओं का संकोचन करता है उस को अवबाहुक कहते हैं ॥
चिकित्सा
परमौषधमपबाहुकमन्यास्तंभोर्ध्वजत्रुगतरोगे।
शीतलजलेन नस्यं तदुपशमे जिंगिनी च पुरः॥
अर्थ-अवबाहुक, मन्यास्तंभ और हसली के ऊपर के रोग इनपर मंजीठ और गूगल को शीतल जल में पीसके उस की नस्य देवे. यह उत्तम औषधी है॥
मूलं बलायास्त्वथ पारिभद्रात्तथात्मगुप्तास्वरसं पिबेद्वा।
युंजीत यो माषरसेन नस्यं भवेदसौ वज्रसमानबाहुः॥
अर्थ-खिरेटी की जड और नीम की छाल इनका काढा अथवा कौंचका रस पीवे. अथवा उडदोके काढेकी नस्य देवे तो वज्र के समान भी बाहुशोष को नष्ट करे॥
माषतैल
माषातसीयवकुरंटककंटकारीगोकंटटुंटुकजटाकपिकच्छुतोयैः। कार्पास कास्थिशणबीजकुलत्थकोलक्वाथेन बस्तापिशितस्य रसेन चापि॥ शुंठ्या समागधिकया शतपुष्पया च सैरंडमूलकपुनर्नवयाहरण्या। रास्नाबलामृतलताकटुकैर्विपक्वं माषाख्यमेतदपबाहुहरं हि तैलम्॥
अर्थ-उडद, अलसी, जौ, पीयावांसा, कटेरी, गोखरू, टेंटू, जटामांसी, कौंछ, नेत्रवाला, कपास के बीज ( बिनाला), सन के बीज, कुलथी और बेर इनका काढ़ा बकरे के मांस का रस, सोंठ, पीपल, सोंफ, अंड की जड, पुनर्नवा, हरणवेल, रास्त्रा, खिरेटी, गिलोय और कुटकी इनका कल्क करे. इस कल्क में तेल डालके सिद्ध करे तो यह माषाख्यतैल अपबाहुक हरण करे. इस को तैल बनाने की क्रिया से वैद्य बनावे॥
अतसीखल्लिविश्वरजोगुडेन संमर्द्यमोदको भुक्तः।
अपहरत्यवश्यमपबाहुकृतकौतुकं नात्र संदेहः॥
अर्थ - अलसी, देवदारु और सोंठ इनका चूर्ण गुड में मिलायके इस की गोली करके खाय तो अवश्य अपबाहुक वादीका नाश करे यह कौतुक ( तमासा ) है इस में संदेह नहीं॥
माषतैलादिमर्दन
माषतैलरसोनाभ्यां बाहोश्च परिमर्दनात्।
दशांत्रिमाषक्वाथेन जयेद्वैद्योपबाहुकम्॥
अर्थ- पूर्वोक्त माषतैल और लहसन इन को एकत्र कर भुजा ( हाथ ) पर मालिस करे अथवा दशमूल और उडद इनका काढा पीवे तो अपबाहुकका नाश होय॥
मूक मिम्मिण व गद्गदनिदान
आवृत्य वायुः सकफो धमनीः शब्दवाहिनीः।
नरान्करोत्यक्रियकान्मूकमिम्मिणगद्गदान्॥
अर्थ-कफयुक्त वायु शब्द के बहनेवाली नाडी में प्राप्त होकर मनुष्यों का वचन क्रियारहित मूक, मिम्मिण और गद्गद, ऐसा करदे मूक कहिये जिस से बोला न जाय, मिम्मिण कहिये गिनगिनायकर नाकसे बोले और गद्गद बोलते समय बीचके पद और व्यंजनों को न बोले और मंद बोले इन रोगों के कारण सदृश होकर रोगों के भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं वह दोषों के उत्कर्ष करके अथवा प्रारब्धवश से होते हैं ऐसा जानना॥
सारस्वतघृत
प्रस्थं घृतस्य पलिकैः शिग्रुवचालवजधातकीलोध्रैः। आजे पयसि विपक्वंसिद्धं सारस्वतं नाम्ना॥ विधिवदुपयुज्यमानं जडगद्गदमूकतां क्षणाज्जित्वा। स्मृतिमतिमेधाप्रतिमाः कुर्यात्स स्पष्टवाग्भवति॥
अर्थ-घी ६४ तोले और सहजना, वच, सैंधानिमक, धायके फूल और लोध ये प्रत्येक ४ तोले ले सबको कूट पीसके घीमें डाले तथा घी की बराबर बकरी का दूध डालके पक्वकरे तो यह सारस्वत घृत सिद्ध होय. इसको यथाविधि सेवन करने से सर्ववाणीके दोष दूर करके बुद्धि, स्फूर्ती तथा स्पष्ट भाषणको करे ॥
दशमूलस्य निर्यूहो हिंगुपुष्करचूर्णितः।
शमयेत्परिपीतस्तु वाणीं मिम्मिणसंज्ञिताम्॥
अर्थ- दशमूल के काढे में हींग और पुहकरमूल इन का चूर्ण मिलायके पीवे तो वाणी का मिम्मिणता दोष ( गिनगिनाय के बोलना ) दूर होय॥
तूनीलक्षण
अधो या वेदना याति वर्चोमूत्राशयोत्थिता।
भिन्दतीव गुदोपस्थं सा तूनी नामतो मता॥
अर्थ- पक्वाशय और मूत्राशयसे उठी जो पीडा सो नीचे जायकर प्राप्त हो और गुदा तथा उपस्थ कहिये स्त्रीपुरुषों के गुह्यस्थान इन में भेद करे, अर्थात् पीडा करे उस को तूनीरोग कहते हैं॥
प्रतूनीलक्षण
गुदोपस्थोत्थिता चैव प्रतिलोमं विधाविता।
वेगैः पक्वाशयं याति प्रतूनी चेह सोच्यते॥
अर्थ–गुदा और उपस्थ इन से उठी जो पीडा उलटी ऊपर जायकर प्राप्त हो और जोर से पक्वाशय में प्राप्त हो और तूनी के समान पीडा करे उस को प्रतूनी कहते हैं॥
इन दोनों पर चिकित्सा
तून्यां च प्रतितून्यां च प्रशस्ताः स्नेहबस्तयः। पिबेद्वा स्नेहलवणं पिप्पल्यादिमथांबुना॥ उष्णेन रामठक्षार-प्रगाढमथवा घृतम्॥
अर्थ-तूनी और प्रतूनी वादीपर स्नेहबस्ति देवे. अथवा निमक और घी ये पीवेअथवा पीपल के चूर्ण को पानीके साथ पीवे अथवा गरम जलके साथ हींग और सैंधानिमक सेवन करे अथवा घृत पीना चाहिये॥
आध्मानलक्षण
साटोपमत्युग्ररुज माध्मातमुदरं भृशम्।
आध्मानमिति जानीयाद्घोरं वातनिरोधजम्॥
अर्थ-गुडगुड शब्दयुक्त अत्यंत पीडायुक्त ऐसा उदर ( पक्वाशय ) अत्यंत फूल अर्थात् वादी से भरकर चाम की थैली के समान हो जाय इस भयंकर रोग को आध्मानरोग कहते हैं. यह वातके रुकने से होय है॥
चिकित्सा
आध्माने लंघनं पूर्वं दीपनं पाचनं ततः।
फलवर्तिक्रियां कुर्याद्बस्तिकर्म च शोधनम्॥
अर्थ-अफरा इस रोगमें प्रथम लंघनकरे फिर दीपन और पाचन देवे तथा फलवर्त्ती बस्तीकर्म तथा दस्त करावे ये उपाय करना चाहिये॥
नाराचचूर्ण
कर्षमात्रा भवेत्कृष्णा त्रिवृता स्यात्पलोन्मिता। खंडादपि पलं ग्राह्यं चूर्णमेकत्र कारयेत्॥ मधुनाक्षमितं लिह्याच्चूर्णमाध्माननाशनम्॥
अर्थ- पीपल १ तोले, निसोथ ४ तोले, मिश्री ४ तोले इस प्रकार ले चूर्ण करके तीन मासे के अनुमान सहत के साथ सेवन करे तो पेटका फूलना दूर होय॥
दारुषट्कलेप
दारुहैमवतीकुष्ठशताह्वाहिंगुसैंधवैः।
लिपेत्कोष्णैरम्लापेष्टैःशूलाध्मानयुतादरम्॥
अर्थ- देवदारु, चोक, कूठ, सतवार, हींग और सैंधानिमक ये पदार्थ निंबू के रस में पीस गरम करके पेटपर लेप करे तो शूल और पेट का फूलना इन को नाश करे॥
महानाराचरस
अभयारग्वधो धात्री दंती तिक्ता स्नुहीत्रिवृत्। मुस्ता प्रत्येकमेतानि ग्राह्याणि पलमात्रया॥ तानि संक्षुद्य सर्वाणि जलाढकयुगे पचेत्। तत्र तोयेष्टमं भागं कषायमवशेषयेत्॥ निस्त्वग्जैपालबीजानि नवानि पलमात्रया। तनुवस्त्रधृतान्येव तस्मिन्क्वाथेशनैः पचेत् ॥ ज्वालयेदनलं मंदं यावत् क्वाथो घनो भवेत् । ततः खल्वेक्षिपेद्भागानष्टौ जैपालबीजतः॥ भागांस्त्रीन्नागराद् द्वौ च मरिचाद्द्वौ च पारदात् । गंधकाद्वौ च तानीह यावद्यामं विमर्द्दयेत् ॥ रसो नाराचनामायं भक्षितो-
रत्तिकामितः । जलेन शीतलेनैव रोगानेतान्विनाशयेत्॥ आध्मानं शूलमानाहं प्रत्याध्मानं तथैव च। उदावर्तं तथा गुल्ममुदराणि हरत्यसौ॥ वेगे शांते च भुंजीत शर्करासहितं दधि। ततस्तत्सैंधवेनापि ततो दध्योदनं मनाक्॥
अर्थ- हरड, अमलतास का गूदा, आमले, जमालगोटा, कुटकी, थूहर, निसोथ और नागरमोथा ये प्रत्येक चार २ तोले ले सबको कूटके ५१२ तोले जल में डालके काढाकरे जब अष्टावशेष काढा हो जाये तब उतारके छान लेय. फिर इस काढेमें जमालगोटे के बीजछिले हुए ४ तोले कपडेकी पोटली में बांधके दोलायंत्रकी, विधिसे लटकाय देवे और मंद २ अग्निसे सिजावे जबतक काढा गाढा होवे तबतक औटावे. फिर खरल में उन जमालगोटे के ८ भाग, सोंठ ३ भाग, काली मिरच, पारा और गंधक ये दो दो भाग लेवे. सबको एकत्र करके एक प्रहर खरल करे. यह नाराचरस शीतल जल के साथ एक रत्ती सेवन करेतो अफरा, शूल, वादी का अवरोध, प्रत्याध्मान, उदावर्त्त, गोले का रोग तथा सर्व प्रकार के उदररोग इन को नाश करे। जब दस्त हो चुके तब दहीभात भोजन करे अथवा दहीभात और सैंधानिमक ये पथ्य में थोडे देवे. जब दस्त बंद करने होय तो गरम जल पिलाय देवे॥
प्रत्याध्माननिदान
विमुक्तपार्श्वहृदयं तदेवामाशयोत्थितम्।
प्रत्याध्मानं विजानीयात्कफव्याकुलितानिलम्॥
अर्थ- और वही आध्मान रोग आमाशय में उत्पन्न होय तौ उस को प्रत्याध्मान कहते है. इस में पसवाडे और हृदय इन में पीडा नहीं होय और वायु कफकरके व्याकुल हो॥
चिकित्सा
प्रत्याध्माने समुत्पन्ने कुर्याद्वमनलंघने।
दीपनादीनि युंजीत पूर्ववद्बस्तिकर्म च॥
अर्थ- प्रत्याध्मान रोग उत्पन्न होने से वमन और लंघन करे. फिर दीपनादिक उपचार तथा बस्ति इत्यादिक उपचार करे॥
वाताष्ठीलानिदान
नाभेरधस्तात्संजातः संचारी यदि वाऽचलः। अष्ठीलावद्यवो ग्रंथि-
रूर्ध्वमायत उन्नतः॥ वाताष्ठीलां विजानीयाद्बहिर्मार्गावरोधिनीम्॥
अर्थ- नाभी के नीचे उत्पन्न भई और इधर उधर फिरे, अथवा अचल अष्ठीला ( गोलपाषाण ) के समान कठिन और ऊपर का भाग कुछ लंबा होय और आडी कुछ ऊंची होय और बहिर्मार्ग कहिये अधोवायु मल मूत्रइन का अवरोध कहिये ( रुकना ) हो ऐसी गाठ को वाताष्ठीला कहते हैं॥
प्रत्यष्ठीला
एतामेव रुजोयुक्तां वातविण्मूत्ररोधिनीम्।
प्रत्यष्ठीलामिति वदेज्जठरे तिर्यगुत्थिताम्॥
अर्थ-वाताष्ठीला अत्यंत पीडायुक्त वात मूत्र मल के रोध करनेवाली और जो तिरछी भई होय उसको प्रत्यष्ठीला कहते हैं॥
हिंग्वादिचूर्ण
हिंगुग्रंथिक धान्य जीरकवचाचव्याग्निपाठाशठीवृक्षाम्लं लवणत्रयं त्रिकटुकं क्षारद्वयं दाडिमम्। पथ्यापौष्करवेतसाम्लहपुषाजाज्यस्तदेभिः कृतं चूर्णं भावितमेतदार्द्रकरसैः स्याद्बीजपूरद्रवैः॥
अर्थ-भूनी हींग, पीपरामूल, धनिया, जीरा, वच, चव्य, चित्रक की छाल, पाढ, कचूर, इमली, सैंधानिक, बिडनिमक, काला निमक, सोंठ, मिरच, पीपल, सज्जीखार, जवाखार, अनारदाना, हरड, पुड्करमूल, अमलवेत, हौऊबेर और जीरा इन के चूर्ण में अदरख के रसको तथा बिजोरे के रसकी भावना देवे और यथायोग्य अनुपान के साथ अष्टीलारोग पर वैद्य देवे॥
प्रत्यष्ठीलादि चिकित्सा
प्रत्यष्ठीलाष्ठीकयोर्गुल्मेभ्यंतरविद्रधौ।
क्रिया हिंग्वादिचूर्णं च शस्यतेऽत्र विशेषतः॥
अर्थ - प्रत्यष्ठीला,अष्ठीला, गुल्म और अंतरविद्रधि इनपर हिंग्वादि चूर्ण जो ऊपर लिख आये हैं सो देय. विशेषता करके यही क्रिया उत्तम है॥
दूसरा प्रकार
हिंग्वाम्लत्रिकटूग्रषट्कटुशठीवृक्षाम्लदीप्यालकापाठाजाज्यजगंधमूलहपुषाद्विक्षारसाराभया। हिध्माध्मानविबंधवर्ध्मकसनश्वासाग्निसादारुचिप्लीहार्शोखिलशूलगुल्मगदहृद्रोगाश्मपांडुप्रणुत्॥
अर्थ-भूनी हींग, अमलवेत, सोंठ, मिरच, पीपल, वच, षट्कटू ( सोंठ, मिरच, पीपल, चव्य, चित्रक, पीपरामूल, )कचूर, चूक, अजमायन, कंकोल, पाढ, जीरा, असगंध, पुहकरमूल, हौऊवेर, सज्जीखार, जवाखार, चिरोंजी और हरड इन का समान भाग चूर्ण करे इस के सेवन से हिचकी, अफरा, मलबद्धता, बद, खांसी, श्वास, मंदाग्नि, अरुचि, प्लीहा, बवासीर, गोले का रोग, हृदयरोग, पथरी और पांडुरोग इन सबको दूर करे॥
हिंग्वादियोग
हिंगूग्रगंधाबिडशुंठ्यजाजीहरीतकीचित्रकमूलकुष्ठम्।
भागोत्तरं चूर्णितमेतदिष्टंगुल्मोदराष्ठीलविषूचिकासु॥
अर्थ-मूनी हींग, वच, बिडनोन, सोंठ, जीरा, हरड, चीते की छाल और कूठ ये सब औषध भागोत्तर वृद्धि से लेके चूर्ण करे यह गोला, उदर, अष्ठीला और विषूचिका इनपर हितकारी है॥
नादेयादिकाढा
नादेयीकुटजार्कशिग्रुबृहतीस्नुग्बिल्वभल्लातकव्याघ्रीकिंशुकपारिभद्रकरजोपामार्गनपाग्निकान्। वासामुस्तकपाटलासलवणान् जग्ध्वा रसं पाचितं हिंग्वादिप्रतिवापमेतदुचितं गुल्मोदराष्ठीषु॥
अर्थ-भूयजामुन, कूडे की छाल, आक, सहजना, कटेंरी बडी, थूहर, बेलगिरी, भिलाए, छोटी कटेरी, पलासपापडी, नीम को छाल, पित्तपापडा, ओंगा, कदंब, चित्रक, अडूसा, नागरमोथा, पाढ इनका काढा करके इस में सैंधानिमक और हींग डालके पीछे. यह गोला, उदर और अष्ठीला इन पर उत्तम है॥
विडंगासव
विडंगं पिप्पलीमूलं पाठा धात्र्येलवालकम्। कुटजत्वक्फलं रास्ना भार्ङ्गी पंचपलोन्मितान्॥ अष्टद्रोणेंऽभसः पक्त्वा द्रोणशेषं तु कारयेत्। पूते शीते क्षिपेत्तस्मिन् माक्षिकस्य शतत्रयम्॥ धातक्या विंशतिपलं चूर्णं कृत्वा तु दापयेत्। व्योपस्य च तुलान्वाष्टौ त्रिजातं द्विपलं तथा॥ फलिनीहेमतोयानांसलोघ्राणां पलं पलम्। घृतभांडे समाधाय मासमेकं विधा-
रयेत् ॥ एष योगो हरत्येव प्रत्यष्ठीला भगंदरान्। ऊरुस्तंभाश्मरीमेहगंडमालां सविद्रधिम्॥ आढ्यवातं हनुस्तंभं विडं- गाख्यो महासवः॥
व्यर्थं - वायविडंग, पीपरामूल, पाढ, आवले, एलवालुक, कूडाकी छाल, इन्द्रजो,रास्ना, भारंगी ये प्रत्येक वीस २ तोले लेवे. इसमें १४ मन १३ सेर जल डालके औटावे जब ३६ सेर १६ तोले जल बाकी रहे तब उतारके छान लेय. फिर इस में ३०० तोलेसहत, धाय के फूल ८० तोले, सोंठ, मिरच, पीपल ये ३२०० तोले तथा दालचीनी, इलायची, पत्रज ये प्रत्येक आठ २ तोले लेके और फूलप्रियंगु, धतूरेके बीज, नेत्रवाला और लोध ये प्रत्येक चार २ तोले डालके इन सबको घीके चिकने बासनमें भरके एक महीनेपर्यंत दाबके धरा रहने दे. यह प्रयोग प्रत्यष्ठीला, भगंदर, ऊरुस्तंभ, पथरी, प्रमेह, गंडमाला, विद्रधि, आढ्यवात और हनुस्तंभ इनको नाश करें. इस को विडंगासव कहते हैं॥
बस्तिवातलक्षण
मारुते विगुणे बस्तौमूत्रं सम्यक्प्रवर्त्तते।
विकारा विविधाश्चापि प्रतिलोमे भवति हि॥
अर्थ- बस्ती ( मूत्रस्थान ) में वायु अनुलोमगति से गमन करे तौमूत्र अच्छी रीति- से उतरे ऐसे प्रतिलोमसे गमन करे तो अनेक प्रकारके पथरी मूत्रकृच्छ्रादि विकार उत्पन्न होय॥
चिकित्सा
बलामूलत्वचश्चूर्णं ससितं कर्षसंमितम्।
पिबेत्कुडवदुग्धेन मुहुर्मूत्रेण शांतये॥
अर्थ - खिरेटी की जड की छाल का चूर्ण एक तोलेऔर मिश्री एक तोला इन को १६ तोले दूध के साथ पीवे तो वारंवार मूतना दूर होय॥
हरीतक्यादिचूर्ण
पथ्याबिभीतधात्रीणां चूर्णं चूर्णं मृतायसः।
मधुना सह संलीढं मुहुर्मूत्रस्य शांतिकृत्॥
अर्थ- हरड, बहेडा आँवला इनका चूर्ण करके इसमें लोहभस्म मिलाय सहतमें मिलायके चाटे तो वारंवार मूतनेको बंद करे॥
यवक्षारचूर्ण
यवक्षारस्य चूर्णं तु संयोज्य सितया सह।
भक्षयेन्नियतं तस्य प्रशाम्येन्मूत्रनिग्रहः॥
अर्थ-जवाखार के चूर्ण में मिश्री मिलायके सेवन करे तो मूत्रग्रह ( मूत्र का रुकना ) शांतिहोवे॥
कूष्मांडबीजयोग
कूष्मांडस्य तु बीजानि बीजानि त्रपुसस्य च ।
बस्तौ संधारयेत्तेन प्रशाम्येन्मूत्रनिग्रहः॥
अर्थ-पेठे के बीज और कांकडी के बीज इन दोनों को एकत्र पीस के बस्ती ( मसाने ) पर लगावे तो मूत्र की रुकावट दूर हो॥
आमलक्यादि योग
आमलक्याश्च कल्केन बस्तिभागं प्रलेपयेत्।
तेन प्रशाम्यति क्षिप्रं नियमान्सूत्रनिग्रहः॥
अर्थ - आंवले का कल्क करके बस्तीपर गाढा २ लेप करे तो निश्चय करके मूत्र की रुकावट दूर होय॥
चंदनादिवर्ति
मेहनस्याथवा योनेर्मुखस्याभ्यंतरे शनैः।
घनसारयुतां वर्तिं धारयेन्मूत्रनिग्रहे॥
अर्थ-मूत्र कीरुकावट दूर करने को लिंग में अथवा योनि के मुख में चंदन में भीगी हुई बत्तीको धारण करे तो मूत्र उतरे॥
बस्तिगतवायुचिकित्साक्रम
अथ बस्तिगते वाते कार्योबस्तिविशोधनः॥
अर्थ-बस्तिगत वात कुपित होनेसे बस्ती का शोधन करे॥
कंपवायु
सर्वांगकंपः शिरसो वायुर्वेपथुसंज्ञकः॥
अर्थ-सब अंगों को और मस्तक को जो कंपाये उस वायुको वेपथु ( कंप ) वायु कहते हैं॥
खल्ली के लक्षण
खल्ली तु पादजंघोरुकरमूलावमोटनी॥
अर्थ- और जो वायु पैर, जंघा, ऊरू और हाथके मूल में कंपन करे उस को खल्ली ( मूलामना ) रोग कहते हैं॥
चिकित्सा
कुष्ठसैंधवयोः कल्कश्चुक्रतैलसमन्वितः।
सुखोष्णो मर्दने योज्यः खल्लीशूलनिवारणः॥
अर्थ-कूट और सैंधानिमक इन का कल्क चुक्रतैल ( जो पीछे लिख आये हैं ) उस के साथ मिलाय गरम करके सुहाता २ लगायके मालिस करे तो खल्ली बात और शूल इनको दूर करे॥
स्थान नाम लक्षण वातव्याधिनिदान
स्थाननामानुरूपैश्च लिंगैः शेषान्विनिर्दिशेत्।
सर्वेष्वेतेषु संसर्गं पित्तादेरुपलक्षयेत्॥
अर्थ-स्थान और नाम इन के अनुरूप कहिये तुल्य ऐसे लक्षणों से शेष वातव्याधि जाननी. स्थानानुरूप कहिये जैसे कुक्षिशूल, नखभेद इत्यादिक. नामानुरूप कहिये जैसे शूल के कहने से कीलनिखातवत् पीडा जाननी उसी प्रकार तोदभेदादिक करके भी पीडा विशेष जाननी चाहिये और पित्त, कफ, रुधिर इनके संसर्गसे द्विदोषजव्याधि जाननी चाहिये॥
प्रथमं ह्रस्वकेशत्वं ततो वाचालतापि च। आटोपः पार्श्वशूलं च पुरीषस्यातिगाढता ॥ तथा मलाप्रवृत्तिश्चकंपः स्तंभश्च रूक्षता। कार्श्यंकार्ष्ण्यंच शैत्यं च लोमहर्षोव्यथा तथा॥ तोदोभेदः शिरास्फूर्तिरंगमर्दोंगशुष्कता। संकोचश्चांगविभ्रंशो मोहश्चंचलचित्तता॥ निद्रानाशः स्वेदनाशो बलहानिश्च भीरुता। शुक्रक्षयो रजोनाशो गर्भनाशः परिश्रमः॥ एवंविधानि रूपाणि करोति कुपितोनिलः। हेतुस्थानविशेषेण भवेद्रोगविशेषकृत्॥
अर्थ-अब वातभेद कहता हूं. केश छोटे होना, बकवाद करना, गुडगुड शब्द, पार्श्वशूल, मल दृढ हो जाना, मल का अवरोध, कंप, निश्चल रहना, रूखापन,
कृशपन, कालेपन, शीत होना, रोमांच, वेदना, शूल, भेद, शिराओं का फुरना, अंगका मर्दन, अंग सुख जाना, अंग सकोडना, अंगभ्रंश, मोह, मनकी चंचलता, निद्राका नाश, पसीनेका नाश, बलकी हानि, भय पाना, वीर्यक्षय, शुक्रक्षय, गर्भका नाश, श्रम इस प्रकार वायु कुपित होनेसे हेतु और स्थान इनके योगसे अनेक प्रकारकी ब्याधि उत्पन्न करता है ॥
चिकित्सा
सामान्यवातरोगाणां या चिकित्सा प्रवर्तते।
एषां सैव विधातव्या ततस्ते यांति संक्षयम्॥
अर्थ- सामान्यवातरोगों पर जो चिकित्सा कही है वोही चिकित्सा ह्रस्वकेशादि वातोंपर करे तो इन सबका नाश होय॥
लशुनसेवन
अन्नप्रकारैः पललप्रकारैर्गोधूमकैर्वा यवसक्तुभिर्वा।
दुग्धेन तैलेन घृतेन चापि युक्तानि शीते लशुनानि खादेत्॥
अर्थ-भोजन करने के जो पदार्थ ( रोटी, दाल, भात, इत्यादिक ) अथवा मांस के पदार्थों से किंवा गेहूं, जौ, सत्तू, दूध, तेल और घी इनके साथ शीत दूर करने को लहसन भक्षण करे॥
शुंठ्यादिकाढा
विश्वैरंडशिफादारुगुडूचीसहचरास्तथा।
एतत्क्वाथोस्ति संधिस्थं वातं हंति निषेवितः॥
अर्थ- सोंठ, अंड की जड, देवदारु, गिलोय और पियावांसा इनका काढा सेवन करने सेअस्थिगत और संधिगत वायु को नाश करे॥
दशमूलादिकाढा
दशमूलीकषायेण पिबेद्वा नागरांभसा।
कटिशूलेषु सर्वेषु तैलमेरंडसंभवम्॥
अर्थ- दशमूल के काढे से अथवा सोंठ के काढेसे अंडी का तेल पीवे तो कमर में जो दर्द होता है वह सब नष्ट होय॥
कटिवातपर लड्डू
आलिवं खाखतं खाद्यं खर्जूरं मेथिका तिलाः। मिशिद्वयं च
भल्लास्थि वातामं बब्बुलं तथा॥ सारं चैव पलं ग्राह्यं गुडो द्विकुडवस्तथा। घृतं द्विकुडवं चैव लड्डुकान् कारयेद्भिषक्॥ द्विकर्षं भक्षयेत्प्रातः कटिवातविनाशनम्। धातुस्तंभं धातुवृद्धिं कुरुते नात्र संशयः॥
अर्थ- आलिव, खसखस, खजूर, मेथी, तिल, सौंफ, बडीसोंफ, भिलाए की गुठली, बदाम, गोंद और चिरोंजी प्रत्येक चार २ तोले लेवे. गुड और घी ये प्रत्येक ३२ तोले डाले. सब को एकजीव कर दो दो तोले के लड्डू बनावे. इस में से प्रातःकाल एक भक्षण करे. तो कमर की वायु को नाश करे तथा धातु का स्तंभन करेऔर धातु की वृद्धि करे इस में संदेह नहीं है॥
ऊरुस्तंभपर सामान्यविशेषचिकित्सा
ऊरुस्तंभं जयेद्रूक्षस्वेदमर्दनकौशिकैः। पिप्पली पिप्पलीमूलं भल्लातकफलानि च॥ एतत्कल्कश्च सक्षौद्र ऊरुस्तंभनिवारणः॥
अर्थ - ऊरुस्तंभ व्याधिको रूक्षस्वेद, मर्दन और गूगल सेवन करना इन उपायों से शमन करे. तथा पीपल, पीपरामूल और भिलाए इन के कल्क को सहत के साथ देवे ऊरुस्तंभ को दूर करे॥
सामान्यसंज्ञा
वामनत्वांगसंकोचभंगभेदग्रहव्यथाः। मर्दनैर्बस्तिभिः क्वाथैःस्वेदनैश्च भिषक् जयेत्॥ अपतानत्रणायामौसस्नेहैर्वणकित्सितैः। अंगरौक्ष्यस्तंभकंपकार्श्यंकपिशतोदनैः॥ दौर्बल्यस्फुरणे भ्रंशे स्नेहैर्मर्दनमिष्यते। शुक्रकार्श्येशुक्रनाशे शुक्रस्यातिप्रवर्तने॥ विड्ग्रहे बद्धविट्के च स्नेहपानं हितं मतम्॥
अर्थ- वामन ( वोनापना ), अंगों का संकोच ( कुबडापना ), देह में पीडा तथा अंगों का जकड जाना इत्यादिकों को मर्दन, बस्ति, काढे इत्यादिक देना पसीने निकालना इत्यादि उपायों से जीते और अपतान, तथा व्रणायाम इनको स्नेह और व्रणचिकित्सा फरके दूर करे तथा अंगों की रूक्षता, अंगस्तंभ, कंप, कृशता, देह कीकालौच, पीडा, दुर्बलता, अंगस्फुरण और अंगभ्रंश इनपर स्नेहादिक का मर्दन करे और धातुक्षीण, धातु- नाश, धातुका अत्यंत गिरना, विट्ग्रह और बद्धविट्क इनपर स्नेहपान हितकारी तथा मान्य है॥
ऊर्ध्ववातलक्षण
अधः प्रतिहतो वायुः श्लेष्मणा मारुतेन च।
करोत्युद्गारबाहुल्य मूर्ध्ववातः स उच्यते॥
अर्थ-कफवात करके पीडित नीचे की वायु डकार बहुत लावे उस वातको उर्ध्वकहते हैं, परंतु टोडरानंद ने कुछ विलक्षण लिखा है॥
शुंठ्यादिचूर्ण
भागा दश विश्वायास्तत्तुल्या वृद्धदारुकस्यापि। पथ्यात्र पंचभागा चतुरंशं हिंगु संभृष्टम्॥ एकः सैंधवभागस्तत्तुल्यं चित्रकं चात्र। संवृद्धमूर्ध्ववातं इत्येच्चूर्णितं भुक्तम्॥
अर्थ- सोंठ और विधायरा दोनों दश दश तोले, हरड पांच तोले, भूनी हींग चार बोले, सैंधानिमक और चित्रक एक २ तोला इन सबका चूर्ण तयार करके सेवन करे तोअत्यंत बढी हुई ऊर्ध्ववात ( बहुत डकारों का आना) नाश होय॥
शामामूलं क्षीरपिष्टं निपीतं वासायुक्तं नाशयेदूवातम्॥
अर्थ - पीपरा के मूल को दूध में पीसके उसमें अडूसे का रस डालके देवे तो ऊर्ध्ववातका नाश करे॥
त्रिकशूललक्षण
स्फिक्सक्थ्नोःपृष्ठवंशास्थ्नोर्यः संधिस्तत्रिकं स्मृतम्।
तत्र वातेन या पीडा त्रिकशूलं तदुच्यते॥
अर्थ- गले के समीप और कटि के त्रिक में जो वायुसे शूल होता है उस को त्रिकशूलकहते हैं॥
चिकित्सा
कारयेद्वालुकास्वेदं त्रिकशूली प्रयत्नतः।
खट्वाधस्तत्करीषाग्निं धारयेत्सततं नरः॥
अर्थ- त्रिकशूल रोगवाले रोगीके वालूसेसेक करे और खाट के नीचे अग्नि रखकर सोवेकि जिससे कमर में सेंक पहुँचे इस प्रकार करने से त्रिकपीडा दूर होय॥
आभादित्रयोदशांगगुग्गुलु
आभाश्वगंधा हपुषा गुडूची शतावरी गोक्षुरकश्च रास्ना। श्यामा शताह्वा च शठी यवानी सनागरा चेति समं विचूर्ण्य॥
सर्वैः समं गुग्गुलुमत्र दद्यात्क्षिपेदिहाज्यं च तदर्धभागम्। तद्भक्षयेदर्धपिचुप्रमाणं प्रभातकाले सुरयाऽथ यूषैः॥ मद्येन वा कोष्णजलेन वाथ क्षीरेण वा मांसरसेन वापि। त्रिकग्रहे जानुहनुग्रहे च वाते भुजस्थे चरणस्थिते च॥ संधिस्थिते चास्थिगते च तस्मिन्मज्जास्थिते स्नायुगते च कोष्ठे। रोगान् हरेद्वातकफानुविद्धान्वातेरिता-न्हृदग्रहयोनिदोषान्॥ भग्नास्थिविद्धेषु च खंजतायां सगृध्रसीके खलु पक्षवाते। महौषधं गुग्गुलुमेतमाहु-स्रयोदशांगं भिषजः पुराणाः॥
अर्थ-बबूर के बीज, असगंध, हौउबेर, गिलोय, सतावर, गोखरू, रास्त्रा, पीपल, सौंफ, कचूर, अजमायन, और सोंठ इन सबका समान भाग चूर्ण करे और सब चूर्णके बराबर शुद्ध करी हुई गूगल डाले और गूगलसे आधा घी डाले तो यह सिद्ध होय. इसमेंसे एक २ तोलेकी गोली बनावे. एक गोली प्रातःकाल सुरा (मद्य) के साथ अथवा यूष के साथ अथवा मद्य के साथ गरमजल, दूध अथवा मांसरस इन से किसी एक साथ सेवन करे तो त्रिकपीडा, जानुग्रह ( घोटुओं का रह जाना ), भुज की वात, चरण की वात, स्नायुगत, कोष्ठगत और वातकफसे उत्पन्न व्याधि, वातजन्य हृदयका योनिदोष, भग्नास्थि, टूटी हुई हड्डी, खंजवात, गृध्रसी, पक्षवात इन सबको नाशः करे यह त्रयोदशांग गुगल महौषधी है. ऐसे पूर्वचार्यों नेकहा है॥
रसोनाष्टक
रसोनपक्वकंदस्थ गुलिका निस्तुषीकृताः। पाटयित्वा च मध्यस्थं दूरीकुर्यात्तदंकुरम् ॥ निश्युग्रगंधनाशाय दध्ना संनीय रक्षयेत् । ततः प्रक्षाल्य संशोष्यशिलायां परिपेषयेत् ॥ कल्कस्य पंचमं भागं चूर्णमेषां विनिःक्षिपेत् । सौवर्चलं यवानी च भर्जितं हिंगु सैंधवम्॥ कटुत्रिकं जीरकं च समभागं विचूर्णयेत् । तिलतैलं च कल्कस्य तुर्यांशं तत्र मिश्रयेत्॥ खादेत्कर्षमितं प्रातः किंवा दोषाद्यपेक्षया । अनुपानं प्रकुर्वीत वातारिशृतमन्वहम्॥ सर्वांगैकांगजं वातमर्दितं चापतंत्रकम्। अपस्मारं तथोन्मादमूरुस्तंभं च गृध्रसीम्॥ उरःपृष्ठकटीपार्श्वकुक्षिपीडां कृमीन्ह-
रेत्। मद्यं मांसं तथाम्लं च रसं सेवेत नित्यशः॥ व्यायाममातपं रोषमतिनीरं गुडं स्त्रियम्। रसोनमश्नन्पुरुषस्त्यजेदेतन्निरंतरम्॥ वर्जयेत्तदतीसारी प्रमेही पांडुरोगवान्। अरोचकी गर्भिणी च मूर्छार्शोरोग-संयुतः ॥ रक्तपित्ती च शोषी च यक्ष्मी छर्द्यर्दितो नरः। पित्ते तु पथ्यया कुर्यात् प्रयोगांते विरेचनम्॥ अन्यथा तस्य जायंते कुष्ठपांड्वामयादयः। स्त्रीस्तन्यांतरितं दद्याद्बालानामप्यनिच्छताम्॥ तथापि लभते सिद्धिं महावीर्या-द्रसोनतः॥
अर्थ-पकी हुई लहसन की गांठ के छिलके दूर कर टुकडे करे और भीतर जो उन के अंकुर हैं उसको निकालके फेंक देवे. फिर इसकी घोर गंध नाश करने को रात्रि के समय दही में भिगोय देवे. प्रातःकाल धोय स्वच्छ करके पौछ लेवे. फिर इसको सिलापर पीसके कल्क कर लेवे. इस कल्क में संचरनिमक, अजमायन, भूनी हुई हींग, सैंधानिमक, सोंठ, मिरच, पीपल और जीरा इन का समान भाग चूर्ण करके कल्क का पंचमांश मिलावे. तथा तिल का तेल कल्क का चतुर्थांश डाल केसब को एकत्र करके प्रातः काल एक तोलेभक्षण करे अथवा दोष और बल विचार करके मात्रा देवे. और ऊपर से अंड की जड का काढा पीवेतो सर्वांग तथा एकांगगत वात, अर्दित अपतंत्रक, अपस्मार, उन्माद, ऊरुस्तंभ, गृध्रसी, उर, पीठ, कमर, पसवाडा और कूख, इनकी, पीडा तथा कृमिरोग इन का नाश करे. इस औषधके सेवन करनेवाले को मद्य, मांस, अम्ल (खट्टा) रसये जरूर २ सेवन करने चाहिये और व्यायाम, धूप, क्रोध, बहुत जलका पीना, गुड, स्त्रीसेवन ये लहसन खानेवाले को कदाचित् नहीं करने चाहिये. यह औषध अतिसारी, प्रमेही, पांडुरोगी, अरोचकी, गर्भिणी, मूर्च्छावान्, अर्शरोगी, रक्तपित्तवान, क्षय- रोगी, शोषवाला, वमन का रोगी इन को कदाचित् नहीं खानी चाहिये. यदि इस औषधके सेवन करने से पित्त की प्रबलता होवे तो छोटी हरड खायकर दस्त करावे. यदि बढे हुए पित्त में यदि दस्त न लेवे तो कुष्ठ और पांडु इत्यादि रोग होते हैं स्त्री के दूध से जो बालक न पीता हो उसको पिलावे. इस रसोनाष्टक औषध सेवन करनेसे रोगशांत होय॥
व्रणायाम कहते हैं
मर्माश्रितं व्रणं प्राप्य वायुर्यः सर्वदेहगः।
वेगैरानामयेद्देहं व्रणायामं तु तं त्यजेत्॥
अर्थ- सर्वशरीरगत वात मर्मस्थान के व्रण में जाकर अपने वेगसे देह को नम्र करता है तिस को व्रणायाम कहते हैं. वह असाध्य समझना॥
हृदयं यदि वा पृष्ठमुन्नतं क्रमितः सह।
क्रुद्धो वायुर्यदा कुर्यात्तदा तं कुब्जमादिशेत्॥
अर्थ- हृदय वा पीठ ये क्रुद्ध होके ऊंचे होते हैं उसको कुब्ज कहते हैं॥
कृछ्रसाध्यत्व
हनुस्तंभार्दिताक्षेपपक्षाघातापतानकाः। कालेन महता वाता यत्नात्सिध्यंति वा न वा॥ नवान्बलवतस्त्वेतान्सा-धयेन्निरुपद्रवान्॥
अर्थ- हनुस्तंभ, अर्दित, आक्षेप, पक्षाघात, अपतानक ये वातव्याधि बहुत दिन में बडे परिश्रम से और यत्न से साध्य होती हैं. अथवा कभी साध्य नहीं होय. परंतुबलवान् पुरुष के ये वातव्याधि नई प्रगट भई हो और उपद्रवरहित होय तौउस की चिकित्सा करनी चाहिये॥
वातरोग के असाध्यत्व
विसर्पदाहरुक्संगमूर्च्छारुच्यग्निमादेवैः। क्षीणमांसबलं वातात् प्रति पक्षवधादयः॥ शूनं सुप्तत्वचं भग्नं कंपाध्माननिपीडितम्। रुजार्तिमंतं च नरं वातव्याधिविनाशयेत्॥ अव्याहतगतिर्यस्य स्थानस्थः प्रकृतिस्थितः। वायुः स्यात्सोऽधिकं जीवेद्वीतरोगः समाः शतम्॥
अर्थ-विसर्परोग,दाह, शूल, मलमूत्र का निरोध, मूर्च्छा, अरुचि, मंदाग्नि इन लक्षणयुक्त जो होय और बलक्षीण होय ऐसे पुरुषों को पक्षवधादिक विकार मारक अर्थात् प्राण के हरणकर्त्ता होते हैं॥ सूजनवाला, जिस की त्वचा सोइ गई होय, अर्थात् जिसको स्पर्श होने का ज्ञान न होय, जिसकी हड्डी टूट गई होय, कंप और अफरा इन से अत्यन्त पीडित होय, रुजा और आर्त्तिकहिये शूलयुक्त ऐसे मनुष्यको यह वातव्याधिरोग नाश करता है जिस पुरुष की वायु अव्याहतगति और अपने आश्रय से रहनेवाली और प्रकृतिस्थित कहिये न वृद्ध न क्षीण होय, वह पुरुष निरोगी होकर ( अधिकं समाः शतं ) कहिये एक सो बीस वर्ष और पांच दिन पर्यंत जीवे॥
बत्तीसीकाढा
रास्ना गुडूची ह्येरंडो देवाह्वा चाभया सठी। बलोग्रगंधा पाठा च शतपुष्पा पुनर्नवा ॥ पंचमूली विषा मुंडी सौर्यकश्च दुरालभा। यवानी पौष्करं मूलमश्वगंधा प्रसारिणी ॥ गोक्षुरं चाटरूषं च वपुषा वृद्धदारुकम् । शतावरी तथा ब्राह्मी गुग्गुली क्षीरकंचुका ॥ समभागैरिमैः सर्वैः कषायमुपकल्पयेत् । कृष्णा- चूर्णेन वा योगराजगुग्गुलुनाथ वा॥ अजमोदादिना वापि तैलेनैरंडजेन वा। वातरोगेषु सर्वेषु कफशोषेपतानके॥ मन्यास्तंभे तथा शोषे पक्षाघाते सुदारुणे । अर्दिताक्षेपकुब्जे च धनुग्रहस्वरग्रहे॥ आढ्यवाते तथा मूके खंजे चैवावबाहुके। गृध्रस्यां जानुभेदे च गुल्मे शूले कटिग्रहे॥ सामे चैव निरामे च सप्तधातुगतेनिले। आवृते चानावृते च वातरक्ते विशेषतः॥ एष द्वात्रिंशकः क्वाथः कृष्णात्रेयेण भाषितः॥
अर्थ- रास्ना, गिलोय, अंड की जड, देवदारू, हरड, कचूर, खिरेटी, वच, पाढ, सौंफ, पुनर्नवा, पंचमूल, अतिविष (अतीस), गोरखमुंडी, विजयसार, धमासा, अजमायन, पोहकरमूल, असगंध, प्रसारणी, गोखरू, अडूसा, कांटेदार खिरनी, विधायरो, शतावर, ब्राह्मी, गूगल और क्षीरकंचुका इन सब को समान भाग लेकर क्वाथ बनावे, इस में पीपल का चूर्ण अथवा योगराजगूगल अथवा अजमोदादि चूर्ण अथवा अंडी के तेलके साथ पीवे. यह संपूर्णवादी के रोग, कफशोष, प्रतानकवायु, मन्यास्तंभ, शोष, घोरपक्षाघात, अर्दितरोग, आक्षेपक, कुब्ज, हनुग्रह, स्वरग्रह, आढ्यवात, मूक, खंज, अवबाहुक, गृध्रसी, घोटुओं की पीडा, गोले का रोग, शूलरोग, कमर का दर्द, साम और निराम ऐसी सप्तधातुगत वायु, आवृत, अनावृत और वातरक्त इनपर देवे तो सबको नष्ट करे. यह द्वात्रिंशक काढा कृष्णात्रेयनामक ऋषिने कहा है॥
लघुरास्त्रादिकाढा
रास्त्रागुडूचीवातारिदेवदारुमहौषधैः।
पिबेत्सर्वांगिके वाते समज्जास्थिसमांसगे॥
अर्थ-रास्ना, गिलोय, अंड की जड, देवदारू और सोंठ इन को समानभाग ले, काढाकरके पीवे तो सर्वांगवात, मज्जागत वात, अस्थिगत वातऔर मांसगत वातको दूर करे॥
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कुष्ठादिचूर्ण
कुष्ठकेंद्रयवा पाठा पावकोतिविषा निशा।
एतेषां चूर्णमुष्णांबुपीतं हंत्यनिलान्बहून्॥
अर्थ - कूठ, इंद्रजो, पाढ, चित्रक की छाल, अतीस और हलदी इन का बारीक चूर्ण करके गरम जल के साथ पीवे तो अनेक प्रकार की वायु दूर करे॥
शुंठ्यादिचूर्ण
शुंठीमरिचदारूणां चूर्ण क्वाथस्य पानतः।
सर्वेवाता विनश्यंति देहोपद्रवकारिणः॥
अर्थ- सोंठ, मिरच और देवदारू इनका चूर्ण कर इन्हीके काढे के साथ देवे तो देह में उपद्रव करनेवाले संपूर्ण वादियोंको नष्ट करे॥
रास्नादिचूर्ण
रास्नापुनर्नवा शुंठी गुडूच्येरंडजं शृतम्। सप्तधातुगते वाते वाते सर्वांगगे पिबेत्॥
अर्थ-रास्ना, पुनर्नवा, सोंठ, गिलोय और अंड की जड इन का काढा सप्तधातुगत वात, आमवात और सर्वांगवात इनपर देवे॥
द्वात्रिंशकगुग्गुलु
त्रिकटु त्रिफला मुस्तं विडंगं चव्यचित्रको । वचैला पिप्पलीमूलं हपुषा सुरदारु च॥ तुंबरूं पौष्करं कुष्ठंविषा च रजनीद्वयम् । बाष्पिका जीरकं शुंठी शतपत्रा दुरालभा॥ सौवर्चलं विडंगं च क्षारौ द्विरदपिप्पली। सैंधवं च समानेन तुल्यं दत्त्वा च गुग्गुलुम्॥ साधयित्वा विधानेन कोलमात्रां वटीं चरेत्। घृतेन मधुना वापि भक्षयेत्तामहर्मुखे॥ आमं हन्यादुदावर्त मंत्रवृद्धिं गुदकृमीन्। महाज्वरोपसृष्टानां भूतोपहतचेतसाम्॥ आनाहोन्मादकुष्ठानि पार्श्वशूलहृदामयान्। गृध्रसीं च हनुस्तंभं पक्षाघातापतानकान् ॥ शोफप्लीहानमत्युग्रं कामलामपचीं तथा। नाम्नाद्वात्रिंशको ह्येष गुग्गुलुः कथितो महान्॥ धन्वंतरिकृतो योगः सर्वरोगनिकृंतनः॥
अर्थ- सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, नागरमोथा, वायविडंग, चव्य, चित्रक, दालचीनी, इलायची, पीपरामूल, हाऊबेर, देवदार, तुंबरू, पोहकरमूल, कूठ, अतीस, दारुहलदी, हलदी, बबूर, जीरा, सोंठ कमल, धमासा, संचरनिमक, वायविडंग, सज्जीखार, जवाखार, गजपीपल और सैंधानिमक ये सब एक २ भाग लेवे और सबकी बराबर गूगल लेय सब विधिपूर्वक सिद्ध करके बेर के गुटिका समान करके इसको घृत अथवा सहतके संग प्रातःकाल खाय तो आम, उदावर्त्त, अंत्रवृद्धि, गुदाकी कृमि इनको नाश करे तथा महाज्वर से पीडित, भूतबाधावाला, अनाह, उन्माद, कोढ, पसवाडे काशूल, हृदयरोग, गृध्रसी, हनुस्तंभ, पक्षाघात, अपतानक, शोफ, प्लीहा, कामला और अपची इन सब रोगवालोंको हितकारी है इसको बडा द्वात्रिंशनामा गुग्गुल कहते हैं.यह धन्वंतरिका करा हुआ है॥
योगराजगुग्गुल वातादिरोगोंपर
नागरं पिप्पली चव्यं पिप्पलीमूलचित्रकैः। भृष्टं हिंग्वजमोदं च सर्षपा जीरकद्वयम् ॥ रेणुकेंद्रयवाः पाठा विडंगं गजपिप्पली। कटुकातिविषा भार्ङ्गीवचा मूर्वेति भागतः॥ प्रत्येकं शाणिकानि स्युर्द्रव्याणीमानि विंशतिः॥ द्रव्येभ्यः सकलेभ्यश्च त्रिफला द्विगुणा भवेत्॥ एभिश्चूर्णीकृतैः सर्वैः समो देयस्तु गुग्गुलुः। वंगं रौप्यं च नागं च लोहसारं तथाभ्रकम्॥ मंडूरं रससिंदूरं प्रत्येकं पलसंमितम्। गुडपाकसमं कृत्वा इमं दद्याद्यथोचितम्॥ एकपिंडं ततः कृत्वा धारयेद्धृतभाजने। गुटिकाः शाणमात्रास्तु कृत्वा ग्राह्या यथोचिताः॥ गुग्गुलुर्योगराजोयं त्रिदोषघ्नो रसायनः। मैथुनाहारपानानां त्यागो नैवात्र विद्यते॥ सर्वान्वातामयान्कुष्ठानर्शांसि ग्रहणीगदम्। प्रमेहं वातरक्तं च नाभिशूलं भगंदरम् ॥ उदावर्तं क्षयं गुल्ममपस्मारमुरोग्रहम्॥ मंदाग्निश्वासकासांश्च नाशयेदरुचिं तथा॥ रेतोदोषहरः पुंसां रजोदोषहरः स्त्रियाम्। पुंसामपत्यजनको वैध्यानां गर्भदस्तथा॥ रास्त्रादिक्वाथसंयुक्तो विविधं हंति मारुतम्॥ काकोल्यादिशृतात्पित्तं कफमारग्वधादिना॥ दार्वीशृतेन मेहांश्च गोमूत्रेणैव पां-
डुताम् । मेदोवृद्धिं च मधुना कुष्ठं निंबशृतेन वा॥ छिन्नाक्वाथेन वातास्त्रं शोथं शूलं कणाश्रितात्। पाटलाक्वाथसहितो विषं मूषकजं जयेत्॥ त्रिफलाक्वाथसहितो नेत्रार्तिं हंति दारुणाम्। पुनर्नवादेः क्वाथेन हन्यात्सर्वोदराण्यपि॥
अर्थ- सोंठ, पीपल, चव्य, पीपरामूल, चित्रक, भुनी हींग, अजमोद, सरसो, दोनों जीरे, रेणुक, इन्द्रयव, पाढ, वायविडंग, गजपीपल, कुटकी, अतीस, भारंगी, वच, मूर्वा, ये वीस औषध एक एक शाण लेवे. और सब औषधोंसे दूना त्रिफला लेवे. इन सबक चूर्ण करे तथा सब चूर्णके बराबर शुद्ध हुआ गूगल मिलाके सबको बारीक करके गुड के पाक के समान पतला करके पूर्वोक्त चूर्ण मिलाय दे. फिर वंगभस्म, रौप्यभस्म, नागभस्म, लोहभस्म, अभ्रकभस्म, मंडूरभस्म और रससिंदूर ये सात भस्म एक एक पल लेवे . सब को उस गूगल में मिलाय देवे फिर सब को कूटके एक जीवकर गोला बनाय लेवे फिर उसमें से एक एक शाणकी गोली बनावे इन को घी के चिकने बरतन में भरके रख देवे इसका योगराज गूगल ऐसे कहते हैं. इस गूगलके सेवन करनेसे त्रिदोष दूर होवे तथा यह रसायन है. इसपर मैथुन और खाने पीनेका निषेध नहीं है. विना पथ्य के भी गुण करे है इससे सर्व प्रकार के वादी के रोग, कुष्ठ, बवासीर, संग्रहणी, प्रमेह, वातरक्त, नाभी का शूल, भगंदर, उदावर्त्तवायु, क्षयरोग, गोला, अपस्मार, उरोग्रह, मंदाग्नि, खांसी, श्वास और अरुचि ये रोग दूर हों यह योगराज गुगूल पुरुष केधातुविकारों को दूर करे स्त्रियों के रजदोष को दूर करे पुरुषों की धातु बढायके पुत्र देता है. वांझ स्त्रियों को गर्भ देय है रास्नादि काढेके साथ खाय तो अनेक प्रकार की वादी दूर हो. कांकोल्यादि काढे के साथ सेवन करे तो पित्तरोग दूर हो, आरग्वधादि काढे के साथ पांडुरोग दूर हो, शरीरमें मेद दुष्ट होकर शरीर बढने से सहत में मिलायके देवेकुष्ठरोग मेंनिमके काढे के साथ देवेरक्तवातपर गिलोय के काढे से। शूल और सूजन इनपर पीपल के काढे से, मूषे के विषपर पाढल के काढे में देवे, नेत्ररोगपर त्रिफला के काढे से, पुनर्नवादि काढे के साथ संपूर्ण उदररोग पर सेवन करे इस प्रकार अनुपान जानना॥
षडशीतिगुग्गुल
सैर्ययासविषा दारु व्याघ्रीयुक् चविका वृषः। कृष्णाब्दोग्राधनाभीरुवाट्यालमिशिवल्लरी॥ पथ्या शुंठी छिन्नरुंहा शठ्यारग्वधगोक्षुरम्। विशाखा मोदकी तिक्तग्रंथिभार्ङ्गीविदारिका॥
अलंबुषा हस्तिकर्णी बस्तगंधा विषाणिका । शिवाक्षं मुसली कींतीकाकोली दीप्ययुग्मकम्। त्रिवृद्दंती शिखी श्रृंगी कोकिलाक्षो दुरालभा। पंचमूलं महद्वीरतरुः कुष्ठं च जोंगकम्॥ जातिपत्रीफलैलं च केसरं त्वक् किरातकम्। कुंकुमं देवकुसुमं विशाला निशिसैंधवम् ॥ मंदारमूलं कृमिजिद्धेमदुग्धा रविप्रिया। गजपिप्पल्यपामार्गवानरी नक्तमूलकम् ॥ एतैः समा रसा चाभा द्विगुणा तैः पुरः समः। सूतगंधकहिंगूलं टंकणं लोहमभ्रकम्॥ शुल्बंवंगं सूतभस्म नागं ताप्यमयारेजः। मीलितं पुरपादं च सर्वमेकत्र कारयेत्॥ पचेच्चतुर्गुणे क्वाथे पुरं षट्कटुजे पुरा। तुर्यांशशोषिते क्वाथे पूते चात्र विनिक्षिपेत्॥ चूर्णानि पुरमुख्यानि पाचयेन्मृदुवह्निना। यावद्वनतरं तावद्वटिकाः कारयेत्ततः॥ स्वर्णप्रमाणाः सेव्यास्ता मधुसर्पिःसमन्विताः। सप्तधातुगतान्वातान् शिरास्त्राय्वस्थिसंधिगान्॥ सामान्निरामान्संसृष्टान् श्लेष्मजान् इति केवलान्। यक्ष्माणमग्निमांद्यं च ज्वरं धातुगतं तथा॥ गुल्मजानूरुकट्यूरोदरहृत्कुक्षिकक्षगान्। अंसमन्याहनुश्रोत्रन्नूललाटाक्षिशंखगान्॥ प्रमेहं मूत्र- कृच्छ्रं च शूलमाध्मानमश्मरीम् । किं पुनर्भेदकान्तान्प्रत्यंगस्थान् जयत्यलम्॥ गुग्गुलुः षडशीतिर्वैनाम्ना भोजेन कीर्तितः। क्षीयमाणेन शिष्येण प्रार्थितेन पुनः पुनः॥ स एष राजयोगोयं न देयो यस्य कस्यचित्। वत्सरेणास्य योगेन पंढोपि प्रमदाप्रियः॥ वाजीकरणमन्यच्च परं नास्माद्विशेषतः।गुणोस्य सेवनान्नित्यं यः स्यात्स स्याद्ब्रवीमि किम्॥
व्यर्थ-सफेद पिपावासा, धमासा, अतीस, देवदारु, कटेरी, बडी कटेरी, चव्य, अडूसा, पीपल, नागरमोथा, वच, धनिया, शतावर, कंगही, सोंफ, देवदारु, हरड, सोंठ, गिलोय, कचूर, अमलतास का गूदा, गोखरू, पुनर्नवा, मोदकी, कुटकी, पीपरामूल, भारंगी, विदारीकंद, मुंडी, कासालू, अजमोद, काकडासिंगी, आंवला,
मूसली, रेणुकबीज, काकोली, अजमायन, खुरासानी अजमायन, निसोथ, दंती, चित्रक, काकडासिंगी, तालमखाना, लाल धमासो, बडा पंचमूल, बेलतर, कूठ, काली अगर, जावित्री, जायफल, इलायची, नागकेशर, दालंचीनी, चिरायता, केशर, लौंग, इंद्रायन, हलदी, सैंधानिमक, मंदारमूल, वायविडंग, चोक, पवाड, गजपीपल, ओंगा की जड, कौंच के बीज, कंजा की जड, सब औषधसमान भाग लेवे और सब कोबराबर रास्ना, बबूर के बीज सबसे दूने और इन सब की बराबर गूगल, पारा, गंधक, हिंगूल, सुहागा, लोहे की भस्म, अभ्रकभस्म, ताम्र, वंग, रससिंदूर, शीशा, सुवर्णमाक्षिक, मंडूर इन सबकी भस्म गूगल की, चतुर्थांश इस प्रकार सब को एकत्र कर षट्कटूके काढे में गूगल शोधकर उस काढे को जब चतुर्थांश रहे तब उतारके छान लेवे. फिर इस मेंऊपर की संपूर्ण औषधों के चूर्णको डालके मंद २ अग्नि- पर पचन करे. जब गाढा हो जाय तब उतारके गोली बनाय लेवे. फिर इनको बलाबल विचारके सहत और घी इनके साथ देवे. तो सप्तधातुगत वात, शिरा, स्नायु, अस्थि और संधि इन की वायु, सामवात, निरामवात, सन्निपातजन्य वात, केवल स्नेहवात, क्षय, मंदाग्नि, धातुगत ज्वर, गोला, जानु, ऊरू, कमर, उर, हृदय, कूख, कंधा, मन्या, हनु, कान, भ्रुकुटि, ललाट, नेत्र, कनपटी, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, शूल, अफरा और पथरी इनको नाश करे. तथा यह भेद करनेवाली बात को जीते. तथा प्रत्यंग, वात को जीते. इस में संशय नहीं है. यह षडशीति नामक गूगल भोजराज नेअपने शिष्य क्षीण होनेवालेकी प्रार्थना से रचा है, यह राजयोगरूप औषध जिस किसी को नहीं देनी चाहिये। एक वर्षपर्यंत सेवन करे तो नपुंसक भी स्त्रियों को प्रिय होय। इस से परे दूसरा प्रयोग वाजीकरण करता नहीं है। इस औषध के सेवन करने से जो गुण होते हैं उन को मैं क्या कहूं कहे नहीं जावे॥
विश्वाद्यगुग्गुलु
विश्वैरंडशिफाशुंठीदारुकुष्ठंससैंधवम्। रास्नामृतोद्भवं चूर्णं गुग्गुलुर्द्विगुणस्तथा ॥ एकैका गुटिका तस्य प्रत्यहं भक्षिता सती। पथ्याशिनोतिवेगेन हंति विभ्रममारुतम्॥
अर्थ- सोंठ, अंड की जड, सोंठ, देवदार, कूठ, सोंठ, रासना और गिलोय ये सब समान लेवे. तथा गूगल दूनी लेवे सबको एकत्र कर तोले २ की गोली बनावे। एक गोली नित्य भक्षण करे और पथ्य सेवन करें तो तत्काल विभ्रमसंज्ञक वातको दूर करे॥
दूसरा प्रकार
शुंठीकणा कणामूलं विडंगं दारु सैंधवम्। रास्नावह्निर्यवानी च मरिचोग्रभया समम्॥ द्विगुणं गुग्गुलोश्चूर्णमाज्ययुक्तं निहंति तान्। वातं विषूचिकां गुल्मं शूलं कंपं च गृध्रसीम्॥
अर्थ- सोंठ, पीपरामूल, वायविडंग, देवदार, सैंधानिमक, रासना, चीते की छाल, अजमायन, काली मिरच, वच और हरड ये समान भाग ले और सब से दूनी गूगल ले सब को धीमें सान के अनुमानमाफिक सेवन करे तो वादी, विषूचिका ( हैजा ), गुल्म पांच प्रकारका शूल और गृध्रसी इनको दूर करे॥
रास्नादिगुगुग्लु
रास्त्रामृतैरंडसुराह्वविश्वं तुल्येन गाढं पुरुणा विमर्द्य।
खादेत्समीरी सशिरोगदी च नाडीव्रणी चापि भंगदरी च॥
अर्थ-रास्ना, गिलोय, अंड की जड, देवदारुऔर सोंठ समानभाग ले सब की बराबर शुद्ध गूगल डालके खरल करे इस को वादीवाला, मस्तकरोगी, नासूर और भगंदररोगी खाय तो आराम होवे॥
दूसरी योगराजगुटी
नागरं पिप्पलीमूलं चव्यमूषणचित्रकम्। भृष्टहिंग्वाजमोदा च सर्षपा जीरकद्वयम्॥ रेणुकेंद्रयवा पाठा विडंगं गजपिप्पली। कटुकातिविषा भार्ङ्गी वचा मूर्वा च पत्रकम्॥ देवदारु वचा कुष्ठं रास्ना मुस्ता च सैंधवम् । एला त्रिकंटकः पथ्या धान्यकं च बिभीतकम् ॥ धात्री च त्वगुशीरं च यवक्षारस्तिलान्यपि । एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ यावंत्येतानि सर्वाणि तावद्देयोऽत्र गुग्गुलुः । संमर्द्यसर्पिषा पश्चात्सर्वं संमिश्रयेच्च तत् ॥ एकपिंडं ततः कृत्वा धारयेद्धृतभाजने । गुटिकाष्टंकमात्रास्तु खादेत्ताश्च यथोचिताः॥ गुग्गुलुर्योगराजोऽयं महान् मुख्यो रसायनम्। मैथुनाहारपानानां नियमो नात्र विद्यते॥ सर्वान् वातामयान् हन्यादामवातमपस्मृतिम् । वातरक्तं तथा कुष्ठं तथा दुष्टव्रणानपि॥ अर्शांसि ग्रहणीरोगं प्लीह-
गुल्मोदराण्यपि । आनाहमग्निमांद्यं च श्वासं कासमरोचकम् ॥ प्रमेहं नाभिशूलं च कृमिक्षयमुरोग्रहम् । शुक्रदोषमुदावर्तभगंदरविनाशनः॥ आदौ शाणोन्मितं खादेत्ततः कर्षार्धमात्रकम्। ततः कर्षमिदं खादेद्गुग्गुलुं क्रमतो नरः॥ दिनानां सप्तकं पूर्वं गुगुलुः शाणमावहेत् । द्वितीये कर्षमर्धंतु पूर्णकर्षं ततः परम्॥ रास्नादिक्वाथसंयुक्तो सर्ववातामयान् हरेत्। कांकोल्यादिशतात्पित्तं कफमारग्वधादिना॥ दार्वीशतेन मेहांश्च गोमूत्रेण च पांडुताम्। मधुना मेदसो वृद्धिं कुष्ठं निंबशृतेन च ॥ छिन्नाक्वाथेन वातास्रंशूलं मूलकजं शृतम्। पाटलाक्वाथ सहितो विषं मूषकसंभवम्॥ त्रिफलाक्वाथसंयुक्तो दारुणा नेत्रवेदना। पुनर्नवादिक्वाथेन हंति सर्वोदराण्यपि॥
अर्थ- सोंठ, पीपरामूल, चव्य, काली मिरच, चित्रक, भुनी हुई हींग, अजमोद, सरसों, सफेद जीरा, काला जीरा, रेणुक बीज, इन्द्रजों, पाढ, वायविडंग, गजपीपल, कुटकी, मतीस, भारंगी, वच, मूर्वा, पत्रज, देवदारु, वच, कूठ, रास्ना, नागरमोथा, सैंधानिमक, इलायची, गोखरू, हरड, धनिया, बहेडा, आंवले, दालचीनी, खसजवाखार और तिल, ये सब समानभाग लेके बारीक चूर्ण करे और सब की बराबर शोधा हुआ गूगल लेवे. सबको घी डालके कूट लेवे. सब एकजीव हो जावे तब एक चार २ मासेकी गोली बनायके घीके चिकने बासन में भरके रख देवे. इस को यथोचित भक्षण करे. यह योगराजगूगल महान् मुख्य रसायन है. इसपर मैथुन करना, खट्टा, चिरपरखाने पीने की मनाही नहीं है. यह संपूर्ण वात के विकार, आमवात, अपस्मार, वातरक्त, कोढ, दुष्टव्रण, बवासीर, संग्रहणी, प्लीह, गोला, उदररोग, अफरा, मंदाग्नि, श्वास, खांसी, अरुचि, प्रमेह, नाभीशूल, कृमिरोग क्षय उरोग्रह, शुक्र के दोष, उदावर्त्त, और भगंदर, इनको नाश करे. प्रथम इसको ७ दिन चार २ मासे खाय फिर ७ दिन छः मासे फिर एक एक तोलेसेवन करे। यह इस के खाने का क्रम है। इसको रास्ना के काढे से खाय तो सर्व वातविकारोंको दूर करे कांकोल्यादि काढेके साथ सेवन करे तो पित्तरोगों को, अमलतास के काढे से कफके रोगों को, दारुहलदीके काढे के साथ संपूर्ण प्रमेह को, गोमूत्र द्वारा पांडुरोग को, सहतके साथ मेदरोग को, नीमके काढे से कोढ को, गिलोय के काढेसे वातरक्त को, मूली के काढेसे शूल रोग को, पाढल के काढे से सेवन करे
तो मूषे का विष दूर होवे. त्रिफलेके काढे के साथ पीवे तो दारुण नेत्रकी पीडाको शमन करे और पुनर्नवादि काढे के साथ सर्व उदर के विकारों को नष्ट करे है॥
रसोनसंधान
रसोनस्य तु तत्क्षुण्णं तदर्धं लुंचितास्तिलाः। पादे तु तक्रे गव्यस्य पृष्ठे द्रव्यैस्तु संक्षिपेत्॥ त्रिकटु धान्यकं चव्यं चित्रको हस्तिपिप्पली। त्वगेला ग्रांथिकं पत्रं तालीसं च पलांशकम् ॥ शर्करायाः पलान्यष्टौपंचाजाज्याः पलानि च। कृष्णाजाज्याश्चचत्वारि मधूकस्य गुडस्य वा॥आर्द्रकस्य च चत्वारि सर्पिषोष्टौप्रकल्पयेत् । तिलतैलस्य तावंतः सूक्तस्यापि च विंशतिः॥ सिद्धार्थकस्य चत्वारि राजिकायास्तथैव च। कर्षप्रमाणं दातव्यं रामठं लवणानि च॥ एकीकृत्य दृढे भांडे धान्यराशौ विनिःक्षिपेत् । द्वादशाहं समुद्धृत्य ततः खादेद्यथाबलम्॥ सुरा सौवीरकं चैव मधुरं च पिबेदनु। जीर्णे यथेप्सितं भोज्यं दधिपिष्टविवर्जितम्॥ एकमासप्रयोगेण सर्ववातान् व्यपोहति। अशीतिंवातजान् रोगान् चत्वारिंशच्च पैत्तिकान्॥ विंशतिश्लेष्मजांश्चैव प्रमेहानां च विंशतिम्॥ श्वयथौ योनिशूले च सर्वान्वातान् व्यपोहति॥ च्युतसंधेश्चभग्नस्य संधानकरणं भवेत्। बलवर्णकरं हृद्यं वृष्यं बीजविवधर्नम् ॥
अर्थ-लहसन को छीलकेपीस लेवे फिर लहसन से आधे धुले हुए तिल मिलावे और उसका चतुर्थांश गौ की छाछ मिलावे फिर इन में सोंठ, मिरच, पीपल, धानिया, चव्य, चित्रक, गजपीपल, तज, इलायची, पीपरामूल, पत्रज और तालीसपत्र ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे, मिश्री ३२ तोले ले, जीरा २० तोले ले, काला जीरा, मुलहठी, गुड और अदरख प्रत्येक १६ तोले लेवे, घी ३२ तोले, तिलों का तेल ३२ तोले, कांजी ४०तोले, सपेद सरसों १६ तोले, राई १६ तोले और हींग तथा सब निमक एक तोला डाले सबको एकत्र कर किसी चिकने वासन में भरके धान की राशि में गाड देवे जब १२ दिन बीत जावें तब निकाल अग्निबल विचारके खाने को देय और इनके ऊपर मद्य अथवा कांजी अथवा मधुर रस पीवे जब यह पच जावे तब दही और पिढी के पदार्थों को त्याग के जो इच्छा होवेंसो खाय इस
