[[चमत्कारचिन्तामणिः Source: EB]]
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॥ श्रीः ॥ विद्याभवन आयुर्वेदग्रन्थमाला
“TIMES
वैद्यक
चमत्कारचिन्तामरिणः
भिषग्वर-लोलिम्बराजविरचितः ‘विमला’ संस्कृत-हिन्दीव्याख्याविभूषितः
व्याख्याकार. सम्पादकश्च
श्री ब्रह्मानन्द त्रिपाठी एम० ए०, आयुर्वेदाचार्यः, साहित्याचार्यश्च
चौखम्बा विद्याभवन धाराणसी-१
१६७३ ________________
THE VIDYABHAWAN AYURVEDA GRANTHAMALA
68
VAIDYAKA
AMAT
1
.
VURV
OF
LOLIMBARĀJA
Idited with
The Vimalā Sanskrit and Hindi Commentaries
By
ŚRI BRAHMĀNANDA TRIPATHĪ, M. A
THE CHOWKHAMBA VIDYABHAWAN
VARANASI-1
1973 ________________
दिवगत
माता जी
करकमलो
सादर समर्पित
ब्रह्मानन्द त्रिपाठी ________________
दो शब्द आवार्य प्रियवत शर्मा
अध्यक्ष, द्रव्यगुण विभाग :
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी । आयुर्वेद वाङ्मय-वारिधि के जितने रस्न अय तक प्रकाश में आये हैं उनसे बहुत अधिक संख्या उन रत्नों की है जो भय तक उसके गर्भ में विलीन हैं। भावश्यकता है ऐसे गोताखोर सामुद्रिकों की जो उन्हें प्रकाश में ला सकें। आयुर्वेद का क्षेत्र ऐसा रहा है जिसमें पठित व्यक्ति भी लोककल्याण में ही प्रवृत्त होता है क्योंकि आयुर्वेद का चरम लचय दुग्व-निवारण ही है। शास्त्रीय अनुसन्धान या निर्माण में कम ही लोग मा पाते है। फिर भी समय-समय पर प्रतिभाशाली शास्त्रज्ञ वैद्यों ने परम्परा को अपनी रचना में गुम्फित किया। सयोग से इनमें अनेक कारयित्री कवि-प्रतिभा के धनी भी निकले । परिणामत ऐसी अनेक रचनाओं का सृजन हुभा जिनमें आयुर्वेद के साथ-साथ कविश्व का भी अपूर्व संयोग रहा । सामान्य मापा में यों कह सकते हैं कि इन रचनाओं के द्वारा कवित्व की चाशनी में पगा हुभा आयुर्वेद लोक के सम्मुख प्रस्तुत किया गया । ऐसी कृतियों में लोलिम्बराजकृत ‘वैद्यजीवन’ सर्वप्रसिद्ध है। ___ लोलिग्बराज एक शास्त्रज्ञ, सहृदय एवं कविवर वैद्य थे। ऐसे ही वों में ‘कविराज’ विशेषण सार्थक होता है। इन्होंने अपनी रचनाओं में आयुर्वेद के साथ-साथ कविश्व का ऐसा मणिकाचन योग किया है जो अन्यत्र कहीं नहीं दृष्टिगोचर होता। ‘वैधजीवन’ के अतिरिक्त इनकी अन्य रचनायें भी महत्वपूर्ण और सङ्ग्रहणीय हैं किन्तु दुर्भाग्य से थे उपलब्ध नहीं रहीं। ________________
( १० ) पण्डित श्री ब्रह्मानन्द त्रिपाठी स्वयं एक अच्छे शास्त्रज्ञ एवं कविवर हैं। आयुर्वेद के साथ-साथ साहित्य में भी उनकी अवाध गति है। इनके लिये स्वाभाविक ही था कि ‘लोलिम्बराज’ पर इनकी दृष्टि जाती । फलत. इन्होंने लोलिग्वराज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर वपों के परिश्रम से महाव. पूर्ण शोध-कार्य किया है जिससे अनेक दुर्लभ तथ्य प्रकाश में आये है। लोलिम्बराज की अन्यतम रचना ‘वैद्यावतंस’ कुछ वर्ष पूर्व भापके द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुकी है। अब यह ‘चमत्कारचिन्तामणि’ प्रस्तुत है। प्रभूत परिश्रम से इस ग्रन्थ को आपने सँवारा है और सस्कृत तथा हिन्दी व्याख्याओं के द्वारा रचयिता के भावों को यथाशक्य अभिव्यक्त करने का यत्न किया है। यद्यपि कुछ अन्य पाण्डुलिपियां उपलब्ध होती तो पाठ-निर्णय मे और शुद्धता आती फिर भी इस अनमोल रत्न की इस सुन्दर रूप में अभिव्यक्ति ही अपने भाप में एक ऐतिहासिक महत्व रखती है ।
कहना न होगा, पण्डित त्रिपाठी के सहश अन्य कोई व्यक्ति लोलिम्वराज पर प्रामाणिक अधिकार रखने वाला इस समय नहीं है। इस उत्कृष्ट कार्य के लिये मैं आपको बधाई देता हूँ तथा आशा करता हूँ कि भविष्य में लोलिग्थराज की अन्य रचनायें भी आपके द्वारा प्रकाश में भायेंगी।
धन्वन्तरि प्रयोदशी । दि० ३-११-७२ )
-प्रियव्रत शर्मा ________________
प्राक्कथन
“ब्रह्मा स्मृत्वाऽऽयुषो वेदम्” चरक के इस पद्याश के अनुसार आयुर्वेद की परम्परा सामान्यत ब्रह्मा से प्रारम्भ होती है किन्तु पौराणिक दृष्टिकोण उक्त मत में सर्वथा भिन्न है। इसके अनुयायी आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा के मानसपुत्र ‘प्रजापति’ से मानते है । प्रजापति का ही दूसरा नाम ‘प्राचेतस’ है। आयुर्वेदपरम्परा मे उक्त प्राचेतस शब्द ‘दक्षप्रजापति’ के लिये प्रयुक्त मिलता है । अस्तु, इस प्रजापति ने चारो वेदो के विवेचन के पश्चात् आयुर्वेद का सृजन किया । यह चारो वेदो का सारस्वरूप पाचवा वेद उन्होने भास्कर को दिया। उसको भास्कर ने स्वतन्त्र सहिता का रूप देकर अपने शिष्यो को पढाया।’ इस पवित्र परम्परा से प्राप्त यह आयुर्वेद पुरुपार्थ-चतुष्टय प्राप्ति का एकमात्र साधन माना जाता है। यही मानव जीवन की सफलता का प्रतीक है, अतएव भगवान् धन्वन्तरि ने सुश्रत सहिता मे कहा है
-‘चिकित्सा से अन्य कोई पुण्यतम कार्य नही है, क्योकि आरोग्यता के अभाव से मानव किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। इसी इप्टापूर्ति के लिये आप सहिताओ के पश्चात् समय-समय पर आयुर्वेद विद्वानो ने चिकित्सा-ग्रन्थो का निर्माण किया। यद्यपि इस प्रकार के अनेक चिकित्साग्रन्थ कविराज लोलिम्बराज के सम्मुख प्रस्तुत ग्रन्थ के रचनाकाल मे नि सन्देह रहे होंगे, तथापि इसकी रचना का कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा। वह कारण हमारी समझ से आयुर्वेदरूपी समुद्र के मन्थन से अभिनव रत्न की खोज थी, जिसके फलस्वरूप “चमत्कार-चिन्तामणि” नामक ग्रन्थ-रत्न का आविर्भाव हुआ। ग्रन्थकार का दृष्टिकोण - __इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में लेखक ने “दिवाकरप्रसादेन” इस पद्याश के द्वारा अपने पितृचरणो का स्मरणकर साथ ही पौराणिक परम्परा से प्राप्त आयुर्वेद १ ब्रह्मवैवर्तपुराण, अमखण्ड अ० १६ । २ चिकित्सितात्पुण्यतम न किचिदिति शुश्चम ॥ सुश्वत ॥ ________________
( १२ ) की ऐतिहासिकता को भी स्वीकार किया है। जब हम चिकित्सा के विभिन्न प्रकारो की ओर ध्यान देते है तब हमको वैदिक काल से लेकर आजतक इसके अनेक प्रामाणिक उद्धरण उपलब्ध होते हैं। यथा-उदय होती हुई सूर्य की किरणे कृमिनाशक होती हैं ।’ सूर्य के प्रकाश से हमारा कभी वियोग न हो। सूर्य स्थावर-जगम की आत्मा है। सूर्य ही प्राणियो का प्राण है । अतएव घर का पूर्वाभिमुख द्वार चरक के मत से प्रशस्त माना गया है तथा सूर्य से आरोग्य-प्राप्ति करे। इतना ही नही भास्करलवण आदि कुछ योग भी सूर्य के नाम से आयुर्वेदिक साहित्य मे अत्यन्त प्रसिद्ध हैं,, सम्भवत इस नामकरण मे आचार्यों का यही दृष्टिकोण रहा हो। आयुर्वेद मे चिकित्साग्रन्थों का स्थान :
चरक, सुश्रुत, वाग्भट इन तीनो आप संहितामओ के पश्चात् लिखे गये अनेक उत्तमोत्तम विशालकाय चिकित्साग्रन्थ सहस्रो योगो को उर मे पिरोये हुए ग्रन्थकर्ता के लेखन-काल मे सलभ थे किन्त उनमे से कौन योग अधिक उपादेय हैं, कौन नहीं, यह निर्णय लेना साधारण जनता के लिये कठिन था। चिकित्सा. कार्य में यह विचिकित्सा न हो, अतएव इस लघुकाय किन्तु सर्वाङ्ग ललित ग्रन्थरत्न का निर्माण किया गया। यह ग्रन्थ सिद्धान्तत सत्य, सरल, सक्षिप्त एव ग्रन्थकार के अपने सुपरीक्षित योगो का सकलन है। हमारे विचार से साहित्य एव आयुर्वेद का ऐसा उत्कृष्ट सम्मिश्रण अन्यत्र दुर्लभ है। समय का प्रभाव - __ यद्यपि कविराज लोलिम्बराज के ग्रन्थो मे उनके कालनिर्णयादि के परिचय का कोई निश्चित सकेत नही मिलता तथापि कुछ तथ्यो को लेकर हम इनको १६वी शताब्दी का मानते हैं। इसकाल मे उत्कृष्ट काव्यरचना के अनेक निदर्शन प्राप्त
१ उधन्नादित्य कृमीन इन्ति । वेद । • न सूर्यस्य सदृशे मा युयोथा । ऋक् २।३३।१। ३ सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुपश्च । ऋक् १२११५।१। ४ आदित्यो ह वै प्राण । प्रश्नोपनिषद् ११५। ५ प्रामुखमुदङ्मुख वाऽभिमुखतीर्थ कूटागार कारयेत् ॥ च० सु० अ० १४१४६। ६ आरोग्य भास्करादिच्छेत् । ________________
( १३ ) हैं, विहारी की ‘सतसई’ इसी समय की अमूल्य निधि है।’ इसमे मुगलकाल के वैभव का पूरा प्रतिविम्ब झलकता है। उसी विलासमय जीवन की छाप उस समय के आयुर्वेदिक साहित्य में भी मिलती है, जिसके प्रत्यक्ष उदाहरण चमत्कारचिन्तामणि तथा ‘वैद्यजीवन” है। रसोपधियो तथा वाजीकरण योगो की फलश्रुति इसका देदीप्यमान उदाहरण है। सम्भवत मुगलो के विलासी जीवन के लिये ही तात्कालिक सुधी वैद्यो ने इस प्रकार की रचनाये की हो । चमत्कारचिन्तामणि पर अन्य ग्रन्थों की छाया -
ऐतिहासिक दृष्टि से दक्षिण प्रदेश मे ‘अष्टाङ्गसग्रह’ और ‘अपाङ्गहृदय’ का प्रचार अन्य सहिताओ की अपेक्षा आज भी अधिक है, अतएव ग्रन्थकार की यह प्रतिज्ञा है, इसके अतिरिक्त भी उक्त ग्रन्थ मे ‘चक्रदत्त’ ‘शा धरसहिता’ ‘भैषज्यरत्नावली’ तथा ‘भावप्रकाश’ के आशुलाभकारी योगो का संग्रह मिलता है। महाराष्ट्र मे उस समय भी सग्रह ग्रन्थो के माध्यम से चिकित्सा चलती रही। वहां वगाल के ‘चक्रदत्त’ या ‘वंगसेन’ का प्रचार कम हुआ परन्तु इनके ढग पर अन्य अनेक चिकित्सा सग्रह ग्रन्थ लिखे गये, जिनके अन्तर्गत इनकी कृतिया भी सादर उल्लेखनीय हैं। वैद्यजीवन तथा चमत्कारचिन्तामणि —
ये दोनो ग्रन्थ कविराज लोलिम्बराज के अप्रतिम बुद्धिविलास एव चतुरस्र प्रतिभा का परिचय देते हैं। दोनो मे सवादात्मकता तथा आदर्श चिकित्सा का दृष्टिकोण समानरूपेण विलसित है । साथ ही इनकी स्त्री रत्नकला का वैपुण्य अन्तर्लापिका, वहिर्लापिका, कूट आदि के प्रसग मे अपना एक विशिष्ट बादर्श
१ (क) आयहारीतपराशराणा भोजेन भेडेन समन्वितानाम् । तन्प्राणि चित्राणि मनोहराणि चातुर्यपूर्णानि निरीक्ष्य सम्यक् ॥
चमत्कारचि० २।६। (ख) वाग्मटस्य मतमस्ति समस्त सुश्रुतस्य चरकस्य च किश्चित् । तद्वदप्रिनयनस्य विचित्रा वाग्विलासरचना मम तावत् ॥
वैधावतस ५५॥ ________________
( १४ )
उपस्थित करता है। उक्त दोनो ग्रन्थो का अनेक स्थलो पर भावसाम्य होते हुए भी उक्ति वैचित्र्य प्रशसनीय है।" ग्रन्थकार-परिचय :
दिवाकर के पुत्र कविराज लोलिम्बराज नासिक के समीप जुन्नर ग्राम के निवासी, शुक्लयजुर्वेदान्तर्गत मध्यन्दिनशाखाध्यायी जोशी ब्राह्मण थे और राजा हरिहर के सभापण्डित थे, जैसा हरिविलास काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है ।२ सप्तशृङ्गी देवी की उपासना से इन्होंने अपूर्व कवित्वशक्ति प्राप्त की। इनके पूर्वज ज्योतिपवृत्ति से अपनी आजीविका करते थे। ये साहित्य, व्याकरण, वेदान्त, मन्त्रशास्त्र, आयुर्वेद तथा संगीत के उद्भट विद्वान् थे। इन्होने अपना विवाह एक सुलतान की ‘मुरासा’ नामक कन्या से किया। यह ‘मुरासा’ शब्द ‘मेहरुन्निसा’ का अपभ्रश प्रतीत होता है। इसका अर्थ होता है-स्त्रियो मे सूर्य के सदृश । सचमुच यह अत्यन्त सुन्दरी रही होगी, अतएव लोलिम्बराज ने सवादात्मकता को प्रधानता से सम्पन्न वैद्यजीवन तथा चमत्कारचिन्तामणि ग्रन्थो में प्रयुक्त सम्बोधनो के द्वारा अपनी प्रियतमा का नख-शिख वर्णन कर उसको त्रैलोक्य-सुन्दरी के पद से विभूषित किया है। महाराष्ट्र की परम्परा के अनुसार इन्होंने विवाह होने के पश्चात् इसका नाम रत्नकला रख लिया। वैद्यकवृत्ति इनकी आजीविका का साधन थी। इनकी रचनायें-हरि. १ ( क ) औपध मूढवैद्याना त्यजन्तु ज्वरपीडिता ।
परससर्गससक्त कलत्रमिव साधव ॥ वैद्यजीवन । (ख) न ग्राह्य मूर्खमिपजो भेपज प्राशरोगिभि ।
गृहीत यदि कजाक्षि जनयेत्तद्गदान्तरम् ॥ चमत्कार चि० । २ नानागुण खनिमण्डलमण्डनस्य
श्रीसूर्यसनुहरिभूमिभुजो नियोगात् । कान्य कृत हरिविलास इति प्रसिद्ध
लोलिम्बराजकविना कविनायकेन ॥ हरिविलास काव्य । ३ रत्न वामदृशा दृशा सुखकर श्रीसप्तशृङ्गास्पद
स्पष्टाष्टादशवाहुतद्मगवतो मर्गस्य माग्य मजे । यमक्तेन मया घटस्तनि घटीमध्ये समुत्पाद्यते
पघाना शतमङ्गनाधरसुधास्पर्धाभिधानोदधुरम् ॥ वैषजीवन । ________________
( १५ ) विलासकाव्य, वैद्यजीवन, चमत्कारचिन्तामणि, वैद्यावतस ( सस्कृत में ) तथा वैद्यककाव्य और रत्नकलाचरितम् (मराठी मे) उपलब्ध हैं । इनका समय १४६० से १५३० शकाव्द तदनुसार १५३८ से १६०८ ई० निश्चित किया गया है ।
वैद्यजीवन की शैली पर लिखे गये इस चिकित्सा ग्रन्य मे त्रिविध औषध का वर्णन किया गया है। इसमे अधिकाश युक्तिव्यपाश्रय योगो का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। देवव्यपाथय तथा सत्वावजय योगो का सकेतमात्र दृष्टिगोचर होता है। भिपग्वर लोगिम्बराज का सत्वावजय से सम्भवत अपथ्यवर्जन का ही अभिप्राय रहा है, अन्यथा मानमरोग प्रतिरोधक औषध द्रव्यो का भी इसमे कही न कहीं अवश्य उल्लेख होता । इस ग्रन्थ मे चिकित्सा सम्बन्धी विषय के अतिरिक्त शब्दालंकार, मलकार, लक्षणा, व्यन्जना, गुण, रीति तथा अनेक वणिक एव मात्रिक छन्दो का समुचित विनियोग किया गया है। कहीं-कहीं कर्तृगुप्त, क्रियागुप्त, अन्तर्लापिका, वहिापिका और वाकोवापय ( सवाद ) की भी विचित्र छटा दृष्टिगोचर होती है। इन सव माहित्यिक तत्वो के समावेश को देखते हुए इस ‘चमत्कार-चिन्तामणि’ को यदि लघुकाव्य कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। यह ग्रन्थ पाच विलासो मे विभक्त है । इसकी सम्पूर्ण श्लोक संख्या दो सौ इकतालीस है।
__तुलना-इसमे विपयानुक्रम प्राय वैद्यजीवन के अनुरूप है तथा वैद्यजीवन के कतिपय पद्य भी अविकल रूप से उद्धृत हैं, कुछ अन्य पद योग की दृष्टि से समान हैं तो उनका साहित्यिक अंश भिन्न है। ऐसे पद्यो को सख्या अत्यल्प है। फिर भी इस ग्रन्थ में उक्त प्रकार की समानता का दिखलाई देना आश्चर्य नही अपितु स्वाभाविक ही है। आप ध्यान दें-चरक सहिता, भेष्ठ सहिता, पाराशर सहिता आदि के रचयितामो के पृथक्-पृथक् होने पर भी उनके अनेक भयो में अविकल साम्य है। उस साम्य के समाधान में कहा गया है कि ‘आचार्य के उपदेश देने में किसी प्रकार का अन्तर न होने पर भी शिष्यो की
१ त्रिविधामीपमिति-देवव्यपायय, युक्तिय्यपाश्रय, मत्यावजयश्चेति । तत्र देवव्यपाश्रय मन्त्रीपधमणिमङ्गलवल्युपधारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनादि। युक्तिव्यपाश्रयम्-पुनराहारविहारीपपद्रव्याणां योजना। सत्वावनय पुनरहितेभ्योऽभ्यो मनो निग्रह. 1 चरक सू० अ० १२३५२ । ________________
( १६ )
बुद्विगत भिन्नता से रचना मे भी भिन्नता आ गयी थी’।’ यहाँ पर तो ग्रन्थो का रचयिता ही एक है, अतएव दोनो रचनाओ मे यत्र-तत्र समानता का होना बुद्धिसगत ही प्रतीत होता है। इसके योगो की अमोघता, सरलता और सुभलता अनुकरणीय है।
प्रेरणा-ब्राह्मण कुल मे जन्म लेने तथा पैतृक संस्कारो के कारण सस्कृतसाहित्य के साथ-ही-साथ आयुर्वेदिक साहित्य की ओर भी मेरी पर्याप्त अभिरुचि रही। अतएव में अध्ययन-काल मे दोनो विषयो की ओर अभिमुख हुआ । उस समय मैंने परमपूज्य गुरुवर श्री लालचन्द्र वैद्य, प्रधानाचार्य अर्जुन आयुर्वेद महाविद्यालय, वाराणसी की प्रेरणा से पाठ्यक्रम में निर्धारित न होने पर भी कविराज लोलिम्बराज विरचित ‘वैद्यजीवन’ का स्वतन्त्र अध्ययन क्रिया और आयुर्वेद मे इस प्रकार की उत्कृष्ट साहित्यिक रचना को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ। अध्ययन-समाप्ति के अनन्तर अपने अधीत विषयो के अनुरूप किसी विषय पर अनुसन्धान करूं ऐसी मन मे उत्कट उत्कण्ठा उत्पन्न हुई। तव साहित्यशास्त्र के मर्मज्ञ गुरुदेव पण्डितप्रवर बट्रकनाथ शास्त्री खिस्ते जी के अभिन्न मित्र नागपुर निवासी महर्षिकल्प न्यायपन्चानन वसन्त त्र्यम्बक शेवडे जी ने मेरी शैक्षणिक योग्यता के अनुसार ‘कविराज लोलिम्बराज और उनकी कृतिया-एक अध्ययन’ विषय पर गवेषणा करने के लिये मुझे प्रेरित किया । राजकीय महाविद्यालय नैनीताल के संस्कृत विभागाध्यक्ष परमादरणीय गोपालदत्त जी पाण्डेय के निर्देशन मे आगरा विश्वविद्यालय ने उक्त विषय पर कार्य करने की मुझे अनुमति प्रदान की। ___टीका-अनुसन्धान कार्य प्रारम्भ करने पर मुझे भिषग्वर लोलिम्बराज की दूसरी कृति ‘चमत्कारचिन्तामणि’ जो अद्यावधि अप्रकाशित थी, के दर्शन हुए । इसमे भी वही विषय, वही शैली, वही रोचकता और वैसा ही आकर्षण देख मैंने ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा के अनुसार इसका सम्पादन प्रारम्भ कर दिया।
१ युद्धविशेपस्तत्रासीनोपदेशान्तर मुने । चरक स० अ० ११३२ । • आत्रेयहारीतपराशराणा मोजेन भेडेन समन्वितानाम् ।
तन्त्राणि चित्राणि मनोहराणि चातुर्यपूर्णानि निरीक्ष्य सम्यक् ॥ दिवाकरप्रसादेन रोगारोग्यकहेतवे । रचयामश्चमत्कार-चिन्तामणिमणीयसम् ॥ १० चि० १६, ७ । ________________
इसकी टीका लिवते समय श्रीमद्भागवत् की टीका सुखसागर वाला स्वरूप न अपनाकर माधुनिक स्वस्थ परम्परा के अनुसार विशद विवेचन प्रस्तुत कर विषय को समझाने का यथासम्भव प्रयत्न किया गया है। कुछ स्थलो पर आवश्यकतानुसार वक्तव्य देकर तत्-तव विषय सम्बन्धी अपनी मान्यतायें भी व्यक्त की हैं। साथ ही हस्तलिखित प्रति मे व्याकरण सम्बन्धी जो अशुद्धिया यीं उनको शुद्ध करते समय ग्रन्यकर्ता के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए योग अथवा द्रव्य का परिवर्तन अथवा परिवर्धन नही किया गया है।
निवेदन-चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस तथा चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी के यशस्वी सञ्चालको की महती अनुकम्पा से प्रकाशित इस अभिनव ग्रन्य को विद्वानो की सेवा मे सादर समर्पित करते हुए अमित आनन्द का अनुभव हो रहा है। इसके सम्पादन मे यदि कहीं किसी प्रकार को पुटि रह गई हो तो गुणकपक्षपाती विद्वज्जन क्षमा करें।
धन्वन्तरि प्रयोदशी
२०२९ वि०
विदुपा विधेय :ब्रह्मानन्द त्रिपाठी
२ च० भू० ________________
पृष्ठावा
१६
विषयानुक्रमः विषया
पृष्ठावा. विषया’ प्रथमो विलामः दाहवमीहर कपाय राधाकृष्णस्तुतिः
पित्तकफज्वरचिकित्सा श्री कृष्णस्तव
दाहे घृताभ्यना रामाभ्यर्थनम् ( पक्षरम् )
पित्तज्वरे द्राक्षादिकाप’ प्रस्तावना
\। दाप्रतीकार प्रकरणम् चिकित्साविधि.
५ पित्तज्वरेनुभूतयोग सवैद्यलक्षणानि
वातकफज्वरे पन्चकोलकाय’ चिकित्सामहत्वम्
वातश्लेप्मज्वर घाथमाह मोषधसेवने धामिकप्रवृत्ति
ज्वरहरोऽग्निवर्धको योग मूदयद्यनिन्दा
फफज्वरे वचादिकाय. पथ्यस्य प्राशस्त्यम्
कफज्वरे कण्टकार्यादिकापः स्वग्रन्यप्रसा
भाादि कयाय रोगाणाम्भयावहत्वम्
पित्तज्वरे पटोलादिकाय ज्वराधिकारः
रुचिकारक कपायः ज्यरादौ लंघनम्
ज्वरे पिप्पल्याचवलेहः वातानुलोमको वह्निदीपकव योग. , त्रिदोपज्वरे दशमूलादिकाप. तरुणज्वरे घृतसेवननिषेध
धनुर्वातादो मर्कादिकाथ ज्वरे पाचनम्
कासादिहर. काथ. वातादिज्वरेषु फपायः
सन्निपातस्यासाध्यत्वम् सर्वज्वरेपु सामान्य कपाय.
वैद्यप्रशसा वातज्वरे कपाय
कर्णमूलजशोथचिकित्सा पन्चभद्र कपाय
कर्णादिरुजाहरोलेपः ज्वरशामको योगः
" \। गुडपिप्पली प्रयोग. पपंटज’ कपाय’
१५ \। जीर्णज्वरे कवायः पित्तज्वरपान्तिप्रकार. १६ , पन्चमूलपिप्पलीप्रयोगः ________________
( २० ) विषया __पृष्ठावा. \। विषयाः
पृष्ठाङ्काः मुस्तादिकाथः
३५ ज्यरातिसारे दशमूलकाथः एकाहिकज्वरे छाथः ।
शोफातिसारे क्रियाक्रमः तृतीयके चन्दनादिकाथः ३६ \। अतिसारे धान्यादि क्वाथः चातुथिके नस्यम्
३७ \। पित्तातिसारे काय देवदादिकाथ
(कर्तृगुप्तं पद्यम् ) शीतज्वरे योगप्रयम्
\। अतिसारे मोचरसादि चूर्णम् चतुर्थकज्वरे नस्यम्
\। अतिसारे शुण्ठ्यादि चूर्णम् शीतज्वरे कषायः
आमलकीचूर्णप्रयोग विषमज्वरे कषाय.
अतिसारे श्यामाप्रयोगः रसोनकल्कप्रयोगः
अग्निवर्धकोऽतीसारहरश्च योगः ६० विषमज्वरे चत्वारो योगाः
जीर्णातिसारहरो योगः विषमज्वरे पटोलादि काथः
.उशीरादि काथ. विषमज्वरनाशनोयोग.
चन्दनकल्क तण्डलीयमूलधारणम्
समधुजलप्रयोग विषमज्वरे कषाय.
अतिसारे मुस्ताप्रयोग. अपरो योगः
" रक्तातीसारहरा योगा । ६४ अष्टाङ्गधूप’
४४ \। आमशूलादी सगुडविल्यप्रयोगः ६५ सततकज्वरे हाथ
जीर्णरक्तातिसारे दाडिमादिकषाय , लाक्षादितैलम्
रक्तातिसारे शतावर्यादिकल्क ६६ पट् कटवरतैलम् -
धातक्यादिकाय विषमज्वरादिषु घृतप्रयोग
वालातिसारे धातक्यादिवाथ ६७ असाध्यलक्षणानि
वालरोगेषु कृष्णादिचूर्णम् ॥ देवव्यपाश्रयचिकित्सा
असाध्यातिसारे गोविन्दनामस्मरणम् ६८ ज्वरे वानि
ग्रहणीप्रतीकार. द्वितीयो विलास दीपनपाचनो योग ज्वरातिसारहरो योग’ ५२ अमृतादिकषाय. ज्वरातिसारे चन्दनादिक्वाथ
पुनर्नवादिकषाय पन्चमूल्यादिकाप
“, \। पाठादिचूर्णम् - - -
___५३ ________________
पृष्ठावाः
विपयाः तिक्तादिचूर्णम् वृहद्दीपनपाचनो योग क्षुविवर्धनो योग चव्यकादिचूर्णम् सोयचंलादिचूर्णम् शुष्कपुरीपप्रतीकार ग्रहण्या सपिः प्रयोग. छागपय प्रयोग.
( २१ ) पृष्ठासाः विषयाः
मूलनाशनो योगः रास्नादिकपाय. मामवातघ्नोऽपरो योग नेत्ररोगप्रतीकार’ मधुशिग्रप्रयोग अर्जुनरोगचिकित्सा सामान्यनेत्ररोगचिकित्सा नतान्ध्यचिकित्सा नेत्रफुसुमे अपराजिताप्रयोग’ शुभारोगे माक्षिकप्रयोग कामलाचिकित्सा पटोलादिकाथ कामलाहरो योग प्रथम
" द्वितीयः ___ , तृतीय अन्जनम् गुडूच्यादिस्वरस प्रयोग योनिशूलप्रतीकार अपरो योग
सुखप्रसवोपाय ८० वनोदुग्धप्रयोग
स्तन्यवृद्धिकरो योग. प्रथम ८१
, द्वितीयः रज प्रवृत्ती प्रयोग प्रथम
" , द्वितीय स्तन्यशोधनोपाय’
सूतिकाज्वरादी योग ८३ \। प्रदरहरी योग
तृतीयो विलासः प्रस्तावना विजयादिगुटिका चिन्तामणि योग पवासे वासादिकाप लवलादिवटी कामे वासकछाप कासे पिप्यल्लादिचूर्णम् कासे त्रिफलादिचूर्णम् कासे विकटुनूर्णम् वालकासेऽतिविपाप्रयोग श्वासकासहरी योग. अपरो योग रक्तपित्तादी वासकप्रयोग श्वासे गुडतेलप्रयोगः कासे रास्नादिघृतम् श्वासादी बिभीतकप्रयोगः शुष्म्यादि पापः वालरोगप्वतिविपाप्रयोगः
७९ ________________
( २२ ) ‘विषयाः पृष्ठावाः \। विषयाः
पृष्ठाङ्काः ‘प्रदरे कुशमूलप्रयोगः
अपरो योगः ( कर्तृगुप्तपदम् ) १०७ गभिणीशूलहरः कषायः
करुस्तम्भचिकित्सा -स्तनरोगहरोलेपः
वान्तिप्रतीकार
१०८ सर्वेश्वररसप्रयोगः . ९६ पाण्डुरोगप्रतीकारः * चतुर्थो विलासः
मश्मरीनाशनोपायः
परिणामशुलहरो योगः प्रस्तावना
अन्तर्विद्रधि चिकित्सा क्षयरोगचिकित्सा
भ्रमप्रतीकारः प्रणप्रतीकार
शिरोरोगहरो लेप. स्थूलत्वहरो योगः
शिवनाशनो योगः पुष्टिकरो योगः
\। भगन्दरहरो योगः -शोफप्रतीकारोपायः
हिक्कानाशनो योगः धातजतृपानाशनोयोगः १०० अग्निमान्धप्रतीकारः ‘विपापहरणविधिः
• ( कर्तृगुप्तपदम् ) वातरक्तप्रतीकारः
१०१
शोकप्रतीकारः विसूचिकाहरो योगः
कवेरानन्दाभिम्यक्तिः क्रिमिविनाशनो योगः
बहिर्लापिका -मुखपाकप्रतीकारः
शुष्ठी कषायः प्रमेहप्रतीकारः
दन्तरोगप्रतीकारः हृद्रोगेषु अर्जुनप्रयोग.
बकुलप्रशंसा पामाप्रतीकारः
दन्तविकारचिकित्सा ‘निदाघोपचार. दुर्नामादिरोगचिकित्सा
। पञ्चमो विलासः गण्डमालाप्रतीकार
। सुखिजीवनं विशिनष्टि अम्लपित्तचिकित्सा
१०५ तदेव प्रकारान्तरेणः आमवातप्रतीकार
वाजीकरणयोग्या स्त्री पित्तप्रतीकारः
, वाजीकरणयोगः कफप्रतीकार.
-, । वीर्यवर्धको योगः
११५
११६ ________________
पृष्ठावाः १२०
( २३ ) पृष्षताः । विषया. ११८ \। बलवर्धको योगः
वीयस्तम्भकरो योगः अपरो योगः कामिनीविद्रावणो रस. अन्यान्ते मङ्गलाचरणम्
अन्पपरिचयः १२० ‘द्रव्यपरिचयः
विषयाः मामलकचूर्णसेवनफलम् यौवनप्रदो योगः आत्मगुप्ताप्रयोग. मधुपष्टीचूर्णप्रयोगः उच्चटाचूर्णप्रयोग. शुक्रदाट्यकरो योग. कायही योगः
१२१
१२५ १२४-१२८ ________________
शुद्धिपत्रम्
अशुद्धम् योगाः
शुदम् योगः
पृष्ठ २२
पंक्ति २३
अभिरोषधिभिः
आभिरोषधिभिः
“कृता
कृतो
योगाः
योगः बिनाशयति
२२ ३० २३१ २३ १
‘विनाशयन्ति ________________
वैद्यक
चमत्कारचिन्तामणिः
अथ प्रथमो विलासः .
मङ्गलाचरणम्लीलावति लताकल्पे कल्पनालिसुसंगमे। ’ करोतु विघ्नं विघ्नानां विघ्नानां नायकस्तव ॥१॥
- टीकाकर्तुमंगलाचरणम्. सान्त्र शिव शिवकर वनजायताक्ष गौरीसुत सकलविघ्नविनाशदक्षम् ।
मपत्या प्रणम्य सतत नमितोत्तमाटोको करोमि विमलां विशदार्थदानीम् ॥ अथायुर्वेदशास्त्रगतचिकित्साविषय मूख्मसमीक्षया विपश्चिदपश्चिमाना प्रमोदाय चिकित्सकचुडामणि कमिवरण्यो लोलिम्बराज कमपि नूल ‘चमत्कारचिन्तामणि’ नामक प्रवन्धरल चिकापुस्तत्परिसमाप्तिप्रमारादिप्रतिवन्धकविप्नीघनिवारणाय श्रुतिवोधितेतिकर्तव्यताकशिष्टाचारमगीकृत्य मगलाचरणमाचरन् विनविनिवारक विनायकमभ्यर्थयन् रलकला च सम्बोधयन् आशीर्वादात्मक मङ्गलम् अनुष्टुमा निबध्नाति। म्याण्या-हे लीलावति । रनकले! लताकल्पे ‘ईपदसमाती कल्पग्देश्यदेशीयर. पदूना रता इव इनि लताकपा, गौराङ्गीत्वात् । ‘उलप गुल्मिनी वीरुलंता वही मतेति च” निघण्टु.। कपनालिसुसगमे कल्पनापरम्परया शोमन सगमो यस्या सा, विनाना नायको गणेशस्तर विप्नाना प्रत्यूहाना विघ्न विनाश करोतु । इप्रकरणे, आशिपि लोटविनायको विघ्नराज.’ । ‘विनोऽन्तराय प्रत्यूह ’ उभयग्राप्यमर । ( अनुष्टुप् छन्दः ।)
हिन्दी-लता के ममान सुकोमलागी क्ल्पनाओं के द्वारा भी सगम सुख का आस्वादन करनेवाली हे रत्नकले ! सम्पूर्ण विनों का माश करने वाले श्रीगणेश तुम्हारे विनों का नाश करें।
विशेप–श्री छोलिम्बराज अपनी विदुपी प्रियतमा रत्नकला को आयुर्वेद का उपदेश देने के व्याजसे इस ग्रन्थ की रचना कररहे है॥१॥ ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणि श्रीकृष्णस्य वालसुलमा प्रवृत्ति विवृण्वन् कविद्धितीय मगलाचरणम् प्रस्तौतिवाले चञ्चलकोमले सुवदने ते शैलतुल्यौ स्तनौ
तुल्यं मे कुसुमैर्वपुदृढतरं मा मा त्वमालिङ्ग माम् । यद्यालिङ्गसि मां बलादहमिदं सर्व यशोदाऽग्रतो
वक्ष्यामीति भणन् हसन् भवभयालक्ष्मीपतिः पातु माम् ॥ २॥ म्याख्या-श्रीकृष्ण कामपि-अप्राप्तयौवनां गोपिकाम्प्रति कथयति, वाले, इति, वाले ! अपूर्णपोडशहायने चनला चपला चासौ कोमला च तत्सम्बुद्धौ चञ्चलकोमले, सुवदने सुष्ठु शोमन वदन मुख यस्या सा तत्सम्बुद्धी हे सुवदने । ‘वक्त्रास्ये वदन तुण्डम्’ इत्यमरः। ते तव शैलतुल्यौ कठोरौ स्तनौ कुचौ, अपूर्णपोडशवर्षाया. स्तनयो. शेलतुल्यत्व कठोरत्व प्रसिद्धमेव । मे मम कृष्णस्य वपु शरीर ‘गात्र वपु सहननम्’ इत्यमर । कुसुमैः प्रसूनै तुल्य समानमस्तीति । अतस्त्व मा दृढतर गाढ “गाढवाढदृढानि च” इत्यमरः । मा मा नैवालिङ्ग । यदि वलादालिङ्गसि तहिं अहम् इद सर्व तव चेष्टित व्यवहार यशोदाग्रतो मातु. पुरतो वक्ष्यामि कथयिष्यामि, इत्थ प्रकारेण सलपन् भापमाणो हसश्च लक्ष्मीपतिः श्रीकृष्ण भवमयात् ससारदुखात रोगशोकादिभ्य. मा पातु । शार्दूलविक्रीडितम् ।
हिन्दी-श्री कृष्ण किसी नवोठा गोपिका से कह रहें हैं-हे चञ्चल स्वभाववाली, नवयुवती, कोमलाङ्गी सुमुखी तेरे स्तन पहाब के समान कठोर है, और मेरा शरीर फूलों के समान सुकोमल है, तुम मुझे आलिङ्गन मत करो, मत करो। यदि तुमने हठ से आलिङ्गन किया तो मैं तुम्हारी सारी बातें माता यशोदा से कहदूंगा। ऐसा कहते हुए भवगान् कृष्ण हँसने लगे, इस प्रकार प्रसन्नचित्त भीकृष्ण दुःख दरिद्रता-रोग आदि संसारिक बाधाओं से हमारी रक्षा करें।
‘विशेष—इसमकार की क्रीड़ा को माता के समीप कहना और ‘मुझे आलिङ्गन मत करो’ इस प्रकार का निषेध तथा “तुम्हारे स्तन पहारके समान कठोर है” यह दोनों ओर से बालक्रीड़ा का मधुर निदर्शन है। उपरिलिखित इस श्लोक में आये हुए ‘बाले’ शब्द का ‘राधिका’ अर्थ होना चाहिये ॥२॥ कवि पुनरपि प्रकारान्तरेण स्वेष्टदेव रासविलासदक्ष राधाकृष्ण स्तौतिमां हित्वाऽन्यवधू प्रयासि भगवन्नैतन्मृषा वत्सले
चेत्सत्यं प्रभवेदिदं यदुपते तहिं प्रसन्नानने । त्वद्वक्षोरुहशैलराजशिखरात् पातं करिष्ये क्षणात्
नान्यत्किञ्चिदितिश्रमं हरतु मेराधाच्युतोक्तं वचः॥३॥ म्यास्या-राधिका कृष्ण प्रति वक्ति-हे भगवन ! मा राधिका सर्वथा त्वय्यनरकां हित्वा परित्यज्य, अन्यवधू प्रयासि ? अत्र काम्वा न्यज्यते यत् राधिका गमनायोधत कृष्ण ________________
प्रथमो विलासः -
वारयति टान्छनारोपव्याजेन। एतच्छत्वा मृग माधयति-हे वत्सले, प्रिये एतत् तव , पच सर्वथा गृपा मिथ्या । पुनारापापृच्छति-हे यदुपते ! कृष्ण! चेत् इद परवधूसमीपगमनं सस्य प्रमाणित मयेत् । तदा श्रीकृष्ण प्रति करोति, हे प्रसन्नानने ! राधिके । अब त्वद्वक्षोरदौलराजशिखराव वक्षसि रोइतीति वक्षोरए स्तन , ‘जातायेकवचनम्। वक्षोरुह एव शैलराट पीनोन्नतत्वाव, तस्य शिखराद, क्षणात् तत्क्षणमेव पात करिष्ये निपतिष्यामि, (कामक्रीटाविधी कामिजनस्य कृते एप प्रकारो महान् दुष्करः, अतएव शपथरूपेण श्रीकृष्णो राथिकासम्मुम्बे कथयति) नान्यत् किनिदिति नान्यः कश्चिदुपाय., राधा च अच्युतश्च ती, तयो. उक्तं कथितम् एतद् राधाच्युतयो रहस्यवर्णनात्मक वच सलापात्मकं वाक्य मे प्रन्पकर्तुं अम हरतु मायास दूरीकरोतु ।
हिन्दी-राधाकृष्ण के रहस्यसंलाप का वर्णन कर कवि अपने इष्टदेव की स्तुति कर रहा है। राधा कृष्ण से कह रही है-हेभगवन् ! भाप मुसको छोड़कर दूसरी स्री के पास जा रहे हैं ? नहीं नहीं प्रिये यह सर्वथा झूठ है। फिर राधिका कहती है-हे.कृष्ण यदि यह बात सच हो गई तो। तब कृष्ण कहते हैंसुमुसि ? तुम्हारे पीन एवं उन्नत स्तनों के सुसद स्पर्श का तत्काल रयाग करदूंगा (अर्थात् नुम्हारे स्तनरूपी शलशियर से गिरकर आत्महत्या कर लँगा) और मेरे पास इसका कोई उपाय नहीं है। इस प्रकार राधा कृष्ण की प्रेमभरी बातें ग्रन्यकर्ता के परिश्रम को दूर करें ॥ ३ ॥
स्वेष्टदेवस्तुतावतृप्त कविस्तृतीयेन पधेन रासलीलावर्णनप्रसङ्गमुररीकृत्य परमशास्वरूपिण श्रीकृष्ण स्तुवन् स्मरणात्मक माल प्रस्तीतिकयाचित्कामिन्या कुचकनककुम्भे विनिहितं - -
कयाचित्संभुक्तं घनतमतमास्तोमगहने । स्मरामस्तं बालं कुवलयदलश्यामलतनु । -
विमूलं चिल्लक्ष्यं फलिकलुपकल्लोलदलनम् ॥४॥ ध्याख्या-कयाचिदगृहीतनामधेयया कामिन्या गोपिकया कुच एव कनककुम्भः गौरपीनत्वात् तस्मिन् विनिहितम् आष्टिष्टम् , कयाचिदपरया धन निविड तमः तस्य स्तोम समूह तेन गहने देशे स्थाने सम्मुक्त रतिक्रीया निवृत्तम् । कुवलयम् उत्पलं तस्य दल तदिव श्यामा तनुर्यस्य त विमूलम् अनादित्वात्, चिलक्ष्य चैतन्यस्वरूप कलिकलुपाणां कहोल परम्परा तम्य दलने ऐतुभूत त धाल कृष्ण वय लोलिम्बराजा स्मराम । ‘कत्व न प्रयुजीन गुरावात्मनि चेवरे’ इति वचनाद् आत्मनिबहुत्व प्रयुक्तम् । शिखरिणी छन्द
हिन्दी-अनादि चैतन्यस्वरूप, कलियुग के पाप-समूह का विनाश करनेवाले और नीलकमलदल के सरश श्याम वर्ण वाले भगवान श्रीकृष्ण का हम ध्यान करते हैं। जिनका रासलीला के अवसर पर किसी रमणी ने गाद आलिंगन ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणि किया और किसी ने उनसे अन्धकार पूर्ण स्थान में सम्भोग जनित सुख प्राप्त किया ॥४॥
एतदनन्तर ग्रन्थकर्ता-आयुर्वेदविषय विवृण्वानोऽपि चित्रकाव्यमुस्खेन नमस्कारात्मक मङ्गल निवध्नाति- ,
_ नमामि मानिनं रामं निर्ममं राममारमम् । । नुन्नराममनोमानं नरनारीमनोरमम् ॥५॥ “व्याख्या-मानिन स्वाभिमानवन्त राम, निर्मम चतु’सागरपर्यन्त पितूराज्य परित्यज्य वन गतत्वान्मायया रहितम् \। राममारम रामा चासो मा लक्ष्मी. तस्या रमण त “रेवतीरमणो राम” इत्यमर । बलरामरूप नमामि । नुम्न प्रेरित किंवा दूरीकृतो रामस्य परशुरामस्य मनसि मान - अभिमान’ येन त नरनारीमनोरम सर्वजनप्रिय त नमामि । इति त्र्यक्षरम् । अनुष्टुप्छन्द । ’ ’ हिन्दीः-माया मोह से निर्मुक्त और जिसने परशुराम के अभिमान को दूर कर दिया है ऐसे सर्वजनप्रिय राम तथा लक्ष्मी रूपा रेवती के पति बलराम जी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥५॥
मङ्गलाचरणानन्तर ग्रन्थकृद् मवकृतिर्न केवल कपोलकल्पिता अपितु सर्वशास्त्रसम्मतेति प्रदर्शयन्नाह
‘अथ प्रस्तावना’ आत्रेयहारीतपराशराणां भोजेन भेडेन समन्वितानाम् । . तन्त्राणि चित्राणि मनोहराणि चातुर्य पूर्णानि निरीक्ष्य सम्यक् ॥६॥
दिवाकरप्रसादेन रोगारोग्यैकहेतवे।
रचयामश्चमत्कार-चिन्तामणिमणीयसम् ॥ ७॥ व्याख्या-आत्रेय , हारीत , पराशर., भोज, भेटश्च-पतेपाम् आचार्याणा चित्राणि विविधाङ्गयुक्तानि ( विविधानानि यथा-शल्य, शालाक्य,” कायचिकित्सा, भूतविद्या, अगदतन्य) कोमारभृत्य, रसायन, वाजीकरणञ्चेत्यष्टावशानि), मनोहराणि सर्वजनहितकराणि चातुर्यपूर्णानि युक्तियुक्तानि तन्त्राणि सम्यक साधु यथा तथा निरीक्ष्य आद्यन्त विलोक्य, दिवाकर पिता सूर्यश्च, यतो हि-“आरोग्य मारकरादिच्छेत्” इत्युक्ते । तस्य प्रसादेन कृपया रोगाणा विनागहेतवे आरोग्यस्थायिलाभार्थञ्च यथा-“स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम आतुरस्य व्याधे परिमोक्षणन्वेति चिकित्साया सिद्धान्त " । अणीयसम् सक्षिस “चमत्कारचिन्तामणि” नामक ग्रन्थ रचयाम । प्रतियुग्मकम् ॥ इन्द्रवजा तथाऽनुष्टुप ।
" हिन्दी-आत्रेय, हारीत. पराशर, भोज और भेड (ल) इन आयुर्वेद शास्त्रप्रवर्तक ऋषियों की विविधविपय पूर्ण एवं युक्तियुक्त, सहिताओं का पूर्ण मनन करने के पश्चात्-रोगियों के आरोग्य प्रदान करने की इच्छा से तथा नीरोग, ________________
। प्रथमो विलासः - प्राणियों के स्वास्थ रक्षा हेतु-श्री दिवाकर (पूज्य पिता) की कृपा से मैं इस । लघुकाय ‘चमत्कार चिन्तामणि’ नामक ग्रन्थ की रचना कर रहा " । विशेप-“दिवाकर प्रमादेन” शाम्रों में लिखा है कि आरोग्यता का इच्छुक सूर्य , की उपासना करे। इस आशय से यहाँ पर दिवाकर शब्द से सूर्य का ग्रहण किया जा सकता है किन्तु ग्रन्थकर्ता के पिता का नाम ‘दिवाकर’ था-अतः यह
भी सम्भव है कि मङ्गलाचरण के प्रसत में लेखक ने अपने पितृचरणों का स्मरण किया हो॥६-७॥1
चिकित्साविधि.- . . ., परीक्षेत रोगस्य लिङ्गानि तावत्ततोऽनन्तरं भेषजं च प्रदद्यात् । इतिव्याधिविद् यश्चिकित्सां प्रकुर्याद्भवेत्तस्य सिद्धिश्च निःसंशयेन \।८\। ___ ग्याल्या-यो व्याधिविद् वैद्य तावत् पूर्व रोगस्य लिङ्गानि लिङ्गयते शायतेऽनेनेति लिङ्ग तानि (निदान पूर्वरूपाणि रूपाण्युपशयस्तथा । सम्प्राप्तिश्चेति विज्ञान रोगाणा पञ्चधा मतम् । तथापि एते पञ्च व्यस्ता समस्ताश्च व्याधिवोधका भवन्तीति परीक्षेत । यथाह वाग्मट
रोगमादी परीक्षेत तदनन्तरमौषधम् । तत कर्म भिपक पश्चाज्ञानपूर्व समाचरेत् ॥
तत. परीक्षणानन्तर भेपन च प्रदद्याद् औषधोपचार कुयोत् । एतद्विधिना व्यवहारकर्तुस्तस्य वैद्यस्य सिद्धि.-रोगसाफल्य नि सगयेन भवेत् । भुजङ्गप्रयातम् । …. । हिन्दी-सर्वप्रथम निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय और सम्प्राप्ति इन पांच , ‘प्रकार के रोग-विज्ञान के साधनों की सहायता से रोग का निश्चय करे; इसके पश्चात् औषध का प्रयोग करे। इस प्रकार चिकिसा करने वाले वैद्य को निसन्देह सफलता मिलती है ॥ ८॥ . . . अथ सवैद्यलक्षणान्याए- ‘, ..!
सकलशास्त्रपुराणविदुप्यहो गदनिदानचिकित्सितयो पटुः । ’ उदधिजन्मकरः सुकृताकरः सकरुणोऽकरुणोऽभिमतो भिपक् ॥९॥ ___ व्याण्या-सकलानि शास्त्राणि पुराणानि च वेत्तीति सकलशास्त्रपुराणवित् यथाऽऽह सुश्रुत
एक शास्त्रमधीयानो न विद्याच्छाननिश्चयम् ।
तस्माद् बहुश्चन शास्त्र विजानीयाचिकित्सक \।\। सु स ४॥ तथा गदनिदानचिकित्सितयो पटु. गदाना रोगाणा निदानं गदनिदान तस्मिन् चिकित्सायां च पटु अर्थात्-उभयज्ञ-यथोवाच भगवान् धन्वन्नरि. सुश्रुताय- - । यस्तु केवलशास्त्रशे कर्मस्वपरिनिष्ठित 1 स मुखत्यातुर प्राप्य प्राप्य भीररिवाइवम् ॥
यस्तु कर्मसु निष्णातो धार्थाच्छास्त्र वहिष्कृत । स सत्सु पूजा नामोति वध चाईति रानतः॥ ________________
वैद्यक चमत्कारचिन्तामणिः
, अतएवोमयश. प्रशस्तयत्तूमयशो मतिमान् स समयोऽर्थमाघने । आइवे कर्म निर्याद द्विचक्रः स्पन्दनो यया ॥
इत्यल पलवितेन, उदधिनन्मकर’-पीयूपपाणि । मकृताकरः पुण्यात्मा; सकरणः दयावान, अकरण’ शस्त्रक्षाराग्निप्रयोगपु निदरो मिपया-अभिमतो राजमान्यो भवति । उक्तन रसाणवे
शस्त्रे शास्त्रे क्रियायां विविधनुनिमतः पूर्वपापापहारी ॥ साहित्ये तर्कशाम्ये विमलतरमति पटगुण पापभीर. । .. मन्यानुठानधारो हरिहरभजको नीतिमान् कान्तमृति- ’
धर्मशो भूतवन्धुर्भवति सल मिपल् - मालाय प्रभूणान् ॥ द्रुतविलन्वितन् । हिन्दी-उत्तम चिकित्सक के टहण-सम्पूर्ण शास एवं पुराणों का ज्ञाता, रोगपरीक्षण एव चिकित्सामें कुशल, पीयूपपाणि, पुण्यारमा, दयाल स्वभाववाल चिकित्साकाल में शत्र, क्षार तथा दाह का प्रयोग करते समय निप्टर इन गुणों से युक्त चिकित्सक राजमान्य होता है ॥९॥
मथ चिकित्साया महत्त्वमाहयशः क्वचिठा द्रविणं कचिद्वा मैत्री क्वचिद्वा सुश्रुतं क्वचिद्वा। शानं क्वचिद्वा प्रभुता क्वचिद्वा चिकित्सितं निष्फलमेव न स्यात् ॥१०॥
म्याख्या-कटमाध्यापवस्थाया युक्तियुक्तचिकित्साकरणात् पचिद् यश प्राप्नोति वैध’, कचिद् द्रविण धन लमते, कचिन्मग्रीलाम. सायते, कचिद् अनुमवमुखेन शानमर्जयति, कचित् प्रभुता स्वामित्वम् उररीकरोति, क्वचित् मुश्रुन प्रसिद्धिम् । अत चिकित्सित कुत्रापि निष्फल व्यर्थ न स्यात् । प्रकारान्तरेण रसाणवेऽपि चिकित्साया प्रभुत्वमुपवर्णितन्
कचिद् धर्म कचिन्मंत्री कचिद्-द्रन्य कचिद् यशः।
कर्माभ्यास कचिच्चैव चिकित्सा नास्ति निष्फला ॥ इत्यमेव वाग्भटेनापि स्वकीयाष्टासाहे-उ०००११२४ ॥ उपनाति । . हिन्दी-निदान एवं चिकित्सा में कुशल वैद्य जय चिकित्साकार्य प्रारम्भ करता है तो उसको कहीं यश मिलता है कहीं धन की प्राप्ति होती है, कहीं मित्रता बढ़ती है, कहीं से प्रसिन्दि होने लगती है, कहीं से ज्ञानलाम और कहीं प्रमुता इसप्रकार कुल मिलाकर चिकित्सा-व्यवसाय कहीं व्यर्थ नहीं जाता ॥ १०॥
मओपधसेवने धार्मिकदृष्टिकोणमुपवर्णयनि__अमृताच्युतकौस्तुभान्समध्ये सह धन्वन्तरिणा गरुत्मतापि । " स्मरता यदिभेपजंगृहीतंगदिना तस्य किमस्ति तर्हि दुःखम् ॥११॥
व्याख्या हें सुमध्ये तन्वगि। यदि गदिना रनावता अमृताच्युतकौस्तुभान् अमृत च अच्युतः च कौस्तुम. च तान्, “परवडिङ्ग दन्दनत्पुरुपयो” इत्यनेन पुस्त्व निर्दिश्यते । अमृत पीयूपम् औषध वा मैपन्य भेपज मनमगदो जाय रीपधम् । आयुर्योग गदाराति ________________
प्रथमो विलासः रमृत च तदुच्यते ।" अच्युत विष्णु, कौस्तुभमेतनामक विष्णोर्मणि, धन्वन्तरिणा देववैधेन, गरुत्मता विष्णोर्वाहनेन सह अपि स्मरता स्मरण कुर्वता भेषज गृहीत सेवित स्याद तहिं दुःख.किमस्ति, अर्थात् स सर्वेभ्यो दु खेभ्य. प्रमुच्यते । मालमारिणी वृत्तम् ॥
यथा-“औषध जाहवीतोय वैद्यो नारायणो हरि” तन्त्रान्तरेष्वपि औषध सेवनकाले भगवन्नामस्मरण निर्दिष्टम्
धन्वन्तरि गरुत्मन्त मणिराज च कौस्तुभम् । . - अच्युन चामृत चन्द्र स्मरेद् भैषज्यकर्मणि ॥
, हिन्दी-हे.कृशागी ! यदि रोगी औपधिसेवन काल में धन्वन्तरि और गरम के साथ अमृत, विष्णु भगवान् तथा उनके कौस्तुभ मणि का स्मरण करें तो उसके सभी रोग शान्त हो जाते हैं । अर्थात् उसका कोई दुख शेष नही रहजाता ॥ ११ ॥ मूढवैधनिन्दामुपवर्णयन्, तन्निर्दिष्टीपधसेवननिषेधमाह- ., ..,
न ग्राह्य मूर्खभिपजो भेषजं प्राशरोगिभिः। ४- गृहीतं यदि काक्षि ! जनयेत्तद् गदान्तरम् ॥१२॥ . • व्याख्या हे फाक्षि ! कमलनयने, प्राशरोगिभिविवेकशीलरातुरै , “प्राशरोगिणोलक्षणं यथाह चरकप्रायो रोग समुत्पन्ने वाधेनाभ्यन्तरेण वा । कर्मणा लमते शर्म शस्त्रोपक्रमणेन वा॥
च सू अ॥ १२ ॥ मर्खमिपजो भेषजमीपधं न ग्रान नैव सेवनीयम्, यथाह भगवान् अग्निवेश’भुतदृष्टक्रियाकालमात्राज्ञानवहिष्कृता । वर्जनीया हि ते मृत्योश्चरन्त्यनुचरा वृत्तिहेतोनिपल् मानपूर्णान् मूर्खविशारदानू । वर्जयेदातुरो विद्वान् सर्पास्ते पीतमारुता ॥
- च सू अ २९॥ यदि रोगिणो मूर्खभिपज , औपधं सेवन्ते तहिं तद् गदान्तरम् अन्य रोग मृत्यु वा जनयेत् । अनुष्टुप् छन्द.।
हिन्दी-हे कमलनयने ! विवेकशील रोगियों को चाहिये कि वे शास एवं चिकित्सा ज्ञानरहित मूर्व चिकित्सक की औपधि का सेवन न करें। यदि वे सेवन करते है तो उससे दूसरे रोगों के होने की’ अथवा मृत्यु की सम्भावना रहती है ॥ १२ ॥
.. अथ चिकित्सादौ पथ्यस्यैव श्रेष्ठत्वमपवर्णयति- " .::
पथ्ये सति विकारस्य प्रतीकारो वृथा भवेत् । ।
पथ्येऽसति विकारस्य प्रतीकारो वृथा भवेत् ॥ १३॥ व्याख्या-ग्रन्यकृता वैद्यजीवने प्रकारान्तरेणाइदमेव पद्यमुपनिवद्धम् । मन्ये कविराजो लोलिम्बराजो गोमूत्रिकाबन्धदिशा पद्यमिदमुपन्यस्तवान् । द्वितीयाऽऽसतीति सन्धिाच्छेद। ________________
वैद्यक चमत्कारचिन्तामणिः
- यदि रोगी पथ्याशी स्यात् तदि-अन्यचिकित्साया नाम्नि किमपि प्रयोजनम् । यदि रोगी पथ्याशी नास्ति तथापि अन्यचिकित्साकरण विफरमेन । यथोत्ता चरकेण
विनापि भेपाधि पथ्यादेव नियर्तते । नतु पश्ययिहीनन्य भेपजाना शतैरपि ॥ ___ आयुर्वेदशास्त्रीयपयोऽनपेत पश्य “धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेत” इति यव प्रत्यय । विकारो रोग , प्रतीकार. शमनम् । अनुष्टुप् छन्द \। .
