हंसराजनिदानम्

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भूमिका।
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धन्य है वह परमेश्वर जिसकी कृपासे सारे संसार में कैसे कैसे विचित्र चरित्र हो रहे हैं। देखिये यह कैसी ईश्वरकी अद्भुत रचना है किसृष्टिमें अगणित जीव हैं, परन्तु यह नहीं कि एकसे दूसरे कीभ्रांति हो। इसी प्रकारसे जितने पदार्थ सृष्टिमें हरएकके गुण दोषपृथक पृथक दिये हैं। देखिये, बुद्धिमान महात्मा पुरुषोंने जीवोंकीरक्षा और क्लेश निवारणके निमित्त कैसे २ विचार किये हैं। वैद्यकविद्यामें अनेकों प्रकारके ग्रन्थ बने हैं, जिनके द्वारा औषधियोंकरके कैसा ही रोग हो विधिपूर्वक सेवन करनेसे तुरन्तही लाभ होगा, औषधियोंका तो फल प्रत्यक्ष है दृष्टान्तकीआवश्यकता नहीं ।

प्रथम महात्माओंने जो ग्रन्थ वैद्यक विद्याके बनाये वह संस्कृतमेंहैं, जो इस समय संस्कृतके अल्पप्रचारसे विशेषतर उपयोगीनहीं होते। इस कारण वर्त्तमान कालके अनुसार विद्वान्सजनोंनेउन ग्रन्थोंपर भाषाटीका बनानेका आरम्भ किया है, औरबहुतसे ग्रन्थोंपर भापाटीका बन भी गयी है।

हम अतीव प्रसन्नतापूर्वक इस बातको प्रकट करते हैं कि एकग्रन्थ हंसराजनिदान जो भाषाटीकासहित है अवलोकन करनेयोग्य है। एक तो इस कविकी कविता श्लोकबद्ध अति अनूठी हैऔर श्लोक ऐसे ललित हैं कि जिनके पढने और श्रवणमात्रहीसेचित्तको आनन्द होता है। दूसरे यह ग्रन्थ बहुत बडा भी नहीं हैकि जिसके पढनेके लिये अवस्थाका एक भाग आवश्यक हो, औरबहुत छोटा भी नहीं है इसीसे बहुधा लोग इसको पसन्द करते हैंकि केवल इसीके कण्ठाग्र करनेसे छोटे और बडे सम्पूर्ण अपनेअभीष्ट फलको पहुंचते हैं।

इन सब गुणोंके होते हुए इस ग्रन्थमें हंसराजार्थबोधिनी टीकाभाषामें ऐसी हुई है कि मानों अमृतकुंड जो अति कठिन स्थल हैउसके लानेके लिये रेलगाडी बनगई ।

प्रथम तो यह ग्रन्थ केवल संस्कृत जाननेवालोंहीके लिये फलदायक था अब भाषा जाननेवाले वैद्यलोगभी उसी प्रकार अपनाअर्थ प्राप्त करसक्तेहैं।

इस ग्रंथके सर्व प्रकारके छापनेका हक़ व रजिस्टरीका हक़मैंने खेमराज श्रीकृष्णदास प्रोप्राइटर श्रीवेंकटेश्वर छापाखानाबम्बईको दे दिया है इसलिये सूचित करताहूं कि अबसे कोईअन्य महाशय इस ग्रंथके छापनेका साहस न करें नहीं तोलाभकी कांक्षामें व्यर्थ व्यय उठाना पडेगा।

पण्डित दत्तराम चौबे
मथुरा.
पुस्तक मिलनेका ठिकाना-
खेमराज श्रीकृष्णदास,
“श्रीवेङ्कटेश्वर” स्टीम् प्रेस्-बम्बई.

हंसराजनिदानकी अनुक्रमणिका।

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हंसराजनिदानम्।

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अनुक्रमनिका।

विषय. विषय.
अतीसार रोगकी उत्पत्ति अलस विलंबिकाके लक्षण
अतीसारमें पथ्य विसूचिकाके लक्षण
**संग्रहणी **
वातसंग्रहणी लक्षण कृमिरोग निदान
पित्तसंग्रहणी लक्षण कृमिरोगकी उत्पत्ति
कफसंग्रहणीके लक्षण कृमिरोग पथ्य :..
त्रिदोषसंग्रहणीके लक्षण **पाण्डुरोग
सन्निपातकी संग्रहणीके लक्षण पांडुरोग उत्पत्ति
संग्रहणी रोगकी संप्राप्ति वातके पीलियाके लक्षण
संग्रहणीरोगमें पथ्य…… पित्तके पीलियाके लक्षण
**अर्शनिदान **
बवासीरके लक्षण ….. सन्निपातके पाण्डुरोग के लक्षण….
बातकी बवासीर के लक्षण पांडुरोगके असाध्य लक्षण
पित्तकी बवासीरके लक्षण पांडुरोगमें पथ्य
कफकी बवासीरके लक्षण हलीमक कामला कुंभकामला पानकीरोगलक्षण….
सन्निपातकी बवासीरके लक्षण कामलाके लक्षण
बातकी बवासीरमें पथ्य कुंभकामलाके लक्षण
पित्तकी बवासीरमें पथ्य हलीमक रोगके लक्षण
कफकी बवासीरमें पथ्य पानकी रोगके लक्षण
**भगन्दर **
भगन्दर रोगके लक्षण रक्तपित्त रोगकी उत्पत्ति
वातके भगन्दरके लक्षण रक्तपित्तके लक्षण
पित्तजनित भगन्दरके लक्षण वातपित्त कफके रक्तपित्तके लक्षण
सन्निपातजनित भगन्दरके लक्षण साध्यासाध्य विचार
अजीर्णरोगकी उत्पत्ति रक्तपित्तरोग में पथ्य
सम विषम तीक्ष्णमन्दाग्निकावर्णन’… **राजयक्ष्मा
वाताजीर्णके लक्षण क्षयीरोगकी उत्पत्ति
पित्ताजीर्णके लक्षण क्षयोरोगनिदान
कफाजीर्णके लक्षण

हंसराजनिदानम्।

विषय. विषय.
वातकी क्षयीके लक्षण **अरुचि
पित्तकी क्षयीके लक्षण अरुचि रोगकी उत्पत्ति
कफकी क्षयीके लक्षण वातकी अरुचिके लक्षण
असाध्य क्षयीके लक्षण पित्तकी अरुचिके लक्षण
**कासरोग **
खांसी रोगकी उत्पत्ति वातकी अरुचिमें पथ्य
खांसीके लक्षण पित्तकी अरुचिमें पथ्य
वातकी खांसीके लक्षण कफकी अरुचिमें पथ्य
पित्तकी खांसीके लक्षण **छर्दि
कंफकी खांसीके लक्षण छर्दिरोगकी संख्या और उत्पत्ति
त्रिदोषकी खांसीके लक्षण वातकी छर्दिके लक्षण
असाध्य खांसीके लक्षण पित्तंकी छर्दिके लक्षण
**हिक्का **
हिचकी रोगकी उत्पत्ति सन्निपातकी छर्दिके लक्षण
बालककी हिचकीके गुण छर्दि रोगके उपद्रव
तरुण पुरुषकी हिचकीके लक्षण….. छर्दि रोगमें साध्य असाध्य लक्षण
वृद्धपुरुषकी हिचकीके लक्षण **तृष्णा
पांचहिचकीनके नाम और लक्षण तृष्णा रोगकी संख्या और उत्पत्ति
**श्वास **
श्वासरोगके लक्षण पित्तकी तृष्णाके लक्षण
त्रिविधश्वास के लक्षण कफकी तृष्णाके लक्षण
स्वाभाविक श्वासके लक्षण त्रिदोषजनित तृष्णांके लक्षण
अतिश्वासके लक्षण तृषारोगसें साध्य असाध्यः विचार
महाश्वासके लक्षण तृषारोगमें पथ्य
**स्वरभेद **
स्वरभेदकी उत्पत्ति मूर्च्छारोगकी उत्पत्ति….
वातके स्वरभेदके लक्षण मूर्च्छारोगकी संख्या और लक्षण
पित्तके स्वरभेदके लक्षण वातकी मूर्च्छाके लक्षण
कफके स्वरभेदके लक्षण पित्तकी मूर्छाके लक्षण
असाध्य स्वरभेदके लक्षण कफकी मूर्छाके लक्षण
विषय. विषय.
सन्निपातकी मूर्च्छाके लक्षण…… भूतोन्मादके लक्षण
रुधिरकी मूर्च्छाके लक्षण दैत्यसे पैदा उन्मादके लक्षण
मद्यकी मृच्छके लक्षण गन्धर्व लगाहो उसके लक्षण
विषकी मूर्च्छाके लक्षण यक्षग्रस्तके लक्षण
क्लमरोगके लक्षण महासर्पग्रस्तके लक्षण
**दाह **
दाह रोगके लक्षण राक्षसग्रस्तनर के लक्षण
धातुक्षीण दाहके लक्षण प्रेतग्रस्तके लक्षण
**मदात्यय **
मदात्यय रोगके लक्षण **अपस्मार
अयुक्ति मद्यपानके दूषण वातकी मृगीरोगके लक्षण
युक्तिसे मद्यपानके गुण पित्तकी मृगीरोगके लक्षण
प्रथम मद्यपानके गुण कफकी मृगीके लक्षण
द्वितीय मद्यपानके अवगुण सन्निपातकी मृगीके लक्षण
तृतीय मद्यपानके अवगुण **वातव्याधि
चतुर्थ मद्यपानके अवगुण वातव्याधि रोगके लक्षण
पित्तमदात्ययके लक्षण सर्व्वाग वातके लक्षण
कफमदात्ययके लक्षण त्वचामें प्राप्त बातके लक्षण
वातमदात्ययके लक्षण रुधिरमें प्राप्त वातके लक्षण
त्रिदोष मदात्ययके लक्षण मांस मेदागत वातके लक्षण
मद्यपानोत्थ अजीर्णके लक्षण मज्जास्थिगत वातके लक्षण
मद्यपानोत्थ भ्रमके लक्षण शुक्रगत वातके लक्षण
**उन्माद **
उन्माद रोगके लक्षण कोष्ठगत वातके लक्षण
उन्माद रोगका हेतु सर्व्वागिगत वातके लक्षण
वात उन्मादके लक्षण सन्धिमें स्थित वातके लक्षण
पित्तउन्मादके लक्षण पांच वातके जुदे २ लक्षण
कफ उन्मादके लक्षण पित्तान्वित प्राणवातके लक्षण
सन्निपात उन्मादके लक्षण कफान्वित प्राणघातके लक्षण
औरभी कारणउन्मादके लक्षण…. कफ पित्तयुक्त उदान वातके ल०

हंसराजनिदानम् \।

विषय, विषय,
पित्तकफयुक्त समान वातके ल० कफके शूलका लक्षण
पित्तयुक्त अपान वातके लक्षण …. वातकफ शूलके लक्षण श्लो० १०
कफयुक्त अपान वातके लक्षण वातपित्तजनित शूलके लक्षण श्लोक ११”
पित्त कफयुक्त व्यान वातके लक्षण" शूलकी उत्पत्ति
ऊर्ध्वगत वातके लक्षण असाध्य शूलके लक्षण
अधोगत वातके लक्षण शूलके दश उपद्रव
पित्तयुक्तवातके लक्षण **आनाह उदावर्त्त
कफयुक्त वातके लक्षण आनाह रोगकी उत्पत्ति
कफपित्तयुक्त वातके लक्षण अधोवातरोकनेसेउदावर्तके लक्षण
अधोभागमें प्राप्त वातके लक्षण विष्ठावेग रोकने के उपद्रव
**वातरक्त **
वातरक्तकी उत्पत्ति जंभाई रोकनेके उपद्रव
वातरक्त के लक्षण आंसू रोकनेके उपद्रव
पित्तान्वित वातरक्तके लक्षण…. छींक रोकनेके उपद्रव
कफयुक्त वातरक्त के लक्षण डकार रोकनेके उपद्रव
वातरक्त के उपद्रव रद्द रोकनेके उपद्रव श्लो० ११…
**ऊरुस्तम्भ **
ऊरुस्तम्भ रोगकी संप्राप्ति प्यासरोकने के उपद्रव
उरुस्तम्भके लक्षण श्वास रोकनेके उपद्रव
आमवात रोगकी उत्पत्ति निद्रा रोकनेके उपद्रव
आमवात रोगके लक्षण उदावर्त रोग होने के कारण…
वातजन्य आमरोगके लक्षण वातके उदावर्तके लक्षण श्लो०
पित्तसे कुपित आमवातके लक्षण **गुल्मरोग
कफसे कुपित आमवातके लक्षण गुल्म रोगकी संख्या…..
साध्यासाध्यकष्टसाध्य आमवातल0 गुल्मरोगका स्वरूप
त्रिदोषज आमवातके लक्षण वात मुल्मके लक्षण
**परिणामशूल **
शूलरोगकी उत्पत्ति कफ गुल्मके लक्षण
बादीके शूलका लक्षण रक्तगुल्मके लक्षण
पित्तके झूलका लक्षण असाध्य गुल्म के लक्षण

अनुक्रमणिका।

विषय, विषय,
सन्निपातज गुल्मके लक्षण कफके प्रमेहका लक्षण
साध्य याप्य असाध्यके लक्षण…. प्रमेहरहितके लक्षण
गुल्मरोगके दश उपद्रव साध्यासाध्यकष्टसाध्य प्रमेहके ल०
**हृद्रोग **
हृद्रोग निदान पिडिका रोगकी उत्पत्ति
बादीके हृद्रोगके लक्षण पीडिका रोगके लक्षण-
पित्तके हृद्रोगके लक्षण पीडिका रोगका पूर्वरूप
कफके हृद्रोगके लक्षण वातकी पीडिकाके लक्षण
सन्निपातके हृद्रोगके लक्षण पित्तकी पीडिकाके लक्षण
कृमिरोगके हृद्रोग के लक्षण कफकी पीडिकाके लक्षण
हृदय रोगके उपद्रव वातपित्तकी पीडिकाके लक्षण
**मूत्रकृच्छ्र **
मूत्रकृच्छ्रकी उत्पत्ति कफ पित्तके विस्फोटकके लक्षण….
वातके मूत्रकृच्छ्रके लक्षण सन्निपातकी पीडिकाके लक्षण
पित्तके मूत्रकृच्छ्रके लक्षण त्वचागत पीडिकाके लक्षण
कफके मूत्रकृच्छ्रके लक्षण रक्तमें गत पीडिकाके लक्षण
मूत्रकृच्छ्रमें साध्यासाध्यपरिज्ञान मांसमें प्राप्त पीडिकाके लक्षण
मूत्राघातकी उत्पत्ति मेदामें प्राप्त पीडिकाके लक्षण
वातके सूत्राघातके लक्षण मज्जामें प्राप्त पीडिकाके लक्षण…
पित्तके मूत्राघातके लक्षण हाडमें प्राप्त पीडिकाके लक्षण ….
कफके मूत्राघातके लक्षण शुक्रमें प्राप्त पीडिकाके लक्षण ….
**अश्मरी **
पथरी रोगकी उत्पत्ति **पिटिका
वातकी पथरीके लक्षण पिटिकाके दशभेद
पित्तकी पथरीके लक्षण प्रमेहसे उत्पन्न पिटिकाके लक्षण
कफकी पथरीके लक्षण वर्णसे पिटिकाके लक्षण
वीर्य्यरोधकी पथरीके लक्षण सराविकाके लक्षण
**प्रमेह **
मेहरोगकी उत्पत्ति विद्रंधिका विदारिकाविततांजलीके लक्षण
वातके प्रमेहका लक्षण
पित्तके प्रमेहका लक्षण

हंसराजनिदानम् \।

विषय. विषय.
पिटिका विनाशार्थ पूजा कुंभिका शूकके लक्षण
**मेदवृद्धि **
मेदरोगकी उत्पत्ति दीर्घकाके लक्षण
मेदरोग लक्षण पुष्करिकाके लक्षण
**गण्डमाला **
वातकी गण्डमालाके लक्षण कफपित्तके शुकका लक्षण
पित्तकी गण्डमालाके लक्षण त्रिदोषजनितशूकके लक्षण
कफकी गण्डमालाके लक्षण **कुष्ठ
**श्लीपद **
श्र्लीपदके लक्षण उदुम्बरकुष्ठके लक्षण
वातके श्र्लीपदका लक्षण मूकजिद्ह्वनाम कुष्ठके उक्षण
पित्तके श्र्लीपदका लक्षण मण्डलकुष्ठके लक्षण
कफके श्र्ली पदका लक्षण करवाल नाम कुष्ठके लक्षण
**विद्रधि **
विद्रधिरोगनिदान दाद नाम कुष्ठके लक्षण
वातकी विद्रधिके लक्षण चर्मदल नाम कुष्ठके लक्षण
पित्तकी विद्राधिके लक्षण गजचर्म संज्ञक कुष्ठके लक्षण
कफकी विद्रधिके लक्षण पामा कुष्ठके लक्षण
सन्निपातकी विद्रधिके लक्षण विचर्चिका कुष्ठके लक्षण
रुधिरकी विद्रधिके लक्षण वातपित्त कफके कुष्ठोका पृथक् २ ल०
**उपदंश **
उपदंशके लक्षण रक्तगत कुष्ठके लक्षण
वातके उपदंशके लक्षण मांसगत कुष्ठके लक्षण
पित्तोपदंशके लक्षण मेदगत मज्जागत और अस्थिगतकुष्ठके ल०
कफोपदंशके लक्षण कुष्ठके साध्यलक्षण….
सन्निपातोपदंशके लक्षण कुष्ठकेऽसाध्यलक्षण..
उपदंशके असाध्य लक्षण **उदर्द
**शूकदोष **
शूकरोगके भेद शीतपित्तकी संप्राप्ति
सर्षापिकाके लक्षण उदर्दके लक्षण

अनुक्रमणिका \।

विषय. विषय.
कोष्ठउदर्द शीतपित्त होने का कारण गन्धमालाके लक्षण
उद रोगका पूर्व्वरूप अग्निरोहिणी के लक्षण
कोढउत्कोढके लक्षण विदारिकाके लक्षण
**अम्लपित्त **
अम्लपित्तकी उत्पात्ते शर्कराबुदके लक्षण….
वातके अम्लपित्तके लक्षण कदरफुंसीके लक्षण….
पित्ताम्लपित्तके लक्षण बिवाईके लक्षण
कफाम्लपित्तके लक्षण खारुयेके लक्षण
**विसर्प **
विसर्परोगकी उत्पत्ति अरुंषिकाके लक्षण….
वातके विसर्परोगके लक्षण मुखदूषिकाके लक्षण
पित्तके विसर्परोग के लक्षण तिलके लक्षण
कफके विसर्परोग के लक्षण मस्सेके लक्षण
आग्नेयविसर्प अस्थिनाम विसर्प न्यच्छ अर्थात् लहसनके लक्षण
कर्दमनामविसर्प तीनोंका लक्षण व्यंग अर्थात् झांईके लक्षण
विसर्परोगके उपद्रव…. नीलिकाके लक्षण
**क्षुद्ररोग **
अजगल्लिका के लक्षण अवपाठिकाके लक्षण
यवप्रक्षाके लक्षण निरुद्ध प्रकाशके लक्षण
अंजलीनामफुंसीके लक्षण सन्निरुद्धगुदके लक्षण
विवृत्तानामफुंसीके लक्षण गुदभ्रंशके लक्षण
कच्छापेकाके लक्षण शूकरदंष्ट्ररोगके लक्षण
वल्मीकफुंसीके लक्षण वृषणकच्छरोगके लक्षण
इन्द्रवृद्धिके लक्षण …. **मुखरोग
गदर्भिकाके लक्षण…. ओष्ठरोगके लक्षण.
पाषाणगर्दभिका के लक्षण सन्निपातके ओष्ठरोग के लक्षण…
पनसिकाके लक्षण …. दंतरोगनिदान
जलगर्दभिकाके लक्षण दन्तपुप्पुट रोगके लक्षण
इरिवेल्लिकाके लक्षण दन्तवेशरोगके लक्षण
कखलाईके लक्षण सौषिरनाम दन्तरोग के लक्षण ..
महासौथिरके लक्षण
विषय. विषय.
सोफकस दन्तरोग के लक्षण गलौघरोगके लक्षण
वैदर्भरोगके लक्षण वातपित्तकफकी मुखपिडिकाके ल०,
कराल रोगके लक्षण **कर्णरोग
अधिमांसरोगके लक्षण कर्णरोगनिदान
कीटदन्तरोगके लक्षण कर्णनादके लक्षण
भंजनक दन्तरोग के लक्षण बधिरके लक्षण
दन्तविद्रधिके लक्षण शब्दछ्वेडके लक्षण
दन्तहर्षके लक्षण श्रावगदरोग के लक्षण
दन्तशर्कराके लक्षण कर्णगूथके लक्षण
दन्तश्यावके लक्षण… प्रतीनाहके लक्षण
**जिह्वा **
जिह्वारोगनिदान कर्णपाकके लक्षण
उल्लासनाम जिह्वारोगके लक्षण पित्तकर्णपाकके लक्षण
जिह्वाशोथके लक्षण…. कफकर्णपाकके लक्षण
कंठतुण्डके लक्षण …. वातके पूतिकर्णरोगके लक्षण ….
तुण्डकेशीके लक्षण… पित्तके पूतिकर्णरोग के लक्षण ….
कच्छपरोगके लक्षण कफके पृतिकर्णरोगके लक्षण ….
तालुपाकके लक्षण **नासारोग
**गलरोग **
गलरोगका निदान…. क्षवथुरोग के लक्षण
वातरोहिणीके लक्षण पूतिनश्यके लक्षण
पित्तरोहिणीके लक्षण नासापाकके लक्षण
कफरोहिणीके लक्षण पूयरक्त्तके लक्षण
रुधिरकी रोहिणीके लक्षण प्रदीप्तरोगके लक्षण…
कंठशाहूकरोगके लक्षण प्रतीनाहके लक्षण
अधि्जिह्वाका लक्षण नासाशोषके लक्षण….
बलासाक्षरोगके लक्षण पक्वपीनसके लक्षण…
नासाशतघ्रीके लक्षण पीनसरोगकी उत्पत्ति
गलायुरोगके लक्षण वातके पीनसरोगके लक्षण
बलविद्रधिके लक्षण पित्तके पीनसके लक्षण

** अनुक्रमणिका।**

[TABLE]

[TABLE]

इति हंसराजनिदानकी विषयानुक्रमणिका समाप्त।
________________

॥ श्रीगणेशाय नमः॥
हंसराजनिदानम्।
भाषाटीकासहितम्।

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हंसराजकवि हंसराज ग्रन्थके कर्त्ता ग्रन्थके आदिमें शिष्टाचार परिपालनके निमित्त औरग्रन्थको निर्विघ्नसमाप्तिकेनिमित्त भले प्रकार उचित अपने इष्टदेव श्रीबालाजीको ध्यानपूर्वक स्रग्धरा छंद करके मंगलाचरण करते हैं॥ ध्यायेदिति।

**ध्यायेद्वालाम्प्रभातेविकसितवदनाम्फुल्लराजीवनेत्रांमुक्तावैदूर्यगर्भेरुचिरकनकजैर्भूषणैर्भूषितांगीम्॥ विद्युत्कोटिच्छटाभांपरिमलबहुलांदिव्यसिंहासनस्थांगीर्देवीतस्यदासीभवति सुरवननन्दनंकेलिगेहम्॥१॥ धत्तेतेचरणांबुजंस्वहृदयेमातर्नरोयोऽनिशंतस्याऽऽस्ये परिनर्त्ततेप्रतिदिनंवाग्गद्यपद्यात्मिका॥लक्ष्मीस्तस्य गृहेस्थिताकरतले मुक्तिःस्थिताः सिद्धयोद्वारे तस्य विभूषिताश्चनिधयस्तिष्ठन्ति नित्यं मुदा॥२॥
अर्थ—**प्रातःसमयश्रीबालाकाध्यानकरना.कैसीहैबालाकिप्रफुल्लितमुख,फूलेकमलकेसमाननेत्रवाली,मोतीऔरवैदूर्यमणिकरकेजटितसुन्दरसुवर्णकेभूषणोंकरकेभूषितदेह,जिसकीकोटिबिजलीकेसमानप्रकाशवालीअतिशयसुगन्धयुक्तदेहश्रेष्ठसिंहासनपरस्थित, ऐसी बालाका जो मनुष्यइसप्रकार ध्यान करता है उसकी सरस्वती दासी होती है.और देवतोंका नन्दनवन क्रीडाकास्थान होता है॥१॥ हे माता ! जो मनुष्यतेरेचरणकमलोंका अपने हृदयमें निरन्तर ध्यान करताहै तिसके मुखमें गद्यपद्य रचनारूपी सरस्वतीनित्य नाचती है। घरमेंलक्ष्मी स्थिरहैमोक्षउसकेहाथमेंहै,अष्टसिद्धिउसकेद्वारपर खडीरहें और नवनिधि नित्यआनंदपूर्वक स्थित रहती हैं। इस श्लोकका छन्द शार्दूलविक्रीडित है॥२॥

जगन्मातर्नमस्तेऽस्तु वरदे मंगले शिवे॥ ग्रन्थकर्त्तुं प्रवृत्तस्यसाहाय्यं कुरु मेऽनिशम्॥३॥ अहमपि जगदंबे दृश्यतांदिव्यदृष्ट्या न भवति तव हानिः क्वापि दृष्टेः कदाचित्॥स्वजनहितपरायाः शंकरस्य प्रियाया अमृतरसह्रदिन्याऽहंसनाथो भवामि॥४॥ भिषक्चक्र-चित्तोत्सवं जाड्यनाशंकरिष्याम्यहं बालबोधाय शास्त्रम्॥ नमस्कृत्य धन्वंतरिंवैद्यराजं जगद्रोगविध्वंसनं स्वेन नाना॥५॥

अर्थ—हे जगन्मातः ! हे वरदे ! हे मंगले ! हे शिवे ! तुम्हारे अर्थ नमस्कार है. ग्रन्थकरनेको प्रवृत्त मेरीनिरन्तर सहाय करो॥३॥ हे जगदम्बे ! मुझे दिव्य दृष्टिसे देख, तेरीदृष्टिकी कभी कहीं हानि नहीं हो.कैसी तुमहो कि अपने भक्तजनके हितमें तत्पर और श्रीशंकरकी प्यारी पत्नी हो. अमृतरसकीसरोवरी मैं तुम्हारी दृष्टिसे सनाथ होऊंगा. इस श्लोककामालिनी नाम छन्द है॥४॥मैंवैद्योंके राजा धन्वन्तरिको नमस्कार कर बालकोंके बोधकेअर्थ जगत्के रोगोंका नाशक वैद्यसमुदायके चित्तको उत्सवकारक. मूर्खतानाशक ऐसा अपनेनाम करके अर्थात् हंसराज नामकरकेग्रंथको करताहूं. इस श्लोकके छन्दका नाम भुजंगप्रयात है॥५॥

ब्रह्मेशो गरुडध्वजो भृगुसुतो भारद्वजो गौतमो हारीतश्चरकोत्रिकः सुरगुरुर्धन्वन्तरिर्माधवः॥ नासत्यो नकुलः पराशरमुनिर्दामोदरो वाग्भटो येऽन्ये वैद्यविशारदा मुनि-वरास्तेभ्योऽपरेभ्योनमः॥६॥ आत्रेयधन्वंतरिसुश्रुतानां नासत्यहारीतकमाधवानाम्॥ सुषेण-दामोदरवाग्भटानां दस्रस्वयंभूश्वरकादिकानाम्॥७॥ एषां समालोक्य मतं मुहुर्मुहुग्रंथोमनोज्ञः क्रियते मयाऽधुना॥ पद्यैरदोषै रचितोऽल्पमेधसांज्ञानाय नूनंभिपजात्ममानिनाम्॥८॥
अर्थ—ब्रह्मा, शिव, विष्णु, शुक, भरद्वाज, गौतम, हारीत, चरक, अत्रि, बृहस्पति,धन्वन्तरि, माधव,अश्विनीकुमार, नकुल, पराशरमुनि, दामोदर, वाग्भट और जे वैद्योंगे चतुरमुनियों में श्रेष्ठ उनसबनके अर्थ नमस्कार है॥६॥ आत्रेय, धन्वन्तरि, सुश्रुत, अश्विनीकुमार,हारीत, माधव, सुषेण,दामोदर, वाग्भट, सनत्कुमार और चर कादिक॥७॥ इनके मतबारबार देखकर वैद्य ऐसेअपनेआपको माने अल्पबुद्धि वारेनको निश्चयज्ञानके अर्थ दोषकरकेरहित जे पद तिन करकेरचितमनको प्रसन्न करनेवाला अब मैं ग्रंथ रचता हूँ॥८॥

दर्शनस्पर्शनप्रश्नै रोगिणो रोगनिश्चयम्॥ आदौ ज्ञात्वा ततःकुर्याच्चिकित्सां भिषजांवरः॥९॥ देशंबलं वयःकालं गुर्विणीगदमौषधम्॥ वृद्धवैद्यमतं ज्ञात्वा चिकित्सामारभेत्ततः॥१०॥

अर्थ—देखना, स्पर्शकरना, पूंछना इन तीन प्रकारसे पहिले रोगीके रोगको निश्चय करकेबैद्योंमें श्रेष्ठफिर रोगीकी चिकित्सा करे॥९॥ देश, बल, अवस्था, काल, गर्भिणीका रोग,औषध औरवृद्धवैद्यके मतको जानके फिर चिकित्सा करे॥१०॥

अथ नाडीलक्षनानि।

करांगुष्ठमूलोद्भवा प्राणभूता नृणां रोगिणां साक्षिणी सौख्यभाजाम्॥जलौकोरगाणां गतिं नाडिका या विधत्ते निरुक्ता चवातात्मिका सा॥११॥ विधत्ते गतिं काकमंडूकयोर्या मुनीन्द्रैर्निरुक्ता च पित्तात्मिका सा॥ शिरा हंसपारावतानां गतिं यादधातिस्थिरा श्लेष्म-कोपान्विता सा॥१२॥ नाडी चंचलतां क्वचिच्छिथिलतां शैत्यंक्वचिच्चोष्णतां धत्ते मंदगतिं द्विदोष-कुपिता स्थानच्युतिं क्षीणताम्॥ वक्राकारगतिंक्वचिद्वितनुते प्राप्नोति कंपं क्वचिद्वैकल्यं विदधाति याति कुपिता मासान्तरेसानिशम्॥१३॥
अर्थ
—प्रथम नाडी परीक्षा लिखे हैं. हाथ के अँगूठोंके निकट रोगी मनुष्य केसुखदुःखकोसाक्षी देनेवाली नाडी यदि जोंक वा सर्पकीसी चाल चले तौ वातकी नाडी कहिये॥११॥और जो नाडी काकमेडककीसी चाल चले तो मुनियोंने पित्तकी नाडी कहीहै,और जो हंसकबूतर कीसी चाल चले तो कफकोपकी नाडी कहिये॥१२॥ द्विदोषकोपकी नाड़ी चञ्चलकमी शिथिल कभी शीतल कभी गरम और मंद विकलताकोप्राप्त हुई गमन करहै औरस्थानको छोडदेय और बहुत धीरे २ चलै, कभीटेढ़ी चलै, कभी कभी कांपै, विकलताकोप्राप्त हुई ऐसी नाड़ी एक महीने के भीतररोगीको मार डाले॥१३॥

त्रिदोषान्विता नाडिका चंचलोष्णस्फुरद्वित्रिरूपा त्वरायुग्विभिन्ना॥गतिं तैत्तिरीयांविधत्तेतिकंपं क्षणं क्षीणतां याति मूर्छा क्वचित्सा॥१४॥ शिरा यस्यवातार्दिता पित्तदग्धा कफेनातिकोपेन नाडी कृता सा॥ गदी सोल्पकालेनमृत्योर्विदीर्णे मुखे यास्यते दंतदंष्ट्राभिकीर्णे॥१५॥
** अर्थ**—संनिपातकी नाडी चपल और गरम और दो तीन प्रकारकी चाल चलै, वहनाडीजल्दी आयुकी काटनेवाली जाननी, और तीतरकोसी चाल चले और बहुत कपितथामंद चलैऔर कभी चलनेसे रहि जाय वह भी असाध्य॥१४॥ जिस रोगीकीनाडीवातकरके दूषित,फ्सि करके दग्ध, और कफके कोपकरके खेदित हो वहरोगीथोडे कालमें मौतर्फे खुले हुयेदंतदाढों करके युक्त मुखमें जायगा अर्थात् मरेगा॥१५॥

शिरा यस्य सूक्ष्माऽतिशीतान्विता वा स रोगी न जीवेत्प्रयत्नैःकदाचित्॥ चलद्वित्रि-रूपात्रिदोषान्विता वा स रोगी यमस्यालये शीघ्रगंता॥१६॥ नाडी शीघ्रगतिं धत्तेज्वरकोपेन सोष्णताम्॥ रक्ताधिक्येन सा कोष्णा गुर्वी वेगवती भवेत्॥१७॥ सुखिनोमनुजस्य शिरा परितः स्थिरतां समुपैतिदधाति बलम्॥ क्षुधितस्य भवेच्चपला सततंतृषितस्य शिराव्रजति स्थिरताम्॥१८॥
** अर्थ**—जिस रोगीकी नाडी अतिमंद चलै, और शीत करके युक्त हो वह रोगी अनेकयत्नोंके करनेसेभी नहीं जीवै, और जिस रोगीकी नाडी त्रिदोषयुक्त दो तीन प्रकारकी चलै,वह रोगी जल्दी यमराजके घर पहुंचेगा॥१६॥ ज्वरके कोपसे नाडी गरम और जलदीचलती है, और रुधिरके बिगडनेकी नाडी गरम और भारी तथा जल्दी चलतीहै॥१७॥ सुखी मनुष्यकी नाडी बलयुक्त और स्थिर चलती है,और क्षुषित मनुष्यकी नाडी चपलऔर भोजन करेकी नाडी स्थिर चलतीहै इस श्लोकके छन्दकानाम तोटकवृत्त है॥१८॥

मोहेन कामेन भयेन चिंतया क्रोधेन लोभेन बहुश्रमेण वा॥
मंदाग्निनोद्वेगतरेण पीडया स्यान्नाडिका मन्दतरा नृणां भृशम् १९
इति हंसराजकृते हंसराजनिदाने नाडीलक्षणवर्णनम्।

अर्थ—मोहसे कामसे मयसे चिन्तासे क्रोधसे बहुत परिश्रमसे मंदाग्निसे उद्वेगसे पीडातेमनुष्योंकीनाडी निरंतर मंद चलती है॥१९॥ इति श्रीमाथुरदत्तरामपाठकर्निर्मितहंसराजार्थवी-
विन्यां भाषाटीकायां नाडीलक्षणं समाप्तम्।
दोषैविनानरोगाःस्युर्नदोषाहेतुभिर्विना॥ हेतवः कर्मसम्भूतास्तान्हेतून्कथयाम्यहम्॥१॥(अथवातकोपकारकवस्तु)प्राणापानगतेर्विधातकरणैःक्षुन्मूत्रतृदूरोधनैर्व्यायामव्रतशोकशीत-सलिलस्नानैः स्त्रियाः सेवनैः॥ रूक्षाम्लामिषमिष्टपिष्टकटुकैरत्यंबुपानाशनैर्वर्षाशीतशरत्सुचैत्र-समयेवातस्य कोपोभवेत्॥२॥ (अथपित्तकोपकारकवस्तु) तीक्ष्णोष्णाम्लविदाहिशाक-कटुकैःक्षारान्नपित्ताशनैर्व्यायामाध्वपरिश्रमैर्दिनपतेरातापसंसेवनैः॥ क्रोधोष्णोत्प्लवनैः कषाय-मदिरापानेनिशाजागरैर्वर्षाग्रीष्मशरत्सुमध्यदिवसे पित्तस्य कोपोभवेत्॥३॥

** अर्थ**—विना दोषोंके रोग नहीं होते और विना हेतुओंके दोष नहीं होते और हेतु कर्मसे पैदा होते हैं सोउन्ही हेतुओंको मैं कहता हूँ॥१॥ प्राण और अपान पवनकी गति बिगड़नेसे भूख प्यास मूत्रइनकेरोंकनेसे दण्ड कसरतके करनेसे व्रतके करनेसे शोचसे शीतल जलके नहानेसे बहुत स्त्रीकेसंगसे रूखा खट्टा मीठा पिसा कडुआ ऐसे पदार्थ के भोजनसे बहुत जल और भोजनके करनेसेवर्षा ऋतु शरदऋतु शीतकाल और चैत्रके महीनेमें वात कुपित होता है॥२॥ तीक्ष्णमिरच आदिगरम खड्ट्टा दाहके करनेवाले पदार्थ शाक कडुआ खार मिला अन्न और पित्तकारक ऐसेभोजनके करनेसे दण्डकसरतके करनेसे रास्ताके चलनेसे परिश्रमके करनेसे घाममें रहनेसे क्रोधसेगरमीसे खेलने कूदनेसे कसैली वस्तु मद्यके पीनेसे रात्रिमें जागनेसे वर्षाऋतु शरदऋतु मध्याह्नमेंपित्त कोप करता है॥३॥

कफकोपकारकवस्तु।

क्षारक्षीरविकारशोकमधुरैःपानाशनातिक्रमैर्मूलस्निग्धगरिष्टकंदपिशितैःशीताम्लमाषाशनैः॥नासानेत्रमुखेषुधूमरजसोपात्तैर्महाघोषणैः श्लेष्माकोपतरं दधातिशिशिरे हेमंतकेमाधवे॥४॥

अर्थ—खार दूधका पदार्थ शाक मिष्ट भूख प्यासके समयको उल्लंघन करनेसे कंद चिकना गरिष्ठ मूल पदार्थ पिसा अन्न शीतल खट्टा उर्द इनके खानेसे नाक नेत्र मुख इनमें घुयेंके और रजके गिरनेसेपुकारनेसे शिशिरऋतुमें हेमन्तऋतुमें वैशाखमें कफ कोप करता है॥४॥

ज्वराणांघोररूपाणांयानिचिह्नानितान्यहम्॥वक्ष्येज्ञानेन तेनैवरोगः संज्ञायते बुधैः॥५॥(तस्यप्रागुत्पत्तिमाह) दक्षापमानसंक्रुद्धरुद्रनिःश्वाससम्भवः॥ज्वरोऽष्टधापृथग्द्वंद्वसंघाता-गन्तुजःस्मृतः॥१॥ (ज्वरस्य संप्राप्तिमाह) मिथ्याहारविहारस्य दोषाह्यामाशयाश्रयाः॥ बहिर्निरस्यकोष्ठाग्निं ज्वरदाः स्यूरसानुगाः॥२॥ (ज्वरके पूर्वरूपको कद्देहैं)तापःशरीरे गुरुताऽलसत्वं सर्वांगपीडा विरसत्वमास्ये॥ शीतः श्रमो वीर्यबलस्य हानिःज्वराग्रचिह्नानिवदंति संतः॥६॥ (वातज्वरकेलक्षण)जृम्भोद्गारतृषाःकषायवदनंनिद्राविनाशोऽरुचिः श्वासोरूक्ष-वपुर्भ्रमोविकलताशोषो मुखेऽक्षिस्रवः॥ हिक्काध्मानविवर्णतांगचलनं रोमोद्गमोंगव्यथा हृल्लासोंत्रविगुंजनं भवति तद्वातज्वरे लक्षणम्॥७॥

** अर्थ**—घोररूपञ्जवरों के चिह्न मैं कहता हूँ जिन चिह्न अर्थात् लक्षणों करके पंडितों करके रोग सब जाने जा यँ॥५॥“दक्षकेकरेहुयेतिरस्कारसेक्रोधितशिवकीश्वाससेउत्पन्नहुआज्वर आठ प्रकारका १वातसे, २ पित्तसे, ३ कफसे, ४ वातपित्तसे,५वातकफसे, ६ पित्तकफसे, ७वातपित्तकफसे, ८ आगुंतुजसे॥१॥ मनुष्योंके मिथ्या आहार और मिथ्याविहारसेआमाशयमें रहते जो बात पित्त कफ सो आमाशयको बिगाड करके फिररसको बिगाडैं और कोठेकी अग्निकी गरमीको बाहर निकालदेहकोतप्ता करदेवेंउसीको ज्वर कहते हैं॥२॥ इतिमाधवकारः॥" शरीरमें तप, तथा शरीरकाभारीपना, आलस्य और सब शरीरमें हडकल,मुखमें स्वाद न रहै, शीतकालगना, अनायास श्रम मालूम हो, वीर्य बलका नाश होना, ये चिह्नज्वरके पूर्व होतेहैं॥६॥ जँभाई, डकार, तथा प्यासका लगना, मुखका कडुआ होना, नींदका नआनाअरुचि श्वास, शरीरका रूखापन, भ्रम तथा शरीरमें बेकली, मुख सूखे, आंखसेआँसूकापडना, हिचकी आना, पेट फूलना, शरीरका औरही वर्ण हो जाना,अंगका फडकना, रोमांचकाहोना, शरीरमें व्यथा सूखी उलटीका आना, आंतोंकाबोलना ये लक्षण वातज्वरमें होते हैं॥७॥
(पित्तज्वरके लक्षण) हृत्कंठोष्ठकरांघ्रिदाहमरतिं स्फोटं तृषासंभ्रममूष्माणं श्वसनं मुखे कटुकतां मूर्च्छामतीसारकम्॥ हृत्कंपं नयनेरुणे विकलतां शीते रुचिं शोषणं स्वेदंदेहगतःकरोति कुपितः पित्तज्वरोन्तर्व्यथाम्॥८॥(श्लेष्मज्वरलक्षणं)स्तैमित्यंवमनं जडत्वमलसं निष्ठीवनं गौरवं माधुर्यं वदनेतनौमलिनतां स्वेदं च रोमोद्गमम्॥ कंठेघुर्घुरतां च पीतनयनंनिद्रांत्वचिस्निग्धतां कासं शीर्षरुजं करोति विकलं श्लष्मज्वरोऽङ्गव्यथाम्॥९॥ (वातपित्तज्वरः) भ्रमो रोमहर्षोरुचिःश्वासकासौ तृषांगेषुदाहः शिरोर्तिर्वमित्वम्॥ विनिद्रांगपीडातिशोषोल्पमूर्च्छा ज्वरेवातपित्तोद्भवेचिह्नमेतत्॥१०॥
** अर्थ**—हृदय कंठ ओठ हाथ पांव इनमें दाह होना, इच्छाका नाश, हडकलका होना,प्यास, भ्रम, गरमी, श्वास, कडुआ मुख, मूर्च्छा, दस्त, हृदयमें कंप, नेत्र लाल, देहमेंबेकलीशीतलताका प्यारालगना, मुखसूखे खेदका होना, अन्तःकरणमें दुःख, येलक्षण कुपितपित्तज्वर देहमें करता है॥८॥ शरीर गीलेकपडेसे पोंछे सरीखा मालूमहोउलटीका होना, शरीरका जकडजाना, आलस्य कफका थूकना, देहका भारीहोना, मुख मीठा हो, देह मैला, पसीनेकाआना, रोआं खडा होना, कंठमें घरघरशब्द होना, कुछ पीलाई लिये नेत्रहों, निद्राका आना, त्वचा,चिकनाई लिये होय,खांसी, शिरमें दर्द, ये लक्षण कफज्वरके हैं॥९॥ भ्रम रोमका खडाहो ना,अरुचि, श्वास, खांसी, प्यास, देहमें दाह, शिरमें दर्द, वमन, निद्राका न आना, देहमेंपीडा,अत्यंत मुखका सूखना, मूर्च्छाका आना, ये वातपित्तज्वरके लक्षण॥१०॥

(वातकफज्वर) स्तैमित्यंगुरुतारुचिर्विकलता तंद्रा पिपासालसं कासोङ्गस्फुटतावमिःश्वसनता शोथो मुखे लिप्तता॥ स्वेदःपर्वभिदारतिश्च जडता रोमोद्गमःशीतता वातश्लेष्म-समुद्भवस्यकथितं चिह्नं ज्वरस्यर्षिभिः॥११॥
अर्थ—शरीर गीले कपडेसे पोंछे समान मालूम पडे तथा शरीरका भारीपन अरुचि,बेकली, तंद्रा, प्यास, आलस, खांसी, अंगोंका फडकना, श्वास, सूजन, कफसेल्हिसामुख,पसीना, गांठोंमें दर्द, चैन न पडे, जडपना, रोमांच शीत लगना, पुरानेऋषियोंने बात कफज्वरके लक्षण कहे हैं॥११॥

(पित्तकफज्वर) तिक्तास्यारुचिता कफस्य वदने लेपो मुहुःशीतता तंद्रासंधिषु वेदना च हृदये दाहः पिपासा भ्रमः॥कासश्वासतरस्तनौ मलिनता स्वेदो वमिर्मोहता चिह्नंपित्तकफज्वरे मुनिवरैः संकीर्तित पूर्वजैः॥१२॥ (तेरहसन्निपातोंकेनाम) संधिकश्चांतकश्चैव रुग्दाहश्चित्तविभ्रमः॥ शीताङ्गस्तंद्रिकः प्रोक्तः कंठकुब्जश्च कर्णकः॥ विख्यातो भुग्ननेत्रश्चरक्तष्ठीवी प्रलापकः॥ जिह्वकश्चेत्यभिन्यासस्सन्निपातास्त्रयोदश॥इतिसंगृहीतपाठः॥तेषां मर्यादा। संधिके वासराःसप्त चांतके दशवासराः॥ रुग्दाहेविंशतिर्ज्ञेया वह्न्यष्टौ चित्तविभ्रमे॥ पक्षमेकं तु शीतांगस्तंद्रिके पंचविंशतिः। विज्ञेयावासराश्चैव कंठकुब्जे त्रयोदश। कर्णके च त्रयो मासा भग्ननेत्रे दिनाष्टकम्। रक्तष्ठीवीदशाहानि चतुर्दश प्रलापके॥जिह्वके षोडशाहानि कलाभिन्याससंज्ञके।परमायुरिदं प्रोक्तंम्रियते तत्क्षणादपि॥

अर्थ—कडुआ मुख, अरुचि, मुख कफसे ल्हिसा रहना, बार २ जाडा गरमीका लगना,तन्द्रा, संधिमें पीडा, हृदयमें दाह, प्यास, भ्रम, खांसी, श्वासका जोर, देहमें मलिनता, स्वेद,वमन, मोह, ये लक्षण पहिले मुनीश्वरोंने पित्त कफ ज्वरके कहेहैं॥१२॥ १ संधिक,२ अंतक, ३ रुग्दाह, ४ चित्तविभ्रम, ५ शीतांग, ६ तन्द्रिक, ७ कंठकुब्ज, ८ कर्णक, ९भुग्ननेत्र, १० रक्तष्ठीवी, ११ प्रलापक, १२ जिह्नक, १३ अभिन्यास, ये तेरह सन्निपात हैं तेरहों सन्निपातोंकी अवधि—संधिककी ७ दिनकी, अन्तककी १० दिन, रुग्दाहकी२०दिन, चित्त विभ्रमकी २४ दिन, शीतांगकी १५ दिन, तंद्रिककी २५ दिन, कंठकुञ्जकी१३ दिन, कर्णककी ९० दिन, भुग्ननेत्रकी ८ दिन, रक्तष्टीवीकी १० दिन,प्रलापकके १४दिन, जिह्वकके १६ दिन, अभिन्यासके १६ दिन कहे हैं. यह सन्निपातोंकी परमावधि कहीहै परन्तु तत्काल भी रोगी मरजाता है ये श्लोक संगृहीत हैं॥

(तेरहसन्निपातमें साध्यासाध्यविचार) संधिकस्तन्द्रिकश्चैवकर्णकः कंठकुब्जकः। जिह्वकश्चित्तविभ्रंशः षट्साध्याः सप्तमारकाः॥ (संगृहीतपाठः)

अर्थ—संधिक, तंद्रिक, कर्णक, कंठकुब्ज, जिह्नक, चित्तविभ्रंश ये ६ साध्य हैं बाकी सात असाध्य हैं॥

संधिकसंनिपातके लक्षण।

त्रिदोषोत्थितेसंधिकेसन्निपातेभवेत्संधिपीडाऽस्यशोषोथशूलम्॥भ्रमोवीर्यनिद्राविनाशोतितंद्रा पिपासोष्ठपाको रुचिर्दाहकासौ॥१३॥

अंतकसन्निपातके लक्षण।

करोत्यंगभंगं भ्रमं वेपथुं यः शिरःकंपनं कंडुरं रोदनं च॥ प्रलापंसतापं च हिक्कामसाध्यं बुध त्वं विजानीहि तं चांतकाख्यम् १४॥

चित्तविभ्रमसंनिपातके लक्षण।

योमोहाद्रुदति क्वचिद्विकलतां प्राप्नोति शोकं क्वचित् फूत्कारंकुरुते दधाति मदतां गीतं क्वचिद्गायते॥ संतापं सहते मुदं वितनुते वाचं भ्रमाद्भाषतेतं चित्तभ्रमसन्निपातमनिशं जानीहिदुस्साधनम्॥१५॥
अर्थ—तीनों दोषोंसे उत्पन्न हुआ जो संधिक सन्निपात तिसके ये लक्षण हैं सन्धीनमेंदर्द,मुखका सूखना, शूल, भ्रमवीर्य और निद्राका नाश, तंद्रा, प्यास, ओठोंकापकना, अरुचि,दाह और खांसी॥१३॥अंगोंका टूटना, भ्रम, कम्प, और शिरकाहिलना खाज तथा रोना,वाहियात बकना, संताप, हिचकीका आना जिसमें येलक्षण हों उसको हे वैद्य ! तू असाध्य अंतकसन्निपात जान॥१४॥ जो मोहसे रोवै, कभी विकलताको प्राप्त हो, कभी शोचकरै, कभी फूत्कारकरे, कभी मस्तपनेको प्रात हो, गीतगावे, कभी संताप हो, कभी प्रसन्न होवे, कभी भ्रमसे बकनेलगे, ये लक्षण जिसमें हों उसे नहीं उपाय जिसका ऐसा चितभ्रम सन्निपात जानो॥ १५॥

रुग्दाहसन्निपातके लक्षण।

यः शूल वितनोति दारुणभयं हस्तांघ्रिशैत्यं तथा जिह्वां कंटकितां भ्रमं विकलतां मोहं च कंठव्यथाम्॥ श्वासं कासतरंनिरंतरतृषां हृत्कंठयोः शोषणं संतापं श्रमरोदनं प्रलपनं जानीहि रुग्दाहकम्॥१६॥

शीतांगसन्निपातके लक्षण।

शीतत्वं विदधाति योखिलतनौ रोमोद्गमं वेपथुं श्वासं कासतमं क्वचिच्छिथिलतांमूर्च्छामती-सारकम्॥चेष्टां क्षीणतरां क्लमं वमथुतां हिक्कां शिरश्चालनं तं शीतांगमवेहि वैद्य हरिजंमृत्योः सखायं ध्रुवम्॥१७॥

तंद्रिकसन्निपातके लक्षण।

कंठे कंडुतृषाऽरुचिक्लमथुताः पीडा हि कर्णद्वयोर्जिह्वाश्यामतरा च कंटकयुता तंद्रातिरासो रतिः॥ संतापः कफवेदनाबहुतराश्वासोधिकः कासता मृत्युः स्यात्खलु तंद्रिको निगदितश्चिह्नैचिरमीभिः परैः॥१८॥

** अर्थ**—पेटमें शूल हाथ पैर ठंढेजीभमें कांटे भ्रम बेकली बेहोसी कंठमें पीडा, श्वास, खांसी, प्यास बहुत लगे, हृदय कंठका सूखना संताप, श्रम, रुदन करना, प्रलाप, ये लक्षणरुग्दाह सन्निपातके जानना॥१६॥ जिसमें ये लक्षण मिलते हों उसको वैष्णवञ्चर मौतकामित्र शीतांग सन्निपात जानना चाहिये जो सब देहको शीतल करदे रोम खडे होजांय कंप,श्वास, खांसी अंधेरा सुस्ती कभी मूर्च्छा और दस्तका होना जिसकी चेष्टा मंद पडिजाय विनाश्रमकरे श्रमहो, रद्दहिचकी, शिरका कांपना॥१७॥ कंठमें खुजली चले, प्यास, अरुचि, ग्लानि,दोनों कानों में पीडा काली और कांटेयुक्त जीभ तंद्रा अतिसार अरति संताप कफसे पीडा, बहुतश्वासचलै, और खांसी इन लक्षणोंसे रोगीका मारनेवाला तंद्रिक सन्निपात जानना॥१८॥

कंठकुब्जसन्निपातके लक्षण।

कंठग्रहं यः कुरुते हनुग्रहं मूर्च्छाप्रलापं ज्वरकंपवेदनाः॥
मोहं च दाहं हृदये शिरोरुजं तं कंठकुब्जं प्रवदंति साधवः॥१९॥

कर्णकसन्निपातके लक्षण।

ग्रंथिः कर्णांतदेशे भवति बहुतरा कंठदेशेतिपीडा ग्लानिःश्वासः प्रसेको वचनशिथिलता-श्लेष्मणारुद्धकंठः॥ मूर्च्छाकंपःप्रलापो वपुषि कृशतमा वेदनोष्मा च कासः स्वंस्वं रूपं चरोगाविदधति सततं कर्णके सन्निपाते॥२०॥

** अर्थ**—जो कंठमें पीडा करै, ठोडी जकड जावे, मूर्च्छा तथा बकना,ज्वर कंप, देहमेंपीडा बेहोसी, हृदयमें दाह, शिरमें दर्द, ये लक्षण कंठकुब्ज सन्निपातके महात्मा कहते हैं॥१९॥कर्णक सन्निपातके ये लक्षण हैं कानके पास गांठ बहुतसी होयश्वास लारका गिरना, मंद २ बोलना, कफसे कंठका रुकना मूर्च्छा, कंप और बकना शरीरकृश तथा पीडा और गरमी और खांसी तथा अनेक रोग प्रगट हों॥२०॥ इति कर्णकसन्त्रिपात के लक्षण समाप्त हुये॥

भुग्ननेत्रसन्निपातके लक्षण।

स्मृतिभ्रंशन भुग्नदृक्सन्निपातःकरोत्यगपीडांभ्रमंभुग्ननेत्रम्॥
ज्वरं वेपनं शून्यतां श्वासकासौ प्रलाप प्रसेकं पिपासामसाध्यः॥

रक्तष्ठीवीसन्निपातके लक्षण।

छर्दिरक्तष्ठीवनं कृष्णजिह्वां कासंश्वासं मंडलं दाहमुग्रम्॥
संज्ञानाशं तापमाध्मानतृष्णां रक्तष्ठीवी प्राणनाशं च कुर्यात् २२॥

प्रलापीस नेपातके लक्षण।

प्रलापी रवेः पुत्रगेहं प्रयाति ज्वरस्तापपीडांगकंपप्रयासाः॥
तृषाशोकसंज्ञाविनाशप्रवादाः शिरःकंपमोहांगदाहो विनिद्रा २३

** अर्थ**—बेहोसी हो अंगोंमें दर्द भौर का आना नेत्रोंका बुरा होना ज्वर तथा काँपना देहमेंशून्यता श्वास खांसी बकना लारका बहना प्यास ये लक्षण असाध्य भुग्ननेत्र सन्निपातके हैं॥२१॥ रुधिरकी उलटी करना जीभ काली हो खांसी श्वास चकत्ता पडजावे घोर दाह होसंज्ञा जातीरहै ताप ज्वर तथा पेटका फूलना तृष्णा प्यास ये लक्षण हों तो प्राणकानाशकर्त्ता रक्तष्टीवी सन्निपात जानना॥२२॥ प्रलापी सन्निपातवाला रोगीयमलोकको जाता हैऔर उसके ये लक्षण होते हैं ज्ववर ताप पीडा काँपनाविनाकारण श्रमहो प्यास शोच संज्ञानाश बकना शिरका हिलाना बेहोसी अगोंमें दाह नींदका न आना॥२३॥

जिह्वकसन्निपात के लक्षण।

जिह्वां कंटकवेष्टितां शिथिलतां श्वासाधिकं मूकतां रात्रौ जाग-

भाषाटीकासहितम्।

रणं तृषां बधिरतां वीर्यक्षयं क्षीणताम्॥ हृत्पार्श्वोदरनासिकाधरगले शोथं विसंज्ञं ज्वरं काये यः कुरुते रुजं बहुतरां जानीहि तं जिह्नकम्॥२४॥

अभिन्याससन्निपातके लक्षण।

अभिन्यासको यस्य देहे स्थितः स्याद्भवेत्तस्य मृत्युर्विनिद्रातितृष्णा॥ ज्वरः पाददाहोङ्गकंपोति-जाड्यंभ्रमः श्वासताकासता क्षीणचेष्टा॥२५॥ <MISSING_FIG href="../../../books_images/U-IMG-1707377731image13.jpg"/>

अजीर्णज्वरलक्षण ।
अजीर्णज्वरो लक्षणैरष्टभिर्वा भिषक्सत्तमैर्ज्ञायतेसप्तभिर्वा॥
अतीसारउद्गारऊष्मातिनिद्रा शिरोर्तिः प्रलापोहि जृम्भोदरे रुक्॥

** अर्थ**—जीभ कांटन करके युक्त, तथा शिथिल, श्वासका ज्यादा चलना, गूंगापना, रातमेंजागना प्यास तथा बहरापना वीर्यका नाश होना दुर्बलता हृदय पसवाडे पेट नाक ओठ गला.इनमें सूजन हो बेहोसी, ज्वर, ये लक्षण जिसकी देहमें हों उसको जिह्नकसन्निपात जानो॥२४॥जिसकी देहमें अभिन्यास सन्निपात हो उसके ये लक्षण है नींद आवे नहीं, अति प्यास हो,ज्वर, पैरोंमें दाह, अंगोंका कांपना, बेहोसी, भौर, श्वास, खांसी, चेष्टामंद, ये लक्षणवालेकीमौत होय॥२५॥ इति त्रयोदश सन्निपाताः ॥ **<MISSING_FIG href="../../../books_images/U-IMG-1707377731image13.jpg"/>**अजीर्णज्वर आठलक्षणोंसे अथवा सातलक्षणोंसे जानै सो ये हैं अतीसार १, डकार २, गरमी ३, अतिनिद्रा ४, शिरमें दर्द ५,खोटा बोलना ६, जँभाई ७, पेटका दूखना८॥२६॥,

आमज्वरलक्षण।

हृल्लासलालास्रुतिवांत्यरोचकैः क्षुन्नाशनिद्राबहुमूत्रतालसैः॥
वक्वाल्पवैरस्यबलक्षुतक्षयैरामज्वरो वैद्यवरैर्विलक्ष्यते॥२७॥