प्रकार एक महीने पर्यंत सेवन करने से संपूर्ण वादी के रोग नष्ट होवें, तथा अस्सी प्रकार के वातरोग, चालीस प्रकारके पित्तरोग और वीस प्रकारके कफरोग, वीस प्रकार की प्रमेह, सूजन, योनिशूल और संपूर्ण वातों को नाश करे तथा छूटी हुई संधी, टूटी हुई हड्डी आदि इनको अच्छा करे बल वर्ण इन को उत्पन्न करे तथा हितकारक है तथा यह धातुओं को बढाता और वृष्य है॥
भुजंगीगुटिका
एषा कर्षमिता वटी सुघटिता जीर्णे गुडे युक्तितो द्विघ्नं दीप्य तुषं पलद्वयमितं शुंठी तथा तेजनी। भक्ष्यैकानिलरोगिणा घृतयुता पथ्याशिना तत्वतो वातत्रातविनाशिनी सुमतिभिः ख्याता भुजंगी वटी॥
अर्थ-अजमायन का फूल १६ तोले तथा सोंठ और तेजबल ८ तोले इन का चूर्ण करके उसकी पुराने गुड से युक्ति के साथ १० मासे की गोली बनावे, यह वातरोगी को घीके साथ खानी चाहिये और पथ्यसे रहे तो यह वादी के समूह को नाश करे,इस को पंडितजन भुजंगीवटी कहते हैं॥
दूसरा प्रकार
तेजह्वाप्रस्थमेकं पयसि गजगुणे पाकयुक्त्याविपाच्य व्योषं पथ्या शताह्वा कृमिरिपुमनलं ग्रंथिकं चाजमोदाम्। उग्रा कुष्ठाश्वगंधौसुरतरुममृतं पालिकानि प्रदद्यात्सर्वान्वातान्वटीयं घृतमधुसहिता नास्ति भावान्करोति॥
अर्थ-तेजबल ६४ तोले और दूध ५१२ तोले दोनों को मिलायके पाक के समान खोहाकरे. उस में सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, शतावर, वायविडंग, चित्रक, पीपरामूल, अजमोद, वच, कूठ, असगंध, देवदार और घी ये प्रत्येक चार २ तोले डालके उस की गोली बनावे इनको सहत और घी इनके साथ बलाबल विचारके देवे तो सर्व वातव्याधियों का नाश करे॥
निर्गुंड्यादिवटी
निर्गुंडी दीप्यकं वह्निर्हरिद्रा विश्वभेषजम्।
तत्रकांजिकसंपक्वंवातघ्नं वह्निवर्धनम्॥
अर्थ-निर्गुंडी, अजमायन, चित्रक, हलदी और सोंठ इन केछाछ और कांजी में पचाय के सेवन करेतो यह वातनाशक और अग्निवर्द्धक है॥
कणादिगुटी
कणामूलं कणा दारु विडंगं वह्निसैंधवम्। सपुष्पा ह्यजमोदा च मरीचं समचूर्णकम् ॥ गुडाचितस्य तस्याथ गुटिका एकविंशतिः। भक्षितास्तास्त्रिसप्ताहं मारुत नंति सर्वतः॥
अर्थ- पीपरामूल, पीपल, देवदारु, वायविडंग, चित्रक सैंधानिमक, अजमायन का फूल, अजमोद और मिरच ये समान भाग लेवे, चूर्ण करके गुड मिलाय एकजीव करके २१ गोली कर लेवे, नित्यप्रति एक गोली भक्षण करे तो सब वातव्याधिको नाश करे॥
अमरसुंदरवटी
त्रिकटु त्रिफला चैव ग्रंथिका रेणुकानलम्। मृतलोहं चतुर्जातं पारदं गंधकं विषम् ॥ विडंगा कलकं मुस्ता सर्वेभ्यो द्विगुणो गुडः। चणकप्रमाणगुटिका नाना अमरसुंदरी॥ अपस्मारे सन्निपाते श्वासे कासे गुदामये। अशीतिवातरोगेषु उन्मादेषु विशेषतः॥
अर्थ- सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, पीपरामूल, रेणुकबीज, चित्रक, लोहे की भस्म, पत्रज, इलायची, दालचीनी, नागकेशर, पारा, गंधक, सिंगियाविष, वायविडंग, अकरकरा और मोथा सब समान भाग ले और सब से दूना गुड डाले, फिर चने के प्रमाण गोली बना ले यह अमरसुंदरी गुटिका अपस्मार, सन्निपात, श्वास, खांसी, गुदा के रोग, अस्सी प्रकार कीवादी और उन्मादरोग इन सबको दूर करे॥
अजमोदादिवटी
अजमोदा कणा वेल्लं शतपुष्पा सनागरम्। मारिचं सैंधवादेव भागैकं च पृथक् पृथक्॥ पंचभागा हरीतक्याः शुंठी च दशभागिका । वृद्धदारुर्दशांशः स्यात्षट्त्रिंशद्गुडभागिकाः ॥ गुडपाकैर्वटींकृत्वा मात्रा कर्षप्रमाणतः। संधिवाते प्रदेयं तदामवाते सुदारुणे॥ उष्णोदकानुपानेन सर्ववातान्नियच्छति। आढ्यवाते हनुस्तंभेशिरोवातापतानके॥ श्रूशंखकर्णनासाक्षिजिह्वा-
स्तंभे च दारुणे। कलायखंजतापंगुसर्वांगैकांगमारुते॥ अर्दिते पादहर्षे च पक्षाघाते प्रशस्यते॥
अर्थ-अजमायन, पीपल, वायविडंग, सोंफ, नागरमोथा, मिरच और सैंधानिमक ये प्रत्येक एक एक भाग, हरड ५ भाग, सोंठ १० भाग, विधायरो१० भाग और भारंगी ३६ भाग इस प्रकार सब औषधी लेकर चूर्ण करके गुडके पाक में मिलायके गोली बनाय लेवे. इस गोली को गरम जल के साथ सेवन करे तो संधिवात, आमवात, संपूर्णवात, आढ्यवात, हनुस्तंभ, शिरोवात, अपतानक बात तथा भृकुटि, कनपटी, कान, नाक, नेत्र और जीभ इनका स्तंभ, कलायखंज, पंगुवात, सर्वांगवात, एकांगवात, दसवात, पादहर्ष और पक्षाघात इनके दूर करनेमें श्रेष्ठ है ॥
लघुराजमृगांक
घृततीक्ष्णयुतः सुरसास्वरसो लघुराजमृगांक इति प्रथितः।
अपहृत्यनिलान् सबलान् बहलान्निजभक्कमलानिव चक्रधरः॥
अर्थ- काली मिरचों का चूर्ण, घी और तुलसी का रस इस को लघुराज मृगांक कहते हैं.यह संपूर्ण वातरोगों को नाश करे जैसे भगवान् अपने भक्तपातक दूर करे इसी प्रकार यह रोगोंको नाश करे॥
चूर्णाः कषाया गुटिका घृतानि तैलानि भाग्येन वियोजितानाम्।
विलासिनां वातविनाशनाय विलासिनीनां परिरंभणानि॥
अर्थ-चूर्ण, क्वाथ, गोली, घृत और तेल इन की योजना करने से न बन सके तो यह विलासी पुरुषों के वातव्याधि नाश करने को सुंदररूपवती स्त्रियों का आलिंगन करना ही ठीक है॥
दूसरा एरंडपाक
निस्तुषं बीजमैरंडं पयस्यष्टगुणे पचेत्। तस्मिन् पयसि संशोष्य तद्बीजं परिपेषयेत् ॥ पश्चादृतेन संयुक्तं संपचेन्मृदुवह्निना। कटुत्रिकं लवंगं च एलात्वक् पत्रकेसरम्॥ अश्वगंधा शिफा रास्ना षड्गंधा रेणुका वरी। लोहं पुनर्नवा श्यामा उशीरंजातिपत्रकम् ॥ जातीफलमभ्रकं च सूक्ष्मचूर्णं तु कारयेत् । शीतीभूतेवलेहोऽयं तस्मिन् खंडसमोदयम्॥ वातारिपाकनामायं प्रातरुत्थाय भक्षयेत्। अशीतिवातरोगांश्च
चत्वारिंशच्च पैत्तिकान् ॥ उदराणि तथा चाष्टौ स्वयं रोगान्निति च। विंशतिं मेहजान् रोगान् षष्टिनाडीव्रणानि च॥ हंत्यष्टादश कुष्ठानि क्षयरोगांश्च सप्त च। पंचैव पांडुरोगांश्चपंच श्वासान् प्रणाशयेत्॥ चतुरो ग्रहणीरोगान् दृष्टिरोगं गलग्रहम्। अनेकवातरोगांश्च तान् सर्वांश्चविनाशयेत् ॥ शुक्लपाकमिदं ख्यातं सर्वरोगनिवारकम्॥
अर्थ- छीले हुए अंडी के बीजों को अठगुने दूध में औटावे. जब दूध का खोहाहो जावेतब उतारके उन बीजोंको पीस डाले. फिर इन को घी में डालके मधुरी अग्नि से पचावे और सोंठ, मिरच, पीपल, लौंग, इलायची, दालचीनी.पत्रज, नागकेशर, असगंध, रास्ना, षड्गंधा, रेणुकबीज, सतावर, लोहभस्म, पुनर्नवा, हरड, खस, जावित्री, जायफल, अभ्रक की भस्म इन सब को मिलायके बारीक चूर्ण कर उस पार्क में डाल देवे फिर अग्निपर से उतार ले. जब शीतल हो जावे तब उस खोहे को अलग धर ले और खोहे कोबराबर मिश्री की चासनी कर इसमें पूर्वोक्त खोहा मिलायके पाक बनाय लेवे, यह वातारिपाक प्रातःकाल उठके नित्य भक्षण करे तो अस्सी प्रकार के वातरोग, चालीस प्रकारके पित्तरोग, आठ प्रकारके उदर, बीस प्रकार की प्रमेह, साठ प्रकारके नाडी व्रण, अठारह प्रकारके कुष्ठ, सात प्रकारके क्षयरोग, पांच प्रकार के पांडुरोग और श्वासरोग, चार प्रकार की संग्रहणी, दृष्टिरोग, गलग्रह अनेक प्रकार के वातरोग इन सब को यह दूर करे. इसको शुक्लपाक कहते हैं ॥
एरंडपाक
वातारिबीजं प्रस्थं तु सुपक्वंनिस्तुषीकृतम्। क्षीरद्रोणार्द्धसंयुक्तं भिषग्मंदाग्निना पचेत् ॥ घृतप्रस्थार्द्धयुक् पक्वंखंडप्रस्थद्वयं क्षिपेत्। त्र्यूषणं सचतुर्जातं ग्रंथिकं वह्निचव्यकम्॥ शत्रा मिशी शठी बिल्वदीर्प्यो जीरे निशायुगम्। अश्वगंधा बला पाठा हपुषा पुष्करम्॥ श्वदंष्ट्रारुग्वरा दारुवेल्लार्या वालुकावरी। एतानि पिचुमात्राणि चूर्णितानि विनिक्षिपेत्॥ वातव्याधिं च शूलं च शोफं वृद्धिं तथोदरम्। आनाहं बस्तिरुग्गुल्ममामवातं कटिग्रहम्॥ ऊरुग्रहं हनुस्तंभं नाशयेदपि योगतः॥
अर्थ- ६४ तोले अंडी के बीज लेकर छील लेवे फिर उन को ५१२ तोलेदूध में डालके मंदाग्नि से पचन करे. फिर इस में ३२ तोले घी डालके भून लेवे और १२८ तोले मिश्री की चासनी करके उस खोहे में मिलाय देवे तथा सोंठ, मिरच, पीपल, दाल- चीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर, चित्रक, चव्य, सोंठ, कचूर, बेलगिरी, अजमायन, जीरा, काला जीरा, हल्दी, दारुहलदी, असगंध, खिरेटी, पाढ, हौउबेर, वायविडंग, पुहकरमूल, गोखरू, कूठ, त्रिफला, देवदारु, विधायरा और सतावर ये सब एक एक तोला लेवे. सबका चूर्ण करके उसी पाक में डाल देवे. इस पाक के सेवन करने से वातव्याधि, शूल, सूजन, अंत्रवृद्धि, उदरविकार, अफरा, बस्तिशूल, गोला, आमवात, कम की पीडा, ऊरुग्रह और हनुस्तंभ इन सब को यह नष्ट करे॥
रसोनपाक
तेषूग्रगंधनाशाय रात्रौतक्रेविनिःक्षिपेत्। प्रातर्निष्कास्य तत्पिष्ट्वाततो दुग्धे विपाचयेत् ॥ निस्तुषं लशुनं प्रस्थं क्षीरं प्रस्थचतुष्टयम्। विपाच्य सांद्रीभूतेस्मिन् सर्पिषः कुडवं क्षिपेत्॥ रास्नावटी वृषाछिन्ना शठी विश्वा सुरद्रुमम्। वृद्धदारुकदीप्याग्निशताह्वा सपुनर्नवा॥ फलत्रयं पिप्पली च कृमिघ्नः कर्षसम्मितम् । विचूर्ण्य शीते मधुनः कुडवं तत्र योजयेत् ॥ सितया भक्षयेन्मात्रामाढ्यवाते हनुग्रहे। आक्षेपकादिभग्ने च कट्यूरुस्तंभहृद्ग्रहे॥ सर्वांगे संधिभंगे च वातजाशीतिरोगिणः। पथ्यो लशुनपाकोयं वर्णायुः पुष्टिकारकः॥
अर्थ-लहसन को छील टुकडे करे उन की गंध दूर करने को रात्रि में छाछ में भिगोय देवे प्रातःकाल निकालके स्वच्छ जलसे धोयके पीस डाले.फिर उस को गौ के घीमेंतल लेवे इस प्रकार भूनी हुई लहसन ६४ तोले होवे तो दूध २५६ तोले में डालके औटावेजब गाढा हो जावे तब १६ तोले घी और रास्ना, शतावर, अडूसा, गिलोय, कचूर, सोंठ, देवदारु, विधायरा, अजमायन, चीते की छाल, शतावर, पुनर्नवा, हरड, बहेडा, आंवला, पीपल और वायविडंग ये प्रत्येक एक एक तोलेलेवे. सबका चूर्ण करके उस में मिलाय देवे. तथा शीतल होने पर १६ तोले सहत डाले. फिर इसको थोडी मिश्री के संग भक्षण करे तो आढ्यवात, हनुग्रह, आक्षेपक, भग्नवात, कटिवात, ऊरुस्तंभ, हृदयरोग, सर्वांगवात, संधिभंगवात और अस्सी प्रकार की वात इन सबको नष्ट करे वह पथ्यरूप लहसनपाक वर्ण, आयुष्य और पुष्टि इन को करे है॥
कुबेरपाक
कुबेरं प्रस्थनीरे च क्षित्वा रात्रौ चतुर्गुणम् । क्षीरे प्रातः पचेत्सम्यग्घृतेन मृदुवह्निना॥ शीतं कृत्वा सुनिष्पन्नं मध्ये मधुनि योजयेत्। चातुर्जातं त्रिकटुकं जातिपत्रफलं तथा॥ देवपुष्पं विडंगं च मिशी जीरं घनं बला। निशाद्वयं तथा लोहं शुल्बं वंगं पलार्धकम्॥ प्रत्येकं चूर्णितं क्षित्वा भक्षयेच्च पलं बुधः। सर्वान्वातमयान्हंतिअग्निमांद्यं बलक्षयम्॥ प्रमेहं मूत्रकृच्छ्रं चअश्मरीगुल्मपांडुनुत्। पीनसं ग्रहणीदोपमतीसारमरोचकम् ॥ मधुपक्वःकुबेरोयं भक्षयेन्नितरां बुधः। कामवृद्धिकरस्तस्य धातुवृद्धिश्चजायते॥ कांतिपुष्टिकरो बल्यः कुबेराख्यो रसोत्तमः॥
अर्थ - लताकरंज को रात्रि के समय जल में भिगोय देवे. प्रातःकाल उन को फोड केभीतरकी मींगी निकाल लेवे. उन से चौगुना दूध लेके और घी डालके धीरे २ मंद २ अग्नि से पचावे. जब शीतल हो जावे तब उस में शहत, दालचीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर, सोंठ, मिरच, पीपर, जावित्री, जायफल, लौंग, वायविडंग, सौंफ, जीरा, नागरमोथा, खिरेटी, हलदी,दारुहलदी, लोहे की भस्म, तामे की भस्म और वंगभस्म ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे सब को उसी पाक में डालके पाक तैयार कर लेवे इसमेंसे चार तोले नित्य भक्षण करे तो सम्पूर्ण वादी के रोग, मंदाग्नि, बलक्षय, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, गोला, पांडुरोग, पीनस, संग्रहणी, अतिसार और अरुचि इन को नाश करे यह मधुपक्वकुबेरपाक भक्षण करने से कामवृद्धि, धातुवृद्धि, कांति, पुष्टि और बल इनको करे है॥
लशुनपाक
निस्तुषं लशुनं प्रस्थं क्षीरकुंभे पचेत्सुधीः। घृतं पलचतुष्कं च पचेच्च मृदुवह्निना॥ सुनिष्पन्नो मधुनिभो खंडं प्रस्थद्वयं क्षिपेत् । त्र्यूषणं च चतुर्जातं ग्रांथिकं चव्यचित्रकम्॥ विडंगं रजनीयुग्मं हपुषा वृद्धदारुकम्। पौष्करं दीप्यपुष्पं च सुरदारु पुनर्नवा ॥ श्वदंष्ट्रानिंबरास्ना च शतपुष्पा वरी सठी।
अश्वगंधात्मगुप्ता च द्रव्याणि पिचुमात्रया \। शुक्रे यथाबलं सेव्यं रसोनाख्यं रसायनम् । सर्वान्वातामयान् शूलमपस्मार- मुरःक्षतम् ॥ गुल्मोदरखामप्लीहववृद्धिकमनि जयेत् । विबं- धानाद्दशोफांश्च वह्निमांद्यं बलक्षयम् ॥ हिक्कां श्वासं च कासश्च अपतंत्रकमेव च । धनुर्वातं तथा यामं पक्षघातापतानकम् ॥ अर्दिताक्षेपकं कुब्जं हनुग्रहशिरोग्रहम् । विश्वाची गृध्रसी खट्टी पंगुवातं च संधिजम् \।\। बाधियं सर्वशूलं च नाशयेदतिवेगतः । वातव्याधिगजेंद्रस्य केसरीव कृतः शुभः । कफव्याधिप्रशमनो बलपुष्टिकरः स्मृतः॥
अर्थ - उत्तम प्रकार से छीली और कतरी हुई लहसन ६४ तोले को १०२४ तोले दूध में १६ तोले घी डालके मंद २ अग्निपर पचावे जब इसका उत्तम पाक हो जावे अर्थात् लाल रंग हो जावे तथा १२८ तोले मिश्री मिलावे और सोंठ, मिरच, पीपल, दालचीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, वायविडंग, हलदी, दारुहलदी, हाउवेर, विधायरा, पुहकरमूल, अजमायन, लौंग, देवदारु, पुनर्नवा, गोखरू, नीम, रास्ना, सौंफ, शतावर, कचूर, असगंध कौंछ के बीज ये प्रत्येक तोले २ ले चूर्ण करके उस में डाल पाक सिद्ध करे. यह रसोनाख्य पाक अग्नि और बल को देखकर सेवन करे तौसंपूर्ण वातरोग, शूल, अपस्मार, उरक्षत, गोला, उदर, वमन, प्लीह, बद, अंडवृद्धि, कृमिरोग, विबंध, अफरा, सूजन, मंदाग्नि, बलक्षय, हिचकी, श्वास, खांसी, अपतंत्रवात, धनुर्वात, अन्तरायाम, पक्षवात, अपतानक वायु, अर्दित वायु, आक्षेपक वायु, कुब्जवात, हनुग्रह, शिरोग्रह, विश्वाची, गृध्रसी, खल्लीवात, पंगुवात, संधिवात, बधिरत्व और संपूर्ण शूल इनको बहुत जल्दी नाश करे यह लहसन पाक वातव्याधिरूप हाथी को सिंह के समान नाश करे है और कफ व्याधि को शांत करे तथा बल और पुष्टि इनको करे है॥
लेप
प्रच्छित्त्वा च क्षुरेणांगं केवलानिलपीडितः। तत्र प्रदेहं दद्याच्चपिष्ट्वागुंजाफलैः कृतम्॥ तेनावबाहुजा पीडा विश्वाची गृध्रसी तथा। अन्यापि वातजाः पीडाः प्रशमं यांति वेगतः॥
अर्थ-जिस जगे वादि का उपद्रव होता होय उस जगेपर छुरे से पछना लगाय के उसपर घूंघ चीन को पीसके उसका लेप करे तो अपवाहुक, विश्वाची, गृध्रसी और अन्य वातसबंधी रोग तत्काल शांत होवे॥
मर्दन व नस्य
यवानीचूर्णसंमिश्रः शृंगवेररसस्तनौ ।
मर्दनान्नस्यतो हंति कुपितं मारुतं द्रुतम्॥
अर्थ-अदरख के रस में अजमायन का चूर्ण मिलायके देह में मालिस करें और नास देवे तो कुपितवात को तत्काल नष्ट करे॥
स्वेदविधि
कार्पासास्थिकुलत्थकातिलयवैश्चैरंडमाषातसीवर्षाभूशणबीजकांजिकयुतैरेकीकृतैर्वा पृथक्। स्वेदः स्यादतिकू-र्परोदरहनुस्फिक्पाणिपादांगुलीगुल्फस्तंभकटीरुजो विजयते सामाः समीरोद्भवाः॥
अर्थ- विनोले, कुलथी, तिल, जौ, अंड, उडद, अलसी, पुनर्नवा और सन के बीज इनको कांजीमें पीसके अथवा दूसरे योग से पसीने निकाले तो कूर्पर (पहुचे के ऊपर का भाग), पेट, हनु, नितंब, हाथ, पैर इनकी उंगली और गुल्फका स्तंभ, कटिशूल और आमाश्रित वायु इन को नाश करे॥
पेंड बंधाना
रास्ना शताह्वा सुरदारु कुष्ठं माषार्द्रकं तैलवचाकुलत्थाः।
एतैः प्रदेहोनिलरोगिणां हितः स्नेहैश्चतुर्भिर्दशमूलयुक्तै॥
अर्थ - रास्ना, शतावर, देवदारु, कूठ, उडद, अदरख,तैल, वच, कुलथी, और दशमूल इन को पीस गरम करके गाढा लेप करे तो वातरोगी को हितकारी होय॥
स्वेद व लेप
उष्णोष्णमत्स्यादिकवेसवारैः स्वेदस्तथा वातविनाशनः स्यात्।
फाणिज्जकोत्थेन रसेन वातं ग्रस्तं प्रदेशं परिलेपयेत्तु॥
अर्थ-गरम २ मछली और वेसवार इन को सेककर मनुष्य की देह से पसीने निकाले तो वादीको नाश करे. अथवा फणिज्जक के रस से वातयुक्त स्थानपर लेप करे तो वादी जाय॥
लेप व स्वेद
सारं नवं सैंधवकृष्णबोलं विषं समुद्रस्य फलानि कुष्ठम्। जेपालमज्जा त्वहिजो बला च जंबीरनीरेण विमर्दनीयम्॥ संस्वेद्य तल्लेपनमात्रकेण अशीतिवातान् सहजान्निहंति॥
अर्थ- नौसहर, सैंधा निमक, काला बोल, विष, समुद्रफल, कूठ, जमालगोटेकी मींगी, अफीम और खिरेटी की जड इनके चूर्ण को जंभीरी नींबू के रसमें खरल गरम करके उस का लेप करे तो अस्सी प्रकार की वादी को सहज में ही नाश करे॥
शतपुष्पादिलेप
शतपुष्पसुरद्रुदिनेशपयो गदरामठसिंधुभवं हरति।
अपि लेपनतोस्थिगतं मरुतं कटिसंधिभवं त्रिदिनात्सततम्॥
अर्थ- सोंफ, देवदारु, कूठ और सैंधा निमक इनके चूर्ण को आक के दूध में भिगोके लेप करे तो अस्थिगत वात, कटिवात और संधिवात इनको तीन दिनमें नाश करे॥
लेप
सुरतरुरामठशुंठीशतपुष्पासैंधववचार्कपयसा।
अस्थिगतानपि वातान् निहंतिचैकेन लेपेन॥
अर्थ- देवदारु, हींग,सोंठ,सोंफ, सैंधा निमक और वच इनके चूर्णको आंक के दूध से पीसके लेप करे तो अस्थिगत वादीको नाश करे॥
वातहापोटली
पुन्नागैरंडनिंबैर्बकुलधवनटं नारिकेलैः करंजैःकार्पासैः शिग्रुडोलाफलसुनिषणकैः सर्षपाकोलबीजैः। रास्नाकुष्ठैः कुलित्थैस्तिलशुनवचाहिंगुसिद्धार्थविश्वैःसर्वैः स्नेहैःकृतं तत्सकलपटुयुतैः पोटली वातभंजी॥
अर्थ-पुंनाग, अंड की जड, नीम की छाल, मौलसिरी, धौऔर अशोक इनकी छाल, नारियल, कंजा, बिनोले, सहजने की छाल, दोलाफल, चौपतिया, सरसों, अंकोलफल, रास्ना, कूठ, कुलथी, तिल, लहसन, वच, हींग, सफेद सरसों और सोंठ इन सब का चूर्ण कर इन में निमक डालके घी अथवा तेल में मिलायके उस की पोटली बांधके देवे तो यह वादी को नष्ट करे॥
महाशाल्वणयोग
कुलित्थमाषगोधूमैरतसीतिलसर्षपैः। शतपुष्पा देवदारु शेफाली स्थूलजीरकैः॥ एरंडबिल्वमूलैश्च रास्नामूलैश्चशिग्रुभिः। मिशीकृष्णाकुठेरैस्तु लवणैरम्लसंयुतैः॥ प्रसारण्यश्वगंधाभ्यां बलाभिर्दशमूलकैः।गुडूचीवानरीबीजैर्यथालाभं समाहृतैः॥ क्षुण्णैः स्विन्नैश्चवस्त्रेण बद्धैःसंस्वेदयेन्नरम्। महाशाल्वणसज्ञोयं योगः सर्वानिलार्तिजित्॥
अर्थ-कुलथी, उडद, गेहूं, अलसी, तिल, सरसों, सौंफ, देवदारु, निर्गुंडी, कलौंजी, अंड की जड, बेल की जड, रास्त्रा की जड, सहजना, जटामांसी, पीपल, कुठेर, सैंधानिमक, समुद्रलवण, बिडनिमक, संचरनिमक, अमलवेत, प्रसारणी, असगंध, खिरेटी, कंगही, गंगेरन, दशमूल, गिलोय और कौंच के बीज इनमें से जो जो वस्तु मिले उन को लेकर कूटकर जल में औटावे. फिर इन की पोटली बांधके गरम गरमसेकेइसको महाशाल्वण योग कहते हैं. यह संपूर्ण वातपीडानाशक है॥
कढी
प्रियंगु पिप्पलीमूलं चंदनं चव्यदीपकम्। वरालं चंपकं कुष्ठं मंजिष्ठामिशिसर्षपाः॥ निर्गुंडी दीप्यकं वह्निर्हरिद्रा विश्वभेषजम् । तक्रकांजिकसंपक्वंवातघ्नं वह्निवर्धनम्॥
अर्थ- फूलप्रियंगू, पीपरामूल, चंदन, चव्य, चित्रक, लौंग, चंपा, कूठ, मजीठ, सोंफ, सरसों, निर्गुंडी, अजमायन, नींबू, हलदी, सोंठ. छांछ और कांजी इन में ऊपर लिखे पदार्थों को डालके औटावे तो यह कढी वातनाशक तथा वह्निदीपक है॥
स्वेदलेपाविधि
एरंडार्ककरंजमोरटबलातर्कारिसोमस्नुहीनिर्गुंडीतलपोटशिग्रुलवणास्फोताश्वगंधादिजैः। पत्रैः कांजिकमूत्रचुक्र-सहितैः स्विन्नैर्घटस्थैः कृतः स्वेदः क्रुद्धसमीरणार्तवपुषां सद्यः सुखोत्पादकः॥
अर्थ-अंड, आक, कंजा, मूर्वा, खिरेटी, अरनी, लालचंदन, थूहर, निर्गुडी, ताड, नरसल, सहजना, चूका, सपेद अपराजिता और असगंध इन औषधों के पत्ते ले कांजी, गोमूत्र, चूका ये एकत्र करके पीस उन पत्तोंपर लेप करे उनको एक
गगरे में भरके चूल्हेपर रखके अग्नि देवे जब गरम हो जावे तब उन पत्तों से सेककरे तो वात कोप शांत होकर रोगीको तत्काल सुख होय॥
लेप
निर्गुंड्याचोपनाहं च सकरंजैः सपित्तलैः।
भेषजैः सेकलेपादि अभिषेकादिकं चरेत्॥
अर्थ-निर्गुंडी का लेप करे अथवा करंज और पित्तकर्त्ताऔषध इन से सेचन, लेप और स्नान इत्यादिक उपचार करे॥
दूसरा रसोनकल्क वातरोग के ऊपर
पक्वकंदरसोनस्य लिका निस्तुषिका कृता। पाटयित्वा च मध्यस्थंदूरीकुर्यात्तदंकुरम् ॥ तदुग्रगंधनाशाय रात्रौ तक्रे विनिक्षिपेत् \। अपनीय च तन्मध्याच्छिलायां पेषयेत्ततः॥ तन्मध्ये पंचमांशेन चूर्णमेषां विनिःक्षिपेत् । सौवर्चलं यवानी च भर्जितं हिंगु सैंधवम्॥ कटुत्रिकं जीरकं च समभागानि चूर्णयेत् । एकीकृत्य ततः सर्वं कल्कं कर्षप्रमाणतः॥ खादेदग्निबलापेक्षी ऋतुदोषाद्यपेक्षया। अनुपानं ततः कुर्यादेरंडसृतमन्वहम्॥ सर्वांगैकांगजं वातमर्दितं चापतंत्रकम्। अपस्मारगदोन्मादमूरुस्तंभं च गृध्रसीम्॥ उरःपृष्ठकटीपार्श्वकुक्षिपीडां कृमीन् जयेत् । अजीर्णमातपं रोषमतिनीरं पयो गुडम्॥ रसोनमश्नन्पुरुषस्त्यजेदेतन्निरंतरम् । मद्यं मांसंतथाम्लं च रसं सेवेत नित्यशः॥
अर्थ - उत्तम पकी हुई लहसन के ऊपर का छिलका दूर कर और उसको चीर के भीतर के अंकुरों को निकाल डाले फिर उस लहसन की वास निकालने को रात्रि को छाछ में भिगो देवे. प्रातःकाल उसको निकालके सिलपर बारीक पीस डाले इस प्रकार कल्क करके फिर संचर निमक, अजमोद, भूनी हींग, सैंधा निमक, सोंठ, मिरच, पीपल, जीरा इन आठ औषधोंका चूर्ण उस लहसन के कल्क का पांचवां हिस्सा लेकर उस कल्क में मिलावे. सब को एकत्र करके फिर अंड की जडके काढे में इस कल्क को एक तोलेमिलायके पीवे. तथा अपनी शक्ति और ऋतु कौनसी है यह देखके जैसा अपने को हित होवे उसी प्रकार पीवे तो सर्वांगवायु तथा एकांगवायु
मुख का टेढा होना, ऐसी अर्दितवायु और धनुर्वायु, अपस्मार और उन्मादरोग तथा ऊरुस्तंभवायु और गृध्रसी वायु तथा उर, पीठ, कमर और कूख इनका शूल तथा कृमिरोग ये दूर हों. लहसन खानेवाले को अजीर्ण, धूप, क्रोध, अत्यन्त जल का पीना, दूध, गुड ये त्याग देने चाहिये। और मद्य, मांस तथा खट्टे पदार्थ सदा सेवन करने चाहिये॥
रसोनकल्क वायु वा विषमज्वर ऊपर
शुद्धकल्को रसोनस्य तिलतैलेन मिश्रितः।
वातरोगान् जयेत्तीव्रान् विषमज्वरनाशनः॥
अर्थ–लहसन का कल्क करके उस में तिलका तेल डालके पीवे तो दारुण वादी के रोग और विषमज्वर ये दूर होवें॥
चौथा लहसनकल्क
पिष्ट्वा तु सूक्ष्मं लशुनं घृतेन विलिह्य हन्यात्पवनोत्थरोगान्।
तथेंद्रबीजानिमहौषधानां चूर्णं हरेद्वातभवान् विकारान्॥
अर्थ-लहसन को पीसके घी के साथ खाय अथवा इन्द्रजो, चित्रक और सोंठ इन का चूर्ण घी के साथ खाय तो संपूर्ण वात विकारों को नाश करे॥
स्वच्छंदभैरवरस
शुद्धसूतं मृतं लोहं ताप्यं गंधकतालकम्। पथ्याग्निमंथनिर्गुंडीयूषणं टंकणं विषम्॥ तुल्यांशं मर्दयेत्खल्वे दिनं निर्गुंडिकाद्रवैः। मुंडीद्रावैर्दिकं तु द्विगुंजं वटकीकृतम्॥ भक्षयेद्वातरोगार्तोनाम्ना स्वच्छंदभैरवः। रास्त्रामृता-देवदारुशुंठीवातारिजं शृतम्॥ सगुग्गुलुं पिबेत्कोष्णमनुपानं सुखावहम्॥
अर्थ-शुद्ध पारा, लोहभस्म, सुवर्णमाक्षिक भस्म, गंधक, हरताल, छोटी हरड, अंडकी जड, निर्गुडी, सोंठ, मिरच, पीपल, सुहागा, सिंगिया विष ये सब समान भाग लेवेसब को १ दिन निर्गुडी के रसमें खरल करके फिर १ दिन गोरखमुंडी के रसमें खरल करके दो रत्ती की गोली बनावे. यह स्वच्छन्दभैरवरस है. यह भैरवरस रास्ना, गिलोय, देवदारु, सोंठ और अंड की जड इन पांच औषधों के काढे में गूगल डालके पीवेतौ संपूर्ण वादी के रोग दूर हों॥
समीरपन्नग
अभ्रगंधविषव्योषरसटकान् समशकान्। भावयेत्सप्तधा भृंगर-
सेन स्यात्समीरहा॥ आर्द्रद्रवेण वल्लोवा खंडव्योषेण योजितः। महावातान् जयत्याशु नासाध्मानं सुसंज्ञकृत्॥
वातविध्वंसन
रसं गंधकं नागवंगं च लोहंतथा ताम्रजं व्योम निश्चंद्रिकं च।
कणाटंकणं त्र्यूषणं नागरं वै पृथक् भागमेकं विमर्द्यैकयामम्॥
ततो वत्सनाभं चतुः सार्धभागं दृढं मर्दयेद्भावना व्योषजात्रिः।
वराचित्रकैर्मार्कवैः कुष्टजात्रिस्त्रिभिर्भावयेन्निर्गुडीभानुदुग्धैः॥
महाधात्रिश्चार्द्रकैर्निंबुनीरैः समं भावयेद्वातविध्वंसनो यत्।
समीरे च शूले महाश्लेष्मरोगे ग्रहण्यां तथा सन्निपाते च मौढ्ये॥
स्त्रियाः सूतिकावातरोगेषु दद्यान्निषेवेत गुंजाद्वयं सूतमेनम्॥
वातराक्षस
मृतं सूतं तथा गंधं कांतं चाभ्रकमेव च। ताम्रभस्म कृतं सम्यङ् मर्दयित्वा समांशकम्॥ पुनर्नवा गुडूच्याग्निसुरसा त्र्यूषणं तथा। एतेषां स्वरसेनैव भावयेत्त्रिदिनं पृथक्॥ दत्त्वा लघुपुटं सम्यक् स्वांगशीतं समुद्धरेत्। वातराक्षस-नामायं वातरोगे प्रयोजयेत्॥
तत्तद्रोगानुपानेन द्विगुंजामात्रसेवनात्। ऊरुस्तंभं वातरक्तं गात्रभंगं तथैव च॥ आमवातं धनुर्वातं वेदनावातमेव च। पक्षाघातं कंपवातं सर्वसंधिगतं तथा॥ सुप्तवातं वातशूलमुन्मादं च विनाशयेत्। तत्तद्रोगानुपानेन वाताशीतिविनाशनः॥
वातारिरस
रसो गंधो वरावह्निगुग्गुलुः क्रमवर्धितः। तत्रैकभागः सूतः स्याद्गंधको द्विगुणस्ततः॥ त्रिभागा त्रिफला योज्या चतुर्भागस्तु चित्रकः। गुग्गुलुः पंचभागः स्याद्रुबुतैलेन मर्दितः॥ क्षिप्त्वातत्रोदितं चूर्णं तेन तैलेन मर्दयेत्। गुटिकां कर्षमात्रां तु भक्षयेत्प्रातरेव हि॥ नागरैरंडमूलानां कषायं प्रपिबेदनु। अभ्यज्यैरंडतैलेन स्वेदयेत्पृष्ठदेशकम्॥ विरेकपरिणामेन स्निग्धमुष्णं च भोजयेत्। वातारिसंज्ञको ह्येष रसो निर्वातसेवितः॥ मासेन मरुतो रोगान्हरेत्सुरतवर्जितः॥
समीरगजकेसरी
नवाहिफेनं कुचिलं नवानि मरिचानि च। समभागानि सर्वाणि रक्तिकाप्रमितानि च॥ देयात्समीरे चैतानि पुनस्तांबूलचर्वणम्। कुब्जे च खंजवाते च सर्वजे गृध्रसीग्रहे॥ अवबाहौप्रयोक्तव्यः शोफे कंपे प्रतानके। विषूच्यामरुचौ देयमपस्मारे विशेषतः॥
मृतसंजीवनीरस
म्लेच्छस्य भागाश्चत्वारो तदर्धं विषसंयुतम्। टंकणं दंतिबीजं च आर्द्रकस्य रसेन वै॥ एतत्सर्वं क्षिपेत्खल्वे मर्द्यंयामद्वयं भिषक्। भानुदुग्धैर्महौदर्या द्विगुंजं भक्षयेत्सदा॥ वातव्याधिमुरुस्तंभमामवातं विशेषतः। ग्रहण्यर्शोविकारेषु ज्वरमष्टविधं तथा॥ निहंति तत्क्षणादेव तमः सूर्योदयो यथा। मृतसंजीवनो नाम प्रख्यातो रससागरः॥
वातारिरस
सूतहाटकवज्राणि ताम्रं लोहं च माक्षिकम्। तालं नीलांजनं तुत्थमहिफेनं समांशकम्॥ पंचानां लवणानां च भागमेकं विमर्दयेत्। वज्रक्षीरैर्दिनैकं तु रुध्वातं भूधरे पचेत्॥माषै-
कमार्द्रकद्रावैर्लेहयेद्वातनाशनम्। पिप्पलीमूलजं क्वाथं सकृष्णमनुपानकम्॥ सर्ववातविकारांस्तु निहन्यात्क्षेपकादिकान्। रसः सर्वत्र विख्यातो नाम्ना वातारि च स्मृतः॥
वातगजांकुश
मृतं सूतं मृतं लोहं गंधं तालं च माक्षिकम्। पथ्या शृंगी विषं त्र्यूषमग्निमंथं च टंकणम्॥ तुल्यं खल्वेदिनं मर्द्यंमुंडी-निर्गुंडिजैर्द्रवैः। द्विगुंजां वटिकां खादेत्सर्ववातप्रशांतये॥ साध्यासाध्यं निहंत्याशु रसो वातगजांकुशः॥
व्याधिगजकेसरी
पारदं गंधकं तालं विषं त्र्यूषणकं समम्। त्रिफलाटंकणक्षारं प्रत्येकं शाणमात्रकम्॥ दंतिबीजं च टंकैकं सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्। भृंगराजरसेनैव मर्दयेद्दिनसप्तकम्॥ काकमाचीरसेनैव निर्गुंडीरसकं तथा। मरिचाभा वटी कार्या दोषमापेक्ष्य दापयेत्॥ क्षीरेण सह दातव्या चाष्टज्वरनिवृत्तये। अशीतिर्वातजान्हंति निर्गुंडीवस्तुकेन वा॥ गुडेन सह दातव्या चत्वारिंशच्च पैत्तिकान्। अनुपानेन संयुक्तस्तत्तद्रोगहरः स्मृतः॥
सूर्यप्रभा गुटी
चित्रकं त्रिफला निंबंपटोलं मधुयष्टिका। वरांगं केसरं चैव यवानी चाम्लवेतसम्॥ भूनिंबकं च दाव्येला मुस्ता पर्पटकंतथा। तुत्थकं कटुका भार्ङ्गी चव्यपद्मकदीप्यकैः॥ पिप्पली मरिचं दंती शठी शुंठी सपुष्करम्। विडंगं पिप्पलीमूलं जीरकं देवदारु च॥ पत्रकं कुटजं रास्ना दुरालंभामृता त्रिवृत्। लतारुष्करतालीसंवृक्षाम्लं लवणत्रयम्॥ धान्यकं चाजमोदा च कारवी धातुमाक्षिकम्। जातीफलं तुगाक्षीरी वाजिगंधा सदाडिमम्॥ कंकोलकमुशीरं च द्विक्षारं मरिचं तथा। एतानि पलमात्राणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥ गिरिजस्य पलान्यष्टौ द्वे पले चैव गुग्गुलोः। प्रस्थमेकं सितायाश्च घृतस्य कुडवं तथा॥ गिरिजस्य समं लोहं प्रस्थार्धं माक्षिकस्य च। सर्वमेकत्र संमिश्र्यस्निग्धभांडे निधापयेत्॥ वातव्याधिमुरुस्तंभमर्दितं गृध्रसींतथा। विद्रधिश्लीपदं गुल्मं पांडुरोगं हलीमकं॥ कासं पंचविधं घोटंमूत्रकृच्छ्रं गलग्रहम्। आनाहमश्मरीवर्ध्मग्रहणीमवबाहुकम् ॥ अरोचकं पार्श्वशूलमुदरं सभगंदरम्। हृद्रोगं शूलमुत्कंपविषमज्वरनाशनम्॥ उरःक्षते च ये दोषा मुखरोगे च दारुणे। प्राशयेद्गुटिकां चापि चूर्णं पाणितलोन्मितम्॥ विविधान्नानि भुंजीत यथेष्टं च यथासुखम्। गुटिका भास्करी नाम्नासृष्टा देवेन शंभुना॥ प्रमेहं रक्तपित्तं च पांडु-
रोगं सकामलम्। अग्निसंदीपनं हृद्यं दीर्घायुःपुष्टिदो भवेत्॥ ये वातप्रभवा रोगा ये च पित्तसमुद्भवाः। कफरोगाश्च ये केचित् द्वंद्वजाः सान्निपातिकाः॥ ते सर्वे प्रशमं यांति भास्करेण तमो यथा। रोगविद्राविणी कार्या गुटिका सूर्यवत्प्रभा॥
लघुवातविध्वंसमात्रा
पारदष्टंकणो गंधपाषाणभिद्वत्सनागो वराटस्तथा तालकश्च। त्र्यूषणं हेमनीरेण तन्मर्दयेद्रक्तिकाभा वटी वातविध्वंसकः॥ सन्निपातके मारुते कफे शीतमांद्य के श्वाससंभवे। संग्रहाभिधेशूलजे गदेकाससंसृतौ योजयेत्सदा॥
वह्निकुमार
टंकणः पारदो गंधशंखौ कपर्दः समो वत्सनाभस्त्रिभागस्तथा। वल्लिजं अष्टभागं वह्निपूर्वः कुमारः स्मृतो भृंगनीरेण संमर्दितः॥ वातरोगेषु सर्वेषु श्वसने वह्निमांद्यके। कफामये प्लीहकासे शूले त्वग्निकुमारकः॥
वातविध्वंस
रसं गंधं विषं चैव ताम्रं लोहं समाक्षिकम् । एतत्सर्वं समं योज्यं विषं च द्विगुणं भवेत्॥ जेपालं तालकं चैव रसेन सह योजयेत्। त्र्यूषणं च समं योज्यं सर्वमेकत्र कारयेत्॥ निर्गुंडीसूरणद्रावैर्भानोश्च पयसस्तथा। तर्कारी भृंगराजश्च तथोन्मत्तरसस्य च॥ भावना खलु दातव्या सप्तसप्तक्रमादितः। द्विगुंजं भक्षयेत्प्रातर्मरिचैश्चसमन्वितम्॥ जानुजंघाकटिस्थूणपादगुल्फौष्ठशीर्षकम्। मन्यास्तंभं हनुस्तंभं त्रिकस्तंभं च शुष्ककम्॥ जिह्वास्तंभं बाहुभवं त्रिकस्तंभं च पादजम्। अधोभागे च ये वाताः सर्वांगे विचरंति ये॥ सर्वान्वातान् जयेदाशु दैन्यं नारायणो यथा॥
दूसरा समीरपन्नग
सूतं तालकमाक्षिकायसरजो गंधं समांशं कृतं पथ्या त्र्यूषण वह्निमंथसुरसा शृंगी विषं टंकणम्। क्षिप्त्वा खल्वतले च वारि सुरसामुंडीरसे मंर्दितं मात्रा वलमिता ससैंधवयुता शुंठ्यातथा चित्रकैः॥
वातारिरस
रसभस्म च भागैकं गंधको द्विगुणो भवेत्। त्रिगुणं च विषं ग्राह्यंया कणा चैव चतुर्गुणा ॥ वृंतात्रयं तथा प्रोक्तं सर्वमेकत्र कारयेत्। गुंजा मात्रा प्रदातव्या सर्ववातविकारिणाम्॥
दूसरा प्रकार
भागैकं च विषं चैव द्विभागं टंकणं तथा। चतुर्भागं च मरिचं सहैकत्र प्रयोजयेत्॥ आर्द्रकस्य रसैर्मर्द्यं वल्लमेकं प्रमाणतः। मरिचैश्च समायुक्तं सर्ववातनिकृंतनम्॥
रसेंद्रचिंतामणि
सूतात्पंचाश्चैकं कृत्वा पिष्टं सगंधकम्। सूतांशं नागव-
ल्याश्च द्रवैः पिष्ट्वा प्रलेपयेत् ॥ ताम्रपृष्ठे प्रलिप्यैतां रुद्ध्वागजपुटे पचेत्। द्विगुंजं त्र्यूषणेनार्धं वषुवातं सकंपकम्॥ निहंति दाहसंतापं मूर्छापित्तसमन्विताः॥
कालकंटकरस
वज्रसूताभ्रहेमर्कतीक्ष्णमंडं क्रमोत्तरम् । मारितं मर्दयेदम्लवर्गेण दिवसत्रयम्॥ त्रिक्षारं पंचलवणं मर्दितस्य समं समम्। निर्गुंडिकाद्रावैर्मर्दयेदिवसत्रयम्॥ शुष्कमेतद्विचूर्ण्याथविषं चास्याष्टमांशतः। टंकणं विषतुल्यांशं दत्त्वा जंबीरजैर्द्रवैः॥ भावयेद्दिनमेकं तु रसोऽयं कालकंटकः। दातव्यः सर्वरोगेषु सन्निपाते विशेषतः॥ द्विगुंजमार्द्रकद्रावैघृतैर्वा वातरोगिणाम्। निर्गुंडीमूलचूर्णं तु माहिषाख्यं च गुग्गुलुम्॥ समांशं मर्दयेदाज्ये तद्वटी कर्षसंमिता। अनुयोज्या घृतैर्नित्यं स्निग्धमुष्णं च भोजनम् ॥ मंडलान्नाशयेत्सर्वान्वातरोगान्न संशयः। सन्निपाते पिबेच्चानु रविमूलकषायकम्॥
त्रिगुणाख्यरस
गंधकाष्टगुणं सूतं शुद्धं मृद्वग्निना क्षणम्। पक्त्वावतार्य संचूर्ण्य चूर्णतुल्याभयायुतम्॥ सप्तगुंजमिदं खादेद्वर्धयेच्च दिने दिने। गुंजैकैकं क्रमेणैव यावत्स्यादेकविंशतिः॥ क्षीराज्यशर्करामिश्रं शाल्यन्नं पथ्यमाचरेत्। कफवात-प्रशांत्यर्थं निर्वाते निवसेत्सदा॥ त्रिगुणाख्यो रसो नाम त्रिपक्षात्कफवातनुत्॥
अर्केश्वर
रसस्य गंधं द्विगुणं विमर्द्यताम्रस्य चक्रेण सुतापितेन। आच्छादयित्वा च ततः प्रयत्नाच्चक्रे विलनं च ततः प्रगृह्य॥ संचूर्ण्य च द्वादशधार्कदुग्धैः पुटेत वह्नित्रिफलाजलेन। संभावितार्केश्वर एष सूतो गुंजाद्वयं चास्य फलत्रयेण॥ ददेत मानत्रितयेन सुप्तिवाताद्विमुक्तो हि भवेद्धिताशी। क्षारं सुतीक्ष्णंदधिमांसमाषं वृंताकमध्वादि विवर्जनीयम्॥
एकांगवीर
शुद्धगंधं मृतं सूतं कांतंवंगं च नागकम्। ताम्रं चाभ्रंमृतं
तीक्ष्णं नागरं मरिचं कणा॥ सर्वमेकत्र संचूर्ण्य भावयेच्च पृथक् त्रयम्। वराव्योषकनिर्गुंडीवह्निमार्द्रकजैर्द्रवैः॥ शिग्रुकुष्ठद्रवेणापि ततो धात्र्या द्रवेण च। विषमुष्ट्यार्कहाटैश्च आर्द्रकस्य रसैस्तथा॥ रसश्चैकांगवीरोसौसुसिद्धो रसराड् भवेत्। पक्षघातं चार्दितं च धनुर्वातं तथैव च॥ अर्धांगं गृध्रसीं वापि विश्वाचीमवबाहुकम्। सर्वान्वातामयान्हंति सत्यं सत्यं न संशयः॥
वातरक्तपर रस
पारदं च क्रियाशुद्धं तत्तुल्यं शुद्धगंधकम्। अभ्रकं तु द्वयोस्तुल्यं त्रिभिस्तुल्यं तु गुग्गुलुम् ॥ सर्वांशममृतासत्वं भावये दौषधैः पृथक्। निर्गुंडीगोक्षुरच्छिन्ना कोकिलाख्यांघ्रिजै रसैः॥ सप्तवारं ततो युंज्याद्वातरक्ते त्रिवल्लकम्। कोकीला-ख्यस्य मूलानां पानीयमनुपाययेत्॥
तालकभस्म
तालं रसं तुवरिकां नयनेंदुबाणभागैर्विशुद्धवसुजातर से विमर्द्य। दत्त्वा शरावयुगले प्रविधाय मुद्रां दद्याद्गजाह्वपुटमस्य भवेत्सुभस्म॥ दृष्ट्वाकृतिं प्रकृतिमप्यखिलामवस्थां दृष्ट्वा पुनश्च बहुधा बहुधा विचार्य। दद्याच्च तंदुलमितां हरितालमात्रां विद्या मया यतिवरादियमाषयत्नात्॥
गंधकरसायन
शुद्धो बलिर्गोपयसा विभाव्य ततश्चतुर्जातगुडूचिकाभिः। पथ्याक्षधात्र्यौषधभृंगराजैर्भाव्योष्टवारं पृथगार्द्रकेण॥ सिद्धे सितां योजय तुल्यभागां रसायनं गंधकपूर्वकं स्यात्। कर्षोन्मितं सेवितमेति मर्त्यो वीर्यं च पुष्टिं दृढदेहवह्निम्॥ कुष्ठं सकंडुं विपदोषमुग्रं मासद्वयं योजयती च योगः। घोरातिसारं ग्रहणीगदं च सवातरक्तं सहशूलयुक्तम्॥ जीर्णज्वरं मेहगणं च तीव्रं वातामयानां ग्रहणे समर्थः। प्रज्ञाकरं केशमतीव कृष्णं ससोमरोगं सहमुष्कवृद्धिम्॥ हरति सकलरोगान् गंधकाख्योतियोगो मृतसदृशनराणां प्राणदो दीर्घमायुः। तदनुविहितयोगं भस्म सूतं सहेम रमयति त्रिदशानां दीप्तिरूपं सुखं च॥
लघुविषगर्भतैल
तैलाढकं समतुषांबुहयारिहेमनिर्गुंडिभास्कर शिफासृतया तु
सिद्धम्। धत्तूरकुष्ठफलिनीविषहमदुग्धा-रास्नाहयारिकटभी मरिचोपचित्रा॥ मांसी वचा दहनसर्षपदेवदारु दार्वी निशा ऋबुजतुत्रिफला समंगा। पिष्ट्वाक्षिपेत्पलमितां विषगर्भमेतत्तैलं समस्तपवनामयनाशनं स्यात्॥
दूसरा प्रकार
धतूरस्य रसस्य पंच कुडवं तैलं तथा कांजिकं प्रस्थानां च चतुष्टयं गदवचाचित्रात्परं शाणकाः। हृद्धात्री-मरिचात्पृथङ्नवविषात्षट् स्वर्णबीजात्पटोः स्युः सप्ताधिकविंशतिः परिमितं तीव्रानिलध्वंसनम्॥ पक्षाघातं हनुस्तंभं मन्यास्तंभं कटिग्रहम्। पृष्ठत्रिकशिरःकंपं सर्वांगग्रहणं तथा॥
महाविषगर्भतैल
कनकं तु च निर्गुंडी तुंबिनी च पुनर्नवा। वातारिश्चाश्वगंधा च प्रपुन्नाटं सचित्रकम्॥ सौभांजनं काकमाची कलिकारी च निंबकम्। महानिंबेश्वरी चैव दशमूलं शतावरी॥ कारवेल्ली सारिवा च श्रावणी च विदारिका। वज्र्यको मेषशृंगी च करवीरद्वयं वचा॥ काकजंघा त्वपामार्गबला चातिबलाद्वयम्। व्याघ्रीमहाबला वासा सोमवल्ली प्रसारिणीे॥ पलोन्मितानि
चैतानि द्रोणेंभसि विनिःक्षिपेत् । पचेत्पादावशेषेस्मिन्कल्कस्य कुडवं क्षिपेत्॥ त्रिकटुं विषतिंदुं च रास्त्रा कुष्ठं विषं घनम्। देवदारुर्वत्सनाभो द्वौ क्षारौ लवणानि च॥ तुत्थकं कट्फलं पाठा भार्ङ्गी च नवसागरम् । त्रायंती धन्वयासं च जीरकं चंद्रवारुणी॥ तैलप्रस्थं समादाय पाचयेन्मृदुवह्निना। विषगर्भमिदं नाम्ना सर्वान्वातान्व्यपोहति॥ वक्षोरुकटिजंघानां संधानं श्रेष्ठमेव च। गृध्रसीं च महावातान्सर्वांगग्रहणं तथा॥ दंडापतानकं चैव कर्णनादं च शून्यताम्। वनमध्ये यथा सिंहात्पलायंते यथा मृगाः॥ तथाश्वगजभग्नानां नराणां च चतुष्पदाम्। नाशयेन्नात्र संदेहो विषगर्भप्रलेपनात् ॥
प्रसारिणीतैल
समूलपत्रां पुष्पाढ्यां जातसारां प्रसारिणीम्। कुट्टयित्वा पलशतं कटाहे समधिश्रयेत्॥ दध्नस्तत्राढकं दद्यात् द्विगुणं चा-
म्लकांजिकम्। भेषजानि तु पेष्याणि तत्रेमानि समावपेत् ॥ शुंठी पलानि पंचैव रास्नायाश्च पलद्वयम् । प्रसारिणीपल द्वे च द्वे पले मधुकस्य च ॥ एतत्सर्वं समालोड्य शनैर्मृद्रग्निना पचेत् । एतत्प्रभंजने श्रेष्ठ नस्यकर्मणि शस्यते ॥ एकांगग्रहणं वापि सर्वागग्रहणं तथा । अपस्मारं तथोन्मादं विद्रधिं मंदवह्निताम् ॥ त्वग्गताश्चापि ये वाताः शिरासंधिगताश्च ये । अस्थिसंधिगता ये च ये च शुक्रार्त्तवे स्थिताः ॥ सर्वान्वातामयान्नूनं नाशयत्येव सर्वथा। हयं नरं गजं वापि वातजर्जरितं भृशम्॥ सद्यः प्रशमयेत्तैलमतन्नात्र विचारणा। इंद्रियस्य प्रजननं वंध्यानां च प्रजाकरम्॥ वृद्धानां बालकानां च स्त्रीणां राज्ञां हितं परम्। पंगुर्वापीठसर्पिर्वा पीत्वैतत्संप्रधावति॥
नारायण तैल
बिल्वोग्निमंथः स्योनाकपाटलापारिभद्रकाः। प्रसारिण्यश्वगंधा च बृहती कंटकारिका॥ बला चातिबला चैव श्वदंष्ट्रासपुनर्नवा। एषां दश पलान् भागान् चतुर्द्रोणांभसा पचेत् ॥ पादशेषं परिस्राव्य तैलपात्रे प्रदापयेत्। शतपुष्पा देवदारु मांसी
शैलेयकं वचा॥ चंदनं तगरं कुष्ठमेलापर्णीचतुष्टयम्। रास्ना तुरगगंधा च सैंधवं सपुनर्नवम्॥ एषां द्विपलिकान् भागान् पेषयित्वा विनिःक्षिपेत्। शतावरीरसं चैव तैलतुल्यं प्रदापयेत् ॥ आजं वा यदि वा गव्यं क्षीरं दत्त्वा चतुर्गुणम्। पाने बस्तौतथाभ्यंगे भोज्ये नस्ये प्रयोजयेत्॥ अश्वो वा वातभग्नो वा गजो वा यदि वा नरः। पंगुर्वाभग्नहस्तो वा भग्नपादोथ वा नरः॥ अधोभागे च ये वाताः शिरामध्यगताश्च ये। दंतशूले हनुस्तंभेमन्यास्तंभेपतंत्रके॥ एकांगग्रहणे वापि सर्वांगग्रहणे तथा। क्षीणेंद्रिया नष्टशुक्रा ज्वरक्षीणाश्च ये नराः॥ लालजिह्वाश्चबधिरा विखरा मंदमेधसः। मंदप्रजा च या नारी या च गर्भ न विंदति॥ वातार्तौवृषणौ येषामंत्रवृद्धिश्चदारुणा । एतत्तैलं वरं तेषां नाम्ना नारायणं स्मृतम्॥
दूसरा प्रकार
अश्वगंधा बला बिल्लं पाटला बृहतीद्वयम्। श्वदंष्ट्रातिबला निंबः
स्योनाकं च पुनर्नवा॥ प्रसारिणीमग्निमंथः कुर्याद्दशपलं पृथक्। चतुर्द्रोणे जले पक्त्वा पादशेषं सृतं नयेत्॥ तैलाढकेन संयोज्य शतावर्या रसादकम्। क्षिपेत्तत्र च गोक्षीरं तैलात्तस्माच्चतुर्गुणम्॥ शनैर्विपाचयेदेभिः कल्कैर्द्विपलिकैः पृथक्। कुष्ठैला चंदनं मूर्वा वचा मांसिससैंधवैः॥ अश्वगंधा बला रास्ना शतपुष्पेंद्रदारुभिः। पर्णीचतुष्टयेनैव तगरेणैव साधयेत्॥ तत्तैलं नावनेभ्यंगे पाने बस्तौ च योजयेत्। पक्षघातं हनुस्तंभं मन्यास्तंभं गलग्रहम्॥ खल्लत्वं बधिरत्वं च गतिभंगं गलग्रहम् । गात्रशोषेंद्रियध्वंसे असृक्शुक्रे ज्वरे क्षये॥ अंडवृद्धिकुरंडं च दंतरोगं शिरोग्रहम्। पार्श्वशूलं च पांगुल्यं बुद्धिं हानिं च गृध्रसीम्॥ अन्यांश्च विषमान्वातान् जयेत्सर्वांगसंश्रयान्। अस्य प्रभावाद्वंध्यापि नारी पुत्रं प्रसूयते॥ मर्त्योगजो वा तुरगस्तैलाभ्यंगात्सुखी भवेत्। यथा नारायणो देवो दुष्टदैत्यविनाशनः॥ तथैवं वातरोगाणां नाशनं तैलमुत्तमम्॥
शतावरीतैल
शतावरी बलायुग्मं पर्ण्यौगंधर्वहस्तकः। अश्वगंधाश्वदंष्ट्राच बिल्वः काशः कुरंटकः॥ एतान् सार्धपलान् भागान् कल्पयेच विपाचयेत्। चतुर्गुणेन नीरेण पादशेषं सृतं नयेत्॥ नियोज्य तैलप्रस्थे च क्षीरप्रस्थं विनिःक्षिपेत्। शतावरीरसप्रस्थं जलप्रस्थं च योजयेत्॥ शतावरी देवदारु मांसी तगरचंदनम्। शतपुष्पाबला कुष्ठमेला शैलेयमुत्पलम्॥ ऋद्धिर्मेदा च मधुकं कांकोली जीवकस्तथा । एषां कर्षसमैः कल्कैस्तैलगोमयवह्निना॥ पचेत्तेनैव तैलेन स्त्रीषु नित्यं वृषायते। नारी च लभते पुत्रं योनिशूलं च नश्यति॥ अंगशूलं शिरःशूलं कामलां पांडुतां गरम् । गृध्रसीं प्लीहशोषांश्च मेहान् दंडापतानकम् ॥ सदाहं वातरक्तं च वातपित्तगदार्दितम् \। असृग्दरं तथाध्मानं रक्तपित्तं च नश्यति॥ शतावरीतैलमिदं कृष्णात्रेयेण भाषितम्॥
माषतैल
माषप्रस्थं समावाप्य पचेत्सम्यग्जलाढके। पादशेषे रसे तस्मिन् क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम्॥ प्रस्थं च तिलतैलस्य कल्कं दत्त्वाक्षसंमितम्। जीवनीयानि यान्यष्टौ शतपुष्पा संसैंधवा॥ रास्नात्मगुप्ता मधुकं बला व्योषं त्रिकंटकम्। पक्षघातार्दिते वाते कर्णशूले च दारुणे॥ मंदश्रुतौ च श्रवणे तिमिरे च विदोषजे। हस्तकंपे शिरःकंपे बाहुशोषेवबाहुके॥ शस्तं कलायखंजे च पानाभ्यंजनबस्तिभिः। माषतैलमिदं श्रेष्ठमूर्ध्वजत्रुगदापहम्॥
चौथा विषगर्भतैल
तैलं कृष्णतिलोद्भूतं सर्षपैरंडसंभवम्। उभावपि च तुल्यांशं सर्व द्रोणमितं पचेत्॥ वक्ष्यमाणौषधीभिस्तु लोहपात्रे क्रमाग्निना । पश्चान्मानद्रवं क्वाथे वस्त्रपूतं विधाय च ॥ गर्भे विषं प्रदातव्यं तस्मात्तद्विषगर्भकात् । धत्तूरकरवी कं लांगल्यं कोष्णवज्रकम्॥महानिंवत्रिवृती देवदाली प्रसारिणी। ज्योतिष्मती शिग्रुमूलं केतकी च पुनर्नवा॥ कुलित्थमाषकार्पासबीजं भृंगरसान्वितम्। लाक्षारसं छागमांसं शणबीजं समं पृथक्॥ व्याघ्रवारा-हजंबूकवसाप्रस्थद्वयं द्वयम्। विषमष्टपलं ज्ञेयमन्यत् पद्वयम् ॥ प्रत्येकमौषधं ग्राह्यं मंजिष्ठाया द्विप्र-
स्थकम् । त्रिकटु त्रिफला कुष्ठं रास्ना मांसी सठी वचा॥ चित्रकं देवदारुश्च बाकुचींद्रियवामृता। विडंगं रेणुका मुस्तं पंचकोलं यवानिका॥ शम्याकं खदिरं सारं मधूकद्रुमबीजयोः। अज- मोदा च तगरं सैंधवं रक्तचंदनम्॥ हरिद्राद्वयसिक्थं च चतुर्जातं सचंदनम्। लोहभस्माभ्रकं वंगं पार्क कौसीसमेव च॥ मनःशिला लेदरदकृष्णागरुनखांडिकम्। सिल्हारं रसगोधूमं कुंकुमेदमृगांडजम्॥ सर्वमेतत्सुगंधार्थं सिद्धतैले विनिःक्षिपेत्। अशीतिर्वातजान्रोगानामवाता-न्सुदुस्तरान्॥ वातश्लेष्मसमुद्भूतान् कटिजानूरुजंघजान्। गृध्रसीं च हनुस्तंभं मन्या-स्तंभंप्रकंपनम्॥ पक्षाघातं पंगुतां च नाशयेदवबाहुकम्॥
लघुनारायणतैल
एलाबलानतकुचंदनदारुसोम्याशैलेयकुष्ठकुटिलावरुणाश्रितेन।
तैलं सदुग्धमिति सिद्धमभीरुकंदतोयेन तेन लुलितेन समीरणनम्॥
शतावरी नारायणतैल
शतावरी चांशुमती पृश्निपर्णी सठी बला। एरंडस्य च मूलानि बृहत्यौपूतिकस्य च॥ गवेधुकस्य मूलानि तथा सहचरस्य च। एतान्दशपलान्भागान् जलद्रोणे पचेद्बुधः॥ पादावशेषे पूते च गर्भे चैतान्समावपेत्। पुनर्नवा वचा दारु शताह्वा चंदनागरुः॥ शैलेयं तगरं कुष्ठं त्रुटी मांसी स्थिरा बला। अश्वाह्वासैंधवं रास्नामंजिष्ठा घनचोरकम्॥ कौंतीप्रियंगुस्थौणेयं पलार्धं कल्पयेत्पृथक्। गव्याजपयसोः प्रस्थौ द्वौ द्वावत्र प्रयोजयेत्॥ शतावरीरसप्रस्थं तैलप्रस्थं भिषक् पचेत्। लवंगनखकंकोलवेल्लकं जीरकं भिषक्॥ त्वक्कटूकं च कर्पूरं तुरुष्कश्रीनिवासकम्। स्पृक्का कुंकुमकस्तूरी दद्यादत्रावतारिते॥ अश्वतैलस्य सिद्धस्य शृणु वीर्यमतः परम्। अश्वानां वातरुग्णानां कुंजराणां तथा नृणाम्॥ तैलमेतत्प्रयोक्तव्यं सर्ववातविकारनुत्। आयुष्मांश्च नरः पीत्वा निश्वयेन दृढो भवेत् ॥ गर्भमश्वतरी विद्याकिं पुनर्मानुषी तथा। हृच्छूलं पार्श्वशूलं च तथैवार्धावभेदकम्॥ अपचीं गंडमालां च वातरक्तं हनुग्रहम्। कामलामश्मरीं पांडुमुन्मादं च नियच्छति॥ नारायणेन गदितं तैलमेतत्कृपालुना। नारायणमिति ख्यातं नाम्ना तस्मादिदं भुवि॥
दूसरा शतावरीतैल
रुग्दारु द्रविडी प्रियंगु तगरत्वक्पत्रकौंतीनखैर्मत्सी सर्जरसांबुचंदनवचाशैलेयलामज्जकैः। मंजिष्ठासरलागुरु द्विपबला रास्त्राश्वगंधा वरी वर्षाभूमिसिसिंधुभिश्चसकलैरेभिः पचेत्कल्कितेः॥ तुल्यं गोपयसा वरीरससमं तैलं विपक्वंमुदु स्याद्वातघ्नमिदं नृणामिति वरीतैलं भिषक्पूजितम्॥
दशमूलादितैल
दशमूलकषायविपक्वमथो पयसा च समेन बलान्दनलैः। त्रुटिचंदनदारुलतानलदैररुणाजतु कुष्ठवचाकुटिलैः॥ इति
पक्वमिदं तिलजं जयतिप्रसभं पवनामयमाशु नृणाम्। बलशुक्रविभारुंचिवह्निकरं नृपवृद्ध शिशुप्रमदासु हितम्॥
तीसरा प्रसारिणीतैल
समूलदलशाखायाः प्रसारण्याः शतत्रयम् । शतमेकं शतावर्या अश्वगंधाशतं तथा॥ केतकीनां शतं चैकं दशमूलं शतं शतम्। वाट्यालकस्यापि शतं शतं सहचरस्तथा॥ जलद्रोणशतं दत्त्वा शतभागावशेषतः। ततस्तेन कषायेण कषायद्विगुणेन च॥ सुव्यक्तेनारनालेन दधिमंडाढकेन तु। क्षीरशुक्लेक्षुनिर्यासछागमांसरसाटकैः॥ तैलेद्रोणसमायुक्तं दृढे पात्रे निधापयेत्। द्रव्याणि यानि क्षेप्याणि तानि वक्ष्याम्यतः परम्॥ भल्लातकं नतं शुंठी पिप्पली चित्रकं सठी। वचा स्पृक्का प्रसारिण्या पिप्पलीमूलमेव च॥ देवदारु शताह्वा च सूक्ष्मैला त्वच फालकम्। कुंकुमं मंदमजिष्ठारुष्करं नखिकागुरु॥ कर्पूरं कुंदरुनिशालवंगं ध्यामचंदनम्। कंकोलं नलिका मुस्ता कालियोत्पलपत्रकम्॥ सठी हरेणुशैलेयं श्रीवासं च सकेतकम्। त्रिफला कच्छुरा भीरु सरलं पद्मकेसरम्॥ प्रियंगूशीरबलदं जीवकाद्यं पुनर्नवा। दशमूलानिगंधं च नागपुष्पं रसांजनम्॥ कटुका जातिपुन्नागो फलानि सल्लकीरसम्। भागांस्त्रिपलिकान् दत्त्वा शनैर्मृद्रग्निना पचेत्॥ विस्तीर्णे सुदृढे पात्रे पाच्यैषा तु प्रसारिणी। प्रयोगः षड्विधश्चात्र रोगार्त्तानां प्रशस्यते॥ अभ्यंगात्त्वग्गतं हंति पानात्कोष्ठगतं तथा। भोजनात्सूक्ष्मनाडी-
स्थान्नस्यादूर्ध्वगतांस्तथा॥ पक्षाश्रयगते बस्तिर्निरूहः सार्वकायिके। एतद्धि बटुकार्तानां किशोराणां यथामृतम्॥ एतदेव मनुष्याणां कुंजराणां गवामपि। अनेनैव च तैलेन शुष्यमाणा महाद्रुमाः॥ सिक्ताः पुनः प्ररोहंति भवंति फलशालिनः। वृद्धोष्यनेन तैलेन पुनश्च तरुणायते। न प्रसूयेत या नारी पाययित्वा प्रसूयते। अप्रजाः पुरुषो यस्तु पीत्वाशु लभते सुतम्॥ अशीतिं वातजान् रोगान् पैत्तिकान् श्लेष्मिकानपि। सन्निपातसमुत्थांश्च नाशयेत्क्षिप्रमेव च॥ एतेनांधकवृष्णीनां कृतं पुंसवनं महत्। कृत्वा विष्णोर्बलिं चापि तैलमेतत्प्रयोजयेत्॥
चौथा प्रसारिणीतैल