हिन्दी-यदि रोगी पथ्य सेवन करता है तो उसको रोग की चिकित्सा कराने की आवश्यकता नहीं है। (क्योंकि पप्यसेवी का रोग विना औषधिके ठीक हो ‘जाता है) यदि रोगी पथ्यसेवी नहीं है तो उसके रोग की चिकिरसा नहीं करनी चाहिये, (क्योंकि पथ्य के विना औषधियों का पूर्ण प्रभाव रोगी पर नहीं परता) अत’ चिकित्सा के साथ-साथ पथ्य-सेवन की ओर अवश्य ध्यान देना एवं दिलाना चाहिये ॥ १३॥
अथ लोलिम्बराज स्वग्रन्य प्रशसयन्नाहइह गमिप्यति वैद्यमतिः श्रमं प्रथममेव पुरस्तु महासुखम् । प्रियतमस्य नवीनसमागमे नवकरग्रहणा गृहिणी यथा ॥१४॥
ध्यासया-ह-अस्मिन् चमत्कारचिन्तामणी वैद्यमति मिषगभूष. प्रथममेव-अध्ययनमननकाल एव श्रम खेद गमिष्यति, पुरस्तु नदनन्तर तु महामुखन् महत् च तद मुखन् “आन्मइत” इत्यादिसणात्वम् । गमिष्यतीति वाक्योऽर्थः । प्रियतमस्य प्राणवल्लभस्य नवीनसमागमे विवाहानन्तर प्रथमरात्री कान्नाविनोदे नवकरग्रहणा नवपाणिग्रहणा गृहिणी पती यथा प्राक् श्रम गच्छति पश्चात् सुखम् अनुभवति तददिव । अस्मिन् पधे द्वितीय चरण दृष्टान्तरूपेणोपन्यस्त कविवरेण । द्रनविलम्वितम। - ‘हिन्दी-उत्तम चिकित्सक बनने की इच्छावाले व्यक्ति को मेरे इस ग्रन्थ के
अध्ययन में प्रारम्भिक कष्ट अवश्य होगा किन्तु बाद में वह सुख का अनुभव करेगा। जिसप्रकार नवविवाहिता पत्नी पति के प्रथम सगम काल में कष्ट का अनुभव कर वाद में प्रारम्भिक कष्ट से अधिक सुख का अनुभव करती है ॥ १४ ॥
रोगाणाम्प्रानल्यमुपवर्णयन्नुपदिशति– त्रैलोक्यस्य महेश्वरेण सकलज्ञानस्य पाथोधिना
रुद्रेणापि न शक्यते क्षपयितुं दुष्टः सुधांशोः क्षयः। अस्माकं यदि शास्त्रकिञ्चनधियां स्वस्वामिनां नो प्रती
कारः स्याद् गलितायुपांगुणिगणानो हानिरित्युच्यताम् ॥१५॥ म्याख्या-त्रैलोक्यस्य लोकत्रयस्य महेश्वरेण महाश्चासौ ईश्वर. तेन सकलज्ञानस्य निगमागमविवेकस्य पाथोधिना समुद्रेण “कवन्धमुदक पाथ” इत्यमर । रुद्रेण शिवेन ________________
प्रथमो विलासः -
भपि सुधाशोश्चन्द्रमसो दुष्ट असाध्यरूप’क्षयो राजयक्ष्मा क्षपयितु साधयितु न शक्यते । यदि गलिनानुपा क्षीणायुष्मता शास्त्रकिचनधिया शाखशाने किम्वना स्वल्पा धीर्यपा तेपाम् न अस्माक स्वस्वामिना येपा वयम् आश्रितास्तेपा (च) गुणिगणाञ्चिकित्सकसमाजात प्रतीकार. स्वास्यलाम नो स्यात् “नय नो नापि” इत्यमरः । न भवेच्चेत् तहिं नो हानिरित्युच्यताम् कापि चिन्ता न करणीयेत्यर्थ । अत्र साराम “नहि कर्म महत् किश्चिद फल यस्य न भुज्यते”, इतिशास्त्रमनुमृत्योदाहरणरूपेण प्रस्तूयते पद्यमिद ग्रन्थकृता। अत्र स्वगर्व परिहरन् वक्ति लोलिम्बराज -लोकययस्य ईश्वर शिवोऽपि चन्द्रमस नीरुन कर्तुम् असमर्थस्तत्र के वय म्वल्पशास्त्रविद इति । शार्दूलविक्रीडितम् ॥
हिन्दी-जब तीनों लोकों के स्वामी, सम्पूर्ण ज्ञान के समुद्र भगवान् शंकर चन्द्रमा को राजयमा रोग से मुक्त नहीं कर सके तब यदि छोटी आयुवाले शारों का सामान्य ज्ञान रखने वाले हमारा तया हमारे स्वामियों का चिकित्सक वर्ग भली भौति रोगों का प्रतीकार न कर सकें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं ॥ १५॥
इति प्रस्तावना।
अथ ज्वराधिकारः अथ मर्वरोगप्रधानत्वादादी ज्वरमेवोपनिनध्यते
यतः सर्वेपुरोगेषु प्रायशो बलवावरः ।
ततस्तस्य प्रतीकारं प्रथमं घूमहे वयम् ॥ १६ ॥ व्याख्या-सर्वपु रोगपु यनो यस्मात् कारणात् प्रायगो बाहुल्येन ज्वर वलवान् सवल प्रधानरूपेण भवतीति, ततस्तस्मात् कारणाद् वयं तस्य ज्वरस्य प्रथम प्राक् प्रतीकार -सशमनोपायम् घूमहे, उपदिशाम । यथोक्तं चरकण
देहेन्द्रियमनस्तापी सर्वरोगाग्रजो बली । ज्वर प्रधानो रोगाणामुक्तो भगवता पुरा॥ रोगराट् सर्वभूतानामन्तकृद दारुणो ज्वर । तस्मात्तस्य विशेपेण यतेत प्रशमे भिपक् ॥
वाग्भटोऽपि ज्वरस्याग्रजत्वं समर्थयति, तदित्यम्ज्वरो रोगपति पाप्मा मृत्युराजोऽशनान्तक । क्रोधो दक्षाध्वरध्वसी रुद्रोवनयनोद्भव ॥
एप ज्वरो न केवल मानवान् अपितु माम् जन्तून् पीडयति, यथाह पालकाप्योहस्त्यायुर्वेदे महारोगस्थाने नवमाध्यायेपालक स तु नागानामभितापस्तु वाजिनाम् । गवामीश्वरसशश्च मानवाना ज्वरो मत ॥ अजावीना प्रलापाल्य करमे चालसो भवेत् । हारिद्रो महिपीणान्तु मृगरोगो मृगेषु च ॥
इत्यादि। इरिवशे ज्वरस्वरूपमाइ- ॥ ज्वरत्रिपादस्लिशिरा. पढ़ मुजो नवलोचनः । भस्मप्रहरणो रौद्र कालान्तकयमोपमः ॥ ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः - हिन्दी-क्योंकि सभी रोगों में अधिकांश रूप से ज्वर की प्रधानता दिखाई देती है अतः हम सर्वप्रथम उसी की चिकित्सा का वर्णन करते हैं ॥ १६ ॥
ज्वरादी लहनप्रस्ताव - ‘आमाशये संस्थित आमसंयुतः स्रोतांसि सर्वाणि हुताशनं तथा । निरुंध्यदोपः कुरुते ज्वरं यतस्ततो विधेयं प्रथमं च लवनम् ॥१७॥
स्याख्या-ज्वरशामकेपूपायेषु लघनस्य प्राशस्त्यम्, तदेवाह-आमाशये सस्थित., आगत्य स्थित (स्था गतिनिवृत्ती मावे क्त ) दोषः वानपित्तकफात्मक - मिथ्याहारविहाराभ्या दोषा यामागयावया । वहिनिरस्य कोष्ठानि ज्वरदा म्यू रमानुगा ॥ किं वा आमसयुत आमदोपसदृष्टो वातादिदोषो यत’ सर्वाणि रसंवाहीनि स्रोतांसि हुताशन पाचकानि च निरुध्य ज्वर कुरुते, तत तस्मात्-प्रथमम् आदी लग्न लघु भोजनम् अनशन वा प्रयोज्यम् ॥ इन्द्रवशावृत्तम् । ’ ’
लधन विपयेशास्त्रकाराणा-मतानिलघनस्य परिमापा
यव किचिल्लाघवकर देहे तल्लहन स्मृतम् ॥ लघने हेतुमाइ
आमाशयस्थो हत्वाग्नि मामो मार्गान् पिधापयन् ।
विदधाति ज्वर घोर तन्माल्लङ्घनमाचरेत् ॥ मै० २० ॥ तत्रचरक
ज्वरे लवनमेवादावुपदिष्टमृते ज्वरात् ।
क्षयानिलमयकोषकामशोकममोद्मवाद ॥ न सर्वे लहनीया इति सुश्चत.-न लघयेन्मारुतजे क्षयजे मानसे तथा ।
अलध्याश्चापि ये पूर्व दिव्रणीये प्रकीर्तिता.॥ लहनस्य प्रमाणम्
प्राणाविरोधिना चैनं लहानेनोपपादयेत् ।
वलाधिष्ठानमारोग्य यदर्थाऽय क्रियाक्रम’ … हिन्दी-जब वातादिदोप आमाशय में आकर रुक जाते है अथवा आमदोष से युक्त हो जाते हैं तव चे स्रोतों में रुकावट पैदाकर अग्नि को मन्द कर देते हैं, फलतः ज्वर की उत्पत्ति हो जाती है। अतएव दोष अथवा दोपों की शान्ति के लिये सर्वप्रथम रोगी को लंघन कराना चाहिये ॥ १७ ॥
वातानुलोमको वहिदीपकरच योगः. लाजाशुण्ठीकणामुस्तासैन्धवोशीरदाडिमैः । . वातानुलोमनो मण्डो दीपयेदाशुशुक्षणिम् ॥ १८॥ .. । ग्यास्या-लाना भृष्टधान्य, शुठी नागर, कणा पिप्पली, मुस्ता घना, सैन्धव लवणम्, उशीर नलद, दाढिम च आमि ओपथिमि सिद्धो मण्ढो वातानुलोमन करोति तथा पाचकाग्नि प्रदीपयति । ‘अनुष्टुप् छन्द.॥ ________________
1. प्रथमो विलास
मण्डनिर्माणप्रकार.
नीरे चतुर्दशगुणे सिद्धो मण्डस्वसिक्थक । गुण्ठी-मैन्धवमयुक्त. पाचनो दीपन’ पर ॥ चाईधरे । मण्टपेयाविलेपीनामोदनस्य च लाघवम् ।
यथापूर्व शिवस्तष मण्टो वातानुलोमनः ॥ वाग्मटे। । हिन्दी-धान का लावा (खील), सोंठ, पीपल, नागरमोथा, सेन्धानमक, खस और दादिम इनके द्वारा बनाया हुमा मण्डं (मांद) वायु का अनुलोमन तथा जठराग्नि का दीपन करता है। । ___ मण्दनिर्माणविधि-रोगानुसार औपध से चौदह गुना जल में चावल आदि से बनाया हुआ सिक्य (सीठी) रहित द्रव पदार्थ मण्ढ कहा जाता है ॥ १८॥ तरणञ्चरे धृतमेवननिषेधमाह- "
रुचिरोरुस्तनश्रोणि तरुणचरिणे घृतम् ।
परसंसर्गसंसक्तं ’ कलप्रमिव साधवः ॥ १९ ॥ . म्याख्या-रुचिरी-करू स्तनी श्रोणि यस्याः सा तत्सम्बुद्धी हे रुचिरोरुस्तनयोणि ! रत्नकले ! तरुणचरिणे आमज्वरयुक्तरोगिणे घृत सपिर्न देयम् । तरुणज्वरवान् रोगी नया घृतमेवन त्यजेद् यथा परससर्गससक्त कलय पुश्चली स्त्रिय साधव सत्पुरुषा त्यजन्ति । अनुष्टप् छन्दः।
यथोक शाधरसहितायाम्अजीणीं वर्जयेत म्नेहमुदरी तरुणज्वरी । दुर्वलोऽरोचकी स्थूलो मूच्छा” मदपीडित ॥ हिन्दी-मनोहर जंघा, स्तन एव कमर वाली रस्नकला, भामज्वर माले रोगी को चाहिये वह घृत सेवन का वैसा ही त्याग करे जैसा व्यभिचारिणी स्त्री का सजन पुरुप त्याग कर देते है। ___ विशेष-मूल श्लोक में “सजन्तु ज्वरिणो” पाट है, वास्तव में उसके स्थान पर " तरुणज्वरिणे" पाठ होना उचित हे ॥ १९॥ । । । ..)
ज्वरे पाचनम्भो भो पयोधरधराधरभारखिन्ने चेतोहरे सकलकामकले सुशीले। विश्वासवान्यवृहतीद्वयदेवकाष्ठःस्यात्पाचनंप्रथमतोज्वरनिर्जितानाम् २०
व्याख्या-मो मो इति सम्बोधनस्य द्विरुक्ति , योगम्यास्य निसन्देइसचिका, पयोधर. धराधरमाररिसन्ने पयोधरी स्तनी एव धराधरी पर्वती पीनोन्नतत्वात तयो मारेण खिन्ने । व्यथिते, तोहरे मनोमोहकारिणि, सकलकामकले सम्पूर्णरतिक्रीडासुचतुरे, सुशीले ‘शोमन
शील। यस्या सा तत्सम्बुद्धी, इत्थम्भूते. रत्नकले । विश्वी शुण्ठी संघान्य’धान्यकेन सहितं ________________
१२
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
वृहतीदय कण्टकारी युगल, देवकाठ मुरदारु, आमिरोपधिभि सिद्धः काप. प्रथमनो ज्वरनिजिताना सरमुक्तानां पाचन भवति । वसन्ततिलकायत्तम । शाधरसहिनायान्- नागर “देवकोष्ठ २ धान्यक वृहतीद्वयम् ।
दयात पाचनक पूर्व चरिताना ज्यापहम् ॥ काथनिर्माणविधिः- पानीय पोटशगुण क्षुण्णे द्रव्यपले क्षिपेत् ।
मृत्पात्र काययेत् प्राममष्टमा शावशेपितम् ॥ कर्षादी तु पल यावद दयात् पोटशक जलम् ।
तज्जल पाययेद्वीमान् कोष्ण मृदग्निसाधितम् ॥ कायमाना
मामोत्तमा पलेन स्यात् प्रिमिरक्षस्तु मध्यमा।
जघन्या च पलान स्नेहकायोपधेषु च ॥ पाचनस्य परिमापा- यत्पचत्याममाहार पचेदामरम च यत् ।
यदपकान्पचेद् दोपास्तद् विपाचनमुच्यते ॥ हिन्दी-पर्वत के सदृश पीन और उन्नतस्तनों वाली, मन को वश में करने चाली, सम्पूर्ण काम-कला में कुशल, सुन्दर स्वभाव युक्त रनकला, सोंठ, धनियां ‘दोनों कटेरी, और देवदारु इनसे बनाया हुआ काय दोष-पाचन के लिये ज्वरपीड़ितों को देना चाहिये।
विशेष-मूल में “विश्वापधानो” पाठ है, किन्तु यह अशुद्ध है और इसमें छन्दोभग दोप भी है। दूसरी वात-“ज्वरनिर्जितानाम्” पाठ भी इसमे भ्रामक है क्योंकि यह पाचन कारक योग ज्वर में आमदोष को पचाता है। यदि ज्वर ही शान्त हो गया तो फिर इसकी आवश्यकता ही क्या। हमारे विचार से इस पाठ को ऐसा होना चाहिये
" “विश्वासधान्यवृहत्तीयदेवकाप्टः स्यास्पाचन प्रथमतो ज्वरिणां हिताय ।” यद्यपि चिकित्सक को अपने अनुभव के आधार पर योग परिवर्तन का पूर्ण " अधिकार है, तथापि भ्रामक एवं अशुद्ध पाठों की निवृत्ति के लिये यह विचार किया गया है ॥२०॥
वातादिज्वरेषु कपायः
छिनौषधाम्भोधरधन्वयासैः, किराततिक्ताम्युदरेणुयासैः। .: मुस्ताटरूषौषधधन्वयासैः काथो मरुत्पित्तकफज्वरेषु ॥ २१ ॥ ., व्याख्या-छिन्ना गुड़ची औपध शुण्ठी, अम्मोधरो मुस्ता, धन्वयासो दुरालभा
चतुर्मिरेभिर्वातज्वरे काथ । किरातो भूनिम्ब , तिक्ता कटकी, अम्बुदो मुस्ता, रेणु. पर्पट. यासोयवास पञ्चभिरेभि पित्तज्वरे क्वाथ । मुस्ता मुस्तकम्, ’ आटरूपो वासक , औषध शुण्ठी, धन्वयासो दुरालभा चतमिरेमि कफज्वरे काय । उपर्युक्तालय. ________________
, प्रथमो विलासः
१३
काया क्रमेण वातपित्तकफनञ्चरेयु पाचनार्थ शस्ता । इमे त्रयो योगा सन्निपातज्वरिण युगपदेव प्रयोज्या इति चरकाचार्यस्य मतन्
वृहत्यी वत्सक मुम्त देवदासमहौषधम् । कोलवहीं च योगोऽय सन्निपातज्वरापह. ॥ शटी पुष्करमूलाग्न व्याघी ही दुरालभा । गुडूची नागर पाठा किरात कटुरोहिणी ॥
अनुमीयते यद ग्रन्थकृता सन्निपातोक्ता एते योगा स्वानुमववलेन पृथक् पृथक् कृता. किनिवपरिवधिता सहव न्यूनतामपि गमिता । उपजातिवृत्तम्।
हिन्दी-गिलोय, सौंठ, नागरमोथा और धमासा इनका,काय वातज्वर में, चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, पित्तपापड़ा और जवासा इनका काथ पित्तज्वर में, तथा नागरमोथा, मामा, सोंठ और धमासा इनका काथ कफज्वर में देना चाहिये।
विशेष-ये तीनों योग चरक चिकित्सास्थान में वर्णित। योग से कुछ घटा बढ़ाकर लिखे गये हैं। यह कार्य देश-कालज्ञ चिकित्सक अपने विवेकसे कर ही सकता है। यह क्वाथ दोपों का पाचन करने के साथ पिपासा की भी ‘शान्ति करता है। यदि इसका प्रयोग सन्निपात ज्वर में करना हो तो तीनों योगों को मिलाकर करना चाहिये।
कुछ और यह श्लोक लोलिग्यराज रचित वंद्यजीवन में भी इसी प्रकार उद्धन है।
छिनोदभवाम्मोधरधन्वयामै किराततिक्ताम्बुदरेण्यास।
विश्वावृपाम्भोधरधन्वयासे हाथो मरुपित्तकफवरेषु ॥ वै० जी० । . इसकी टीका लियते हुए श्रीमद्यतिवर्य सुखानन्द जी लिखते हैं छिन्ना गुडूची, औषधं शुठी, किन्तु यह औषधपद इस-लोक में है ही नहीं, हो..चमत्कार चिन्ता. मणि के इस पद्य में “छिन्नौषधाम्मोधर” पाठ अवश्य है । परन्तु यह पाट व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है इसके स्थानपर “छिन्नीपधमम्भोधर ऐसा पाठ होना चाहिये, किन्तु ऐसा करने पर छन्द भग हो जाता है। हमारे विचार से छिन्नोभवाम्भोघरधन्वयासे” वेद्यजीवन के पाठ को ही ठीक ‘मान लेना चाहिये। किन्तु गुणों की दृष्टि से वातज्वर नाशक योग में सोट को रखना ही चाहिये। अत यह समस्या उक्त पाठ को इस प्रकार बदल लेने से सुलझ जायगी “छिन्नौप, मुस्तक धन्वयासे”॥२१॥
सर्व ज्वरेषु सामान्य कपाय - । पयोवाहभूनिम्वकोशीरकाणां स्थिरासिंहिकायुक् कलस्यौपधीनाम् ।, गुडची-त्रिकण्ट-प्रयुक्तः कपायो नरं सज्वरं निरं चर्करीति ॥२२॥
व्याख्या-पयोवाहो मुम्ता, भूनिम्व किरात , उशीरो नलदः, स्थिरा शालपणी, सिहिकायुक् कण्टकारीद्वयन, मी पंध शुण्ठी, कलशी पृश्निपणी, गुढची छिना, त्रिकण्टो ________________
.
पासपर कपाय.-
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः गोक्षुरः, इत्याद्योषधीनाम् प्रयुक्त कपाय मज्वर ज्वरयुक्त नर निवर ज्वररहित चकर ति । भुजङ्गप्रयातम् ।
हिन्दी-नागरमोथा, चिरायता, खस, शालिपर्णी, दोनों कटेरी, सोंठ, पिठवन, गिलोय, गोखरू इन औषधियों से निर्मित इस (मुस्तादि) वाथ का सेवन करने से मानव ज्वररहित हो जाता है ॥ २२ ॥
वातन्वरे कपायविशालमालूरकुचाभिरामे सुपल्लवे वल्लरि काञ्चनस्य ॥ दिलीपपत्नीचरणौ विमोक्षो. लोको हनूमज्जनके ज्वरे स्युः ॥ २३ ॥ भ्याल्या-विशालमालूरकुचाभिरामे, वृहविल्वसदृशरमणीयवक्षोजशालिनि ! सुपछने शोमनचरणकदेशे किंवा शोमनचैलप्रान्ते, काञ्चनस्य वछरि गौरवर्णवति ! दिलीपपत्नी मागधी तस्याश्चरणौ मूल, विमोक्षो गुडूची लोको विश्व - शुण्ठी, हनुमतो जनकः पिता पवनस्तत्सम्बद्धे ज्वरे एपः कपाय प्रयोज्य’, ‘विल्व शाडिल्यशैलूपो मालूरश्रीफलावपि ।’ अभिनव. निघण्टु । पिप्पली मागधी कृष्णा वैदेही चपला कणा । अभिनवनिघण्टु । उपजातिवृत्तम् । अष्टाङ्गहृदये चिकित्सास्थाने ज्वरचिकित्साप्रकरणे वातज्वरे कपाय.
अथवा पिप्पलीमूल गुडूची विश्वभेषजम् ॥ वान्भटे ॥ हिन्दी-वेल के सहशस्तन, सुन्दर चरण तथा गौर वर्ण वाली प्रियतमा पिप्पलमूल, गिलोय और सोंठ का काथ वातज्वर का शमन करता है ॥ २३ ॥ वातपित्तज्वरे पनमद्र. कपाय.
छिन्नोद्भवापर्पटवारिवाहभूनिम्बशुण्ठीजनितः कपायः। — समीरपित्तज्वरजर्जराणां करोति भद्रं खलु पञ्चभद्रः॥ २४ ॥
ग्याल्या-छिनोद्भवा गुडूची, पर्पट. तिक्त, वारिवाहो. मुस्ता, भूनिम्बः किरातः शुण्ठी महौषधम्, आमिरोपधिमिनिर्मित कपाय’ समीरपित्तन्वरनर्जराणा वातपित्तज्वरपीरिताना मानवानाम् एप पञ्चमद्रामियो योग. खलु निश्चयेन भद्रम् उपकार करोति । उपजाति । शाङ्गधरसहितायामपि तथैव
पर्पटाम्दमृताविश्वकैराते. साधित जलम् । पञ्चमद्रमिद शेय वातपित्तज्वरापहम् ॥ हिन्दी-गुडची, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, चिरायता और सोंठ इनका काय चातपित्तज्वर में देना चाहिये । इस काय का नाम पञ्चभद्र है ॥ २४ ॥ ज्वरे नापनाशको योग -
अनन्तादिं भजेत्तावद् यावत्तापः प्रशाम्यति ॥ संशयो नैव कर्तव्यः सत्यं सत्यं पुनः पुनः ॥ २५॥ ________________
| प्रथमो| वलासः |
१५
व्याख्या-अनन्तागणोक्त काथ तावत्सेवनीयो यावत् तापस्य शान्तिर्न स्यात् । अस्मिन् योगे सन्देहो नैव कर्तव्य इति अह पुन पुन’ सत्य वच्मीति शेष. । यथाह सुश्रुत - उत्तरतन्त्रअनन्ता वालक मुस्ता नागर कटुरोहिणीम् । सुखाम्बुना प्रागुदयात पाययेताक्षसम्मितम् ॥
एप सर्वज्वरान् हन्ति दीपयत्याशु चानलम् ॥ सु० उ० ॥ ग्रन्थान्तरेष्वपि-अनन्तादियोगो वर्णित । अनुष्टुप् छन्दः। . हिन्दी-अनन्तादिकाथ-(सारिवा, सोंठ, कुटकी, नेत्रबाला, नागरमोथा) का सेवन तबतक करना चाहिये जबतक ज्वरजनित ताप की शान्ति न हो जाय। यह शत-प्रतिशत सफल प्रयोग है। इसके सम्बन्ध में सन्देह नहीं करना चाहिये । मैं (लोलिम्बराज) सत्य कह रहा हूँ ॥२५॥ पित्तज्वरे पर्पटज. कपाय
स्वयमेव च पैत्तिकं ज्वरं शमयेत् पर्पटजः कपायकः । .
यदि चन्दनसेन्यनागरैः सहितः किं पुनरत्र चिन्तया ॥ २६ ॥ ध्यास्या-पर्पटज. तिक्ताज कपाय. “स्वार्थ क” स्वयमेव एकल’ पत्तिक पित्तोद्भव ज्वर शमयेत् । यदि चन्दन रक्तचन्दनम् , “कपायलेपयो प्राय प्रयोज्य रक्तचन्दनम्", सेन्यम अमृणालं. नागर शण्ठी. आमिरोपधिभिर्यक्त पर्पटन कपायो रोगिणे प्रयुज्यते चेत् तएिं पुनरय चिन्तया किम् अपितु नैव चिन्ता कर्तव्येति । सेव्यस्य पर्यायावीरणस्य तु मूल स्यादुशीर नलद च तत् । अमृणाल च सेव्य च समगन्धिकमित्यपि ॥
, अभिनवनिघण्टु । प्रसिद्धतमोऽय योग सवैरपि प्रयुक्त, यथा मैपज्यरत्नावल्याम्- ..
एक पर्पटक-श्रेष्ठ पित्तज्वरविनाशने । किं पुनर्यदि युज्येत चन्दनोदीच्यनागरे । शाधरसहितायाम् शुण्ठ्या स्थाने नेत्रबलाया. प्रयोग कृत । चक्रपाणिस्तु तमेव योग. समर्थयति चक्रदत्ते। वियोगिनीवृत्तम्,
हिन्दी-केवल पित्तपापड़ा का काथ पित्तज्वर का शमन कर देता है, यदि इसमें लालचन्दन, खस और सोंठ भी मिला दिये जाय, तो इसकी सफलता में फिर किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह जाता।
विशेष-केवल शानघर सहितामें सोंठ की जगह नेत्रबाला का प्रयोग किया गया है। शेष योग में कोई अन्तर नहीं है। हमारी सम्मति से “नागरैः” के स्थान पर “वालकै" पाठ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । जरा इनके गुणधर्मों पर विचार करें-नेत्रयाला-बालक शीतलं रूक्षं लघु दीपनपाचनम् । सोंठ-शुण्ठी रुच्याऽमवातघ्नी पाचनी, कटुकाऽलघुः। . ..
सिघोषणा मधुरा पाके कफवातषिबन्धनुत् ॥ २६॥ ________________
द
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः ’ अथ प्रकारान्तरेण पित्तज्वरशान्तिप्रकार वक्ति• मायुश्च मदद वायुलन्मणिमनोहरे। ,
रेवातीरे यतो वेणुकाणोस्त्यत्र हृतव्यथः ॥ २७ ॥ . व्याख्या-ज्वलन्मणिमनोहरे भास्वरमणिवच्चेतोहरे । यतोऽत्र रेवातीरे रेवानधास्तटे मकृद् वायु मादक पवन वेणुक्काण वशीनिक्कण च हृतव्यथ हृता दूरीकृता व्यथा पीडा येन स अस्ति, अत इमी वायुकाणी माथु पित्त ( तज्जनिता व्यथा च ) च हरत इति निर्गलितोऽर्थ । अनुष्टुप् छन्दः।
, हिन्दी-मणिके समान कान्ति वाली प्रिया रेवानंदी के तट पर बहने वाली शीतल वायु और वीणाध्वनि सभी प्रकार की व्यथायें दूर करती हैं, अतः ये दोनों पित्तज दाह को भी दूर करती है ॥ २७ ॥ . . . . दाहवमीहरकपाय -
जलजजलजवाहं हरहरहरति ज्वरम्।
प्रवलनिदाघवमी निपीयमानं प्रिये नूनम् ॥ २८॥ व्याख्या–जलजम् उशीर, जलजवाहो मुस्ता, एतयो काथ शृत जल निपीयमान सद् हरहरेति वाक्ययोजना, हे प्रिये ! प्रबल वेगवन्त निदाघ दाहज्वर वमि छदिरोगानून हरति । अत्र केचित् प्रथम जलजपदेन-गुडूची द्वितीय-जलजपदेन बालक, स्वीकुर्वन्ति । एतदपि युक्तियुक्त प्रतीयते । अत्र जलशब्देन गुडचीग्रहणे हेतु - ।
जलस्यापरपर्याय अमृत, गुड़ची अमृतेति नाम्ना प्रसिद्धा । यथा चक्रपाणि - विश्वाम्बुपर्पटोशोर-धनचन्दनसाधितम् । दद्यात्सुशीतलं वारिं तृट्छदिज्वरदानुत् ॥
हिन्दी-हे प्रिये! प्रबल दाहज्वर’तथा छर्दि रोग में खस और नागरमोथा के काथ का सेवन करने से अवश्य ही रोग शान्ति में सफलता प्राप्त होती है ॥२८॥ पित्तकफज्वरचिकित्सा- । । . . . . . ।
लोहितचन्दनपद्मकधान्यच्छिन्नरुहापिचुमन्दकषायः। पित्तकफज्वर दाहपिपासा छर्दिविनाशहुताशकरःस्यात्॥ २९॥ व्याख्या-लोहितचन्दनादीना कपाय पित्तकफज्वरदाहपिपासाछदिविनाशक - अग्निदीपक च भवति । तद्यथा-लोहितचन्दन रक्तचन्दनम्, पमकम् पद्मकाष्ठ, धान्य धन्याक, छिनरहा गुडची, पिचुमन्दो निम्व , पञ्चानामेतेषां क्वाथो लाभकृद् भवति । उक्तश्च चक्रपाणिना चक्रदत्ते– गुडची निम्बधन्याक पद्मक चन्दनानि च । एप सर्वज्वरान् हन्ति गुडच्यादिस्तु दीपनः॥
हल्लासारोचकच्छदि पिपासादाहनाशनः ॥
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प्रथमो विलासः
अन काथे मधुनिक्षेपणमपि वैद्यानाम्मतम् । यथाद शिवदास -“अत्र अत्यन्तदाइपिपासाया वृद्धा. शीतीकृत्य मधु निक्षिपन्ति, तत्त्वचन्द्रिका । दोधकवृत्तम् ।
हिन्दी-लालचन्दन, पभकाष्ठ (पमाख), धनियां, गिलोय, नीम की छाल इनका काथ पित्तकफवर, दाह (जलन), प्यास, वमन रोगों को शान्तकर अग्नि का दीपन करता है।
विशेष-कुछ वैद्य इस हाथ में शीतल होने पर मधु मिलाते हैं। यह मधु मिश्रित क्वाथ प्यास को पूर्णतया शान्त करता है । इस पथ के मूल पाठ में चतुर्थ पाद इस प्रकार है-“वृपाग्निशमानविशेपात्” इसके स्थान पर “विनाशहुताशकरः त्यास्” परिवर्तन किया गया है। पाठक भौचित्य तथा पाठ की शुद्धाशुद्धि को ध्यान में रखकर उपयोगी पाठ को अपनाने का कष्ट करें ॥ २९ ॥ दाहे घृताम्यग
सहस्रधौतेन घृतेन कर्तुरभ्यद्गमोपः कृशता विभर्ति ।
अन्यागनासङ्गमसादरस्य स्वीयेपु दारेषु यथाभिलाषः ॥ ३०॥ व्याख्या-सहस्रधौतेन धृतेन सहस्रवार प्रक्षालितेनाज्येन, अभ्यगम् मर्दन कर्तु पुरुपस्य, ओप दाह ( उप दाहे ) कृशता क्षीणता विमति यातीत्यर्थः । तत्रोदाहरणमुपस्थापयति-अन्यागनासङ्गमसादरस्य अन्याना-परयोपित तस्या सगमे सादर प्रवृत्तः तस्यैवम्भूतम्य कामुकस्य यथा स्वीयेषु दारेषु निजासु पत्नीपु यथा अभिलाप इच्छा इव । यथाह भगवानाय चरकेसहस्रधीत सपि तेल वा चन्दनादिकम् । दाइज्वरप्रशमनम्
च चि अ ३॥ हिन्दी-जिस प्रकार परस्त्रीगामी पुरुष का अपनी पत्नी के प्रति प्रेम क्रमशः घटने लगता है ठीक उसी प्रकार हजार बार धोए हुए घी का अम्यग (मालिश) करने से दाह घटने लगता है ॥ ३०॥ पित्तज्वरे द्राक्षादिकाथ -
द्राक्षारग्वधयोः क्वाथः पीतः पित्तज्वरापहः । ।
पर्पटाब्दामृतातिक्तायुक्तश्चेत् किं सुधा ततः ॥ ३१ ॥ व्याख्या-द्राक्षा मृद्वीका, आरग्वध कृतमाल , एतयो काथ पीत सेवितश्चेत् पित्तज्वरापह पित्तन्वर विनाशयति । यदि अस्मिन्नेव योगे पर्पट तिक्तम्, अब्दा मुस्ता, अमृता हरीतकी, तिक्ता कुटकी एतद् भेषजचतुष्टयस्यापि मिश्रण भवेत् तहिं सुधाया अपि प्रयोजनं नास्ति । अनुष्टप् छन्दः। यथाह-चक्रपाणि चक्रदत्ते
२चलचि० ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
द्राक्षामयापर्पटकाब्दतिक्ता काथ. सशम्पाकफल विदध्यात् ।
प्रलापमूच्छांभ्रमदाहशोपतृष्णान्विते पित्तभवे ज्वरे तु ॥ हिन्दी-मुनका और अमलतास का काथ पीने से पित्तज्वर दूर हो जाता है। यदि इस योग में पित्तपापड़ा, नागरमोथा, हरीतकी और कुटकी मिला दी जाय तो यह अमृत से भी अधिक लाभदायक हो जाता है । अर्थात् इसके गुणों के सम्बन्ध में सन्देह नहीं करना चाहिये ॥३१॥ अथ दाहप्रतीकारप्रकरणम्
अतिमञ्जलवञ्जुलानिलेरलिनीसंकुलचञ्चलोत्पलैः ।
जलकलिकलाकुतूहलैरपि पित्तज्वरजा रुजो जयेत् ॥ ३२ ॥ व्याख्या-अतिम लवक्षुलानिलै’ अतिम लश्वासी वजुलानिल तै अत्यन्तरमणीयैरशोकवायुभि , अलिनीसकुलचञ्चलोत्पले अलिनीमिः भ्रमरीमि सकुलै व्याप्त अतएव चञ्चलोत्पलै आन्दोलितपझै’, जलकेलिकलाकुतूहले जलस्य केलि क्रीडा सा एव कला कौशल तत्सम्बन्धितहले कुतकै एमिरुपादाने पित्तन्वरजा पित्तज्वरसम्बन्धिन्यो रुज पीडा शम यान्ति । वियोगिनी वृत्तम् । चरकेपि’नधस्तढागा पभिन्यो हदाश्च विमलोदका । अवगाहे हिता दातृष्णाग्लानिज्वरापहा ॥ “शीतानि चानपानानि शीतान्युपवनानि च । वायवश्चन्द्रपादाश्च शीता दाहज्वरापहा ॥
च. चि अ ३॥ हिन्दी-अशोक वृक्ष की मनमोहक शीतल मन्द-सुगन्ध वायु से, भौरों के मडराने के कारण झूमते हुए कमलों से और उत्सुकता एवं कलापूर्ण जलक्रीराओं से पित्तज्वरजनित दाह की शान्ति होती है।
विशेप-इस पन में ग्रन्थकर्ता का आशय यह प्रतीत होता है कि दाह की शान्ति के लिये रोगी को ऐसे बगीचे में रखा जाय जहाँ चारों ओर अशोक वृक्ष लगे हों, चीच में वावड़ी हो और उसमें कमल खिले हो ॥३२॥
सुकलत्रकलत्रपुत्रमित्रैः सुचरित्रलियन्त्रकैर्विचित्रैः। सरसीसरसीरुहेरुदारैरतिदाघस्य निवर्तनं प्रकुर्यात् ॥ ३३ ॥ व्याख्या–सुकलनकलत्रपुत्रमित्र सुशोभन कलत्र श्रोणि यस्य तत् इत्थभूत यत् कलत्र स्त्री तत् च पुत्र च मित्र च ते, सुचरित्र देवतोपासनादिसच्चरित्र , विचित्र विभिन्न’प्रकारक, नर्जलयन्त्रकै धारागृह , सरसी कासार, सरसीरुहै कमलै , उदार. प्रशस्तै , ‘अतिदाघस्य तीबदाइज्वरस्य निवर्तन समापन प्रकुर्यात् । ‘कटि-श्रोणि ककुद्मती’, ‘कलत्र श्रोणि भार्ययो ।’ ‘कासार सरसी सर। सर्वत्राप्यमर । मालमारिणी वृत्तम्। । ________________
प्रथमो विलासः
दाहोपशमनोपाय चरकेप्रिया प्रदक्षिणाचारा प्रमदाश्चन्दनोक्षिता । सान्त्वयेयु परै काममणिमौक्तिकभूपणा ॥
च चि अ ३॥ हिन्दी-कृशोदरी स्त्रियों, योग्य पुत्रों, हितैपी मित्रों, देवतोपासनादिसच्चरित्रों, विविध प्रकार के फुहारे वाले घरों, विकसित कमलों तथा सुशोभित सरोवरों के सेवन से तीव्रदाह शान्त हो जाता है । ३३ ॥
लीलावलोकनविलोलविलोचनानाम्
मुक्तालताऽऽकुलकुचस्थलमजुलानाम् । सन्दिग्धमुग्धवचसा सुविलासिनीनाम्
आलिङ्गनं सकलदाहमपाकरोति ॥ ३४ ॥ व्याख्या-लोलावलोकनविलोलविलोचनाना लीलया हावभावादिकेन अवलोकन प्रेक्षण तत्र विलोले चञ्चले विलोचने नेत्रे यास तासाम् , पुन कीदृशीना मुक्तालताऽऽकुलकुचस्थलमन्जुलानाम् मुक्तालतामि मौक्तिकमालाभि आकुलाब्याप्ता कुचस्थली स्तनपरिधि अतएव मक्षुला सुन्दर्य यासा तासाम् , पुन कीदृशीना सन्देहेन युक्त सन्दिग्धम् अतएव मुग्ध मनोहर वच वचन यासा तासाम् सुविलासिनीना लीलावतीना यद् आलिंगनम् उपगृहन तत् पित्तज्वरजनित सकलदाह गात्रसन्तापम् अपाकरोति निवारयति । वसन्ततिलकावृत्तम् ।
हिन्दी-स्नेहपूर्ण चञ्चल दृष्टिचाली, मोतियों की मालाओं से सुशोभित स्तनोंवाली, सकोचवश थोड़ा बोलने वाली, प्रगल्भ एवं प्रियतमा नायिकाओं का आलिंगन सभी प्रकार के सन्ताप को दूर करता है ॥ ३४ ॥ ..