रक्तज्वरके लक्षण।

प्रलापोङ्गदाहो मुखाद्रक्तपातस्तृषास्फोटना मोहतांगप्रपीडा॥भ्रमोरक्तनेत्रेऽथ निद्रा विमूर्च्छा भवतीह रक्तज्वरे लक्षणानि २८

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<MISSING_FIG href="../../../books_images/U-IMG-1707377731image13.jpg"/> सद्यस्त्रिपंचसप्ताहाद्दशाहाद् द्वादशादपि॥ एकविंशद्दिनैः शुद्धः सन्निपाती सुजीवति॥१॥(त्रिदोषज्वरस्य मर्यादा) सप्तमीद्विगुणायावन्नवम्येकादशी तथा॥ एषा त्रिदोषमर्थ्यादा मोक्षाय च बधाय च २॥ वित्तकफानिलवृद्धया दशदिवसद्वादशाहसप्ताहात्॥ हन्ति विमुंचति पुरुषं त्रिदोषजो धातुमलपाकात्॥३॥इति।

<MISSING_FIG href="../../../books_images/U-IMG-1707377731image13.jpg"/>(प्रसंगात् हारिद्रकसन्निपातस्य लक्षणं ग्रन्थान्तरात्) हारिद्रदेहनखनेत्रकरांघ्रितोषे निष्ठीवनादिकसनैरुपलक्षितो यः॥ हारिद्रकस्सकथितः किल सन्निपातः साध्यो नचैव भिषजा ज्वरकालरूपः॥४॥

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हंसराजनिदानम्।
दृष्टिज्वरलक्षण।

मुहुर्मुहुर्जृम्भणमंगदाहं विस्फोटनं संधिषु शूलमुग्रम्॥
स्तब्धेक्षिणी छर्द्दिमनाहतां यो दृष्टिज्वरः संकुरुते विवर्णम्॥२९॥

अर्थ—खाली ओकी आघै, लार बहे, रद्दहो, अरुचि, भूख न लगे, नींद, मूतका जादाउतरना, आलस, मुख बेरसहो, बल और भूखका घटना, तथा क्षई हो इन लक्षणोंसे वैद्योंमेंचतुर सो आमज्वर जाने॥ २७ ॥ बकना और अंगोंमें दाह, मुखसे रुधिरका गिरना, प्यास,हडकल, बेहोसी, अंगोंमें पीडा, मौर, लाल नेत्र, नींदका आना, मूर्च्छा ये रक्तज्वरके लक्षणहैं॥२८॥ बारंबार जँभाईका आना, शरीरमें दाह, शरीरका टूटना, सन्धि २ में दर्द,भयानकनेत्र हों, बमन, अनाह, शरीरका वर्ण और तरहका होजाय, ये दृष्टिज्वरके लक्षण हैं॥२९॥

भूतज्वरके लक्षण।

भूतप्रेतपिशाचदैत्यदनुजैर्जातो ज्वरो राक्षसैर्यस्तापंहृदिवेपथुंवितनुते मूर्च्छांप्रलापं मदम्॥ जृम्भामंगविमर्द्दनं विकलतांहास्यं क्वचिद्रोदनं गीतं रक्तविलोचनं मनुज तं जानीहिभूतज्वरम् ॥३०॥

अर्थ—भूत, प्रेत, पिशाच, दैत्य, दानव, राक्षस इनसे जो ज्वर हो उनके ये लक्षणहैंशरीरतत्ता, हृदय में कंप, मूर्च्छा, व्यर्थबकना, मस्तहोना, जंभाईका आना, शरीरको तोडना,बेकली हसना, कभी रोना, कभी गीतगाना, लाल २ नेत्र ये लक्षण भूतज्वरके हैं॥३०॥

मलज्वरलक्षण \।
(१२)

प्रलापोंगतापो भ्रमो हृद्विदाहस्तृषोद्वारनिष्ठीवनं घूर्णदृष्टिः॥सकृन्मेहनं कंठजिह्वोष्ठशोषः शिरो-गौरवं विडूज्वरे लक्षणानि ३१

खेदज्वरलक्षण।

विष्टंभनं स्फोटनमंगदेशेश्वासः पिपासालसताप्रसेकः॥ स्वेदोऽतिनिद्रामदवीर्यनाशो भवंति खेद-ज्वरलक्षणानि॥३२॥

शापज्वरके लक्षण।

श्यावास्यतोद्वेगवमीपिपासा विनष्टचेष्टाभ्रमतापमूर्च्छाः॥दुर्गंधितांगे हृदिवेपथुत्वं भवंति शाप-ज्वरलक्षणानि॥३३॥

अर्थ—खोटा बोलना, शरीरतत्ता, हृदयमें दाह, प्यासलगे, डकार आवे, बार २ थूके,टेढा देखे थोडा थोडा दस्त उतरै, कंठ जीभ ओठ इनका सूखना, शिर भारी ये मलज्वरकेलक्षणहैं॥३१॥ पेटका फूलना, शरीरमें हडकल, श्वास, प्यास, आलस, लारका गिरना,पसीना, अतिनिद्रा, मस्तपना, वीर्यका नाश, ये खेदज्वरके लक्षण हैं॥३२॥ मुंह काला, उद्वेग, रद्द, प्यास, शरीरकी चेष्टाका नाशहोजाना, भौर, शरीर तत्ता, मूर्च्छा, देहमें बासका आना, हृदयका कांपना, ये सब शापज्वरके लक्षण हैं॥३३॥

औषधजनितज्वरके लक्षण।

भवेदौषधीगंधजे चिह्नमेतज्ज्वरे चित्तविभ्रंशता रक्तनेत्रे॥ शिरोरुग्वमिर्मूर्च्छतागात्रशोषः पिपासा-क्लमत्वं च निद्राविनाशः ३४॥

भयज्वरके लक्षण।

भयात्कस्यचिदुद्भवेद्घोररूपे ज्वरे चिह्नमेतद्भवेदंगकंपः॥ मुखे शुष्कताभ्यंतरेत्यंतपीडा प्रलापोथ चित्तभ्रमः शोकमूर्छा॥३५॥

** अर्थ**–विषैले औषधके सूंघनेसे जो ज्वर पैदा होताहै उसके ये लक्षण होते हैं चित्तका डामाडोलहोना, लाल २ नेत्र, मथवाय उलटीका होना, मूर्छा, शरीरका सूखना, प्यास, ग्लानि, नींदका न आना, ये लक्षण औषधजनित ज्वरके हैं॥३४॥ जिस किसीको भयसे ज्वर पैदा हुआ हो उसके ये लक्षणहैं अंगोंका कांपना, मुखका सूखना, शरीरमें बहुत पीडा, व्यर्थ बकना, चित्त चलायमान, शोच, और मूर्च्छा॥३५॥

कोपज्वरके लक्षण।

भवंतीहकोपज्वरे लक्षणानि स्फुरद्गात्रभंगं चलद्गक्तनेत्रम्॥ प्रलापोथ हल्लासकंपार्तिमूर्च्छा विवर्णः प्रसेको मुखस्तालुशोषः ३६॥

**शस्त्रघातज्वरलक्षण। **

शस्त्रास्त्रदंडाश्मकशादिघाततो जाते ज्वरे घोरतरे हि लक्षणम्॥ तापःपिपासाकफकंठरुद्ध-ताशोथः प्रलापोऽरुचिरार्तिता भवेत् ३७

अभिचारज्वरके लक्षण।

ज्वरेऽभिचारसंज्ञके भवंति लक्षणानि षट्॥ प्रलापशूलमोहतास्तृषांगकंपतारुचिः॥३८॥

** अर्थ**–ये कोपज्वरके लक्षण हैं अंगोंका फडकना, शरीरका टूटना, चलायमान लाल २ नेत्र, वाहियात बकना, खाली रद्दका आना, कांपना, दुःखका होना, मूर्च्छा, शरीरका वर्ण औरही तरहका होजाना, लारका टपकना, मुख और तालुका शोष॥३६॥ शस्त्र कहिये तलवार और छुरी आदि, और अस्त्र कहिये ब्रह्मास्त्रादि, दंड कहिये लकडी आदि, अश्म कहिये पत्थर, कशादि कहिये कोरडा आदि, इनके लगनेसे जो ज्वर पैदा हो उसके ये लक्षण हों. ज्वरहो, प्यासहो, कफसे कंठका रुकना, सूजन, बडबडाना, अरुचि दुःख ये लक्षण हैं॥३७॥अभिचारसे तथा मंत्रको उलटा जपनेसे जो ज्वरहो तथा किसीने जादू कियाहो इस ज्वरमें मुख्य ६ लक्षण होतेहैं. बडबडाना, पेटमें शूल, बेहोशी, प्यास, शरीरका कांपना, अरुचि ये॥३८॥

कामज्वरके लक्षण।

रोमोद्गमः साहसहर्षजृम्भा भीतिर्विषादो मदशोकरोषाः॥तानि चिह्नानि भवंति यस्य कामज्वरं तं कथयंति वैद्याः॥३९॥

**अथ स्त्रीप्रसंगाज्जनितO। **

**स्त्रियोत्यंतसंगाद्भवेच्चिह्नमेतज्ज्वरोग्लानिनिष्ठीवनंश्वासकासम्॥ भवेद्वेपथुर्गात्रदेशेम्बुपरस्तृषानिर्बलत्वं च पीडा च शोथः ॥४०॥ **

**अर्थ—रोमांच, साहस, जँभाई, डरका लगना, दुःखका होना, मोहहो, और शोक, क्रोध, ये लक्षण जिसमें हों उसको वैद्य कामज्वर कहते हैं॥३९॥ जो मनुष्य बहुत स्त्रीसे मैथुन करे उससे पैदा ज्वरके ये लक्षण है ज्वरका होना, ग्लानि, बेरबेरमें थूकना, श्वास, खांसी, कंप, शरीरमें पसीनाआना, प्यास, नाताकती, पीडा, सूजन, ये ॥४०॥ **

क्षीणधातुमंदाग्निजज्वरलक्षण।

**धातोः क्षीणतयाथवाग्निशमनाज्जातो ज्वरश्चिंतया शैथिल्यं कुरुतेऽरुचिं वितनुते धत्ते तनौ पांडुताम्॥ सर्वांगं तुदते ददाति कृशतां हर्षं परं नाशते वीर्यत्वं जयते रुतं न सहते श्वासं भ्रमं बिभ्रते॥४१॥ **

संततज्वरके लक्षण।

**वसति रुधिरधातौ यो ज्वरो द्वादशाहं क्वचिदपि च दशाहं संततं संततोयम्॥ प्रभवति खलुनाम्नाश्वासकासं विधत्ते ज्वरयति नरदेहं याति नाशं स पश्चात॥४२॥ **

**विषमज्वर के लक्षण। **

**निरंतरं तिष्ठति सर्वदेहे सूक्ष्मो ज्वरो यो विदधाति शैत्यम्॥ अत्युष्णतां यातिकदाचिदेव-तंकष्टसाध्यं विषमं वदन्ति॥४३॥ **

**अर्थ—**धातुके क्षीण होनेसे तथा मंदाग्निके होनेसे तथा चिंतासे जो ज्वर पैदाहो उसके ये लक्षण हैं. शिथिलता, अरुचि, शरीर पीलाहो, सर्वांगमें पीडाहो, तथा शरीरका कृश होना हर्ष जातारहै, वीर्यका नाश, श्वास मौरका होना॥११॥ जो ज्वर रुधिर धातुमें पहुंचजाय वह ज्वर १२ तथा १० दिन बराबर बनारहे उसको संततज्वर कहते हैं उसमें श्वास, खांसी,तथा सब देहका जरना बाद थोडे दिन यह ज्वर मारडाले है॥४२॥ जो ज्वर मंद होके सबदेहमें बराबर रहे और कभी शीत लगे कभी जादा शरीर गरम होजाय उसको कष्टसाध्यविषमज्वर कहे हैं॥४३॥

महेन्द्रज्वरके लक्षण।

अहोरात्रयोर्वाद्विकाले त्रिकाले चतुष्कालके वा प्रवृत्ति निवृत्तिम्॥ करोति ज्वरो यः स्वतंत्रोति-रौद्रो महेंद्रो हि नानानिरुक्तो मुनीन्द्रैः॥४४॥

वेलाज्वरके लक्षण।

अहोरात्रयोरेकदेशे ज्वरो यः समागत्य देहे स्वरूपं विधाय॥नरंपीडयेन्नित्यशो निर्दयं तं विजानीहि वेलाज्वरं वैद्यराज॥४५॥

** अर्थ—**जो दिनरातमें दो दफे वा तीन वा चारदफे आवे और उतर जावे उस स्वतंत्र घोरज्वरका महेन्द्र नाम मुनियोंने कहा है॥४४॥ जो ज्वर दिन रातमें एकदफे एक अंगमें आयके फिर सब शरीरमें फैलकर शरीरको नित्य बहुत दुःख दे उसको वैद्य वैलाज्वर जाने॥४५॥

एकांतज्वर का लक्षण।

दिनैकांतरे यो विधायोग्ररूपं नराणां शरीरे प्रपीडेन्नितान्तम्॥दिनैकं विमुच्याथ धातूंश्च शेते तमेकांतरं त्वं विजानीहि वैद्य॥४६॥

एकान्तरज्वरलक्षण।

एकांतरो ज्वरो घोरो द्विविधः परिकीर्तितः॥तेनैकः समायाति तापेनायाति यो परः॥४७॥

त्र्याहिकज्वरके लक्षण।

दिनद्वयं तु विश्राम्य मेदोमज्जास्थिधातुषु॥कुप्यति तृतीयेऽह्नि व्याहिकं तं विदुर्बुधाः॥४८॥

** अर्थ—**उसको हे वैद्य ! तू एकान्तरज्वर जान जो एकदिनमें घोररूप होके मनुष्योंके शरीरको दुःख दे और एक दिन छोडकर आवेऔर धातूनको सुखायडाले्॥४६॥ इकतरा घोर ज्वर दो प्रकारका है एक शीत लगकर आवैऔर एक गरमीसे आवै॥४७॥ जो ज्वर मेदामज्जा हड्डीमें पहुंच जाता है और दो दिन बीचमें देकर तीसरे दिन आवै उसको व्याहिकअर्थात् तिजारी पण्डितलोग कहते हैं ॥४८॥

चातुर्थिकादिज्वर के लक्षण।

एवं चातुर्थिको ज्ञेयः पाक्षिको मासिकस्तथा॥ वार्षिकोमुनिभिः प्रोक्तो वर्षमायाति नाऽन्यथा॥४९॥

देवकोपजनितज्वरलक्षण।

वापीकूपतडागगोपुरमठप्राकारवेदिप्रपादेवांगोपवनानिदेवसदनंछिन्दन्ति ये मंडपम्॥ साधु-ब्राह्मणयोगिनां पितृगवां पीडांप्रकुर्वन्तिये तेषां देववरप्रकोपजनितो घोरज्वरो जायते॥५०॥

एकांगज्वरलक्षण।

प्राणिनामेकमंगं यो ज्वरो रुजयति ध्रुवम्॥स्यांगस्य च यन्नाम तन्नाम्ना ज्वर उच्यते॥५१॥

** अर्थ—**ऐसे ही चातुर्थिकज्वर जाने तथा पाक्षिक अर्थात् जो पंद्रहवें दिन आवे, तथा मासिक जो महीनामें आवे, तथा वार्षिक जो वर्षदिनमें आवे, बीच नहीं आवे ये मुनिने कोह॥४९॥ जो मनुष्य बावडी, कुआ, तालाव, गोपुर, मढी, प्राकार, यज्ञकी वेदी, प्याऊ, देव-प्रतिमा, बाग,मंदिर, मंडप, इनको तोडडाले तथा साधु, ब्राह्मण, योगी, माता, पिता, गऊ,इनको दुःख देते हैं तिनको ईश्वरके कोपसे घोरज्वर पैदा होता है॥५०॥ मनुष्योंके कोईसेएक अंगमें ज्वर चढै और उस अंगका जो नामहो वह ज्वर उसी नामकरके कहाजाताहै॥५१॥

ज्वरस्तु यस्य संस्पर्शाद्गंधाद्वा दर्शनादपि॥ ज्वरो भवतितन्नाम्ना इति रोगविदो विदुः॥५२॥

अंतकज्वरलक्षण।

श्वासोर्मी वहते गलं कफचयैः संरुध्यते यो मुखात्फेनं संव-मते शिरां विधमते कासं विधत्तेऽरतिम्॥ आध्मानं कुरुते चमोहमरुचिं हिक्कामतीसारकं तं विद्याज्ज्वरमंतकं प्रिय-सखंमृत्योरसाध्यं भृशम्॥५३॥

शोकज्वरके लक्षण।

अर्थाऽपत्यकलत्रभ्रातृसुहृदां शोकोद्भवो यो ज्वरः शैथिल्यंकुरुते नरं विमनसं श्वासं मुहुर्वेदनाम्॥ स्तैमित्यं विकलं भ्रमंबधिरतां मूर्च्छा बलौजःक्षयं प्रस्वेदं बहुमोहतामरुचितां निद्रांतनौ पांडुताम्॥५४॥

त्वचामें प्राप्तहुए वातज्वरलक्षण।

कुर्यात्त्वचिस्थः पवनज्वरोनिशं रोमोद्गमं रौक्ष्यत्वगक्षिमीलनम्॥जृम्भांगमर्द्दश्रवणाक्षिवेदनां विण्मूत्रबंधं मुखमिष्टतारती॥५५॥

** अर्थ—**और जो ज्वर किसीवस्तुके छूनेसे अथवा संघनेसे वा देखनेसे होय वह उसी नामसेविख्यात होताहै ऐसे रोगके जाननेवाले कहते हैं॥५२॥ श्वासका ज्यादा चलना, गला कफकेसमूहसे रुकाहो, और जो मुखसे झाग गैरे, नाडीका जोरसे चलना, खांसी, इच्छाका नाश,पेटका फूलना, बेहोसी, और अरुचि, हिचकी, दस्तका होना ये लक्षण, मृत्युका प्यारा (मित्र)कालज्वरका जानना ये असाध्य हैं॥५३॥ द्रव्य पुत्रादि स्त्री मैया सुहृद इनके नष्टहोनेके शोकसेजो ज्वर होता है उसके ये लक्षण हैं शरीरमें शिथिलता, मनका त्रिगडजाना, श्वास, बेर २ मेंदुःखका होना, शरीर गीलेकपडेसे पोंछासा हो, बेकली, बहिरापना, मूर्च्छा, तथा बल तेजइनका नाश होना, पसीना बहुतहो, बेहोसी, अरुचि, नींद, शरीरपीला॥५४॥ वातज्वरत्वचामें हो तो ये लक्षण हों, रोमांच तथा त्वचाका रूखापन, आंखोंका मीचना, जंभाई अंगोंकाटूटना, कान आंखमें दर्द, दस्त पेसाबका बंदहोना, मुख मीठा, तथा अरति॥५५॥

चर्मगतपित्तज्वरलक्षण।

रक्तत्वचंदाहमतीवतृष्णामास्येकटुत्वं परिदेहशोषम्॥ऊष्माणमार्ति बहुशीतलेच्छां पित्तज्वर-चर्मगतः करोति॥५६॥

चर्मगतकफज्वरलक्षण।

लालामुखे गौरवमालसत्वं निष्ठीवन शीतवपुः शिरोर्तिम्॥निद्रां च मूत्राधिकतां प्रलापं श्लेष्म-ज्वरश्चर्मगतः करोति॥५७॥

रसगतज्वरलक्षण।

पिपासाशिरोर्तिर्वमिः शूलमुग्रं प्रलापोंगकंपो रुचिर्वैमनस्यम्॥वपुः स्वेदरोमांचितं कंठदाहो रसस्थो ज्वरो लक्षणैर्ज्ञायतेज्ञैः॥५८॥

रुधिरगतज्वरलक्षण।

ज्वरः शोणितस्थो भ्रम देहदाहं सरक्त च निष्ठीवनं ताम्रनेत्रम्॥ शिरःपीडनं शोषमूष्माणमार्ति पिपासामरोचं करोतीति मूर्च्छाम्॥५९॥

** अर्थ—**लालत्वचा, दाह, अत्यन्त प्यास, मुखकडुवा, शरीरका सूखना, गरमी मालूम हो,घबराहट, शीतलवस्तुकी इच्छा ये लक्षण पित्तज्वर त्वचामें होय तो होते हैं॥५६॥मुखसेलारका बहना, शरीर भारी, आलस, कफका थूकना, देह शीतल, मथवाय, निद्रा, पेशाबकाज्यादा गिरना, बडबडाना, ये लक्षण कफज्वर चर्ममें पहुंचता है तब होते हैं॥५७॥ प्यासमथवाय, बमन, दर्द, बडबडाना, अंगों में कंपकपी, अरुचि, मनका बिगडना, शरीर में रोमांच,तथा पसीना, कंठमें दाह, ये लक्षणोंसे जानो कि इसके रसमें ज्वर पहुंच गया है॥५८॥रुधिरमिला थूकना,जो ज्वर रुधिरमें पहुंच जावे उसके ये लक्षण हैं भौंर, देहमें दाह,तांबेसरीखेनेत्र लाल, शिरमें दर्द, शोष, गरमी घबराहट, प्यास, अरुचि, और मूर्च्छा॥५९॥

मांसगतज्वरलक्षण।

भवंतिज्वरेमांसगे लक्षणानि तमोष्मांगमद्दों भ्रमो मूत्रकृच्छ्रः॥वपुः स्वेदमभ्यंतरे तीव्रदाहस्तृषा-वेदना छर्दिरार्तिः प्रलापः॥६०॥

मेदगतज्वरलक्षण।

भवंति ज्वरे मेदगे लक्षणानि शरीरेतिदुर्गंधिता दंतपीडा॥ मुहुमूत्रता वह्निनाशः कृशत्वं विषादोल्पसारो रुचिः श्वासकासौ॥६१॥

अस्थिगतज्वरलक्षण।

ज्वरेऽस्थिप्रदेशे गते लक्षणानि भवंत्यस्थिविस्फोटनं पर्वभेदः॥शरीरस्य विक्षेपण देहदाहस्तृषोष्माविलापोभ्रमः स्वेदतापौ॥६२॥

** अर्थ—**मांसमें जब ज्वर पहुंच जाता है उसके ये लक्षण होते हैं अंधेरा आना, गरमीकालगना, शरीरका टूटना, मौर, पेशाबका रुक २ के गिरना, शरीरमें पसीना, हृदय में : ज्यादादाह, प्यास, बेकली, रद्द, दुःख, बडबडाना॥६०॥मेदामें ज्वर पहुंच जाता है उसके येलक्षण हैं शरीरमें बासआना, दांतों में दर्द, बेर २ मूतना, जठराग्निका नाश, देह कृश, दुःख,बलका घटना, अरुचि, श्वास, और खांसी॥६१॥ जिसका अर हड्डीमें पहुंच जाता हैउसके ये लक्षण हैं हडफूटन हो, संधि २ में पीडा, देहको इधर उधर पटकना, तथा देहमेंदाह, ‘प्यास, गरमी, विलाप, भ्रम, पसीना, तथा ज्वर॥६२॥

मज्जागतज्वर लक्षण।

बहिःशीतताभ्यंतरेऽत्यतदाहः तमः कपन मर्मभेदः प्रलापः॥तृषाश्वासहिक्कार्त्तयो मूत्ररोधो भवति ज्वरे मज्जगे लक्षणानि॥६३॥

शुक्रगतज्वरलक्षण।

ज्वरः शुक्रदेशेस्थितो मृत्युदूतस्तदाज्ञायते सप्तचिह्नर्भिषग्भिः॥भ्रमो वीर्यनाशस्त्वचाहीनशोफो बलौजःक्षयः श्वास-कासौकुमत्वम्॥६४॥

धातुपाकीज्वरलक्षण।

निद्रावलौजोरुचिवीर्यनाशो हृद्वेदनागौरवताल्पचेष्टा॥ विष्टंभता यस्य किलारतिः स्यात्स धातुपाकी मुनिभिः प्रदिष्टः॥६५॥

** अर्थ—**बाहरसे जाडा लगे, भीतर अत्यंत दाहहो, अंधेरा आना, कांपना, मर्म स्थानों में दर्द,बडबडाना, प्यास, श्वास, हिचकी, बेकली, मूतका रुकना, ये लक्षण मेदामें ज्वर पहुंच जाताहैतब होते हैं॥६३॥ जब मौतका दूत ज्वर शुक्र याने वीर्य्यमें पहुंचजाय उसको वैद्य सातलक्षणोंसे जाने भौंर, वीर्य्यका नाश, त्वचाका हीनहोना, बल, तेज, इनका नाश, श्वास,खांसी, ग्लानि॥६४॥ नींद, बल, तेज, इच्छा, वीर्य, इनका नाश, हृदय मेंदुःख, शरीरकाभारीपना अल्पचेष्टा, दस्तका रुकना, मनका न लगना ये लक्षण जिसमें हों उसको धातुपाकमुनियोंने कहा ॥६५॥

तथा च।

काये धातुविपाकिनां परकरम्पर्शोपि वज्रायते रात्रिः कल्पशतायतेल्पतरभो दीपोऽपि दावायते॥ शब्दो बाणसमायते मृदुगतिर्वातस्त्रिशूलायते यूकासूचिकुलायते तनुतमं वासोऽपिभारायते॥६६॥

ज्वरस्य दशोपद्रवाः।

ज्वरस्य प्रसिद्धादशोपद्रवाः स्युस्तृषा विग्रहश्छद्येतीसारहिकाः॥ शरीरस्य भेदोऽरुचिः श्वास-कासौ समूर्च्छा हि भागद्वयं ते प्रदद्युः॥६७॥

** अर्थ—**धातुपाकी मनुष्यके देहमें अन्य मनुष्यके हाथका स्पर्श वज्रके समान मालूमपडे,अल्परोशनीवालामी जो दीपक सोभी ज्वालाके समान मालूमहो, बोलना बाणके समानलगे,मन्दगति चलनेवाला पवन त्रिशूलके समान लगे, जुआं खटमल आदिका काटना सूईके समानलगे, छोटाभीवस्त्र शरीरपर भारी लगे॥६६॥ ज्वरके उपद्रव दश प्रसिद्धहैं प्यास, दस्तकाबंद होना, रद्द, अतीसार, हिचकी, शरीरका टूटना, अरुचि, श्वास, खाँसी और मूर्च्छा॥६७॥

शरीरस्य बाह्ये यदा श्लेष्मवातौ भवेतां तदा शीतलं बाह्यदेशम्॥ यदाभ्यंतरेऽभ्यंतरे शीतलत्वं भवेद्यत्र पित्तं विदाहोपितत्र॥६८॥ यस्मिन्नंगे वायुर्याति तस्मिन्नंगे पीडां कुर्यात्॥पित्तं दाहं श्लेष्माशीतं सर्वान् दोपान् सर्वे कुर्युः॥६९॥अतर्दाहः प्रलापः श्वसनमति-तृषानिग्रहो दोषवर्चः स्वेदःसंध्यस्थिशूल भ्रमविकलतनुः संधिदेशेषु पीडाम्॥ अंतर्वेगस्य चिह्नं निगदितमपरैर्वैद्यराजैवरस्य दाहादीनां लघुत्वं यदि भवति बहिवेंगरोगस्य चिह्नम्॥७०॥

** अर्थ—**यदि वात कफ शरीरके बाहर होवे तो बाहरका सब भाग शीतरहे, और जो बातकफ शरीरके भीतरहों तो भीतरही शीतलता रहें, और पित्त जिस जगह होय तो दाहभी उसी जगह जाने॥६८॥ जिस अंगमें वायु याने बादी हो उसी अंगमें दर्दहो और जिस अंगमें पित्त होय उसी अंगमें दाह होय और जिस अंगमें कफ होय उसी अंगमें शीतलता होय और जिस जगहपर जितने दोषहों उतनेही रागोंको पैदा करे है दो होंय तो दो, और तीन होंय तो तीन, और एक होय तो एक॥६९॥ शरीरके भीतर दाह हो, बकना, श्वास, अत्यन्तप्यासका रुकना, दोषोंका बढाना, पसीना, संधियोंमें तथा हड्डियों में वाहियात शूलका चलना,भौर॥७०॥

असाध्यलक्षण।

भवेद्यस्य दुर्गंधता श्वासवाहे तथांगप्रदेशेतिकंपो विवर्णः॥ बहिः शीतताभ्यंतरेत्यंतदाहः स रोगी रवेः पुत्रगेहं प्रयाति॥७१॥ कृशः पिच्छिलांगो महाश्वासवाहो भ्रमो हृष्टरोमारुणाक्षोंगकंपः॥ तमो रात्रिदाहो दिवाशीततार्तिः स रोगी न जीवेत्कदाचित्सुधाभिः॥७२॥ जिह्वा श्यामतराथ कंटक-युता रात्रौ दिने जागरः श्वासो निर्गतलोचने शिथिलता नासामुखे शुष्कता॥ यस्यांगे परि-मंडलानि बहुशो मूर्छा प्रलापस्तमः कासो रुद्धगलो गदी स गदितोऽसाध्यो भिषग्भिः परैः॥७३॥

** अर्थ—**ऐसा रोगी रविका पुत्र जो यमराज ताके घर जाता है कैसा कि, जिसके श्वास निकसनेमें वास आवे, तथा शरीर में अत्यन्त कँपकँपी, शरीरका विवर्ण, बाहरसे शीतलता, और भीतर अत्यन्त दाह॥७१॥ कृश, पिच्छलदेह, बडी २ श्वासका चलना, भ्रम, हृष्टरोम, लालनेत्र, अंगसे कंप, अँधेरेका आना, रातमें दाह होना, दिनमें जाडा लगना, तथा दुःख, देखे, तो ऐसा रोगी अमृत करके भी नहीं जीवे॥७२॥ जीभ जिसकी काली और काँटोंसे व्याह, दिनरात जागना, श्वासका चलना, नेत्रोंमें सुस्ती, नाक मुख सूखना, जाके देहमें रुधिरके चकत्ता पडगये होयँ, मूर्च्छा, बड़बडाना, अंधेरा आना, खांसीसे गलेका रुकना, ऐसा रोगी वैद्योंने असाध्य कहा है॥७३॥

भवेद्यस्य नेत्राश्रुपातोङ्गहीनो मुखान्नासिकायाः पतेद्रक्तधारा॥मुखंकुंकुमाभं गलेकर्णमूलं सरोगी न जीवेत्कदाचित्प्रयत्नैः॥

॥७४॥ कृशस्थूलता स्थूलतायाः कृशत्वं स्फुटन्नेत्रगोलंस्वभावोऽन्यथा स्यात्। शरीरार्द्धशूलं त्वचाहीनशोफो गमिष्यन्सरोगी यमस्यालयं वै॥७५॥ गदी जिह्वया यो रसंवेत्ति नैव श्रुतिभ्यां न शब्दं न नेत्रेण रूपम्॥ त्वचास्पर्शमुग्रं नसा नैव गंधं स रोगी न जीवेत्सहस्रैरुपायैः॥७६॥

** अर्थ—**नेत्रोंसे आंशू गिरे, शून्य देह, मुख नाकसे लोहूका गिरना, मुँह जिसका लाल,गलेमें कर्णमूल रोग हो, वह रोगी कदाचित् यत्नोंसे न जीवे॥७४॥ कृश तो मोटा औरमोटा कृश और नेत्रोंके गोल फटेसे मालूम हों स्वभाव पलट जावे, आधे शरीर में शूल चले,त्वचाहीन लिगेन्द्री हो, वह रोगी यमराजके घर जायगा॥७५॥ जिस रोगीको जीमसेस्वाद न मालूम हो, और कानों से शब्द न सुने, और नेत्रोंसे जिसे दीखे नहीं त्वचामें स्पर्शन मालूम हो, नाकसे गंध न मालूम हो, ऐसा रोगी हजार उपाय करनेपरभी नहीं बचेगा॥७६॥

भवेद्यस्य बाह्यांतरे शीतगात्रं न जीवेद्गदी चंडरश्मेः सुताभ्याम्॥प्रलापंशिरश्चालनं यः करोति सुषेणादिवैद्यैरसाध्योनिरुक्तः॥७७॥ गतायुर्मनुष्यो न पश्येत्स्वजिह्वां ध्रुवं नासिकाग्रंवशिष्ठस्य भार्य्याम्॥ स्वकीयां च छायां विशीष सरंध्रां भृशंयाति नाशं नरो योनुपश्येत्॥७८॥ स्वरो यस्य हीनो गुदायस्य भृष्टा शरीरे कृशत्वं बलौजोविहीनः॥ निमग्नेक्षिणीसंभ्रमः श्वासकासौ स रोगीयमस्यालये याति शीघ्रम्॥७९॥

**अर्थ—**जिसका बाहर भीतर शीतल शरीर हो, वह रोगी चंडरश्मि जो सूर्य्य तिसके पुत्रजे अश्विनी कुमार तिन करके न जीवे तथा बडबडाना शिरका इधर उधर पटकना, जो रोगीकरे वह सुषेण आदि वैद्यों करके असाध्य कहा है॥७७॥ मरनेवाला मनुष्य अपनी जीभध्रुवका तारा नासिकाका अग्रभाग अरुंधती इनको नहीं देखे, तथा अपनी छायाके मस्तक नहींदेखे, तथा अपनी छायामें छेद दीखे, वह रोगी निश्चय मेरै॥७८॥ स्वर जिस रोगीकामंद हो गुदा जिसकी भ्रष्ट, शरीर कृश, तथा निबैल और तेजरहित नेत्र, जिसके भीतरघुसजांय, संभ्रम, श्वास, खांसी ऐसा रोगी यमपुरको जल्दी जावै॥७९॥

रुदतिहसतिगीतंगीयतेक्वापिकालेश्वसितिमुदतिचित्तेभाषतेदुर्वचांसि॥ प्रलपतिपरिदेवंवादते नृत्यतेयोवहतिबहुलतापंयास्यतेमृत्युव॥८०॥

अथ रोगमुक्तस्यलक्षणम्।

विमुक्तरोगस्य नरस्य लक्षणं विडूबंधमोक्षौ मनसि प्रसन्नता॥देहे लघुत्वं रसनातिकोमला स्वल्पा तृपेच्छा रसभोजनेभवेत्॥८१॥ उरसि शिरसि कंडू रात्रिनिद्रांत्रगुंजा भवतिविशदचेतः स्वल्पतृष्णांगरौक्ष्यम्॥ मुखकरणविपाकः स्वेदयुक्तं शरीरं कृमिमलपरिपूर्णं रोगमुक्तस्य चिह्नम्॥८२॥

**अर्थ—**रोधे, हँसे, कभी गीतगावै, श्वास ले, कभी चित्तमें प्रसन्न हो, कभी खोटा बोले,बडबडावे, कभी वेदनाहो, कभी ताली बजावै, कभी उठकर नाचने लगे, और उवर बडे जोरसेहो वह रोगी निश्चय मौतका ग्रास होवै॥८०॥ नीरोगी रोगहीन मनुष्यके ये लक्षण हैंदस्त खुलकर हो मन प्रसन्न, हलका शरीर, जीभ कोमल, प्यास कम, रसभोजनमें इच्छाहो॥८१॥ हृदयमें और माथेमें खुजालचलै, रातमें अच्छी तरह नींद आवे, आंतोंका बोलना,चित्त प्रसन्न, अल्पप्यास, शरीररूखा, मुख और कानका पकना, पसीनेका आना, मल कीडोंसेपरिपूर्ण, ये रोग दूर हुयेके लक्षण हैं॥४२॥

शीतंगुदंयस्यशुभाचदृष्टिश्चैतन्यकायः कफहीनकंठम्॥ स्वल्पां-गतापो रसनातिशुद्धा शीर्षे लघुत्वं स रुजा विमुक्तः॥८३॥तारुण्यं विदधातिषट्स दिवसेष्वाद्येषु घोरज्वरस्तस्मिन्नौषधमुत्कटं गदहरो दद्यान्नकाले क्वचित्॥ दोषोपद्रवसंयुतेतितरुणे देयं झटित्यौषधं वार्धक्यं दिनपंचकेषु पुरुतो जीर्णज्वरोऽतः परम्॥८४॥

ज्वराणां स्वरूपाणि।

बीभत्सस्त्रिशिराज्वरोथ कपिलो भस्मप्रहारस्त्रिपात् पिंगाक्षोथ महोदरोऽथ परतो रौद्रो ज्वलद्विग्रहः॥ शंभोः श्वाससमुद्भवाभय-करा दक्षकतोर्ध्वंसकाः घोराघर्घरनादिनो मुनिवरैः प्रोक्ता ज्वरास्तेऽष्टधा॥८५॥

** अर्थ—**शीतल तो गुदाहो, शुभ जिसकी दृष्टि, शरीरमें चैतन्यता, कफरहितकंठ, देहमें मदगरमी, जीभ शुद्ध, शिर हलका ये लक्षण गतरोगके हैं॥८३॥ आदिके छः दिनमें तोघोर ज्वर तरुण होताहै, तिसमें करडी रोगहर्त्ता, दवाई कभी न दे, और कदाचित् तरुणज्वरमें दोषोंका उपद्रव हो तो जल्दी दवाई देवे तो छः दिनसे परे पांचदिनतक ज्वरको बूढाकहते हैं इस उपरांत अर्थात् ग्यारहदिन उपरांत जीर्णज्वर कहाता है॥८४॥ रुद्रके श्वाससेपैदा हुये मयके देनेहारे दक्षप्रजापतिके यज्ञके बिगाडनेवाले घोर घर घर नादके कर्त्ता ज्वरमुनीश्वरोंने आठतरहके कहेहें सो लिखतेहैं १ बीभत्स, २ त्रिशिरा, ३ कपिल, ४ भस्मप्रहारी,५ त्रिपात, ६ पिंगाक्ष, ७ महोदर, ८ ज्वलद्विग्रह ये॥८५॥

बीभत्सज्वरस्वरूपमाह।

बीभत्सोरुधिरारुणांबरवृतो मुण्डास्थिमालाधरो रक्ताक्षः कृमिसंकुलस्त्रिनयनो दुर्गंधि-पूर्णोनिशम्॥ नग्नो रुद्रसमुद्भवोतिबलवान्कोपो जगद्घातकः कृष्णांगो मलिनो मदान्ध-दमनःपूष्णोद्विजध्वंसकः॥८६॥

अथ त्रिशिराज्वरस्य लक्षणम्।

अभूद्दक्षविध्वंसरुद्रप्रकोपात् त्रिशीर्षस्त्रिपानंदनेत्रोतिकायः॥चलजिह्वया सृक्किणीलेलिहानो बृहत्तालुजंवोरुणाक्षोतिक्रोधी॥८७॥ अभृद्रुद्रकोपाज्ज्वरः कापिलाख्यो मुखांगारपुंजो-द्विरन्दीर्घकायः॥ मदाघूर्णिताक्षः स्फुरत्ताम्रकेशो महामेघगर्जो मनोहर्षहर्ता॥८८॥

**अर्थ—**रुधिरसे रँगे हुये वस्त्रोंको पहिरै, मुण्ड और हड्डियोंकी मालाका धारणकरने वाला,लाल २ नेत्र, कृमिसे जिसकी देह व्याप्त, तीन नेत्र बास जिसकी देहमें सदा आतीहै, नंगा,रुद्रसे पैदा हुआ अतिबली, कोपवान्, जगत्का घातक, कालेरंगका, मलिन, मस्तोंको सीवाकरनेवाला, पूषादेवताके दांतोंका तोडनेवाला ऐसा बीभत्स ज्वर है॥८६॥ श्रीमहादेवके कोपसेतीनमाथेका त्रिशिरा नाम ज्वर दक्षका मारनेवाला हुआ, तीन जिसके पांव, नवनेत्र, अत्यन्तलंबीचलायमान छुरासी जीभसे ओठोंको चाटता, बडे ताल वृक्षके समान जंघा, लाललालनेत्र,अत्यन्तक्रोधी॥८७॥ रुद्रभगवान् के कोपमें एक कपिलनामक विख्यात ज्वर पैदा हुआ, मुखमेंसेअंगारोंकी उलटी करता, अतिलंबा, मदमें चलायमान नेत्रहैं जिसके, प्रकाशमान तांबेके समानबाल हैं जिसके, घोर मेघकीसी गर्जना करनेवाला मनके हर्षका दूर करने हारा॥८८॥

भस्मविक्षेपकज्वर लक्षणम्।

अभूद्भस्मविक्षेपको रुद्रकोपान्महाट्टाट्टहासो मुहुजृम्भमाणः॥चलत्सप्तजिह्वः करालोग्रदंष्ट्रः स्फुरत्तप्तताम्रारुणः श्मश्रुकेशः॥८९॥ त्रिपाद्रुद्रकोपाद्वभूवारुणाक्षी भृगोः श्मश्रुविध्वंसकः स्तव्धकर्णः॥ ज्वरो दीर्घकायो मुहुः श्वासकर्त्ता रणेनृत्यमानोंगदाही तृषार्त्तः॥१०॥

त्रिपादज्वरस्य स्वरूपम्।

अभूद्वीरभद्रेश्वरादुत्कटास्यो ज्वरः पिंगनेत्रोल्पजंघोग्निवर्णः॥तृषार्तोद्विजिह्वोनृसिंहो-द्वितीयश्चलत्तीव्रकेशः कृशःशुष्कमांसः॥

** अर्थ—**श्रीरुद्रके कोपसे एक भस्मविक्षेपक ज्वर पैदा हुआ महान् अट्टहासका करने वाला, बेर२ में जंभाई लेता, चलायमान, सातछुरोंसी जीभ है, भयानक कीलासी डाढ, प्रकाशमानतपाये तांबेके समान हैं डाढी और बाल जिसके॥८९॥ श्रीरुद्रके कोपसे एक त्रिपादनामकउबर पैदा हुआ तीनपैर छालनेत्रवाला, और भृगुकी डाढीका उखाडनेवाला, खडे कान जिसकेबडी देह जिसकी बारबार वासका कर्त्ता, संग्राममें नाचनेवाला, शरीरमें दाहका तथा प्यासकाकर्ता॥९०॥ वीरभद्र गणसेएकपिंगाक्षनामक ज्वर पैदा भया बडे मुख, छोटी जांघ, अग्नि-सरीखा वर्ण, प्याससे दुःखी, दो जीभका मानो दूसरा नृसिंहही है चलायमान तीखेबाल कृशसूखा हुआ शरीरका मांस जिसका॥९१॥

महोदरज्वरस्य स्वरूपम्।

बभूवातिदीर्घोदरोलबकर्णो ज्वलेदग्निरूपश्चलद्रक्तनेत्रः॥ तृषाश्वासजृम्भान्वितांगप्रमों भटेशो-ज्वरोरक्तवर्णः प्रमत्तः॥९२॥

पिंगाक्षका स्वरूप।

ज्वलद्विग्रहोमुक्तकेशश्चलद्भूस्त्रिशूलासिहस्तोभुजंगेशपाशःज्वरेशोतिवीर्योहरश्वासजातः कृशः शुष्कमांसोबलीभैरवेशः॥९३॥ भिषक्चक्रचित्तोत्सवेकर्कशानांज्वराणांस्वरूपंमयाकीर्तितंयत्॥ सुपेणाश्विनीजात्रिधन्वंतरीणां विलोक्याखिलंशास्त्रमन्यागमं वै॥९४॥

इति श्रीभिषकचकचित्तोत्सवे हंसराजकृते हंसराज
निदाने वैद्यशास्त्रे ज्वरलक्षणं प्रथमम्॥

** अर्थ—**एक ज्वर महोदर नामक पैदाहुआ जिसका बडा पेट, लम्बेकान, जलती अभिके समानस्वरूप, चंचल लाल २ नेत्र, प्यास, खास, जँभाईयुक्त, अंगका तोडनेवाला, वीरोंका मालिक,लालवर्ण और मतवाला॥९२॥ श्रीहरभगवान्के श्वाससे पैदा हुआ ज्वलद्विग्रहनामक ज्वर खुलेभये हे बाल और चलायमान भ्रूत्रिशूल तलवार सांप फांस ये हैं हाथमें जिसके ज्वरोंका राजाअतिबली, कृश सूखे मांसवाला पराक्रमी भैरवेश प्रसिद्ध॥९३॥ हंसराज कवि कहते हैं किभिषक् चक्रचित्तोत्सव ग्रन्थमें कठोर ज्वरोंके स्वरूप तथा लक्षण मैने कहे कदाचित् कोई कहै कितुम्हारे कहनेका क्या प्रमाण है उसी शंकाको दूर करते हैं सुषेण, अश्विनीकुमार, अत्रिऋष,धन्वंतरि, इनके बनाये हुये ग्रन्थोंको देखकर तथा और जे माधवादि अर्वाचीन आचायका मतउसको देखकर यह ग्रन्थ मैंने निर्माण किया है इससे यह ग्रन्थ पठनयोग्य है॥९४॥इति श्रीदत्तरामकृते हंसराजार्थबोधिनीमाथुरी भाषाटीकायां ज्वराधिकारस्समाप्तिमगमत्।

अतिसारलक्षणानि।
तत्रादौ वातातिसारलक्षणम्।

तृष्णाग्लानिर्नितांतं हृदि जठरगुदे शूलमुग्रं सदाहं स्वल्पंस्वल्पं पुरीषं प्रभवति सततं नैव सर्वच्युतिः स्यात्॥ अन्तर्दाहश्च श्वासोरुचिविकलतनुर्वक्रनासातिशोषो वातातीसारचिह्नं निगदितमृषिभिः पूर्वजैर्वैद्यविद्भिः॥१॥

पित्तातिसारके लक्षण।

नानावर्णं पुरीषं मधुवससदृशं दुष्टदुर्गंधियुक्तं वारंवारं सतप्तप्रचलति गुदतः कंपसंतापयोगः॥ शूल दाहो गुदाग्रे हृदि नसिवदने शोषतृष्णाश्रमत्वं पित्तातीसारचिह्नं कथितमृषिवरैरत्रि-भारद्वजाद्यैः॥२॥

कफातिसारके लक्षण।

सकष्टंगुदातः पुरीषप्रवाहश्चलत्फेनिलोमेदुरोदुष्टगंधिः॥ हरिच्छेतकृष्णाकृतिः कष्टसाध्यो भवेच्चिह्नमेतत्कफस्यातिसारे॥३॥

** अर्थ—**तृषा, ग्लानि, अत्यन्त हृदयमें, पेटमें, गुदामें, घोरदर्द, तथा दाह, थोडा २ मलनिकसे सब न निकसे, भीतर दाहहो, श्वास, अरुचि, देहमें बेकली, मुज़, नाक इनका अत्यन्तसूखना, ये लक्षण वातातिसारके पहले ऋषि तथा वैद्योंने कहे हैं॥१॥ दस्तजिस रोगीकाचित्र विचित्ररंगका निकसे तथा सहतके रंगका वा बसाके रंगका निकसे और दुर्गंधयुक्तहोबारबारमें तत्ता जावे कंप तथा संतापके साथ और शूल दाह ये गुदाके द्वार पर हों तथा हृदयनाक मुख इनमें शोषहो प्यास और अनायासश्रम हो ये लक्षण ऋषिनमें श्रेष्ठ अत्रि और भरद्वाजादिकोंने पित्तातिसारके कहे हैं॥२॥ जिसके दस्तका प्रवाह गुदासे बडेदुः खसे जावे जिसमेंझागहो चिकनाहो दुष्टगंधहो हरा श्वेत काला वर्णहो यह कष्टसाध्य कफातिसारके लक्षणहैं ॥३॥

सन्निपातातिसारलक्षण।

अतीसारेसारे कफपवनपित्तप्रजनिते गुदे पार्श्वे कुक्षौ जठरहृदये शूलमरुचिः॥ मुखे कंठे शोषो भवति सततं छर्दिररतिस्तृषाकासः श्वासो वपुषि परिशोफोङ्गदहनम्॥४॥

रक्तातिसारके लक्षण।

वारंवारं पुरीषं भवति सरुधिरं कंठताल्वोष्ठशोषो बस्तौ पादेप्रपीडा हृदि जठरगुदे पार्श्वदेशेषु शूलम्॥ ग्लानिः काये कृशत्वं परिगलिततनुर्निर्बलत्वं शरीरे रक्तातीसारचिह्न प्रवरमुनिजनैः प्रोक्तमेतन्नितांतम्॥५॥

आमातिसारके लक्षण।

आमं स्वल्पं पुरीषं सितरुधिरनिभं पीतवणं सकष्टं वारंवारंप्रतप्तं प्रचलति गुदतः पूयदुर्गंधि-युक्तम्॥ स्निग्धं शूलं गुदाग्रे प्रभवति परितः फेनिलं पिच्छिलं वा आमातीसार-चिह्नंमुनिवरवचनात्कीर्तितं हंसराजैः॥६॥

** अर्थ—**वात पित्त कफसे पैदा हुआ घोर अतिसार उसमें ये लक्षण होते हैं कि गुदा, पीठ,कुंख, पेट, हृदय इनमें शूलका चलना, अरुचि मुख कंठका सूखना, रद्द, तथा मनका नलगना, प्यास, खांसी, श्वास, शरीरमें सूजन, शरीरका दहन॥ ४॥ बारंबार दस्त रुधिरमिलाहुआ हो. कंठ तालू ओठ इनका सूखना, मूत्रस्थान तथा पैरों में पीडा हृदयमें पेटमें गुदामेंपीठमें शूल तथा ग्लानि, शरीरका कृश तथा गलना तथा निर्बल होना ये लक्षण रक्तातिसारकेमुनीश्वरोंने निश्चय करके कहे हैं॥५॥ आममिला थोडा २ दस्तहो श्वेत तथा रुधिरके समानतथा पीला वर्ण साथ कष्टके दस्तहो बारम्बार तत्ता गुदासे रांध दुर्गंध युक्त चिकना, गुदाग्रमेंपीडा, तथा झाग युक्त और गाढ, ये लक्षण आमातिसारके मुनीश्वरोंके वचनसे हंसराजने कहे हैं॥६॥

अतिसारका असाध्यलक्षण।

अतीसारिणतंत्यजेच्छीतगात्रंतृपाशोथशूलान्वितंश्वासयुक्तम्॥ज्वराध्मान हिक्कान्वितं दाह-मूर्च्छागुदा पृष्ठशोषार्तिकासादि-जुष्टम्॥७॥

अतिसारकी उत्पत्ति।

विरुद्धाशनैः स्निग्धदुग्धान्नदोपद्र्व स्नेहदुष्टाम्बुमद्यादिपानैः॥गरिष्ठाम्लपिष्टैः कृमीणां विकारैरती-साररोगो भवेन्मानवानाम्॥८॥

अतिसारे पथ्यम्।

अतीसारे त्यजेत्नान संतापं वह्निसूययोः॥लाभ्यंगं चव्यायामं गुरुस्निग्धादिभोजनम्॥९॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
अतीसारलक्षणं द्वितीयम्।

** अर्थ—**ऐसे अतिसारी मनुष्यको वैद्य इलाज न करे कैसेको कि जिसका शीतल शरीरहोप्यास शूल युक्तहो श्वास ज्वर आफरा हिचकी सूजन इन करके युक्तहो दाह मूर्च्छा तथा कांचकानिकलपडना शोक दुःख खांसी युक्तको॥७॥ विरुद्ध भोजन करनेसे चिकनी तथा दूध तथाअन्न इनके दोषसे पतली तथा तेलकी तथा दुष्टजलके पीनेसे मदिरादिके पीनेसे भारी खट्टातथा पीसा अन्नके खानेसे और कृमीनके विकारसे मनुष्यको अतिसार रोग पैदा होय है॥८॥अतिसारवाला मनुष्य ये काम न करे नहाना अग्नि और सूर्य इनके तेजका सहना तेलका लगानातथा कसरत कुस्तीका करना भारी चिकना आदि भोजनका करना॥९॥

इति हंसराजार्थबोधिनीमाषाटीकामें अतिसारनिदान पूर्ण हुआ।
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अथ संग्रहणीनिदानम्।
वातसंग्रहणीलक्षणम्।

वातोत्थो ग्रहणीगदः प्रकुरुते विड्बंधंनं मूर्छनं कासं श्वासतरंखं च विरसं कंपं शरीरे भृशम्॥ कुक्षौ तालुनि मस्तके हृदिगले शोषो गुदे वेदना कष्टं प्रच्यवते पुरीषमशकृत्सामं सशब्दघनम्॥१॥

पित्तसंग्रहणीके लक्षण।

चिह्नं पित्तग्रहण्यां भवति हृदये कंठदेशेतिदाहः शूलं मेद्रेगुदाग्रे रुधिररतिरतः शुष्कफेनं पुरीषम्॥ तुच्छं तुच्छं सकष्टंक्वचिदपि बहुशो दुष्टगंधिप्रयुक्तं पीतं वा कृष्णरूपं वससदृशनिभं रोमहपतितृष्णा॥२॥

कफसंग्रहणीके लक्षण।

कफसंग्रहणी कुरुते हृदये जडतामुदरे गुरुतामरुचिम्॥मनसिभ्रमतांगरुजं शिथिलं सितफेन-युतं च पुरीपमरम्॥३॥

** अर्थ—**बादीसे प्रगट संग्रहणी दस्तको बंद करे है मूर्च्छा, खांसी, श्वास, मुखबेरस, शरीरमेंकंप, कोख तालुआ माथा छाती गला इनका सूखना, कष्टसे थोडा २ विष्ठाका त्याग होनाआम मिला हुआ शब्दके साथ और गाढा॥१॥ पित्तकी संग्रहणीके ये लक्षण हैं. हृदयमेंऔर कण्ठमें दाह, लिंगमें शूल, गुदाके अग्रभाग से रुधिरका गिरना, सूखा तथा झागमिला तथाकष्टसे थोडा २ कभी ज्यादा बासको लिये पीला वा काला वा बसाके समान दस्त हो, रोमांचतथा प्यास हो॥२॥ कफकी संग्रहणीमें हृदयका जकडना, पेटका भारी होना, मनमें अरुचि, भौर,देहमें दुःख तथा शिथिलता, सपेदझागोंका मिला दस्त, ये लक्षण ककसंग्रहणीके होते हैं॥३॥

त्रिदोषसंग्रहणीके लक्षण।

ग्रहण्यां त्रिदोषोद्भवायां सकष्टं पुरीषद्रवं शब्दयुक्तं वसाभम्॥भवेदल्पमल्पं क्वचिद्रक्तवर्णं गरिष्ठोदरं दुष्टदुर्गंधिमिश्रम्॥४॥

संन्निपातकी संग्रहणी।

विष्टंभं ग्रहणीगदः प्रकुरते दोषैस्त्रिभिः संभवो वैरस्यं शिरसिव्यथां गुरुतमां शूलं गुदापीडनम्॥ आलस्यं हृदये गुरुत्वमरुचि कासं तृषासंभ्रमं श्वासाध्मानविवर्णतोदरकृमीन दाहंकरांत्र्योर्वमिम्॥५॥ अतीसारे गते मंदं वह्नीच्छाद्यातिभोजनैः ॥ वर्त्तते यो भवेत्तस्य ग्रहणी दारुणा भृशम्॥६॥

** अर्थ—**सन्निपातसे पैदाहुई जो संग्रहणी उसमें ये लक्षण होते हैं साथ कष्टके और शब्दकेदस्तका होना, तथा वसाके समान और थोडा २ कभी लालरंगका, पेट भारी रहै, और बास-मिला दस्त हो॥४॥ पेटमें आफरा करती है तथा मुखेंम बिरसता, शिरमें दर्द, और शूलतथा गुदा पीडा, आलकस, हृदयका, भारी होना, अरुचि, खांसी, प्यास, भौंर, श्वास, पेटकाफूलना, शरीर बुरेरंगका होजाय, पेटमें कृमी, हाथ पावों में दाह, और वमन॥५॥ जब अतिसारचलाजाय और जठराग्निकी इच्छा अति भोजनसे बंद करदे उसके घोरसंग्रहणी होती है॥६॥

संग्रहण्यां पथ्यम्।

व्यायामं मैथुनं रूक्षं भोजनं वह्नितापनम्॥तैलाभ्यंगं दिवास्वापं ग्रहणीरोगवांस्त्यजेत्॥७॥

इति श्रीभिषकचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृतेवैद्यकशास्त्रे
ग्रहणीलक्षणं तृतीयम्।

** अर्थ**-स्त्रीसंग, रूखा भोजन, आंचसे तापना, तेल लगाना, दिनमें सोना, ये संग्रहणी रोगवालास्यागदे॥७॥ इति माथुरदत्तराम-कृत हंसराजार्थबोधिनी टीका में संग्रहणीरोगलक्षण समाप्त हुआ॥

गुदाग्रेषु जातानि मांसांकुराणि चतुस्त्रीणि संख्यानि संगानियानि॥ भवन्तीति दुर्नामसंज्ञानि नूनं मरुच्छ्रेष्मपित्तोद्भवानीहतानि॥१॥

वातकी बवासीरके लक्षण।

शुष्कावा तसमुद्भवाश्चिमिचिमास्तव्धागुदस्यांकुरा म्लानाःश्यामतराः खराश्च विकटा नीलाः सिताभाः क्वचित्॥ खर्जू-राकृतयोंघ्रिहस्तसहिताः शीर्षाननाः संयुता भिन्ना विस्फुटितानना ज्वरकराः पायूत्थिता दुःखदाः॥२॥ वाताशसिकृशत्वमेव बहुलं कुर्वन्ति विड्बंधनं क्षुन्नाशं बलवीर्यकांतिहरणं शूलं गुदापीडनम्॥ शोषं कंडुरुजं विकारमधिकशब्दं गुदातोनिशमाध्मानं जठरव्यथां गुरुतमां प्लीहं तनौ पांडुताम्॥३॥
** अर्थ** -गुदाके अग्रभागमें हुये तीन वा चार मांसके अंकुर अंग करके सहित खोटा नाम(संज्ञा) जिनकी ऐसे वातपित्त कफसे पैदा होते हैं॥१॥ बादीसे पैदाहुए ये जो गुदाके मस्सेउखडेलें सूखेहों चिमचिमीलिये हों टेढेहों कुम्हिलाये हुयेहों कालेहों खरदरे बाँके नीले सुपेदहोंखजूर फलके सदृशहों हाथ पैर शिर मुँहके चिह्न संयुक्तहों अलग २ फटे मुखके ज्वर करनेवालेगुदामें प्रकट दुःखके देनेवाले हैं॥२॥ बादी बवासीर मनुष्यको कृश करे है, तथा दस्तकोबंदकरे, भूखको बंदकरे, बलवीय तेजको दूरकरे है, शूल, पेटमें गुदामें दर्द, शरीरको सुखावे,खुजली चलै, दुःखकरे, अधिक विकार तथा गुदासे शब्दके साथ अधोवायु चले, आफरा,पेटमें भारी, व्यथा, प्लीह, शरीर पीलाकरे है॥३॥