प्रसारिणीक्वाथपयोंबुतक्रंमस्त्वारनालं दधिभिस्तु तैलम्। कल्कीकृतं विश्वघनांबुकुष्ठं मांसी शताह्वामरदारुसेव्यैः॥ शैलेन रास्नागुडसारिवाभिः सिंधूत्थबिल्वानिलमंथमोचैः। सामृग्लतां खोजपुनर्नवाख्यस्योना कयष्ट्याह्वकुटंनटैश्च॥ छिन्नोद्भवा दार्व्यभयाकरंजमेदा निशा द्वे सफलत्रयैश्च। एरंडमेकं कटुजीविताश्च तत्साधितं इत्यनिलोत्थरोगान्॥ सर्वांश्च दीप्तानपि पक्षघातान्याताश्रितानाहहनुग्रहादनि । सगृध्रसीविश्वविबाहुशोषं हृन्मूर्धसंस्थांश्च गदांश्च तांस्तान्॥ संशुष्कभयं प्रबलांमषष्टिं योसाध्यतामुल्बणमारुतेन। नीतः पुमांस्तस्य भवेदवश्यंप्रसारिणतिलमिदं हिताय॥
पंचम प्रसारिणीतैल
चतुःप्रस्थं प्रसारिण्याः पचेत्तोयार्मणे शुभे। पादे शिष्टे समं तैलं दधि दद्यात्सकांजिकम्॥ द्विगुणं च पयो दद्यादन्येषां कल्ककांस्तथा। चित्रकं पिप्पलीमूलं मधुकं सैंधवं वचा॥ शत-
पुष्पा देवदारु रास्नावारणपिप्पली। प्रसारिण्याश्च मूलानि मांसीभल्लातकानि च॥ पचेन्मृद्वग्निना तैलं वातश्लेष्मामयाञ्जयेत्। अशीतिर्नरनार्युत्थान्वातरोगान्व्यपोहति॥ कुब्जं स्तिमितपंगुं च गृध्रसीं खंडकार्दितम्। हनुपृष्ठशिरोग्रीवास्तंभं चापि नियच्छति॥
छठा विषगर्भतैल
विषं च पुष्करं कुष्ठं वचा भार्ङ्गीशतावरी। शुंठी हरिद्रा लशुनं विडंगं देवदारु च॥ अश्वगंधाजमोदा च मरिचं ग्रंथिकं बला। रास्नाप्रसारिणी शिष्ट गुडूची हपुषाभया॥ दशमूलानि निर्गुंडी मिशी पाठा च वानरी। निशाला शतपुष्पा च प्रत्येकं पलिकानिमान्॥ चतुर्गुणे जले पक्त्वा पादशेषं समुद्धरेत्। पलमेकं विषं चात्र सूक्ष्मं कृत्वा विनिक्षिपेत्॥ सर्वेषु वातरोगेषु सदाभ्यंगो विधीयते। संधिवाते सन्निपाते त्रिकपृष्ठकटिग्रहे॥ पक्षाघाते तथार्धांगे गात्रकंपेतिदारुणे। कुब्जके च धनुर्वाते गृध्रस्यां चापतानके॥ विषगर्भमिदं तैलं योजनीयं सदा बुधैः॥
सातवां विषगर्भतैल
निर्गुंडिकारसप्रस्थं प्रस्थमार्कवजाद्रसात्। रसो धत्तूरजः प्रस्थो गोमूत्रं प्रस्थसंमितम्॥ वचा कुष्ठं हेमबीजं तेजोह्वा कट्फलं तथा। पलाशानि सर्वैस्तु वत्सनागः समो मतः॥ तैलप्रस्थं पचेद्युक्त्यावातरोगेषु शस्यते। हेमंते हरिणा-क्षीणां गाढमालिंगनं तथा॥
दार्व्यादितैल
दारु कुष्ठंकणा रास्नाविश्वानिबृहतीपुरम्। भागोत्तरमिदं सर्व रंभानिर्यासपाचितम्। संक्वाथ्य दुग्धतैलाभ्यां पक्वस्या-भ्यंगतो ध्रुवम्। सर्वे वाता विनश्यंति प्रत्यंगं भंगकारिणः॥
दशमूलतैल
श्रीपर्णी वह्निमंथश्च बिल्वः स्योनाकपाटला। गोक्षुरः शालिपर्णी च बृहती कंटकारिका॥ पृष्ठिपर्णी च एतेषां दशमूलानि तद्युतम्। तैलं पक्वंप्रलेपेन हंतिवाताननेकधा॥
चरणैरंडवातारिमुंडिशिग्रुशतावरी। कांडवेली बृहत्यौद्वे नागकर्णी शिफा दश॥ एषां तैलप्रलेपेन त्वगस्थि-स्नायुसंभवम् । सर्वांकुपितो वायुर्विनश्यति हि वेगतः॥
ज्योतिष्मती चंद्रसूरा कलाजाजी यवानिका। मेथी तिलांश्च संपिष्य यंत्रे तैलं समुद्धरेत्॥ अभ्यंगान्मारुतव्याधिं समस्तं संप्रणाशयेत्॥
लघुमाषादितैल
माषसिंधुबलारास्नादशमूलकहिंगुभिः।
वचाशतजटाख्याभिः सिद्धं तैलं सनागरम्॥
विजय भैरवतैल
रसं गंधं शिलां तालं सर्वं कुर्यात्समांशकम्। चूर्णयित्वा ततः श्लक्ष्णमारनालेन पेषयेत्॥ तेन कल्केन संलिप्य सूक्ष्मवस्त्रं ततः परम्। तैलाक्तां कारयेद्वर्तिमूर्ध्वभागे च वापयेत्॥ वर्त्यधः स्थापयेत्पात्रं तैलं पतति शोभनम्। लेपयेत्तेन गात्राणि भक्षणाय च दापयेत्॥ नाशयेत्तत्सुखं तैलं वातरोगानशेषतः। बाहुकंपं शिरःकंप जंघा कंपं ततः परम्॥ एकांगं च तथा वातं हंति लेपान्न संशयः। रोगशांत्यै प्रदातव्यं तैलं विजयभैरखम्॥ द्रव्यतस्तिलजं तैलं दातव्यं च चतुर्गुणम्॥
दूसरा प्रसारिणीतैल
समूलपत्रामुत्पाट्य शरत्काले प्रसारिणीम् । शतं वाट्यालकांतं द्वे शतावर्याः शतं तथा ॥ बलाश्वगंधात्मगुप्ता केतकीनां शतं शतम् । चतुर्द्रोणेन तोयेन द्रव्यैस्तैलाढकं पचेत् ॥ मस्तुमांसरसेर्युक्तं दधि दुग्धं तथाडकम् । एतैः सर्वैः समायुक्तं पाचयेन्मृदुनाग्निना॥ द्रव्याणां च प्रदातव्या मात्रा चार्धपलोन्मिता। तगरं मदनं कुष्ठं केसरं मुस्तकं वचा ॥ रास्नासैंधव पिप्पल्यो मांसीमंजिष्ठयष्टिका। जीवकर्षभकौ मेदा महामेदा तथा नतम्॥ शतपुष्पा व्याघ्रनखं शुंठी देवाह्वमेव च। कांकोली क्षीरकांकोली बला भल्लातकं तथा॥ पेषयित्वा समं चैतान्साधनीया प्रसारिणी। नातिसिद्धं नातिपक्वंसिद्धं पूतं निधापयेत् ॥ यत्र यत्र प्रदातव्यं तन्मे निगदतः शृणु। कुब्जानामथ पंगूनामवतानां तथैव च॥ यस्य शुष्यति चैकांगं ये च भग्नास्थिसंधिजाः। वातशोणितदुष्टानां वातोपहतचेतसाम्॥ स्त्रीभिश्चक्षीणशुक्राणांवाजीकरणमुत्तमम्। पाने बस्तौ यथाभ्यंगे भोज्ये चैव प्रदापयेत्॥ प्रयुक्तं शमयत्याशु वातजान्विविधान् गदान्॥
व्याघ्रतैल
व्याघ्रंशिरः समादाय कुट्टयित्वा जले बहु। क्वाथ्य पादावशेषं तु रसं नीत्वा सुगालितम्॥ तैलमर्धजलं दत्त्वा छागगव्यपयोन्वितम्। मदिरा मस्तु धान्याम्लं तैलमानेन दापयेत्॥ दत्त्वा कटाहे सुदृढे पचेत्पाकविधानतः। द्रव्याण्येतानि मतिमान् पादमानेन दापयेत्॥ देवदारु वचा कुष्ठं तगरं चंदनं घनम्। मंजिष्ठा पौष्करं रास्ना चतुर्जातं च सैंधवम्॥ पिप्पली मरिचं शुंठी मांसी सहचरं जलम्। अश्वगंधात्मगुप्ता च चित्रकं वंशजं बरी॥ श्वदंष्ट्राकेतकी मूर्वायष्टी मधुगिरेर्मृदा। जातीफलं च सुमनः पत्रिकं कटुरोहिणी॥ ग्रंथिकं शुक्लकंदा च शतपुष्पा पुनर्नवा। जीवनीयो गणश्चैव रालंबोलं सकेसरम्॥ नखं च कृष्णसारं च वत्सनागं सुचूर्णितम्। अस्य तैलस्य पक्वस्य शृणु वीर्यमतः परम्॥ अशीतिवातजान् रोगान् हन्यादाशु जरामपि। अश्वानां वातभग्नानां गजानां शुष्यतामपि॥ वृष्यं तुष्टिप्रदं पुष्टिमेधाग्निबलवर्धनम्। श्रुतिभ्रंशे खंजवाते क्रोष्टुशीर्षे कटिहे॥ मन्यास्तंभेहनुस्तंभे वाते मेदस्तथांतरे। वंध्यानां पुत्रजननं पंढानां कामवर्धनम्॥ अश्विभ्यां निर्मितं चैतत्प्रजानां हितकाम्यया। अनेनैव विधानेन मृतार्क्षं विपचेद्भिषक्॥
महाबलातैल
बलामूलकषायस्य दशमूलीभृतस्य च। यवकोलकुलित्थानां क्वाथस्य पयसस्तथा॥ अष्टावष्टौ शुभान्भागान् तैलादन्यं तदेकतः। पचेदावाप्य मधुरं गणं सैंधवसंयुतम् ॥ तथागुरुं सर्जरसं सरलं देवदारु च। मंजिष्ठा चंदनं कोष्ठमेला कोलांजनं वरा॥ मांसी शैलेयकं पत्रं तगरं सारिवा वचा। शतावरीमश्वगंधं शतपुष्पा पुनर्नवा॥ तत्साधु सिद्धं सौवर्णे राजते वाथ मृन्मये । प्रक्षिप्य सकलं सम्यक् सुगुप्तं स्थापयेद्बुधः॥ बलातैलमिदं ख्यातं सर्ववातविकारनुत्। यथाबलं भिषङ्मात्रां सूतिकायै प्रदापयेत्॥ या च गर्भार्थिनी नारी क्षीणशुक्रश्च यः पुमान्। क्षीणे वांते मर्महते मथिते पीडिते तथा ॥ भग्नेऽस्थिन्यभिपन्ने च सर्वथैव प्रयोजयेत्। सर्वानाक्षेपकादींश्च वातव्याधीन्व्यपोहति॥ प्रत्युग्रधातु-पुरुषो भवेच्च स्थिरयौवनः। राज्ञामेतद्धि कर्तव्यं राजमान्यैस्तथा नरैः॥
दूसरा शतावरीतैल
बव्हंघ्रिकामूलरसोऽथ तैलं दुग्धं पलं प्रस्थयुतं क्रमेण। सश्वेतपुष्पा नवदेवदारु शैलेयमांसीमिलितं समांशम्॥ तैलावशेषं कथितं समस्तं नारायणं तैलमिदं वदंति। नानानिलापीडितमानुषाणामभ्यंगयोगाद्धितमेतदेव॥
तीसरा प्रकार
दुग्धं प्रस्थद्वयं तैलमेकप्रस्थं तथा रसम्। शतावरी वचा कुष्ठं चंदनं देवदारु च॥ कांकोली धिंटुला रास्त्रा मंजिष्ठैलारुदंतिका। शैलेयमश्वगंधा च मांसी चिकणिका खिलम्॥ अर्धार्धपलमानं स्यात्पक्वंमृद्वग्निना शनैः। एकांगयुग्मभग्नास्थिभग्नसंधिं तृषां तथा॥ कुब्जवामनपंगूनां पानादभ्यंगतस्तथा। वातान्नानाविधान्हंति तेलमेतन्न संशयः॥ शतावरीतैलमिदं प्रोक्तं बुद्धिविशारदैः॥
चौथा प्रकार
शतावरीजातरसं गृह्णीयाद्यंत्रपीडितम्। प्रभूतं तद्रसं लीढा तैलस्याढकमेव च॥ दधिक्षीरेण विपचेत् द्रव्याण्येतानि दापयेत्। शतपुष्पा वचा कुष्ठमांसीशैलेयचंदनैः॥ प्रियंगु पद्मकं मुस्तं ह्रीबेरोशीरकट्फलम्। सैंधवं मधुकं लोध्रं व्रणेयककुचंदनम् ॥ चंडा एला मुरा स्पृक्का नालिकं पद्मकेशरम्। श्रीवेष्टकं सर्जरसं जीवकर्षभकौसठी॥ पतंगरेणुका दाव कर्पूरं सारिखा तथा । मंजिष्ठा मधुकं चैव द्रव्यैरेतः पलोन्मितैः ॥ मध्यपादं विजानीयात्तत्र तदवतारयेत्। पथ्ये पाने तथाभ्यंगे नस्ये भोज्ये च दापयेत्॥ पीड्यमाने तथा वायौ पक्षावाताधिमंथके। अर्दिते कर्णशूले च ऊरुस्तंभ कटिग्रहे॥ पवने च शिरःकंपे सूतिकायां प्रदापयेत्। मन्यास्तंभे धनुःकंपे अस्थिभंगे च दारुणे॥ तथा सर्वांगगे वायौ शुष्यमाणेषु धातुषु। अनार्तक्षीणरेतस्सु वंध्यायां गर्भिणीषु च॥ वृष्यं पुनर्नवकरं बल्यमारोग्यदं महत्। शतावरी तैलमिदं सर्ववातविकारनुत्॥
चंदनादितैल
चंदनं पद्मकं कुष्ठमुशीरं देवदारु च। नागकेसरपत्रैलात्वङ्मांसी तगरं जलम्॥ जातीफलं घोटफलं कुंकुमं जातिपत्रिका। नखं कुंदरू कस्तूरी चंडा शैलेयमार्द्रकम्॥ पतंगंपुष्करं मुस्ता रक्त- चंदनसारिवा। सठीकर्पूरमंजिष्ठा लाक्षा यष्टिप्रियंगुभिः॥ शतपुष्पा वरी मूर्वा अश्वगंधा महौषधम्। पद्मकेसरश्रीवेष्टरसा- गरुहरेणुभिः॥ स्पृक्कालवंगकंकोलद्रव्यैरेभर्द्विकार्षिकैः। दशमूलकषायस्य षड् भागाः पयसस्तथा॥ यवकोलकुलित्थानां बलामूलस्य चैकतः। निक्वाथ्य क्वाथो भागश्च तैलस्य च चतुर्दश॥ ततः पक्वंविजानीयात् क्षिप्रं तदवतारयेत्। शुभे पात्रे विनिक्षिप्यमौषधैः ससुगंधिभिः॥ प्रतिवासं ततः कार्यमेषां संयोजने विधिः। प्रायोऽयं सुकुमारीणामीश्वराणां सुखात्मनाम्॥ स्त्रीणां स्त्रीवृंदगर्भाणामलक्ष्मीकलिनाशनम्। अशीतिं वातजान्रोगान्वातरक्तं विशेषतः॥ सूतिकाबालमर्मास्थिहतक्षीणेषु पूजितम्। जीर्णज्वरं सदाहं वा शीतं वा विषमज्वरम्॥ शोषापस्मारकुष्ठघ्नं वध्यायां च सुखप्रदम् । व्याधितानां हितार्थाय ये तु कंडूतिपीडिताः॥ विशेषाद्रूक्षदेहानां श्वित्रिणां च विशेषतः। सर्वकालप्रयोगेण कांतिलावण्यपुष्टिदम्॥ विनिर्मितमिदं तैलमात्रेयेण महर्षिणा। न चास्मात्सहसा रोगः प्रभवत्यूर्ध्वजत्रुजः॥ अस्य प्रयोगात्तैलस्य जरा न लभते नरम्। चंदनाद्यमिदं तैलं लोकानां च हितं मतम्॥
माषादितैल
माषस्यार्द्धाढकं देयं तुलार्द्धं दशमूलतः। पलानि छागमांसस्य त्रिंशद् द्रोणेंभसः पचेत्॥ चतुर्भागावशेषं तं कषायमवतारयेत्। प्रस्थे द्वे तिलतैलस्य पयो दद्याच्चतुर्गुणम्॥ जीवनीयानि मंजिष्ठचव्य चित्रककट्फलम्। सव्योषं पिप्पलीमूलं रास्नामलकगोक्षुरम्॥ आत्मगुप्ता तथैरंडः शताह्वा लवणत्रयम् । देव-दार्वमृता कुष्ठमश्वगंधा वचा शठी॥ एतैरक्षमितैः कल्कैः पाचयेन्मृदुनाग्निना। पक्षाघातार्दिते पुंसि हनुस्तंभे तथार्दिते॥ कर्णशूले शिरःशूले तिमिरे च त्रिदोषजे। पाणिपादशिरोग्रीवाश्रवणे मंद एव च॥ कलायखंजे पंगौ च गृध्रस्यामवबाहुके।पाने बस्तौ तथाभ्यंगे नस्ये कर्णादिपूरणे॥ तैलमेतत्प्रशंसंति सर्ववातविकारनुत् । महामाषादिनामेदं भाषितं मुनिभिः पुरा॥
महानारायणतैल
तिलतैलं समादाय चतुराढकसंमितम्। पंचपल्लवकल्केन शोधयेद्दोपशांतये॥ तत्राजं दुग्धमथवा गव्यं तैलसमं पचेत्। शतावरीरसं चापि तैलतुल्यं पचेद्भिषक्॥ दशमूली बला रास्नाशिग्रूत्पलपुनर्नवाः। शेफालिका नागबलातिबला च प्रसारिणी॥ अश्वगंधासहचरौ दर्भमूलं करंजकः। खदिरश्चंदनो लोध्रं वचा शनपलांशकम्॥ ककुभैरंडवरुणशालयुग्मकटंभराः। शिरीषःशिखरी वासा हिंस्राजंबुबिभीतकम्॥ कांचनारः कपित्थश्च पारिभद्रः प्रियालकम् । पाषाणभेदसंपाकदुग्धिका दाडिमीफलम्॥ उदुंबरः सप्तला च कन्यका मालती त्वचा। माधवी नरमूलं च यवकोलकुलत्थकम्॥ आत्मगुप्ता के कार्पासबीजं वत्सादनी स्नुही। केतकी मूलधत्तूरलांगली गर्दभांडकम्॥ चित्रकं च महानिंबं पंचवल्कलमेव च। मुंडी टंकारिमुसली हंसपादी विशल्यकम्॥ एषां दश पलान् भागान् वारिण्यष्टगुणे पचेत्। पादशेषं परिस्राव्य तत्र तैलं पुनः पचेत्॥ छागो मेषश्च हरिण एणश्च बहुशृंगकः। शशः शल्यः शिवा गोधा सिंहो व्याघ्रश्चभल्लुकः॥ वन्यो वराहः खड्गी च महिषो घोटकस्तथा।कपिर्बभ्रुर्बिडालश्च मूषकश्चोरुदर्दुरः॥ वर्तिकस्तित्तिरिर्लावः खंजरीटश्वकोरकः। उलूको नीलकंठश्च वनकुक्कुट एव च॥ गृध्रश्चगरुडो हंसश्चक्रःकारंडवोपि च । कपोतः सारसः क्रौंचो वन्यः पारावतस्तथा॥ रोहितो मद्गुरश्चापि शिलिध्रशृंगकस्तथा। इल्लिसो गर्गरो वर्मिः क्वथिका कविकापि च॥ महामत्स्यः कच्छपश्च शिशुमारश्च सांकुचिः। मकरो घंटिकाकारस्तदलाभे तु गोधिका॥ यथालाभममीषां च क्वाथं तैलसमं पचेत्। रास्नाश्वगंधा मिशिदारु कुष्ठपर्णी चतुष्कागुरुकेसराणि॥ सिंधूत्थमांसी रजनीद्वयं च शैलेयकं पुष्कर चंदनं च। एला सयष्टी तगराब्दपत्रं भृंगोष्टवर्गस्तु वचा पलाशी॥ स्थौणेयवृश्चीवकचोरकाख्यं मूर्वा त्वचं कट्फलपद्मकं च। मृणालजातीफलकेतकाख्यं सनागपुष्पं सरलं मुरा च॥ जीवंतिकोशीवरास्तथैव दुरालभा वानरिका नखश्च। कैवर्तमुस्तार्जुनतिक्तकं च वातामखर्जूरकतुंबराश्च॥ सचातकीग्रंथिकपर्पटाश्व पटोलहेमाह्वजयंतिका च। त्रायंतिकालंबुपशक्रबीजरसांजना-भात्रिवृतारुणाश्च॥ द्राक्षाकणाद्रोणपुनर्नवाश्च कौंती कृमिघ्नो हयमारकश्च। नीलोत्पलं पद्मक कारवीभ्यां रंभानलो गोक्षुरकः क्षुरश्च॥ कंलोलकालीयकुसुंभपुष्पं तुरुष्ककाश्मीरकसिक्थकं च। लवंगकर्पूरसपालकांडकस्तूरिका-वालकमंबरं च॥ कल्कानमीषां विपचेत्सुवैद्यः पृथक् पृथक्कर्षयुगोन्मितानाम्। शुभे च नक्षत्रमुहूर्तलग्नेसंतोष्य विप्रांश्च भिषग्वरांश्च॥ संपूज्य नायणनामधेयं देवं त्रिनेत्रं जगतामधीशम्। पात्रे तु हेम्नः खलु राजते वा ताम्रेथ वा लोहमयेपि रक्षेत्॥ अभ्यंजनेंजने नस्ये निरूहे चावगाहने। पाने चैतद्यथाव्याधि प्रयुंजीतचिकित्सकः॥बहुनात्र किमुक्तेन तैलमेतत्प्रयोजितम्। अवश्यं वातजान् व्याधीनशितीनपि नाशयेत्॥ एतस्याभ्यासतो जंतोर्जराजातु नजायते। पतंति वलयो नांगे पलितं नैव जायते॥ नेत्रे तेजश्च नितरां गरुडस्येव जायते। नोच्चैः श्रुतिर्न बाधिर्यकर्णनादो न जायते॥ पाणिकंपः शिरःकंपः प्रलापश्च न जायते। बुद्धिभ्रंशो न जायेत तस्य स्यात्कर्णपाटवम्॥ यथा जलेन सिक्तस्य शाखिनः पलवादयः। वर्धंते धातवस्तद्वद्देहिनोनेन नित्यशः॥ आमगर्भं त्यजेद्या तु सूतिकासृक्सुताच या। या बहुप्रसवक्षीणा ताभ्य एतद्वितं परम्॥ वंध्या च लभते पुत्रं गर्भपातो न जायते। योनिरोगाः प्रणश्यंति प्रदरश्च प्रशाम्यति॥ अस्मात्तैलवरादन्यत् कुत्रचिन्नास्ति भेषजम्। बल्यं वृष्यं बृंहणं च रसायनमिदं महत्॥ पुरा देवासुरे युद्धे दैत्यैरभिहतान्सुरान्। भिन्नान्भग्नास्थिकान्विद्धान्पिच्चितान्व्यथयादितान्॥ दृष्ट्वा हिताय देवानां नराणां चाब्रवीदिदम्। तैलं नारायणो देवो महानारायणाभिधम्॥
दूसरा प्रकार
बलाश्वगंधा बृहती वा स्योनाकवाट्यालकपारिभद्रा। क्षुद्रा कठिल्लातिबलाग्निमंथरास्नारणीकः कणिकच्छुराश्च॥ निर्गुडिकैरंडकुरंटकानां मूलानि वर्षासरणीयुतानि। मूलं विदध्याद्दशपाटलानां संकुट्य पादांशवतोद्धृतानाम्॥ द्रोणैरपामष्टभिरेव पक्त्वा पादावशेषेण रसेन तेन। तैलाढकाभ्यां समदुग्धमत्र गव्यानि दद्यादथ वाज्यदुग्धम्॥ दद्याद्रसं चैव शतावरीणां तैलं च तुल्यं पुनरेव तत्र। पक्त्वा दिनैककृतवस्त्रपूतं कल्कानि चैषां हि समावपेच्च॥ रास्नाश्वगंधामिशिदारुकुष्ठपर्णीतुरुष्कागरुकेसराणि। सिंधूत्थमांसी रजनीद्वयं च शैलेयकं पुष्करचंदनानि॥ एला सयष्टी तगरांबुपत्रं भृंगाष्टवर्ज्यंच जया पलाशम्। वृश्चीव ऐलेयकचोरकाख्यं मूर्वात्वचा पुष्करपद्मकं च॥ मृणालजातीफलकेतकी च सनागपुष्पं सरलं सुरा च। जीवंतिका चंदनकं ह्युशीरंदुरालभा वान्नारिका नखं च॥ कैवर्तकं तालशिरः सतिक्तं खर्जूरिमुस्तं समभागमेषाम्। एतैः समैः सार्धपलप्रमाणैर्भागानथाष्टौ किल कालमेष्यः॥ एणः कुरंगो हरिणो मयूरो गोधा शशः शक्रकचक्रवाकौ। वर्तीरलावौ वरतित्तिरी च सत्सारचक्रौ चककंबुवर्णः॥ आनूपकूर्मा इह मांसपुष्टाः क्रमात्क्षिपेच्चात्र यथैव लाभम्। रोहीतकोथो शववेत्रनामाकसाढवौमुद्गरशृंगिके च ॥ पाठीन कालीयकतोडिका च सरोखरा ये कुरुदादयश्च। ये चापि तोये शिशुमारमुख्या लभ्याश्च येश्व भ्रमता भुजंगाः॥ अन्येपि ये भूचरखेचराश्च पूर्णा अमीषां क्रमशोत्र योज्याः। सुताम्रपात्रेप्यथ मृत्तिका च कर्पूरकाश्मीरमृगांडजं वा॥ दद्यात्सुगंधाय वदंति केचित्प्रक्लेददौर्गंध्यविनाशनाय। वदंति केचिद् द्विपदः समेतं शुभोजनेनिधायाथ मुहूर्तलग्ने॥ संतोष्य विप्रान् भिषजोर्थिनश्च सुभोजने यज्ञघृतं तथैव। पाने च नस्ये च निरूहणे च भोज्यं प्रदेयं तत एव नूनम्॥ अभ्यंगमादौ च सदा प्रशस्तं निर्वाप्यते कर्मसु केषु चिह्नम्। उन्मादशोषक्षतरक्तपित्तश्वासाश्रमूर्च्छादिषु मूर्च्छितेषु॥ कासाग्निवाता हनुमूलदंतकृमीष्ठद्युम्नीहिसतोददाहान्। सतालुमूलं श्रवणाक्षिशूलं बाधिर्यमुच्चज्वरपीडितं च॥ मंदेंद्रियत्वं च तथाग्निमांद्यं नष्टप्रशुक्रत्वमथांगकंडूः। निहंति सत्वं न गुणप्रभावात्कटिग्रहापस्मृतिगृध्रसीं च॥ पक्षाभिघातं चरणाभिघातं हस्ताभिघातं च शिरोग्रहं च। प्रक्षीणमुग्रं सकलप्रमेहान् नासाक्षिकर्णप्रभवान् विकारान्॥ वातादिजातान् किल भूतजातान् कृत्यादिजातान् ग्रथितान्विकारान्। रोगः स नास्त्येव नरस्य देहे नानेन शांतिं समुपैति मोहः॥ सद्योव्रणानस्थि विचूर्णितं वा नाडीव्रणान्वापि च योजयित्वा। सुवर्णवर्णं वितनोति रूपं नारायणाख्योखिलतैलराजः॥ वंध्यः पुमान् वापि वरांगना वा सुपुत्रमाप्नोति विलेपतोस्य। सिद्ध्यत्यनेनैव नियोजितेन निदाघदग्धः प्रहतोपि वृक्षः॥ अन्यस्य का का भणितिर्निरस्य रोगस्य जंतोरपरस्य चापि। नारायणोक्तं तदिदं तु तैलं नारायणं नाम ततः प्रसिद्धम्॥
Pege no. ११३८ ismissing from this Book.
सौगंधार्थंच दातव्यं लवंगं जातिकाफलम्। कस्तूरी घनसारं च सिह्लारं नखवालकम्॥ कृष्णागरु नतं चैव पत्रकं जातिपत्रिका। यथा लाभं व संगृह्य योजयेत्तत्र तद्बुधः॥ तैलेनानेन नश्यंति सर्वरोगाः समरिणाः। अशीतिर्वातजा रोगाः शोफशुलकटिग्रहाः॥ कुब्जानामथ पंगूनां वामनानां तथैव च। अधोभागे च ये वाताः शिरोमध्यगताश्च ये ॥ मन्यास्तंभे हनुस्तंभे वातरोगे गलग्रहे। यस्य शुष्यति चैकांगं ये च भग्नास्थिसंधयः॥ पक्षाघातेषु सर्वेषु अर्दिते च हनुग्रहे। मंदश्रुतौ च श्रवणे तिमिरे च त्रिदोषजे॥ हृच्छूले पार्श्वशूले च बाधिर्ये मूकमिम्मिणे। कामलापांडुरोगे च खल्लीशूलकटिग्रहे॥ हस्तकंपे शिरःकंपे गात्रकंपे शिरोग्रहे। कलायखंजगृध्रस्यामवबाहुं च नाशयेत्॥ बाधिर्ये कर्णनादे च सर्ववातविकारनुत्। दंडापतानकश्चैव मन्यास्तंभेविशेषतः ॥ हनुस्तंभे प्रशस्तं स्यात्सूतिकावातनाशम् । बाल्ये मांसप्रदं चैव शुक्राग्निबलवर्धनम्॥ अंत्रवृद्धिमंडवृद्धिमपचीं नाशयेत्ततः। योनिशुलमसृग्दोषमाध्मानं विनिहंति च ॥ वातशोणितदुष्टानां वातोपहृतचेतसाम्। अश्वानां वातभग्नानां कुंजराणां नृणां तथा । तैलमेतत्प्रयोक्तव्यं सर्ववातविकारनुत् । अस्थिमेदोगता वाता क्षीणाश्चार्शोभगंदराः॥ भूतग्रहपिशाचाश्च तथा दुष्टग्रहानपि। दद्रुविचर्चिकापामाकुष्ठकंडू-व्रणापहम्॥ शृगालाद्यमिदं ख्यातं बहुपीडां च नाशयेत् । एतत्तैलेन नश्यंति रोगाः सर्वे विशेषतः॥
तीसरा माषतैल
माषक्वाथेबलाक्वाथे रास्त्राया दशमूलजे। यवकोलकुलित्थानां छागमांसरसे पृथक्॥ प्रस्थे तैलस्य च प्रस्थं क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम्। रास्नात्मगुप्तासिंधूत्थशता हेरंडमुस्तकैः॥ जीवनीयबलाव्योषपचेदक्षामितैः पृथक्। हस्तकंपे शिरःकंपेबाहुकंपेवबाहुके॥ बस्त्यभ्यंजन पानेषु नावने च प्रयोजयेत्। माषतैलमिदं श्रेष्ठमूर्ध्वजत्रुगदापहम्॥
रास्नापूतीकतैल
दशमूलबला दारु अश्वगंधा शतावरी। वरुणैरंडनिर्गुंडी तर्कारी शिग्रु मोरटम्॥ सहचरं चित्रमूलं करंजां कोलमूलकम्। पुनर्नवं च भूपीलु अर्कपुंखी दुरालभा॥ जीवंती विषतिंदुश्चवातारिहिंशिग्रुकम्। अलर्कयवकोलं च कुलित्थानां कषायकम्॥ एतेषां च समं रास्ना पूतीकं च तयोः समम्। अष्टभागावशेषं तु कषायमवतारयेत्॥ तत्पादं तिलतैलं च अजाक्षीरं च तत्समम्। गुग्गुलं तगरं मांसी त्रिकटु त्रिफलानि च॥ चातुर्जात कचोरं च विडंगामरदारु च। हिंगु रास्त्रा वचा तिक्ता पाठा यष्टिकचित्रकम्॥ प्रियंगु पिप्पलीमूलं चंदनं चव्यदीपकम्। वरालं चंपकं कुष्ठं मंजिष्ठा मिशिसर्षपाः॥ जातीफलं सुगंधं च पाठोशीरं समांशकम्। एतत्तैलस्य षष्ठांशं कल्कद्रव्याणि दापयेत्॥ सुमुहूर्ते सुनक्षत्रे नववस्त्रेण पीडयेत्। पानलेपननस्याद्यैः शिरोबस्तिषुयोजितम्॥ धनुर्वातांतरायामं गृध्रसीमवबाहुकम्। आक्षेपके व्रणायामे विष्वाच्यामपतंत्रके॥ आढ्यवाते हनुस्तंभे शिरावातापतानके। शंखकणनासाक्षिजिह्वास्तंभे च दारुके॥ कलायखंजता पंगु सर्वांगैकांगमारुते। अर्दिते पादहर्षे च पक्षाघाते प्रशस्यते॥ ऊरुस्तंभं सुप्तवातं नाशयेन्नात्र संशयः। रास्नापूतीकनामैतत्तैलमात्रेयनिर्मितम्॥
बलातैल वातादिकोंपर
बलामूलकषायेण दशमूलभृतेन च। कुलित्थयवकोलानां क्वाथेन पयसस्तथा॥ अष्टाष्टभागयुक्तेन भागमेकं च तैलकम्। गणेन जीवनीयेन शतावर्येंद्रदारुणा॥ मंजिष्ठाकुष्ठशैलेयतगरागुरुसैंधवैः। वचापुनर्नवामांसी-सारिवाहयपत्रकैः॥ शतपुष्पाश्वगंधाभ्यामेलयाच विपाचयेत्। गर्भार्थिनीनां नारीणां पुंसां च क्षीणरेतसाम्॥ व्यायामक्षीणगात्राणां सूतिकानां च युज्यते। राजयोग्यमिदं तैलं सुखिनां च विशेषतः॥ बलातैलमिति ख्यातं सर्ववातामयापहम्॥
माषादितैल ग्रीवास्तंभादि के ऊपर
माषा यवातसी क्षुद्रा मर्कटी च कुरंटकः। गोकंटटुंटुकश्चैषां कुर्यात्सप्तपलं पृथक्॥ चतुर्गुणांबुना पक्त्वा पादशेषं सृतं नयेत्। कार्पासास्थीनि बदरं शणबीजं कुलित्थकम्॥ पृथक् चतुर्दशपलं चतुर्गुणजले पचेत्। चतुर्थीशावशिष्टं च गृह्णीयात्काथमुत्तमम्॥ प्रस्थैकं छागमांसस्य चतुःषष्टिपले जले। निःक्षिप्य पाचयेद्धीमान् पादशेषं रसे नयेत्॥ तैलप्रस्थं ततः क्वाथान् सर्वानेतान् विनिःक्षिपेत्। कल्कैरेभिश्च विपचेदमृताकुष्ठनागरैः॥ रास्त्रापुनर्नवैरंडैः पिप्पल्या शतपुष्पया। बलाप्रसारिणीभ्यां च मांसीकटुकया तथा॥ पृथगर्धपलैरेतैः साधयेन्मृदुवह्निना। हन्यात्तैलमिदं शीघ्रं ग्रीवास्तंभापबाहुर्को। अर्धांगशोषमाक्षेपमूरुस्तंभापतानकौ। शाखाकंपं शिरःकंपं विश्वाचीमर्दितं तथा॥ माषादिक-मिदं तैलं सर्ववातविकारनुत्॥
सुगंधतैल
तगरागरुकुंकुमकुंदुरुभिः सलवंगवरांगकुरंगमदैः। सरलामर- दारुदल द्रविडी नखकेशररुङ्नलिनीनलदैः॥ सतुरुष्कहरेणुवलाक्वथनैरिति तैलमिदं पयसा विपचेत्। नृपतिप्रमदाशिशुभिः स्थविरैरुपयोज्यमिदं पवनामयजित्॥
एलादितैल
एलामुरासरलशैलजदारुकौंतीचंडाराठीनलदचंपकहेमपुष्पम्। स्थौणेयगंधरसपूतिदलं मृणालश्रीवासकुंदुरुन-खांबुलवंगकुष्ठम्॥ कालीयकं जलदकर्कटचंदनश्रीर्ज्यात्याः फलं सविकसं सह कुंकुमेन। स्पृक्का तुरुष्कलघुकांबु तथा विनीय तैलं बलाक्वथनदुग्धदधिप्रपक्वम्॥ मंदानलेन हितमेतदुदाहरंति वातामयेषु बलवर्णहुताशकारी॥
महालक्ष्मीनारायणतैल
दशशतांघ्रिशिवेतरमल्लिका दहननागबला ऋबुबाष्पिका। कितवलांगलकीवनमल्लिकाकुटजहेंदुवृकीखंर-शृंगिका॥ मधुकबीजकचंपकमालतीस्नुहिबलाकृमिहा प्रपुन्नाटकाः। शतदलाश्ववराहकवासनीऋबुकधन्वन-पिप्पलिरक्तिका॥ अतिबला द्विविषा शकदाडिमी शिखरिशाल्मलिसिंधुकतुंडिका। सुषिरफंगुलकाशसुमर्कटी वरककुंभनिकुंभजयंतिका॥ कुसरिपिच्छलिका करमर्दिका कसनमर्दककेवणिरूषिका। अवसिवत्सकगृध्र-महीरुहो विदुलकुंजलिका द्वितयोच्चटा॥ दधिफलनववृक्षमृगादनी मधुरता मगधा जलपत्रिका । रुदंतिका पृथगेभ्य जटा सुधी समनुगृह्य दशांघ्रिकम्॥ मुनितरुमलयतपनापामार्गबीजनक्तमालशृंगाटी। प्रपुंनाटो हेमदुग्धा कलेरुहाणां तु बीजानि॥ धात्री शिशु करंजबब्बुलमधुष्टीलेंगुदीनेपत्तीनीपारग्व-धरक्तसारबदरीविस्फूर्जनः कांचनः। चिंचोदुंबरतापसीद्रुमयुगांकोलद्वयं सल्लकी गायत्री कलिवृक्षभंडिकदरा-श्वत्थायापादपाः॥ भल्लीकिंशुकमेष-गिकिहिनीभूतांकुशः शल्यकः कोशाम्रार्जुनपारिभद्रकमहावृक्षाः कुमार्या-सनैः। कुंभी रक्तधनंजयो नियमनो वा तारिमोखाह्वया एतेषां परिगृह्य वल्कलमथो रंभा विदारी वरी॥ आलूकेक्षिरकंदवाजिसुवहा कर्कोटिका गृष्टिका खर्जूरी सुरसूरणप्रभृतिकान्कंदांश्च साधूनपि। छिन्नाटरूषकशिवप्रियमाषपर्णी ज्योतिष्मती युगुलपर्पटमेषवल्ली॥ भूपर्णिकासजटिकामृगराज-मुंडीयुक्कर्तरीकुलकयुग्मफलार्कभक्ता। भूनिंबवह्निदमनो गिरिकर्णिकायुक् चिल्हारका खदिरका विजया कुमार्यः॥ गंगावतीयुगकवैष्णविका सुगंधा लंबा सुपर्णलतिका सहदेविका च। गोपीयुगं मृगखुरी सरणी च कंगुमोर्यश्चनागदमनी मधुपुष्पिका च॥ एतानि गृह्य निखिलानि तथाब्दयुग्मं चूतास्थितो तरुरुहो वटसंप्ररोहान्। भूशर्करा मदकरा कुसुमं च पीलुबर्हिः शिखा कनककेतकिसंप्ररोहान्॥ व्याघ्राटिकांघ्रिकरकं तिनिरोत्थसारं कंडूकपित्थभवलोहजटा गृहीत्वा। मुष्टिप्रमाणं विधिनोद्धृतानि द्राणैर्जलानां त्रिसृभिर्विपक्त्वा॥ पादावशेषं परिगृह्य पोतं प्रस्थत्रयं तच्च तिलोत्थतैलम्। हिंस्रा रक्ता वरिष्ठा सुररजनियुगं सैंहलं गंधसारं शृंगारं नागपुष्पं पलितकटुफलं रक्तकाष्ठं नतं च॥ षड्ग्रंथा जोंगकाश्वा रुचककररुहंरोचना रक्तसारं कोरंजी पालकाह्वंकृमिरिपुमधुकं सिंधुजं स्निग्धदारु \। तालीसं जातिसस्यं मलय- जममृतं पद्मकं जातिपत्री सेव्यं पद्मं यवानी कतकुतुखती केशरं पद्मकस्य । पाठीनो राजपुत्री जलधरचविका सोमवल्को मधूकं पाक्यः स्वर्जी शताह्वा वनजमगधजा मत्स्यपित्ता शठी च॥ कारुंची पुत्रजीवास्तपनकनकजं बीजभृंगाररेची वृक्षाम्लं देवधूपो जरणरसरसाकल्कराकुट्टिमं च। मृद्वीका साकुरंडं नियमनधनिका धन्वयासं च ब्राह्मी विश्वं कैरातकेक्षुर-करिकणामोदकं बस्तमोदा॥ शक्राह्वा तिल्वलाख्यश्छुरपुरसुषवी मेथिका शृंगिका च प्रत्येकं संगृहीत्वा पिचुदलतुलिता मुंचचासकृत् प्रपिष्ट्वा। ता निःक्षिप्याशु पात्रे शुचि जनविहृतं निर्मलं वैद्यवर्योगव्यं वा दुग्धमाजं युगपरिगणितं पूर्वमुक्ताच्चतैलात्॥ नारायण्यस्वरसकमथो रंगमातारखं च तैलोन्मानंविपचरविजे भाजनं प्रत्यहं वा। तस्मिन्पाकं गतवति यथाविध्यनुप्रक्षिपेच्च सौगंधार्थे शिशिरकिरणं कुंकुमं वेधमुख्यम्॥ गोधूमाख्यं सुसुरभियुतं गंधकर्चूरकं च जातीपुष्पं शतदलसमं मल्लिकं चंपकं च। लोबानेन त्वतिसुरभिते काचभांडेनिधाय तैलं चैतन्नृपतिसदने धारयेद्वैद्यवर्यः॥ पाने बस्तौ विहितमशने नावनाभ्यंजने च मातंगे वा मनुजघनयोर्वातरोगाभिभूते। वाताष्ठीलां गलहनुशिरो गृध्रसी पादशूलं पक्षाघातं श्रवणनयनश्रूललाटेषु शूलम् ॥ ऊरुस्तंभार्दितबधिरर्तेकांग-रोगापतानं मन्यास्तंभं त्रिकहृदयरुङ्मूकताक्षेपखांज्यम्। जिह्वास्तंभं गतिविकलतां कुब्जतां दंतशूलं स्तन्यो गुल्मद्वयं वा गुदकटिचरणभ्रंशगुल्फौ च सुप्तिम्॥ विश्वाचीं वा वृषणपवनं धातुवातापतानं मूकं कंपं जयति सकलान् वातरोगाननुक्तान्। रेतोवृद्धिं जनयति नवं यौवनं पौंस्त्ववृद्धिं बुद्धिं प्राणं वितरति तथा पुष्टिमायुष्यकारी॥ वंध्यायाः पुत्रदं स्यात् ज्वरविहिततनौ। शोषदौर्भाग्यहंतृतैलं भूपोपयोग्यं विनिगदितमिदं नाम नारायणं च॥
रास्नाद्यघृत
रास्नापौष्करशिग्रुमूलदहनं सिंधूत्थगोक्षूरकं पिष्ट्वापिप्पलिसंयुतं चलगदे पेयं सदा सर्पिषा। संपाच्याथ चतुर्गुणेन पयसा वा वाजिगंधायुतं सर्पिः पेयमसाध्यवातगदजे शुक्रक्षये दारुणे॥
पंचतिक्तघृत
निंबामृतावृषपटोलनिदिग्धिकानां भागान्पृथग्दश पलानि पचेद्धटेऽपाम्। अष्टावशेषितरसेन पुनश्च तेन प्रस्थं घृतस्य विपचेत्पिचुतुल्य कल्कैः॥ रास्नाविडंगसुरदारुगजोपकुल्याद्विक्षारनागरनिशामिशिचव्यकुष्ठैः। तेजोवती मरिच-वत्सकदीप्यकानिरोहिण्य पुष्करवचाकणमूलयुक्तैः॥ मंजिष्ठया तु विषया त्रिवृता यवान्या संशुद्धगुग्गुलुपलैरपि पंचसंख्यैः। तत्सेवितं घृतमतिप्रबलं समीरसंध्यस्थिमज्जगतमप्यथ कुष्ठमीदृक्॥ नाडीव्रणार्बुदभगंदरगंडमाला-जत्रूवातगदगुल्मगुदोत्थमेहान्। यक्ष्मारुजश्वसनपीनसकासशोफहृत्पांडुरोगमथ विद्रधिवातरक्तम्॥
वातरोगपर पथ्यापथ्य
कुलित्था माषगोधूमा रक्ताभाः शाल्यो हिताः। पटोलंशिग्रुवार्ताकं दाडिमं च परूषकम्॥ मत्स्यंडिका घृतं दुग्धं किलाटं दधिकूर्चिका। बदरं लशुनं द्राक्षा तांबूलं लवणं तथा॥ चटकः कुक्कुटो बर्हिस्तित्तिरश्चेति जांगलाः। शिलींध्रःपर्वतो नक्रोगर्गरः खुडिशो झषः॥ यथाश्रमं यथावश्यं यथाचरणमेव हि। वातव्याधौ समुत्पन्ने पथ्यमेतन्नृणां भवेत्॥
अपथ्य
चिंताप्रजागरणवेगविधारणानि छर्दिः श्रमोनशनता चणकाः कलायाः। श्यामाकचूर्णकुरबिंदुनिवारकंगु-मुस्तास्तडागतटिनीसलिलं करीरम्॥ क्षौद्रं कषायकटुतिक्तरसा व्यवायो हस्त्यश्वयानमपि चंक्रमणं च खट्वा। आध्मानिनोर्दितवतोपि पुनर्विशेषात्स्नानं प्रदुष्टसलिलैर्द्विजघर्षणं च॥ निःशेषतंत्रपरिकीर्तित एष वर्गो नॄणां समीरणगदेषु मुदं न दत्ते॥ वातरोगस्त्वसाध्योयं दैवयोगात्सुसिध्यति। अनुमानेन कुर्वंति वैद्यकं न प्रतिज्ञया॥
वातरोग पर पथ्य
अभ्यंगो मर्दनं बस्तिः स्नेहं स्वेदोऽवगाहनम् । संवाहनं संशमनं प्रवृत्तिर्वातवर्जनम्॥ अग्रिकर्मोपनाहश्च भूशय्या स्नानमासनम्। तैलद्रोणी शिरोबस्तिः शमनं नस्यमातपः॥ संतर्पणं बृंहणं च कीलाटं दधिकूर्चिका। सर्पिस्तैलं वसा मज्जा स्वाद्वम्ललवणा रसाः॥ नवीनास्तिलगोधूममाषाः संवत्सरोषिताः। शालयः षष्टिकाश्चापि कुलित्थानां रसाः पुरः॥ ग्राम्यानूपखरोष्ट्राश्चरासभच्छागलादयः। आरूषाः कोलमहिषन्यंकुखड्गिगजादयः॥ औदका हंसकादंब-चक्रमर्दबकादयः। बिलेशया भेकगोधा नकुलश्च द्विजादयः॥ चटकः कुक्कुटो बर्हिस्तित्तिरश्चेति जांगलाः। शिलींध्रःपर्वतो नक्रोगर्गरः कवयीलिशः॥ एरंडचुलकी कर्मशिशुमारस्तिमिंगिलः। रोहितो मद्गुरः शृंगी वर्मी च खुडिशो झषः॥ पटोलं शिशु वार्त्ताकं लशुनं दाडिमद्वयम्। पक्वंतालं रसालं च ललदंबु परूषकम्॥ जंबीरं बदरं द्राक्षा नागरं गोमधूकजम्। प्रसारणी गोक्षुरकः शुक्लाक्षी पारिभद्रकः॥ पयांसि च पयःपेटी रुबुतैलं गवां जलम्। मत्स्यंडिका च ताम्बूलं धान्याम्लं तिंतिडीफलम्॥ स्निग्धोष्णानि च भोज्यानि स्निग्धोष्णं चानुलेपनम्। विशेषाद्वमनार्तानामामाशयमुपागते॥ पक्वाशयस्थे मांसस्यतथा स्निग्धं विरेचनम् । प्रत्याध्मानाध्मान-योर्वावर्तिलंघनदीपनम्॥ अष्ठीलाख्ये मूत्रविधिः शुक्रस्थे क्षयजित् क्रिया। त्वङ्मांसासृक् शिराप्राप्ते हितं शोणितमोक्षणम्॥ यथाश्रमं यथावस्थं यथाचरणमेव हि।वातव्याधौ समुत्पन्ने पथ्यमेतन्नृणां भवेत्॥
अपथ्य
चिंताप्रजागरणवेगविधारणानि छर्दिः श्रमोऽनशनता चणकाः कलायाः। नीवारकंगुशरवैणव कोरदूषश्यामाकचूर्ण कुरुविंदमुखानि यानि॥ धान्यानि तालतृणजानि च राजभाषा मुद्रा गुडा गरुनदी जलशीतलं च। जंबूकसेरुकमलं क्रमुकं मृणालं निष्पावबीजमपि तालफलास्थि मज्जा॥ शिंबीच पत्रभवशाकमुदुंबरं च शीताम्बु रासभयोऽपि विरुद्धमन्नम्। क्षारोपि शुष्कपललं रुधिरस्रुतिश्च क्षौद्रं कषायकटुतिक्तरसा व्यवायो, हस्त्यश्वयानमपि चंक्रमणं च खट्वा॥ आध्मानिनोर्दितवतोपि पुनर्विशेषात्स्नानं प्रदुष्टसलिलं द्विजवर्षणं च। निःशेषतस्तु परिकीर्तित एष वर्गो नॄणां समीरणगदेषु मुदं न दत्ते॥
इति श्रीकृष्णलालमाथुरतनुजदत्तरामनिर्मिते आयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघण्टुरत्नाकरे वातव्याधिकर्मविपाकनिदानचिकित्सापथ्यापथ्य परिपूर्णतामगात्।
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वातरक्तकर्मविपाकः।
वातरक्त का ज्योतिःशास्त्राभिप्राय
व्योमस्थाने महीपुत्रः शनिदृष्टो यदा भवेत्।
जन्मकाले यस्य जंतोः स वातरुधिरादितः॥
शमन
व्योमस्थानस्थितशनिदृष्टभौमजनितरक्तदोषोपशांतये मंगलप्रीतये पूर्वोक्तमेव जपादिकं कुर्यात्॥
वातरक्तनिदान
लवणाम्लकटुक्षारस्निग्धोष्णाजीर्णभोजनैः। क्लिन्नशुष्कांबुजानूपमांसपिण्याकमूलकैः॥ कुलित्थमाषनिष्पाव-शाका-दिलवलेक्षुभिः। दध्यारनालसौवीरसूक्ततक्रसुरासवैः॥ विरुद्धाध्ययनक्रोधदिवास्वप्नप्रजागरैः। प्रायशः सुकुमाराणां मिथ्याहारविहारिणाम्॥ स्थूलानां सुखिनां चाथ वातरक्तं प्रकुप्यति॥
वातरक्तरोग की संप्राप्ति
हस्त्यश्वोष्ट्रैर्गच्छतश्चाश्नतश्च विदाह्यन्नं सविदाहाशनस्य। कृत्स्नं रक्तं विदहत्याशु तच्च स्रस्तं दुष्टं पादयोश्चीयते तु॥ तत्संयुक्तं वायुना दूषितेन तत्प्राबल्यादुच्यते वातरक्तम्॥
वातरक्त मेंअन्यदोषसंबंधी लक्षण
तद्वत् पित्तं दूषितेनासृगाक्तं श्लेष्मा दुष्टो दूषितेनासृगाक्तः। स्पर्शोद्विग्नौभेदतोदप्रशोषस्वापोपेतौ वातरक्तेन पादौ॥ पित्तासृग्भ्यामुग्रदाहौभवेतामत्यर्थोष्णौ रक्तशोफौ मृदू च। कंडूमंतौ स्वेदशीतौ सशोफौपीनो स्तब्धौ श्लेष्मदुष्टौ तु रक्ते॥ सर्वैर्दुष्टैः शोणितैर्वापि दोषाः स्वं स्वं रूपं पादयोर्देर्शयंति॥
पूर्वरूप
स्वेदोऽत्यर्थं न वा कार्ष्ण्यंस्पर्शाज्ञत्वं क्षतेऽतिरुक्। संधिशैथिल्यमालस्यं सदनं पिटिकोद्गमः॥ जानुजंघोरुकट्यंश-हस्तपादांगसंधिषु। निस्तोदः स्फुरणं भेदो गुरुत्वं सुप्तिरेव च॥ कंडुः संधिषु रुग्दाहो भूत्वा नश्यति चासकृत्। वैवर्ण्यंमंडलोत्पत्तिर्वातासृक्पूर्वलक्षणम्॥
वातरक्त में अन्यसंसर्ग होने से उपद्रव
वाताधिकेऽधिकं तत्र शूलस्फुरणतोदनम्। शोथश्चरौक्ष्यं कृष्णत्वं श्यावता वृद्धिहानयः॥ धमन्यंगुलिसंधीनां चोंगग्रहोऽतिरुक्। शीतद्वेषानुपश्यस्तंभवेपथुसुप्तयः॥
रक्ताधिक वातरक्त तथा पित्ताधिक वातरक्त
रक्ते शोफोऽतिरुक्क्लेदस्ताम्रश्चिमचिमायते॥ स्निग्धरूक्षैः शमं नैति कंडूक्केदसमन्वितः॥ पित्ते विदाहः संमोहः स्वेदो मूर्च्छा मदः सतृट्। स्पर्शासहत्वं रुग्णांगः शोफः पाको भृशोष्णता॥
कफरक्त निदान
कफे स्तैमित्यगुरुतासुप्तिस्निग्धत्वशीतताः।
कंडूर्मन्दा च रुग्द्वंद्वे सर्वलिङ्गं च सङ्करात्॥
अंगों में प्रसरणत्वकथन
पादयोर्मूलमास्थाय कदाचिद्धस्तयोरपि।
आखोर्विषमिव क्रुद्धं तद्देहमनुसर्पति॥
वातरक्तके असाध्य लक्षण
आजानु स्फुटितं यच्च प्रभिन्नं प्रमुतं च यत्।
उपद्रवैर्यच्च जुष्टं प्राणमांसक्षयादिभिः॥
वातरक्तमसाध्यं स्याद्याप्यं संवत्सरोषितम्॥
वातरक्त के उपद्रव
अस्वप्नारोचकश्वासमांसकोथशिरोग्रहाः। संमूर्छाऽमन्दरुक्तृष्णाज्वरमोहप्रवेपकाः॥ हिक्कापांगुल्यवीसर्पपाक-तोदभ्रमक्लमाः। अंगुलीवक्रतास्फोटदाहमर्मग्रहार्बुदाः। एतैरुपद्रवैर्वर्ज्यंमोहनैकेन चापि यत्॥
साध्यासाध्यत्व
अकृत्स्नोपद्रवं याप्यं साध्यं स्यान्निरुपद्रवम्।
एकदोषानुगं साध्यं नवं याप्यं द्विदोषजम्॥
त्रिदोषजमसाध्यं स्याद्यस्य च स्युरुपद्रवाः॥
वातरक्त पर सामान्य चिकित्सा
वातशोणितिनो रक्तं स्निग्धस्य बहुशो हरेत्।
अल्पाल्पं रक्षयेद्वायुं यथादोषं यथाबलम्॥
उग्रांगदाहृतोदेषु जलौकाभिर्विनिर्हरेत्।
शृंगतुंबैश्चिमिचिमाकंडूरुग्वदनान्वितम्॥
प्रच्छन्नेन शिराभिर्वा देशादेशांतरं व्रजेत्॥
अंगे म्लाने तु न स्राव्यंरूक्षं वातोत्तरं च यत्।
गंभीरश्वयथुस्तंभकंपग्लानिशिरामयान्॥
रोगानन्यांश्च वातोत्थान् कुर्याद्वायुररक्षितः॥
पिंडतैलादिनाभ्यंगं पानं तिक्तादिसर्पिषा।
सेकलेपाह्यसृङ्मुक्तिः शोधनं चोभयोहितम्॥
विविधान्वातरोगान्वा मृत्युं वात्यवसेचितम्।
रक्तं कुर्य्यात्ततः स्निग्धात्तत्प्रमाणेन निर्हरेत्॥
विरेचयेच्च पित्तादौ स्नेहयुक्तैर्विरेचनैः।
बाह्यमालेपनाभ्यंग परिषेको पनाहनैः॥
विरेकास्थापनस्नेहपानैर्गंभीरमाचरेत्॥
भोजन और रस
पुराणयवगोधूमशालयः षष्टिकास्तथा।
भोजनार्थे रसार्थे तु विष्किराः प्रतुदा हिताः॥
यूष
आढकाश्चणका मुद्गामसूराः सकुलित्थकाः।
यूषार्थे बहुसर्पिष्काः प्रशस्ता वातशोणिते ॥
शाक
सुनिषण्णकवेत्राग्रंकाकमाची शतावरी।
वास्तूकोपादिका शाकं शाकं सौवर्चलं तथा॥
घृतमांसरसैर्भृष्टं शाकसात्म्याय दापयेत्॥
छिन्नोद्भवाकषायेण सेव्यं सिद्धं शिलाजतु।
पंचकर्मविशुद्धेन वातरक्तप्रशांतये॥
वासादि क्वाथ
वासागुडूचीचतुरंगुलानामेरंडतैलेन पिबेत्कषायम्।
क्रमेण सर्वांगजमप्यशेषं जयेदसृग्वातभवं विकारम्॥
मंजिष्ठादि क्वाथ
मंजिष्ठा कुटजामृता घनवचा शुंठी हरिद्राद्वयं वासा पर्पटसारिवा प्रतिविषानंता विशाला जलम्। क्षुद्रारिष्टपटोलकोष्ठकटुका भार्ङ्गीविडंगाग्निकं मूर्वा दारुकलिंगभृंगमगधा त्रायंति पाठा वरी॥ गायत्री त्रिफला किरातकमहानिंबो सनारग्वधश्यामावल्गुजचंदनं सवरुणं पूतीकशाकोटकम्। मंजिष्ठादिममुं कषायविधिना नित्यं पुमान्यः पिबेत्त्वग्दोषा ह्यचिरेण यांति विलयं कुष्ठानि चाष्टादश॥ वातरक्ते प्रसुप्ते च विसर्पेविद्रधौ तथा। सर्वेषु रक्तदोषेषु मंजिष्ठादिः प्रशस्यते॥
लघुमंजिष्ठादि क्वाथ
मंजिष्ठा त्रिफला तिक्ता वचा दारु निशामृत। निंबश्चैषां कृतः क्वाथो वातरक्तविनाशनः॥ पामाकपालिका-कुष्टरक्तमंडलजिन्मतः॥
पटोलादि क्वाथ
पटोली त्रिफला तिक्ता गुडूची च शतावरी।
एष क्वाथो जयेत्पीतो वातास्रंदाहसंयुतम्॥
वासादि क्वाथ
क्वाथो वासामृतातिक्ताभवो वातास्रनोदनः॥
एरंडतैलयोग
एरंडतैलेन गुडूचिकायाः क्वाथोथ वा वर्धितापप्पली वा।
गुडेन पथ्याखिलवातरक्तं विनाशयेत्पथ्ययुतस्य पुंसः॥
दार्व्यादि क्वाथ
दार्वीगुडूचीकुटकोग्रगंधामंजिष्ठनिंबत्रिफलाकषायः।
वातास्रमुच्चैर्नवकार्षिकाख्यो जयेच्च कुष्ठान्यखिलानि पुंसाम्॥
वत्सादिन्यादि क्वाथ
वत्सादिन्युद्भवः क्वाथः पीतो गुग्गुलुमिश्रितः।
समीरेण समायुक्तं शोषितं संप्रणाशयेत्॥
पित्ताधिक वातरक्तपर
पित्तोत्तरे तु काश्मर्यद्राक्षारग्वधचंदनैः। मधुरक्षीरकाकोलीयुक्तैः क्वाथं सुशीतलम्॥ शर्करामधुसंयुक्तं वातरक्ते पिबेन्नरः॥
काकोल्यादि क्वाथ
काकोलाख्यामृताक्वाथं पिबेत्कोष्णं यथाबलम्।
पथ्यभोजी त्रिसप्ताहान्मुच्यते वातशोणितात्॥
समंधूच्छिष्टमंजिष्ठससर्जरससाधितम्।
पिंडतैलादिनाभ्यंगो वातरक्तरुजापहः॥
गुडूचीयोग
गुडूच्याः स्वरसं कल्कं चूर्णं वा क्वाथमेव वा।
सेवते यो नरो नित्यं वातरक्तात्स मुच्यते॥
गुडूच्यादि क्वाथ
गुडूची वाकुची चक्रमर्दश्च पिचुमंदकः। हरीतकी हरिद्रा च धात्री वासा शतावरी॥ वालं नागबला यष्टी मधूकं क्षुरकोपि च। पटोलस्यलतोशीरं मंजिष्ठा रक्तचंदनम्॥ गुडूच्यादिरयं क्वाथो वातरक्तांतकारकः। कुष्ठानामपि संहर्त्ता कंडूमंडलखंडनः॥ वातिकान् रौधिरान्सर्वान् विकारानाशु नाशयेत् । मुनिभिः करुणाकीर्णैः कषायोयं प्रकाशितः॥
वृषादि क्वाथ
क्वाथो वृषारग्वधकुंडलीनामेरंडतैलेन समं निपीतः।
जयेदसृग्वातभवं विकारं सर्वांगशोफप्रविदाहयुक्तम्॥
त्रिवृतादि क्वाथ
त्रिवृद्विदारीक्षुरजः कषायोथ वा गुडूच्याः स्वरसो हितश्च॥
पथ्यायोग तथा गुडूच्यादि क्वाथ
तिस्रः पंचाथ वा पथ्याः पिष्ट्वादग्धा गुडेन तु।
पिबेच्छिन्नरुहाक्वाथं वातरक्तार्दितो नरः॥
वातरक्त पर काढा
रतिकेलिकलाकुशले विलसद्वलये वलयेन समानकुचे ।
अमृतव्रतती रुबुतैलयुता, तथैरंडसिंहास्यवत्सादिनीनाम्॥
वातरक्त पर पिंडादि क्वाथ
मधूत्थारुणागोपिकादेवधूपैः शृतं वातरक्तापहं पिंडतैलम्।
कषायः सहैरंडतैलेन युक्तस्तथैरंड सिंहास्यवत्सादनीनाम्॥
मंजिष्ठादि क्वाथ
मंजिष्ठोग्रावरा तिक्ता निशा निंबामृतामरैः। सत्रिवृत्खदिरैः क्वाथः सर्वकुष्ठानिलात्रजित्॥
द्वितीय मंजिष्ठादिक्वाथ
मंजिष्ठारिष्टवासात्रिफलदहनकं द्वे हरिद्रे गुडूची भूनिंबो रक्तसारः सखदिरकटुका बाकुची व्याधिघातैः। मूर्वानंता विशाला कृमिरिपुसहितैस्त्रायमाणैः सपाठैः पीतो हन्यात्समस्तान् सकलतनुगतान् वातरक्त-प्रकोपान्॥
खदिरक्वाथ
देयं द्विकालमपि पथ्यघृतौदनं च निर्वातमंडलमकृष्टगदं निहंति।
कुष्ठादिसर्वसकलामयमामवातकृच्छ्रादनेन विधिना खदिरोदकेन॥
मंजिष्ठादि काढा
मंजिष्ठा मुस्तकुटजो गुडूची कुष्ठनागरैः। भार्ङ्गीक्षुद्रा वचा निंबनिशाद्वयफलचिकैः॥ पटोलकटुका मूर्वा विडंगासनचित्रकैः। शतावरी त्रायमाणा कृष्णेंद्रे यववासकैः॥भृंगराजमहादारुपाठाखदिरचंदनैः। त्रिवृद्वरुणकैरात बाकुचीकृतमालकैः॥ शाखोटकमहानिंबकरंजातिविषाजलैः। इंद्रवारुणिकानंतासारिवापर्पटैः समैः॥ एभिः कृतं पिबेत्क्वाथंकणागुग्गुलुसंयुतम्। अष्टादशेषु कुष्ठेषु वातरक्तार्दिते तथा॥ उपदंशे श्लीपदे च प्रसुप्तौ पक्षघातके। मेदोदोषे नेत्ररोगे मंजिष्ठादिः प्रशस्यते॥
अमृतादि कल्क
अमृता कटुका शुंठी यष्टिकल्कं समाक्षिकम्।
गोमूत्रपीतं जयति सकफं वातशोणितम्॥
लांगल्यादि चूर्ण
लांगल्याः कंदचूर्णं त्रिकटुकलवणो योगराजोभिमिश्रं गव्येनालिह्य चूर्णं मधुघृतसहितं चाक्षमात्रं हिताशी। नानारुक्पाददोषस्फुटनविमथनैर्मर्मजं तत्प्रकृष्टैर्दुःसाध्यं वातरक्तं जयति स नियतं कुष्ठमत्युग्ररूपम्॥
मुंड्यादि चूर्ण
लीढ्वामुंडीतिक्ताचूर्णं मधुसर्पिःसमन्वितम्॥
पद्मकाद्य तैल
पद्मकोशीरयष्ट्याह्वं रजनीक्वाथसाधितम्।
स्यात्पिष्टैः सर्जमंजिष्ठावीराकांकोलिचंनदम्॥
पद्मकाद्यमिदं तैलं वातासृग्दाहनाशनम्॥
गुडूच्यादि तैल
गुडूचीक्वाथकल्काभ्यां तैलं लाक्षारसेन वा।
सिद्धं मधुककाश्मर्यसेवनाद्वातरक्तनुत्॥
मरीचादि तैल
मरिचालशिरार्कपयः फलिनी विषमुष्टिनिशामरनिंबधनैः।
कुटजं रसचतुर्गुणगोंबुसृतं किल तैलमसृक्पवनापहरम्॥
बृहन्मारच्यादि तैल
मरिचं त्रिवृता दंतक्षीरमार्कं शकृद्रसः। देवदारु दरिद्रे द्वे मांसिकुष्ठं सचंदनम्॥ विशालं करवीरं च हरितालं मनःशिलाम्।चित्रकं लांगलीं चापि विडंगं चक्रमर्दकम् ॥ शिरीषं कुटजो निंबः सप्तपर्णोमृता स्नुही। शम्याको नक्तमालश्च खदिरंपिप्पली वचा॥ ज्योतिष्मती च पालिका विषस्य द्विपलं मतम्। आढकं कटुतैलस्य गोमूत्रं च चतुर्गुणम्॥ मृत्पात्रे लोहपात्रे वा शनैर्मृद्वग्निना पचेत्। एतत्तैलं विशेषेण नाशयेत् कुष्ठजान् व्रणान्॥ वातरक्तभवान् व्याधीन् पामाविस्फोटचर्चिकाः॥
पिंडतैल
मंजिष्ठा सारिवा सर्ज यष्टिसिक्थपयोन्वितैः। पिंडाख्यं साधयेत्तैलमभ्यंगाद्वातरक्तनुत्॥
गुडूच्यादि तैल
तुलां पचेद्गुडूच्यास्तु जलद्रोणचतुष्टये। पादशेषः कषायस्तु गोदुग्धं द्रोणसंमितम्॥ तिलतैलाढकं ताभ्यां पचेन्मृद्वग्निना भिषक्। वक्ष्यमाणैस्ततो द्रव्यैः सम्यक्कल्कीकृतैः पचेत्॥ मंजिष्ठा मधुकं कुष्ठं जीवनीयगणस्तथा। एला रुचकमृद्वीका मांसी व्याघ्रनखो नखी॥ हरेणुः श्रावणी व्योषं स्थिरा तामलकी तथा। शृंगी श्यामा शताह्वाच विष्णुक्रांता च पत्रकम्॥नागकेशरवालत्वक् पद्मकोत्पलचंदनम्। एतानि कल्कवस्तूनि कथितानीह कोविदैः॥ पानेभ्यंगेनुवासे च तैलमेतन्निषेवितम्। वातरक्तं तदुद्भूतोपद्रवांश्चाशु नाशयेत्॥ धन्यं पुंसवनं स्त्रीणां गर्भदं वातपित्तनुत्। स्वेदकंडुरुजापामाशिरःकंपार्दितामयान्॥ हन्याद् व्रणकृतान् दोषान् गुडूचीतैलमुत्तमम्॥
पद्मकादि तैल
पद्मकोशीरयष्ट्याह्वरजनीक्काथसाधितम्।
स्यात्पिष्टैः सर्जमंजिष्ठा वीरा काकोलिचंदनैः॥
पद्मकाद्यमिदं तैलं वातासृग्दाहनाशनम्॥
गुडूच्यादि तैल
गुडूचीक्वाथसंयुक्तं तैलं लाक्षारसेन वा।
सिद्धं मधुककाश्मर्यरसे वा वातरक्तनुत्॥
शताह्वादि तैल
शताह्वया च कुष्ठेन मधुकेन नवेन वा।
एकैकं साधितं तैलं वातरक्त रुजापहम्॥
वातरक्त तैल
सारिवासर्जमंजिष्ठयष्टीपिडपयोन्वितम्।
तैलं पक्त्वा प्रयोक्तव्यं पिंडाख्यं वातशोणिते॥
पिंडतैल
सारिवासर्ज्जयष्ट्याह्वमधूच्छिष्टैः पयोन्वितैः।
सिद्धमेरंडजं तैलं वातरक्तरुजापहम्॥
दशपाक बलातैल
बलाकषायकल्काभ्यां तैलं क्षीरं चतुर्गुणम्। दशपाकं भवेदेतद्वातासृग्वातरक्तजित्॥ धन्यं पुंसवनं चैव नराणां शुक्रवर्धनम् । रेतोयोनिविकारघ्नमेतद्वातविकारनुत्॥
बलातैल
कलाकषायकल्काभ्यां तैलं क्षीरसमं पचेत्। सहस्रशतपाकंच वातरक्तहरं परम्॥ रसायनमिदं श्रेष्ठमिंद्रियाणां प्रसाधनम्। जीवनं बृंहणं स्वर्यंशुक्रासृग्दोषनाशनम्॥
नागबलातैल
सिद्धां पचेन्नागबलातुलां च जलार्मणे पादकषायशिष्टम्। पाच्यं तुलैलाजकमत्र शस्तमजापयस्तुल्यविमिश्रितं च॥ न तस्य यष्टीमधुकस्य कल्कं दत्त्वा पृथक् पंचपलं विपक्वम्। तद्वातरक्तं शमयत्युदीर्णं बस्तिप्रदानेन हि सप्त रात्रात्॥ दशाहयोगेन करोत्यरोगं पीतं च तैलोत्तममश्विजुष्टम्॥
आरनालतैल
आरनालाढके तैलं पादसर्जरसं शृतम्।
प्रस्थस्थे निर्जिते तोये ज्वरदाहार्तिनुत्परम्॥
बलादि घृत
बलामतिबलां मेदीमात्मगुप्तां शतावरीम्। काकोलीं क्षीरकाकोलीं रात्री मृद्वींच पेषयेत्॥ घृतं चतुर्गुणं क्षीरं तत्सिद्धं वातरक्तनुत्॥
गुडूच्यादि घृत
गुडूचीक्वाथकल्काभ्यां सपयस्कं घृतं शृतम्।
हंति वातं तथा रक्तं कुष्ठं जयति दुस्तरम्॥
अमृतादि घृत
अमृतायाः कषायेण कल्केन च महौषधम्। मृद्वग्निना घृतं सिद्धं वातरक्तहरं परम्॥ आमवाताढ्य वातादीन्कृमि-कुष्ठवणानपि। अर्शांसि गुल्मांश्च तथा नाशयत्याशु योजितम्॥
शतावरीघृत
शतावरीकल्कगर्भं रसे तस्याश्चतुर्गुणे।
क्षीरतुल्यं घृतं सिद्धं वातरक्तहरं परम्॥
अमृतास्वरसविपक्वंसर्पिस्तत्कल्कसाधितं पीतम्।
अपहरति वातरक्तं उत्तानं चावगाढं च॥
अमृतादिघृत
अमृतायाः पलशतं जलद्रोणे सुशोषितम्। घृतप्रस्थं विपक्तव्यं कल्कानष्टौ पलानि च॥ चतुर्गुणेन पयसा वाता-सृक्कुष्ठनाशनम्। कामला पांडुरोगघ्नं प्लीहकासज्वरापहम्॥
अमृतादि घृत
अमृता मधुकं द्राक्षा त्रिफला नागरं बला। वासारग्वधवृश्चीवदेवदारु त्रिकंटकम् ॥ कटुका रोहिणी कृष्णा काश्मर्याश्च फलानि च। रास्ना क्षुरकगंधर्वदेवदारुबलोत्पलैः॥ कल्कैरेभिः समैः कृत्वा सर्पिःप्रस्थं विपाचयेत्। धात्रीरसः समो देयो पयस्त्रिगुणसंयुतः॥ सम्यक् सिद्धं तु विज्ञाय भोज्ये पाके च शस्यते। बहुदोषोत्थितं वातरक्तेन सह मूर्च्छितम्॥ उत्तानं वापि गंभीरं त्रिकजंघोरुजानुजम्। कोष्टुशिर्षेमहाशूले आमवाते सुदारुणे॥ महारोगोपसृष्टस्य वेदना चातिदुस्तरा। मूत्रकृच्छ्रमुदावर्तं प्रमेहं विषमज्वरान्॥ एतान् सर्वान्निहंत्याशु वातपित्त-कफोत्थितान्। सर्वकालोपयोगेन वर्णायुर्बलवर्धनम्॥ अश्विभ्यां निर्मितं श्रेष्ठं घृतमेतदनुत्तमम्॥
अश्वगंधापाक
पूर्वं कृत्वाश्वगंधायाश्चूर्णंदश पलानि च। तदर्धंनागरं चूर्णं तस्यार्धं पिप्पली शुभा॥ मरिचानां पलं चैकं सूक्ष्मं चूर्णं तु कारयेत्। त्वगेलापत्रपुष्पाणि चैकैकं तु पलं पलम्॥ तुलार्धं महिषीदुग्धं तस्यार्धस्य च माक्षिकम्। माक्षिकार्यं घृतं गव्यं खंडा त्रिंशत्पलानि च॥ पयःखंडाज्यमाक्षिक्यं चत्वार्येकत्र कारयेत्। पूर्वं क्वथितदुग्धेन क्षिप्त्वा चूर्णं पचेद्भिषक्॥ दर्वीप्रलेपे संजाते चातुर्जातं विमुंचयेत्। यज्जातं तंदुलाकारं तावन्निष्पन्नमाचरेत्॥ पयोमुक्तं घृतं दृष्ट्वा तावदुत्तारयेत्ततः। ग्रंथिकं जीरकं छिन्ना लवंगं तगरं तथा॥ जातीफलमुशीरं च वालकं मलयोद्भवम्। श्रीफलांभोरुहं धान्यं धातकी वंशलोचनम्॥ धात्री खदिरसारं च घनसारं तथैव च। पुनर्नवाजगंधा च हुताशनशतावरी॥ मात्रागद्याणकं चैव द्रव्याणामेकविंशतिः। सूक्ष्मं चूर्णं कृतं चैव योगो ह्यस्मिन्विनिर्दिशेत्॥ पश्चात्सुशीतलं कृत्वा स्निग्धभांडे निधापयेत्। पलार्धमपि भुंजीत यदृच्छाहारभोजनः॥ कासं श्वास तथा हन्यादजीर्णं वातशोणितम्। प्लीहां मंदं च मेदं च आमवातं च दुर्जयम्॥ शोफं शूलं च वातार्शः पांडुरोगं च कामलाः। ग्रहणीं गुल्मरोगं च अन्यं वातकफोद्भवम्॥ विकारो विलयं याति यथा सूर्योदये तमः। एकमासप्रयोगेण वृद्धः संजायते युवा॥ मंदाग्नीनां हितं बल्यं बालानां चांगवर्धनम्। स्त्रीणां च कुरुते पुष्टिं प्रसवे स्तन्यवर्धनम्॥ यावत्स्तन्यं भवेत्स्तोकं तावद्दुग्धयुतं पिबेत् । क्षीणानां चाल्पवीर्याणां हितं कामाग्निदीपनम्॥ सर्वव्याधिहरं श्रेष्ठं योगं सर्वोत्तमं विदुः॥