सरसीकमलं गतपकमलं विलसत्कमलम्पसरत्कमलम् । । । हृतशोकमलद्ध्यधनं किमलं सकलं न निराशितुमोपभरम् ॥३५\।\। व्याख्या-सरसी तडाग तस्य कमल जल, गतपकमलम् पङ्कमलेन रहित, विलसत्कमल विलसन्ति कमलानि यत्र तत् सुशोभितपङ्कजम् , प्रसरत्कमल प्रसरत्कान्तिमत् , इतशोक शोकरहितम् , अलभ्यधनम् पर्याप्तवित्तत्वम् एतत् सकलम् ओषभर दाइसमूह निराशितु दूरीकर्तु किं न अलम् पर्याप्त नास्ति १ अपितु वर्तते एव । तोटकवृत्तम् । ___ हिन्दी-कमलों की शोभा से सुशोभित सरोवर का कीचड़रहित निर्मल जल, शोक का अभाव और इच्छानुसार धन, क्या ये पदार्थ दाहसमूह का विनाश नहीं ‘कर सकते ? अर्थात् ‘इनके रहते हुए दाह उत्पन्न ही नहीं हो सकता ॥ ३५॥
यदा रसालोऽपि वरीवृतीति यदा मयूरोऽपि नरीनृतीति। । यदा समीरोऽपि सरीसरीति तदा निदाघस्तु मरीमरीति ॥३६॥ ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
व्याख्या-यदा रसाल आम्रफलम् ( अन रसालशब्द फलाय प्रयुक्त न तु वृक्षाय) अपि वरीवृतीति अतिशयेन वर्तते, यदा मयूरोऽपि नीलकण्ठोऽपि “मयूरो वहिणो वहाँ नीलकण्ठो मुज्नमुक्” अमर.। नरीनृतीति अतिशयेन नृत्यति । यदा यस्मिन् काले समीरो जगत्प्राण सरीसरीति, अतिशयेन वहति, तदा तस्मिन् काले निदाघस्तु ऊष्मा मरी मरीति नून विनश्यति । वर्षारम्मकालस्यैतदवर्णन, तदानीं स्वयमेव निदापशान्तिर्जायते । उपेन्द्रवज्रावृत्तम् ।
हिन्दी-जब आम पकने लग जोय, मयूर प्रसन्न होकर नाचने लगें और शीतल हवा पर्याप्तरूप में चहने लगे तब गर्मी एकदम शान्त हो जाती है ॥ ३६ ॥
यदि मृगाङ्कमुखी मुखगवपुः सुखकरेण करेण परामृशेत् । श्रमनिदाघतृपां निकरस्तदा ज्वरवतो लवतः किमु संव्रजेत् ॥३७॥ व्याण्या-यदि मृगाकमुखी चन्द्रवदना प्रियतमा सुखकरेण आनन्ददायकेन करेण करपल्लवेन मुस च दृक् च वपु च एतेपा समाहार मुखदृग्वपु “इन्दश्च प्राणितूर्यसेनानानाम्” इत्यनेन एकवद्भाव । शरीराङ्गानि परामृशेत् स्पृशेत् चेत् तदा श्रमश्च निदाघश्च तृट् च तासा परिश्रमोष्मपिपासाना निकर. समूह ज्वरवतो मानवस्य लवत सर्वमपि सव्रजेत् किमु नास्त्यत्र सन्देहलेश । द्रुतविलम्बितवृत्तम् ।
हिन्दी-यदि चन्द्रमुखी नायिका अपने सुखदायक करकिसलय से दाहपीड़ित रोगी के मुख, आंख तथा देह का स्पर्श करती रहे तो थकावट, दाह, पिपासा का सम्पूर्ण कष्ट शान्त हो जाता है।
विशेष-“लवतः” के स्थान पर ‘तरसा’ पाठ होना चाहिये। प्रकारान्तर से दोनों ही पाठ उपादेय हैं ॥ ३७॥ • उशीरशीतद्यतिशीतले यःक्षणे क्षणे तापमपाकरोति ।
सौधानि धाराधरचुम्बितानि हारीणि गीतानि निशामुखानि ॥३८\।\। व्याख्या-उशीर नलद शीतद्युतिश्चन्द्र तच्च सच तो तयो द्रवशीतल यत् स्थल तत्सम्बुद्धी, उशीरशीतयुतिशीतले स्थले य दाहपीडित क्षणे क्षणे प्रतिक्षण तापम् अपाकरो दूरीकर्तुं वान्छति सः धाराधरो मेष तेन चुम्वितानि स्पृष्टानि सौधानि राजमवनानि हारीणि चित्ताकर्षकाणि गीतानि निशामुखानि सायकालिकदृश्यानि सेवेत । मन पर्छ-“सौध नि धाराधरचुम्वितानि” इत्यनेन कविना पर्वतीयप्रदेशवर्णनस्य सङ्केत कृत , तत्र वार्षिकेप चतुर्यु मासेपु मेघा माभूमि अभिलुठन्तो नेत्रयो पुर जवनिकारूपेण समापतन्ति, अहं दर्शनीयं तद् दृश्यम् । उपजातिवृत्तम् ॥ _हिन्दी-खस और चन्द्रमा की किरणों के समान शान्ति प्रदान करनेवाल हे प्रियतमा । जो वाहपीडित रोगी प्रतिक्षण दाहपीड़ा का शमन करना चाहता ________________
प्रथमो विलासः है, वह बादल से घिरे हुए भवनों, मनमोहक गीतों तथा सायंकालिक दृश्यों का , सेवन करे। । विशेष-“सौधानि धाराधरचुस्थितानि” से अन्यकर्ता का माशय शीत प्रदेशों : (काश्मीर, शिमला, मसूरी, नैनीताल आदि शीतप्रधान पर्वतीय स्थानों) से । है। वहीं उक्त पाश का अर्थ वरसात के दिनों में सामने दिसाई देता है ॥ ३८॥
सरोजराजिराजिते रजोविरञ्जिताजिरे।
गृहे सुदीर्घिका प्रिये निदाघनाशकारिणी ॥ ३९ ॥ प्यास्या-सरोजराजिराजिते सरसि जातानि सरोजानि तेषा राजि पक्ति तया राजिते शोमिते रजोविरक्षिताजिरे रजसा कमलपरागेण विरक्षिते रागयुक्त यस्मिन् गृहे अजिरे हानगे या सुशोभना दीपिका वापिका भवति हे प्रिये ! सा निदाघनाशकारिणी दाइशामिका मवतीत्यर्थ । अनुष्टुप् छन्द ।
हिन्दी-कमलों की पक्ति से सुशोभित तथा उसी के पराग से सुवासित घर के आँगन के समीप निर्मित यावड़ी के सेवन से निदाघ की शान्ति होती है।
विशेष-इसके मूलपाठ में चतुर्थ पाद “द्यावालकारिणी” अशुद्ध है। उसके स्थान पर “निदाधनाशकारिणी”‘सशोधित पाठ लिखा गया है ॥ ३९॥
सारिकाशुकयोः स्वर्णमये पिञ्जरपक्षरे । ’
स्थितयोश्च कलालापाः परमानन्ददायिनः ॥ ४०॥ व्याख्या-सारिका च शुक च तयो सारिकाशुकयो, पाणिने “अल्पान्तरम्” इति-अनुशासनवलान, अत्र शुकसारिकयो इति पाठ साधीयान् । स्वर्णमये सुवर्णरचिते पिसरपअरे पिलर च तत् पार तस्मिन् पीतवर्णयुक्त तदागारे स्थितयो निवसतो कलालापा मधुरसम्माषणानि परमानन्ददायिनो भवन्ति, अतएव शैत्यापादका शान्तिदाश्चेस्याक्षिप्यते । अनुष्टुप् छन्द ।
हिन्दी-मोने के पिजड़े में बेठे हुए शुक-सारिका का प्रेमालाप अत्यन्त आनन्द सुख एव शान्तिदायक होता है ॥ ४०॥
हारेण गुणिना यस्य संगतिः सम्प्रजायते।
तस्य दाहः शमं याति नात्र कार्या विचारणा ॥४१॥ व्याण्या-गुणिना हारेण मौक्तिकमालया यस्य दाहसन्तप्तम्य सगति सम्पर्क सम्प्रजायते वोमवीति । तस्य दाइ ओष्ण्य शम शान्ति याति-अय विचारणा न कार्या । अनुष्टुप ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः ___ हिन्दी-मोतियों की माला धारण करने से दाह का शमन होता है। इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ४ ॥
उल्लसल्लोलकलारे सुन्दरीजनसुन्दरे ।
अगारे रुचिराकारे स्वापो दाघमपोहति ॥ ४२ ॥ व्याण्या-उल्लसल्लोलकल्दारे उत् ऊर्ध्व लसन्ति लोलानि चञ्चलानि कल्हाराणि सन्ध्याविकासिशुसरोजानि यत्र, सुन्दरीजनसुन्दरे सुन्दरीजनै रमणीमि सुन्दरे रमणीये रुचिराकारे दर्शनसेवनादौ सुखकरे आगारे भवने स्वाप गयन दाघम् ऊष्माणम् अपोहति दूरीकरोनि । अनुष्टुप् छन्द ।
हिन्दी-चावड़ी के जल के ऊपर लहराते हुए श्वेत कमलों वाले तथा सुन्दरी नायिकाओं से विलसित सव भाति सुखद गृह मे शयन करने से दाहशान्ति होती है ॥४२॥
केदारः कुमुदं कान्ता केतकी काननं कथा ।
ककारषटकं सन्दिष्टं महादाहविनाशनम् ॥ ४३ ॥ व्याख्या - केदार जलपूर्ण क्षेत्र, कुमुद कैरव, कान्ता प्रियतमा, केतकी सूचिकापुष्प, कानन गृहाराम कथा सुहब्जनाना वार्ताप्रवृत्ति एतत् ककारपटकम् महादाह विनाशन सन्दिष्टम् । दाह शान्त्यर्थम् एतेषाम् प्रयोगा पृथक पृथक ग्रन्थेषु प्राचुर्येण समुपलभ्यन्ते किन्त्वत्र कविना दाईशान्तिवर्णनव्याजेन अनुप्रासच्छटा प्रादशि । अनुष्टुप् छन्द । __हिन्दी-जलपूर्ण खेत, विकसित कमलवन, प्रियासहवास, केवड़ा का फूल, घर का बगीचा, प्रियजनों के साथ वार्तालाप, क अक्षर से प्रारम्भ नोने वाले इन उपरिलिखित छः वस्तुओं के निरन्तर सेवन से तीन से तीव्र दाह भी शान्त हो जाता
सल्लकीरुचिरमालतमालनारिकेललवलीकदलीमिः।
चञ्चलाभिरनिलेन वलेन कस्य दाहमपहन्ति न योगाः॥४३॥ ध्यास्यासलकी गजमक्ष्या, यथाह मावप्रकाशे-‘शल्लकी गजभक्ष्या च सुवहा सुरमी रसा। महेरुणा कुन्दुकी च वल्लकी च बहुसवा । गुणा -शल्लकी तुवराशीता पित्तश्लेष्मातिसारजित् ।’ आदि । रुचिरञ्च तत् मालम् उन्नतभूतल शीतत्वात किं वा मालद्रुम , तमाल तापिच्छ “तमाल शालवद् वेद्यो दाइविस्फोटनाशन”, भावप्रकाश । नारिकेल दृढफलम्, अस्य गुणा -“विशेपत कोमलनारिकेर निहन्ति पित्तज्वरपित्तदोपान् । तस्याम्भ शीतल हृद्यम्”, अभिनवनिघण्टु \। लवली सुगन्धमूला चञ्चलाभि• वायुनान्दोलितामि कदलीमि. प्रसूनेनोत्पन्नेन अनिलेन वायुना अर्थात् कोमलकदलीपत्रपवनेन, अमिरोपधिमि कृता. ________________
प्रथमो विलास
योगा बलेन हठात् कस्य दादानस्य दाइ न अपहन्ति, अर्थात् सर्वेषामपि दाहान् विनाशयन्तीत्यर्थ । स्वागतायत्तन् । ___ हिन्दी-सलई, मनोहर उन्नतप्रदेश, तमाल, नारियल, लवलीलता तथा केला के पत्तों से उत्पन्न शीतल घायु, इनके सेवन से किसकी दाहशान्ति नहीं होती॥४४॥
कुसुममायकसायककोमले हरिणलाञ्छनलाञ्छनलोचने । कमलविष्टरविष्टरभूपिते हरति कस्य रुजं न शुकस्य वाक् ॥४५॥
प्यारण्या-कुम्मसायकसायककोमले कुमुमसायक कामदेव. तस्य सायको याण , पुप्पं तद्वत् कोमले। हरिणयन्टनलान्छनटोचने हरिणलान्छन चन्द्र तस्य लान्छन हरिण, तस्य लोचनमिव लोचन यस्या मा तत्मयुद्धी, कमलविष्टरविष्टरभूपिते कमलविष्टरो ब्रह्मा तम्य विष्टर आमन कमल नेन भूपिने हे प्रियतमे। (अनेन रत्नकलाया पभिनीनायिकात्वमवगम्यने ) शुकस्य वाक वाणी कस्य ज पीटा शोक टाइ वा न इरति, अपितु सर्वस्यापि रख हरतीत्यर्थः । इतविलम्बितन् । ___हिन्दी-पुप के समान कोमलानी, हरिण के समान चञ्चल नेत्रों वाली, और कमल के सदृश मनोहर रूपवाली रत्नकले। शुक की वाणी किसकी दाहजनित पीड़ा को शान्त नहीं करती। अर्थात् सवकी पीड़ा को शान्त करती है ॥ ४५ ॥
शिशिरदीधितिदीधितिसंहतिः परिमलाऽऽकुलपेलवपल्लवाः। हृदयरसनकोकिलकोकिलाकलकलश्रवणं च निदाघजित् ॥ ४६ ॥ प्यामया-शिशिरदीधितिदीधिति शिशिरा शीता दीधितय किरणा यस्य सः चन्द्रमा तस्य दीधितीनां फिरणाना या सहति ममूद , परिमलाऽऽकुलपेलवपल्लवा परिमलेन परागेण आकुला व्याप्ता पेलवा मृदुला पाहवा किसलयानि, हदयरजनकोकिलकोकिलाकलकलप्रवण ददय रजयतीति हृदयरअन कोकिल. च कोकिला च कोकिले तयो. कलकलयवण कलरवाकर्णनम् एतदनय निदाघो घर्मातप तस्य जित् जेता मवति, इति प्रयोदशभि पर्दाहशान्तिप्रकरण समाप्यते। द्रुतविलम्बितम् ।
हिन्दी-चन्द्रकिरणों का समूह, पुष्पपरागों से युक्त नवकिसलय और मन को लुभानेवाली कोयलदम्पति की सुरीली वाणी ये तीनों दाह शान्ति के प्रसिद्ध उपाय हैं ॥ १६ ॥ पित्तज्वर ग्रन्थकतुं स्वानुभव - पित्तज्वरे किं रसफाण्टलेपैः किं वा कपायरमृतेन किंवा । पेयं प्रियायामुखएकमेव लोलिम्बराजेन सदानुभूतम् ॥ ४७॥ ध्याण्या-पित्तज्वर पित्तजनिते ज्वर रसफाण्टले पै कि रस प्राणेश्वरवाढवादय , फाण्ट कपायभेद , यथाह फाण्टविधि ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
क्षुण्णे द्रन्यपले सम्यग जलमुण्ण विनिक्षिपेत् । मृत्पात्रे कुडवोन्मान ततस्तु स्रावयेत् पटात् ॥ स स्याच्चूर्णद्रव. फाण्ट
| शायधरे| लेपः यथा-विभीतफलमज्जाया लेपो दाहानिनाशन | शाधर | किंवा कपायै दाहशामके कार्थः, काथविधि अस्मिन्नेवाध्याये २० तमश्लोकस्य टीकाया द्रष्टव्य | अमृतेन मुशीतलेन जलेन किम , अर्थात उपरिलिखिता सर्व उपाया व्यर्था तस्मात एक केवलम प्रियाया प्रीणातीति प्रिया तस्याः मुख पनगन्धिवस्त्रमेव पेयम् आस्वादनीयम् यतो हिलोलिम्बराजेन ग्रन्थकर्ता सदानुभूतम् | एप विधि युवकेषु प्रशस्त वालवृद्धेषु निषिद्ध प्रियाया दुर्लमत्वात् , शक्करमावाद वा | इन्द्रवज्रावृत्तम् |
हिन्दी-पित्तज्वर की चिकित्सा के लिये ग्रन्थान्तरों में बताये हुए रस, फाण्ट (चाय), लेप, काथ आदि के प्रपञ्च में नहीं पढ़ना चाहिये। इसके लिये वैयवर श्रीलोलिम्बराज का कथन है कि केवल अपनी प्राणप्रिया के अधर रस का पान करना चाहिये । यह ग्रन्थकार का अनुभूत योग है ॥ ४७ ॥ वातश्लेष्मज्वरे पञ्चकोलक्काथ - कृष्णाकृष्णामूलचव्याग्निविश्वैरेभिः सर्वैर्जायते पञ्चकोलम् । वातश्लेष्म पि धत्ते हुताशं सुग्घे कान्ते तन्वि सुभ्र प्रसन्ने ॥४८॥ व्याया-कृष्णा पिप्पली कृष्णामूल पिप्पलीमूल, चन्य चविका, अग्निश्चित्रक विश्वा नागरम् एभि पञ्चमिमिलिते सति पन्चकोलम् मवति । एतत् (एप पञ्चकोलक्काथ ) वातश्लेष्मज्वरद्धेपि वातकफज्वरस्य विनाशक, हुताश धत्ते जाठरानि दीपयति, इति ग्रन्थस्याशय’ । मुग्धे सरले, कान्ते प्रिये, तन्वि कृशोदरि, सुभ्र शोमनभूलते, प्रसन्ने प्रसादगुणयुक्ते, इत्यादीनि सम्वोधनानि स्वप्रियायै प्रयुक्तानि ग्रन्थका । शालिनीवृत्तम् । प्रसिद्धोऽय योग सर्वत्राप्येवविधो दृश्यते । यथा
पिप्पलीपिप्पलीमूल चन्यचित्रकनागरम् । दीपनीय शृतो वर्ग कफानिलगदापह ॥ पञ्चमि. कोलमाअन्तत् पञ्चकोल तदुच्यते ॥ मैपज्यरलावली ॥
हिन्दी-प्रसन्नचित्त, सुन्दर भौंह, सरल स्वभाव एव पतली कमरवाली प्रिये ! पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चीता तथा सोंठ इन पाच द्रव्यों का संग्रह पनकोल कहा जाता है। पञ्चकोल का काथ वातश्लेष्मज्वर को शान्त करता है और अग्नि को दीप्त करता है। विशेष-कोलपरिमाण-मागधमान के अनुसार
मापैश्चतुर्मि’शाण’ स्याधरण स निगद्यते। टक स एव कथितस्तद्वय कोल उच्यते ॥ शार्ङ्गधरसंहिता । ________________
प्रथमो विलासः चार मापा का एक शाण होता है, उसी का दूसरा नाम टंक अथवा धरण है। दो शाण का एक कोल होता है। इसी कोल प्रमाण के अनुसार ये पांचों द्रव्य लिये जाते हैं, अतएव इनको पञ्चकोल कहते हैं॥४८॥
वातरलेष्मज्वरं काथमाहवालेऽवाले वालवालेऽवलेऽस्मै हृच्छूलामश्लेष्मवातज्वरेपु॥ मुस्तातिक्ताग्रन्थिपथ्याऽरुजानां काथः सम्यग्दीपनः पाचनश्च ॥४९॥ ग्यास्या-चाले युवति, अवाले बुद्धिमति, वालवाले कोमलकेशयुक्ते, अबले हे सि! अस्मै रोगिणे, हच्छ्लामश्लेष्मवातज्वरेपु हृत्पीडायाम् आमदोषयुक्तकफवातज्वरेपु मुस्ता मुस्तक, तिक्ता कुटकी, ग्रन्थि पिप्पलीमूलम् , पथ्या हरीतकी, अरुज आरग्वध -एतेषा काथो देय । शालिनीवृत्तम् । एप काय सम्यक प्रकारेणाग्नि दीपयति पाचन च करोति । अन्थान्तरेषु योगोऽयम् आरग्वधादिकपायनाम्ना प्रसिद्धो लामप्रदश्वास्ति । तद्यथा
आरग्वधग्रन्थिकमुस्ततिक्ता-हरीतकीभि कथित. कपाय । __ सामे सशूले कफवातयुक्त ज्वरे हितो दीपनपाचनश्च ॥ चक्रदत्त । हिन्दी-कोमल केशपाश वाली बुद्धिमती चुवती प्रिये ! इस रोगी को हृदय की पीड़ा में, आमदोपयुक्त कफवातज्वर में नागरमोथा, कुटकी, पीपरामूल, हरड़, अमलतास का काथ देना चाहिये। यह काथ अग्नि को प्रदीप्त कर भोजन को पचाता है। दूसरे ग्रन्थों में यह योग ‘भारग्वधादि क्वाथ’ के नाम से प्रसिद्ध है।
विशेष-इस श्लोक के तीसरे पाद का मूलपाठ इस प्रकार है-“मुस्तातिक्ताप्रन्थिपथ्या शरधानामु"यह भूल प्रतिलिपिकर्ता की हो सकती है, यहाँ ग्रन्थकार का प्राशय दृष्टि में रखकर उक्त पाठ का इस प्रकार सशोधन किया गया है-“मुस्तातिक्ताग्रन्थिपथ्याऽरुजानाम्”। यह पाठ व्याकरण, छन्द तथा उपयोगिता की दृष्टि से शुद्ध है ॥४९॥
ज्वरकार्याय वहिवृद्धये च काथमाहकृष्णाद्रिकृष्णामलकीहरीतकीकाथे प्रपीते दिवसेपु सप्तसु। ज्वरःस्ववृद्धिं दहनाय यच्छतिज्वराय कार्यदहनश्च यच्छति॥५०॥ व्याख्या-कृष्णाद्रि शिलाजतु, कृष्णा पिप्पली, आमलको धात्री, हरीतकी पथ्या, एतच्चतुष्टयस्य दिवसेषु सप्तसु सप्तमे दिवसे “अत्र निर्धारणे सप्तमी” काये प्रपीते सति ज्वर’ स्ववृद्धि दहनाय यच्छति ज्वरस्य तीव्रता दन्दयते, दहनो जाठराग्निश्च ज्वराय काय यच्छति ज्वरमुत्तरोत्तर शिथिलयति । आयस लौहसम्भव शिलाजतु कृष्णाद्रिनाम्ना व्यवहृतमत्र तदेव सर्वश्रेष्ठ भवति । इन्द्रवशावृत्तम् । यथा भावप्रकाशे
लोह जटायुपक्षाम तत्तिक्त लवण भवेत् । विपाके कटुफ शीत सर्वश्रेष्ठमुदाहृतम् ॥ ________________
- प्रथमो विलास
२७ अन्यारम्भे ग्रन्यकर्ता प्रतिश्रुत यद् आयुर्वेदीयमहिताभ्य साररूपेण साहाय्यमझीकृत्य मयान किञ्चिल्लिख्यते तदेव सर्वत्र ददृश्यते । कचिदविकलो योग- स्वभापाप्रौढथा परिप्कृत्य समुपात्त कुत्रचिट आवश्यक द्रव्यादिपरिवर्तनशापि कृतम् इति तदीयपचे स्पष्ट न्यज्यते। यथा अस्मिन्नेव पद्ये कतिपयद्रन्यनिरासपूर्वक कफज्वरोक्तो निम्बादिकायः समुपन्यस्तो भिषग्वरेण लोलिम्बराजेन तपथा- . . निम्बाशिवामृतादारुशटीभूनिम्बपौष्करम् । पिप्पल्पो वृहती चेति काथो इन्ति कफज्वरम् ॥
हिन्दी-कण्टकारी, गिलोय, सोंठ, नागरमोथा, भारंगी, जवासा इन द्रव्यों के काथ मे पिप्पली का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से यह कफज्वर का उस प्रकार लमूल विनाश कर देता है जिस प्रकार मदोन्मत्त पुत्र अपने पिता के सुयश का ॥ ५२ ॥
अथ भाादिकपाय - भाह्रींगुइचीघनदारसिंही-शुण्ठीकणापुष्करकैः कपायः। ज्वरं निहन्ति श्वसनं क्षिणोति क्षुधां करोति प्ररुचिं तनोति ॥५॥ व्याण्या-मागीं भृगुभवा, गुडूची अमृता, घनो मुस्ता, दारु देवदारु’, सिंही कण्टकारी, शुण्ठी महीपध, कणा पिप्पली, पुष्करक पोष्करमूलम् एतेषा कपाय ज्वर निहन्ति विनाशयति, श्वसन म्यासरोग क्षिगोति शमयति, क्षुधा करोति बुभुक्षा दीपयति, प्ररुचि प्रकृष्टमन्नामिलाप तनोति । उपजातिवृत्तम् ।
हिन्दी-भारगी, गिलोय, नागरमोथा, देवदारु, कण्टकारी, सोंठ, पीपल, पोहा कर मूल इनका काथ श्वासयुक्त ज्वर का शमन कर भोजन के प्रति इच्छा को उत्पन्न करता हुआ भूख को बढ़ाता है ॥ ५३॥
कफपित्तज्वरे पटोलादिक्काथ – पिवति यः कुलकत्रिफलावचामधुकनिम्ययुतं , मधुना तथा । । ज्वर उपैति शमं कफपित्तजो गणकरोपकृतो विभवो यथा ॥५४॥
व्याख्या-कुलक पटोल, त्रिफला, फलत्रिक, वचा उग्रा, मधुको गुटपुष्प , निम्ब पिचुमर्द एतेषां मधुयुक्त काथ यो रोगी पिवति तस्य कफपित्तजज्वरस्तथा शान्तो भवति यथा गणकरोपझनो ज्योतिविंदस्तिरस्कारेण विभवोधनादिपदार्थ शान्तो विनष्टो भवतीत्यर्थ । द्रुतविलम्वितवृतम् । उक्तञ्चहतश्रीगणकान् दष्टि हतायुश्च चिकित्सकान । हतभीश्च हतायुध ब्राह्मणान् देष्टि भारत ॥
महाभारत ॥ अधिकांशद्रव्याणां साम्यत्वादेप काथ पटोलादिकाथश्रेणीमधिरोहति । ________________
२८
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः ___ हिन्दी-परवल की पत्ती, हरह, बहेडा, भावला, यालवच, महुआ, नीम की छाल इनके साथ का सेवन कफपित्तज्वर का टस प्रकार नाश करता है जिस प्रकार ज्योतिषी का अपमान करने से सम्पत्ति का नाश होता है ॥ ५४ ॥ रुचिकारक कपाय -
मम द्वयं विस्मयमातनोति रुचि चरीकर्त्यरुचः कपायः । निपीडितोरोजसरोजकोशा योषा प्रमोदं प्रचुरम्प्रयाति ॥ ५५ ॥ व्याख्या-अरुच कटुकाया कपाय पित्तज्वरे रुचिं मोजनेच्छा चरीकति प्रतनोति किं वा पित्तज्वरजनिता मुखतिक्तता दरीकरोति । यथाह माधव -पित्तवरलक्षणेपु-“प्रलापो वक्त्रकटुतेत्यादि। मुखस्य कटना रुचेविनाश विधत्ते। निपीडितोरोजसरोजकोशा निपीडिती अतिशयेन मदिती उरोजी एव सरोजकोपो कुचकमले यस्या एवम्भूता सा योषा सीमन्तिनी प्रचुर प्रकाम प्रमोद मानसोल्लास प्रयात्यनुभवतीत्यर्थ । कटु पदार्थेन रुचे, कुचकमलयो पीडनेन सुखम्योत्पत्ति एतद् दय मम ग्रन्थकर्त विस्मयम् आश्चर्यन् आतनोतीनि कवेरमिप्राय । उपेन्द्रवज्रावृत्तम् ।
हिन्दी-लोलिम्यराज कहते हैं कि मुझे निम्नलिखित दो बातों से महान् आश्चर्य होता है। एक तो यह कि कुटकी (स्वाद में अरुचिकारक) के काढ़ा से भोजन के प्रति रुचि बढ़ती है। दूसरा यह कि नवयुवती के स्तनरूपी कमल. कोशों को हाथों से दबाने पर (जब कि वेदना का अनुभव होना चाहिये ) वह प्रसन्नता का अनुभव करती है ॥ ५५॥
पिप्पलिपौष्करकटफलश्रृंगी चूर्णकृतो मधुमानवलेहः। "
श्लेष्मतमस्तपनो ज्वररक्षोदाशरथिः कसनश्वसनघ्नः ॥ ५६ ॥ व्याण्या-पिप्पली कणा, पौष्कर पुष्करमूल, कटफल कुम्भिका, शृङ्गी कर्कटशृङ्गी एतेपा चूर्णेन साधितो मधुमिश्रितोऽवलेह श्लेष्मरूपिणे तमसेधकाराय तपन सूर्य , ज्वररक्षसे ज्वरानुकारिणे राक्षसाय दाशरथि दशरथस्यापत्यम्पुमान् - राम तथा कसन कास श्वसन श्वासरोग एतेपा घ्न विनाशकरः। दोधकवृत्तम् । अवलेइनिर्माणप्रकार.- काथादीना पुन पाका घनत्व सा रसक्रिया ।
सोऽवलेहश्च लेह स्यात्तन्मात्रा स्यात्पलोन्मिता॥ तस्य परीक्षणम्- सुपक्वे तन्तुमत्व स्यादवलेहोऽप्सु मजति ।
स्थिरत्व पीडिते मुद्रा गन्धवर्णरसोद्भव ॥ हिन्दी-पिप्पली, पोहकरमूल, कायफल, काकड़ासिंगी इनके चूर्णों के योग से निर्मित मधुमिश्रित अवलेह कफजरोगरूपी अन्धकार के लिये सूर्य के समान, ________________
प्रथमो विलास
२६ ज्वररूपी राम के लिये राम के समान विनाशकारी है। साथ ही यह अवलेह कास एघ श्वासरोग में भी लाभदायक है ॥ ५६ ॥ विदोपचर दशमूलादिकाय.पञ्चावियपौष्करेन्द्रजगटीदुःस्पर्शराजीफलै
स्तक्ताकर्कटगृहिमादिसहितैरेभिः कृतात् क्वाथतः । हिक्कापार्श्वहृदर्तिवान्तिकसनश्वासत्रिदोपा अपि
प्रौढा यान्ति पराभवं खलु यथा वेदान्तिनस्तार्किकात् ॥५७॥ व्याख्या-पवाविद्यन् उभयपञ्चमूल नत्र प्रथमवृहत् पञ्चमूएन्- बिल्वय्योनाकगम्भारीपाटलागणिकारिका ।
दीपन कफवातन पञ्चमूलभिद महत् ॥ लघुपनमूनन्
शालि पर्णा-पृश्निपणी - वृहतीद्वय - गोमुरम् ।
वानपित्तहर युष्य कनीय पञ्चमूलकम् ॥ एतयो फलन्- उमयम्पतमूरन्तु मन्निपातज्वरापइन् ।
कासे श्वासे च तन्द्राया पार्श्वशूले च शस्यते ॥ चक्रदत्त । पीकर पुष्करमूलम्, इन्द्रज इन्द्रयव , शटी कर्चुर, दु स्पर्श. दुरालमा, राजीफल पटोल, तिक्ता कटकी, कर्कटशृंगी कुलीरविषाणिका, भाङ्गी भूगुमवा एतेपा फायत’ हिक्का, पाकक, हतपीटा, वान्ति वमन, कसन कास , त्रिदोप सन्निपातज्वर प्रौढता गता अपि एने रोगा तथा परामर विनाश यान्ति यथा शाखायें ताकिकात् नैयायिकाद् वेदान्तिन । यधैकस्मात् ताकिंकाद् अनेके वेदान्तिन पगमव यान्ति तथै वैकस्मात् दशमूलीकाथाट बहवो रोगा शम यान्तीति सम्पिण्डितोऽर्य । अविकलोऽय योगश्चच्चक्रदस्ते-अष्टादशाझनाम्ना व्यवदत. समुपलभ्यते । तद्यथादशमूलीग्रटीशृगीपोप्कर सदुरालभम् । माहीं कुटजवीजन पटोल कटुरोहिणी ॥ अष्टादमाग इत्येप मन्निपातज्वरापहः । कासद्ग्रहपार्धातिश्वासहिकावमीहर चक्रदत्ता।
विदोपाणा बहुविधत्वम्शीघ्रगस्तान्त्रिकश्चित्तविभ्रम कण्ठमुम्जक । कर्णको जिलकश्चैव रुग्दाइश्चान्तकस्तथा ॥ भुग्मनेत्री विलापश्च प्रलाप शीतलागक । अभिन्यासश्चेति विद्यात् सन्निपातांस्त्रयोदश ॥
__ माण्डवीये। चरकस्तु तानेव विमजतेसग्निपातज्वरस्योध्य प्रयोदशविधस्य हि । प्राकसत्रितस्य वक्ष्यामि लक्षण वै पृथक-पृथक । भ्रम पिपासा दाइश्च गौरव शिरसोऽतिरुक् । वातपित्तोल्वणे विद्याल्लिा मन्दकफे ज्वरे ॥ शैत्य कासोऽरुचिस्तन्द्रा पिपासादाहरुग्व्यथा । वातश्लेष्मोल्वणे व्याधी लिपित्तावरे विदा ________________
३०
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः छदि शैत्य मुदुर्दाहस्तृष्णा मोहोऽस्थिवेदना । मन्दवाने व्यवस्यन्ति लिन पित्तकफोल्लगे ॥ मन्ध्यस्थिशिरस शूल प्रलापो गौरव भ्रम । वातोवणे स्याद्वयनुगे तृणाकण्ठाम्यशुष्कता ॥ रक्तविण्मूत्रता दाह स्वेदस्तृद वलमक्षय । मूर्छा चेति विटोपे म्याहिम पित्ते गरीयसि ॥ आलस्यारुचिइलाम - दाहवम्यरतिभ्रम । कफोल्वण सन्निपात तन्द्रा कासेन चादिशेत् ॥ प्रतिश्याच्छदिरालस्य तन्द्रारुच्यग्निमार्दवम् । हीनवाते पित्तमध्ये चित्र इलेष्माधिके मतम् ॥ हारिद्रमूत्रनेत्रत्व दाहस्तृष्णाभ्रमोऽरुचि । हीनवाते मध्यकफ लिङ्ग पित्ताधिके मतम् ॥ शीतको गोरव तन्द्रा प्रलापोऽस्थिशिरोऽतिम्क । हीनपित्त वातमध्ये लिग श्लेष्माधिके विद ॥ श्वास कास प्रतिश्यायो मुखशोपोऽति पार्श्वरक । कफहीने वातमध्ये लिग पित्ताधिके विदु ।
च० चि० अ०३॥ इत्येवमेनेपा भेदा पृथक् पृथक् चिकित्साग्रन्थेषु विहितास्तेऽत्र ग्रन्थविस्तरमयानोहिख्यन्ते । शार्दूलविक्रीडितम् ।
हिन्दी-दोनों पञ्चमूल अर्थात् दशमूल (वेल, सोनापाठा, गम्भारी, पाढल, भरणी, शालपर्णी (सरिवन), पृष्ठपर्णी (पिठवन), छोटीकटेरी, वढीकटेरी, गोखरू, पोहकरमूल, इन्द्रजौ, कचूर, दुरालभा, परवल की पत्ती, कुटकी, काकडासिंगी, भारगी इनके क्वाथ के सेवन से हिचकी, पसलियों का दर्द, हृदय की वेदना, वमन, कास, श्वास तथा सन्निपातज्वर उस प्रकार पराभव को प्राप्त हो जाते है (शान्त हो जाते हैं) जिस प्रकार शास्त्रार्थ में तर्कशास्त्र के विद्वानों से वेदान्ती। जिस प्रकार एक तर्कशास्त्र के विद्वान से अनेक वेदान्ती हार जाते हैं वैसे ही इस एक योग के सेवन से अनेक रोगों का शमन हो जाता है ॥ ५७ ॥ धनुर्वातादौ-अर्कादि क्वाथ - अर्कग्रन्थिकशिपदारुचविकानिर्गुण्डिकापिप्पली.
रानाभंगपुनर्नवानलवचाभूनिम्बशुण्ठीकृतः । क्वाथो हन्ति धनुःसमीरणमपस्मारं प्रसूर्ति चलान्
कृच्छ्रान् कृच्छ्रतरत्रिदोपदलन. शैत्यस्य विद्ध्वंसनः ॥५८॥ व्यावया-अर्क मन्दार, ग्रन्थिक पिप्पलीमूल, शिव शोभाजन, दारु देवदारु, चविका चन्य, निर्गुण्टिका भूतकेशी, पिप्पली मागधीराला रसना, भृगो भगा, पुनर्नवा शोथनी, नल पोटगल., वचा उपगन्धा, भूनिम्ब किरात , शुण्ठी विश्वा एतेपा क्वाथ धनु’समोरण धनु - स्तम्भ (“धनुस्तुल्य नमेट् यस्तु स धनु स्तम्भसशक” माधव ) अपम्मार (चिन्ता शोकादिभिर्दोपा कुद्धा इत्स्रोतसि स्थिता । कृत्वा स्मृतेरपध्वसमपस्मार प्रकुर्वते । माधव.) प्रसूति सूतिकावर कृच्छ्रान् कष्टसाध्यान् चलान् वातविकारान् कृच्छ्तरत्रिदोषदलन कष्टसाध्यसन्निपातनाशक शेत्यस्य विद्ध्वसन शीतताविनाशकरश्च प्रदिष्ट । शार्दूलविक्रीडितम् । ________________
प्रथमो विलाम’
३१
हिन्दी-मदार, पिपलामूल, सहजन, देवदारु, चव्य, सम्हाल, छोटी पीपल, रासना, मांग, पुनर्नवा, नल्द, वचा, चिरायता, सोंठ इन औषधियों से बना हुआ काथ धनु स्तम्भ, अपस्मार, प्रसतज्वर, कष्टसाध्य पातविकार, सनिपातज्वर तथा सर्दी से होने वाले सभी विकारों का नाश करता है ॥ ५८ ॥ कामादिएर काथसुदति सुमुखि वाले चारुभाले सुचले
नखलिखितकपोले कामकर्मानुकूले । दलयति दशमूली कृष्णया कण्ठहृद्द्दक
श्वसनकसनतन्द्रापाश्वशूलत्रिदोषान् ॥ ५९॥ ध्याग्व्या-मुदति भोभना दन्ता यस्या सा तत्सम्बुद्धी सुमुखि रुचिरास्ये, बाले अप्रासपूर्णयीवने चारुमाले रम्यमस्तकवति, मुचले-उत्तमवत्रावृते, नसलिखितकपोले कररुहक्षतयुक्तगण्डस्थले, कामकर्मानुकूले मदनक्रीडायोग्ये हे प्रियतमे । (शृणु ) कुपणापिप्पली तया युक्तो दशमूली दशमूलानि सन्ति यस्या सा (वृहत्पश्चमूल लघुपनमूलच ) तस्या कपाय कण्ठपीटा, हृदयवदनां दृष्टिरोगान्, श्वसन श्वास, कसन कास, तन्द्रा,पार्यशूल निदोपान् (प्रयोदशविधान् सन्निपानान् ) च दलयति चूर्णीकरोति । मालिनीवृत्तम् । यथा भपज्यरलावल्याम-उमय पन्नमूलन्तु सग्निपातज्वरापहम् ।
___ कासे श्वासे च तन्द्रार्या पाश्र्चशूले च शस्यते ॥
पिप्पलीचूर्ण सयुक्त कण्ठद्ग्रहनाशनम् ॥ हिन्दी-सुन्दर दांत, मुख, माथा, वस्त्र तथा नखक्षतों से युक्त कपोलों वाली एवं रतिक्रीड़ा योग्य सुन्दरी! पिप्पली के चूर्ण से युक्त दशमूल का काढ़ा गला, हृदय, दृष्टि के रोगों, श्वास, कास, तन्द्रा, पसलियों के दर्द और सभी प्रकार के सन्निपातों को दूर करता है।
विशेष-कण्ठ, हृदय, दृष्टि के रोग, श्वास, कास तन्द्रा, पाचशूल ये जव सनिपातज्वर के साथ उपद्रव के रूप में प्रकट होते हैं तब इस योग से लाभ होता है अथवा तब इसका सेवन करना चाहिये। जहों ये रोग स्वतन्त्ररूप से हो वहीं इनकी पृथक पृथक चिकित्सा उस उस प्रकरण में दी गई है।॥ ५९॥
सन्निपातस्यासाध्यत्वमाहत्रिदोषेण तुल्यः परेताधिराजः परेताधिराजेन तुल्यस्त्रिदोपः । परेताधिराजस्त्रिदोपैर्विजित्रस्तयोरेव साम्यं तयोरेव मन्ये ॥६॥ ब्याण्या-पद्यमिद रचयता ग्रन्थका “उपमेयोपमालङ्कार” मुग्येन सन्निपातस्यासाध्यत्वमुपवर्णितम्-परेताधिराजोपम त्रिदोषेण सन्निपातेन तुल्यो मारकत्वात् परेताधि ________________
३२
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
राजेन यमेन तुल्य’ सम त्रिदोप सन्निपात , अत परेताधिराजो यम. त्रिदोपविजिनो विजेय । यतो हि तयोर्यमसन्निपातयो साम्य समानत्व यमसन्निपाताभ्यामेव सम्भाव्यम् इति मन्ये । भुजङ्गप्रयातन् । सन्निपातज्वरस्यासाध्यता भयकरताजवर्णयता मावमिग्रेण प्रतिपादितम् भावप्रकाशे
नारायण एव मिपग्भेषजमेतेपु जाहवीतोयम् ।
नैरुज्यहेतुरेको नित्य मृत्युभयो ध्येय ॥ अन्यच्च
मृत्युना सह योद्धन्य सन्निपातचिकित्सुना।
यस्तु तत्र भवेज्जेता स जेताऽमयसकुलम् ॥ हिन्दी-यमराज त्रिदोप के समान होता है और त्रिदोष यमराज के समान होता है, फिर भी त्रिदोष को जीतने से यमराज को जीतना सरल है । अत इन दोनों की तुलना इन्हीं दोनों से हो सकती है। अन्य किसी के साथ नहीं ॥ ६॥ मन्निपातनिवारकवैषप्रशमा
यः सन्निपातसलिलाधिपतौ निमनाभ
जन्तून् समुद्धरति वैद्यपतिः स एव । तस्याश्वदान-गजदान-फलानि कां च
पूजां न सोऽहति भणन्ति महान्त इत्थम् ॥ ६१॥ व्याख्या-यश्चिकित्सक सन्निपातसलिलाधिपतौ सन्निपात एव सलिलाधिपति समुद्रः नस्मिन् निममान् सन्निपातज्वरग्रस्ताम् जन्तून् प्राणिन समुद्धरति नीरजान् करोति स एव बंधपति कविराज , तस्य तस्मै अत्र चतुर्थ्य षष्ठी चिन्त्या, अवदान, घोटकदान, गजदान, फलदान च दातव्य यतो हि स का च पूजा न अर्हति । अपितु सर्वविधपूजायोग्य स, इत्थ महान्तो विवेकशीला मणन्ति कथयन्ति । वसन्ततिलका वृत्तम । प्रकारान्तरेण चिकित्सकस्यःऋणमुक्ती शास्त्रनिर्देश’चिकित्सितशरीर यो न निष्क्रीणाति दुर्मति’ । स यत्करोति सुकृत तत्सर्व मिपगश्नुते ॥
मै० २० ॥ हिन्दी-जो सन्तिपातरूपी समुद्र में डूबे हुए रोगी का चिकित्सा द्वारा उद्धार कर देता है, अर्थात् नीरोग कर देता है, वही वास्तविक चिकित्सक है । उसको हाथी, घोड़ा तथा उत्तमोत्तम फल देने चाहिये, इतना ही नहीं और भी सब प्रकार उसकी पूजा करनी चाहिये। यही महापुरुषों की भाज्ञा है।
विशेष—इस पद्य की तीसरी पक्ति व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध प्रतीत होती है इसके स्थान पर इस प्रकार का परिवर्तन कर देने से भाषा शुद्ध होकर भाव ज्यों का स्यों रह जाता है। यथा-“तस्मै गजाश्वफलदानमुशन्ति को’ वा पाठक इस संशोधन पर ध्यान दें॥६॥ ________________
प्रथमो विलासः तदेव प्रकारान्तरेण वक्ति
सर्वस्वैः पूजयेद् वैद्यं सन्निपाताद् विवर्जितः।
नो चेत् स नरकंयाति शम्भुरित्याह पार्वतीम् ॥ ६२ ॥ व्याख्या-सन्निपाताद विवर्जित सन्निपातरोगान्मुक्तो रोगी सर्वस्वै. स्वकीयसकलधनधान्यादिभि वैध चिकित्सक पूजयेद् अर्चयेत् । नो चेद् अन्यथा कृते सति स रोगान्मुक्तो नरक निरय याति पापभाग्मवति पनि शम्भु पार्वतीम् आह कथितवान् । “नहि जीवितदानाद्धि दानमन्यद् विशिष्यते” पति शास्त्रानुसार जीवनप्रदाय सुचिकित्सकाय स्वस्थो रोगी यत्किचिदपि ददाति तत्मवै स्वल्पमेव । अनुष्टप् ।
हिन्दी-शिवजी पार्वती से कहते हैं-सन्निपातज्वर से मुक्त रोगी अपने चिकित्सक की सम्मानपूर्वक धनादि उत्तमोत्तम पदार्थों से यथाशक्ति पूजा करे । हे पार्वती जो रोगमुक्त व्यक्ति ऐसा नहीं करता वह नरकगामी होता है अर्थात् दुसी रहता है ॥ ६२॥ __कर्णमूलजशोथचिकित्सामाहयुक्त्वक्शुण्ठीकारवीकटफलानां तुल्यांशानां चूर्णितानां विमित्रैः । वारंवारं कर्णभूलोत्थ शोथं रक्तस्त्रावैराज्यपानर्जयेद्वा ॥३॥ ___ व्याख्या-युक्त्वक चित्रकत्वक् शुण्ठी महौषध कारवी शतपुष्पा कटफलं कुम्मिका तुल्याशाना समभागवतां चणितानाम् एतेषां विमिन मिश्रित लेप कर्णमलोत्थ शोथ जये अपहरेत् किंवा रक्तस्राव भृङ्ग्यादियन्त्र लोकादिमिर्वा रक्तस्राव कारयेत् अथवा आज्यपानविधिना आज्य पाययेस् । शालिनीत्तम्। भैपज्यरलावल्यामपिरक्तावसेचने पूर्व सपिप्पानेश्च त जयेत । प्रदेहे कफवातघ्नैर्वमनै कवलग्रई ॥
यद्यपि सन्निपातज्वरम्यान्ते कर्णमूले सुदारुण । शोफ सआयते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते ॥वाग्भट ॥
एतदनुसार सन्निपानान्ते कर्णमूलज शोथ असाध्य किन्तु ग्रन्थान्तरे तस्य विधा गतिनिर्दिष्टा, तद्यथा
ज्वरादितो वा ज्वरमध्यतो वा ज्वरान्ततो वा वतिमूलशोफ ।
क्रमादसाध्य खलु कष्टसाध्य मुसेन साध्य कथितो मुनीन्द्र ॥ हिन्दी-चीता की छाल, सौंट, सौंफ, कायफल, सभी द्रव्यों को समभाग लेकर इनका चूर्ण कर लें, पानी के साथ पीसकर इसका लेप लगाने से सन्निपात ज्वर के बाद होने वाला कर्णमूलजशोथ शान्त हो जाता है। अथवा जोक आदि के द्वारा रक्तस्राव कराना चाहिये या शोथनाशक औषधियों से सिद्ध घृतपान कराना चाहिये ॥ ६३ ॥
३ च० चि० ________________
३४
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः कर्णादिरुजाहरी लेप -
अग्निमन्थाग्निरास्माभिर्मातुलुगस्य मूलकैः।
सदारुनागरैर्लेपः कर्णपार्श्वरजो हरः॥ ६४ ॥ व्याख्या-अग्निमन्थ श्रीपणीं अग्नि चित्रक. राना मुवहा मातुल वीजपूरक एतेषां मूलके., दार देवदार नागर शुण्ठी एताभ्या सह कृतो लेप कास्य कर्णयो. वा पार्थे समीपे या रुक् शोधात्मिका तस्या हर नि । अनुष्टुप् छन्द । मैपज्यर लावल्यामपि योगोऽय लभ्यतेवीजपूरकमूलानि अग्निमन्य तथैव च । सनागर देवदारु चव्यचित्रकपेपिनम् ॥
प्रलेपनमिद श्रेष्ठ गले श्वयथुनाशनम् ॥ मै०२० ॥ ‘हिन्दी-मरणी, चित्रक, राना, विजौरा नीवू इनकी जड़ें तथा देवदारु और सोंठ इनको कूट-पीसकर लेप करने से सन्निपात ज्वर के अन्त में होनेवाला कर्णमूलज शोथ शान्त हो जाता है । ६४ ॥ गुटपिप्पली-प्रयोग - अजीर्णजीर्णज्वरपाण्डुकासश्वासाग्निसादाऽरुचिजांस्तु दोषान् । दूरीकरोत्याशु गुडेन कृष्णा कृष्णेव कृष्णेन विमोहमंहः ॥ ६५ ॥ ग्यास्या-अजीर्ण जीर्णज्वर पाण्डुरोग कास श्वासम् अग्निसादम् अग्निमान्यम् अरुचिजम् । अरुचे कारणेनोत्पन्ना ये दोषा विकारास्तान् विकारान् गुडेन युक्ता कृष्णा पिप्पलीचूर्णम् आशु शीघ्र तथा दूरीकरोति यथा कृष्णेन वमुदेवसूनुना कृष्णा । द्रौपदी (चीरहरणावसरे) अह दुष्कृत विमोहवैचित्य दरीकृतवती तद्वत् । यथा द्रौपद्या स्मरणमन्तरा कृष्णेन तस्य शीलरक्षा कृता तद्वद् एव गुटपिम्पलीप्रयोग पूर्वोक्तभ्यो रोगेभ्य पीटितान रक्षतीति माव. 1 उपजातिवृत्तम् । यथाह चक्रपाणि -
जीर्णज्वरेऽग्निसादे च शस्यते गुटपिप्पली । चक्रदत्ते। हिन्दी-अनपच, जीर्णज्वर, पाण्डुरोग, कास, श्वास, अग्नि की मन्दता तथा अरुचि के कारण उत्पन्न दोपों को गुद मिश्रित पिप्पली चूर्ण का सेवन उस प्रकार दूर करता है जिस प्रकार चीरहरण के अवसर पर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के कष्ट को दूर किया ॥६५॥ जीर्णज्वरे कपाय - जीर्णज्वरं कफयुत कणया समेत
छिन्नोद्भवोद्भवकषायक एप हन्ति । रामो दशास्यमिव राम इव प्रलम्ब
रामो यथा समरमूर्धनि कार्तवीर्यम् ॥ ६६ ॥ ________________
प्रथमो विलास
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व्याख्या-प कणया पिप्पल्या समेत सहित यथा स्यात्तथा छिन्नोद्भवोद्भवकपायको गुडचीनिर्मित काथ कफयुत जीर्णज्वर तथा हन्ति यथा रामो दाशरथि दशास्य रावण, रामो बलराम प्रलम्बम् अमुरविशेष, राम परशुराम समरमूर्धनि युद्धभूमी कार्तवीर्यम् अहनत् । वसन्ततिलका वृत्तम् । यथा चक्रपाणि,पिप्पलीचूर्णमयुक्त’ काथरिटन्नरुदोद्भव.। जीर्णज्वरकफध्वसी पञ्चमूलीकृतोऽथवा ॥ चक्रदत्ते।
हिन्दी-छोटी पीपल और गिलोय का वाथ जीर्ण कफज्वर का उसी प्रकार विनाश करता है जिस प्रकार राम ने रावण का, बलराम ने प्रलम्बासुर का और परशुराम ने युद्धभूमि में कार्तवीर्य का विनाश किया ॥ ६६ ॥ पवमूलपिप्पलीप्रयोग - पञ्चमूलसलिलं चपलाया धूलिभिर्विलुलितं प्रपिवन्तम् । पूरुपं कफचिरज्वरपीडा संजहाति विधनं गणिकेव ॥ ६७ ॥ प्यारया-पञ्चमूल बृहत्पनमूल चपलाया कणाया धूलिमि चूर्ण विलुलित मिश्रित सलिल काय प्रपिवन्त प्रकर्पण नियमानुसार पान कुर्वन्त पुरुष रोगिण कफचिरज्वरपीडा जीर्णकफज्वराभिधानो रोग तथा तजहाति सम्यक प्रकारेण त्यजति यथा विधन विगत धन यस्य त धनरहित पुरुप गणिका वारवधू । स्वागतावृत्तम् ।
हिन्दी-वृहस्पञ्चमूल और छोटी पीपल के क्वाथ को पीने वाले जीर्णकफ-ज्वर से पीडित रोगी को उसका रोग उसी प्रकार छोड़ देता है जिस प्रकार धनहीन पुरुप को वेश्या छोड़ देती है ॥ ६७ ॥ मुस्तादिकाय - मुस्ताऽमृतानन्तकिरातसिंहीशुण्ठीशटीपर्पटरोहिणीनाम् ।
काथः कणाक्षौदयतः प्रशस्तोजीर्णज्वरेवा विषमज्वरे वा ॥१८॥ __ व्याख्या-मुस्ता मुस्तम् अमृता गुडुची अनन्ता दुरालभा, किरात तिक्त सिंही कण्टकारी शुण्ठी महौषधम् , शटी कर्चुर पर्पट. वरतिक्त (पित्तपापडा इति ख्यात ) रोहिणी मासरोहिणी कणा पिप्पली एतेपा मधुयुत काथ जीर्णज्वरे किंवा विषमज्वरे चिकित्सक प्रगस्त । इन्द्रवजावृत्तम् । मैपज्यरत्नावल्यामपि एप योगो लभ्यते-तद्यथामुस्तामलकगुडूचीवियोषधकण्टकारिकाकाथ । पीत सकणाचूर्ण समधुर्विपम ज्वर हन्ति ।
हिन्दी-नागरमोथा, गिलोय, दुरालभा, चिरायता, कण्टकारी, सोंठ, कचूर, पित्तपापड़ा, मासरोहिणी और पिप्पली इनका क्वाथ मधु के साथ सेवन करने से जीर्णज्वर एव विषमज्वर का विनाश करता है ॥ ६८ ॥ ऐकाहिकज्वरे काय -
वासापटोलत्रिफलाद्राक्षाशम्याकनिम्बजः । समधुः ससितः काथो हन्यादेकाहिकं ज्वरं ॥ ६९॥
कणाक्षीद्रयुतली अनन्ता ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणि
व्याख्या-वासा आटरुप पटोल वरतिक्त त्रिफला फलत्रिकम् द्राक्षा मृवीका शम्याक भारग्वध. निम्ब पिचुमर्टः एतेषा मधुना सितया च सह मिलित काय ऐकाहिक स्वर प्रतिदिनन् एककाले य समायाति त न्याद विनाशयेत् । पूर्वाक्ताष्टानाम् ओषधीना काथे मिद्धे मति नत्र मधुसितयो प्रक्षेप कर्तव्य । अनुष्टुप्ठन्द । __हिन्दी-अहसा, परवल की पत्ती, हरद, वहेड़ा, आंवला, मुनका, अमलतास, नीम की छाल इसका हाथ मधु और मिश्री मिलाकर पीने से ऐकाहिक घर का विनाश करता है।
विशेप-चरक, सुश्रुत एव वाग्भट में से ऐकाहिक ज्वर का नामत. उल्लेख नहीं है। केवल निदान के ही लिये लिखे हुए माधवनिदान में भी इसका मूल में तथा इसके प्रसिद्ध टीकाकार श्रीविजयरक्षित एव श्री कण्ठदत्त के द्वारा लिखित मधुकोप टीका से भी इसका शब्दत वर्णन नहीं किया गया किन्तु चिकित्सा. प्रधान ग्रन्थों मैपज्यरत्नावली आदि में ऐकाहिक ज्वर चिकित्सा नाम से अनेक योग मिलते हैं। हमारे विचार से यह अन्येद्यप्क ज्वर का पृथग नामकरण मात्र है। यथा-“अन्येषुप्कस्त्वहोरात्र एककाल प्रवर्तते ।” दिन-रात में केवल एकबार आने वाले ज्वर को “अन्येचुक” कहते हैं और ऐकाहिक शब्द का पारिभाषिक अर्थ भी यही होता है। ऐकाहिक आदि विषमज्वरों में देवव्यपाश्रय एव युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा द्वारा भी लाभ होता है। इसके विविध प्रयोग चिकित्सा ग्रन्यों में मिलते हैं ॥ ६९ ॥
तृतीयकज्वरे चन्दनाटिक्वाथ - सशिशिरः सधनः समहौपधः सनलदः सकणः सपयोधरः। समधुशर्कर एप कपायको जयति सत्वरमेव तृतीयकम् ॥ ७० ॥
ब्याण्या-शिशिर रक्तचन्दन धन धन्याक महीपध शुण्ठी नलदम् उशीर कणा पिप्पली पयोधरो मुस्ता एभिन्यै. सहित साधितश्च समधुशर्कर मधुशर्करान्या समन्वितो युक्त एप कपायक सत्वरमेव नीवमेव तृतीयक ज्वरविशेष जयति म्ववगमानयति विनाशयतीत्यभिप्राय । तत्र सामान्यचिकित्सामूत्रम् “कर्म साधारण जयात्ततीयकचतुर्थके।” च० चि०३ ॥ तृतीयेऽह्नि भव नृतीयक व्याहिक वा । द्रुतविलम्बितवृत्तम् । यथा चक्रपाणि चक्रदत्ते
महीपधामृतामुम्तचन्दनोशीरधान्यकै काथस्तृतीयक हन्ति शर्करामधुयोजित ॥ हिन्दी-लालचन्दन, धनियाँ, मोठ, खस, पिप्पली, नागरमोथा इन द्रव्यों के द्वारा निर्मित वाथ में मयु एव मिश्री मिलाकर पीने से तृतीयकज्वर का शमन हो जाता है।
विशेप-जहाँ भी काथ में शहद मिलाने का निर्देश हो वहाँ काथ के शीतल ________________
प्रथमो विलासः होने पर ही मिलाना चाहिये । तृतीयम्वर को माधारण बोलचाल में ‘तिजारी बुग्वार’ कहते हैं। यह एक दिन का अन्तर देकर पुन तीसरे दिन आता है अत एवं इसको तृतीयक कहते है ॥ ७० ॥
चातुंथिंकज्वरे नस्यम्चातुर्थिको गच्छति रामठस्य वृतेन जीर्णन युतस्य नस्यात् । लीलावतीनां नवयौवनानां मुखावलोकादिव साधुभावः ॥ ७१ ॥
व्याख्या-जीर्गेन घृतेन पुराणपिपा युतस्य रामठस्य हिजो नस्यात् नावनात् चानुथिक चतुर्थहि भव “चतुर्थहि चतुर्यक” माधव । अन्यदपि “दिनद्वय त्वतिक्रम्य य म्यात्म हि चतुर्थक “, गच्छति शान्ति प्राप्नोति, यथा-नवयौवनानां नवोढाना युवतीना तथा च लोलावनीनां हावभावादिविलासयुक्तानां स्त्रीणां मुखावलोकान्मुखस्य दर्शनात साधुमावो धीरता गच्छति तथा ज्वरोऽपि याति, यद्यपि अस्थिगतमजागतज्वरयो पृथक्पृथग लक्षणानि माधवेनोलिखितानि तथापि चातुर्थिकविपर्ययाऽऽख्योऽन्य एव निपमज्वरः ।
इन्द्रवजावृत्तम् । तद्यथाअस्थिमानागतोदोपश्चातुर्थिकविपर्यय । जायते भिपजा शेयो विपमज्वर ण्व स ॥