पित्तकी बवासीरका लक्षण।

गुदांकुरास्तु पित्तजा भवंति पक्कबिंबभाः स्रवंति रक्तमुल्वणंच मासिमासि मेदुराः॥ अजावि-शूकरीशुनीगवांस्तनोपमा हिते खरा जलौकिकानना महत्सुदोषसंभवाः॥४॥ स्वल्पात्स्वल्पतरं पुरीषमरतिं विड्रबंधनं कूजनं कष्टं वातसमन्वितं सरुधिरं शूलं गुदागर्जनम्॥ प्लीहं वीर्यबलक्षयं शिथिलतां गुल्मांत्रवृद्धिं भ्रमं पित्ताशांस्यरुचिं तृषां बहुतरां कुर्वत्यनाहं श्रमम्॥५॥

कफबवासीर के लक्षण।

कंडाढ्यागुदसंभवाः खरतरामांसांकुराः पिच्छिलाः स्तब्धाः श्वेतनिभा मृगीस्तनसमाः स्निग्धाश्च स्पशप्रियाः॥ स्थूला मूलदृढा भवंति मिलिताः कार्पासबीजोपमा वंध्याबद्धमुखा व्यथादिजनकाः पापोद्भवा दारुणाः॥६॥

** अर्थ—**पित्त बवासीरके मस्से पके कंदूरी फलके समान हों, जिनसे खूनटपके, महीना महीनामेंछिपाहुआ, बकरी, शूकरी, कुतिया, गौ, इनके थनोंके सदृश हों, खरदरेहों. जोंक के मुखकेआकारहों ये बहुत दोषसे होते हैं॥४॥ पित्तकी बवासीर दस्तको बहुत कम निकारे, मन कहींन लगे, दस्तका बंद होना, गूंजना, कष्ट पूर्वक अधोवायु रुधिरके साथ निकसना, शूलके साथगुदाका गर्जना, प्लीह वीर्य बलका नाश, शिथिलता, गोला, अंत्रवृद्धि, भ्रम, अरुचि, प्यास-ज्यादा, अनाह, श्रम, ये लक्षण पित्तकी बवासीरके हैं॥५॥ गुदाके मस्सोंमें खुजली चलेखरदरेहों और गाढे टेढेहों, सपेदहों, मृगीके स्तनोंके समानहों, चिकने और सिराना प्रियलगे,स्थूल, दृढ जडवाले, कपास बीजके समानहों, रुधिर न निकले, बद्धमुखबाले, दुःखके देनेवाले,पापसे उठे दारुण॥६॥

कफकी बवासीर के लक्षण।

संकोचं गुदबंधन च जठरे कुर्वत्यनाहं दृढं तुच्छं कष्टतरं पुरीपमसकृन्निद्रां तनौ पांडुताम्॥ आध्मानं गुरुतां भृशं शिथिलतां हर्षक्षय क्षीणतां श्लेष्माशसि शिरोरुजं बहुतरं जाड्यम्बलौजः क्षयम्॥७॥

सन्निपातबवासीरका लक्षण।

अशस्यसाध्यानि गदोद्भवानि त्रिदोषजातानि समस्तरोगान्॥तन्वंति कार्यं रुधिरं स्रवंति दहंति वीर्य्यं ददतीह दुःखम्॥८॥

वातकी बवासीरका पथ्य।

त्यजेदर्शसा संयुतो वातजेन नरः सर्वदा मैथुनं रूक्षभोज्यम् ॥कषायं श्रमं मद्यपानं विदाहि जलस्यावगाहं बहिस्स्वापमेतत्॥

** अर्थ—**गुदाका बंधन, तथा संकोच, उदरमें आनाह, थोडा कष्टके साथ मलका त्याग, नींदतथा पीलिया, आफरा, भारीपना, शिथिलता, हर्षक्षय, क्षीणपना, मथवाय, बलतेजका क्षय,ये कफकी बवासीरके लक्षण हैं॥७॥ त्रिदोषसे पैदा हुई बवासीर सब. असाध्य है, और सबरोगोंको पैदा करेहै, कृशताको पैदाकरे. रुधिरको ज्यादा निकारे, वीर्यको दहन करे, दुःखकोदेय॥८॥ वातकी बवासीरवाला मैथुन, रूखा भोजन. कसैली वस्तु, श्रम, मद्यपान, दाहकर्ता वस्तु, जलमें घुसिके स्नान, बाहरका सोना ये त्यागदेवे॥९॥

पित्तकी बवासीरका पथ्य।

पित्तजेनार्शसा युक्तस्त्यजेत्क्षारोष्णभोजनम्॥व्यायामं सूर्य-पित्तजेनार्शसासंतापं कट्वम्ल-लवणानि च॥१०॥

कफकी बवासीरका पथ्य।

कफार्शसायुक्तनरः प्रवातं जलावगाहं मधुराम्लशीतम्॥ त्यजेदतिस्निग्धगरिष्ठभोज्यं स्वापं दिने जागरण रजन्याम्॥११॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
अर्शसालक्षण चतुर्थम्।

** अर्थ—**पित्तकी बवासीरवाला मनुष्य इतनी वस्तु त्यागदेय, क्षार मिला अन्न तथा गरमभोजनदंडकसरत, सूर्य्यके घाममें डोलना, कडवी खड्डी चरपरी नोनकी बस्तु॥१०॥ कफकी बवा-सीरवाला नर; हवा, जलमें घुसकर नहाना, मीठीवस्तु, शीरी, तथा खड्ट्टी, अति चिकनी,भारीवस्तुका भोजन, दिनमें सोना, रातमें जागना, त्यागदे॥११॥इतिहंसराजार्थबोधिनी टीकामें बवासीर रोग लक्षण समाप्त हुआ।

भगंदरलक्षणम्।

गुदतः परितो द्वितयेंगुलके पिडिकार्तिकरो रतिकृज्ज्वरदः॥भगदारणको रुधिरेण युतो मुनिभिर्गदितस्तु भगंदररुक्॥१॥

वातके भगंदरकालक्षण।

भगंदरो मरुद्भवो रुजां करोति दारुणो ह्यपानवातसंभवो गुदंप्रपीडयेन्निशम्॥करोति पैडिका-शतं विपाकदाहसंयुतं व्रणेैश्चरौधिरी नदी पुरीपमूत्रबंधनम्॥२॥

पित्तजनितभगंदर के लक्षण।

भगंदरोतिदारुणः करोति पित्तजोऽहितं गुदे च पैडिकारुणापाकदुःखभूमिका॥अनेकधा-मुखाखरास्तुपूयशोणितावहाःकटौ व्यथामनेकधामपानकोपतो भवाम्॥३॥

अर्थ-गुदाके चारों तरफ दूसरे अंगुलमें मरोरी दुःखकी देनेवाली अर्तिकी करनेवालीज्वरकी करनेवाली भग और गुदाके बीचमें भंगकीसी तरह भगदारणक रुधिर युक्त होता हैइसीसे मुनियोंने इसका नाम भगंदर कहा है॥१॥ बादीसे और अपान वायुसे उत्पन्न जोघोर भगंदर वो दारुण पीडा करे है, और गुदामें अत्यन्त दुःखहो, और सैकडों मरोरी गुदाकेऊपर करें, और वे पकजावें तथा दाहहो और घावहोजाय, रुधिर वहै, दस्तपेशाबका बन्दहोना, ये लक्षण होते हैं॥२॥ पित्तसे पैदा जो अतिदारुण भगंदर उसके ये लक्षणहैं दुःखहो,गुदाके ऊपर लाल २ मरोरीहों, और वे पकिजावें, खेदको पैदाकरें अनेक मुखहों, करडी हों,राधरुधिर जिनसे स्रवे कमरमें दर्द हो, यह भी अपान वायुके कोपसे पैदाहोताहै॥३॥

गुदांते पिडिकां कुर्याद्भगंदरगदोनिशम्॥डूशोषं व्यथां पाकेरक्तपूयवहाः कृमीन्॥४॥

सन्निपातजनितभगंदरलक्षणम्।

आहुस्तं च भगंदरं कफमरुपित्तोद्भवं पण्डिता विस्फोटैर्दहते गुदंकृमिकुलैरत्यामिषं योनिशम्॥पक्कैश्छिद्रसमन्वितैः सरुधिरं पूयंस्रवत्यामिषं शोथं कंडुरुजादिकं वितनुतेऽपानेन विड्बंधनम्॥५॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
भगंदरलक्षणम्।

** अर्थ-**मगंदरका रोग-गुदामें मरोडी पैदाकरे, और उनमें खुजलीचले, तथा शोषहो,पकनेमें दर्दहो, रुधिर तथा राव बहै, और कृमि पडजाय॥४॥ जिसभगंदरमें ये लक्षणहोंउसको पंडित सन्निपातका कहतेहैं जिसमें बडे २ फोडे करके गुदामें दुःखहो और कृमीनकेसमूहसे निरंतर व्याकुलहो, और पकजाय तथा गुदाके वारपार छेद होजाय उनछेदोंमें राधरुधिर मल मांस निकसे सूजन खुजलीहो अपान पवनसे गुदाद्वारा मलका नहीं उतरना॥५॥इति श्रीहंसराजार्थ बोधिनी टीकामें भगंदररोग लक्षण समाप्त हुआ॥

अजीर्णरोग के लक्षण।

भुक्तान्नंपाचितं नैव वहिनोदरजेन तत्॥ तस्योपरि पुनर्सक्तमजीर्णं तद्विदुर्बुधाः॥१॥ भुक्तानं न विपाकमेति जठरेविण्यूत्रयोस्तंभनाद्रात्रीजागरणाद् दिवातिशयनादत्यंबुपानान्तृणाम्॥ दुर्भक्ष्याद्विपमाशनादतिभयात्क्रोधाद्विरुद्धाशनात्मंदाग्नौ बहुभोजनागरुतरात्प्रद्वेषतश्चितया॥२॥ वाताधिकेविषमतां समुपैति वहिः पित्ताधिके भवति वहिरतीवतीक्ष्णम्॥श्लेष्माधिके जठरजो द्रुतभुक् समंदो वाताधिकेषु समकेषुसमोग्निरंत्ये॥३॥

** अर्थ—**खाया हुआ तो अन्न जठराग्नि करके पचा नहीं और तिसके ऊपर फिर, खावे उसकोपंडित अजीर्ण कहते हैं॥१॥ मलमूत्रके रोकनेसे, रातमें जागना दिनमें सोना बहुत पानी पीना,गरिष्ठ भोजन करना, विषम भोजनसे, अतिभयसे, क्रोधके करनेसे, विरुद्ध भोजनसे, मंद-अग्निसे, ज्यादा भोजनसे, द्वेषसे चिन्ताके करनेसे, खाया हुआ अन्न पेटमें पचता नहीं है॥२॥वाताधिकसे विषमाग्नि पित्ताधिकसे तीक्ष्णाग्नि कफाधिकसे मन्दाग्नि और बात पित्तकफके समानहोनेसे समाग्नि होती है ये चार प्रकारकी अग्नि मनुष्योंके होतीहै॥३॥

विष्टब्धं विषमोऽनलः प्रकुरुते रोगांश्च वातोद्भवांस्तीक्ष्णाग्नि-विंदधाति पित्तजनितान् रोगान् विदग्धाशनम्॥ आमश्लेष्मसमुद्भवान् वितनुते रोगांश्च मन्दानलो नैरोग्यं हुतभुक्समोहिसतत धत्ते रुचि मानसीम्॥४॥

वाताजीर्णके लक्षण।

वातार्जीर्णे चिह्नमेतत्प्रसिद्धं जृम्भाशूलं क्षुत्पिपासांगमर्दः॥ साम्लोद्गारो धूमयुक्तोतिकष्टः श्वासः शोषो मूत्रघातोथ हिक्का॥५॥

पित्ताजीर्णके लक्षण।

मूर्च्छादाहः संभ्रमः शूलमुग्रं तृष्णोद्गारो धूमयुक्तोतिसाम्लः॥मोहः स्वेदश्छर्दनं गन्धिसांद्रं पित्ताजीर्णेलक्षणं सद्भिरुक्तम्॥६॥

** अर्थ—**विषमाझि आफरा और वातके रोगोंको पदाकरैहै तीक्ष्णाग्नि पित्तके रोगोंको औरअन्नको दग्ध करके मन्दाग्नि कफके रोगोंको और आमको पैदा करैहै, समाग्नि नैरोग्य औररुचिको पैदा करहै इसीसे यह समाग्नि अग्नि श्रेष्ठ है॥४॥ वातके अजीर्णमें ये लक्षण होतेहैं, जॅभाई, शूल, प्यास, धूमयुक्त खट्टीडकार, भूख अंगोंका टूटना, अतिकष्ट, श्वास, शोष,सूत्रघात, हिचकी॥५॥ एवं मूर्च्छा, दाह, भ्रम, घोर शूल, प्यास, धूमयुक्त खट्टी डकार,बेहोसी, पसीना, बासके साथ और गाढीरद्द ये पित्ताजीर्णके लक्षण हैं॥६॥

कफाजीर्णके लक्षण।

कफस्याजीर्णेऽङ्गे भवति गुरुता छर्दिरधिका अतीसारः शोथोरुचिरपि तृषाक्षुद्धिकलता॥ वमिर्लालावक्वादरतिरुदरे भारमधिक शिरः कंठे नाभौ गुदपवनसंचारमधिकम्॥७॥

इति श्रीभिपकचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
अजीर्णनिदानं समाप्तम्।

** अर्थ-** शरीर भारी, बहुत रद्दका होना, अतीसार, सूजन, अरुचि, प्यास, क्षुधा, बेकली वमन,मुखसे लारका बहना, मनका न लगना, पेट-भारी, शिर कंठ नाभि इनमें अपान वायुका चलना॥७॥

इति हंसराजार्थबोधिनी टीकामें अजीर्णनिदान समाप्त हुआ**।**

अलसविलम्बिकानिदान।

अजीर्णतो विषूचिका भवेद्विलबिकाथवा विषूचिकोर्ध्वगामिनीक्षणेन नाशयेन्नूरम्॥ अधोगतिर्विलंबिका विलंबकारिणीति सा अपानवातप्रेरिता मनोजवृत्तिहारिणी॥१॥ भुक्तानं प्रहरात्पूर्वं द्रवं कृत्वोर्ध्वमानयेत्॥ या सा विषूचिका प्रोक्ताऽधो नयेत्सा विलंबिका॥२॥

विषूचिकाके लक्षण।

अतीसारमूर्च्छापिपासांगपीडा भ्रमोल्लासहिक्काविमुक्तांगसन्धिः॥निमग्नेक्षिणीकृष्णदन्तोष्ठजिह्वाविसंज्ञाविषूच्यांभवन्तीहशूलम्॥ ३॥

** अर्थ—**अजीर्णसे विषूचिका वा बिलंबिका, पैदा होती है जिसमें वमन हो उसे विषूचिकाकहते हैं, और जिसमें दस्तहों उसे विलंबिका कहते हैं विषूचिका क्षणमें मनुष्यको मारडालेऔर विलंबिका कुछदेरमें मारे है अपान वातकरके प्रेरित मन तेज इनकी वृत्तिको दूर करनेवालीहै॥१॥ ये माधव कहै, पहले श्लोकमें जो कहि आये उसेही फेर कहते हैं खाया हुआ अन्नकोपहरभर पहले पतलाकर जो ऊपरका रस्ता अर्थात् रद्दलावै उसे विषूचिका कहते हैं और जोनीचे मार्ग अर्थात् दस्तलावै उसे विलंबिका कहते हैं॥२॥ दस्त, मूर्च्छा, प्यास, अंगोंमेंपीडा, भ्रम, हृल्लास, हिचकी, अंगकी संधि २ ढीली होजाय, नेत्र बैठजायँ, दांत जीभ ओठकाले हों, बेहोशी, शूल ये लक्षण विषूचिकाके हैं॥३॥

विषूच्यामशुद्धिर्वमिर्मूत्रघातो भवेद्वेपथुःकंठवक्रोष्ठशोषः॥ विसज्ञारतिर्देहदाहोऽल्प-शब्दस्त्वचाकोचनं क्षुद्धिनाशोल्पचेष्टा॥४॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
अजीर्णविषूचिकालक्षणम्।

** अर्थ—**अपवित्रता, वमन, मूत्रघात, कंप, कंठ, मुख, ओठ इनका सूखना, बेहोसी, मनकाडामाडोल, शरीरमें दाह, मन्द २ बोलना, त्वचाका सुकडना, भूखका नाश, चेष्टा रहित येभीविषूचिकाके लक्षण होते हैं॥४॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिनी टीकामें विषूचिका रोग तथा विलंबिकारोग लक्षण समाप्त हुआ।
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अथ क्रिमिनिदानम्।

जायन्ते क्रिमयो नरस्य जठरे बाह्ये च यूकादयो बाह्याभ्यन्तरभेदतो बहुविधाः सूक्ष्माति-सूक्ष्मास्तथा॥ दीर्घाद्दीर्घतराभवन्ति मिलिता भिन्नाः पराजन्तवो नानावर्णसमन्विता बहुपदः पादैर्विहीनाः पराः॥१॥ मूर्छार्त्तिकंडुं पिटिकाश्च कोटरान् कुर्वन्त्यतीसारमनाहसंभ्रमम्॥ दाहं विवर्ण वमथुं विगन्धितां कार्श्यं शरीरे कृमयो मुहुर्मुहुः॥२॥ उदरगतकृमीणांचिह्नमेतन्नराणां भवति हृदयदाहः संभ्रमोऽङ्गे विकारः॥ अरतिरुधिरकासं छर्द्यतीसारशूलं सकलविकलकायः ष्ठीवनंनिर्बलत्वम्॥३॥

** अर्थ—**कृमिरोग दो तरहकाहै एक बाहरी, दूसरा भीतरी, पेटमें; गिडोहे आदि हो सोभीतरी और बाहर जूयें लीख आदि होते हैं ऐसे बाहर और भीतरके मेदसे तथा छोटेसे छोटेऔर बडेसे बडेके भेद करके बहुत मेदहैं नाना वर्णके बहुत पाद तथा पादरहित होते हैं॥१॥मूर्च्छा, अर्ति, खुजली, पिटिका इनका खुजाना अतीसार, अनाह, भौर, दाह, शरीरका वर्णऔरही तरहका, वमन, दुर्गंध, शरीर कृश, कृमि ये लक्षण कृमिरोग में होते हैं॥२॥ उदरमेंकृमि पडगये हों उसके ये चिह्नहैं हृदयमें दाह, भौर, शरीरमें विकार, मन न लगे, दस्त मेंरुधिरका गिरना, खांसी, वमन, दस्त, शूल सब शरीर में बेकली, बारबार थूकना, निर्बलता॥३॥

कृमिरोगकी उत्पत्ति।

भुक्तस्योपरिभोजनेन मधुराम्लाभ्यां मृदाभक्षणाद्दघ्ना माषपयोभिरामिषयुतैः श्लेष्मोद्भवा जन्तवः॥ सन्तापक्षतशोफशाकमधुभिर्मद्येन रक्तोद्भवा अन्यैर्वा कृमयो भवन्ति जठरे नृणांसदा दुःखदाः॥४॥

कृमिरोगे पथ्यम्।

कृमिमान् संत्यजेन्मिष्टं पिष्टं शाकं पयो गुडम्॥ अव्यायामंमृदुञ्चाम्लं माषं मांसद्रवं दधि॥५॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
कृमिलक्षणं संपूर्णम्।

** अर्थ-**भोजनके ऊपर भोजन करनेसे, मीठा खट्टा मट्टी, दही, दूध, उर्द, मांस इनसेकफकी कृमि पैदा होतीहै सन्ताप, घाव, सूजन, शागके खानेसे, सहत, मद्य इनसे रुधिरकीकृमि पैदा होतीहै और भी प्रकारसे कृमी मनुष्यके पेटमें दुःखकी देनेवाली होती है॥४॥कृमि रोगवाला मीठा, पीसा अन्न, शाक, दही, दूध, गुड, दंडकसरतका न करना, माटीखाना,खट्टीवस्तु, उर्द, मांस, पतलीवस्तु, इनको त्यागदे॥५॥

इतिहंसराजार्थबोधिनी टीकामें कृमिरोगलक्षणसमाप्त हुआ।

पाण्डुरोगनिदानम्।

दोषाः संकुपितास्त्रयोपि दधते पाण्डुं शरीरे रुजं नृणां तीक्ष्णतमंद्रवञ्च लवणं रूक्षामिषं सेविनाम्॥ मृत्पूगीफलभोजिनां हिसततं रात्रौ दिवाशायिनां स्त्रीष्वत्यंतविलासिनां प्रतिदिनंशाकाम्लसंभक्षिणाम्॥१॥

वातके पीलियाके लक्षण।

पाण्डुर्वातसमुद्भवो नयनयो रूक्षं त्वचः स्फोटनं तोदानाह-कृमीन करोति कृशतां गुह्यस्थले शोफताम्॥ हृत्कंप श्वसनंतनौ मलिनतां पीतद्रुतिं क्षीणतां मन्दाग्निं बलवीर्यकान्तिहरणं छर्दि तृषां दारुणाम्॥२॥

पित्तके पीलियाके लक्षण।

अक्ष्णोर्मूत्रपुरीषयोस्त्वचि नखेष्वन्तेषु पीतप्रभां श्वासं कासस-मन्वितं कृशतनुं मूर्छामती-सारकम्॥ हृल्लासं हृदि संभ्रमं विकलतां दाहं तृषासंयुतं पाण्डुः पित्तसमुद्भवः प्रकुरुते शोषं मुखेशोफताम्॥३॥

** अर्थ—**जो मनुष्य तीखी पतली ज्यादा नोन रूखामांस मट्टी सुपारी इनको खावे तथारातदिन सोवै बहुत मैथुनके करनेसे नित्य शाग और खड्ढाखानेसे तीनों दोष कुपितहो पीलियाकेरोगको पैदा करते हैं॥१॥ बातसे पैदाहुये पीलियाके ये लक्षणहें नेत्रों में रूखापन, त्वचाकाफटना, सुईकी तरह चुभनेका दर्द, आनाह, तथा शरीर कृश भ्रम, गुह्य इन्द्रीपर सूजन, हृदय मेंकंप, श्वास, शरीरमलिन, तथा शरीर पीला, मन्दाग्नि, बलवीर्य कांतिका नाश, वमन, प्यास,मुखका सूखना॥२॥ नेत्र, पेसाब, दस्त, शरीरकी त्वचा, नख, इनका पीला होना श्वास,खांसी, शरीर कृश, मूर्च्छा, दस्तोंका होना, सूखी उलटी, हृदय में भ्रम, बेकली, दाह, प्यास,मुखका सूखना तथा सूजन ये पित्तसे पैदाहुये पांडुरोगके लक्षण हैं॥३॥

कफके पीलियाका लक्षण।

शुक्लाननं शुक्लपुरीषमूत्रं तंद्रालसं स्त्रीष्वरुचि कृशत्वम्॥ लालावमित्वं वयथुं गुरुत्वं पांडव-वामयश्श्लेष्मभवः करोति॥४॥

सन्निपातके पाण्डुरोगका लक्षण।

त्रिदोषोद्भवे पाण्डुरोगे कृशत्वं भवेच्छ्वासकासं तृषा वेपथुत्वम्॥शिरोर्तिः प्रसेकोऽरुचिः संभ्रमत्वं वलौजोविनाशः कमो छर्दिशूलम्॥५॥ त्रिदोषान्वितःपाण्डुरोगी भिषग्भिरसाध्यो निरुक्तो हृताक्षो विचेष्टः॥ ज्वरःश्वासहृल्लासकासातिसारस्तृपासंभ्रमोंगेषु कंपः प्रलापी॥६॥

** अर्थ-** सपेदमुख, सपेद पेसाब, और मल, तन्द्रा, आलकस, स्त्रीसंगकी इच्छाका नाशकृशता लारका पडना, वमन, शरीरका भारीहोना, ये लक्षण कफसे पैदा हुआ पांडुरोग करताहै॥४॥ सन्निपातसे उत्पन्न हुआ पांडुरोग उसमें ये लक्षण होते हैं शरीर कृश, श्वास खांसी,प्यास, कंप, मथवाय, पसीनेका आना, अरुचि, भ्रम, बल, कांतिका नाश, ग्लानि, वमन,शूल॥५॥ त्रिदोष, युक्त पांडुरोगी ऐसा बैद्योंने असाध्य कहा है नेत्रसे रहित, चेष्ठाकरकेहीन, ज्वर, श्वास, सूखी उलटी खांसी, अतीसार, प्यास, भौर, अंगोंमें कंप, वाहियात बकना॥

यः स्रोतांसि रुणद्धि सो मुनिवरैस्त्याज्यो भृशं दूरतस्तेजो\\वीर्यबलौजसां प्रतिदिनं हानि करोति ध्रुवम्॥ पाण्डुत्वं त्वचिनेत्रयोः कररुहे ह्यंत्रेषु विण्मूत्रयोर्धत्ते वह्निविनाशकोऽतिबल-वान्पाण्डुर्मनुष्यादनः॥७॥

पाण्डुरोगे पथ्यम्।

पाण्डुरोगीत्यज्येदम्लं दिवास्वापञ्च मैथुनम्॥ शाकं मांसाशनंरूक्षं मृद्भक्षमतितीक्ष्णकम्॥८॥ ॥ इति श्रीभिषकचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे पाण्डुरोगलक्षणम्।

** अर्थ—**ऐसा पांडुरोगी वैद्यों करके त्याज्य है जो कानोंसे बहरा करदे, तेज वीर्यबल कांतिइनकी प्रतिदिन हानिकरे, त्वचा नेत्र नख आंत मलमूत्र ये पीलेहों, जठराग्भिसे रहित ऐसापांडुरोग बली मनुष्यका मारनेवाला जानना॥७॥ पीलिया रोगवाला मनुष्य खटाईका खाना,दिनमें सोना, तथा स्त्रीसंग करना शाक, मांस, रूखी वस्तु, मट्टी खाना, अतितीखी मिरचआदि वस्तुका खाना त्यागकरे॥८॥

इति हंसराजार्थबोधिनी टीकामें पांडुरोगका निदान समाप्त हुआ।
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हलीमक कामला कुंभकामला पार्नकीरोग निदान।हृत्पद्मे मलमूत्रयोर्नयनयोर्धत्तेतिपीतद्युतिं दौर्बल्यं बलवीर्ययोरनुदिनं नाशंभ्रमं कामलाम्॥ अस्थिस्फोटवती करोति विकल मांसाशनाद्रक्तपा संतापं करयोर्मुखे वृषणयोःशोफंच पादद्वयोः॥१॥

हलीमकरोगनिदानम्।

करोति कुम्भकामला नखेषु नेत्रयोर्मुखे पुरीषमूत्रयोर्भृशं सकृ-ष्णतां तृषार्तिकृत्॥ बलाग्नि-वीर्यतेजसां विनाशिनी प्रकंपिनीज्वरांगदाहवर्द्धिनी विमोहशूलदायिनी॥२॥ षट्चकेषु नखेषु-मूत्रयुगुले विण्मूत्रयोर्नीलतां संधत्ते च हलीमकं कृशतनुःस्त्रीषु महर्षक्षयम्॥ संतापं कुरुते रुजं वितनुते पित्तानिलोत्थं गदंतन्द्रामंगविमर्दनं शिथिलतां श्वासं भ्रमं वेपथुम्॥३॥ नखेष्वंग-देशेषुमूत्रे पुरीषे द्वयोनेंत्रयोः पाण्डुता तृप्रसेकः ॥ बहिः शीतताभ्यन्तरेत्यंतदाहो वदेत्पानकीं लक्षणैर्लक्षणज्ञः॥४॥

इति श्रीभिषकचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
कामलाकुम्भकामलाहलीमकपानकीलक्षणम्।

** अर्थ—**जो मनुष्य मांस खावै तथा रुधिर पीयाकर उसके कामलारोग प्रगट होय और येलक्षणको करै है, छाती मल मूत्र नेत्र ये पीलेहों, दुर्बलता, बलवीर्यका नाश, भ्रम, हडफूटन,बेकली, संताप, हाथ मुख अंडकोश इनमें सूजन, तथा पैरोंमें सूजनहो॥१॥ कुम्भकामलादेहमें ये लक्षण करे हैं; नख, नेत्र, मुख पीला तथा दस्त पेसाब काला, प्यास, पीडा और बलअग्नि वीर्य तेज नाशकरै, कम्प, ज्वर, देहमें दाह, मोह, शूल करे है॥२॥ छःचक्रोंमें नखों मेंनेत्रोंमें मलमूत्र में जो नीलापना करदे और शरीर पतला स्त्रीसंगकी इच्छाको दूर करदे, बैकली,तंद्रा, अंगोंका टूटना, शिथिलता, श्वास, भ्रम, पीडा इन लक्षणोंको वातपित्तसे पैदा हुआहलीमक रोध करता है॥३॥ नखोंमें शरीरमें मल मूत्रमें नेत्रों में पीलाई हो प्यास, पसीना,बाहरीजाडा, भीतरी दाह, इन लक्षणोंसे लक्षणका जाननेवाला पानकी रोग जाने॥४॥इतिहंसराजार्थबोधिन्यां कामलाकुम्भकामलाहलीमकपानकीरोगनिदानम्।

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अथ रक्तपित्तनिदानम्।

रक्तपित्तकी उत्पत्तिलक्षण।

व्यायामैरविवह्नितापसहनैस्तीक्ष्णोष्णकट्वामिषैरत्यंतं सुरतेदिवातिशयनैः स्निग्धान्नसंभोजनैः॥ एतैःसंकुपितं तु पित्तमधिकं निर्गत्यबाह्यांतराच्छार्दलोहितिमां च नेत्रयुगुले रक्तेतनौ मण्डलम्॥१॥ निःश्वासे लोहगंधिः प्रभवति शिरसोरक्तधारा च कोष्णा सन्तापः कोष्ठपीडा नयन-विकलताऽरोचकः ष्ठीवनत्वम्॥ तृष्णा मूर्च्छाप्रसेको मनसि शिथिलतासंभ्रमो देहदाहः कासः वासोल्पचेष्टा कृशतरहुतभुक् रक्तपित्तस्य कोपात्॥२॥ अधोर्ध्वं भवेद्रक्तपित्तप्रवृत्तिः श्रुतिप्राण-वक्राक्षिभिश्चोर्ध्वदेशे॥ गुदायोनिमेरधो याति रक्तं सम-स्तैश्च रोमैः शरीरस्य बाह्ये ॥३॥

** अर्थ—**दंड कसरतके करनेसे, घाममें डोलनेसे, अनिके तापनेसे, तीखी गरमी कडुई मांसइनके खानेसे, अति स्त्रीसंगसे, दिनमें सोनेसे, स्निग्ध अन्नके भोजनसे, कुपित हुआ जो पित्तसो रुधिरको बिगाडकर रुधिरकी उलटी करावे तथा नेत्रोंसे रुधिर गिरै और शरीरमें खूनबिगडनेसे चकत्ता होजाय॥१॥ रक्त पित्तके कोपसे ये लक्षण हों श्वास लेनेमें लोहकीसीगंधिहो, शिरसे रुधिरकी गरमधारा पडै, प्यास व्याकुलताहो उदरमें पीडा नेत्रोंमें बेकली,अरुचि, रुधिरका थूकना, मूर्च्छा, तथा पसीनेका आना, मनमें शिथिलता, भ्रम, देहमें दाह,खांसी, श्वास, हीनचेष्टा, अभिमंद॥२॥ रक्त पित्तकी प्रवृत्ति ऊपर तथा नीचेके रास्तासेनिकसै सो लिखते हैं, जो कानोंसे नाकसे मुखसे नेत्रसे रुधिर गिरै उसे ऊर्ध्वप्रवृत्ति जाने औरगुदाके द्वारा तथा योनिद्वारा लिंगसे रुधिर गिरै उसे अधःप्रवृत्ति जाने और सब रोमोंसेशरीरके बाहर निकसता है॥३॥

वात पित्त कफ और सन्निपातजन्यरक्तपित्तक लक्षण।रूक्षारुणं श्यामतरं च रक्तं वातात्मकं तं प्रवदन्ति वैद्याः॥पित्तोत्थितं रक्ततमं कषायं स्निग्धञ्च सांद्रङ्गफजं सफेनम्॥४॥ऊर्ध्वगं कफजं रक्तमधोगं मारुतोद्भवम्॥ रोमकूपैर्बहिर्यातं तंविद्यात् पित्तसंभवम्॥५॥ अधोर्ध्वगंवातकफप्रकोपात्द्विदोषजं तं जपदानसाध्यम्॥अधोर्ध्वरोमैर्जनितं त्रिदोष-कोपादसाध्यं मुनिभिः प्रदिष्टम्॥६॥

**अर्थ—**रूखा लाल काला जो रुधिर निकलै उसे वातका रक्तपित्त वैद्य कहते हैं और लालकसेला पित्तका तथा चिकना, गाढा, झागयुक्त, कफका कहते हैं॥४॥ जो ऊपरी मार्गसेरुधिर गिरै उसे कफका जानो, और नीचे मार्गों से गिरे उसे वातका जानो और जो रोमोंसेगिरै उसे पित्तका जानो॥५॥ वातकफके कोपसे ऊपर तथा नीचे मार्गों से रुधिर गिरता है,उसे द्विदोषका जानो, वह जप दानके करनेसे अच्छा हो और नीचे तथा ऊपरका तथारोममार्गोंसे जो रुधिर गिरे उसे सन्निपातका जाने वह मुनियोंने असाध्य कहाहै॥६॥

साध्यरक्तपित्त।

रक्तपित्तं सुखं साध्यं निरुपद्रवमेव तत्॥ सोपद्रवं तु दुःसाध्यंजपहोमौपधादिभिः॥७॥ उद्गारे लोहितं यस्य क्षुते निष्ठीवने तथा॥ भवेन्मूत्रे पुरीषे वा रक्तपित्ती म्रियेन्नरः॥८॥

रक्तपित्तरोगे पथ्यम्।

व्यायाम घर्मसंतापं तीक्ष्णोष्णकटुकानि च॥ दिवास्वापमतिस्निग्धं रक्तपित्ती नरस्त्यजेत्॥९॥

इति श्रीभिपक्रचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे
रक्तपित्तलक्षणम्।

अर्थ- जो उपद्रवरहित रक्तपित्तहो वह सुखसाध्य है और जो उपद्रवके साथ हो वह असाध्यहै सो जपके करानेसे होम और औषधि करनेसे भी नहीं अच्छा हो॥७॥ जिस मनुष्यके डकारलेनेमें लोहेकी बास मारे तथा छीकनेमें थूकनेमें मूत्रमें मलमें रुधिर गिरे, वो रक्तपित्ती मनुष्यमरे॥८॥ दंड कसरत करना, धूपमें डोलना, खेद, तीखी गरम कटु वस्तुका भोजन, दिनमेंसोना, अत्यंत चिकनी वस्तु रक्तपित्तवाला त्याग करदेवे॥९॥इति हंसराजार्थबोधिनी टीकामें रक्तपित्तरोगनिदान समाप्त हुआ।

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यक्ष्मण उत्पत्तिः।

यो भारं वहते नरो गुरुतरं संपीड्यते यक्ष्मणा शस्त्रास्त्रैः परिघातितो दृढधनुः प्राकर्षतः पीडितः॥ उच्चैर्वापतितो महाश्मतरुभिः संदीपितो मार्दतो दंडैर्मुष्टिकशादिभिः परिहतः संघर्पितः शापितः॥१॥

अथ निदानम्।

देहस्थो राजयक्ष्मा हृदि कफनिचयं वर्द्धते शोषतेंगे नाडीमार्गरुणद्धि ज्वरयति मनुजं क्षीयते धातुसंघान्॥ वीयजःकांतितेजोऽनलबलपिशितं हंति पांडुं विधत्ते ऊर्ध्वं श्वासं तनोति प्रसरति हृदये क्षीणशब्द करोति॥२॥ यक्ष्मा रुक् कुरुते ऽरुचि कृश-तनुं सूक्ष्मं ज्वरं गौरवं देहं जर्ज्जरितं क्षतं च गलके कासाधिक शोषणम्॥ संतापं हृदि वेपथुं सरुधिरं निष्ठीवनं पूयभंमोहं छर्घरतिभ्रमं शिथिलतां शूल क्वचिद्दारुणम्॥३॥

** अर्थ—**जो मनुष्य भारी बोझको उठावे, तथा शस्त्र अस्त्र से घायल हो, दृढधनुषके खींचनेंसे,कोई कारण कर पीडित होनेसे, उच्चपर्वत वा वृक्षके गिरनेसे, जलनेसे, और पीडनेसे तथा दंडकोरडा घूंसे आदिके पिटनेसे डरपनेसे महात्माओंके शापसे क्षयरोग पैदा होता है॥१॥ देहमेंक्षयीरोग स्थित ये लक्षणोंको करे है हृदय में कफको बढावै, शरीरको सुखादेवै, नाडीके मागौंकोरोकदे ज्वरवान् करदे, धातुके समूहको सुखायदे, वीर्य बल तेज ताकत कांति जठराग्निके बलकोतथा मांसको क्षीणकरदे, पीलियाको करे, उर्ध्व श्वासको करे, तथा क्षीण शब्दको करे है॥२॥ अरुचि तथा कृशंदेह, मंदज्वर, शरीर भारी, जर्जर शरीर, गलेमें घात्र, खांसी, शोष,खेद, हृदयमें कंप, रुधिर राघमिलाय थूकना, बेहोशी, रद्दकरना, मनका डामाडोल होना, भ्रम,शिथिलता, कभी महाशूल होजाय अथवा शूल जोरसे चलना ये लक्षण क्षयरोग करे है॥३॥

विवर्णं शरीरंशकृद्रक्तमूत्रं करोत्यंगपीडां महाराजयक्ष्मा॥ तनौशून्यतां बुद्धिनाशं प्रलापं गले घर्घरत्वं युवत्या प्रहर्षम्॥४॥

वातकी क्षईका लक्षण।

मन्दाग्निर्बलवीययोरनुदिनं हानिः कृशत्वं वपुः कासः शुष्कतरोरुतं कृशतरं श्वासोऽरुचिः शोषता॥रूक्षी मंदतमो ज्वरः कुमक्षुता निष्ठीवनं पूयनं छर्दिर्वा यदि वेपथुर्भवति तत् वातक्षयेलक्षणम्॥५॥

पित्तकी क्षयीके लक्षण।

पीडाकुक्षिशिरोगलेषु हृदये रक्तं च निष्ठीवनं शीतेम्लेऽधिकतारुचिर्ज्वलनता कंठे विगन्धिर्मुखे॥ कासश्वाससमन्विताः कृशतनुर्भिन्नस्वरोल्पज्वरस्तत्पित्तक्षय-लक्षणं निगदितं वैद्यैः सुषेणादिभिः॥६॥

** अर्थ—**शरीरका वर्ण औरही प्रकारका होजाय, बारबार लाल पेशाब उतरे, शरीरमें पीडाहो, सुन्न शरीर पडजाय, तथा बुद्धिका नाश, बर्राना गलेमें घरघर शब्दहो स्त्रीके साथ रमणकी इच्छाहो, ये लक्षण महाराजयक्ष्मा करता है॥४॥ वातकी क्षयीके ये लक्षण हैं, मंदाझि,बल वीर्य्यकी हानि, शरीर कृश, श्वास, मंदशब्द और खांसी, अरुचि, शोष, शरीर रूखामंदज्वर, ग्लानि, राधका थूकना तथा उलटी करना, हृदयमें कंप॥५॥ कांख मस्तक गलाहृदय इनमें दर्दहो, रुधिर मिला थूकना, शीतकी तथा खटाईकी इच्छाहो अरुचि तथा कंठमेंजलन मुखमें बास आवे, खांसी श्वासहो, कृशदेहहो, बुरी आवाज हो मंदज्वर, ये लक्षण सुषेणादि वैद्यने पित्तकी क्षयीके कहे हैं॥६॥

कफको क्षयीके लक्षण।

शोफः कासरुजाग्निमंदजड़ता श्वासोऽरुचिर्वेपथुः शैथिल्यंस्वरभंगतांगकृशता वक्र-विगन्धान्वितम्॥ तंद्रा कुक्षिरुजःकफं बहुतरं निष्ठीवनं पूयनं स्याच्छ्रेष्मक्षयलक्षणं च हृदयेकंठं दृढं श्लेष्मणः॥७॥

असाध्यक्षयीके लक्षण।

सहस्रदिनपर्यंतं न जीवेदिति मानवः॥ ग्रहेण यक्ष्मणाग्रस्तोऽसाध्येनातिबलीयसा॥८॥

इति श्रीभिपक्चक्रचित्तोत्सवे वैद्यशास्त्रे हंसराजकृते
यक्ष्मणो लक्षणं समाप्तम्।

** अर्थ—**सूजन, खांसी, अग्निमंद, जडता, श्वास, अरुचि, कंप, शिथिलता, गलेका बैठजाना,शरीर पतला, मुखमें बासका आना तंद्रा, कांखमें दर्द, कफका तथा पीबका थूकना, कंठकाकफसे रुकना, ये कफकी क्षयीके लक्षण हैं॥७॥ जिस मनुष्यको क्षयीरूप बलवान असा व्यग्रहने प्रसलिया हो वह मनुष्य हजार दिनतक बडी कठिनता से जीसके॥८॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां राजयक्ष्मरोगनिदानं समाप्तम्।
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अथ कासरोगलक्षणम्।

वक्राक्षिनासासुरजोभिपाताडूमोपरुाद्धद्गुगुरुभारवाहात्॥रूक्षादनाद्दंडकशादिघातात्कासोतिघोषादुपजायते वै॥१॥

खांसीके लक्षण।

प्राणः कंठगतोत्युदानपवनो हृत्स्थोतिपीडाकरः शब्दः कांस्यविभिन्नघोषसदृशो निष्ठीवनं पूयभम्॥ कंठे घुघुरशब्दता कृशतनुस्त्वकपीतवर्णारुचिर्विद्वद्भिः परिकीर्तितं हि सकलं कासस्यचिह्नं महत्॥२॥

वातकी खांसीके लक्षण।

उरसि शिरसि कुक्षौ वेदना कंठदेशे भवति बलविनाशः ष्ठीवनंतुच्छतुच्छम्॥ गलमुखपरिशोषः शुष्ककासोंगमर्दः क्षवथुररतिरुग्रा वातकासस्य चिह्नम्॥

** अर्थ**-मुखमें नेत्रमें नाकमें धूलिके पडनेसे, तथा धुआंके जानेसे, भारी बोझके उठानेसे,रूखा खानेसे, दंडकोरडा आदिके पिटनेसे, अत्यन्त पुकारनेसे, खांसी पैदा होती है॥१॥हृदयकी रहनेवाली जो प्राणवायु सो कंठमें प्राप्तहो और कण्ठकी रहनेवाली जो उदानवायु सोहृदयमें आती है तब इस रोगीको बहुत दुःख देती है और इस मनुष्यका शब्द जैसा कांसेकाफूटा बरतन बोलता है इस तरहकी आवाज हो, और कफंमिला थूके, कंठमें घरघर शब्दहो,शरीर लटजावे त्वचा पीली होजाय, अरुचि, ये लक्षण पंडितोंने खांसीके कहे हैं॥२॥ हृदय मेंमस्तकमें कांखमें कंठमें दर्द हो, बलका नाश, थोडा थोडा थूकना, गलेका तथा मुखका सूखना,सूखीखांसीका उठना, शरीरका टूटना, छींकका आना, मनका न लगना, ये बादीकी खांसोकेलक्षण हैं॥३॥

पित्तकी खांसीके लक्षण।

भवेद्वीर्यहानिर्ज्वरो वक्त्रशोषः सरक्तं च निष्ठीवनं शूलमुत्रम्॥तृषासंभ्रमस्तिक्तमास्यं विदाहो निरुक्तं परैः पित्तकासस्य चिह्नम्॥

कफकी खांसीके लक्षण।

निष्ठीवनं सांद्रकफेन युक्तं क्रासेन छर्दिर्बलवीर्यनाशः॥ शीष्णिप्रपीडा जडतांगगौरवं प्रोक्तं भिषग्भिः कफकासचिह्नम्॥५॥

त्रिदोषकी खांसीके लक्षण।

भवेद्यस्य निष्ठीवनं पूयवर्णं मुखान्नासिकाया विगंधिर्विवर्णम्॥महाश्वासवाहोंगतेजोल्पवीर्यः स कासी न जीवेत्कदाचि-सुधाभिः॥६॥

** अर्थ—**वीर्य्यका नाश, ज्वर, मुखका सूखना, रुधिरमिला थूकना, उग्रशूल, प्यास, भौर,कडुवा, मुख, दाह, ये लक्षण पित्तकी खांसीके पूर्वाचायोंने कहे हैं॥४॥ गाढा कफकाथूकन, रद्दहो, बल वीर्य्यका नाश, शिरमें दर्द, जडता, देहका भारी होना, ये लक्षण वैद्योंनेकफकी खांसीके कहे हैं॥५॥ राधके वर्णके समान थूकना, मुख नाकमें बासआवै, तथा विवर्ण,महाश्वासका चलना, देह, तेज वीर्य्य इनका घटना, ऐसा खांसीवाला अमृतसेभी नहीं जीधै॥६॥

असाध्यखांसीके लक्षण।

मुखे यस्य शोथोरुचिर्वेपथुत्वं सरक्तं च निष्ठीवनं फेनिलं वा॥तृषा शूलमुग्रं भवेदुष्टगंधिः सकासी न जीवेत्सहस्रैभिपग्भिःवृद्धक्षीणतमः कासी साध्यो दानजपादिभिः॥ तरुणो बलवा-न्साध्यः पथ्यैरौषधिभिर्बुधैः॥८॥

इति श्रीभिषकचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृतेवैद्यशास्त्रे कासलक्षणम्।

** अर्थ-** मुखपर जिसके सूजनहो, अरुचि, कंप, रुधिर मिला तथा झाग मिला थूकना, शूलदुर्गंधिका मुखमें आना, ऐसे लक्षणवाला रोगी हजार वैद्योंसेभी नहीं जीवै॥७॥ बूढा तथाजो क्षीण पडगयाहो, वह रोगी दान जपादिकोंसे साध्यहै और जो रोगी तरुणहो तथा बल-चान्हो वो पथ्य और औषधियोंसे पंडितोंने खांसीवाला साध्य कहा है॥८॥

इतिहंसराजार्थबोधिन्यां कासरोगलक्षणं समाप्तम्। शुभम्।
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अथ हिक्कालक्षणम्।
हिक्कारोगकी उत्पत्ति।

रजोधूम्रपातान्मुखे नासिकायां गरिष्ठान्नपानाजलस्यावगाहात्॥ श्रमादध्ववेगात्तृषार्तेररुच्या भवेयुर्नृणां पंचधा रौद्रहिक्काः॥१॥ प्राणोदानसमानकोपजनिता हिक्कांत्रवृद्धिप्रदाकष्टं हंति करोति जन्मसमये बालस्य वृद्धिं सुखम्॥ तेजौजो-बलवीर्यवृद्धिमधिकां हर्षं रुचि वर्द्धयेद्रक्तास्यं तनुकंपनं नयनयोर्विस्फारमार्द्रं गलम्॥२॥ तारुण्ये वयसि स्थिते कफमरुजाता न हिक्का हिता वैरस्यं वदने गले सरसतां कुक्षौप्रपीडारुजम्॥ आटोपं हृदये रुणद्धि पवने मर्माणि संतोदतेछर्दि सा कुरुते रतिं वितनुतेहृल्लासमु-ल्लासते॥३॥

** अर्थ—**धूलि धुआं इनका मुख और नाकमें जानेसे, गरिष्ठ अन्नके भोजनसे, जलमें बहुतदेरके रहनेसे, श्रमसे, रस्तेके चलनेसे, चौदह वेगोंके रोकनेसे, प्याससे, अरुचिसे, मनुष्योंकेपांच प्रकार का घोर हिचकीका रोग पैदा होता हे॥१॥ प्राण उदान समान पवनोंके कोपकरनेसे हिचकी आंतोंको बढावे, कष्ट करे, तथा रोगीको मारती है और बालक के जन्मसमयबालकको बढावे तथा सुखदे, और तेज बलवीर्य्यकी बढवारको करे तथा हर्ष रुचिको बढावैमुखको लाल करदे शरीरको कँपावै नेत्रोंको फटेसे करदे कंठको गीलाकरदे॥२॥ तरुणअवस्थामें जो बातकफसे पैदा हुई हिचकी सो अहित मुखको विरस करदे गलेमें सरसताकरदे, कांखमें पीडाकरे, छातीको घेरले श्वासको रोकदे मर्ममममें पीड़ाकरै वमन तथा मनका नलगना, खांसी, सूखी रद्द, ये लक्षण करै॥३॥

वार्द्धक्ये वयसि स्थिते सति महाहिक्का यदा जायते पित्तश्लेष्ममरुद्भवा प्रकुरुते पीडां गले मस्तके॥ शूलाध्मानतृपारुचिं वितनुते हल्लासहृत्पीडनं पंचत्वं वितनोति रोगमखिलं प्राणान्निहंति द्रुतम्॥४॥ उदानवायुकोपेन पंचहिक्का भवंन्ति ताः॥ कुर्वन्ति विविधान् रोगान् तासां नामानि सब्रुवे॥५॥गम्भीरा महती तथा च यमला क्षुद्रानजा पंचधा गम्भीरोदरगर्जनी ज्वरकरी मर्माणि संतोदते॥ सर्वोपद्रवकारिणीबलहरी नाभेः प्रवृत्ता हि सा अन्या या महती करोति च तनौकपं शिरःपीडनम्॥६॥

** अर्थ—**वृद्ध अवस्थामें जो हिचकी हो वो बात पित्त कफ नीनों दोषोंसे पैदा होतीहै वो घोरहिचकी कंठमें तथा शिरमें दर्दको करै है, शूल, अफरा, प्यास, अरुचि, खाली रद्द, हृदयमेंदर्द, और सबरोग ये लक्षण हों तो मनुष्य जल्दी मरजावे॥४॥ उदान पवनके कोपसे पांचतरहकी हिचकी पैदा होतीहै और अनेक तरहके रोगोंको पैदा करती है उन पांचोंके नामकहते हैं॥५॥ १ गंभीरा, २ महर्ता, ३ यमला, ४ क्षुद्रा, ५ अन्नजा; प्रथम गंभीराकेलक्षण कहते हैं गंभीरा पेटमें गुडगुडाहट करे, ज्वरको करै, मर्ममर्ममें पीडाकरे और सब उप-द्रवोंको करे, बलका नाशकरै, यह हिचकी नाभिसे उठती है. अब दूसरी महतीका लक्षणकहतेहैं शरीर कांपै, शिरमें दर्दहो॥६॥

वातश्लेष्मभवाकरोति यमला हिक्कांत्रपीडारुजौ ग्रीवातालुविभेदिनी बलहरी ग्रीवाशिरः-कंपनम्॥ क्षुद्रानाभितलोद्भवारसचयंचोर्ध्वं नयेत्कष्टदा वैरस्यं वदनेन्नजा वितनुते गात्रे गुरुत्वं तथा॥७॥

इति भिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
हिक्कालक्षणं समाप्तम्।

** अर्थ—**तीसरी बात कफसे पैदाहुई जो यमला नाम हिचकी सो आंतोंको पीडा दे, कंठतालुमेंदर्दकरे, बलका नाशकरे, नाडीशिर इनको कँपाधे, चौथी जो क्षुदानामकर प्रसिद्ध हिचकी हैसो नाभीके नीचे उठती है, वो रसको ऊपर लेजातीहै अर्थात् उलटी कराधे और कष्टकोपैदाकरे, मुखको बिरस करती है, पांचवीं जो अन्नसे पैदा हुई हिचकी सो शरीरको भारी करती है॥७॥

इति हंसराजबोधिनीमें हिक्कालक्षणसमाप्त हुआ।
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श्वासरोगनिदानम्।

प्राणोदानसमानकोपजनितः श्वासो रुपावर्द्धते क्रुद्धोर्ध्वं बजतेमुहुर्मुहुरथो दोधूयमानं नरम्॥ निद्रां हंति महातृषां वितनुते शीतज्वरं कंपनं प्रस्वेदं कुरुते तनौ विकलतां दाहं भ्रमं बिभ्रते॥१॥शुश्कास्यं कुरुते रुणद्धि परतः स्रोतांसि रक्ताननं हृत्कंठोष्ठमुखेषु शोषमरतिं श्वासोऽरुचिं नाशते॥ आध्मानं तनुते शिरांविधमते नॄणां तनुं कंपते शूलं वेदनया युतं विकलतां शब्दंपरं रुंधते॥२॥ श्वासः स्वाभाविको मंदो ह्यतिश्वासोरुजाकरः॥ मृतिप्रदो महाश्वासस्त्रिविधं श्वास-लक्षणम्॥३॥

** अर्थ—**प्राण, उदान, समान इन तीनों पवनोंके कोप करनेसे क्रोधकर बढती और ऊपर-नीचे बिचरती है कभी ऊपर चढे कभी नीचे उतरे नींदका नाश, तथा घोर व्यासको पैदाकरे, शीतज्वर, कफ, पसीना, इनको पैदाकर शरीरमें बेकली, दाह, भौर, ये लक्षण श्वासरोगकरता है॥१॥ श्वास मुखको सुखावै, नाडियोंके मार्गको, रोकदे, चेहरेको लाल करताहै,हृदय, कंठ, ओठ, मुख इनमें शोषहो, मनका न लगना, अरुचि, अफरा, नाडीनको धमावै,शरीर कँपावै, वेदनायुक्त शूल, तथा बेकली और आवाजको निहायत कम करती है॥२॥श्वास जो है सो स्वभाव सेही मंदहोताहै परंतु अतिश्वास रोग करता है और महाश्वास मौतकादेनेवाला है ये तीनप्रकारके लक्षण हैं ॥३॥

स्वाभाविकश्वासके लक्षण।

श्वासः संकुरुते बलं मृदुतनुं स्वाभाविकः सौख्यदो धैर्यं शौर्य्यमदोत्सवं सुभगतां शक्ति पवित्रं नरम्॥ ऊर्ध्वाधोगतिरुत्तमा पवनयोर्दुर्गंधिनिर्णाशकः सौगंधिं सुकुमारतां वितनुतेहर्ष परं वर्द्धते॥४॥

अतिश्वासके लक्षण।

अतिश्वासः कासं वितरति भृशं शूलमरतिं बल वीर्यं तेजोहरति कुरुते छर्दिमरुचिम्॥ मुख घ्राणं कण्ठं तुदति वहतेश्लेष्ममधिकं तृषाध्मानं हिक्कां तनुषु गुरुतां स्वेदमधिकम्॥५॥

महाश्वासके लक्षण।

संज्ञां नाशयते रुणद्धि सतत त्रातांसि विष्टम्भनं वाग्बंधं कुरुतेगलेकफचयं मर्माणि संतोदते॥ औद्धत्यं नयनं तृषां च हृदयेदाहं मुखे शोषणं नाडीस्त्रोटयते भ्रमं वितनुते श्वासो महान् प्राणहा॥६॥

इति श्रीभिषकचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
श्वासलक्षणं समाप्तम्।

** अर्थ—**स्वाभाविक श्वास बलको करें तथा देहको कोमल रक्खे, सुखको दे, धैर्य तथापराक्रम, मद, मंगल, सुंदरता, शक्ति पवित्रताको दे और पवनका ऊपर नीचेका आना जानाश्रेष्ठहै और दुर्गन्धको नाश करती है, और सुगंधको दे, तथा सुकुमारपना और हर्ष इनकोबढावै॥४॥ अतिश्वाससे खांसी, शूल, मनका, न लगना हो, बलवीर्य तेजको घटावै,वमन, अरुचि मुख नाक कंठमें पीडाहो, कफ अधिक गिरे, प्यास अफरा, हिचकी, शरीर-भारी, पसीना इनको अधिक करे॥५॥ प्राणोंकी नाशक, महाश्वास ये लक्षण करती हैसंज्ञाका नाश, और नसोंके मार्गको रोकदे मलका न उतरना, जबानका बन्दहोना, कंठमेंकफका जोर, मर्ममर्ममें पीडा, फटे फटेसे नेत्र, प्यास, हृदयमें दाह हो, मुखका सूखना, नसोंकाटूटना, मौरका आना॥६॥

इति हंसराजबोधिन्यां श्वासलक्षणं समाप्तम्।
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स्वरभेदलक्षणम्।

अत्युच्चभाषाध्ययनाभिघातैस्तैलादिभक्षैरतिदुष्टपानैः॥ संकोपिताः पित्तकफानिलास्ते कुर्वन्ति भिन्नस्वरमेव नृणाम्॥१॥संभिन्नकांस्यस्वरतुल्यशब्दाः केचित्तथा गर्दभतुल्यघोषाः॥अजाविछुच्छंदरिकाकशब्दं मुखे नेत्रयोः श्यामता मूत्रवर्चाः॥२॥ क्वचिद्दीर्घशब्दं खरोष्ट्राश्वतुल्यं वचः प्रस्खलं वातलंकंठपीडाम्॥३॥

** अर्थ—**उच्चस्वरके पढनेसे, चोटके लगनेसे, तेल खटाई आदिके खानेसे, दुष्ट जलके पीनेसे,कोपको प्राप्तभये जो वात पित्त कफ सो मनुष्योंके स्वरभंग रोग पैदा करते हैं॥१॥ जैसे फूटेहुये कांसेकौसी आवाजहो, तथा गवेकीसी आवाजहो, अथवा बकरीके शब्दकीसी आवाजहो,छछूंदरकीसी आवाजहो, तथा कौवेकीसी आवाजहो, मुख नेत्र कालेहों, पेशाब ज्यादा उतरे॥२॥कभी बडा शब्द करे, गधेकी ऊंटकी, घोडेकी, आवाजके समान कंठमें दर्द ये वातके स्वरभं-गरोग के लक्षण हैं॥३॥

पित्तके स्वरभंगलक्षण।

स्वरः पित्तभिद्भिन्नकांस्यप्रघोषः करोत्यंगदाहं मुखेत्यंतशोषम्॥ तनौ नेत्रयोः पीततां मूत्र-कृच्छ्रन्तृषां कंठपीडां रुजंक्षीणगात्रम्॥४॥

कफके स्वरभंग लक्षण।

प्रभिन्नः स्वरः श्लेष्मणा क्षीणघोषो गलं श्लेष्मरुद्धं गुरुत्वंशरीरे॥ गलेघर्घरत्वं रुतं शुभ्रनेत्रं मुहुः ष्ठीवनं कासमुग्रं करोति॥५॥