प्रपौंडरीकादि लेप
प्रपौंडरीकं मंजिष्ठा दार्वीमधुकचंदनैः। सीतोपलैलासक्तूभिर्मसूरोशीरपद्मकैः॥ लेपो रुग्दाहवीसर्परोगशोफ-निवारणः॥
लेप और अभ्यंग
लेपः पिष्टास्तिलास्तद्वत् भ्रष्टाः पयसि निर्वृताः। क्षीरापिष्टमुपालेप एरंडस्य फलानि च ॥ कुर्याच्छूलनिवृत्त्यर्थं शताह्वांचाधिकेनिले। मूत्रक्षीरसुरासिद्धं घृतमभ्यंजने हितम्॥ सिद्धं तु मधुसूक्तंतु सेकाभ्यंगः फलोत्तरे। गृहधूमं वचा कुष्ठं शताह्वा रजनीद्वयम्॥ प्रलेपः शूलमुद्वातरक्ते वातकफोत्तरे। प्रभूतकालमासेव्यं मुच्यते वातशोणिताम्॥
शताह्वादि लेप
उभे शताह्वे मधुकं विशाला बलाप्रियाले च कसेरुयुग्मम् ।
घृतं विदारीं च शिलोपलां च कुर्यात्प्रदेहं पवने सरक्ते॥
सहस्रधौत घृत तथा रालयोग
सहस्रशतधौतेन घृतेन रुधिरोत्तरे।
लेपनं चोष्णशीतेन घृतसर्जरसेन वा॥
नवनीतमर्दन
माहिषं नवनीतं तु गोमूत्रक्षीरसेंधवैः। खल्वेनैकत्र संलोड्य वह्निना तापयेच्छनैः॥ गात्रमुद्वर्तयेत्तेन देहस्फुटन-शांतये॥
सर्षपादि और वरुणादि लेप
गौरसर्षपकल्केन प्रलेपो वातरक्तनुत्।
लेपो वरुणशिग्रत्थकांजिकेन रुजापहः॥
कनकादि लेप
कनकभुजगवल्ली्मालतीपत्रमूर्वादनरसकुनटीभिर्मर्दितं तैलयोगात्। अपहरति रसेंद्रः कुष्ठकंडूविसर्प-स्फुटितचरणवक्रं श्यामलत्वं नराणाम्॥
पंचामृतरस
पारदं च क्रियाशुद्धं तुल्यं शुद्धं च गंधकम् । अभ्रकं तु द्वयोस्तुल्यं त्रिभिस्तुल्यस्तु गुग्गुलुः॥ सर्वांशममृतासत्वं भावयेदौषधैः पृथक्। निर्गृंडी गोक्षुरच्छिन्ना कोकिलाख्यांघ्रिजै रसैः॥ सप्तवारं ततो युंज्याद्वातरक्ते त्रिवल्लकम्। कोकिलाख्यस्य मूलानां पानीयमनुपाययेत्॥
हरतालभस्म
तालं रसं तुवरिकांनयनेंदुबाणभागैर्विशुद्धवसुजातरसैर्विमर्द्य। दत्त्वा शरावयुगुले प्रविधाय मुद्रां दत्त्वा गजाह्नपुट-मस्य भवेत्सुभस्म॥ दृष्ट्वाकृतिं प्रकृतिमप्यखिलामवस्थां दृष्ट्वा पुनश्च बहुधा बहुधा विचार्य। दद्याच्च तंदुलमिता हरितालमात्रा प्राप्ता मया यतिवराद्धि महाप्रयत्नात्॥
कैशोरगुग्गुलु
नवमहिषलोचनोदरसन्निभवर्णस्य गुग्गुलोः प्रस्थम्। प्राक्षिप्य तोयराशौ त्रिफलाममृतां यथोक्तपरिमाणाम्॥ संसाधयेत्प्रयत्नादय संघट्टयेच्च तद्यावत्। अर्धक्षपितं जातं तोयं ज्वलनस्य संसर्गात्॥ अवतार्यवस्त्रपूतं पुनरपि संसाधयेदापः। सांद्रीभूते तस्मिन्नवतार्य हिमोपस्पर्शे॥ पथ्याचूर्णं द्विपलं त्रिकटुकचूर्णंषडक्षपरिमाणम् । कृमिरिपुचूर्णार्धपलं कर्षं कर्षे त्रिवृत्योः॥ पलमेकं छिन्नरुहां दत्त्वा संचूर्ण्यंयत्नेन। संस्थापयेच्च गुप्तं स्निग्धे भांडे घृतेन सुरभीणाम्॥ आदाय तस्य मात्रां विहितातिथिदेवताप्रणतिः। खादेद्यथाग्नि मनुजो व्याधिबलापेक्षया सम्यक्॥ इच्छाहारो भेषजकालश्च सर्व एवात्र। तनुरोधिवातशोणितमेकद्वित्र्युल्बणं चिरोत्थमपि॥ भग्नस्रुतिपरिशुष्कं स्फुटितमपि निहंति यत्नेन। व्रणकासकुष्ठगुल्मश्वयथूदरपांडुरोगमेदांसि॥ मंदाग्नित्वविबंधं प्रमेहदोषांश्च नाशयति। सततं निषेव्यमाणः कालेन निहंति रोगगणम्॥ अभिभूय जरादोषं करोति कैशोरकं रूपम्॥
माहिषाख्य गुग्गुलु
प्रस्थमेकं गुडूच्याश्च सार्धप्रस्थं तु गुग्गुलुः। प्रत्येकं त्रिफलायाश्चतत्प्रमाणं विनिर्दिशेत्॥ सर्वमेकत्र संक्षिप्य क्वथयेदुल्बणेंभसि । पादशेषं परिश्राप्य कषायं ग्राहयेद्भिषक् ॥ पुनः पचेत्कषायं वा यावत्सांद्रत्वमाप्नुयात्। दंतीव्योषविडंगानि गुडूचीत्रिफलात्वचः॥ ततश्चार्धपलं चूर्णं गृह्णीयात्तु प्रति प्रति। चूर्णं कर्षं त्रिवृत्तायाः सर्वं तत्र विनिःक्षिपेत्॥ तस्मिन्सुसिद्धं विज्ञाय कोष्णं पात्रे विनिःक्षिपेत्। ततश्चाग्निबलं ज्ञात्वा तस्य मात्रां प्रयोजयेत् ॥ वातरक्तं तथा कुष्ठं गुदजानग्रिसादनम्। दुष्टव्रणं प्रमेहं च ह्यामवातं भगंदरम्॥ नाड्याढ्यवातान् श्वयथून् सर्वान्वातामयान् जयेत्। अश्विभ्यां निर्मितः पूर्वं माहिषाख्यश्चगुग्गुलुः॥
तालकेश्वर रस
तालकस्य तु यस्येह पत्राणि स्युः पृथक् पृथक्। अभ्रकस्येव तत् ग्राह्यं हरितालं विचक्षणैः॥ पुनर्नवायाः स्वरसे तालकं तद्विमर्द्दयेत्। दिनमेकं ततस्तस्मिन् घनत्वं गमिते सति॥ कुर्वीत चक्रिकां तां तु शोषयेत्सम्यगातपे। पुनर्नवासमस्तांगक्षारैः स्थालीं गलावधि॥ पूरयेत्तु ततः क्षारं दृढयेत्पीडनेन हि। क्षारस्योपरि तां सम्यक् दत्त्वा तत्तालचक्रिकाम्॥ तत आच्छादनं दत्त्वा मुद्रां कृत्वा विशोषयेत्। स्थालीं चुल्यांनिधायाग्निममंदं ज्वालयेद्भिषक्॥ निरंतरमहोरात्रपंचकं तेन सिध्यति। स्वांगशीतं समुत्तार्य गृह्णीयाद्रसमुत्तमम्॥ तालकेश्वरनामायं रसो गुंजामितोशितः। गुडूच्यादिकषायेण गदाने तान्विनाशयेत्॥ सोपद्रवं वातरक्तं कुष्ठान्यष्टादशापि च। फिरंगदेशजं जंतोर्हंति रोगं सुदुस्तरम्॥ विसर्पंमंडलं कंडूं पामांविस्फोटकं तथा। वातरक्तकृतान् रोगानन्यानपि विनाशयेत्॥ एतद्भेषजसेवी तु लवणाम्लो विवर्जयेत्। तथा कटुरसं वह्निमातपं दूरतस्त्यजेत्॥ लवणं यः परित्यक्तुंन शक्नोति कथंचन। स तु सैंधवमश्नीयान्मधुरोपरसो हितः॥
अमृतभल्लातकावलेह
निमज्जंति जले यास्तु भल्लातक्यश्च ता हिताः। ताश्च सर्वा विधातव्याः संछिन्नमुखमुद्रिकाः॥ तासां प्रस्थद्वयं छित्त्वा जलद्रोणे परिक्षिपेत्। प्रस्थद्वयं गुडूच्याश्च क्षुण्णं तत्रांभसि क्षिपेत्॥ चतुर्थांशावशेषं तु कषायमवतारयेत्। वस्त्रपूतेकषाये च वक्ष्यमाणानि निक्षिपेत्॥ सर्वाण्येकत्र भांडे तु पचेन्मृद्वग्निना शनैः। सर्वद्रव्ये घनीभूते पावकादवतारयेत्॥ तत्र क्षेप्याणि चूर्णानि ब्रूमो विश्वामृतामृता। बाकुची चक्रमर्दश्चपिचुमंदो हरीतकी॥ धात्री रात्रिश्च मंजिष्ठा मरिचं नागरं कणा। यवानी सैंधवं मुस्तं त्वगेला नागकेसरम्॥ पर्पटः पत्रकं वालमुशीरं चंदनं तथा। गोक्षुरस्य च बीजानि कर्पूरो रक्तचंदनम्॥ पृथक् पलार्धमानानामेषां चूर्णमिदं क्षिपेत्। सम्यक् संमिश्र्यतद्रक्षेद्भाजने मृन्मये नवे॥ प्रभाते भक्षितेजीर्णेऽमृतभल्लातकाभिधम्। अवलेहं समश्नीयात्पलमात्रं जलेन हि॥ प्रकृत्या देहिनो यस्य सहतेरुष्करो न चेत्। सोरुष्करस्य संसर्गं सदा दूरात्परित्यजेत्॥ भल्लातकावलेहोयं वातरक्तांतकृन्मतः। वातरक्तसमुद्भूतान् विकारानाशु नाशयेत्॥ कुष्ठानि सकलान्येव दुर्नामानि हरेदरम्। विसर्पं मंडलं कंडूं शमयेदेष सेवितः॥ विकारान्वातिकान्सर्वास्तथा रुधिरसंभवान् । हरत्येव प्रयोगोयं यत्नतः सेवितः सदा॥ व्यायाममातपं वह्निमम्लं मांसं दधि स्त्रियम्। तैलाभ्यंगं तथाध्यानं नरो भल्लातके त्यजेत्॥
योगसारामृत
शतावरी नागबला उच्चटा वृद्धदारुकम्। पुनर्नवामृता कृष्णा वाजिगंधा त्रिकंटकम् ॥ पृथक् दश पलान्येषां लक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । तदर्धं शर्करायुक्तं चूर्णं तन्मर्दयेद्बुधः॥ स्थापयेत्तु दृढे भांडे मध्वार्धाढकसंयुतम्। घृतप्रस्थेनावलोड्य त्रिसुगंधिपलेन च॥ यः खादेन्नष्टचेष्टाग्नौ यथा च विकलेंद्रियः। वातरक्तं क्षयं कुष्ठं पित्तं पित्तास्त्रसंभवम्॥ वातपित्तकफोत्थांश्च रोगानन्यांश्च तद्विधान्। हत्वा करोति पुरुषं वलीपलितवर्जितम्॥ योगसारा-मृतो नाम्ना लक्ष्मीकांतिविवर्धनः॥
सर्वेश्वर रस
रसहिंगुललोहानां त्रयः कर्षाः पलद्वयम्। ताम्रगंधकयोः सर्वं जंबीराद्भिर्विमर्द्दयेत्॥ विषमुष्ट्यर्क-हेमस्नुककरवीरजलैः पुनः। सप्तधा गोलकं कृत्वा स्वेदयेद्दिवसद्वयम्॥ वालुकायंत्रमध्यस्थं शीते निष्कं विषस्य च। कर्षंकणानां सूतः स्यात्सर्वेशो वातरक्तजित्॥ गुंजामात्रास्य दातव्या द्वयं वा मत्तवारिणा। रक्तप्रकोपनं तीव्रं पित्तलं परिवर्जयेत्॥
अर्केश्वर रस
पलानि रसचत्वारि बलेर्द्वादशतावती। ताम्रस्य चक्रिका देया रसस्यार्धशरावकम्॥ दत्त्वा निरुद्धा तद्भांडे पूरयेद्भस्मना दृढम्। अग्निं प्रज्वालयेद्यामद्वयं शीतं विचूर्णयेत्॥ पुढे द्वादशधा सूर्यदुग्धेनालोडितं पुनः। वरापावकशृंगाणां द्रवैस्त्रिस्त्रिश्व भावयेत्॥ अयमर्केश्वरो वातरक्तमण्डलसुप्तिजित्। गुंजाद्वयं ददीतास्य लवणादि विवर्जयेत्॥
वातरक्तरोग में पथ्य
उत्तानेऽभ्यंजनं सेकः सोपनाहः प्रलेपनम्। गंभीरे स्नेहपानं च स्थापनं च विरेचनम्॥ सर्वत्रास्त्रस्रुतिः सूचीजलौकाशृंग्यलाबुभिः। शतधौतघृताभ्यंगो मेषीदुग्धावसेचनम्॥ यवषष्टिकनीवारकलमारुणशालयः। गोधूमाश्चणका मुद्गास्तुवर्योपि मकुष्ठकाः॥ अजाव्यमहिषीणां च गवामपि पयांसि च। उपोदिका काकमाची वेत्राग्रं सुनिषण्णकम्॥ वास्तुकं कारवेल्लं च तंदुलीयं पटोलकम्। धात्रीफलं शृंगबेरं सुरणं श्वेतशर्करा॥ मृद्वीकावृद्धकूष्माडं नवनीतं नवं घृतम्। लावतित्तिरवार्तीकताम्रचूडविविष्किराः॥ प्रतुदाः शुकदात्यूहकपोत-चटकादयः। शिंशपागरुदेवाह्वसरलस्नेहमर्दनम्॥ तिक्तं च पथ्यमुद्दिष्टं वातरक्तगदे नृणाम्॥
अपथ्य
दिवास्वप्नाग्निसंतापव्यायामातपमैथुनम्। माषाः कुलित्था निष्पावाः कलायाः क्षारसेवनम्॥ अण्डजानूपमांसानि विरुद्धानि दधीनि च। इक्षवो मूलकं मद्यं पिण्याकोऽम्लानि काञ्जिकम्॥ कटूष्णं गुर्व्वभिष्यदि लवणानि च सक्तवः। एतानि वातरक्तेषु नैव युंज्याद्भिषग्वरः॥
इति श्रीकृष्णलालमाथुरतनुजदत्तरामनिर्मिते आयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघण्टुरत्नाकरे वातरक्तकर्मविपाकनिदानचिकित्सापथ्यापथ्यं समाप्तम्।
__________
ऊरुस्तंभकर्मविपाकः।
ऊरुस्तंभनिदान
शीतोष्णद्रवसंशुष्कगुरुस्निग्धैर्निषेवितैः। जीर्णाजीर्णात्तथायाससंक्षोभ स्वप्रजागरैः॥ सश्लेष्ममेदः पवनः सामम-त्यथसांचेतम्।अभिभूयेतरं दोषमूरू चेत्प्रतिपद्यते॥ सक्थ्यस्थीनि प्रपूर्यांतः श्लेष्मणा स्तिमितेन च। तदा स्तभ्नाति तेनोरू स्तब्धौ शीतावचेतनौ॥ परकीयाविव गुरू स्यातामतिभृशव्यथौ। ध्यानाङ्गमर्दस्तैमित्यतंद्रा-च्छर्द्यरुचिज्वरैः॥ संयुतौ पादसदनकृच्छ्रोद्धरणसुप्तिभिः।तमूरुस्तंभमित्याहुराढयवात-मथापरे॥
ऊरुस्तंभ के पूर्वरूप
प्राग्रूपं तस्य निद्राऽतिध्यानं स्तिमितता ज्वरः।
लोमहर्षोऽरुचिश्च्छर्दिर्जंघोर्वोःसदनं तथा॥
ऊरुस्तंभ के लक्षण
वातशंकिभिरज्ञानात्तस्य स्यात्स्नेहनात्पुनः। पादयोः सदनं सुप्तिः कृच्छ्रादुद्धरणं तथा॥ जंघोरुग्लानिरत्यर्थं शश्वच्चा-नाहवेदना। पदं च व्यथतेऽत्यर्थं शीतस्पर्शं न वेत्ति च॥ संस्थाने पीडने गत्यां चालने चाप्यनीश्वरः। अन्यस्येव हि संभग्नावूरू पादौ च मन्यते॥
ऊरुस्तंभके असाध्य लक्षण
यदा दाहार्तितोदार्तोवेपनः पुरुषो भवेत्।
ऊरुस्तंभस्तदा हन्यात्साधयेदन्यथा नवम्॥
ऊरुस्तंभ की सामान्य चिकित्सा
यत्स्यात्कफप्रशमनं न च मारुतकोपनम् ।
तत्सर्वं सर्वदा कार्यमूरुस्तंभस्य भेषजम्॥
स्नेहासृक्स्राववमनं बस्तिकर्म विरेचनम्। वर्जयेदाढ्यवाते तु यतस्तैस्तस्य कोपनम्॥ तस्मादत्र सदा कार्यं स्वेदलंघनरूक्षणम्। आममेदः कफाधिक्यात् मारुतं नयता समम्॥
सर्वो रूक्षः क्रमः कार्यस्तत्रादौ कफनाशनः।
पश्चाद्वातविनाशाय विधातव्याखिला क्रिया॥
अन्न
भोज्याः पुराणाः श्यामाककोद्रवोद्दालशालयः।
जांगलेरमीसेः शाकैश्चालवणैर्हितैः॥
दद्याद्वास्तुकशाकेन हीनेन लवणेन तु।
जीर्णशाल्योदनं रुक्षमूरुस्तंभवते भिषक्॥
रूक्षणाद्वातकोपश्चेन्निद्रानाशादिसंभवः।
स्नेहस्वेदकमस्तत्र कार्योवातामयापहः॥
प्रतारयेत्प्रतिस्रोतः सरितं शीतलोदकाम्।
सरश्च विमलं शीतं स्थिरतोयं पुनः पुनः॥
भल्लातादि क्वाथ
भल्लातकुल्यामगधाजटानां कृतः कषायो मधुसंप्रयुक्तः।
ऊरुग्रहं घोरमपि प्रवृद्धं निहंति गोसूत्रयुता कणा वा॥
ग्रंथिकादि क्वाथ
ग्रंथिकारूक्षकृष्णानां क्वाथं क्षौद्रान्वितं पिबेत्॥
भल्लातकादि क्वाथ
भल्लातकामृता शुंठी दारु पथ्या पुनर्नवा।
पंचमूलीद्वयं मिश्रमूरुस्तंभनिबर्हणम्॥
पुनर्नवादि क्वाथ
पुनर्नवा नागरदारु पथ्या भल्लातकच्छिन्नरुहाकषायः।
दशघ्रिमिश्रः परिपेय ऊरुस्तंभेथ वा मूत्रपुरःप्रयोगः॥
शेफालिकादि क्वाथ
शेफालिकादलक्वाथं कणायुक्तं पिबेन्नरः।
कफघ्नं यच्च तत्सर्वमूरुस्तंभे प्रयोजयेत्॥
वचादि क्वाथ
वचा प्रतिविषा कुष्ठं चित्रकं देवदारु च। पाठा तेजोवती मुस्ता स्वर्णक्षीरी निदिग्धिका॥ वत्सको नक्तमालश्च मूर्वा कटुकरोहिणी। तर्कारी प्रग्रहश्चैव पीलु निंबफलानि च॥ आसनः सप्तपर्णश्च त्रिफलामरिचेन च। एतानि समभागानि कषायमुपसाधयेत्॥ मधुयुक्तं कषायं च प्रयोगेण पिबेन्नरः। ऊरुस्तंभं जयेदेव वृक्षमिंद्राशनिर्यथा॥ एतान्येव च चूर्णानि माक्षिकेण विलेहयेत्। अनेन च कषायेण भोजयेत्सिद्धमोदनम्॥
त्रिफलादि चूर्ण
त्रिफला चव्यकटुका ग्रंथिकं मधुना लिहेत्।
ऊरुस्तंभविनाशाय पुरं मूत्रेण वा पिबेत्॥
दूसरा प्रकार
त्रिफलाग्रंथिकव्योषचूर्ण लिह्यात्समाक्षिकम्।
ऊरुस्तंभविनाशाय पुरं मूत्रेण वा पिबेत्॥
वृद्ध्यादि तैल
वृद्धिर्महौषधं दारु चूर्णमेषां समांशतः।
पीतमुष्णांभसा शीघ्रमूरुस्तंभविनाशनम्॥
त्रिफलाचूर्ण
लिह्याद्वा त्रिफलाचूर्णं क्षौद्रेण कटुकायुतम्।
सुखांबुना पिबेद्वापि चूर्णं षट्चरणं नरः॥
शिलाजतुयोग
शिलाजतुं गुग्गुलुं वा पिप्पलीमथ नागरम्।
ऊरुस्तंभे पिबेन्मूत्रैर्दशमूलीजलेन वा॥
ग्रंथिकादि कल्क
चव्याभयाग्निदारुणांकल्कं वा मधुसंयुतम्॥
पिप्पल्यादि कल्क
पिप्पली पिप्पलीमूलं भल्लातकफलानि च ।
कल्कं मधुयुतं पीत्वा ऊरुस्तंभात्प्रमुच्यते॥
पिप्पलीयोग
पिप्पलीं वर्धमानां वा माक्षिकेण गुडेन वा।
ऊरुस्तंभेप्रशंसंति गंडिरारिष्टमेव च॥
ऊरुस्तंभ पर योग
सक्षारमूत्रस्वेदांश्च रूक्षान्नस्वेदनानि च।
कुर्याद्देहे च मूत्राद्यैः करंजफलसर्षपैः ॥
प्रकारांतर
मूलैर्वा ह्यश्वगंधाया मूलैरर्कस्य वा भिषक्। पिचुमंदस्य वा मूलैरथ वा देवदारुणा॥ क्षौद्रसर्षपवल्मीकमृत्तिकासंयुतैर्भिषक्। गाढमृद्बंधनं कुर्यादूरुस्तंभप्रशांतये॥
ऊरुस्तंभ पर लेप
क्षौद्रं सर्षपवल्मीकमृत्तिकासंयुतं भिषक्।
गाढमुत्सादनं कुर्यादूरुस्तंभेप्रलेपनम्॥
कुष्ठादि तैल
कुष्ठं श्रीवेष्टकोदीच्य सरलं दारु केसरम्। अजगंधाश्वगंधा च तैलं तैः सार्षपं पचेत्॥ सक्षौद्रं मात्रया तस्मादूरुस्तंभा-र्दितः पिबेत्॥
सैंधवादि तैल
पले सैंधवाढ्यं च शुंठीग्रंथिकचित्रकान्। द्वे द्वे भल्लातकास्थीनि विंशतिर्द्वेतथाढके॥ आरनाले पचेत्प्रस्त्थं तैलस्येत्थं पिबेत्पलम्। गृध्रस्योरुग्रहस्येति सर्ववातविकारनुत्॥
कटुतिक्ततैल
बलाभ्यां पिप्पलीमूलं नागरो उष्ट्रकट्वराः। तैलप्रस्थे समोदध्नागृध्रस्यूरुग्रहापहम्॥ उष्ट्रकट्वरतैले तु तैलं सार्षप-मुच्यते। पिप्पलीनागरायाश्च प्रत्येकं द्विपलं स्मृतम्॥
त्रिफलादि गुग्गुलु
त्रिफला त्रिवृता दंतीनीलिनीचतुरंगुलैः। पंचविंशतिसंख्यातैः प्रत्येकं पलपात्रया॥ क्वथिते कुट्टिते चैभिश्चतुर्द्रोणे प्रमाणतः। पचेत्तत्सलिले तावद्यावद्रोणावशेषितम्॥ पंचांशं तत्र निक्षिप्य गुग्गुलुस्तु पलान्यपि। क्वाथयेद्धि घनं यावत्तावत्तत्पूर्ववत्पचेत्॥ तावतास्मिन्घनीभूते त्वगेला नागकेसरम्। त्रिकटु त्रिफला पत्रं यवानी जीरकाणि च॥ पिप्पली दहनं चैव हपुषा कृष्णजीरकम्। बाष्पिका साजमोदा च तित्तिडी चाम्लवेतसौ॥ सौवर्चलता कृत्वा श्लक्ष्णचूर्णं विनिःक्षिपेत्। प्रत्येकमेकपलिकैर्भागैः सम्यक् विचक्षणैः॥ ततोक्षमात्रा गुटिका भक्षयेत्तु दिने दिने। ऊरुस्तंभोरुग्रथितगंडमालोदरार्दितः॥ अनेन चैव विधिना गिरिजं वा प्रयोजयेत्॥
गुंजागर्भरसायन
निष्कत्रयं शुद्धसूतं निष्कद्वादशगंधकम्। गुंजाबीजं विषं निष्कं निंबबीजं जया तथा॥ प्रत्येकं निष्कमात्रं तु माषं जेपालबीजकम्। जातीजंबीरधत्तूरकाकमाचीद्रवैर्दिनम्॥ मर्द्यंसर्वं वटींकुर्यात् घृतैर्गुंजाद्वयं पिबेत्। गुंजागर्भो रसो नाम हिंगुसैंधवसंयुतः॥ समंडं दापयेत्पथ्यमूरुस्तंभप्रशांतये॥
लशुनयोग
पलमर्धपलं वापि रसोनस्य सुकुट्टितम्। हिंगुजीरकसिंधूत्थसौवर्चलकटुत्रिकम्॥ एभिः संचूर्णतः सर्वैस्तुल्यं तैलेन संयुतम्। यथाग्निभक्षयेत्प्राज्ञो रुबुक्काथानुपानतः॥ मासैकस्य प्रयोगेण सर्वान्वातामयान् जयेत्। एकांग सर्वांगगतमूरुस्तंभं च गृध्रसीम्॥ कटिपृष्ठास्थिसंधिस्थमर्दितं चापतंत्रकम्। ज्वरं धातुगतं जीर्णं नित्यशैत्यं करांघ्रिजम्॥
ऊरुस्तंभरोग पर पथ्य
रूक्षः सर्वो विधिः स्वेदः कोद्रवा रक्तशालयः। यवाः कुलित्थाः श्यामाका उद्दालाश्चपुरातनाः॥ सौभांजनं कारवेल्लं पटोलं वास्तुकं तथा। सुनिषण्णं काकमाचीं वेत्राग्रं तप्तवारि च॥ जांगलैरघृतैर्मांसैःशाकैश्चालव-णैर्हितैः। एतत्पथ्यं समुद्दिष्टमूरुस्तंभविकारिणाम्॥
ऊरुस्तंभरोग पर अपथ्य
गुरुशीतद्रवस्निग्धविरुद्धासात्म्यभोजनम्। विरेचनं स्नेहनं च वमनं रक्तमोक्षणम्॥ बस्तिं च न हितं प्राहरू-रुस्तंभविकारिणाम्।
इति श्रीकृष्णलालमाथुरतनुजदत्तरामनिर्मिते आयुर्वेदोद्धारेबृहन्निघण्टुरत्नाकरे ऊरुस्तंभकर्मविपाकनिदानचिकित्सापथ्यापथ्यसमाप्तम्।
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आमवातकर्मविपाकः।
हुताग्निनिर्वापक आमवातवानिति वचनात्।
तदुक्तदोषशांतये अयुतसंख्याको गायत्रीजपः॥
आमवात पर वैदिककर्म
तिलैराज्येनच होमं सुवणीन्नदानं यत्र असंकीर्णमात्मानं मन्यते द्विजः तत्र तिलैर्होमो गायत्र्या वा जपस्तथेति स्मरणात्॥
ज्योतिश्शास्त्राभिप्रायमाह
अष्टमो गुरुरामस्य कर्ताचेति वचनात् अष्टमस्थानस्थितगुरुजनितामवातरोगोपशांतये तत्प्रीतये पूर्वोक्तमेव जप-होमपूजादानादिकं कुर्यात् तेनोपशाम्यति॥
आमवातनिदान
विरुद्धाहारचेष्टस्य मन्दाग्नेर्निश्चलस्य च। स्निग्धं भुक्तवतो ह्यन्नं व्यायामं कुर्वतस्तथा॥ वायुना प्रेरितो ह्यामः श्लेष्मस्थानं प्रधावति। तेनात्यर्थं विदग्धोऽसौ धमनीः प्रतिपद्यते॥ वातपित्तकफैर्भूयो दूषितः सोन्नजो रसः। स्रोतांस्यभिस्पंदयति नानावर्णोतिपिच्छिलः॥ युगपत्कुपितावेतौ त्रिकसंधिप्रवेशकौ। स्तब्धं च कुरुते गात्रमामवातः स उच्यते॥
आमवातके सामान्य लक्षण
अङ्गमर्दोऽरुचिस्तृष्णा आलस्यं गौरवं ज्वरः।
अपाकः शून्यतांऽगानामामवातः स उच्यते॥
अत्यंत बढे हुए आमवातके सामान्य लक्षण
स कष्टः सर्वरोगाणां यदा प्रकुपितो भवेत् । हस्तपादशिरोगुल्फत्रिकजानूरुसंधिषु॥ करोति सरुजं शोथं यत्र दोषैःप्रपद्यते। स देशो रुजतेऽत्यर्थं व्याविद्ध इव वृश्चिकैः॥ जनयेत्सोऽग्निदौर्बल्यं प्रसेकारुचिगौरवम्। उत्साहहानिवैरस्यं दाहंच बहुमूत्रताम्॥ कुक्षौ कठिनतां शूलं तथा निद्राविपर्ययम्। तृट्छर्दिश्रममूर्च्छाश्च हृद्ग्रहं विड्विबंधताम्॥ जाड्यांत्रकूजमानाहं कष्टांश्चान्यानुपद्रवान्॥
आमवात के विशेष लक्षण
पित्तात्सदाहरागं च सशूलं पवनानुगम् ।
स्तैमित्यं गुरुकंडूं च कफजुष्टं तमादिशेत्॥
आमवात में साध्यासाध्य विचार
एकदोषानुगः साध्यो द्विदोषो याप्य उच्यते।
सर्वदेहचरः शोथः स कृच्छ्रः सान्निपातिकः॥
आमवातकी सामान्य चिकित्सा
लंघनं स्वेदनं तिक्तं दीपनानि कटूनि च। विरेचनं स्नेहपानं बस्तयश्चाममारुते॥ रूक्षः स्वेदो विधातव्यो वालुकापोट-लैस्तथा। उपनाहाश्च कर्तव्यास्तेपि स्नेहविवर्जिताः॥
रास्नादि क्वाथ
रास्नामरदारुराजवृक्षत्रिकट्वैरंडपुनर्नवामृतानाम्।
क्वथितं जलमामवात एषां शमयेन्नागरकल्कमिश्रमाशु॥
रास्नादि क्वाथ
रास्नामृतानागरवातशत्रुकटंकटेरीजनितः कषायः।
एरंडतैलेन समन्वितोयं भेत्ता भवेदामसमीरणस्य॥
रास्नादि क्वाथ
रास्त्रामृतारग्वधदेवदारुपंचांघ्रियुग्मेंद्रयवैः कषायः।
एरंडतैलेन समन्वितोऽयं भेत्ता भवेदामसमीरणस्य॥
महौषधादि क्वाथ
महौषधामृताभवः कषायकश्च सेवितः।
हिनस्ति चाममारुतं चिराय संधिसंश्रितम्॥
महारास्नादि क्वाथ
रास्ना वातारिमूलं च वासकः सदुरालभः। शठी दारु बला मुस्तं नागरातिविषाभयाः॥ श्वदंष्ट्रा व्याधिघातश्च मिशिधान्यं पुनर्नवा। अश्वगंधामृता कृष्णा वृद्धदारुः शतावरी॥ वचा सहचरश्चैव चविका बृहतीद्वयम्। समभागानि सर्वाणि रास्नातु त्रिगुणा मता॥ पिबेत्कषायमेतेषामष्टभागावशेषितम्। क्षिप्त्वा नागरचूर्णं च प्रक्षेपोत्र यथाबलम्॥ सर्वेषु वातरोगेषु सामेषु तु विशेषतः। पक्षाघातेऽर्दिते कंपे कुब्जे संधिगतेऽनिले॥ जानुजंघास्थिपीडासु गृध्रस्यां च हनुग्रहे। ऊरुस्तंभे वातरक्तेविश्वाच्यां क्रोष्टुशीर्षके॥ हृदामये च दुर्नाम्नियोनिशुक्रामयेषु च। पुंसां मेढ्रगते वाते स्त्रीणां वंध्यामये तथा॥ योषितां गर्भदं मुख्यं नास्त्यस्मादौषधं परम्। महारास्नादिकः क्वाथो वेधसायं विनिर्मितः॥
रास्नादि क्वाथ
रास्नारग्वधदेवदारुऋतुभूच्छिन्नोद्भवागोक्षुरैरेरंडेन युतैः कषायकवरो विश्वारोमिश्रितः। नानासंधिरुजान्वितं विजयते घोरामवातामयं स्वर्णांगीकुचपद्मकुड्मलरुचिर्दीपोंधकारं यथा॥
रास्नाद्वादशकाढा
रास्ना शतावरी वासा गुडूच्यतिविषाभया। शुंठी दुरालभैरंडदेवदारुवचाघनैः॥ क्वाथः पीतो जयत्याशु आमवातं सुदारुणम्। कट्यूरुत्रिकजंघांघ्रिगुल्फजानुसमाश्रितम्॥
रास्नासप्तक क्वाथ
रास्त्रामृतारग्वधदेवदारुत्रिकंटकैरंडपुनर्नवानाम्।
क्वाथं पिबेन्नागरचूर्णमिश्रं जंघोरुपृष्ठत्रिकपार्श्वशूली॥
शुंठ्यादि क्वाथ
शुंठीगोक्षुरकक्वाथः प्रातः प्रातर्निषेवितः।
आमवातं कटीशूलं पाचनो रुग्प्रणाशनः॥
शठ्यादि क्वाथ
शठी शुंठ्यभया चोग्रा देवाह्वातिविषामृता।
कषायमामवातस्य पाचनं रूक्षभोजनम्॥
पिप्पल्यादि क्वाथ
पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरम् ।
क्वथितं वारयत्येवमामवातं सुदारुणम्॥
दशमूलादि काढा
दशमूलकषायमिश्रितं वा ललने विश्वकषायमिश्रितं वा।
प्रपिबेत्कटिकुक्षिबस्तिशूले ध्रुवमेरंडजमेकमेव तैलम्॥
अजमोदादि चूर्ण
अजमोदा विडंगानि सैंधवं देवदारु च। चित्रकः पिप्पलीमूलं शतपुष्पा च पिप्पली॥ मरिचं चेति कर्षांशं प्रत्येकं कारयेद्बुधः। कर्षास्तु पंच पथ्याया दश स्युर्वृद्धदारुकात्॥ नागराच्चदशैव स्युः सर्वाण्येकत्र कारयेत्। पिबेत्कोष्णजलेनैव चूर्णं श्वयथुनाशनम् ॥ आमवातरुजं हंति संधिपीडां च गृध्रसीम्। कटिपृष्ठगुदस्थां च जंघयोश्च रुजं जयेत्॥ तूनीं प्रतूनीं विश्वाची कफवातामयान् जयेत्। समेन वा गुडेनास्य वटकान् कारयेत्सुधीः॥
पंचसमचूर्ण
शुंठी हरीतकी कृष्णा त्रिवृत्सौवर्चलं तथा। समभागानि सर्वाणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्। ज्ञेयं पंचसमं चूर्णमेतच्छूल-हर परम्। आध्मानजठरार्शोघ्नमामवातहरं स्मृतम्॥
पंचकोलचूर्ण
पंचकोलकचूर्णं च पिबेदुष्णेन वारिणा।
मंदाग्निशूलगुल्मामकफारोचकनाशनम्॥
त्रिफलादि चूर्ण
त्रिफला नागरं चैव सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्। मस्त्वारनालतक्रेण पेया मांसरसेन वा॥ आमवातं निहंत्याशु श्वयथुं संधिसंस्थितम्॥
आरग्वधपत्र चूर्ण
आरग्वधस्य पत्राणि भृष्टानि कटुतैलतः।
आमवात प्रशांत्यर्थं खादेद्भक्तावृतानि च॥
पुनर्नवादि चूर्ण
पुनर्नवा छिन्नरुहा शताह्वा मुंडी सठी दारुक नागराणाम्।
चूर्णं हि हन्यात्किल कांजिकेन दुष्टामवातं चिरगृध्रसीं च॥
त्रुट्यादि चूर्ण
त्रुटिलवंगविडंगकटुत्रिकं घनशिवाशिवपत्रजकं समम्।
त्रिगुणितं त्रिवृताच सिता समा अदत आम पतिष्यति कामतः॥
अलंबुषादि चूर्ण
अलंबुषा गोक्षुरकस्त्रिफला नागरामृता ।
यथोत्तरं भागवृद्ध्याश्यामाचूर्णंच तत्समम्॥
पिबेत्सुरा मस्तु तक्रकांजिकोष्णोदकेन वा।
आमवातं जयत्याशु सशोफं वातशोणितम्॥
भल्लातादि चूर्ण
भल्लाततिलपथ्यानां चूर्णं गुडसमन्वितम्।
आमवातं कटीशूलं हन्याद्वा गुडनागरम्॥
वैश्वानरचूर्ण
मणिमंथस्य भागौ द्वौ यवक्षारश्च तत्समः। तथाजमोदभागश्चनागराद्भागपंचकम्॥ दश चैव हरीतक्याः सूक्ष्मं चूर्णं कृतं शुभम्। मस्त्वारनालमूत्रैश्च सुरयोष्णोदकेन वा॥ पीतं जयेदामवातं गुल्महृद्बस्तिजान् गदान्। प्लीहानमथ शूलादीनानाहं चार्शसां हितम्॥ वातानुलोमनमिदं चूर्णं वैश्वानरं स्मृतम्॥
हिंग्वादि चूर्ण
हिंगु चव्यं बिडं शुंठी कृष्णाजाजी सपुष्करम्।
भागोत्तरमिदं चूर्णं पीतं वातामजिद्भवेत्॥
चित्रकादि चूर्ण
चित्रकं कटुका पाठा कलिंगातिवृषामृता।
देवदारु वच्चा मुस्ता नागरातिविषाभया॥
पिबेदुष्णांना नित्यं चूर्णमाममरुत्प्रणुत्॥
नागरचूर्ण
कर्षंनागरचूर्णस्य कंजिकेन पिबेत्सदा।
आमवातप्रशमनं कफवातविनाशनम्॥
अजमोदादि गुटिका वा चूर्ण
अजमोदमरिचपिप्पलीविडंगसुरदारुचित्रकशताह्वाः। सैंधवमागधिमूलं भागनवकस्य पालिकाः स्युः॥ शुंठी दश पलिका स्यात्पलानि तावंति वृद्धदारस्य। अभयापलानि पंच श्लक्ष्णं चूर्णः विधाययेदेषाम्॥ समगुड-वटकानदतश्चूर्णंवा कोष्णवारिणा पिबतः। नश्यंत्यामानिलजाः सर्वे रोगाः सुदारुणाः शीघ्रम्॥ आनाहशूलतूनी-प्रतितूनीगृध्रसीगुल्माः। कटिपृष्ठपरिस्फुटनं स्फुटनं चैवास्थिजंघयोस्तीव्रम्॥ श्वयथुस्तथांग-संधिषु ये चान्येप्याम-वातजा रोगाः। सर्वे प्रयांति शांतिं तम इव सूर्यांशुविध्वस्तम्॥
सिंहनादगूगल
पलत्रयं वा ताप्यस्य त्रिफलायाः सुचूर्णीतम्। सौगंधिकं पलंचैव कौशिकस्य पलं तथा॥ कुडवं चोरुबूकस्य तैलमादाय यत्नतः । पाचयेत्पाकविद्वैद्यः पात्रे लोहमये दृढे॥ हंति वातं तथा पित्तं श्लेष्माणं खंज पंगुताम्। श्वासं सुदुर्जयं हंति कासं पंचविधं तथा॥ कुष्ठानि वातरक्तं च गुल्मशूलोदराणि च। आमवातं जयेदेतदपि वैद्यैर्विवर्जितम्॥ एतदभ्यासयोगेन जरापलितवर्जितम्। सर्पिस्तैलरसोपेतमश्नीयाच्छालिषष्टिकम्॥ सिंहनाद इति ख्यातो रोगवारणदर्पहा। वह्नेर्वृद्धिकरः पुंसां भाषितो दंडपाणिना॥
हरीतकीगूगल
हरीतकी नागरं च वृद्धदारुसमं समम्। द्विगुणं गुग्गुलं दत्त्वा तैलमेरंडजं तथा॥ मर्दयेद्दिनमेकं तु भक्षयेदामवात-नुत्॥
योगराजगूगल
चित्रकं पिप्पलीमूलं यवानी कारवी तथा। विडंगमजमोदा च जीरकं सुरदारु च॥ चव्यैला सैंधवं कुष्ठं रास्त्रा गोक्षुरधान्यकम्। त्रिफला मुस्तकं व्योषं त्वगुशीरं यवाग्रजम्॥ तालीसपत्रं पत्रं च सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्। यावंत्येतानि चूर्णानि तावन्मात्र च गुग्गुलुः॥ संमर्द्यसर्पिषा गाढं स्निग्धभांडे निधापयेत्। ततो मात्रां प्रयुंजीत यथेष्टाहारवानपि॥ प्लीहगुल्मोदरानाहदुर्नामानि विनाशयेत्। अग्निं च कुरुते दीप्तं तेजोवृद्धिं बलं तथा॥ मर्दयेदिनमेकं तु भक्षयेदामवातदा॥
सिंहनादगूगल
गुग्गुलोः पिंडितं प्रस्थं कटुतैलं पलं घृतम्। प्रत्येकं त्रिफलाप्रस्थे सार्धद्रोणे जले पचेत्॥ पादावशेषं पूतं च पुनरग्नावधिश्रयेत्। त्रिकटुंत्रिफला मुस्तं विडंगामरदारु च॥ गुडूच्यमित्रिवृद्दंती चव्यं सूरणमानकम् । पारदं गंधकं चैव प्रत्येकं शुक्तिसंमितम्॥ पुनः सहस्रं प्रत्ययं जयपालफलं बुधः। त्वगंकुर विनिर्मुक्तं सिद्धं संचूर्ण्य निक्षिपेत्॥ ततो माषद्वयं जग्ध्वा पिबेत्तप्तजलादिकम्। अग्निं च कुरुते दीप्तं वडवानलसन्निभम्॥ धातुवृद्धिं बुद्धिवृद्धिं बलं च विपुलं तथा। आमवातं शिरोवातं ग्रंथिवातं भगंदरम्। जानुजंघास्थिजं वातं सकटिग्रहमेव च । अश्मरीमूत्रकृच्छ्रं च भग्नं बस्तिमितोदरे॥ आम्लपित्तं तथा कुष्ठं प्रस्वेदं स्वदनिर्गमम्। कासं पंचविधं श्वासं क्षयं च विषमज्वरम्॥ श्लीपदं पंक्तिशूलं च पांडुरोगं सकामलम्। शोथांत्रवृद्धिशूलानि गुदजानि विनाशयेत्॥ सिंहनाद इति ख्यातो योगोयममृतोपमः॥
अभयादि गुटी
अभया सैंधवं शम्या विशालां विश्वभेषजम्। इंद्रवारुणिकामज्जा तथा सर्वं विमर्दयेत्॥ लोहांडे विनिक्षिप्य दद्यादि शनैः शनैः। बदराभा प्रमाणेन वटी कार्या भिषग्वरैः॥ उष्णोदुकानुपानेन भुक्त्वा दोषाद्यपेक्षया। पथ्यं दध्योदनं देयं आमरोगं विनाशयेत्॥
एरंडादि गुटी
एरंडबीजमज्जा समविश्वशर्करासहिता।
गुटी कृता प्रभाते भुक्ता सामानिलं जयति॥
आमवातारि गुटिका
रसगंधकलोहार्कतुत्थटंकणसैंधवान्। समभागान् विचूर्ण्याथ चूर्णाद्विगुणगुग्गुलुः॥ गुग्गुलोः पादिकं ज्ञेयं त्रिफला चूर्णमुत्तमम्। तत्समं चित्रकस्याथ घृतेन वटिकां कुरु॥ खादेन्माषद्वयं चेदं त्रिफलाजलयोगतः। आमवातारिगुटिका पाचिका भेदिका तथा॥ आमवातं निहंत्याशु गुल्मशूलोदराणि च। यकृत्प्लीहानमष्ठीला कामलां पांडुकामलाम्॥ हलीमकाम्लपित्ते च श्वयथुं श्लीपदार्बुदम्। ग्रंथिशूलं शिरःशूलं गृध्रसीवातरोगहा॥ गलगंडं गंडमालां कृमीन्कुष्ठं विनाशयेत्॥
एरंडयोग
विशोध्यैरंडबीजानि पिष्ट्वा तत्पायसं पिबेत्।
आमवाते कटीशूले गृध्रस्यां चौषधं परम्॥
एरंडयोग
आमवातगजेन्द्रस्य शरीरवनचारिणः।
एक एवाग्रणीर्हंताएरंडस्नेहकेसरी॥
हरीतकी योग
एरंडतैलयुक्तां हरीतकीं भक्षयेद्विधिवत्।
आमानिलार्तियुक्तो युक्तो वृद्धया च गृध्रस्या॥
अहिंस्रादियोग
अहिंस्रा केमुकामूलं शिग्रुवल्मीकमृत्तिका।
मूत्रपिष्टश्च कर्तव्यो उपनाहोनिलामजित्॥
जल
आमवाताभिभूताय पीडिताय पिपासया।
पंचकोलेन संसिद्धं पानीयं हितमुच्यते॥
एरंडमूलयोग
एरंडमूलं त्रिफला गोमूत्रं चित्रकं विषम्।
गुंजैका घृतसंबद्धा आमवातान् विनाशयेत्॥
रसोनयोग
रसोनस्य पलं हिंगु व्योषसैंधवजीरकम्। सौवर्चलं विडंगं च पिष्ट्वातैलेन मिश्रयेत्॥ कर्षैकं भक्षयेत्प्रातराम-वातार्दितो नरः॥
पारदभस्मप्रयोग
शरावनिहितं सूतं द्विघ्नवंगं मुहुर्मुहुः। दत्त्वाग्निं सूर्ययामांतं निंबकाष्ठेन घट्टयेत्॥ एवं भवेत्पीतवर्णा रसराजस्य भूतिका। यथानुपानं रोगेषु प्रदद्यात् भिषगुत्तमः॥ अर्जितं विविधोपायेर्जंगमाद्भिषजान्मया। इदं तत्त्वं प्रलब्धं तु पालनीयं चिकित्सकैः॥
आमवातविध्वंस रस
प्रक्षिप्य गंधं रसपादभागं कलाप्रमाणं च विषं समस्तात्। कृशानुतोयेन च भावयित्वा वल्लं ददीतास्य मरुत्प्रशांत्यै॥ अपस्मारे तथोन्मादे सर्वांगव्यथनेऽपि च। एकांगवाते सामे वा दंष्ट्राबंधे हिमे तथा॥ देयोयं वल्लमात्रं तु सर्ववातनिवृत्तये॥
आमवातारिरस
रसो गंधो वरा वह्निर्गुगुग्लुः क्रमवर्धितः। एतदेरंडपत्रेण श्लक्ष्णचूर्णं विमर्दयेत्॥ कर्षांशैरंडतैलेन हंत्युष्णजल-पायिनः। आमवातवते देयं दुग्धमुद्गादि वर्जयेत्॥
उदयभास्कर रस
पारदं गंधकं व्योषं द्वौ क्षारौ लवणानि च। टंकणं चेति तुल्यानि जेपालं सकलैः समम्॥ भावना बीजपूरस्य शुष्कं सूक्ष्मं विचूर्णयेत् । संग्राह्यं रक्तिकायुग्ममामवातविनाशनम्॥ गोदुग्धं केवलं पथ्यं देयं मुद्गपयोथ वा। अन्नं च वर्जयेत्ताषदामशोफं निवारयेत्॥
शतपुष्पादि लेप
शतपुष्पा वचा विश्वा श्वदंष्ट्रा वरुणत्वचः। पुनर्नवा सदेवाह्वाशठी मुंडीतिकाः समाः॥ प्रसारणी च तर्कारी फलं च मदनस्य च। सूक्तकांजिकपिष्टास्तु सुखोष्णालेपने हिताः॥
रसोनाद्य तैल
दधि मस्तु गुडक्षीरपोतका माषपिष्टकम्। लशुनस्य तुलामेकां जलद्रोणे विपाचयेत् ॥ चतुर्भागावशेषं तु कर्षयेदवतारयेत्। तत्कषायं परिश्राव्य विपचेत्ताम्रभाजने॥ चित्रतैलाढकं दद्याद्वेषजानि प्रदापयेत्। त्रिफला त्र्यूषणं हिंगु सूक्ष्मैला चित्रकं बिडम्॥ सौवर्चलं विडंगानि दीप्यकं ग्रंथिकं तथा॥
रसोनासव
पलं शतं रसोनस्य तिलं च कुडवं तथा। हिंगु त्रिकटुकाक्षारौ द्वौ पंचलवणानि च॥ शतपुष्पा तथा कुष्ठं पिप्पलीमूलचित्रकौ। अजमोदा यवानी च जीरकं चापि बुद्धिमान्॥ प्रत्येकं च पलं तेषां सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्। घृतभांडे दृढे धान्येस्थापयेद्दिनषोडश॥ प्रक्षिपेत्तैलमानेन प्रस्थार्धं कांजिकस्य च। खादेत्कर्षप्रमाणं तु तोयं मद्यं पिबेदनु॥ आमवाते तथा वाते सर्वांगैकांगसंश्रिते। अपस्मारेनले मांद्ये कासे श्वासे ज्वरेषु च॥
लशुनरस
रसो रसोनस्य पिचुप्रमाणः क्षिपेच्च तत्राक्षमितं घृतं गोः।
पिबेदुभे तेन दहंत्यवश्यं शिखीव तूलं हिमहामवातम् ॥
रसोनासव
तुला क्षुण्णा रसोनस्य तदर्धंलुंचितास्तिलाः। पात्रे तु गव्यतक्रस्य पिष्टद्रव्यैः समं क्षिपेत् ॥ त्र्यूषणं धान्यकं चव्यं चित्रकं गजपिप्पली। अजमोदा त्वगेला च ग्रंथिकं च पलांशकम् ॥ शर्करायाः पलान्यष्टौ पंचाजाज्याः पलानि च। कृष्णाजाज्याश्च चत्वारि राजिकायास्तथैव च॥ पलप्रमाणं दातव्यं हिंगोर्लवणपंचकम्। आर्द्रकस्य च चत्वारि सर्पिश्चाष्टौ पलानि च ॥ तिलतैलस्य तावंति सूक्तस्यापि च विंशतिः। सिद्धार्थकस्य चत्वारि द्विगुणं मधुकस्य च ॥ एकीकृत्य दृढे भांडे धान्यराशौ निधापयेत्। द्वादशाहात्समुद्धृत्य प्रातः खादेद्यथावलम्॥ सुरां सौवीरकं चाथ मधु वापि पिबेन्नरः। जीर्णे यथेप्सितं भोज्यं दधिपिष्टकवर्जितम्॥ एकमासोपयोगेन सर्वव्याधिहरोभवेत्। अशीतिर्वातजा रोगाश्चत्वारिंशच्च पित्तजाः॥ विंश- तिश्लेष्मजास्तद्वत् नश्यंतेतस्य सेवनात्। योनिशूलं प्रमेहांश्च कुष्टोदर भगंदरान्॥ अर्शोगुल्मक्षयांश्चापि जयेद्रुचिबलप्रदः॥
बृहत्सैंधवादि तैल
सैंधवं श्रेयसी रास्नाशतपुष्पा यवानिका। स्वर्जिका मरिचं कुष्ठं शुंठी सौवर्चलं विडम्॥ वचाजमोदा जरणः पौष्करं मधुकं कणा। एतान्यर्धपलांशानिपेठांशानि सूक्ष्मकल्कानि कारयेत्॥ प्रस्थमेरंडतैलस्य प्रस्थोंबु शतपुष्पजम्। कांजिकं द्विगुणं दत्त्वा मस्तु च द्विगुणं तथा॥ एतत्संभृत्य संभारं शनैर्मृद्वग्निना पचेत्। सिद्धमेतत्प्रयोक्तव्य-मामवातहरं परम्॥ पात्रे चाभ्यंजने बस्तौ कुरुतेग्निबलं भृशम्। वातार्ते वंक्षणे शूले कटीजानूरुसंधिजे॥ तथा हृत्पार्श्वजे शूले शस्तं श्लेष्मनिपीडिते। अन्यांश्चानिलजान्रोगान्नाशयत्याशु देहिनाम्॥
एरंडतैल
कटिशूले पिबेत्तैलमेरंड फलसंभवम् ॥
शुंठीघृत
पुष्ट्यर्थं पयसा साध्यं दध्ना विण्मूत्रसंग्रहे। दीपनार्थं मतिमता मस्तुना च प्रकीर्तितम् ॥ सर्पिर्नागरकल्केन सौवीरं च चतुर्गुणम्। सिद्धमग्निकरं श्रेष्ठमामवातहरं परम्॥
शुंठीखंड
नागरस्य पलान्यष्टौ घृतस्य कुडवं तथा। क्षीराढकसमायुक्तं खंडस्यार्धशतं पलम्॥ व्योषविजातकद्रव्यात्प्रत्येकं च पलं पलम्। निःक्षिपेच्चूर्णितंतत्र खादेदग्निबलं तथा॥ आमवातप्रशमनं धातुपुष्टिकरं परम्। बल्यमायुष्यमोजस्यं वलीपलितनाशनम्॥
प्रकारांतर
नागरस्य तुलामेकां घृतस्य पलविंशतिः। क्षीरद्रोण्यर्धके पक्त्वा खंडस्यार्धं शतं क्षिपेत्॥ व्योषं त्रिजातकं चैव केसरं पिप्पली जटा। जोंगकं जातिपत्रीकं जातिफलकचोरकम्॥ अश्मभेदस्ताम्रभस्म वंगभस्म तथैव च। स्वर्णमाक्षिकमभ्रं च तथा लोहत्रयं क्षिपेत्॥ एतान् पृथक् पलान् भागान् प्रत्येकं चूर्णितं क्षिपेत्। मंदानलविपक्कं तु लेहनं साधु साधयेत्॥ बल्यं वर्ण्यं तथायुष्यं वलीपलितनाशनम्। आमवातप्रशमनं सौभाग्यकरमुत्तमम्॥
मेथीपाक
मेथिकायाः पलान्यष्टौ शुंठ्या अष्टपलानि च। तयोश्चूर्ण पटे पूतं दुग्धे मृदग्निना पचेत् ॥ दुग्धाढकयुतं गव्यं घृतमष्टपलं क्षिपेत् । तत्तावत्सुपचेद्यावद्भवेदतिघनं पयः॥ पुनः पचेच्छनैस्तत्र दत्त्वाढकमितां सिताम्। ततः पाके सुविज्ञाते ज्वलनादवतारयेत् ॥ मरिचं पिप्पली शुंठी कणामूलं सचित्रकम् । यवानी जीरको धान्यं कारवीशतपुष्पिका॥ जातीफलं शठी त्वक्च पत्रकं भद्रमुस्तकम्। गृह्णीयात्पलमेतेषां सर्वेषां च पृथक् पृथक्॥ पडक्षं नागरं तत्र मरिचं च षडक्षकम्। एषां चूर्णं परिक्षिप्य सर्वं संमिश्र्यरक्षयेत्॥ एतत्तु भेषजं प्रोक्तं मेथिकापाकसंज्ञितम्। भक्षयेत्पलमात्रं तद्यथा चाग्निबलं तथा॥ आमवातं निहंत्येतत् सर्वांश्च पवनामयान् । ज्वरांश्च विषमान् इंति पांडुरोगं सकामलम् । हृत्युन्मादमपस्मारं प्रमेहान्वात- शोणितम् । अम्लपित्तं शिरःपीडां नासारोगं हगामयम् ॥ प्रदरं सूतिकारोगं हन्यादेतन्न संशयः । वपुषः पुष्टिकृद्वल्यं वीर्यवृद्धिकरं परम्॥
सौभाग्यशुंठी
विश्वौषधं पलान्यष्टौ सर्पिषः पलविंशतिः। प्रस्थद्वयं च गोक्षीरं शर्करार्धतुला तथा ॥ त्रिकटु त्रिसुगंधी च प्रत्येकं च पलं पलम्। साधयेत्स्नेहविधिना सम्यक् शुंठीरसायनम्॥ नाम्ना सौभाग्यशुंठीयं पुनः सौभाग्यदायकम्। आमवातं हरत्याशु त्वचि कांतिं प्रयच्छति॥ धातुवृद्धिकरं वृद्धिमायुश्च कुरुते चिरम्। वलीपलितनाशं च कुर्याद्वंध्यत्वनाशनम्॥
शुंठ्यादि पुटपाक
शुंठीकल्कं विनिष्पिष्य रसैरेरंडमूलजैः। विपचेत्पुटपाकेन तद्रसः क्षौद्रसंयुतः॥ आमवातसमुद्भूतां पीडां जयति दुस्तरः॥
आमवातरोग पर पथ्य
रूक्षः स्वेदो लंघनं स्नेहपानं बस्तिर्लेपो रेचनं पायुवर्तिः। अब्दोत्पन्नाः शालयो ये कुलत्था जीर्णं मद्यं जांगलानां रसाश्च॥ वातश्लेष्मघ्नानि सर्वाणि तक्रं वर्षाभूश्चैरंडतैलं रसोनः। पटोलपत्तूरककारवेल्लवार्त्ताकुशिग्रूणि च तप्तनीरम्॥ मंदारगोकंटकवृद्धदारुं भल्लातकं गोजलमार्द्रकं च। कटूनि तिक्तानि च दीपनानि स्युरामवातामयिने हितानि॥
आमवातरोग पर अपथ्य
दधि मत्स्या गुडक्षीरोपोदिकामाषपिष्टकम्। दुष्टनीरं पूर्ववातं विरुद्धान्यशनानि च॥ असात्म्यं वेगरोधं च जागरं विषमाशनम्। वर्जयेदामवातार्तो गुर्वभिष्यंदकारि च॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे आमवातनिदानाचिकित्सा समाप्ता ।
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शूलरोगकर्मविपाकः।
अजीर्णशूल का कर्मविपाक
शुद्रस्यैव तु भुक्त्वान्नमत्रतस्य द्विजस्य च।
शूलव्याधिर्भवेन्नित्यमजीर्णाच्चातिपीडितः॥
प्लीहशूल
विश्वस्तविषदाताच प्लीहवान् जायते नरः॥
जठरशूल
श्रुताध्ययनसंपन्नं याचितारमकिंचनम्। ब्राह्मणं दांतमाहूय दानार्थं न ददाति यः॥ स भवेज्जठरी शूली तथाध्मानी व कर्हिचित्॥
शमन
कृच्छ्रातिकृच्छ्रचांद्राणि स कुर्याद्रोगमुक्तये॥
अरुचिशूल
श्रद्धाहीनो धनवान् दानेष्वरतिस्तामसदानी वा यः ।
सोरुचिमान् शूली जायेतात्रैष निस्तारः॥
शमन
चांद्रायणं चातिकृच्छ्रं प्राजापत्यमथापरम्।
होमाद्यपि च कुर्वीत व्याध्यादेरनुरूपतः॥
साक्षाद्धंति गवादीनि यः पुनर्जननांतरे।
शिरोरोगी श्रोत्ररोगी शूली वारुचिमान् भवेत्॥
शमन
एतन्निवृत्तये वर्षं द्विवर्षं वा त्रिवर्षकम्।
चरेद् घृतव्रतं चांते गोहिरण्यादिकं दिशेत॥
कटिशूल का कर्मविपाक
गोगामी कटिशूली स्यात् तस्य चांद्रायणं तथा।
कृच्छ्रं चैवातिकृच्छ्रं च जपं सौरं च निर्दिशेत्॥
कर्णशूल
मैथुनं शृणुयात्पित्रोः कर्णशूली भवेत्तु सः।
स्याच्चैव बधिरः किंचित्कपाले सह्यशब्दवान्॥
शमन
निष्कविंशतिकं दद्याद्ब्राह्मणाय कुटुंबिने।
विष्णुप्रकाशकान् मंत्रान् जपेद्रोगोपशांतये॥
हस्तशूल
पूर्वजन्मनि नास्तिक्यात्संध्यादिरहितो द्विजः।
हस्तशूली संभवति निष्कद्वादशकं दिशेत्॥
शमन
भोजयेद्ब्राह्मणान् शक्त्या जपेत्सौरं हिरण्यदः॥
नेत्रशूल
नग्नांपरस्त्रियं दृष्ट्वा सूर्यं वास्तमयोदये।
नेत्रशूली भवेत्सोऽपि नेक्षितुं क्षमते दिशः॥
शमन
वर्चोमे देहि मंत्रेण जपः स्यादष्ट चायुतम्।
वयः सुपर्णा इति च मंत्रैः सिंचेच्च वारिणा॥
शूलरोग में कर्मविपाक
शूली परोपतापेन जायते वपुषा तनुः।
सोन्नदानं प्रकुर्वीत तथा रुद्रं जपेद्बुधः॥
शूल निदान
दोषैः पृथक्समस्तामद्वंद्वैः शूलोऽष्टधा भवेत्।
सर्वेष्वेतेषु शूलेषु प्रायेण पवनः प्रभुः॥
व्यायामयानादतिमैथुनाच्च प्रजागराच्छीतजलातिपानात्। कलायमुद्गाढकिकोरदूषादत्यर्थरूक्षाध्यशना-भिघातात्॥ कषायतिक्तादिविरूढकान्नविरुद्धवल्लूरकशुष्क शाकात्। विट्शुक्रमूत्रानिल वेगरोधाच्छोकोप-वासादतिहास्य भाष्यात्॥ वायुः प्रवृद्धोजनयेद्धिशूलं हृत्पार्श्वपृष्टत्रिक बस्तिदेशे। जीर्णे प्रदोषे च घनागमे च शीते च कोपं समुपैति गाढम्॥ मुहुर्मुहुश्चोपशमश्च कोपो विण्मूत्रसंस्तंभनतोदभेदैः। सस्वेदनाभ्यंजनमर्द-नाद्यैःस्निग्घोष्णभोज्यैश्व शमं प्रयाति॥
वातशूलकी चिकित्सा
ज्ञात्वा तु वातजं शूलं स्नेहस्वेदैरुपाचरेत्॥ पायसैः कृशरापिंडैः स्निग्धैर्वा पिशितोत्कटैः॥ आशुकारी हि पवनस्तस्मात्तं त्वरया जयेत्। तस्य शूलाभिपन्नस्य स्वेद एव सुखावहः॥
वातशूल में यूष
वातात्मकं हंत्यचिरेण शूलं स्नेहेन युक्तस्तु कुलित्थयूषः।
ससैंधवव्योषयुतः सलावः सहिंगुसौवर्चलदाडिमाढ्यः॥
दशमूलादि क्वाथ
तैलमेरंडजं वापि दशमूलस्य वारिणा।
पीतं निहन्ति साटोपं हिंगुसौवर्चलान्वितम्॥
विश्वादि काढा
विश्वमेरंडजं मूलं क्वाथयित्वा शृतं पिबेत्।
हिंगुसौवर्चलोपेतं सद्यः शूलनिवारणम्॥
बलादि क्वाथ
बलापुनर्नवैरंडबृहतीद्वय गोक्षुरैः।
क्वाथः सहिंगुलवणः पीतो वातरुजं जयेत्॥
वातशूल पर कल्क
तुषवारिविनिष्पिष्टतिलकल्कस्य पोटली।
भ्रामिता जठरोर्ध्वंचेन्मुहुः शूलं विनाशयेत्॥
बीजपूरस्वरस
सुपक्वबीजपूरस्य रसः सैंधवमिश्रितः।
पीतः पथ्याशिनो हंति हृच्छूलमतिदारुणम्॥
तुंबरुआदि चूर्ण
तुंबरुन्यभयाहिंगुपौष्करं लवणत्रयम्।
पिबेद्यवांबुना वातशूलगुल्महरं परम्॥
हरीतक्यादि चूर्ण
हरीतकी चातिविषा हिंगु सौवर्चलं वचा। गालितेंद्रयवास्तुल्या भक्षयेदुष्णवारिणा॥ कर्षेकमनुपानं स्याद्वातशूलहरं परम्॥
सौवर्चलाद्य चूर्ण
सौवर्चलाम्लवेतसबिडलवणयुत ससैंधवातिविषा।
त्रिकटुकं बीज पुररसान्वितमशितं गुरुगुल्मशूलहरम्॥
उशीराद्य चूर्ण
उशीरं सैंधवं हिंगु मूलमेरंडजं समम्।
वातशूलं निहन्त्येव भुक्तं तप्तेन वारिणा॥
श्वेतएरंडादिचूर्ण
श्वेतैरंडशिफाहिंगुसैंधवं समचूर्णितम्।
तप्तेन वारिणा भुक्तं वातशूलहरं परम्॥
मंदारमूलिकाद्य चूर्ण
मंदारमूलिकाचूर्णं भुक्तं दुग्धेन मिश्रितम्।
वातशूलहरं देवीमूलं वा कर्णगोद्भवम्॥
यवान्यादि चूर्ण
यवानी सैंधवं हिंगु क्षारः सौवर्चलाभया।
पिबेत्कोष्णांना वातोद्रवशूलनिवृत्तये॥
करंजाद्य चूर्ण
करंजसौवर्चलनागराणां सरामठानां समभागिकानाम्।
चूर्णं कदुष्णेन जलेन पीतं समीरशूलं विनिहंति सद्यः॥
गुडूच्यादि चूर्ण
पीतमुष्णांभसा चूर्णं गुडूचीमरिचोद्भवम्।
हृच्छूलं वातशूलं च हंति पथ्याशनो नरः॥
प्रकारांतर
मातुलिंगरसं चूर्णं गुडूचीमरिचोद्भवम्।
हृच्छूलं हंति वेगेन पीतं शीतेन वारिणा॥
उशीरादि चूर्ण
उशीरं पिप्पलीमूलं चूर्णं कृत्वा समांशतः।
गोघृतेन समं पीतं इंति हृच्छूलमुल्बणम्॥
सुवर्चलादि चूर्ण
सुवर्चलाभया हिंगुरजमोदा च सैंधवम्॥
स्वर्जी यवोद्भवः क्षारः पयोसूक्तं च शूलहृत्॥
प्रकारांतर
सुवर्चला जीरकमम्लवेतसं समं त्रयंदशमरीचचूर्णकम्।
सबीजपूरस्य रसेन भावितं जलेन पीतं खलु वातशूलनुत् ॥
एरंडमूलादि चूर्ण
एरंडमूलं तुंबरुबिडलवणसुवर्चलाभया।
हिंगुरेतैरंबुना पीतैर्न याति शूलं च गुरुगुल्मम्॥
सौवर्चलादि गुटिका
सौवर्चलाम्लिकाजाजिमरीचैर्द्विगुणोत्तरैः।
मातुलिंगरसैर्बद्धा गुटिका वातशूलहृत्॥
बिल्वादि गुटिका
बिल्वैरंडतिलैः कृत्वा गुटिकाश्चाम्लपेषिताः।
वातशूलोपशांत्यर्थं प्रयुंज्यादुष्ट्रया तथा॥
सोमाग्निमुखरस गुटिका
समांशं पंचलवणं दत्वार्द्रकजले पचेत्।
दिनं पक्षं ततः कुर्याद्वटिका चणमात्रका॥
भक्षयेद्वातशूलार्तः सोमाग्निमुखनामकः॥
मृगशृंगोद्भव भस्म
बहुशाखं तु यत् शृंगं गृहीत्वा तन्मृगोद्भवम्।
अंतर्धूमं विदग्धं तद्भस्म कर्षंघृतैर्लिहेत्॥
वातशूलहरं सिद्धं जयंती वा गुडेलिहेत्॥
अग्निमुख रस
रसबलिगगनार्कं वेतसाम्लं विषं स्यात्सवरमिति पृथक् तद्भावयेद्धस्रमेतैः॥ कनकभुजगवल्लीकंटकारीजयाद्भिः कनकशमिकवासाऋद्धिरास्त्रांबुपूरैः॥ अरुणदशशशांकैर्मातुलान्याथ योज्यैः पटुगण इह तुल्यो भावयेदार्द्रकाद्भिः॥ दहनवदनसंज्ञो वल्लमात्रो निहंतिप्रबलपवनशूलं तद्विकारानशेषान्॥ शिवावचाहिंगुविषाकलिंगरुचकं समम्॥ कर्षमुष्णांबुना सेव्यमनुपानं हि शूलिभिः॥
उदयभास्कर रस
भस्म सूतं मृतं चाभ्रंशिलागंधकतालकम्॥ हिंगुकं कुष्ठमुस्तं च तुल्यं चूर्णं विभावयेत् ॥ शुद्धार्कमत्तनिर्गुंडी-महारास्त्राद्रवैः पृथक्॥ प्रतिदिनं द्रवैर्भाव्यंशुष्कं तद्गोलकीकृतम्॥ वस्त्रे बद्ध्वामृदा लेप्यं शुष्कं कृत्वा पुटे पचेत्॥ चतुर्धा बस्तमूत्रेण समादाय विचूर्णयेत्॥ द्वौ गुंजे घृतशुंठीभ्यां लेह्यो ह्युदयभास्करः॥ वातशूलप्रशांत्यर्थं तिलक्षारं सकुष्ठकम्॥ मधुना लेहयेच्चानु शूलं वा काकतुंडकम्॥
नाभिशूलपर लेप
नाभिलेपाज्जयेच्छूलं मदनं कांजिकान्वितम्।
बिल्वैरंडतिलैर्वापि पिष्टैरम्लेन पोटली॥
वातशूलपर लेप
राजिकाशिग्रुकल्कं च गोतक्रेण च पेषितम्।
तेन लेपेन हंत्याशु शूलं वातसमुद्भवम्॥
मृत्तिकासेक
मृत्तिकां सजलां पाकात् घनीभूतां पटे क्षिपेत् ।
कृत्वा तत्पोटलीं शूली तथा स्वेदं विधापयेत्॥
नाभिलेप
हिंगुतैल सलवणं गोमूत्रेण विपाचितम्।
नाभिस्थाने प्रदातव्यं यस्य शूलं सवेदनम्॥
पैत्तिकशूलनिदान
क्षारातितीक्ष्णोष्णविदाहितैलनिष्पावपिण्याककुलित्थयूषैः। कट्वम्लसौवीरसुराविकारैः क्रोधानलायासर-विप्रतापैः॥ ग्राम्यातियोगादर्शनैर्विदग्धैः पित्तं प्रकुप्याति करोति शूलम्। तृण्मोहदाहार्तिकरं हि नाभ्यां सस्वेदमूर्च्छाभ्रम-चोषयुक्तम्॥ मध्यंदिने कुप्यति चार्धरात्रे विदाहकाले जलदात्यये च। शीते च शीतैः समुपैति शांतिं सुस्वादुशीतैरपि भोजनैश्च॥
सामान्यचिकित्सा
वामयेत्पित्तशूलार्तंपटोलेक्षुरसादिभिः।
पश्चाद्विरेचयेत्सम्यक् पित्तगुल्मविरेचनैः॥
पित्ते प्रशस्ताः सलिलेवगाहा भांडानि कांस्यानि जलप्लुतानि।
निधाय शूलोपरि शतिलानि प्रशामयेच्छूलमनेन तज्ज्ञः॥
नाभी के ऊपर पात्र धरना
मणीरजतताम्राणां भाजनानि गुरूणि च ।
तोयेन परिपूर्णानि शूलस्योपरि धारयेत् ॥
सामान्ययत्न
विरेचनं पित्तहरं प्रशस्तं रसाश्च शस्ताः शशलावकानाम्॥
शतावर्यादिक्वाथ
शतावरीसयष्ट्याह्ववाट्यालकुशगोक्षुरैः। शृतशीतं पिबेत्तोयं सगुडक्षौद्रशर्करम्॥ पित्तासृग्दाहशूलघ्नं सद्यो दाह-रुजापहम् ॥
बृहत्यादिक्वाथ
बृहतीगोक्षुरैरंडकुशकाशेक्षुवालिकाः।
पीताः पित्तभवं शूलं सद्यो हन्युः सुदारुणम्॥
त्रिफलादिक्वाथ
त्रिफलारग्वधक्वाथः शर्कराक्षौद्रसंयुतः।
रक्तपित्तहरो दाहपित्तशूलनिवारणः॥
त्रिफलादिक्वाथ
त्रिफलारिष्टयष्ट्याह्वकटुकारग्वधैः शृतम्।
पाययेन्मधुसंमिश्रं दाहशूलोपशांतये॥
त्रायमाणादि क्वाथ
त्रायमाणकणामूलं त्रिवृता मधुकं शिवा।
गिरमाला शिवा द्राक्षा कुरंटः पित्तशूलहृत्॥
शतावर्यादिरस
शतावरीरसं क्षीरं क्षौद्रं प्रातः पिबेन्नरः।
दाहशूलोपशांत्यर्थं सर्वं पित्तामयापहम्॥
धात्र्यादिचूर्ण
प्रलिह्यात्पित्तशूलघ्नं धात्रीचूर्णं समाक्षिकम्।
सगुडं घृतसंयुक्तं भक्षयेद्वा हरीतकीम्॥
धात्र्यादिस्वरस
धात्र्या रसं विदार्या वा त्रायंत्या गोस्तनांबु वा।
पिबेत्सशर्करं सद्यः पित्तशूलनिवारणम्॥