भावप्रकाशे ॥ हिन्दी-पुराने घी में हींग मिलाकर नस्य लेने से चौथे दिन आने वाला ज्वर उप प्रकार चला जाता है, जिस प्रकार हाव-भाव, कटाक्षादि में कुशल नवयुवतियों के (मुस) दर्शन से सजनता । यह स्नेहन नस्य है ॥ ७१ ॥ देवदादिकाय
सुरदारूशिवाशिवास्थिरावृपविश्वे. कथितः कपायकः। मधुना सितया समन्वितः परिपीतः शमयेच्चतुर्थकम् ॥ ७२ ॥ व्याख्या-सुरदार देवदारु. शिवा हरीतकी शिवा आमलकी स्थिरा शालपणी वृप आटरूपक विश्व शुण्ठी पद्मिरेभिर्द्रन्यै कथितोऽभिहित कपायक फाथ मधुना मितया च समन्वित मधुसिनाम्यां मिलित परिपीत कृतपान चतुर्थक शमयेत् चतुर्थऽति मव ज्वर नाशयेत् । यथा वगसेन -
स्थिरासामलकीदारुशिवावृपमहोपधै । शृत शीत जल दद्यात् सितामधुसमन्वितम् ॥
चातुर्थिक ज्वरे तीने मन्दे चाप्यथ पावके। भावमियोऽप्येन समर्थयनि- स्थिरातामलकी दारु शिवा घृपमहौषधै । सितामधुयुत. काथश्चातुर्थकहर पर ॥
तामलकी - भूधात्री। ________________
३८
वैद्यक चमत्कारचिन्तामणिः तमेव योग चक्रदत्ते चक्रपाणि - वासाधात्रीस्थिराठारुपथ्यानागरसाधित ।
सितामधुयुत कायश्चातुर्थिकनिवारण’ \। माझंधरसहितायामप्येप पाठ सुलम । ग्रन्थान्तरेष्वपि सुलमोऽयं योग केवल रचना वैशिष्टयमेव कवे चोवधि । ‘शिवा हरीतकी प्रोक्ता भवेदामलकी शिवा’ अनेकार्थ ।
पद्येऽस्मिन् वियोगिनी छन्द ।
हिन्दी-देवदारु, हरीतकी, भावला, शालिपर्णी, अहसा, सोंठ इनके क्वाथ में मधु और मिश्री मिलाकर पीने से चौथैया ज्वर का शमन हो जाता है ॥ ७२ ॥
शीतज्वरे योगत्रयम्भज वेपथुमन् सदा हसन्ती गतधूमां च विलासिनी हसन्तीम् । कठिनस्तनमक्षुलोज्ज्वलांगां मधु च यूपणकेन कट्फलं वा ॥ ७३ ॥ - व्याण्या-हे वेपथुमन् ! गीतज्वरपीटित, सदा सर्वदा गतधूमा घूमेन रहिता इसन्तीम् अङ्गारधानिकाम् “अङ्गारधानिकाऽङ्गारशकट्यपि हसन्त्यपि”, अमर ॥ (सग्गड, बोरसी) भज सेवस्व । अथवा कठिनस्तनमन्जुलोज्ज्वलाङ्गां कठिनी स्तनो यत्र तत् कठिनस्तन मन्जुल मुन्दरश्च तद् उज्ज्वलाइ मन्जुलोज्ज्वलाङ्गम् यस्या एवम्भूता या मा ता हसन्तीम् प्रसन्नमुखारविन्दवती विलासिनी नवोढा नायिका भज आलिगय । किंवा विश्वोपकुल्यामरिचाना समाहार त्र्यूषण कटफल कुम्भिका एतेपा मधुयुत चूर्ण भज भक्षय । अत्र मधुशब्देन मद्यसेवनम्यापि सङ्केत शीतवारकत्वात् तदित्यम्
मधु मद्य मधु क्षौद्रे मधु पुष्परसे विदु ।
मधुश्चैत्रे मधुदत्ये मधुकेऽपि मधु स्मृत ॥ इत्यनेकार्थे । मधगुणा
मद्य सर्व मवेदुष्ण पित्तकृद् वातनाशनम् ।
भेदन शीघ्रपाक च रूक्ष कमहर परम् ॥ अभिनवनिः । न्यूपणस्य गुणा
यूपण दीपन इन्ति कासश्वासत्वगामयान् ॥ तदेव । विलासिनीसेवने गुणानाह- कृपोदक वटच्छाया नारीणां सुपयोधरी।
शीतकाले मवेदुष्णमुष्णकाले तु शीतलम् ॥ यथाह मावमिश्र - त स्तनाभ्यां सुपीनाम्या पीवरोरुनितम्बिनी।
युवती गाढमालित्तेन शीतम्प्रशाम्यति ॥ मा प्र म ख । अग्निसेवने गुणा
अग्निर्वातकफस्तम्मशीतवेपथुनाशन ।
आमाभिण्यन्दशमनो रक्तपित्तप्रकोपण \।\। भावप्रकाशे। ज्वरचिकित्साप्रकरणे- प्रयोदशविध स्वेद स्वेदाध्याये निदर्शित ।
मायाकालविदा युक्त स च शीतज्वरापह ॥ च चि अ३। हिन्दी-हे शीतज्वर से पीड़ित रोगी। धूमरहित जलते हुए कोयलोंवाली योरसी, अगीठी या अंगारधानिका का सेवन कर । अथवा सुरूपा विशाल स्त! ________________
प्रथमो विलास
३६
वाली एव प्रसन्नचित्त युवनी का मालिंगन कर । नहीं तो सोंठ, मरिच, पीपल, कटफल के चूणों का मधु के साथ सेवन कर (या केवल उत्तम कोटि के मद्य (शराब) का उचित मात्रा में सेवन कर)। ये तीनों योग शीतज्वर नाशक हैं। चतुर्थकचरे नम्यम्
अगस्त्यपत्रस्वरसैनस्याद्याति चतुर्थकः ।
संसारसागर इव पुरारिपुरसेवनात् ॥ ७४ ॥ व्याख्या-अगस्त्यपन मुनिद्रुमदल तस्य स्वरसै नस्यात् नावनात चतुर्यक ज्वर. तथा याति यथा पुरारिपुर काशी तस्य से पनात् ससारसागर भवबन्धनम् याति विनश्यति । यथाह चक्रपाणि चक्रदत्त “नस्य चातुर्थक इन्ति रसो वाऽगस्त्यसम्मव”। रेचनस्नेहनभेदाभ्या नस्यस्य वैविध्यम्नस्यभेदो द्विधा प्रोक्तो रेचन स्नेहन तथा । रेचन कर्पण प्रोक्त स्नेहन वृहण मतम् ॥शा स ।
एतन्नम्य रेचनार्थ प्रयुज्यते। कटुनलादिकस्य प्रतिदिन प्रयुज्यमान नस्य गृहण भवति । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-अगस्त्य पन्नों के स्वरस का नस्य लेने से रोगी चौथ्या ज्वर से उस प्रकार मुक्त हो जाता है, जिस प्रकार काशीवास करने से मानव भवसागर के यन्धों मे (मुक्त हो जाता है)। यह रेचन नस्य है ॥ ७४ ॥
शीतज्वरे शक्रामादिकपाय - शमाबदद्रुघ्नविषामृतानां निर्गुण्डिकाभृङ्गमहोपधानाम् । शुदायवानीसहितः कपायः शीतज्वरारण्यहिरण्यरेताः ॥ ७५ ॥ ध्याख्या-शका इन्द्रयव दगुन चक्रमर्द घृप वासक अमृता गुडूची निर्गुण्डिका सिन्दुवार भृक गजा केशराज वा महीषध शुण्ठी धुद्रा लघुकण्टकारी यवानी अजमोदा नयभिरेमिन्ये साधित कपाय शीतज्वरारण्यहिरण्यरेता शीतज्वर ण्व- वन तस्य विनाशाय अग्निरिव समर्थ । इन्द्रवजावृत्तम् ।
हिन्दी-इन्द्रजी, चकवद के वीज, अहसा, गिलोय, सम्हालू, भाग, सोंठ, छोटी कटेरी, अजवायन इन नी द्रव्यों से निर्मित काथ शीतज्वररूपी वन का विनाश करने के लिये अग्नि के समान समर्थ है। अर्थात् यह हाथ शीतज्वरनाशक है॥७५॥
विषमज्वर नागरादि कपाय – सनागराया. सपयोधराया. ससिंहिकाया. सगुडूचिकायाः। धान्याः कपायो मधुना समेतः कणासमेतो विषमज्वरे स्यात् ॥ ७६ ॥ व्याख्या-नागर शुण्ठी पयोधर मुस्ता सिंहिका वृहती गुड़ची अमृता धात्री ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः आमलकी पञ्चैतासामोपधीना काथ मधुना क्षौद्रेण कणया पिप्पल्या च समेतो विमित्रः विपमज्वरे स्यात विषमज्वरनाशक प्रदिष्ट । यथाह भावमिश्र
मुस्तामलकगुड़चीविश्वौपधकण्टकारिकाकाथ ।
पीत. सकणाचूर्ण समधुर्विषमज्वर हन्ति ॥ मा प्र. म ख ॥ भैषज्यरतावत्यामपि योगोऽय तथैवोदधृतो दृश्यते । उपजातिवृत्तम् ॥ __ हिन्दी-सोंठ, मोथा, बढ़ी कटेरी, गिलोय, आवला इन पाच द्रव्यों का साथ छोटी पीपल का चूर्ण तथा मधु मिलाकर सेवन करने से विषम ज्वर का नाश होता है ॥ ७६ ॥ रसोनकल्कप्रयोग - सुरालये वा भुजगालये वा नरालये वा न रसोनकल्कात् । तैलेन युक्तादपरः प्रयोगो महासमीरे विपमज्वरेऽपि ॥ ७७ ॥ व्याख्या-सुरालये स्वर्गलोके भुजगालये पाताले नरालये भूलोके अर्थात् लोकत्रयेऽपि वा तैलेन तिलतैलेन युक्ताद् रसोनकल्काद् एकेन रसेन ऊन रसोन लशुन’ तस्य कल्काद् अपर द्वितीय प्रयोग. उपचार’ औषध वा महासमीरे तीनवातज्वरे विषमज्वरे वा नास्तीति शेष । “सन्तत सततोऽन्येवस्तृतीयकचतुर्थको”, एते पञ्चविपमज्वरा । रसोनस्योत्पत्ति’ वाग्मटे
राहोरमृतचौर्यण लनाट् ये पतिता गलाट् ।
अमृतस्य कणाभूमौ ते रसोनत्वमागता ॥ यथाह भावमिश्र - यदामृत वैनतेयो जहार सुरसत्तमात् ।
तदा ततोऽपतद् विन्दु स रसोनोऽभवद् भुवि ॥ पञ्चभिस्तु रसयुक्तो रसेनाम्लेन वजित । तस्माद् रसोन इत्युक्ता द्रव्याणा गुणवैदिभि ॥
एनामेव कथा समर्थयति हारीत स्वसहितायाम् । कल्कनिर्माणविधि -
द्रव्यमा शिलापिष्ट शुष्क वा सजलं भवेत् । प्रक्षेपावापकल्कास्ते तन्मान कर्पसम्मितम् ॥ कल्के मधु घृत तेल देय द्विगुणमात्रया।
सितागुडी समी देयो द्रवा देयाश्चतुर्गुणा ॥ शाइधरे । मैपज्यरतावल्याम्
रसोनकल्क तिलतलमिश्र योऽइनाति नित्य विषमज्वरात ।
विमुच्यते सोऽग्यचिराज्ज्वरेण वातामयैश्चापि मुघोररूपै ॥ एप एव योगोऽविकलरूपेण चक्रदत्तेऽपि दृश्यते । उपजानिवृत्तम् । __ हिन्दी-स्वर्ग, पाताल तथा भूतल अर्थात् तीनों लोकों में तीय ज्वर एवं विषम ज्वर को शान्त करने के लिये तिल तेल मिश्रित लहसुन की चटनी के निरन्तर सेवन के अतिरिक्त दूसरा कोई सफल प्रयोग है ही नहीं। ________________
प्रथमो विलास विशेप-सूखे अमचूर को पानी के साथ पीसकर कच्चे आम इमली को यों ही पीसकर भावश्यक प्रक्षेपों को डालकर जैसे चटनी बनाई जाती है वैसे ही औषधोक्त द्रव्यों द्वारा करक = चटनी का निर्माण किया जाता है। तीनों लोक में ऐसा प्रभावकारी दसरा प्रयोग नहीं है यह कहना ग्रन्थकर्ता की स्वानुभूति के प्रति गर्वोक्ति है ॥ ७ ॥
विषमज्वर योगचतुष्टयम्मौद्रेण पथ्या विषमज्वरापहाऽजाजी गुडानन्या विषमज्वरापहा । कृष्णोधमाना विषमज्वरापहा श्रेष्ठा गुडाप्रथा विषमज्वरापहा ॥ ७८ ॥
व्याख्या-झौद्रण मधुना सेविता पथ्या हरीतकी विपमज्वरापहा विषमज्वर ज्वरान् वा अपहन्ति । अजाजी कृष्णजीरक गुटेन सहिता तदेव कार्य करोति । कृष्णैधमाना वर्धमानपिप्पली विषमज्वर नाशयति । गुडाग्रथा गुरुप्रधाना श्रेष्ठा विशेषगुणप्रदायिनी पिप्पली विषमज्वरापहा भवति । चरके वर्धमानपिप्पलीप्रयोग - क्रमवृद्ध्या दशाहानि दगप्पलिका दिनम् । वर्धयेद् पयसा सार्धं तथा चापनयेत् पुन ॥ जाणे जीर्णे च मुओत पष्टिक झोरमर्पिपा । पिप्पलीना सहस्रम्य प्रयोगोऽय रसायनम् ॥ पिष्टास्ता वलिमि मेव्या शृता मध्यवलेन’ । शीतीकृता छस्ववयोज्या दोपामयान् प्रति ॥ दशप्पलिक श्रेष्ठो मध्यम पट् प्रकीर्तित । प्रयोगो यस्त्रिपर्यन्न स कनीयान् स चानले ॥
च० चि० अ० १॥ विवृद्धया पञ्चवृद्धथा वा सप्तवृद्धयाऽथवा पुन ॥ इत्यामनन्ति । अन्ये तु
उपरि लिखिता एकरलोकसमापनाश्चत्वारो योगा विषमज्वरान् शमयन्ति । इन्द्रवज्ञावृत्तम् ।
हिन्दी-मध के साथ हरीतकी का सेवन, गह के साथ कालाजीरा का सेवन, वर्धमान पिप्पली का प्रयोग अथवा गुद के साथ पिप्पली का सेवन विपम ज्वरों का विनाश करता है। इस एक ही श्लोक में पृथक-पृथक चार योगों का वर्णन है।॥ ७८ ॥ विषमज्वरे पटोलादिकाथ - प्रवालतुलिताधरे कुचकुलाचलालङ्कते
- विशालजघनस्थले चटुलचारुचलाञ्चले। पटोलकटुरोहिणी-मधुकचेतकीमुस्तके
कपायक उदाहृतो विपमशान्तये सूरिभिः ॥ ७९ ॥ व्यास्या-प्रवालतुलिताधरे प्रवाल नवदल तेन तुलितम् अधरपल्लव यन्या सा ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः तत्सम्बुद्धी, कुचकुलाचलाऽलने कुचौ एव कुलाचली महोन्नतपर्वती ताभ्यामलटते सुशोभिते, अत्र कुचयो पीनोनतत्वात् कुलाचलप्रयोगो विहित तयथामहेन्द्रो मलय सह्य शुक्तिमान् ऋक्षपर्वत । विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तते कुलपर्वता ॥
विशाल घनस्थले विशाले विपुले जघने स्त्रीकट्या पुरोभागी यस्या सा तत्सम्बुद्धी चटुलचारुचलाञ्चले चटुल चञ्चल च तत् चारु सुन्दर च तत् चलाश्चल शाटिकाप्रान्तमागो यस्या सा तत्सम्बुद्वी, इत्यभूते हैं प्रियतमे। पटोल कुलक कटुरोहिणी कटवी मधुको गुडपुष्प , चेतकी हरीतकीभेद मुस्तक मुस्ता पञ्चभिरेभिर्द्रव्ये कृत कपाय कुगलैश्चिकित्सकैविपमज्वरशान्तये निर्दिष्ट , इति ग्रन्थकर्तुराशय । पृथ्वीवृत्तम् ।
हरीतकीभेदाविजया रोहिणी चैव पूतना चामृताऽभया । जीवन्ती चेतकी चेति विज्ञेया सप्तजातयः ॥
चेताया उत्पत्तिस्थान हिमालय आकृति त्रिरेखा चेतकी शेया । भा० प्र० । हिन्दी-नवकिसलय के सदृश होठों से युक्त, पीन एवं उन्नत स्तनों से सुशोभित विशाल जाघों और सुन्दर आंचलवाली प्रियतमे \। परवल, कुटकी, महुभा, चेतकी नामक हरह, नागरमोथा इन पाच द्रव्यों से बना हुआ काथ विपमज्वर का विनाश करता है । यह विद्वान् चिकित्सकों का मत है ॥ ७९ ॥ विपमधरनाशनो योग -
यो भजेत् समधुश्यामां श्यामामिव मनोहराम् ।
विपमेपुव्यथास्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥ ८० ॥ व्याख्या-य विषमज्वरी श्यामा पोटगवार्षिकी स्त्री तद्वद् मनोहरा रोगनागकत्वात् प्रिया श्यामा पिप्पली मधुना सह मजेत सेवेत तस्य विपमेपु विपमज्वरेषु व्यथा पीडा कदाचन कदापि न भवन्ति । अथवा य मधुना माक्षिकेण सह श्यामा त्रिवृता भजेत् सोऽपि विषमज्वरेभ्यो मुक्तो भवति । इति द्वितीयोऽर्थ । अथ श्लेपानुप्राणितस्तृतीयोऽर्थ य कामपीटित समधुश्यामा मधुना मधेन सह श्यामा पोटशवार्षिकी कामिनों भजेत् तस्य विपमेपु. काम तस्य व्यथा पीडा न भवन्तीति । श्यामाया लक्षणानि
स्निग्धनखनयनदशना निरनुशया मानिनी स्थिरस्नेहा ।
सुस्पर्शा शिशिरमासलवरागना सा मता श्यामा ॥ अत्र पधे विषमज्वरचिकित्सया सहैव कामज्वरस्यापि चिकित्सा ग्रन्थका रूपमुखेन निर्दिष्टा । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-नवोढा नायिका के समान सुखद मधु युक्त निशोथ का अथवा मधु युक्त पिप्पली का सेवन करने से विषम ज्वरों का शमन होता है। अथवा कामज्वर पीड़ित रोगी यदि नवोढा नायिका का सेवन (आलिङ्गन)करता है तो उसका ज्वर शान्त हो जाता ॥ ८०॥ ________________
प्रथमो विलास’
तण्डुलीयमूलधारणप्रयोग - क्षणमपि चलतां जहीहि मुग्धे शृणु वचनं मम तन्वि सावधाना। वसति शिरसि मेघनादसूले जतितरां विषसो विशालदृष्टे । ॥ ८१ ॥
व्यापया-हे मुन्थे । टपयोयने अर्थात् चन्चले क्षणमपि स्तोकमपि चञ्चलता चाचल्य जहीहि मन्त्वज, हे तन्त्रि । कृमोदर सावधाना दत्तचित्ता सती मम मदीयमेतदुच्यमान वचन वाच्य शृणु आकर्णय मेवनादमले तण्डलीयकमले शिरसि शिखाया वसति बद्ध सति है विशालदृष्टे । विद्याला विस्तृता दृष्टि यस्या सा तत्सम्युद्धौ विपमो विषमज्वरो व्रजतितराम् अनिशयेर गच्छनोनि मार । रलमलाया विशालदृष्टिता सौन्दर्यापादकत्वे सति शाखशत्वमपि व्यक्ति । तत्र विशाला ब्यापका शास्त्रान्तरसन्चारिणीत्यभिप्राय । पुष्पिताग्रावृत्तम् ।
हिन्दी-हे मुग्ध स्वभाव वाली प्रिये । थोड़ी देर चञ्चलता छोड़ो, हे कृशोदरि । सावधान होकर मेरी यात सनो, हे हरिणाक्षि। चौलाई की जड़ को शिर में बाधने से विषम ज्वर का नाश हो जाता है ॥ ८ ॥
विषमज्वरे कपाय - विपममपहरत्यसौ कपायो मधु मधुको मधुरामृताशिवानाम् । अहमिव तव कामिनि प्रकोपं चरणसरोरुहयोलुंठन् हटेन ॥८२॥
व्याख्या-हे कामिनि प्रियतमे । यथा अह हठेन बलात्कारेण तव चरणसरोरुहयोjठन तव चरणकमलयो पतन् मन् प्रकोप हरामि, अनेन पादपतनेन गुरुमानिन्या अपि क्रोधोपशम इति प्रसिद्धि कामशाम्पेषु । तदवट् असौ मधुक मधुयष्टी मधुरा शर्करा अमृता गुडूची शिवा आमलकी एतेपा मधुमधुरो मधुना मधुरीकृत कपाय विपम विपमाऽऽख्य ज्वरन अपहरनि विनाशयतीत्यर्थ । पुष्पिताग्रावृत्तम् ।
हिन्दी-हे प्रिये । मेरी बात सुनो। मुलेठी, चीनी, गिलोय, सांवला इन चारों का काथ मधु मिलाकर पीने से उस प्रकार विषम ज्वर को शान्त करता है जिस प्रकार तुम्हारे अत्यन्त ऋद्ध हो जाने पर मैं चरणों में गिरकर हठपूर्वक तुम्हारे क्रोध को शान्त कर लेता हूँ ॥ ८ ॥
विपमज्वरनाशनोऽपर कपाय - हे मुग्धे सलिलधरामृताशिवानां सप्ताह पिव मधुसंयुतं कपायम् । भो कान्त तव विषमज्वरापनोदादत्यन्तं तनुलतिका प्रहर्पिणी स्यात् ॥
व्याण्या-हे मुग्धे । प्रियतमे मल्लिधर तोयभृत् मुस्ता, अमृता गुडची शिवा आमलकी एपा प्रयाणा मधुमयुत मधुना मिलित मधुरीकृन कपाय सप्ताह सप्तदिन यावर पिव । भो कान्ने । रूपसौन्दर्यशालिनि । विषमज्वरापनोटात विषमज्वरदूरीकरणाद अनेन कपायेण अत्यन्तम् अत्यधिक तव तनुलतिका अङ्गायष्टि प्रदर्पिणी प्रमोदातिशययुक्ता ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः स्यात् । ययाह वाग्मट अष्टाद्गहृदये–“धात्री मुस्ताऽनृताक्षीद्रमर्थश्लोकसमापना ।” म०चिथ०२प्रदर्पिणी वृनम् ।
हिन्दी-हे मुग्धे नागरमोथा, गिलोय, आवला इन तीनों का मधु मिश्रित काथ एक सप्ताह तक पीना चाहिये। हे प्रिये ! इस चाय के सेवन से विषम ज्वर दर होकर तुम्हारा शरीर प्रसन्न रह ॥ ८३ ॥ ज्वरहरम् अष्टाङ्गबूपनम्अयि कुशाननतीक्ष्णमने मते मतिमतामतिमन्मथमन्थरे । ज्वरहरं रुगरिएशिवावचायवहविर्जतुसर्पपवूपनम् ॥ ८४ ॥ व्याख्या-अयीनिस्नेहपूर्वक सम्बोधनम् , कुशाननतीष्णमत क्रुगस्य दर्मन्य आनन मुखमिव तीक्ष्या जातञ्चुत्पन्ना मतिर्थस्या ना तत्सम्दोधने, मतिमता बुद्धिमता मते पूजिने, अतिमन्मथमन्थरे प्रवृद्धकामवगान्मन्दगनिय एतदधोलिखितमष्टाद्धृपनम् ज्वर नागयतीत्यर्थ.1 रुक कुष्ठन् अरिष्ट निम्ब शिवा थामलकी बचा गोलोमी यव सक्त इन्द्रयवो वा हवि घृत जतु लाक्षा सर्पप गीरमर्पप इत्यष्टौ धूपनानि, यथाह चक्रपाणि - पलकपा निम्बपत्र वचा कुष्ट हरीनकी । नपा मयदा सपि पन ज्वरनाशनम् ॥ चत्ते । इतविलन्वितवृत्तन् ।
हिन्दी-हे कुशाग्र बुद्धि वाली विद्वानों के द्वारा सम्मानिन, यौवन के उन्माद से मन्दगति वाली प्रिये । फूट, नीम के पत्ते, आंवला, वच, जौ, अथवा इन्द्रजी, वी, लाख और पीली सरसों इनका धूप देने से ज्वर शान्त हो जाता है ॥ ८४ ॥ मततकज्वर तिक्तादिकपाय
तिक्तोशीरवलाधान्यपर्पटाम्भोधरैः कृतः।
क्वाथः पुन. समायातं ज्वरं शीघ्र निवारयेत् ॥ ८५॥ व्याग्या-तिका कुटकी उशीर नलद बला वाट्यालक धान्य धन्याक पर्पट वरतिक्त अम्मोधर मुन्ता पदमिर्च न कपाय पुन समायातन् एकस्मिन्नेव दिने वारद्वयम्, आगच्छन्न सननारय ज्वर शीघ्र निवारयेत् । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-पुटकी, सम, बला, धनिया, पितपापड़ा, नागरमोथा इन छ’ द्रव्यों के द्वारा निर्मित कपाय एक ही दिन में दो बार आने वाले सततक ज्वर का नाश करता है। यह सततक नामक विषम ज्वरनाशक उत्तम योग है ॥ ८५॥ लामादि तैलन्रामामूर्वामधुकरजनीकुष्ठशीताश्वगन्धा
कौन्तीतितामिशिसुरवनस्तुल्यभागैः समस्तम् । नैलं लाक्षारसपरिमितं गर्भिणीनां प्रशस्तं ।
भूतोन्मादज्वरपवनजिद् यक्षरक्षाक्षयघ्नम् ॥ ८६ ॥ ________________
प्रथमो विलासः
४५
व्याण्या-रास्ना नुवहा मूर्वा मधुरमा मधुक मधुयष्टी रजनी हरिद्रा कुष्ठ रुक शीत श्वेतचन्दन अश्वगन्धा हयगन्धा कोन्ती रेणुका तिक्ता कुटकी मिशि. शतपुष्पा सुर देवदार घन मुन्ता लाक्षारसपरिमित तेल च तुल्यभागै समस्तम् एभि समानभागिबैव्यै साधित तेल गर्भिणीनाम् अन्तर्वतीनाम् “अन्तर्वत्पनिवतोर्नुक”, इत्यनेन नुगागमे । प्रशस्त लाभदायकन् , अन्यच भूतोन्मादज्वरपवनजिद् भूतोत्थज्वरवातव्याधिविनाशक यक्षवाधा रक्षसा वाधा क्षय राजयक्ष्माण च विनाशयति । मन्दाक्रान्नावृत्तम् । अथ तेलसाधनप्रकार
कल्काच्चतुर्गुणीकृत्य घृत वा तैलमेव वा ।
चतुर्गुणे द्रवे साध्य तस्य मात्रा पलोन्मिता ॥ काये जलपरिमाणमाह- चतुर्गुण मृदुद्रव्ये कठिनेऽष्टगुण जलम् ।
तथा च मध्यमे द्रव्ये दद्यादष्टगुण पय ॥
अत्यन्त कठिने द्रव्ये नीर पोडशिक मतम् । नत्र पाकम्य प्रैविध्यम्
स्नेहपाकत्रिधा प्रोक्तो मृदुर्मध्य खरस्तथा । तस्य प्रयोग
नस्यार्य स्यान्मृदु पाको मध्यम सर्वकर्मसु ॥
अभ्यनाथ सर प्रोक्तो युन्ज्यादेव यथोचितम् ॥ शा० स० । लाक्षादितलम्य निर्माणविधि - लाक्षाढक कायित्वा जलस्य चतुराढफै। चतुर्थीश शृत नीत्वा तैलप्रस्थे विनिक्षिपेत् ॥ मत्त्वाचा च गोदध्नस्तत्रैव विनियोजयेत् । शतपुष्पामश्वगन्धा हरिद्रा देवदारु च ॥ कटकी रेणुका मूर्वी कुष्ठ च मधुयष्टिकाम् । चन्दन मुस्तक रास्ना पृथकर्पप्रमाणत.॥ चूर्णयेत्तत्र निक्षिप्य माधयेन्मृदुवहिना । अस्याभ्यगात्प्रशाम्यन्ति सर्वऽपि विषमज्वरा ॥ कासवासप्रतिश्यायत्रिकपृष्ठग्रहास्तथा । वातपित्तमपस्मारमुन्माद यक्षराक्षसान् ॥ कण्ड शूलञ्च दीर्गन्ध्य गानाणा स्फुरण जयेत् । पुष्टगर्भा भवेदस्य गाभण्यभ्यद्तो भृशम् ॥
शाधिरे॥ हिन्दी-रासना, मरोदफली, मुलेठी, हल्दी, कूठ, सफेद चन्दन, असगन्ध, रेणुका, कुटकी, सौफ, देवदारु, नागरमोथा ये सभी द्रव्य समानभाग (१-१ तोला १-१ कप) और लाक्षारस के समान तैल (दोनों १-१ आढक =३ सेर ३ पाव ४ तोला) लेकर इसका निर्माण करे । यह लाक्षादि तैल गर्मिणियों के लिये अत्यन्त लाभदायक है तथा भूतोन्माद, ज्वर, वातविकारों को जीतता है और यक्षवाधा, राक्षसपीढा एव जयरोग का विनाशक है।
विशेप-लाक्षादि तेल निर्माण के लिये लाख का छाथ बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि लाख नीचे बैठकर जल न जाय अत. उसको चलाते रहें। लाख का पाक अन्य काष्ठीपधियों की भांति नहीं होता यह केवल पिघल ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः जाती है। इस से निर्मित तेल हल्का लाल रंग का होता है। इसके जितने गुण लिखे जॉय थोडे हैं । तैल साधन में तिल तेल ही लेना चाहिये ॥ ८६ ॥ ___पटकटवरतैलम्रुङमूजितुविकसासुवर्चिकानिविश्वाभिः सलिलसदृग्दधिप्रसिद्ध । तके षड्गुणगणिते विपक्कमायें तैलं स्यात्सपदि निदाघशीतहारि ॥८॥ ___ व्याख्या हे प्रसिद्ध आर्ये । रुक् कुष्ठ मूर्वा मधुरमा जतु लाक्षा सुवचिका लवण निट निशा, निड् अत्र ‘ब्रश्चभ्रस्जेत्यादिसूत्रेण शस्य पत्वे जश्त्वचा निट् इति साधु । विश्वा शुण्ठी सलिलसदृग्दधि सलिलेन जलेन समान तुल्य यद् दधि तेन पक तथा पढ्गुणगणिते तके तेलात तिलतैलात् ‘पडगुणाधिके तके विपक्व साधितम् एतत्तैलवर सपदि सेवित सत् निदाघशीतहारि उष्णता शीतता च हरति । प्रहर्षिणीवृत्तम् । यथाह चक्रपाणि चक्रदत्ते
सुवचिंकानागरकुष्ठमूर्वालाक्षानिशालोहितयष्टिकाभि ।
तैल ज्वरे पट्गुणकट्वसिद्धमभ्यञ्जनाच्छीतविदाहनुत्स्यात् ॥ कटवर परिचय - दन ससारकस्यात्र तक कट वरमिष्यते । घृततैलपाकनिर्णय - फेनोद्गमो यदा तैले फेनशान्तिश्च सपिपि ॥ तैलमूर्छनविधि - कृत्वा तैल कटाहे दृढतरविमले मन्द मन्दानलैस्तत्
पक निष्फेनभाव गतमिह हि यदा शैत्यभाव समेत्य । मअिप्ठारात्रिलोधैर्जलधरनलिकै सामलै साक्षपथ्ये
सचीपमानिनीररुपहितमथितेस्तैलगन्ध जहाति ॥ तैलस्येन्दुकलाशिकेन विकसा ग्राह्या तु मूविधौ
ये चान्ये त्रिफलापयोदरजनीहीबेरलोभान्विता । सचीपुष्पवटावरोहनलिकास्तस्याश्च पादाशिका
दुर्गन्ध विनिहत्य तैलमरुण सौरभ्यमाकुर्वते ॥
पाच्यास्तैलजगन्धदोषहतये कल्कीकृतास्तद्विदा ॥ भै० २०॥ हिन्दी-हे अपने सदगुणों से प्रसिद्ध एव कुलीन रनकला \। कूठ, मरोड़फली, लाख, सौचरनमक, हरदी, सोंठ ये द्रव्य और जितना दही हो उतना ही पानी मिलाकर इसका मठा बना लें (यह मठा तैल से छ. गुना अधिक होना चाहिये) इसके साथ पकाया हुआ यह पटकटवर तैल शीत तथा दाह दोनों का नाश अथवा उपशमन करता है।
विशेष-किसी भी तैल का निर्माण करने के पूर्व तैल को मूञ्छित कर लेना चाहिये। इसकी विधि ऊपर व्याख्या में दी गई है। कट्वर-मक्खन सहित दही के घोल को कटघर कहते हैं ॥ ८७ ॥ ________________
प्रथमो विलासः
४७
विषमज्वरादिषु घृतप्रयोग - गोपीच्यामलकी स्थिरामगधजातिक्ताहिमश्रीफल
द्राक्षाफालिनिसेव्यधावनिविपामुस्तैन्द्रजैः साधितम् । स्यादाज्यं विषमज्वरं क्षयशिरःपार्श्वव्यथाऽरोचकं
दीप्तं शोफहलीमकप्रशमयेल्लीलालतामञ्जरि ॥ ८८ ॥ ध्याण्या-है लीलालतामारि । लीला एव हावभावादिकमेव लता वल्ली तस्या मसरी वल्लरी तत्सम्मुदी, गोपीप्रभृतिभिरौपधद्रव्य साधितन् आज्य घृत विषमज्वर सन्ततादिसमूह क्षय शोप शिर शूल पार्श्वशूलन् अरोचक दीप्त प्रवृद्ध गोफ शोध हलीमक पाण्डरोगभेदम् रमान् रोगान् प्रशमयेव विनाशयेत् । तत्रौपधद्रव्याण्याह गोपीदय सारिवायुग्मक (कृणा घेता च) आमलकी धानी स्थिरा शालपणी मंगधजा पिप्पली तिक्ता कुटकी हिम रक्तचन्दन श्रीफल विल्व द्राक्षा मृद्धोका फालिनिका प्रियगु सेन्यम् उशीर धावनी पृदिनपी विपा अनिविपा मुस्ता मुस्तक इन्दज इन्द्रयव योगेपृक्ताना व्याधीना निदानानि तत्तदग्रन्येषु द्रष्टव्यानि 1 शार्दूलविक्रीटितम् । वाग्भटेऽपि योगोऽय विलसति तद्यथा–
पिप्पलीन्द्रयवधायनितिक्तासारिवामलकतामलकीभि । विल्वमुस्तहिमफालनिसेव्याक्षयातिविपया स्थिरया च ॥ घृतमाशु निहन्ति माधित ज्वरमग्नि विषम हलीमकम् ।
अरुचि मृशतापमसयोर्वमथु पार्थशिरोरुज क्षयन् ॥ तत्र घृतसाधनात्पूर्व घृतमूर्छनप्रकारमाहपथ्याधात्रीविभीनर्जलधररजनीमातुलुगद्रवंश्च
द्रव्यरेत समस्तै पलकपरिमितैर्मन्दमन्दानलेन । आज्यप्रस्थ विफेन परिपचनगत मूर्च्छयेद् वैधवर्य
स्तस्मादामोपदेश हरति च सकल वीर्यवत्मीग्व्यदायि ॥ भै० म० ॥ ज्वरे दाहानन्तरमेव वृतप्रयोग यथा चरक – अत ऊर्च कफे मन्दे वातपित्तोत्तरे ज्वरे। परिपक्केषु दोपेषु मर्पिष्पान यथाऽमृतम् ॥
च० चि० ३॥ हिन्दी-हावभावादि कलाकुशल रनकले। काली सारिवा, सफेद सारिवा, आंवला, शालपर्णी, पिप्पली, कुटी, लालचन्दन, बेल, मुनक्का, प्रियगु, सस, पिठवन, अतीस, नागरमोथा, इन्द्रजी इन औषधियों ( का करक बनाकर करक से चौगुना घी, घी से चौगुना जल) से निर्मित घी का सेवन विषमज्वर, राजयक्ष्मा, शिरःशूल (अर्धावभेदक आदि), पसलियों की पीदा, अरुचि, सूजन, हलीमक (पांडरोग का एक भेद) इन रोगों का शमन करता है। ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः विशेप-“गोपी द्वयामलकी” इस समस्त पद का गोपीद्वय अर्थ, जैसा कि इस टीका में किया गया है, होता है। यदि इसका अर्थ “आमलकीय” किया जाय तो ग्रन्थान्तरों में इसके भी उदाहरण सुलभ है। तब इसका अर्थ आंवला-मुंह. भावला होगा। इन दोनों अर्थों से योग के लाभालाम पर कोई विशेप प्रभाव नहीं पड़ता। द्रव्यों के गुणधर्मों पर ध्यान दें।
चक्रपाणि द्वारा रचित चक्रदत्त में जहाँ यह विपय आया है वहीं भरोचक शब्द का ग्रहण नहीं किया गया है। आचार्य वाग्भट ने तो शब्दत उल्लेख किया है और हमें “वाग्भटस्य मतमस्ति समस्तम्” लोलिग्यराजकृत “वेद्यावतंस” श्लोक सं०५५ पर ही विशेष ध्यान देना है ॥ ८८॥
ज्वरे यमाध्यलक्षणानिऊमादितो यश्च दिनावसाने शीतार्दितो यश्च निशावसाने । हिकार्दितो यः कसनादितो यः स याति मृत्योरवलोकनाय ॥ ८९ ॥
व्याख्या-य ज्वररोगी दिनारसाने सायकाले ऊष्मादितो धर्मण पीडित स्यात् यश्च निशावसाने प्रात काले शीतादित. शीतेन पीडित स्यात् किंवा हिक्कादित. हिक्कामिरुपप्लुत स्यात् अथवा कमनादित कासेनोपद्रुत स्यात् म नृत्योरवलोकनाय मरणाय याति गच्छतीत्यर्थ । इन्द्रवज्रावृत्तम् । असाव्यज्वरलक्षणप्रसगे मुश्रुत
गम्भीरत्तु ज्वरो शेयो छन्तर्दाहेन तृष्णया।
आनद्धत्वेन चात्यर्थ श्वासकासोइमेन च ॥ सु० उ० ३९॥ अन्यच्च ज्वरेपूपद्रवा - कासो मूर्छारुचिरदिन्तृष्णातीसारविद्महा ।
हिक्काश्यासागमर्दाश्च ज्वरस्योपद्रवा दश ॥ हिन्दी-जो ज्वर रोगी सायकाल दाह से पीड़ित रहता हो और प्रात काल के समय शीत से पीड़ित हो तथा जिसको हिचक्यिा आ रही हो या जिसको खांसी का प्रवल वेग हो वह मृत्यु के दर्शनार्थ चला जाता है, अर्थात् मर जाता है ॥८९॥ ज्वरे दैवव्यपाश्रयचिकित्सावेदानां श्रवणं हि तस्य चरणं द्रव्यस्य संवर्पणं
कृष्णस्य स्मरणं शुभस्य करणं विप्रस्य सन्तर्पणम् । अश्वत्थभ्रमणं सुरत्नधरणं दीनस्य संरक्षणं
__ हन्यादष्टविधं ज्वरं कुमुदिनीनाथो यथोग्रं तमः ॥९०॥ व्याख्या-वेदाना श्रवणम् ऋग्यजु सामाथर्वणा किं वा पुराणादीनाम् आकर्णनं, हितस्य चरण पथ्याहारविहारादीना सेवन, द्रव्यस्य सवर्षण धनादिकस्य दान, कृष्णस्य स्मरण विष्णोर्नवधा भक्ति, शुभस्य करण नैमित्तिकमगवदुपासना, विप्रस्य सन्तर्पण ब्राह्मणस्य भोजनदक्षिणादिभि तृप्ति अश्वत्थभ्रमण पिप्पल वृक्षराजम्य प्रदक्षिणा, सुरलधरण ________________
प्रथमो विलासः
मणिमुक्ताहारकादीना विमिन्नप्रकारेण धारण, दीनन्य सरक्षण भिक्षुकादीना भोजनपानादिमि पालनम् एतत्समूहात्मक किं वा पृथक पृथक शुभकर्मकरणम् अष्टविधज्वर वातादिभेदेन त्रिविध द्वन्द्वजादिभेदेन विविध विदोपजम् आगन्तुज च इत्यष्टप्रकारक ज्वर तथा इन्याद् विनागयेद् यथा कुमुदिनीनाथ चन्द्रमा उग्रम् उत्कट तम अन्धकार नाशयति। ज्वरस्याष्टविधत्वे चरक -“अथ खल्बष्टाभ्य कारणेभ्यो ज्वर सजायते मनुष्याणाम् , तद्यथावाताद पित्ताव कफात्, वातपित्ताभ्या, पित्तकफाभ्या, वातपित्तश्लेष्मभ्य आगन्तोरष्टमात् कारणात् ॥ च०नि० अ०१॥ ज्वरोपचारो भावप्रकाशे–
तीर्थायतनदेवाग्निगुरु वृद्धोपसर्पणै । श्रद्धया पूजनश्चापि सहसा शाम्यति ज्वर ॥ तीर्थन् ऋपिजुष्ट जलम् । आयतन देवाधिष्ठित पुरुपोत्तमक्षेत्र श्रीशैलादि । यथा वाग्भट -
ओपधयो मणयश्च सुमन्या माधुगुरुद्विजदैवतपूजा।
प्रीतिकरा मनसो विषयाश्च प्रन्त्यपि विष्णुकृत ज्वरमुग्रम् ॥ उग्र भयङ्करम् उग्रकृतञ्च । उग्र कपदी श्रीकण्ठ इत्यमर । शीताभिप्रायो वैष्णवन्वर । उणाभिप्रायो माहेश्वरज्वर । शार्दूलविक्रीडितम् ॥
हिन्दी-वेद-पुराणों का श्रवण, पथ्य आहार विहार आदि का सेवन, यथाशक्ति दान, भगवान् का नामस्मरण, शुभकार्यों का करना, भोजन-दक्षिणा आदि से ब्राह्मणों की तृप्ति, पीपल की परिक्रमा, उत्तम रत्नों का धारण, दीनों की रक्षा, इन शुभकार्यों के करने से आठ प्रकार के (वातज, पित्तज, कफज, वातपित्तज, वातकफेज, पित्तकफज, सन्निपातज तथा आगन्तुज)ज्वरों का उस प्रकार विनाश हो जाता है जिस प्रकार चन्द्रमा के उदय से अन्धकार का ॥ १० ॥ प्रकारान्तरेण कथयतिसहस्रनेत्रस्य सहस्रबाहोः सहस्रवक्त्रस्य सहस्रमूर्ध्नः । सहस्रपादस्य सहन्ननाम्नः सहस्रनाम्नां पठनं ज्वरघम् ॥ ९१ ॥ व्याख्या-सहस्रनेत्रस्य दशगतनेत्रवत सहस्रबाहो सहस्रभुजयुक्तस्य सहस्रवक्त्रस्य सहस्रमुखस्य सहस्रमूर्न सहनशिरस सहस्रपादस्य सहस्रचरणस्य सहस्रनाम्न सहस्राभिधासमन्वितस्य सहस्रनाम्नां पठन जप रोगनाशकम् । उपेन्द्रवज्रावृत्तम् । यथाए विष्णुसहस्रनामस्तुतौ
भवत्यरोगो युतिमान् वल रूपगुणान्वित । रोगाों मुच्यते रोगात चरकेणापि तदेव प्रतिपादितम्विष्णु सहस्रमूर्धान चराचरपति विभुम् । स्तुवन्नामसहस्रेण ज्वरान्सर्वान् व्यपोहति ॥ ब्रह्माणमश्विनाविन्द्र हुतमक्ष हिमाचलम् । गगा मरुद्गणाश्चेष्टथा पूजयजयति ज्वरान् ॥ भक्त्या मातापितॄणा च गुरूणा पूजनेन च । ब्रह्मचर्येण तपसा सत्येन नियमेन च ॥
४ च०चि० ________________
५०
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः जपहोमप्रदानेन वेदाना श्रवणेन च । ज्वराद् विमुच्यते शीघ्र साधूनां दर्शनेन च ॥
च चि अ. ३ ॥ हिन्दी-हजार नेत्र, वाहु, मुख, शिर, चरण तथा नाम वाले विष्णु भगवान के सहस्रनामस्तोत्र का पाठ करने से ज्वरों का विनाश होता है ॥ ९१ ॥ पुनरपि तमेव कथयतिगणेश्वरो वा गरुडेश्वरो वा गौरीश्वरो वा दिवसेश्वरो वा। माहेश्वरी वा कुलदेवता वा सम्पूजनीया ज्चरिणा प्रयत्नात् ॥२२॥ व्याख्या-गणेश्वर गणेश वा गम्डेश्वर गरढम्य ईश्वर स्वामी विष्णु वा गौरीश्वरो वा गौर्या पार्वत्या ईश्वर पति शिव वा दिवमेश्वरो वा दिवस्य ईश्वर मूर्य वा महेश्वरस्य इय माहेश्वरी पार्वती वा कुलदेवता रोगिण इष्टदेवता वा ज्वरिणा रोगिणा प्रयत्नात् स्वगत्यनुसार सम्पूजनीया पूजयितव्या स्यात् ।
‘सोम सानुचर देव ममातृगणमीश्वरम् ।
पूजयन् प्रयत शीघ्र मुच्यते विषमज्वरात् ॥ च चि ३ ॥ मुश्शुतोऽप्याह- सम्पूजयेट द्विजान् गाश्च देवमीगानमम्बिकाम् ॥ म उ ३४ ॥
“आरोग्य मास्करादिच्छेत्”, अतो रोगिभ्यो मास्करस्योपामनाऽपि विहिता । उपेन्द्रवज्रावृत्तम् ।
हिन्दी-रोगी को गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य, देवी अथवा अपने कुलदेवता की यथाशक्ति पूजा एवं उपासना करनी चाहिये। इससे रोगमुक्ति होती है।
विशेष-महर्षि चरक ने ज्वर आदि सभी रोगों की विविध चिक्त्सिा का वर्णन निम्न प्रकार किया है-“त्रिविधमौपधमिति-देवग्यपाश्रय युक्तिव्यपाश्रयं, सत्वावजयश्च, तत्र देवंग्यपाश्रयं-मन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनाटि, युक्तिव्यपाश्रय-पुनराहारविहारोपधद्रव्याणां योजना, सरवावजयः-पुनरहितेभ्योऽर्धेभ्यो मनोनिग्रह । च सू अ ११-५२ ॥ उसमें भी सर्वप्रथम देवव्यपाश्रय का स्थान है। इसका उचित स्थान पर प्रयोग करने से आशातीत लाभ देखा जाता है। प्रणिपात का प्रयोग भिन्न-भिन्न देवता के प्रति धार्मिक बन्धनों के कारण होता है। शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि सम्प्रदायों के लोग उसी देवता की उपासना गुरुपरम्परा के अनुसार करते हैं, अतएव उक्त श्लोक में पृथक-पृथक देवताओं के नामों का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त यह भी देखा गया है कि सम्प्रदाय
रे और कुटदेवता दसरे भी होते हैं। यथा-शिव के उपासक का कुलदेव हनुमान । अतः सभी प्रकार के देवों का आराधन रोगी का कल्याण करता है ॥ ९२ ॥
…
देवनाने ________________
प्रथमो विलास
५१ ज्वरमुक्तावस्थाया वानिगुरुभोजनपानवाहनानि प्रमदास्तानतुपारवारिकोपान् । न भजेज्ज्वरवर्जितस्तु तावत्प्रभवेद् वह्निवलं चलञ्च यावत् ॥९३ ॥
व्याख्या–गुरुभोजन पाचकाग्नेरत्पवल्वानिषिद्वम् पानम् असात्म्य विरुद्ध च पान प्रततैलबसादीना पान सेवन वाहनानि यानानि आयासदायकत्वान्निपिद्धानि प्रमदा स्त्रीमेवन स्नान न्नपन तुपारपारिकोयान् शीतजनप्रयोगान् कोप च ज्वरवर्तितोऽपि ज्वरनुक्तोऽपि तावत् न भनेत् न सेवेत यावत वहिवल जाठराग्ने प्रदीप्तत्व तथा वल शारीरिक न्वामाविकज न भवेत । तत्रादौ विगतज्वरिणो लक्षणानि
विगतमलमनन्तापमव्यथ विमलेन्द्रियम् ।
उक्त प्रकृनिमत्वेन विद्यात् पुरुप मज्वरम् ॥ च चि ३॥ ममिर्लक्षणरुपेन विगतज्वरमपि रोगिण प्रनिषेधयेत् वर्जनीयपदार्थश्चिकित्सक । यथाह चरकसज्वरो ज्वरमुक्तश्च विदाहीनि गुरूणि च । अमात्म्यान्न्यनपानानि विरुद्धानि विवर्जयेत् ॥ व्यायाममतिचेष्टाश्च स्नानमत्यशनानि च । तथा बर शम याति प्रशान्नो न च जायते ॥ व्यायामन्त्र व्यवायज स्नान चक्रमणानि च । ज्वरमुक्तो न मेवेत यावन्नबलवान् भवेत् ॥
च चि ३॥ यथाह वाग्भट - त्यजेदाबललाभाच्च व्यायामस्नानमथुनम् ।
गुर्वमात्म्यपिटाद्यन्न यच्चान्य ज्ज्वरकारणम् ॥
न विज्वरोऽपि सहसा मर्वानीनो मवत्तथा ॥ अ हु चि अ १॥ मर्वान्नानि मक्षयति इनि मन्निीन । मालभारिणी वृत्तम् । हिन्दी-घी-तेल आदि से बने भोजन प्रतिकूल अन्नपान, वाहन (कप्टप्रद सवारियां), मेथुन अथवा म्बी सहवास, स्नान, शीतल जल आदि का सेवन तवतक ज्वर मुक्त रोगी को नहीं करना चाहिये जबतक उसकी जाठराग्नि प्रदीप्त न हो जाय और शरीर में स्वाभाविक चल की उत्पत्ति न हो जाय॥
विशेप-उपर्युक्त सभी पदार्थ नीरोग पुरुप के सेवन योग्य हैं। स्वस्थ पुरुप भी यदि इनका सेवन मात्रा से अधिक कर ले तो वह भी अस्वस्थ हो जाता है, तव अस्वस्थ की तो बात ही क्या? जहाँ प्रमदा शब्द का प्रयोग है वहीं स्त्री रोगिणी के लिये पुरुप सहवास निपिद समझना चाहिये ॥ ९३ ॥ इति श्रीमल्लोलिम्बराजविरचिते चमत्कारचिन्तामणी ज्वरप्रतीकारो
नाम प्रथमो विलास समाप्त । ________________
अथ द्वितीयो विलासः अथ ज्वरातीसारनागनो योग - कुटजातिविपाकिराततिक्तरमृताविश्वघनैः कपायकः। सकलज्वरनाशकारकः सकलातीमृतिनाशकारकः ॥ १॥ व्याख्या कुटज कलिंग तस्य त्वक् , अतिविपा विपा किरात भूनिम्ब तिक्त. कुटकी अमृता गुहची विश्व शुण्ठी धन मुस्ता एभि सप्तभिर्द्रव्य. निप्पादित कपाय. सकलज्वरनाशकर सम्पूर्णचरशमन तथा सकलातीमतिनाशकारक पविधातीसारशामको भवति, वियोगिनोवृत्तम् । एप योगो ज्वरे, अतिसारे च पृथक पृथग लाभकर भवतु नाम किन्तु अध्यायानुरोधेन ज्वरातीसारनागनोऽय विद्वटमिराम्नात । यथाह चक्रदत्ते चक्रपाणि -
नागरातिविपामुस्तभूनिम्बामृतवत्सकै ।
सर्वज्वरहर काय सर्वातीसारनाशन ॥ सामान्यचिकित्साक्रम - ज्वरातिमारिणामादी कुर्याल्लद्धनपाचने ।
प्रायस्तावामसम्बन्ध विना न भवतो यत ॥ भर ॥ हिन्दी-कुटज, अतीस, चिरायता, कुटकी, गिलोय, सौंठ, नागरमोथा इन सात द्रव्यों का साथ सम्पूर्ण अतीसारों का नाश करता है। ___ विशेष-उपर्युक्त योग में कुटज की छाल के स्थान में अन्य ग्रन्थकारों ने इन्द्रजौ (कुटजघीज) का ग्रहण करना लिखा है। किन्तु गुणधर्मों को देखने से ऐसा कोई महत्वपूर्ण अन्तर दोनों के बीच निघण्टुकारों ने नहीं लिखा है अधिकाश जो गुण इन्द्रजी के हैं वे ही कुटजत्वचा के है। केवल एक विशेष गुण “त्रिदोषन” अवश्य मिलता है। जिसकी साधारण ज्वरातीसार में कोई विशेष आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।
ज्वरातीसार के सम्बन्ध में एक विशेष स्मरणीय बात यह है कि ज्वरनाशक तथा अतिसारनाशक योर्गा का मिश्रण करके ज्वरातीसार रोग में कभी प्रयोग नहीं करना चाहिये, क्योंकि ज्वरनाशक ओषधिया प्राय मल का भेदन करती है और अतिसारनाशक ओपधिया मल को रोकती हैं मत दोनों के सिद्धान्त एवं कार्य परस्पर विरुद्ध होते हैं ॥१॥ ________________
द्वितीयो विलासः
५३
ज्यरातिसारे चन्दनादिकाथ
शीतोशीरकलिद्गवालकवृकीपद्माकधान्यामृता
भूनिम्बाम्बुदवालविल्बकवृपाम्तेन्द्रजैः साधितः । काथो माक्षिफसाक्षिको विजयते सर्वातिसारावरान्
हल्लानारुचिसर्वदाघवमिभिः सम्मिश्रितान् भो प्रिये ॥२॥ व्याख्या-भी प्रियेशीन रक्तचन्दनम् -शोर ननद कलिंग इन्द्रयव बालकनेत्रवाला की पाठा पाक पागन्धि ( पचान इनि मापायान) धान्या धान्यकम् अमृता गुडची निम्य किरात अग्युद मुन्ना बालविल्या विश्वकर्कटी (आमविल्वम् विपा अतिविपा नुस्ना मनमुग्गा ( मुस्तकम्यैव जानिर्भट ) इन्द्रज कुटजम् एमिश्चतुर्दशीपधिभि साधितो निमित, माक्षिकमाक्षिक मधुमिथित काय , महासेन उदयात्लेशेन, अरुच्या भोजनम्प्रति अनिच्या सर्वदाधेन सर्वप्रकारम्य दाहेन वमिभि वमन च सयुतान् सर्वातिसारान् पटविधातिनारान् स्याह नुश्रुन -“एकैमरा सर्वगश्चापि दोर्प योकेनान्य पष्ठ आमेनचोक्त” मु०७० अ० ४० ॥ ज्वरान् किना उपरउक्तान अतिमारान विजयते विनाशयतीत्यर्थ । ने दलासादय यदा मन्दृश्यन्ने नदा झटिनि तत्प्रतीकार कर्नव्य यतो हि ज्वरे अतिसारे च एतेपाम्प्रादुर्भाव उपद्रवरूपेण भवति । शार्दूलविक्रीटितम् । __हिन्दी-हे प्रिय ! लालचन्दन, यस, इन्द्रजी, नेवाला, पाठा, पमाख, धनियां, गिलोय, चिरायता, नागरमोथा, कच्चा वेल का गूदा, अतीस, भद्रमुस्ता, कुटज की छाल इन चौदह द्रव्यों से निर्मित मधुयुक्त हाथ जीमिचलाना, अरुचि, दाह, वमन आदि उपद्रवों से युक्त सभी प्रकार के ज्वरातिसारों का विनाश करता है ॥२॥
अतिमारे पञ्च मूल्यादिकारपञ्चानिवृक्यव्दवलेन्द्रवीजत्वक्सेव्यतिक्तामृतविश्वविल्वैः । काथ’ सर्लान् सवीन सकासायरातिसारान्नचिरानिहन्ति । व्यागया-पवाघ्रि लघुपञ्चमूल (शालपादि पमूलम् ) की पाठा अब्द मुस्ता बला याव्यालक इन्द्रवीजत्वक बीज च त्वक् च अनयो सगाहार इन्द्रवीजम् इन्द्रत्वक च सेव्यम् उमार तिक्ता कुटकी अमृता गुडूची विश्व शुण्ठी विल्बम आमश्रीफलम् एभि पञ्चदगद्रव्य साधित कपाय सर्लान् शूलयुक्तान् सवमीन् मिसहितान् सकासान् कासेनोपद्रुताम्ज्वरातिसारान ज्वरेण युक्तानतिसारान् अचिरात् शीघ्रमेव निहन्ति विनाशयतीत्यर्थ । इन्द्रपजावृत्तम् । आमविस्वपिपये भारमिन
फलेषु परिपक यद, गुणवत्तदुदाहतम् । विल्वादन्यत्र विशेयमाम तद्धि गुणाधिकम् ॥ ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः ___ अत विल्वपदेनात्र आमविल्वप्रयोगो विहित । एप एव योगश्चक्रदत्तेऽपि लभ्यतेतद्यथा
पन्नमूलीबालविल्वगुइचीमुस्तनागर पाठाभूनिम्बहीवेर कुटजत्वक्फलै शृतम् ॥ हन्ति सर्वानतीसारा ज्वरदोष वमिं तथा ।
सशूलोपद्रव श्वास कास हन्यात सुदारुणम् ॥ यत्तु पञ्चमूलीशब्देनान लछुपञ्चमूल्या प्रयोगो विहित तत्र विपये वृन्द -
पञ्चमूली तु सामान्याद् योज्या पित्ते कनीयसी ।
महती पञ्चमूलीति वातश्लेष्माधिके तथा ॥ हिन्दी-लघुपञ्चमूल, पाठा, नागरमोथा, बला, इन्द्रजी, कुटज, खस, कुटकी, गिलोय, सोंठ, कच्चा बेल की गुद्दी इन पन्द्रह द्रव्यों से निर्मित कपाय शूल, वमन, कास युक्त अतिसारों का शीघ्र विनाश करता है। विशेष-यह क्वाथ प्रायः सभी प्रकार के अतिसारों में लाभ करता है ॥३॥ उभयपञ्चमूलस्य ज्वरातिसारे प्राशस्त्यम्कफाधिके वा पवनाधिके वा द्वयाधिके वा गुरुपञ्चमूलम् । पित्ताधिकेस्याल्लघुपञ्चमूलं पुनः पुनः पृच्छसि किं मृगाक्षि ॥४॥
व्याख्या-हे मृगाक्षि । मृगस्य हरिणस्य अक्षिणीव अक्षिणी यस्या सा तत्सम्बुद्धी पुन पुन बारम्बार किं पृच्छसि १ कथ शङ्कसे, अर्थात् नि शहा भूत्वा त्वया कफाधिके श्लेष्मप्रधाने ज्वरातिसारे किंवा पवनाधिके वातोल्वणे ज्वरातिसारे अथवा द्वयाधिके उभयदोषवृद्ध ज्वरातिसारे गुरुपञ्चमूलम् महत्पञ्चमूलम् प्रयोक्तव्यम् । पित्ताधिके पित्तोत्तरे ज्वरातिसारे लघुपञ्चमूल कनीय-पञ्चमूलस्य प्रयोगो विधेय । गुरुपञ्चमूलस्य गुणा - पञ्चमूल महत्तिक्त कपाय कफवातनुत् ।
मधुर कासश्वासनमुष्ण लघ्वग्निदीपनम् ॥ लघुपश्चमूलस्य गुणा- पञ्चमूल लघु स्वादु बल्य पित्तानलापहम् ।
नात्युष्ण वृहण ग्राहि ज्वरश्वामाश्मरीप्रणुत् ॥ हिन्दी-कफप्रधान या वातप्रधान अथवा कफ-वातप्रधान (द्वन्द्वज) ज्वरातिसार में बृहत् पश्चमूल का और पित्तप्रधान ज्वरातिसार में लघु पञ्चमूल का प्रयोग करना चाहिये। हे मृगनयनी । इस शास्त्रसम्मत सिद्धान्त के बारे में तू वार-बार क्यों पूछती है ।