असाध्यस्वरभंगका लक्षण।

अंतर्गतः स्वरो यस्य बहिर्नायाति कर्हिचित्॥ वातपित्तकफैभिन्नः स रोगी नैव जीवति॥६॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
स्वरभेदलक्षणम्।

** अर्थ—**पित्तका स्वरभंग फूटे कांसेकीसी आवाज करे, देहमें दाह, मुखका सूखना शरीरतथा नेत्र पीले, मूत्रकृच्छू, प्यास, कंठमें दर्द, शरीरका लटना, ये लक्षण करता है॥४॥ कफकाखरभंग आवाजको मंद करै, कंठको कफसे रोकदे, शरीर भारी, गलेमें घरघर शब्दहो,पीडाहो, सफेद नेत्र हों, बार बार थूकना, घोरखांसीको करे॥५॥ जिस स्वरभंगवाले,रोगीका स्वर भीतरही रहे और बाहर न निकले और त्रिदोषसे हुआ हो वह रोगी नहीं जीवै॥६॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां स्वरभेदलक्षणं संपूर्णम्।
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अरोचकरोगकी उत्पत्तिलक्षण।

अरोचकः पित्तमरुत्कफैर्भवेद्भयेन शोकेन रुषांगपीडया।रुजातिबीभत्सविलोकनेन वा अद्य-दुष्टाशनपानपूर्तिभिः॥१॥

वातअरोचकरोगका लक्षण।

अरोचके वातसमुद्भवे हिते भवंति चिह्नानि मुखे कपायता॥वपुस्तु रूक्षं कृशतांगगौरव ज्वरोम्लताशूलमथांगपीडनम्॥२॥

पित्तके अरोचकका लक्षण।

अरोचकः पित्तभवः करोति दाहं प्रसेकं कटुकत्वमास्ये॥शरीरबाह्यांतरयोश्च शोथं पानेषु भक्ष्येष्वरुचि कृशत्वम्॥३॥

कफके अरुचिरोगका लक्षण।

अरोचकः श्लेष्मभवो विधत्ते गुरुत्वमंगेषु जडत्वमार्तिम्॥क्षारत्वमास्ये रुचिमोहशैत्यं गले कफं पांडुरुजं शरीरे॥४॥

वातकी अरुचिमें पथ्य।

अरोचकी मरुद्भवस्त्यजेत् प्रवातसेवनम्॥ श्रमंजलावगाहनंकषायमम्लमामिषम्॥५॥

पित्तकी अरुचिमें पथ्य।

पित्तात्मके त्यजेत्तीक्ष्णं विदाहि लवणाधिकम्॥ व्यायामं वह्निसंतापं विरसं कटुकं रसम्॥६॥

** अर्थ—**मयसे, शोकसे, क्रोधसे, शरीरकी पीडासे बुरीवस्तु के देखनेसे मनको बुरालगे ऐसेभोजनसे तथा दुष्टवस्तुके पीनेसे अरोचक रोग वात, पित्त, कफके कोपसे पैदा होता है॥१॥वादीसे पैदा हुआ अरोचक रोग उसके ये लक्षण हैं, मुख कडुवा, शरीर रूखा, तथा कृश,तथा भारी, और ज्वर, तथा खट्टा मुख, शूल, शरीरमें पीडा॥२॥ पित्तसे पैदा हुआ अरुचिरोग उसके ये लक्षण हैं, दाह हो, लारका बहना, कडुवा मुख, शरीरका बाहर भीतरसेसूजना, खानेमें तथा पीनेमें अरुचि, शरीर कृश॥३॥ कफसे पैदा हुये अरुचि रोगके येलक्षण हैं, शरीर भारी, तथा जड और दुःखहो, मुख खाराहो, तथा श्वास अरुचि, बेहोसी,शीतका लगना, कंठमें कफ तथा शरीरमें पीलिया॥४॥ वादीकी अरुचिवाला हवाका खाना,श्रमका करना, जलसे स्नान आदि और कसेली तथा खट्टी वस्तु और मांसका खाना त्यागदे॥५॥पित्तकी अरुचिवाला मनुष्य चरपरी, दाहकरनेवाली, ज्यादा नोनका खाना, दंडकसरतकाकरना, अझिका तापना, विरस, तथा कडुई वस्तुका खांना त्यागदे॥६॥

कफकी अरुचिमें पथ्य।

त्यजेदरोचकी पिष्टं तैल्यं शैत्यंकफात्मकः॥ गुरुत्वं दधिमिष्टान्नंवृन्ताकं स्निग्धभोजनम्॥७॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे-
ऽरोचकलक्षणं सम्पूर्णम्

** अर्थ—**कफकी अरुचिवाला पिसा अन्न, तेलका पदार्थ, तथा शीतल वस्तु, कफके करनेवाली वस्तु, भारीवस्तु, दही, मीठाअन्न, बैंगन, चिकनाभोजन, ये त्यागदे॥७॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यामरोचकरोगलक्षणं समाप्तम्।
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छर्दिरोगलक्षणम्।

दोषेर्व्यस्तैः समस्तैर्वा वातपित्तकफात्मकैः॥ भवंति छर्दयःपंचबीभत्सानां विलोकनात्॥१॥ स्निग्धैरहद्यैर्लवणैरतिद्रवैलतादिभक्ष्यैः अतिभोजने रुषा॥ अत्यबुपानैर्भयनिंद्यदर्शनेश्छर्दिर्भवेदध्वपरिश्रमैः परैः॥२॥

वातकी छर्दिके लक्षण।

छर्दिर्वातभवा करोति विविधान् रोगानलं भोजनी कृष्णाभाहरितारुचिः शिथिलतां हृत्पार्श्वपीडां भ्रमम्॥ उद्गारं स्वरभेदनं च महतीं जृम्भां गले पीडनं शूलं रूक्षवपुस्तृषां चशमनं वह्नेस्तनौ शोषणम्॥३॥

** अर्थ—**वात, पित्त, कफसे तथा सन्निपातसे तथा, बुरीवस्तुके देखनेसे छार्द उलटीका रोगपांच प्रकारका होता है॥१॥ चिकनी सूगली नोनकी पतली तथा लता आदिके खानेसे,॥बहुत भोजनसे, क्रोधसे, बहुत जलके पीनेसे, डरके लगनेसे, सूगली वस्तुके देखनेसे, बहुतरास्ताके चलनेसे, अपर कहिये कृमिके पडनेसे, स्त्रीके गर्भ रहनेसे, छर्दिनाम रद्दका रोग पैदाहोता है॥२॥ जो मनुष्य बहुत भोजन करे उसके वातकी छर्दी अनेक प्रकारके रोग उत्पन्नकरती है, तथा काले रंगकी तथा हरे रंगकी हो, और शिथिलताको करे, हृदयमें पसवाडों मेंपीडा करे, भ्रमको करे, डकार बुरीके आना, स्वरभंग, घोर जंभाई, कंठमें पीडा, शूल, शरीरमेंरूखापन, प्यासका अवरोध, शरीरमें आगसी जलै, और शोषको करे॥३॥

पित्तकी छर्दिके लक्षण।

छर्दिः पित्तसमुद्भवारुणनिभा पीतप्रभा सा क्वचित् कोष्णादाहयुतांगपीडनपरा तृशूलमूर्च्छान्विता॥ हृत्कंठोष्ठमुखेषुतालुरसनाशीर्षेषु पीडाप्रदा संतापभ्रमकारिणी रुचिहरीश्लेष्मांशका सा भवेत् ॥४

कफकी छर्दिके लक्षण।

छर्दिः श्लेष्मसमुद्भवा शितनिभा फेनान्विता मेदुरा क्षारास्यंकुरुते रुचिं वितनुते तंद्रां प्रसेकं वमिम्॥ आलस्यं जडतांवपुर्गुरुतरं लालां च निष्ठीवनं रोमांचं हृदि वेपथुं मुखमलंकासं तनौ शीतताम्॥५॥

सन्निपातकी छर्दिके लक्षण।

छर्दिः पित्तमरुत्कफैः प्रजनिता नानानिभा कष्टदा श्वासं कास-तं तनोति कृशतां दाहं तृषाकंपनम्॥ हल्लासं तमकं वपुविकलता मूर्च्छामतीसारकं शूलं मूत्रविरोधनं ज्वरतमं हिक्कांविवर्ण वमिम्॥६॥

**अर्थ—**पित्तकी छर्दिरोगके ये लक्षण हैं, लालरंग तथा पीले रंगकी तथा गरमहो, दाहयुत,शरीरमें पीडा, प्यास, शूल, मूर्च्छा, हृदय, कंठ, ओठ, मुखतालू, जबान, शिर इनमें पीडाहो, खेद,भ्रम, रुचिको नाशकरै कफको नाशक हो॥४॥पित्तकी छर्दिरोगके ये लक्षण हैं, सपेदरंगहो, झागसेआच्छादितहो, चिकनी, खारामुख, अरुचि, तन्द्रा पसीनेका आना, रद्द, सुस्ती, जडपना, देहभारी, लारका गिरना, बारबार थूकना, रोमांच, हृदयमें कंप, मुखमलीन, खांसी, शरीरकोशीतलगें॥५॥त्रिदोषसे पैदा हुई जो छर्दि उसका चित्र विचित्र रंगहो, कष्टको पैदाकरे, श्वास,खांसी, तथा शरीरमें कृशता, दाह, प्यास, कंप, खाली उलटी, तमक, देहमें बेकली, मूर्च्छा, अतीसार,शूट, सूत्रका रुकना, ज्वर, अंधेरेका आना, हिचकी, वर्ण औरही तरहका और वमन ये लक्षण हों॥६॥

छर्दिरोगके उपद्रव।

कासो हिक्कातृपाश्वासोहद्रोगस्तमकोज्वरः॥ मूर्च्छावैचित्त्यमित्येतेज्ञेयाश्छद्रुपद्रवाः॥७॥

छर्दिरोगका साध्यासाध्यलक्षण।

**छर्दिः सोपद्रवाऽसाध्या रक्तपूयवहा तथा॥ नोपद्रवाभवेत्सा-ध्या ज्ञात्वा भैषज्यमाचरेत्॥८॥ **

इति श्रीभिपक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे छर्दिलक्षणं संपूर्णम्।

**अर्थ—**खांसी, हिचकी, प्यास, श्वास, हृदयमें पीडा, तमक, ज्वर, मूर्च्छा, बेहोसी ये छर्दिरोगके उपद्रव हैं॥७॥ उपद्रव सहित छर्दिरोग असाध्य है और जिसमें रुधिर और रांधगिरती हो वोभी असाध्यहै, और जिसमें उपद्रव न हो वो साध्य हैं ऐसे साध्य असाध्य परीक्षाकर पीछे दवा दे॥८॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां छर्दिरोगनिदानं समाप्तम्।
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अथ तृष्णालक्षण।

कफोद्भवा पित्तभवा मरुद्भवा त्रिदोषजा भुक्तभवा क्षतोद्भवा॥भयश्रमाभ्यां जनिता क्षयोद्भवा भवंति तृष्णाष्टविधाश्चदुःसहाः॥१॥

तृष्णारोगकी उत्पत्ति।

वाताशनाध्वश्रमतापरक्तैः स्रोतस्त्वपांवाहिषु शुष्कनेषु॥ हृत्कंठतालूनि दहंति दोषास्तृषा तदा संजनिता नराणाम्॥२॥

वातकी तृष्णारोगका लक्षण।

तृष्णा वातसमुत्थिता च कुरुते स्रोतो निरोधं श्रमं शोषं शंख-शिरोगलेषु विरसं वक्र निरुत्साहसम्॥संकोचं परितस्तनौप्रलपनं चित्तभ्रमं रूक्षतां शीतोदैः परिवर्द्धिता वितनुते हिक्कामजीर्णज्वरम्॥३॥
**अर्थ—**तृष्णा अर्थात् प्यासका रोग आठतरहका है, ऐसे वैद्य कहते हैं १ कफसे, २ पित्तसे,३ बादीसे, ४ सन्निपातसे, ५ भोजनके करनेसे, ६ घाबसे, ७ भय और श्रमसे, ८ क्षईरोगकेहोनेसे॥१॥ वातसे, भोजनके करनेसे, मार्गके चलनेसे, श्रमके करनेसे, गरमीसे, रुधिरकेबिगडनेसे, कुपितहुए जो वात, पित्त, कफ सो जलके बहनेवाली नाडीको सुखाकर हृदय,कंठ, तालूमें दाहको पैदाकरै, तब मनुष्योंके तृषारोग पैदा होता है॥२॥ बातकी तृषा येलक्षण पैदा करती है, बहिरापना, परिश्रम, कनपटी, मस्तक, गला इनमें शोष, मुखमें बिरसता,तथा साहसहीन, देहमें संकोच, बकना, चित्तमें भ्रम, तथा देह रूखा शीतलजलके पीनेसे जोतृषा पैदाहो वो हिचकी और अजीर्णज्वरको बढावे॥३॥

पित्तकी तृषारोगका लक्षण।

आधिव्याधिसमन्विता भयकरी पित्तात्मिका शोषणी तृष्णादाहविवर्धिनी सुखहरी कार्यस्य विध्वंसनी॥ उष्णत्वे विदधाति दोषमखिलं शीते सुखं बिभ्रते रक्तास्यं कुरुते मुखे विरसतां मूर्च्छा प्रलापं भ्रमम्॥४॥

कफकी तृष्णाके लक्षण।

मूत्रावरोधं जठराग्निनाशं निद्रां विधत्ते गुरुतां शरीरे॥ हृत्कंठपीडां वितनोति कासं श्लेष्मात्मिका छर्दिकरी च तृष्णा॥५॥

त्रिदोषजनिततृषाके लक्षण।

त्रिदोषजनिता तृष्णा तेजोवीर्यबलौजसाम्॥ नाशिनी रुक्करीघोरा मनोक्षप्राणहारिणी॥६॥

** अर्थ—**आधि कहिये मानसिकरोग, व्याधि कहिये ज्वरादिरोग तथा भय पैदा करे, शोषदाहको बढावै, सुखको दूरकरे, देहको विध्वंस करे, गरमीसे सकल रोगपैदाकरे, और शरदीकेहोनेसे सुख मालूमहो, लाल और रसरहित मुखहो, मूर्च्छा, प्रलाप, भ्रम ये लक्षण पित्तकीतृष्णाके हैं॥४॥ मूत्रका रुकना तथा मंदाग्नि, नींदका आना, शरीर भारी, हृदयमें, कंठमें पीडा,खांसी, रद्द, ये लक्षण कफकी प्यास रोगके हैं॥५॥ सन्निपातकी तृषा तेज वीर्य बल ताकतका नाश करनेवाली है घोर रोग पैदाकरे मन और इंद्रियोंकी हरनेवाली है॥६॥

तृष्णारोगमें साध्यासाध्यविचार।

अल्पदोषकरी तृष्णा श्रमघाताध्वभोजनैः॥ जाता शीतोदपानेन नाशमेति गरीयसी॥७॥

अथ तृष्णारोगे पथ्यम्।

गुर्व्वन्नभोजनं स्निग्धं तीक्ष्णोष्णं लवणामिषम्॥ व्यायामंसूर्यसंतापं तृष्णावान् परितस्त्यजेत्॥८॥

इति श्रीभिपञ्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे
तृष्णालक्षणम्।

** अर्थ—**जो श्रमसे चोटसे रास्ताके चलनेसे भोजनसे तृषा अर्थात् प्यासलगे वो साध्यहै, औरजो ठंढेपानीके पीनेसे प्यासलगै, सो प्राणकी नाश करनेवाली जाननी चाहिये॥७॥ भारीअन्नका भोजन, चिकनी वस्तु, तीखी, गरम, नोनकी, मांस, दंड कसरतका करना, सूर्य्यकातेज, ये तृषारोगवाला त्यागदे॥८॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां तृष्णारोगनिदानं सम्पूर्णम्।
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मृच्छरोगकी उत्पत्ति।

क्षीणस्य गतसत्त्वस्य विरुद्धाहारसेविनः॥ धाविनः सक्षतस्यापि बीभत्सस्य विलोकिनः॥१॥ तस्य नाडीषु सर्वासुदोषाः सर्वे प्रकोपिताः॥ रुपा विशंति कुवंति मूच्छ वैचित्त्यकारिणीम्॥२॥ वातपित्तकफैर्मद्यैः शोणितेन विषेण च।मूर्च्छा भवति सा कुर्यान्नरं काष्ठमिवानिशम्॥३॥

** अर्थ—**जो मनुष्य क्षीणहो, ताकतरहितहो, विरुद्ध आहारका खानेवालाहो, दौडनेवालाहो, और जिसके शरीरमें धावहो, घिनायदी वस्तुदेखीहो॥१॥ ऐसे पुरुषके कोपको प्राप्तहुयेजो तीनों दोष सो सर्व नाडियोंमें कुपितहो धसकर बेहोसी करनेवाला मूर्च्छारोग पैदा करतेहैं॥२॥ सो मूर्च्छारोग वात, पित्त, कफ और सन्निपातसे और मद्यके पीनेसे रुधिरसे, विषभक्षणकरनेसे सात प्रकारका होताहै, वो मूर्च्छा मनुष्यको काष्ठकी तरह पृथ्वीपर गेर देती है॥३॥

वातकी मूर्च्छाका लक्षण।

दृष्ट्वाकाशं श्यामनीलावभासं पश्चादुर्व्यां वातजामेति मूर्च्छाम्॥यो मर्त्यस्तं पीडयंतीति रोगा जृम्भाकंपश्वासतृष्णाप्रसेकाः॥४॥

पित्तकी मूर्च्छाका लक्षण।

पीतारुणं नभः पश्यंस्तमः पश्यंस्ततः परम्॥ नरो यः पततेभूम्यां तां मूर्छा पित्तजां वदेत्॥५॥ जंतौ प्रबुद्धे तमसिप्रनष्टे मूर्च्छा तु पित्तप्रभवा करोति॥ प्रस्वेदतृष्णापरिवेपथुत्वंदाहं च तापं मुखशोषमार्तिम्॥६॥

** अर्थ—**जो मनुष्य आकाशको काला नीला देखे, फिर धरतीमें गिरपडे और जिसको जॅभाई,कंप, प्यास, पसीनेहों, उसको वातकी मूर्च्छा कहते हैं॥४॥ प्रथम पीला, लाल आकाशकोदेखे, फिर अंधकार मालूमहो और तिस पीछे धरतीमें गिर पडे उसको पित्तकी मूर्च्छा कहतेहैं॥५॥ और जब मनुष्यको होस होजाय आंखोंके आगेसे अंधकार हट जावे, तब पसीना आवे,प्यास लगे, कंपहो, दाहहो, ज्वरहो, मुख शोषहो, पीडाहो, उस मूर्च्छाको पित्तकी कहते हैं॥६॥

कफकी मूर्च्छाका लक्षण।

शुभ्रं नभो नरः पश्यन्मूर्छयोव्यां पतेद्यथा॥ निश्चेष्टो दंडवन्नूनंतां विद्याच्च कफात्मिकाम्॥७॥ प्रबुद्धे मनुजे कुर्यान्मूर्च्छा निद्रांकफात्मिका॥ शैथिल्यं गौरवं तंद्रां हृल्लासं कासतृड्ज्वरम्॥८॥

सन्निपातकी मूर्च्छाके लक्षण।

त्रिदोषजनिता मूर्छा सर्वरोगवहा नरम्॥ पातयत्याशु मोहाब्धौ विना बीभत्सदर्शनम्॥९॥

** अर्थ—**जो मनुष्य आकाशको धौला देखे फिर गिरपडै चेष्टारहित लकडीकीसीतरहउस मूर्च्छाको कफकी कहते हैं॥७॥ जब मनुष्य सावधान होजाय तब नींद आवे, तथाशिथिलता होय, देह भारीहो, तंद्राहो, सूखी रद्द आवे, खांसीहो, तथा प्यासहो, ये कफकीमूर्च्छाके लक्षणहैं॥८॥ त्रिदोष अर्थात् संनिपातसे पैदा हुई मूर्च्छा सर्वरोग प्रकट करे, औरमनुष्यको मोहरूपी समुद्रमें गेरदेवे, बिना सूगली वस्तुके देखे जो पैदाहो उसको सन्निपातकीमूर्च्छा कहते हैं॥९॥

रुधिरकी मूर्च्छाका लक्षण।

घ्राणेन रक्तस्य च दर्शनेन मूर्च्छति ये स्त्रीजनभीरुबालाः॥बुद्धेषु चिह्नानि भवंति तेषां मोहोंगकंपोतिभयं जडत्वम्॥१०॥

मद्यकी मूर्च्छाका लक्षण।

मद्येन मूर्च्छा जडतां करोति नेत्रेरुणत्वं शिथिलं शरीरम्॥हर्ष प्रलापं परिबुद्धिनाशं निद्रां वमित्वं भ्रमतां प्रसेकम्॥११॥

विषकी मूर्च्छाका लक्षण।

नासाकर्णमुखेषु शोषमधिकं मूर्च्छा विषात्संभवा दाहं तीव्रतरं दधाति हृदये कंठेतिपीडारतिः॥ दृष्टिं नाशयते करोतिविकलं देहस्य विक्षेपणं तेजोवीर्यबलौज़सां प्रतिपलं विध्वंसिनी शोषणी॥१२॥

** अर्थ—**नाकसे रुधिरके गिरनेसे स्त्रीजन तथा डरपोक तथा बालक ये देखकर मूर्च्छाकोप्राप्त होते हैं; होस होनेपर ये लक्षण होते हैं, मोह, शरीरका कांपना, डरका लगना, तथाजडत्व॥१०॥ बहुत व दुष्टमद्यके पीनेसे जो मूर्च्छा हुई उसके ये लक्षण हैं जडत्व, औरनेत्र लाल, शरीर शिथिल, हर्ष, बकना, बुद्धिका नाश, निद्रा, वमन, भ्रम, मुखसे लारका गिरनाये॥११॥ विषके खानेसे व सूंघनेसे जो मूर्च्छा हो उसके ये लक्षण हैं नाक, कान, मुख इनकासूखना, तीत्रदाह, हृदय में, कंठमें दर्द, मनका न लगना, नेत्रोंसे कम देखना, बेकली, देहकापटकना, तेज, वीर्य, बल ताकत इनका नित्य घटना और शोष हो॥१२॥

कुमके लक्षण।

व्यायामेन विना काये श्रमः स्याच्यासवर्जितः॥इंद्रियाणां हि वृत्तिन्नः कुमः सैवोच्यते बुधैः॥१३॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे
मूर्च्छालक्षणं समाप्तम्।

अर्थ-जिस मनुष्यके दंडकसरतके बिनाही श्वासरहित श्रम हो और इंद्रियोंका जो स्वभावतिसको पलटदे उसको पंडित कमरोग कहते हैं ॥१३॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां मूर्च्छारोगनिदानं संपूर्णम्।
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दाहरोगनिदानम्।

देहे शोणितमुच्छ्रितं प्रकुरुते दाहं महादारुणं ह्यंगं यं व्रजते तमेव दहते बाह्यो त्वचं चांतरैः॥ मांसं शोणितनाडिकास्थिनिचयाञ्श्लेष्मं वसां मज्जिकां सर्वांगेषु गतं दहत्यवयवं सर्वंरुषाहर्निशम्॥१॥

धातुक्षीणदाहका लक्षण।

क्षीणे धातावुत्थितो घोरदाहो मूर्च्छा कुर्यान्मर्मघातं ज्वरा-र्तिम्॥ तृष्णां शोषं क्षीणशब्दं कृशत्वं वैद्यैरुक्तोऽसौ नरःकष्टसाध्यः॥२॥ मर्यादादधिकं रक्तं देहसन्धितमामयम्॥लोहगंधं दहत्यंग पित्तवातस्य भेषजम्॥३॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे
दाहलक्षणं संपूर्णम्।

** अर्थ—**जिस मनुष्यके देहमें रुधिर बढताहै, उसके महादाहका रोग पैदा करताहै, जिसअंगमें रुधिर प्राप्त हो उस अंगको दहन करे, और भीतर दाहके होनेसे बाहरकी त्वचामें दाह हो,और मांस रुधिर नाडी हड्डी इनके समूहको तथा कफ और वसाको मज्जाको दहन करे, सर्वांगमेंप्राप्तदाह सब अंगके अवयवोंको क्रोध करके निरंतर दहन करे॥१॥ जिस मनुष्यकी धातुक्षीण हो उसके घोर दाह रोग पैदा हो उसके ये लक्षण हैं, मूर्च्छा हो, मर्ममर्ममें पीडा हो, ज्वर हो,प्यास, शोष, मंदशब्द हो और कृशदेह हो, वो रोगी घैद्योंने कष्टसाध्य कहा है॥२॥ मर्य्यादासेअधिक रक्त देहमें बढताहै तब दाहरोग होताहै और जब रुधिर निकले तब लोहेकीसी बासआवे, सब देहमें दाह हो, उसमें वातपित्तकी दवाई करना चाहिये॥३॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां दाहरोगलक्षणं समाप्तम्।

मदात्ययरोगका लक्षण।

दोषा विषस्य ये सर्वे सुधायाश्चापि ये गुणाः॥ ते मद्ये परिति-ष्ठंति युक्त्यायुक्त्या पिबेन्नरः॥१॥ अयुक्त्या यो पिबेन्मद्यं तस्य रोगो भवेद्भृशम्॥ तस्माद्युक्त्या पिबेन्मद्यं सौख्यायामृतवन्मुहुः॥२॥

अयुक्तिमद्यपाने दूषणम्।

सूर्याग्नितप्तेन बुभुक्षितेन रोगान्वितेनापि पिपासितेन॥ श्रमान्वितेनाध्वपरिश्रमेण वेगावरोधेन भयान्वितेन॥३॥ क्षीणेन शोकाभिभयेन चैव कोपाभिभूतेन च निर्बलेन॥ अत्यम्लभक्ष्येण च सेवितं बहु करोति मद्यं विविधान् विकारान्॥४॥

** अर्थ—**विषके सर्व दोष और अमृतके सर्व गुण मद्यमें रहते हैं, युक्तिसे और अयुक्तिसे पीवेतो गुण और अवगुण करता है॥१॥ उसीको दिखाते हैं जो मनुष्य बेतरकीबसे दारू पीता है उसके बराबर रोग पैदा होता है इसीसे मद्यपान विधिपूर्वक करना चाहिये क्योंकिविधिपूर्वक पिया हुआ मद्य अमृतके गुणोंको करता है॥२॥ सूर्यके तेजमें घामसे, वा अग्निसेतपाहुआ भूखसे व्याकुल रोगी, प्यास, श्रमले थका, रास्तेके चलनेसे, चौदह बेगोंके रोकनेसे,व्याकुल भययुक्त॥३॥ क्षीण मनुष्य, शोकयुक्त, कोपयुक्त, निर्बलता, अत्यंत खटाई खाईहो,और बहुत मद्य पिया हो, ऐसे मनुष्योंके मद्य अनेक विकार करता है॥४॥

लजाबुद्धिविनाशनं विकलतां छर्दि गुरुत्वं तनौ पांडुत्वं कृशतांमुखे विरसतां निद्रां विमूर्च्छा तृषाम्॥ हृल्लासं तमकं वमिं शिथि-लतां गुह्यप्रकाशं तमः कार्य्याकार्यविमूढतां प्रकुरुते मद्यञ्चदोपाकरम्॥५॥ मद्ये संत्यमृतोपमा गुणगणा युक्ताःप्रपीतेनिश क्षुद्बोधः स्मृतिपुष्टि-तुष्टिरुचयो नीरोगता कांतयः॥आनंदांकुरकोटयो मधुरता स्त्रीषु प्रहर्षोत्सवौ वीर्यौजोबल-धैर्यशौर्यमतयः सौजन्यसौख्यादयः॥६॥

** अर्थ—**लज्जा बुद्धिको दूर करता है, बेकली, रद्द, देह मारी, पीलिया, शरीर कृश, मुखमेंसवाद न हो निद्रा, मूर्च्छा, प्यास, सूखी उलटी, तमक, वमन, शिथिलता, छिपीबातकोकहना, अंधेरा आना कार्य अकार्यको न जानना, दोषोंकी खानि, ऐसा अयुक्तिसे पिया हुआमद्य करता है॥५॥ अथ मद्यपानगुण॥ युक्तिसे मद्यपान करना अमृतके समान गुण करताहै, क्षुधाको बढावै, स्मृति, पुष्टता, तुष्टता, रुचि, नीरोगता, कांति, आनंदके अनेक अंकुरपैदा करे, मधुरता, स्त्रियों में रुचि, उत्सव, वीर्य, ओज, बल, धीरता, शूरता, मति, सुजनतासुखादिकोंको पैदा करता है॥६॥

मद्येन बुद्धिः प्रथमेन मोदः स्त्रीषु प्रहर्षो बहुभोजनेच्छा॥ वादित्रगीतेषु रुचिः सुखच निद्रारतिः स्यान्मनसोत्सवश्च॥७॥मद्ये द्वितीये पुरुषः प्रमत्तः स्यान्नष्टबुद्धिर्विगतात्मचेष्टः॥ धूर्णाननो हर्षयुतोतिनिद्रो दुर्वाक्यशीलो बहुलीलया युक्॥८॥तृतीये मदे नष्टदृष्टिर्मनुष्यो वदेत्सर्वगुह्यानि गच्छेदगम्याम्॥गुरु नैव पश्येदभक्षेत्समंताद्विलज्जः स्वतंत्रो भवेद्भग्नशीलः॥९॥

** अर्थ—**प्रथम पियाहुआ मद्य बुद्धिको और मोदको बढावै, स्त्रीगमनमें रुचि पैदाकरे, बहुतभोजनकी इच्छा, बाजे और गीत सुननेमें इच्छा, सुखनींद, मनका एकाग्रलगाना, मनमें उत्साह,ये गुण करता है॥७॥ दूसरी दफे मद्य पियाहुआ आदमीको मस्त करदेता है, बुद्धि नष्ट करदेचेष्टारहित करदे तिरछी दृष्टि, हर्षयुक्त, अतिनिद्रा, खोटा बोले, अनेक लीला करे॥८॥ तीसरीदफे पिया मद्य मदसे नष्टदृष्टि करदे, और सब छिपीबात को कहै, और मा, बहिन, बेटी,गुरुकी स्त्रीसे भी खोटा काम करनेकी इच्छा हो, गुरुकोभी न देखे, अभक्ष्य भोजन करे, लज्जात्यागदे अपनी इच्छाका काम करे, मारधाड करे॥९॥

चतुर्थे मदे मृत्युतुल्यो मनुष्यो भवेज्ज्ञानहीनः स्वकार्ये विकार्ये।क्रियाचारशौचादिहीनो विमूढः परं स्वं न जानातिमत्तो विलजः॥१०॥

पित्तके मदात्ययके लक्षण।

पार्श्वशूलशिरःकंपश्वासहिक्काप्रजागरैः॥ मुखशोषेण पित्तस्यतमवेहि मदात्ययम्॥११॥

कफके मदात्ययके लक्षण।

तंद्राहृल्लासस्तैमित्यच्छर्घरोचकगौरवैः॥ शीतलांगस्य तं विद्यात्कफप्रायं मदात्ययम्॥१२॥

** अर्थ—चौथीबार पियाहुआ मद्य मुरदेके समान करदे, ज्ञानरहित करदे, अपने पराये कामकोन समझे, क्रिया आचार शौच इनकरके रहित करदे, मूढ करदे, अपना पराया न जाने, औरमस्त लज्जारहित होजावे॥१०॥ पसवाडोंमें शूल हो, शिरकांपे, श्वास हिचकी, जागना, मुखकाशोष ये पित्तके मदात्ययके लक्षण हैं॥११॥ तंद्रा, सूखी रद्द, गीलेकपडेसे पोंछासादेह, वमन, अरुचि देहभारी और शीतल अंग हो उसको कफके मदात्यय कहते हैं॥१२॥ **

**वातके मदात्ययके लक्षण। **

**अगमर्दतृषाशूलरूक्षगात्रविवर्णता॥ हिक्काभ्रमैश्च तं विद्याद्वातप्रायं मदात्ययम्॥१३॥ **

**त्रिदोषके मदात्ययका लक्षण। **

**सोपद्रवैः सर्वलिंगैस्त्रिदोषोत्थैर्मदात्ययः॥ त्रिदोषजनितो ज्ञेयः साध्योयं च भिषग्वरैः॥१४॥ चिह्नं च तत्परमदस्य वदंति वैद्याश्छिक्कातृपांगगुरुताबहुपर्वभेदः॥ विण्मूत्रशक्तिररुचिर्विरसास्यता च श्लेष्मा ज्वरस्तु कृशता रुजता कपाले॥१५॥ **

** अर्थ—अंगोंका टूटना, प्यास, शूल, रूखा शरीर, तथा विवर्णदेहका, हिचकी भ्रम, ये लक्षण वातके मदात्ययके हैं॥१३॥ जो उपद्रवके साथ हो और तीनों दोषोंका लक्षण मिलते हों उसको सन्निपातका मदात्यय जानना॥१४॥ औरभी सन्निपातमदात्ययके चिह्न कहते हैं जिसमें छींक, प्यास, शरीर भारी, संधिमें पीडा, विष्ठा, मूत्रका निकलजाना, अरुचि, मुखसे सवाद जातारहै, कफ और ज्वर तथा मस्तकमें पीडा हो॥१५॥ **

**मद्यपानोत्थअजीर्णके लक्षण। **

**अजीर्णं मद्यपानोत्थं कुर्याद्दाहमचेतसम्॥ तृष्णाध्मानमुद्गारं संधिभेदः शिरोरुजम्॥१६॥ **

**मद्यपानोत्थभ्रमके लक्षण। **

**भ्रमो मद्यपानोत्थितः कंठधूमं कर्फ दाहमुग्रं ज्वरं श्यामजिह्वम्॥ प्रशोषंपिपासांवमिंपार्श्वशूलं गरिष्ठोदरंनीलमोष्टं प्रकुर्य्यात्॥१७॥ **

**इति श्रीभिषकचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे
मदात्ययपरमदाहाजीर्णविभ्रमाणां लक्षणानि। **

** अर्थ—मद्यपीनेसे हुआ अजीर्ण वो ये लक्षण करताहै, होश न रहै ऐसा दाहको करे प्यास और पेटका फूलना, तथा डकारका आना, संधिसंधिमें पीडा, मस्तकमें दर्द॥१६॥ मद्यके पीनेसे हुआ जो भ्रम वो ये लक्षणको करे, कंठसे धुंयेंका निकलना, कफ निकलना, दाह हो, वर, जीभ काली पडजाय, मुखशोष, प्यास, वमन, पसवाडोंमें दर्द या शूल, उदरमें भारी- पना, ओठ नीले॥१७॥ **

॥इति हंसराजार्थबोधिन्यां मदात्ययरोगस्समाप्तः।

अथोन्मादलक्षणानि।

विक्षिप्ततामनोवृत्तिर्दोषैर्वातादिभिर्भवेत्॥ समस्तैर्वासमस्तै-र्वा सोन्मादः कथितो बुधैः॥१॥ वार्त्ताया विस्मृतिये॑न गानेगीतस्य विस्मृतिः ॥ शौचाशौचे न जानाति सोन्मादःकथितो बुधैः॥२॥

उन्मादरोगके लक्षण।

उन्मादहेतुद्विजदेवतानां संन्यासिनां साधुपतिव्रता नाम्॥आधर्षणं कुत्सितमंत्रसाधनं दुष्टाशुचीनामशनं च पानम्॥३॥

** अर्थ—**उसको पण्डितोंने उन्माद रोग कहाहै. जिसमें समस्त वा न्यून वातादि दोषों करकेमनकी वृत्तिमें विक्षिप्तता अर्थात् बावलापना पाया जाय॥१॥ बात करनेकी विस्मृति, औरगानेमें गीतकी विस्मृति जिस करकेहो और शौच भ्रष्टताको जो न जाने उसको पण्डितोंनेउन्मादरोग कहा है॥२॥ ये उन्मादरोग होनेके कारण हैं, ब्राह्मण, देवता, संन्यासी, साधु,पतिव्रतास्त्री इनको दुःख देनेसे और खोटे मंत्रके साधनसे, अपवित्र और दुष्ट पदार्थके भोजनसेवा पीनेसे॥३॥

वातोन्मादके लक्षण।

वातोन्मादगृहीतः क्वचिदपि हसते रोदति क्वापिकाले रूक्षांगःशून्यचित्तः परिवदति वचो निष्ठुरं ह्यर्थहीनम्॥ शीघ्रोत्साहंविधत्ते स्मितचलनयनो गीतनृत्यं करोति स्वांगानां क्षेपणं वाविकलकृशतनुः क्षीणधातुर्मनुष्यः॥४॥

पित्तउन्माद के लक्षण।

पित्तोन्मादनयुक्तः सततजलरुचिर्भोजने दत्तदृष्टीः रक्ताक्षःस्तब्धनेत्रो भ्रमविकलतनुः शुष्क-कंठौष्ठतालुः॥ शीतेच्छामर्मदाहः परिवदति वचो रौत्यमर्षं विधत्ते भक्ष्याभक्ष्यं परेषांपरिहरति हठाद्वाग्विवादं करोति॥५॥

कफउन्मादके लक्षण।

कफोन्मादे चिह्नं भवति कृशता छर्धरुचयः कफोद्रेकः कंठेमनसि जडतांगे विकलता॥ गतौजो मूकत्वं श्रुतिबधिरतादेहगुरुता वमिर्निद्रालालोरसि कृमिशतं वाकशिथिलता॥६॥

** अर्थ—**वात उन्मादयुक्त मनुष्यके ये लक्षण होते हैं, कभी हंसे, कभी रोषै, रूखा शरीर होजाय, शून्यचित्त, दुष्टवचन बोलै, व्यर्थ बोले, कभी उत्साहयुक्त हो, कभी स्मितयुक्त, चंचलनेत्र,कभी गीत गावे, कभी नाचनेलगे, कभी अंगोंको चलानेलगे, विकलहो, शरीर कृश, क्षीणधातु॥४॥ जलपीने और भोजनकी इच्छा हो, लाल तिरछे नेत्र हों, भ्रम और देहमें, बेकली हो,कंठ, तालु, ओठ इनका सूखना, शीतल वस्तुकी इच्छा, मर्ममर्ममें दाह, बुरा बोलै, रोषै, क्रोध-युक्त हो, पराया भोजन, मक्ष्य अभक्ष्यको हठसे लूटले, वाद करने लगे, ये लक्षण पित्तोन्मादयुक्तके हैं॥५॥ देह कृश, वमन, अरुचि, कफका बढना, कंठमें मनमें जडता, देह विकल,गति और ताकत इनका बंदहोना, गूंगापना, बहिरापना, देह भारी, रद्दहोना, निद्रा आवे औरलारका गिरना, पेटमें कृमि पडजायँ, वाणी शिथिल, ये कफके उन्मादके लक्षण हैं ॥६॥

सन्निपातके उन्मादके लक्षण।

उन्मादेन त्रिभिर्दोषैर्जातेन ग्रसितो नरः॥ सोपद्रवैरसाध्योयंकथितो भिषजांवरैः॥७॥

औरभी कारण लिखते हैं।

चौरैर्नृपेन्द्रैररिभिस्तथान्यैः संत्रासितः क्षीणधनोभिघाती॥शोकाभितप्तो मुनिभिः प्रशप्तः संजायते तस्य मनोविकारः॥८॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रेउन्मादलक्षणम्।

** अर्थ—**त्रिदोष उन्माद करके प्रसागया जो मनुष्य और उपद्रवयुक्त हो वो रोगी असाध्यहै, ऐसे श्रेष्ठ वैद्योंने कहा है॥७॥ चोरोंने राजाने वैरियोंने और किसीने इस मनुष्यको त्रासदिखाया हो, और जिसका धन नष्ट होगया हो, चोट लगी हो, शोकयुक्त हो, ऋषि मुनि करकेशाप दियागया हो, ऐसे मनुष्यके मनोविकार अर्थात् उन्माद रोग होता है॥८॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यामुन्मादरोगस्समाप्तिमगमत्।
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अथ भूतोन्मादलक्षणम्।

ब्रह्मण्यो गुरुदेवपूजनरतो दाता च शुद्धाक्षरःसंतुष्टो मितभुक् सुगन्धिवनिता-प्रीतिर्विनिद्रोऽनिशम्॥ तेजस्वी बलवान् शुचिर्नयपरोभिज्ञोतिहर्षान्वितो देवोन्मादयुतो नरः स भवति ब्रह्मात्मको ब्रह्मवित्॥१॥

दैत्य लगेहुये मनुष्यके लक्षण

दैत्य लगेहुये मनुष्यके लक्षण।देवब्राह्मणसाधुवैष्णवगवां स्त्रीणां च संन्यासिनां विद्वेषी भयदोऽतिनिष्ठुरवचास्तुष्टोन्नपानादिषु॥ दुष्टात्मा परमर्मभिद्गत-भयः क्रोधी च मानी नरः स्तब्धो गर्वसमन्वितो दंनुजयुक्क्रूरो सहिष्णुर्बली॥२॥

गंधर्व लगाहो उसके लक्षण।

संचारी विपिने नदीपुलिनयो रम्यस्थले पर्वते हृष्टात्मारुणकंजचारुनयनो वादित्रगीतप्रियः॥ तुष्टो नीतिपरायणोतिचतुरो वाग्ग्मी सुगंधान्वितो गंधर्वग्रहपीडितः सुवचनः स्वाचारभुमानवः॥३॥

** अर्थ—**जो ब्राह्मण गुरु देव इनका पूजन कराकरे, दाता हो, शुद्ध बोले, संतुष्ट हो, थोडाखानेवाला, सुगन्धि और स्त्रीमें प्रीति हो, रातदिन निद्रा न आषै, तेजस्वी हो, बलवान् हो,पवित्र रहै, नीतिके जाननेवालाहो, सर्व बातोंको जाने, हर्षयुक्तहो, ब्रह्मका जाननेवाला, ब्रह्मात्मकऐसा मनुष्य देवताका उन्मादवाला जानना॥१॥ जो मनुष्य देव ब्राह्मण साधु वैष्णव गौस्त्री संन्यासी इनसे वैर करे, इनको मय दे, तथा खोटा बोलै अन्नजलसे जो तुष्ट नहो, दुष्टहो,पराये मर्मका छेदनेवाला हो, निडर हो, क्रोधी हो, मानी हो, स्तब्ध हो, गर्वयुक्त हो, क्रूर हो, सहनशीलतथा बली हो, ऐसे मनुष्यको दैत्यकी बाधा जाने॥२॥ जो मनुष्य वन नदी पुलिन रमणीकस्थलपर्वत इनमें विचरनेवाला हो, प्रसन्नचित्त, लालकमलकेसे नेत्र हों, बाजा और गीत जिसकोप्यारा लगे, तुष्ट हो, नीतियुक्त हो, अतिचतुर हो, शुभ बोलनेवाला हो, सुगंधयुक्तदेह हो, वाग्मी,अपने वित्तमाफिक भोजन करे ऐसे मनुष्यको गंधर्वकी बाधा जाननी॥३॥

यक्षमस्तके लक्षण।

गंभीरोल्पवचोऽरुणाम्बरधरो धीरोतिशूरो महान् भो मर्त्याःप्रवदंतु मे झटिति किं दास्यामि कस्मै वरम्॥ यो यक्षग्रहपीडितो वदति ना नान्योरुणाक्षोनिशं तेजस्वी बलवान् वरोद्रुत-गतिर्वाग्ग्मी सहिष्णुर्भृशम्॥४॥

महासर्पआदियुक्तउन्मादके लक्षण।

क्रोधात्मा भुजगग्रहेण परितो ग्रस्तो हि यो मानवो रक्ताक्षोरुधिरप्रियोतिबलवान् प्रेप्सुः पयःपायसे॥ शौचाचारबहिर्मुखोविलिहितोऽसृक्सृकिणीजिह्वया शून्यागाररतः क्वचित्प्रसरतः सप्पैव हिंसाप्रियः॥५॥

पित्रीश्वरोंके दोषका लक्षण।

दध्योदने पायसशर्करासु मध्वाज्यमांसेषु च रक्तवस्त्रे।सुगंधपुष्पेष्वतिशीतलोदे पितृग्रहग्रस्त-नरोभिलाषी॥६॥

** अर्थ—**जो मनुष्य गंभीर और अल्पवाणीका बोलनेवाला हो लालकपडे पहिने, धीर, अतिशू-रहो और जो कहे कि हे मनुष्यो! मुझसे वर मांगो, क्यादूं, और लाल नेत्र हो, तेजस्वी हो,बलवान् हो, जल्दी चलनेवाला हो, श्रेष्ठ बोलनेवाला, सहनशील, ऐसा मनुष्य यक्षकी बाधायुक्तजानना॥४॥ क्रोधी हो और रुधिर प्यारा लगे, बली हो, दूध और खीरके भोजनकी इच्छा हो,शौच और आचाररहित हो, बिले सरीखा घर प्यारा लगे, लालनेत्र हों, जीभसे ओठोंके रुधिरलगेको चाटे, शून्यघरमें रहाकरै, कभी पसरजाय, सांपकीसी तरह हिंसा करना प्यारा लगे.ऐसे मनुष्यको भुजंग अर्थात् महासर्पकी बाधा समझनी चाहिये॥५॥ दही भात खीर बूराशहद घी मांस लालवस्त्र सुगंध पुष्प शीतलजल ये पदार्थ जिसको प्यारे हों उस मनुष्यकोपित्रीश्वरोंकी बाधा जाननी॥६॥

राक्षस लगेहुये मनुष्य के लक्षण।

सुरामांसरक्तेषु लिप्सुर्विलज्जो महाक्रोधयुक्तोतिशूरः सहिष्णुः॥बली निष्ठुरः क्रूरकर्मा विरूपो गृहीतोनिशाचारिभियों मनुष्यः॥७॥

प्रेतग्रस्तके लक्षण।

भ्रमति रुदिति नित्यं गह्वरारण्यसेवी विलपति किल मूर्च्छामेति कंपं विधत्ते॥ हसति लिखति भूमिं भक्ष्यपानैरतृप्तोवदति विकलवाणीं प्रेतग्रस्तो मनुष्यः॥८॥ बालभीरुस्त्रियादेहे प्रविशंति सुरादयः॥ शीतादयो यथा काये मन्यंते प्रतिबिबम्वत्॥९॥

** अर्थ—**मद्य मांस रुधिर इनकी इच्छा हो, लज्जारहित, महाक्रोधी, शूर, सहिष्णु, बली,निठुर, क्रूरकर्मका करनेवाला, विरूप, ऐसा मनुष्य राक्षसग्रस्त जानना॥७॥ डोलाकरे,नित्य रोयाकरे, पर्वत वनमें रहाकरे, विलापकरे, कभी मूर्च्छासे गिरपडे, काँपे, हँसे, धरतीकोलिखे, भोजन और पीनेसे तृप्त न हो, विकलवाणी बोले ऐसा मनुष्य प्रेतग्रस्त जानना॥८॥बालक डरपोक स्त्री इनके देहमें देवता आदि प्रवेश करते हैं जैसे शीत घाम देहमें लगे तिसीतरहप्रतिबिंब उनका मालूम होताहै॥९॥

विशंति देहे मनुजस्य सर्वतो ग्रहादयः कैरपि दृश्यते न ते॥कुर्वंति पीडां महतीं सुदुस्सहां गच्छति शांत्या बलिमंत्रकादिभिः॥१०॥विशंति नरदेहेषु पौर्णमास्यां सुरग्रहाः॥ संध्ययोर्दानवा दैत्या गंधर्वाश्चाष्टमीद्वयोः॥११॥पितरः कृष्णपक्षे च यक्षा ये प्रतिपत्तिथौ॥पंचम्यामुरगा रात्रौ गंधर्वा राक्षसादयः॥१२॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
भूतोन्मादलक्षणं संपूर्णम्।

** अर्थ—**ग्रहादि संपूर्ण मनुष्यके देहमें प्रवेशकरते किसीको नहीं दीखते और दुस्सह तथा भारी पीडाको करते हैं वे सर्व शांति और बलिदान तथा मंत्रजापसे शांत होते हैं॥१०॥ देवताग्रह मनुष्यके देहमें पौर्णमासीको प्रवेश करते हैं, और असुर दानव पौर्णमासी और अमावास्या इनकी संधिमें प्रवेश करते हैं और गंधर्व दोनों शुक्ल व कृष्ण पक्षकी अष्टमीमें प्रवेश करते हैं॥११॥ पितर कृष्ण पक्षमें और यक्ष पडवामें, सर्प्प पंचमीमें, रात्रिमें राक्षसादिक, चतुर्दशीमें पिशाच ये प्रवेश करते हैं॥१२॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां भूतोन्मादलक्षणं सम्पूर्णम्।
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वातअपस्माररोगके लक्षण।

मासे पक्षे दशाहे प्रकुपितमरुतां संभवो घोररूपो रोगोपस्मारसंज्ञःसपदि स कुरुते पातयित्वा नरांगम्॥ श्वासं कासं च मूर्च्छां करचरणशिरः क्षेपणं शून्यदेहं दोषोद्रेकं विसंज्ञां कफचयवमने स्वेदशोषांगपीडाः॥१॥

पित्तकी मृगीरोगके लक्षण।

पित्तापस्माररोगी पतति भुवि नभः पीतरक्तं च दृष्ट्वा फेनं पीतं कफस्य प्रवमति मुखतः पीतनेत्रास्यकायः॥ उत्तप्ताक्षो विसंज्ञः क्षिपति करपदः कंपते सप्रसेकः संरंभश्वासमूर्च्छोभ्रमति बहुतरं शुष्कहृत्कंठतालुः॥२॥

कफकी मृगीरोगके लक्षण।

श्लेष्मापस्माररोगी वितरति बहुशो हस्तपादप्रकंपं संरंभाद्दर्शयित्वा सपदि सितनभः पातयित्वा मनुष्यम्॥ शीतांगं शुक्लनेत्रं सितकफनिचयं वक्रदेशोद्गिरंतं रोमांचं श्वासशीतं जडतरत्दृदयं गौरवांगं स्फुरंतम्॥३॥

** अर्थ—**मासमें पक्षमें दशदिनमें कुपित हुआ जो वात सो अपस्मारनाम मृगीरोगको पैदाकरये लक्षणोंको करताहै मनुष्यको पृथ्वीपर गेरदेता है, और श्वास, खांसी, मूर्च्छा, तथा हाथ पैरोंको इधर उधर पटकना, तथा शिरको पटकना, शून्य देह, दोषोंको बढ़ावे, बेहोशी, कफकी उलटी करै, पसीने, शोष, अङ्गोंमें पीड़ा॥१॥ पित्तकी मृगीवाला रोगी धरतीमें गिरपडे और आकाशको लाल पीला देखै, और मुखसे पीले झाग कफको गेरे, पीलेनेत्र, पीलाही देह होजाय, नेत्र तप्त हो जायँ, बेहोशी हो, हाथ पैर पटके, कांपे, पसीनेहों, श्वासका बढना, मूर्च्छा, बहुत डोलै, तालू कण्ठ हृदय सूखें, ये पित्तकी मृगी रोगवाला करे॥२॥ कफकी मृगीरोगवाला मनुष्य ये लक्षणोंको करे, हाथ पैरको कँपावै, जल्दीसे श्वेत आकाशको देख पृथ्वीपर गिरपडे, देह शीतल होजावे, नेत्र सपेद, श्वेतकफको मुखसे गेरे, रोमांचहो, श्वासहो, शरदी लगे, हृदय जकड जावे, शरीरभारी, तथा देह फडके॥३॥

सन्निपातकी मृगीरोगके लक्षण।

वातपित्तकफैर्युक्तश्चिह्नैःसर्वैः समन्वितः॥ अपस्मारः प्रकुरुते पंचत्वं रोगिणोनिशम्॥४॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे
अपस्मारलक्षणम्।

** अर्थ**-बादी कफ पित्त तीनों दोषोंके चिह्नों करके युक्त जो मृगीरोगवाला सो मरजावे॥४॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यामपस्माररोगनिदानं समाप्तम्।
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वातव्याधिरोग लक्षण।

व्यायामेन क्षुधातृषातिकटुकक्षाराम्लरूक्षाशनैः शोकव्याधिविकर्षणातिगमनैरत्यम्बु-पानादिकैः॥ धातोः संक्षयघातपातवनितात्यंतप्रसंगादिभिर्वातः संकुपितः करोति विविधान् रोगान्महादारुणान्॥१॥ स्रोतांसि सर्वाणि शरीरजानि रिक्तानि धातुप्रवहाणि तानि॥ प्रपूरयित्वातिरुषा शरीरे मर्माणि संतोदति चंडवातः॥२॥ हृत्पार्श्वोदरबस्तिहस्तचरणग्रीवाशिरः कूजनं नासाकर्णमुखाक्षिदंतरसनागुल्मांत्रसंपीडनम्॥ कुब्जत्वं बधिरं कृशत्वमरतिं खांज्यं शिरःकंपनमर्द्धांगे जडतां करोति कुपितो वातो महादारुणः॥३॥

** अर्थ—**दण्ड कसरतके करनेसे, क्षुधा तृषाके रोकनेसे, अति कडुआ खारा खट्टा रूखा ऐसेपदार्थके खानेसे, शोचसे, देहमें रोगके होनेसे, बहुत चलनेसे, बहुत जल पीनेसे, धातुके क्षय होनेसे, घातसे, गिरपडनेसे, स्त्रीके बहुतसङ्ग करनेसे वात कुपित हो मनुष्योंको महादारुण अनेक वातके रोग पैदा करे॥१॥ जितनी शरीरमें धातुकी बहनेवाली नाडी तिनको वात शुष्क करदे और रोषको प्राप्त हुई जो वात सो सर्व नसोंमें प्रवेश कर प्रचण्ड वात मर्ममर्ममें पीडा करती है॥२॥ हृदय पसवाडा पेट बस्ती हाथ पैर नाड शिर इनका गूंजना, नाक कान मुख नेत्र दांत जीभ टकना आंत इनमें पीडा हो, कुबडा होजाय, बहिरा तथा लटजावे, मनका न लगना, खंजापना, शिरका हिलना, अर्द्धाङ्गवायु होजाय तथा बादीसे जकड जाय, ये लक्षण कुपितमहावात करती है॥३॥

सर्वांगेषु गतो मरुद्गुरुतरं शूलं करोति द्रुतं भेदं संधिषु कंपनं करपदामस्थ्नां च संस्फोटनम्॥ सर्वांगस्फुरणं विनिद्रमनिशं शोकं शरीरे भ्रममाध्मानं कटिपीडनं हृदिरुजं विण्मूत्रयोस्स्तंभनम्॥४॥ वातः कुर्यात्कोपितो दंतबंधं जिह्वास्तंभ कर्णयोर्गुंजशब्दम्॥ नाडीस्तब्धंरक्तवीर्यादिशोषमस्थिस्फोटं देहसंकोचवृद्धीः॥५॥ जृम्भोद्गारं च हिक्कां वितरति पवनः पीतवर्णं शरीरं हृल्लासं श्वासकासं मनसि विकलतां छर्द्यतीसारगुल्मम्॥ अंतर्दाहं विसंज्ञां कृशतनुमरतिं कामलां पांडुरोगमुद्वेगं संधिभेदं व्यथयति सततं सर्वकाये मनुष्यम्॥६॥

** अर्थ**—सर्व अंगोंमें प्राप्त हुई जो बात सो ये लक्षणोंको प्रगट करे प्रबल शूल, संधीनमें पीडा, हाथ पैरोंका कांपना, हड्डी हड्डीका फूटना, सब शरीरका फड़कना, नींदका न आना, सूजन तथा भ्रम, पेटका फूलना, कमरमें पीडा, हृदयमें दुःख, विष्ठा मूत्रका रुकजाना॥४॥ कुपित वात दन्तबन्ध जीभका स्तम्भन, कानोंमें गुञ्जारशब्द, नाडियोंका स्तम्भ, रुधिर और वीर्यका सूखना हड्डी हड्डीमें पीडा देहका घटना बढना ये सर्व लक्षण करती है॥५॥ जम्भाई, डकार, हिचकी, पीलिया, सूखी रद्द, श्वास, खांसी, मनमें बेकली, उलटी, अतीसार, गोला, भीतरी दाह, बेहोशी, शरीर कृश, मनका न लगना, कामला, शरीरका रंग पीला, उद्वेग सन्धिनमें पीडा, सब शरीरमें व्यथा, ये लक्षण सर्वांगकी पवन करती है॥६॥

करोति कुपितोनिलो हलीमकं च गृद्ध्रसीम्॥ विषूचिकां विलंबिकां प्रलापमंगपीडनम्॥७॥

त्वचामें प्राप्तवातका लक्षण।

त्वग्गतः पवनः कुर्याद्रूक्षत्वं त्वचि कृष्णताम्॥ कार्कश्यं शून्यतां कार्य्यं वैवर्ण्यं स्फुटितारुजम्॥८॥

रुधिरमें प्राप्तवातका लक्षण।

वातो रक्तगतः कुर्यात् कार्श्यं रुधिरशोषणम्॥तीव्रतापं व्रणं गुल्मं खर्ज्जूं दद्रूंविचर्चिकाम्॥९॥

** अर्थ—**कुपितहुई जो वात सो मनुष्यकी देहमें हलीमक, गृध्रसी, विषूचिका, विलंबिका, प्रलाप, अंगोंमें पीडा करतीहै॥७॥ त्वचामें प्राप्त पवन शरीर रूखा तथा कालावर्णको करे, कर्कशस्वभाव तथा देहमें शून्यता और कृशपना, विवण तथा देहका फटना, ये लक्षण करतीहै॥८॥ रुधिरसे प्राप्त वादी शरीर कृशकरे, रुधिरमात्रको सुखाय देय, तीव्रज्वर करे, फोडा और गोलानको पैदाकरे, खुजली, दाद, खाजको करती है॥९॥

मांसमेदोगतवायुके लक्षण।

मांसमेदोगतो वातो गुर्वंगं कुरुते श्रमम्॥ स्तब्धांगमरुचि तापमरतिं रक्तशोषणम्॥१०॥

मज्जास्थिगतवातके लक्षण।

वातो मज्जास्थिगः कुर्याद्भेदं पर्वास्थिसंधिषु॥बलमांसक्षयं शूलं विनिद्रां वीर्यनाशनम्॥११॥

शुक्रगतवात के लक्षण।

शुक्रस्थः पवनः कुर्यादरुचिं त्रिषु पीडनम्॥ वीर्यशोषं मनस्तापं बलकांतिसुखक्षयम्॥१२॥