कफजन्य शूलके लक्षण
आनूपवारिजकिलाटपयोविकारैर्मांसेक्षुपिष्टकृशरा तिलशष्कुलीभिः। अन्यैर्बलासजनकैरपि हेतुभिश्च श्लेष्मा प्रकोपमुपगम्य करोति शूलम्॥ हृल्लासका ससदनाऽरुचिसंप्रसेकैरामाशये स्तिमितकोष्ठशिरो गुरुत्वैः। भुक्ते सदैव हि रुजं कुरुतेऽतिमात्रं सूर्योदये च शिशिरे कुसुमागमे च॥
कफशूल केसामान्य चिकित्सा
शाल्यन्नं जांगलं मांसमरिष्टं कटुकं रसम्।
मद्यानि जीर्णगोधूमं कफशूले प्रयोजयेत्॥
एरंडमूलादि क्वाथ
एरंडमूलं द्विपलं जलेष्टगुणिते पचेत् ।
तत्क्वाथोयावशूकाढ्यःपार्श्वहृत्कफशूलहा॥
बीजपूररस
बीजपूररसोपेतो गुडः श्लेष्मसमुद्भवम्।
हृद्रोगं वातशूलं च गुल्मं वा हंति निश्चितम्॥
कट्फलादि चूर्ण
कट्फलं पौष्करं शृंगी मुस्तकं कटुकं शठी। समस्तानेकशो वापि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ आर्द्रकस्वर सक्षौद्रैर्लिह्यात्कफविनाशनम् । शूलानिलारुचिच्छर्दिकासश्वासक्षयापहम्॥
बृहत्कट्फलादि चूर्ण
कट्फलं पौष्करं कृष्णा शृंगी च मधुना सह।
श्वासकासज्वरहरः श्रेष्ठटो लेहः कफांतकृत् ॥
पथ्यादि चूर्ण
चूर्णंपथ्या वचा वह्निंकटुरोहिणिरुक्समम्।
श्लेष्मशूलं हरत्याशु पीतं गोमूत्रसंयुतम्॥
मुस्तादि चूर्ण
मुस्तं वचा तिक्तकरोहिणी च तथाभया निर्दहनं च तुल्यम्।
पिबेत्तुगोमूत्रयुतं कफोत्थे शूले तथा यस्य च पाचनार्थम् ॥
लवणादि चूर्ण
कफप्रकोपशुलार्तमवश्यमुपवासयेत्। लवणत्रितयं हिंगु पंचकोलयुतं पिबेत्॥ सुखोष्णेनांभसा पीतं कफशूलहरं परम्॥
सर्वागसुंदर रस
मृतं सूतं मृतं ताम्रं शिलामाक्षिकतालकम्। चूर्णयेल्लवणं पंच एतद्दशकतुल्यकम्॥ मृतं स्वर्णं च निक्षिप्य सूतांतर्दशमांशकम्। सूततुल्यं वत्सनागं चूर्ण भाव्यं दिनावधि॥ विषमुष्ट्याजया वासा विजया रक्तशाकिनी। बर्बरी च महाराष्ट्रिद्रवैर्धत्तूरजैस्तथा॥ रुध्वातुषपुटेपाच्यं समुद्धृत्य विचूर्णयेत्। सर्वांगसुंदरो नाम रसोगुंजाचतुष्टयम् ॥ भक्षयेद्धृतशुंठीभ्यां हन्ति गुल्मं सशूलकम्॥
आमशूल
आटोपहृल्लासवमीगुरूत्वं स्तैमित्यमानाहकफप्रसेकैः।
कफस्य लिंगेन समानलिंगमामोद्भवं शूलमुदाहरंति॥
आमशूल की सामान्य चिकित्सा
आमशूल क्रिया कार्या कफशूलविनाशिनी।
सेव्यमामहरं सर्वं यद्यदग्निविवर्धनम्॥
चित्रकादि क्वाथ
चित्रकग्रंथिकैरंडशुंठीघान्यजलैः शृतम्।
सहिंगु सैंधवविडमामशूलहरं परम्॥
त्रिफलादिचूर्ण
तिक्ष्णायाश्चूर्णसंयुक्तं त्रिफलाचूर्णमुत्तमम्।
प्रयोज्यं मधुसर्पिर्भ्यां सर्वशूलनिवारणम्॥
दीप्यादिचूर्ण
दीप्यकं सैंधवं पथ्या नागरं च चतुःपलम्।
चूर्ण शूलं जयत्याशु मंदस्यानेश्व दीपनम् ॥
बिल्वमूलादि चूर्ण
मूलं बैल्वं तथैरंडं चित्रकं विश्वभेषजम् ।
हिंगुसैंधवसंयुक्तं सद्यः शूलनिवारणम्॥
दार्वादि लेप
दारुहैमवतीकुष्ठशताह्वाहिंगुसैंधवैः।
आम्लपिष्टैः सुखोष्णैश्च लिंपेच्छूलयुतोदरम्॥
आमशूल पर
एरंडतैलं षड्भागं लशुनस्य तथाष्टकम्।
एकं हिंगु त्रिसिंधूत्थं सर्वमेकत्र मर्दयेत्।
त्रिनिष्कं भक्षयेत्पश्चादामशूलप्रशांतये॥
हिंग्वादि योग
हिंगुत्रिगुणसैंधवं तस्माच्च शुद्धतैलमैरंडम्।
तत्त्रिगुणरसोनरसं गुल्मोदावर्तशूलघ्नम्॥
कूष्मांडक्षार
कूष्मांडं तनु कुत्वा तु च्छित्वा धर्मे विशोषयेत्। स्थाल्यां निक्षिप्य तत्सर्वं पिधानेन पिधाय च॥ चुल्यांनिवेश्य वह्निं च ज्वालयेत्कुशलो जनः। यथा तन्न भवेद्भस्म किं त्वंगारो दृढो भवेत्॥ तदा निर्वापयेच्छीतं चूर्णितं चूर्णयेत्तु तत्। माषद्वयमितं तावच्छुंठीचूर्णविमिश्रितम्॥ जलेन भक्षयेन्नित्यं महाशूलाकुलो नरः। असाध्यमपि यच्छूलं तदप्येतेन शाम्यति॥
द्वंद्वजशूललक्षण
बस्तौहृत्कंठपार्श्वेषु स शूलः कफवातिकः।
कुक्षौ हृन्नाभिमध्येषु स शूलः कफपैत्तिकः॥
दाहज्वरकरो घोरो विज्ञेयो वातपैत्तिकः।
द्वंद्वजशूलकी सामान्य चिकित्सा
द्वंद्वजंस्नेहयोगेन तत्त्रियोगेन सर्वजम्॥
द्वंद्वजशूलपर क्वाथ
निदग्धिकावृहत्यौच कुशकाशेक्षुवालिकाः।
श्वदंष्ट्रैरंडमूलं च वारिणा सह पाचयेत्॥
पिबेत्सशर्करक्षौद्रं शूले पित्तानिलात्मिके।
पटोलादि क्वाथ
पटोलत्रिफलारिष्टैःशृतं क्षौद्रयुतं पिबेत्।
पित्तश्लेष्मज्वरच्छर्दिदाहशूलोपशांतये॥
द्राक्षादि क्वाथ
द्राक्षाटरूपयोः क्वाथः श्लेष्मपित्तरुजं जयेत्।
पित्तश्लेष्मोद्भवं शूलं विरेकवमनैर्जयेत्॥
एरंडमूलादि क्वाथ
एरंड फलमूलानि बृहतीद्वयगोक्षुरैः। पर्णिन्यः सहदेवी च सिंहपुच्छी क्षुरालिका॥ तुल्यैरेतैः शृतं तोयं यवक्षारयुतं पिबेत्। पृथग्दोषभवं शूलं हन्यात्सर्वभवं तथा॥
लशुनकल्क
मद्येन नित्यं तु रसोनकल्कं प्रातः पिबेद्वातकफोत्थशूली।
क्षारोदकं पिप्पलिसैंधवाक्तं पीतं जपेद्दुर्जयमुग्रशूलम्॥
सन्निपातशूल के लक्षण
सर्वेषु दोषेषु च सर्वलिंगं विद्याद्भिषक् सर्वभवं हि शूलम्।
सकष्टमेनं विषवज्रतुल्यं विवर्जनीयं प्रवदंति तज्ज्ञाः॥
त्रिदोषशूल चिकित्सा
शङ्खचूर्णं सलवणं सहिंगुव्योपसंयुतम्।
उष्णोदकेन तत्पीतं शूलं हंति त्रिदोषजम्॥
विदारिरसयोग
विदारिदाडिमरसः सव्योषलवणान्वितः।
क्षौद्रयुक्तो जयत्याशु शूलं दोषत्रयोद्भवम्॥
अक्षादिस्वरस
अक्षामलकशिवानां स्वरसः सुपक्वलोहजं च रसः।
सगुडं यद्यपि युक्तं मुंचति शूलं त्रिदोषोत्थम्॥
वैश्वानरयोग
भावितं मातुलिंगाम्ले ताम्रं च मरिचं दिनम्। आर्द्रकस्य रसेचैव विषं तुल्यं च चूर्णयेत्॥ पिप्पली पिप्पलीमूलं युक्तं गुंजाद्वयं हितम्। हिंगू करंजबीजं च शुंठी लशुनमौषधम्॥ एरंडतैलसंपिष्टं कर्षैकं भक्षयेदनु। योगो वैश्वानरो नाम शूलं हंति त्रिदोषजम्॥
सर्वजशूलपरशास्त्रार्थ
वमनं लंघनं स्वेदः पाचनं फलवर्तयः।
क्षारश्चूर्णानि गुटिकाः शस्यंते शूलनाशनाः॥
वाते निरूहबस्तिश्च पित्तेक्षीरं विरेचनम्।
कटुतिक्तकषायाश्च शूले वातकफोद्भवे॥
शूले स्वरसमाह
शतावर्याश्चमधुना युक्तः शूलहरो रसः॥
बीजपूरादिस्वरस
बीजपुररसः पानान्मधुक्षीरयुतो जयेत्।
पार्श्वहृद्बस्तिशूलानि कोष्ठवायुं च दारुणम्॥
मातुलुंगस्वरस
मातुलिंगरसं सर्पिः सहिंगु लवणान्वितम्। सुखोष्णं पाययेदेतद्विड्विबंधानुलोमनम्॥ कुक्षिहृत्पार्श्वशूलेषु वेदना चोपशाम्यति॥
बृहत्यादिक्वाथ
रिंगणी दुल्लरीबिल्वं बीजपुरांघ्रयोश्मभित्।
गोक्षीरेणान्वितैरेतैः कृतः क्वाथोऽतिशीतलः॥
एलादिक्वाथ
एलाहिंगुयवक्षारसैंधवप्रतिवासितः। पीत एरंडतैलेन कटिहृद्भवमुद्धतम्॥ जाठरं नाभिशूलं च पृष्ठकुक्षिगतं तथा। शिरःकर्णाक्षिशूलं च नाशयत्यतिवेगतः॥
मातुलुंगादिक्वाथ
मातुलिंगरसो वापि शिग्रुक्वाथस्तथा परः।
सक्षारो मधुना पीतः पार्श्वहृद्वस्तिशूलहा॥
अजमोदादि क्वाथ
अजमोदा वचा हिंगु लवणं बिडपूर्वकम्। शुंठी सुवर्चला कृष्णा दुल्लारी रिंगणी तथा॥ बीजपूरस्य बीजानि तुंबरुं समभागतः। एतत्क्वाथस्य पानेन यांति शूलान्यनेकधा॥
एरंडादिक्वाथ
एरंडबिल्वबृहतीद्वयमातुलिंगपाषाणभित्त्रिकटुमूलकृतः कषायः। सक्षारहिंगुलवणोरुबुतैलमिश्रः श्रोण्यूरुमेढ्र-हृदयस्तनरुक्षुपेयः॥
त्रिफलादि क्वाथ
त्रिफलाक्वाथगोमूत्रक्षौद्रक्षीररसैः पृथक्।
एरंडतैलद्विगुणैर्हितः शूलनिवारणे॥
पथ्यादि क्वाथ
पथ्यासशक्रयवपुष्करमूलयुक्ता निःक्वाथ्य हिंगुजटिलातिविषासमेतम्। पीत्वा सुखोष्णमथवातकृतं हि शूलमामोद्भवं कफकृतं च निहंति तूर्णम्॥
शूलमात्रपर यवागू
भ्रष्टा दालीकृता मुद्राः शालिलाजाश्च संघवम्। धान्यं जीरं जलं स्निग्धं यवागूरिति कथ्यते॥ पाचिता क्षुत्करी शूलनाशिनी च त्रिदोषहृत्। गुर्विणी कृशवृद्धानां बालानां च हितावहा॥ पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः। यवागूः सेविता सिद्धा दीपनी पाचनी हिता॥
रेचन के वास्ते बत्ती
अगारधूमविडरामठदंतिकृष्णाकंकुष्ठसैंधवगुडत्रिफलावृता च। वर्तिर्जलेन च गवां हि गुदे नियुक्ता विट्ग्रंथिजात-विरुजं क्षिपति क्षणेन॥
अश्वीपुरीषरसयोग
तुरंगीपुरीषोदकं हिंगुयुक्तं महाशूलहारि प्रदिष्टं भिषग्भिः।
तथा हिंगुविश्वाविडैर्वापितोसौ कुलित्थोद्भवोत्राकषायः प्रदिष्टः॥
विश्वजलादिक्वाथ
विश्वजलं रुबुतैलं विमिश्रं हिंगुयुतं रुचकेन च युक्तम्।
पीतमपि त्वरितं निहंति शूलममूलमिदं हि मया न कथितम्॥
कुबेरादि चूर्ण
अक्षंनागररामठाभयसमं मज्जाकुबेराक्षजा तुल्या पुष्करतैलपक्वमृदिता सेवेत्सदा यो नरः। नानास्थानविशालशूलशमनं ब्रह्मास्त्रमेतत्परं सत्यं श्रीजयदेवसूनुनृहरेर्वक्रांबुजान्निःसृतम्॥
हिंग्वादि चूर्ण
हिंग्वम्लत्रिपटूग्रषट्कटुशठीवृक्षाम्लदीप्यालकापाठाजाज्यजगंधमूलहपुषाद्विक्षारसाराभयम्॥ हिक्काध्मानाविबंधवर्ध्मकसनश्वासाग्नितादारुचिल्पीहार्शोखिलशूलगुल्मगलहृद्रोगाश्मपांडुप्रणुत्॥
नाराचचूर्ण
कर्षमात्रा भवेत्कृष्णा त्रिवृतं स्यात्पलोन्मितम्। खंडात्पलं च विज्ञेयं चूर्णमेकत्र कारयेत्॥ कर्षोन्मितं लिहेदेतत्क्षौद्रेणाध्माननाशनम्। गाढविट्कोदरकफपित्तशूलानि नाशयेत्॥
क्षारयोग
क्षाराः किंशुकमूलकार्जुनधवापामार्गरंभातिला जीवंतीकनकाह्वया सरजनी कूष्मांडवल्ली तथा। वासासूरण-मेवतीव्रदहनैः प्रज्वाल्य भस्मीकृतं तोयेन प्रतिशोध्य निःसृतपयःपानं विधेयं सकृत्॥ शूलानाहविबंधगुल्म-कफजान् रोगान् जयेत्कामलान्विद्रध्यो हृदिशूल पाण्डुग्रहणीशोफार्शसंपीनसान्। मंदाग्निं जठरस्य पीनसगुरु-प्लीहातिमेहादिकान् पाषाणा ह्युदरे भवंति बहुधा भस्मीकृतास्तत्क्षणात्॥
हिंग्वादिचूर्ण
हिग्वक्षार्द्रकुबेराक्षा वृद्धाः शूलेंबुना सुखाः।
गुडाभयं वा सघृतो रसोनः शूलनुत्परः॥
तुंबरूआदि चूर्ण
तुंबरुणी त्रिलवणंयवानी पुष्कराह्वयम्। यवक्षाराभयाहिंगुविडंगानि समानि च॥ त्रिवृत्त्रिभागा विज्ञेया सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । पिबेदुष्णेन तोयेन यवक्वाथेन वा पिबेत्॥ जयेत्सर्वाणि शूलानि गुल्माध्मानोदराणि च ॥
पंचसमचूर्ण
शुंठी हरीतकी कृष्णा त्रिवृत्सौवर्चलं तथा। समभागानि सर्वाणि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ॥ ज्ञेयं पंचसमं चूर्णमेत-च्छूलरहं परम्। आध्मानजठरार्शोघ्नमामवातहरं स्मृतम्॥
विश्वादिचूर्ण
विश्वोरुबूकदशमूलयवांभसा तु द्विक्षारहिंगुलवणत्रय पौष्कराणाम्।
चूर्णं पिबेद्धृदयपृष्ठकटिग्रहामपक्वाश्यार्तिभृशरुग्ज्वरगुल्मशूली॥
विश्वादिचूर्ण
शुंठी सुवर्चलं हिंगुपाठामूलोष्णकं जलम्।
निपीतं नाशयत्येव सर्वशूलानि देहिनाम्॥
वचादिचूर्ण
वचा सुवर्चलं हिंगु कुष्ठमिंद्रयवा समाः ।
चूर्णमुष्णांभसा पीतं सर्वशूलनिकृंतनम्॥
अजमोदादिचूर्ण
अजमोदा वचा कुष्ठमम्लवेतससेंधवम्। सर्जिक्षारं तथा पथ्या त्रिकटु ब्रह्मदंडिका॥ मुस्ता सुवर्चला विश्वा लवणं बिडपूर्वकम्। पीतं तक्रान्वितं चूर्णममीषां सर्वशूलहृत्॥
वचादि चूर्ण
वचाबिडाभयाशुंठीहिंगुकुष्ठाग्निदीप्यकान्। द्वित्रिषट्चतुरावष्टसप्तपंचांशकाः क्रमात्॥ चूर्णं मध्वादिभिः पीतं शूला-नाहोदरापहम् । गुल्मार्शःश्वासकासघ्नं ग्रहणीपांडुरोगहृत्॥
यवान्यादि चूर्ण
यवानी सैंधवं दारु यवक्षारं सुवर्चलम्। विश्वैरंडशिफाहिंगुलवणं बिडपूर्वकम्॥ एतच्चूर्णं समं श्लक्ष्णं गुडूचीक्वाथ-पानतः। सर्वशूलानि नश्यंति महारोगान्न संशयः॥
अजमोदादि चूर्ण
अजमोदाभया पाठा त्रिकटुः समचूर्णकम्।
भुक्तमुष्णांभसाजीर्णं शूलनिर्मूलनं क्षणात्॥
रुचकादि चूर्ण
चूर्णं समं रुचकहिंगुमहौषधानामुष्णांबुना कफसमीरणसंभवासु। हृत्पार्श्वपृष्ठजठरार्तिविषूचिकासु पेयं तथा यवरसेन च विड्विबंधे॥
हिंग्वादि चूर्ण
हिंगु ग्रंथिकधान्यकाग्निकवचा चव्याग्निपाठा सठी वृक्षाम्लं लवणत्रयं त्रिकटुकं क्षारद्वयं दाडिमम्। पथ्यापुष्करवेतसाम्लहपुषाजाजाज्यगंधैः कृतं चूर्ण भावितमेतदार्द्रकरसे स्याद्बीजपूरस्य वा॥ आध्मानग्रहणी-विकारगुदजान् गुल्मानुदावर्तकान् वाताध्मानगरोदराश्मरिरुजस्तूनीद्वयारोचकान्। ऊरुस्तंभमतिभ्रमं च मनसो बाधिर्यमष्ठीलिकां प्रत्यष्ठीलिकश्वासकासमपहृत्तत्पीतमुष्णांना॥ हृत्कुक्षिवंक्षणकटीजठरांतरेषु बस्तिस्त-नांसफलकेषु च पार्श्वयोश्च॥ शूलानि नाशयति वातबलासजानि हिंग्वाद्यमाद्यमिदमश्विनिसंहितायाम्॥
शंखवटी
चिचाक्षारं पंचपलं लवणानि पलं पलम्। संचूर्ण्यानि क्षिपेत्प्रस्थद्वये जंबीरवारिणि॥ शंखं दशपलं तप्त्वा निक्षिपेत्सप्तवारतः। तत्समस्तं विशोष्याथ हिंगुव्योषं चतुष्पलम्॥ बलीसूतविषान्भागैः पलार्धांश्च पृथक् पृथक्। एतत्समस्तं संमर्द्य जंबीराम्ले दिनत्रयम्॥ बदरास्थिप्रमाणेन वटिकां कारयेद्बुधः। एकैकां भक्षयेत्प्रातः कोष्णतोयं पिबेदनु॥ सर्वशूलं हरेद्गुल्ममजीर्णं परिणामजम्। अतीसारगदं हन्याद् ग्रहणीं च विशेषतः॥
गोमूत्रमंडूर
गोमूत्रसिद्धं मंडूरं त्रिफलाचूर्णसंयुतम् ।
विलिहन्मधुसर्पिभ्यां शूलं हांत त्रिदोषजम्॥
सूर्यप्रभा वटी
व्योषग्रंथिवचा च हिंगु जरणद्वंद्वं विषं निंबुकद्रावैरार्द्रकजै रसेर्विमृदितं तुल्या मरीचोपमा। कर्तव्या वटिकाथ सा दिनमुखे भुक्ता कवोष्णांबुना शूलं त्वष्टविधं निहंति सहसा सूर्यप्रभानामतः॥
शंखादि चूर्ण
दग्धशंखं करंजं च हिंगुत्र्यूषणसैंधवम् । एतच्चूर्णीकृतं सर्व पिबेच्चोष्णेन वारिणा॥ सर्वशूलहरं चूरी विख्यातो रविसागरः ॥
क्षारयोग
आल्मवेतसनिर्यासः सैंधव शुंठिरामठम्। सुवर्चलाजमोदा च देवदारुः समांशकम्॥ स्थाल्यां प्रक्षिप्य तत्सर्वं वह्निमुद्दीपयेदधः। क्षारः स्यादिष्टिकापिष्टः स पीतस्तीव्रशूलहृत्॥
चित्रकादि वटक
चित्रकं लवणं पाठा व्योषं लवणपंचकम्। अजाजी धान्यकं हिंस्रादीप्यकं ग्रंथिकं तथा। एतानि समभागानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्। जंबीरस्थ रसेनैव वटकान् कारयेद्बुधः॥ हृच्छूलं पार्श्वशूलं च आमशूलमरोचकम्। अशीतिं वातजान् रोगान् नाशयेच्चैव तत्क्षणात्॥
हरीतक्यादि वटी
हरीतकी त्रिकटुकं कुचिला गंधहिंगु च। सैंधवं च समं सर्वं वटीं कुर्यात्सुखावहाम्॥ लघुकोलप्रमाणां तां भक्षयेत्प्रातरेव हि। एकैका वटिका मुक्ता जन्मशूलनिवारिणी॥ ग्रहण्यामातिसारे वाजीर्णे मंदे च पावके। उष्णोदकानुपानेन सुखमाप्नोति नित्यशः॥
कुबेराक्षवटी
कर्षैकं च कुबेराक्षं कर्षैकंच महौषधम्। सौवर्चलं च कर्षार्धंकर्षार्धं भृष्टहिंगुकम्॥ शिग्रुमूलरसेनैव रसोनस्य रसेन वा। पिष्ट्वा सर्वं प्रयत्नेन स्वच्छांगारे विपाचयेत्॥ भुक्त्वा विनाशयेच्चैव शूलमष्टविधं तथा॥
अगस्तिवटी
दशाम्रकं हैमवतीसमेत स्विन्नं तुषोदे विषतिंदुबीजान्। कटुत्रिकक्षारयुगं त्रिदीप्यं कृमिघ्नहिंगुत्रिपटुत्रिबिल्वम्॥ पृथक् प्लुतं जंभजले वटीयमगस्त्यपूर्वा बदरप्रमाणा। शूलानि गुल्मकृमिमंदवह्निप्लीहामवातान् जयति प्रसह्य॥
गरलादि वटी
गरलहुतभुग्विश्वाजाजीवचौषणहिंगुभिर्विधिसमृदितैर्भृंगद्रावे गुटीमथ कृत्यच। हरति विविधं भुक्त्वा शूलं तथानिल-मूढतामनलविरति सौप्त्यं भास्वद्वटी भुवि विश्रुता॥
वचादिवटी
वचा विश्वाजीरोषणगरलबाल्हीकदहनत्वचा कार्या वट्यश्चणकतुलिता मार्कवरसैः। यथा भानोर्भासस्तिमिर-निकरं कामिनि तथा हरंत्येताः शूलान्यनिलमनलं ग्लानिमपि च॥
कुबेराक्षपाक
धान्याम्ले त्रिदिनं विलाप्य विपचत्यग्नौ कुबेराक्षकं पादांशं पटु संविधाय च पचेद्भित्त्वा च संपूरयेत्। सिंधूत्थं त्रिकटूद्भवेन रजसा संसिच्य बिंदुद्रवैः शुष्कास्ते रुचिरा भवंति च तथा निघ्नंति शूलान् बहून् ॥
सप्तविंशतिगुग्गुलु
क्षारद्वयं त्रिकटुकं त्रिफला हरिद्रा रुद्राक्षमुस्तलवणत्रयतुंबरूणि। सग्रंथिकाग्नित्रुटि चित्रकचव्यकुष्ठ-माक्षीकपुष्करविडंगविषायुतानि॥ यावंत्यमूनि गजपिप्पलिसंयुतानि तावत्प्रमाणामिति गुग्गुलुसंयुतानि। कृत्वा घृतेन गुटिका मनुजैः प्रयोज्या वातं च दुग्धजलकांजिकमुद्गयूषैः॥ हृत्पार्श्वपृष्ठकटिक्षणकुक्षिकक्षाशूलानि नाशय-ति कुष्ठकिलासरोगान्। पांड्वामयं क्षयमपस्मृतिमूर्ध्ववातमुन्मादमामपवनं श्वयथुं प्रमेहम्॥
लोहभस्मयोग
मूत्रांतः पाचितां शुष्कां लोहचूर्णसमन्विताम्।
सगुडामभयां दद्यात्सर्वशूलो पशांतये॥
गंधकरसायन
पलैकं त्रिफलाचूर्णं पलार्धं गंधकस्य तु। लोहभस्म तु कर्षैकं सर्वं संचूर्ण्य मिश्रयेत्॥ कर्षार्धंमधुसर्पिर्भ्यां लेहयेत्सर्व-शूलनुत्। वातविस्फोटकान्हंति सेवनात्तु त्रिमासतः॥ गताः केशाः पुनर्यांति गंधकस्य रसायनात्॥
शूलकुठाररस
टंकणं पारदं गंध त्रिफला व्योषतालकम्। विषं ताम्रं च जेपालं भृंगस्वरसमर्दितम्॥ द्विगुंजमात्रा वटिका मरिचेनार्द्रकेण वा। सर्वशूलकुठारोयं विष्णुचक्रमिवासुरान्॥
अग्निकुमाररस
सूतेन गंधं सह टंकणेन समं विषं योज्यमिह त्रिभागम्। कपर्दशंखावपि तेत्र भागौ मरीचकैरष्टगुणैर्विमिश्रम्॥ जंबीरनीरेण विमर्दनीयं सिद्धो भवेदग्निकुमार एषः। देयोहि गुंजाद्वितयं च शूले त्रिदोषजे योजय सानुपानम्॥
क्षारताम्ररस
पलमितमृतशुल्बंतन्मितं गंधचूर्णं वसुमितपरिमाणं चिंचिणिक्षारचूर्णम्। त्रयमिदमभिदिष्टं क्षारताम्राख्यमेतत् हरति सकलशूलं पीतमुष्णोदकेन॥
सोमनाथीताम्र
शुल्बंतुल्येन सूतेन बलिना तत्समेन च । तदर्धांशेन तालेन शिलया च तदर्धया॥ विधाय कज्जलींश्लक्ष्णां भिन्नकज्जलसन्निभाम्। यंत्राध्यायविनिर्दिष्टगर्भयंत्रोदरे क्षिपेत्॥ कज्जलिंताम्रपत्राणि पर्यायेण विनिक्षिपेत्। रुद्ध्वाशरावकेणैव तदर्धं लवणं क्षिपेत्॥ पंचत्रियामपर्यंतं स्वांगशीतं विचूर्णयेत्॥ तत्तद्रोगहरानुपानसहितं ताम्रं द्विवल्लोन्मितं संलीढं परिणामशूलमुदरं शूलं च पांडुज्वरम्। गुल्मं प्लीहयकृत्क्षयाग्निसदनं मेहं च शूलामयं दुष्टां च ग्रहणीं हरेत्ध्रुवमिदं तत्सोमनाथाभिधम्॥
गदमददहन
नागं वंगं सुताम्रं दरदमनशिला तुत्थताम्राभ्रगंधं भस्म स्यात्स्वर्णतुल्यं रसकमपि रविक्षारघृष्टं सुगोप्यम्। कृत्वा तत्क्वाययंत्रे लवणविरचिते भावयेदाईकाभिर्वासानिर्गुडिकाद्भिः सुरसमगध्या सेवनीयः क्रमेण॥ पार्श्वे शूलाग्निमांद्ये त्वरुचिसमुदिते औषधं सन्निपाते हृद्रोगे गुल्ममेहे कफपवनजये सर्वरोगे ज्वरेपि। देयो भक्त्या रसेंद्रस्त्रिभुवनरचितो भोगिलोकप्रसिद्धो नागानां वल्लभोऽयं गमददहनो रक्तपित्तप्रहंता॥
शंखादि चूर्ण
शंखः पीतवराटकास्त्रिकटुकं क्षारत्रयं त्रैफलं संकोचीलवणानि गंधकमथोजाजी यवानी पृथक्। कर्षद्वंद्वमितानि हिंगुसहितान्येलालवंगानले लोहं पारदभस्मकोमृतमथो ताम्रं च कर्षंपृथक्॥ चूर्ण माषयुगं सुशीतलज-लेनासेवितं शूलनुत् गुल्मप्लीहमजीर्णमग्निमृदुतामत्यम्लपित्तं जयेत्॥
विद्याधराभ्रलोह
विडंगमुस्तत्रिफलागुडूचीदंतीत्रिवृच्चित्रकटुचिकैव। प्रत्येकमेषां पिचुभागचूर्णं पलानि चत्वारि च सोमलस्य॥ गोमूत्रसिद्धस्य पुरातनस्य किट्टस्य देयानि वराटिकायाः। कृष्णाभ्रचूर्णस्य पलं विशुद्धं निश्चंद्रिकं श्लक्ष्णमतीव सूतात्॥ पादेन कर्षः स्वरसेन खल्वेशिलातले सप्तमुनीदलस्य। संशोष्य पश्चादतिशुद्धगंधपाषाणचूर्णेन पिचून्मितेन॥ युक्त्याततः पूर्वरजांसि दत्त्वा सर्पिर्मधुभ्यामिव मर्द्ययत्नात्। निधापयेत्स्निग्धविशुद्धभांडे ततः प्रयोज्योस्य रसायनस्य॥ प्राङ्मापकोवा द्व्यथवा त्रयो वा गव्यं पयो वा शिशिरं जलं वा। पिबेदमुं योगवरं प्रभूतकालप्रनष्टानलदीपकोऽयम्॥ योगो निहन्यात्परिणामशूलं युक्तं तथान्नद्रवसंज्ञकं च। यक्ष्माम्लपित्तं ग्रहणीं प्रवृद्धां जीर्णज्वरं लोहितपित्तकुष्ठम्॥ नश्यंति चानेन निहंति रोगान्योगोत्तमः सम्यगुपास्यमानः॥
पीडारिरस
व्योमपारदगंधाश्मजयपालकटंकणम्। वह्निचंडशशिद्वित्रिभागान् जंभांभिसा त्र्यहम्॥ पिष्ट्वा कोलमिता कृत्वा गुडकांजिकतो वटिः। वितरेदामशूलादौ कृमिशूले विशेषतः॥ पथ्यं तक्रोदनं चात्र स्तंभार्थं शीतलक्रिया॥
शुल्बसुंदररस
समं ताम्रदलं गृह्य रसेंद्रेण द्विगंधकम्। मृद्वस्त्रेण समावेष्ट्यपटुयंत्रैःपुटेपचेत्॥ संचूर्ण्य हेमवातारिचित्रक-व्योपजैर्द्रवैः। षोडशांशं विषं दत्त्वा चूर्णयित्वास्य वलकम्॥ प्रागुक्तैरनुपानैश्च सद्योवातं च वातजम्। कफजं पक्तिशूलं च हन्याच्छ्रीशिवशासनात्॥
षण्मुखरस
सूतं गंधं समं शुद्धं सूतांशं मृतताम्रकम्। सुवर्चलं च सूतांशं जंबीरैर्दिनसप्तकम्॥ मयेदातपे ती रुद्ध्वा लघुपुटत्रयम्। दत्त्वादाय तु तच सूतांशं त्रिकटुं क्षिपेत्॥ षण्मुखोयं रसो नाम त्रिगुंजः सर्वशूलाजित्॥
महाशूलहर रस
रसं गंधकं टंकणं श्वेतकाचं मलं भारशृंगं रविस्वं वराटम्। बिडं शंबुकं शृंगमेणस्य शंखं रविनुक्पयोभिर्दिनं संविमर्द्यम्॥ शुष्कं तु पश्चाद्विषव्योषयुक्तं मरीचाज्ययुक्तं तु वल्लंददीत। महाशूलहर्ता क्षये दुर्निवारो ग्रहण्यां तथा पांडुरोगाग्निमांद्ये॥
त्रिनेत्ररस पक्तिशूलादिकों पर
टंकणंहारिणं शृंगं स्वर्णं शुल्बंमृतं रसम्। दिनैकमार्दकद्रावैर्मर्द्यंरुद्ध्वापुटेपचेत्॥ त्रिनेत्राख्यरस्यैकं माषं मध्वाज्यकैर्लिहेत्। सैंधवं जीरकं हिंगु मध्वाज्याभ्यां लिहेदनु॥ पक्तिशूलहरः ख्यातो मासमात्रान्न संशयः॥
गजकेसरी
शुद्धसूतं द्विधा गंधं यामैकं मर्द्दयेत् दृढम्। द्वयोस्तुल्यं शुद्धताम्रसंपुटे तन्निरोधयेत्। ऊर्ध्वाधो लवणं दत्त्वा मृद्भांडे धारयेद्भिषक्। ततो गजपुटे पक्त्वा स्वांगशीतं समुद्धरेत्॥ संपुटं चूर्णयेत्सूक्ष्मं पर्णखंडे द्विगुंजकम्। भक्षयेत्सर्वशूलार्तोहिंगुशुंठीसजीरकम्॥ वचामरिचजं चूर्णं कर्षमुष्णजलैःपिबेत्। असाध्यं नाशयेत् शूलं रसोऽयं गजकेसरी॥
शूलगजकेसरी
रसविषगंधकपर्दक्षाराश्च सिंधुपिप्पलीविश्वः।
अहिबल्यंबुविघृष्टाः शूलेभहरिर्द्विगुंजोयम्॥
गजकेसरी
क्षारं कपर्दं विषसैंधव च व्योषान्वितं पर्णरसैर्विमर्द्यम्।
गुंजैकमात्रोनिलजे विकारे पक्त्यामशूले गज केसरी स्यात्॥
पथ्यादि रस
पथ्याटंकणविश्वहिंगुमरिचं वह्निर्बिडं गंधकं तुल्यं सैंधवसंयुतं तु कुचिलं सर्वैः समं संमतम्। शूलाध्मानविबंधगुल्मकसनश्लेष्मामवातापहाजीर्णाध्यास्युदरारुचिस्वरहरी शूलद्विषघ्नी वटी॥
परिणामशूलनिदान
भुक्ते जीर्यतियच्छूलं तदेव परिणामजम्। तस्य लक्षणमप्येतत्समासेनाभिधीयते॥ बलासः प्रच्युतः स्थानाच्छीतेन सह मूर्च्छितः। वायुमादाय कुरुते शूलं जीर्यति भोजने॥
शूल के स्थान
स कुक्षौ जठरे पार्श्वे नाभ्यां बस्तौ स्तनांतरे । पृष्ठमूलप्रदेशेषु सर्वेष्वेतेषु वा पुनः॥ भुक्तमात्रे तथा वापि जीर्णेन्ने च प्रशाम्यति। षष्टिकव्रीहिशालीनां भोजने च विवर्धते॥ तत्परीणामजं शूलं दुर्विज्ञेयं महागदम्। आहाररसवाहीनां स्रोतसां दुष्टिहेतुकम्॥
वातिकशूल के लक्षण
आध्मानाटोपविण्मूत्रानिबंधारतिवेपनैः।
स्निग्धोष्णोपशमप्रायं वातिकं तद्वदेद्भिषक्॥
पैत्तिकशूलके लक्षण
तृष्णादाहारतिस्वेदकट्वम्ललवणोत्तरम्।
शूलं शीतशमप्रायं पैत्तिकं लक्षयेद्बुधः॥
कफजन्य शूलकेलक्षण
छर्दिहृल्लाससंमोहं स्वल्परुग्दीर्घसंततिः।
कटुतिक्तोपशांतंच तच्च ज्ञेयं कफात्मकम्॥
द्वंद्वजसन्निपातशूलके लक्षण
संसृष्टलक्षणं यच्च द्विदोषं परिकल्पयेत्।
त्रिदोषजमसाध्यं तु क्षीणमांसबलानलम्॥
शूलके उपद्रव
वेदना च तृषा मूर्च्छा आनाहो गौरवारुची।
कासश्वासौ च हिक्का च शूलस्योपद्रवाः स्मृताः॥
शूलके असाध्यलक्षण
एकदोषान्वितः साध्यः कृच्छ्रसाध्यो द्विदोषजः।
सर्वदोषोत्थितो घोरस्त्वसाध्यो भूर्युपद्रवः॥
परिणामशूलकी सामान्यचिकित्सा
लंघनं प्रथमं कुर्याद्वमनं च विरेचनम्।
बस्तिकर्म परं चात्र पक्तिशूलोपशांतये॥
वातादिकों पर सामान्यचिकित्सा
वातजं स्नेहयोगेन पित्तजं रेचनादिना। कफजं वमनाद्यैश्व पक्तिशूलमुपाचरेत्॥ द्वंद्वजं स्नेहयोगेन तत्त्रियोगेन सर्वजम्॥
त्रिफलादि क्वाथ
त्रिफलाकृतमालभवं क्वथनं सितया मधुना मिलितं हरति।
तनु दाहयुतास्त्र कपित्तरुजः किल पित्तजशूलदरं प्रदरम्॥
वमन
आकंठं पाययेन्मद्यं क्षीरमिक्षुरसं रसम्।
मदनारिष्टजं क्वाथं सम्यक् पश्चाच्च वामयेत्॥
परिणामशूल पर कल्क
विष्णुकांताजटाकल्कः सिताक्षौद्रघृतैर्युतः।
परिणामभवं शूलं नाशयेत्सप्तभिर्दिनैः॥
शुंठीकल्क
शूंठीतिलगुडैःकल्कं दुग्धेन सह योजयेत्।
परिणामभवं शूलमामवातं त्र्यहाज्जयेत्॥
विरेचन
त्रिवृता च तथा दंत्या तैलेनैरंडजेन वा।
दत्तं विरेचनं सद्यः पक्तिशूलनिवारणम्॥
वमन
पीत्वा तु क्षीरमाकंठं मदनक्वाथसंयुतम्। कांतारकस्य पौंड्रस्य कोशकारस्य वा रसम्॥ कषायं वाथ निंबस्य कटुतुंबीरसं तथा। यथाविधि वमेद्धीमान् पक्तिशूलार्दितो जनः॥
गुडादिचूर्ण
पक्तिशूलं जयत्याशु गुडार्द्रतिलमोदकः। हिंग्वाभयं वचो वेल्लं पीतमुष्णांबुना जयेत् ॥ आनाहशूलहृद्रोगविषूची-गुल्ममारुतान्॥
सामुद्रादिचूर्ण
सामुद्रं सैंधवं क्षारौ रुचकं रोमकं बिडम्। दंतीलोहरजःकिट्ट त्रिवृत्सूरणकं समम्॥ वृद्धिगोमूत्रपयसा मंदपावकपाचितम्। तद्यथाग्निबलं चूर्णं पिबेदुष्णेन वारिणा॥ जीर्णेजीर्णे च भुंजीत मांसादिघृतसाधितम्। नाभिशूलं च हृच्छूलं गुल्मं प्लीहकृत जयेत्॥ विद्रध्यष्ठीलजं हंति कफवातोद्भवं तथा। अन्नद्रवं जरयितुमजीर्णं ग्रहणीमपि॥ शूलानामपि सर्वेषामौषधं नास्त्यतः परम्। परिणामसमुत्थस्य विशेषणांतकं मतम्॥
इंद्रवारुण्यादि चूर्ण
इंद्रवारुणिकामूलं कटुत्रयसमन्वितम्।
नरोंबुना हरत्पीतंशूलमत्यंत दुःसहम्॥
एरंडादिभस्म योग
एरंडवह्निशंबूकवर्षाभूगोक्षुरं समम् ।
अंतर्दग्ध्वा पिबेदद्भिरुष्णाभिः शूलशांतये॥
पिप्पल्यादि योग
समागधिगुडं सर्पिः प्रस्थं क्षीरं चतुर्गुणम्।
पक्वंपीत्वा जयत्याशु पक्तिशूलं समुद्धतम्॥
त्रिपुरभैरवरस
भागो रसस्य भागश्च हेम्नः पिष्टं विधाय च। तथा द्वादश भागानि ताम्रपत्राणि लेपयेत्॥ ऊर्ध्वाधो गंधकं दत्त्वा पलमात्रं समंततः। क्षारस्य मृगशृंगस्य चूर्णं योज्यं समंततः॥ सिंचेन्मस्याक्षिनीरेण रुद्ध्वायामचतुष्टयम्। पचेच्छूलहरः सूतो भवेत्त्रिपुरभैरवः॥ माषो मध्वाज्यसंयुक्तो देयोस्यपरिणामजे। अन्येष्वेरंडतैलेन कटुत्रययुतो हितः॥
शूलदावानलरस
शुद्धसूतं विषं गंधं पलांशं मर्दयेत् दृढम्। मरीचं पिप्पली शुंठी हिंगु सौवर्चलद्वयम्॥ पलाष्टकं पटूनां च चिंचाक्षारं पलाष्टकम्। सप्तवारं शङ्खभस्म जंबीराम्ले निषेचयेत्॥ पलाष्टकं च संयोज्यं तत्सर्वं निंबुकद्रवैः। दिनं मर्द्यंकोलमात्रं भक्षयेत्सर्वशूलनुत्॥ अजीर्णोदरमंदाग्निमसाध्यमपि साधयेत्। शूलदावानलाख्योयं रसोजीर्णादिरोगहा॥
परिणामशूल पर मंडूर
लोहकिट्टंपलान्यष्टौ गोमूत्राढकिके पचेत्।
परिणामभवं शूलं सद्यो हांत न संशयः॥
तारमंडूर
विडंगं चित्रकं चव्यं त्रिफला त्र्यूषणानि च। नवभागानि चैतानि लोहकिट्टसमानि च॥ गोमूत्रं त्रिगुणं दत्त्वा मूत्रात् द्विगुणतो गुडः। शनैर्मृद्वग्निना पक्त्वा सुसिद्धं पिंडितां गतम्॥ स्निग्धभांडे विनिक्षिप्य भक्षयेत्कोलमात्रया। प्राङ्मध्यांतक्रमेणैव भोजनस्य प्रयोजितः॥ योगोयं शमयत्याशु पक्तिशूलं सुदारुणम्। कामलां पांडुरोगं च शोथं मेदोनिलार्शसी॥ शूलार्तानां कृपाहतोस्तारया प्रकटीकृतः॥
भीममंडूर
यवक्षारकणा शुंठी कोलग्रंथिकचित्रकौ। प्रत्येकं पलमादाय प्रस्थं लोहस्य किट्टतः॥ शनैः पचेदयःपात्रे यावद्दर्वीप्रलेपनम्। दत्त्वाष्टगुणगोमूत्रं किट्टात् शुद्धाद्विचक्षणः॥ ततोक्षमात्रान्वटकान् योजयेत्सप्तरात्रतः। आदिमध्यावसानेषु भोजनस्योचितस्य वै॥ स भीमवटको ह्येष परिणामरुगतकः॥
लोहगुग्गुलु
त्रिफला मुस्तकं व्योषं विडंगं पौष्करं वचा। चित्रकं मधुकं चैव पलांशं श्लक्ष्णचूर्णितम्॥ अयोभस्म पलान्यष्टौ गुग्गुलुस्तावदेव तु। सर्पिषा मेलयित्वाथ कर्षमात्रं वटीकृतम्॥ अद्यादनुपिवेत्कोष्णं वारि शूलाद्विमुच्यते। जीर्णान्नसंभवात्पांडोः कामलाया हलमिकान्॥
नारिकेलक्षार
नारिकेलं सतोयं च लवणेन सुपूरितम्। मृदा च वेष्टितं शुष्कं पक्वंगोमयवह्निना॥ पिप्पल्या भक्षितं हंति शूलं हि परिणामजम्। वातिकं पैत्तिकं वापि श्लैष्मिकं सान्निपातिकम्॥
पथ्याद्य लोह
पथ्या लोहरजः शुंठी तच्चूर्णं मधुसर्पिषा।
परिणामभवं हंति वातपित्तकफात्मकम्॥
लोहादिलेह
लोहस्य रजसो भागस्त्रिफलायास्तथा त्रयः। गुडस्याष्टौ तथा भागा गुडान्मूत्रं चतुर्गुणम्॥ एतत्सर्वं च विलिहेद्गुडपा कविधानतः। लिहेच्चैव यथाशक्ति क्षये शूले च पाकजे॥
कृष्णाद्य लोह
कृष्णाभयालोहचूर्णं विलिहन्मधुसर्पिषा।
परिणामभवं शूलं सद्यो हंति सुदारुणम्॥
कृष्णादि लोह
कृष्णाभयालोहचूर्णं गुडेन सह भक्षयेत्।
पक्तिशूलं निहंत्याशु जठराण्यग्निमंदताम॥
शंबूकादि गुटिका
शंबूकभूषणं चैव पंचैव लवणानि च। समांशैर्युटिकां कृत्वा कलंबुकरसेन वा॥ प्रातर्भोजनकाले वा भक्षयेत्तु यथाबलम्। शूलाद्विमुच्यते जंतुः सहसा परिणामजात्॥
चतुःसमलोह
गंधं ताम्रं रसं लोहंप्रत्येकं मारितं पलम्। सर्वमेतत्समाहृत्य विपचेत् कुशलो भिषक्॥ आज्ये पलद्वादशके दुग्धे शतपलेवरे। पक्त्वा तच्च क्षिपेच्चूर्णंसंपूतं घनतां व्रजेत्॥ विडंग- त्रिफलावह्नित्रिकटूनां तथैव च। क्षित्वा पलोन्मितानेतान्यथा संमिश्रतां नयेत्॥ ततः पिष्ट्वा शुभे भांडे स्थापयेच्च विचक्षणः। आत्मनः शोभने घस्रेपूजयित्वा रविं गुरुम्॥ घृतेन मधुना मद्यं भक्षयेन्माषसंमितम्। अष्टौ माषक्रमाद्यावन्मात्रासंस्थं भवेत्ततः॥ अन्नपानं च दुग्धेन नारिकेलोदकेन वा। जीर्णशाल्यन्नमुद्गाश्च सिता मांसरसादयः॥ रसोनमविरुद्धानि पलान्नान्यपि भक्षयेत्। हृच्छूलं पार्श्वशूलं च सामवातं कटिग्रहम्॥ गुल्मशूलं च सर्वंच यकृत्प्लीहान्विशेषतः। अग्निमांद्यं क्षयं कुष्ठं श्वासं कासं विचर्चिकाम्॥ अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रं च योगेनानेन शाम्यति॥
विडंगादि मोदक
विडंगं तंदुलं व्योषं त्रिवृद्दंतिसचित्रकम्। सर्वाण्येतानि संहृत्य सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥ गुडेन मोदकान्कृत्वा भक्षयेत्प्रातरुत्थितः। उष्णोदकानुपानेन दद्यादग्निविवर्धने॥ जयेत्त्रिदोषजं शूलं परिणामसमुद्भवम्॥
तिलादिवटी
तिलनागरपथ्यानां भागं शंबूकभस्मनाम्। द्विभागगुडसंयुक्तं वटींकृत्वाक्षभागिकाम्॥ शीतांबुना पिबेत् प्रातर्भक्षयेत् क्षीरभोजनम्। सायाह्ने रसकं पीत्वा नरो मुच्येत दुर्जरात्॥ परिणामसमुत्थाच्च शूलाच्चिरभवादपि॥
खंडामलकरस
सुपीडितं च कूष्मांडं तुलार्धं भ्रष्टमाज्यतः। प्रस्थार्धं खंडतुल्यं तु पचेदामलकीरसम्॥ प्रस्थं सुस्विन्नकूष्मांडरसं प्रस्थं पुटे पचेत्। दर्व्यालेपगते तस्मिन् चूर्णीकृत्य विनिक्षिपेत्॥ द्वे द्वे पले कणाजाजिशुंठीनां मरिचस्य च। पलं तालीसधान्याकचातुर्जातकमुस्तकम्॥ कर्षप्रमाणं प्रत्येकं प्रस्थार्धं माक्षिकस्य च। पक्तिशूलं निहंत्येतदोषत्रयभवं च यत्॥ छर्द्यम्लपित्तं मूर्छांच कासश्वासावरोचकम्। हृच्छूलं रक्तपित्तं च पृष्ठशूलं च नाशयेत्॥ रसायनमिदं श्रेष्ठं खंडामलकसंज्ञकम्॥
जीर्णशूल पर गुड
उटिटीं शिग्रुमूलं च मयूरं सैंधवं समम्।
द्विगुडं जीर्णशूलं च यात्येतच्चूर्णभक्षणात्॥
योगांतर
भूमितर्वटमूलं च शूलजित्कोष्णवारिणा।
सद्योद्भवं हरेत् शूलं लवणं चारनालकम्॥
घृतेन सैंधवं वाथ उष्णतोयैः सुवर्चलम्॥
शंबूकभस्मयोग
शंबूकजं भस्म पीतं जलेनोष्णेन तत्क्षणात्।
पक्तिजं विनिहंत्याशु शूलं विष्णुरिवासुरान्॥
नाभि पर मदनादि लेप
मदनस्य फलं तिक्तां पिष्ट्वातिक्तं च वारिणा।
कोष्णं कुर्यान्नाभिलेपं शूलशांतिर्भवेत्ततः॥
रसादि लेप
रसं गंधं विषं म्लेच्छं मणिमंथं च टंकणम्। सौराष्ट्रं मरिचं नागं हरितालं मनःशिलाम्॥ जेपालं कौशिकं तुत्थं नवसारं पृथक् समम्। एतत्सर्वं क्षिपेत्खल्वे आरनालेन पेषयेत॥ उदरे लेपनं कुर्याच्छीघ्रतः सर्वशूलजित्॥
शतपुष्पादि लेप
शतपुष्पसुरद्रुदिनेशपयोगदरामठसिंधुभवं हरति।
अपि लेपस्थितोस्थिगतं कटिशूलं संधिभवं त्रिदिनात्सततम्॥
कुबेराक्षयोग
एक एव कुबेराक्षो हंति शूलशतत्रयम्।
किं पुनर्लशुनोपेतः सैंधवेन च हिंगुना॥
क्षारयोग
वंध्यालांगलिकामूलं शेषं च द्विगुणं तयोः। त्रयाणां भावयेच्चूर्णं त्र्यहं जंबीरजद्रवैः॥ रुध्वागजपुटे पाच्यं तत्क्षारं मरिचैर्घृतैः। कर्षमात्रं पिबेच्छूलात्तत्क्षणान्मुक्तिमाप्नुयात्॥
खंडपिप्पली
कणाचूर्णं तु कुडवं षट्पलं हविषस्तथा। पलं षोडशकं खंडं शतावर्याः पलाष्टकम्॥ क्षीरप्रस्थद्वये सार्धेलेहीभूते तदुद्धरेत्। त्रिजातमुस्तधान्याकं शुंठी मांसी द्विजीरकम। अभयामलकं चैव चूर्णं द्वादशकार्षिकम्। तदर्थं मरिचं भागं सारं खादिरमेव च॥ मधुत्रिफलसंयुक्तं खादोत्सिद्धं यथाबलम्। शूलारोचकहृल्लासच्छर्दिपित्ताम्लरोगनुत्॥ अग्निसंदीपनी हृद्या खंडपिप्पलिका मता॥
मातुलुंगादि घृत
घृताच्चतुर्गुणो देयो मातुलिंगरसो दधि। शुष्कमूलककोलाम्लकषायो दाडिमांसा॥ विडंगं लवणं क्षारं पंचकोलयवानिभिः॥ पाठामूलककल्केन सिद्धं शूले घृतं मतम्॥ हृत्पार्श्वशूलं वै श्वासं कासंहिक्कां तथैव च। वर्ध्मगुल्मप्रमेहार्शान्वातव्याधींश्चनाशयेत्॥
तेल
नारायणेन तैलेन बस्तिकर्म हितं तथा॥
अन्नद्रवशूलनिदान
जीर्णेजीर्यत्यजीर्णे वा यच्छूलमुपजायते।
पथ्यापथ्यप्रयोगेण भोजनाभोजनेन वा॥
न शमं याति नियमात्सोन्नद्रव उदाहृतः॥
अन्नद्रवशूल के लक्षण
अन्नद्रवाख्ये शूले तु न तावत्स्वास्थ्यमश्नुते।
यावत्कटुकपीताम्लमन्नं न च्छर्दयेत् द्रवम्॥
वमन-विरेचन
जातमात्रे जरत्पित्ते शूलमाशु विनाशयेत्।
पित्तांतंवमनं कृत्वा कफांतं च विरेचनम्॥
सामान्ययत्न
अन्नद्रवे च तत्कार्यं जरत्पित्ते यदारितम्।
जरत्पित्ते तु तत्पथ्यं प्रोक्तमन्नद्रवे तु यत्॥
आमपक्काशये शुद्धे गच्छेदन्नद्रवः शमम्॥
माषेंडरी
माषेंडरी सलवणां सुस्विन्नां तैलपाचिताम्।
तादृशीं सर्पिषा खादेदन्नद्रवनिपीडितः॥
धात्रीलोह
धात्रीफलभवं चूर्णमयश्चूर्णसमन्वितम्।
यष्टीचूर्णेन वा युक्तं लिह्यात्क्षौद्रेण तद्वते॥
पायस
श्यामाकतंडुलैः सिद्धं सिद्धं कोद्रवतंडुलैः।
प्रियंगुतंडुलैः सिद्धं पायसं सहितं हितम्॥
अन्न
गौडिकं सौरणं कंदं कूष्मांडमपि भक्षयेत्।
कलाययवसक्तून्वा सक्तून्वा जलसंभवान्॥
अन्न
कुलित्थसक्तूनथवा दध्नाद्याद्दाधिकं वचा।
चणकानामथो सक्तून् कोद्रवस्यौदनं तथा॥
अन्न
गोधूमं मंडलं तत्र सर्पिषा गुणसंयुतम्।
ससितं शीतदुग्धेन मृदितं क्वथितं हितम्॥
सामान्यचिकित्सा
अन्नद्रवो दुश्चिकित्स्यो दुर्विज्ञेयो महागदः।
तस्मात्तस्य प्रशमने परं यत्नं समाचरेत्॥
सामान्यचिकित्सा
अन्नद्रवे जरत्पित्ते वह्निर्मंदो भवेद्यतः।
तस्मादत्रान्नपानानि मात्राहीनानि कारयेत्॥
भक्षण
कलाययवगोधूमाः श्यामाकाः कोरदूषकाः। राजमाषाश्च माषाश्च कुलित्थाः कंगुशालयः॥ दधि लुप्तरसं क्षीरं सर्पिर्गव्यं समाहिषम्। वास्तुकं कारवेल्लं च कर्कोटकफलानि च। बर्हिणो हरिणा मत्स्यरोहिताद्याः कपिंजलाः। एतस्मिन्नामये शस्ता मता मुनिचिकित्सकैः॥
गुडमंडूर
गुडामलकपथ्यानां चूर्णं प्रत्येकशः पलम् । त्रिपलं लोहकिट्टंस्यात्तत्सर्वं मधुसर्पिषा॥ समालोड्य समश्नीयादक्षमात्रं प्रमाणतः। आदिमध्यावसानेषु भोजनस्य निहंति तत्॥ अन्नद्रवं जरत्पित्तमम्लपितं सुदारुणम्। परिणामसमुत्थं च शूलं संवत्सरोत्थितम्॥
शतावरीमंडूर
संशोध्य चूर्णितं कृत्वा मंडूरस्य पलाष्टकम्। शतावरीरसस्याष्टौ दध्नस्तु पपसस्तथा॥ पलान्यादाय चत्वारि तथा गव्यस्य सर्पिषः। विपचेत्सर्वमेकत्र यावत्पिंडत्वमागतम्॥ सिद्धं तु भक्षयेन्मध्ये भोजनस्यायतोपि वा। वातात्मकं पित्तभवं शूलं च परिणामजम्॥ निहंत्येव हि योगोयं मंडूरस्य न संशयः॥
शूलरोगमें पथ्य
छर्दिः स्वेदो लंघनं पायुवर्तिर्बस्तिर्निद्रा रेचनं पाचनं च। अब्दोत्पन्नाः शालयः षष्टिमंडस्तप्तं क्षीरं जांगलानां रसाश्च॥ पटोलसौभांजनकारवेल्लकं शालिं च पाक्यानि च वास्तुकानि। सामुद्रसौवर्चलहिंगुविश्वं बिडं शताह्वा लशुनं लवंगम्॥ एरंडतैलं सुरभीजलं च तथांबुजंबीररसोपि कुष्ठम्। लघूनि च क्षाररजांसि चेति वर्गोहितो शूलगदार्दितेभ्यः॥
शूलरोग में अपथ्य
विरुद्धान्यन्नपानानि जागरं विषमाशनम्। रूक्षतिक्तकषायाणि शीतलानि गुरूणि च॥ व्यायामं मैथुनं मद्यं वैदलं कटुकानि च। वेगरोधं शुचं क्रोधं वर्जयेच्छूलवान्नरः॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरेशूलरोगकर्मविपाक-निदान चिकित्सा पथ्याऽपथ्य सहिता समाप्ता।
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आनाहोदावर्त्तकर्मविपाकः।
देवद्विजक्षेत्रतडागवल्मीककूपादिनां यो भेदनं करोति तं वायसो नाम ग्रहोगृह्णाति तलक्षणमाध्मान उदावर्ती ज्वर अरुचिमान्पाददाही च जायते॥
ज्योतिःशास्त्रका अभिप्राय
मध्ये पापग्रहयोश्चंद्रे मदने स्थितार्कजे जंतोः।
श्वासक्षयविद्रधिगुल्मप्लीहादिपीडितः स नरः॥
उदावर्त्तनिदान
वातविण्मूत्रजृंभास्रक्षवोद्गारवमींद्रियैः।
क्षुत्तृष्णोच्छ्वासनिद्राणां धृत्योदावर्तसंभवः॥
वातनिरोधजन्य उदावर्त
वातमूत्रपुरीषाणां संगाध्मानं क्लमो रुजः।
जठरे वातजाश्चान्ये रोगाः स्युर्वातनिग्रहात्॥
मल रोकनेका उदावर्त्त
आटोपशूलौपरिकर्त्तिका च संगः पुरीषस्य तथोर्ध्ववातः।
पुरीषमास्यादथ वा निरेति पुरीषवेगेऽभिहते नरस्य॥
मूत्र रोकने का उदावर्त्त
बस्तिमेहनयोः शूलं मूत्रकृच्छ्रं शिरोरुजा।
विनामो वंक्षणानाहः स्याल्लिंगं मूत्रनिग्रहे॥
जंभाई रोकने का उदावर्त्त
मन्यागलस्तंभशिरोविकारा जृंभोपरोधात्पवनात्मकाः स्युः।
तथाक्षिनासावदनामयाश्च भवंति तीव्राः सह कर्णरोगैः॥
अश्रुपात रोकने का उदावर्त्त
आनन्दजं वाप्यथ शोकजं वा नेत्रोदकं प्राप्तममुंचतो हि।
शिरोगुरुत्वं नयनामयाश्च भवंति तीव्राः सह पीनसेन॥
छींक रोकनेका उदावर्त्त
मन्यास्तंभशिरःशूलमर्दितार्धविभेदकौ।
इन्द्रियाणां च दौर्बल्यं क्षवथोस्याद्विधारणात्॥
डकार रोकनेका उदावर्त्त
कंठास्य पूर्णत्वमतीव तोदः कूजंश्च वायोरथवाऽप्रवृत्तिः।
उद्गारवेगेऽभिहते भवंति जंतोर्विकाराः पवनप्रसूताः॥
वमन रोकनेका उदावर्त्त
कंडुकोठारुचिव्यंगशोथपांड्वामयज्वराः।
कुष्ठहृल्लासावीसर्पाश्छर्दिनिग्रहजा गदाः॥
वीर्य रोकने का उदावर्त्त
मूत्राशये वै गुदमुष्कयोश्व शोथो रुजा मूत्रविनिहग्रश्च।
शुक्राश्मरी तत्स्रवणं भवेच्च एते विकाराभिहते च शुक्रे॥
भूँक रोकने का उदावर्त्त
तन्द्रांगमर्दावरुचिः श्रमश्च क्षुधाभिघातात्कृशता च दृष्टेः॥
प्यास रोकने का उदावर्त्त
कंठास्यशोषः श्रवणावरोधस्तृषाभिघाताद्धृदयव्यथा वै॥
श्वासोच्छवास रोकनेका उदावर्त्त
श्रांतस्य निःश्वासविनिग्रहेण हृद्रोगमोहावथ वापि गुल्मः॥
निद्राविघातजन्य
जृंभांगमर्दाक्षिशिरोतिजाड्यं निद्राभिघातादथवापि तंद्रा॥
रूक्षादि कुपितवातज उदावर्त्त
वायुः कोष्टानुगैरूक्षैः कषायकटुतिक्तकैः। भोजनैः कुपितः सद्य उदावर्त्तं करोति च॥ वातमूत्रपुरीषा-श्रुकफमेदवहानि च। स्रोतांस्युदावर्तयति पुरीषं चातिवर्त्तयेत्॥ ततो हृद्बस्ति- शूलार्तोहृल्लासारतिपीडितः। वातमूत्रपुरीषाणि कृच्छ्रेण लभते नरः॥ श्वासकासप्रतिश्यायदाहमोहतृषाज्वरान्। वमीहिक्काशिरोरोगमनः-श्रवणविभ्रमान्॥ बहूनन्यांश्च लभते विकारान्वात कोपजान्॥
अधोवातजन्य उदावर्त्त की चिकित्सा
अधोवातनिरोधोत्थे ह्युदावर्ते हितं मतम्।
स्नेहपानं तथा स्वेदोबस्तिर्यच्चानुलोमनम्॥
मलनिरोधजउदावर्त्त की चिकित्सा
विड्विघातसमुत्थे तु विड्भेद्यन्नं तथौषधम्।
वर्त्यभ्यंगावगाहाश्च स्वेदो बस्तिर्हितो मतः॥
मूत्रनिरोधन उदावर्त्त की चिकित्सा
मूत्रावरोधजनिते क्षीरं वारि च ना पिबेत्।
दुःस्पर्शास्वरसं चापि कषायं ककुभस्य च॥
उर्वारुबीजं तोयेन पिबेद्वा लवणीकृतम्। सितामिक्षुरसं क्षीरं द्राक्षारसमथापि वा॥ सर्वंचैव प्रकुर्वीत मूत्रकृच्छ्रा-श्मरीविधिम्॥
जंभाईनिरोधज उदावर्त्त की चिकित्सा
जृंभानिरोधजे स्नेहंस्वेदं चापि प्रयोजयेत्॥
बाष्पावरोधज व छींक के रोकने के उदावर्त्त की चिकित्सा
अन्यानपि प्रयुंजीत समीरणहरान्विधान्। नेत्रनीरावरोधेत्थे। मुंचेदुच्चैर्दृशोजलम्॥ स्वप्यात्सुखेन तस्याग्रेकथयेच्च शुभाः कथाः। शिक्काविघातजे तीक्ष्णघ्राणनस्यार्कदर्शनैः॥ प्रर्वतयेत्क्षुतंसक्तां स्नेहस्वेदौ च शीलयेत्॥
जँभाईजनित उदावर्त्त की चिकित्सा
स्नेहस्वेदैरुदावर्ते जृंभजं समुपाचरेत्।
अंसमोक्षजजे कार्याः स्वप्नो मद्यं प्रियाः कथा॥
छींकजन्य उदावर्त्त की चिकित्सा
क्षवजे क्षवपत्रेण घ्राणस्थे नानयेत्क्षवम्।
तथोर्ध्वजत्रुकेभ्यंगः स्वेदो धूमः समाहृतः॥
उद्गारछर्दिनिरोधज उदावर्त्त की चिकित्सा
उद्गारस्यावरोधे तु स्नैहिकं धूममाचरेत्। छर्दिनिग्रहसंजाते वमनं लंघनं हितम्॥ विरेचनं चात्र मतं तैलेनाभ्यंजनं हितम्। बस्तिशुद्धिकरैः स्निग्धं चतुर्गुणजलं पयः॥
उद्गार (डकार) जन्य उदावर्त्त पर
हितं वातघ्नमाज्यं च घृतं चोत्तरभक्तिकम्।
उद्गारजे क्रमोपेतं स्नेहिकं धूममाचरेत् ॥
छर्दिजन्य उदावर्त्त पर
छर्द्याघातं यथादोषं नस्यस्नेहादिभिर्जयेत्।
भुक्त्वा प्रच्छर्दनं धूमो लंघनं रक्तमोक्षणम्॥
क्षुधातृषोत्थ उदावर्त्त पर
क्षुद्विघातसमुद्भूते स्निग्धमुष्णं तथा लघु। रुच्यमल्पहितं भक्ष्यं पुष्पं सेव्यं सुगंधि यत्॥ तृषाविघातसंभूते शीतः सर्वो विधिर्हितः। कर्पूरशिशिरं स्वल्पं पिबेत्तोयं शनैः शनैः॥
श्रमनिद्रोत्थउदावर्त्त पर
श्रमश्वासकृते शस्तो विश्रामः सरसौदनः। निद्रावेगविघातोत्थे पिबेत्क्षीरं सितायुतम्॥ संवाहनं सुशय्यात्र हितस्वप्नः प्रियाः कथाः॥
सामान्य चिकित्सा
रूक्षान्नपानं व्यायामो विरेकश्चात्र शस्यते।
बस्तिशुद्धिकरं वापि चतुर्गुणजलं पयः॥
विधारादि लेप
उदावर्तविनाशाय त्द्युदावर्ते प्रलेपनम्।
विधारा मृत्तिका चैव करंजा सारिवा तथा॥
गोमूत्रेण प्रलेपोयमुदावर्ते विनाशयेत्॥
रसोनादि प्राशन
रसोनमद्यं संमिश्र्यपिबेत्प्रातः प्रकांक्षितम्।
गुल्मोदावर्तशूलघ्नं दीपनं बलवर्धनम्॥
कदलीफलयोग
दुःस्पर्शस्वरसैर्वापि कषाये कुंकुमस्य च।
और्वारुबीजं तोयेन पिबेद्वा लवलीफलम्॥
पंचमूलक्षीर
पंचमूलीकृतं क्षीरं द्राक्षारसमथापि वा।
सर्वथैव प्रयुंजीत मूत्रकृच्छ्राइमरीविधौ॥
सुवर्चलादि पेय
सुवर्चलाढ्यांमदिरां मूत्रेण च गवां पिबेत्।
एलां वाप्यथ मद्येन क्षीरेण च पिबेन्नरः॥
धात्रीस्वरस
धात्रीफलानां स्वरसं जलं वापि पिबेत्त्र्यहम्।
रसमवपुरीषस्य गर्दभस्याथवा पिबेत्॥
वट्यादि यूष
वाठ्यायूषेण पिप्पल्या मूलकानां रसेन च।
भुक्त्वा स्निग्धमुदावर्ताद्वातगुल्माद्विमुच्यते॥
शामादि क्वाथ
शामादंती द्रवंती स्रुक्महाशामामृता त्रिवृत्। सप्तला शंखिनी श्वेता राजवृक्षः सबिल्वकः॥ कंपिल्लकं करंजश्च हेमक्षीरीत्ययं गणः। सर्पिस्तैलं रजः क्वाथः कल्कश्चान्यतमं तथा॥ उदावर्तोदरानाहविषगुल्मविनाशनम्॥
नाराचचूर्ण
खंडं पलं त्रिवृत्ताक्षः कृष्णाकर्षद्वयं चूर्णम्। प्राग्भोजनस्य मधुना बिडालपदकं नरो लिह्यात्॥ एतद्गाढपुरीषे ज्ञेयं विज्ञेरुदावर्ते। मधुरं नरपतियोग्यं चूर्णं नाराचकं नाम॥
दंत्यादिक वर्ती
विपाच्य मूत्राम्लरसेन दंती पिंडीतकृष्णाबिडकुष्ठधूमैः।
वर्ति करांगुष्ठनिभां घृताक्तां गुदे रुजानाहहीं विदध्यात्॥
हिंग्वादिचूर्णं
हिंगूग्रगंधाबिडशुंठ्यजाजी हरीतकी पुष्करमूलकुष्ठम्।
भागोत्तरं चूर्णितमेतदिष्टं गुल्मोदरानाहविषूचिकासु॥
भद्रदार्वादि चूर्ण
भद्रदारु घनं मूर्वा हरिद्रा मधुकं तथा।
कोलप्रमाणं तु पिबेदंतरिक्षेण वारिणा॥
हरीतक्यादि चूर्ण
हरीतकी यवक्षारपीलुनी त्रिवृता तथा।
घृते चूर्णमिदं पेयमुदावर्त्तं विनाशयेत्॥
गुडाष्टक
सव्योषं पिप्पलीमूलं त्रिवृद्दंती च चित्रकम्। तच्चूर्णं गुंजसंयुक्तं भक्षयेत्प्रातरुत्थितः॥ एतद्गुडाष्टकं नाम्ना बलवर्णाग्निवर्धनम्। उदावर्तप्लीहगुल्मशोथ पांड्वामयापहम्॥
शुष्कमूलादि घृत
मूलकं शुष्कमार्द्रंच वर्षाभूः पंचमूलकम्।
कृतमालफलं चाशु पक्त्वा चैतद्घृतं पचेत्॥
तत्पीतं शमयेत्क्षिप्रमुदावर्तमशेषतः॥
त्रिकटुकाद्या वर्त
वर्तिस्त्रिकटुकसैंधवसर्षपग्रहधूमकुष्ठमदनफलैः। मधुनि गुडे वा पक्वैर्निहिता सांगुष्ठपरिमाणा॥ वर्तिरियं दृष्टफलाशनैःप्रणिहिता गुदे घृताभ्यक्ता। आनाहोदावर्तौ शमयति जठरं तथा गुल्मम्॥
मदनफलादिक फलवर्ति
मदनं पिप्पली कुष्ठं वचा गौराश्च सर्षपाः।
गुडक्षीरसमायुक्ता फलवर्तिरिहोदिता॥
हिंग्वादि वर्ति
हिंगुमाक्षिकसिंधूत्थैःपक्त्वा वर्तिं सुवर्तिताम्।
घृताभ्यक्तां गुदे दद्यादुदावर्तविनाशिनीम्॥
उदावर्त पर पथ्य
उदावर्ते हितं सर्वंपाचनं लघुभोजनम्॥
उदावर्त पर अपथ्य
विष्टंभीनि विरुद्धानि कषायाणि गुरूणि वा।
उदावर्ते प्रयत्नेन वर्जयेत्सततं नरः॥
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तुंबुरुचूर्ण
तुंबुरुश्चाभया हिंगु पौष्करं लवणत्रयम्। यवानी च यवक्षारं विडंगेन समानि च॥ त्रिवृत्त्रिगुणितं चूर्णं पिबेदुष्णेन वारिणा। आनाहमुदराण्यष्टौ विट्बंधंचापि नाशयेत्॥
वचादि चूर्ण
वचाभयाचित्रकथा च शूकान् सपिप्पलीकातिविषान्सकुष्ठान्।
उष्णांबुनानाहविमूढवातान्पीत्वा जलं वा स हि तोदनाशी॥
त्रिवृतादि गुटिका
त्रिवृत्कृष्णाहरीतक्यो द्विचतुःपंचभागिकाः।
गुडे तु तुल्या वटिका हरत्यानाहमुल्बणम्॥
स्नुह्यादि वटी
त्रिवृद्धरीतकी श्यामा स्नुहिक्षीरेण भावयेत्।
वाटिका मूत्रपीतास्ताः श्रेष्ठास्त्वानाहनाशनाः॥
दारुषट्कादि लेप
दारुषट्कादिलेपश्च सोष्णः कांजिकपेषितः।
आनाहस्य प्रशमनः पूर्ववैद्यः प्रकीर्तितः ॥
दारुषट्कादि योग
देवदारु वचा कुष्ठं शताह्वा हिंगु सैंधवम्।
प्रपिष्ट्वा कांजिके लेपादानाहं नाशयत्यपि॥
स्थिरादि घृत
स्थिरादिवर्गस्य पुनर्नवायाः शंपाकभूतीककरंजयोश्च।
सिद्धः कषायो द्विपलासिकानां प्रस्थो घृतं स्यात् परिवृद्धवाते॥
उदावर्त्त पर पथ्य
स्नेहस्वेदविरेकाश्च बस्तयः फलवर्त्तयः। अभ्यंगश्च यवाः सर्वसृष्टविण्मूत्रमारुतम्॥ ग्राम्योदकानूपरसा रुबुतैलं च वारुणी। बालमूलकशम्याकत्रिवृत्तिलसुधादलम्॥ शृंगबेरं मातुलुगं यवक्षारो हरीतकी। लवंगं रामठं द्राक्षा गोमूत्रं लवणानि च॥ अधोवातसमुत्थे तु स्नेहस्वेदाश्च वर्त्तयः। बस्तयोऽन्नानि पानानि समीरणहराणि च॥ पुरीषजे तथा बस्तिः स्वेदोऽभ्यंगोऽवगाहनम्। फलवर्तिश्चपानानि विड्भेदीन्यशनानि च॥ मूत्रवेगसमुत्पन्ने त्रिविधं बस्तिकर्म च। स्वेदोऽभ्यंगोऽवगाहश्चसर्पिषश्चावपीडनम्॥ उद्गारोत्थे तु हिक्काघ्नं कासजे कासजिद्विधिः। क्षवजे स्वेदनं धूमो घृतं चोत्तरबस्तिकम्॥ क्षवप्रवर्त्तनं नस्यमभ्यंगचोर्ध्वजनुकः। शीतान्नपानं तृष्णोत्थे जम्भोत्थे वातजित्क्रिया॥ निद्रावगोत्थिते क्षीरं स्वप्नंसंवाहनानि च। बुभुक्षोत्थे स्निग्धमल्पमुष्णं च लघुभोजनम्॥ बाष्पजे बाष्पसंमोक्षः स्वप्नो मद्यं प्रियाः कथाः। आमश्वाससमुत्पन्ने विश्रामो वातहारि च॥ शुक्रोत्थे बस्तिरभ्यंगोऽवगाहश्चरणायुधः। शालयोमदिरा क्षीरं प्रिया यौवनगर्विताः॥ छर्द्युत्थे लंघनं धूमो भुक्तप्रच्छर्दनं श्रमः। रूक्षाणि चान्नपानानि विरेको रक्तमोक्षणम्॥ इति पथ्यमुदावर्ते नृणामुक्तं महर्षिभिः॥
उदावर्त्त पर अपथ्य