विशेष-अनेक स्थलों में लोलिम्बराज ने अपनी प्रियतमा रत्न कला को विदुपी कहा है और इनके इस सवादात्मक ग्रन्थ से ज्ञात भी होता है कि वह विदुषी रही होगी किन्तु इस पद्य में “पुन पुन कि पृच्छसि” वाक्य के द्वारा उसका मुग्धास्व अभिव्यजित किया गया है ॥ ४ ॥ उपेन्द्रषत्रावृत्तम् । ________________
द्वितीयो विलासः
५५
शोफातिसार क्रियाक्रम -
सदेवदारुः सविप’ सपाठः सजन्तुशत्रुः सघनः सतीक्ष्णः । सवत्सकः काथ उदाहृतोऽसौ शोफातिसारद्विपराजसिंहः ॥५॥ व्याख्या-एप देवदार्गदियोग शोफातिमारद्विपराजसिह शोफेन जात. अतिसार म पव द्विपराजो गजराज तस्य विनाशाय सिंह एव । सदेवदारु पूतिकाष्ठसहित सविप अनिविपाममेत मपाठ अम्बष्ठयायुक्त सजन्तु शत्रु विटट्नेन सह सघन मुस्तकेन साक मतीक्ष्ण मरिचेन मम सवत्मक कुटजेन सार्धम् उदाहृत कथित असो वर्ण्यमान काथ शोफातिमार जयतीत्यर्थ । इलोकेऽस्मिन् मर्वत्र “सदृश्य म स्यात्मशायाम्” इत्यनेन सहम्य मादेश । चक्रदत्ते योगोऽय विटगादिकाथनाम्नालिमित , तद्यथा
विटातिविपामुस्तदारपाठाकलिङ्गकम् ।
मरिचेन समायुक्त शोथातीसारनाशनम् ॥ भावप्रकाशेऽपि- शोथनीन्द्रयवी पाठा श्रीकलातिविषाधना ।
कथिता सोपणा पीना शोथातीसारनागना ॥ एप गोथातिमार पटविधेष्वतिसारेपु नर गण्यते किन्तु आमातिमारे मूर्खभिपजा प्रयुक्तम्य मग्राहकोपधिरूपो विकार । यथाह भावमिश्र -
नामे मग्राहक दद्यादतिमारे कदाचन ।
सगृहीतो बलादामो विकारान् कुरते वहन् ॥ वडा भेषजबलात् , नत्र विकारा-ग्रहण्याध्मानशूलगुत्मशोधोदरज्वरादय । आनदर्पणे यद्यपि शोफानिसार असाध्यश्रेण्या पठित , यथा
शोय शुल ज्वर तृष्णा काम वाममरोचकम् ।
छदि मूच्छी च हिक्का चहियातीसारिण त्यजेत् ॥ तथापि यदि रोगी जिनेन्द्रिय चिकित्साया चतुप्पादसमन्वित यवा मन्दाग्निरहित स्यात तटा पप देवढार्वाटिकाथ प्रयुक्तरचेद रोगिणे जीवन भिपजे साफल्य च प्रयच्छतीति ग्रन्थकर्नुरागय । उपन्द्रवज्रावृत्तम् ।
हिन्दी-हे प्रिये । देवदारु, अतीस, पाठा, वायविडग, नागरमोथा, काली मिरच, कुटज की छाल हन सात द्रव्यों से निर्मित काय शोथज अतिसाररूपी गजराज का विनाश करने के लिये सिंह के समान समर्थ है।
विशेप-वेंद्यवर लोलिम्वराज ने अपने द्वारा रचित “वंधजीवन” नामक दसरे चिकित्साग्रन्थ में इस योग का प्रयोग “शोकातिसार” के लिये लिखा है। जब कि उसकी चिकित्सा भावमिश्र के अनुसार निम्नलिखित प्रकार से होनी चाहिये ________________
५६
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः भयशोकमगुदभूती ।यो वातानितारवर ।
तयोरांनए कार्याणाशामने किया। किन्तु इस ग्रन्थ में “शोफातिसारद्विपराजसिंह “, लिपफर उन्होंने यह स्वीकार किया है कि यह योग शोथज अतिसार के लिये है, यही अन्य भाचार्यों का भी सम्मत मत है ॥५॥
अतिसारे धान्यादिकाय - प्रौढे यौवनगर्विते प्रियतमे धान्येन किं किं श्रिया
कि विश्वेन पयोधरेण तव किं किं घालकेनापि में। शात्वा मोहमयी प्रपञ्चरचनां गोपीपति ध्यायतो
___ऽत्तीसारोऽग्निशमामलनिकरो धान्यादिभिः क्षीयते ॥६॥ व्याख्या में प्रोटे नवोदयौवनेऽन एव यौवनगविने यौवनेन तारुण्यमदेन गविते मत्ते, प्रियतमे प्राणवल्लभे। मोदमयी मोहनात्मिका प्रपयरचना जगत सृष्टिं शात्वा विचार्य गोपीपति राधाकृष्ण ध्यायतोऽभ्यर्चयत मे मम धान्येन धनेन ब्रीखादिना किं व्यर्धमेव, श्रिया लक्ष्या किं, विश्वेन मसारेण किं. नव पयोधरेण पीनोन्नतस्तनयुगलेन किं वालकेन पुत्रेणपि किंम् अर्थात् एनत् सबै व्यमिति, भक्तिपक्षे। चिकित्सापक्षे तु-धान्येन धन्या. केन । श्रिया आमविल्वेन विश्वेन शुण्या, पयोधरेण मुस्तकेन बालकेन हीवरेण साधितेन निर्मितेन चूर्णेन वा काथेन अतीसार मलातिनुति अग्निशम मन्दागि आन आमातिसार शूल च एनेपा निकर क्षीयते । धान्यपदेन साहित्ये सप्तदशधान्याना प्रणम्
बीहिर्यवो मसरो गोधूमो मुद्गमापतिलचणका । अणव प्रियमुकोद्रवमकुष्ठा शालिकाध्य ।
कित कलायकुलत्यो शणश्च सप्तदश धान्यानि ॥ कोप ॥ चक्रपाणिरप्येन समर्थयति-धान्यक नागर मुस्त वालक विल्यमेव च ।
आमशूलविवन्धन पाचन पक्षिदीपनम् ॥ चक्रदत्ते॥ हिन्दी-यौवन के मद से मदमत्त युवती प्रियतमे। इस संसार को मोहमयी रचना समझने वाले तथा श्रीकृष्ण के भजन में तल्लीन मेरे लिये क्या धन-धान्य, क्या लघमी, क्या संसार, क्या तुम्हारे स्तनयुगल, क्या बालक-बालिकायें आदि सभी व्यर्थ हो गये हैं। यह अर्थ भक्तिपत का है। चिकित्सा पक्ष में इसका अर्थ निम्नलिखित है-हे प्रियतमे । धनियां, बेल की गिरी, सोंठ, नागरमोथा नेत्र. वाला इन पाँच द्रव्यों से बना हुआ चूर्ण अथवा क्वाथ अतिसार, अग्निमान्य, आमदोप तथा शूल इनके समूह को नष्ट करता है। शार्दूलविक्रीडितम् । ________________
५७
द्वितीयो विलासः विशेष-आचार्य उल्हण का कथन है कि अतिसार में जहाँ काठोपधियों को द्रवरूप में देने का विधान है वही द्रव की मात्रा अधिक नहीं होनी चाहिये अपितु काध्य द्रव्यों को चूर्णरूप में देना अधिक हितकर होता है। अतएव उक्त पद्य में चूर्ण एवं क्वाथ का उल्लेख न होने के कारण यहाँ दोनों अर्थ तथा आचार्य ढल्हण का अभिमत भी प्रस्तुत कर दिया है ॥ ६ ॥ पितातिसारे फाथ -
धान्याम्वन्दथियां पित्तजातिसारो निवार्यते ।
केनाऽत्र ज्ञायते कर्ता त्वां विना विमलानने ॥ ७ ॥ व्याख्या-धान्य धान्यकम् अम्बुडीवरम् अन्द मुस्तक श्री आमविल्वम् एपा चतुर्णी केन जलेन पिप्तातिसार निवार्यने दरीक्रियते । हे विमलानने ! विमल न्यच्छन्यटग्यादिकर करदितम् अत एव निर्मलम् आनन मुख यम्या सा तत्सम्बुद्धी, त्वा विना अन पधे केन कर्ता शायने । इत्यत्र चिकित्साव्यपदेशेन कर्तृगुप्तपद्यम्य रचना कृतवान् कवि लोरिम्बराज । अस्मिन् पये रलकलाया चिकित्साशानादृते व्याकरणस्य शानेऽपि प्रोदि अनुमीयने । अनुष्टुप्छन्दः।
हिन्दी-धनिया सुगन्धवाला, नागरमोथा, कच्चे येल की गिरी इन चार द्रव्यों के जल (काथ)से पित्तातिसार का शमन होता है। इस पद्य में फर्ना गुप्त है, हे-सुन्टरमुखी । उसको तुम्हारे बिना कोई नहीं जान सकता।
विशेष-हम पद्य का मूलपाठ “वुधान्यान्दांश्रिया” है जो प्रयोग की तथा व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है। प्रन्यकर्ता के अभिप्राय तथा ग्रन्थान्तरों के दृष्टिकोण के अनुसार उक्त पाठ को “धान्यायव्दश्रिया” इस प्रकार ठीक किया गया है। इस पद्य के निर्माणकाल में अन्यकर्ता की प्रवृत्ति चिकित्सानिर्देश के साथ-साय चित्रकाव्य की ओर झुकी प्रतीत होती है। अतएव यहाँ कर्तृगुप्त पद्य को प्रस्तुत किया है॥७॥ अनिसारे मोचरसादिचूर्णम्मोचरसौपधवत्सकरोफ्रेविल्वपयोदमदाकुसुमैश्च ।
चूर्णमिदं गुडतक्रनिपीतं हन्त्यचिरादतिसारमुदारम् ॥ ८ ॥ व्याख्या-मोचरस शारमलीनिर्यास ओपध गुण्ठी वत्सकम् इन्द्रयव रोध गालव विल्वम् आमश्रीफल पयोद मुस्ता मदाकुसुम धातकीपुष्पन् एभि मप्तभिव्यै कृत चूर्ण गुटेन सयुत यत तक तेन निपीत तक्रेण सह सेवितम् उदारम् उग्र पुरातन प्राचीनम् अतिमारम् शीवमेव इन्ति विनाशयति । यथाह मावमिश्र । ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
मुस्तावत्सकबीज मोचरसो विल्वधातकीलोधम् ।
गुटमथित प्रयुक्त गङ्गामपि वेगवाहिनी कन्ध्यात् ॥ तदेव भैपज्यरलावल्याम्-विल्वान्दधातकीपाठाशुण्ठीमोचरसा समा ।
पीतारुन्धन्त्यतीसार गुढनक्रेण दुर्जयम् ॥ हिन्दी-मोचरस, सोंठ, इन्द्रजी, लोध, कच्चे वेल का गूदा, नागरमोथा, धाय । के फूल इनके चूर्ण को गुड़ और मठा के साथ सेवन करने से शीघ्र ही भयकर अतिसार शान्त हो जाता है। दोधकवृत्तम् ॥
विशेष-अन्य ग्रन्थकारों ने इस योग के गुणों से प्रभावित होकर यहा तक लिख दिया है कि अतिसार को रोकना तो कौन बड़ी बात है, यह योग तो बहती गगा को भी रोक सकता है । इसमें अतिशयोक्ति अलकार है ॥ ८ ॥ अतिसारे शुण्ट्यादिचूर्णन्कल्याणि कल्पलतिके ललिताङ्गयो ।
___हस्ते विलोलकमले ! ललने । शृणु त्वम् । शुण्ठीमदाकुसुममोचरसाजमोदा
स्तक्रान्विताः प्रशमयन्त्यतिसारसारम् ॥ ९ ॥ व्याख्या-हे कल्याणि! शुभगुणयुक्त। कल्पलतिके तद्वत् इच्छापतिकारिणि ललितागयष्टे ललिता शोभना अगष्टि यस्या सा तत्सम्युद्धौ हस्ते करे विलोलकमले विलोल विशेपेण चन्चल कमल पम यस्या सा तत्सम्बोधने, इत्थभृते लने प्रिये त्वम् शृणु मद्वाक्यमाकर्णय-शुण्ठी महीपध मदाकुमुम धातकीपुष्प मोचरस शाल्मलीनिर्याम अजमोदा उग्रगन्धा चूर्णीकृता एते पदार्था तक्रान्विता तक्रेण सह सेविता अतिसारस्य रोगविशेषम्य सार मलम् प्रशमयन्ति स्थिरीकुर्वन्ति । वसन्ततिलकावृत्तम् । ___हिन्दी-हे कल्याणि क्ल्पलता के समान इच्छाओं को पूर्ण करने वाली सुन्दर शरीर से शोभित कमल को हाथ में लेकर घुमाने वाली प्रिये । तुम सुनो, सोंठ, धाय के फूल, मोचरस, अजवायन इन ओपधियों के चूर्ण को मठा के साथ सेवन करने से भीपण अतिसार शान्त हो जाता है ॥९॥
आमलकीचूर्णप्रयोग - भो वैद्यनाथा \। यदहं ब्रवीमि तद् यस्य कस्यापि पुरो न वाच्यम् । भूधात्रिकाया रज एकसेव दध्नान्वितं हन्त्यतिसारजालम् ॥१०॥
व्याख्या-रत्नकला स्वपति लोलिम्बराजम्प्रति अतिसारचिकित्सामाह-मो वैद्यनाथा सन्बोधनेनानेन तात्कालिकवैपु अस्य श्रेष्ठत्वमनुमीयते, यदह ब्रवीमि तद् उच्यमानं वच यम्य कस्यापि पुर कुपात्रस्याऽग्रे न वाच्य न कथनीयम् । अथ सा कथयति-एकमेव ________________
द्वितीयो विलास
५६
भूधाविकामा भून्यामलक्या रज चूर्ण दानान्वित सेवित सत् अतिसारजालम् अतिसारसमूह हन्ति पिनाशयति । अन भूधारिकापट विचारणीयम्-भूधात्रीपदेन भृम्यामलकीग्राीतव्या आदोम्वित् कोवलम् आमलका, यतोहि आमलकी भूम्यामलक्या अपेक्षया गुणवत्तरा, तयथा– एन्नि पात तदम्लत्वात् पित्त माधुर्यशैत्यत’ ।
कफ रुक्षकपायत्वात्फर धायात्रिदोपजित् ॥ भा प्र ॥ भूम्यामलक्या गुणा - भूधारीवातकृत्तिक्ता फषाया मधुरा दिमा।
पिपासाकासपित्तात्रकपकण्डक्षयापहा ॥ तदेव ॥ हिन्दो-रत्नकला अपने पतिदेव से कहती है-हे वैद्यराज । जिस योग का वर्णन में आप से कर रही हूँ उसको किसी (अयोग्य व्यक्ति) से मत कहिये, भुहआंवला का चूर्ण दही में मिलाकर चाटने से सम्पूर्ण अतिसारों का शमन हो जाता है । इन्द्रवत्रावृत्तम् ॥ १० ॥ अतिसारो घ्यामाप्रयोग -
अतिसारप्रशमनी परमानन्ददायिनी ।
वृद्धिदा तनुवर्षोंश्च श्यामा श्यामेव शोभते ॥ ११ ॥ ध्यापया-दयामा गुणवती कान्ता तल्लक्षणानि यथा
ध्यामा गुणवती कान्ना प्रिया मधुरभापिणी।
रतेपु धृष्टा या नारी मा स्त्री वृप्यतमा मता ॥ शोभते काम ध्यामेव पोटशवापिकी स्त्रीव कथम्भूता सा परमानन्ददायिनी मान मोल्लामकारिणी पुन कथम्भूता मा अतिमारप्रशमनी अत्यधिक सार अतिसारो वल तम्य प्रशमनी प्रकर्षण विनामयित्री, यथोक्त तन्त्रान्तरे-“सद्योबलहरा नारी”, पुन कथम्भूता मा अननुवाश्च वृद्धिढा अतनु काम अनग तस्य वहे वृद्धिदा वर्धयित्री कामाग्निवधिनी । इति उलेपप्रतिभोत्यापितोऽर्थ ।
चिकित्सापक्ष-स्यामा प्रियगु झ्यामा इव कृष्णमारिवा इव शोभते कथम्भूता श्यामा अतिमारप्रशमनी अतिमाररोगविशेषमामिका, अत एव परमानन्ददायिनी नीरोगकर्तृत्वात्, तथा तनुवहेश्च वृद्धिदा तनुश्वासी वहि मन्दाग्नि तरय वृद्विदा प्रदीपयित्री, अथवा तनुस्थिती वहि जाठराग्नि तस्य वर्धयित्री। तत्र प्रियजगुणानाह
प्रिया शीतला तिक्ता तुवराऽनिलपित्तदत् । रक्तातियोगदौर्गन्ध्यस्वेददाइज्वरापहा ॥
वान्तिनान्त्यतिसारनी रक्तजाव्यविनागिनी । निघण्टु ॥ कृष्णमारिवागुणानाह- सारिवायुगल स्वादु स्निग्ध शुक्रकर गुरु ।
अग्निमान्यारचिश्वासकासामविपनाशनम् ॥ दोपत्रयानप्रदरज्वरानीसारनाशनम् ॥ तदेव ॥ ________________
वैद्यक चमत्कारचिन्तामणिः “लोकाल्पधुरतका सूक्ष्म शरण दा कम तनु”, “त्यग्देहयोरपि तनु”, उगयया प्यमर , अम इलेपालदार , अनन्ययानदारश्च ॥ अनुष्टपयन्द ।
हिन्दी-अतिसार का शमन करने तथा मन्दाग्नि को प्रदीप्त करने के कारण परम आनन्द को देने वाली श्यामा=प्रियंगु अथवा मारिवा उस ज्यामा पोडशी की भाति है जो सामदेव को प्रदीप्त कर महवार के कारण बल-वीर्य को घराने के साथ-साथ परम आनन्द का अनुभव कराती है ॥29॥ अभिवर्धकोनीमारनाशकश्श योग -
पुटपाकविपाचितारलुत्वगसहीतहुनाशदीपनी ।
मधुमोचरसप्रयोजिता सहसाऽतिम्रतिनाशकारिणी ॥ १२ ॥ त्यागया-पुटयाकविपाचिना पुटपाकविधिना पाचिता अग्लुवक श्योनाकन्वक् मधुमोचरसप्रयोजिता मधना क्षीण मोचरसेन शाल्मलांवेष्टन सता मती मासा झटिति असद्दीप्तताशदीपनी न महीनो न मम्यग्वधितो यो हुताशो जाठराग्नि तस्य दीपनी तथा अतिम्रति अतिसार तस्य नाशकरिणी च । अतिमारे स्वभारत अग्नि मान्य गच्छति त प्रदीप्यैपा अरलुत्वक अतिमार विनाशयतीत्यर्थ । उक्तज गाधिरसहिताया
अरलुत्ववकृतश्चैव पुटपाकोऽग्निदीपन ।
मधुमोचरमाभ्यान युक्त मातिसार जित् ॥ सुचते किशिविशिष्याह- त्वपिण्ट दीर्घवृन्नम्य पथ सरसयुतन् ।
काश्मरी पमपश्चावेष्टय सूत्रेण महढम् ॥ मृदावलिप्त सुकृतमहारष्ववकूलयेत् । स्विन्नमुद्धृत्य निप्पीन्य रसमाढाय स तत ॥
शीत मधुरत कृत्वा पाययेतोदरामये । उ अ ४० अथ पुटपाकप्रकार - पुटपाकस्य मात्रेय लेपस्यादरवर्णता ।
लेपन दयाल स्थूल कुर्याद वाठमानकम् ॥ काश्मरीवटजम्यादिपर्वेष्टनमुत्तमम् ।
पलमात्र रसो ग्राह्य कर्पमात्र मधु क्षिपेत् ॥ हिन्दी-पुटपाक विधि से सोनापाठा (टैण्टु) का रस निकाल कर उसमें मोचरस और मधु मिलाकर सेवन करने से मन्द अग्नि प्रदीप्त होकर अतिलार का शमन हो जाता है । वियोगिनीवृक्षम् ॥ १२ ॥ जीर्णातिसारनाशनो योग - आम्रास्थिलोध्रवृकियष्टिकलिद्गवीज
कवंगपुस्तकमदातिविषांवुविश्वैः । ________________
द्वितीयो बिलास जम्बूफलामलकविल्वयुतैश्च चूर्ण
जीर्णाखिलातिसृतिहारि सतण्डुलाम्बु ॥ १३ ॥ घ्याण्या-आम्राम्यि आम्रवीज, तटगुणानाह
आम्रवीज कपाय न्याच्छर्यतीमारनाशनम् ।
ईपदम्र च मधुर तथा हृदयदाहनुत् ॥ निघण्टु । सोध रोध यूको पाठा यष्टि मधुयष्टि कलिगवाजम् इन्द्रयव कटवन इयोनाक मुम्तकं मुम्ना मदा धातकी अनिविपा विषा अम्बु हीदेर विश्व शुण्टी जम्बूफल जाम्यवम् आम रक धात्री विल्यम् आमविचम् एनेपा द्रव्याणा चूर्ण तण्डुलान्युना सह सेविन जीर्णासिलातिननिहारि सविधजीर्णातिसारविनाशकारि प्रदिष्टम । एप योग भैषज्यरत्नावलीस्थस्वल्पगनायरचणेन मह प्राय साम्य भजते, तद्यथा
मुम्तमैन्धयशुण्ठीभिर्थातकालोधवत्सके । विरवमोचरसाभ्याच पाठेन्द्रयववारकै ॥ आम्रवीजमतिविषा लज्जाचेति सुचूर्णितम् । क्षौद्रतण्डुलतोयाम्या जयेत् पीत्वा प्रवाहिकाम् ॥
सर्वातीमारशमन मर्वशूलनिमूदनम् ॥ हिन्दी-आम की गुठली, पठानी लोध, पाठा, मुलेटी, इन्द्रजी, सोना पाठा, नागरमोथा, धाय के फूल, अतीम, हाऊबेर, सोंठ, जामुन की गुटली, आवला, कच्चे बेल का गूदा इन सब का फूट पीसकर कपड़छान चूर्ण कर ले। इस चूर्ण का चावल के धोवन के साथ सेवन करने से सब प्रकार के पुराने अतिसारों का विनाश हो जाता है । वसन्ततिलकावृत्तम् ॥ १३ ॥ रक्तातिसारे उशीरादिकाय - वाले कोमलकुन्तलेऽमलकुले केलीकलालालसे
मालामालिनि कोकिलावलिकलालापे विलासाचले। चञ्चत्कुण्डलमण्डले विजयते रक्तामशूलान्वितं
सोशीरं कुटजाव्दविल्बकविपोदीच्यैः कपायः कृतः ॥१४॥.. व्याख्या-सोगीरम् उशीरेण नलदेन सहित कुटज वत्सक अब्द मुम्ता विल्वकम् आम्रविल्व विपा अतिविपा उढीच्य हीवरम् एभि पनि द्रव्ये कृत कपाय रक्तामझूलाचितम् अतिसार विजयते विनागयति । योगम् उक्त्वा वाला विशिष्टि- हे वाले उघदयोवने कोमलकुन्तले कोमला च ते कुन्तला यस्या सा तत्सम्बुद्धी, अमलकुले निर्मलवशवति, केलीकलालालसे कामक्रीटाभिलापिणि, मालामालिनि मौक्तिफै किंवा पुष्पादिसग्मि सुशोभिते कोकिलावलिकमालापे कोकिलानामावलि पक्ति तस्या कल मधुरम् ________________
६२
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
आलाप पक्षिविराव तद्वन् मधुरभापिणि, विलासाचले हावभावादिभि समृद्धे, चचत् कुण्टलमण्टले चञ्चले तरले कुण्टलयो कर्णाभूपणयो मण्टले चक्रवाले यस्या मा तत्सम्बुद्धी इत्यभूते हे वाले एप उशीरादिक कपाय रक्तातिसार विजयते । मुश्रुतोऽप्याह
विल्माक्रयवाम्भोदवार कातिविपाकृत ।
कपायो हन्त्यतीसार साम पित्तममुद्भवम् ॥ तु० उ० ४० ॥ चक्रपाणिरपि चक्रवत्ते–मवत्मक सातिविप सयित्व सोढीच्यमुस्तश्च कृत कपाय ।
मामे समूले सहशाणिते च चिरप्रवृत्तेऽपि हितोऽतिसारे ॥ हिन्दी-निर्मलकुल में उत्पन्न घुधुराले वालों से युक्त हास्यादि कला में प्रवीण मणिमुक्ता आदि की मालाओं से विभूपित कोक्लिा के समान मधुरभापिणी हावभावादिविलासों से सम्पन्न चञ्चल कुण्डलों से अलकत हे निये। निम्नलिखित द्रव्यों द्वारा निन्द्ध किया हुआ हाथ रक्तातिसार, आमातिसार, तथा शूल (मरोड़) युक्त अतिसार का शमन करता है। क्वाध्य द्रव्य-खस, कुरैया की छाल, नागरमोथा, कच्चे बेल की गिरी, अतीस और नेत्रवाला । शार्दूलविक्रीडितम् ।
विशेष-कुटज शब्द से रक्तातिसार तथा ज्वर में इन्द्रजौ का ग्रहण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त कुटज की छाल का प्रयोग होना चाहिये। एतदर्थ इसके गुण-धर्मों पर ध्यान दें ॥ १४ ॥ अथ चन्दनकल्क
चन्दनं विमलतण्डुलाम्बुना संयुतं मधुयुतं सितायुतम् । तृड्विखण्डनमसृगविखण्डनं खण्डनं प्रचुरदाहमेहयोः ॥ १५ ॥
व्याख्या-विमलतण्इलाम्वना निर्मलाना तण्डुलाना शारिपष्टिकादीनाम् अम्युना धोतजलेन महित घृष्ट चन्दन श्वेतचन्दन मधुरत सिनायुत क्षीद्रशर्करामिश्रित सेवित सत् तृविखण्टन तृट् तृपा तस्या विसण्टन शमनम् असृग्विखण्टन रक्तातीसृतिनागन खण्टन प्रचुरदाइमेहयो प्रचुरी प्रवृद्धी यी दाहमही दाह ऊष्मा मेह प्रमेह नयो खण्टन करोतीत्यर्थ । यथाह-भावमित्र - पीत मधुसितायुक्त चन्दन तण्डुलाम्बुना ।
रक्तातीमारजिद्रपित्ततृटदाहमेहनुत् ॥ हिन्दी-घिसे हुए सफेद चन्दन का चावलों के धोवन में मयु एव मिश्री मिलाकर सेवन करने से तृपा (प्यास) रक्तातिसार दाह तथा प्रमेह की ‘शान्ति होती है। रथोद्धतावृत्तम् । विशेष-यदि पित्तज अतिसार होतो सफेद चन्दन का उपयोग, रक्तजअतिसार
। और यदि रक्तपित्तातिसार हो तो दोनों चन्दनों का -साथ-साथ व्यवहार करना चाहिये ॥ १५॥ ________________
द्वितीयो विलासः
६२
ममधुजलप्रयोग -
जयति जीवनदायकजीवनं समधु शीतलमुत्पललोचने ।
अतिसृती गुणगौरवगर्विते परवधूगमनं शुचितां यथा ॥ १६ ॥ व्याया- गुणगौरवगविने गुणानां मौन्दर्यादीना गौरवेण महत्त्वेन गविन प्रमत्ते तथा च उत्पलगेचनने कमलनेन शीतल दीत्ययुक्त जीवनदायक जीवन ददातीति यत् जीवन जल नव’ समधु मधुना महममेश्य अतिमता अतिमाररोगान् तथा जयति यथा परवगमनम् अन्यागनाउमक्ति शुचिता पवित्रतान् । यया परवधूगमनगीलस्य पुस पवित्रविचारधाग प्रणम्यनि नथैवप योगोऽनिसार जयतीत्यर्थ । तन जलस्य गुणा -
पानीय श्रमनाशन कृमिघर मूच्छापिपासापह तन्द्रान्छदिविवन्धहर, चलकर निद्राएर तर्पणम् । दूध गुप्तरमजीर्णामक नित्य हित शीतल
सयच्छ रमकारण निगदित पीयूपवज्जीवनम् ॥ १०नि० ॥ हिन्दी-अपने सौन्दर्यादि गुणों से गर्वित तथा कमल के ममान सुन्दर नेत्रों वाली प्रिये । प्राणों की रक्षा करने वाले जल का मधु मिलाकर सेवन करने वाला अतिमार का रोगी शीत्र ही उस प्रकार उक्त रोग से मुक्त हो जाता है जिस प्रकार च्यभिचारी पुस्प पवित्रता मे । द्रुतविलम्बित वृत्तम् ॥ १६ ॥ अनिसार मुस्ताजलप्रयोग
अये घनवनस्याम्य मधुयुक्तस्य सेचने ।
सातिसारी नरो योऽम्ति सोधिकारी भवेत् सुखी ॥ १७ ॥ प्याख्या-अये । ति रत्नकलाम्प्रति सम्बोधनम् , घनवनस्यास्य घन मुम्ता वन जल तस्य मधुक्ताम्य पु परमममधिनस्य अभ्य मेवने य अतिसारी अतिसाररोगान् नर अधिकारी अम्ति स मुग्गी भवेत् । अय तात्पर्यार्थ -मुरताजलस्य सेवनेन अनिसारनिवृत्तिभवतीति । अये । प्रेयसि । मधुयुक्तरय वामन्तीसपमारिलमितस्य अस्य घनवनम्य घन च तद वन तम्य निविटीचानस्य सेवने य अत्यधिक सार बल यग्यास्तीति अतिसारी नेन मह चर्वते इति सातिमारी अत्यधिकवीर्यवान् नर पुमान अन्ति स अधिकारी भवेत् मुनी म्यार । इत्यपरोऽयं । इलपालबार । यपात्र पंचरण केवल मुरताजलप्रयोगो विहिन , न तथा वाग्मटे तन तु मुस्लाकाथमुस्ताक्षीरप्रयोगी निर्दिष्टीप्रथम मुम्ताकाथ - “मीस्त कपायमेक वा पय मधुममायुतम् ॥ नु उ ८० ॥ गुन्नाक्षीरन
“पयम्युत्स्वाध्य मुरताना विशति ग्रिगुणम्भसि।
क्षीरावशिष्ट तत्पीत न्यादामसमीरणम् ॥ या चि ०॥ अन पर्यायपरिकल्पनावलेन एपोऽपि योग मुस्ताक्षीरामिधान स्यात । यथा-वनशब्द ________________
६४
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
जलवाची जलमेव पय शय्देन व्यवहियते यस्यार्य दुग्धम् अन बनशब्द. परम्परया दुग्धवाची म्वीक्रियेत चेत् “मुस्ताक्षीर” प्रयोगस्य सिद्धि साधु सम्भवति । तस्यविधिर्यथा
द्रन्यादष्टगुण क्षीर क्षीरातोय चतुर्गुणम् ।
क्षीरावशेप कर्तव्य क्षीरपाके त्वय विधि ॥ अत्र प्रयोगाय केवल छागीदुग्धमेव ग्रामम् । तस्य गुणा -
छाग कपाय मधुर शीत ग्राहि तथा लघु ।
रक्तपित्तानिसारन्न क्षयकामज्वरापहम् ॥ भावप्रकाशे ॥ मुश्रुतोऽप्याह- यथामृत तथा क्षीरमतिसारेपु पूजितम् ।
चिरोत्थितेषु तत्पेयमपा भागनिमि शृतम् ॥ नु उ ४० ॥ चक्रपाणिरपि- जीर्णेऽमृतोपम क्षीरमतिसारे विशेषत ।
छाग ततॊपजे सिद्ध देय वा वारिसाधितम् ॥ चक्रदत्ते ॥ हिन्दी-हे प्रिये । नागरमोथा का जल (काथ) यदि मधु मिलाकर सेवन किया जाय तो वह अतिसार का रोगी अपने रोग से मुक्त हो जाता है। मनुष्टप।
विशेष-यदि हम इसको वाग्भट के अनुसार “मुस्ताक्षीर” मान लेते है, तो इसका प्रकार निम्नलिखित होगा। नागरमोथा की जड़ २ तोला, बकरी का दूध १६ तोला, जल ४८ तोला इन सबको मिलाकर पकाने के बाद जब दूध मात्र शेष रह जाय तो उतारकर छानकर इसका सेवन करना चाहिये ॥ १७ ॥ रक्तातीमारनाशका योगा - त्वचो रसालार्जुनसल्लकीनां प्रियालजम्बूवदरीद्रुमाणाम् ।
पृथक्पृथड्माक्षिकदुग्धयुक्ता रक्तापहाः स्युर्द्विजराजकन्ये ॥१८॥ व्याख्या-हे द्विजराजकन्ये । द्विजराज चन्द्र , यथाह अमर “द्विजराज शशधर ।” तम्य कन्यै पुनि तदाकारत्वात्तादृशसौन्दर्ययुक्ते रत्नकले, (न चेय चन्द्रमुता अपि तु सौन्दर्यादिगुणभूयिष्ठत्वादस्या चन्द्रसुतात्वारोप )। रसाल सहकार अर्जुन ककुमः सल्लकी गजमक्ष्या प्रियाल राजादन जम्बू जाम्बवतरु वदरी कर्कन्धु एतेषामोपधवृक्षाणा त्वच माक्षिक क्षौद्र दुग्ध छागपय आन्या सह पृथक पृथक् प्रयुक्ता. सत्य रक्तापहा स्यु रक्तातिसार जयेयु । ग्रन्थका एकस्मिन्नेवास्मिन् पये पड्योगा. वर्णिता । उपेन्द्रवज्रावृत्तम् । __हिन्दी-हे चन्द्रमा के सदृश सुरूपरत्नकले । आम, अर्जुन, सलई, चिरोंजी, जामुन अथवा वेर की छाल का चूर्ण मधु एवं बकरी के दूध के साथ सेवन करने मे रक्तातीसार का शमन होता है।
विशेष-उक्त एक ही पद्य में छ योगों का वर्णन है किन्तु अनुपान सवका एक ही है ॥ १८॥ ________________
द्वितीयो विलासः
आमशूलाटी मगुटविल्यप्रयोग -
आमशूलविवन्धान-तिकुक्षिगदापहम् ।
सेवितं सगुड विल्वं विल्वतुल्यपयोधरे ॥ १९ ॥ याख्या-डे विरवतुल्यपयोधरे । विल्वेन श्रीफलेन तुल्यो समानाकारी दृढी पयोधरी स्तनी यन्या सा तत्सम्बुद्धी, मगुट विल्व गुडेन महितम् आमविल्यचूर्ण सेवित सत, आगरालम्-तल्लक्षण यथा
आटोपाटलासवमीगुरुत्यम्नमित्यकानाहकफप्रसेके
कफस्य लिऐन समानलिजमामोदभव शूलमुदाहरन्ति ॥ सिन्ध म्याटिरोधम असत्रुति रक्तातिमार कुक्षिगदापा जठररोगनाशक च भवतीति । चक्रपागिरपि– गुटेन सादयेत् विल्य रक्तातीसारनाशनम् ।
___ आमशूलविन्धन कुक्षिरोगविनाशनम् ॥ चक्रदत्ते ॥ हिन्दी-हे बेल के महशस्तनों वाली प्रिये । कच्चे बेल की गिरी को सुखाकर बनाये हुए चूर्ण का गुड़ के साथ सेवन करने से आमशूल कोष्ठ-बद्धता, मूत्रादि अवरोध, रक्तातिसार तथा अन्य उदर रोग भी शान्त होते हैं । अनुष्टप् छन्दः।
विशेष-इसके स्थान पर आजकल चिकित्सक “वेल का मुरव्या” साने की सलाह देते हैं। यह उक्त योग का मंगोधित रूप है। किन्तु चीनी की अपेक्षा गुढ़ का प्रयोग अधिक लाभदायक होता है ॥ १९ ॥ जारिक्तानिमारे दाहिमादिकपाय - सखि दाडिमवत्समत्वचा-जनितलोद्युतः कपायकः। शमयेदचिरादतीमृति रुधिरोत्था सुतरां दुरत्ययाम् ॥ २० ॥ व्याख्या-ससीति रलकलाम्प्रति सम्बोधनम् यथाह चाणक्य ‘भार्या मित्र गृहेषु च’ दाटिम दन्तवीज वत्मक कुटज पतयो गजनित निष्पादित कपायक कपाय ग्व कपायक (स्वार्थ कप्रत्यय )क्षीयुत मधुना महित दुरत्यया दुसेन कप्टेन अत्यय विनाशो यस्या सा ता रुधिरोत्या रक्तजनिताम् अनीसनिम् अतिसारम् अचिरात् त्वरित मुतरा सम्यकप्रकारेण शमयेत् । यथा चक्रपाणिकपायो मधुना पीतस्त्वचो दाडिमरत्सकाव । सधो जयेदतीसार सरक्त दुनिवारकम् ॥ चक्रदत्ते
एप योग मैपज्यरलावत्यामपि तथैव मुलम.। हिन्दी-लोलिम्बराज अपनी स्त्री से कह रहे है, हे सखी ! अनार और पुरैया की छाल का काथ मधु मिलाकर पीने से कठिन-कप्टसाध्य तथा पुराना रक्तातिसार भलीभाति शान्त हो जाता है। वियोगिनीवृत्तम् ।
विशेष—एक ‘कुटजरसक्रिया’ नाम से प्रसिद्ध योग है, जिसमें कुरैया की छाल ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणि. का स्वरस तथा अनार का रस निकालकर दोनों का अवलेह वनाया जाता है। इसका १ तोला की मात्रा में सेवन करने से मृत्यु के मुख में गया हुआ भी रोगी बच जाता है। उक्त योग में भी पदार्थ वही हैं, केवल निर्माण का भेद है।
सुपक्क अनार का छिलका ही औषधि के उपयोग में लाना चाहिये । और यह नियम तो सभी काष्टीपधियों के लिये सामान्यरूपेण लागू होता है कि एक वर्ष के बाद सभी काष्ठोपधियां हीनवीर्य हो जाती हैं। वास्तव में यहाँ एक वर्ष का तात्पर्य यह है कि ओषधिमग्रह के बाद जब वर्षा ऋतु आती है तो ओपधियां बरसाती हवा के कारण खराब हो जाती हैं। अत. ऐसी ओपधियों का प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥२०॥ रक्तातिसारे शतावर्यादिकल्क -
रक्तातिसारं शमयेत् कल्को वर्याः पयोऽन्वितः।
पयः पानं विधातुर्नुस्तया वा साधितं वृतम् ॥२१॥ व्याख्या-वर्या शतावर्या पयोऽन्वित पय दुग्ध तेन अन्वितो मिलित कल्क (चटनी) पय पान विधातु दुग्धपान कर्तु नु मानवस्य रक्तातिसार शमयेत् दुग्धान्वित शतावरीकल्क यद्वा शतावरीघृत रक्तातिसारी सेवेतेत्याशय । यथाह वाग्भट - रक्त विट्महित पूर्व पश्चाद् वा योऽतिसार्यते ।
शतावरीघृत तस्य लेहार्थमुपकल्पयेत् ॥ अ० ह० चि० ९॥ चक्रपाणिरपि– पीत्वा शतावरी कल्क पयसा क्षीरभुग जयेत् ।
रक्तातिसारी पीत्वा वा तया सिद्ध घृत नर ॥ चक्रदत्ते ॥ हिन्दी-दृध मात्र का सेवन करनेवाला रक्तातिसार का रोगी यदि शतावरी के कल्क का (१ तोला से तोला तक की मात्रा में) सेवन करे तो उसके रोग का शमन हो जाता है। अथवा शतावरी के कल्क से (घृतनिर्माण विधि देखें) घनाये हुए घी का सेवन करें। यह भी लाभदायक होता है । अनुष्टुप छन्द ॥२॥ धातक्यादि काथः
घातकी विश्वमूलञ्च वत्सकत्वक्समन्वितम् ।
रक्तातीसारशमनं क्वार्थ मधुयुतं प्रिये ॥२२॥ व्याख्या-हे प्रिये ! धातकी मदाकुसुम विश्वमूल शुण्ठी वत्सकत्वक आटरूपकत्वक च विमिरेमिट्टैन्यै समन्वितम् मधुयुत क्षौमिलित क्वाथ रक्तातीसारशमन मवति । अनुष्टुप्छन्द.।
हिन्दी-हे प्रिये । धाय का फूल सोंठ और अद्धसा की छाल का वाथ शहद मिलाकर सेवन करने से खूनी अतिसार शान्त हो जाता है ॥ २२ ॥ ________________
द्वितीयो विलासः
वालातिसारे धातत्यादिकपाय - समदाकुसुमं सचिल्वलोधं सजलं नागकणाकृतः कषायः। मधुना परियोजितो निहन्यादतिसारं सकलं स्तनन्धयानाम् ॥ २३ ॥ व्याया-समदाकुसुम धातकीपुर पेण सहित सविल्वलोध श्रीफलरोधयुक्त सजल नेवालामिश्रित नागकणाकृत नागकणया कृत कपाय काथ मधुना परियोजित. मधुमिश्रित सन् स्तनन्धयाना क्षीरादवालकानां सकल सर्वविधमतिसार निहन्यात् । एप योगोऽविकलरूपेण शाधरमहितायाम् दृश्यतेतपथा
धातकीविल्वरोधाणि बालक गजपिप्पली। पमि कृत भृत शीत शिशुभ्य क्षौद्रमयुतम् ॥
प्रदद्यादवलेह वा सर्वातीमारशान्तये ॥ मैपज्यरलापल्यामपि- धानकोविल्बधन्याकलोपेन्द्रयवबालक ।
लेह क्षीद्रेण वालाना ज्वरातीमारवान्तिजित् ॥ हिन्दी-घाय का फूल, कच्चे बेल की गुद्दी, लोध, नेत्रवाला और गजपीपल इनके हाथ में मधु मिलाकर देने मे दुधमुहे बच्चों के सभी प्रकार के अतिसार शान्त हो जाते हैं। मालमारिणीवृत्तम् । -
विशेष-भैपज्यरत्नावली के उक्त योग में गजपीपल के स्थान पर इन्द्रजव परिवर्तित तया धनियां परिवर्धित द्रव्य है। यह चिकित्सक अथवा ग्रन्थकर्ता के अनुभव की विशेष सूममात्र है ॥ २३ ॥
वालरोगेपु कृष्णादिचूर्णम्कृष्णारुणामुस्तकगिकाणां चूर्णेन पूर्णेन च माक्षिकेण । ज्वरातिसारः प्रशमं प्रयाति सश्वासकासः सवमिः शिगूनाम् ॥ २४ ॥
व्याख्या-कृष्णा पिप्पली अरुणा अतिविपा मुस्तक मुस्ता शृगी कर्कटमी समाशिकेनतेपा चूर्णेन क्षोदेन तथा च माक्षिक मधु तेन मिश्रितेन शिशूना वालाना ज्वर अतिसार श्वास कास वमि च प्रशम प्रयाति शान्ति प्राप्नोति । यथा भावमिय- घनकृष्णारुणाशृगीचूर्ण क्षौद्रेण सयुतम् ।
गिशोवरातिसारघ्न कासवास वर्मि हरेत् ॥ केचन आचार्या अन अरुणापदेन मनिष्ठामपि प्रयुअन्ते न तद् युक्तम् । मभिष्ठा केवल रक्तानिसारनी, अतिविपा तु-विपा सोष्णा कटुस्तिक्ता पाचनी दीपनी हरेत् ।
जीर्णज्वरातिसारामविपकासयमिक्रिमीन् ॥ एप योग ग्रन्थान्तरेषु ‘चतुर्भद्र’ इति नाम्ना प्रसिद्ध , सर्वत्र वालरोगेपु पूजितश्च । . ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणि’ चूर्णनिर्माणविधि - अत्यन्तशुष्क यद् द्रव्य नुपिष्ट वन्नगालितम् ।
तत्स्याच्चूर्ण रज क्षोटस्तन्मात्रा कर्षसम्मिता ॥ विशेप-इसको ‘चातुर्भदचूर्ण’ भी कहते हैं। यद्यपि चूगों की १ तोला पूर्ण मात्रा लिखी गई है किन्तु सभी चूगों की सभी स्थिति में यह मात्रा मान्य नहीं होती। इसके लिये औषध द्रव्यों तथा रोगी के बलाबल का विचार करके ही मात्रा का निर्वाचन करना युक्तियुक्त प्रतीत होता है। उपजातिवृत्तम् ॥ २४ ॥ असाध्यातिमारे गोविन्दनामस्मरणम्तृट्श्वासकासज्वरशोफमू हिक्कासुखारोचकवान्तिशूलैः। खिन्नोऽतिसारी स्मरतु प्रयत्नात् गोविन्ददामोदरमाधवेति ॥ २५॥
व्याख्या-तृट् तृपा श्वास कास ज्वर. गोफ शोय मूर्छा हिका मुखारोचक अन्नविद्वेष वान्ति वमन शल दशभिरेमिरुपद्रवे खिन प्रपीडित अतिसारी मतिसाररोगवान् पुरुप सत्यपि शक्तिहामे यतो हि ‘मलायत्त बल पुसाम्’, प्रयत्नात कय कथमपि गोविन्द । दामोदर । माधव । इति भगवन्नामानि स्मरतु जपतु, यस्माद एनर्मरणख्यापकलियुक्त अतिमारवान् रोगी मुमूर्षुरिति विद्यात् । असाध्यातिसार-लक्षणानि यथाए सुश्रुत - तृष्णाटाहारचिश्वासहिकापाङस्थिशूलिनम् । सम्मूर्छारतिसम्मोहयुक्त पकवलीगुदन् ।
प्रलापयुक्त च भिपग वर्जयेदतिसारिणम् । सु०७० ४ ॥ अन्यच्च
श्वामशूलपिपामात क्षीण ज्वरनिपीटितम् ।
विशेषेण नर वृद्धमतीसारो विनाशयेत् ॥ तत्रैव ३३॥ हिन्दी-प्यास, श्वास, कास, ज्वर, सूजन, बेहोशी, हिचकी, अन्न के प्रति अरुचि वमन, शूल इन उपद्रवों से पीडित असाध्य अतिसार का रोगी शक्ति न होने पर भी प्रयत्नपूर्वक गोविन्द दामोदर माधव आदि भगवान के नामों का उच्चारण करे । इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥
विशेष-भगवान का नाम स्मरण सांसारिक रोगों से मुक्ति पाने का एक सर्वोत्तम आध्यात्मिक साधन है। यही मरने के बाद भी उस प्राणी का साथी बनता है॥२५॥
इति अतिसार-प्रतीकार समाप्त ।
अथ ग्रहणी-प्रतीकार. दीपनपाचनो योग -
यवानीनागरोशीरधनिकातिविपाधनैः।
वालविल्वद्विपर्णीभिर्दीपनं पाचनं भवेत् ॥ २६ ॥ व्याख्या-यवानी अजमोदिका नागर शुण्ठी उशीर नलदः धनिका धान्यकम् ________________
द्वितीयो विलासः
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अतिविपा विपा घन नागरमुस्ता वालविल्वम् आमश्रीफल दिपणी शालपर्णी पृश्निपणी च एमि कृत कपाय’ शीतकषायो वा दीपन रुचिवर्धक (अग्निवर्धक ) पाचन वातादीनां शामक च भवेत् । भैपज्यरत्नावल्यामपि योगोऽयमित्युपलभ्यते
नागरातिविषामुस्तरथवा धान्यनागरे । तृष्णाशूलातिसारन दीपन पाचन लघु ॥ चक्रपाणिरपि- धान्यकातिविपोदीच्ययमानीमुस्तनागरम् ।
वला द्विपर्णी विल्वञ्च दद्याद् दीपनपाचनम् ॥ चक्रदत्ते ॥ ग्रहण्या निरुक्तिश्चरके अग्न्यधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणाद् ग्रहणी मता।
नामेरुपरि सा ह्यग्निवलोपस्तम्भवृहिता ॥’
अपक्व धारयत्यन्न पक्व सृजति चाप्यध ॥ च० चि० १५ ॥ सुश्रुतोप्याह- षष्ठीपित्तघरा नाम या कला परिकीर्तिता।
पक्कामाशयमध्यस्था ग्रहणी मा प्रकीर्तिता ॥ सु. उ० ४० ॥ अतिसरणमाात् परम्परानुवन्धित्वाच्चातीसारानन्तर ग्रहणीसम्प्राप्तिमाह सुश्रुत - अतिसारे निवृत्तेऽपि मन्दाऽग्नरहिताशिन । भूय’ सन्दूपितो वह्निर्ग्रहणीमभिदूपयेत् ॥
हिन्दी-अजवायन, सोट, खम, धनिया, अतीस, नागरमोथा, कच्चेवेल का गूदा शालपर्णी, पृश्निपर्णी इन दस औषधियों का काथ मन्दाग्नि को प्रदीप्त करके पाचन शक्ति को बढ़ाता है । अनुष्टुपछन्द । __ विशेष- इस योग में ‘बालबिल्व’ पाठ दिया गया है किन्तु इसी लेखक की दूसरी कृति ‘वैधजीवन’ में इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये ‘वलाविल्व’ पाठ दिया गया है। बला=खिरैटी का एक गुण सग्राहकत्व भी है। अत इस पाठ में ‘आ’ की मात्रा का प्रमादवश परिवर्तन नहीं समझना चाहिये ॥ २६ ॥ ग्रहण्याम् अमृतादिकपाय - अमृतातिविपीपचाम्वुवाहैः सदृशैः पाचनदीपनः कपायः। परिसेवित आमवर्पिणीनां ग्रहणीनां शमनो मनोहराऽऽस्ये ॥ २७ ॥ व्याख्या-हे मनोहरास्ये ! चारुवदने । अमृता गुडूची अतिविपा विषा औपध शुण्ठी अम्बुवाह घन सदृश समानभागि कृत कपाय काय परिसेवित प्रयुक्तश्चेत् आमवपिणीना ग्रहणीना आमदोपयुक्तग्रहणीविकाराणा शमन शामको मवतीति । यथाह चक्रपाणि - शुण्ठी समुस्तातिविपा गुडची पिवेजलेन कथिता समाशाम् ।
मन्दानलत्वे सततामताया आमानुवन्धे ग्रहणीगदे च ॥ चक्रदत्ते ॥ हिन्दी-हे सुन्दरी प्रिये। गिलोय, अत्तीस, सोंठ, नागरमोथा इन चार ओपधियों को समानभाग लेकर इसका काथ बना लें, इसका सेवन करने से जाठराग्नि प्रदीप्त होता है और खाया हुआ भोजन पचने लगता है फलत आमदोप युक्त ग्रहणीरोग शान्त हो जाता है। मालभारिणीवृत्तम् ॥ २७ ॥ ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः ग्रहण्या पुनर्नवादिकपाय.पुनर्नवावल्लिजवाणपुंखाविश्वाग्निपथ्याचिरविल्वविल्यैः । कृतः कपायः शमयेदशेपान् दुर्नामगुल्मग्रहणीविकारान् ॥ २८ ॥
व्याण्या-पुनर्नवा वृश्वीर वल्लिज मरिच वाणपुखा भरपुखा विश्वा शुण्ठी अग्नि चित्रक पय्या हरीतकी चिरविल्व करण विल्वम् आमविल्बम् एभि ओपधिमि कृत कपाय अशेपान निखिलान् दुर्नामा अर्श गुल्म कोष्ठान्तर्गतग्रन्थिविशेष ग्रहणी च एतान विकारान् शमयेत् । टपेन्द्रवज्रावृत्तम् ॥ ___ हिन्दी-पुनर्नवा, कालीमिरच, शरपुखा, सोंठ, चित्रक की छाल, हरीतकी, करक्ष, बेलगिरी इन ओपधियों से निर्मित कपाय के सेवन से अर्श (बवासीर) गुल्म तथा ग्रहणी रोग शान्त हो जाता है ॥ २८ ॥ ग्रहण्यादिरोगेषु पाठादिचूर्णम्पाठाविपानलदवत्सकवत्सकत्वक्तिक्तामदारसजनागरविल्वचूर्णम् । सक्षौद्रतण्डुलजलं ग्रहणीप्रवाहीरक्तप्रवाहगुदरुग्गुदजेपु देयात् ॥२९॥
व्याण्या-पाठा अम्बष्ठा विपा अतिविपा नलदम् उशीर वत्सक इन्द्रयव वत्सकत्वक् कलिगत्वक तिक्ता कुटकी मदा धातकी रसज रसासन नागर शुण्ठी विल्वचूर्णम् आमविल्वक्षोदन भि दशमि ओपधिमि कृत चूर्ण सक्षीद्र क्षुद्राभिर्मधुमक्षिकाभि निर्मित मधु तेन सहिय तण्डुलजल ग्रहण्याम् प्रवाहिकाया रक्तप्रवाहे रक्तातिसारे गुदरुजि गुदजेपु मनु देयात् । ‘नागरायचूर्ण’नाना चक्रपाणिनापि चक्रदत्ते योगोऽय समुदृद्धित - नागरातिविपामुस्त धातकीसरसाशनम् । वत्सकत्वकफल विल्व पाठा कटुकरोहिणीम् ॥ पिवेत्समाश तच्चूर्ण सक्षौद्र नण्डुलाम्बुना । पैत्तिके ग्रहणीदोघे रस यश्चोपवेश्यते ॥
अशर्मास्यथ गुदे शूल जयेच्चैव प्रवाहिकाम् । नागराद्यमिद चूर्ण कृष्णात्रेयेण पूजितम् ॥ तण्डलोदकनिर्माणप्रकार -गीतकपायमानेन तण्डुलोढककल्पना।
केऽप्यष्टगुणतोयेन प्रादुम्तण्डुलमावनाम् ॥ हिन्दी-पाठा, अतीस, खस, कुटज की छाल तथा बीज, कुटकी, धाय के फूल, रसौत, मोट, कच्चे वेल का गूदा समान भाग इन दस द्रव्यों का सुखाकर बनाया हुभा चूर्ण मधु के माथ सेवन कर उसके बाद तण्डलोदक को पीने से ग्रहणी प्रवाहिका, रक्तातिसार, गुदपीढा, अर्श (बवासीर) रोगों का विनाश करना है।
विशेप-तण्डलोदक निर्माण में कुछ मत भेद है। आचार्य वृन्द का कथन है कि अठगुना गर्म जल में छानकर तण्डुलोदक बनाना चाहिये किन्तु अन्य आचाया का मत है कि छ’गुने गर्म पानी में चावलों को भिगोकर छान लेना चाहिये। यह तत्-तत् आचार्यों का अपना अनुभव है। वसन्ततिलकावृत्तम् ॥ २९ ॥ ________________
द्वितीयो विलासः ग्रहण्यादौ तिक्तादिचूर्णम्तिक्तातिक्तघनेन्द्रजं त्रिकटुकं पीत्वा समग्रं समं
द्वौ भागौ शिखिनः कलापरिमितान् भागान् कलिगत्वचः। चूर्ण स्याद् गुडशीततोयसहितं सेव्यं ग्रहण्यां ज्वरे
गुल्मारोचककामलातिसृतिजित् पाण्डडुसूर्योदयः ॥ ३० ॥ व्याख्या-तिक्ता चिरतिक्त तिक्ता कुटकी धन मुस्ता इन्द्रजम् इन्द्रयव निकटक यूपणम् एतेषा समग्र सम समाशिक माग शिखिन चित्रकस्य द्वौ भागी कलिङ्गत्वच. कुटजत्वच कलापरिमितान् पोडशभागान् आदाय चूर्णीकृत्य गुडमिश्रितशीतलजलेन सेवितमिठ चूर्ण गुल्मम् अरोचक कामलाम् अतिसारश्च जयति तथा पाण्डुसर्योदय पाण्डुरोगरूपिणीना तारकाणा विनाशाय सूर्यादय २ जागर्ति । शार्दूलविक्रीडितम् । एन योग चक्रपाणि भूनिम्बादिचूर्णनाम्ना विलिलेख स्वकीये चक्रदत्तामिधे ग्रन्थे । तद्यथा
भूनिम्बकटुकन्योपमुस्तकेन्द्रयवान् समान् । दो चित्रकान् वत्सकत्वग्भागान् पोडश चूर्णयेत् ॥ गुढशीताम्वुना पीत ग्रहणीदोपगुल्मनुत् । कामलाज्वरपाण्डुत्वमेहारुच्यतिसारनुत् ॥
गुटयोगाद् गुढाम्युस्याद् गुडवर्णरसान्वितम् ॥ हिन्दी-चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, इन्द्रजी, सोंठ, मरिच, पीपल इन दव्यों को समानभाग लें, चीता की छाल का चूर्ण दुगुना, और कुटज की छाल का चूर्ण १६ गुना लेकर चूर्ण करके शीतल जल में गुड़ मिलाकर ज्वर और ग्रहणी रोग में इसका सेवन करें। यह चूर्ण गुल्म, भरोचक, कामला तथा अतिसार का शमन करता है और पाण्डुरोग रूपी तारों को हतप्रभ करने के लिये यह योग सूर्य के समान प्रभावशाली है ॥ ३० ॥ वृहद्दीपनपाचनो योग - द्विक्षारपटकटुपटुवजहिड्दीप्यैरेभिर्गुडो बदरदाडिमलुंगनीरैः। श्लेष्मानिलग्रहणिकासु च योजनीयोलोकत्रयैकमतिदीपनपाचनेऽलम् ॥
व्याख्या-द्विक्षारी सजिंकायवक्षारी पटकटु पडूपणम्तद्यथा
पिप्पलीपिप्पलीमूलचन्यचित्रकनागरे ।
मरिचेन युत तत्तु पडूपणमुदाहृतम् ॥ पटुवजो लवणपञ्चकम् -सौवर्चल सैन्धवञ्च विडमौद्दिमेव च ।
सामुद्रेण सम पश्चलवणान्यत्र योजयेत् ॥ हिशु रामठ दीप्य यवानी एतान् पदार्थान् चूर्णीकृत्य गुड इवविकारः ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणि बदर वारिवदर प्राचीनामलक दाटिम दन्तवीज लु मातुलुङ्गम् एतेपा नी रम’ भावयेत् । एतच्चूर्ण इलेष्मानिलग्रहणिकासु च श्लेष्मग्रहण्या वातजग्रहण्यां वा किंवा द्वन्द्वग्रहण्या योजनीय प्रयोज्यम् । यस्माद् इद लोकत्रयैका त्रिलोक्या श्रेष्ठम् अतिदीपनपाचने अतिशयदीपनकार्ये पाचनकार्य च अल समर्थम् । वसन्ततिलकावृत्तम् । तदेव चक्रपाणि. चक्रदत्ते-चित्रक पिप्पलीमल द्वी क्षारी लवणानि च ।
व्योपहिठग्वजमोदाश्च चव्यश्चैकत्र चर्णयेत् ॥ गुटिका मातुलुङ्गस्य दाटिमाम्लरसेन वा।
कृता विपाचयत्याम दीपयत्याशु चालनम् ॥ वाग्मटोप्याह
पटूनि पञ्च दी क्षारी मरिच पञ्चकोलकम् । दीप्यक हिड गुटिका बीजपूररसे कृता ।
कोलदाटिमतोये वा पर दीपनपाचनी ॥ वा०नि० १०॥ हिन्दी-सज्जीखार, जवाखार, पिप्पली, पिप्पलीमूल, चन्य, चित्रक, सोंठ, कालीमरिच, पाचों नमक (कालानमक, सैन्धानमक, विरियानमक, रेहनमक, साम्हरनमक) हीग, अजवायन इनको फूट पीसकर चूर्ण बनालें । इस चूर्ण में गुड, पानी, आंवला, दाडिम-और विजौरा नीबू के रसों की भावना देकर सुखाकर रखलें। यह चूर्ण, कफज, वातज तथा द्वन्द्वज ग्रहणीविकार में लाभदायक है, उत्तम दीपनपाचन होने के कारण यह तीनों लोकों में श्रेष्ठ है ॥ ३१ ॥