** अर्थ**—मांस मेदामें प्राप्त वात देहको भारी करे, अनायास श्रमको करै, शरीर जकडजाय, अरुचि, ताप, मनका न लगना, रुधिरका सूखना॥१०॥ मज्जा और हड्डीमें प्राप्त हुई जो वात सो गांठोंमें पीडा, हड्डी और संधिनमें पीडा मांस और बलका क्षय होना, शूल और नींदनाश तथा वीर्यका नाश ये लक्षणोंको करे॥११॥ शुक्रमें प्राप्तहुई बात सो अरुचि, मन, वाणी, देह इनमें पीडा, वीर्यका शोष, मनमें ताप, बल कान्ति सुखका नाश ये लक्षणोंको करै॥१२॥

नाडीगतवातके लक्षण।

वातः शिरागतः कुर्यात्कुब्जं खांज्यं महारुजम्॥ शिरासंकोचं स्तब्धत्वं बधिरं वमनं कृशम्॥१३॥

कोष्ठगतवातके लक्षण।

कोष्ठस्थानगतो वातः कुरुते मूत्रबंधनम्॥ शूलाध्मानमुदावर्तं गुल्मार्शांसि भगंदरम्॥१४॥

सर्वांगगतवातके लक्षण।

** सर्वांगस्थोपि कुपितः पवनो विविधा रुजः॥कुरुते वर्द्धते सर्वान् बाह्याभ्यंतरपीडकान्॥१५॥**

** अर्थ**—नाडीगत वातरोग ये लक्षणोंको करै, कुबडापना, खंजापना, नाडीनका सुकडना, तथा जडता, बहिरापना, बौनापना और कृश॥१३॥ कोष्टमें प्राप्तभई जो बात सो मूत्रबन्धको करै, शूल और अफराको करै, उदार्वत, गोला, बवासीर, भगंदर इनको करती है॥१४॥ सर्वांगमें प्राप्तभई पवन सो तरहतरहके रोगोंको पैदा करतीहै, और सर्वांगमें कुपित वात बाहरके रोगोंको तथा भीतरके रोगोंको बढातीहै॥१५॥

सन्धिनमें स्थितवातके लक्षण।

संधिस्थः पवनः कुर्यात् शोफं शूलं च दारुणम्॥ सधीन्विस्फोटयेत्सद्यः स च कर्षति वर्द्धते॥१६॥ वायवः पंच देहस्था हेतवः सुखदुःखयोः॥ स्वस्थाने सुखदाः सर्वे परस्थानेषु दुःखदाः॥१७॥

पंचवातके अलगअलग लक्षण।

प्राणो वायुर्वसति हृदयेऽपानसंज्ञो गुदांते नाभेश्तक्रे भ्रमति परितो जीवभूतः समानः॥कण्ठस्थाने चलति पवनो योह्निरात्रावुदानः सर्वांगेषु प्रसरति मरुद्व्यानसंज्ञो नितांतम्॥१८॥

** अर्थ**—संधियोंमें प्राप्त बात सूजन और दारुणशूल, संधिनमें पीडा और सुखावै तथा बढावै॥१६॥पांच वात देहमें सुखदुःखकी देनेवाली रहती हैं। यदि वो अपने स्थानपर रहें तो खुदायक और दूसरेके स्थानपर जानेसे दुःखदायक होती हैं॥१७॥ १ प्राणवात हृदयमें रहतीहै, २ अपानवायु गुदामें रहतीहै, ३ जीवभूत समानवायु नाभिचक्रमें रहती है और ४ रात दिनकी बहनेवाली उदानवायु कंठमें रहती है और ५ सब देहमें रहनेवाली व्यानवायु है॥१८॥

पित्तान्वितप्राणवातके लक्षण।

प्राणः पित्तान्वितः कुर्य्यादूष्माणं चित्तविभ्रमम्॥ तृष्णां शूलं च हृल्लासं हिक्कां छर्दिं च दुस्सहाम्॥१९॥

कफान्वितप्राणवातके लक्षण।

प्राणः कफावृतः कुर्याद्दौर्बल्यालस्यसादनम्॥ वैरस्यमरुचि तंद्रामुत्क्लेदं दोषसंचयम्॥२०॥

पित्तकफयुक्तउदानवातके लक्षण।

उदानः पित्तयुक् कुर्य्यान्मूर्च्छां दाहं भ्रमं क्लमम्॥ कफान्वितोतिमंदाग्निं शीतं हर्षं च कंपनम्॥२१॥

** अर्थ**—पित्तसंयुक्त प्राणपवन देहमें गरमीको करैतथा चित्तभ्रम, प्यास, शूल, सूखीरद्द, हिचकी, वमन ये लक्षणोंको करै॥१९॥ कफसंयुक्त प्राणवात ये लक्षण करती है दुर्बलता, आलस्यका स्थान, विरसता, अरुचि, तंद्रा, उकलाहट, दोषके समूहको बढातीहै॥२०॥ पित्तके साथ मिली जो उदानवायु सो ये लक्षण करे मूर्च्छा, दाह, भ्रम, ग्लानि, और उदानवायु कफके साथ मिलीहो तो मंदाग्नि, शीत, हर्ष, तथा कंपको करती है॥२१॥

पित्तकफयुक्तसमानवातके लक्षण।

समानपित्तयुक्तृष्णां मूर्च्छामूष्माणमेव च॥ कुर्यात्कफान्वितो हर्षं विण्मूत्रं रोमहर्षणम्॥२२॥

पित्तयुक्तअपानवातके लक्षण।

अपानः पित्तयुक्कुर्य्यात् रक्तातीसारमुल्बणम्॥ ऊष्माणमरतिं दाहमर्शंसि च भगंदरम्॥२३॥

कफयुक्त अपानवातके लक्षण।

कफयुक्तो यदापानो गुदांते कृमिसंचयम्॥ कुरुते गुरुतां मूत्रमालस्यं बलनाशनम्॥२४॥

** अर्थ**—समानवायु पित्तके साथ मिली हुई तृष्णा, मूर्च्छा, गरमीको करतीहै, इसीतरह कफयुक्त समानवायु हर्ष, विष्ठा मूत्रका रुकना, रोमांचको करतीहै॥२२॥ अपानवायु पित्तके संयुक्त ये लक्षण करती है—रक्तातीसार, गरमी, मनका कहीं न लगना, दाह, बवासीर, भगंदर॥२३॥ कफयुक्त अपानवायु गुदामें कृमिरोग करे, शरीर भारी, बहुत मूत्रका होना, आलस्य, बलका नाश ये लक्षणों को करे॥२४॥

पित्तकफयुक्तव्यानवातके लक्षण।

व्यानः पित्तान्वितः कुर्य्यादंगविक्षेपणक्लमम्॥ दंडकं स्तम्भनं दाहं शोफं शूलं कफान्वितः॥२५॥नाडीं यदा समभ्येत्य कुपितः पवनो बली॥ देहविक्षेपणं कुर्य्याच्छिरःकंपं करोति च॥२६॥ यदा संकुपितो वातो नानाहेतुभिरूर्ध्वगः॥ तदा संकुरुते दोपं हृच्छिरःशंखपीडनम्॥२७॥

** अर्थ**—व्यानवायु पित्तके साथ मिलीहुई अंगोंको पटकती है, ग्लानिको करतीहै, उपताप, स्तंभ, दाह, सूजन, शूल ये व्यानवायु कफसंयुक्त करतीहै॥२५॥ बली पवन कुपितनाडीनमें प्राप्तहो शरीरका इधर उधर पटकना, करती है—और शिर कंपको करतीहै॥२६॥ जब वादी नाना हेतूनसे कुपित उपजती है तब हृदयमें मस्तकमें कनपटीमें पीडा करती है और अनेकदोषोंको करती है॥२७॥

गत्वोर्ध्वं स्वगृहात्करोति पवनो देहं च कोदंडवत् कंठः कूजति कोकिलेव सततं गात्रं मुहुः क्षेपणम्॥ स्तब्धत्वं नयनद्वयोर्वितनुते शोषं मुखे वक्रिमां श्वासं काससमन्वितं च जठरे शूलं तृषां संभ्रमम्॥२८॥

पित्तयुक्तवातके लक्षण।

दाहं पित्तान्वितः कुर्य्यात्तृष्णां छार्दिं शिरोव्यथाम्॥ त्दृल्लासं हृदयग्रंथिं हिक्कां कंठहनुग्रहम्॥२९॥

कफयुक्तवातके लक्षण।

कफान्वितो वमिं कुर्य्यात्तंद्रां निद्रांगगौरवम्॥ जाड्यं शैत्यं सरोमांचं क्षवं शोफं च वेपथुम्॥३०॥

** अर्थ—**अपने स्थानसे ऊपरको चढी हुई वात मनुष्यके देहको धनुषकी तरह बांका करदे, और कंठ कोकिलाकी बतौर बोले, तथा शरीरको इधर उधर पटके, दोनों नेत्रोंका स्तब्धत्वहो, मुखका सूखना, तथा मुख टेढा होजाय, श्वास, खांसीके साथ पेटमें दर्दहो, और प्यास तथा भ्रमहो॥२८॥ पित्तयुक्त वात दाह करै, प्यास, और वमनको करै, शिरमें दर्द, सूखीरद्द, हृदयमें गांठ, हिचकी, कंठमें हनुग्रह, इन रोगोंको करै॥२९॥ कफयुक्त वात वमन, तन्द्रा, निद्रा, देह भारी, जडता, शीत लगना, रोमांच, छींक, सूजन, कंप ये रोग करती है॥३०॥

कफपित्तयुक्तवातके लक्षण।

कफपित्तान्वितो वायुः पक्षाघातं कटिग्रहम्॥ कुब्जं खंजं शिरःकंपमंगभंगं प्रपीडनम्॥३१॥

अधोभागमें प्राप्तवात के लक्षण।

गत्वाऽधः कुपितः करोति मरुतोरुस्तंभनं कुंडलं शूलाध्मानविलंबिकां गुदरवं गुल्मोपदंशं भृशम्॥ शूकार्शांसि भगंदरं कटिरुजं विण्मूत्रयोस्स्तम्भनं जंघोरूगुदशिश्नयोनिवृषणानांपीडनं दण्डकम्॥३२॥ हेतुभिः कुपितो वातो ह्यतिकोपोन्यदोषयुक्॥ महाकोपस्त्रिदोषाभ्यां स वै भवति रोगदः॥३३॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
वातव्याधिलक्षणम्।

** अर्थ**—कफ पित्त मिली हुई वात पक्षाघात, कमरमें दर्द, कुबडापना, खंज व शिरका हिलना, अंगभंग और पीडा करती है॥३१॥ नीचेके भाग में प्राप्त हुई जो पवन सो ऊरुस्तंभ, कुंडलीरोग1, शूल, अफरा, विलंबिका, गुदामें शब्द, पेटमें गोला, उपदंश, शूकरोग, बवासीर, भगन्दर, कमरमें दर्द, दस्तपेशाबका रुकजाना, जंघा, ऊरू, लिंगेन्द्री, योनि, अंडकोश इनमें दर्द, तथा दंडकरोग इनको करती है॥३२॥ अपने हेतूनसे कुपित वातरोग करती है, और दोषके मिलनेसे अति कोपको प्राप्त होती है, और त्रिदोषसे महाकोपको प्राप्त होती है तब बराबर रोग करती है॥३३॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां वातव्याधिरोगनिदानं सम्पूर्णम्।
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अथ वातरक्तरोगनिदानम्।

तत्रादौ वातरक्तरोगोत्पत्तिः।

रूक्षोष्णाम्लकषायतीक्ष्णकटुकस्त्रिग्धाशनैर्भूयसः निष्पावांसकुलत्थशाकमधुरक्षारान्न-पित्ताशनैः॥ तक्राम्लासववारुणीदधिपयःपानैर्निशाजागरैः प्रायः कुप्यति वातरक्तमपरैर्व्यायाम-शोकादिभिः॥१॥ विरुद्धदुष्टाशुचिपानभोजनैर्जलावगाहैर्वनितातिसंगमैः॥ रात्रौ दिवा जागरणैः प्रधर्षितो रक्तप्रकोपं कुरुते मरुत्तदा॥२॥ स्रोतांसि रक्तप्रवहाणि रुद्धा करोति वातो रुधिरं च कृष्णम्॥रोषात्तथा शोणितमुच्छलंति समस्तरोगान्वितनोति नूनम्॥३॥

** अर्थ**—रूखा, गरम, खट्टा, कसेला, तीखा, कडुआ, चिकना भोजन करनेसे, निष्पाव तथा मांस कुलथी शाकमीठा खारमिला और पित्तकी करनेवाली वस्तुके खानेसे छांछ, आम्र, आसव, मद्य, दही दूधके पीनेसे, रातमें जागनेसे, दंड कसरतके करनेसे, शोचसे, वातरक्त कोपको प्राप्त होता है॥१॥विरुद्ध दुष्ट अपवित्र वस्तुके पीनेसे, तथा खानेसे, स्नानसे, बहुत स्त्रीसंगसे, रातदिनके जागनेसे और डरनेसे वात रक्त रोग पैदा होता है॥२॥ रुधिरकी बहनेवाली नाडीनके मार्गको रोककर बात रुधिरको कालारंगका करदेवे, फिर क्रोधको प्राप्त हुआ जो रुधिर सो देहके बाहर तथा भीतर अनेक रोगोंको पैदा करे॥३॥

करोत्यालसं मंडलं वारतक्तं शरीरं विवर्णं रुजं रूक्षगात्रम्॥
भ्रमं मूत्रकृच्छ्रं क्लमं मर्मतोदं ज्वरं वेपथुत्वं शिरःपीडनं तत्॥४॥

पित्तान्वितवातरक्तके लक्षण।

करोत्येव पित्तान्वितं वातरक्तं मुदं दाहसम्मोहतृष्णांगशोषम्॥
भ्रमोष्मारतिश्छर्दिस्वेदांगतोदं कटुत्वं मुखे शोफमूर्च्छां विनिद्रम् ५

कफयुक्तवातरक्तलक्षण।

कफेनान्वितं वातरक्तं गुरुत्वं करोत्यालसं मंडलं रक्तपीतम्॥
वमिं मंदचेष्टेंद्रियेषु प्रलापं शरीरेति पामां कृशत्वं क्षवत्वम्॥६॥

** अर्थ**—वातयुक्त वातरक्त आलकस, कालेकाले देहमें चकत्ता, तथा शरीरका विवर्ण, रूखा देहकरदे, पीडा हो, भ्रम, मूत्रकृच्छ्र, ग्लानि, मर्ममर्ममें पीडा, ज्वर, कंप, शिरमें पीडा॥४॥ पित्तान्वित जो वातरक्त सो मस्तपना, दाह, मोह, प्यास, अंगशोष, भ्रम, गरमी मनका डमाडोलपना, वमन, पसीनेका आना, अंगोंमें पीडा, मुख कडुआ, सूजन, मूर्च्छा, निद्राका नाश ये लक्षणोंको करता है॥५॥कफयुक्त वातरक्त देह भारी करै, आलकस, देहमें लालपीले चकत्ते करे, वमन, इंद्रियोंकी मंदचेष्टा होना, बकना, देहमें खाज, तथा देह कृश और छींकका आना ये लक्षणोंको करै॥६॥

पांगुल्यं च विसर्पिकारुचिमदा मूर्च्छांगुलीवक्रता हिक्कादाहप्रवेपिका भ्रमतृषाश्वासक्लमः स्फोटता॥ कासो मोहशरीरशोषमधिकं मर्मग्रहश्चार्बुदः संप्रोक्तास्समुपद्रवा मुनिवरैस्ते वात-रक्तेऽहिताः॥७॥ सोपद्रवं त्याज्यतम भिषग्भिर्द्विदोषजं कष्टतरेण साध्यम्॥ जपेन दानेन शिवार्चनेन यत्नौषधीभिर्ननु वातरक्तम्॥८॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते
वैद्यशास्त्रे वातरक्तलक्षणम्।

** अर्थ**—पांगुरा, विसर्परोग, अरुचि, मद, मूर्च्छा, उंगली टेढी हो जाय, हिचकी, दाह, कंप भ्रम, प्यास, श्वास, ग्लानि, शरीरका फटना, खांसी, मोह, देहमें शोष, मर्मस्थानों में पीडा, अर्बुदरोग ये वातरक्त रोगके उपद्रव मुनीश्वरोंने असाध्य कहे हैं॥७॥ वैद्योंकरकेउपद्रवके साथ जो वातरक्त सो त्याज्य है, और दो दोषसे पैदा हुआ जो वातरक्त सो कष्टसाध्य है वो जप दान शिवपूजन और इलाज औषधी करके अच्छा हो॥८॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां वातरक्तनिदानं सम्पूर्णम्।
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अथ ऊरुस्तम्भनिदानम्।

नीत्वाधः कुपितो वातः सञ्चयं श्लेष्ममेदयोः॥ जंघोरुसक्थिगुल्फेषु पूरित्वा स्तम्भयेद्गतिम्॥१॥ जघोर्वौ श्लेष्ममेदाभ्यां सम्पूर्णौ भवतो बलौ॥ ऊरुस्तम्भः स विज्ञेयो भिषग्भिः प्राकृतैर्भृशम्॥२॥

ऊरुस्तम्भलक्षण।

ऊरुस्तम्भेति पीडा भवति चरणयो रोमहर्षो जडत्वं शीतं सर्वाङ्गकम्पो वयसि शिथिलता छर्दिनिद्राकृशत्वम्॥ कृच्छ्रान्न्यासम्पदानामरुचिरतिवमिर्मन्दवह्निर्गुरुत्वं चिह्नान्येतानि नूनं मुनिगणवचनात्कीर्तिता हंसराजैः॥३॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
उरुस्तम्भलक्षणम्।

** अर्थ**—कोपको प्राप्त हुई जो वात सो कफ और मेदाके समूहको नीचे ले जायकर जांघ ऊरु जानू टकना इनमें व्याप्त करके चलनेकी शक्तिको स्तम्भन करदे, उसे ऊरुस्तंभरोग कहते हैं॥१॥ जांघ ऊरू जब कफ और चर्बीसे परिपूर्ण हो जाय और चला न जावे उसको वैद्योंने ऊरुस्तम्भ रोग कहाहै॥२॥ ऊरुस्तम्भ रोगमें ये लक्षण होते हैं दोनों पैरोंमें पीडा, रोमांच, जडत्व, शीतका लगना, सर्व देहमें कंप, अंगोंमें शिथिलता, रद्द, निद्रा, कृशता, पैरोंका कठिनतासे उठना, अरुचि, मनका न लगना, वमन, मन्दाग्नि, देहभारी, ये ऊरुस्तंभ रोगके लक्षण मुनीश्वरोंके वचनके अनुसार हंसराज कविने कहेहैं॥३॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां ऊरुस्तम्भरोगनिदानं सम्पूर्णम्।
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अथामवातलक्षणम्।

व्यायाममंदाग्निविरुद्धभोजनैः स्निग्धाशनेनातिविहारचेष्टया॥ रात्रौ दिवाजागरणेन कोपितः श्लेष्मस्थले ह्यामचयं नयेन्मरुत्॥१॥ आमान्नस्य रसो पक्वो मरुता क्रियते पुनः॥ दूषितः कफपित्ताभ्यां नाडीभिः पीयतेनिशम्॥२॥ आमसंज्ञः सएवायं यो जीर्णजनितो रसः॥ रोगाणामाश्रयो घोरः स्रोतांसि तुदते भृशम्॥३॥

** अर्थ**—तीन श्लोक करिके प्रथम आमरोगकी उत्पत्ति लिखते हैं दंड कसरतके न करनेसे, विरुद्ध भोजनसे, चिकने पदार्थ खानेसे, अत्यन्त स्त्रीआदि सेवन करनेसे, रातदिन जागनेसे, कोपको प्राप्त हुई जो बात सो कफके स्थानमें आमके समूहको प्राप्त करती है॥१॥ अन्नका जो रस विनापका उसको वात दूषित करैतथा पित्त कफ कर दूषित भया हो उसको नाडी पीती है॥२॥ उसी अजीर्णसे पैदा हुये रसको आमरोग घोररोगोंका आश्रय करते हैं और यह आम नाडीके मार्गोंको रोक देती है॥३॥

वातजन्यआमरोगके लक्षण।

आमो रुग्विदधाति शोफमधिकं संकोपितो वायुना जंघोरूकरसन्धिपादवृषणस्कन्धास्यनेत्रेषु च॥ मांसास्थित्रिककुञ्चनञ्च हृदये कम्पं ज्वरं शोषणं स्तब्धांगं वितनोति दारुणभयं पाकं तृषां शून्यताम्॥४॥

पित्तसे कुपितआमलक्षण।

आमः संकुरुते रुषांगमरुणं पित्तेन संकोपितः शीर्षे संधिषु पीडनं कटिरुजं सर्वांगदाह ज्वरम्॥मूर्च्छा संभ्रमशोषणं च हृदये शूल महादारुणं बन्धं मूत्रपुरीषयोर्नयनयोः पीतत्वमार्ति तृषाम्॥५॥ आमः श्लेष्मयुतः करोति जडतां निद्रां गुरुत्वन्तनौ ह्यालस्यं बहुमूत्रताञ्च गलके संकूजनं शीतताम्॥ दौर्बल्यं मुखपादहस्तवृषणे शोषङ्गतेस्स्तम्भनं वीर्यौजोरुचितेजसां बलधियां नाशं प्रसेकं क्लमम्॥६॥

** अर्थ**—वादीसे कुपित आमरोग जांघ ऊरू हाथ तथा देहकी संधी पैर अंडकोश कंधेनमें मुख तथा नेत्रों में सूजन करदे, मांस हड्डी त्रिक कहिये मकड इनका घटना, हृदय में कंप, ज्वर, शोष, देहका जकडजाना, घोरभय, तथा देहका पकना, और प्यास और देहमें शून्यता ये लक्षण करती है॥४॥पित्तसे कुपित जो आमरोग सो देहको लाल करदे, मस्तक तथा संधीनमें दर्द, सव देहमें दाह, तथा ज्वर, मूर्च्छा, भ्रम, शोष, हृदय में महादारुण शूल, मूत्रपुरीषका रुकना, नेत्र पीले, प्यास और खेद ये लक्षण करता है॥५॥ कफयुक्त आमरोगके ये लक्षण हैं शरीर जकडजाय, निद्रा, देहभारी, आलकस, पेशाब ज्यादा उत्तरे, गलेका गूँजना, जाडालगे, दुर्बलपना, मुख हाथ पैर अंडकोश इनमें सूजन, गतिका रुकना, वीर्य, ताकत, रुचि, तेज, बल, बुद्धि इनका नाश, लारका गिरना, ग्लानी॥६॥

आमस्त्रिदोषजोऽसाध्यः कष्टसाध्यो द्विदोषजः॥ दोषैकसंयुतः साध्यः सुखेनैव भिषग्वरैः॥७॥ त्रिदोषजनितैः सर्वैर्लक्षणैर्लक्षितो हि यः॥ सन्निपातः स विज्ञेयो द्विदोषो हि द्विदोषजैः८

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे
आमवातलक्षणम्।

** अर्थ**—त्रिदोषसे पैदा हुआ आमरोग असाध्य है, और दोदोषोंसे जो हुआ सो कष्टसाध्य है, और एक दोषयुक्त साध्य है ऐसे सुषेणादि वैद्योंने कहा है॥७॥ जिसमें त्रिदोषके सब लक्षण मिलते हों उसको सन्निपातका आमवातरोग कहते हैं और जिसमें दोदोषोंके चिह्न हों उसे द्विदोषज कहते हैं॥८॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां आमवातलक्षणं सम्पूर्णम्।
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अथ परिणामनिदानम्।

अथ परिणामशूललक्षणम्।

विण्मूत्ररोधाद्विषमासनस्थाच्छीतांबुपानात्पवनस्य रोधात्॥ अत्युच्चभाषादतिभक्ष्य-पानाद्रूक्षाशनात्कुत्सितयानरूढात् १॥ अपक्वपिष्टान्नविरुद्धभक्षणात्कषायतिक्ताशुचिदुष्ट-भोजनात्॥ दिवानिशं जागरणाद्विलंघनात्करोति शूलं पवनो रुषान्वितः॥२॥ नाभिमूले गुदे बस्तौ योनौ पार्श्वे त्रिकेस्थिषु॥ शूलं वातकृतं ज्ञेयं भिषग्भिर्नात्र संशयः॥३॥

** अर्थ**—विष्ठामूत्रके रोकनेसे, खोटी सवारीपर बैठनेसे, शीतलजल पीनेसे, पवनके वेग रोकनेसे, ऊंचे बोलनेसे, अत्यंत भोजन और पानसे तथा रूखे पदार्थके भोजनसे यह शूलरोग होता है॥१॥ विना पका पिसाहुआ ऐसे अन्नके खानेसे, विरुद्ध भोजनसे, कसेला तीखा अपवित्र दुष्टभोजनसे, दिनरातके जागनेसे, लंघन करनेसे, रोषको प्राप्त हुई जो पवन सो शूलरोगको पैदा करती है॥२॥ नाभिमूलमें गुदामें मूत्रस्थानमें योनिमें पसवाडोंमें त्रिकस्थानमें हाडोंमें वादीका शूल वैद्य जानै इसमें सन्देह नहीं॥३॥

वदीके शूलके लक्षण।

शूलं वातोद्भवं कुर्यात्प्रभातेंगविमर्दनम्॥ विण्मूत्रबंधनं हिक्कामाध्मानोद्गारस्तब्धताः॥४॥

पित्तके शूलके लक्षण।

तीक्ष्णोष्णपिण्याकविदाहिपूगैस्तैलाम्लनिष्पाकटुसूर्यतापैः॥
व्यायामसौवीरसुराविकारैः प्रबुद्धपित्तं कुरुते हि शूलम्॥५॥

पित्तोद्भवं शूलमतीव रौद्रं मध्यंदिने कुप्यति चार्द्धरात्रौ॥
करोति मूर्च्छां भ्रमदाहमोहतृट्स्वेदमार्त्तिज्वरमुग्रशीतम्॥६॥

** अर्थ**—प्रातः काल शरीरका टूटना, दस्त और पेशाबका बन्द होना, हिचकी, पेटका फूलना, डकारका आना, जडता ये वातशूलके लक्षण हैं॥४॥ तीक्ष्ण गरम पिण्याक दाहकरनेवाली वस्तु, सुपारी, तेल, खट्टा, निष्पाव, कटु, सूर्य्यकी घाममें डोलनेसे, दंड कसरतके करनेसे, कांजीके पीनेसे, मद्यके विकारसे, कोपको प्राप्त हुआ जो पित्त सो शूलरोगको करता है॥५॥ पित्तसे पैदा हुआ घोरशूल सो मध्याह्न और अर्द्धरात्रमें कोप करता है, और मूर्च्छा, भौंर, दाह, बेहोशी, प्यास, पसीने, खेद, घोरज्वर और शीत ये करैहै॥६॥

कुक्षौ सजठरे पार्श्वे शूलं पित्तसमुद्भवम्॥ सोष्माणं दारुणं ज्ञेयं वैद्यैराधुनिकैर्ध्रुवम्॥७॥

कफके शूलका लक्षण।

मध्वाज्यमासैर्मधुराम्लतकैर्वृन्ताकशीतोदकदुग्धपानैः॥ माषेक्षुमज्जातिलतैलशीतैः श्लेष्मा प्रवृद्धः कुरुते हि शूलम्॥८॥ वक्षःस्थलभवं शूलं कफान्तस्य समुद्भवम्॥ वमनेन शमं याति संध्ययोर्बलवत्तरम्॥९॥

** अर्थ**—कूख पेट पसवाडोंमें पित्तका शूल होता है, और दारुण गरमी ये लक्षण अबके वैद्योंने कहेहैं॥७॥ सहत, घी, मांस, मीठा, खट्टा, छांछ, बैंगन, शीतलजल, दूध इनके सेवनसे, उडद, ईख, चरबी, तिल, तेल शरदीसे कुपित हुआ जो कफ सो शूलरोग पैदा करताहै॥८॥ कफसे पैदा हुआ जो शूल सो वक्षस्थल तथा सन्धियोंमें बढता है, यह वमनके करानेसे आराम हो॥९॥

शूलं कफात्म्यं कुरुते प्रसेकं तंद्रालसं गौरवतां प्रकंपम्॥ हृल्लासकासारुचिछर्दिदाहं कंठेऽतिपीडा स्तिमितांगशीतम्॥१०॥

वोतकफशूलके लक्षण।

पार्श्वेषु बस्तौ हृदये च शूलं वदंति वेद्याः कफवातजातम्॥
पित्तानिलाभ्यां जनितं सदाहं कुक्षिद्वये तद्धृदये प्रपीडयेत्॥११॥

शूलरोगकी उत्पत्ति।

चंडीशशस्त्रं कफपित्तसम्भवं जानीहि तं त्वं हृदयोदरस्थम्॥
रूपाणि स्वं स्वं कुरुते स्वकाले दोषैः समस्तैः प्रभवं त्यजेत्तम् १२

** अर्थ**—कफसे पैदा हुआ जो शूल, पसीना, तंद्रा, आलकस, देहभारी, कंप, सूखी, रद्द, खांसी, अरुचि, वमन, दाह, कंठमें पीडा, मंद जाडा लगे, ये लक्षण करै॥१०॥ जिसमें ये लक्षण हों उसको वात कफका शूल वैद्य कहते हैं, पसवाडोंमें मूत्रस्थानमें हृदयमें शूल हो, वातपित्तजनित शूल लक्षण— और जिसमें दाह हो, कूखमें और हृदयमें पीडा हो उसे वात पित्तका शूल रोग जानै॥११॥ श्रीमहादेवके शूलसे तथा कफपित्तसे पैदा हुआ शूल सो हृदयमें पेटमें अपना अनेक तरहका रूप धारण करै, और सब दोषोंसे पैदा हो ऐसा शूलवान् रोगीको वैद्य त्याग दे॥१२॥

शूलका असाध्यलक्षण।

वायुः संनिहितश्च पित्तकफयोः स्थानं समावर्त्तयेद्यः शूलं कुरुते तदेवमपरं भुंक्तेऽतिशांतिं व्रजेत्॥ तच्छूलं परिणामजं मुनिवरैः प्रोक्तं च दोषान्वितं ज्ञेयं प्राक्कथितैर्नरैः कफ-मरुत्पित्तोद्भवैर्लक्षणैः॥१३॥ सोपद्रवं त्रिदोषोत्थमसाध्यं कथितं बुधैः॥ कष्टसाध्यं द्विदोषोत्थं सुखेननिरुपद्रवम्॥१४॥

शूलके दशउपद्रव के भेद।

तंद्रा मूर्च्छा ज्वरो दाहः श्वासः कासोऽतिवेदना॥
हिक्काङ्गगौरवं छर्दिः शूलस्योपद्रवा दश॥१५॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे
परिणामशूललक्षणं सम्पूर्णम्।

** अर्थ**—जिसमें ये लक्षण हों उसे परिणाम शूल जानना जो बादीसे युक्त और पित्त कफके स्थानमें प्राप्त होकर पीछे दर्दको करै, और दूसरा खाने से शांति हो और त्रिदोषयुक्त हो उसे मुनीश्वरोंने तथा प्राचीन वैद्योंने असाध्य कहाहै॥१३॥ जो उपद्रवके साथ हो और सन्निपातसे पैदा हुआ हो वो शूलरोग असाध्य है ऐसा वैद्योंने कहाहै और जो दो दोषोंसे पैदा हुआ हो वो शूल कष्टसाध्य है और जो उपद्रव रहित हो वो सुखसाध्य है॥१४॥ १तंद्रा, २ मूर्च्छा, ३ ज्वर, ४ दाह, ५ श्वास, ६ खांसी, ७ अतिदुःख, ८ हिचकी, ९ देहभारी और १० वमन ये शूलरोगके दश उपद्रव हैं॥१५॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां शूलरोगनिदानं समाप्तम्।

अथ अनाहउदावर्तरोगनिदानं तस्योत्पत्तिः।

पुरीषमूत्रानिलवेगरोधादनाहरोगः किल मर्मभेत्ता॥ संजायतेऽसौ कुरुते विकारान् वातामयान् वैद्यवरा वदन्ति॥१॥ अपानवातसंरोधादूर्ध्ववातगतिर्भवेत्॥ अनाहोऽसौ परैः प्रोक्तो मुनिभिस्तत्त्ववादिभिः॥२॥ हिक्कावासवम्युद्गारक्षुत्तृष्णायावरोधनात्॥ उदावर्त्तो भवेद्रोगो वातवृद्धिप्रवर्त्तकः॥३॥

** अर्थ**—दस्त, पेशाब, अधोवायु इनके रोकनेसे मर्ममर्ममें पीडाका करनेवाला अनाह रोग होता है, और बादीके विकारको करताहै ऐसे वैद्य कहते हैं॥१॥ अधोवायुके रोकनेसे ऊपरलेमाग होकर वायुकी गति होती है, ईसीको अनाहरोग तत्त्ववादी ऋषियोंने कहा है॥२॥ हिचकी, श्वास, वमन, डकार, भूँख, प्यास, इनके रोकनेसे वातको बढानेवाला उदावर्त रोग पैदा होता है॥३॥

अधोवात रोकनेसे पैदा उदावर्तके लक्षण।

अपानवातसंरोधाद्वातविण्मूत्रसंगमः॥ शूलं क्लमो रुजाध्मानः पीडाटोपो मरुद्भ्रमी॥४॥

विष्ठाके वेग रोकनेके लक्षण।

विड्वेगे निहते पुसो वातशूलं गुदे रुजम्॥ जठरे वातजा ग्रंथिः पीडाबस्तौ भवेद्भृशम्॥५॥

मूत्रके रोकनेसे हुये उदावर्तके लक्षण।

मूत्रस्य रोधनात्पुंसो मूत्रकृच्छ्रं शिरोव्यथा॥ बस्तिमेहनयोः शूलमानाहोयमिति स्मृतः॥६॥

** अर्थ—**अधोवायु रोकनेसे विष्ठा मूत्र आपस में मिलकर शूल, ग्लानि, स्वेद, अफरा, दुःखका आटोप, याने समूह, पवनका मंद चलना भौंर, ये रोग होते हैं॥४॥ विष्ठाके वेग रोकनेसे मनुष्यके वादीसे दर्द हो, गुदामें पीडा हो पेटमें वादीसे गोला हो, और मूत्रस्थानमें पीडा हो॥५॥ पेशाबके रोकनेसे पुरुषोंके मूत्रकृच्छ्र, शिरमें पीडा, मूत्रस्थान, लिंगेन्द्रिय इन स्थानों में शूल इसीको आनाह कहते हैं॥६॥

जँभाई रोकनेसे हुये उदावर्त्तके लक्षण।

जृम्भास्तम्भाद्गलस्तम्भो मन्यास्तम्भः शिरोव्यथा॥ कर्णास्यनेत्रनासासु रोगस्तीव्रो भवेद्भृशम्॥७॥

आंसूके रोकनेके उपद्रव।

शोकानंदभवास्रस्य प्राप्तोदं नैव मुंचति॥ सरुक् शिरोगुरुत्वं स्यान्नेत्ररोगस्तु पीनसः॥८॥

छींकके रोकनेके उपद्रव।

क्षवथोर्धारणाच्छूलं मन्यास्तम्भः शिरोर्द्धरुक्॥ इंद्रियाणां च दौर्बल्यं भवेत्पीडास्यचक्षुषि॥९॥

** अर्थ**-जंभाई रोकनेसे गला बैठ जाय, गलेके पिछली नसका जकडना, शिरमें पीडा, कान नेत्र नाक मुख इनमें पीडा हो॥७॥ जो पुरुष आनंदसे अथवा शोकसे पैदा हुआ आंसू रोके उसके शिरमें दर्द, तथा शिरमें भारीपना, नेत्ररोग, और पीनसरोग, होय॥८॥ छींक रोकनेसे शूल, गलेकी पिछली नसका जकडना, आधे शिरमें दद, इंद्रियन में दुर्बलता, नेत्रोंमें और मुखमें पीडा होवै॥९॥

डकार रोकने के उपद्रव।

उद्गारेभिहते तोदः पूणत्वं वक्रकंठयोः॥ पवनस्याप्रवृत्तित्वं कूजत्वं हृदये भवेत्॥१०॥ छर्देर्निग्रहणाद्भवंति विविधा रोगा महादारुणा हृल्लासारतिशोफकष्टरुचयो हिक्काविसर्प-ज्वराः॥ कोष्ठाशुद्धिविवर्णदाहकृमयो वातप्रसूता रुजः कंडूमोहविजृम्भणानि बहुशः पांड्वंग-मर्दभ्रमाः॥११॥

भूख रोकने के उपद्रव।

**क्षुधाभिघाताद्बलवीर्यहानिः स्यान्मन्ददृष्टिः कृशता शरीरे॥ **

प्यासरोकने के उपद्रव।

तृष्णाभिघाताद्बहुरोगबाधा हृत्कंठशोषभ्रमदाहमूर्च्छाः॥१२॥

** अर्थ—**डकार आई हुईको रोकनेसे मुख और कंठमें पीडा हो और डकारका न आना, हृदय में गंजान शब्द हो॥१०॥ अथ वमनोपद्रव॥ आई हुई रद्दको रोकनेसे दारुण अनेक तरहके रोग हों, सूखी उलटी हो, अरति, सूजन, कोढ, अरुचि, हिचकी, विसर्परोग, ज्वर, कोठेमें अशुद्धता, विवर्ण, दाह, कृमिरोग वातव्याधि, खुजली, बेहोशी, बहुतजंभाईका आना, पीलिया, अंगोंका टूटना, भौंर ये रोग होते हैं।॥११॥ भूख रोकनेसे बलवीर्यका नाश हो, तथा मंददृष्टि ही शरीरमें कृशता हो, प्यास रोकनेसे बहुत रोग सतावै, प्याससे कंठ सूखै, भौंर, दाह, मूर्च्छा, ये रोग होते हैं॥१२॥

श्वास रोकने के उपद्रव।

श्वासस्य निग्रहाद्गुल्मो हृद्रोगो विरतिर्भवेत्॥
मोहो वातकृतो रोगे ह्याटोपो विद्रधिस्तथा॥१३॥

निद्रा रोकनेके उपद्रव।

निद्राघाताद्भवज्जृम्भा तंद्रालस्यांगगौरवम्॥ अक्ष्णोघूर्णत्वरक्तत्वद्रवत्वं जडतारुचिः॥१४॥कषायाम्लद्रवै रूक्षैर्विरुद्धकटुभोजनैः॥ वातः संकुपितः कुर्यादुदावर्त्तं हि लक्षणम्॥१५॥

** अर्थ**—श्वास रोकनेसे पेटमें गोला, हृदयका रोग, मनका न लगाना, मोह, और वातके रोग पेटमें गुडगुडाहट, विद्रधिरोग, ये होते हैं॥१३॥ निद्रा रोकनेसे जंभाई, तन्द्रा, आलसक, देहका भारी होना, नेत्र टेढे, तथा लाल, अश्रुपातयुक्त, जडता, और अरुचि ये रोग होते हैं॥१४॥ कसैली, खट्टी, पतली, रूखी, निरुद्ध, तथा कटुवस्तुके खानेसे कुपित हुई जो वात सो दारुण उदावर्त्त रोगको करैहै॥१५॥

उदावर्तनिदानम्।

स्रोतांस्युदावर्त्तयतेनिलोयमपानविण्मूत्रकफादिकानाम्॥ वहानित्दृत्पार्श्वगुदोदरेषु ह्याटोपशूलं कुरुते शिरोर्तिम्॥१६॥ उदावर्त्तवातः करोत्यंगमर्दं मरुद्ग्रन्थिमार्तिं पुरीषं सकष्टम्॥ तृषोद्गार-हिक्काभ्रमश्वासकासं वमिं शून्यतां रूक्षतांगं प्रकम्पम १७

इति श्रीभिषक्चक्र चित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रेऽ-
नाहोदावर्त्तलक्षणं सम्पूर्णम्।

** अर्थ**—विष्ठा, मूत्र, कफ, आदिकी वहनेवाली जो अपानवायु सो नाडीनके मार्गको रोककर हृदय पसवाडा गुदा पेट इनका फूलना, और शूल तथा शिरमें दर्दको करैहै॥१६॥ वातका उदावर्त्त रोग हडकल, पेटमें पवनकी गांठ, तथा खेदहो, कष्टसे दस्तका होना, प्यास, डकार, हिचकी, भ्रम, श्वास, खांसी, वमन, देहमें शून्यता, शरीररूखा तथा कंप, ये लक्षण करताहै॥१७॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यामुदावर्त्तनिदानं समाप्तम्।
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अथ गुल्मरोगनिदानम्।

गुल्मं वातोद्भवं पैत्त्यं कफजं द्वंद्वसम्भवम्॥ संनिपातोत्थितं रौद्रं रक्तजं कीर्तितं बुधैः॥१॥हृन्नाभ्योरंतरे बस्तौ ग्रन्थिरूपं चलाचलम्॥ चतुरंगुलपर्यंतं गुल्मन्तत्परिकीर्तितम्॥२॥

वातगुल्मके लक्षण।

निंबृदुंबरयोः फलस्य सदृशं गुल्मं मरुत्सम्भवमुद्गारं च मुहुर्मुहुर्वितनुते विण्मूत्रयोर्बंधनम्॥जुम्भाध्मानशरीरशोषकृशताश्शूलं तृषां हृद्रुजं पीडामंत्रविकूजनं रुचिहरं भुक्ते मृदुत्वं व्रजेत्॥३॥

** अर्थ**—वातसे, कफसे, पित्तसे, द्वंद्वज सन्निपातसे तथा रुधिरसे आठ प्रकारका गोलेका रोग वैद्योंने कहाहै॥१॥ हृदय नाभिके बीचमें मूत्रस्थानमें गांठके आकार गोलाहो एकतो चलायमान दूसरा अचल चारअंगुलके बीचमें उसको गुल्म अर्थात् गोलेका रोग कहते हैं॥२॥ जो नींबू गूलर फलके समानहो उसे बादीका गोला जाने, जिसमें डकार बेरबेरमें आवे दस्त पेशाबका बन्द होना जंभाई पेटका फूलना, शरीरमें शोष, तथा कृशपना, और शूल, प्यास, हृदयरोग, पीडा, आंतोंका बोलना, अरुचि और भोजनकरनेसे नरम होजाय ये बादीके गोलाके लक्षणहैं॥३॥

पित्तगुल्मके लक्षण।

गुल्मं कुक्षिगतं कपित्थसदृशं पीतं पुरीषं भवेदुष्माहृद्गलके रतिर्नशिस मुखे शोषाः पिपासाधिका॥ प्रस्वेदज्वरशूलदाहमधिकंस्पर्शाऽसहः संभ्रमश्चिह्नं पीतसमुद्भवस्य कथितं गुल्मस्य वैद्योत्तमैः॥४॥

कफगुल्मके लक्षण।

स्तैमित्यं कठिनोदरं शिथिलतालस्यं गुरुत्वं तनौ बाह्ये शीतलतान्तरे ज्वलनता निद्रा व्यथा मस्तके॥ स्यात्कंडूस्त्वचि गुल्ममाम्रसदृशं कासोरुचिर्पांडुता गुल्मश्लेष्मसमुत्थितस्य भणितं चिह्न सुषेणादिभिः॥५॥

रक्तगुल्मके लक्षण।

गुल्मं रक्तसमुद्भवं दृढतरं जंबीरनिम्बूसमं हृन्नाभ्यंतरभूमिकासु जनित पुंसस्त्रियो योनिषु॥ हृत्कंठास्यविशोषणं च कुरुते दाहं महादारुणं प्रस्वेदं ज्वरशूलमुग्रमधिका तृष्णारती संक्लमम्॥६॥

** अर्थ**—जो कैथके फल समान हो, कोखमेंहो, पीलादस्त उतरे, हृदय और गलामें गरमी हो, मनका न लगना, नाक मुखमें शोष, प्यास, अधिक पसीना, ज्वर, शूल, दाह, अधिक स्पर्श न सहाजावे, भौंर ये लक्षण, वैद्योंने पित्तके गोलाके कहे है॥४॥ देह नीला, पेट कर्रा, शिथिलता, आलकस, देह भारी, बाहर शीतलता, भीतर ज्वालासी मालूमहो, निद्रा, मस्तकमें पीडा, देहमें खाज, आम्रफलके समान गोला, खांसी, अरुचि, पीलिया ये लक्षण सुषेणादि वैद्योंने कफसे पैदा गोलाके कहे हैं॥५॥ जो गोला, जंभीरीनीम्बूके समानहो पुरुषके हृदयनाभिके बीचमें पैदा हुआ हो, स्त्रियों की योनिके समीपहो हृदय, कण्ठ, मुखका सूखना, दारुण दाह, पसीना, ज्वर, शूल, अतिप्यास, अरति, ग्लानि, ये लक्षण रुधिरसे पैदा हुये गोलाके हैं॥६॥

असाध्यगुल्मके लक्षण।

अतीसारहिक्कारतिच्छर्दिशूलैः पिपासाकृशत्वार्तिहृल्लासदाहैः॥ ज्वरश्वासकासांगशोफैर्युतो यः स गुल्मी न जीवेत्सुषेणादिवैद्यैः॥७॥

सन्निपातगुल्मके लक्षण।

त्रिदोषसंभवैः सर्वैर्लक्षणैर्लक्षितं हि यत्॥
तद्गुल्मं सन्निपाताख्यं द्विदोषोत्थ द्विदोषजैः॥८॥

साध्ययाप्यअसाध्यके लक्षण।

एकदोषोद्भवं साध्यं द्विदोष याप्यमुच्यते॥ ह्यसाध्यं यत्त्रिदोषोत्थं गुल्मं सोपद्रव त्यजेत्॥९॥

** अर्थ**—अतीसार, हिचकी, अरति, रद्द, शूल, प्यास, कृशता, खेद, सूखी उलठी, दाह, ज्वर, श्वास, खांसी, देहमें सूजन, ये लक्षण युक्त जो गुल्मरोगवाला वो सुषेणादिवैद्योंसे अच्छा नहीं हो अर्थात् असाध्यहै॥७॥ जिसमें तीनों दोषोंके चिह्न मिलतेहों उसे सन्निपातका गोलाजानै, और जिसमें दो दोषोंके चिह्न मिलतेहों वो द्विदोषज गुल्म जाने॥८॥ जो एक दोषसे पैदा हुआहो वो साध्य, दो दोषयक्त याप्य है, त्रिदोषोत्थ असाध्यहै, और उपद्रवयुक्त गुल्मीको वैद्य त्यागदे॥९॥

गुल्मक दशउपद्रव।

शोफस्तंद्रारुचिश्छर्दिर्हृल्लासः कृशता तृषा॥
शूलं स्वेदोङ्गदाहश्च गुल्मस्योपद्रवा दश॥१०॥

इति हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे गुल्मलक्षणम्।

** अर्थ**—१ सूजन, २ तंद्रा, ३ अरुचि, ४ वमन, ५ हृल्लास, ६ कृशता, ७ प्यास, ८ शूल, ९ पसीना, १० दाह, ये गुल्मरोगके दश उपद्रवहैं॥१०॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां गुल्मरोगनिदानम्।

अथ हृद्रोगनिदानम्।

शस्त्राभिघातात्पवनस्य रोधनादत्युष्णतिक्ताम्लकषायभोजनात्॥ अत्युच्चपाताद्वमनादवि-श्रमाद्धृदामयः स्याद्गुरुभारधारणात्॥१॥

बादीके हृद्रोगका लक्षण।

हृद्बाधां कुरुते मरुत्प्रकुपितः संदूषयित्वा रसं हृत्स्थो गुंजति पीडयत्यनुदिनं मर्माणि संतोदते॥पार्श्वास्थीनि विदारयत्यविरतं शोषं मुखे हृद्गले ह्याध्मानं च मुहुर्महुर्वितनुते श्वासं सकास ज्वरम्॥२॥

पित्तके हृद्रोगका लक्षण।

पित्तः कोपसमन्वितो हृदि गतः संशोषयित्वा रसं हृत्पीडामधिकां निरंतरतृषां दाहं शिरः-पीडनम्॥ ऊष्माणं हृदयोदरे नसि मुखे शूल महादारुणं मूर्च्छास्वेदविपाकमोहमरतिं जानीहि तं हृद्रुजम्॥३॥

** अर्थ**—शस्त्रके लगनेसे, पवनके बेगको रोकनेसे, अतिगरम तथा कडुआ, खट्टा, कसेला भारी ऐसे भोजनसे, उच्चस्थानसे गिरनेसे, वमनसे, अतिश्रमसे, भारी बोझ उठानेसे, हृदयमें रोग होताहै॥१॥कुपित वात हृदय में स्थित रसको बिगाड़कर हृदयरोगको करे, तथा गूंजे, नित्य हृदयमें पीडा हो, मर्मस्थानों में पीड़ाहो, पसवाडोंकी हड्डीनमें पीडा हो, मुख हृदय गलेमें शोष, अफरा बारबार हो, श्वास, खांसी, ज्वर, ये वातके हृदयरोग के लक्षण हैं॥२॥ कुपित हुआ जो पित्त सो हृदयमें प्राप्तहोकर रसको बिगाड हृदयमें पीडा, प्यास, दाह, शिरमें दर्द, गरमी, हृदयमें, पेटमें, नसोंमें, मुखमें, शूलहो, मूर्च्छा, पसीना, पाक, बेहोशी, अरति, ये लक्षण पित्तके हृद्रोगके हैं॥३॥

कफके हृद्रोगका लक्षण।

श्लेष्मा संकुपितः करोति हृदये पीडां सकण्ठेऽरुचिं माधुर्यं वदनेऽनलस्य कृशतां तंद्रां गुरुत्वं तनौ॥ संस्रावं कफसंचयस्य वमनं हल्लासशूलं ज्वरं हृद्रोगो भिषगुत्तमैर्निगदितश्चिह्नैरमीभिर्भृशम्॥४॥

सन्निपात के हृद्रोगका लक्षण।

तद्धृद्रोगं त्रिदोषोत्थं विद्याच्चिह्नैस्त्रिदोषजैः॥ युक्तं सोपद्रवं वैद्यस्त्यजेन्नूनं विदूरतः॥५॥

क्रमिके हृद्रोगका लक्षण।

शोफश्चेतसि संभ्रमो नयनयोः कार्ष्ण्यं तमो गौरवं चोत्क्लेदोविकृतिस्तृषा भवति तन्निष्ठीवनं मेहनम्॥ हृल्लासोऽरुचिरंतरे कृशवपुः शूलं सकंडूव्यथा हृद्रोगे कृमिसंभवे निगदितं चिह्न सुषेणादिभिः॥६॥ शोषः क्लमो भ्रमः स्वेदो हृद्रुजः स्युरुपद्रवाः॥चत्वारो घोररूपास्ते मुनिभिः परिकीर्तिताः॥७॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रेहृद्रोगलक्षणम्।

** अर्थ**-कुपित हुआ जो कफ सो हृदयमें, कंठमें पोडाकरै, अरुचि, मुख मीठा, अग्नि मंद, तंद्रा, देहभारी, कफका गिरना, वमन, हृल्लास, शूल, ज्वर, इन लक्षणोंसे कफका हृद्रोग कहाहै॥४॥ त्रिदोषयुक्त चिह्नोंसे सन्निपातका हृद्रोग जाने और उपद्रव युक्तहो उसे वैद्य असाध्य जानकर त्यागदे॥५॥सूजन चित्तमें भ्रम, नेत्र काले, अँधेराआवे, देह भारी, उकलाहट, देहकी विकृति, प्यास, बारबार थूकना, मेहन, हृल्लास, अरुचि, देह कृश, शूल, खुजली, व्यथा, इन लक्षणोंसे सुषेणादि वैद्योंने कृमिका हृदय रोग कहा है॥६॥१ शोक, २ ग्लानि, ३ भ्रम, ४ पसीना, ये चार हृदयके

घोर उपद्रव मुनीश्वरोंने कहे हैं॥७॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां हृद्रोगनिदानम्।
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अथ मूत्रकृच्छ्रलक्षणम्।

अनूपमांसाशनमद्यसेवनैः कषायतीक्ष्णोष्णविदाहिभोजनैः॥ व्यायामघर्माध्यशनाध्वजागरैः स्यान्मूत्रकृच्छ्रं बहुकष्टदं नृणाम्॥१॥ प्रपीडयत्यधो गत्वा मार्गं रुद्ध्वाकफादयः॥ मूत्रं मुहुर्मुहुः स्वल्पं सकृच्छ्रं कारयति ते॥२॥

वातके मूत्रकृच्छ्रका लक्षण।

मुहुर्मुहुः कष्टतरेण तुच्छं मूत्रं भवेत् पीतनिभं सशूलम्। मेढ्रेच बस्तौ महती प्रपीडा तन्मूत्रकृच्छ्रं पवनात् प्रसूतम्॥३॥

** अर्थ**—अनूप मांसके खानेसे, मद्य पीनेसे, कसेली, तीखी, गरम, दाहकरनेवाली ऐसी वस्तुके खानेसे, दंड कसरतके करनेसे, घाम, अध्यशन, अर्थात् भोजनके ऊपर भोजनसे, रास्ताके चलनेसे, रातमें जागनेसे, मनुष्योंके बहुत कष्टका देनेवाला आठ प्रकारका मूत्र कृच्छ्र रोग होताहै॥१॥ कफादिकदोष नीचे जायकर मूत्रके मार्गको रोककर और पीडाकरैं तब मनुष्यके कठिनसे बारबार थोडाथोडा पेशाब उतरैउसे मूत्रकृच्छ्ररोग कहते हैं॥२॥ जो मनुष्य बारबारमें थोडाथोडा मूतै, पीला, शूलयुक्त, अंडकोष तथा मूत्रस्थानमें पीडाहो, उसे वातका मूत्रकृच्छ्र कहते हैं॥३॥

पित्तके मूत्रकृच्छ्रका लक्षण।

मूत्रं भवेद्दाहयुतं मुहुर्मुहुः पीतारुणाभं रुधिरेण संप्लुतम्॥
तप्तं सकष्टं गुदमेढ्रयोर्व्यथा तन्मूत्रकृच्छ्रङ्किल पित्तजं वदेत्॥४॥

कफके मूत्रकृच्छ्राका लक्षण।

मूत्रं सिताभं परिबुद्बुदान्वितं सपिच्छिलं मेदुरमार्तिदं गुदे॥
लिंगे च योनौ बहुशोफगौरवं तन्मूत्रकृच्छ्रङ्कफसंभवं त्यजेत्॥५॥

कष्टसाध्यासाध्यलक्षण।

द्विदोषोद्भवं मूत्रकृच्छ्रं सदाहं भवेत्कष्टसाध्यं प्रयत्नौषधीभिः॥
त्रिदोषोत्थितं दारुणं प्राणनाशं निरुक्त मुनींद्रैरसाध्यं नितांतम् ६

** अर्थ**—जिस रोगीका पेशाब दाहके साथ उतरै, बारबार और पीलाहो, लाल हो, रुधिर मिलाहो, तप्त और कष्टसे उतरै, गुदा और अण्डकोशमें दर्दहो उसे पित्तका मूत्रकृच्छ्र कहते हैं॥४॥ जिसका मूत्र सपेद और बबूले संयुक्त गाढा और चिकनाहो, गुदामें दर्दहो, लिंग और योनिमें सूजन हो, देह भारी, ये लक्षण कफके मूत्रकृच्छूके हैं॥५॥ दो दोषसे हुआ जो मूत्रकृच्छ्र दाहयुक्त सो मंत्र औषधियोंसे कष्टसाध्य कहाहै, और त्रिदोषसे हुआ सो प्राणका नाशक मुनीश्वरोंने असाध्य कहाहै॥६॥

मूत्रकृच्छ्रम्भवेद् घातात्संरोधान्मूत्रशुक्रयोः॥ शल्यात्पातात्क्षतात्कष्टाद्वस्तिमेहनशूलकृत्॥७॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे मूत्रकृच्छ्रलक्षणं समाप्तम्।

** अर्थ**—मूत्र और वीर्यके रोकनेसे, घात, शल्यसे, पडनेसे, घावसे, कष्टसे मूत्रस्थान लिंगमें दर्दका करनेवाला मूत्रकृच्छ्ररोग पैदा होताहै॥७॥

इति हंसराजार्थबोधिन्यां मूत्रकृच्छ्रनिदानम्।
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मूत्राघातकी उत्पत्ति।

नाभेरधोधः प्रगतास्त्रिदोषा भवन्ति ते कुंडलिकासमानाः॥स्वहेतुभिः संकुपिता भ्रमंति कुर्वंति पश्चाद्बहुमूत्रघातान्॥१॥नाभेरधो यदा वायुः कुंडलाकारसंस्थितः॥ आध्मापयन् गुदंबस्तिं मूत्राघातो भवेत्तदा॥२॥ मूत्रस्य वेगं विदधाति तीव्रमपानवायुः कुपितस्तु तेन॥नाभेरधोर्ध्वं महतीं प्रपीडां करोति यस्तस्य नरस्य नूनम्॥३॥

** अर्थ**—दोष नाभिके नीचे जाय कुंडलीके समान होकर और अपने हेतूनसे कुपितहो भ्रमण करैपश्चात् मूत्राघातरोगको प्रगट करतेहैं॥१॥ जब पवन नाभीके नीचे कुंडलाकारहो गुदा मूत्रस्थानमें भरजावै तब मनुष्यके मूत्राघात रोग होताहै॥२॥ जो पुरुष मूत्रके वेगको रोके तब उसके अपान वायु कुपितहो नाभीके ऊपर नीचे भारी पीडा करैउसे मूत्रकृच्छ्र कहतेहैं॥३॥

वातके मूत्रकृच्छ्रका लक्षण।

वातोधःप्रगतो रुणद्धि पुरुतो मूत्रं पुरीषान्वितं मेढ्रे बस्तिगुदे दधाति महतीं पीडां च शोफान्विताम्॥ आध्मानं कुरुते मुहुर्मुहुरतो मूत्रं सकृत्कष्टदं कृष्णाभं पवनोद्भवं निगदितं तन्मूत्रवातं परैः॥४॥

पित्तके मूत्राघातके लक्षण।

मेढ्रं बस्तिं गुदाग्रं दहति बहुतरं मूत्रमार्गं रुणद्धि स्वल्पं स्वल्पं सकृच्छ्रम्बहुरुधिरयुतं कारयत्येव मूत्रम्॥ धत्तेधोगत्यकोपं वितरति वलयाकाररूपं च पित्त तत्पैत्त्यं मूत्रघातं निगदितमृषिभिर्मानसैः सद्भिपग्भिः॥५॥

कफके मूत्राघातका लक्षण।

श्लेष्माधोगत्यशोफं वितरति गुरुतां मूत्रमार्गं रुणद्धि मेढ्रेबस्तौ गुदाग्रे प्रवहति सरुजं कारयत्येव मूत्रम्॥ तुच्छं तुच्छं सकष्टं क्वचिदपि बहुशो मेदुरं श्वेतवर्णं सांद्रं शीतं सफेन कथितमृ पिवरैर्मूत्रघातं कफस्य॥६॥