वमनं वेगरोधं च शमीधान्यानि कोद्रवान् । नीलीशाकं च शालूकं जांबवं कर्कटीफलम्॥ पिण्याकमालुकं सर्वंकरीरं पिष्टवैकृतम्। विष्टंभीनि विरुद्धानि कषायाणि गुरूणि च॥ उदावर्त्ती प्रयत्नेन वर्जयेत्सततं नरः॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे आनाहोदावर्तरोगस्य निदान चिकित्सा पथ्याऽपथ्यसहिता समाप्ता।
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अथ गुल्मरोगकर्मविपाकः।
गुरुं प्रत्यर्थितां यातो गुल्मवान् जायते नरः।
आचरेत्तन्निवृत्त्यर्थं मासमेकं प्रयोव्रतम्॥
गुल्मरोगनिदान
दृष्ट्वा वातादयोऽत्यर्थं मिथ्याहारविहारतः।
कुर्वन्ति पञ्चधा गुल्मं कोष्ठांतर्ग्रंथिरूपिणम्॥
गुल्मरोगके स्थान
तेषां पञ्चविधं स्थानं पार्श्वहृन्नाभिबस्तयः॥
गुल्म का रूप
हृन्नाभ्योरन्तरे ग्रन्थिः संचारी यदि वाऽचलः।
वृत्तश्चयोपचयवान्स गुल्म इति कीर्तितः॥
संप्राप्ति
स व्यस्तैर्जायते दोषैः समस्तैरपि चोच्छ्रितैः।
पुरुषाणां तथा स्त्रीणां ज्ञेयो रक्तेन चापरः॥
पूर्वरूप
उद्गारबाहुल्यपुरीषबंधस्तृप्त्यक्षमत्वांत्रविकूजनानि।
आटोपमाध्मानमपक्तिशक्तिरासन्नगुल्मस्य वदन्ति चिह्नम्॥
गुल्म के साधारण रूप
अरुचिः कृच्छ्रविण्मूत्रं वातेनांत्रविकूजनम्।
आनाहश्चोर्ध्ववातत्वं सर्वगुल्मेषु लक्षयेत्॥
वातगुल्म के लक्षण
रूक्षान्नपानं विषमातिमात्रं विचेष्टनं वेदविनिग्रहश्च। शोकाभिघातोऽतिमलक्षयश्च निरन्नता चानिलगुल्महेतुः॥ यः स्थानसंस्थानरुजो विकल्पं विड्वातसङ्गं गलवक्रशोषम्। श्यावारुणत्वं शिशिरज्वरं च हृत्कुक्षिपार्श्वांसशिरोरुजं च॥ करोति जीर्णेऽप्यधिकं च कोपं भुक्ते मृदुत्वं समुपैति पश्चात्। वातात्स गुल्मो नच तत्र रूक्षं कषायतिक्तं कटुनोपसेवयेत्॥
वातगुल्म पर साधारणक्रिया
प्रागेववातजे गुल्मे सुस्निग्धं स्वेदितं नरम्। रेचितं स्नेहरकैश्व निरूहैः सानुवासकैः॥ उपाचरेद्भिषक् प्राज्ञो मात्रां काले विशेषतः॥
सामान्य चिकित्सा
स्नेहस्वेदविद्वरेकैस्तु गुल्मः शैथिल्यमाप्नुयात्।
तस्मादनेन विधिना गुल्म रोगमुपाचरेत्॥
सामान्य उपचार
वातगुल्मप्रतीकारे प्रकुप्यति यदा कफः। शस्तमुल्लेखनं तत्र चूर्णोद्याश्चकफापहाः॥ यदि कुप्यति वा पित्तं विरेकस्तत्र भेषजम्। दोषघ्नैरप्यशांते च गुल्मे शोणितमोक्षणम्॥
मातुलुंगादि योग
मातुलिंगरसो हिंगु दाडिमं बिडसैंधवम्।
सुरामंडेन पातव्यं वातगुल्मरुजापहम्॥
शून्यादि योग
नागरार्धपलं पिष्टं द्विपले लुंगकस्य च।
तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरेणोष्णेन पाययेत्॥
वातगुल्ममुदावर्तं योनिशूलं च नाशयेत्॥
केतकी क्षारयोग
स्वर्जिकाकुष्ठसहितः क्षारः केतकिसंभवः।
पीतस्तैलेन शमयेद्वातगुल्मं सुदारुणम्॥
वारुणीमंडयोग
पिबेदैरडतैलं वा वारुणीमंडामिश्रितम्।
तदेव तैलं पयसा वातगुल्मी पिबेन्नरः॥
वातगुल्म पर हबुषादि घृत
हपुपाजाजिपृथ्वीकापिप्पलीमूलचित्रकैः। क्षीरमूलककोलानां रसैश्चविपचेद्धृतम्॥ वातगुल्मारुचिश्वासशूला-नाहज्वरार्शसाम्। ग्रहणीयानिदोषाणां घृतमेतन्निवारणम्॥
चित्रकादि घृत
चित्रकंव्योषसिंधूत्थपृथ्वीका चव्यदाडिमैः। दीप्यकग्रंथिकाजाजीहपुषाधान्यकैः समैः॥ दध्यारनालबदरमूलक-स्वरसैर्घृतम्। पक्त्वा पिबेद्वातगुल्मदौर्बल्याटोपशूलनुत्॥
हिंग्वादि घृत
हिंगु सौवचलं त्र्यूषंसिंधुजं दाडिमाक्षकैः। पुष्कराजाजिधान्याकैरम्लवेतस चित्रकः॥ अश्वगंधा वचा चैव निर्गुंडी सकचूरकैः। प्रतिचूर्णैः कर्षमितैः प्रस्थं चैत्र घृतं ददेत्॥ पाच्यं घृतावशेषं च पलार्धमनुशीलयेत्। वातगुल्मं च शूलं च आनाहं च विनाशयेत्॥
त्र्यूषणादि घृत
त्र्यूषणं त्रिफलाधान्यविडंगचव्यचित्रकैः।
कल्कैरेतैर्घृतं सिद्धं सक्षीरं वातगुल्मनुत्॥
तैल
राजवृक्षस्य तैलं च निष्कं पीतं तु गुल्मजित् ॥
कुष्ठादि तेल
श्वेतकुष्ठं तथा हिंगु प्रतिनिष्कद्वयं द्वयम्। क्षारं तत्त्रिफलाचूर्णं दशभागं सुचूर्णितम्॥ कल्कं गोक्षीरतः पिष्ट्वापूर्वं तैलं स्नुहिप्लुतम्। पचेत्तैलावशेषं तु पिबेन्निष्कद्वयं द्वयम्॥ विरेकांतेतु तक्रेण शाल्यन्नं भोजयेल्लघु। चतुर्दिनांते दातव्य-मिदं तैलं न नित्यशः॥ गुल्मं जलोदरं प्लीहां शूलं च श्वयथुप्रणुत्॥
विडंगादि कल्क
विडंगं दाडिमं हिंगु सैंधवैलासुवर्चलम्।
मातुलिंगरसे पीत्वा कर्षैकं सुरया सह॥
वातगुल्मं हरेत्पीत्वा प्राणनाथो रसोपि वा॥
गुग्गुलयोग
गुग्गुलं वा गवां मूत्रैः पिबेद्गुल्मार्तिशूलनुत्॥
कुलत्थादि क्वाथ
कुलित्थं जांगली शाली क्षीरं वा तक्रमुस्तकम्।
तर्कारी च हितं पथ्या धान्यांबुक्वथितं पिबेत्॥
हिंग्वादि चूर्ण
हिंगुसैंधववृक्षाम्लराजिकानागरैः समैः।
चूर्णं गुल्मप्रशमनं स्यादेतद्धिंगुपंचकम्॥
वातगुल्म पर विरेचन
वातारितैलेन पयोयुतेन पथ्यासमेतेन विरेचनं हि।
संस्वेदनं स्निग्धमतिप्रशस्तं प्रभंजनक्रोधकृते तु गुल्मे॥
शिखिवाडवरस
मारितं सूतताम्राभ्रंगंधकं माक्षिकं समम्। मर्द्दयेच्चित्रकद्रावैर्यवक्षारयुतं दिने॥ त्रिगुंजं भक्षयेन्नित्यं नागवल्लीदलेन च। वातगुल्महरः ख्यातो रसोयं शिखिवाडवः॥
पथ्य
तित्तिरांश्च मयूरांश्च कुक्कुटान् क्रौंचवतिकान्।
सर्पिशालिप्रसन्नाश्च वातगुल्मे च योजयेत्॥
पित्तगुल्म के लक्षण
कट्वम्लतीक्ष्णोष्णविदाहिरूक्षक्रोधातिमद्यार्कहुताशसेवा। आमाभिघातो रुधिरं च दुष्टं पैत्तस्य गुल्मस्य निमित्तमुक्तम्॥ ज्वरः पिपासा वदनाङ्गरागः शूलं महज्जीर्यति भोजने च। स्वेदो विदाहो व्रणवच्च गुल्मः स्पर्शासहः पैत्तिकगुल्मचिह्नम्॥
द्राक्षादि चूर्ण
द्राक्षाभयासं गुल्मे पैत्तिके सगुडं पिबेत्।
सशर्करं वा विलिहन् त्रिफलाचूर्णमुत्तमम्॥
पिगुत्तल्म पर विरेचन
पित्तगुल्मे त्रिवृच्चूर्णंपातव्यं त्रिफलांबुना। विरेकाय सितायुक्तं कंपिल्लं वा समाक्षिकम्॥ अभयां द्राक्षया खादेत् पित्तगुल्मी गुडेन वा॥
पित्तगुल्म पर पथ्य
शालिगोछागदुग्धं च पटोलं घृतमिश्रितम्। द्राक्षां परूषकं धात्रीं खर्जूरं दाडिमं सिताम्॥ पथ्यार्थंपैत्तिके गुल्मे बलातोयं प्रयोजयेत्॥
द्राक्षादि घृत
द्राक्षामधुकखर्जूरं विदारी च शतावरी। परूषकाणि त्रिफलां साधयेत्पलसंमिताम्॥ जलाढके पादशेषे रसमामलकस्य च। घृतमिक्षुरसं क्षीरमभयाकल्कपादिकम्॥ साधयेच्च घृतं सिद्धं शर्कराक्षौद्रपादिकम्। प्रयोगः पित्तगुल्मघ्नःसर्वगुल्मविकारनुत्॥
आमलक्यादि घृत
रसेनामलकेक्षूणां घृतपादं विपाचयेत्।
पथ्यायाश्च पिबेत्सर्पिस्तत्सिद्धं पित्तगुल्मन्नुत्॥
त्रायमाणादि घृत
जले दशगुणे साध्यं त्रायमाणचतुःपलम्। पंचभागान्वितं पूतं कल्के संयोज्य कार्षिकैः॥ रोहिणी कटुका मुस्ता त्रायमाणा दुरालभा । द्राक्षा तामलकी वीरा जीवंती चंदनोत्पलम्॥रतस्यामलकानां च क्षीरस्य च घृतस्य च। पलानि पृथगष्टाष्टौ सम्यक् दत्त्वा विपाचयेत्॥ पित्तगुल्मं रक्तगुल्मं विसर्पं पित्तजं ज्वरम्। हृद्रोगं कामलां कुष्ठं हन्यादेतद्धृतोत्तमम्॥
कफगुल्मनिदान और लक्षण
शीतं गुरु स्निग्धमचेष्टनं च संपूरणं प्रस्वपनं दिवा च। गुल्मस्य हेतुः कफसंभवस्य सर्वस्तु दुष्टो निचयात्मकस्य॥ स्तैमित्यशीतज्वरगात्रसादहृल्लासकासारुचिगौरवाणि। शैत्यं रुगल्पा कठिनोन्नतत्वं गुल्मस्य रूपाणि कफात्मकस्य॥
सामान्य चिकित्सा
योगैश्चवातगुल्मोक्तैःश्लेष्मगुल्ममुपाचरेत्।
अपरैश्च बलासघ्नैर्युक्तियुक्तैःसमं नयेत्॥
यवानीचूर्ण
यवानीचूर्णितं तक्रे बिडेन लवणीकृतम्।
श्लेष्मगुल्मे पिबेद्वा तन्मूत्रवर्चोनुलोमनम्॥
हिंग्वादि चूर्ण
हिंगुग्रंथिकधान्यजीरकवचा चव्याग्निपाठा शठी वृक्षाम्लं लवणत्रयं त्रिकटुकं क्षारद्वयं दाडिमम्। पथ्या पौष्करवेतसाम्लहपुषाजाज्यस्तदेभिः कृतं चूर्णं भावितमेतदार्द्रकरसैः स्याद्बीजपूरद्रवैः॥ गुल्माध्मानगुदांकुर-ग्रहणिकोदावर्तसंज्ञौ गदौ प्रत्याध्मानगदोदराश्मरियुतास्तूनीद्वयारोचकान्। ऊरुस्तंभमतिभ्रमं च मनसो बाधिर्यमष्ठीलिकांप्रत्यष्ठीलिकया सहापहरते प्राक्पीतमुष्णांबुना॥ हृत्कुक्षिवंक्षणकटीजठरांतरेषु बस्तिस्त-नांसफलकेषु च पार्श्वयोश्च। शूलानि नाशयति वातबलासजानि हिंग्वाद्यमाद्यमिदमाश्विनसंहितोक्तम्॥
पंचकोलादि घृत
पिप्पली पिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः। पलिकैः सयवक्षारैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥ क्षीरप्रस्थेन तत्सर्पिर्हंतिगुल्मं कफात्मकम्। ग्रहणीपांडुरोगघ्नं प्लीहकासज्वरापहम्॥
कफगुल्म पर पथ्य
कुलित्थाञ्जीर्णशालींश्च षष्टिकान्यवजांगलान्।
मद्यं तैलं घृतं तक्रंकफगुल्मे प्रयोजयेत्॥
तिलादि लेप और सेक
तिलैरंडातसीबीजं सर्षपं च विपेषयेत्।
तेन लिप्तोदरं स्वेद्यमर्कपत्रैः सुकल्पितैः॥
सेक
एरंडार्कदलैर्वाथ सोष्णैः स्विद्यन्मुहुर्मुहुः॥
दशमूलादि तेल
दशमूलकणा द्राक्षा श्यामा धात्री पलं पलम्।
प्रस्थमेरंडतैलस्य प्रस्थषट्कं गवां पयः॥
पचेत्तैलावशेषं तु तत्तैलं कफगुल्मनुत्॥
त्रिवृत्तादि घृत
त्रिवृत्ता त्रिफला दंती दशमूलं पलोन्मितम्। जले चतुर्गुणे पक्त्वा चतुर्भागावशेषिते॥ सर्पिरेरंडतैलं च क्षीरं चैकत्र साधयेत्। संसिद्धो मिश्रकः स्नेहः सक्षौद्रं कफगुल्मनुत्॥
विद्याधररस
गंधकं तालकं ताप्यं मृताभ्रं च मनःशिलाम्। शुद्धसूतं च तुल्यांशं मर्दयेद्भावोद्दिनम्॥ पिप्पल्यास्तु कषायेण वज्रीक्षीरेण भावयेत्। निष्कार्धंभक्षयेत्क्षौद्रेर्गुल्मप्लीहादिकं जयेत्॥ रसो विद्याधरो नाम गोमूत्रं च पिबेदनु॥
नाराचरस
शुद्धसूतं समं गंधं जेपालं त्रिफलासमम्।
त्रिकटुं पेषयेत्क्षौद्रैर्निष्कं गुल्महरं लिहेत्॥
गुल्मोदरहरः ख्यातो नाराचायं रसोत्तमः॥
द्वंद्वजगुल्मनिदान और लक्षण
निमित्तलिङ्गान्युपलभ्य गुल्मे संसर्गजे दोषबलाबलं च।
व्यामिश्रलिङ्गानपरांश्च गुल्मांस्त्रीनादिशेदौषधकल्पनार्थम्॥
द्राक्षादि कल्क
द्राक्षाचंदनयष्ट्याह्वापद्मकं तंदुलोदकैः।
पिष्ट्वा क्षीरविदारीं च सक्षौद्रां पाययेदनु॥
पंचवक्रोरसो देयो गुल्मे तु कफवातजे
सैंधवादि तैल
सैंधवं चित्रकं दंतिशक्राह्वं च पलं पलम्। द्वात्रिंशत्पलगोमूत्रैः पचेदष्टाविशेषकैः॥कषायस्य समं तैलं पिष्ट्वा तं च विपाचयेत्। तैलावशेषमुत्तार्य अनुपानेः पिबेत्सदा॥
नाराच रस
पित्तश्लेष्मस्थिते गुल्मे देयो नाराचको रसः॥
करंजादि पुटपाक
करंजवटपत्राणि चव्यं वह्निः कटुत्रयम्। इंद्रवारुणिकामूलं पुटेपाच्यं ससैंधवम्॥ तद्भावे वारिणा पीतं पलार्धं मधुनापि वा। हंति गुल्मोदरं पांडुंद्वंद्वजं श्वयथुं तथा॥
सन्निपातगुल्म
महारुजं दाहपरीतमश्मवनोन्नतं शीघ्रविदाहदारुणम्।
मनःशरीराग्निबलापहारिणं त्रिदोषजं गुल्ममसाध्यमादिशेत्॥
सामान्य
धीमानुपाचरेत् गुल्मं प्रत्याख्याय त्रिदोषजम्।
सन्निपातोत्थिते गुल्मे त्रिदोषन्नो विधिर्हितः॥
वरुणादि क्वाथ
वरुणादिकषायस्तु गुल्मदोषत्रयोत्थितम्।
हंति हृत्पार्श्वशूलाढ्यं सोपद्रवं न संशयः॥
वरुणक्वाथमध्यविद्रधि पर
वरुणादिगणक्वाथमपक्वेमध्यविद्रधौ।
रुषकादिरसैर्युक्तं पिबेच्छमनहेतवे॥
वरुणादि क्वाथ
वरुणो बकपुष्पं च बिल्वापामार्गचित्रकाः। अग्निमंथद्वयं शिग्रुद्वयं च बृहतीद्वयम्॥ सैरेयकत्रयं मूर्वा मेषशृंगी किरातकः।अजश्रृंगी च बिंबं च करंजश्च शतावरी॥ वरुणादिगणक्वाथः कफमेदोहरः स्मृतः। हंति गुल्मं शिरःशूलं तथाभ्यंतरविद्रधीन्॥
जयंत्यादि दो क्वाथ
जयंत्या वा जयाया वा गुडैः सोष्णजलं पिबेत्।
त्रिदोषोत्थं हरेद्गुल्मं रसो वानंदभैरवः॥
राजवृक्षादि पुटपाक
राजवृक्षस्नुही भानुकरजांकुलजंबुकम्। पाटला रजनी चिंचा पिप्पली च पुनर्नवा॥ अपामार्गस्य मूलानि समं रुध्वापुटेपचेत्। द्विनिष्कं पलगोमूत्रैर्जयेद्गुल्मं त्रिदोषजम्॥
अभयादि योग
अभया सैंधवं तक्रंभोजनांते पिबेदनु। त्रिफलां सुवर्चलाक्षीरं तुल्यं गुंजैककं भक्षयेत्॥ त्रिदोषोत्थं हरेद्गुल्मं त्रिफलासंचलं तथा। उष्णे तक्रेपिबेत्कर्षंमुंडीमूलं च वारिणा॥
संप्राप्तिपूर्वक स्त्रीगुल्म
नवप्रसूताऽहितभोजना या या चामगर्भं विसृजेदृतो वा। वायुर्हितस्याः परिगृह्य रक्तं करोति गुल्मं सरुजं सदाहम् ॥ पित्तस्य लिङ्गेन समानलिङ्गं विशेषणं चाप्यपरं निबोध। यः स्पंदते पिंडित एव नाङ्गैश्चिरात्स शूलः समगर्भलिङ्गः॥ स रौधिरः स्त्रीभव एव गुल्मो मासे व्यतीते दशमे चिकित्स्यः॥
दंत्यादि वटी
दंतिहिंगुयवाक्षारालावुबीजं कणा गुडः। स्नुहिक्षीरेण गुटिका सर्वेषां कर्षमात्रिका। भक्षिता रक्तगुल्मघ्नी रुधिरस्राव-कारिणी॥
पलाशघृत
पलाशक्षारयोगेन सर्पिः सिद्धं पिबेद्वधूः॥
शताह्वादि कल्क
शताह्वाचिरविल्वत्वग्दारुभाङ्गकणोद्भवः।
कल्कः पीतो हरेद्गुल्मं तिलक्वाथेन रक्तजम्॥
तिलक्वाथ
तिलक्वाथोगुडघृतव्योषभार्ङ्गीरजोन्वितः।
पीतो रक्तभवे गुल्मे नष्टे शुक्रे च योषितः॥
भारंग्यादि चूर्ण
भार्ङ्गीकृष्णाकरंजत्वग्ग्रंथिकामरदारुजम्।
चूर्णं तिलानां क्वाथेन रक्तगुल्मरुजापहम्॥
तिलमूलादि चूर्ण
तिलमूलं च शिग्रुंच ब्रह्मदंडीयमूलकम्। मधुयष्टी त्रिकटुकैर्युतं चूर्णमुपासते॥ पुष्परोधे वातगुल्मे स्त्रीणां सद्यः सुखावहम्॥
मुंड्यादि चूर्ण
मुंडीरोचनिकाचूर्णं शर्करामाक्षिकान्वितम्। विदधीतास्यगुल्मिन्यां मलसंरेचनाय च॥ उष्णैर्वा भेदयेद्भिन्ने विधिर्वा-सृग्धरो हितः। अतिप्रवृत्तमस्रंतु भिन्ने गुल्मे निवारयेत्॥
गुल्म के असाध्यलक्षण
सञ्चितः क्रमशो गुल्मो महावास्तुपरिग्रहः। कृतशूलः शिरानद्धोयदा कूर्म इवोन्नतः॥ दौर्बल्यारुचिहृल्लासकास-च्छर्द्यरतिज्वरैः। तृष्णातंद्राप्रतिश्यायैर्युज्यते न स सिद्ध्यति॥ गृहीत्वा सज्वरं श्वासं च्छर्द्यतीसारपीडितम्। हृन्नाभि-बस्तिपादेषु शोथः क्षिपति गुल्मिनम्॥ श्वासः शूलं पिपासान्नविद्वेषो ग्रन्थिमूढता। जायते दुर्बलत्वं च गुल्मिनां मरणाय वै॥
दूसरे लक्षण
न निबंधोस्ति गुल्मस्य विद्रधिः सनिबंधनः। गुल्मस्तिष्ठति दोषे स्वे विद्रधिर्मांसशोणिते॥ विद्रधिः पच्यते तस्माद्-गुल्मश्चापि न पच्यते॥
तीसरा लक्षण
ग्रंथिनाशः श्वासशूलतृष्णान्नद्वेषणादयः। गुल्मिनो दुर्बलत्वं च मरणाय विनिर्दिशेत्॥ शिरावनद्धः सुकठोर उन्नतो व्याप्तोदरो भूरिफलोपि गुल्मः। हृल्लासकासारुचिकार्श्यतृष्णाछर्दिज्वरार्तश्च न सिद्धिमेति॥ ज्वरः श्वासकास-प्रतिश्यायतंद्रावमिभ्रांतियुक्तं त्यजेद्गुल्मिनं तम्। गुदे नाभिहृद्बस्तिपादेषु शूनं कृशं सातिसारं तृषाशूलयुक्तम्॥
पुनर्नवादि कल्क
श्वेतं पुनर्नवामूलं तुल्यं सैंधवचूर्णितम्।
सघृतं लेहयेद्गुल्मी क्षौद्रैर्वाथजलोदरी॥
चित्रकादि क्वाथ
चित्रकग्रंथिकैरंडशुंठीक्वाथः परं हितः।
शूलानाहविबंधेषु सहिंगुविडसैंधवः॥
नादेयादिक्वाथ
नादेयीकुटजार्कशिग्रुबृहतीस्तुग्वेल्लभल्लातकव्याघ्रीकिंशुकपारिभद्रकुटजापामार्गनीपाग्निनाम्। वासामुष्ककपाटलां सलवणां दग्धां जले पाचितं हिंग्वादिप्रतिवापमेतदुदितं गुल्मोदराष्ठीलिषु॥
पारदादि वटी
पारदं शिखितुत्थं च जेपालं पिप्पलीसमम्।
आरग्वधफलं मज्जां वज्रीक्षीरेण मर्दयेत्॥
माषमात्रां वटीं खादेत्स्त्रीणां गुल्मोदरप्रणुत॥
मूलिकादि धारण
लांगल्या वापमार्गोत्थैरिद्रवारुणिकापि वा।
शूलं योनिगतं स्त्रीणां धारणं पुष्परोधनुत्॥
निंबादि वटी
निंबैरंडस्य बीजानि पिष्ट्वा निबदलद्रवैः।
गुटिकांतर्गता योनौ लेपोयं भगशूलनुत्॥
सठ्यादि कांकायनवटी
सठीपुष्करमूलं च दंतिचित्रकमाढकम्। शृंगबेरं वचां चैव पलिकानि समाहरेत्॥ त्रिवृतायाः पलं चैव कुर्यात्त्रीणि च हिंगुलुः। यवक्षारः पले द्वे च द्वे पले चाम्लवेतसम्॥ यवान्यजाजिमरिचं धान्यकं चेति कार्षिकम्। उपकुल्याज-मोदाभ्यां तथा चाष्टमिकामपि॥ मातुलिंगरसोपेतां गुटिकां कारयेद्भिषक् । तासां त्वेका पिवेद्वे वा तिस्रो वाथ सुखांबुना॥ अम्लैश्च मद्ये- यूषैश्च वृतेन पयसाथवा । एषा कांकायनेनोक्ता गुटिका गुल्म- नाशिनी॥
यवान्यादि गुटिका
यवानी जीरकं धान्यं मरिचं गिरिकर्णिका। अजमोदोपकुंची च चतुःशाणः पृथक् पृथक् ॥ हिंगु षट्शाणकं कार्यं शाणोलवणपंचकम्। त्रिवृच्चाष्टमितैः शाणैः प्रत्येकं कल्पयेत्सुधीः ॥ दंती शठी पौष्करं च विडंगं दाडिमं शिवा। चित्राम्लवेतसः शुंठी शाणैः षोडशभिः पृथक्॥ बीजपूररसेनैषां गुटिकां का- रयेद्बुधः। घृतेन पयसा चाम्लरसे रुष्णोदकेन वा ॥ पिवेत्कां- कायनप्रोक्ता गुटिका गुल्मनाशिनी। मद्येन वातिकं गुल्मं गोक्षु- रेण च पैत्तिकम् ॥ मूत्रेण कफगुल्मं च दशमूलैस्त्रिदोषजम्। उनीदुग्धेन नारीणां रक्तगुल्मं निवारयेत् ॥ हृद्रोगं ग्रहणीशूलं कृमीनर्शांसिनाशयेत्॥
स्वर्जिकावटी
स्वर्जिका शाणमाना स्यात्तावदेव गुडो भवेत्।
उभयोर्वटिकां खादेद्गुल्मामयविनाशिनीम्॥
प्रवालपंचामृत
प्रवालमुक्ताफलशंखशुक्तिकपर्दिकानां च समांशभागम्। प्रवालमात्रं द्विगुणं प्रयोज्यं सर्वैः समांशं रविदुग्धमेव॥ एकीकृतं तत्खलु भांडमध्ये क्षिप्त्वा मुखे बंधनमत्र योज्यम्। पुटंच दद्यादतिशीतले च उद्धृत्य तद्भस्म क्षिपेत्करंडे॥ नित्यं हि वारं प्रतिपाकयुक्तं वल्लप्रमाणं हि नरेण सेव्यम्। आनाहगुल्मोदर-प्लीकासश्वासाग्निमांद्यान् कफमारुतोत्थान्॥ अजीर्णमुद्गारहदामयघ्नंग्रहण्यतीसारविकारनाशम्॥ मेहामयं मूत्ररोगं मूत्रकृच्छ्रं तथाश्मरीम्। नाशयन्नात्र संदेहो सत्यं गुरुवचो यथा॥ पथ्याश्रितं भोजनमादरेण समाचरेन्निर्मलचित्तवृत्त्या। प्रवालपंचामृतनामधेयो योगोत्तमः सर्वगदापहारी॥
हिंग्वादि घृत
हिंगु पुष्करमूलानि तुंबरूणि हरीतकी। श्यामा बिडं सैंधवं च यवक्षारं महौषधम्॥ यवक्षारोदकेनैतत्घृतभ्रष्टं तु पाचयेत्। तेनास्य भिद्यते गुल्मः सशूलः सपरिग्रहः॥
धात्रीघृत
धात्रीफलानां स्वरसैर्विडंगं विपचेद्घृतम्।
शर्करासैंधवोपेतं तत्सिद्धं सर्वगुल्मनुत्॥
षट्पलघृत
षड्भिः पलैर्मगधजाफलमूलचव्यं विश्वौषधज्वलनयावकक ल्कपक्कम्। प्रस्थं घृतस्य दशमूल्यरुबूकभाङ्ग काथोप्यथो पयति वा दधिषट्पलाख्यम्॥ गुल्मोदरारुचिभगंदरवह्निमांद्यकासज्वरक्षयशिरोग्रहनिर्विकारान्। सद्यः शमं नयति ये च कफानिलोत्था भार्ङ्ग्याख्यषट्पलमिदं प्रवदंति तज्ज्ञाः॥
दधिकयोग
बिडदाडिमसिंधूत्थहुतभुग्व्योषजीरकैः। हिंगुसौवर्चलक्षारचुक्रवृक्षाम्लवेतसैः॥ बीजपूररसोपेतैः सर्पिर्दधि चतुर्गुणम्। साधितं दधिकं नाम्ना गुल्महृत्प्लीहनुत्परम्॥
स्नुहिक्षीराद्य घृत
स्नुहिक्षीरं पले द्वे तु प्रस्थार्धं चैव सर्पिषः। कंपिल्लं पलमेकं तु पलार्धं सैंधवस्य च॥ त्रिवृत्तायाः पलं चैकं धात्र्याः कुडवमेव च। तोयप्रस्थेन विपचेच्चैवं मृद्वग्निना भिषक्॥ कर्षप्रमाणं दातव्यं जठरप्लीहगुल्मिने। तथा कच्छपरोगेषु युंजीत मतिमान् भिषक्॥ एतद्गुल्मान् ससमीरान् निहंति सपरिग्रहान्।निहंत्येष प्रयोगो हि वायुर्जलधरानिव॥ पंचगुल्मवधोपायं सर्पिरेतत्प्रकीर्तितम्। सर्वासुरवधार्थाय यथा वज्रं स्वयंभुवा॥
अग्निमुखचूर्ण
हिंगुभागो भवेदेको वचा च द्विगुणा भवेत्। पिप्पली त्रिगुणा ज्ञेया शृंगबेरं चतुर्गुणम्॥ यवानिका पंचगुणा षड्गुणा च हरीतकी। चित्रकं सप्तगुणितं कुष्ठं चाष्टगुणं भवेत्॥ एतद्वातहरं चूर्णं पीतमात्रं प्रसन्नया। पिबेद्दध्नामस्तुना वा सुरया कोष्णवारिणा॥ उदावर्तमजीर्णं च प्लीहानमुदरं तथा। अंगानि यस्य शीर्यंते विषं वा येन भक्षितम्॥ अर्शोहरो दीपनं च शूलघ्नो गुल्मनाशनः। कासं श्वासं निहंत्याशु तथैव क्षयनाशनः॥ चूर्णो ह्यग्निमुखो नाम्ना न क्वचित्प्रतिहन्यते॥
पिप्पल्यादि चूर्ण
पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकाजाजिसैंधवम्।
पीतं तु सुरयाहंति गुल्ममाशु सुदुस्तरम्॥
हिंग्वादि चूर्ण
हिंगूग्रगंधाबिडशुंठ्यजाजीहरीतकीपुष्करमूलकुष्ठम्।
भागोत्तरं चूर्णितमेतदिष्टं गुल्मोदराजीर्णविषूचिकासु॥
चित्रकादि चूर्ण
चित्रको नागरं हिंगु पिप्पली पिप्पलीजटा। चव्याजमोदा मरिचं प्रत्येकं कर्षसंमितम्॥ स्वर्जिका च यवक्षारः सिंधु सौवर्चलं बिडम्॥ सामुद्रकं रोमकं च कोलमात्राणि कारयेत्॥ एकीकृत्याखिलं चूर्णं भावयेन्मातुलिंगजैः। रसैर्दाडिमजैर्वापि शोषयेदातपेन च॥ एतच्चूर्णंजयेद् गुल्मं ग्रहणीमामजां रुजम्। अग्निं च कुरुते दीप्तं रुचिकृत्कफनाशनम्॥
त्रिफलादि चूर्ण
त्रिफला कांचनक्षीरी सप्तला नीलिनी वचा। त्रायंती हपुषा तिक्ता त्रिवृत्सैंधवपिप्पली॥ पिबेद्धि चूर्ण कोष्णेन वारिमांसरसादिभिः। सर्वगुल्मोदरपुहिकुष्ठार्शःशोथवारणम्॥
कुमारीयोग
गुल्मी कुमारिकामांसं कर्षार्धंगोघृतान्वितम्।
गिलेद्वयोषाभयासिंधुसूक्ष्मचूर्णावधूलितम्॥
नाराचचूर्ण
शतपुष्पा वचा कुष्ठकारवीजाजिधान्यकम्। द्वौ क्षारौ पिप्पलीमूलं सठ्युग्राचोपकुंचिका॥ स्वर्णक्षीरीवाजि-गंधाविशालाचित्रकाः समाः। त्रिवृद्दंती सप्ता च एषां द्वित्रिगुणानपि॥ नाराचकमिदं ख्यातं चूर्णं श्रेष्ठं विरेचनम्। गुल्मानादाविषाजीर्णश्वासकासगलग्रहम्॥ शोफार्शोग्रहणीदोषं गुल्मान् पंचविधानपि॥
पूतिकादि चूर्ण
पूतीकपत्रगजचिर्भटचव्यवह्निव्योषं च युक्तरचितं लवणोपधानम्। दध्ना विचूर्ण्य दधिमस्तुयुतं प्रयोज्यं गुल्मोदरश्व-यथुपांडुगदोद्भवेषु॥
हस्तिकर्णादि चूर्ण
तक्रैर्जलोदरहरी हस्तिकर्णी च कर्षिका। तिलमूलकषायेण ब्रह्मदंड्यास्तु मूलकम्॥ यष्टी त्रिकटुचूर्णं च युक्तं पानेथ गुल्मजित्॥
हिंग्वादि चूर्ण
हिंगु त्रिकटुकं पाठा हपुषा चाभया शठी। अजगंधा यवानी च तिंतिडी फलवेतसम्॥ सारिवा पौष्करं धान्यमजाजी चित्रको वचा। अभ्रकं तीक्ष्णकं ताप्यं लवंगं तुंबरूणि च॥ द्वौक्षारौ लवणे द्वे च चव्यमेकत्र चूर्णयेत्। चूर्णमेतत्प्रयोक्तव्यमन्नपानेषु प्रत्यहम्॥ प्रातरद्याच्च चूर्णोयं मद्येनोष्णोदकेन वा। पार्श्वहृद्बस्तिशूलेषु गुल्मवात बलातके॥ आनाहे मूत्रकृच्छ्रे च गुदे योनौ च पीडिते। ग्रहण्यर्शोविकारेषु प्लीहपांड्वामयेरुचौ॥ उरोविबंधे हिक्कायां कासे श्वासे गलग्रहे। भावितं मातुलिंगस्य दाडिमस्य रसेन च॥ बहुशो गुटिका कार्या आर्द्रकस्य रखेन वा। नाम्ना हिंग्वादिकं चूर्णं शूलगुल्मविनाशनम्॥
विद्याधररस
सूतो गंधस्तालकस्ताम्रताप्यं तुत्थं सर्वं खल्वमध्ये तु पिष्ट्वा।
कृष्णाक्वाथैःस्नुहिक्षीरैर्भावितं बास्तैर्मूत्रैर्नाम विद्याधरः स्यात्॥
निष्कार्धोयं श्लेष्मगुल्मं निहन्यात्पथ्यं युक्तं सर्वरोगे प्रशस्तम्।
आदौ गुल्मे रक्तमोक्षं विधाय प्रौढः कार्योयो विधिः सर्वजे वा॥
वडवानलरस
तिक्तक्वाथं पिबेदाज्यं भार्ङ्गीव्योषगुडान्वितम्।
पुष्परोधे रक्तगुल्मे स्त्रीभिर्विद्याधरो रसः॥
गुल्मोदरगजारातिरस
सूतगंधकणापथ्यातुत्थारग्वधकान्दृढम्। मर्दयेद्वज्रिदुग्धेन माषार्धंखादयेद्दिनम्॥ गुल्मोदरगजारातिनाम्ना भैरव-निर्मितः। स्त्रीणां जलोदरं हंति पथ्यं शाल्योदनं दधि॥ चिंचाफलरसस्यापि पानमस्मिन्प्रयोजयेत्॥
उद्दामाख्य रस
सूतः कर्षः शांखवृक्षस्य नीरैः सर्पाक्ष्याद्भिः पेषयेद्वस्रमेकम्। भूमेः कुक्षौ पंचधैवं पुटित्वा युज्यत्तुल्यं चारुजेपाल-गर्भात्॥ उदामाख्यः स्याद्रसः सर्पिषा यो गुंज्यायुग्मं पित्तगुल्मं निहंति। द्राक्षापथ्याक्वाथ एवानुपानं वर्ज्यं सर्वं पित्तलं दाहकारि॥
नाराच रस
शुद्धसूतसमं गंधं जेपालं त्रिफलासमम्।
त्रिकटुं पेषयेत्क्षौद्रमिश्रं गुल्मं लिहून्हरेव ॥
उष्णोदकं पिबेच्चानु नाराचोऽयं रसोत्तमः॥
गुल्मकुठाररस
नागवंगाभ्रकंकांतं समं ताम्रं समांशकम्। जंबीरस्वरसैर्घृष्ट्वावटी गुंजाप्रमाणिका॥ मधुनार्द्रकनीरेण क्षारयुग्मेन सेविता। अजीर्णमम्लपित्तं च हृत्पार्श्वोदरशूलकम्॥ नाम्ना गुल्मकुठारोऽयं सर्वान् गुल्मान्व्यपोहति॥
गुल्ममदेभसिंहरस
रसगंधवराटताम्रशंखविषवंगात्रककांततीक्ष्णमुंडम्। अहिहिंगुलटंकणं समाशं सकलं तत्त्रिगुणं पुराणकिट्टम्॥ पशुमूत्रविशोधितं सुभृष्ट्वा त्रिफलाभृंगतथार्द्रकोत्थनीरैः। सुविशोष्य वरामृता लिवासा स्वरसैरष्टगुणैः पुनर्नवात्थैः॥ पृथगनिधृतं घनं विपाच्य गुटिका गुंजयुता निजानुपानैः। ज्वरपांडुतृषास्रपैत्त्य-गुल्मक्षयकासस्वरमग्निमांद्यमूर्च्छाः॥ पवनादिषु दुस्तराष्टरोगान् सकलान् पित्तहरं गदावृतं च। बहुना किमसौ यथार्थनामा सकलव्याधिहरो मदेभसिंहः॥
वज्रक्षार
सामुद्रं सैंधवं काचं यवक्षारं सुवर्चलम्। टंकणं सर्जिकाक्षारं तुल्यं चूर्ण प्रकल्पयेत्॥ अर्कक्षीरैः स्नुहिक्षीरैर्लुलितं च विभावयेत्। अर्कपत्रं लिपेत्तेन रुद्ध्वाभांडे पुटेपचेत्॥ तत्क्षारं चूर्णयित्वाथ त्र्यूषणं त्रिफलारजः। जीरकं रजनी वह्निर्नवकस्य च भागतः॥ क्षारार्धंयोजयेत्सम्यगेकीकृत्य विचूर्णयेत्। वज्रक्षारमिमं पूर्वं स्वयं प्रोक्तं पिनाकिना। सर्वोदरेषु गुल्मेषु शूलशोफेषु योजयेत्। अग्निमांद्ये त्वजीर्णे च भक्ष्यं निष्कद्वयं तथा॥ वाताधिके जले कोष्णे घृते पित्ताधिके हितः। कफे गोमूत्रसंयुक्त आरनाले त्रिदोषनुत्॥
गुल्मरोग पर क्षार
स्वर्जिका यावशूलश्चक्षारयुग्ममुदाहृतम्। ज्ञेयौवह्निसमौ क्षारो स्वर्जिकायावशूलकौ॥ क्षाराश्चान्येऽपि गुल्मार्शो-ग्रहणीरुक्छिदःसराः। पाचनाः कृमिपुंस्त्वघ्नाः शर्कराश्मरिनाशनाः॥
बत्ती
वातवर्चोनिरोधेषु सामुद्रार्द्रार्कसर्षपैः।
कृत्वा पायौ विधातव्या वर्तयो मरिचान्वितैः॥
चविकासव
चविकायास्तुलार्धंतु तदर्धं चित्रकस्य च। बाष्पिका पौष्करं मूलं षट्ग्रंथा हपुषा सठी॥ पटोलमूलं त्रिफला यवानी कुटजत्वचः। विशाला धान्यकं रास्नादंती दशपलोन्मिता॥ कृमिघ्नमुस्तमंजिष्ठा देवदारु कटुत्रिकम्। भागान्पंचपला नेतानष्टद्रोणेंभसः पचेत्॥ द्रोणे शेषे रसेपूते देयं गुडशतत्रयम्। धातक्या विंशतिपलं चातुर्जातं पलाष्टकम्॥ लवंगव्योषकंकोलं पादिकानि प्रकल्पयेत्। निदध्यान्मासमेकं तु घृतभांडे सुसंस्कृते॥ चतुःपलां पिबेन्मात्रां प्रातः पीता नियच्छति। सर्वगुल्मविकारांश्च प्रमेहांश्चैव विंशतिम्॥ प्रतिश्यायं क्षयं कासमष्ठीलां वातशोणितम्। उदराण्यंत्रवृद्धिं च चविकाख्यो महासवः॥
कुमारीआसव
कुमार्याश्चरसद्रोणे गुडं पलशतं तथा। तुलांघ्रिसंख्या विजया क्वाथयेत जलार्मणे॥ चतुर्थांशावशेषे तु पूते तस्मिन्निधापयेत्। मधुनश्चाढकं दत्त्वा धातक्याः पलषोडशम्॥ स्निग्धभांडे विनिक्षिप्य कल्कं चैव प्रदापयेत्। जातीफलं लवंगं च कंकोलं च कबाबकम्॥ जटिला चव्यचित्रं च जातीपत्री सकर्कटम्\। अक्षं पुष्करमूलं च प्रत्येकं च पलं पलम्॥ मृतशुल्बं तथा लोहशुक्तिमात्रं प्रदापयेत्। भूम्यां वा धान्यराशौ वा स्थापयेद्दिनविंशतिः॥ ततोद्धृत्य पिबेन्मात्रां यथाचाग्निबलाबलम्। पंचकासं तथा श्वासं क्षयरोगं च दारुणम्॥ उदराणि तथाष्टौ च षडर्शांसि च नाशयेत्। वातव्याधिमपस्मारमन्यान् रोगान्सुदुस्तरान्॥ जाठरं कुरुते दीप्तं कोष्ठशूलं च नाशयेत्। गुल्माष्टकं नष्टपुष्पं नाशयेत्पक्षमेकतः॥ कुमारिकासवो ह्येष बृहस्पतिविनिर्मितः॥
दंतीहरीतकी लेह
जलद्रोणे विपक्तव्या विंशतिः पंच चाभया। दंत्याः पलानि तावंति चित्रकस्य तथैव च॥ तेनाष्टभागशेषेण पलैर्दंतीसमं गुडम्। ताश्चाभयास्त्रिवृच्चूर्णतैले चापि चतुःपले॥ पलमेकं कणाशुंठ्योःसिद्धे लेहे सुशीतलम्। क्षौद्रे तैलसमं दद्याच्चातुर्जातपलं तथा॥ ततो लेहः पलं लीढ्वाजग्ध्वा चैकां हरीतकीम् । सुखं विरिच्यते स्निग्धो दोषप्रस्थप्रनामयः॥ प्लीहश्वयथु- गुल्मार्शोहत्पांडुग्रहणीगदाः। शाम्यंति क्लेशविषमज्वर कुष्ठान्यरोचकम्॥
चिंचाशंखवटी
चिंचाक्षारं स्नुहिक्षारमर्कक्षारं पलं पलम्। द्विपलं शंखभूतिं च रामठं च पलार्धकम्॥ लवणानि च सर्वाणि पलमात्राणि योजयेत्। क्षारद्वयं पलार्धंच सर्वमेकत्र चूर्णयेत्॥ जंबीरकरसैर्मर्द्यमनस्य दिनत्रयम्। भृंगराजस्य निर्गुंडीमुंड्योश्चैव पृथग्द्रवैः॥ आर्द्रकस्य रसेनैव प्रत्येकं मर्दयेद्दिनम्। बदरीबीजमात्रांतु वटिकां कारयेद्भिषक्॥ एकैकां भक्षयेत्प्रातः पंच गुल्मान्व्यपोहति। सर्वशूलं निहंत्याशु ह्यजीर्णं च विषूचिकाम्॥ मंदाग्निंनाशयेच्छीघ्रंपथ्यं तैलाम्लवर्जितम्। चिंचाशंखवटीनामा ग्रहणीरोगहृत्परा॥
क्षारादि चूर्ण
क्षारद्वयानलव्योषनीलीलवणपंचकम्।
चूर्णितं सर्पिषा पेयं सर्वगुल्मोदरापहम्॥
सूर्यपुट से शंखद्राव
प्रस्थं जंबीरनीरं पलसुपरिमितं काकतुंडस्य मूलं कर्षार्धंस्वर्जिकायास्त्रिपटुपलयुतं नव्यसारं पलार्धम्। तत्सर्वं सूर्यतापे मुनिदिनयुगुलं काचकुप्यां निधाय हन्याद् गुल्मं सुतीव्रं जठरमलरुजं शंखकद्रावसंज्ञः॥
द्वितीयशंखद्राव
फटकीपलमेकं च सैंधवं पलमेव च। द्विपलं यवजक्षारं द्विपलं नवसागरम्॥ चतुःपलं सुराक्षारं पलार्धंकासिसं तथा। डमरूयंत्रयोगेन चूल्ल्यां वै बदरींधनैः॥ साधयेल्लाघवात्तूर्णं शंखद्रावरसः परः। गुल्मादिसर्वरोगेषु देयः सर्वसुख-प्रदः॥
तीसरा शंखद्राव
सैंधवं च यवक्षारं नव्यसारं तथैव च । प्रत्येकं द्विपलं ग्राह्यं सुराक्षारं चतुःपलम् ॥ फटकीफलमेकं च पलार्धं कासिसं तथा। सर्वमेकत्र संयोज्यं डमरूयंत्रमध्यगे॥ चूल्ल्यां प्ररोहयेत्तत्तु ज्वालयेत्खदिरेंधनैः। द्रावितं तत्समादाय तेजोरूपं जलप्रभम् ॥ द्रावयेदखिलान् धातून् वराटश्च न संशयः। शंखद्रावरसो नाम गुल्मोदरहरः परः॥
क्षाराष्टक
पलाशवज्रशिखरीचिंचार्कतिलनालजः। यावकः स्वर्जिका चेति क्षाराश्चाष्टौप्रकीर्तिताः॥ गुल्मशूलहराः क्षारा अजीर्णस्य च पाचनाः॥
शरपुंखक्षार
शरपुंखस्य लवणं पथ्याचूर्ण समं द्वयम्।
शाणप्रमाणमश्नीयाच्चूर्णं गुल्मगदापहम्॥
गुल्मरोग पर पथ्य
स्नेहः स्वेदो विरेकश्च बस्तिर्बाहुशिराव्यधः। लंघनं वर्त्तिरभ्यंगः स्नेहः पक्वेतुपाटनम्॥ संवत्सरसमुत्पन्नाः कलमा रक्तशालयः। खंडः कुलत्थयूषश्च धन्वमांसरसः सुरा॥ गवामजायाश्च पयो मृद्वीका च परूषकम्। खर्जूरं दाडिमं धात्री नागरं चाम्लवेतसम्॥ तक्रमेरंडतैलं च लशुनं बालमूलकम्। पत्तूरो वास्तुकं शिग्रुयवक्षारो हरीतकी॥ रामठं मातुलुंगं च त्र्यूषणं सुरभीजलम्। यदन्नं स्निग्धमुष्णं च बृंहणं लघु दीपनम्॥ वातानुलोमनं चैव पथ्यं गुल्मे नृणां भवेत्॥
गुल्मरोग पर अपथ्य
माषादयः शमीधान्यं शुकधान्यं यवादयः। वातकारीणि सर्वाणि विरुद्धान्यशनानि च॥ वल्लूरं मूलकं मत्स्यं मधुराणि फलानि च। शुष्कशाकं शमीधान्यं विष्टंभीनि गुरूणि च॥ अधोवायुशुकृन्मूत्र श्रम श्वासाश्रुधारणम्। वमनं लंघनं पानं गुल्मरोगे विवर्जयेत्॥
इति श्री आयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघंटुरत्नाकरे गुल्मरोगस्य निदान-चिकित्सा समाप्ता।
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हृद्रोगकर्मविपाकः।
उदक्या वीक्षितं भुक्त्वा जायते कृमिलोदरः।
गोमूत्र यावकाहारः सप्तरात्रेण शुध्यति॥
अभक्ष्यभक्षणे चैव जायंते कृमयो हृदि।
अथवा तद्विशुद्ध्यर्थमुपोष्यं भीष्मपंचकम्॥
गजे च निहते वा कृमिकुक्षिस्तु जायते॥
मृते भर्तरि या नारी नीलीवस्त्रं प्रधारयेत्।
सा मृता नरकं याति कृमिकुक्षिस्ततः परम्॥
ज्योतिःशास्त्रद्वारा निर्णय
पाटितहृदयाचिहिबुके निर्वाहनबांधवार्तिसतिसौख्यम्।
बाल्यो च्याधितदेहो नखरोमधरो भवेत् शौरः॥
हृद्रोगनिदान
अत्युष्णगुर्वम्लकषायतिक्तैः श्रमाभिघाताध्ययनप्रसंगैः।
संचिन्तनैर्वेगविधारणैश्च हृदामयः पंचविधः प्रदिष्टः॥
संप्राप्ति
दूषयित्वा रसं दोषा विगुणा हृदयं गताः।
हृदि बाधां प्रकुर्वन्ति हृद्रोगं तं प्रचक्षते॥
वातजन्य हृदयरोग
आयम्यते मारुतजे हृदयं तुद्यते तथा।
निर्मथ्यते दीर्यते च स्फोट्यते पाट्यतेऽपि च॥
पंचमूलक्वाथ
वातोपसृष्टे हृदये वामयेत्स्निग्धमातुरम्।
द्विपंचमूलिक्वाथेन सस्नेहलवणेन वा॥
पिप्पल्यादि चूर्ण
पिप्पल्येला वचा हिंगु यवक्षारोथ सैंधवम्। सौवर्चलमथो शुंठी दीप्यश्चेति विचूर्णितम्॥ पलं धान्याम्लकौलित्थ-दधिमद्यवसादिभिः। पाययेच्छुद्धदेहस्य वातहृद्रोगशांतये॥
पुष्करादि कल्क
सुपुष्कराख्यं फलपूरमूलं महौषधं शक्यभया च कल्कः।
क्षीराम्लसर्पिर्लवणैर्विमिश्रः स्याद्वातहृद्रोगहरो नराणाम्॥
पुनर्नवादितैल
पुनर्नवादारुसपंचमूलरास्नायवाकोलकपित्थबिल्वम्।
पक्त्वा जले तेन पचेच्च तैलमभ्यंगपानेऽनिलहृद्रग्रहघ्नम्॥
पित्तजन्यहृदयरोगनिदान
तृष्णोष्णदाहमोहाः स्युः पैत्तिके हृदयक्लमः।
धूमपानं च मूर्च्छा च स्वेदः शोषो मुखस्य च॥
सामान्यचिकित्सा
शीताः प्रदेहाः परिषेचनं च तथा विरेको हृदि पित्तदुष्टे॥
द्राक्षादि चूर्ण
द्राक्षासिताक्षौद्ररूपः स्याच्छुद्धे च पित्तापहमन्नपानम्॥
श्रीपर्ण्यादि रेचन और वमन
श्रीपर्णी मधुकं क्षौद्रं सिता गुडजलैर्वमेत्। पित्तोपसृष्टे हृदये विरेकः प्रोक्तो हि हृद्रोगहरो नराणाम्॥
हारहूरादि चूर्ण
हारहूराहरीतक्योस्तुल्यं शर्करयारजः।
पीतं हिमांबुना हंति पित्तहृद्रोगमंजसा॥
अर्जुनादि क्षीर
अर्जुनस्य त्वचा सिद्धं क्षीरं पित्तहृदर्तिजित्।
सितया पंचमूल्या वा बालया मधुकेन वा॥
कसेरुकादि क्वाथ
कसेरुकाशैवलशृंगवेरप्रपौंडरीकं मधुकं बिसं च।
ग्रंथिश्चसर्पिः पयसा पचेत्तैः क्षौद्रान्वितं पित्तहृदामयनम्॥
कफजहृद्रोगनिदान
गौरवं कफसंस्रावोऽरुचिः स्तंभोग्निमादेवम्।
माधुर्यमपि चास्यस्य बलासा वर्त्तते हृदि॥
कफजन्यहृद्रोग पर सामान्य चिकित्सा
हृद्रोगेकफजे स्विन्नं सुवातं लंघितं नरम्।
कफघ्नैर्भेषजैर्युंज्याज्ज्ञात्वा दोषं बलाबलम्॥
त्रिवृतादि चूर्ण
त्रिवृच्छठी बला रास्नाशुंठी पथ्या सपौष्करा।
चूर्णिता वा शृता मूत्रे पातव्या कफहृद्गदे॥
सूक्ष्मैलादि चूर्ण
सूक्ष्मैला मागधीमूलं प्रलीढं सर्पिषा सह।
नाशयेदाशु हृद्रोगं कफजं सपरिग्रहम्॥
सन्निपातज हृदयरोगनिदान
विद्यात्रिदोषं त्वपि सर्वलिङ्गम्॥
त्रिदोषजहृद्रोग की चिकित्सा
त्रिदोषजे लंघनमादितः स्यादन्नं तु सर्वेषु हितं विधेयम्।
चूर्णानि सर्पींषि च वक्ष्यमाणान्यत्र प्रयोज्यानि भिषग्भिराशु॥
कृमिजहृद्रोगनिदान
तीव्रार्तितोदं कृमिजं सकण्डूं॥ उत्क्लेदः ष्ठीवनं तोदः शूलं हृल्लासकस्तमः। अरुचिः श्यावनेत्रत्वं शोषश्च कृमिजे भवेत्॥
हृदयरोगके उपद्रव
क्लोमसादो भ्रमः शोषो ज्ञेयास्तेषामुपद्रवाः। कृमिजे कृमिजातीनां श्लेष्मकाणां च ये मताः ॥ संस्तंभः सज्वरं घोरं रूक्षस्पर्शासहंगुरु। आध्मानकुक्षिहृत्कंठवातविण्मूत्ररोधता॥ तंद्रारोचकशूलानि तस्य लिंगानि निर्दिशेत्॥
कृमिहृद्रोग की सामान्यचिकित्सा
हृद्रोगे कृमिजे कार्यं लंघनं चापतर्पणम्।
पश्चात्कृमिहरं कर्म कृमिरोगोक्तमाचरेत्॥
गोमूत्रपान
कृमिजे च पिबेन्मूत्रं विडंगामयसंयुतम्।
हृदि स्थिताः पतंत्येव ह्यसाध्याः कृमयो नृणाम्॥
दुग्धपान
चतुर्विंशतिपलं क्षीरं गवामथ पचेच्छनैः। द्विरष्टपलकं यावत्तावत्कुर्यात्तु शीतलम्॥ सिता क्षौद्रं घृतं तस्मिन् दुग्धे चार्धपलं क्षिपेत्। कर्षैकं पिप्पलीचूर्णं क्षिप्त्वा पेयं हितं परम्॥ सर्वदोषोत्थहृद्रोगं ज्वरं कासं क्षयं जयेत्॥
पौष्करादिक्वाथ
क्वाथः कृतः पौष्करमातुलिंगपलाशभूतीकसठीसुराह्वैः।
सनागराजाजिवचायवाह्वःसक्षार उष्णो लवणेन पेयः॥
शमूलादि क्वाथ
दशमूलकृतः क्वाथः सयवक्षारसैंधवः।
हृद्रोगगुल्मशूलार्तिकासं श्वासं च नाशयेत्॥
एरंडादिक्वाथ
पवनारिजटा द्विपलाष्टगुणे सलिले पचिता यवजेन युतम्।
क्वथनं हृदयोद्भव पार्श्वकटीशूलविदारणसिंहनखम्॥
बाह्लीकादि क्वाथ
बाह्लीकविश्वदहनायवयावशुकैः पथ्याभयाविडकणारुचकैर्निहन्यात्। क्वाथः सपुष्करजटाभववारि पीतो हृद्रोगमग्नि-विकलत्वमतिप्रबद्धम्॥
नागरादिक्वाथ
नागरस्य पिबेदुष्णं कषायं चाग्निवर्धनम्।
कासश्वासानिलहरं शूलहृद्रोगनाशनम्॥
नागबलादि दुग्धपान
मूलं नागबलायास्तु गोदुग्धेन च पाचयेत्। हृद्रोगश्वासकासघ्नं कुंकुमायाश्च वल्कलम॥ रसायनं परं
बल्यंवातजिन्मासयोजितम्। संवत्सरप्रयोगेण जीवेद्वर्षशतं ध्रुवम्॥
हिंगुपंचकचूर्ण
विश्वौषधेन रुचकेन सदाडिमेन स्याच्चाम्लवेतस युतः कृतहिंगुभानुः। तद्धिंगुपंचकमिदं हृदयामयघ्नं भेडाभिधान-मुनिना गदितं मुनीनाम्॥
पुष्करचूर्ण
चूर्णं पुष्करजं लिह्यान्माक्षिकेण समायुतम्।
हृद्रोगश्वासकासघ्नं क्षिप्रं हिक्कानिवारणम् ॥
हरिणशृंगभस्म
शरावसंपुढे दग्ध्वा शृंगं हरिणजं पिबेत् ।
गव्येन सर्पिषा पिष्टं हृच्छूलं नाशयेद्ध्रुवम्॥
हिंग्वादि चूर्ण
हिंगूग्रगंधाबिडविश्वकृष्णाकुष्ठाभयाचित्रकयावशूकम्।
पिबेत्ससौवर्चलपुष्कराख्यं यवांभसा शूलहृदामयघ्नम्॥
ककुभत्वक्चूर्ण
घृतेन दुग्धेन गुडांभसावा पिबंति चूर्णं ककुभत्वचोत्थम्।
हृद्रोगजीर्णं ज्वररक्तपित्तं जित्वा भवेयुश्चिरजीविनस्ते॥
कटुक्यादि चूर्ण
पिष्ट्वा वा कटुका पेया समयष्टी वा सुखांबुना।
जीर्णज्वरं रक्तपित्तं हृद्रोगं च व्यपोहति॥
हरीतक्यादि चूर्ण
हरीतकीवचारास्नापिप्पलीनागरोद्भवम्।
शठीपुष्करमूलोत्थं चूर्ण हृद्रोगनाशनम्॥
पाठादि चूर्ण
पाठा वचा यवक्षारमभयासाम्लवेतसम्। दुरालभां चित्रकं च त्र्यूषणं च फलत्रिकम्॥ शुंठी पुष्करमूलं च तित्तिडीकं सदाडिमम्। मातुलिंगस्य मूलानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत्॥ उष्णोदकेन महतान्येतानि पाययेत्। आर्शं शूलं च हृद्रोगं गुल्मं चाशु व्यपोहति॥
गोधूमादि चूर्ण
गोधूमककुभचूर्णं पक्वमजाक्षीरगव्यसर्पिर्भ्याम्।
मधुशर्करासमेतं शमयति हृद्रोगमुद्धतं पुंसाम् ॥
वल्लभघृत
शतार्धमभयानां तु सौवर्चलपलद्वयम्। पचेत्कल्कैर्घृतप्रस्थं दत्त्वा क्षीरं चतुर्गुणम्॥ घृतं वल्लभकं नाम्ना श्रेष्ठं हृद्रोगनाशनम्॥
यष्टयादि घृत
यष्टीनागबलादिच्यार्ज्जुनैः सर्पिः सुसाधितम्।
हृद्रोगक्षयपित्तास्रश्वासकासज्वरार्तिजित्॥
बलादि घृत
घृतं बलानागबलार्जुनानां क्वाथेन कल्केन च यष्टिकायाः।
सिद्धं निहन्याद्धृदयामयं हि स्वातरक्तक्षतरक्तपित्तम्॥
हृदयार्णवरस
सूतार्कगंधं क्वाथेन वराया मर्दयेद्दिनम्। काकमाच्या वटींकृत्वा चणमात्रां तु भक्षयेत्॥ हृदयार्णवनामायं हृद्रोग-दलनो रसः॥
रसायन
रसगंधाभ्रभस्मानि पार्थवृक्षत्वगंबुना। एकविंशतिधा घर्मे भावितानि विधानतः॥ माषमात्रमिदं चूर्णं मधुना सह लेहयेत्। वातजं पित्तजं श्लेष्मसंभूतं वा त्रिदोषजम् ॥ कृमिजं चापि हृद्रोगं निहंत्येव न संशयः॥
हृद्रोग पर पथ्य
स्वेदो विरेको वमनं च लंघनं बस्तिर्विलेपो चिररक्तशालयः। मृगद्विजाजांगल संज्ञयान्विता यूषा रसा मुद्गकुलत्थसम्भवाः॥ रागाः खडा कांबलिकाश्च खांडवा भव्यं पटोलं कदलीफलान्यपि। पुराणकूष्मांडरसालदाडिमं शम्याकशाकं नवमूलकान्यपि॥ एरंडतैलं गगनाम्बु सैंधवं द्राक्षा च तक्रं च पुरातनो गुडः। शुंठी यवानी लशुनं हरीतकी कुष्ठं च कुस्तुंबुरुकृष्णमार्द्रकम्॥ सौवीरशुक्लंमधुवारुणीरसः कस्तूरिका चंदनकं प्रपानकम्। तांबूलमप्येष गणः सखा भवेन्मर्त्यस्य हृद्रोगनिपीडितात्मनः॥
हृद्रोग पर अपथ्य
तृट्छर्दिमूत्राऽनिलशुक्रकासोद्गारश्रमश्वासविडश्रुवेगान्।
सह्याद्रिविंध्याद्रिनदीजलानि मेषीपयो दुष्टजलं कषायम्॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे हृद्रोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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मूत्रकृच्छ्रकर्मविपाकः।
गुरुजायाभिगमनान्मूत्रकृच्छ्रं प्रजायते।
तेनापि निष्कृतिः कार्या शास्त्रदृष्टेन वर्त्मना॥
पशुयोनौ च गमनान्मूत्रकृच्छ्रं प्रजायते।
तिलपात्रत्रयं चैव स दद्यादात्मशुद्धये॥
तिलपूर्णं ताम्रपात्रं सहिरण्यं द्विजातये।
प्रातर्दत्त्वा तु विधिवद्दुःस्वप्नं प्रतिहंति सः॥
ज्योतिष
जन्मकाले यदा यस्य स्मरे भवति भास्करिः।
राहुर्दुष्टः प्रकुरुते मूत्रकृच्छ्रादिकां रुजम्॥
मूत्रकृच्छ्रनिदान
ध्यायामतीक्ष्णौषधरूक्षमद्यप्रसंगनित्यद्रुतपृष्ठयानात्। अनूपमत्स्याध्यशनादजीर्णात्स्युर्मूत्रकृच्छ्राणि नृणामिहा-ष्टौ॥
संप्राप्ति
पृथङ्मलाः स्वैः कुपिता निदानैः सर्वेऽथ वा कोपमुपेत्य बस्तौ।
मूत्रस्य मार्गं परिपीडयति यदा तदा मूत्रयतीह कृच्छ्रात्॥
वातमूत्रकृच्छ्रनिदान
तीव्रार्तिरुग्वंक्षणबस्तिमेढ्रेस्वल्पं मुहुर्मूत्रयतीह वातात्॥
वातमूत्रकृच्छ्र पर सामान्ययत्न
अभ्यंजनं स्नेहनिरूहबस्तिः स्वेदोपनाहोत्तरबस्तिसेकान्।
स्थिरादिभिर्वातहरैश्च सिद्धान् दद्यादसांश्चानिलमूत्रकृच्छ्रे॥
क्वाथ
अमृता नागरं धात्री वाजिगंधा त्रिकंटकम्।
निष्क्वाथ्य प्रपिबेत्क्वाथंमूत्रकृच्छ्रेसमीरजे्॥
त्रिकंटकादि क्वाथ
त्रिकंटकारग्वधदर्भकाक्षयवासधात्रीगिरिभेदपथ्याः।
निघ्नंति पीता मधुनाश्मरीं च समीपमृत्योरपि मूत्रकृच्छ्रम्॥
एलादि चूर्ण
एलाश्मभेदकशिलाजतुगोक्षुराणामेर्वारुबीजलवणोत्तमकुंकुमानाम्। चूर्णानि तंदुलजले लुलितानि पीत्वा प्रत्यक्ष-मृत्युरपिजीवति मूत्रकृच्छ्री॥
पित्तमूत्रकृच्छ्रनिदान
पीत सरक्तं सरुजं सदाहं कृच्छ्रं मुहुर्मूत्रयतीह पित्तात्॥
कुशकाशादि क्वाथ
कुशकाशं शरो दर्भ इक्षुश्चेति तृणोद्भवम्। पित्तकृच्छ्रहरं पंचमूलं बस्तिविशोधनम्॥ एतैः सिद्धं पयः पीतं मेढ्र्गं हंति शोणितम्॥
शतावरीक्वाथ
शतावरीकासकुशश्चदंष्ट्राविदारिशालीक्षुकसेरुकाणाम्।
क्वाथं सुशीतं मधुशर्कराभ्यां युक्तं पिबेत्पैत्तिकमूत्रकृच्छ्र॥
एर्वारुबीजपान
एर्वारुबीजं मधुकं सदार्विपित्ते पिबेत्तंदुलधावनेन।
दार्वींतथैवामलकीरसेन समाक्षिकं पित्तकृतेऽथ कृच्छ्रे॥
द्राक्षादि कल्क
द्राक्षासितोपलाकल्कं कृच्छ्रघ्नं मस्तुना युतम्।
पिबेद्वा कामतः क्षीरमुष्णं गुडसमायुतम्॥
नारिकेलजलपान
नारिकेलजलं योज्यं गुडधान्यसमन्वितम्।
सदाहमूत्रकृच्छ्रं च रक्तपित्तं निहंति च॥
रक्तनारिकेलजलपान
रक्तस्य नारिकेलस्य जलं कतकसंयुतम्।
शर्करैला समायुक्तं मूत्रकृच्छ्रहरं विदुः॥
कफजन्य मूत्रकृच्छ्रनिदान
बस्तेः सलिंगस्य गुरुत्वशोथौ मूत्रं सपिच्छं कफमूत्रकृच्छ्रे॥
कफजन्य मूत्रकृच्छ्रकी सामान्य चिकित्सा
क्षारोष्णतीक्ष्णौषधमन्नपानं स्वेदोपवासं वमनं निरूहः।
तक्रं च तिक्तोषणसिद्धतैलं बस्तिश्च शस्ता कफमूत्रकृच्छ्रे॥
एलादि चूर्ण
मूत्रेण सुरया वापि कदलीस्वरसेन वा।
कफकृच्छ्रविनाशाय सूक्ष्मां कृत्वा तृटिं पिबेत्॥
सितदारुकादि चूर्ण
तक्रेण युक्तं सितवारुकस्य बीजं पिबेत्कृच्छ्रविघातहेतोः।
पिबेत्तथा तंदुलधावनेन प्रवालचूर्णं कफमूत्रकृच्छ्रे॥
सन्निपातमूत्रकृच्छ्रनिदान
सर्वाणि रूपाणि तु सन्निपाताद्भवन्ति तत्कृच्छ्रतमं हि कृच्छ्रम्॥
सर्वं त्रिदोषप्रभवे तु कृच्छ्रे यथाबलं कर्म समीक्ष्य कार्यम्।
तत्राधिके प्राग्वमनं कफे स्यात्पित्ते विरेकः पवने तु बस्तिः॥
बृहत्यादि क्वाथ
बृहतीधावनीपाठायष्टीमधुकलिंगकान्।
पक्त्वाक्वाथं पिबेन्मर्त्योकृच्छ्रे दोषत्रयोद्भवे॥
शतावर्यादि क्वाथ
शतावर्यास्तु मूलानां क्वाथश्च ससितो मधुः।
मूत्रदोषं निहंत्याशु वातपित्तकफोद्भवम् ॥
दुग्धयोग
गुडेन मिश्रितं दुग्धं कदुष्णं कामतः पिबेत्।
मूत्रकृच्छ्रेषु सर्वेषु शर्करावातरोगनुत् ॥
यवक्षार
सपादशाणतुलितो यवक्षारः सितायुतः।
भक्षितो नाशयत्येव मूत्रकृच्छ्रं न संशयः॥
गोकंटकादि लेह
गोकंटकं सदलमूलफलं गृहीत्वा संकुट्टितं पलशतं क्वथितं सुबोधैः। पादस्थितेन च जलेन पलानि दत्त्वा पंचाशते परिपचेदथ शर्करायाः॥ तप्त्वा घृतत्त्वमुपगच्छति चूर्णितानि दद्यात्पलद्वयमितानि सुभेषजानि। शुंठीकणातृटिजवा-ग्रजकेसराणि संयाति कोशककुभत्रपुषीफलानि॥ वंशीपलाष्टकमिह प्रणिधाय नित्यं लिह्यात्सुसिद्धममृतं पलसंमितेन। हंत्याशु मूत्रपरिदग्धविबंधकृच्छ्रंमूत्राश्मरीरुधिरमेहमधुप्रमेहान्॥
शल्यज मूत्रकृच्छ्र
मूत्रवाहिषु शल्येन क्षतेष्वभिहतेषु च। मूत्रकृच्छ्रं तदाघाताज्जायते भृशदारुणम्॥ वातकृच्छ्रेण तुल्यानि तस्य लिंगानि लक्षयेत्॥
सामान्यक्रम
मूत्रकृच्छ्रेभिघातोत्थे वातकृच्छ्रक्रिया हिता।
पंचवल्कलकुल्लेपः कवोष्णोऽत्र प्रशस्यते॥
लोहभस्मयोग
अयोभस्म श्लक्ष्णपिष्टं मधुना सह योजितम।
मूत्रकृछ्रंनिहंत्याशु त्रिभिर्लेपैर्न संशयः॥
रसपान
रसं वल्लं यवक्षारं सितातक्रयुतंपिबेत्।
मूत्रकृच्छ्राण्यशेषाणि हन्यंते पानतो जवात्॥
पुरीषज मूत्रकृच्छ्र
शकृतस्तु प्रतीघाताद्वायुर्विगुणतां गतः।
आध्मानवातशूलौ च मूत्रकृच्छ्रं करोति च ॥
सामान्यचिकित्सा
स्वेदचूर्णक्रियाभ्यंगो बस्तयः स्युः पुरीषजे।
कृच्छ्रे तत्र विधिः कार्यो सर्वशुक्रविबंधजित्॥
गोक्षुरक्वाथ
क्वाथो गोक्षुरबीजानां यवक्षारयुतः सदा।
पीतः प्रशमत्येव मूत्रकृच्छ्रं चिरोत्थितम्॥
आमलक्यादि क्वाथ
गुडेनामलकीक्वाथं श्रमघ्नं तर्पणं परम्।
पित्तामृग्दाहशूलभं मूत्रकृच्छ्रनिवारणम् ॥
एलाचूर्ण
पिबेन्मद्येन सूक्ष्मैलां धात्रीफलरसेन वा।
शितिवारकबीजं वा तक्रेश्लक्ष्णं च चूर्णितम्॥
खजुरादि चूर्ण
खर्जूरामलबीजानि पिप्पली च शिलाजतु। एलामधुकपाषाणं चंदनौर्वारुबीजकम्॥ धान्याकं शर्करायुक्तं पातव्यं ज्येष्ठवारिणा। अंगदाहंलिंगदाहं गुदवंक्षणशुक्रजम्॥ शर्कराश्मरिशूलघ्नं बल्यं वृष्यकरं परम्॥
त्रिफलादि कल्क
त्रिफलायाः सुपिष्टायाः कल्कं कोलसमन्वितम्।
वारुणी लवणीकृत्य पिबेन्मूत्ररुजापहम्॥
अश्मरीजन्यमूत्रकृच्छ्र
अश्मरीहेतुतत्पूर्वं मूत्रकृच्छ्रमुदाहरेत्॥
अश्मरीजन्य मूत्रकृच्छ्र
अश्मरीजे मूत्रकृच्छ्रे स्वेदाद्या वातजित्क्रिया॥
क्वाथ
पाषाणभेदक्वाथस्तु कृच्छ्रमश्ममरिजं जयेत्॥
एलादि क्वाथ
एलोपकुल्यामधुकाश्मभेदकौंतीश्वदंष्ट्रावृषकोरुबूकैः।
शृतं पिबेदश्मजतुप्रगाढं सशर्करं साश्मरिमूत्रकृच्छ्रे॥
शुक्रज मूत्रकृच्छ्र
शुक्रंदोषैरुपहते मूत्रमार्गे विधारिते।
सशुक्रंमूत्रयेत्कृच्छ्राद्बस्ति मेहनशूलवान्॥
सामान्यचिकित्सा
कृच्छ्रे शुक्रविबंधोत्थे शिलाजतु समाक्षिकम्। सक्षीरं ससितं सर्पिः प्रभाते प्रपिबेन्नरः॥ शुक्रदोषविशुद्ध्यर्थं समदां प्रमदां श्रयेत्॥
तृणपंचमूलघृत
तृणपंचकमूलेन सिद्धं सर्पिः पिबेदपि॥
बलादि क्षीर
बलाहिंगुयुतं क्षीरं सर्पिर्मिश्रं पिबेन्नरः।
मूत्रदोषविशुद्ध्यर्थं शुक्रदोषहरं च यत्॥
पथरी और शर्करा का निदान
अश्मरी शर्करा चैव तुल्यसम्भवलक्षणे। विशेषणं शर्करायाः शृणु कीर्त्तयतो मम॥ पच्यमानाऽश्मरी पित्ताच्छोष्य-माणाच वायुना। विमुक्तकफसंधाना क्षरंती शर्करा मता॥ हृत्पीडा वेपथुः शूलं कुक्षावग्निश्चदुर्बलः। तथा भवति मूर्च्छा च मूत्रकृच्छ्रं च दारुणम्॥
मूलपंचकयोग
मूलानि कुशकाशेक्षुशराणां चेक्षुवालुका।
मूत्राघाताइमरीकृच्छ्रं पंचमूलीतृणात्मिका॥
शिलाजत्वश्मभित्कृष्णातृटीनां वा पिबेद्रजः॥
हरिद्रा मधुकं मूर्वा मुस्तकं देवदारु च।
पिबेदक्षसमंकल्कं पयसा मूत्रपीडितः॥
एलाश्मभेदसशिलाजतु पिप्पलीनां चूर्णानि तंदुलजलैर्लुलितानि पीत्वा। यद्वा गुडेन सहितान्यवलेह्य धीमानासन्न-मृत्युरपि जीवति मूत्रकृच्छ्री॥
अंकोलतिलकाष्ठानां क्षारः क्षौत्रेण संयुतः।
दधिवार्य्यनुपानेन मूत्ररोधं नियच्छति॥
दाडिमादि रसपान
दाडिमाम्लयुतां तृट्याशंबूजीरकसंयुताम्।
पीत्वा सुरां सलवणां मूत्रकृछ्रात्प्रमुच्यते॥
निदग्धिकारसपान
सितातुल्यो यवक्षारः सर्वकृच्छ्रनिवारणः॥
निदग्धिकारसो वापि सक्षौद्रः कृच्छ्रनाशनः॥
Pege no. १३५४ to १३५७ are missing from this Book.