ग्रहणीरोगे क्षुद्विवर्धनो योग - क्षारयुगत्रिकटुत्रिपदनि मिशिचविकारजनीजरणानि । रामठदीप्यहुताशयुतानि प्रेयसि मर्दय लुगजलेन ॥ ३२ ॥ तक्रयुतं बलराम्बुयुतं वा कोप्णजलेन युतं तुपकैर्वा । गुल्मगुदाकुरजिन ग्रहणीपु श्रेष्ठमिदं क्षुधमाशु करोति ॥ ३३ ॥
युग्मकम् ॥ व्याख्या-क्षारयुग सर्जिका यवक्षार च त्रिकटु यूपण त्रिपनि विटरुचकसैन्धवानि मिशि शतपुष्पा चविका चव्य रजनी हरिद्रा रामठ हिन्न दीप्यम् अजमोदा हुताश चित्रक एभिर्द्रव्यैर्युतानि निर्मितानि चूर्णानि जरणानि पाचनानि भवन्ति अत हे प्रेयसि प्रियतमे एतानि द्रव्याणि लुइजलेन मातुलुङ्गारमेन मर्दय एतच्चूर्ण तक्रयुतम् उदश्चित् सहित वदराम्बुयुत वा स्वल्पकर्कन्धुरसेन युत वा कोष्णजलेन मन्दोष्णवारिणा सह वा तुपके तुपोदकै वा सेवित सत् गुरमगुदाहरजिद् गुल्मम् असि विनाशयति, खुधामाशु करोति बुभुक्षा च वर्धयति । उपजाजिवृत्तम् । दोधकवृत्तम् ।
तिन्दी-हे प्रियतमा । सज्जीखार, जवासार, सोंठ, मरिच, पीपल, तीनों नमक (विड् रुचक, सैन्धव ) सौंफ, चम्य, हल्दी, हींग, अजवायन, चीता की छाल इन ________________
द्वितीयो विलास
अग्निवर्धक पदार्थों के चूर्ण को विजौरा नीबू के रस में घोटिये। इस चूर्ण का मठा से या अढबेर के रस से या गुनगुने पानी से अथवा तुपोदक के साथ सेवन करने से गुल्मरोग अर्थ (बवासीर) ग्रहणी रोग का शमन होता है और इसके सेवन से शीव्र भूख बढ़ती है।
विशेष-तुपोदक निर्माण प्रकार-तुप सहित कच्चे जौ के टुकडे करके सन्धान की रीति से पानी में भिगो दें। खट्टापन आने के बाद छानकर प्रयोग में लें ॥३२-३३ ॥ ग्रहणीरोगे चन्यकादिचूर्णम्
चव्यकं चित्रकं विश्वं वालविल्वं सुचूर्णितम् ।
तक्रण सहितं हन्ति ग्रहणी दुःखकारिणीम् ॥ ३४ ॥ व्याख्या-चव्यक चन्य चित्रक वहि विश्व शुण्ठी वालविल्वम् आमश्रीफल प्रत्येक पदार्थ सुचूर्णीकृत लक्षण सचूर्ण्य तक्रेण दण्टाहतेन सहित सेवित सत् दु सकारिणी स्लेशदायिनी ग्रहणी हन्ति विनागयतीत्यर्थ । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-चव्य, चीता, की छाल, सोंठ, कच्चे बेल की गुद्दी इन सवका चूर्ण बनाकर मठा के साथ सेवन करने से दु सद ग्रहणी रोग की शान्ति होती है ॥३४॥ ग्रहगीरोगे सीवर्चलादिचूर्णम्
रुचकाग्निमरीचाना चूर्ण तक्रेण शस्यते ।
ग्रहण्युदरगुरमाझमन्दाग्निप्लीहनाशनम् ॥ ३५॥ व्याख्या-कचक सौवर्चलम् अग्नि चित्रक मरिच कृष्णा एपा प्रयाणा वस्त्रगालित चूर्ण तक्रेण सह मेवित सद् ग्रहणीम् उदरम् उदररोग गुल्म कोष्टान्तर्गत प्रन्थिम अर्ग दुर्नाम मन्दाग्नि शुन्मान्ध प्रीहानञ्च विनाशयति । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-कालानमक, चीता की छाल, कालीमिरच, इन तीनों का चूर्ण मठा के साथ सेवन करने से ग्रहणी, उदररोग, अर्श मन्दाग्नि नथा प्लीहा (तापतिल्ली) इन रोगों की शान्ति होती है ॥ ३५॥ ग्रहण्या गु’कपुरीपप्रतीकार -
कृच्छ्रेण कठिनत्वेन य पुरीपं विमुञ्चति ।
सघृतं लवणं तस्य पाययेत् क्लेशशान्तये ॥ ३६ ॥ न्याश्या~य ग्रहणीरोगादित कठिनत्वन वातसमष्टत्वात् बद्धेन मलेन इच्छेण सकप्टेन पुरीष मल विमुञ्चति निम्सारयति तस्य रोगिण केशशान्तये तज्जन्यकष्टनिराकरणाय सवृत लवण मपिपा सहित सैन्धव पापयेत् अत्र निदानोक्तस्य ‘मुहुर्वद्ध’ इति लक्षणस्य निराकरणाय ग्रन्यकारस्याय योग । चरकेऽपि ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः अग्न्यधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणाद ग्रहणी मता। नाभेरपरि सा पग्निवलोपस्तम्भवृहिता ॥
अपक धारयत्यन्न पक सनति वाऽप्यधः ॥ च० चि० १५॥ हिन्दी-वायु की अधिकता से मल के सूख जाने के कारण यदि उसके निकलने में कष्ट हो रहा हो तो रोगी को घी और सेंधानमक का सेवन कराना चाहिये।
विशेष-यह ग्रन्थकर्ता की अपनी नई सूक्ष है। नमक और घी दोनों ही पाचनकर्ता तथा तीनों दोपों के शामक हैं। यह नई सूज्ञ भी शास्त्र सम्मत होने के कारण विद्वानों द्वारा आहत है । अनुष्टुप्छन्द’ ॥ ३६ ॥ ग्रहण्या सपि प्रयोग -
वातानुलोमनं सर्पिः शुण्ठीकल्केन साधितम् ।
कासश्वासज्वरप्लीहाग्रहणीपाण्डुगञ्जनम् ॥३७॥ व्याख्या-शुण्ठीकल्केन साधित शुण्ठी महौषध तस्या कल्केन साधित पाचित सपि घृत वातानुलोमन तथा कास-पास-ज्वर-प्लीहा ग्रहणी पाण्डुरोगाणा गलन विनाशक भवतीत्यर्थ । चक्रपाणिरपि
घृत नागरकल्केन सिद्ध वातानुलोमनम् ।
ग्रहणीपाण्डुरोगन प्लीहकासज्वरापहम् ॥ चक्रदत्ते । घृतपाकविधि - दुग्धे दधिन रसे तक्रकल्को देयोऽष्टमाशक ।
कल्कस्य सम्यक् पाकाथै तोयमत्र चतुर्गुणम् ॥ घृतपाके व्युपितनिषेधो यथाह वृन्द -व्रीहिप्राण्यङ्गयो काथो व्युपितो दोपलो मत ।
हिन्दी-सोंठ के कल्क से बनाया गया घी वायु का अनुलोमन करता है और खासी, श्वास, ज्वर, प्लीहा, ग्रहणी, पाण्डुरोग का विनाश करता है। अनुष्टुः
विशेप-धृत निर्माणविधि-घी १ सेर, सोंठ १ पाव, जलसेर लेना चाहिये। माचार्य वृन्द के कथनानुसार धी का पाक एक ही दिन में कर लेना चाहिये ॥३७॥ ग्रहण्या छागपय प्रयोग -
आज पयो मोचरसाम्बुवाह-हीवेरविल्वेन्द्रजकल्कसिद्धम् । दिनत्रयाद्धन्ति निपीतमुग्रामामानुवन्धां ग्रहणीं सरक्ताम् ॥ ३८॥ व्याख्या-मोचरस शाल्मलीवेष्ट’ अम्बुवाहो मुस्तक हीवेर बालक विल्व श्रीफलम् इन्द्रजम् इन्द्रबीजम् एतदौषधाना कल्केन साधितम् आजम्पय छागदुग्ध निपीत सेवित सत उग्रा भीपणाम् आमानुवन्धाम् आमदोषसयुक्तां सरता रक्तयुक्ता (पित्तप्रकोपे मलस्य सरक्तत्व दृश्यते ) यथाह जेन्जट –‘दोपलिङ्गेन मतिमान् ससर्ग तत्र लक्षयेत्’ ग्रहणी ________________
द्वितीयो विलास
रोगविशेष दिनमयात त्रिषु दिवसे वेव हन्ति विनाशयति । उपजातिवृत्तम् । भेपजसिद्धस्य छागदुन्धस्य महिमाजाणेऽमृतोपम क्षीरमतिमारे विगेपन । छाग तद् मेपजे सिद्ध पेय वा वारि साधितम् ॥ ग्रहण्याश्चिकित्मानमन्- ग्राहणोगाश्रित दोपमजीर्णवदुपाचरेत् ।
अतीसारोक्तविधिना तस्यामच विपाचयेत् ॥ हिन्दी-मोचरस, नागरमोथा, नेत्रपाला, बेल की गिरी, कुटज के बीज इनके कएक द्वारा पकाये गये बकरी के दूध के तीन दिन के सेवन करने से भयकर आम और रक मिश्रित ग्रहणी-विकार का शमन हो जाता है ॥ ३८ ॥
इति श्रीमल्लोलिग्यराजविरचिते चमत्कारचिन्तामणी
ग्रहणीप्रतीकारो नाम द्वितीयो विलास समाप्त। ________________
अथ तृतीयो विलासः अथ सवादात्मिका प्रस्तावनामाहकोमले निर्मले मञ्जुले प्रोज्ज्वले वत्सले चञ्चले वल्लभे श्रूयताम् । यत्त्वया पृच्छयते तन्मया कथ्यते त्वन्तु मां प्रेक्षसेऽद्यापि किंवक्रदृक् ॥ ___ व्याख्या–कोमले मृदुले निर्मले शुद्धहृदये मन्जुले सौम्यस्वभाववति प्रोज्ज्वले दीप्यमानवक्त्राम्भोजे वत्सले प्रिये चञ्चले चपले वहभे सुसिग्धे श्रृयताम् , यत्त्वया पृच्छयने यद् भवती पृच्छति तन्मया कथ्यते तत सर्वमह कथयन्नस्मि त्वन्तु मा भवती तु त्वदाज्ञापरिपालक त्वद्गुणानुरक्त वा माम् अद्यापि आशापरिपालनमन्तरापि किं कय वक्रदृक् करदृष्टया प्रेक्षसे विलोकयसि । कवि पद्येनानेन इद भङ्ग्या निरूपयति यट एप चमत्कारिचिन्तामणिनामकश्चिकित्साग्रन्यो मया वार्तालापप्रसङ्गे एव रचित न चात्र पृथक परिश्रम कृत । ___अत्र वार्तालापप्रसङ्गे प्रत्युत्पन्नमति लोम्बिराज स्वप्रियाया प्रश्नान् उत्तरयन् मनागपि नाठिश्यत् किन्तु सुकुमारतया परिश्रान्ता रत्नकला उत्तरप्रदानाट् अविर मन्त स्वस्वामिन प्रति वक्रदृष्टथा प्रेक्षत इति अनुमीयते अनेन कवेरस्य ‘यद्-भक्तेन मया घटस्तनि घटीमध्ये समुत्पाधते पद्याना शतकम्’ इति वैद्यजीवनोक्ता गर्वोक्ति स्वभावोक्तिरेवावगम्यते । स्रग्विणीवृत्तम् ।
हिन्दी-कोमल निर्मल मन्जुल उज्ज्वल प्रिय तया चञ्चल प्राणप्रिये । सुनो, जो तुम पूछती हो उसका मैं (लोलिम्वराज) उत्तर देता जा रहा हूँ-फिर भी तुम मुझे (न मालूम) क्यों टेढ़ी नजर से देख रही हो।
विशेष-इस पद्य के द्वारा ग्रन्थकर्ता ने यह व्यक्त किया है कि यह ग्रन्थ हम दोनों (पति-पतियों) का सम्भाषण मात्र है। दूसरी ओर अपनी प्रियतमा की सुकुमारता के कारण थक जाना और अपना निरन्तर कविता का प्रदर्शन ये दोनों ध्वनिया ‘यत्वया पृन्छयते तन्मया कथ्यते त्वन्तु मा प्रेक्षसेऽद्यापि किंवाहक’ से प्रतिध्वनित हो रही हैं॥१॥ विजयाटिगुटिका
विजयानागरमुस्तागुडकृतगुटिका धृता वक्ने ।
शमयति कासं श्वासं हिममिव वक्षोधृता वनिता ॥२॥ व्याख्या-विजया भगा नागरमुस्ता मुस्तक गुडकृता गुडेन रचिता, अर्थात् विजयामुस्तकयोश्चूर्ण गुडेन सम्मेल्य निर्मिता गुटिका वटी वक्ने मुखे धृता सती कास श्वास च ________________
तृतीयो विलास
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तथा गमयति निवारयति चथा वनोधूना वक्षसालिङ्गिता वनिता प्रियतमा हिम शीतबाधा परिहरति । आर्यावृत्तम् ।
हिन्दी-भाग की पत्ती, नागरमोथा इनके चूर्ण की गुढ मिलाकर गोली वता लें। इस गोली को चूमते रहने से कास और श्वास रोग उस प्रकार शान्त हो जाते हैं जिस प्रकार अपनी प्रियतमा को छाती से लगा लेने पर जाढा ॥२॥ चिन्तामणियोग - रानावलापद्मकदेवदारुफलत्रिकं यूपणविष्णुचूर्णम् । चिन्तामणि.क्षौद्रघृतोपपन्न श्वासांश्च कासांश्च निराकरोति ॥३॥
व्याख्या-रामा मुजङ्गाक्षी ( रानाया चिन्तामणिवद् गुणा अतएवेय रास्लादिगुटिका चिन्तामणिनाम्ना प्रथिता) बला वाट्यालक पमक पकाठ देवदारु सुरदार फलत्रिक त्रिफला त्र्यूषण त्रिकट विष्णुचूर्ण विढगक्षोदम् एतान् सर्वान् चूर्णीकृत्य एकत्र स्थापयेत् विपमाशमागेन क्षौद्रघृतोपपन्न एप योगश्चिन्तामणिसशक अय श्वासान् कासाश्च निराकरोति, इन्द्रवज्रावृत्तम्।
हिन्दी-रास्ना, बला, पद्माख, देवदारु, हरड, बहेडा, आंवला, सोंठ, मरिच, पीपल, वायविढग इन सब का समानभाग चूर्ण लेकर रख लें। इस चूर्ण को घी और मधु के साथ सेवन करने से श्वास-कास का शमन होता है।
विशेष-इस योग का वास्तविक नाम ‘रानादिगुटिका’ है। किन्तु राना के गुणों से सुग्ध होकर ग्रन्थकार ने इसका नाम ‘चिन्तामणिवटी’ स्सा है। इसमें घृत-मयु का अनुपान लिसा है । इनको विपम मात्रा में मिलना चाहिये ॥३॥ श्वामे वासादिकाथ - वासाहरिद्राधनिकागुडची भागीं यथा नागररिंगणीनाम् । काथेन तीक्ष्णेन समन्वितेन श्वासः शमं याति न कस्य पुंस. Hell व्याख्या-वासा-आटरूपक हरिद्रा निगा धनिका धान्यक गुडूची अमृता भाङ्गी नाक्षणयष्टिका नागर शुण्ठी रिंगणी कण्टकारी एतेपा तीन मरिचेन समन्वितेन सहितेन कायेन कम्य पुम पुरपम्य श्वास शम शान्ति न याति अपितु सर्वस्यापि शम यातीत्यर्थ । इन्द्रवज्रावृत्तम् ।
हिन्दी-अङ्कमा, हल्दी, धनिया, गियोय, भारगी, सोंठ, कालीमिर्च इनका काय बनाकर सेवन करने से सभी का श्वास रोग शान्त हो जाता है। ’
विशेष-यद्यपि आयुर्वेदिक कोपकारों ने रिशिणी शब्द का अर्थ लिखते हुए ‘मुद्गपीलतायाम, कैवर्तमुस्तायाम्, कण्टकार्याच’ लिखकर अनेक अर्थों में इसका प्रयोग किया है किन्तु मराठी भाषा में केवल कण्टकारी को ही रिंगणी कहते है। ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणि’ इससे अनुमान किया जाता है कि इस महाराष्ट्रनिवासी कविने कविता-प्रवाह में आकर भारमविभोर हो कण्टकारी के लिये अपनी मातृभाषा में प्रयुक्त रिंगणी शब्द का प्रयोग किया हो । अन्यथा वह इसके अन्य संस्कृत नामों का प्रयोग करता ॥४॥ लवगादिवटी
समलवंगमरीचविभीतकैः खदिरसारसमैरवलोडितः। क्वथितवचुलिकासलिलैर्वटी मुखधृता कसनं श्वसनं जयेत् ॥५॥ व्याख्या-लवग देवकुसुम मरिच बेहज विमीतकम् अक्षफलम् एते प्रय पदार्था’ समभागयुक्ता सर्व सम खदिरसार दन्तधावननिर्यास वबलिकासलिले बञ्चलकाथै कथिता पाचिता वटी गुटिका मुखधृता वदनमध्ये धृता सती कसन कास, श्वसन वाम च जयेत् । आर्यावृत्तम् ।
हिन्दी-लवंग, कालीमि, बहेड़ा इन तीनों का चूर्ण समानभाग और इन तीनों के समान खदिरसार (पत्था) मिलाकर बवूल के हाथ की भावना देकर गोली बनाकर रख लें। इस गोली को चूसने से श्वास कास का शमन होता है ॥५॥ कासरोगे वासककाथ - पुलोमजावल्लभसूनुपत्नीतातात्मभूशेखरकेतनस्य । सौन्दर्यदूरीकृतरामरामे कपायकः काससमीरसर्पः॥६॥ व्याण्या-सौन्दर्यदूरीकृतरामरामे सौन्दर्येण शरीरलावण्येन दूरीकृता न्यकृता रामरामा सीता यया सा तत्सम्बुद्धी, पुलोनजा शची तस्या वल्लभो देवराज इन्द्र तस्य मनु अनुज , ‘मनु पुत्रेऽनुजे रवी’, इति विश्व । उपेन्द्र श्रीकृष्ण त स्य पत्नी लक्ष्मी तस्या तात समुद्र तस्यात्मभू’ पुत्र चन्द्र स शेखरे यस्य स शिव तस्य केतन वाहन वृप वामक , यथाइ भेदिनीकोशकार ॥
वृपो धर्म वलीवर्दै शृग्या पुराशिभेदयो । श्रेष्ठे स्यादुत्तरस्थश्च वासमूपिकशुकले ॥
तस्य कपायक काथ काससमीरसर्प कास एव समोर तस्य विनाशाय सर्प पवनाशन एव विद्यते । अत्र काससमीरसर्प, इति रूपकालङ्कार । पक्षान्तरे पुलोमजा देवेन्द्रपली तस्या वल्लभ स्वामी श्न्द्र तस्य सूनु पुत्र अर्जुन तस्य पनी द्रौपदी तस्या तात पिता द्रुपदः तस्यात्मभू पुत्र शिखण्डी शिखण्टश्चूडाऽस्यास्तीति सर्प फटावान् स एव शेखरे यस्य स शिव तस्य केतन वाहन वृप सिंहास्य शेपपूर्ववत् । उपजातिवृत्तम् । - हिन्दी-अपने सौन्दर्य से सीता के सौन्दर्य को भी तिरस्कृत करनेवाली प्रियतमा । अइसा का क्वाथ कामरूपी वायु का विनाश करने के लिये साक्षात् साप है । अर्थात् मयु मिश्रित अडूसा का काथ (वातज) कास का शमन करता है ॥६॥ ________________
तृतीयो विलासः
७६ कामे पिप्पल्यादिचूर्णन्
पिप्पलीपिप्पलीमूलविभीतकमहोपधैः ।
मधुना सेवितैः कासः प्रशाम्यति कुतूहलात् ॥७॥ व्याख्या-पिप्पली कृष्णा पिप्पलीमूल ग्रन्थिक विमीतक अक्ष महीपध शुण्ठी मममागयुक्ततेपा मधुना सेवितं चूण. कास कुतूहलात् मरलतया प्रशान्यति शम यातीत्यर्थः । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-पिप्पली, पिप्पलीमूल, बहेडा, मोंठ इन सबको समानभाग लेकर चूर्ण कर लें। इसको मधु के साथ सेवन करने से भामानी से खासी दूर हो जाती है। कामरोगे त्रिफलादिचूर्णम्फलवयच्छिन्नरुदाहुतागरास्तामिध्वंसिकटुत्रयाणाम् ।
चूर्ण समांशं सितया समेतं कासं जयेन्नात्र विचारणीयम् ॥ ८॥ व्याख्या-फलायच्छिन्नरुहाताशरानाकृमिध्वसिफटुनयाणान् पय्याधात्रीविभौतकगुडूचोचित्रकमुबहाजन्तुन्नशुण्ठीमरिचपिप्पलीना समाग सममाग चूर्ण क्षोद मितया इशुविकारेण समेत काम जयेद् विनाशयेद । अत्र न विचारणीय सन्देहो नैव कर्तव्य ‘ममागम्’ इत्यम्य न्याने नव ‘मम स’ इत्यपि पाठोऽस्ति । उपजातिवृत्तम् ।
हिन्दी-हर, बहेडा, आँवला, गिलोय, चीता की छाल, रास्त्रा वायविडग, सोंठ, मरिच, पीपल इन सबको समपाग लेकर चूर्ण कर लें और चूर्ण के बराबर उसमें मिश्री मिला दें। इसके सेवन से कास का शमन होता है, इसमें कोई मन्देह नहीं ॥ ८॥ कामे त्रिकटुचूर्णम्___ संयुतं गुडसर्पिभ्या चूर्ण त्रिकटुसम्भवम् ।
निहन्ति तरसा कासांस्त्रासानिव सतां हरिः ॥९॥ ध्याख्या-त्रिकटुममव शुण्ठीमरिचपिप्पलीकृत चूर्ण गुटसपिया मयुत मिलिम सत् तरसा हेलया तथा कासान् निहन्ति विनाशयति यथा हरि. भगवान् सता मननाना त्रासान हरतीति । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-सौंट, मरिच, पीपल का चूर्ण गुड़ और घी के साथ मिलाकर सेवन करने से उस प्रकार कासरोग का सरलता से विनाश करता है, जिस प्रकार भगवान् सज्जनों के कष्टों का ॥ ९॥ बालकासे अतिविपाप्रयोग - मनोहरे मानिनि माघोपे शरीरशोभाजितमजघोपे। ज्वरं वर्मि कासमपि च्छिनत्ति क्षौद्रेण युक्ताऽतिविपा शिशूनाम् ॥ ________________
८०
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणि
व्याख्या-मनोहरे चेतोहरे मानिनि स्वाभिमानयुक्ते माघोपे मञ्जलस्वरे शरीरशोभाजितम घोषे शरीरशोभया देहकान्त्या जिता न्यस्कृता मन्जुघोपा स्वर्वेश्या यया सा नत्सम्बुद्धौ, क्षौद्रेण माक्षिकेण युक्ता मिलिता अतिविपा प्रतिविपा शिशूना वालकाना ज्वर वर्मि कासमपि च्छिनत्ति दूरीकरोति । उपेन्द्रवज्रा।
हिन्दी-हे सुन्दरि । मधु के साथ अतीस का चूर्ण चटाने से बालकों के ज्वर, वमन (उलटी) तथा कास रोग शान्त हो जाते हैं ॥१०॥ श्वासकासहरो योग -
शृङ्गवेररसचन्द्रशेखरे माक्षिकालिनिकरेण सुन्दरे । श्वासकासयुगमंहसञ्चयं सेविते सति सति प्रणश्यति ॥ ११ ॥ व्याख्या-शृङ्गवेररसचन्द्रशेखरे शृगवेरस्य शुण्ठया रस एव चन्द्रशेखर शिव तस्मिन् माक्षिकालिनिकरण सुन्दरे माक्षिक मधु तदेव अलिनिकर भ्रमरसमूहस्तेन सुन्दरे हे सति । सच्चरित्रशालिनि । तस्मिन् सेविते सति श्वासकासयुगमहसञ्चय श्वासकासयुगम् एव अह पाप तस्य सञ्चय समूह प्रणश्यति विनष्टो भवति । रथोद्धतावृत्तम् ।
हिन्दी-हे प्रियतमे । सोठ के रस में शहद मिलाकर सेवन करने से श्वास कास का विनाश हो जाता है।
विशेष-सोंठ सूखी होती है अत इसका रस निकाला नहीं जा सकता अतएव इसका हिम अथवा काथ बनाकर प्रयोग करे ॥ ११ ॥
श्वासकासनाशने योगारेश्वासिनः कासिन औपधानि वहूनि कष्टात् किमिति क्रियन्ते । एक मरीचालिरजो विहाय सितामधुभ्यां मधुराधरोष्ठि \। ॥१२॥
व्याख्या-समीपस्थिता स्वप्रिया मधुराधरोष्ठीतिमम्वुद्वय श्वासिकासिन प्रति योग विशेपकथनमारमते-रे वासिन श्वासरोगोऽस्तीति श्वासी तत्सम्बुद्धौ जसि रूपम् रे कासिन कासरोगाभिभूता कष्टात् परिश्रमाधिक्यात्, धनन्ययाद् वा सितामधुभ्या सह सम्प्रयुक्तम् एक केवल मरीचालिरजो विहाय मरीचमेवालि भ्रमर श्यामत्वात् तस्य रज चूर्ण तद विहाय त्यक्त्वा बहून्यनेकानि औपधानि भेपजोपचारा किमिति कथकार क्रियन्ते यतो हि सर्वाण्युपचाराणि व्यर्थानि क्लेशकराणि वेत्याशय । इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥
हिन्दी-ग्रन्थकार अपनी पत्नी से वार्तालाप करता हा श्वास-कास रोगियों के प्रति कह रहा है-हे श्वास-कास के रोगियो। मिश्री और मधु मिले हुए कालीमिर्च के चूर्ण का सेवन छोड़कर आप और अनेक ओपधियों के सेवन का
व्यर्थ कष्ट क्यों करते हैं । अर्थात् यह भारम्भिक श्वास कास में अत्यन्त लाभकारक .. योग है।॥ १२॥ ________________
तृतीयो विलास’
५१
रक्तपित्तादी वासकप्रयोग – रक्तपित्तकसनक्षयापहं रे द्विजोत्तम भजोत्तमं वृषम् । एप धर्म उचितः सुरद्विपां भेपजेऽपि वृपशब्द इप्यते ॥ १३ ॥
ध्यारया-रे द्विजोत्तम! मो मापाणश्रेष्ठ ! उत्तम श्रेष्ठ रत्तपित्तकसनक्षयापह रक्तपित्तकासराजयब्मरोगापहारिण वृष वासक मज सेवस्व । एप योग कथित । उत्तरार्द्ध तु प्रियन्प्रति मापमाणाया रनकलाया धूपशब्दपरत्वेन परिहासप्रवृत्ति , तत्पक्षे तुरे दिजो’तम । उत्तम पीन वृष वृपम मज मुद्रक्ष्य । अत एव वक्ति सा एप धर्म सुरदिपा राक्षसानान् रचित किम् अन्यन भेपनेऽपि पशब्दश्यते ? अपितु नेप्यत इत्यर्थः अभिनवनिघण्टी वामकगुणा
वासको वानस्वर्य’ कफपित्तास्रनाशक । श्वासकासज्वरच्छदिमेहकुछक्षयापद ॥
हिन्दी-हे द्विजराज। रक्तपित्त कास तथा क्षय का विनाश करने वाले उत्तम गुणयुक्त अहमा का सेवन कीजिये । निम्नलिखित पंक्ति में वृप शब्द के श्लेपात्मक अर्थ को ध्यान में रखकर परिहासपूर्वक रत्नकला अपने पति से कह रही हैवृप-चल का सेवन - भक्षण तो राक्षसों के लिये उचित है, क्या ऐमी वस्तु का उपयोग ओषधि के लिये करना चाहिये १ । रथोद्धतावृत्तम् ॥ १३ ॥ श्वासरोग गुडतेलप्रयोग -
कटुतैलेन संयुक्तो गुडो यावन्न सेवितः।
सप्तराचं कथं तावत् श्वासिश्वासो विनश्यति ॥ १४ ॥ व्याण्या-दवासरोगिणा सप्तरात्र सप्ताह यावत् कटुतलेन सर्पपतैलेन सयुक्तो मिलितो गुटो न सेबिन तावत् कालपर्यन्त श्वासिश्वास श्वासरोगोऽस्यास्तीति श्वासी तस्य श्वामो रोगविशेष कथ केन प्रकारेण विनश्यति । अनुष्ट पछन्द ।
चक्रपाणिरपिगुट कटकलेन मिययित्वा समं लिहेत् । ग्रिसपाहप्रयोगेण श्वास निर्मूलतो जयेत् ॥ हिन्दी-श्वासरोगी जबतक लगातार एक सप्ताह पर्यन्त गुड़ और कहा तेल का सेवन नहीं करता तब तक उसका श्वास रोग शान्त नहीं होता।
विद्योप-लोलिग्यराज के लिखित इस गुढ़ तेल के सेवन का समय एक सप्ताह का है, और चक्रपाणि के योग में तीन सप्ताह का समय दिया गया है। इस अवधि के निर्णय के लिये चिकित्सक से परामर्श करना चाहिये॥१४॥ कासरोगे रास्नादिघृतम्कल्केन रास्नानिकटुत्रिकण्टवलादिमुख्येन च कण्टकार्याः । रसं विपक्चेन घृतेन सद्यः कासाः समस्ताः प्रलयं प्रयान्ति ॥१५॥ । ६ च० चि० ________________
८२
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
व्याख्या-रास्नात्रिकटुत्रिकण्टबलादिमुख्येन सुबहाशुण्ठीमरिचपिप्पलोगोक्षुरवाट्यादिप्रधानेन कल्केन तथा च कण्टकार्या कण्टालिकाया रसे विपक्वेन घृतेन सघ सपदि समस्ता पञ्चविधा कासा प्रलय प्रयान्ति विनष्टा भवन्तीत्याशय. । ‘उपजानिवृत्तम् । यथोक्तम्–
चक्रपाणिना चक्रदत्तेघृत रानाबलाव्योपश्वदष्टाकन्काचितम् । कण्टकारीरसे सपि पच्चकासनिदनम् ॥
हिन्दी-रास्ना सोंठ मिरिच पीपल गोम्वरूखिरेण्टी इन सबका कल्क% चटनी बनाकर कण्टकारी के रस में घी को पकाकर सेवन करने से पाचर्चा कासों का शमन होता है।
विशेष-गोघृत ४ सेर करकद्रव्य १ सेर कण्टकारी का रस १ सेर इन सबको एक साथ मिलाकर घृनपाक विधि से पकाये। तयार हो जाने पर इसका सेवन ६ माशा से लेकर १ तोला तक की मात्रा में करें। यदि स्वरस प्राप्त न हो तो ८ मेर कण्टकारी के पन्चाङ्ग को लेकर ६४ सेर जल में पकाकर १६ सेर शेष रहने पर उताकर प्रयोग करें ॥१५॥ श्वासादी विमीतक प्रयोग
दशाननस्य तनयो वदने संस्थितो जयेत् ।
श्वसनं कसनं वापि तमिवानिलनन्दनः ॥ १६ ॥ व्याख्या-दशाननस्य राव गस्य तनय पुत्र अक्ष अनोपधायें अक्षपदेन विभातकस्य ग्रहणम्, वदने मुखे सास्थित धृत सन् श्वसन श्वासरोग कसन कासरुज नथा जयेत्, यथा त रावणपुत्रम् अझम् अनिलनन्दन अनिलस्य बायोनेन्दन सनु हनूमान् ( अक्षकुमारम् अजयदिति ) । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-रावण का पुत्र भक्ष जिसका पर्यायवाची शब्द बहेड़ा है इसको मुख में रखकर चूसने से श्वास तथा कास का उसप्रकार “विनाश होता है जिस प्रकार हनुमान जी ने उस (अक्षकुमार) का विनाश किया ॥ १६ ॥ शुण्ठयादि क्वाथ -
__ अयि प्राणप्रिये जातीफललोहितलोचने ।
शुण्ठीमागकृतः काथः कलनश्वलनाहिराट् ॥ १७॥ व्यापा-योति सम्बोधन जातोफनलोहितलोचने मालतोफलबद् भारक्तनेत्रप्रान्तवति प्राणप्रिये वरलो! शुण्ठो महोपध भाडो पसा-रतयो कुनो रचित काथ कपाय फसन कास श्वसन श्वास उमयोविनाशाय अहिराट् सर्पराड् एवास्ति । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-जातीफल के समान लाल नेत्रों घाली प्राणप्रिये। सौंठ और भारङ्गी ________________
तृतीयो विलास. के काय का सेवन कास पुय श्वाम रोग के लिये सर्पराज के समान विनाश फारक है।
विशेष-यही पर ‘अहिराट’ शब्द में प्रन्यकार का अभिप्राय यातज कास और चातज श्वास से दी है क्योंकि सदिय रोग का नाशक नहीं अपितु ‘पवनाशन’ होने के कारण वायु फा भएक (अतएव नाशक) होता है ॥ १७ ॥ बागा अतिविपाप्रयोगज्वरचमीकसनानि विनाशयेदतिविषा मधुना सहिता शिशोः। सुमुन्नि सुभ्र सुवर्णविराजिते सुतनु सुन्दरि देव्यपराजिते ॥१८॥ व्याण्या-मुगि रुचिरास्ये सुभ्र कमनीयभूलतायुक्त सुवर्णविराजिते कान्चनाभरग्रने किंच रमणीयवर्णन ससित मुतन शोदरि नुन्दर चित्ताकर्षके देवि दिव्य गुणमण्टिने, अपराजिने बाभिमानिनि मधुना क्षीण सरिता अतिदिपा शृङ्गी शिशो वाल. कस्य स्वरवमीकमनानि विनाशयेत् । अतिपिपागुगा -‘जीर्णज्यरातिसारामविपकासवमिक्रिमीन् , एनदिनि पूर्वणान्यय । उपेन्द्रवरगवृत्तन् । ___ हिन्दी-है सुन्दर मुप भौह वर्ण शरीर तथा गुणों वाली स्वाभिमानिनि प्रिथे ! अतीम को मधु के साथ घटाने से बालों के ज्वर वमन (उलटी) तथा सासी ये रोग शान्त हो जाते है।
विगेप-वास्तव में अतीस का प्रयोग बाल रोगों में अत्यधिक लाभदायक देया जाता है ॥ १८॥
शूलनाशनोयोग - नश्यन्ति शुलाः फटिकुक्षिवस्तौस्तूकतैलाद् दशमूलमिश्रात् । यथा नराणां धनिनां धनानि समागमाद् वारविलासिनीनाम् ॥१९॥ व्याख्या-दशमूलमित्राद उभयपन्नमूलसयुताट म्फनला परण्टतलाव कटिकुक्षिवस्तिमवा पूला तथा नश्यन्ति यथा धनिना विपुलेश्वर्यवता नराणा पुमा धनानि वारविलासिनीनां पण्यवधूनां समागमात सम्पाद, चक्रपाणिरपिचकदत्ते
दशमूलाकपायेण पिवेद वा नागराम्भसा ।
कुक्षिवास्तिकटीशूले नेलमेरण्डसम्मवम् ॥ अन्यदपि- आमवातगजेन्द्रस्प कटीविपिनचारिण ।
एका ण्व निहन्ताऽसौ-परण्टस्तैलकेसरी ॥ हिन्दी-दशमलमिश्रित एरस तेल के सेवन से कमर कुति भीर यस्ति में होने वाला शूल का उस प्रकार का नाश हो जाता है जिस प्रकार वेश्या का समागम करने से धनिकों के धन का । अनुष्टुप्छन्दः। ________________
८४
वैद्यक चमत्कारचिन्तामणिः
रास्तादिकपाय -
रास्नामृतानागरदेवदारुपञ्चाघ्रियुग्मेन्द्रयवैः कपायः।
रुबूकतैलेन निपेव्यमाणो भेत्ता भवेदामसमीरणस्य ॥ २० ॥ व्याख्या-रास्ना सवहा अमृता गुडची नागर शुण्ठी देवदारू सरदारू पञ्चाप्रियुग्मम् उमयपश्चमूलम् इन्द्रयव कुटजबीजम् एतेषां कपायो रूपकमलेनएरण्डजस्नेहेन निपेन्यमाण प्रयुज्यमान सन् आमसमीरणरयामवातस्य भेता विनाशको भवति । इन्द्रवज्रोपेन्द्रवजोपजाति ।
हिन्दी-रास्ना गुइची सोंठ देवदार दशमूल इन्द्रजी इनके क्वाथ का एरण्ड के तेल के साथ सेवन करने से आमवात का विनाश होता है ॥ २० ॥ आमवातप्तोऽपपरोयोग
विलासिनीविलासेन विलासिहदयं यथा।
तथा गुडुचीविश्वेन हरेदाम समीरणम् ॥ २१ ॥ व्याख्या-यथा विलासिनी नायिका तस्या विलासेन हाभभावकटाक्षादिना विलासिहृदय रसिकपुरुषस्य चेतो हरेत् तथा गुडूची छिन्नरूहा विश्वेन शुण्ठ्या सहयुक्ता आमसमीरणम् आमवात हरेत् । अनुष्टुप्छन्द । इत्यामवातप्रतीकार. ।
हिन्दी-जिस प्रकार नायिका के हावभावादि से रसिक का हृदय हरा जाता है उसी प्रकार गुरुच का सोंठ के साथ सेवन करने से आमवात का अपहरण होता है ॥२१॥ अथ नेत्ररोगप्रतीकार - शोभाभिः परिभूतभूभ्रतनये त्रैलोक्यगीतान्वये __ कान्तेऽरण्यकुलस्थिकाश्छगणजे नीरे निधायाम्बरे । सुस्विना वितुषीकृताः कररुहेर्वामध्रुवां चूर्णिताः
पिष्ट्वा सैन्धववोलचूर्णसहिताः सर्वाक्षिरोगापहाः ॥२२॥ व्याख्या–शोभामि सुपमामि परिभूता तिरस्कृता भूधतनया गिरिराजसुता पार्वती यया सा तत्सम्बुद्धौ, त्रैलोक्यगीतान्वये त्रैलोक्ये त्रिलोक्या गीत स्तुत अन्वयो वंशो यस्या सा तत्सम्बोधने, कान्ते प्रियतमे । अरण्यकुलस्थिका वन्यकुलत्थ अम्बरे वस्त्रे निधाय छगणजे नीरे गोमयरसे सुस्विन्ना पाचिता वामनुवा कामिनीना कहरु नखे वितुपीकृता’ त्वग्विरहीकृता पश्चाचचूर्णिता पिष्ट्वा च सैन्धव सिन्धूत्थ बोल जातीरसम् अनयोश्चूर्णसहिता. सर्वाक्षिरोगापहा सर्वविधनेत्रामयग्ना भवन्तीति । शार्दूलविक्रीडितम् ।
हिन्दी-अपने शरीरसौन्दर्य से पार्वती को लजित करनेवाली तीनों लोकों में प्रसिद्ध वंश वाली प्रिये ! जगली कुलथी को कपड़ा में बाधकर उसका गोमूत्र ________________
तृतीयो विलासः में म्वेदन कर छिलके उतार कर सुसाने के बाद चूर्ण बनाकर इसमें सैन्धा नमक और बोल (गन्धरस) चूर्ण महित सबको एक साथ पीसकर अन्जन करने से सभी प्रकार के नेत्र रोगों का शमन हो जाता है ॥ २२ ॥
जयति मारुतपित्तकफैः कृतांबदुविधामपि लोचनयोर्व्यथाम् । दृढतरं मधुना वहुलीकृतो वहलपल्लवपल्लवजो रसः ॥२३॥ व्याख्या-चहलपल्लवो मधुशिग्रु तस्य पल्लवजो रसो नवकिसलयोत्यस्वरस , मधुनां माक्षिकेण बहुलीकृत स्फीतता नीत समृत दृढतर बाढ सेवित सन् मारुतपित्तकफैनिदोप कृता मिलिने पृथक पृथग वा कृता बहुविर्धा विभिन्नप्रकारवतीम् अपि लोचनयोwथा नेत्रपीटा जपति विनाशयतीत्यर्थ । वाग्मटोऽप्याह
वातपित्तकफसन्निपातजा नेप्रयोर्वद्दुविधामपि व्यथाम् ।
शीघ्रमेव जयति प्रयोजित शिपल्लवरस समाक्षिक । यष्टाजदये। चक्रपाणिरपि- शिपल्लवनिर्यास सुघृष्टस्तानसम्पुटे ।
धृतेन धूपितो इन्ति शोथहर्षानुवेदना ॥ अत्र योगे घृतस्य यौगिकत्वेनास्य प्रयोगो विहितो वर्तते एतदेव तस्माद वैशिष्टयम् ।
इनविलम्बितकृतम् ।
हिन्दी-लाल सहजन की पत्ती का रस मधु मिलाकर आंखों में ढालने से वात पित्त कफ जनित तथा और भी अनेक प्रकार की नेत्र वाधायें निश्चित दर हो जाती हैं ॥ २३ ॥ अर्जुनचिकित्सासाह
कुवलयनयनेऽर्जुन कफोत्थः सह सितयाशु निराचरीकरीति । प्रियकरमिव कामिनी नवोढा निहितमुरोजयुगे लघुप्रमाणे ॥२४॥
ध्याख्या हे कुवलयनयने कुवलय नीलकमल तटवन्नीले नयने नेत्रतारिके यम्याः सा तत्सम्युद्धी, सह सितया प्रयुक्त कफोत्थ समुद्रकफ अर्जुन तदाऽऽरव्यनेत्ररोगम् आशु निराचरीकरीति दुरीकरोति । यथा नवोढा नवविवाहिता कामिनी कामप्रवणापि लघुप्रमाणे स्वल्पाकारवति उरोजयुगे स्तनयुग्मे निहितम्प्रयुक्त प्रियकरमिव पत्यु पाणिपल्लवमिव आशु निराचरीकरीति, पूर्वेण सम्बन्ध’ । पुष्पिताग्रावृत्तम् । अर्जुनरोगस्य स्वरूपम्
एको य शशरूधिरोपमश्च विन्दु.।
शुक्लस्यो भवति तमर्जुन वदन्ति । स उ म ४॥ मतान्तरे यथाह रविगुप्त
-कृष्णमागे सित विन्दु शुक्ल विद्यात कफारमकम् ।
रक्त च शुक्लभागस्थमर्जुन शोणितोद्भवम् ॥ चिकित्सासाम्यम्- शट्ख क्षौद्रेण संयुक्त कनक सैन्धवेन वा।
सितयाऽर्णवफेनो - वा पृथगअनमर्जुने । चक्रदत्ते। ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः हिन्दी-नीलकमल के सहश नेत्रवाली प्रियतमे । मिश्री के साथ समुद् फेन का प्रयोग उस प्रकार अर्जुन (फूली) नामक नेत्र रोग को शीघ्र दूर हटाता है, जिस प्रकार नवविवाहित कामिनी अपने छोटे स्तनों के ऊपर रखे गये अपने प्रियतम के हाथ को ॥ २४ ॥ सामान्यनेत्ररोगचिकित्साइति निगदितमायें नेत्रसारं विधत्ते
घृतमधुसमवेता सेविताग्या निशायाम् । शशिमुखि रतिलीलालोलदृष्टे त्वमग्या
कथमहह विधत्से वैपरीत्यं परन्तु ॥२५॥ व्याख्या–हे आर्ये ! रत्नकले । घृतमधुसमेवता गन्याज्यमाक्षिकाभ्यां सम्मिलिता अग्या त्रिफला निशाया रात्री सेविता प्रयुक्ता सती नेत्रसार नयनसुख विधत्ते करोनीति निगदित कथितम् । हे शशिमुखि ! चन्द्रवदने! रतिलीलालोलदृष्टे रतिलीला कामक्रीडा तस्या लोला चम्कला दृष्टिः यस्या सा तत्सवुद्धी, यद्यपि त्वम् अग्या बुद्धिमती विदुषी च तथापि, अहह ! इत्याश्चर्ये परीत्प मैथुनरूप विपरीताचरण कथ कस्मात् कारणात् विधत्से करोपि, यतोहि नेत्ररोगेपु मैथुनम् अपथ्यत्वेन निपिद्धम् । तद्यथा
कोध शुच मैथुनमश्नुवायुविण्मूत्रनिद्रावमिवेगरोधान ।
नरो न सेवेत हिताभिलाषी रोगेषु सर्वेषु दृगाश्रयेषु ॥ हिन्दी-हे मार्य गुणोंवाली रत्नकला। रात में घी और मधु के साथ त्रिफला का सेवन करने से सभी प्रकार के नेत्र रोगों में लाभ होता है। चन्द्रमा के सहश मुख तथा काम क्रीडा में चञ्चल चितवन वाली प्रियतमा यद्यपि तुम श्रेष्ठ हो फिर भी इस प्रकार का विपरीत आचरण क्यों कर रही हो । मालिनी वृत्तम् । , विशेष-इस पद्य में त्रिफला सेवन की विशेषता एव नेत्र रोग में मैथुन अपथ्य होता है, इन दो बातों का उल्लेख ग्रन्थकार को अभिमत है ॥२५॥ नक्तान्ध्यचिकित्सा
निराकरोति नक्तान्ध्यं तथा गोशकृता कणा ।
यथा रतन रमणी रमणस्य महावलम् ॥२६॥ व्याख्यानोशकृता गोमयरसेन युक्ता कणा पिप्पली नक्तान्ध्य रात्र्यन्धत्व तथा निराकरोति दूरीकरोति यथा रमणी नवोढा नायिका रमणस्य मैथुनशीलस्य पुस महाबलम् (निराकरोतीत्यर्थ ) । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-रतौंधी रोग में गाय के गोवर के रस में पीपल को पीसकर नेत्रों में लगाने से उक्त रोग उस प्रकार क्षीण हो जाता है, जिस प्रकार अधिक मैथुन करने से मानव का बल (क्षीण हो जाता है)॥२६॥ ________________
तृतीयो विलासः
८७ नेप्रकुमुमरोगे अपराजिता प्रयोग -
श्वेतापराजितामूलं घर्पितं शीतवारिणा । ___ अञ्जनान्नेत्र कुसुमं कुसुमस्य निकृन्तनम् ॥ २७ ॥ व्याख्या–शीतवारिणा शिशिरजरेन धपित घृष्ट स्वेतापराजितामूल गिरिकाणिकाया जटां तरय प्रश्नात् प्रयोगात् नेत्रकुम्म चक्षुरथपुष्पाऽऽरव्यरोग तरय कुसमरूपरोगस्य निकृन्नन विनागकर भवनि । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-सफेद अपराजिता की जट को गीतल जल में घिसकर आंख में लगाने से कुसुम (फूली या फूला ) रोग का शमन होता है ॥ २७ ॥ शुकरोगे माक्षिकप्रयोग
नारिकेलफलस्थूलस्तनमोहितमानसे।
_ हरिणाक्षि हरेच्छुलं माक्षिक माक्षिकान्वितम् ॥ २८ ॥ व्याख्या-नारिकेलफलम्युलन्तनमोहितमानसे दृढफलवत्पीनकुचयुगलाभ्या मोहित स्वायत्तीकृत मानस मन यया सा तत्सम्बुद्धी इत्थम्भूते हे हरिणाक्षि हरिणस्य अक्षिणीश्व अक्षिणी यरया सा तत्सम्बोधने हे मृगनयनि ! माक्षिकान्वित क्षौद्रेण सहित माक्षिक स्वर्णमाक्षिक शुक्र शुक्ल कुसुमाऽख्य रोग हरेद् विनाशयेत् । अनुष्टप्छन्दः । चक्रपाणिरपि तथैव व्याचक्षते- ताप्य मधुकसारो वा वीजञ्चाक्षरय सैन्धवम् ।
मधुनाशनयोगा स्युश्चत्वार शुकशान्तये ॥ हिन्दी-नारियल के सदृश स्यूल स्तनों से मन को मोहित करनेवाली, हरिणके समान विशाल एव चखल नेत्रों वाली प्रिये । स्वर्णमाक्षिक को शुद्ध करके मधु के साथ घिसकर उसका अन्जन लगाने से शुक्र (फूली)रोग का शमन होता है।॥२८॥
इति नेत्ररोगचिकित्सा समाप्ता। अथकामलाचिकित्सामाहसवासावयस्थे सभूनिम्बनिम्बे सतित्तोत्तसे क्षौद्रयुक्ते कपाये । निपीते ध्रुवं क्षीयते पाण्डुरोगान्विता कामलाकोमलाऽकोमलापि ॥२९॥
व्याख्या-हे उत्तमे श्रेष्ठगुणशालिनि ! सवासावयरथे वासकहरीतक्या (क्यस्था शब्देन गुडूचीमपि गृहन्ति ) ताभ्या सह सभूनिम्बनिम्बे किरातपिचुगन्या साक सतिक्ता कटकया समक्षीद्रयुक्त मधुमिश्रिते कपाये काथे निपीते सेविते सति पोमला नवीना अकोमला प्राचीनापि पाण्डुरोगान्विता पाण्टुरोगेण सयुक्ता कामा ध्रुव धीयते विनश्यतीत्यर्थः । एपयोग कामलाया पाण्डुरोग च पृथक् पृथक प्रयुक्तोऽपि लाभकारी भवति । मुजङ्गप्रपातम् । कामलापाण्डुरोगलक्षणानि चरकादिपु द्रष्टच्यानि । ________________
८८
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः यथाह चक्रपाणि- फलयिकाऽमृतावासातिक्ता भूनिम्बजे कुन ॥
काथ क्षौद्रयुतो हन्यात पाण्डुराग सकामलम् ॥ चक्रदत्ते । हिन्दी-हे रस्नकला! अडूसा हरीतकी चिरायता नीम की छाल और कुटकी इनके क्वाथ का मधु के साथ सेवन करने से नवीन अथवा पुराना पाण्डरोग सहित कामला रोग का शमन होता है ॥ २९ ॥ पटोलादि क्वाथ -
पटोलपाठाकटुरोहिणीनां छिन्नोद्भवाशीतमधुम्रवाणाम् । क्वाथो विपच्छर्दिवलासपित्तकुष्ठज्वरारोचककामलासु ॥३०॥ व्यासया-पटोल राजीफल पाठा अम्बष्ठा कटुरोहिणी कटका तासा, तथा छिन्नोद्भवा गुडूची अशीतम् ऊपणम् मधुस्रवो गुटपुष्प समांशकांनाम् एतेपा द्रव्याणा कृत कपाय विषे तज्जन्यविकारे छरी वमने वलासे कफोत्थे रोगविशेपे पित्तविकारे ज्वरे अरोचके कामलायाश्च सेन्य । उपजातिवृत्तम् ।
हिन्दी-परवल पाठा कुटकी गिलोय मरिच महमा इनको समभाग लेकर क्वाथ बनावे। यह क्वाथ विष विकार वमन कफ और पित्त विकार कुष्ठ ज्वर अरुचि तथा कामला रोग में लाभ करता है॥३०॥
कामलाइरो योग - उडुनाथवलापिचुमन्दवला त्रिफला कटुका कथितं सलिलम् । घृतमाक्षिकमकिल कामलयासहितस्य हिताय बुधैःकथितम् ॥३१॥
व्याख्या-उडुनाथ सोमराजी बला महावला पिचुमन्दो निम्ब वला अनिवला, त्रिफला हरीतक्यादिफलत्रय कटुका कटुरोहिणी एभिन्ये कथित सलिल परिपकजल घृतमाक्षिकमद् गोघृतमधुभ्या मिलित कामलया सहितस्य पाण्डुरोगस्य हिताय लाभाय दुधे तविध वैच. कथितम् आम्नात किलेति प्रसिद्ध । तोटकवृत्तम् ।
हिन्दी-धाकुची महावला (सहदेई) नीम की छाल अतिवला (कपी) त्रिफला कुटकी इन ओपधियों से निर्मित क्वाथ में (विषम भाग) घी और मधु मिलाकर सेवन करने से कामलायक पाण्डरोग शान्त हो जाता है, ऐसा विहान वैद्यों का कथन है ॥ ३१ ॥
कामलाहरो योगत्रिफलया मधुना रजसाऽयसः कटुकया पिचुमन्दसमेतया । प्रलपमेति मनस्त्रिनि कामला सवृतयाऽमृतया कुसुमाम्बुना ॥१२॥ व्यापा-३ मनास्वनि वात्माभिमानिनि । अपोलिखिनेनिमियांग कामला रोगविशेष प्रलयमेति विनश्यति, योगा -त्रिफलया फलत्रिकेण भयसो रजसा लोहभस्मना ________________
५६
तृतीयो विलासः मधुना क्षोद्रेण च एको योग , पिचुमन्दसमेतया निन्वयुक्तया कटकया तिक्तया इत्यपरो योग सघृतया गन्येन महितया अमृतया गुइच्या कुसुमाम्युना मधुना, इति तृतीयो योग ॥
हिन्दी-हे स्वाभिमानवाली रत्नकला! नीचे लिखे हुए तीन योगों से कामला रोग का विनाश होता है। अर्थात् इनका सेवन करने वाला कामला रोगी अपने रोग से मुक्त हो जाता है। योग-त्रिफला का चूर्ण, लोह, भस्म, मधु के साथ या नीम तथा कुटकी का चूर्ण, अथवा घी और मधु के साथ गुरुच । द्रुतविलम्बित वृत्तम् ।
विशेष-इस श्लोक का प्रथम पद मूल में इस प्रकार है, “ममधुलोह रजस्त्रिफलामृता” व्याकरण की दृष्टि से इसकी अर्थ सगति नहीं होती अत. उन्हीं द्रव्यों को इस प्रकार “त्रिफलया मधुना रजसाऽयस” बदल दिया है ॥ ३२॥ अपर. कामलाहरो योग -
हिड्ना पूर्णनेत्राणां द्रोणपुप्पीरसेन वा।
कामला मूलतो याति देहिनां पथ्यकारिणाम् ॥ ३३॥ व्याख्या-हिना हिगुपत्रीरसेन पूर्णनेत्राणा रोगिणा द्रोणपुष्पी द्रोणा ( गूमेति लोकेप्रसिद्धा) तस्या रसेन वा ‘पथ्यकारिणाम्पथ्याशिना देहिना शरीरिणा रोगिणा कामला रोगविशेपो मूलतो याति समूल विनश्यतीत्यर्थ । अनुष्टुप्छन्द । यथाह चक्रपाणि - अअन कामलार्ताना द्रोणपुष्पी रस. स्मृत ॥ चक्रदत्ते ॥ कामलारोगे पथ्यम्-पुराणयवगोधूमशालयश्च पुनर्नवा ।
मुद्गाढकोमसूराणा यूपो जागलजो रस ॥ पटोल वृद्धकूष्माण्ट तरुण कदलीफलम् । मत्स्येपु मुद्गर शृङ्गी तक धान्यभया घृतम् ॥ रसोन पक्कमाम्रञ्च वार्ताकुरमृता निशा।
कामलारोगिणामेतत् पथ्यमुक्त चिकित्सक ॥ हिन्दी-कामला रोगी के नेत्रों में हिंगुपत्री का या द्रोणपुप्पी (गूमा) का रस डालने से और पथ्य का सेवन करने से कामला रोग का समूल विनाश हो जाता है ॥ ३३॥ कामलारोगनाशकम् अजनम् -
कामलामलमूलस्योन्मूलनं किल कल्पयेत् ।
गौरीगैरिकगौरीभिरजनं जनरञ्जनम् ॥ ३४ ॥ न्याख्या–गौरी हरिद्रा गैरिक स्वर्णगैरिक गौरी धात्री गोरोचन वा एमिद्रव्यैः निर्मितम् एतद् अक्षन जनरजन रोगनाशकत्वात् लोकप्रमोदकर भवति अत एतेन ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः कामलामलमृलस्य कामला एव मलो रोग तस्य मूलस्य रोगोत्पत्तिकारणस्य उन्मूलन विनाशन किलेति प्रसिद्ध कल्पयेत् । अनुष्टुप्छन्द । । यथाह चक्रपाणि चक्रदत्ते
निशागैरिकपात्रीणा चूर्ण वा सम्प्रकल्पयेत। हिन्दी-हल्दी स्वर्णगेंरिक (हिरोजी) और भावला के चूर्ण का ‘अञ्जन लगाने से कामला रोग का विनाश हो जाता है। रोग विनाशक होने के कारण यह अत्यन्त लोक प्रिय है ॥ ३४॥
कामलारोगे स्वरसप्रयोग.छिन्नारस वा त्रिफलारसो वा दारिसो वा पिचुमन्दकं वा। प्रातः प्रपीतो मधुना समेतः सफामलानां सुधया समानः ॥३५॥ व्याख्या-छिन्ना गुडची तस्या रस वा, अथवा त्रिफला फलत्रिक तस्य रस वा, दावी हरिद्रा तस्या रस वा, पिचुमन्दक निम्ब तस्य रस वा प्रात प्रमाते मधुना समेत क्षौद्रेण मिश्रित प्रपीत पीत सन् कामलाना कामलारोगवता कृते सुधया समान पीपूपकल्पो भवति । इन्द्रवजावृत्तम् । यथाह चक्रपाणि । चक्रदत्ते-त्रिफलाया गुडच्या वा दाा निम्बस्य वा रस । ।
प्रातर्माक्षिकसयुक्त शीलित कामलापह ॥ हिन्दी-गुरुच त्रिफला दारुहरूदी अथवा नीम इनमें से किसी एक के रस को मध मिलाकर प्रातःकाल सेवन करने से कामला रोग का विनाश होता है। यह योग कामला रोग से पीड़ित मानवों के लिये अमृत के समान लाभदायक है ॥३५॥
इति कामलाप्रतीकार। अथ योनिशुलप्रतीकार - पिचुमन्दसमीरशत्रुवीजैः पिचुमन्दस्य रसेन साध्यमाना।
गुटिका भगगर्भवर्तमाना भगशूलस्य महाबलस्य हन्त्री ॥ ३६ ॥ व्याख्या-पिचुमन्दो निम्ब समीरशत्रु एरण्ड एतयो वीजै फलचूर्णं पिचुमन्दस्य रसेन साध्यमाना विरच्यमाना गुटिका वटी भगगर्मवर्तमाना योनिमध्यस्थिता सती महापलस्य तीवस्य भगशूलस्य योनिवेदनाया हन्त्री विनाशिका भवतीति । मालभारिणी वृत्तम् ।