** अर्थ**—वात नीचे जायकर दस्त पेशाबको रोंक अंडकोश और मूत्रस्थानमें सूजनके साथ भारीपीडा करै, अफरा, और बारबार कष्टसे थोडा पेशाब कालेरंगका उतरे, उसे वातका सूत्राघात कहते हैं॥४॥ कुपित हुआ जो पित्त सो नीचे जायकर कंकणके आकारहो अंडकोश और मूत्रस्थानमें तथा गुदाग्रमें पीडाकरै, मूत्रके मार्गको रोकदे, थोडाथोडा कठिनतासे बहुत रुधिरमिला मूतै, उसे ऋषि और वैद्योंने पित्तका मूत्राघात रोग कहाहै॥५॥ कफ नीचे प्राप्तहो सूजनको करै देह भारी, मूत्रके मार्गोंको रोकदे, मेढ्र, बस्ति, गुदा इनमें पीडा करे, थोडा थोडा कठिनतासे कभी बहुतसा चिकना सपेदरंगका गाढा शीतल झागमिला ऐसा पेशाब उतरै, उसे कफका मूत्राघातरोग ऋषियोंने कहा है॥६॥

मूत्राघातं द्विदोषोत्थ त्रिदोषोत्थं भिषग्वरैः॥ ज्ञायते लक्षणैः सर्वैर्वातपित्तकफोद्भवैः॥७॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे मूत्राघातलक्षणम्।

** अर्थ**-दो दोषोंके लक्षणोंसे द्विदोषका मूत्राघातरोग जानना, त्रिदोषसे सन्निपातका मूत्राघात वैद्यों करके जानना॥७॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां मूत्राघातनिदानम्।
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अथाश्मरीरोगनिदानम्।

स्त्रियां योनिरंध्रेशिशूनां च मेढ्रेभवत्यश्मरी मूत्रवेगस्य रोधात्॥ मरुच्छ्लेष्मपित्तैर्भवा शुक्रजन्या महादुःखदा प्राणहंत्री प्रसिद्धा॥१॥

वातकी अश्मरीका लक्षण।

रूक्षा वातभवाश्मरी गुरुतरा भल्लातमज्जासमा शिश्न छिद्रगतारुणद्भ्रिपरितो मूत्र विगंधान्वितम्॥ पीडां मूत्रपुरीषयोर्वितनुते मेढ्रेगदे बस्तिषु ह्याध्मान कुरुते रुचिंकृशतनुं ग्लानिं
ज्वरं बिभ्रते॥२॥

पित्तकी पथरीके लक्षण।

सूक्ष्मा पित्तसमुद्भवा मणिनिभा खर्जूरतुल्यारुणा तप्ता कंटकसंयुताथ चिपिटा शिश्ने गता याश्मरी॥ छिद्रं मूत्रपुरीषयोर्दहति या योनौ रुजं वर्द्धते मूत्रं कृच्छ्रतमं सदाहमनिशं तृष्णाङ्करोति द्रुतम्॥३॥

** अर्थ**—मूत्रके वेग रोकनेसे स्त्रियोंकी योनिमें और बालकोंके अंडकोशोंमें पथरीका रोग होताहै १ वादीसे, २ पित्तसे, ३ कफसे, ४ शुक्रसे, चार तरहकी है महादुःखकी देनेवाली प्राणकी नाशक प्रसिद्ध॥१॥ वातकी प्रथरी रूखी भारी भिलावेकी मज्जाके समानहो, इंद्रीमें प्राप्तहो, इन्द्रीके छिद्रको रोकदे, मूत्रमें बास आवै, पेशाब और दस्तके समय गुदा मूत्रस्थान और पोतोंमें दर्द हो, अफरा, अरुचि, कृशदेह, ग्लानि, ज्वर ये लक्षण वातकी पथरीकेहैं॥२॥ छोटी हो, मणिके समानहो, खजूरके फलके तुल्य, लाल हो, गरम तथा कांटे औरचपटी लिंगमें हो मूत्र दस्तके छिद्रको दहन करै, योनिमें दर्दहो, कठिनतासे दाहयुक्त पेशाब उतरै, प्यास हो, ये लक्षण पित्तकी पथरीके हैं॥३॥

शूलं मेढ्रगुदे भगे प्रलपनं कार्श्यं ज्वरं कंपनमूष्माणं विदधाति बस्तिगुदयोर्मूत्रस्य धारारुणम्॥वैक्षीण्यं परितो रुणद्धि सहसा पार्श्वोदरे पीडनं घोरा पित्तभवाश्मरी निगदिता वैद्योत्तमैः प्राणहा॥४॥

कफकी पथरीका लक्षण।

स्निग्धाम्रमज्जासदृशा कफोद्भवा श्वेताश्मरी कंटकवेष्टिता दृढा॥ शीतातिमध्ये गुदशिश्नयोर्भवा संजायते मूत्रनिरोधनाच्छिशोः॥५॥ शैथिल्य कुरुतेश्मरी कफभवा शिश्नान्तरे तोदनं धैर्यं नाशयतेऽरुचिं वितनुते ह्यङ्गं मुहुः कंपते॥ मूत्रं श्वेतनिभं रुणद्धि गुरुतां काये शिरःपीडनं धत्ते पांडुरुजं तनौ कृशवपुर्निद्रालसं बिभ्रते॥६॥

** अर्थ**—अंडकोश, गुदा, भग इनमें शूलहो, प्रलाप, कृशता, ज्वर, कम्प, गुदा और मूत्रस्थान में गरमी, तथा मूत्रकी धार लालहो, क्षीणता, पेशाबका रुकना, पसवाडोंमें तथा पेटमें दर्द ऐसे लक्षणोंसे वैद्योंने प्राणकी नाशक पित्तकी पथरी कहीहै॥४॥ चिकनी, आमकी गुठलीके समान हो, सपेद और कांटेयुक्त, दृढ, शीतल, तथा गुदा और लिङ्गेद्रियके मध्य हुई हो, ये बालकके मूत्रबाधा रोकनेसे पैदा होतीहै ये लक्षण कफकी पथरीके हैं॥५॥ शिथिलता, इन्द्रियमें पीडा, धैर्यका नाश, अरुचि, अंगोंमें कम्प, सपेद पेशाबहो, और रुकरुक कर उतरै, देहभारी, शिरमें दर्द, पाण्डु, और कृशता देहमें, निद्रा, आलस्य ये लक्षण कफकी पथरीके हैं॥६॥

वीर्य्यरोधकी पथरीका लक्षण।

यूनां वीर्यस्य रोधाद्भवति च महती शुक्रजाताश्मरी या शिश्नं बस्तिं गुदां वै रुजयति वृषण मूत्रमार्गं रुणद्धि॥ दौर्बल्यं कुक्षिरोगं वितरति सहसा शुक्रनाशं करोति तुच्छं तुच्छं सकष्टं क्वचिदपि बहुशः कारयत्येव मूत्रम्॥७॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे अश्मरीलक्षणम्।

** अर्थ**—जवानपुरुषोंके वीर्यके रोकनेसे जो पथरी रोगहो उसके ये लक्षण हैं. लिंग, मूत्रस्थान, गुदामें पीडाहो, तथा अंडकोशोंमें दर्दहो, मूत्रके मार्गको रोकदे, दुर्बलता, कूखमें दर्द, शुक्रका नाश, कष्टसे कभी थोडा कभी बहुत पेशाब उतरे॥७॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यामश्मरीलक्षणम्।
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अथ प्रमेहलक्षणम्।

दधिमधुघृतदुग्धं मद्यपानं नवान्न फलरसमतिमिष्टं तक्रमिक्षोर्विकारम्॥ रविकृतपरितापः सुन्दरीस्त्रीकटाक्षैर्भवति विषमचेतो मेहहेतुर्नितांतम्॥१॥

वातके प्रमेहका लक्षण।

मूत्राग्रे वाथ पश्चात्प्रपतति सततं शुक्रमिक्षोरसाभं यामे यामद्वये वा क्वचिदपि समये पातमाप्नोति दोषैः॥ निर्गंध तक्ररूपं लवणजलनिभ दुग्धतुल्यं सुराभ रूक्षं वातप्रमे प्रवदति चरकः कृष्णवर्णं च नीलम्॥२॥ मेहो वातसमुद्भवः प्रकुरुते शूलं महादारुणं हृद्रोगं पिटिका मुखे मधुरतां श्वासं शरीरं कृशम्॥ आध्मानं तनुपीडनं विकलतां शोष च कासान्वित ह्युन्निद्राम्बलनाशनञ्चपलतां रूक्षां त्वचं साहसम्॥३॥

** अर्थ**—दही, सहत, घी, दूध, मद्यके पीनेसे, नवीन अन्न फल रस अतिमीठा छांछ ईखके विकारसे,
सूर्यके घामसे सुंदरस्त्रीके कटाक्षसे चित्तमें प्रमेहका हेतु होताहै॥१॥ पेशाब करनेके पहिले वा पीछे ईखकासा रंग ऐसा शुक्र गिरे पहर पहरमें या दोपहरमें दोषोंके होनेसे दुर्गंधयुक्त छांछके समान, वा नोनके पानीसरीखा, दूधके समान, मद्यके समान रूखाहो ये लक्षण वातके प्रमेहके चरक ऋषिने कहे हैं॥२॥ वातका प्रमेह दारुणशूल हृदयरोग मरोडी मुखमें मिठास श्वास देह कृश अफरा देहमें पीडा बेकली शोष खांसी निद्रा बलका नाश चपलता त्वचा में रुखास साहस ये लक्षण करताहै॥३॥

पित्तके प्रमेहका लक्षण।

घनं पावकाभ हरिद्रानिभं वारुण रक्ततुल्यं च सिंदूरवर्णम्॥ प्रमेहं च पित्तोद्भवं वैद्यराज विजानीहि मंजिष्ठकावर्णतुल्यम्॥४॥ कषायञ्च मूत्रं करोति प्रमेहो रतिं पित्ततः कष्टसाध्योऽतिकृच्छ्रम्॥ज्वरं बस्तिशूल कृशांगं पिपासां क्लमं मेढ्रदाहं भ्रमं शोषमंगे॥५॥

कफके प्रमेहका लक्षण।

घृतदधिवसरूप दुष्टदुर्गंधयुक्त घनमधुसदृशं वा पिच्छिलं मेहवर्णम्॥ सितलवणनिभं वा मेदुरं तंतुमिश्रं बुधजन किल मेहं विद्धि साध्य कफात्म्यम्॥६॥

** अर्थ**—गाढा, अग्निके समान वर्ण, तथा पीला वा लाल, अथवा जलके सदृश, वा मंजीठ के वा सिंदूरके रंगकासा पेशाब उतरे, उसे हे वैद्यराज! पित्तका प्रमेह जानो॥४॥ कसेले रंगका रुधिरके रंगका ज्वरकरे मूत्रस्थानमें पीडा कृश देह प्यास ग्लानि अडकोशोंमें दाह, भ्रम, शरीरमें शोष, अरति ये पित्तके प्रमेहके लक्षण हैं, ये कष्टसाध्य हैं॥५॥ दही, घृत, चरबीके समान मूते, दुर्गंधयुक्त गाढा सहतके समान, तथा सपेद मिश्री और नोनके रंगसा और चिकना पेशाब उतरे तन्तुयुक्तहो उसको पंडित कफका प्रमेह कहते हैं॥६॥

मेहः श्लेष्मसमुद्भवो वलहरः शुक्रस्य विध्वंसक आलस्यं कुरुते रुचिवृषणयोः शोथं तनौ पांडुताम्॥ शैथिल्य गुरुतां वमिं नयनयोश्शौक्ल्यं त्वचि स्फोटनं तंद्रा रात्रिदिनेऽनिशं मलचयं दन्तांघ्रिहस्तेष्वलम्॥७॥

प्रमेहरहितके लक्षण।

यदा प्रमेहिणो मूत्रं कटुतिक्तमपिच्छिलम्॥ शुद्धं रूक्ष शुभ्रधारं तदाऽऽरोग्यं वदेद्भिषक॥८॥

साध्यअसाध्यकष्टसाध्यविचार।

मेहः कफोत्थितः साध्यः साध्यः कष्टेन पित्तजः॥ वातजस्त्वृषिभिः पूर्वैरसाध्यः परिकीर्तितः॥९॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे प्रमेहलक्षणम्।

** अर्थ**—कफका प्रमेह बल हरता, शुक्रका नाशकरता, आलकस, अरुचि पोतोंपर सूजन; शरीर पीला, और शिथिल तथा भारी, वमन, नेत्र सपेद, त्वचाका फटना, रात, दिन तन्द्राका होना, दांत, जीभ, हाथ पैरों में मैलका संग्रह होना ये लक्षण करताहै॥७॥ जिस प्रमेहवालेका पेशाब कडुआ, तीखा, पतला, शुद्ध, रूखा, सपेद धारका उतरे, उसका प्रमेह दूर भयाजानिये॥८॥कफका प्रमेह साध्य है, पित्तका कष्टसाध्य है, वातका प्रमेह पूर्व ऋषियोंने असाध्य कहाहै॥९॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां प्रमेहनिदानम्।
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अथ पिटिकारोगनिदानम्।

तिक्ताम्लोष्मविदाहिरूक्षकटुकक्षारातपाध्याशनैर्मद्यस्निग्धविरुद्धभोजनरसैर्दुष्टैर्नवान्नद्रवैः॥ दोषं पित्तमरुत्कफाद्विदधते संदूष्य रक्तामिषं त्वक्संभेद्य बहिर्गताश्च पिटिका रूपेण कुप्यन्ति ते॥१॥ दुष्टग्रहप्रकोपेन दोषा मर्मप्रभेदिनः॥ जनयंति शरीरेषु पिटिका बहुधा मताः॥२॥ज्वरश्छर्दिरतीसारो रक्तांगो तीव्रवेदना॥ स्वेदे तृषारुचिः श्वासो वैवर्ण्यं विकलोरतिः॥३॥

** अर्थ**—तिक्त, खट्टा, गरम, दाहकरनेवाला, कटु, रूखा, खारी भोजन, घाममें डोलनेसे भोजनपर भोजन करनेसे मद्य चिकनी विरुद्ध भोजन और पानसे दुष्ट नवान्न और पतली वस्तु से कुपितहुये जो वातपित्त कफ सो रुधिर और मांसको बिगाड कर त्वचाको फाडकर फुंसीरूप पिटिका रोग कोप करताहै॥१॥ दुष्टग्रहके कोपसे तीनोंदोष मर्मस्थानको भेदकर देहमें अनेक प्रकारके पिटिका रोग पैदा करते हैं॥२॥ ज्वर, रद्द, अतीसार, देहलाल, तीव्रदुःख, पसीना, प्यास, अरुचि, श्वास, विवर्ण, बेकली, अरति॥३॥

पिटिकाका पूर्वरूप।

अस्थिस्फोटोङ्गदाहश्च शोषः कंड्वरुचिर्भ्रमः॥ पिटिकानां पूर्वरूपं मुनिभिः परिकीर्तितम्॥४॥

वातकी पिटिकाके लक्षण।

तृष्णा पावकसंनिभाश्च पिटिका वातोद्भवास्त्वग्गताः सूक्ष्मा मुद्गसमा मसूरसदृशाः सप्ताह्नि-पाकारुजाः॥ सूक्ष्माभाश्चिपिटा घनाश्च परितः कुर्वंति पीडाभयं दाहानाहतृषाक्षवार्ति-वमथुश्वासातितापाकराः॥५॥

पित्तकी पिटिकाका लक्षण।

अस्थिस्फोटः पर्वभेदोंगदाहः श्वासः शोषो विड्ग्रहो मूत्रकृच्छ्रः॥रौद्रास्फोटारक्तजारक्तवर्णा वैद्यैरुक्तं पित्तकोपस्य चिह्नम्॥६॥

** अर्थ**-हडफूटन, देहमें दाह, शोष, खुजली, अरुचि, भ्रम, ये मुनीश्वरोंने पिटका रोगकापूर्वरूप कहा है॥४॥काली, अनिके रंगकी, त्वचामें, फुंसीहों, छोटी और मूंगके समान तथा मसूरके समान सात दिनमें पक, कमदीखें, चपटी और कठोरहों और पीडा भयको देनेवाली, दाह, आनाह, प्यास, छींक, मथवाय, श्वास, अत्यंत तापकी करनेवाली, वातकी पिटिका जाने॥५॥हडफूटन, गांठोंमें दर्द, अंगोंमें दाह, श्वास, शोष, दस्तका रुकना, मूत्रकृच्छ्र, रौद्र, फोडे, रक्तसे पैदा लालरंगके हों तो वैद्य पित्तकी पिटिका जाने॥६॥

कफकी पिटिकाके लक्षण।

पिटिकाःकफकोपभवाः कठिनाः स्फटिकद्युतयो बहुधाकृतयः॥चिरपाकरुजास्तनुशोककरा बदरीफलपक्वसमारुचयः॥७॥श्लेष्मा कोपेन कुर्यात्त्वचि पिटकशतं बुद्बुदाकारतुल्यं शोफप्रांतं कठोरं बदरफलसमं मांसत्वग्भेदजातम्॥ निद्रां तन्द्रां पिपासां भ्रममरुचिवमिं कासमंगेषु पीडां श्वासं कंडूप्रसेकं ह्यवयवशिथिल शीर्षरोगं ज्वरार्तिम्॥८॥ वातपित्तभवा नीला मध्ये निम्ना ज्वरान्विताः॥ भवंति पिटिकाः क्षुद्राः शोषदाहतृषा युताः॥९॥

** अर्थ**—कफकोपकी पिटिका कठिन, स्फटिक मणिके समान, तरह तरहकी, देरमें पकें, देहमें सूजनहो, पके बेरके समान कान्तिहो॥७॥ कफकोपकी पिटिका त्वचामें सैंकडों फुन्सी को बबूलेके आकार, उसके चारों ओर सूजन, तथा कठिन बेरफलके समान मांसत्वचाको फाडकर प्रगटहो, निद्रा, तंद्रा, प्यास, भ्रम, अरुचि, वमन, खांसी, अंगोंमें पीडा, श्वास, खुजली, लारका गिरना, शरीरके अवयव शिथिल, शिरमें दर्द उधर तथा खेद, ये कफकी पिटिकाके लक्षण हैं॥८॥ वातपित्तकी पिटिका नीले रंगकी, बीचमें बैठीसीहो, ज्वरहो और क्षुद्रा पिटिका दाह, शोष, प्यासयुक्त होतीहैं९॥

स्थूलाः श्वेताः प्रोन्नता दुश्चिकित्स्याः पूयस्रावाः स्फोटकाःकष्टपाकाः॥ स्निग्धाः कडूशोफतंद्रा-पिपासाकासश्वासारोचकातापयुक्ताः॥१०॥ संभूताः कफवाताभ्यां विज्ञेयाःपंडितैर्नरैः॥ अतः परं तु ज्ञातव्या विस्फोटाः कफपित्तजाः॥११॥ रोगार्तैःपिटिका घना बुधजनेर्ज्ञेयाश्च निम्नोन्नताः पित्तश्लेष्मभवा विवृत्तवदनास्स्थूलाः शिरोर्तिप्रदाः॥ वक्रेभ्यो रुधिरस्रवाश्चिमिचिमामूर्च्छा-पिपासान्विता निद्राकंडुविवर्णताशिथिलताकंठांगपीडाकराः॥१२॥

** अर्थ**—मोटी, सफेद, ऊंची, जिनका कठिन उपाय, राधबहे, कष्टसे पके, चिकनी और खुजली, सूजन, तंद्रा, प्यास, खांसी, श्वास, अरुचि, ज्वर ऐसी पिटिका वातकफ की जाननी॥१०॥ इस श्लोकका अन्वय दूसरे अगाडीके श्लोकमें लगता है॥ अब इसके आगे पित्तकफकी पिटिकाके लक्षणजानो॥११॥ रोगीकी फुन्सी कठिन, नीची, ऊंची, मोटी, खुले मुखकी, शिरमें दर्दकी करनेवाली, रुधिर चुचावे, चिमचिमीयुक्त, मूर्च्छा, प्यास, निद्रा, खुजली, विवर्णता, शिथिलता, कंठ अङ्गों में पीडाहो, ये लक्षण पित्तकफकी पिटिकाके होते हैं॥१२॥

संनिपातकी पिटिकालक्षण।

असाध्याः पिटिका ज्ञेया वातपित्तकफोद्भवाः॥ उत्पद्यन्ते विलीयंते शरीरे रोगिणां पुनः॥१३॥ पित्तश्लेष्ममरुद्भवाश्च पिटिकाः पूयस्रवा रक्तदा आध्मानं तनुगौरवं विकलतां कुर्वंत्यसांध्यारुजाः॥ दाहं शोफतरं तृषां बहुमुखाः पाके च दुःखप्रदा अस्थिस्फोटमहर्निशं बहुतरं श्वासंविवृत्ताननाः॥१४॥ रक्तस्राव नासिकाकर्णनेत्रास्येभ्यो मूर्च्छां मंडलं मांसकोचम्॥हिक्कां कासं मूत्रकृच्छ्रांगभेदं कृष्णाः स्फोटा मृत्युदा दुश्चिकित्स्याः॥१५॥

** अर्थ**—वात पित्त कफकी पिटिका रोगीके देहमें पैदाहों और नाशहों वो असाध्य हैं॥१३॥ सन्निपातकी पिटिकामें रुधिर और राध चुचाय, अकरा, देहभारी, बेकली, दाह, सूजन, प्यास बहुतसे मुखहों, पकनेके समय दुःखहो, हडकल हो, श्वास, तिरछे नेत्र ये असाध्य पिटिकाके लक्षणहैं॥१४॥ नाक कान नेत्र मुख इनसे रुधिर चुचाय, मूर्च्छाहो, खूनके चकत्तेहों, मांसका संकोचहोना, हिचकी, खांसी, मूत्रकृच्छ्र, अंगोंमें पीडा, कालेरंगके फोडा ये लक्षण मृत्युके करनेवाले चिकित्सा रहित जानने॥१५॥

त्वचामें गतपिटिकालक्षण।

त्वग्गताः पिटिका ज्ञेया जलबुद्बुदसन्निभाः॥
स्वल्पदोषजलस्रावाः सुखसाध्या भिषग्वरैः॥१६॥

रक्तमें प्राप्तपिडिकालक्षण।

रक्तस्था रक्तभाः साध्याश्शीघ्रपाकास्तनुत्वचः॥
रक्तस्रवा विदीर्णास्याः विज्ञेया पिटिकाः परैः॥१७॥

मांसमें प्राप्तपिडिकालक्षण।

मांसस्थाः पिटिकाः स्निग्धाः कठिनाः कठिनत्वचः॥
चिरपाका ज्वरश्वासकंडूदाहतृषान्विताः॥१८॥

मेदमें प्राप्तपिडिकालक्षण।

मेदजाः पिटिकाः स्निग्धाः स्थूला ज्वरसमन्विताः॥
मृदवो मंडलाकाराः पीताभाः किंचिदुन्नताः॥१९॥

मज्जामें प्राप्तपिडिकालक्षण।

रूक्षा मुद्गसमाः क्षुद्राश्चिरपाकसमन्विताः॥
मज्जस्थाश्चिपटा ज्ञेयाः सव्यथाः किंचिदुन्नताः॥२०॥

** अर्थ**—जलके बबूलेके समानहो, थोडे दोषयुक्त, जल चुचावे और त्वचामेंहो वो वैद्योंने सुख साध्य कही हैं॥१६॥ जो फुन्सी लालरंगकी हो, जल्दी पके, नर्मत्वचाहो, रुधिर चुचाय, खुलेमुखकी, वो रक्तगत पिडिका जाननी येभी साध्यहै॥१७॥ मांसमें प्राप्त पिडिका कठिन, चिकनी, करडी त्वचावाली, देरमें पके, ज्वर, श्वास, खुजली, दाह, प्यास इनसे युक्त होती है॥१८॥ चरबीमें प्राप्तपिडिका चिकनी, मोटी, ज्वरयुक्त, गरम, गोलमंडलके आकार, पीली, कुछ ऊंची होती है॥१९॥रूखी, मूंगके समान छोटी, देरमें पकनेवाली, चपटी, दर्द युक्त, कुछऊंची, मज्जागत पिडिका जाननी॥२०॥

हाडमें प्राप्तपिडिकालक्षण।

अस्थिस्थाः पिटिकाः कुर्य्युर्भ्रमं दाहं तृषां ज्वरम्॥
छिंदंति मर्मधामानि प्राणानाशु हरंति च॥२१॥

शुक्र में प्राप्तापडिकालक्षण।

शुक्रस्थाः पिटिकाः कुर्युः स्तैमित्यं बहुवेदनाम्॥
प्राणनाशं शिरःकंप श्वासं कासं ज्वरान्वितम्॥२२॥

असाध्यशीतलका लक्षण।

मसूराभिभूतस्य कर्णाक्षिनासामुखेभ्यः स्रवेदस्यरक्तंनितांतम्॥
विवर्णार्तिहिक्कातृषापीडितस्यस रोगीयमस्यालयेयाति नूनम् २३

** अर्थ**—अस्थिमें प्राप्तपिडिका ये लक्षण करती है. भ्रम, दाह, प्यास, ज्वर, मर्ममममें पीडा और जल्दी प्राणोंका नाश करै॥२१॥ शुक्रमें प्राप्त पिडिका देहगीला, बहुत दुःख, प्राणोंका नाश करे, शिरमें कंप, खांसी, श्वास, ज्वर ये लक्षणकरती है॥२२॥ शीतलावाले रोगीके कान नाक मुख नेत्रसे रुधिरगिरै विवर्ण तथा दर्द हिचकी प्यास ये लक्षण होनेसे असाध्य जानना॥२३॥

दोषैकेनोत्थिताः साध्याः कष्टसाध्या द्विदोषजाः॥ पिटिकाः सन्निपातोत्था मृत्युदाः कीर्त्तिताः परैः॥२४॥ ॥इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे मसूरिकानिदानम्।

** अर्थ**—एकदोषसे उठी साध्य, द्विदोषसे उठी कष्टसाध्य, त्रिदोषसे उठी वो फुन्सी मौतकी देनेवाली कही है॥२४॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां पिटिकारोगनिदानम्।
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अथ पिटिकारोगनिदानम्।

सराविका कच्छपिकाथ जालिनी मसूरिका सर्षपिका च पुत्रिणी॥ विदारिका विद्रधिका तु पिंडिका तथांजली ज्ञैः पिटिका दश स्मृताः॥१॥

प्रमेहसे उत्पन्नपिटिका।

मेहोत्थाः पिटिका भवंति दशधा बाल्ये क्वचिद्यौवने कायस्यांतरबाह्ययोः प्रजनिता नॄणां स्त्रियां भूयशः॥ ताः कुर्वंति महज्ज्वरं नयनयोर्मुद्रां शिरःपीडनं हृल्लासांतरगुंजनं विकलतां निद्रांग-विक्षेपणम्॥२॥ अस्थिस्फोटनमंगदाहमरतिं श्वासं च कासं रुजं दौर्गंध्यं परितःस्रवं विलपनं शोषं शरीरेनिशम्॥ मूकत्वं बधिरं कृशत्वमरुचिं संधिग्रहं संभ्रमं वैवर्ण्यं शिथिलं नरं गतबलं कुर्वंति वीयक्षयम्॥३॥

** अर्थ**—१ सराविका, २ कच्छपिका, ३ जालिनी, ४ मसूरिका, १ सर्षपिका, ६ पुत्रिणी, ७ विदारिका, ८ विद्रधिका, ९ पिण्डिका, १० अंजली ये वैद्योंने दश प्रकारकी पिटिका कही हैं॥१॥ प्रमेहसे उठी पिटिका दसतरहकी बालक अवस्थामें कभी जवानपने में होती हैं, देहके बाहर भीतर स्त्रीपुरुषोंके बहुतसी वे ज्वर, नेत्रका मुंदजाना, शिरमें दर्द, सूखी रद्द, आंतोंकाबोलना, बेकली, निद्रा, अंगोंका फैंकना इन लक्षणोंको करतीहैं॥२॥ हडकल, अंगोंमें जलन, अरुचि, श्वास, खांसी, दुर्गंध, स्राव, विलाप, शोष, बहिरापना, तथा गूंगापना, कृशता, अरुचि, संधियों में पीडा, भ्रम, विवर्णता, शिथिलता, बलहीन, वीर्यका क्षयपना, ये लक्षण पिटिका रोगके हैं॥३॥

पिटिकाः कर्बुरा नीला मलिनांतर्गताः शिताः॥ मृत्युप्रदारक्तवर्णाः पाटलाः कष्टदाः स्मृताः॥४॥किंचित्कष्टप्रदाः पीताः पिशंगाः पिंगलास्तथा॥ स्वभ्राः स्फटिकसंकाशाः स्निग्धाः सुखकराः स्मृताः॥५॥ मर्मस्थलेषु वांसेषु जायंते संधिषून्नताः॥ पिटिकाः श्वेतरक्ताभा मध्यगर्त्ताः सराविकाः॥६॥

** अर्थ**—धूसरे रंगकी, नीले रंगकी मलिन, भीतर सपेदहो वो मृत्युकी देनेवाली पिटिका जाननी और लाल वा गुलाबीरंगकी कष्टदेनेवाली होतीहै॥४॥ पीलेरंगकी हरतालके रंगकी पिटिका कुछ कष्ट देती है नीबुआ रंगकी, स्वच्छस्फटिक मणिके रंगकी, चिकनी, सुखकरनेवाली होती है॥५॥ मर्ममें और मांसमें तथा संधियोंमें उठी हुई सफेद लाल रंगकी बीच में गड्ढाहो उसको सराविका कहतेहैं॥६॥

कूर्मरूपा महापुष्टा वर्त्तुला ज्वरदाहदाः॥ जायंते पिटिकाः सर्वाः कच्छप्यस्ता उदाहृताः॥७॥ तीव्रदाहप्रदामांसे सक्लेदा वर्द्धते रुजम्॥ जालवद्वेष्टयत्यंतं प्रोक्ता सा जालिनी बुधैः॥८॥ मसूरदेहवत्सूक्ष्मा रक्ताभा सा मसूरिका॥ गौरसर्षपभा स्निग्धा तत्प्रमाणा च सर्षपा॥९॥

अर्थ— कछुएकेसा स्वरूप हो ज्यादा मोटी हो, बत्तीकी तरहहो, ज्वर और जलनको करे ये लक्षण कच्छपिकाके हैं॥७॥ तीव्र जलन, मांसमेंही क्लेशयुक्त पीडाको बढावै, और जालकी तरह चिपटे उसे पंडित जालिनी कहते हैं॥८॥ मसूरकी दालकी समान छोटी, और लाल हो, उसे मसूरिका कहते हैं और सपेद सरसोंके समान हो और चिकनी हो उसे सर्षपिका कहते हैं॥९॥

पिटिकासु प्रजायंते पिटिका घोरदर्शनाः॥ पुत्रिण्यस्त्वार्तिदा नीलाः प्रोक्ता वैद्यैर्विशारदैः॥१०॥ अतिदीर्घा सशोफा या परस्परयुतारुणा॥ विद्रधेर्लक्षणैर्युक्ता प्रोक्ता विद्रधिका बुधैः॥११॥ विदारिकंदवद्दीर्घा कठिना दुःखकारिणी॥ ज्वरार्तिदा क्षुधाहारी विज्ञेया सा विदारिका॥१२॥

** अर्थ**—जो फुन्सीमें दूसरी फुन्सी घोर पैदा हो और पीडायुक्त हो और नीलेरंगकी हो उसे पुत्रिणी कहते हैं॥१०॥ बहुत बडी सूजनयुक्त और परस्परमिली हुई हो लालरंग हो और विद्रधिके लक्षण मिलतेहों उसे वैद्योंने विद्रधिका कही है॥११॥ विदारीकंदके समान मोटी हो कडी दुःखकारक ज्वर, खेद, भूखका नाश करनेवाली उसको विदारिका कहते हैं॥१२॥

पिंडीवत्पिंडिका ज्ञेया देहशोफकरी सिता॥ व्यक्तांजुल्याकृतिर्ज्ञेया वैद्यैः सा विततांजुला॥१३॥पिटिकार्तेंर्विनाशाय शीतलां पूजयेत्सुधीः॥ पुष्पैर्धूपाक्षतैर्दीपैर्नैवेद्यैर्मंगलैस्तथा॥१४॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रेमसूरिकापिटिकालक्षणम्।

** अर्थ**—जो पिंडीके आकार हो उसे पिंडिका जाननी, वो देहमें सूजनको करतीहै जो मिली हुई अंजलीके आकारमें हो उसे वैद्य विततांजुली कहते हैं॥१३॥ पिटिका और शीतला एकही है इसी वास्ते पिटिकाके दुःखके नाशनार्थ शीतलाका पूजन धूप दीप चावल पुष्प नैवेद्य और मंगलाचरणके साथ करै॥१४॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां पिटिकामसूरिकारोगनिदानं समाप्तम्।
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अथ मेदोरोगनिदानम्।

मेदउत्पत्तिः।

अव्यायामैर्दिवास्वप्नैर्मांसमिष्टान्नभोजनैः॥ अतिस्निग्धाशनैर्दैहे मेदोवृद्धिः प्रजायते॥१॥ जठरे मेदसो वृद्धिः करोति बलसंक्षयम्॥ निद्रां दौर्गंध्यमंगे षुचाशक्तिं सर्वकर्मसु॥२॥ स्थूलोदरमनुत्साहं गौरवं तनुशीतलम्॥ जठराग्नेः क्षयं जाड्यं श्वासं कंपनसादनम्॥३॥

** अर्थ**—दंड कसरतके न करनेसे सोनेसे, मांस मिष्टान्नके खानेसे, अति चिकनी वस्तुके खानेसे देहमें मेद बढ़ा है॥१॥ पेटमें मेदके बढनेसे बलका नाशहोता है, और निद्रा तथा दुर्गंध देहमें और सर्वकर्ममें अश्रद्धा होतीहै॥२॥ पेटको बढावै, उत्साह रहित, तथा देह भारी तथा शीतल, जठराग्निका नाश और जडता, श्वास, कंप और देहका रहजाना करेहै॥३॥

कायं स्थूलतरं मेदः सस्वेदं स्वल्पमैथुनम्॥
धातुक्षयं त्वचं पीतां बहुमूत्रां सितेक्षिणीम्॥४॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे मेदसोवृद्धिलक्षणम्।

** अर्थ**—जिसकी देह मोटी मेदसे और पसीने युक्त, मैथुन थोडा कराजाय, और धातु गिराकरैपीली त्वचा होजाय, मूत्र बहुत उतरे, सपेद नेत्र हो, ये मेद रोगके लक्षण हैं॥४॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां मेदोरोगलक्षणम्।
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अथ गंडमालारोगनिदानम्।

विस्फोटमाला गलकेशशोफमेदोद्भवा तोदयुतातिरक्ता॥ कर्कंधुजंब्वामलकप्रमाणा तां गंडमालां प्रवदंति वैद्याः॥१॥

वातकी गंडमालाके लक्षण।

वातोद्भवा या गलगंडमाला कृष्णारुणाभा कुरुतेतितोदम्॥

स्तब्धा शिरातालुगले प्रशोषं भिन्नस्वरं रूक्षतमं शरीरम्॥२॥

वैरस्यमास्ये विदधाति कष्टं संस्रावयेद्रक्तनिभं च पूयम्॥
भिन्नस्वरं कष्टतरेण पाकं करोति वातात्मकगंडमाला॥३॥

** अर्थ**—फोडे मालाकी तरह सूजनयुक्त गलेमें हो और लालहो तथा बेर जामुन आमलेके प्रमाणहो मेदसे पैदा हुआहो उसे वैद्य गंडमाला रोग कहते हैं॥१॥ वातकी गंडमालाके ये लक्षण हैं कालीहो, लालहो, अतिपीडाकरै, नाडिनको स्तंभन करदे, तालू गलेमें शोषहो, बुरास्वर, शरीररूखा करे॥२॥मुखमें स्वाद न रहै, कष्टको बढावै, तथा राधरुधिरबहै, बुरास्वर होजाय कष्टसे पकैयेभी वातकी गंडमालाके लक्षणहैं॥३॥

पित्तकी गंडमालाका लक्षण।

ज्वरं शोफशूलं करोत्युग्रदाहं कटुत्वं मुखे कंठताल्वोष्ठशोषम्॥
महत्पित्तकोपोद्भवा रक्तवर्णा गलेमुष्कपंक्त्याकृतिर्गण्डमाला ४॥

कफकी गंडमालाका लक्षण।

जम्बूकर्कंधुपूगीफलकलितरुभापक्वनारंगपिंगा काठिन्या ग्रंथिपक्तिर्वितरतिपरतःकंठदेशेषु शोफम्॥ कंडूं पीडां विधत्ते प्रतिदिनमरुचिं गौरवाङ्ग च कासं पूय रक्तं सगंधं स्रवति भवति सा श्लेष्मजा गडमाला॥५॥

इति श्रीभिपक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे गडमालालक्षणं समाप्तम्।

** अर्थ**—ज्वर, शूल, दाह, मुखकडुआ, कंठ तालू ओठ इनका सूखना, लाल वर्ण, गलेमें अंडकोशकी पंक्ति के आकारहो उसे पित्तकी गंडमाला कहते हैं॥४॥ जामुन बेर सुपारी बहेडा, पके नारंगीके समान पीलीहो, कठिन गांठकी पंक्तिमीहो, और कंठमें सूजनहो खुजली पीडाको बढावे अरुचि, देहभारी, खांसी, राध रुधिर बासके साथ निकलै, उसे कफकी गंडमाला कहते हैं॥५॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां गंडमालारोगनिदानम्।
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अथ श्लीपदरोगनिदानम्।

शोफो नृणां पादगतोऽतिरौद्रो वल्मीकतुल्योंतरमांसवर्ती॥
मेदाश्रयःकंटकवेष्टितांगो वैद्योत्तमैः श्लीहपदो निरुक्तः॥१॥

वातकी श्लीपदका लक्षण।

निमित्तशून्यं बहुशोफपादं कृष्णं च रूक्षं स्फुटतीव्रतोदनम्॥

वातोद्भवं श्लीहपदं ज्वरार्तिर्निरूपितं वैद्यवरैर्नितांतम्॥२॥

पित्तकी श्लीपदका लक्षण।

शोफाधिकं रक्तज्वरार्तिदाहं संस्रावयुक्तं बहुरक्तवर्णम्॥
पित्तास्मकं श्लीहपदं गुरुत्वं ज्ञेयं भिषग्भिः किलकष्टसाध्यम्॥३॥

** अर्थ**—मनुष्योंके पैरमें सूजनहो, और क्रमसे बढके सर्पकी गांबीके समान लम्बी पेडू जंघा मांसमें प्राप्तहो, और मेदके आश्रयहो, कांटेयुक्त हो उसे वैद्य श्लीपदरोम कहते हैं॥१॥ विनाकारण बहुत सूजन हो, काली रूखी फटी तीव्र वेदनायुक्त, ज्वर, स्वेदहो, उसे वैद्य वातका श्लीपदरोग कहते हैं॥२॥ जिसमें सूजन ज्यादा हो, लालरंगहो, ज्वर, स्वेद, बाह रुधिर गिरै, भारीहो वो वेद्योंने कष्टसाध्य पित्तका श्लीपद कहा है॥३॥

कफके श्लीपदका लक्षण।

स्निग्धं श्लीहपदं गुरुत्वमनिशं शोकाधिकं सज्वरं श्वेताभं बहुकंटकैः परिवृतं वल्मीकतुल्यं दृढम्॥ मेदोमांसपराश्रयं चरणगं स्थूलं च शीतान्वितं भोभो वैद्यविशारदाः कफभवं जानीहि तत्पांडुरम्॥४॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे श्लीहपदलक्षणम्।

** अर्थ**-चिकना, भारी सूजन, विशेष ज्वर, सपेदरंग, बहुत कांटेयुक्त, बामीके तुल्यहो, और दृढ़हो, मेदमांसके आश्रयहो, पैरोंमेंहो, मोटी और शीतल हो उसे हे वैद्य! तू कफकी श्लीपद रोग जानो॥४॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां श्लीपदरोगनिदानम्।
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अथ विद्रधिरोगनिदानम्।

त्वग्रक्तामिषमेदांसि दूष्यदोषास्थिगाः पुनः॥ नाभेरधोमहच्छोफं ज्वरं कुर्वन्ति ते शनैः॥१॥ स विद्रधीरुक्परितो विचार्य्य प्रीतैर्भिषग्भिः किलशास्त्रपारगैः॥ महार्त्तिकृद्दाहविवर्द्धनोऽसौ शोफान्वितो हृज्जठरे च शूलम्॥२॥ विद्रधिः षड्विधः प्रोक्तो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥ दोषैर्व्यस्तैः समस्तैश्च रक्तजः सप्तमः स्मृतः॥३॥

** अर्थ**—वात, कफ, पित्त ये त्वचा, रुधिर, मांस, मेदा उनको बिगाडकर हड्डीमें प्राप्त हो नाभीके नीचे भारी सूजन और ज्वरको पैदा करते हैं॥१॥ बहुत स्वेद और दाह और सूजनको बढावै, तथा हृदय और पेटमें दर्दहो उसे वैद्योंने विचारकर विद्रधि रोग कहाहै॥२॥ विद्रधि रोग छः तरहकाहै १ वात, २ पित्त, ३ कफसे, ४ वात पित्तसे, ५ वातकफसे, ६ पित्तकफसे, और सातवां ७ रुधिरसे॥३॥

वातविद्रधिके लक्षण।

रक्तश्यामोऽतिविषमो वेदनाबहुभिर्युतः॥
शीर्षपाको विचित्राभो वातजो विद्रधिः स्मृतः॥४॥

पित्तके विद्रधिके लक्षण।

पक्वनिंबूफलाकारोरक्ताभोज्वरदाहकृत्॥
शीर्षपाकोमहत्यार्त्तिर्विद्रधिः पित्तजो भवेत्॥५॥

कफके विद्रधिके लक्षण।

स्निग्धः शीतश्चिरोत्थोयं चिरपाकोल्पवेदनः॥
श्लेष्मजो विद्रधिः पांडुः शरावसदृशो भवेत्॥६॥

** अर्थ**—लाल और काली तथा विषम बहुतपीडायुक्त, जल्दीपके, और विचित्र स्वरूप हो ये वातके विद्रधिके लक्षण हैं॥४॥ पके नींबूके समान सूजन हो, लालरंग, ज्वर दाहके करने वाली, शीर्ष पाक हो, अत्यंत पीडायुक्त ये पित्तकी विद्रधिके लक्षण हैं॥९॥ चिकनी, शीतल, बहुत दिनकी उठी और बहुत कालमें पकै, मंदपीडा हो, पीलेरंगकी शराब के समान हो, ये कफकी विद्रधिके लक्षण हैं॥६॥

सन्निपातके विद्रधिके लक्षण।

नानावर्णो दाहशूलो ज्वरार्तिः कोष्ठोत्थानं कष्टपाकोऽतिरौद्रः॥
आधिस्रावोबस्तिहृत्कुक्षिशोथो वैद्यैः प्रोक्तो विद्रधिः सन्निपातः ७

रुधिरके विद्रधिके लक्षण।

दीर्घोष्णा परिपक्वचूतसदृशो विस्फोटको मांसलः कृष्णाभो बहुदाहकृज्ज्वरकरस्तृष्णान्वितः क्षुद्धरः॥ कुक्षौबस्तिगुदोदरेषु हृदये पीडाकरोऽहर्निशं प्रोक्तो रक्तभवोभिषग्वरगणैः पितात्मको विद्रधिः॥८॥ विद्रधिं रक्तजं विद्यात्कुक्षौलग्नमचञ्चलम्॥ मांसशोणितयोर्ग्रथिं बस्तिहृन्नाभि-संभवम्॥९॥ ॥ इति भिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे विद्रधिलक्षणम्।

** अर्थ**—विचित्र रंगहो, दाह, शूल, पीडा, कोष्ठमें पैदा हुई कष्टसे पके, अति रौद्र, आधिस्राव, मूत्रस्थान, हृदय, कूख इन स्थानों में सूजन हो, इसे वैद्योंने संनिपातका विद्रधि रोग कहा है॥७॥ दीर्घ, गरम, पक्के आमके समान फोडा हों, तथा मोटाहो, कालेरंगके समान, बहुत दाह, ज्वर, भूखका नाशकरै, प्यास बढावै, कूख, मूत्रस्थान, गुदा, पेट, हृदय इनमें रातदिन पीडा करै, ऐसी विद्रधिको वैद्यगणोंने पित्तात्मक रुधिरकी कही है॥८॥ और नाभी सूत्रस्थान हृदय में मांसकी गांठ हो, उसे रुधिरकी विद्रधि कहते हैं, तथा कांख में स्थिर जो हो॥९॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां विद्रधिरोगनिदानम्।
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अथोपदंशलक्षणम्।

हस्तस्य घातात्करजस्य पाताद्दंतस्य दंशात्तृणकाष्ठलग्नात्॥
दुष्टस्त्रियो योनिविकारसेवनात्पञ्चोपदंशाः प्रभवंति शिश्ने १॥

वातके उपदंशके लक्षण।

वातोपदंशो बहुवेदनान्वितो विस्फोटसूक्ष्मैः स्फुरणैस्तु कृष्णभैः॥ युक्तः सतोदैः किल जायते नृणां शिश्नस्य बाह्योपरितोऽन्तरेऽनिशम्॥२॥

पित्तके उपदंशके लक्षण।

पित्तोपदंशं तमवेहि नूनं तीव्रार्तिदाहं पिशितावभासम्॥ विशीर्णमांस पिटिकाभिषिक्तं शिश्नांतरे गर्तमतीवरौद्रम्॥३॥

** अर्थ**—हाथके चोटसे तथा नखके लगनेसे, किसी तरहसे दांतके लगनेसे, तिनका, लकडीके लगनेसे, गरमीवाली औरतके संग करनेसे, लिंगमें पांच प्रकारका उपदंश रोग पैदा होता है॥१॥वातका उपदंशवाला पुरुष बहुत वेदनायुक्त हो, प्रकाशमान कालेरंगकी छोटी छोटी पिडिका हों, पीडायुक्त, लिंगके बाहर भीतर मनुष्योंके होती हैं॥२॥ उसे पित्तका उपदंश जानो जिसमें ये लक्षण हों, तीव्रदाह, मांसके रंग सरीखा तथा बिखरा हुआ मांस हो, पिटिका युक्त लिंगके भीतरी भारी गढाहो॥३॥

कफके उपदंशका लक्षण।

वैद्योपदंश कफसंभवं हितं जानीहि कंडुपिटिकाभिराश्रितम्॥
शोफाधिकं पांडुरवर्णशीतलं स्निग्धं गरिष्ठं पिशितांकुरान्वितम्॥

सन्निपातके उपदंशका लक्षण।

आमुष्कशोफं कृमिजं तु जग्धं विशीर्णमांसं बहुगर्तशोफम्॥
त्रिदोषजं विद्ध्युपदंशमेतमसाध्यमार्तिज्वरशूलदाहम्॥५॥

जातमात्रे महारोगे चिकित्सां नैव कारयेत्॥ बद्धमूलेन रोगेण रोगी याति यमालयम्॥६॥

** अर्थ**—हे वैद्य! उसे तू कफका उपदंश जान जिसमें खुजली हो, पिटिका हो, अधिक सूजनहों, पीलारंग हो, शीतल और चिकना मारी मांसांकुर युक्त हो॥४॥ लिंगसे अंडकोशों पर्यंत सूजन हो, कृमिपडगये हों, मांस बिखर गया हो, बडा गड्ढा हो, सूजनहो, ज्वर, शूल, दाह युक्त, ऐसे लक्षणोंसे असाध्य त्रिदोषका उपदंश जानना॥५॥ जो मनुष्य उपदंश रोगको पैदा होतेही इलाज नहीं करे और रोग बद्धमूल होजाय तो वह रोगी यमराजके घर जाता है॥६॥

महाक्षतो भवेद्यस्य शिश्ने स्फोटो निशीर्य्यते॥ शिरः पीडा ज्वरो देहे निर्लोमो मुखमंडले॥७॥गुह्यदेशे महाशोफो नेत्रयोर्बहुरक्तता॥ पतेच्छिश्नः समुष्काभ्यां स रोगी नैव जीवति॥८॥

इति श्रीभिषक्चक्रचितोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे उपदंशलक्षणम्।

** अर्थ**—जिसके लिंगमें बडा घाव हो, और घाव फटजावै, तथा शिरमें दर्द, और ज्वर, मुखपर बाल न रहे॥७॥ गुह्यइन्द्रियमें महासूजनहो, और नेत्र लालहों, और जिसका अंडकोशकै साथ लिंग गिरपडे वह रोगी नहीं जीवै॥८॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यामुपदंशरोग निदानम्।
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अथ शूकदोषलक्षणम्।

यो लिंगवृद्धिं मनुजोभिवांछति शूकोद्भवा तस्य भवन्ति व्याधयः॥
अष्टादशाख्याः कफवातपित्तजा द्वंद्वोद्भवा रक्तभवास्त्रिदोषजाः १॥

सर्षपिकाका लक्षण।

सर्षपिका सा सर्षपरूपा लिंगसमीपे दारुणशूका॥
वातकफाभ्या संजनितारुक्स्यात्पिटिकेयं पुंस्त्वहरीति॥२॥

कुम्भिकाका लक्षण।

रक्तपित्तोत्थिताकुम्भी पिटिका रक्तपूरिता॥
शिश्नोपार गता शूकदोषजा तीव्रवेदना॥३॥

** अर्थ**—जो मनुष्य लिंग बढनेकी इच्छा करैं, और मूढवैद्यके कहनेसे लेप वा पट्टी बांधे उसके अठारह तरहका, वात, पित्त, कफ ३ दो दोषोंके ३ और त्रिदोषका १ शूकसे पैदा व्याधि होती हैं॥१॥सर्षपिका सरसोंके समान छोटी फुंसी लिंगपर होती हैं, और वात,कफसे पैदा तथा पुरुषपनेको दूर करती हैं॥२॥ रक्तपित्तसे पैदा कुंभिकाफुंसी रुधिरसे पूरित जौर लिंगपर शूकदोषसे पैदा हुई तीव्रपीडायुक्त॥३॥

मूढपिटिकाका लक्षण।

पाणिभ्यां मृदितं शिश्नंपीडितं वातकोपतः॥
तस्मिन्वातसमुद्भूतासामूढपिटिका भवेत्॥४॥

दीर्घिकापिटिका लक्षण।

दीर्यंते मध्यतो बद्धाः पिटिका रोमहर्षदाः॥ संधिमध्यगताः शुभ्राः कफजा दीर्घिकाः स्मृताः॥५॥

पुष्करिका पिटिकाका लक्षण।

पित्तोद्भवा पुष्करकर्णिकासमा सिंदूरवर्णा निबिडाऽतिदुःखदा॥
दाहादिपीडां महतीं करोति या सोक्ता परैः पुष्करिका मुनीन्द्रैः ६

** अर्थ**—हाथके मीडनेसे, वातके कोपसे पैदाहुई लिंगपर फुंसी उसे मूढपिटिका कहते हैं॥४॥ रोमांचको करै, और बीचमेंसे फटजाय, और सन्धियोंके बीचमें सपेद रंगकी हो, वो कफसे पैदा हुई दीर्घिकानाम पिटिका जाननी॥५॥ पित्तसे पैदा कमलकी कर्णिका के समानहो, तथा लाल रंगहो, चिपटी, अतिदुःख देनेहारी, दाह, पीडा बहुतकरै, उसे मुनीश्वरोंने पुष्करिका पिडिका कही हैं॥६॥

स्पर्शं नोत्सहते ज्वरं वितनुते पीडां करोति द्रुतं यः शूकं पिटिकाशतं बहुरुजं लिंगे विधत्ते चिरम्॥ कृष्णारक्तनिभं विपाककठिनं पाकार्तिकृत्सद्रवं विद्यात्पित्तमरुद्भवं तमनिशं मुद्ग्रादलाभं रुजम्॥७॥

कफपित्तके शूकके लक्षण।

कफपित्तभवा विविधा कृतयः पिटिकाबहुशोफयुताः कठिनाः॥
ज्वरदाहविलापरुजो दधते कृमिशोणितपूयवहा विषमाः॥८॥

त्रिदोषजनितशूकके लक्षण।

मांसपाकं बहुच्छिद्रं लिंगभंगं त्रिदोषजः॥
कुर्याच्छूको ज्वरं दाहं शोथ च पिटिकान्वितम्॥९॥

** अर्थ**—स्पर्श न सहाजाय, ज्वर, पीडा, और सैकडों फुन्सी लिंगके ऊपर काली, लाल हों, कठिनसे पकैं, दुःखकी देनेवाली, और चुचावैं, उसे वातपित्तसे पैदाहुई पीडिका मूंगके पत्तेके समानजाननी॥७॥ कफ पित्तसे पैदाहुआ जो शूक रोग उसके अनेक तरहकी फुन्सीकी आकृतिहो, और सूजनहो, कठिनज्वरके और दाहके करनेवाली, रुदनकरै, कृमी, और रुधिर तथा राधबहे, और विषम हो॥८॥ मांसका पाक तथा बहुतसे छिद्र होजायँ और लिंग गिरपडे, तथा ज्वर, दाह, सूजन, और अनेक मरोडी हों, ये सन्निपातके शूकरोगके लक्षण हैं॥९॥

मांसशोणितयोर्ग्रन्थिमर्बुदं तं विदुर्बुधाः॥
विद्वधेर्विद्रधिं विद्यात्संनिपातसमुद्भवाम्॥१०॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे शूकदोषलक्षणम्।

** अर्थ**—मांस और रुधिरकी गांठ उसे पण्डित अर्बुद कहते हैं, और विद्रधिके आकार हो उसे संतिपातसेपैदा विद्रधि कहते हैं॥१०॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां शूकरोगनिदानम्।
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अथ कुष्ठरोगलक्षण।

अथकुष्ठरोगोत्पत्तिः।

महापापतः कुष्ठिनो देहदाहात्तथात्यंतसंसर्गतो मांसभक्षात्॥ भवेत्कुष्ठरोगो गुडक्षीर-पानादजीर्णाशनाद्रक्तपित्तस्य कोपात्॥१॥ विरुद्धान्नपानात् स्त्रियोत्यंतसंगाद्दिवास्वापतो रौद्र-घर्मादितापात्॥ गुरुस्निग्धरूक्षाशनान्मूत्रबंधाद्भवेद्रौद्रकुष्ठो जलस्यावगाहात्॥२॥ मांसचर्म-विकारोत्थाः कुष्ठाष्टादशसंज्ञकाः॥ वातपित्तकफोद्भूता द्वंद्वोत्थाः सन्निपातजाः॥३॥

** अर्थ**—ब्रह्महत्यादि महापापके करनेसे कुष्ठीको दाह देनेसे कोढीके पास रहनेसे मांसके खानेसे भारी तथा दुग्ध आदि पदार्थ के सेवन करनेसे, अजीर्णमें खानेसे, रक्तपित्तके होनेसे, कुष्ठरोग पैदा होताहै॥१॥ तथा विरुद्ध अन्न और जलके सेवन करनेसे अत्यन्त स्त्रीके संग करनेसे, दिनमें सोनेसे धूप आदि गरमीके खानेसे, भारी चिकना रूखे आदिके खानेसे, मूत्रबंध होनेसे, बहुत जलमें रहनेसे, घोर कुष्ठरोग पैदा होताहै॥२॥ मांस और चर्मके विकारसे पैदा कोढरोग अठारह प्रकारका है, वातसे, पित्तसे, कफसे, द्वन्द्वज और सन्निपातसे॥३॥

उदुंबरकुष्ठके लक्षण।

यद्रूक्षं परुषं कपालसदृशं तोदं कपालेऽधिकं तत्कुष्ठंविषम वदंति सुधियः कृष्णारुणाभं भृशम्॥यत्कुष्ठं स्फुटितमुदुम्बरसमं रुग्दाहकंडूवृतं शुष्कं रक्तनिभं परैर्निगदितं तत्कुष्ठमौदुंबरम्॥४॥

मूकजिह्वनामकुष्ठके लक्षण।

वृषजिह्वोपमा जिह्वा रोमहर्षोन्तरव्यथा॥
जायते येन कुष्ठेन मूकजिह्वन्तदुच्यते॥५॥

मंडलकुष्ठके लक्षण।

श्वेतरक्तनिभं स्निग्धं स्थिरं कृच्छ्रसमुन्नतम्॥
परस्परसमालग्नं कुष्ठं मंडलसंज्ञकम्॥६॥

** अर्थ**—जो रूखा, कठोर, खोपडीके समान, कपालमें पीडा करै तथा काला, लाल उसे कपाल संज्ञक कुष्ठ कहते हैं, और जो फटगया हो गूलर के समान पीडा दाह, खुजली, तथा सूखा हुआ रुधिरके समान उसे वैद्य उदुम्बर नाम कुष्ठ कहते हैं॥४॥ बैलकी जीभके समान जीभ हो रोमांच तथा भीतर पीडा हो, उसे मूकजिह्वकुष्ठ कहते हैं॥५॥ सपेद, लाल, चिकना स्थिर करडा ऊंचा, और आपसमें मिला हुआ हो उसे मण्डल कुष्ठ कहते हैं॥६॥

करवालकुष्ठके लक्षण।

वर्द्धतेऽहर्निशं स्थूलं कृष्णकंडूभिरावृतम्॥
रूक्षं बहुतरं कुष्टं करवालं तदुच्यते॥७॥

किणिकुष्ठके लक्षण।

तत्कुष्ठं किणिसंज्ञं स्यात्किणं शोथसमन्वितम्॥
श्यामवर्णं खरस्पर्शं परुषं बहुवेदनम्॥८॥

दादनामकाढके लक्षण।

कृष्णाभं मंडलाकारं कंडूभिर्बहुभिर्युतम्॥
अतापे दुष्करं रूक्षं तत्कुष्ठंदद्रुसंज्ञकम्॥९॥

** अर्थ**—जो नित्य बढता जावे, और मोटा हो काला और खुजली युक्त रूखा, और बहुत हों उसे करवाल कुष्ठ कहते हैं॥७॥ वो कोढ किणी संज्ञक है, जिसमें घाव सूजनके साथ हो कालावर्ण, खरदरा, स्पर्श, कठोर, बहुत खेद युक्तहो॥८॥ काला, गोल चकत्ते, खुजली होतीहो, गरमीमें दुःख बहुत हो, रूखा, उसको दादनाम कोढ कहते हैं॥९॥

चर्मदलकोढके लक्षण।

कंडुमद्रक्तवर्णं च विस्फोटकसमन्वितम्॥
सार्द्रस्पर्शासहं शूलं कुष्ठं चर्मदलं भवेत्॥१०॥