भृष्टेक्षुरसपान
भृष्टेस्वरसं ग्राह्यमाखुविड्विहितं पिबेत्।
नाशयन्मूत्रकृच्छ्राणि सद्य एव न संशयः॥
कुटजयोग
पिष्ट्वा गोपयसा श्लक्ष्णं कुटजस्य त्वचं पिबेत्।
तेनोपशाम्यते क्षिप्रं मूत्रकृच्छ्रं सुदारुणम्॥
लघुलोकेश्वर
रसभस्म च भागैकं चतुर्भागं तु गंधकम्। पिष्ट्वा वराटकान् पूर्याद्रसपादं च टंकणम्॥ क्षीरेण पिष्ट्वा रुध्वास्यं भांडे रुध्वा पुटे पचेत्। स्वांगशतिं विचूर्ण्याथ लघुलोकेश्वरो रसः॥ चतुर्गुंजो घृते देयो मरीचैकोनविंशतिः॥ जातीमूलं पलैकं तु ह्यजाक्षीरेण पाचयेत्॥ शर्कराभावितं चानु पीतं कृच्छ्रहरं परम्॥
चंद्रकलारस
प्रत्येकं कर्षमात्रं स्यात्सूतं ताम्रं तथाभ्रकम्॥ द्विगुणं गंधकं चैव कृत्वा कज्जलिकां शुभाम् ॥ मुस्तादाडिमदूर्वोत्थैः केतकीस्तनजद्रवैः। सहदेव्या कुमार्याश्च पर्पटस्य च वारिणा॥ रामशीतलिकातोयैः शतावर्या रसेन च। भावयित्वा प्रयत्नेन दिवसे दिवसे पृथक्॥ तिक्ता गुडूचिकासत्वं पर्पटोशीरमाधवी। श्रीगंधं सारिवा चैषां समानं सूक्ष्मचूर्णितम्॥ द्राक्षाफलकषायेण सप्तधा परिभावयेत्। ततः पात्राश्रयं कृत्वा वट्यःकार्याश्चणोपमाः॥ अथ चंद्रकलानाम्ना रतेंद्रः परिकीर्तितः। सर्वपित्तगदध्वंसी वातपित्तगदापहः॥ अंतर्बाह्यमहादाहाविध्वंसनमहाघनः। ग्रीष्मकाले शरत्काले विशेषेण प्रशस्यते॥ कुरुते नाग्निमाद्यं च महातापज्वरं हरेत्। भ्रमं मूर्छांनिहंत्याशु स्त्रीणां रक्तं महास्रवम्॥ ऊर्ध्वाधोरक्तपित्तं च रक्तवांतिं विशेषतः। मूत्रकृच्छ्राणि सर्वाणि नाशयेन्नात्र संशयः॥
सूतं स्वर्णं च वैक्रांतं शृतं तुल्यं च मर्दयेत्। चांडालीराक्षसीद्रावैर्द्वियामांते च गोलकम्॥ शुष्कं रुध्वा पुटेच्चानु करीषाग्नौ महापुटे॥
बृहद्गोक्षुराद्य लेह
गोकंटकं पलशतं कुशमूलं तथैव च । पाषाणभेदोऽष्टपलं गुडूचीपलपंचकम्॥ एरंडो भीरुरष्टौ च मूलं दशपलं पृथक्। पद्ममूलं चाश्वगंधा प्रत्येकं पलविंशतिः॥ सर्वमेकत्र संकुट्य जलद्रोणे विपाचयेत् । पादशेषं तु संग्राह्य वस्त्रपूतं समाक्षिपेत्॥ गव्याज्यं प्रस्थमेकं तु शिलाजं च तथा स्मृतम्। घनीभूते तु संजाते द्रव्याणीमानि दापयेत्॥ तालमूली शताह्वा च त्रिकटु त्रिफला तथा। सूक्ष्मैला भूतकेशी च ह्रीबेरं नागकेशरम्॥ पद्मकं जातिपत्रत्वक्मधुयष्टिसरोचना। जातीफलमुशीरं च त्रिवृता रक्तचंदनम्॥ धान्याकं कटुका क्षारौ नागवल्ली च शृंगिका। पुष्कराह्वंशठी दारु शीसं लोहं च वंगकम्॥ द्रव्याणीमानि संगृह्य प्रत्येकं पलमात्रकम्। खादेद्वाग्निं संप्रेक्ष्य पथ्यं सेवेत्त मानवः॥ स्निग्धभांडे निधायाथ नित्यं लिह्यात्पलोन्मितम् । अश्मरीं मूत्रकृछ्रं च मूत्राघातं विबंधताम्॥ प्रमेहं विंशतिं चैव शुक्रदोषं तथैव च। धातुक्षये चोष्णवाते वातकुंडलिकादयः॥ ते सर्वे प्रशमं यांति भास्करेण तमो यथा। नातः परतरं किंचित्कृष्णात्रेयेण पूजितः॥
मूत्रकृच्छ्र पर पथ्य
वातोद्भवेऽभ्यंगनिरूहबस्तिः स्नेहावगाहोत्तरबस्तिसेकः। पैत्तेवगाहः शिशिरप्रदेहा ग्रैष्मो विधिर्बस्तिविधिर्विरेकः॥ श्लेष्मोद्भवे स्वेदविरेकबस्तिः क्षारायवान्नानि च तीक्ष्णमुष्णम्। त्रिदोषजेऽभ्यंगपुरःसराणि सर्वाण्यमूनि विमलोदितानि॥ मूत्राघातविकारोत्थेवातकृच्छ्रक्रिया मता। लेहः शुक्रविबंधोत्थे शिलाजतु समाक्षिकम्॥ स्वेदचूर्णक्रियाभ्यंगबस्तयः स्युः पुरीषजे। अथो यथादोषमयं गणोऽपि पुरातना लोहितशालयश्च॥ तक्रंपयो दध्यपि गोप्रभूतं धन्वामिषं मुद्गरसाः सिता च। पुराणकूष्मांडफलं पटोलं महार्द्रकं गोक्षुरकः कुमारी॥ एर्वारुखर्जूरकनारिकेरं तालद्रुमाणां च शिरांसि पथ्या। तालास्थिमज्जात्रपुषं त्रुटिश्चशीतानि पानान्यशनानि चैव॥ प्रतीरनीरं हिमवालुका च मित्रं नृणां स्पात्सति मूत्रकृच्छ्रे॥
मूत्रकृच्छ्र पर अपथ्य
मद्यंश्रमं निधुवनं गजवाजियानं सर्व विरुद्धमशनं विषमाशनं च। तांबूलमत्स्यलवणार्द्रकतैलभृष्टं पिण्याकहिंगुति-लसर्षपमूत्रवेगान्॥ माषान् करीरमपि तीक्ष्णविदाहि रूक्षमम्लं प्रमुंचतु जनः सति मूत्रकृच्छ्रे॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे मूत्रकृच्छ्रनिदान चिकित्सा समाप्ता।
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मूत्राघातनिदानचिकित्सा।
जायन्ते कुपितैर्दोषैर्मूत्राघातास्त्रयोदश।
प्रायो मूत्रविघाताद्यैर्वातकुण्डलिकादयः॥
मूत्राघात के १२ भेद
वातकुंडलिकाष्ठीला वातबस्तिस्तथैव च। मूत्रातीतः सजठरो मूत्रोत्संगक्षयस्तथा॥ मूत्रग्रंथिर्मूत्रशुक्रमुष्णवातस्तथैव च। मूत्रासादो विट्विघातो रोगा द्वादश कीर्तिताः॥
वातकुंडलिका के लक्षण
रौक्ष्याद्वेगविघाताद्वा वायुर्बस्तौ सवेदनः। मूत्रमाविश्य चरति विगुणः कुण्डलीकृतः॥ मूत्रमल्पाल्पमथ वा सरुजं संप्र-वर्त्तते। वातकुण्डलिकां तां तु व्याधिं विद्यात्सुदारुणाम्॥
अष्ठीला के लक्षण
आध्मापयन्बस्तिगुदं रुध्वा वायुश्चलोन्नतः।
कुर्यात्तीव्रार्तिमष्ठीलां मूत्रमार्गावरोधिनीम्॥
वासबस्ति के लक्षण
वेगं विधारयेद्यस्तु मूत्रस्याकुशलो नरः। निरुणद्धि मुखं तस्य बस्तेस्तिगतोऽनिलः॥ मूत्रसंगो भवेत्तेन बस्तिकुक्षि-निपीडितः। वातबस्तिः स विज्ञेयो व्याधिः कृच्छ्रप्रसाधनः॥
मूत्रातीत के लक्षण
चिरं धारयतो मूत्रं त्वरया न प्रवर्त्तते।
मेहमानस्य मन्दं वा मूत्रातीतः स उच्यते॥
मूत्रजठर के लक्षण
मूत्रस्य वेगेऽभिहते तदुदावर्त्तहेतुकः। अपानः कुपितो वायुरुदरं पूरयेद्भृशम्॥ नाभेरधस्तादाध्मानं जनयेत्तीत्रवेद-नम्। तन्मूत्रजठरं विद्यादधोबस्तिनिरोधजम्॥
मूत्रोत्संग के लक्षण
बस्तौवाप्यथवा नाले मणौ वा यस्य देहिनः। मूत्रं प्रवृत्तं सज्जेत सरक्तं वा प्रवाहतः॥ स्रवेच्छनैरल्पमल्पं सरुजं वाथ नीरुजम्। विगुणानिलजो व्याधिः स मूत्रोत्संगसंज्ञितः॥
मूत्रक्षय के लक्षण
रूक्षस्य क्रांतदेहस्य वस्तिस्थौ पित्तमारुतौ।
मूत्रक्षयं सरुग्दाहं जनयेतां तदाह्वयम् ॥
मूत्रग्रंथीके लक्षण
अन्तर्बस्तिमुखे वृत्तः स्थिरोऽल्पः सहसा भवेत्।
अश्मरीतुल्यरुग्ग्रन्थिर्मूत्रग्रन्थिः स उच्यते॥
मूत्रशुक्र के लक्षण
मूत्रितस्य स्त्रियं यातो वायुना शुक्रमुद्धतम्। स्थानाच्च्युतं मूत्रयतः प्राक्पश्चाद्वा प्रवर्तते ॥ भस्मोदकप्रतीकाशं मूत्रशु-क्रंतदुच्यते॥
उष्णवात के लक्षण
व्यायामाध्वातपैः पित्तं बस्ति प्राप्यानिलायुतम्। बस्तिं मेढ्रंगुदं चैव प्रदहेत्स्रावयेदधः॥ मूत्रं हरिद्रमथवा सरक्तं रक्त-मेव च। कृच्छ्रात्पुनः पुनर्जंतोरुष्णवातं वदंति तम्॥
मूत्रसाद के लक्षण
पित्तं कफो वा द्वौ वापि संहन्येतेऽनिलेन चेत्। कृच्छ्रान्मूत्रं तदा पीतं रक्तं श्वेतं घनं स्त्रवेत् ॥ सदाहं रोचनाशंखचूर्ण-वर्णं भवेत्तु तत्। शुष्कं समस्तवर्णं वा मूत्रसादं वदंति तम्॥
विड्विघातलक्षण
रूक्षदुर्बलयोर्वातेनोदावर्तं शक्यदा। मूत्रस्रोतोऽनुपद्येत विड्विसृष्टं तदा नर॥ विड्गंधं मूत्रयेत्कृच्छ्राद्विड्विघातं वि-निर्दिशेत्॥
मूत्राघात के असाध्यलक्षण
मूत्राघातः कफोत्पन्नो न सिद्धयति कथंचन।
शोपगौरवयुक्स्निग्धं श्वेतं मेहति यो धनम्॥
बस्तिकुंडलिका के लक्षण
द्रुतावलंघनाथासैरभिघातात्प्रपीडनात्। स्वस्थानाद्बस्तिरुद्वृत्तः स्थूलस्तिष्ठति गर्भवत्॥ शूलस्यन्दनदा-हार्तोबिन्दुं बिन्दुं स्रवत्यपि। पीडितस्तु सृजेद्धारां संरंभोद्वेष्टनार्तिमान्॥ बस्तिकुंडलमाहुस्तं घोरं शस्त्राविषोपमम्। पवनप्रबलं प्रायो दुर्निवारमबुद्धिभिः॥ तस्मिन्पित्तान्विते दाहः शूलं मूत्रविवर्णता। श्लेष्मणा गौरवंशोथः स्त्रिग्धं मूत्रं घनं सितम्॥
साध्यासाध्यत्वकथन
श्लेष्मरुद्धगलो बस्तिः पित्तोदीर्णोन सिद्ध्यति। अविभ्रांतबिलः साध्यो न च यः कुण्डलीकृतः॥ स्याद्बस्तौ कुंडली-भूते तृण्मोहः श्वास एव च॥
मूत्राघात की सामान्यचिकित्सा
स्नेहस्वेदोपपन्नस्य हितं स्नेहविरेचनम्।
दद्यादुत्तरबस्तिं च मूत्राघाते सवेदने॥
मूत्रकृच्छ्राश्मरीरोगे भेषजं यत्प्रकीर्तितम्।
मूत्राघातेषु सर्वेषु तत्कुर्याद्देशकालवित्॥
गोक्षुरादि वटी
त्रिकुटु त्रिफलातुल्यं गुग्गुलुं च समांशकम्। गोक्षुरक्वाथसंयुक्ता गुटिकाः कारयेद्भिषक्॥ दोषकालबलापेक्षी भक्षयेच्चानुलोमिकाम्। न चात्र परिचारोस्ति कर्म कुर्याद्यथेप्सितम्॥ प्रमेहान् घातरोगांश्च वातशोणितमेव च। मूत्राघातं मूत्रदोषं प्रदरं चाशु नाशयेत्॥
पयादि
शृतं शीतं पयो मांसी चंदनं तंदुलांबुना।
पिबेत्सशर्करं श्रेष्ठमुष्णवाते सशोणिते॥
ऐवीरुबीजादि कल्क
कल्कमैर्वारुबीजानामक्षमात्रं ससैंधवम्।
धान्याम्लयुक्तं पीत्वैव मूत्राघाताद्विमुच्यते॥
सामान्ययत्न
दद्यादुत्तरबस्तिं वा मूत्राघाते सवेदने।
अतिमैथुन करने से रुधिर गिरे उस पर यत्न
स्त्रीणामतिप्रसंगेन शोणितं यस्य सिच्यते।
मैथुनो परमस्तस्य बृंहणीयो विधिर्हितः॥
देयः पाषाणभेदोत्रानुपानैः कृच्छ्रनाशनः।
शीतोपचारं बहुलं कुर्याल्लिंगोद्भवे गदे॥
पिबेच्छिलाजतुक्वाथे गणे वीरतरादिके।
रसं दुरालभाया वा कषायं वासकस्य वा॥
त्रिकंटकैरंडशतावरीभिः सिद्धं पयो वातमये सशूले।
गुडप्रगाढं सघृतं पयो वा रोगेषु कृच्छ्रादिषु शस्तमेतत्॥
वीरतर्वादि क्वाथ
वीरतरुर्वृक्षवदाकाशः सहचरत्रयम्। कुशद्वयनलो गुंद्रा बकपुष्पोग्निमंथकः॥ मूर्वा पाषाणभेदश्च स्योनाको गोक्षुर-स्तथा। अपामार्गश्च कमलं ब्राह्मी चेति गणो वरः॥ वीरतर्वादिरित्युक्तः शर्कराश्मरिकृच्छ्रहा। मूत्राघातं वायुरोगान्ना-शयेन्निखिलानपि॥
सशूलमूत्राघात पर
नलकुशकाशेक्षुशिफाक्वथितं प्रातः सुशीतलं ससितम्।
पिबतः प्रयाति नियतं मूत्राघातः सवेदनः पुंसः॥
त्रिफलादि क्वाथ
वरांबुलवणं चैव ससूतं यः पिबेन्नरः।
तस्य नश्यंति वेगेन मूत्राघातास्त्रयोदश॥
गोधावन्यादि क्वाथ
गोधावन्यामूलं क्वथितं घृततैलगोरसोन्मिश्रम्॥
पीतं विरुद्धमचिरात् भिनत्ति मूत्रस्य संघातम्॥
दशमूलादि क्वाथ
दशमूलीशृतं पीत्वा सशिलाजतुशर्करम्।
वातकुंडलिकाष्ठीलावातबस्तौप्रयुज्यते॥
गोक्षुरादि क्वाथ
पीतो गोकंटकक्काथः सशिलाजतुकौशिकः।
मूत्रक्षयान्मूत्रशुक्रान्मूत्रोत्संगाद्विमुच्यते॥
प्रकारांतर
क्वाथं समूलपत्रस्य गोक्षुरोः सफलस्य च।
पिबेन्मधुसितायुक्तं मूत्रकृच्छ्ररुजापहम्॥
वरुणादि क्वाथ
वरुणगोक्षुरविश्वभृतं जलं गुडयवाग्रजकल्कसमन्वितम्।
जयति साश्मरिमूत्रविनिग्रहं विरजमप्यतिविस्तरसंचयम्॥
शतावर्यादि स्वरस
वरीगोक्षुरभूधात्रीमूलानां स्वरसं पलम्। माषमेकं यवक्षारं सौरं माषद्वयं तथा॥ द्विगुंजं टंकणक्षारंसर्वमेकत्र मेलयेत् । पिबेत्तत्तुविनाशाय मूत्राघाते सुदारुणे ॥
तिलक्षारयोग
दुग्धमाक्षिकयुतासखे यदा सेविता तु तिलकालभूतिका।
मूत्राघातजनितव्यथा तदा दाहवत्यपि नृणां न तिष्ठति ॥
तालस्य मूलमपि तंदुलवारिपिष्टम् ।
मूत्रोष्णवारिशमनं सितया समेतम्॥
कर्पूरवर्ती
कर्पूररजसा युक्ता वस्त्रवर्तिः शनैः शनैः।
मेढ्रमार्गांतरे न्यस्ता मूत्राघातं व्यपोहति ॥
निदग्धिकास्वरस
निदग्धिकायाः स्वरसं पिबेद्वा तक्रमिश्रितम्।
जले कुंकुमकल्कं वा सक्षोद्रमुशितं निशि॥
शिलाजतुयोग
सशर्करं सशीतं च लीढं शुद्धं शिलाजतु ।
निहंति मूत्रजठरं मूत्रातीतं च देहिनाम्॥
कर्कटीबीजादि चूर्ण
कर्कटीबीजसिंधूत्थत्रिफलासमभागिकम्।
पीतमुष्णांभा चूर्णं मूत्ररोधं निवारयेत्॥
Pege no. १३७२ and १३७३ are missing from this Book.
युतम्॥ तुंगाक्षिर्याच तत्सर्वं मतिमान्परिमिश्रयेत्। ततो मितं पिबेत्काले यथादोषं यथाबलम्॥ मूत्रग्रंथिं सूत्रसादमुष्णवातमसृग्दरम्। विड्विघातं निहंत्येतद्बस्तिकुंडलिमप्यलम्॥ सर्पिरेतत्प्रयुंजाना स्त्री गर्भं लभतेऽचिरात्। असृक्दोषे योनिदोषे शुक्रदोषे तथैव च॥ प्रयोक्तव्यमिदं सर्पिश्चित्रकाद्यं सदा बुधैः॥
मूत्राघात पर पथ्य
अभ्यंजनं स्वेदविरेकबस्तिःस्वेदोवगाहोत्तरबस्तयश्च। पुरातना लोहितशालयश्च मांसानि धन्वप्रभवानि मद्यम्॥ तक्रं पयोदध्यतिमाषयूषः पुराणकूष्मांडफलं पटोलम्। उर्वारुखर्जूरकनारिकेलतालद्रुमाणामपि मस्तकानि। यथाबलं सर्वमिदं च मूत्राघातातुराणां हितमादिशंति॥
मूत्राघातपर अपथ्य
विरुद्धान्नानि सर्वाणि व्यायामं मार्गशीलितम्।
रूक्षं विदाहि विष्टंभि व्यवायं वेगधारणम्॥
करीरं वमनं चापि मूत्राघातीविवर्जयेत्॥
इति श्रीमायुर्वेदोद्धारे बृहन्निघंटुरत्नाकरे मूत्राघातस्य निदान चिकित्सा समाप्ता।
__________
अश्मरीरोगकर्मविपाकः।
परस्त्रीगामी अपस्मारी भवत्यश्मरीवान्॥
शांति
स्वर्णदानं कार्यं तस्य सर्वरोगे दानमुक्तत्वात्॥
ज्योतिःशास्त्र का मत
शूलप्रमेहपीडितमश्मर्योपहतमानसं सितो जनयति रविणा दृष्टो जीवग्रहे चंद्रजः पुरुषम्। गुरुग्रहवर्तमानरविदृष्टबुधजनिताश्मरीेरोगप्रतीकारपूर्वकं बुधप्रीतये पूर्वोक्तमेव जपादिकं कुर्यात्॥
अश्मरी (पथरी) निदान
वातपित्तकफैस्तिस्रश्चतुर्थी शुक्रजा मता।
प्रायः श्लेष्माश्रयाः सर्वा अश्मर्यः स्युर्यमोपमाः॥
संप्राप्ति
विशोषयेद्बस्तिगतं सशुक्रं मूत्रं सपित्तं पवनः कफं वा।
यदा तदाश्मर्युपजायते तु क्रमेण पित्तेष्विव रोचना गोः॥
अमरी का पूर्वरूप
नैकदोषाश्रयाः सर्वा अश्मर्यः पूर्वलक्षणम् । बस्त्याध्मानं तदासन्नदेशेषु परितोऽतिरुक् ॥ मूत्रे बस्तसगंधत्वं मूत्रकृच्छ्रज्वरोऽरुचिः॥
अश्मरी के सामान्यलक्षण
सामान्यलिंगं रुङ्नाभिसेवनीबस्तिमूर्धसु। विशीर्णधारं मूत्रं स्यात्तया मार्गनिरोधनं॥ तद्व्यपायात्सुखं मेहेदच्छं गोमेदकोपमम्। तत्संक्षोभात्क्षते सास्रमायासाच्चातिरुग्भवेत्॥
वाताश्मरी के लक्षण
तत्र वाताद्भृशं व्याप्तो दन्तान्खादति वेपते। मथ्नाति मेहनं नाभिं पीडयत्यनिशं कुणन् ॥ सानिलं मुंचति शकृन्मुहुर्मेहति बिन्दु शः । इयावा रूक्षाश्मरीचास्य स्याच्चिता कंटकैरिव॥
अश्मरी की सामान्यचिकित्सा
वाताश्मरीपूर्वरूपे स्नेहपानं प्रशस्यते॥
शुंठ्यादिचूर्ण
शुंढ्यग्निमंथपाषाणभिद्रुग्वरुणगोक्षुरैः। अभयारग्वधफलैः क्वाथं कृत्वा विचक्षणः॥ रामठक्षारलवणैः चूर्ण दत्त्वा पिबेन्नरः। वाताश्मरीं हंति कृच्छ्रं मांद्यमग्नेश्चतद्रुजः॥ कट्यूरुगुदमेढ्रस्थं वृषणस्थं च मारुतम्॥
यवादिघृत
यवकोलकुलित्थानि कतकस्य फलानि च। चतुर्थांशकषायेण पाच्यमेतच्छृतं घृतम्॥ शमयेद्वातसंभूतामश्मरी क्षिप्रमेव च॥
वीरतर्वादिक्वाथ
वीरतर्वादिकः क्वाथः पूर्वोक्तो वातजाश्मरीज्।
सद्यो हंतियवक्षारगुडयुक्तो न संशयः॥
अन्न
क्षारान्यवागूं पेयांश्च कषायाणि पयांसिच।
भोजनार्थे प्रयोज्यानि वाताश्मरिरुजां नृणाम्॥
वरुणमूलक्वाथ
क्वाथो वरुणमूलस्य तस्य कल्केन संयुतम्।
शिग्रुमूलस्य च क्वाथः कदुष्णश्चाश्मरीं जयेत्॥
पित्ताश्मरी
पित्तेन दह्यते बस्तिः पच्यमान इवोष्मवान्।
भल्लातकास्थिसंस्थाना रक्ता पीता सिताश्मरी॥
पाषाणभेदिक्वाथ
पीत्वा पाषाणभित्क्वाथंसशिलाजतुशर्करम्।
पित्ताश्मरीं निहंत्याशु वृक्षमिंद्राशनिर्यथा॥
कफ की पथरी का लक्षण
बस्तिर्निस्तुद्यत इव श्लेष्मणा शीतलो गुरुः।
अश्मरी महती श्लक्ष्णमधुवणाथवा सिता॥
इसका बालकों के होना
एता भवंति बालानां तेषामेव च भूयसा।
आश्रयोपचयात्पत्वाद् ग्रहणाहरणे सुखाः॥
शिग्रुक्वाथ
क्वाथो निपीतः सक्षारः शिग्रुत्वग्वरुणत्वचोः।
कफजामश्मरीं हंति शक्राशनिरिव द्रुमम्॥
शुक्राश्मरीनिदान
शुक्राश्मरीतु महतां जायते शुक्रधारणात्।
स्थानाच्च्युतममुक्तं हि मुष्कयोरन्तरेऽनिलः॥
शोषयत्युपसंहृत्य शुक्रं तच्छुष्कमश्मरी॥
शुक्राश्मरी के कार्य
बस्तिरुक्कृच्छ्रमूत्रत्वं मुष्कश्वयथुकारिणी।
तस्यामुत्पन्नमात्रायां शुक्रमेति विलायते॥
शुक्राश्मरी की सामान्यचिकित्सा
शुक्राश्मर्यांतु सामान्यो विधिरश्मरिनाशनः॥
यवक्षारयोग
यवक्षारगुडोन्मिश्रं पिबेत्पुष्पफलोद्भवम्।
रसं मूत्रविबंधघ्नं शुक्राश्मरिविनाशनम्॥
कुटजयोग
पिबतः कुटजं दध्नापथ्यमन्नं च खादतः।
निपतत्यचिरादस्य निश्चितं मेढ्रशर्करा॥
शर्कराश्मरीनिदान
पीडिते त्ववकाशेस्मिन्नइमर्येव च शर्करा। अणुशो वायुना भिन्ना सा तस्मिन्ननुलोमगे॥ निरेति सह मूत्रेण प्रतिलोमे विबध्यते। मूत्रस्रोतः प्रवृत्ता सा सक्ता कुर्यादुपद्रवान् ॥ दौर्बल्यं सदनं कार्श्यंकुक्षिशूलमथारुचिम्। पांडुत्वमुष्णवातं च तृष्णां हृत्पीडनं वमिम्॥
शर्करा के असाध्य लक्षण
प्रशूननाभिवृषणं बद्धसूत्रं रुजान्वितम्।
अश्मरी क्षपयत्याशु शर्करा सिकतान्विता॥
पाषाणभेदरस
शूद्धसूतं द्विधा गंधं श्वेतपौनर्नवद्रवैः। मर्दयित्वा दिनं खल्वेरुद्ध्वाधो भूधरे पचेत्॥ पाषाणभेदसंयुक्तं पिष्ट्वाचूर्णं प्रकल्पयेत्। भक्षयेदश्मरीं हंति रसः पाषाणभेदकः॥
त्रिविक्रमरस
ताम्रभस्म त्वजाक्षीरे पाच्यं तुल्ये घृते पचेत्। तत्ताम्रंशुद्धसूतं च गंधकं च समं समम॥ निर्गुंड्युत्थद्रवैर्मद्यं दिनं तद्गोलमाहरेत्। यामैकं वालुकायंत्रे पाच्यं योज्यं द्विगुंजकम्॥ बीजपूरस्य मूलं तु सजलं चानुपाययेत्। रसस्त्रिविक्रमो नाम्नासिकता चाश्मरीप्रणुत्
रसभस्मयोग
विदारीगोक्षुरुर्यष्टिकेशरं च समं भवेत्। तं कषायं पिबेर्क्षौद्रे रसभस्मयुतं पुनः॥ मूत्रकृच्छ्राद्विमुच्येत साध्यासाध्यान्न संशयः॥
लघुलोकेश्वररस
मृतं रसस्य भागैकं चत्वारः शुद्धगंधकम्। पिष्ट्वा वराटिकां तेन रसपादं च टंकणम्॥ क्षीरे पिष्ट्वामुखं लिप्त्वातासां ताश्च धमेत्पुटे। स्वांगशीतं विचूर्ण्याथ लघुलोकेश्वरो रसः॥ सितासह इदं खादन्मूत्रकृच्छहरं परम्॥
गंधर्वादि कल्क
गंधर्वहस्तबृहतीव्याघ्रीगोक्षुरकेक्षुकात्।
मूलकल्कं पिबेद्दध्नामधुरेणाश्मभेदनम्॥
तिलादिक्षार
तिलापामार्गकदलीपलाशयवसंभवः।
क्षारः पेयो विमूत्रेण शर्करास्वश्मरीषु च॥
शिलाजतुयोग
अश्मर्यांचाश्मरीकृच्छ्रे शिलाजतु समाक्षिकम्।
यवक्षारं गोक्षुरं च खादेद्वा चाश्मरीहरम्॥
हिंग्वादि योग
हिंग्वेलाक्षीरसर्पिस्तु मूत्रशुक्रामयापहम्॥
शृंगबेरादि कल्क
शृंगबेरयवक्षारपध्याकालीयकांजनम् ।
आजं दधि भिनत्त्युग्रामश्मरीमाशु पातनम्॥
आनंदभैरवीवटी
तिलापामार्गकांडे च कारवल्ल्या यवस्य च। पलाश काष्ठसंयुक्तं सर्वं तुल्यं दहेत्पुटे॥ तन्निष्कैकमजामूत्रे वटीं चानंदभैरवीम्। पाययेदश्मरीं हंति सप्तवारान्न संशयः॥
मंजिष्ठादि चूर्ण
मंजिष्ठा त्रपुसं बीजं जीरकः शतपुष्पिका। धात्रीफलं बदरकं गंधकं च मनःशिला॥ एतेषां समभागानां चूर्णं टंकमितं नरः। भक्षयेन्मधुना सार्धं पतेत्तस्याश्मरी ध्रुवम्॥
त्रिकंटकादि चूर्ण
त्रिकंटकस्य बीजानां चूर्णं माक्षिकसंयुतम्।
आविक्षीरेण सप्ताहं पिबेदश्मरिभेदनम्॥
केशरयोग
पुराणाज्येन संपिष्टं पीतं सम्यग्दिनत्रयम्।
कुंकुमं नाशयत्याशु देहिनां मेढ्रशर्कराः॥
पाषाणभेदीरस
आदौ व्यथा स्यात्कटिकुक्षिदेशे ततो निरोधाञ्चलितं च मूत्रम्।
इत्यश्मरीलक्ष्मरसोऽत्र युक्तः पाषाणभेदी स निरूप्यतेऽथ॥
तिलपुष्पक्षारयोग
क्षारो निपीतस्तिलपुष्पजातः समाक्षिकः क्षीरयुतस्त्रिरात्रम्।
हंत्यश्मरींसिंधुविमिश्रितं वा निपीयमानं रुचकं प्रयत्नात्॥
गोपालकर्कटीमूलयोग
गोपालकर्कटीमूलं पिष्टं पर्युषितांभसा।
पीयमानं त्रिरात्रेण पातयत्यश्मरीं हठात्॥
अर्कपुष्पीकल्क
गव्येन पिष्ट्वा पयसार्कपुष्पी निपीयमाना त्रिदिनं प्रभाते।
विदार्य वीर्येण निजेन तीव्रामप्यश्मरीं या कुरुते च दाहम्॥
शतावरी मूलरस
शतावरीमूलरसो गव्येन पयसा समः।
पीतो निपातयत्याशु ह्यश्मरीं चिरजामपि॥
वरुणादि क्वाथ
वरुणस्य त्वचं श्रेष्ठां शुंठीगोक्षुरसंयुताम्। यवक्षारगुडं दत्त्वा क्वाथं कृत्वा पिबेद्धिमम्॥अश्मरीशर्करामूत्रकृच्छ्राघातरुजापहम्॥
एलामधुकगो कंटरेणुकैरंडवासकः। कृष्णाश्मभेदसहिताः क्वाथ एषांसुसाधितः॥ शिलाजतुयुतः पेयः शर्कराश्मरिकृच्छ्रहा॥
क्वाथ
वरुणत्वक्कषायस्तु पीतो गुडसमन्वितः।
अश्मरीं पातयत्याशु बस्तिशूलं च नाशयेत्॥
शिग्रुमूलक्वाथ
क्वाथश्च शिग्रुमूलोत्थः कटूष्णोइमरिपातनः।
क्षीरान्नभुग्बर्हिशिखामूलं वा तंदुलांबुना॥
तुषकषाय
यः पिबेद्रजनीं सम्यक् सगुडां तुषवारिणा।
तस्याशु चिररूढापि यात्यस्तं मद्रशर्करा॥
शुंठयादि क्वाथ
शुंठयग्निमंथापामार्गशिग्रुवरुणगोक्षुरैः।
अभयारग्वधफलैः क्वाथंकुर्याद्विचक्षणः॥
राम क्षारलवणचूर्णंदत्त्वा पिबेन्नरः।
अश्मरीमूत्रकृच्छ्रघ्नं दीपनं पाचनं परम्॥
आकल्लकादि क्वाथ
आकल्लगोक्षुरजटातुलसीशिलाभिरेरंडमूलमगधामधुकैः प्रयुक्तः। तक्राह्वमूलसुरसासुरपुष्पशुंठीक्वाथो निहंति बहुलाप्रतिवापितोयम्॥ सप्ताहमेव पिवतां नियमेन पुंसां घोराइमरीमतिरुजं सहशर्करां च । आवीपयो मधुविमिश्रितमाशु तद्वत् चूर्णं त्रिवृत्कुटजबीजभवं वदंति ॥
पाषाणभेदादि क्वाथ
पाषाणभिद्वरुणगोक्षुरकोरुबूकक्षुद्राद्वयं क्षुरकमूलकृतः कषायः।
दध्नायुतो जयति मूत्रविबंध शुक्रमुग्राश्मरीमपि च शर्करया समेतम्॥
कुलित्थक्वाथ
पलद्वयमिते कोष्णे कुलित्थस्य श्रुते त्वपः। लवणं शरपुंखेन सार्धं माषद्वयोन्मितम्॥ क्षित्वा पिबेत्पतेत्तस्य मूत्रेण सममश्मरी। शर्करा सिकता चापि दृष्टमेतदनेकधा॥
कूष्मांडस्वरस
कूष्मांडकरसं हिंगुयवक्षारयुतं पिबेत्।
बस्तौ मेढ्रेशूलयुक्ते चाश्मरींशर्करां जयेत्॥
वरुणादि घृत
वरुणस्य तुलां क्षुण्णां जलद्रोणे विपाचयेत्। पादशेषं परिश्राप्य घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥ वारुणी कदली बिल्वं तृणजं पंचमूलकम्। अमृता त्वश्मजं देयं बीजं च त्रपुतस्य च॥ शतपर्वा तिलक्षारः पलाशक्षार एव च। यूथिकायाश्च मूलानि कर्षैकानि समर्पयेत्॥ अस्य मात्रां पिबेनंतुर्देशकालाद्यपेक्षया। जीर्णे चानुपिबेत्सर्वमजीर्णेमस्तुमवं च॥ अश्मरी शर्करां चैव मूत्रकृच्छ्रं च नाशयेत्॥
पाषाणभेदपाक
अश्मभेदात्प्रस्थमेकं चूर्णितं वस्त्रगालितम्॥ गव्ये दुग्धाढके क्षिप्त्वा पाचयेन्मृदुवह्निन॥ दर्व्यासंघट्टयेत्तावद्यावद्धनतरं भवेत्। एला लवंगमगधा यष्टीमध्वमृताभया॥ कौंतीश्वदंष्ट्रावृषकं शरपुंखा पुनर्नवा। यावशूकोनिलघ्नश्च मांसिसप्तांगुलोत्पलम्॥ वंगं लोहं तथाभ्रं च कर्पूरं पर्पटंसठी। पत्रेभकेशरं त्वक्च संशुद्धं च शिलाजतु॥ पृथगर्धपलं चूर्णं चूर्णिता सितशर्करा। सार्धप्रस्थमिता ग्राह्या दुग्धे लेहत्वतां गते॥ सर्व तन्निक्षिपेत्तत्र स्वांगशीतलतां नयेत् । मधुनः प्रस्थकं दद्यात्स्निग्धभांडे विनिक्षिपेत्॥ कर्षार्धंभक्षयेत्प्रातस्तीक्ष्णं तैलादिकं त्यजेत्। पंचाश्मरीभेदनं स्यान्मूत्रकृच्छ्रं खुडं तथा॥ मूत्राघातान्प्रमेहांश्च नाशयेन्मधुमेहजान्। अधोगं रक्तपित्तं च बस्तिकुक्षिगदं तथा॥ तीव्राश्मरीपरीतानां विशेषेण हितं हि तत्। यत् ब्रह्मणा विरचितं च्यवनाय निवेदितम्॥
वरुणादि गुड
नो जग्धं कृमिभिर्घनं सुतरुणं स्निग्धं शुचिस्थानजं घस्रेपुण्यनिरीक्षिते वरुणकं छित्त्वा तुलां ग्राहयेत्। संग्राह्यासु चतुर्गुणासु विपचेत्पादावशेषं जलं तत्तुल्येन गुडेन वै दृढतरे भांडे पचेत्तपुनः ॥ ज्ञात्वैवं घनतां गुडे परिणते प्रत्येकमेषां पलं शुंठ्यौर्वारुकबीजगोक्षुरकणापाषाणभिच्छीतला। कूष्मांडं खलु साक्षबीजकुनटीवास्तूकसौभांजनद्राक्षैलागिरिजाभयाकृमिहृतां चूर्णीकृतानां क्षिपेत् ॥ पथ्याशी प्रतिवासरं गुडममुं योग्य प्रमाणं नरः खादेत्तस्य समस्तदोषजनिताश्मर्यः पतंति द्रुतम्॥
अश्मरी (पथरी) पर पथ्य
कुलित्था मुद्गगोधूमा जीर्णशालियवा हिताः। धन्वामिषं तंदुलीयं जीर्णं कूष्मांडकं फलम्॥ आर्द्रकं यावशूकश्च पथ्यमश्मरिरोगिणाम्॥
पथ्य
बस्तिर्विरेको वमनं च लंघनं स्वेदोऽवगाहोऽपि च वारिसेचनम्। यवा कुलित्थाश्च पुराणशालयो मद्यानि धन्वांडजसंभवा रसाः॥ पुराणकूष्मांडफलं कसेरुकं गोकंटको वारुणशाकमार्द्रकम्। पाषाणभेदो यवशूकरणवश्छिन्ना समाकर्षणमश्मनामपि॥ एतानि सर्वाणि भवंति सर्वदा मुदेऽश्मरी रोगनिपीडितात्मनाम्॥
अश्मरी पर अपथ्य
मूत्रस्य शुक्रस्य च वेगमम्लं विष्टंभि रूक्षं गुरु चान्नपानम्।
विरुद्धपानाशनमश्मरीमान् विवर्जयेत्संततमप्रमत्तः॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे अश्मरीरोगनिदानचिकित्सा समाप्ता।
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प्रमेहरोगकर्मविपाकः।
चांडालीगमनात्सर्वप्रमेहव्याधिमान् भवेत्। क्षुत्पिपासातुरचैव जायते तस्य निष्कृतिः॥ चांद्रायणत्रयं कुर्याद्यवमध्यं तथापरे। जुहुयात्सर्पिषा चैतान् जपेन्मंत्रान्समाहितः॥ इदमाषःप्रवहत इति द्वयोर्मेधातिथिर्ऋषिः॥
सशूलप्रमेह का कर्मविपाक
तिर्यग्गामी सशूलेन प्रमेहेन युतो भवेत्।
कुर्यात्सांतपनादीनि प्रायश्चित्तं यथाविधि॥
वातप्रमेहकर्मविपाक
पर्वव्यवायो मनुजः कन्यागामी तथैव च।
वातप्रमेहयुक्तः स्यात्कुर्याच्चांद्रायणव्रतम्॥
मधुमेह का कर्मविपाक
मधुमेही मातृगामी सततं जायते नरः। पितृभार्याभिगामी च जलमेही नराधमः॥ यो गच्छेद्भगिनीं नित्यमिक्षुमेही भवेन्नरः। प्रायश्चित्तं क्रमादत्र षड्वर्षाण्यथ पंच च॥ त्र्यब्दमित्याचरेत्सम्यक् ततो रोगात्प्रमुच्यते॥
प्रमेहनिदान
आस्यासुखं स्वप्नसुखं दधीनि ग्राम्योदकानूपरसाः पयांसि।
नवान्नपानं गुडवैकृतं च प्रमेह हेतुः कफकृञ्च सर्वम्॥
कफादि प्रमेहों की संप्राप्ति
मेदश्चमांसं च शरीरजं च क्लेदंकफो बस्तिगतः प्रदूष्य। करोति मेहान्समुदीर्णमुष्णैस्तानेव पित्तं परिदृष्य चापि॥ क्षीणेषु दोषेष्ववकृत्य धातून्संदूष्य मेहान्कुरुतेऽनिलश्च॥
कफादिजन्य प्रमेहों का साध्यासाध्यत्व
साध्याः कफोत्था दश पित्तजाः षट् याप्या न साध्या पवनाच्चतुष्काः। समक्रियत्वाद्विषमक्रियत्वान्महाक्रियत्वाच्च यथाक्रमं ते ॥
प्रमेहों में दोष और दृष्य तथा संख्या
कफः सपित्तः पवनश्च दोषा मेदश्च शुक्रांबुवसालसीकाः।
मज्जारसौजं पिशितं च दूष्याः प्रमेहिणीं विंशतिरेव मेहाः॥
पूर्वरूप
दंतादीनां मलाढ्यत्वं प्राग्रूपं पाणिपादयोः।
दाहश्चिक्कणता देहे तृट्श्वासश्च प्रजायते॥
प्रमेहके सामान्यलक्षण
सामान्यं लक्षणं तेषां प्रभूताविलमूत्रता। दोषदूष्याविशेषेपि तत्संयोगाविशेषतः॥ मूत्रवर्णादिभेदेन भेदो मेहेषु कल्प्यते। सम्यक्चेदं परिज्ञाय क्रिया कार्या भिषग्वरैः॥
प्रमेह के वीस भेद
उदकश्चेक्षुसांद्रश्च सुराह्वौपिष्टकस्तथा। शुक्राह्वःसिकताह्वश्चशीतमेहः शनैस्तथा॥ लालामेहस्तथा क्षारोनीलमेहोथं कारकः। हारिद्रमेहोमांजिष्ठो रक्तमेहस्तथापरः॥ षोडशोथ वसामेहो मज्जामेहस्तु कीर्तितः। क्षौद्रमेहश्च हस्ती च मेहानां विंशतिः क्रमात्॥
कफजन्य उदकादि दश प्रमेह
अच्छं बहुसितं शीतं निर्गंधमुदकोपमम्। मेहत्युदकमेहेन किंचिदाविलपच्छिलम्॥ इक्षो रसमिवात्यर्थं मधुरं चक्षुमेहतः। सांद्रीभवेत्पर्युषितं सान्द्रमेहेन मेहति॥ सुरामेही सुरातुल्यमुपर्यच्छमधोघनम्। संहृष्टरोमा पिष्टेन पिष्टवद्बहुलं सितम्॥ शुक्राभं शुक्रामिश्रं वा शुक्रमेही प्रमेहति। मूत्राणून् सिकतामही सिकतारूपिणो मलान्॥ शीतमेही सुबहुशो मधुरं भृशशीतलम्। शनैः शनैः शनैर्मेही मन्दं मन्दं प्रमेहति॥ लालातंतुयुतं मूत्रं लालामेहेन पिच्छिलम्॥
पित्तप्रमेह के छः भेद
क्षारमेही नीलमेहीकालहारिद्रमेहनः॥
मांजिष्ठो रक्तमेहश्चमेहाः षट् पित्तजाः स्मृताः॥
क्षारादि प्रमेहों के लक्षण
गंधवर्णरसस्पर्शैः क्षारेण क्षारतोयवत्। नीलमेहेन नीलाभं कालमेही मषीनिभम्॥ हारिद्रमेही कटुकं हरिद्रासन्निभं दहेत्। वित्र मांजिष्ठमेहेन मंजिष्ठासलिलोपमम्॥ विस्रमुष्णं सलवणं रक्ताभं रक्तमेहतः॥
वातजन्यमेह
चत्वारस्तु वसामज्जाहस्तिमध्वनिलात्मजाः॥
वासादि मेहोंके लक्षण
वसामिश्रं वसामेही वसा मूत्रयेन्मुहुः। मज्जाभं मज्जमिश्रं वा मज्जामही मुहुर्मुहुः॥ कषायं मधुरं रूक्षं क्षौद्रमेहं वदेद्बुधः। हस्ती मत्त इवाजस्रंमूत्रं वेगविवर्जितम्॥ सालसीकं विबुद्धं च हस्तिमेहेन मेहति॥
कफप्रमेहोंके उपद्रव
अविपाकोऽरुचिश्छर्दिर्ज्वरः कासः सपीनसः।
उपद्रवाः प्रजायन्तेमेहानां कफजन्मनाम्॥
पित्तप्रमेहोंके उपद्रव
बस्तिमेहनयोः शूलं मुष्कावदरणं ज्वरः।
दाहस्तृष्णाम्लिका मूर्च्छा विड्भेदःपित्तजन्मनाम्॥
वातप्रमेहोंके उपद्रव
वातजानामुदावर्तः कंठहलोलताः।
शूलमुन्निद्रता शोषः कासः श्वासश्च जायते॥
असाध्यलक्षण
यथोक्तोपद्रवाविष्टमतिप्रस्रुतमेव च।
पिडिकापीडितं गाढं प्रमेहोहन्ति मानवम्॥
स्त्रियों के प्रमेह न होने मेंकारण
रजः प्रवर्तते यस्मान्मासिमासि विशोधयन्।
सर्वान् शरीरदोषांश्च न प्रमेहोस्त्यतः स्त्रियाः॥
प्रमेह के असाध्यलक्षण
जातः प्रमेही मधुमोहिना यो न साध्यरोगः स हि बीजपोषात्।
ये चापि केचित्कुलजा विकारा भवन्ति तांश्च प्रवदन्त्यसाध्यान्॥
मधुमेहोत्पत्ति और कारण
सर्व एव प्रमेहास्तु कालेनाप्रतिकारिणः।
मधुमेहत्वमायांति तदासाध्या भवंति हि॥
दो प्रकारके मधुमेह के कारण
मधुमेहे मधुसमं जायते स किल द्विधा।
कुद्धे धातुक्षयाद्वायो दोषावृतपथेऽथवा ॥
आवरण के लक्षण
आवृतो दोषलिंगैस्तु सोऽनिमित्तं प्रदर्शयन् ।
क्षीणः क्षणात्पुनः पूर्णो भजते कृच्छ्रसाध्यताम् ॥
मधुमेहप्रवृत्तिनिमित्त
मधुरं यच्च मेहेषु प्रायो मध्विव मेहति।
सर्वेऽपि मधुमेहाख्यां माधुर्याच्च तनोरतः॥
लोध्रादि क्वाथ
लोध्राभयाकट्फलमुस्तकानां विडंगपाठार्जुनधन्वकानाम्।
कदंबशाखार्जुनदीप्यकानां विडंगदार्वीघनशाल्मलीनाम्॥
चत्वार एते मधुना कषायाः कफप्रमेहेषु निषेवणीयः॥
कफजन्यमेहों पर क्रमसे दश क्वाथ
हरीतकीकट्फलमुस्तलोध्राःपाठाविडंगार्जुनधन्वयासाः। उभे हरिद्रे तगरं विडंगं कदंबशालार्जुनदीप्यकाश्च ॥ दावीं विडंगं खदिरो धवश्च सुराह्वकुष्टार्जुनचंदनानि। दार्व्यग्निमंथौ त्रिफला सपाठा पाठा च मूर्वा च तथाश्वदंष्ट्रा॥ यवान्युशीराण्यभयागुडूचीजंबूशिवाचित्र कसप्तपर्णाः। पादैः कषायः कफमेहिनां ते दशोपदिष्टा मधुसंप्रयुक्ताः॥ जलप्रमेहेक्षुरसप्रमेहे सांद्रप्रमेहे च सुराप्रमेहे । पिष्टप्रमेहेपि च शुक्रमेहे क्रमादमी स्युः सिकता प्रमेहे॥ शीतप्रमेहे च शनैःप्रमेहे लालाप्रमेहेऽपि सुखाय तेषाम्॥
शनैर्मेह
शनैर्मेहिनां त्रिफलागुडूचीकषायम् ॥
पिष्टप्रमेह
पिष्टमेहिनां हरिद्राद्वितयकषायम्॥
सिकताप्रमेह
सिकतामेहिनां निंबकषायम्॥
उदकप्रमेह
उदकमेहिनां पारिजातकषायं पाययेत्॥
सांद्रप्रमेह
सांद्रमेहिनां सप्तपर्णकषायम्॥
लालाप्रमेह
लालामेहिनां त्रिफलारग्वधमृद्वीकाकषायं पाययेत् ॥
शुक्रमेह
शुक्रमेहिनां दूर्वाशैवलप्लवकारंजकसेरुककषायम्। ककुभचंदनकषायं वा॥
शीतप्रमेह
शीतमेहिनां पाठागोक्षुरकषायम् ॥
इक्षुप्रमेह
इक्षुमेहिनां निंबकषायम्॥
सुराप्रमेह
सुरामेहिनां शाल्मलीकषायम्॥
पित्तप्रमेहपर चार क्वाथ
लोध्रार्जुनोशीरकुचंदनानामरिष्टसव्यामलकाभयानाम्। धात्र्यर्जुनारिष्टकवत्सकानां नीलोत्पलाजाजिनिशा-र्जुनानाम्॥ चत्वार एते विहिताः कषायाः पित्तप्रमेहेषु मधुप्रयुक्ताः॥
पित्तकी छः प्रमेहों पर क्रम से छः क्वाथ
उशीरलोध्रासुरचंदनानां उशीरमुस्तामलकाभयानाम्। पटो- लनिंबामलका मृतानां मुस्ताभयापुष्कर वृक्षकानाम्॥ लोध्रांबुकालीयकधातकीनां विश्वार्जुनानां मिशितोत्पलानाम्। मांजिष्टहारिद्रकनीलक्षारं कृष्णा-ख्यरक्ते क्रमशः कषायाः॥
क्षारप्रमेह
क्षारमेहिनां त्रिफलाकषायम् ॥
हरिद्राप्रमेह
हरिद्रामेहिनां राजवृक्षकषायम् ॥
मांजिष्ठप्रमेह
मांजिष्ठमेहिनां मंजिष्ठाचंदनकषायम्॥
शोणितप्रमेह
शोणितमेहिनां गुडूचीतिंदुकास्थिकाश्मर्यखर्जूरकषायं मधुमिश्रं पाययेत्॥
दुष्टरक्तज प्रमेह
क्वाथः खर्जूरकाश्मर्यतिंदुकास्थ्यमृताकृताः।
सुहिमः पीतमात्रस्तु सक्षोद्रो रक्तमेहहा॥
नीलप्रमेह
नीलमेहिनां सालसादिकषायं अश्वत्थकषायं वा॥
सर्पिप्रमेह वातजन्य
सर्पिर्मेहिनां कुष्ठकुटजपाठाहिंगुकटुरोहिणीकल्कम्,
गुडूचीचित्रककषायं पाययेत्॥
छिन्नादि क्वाथ
छिन्नावह्निकषायं वा पाठा कुटजरामठम्।
तिक्ता कुष्ठं च संपूर्ण सहेि पिबेन्नरः॥
हस्तिमेह
हस्तिमेहिनां तिंदुककपित्थकशिरीषपालाशपाठामूर्वादुःस्पर्शकषायं मधुमिश्रम्॥
हस्तिमेह पर क्षार
हस्त्यश्वशूकरखरोष्ट्रास्थिक्षारं चेति॥
वसा मेह और हस्तिमेह पर क्वाथ
अग्निमंथकषायं तु वसामेहेप्रयोजयेत्। पाठाशिरीषदुस्पर्शमूर्वाकिंशुकतिंदुकैः॥ कपित्थेन भिषक् कुर्यात् क्वाथं हस्तिप्रमेहके॥
क्षौद्रमेह और सर्पिमेहपर क्वाथ
पूगारिमेदयोः क्वाथः सक्षौद्रः क्षौद्रमेहिनाम्। छिन्नावह्निकषायेण पाठाकुटजरामठम्॥ तिक्ता कुष्ठं च संचूर्ण्य सर्पिर्मेहे पिबेन्नरः॥
द्वितीययोग
चांगेरीमेदयोः क्वाथः सक्षौद्रः क्षोद्रमेहिनाम्॥
वसामेह
वसामेहिनां अग्निमंथकषायं शिंशपाकषायं वा॥
कफपित्तप्रमेह पर
कंपिल्लसप्तच्छदशालजानि बिभीतरोहीतक कौटजानि । पुष्पाणि दध्नश्च विचूर्णितानि क्षौद्रेण लिह्यात्कफपित्तमेहे॥
कफवातजन्य प्रमेह पर
हरीतकीकट्फलमुस्तलोध्रकुचंदनोशीरकृतः कषायः।
क्षौद्रेण युक्तः कफवातमेहं निहंति पीतारजसा च पीतः॥
पित्तवातज प्रमेह
विडंगरजनीद्वंद्वं खादिरोशीरपूगजः।
क्वाथः पीतः प्रगे हंति मेहं पित्तानिलोद्भवम्॥
त्रिफलादि क्वाथ
त्रिफलादारुदार्व्यब्दक्वाथः क्षौद्रेण मेहहा।
गुडूच्याः स्वरसः पीतो मधुना सर्वमेहजित्॥
त्रिफलादि क्वाथ दूसरा
फलत्रिकं दारु निशा विशाला सुस्ता च निष्क्वाथ्य निशासमेतम्।
पिबेत्कषायं मधुना प्रयुक्तं सर्वप्रमेहेषु समुत्थितेषु॥
पलाशपुष्पक्वाथ
पलाशतरुपुष्पाणां क्वाथः शर्करया युतः।
निषेवितः प्रमेहाणिहंतिनानाविधान्यपि॥
प्रमेहनाशक योगत्रय
धात्र्याः कषायं मधुरत्रियुक्तं वटांकुराणां समधुं कषायम्।
पाषाणभेदं मधु मिश्रमेतत्त्रयं प्रमेहापहमामनंति॥
विडंगादि क्वाथ
विडंगरजनयष्टीनागरागोक्षुरैः कृतः।
कषायो मधुना हंति प्रमेदान् दुस्तरानपि॥
प्रकारांतर
कुटजासनदार्व्यब्दफलत्रयभवोथवा॥
चणकयोग
द्विनिशात्रिफला कल्कमातपे धारयेत्त्र्यहम्। मृद्भांडे दोलिकायंत्रे चणकान्मुष्टिमात्रकान्॥ अहोरात्रोषितान्खादेद्वर्धमानं दिने दिने। असाध्यं साधयन्मेहंसिद्धयोग उदाहृतः॥
योगचतुष्टय
मधुना त्रिफलाचूर्णमर्धंवाश्मजतूद्भवम्।
लोहजं वा मलोत्थं वा लिह्यान्मेहनिवृत्तये॥
शालादि कल्क
शालपुस्तककंपिल्लकल्कमक्षसमं पिबेत्।
धात्रीरसेन सक्षौद्रं सर्वमेहहरं परम्॥
वंग तथा नागभस्म
गुडूचीरतसमधुना वंगभस्म प्रमेहनुत्।
नागभस्म तथैवापि सर्वमेहनिवारणम्॥
द्विनिशादि हिम
द्विनिशा त्रिफलायुक्तं रात्रौ पर्युषितं जलम्।
प्रभाते मधुना पीतं मेहशूलं निकृंतति॥
गुडूची तथा धात्रीरसयोग
यथामृतारसः क्षौद्रयुक्तः सर्वप्रमेहजित्।
हरिद्राचूर्णयुक्तो वा रसो धात्र्याः समाक्षिकः॥
अंकोल्यादि योग
अंकोलीमुकुलं धात्री हरिद्रा मधुना लिहेत्।
विंशति च प्रमेहानां हंति सत्यं न संशयः॥
भूधात्र्यादि योग
भूधात्रीपत्रिगंधानां मरीचानां च विंशतिः।
असाध्यान्साधयेन्महान् सप्तरात्रान्न संशयः॥
कतकबीजयोग
कर्षप्रमाणं कतकस्य बीजं तक्रेण पिष्ट्वासह माक्षिकेन।
प्रमेहजालं विनिहंति सद्यो राम्रो यथा रावणमाजघान॥
शाल्मलीस्वरस
शाल्मलीत्वग्रसोपेतं सक्षौद्रं रजनीरजः।
वंगभस्म हरेन्मेहानू पंचानन इव द्विषान्॥
एलादि चूर्ण
एलाशिलाजतुकणापाषाणभेदनिर्मितं चूर्णम्।
तंदुलजलेन पीतं प्रमेहरोगं हरत्याशु॥
कर्कट्यादि चूर्ण
कर्कटीबीजसिंधूत्थत्रिफलासमभागिकम्।
पीतमुष्णांभसा चूर्णं मूत्ररोधं निवारयेत्॥
त्रिफलाचूर्ण
एका हरीतकी योग्या द्वौ च योज्यौ बिभीतकौ। चत्वार्यामलकान्येव त्रिफलैषा प्रकीर्तिता॥ त्रिफला शोथमेहघ्नीनाशयेद्विषमज्वरान्। दीपनी श्लेष्मपित्तघ्नी कुष्ठहंत्री रसायनी॥ सर्पिर्मधुभ्यां संयुक्ता सेव्या नेत्रामयाञ्जयेत्॥
गुग्गुलु
त्रिकटु त्रिफला मुस्तं गुग्गुलुं च समांशकम्। गोक्षुरक्वाथसंयुक्तां वटिकां कारयेद्बुधः॥ देशकालबलापेक्षी भक्षयेच्चानुलोमिकाम्। नचात्र परिहारोस्ति कर्म कुर्याद्यथेप्सितम्॥ प्रमेहान्वातरोगांश्च वातशोणितमेव च। मूत्राघातं मूत्रदोषं प्रदरं चापि नाशयेत्॥
गोक्षुरादि गुग्गुल
अष्टाविंशतिसंख्यानि पलान्यानीय गोक्षुरान्। विपचेत्षड्गुणे नीरे क्वाथो ग्राह्योर्द्धशेषितः॥ततः पुनः पचेत्तत्र पुरं सप्तपलं क्षिपेत्। गुडपाकसमाकारं ज्ञात्वा तत्र विनिक्षिपेत्॥ त्रिकटुत्रिफलामुस्तं चूर्णितं पल सप्तकम्। ततः पिंडीकृतं चास्य गुटिकामुपयोजयेत्॥ हन्यात्प्रमेहं कृच्छ्रं च प्रदरं मूत्रघातकम्। वातास्रं वातरोगांश्च शुक्रदोषं तथाश्मरीम्॥
चंद्रकलावटी
एलासकर्पूरशिला सधात्री जातीफलं गोक्षुरशाल्मली च। सूतेंद्रवंगायसभस्म सर्वमेतत्समानं परिभावयेच्च॥ गुडूचिकाशाल्मलिकाकषायैर्निष्कार्धमाना मधुना ततश्च। बद्धा वटी चंद्रकलेति संज्ञा सर्वप्रमेहेषु नियोजयेत्ताम्॥
चंद्रप्रभावटी
वेल्लव्योषफलत्रिकं त्रिलवणं द्विक्षारचव्यानलश्यामापिप्पलिमूलमुस्तकसठीमाक्षीकधातुत्वचः। षड्ग्रंथामरु-वारणकणाभूनिंबदंतीनिशापत्रेलातिविषापिचुप्रतिमिता लोहस्य कर्षाष्टकम्॥ त्वक्क्षीरीपलिकापुराद्दशपलान्यष्टौ शिलाजन्मनो मानात्कर्षसमाकृतेति गुटिका संयोज्य सर्वं भिषक्। तत्रैव प्रतिवासरे सहघृतं क्षौद्रेण लिह्यादिमां तक्रं मस्तु च गोघृतं मधुरसं पश्चात्पिबेन्मात्रया॥ अर्शांसि प्रदरं ज्वरं च विषमं नाडीव्रणानश्मरीं कृच्छ्रं विद्रधिमग्निमांद्यमुदरं पांड्वामयं कामलाम् । यक्ष्माणं सभगंदरं सपिटिकां गुल्मप्रमेहारुची रेतोदोषमुरःक्षतं कफमरुत्पित्तार्तिमुग्रां जयेत्॥ वृद्धं संजनयेयुवानमसमोजस्कं बलं वर्धयेदेतस्मान्न निषिद्धमन्नमसकृन्नाध्वागमो मैथुनम्। विख्याता गुटिकेयमंचतितरां चंद्रप्रभानामतो सांद्रानंदकरी तनोति च रुचिं चंद्रेण तुल्यां तनौ॥
सिंहामृतघृत
कंटकार्या गुडूच्याश्च संहरेच्च शतं शतम्। संकुट्योलूखले विद्वांश्चतुर्द्रोणेंभसः पचेत्॥ तच्च पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्। त्रिकटुत्रिफलारास्नाविडंगान्यथ चित्रकम्॥ काश्मर्याणां च मूलानि पूतिकस्य त्वगस्य च। कुट्टयेच्चापि सर्वाणि श्लक्ष्णपिष्टानि कारयेत्॥ अस्य मात्रां पिबेत्प्राज्ञः शालिभिः पयसा प्लुतैः। प्रमेहं मधुमेहं च मूत्रकृच्छ्रं भगंदरम्॥ आलस्यं चांत्रवृद्धिं च कुष्ठरोगं विशेषतः । क्षयं चापि नित्येतन्नामसिंहामृतं घृतम्॥
हरिद्रादि तैल
निशारसं चतुःप्रस्थं द्विप्रस्थक्षीरसंयुतम्। कुष्टाश्वगंधालशुननिशापिप्पलिकल्कितम्॥ विपक्वंतिलजप्रस्थं मेहानां विंशतिं जयेत्। एतन्मध्ये कार्पासास्थिबीजमाकूलीमूलत्वक् ॥ तत्पुष्पं केतकीबीजं हरीतकी एतेषां चतुर्गुणं जलं दत्त्वा पादांशं कषायं मेलयित्वा केतकीस्वरसंमेलयित्वा पाकं ज्ञात्वावतारयेत्॥ तस्य मात्रा कर्षप्रमाणा ॥
सुपारीपाक
हेमांभोधरचंदनं त्रिकटुकं धात्री प्रियाला कुहूर्लज्जालुस्त्रिसुगंधि जीरकयुगं शृंगाटकं वंशजम्। जातीकोशल-वंगधान्यबहुलां प्रत्येकमक्षोन्मितां पूगस्याष्टपलं विचूर्ण्य च पयःप्रस्थत्रये संपचेत्॥ गोसर्पिः कुडवं सितार्धकतुला धात्रीवरद्व्यंजली मंदाग्नौ विपचेद्भिषक्शुभदिने सुस्निग्धभांडे क्षिपेत। तं खादेत्तु यथाग्निवासरमुखे मेहांश्च जीर्णज्वरं पित्तं साम्लमसृक्स्त्रुति च गुदजान्वकाक्षिनासासु च॥ मंदाग्निं च विजित्य पुष्टिमतुलां कुर्याच्चशुक्रप्रदो योगो गर्भकरस्तथामहरणः स्त्रीणामसृग्दोषजित्॥
असगंधपाक
पलान्यष्टावश्वगंधां विपाच्य गोदुग्धे षट्शेरके मंदवह्नौ। दर्वीलेपो यावदास्ते सुपक्वश्चातुर्जातं क्षिप्य कर्षप्रमाणम्॥ जातीजातं केशरं वंशसत्वं मोचं मांसी चंदनं कृष्णसारम्। पत्री कृष्णापिप्पली मूलदेवपुष्पं कंकोल्लाविका-क्षोटसारम्॥ भल्लीबीजं शृंगटं गोक्षुराख्यं सिंदूरात्रं नागवंगं च लोहम्। कर्षार्धार्धं सर्वचूर्णं प्रकल्प्य संशोष्याथो शर्करापक्वपाके॥ पक्त्वा शीतं कारयेदश्वगंधापाकश्चायं हंति मेहानशेषान्। ज्वरं जीर्णं शोषगुल्मान्विकारा-न्पैत्तान्वातान् शुक्रवृद्धिं करोति॥ पुष्टिं दद्यादग्निसंदीपनोयं कांतिं कुर्यात्सौमनस्यं नराणाम्॥
शाल्मलीपाक
क्षीरद्रोणयुते सशालकुडवं मंदाग्निना पाचितं यावत्पाकमुपात्रजेत्परिहितं प्रस्थं गुडं निक्षिपेत्। चातुर्जातलवंगजाति फलकैर्मुस्तातुगाधान्यकैःशुंठीमागधिकोषणाश्वमभयालोहेश्व मिश्रीकृतम्॥ हृद्रोगक्षय-शोषमा रुतगदान्हिक्कामसृक्शोषणं विशन्मेहशिरोविकारशमनो रोगानशेषाञ्जयेत्॥
द्राक्षापाक
द्राक्षा दुग्धसिता पृथक् परिमिता प्रस्थेन संपाचिता युक्त्यावैद्यवरेण चूर्णमधुना देयं पलार्धं पृथक्। चातुर्जातकटुत्रयं मृगमदं लोहाभ्रकं केशरं पत्री जातिफलं मृगांकरजतं कुस्तुंबरी चंदनम्॥ सम्यक् जातरसं प्रभातसमये सेव्यं द्विकर्षोन्मितं स्निग्धं शुक्रकरं प्रमेहशमनं पित्तामयध्वंसनम् । मूत्राघातविबंधकृच्छ्रशमनं रक्तार्तिनेत्रार्तिहृत्पादे पाणितले विदाहशमनं सौख्यप्रदं प्राणिनाम्॥
अभ्रकयोग
निश्चंद्रमभ्रकं भस्म सवरारजनीरजः।
मधुना लीढमचिरात् प्रमेहान् विनिवर्तयेत् ॥
नागभस्मयोग
शुद्धस्य च मृतस्याहिरजो मल्लमितं लिहेत्।
सनिशामलकाक्षौद्रं सर्वमेहप्रशांतये॥
गंधकयोग
गंधकं गुडसंयुक्तं कर्षंभुक्त्वा पयः पिबेत्।
विंशतिस्तेन नश्यंति प्रमेहाः पिटिका अपि॥
शिलाजतुयोग
शिलाजतुरजः पीत्वा प्रातः क्षीरसितायुतम्।
मुच्यते सर्वमेहेभ्योस्त्रिः सप्तदिवसैर्नरः॥
स्वर्णमाक्षिकभस्मयोग
माक्षिकं मधुना लीढं मेहं हरति सर्वथा।
गुडूचीसत्वसंयुक्तं पित्तमेहं व्यपोहति॥
बहुमूत्रमेहका निदान
कार्श्यंस्वेदोगगंधःकरपदरसनानेत्रकर्णोपदाहः कासःशैथि-ल्यमंगेरुचिरपि पिटका कंठताल्वोष्ठशोषः। दाहः शीतप्रियत्वं धवलिमतनुता श्रांतता पीतमूत्रं मूत्रस्था मक्षिकाद्याश्विरमपि बहुमूत्राख्यरोगं प्रवृद्धे॥
दूसरा प्रकार