हिन्दी-नीम तथा एरण्ड के बीजों के चूर्ण को नीम के रस की भावना देकर गोली बनाकर योनि के भीतर रखने से तन योनि शल का शमन होता है ॥ ३६ ॥
अपरो योगःछागीघृतेनोत्तरवारुणीनां मूलानि पिष्ट्वा गुटिका निबद्धा। तन्व्याः सुदृष्टे सुभगे भगस्था भर्गायुधाऽऽख्यं गदमाशुहन्ति ॥ ३७॥ ________________
तृतीयो विलास
व्याख्या हे सुदृष्ट! शोभना दृष्टिर्यस्या स तत्सम्मुद्धौ, तथा हे सुभगे ! ऐश्वर्यशालिनि ! उत्तरवारुणीनाम् इन्द्रवारुणीना मूलानि जटा छागी घृतेन अजाया आज्येन पिष्टवा चूर्णीकृत्य निवडा घटिता गुटिका वटी तन्च्या कृशोदर्या भगस्था योनिमध्यधृता मायुधाऽऽरव्य मर्ग शिव तस्य आयुध शल त गद रोगम् आशु शीघ्र हन्ति विनाशयति । इन्द्रवज्रावृत्तम् ।
हिन्दी-हे सुन्दर दृष्टि एवं ऐश्वर्य युक्त रनकला इन्द्रायण की जड़ को घी में पीसकर गोली बनाकर योनि के भीतर रम्बने से योनिशूल का शमन होता है ॥३७॥
सुखप्रसवोपाय - पिष्टानि यष्टीमधुवीजपूरवीजानि मध्वात्ययुतानि पीत्वा । सूते शरच्चन्द्रमुखी सुखेन सूर्खस्य वैद्यस्य विकल्पनाऽत्र ॥ ३८ ॥ ध्याख्या-यष्टी मधुयष्टी मधु मधुकर्कटी, यथोक्तम् अभिनवनिघण्टौ ‘वीजपूरोऽपर प्रोक्तो मधुरो मधुकर्फटी’ वीजपूरो मातुलुङ्ग एतयो पिष्टानि चूर्णीकृतानि बीजानि मध्वाज्ययुतानि धृतमधुमिश्रितानि पीत्वा शरच्चन्द्रमुसी चन्द्रवदना सुखन सुते वाल जनयति, अत्र योग मूर्सग्य वधस्य विकल्पना सन्देह , न त्वन्यस्य । इन्द्रवजावृत्तम् । यथाह चक्रपाणि - मातुलजस्य मूहानि मधुफ मधुसयुतम् । घृतेन सह पातन्य मुख नारी प्रसूयते ॥ चक्रदत्ते ॥
हिन्दी-मुलेठी मधुकर्कटी (कुमाउनी भाषा में-मतकाकड़ी) बिजौरा नीबू इनके बीजों को पीसकर घी और शहद के साथ मिलाकर पीने से सुखपूर्वक प्रसव होता है। इस योग के सम्बन्ध में केवल मूर्स वैद्यों को ही सन्देह होता है और किसी को नहीं॥३८॥
वज्रीदुग्ध प्रयोग - अपूर्वमेकं विहितं त्वया नो कल्याणशीलेऽचपले चलाक्षि । चोभूयते मूनि वज्रिदुग्धे न्यस्ते वधूनां सुखतः प्रसूतिः ॥ ३९ ॥ व्याख्या-हे कल्याणशीले परोपकारवति अवपलेऽचञ्चले साध्वि चलाक्षि चञ्चलनयने त्वया एकम् अपूर्व योग विहितम् उपदिष्टम् । मूर्धनि शिरसि वज्रिदुग्धे स्नहीपयसि न्यस्ते धृते सति वधूना गर्मिणीना सुखन प्रसूति गोभूयते सम्भवतीत्यर्थ । उपजातिवृत्तम् ।
हिन्दी-हे कल्याणकारक स्वभाव सरल तथा इञ्चल नेत्रों वाली प्रिये । तुम ने एक अपूर्व योग का वर्णन किया। वह योग निन्नलिखित है-प्रसवकाल में यदि गर्भवता के शिर मैं सेहुण्ड का दूध रख दिया जाय तो अधिक सरलता के साथ प्रसव होता है।॥३९॥ ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
स्तन्यवृद्धिकरो योग - कृतप्रशंसे प्रथमप्रसङ्गे विलासिनीनां कठिनस्तनीनाम् । कुर्याद् विदारीजपयःपयोभिः पयोभिवृद्वि कुटिलालकानाम् ॥४०॥
व्याख्या-प्रथमप्रमझे प्रारम्मिकसमागमकाले कृतप्रगसे कृता प्रगसा यस्या सा तत्सम्वुद्धी, कठिनस्तनी कठोरस्तनवतीनां कुटिलालकानाम् अरालकेशीना विलासिनीनां नवयुवतीना विदारीजपयः विदार्या चूर्णन सिद्ध पय दुग्ध पयोमि गवा दुग्धैं सह सेवित पयोऽभिवृद्धिं दुग्धस्फीतिं कुर्यात् । उपेन्द्रवज्रावृत्तम् ।
हिन्दी-प्रथमसमागमकाल से प्रशसित धुंघुराले बाल वाली तथा कठोरस्तन चाली प्रियतमे । दूध में पकाये हुए विदारी चूर्ण का दूध के साथ सेवन करने से विलासिनियों के दुग्ध की वृद्धि होती है ॥ ४० ॥
दुग्धवृद्धिकरो द्वितीयो योग - भजन्ति या निर्मलतण्डुलानां रजांसि दुग्धेन सह स्थितानि । क्षीरोदनेनैव सहस्थितानां तासां बधूनां सखि दुग्धमृद्धम् ॥४१॥
व्याख्या-हे सखि ! रलकले ! अत्र सखिशब्देन लोलिम्बराज स्व प्रेयसी सम्बोधयति, यथोक्त चाणक्येन ‘भार्या मित्र गृहेषु च। या स्त्रियो दुग्धेन पयसा सह स्थितानि मिलितानि निर्मलतण्डुलाना विमलगालिना रजांसि चूर्णानि भजन्ते सेवन्ते तासा किंवा क्षीरोदनेनैव सहस्थिताना दुग्धौद्रनमात्रभोजनपराणां वधूनां दुग्ध स्तन्यम् ऋद्धम्भवति वर्धते । उपजातिवृत्तम् । दुग्धेन शालितण्डुलचूर्णपान विवर्द्धयेत् । स्तन्य सप्ताहत क्षीरसेविन्यास्तु न संशय ॥चक्रदत्ते॥ ____हिन्दी-हे सखी ! साफ किये हुए शालि चावलों के चूर्ण का दूध के साथ सेवन करनेवाली, तथा केवल दूध के साथ शालि चावलों का भात खानेवाली स्त्रियों का दूध बढ़ जाता है॥४१॥ रज प्रवृत्ती प्रयोग -
इन्द्रवारुणिकामूलं योनिमण्डलमध्यगम् ।
प्रतीप्रदर्शिनी पुष्प रोधध्वंसनसाधनम् ॥ ४२॥ व्याण्या-योनिमण्डलमध्यग भगमध्यधृतम् इन्द्रवारुणिकामूल गवाक्षीमूल प्रतीपदशिनी नारी तस्या पुष्परोषध्वसनसाधन रज प्रवृत्ती कारणम्भवतीति । सत्या गर्भस्थिती योगोऽय न प्रयोक्तव्य (अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-इन्द्रायण की जड़ का बाहरी भाग छील कर हटा दें फिर उसको पीसकर योनि के भीतर रखने से नष्टार्तव अथवा कष्टार्तव रोग दूर हो जाता है।
विशेष—इसकी बत्तीसी बनाकर गर्भाशय के मुख के भीतर डाल देने से आर्तव की प्रवृप्ति शीघ्र होने लगती है। इसके सेवन के पूर्व यह मालूम कर लेना ________________
तृतीयो विलास
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चाहिये कि मासिक धर्म गर्भाधान के कारण तो रुका नहीं है। गर्भावस्था में इसका प्रयोग क्दापि न करें ॥४२॥ नमेव योग प्रकारान्तरेणयदि भवदनुजायाः पुष्परोधोऽस्ति मुग्धे
क्षिप मृटुलमुपस्थे म्थूलमूलं गवाक्ष्याः। वदति वचनमित्थं लाललोलिम्मराजे
हर हर हरिणाक्षी हीलप्नुढे निमग्ना ॥ ४३ ॥ व्याख्या-हे मुग्धे । प्रेयसि । यदि भवदनुजाया तवमगिन्या पुष्परोधोऽस्ति नष्टाविरोगोऽस्ति तहिं मृदुलमुपस्थ कोमलाया योनी गवाक्ष्या इन्द्रवारुण्या स्थूलमूल यहूदाकारा जटी क्षिप परेशय इत्वं पूर्वोक्तप्रकारक वचन लोलिम्बराने स्वस्वामिनि वदति सति हर हरेनिलज्जाया नीबानुभूति तस्या, हरिणाक्षी मृगनयनी ही समुद्रे डी लज्जा एव ममुद्र तस्मिन निमग्ना पतिता, अर्थात् लजावनतनुखी जातेत्यर्थ । मालिनीवृत्तम् ।
हिन्दी-हे रसकला । यदि तुम्हारी बहिन को नष्टार्तव रोग है तो उसकी योनि में इन्द्रायण की मोटी जड़ को डाल दो (इसमे मासिक नाव खुलकर होने लगेगा।) इतना सुनते ही रनकला ला रूपी समुद्र में मानो हम गई । अर्थात् उसने लजित होकर अपना सिर नीचा कर लिया।
विशेष टोलिम्वराज ने इस पद्य में उपहास का स्वरूप मात्र प्रदर्शित किया है। यही योग इसके पूर्व श्लोक में वर्णित है। ग्रन्धकार का ‘लोलिम्घराज के अतिरिक्त ‘लोलिम्मराज नाम मी अनेक स्थलों पर प्राप्त है । ॥ ३ ॥ स्तन्यशोधनोपाय - दुष्टं भवेदयदि पयः पुरतो भवत्या
स्तर्हि प्रियस्तनि भजस्व सुखं कषायम् । गोप्यौपचामृतवृकीकटुकान्दमू
भूनिम्बदारुसुरराजयवप्रयोगम् ॥४४॥ व्याख्या-हे प्रियस्तनि रमणीयकुचवति ! यदि मवत्या रलकलाया. पुरत अग्रे पय. दुग्ध दुष्ट दृपित मवेत तहिं मुस सुखकर निम्नलिखित कपाय काय मजस्व । काथ्यद्रव्याणा निर्दश -गोपी सारिया गौपधं शुण्ठी अमृता गुडची वृकी पाठा कटका तिक्ता अब्द मुस्तक मूर्वा पीलुपी भूनिम्ब किरात दारु देवदारु मुरराजयव इन्द्रज एतेपा द्रव्याणा काथरूपेण प्रयोग कुरु । वसन्ततिलकावृत्तम् ।
हिन्दी-हे सुन्दर स्तनों वाली रखकला । यदि आगे कभी आपके स्तनों का दुध दूपित हो जाय तो उस रोग में लाभदायक निम्नलिखित दस द्रव्यों के साथ ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः का सेवन करना चाहिये। द्रव्य-सारिवा सोंठ गिलोय पाढल कटुकी नागरमोथा मूर्वा चिरायता देवदारु और इन्द्रजौ ॥ ४४ ॥ सूतिकाज्वरादौ योग - श्रीखण्डपर्पटघनामृतधान्यसेव्य
ह्रीवेरयासकवलातिविषारलनाम् । क्वाथो हितो भवति गर्मिणि सूतिकासु
सद्यो रुगामरुधिरातिमृतिज्वरघ्नः ॥४५॥ व्याख्या-हे गर्मिणि । गर्मोऽस्यास्तीति गर्भिणी तत्सम्बुद्धी, श्रीखण्ड रक्तचन्दन पर्पट वरतिक्त घन मुस्ता अमृता गुडूची सेव्यम् उशीर होवेरम् उदीच्य यासक. यवास वला महावला, अतिविपा विपा अरलु श्योनाक एतेपा काय सूतिकामु प्रसनकालादारभ्य सार्धमासपर्यन्त जायमानेषु विकारेपु प्रयोज्य तथा एप योग सघोरुगामरुधिरातिसूतिज्वरघ्न सघोरुज तात्कालिकी वेदनाम् आमातिसार रक्तातिसार अतिसार ज्वरन विनाशयति । वसन्ततिलकावृत्तम् । हीवेरादिकपाय - होवेरारलुरक्तचन्दनवलाधान्याकवत्सादनी
मुस्तोशीरयवासपर्पटविपाकाथ पिवेद गर्भिणी । नानादोपयुतातिसारकगदे रक्तनुतौ वा ज्वरे
योगोऽय मुनिभि पुरानिगदित सत्यामये शस्यते ॥ चक्रदत्ते॥ हिन्दी-हे गर्भिणी । निम्नलिखितयोग सुतिका रोग, तात्कालिक वेदना आमातिसार रक्तातिसार तथा ज्वर का विनाश करता है। काथ्यद्गव्यलालचन्दन, पितपापड़ा, नागरमोथा, गुरुच, खस, सुगन्धवाला, जवासा, खिरैटी अतीस, सोनापाठा।
विशेष-प्रसव काल के बाद ४५ दिन तक होने वाले विकारों को सूतिका रोग कहते हैं। चक्रदत्त आदि चिकित्सा ग्रन्थों में यह योग हीबेरादि हाथ के नाम से प्रसिद्ध है। चक्रपाणि ने इस योग में धनियाँ अधिक लिखा है॥४५॥
प्रदरहरोयोगरसाक्षनाम्भोधरदारुपीतामूनिम्बभल्लाततिलैः कषायः।
क्षौद्रान्वितश्चञ्चललोचनानां नानाविधानि प्रदराणि हन्ति ॥ ४६ ॥ व्याख्या-रसाशन दावीरसोद्भव द्रव्यम् अम्मोधर मुस्ता दारुपीता दारुहरिद्रा भूनिम्ब किरात मल्लात शोमकृत् तिल कृष्णतिल एभि द्रव्यै । कृत क्षौद्रान्वित मधुना सहित कषाय काथ चश्चललोचनाना नवयुवतीना नानाविधानि चतुष्प्रकारकाणि प्रदराणि इन्ति विनाशयति । उपजातिवृत्तम् ।
नानादोपयुतातिसारका
त सत्यामये शस्यते ॥
वेदना ________________
तृतीयो विलास.
दाादिकाथ -दावीरमाखनवृपादकिरातविल्य मलातरवकृतो मधुना कपाय.।
पीतो जयत्यतिवन प्रदर सशूल पीतासितारुणविलोदिननील शुकुम्॥चक्रदत्त॥ हिन्दी-रसौत नागरमोथा दारुहन्दी चिरायता भिलावा काला तिल इनके फाथ में मधु मिलाकर सेवन करने से नव युवतियों के सभी प्रकार के प्रदरों का विनाश हो जाता है ॥ ४६ ॥ प्रदरे कशमूलप्रयोग -
भुवनत्रितयेऽपि निस्तुले कुराभूल प्रदरं विनाशयेत् ।
कलिकल्मपनाशनोचितं विमलं शालिजलेन सेवितम् ॥ ४७ ॥ व्याख्या-हे वनप्रितयेऽपि निस्तुले त्रिलोक्यामपि यस्या रूपालादीना तुलना नास्ति, इत्यम्भृते स्लकले । कलिकरमपनाशनोचित कलियुगोत्पन्न पापममूहविनाशदक्ष कुशमूल दर्मजटा विमल विशुद्ध शालिजलेन तण्डुलवारिणा सेवित प्रदर स्त्रीणा रोगविशेष विनाशयेत् (यथाइ चकपाणि - कुशमूल समुद्धृत्य पेपयेत्तण्डुलाम्बुना । तत्पीत्वात्र्यहानारीप्रदरात् परिमुच्यते ॥चक्रदत्त।
हिन्दी-तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ रखकला! सम्पूर्ण कलियुग के पापों का विनाश करने वाली कुश की जड़ निर्मल शालि चावलों के धोवन से सेवन करने पर प्रदर रोग का विनाश करती है। वियोगिनीवृत्तम् ॥ ४७ ॥
गर्मिणीशूलहर कपाय - उरुत्रुककुशकाशगोक्षुराणां कनकलते ललिताकृते स्त्रि मूलैः।
तमिदमपहन्ति दुग्धमिन्दुद्यतिपुखि गर्भवतीजनस्य शूलम् ॥४८॥
ध्यारख्या-उवकाशकाशगोक्षुराणाम् एरण्टदर्मपोटगलनिकण्टकाना मूले जटामि मृत पाचित दुग्ध पय गर्मवतीजनस्य धृतगर्माया स्त्रिय शल वेदनाम् अपहन्ति विनाशयति । हे कनकलते कृशोदरि ललिताकृने रुचिरतनु इन्दुपुति चन्द्रमुसि त्रि! उपरिलिखिनोऽय योगो गर्मपतीशूल हरति । यथार चक्रपाणि - कुगकाशोगकाणां मूलंगोक्षुरकस्य च । शृत दुग्ध सितायुक्तगर्मिण्या शूलनुत् परम् ॥चकटत्ते॥
हिन्दी-हे कृशोदरी सुमुसी चन्द्रमा के समान कान्ति वाली स्त्री \। रेट की जह कुश कास तथा गोसह की जड़ों के करक से पकाया हा वृद्ध, गर्भिणियों के शूट को शान्त करता है।॥१८॥ स्तनरोगहरो लेप - सुन्दरि कामिनि मङ्गलमूर्त यौवनशालिनि निर्मलवृत्ते । शाम्यति सत्वरमेव विशालामूलविलेपनतस्तनपोडा ॥ ४९ ॥ व्याख्या-सुन्दरि रमणीये, कामिनि वासनायुक्ते मालमूर्ते सोम्याकृतिमति, यौवन ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः शालिनि नवोधयौयने निर्मलतृत्ते सच्चरित्रवति विशालामूलविलेपनत’ इन्द्रवारुणीमूललेपार स्तनपीडा सत्वरमेव यथाशीघ्र शाम्यति । यथाइ चक्रपाणि -
विशालामूललेपस्तु हन्ति पीडा स्तनोत्थिताम् ॥ चक्रदत्ते ॥ हिन्दी-सुन्दरी कामिनी सौम्य आकृतिवाली युवती तथा सच्चरित्र रत्नकला। इन्द्रायण की जड़ का लेप स्तनों की पीड़ा को शीघ्र ही शान्त करता है दोधकवृत्तम् ॥४९॥
सर्वेश्वररसप्रयोग – अशुभेपु गदेपु भीरुमुख्य सखि ! सर्वेश्वर एव सेवनीयः । सगुणो निरपत्यताकुठारः पवमानो द्विपदन्तकार्तिहारी ॥ ५० ॥ घ्याख्या-हे भीरमुख्ये कातरस्वमावप्रधाने सखि ! अशुभेपु कुठादिरोगेषु सर्वेश्वर सर्वश्वरलौह एव सेवनीय , यतो हि एप लोह. सगुण सदगुणे पूरित निरपत्यताकुठार सन्तानप्रद वीर्यवर्धकत्वात् , पवमान वायु दिपच्छत्रु अन्तको मृत्यु. तस्याति. नस्याहारी विनाशकारी सम्प्रदिष्ट । मालभारिणीवृत्तम् । सर्वेश्वर लौह -
शुद्धसूत पल गन्ध द्विपलन्तु मृताभ्रकम् । त्रिपल मृतताम्रा पलाझै स्वर्णमाक्षिकम् ॥ जैपाल चित्रक मान शूरण घण्टकर्णकम् । ग्रन्थिक त्रिफलान्योप त्रिवृता खरमारी॥ दण्टोत्पला वृश्चिकाली कुलिश नागदन्तिका । सूर्यावर्तश्च सन्चूर्ण्य कर्षमात्र विमर्दयेत् ॥ आर्द्रकस्य रसैरेव चूर्णयित्वा पुन क्षिपेत् । त्रिपल लौहचूर्णस्य तत खादेच्छुभेऽहनि ॥ सम्पूज्य भास्कर विष्णु गणनाथ द्विजोत्तमम् । गुञ्जाद्वयञ्च मधुना कृत्वा शीतजल पिबेत् ॥ चूर्णं सर्वेश्वर नाम सर्वरोगहर मवेत् । कठोरप्लीहनाशाय गुल्मोदरहर तथा । कामला पाण्डमानाहयकृतकृमि कृतामयान् । विचचिमम्लपित्तश्च कण्डू कुष्ठ विनाशयेत् ॥ प्लीहानमनपित्तचाप्यग्निमान्द्य सुदुस्तरम् । श्रीकर पुत्रजनन शुक्रायुर्वलवर्धनम् ॥
मे०र०॥ हिन्दी- भीरुस्वभाववाली रखकला कष्ट आदि अशभरोगों में सर्वेश्वर लौह का सेवन करना चाहिये। इसमें अनेक गुण हैं। यह सन्तान कारक, वातरोग रूपी शत्रु का नाशकर्ता एवं अकाल मृत्यु से भी बचाने वाला है।
विशेप-यह योग सचमुच सर्वेश्वर-सबका स्वामी अथवा सव योगों का स्वामी है। किन्तु इस नाम से चिकित्सा ग्रन्थों में अनेक योग देखे जाते हैं जिनके प्राय द्रव्य अलग-अलग हैं, इसके लिये गुल्म कुष्ठ वातरक्क आदि प्रकरणों को देखें ॥ ५० ॥
इति श्रीमहोलिम्बराजविरचिते धमस्कारचिन्तामणी
विविधरोगप्रतीकारो नाम तृतीयो विलास । ________________
अथ चतुर्थो विलासः तत्र प्रथम प्रस्तावनामाणिझ्यावलिविलसत्पदारविन्दे, सानन्दे वहुलरुजां श्रुताश्चिकित्साः। अल्पानां किमिति कृशेशृणोपि नत्वं, विक्रीतेकरिणि किमङ्कुशे विवादः॥
व्याख्या-माणिक्यावलिविलसत्पदारविन्दे मौक्तिकमालामि विलसित पदमेव अरविन्द कमल यस्या. सा तत्सम्बुद्धी सानन्दे प्रसन्नमुखमुद्रे कृशे कृशोदरि ! त्वया बहुलरुजाम् अनेकरोगाणा चिकित्सा रोगापनयनपद्धतय श्रुता , त्वम् अल्पाना रुजाम् अवशिष्टस्वल्परोगाणा चिकित्सा किमिति कयद्वार न शृणोपि न आकर्णयसि, यतो हि विक्रीते करिणि गजमूल्ये प्रदत्ते सति किमङ्कशे विवाद स्वल्पमूल्यवति वस्तुनि अङ्कशे निवादेन को लाम । प्रहर्पिणीवृत्तम् ।
हिन्दी-मणिगण जटित पायरों से शोभित चरण कमल वाली, प्रसन्न चित्त युक्त कृशोदरी! तुमने ज्वर आदि अनेक रोगों की चिकित्सा सुनी, अव थोड़े से रोगों की चिकित्सा शेप है उसे क्यों नहीं सुनना चाहती हो, क्योंकि जब हाथी धिक गया तो अवश के मूल्य में क्या झगड़ा।
विशेष-इस पद्य से यह ज्ञात होता है कि भगवती सप्तशृगी के प्रसाद से अविरल काव्यधारा के प्रवाह में तत्पर अश्रान्त कवि लोलिम्बराज समस्त रोगों की चिकित्सा को कह देना चाहते हैं किन्तु सुकुमारी रत्नकला थक जाने के कारण विश्राम चाहती है ॥१॥ क्षयरोगचिकित्सा
अयि सुन्दरि सुन्दरानने रुचिरापागतरङ्गलोचने ।
नवनीतमधूपलाशनादुडुराजोऽपि भवेत्क्षयक्षयः॥२॥ ण्याख्या-अपि सुन्दरि सौम्याकारे सुन्दरानने सुन्दर रुचिरम् आनन मुख यस्या सा तत्सम्बोधने, रुचिरापाङ्गतरङ्गालोचने रुचिरी शोभनौ यो अपाङ्गौ नेत्रान्तौ तयोस्तरका वीचय ययोस्तादृशे लोचने नेत्रे यस्या सा तत्सम्बोधने नवनीतम् हैयगवीन मधु माक्षिक उपला शर्करा प्रयाणामेतेपामशनात् मक्षणाद् उडुराजोऽपि नक्षत्रेशस्याऽपि, राज दीप्तो कि , क्षयो राजयक्ष्मा तस्य क्षयो भवेत् ॥ वियोगिनीप्तम् ।
शर्करामधुसयुक्त नवनीत लिहुन् क्षयी।
क्षीराशी लभते पुष्टिमतुल्ये चाज्यमाक्षिके ॥ चक्रदत्ते ॥ हिन्दी-हे सुन्दरी प्रसभमुख वाली रक्तिम नेत्र प्रान्तों से सुशोभित रनकला! ७ च० चि० ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः मक्खन, मधु और मिश्री को मिलाकर सेवन करने से चन्द्रमा का भी क्षय रोग क्षीण हो जाता है। मनुष्यों की तो बात ही क्या है।
विशेप-अनुपान के लिये मयु नवनीत अथवा मधु घृत की समान मात्रा नहीं होनी चाहिये ॥ २२
अथ व्रणप्रतीकारमाहसुतनो ! सुतनोस्त्वमौपचं सकलं वेत्सि परन्तु वच्म्यहम् । त्रिफलाजनितः कपायकः सहितो गुग्गुलुना वर्ण जयेत् ॥३॥
व्याख्या-हे सुननो रनकले । सुतनो योमनगरीरवतो राजकुमारादिकम्य त्व सकलन् अखिलम् औषध वेरिस परन्तु तथापि वच्म्यह कथयामि गुग्गुलुना गुग्गुलुर्दवधूप तेन सहितः मिलित त्रिफलाजनित फलत्रिकोत्थ कपायक काथ’ व्रणम् ईम जयेद विनाशयेत् । यथाह चक्रपाणि -
ये फुदपाकनुतिगन्धवन्तो व्रणा महान्त’ सरुज सशोथा ।
प्रयान्ति ते गुग्गुलमिश्रितेन पीतेन शान्ति त्रिफलारसेन ॥ चक्रदत्ते ॥ हिन्दी-हे रतकला! तुम सुकुमारों के सभी रोगों की गोपधि जानती हो फिर भी मैं तुमसे कहता है-शुद्ध गुग्गुल के साथ त्रिफला का क्वाथ पीने से व्रण नष्ट हो जाते हैं । वियोगिनीवृत्तम् ।
विशेष-त्रिफला के हाथ में ४ रत्ती की मात्रा में शुद्ध गुग्गुलु मिलाकर पीना चाहिये । यह एक सामान्य मात्रा का निर्देश है ॥ ३ ॥
स्थूलत्वहरो योग - मदनज्वरकारिनामधेये शृणु सवेणि सुवाणि वर्णिनि त्वम् । प्रपिवन समधूदकं प्रभाते गणनाथोऽपि भवेत् किलास्थिशेपः ॥४॥
व्याख्या-मदनज्वरकारिनामधेये मदनज्वर कामज्वर करोति तच्छील नामधेय नाम यस्या सा तत्सम्बुद्धौ हे. रलकले ! सद्वेणि सत्केशपाशे सुवाणि मधुरालापवति वणिनि महिलाग्रगण्ये त्व शृणु, प्रभाते प्रात काले समधूदक मधुमिश्रित जल गणनाथोऽपि सम्बोदरो ऽपि प्रपिवन पान कुर्वन् सन् मस्थिशेप अस्थिमात्रावशिष्ट भवेत् किलेति योगस्य प्रसिद्धि ! " चक्रपाणिरप्या चक्रदत्त– प्रातमधुयुत वारि सेवित स्थौल्यनाशनम् ।
उष्णमन्नस्य मण्डच पिवन् कृशतनुभवेत् ॥ स्थौल्यरोगे पथ्यम्- श्रमचिन्ताव्यवायाध्वीद्रजागरणप्रिय ।
हन्त्यवश्यमतिस्थौल्य यवश्यामाकभोजन ॥ मस्वप्नश्च व्यवायश्च व्यायाम चिन्तनानि च । स्थौल्यमिच्छन् परित्यक्तु कमेणाति प्रवर्धयेत् ॥ तत्रैव ॥ ________________
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चतुर्थो विलासः हिन्दी-फामदेव को भी कामज्वर से सताने वाली सुन्दर घोटी तथा वाणी से युक्त स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ रत्नफला । यदि सब से प्राचीन स्थूलता के रोगी गणेश जी भी शहद का शर्वत बनाकर प्रतिदिन प्रात काल पीने लगें तो उनकी भी हन्द्रियों शेष रह जायेंगी । मोटाई की तो बात ही क्या कहनी है। मालभारिणीवृत्तम्।
विशेष- इसका प्रयोग लाम करता है। गणेश जी की स्थूलता दूर होने से प्राचीन रोग में भी लाभकारक है, यह सिद्ध होता है ॥ ४ ॥ पुष्टिकरो योगसदये सदये सरोजराजीरजसोरोजगिरी विराजमाने। सुभग सुभगे कृशस्य पुंसस्तिलकोङ्गुष्ठकृतोऽतिपुष्टिहेतुः ॥५॥ व्याख्या-उरोज पयोधर स एव गिरि उन्नतत्वात् तस्मिन् या मरोजाना पति तस्या रजमा विराजमाने स्थिते, सदये सदये इत्यानेडितन् अर्थात् अतीव दयाशीले अथवा नत् समीचीन अय शुभावहो विधि यस्या तत्सबुद्धी दयया सहिते सदये, सुभगे सत्कीर्तियुक्ते सुमगे ऐश्वर्यमालिनि सुष्टु भग यस्या तत्सवुद्धी रत्नकले । अष्टकृत कृशस्य पुस अगुष्ठवत्कार्य गतम्यापि मानवस्य तिलक पुरक पुष्पविशेप पुष्टिहेतु स्वास्थ्यकृद् भवति, ‘भग श्रीयोनिवीर्यच्छाज्ञानवैराग्यकीर्तिपु। माहात्म्येश्वर्ययत्नेषु धर्म मोक्षेऽथ ना रवी’ इति मेदिनी। तिलकस्य गुणानाह- तिलक धुरक श्रीमान् पुरुपग्छिन्नपुष्पक ।
तिलक कटुक पाके रसे चोष्णो रसायन ।
कफकुष्ठकृमीन वस्तिमुसदन्तगदान् हरेत् ॥ अ०नि०॥ हिम्दी-कमलपराग से सुशोभित उन्नत स्तनों बाली, अत्यन्त दयामयी, कीर्ति एव ऐश्वर्यशालिनी रनकला अगुष्ट के समान दुबला पतला मानव तिलक (पुप्पविशेष) की छाल का विधिवत् मेवन करने से हृट-पुष्ट हो जाता है। मालभारिणीवृत्तम्।
विशेप-प्राचीन काल में स्तनों के ऊपर चन्दन, केशर, कस्तरी आदि शीतल एव सुगन्धित पदार्थों से पत्र रचना की जाती थी। यहीं पर कवि ने उसी का स्मरण दिलाया है ॥५॥ शोफप्रतीकारोपाय - कान्ते मृणालवलये ललिते सुलास्ये
त्रैलोक्यशालिनि रसालरसालचित्ते । शोफ किरातकमहोपधयोः कषायो
दूरीकरोति रघुनाथ इवारिवीरम् ॥ ६॥ ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः व्याख्या-मृणालवलये विमकटके ललिते सुन्दरि मलास्ये नर्ननाशले त्रैलोक्यशालिनि अतिशयशोभायुक्ते रसालरसालचित्त रसालवद रसाल रसमरित चित्त यस्या सा तत्सम्बुद्धी, किरात तिक्त महौषध शुण्ठी एतयो कपाय शोफ शोथ तथा दूरीकरोति यथा रघुनाथ अरिवीर रावणम् । वसन्ततिलकावृत्तम् । इति शोफप्रतीकार । ___ विशेष-हे कमलनाल का कंकण धारण करने वाली रखकला ! चिरायता और सोंठ का क्वाथ उस प्रकार शोथ का विनाश करता है जिस प्रकार राम ने अत्यन्त वीर अपने शत्रु रावण का विनाश किया ॥६॥ वातजतृपानाशनो योग - शृणु पद्मिनि । पद्मिनीद्यते भुवि पझोपमिते सपन्नके। सगुडं दधि सेवितं तृपं पवमानप्रभवां नियच्छति ॥ ७॥ व्याख्या-हे पशिनीद्युने पभिन्या कमलिन्या घुतिरिव द्युति यस्या सा तत्सम्बुद्धी, मुवि पृथिव्या पद्मोपमिते कमलेन सदृशे सपमके विकचपुण्टरीकालङ्कृते इत्यम्भूते हे पभिनि शृणु । अनेन सम्बोधनेन रलकलाया पभिनीनायिकात्वमभिव्यज्यते। सगुडम् इक्षुविकारेण सहित दधि पवमानप्रभवा तृप वातजा पिपासा नियच्छति निवारयति । यथाह चकपाणि.
पित्तनवर्गे काकोल्यादिगण
तृष्णाया पवनोत्थाया सगुट दधि शस्यने ।
रसाश्च वृणा शीता गुडच्या रस एव च ॥ चक्रदत्ते ॥ प्रसङ्गवशात् पित्तजत्तष्णाचिकित्सापीह समुशियते, यथाह उल्हण -
पित्तनवगैस्तु कृत कपाय सशर्कर क्षीद्रयुत सुशीत ।
पीतस्तृपा पिप्तकृता निहन्ति क्षीर शृत वाप्यय जीवनीय ॥ पित्तनवर्गे काकोल्यादिगण तथा उत्पलादिगण पठित । वियोगिनीवृत्तन् ।
हिन्दी-कमल के सदृश शोभा युक्त, कमल की उपमा से विभूषित कमल को धारण करने वाली हे पद्मिनी नायिका रत्नकला \। गुड़ के साथ दही का सेवन वातजन्य पिपासा को शान्त करता है ॥ ७ ॥ विषापहरणविधिकामकेलिचतुरे मनोहरे पीवरोरु मधुराधराधरे । मेघनादरजनीरसो वुधैरीरितो विषविनाशकारकः॥ ८॥ व्याख्या-कामकेलिचतुरे रतिक्रीडानिपुणे मनोहरे चेतोहरे पौवरोरु पीनसक्थिमति मधुराधरे मधुर आस्वायश्च य अधर त धरतीति धरा तत्सम्बुद्धौ, मेघनाद’ तण्डुलीयक रजनी हरिद्रा तयोः रस बुधै विपनाशकारक ईरित कथित । रयोद्धतागृत्तम् । ________________
चतुर्थो विलासः
१०१ हिन्दी-रति-क्रीडा-कुशल मन को वश में करने वाली मांसल जांघ पाली तथा मधुर अधर से सुशोभित रन फला। हन्दी का चूर्ण चौलाई के रस के साथ सेवन करने से सामान्य विप का विनाश होता है ॥ ८॥ वानरक्तप्रतीकारमाहरतिकेलिकलाकुशले ललने विमले मलयाचलतुल्यकुचे । अमृतवतती रुघुतैलयुता शमयेदनिलानमुदारतरम् ॥९॥ व्याण्या-रतिकेलिकलाकुशले रतौ सुरते या केलय परीहासा तासु सुरतकीटासु या कला तासु कुशला शिक्षिता या सा तत्सम्मुद्धी, ललने रामे विमले निर्मले मलयाचलतुल्यकुचे मलयेन चन्दनाद्रिणा समानी स्थूलत्वेन कठिनत्वेन शीतलस्पर्शवत्वेन च तुल्यौ समानाकारी कुचौ स्तनो यस्या मा तत्सम्युद्धी रुजुतैलयुता एरण्डतैलेन सहिता अमृतबनती गुइची लता उदारतरम् मनिलास प्रवृद्ध वातरक्त शमयेत् । अव चरकोक्त वातरक्तनिदानम्
वायु प्रवृद्धो वृद्धन रक्तेनावरित पथि। कृत्स्न सन्दूपयेद्रक्त तज्ज्ञेय वातशोणितम् ॥ एप योगश्चक्रपाणिनापि चक्रदत्त समुद्धत तपथा
घृतेन वात सगुटा विवन्ध पित्त सिताट्या मधुना कफश्च ।
वातासगुन कवुलमिया शुण्ठ्यामवात शमयेद गुडूची ॥ अयमेवाविकल पाठो भपज्यरत्नारल्यामपि दृष्टिपथमायाति । तीटकवृत्तम् । हिन्दी-रति-क्रीडा में निपुण प्रिया स्वच्छ एव मलयाचल के सहश शीतल सुगन्धित स्थूल तथा उन्नत स्तनों वाली रस्नकला । रेही के तेल के साथ गिलोय का सेवन भीपण चातरक्त को शान्त करता है ॥ ९॥
चिमूचिकाइरो योग - लगुनजीरकगन्धकसैन्धवत्रिकटुरामठचूर्णमिदं समम् । जयति निम्पुरसेन विसूचिका हृदयहारिविहारिणि वत्सले ॥ १० ॥ __ व्याख्या-विहारिणि विदरणशीले वत्सले प्रियतमे रत्नकले लशुन’ रसोन जीरक अजाजी सैन्धवम् सिन्धुज लवण गन्धक सौगन्धिक विकट विश्वोपकुल्यामरिचात्मक त्र्यूषण रामहिम लशुनादीनां समाहार. (समाहारे नपुसकम् ) एतेपा सम समानभाग चूर्ण निम्युरमेन, निम्बुफजलेन भाविन हृदयहारि सुस्वादु एतच्चूर्ण विसूचिका रोगविशेप हरति ।’ द्रुतविलम्वितवृत्तम् । विचिकास्वरूपम्-सूचीभिरिव गात्राणि तुदन् सतिष्ठतेऽनिल ।
यत्राऽजीर्णन मा वैद्यर्विसचीति निगपते ॥ हिन्दी-हे मनोहर पिहार प्रिय रतकला । लशुन, जीरा, शुद्ध गन्धक सैन्धानमक, सौंठ, मरिच, पीपल, हींग इन सब का समभाग चूर्ण लेकर नीबू के रस ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः की भावना देकर गोली बनाकर सेवन करने से विसूचिका ( हैजा) का शमन होता है। यह योग अत्यन्त प्रसिद्ध है ॥ १० ॥
क्रिमिविनाशनो योग - निकटुनिफलानिवृत्कलिङ्गः खदिरोग्रापिचुमन्दजः कपायः। पशुसूत्रसमन्वितो निपीतः किमिकोटीरपि हन्ति हन्ति वेगात् ॥ ११ ॥ ___व्याख्या-त्रिकटु यूपण त्रिफला फलनिक विवृत त्रिमटी कलिङ्गम् इन्द्रयव खदिर’ रक्तसार उग्रा वचा पिचुमन्द निम्ब तन पशुमूत्रमजामुत्र तन समन्वित. युक्त कपाय वेगात् क्रिमिकोटीरपि बहुमरयाकान किंवा बहुविधान क्रिमीन हन्ति मारयति । अत्र द्वितीयहन्तिप्रयोग’ निश्चयेन विनाशयतीनि सतयति एनेनोदरस्था क्रिमय भियन्ते पुरीपेण सह वहिरायान्ति च । द्रुतविलम्वितवृशम् ।
हिन्दी-सोट, सरिच, पीपल, हरत, बहेडा, भोवला, निशोथ, इन्द्र जी, खैर की छाल, बाल चच, नीम की छाल इनका कपाय गोमूत्र के साथ सेवन करने से शीघ्र ही क्रिमियों का विनाश हो जाता है॥1॥
मुसपाकप्रतीकारमाहअमृतासुमनःवालदार्जीनिफलादीप्यकगोस्तनीकपायः । कवलग्रहणान्मुखस्य पाकं मधुमिश्रः शमयेदशेपमाशु ॥ १२ ॥ __ व्यारया-मधुमिश्र क्षौद्रसयुक्त अमृता गुड़ची सुमन प्रवाल जातीपलव दारी दामहरिद्रा वा अमृता गुड़ची सुमन पुगप दावींप्रवाल दामहरिद्राफिसलय त्रिफला फलत्रिक दीप्यक अजमोदा गोस्तनी मृद्रीका द्रव्याणामेतेपा कपाय कवलग्रहणाद् प्रासवटमुसे धारणाद् मुसस्य अशेप पाकन् आशु जीव गमयेत् । द्रुतविलम्बितवृत्तम् ।
हिन्दी-गुरुच के फूल, दारुहल्दी के कोमल पन या गुरुच, चमेली का पल्लव, दारहरुदी, हरड़, बहेड़ा, आवला, अजवायन, मुनछा, इनके हाथ में शहद मिला. कर कवलधारण करने से सभी प्रकार के मुखपाक शीघ्र शान्त हो जाते हैं।
विशेष-कवल ग्राम का धारण, जिस प्रकार भोजन करते समय कोई भी साय पदार्थ मुख में उतना ही डाला जाता है जितना इधर उधर हिलाया जा सके उसी प्रकार औषध द्रव्यों से साधित क्वाथ को मुख में रखकर हिलाते रहते हैं कुछ देर बाद धूक देते है इसके साथ मुखगत दोप भी लार के रूप में निकल जाते हैं ॥ १२॥
अथ प्रमेहप्रतीकारमाइअमृतास्वरसो निपेवितः सन् सकलं सेहमपाचरीकरीति। विपरीतरते रते नितान्तं यमिनां धैर्यमिवाहनाकटाक्षः ॥ १३ ॥ ________________
चतुर्थों विलासः
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व्याख्या-हे विपरीतरते पुमपायितप्रिये रत्नकले यथा रते सुरते अङ्गनाकटाक्ष त्रिय हावभावादि यमिना नियमवता ( अपि) धर्य धीरता नितान्तम् अत्यन्तम् अपाचरीकरीति दूरीकरोति तथा अमृतास्वरस निपेविस प्रयुक्त सन् सकल सर्वविध मेह प्रमेहमिति पूर्वणान्वय । यथोक्तम्-गुडच्या स्वरस पेयो मधुना सर्वमेह जित् । वियोगिनीवृत्तम ।
हिन्दी-हे विपरोतरतिप्रिय रत्नकला । जिस प्रकार मेथुन काल में नायिका के कटाक्ष बड़े बहे स्यमी पुरुषों को धैर्यच्युत कर देते हैं उसी प्रकार गुइची के रस के सेवन से कठिन प्रमेह दूर हो जाते है ॥ १३॥
हृदरोगेपु अर्जुनप्रयोग - ये सन्ति केचिद् हृदयस्य रोगाः सर्वेऽपि ते यान्ति शमं विरात्रात् । चेत् पार्थकल्क स्वरसं प्रसिद्धं सपिनिषवेत नरः सपथ्यः ॥ १४॥
व्याख्या-चेद् यदि मपथ्य पथ्येन सहित हिताहारनिहारादिभि युक्त नर पुमान् पार्थफल्क पृथाया अपत्य पुमान् पार्थ अर्जुन ककुभ वृक्षविशेष तस्य त्वचया सिद्ध कल्क किं वा स्वरसन अथवा एतन्नाम्ना प्रसिद्ध सपि हृद्रोगापनयने प्रख्यात घृत निपेवेत प्रयुजीत तहिं ये केचित् समस्ता हृदयस्य हत्सम्बन्धिनो रोगा. सन्ति ते सर्वेऽपि विरानात् प्रयाणा रात्रीणा ममूह निरान तस्मात् दिनत्रयस्य सेवनात् शम शान्ति यान्ति । यथाह चक्रपाणि चक्रदत्ते___‘पार्थस्य कल्कस्वरसेन सिद्ध शम्तं धृत महदामयेपु।’ इति अर्जुनघृतम् । एप योग, भैपज्यरत्नावल्यामपि दृश्यने हृद्रोगेषु अर्जुनस्य बहुविधा प्रयोगा प्रसिद्धा ग्रन्थान्तरेषु समुपलभ्यन्ते । रन्द्रवजात्रम् ।
हिन्दी-यदि हित आहार-विहार करने वाला मनुष्य अर्जुन की छाल का क्रक-चटनी उनी का रबरम अथवा अर्जुन घृत का सेवन करे तो जितने भी हृदय सम्बन्धी रोग है वे सब तीन दिन में शान्त हो जाते हैं।
विशेष-यद्यपि ग्रन्थकार ने अर्जुन की छाल का क्ला, स्वरस और घृत का अलग अलग प्रयोग लिया है किन्तु घृत-निर्माण में भी इन तीनों की एक साथ आवश्यकता पड़ती है जैसा कि चक्रपाणि ने लिखा है-चिकित्सा-ग्रन्थों में हृदय रोग की शान्ति के लिये विविध प्रकार से अर्जन का प्रयोग देखा जाता है, अर्जुन-सिद्ध क्षीर, अर्जुन चूर्ण, अर्जुनादि फाथ, अर्जुनाचवलेह, अर्जुनारिष्ट मादि-आदि ॥ १४ ॥
पामाप्रतीकारकरसद्धिजीरद्विनिशामरोचसिन्दूरलेलीतमनःशिलानाम् । घृतेन युक्तैरपयाति पामा विपद्यथा शङ्करमन्त्रपाठैः ॥ १५ ॥ ________________
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वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः व्याख्या-रस शिववीज दिनारी शुष्णभेदात् दो जीरको विनिशे हरिद्रा दारुहरिद्रा च मरीचम् पण सिन्द र नागसम्मव लेलीत गन्धक मन शिला कुनटी चूर्णीकृतवृतेन युक्तराज्यसयुक्तरेमिन्यै पामा कच्छू तथा अपयाति यथा शङ्करमन्त्रपाठ. विपद् कष्ट ( याति ) । उपनातिवृत्तम् ।
हिन्दी-शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, सफेद जीरा, काला जीरा, हल्दी, दारुहल्दी, मरिच, शुद्ध सिन्दूर, शुद्ध मैनशिल इनको पीसकर गाय के घी में मिलाकर लगाने से खुजली रोग उस प्रकार दूर हो जाता है जिस प्रकार भगवान् शकर को आराधना से विपत्ति ॥
विशेष-पारद, गन्धक, सिन्दूर तथा मैनशिल इनका शोधन करके ही उपयोग करना चाहिये अन्यथा ये स्वय भी रोगों को उत्पन्न कर देते हैं । शुद्ध करने के बाद पहिले पारद गन्बक की कजली बनाकर तय शेप दग्य ढालें ॥ १५ ॥ निदाघोपचारमाहरमारम्याकारे चतुरवचने चारुलपने
तडिद्वल्लीतुल्ये करतललसन्नीलनलिने । निदाघः सातः किमु तच सरोजन्मकदली
दलैः क्लुप्ते तल्पे स्वपिहि यदि सौरभ्यभरिते ॥१६॥ व्याख्या-रमारम्याकार रमा लक्ष्मीस्तटव रम्य. स्त्रमावसुन्दर , आकार आकृति यस्या सा तत्सम्बोधने, चतुरवचने सम्भापणकुशले चारुल्पने मधुरभापिणि, तटिवल्लीतुल्ये विद्युल्लतेव रम्ये करतललसन्नीरनलिने करस्य तलोऽनूर्ध्वमागस्तस्मिन् लसत् शोममान नीलनलिनम् इन्दीवर यस्या सा तत्सम्बुद्धी तव निदाघ धर्म सात किम् ? इति प्रश्ने यदि सात तर्हि सरोजन्मकदलीदलै पर सरोजन्मन पङ्कजस्य कदल्या. रम्मायाश्च दलानि पत्राणि तैर्विरचिते सौरभ्यभरिते सुवासिते तल्पे शय्याया स्वपिहि शयन कुरु । शिखरिणीवृत्तम् ।
हिन्दी-आकार में लघमी के सदृश, सम्भापण में प्रवीण, मधुर वाणी वाली, विद्यत् लता के समान चञ्चल, हाथ में नीलकमल को धारण की हुई रत्नकला तुम्हें लुलग गई है क्या? यदि हाँ तो कमल और केले के पत्तों वाली सुवासित शय्या में सो जाओ ॥ १६॥
दुर्नामादिरोगाणा चिकित्सामाह
पथ्यातिलारुष्करकैः समांशैर्गुडेन युक्तैः खलु मोदकः स्यात् । - दुर्नामपाण्डुज्वरकुष्ठकासश्वासाञ् जयेत् प्लीहयुतस्य पथ्यः ॥ १७ ॥ ________________
चतुर्थो विलासः
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म्याण्या-पध्या हरीतकी तिला कृष्णतिला अरुण करोति अरुप्करको महातक एने समाशै समानमागै गुडेन युक्त खलु निश्चये मोदको लट्दुक स्यात्, अस्य प्रयोग दुर्नामा पर्श पाण्ड ज्वर कुष्ठ कास श्वास च सर्वानेतान् रोगाञ् जयेत् एप मोदक प्लीहयुतस्य रोगिण पथ्य शास्त्रेषु प्रदिष्ट । इन्द्रवजावृत्तम् । गुटपाकपरीक्षा
मुखमर्द सखस्पा गन्धवर्णरसान्वित । पीटितो मजते मुद्रा गुट. पाकमुपागत ॥ हिन्दी-हरद, तिल और शुद्ध भिलावा इन तीनों को समान भाग लेकर इन मय का दूना गुढ लेकर गुढपाक-विधि से पकाकर लड्डु बना लें। इसके सेवन से बवासीर, पाण्डु, ज्वर, सामान्य कुष्ट, कास तथा श्वास का शमन होता है। यह मोदक प्लीह रोगी के लिये भी हितकर है ॥ १७ ॥
अथ गण्डमालाप्रतीकारमाहभल्लातकासीसहुताशदन्तीमूलैर्गुडम्नुग्रविदुग्धदिग्धैः । प्रलेपितर्गच्छति गण्डमाला समीरपूरैरिव मेघमाला ॥ १८ ॥ व्याख्या-महातको वीरवृक्ष कासीसम् उपधातुविशेप हुताशचित्रक दन्तामूल, एरण्डनटा भिश्चतुभि कीदृशै गुटस्नुनविदुग्धदिग्धै गुडेनेक्षुविकारेण स्नुहीदुग्धेन, अर्कदुग्धेन च दिग्धे स्फीत प्रलेपित लिप्ते गण्टमाला तथा गच्छति यथा समीरपूरे वायुवेग मेघमाला गच्छति लुप्ता भवति । एप गण्टमालाया ग्रन्थि विदार्य तच्छान्ति करोतीति व्यवहार , योगोऽय कतिपयद्रव्यविकल्पनेन भैपज्यरलावरयां परिदृश्यते, तद्यथादन्ती चित्रकमूलत्वक स्नपर्कपयसी गुढ । मल्लातकास्थि काशीश लेपो भिन्यामिछलामपि ॥
इममेव योग चक्रपाणि चक्रदतेऽप्याह । उपजातिवृत्तम् । हिन्दी-भिलावा, हीरा फासीम, चीता की छाल, जमालगोटा की जड़, रेद की जड़ इन चार वस्तुओं के चूर्ण को गुढ सेहुण्ड का दूध मदार का दूध में मिलाकर लेप करने से गण्डमाला उस प्रकार नष्ट हो जाती है जिस प्रकार वायुवेग से मेघ नष्ट हो जाते हैं ॥१८॥
अन्लपित्तचिकित्मामाहभूनिम्बनिम्वत्रिफलाकलिङ्गवासामृतापर्पटभृगराजैः। क्वाथ. समेतो मधुना निपीतो विनाशयेदुल्वणमम्लपित्तम् ॥ १९ ॥
व्याख्या-निम्ब चिरतिक्त निम्ब पिचमर्द त्रिफला फलनिक कलिम कुटज बासा आटरूपक अमृता गुडची पर्पटो वरतिक्त मृगराज भृह मधुना समेत क्षोद्रेण मिलित एतेपा काथ निपीत सन् , उल्वणम्प्रवृद्धम् अम्लपित्त विनाशयेत् । यथाह चक्रपाणिश्वक्रदत्ते
वासामृतापर्पटकनिम्बभूनिम्बमार्कवै.। त्रिफलाकुलकै काथ सझौद्रश्वाम्लपित्तहा ॥ ________________
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वैषक-चमत्कारचिन्तामणिः
दिदी-चिरायता, नीम, पर, यह मा, अविला, पटाकी हार, घमा, गिलोग, पित्तपापना और मारामका काय नाद मिटार पीने से चढ़ा हुमा सम्लपिस भी जाना जाता है. पत्रात्तम् ॥ १९॥
मामकारनाचूर्णा. कपाया गुटिका तानिनेलानिमांगेन नियोजिनानि । विलासिनां वानविनाशनार विलाग्दिनीना परिरम्भणानि ॥२०॥
व्यागनामा पनि मानिना , मुटिश का नाम मितानि पगानि गनिन नागा यान मार नियोनि प्रनानि
मकामानिििाभिना मानाना-मानगिनाना पीना परिसनगानि नहटगानानि नानी नपि र प्रयोग पुनपुनकायो रन । उपजामिन
हिन्दी-वातनाशक ओपधियों से निमित, माध, गोरी अथवा उन्दी सीपतियों से मिन्द किये गए घी और तेल सामान्य चानन रोगों को मान्न करते है किन्तु कामीजनों की रोगशाकि के लिये कामिनियों का आतिनही वानरोग नाग- होता है। ऐसा ग्रन्थकारका मत है॥२०॥
पित्तप्रकारमारअमृतममृतजं निराकरोति तयुपलाकलिनं करालपित्तम् । तरुण इव नितम्बिनीनितम्बाम्बरमतनुज्वरजर्जरीताइ ॥ २३ ॥
गाण्या-अमृतमहतज अताजातन् जतज गुरुची किरा मारपीप्रभवा गृत गल या त दुग्ध तन सम् उपलापानिं शरया मिश्रित पारालपित्तम् उल्ला पित्त तग निराकरोति दरीको प्रगमयतीत्वर्थ, चथा अतनुबरजर्जरोताअन्नु काम तजनितेन अरेण परीकतन् यच चुना पुरुष नितम्बिनी कामिनी तन्य नितम्याम्बर नाटिका निराकरीतात्यभिप्राय । पुष्पितायातम् ॥
हिन्दी-मिश्री मिला हना गिलोय का स्वरस अथवा घी बटे हए पित्त दोप को उस प्रकार हटाता है जिस प्रकार काम-वासना से प्ररित पुस्प कामिनी के अधोरस को । अर्थात् यह शीघ्र ही पित्त का शमन करता है ॥ २१ ॥ कफप्रतीकारमाहमनस्विनी सुभ्र सुचञ्चलाक्षि घनस्तनश्रोणितटाभिरामे । कफप्रकोपस्य शमाय योग्यो योगो यथाऽयं न तथान्ययोगः ॥२२॥ व्याख्या-हे सुभ्र शोमनभ्रलतायुक्त सुचवलाक्षि चपलनयने घनस्तनश्रोणितटाभिरामे निविटकुचस्त्रीकटिप्रदेशेन रमणीये रलकले । कफप्रकोपस्य प्रवृद्धस्य श्लेष्मदोषस्य शमाय ________________
चतुर्थो विलासः
१०७ शान्तये योग्य समर्थ यथाय मनम्विनी स्त्रीमेवनरूप. योगोऽस्ति तथा तद्विध अन्यो योगो नास्तीति । उपेन्द्रवजावृत्तन् ।
हिन्दी-हे सुन्दरमोह, चलनेत्र, रमणीयम्तन तथा जाधों से गोभित रत्नकला। बंद हुए कफ दोप की शान्ति के लिये जितना लाभप्रद मनम्बिनी मी का सेवन है उतना दलरा कोई योग नहीं है ॥ २२ ॥ अपरो योग -
कफाद् भवति भो भीरु ! च्छिन्नावाथो मधूदरः ।
अभ्यार्थी लभ्यते नव तन्वनि तब मध्यवन् । २३ ॥ व्यागया-भो भोग । भयगील मधूदर मधु बांद्रम् उदरे यम्य न छिना गुदा तस्या पाथ कपाय कफाद कफविनामात भरनि । यफ माम् अत्तीति कफाट । हनन्यडिगोदर तर म यत् कटिप्रदेशायद अत्य अयमपरिलिसितो नव लभ्यते यथा वस्त्राउनस्तब कटिप्रदेश । यथातर कटिवज्ञापन यनन ममचाधिकारिण कटि प्रत्यत्री मति नान्यस्य तथैवापिकारिण पण्डितस्याप्यस्यार्य प्रत्यक्षा भवताति माव । कनुगुप्त । अनुष्ट छन्द । ___ हिन्दी-हे दरपोक स्वभावशाली कृशोदरी । मयुमिश्रित गिलोय का काथ कफ नाशक होता है। इस पद्य का अर्थ माधारण रूप से इस प्रकार प्रतीत नही होता जसे साडी से ढका हुना तुम्हारा मध्यभाग (कमर)। अर्थात् इस पद्य में कफाद यह प्रथमा विभक्तिका रूप है, पञ्चमी का नहीं ॥ २२॥ ऊमसम्मचिकि साविधि - पुनर्नवालागरदारूपथ्या-भल्लातकच्छिन्नरुहाकपायः । दशानिमिश्रः परिपंय ऊरस्तम्भऽथवा सूत्रपुरपयोगः ॥ २४ ॥ व्याया-पुनर्नवा शोथनी नागर शुण्ठी दार देवदार पल्या हरीतकी भडानक अग्निगुर छिनरहा गुडची दयानिमित्र पञ्चमूलीमयमाहित पाय ऊगस्तम्भे परिपेय सेव्य अथवा मूत्र गोमूत्र पुर गुग्गुलु एतयो प्रयोग करणाय । उपेन्द्रबजावृत्तम् । अयमाशय गोमूण मद गुग्गुउ सेवनीय प्रति । यथा— चक्रपाणि चक्रदत्ते-मलातकामृतागुण्ठी दाम्पश्यापुनर्नवा ।
पवमूलीहयोन्मिश्रा ऊरुस्तम्भनिवारणा ॥ हिन्दी-पुनर्नवा, मोट, दारुहल्दी, हरट, भिलावा, गुरुच, दशमूल इनका काय ऊरुस्तम्भ में पीना चाहिये अथवा गोमूत्र के साथ शुद्ध गुग्गुलु का प्रयोग करना चाहिये ॥२॥ ________________
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः चान्तिप्रतीकारमाहइभचन्दनलाजकोलमजा ललनैलान्दलवंगपिप्पलीनाम् । रजसा समधूपलेन वान्तिः कफपित्तानिल नापि शान्तिमेति ॥२५॥ व्याख्या-इम नागकेसर चन्दन रकचन्दन लाना मृष्टशालय कोलमन्जा-बदरमजा एला त्रुटि अय्द मुस्ता लवा देवकुनुम पिप्पली कागा पा समधूपलेन मधुमिमित. शरया युक्तन रजसा चणेन कफपित्तानिमजापि वान्ति यमनं शान्तिति प्रशम यानि । किम्पुन साधारणा वान्ति । मालभारिणीवृत्तम् । __ हिन्दी-नागकेसर, लालचन्दन, लाजा (सील) का चूर्ण, बेर की गुटली, भाम की गुठली, इलायची, नागरमोथा, लोग, पिप्पली इनका चूर्ण मिश्री और मधु के साथ मिलाकर देने से सन्निपातज वमन भी शान्त हो जाते हैं। साधारण की तो बात ही क्या है।
विशेष-गर्भिणी नियों को भी वमन हुआ करता है किन्तु वहाँ इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥ २५॥ ___ अथ पाण्डुरोग-प्रतीकार.