गजचर्मकोढके लक्षण।

गजचर्मसमाकारं स्थूल बहुतरं दृढम्॥
कंडूमच्छ्यामवर्णं यत्कुष्ठं तच्चर्मसंज्ञकम्॥११॥

पामाकुष्ठके लक्षण।

स्फोटाभिर्बहुभिर्युक्ता सूक्ष्माभिः पाटलादिभिः॥
कडूदाहार्तिभिर्युक्ता पामा सा कीर्तिता बुधैः॥१२॥

** अर्थ**—जिसमें खुजलीहो, और लालवर्ण तथा फोडाहो गीला, स्पर्श न सहा जाय, शूलयुक्त उसे चर्मदल नाम कुष्ठ कहते हैं॥१०॥ जो हाथीके चर्मके आकार हो, और मोटाहो, तथा विशेष और दृढ हो, खुजलीयुक्त, कालारंगहो, उसे गजचर्म कुष्ठ कहते हैं॥११॥ जिसमें फोडा छोटे और सपेद लाल रंगके बहुत हों, और खुजली दाह पीडा युक्तहो उसे पामा अर्थात् खाज कहते हैं॥१२॥

विचर्चिका और चित्रकुष्ठ।

सैवं नूनं बहुस्रावा कथिता सा विचर्चिका॥
यत्पुष्पसदृशं वण चित्रकुष्ठं तदुच्यते॥१३॥

वातक कुष्ठका लक्षण।

श्यामारुणं खरस्पश रूक्षं वेदनयान्वितम्॥
विवर्णं वातज कुष्ठं कथितं तद्भिषग्वरैः॥१४॥

पित्तके कुष्ठके लक्षण।

श्यामारुणनिभं स्रावं कंडूरोगार्तिदाहदम्॥
तीक्ष्णपित्तोद्भवं कुष्ठं कीर्तितं वैद्यसत्तमैः॥१५॥

** अर्थ**—वही श्यामा बहुत स्रवैतो उसेही विचर्चिका कहते हैं, और जिसका पुष्पके वर्णके समान रंगहो उसे चित्रकुष्ठ कहते हैं॥१३॥ जिसका काला, लाल और खरदरा स्पर्श हो, रूखा तथा पीडा युक्त विवर्ण उसे वातका कुष्ठ कहते हैं॥१४॥ जिसका काला, लालरंगहो, और स्रवे तथा खुजली दाह पीडा हो उसे तीखा पित्तका कुष्ठ वैद्योंने कहाहै॥१५॥

कफके कुष्ठके लक्षण।

कुष्ठंकफोद्भवं विद्यात्स्निग्धं कंडुयुतं घनम्॥ गौरवं शीतलं क्लेदि शोथस्रावसमन्वितम्॥१६॥चिह्नैर्द्विदोषजैर्युक्तं द्विदोषो त्थ विदुर्बुधाः॥ त्रिभिर्दोषैर्विमिश्रं यत्कुष्ठंकष्टतरं भवेत्॥१७॥

त्वचा में स्थितकुष्ठके लक्षण।

बहूपद्रवसंयुक्तमसाध्यं तत्प्रकीर्त्तितम्॥
त्वक्स्थे कुष्ठे शरीरेषु वैवर्ण्यं रूक्षता भवेत्॥१८॥

** अर्थ**—जो चिकना और खुजलीयुक्त घन, भारी शीतल, क्लेदी, सूजनयुक्त, तथा स्रवै, उसे कफका कुष्ठ कहते हैं॥१६॥ जिसमें द्विदोषके लक्षण मिलते हों, उसे पण्डित द्विदोषका कुष्ठ कहते हैं, और त्रिदोषके लक्षण मिले हों, उसे कष्टतर जान वैद्य त्यागदे॥१७॥ और बहुत उपद्रव युक्तहो, उसे वैद्योंने असाध्य कहा है, त्वचामें स्थित कुष्ठ शरीरको विवर्ण करदे, और रूखा कर देता है॥१८॥

रक्तगतकुष्ठके लक्षण।

कुष्ठे रक्तगते नेत्रे क्लृमो हर्षोरुचिर्भवेत्॥
प्रस्वेदः कंठशोषश्च विसर्पो रक्तमंडलम्॥१९॥

मांसगतकुष्ठके लक्षण।

हस्तांघ्रिषु नृणां शोफं विस्फोटं तोदगौरवम्॥
कुष्ठे मांसं गते तस्य विरेको वमनं भवेत्॥२०॥

मेदगतकुष्ठके लक्षण।

गात्रभग्नोंगदुर्गधं क्षते पूयं च जंतवः॥
गतिक्षयोऽग्निमंदत्वं कुष्ठे मेदगते भवेत्॥२१॥

अर्थ—नेत्रों में क्लम, तथा, हर्षका नाश, अरुचि, पसीना, कंठका सूखना और विसर्प रुधिरके मण्डल ये रक्तगत कुष्ठके लक्षणहैं॥१९॥ हाथ पैरों में सूजन, तथा फोडा पीडा, शरीरभारी रहे, रद्द, दस्त ये मांसगत कुष्ठके लक्षण हैं॥२०॥ शरीरका टूटना, देहमें दुर्गन्ध व्रण, पीव, कृमिहों, गतिका नाश, मन्दाग्नि, ये मेदगत कुष्ठके लक्षणहैं॥२१॥

अस्थिमज्जागतकुष्ठके लक्षण।

नासाभंगोऽक्षिणी रक्ते क्षतेषुकृमिसंभवः॥ स्वरघातोव्रणे दाहः कुष्ठे मज्जास्थिसंस्थिते॥२२॥दंपत्योः कुष्ठिनोर्वीयशोणिताभ्यां च संभवः॥ यदपत्यविकाराभ्यां ज्ञेयं तदपि कुष्ठितम् २३॥

कुष्ठके साध्यलक्षण।

त्वग्रक्तमांसगं कुष्ठं साध्यं यंत्रौषधादिभिः॥
मेदोजं च द्विदोषोत्थं दानस्नानजपादिभिः॥२४॥

** अर्थ**—नाकका भंग, नेत्र लाल, घावोंमें कीडा पडजायँ, मन्दस्वर, व्रणोंमें दाह, ये हड्डी और मज्जागत कुष्ठके लक्षणहैं॥२२॥ माता और पिताके कोढी होनेसे उन्होंके वीर्य्यऔर रजसे पैदा जो सन्तान वो भी कोढी होता है॥२३॥ त्वचा, रुधिर, मांसमें जो स्थित कुष्ठ सो यंत्र मंत्र औषधियोंसे साध्य है, और जो मेदा मज्जामें प्राप्तहो और द्विदोषसे उठाहो वो स्नान दान जपादिसे शांतहो॥२४॥

कुष्ठके असाध्यलक्षण।

नरं कुष्ठिनं हन्ति कुष्ठं प्रवृद्धं त्रिदोषोद्भवं संधिमज्जास्थिसंस्थम्॥ प्रभिन्नस्वरं श्वासवाहं सदाहं कृमीणां क्षतेऽसृक् स्रवं रक्तनेत्रम्॥२५॥ अंगानि येन शीर्यंते क्षतेषु कृमिसंभवः॥भ्रूनासाक्षिस्वरा भग्नाः कुष्ठंतं परितस्त्यजेत्॥२६॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे कुष्ठलक्षणम्।

** अर्थ**—संधि मज्जा अस्थिगत त्रिदोषसे पैदा हुआ जो कुष्ठ और बढा हुआ वो कोढी मनुष्यको मारडाले तथा भ्रष्टस्वर, श्वासवान्, दाह, और कृमियुक्त घाव रुधिरस्रवे, लालनेत्र॥२५॥जिससे अंग फटजाय, और घावोंमें कृमि पडजाय, तथा भृकुटी नाक नेत्र जाते रहैं, स्वर बैठजाय, उस कोढीको वैद्य त्यागदे॥२६॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां कुष्ठरोगनिदानम्।
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शीतपीत्तोदर्दलक्षण।

शीतवातस्य सस्पर्शाद्वातपित्तकफास्त्रयः॥
त्वग्रक्तमांसं संदूष्य विसर्प्पतोंतरे बहिः॥१॥

उदर्दके लक्षण।

वरटीदष्टवच्छोथो जायते त्वचि सर्वतः॥ दाहकंडूशिरस्तोदः स्यादुदर्दस्य लक्षणम्॥२॥ मंडलानि विचित्राणि रागवंति बहूनि च॥ सकंडूनि सतोदानि स्थूलानि परितस्त्वचि॥३॥

** अर्थ**—शीतल पवनके स्पर्शसे, वात, कफ, पित्त, तीनों रुधिर, मांस, त्वचा बिगाड कर भीतर और बाहर शीत पित्तरोगको पैदाकरें हैं॥१॥ जैसे वरटी (मोहारकी मक्खी) के काटनेसे सूजन होतीहै इसीतरह, सब त्वचामें हो और दाह, खुजली, शिरमें दर्दहो, उसे शीत पित्तवायु जिसे लोकमें पित्तीका रोग कहते हैं॥२॥ और जिसमें चित्रविचित्र चकत्ते रागवान् हों, और बहुतसेहों उनमें खुजली और पीडाहो तथा मोटी त्वचाहो॥३॥

भवंति सर्वतो देहे शीतवातोद्भवानि च॥ कफात्मकानि चिह्नानि उदर्दस्य विदुर्बुधाः॥४॥पित्ताधिकं भवेत्कोष्ठमुदर्दं तुकफाधिकम्॥ वाताधिकं शीतपित्तं संनिपातं त्रिदोषजम्॥५॥

उदर्दरोगका पूर्वरूप।

पूर्वरूपमुदर्दस्य नेत्रयोरक्ततारुचिः॥ हृल्लासतृड्ज्वरो दाहो देहसादोंगगौरवम्॥६॥

** अर्थ**—सबदेहमें शीतल पवनसे और कफाधिक्यसे जो चकत्तेहों, उसे पंडित, उदर्दरोग कहते हैं॥४॥ पित्ताधिकसे कुष्ठ होताहै, कफाधिकसे उदर्द होता है, वाताधिकसे शीतपित्त, सन्निपातसे त्रिदोषज उक्तरोग होते हैं॥५॥ नेत्र लालहों, अरुचि खालीरद्द, प्यास, ज्वर, दाह, देहमें पीडा तथा भारीपना, ये उदर्दके पूर्वरूपहैं॥६॥

कोढउत्कोढका लक्षण।

त्वक् संदृष्य बहिर्गतो रुग्महाकाये मरुच्छीततो देहे मंडलमंडितं वितनुते शोफं सरोगान्वितम्॥ कंडू निस्त्वचिसर्वतो वमितरा तोदं च विड्बन्धनं शैथिल्यं बलनाशनं प्रकुरुते रोमोद्गमं गौरवम्॥७॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे उदर्दकुष्ठलक्षणम्।

** अर्थ**—शरदीसे पवन त्वचाको बिगाड शरीरके बाहर महादारुण रोगको प्रगट करे, देहमें रुधिरके चकत्ते, सूजनयुक्तहों, उनमें खुजली चले, त्वचा न रहै, वमन और पीडा तथा दस्तका बंद होना शिथिलता बलनाश, रोमांच, और देहभारी॥७॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां शीतपित्तउदर्दकोढउत्कोढनिदानम्।
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अम्लपित्तकी उत्पत्ति।

स्निग्धाम्लैर्बहुभोजनैरपचितैर्वैश्वानरैर्नोदरे रात्रौ जागरणेन वासरमुखं स्वापेन तापेन वा॥संक्षोभ्योपजिताम्लपित्तमुदरे हृत्कंठयोर्मस्तके नाभौ बस्तिगुदांतरेषु विविधं धत्ते रुजं दारुणाम्॥१॥ आध्मानं कुरुतेम्लपित्तमनिशं शोषं तनौ कृष्णतामुद्गारं वितनोति धूमसहितं साम्लं मुहुर्दुःखदम्॥ हृल्लासं भ्रममोहकंपमरुचिं दाहं च हृत्कंठयोः कंडूमंडलमंडितं सपिटिकं देहं विधत्तेऽरतिम्॥२॥ अम्लत्वमेति भुक्तान्नमपक्वंयाति वह्निना॥ शिरोर्तिशूलत्दृच्छोषमम्लपित्तस्यलक्षणम्॥३॥

** अर्थ**—चिकना, खट्टा, बहुत भोजन करनेसे, मंदाग्निसे, रातमें जागनेसे, दिनमें सोनेसे, गर्मी में डोलनेसे, कुपितहुआ अम्लपित्त पेटमें, हृदयमें, कंठ और मस्तकमें तथा नाभी और मूत्रस्थान में गुदामें नानाप्रकारका रोग पैदा करताहै॥१॥ अफरा, शोफ, शरीर काला, धूमसहित खट्टी डकार बारबारमें आवें, खाली रद्दहो, भौंर, मोह, कम्प, अरुचि, हृदय, कण्ठमें दाह, खुजली, देहमें चकत्ते, और फुंसी, तथा अरतिको करे॥२॥ खायाहुआ अन्न मंदाग्निके कारणसे अपक्वहुआ खट्टेपनेको प्राप्त होता है, शिरमें दर्द, शूल हृदयमें शोष, ये अम्लपित्तके लक्षणहैं॥३॥

वातके अम्लपित्तके लक्षण।

वाताम्लपित्तं प्रकरोति पीडां शूलं भ्रमं हृत्कमलेऽतिशोषम्॥
मूर्च्छां प्रकंप पिटिकानि देहे कृष्णानि सूक्ष्मानि च मंडलानि ४॥

पित्ताम्लपित्त के लक्षण।

पित्ताम्लं शीतजन्यं रुजयति मनुज पित्तकोपाधिकारं रक्तांगं मण्डलाभं त्वचिगतमनिश छर्द्दिमूर्च्छाविपाकम्॥ कंडूरूप सशोफं पिटिकशतचितं मोहशोकादिकारि अतर्बाह्येतिदाहं हृदि जठरगुदे शूलकृच्चर्महारि॥५॥

कफाम्लपित्तके लक्षण।

पित्ताम्ल कफजं करोति पिटिकां देहे सशोफान्वितामालस्य मलबंधनं वितनुते कंडूरुजं दारुणाम्॥ निद्राभंगविमर्द्दनं च जडतामुद्गारमम्लान्वितं हृत्पीडामरुचिं तमः कफचयं काये गुरुत्वं वमिम्॥६॥

इति श्रीभिषकचक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे अम्लपित्तलक्षणम्॥

** अर्थ***—*वातका अम्लपित्त पीडा, शूल, भ्रम, हृदयमें शोष, मूर्च्छा, कंप, फुंसी, काले और छोटे चकत्ते करताहै॥४॥ पित्तका अम्लपित्त शीतसे पैदाहुआ मनुष्यको रोगी करै, देहमें लाल चकत्तेहों, रद्द, मूर्च्छा, अजीर्ण, खुजली, सूजन, अनेक फुंसी, मोह, शोक, भीतर बाहर दाह, हृदय, पेट, गुदा इनमें शूल, चर्मको दूर करैहै॥५॥ कफका अम्लपित्त फुंसी, सूजन,आलकस, मलबंध, खुजली, जडता, दारुणपीडा, निद्राका नाश, अंगोंका टूटना, खट्टीडकार, हृदयमें पीडा, अरुचि, अँधेरा, कफ गिरे, भारीपना और रद्द ये लक्षण करे है॥६॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यामम्लपित्तरोगनिदानम्।
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विसर्परोगलक्षणम्।

लवणकटुरसानांसेवनाद्धर्मतापात् प्रभवति किलरोगो दोषकोपाद्विसर्पः॥ वपुषि चलनशीलो दग्धविस्फोटरूपो बदरफलसमानः श्वेतपीतारुणाभः॥१॥

वातके विसर्परोगका लक्षण।

संदूष्यामिषमेदचर्मरुधिरं जातो विसर्पो बहिर्वात्मान विदधाति विद्रुमनिभान् विस्फोटकान् चञ्चलान्॥ दीप्तांगारसमानदाहजनकान् पीडाकरान् कंडुरान् कासाध्मानमहाज्वर-श्रममथोशीर्षार्तिमोहाकरान्॥२॥

पित्तके विसर्परोगका लक्षण।

मूर्च्छां कुर्याद्विसर्प्पः प्रसरति बहुशः पैत्तिको घोररूपस्तप्ताग्न्यंगारदाहं पिटिकचयशतं नीलपीतारुणाभम्॥ निद्रानाशं शरीरं ज्वरयति सततं रक्तमांसावशोष कासं श्वासं विचेष्टां भ्रममरुचितृषास्फोटमंगेषु मोहम्॥३॥

** अर्थ**—नोनका खट्टा आदि पदार्थ खानेसे, धूपमें रहनेसे, कुपितहुये जो वात, पित्त, कफ सो, विसर्परोग फैलानेवाला दग्धफोडारूप बेरके समान सपेद पीला लालरंगके पैदा करते हैं॥१॥ चातका विसर्परोग मांस मेदाको बिगाडकर बाहर मूंगके समान चंचल फुंसीको पैदाकरै, जैसा प्रज्वलित अंगार दाहको करनेवाले, तथा पीडा कारक खुजली, खांसी, अफरा, महाज्वर, श्रम, प्यास, शिरमें दर्द, मोहको करनेवाले करता है॥२॥ पित्तका विसर्प देहमें फैल जावे मूर्च्छा हो, अंगारके समान दाह, नीली, पीली लालरंगकी फुंसी, निद्राका नाश, ज्वर, रुधिर मांसका शोष, खाँसी, श्वास, चेष्टा हीन, भ्रम, अरुचि, प्यास अंगोंका फटना, और मोहको करै हैं॥३॥

कफके विसर्परोगके लक्षण।

पिटिकाश्च विसर्पकृता रुचिराः स्फटिकद्युतयो बलवीर्यहराः॥ कफजा मिलिता बहुदुःखयुता ज्वरकासतृषालसशोफकराः॥४॥ आग्नेयाख्यो विसर्प्पःस्याद्वातपित्तसमुद्भवः॥ कफवातोद्भवो ग्रंथिः कर्द्दमः कफपित्तजः॥५॥ स सांनिपातिको ज्ञेयः सर्वलक्षणसंयुतः॥ विसर्प्पोद्वंद्वजः साध्योऽसाध्यः स्याद्यस्त्रिदोषजः॥६॥

विसर्परोगके उपद्रव।

विसर्पोपद्रवा ज्ञेया मांसशोथो ज्वरो मदः॥
मर्मरोधस्तृषाश्वासो हिक्कादाहो भ्रमो रुचिः॥७॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे विसर्पलक्षणम्।

** अर्थ**—कफका विसर्प रोग रुचिर (रूपवाली), स्फटिक मणिके समान, बल वीर्य की नाशक, बहुत दुःखकी देनेवाली, ज्वर, खांसी, प्यास, आलकस, सूजनको करै है॥४॥ वात पित्तसे आग्नेय विसर्प रोग होता है, कफवातसे ग्रंथिनाम रोग होताहै, और कफ पित्तसे कर्दमनाम विसर्प रोग पैदा होताहै॥५॥ और जिसमें सब लक्षण मिलतेहों उसे संनिपातका विसर्प रोग जानना. द्विदोषसे पैदा विसर्प रोग साध्यहै, और त्रिदोषका असाध्य कहाहै॥६॥ ये विसर्प रोगके उपद्रव जानने मांसमें सूजन, ज्वर, मस्ती, मर्मोंका रुकना, प्यास, श्वास, हिचकी, दाह, भ्रम, अरुचि॥७॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां विसर्परोगनिदानम्।
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क्षुद्ररोगलक्षणम्।

अजगल्लिका लक्षण।

मुद्गासमाना पिटिकासवर्णा स्निग्धामरुच्छ्लेष्मविकारजाता॥
देहे शिशूनां ग्रथिता च नीरुजां तामाजगल्लीं प्रवदंति संतः॥१॥

यवप्रच्छाका लक्षण।

अरुणभा पिटिका बहुवेदना कफमरुज्जनिता ग्रथितामिषे॥
यवसमा कठिनाभिषजांवरैर्निगदिताज्वरकृत्किल सा यवा २॥॥॥

अंजलीनामफुंसीके लक्षण।

उन्नता मंडलाकारा विततांजलिसंनिभा॥
घना वक्राद्विदोषोत्था तां जानीहि बुधांजलीम्॥३॥

** अर्थ**—जो फुन्सी मूंगके समान देहके वर्णसरीखी हो और चिकनी हो, उसे वात, कफसे पैदा हुई अजगल्लिका कहते हैं, ये बालककी देहमें पीडारहित होतीहैं॥१॥ जो फुन्सी लालरंगकी और पीडा युक्त मांसमें रहतीहो यवके आकारहो करडीहो वो वातकफसे पैदा ज्वरकर्त्ता यवप्रच्छा कहते हैं॥२॥ जो फुन्सी ऊंचीहो, मंडलके आकारहो, जुडी हुई अंजली सदृशहो, भारीहो, टेढीहो, उसे पण्डित द्विदोषसे पैदा अंजलीनाम कहते हैं॥३॥

विवृतानामफुंसीके लक्षण।

पक्वोदुंबरिसदृशा विवृतास्या मंडलाकारा॥
पिटिका बहुदाहयुता विद्वञ्ज्ञेया विवृताख्या॥४॥

कच्छपिकाके लक्षण।

पिटिका कच्छपाकारा कफवातसमुद्भवा॥
ग्रन्थियुक्तोन्नता घोरा ज्ञेया साकच्छपी बुधैः॥५॥

वाल्मीकफुंसीके लक्षण।

ग्रीवासंध्यंसकक्षोदरहृदयकटीहस्तपादेषु घोरो रोगो वाल्मीकसंज्ञः प्रभवति बहुशो वर्द्धते संक्रमेण॥ कायात्कायान्तरेषु प्रसरति बहुधा श्लेष्मपित्तानिलोत्थः पूयं वक्त्रैरनेकैर्वमति च रुधिरं वीर्यसौख्यापकारी॥६॥

** अर्थ**—पके गूलरके समान फटे मुखकी मण्डलके आकार और जिसमें दाह ज्यादाहो, उसे विवृता फुन्सी कहते हैं॥४॥ जो फुन्सी कछुयेके समान ऊंची हो, गांठहों, वात कफसे पैदाहो, उसे घोर कच्छपिका कहते हैं॥५॥ ग्रीवाकी संधि, कंधे, कांख, पेट, हृदय, कमर, हाथ, पैर इनमें वाल्मीक नामका घोर रोग पैदा होता है, और बांबीकी तरहहो, और क्रमसे देहमें फैलैऔर अनेक मुखहों उनसे राध निकले रुधिर गिरे वो वीर्यसुखको दूर करनेवाला तीनों दोषोंसे पैदा होता है॥६॥

इन्द्रवृद्धिके लक्षण। <MISSING_FIG href="../../../books_images/U-IMG-1707022167image13.jpg"/>

शोफान्विता पद्मककर्णिकावद्दाहार्तितृष्णारतिमोहदात्री॥
पित्तानिलोत्था पिटिकाचिता या तामिन्द्रवृद्धिङ्कथयंति वैद्याः ७

गर्द्दभिकाके लक्षण।

उन्नता मंडलाकारा शोफयुक्पिटिकान्विता॥
वातपित्तभवा रक्ता तां विद्याद्गर्द्दभीं बुधः॥८॥

पाषाणगर्द्दभिकाके लक्षण।

हनुसंधिगतः शोथो मंदरुक्कफवातजः॥
स्थिरः स्निग्धो बुधैर्ज्ञेयः सैव पाषाणगर्द्दभः॥९॥

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<MISSING_FIG href="../../../books_images/U-IMG-1707022167image13.jpg"/>एतच्च स्त्रीणां न भवति विदेहवचनम् व्याख्यानयन्ति यदुक्तम् ‘अत्यन्तसुकुमारांगा रजो दुष्टं स्रवंति च॥अव्यायामवता यस्मात्तस्मान्न स्खलति’ स्त्रियम् इति।
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** अर्थ**—सूजनहो, तथा कमलकी कर्णfकाके समान हो, दाह, पीडा, तृष्णा, अरति, मोह, युक्त फुंसीहों वो वातपित्तसे पैदा इन्द्रवृद्धि नाम कहते हैं॥७॥ जो फुँसी मंडलके आकार गोलहो, ऊंचीहो सूजनको लिये लालहो उसे वातपित्तसे पैदा गर्द्दभिका कहते हैं॥८॥ जो फुंसी ठोडीकी संधिमें सूजन मंदपीडाको लिये हो स्थिर चिकनी वो कफवातसे पैदा पाषाणगर्दभिका कहते हैं॥९॥

पनसिकाके लक्षण।

पिटिकाकफवातविकारभवा बहुवेदनकृच्छ्रवणेन्तरजा॥
ज्वरदाहतृषारतिमोहकरा पनसा मुनिभिर्गदिता किल सा १०

जलगर्दभिकाके लक्षण।

विसर्प्पवत् सर्पति यो हि शोफो रुजाकरः पित्तविकारजातः॥
ज्वरार्तिदाहारतिमोहपूयकृत्परैर्निरुक्तो जलगर्दभोयम्॥११॥

इरिवेल्लिकाके लक्षण।

पिटिकां सर्वदोषोत्थां सर्वचिह्नशिरोगताम्॥
वर्तुलां तां विजानीहि बुध त्वं इरिवेल्लिकाम्॥१२॥

** अर्थ**—जो फुंसी बात कफके विकारसे पैदाहो और पीडायुक्त कानके भीतरहो, उवर, दाह, प्यास, अरति, मोह, लियेहो उसे मुनीश्वर पनसिका कहते हैं॥१०॥ जो सूजन पहले थोडीहो फिर विसर्प रोगकी तरह फैलजाय पीडाकारक ज्वर, दाह, अरति, मोह, राध बहै, से जलगर्द्दभिका कहते हैं, वो पित्तके विकारसे होतीहै॥११॥ जो मस्तकमें फुंसी त्रिदोषसेहो, गोलहो और त्रिदोषके लक्षण मिलतेहों उसे इरिवेल्लिकाकहते हैं॥१२॥

कखलाई के लक्षण।

कृष्णास्फोटापार्श्वकक्षांसबाहौ संस्था नून वेदनादाहयुक्ता॥
कक्षासंज्ञांपित्तकोपाभिजातांजानीहि त्वं वैद्यराजोरुजाताम् १३

गंधमालाके लक्षण।

कक्षाकुक्षिभवामेकां पिटिकाम्पित्तकोपजाम्॥
त्वग्गतां दाहकृत्कृष्णां गंधमालां च तां वदेत्॥१४॥

अग्निरोहिणीके लक्षण।

कक्षा या पिटिकोद्भवा ज्वरकरा दीप्ताग्निदाहप्रदा मांसं भेद्यविनिर्गता कफमरुत्पित्तोच्छ्रता दारुणाः॥ सप्ताहे दशमे दिने च मनुज हतीह नूनं हठाद् दस्राद्यैर्भिषजांवरैर्निगदिता ज्वाला-मुखी रोहिणी॥१५॥

** अर्थ**—पसवाडोंमें व भुजाके एक देश में व कंधाके एक देशमें काला फोडा हो, और पीडा दाह युक्तहो, उसे हे वैद्यराज! तू कखलाई जान ये पित्तके कोपसे होती है॥१३॥कांखमें अथवा पसवाडोंमें काले रंगका फोडाहो त्वचामेंहो दाहयुक्त उसे गंधमाला कहते हैं, येभी पित्तके कोपसे होती है॥१४॥कांखमें मांसको विदीर्णकर दीप्त अग्निके समान जो फोडाहो ज्वर, दाहका करनेवाला, उसे अश्विनीकुमारको आदिले वैद्योंने ज्वालामुखी रोहिणी नाम कहाहै, ये रोग मनुष्यको सात या दशदिन में मारडालें ये सन्निपातसे पैदा होती है॥१५॥

विदारिकाके लक्षण।

कक्षायां संधिदेशेषु विस्फोटो जायते नृणाम्॥ विदारीकंदवद्वृत्तः सर्वलक्षणलक्षितः॥१६॥बहुशीर्षा विदीर्णास्या वातपित्तकफोद्भवा॥ चिरपाकारुणाभेयं प्रोक्ता वैद्यैर्विदारिका॥१७॥

शर्करार्ब्बुदके लक्षण।

मेदःस्नायुशिरामांसं दूष्य वायुर्बहिर्गतः॥
ग्रन्थिं शोष्यामिषं कुर्यात्त विद्याच्छर्करार्बुदम्॥१८॥

** अर्थ**—कांखमें या संधियोंमें फोडा विदारीकंदके समान गोलहो, और सब लक्षण मिलतेहों॥१६॥बहुतसे शिरहों और खुलेमुखकी, देरमें पकै, लालरंगकी इसे वैद्योंने विदारिकानाम कहीहै, ये भी सन्निपातसे होतीहै॥१७॥ वात, मेदा, मांस, नस इनमें प्राप्तहो और इनको बिगाडकर बाहर प्राप्तहो फेर गांठको पैदाकरे और शोषको करै, उसे शर्करार्बुद कहते हैं॥१८॥

शर्करार्बुदरुक्कुर्याच्छर्करासदृशामिषम्॥
शिरास्रावं च दुर्गंधं क्लिन्न गात्रं निरामिषम्॥१९॥

कदरफुन्सीके लक्षण।

कंटकैः शर्करैः पादे सक्षते ग्रन्थिरुद्भवः॥
कीलवद्वर्द्धते नित्यं तं विद्यात्कदरं बुधैः॥२०॥

बिवाईके लक्षण।

अतिक्रमणशीलस्य पादयोरुक्षयोर्महत्॥
दारी च कुरुते कोपात्तं विद्यात्तलसंश्रितम्॥२१॥

** अर्थ**—शर्करार्बुद रोग मांसको शर्कराके समान करदे और नस चुचावै तथा दुर्गंध युक्तहो शरीरखेदित और मांस रहित करदेताहै॥१९॥ कांटे व कंकरीके पैरमें लगनेसे जो गांठदाहो और कीलकी तरह बढैउसे, कदर नाम कहतेहैं॥२०॥ जो मनुष्य बहुत डोलाकरैहोसके पैरोंमें रूखापनहो और पैरकी एडी फटजाय उसे तलसंश्रित अर्थात् बिवाई कहते हैं॥२१॥

खारुयेके लक्षण।

दुष्टकर्दमसंस्पर्शात्पादांगुल्योंतरे बहुः॥
कंडूसुखाप्तिदाहार्तिशोथयुक्तोऽलसंविदुः॥२२॥

इन्द्रलुप्तके लक्षण।

रोमाणां कूपमध्येषु वातपित्तौ विनिर्गतौ॥ मूर्छितौ तत्र रोमाणां तौ प्रच्यावयतेहटात्॥२३॥श्लेष्मासृग्रोमकूपांस्तु रुणद्धि परितो भृशम्॥ बध्नात्युत्पत्तिमन्येषामिंद्रलुप्तन्तमादिशेत् २४॥

** अर्थ**—दुष्टकीच पैरकी उंगलियोंमें लगनेसे सूजनहो और खुजानेसे सुखहो दाह और, पौठो उसे अलसनाम अर्थात् खारुए कहते हैं॥२२॥ रोमकूपसे वात पित्त निकलकर मूर्च्छितहो, हठसे बालोंको दूरकरदेवै॥२३॥ फिर कफ और रुधिर बाल जमनेके स्थानको रोकदे बालउगने नहीं दे उसे इन्द्रलुप्त कहते हैं॥२४॥

इन्द्रलुप्तस्य नामानि प्रोक्तानि भिषजांवरैः॥
खालित्यमपरेरुह्या प्राहुश्चार्चेति चापरे॥२५॥

अरुंषिका के लक्षण।

अतिरूक्षतमे शीर्षे बहुकण्डुसमन्विते॥ जायते दारुणो रोगः कफमारुतरोगतः॥२६॥अत्यंतश्रमकोपाभ्यां जातं पित्तं च मूर्द्धनि॥ तेन पक्वःकृताः केशाज्ञेयानि पलितानि च॥२७॥

** अर्थ**—इंद्रलुप्तके ये नाम और भी वैद्य कहते हैं, खालित्य और रुह्या तथा चांदलो ये रोग स्त्रीके नहीं होता॥२५॥ केश पैदा होनेकी भूमिमें खुजली चलै, और वह जगह रूखी होजाय, उसके वात कफसे अरुषिका दारुण रोगहो॥२६॥ अतिश्रम और क्रोधसे पित्त शिरमें प्राप्तहोकर बालोंको सपेद करदेता है, उसे पलित रोग कहते हैं॥२७॥

मुखदूषिकाके लक्षण।

कफानिलाभ्यां सहशोणिताभ्यां यूनां शरीरे पिटिकाभिजाता॥
दाहार्तिकृत्कण्टकतीव्रवेधी बुधैर्निरुक्ता मुखदूषिका सा॥२८॥

तिलके लक्षण।

तिलप्रमाणानि च नीरुजानि स्थिराणि गात्रेषु समुद्भवानि॥
कृष्णानि पित्तानिलकोपजानि तिलानि तानि प्रवदंति संतः २९

मस्सेका लक्षण।

दृढोन्नतं पित्तकफानिलोत्थं माषप्रमाणं पलग्रन्थिरूपम्॥

कृष्णं स्थिरं नीरुजवद्विपाकं तं माषसंज्ञं कथयन्ति वैद्याः॥३०॥

अर्थ—वात, कफ और रुधिरके कोपसे जवान पुरुषोंके जो फुन्सी मुखपरहो दाह और पीडा तथा सेमलके कांटेकेसमान उसे मुखदूषिका अर्थात् मुहांसे कहते हैं॥२८॥ तिलके समान पीडा रहित स्थिर देहमें जो कालादागहो उसे वातपित्तसे पैदा तिलनाम कहते हैं॥२९॥ दृढ और ऊंचातथा उडदके समान मांसकी गांठ काली और पीडा तथा पाकरहितहो उसे वैद्य मस्सा कहते हैं॥३०॥

न्यच्छके लक्षण।

गात्रोत्थं मंडलं कृष्णं शीतं वा महदल्पकम्॥
नीरुजं कफजं विद्यात्तं रुजं न्यच्छसंज्ञकम्॥३१॥

व्यंग अर्थात् झांईके लक्षण।

कोपश्रमाभ्यांकुपितोऽनिलोनिशमाश्रित्य वक्रंवितनोति मंडलम्॥
कृष्णं मुखोत्थं तनुनीरुजं भृशं व्यंगं रुजं तं प्रवदंति साधवः॥३२॥

नीलिकाके लक्षण।

ऊष्मणा सहितो वायुर्बहिरागत्य कोपतः॥
विदधाति मुखे छायां नीलिकां तां विदुर्बुधाः॥३३॥

** अर्थ**—शरीरमें काला वा सपेद मण्डल छोटा वा बडाहो, और पीडारहितहो, उसे लहसन संज्ञक कहते हैं॥३१॥ कोप और श्रमसे कुपित हुये वात पित्त सो मुखमें प्राप्तहो मंडलको करैंहैं, और वो कालाहो पीडा रहित उसे महात्मा व्यंगरोग कहते हैं॥३२॥ गर्मीके साथ पवन कोपहो बाहर निकल मुखपर जो छाया करदे उसे पंडित नीलिका कहते हैं॥३३॥

कर्णिकाके लक्षण।

संमर्दनात्पीडनतोभिघातान्मेढ्रस्य चर्मानुगतो हि वातः॥
मणेरधस्तात्प्रकरोति कोशं ग्रंथिं च विद्यात्किलकर्णिकां ताम् ३४

अवपाटिकाके लक्षण।

नखाभिघाताद्युवतीप्रसंगादुद्वर्तनाद्वीर्यगतेः प्ररोधात्॥ संपीडनाद्यस्य च चर्मपाट्यते बुधैर्निरुक्ताकिलपाटिका सा॥३५॥

निरुद्धप्रकाशरोगलक्षण।

स्रोतांसि मूत्रस्य रुणद्धि वातो मणिस्थितो वीर्यगतेर्निरोधात्॥
मूत्रं प्रवर्त्तेत मणिं विदीर्य विद्यान्निरुद्धप्रकाशं हि वैद्यः॥३६॥

** अर्थ**—मसलनेसे वा पीडासे अथवा चोट लगनेसे अंडकोशकी चर्म में प्राप्तभई वात सो कुपितहो सुपारीके नीचे गांठको पैदा करे, उसे कर्णिका कहते हैं॥३४॥ नखके लगनेसे अथवा जिस स्त्रीकी योनि छोटीहो उससे संग करनेसे उबटनेसे, वीर्य की गति रोकनेसे लिंगेन्द्रीकेमीडनेसे लिंगकी चाम उतर जाय उसे पंडित अवपाटिका कहते हैं॥३५॥ वीर्य्यकी गति रोकनेसे लिंगकी सुपारीके बीचमें स्थित जो वात सो मूत्रके मार्गको रोकदे फिर मूत्र सुपारीको खेदकरता उतरे, उसे वैद्य निरुद्ध प्रकाशरोग कहते हैं॥३६॥

सन्निरुद्धगुदाके लक्षण।

अपानवातस्य गतेर्विघातात्प्रकुप्य वातो विहितो गुदस्थः॥
रुणद्धिमार्गं कुरुतेऽतिसूक्ष्मं द्वारं च विद्यात्किलदुस्तरं तत्३७॥

गुदभ्रंशरोगका लक्षण।

निर्गच्छन्ति बहिर्गुदाः कृशतनोरूक्षाशिनोरोगिणोऽतीसारेण युतस्य तं मुनिगणाः प्राहुर्गुद-भ्रंशकम्॥

शूकरदंष्ट्ररोगका लक्षण।

त्वक्पाको बहिर्निर्गतः किल गुदः कंडूधरो दाहकृद्रोगः शूकरदंष्टको मुनिवरैः प्रोक्तो ज्वरार्ति-प्रदः॥३८॥

वृषणकच्छूरोगके लक्षण।

वृषणस्थं मलं स्वेदात्कंडूस्फोटं वितन्वते॥ संस्रावं कफपित्तोत्थं विद्याद्वृषणकच्छुरम्॥३९॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे क्षुद्ररोगाणां नानाप्रकाराणां लक्षणम्।

** अर्थ**—अपान वातकी गति रोकनेसे कुपितहुई गुदाकी पवन सो गुदाके मार्गको छोटा करदे उसे दुस्तर रोग कहते हैं॥३७॥ कृशदेहवाले पुरुषकी तथा रूखा खानेवालेकी तथा अतीसारवाले पुरुषकी गुदा बाहर निकल आवे उसे गुदभ्रंश रोग कहते हैं, जिसकी गुदा बाहर निकसि आवै और त्वचा पकजाय उस जगह खुजली चलैतथा ज्वर पीडा दाह हो उसे मुनीश्वरोंनें शूकरदंष्ट्ररोग कहा है॥३८॥अंडकोशोंके नहीं धोनेसे मैल जमजावे तब उस जगह पसीना आवाै और खुजली चलै, और खुजानेसे फोडा होजावे, और वो स्रवै उसे, वृषणकच्छु रोग कहते हैं, ये रोग कफ पित्तसे होता है॥३९॥ इति हंसराजार्थबोधिन्यां क्षुद्ररोगनिदानम्।

अथ मुखरोगलक्षणम्।

ओष्ठौ मारुतकोपतोऽतिपरुषौ स्तब्धौ महावेदनौ भिद्येते दलसंयुतौ मुनिवरैः प्रोक्तौ च वातात्मकौ॥ रक्तौष्ठौ खरदाहपाकपिटिकायुक्तौ च तौ पित्तलौ कृष्णौ पिच्छिलशोफशीत-पिटिकापीडान्वितौ श्लेष्मलौ॥१॥

सन्निपातजनितओष्ठलक्षणम्।

नानावर्णधरावोष्ठौ नानारोगसमन्वितौ॥
पिटिकाभिर्युतौ स्थूलौ विज्ञयौ सान्निपातिकौ॥२॥

दंतरोगनिदानम्।

आवृत्य दंतान्परितोऽपि रक्तं प्रवर्त्तते दन्तपल विशीर्यते॥
सक्लेददुर्गंधयुतं च कृष्णं शीतोदसंज्ञः कफरक्तजोयम्॥३॥

** अर्थ**—प्रथम ओठके रोग कहते हैं॥ बादीसे ओठ कठोर और टेढे तथा पीडायुक्त और फटजायँ, ऐसे मुनीश्वरोंने कहाहै, और लाल करडे दाह युक्त और पकजावे पीडिकायुक्त हों, उनको पित्तके कोपसे जानना और काले तथा गाढे सूजन युक्त शीतल पीडिका युक्त तथा पीडायुक्त ऐसे लक्षणोंसे कफका ओठमें रोग जानना॥१॥ जिनका अनेक प्रकारका वर्ण हो और अनेक रोगयुक्त हों, पीडिका और मोटेहों ऐसा, ओठोंका रोग सन्निपातका जानना॥२॥ दांतों में प्राप्त हो और रुधिर निकाले और दांतोंमें जो मांस उसको दांतोंसे छुडाय दे तथा क्लेद और दुर्गंध युक्त हो तथा काला हो वो कफरुधिरसे पैदा शीतोद संज्ञक दांतरोग जानना॥३॥

दंतपुष्पुटरोग के लक्षण।

मध्येषु त्रिषु दंतेषु नीरुक्शोफः प्रजायते॥
दंतपुप्पुटको रोगो गदितो भिषजांवरैः॥४॥

दंतवेशरोगके लक्षण।

रचयति बहुशोफ दंतमुत्पाटनाय पचयति किलमांसंदंतसंलग्नजातम्॥ व्यथयति मुखदेश स्रावयत्याशु रक्त कफपवनविकारात्संभवो दंतवेशः॥५॥

सौषिरनामदंतरोगलक्षण।

लालास्रावी महातापी दंतमूलेषु शोफवान्॥
सौषिराख्यो हि विज्ञेयो रोगो रक्तसमुद्भवः॥६॥

** अर्थ**—जो मध्यके तीन दांतों में पीडारहित सूजन हो उसे दंतपुप्पुटरोग कहते हैं॥४॥ जो दांतोंके उखाडनेके लिये सूजनको प्रगट करै, और दांतके संलग्न मांसको पृथक् करै, और मुखमें पीडाकरै, रुधिर स्रवे उसे वातकफसे पैदा दंतवेश नाम रोग कहते हैं॥५॥ लार टपका करैं, महा ताप होय, दांतोंकी जड़में सूजन हो वो रुधिरसे पैदा सौषिर नामक दंत रोगहै॥६॥

महासौषिरदंतरोगलक्षण।

दंतानावेष्ट्य यस्तालुं दारयेच्च विसर्प्पवत्॥ नानाव्याधिकरंविद्यात्तं महासौषिरं रुजम्॥७॥ दंतसंलग्नमांसानि विदारयति शोणितम्॥ निष्ठीवयति यः पित्तादसृक्परिषरोहिसः ८॥

शोफकशदंतरोगलक्षण।

दंतानापीड्य यो रोगश्चालयेच्च मुहुर्मुहुः॥
पित्तरक्तकफोद्भूतो ज्ञेयः शोफकशो बुधैः॥९॥

** अर्थ**—दांतोंको ढक कर और विसर्प रोगकीसी तरह तालुयेको विदीर्ण करे, और नानाप्रकारके रोग युक्त हों उसे महासौषिर दंतरोग कहते हैं॥७॥ जो दांतसे लगे मांसको विदीर्ण करैऔर रुधिर मुखसे गिरै, वो पित्तसे पैदा असृक्परिषर दंतरोग जानना॥८॥ जो दांतोंको पीडाकरे और बारबार चलायमान करदे पित्त, कफ और रुधिरसे पैदाहो सो शोफकश रोग जानना॥९॥

वैदर्भरोग के लक्षण।

वैदर्भरोगः कथितोभिघातजः सरक्तपित्तानिलकोपसंभवः॥ संपीड्य दंतान्परिचालयत्यलं क्वचित्क्वचिच्छ्रावयतीवशोणितम् १०

करालनामदंतरोगके लक्षण।

वायुर्दंतांतरे दन्तान्कुरुते तीव्रवेदनाम्॥
वर्द्धते विकटान् रूक्षान् सकरालोऽभिधीयते॥११॥

अधिकमांसरोगके लक्षण।

हनुगते दशने किलपश्चिमेऽधिकतरार्तिकरेबहुशोफवान्॥
कफकृतः पवनेन युतोनिशं मुनिवरैर्गदितोधिकमांसकः॥१२॥

** अर्थ**—वैदर्भ रोग चोटके लगनेसे रुधिरसे वात और पित्तके कोपसे दांतों में पीडाकरे और चलायमान करदे और कभी कभी रुधिर भी मुखसे गिरै॥१०॥ वादी दांतोंके अन्दर दांत को पैदा करै, और उनमें दर्द हो तथा वे टेढे हों, रूखे हों, और बडे वो कराल नाम दंतरोग कहाहै॥११॥ ठोडीके पश्चिम देशमें दांत पैदा हो और उसमें पीडा अधिक हो और सूजनहो, वो वात कफसे पैदा मुनीश्वरोंने अधिक मांसरोग कहाहै॥१२॥

कीटदंतरोगके लक्षण।

दंते दंते कृष्णछिद्रं करोति लालासावी चञ्चलो दुष्टगंधिः॥
पीडायुक्तः शोफसंरंभकारी प्रोक्तो वैद्यैः कीटदंतः स रोगः॥१३॥

भंजनकदंतरोगके लक्षण।

यो दंतभंगं कुरुते हि वक्रे पापात्मनां भोजनदुःखितानाम्॥
वातेन जातः कफमिश्रितेन जानीहि तं भंजनकं हि वैद्यः॥१४॥

दंतविद्रधिरोगके लक्षण।

दंतसंलग्नजं मांसंबलाढ्यम्बहुशोफयुक्॥
रक्तपूयाश्रयं क्लिन्न त विद्याद्दंतविद्रधिम्॥१५॥

** अर्थ**—दांत दांतमें काले छिद्र करदे लार टपके चंचल और दुष्ट गन्ध आवे पीडा और सूजनको बढावे वो वैद्योंने कीट दंतरोग कहा है॥१३॥ पापीमनुष्योंके मुखसे दांतोंको उखाडडाले इसीसे भोजन करनेमें दुःखित हो वो बादीसे और कफसे प्रगट ऐसा भजनक नाम दंतरोग जानना॥१४॥ दांतों से मिला हुआ जो मांस उसमें मैल बहुतहो और सूजनहो, तथा रुधिरराध स्रवै, वो दंत विद्रधि रोग जानना॥१५॥

दंतहर्षरोगके लक्षण।

शीतवाताम्लसंस्पर्शाद्दंतपीडासहो गदः॥
दंतहर्षः स विज्ञेयो वातपित्तसमुद्भवः॥१६॥

दंतशर्करारोगके लक्षण।

मलो दंतगतः स्थूलः शर्करेव चिरस्थितः॥
कफोद्भूतो बुधैर्ज्ञेयः सा रुजा दंतशर्करा॥१७॥

दंतश्यावरोगके लक्षण।

दंडादीनां विघाताद्वा कोपाच्छोणितपित्तयोः॥
प्राप्नोति कृष्णतां दंतोदंतश्यावो रुगुच्यते॥१८॥

इति श्रीभिपक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे ओष्ठदंतरोगलक्षणम्।

** अर्थ**—शीतल वात और खट्टी वस्तुके स्पर्शसे जो दांतों में पीडाहो वो वातपित्तसे प्रगट दंतहर्षरोग जानना॥१६॥ दांतों में मैल बहुत शर्कराकीसी तरह रहै, वो पंडितोंने शर्करा रोग कहा है॥१७॥ दंड आदि चोट लगनेसे और रुधिर पित्तके कोपसे जो कालेदांत पडजायँ उसे दन्तश्यावरोग कहते हैं॥१८॥

इति माथुरदत्तरामकृते हंसराजार्थबोधिनीभाषाविवरणे ओष्ठदन्तरोगलक्षणम्।
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अथ जिह्वारोगनिदानम्।

वातेन स्फुटिता कठोररसना रूक्षाप्रसुप्तार्तिदा पित्तेनोष्णतरार्तिदाहसहितादीर्घारुणैःकंटकैः॥संयुक्ताचकफेन सा गुरुतरामांसोत्थितैरंकुरैः श्वेतैः शाल्मलिकंटकाकृतिधरैर्युक्तातिशोफान्विता १॥

उल्लासनामजिह्वारोगके लक्षण।

जिह्वातले महाशोथो गुरुग्रंथियुतो दृढः॥ पूयशोणितयुक्पाकः सोल्लासः कथितो बुधैः॥२॥ जिह्वाग्रमानम्य करोति शोथं लालान्वितं तीव्रविपाकमुग्रम्॥ कंडूयुतं रक्तकफाधिशूलं रुक्शोफजिह्वा कथिता भिषग्भिः॥३॥

** अर्थ**—वादीसे जीभ कठोर और फठी तथा रूखी प्रसुत पीडायुक्त होती है, पित्तसे गरम, दाहयुक्त, बडे और लालकांटोंसे युक्त जाननी कफसे भारी सपेद, सेमरके कांटे सरीखे कांटे और सूजन युक्त होती है॥१॥ जीभके नीचे सूजन बहुत हो तथा भारी और कठिन गांठहो रुधिर और राधयुक्त हो वो पकजाय उसे उल्लासनाम जीभका रोग कहते हैं॥२॥ जीभके अग्रभागमें सूजन हो और लारगिरै बहुत पके तथा खुचली चले और रुधिर कफसे शूल ज्यादे हो वो शोफजिह्वानाम रोग कहा है॥३॥

तालुमूलोत्थितः शोथः कासश्वासतृषान्वितः॥ सव्यथः कफरक्तात्मा कंठतुण्डः स कथ्यते॥४॥तालुकोशगतः शोथश्चिरपाकी ज्वरान्वितः॥ दाहार्तिकासकृत्स्रावी तुंडकेशीसउच्यते ५॥

कच्छपरोग के लक्षण।

कूर्माकारः प्रोन्नतस्तालुदेशे शोथःसोक्तःकच्छपो वैद्यराजैः॥ रक्ताज्जातो रक्तवर्णो ज्वराढ्यः स्तब्धः शोफः कोलमात्रः कफात्मा ६॥

** अर्थ**—और जो तालुयेके मूलमें सूजन, खांसी, श्वास, युक्त तथा प्याससे संयुक्त हो, और दर्द होताहो वो कफ पित्तसे प्रगठ तुंडनाम रोग कहा है॥४॥ जो तालुके कोशमें सूजन हो और देरमें पके ज्वर युक्त और उसमें खांसी, दाह, पीडाहो, स्रवै, उसे तुंडकेशी रोग कहते हैं॥५॥ तालुयेमें कछुयेके आकार ऊंची सूजनहो उसको वैद्योंने कच्छप नाम रोग कहाहै, रक्तसे पैदा भया और लालवर्ण तथा ज्वरयुक्त टेढा और सजनहो बैरके प्रमाण वो कफसे पैदा जानना॥६॥

तालुपाकतालुशोषलक्षण।

पित्ताज्जातं शोथमुग्रं सदाहं तृष्णायुक्तं तालुपाकं वदेद्ज्ञः॥
वातोद्भूतः श्वासकासार्तिशोषैर्युक्तः शोथस्तालुशोषो भवेत्सः ७॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे जिह्वातालूनां लक्षणानि

** अर्थ**—सूजन जार दाह तथा प्यासहो, उसे पंडित तालुपाक रोग कहतेहैं, ये पित्तसे पैदा होता है और जिसमें श्वास, खांसी, शोथ और सूजनहो वो वातसे पैदा तालुशोष रोगहै॥७॥

इति माथुरदत्तरामपाठकप्रणीतायां हंसराजार्थबोधिनीटीकायां जिह्वातालुरोगनिदानं समाप्तम्।

गलरोगस्यनिदानम्।

पित्तश्लेष्मशरीरिणां गलगताः संदूष्य रक्तामिषं ते तत्रैव विमूर्च्छिताः प्रकुपिताः कुर्वंति नाना-गदान्॥ मांसोत्थैः कठिनांकुरैश्च परितो रुंधंति कंठानिलं प्राणानाशु विकर्षयंति मुनिभिः सा रोहिणी प्रोच्यते॥१॥

वातरोहिणीके लक्षण।

चिह्नानि वातरोहिण्या गले मांसभवांकुराः॥
ज्वरार्त्तिकारिणी तीव्रा शोषिणी कंठरोधिनी॥२॥

पित्तरोहिणीके लक्षण।

मांसांकुरा गलोत्पन्ना दाहिनस्तीत्रवेदनाः॥
सूक्ष्मत्वचस्त्वरापाकाश्चिह्नैःस्यात्पित्तरोहिणी॥३॥

** अर्थ**—मनुष्योंके वात, पित्त, कफ गलेमें प्राप्तहो रुधिर और मांसको बिगाड फिर आप दुष्ट हो नानाप्रकारके गलेमें रोग करते हैं, और मांससे प्रगट भये जो कठिन अंकुर उनसे कंठको रोक तथा श्वासको रोकदे और प्राणको निकालदे उसे रोहिणी नाम कंठरोग कहते हैं॥१॥ वातरोहिणीके ये लक्षणहैं, गलेमें मांसके अंकुर हों, सो ज्वर और पीडा, शोष, तथा कंठको रोकदे॥२॥ मांसके अंकुर जो हों, उनमें दाह और तीव्र पीडा छोटे जल्दी पकें ये पित्तरोहिणीके लक्षण हैं॥३॥

कफरोहिणीके लक्षण।

मांसांकुरैः स्थूलतरैरपाकैः कंठांतरोत्थैः कठिनैरवेदनैः॥
दीर्घैस्थिरैः कंडुरशोथवद्भिर्ज्ञेयाभिषग्भिः कफरोहिणी सा॥४॥

रुधिरकी रोहिणकि लक्षण।

कंठांतरोत्थैः पिटिकैरुजान्वितैः सूक्ष्मैः सशोथैर्गलरोगकारकैः॥
श्वासार्तिकासज्वरदाहमोहैर्ज्ञेया बुधै रक्तभवा च रोहिणी॥५॥

कंठशालूकरोगके लक्षण।

कठे जातं ग्रन्थिरूपं कफोत्थं साध्यं शास्त्रैः कोलमज्जासमानम्॥
स्थैर्यं कण्डूशोफयुक्तं कठोरं विज्ञेयं तं कंठशालूकरोगम्॥६॥

** अर्थ**—मांसके अंकुर गलेमें मोटेहों, पकें नहीं, तथा कठिन पीडारहित, लंबेहों, स्थिरहों, खुजली, सूजन रहित, वो बैद्योंने कफरोहिणी कही है॥४॥ कंठमें अंकुर छोटेहों और उनमें पीड़ा हो और सूजन तथा गलेके रोगोंको प्रगट करनेवाले, श्वास, पीडा, खांसी, ज्वर, दाह, मोहयुक्तहो, उसे रुधिरकी रोहणी रोग कहते हैं॥५॥ कोलकी मज्जा अर्थात् बेरकी गुठलीके समान कंठमें गांठ पैदा हो वो कफसे प्रगट साध्य है, स्थिर हो खुजली सूजन कठोर ये कंठशालूक रोगके लक्षण कहे हैं॥६॥

अधिजिह्वारोगके लक्षण।

शोथो जिह्वाग्रभागस्थः पाकरक्तकफोद्भवः॥
जिह्वाबंधो महोग्रार्त्तिरधिजिह्वो विधीयते॥७॥

बलासाक्षरोगके लक्षण।

श्लेष्मानिलौ गले शोथं कुरुतः श्वाससंभवम्॥
मर्मच्छिद्रं गुरुस्थूलं बलासाक्षं विदुर्बुधाः॥८॥

नासाशतघ्नीरोगके लक्षण।

वर्तिर्गलस्था बहुवेदनान्विता मांसांकुरस्था परिकंठरोधिनी॥
दोषैर्युता प्राणहरी सकंटका नासाशतघ्नी परिकीर्त्तिता बुधैः॥९॥

** अर्थ**—जिह्वाके अग्रभागमें सूजन हो, पके जीभको स्तम्भन करदे, बहुत पीडा हो उसे रुधिर कफसे प्रगट अधिजिह्वरोग कहा है॥७॥ कफ और वात गलेमें सूजन करे तथा श्वास और मर्म स्थानमें छिद्र तथा मोटा और भारी हो उसे बलासाक्ष रोग कहा है॥८॥ उसे पंडितोंने नासा शतघ्नीरोग कहा है, जिसमें पीडायुक्त गलेमें बत्तीसीहो तथा मांसके अंकुरनसे कंठ रुकाहो दोषोंसे परिपूर्ण हो प्राणके हरनेवाली कांटे युक्त हो॥९॥

गलायुरोगके लक्षण।

ग्रन्थिर्गलस्थोबदरप्रमाणो नीरुक्स्थिरोऽसाध्यतमः कफात्मा॥
प्रोक्तोगलायुर्मुनिभिः कदाचिद्रोगं सपक्षं परितो न पश्येत्॥१०॥

गलविद्रधिरोग के लक्षण।

शोथः सर्वं गलं व्याप्य वर्द्धते बहुरोगवान्॥
त्रिदोषोत्थो महान्वैद्यैः स ज्ञेयो गलविद्रधिः॥११॥

गलौघरोगके लक्षण।

शोथो गलस्थो बहुरूपधारी कंठावरोधी गलदाहकारी॥
श्लेष्मासृगुत्थो बलवीर्यहारी प्रोक्तो गलौघो मुनिभिर्विकारी १२

** अर्थ**—गलेमें गांठ बेरके समान हो, पीडारहित, स्थिर हो तो असाध्य कहा है ये कफसे प्रगट होताहै पक्षउपरांत नहीं रहे॥१०॥ जो सूजन सब गलेमें व्याप्त हो फिर बढे और बहुतसे रोगयुक्त हो उसे सन्निपातसे प्रगट गलविद्रधि रोगकहाहै॥११॥ अनेक प्रकारकी सूजन गलेमेंहो और कंठको रोकनेवाली तथा गलेमें दाहके करनेवाली और बल वीर्यका नाशक कफरुधिरसे पैदा गलौघनाम रोग मुनीश्वरोंने कहाहै॥१२॥

अतिसूक्ष्मतरा वदनांतरगाः परितः खचिता मुखतोदकराः॥

वनस्य विकारभवा बहुधा परिपाकयुताः सितभा ज्वरदाः॥ ॥१३॥ अरुणद्युतयो मुखमध्य-भवास्तनुरूपधरा बलवीर्यहराः॥ वदनार्तितृषाज्वरदाहकराः पिटिकाः किल पित्तभवा भणिताः॥१४॥ चिरपाकयुता विरुजाकठिनाः कफकोपविकारभवा मुखजाः॥गुरवोऽल्पमसूर-दलाकृतयः खरकंडुरदामुखपाककराः १५