स्वदोंगगंधः शीथिलत्वमंगे शय्यासनस्वप्रसुखाभिलाषः। हृन्नेत्रजिह्वा श्रवणोपदाहो घनांगता केशनखातिवृद्धिः॥ शीतप्रियत्त्वं गलतालुशोषो माधुर्यमास्ये करपाददाहः। भविष्यतो मेहगणस्य लिंगं मूत्रेभिधावंतिपिपीलिकाश्च॥ तृष्णा प्रमेहं मधुरं सपिच्छं मधूपमं स्याद्विविधो विकारः। संपूरणा वा कफसंभवा स्यात्क्षीणेषु दोषेण्वानिला-त्मकेन॥ संपूर्णरूपाः कफपित्त मेहाः क्रमेण ये वातकृताश्चमेहाः। साध्या न ते पित्तकृतास्तु याप्याः साध्यस्तु मेहो यदि नातिदुष्टः॥
त्रिफलादि योग
त्रिफलावेणुपत्राब्दपाठामधुयुतैः कृतः।
कुंभयोनिरिवांभोधिं बहुमूत्रं तु शोषयेत्॥
देवदार्व्यारिष्ट
तुलार्धंदेवदारु स्याद्वासा च पलविंशतिः। मंजिष्ठेद्रयवा दंती तगर रजनीद्वयम्॥ रास्ना कृमिघ्नं मुस्तंच शिरीषं खदिरार्जुनौ। भागान्दशपलान् दद्याद्यवान्या वत्सकस्य च॥ चंदनस्य गुडूच्याश्च रोहिण्याश्चित्रकस्य च। भागानष्टपलानेतानद्रोणेऽम्भसः पचेत्॥ द्रोणशेषे कषाये च पूते शीते प्रदापयेत्। धातक्याः षोडशपलं माक्षिकस्य तुलात्रयम्॥ व्योषस्य द्विपलं दद्यात् त्रिजातं च चतुःपलम्। चतुःपलं प्रियंगुश्च द्विपलं नाग- केशरम्॥ सर्वाण्येतानि संचूर्ण्य घृतभांडे विधारयेत्। मासादूर्ध्वंपिबेदेनं प्रमेहं हंति दुर्जयम्॥ वातरोगान् ग्रहण्यर्शोमूत्रकृच्छ्राणि नाशयेत्। देवदार्व्यादिकोऽरिष्टः कंडूकुष्ठविनाशनः॥
लोध्रासव
लोध्रंशठी पुष्करमूलमेल मूवी विडंगं त्रिफला यवानि। चव्यं प्रियंगुं क्रमुकं विशालां किराततिक्तं कटुरोहिणीं च॥ मंडीनतं चित्रकूपिप्पलीनां मूलं सकुष्टातिविषां सपाठाम्। कलिंग का के सरमिंद्रसाह्वं नखं सपत्रं मरिचं प्लवं च॥ द्रोणेऽम्भसः कर्षसमानि पक्त्वा पूते चतुर्भागजलावशेषे । रसेन भागो मधुनः प्रदाय पक्ष विधेयो घृतभाजनेच्छे॥ लोध्रासवोयं कफपित्तमेहान्क्षिप्रं निहन्याद्द्विपलप्रयोगात् पांड्वामयाशस्यरुचिं ग्रहण्यां शेषं किलासं विविधं च कुष्ठम् ॥
तालकेश्वररस
मृतं सूतं मृतं वंगंमृतं लोहाभ्रकं समम्। मर्दयेन्मधुना सार्धं रसोयं तालकेश्वरः। माषैकं भक्षयेत्क्षौद्रे बहुमूत्रापनुत्तये॥
वंगेश्वररस
शुद्धसूतं समं गंधं वंगं च द्विगुणं भवेत्। एकत्र मर्दयेत्सर्वं वल्लमेकं प्रमेहिणाम्॥ शर्करामधुसंयुक्तं पथ्यं च क्षारवर्जितम्। एषवंगेश्वरो नाम सर्वमेहनिकृंतनः॥
आनंदभैरवरस
विषोषणकणाटंकहिंगुलैः समचूर्णिकः।
आनंदभैरवस्यास्य गुंजातीसारमेनुत्॥
प्रमेहबद्धरस
भस्मसूतं मृतं कांतं मुंडभस्म शिलाजतु। तुथ्यं ताप्यं शिला व्योषं त्रिफलां कोलबीजकम्॥ कपित्थं रजनीचूर्णं भृंगराजेन भावयेत्। विंशद्वारं विशोष्याथ मधुयुक्तं लिहेत्सदा॥ निष्क- मात्रं हरेन्मेहान्मेहबद्धरसो महान्। महानिंबस्य बीजानि पिष्ट्वा षट्संमितानि च॥ पलं तंदुलतोयेन घृतनिष्कद्वयेन च। एकीकृत्य पिबेच्चानुहंति मेहं चिरंतनम्॥
हरिशंकररस
सूताभ्रमामलजलैः सप्तवारं विभावयेत्।
हरिशंकरसंज्ञः स्याद्रसः सर्वप्रमेहनुत्॥
मेघनादरस
सूतं कांतंगंधतीक्ष्णं ताप्यं व्योषं फलत्रिकम्। शिलाजतु शिला कोलबीजं रात्रि कपित्थकम्॥ त्रिःसप्तकृत्वा भृंगाद्भिर्भावयेन्निष्कमानकम्। मधुना मेघनादोयं सर्वमेहान्विनाशयेत्॥
निंबबीजकल्क
महानिंबस्य बीजानि पेषयेत्तंदुलांबुना।
सघृतान्यचिरादन्युः पानान्महांश्विरोत्थितान्॥
मेहारिरस
वंगभस्म मृतं सूतं तुल्यं क्षौद्रैविमर्दयेत् ।
द्विगुंजंलेहयेन्नित्यं हंति मेहान् चिरंतनान्॥
चंद्रोदयरस
अभ्रकं गंधकं सूतं वंगभस्म समशकम्। एलांशिलाजतुं चैव रंभासारेण मर्दयेत्॥ प्रमेहान् विंशतिं हन्यात् कामलापित्तनाशनः॥
वंगेश्वररस
रसमेकं त्रयो वंगं वंगसाम्यं तु गंधकम्। मर्दयेद्दिनमेकं तु कुमार्याः स्वरसे बुधः॥ संस्थाप्य गोलकं भांडे रोधयेत्तु दृढं सुखम्। पाचयेद्वालुकायंत्रे दिनमेकं दृढाग्निना॥ स्वांगशीतलमादाय संपूज्य द्विजदेवताः। पिप्पलीमधुना युक्तं सर्वमेदेषु योजयेत्॥ क्षीरान्नं योजयेत्पथ्यमनल्पचारवर्जितम्। रसो वंगेश्वरो नाम सर्वमेहनिकृंतनः॥
मेहकुंजरकेसरी रस
रसगंधायसाभ्राणि नागवंगौ सुवर्णकम्। वज्रकं मौक्तिकं सर्वमेकीकृत्य विचूर्णयेत्॥ शतावरीरसेनैव गोलकं शुष्कमातपे। बद्ध्वाशुष्कं तमुद्धृत्य शरावे सुदृढे क्षिपेत्॥ संधिलेपं मृदा कुर्याद्गर्तायां गोमयाग्निन। पुटेद्यावच्चतुर्याममुद्धृत्य स्वांगशीतलम्॥ लक्ष्णं खल्ये विनिः क्षिप्य गोलं तं मर्दयेदृढम्। देवब्राह्मणपूजां च कृत्वा धृत्वा च कूपिकाम्॥ खादेद्वल्लद्वयं प्रातः शीतं चानुपिबेज्जलम्॥ अष्टादशप्रमेहांश्च जयेन्मासप्रयोगतः॥ तुष्टिं तेजो बलं वर्णं शुक्रवृद्धिं च दारुणम्। अग्नेर्बलं वितनुते मेहकुंजरकेसरी॥ दिव्यं रसायनं श्रेष्ठं नात्र कार्या विचारणा॥
पंचलोहरसायन
मृताभ्रंकांतलोहं च नागवंगौ विशोषितौ। यथोत्तरं भागवृद्धया खल्वमध्ये विनिक्षिपेत्॥ तलपोटेन वाराह्या शतावर्या हिमांबुना। भावनात्र प्रकर्तव्या यामं यामं पृथक पृथक्॥ चणमात्रां वटीं कृत्वा नवनीतेन सेवयेत्। प्रातरुत्थाय विधिना सर्वमेहकुलांतकः॥ शाल्यन्नं सपटोलं च तंदुलीयकवास्तुकम्। मत्स्याक्षीमुद्गयूषं च अपक्वंकदलीफलम्॥ अर्शांसि ग्रहणीदोषमूत्रकृच्छ्राश्मरीप्रणुत। कामलापांडुशोफंच अपस्मारं क्षतक्षयान्॥ रक्तकासविनाशाय पंचलोहरसायनम्॥
महावंगेश्वररस
वंगं कांतंच गगनं हेमपुष्पं समं समम्॥ कुमारीरसतो भाव्यं सप्तवारं भिषग्वरैः। एष वंगेश्वरो नाम प्रमेहान्विं-शतिं जयेत्॥ मूत्रकृच्छ्रं सोमरोगं पांडुरोगं महाश्मरीम्॥ रसायनवरश्रेष्ठो नागार्जुन विनिर्मितः॥
वंगभस्म
वंगं शिलाजतुयुतं तु मतं प्रमेहेधातुक्षये दुर्बलनष्टशुकयोः। अभ्रेण युक्तं तु सुतप्रदं स्याज्जातीफलार्क करहाटवंगयुक्तम्॥
वसंतकुसुमाकररस
पृथक् द्वौ हाटकं चंद्रं त्रयो वंगा हि कांतजम्। चत्वारः सूतमभ्रं च प्रवालं मौक्तिकं तथा॥ भावना गव्यदुग्धेक्षुवासाश्रीद्विजलैर्निशा। मोचकंदरसैः सप्त क्रमाद्भाव्यं पृथक् पृथक्॥ शतपत्ररसेनैव मालत्याः कुसुमैस्तथा। पश्चान्मृगमदेर्भाव्यः सुसिद्धो रसराट् भवेत्॥ कुसुमाकरविख्यातो वसंतपदपूर्वकः। वल्लद्वयमितः सेव्यः सिताज्यमधुसंयुतः॥ वलीपलितहृन्मेध्यः कामदः सुखदः सदा। मेहघ्नः पुष्टिदः श्रेष्ठः परं वृष्यो रसायनः॥ अयुर्वृद्धिकरं पुंसां प्रजाजननमुत्तमम्। क्षयकासतृषोन्मादश्वासरक्तविषार्तिजित्॥ सिताचंदनसंयुक्तमम्लपित्ता-दिरोगजित्। हंति पांड्वामयान् शूलान्मूत्रघाताश्मरीं हरेत्॥ योगवाहि त्विदं सेव्यं कांतिश्रीबलवर्धनम्। सुसात्म्यमिष्टभोजी च रमयेत्प्रमदाशतम् ॥ मदनं मदयन्मदमुज्वलयन्प्रमदानिवहानतिविह्वलयन्। सुरतैःसुख-देगतिविष चनैर्भवसारजु पामयमवेसुहृत्॥
जलजामृतरस
तवक्षीर शिलाधातुर्वंगं कुंडलिसत्वकम्। मेहारिबीजसंयुक्तं विदारीजीवनीरसेः॥ भावयेत्तत्त्रिवारं तु सितोपलसमन्वितम्। जलजामृतविख्यातो रसोयं मेहकृच्छ्रनुत्॥
प्रमेह की उपेक्षा से प्रमेह पिटिकाओं का होना
प्रमेहाणां प्रजायंते पिटिकाः सर्वसंधिषु। शराविका कच्छपिका जालनी विनताऽलजी॥ मसूरिका सर्षपिका पुत्रिणी सविदारिका। विद्रधिश्चेति पिटिकाः प्रमेहापेक्षया दश॥ संधिमर्मसु जायन्ते मांसलेषु च धामसु॥
पिटिका के कारण
ये यन्मयाः स्मृता मेहास्तेषामतास्तु तन्मयाः। विना प्रमेहमप्येता जायन्ते दुष्टमेदसः॥ तावच्चैता न लक्ष्यन्ते यावद्वास्तु परिग्रहः॥
दश पिटिकाओं के लक्षण
अंतोन्नता च तद्रूपा निम्नमध्या शराविका। सदाहाकूर्मसंस्थाना ज्ञेया कच्छापका बुधैः॥ जालनी तीव्रदाहा तु मांसजालसमावृता। अवगाढरुजोत्क्लेदा पृष्ठे वाप्युदरेऽपि वा॥ महती पिटिका नीला सा बुधैर्विनता स्मृता। रक्ता सिता स्फोटवती दारुणा स्वलजी भवेत्। मसूरदलसंस्थाना विज्ञेया तुमसूरिका। गौरसर्षपसंस्थाना तत्प्रमाणा च सर्षपी॥ महत्यल्प- चिता ज्ञेया पिंडिका चापि पुत्रिणी। विदारीकंदवद्वृत्ता कठिना च विदारिका॥ विद्रधेर्लक्षणैर्युक्ता ज्ञेया विद्वधिका तु सा॥
असाध्य पिटिका
गुदे हृदि शिरस्यंसे पृष्ठे मर्मसु चोत्थिताः।
सोपद्रवा दुर्बलाग्नेःपिडिकाः परिवर्जयेत्॥
प्रमेह के साध्य लक्षण
प्रमेहिणो यदा मूत्रमनाविलमपिच्छिलम्।
विशदं तिक्तकटुकं तदारोग्यं विनिर्दिशेत्॥
पिडिकाके उपद्रव
तृट्श्वासमांससंकोचमोहहिक्का मदज्वराः।
विसर्पमर्मसंरोधाः पिटिकानामुपद्रवाः॥
पिडिका की सामान्यचिकित्सा
प्रमेहपिटिकानां तु प्राक्कार्यंरक्तमोक्षणम्।
पाटनं तु विपक्वानां तासां पानं प्रशस्यते॥
क्वाथो व्रणघ्नोत्र बस्तिर्मूत्रलो रक्तमोक्षणम् ।
व्रणस्य प्रक्रिया सर्वा कार्यात्रापि भिषग्वरैः॥
न्यग्रोधादि चूर्ण
न्यग्रोधोदुंबराश्वत्थस्योनाकारग्वधासनम्। आम्रं कपित्थं जंबू च प्रियालं ककुभं धवम्॥ मधूकं मधुकं रोध्रं वरुणं पारिभद्रकम्। पटोलं मेषशृंगी च दंती चित्रकमाटकी॥ करंजत्रिफलाशक्रमातकफलानि च। एतानि समभागानि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत्॥ न्यग्रोधाद्यमिदं चूर्णं मधुना सह योजयेत्। फलत्रयरसं चानुपिवेन्मूत्रविशुद्धये॥ एतेन विंशतिर्मेहामूत्रकृच्छ्राणि यानि वा। प्रशमं यांति वेगेन पिटिकासु च योजयेत्॥
पिटिकाओं पर लेप
क्षीरमौदुंबरंयत्नाद्बाकुचं वा प्रयोजयेत्।
पिटिकासु समस्तासु लेपनं संप्रशांतये॥
प्रमेह पर पथ्य
प्राग्लंघनानि वमनानि विरेचनानि प्रोद्वर्त्तनानि शमनानि च दीपनानि। नीवारकंगुयववैणवकोरदूषश्यामाकचूर्ण कुरुविंदककुष्ठकाश्च॥ गोधूमशालिकलमाश्चिरजाः कुलित्था मुद्गाढकीचणकयूपरसास्तिलाश्च। लाजा पुरातनसुरा मधु वाट्यमंडस्तक्रंच रासभजलं महिषीजलं च ॥लट्वाकपोतशशतित्तिरलावबर्हिव्याघ्रैणवर्त्तकशुकादिकजांगलाश्च। सौभांजनं च कुलकं च कठिल्लकं च कर्कोटकं तलकमप्यथवार्हतं च॥ औदुंबराणि लशुनानि नवीनमोचं पत्रगोक्षुरकमूषकपर्णशाकम्। मंदारपत्रममृता त्रिफला कपित्थं जंबूकसेरुकमलोत्पलकंद बीजम्। खर्जूरलांगलिकतालतरूत्तमागं व्योषं च तिंदुकफलं खदिरं कलिंगम्। तिक्तानि चापि सकलानि कषायकाणि हस्त्यश्ववाहनमतिभ्रमणं रवित्विट्॥ व्यायाम इत्यपि गणो भवति प्रकामं मित्रं प्रमेहगदपीडितमानवानाम्॥
प्रमेहरोग में अपथ्य
वेगरोधं धूमपानं स्वेदं शोणितमोक्षणम्। सदासनं दिवानिद्रां नवान्नानि दधीनि च॥ अनूपमांसं निष्पावं पिष्टान्नानि च मैथुनम्। सौवीरकं सुरासूक्तंतैलं क्षीरं गुडं घृतम्॥ तुंबीतालास्थिमज्जां च विरुद्धान्यशनानि च। कूष्मांडमिक्षुदुष्टांबु स्वाद्वम्ललवणानि च॥ अभिष्यंदि च यत्नेन प्रमेही परिवर्जयेत्।
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे प्रमेहपिटिकानिदानचिकित्सा समाप्ता।
__________
मेदोरोगनिदानचिकित्सा ।
मेदरोगनिदान
अव्यायामदिवास्वप्नश्लेष्मलाहारसेविनः।
मधुरोऽन्नरसः प्रायः स्नेहान्मेदो विवर्द्धते॥
संप्राप्ति
मेदसावृतमार्गत्वात्पुष्यंत्यन्येन धातवः।
मेदस्तु चीयते यस्मादशक्तः सर्वकर्मसु॥
बढी हुई मेदके उपद्रव
क्षुद्रश्वासतृषामोहस्वप्नक्रथनसादनैः।
युक्तः क्षुत्स्वेददौर्गंध्यैरल्पप्राणोल्पमैथुनः॥
मेद रहने के स्थान
मेदस्तु सर्वभूतानामुदरेष्वस्थिषु स्थितम्।
अत एवोदरे वृद्धिः प्रायो मेदस्विनो भवेत्॥
मेदरोग में जठराग्नि प्रदीप्त होने में कारण
मेदसावृतमार्गत्वाद्वायुः कोष्ठे विशेषतः। चरन्संधुक्षयत्यग्निमाहारं शोषयत्यपि॥ तस्मात्स शीघ्रं जरयत्याहारं चापि कांक्षति। विकारांश्चाश्नुते घोरान्कांश्चित्कालव्यतिक्रमात् ॥
बढी मेद नाश का कारण होती है यह कथन
एतावुपद्रवकरौ विशेषादनिमारुतौ।
देहं हि दहतः स्थूलं वनं दावानलो यथा॥
अत्यंत मेद बढने का परिणाम
मेदस्यतीव संवृद्धे सहसेवानिलादयः।
विकारान् दारुणान् कृत्वा नाशयत्याशु जीवितम्॥
स्थूललक्षण
मेदोमांसातिवृद्धत्वाच्चलस्फिगुदरस्तनः।
अथथोपचयोत्साहो नरोऽतिस्थूल उच्यते॥
उवटना
हरीतकीलोप्रमरिष्टपत्रपूतत्वचो दाडिमवल्कलं च।
एषोंगरागः कथितोंगनानां जंब्वाःकषायश्च नराधिपानाम्॥
सामान्ययोग
गुडूचीभद्रमुस्तानां प्रयोगस्त्रफलस्तथा।
तक्रारिष्टप्रयोगश्च प्रयोगो माक्षिकस्य च॥
चव्यादि चूर्ण
सचव्यजीरकव्योषहिंगुसौवर्चलानलाः।
मधुना सक्तवः पीता मेदोघ्ना वह्निदीपनाः॥
फलत्रिकादि चूर्ण
फलत्रयं त्रिकटुकं सतैलं लवणान्वितम्।
षण्मासमुपभुक्तं चेत्कफमेदोनिलापहम्॥
मेद पर सामान्यचिकित्सा
अस्वप्नंच व्यवायं च व्यायामं चिंतनानि च।
स्थौल्यमिच्छन् परित्यक्तुं क्रमेणातिप्रवर्तयेत्॥
नवकगुग्गुलु
व्योषाग्निमुस्तत्रिफलाविडंगं गुग्गुलुः समम्। खादन्सर्वान् जयेद्व्याधीनामवातभवान् गदान्॥ क्षौद्रेण त्रिफलाक्वाथः पीतो मेदोहरः स्मृतः॥
मेदपर उपचार
शीतीभूतं तथोष्णांबुमेदोहृत्क्षौद्रसंयुतम्।
उष्णं भक्तस्य मंड वा पिबन्कुशतनुर्भवेत्॥
तालपत्र का क्षार
क्षारं वा तालपत्रस्य हिंगुयुक्तं पिबेन्नरः।
मेदोवृद्धिविनाशाय भक्तमंडसमन्वितम्॥
मोचरसादि लेप
हितो मोचरसो युक्तश्चूर्णैरुदधिफेनजैः।
प्रलेपेन निहत्याशु देहदुर्गंधमुत्कटम् ॥
हरीतक्यादि उद्वर्तन
हरीतकी तु संपिष्य गात्रमुद्वर्त्तयेन्नरः।
पश्चात्स्नानं प्रकुर्वीत देहस्वदप्रशांतये॥
चंद्राशु शीतलं लोध्रंशिरीषोशीर केशरैः।
उद्वर्त्तनं भवेद् ग्रीष्मे स्वेदोद्गमनिवारणम्॥
उवटना
शिरीषलामज्जकहेमलोध्रैस्त्वग्दोषसंस्वेदहरः प्रघर्षः।
प्रियंगुलोध्राभयचंदनानि शरीरदोर्गंध्यहरः प्रदिष्टः॥
क्वाथ
क्षौद्रेण त्रिफलाक्वाथः पीतो मेदोहरः स्मृतः॥
त्र्यूषणाद्य लेह
त्र्यूषणं त्रिफला चव्यं चित्रकं बिडमौद्भिदम्। बाकुची सैंधवं चैव सौवर्चलमयोरजः॥ माषमात्रमतश्चूर्णं लिह्यादाज्यमधुप्लुतम्। अतिस्थौल्यमिदं चूर्णं निहंत्यग्निविवर्धनम्॥ मेदोघ्नं मेहकुष्ठघ्नंश्लेष्मव्याधिनिबर्हणम्। नाहारे नियमश्चात्र विहारे वा विधीयते॥ त्र्यूषणाद्यमिदं चूर्णं रसायनमनुत्तमम्॥
उवटना
प्रियंगुलोध्राभयचंदनानि शरीरदौर्गंध्यहरं प्रदिष्टम्॥
बब्बूलादि उद्वर्तन
बब्बूलस्य दलैः सम्यक् वारिणा परिपेषितैः। गात्रमुद्वर्तयेत्पश्चाद्धरीतक्या सुपिष्टया॥ भूय उद्वर्तनं कृत्वा पश्चात्स्नानं समाचरेत्। प्रस्वेदान्मुच्यते क्षिप्रं ततस्त्वेवं समाचरेत्॥ जंबूदलार्जुनतरुप्रसवैः सकुष्ठैरुद्वर्तनं प्रकुरुते प्रतिवासरं यः। प्रस्वेदबिंदुकणिकानिकराणि पंगोर्दुर्गंधिता वपुषि तस्य पदं दधाति॥
वासादि लेप
वासादलरसैर्लेपः शंखचूर्णावचूर्णितः।
बिल्वपत्ररसो वापि गात्र दौर्गंध्यनाशनः॥
त्रिफलादि तैल
त्रिफलातिविषामूर्वाचिवृच्चित्रकवासकैः। निंबारग्वधषड्ग्रंथासप्तपर्णनिशाह्वयैः॥ गुडूचींद्रयवाकृष्णाकुष्ठसर्षप-नागरैः। तैलमेभिः समं पक्वंसुरसादिरसप्लुतम्॥ पानाभ्यंजनगंडूषनस्यबस्तिषु योजितम्। स्थूलतालस्य-कंड्वादि जयेत्कफकृतान्गदान्॥
महासुगंधितैल
चंदनं कुंकुमोशीरं प्रियंगुशठिरोचनम्। तुरुष्कागरुकस्तूरी कर्पूरोजातिपत्रिका॥ जातीकंकोलपूगानां लवंगस्य फलानि च। नलिका नलदं कुष्ठं हरेणुतगरं प्लवम्॥ नखं व्याघ्रं नखं स्पृक्का वालो दमनकं तथा। प्रपौंडरीकं कर्पूरं समांशैः शाणमात्रकैः॥ महासुगंधमित्येतत्तैलं प्रस्थेन साधयेत् । प्रस्वेदद्मलदौर्गंध्यकंडूकुष्ठहरं परम्॥ अनेनाभ्यक्तगात्रस्तु वृद्धः सप्ततिकोपि वा। युवा भवति शुक्राढ्यः स्त्रीणामत्यंत वल्लभः॥ सुभगो दर्शनीयश्चगच्छेद्वै प्रमदाशतम्। वंध्यापि लभते गर्भ षंढोऽपि पुरुषायते॥ अपुत्रः पुत्रमाप्नोति जीवेच्च शरदां शतम्॥
वडवाग्निरस
शुद्धसूतं मृतं ताम्रं तालं बोलं समं समम्। अर्कक्षीरैर्दिनं मर्द्यंक्षौद्रैर्लेह्यंद्विगुंजकम्॥ वडवाग्निरम्रो नाम स्थौल्यवृंदं नियच्छति। पलं क्षौद्रं पलं तोयमनुपानं पिबेत्सदा
रसभस्मयोग
रसभस्म वल्लमात्रं लीढ्वामधुना पिबेदनु क्षौद्रम्।
कोष्णांबुना समेतं तत्स्थौल्यं मेदकृतं जयति॥
त्रिमूर्तिरस
सूतं गंधमयोभस्म समं संमेल्य भावयेत्। निर्गुंडीपत्रतोयेन मुसलीकंदवारिणा॥ ततः सिद्धममुं माषमात्रं रसमनुत्तमम्। लोक्षौद्रेण चाश्नीयाच्चूर्णं माषोग्मितं हितम्॥ षट्कटु त्रिफला पंच लवणा वल्गुजस्य तत्। मेदशोथाग्निमांद्यामवातश्लेष्मगदप्रणुत॥
मेद पर सामान्य उपचार
श्रमचिंताव्यवायाध्वक्षौद्रजागरणस्त्रियः।
हंत्यवश्यमतिस्थौल्यं यवश्यामाकभोजनम्॥
मेदरोग पर पथ्य
चिंता श्रमं जागरणं व्यवायं प्रोद्ववर्तनं लंघनमातपश्च। हस्त्यश्वयानं भ्रमणं विरेकः प्रच्छर्दनं चाप्यपतर्पणं च॥ पुरातना वैणवकोरदूषश्यामाकनीवारप्रियंगुजूर्णाः। यवाः कुलत्थाश्चणका मसूरा मुद्गास्तुवर्यश्च मधूनि लाजाः॥ कटूनि तिक्तानि कषायकाणि तक्रं सुरा पिंगलमत्स्य एव । दग्धानि वार्ताकफलानि चापि फलत्रयं गुग्गुलुरायसं च॥ शिरीषलोध्रदुहरीतकीनां चूर्णेन गात्रस्य विलेपनं च। कटुत्रयं सर्षपतैलमेला रूक्षाणि सर्वाणि च मुख्यतेलम्॥ पत्रोत्थशाको गुरुलेपनानि प्रतप्तनीराणि शिलाजतुनि। एतानि सर्वाणि निषेवितानि मेदोगदं सत्वरमुत्क्षिपंति॥
मेदरोगपर अपथ्य
स्नानं रसायनं शालीन् गोधूमान् सुखशीतलान्। क्षीरेक्षुविकृतीन् माषान्सौहित्यं स्वेदनानि च॥ मत्स्यं मांसं दिवा निद्रा स्रग्गंधान्मधुराणि च। सर्वस्य भोजनस्यांते जलपानं विशेषतः॥ अतिमात्रं तूपचितो विशेषाद्वमनक्रियाम्। स्वभावस्थत्वमन्विच्छन्मेदस्वी वर्जयेदिमान्॥
इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे मेदरोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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उदररोगकर्मविपाकः।
यो ब्रह्मविष्णुरुद्राणां मध्ये चैकं विभावयेत्।
साधयेदुदरं व्याधिं युक्तो भवति मानवः॥
शांति
कुर्यात्कृच्छ्रं चातिकृच्छ्रं चांद्रायणमथापरम्।
सहस्रकलशस्नानमीश्वरस्य तु कारयेत्॥
जलोदर का कर्मविपाक
राज्ञा वा तु नियुक्तेन नियुक्तो धर्मनिश्चये। पुरोहितः प्राङ्विवाकः सचिवो वान्यथाचरेत्॥ जलोदरत्वं प्राप्नोति तस्य वक्ष्यामि निष्कृतिम्॥
शांति
पयसावर्तयेन्मासत्रितयं व्रतमुत्तमम्। सहस्रकलशस्नानं महादेवस्य चैव हि॥ भोजयेच्च शतं विप्रान्मुच्यते किल्बिषात्ततः॥
प्रकारांतर
गर्भपातनजा रोगा यकृत्प्लीह जलोदराः।
तेषां प्रशमनार्थाय प्रायश्चित्तमिदं स्मृतम्॥
शांति
एतेषु दद्याद्विप्राय जलधेनुं विधानतः।
सुवर्णरोग्यताम्राणां पलत्रयसमन्विताम्॥
प्लीहोदरकर्मविपाक
भृतकाध्यापको यस्तु कन्यादूषणतत्परः।
प्लीहावान् संभवेद्विप्रो जपेच्छ्रीसूकमेषहि॥
शांति
अयुतत्रयसंख्याकं प्लीहोदरविमुक्तये।
प्रत्यृचं च भवेद्धोमश्चरूणां सर्पिषा पृथक्॥
उदरनिदान
रोगाः सर्वेऽपि मंदेऽग्रौ सुतरामुदराणि च।
अजीर्णान्मलिनैश्चान्नैर्जायते मलसंचयात्॥
उदररोग की संप्राप्ति
रुध्वा स्वदांबुवाहीनिदोषाः स्रोतांसि संचिताः।
प्राणाग्न्यपानान् संदूष्य जनयंत्युदरं नृणाम्॥
उदररोगों का सामान्यलक्षण
आध्मानं गमनेऽशक्तिर्दौर्बल्यं दुर्बलान्विता। शोफः सदनमंगानां संगो वातपुरीषयोः॥ दाहस्तंद्रा च सर्वेषु जठरेषु भवंति हि॥
उदर की संख्या
पृथक् दोषैः समस्तैश्चप्लीहबद्धक्षतोदकैः।
संभवत्युदराण्यष्टौ तेषां लिंगं पृथक् शृणु॥
वातोदर के लक्षण
तत्र वातोदरे शोथः पाणिपन्नाभिकुक्षिषु। कुक्षिपार्श्वोदरकटीपृष्टरुपर्वभेदनम्॥ शुष्ककासोंऽगमर्दोऽधोगुरुता मलसंग्रहः। श्यावारुणत्वगादित्वमकस्माद्वृद्धिहासवत्॥ सतोदभेदमुदरं तनुकृष्णशिराततम्। आध्मांतद्यतिव-च्छन्दमाहतं प्रकरोति च॥ वायुश्चात्र सरुक्छब्दोविचरेत्सर्वतोगतिः॥
वातोदर का सामान्य यत्न
उपक्रमेद्भिषग्दोषबलकालविशेषवित्। स्थिरादिसर्पिषः पानं स्नेहं स्वेदं विरेचनम्॥ वेष्टनं वाससा ग्लानौ शाल्वलं चोपनाहनम्। पेया यूषरसान्नं च योज्यं वातोदरे क्रमात्॥
तक्रपान
वातोदरी पिबेत्तक्रंपिप्पलीलवणान्वितम्। शर्करामरिचोपेतं स्वादु पित्तोदरी पिबेत्॥ यवानीसैंधवाजाजी-व्योषयुक्तं कफोदरी। सन्निपातोदरी तक्रं त्रिकटुक्षार सेंधवैः॥
चूर्णकषाय
एरंडतैलं दशमूलमिश्रं गोमूत्रयुक्तं त्रिफलारजो वा।
निहंति वातोदरशोथशुलं क्वाथः समूत्रो दशमूलजश्च॥
शिलाजतुचूर्णं
दशमूलकषायेण क्षीरयुक्तं शिलाजतु।
सद्यो वातोदरी क्षीरमौष्ट्रमाजंन केवलम्॥
कुष्ठादि चूर्ण
कुष्ठं दंती यवक्षारं व्योषं त्रिलवणं वचा। अजाजी दीप्यकं हिंगुस्वर्जिकाचव्यचित्रकैः॥ शुंठीं चोष्णांभसा पीत्वा वातोदररुजापहाम्॥
समुद्रादि चूर्ण
सामुद्रसौवर्चलसैंधवानां क्षारो यवानामजमोदभागः। सपिप्पलीचित्रकशृंगबेरं हिंगू विडंगं च समानि कुर्यात्॥ एतानि चूनिघृततानि भुंजीत पूर्व कवलैः प्रशस्तम्। वातोदरं गुल्ममजीर्णभुक्तं वातप्रकोपग्रहणीं च दुष्टाम् ॥ अर्शासि दुष्टानि च पांडुरोगं भगंदरं चापि निहंति सद्यः॥
वातोदरपर घृत
दशमूलकषायेण रात्रा नागरदारुभिः।
पुनर्नवाभ्यां च घृतं सिद्धं वातोदरापहम्॥
पित्तोदर के लक्षण
पित्तोदरे ज्वरो मूर्च्छा दाहस्तृट्कटुतास्यता। भ्रमोऽतिसारः पीतत्वं त्वगादावुदरं हरित्॥ पीतताम्रशिरानद्धं सस्वेदं सोष्म दह्यते। धूमायते मृदुस्पर्श क्षिप्रपार्क प्रदूयते॥
पित्तोदर का सामान्य यत्न
पित्तोदरे च बलिनं पूर्वमेव विरेचयेत्।
पयसा त्रिवृताकल्केनोरुबूकभृतेन वा॥
सातलादि घृत
सातलात्रायमाणाभ्यां दातेनारग्वधेन च।
घृतं पित्तोदरे पेयं मधुरौषधसाधितम्॥
त्रिवृतादि घृत
स्यात्रिवृत्रिफलासिद्धं सर्पिःपानं विशुद्धये। पृश्निपर्णीबलाव्याघ्रीलाक्षानागरसाधितम्॥ क्षीरं पित्तोदरं हंति जठरं कतिभिर्दिनैः॥
कफोदरके लक्षण
श्लेष्मोदरेंऽगसदनं स्वापः श्वयथुगौरवम् । निद्रोत्क्केदोऽरुचिः श्वासः कासशुक्लत्वगादिता॥ उदरं स्तिमितं स्निग्धं शुक्लराजीततं महत्। चिराभिवृद्धिकठिनं शीतस्पर्शं गुरु स्थिरम्॥
कफोदरका यत्न
श्लेष्मोदरिणं सुपिप्पल्या सिद्धेन सर्पिषा स्नेहंनीत्वा स्नुहिक्षीरेणानुलोम्य त्रिकटुकमूत्रतैलमुस्तादिक्वाथेना-स्थापयेदनुवासयेत् किट्टसर्षपामलकबीजैश्चोपनाहयेदुदरम्। भोजयेच्चैनं त्रिकटुकप्रगाढेन कुलित्थयूषेण पयसा वा स्वेदयेच्चाभीक्ष्णम् ॥ व्योषयुक्तकुलित्थांबुपयो वा भोजने हितम्। गोमूत्रारिष्टपानैश्च चूर्णायस्कृतिभिस्तथा॥ सक्षीरतैलपानैश्च समये तु कफोदरम्॥
सन्निपातोदरका निदान
स्त्रियोऽन्नपानं नखरोममूत्रविडार्तवैर्युक्तमसाधुवृत्ताः। यस्मै प्रयच्छंत्यरयो गरांश्च दुष्टांबुदूषीविषसेवनाद्वा॥ तेनाशुरक्तं कुपिताश्च दोषाः कुर्युः सुघोरं जठरं त्रिलिंगम्॥
सन्निपातोदर
सन्निपातोदरे कार्य एष एव क्रियाविधिः। हरीतक्यभयाकल्को गोमूत्रेण विभावितः॥ पीतः सर्वोदरप्लीहमेहार्शःकृमिगुल्मनुत्॥
नागरादि तैल
नागरत्रिफलाप्रस्थं घृतं तैलं तथाकढम्। मस्तुना साधयित्वा पिबेत्सर्वोदरापहम्॥ कफमारुतसंभूतं गुल्मं चैव विनाशयेत्॥
दूष्योदरसंज्ञा
तच्छीतवाते भृशदुर्दिने वा विशेषतः कुप्यति दह्यते च। स चातुरो मूर्च्छति हि प्रसक्तं पांडुः कृशः शुष्यति सेवया च॥ दूष्योदरं कीर्तितमेतदेव-॥
शंखिनीघृत
समूलशंखिनीसिद्धं घृतं चात्र विशोधनम्।
दंतिद्रवंतिफलजं तैलं दुष्योदरी पिबेत्॥
प्रीहोदर
-प्लीहोदरं कीर्तयतो निबोध ॥ विदाह्यभिष्यंदिरतस्य जंतोः प्रदुष्टमत्यर्थमसृक्कफश्च। प्लीहाभिवृद्धिं कुरुतः प्रवृद्धौ प्लीहोत्थमेतज्जठरं वदन्ति॥ तद्वामपार्श्वे परिवृद्धिमेति विशेषतः सीदति चातुरोऽत्र। मन्दज्वराग्निः कफपित्तलिंगैरुपद्रुतः क्षीणबलोऽतिपांडुः॥
प्लीहोदर पर सामान्य यत्न
स्नेहस्वेदविकारा दिविधेयं प्लीहरोगिणाम्। वामबाहौ च मोक्तव्या कूर्पराभ्यंतरे शिरा॥ विध्येत्प्लीहविनाशाय यकृन्नाशाय दक्षिणे। मणिबंधे समुत्पन्नं वाममंगुष्ठमीरितम्॥ दहेच्छिरां शरेणाशु वैद्यः प्लीहप्रशांतये॥
शरपुंखामूलकल्क
शरपुंखमूलकल्कः पीतस्तक्रेण नाशयत्यचिरात्।
बहुतरकालसमुत्थं प्लीहानं रूढमवगाढम्॥
तक्र
पिबेत्प्लीहोदरी तक्रं पिप्पलीक्षौद्रसंयुतम्।
रोहितादि कल्क
रोहीतकाभयाकल्को गोमूत्रेण विभावितः।
पीतः सर्वोदरप्लीहमेहार्शःकृमिगुल्मनुत्॥
पिप्पल्पादि क्वाथ
शोफं प्लीहोदरं हंति पिप्पलीमरिचान्वितः।
आम्लवेतससंयुक्तः शिशुक्वाथः ससैंधवः॥
शाल्मलीपुष्पपाक
सुस्विन्नं शाल्मलीपुष्पं निशापर्युषितं नरः।
राजिकाचूर्णसंयुक्तं ह्यद्यात्प्लीहोपशांतये॥
लवणादि तक्र
लवणं रजनी राजी प्रत्येकं पलपंचकम्। चूर्णितं निक्षिपेद्भांडे तक्रंशतपलोन्मितम्॥ त्रिदिनं मुद्रितं रक्षेत् पश्चात्पंचपलं सदा। पीत्वा विनाशयेत्प्लीहं त्रिःसप्ताहं न संशयः॥
शुक्तिक्षारयोग
पातव्यो युक्तितः क्षारः क्षीरेणोदधिशुक्तिजः।
पयसा वा प्रयोक्तव्याः पिप्पल्यः प्लीहनाशनाः॥
एरंडभस्मयोग
समूलपत्रमैरंडं रुद्धा भांडे पुटेपचेत्।
तत्कर्षं पलगोमूत्रं पीतं प्लीहविनाशनम्॥
भल्लातकादि मोदक
भल्लातकाभयाजाजीगुडैश्चकृतमोदकः।
सप्तरात्रान्निहंत्येष प्लीहानमतिदारुणम्॥
लशुनादि
लसुन पिप्पलीमूलमभयां चैव भक्षयेत्। पिबेद्गोमूत्रगंडूषं प्लीडरोगाविमुक्तये॥
सौभांजनकयोग
सोभांजनकनिर्यूहं सैंधवाश्निकणाचितम्।
पलाशक्षारयुक्तं वा यवक्षारं प्रयोजयेत्॥
रक्तस्राव और दाग
रक्तस्रावेऽर्कदुग्धं च सैंधवं लेपयेत्तथा।
अग्निदाहं च कुर्याद्वा प्लीहोदरहरं परम्॥
प्लीहोदर पर शंखनाभिचूर्ण
सुपक्वजंबीररसेन शंखनाभीरजः पीतमवश्यमेव।
कर्षप्रमाणं शमयेदवश्यं प्लीहामयं कूर्मसमानमाशु॥
कुष्ठादि चूर्ण
कुष्ठं वचा शृंगबेरं चित्रकं च यवानिकम्। पाठा चैवाजमोदा च पिप्पल्यः समचूर्णिताः। ततो बिडालपदकं पिबेदुष्णेन वारिणा। प्लीहोदरमुदावर्तं सर्वमेतेन शाम्यति॥
लघुहिंग्वादि चूर्ण
हिंगु त्रिकटुकं कुष्ठं यवक्षारोऽथ सैंधवम्। मातुलुंगरसेनैव प्लीहशूलहरं परम्॥ वायुः प्लीहानमुद्धूयकुपितो यस्य तिष्ठति॥
सिंध्वादि चूर्ण
सिंधुमगधानिचूर्णं शिग्रुशिलाजाजिकरसनिपीतम्।
प्रबलमपि योगराजः प्लीहानं नाशयत्याशु॥
नागवटी
तिलैरंडद्रवस्तस्य क्षारो भल्लातकं कणा। एषांभागं समं कृत्वा तत्तुल्यस्तु गुडो मतः॥ खादेदग्निबलं मत्वा पावकस्य विवृद्धये। जयेत्प्लीहानमत्युग्रं यकृद्गुल्मं तथैव च॥
विडंगादि चूर्ण
विडंगानि यवानी च चित्रकश्चेति तत्समम्। द्विगुणं देवदारुं च नागरं सपुनर्नवम्॥ त्रिवृद्भागाश्च चत्वारि तत्सर्वं कल्कपेषितम्। क्षीरेणोष्णेन पातव्यं श्रेष्ठं प्लीहविनाशनम्॥ अथ चैतानि चूर्णानि गवां मूत्रेण पाययेत्। उदरीभूतमप्येवं प्लीहानं संप्रणाशयेत्॥
यवान्यादि चूर्ण
यवानिकाचित्रकयावशूकषट्ग्रंथदंतीमगधोद्भवानाम्।
लहानमेतद्विनिहंति चूर्णमुष्णांबुना मस्तुसुरासवैर्वा॥
वज्रक्षार
सौवर्चलं यवक्षारं सामुद्रं काचसैंधवम्। टंकणं स्वर्जिकाक्षारं तुल्यमेकत्र चूर्णयेत्॥ अर्क-दुग्धैःस्नुहीदुग्धैर्भावयेदातपे त्र्यहम्। ऊर्ध्वाधर्स्थेक्रमात्तस्य तत्तुल्यैरर्कपल्लवैः॥ भांडे संस्थाप्य मृल्लि-प्तेरुध्वागजपुटे पचेत्। स्वांगशीतं तु संचूर्ण्यचूर्णमेषां तु मेलयेत्॥ त्र्यूषणं च विडंगं च राजिकां त्रिफलामपि। चव्यं च हिंगु संभृष्टं तक्रेणाद्याद्यथाबलम्॥ वज्रक्षाराभिधं चूर्णमुदराणि विनाशयेत्। शोथं गुल्मं तथाष्ठीलामंदाग्निमरुचिं तथा॥ प्लीहानं यकृद्दाल्याख्यमुदरं च विशेषतः॥
क्षारादि योग
क्षारं वा बिडकृष्णाभ्यां पूतिकस्यांबुमिश्रितम्।
यकृत्प्लीहप्रशांत्यर्थं पिबेत्प्रातर्यथाबलम्॥
क्षारभावितपिप्पली
पलाशक्षारतोयेन पिप्पला परिभाषिता।
गुल्मप्लीहार्तिशमनी वह्निदीप्तिकरी मता॥
अर्कपत्रक्षार
अर्कपत्रं सलवणमंतर्धूमं विपाचयेत्।
मस्तुना तं पिबेत्क्षारं प्लीहोदर परम्॥
अग्निमुखलवण
चित्रकं त्रिवृता दंती त्रिफलारुचकैः समैः। यावंत्येतानि चूर्णानिचूर्णमात्रं तु सैंधवम्॥ भावयित्वा स्नुहिक्षीरैः स्नुक्कांडे प्रक्षिपेत्ततः। मृत्पंकेनानुलिप्त्वाथ प्रक्षिपेज्जातवेदसि॥ सुदग्धं चततो ज्ञात्वा शनैर्वैद्यः समुद्धरेत्। तक्रेण पीतं तच्चूर्णं यकृत्प्लीहोदरापहम्॥ एतदग्निमुखं नाम्ना लवणं वह्निवर्धनम्॥
रोहितकघृत
रोहीतकात्पलशतं संक्षुद्य बदराढकम्। साधयित्वा जलद्रोणे चतुर्भागावशेषिते॥ घृतप्रस्थं समावाप्य छागक्षीरं चतुर्गणम्। तस्मिन्द्रव्याणि सर्वाणि प्रदद्यात्कार्षिकाणि च॥ व्योषं फलत्रिकं हिंगु यवानी तुंबरुं बिडम्। विडंगं चित्रकं चैव हपुषा चविकं वचा॥ अजाजिकृष्णलवणं दाडिमं देवदारु च। पुनर्नवा विशाला च यवक्षारं सपौष्करम्। एतैर्वृतं विपक्वंतु विद्ध्यादृढभाजने। पाययेच्च पलं मात्रां रसयूषपयोंबुभिः॥ यकृत्प्लीहोदरं शूलमग्निमांद्यंच नाशयेत्। कुक्षिशूलं पार्श्वशूलं कटिशूलमरोचकम्॥ विड्बंधशूलं शमयेत्पांडुरोगं सकामलम्। छर्द्यतीसारशमनं तंद्राज्वरनिवारणम्॥ महारोहितकं नाम्ना प्लीहाघ्नंतु विशेषतः॥
चित्रकाद्य घृत
चित्रकस्य तुलाक्वाथे घृतप्रस्थं विपाचयेत्। आरनालं च द्विगुणं दधिमंडं चतुर्गुणम्॥ पंचकोलकतालीसं क्षारौ च पटुपंचकम्। यवान्यौ द्वे च जरणे मरिचं चाक्षसंमितम्॥ एतैर्युक्तत्या घृतं सिद्धं मात्रया च पिबेत्प्रगे। प्लीहशोफोदरार्शोघ्नं विशेषादग्निदीपनम्॥
रक्तस्राव
प्लीहिनः पृष्ठदेशे तु रक्तस्रावं तु कारयेत्॥
शिरावेध
वामबाहौच मोक्तव्या कूर्पराभ्यंतरे शिरा॥
यकृतोदर
सव्यान्यपार्श्वे यकृति प्रदुष्टे ज्ञेयं यकृद्दाल्युदरं तदेव॥
दोषसंबंध
उदावर्त्तरुजानाहैर्मोहतृड्दहनज्वरैः।
गौरवारुचिकाठिन्यैर्विद्यात्तत्र मलान्क्रमात्॥
यकृदाल्युदर
लवणं राजिकाचूर्णं समं गोमूत्रमिश्रितम्।
त्रिशाणं हंतिपीतं चेद्यकृत्प्लीहोदराण्यपि॥
पिप्पलीकल्क
पिप्पलीकल्कसंयुक्तं घृतं क्षीरं चतुर्गुणम्।
पक्त्वा पिबेद्यथावह्नि यकृद्दाल्युदरापहम्॥
सामान्ययकृतोपचार
प्लीहोद्दिष्टाः क्रियाः सर्वा यकृतः संप्रकरूपयेत्।
कार्यं च दक्षिणे बाहौ तत्र शोणितमोक्षणम्॥
बद्धगुदोदर
यस्यांत्रमन्त्रैरुपलेपिभिर्वा बालाश्मभिर्वा पिहितं यथावत्। संचीयते यस्य मलः सदोषःशनैः शनैः संकरवच्च नाड्याम् ॥ निरुध्यते तस्य गुदे पुरीषं निरेति कृच्छ्रादति चाल्पमल्पम्। हृन्नाभिमध्ये परिवृद्धिमेति तस्योदरं बद्धगुदं वदन्ति॥
हपुषादि चूर्ण
बद्धोदरी तु हपुषादीप्यकाजाजिसैंधवम्॥
बस्तिप्रकार
स्विन्ने बद्धोदरे योज्यो बस्तिस्तीक्ष्णैस्तु भेषजैः।
सतैललवणश्चापि निरूद्दश्वानुवासनम्॥
उत्तरबस्ति
उदावर्तहरं सर्वं प्रकर्तव्यं चिकित्सितम्।
वर्तयो विविधाश्चात्र पायौ शस्ताः प्रकीर्तिताः॥
तीक्ष्णैर्विरेचनं चात्र शस्यते तु विशेषतः।
वातहंता विधिः सर्वो विधातव्यो विजानता॥
क्षतोदर
शल्यं तथान्नोपहितं यदंत्रं भुक्तं भिनत्त्यागतमन्यथा वा। तस्मात्स्रुतोंऽत्रात्सलिलप्रकाशः स्रावः स्रवेद्वै गुदतस्तु भूयः॥ नाभेरधश्चोदरमेति वृद्धिं निस्तुद्यतेदाल्यति चातिमात्रम्। एतत्परिस्राव्युदरं प्रदिष्टम्।
वेधक्रिया तथा पाटनकिया
छिद्रांत्रबद्धसंज्ञेषु जठरेषु प्रयोगवित्।
लब्धानुज्ञो भिषक् कुर्यात्पाटनव्यधनक्रियाम्॥
तथा जातोदकं सर्वमुदरं व्यधयेद्भिषक्।
पृष्ट्वा ज्ञातींश्चसुहृदो दारांश्चनृपतिं गुरुम्॥
वेधस्थान
अनुज्ञाप्य भिषक् कर्म विदध्यात्संशयं ध्रुवम्।
सुवेष्टितं त्वधो नाभेर्वामतश्चतुरंगुलात्॥
वेध करने का प्रकार
अंगुल्योदरमात्रं तु व्रीहिवक्त्रेणभेदयेत्।
नाडीमुभयतोद्वारां संयोज्यापहरेज्जलम्॥
जल निकालने में नियम
न चैकस्मिन्दिने सर्वदोषं त्वपहरेत्तथा। कासश्वाज्वरस्तृष्णा गात्रभंगश्च वेपथुः। अतिसारश्च सुतरां पूर्यते जठरं तथा। तृतीयपंचमाद्येषु दिवसेष्वल्पशः पुनः॥
जल निकालने पर व्रण पर लेप
स्रावयेदुदकं तैललवणाभ्यां दृढव्रणम्। बध्नीयाद्विषतो दोषे रक्तं प्राक् प्रतिपूर्य च॥ संवेष्टयेद्गाढतरं कौशेयादिकचर्मणा॥
जलोदर लक्षण
जलोदरं कीर्तयतो निबोध॥ यः स्नेहपीतोप्यनुवासितो वा वांतोविरक्तोऽप्यथवा निरूढः। पिबेज्जलं शीतलमाशु तस्य स्त्रोतांसि दुष्यन्ति हि तद्वहानि॥ स्नेहोपलिप्तेष्वथवापि तेषु जलोदरं पूर्ववदभ्युपौति। स्त्रिग्धं महत्तत्परिवृद्धनाभि भृशोन्नतं पूर्णमिवांबुपानात् ॥ यथादृतिः क्षुभ्यति कंपते च शब्दायते चाप्युदकोदरं तत्॥
छाछ
त्र्यूषणक्षारलवणैर्युक्तं तु सलिलोदरी॥
जलोदरारिरस
पिप्पली मरिचं ताम्रं कांचनीचूर्णसंयुतम्। स्नुहिक्षीरैर्दिनं मर्द्यंतुल्यं जैपालबीजकम्॥ निष्कयुक्तं विरेकेण सत्यं हंतिजलोदरम्॥
जलोदर पर रेचन
जलोदरेषु विश्राव्यं जातं जातं विरेचनैः॥
पेट फूलने पर यत्न
विरक्तजठराध्मानं स्नेहाद्यैर्बस्तिभिर्जयेत्।
निःश्रुतो लंघितो पेयामस्नेहलवणां पिबेत्॥
छः महीने तक नियम
अतःपरं तु षण्मासं क्षीरवर्ती भवेन्नरः।
त्रीन्मासान्पयसा पेयं पिबेत्त्रींश्चापि योजयेत्॥
अन्न
सकोरदूष्यश्यामाकपयसा लवणं लघु।
नरः संवत्सरेणैव जयेदाशु जलोदरम्॥
साध्यासाध्यविचार
जन्मनैवोदरं सर्व प्रायः कृच्छ्रतमं विदुः।
बलिनस्तदजातांबुयत्नसाध्यं नवोत्थितम्॥
पक्षाद्रद्धगुदं तूर्ध्वं सर्व जातोदकं तथा।
प्रायो भवत्यभावाय छिद्रांत्रं चोदरं नृणाम्॥
असाध्यलक्षण
शूनाक्षं कुटिलोपस्थमुपक्लिन्नतनुत्वचम्।
बलशोणितमांसाग्नि परिक्षीणं च वर्जयेत्॥
यः क्लिन्नत्वक्तनूभूतनेत्रः कुटिलभूकर्णः। बलशोणितमांसाग्निक्षीणकोष्ठामयी स्मृतः॥ शोफातिसारपार्श्वार्तिभक्तद्वेषनिपीडितम्। विरेचितं चोदरिणं पूर्यमाणं विरेचयेत्
असाध्यलक्षण
पार्श्वभंगान्नविद्वेषशोथातीसारपीडितम्।
विरक्तं चाप्युदरिणं पूर्यमाणं विवर्जयेत् ॥
यत्न
रेचनं वमनं कुर्यात्सर्वत्र पाचनानि च॥
रेचन
उदाराणां मलाढ्यत्वाद्बहुशः शोधनं हितम्।
क्षीरेणैरंडजं तैलं पिबेन्मूत्रेण वासकृत॥
ज्योतिष्मतीतैल
ज्योतिष्मत्याः पिबेत्तैलं पयसा वा दिने दिने॥
गोमूत्रयोग
मूत्राण्युदरिणां सेके पाने चैव प्रयोजयेत्॥
उदर पर यत्नांतर
हरीतकीसहस्रं वा गोमूत्रेण यथा जुषः। सहस्रं पिप्पलीनां वा स्नुक्क्षीरेण सुभावितम्॥ पिप्पलीवधर्मानं वा क्षाराशी वा शिलाजतु। तद्वद्वा गुग्गुलं क्षीरतुल्यार्द्रकरसैस्तथा॥ चित्रकामरदारुभ्यां कल्कं क्षीरेण वा पिबेत्॥
वर्द्धमान पीपल
त्रिभिरथ परिवृद्धं पंचभिः सप्ताभिर्वा दशाभिरथ विवृद्धं पिप्पलीवर्धमानम्। इति पिबति युवा यस्तस्य न श्वासकासज्वरजठरगुदाशवातरक्तक्षयाः स्युः॥
मूत्राण्यष्टावुदरिणां पानसेके प्रयोजयेत्।
पिप्पली वर्धमानं वा पयसैव प्रयोजयेत्॥
उष्ट्रीक्षीरं पिबेज्जीर्णेनिरन्नो जठरामयी।
पक्षं मासमृतुं वापि नच पानीयमाचरेत्॥
सामुद्रशुक्तिकाक्षारो यवक्षारः ससैंधवः।
गोदध्नासंप्रयुज्येत सर्वोदरविनाशनः॥
विशाला शंखिनी दंती त्रिवृन्नीली फलत्रयम्।
निशा विडंगकंपिल्लं मूत्रेणोदरनुत्पिबेत्॥
जलोदर पर योग
पयो वा चव्यदंत्यग्निविडंगं व्योषकल्कितम्। पेयं वा शृंगेवरांबु कषायो दारुवह्निजः॥ चव्यविश्वसमुत्थो वा पेयो जठरशांतये॥
देवदार्व्यादि लेप
देवदारुपलाशार्कहस्तिपिप्पलिशिग्रुकैः।
साश्वगंधैः सगोमूत्रैः प्रलिंपेदुदरं शनैः॥
प्रयोगांतर
पयसा शृंगबेरांबुकषायो दारुवह्निजः।
चव्यमुस्तासमुत्थो वा पेयो जठरशांतये॥
चव्यादिक्वाथ
चव्यचित्रकविश्वानां साधितो देवदारुणा।
क्वाथस्त्रिवृच्चूर्णयुतो गोमूत्रेणोदरं जयेत्॥
यः सप्तरात्रं विलिपेत्सुधायाः क्षीरेण चूर्णं मृदितं कणायाः।
लिह्यात्प्रकामं मधुरं च भुंक्ते तस्योदरव्याधिरुपैति शांतिम्॥
देवद्रुमादि
देवद्रुमं शिग्रुमसूरकं च गोमूत्रपिष्टामथ वाश्वगंधाम्।
पीत्वाशु हन्यादुदरं प्रवृद्धं कृमीन्सशोफानुदरं च दुष्यन्॥
नारायणचूर्ण
चित्रकत्रिफलाव्योषं जीरकं हपुषा वचा। यवानीपिप्पलीमूलंशतपुष्पाजगंधिका॥ अजमोदा शठी धान्यं विडंगं स्थूलजीरकम्। हेमाह्वा पौष्करं मूलं क्षारौ लवणपंचकम्॥ कुष्ठं चेति समांशानि विशाला स्याद्विभागिका। त्रिवृत्त्रिभागा विज्ञेया दंत्या भागत्रयं भवेत्॥ चतुर्भागा सातला स्यात्सर्वाण्येकत्र चूर्णयेत्। पाचनस्नेहनाद्यैश्चस्निग्धकोष्ठस्य रोगिणः॥ दद्यच्चूर्णं विरेकाय सर्वरोगप्रणाशनम्। हृद्रोगे पांडुरोगे च कासे श्वासे भगंदरे॥ मंदेग्नौ च ज्वरे कुष्ठे ग्रहण्यां च गलग्रहे। दद्याद्युक्तानुपानेन तथाध्माने सुरादिभिः॥ गुल्मे बदरनीरेण विट्संगे दधिमस्तुना। उष्णांबुभिरजीर्णे च वृक्षाम्लैःपरिकर्तिषु॥ उष्ट्रीदुग्धेनोदरेषु तथा तक्रेण वा गवाम्। प्रसन्नया वातरोगे दाडिमांभोभिरर्शसि॥ द्विविधे च विषे दद्याद्धृतेन विषनाशनम्॥
हपुषादि चूर्ण
हपुषा त्रिफला चैव त्रायमाणा च पिप्पली। हेमक्षीरी त्रिवृच्चैवसातला कटुका वचा॥ नीलिनी सैन्धवं कृष्णलवणं चेति चूर्णयेत्। उष्णोदकेन मूत्रेण दाडिमत्रिफलारसः॥ तथा मांसरसेनापि यथायोग्यं पिबेन्नरः। अजीर्णे प्लीह्नि गुल्मेषु शोफार्शोविषमानिषु॥ हलीमकामलापांडुकुष्ठाध्यानादरेष्वपि॥
उदररोग पर चूर्ण
क्षारद्वयानलव्योषनीलीलवणपंचकम्।
चूर्णितं सर्पिषा पेयं सर्वगुल्मोदरापहम्॥
पटोलादि चूर्ण
पटोलमूलं रजनी विडंगं त्रिफलात्वचः। कंपिल्लकं नीलिनी च त्रिवृत्ता चेति चूर्णयेत्॥ षडाद्यान्कर्षिकानंत्यांस्त्रींश्च द्वित्रिचतुर्गुणान्। कृत्वा चूर्णं ततो मुष्टिं गवां मूत्रेण वा पिबेत्॥ विरिक्तोमृदु भुंजीत भोजनं जांगले रसैः। मंडं पेयां च पीत्वा वा सव्योषं षडहंपयः॥ शृतं पिबेत्ततश्चूर्णं पिबेदेवं पुनः पुनः। हंति सर्वोदराण्येतच्चूर्णंजातोदकान्यपि॥ कामलां पांडुरोगं व श्वयथुं चापकर्षति॥
उदर पर बिंदु घृत
अर्कक्षीरं पले द्वे तु स्नुहिक्षीरपलानि षट्। पथ्या कंपिल्लकंश्यामा शम्याकं गिरिकर्णिका॥ नीलिनी त्रिवृतादंतीशंखिनी चित्रकं तथा। एषां च पलिकैर्भागैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥ अथास्य मलिने कोष्ठेबिंदुमात्रं प्रदापयेत्। यावदस्य पिबेद्बिंदूंस्तावद्वेगान्विरिच्यते॥ कुष्ठं गुल्ममुदावर्तंश्वयथुं सभगंदरम्। शमयत्युदराण्यष्टौ वृक्षमिंद्राशनिर्यथा॥ एतद्बिंदुघृतं नाम येनाभ्यक्तोविरिच्यते॥
पंचमूलघृत
द्वे पंचमूल्यौ त्रिवृतानिकुंभे ससप्तलं चित्रकशिग्रुमूलम्। कुरंटबीजं त्रिफलां गुडूचीमेरंडमूलं मदयंतिकां च॥ पाठां सभार्ङ्गींसुषविंसुनीलांसरोहिषायासकुचेलिकां च। पृथक् समाहृत्य पलं जलस्य द्रोणे पचेत्तच्चरणांशशेषम्॥ घृतं हि पक्वंसकषाययुक्तं निहंति पीतं सकलोदराणि॥
नाराचघृत
त्रिफला चित्रको दंती बृहती कंटकारिका। स्नुहिसार्कविडंगानि घृतस्य कुडवं पचेत्॥ तस्य मृद्वग्निसिद्धस्य कर्षार्धंपाययेन्नरम्।
Pege no. १४६३ to १४६५ are missing from this Book.
पुनर्नवादि योग
पुनर्नवादार्व्यभयागुडूचीं पिबेत्समूत्रां महिषाक्षयुक्ताम्।
त्वग्दोषशोथोदरपांडुरोगस्थौल्यप्रसेकोकफामयेषु॥
पुनर्वादि क्वाथ
पुनर्नवामृतदारुपथ्यानागरसाधितः।
गोमूत्रगुग्गुलयुतः क्वाथः शोथोदरापहः॥
शोथोदरचिकित्सा
पुनर्नवा दारुमहौषधांबुगोमूत्रसिद्धः श्वयथुं निहंति । तथा कणाशुंठिगुडोत्थचूर्णं शोफामशूलघ्नमजीर्णहारि॥ गवां शीरं वरामिश्रं शोफोदरविनाशनम्। गोमूत्रेण समायुक्तं महिषीणां पयोऽथ वा॥
गोमूत्रयुक्तं महिषीपयो वा क्षीरं गवां वा त्रिफलाविमिश्रम्।
क्षीरान्नभुक्केवलमेव गव्यं मूत्रं पिबेद्वा श्वयथूदरेषु॥
माहिषमूत्रपान
सप्ताहं माहिषं मूत्रं पयसा चांबुवाजतम्।
पिबन्नौष्ट्रंपयो मासं श्वयथूदरनाशनम्॥
बिल्वादि क्वाथ
बिल्वाग्निचव्याकशृंगवेरक्वाथेन कल्केन च सिद्धमाज्यम्।
सच्छागदुग्धं ग्रहणीगदोत्थशोफाग्निसादारुचिहं वरिष्ठम्॥
उदररोग पर पथ्य
विरेचनं लंघनमब्दसंभवाः कुलत्थमुद्गारुणशालयो यवाः। मृगद्विजा जांगलसंज्ञयान्विताः सितासुरामाक्षिकसीधुमाध्विकाः॥ तक्रंरसोनो रुबुतैलमार्द्रकं शालिंचशाकं कुलकं कठिल्लकम्। पुनर्नवा शिग्रुफलं हरीतकी तांबूलमेलायवशूकमापसम्॥ अजागवोष्ट्रीमहिषीपयोजलं लघूनि तीक्ष्णानि च दीपनानि। वस्त्रेणं संवेष्टनमग्निविप्रयोगोत्र युतो यथायथम्॥ विशेषतः प्लीहसमुद्भवे गदे वामेऽग्रबाहौ धमनीव्यधः परम्। बद्धाह्वये चोदरजे क्षतोत्थिते नाभेरधः शस्त्राविधिर्यथाविधिः॥ समीरणोत्थे घृतपानमादितः साभ्यंजनं चाप्यनुवासनं तथा। यथामलं पथ्यगणोयमाश्रितो सखा नृणां स्यादुदरामये सति॥
दोषाः कुक्षौ हि संपूर्णेवह्निर्मंदत्वमृच्छति।
तस्मात्सर्वप्रभोज्यानि दीपनानि लघूनि च॥
शालिषष्टिकगोधूमयवनीवार भोजनम्।
विरेकास्थापनं श्रेष्ठं सर्वेषु जठरेषु च॥
उदररोग पर अपथ्य
अंबुपानं दिवा स्वापं गुर्वभिष्यंदि भोजनम्॥ संस्नेहन धूमपानं जलपान शिराव्यधः। छर्द्दिर्यानं दिवास्वप्नं व्यायामं पिष्टवैकृतम्॥ औदकानूपमांसानि पत्रशाकास्तिलानपि। उष्णानि च विदाहीनि लवणान्यशनानि च॥ महेन्द्रगिरिजातानां सरितां सलिलानि च। शमीधान्यं विरुद्धान्नं दुष्टनीरं गुरूणि च॥ विष्टंभीनि विशेषात्तु स्वेदं विष्टभसंभवे। वर्जयेदुदरव्याधौ वैद्यो रक्षन्निजं यशः॥
इति श्रीबृहन्निघण्टुरत्नाकरेउदररोगस्य निदानचिकित्सा समाप्ता।
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पुस्तक मिलनेका ठिकाना-गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास
" लक्ष्मीवेंकटेश्वर ” छापाखाना, कल्याण-मुंबई.
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॑॑# “सर्वत्र भक्षण करने के चूर्ण आदि में जहा २ अजमोद लिखा है उस जगह अनमायन देना चाहिये क्यौंकि अजमायन अंतःसमार्जक है,अजमोद नहीं है.।” ↩︎
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“अजीर्ण में भोजन की इच्छा होती है परंतु उस की परीक्षा यही है कि वह थोडी देर पीछे स्वयं शांत हो जाती है।” ↩︎
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“सोंठ,सपेद मूसली,गिलोय,शतावर और गोखरू इन पांच औषधों की पञ्चामृत संज्ञा है॥”
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“गो, भैस, बकरी, भेड,गधा, घोडा, ऊंटऔर हाथी इनकेमूत्रोंकी अष्टमूत्र संज्ञा है।” ↩︎
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“पर दिनसहस्रं तु यदि जीवति मानवः। सुभिषग्भिरुपक्रांतस्तरुण शोषपीडित॥ इति।”
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