अयश्चूर्णतुल्यं वराव्योपवेल्ला-ग्निमुस्तारजालौद्रतकाम्बुकाज्यः । प्रयुक्तं जयेत् कामलाकुष्ठदृदृक्-प्रमेहार्शसां नाशनम्पाण्डुरोगम् ॥२६॥
प्याण्या-वरा त्रिफला न्योप विकटु वेह विटा अग्नि चित्रक मुस्ता नुस्तक समेपामेतपा रज क्षोद अयश्चूर्णतुल्य लौहमरमममान क्षोद्तकाम्बुकाज्यै प्रयुक्त क्षीद्रेण मधुना तण उदश्चिता अम्बुना गोमूत्रेण घृतेन वा सेवित पाण्डुरोग जयेद् विनाशयेत् । कामलाकुष्ठहदुकप्रमेहार्शसा नाशन मतम् । एप योग ‘नवायसलीह’ नाम्ना प्रथितो ग्रन्थान्तरेषु । भुजङ्गप्रयातम् । नवायसलीहम्-यूपण त्रिफलामस्तविडद्गचित्रका समा ।
नवायोरजसोभागास्तच्चूर्ण मधुमपिंपा।
भक्षयेत् पाण्डहदरोग-कुछार्श कामलापहम् ॥ चक्रदत्ते ॥ हिन्दी-हरड़, बहेड़ा, आंवला, सोंठ, मरिच, पीपल, वा यविडंग, चीता की छाल, नागरमोथा इन सब को समान भाग लेकर चूर्ण बना लें। इन सब के बराबर लौह भस्म मिलाकर रख लें, इसका सेवन पाण्डुरोग, कामला, कुष्ठ, हृदयरोग, नेत्र रोग, प्रमेह, बवासीर का विनाश करता है। इसका अनुपान-शहद, मठा, गोमूत्र अथवा घी है।
विशेप-अन्य चिकित्सा ग्रन्थों में यह योग ‘नवायसलौह’ नाम से प्रसिद्ध है। चक्रपाणि द्वारा स्वीकृत पाट ऊपर व्याख्या में उद्धत है ॥ २६ ॥ ________________
चतुर्थी विलासः
१०६
अम्मरीनागनोपाय - अयि निधुवनशीले चञ्चले चञ्चलाभे
बकुल मुकुलमालाशालिकण्ठप्रदेशे। रुचिरचरणयुग्माम्भोजगुहिर फे
चहलदलकपायः क्षौद्रयुक्तोऽश्मरीनः ॥२७॥ नाघ्या-अयोति सम्बोधनन् , निधुवनशीले नुरताभ्यासवति, चञ्चलेऽस्थिरे चलाने विधुनिने बकुलमुकुलमालागालिकण्ठप्रदेशो मधुगन्धकुडमलदारगोभिकन्धरे रुचिरचरणयुग्माम्भोजगुजविरेफे मनोहरपादयुगलपहजशब्दायमानभ्रमरे बहलदल मधुगिगु तस्य मधुयुक्त क्षीमिश्रिन कपाय फाय अश्मरीन भवनि। मूमन्तु मूत्रकृच्छ्र स्यान्मूत्ररोधोटमगेच मा। मालिनीवृत्तम् ।
हिन्दी-हे मैथुनामिलापिणी चञ्चल स्वभाव वाली बिजली की भौंति कान्ति वाली, गले में मौलसिरी की माला धारण करने वाली जिसके रमणीय चरणकमलों में कमल के समान सुगन्धि के कारण भौरे गूज रहे हों ऐसी रत्नकला ’ लाल महजन की छाल का क्वाथ मधु मिलाकर सेवन करने से अश्मरी रोग की शान्ति होती है ॥ २७॥ __परिणामशूलहरो योग - शिशिरकिरणजिन्मुखारविन्दे पृथुलकलापिकलापकेशपाशे । शमयति परिणामक सखण्डं समधु रजः कणलोहचेतकीनाम् ॥ २३॥ __ व्याख्या-शिशिरकिरण शशाइ त जयतीति जिद् इत्थभूत मुखारविन्द मुखकमल यस्या मा तत्सम्बुद्धी पृथुलकलापिकलापयशपाशे पृथुलकलापी मयूर तस्य कलाप इव केशपाय कवसमूहो यस्या सा तत्सम्बुद्धी, तद्वत् कणलोहचेतकीना रज. कणा पिप्पली लोहरजो लोहमस्म चेतकी हरीतकीमेद एतेपा चूर्ण समधु क्षौद्रसहित सखण्ड शर्करासहितञ्च परिणामकम् एतनामक शुल शमयति विनाशयतीत्यर्थ । तन्निदान यथा-मुक्त जीर्यति यच्छन तदेव परिणामजम् । मैपज्यरलावल्याम्-कृष्णामयालोह लियात् समधुशकरम् ।
परिणामभव शूल सद्यो इन्ति सुदारुणम् ॥ चक्रपाणिनाप्येप योग चक्रदत्ते निवद्ध किन्तु तत्रानुपानभेद कृत । हिन्दी-हे चन्द्रमा से भी सरूप मजकमल तथा मयुर के केशपाश से भी अभिराम केशों वाली रत्नकला । पिप्पली, चेतकी नामक हरड़ का चूर्ण औरलोहभस्म इन तीनों को मिलाकर मयु और मिश्री के साथ सेवन करने से परिणाम शूल का शमन होता है। यह शूल भोजन के पचने पर आरम्भ होता है, अतएव इसको परिणामशूल कहते हैं ॥ २८॥ ________________
११० वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः .
अन्तविंद्रधिचिकित्सामाहशिगुरूवुवरुणैः सपिप्पलैर्यामिनीद्वययुतैः कपायकः। वोलचूर्णसहितोऽन्तरास्थितं विद्रधिं प्रशमयेदसंशयम् ॥ २९ ॥
व्याख्या-शिग्रु मधुशिग्रु रुनु एरण्ड वरुण तिक्तशाक एभिर्युत सपिप्पले. कणामि सहित यामिनीदययुतै हरिद्रादारहरिद्राभ्यां मिलित तथा चोलचूर्णसहित गन्धरसमिश्रित कपायक काथ अन्तरुत्थितम् अन्तर्जात विद्रधिम् असशय निसन्देह प्रशमयेत् । रथोद्धतावृत्तम् ।
हिन्दी-लाल महजन, रेढ की जड़, वरुण, पिप्पली, हल्दी, दारुहल्दी और वोलचूर्ण इनका काथ निसन्देह भीतर के मंगों में उत्पन्न विद्धिफोड़ा को शान्त कर देता है
विशेष-यह काथ रक्तशोधक होने के कारण प्रारम्भ में ही सेवन करने पर विद्रधि (फोडा) को वैठा देता है ॥ २९ ॥ अथ भ्रमप्रतीकार -
मलयानिलकल्लोल-लसत्परिमलानने ।
दुरालभाकपायेण सघृतेन भ्रमो व्रजेत् ॥ ३० ॥ व्याख्या-मलयानिलकलोललसत्परिमलानने दक्षिणानिलतरमै लसद् विलसद् यत् परिमल तद्वद् आनन मुस यस्या सा तत्सम्बुद्धी, सघृतेन दुरालभाकाथेन साज्यदुत्पशाकपायेण भ्रमो रोगविशेपो ब्रजेत् नश्येत् । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-हे मलयाचल की सुगन्धित वायु की लहरों से सुशोभित मुखवाली रत्नकला । घृत-मिश्रित दुरालभा वाथ से भ्रम = चक्कर का आना शान्त हो जाता है॥३०॥ ॥ दारुणाऽऽख्यशिरोरोगहरो लेप -
द्राक्षा पथ्या वृषः कण्ट-गिरिकर्णसमन्वितः। रसालास्थिशिवाचूर्ण पूर्ण नीरेण सत्वरम् ॥
प्रलेपैः सप्तभिर्मूों दारुणं दारुणं जयेत् ॥ ३१ ॥ व्याख्या-द्राक्षा गोस्तनी पथ्या हरीतकी वृष आटरूप कण्ट गोक्षुर गिरिकर्ण अश्वखुर’ रसालास्थि रसालमज्जा शिवाचूर्ण आमलकी चूर्णम् पूर्ण नीरेण वारिणा पिट्टा सप्तभि प्रलेप मून’ शिरस दारण भयावह दारुणम् एतन्नामक रोगविशेप सत्वर शीघ्र जयेत् । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-मुनका, हरड़, अर्सा, गोखरू, घोढा का खुर, भाम की गुठली, ________________
१११
चतुर्थो विलासः आंवला, इनके चूर्ण को पानी से पीसकर शिर में लगाने से भीपण दारुणक नामक शिरोरोग शान्त हो जाता है ॥ ३१ ॥ चित्रनाशनो योग -
राजवृक्षत्वचः क्वाथः सोमराजिरजोऽन्चितः।
गुडन सहितः सेव्यः श्विनक्षत्रभृगूद्वहः ॥ ३१॥ व्याख्या-मोमाजिरजोन्त्रित वाकुचीचूर्णसयुक्त राजवृक्षत्वच आरग्वधत्वच काय कपायो गुटेन क्षुविकारेण सहित मेव्य । एप योग श्विनक्षत्रभृगूह चित्रकुष्ठ एव क्षत्रियवा नस्य विनाशाय परशुराम (भमारक ) अस्ति । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-याकुची के चूर्ण के साथ अमलतास के छिलके का काथ बनाकर उसमें गुढ मिलाकर सेवन करने से श्वेत कुष्ठ का नाश हो जाता है। अर्थात् यह योग श्वेत कुष्ट रूपी क्षत्रिय वंश के विनाम करने के लिये परशुराम है ॥३२॥ मगन्दरहरो योग
किमुपैति बुधो देवो ‘देवदत्तद्विपं किमु ।
लेपः श्वास्थ्नां खराम्भोभि. किं न हन्ति भगन्दरम् ॥ ३३ ॥ व्याण्या-बुध विदान् देव मुर वा देवदत्तद्विप देवदत्त शप तस्य हिट अमि स ण्य चित्रक तम् किमु व्यर्धम् उपति किम् इति प्रश्ने, अर्थात्तद् व्यर्थं तरय मेवनीय सराम्भोमि गर्दभमून श्वास्थ्ना कुस्कुगस्टना लेप भगन्दर किन हन्ति, अपि तु हन्त्येन। अनुष्टुप्ठन्द ।
हिन्दी-विदान् अथवा देवता भगन्दर की शान्ति के लिये चित्रक का प्रयोग क्यों करते हैं। इसकी शान्ति के लिये कुत्ते की हद्रीको गधा के मूत्र में घिसकर लगाना चाहिये। मालूम होता है कि इसकी अपवित्रता को देवकर ही प्रथम पक्ति का योग उन्होंने अपनाया है ॥ ३३ ॥ हिकानाशनो योग -
कणानागरधात्रीणां रजसा समधूपलम् ।
नस्येन विश्वगुडयोहिक्का नश्यति तत्क्षणात् ॥ ३४॥ ___ व्याख्या-समधूपल मधुना क्षीद्रण उपलया शर्करया च सहित, कणानागरधानाणा पिप्पलीशुण्ठीशिवाना रजसा चूर्णेन किंवा विश्वगुढयो विश्व शुण्ठी गुट इक्षुविकार एतयो नस्येन नावनेन तत्क्षणात् त्वरितमेव हिफा नश्यति । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-पिप्पली, सोंठ, आंवला इनका चूर्ण मिश्री और मधु के साथ सेवन करने से अथवा सोंठ और गुद का नस्य लेने से शीघ्र ही हिका रोगः शान्त हो जाता है।॥ ३४॥ ________________
११२
वैद्यक चमत्कारचिन्तामणिः अग्निमान्धप्रतीकारमाह
सैन्धवाद्भभुजो रोगं भस्मीकुर्यात्र संशयः।
अत्र कर्तृपदं ज्ञातुं दत्तं कल्पचतुष्टयम् ॥ ३५ ॥ व्याख्या-सैन्धवाभुज सैन्धवेन लवणविशेषेण सह आर्द्रक भक्षयतीति मुक तस्य र अग्नि अग पर्वत पापाणम् अपि भस्मीकुर्यात् विदहेत् अत्र सशय सन्देहो नास्ति । अत्रास्मिन् पद्ये कपद शातु बोधु कल्पचतुष्टय दत्तम् । एतावत् कालपर्यन्तमपि अत्र कः कर्ता इत्युत्तरणार्यम् , कर्तृगुप्तस्योदाहरणम् । मनुष्टुप्छन्द । अन्यत्राप्यस्य योगस्य प्रशस्ति. सुलमा यथाभोजनाग्रे सदा पथ्य लवणाकमक्षणम् । वह्निसन्दीपन रुच्य जिह्वाकण्ठविशोधनम् ॥
हिन्दी-सेन्धानमक और अदरख मिलाकर जो प्रतिदिन भोजन के पहिले खाया करता है उसकी पाचकाग्नि पहाड़ों को भी पचा डालती है भोजन की तो वात ही क्या है। यह कर्ता गुप्त पद्य है, अत. कवि कहता है इसमें कर्ता ढूंढने के लिये चार युगों का समय दिया गया है ॥ ३५॥
गोकप्रतीकारमाहद्विपतां मम सन्नितम्वविम्वे मधु इच्छोकमपाकरोतु सद्यः। सुहृदां तव सद्विलासलास्ये मधु हृच्छोकमपाकरोतु सद्यः ॥ ३६ ॥
व्याख्या-हे सन्नितम्बबिम्बे शोभननितम्बप्रदेशे रत्नकले मम द्विपता मम शत्रण! सघ तत्क्षण हच्छोक मानमिक दुख मधु मघम् अपाकरोतु दूरीकरोतु । हे विलासलास्ये विलासादिकमेव लास्य नृत्य यस्या सा तत्सम्बुद्धौ, तव सुहृदा त्वन्मित्राणा इच्छोक स-मधु अधरामृतम् अपाकरोतु दरीकरोतु । मालमारिणीवृत्तम् । मद्यविपये प्राचा मतम्मथप्रयोग कुर्वन्ति शूद्रादिपु महार्तिपु । द्विजैसिभिस्तु न ग्राह्य यथप्युज्जीवयेन्मृतम् ॥
हिन्दी-हे रस्नकला मेरे शत्रुओं के हृदयशोक को मय दूर करे और तुम्हारे मित्रों के हृदय शोक को तुम्हारा अधरामृत दूर करे ॥३६ ॥
कवे आनन्दाभिव्यक्ति — देशे देशे दृश्यते सिन्धुतीरं तीरे तीरे वझुलानां निकुञ्जः। कुले कुले सुध्रुवां सीधुपानं पाने पाने वर्तते सर्चलोकः ॥ ३७॥
व्याख्या–देशे देशे सर्वत्र मिन्धुतीर नदीना तट दृश्यते तीरे तीरे सर्वस्मिन् तरप्रदेश वन्जुलानां वेतसा निकुन कुज, कुजे कुजे सर्वत्र वापिहितोदरे सुभ्रवा कामिनीनों मीधुपान मघरसास्वाद, पाने पाने मधपाने सर्वो लोक मस्तो भवति । शालिनीवृत्तम् ।
हिन्दी-इस देश में सब जगह नदियों के तट है.सभी तटों में बेत की लताओं ________________
चतुर्थो विलासः
११३ की शादियां हैं, सभी में विलासिनियां मद्यपान में रत हैं, उनके साथ नायक भी मद्य पी-पी कर मदमत्त हो रहे है ॥ ३७॥ बहिर्लापिका प्रस्तांति कवि - किमु पिवति समूहः शोकभाजां जनानां
निपतति युवतीनां कामिनां कः स्तनेषु । व्यथयति सुरते कः कैरवाक्षी नवोढां
स्मर सुहृदि वसन्ते जायते कः समृद्धः ॥ ३८ ॥ व्याख्या-शोकमाजा जनाना दुखतप्ताना पुसा समूह समाज किमु पिबति ? मधु, युवतीना नवोढाना म्तनेपु कामिना कामुकाना क, पतति १ कर सुरते निधुवनावसरे नवोढाम् उद्यधौवना कैरवाक्षी कमललोचना क व्यथयति पीडयति १ अदय , स्मर विचारय मुद्ददि बसन्ते मित्रवत् प्रिये मधुमासे क समृद्ध. सम्पन्न. जायते १ मधुकरोदय । मालिनीवृत्तम् ।
हिन्दी-दुख में डूबे हुए लोगों का समूह क्या पीता है ? मधु, युवतियों के स्तनों पर कामी पुरुषों का क्या पड़ता है ? करः (हाथ), मैथुन के समय नव. युवती कमलनयनियों को कौन कष्ट देता है ? अदयः (निर्दयी) याद करो प्रिय वसन्त में कौन समृद्धिशाली होता है ? (सय प्रश्नों के उत्तरों को मिलाकर चौथे पाद का उत्तर है) ‘मधुकरोदयः’ । भौरों का समूह ।
विशेष-यहिापिका के पक्ष में प्रश्नमात्र होता है उसका उत्तर बाहर से हूंढना होता है। इसके ठीक विपरीत अन्तापिका होती है ॥ ३८॥
शुण्ठीकपायमाहकीलालं विश्वजं यः प्रपियति पुरुषस्तस्य वक्ने रुचिः स्यानर्मल्यं चित्तदृष्टयोर्जठरजठररुपीनसश्वासकासाः। नश्यन्ति क्षुत्प्रवोधो धुतिरपि वपुषो जायते मञ्जुघोषो भूलोके मञ्जुधोपे सुदति मम परं विस्मयो वर्ततेऽत्र ॥ ३९ ॥ ध्याख्या-य. स्वस्थोऽस्वस्थो वा पुरुप विश्वज शुण्ट्या सम्भव फायीकृत कीलाल जलम्, “पय कीलालममृत जीवन भुवन वनम्” इति अमर । प्रपिवति पान करोति तस्य वक्त्र मुखे रुचि भोजनेच्छा स्यात्, चित्तवृष्टथो मनसि नेप्रयोश्च नेमल्य स्वच्छता स्यात् जठरजठररुपीनसश्वासकासा अग्निमान्धप्रतिश्यायश्वासकासा नश्यन्ति शाम्यन्ति, क्षुरप्रवोध बुमुक्षोत्पत्ति वपुपो धुतिरपि कान्तिमच्छरीरमपि जायते तथा मन्जुघोपः सरसपाक् च मवति, हेमन्जुघोपे ! मधुरमापिणि ! सुदति ! अत्र भूलोके मम छोलिम्व
८च० चि० ________________
११४
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः
राजस्य परम् अत्यन्त विस्मयोऽद्भुत वर्तते। यत. एक एव शुण्ठ्या कपायः किं किं न करोतीति विस्मये हेतु 1 विस्मयप्रदर्शनव्याजेन शुण्य्या. माहात्म्यातिशयो ध्वनित’ कविना। अपरपक्षे गङ्गादिजलाना महत्त्व प्रदर्शयन्नाश्चर्य प्रकटयति कधि । वृत्त शार्दूलविक्रीडितम् ।
हिन्दी-स्वस्थ अथवा अस्वस्थ जो भी मानव सोठ का काथ प्रतिदिन पीता है उसकी भोजन के प्रति इच्छा बढ़ती है, चित्त में प्रसन्नता, भांखों में ज्योति आ. जाती है, मन्दाग्नि प्रतिश्याय (जुकाम) श्वास (दमा) कास इनका नाश हो जाता है, भूख बढ़ने लगती है शरीर कान्तिमय हो जाता है, वाणी सुरीली हो जाती है, हे सुरीली वाणी तथा सुन्दरदन्तपंक्ति वाली रनकला \। इस ससार में मुझे सोंठ के इतने गुणों को देखकर अत्यन्त आश्चर्य है। दूसरे पक्ष में गका आदि के जलों का महत्व दिखाया गया है ॥ ३९ ॥ दन्तरोगप्रतीकारमाह
धन्योऽसि रे वकुल सन्मलयाख्यशैल.
। मन्दानिलेन चपलीकृतवालपत्र । त्वद्वल्कलस्य रजसः परिघर्षणेन
दन्ता भवन्ति चपला अपि वज्रतुल्याः ॥ ४० ॥ व्याख्या-सन्मलयाख्यशैलमन्दानिलेन चपलीकृतवालपत्र सश्चासौ मलय सन्मलय., स आख्या यस्य स स चासौ शैल पर्वत तस्य मन्दानिलेन वायुना चञ्चलीकृतकिसलय रे वकुल मधुगन्ध, व धन्योऽसि कृतार्थोऽसि । त्वद्वल्कलस्य रजस चूर्णस्य परिर्पणेन चपला चन्चला अपि दन्ता वज्रतुल्या कठोरा स्थिरा भवन्ति । वसन्ततिलकावृत्तम् । तस्य गुणा -
बकुलस्तुवरोऽनुष्ण कटुपाकरसो गुरुः।
कफपित्तविपश्चित्रकृमिदन्तगदापहः ॥ अ०नि० ॥ हिन्दी-मलयमरुत से आन्दोलित किसलय युक्तरे वकुल (मौलसिरी) वृक्ष! तुम धन्य हो, तुम्हारी छाल के चूर्ण का मजन करने से हिलते हुए दांत भी वज्र के समान कठोर हो जाते हैं ॥४०॥ __ प्रकारान्तरेण वकुलमेव प्रस्तौतिकेलीशैले वकुलपटलं वर्तते यत्त्वदीये
चन्द्रास्ये तत्सकलभयतो यत्नतः पालनीयम् । .. कस्मात् स्वामिन् भवति सुतरां त्वत्कृपा नेतरेषां।
तस्य त्वग्मिर्दशनदृढता दृश्यते तन्वि यस्मात् ॥४१॥ ________________
चतुर्थो विलासः ग्याल्या-हे चन्द्रास्ये!चन्द्रवदने ! यत्वदीये स्वत्सम्बन्धिनि केलीशेले कीटापर्वतके वकुलपटल मधुगन्धवृक्षसमूहो वर्ततेऽस्ति तत् पटल सकलमयत. सम्पर्णाभ्यो वाधाम्यो यत्नत प्रयलपूर्वक पालनीय रक्षणीयम् । कस्मात स्वामिन् त्वत्कृपा तव दया इतरेपाम् उपरि सुतरा न मवति (किम् ) । इति रलकलया पृष्टे सति समादधाति लोलिम्बराज - हे तन्नि ! हे कृशोदरि । यस्मात्कारणात् तस्य वकुलस्य त्वग्मि दशनदृढता दन्ताना स्थैर्य दृश्यते, न केवल शास्त्रेषु श्रूयते प्य । मन्दाक्रान्ता वृत्तम् ॥
हिन्दी-हे चन्द्रमुखि ! जो तुम्हारे मनोविनोद के लिये बगीचा बना रखा है उसमे एक जगह मौलसिरी के पेट हैं, उनकी भली-भाँति रक्षा करनी चाहिये, किसलिये पतिदेव । आपकी कृपा और वृक्षों के ऊपर नहीं है क्या ? । तव लोलिम्वराज उत्तर देते हैं, हे कृशोदरी ! क्योंकि बकुल की छाल के चूर्ण का मान करने से दांत स्वच्छ एव दृढ हो जाते हैं ॥ १ ॥ दन्तविकारचिकित्मामाह
कान्ते कामिनि भामिनि प्रियतमे तन्वनि चन्द्रानने सुभ्र प्रेयसि मानिनि स्मररणक्षोणि क्षणं श्रूयताम् । रुग्लोनाम्बुदतेजविद्विरजनीतिक्तासमंगावृकी
तेपां चूर्णविधर्पणादपहरेत् कण्डं रुगननुतिम् ॥ ४२ ॥ व्याख्या-कान्ते सुन्दरि कामिनि कामशीले भामिनि क्रोधने प्रियतमे वत्सले तन्वनि कृशोदरि चन्द्रानने मृगारमुखि सुन्न समूलते प्रेयसि अतिशयप्रिये मानिनि गनिणि स्मररणक्षोणि कामयुद्धाधारे रनकले क्षण धृयताम् । रुक कुष्ठ लोध रोध अम्बुदः मुस्ता तेजवल्कल तेजपत्र विट लवण द्विरजनी हरिद्रा दारुहरिद्रा च तिका कटुका मनिष्ठा वृकी पाठा तेषां पूर्वोक्ताना चूर्णविषर्पणा दन्तानां कण्ड रुजम् पीडाम् अननुर्ति-रक्तस्रावम् अपहरेत । वृत्त शार्दूलविक्रीडितम् ।
हिन्दी-अनेक सद्गुणों से अलकृत हे रतकला ! जरा सुनो! फूठ पठानीलोध नागरमोथा तेजपत्ता विढ़ नमक (कालानमक) हल्दी दारुहल्दी कुटकी मजीठ पाठा इनका चारीक चूर्ण करके दांतों में मलने से खुजली और रक का नाव होना बन्द हो जाता है । यह दन्तरोगहर मअन है ॥ ४२ ॥ इति श्रीमल्लोलिम्पराजविरचिते चमत्कारचिन्तामणौ क्षयादिरोगप्रतीकारोनाम
चतुर्थो विलास. समाप्तः । ________________
अथ पञ्चमो विलासः सुखिनीवन विशिनष्टिशयनं यदि पल्लवपुष्पकृतं गहनं यदि मत्तपिकं सस्तम् । यदि चारुवपुर्यदि भूरिधनं किमतः परमस्ति सुखं धुसदः॥१॥ व्याख्या-पल्लवपुष्पकृत किसलये कुसुमैश्वरचित यदि शयन शय्या स्यात्, यदि गहनम् उद्यान मत्तपिकावलीसहित तथा सस्त पक्षिणा विरावै सहितम्, यदि चारु मुन्दर नीरोगश्च वपु शरीर यदि भूरि विपुल धन स्यात् । मो घुसद सुरा अत पर कि सुसम् अस्ति। स्वर्गेऽपि एतदतिरिक्त न किमपि वर्तते, इत्यभिप्राय । अत एव घसद इति सम्बोधनम् । तोटकवृत्तम् ।
हिन्दी-कोमल फूल तथा पत्तियों से रचित सुगन्धित शयन, मद माती हुई कोयलों के कलरव से पूर्ण चगीचा, सुन्दर एव सुखी शरीर तथा इच्छानुकूल धन इतनी वस्तुयें यदि प्राप्त हों तो हे देवताओ ! स्वर्ग में इससे यदकर क्या और कुछ सुख है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥१॥ तदेव प्रकारान्तरेण वर्णयति
अमन्दामोदमन्दारे प्रमोदोदयदायिनि । मरुदान्दोलितोदारचञ्चञ्चम्पकचारुणि ॥२॥ भ्रमभ्रमरमालाभिर्मालतीभिरलङ्कते ।
स्फुरद्वने सुखावासः कामिनां कामंदो भवेत् ॥३॥युग्मकम्॥ म्याग्या-प्रमोदोदयदायिनि प्रमोदस्य आनन्दस्योदय त ददातीति तस्मिन् अमन्दामोदमन्दारे अमन्दो विपुलश्वासौ आमोद. सुगन्धि तेन युक्ते मन्दारे पारिजाते, मरुदान्दोलितोदारचम्चच्चम्पकचारुणि मरुता वायुना आन्दोलित कम्पितम् उदारश्च तत् चम्चच्चपल चम्पक स्वर्णपुष्पक तेन चार तस्मिन् , भ्रमभ्रमरमालामि भ्रमन्त्यश्च ता भ्रमराणां द्विरेफाणां माला पक्तय तामि मालतीभि जातीमि अलस्कृते सुशोमिते स्फुरद दीप्यद् यद् वन तस्मिन् गृहारामे सुखावास कामिना कामेच्छासनाथीकृतचेतसा विलासिना कृते कामद मनोवान्छितार्थप्रद भवेदिति शेष । अनुष्टुप्छन्द ।
‘हिन्दी-आनन्द को देनेवाले अत्यन्त सुवासित पारिजात वृक्ष पाले, हवा के झोको से झकप्तोरे हुए सुन्दर चम्पक पुष्पों से सुगन्धित, महराते हुए भौरों की माला से घिरे हुए पुष्पित मालती वृक्षों से सुशोभित घर के बगीचे का सुखद निवास कामीजनों की इच्छा को पूर्ण करता है॥२-३॥ ________________
पञ्चमा विलासः ।
१९७
• वाजीकरणयोग्यस्त्रीलक्षणमाह
रहसि गलितलजा वाह्यदेशे सलज्जा
कुचभरनमिताही चन्दनक्षालितागी। मृदुतरमुपयान्ती श्रोणिवक्षोजभाराद्
दृढयति कमलाक्षी कस्य कामं न कामम् ॥ ४ ॥ व्यासया-रहसि एकान्ते गलितलजा गलिता क्षीणा लज्जा यस्या. सा निर्लज्जा बाघदेशे समाजे सलज्जा छौमती, कुचमरनमिताड़ी स्तनयोर्भारेण आनतपूर्वकाया चन्दनक्षालिताङ्गी मलयजलिप्तदेह। श्रोणिवक्षोजभारात् योणि ककुद्मती वक्षोजी स्तनी तेपा’ मारा मृदुतर शिथिलशिथिलम् उपयान्ती गच्छती, अनेन गजगामिनीत्वमस्या व्यज्यते। एतादृशी कमलाक्षी सरसिजनेत्रा कस्य पुस काम रिरसा कामम् अत्यन्त न द्रढयति । अपितु सर्वस्यापि काम द्रढयतीत्यर्थ । मालिनीवृत्तम् । __ हिन्दी-एकान्त में निर्लज किन्तु समाज के सामने भरयन्त-लज्जाशील स्तनों के भार से झुकी हुई चन्दन के लेप से शीतल एवं सुवासित, नितम्ध और स्तन के भार से धीरे-धीरे चलने वाली (अर्थात् गजगामिनी) कमलनयना किसकी कामवासना को पूर्ण रूप से दृढ नहीं कर देती ॥ ४ ॥ वाजीकरणयोग -
सुन्दरि विदारिकायाः सम्यक् स्वरसेन भवितं चूर्णम् ।
सर्पिःक्षौद्रसमेतं लीढ्वा रसिको दशांगना रमयेत् ॥५॥ व्याण्या-हे मुन्दरि ! रक्षकले ! विदारिकाया विदार्या चूर्ण स्वरसेन विदार्या रसेन भावित सपि क्षौद्रसमेत घृतमधुभ्यां सह सम्यग् यथाविधि लीवा रसिको रिरसु दशांगना दशस्त्रिय रमयेत् ।
हिन्दी-हे रनकला । विदारी के चूर्ण को उसी के रस की भावना देकर सुखा ले, फिर इस चूर्ण को घी और शहद के साथ मिलाकर चाटे । इसके सेवन से वह दस स्त्रियों के साथ रमण कर सकता है ॥५॥ वीर्यवर्धको योग -
चूर्णमामलकजं मृगनेत्रे भावितं स्वजनितेन रसेन । ’ शर्करामधुपयोधृतयुक्तं यः पिवेत् प्रतिदिनं रतलुब्धः ॥ ६॥
व्याख्या-आमलकज धात्रीसमुद्भूत चूर्ण स्वजनितेनामलकीजेन रसेन भावित ‘मृगनेने मृगचर्मणि शुष्कीकृत शर्करामधुपयोघृतयुक्तम् उपलाक्षौद्रदुग्धसपि समेत य कामुक पिवेत् स प्रतिदिन रतलुब्ध रिरसु भवेत् । ________________
१२०
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः हिन्दी-हे कमलनयना रत्नकला ! शतावरी और सफेद गुला का चूर्ण सुखी जीवन चाहने वाले व्यकि सदा सेवन करें। यह चूर्ण पतले शुक्र को गाढ़ा करके उसमें स्थिरता लाता है ॥ १२ ॥ कार्यहरो योग -
सर्पिपा पयसा वाऽथ अश्वगन्धापलार्धकम् ।
प्रभाते सेवनं कुर्यात् कृशानां पुष्टिकारणम् ॥ १३ ॥ व्याण्या-सपिपा घृतेन पयसा दुग्धेन वा अश्वगन्धा हयगन्धा तस्या पलाधक तोलकद्वयपरिमित तच्चूर्ण प्रमाते प्रत्युपसि सेवन कुर्यात्, एतच्चूर्ण कृमाना तनुतनुमतां पष्टिकारक स्थौल्यमम्पादने साहाय्य करोति । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-घी अथवा दूध के साथ असगन्ध का चूर्ण दो तोला लेकर प्रात काल प्रतिदिन सेवन करे। इसके सेवन से कृशता दूर हो जाती है। ___ विशेप-नागौरी असगन्ध का दो तोला चूर्ण लेकर आधा सेर दूध में मन्द मन्द आंच से पकाकर रबड़ी जैसा होने पर उतार कर रख दें। इसमें मिश्री मिलाकर सेवन करने से कृशता के कारण शरीर तथा चेहरे पर पड़े हुए गढ़े शीघ्र ही भर जाते हैं और दिनों दिन स्वास्थ्य लाभ होने लगता है ॥ १३ ॥ वलवर्डको योगः
तूलिनीपुष्पचूर्णन्तु क्षौद्रकर्प लिहेदनु॥
दुर्वलो वलमाप्नोति मासकेन यथा शशी ॥१४॥ व्याख्या-तूलिनीपुष्पचूर्णन्तु तूलिनी शाल्मली तस्या पुष्पचूर्ण क्षीद्र मधु तस्य कर्ष कोलद्वयम् अनु पश्चालिहेच चेत् दुल क्षीणशक्ति पुरुष वलमाप्नोति पुन. बलवान् भवति यथा कृष्णपक्षे समायाते शशी क्षीण भवति पुन मासै केन एकमासाभ्यन्तरे एव पूर्णता याति तद्वन्मानवोऽपि बलवान् भवति । अनुष्टुप्छन्द.।
हिन्दी-सेमल के फूलों का चूर्ण १ तोला मधु के साथ चाटने से दुर्वल पुरुष उस प्रकार पुन बलवान् हो जाता है जिस प्रकार एक महीने में चन्द्रमा ॥ १४ ॥ वीर्यस्तम्भकरो योग -
अश्वमारजटालेपं यः करोति करे मणौ ।
वीर्यस्तम्भ स लभते कर्णाटीसुरतेष्वपि ॥ १५॥ व्यासया-य कामी अवमारजटालेप श्वेतकरवीरमूललेप करे हस्ते मणौ शिश्नमुण्डे च करोति स कर्णाटीसुरतेष्वपि द्रविडस्त्रीमै थुनेपु मपि वीर्यस्तम्म लमते प्राप्नोति । अनुष्टुप्छन्द.। ________________
पञ्चमो विलासः
१२१ - हिन्दी-जो कामी पुरुप सफेद कनेर की जड़ का लेप हाथ की हथेली तया लिग के अग्रभाग में मैथुन से कुछ समय पूर्व करके फिर मैथुन करता है वह कर्नाटक देश की स्त्रियों के साथ मैथुन करने में भी वीर्य स्तम्मन का लाभ उठाता है ॥ ५॥
अपरो वीर्यस्तम्मकरो योगःक्वार्थ पिवेत् खानसवल्कलानां सर्पिर्यवानीगुडमिश्रितं यः। प्राप्नोति भूयः सुरतेपु दाय॑ भवेद् रिम्सुः कलविंकवत् सः ॥ १६ ॥
घ्याण्या-य’ रिरस मैथुनेच्छावान् सपिर्यवानीगुडमिश्रित सर्पि धृत यवानी अनमोदा गुड. क्षुविकार एमिर्मिलित खाखसवल्कलाना खसतिलफलत्वचा काथ कपायं पिवेत् स भूय पुनरपि कलाविकवत् सुरतेपु दाढर्थ चटकवन्मैथुनेपु स्थायित्व प्राप्नोति लभते । इन्द्रवज्रावृत्तम् ।
हिन्दी-जो मैथुनाभिलाषी पुरुष घी अजवायन और गुड़ के साथ पोस्ता की स्वचा (छिलका) के हाथ का सेवन करता है, वह फिर से गौरया की भांति मैथुन में स्थिरता को प्राप्त करता है । अर्थात् उसका वीर्य शीघ्र स्खलित नहीं होता ॥१६॥ कामिनीविद्रावणो रस
सकर्पूरो रसक्षौद्रजातीरजविमिश्रितः। ।
लिगलेपात् करोत्येष द्रावणं हरिणीदृशाम् ॥ १७ ॥ व्याख्या-सकर्पूर धनसारेण सहित रस. पारद क्षौद्र मधु जातीरन टकणः निमिरेभिर्विमिश्रित सम्पृक्तो लेप सहायते । एप लिङ्गलेपात् हरिणीदशा मृगनयनीना द्रावण विद्रावण करोति । अनुष्टुप्छन्द ।
हिन्दी-कपूर शुद्ध पारा शहद सुहागा इनको मिलाकर एक लेप बनता है, इसका मैथुन के पूर्व लिंग के ऊपर लेप कर सम्भोग करने से स्त्रियाँ शीघ्र स्खलित हो जाती हैं ॥१७॥ ग्रन्थान्ते जगन्मङ्गलात्मक मङ्गलाचरणम्वक्षोजन्मभरालसाः सुजघनाः सम्पूर्णचन्द्राननाः
श्यामाश्चञ्चललोचनाः सुवसना गम्भीरनाभिहदाः। क्षामा वन्धरकन्वराः सुदशनाः विम्वाधराः सस्वरा
भव्यानां भवनेवसन्ति वनिताविश्वेश्वरानुग्रहात् ॥१८॥ ग्याण्या-वक्षोजन्ममराल्सा. स्तनयुगलमरेण शिथिलीकृता , मुजघना. शोभनं ________________
१२२
वैद्यक-चमत्कारचिन्तामणिः जघन यासां ता जघन स्त्रीकटया. पुरोमाग तेन युक्ता सम्पूर्णचन्द्रानना राकाविधुमुरयः श्यामा पोटशवापिक्य युवतय चाललोचना चपलनयनाः, सुवसना सुवाससः गम्मीरनामिछदा गभीरनाभितटागा क्षामा कृशोदर्य बन्धुरकन्धराः उन्नतग्रीवाः मुदशना शोभनरदना विम्वाधरा. विम्वफलवद्रक्तदशनच्छदा सुस्वरा मन्जुघोपा. वनिता स्त्रिय विश्वेश्वरानुग्रहात् शम्भो कृपान मव्याना श्रीमता भवने गेहे गेहे वसन्ति निवास कुर्वन्ति । इत्यभूता सुलक्षणा देव्य सर्पपा गृहे वसन्तु सर्वे भव्या श्रीमन्तो भवन्तु श्त्याकारिका शुभाशसा कवेर्ग्रन्थान्ते लोककल्याणाय मनिवदा । वृत्त शार्दूलविक्रीडितन् ।
वाजीकरणप्रकरण समाप्तम् । सप्तयुग्माभ्रयुग्मेऽब्दे वैक्रमे पत्रमीतियौ ।
माघशुक्छे भानुवारे कृतिमें पूर्णतामगात् ॥ हिन्दी-पीन एवं उन्नत स्तनों के भार से अलसायी हुई, सुन्दर जाघ वाली, पूर्ण चन्द्र के सहश मुख वाली, पोडशी, चञ्चल चितवन वाली, वस्त्राभूपों से भलंकृत, गम्भीरनाभियुक्त, कृशोदरी, लम्बी गरदन सुन्दर दन्त पंक्ति, विम्व फल के समानाकार होठ और सुरीली वाणी वाली स्त्रियों भगवान् विश्वनाथ की कृपासे श्रीमानों के घरों में निवास करती हैं ॥ १८ ॥
विशेष—यह मन्तिम पद्य कवि ने अपनी रसिकता के अनुरूप विश्वकल्याण की भावना से प्रस्तुत किया है। इसके द्वारा वह कामना कर रहा है किउक्त प्रकार की सुलक्षणा देवियां सबके घरों में निवास करें, सभी श्रीमान् हो और सुखी रहें। इति श्रीमल्लोलिम्बराजविरचिते चमस्कारचिन्तामणौ वाजीकरणदण्यवर्णनंनाम
पश्चमो विलास समाप्त.। ________________
ग्रन्थ-परिचयः श्रीमल्लोलिम्बराजः स जयति घिवुधाग्रेसरः सप्तडग्या, ___सद्भवस्याऽवाप्रदीक्षः कविकुलकमलोल्लासहासे नदीपण । नासिक्याऽऽसनभूमौ दिवसकरगृहे जन्मलामो यदीयः
सोऽयं घिद्वद्वरेण्यो हरिहरनृपते राजमन्त्रित्वमाप ॥१॥ पती रवकला कलासु कुशला दुप्यसीमाजिता
शोमा कामपि पुष्णती यवनजा याऽऽसीन् मुरासाऽभिधा। सामुद्वारा कविधकार सुघहुन् संवादरूपोधुरान्
प्रन्थान् ये. कवितालता रसवती सापुष्पिता राजते ॥२॥ तांस्तान् प्रन्यवरान् निरीक्ष्य परितः सिद्धाशयान् कामदान्
साहित्यप्रपणान् भिपरवरहितान् समि. समभ्यर्चितान् । मवेतो मुखरीबभूव कुतुकात् तेपा दिक्षाविधी
तस्मादेष मणिश्चमत्कृतिकर प्रस्तूयते व पुर. ॥३॥ प्रन्योऽय योगरत्नैरनुभवसुलभ. शास्त्रपूतैश्च सिद्धैः
रायन्तं मण्डितोऽपि श्रयति सरसता ग्रन्थफर्तु प्रभावात् । तस्मादेषोऽपि कृरना कलिकलुपवतां कायिकी माननी च व्याधियातोरथचिन्ता व्यपनयतु चमत्कारचिन्तामणिः ॥ ४ ॥
सधोलाभो ध्रुवो लामश्चमत्कारी प्रकीर्तितो। कथ स्यातामियं चिन्ता तो निराकृरते मणिः ॥५॥ अभिप्रायो बुधस्यास्य सम्मविष्यति तेन यत् । अस्य नाम चमरकारचिन्तामणिरिद कृतम् ॥ ६॥
__ श्रीगुरु’ स्मरणम् सांख्ये व्याकरणे नयेऽथ विनये भैपज्यविधास्वलं
साहित्येऽपि च यस्य धीतिमती तरवार्थसम्बोधिनी । यः शिप्येपु सुधामयाननुभवान वर्पत्यजन मुदा
सोऽस्माकं गुरुलालचन्द्रविवुधो ध्येय. सुराचार्यवत् ॥ ७ ॥ आयुर्वेदोदकर्यसिविधमपि मल क्षालयत्येव पुंसा
योगज्ञानेन चितं विशदयतितमा पाणिनीयेन चाचम् । साक्षाच्छेपावतार. प्रवहति विपुला धीधुरं शान्तचित्तो
विद्ववृन्दाप्रगण्यो जयति गुरुवरो लालचन्द्रो मनस्वी ॥८॥ इति कतिपयपधैर्मन्यकतगुरोश्च प्रणयरससनाथ’ संस्तवो यो मयोका। विशदगुणमहिम्नोः प्रीतये स्यावसचेत सदविपुलमुदमुपेयाम्भक्तिभावोपपन्नः ॥९॥
तारादत्ततनजस्य ब्रह्मानन्दत्रिपाठिन. । मनया टीकया मोद’ परं स्यात् सुधियां सदा ॥१०॥ ________________
अलङ्कारादि परिचयः प्रथमो विलासः । अलकारः
श्लोकसंख्या अलकारः
श्लोक संख्या मुद्रालकारः अनुमासः
उपमा लक्षितलक्षणा
द्वितीयो विलासः भावध्वनिः
रूपकम भ्यतरम्
कर्तृगुप्तम् यमकम्
अनुप्रासः लाटानुप्रासः
अनन्वय उपमा
अनुप्रासः अनुप्रासः
तृतीयो विलासः उपमा
उपमा अनुप्रासः
रूपकम् यमकम् उपमा
.
अनुप्रासः
.
लपणा अनुप्रास
चतुर्थो विलासः
अनुप्रास’
•छाटानुप्रासः
अनुप्रास. *उपमा क्रियादीपक. विरोधाभास. -दृष्टान्तः उपमा मनुप्रास भनन्वयालङ्कारः उपमा -मालोपमा उपमा
उपमा
फटश्लोक कर्तृगुप्तम् लाटानुप्रास बहिर्लापिका
___ पञ्चमो विलासः अनुप्रासः
रूपकम् -श्लेप, उपमा
८० । दृष्टान्तः ________________
गोखरू
प्रयुक्तौषधद्रव्याणाम् अकाराद्यनुक्रमः अगरस्य करया
गजपीपल अजवायन कपूर
गधा का मूत्र अडूसा कमल
गम्भारी भतिवला करज
गिलोय अतीस काकदासिंगी
गुग्गुलु अदरख
कायफल अनार कालाजीग
गूमा अपराजिता
कालातिल अमचूर कालानमक
गोधृत अमलतास कालीमिरिच
गोधर मरणि कालीसारिचा
गोमूत्र সব कास
घुघची अशोक
किंवांच असगन्ध
घोड़ा का खुर भावला कुटज
चकवड़ भाम
कुत्ता की हड्डी कुलथी
चव्य इन्द्रायण कुश
चावल का धोवन
चित्रक इलायची केला
चिरायता एरण्ड केवड़ा
चिरौंजी कंधी खस
चीनी कचूर खिरंटी
चेतकी (हरड़) कच्चे येल का गूदा खैर का छाल
चौलाई कण्टकारी (छोटी) गंधक
जमालगोटा कण्टकारी (बी)
\। गंधरस
घृत
कुटकी
चकोतरा .
इन्दनी
इमली
जल ________________
(१२६ )
जवाखार जवासा जामुन की गुठली जायफल
जी
जोक
तमाल तिलकपुष्प तिलतेल त्रिफला तुपोदक तेजपत्ता दही दादिम दारुहल्दी दुरालभा देवदारु द्रोणपुप्पी धनिया । धमासा धान का लावा धाय के फूल नलद नागकेसर नागरमोथा नागौरी असगन्ध नारियल निशोथ नीम की छाल
नीलकमल नेनवाला पठानीलोध पमाख पादल पानी ऑवला पारद पिठवन पितपापड़ा पिप्पलीमूल प्रियंगु पीपल पीली सरसों पुनर्नवा पोस्ता पोहकरमूल बकरी का दूध बवूल काथ बला बहेडा बाकुची यालबच विजौरा नीवू
भिलावा मुँइ भावला भृगराज मक्खन मजीठ मठा मद्य मदार मधुकर्कटी मधु मरिच मरोरफली महाबला महुभा मांट मांसरोहिणी मिश्री मुनका मुलेठी मूर्वा मैनशिल मोचरस मोती मौलसिरी रसवत्
बेर
रात्रा
बेल वोल चूर्ण भद्रमुस्ता भांग भारंगी
रुचकलवण रेद की जड़ रेणुका ________________
( १२७ )
श्रीफल
रेह लवण लवंग लहसुन
लाव
लाजा लालचन्दन लोध लौहभस्म वचा वरुण वायविडंग विदारीकन्द शतावरी घरपुस्खा शालिचावल मालीपर्णी शिलाजीत
नज्जीखार सफेद कनेर सफेद गुजा सफेद चन्दन सम्हालू समुद्रफेन सरसों का तेल सलाई सहजन (लाल) सहदेई स्वर्णगरिक स्वर्णमाक्षिक साम्हर लवण सारिवा (काली) सारिवा (सफेद) सिंहिका
\। सिन्दूर सुगन्धवाला सेमल के फूल सेहुण्ड का फूल मैंधानमक साँचर लवण सोठ सोना पाठा सौंफ हरीतकी
हाऊबेर हिंगुपत्री हिरोजी हींग हीरा कासीस
0400 ________________
सहायकग्रन्धानां सूची
, चरकसहिता २ सुश्रुतसंहिता ३ वाग्मट सहिता ४ हारीत संहिता ५ शाघर सहिता ६ माधवनिदान ७ रमेन्द्रसारसंग्रह ८ भैषज्यरत्नावली ९ चक्रदत्त १० भावप्रकाशनिघण्टु ।
" अभिनवनिघण्टु १२ रमार्णवतन्त्र १३ हस्यायुर्वेद ११ वैद्यावतंस १५ वैद्यजीवन ११ महाभारत १७ मत्स्यपुराण १८ हरिवंशपुराण १९ अग्निपुराण २० सिदान्तकौमुदी २१ अमरकोशः २२ मेदिनी कोशः २३ हरिविलास काम्य २४ विष्णुसहस्रनामस्तो २५ चाणक्यनीति
]