** अर्थ**—बहुत छोटीफुन्सी मुखके भीतर पैदाडोयँ, और मुखमें पीडाकरैं, तथा सपेद और ज्वरके करनेवाली और पकनेवाली ये वातके बिकारसे पैदा होती हैं॥१३॥ लालरंगकी फुन्सी मुखमेंहों छोटी तथा बलवीर्यकी नाशक मुखमें पीडाकरै, तथा प्यास, ज्वर, दाहको करैं, वो पित्तके विकारसे पैदा होती हैं॥१४॥ जो फुन्सी देरमें पकैंपीडाहो, या नहीं, कठिन और मसूरके दालकी समानहों, तीखी खुजली चले और बडीहों तथा मुखके पाककरनेवाली ये कफके विकारसे होती हैं॥१५॥

पित्तशोणितकोपेन मुखपाकोभिजायते॥
ऊष्मारतिव्यथादाहज्वरशोपतृषार्त्तिकृत्॥१६॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे गलमुखरोगाणां लक्षणानि।

** अर्थ**—पित्त और रुधिरके कोपसे मुखपाक होताहै, वो गरमी तथा अरति, पीडा, दाह, ज्वर, शोष, प्यास, इनका करनेवाला होताहै॥१६॥

इति श्रीमाथुरदत्तरामपाठकप्रणीतहंसराजाथबोधिनीटीकायां गलमुखरोगनिदानं समाप्तम्।
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अथ कर्णरोगनिदानम्।

वातः प्रचंडः स्वगतिं निरुध्य श्लेष्मान्वितो वक्रगतिं विधाय॥
कर्णांतरे पीडयतीव कोपात्तत्कर्णशूल कथितं भिषग्भिः॥१॥

कर्णनादके लक्षण।

कर्णस्रोतांसि संवेष्ट्य संभ्रमन्मारुतो बली॥ करोति विविधाञ्छब्दान्कर्णनादः स कथ्यते॥२॥स्रोतांसिकर्णयोर्यस्यवहंति श्लेष्ममारुतौ॥ स मनुष्योऽल्पकालेन बधिरत्व प्रजायते॥३॥

** अर्थ**—प्रचंड जो वात सो अपनी गतिको रोक और कफके संग है टेढी गतिसे चले, और कानमें पीडाकरैउसे वैद्य कर्णशूल कहते हैं॥१॥ प्रबल जो बात सो भ्रमण कर्त्ता हुआ कानों के छिद्रोंको बंदकर और अनेक प्रकारके शब्द करै, उसे कर्णनाद कहते हैं॥२॥ जिसके कानमें वात और कफ प्राप्तहो वो मनुष्य थोडेही कालमें बहिरा हो॥३॥

शब्दछ्वेडके लक्षण।

पित्तश्लेष्मान्वितो वायुः कर्णरन्ध्रेषु संस्थितः॥
करोति गुंजवच्छब्दं स शब्दछ्वेड उच्यते॥४॥

स्रावगदरोगके लक्षण।

जलस्य पाताच्छ्रुतिरन्ध्रमध्ये शस्त्रादिकैर्वा शिरसोभिघातात्॥
वातार्दितो यः श्रवणः सरक्तं पूयं स्रवेत्स्रावगदो निरुक्तः॥५॥

कर्णगूथरोगके लक्षण।

वातेरितः कफः कुर्य्यात्कंडूं श्रवणयोर्द्वयोः॥
श्लेष्मापित्तोष्मणा शुष्कः कर्णगूथः स जायते॥६॥

** अर्थ**—पित्त कफयुक्त जो वात सो कानोंके छिद्रों में स्थित होय, तब मनुष्यके कानों में गुञ्जार शब्दहो, उसे शब्दछ्वेडरोग कहते हैं॥४॥ कानमें जलके पडनेसे तथा शस्त्रआदिके लगनेसे अथवा शिरमें चोटके लगनेसे वातसे पीडित कानमेंसे जो रुधिर और राध निकले उसे स्रावगद रोग कहते हैं॥५॥ वातकरके प्रेरित जो कफ सो दोनों कानों में खुजली पैदा करैऔर पित्तकी गर्मी से कफ शुष्क होजाय तब कर्णगूथ रोग पैदा हो॥६॥

प्रतीनाहके लक्षण।

सकर्णगूथो द्रवतां यदा नयेत्पुनश्च तत्रैव विलीयतेऽनिशम्॥
मुखं च नासां स पुनः प्रपद्यते बुधैः प्रतीनाहमिहोच्यतेतत्॥७॥

कृमिकर्णरोगके लक्षण।

श्लेष्मामूर्च्छांगतः कर्णे जंतूंश्च सृजते बहून्। शिरोर्द्धे कुरुते पीडां कृमिकर्णो बुधैः स्मृतः॥८॥श्रवणे श्लेष्मणा पूर्णे संप्रविश्येव मक्षिका॥ जंतूश्च स्रवते शीघ्रं कृमिकर्णोऽभिधीयते ९

** अर्थ**—वोही कर्णगूथ रोग पतला होकर फेर जातारहै फेर मुख और नाकमें पैदा हो, उसे वैद्योंने प्रतीनाह रोग कहाहै॥७॥ कफ कानमें मूर्च्छित हो बहुत कृमि पैदा करै, और आधे मस्तकमें पीडा हो, उसे कृमिकर्णरोग कहाहै॥८॥ कफसे परिपूर्ण कानमें मक्खी प्रवेशकर कीडोंको पैदा करे, उसको भी कृमिकर्णरोग कहतेहैं॥९॥

पतंगो वाथवा कीटः प्रविश्य श्रवणांतरे॥ नराणां कुरुते पीडां व्याकुलं क्षतसंचयम्॥१०॥ कीटः प्रविश्य कर्णांते किल्ली स्फोटयतेऽनिशम्॥ विद्रधिं कुरुते शीघ्रम्बधिरत्वं प्रकल्पयेत् ११

कर्णपाकरोगके लक्षण।

कर्णस्य मध्ये पिटिकाब्जकर्णिकाकाराकृतिस्तोदतृषाज्वरान्विता॥ शोषोल्पपाकाः पवनात्मकोयं प्रोक्तो भिषग्भिः किलकर्णपाकः॥१२॥

** अर्थ**—पतंग अथवा कीडा कानमें प्रवेशकर मनुष्यको पीडित करैं, तथा कानमें घाव करदें॥१०॥कीडा कानमें धसकर किल्ली मारै वो विद्रधि और बहिरापना करदे॥११॥ कानमें फुन्सी कमल कर्णिकाके आकार पैदा हो तथा पीडा, तृषा, ज्वर, शोष थोडा पाकयुक्त हो, वो वातसे पैदा वैद्योंने कर्णपाकरोग कहाहै॥१२॥

पित्तकर्णपाकके लक्षण।

कर्णांतरे कोशविदीर्णकारी दाहार्तिक्लेदस्य विकारधारी॥
वैकल्यकृद्वीर्यबलोपहारी पित्तात्मकोयं किल कर्णपाकः॥१३॥

कफकर्णपातके लक्षण।

स्थूलत्वकर्णविस्फोटकंडूशोषार्तिपाकवान्॥ पूयस्रावी महाक्लेदी कर्णपाकः कफात्मकः॥१४॥क्षतोत्पाटनात्कर्णपाकेंबुपूर्णाद्भवेद्विद्रधिः कर्णविध्वंसकारी॥ महारुक्करोर्तिप्रदो दीर्घशोफं मुहुः स्रावदुर्गंधकृत्कष्टपाकी॥१५॥

** अर्थ**—जो फुंसी कानके भीतरी झिल्लीको फोडकर दाह, पीडा, क्लेदयुक्त, बेकली करै, तथा वीर्य बलका नाश करै, उसे वैद्योंने पित्तका कर्णपाक कहाहै॥१३॥ स्थूलत्वचा और कानमें फूटन खुजली, शोष, पीडा, पाकयुक्त हो, राध निकले, महाक्लेदयुक्त, उसे वैद्य कफका कर्णपाक रोगकहते हैं॥१४॥ कानमें घाव होगयाहो उसपरसे खुंड उखाडनेसे तथा कर्णपाकमें पानीके पडनेसे कानमें विद्रधिरोग कानका विध्वंस करनेवाला पैदा होताहै, उसमें पीडा और सूजन तथा स्राव और दुर्गंध और कष्टसे पकै ये लक्षण होतेहैं॥१५॥

वातपूतिकर्णरोगके लक्षण।

पूयं स्रवेद्यः श्रवणोथ पूतिं विस्फोटपीडां रतिगुंजघोषः॥
शोषार्बुदैर्युग्ज्वरशूलयुक्तो वातात्मकोऽयं खलु पूतिकर्णः॥१६॥

पित्तपूतिकर्णके लक्षण।

अत्यंतदाहो बहुतीव्रवेदना नित्यं स्रवेद्यः श्रवणोतिपूतिः॥
पूयं च पीतं परिपित्तजोयं प्रोक्तो भिषग्भिः किल पूतिकर्णः॥१७॥

कफपूतिकर्णके लक्षण।

कर्णस्रावं पूयमुग्रं सपूतिंशोथः स्रिग्धः क्लेदवैश्रुत्यकंडूः॥
शुक्लस्थैर्यं श्लेष्मजं दीर्घपाकं विद्याद्रोगं पूर्तिकर्णं नितांतम्॥१८॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे कर्णरोगलक्षणानि।

** अर्थ**—जिसमेंसे राध बहै, कानमें दुर्गंध, तथा फूटन, पीडा, अरति, गुंजार होना, शोष, अर्बुद, ज्वर, शूल, इन करके युक्त हो उस वातको कर्णपूत रोग कहाहै॥१६॥ जिसमें दाहतीव्र, दुःख नित्य हो, कानमें राध स्रवै, तथा राध पीली निकलै, उसे वैद्योंने पित्तका कर्णपूति रोग कहाहै॥१७॥ कानमेंसे पीव बासके साथ निकले, तथा चिकनी सूजन क्लेदयुक्त हो तथा कानमें खुजली चलतीहो सपेद हो देरमें पके वो कफका कर्णपूति रोग जानना॥१८॥

इति श्रीमाथुरदत्तरामपाठकनिर्मितायां हंसराजार्थबोधिनीटीकायां कर्णरोगास्समाप्ताः।
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नासारोगलक्षण।

आनह्यते येन गदेन नासिका विशुध्यते पूय्यति तुद्यते क्वचित्॥
न गंध्यते क्लिद्यति खिद्यतेऽथवा स पीनसो रुक्कथितो भिषग्वरैः १

क्षवथुरोग के लक्षण।

यदा घ्राणमर्मस्थले संविकारे कफेनावलिष्टो मरुन्नासिकायाः॥
तदायातिबाह्यांतराच्छब्दयुक्तोनिरुक्तोभिषग्भिर्वरिष्ठैःक्षवोयम् २

पूतिनस्यरोग के लक्षण।

पक्वैर्दोषैर्यदावातस्ताल्वादौ मूर्च्छितो भवेत्॥
नसो निस्सरते पूतिः पूतिनस्यं च तद्वदेत्॥३॥

** अर्थ**—जिसमें कफसे नाक बंधजावे और पीब बहै, तथा क्लेश हो, और जिसमें सुगन्ध दुर्गन्धका ज्ञान न हो तथा पीडा हो उसे वैद्योंने पीनसका रोग कहा है॥१॥ जिसकी नाकमें पवन दुष्टहोकर नाकके मर्मस्थानोंको दुःखित करे फिर वही नाककी पवन कफसे मिलकर शब्दयुक्त भीतरसे बाहर निकसै, उसे वैद्योंने क्षवथु अर्थात् छींकका रोग कहा है॥२॥ जिसके गला तालूके मूलकी पवन दोषोंको बिगाडकर आप गलेमें मूर्च्छित हो नाकसे दुर्गंध युक्त निकसै, उसे पूतिनस्य कहते हैं॥३॥

नासापाकके लक्षण।

नासिकायां स्थितं पित्तं परुषी कुरुतेनिशम्॥
नासिकापाकमित्याहुर्दाहक्लेदव्यथान्वितम्॥४॥

पूयरक्तका लक्षण।

दोषेषु पक्वेषु ललाटमध्ये पूयं सरक्तं मुखनाशयुक्तम्॥
दुर्गन्धियुक्तं बहुशः स्रवेत्तत्प्रोक्तम्भिषग्भिः किल पूयरक्तम् ५॥

प्रदीप्तरोगके लक्षण।

दाहान्वितायाः परिनासिकायाः सन्निःसरेद्धूमधनंजयाभ्याम्॥
सार्द्धं शतोदी पवनप्रचडो रोगं प्रदीप्तं प्रवदन्ति वैद्याः॥६॥

** अर्थ**—नाकमें पित्त दुःखितहो फुंसीको पैदाकरे और वो पकजाय तथा दाह राघ व्यथायुक्त हो उसे नासिकापाकरोग कहते हैं॥४॥ ललाटमें दोषोंके पकनेसे रुधिर राध और दुर्गंध युक्त मुख नाक बहुत स्रवै, उसे पूयरक्तरोग कहते हैं॥५॥ जिसकी नाकसे दाहयुक्त प्रचंड पवन निकलैं, तथा धुंआंनिकले, और पीडाहो उसे प्रदीप्तरोग कहते हैं॥ ६॥

प्रतीनाहरोगके लक्षण।

रुंध्यान्मार्ग्गं नसो वायुः श्लेष्मणा सहितो बली॥
प्रतीनाहं च तं रोगं विद्यादाधुनिको भिषक्॥७॥

नासाशोषके लक्षण।

घ्राणोत्थश्लेष्मसंघातः पक्वपित्तोष्मणानिशम्॥
वातेन शोषितः सोऽय शोषः प्रोक्तो भिषग्वरैः॥८॥

पक्वपीनसके लक्षण।

श्लेष्मातिसांद्रः परिगंधहीनः शिरोलघुत्वं स्वरवर्णशुद्धिः॥
नासावकाशं पवनप्रवृत्तिश्चिह्नानि पक्वस्य हि पीनसस्य॥९॥

** अर्थ**—नाककी पवन कफसे मिलकर श्वासको रोकदे, उसे प्रतीनाहरोग अबके वैद्य कहते हैं॥७॥नाकमें उठा जो कफका समूह वो पित्तकी गर्मीसे पकजाय फिर वात उसको सुखाय देय, तब मनुष्य श्वास कठिनसे ले उसे नासाशोष कहते हैं॥८॥ जब पीनस पक जाता है, तब ये लक्षण होते हैं, गंधरहित गाढा कफ निकलै, शिर हलका हो, स्वरका वर्णशुद्ध हो, नाकशुद्ध, पवन अच्छीतरह निकले, ये पकीपीनसके लक्षण हैं॥९॥

सरेकमारोगकी उत्पत्ति।

प्राणांतरे सूक्ष्मरजोनिपातादुद्भाषणान्मैथुनतोऽर्कतापात्॥
शीर्षावघाताद्बहुशीतसेवनाद्वातः प्रतिश्यायगदं प्रकुर्यात्॥१०॥

सरेकमारोगका पूर्वरूप।

शिरोगुरुत्वं च प्रहृष्टरोम शरीरमार्द्रं क्षवथुप्रवृत्तिः॥

निद्रालसत्वं नयनाश्रुपातो भवेत्प्रतिश्यायपुरो हि चिह्नम् ११

वातकीपीनसके लक्षण।

स्वरोपघातो गलतालुजिह्वाशोषोऽथनासापिहिताक्वचित्स्यात्॥
स्रावोतिसूक्ष्मः परिशंखपीडा मरुत्प्रतिश्यायरुजोपचिह्नम् १२॥

** अर्थ**—नाकमें धूलिके जानेसे, बहुत जोरसे बोलना, मैथुनके करनेसे, सूर्यके घाममें रहनेसे, शिरमें चोट लगनेसे, बहुत शीतके सेवन करनेसे, कुपितजो वात सो पीनस रोगको पैदाकरे॥१०॥ शिर भारी, रोमांच, शरीरका टूटना, बारबार छींकका आना, नींद और आलकस तथा नेत्रोंसे अश्रुपात हो ये सरेकमाके पूर्वमें होते हैं॥११॥ स्वर बैठजाय, गला, तालू, जीभ इनका सूखना, नाकका मार्ग रुकजाय थोडापतला गरम पानी गिराकरै, कनपटी दूखे ये बातके सरेकमांके लक्षणहैं॥१२॥

पित्तकीपीनसके लक्षण।

नासास्रावो महातप्तपीनसोवनिधूमवान्॥
सदाहः पैत्तिको ज्ञेयः श्लेष्मजः कथितो बुधैः॥१३॥

कफकीपीनसके लक्षण।

शुक्लाभो नासिकास्रावः गलोष्ठतालुकंडुमान्॥
शिरस्तोदःप्रतिश्यायः श्लेष्मजः कथितो बुधैः॥१४॥

रुधिरकीपीनसके लक्षण।

रक्तस्रावः शिरःपीडा दाहःशंखद्वयेऽनिशम्॥
रक्तत्वं नेत्रयोर्ज्ञेयः प्रतिश्यायः सरक्तजः॥१५॥

** अर्थ**—जिसके नाकसे गरम गरम पानी गिरे, और अग्निके समान धुआं निकलै, तथा दाहहो, वो पित्तकी पीनस कहींहै॥१३॥ नाकसे पानी सपेद गिरे, और गला, तालू, ओठ इनमें खुजली चलै, मस्तक भारीरहै, उसे कफकी पीनस कहते हैं॥१४॥ जिसकी नाकसे रुधिर गिरै मस्तकमें और दोनों कनपटीनमें दर्द, नेत्र लाल, इन लक्षणोंसे रुधिरकी सरेकमां अर्थात् पीनस जाननी॥१५॥

सन्निपातकीपीनसके लक्षण।

श्वासपूतिवहोनाहः क्लेदो जंतुषु निर्द्दितः॥ चिह्नैरेतैरसाध्योऽयं प्रतिश्यायस्त्रिदोषजः॥१६॥॥इतिश्रीभिषक्चक्र चित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे नासारोगलक्षणानि।

** अर्थ**—जिसकी नाकसे श्वासयुक्त पवन निकलै, अनाहरोग हो, क्लेदयुक्त तथा कृमि पडिजायँ, ऐसे लक्षणोंसे सन्निपातकी पीनस कहीहै॥१६॥

इति श्रीमाथुरदत्तरामपाठकप्रणीतायां हंसराजार्थबोधिनीटीकायां नासारोगलक्षणानि।

अथ नेत्ररोगनिदानम्।

नेत्ररोगोत्पत्तिः।

शीर्षोपघाताद्विषतीक्ष्णसेवनान्नेत्रांतरेधूमरजोतिपातात्॥ सूर्येक्षणात्सूक्ष्मनिरीक्षणान्मुहुर्दोषारुजं संजनयंति नेत्रयोः॥१॥ शुक्रावरोधाद्युवतिप्रसंगाद्धातोर्विकाराज्ज्वलनस्यतापात्॥ नाड्यादि-मोक्षाद्बहुमैथुनाच्च नेत्रे रुजं संजनयंति दोषाः॥२॥

वातकेनेत्ररोगके लक्षण।

विशुष्कता स्पंदनतातिरूक्षता प्रतोदता कर्कशताद्यशुद्धता॥
प्रधर्षतास्तंभनताश्रुपातान्नृणां च नेत्रे पवनात्मको भवेत्॥३॥

** अर्थ**—शिरमें चोट लगनेसे विष अथवा तीखी वस्तुके सेवन से, नेत्रोंमें धुंआ और धूलिके पड़नेसे, सूर्य्यके सामने देखनेसे, छोटी वस्तुके देखनेसे, कुपित हुये जो वात, पित्त, कफ सो नेत्र रोगको पैदा करते हैं॥१॥ वीर्यके रोकनेसे, बहुत स्त्रीके संगसे, धातुके विकारसे, अग्निकेतापसे, फस्तछुडानेसे, बहुत मैथुनसे नेत्रमें तीनों दोष नेत्ररोग करते हैं॥२॥ नेत्रोंका सूखना, तथा फडकना, रूखापन, पीडा, कर्कशता, अशुद्धता, घिसासा होना, स्तंभनता, आंसुओंका गिरना, ये लक्षण वातके नेत्ररोगमें होते हैं॥३॥

पित्तकेनेत्ररोग के लक्षण।

उष्णोष्णबाष्पोरविणातितापः शूलारतिः पांडुरता शिरोऽर्तिः॥
दाहोल्पपाको महती च पीडा नेत्रे भवेत्पित्तमये नराणाम्॥४॥

कफकेनेत्ररोगके लक्षण।

तंद्रातिशोफो गुरुता शिरोर्तिर्दाहोल्पपाको महती च पीडा॥
ऊष्माविशेषोग्निसमानदाहः स्रावोरतिः शूलमतीव पीडा॥५॥

नेत्रमंथके लक्षण।

विवर्णता शोणितमाविपाको रक्तस्रवः स्यान्नयने नराणाम्॥
निर्मथ्यनेत्रेदधिमंथलक्षणैर्वायुस्ततो गच्छति मूर्ध्निविक्रमम्॥६॥

** अर्थ**—सूर्य्यक घामसे गरमीहो, तथा गरमगरमपानी निकले, शूल और अरति पीलियाहो, शिरमें दर्दहो, दाहहो, थोडापके, पीडा ज्यादाहो, ये लक्षण पित्तके नेत्ररोगके हैं॥४॥ तंद्रा, सूजन, मस्तक भारी, दाह, थोडापके, पीडा बहुत हो, गरमी बहुतहो, अग्निकेसमान दाहहो, अश्रुपात हो, अरति, शूल ये कफके नेत्ररोग के लक्षणहैं॥५॥ जिसके नेत्रबुरेहों, पकजायँ, रुधिर गिरै, और दधिमंथलक्षणोंसे नेत्रोंको मथनकर पवन मस्तकमें प्राप्तहो॥६॥

निपीड्य शीर्षं पुनरावृतस्ततो जानीहि तं पंडितनेत्रमंथनम्॥
आयाति याति प्रकरोति वेदनां वातः प्रचंडो नयनांतरे भ्रुवोः७॥

वातभ्रमणरोगके लक्षण।

शीर्षास्थिशंखन्त्वथ रक्तनेत्रे जानीहि वातभ्रमणं गदंतम्॥ अवेदना कंडुविशुष्कता-स्याल्लघुत्वमक्ष्णोश्च प्रसन्नमार्गः॥८॥ मलप्रवृत्तिर्बहुधा निशान्ते विपक्वदोषं प्रवदंति संतः॥ पक्वोदुंबरवत्स्निग्धो गरिष्ठःकंडुशोफवान्॥ जलस्रावोऽल्पसतोदो नेत्रपाकः कफोद्भवः॥९॥

** अर्थ**—और मस्तकमें पीडाकर फिर लौटकर नेत्रमें प्राप्तहो, ऐसेही आवै और जाय और तथा भ्रुकुटीमें पीडाकरै, उसे पंडितोंने नेत्रमंथ रोग कहाहै॥७॥ मस्तककी हड्डीमें कनपटीमें मांसमें पीडाहो तथा नेत्र लालहों, उसे वातभ्रमणरोग कहाहै, नेत्रपाकके लक्षण पीडारहित तथा खुजली न चलै तथा अश्रुपात रहितहो और नेत्रोंमें हलकापनहो तथा नेत्रोंका मार्ग स्वच्छहो॥८॥ विशेष कीचडका आना रात्रिके अंतमेंहो, तब जानना कि दोषपाक हुआ पके गूलरके समान तथा चिकने और भारी तथा खुजली और सूजनयुक्त जल बहे थोडीपीडाहो इसको कफसे प्रगट नेत्रपाक जानना॥९॥

शिरपाकनेत्रके लक्षण।

नेत्रे समर्थे परिवीक्षितुं दिशः स्फोटो ललाटे बहुवेदनान्वितः॥ शूलश्च दाहोग्निसमो भ्रमो भवेद्रोगो भिषग्भिः शिरपाक ईरितः॥१०॥ आच्छाद्य दृष्टिं नयने विनिर्गतं शुक्रं सिताभं परिवर्द्धते निशम्॥ सूच्याप्रविद्धं खलुनाशमेति नोचेद्बुधाःशुक्रवणं वदन्ति॥११॥ नेत्रांतरे कज्जलिमा-समीपे शुक्रद्वयं सूक्ष्मतरंचिरोत्थम्॥ मुक्तावभासं गततोदपाकं तत्कष्टसाध्यं मुनयो वदन्ति॥१२॥

** अर्थ**—नेत्र चारों ओर देखनेको असमर्थहों, बहुतपीडा और शूलयुक्त ललाटमें फूटनहो, अनिके समान दाहहो, भ्रमहो, उसे वैद्योंने शिरपाक रोग कहा है\।\। १०॥ जिसके नेत्रमें शुक्रकी बूंद आय जावे उससे कुछ न दीखे, और वो दिनदिनमें बढे उसे शुक्रव्रण कहते हैं और सुईकेसे चमका चले॥११॥जिसके नेत्रकी काली जगेपर छोटी छोटी दोबूंद मोती के समान बहुत कालकी प्रगटभई हो, और उनमें पीडा न होतीहो और न पके उसे मोतियाबिंदु कष्टसाध्य मुनि कहते हैं॥१२॥

असाध्यमोतियाबिंदुके लक्षण।

शुक्रद्वयं वा त्रितयं चतुष्टयं निर्वेदनं नेत्रगतं विपाकम्॥ विहायसीचाभ्रदलावभासं स्यादप्यसाध्यं निबिडं चिरोत्थम्॥१३॥ दोषत्रयोत्थं नयनांतरस्थं नीलावभासं निबिडं विसर्प्पम्॥ स्निग्धं दृढं दृष्टिपथावरोधं स्पंदात्मकं शुक्रमसाध्यमाहुः॥१४॥ नेत्रांतरस्थं रुधिरावभासं मांसोत्थितं स्थूलदलं विशालम्॥ विच्छिन्नमध्यं परिचंचलं च शुक्रं भिषग्भिस्तदसाध्यमुक्तम् १५

** अर्थ**—जिसके नेत्रमें दो वा तीन वा चार बूंद बीचहों, उनमें पीडाहो, और पकजावे, और वो बद्दल वा आकाशके रंगकी बूंदहों, मिलीभई तथा बहुत दिनकी ये असाध्यहैं॥१३॥ जो तीनों दोषोंसे उठी होय और नीले रंगकी मिली हुई किञ्चित् चलायमान चिकनी और दृष्टिको रोकदे ऐसी शुक्रकी बूंदभी असाध्यहै॥१४॥ नेत्रमें रुधिरके रंगकी शुक्रकी बूँदहो और वो मोटी तथा लम्बी हो, विच्छिन्न मध्यहो और चंचलहो ऐसा रोगी वैद्योंने असाध्य कहाहै॥१५॥

एकं द्वयं वा त्रितयं चतुष्टयं संछाद्य नेत्रं परिवर्द्धतेनिशम्॥ शोफोष्णबाष्पो रविपाकसाधनं शुक्रं विदग्धं तदसाध्यमादिशेत् १६॥

इति नेत्रशुक्रलक्षणानि।

नेत्रके प्रथमपटलके लक्षण।

आवृत्यनेत्रे पटले व्यवस्थिते व्यक्तानि रूपाणि नरः प्रपश्येत्॥

नेत्रद्वितीयपटलके लक्षण।

एवं द्वितीये पटलेऽक्षिसंस्थे सूचीमुखं दृष्टिगतं न पश्यति॥१७॥

नेत्रतृतीयपटलके लक्षण।

नेत्रांतरस्थे पटले तृतीये दृष्टिर्भृशं विह्वलतां समेति॥ आभासमात्रं खलुपश्यतीह साध्यं शिशुत्वे खलु नान्यवस्थम्॥१८॥

** अर्थ**—एक दो तीन चार बूंद नेत्रमेंहों, और नेत्रकी दृष्टिको ढकदेवैं, और नित्य बढै तथा सूजन गर्मी अश्रुपातका पडना ये शुक्रविदग्धके लक्षणहैं, येभी असाध्य हैं॥१६॥ इतने रोग नेत्रके शुक्लभागमें होते हैं, नेत्रके प्रथम पठलमें दोषोंके पहुंचनेसे मनुष्यको यथार्थ न दीखे, ऐसेही नेत्रके दूसरे पटलमें दोष पहुंचनेसे सुईका तथा मक्खी मच्छर बालकाभी समूह नहीं दीखै॥१७॥ नेत्रके तीसरे पटलमें दोष पहुंचनेसे दृष्टि विह्वल होजाय, कुछ कुछ झांई मालूमहो, ये बाल अवस्थामें साध्यहै औरमें नहीं॥१८॥

नेत्रचतुर्थपटलके लक्षण।

यस्यावरुद्धे पटलेन नेत्रे दृष्ट्या न पश्येत्स नरोर्क्कबिम्बम्॥
विद्युल्लतां चन्द्रमसं सतारं तत्काचसंज्ञं पटलं चतुर्थम्॥१९॥

वातकी दृष्टिरोगके लक्षण।

दृष्ट्या महत्या पटलेन रुद्धया समीरणोत्थेन विकारकारिणा॥
रूपाणि सर्व्वाण्यरुणानिमानवाःपश्यंति पीतप्रभया विदग्धया २०

पित्तकी दृष्टिरोगके लक्षण।

पटलेनावृता दृष्टिः पित्तकोपोत्थितेन सा॥ नीलानि सर्ववर्णानि परिपश्यति सम्भ्रमम्॥२१॥

** अर्थ**—नेत्रके चतुर्थ पंटलमें दोष पहुंचनेसे मनुष्यको सूर्य्य चंद्र और बिजली और तारागण ये न दीखे, वो कांचसंज्ञक और इसीको लिंगनाशक और नजला तथा मोतियाबिंदभी कहते हैं॥१९॥ जिसकी दृष्टि वादीके विकारसे आच्छादितहो, उसे छालरंग पीला दीखे॥२०॥ जिसकी दृष्टि पित्तके कोपसे ढकीहो उसे भ्रमसे सब रंग नीले दीखें॥२१॥

कफकी दृष्टिरोगके लक्षण।

आच्छादिताया पटलैः कफोत्थैर्दृष्टिः सिताभैरिवसूर्यमभ्रैः॥ नेत्रांतरस्थैः परितो विपश्येत् सर्वाणि रूपाणि सितप्रभाणि २२ दृष्टेरूर्ध्वस्थिते दोषे न पश्येद्दूर्द्धसंस्थितान्॥ दृष्टेरधः स्थिते दोषे नरोधस्थान्न पश्यति॥२३॥ दृष्टेः पार्श्वे स्थिते दोषे पार्श्वस्थान्नैव पश्यति॥ दृष्ठेर्मध्यगते दोषे यदेकं मन्यते द्विधा॥२४॥

अर्थ—कफके विकारसे पटल जिसकी दृष्टि रोकदे उसको सूर्य्य और आकाश तथा सब रंग सपेददीखै॥२२॥ दृष्टिके ऊर्ध्वभागमें दोष स्थित होय तो ऊपरकी वस्तु न दीखै, और नीचेके भागमें दोष हो तो नीचेकी कोई वस्तु न दीखे॥२३॥ और दृष्टिके पृष्ठभागमें दोष हो तो पृष्ठस्थितको नहीं देखे, तथा दृष्टिके मध्यमें दोष होय तो एक वस्तुकी दो दीखैं॥२४॥

रक्तबिन्दुर्भवेन्नेत्रे चंचलः परुषोनिलात्॥ पित्तात्पीतं तथा नीलं स्निग्धः पांडुः सितः कफात्॥२५॥यः सर्वधूम्राणि नरो विपश्येत्स धूम्रदर्शी मुनिभिः प्रदिष्टः॥ यश्चित्ररूपाणि दिवा प्रपश्येत् स वै मनुष्यो नकुलांघसंज्ञः॥२६॥ संकुच्याभ्यंतरे याति दृष्टिमाहुः कपर्दिकाम्। बाह्यमायाति संवृत्य-गम्भीरं तं विदुर्बुधाः॥२७॥

** अर्थ**—बादीसे मनुष्यके नेत्र चञ्चल और लालबिन्दु युक्तहों, और पित्तसे पीले तथा नीले, और कफसे चिकने और सपेद तथा पांडुरंगके होतेहैं॥२५॥ जिस मनुष्यको सब वस्तु धुएँकेरंगकी दीखै, उसे धूम्रदर्शी मुनियोंने कहा है, और रातमें जिसको चित्रविचित्र रंगको दीखैउसे नकुलांध अर्थात् रतौंधका रोग कहाहै॥२६॥ जिस मनुष्यकी दृष्टि दर्पणकी संकोचको प्राप्त हो जब दर्पण हट जावे तब यथार्थ होजावे उसे गंभीररोग वैद्य कहते हैं॥२७॥

नेत्रसंधौ स्थितः शोफः पक्वं पूयं स्रवेत्तु यः॥ पूतिसांद्रं सरक्तं वा पूयलाख्यं विदुर्बुधाः॥२८॥ संधौ बृहद्ग्रन्थिमहारपाकी नीरुजो दृढः॥ उपनाहः स विज्ञेयो गदज्ञैः कंडुरोगदः॥२९॥ नेत्रसंधौ समुत्पन्ना पिडिका शोणितोद्भवा॥ रक्तमुष्णं स्रवेन्नित्यमसाध्या रुक् प्रकीर्तिता॥३१॥

** अर्थ**—जिस मनुष्यके नेत्रकी संधीमें सूजनहो और वो पकजावे तथा स्रवै और वास युक्त तथा रुधिर स्रवै उसे पूयलाख्य रोग वैद्य कहते हैं॥२८॥ जिस मनुष्यके संधीमें बडी गांठहो और वह पके नहीं न पीडा करे दृढहो खुजली चले उसे वैद्योंने उपनाह रोग कहाहै॥२९॥ नेत्रकी संधीमें रुधिरसे फुंसी पैदा हों उनसे रुधिर स्रवै वो असाध्य कहिये॥३०॥

उद्धृत्य वर्त्म रोमाणि जायंतेऽभ्यंतरे मुहुः॥ रुन्धति गोलके नेत्रे परिवाराणि तानि वै॥३१॥ संधौ पक्ष्माणि मांसाभा कंडूशोफसमन्विता॥ चिमुचिमांबुयुता वैद्यैर्ब्राह्मणी सा निगद्यते॥३२॥अक्ष्णोर्वर्त्मनि सम्भवाश्च पिटिकाः सूक्ष्माघनाः संवृताः पीताभा बहुवेदनाः खरतरा ज्ञेयाश्च वातोद्भवाः॥पित्तोत्थाः पिटिकाः खरा नयनयोरभ्यन्तरे संस्थिता दुःस्पर्शा बहुदाहशूलसहिताः स्रावान्विताः कण्डुराः॥३३॥

** अर्थ**—जिस मनुष्यके कोयेके बाल उखडकर भीतर चलेजायँ और नेत्रके गोलको रोकदे उसे परवाल कहते हैं॥३१॥ संधीके पखवारोंमें मांसके आकार फुंसीहो उसमें खुजली और सूजन तथा चिमचिमी युक्तहो जल स्रवै उसे ब्राह्मणी रोग कहते हैं॥३२॥ नेत्रके मार्ग में जो फुंसीहो वह छोटी करडी गोल पीली पीडायुक्त खरदरीहो सो वातकी जाननी और खरदरी तथा नेत्रके भीतरहो स्पर्श सहाजाय दाह शूल और स्रवै तथा खुजली चलै वो पित्तकी फुंसी जाननी॥३३॥

अक्ष्णोर्वर्त्मनि जायन्ते पिटिकाः कफसम्भवाः॥ स्थूला मांसांकुराः क्लिन्नाः कंडूशोफार्ति-पाकिनः॥३४॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
नेत्ररोगलक्षणानि।

** अर्थ**—तथा मोटी मांसक अकुरयुक्त गीली खुजलीयुत सूजन पीडा और पकजावै, वो कफकी मरोडी जाननी॥३४॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां नेत्ररोगलक्षणं समाप्तम्।
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अथ मस्तकरोगलक्षणम्।

अत्यम्लसेवाच्छिरसोभिघाताद्भूमौ शयानाज्जलमध्यपातात्॥
रात्रौ दिवा जागरणाच्च शीताद्वातादिदोषाः प्रभवन्ति शीर्षे३५॥

वातपित्तके मस्तकरोगका निदान।

शीतेन शीर्षे निशि वातपीडा क्वचिद्दिवापि प्रभवेत्सशूला॥
तापेन पित्तप्रभवातितीव्राज्वालान्विता शूलवती सशोषा३६॥

कफके मस्तकरोगके लक्षण।

शीर्षेगुरुत्वञ्च कफेन पीडा स्यादालसत्वं मुहुरश्रुपातः॥ निद्रा वमित्वं मुखनासिकाभ्यां स्रावो विपाकः सशिरोभिघातः ३७॥

** अर्थ**—अत्यन्त खटाई खानेसे, शिरमें चोट लगनेसे, पृथ्वीपर सोनेसे, जलमें गिरनेसे, रातदिन जागनेसे, शरदीसे, कुपित हुये जो वात, पित्त, कफ सो मस्तकरोग पैदा करते हैं॥३५॥ बादीसे मस्तकमें रातको दर्द हो, कभी दिनमेंभी शूल चलै, पित्तसे पित्तजनितही अत्यन्त तीव्र ज्वाला और शोषयुक्त पीडा हो॥३६॥ शिर भारी, आलस्य, अश्रुपातका पडना, निद्रा, वमन, मुखनाकका स्राव तथा पाक और पीडा ये कफके दोषसे होते हैं। ३७॥

रुधिरके मस्तकरोगके लक्षण।

शीर्षेतिदाहो महती च पीडा नासामुखाभ्यां बहुरक्तपातः॥
भवेद्भ्रमो धूमवती च नासा रक्तप्रकोपेन शिरोभिघातः॥३८॥

दोषेषु सर्वेषु शिरोगतेषु लिंगानि सर्वाणि भवंति शीर्षे॥
कासप्रवृत्तिश्चिरकालपाकः प्रोक्तो भिषग्भिः शिरसोभिघातः ३९

कृमिकेमस्तकरोगके लक्षण।

निर्भिद्यते जंतुभिरुग्रतुंडैः संतुद्यते यस्य शिरो नितान्तम्॥
घ्राणात्स्रवेच्छोणितमुग्रवेदना शिरोभिघातः कृमिभिर्भवेत्सः ४०

** अर्थ**—शिरमें दाह, घोर पीडा, नाक और मुखसे रुधिर गिरै, भ्रम तथा नाकसे धूम निकलै, ये रुधिरसे मस्तकरोग जानना॥३८॥ सन्निपातके मस्तकरोग में त्रिदोषके चिह्न मिलतेहों तथा खांसी और देरमें पके वो वैद्योंने सन्निपातका कहा है॥३९॥ जिसके शिरमें कृमि पडजावैं, उसके शिरमें घोर पीडा हो, नाकसे रुधिर पडै, वो कृमिका मस्तकरोग कहा है॥४०॥

आधाशीशीका लक्षण।

भानूदयेऽर्द्धे शिरसि प्रपीडा संवर्द्धते चांशुमता सहैव॥ निवर्त्तते शीतकरोदये या सूर्यात्प्रवृत्तं तमवेहि वैद्य॥४१॥ कफयुक्पवनः शीर्षे करोति विविधान् गदान्॥ शिरोभ्रूशंखकर्णाक्षिललाटे तीव्रवेदनाम्॥४२॥

इति श्रीभिपक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
शीर्षरोगलक्षणम्।

** अर्थ**—जिसका सूर्य्योदयसे आधा मस्तक क्रमसे दूखने लगे, जब सूर्य्यास्त हो और चन्द्रमा उदय हो तब दर्दभी बंद होजाय, उसे आधाशीशी कहते हैं॥४१॥ कफयुक्त पवन शिरमें अनेक रोग पैदा करै, और शिर, कनपटी, भ्रुकुटी, कान, नेत्र, ललाट इनमें घोर पीडा होय॥४२॥

इति श्रीमाथुरदत्तरामकृतहंसराजार्थबोधिनीटीकायां शीर्षरोगनिदानं समाप्तिमगमत्।
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अथ स्त्रीरोगलक्षणम्।

प्रदररोगकी उत्पत्ति।

आयासतः कुत्सितयानरोहाच्छोकाद्विरुद्धाशनतः प्रपातात्॥ अत्यंतभारोद्वहनादजीर्णात्स्याद्गर्भ-पातात् प्रदरोतिमैथुनात् १ योनिं विदीर्यसंजातं शोणितं सर्व्वदा स्त्रियाः॥ प्रदरन्तं विजानीहि वातपित्तकफोद्भवम्॥२॥ प्रवृत्ते प्रदरे नित्यं पाण्डुत्वं जायते स्त्रियाः॥ मूर्च्छा भ्रमस्तृषा दाहः प्रलापः कृशताऽरुचिः ३॥

** अर्थ**—परिश्रमसे, खोटी सवारीमें बैठनेसे, शोकसे, खोटे भोजनसे, गिरपडनेसे, भारी बोझ उठानेसे, अजीर्णसे, गर्भके पडनेसे, अतिमैथुनसे, प्रदरनाम स्त्रियोंके रोग होताहै॥१॥ योनिको विदीर्ण कर जो रुधिर सदा पडे उसे वातका, पित्तका, कफका, प्रदर रोग जानो॥२॥ प्रदर रोग पैदा होनेसे स्त्रीका वर्ण पीला होजाय, और मूर्च्छा, भ्रम, प्यास, दाह, बडबडाना, कृशता, अरुचि ये रोग होते हैं॥३॥

वातपित्तके प्रदररोग के लक्षण।

योनिः स्रवेच्छोणितमल्पमल्पं श्यावं सकष्टं पवनात्मकं तत्॥
पित्तोत्थितं सामिषरक्तमुष्णं दाहार्त्तिशूलभ्रमकम्पकारी॥४॥

कफके प्रदररोगके लक्षण।

योनिक्षतोत्थं रुधिरञ्च फेनिलं पीतारुणं स्निग्धतरञ्च पिच्छिलम्॥

शैथिल्यकंडूकृमिशोथशीतकृज्जानीहि तं त्वं प्रदरं कफोद्भवम् ५॥

सन्निपातके प्रदरका लक्षण।

दोषत्रयोत्थे प्रदरे युवत्याः सर्वाणि लिंगानि भवन्ति काये॥
उछ्वासशूलारतिपूतियुक्ते तस्मिन्न कुर्व्वीत भिषक चिकित्साम्६

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे प्रदरलक्षणम्।

** अर्थ**—जिस स्त्रीकी योनिसे कालेरंगका रुधिर कष्टसे थोडाथोडा निकलै, उसे वादीका जानो और मांसयुक्त, गरम, और दाहयुक्त, रुधिर निकलैतथा शूल भ्रम कंपसे पित्तका जानना॥४॥ योनिमेंसे रुधिर झाग मिला, चिकना, पीला, गाढा, लाल निकलैऔर खुजली, कृमी, शिथिलता, सूजन, शीतलता युक्त हो, उसे कफका प्रदर रोग जानना॥९॥ सन्निपातके प्रदरमें त्रिदोषके चिह्न होते हैं, तथा श्वास, शूल, अरति, दुर्गंध युक्त ऐसे प्रदरकी वैद्य चिकित्सा न करै॥६॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां प्रदररोगस्समाप्तः।
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अथ योनिकन्द के लक्षण।

उच्चैः प्रतापान्नखदन्तघातादध्वश्रमात्कुत्सितवीर्य्ययोगात्॥
कुयानरोहादतिमैथुनाद्वा योनौ भवेत्कंदकसंज्ञका रुक्॥७॥

योनौ संजायते कन्दं लकुचाकृतिपूययुक्॥ विवर्णं स्फुटितं रूक्ष वातकन्तं विदुर्बुधाः॥८॥

पित्तके योनिकन्द के लक्षण।

रक्ताक्तं योनिसम्भूतं चिञ्चिणीबीजसन्निभम्॥
ज्वरदाहान्वितं पैत्तं योनिकंदं तमादिशेत्॥९॥

** अर्थ**—ऊंचे स्थानके गिरनेसे, नख दांतके घातसे, रस्ता चलनेसे, खोटा वीर्य्य पडनेसे, खोटी सवारीमें बैठनेसे, अति मैथुनसे, योनिमें कंदसंज्ञक रोग होताहै॥७॥ योनिमें बडहलके समान कंद हो उसमेंसे राध निकलै, और विवर्ण तथा फूटा, रूखा हो, उसे बातका योनिकंद कहते हैं॥८॥ जिसमेंसे रुधिर निकले और वह इमलीके बीजके समान हो तथा ज्वर, दाह, युक्त हो, उसको पित्तका योनि कंद कहते हैं॥९॥

कफके योनिकन्दके लक्षण।

तिलपुष्पसमं स्निग्धं योनिमध्योद्भवं दृढम्॥
कंडूशोफान्वित क्लिन्नं योनिकंदं कफात्मकम्॥१०॥

सन्निपात के योनिकंदके लक्षण।

सन्निपातोत्थितं रौद्रं सर्व्वलिंगसमन्वितम्॥
योनिकंदं भिषक्तस्य चिकित्सां नैव कारयेत्॥११॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे योनिकंदलक्षणं समाप्तम्।

** अर्थ**—जो तिलके फूलके समान चिकना और दृढ कंदहो तथा खुजली और सूजन तथा गीला हो, उसे कफका योनिकंद कहते हैं॥१०॥ जिसमें सन्निपातके सब लक्षण मिलतेहों, उसे घोर सन्निपातकाजानकर वैद्य इलाज न करै॥११॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां योनिकंदलक्षणं समाप्तम्।
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अथ योनिके द्वादशरोग के लक्षण।

योनौ द्वादश दोषाः स्युः प्रोक्ता वैद्यैः पृथक्पृथक्॥ केचिन्नै सर्गिकाः केचिद्दोषजा वीर्य्यदोषजाः॥१॥ अच्छिद्रा या भवेद्योनिः षंढाख्या साभिधीयते॥ सूक्ष्मच्छिद्रा तु या सूचीमुखा सा कथ्यते बुधैः॥२॥ निवृत्तास्या महास्थूला महायोनिः प्रकीर्तिता॥ रजो वातहतं यस्या असौख्या सोच्यते बुधैः ३

** अर्थ**—योनिमें बारह दोष पृथक् पृथक् वैद्योंने कहे हैं, कोई तो नैसर्गिक कोई दोषोंसे और कोई वीर्य्यके दोषसे॥१॥ जिसकी योनिमें छिद्र न हो उसे षंढाख्ययोनि कहते हैं, और जिसमें छोटा छिद्र हो उसे सूचीमुख योनि कहते है॥२॥ जो गोल मुखकी और मोटी हो उसे महायोनि कहते हैं, और जिसका रजोदर्श वातसे चलागया हो उसे असौख्ययोनि कहते हैं॥३॥

वातकी योनिके लक्षण।

ह्रस्वातिरूक्षाकृशताल्पपुष्पाश्यामा विवर्णास्फुटिताविशुष्का॥
वकाल्परोमा परुषा सरोगा योनिर्बुधैर्वातवती निरुक्ता॥४॥

पित्तकी योनिके लक्षण।

ऊष्मान्विता कामवती विशाला लाक्षारसाभा परिपूर्णमांसा॥
नीरोगता गर्भवती विशुद्धा योनिर्बुधैः पित्तवती निरुक्ता॥५॥

कफकी योनिके लक्षण।

स्थूला सदार्द्रा बहुकंडुरा सा कामान्विता दीर्घमुखी मनोज्ञा॥
रोमाधिका स्निग्धतरातिशीता योनिर्निरुक्ता कफयुग्भिषग्भिः ६

** अर्थ**—जो योनि छोटी, और रूखी, कृश, अल्पपुष्पकी, काली, श्याम वर्णकी, फटी हुई, शुष्क, मुखपर थोडे बालहों, कठोर, रोग युक्त, ये वातकी योनिके लक्षण हैं॥४॥ गरमी युक्त, कामवती, बडी, लाखके रंगकीसी पूर्णमांस युक्त, निरोग, गर्भवान्, शुद्ध हो ये पित्तकी योनिके लक्षण हैं॥५॥मोटी, सदा गीली रहै, बहुत खुजली युक्त, कामयुक्त, दीर्घमुखकी, सुंदर, बहुत रोमयुक्त, चिकनी, शीतल ये कफकी योनिके लक्षण हैं॥६॥

वातेन यस्या निहतं च पुष्पं तस्याः फलं नैव भवेत्कदाचित्। योन्यंतरस्थेन महाबलेन त्दृन्नाभि-कट्यांतरदुःखवेदनाम्॥७॥ पित्तेन दग्धं कुसुमं विशुद्धं शुक्रेण मिश्रम्बहिरुद्गिरेद्या॥नात्यूष्मणा धारयितुं समर्था प्रस्रंसिनी योनिरुदाहृता सा॥८॥

विप्लुताके लक्षण।

रतिक्रीडारुचिर्यस्याः परितो या प्लुता भवेत्॥
नित्यवेदनया युक्ता विप्लुता सा प्रकीर्तिता॥९॥

** अर्थ**—योनिमें बलवान् वात पुष्पको नाश करदे तब सन्तान नहीं हो, और हृदय, नाभी, कमर इनमें पीडा हो॥७॥ जिसका पुष्प पित्तदग्ध करदे और शुक्रयुक्त रजको बाहर निकालदे और पित्तकी गर्मीसे गर्भ न रहै, उसे प्रस्रंसिनी योनि कहीहै॥८॥ रति क्रीडाके आनंदसे जिसकी योनि आर्द्र रहै, और नित्य पीडा हो उसे विप्लुता योनि कहते हैं॥९॥

पूतिगंधयोनिके लक्षण।

संनिपातान्विता योनिर्दुर्गंधं वहतेऽनिशम्॥
शूलशहार्त्तियुक्ता सा पूतिगंधिर्विधीयते॥१०॥

वन्ध्यायोनिके लक्षण।

पित्तानिलाभ्यांपरिकोपिताभ्यांसंपीडिता कृच्छ्रतरेण योनिः॥
कृष्णं रजो मुंचति फेनिलं या वंध्या मुनींद्रैः परिकीर्त्तिता सा ११

खंडितायोनिके लक्षण।

योनेरंभ्यंतरे बाह्ये खरस्पर्शा तु मैथुने॥
न गृह्णाति सदा वीर्यं खंडिनी साभिधीयते॥१२॥

** अर्थ**—सन्निपातसे योनिमें दुर्गंध आवै, तथा शूल दाहभी हो उसे पूतिगंध योनि कहतेहैं।॥१०॥जिसकी योनि वात पित्तके कोपसे परिपीडितहो और जिसकी योनिसे काला और झाग युक्त रुधिर निकले उसे ऋषि वंध्यायोनि कहते हैं॥११॥ योनिके बाहर और भीतर मैथुनके समय खर्दरास्पर्श मालूम पडे और वीर्यका जो ग्रहण न करैउसे खंडिता योनि कहते हैं॥१२॥

पिडिकाचितसर्वांगी मणिनांतरबाह्ययोः॥
सा योनिरुपदंशेन मूत्रफेनरुजार्दिता॥१३॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे योनिरोगलक्षणं समाप्तम्॥

** अर्थ**—योनिके बाहर भीतर फुंसीहों वो योनि उपदंशरोगकरके व्याप्त जाननी॥१३॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां योनिरोगलक्षणं समाप्तम्।
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अथ प्रसूतिकारोगका लक्षण।

उच्चैः प्रपाताद्दृढमैथुनाद्वा तीक्ष्णोष्णदुष्टौषधिसेवनाद्वा॥ दंडाभिघाताद्बहुवेदनाद्वा गर्भच्युतिः स्याद्भयतः श्रमाद्वा॥१४॥ स्रावो मासाच्चतुर्थात्प्राक् पातः पंचमषष्ठयोः॥ मासयोर्भवति स्त्रीणां प्रसूतिस्तदनंतरम्॥१५॥ प्रसूतिसमये वायुः स्त्रियाः कुक्षिगतो यदि॥ निरुध्य शोणितस्रावं करोति बहुवेदनाम् १६॥

** अर्थ**—उच्चस्थानके गिरनेसे, दृढमैथुनसे, तीखी गरम दुष्ट औषधके खानेसे, दंड आदिकी चोट लगनेसे, बहुत पीडासे, भयसे, श्रमसे गर्भपात होता है॥१४॥ चारमहीनासे पूर्व गर्भ गिरे उसे स्राव कहते हैं, और पांचवें छठे महीनामें पात कहता है, इसके अनंतर अर्थात् सातवें महीनासे उपरान्त प्रसूति कहते हैं॥१५॥ प्रसूति समयमें पवन स्त्रीकी कूखमें प्राप्त हो रुकजावे वह रुधिरको निकाले तथा पीडा करे॥१६॥

बाले पृथिव्यां पतिते तदानिशं संरक्षणीया मरुतः प्रसूता॥ यस्याः शरीरे पवने प्रविष्टे नूनं भवेद्रोगवती सदा सा॥१७॥ हृत्कुक्षिशूलं गुरुता शरीरे कंपः पिपासा कटिबस्तिपीडा॥ दाहोंगमर्द्दोल्परुचिः प्रलापः शोथः कृशत्वं प्रदरोतिसारः॥१८॥ निद्रालसत्वं बहु पांडुतांगे शीतं शीरोर्तिर्भ्रमताविशुद्धिः॥ तापोप्यनाहोबलतातिकासः स्यात्सूतिकायाः परिरोगचिह्नम्॥१९॥

** अर्थ**—जिस समय बालक पृथ्वीमें गिरैउसी समय प्रसूतास्त्रीकी पवनसे रक्षा करनी, कदाचित् पवन स्त्रीके लगजाय तो निश्चय प्रसूतिका रोग पैदा होय॥१७॥ जिस स्त्री के प्रसूति रोगहो उसके ये रोगहों हृदय कूख इनमें शूलहो शरीर भारी कंप प्यास कमर और मूत्रस्थानमें पीडा दाह अंगोंका टूटना अल्प रुचि प्रलाप सूजन कृशता प्रदर अतीसार॥१८॥ निद्रा आलकस पीलिया शरदी भस्तकमें दर्द भ्रम भ्रष्टता ज्वर अनाह दुर्बलता खाँसी इतने रोग प्रसूतिसे होते हैं॥ १९॥

प्रसूतिरोगके उपद्रव।

अतीसारो ज्वरः शूलं बलहानिः शिरोव्यथा॥
शोफोनाहोतिदाहोष्टौ सूतिकायामुपद्रवाः॥२०॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे प्रसूतिकारोगलक्षणानि।

१ अतीसार, २ ज्वर, ३ शूल, ४ बलहानि, ५ मस्तकमें दर्द, ६ शोथ, ७ अनाह, ८ दाह, ये प्रसूतिके आठ उपद्रव हैं॥२०॥

इति श्रीमाथुरदत्तरामपाठकप्रणीतायां हंसराजार्थबोधिनीटीकायां सूतिकारोगास्समाप्ताः।
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अथ बालरोगलक्षणम्।

वातलदुग्धके गुण।

स्तन्यं दुग्धं वातलं तोयतुल्यं रूक्षं गौरं तुच्छसारं कषायम्॥
बालो नित्यं तं पिबेत् स्यात्कृशांगःशब्दक्षामो बद्धविण्मूत्रवातः १

पित्त युक्त दुग्धके गुण।

सक्षारमुष्णं कटुपित्तदूषितं बालोल्पसारः कुचजं पयः पिबन्॥
तृष्णालुरूक्षावयवः स पैत्तिकः खिन्नो भवेद्भिन्नमलः सकामलः २

कफदूषित दुग्धके गुण।

दुग्धं श्लेष्मविदूषितं कुचभवं स्निग्धं घनं पिच्छिलं यो बालः प्रतिवासरं परिपिबन् स्थूलोदरो जायते॥ लालाढ्यः कफरोगवान् बलयुतो निद्रावृतश्छर्दिमाञ्शून्यान्तःकरणोल्पघूर्णनयनः कंड्वादिरोगान्वितः॥३॥

** अर्थ**—स्तनका दूध जलके समान हो रूखा तथा भारी बलरहित हो कसैला हो वो वातदूषित दुग्ध है, उसे बालक जो पीवै तो कृशांग हो मन्द शब्द तथा मल मूत्र कम उतरे॥१॥ जो खारा गरम तथा कडुआ हो पित्त दूषित दुग्ध है, उसे जो बालक पीवै तो बलहीन हो तृष्णालू रूखादेह पित्तप्रकृतिवाला दस्त बहुतहो पीलिया युक्तहो तथा खिन्नहो॥२॥ जो कुचका दूध कफसे दूषित हो वो चिकना गाढा मलाईदार होता है, जो बालक ऐसे दूधको पीवै उसका बडा पेट होजाय लार बहै, कफ रोगसे ग्रसित रहै, बल युक्त नींद बहुत आवै, उलटी करै, शून्य अंतःकरण, कुछ टेढे नेत्र, खुजली आदि रोग करके युक्त रहै॥३॥

दोषरहितदुग्धकी परीक्षा।

जले स्तन्यं परिक्षिप्तमेकीभूतं च पांडुरम्॥ मधुरं स्वादु तद्दुग्धं निर्दोषं तद्विदुर्बुधाः॥४॥निर्दोषजं पयः पीत्वा नीरोगो बालको भवेत्॥ बलवीर्यान्वितो धीरो बहुशक्तिसमन्वितः॥५॥शिशोरंगपीडां च तीव्रामतीव्रां बुधो रोदनाल्लक्षयेदंगदेशे॥ तनोः स्पर्शनाच्छ्रोतसां दर्शनाद्वा विदित्वा रुजं कारयेद्वै चिकित्साम्॥६॥

** अर्थ**—जो दूध जलमें मिलानेसे पीला होजावै, तथा मीठा स्वादयुक्त हो, उसे निर्दोष दूध जानना॥४॥ जो बालक दोषहीन दूध पीताहै वह बल वीर्य धीरता शक्तिमान् होताहै॥५॥ वैद्य बालककी अंग पीडा रोनेसे तथा शरीरके स्पर्शसे वा नेत्रोंके देखनेसे जानकर फिर इलाज करे॥६॥

मातुः स्तन्यविकारेण बानानां नेत्रवर्त्मनि॥ जायते कुक्कुणं तेन नेत्रयोः कंडुरं भवेत्॥७॥कुक्कुणेनोरुजातेन सूर्याभां परिवीक्षितुम्॥ न समर्थो भवेद्बालो नेत्रोन्मीलितुमक्षमः॥८॥

पारिगर्भिकके लक्षण।

भवेद्बालको गुर्विणीदुग्धपानाद्भ्रमश्वासनिद्रान्वितो वह्निसादः॥
कृशांगोतिकासोरुचिर्दंतपातस्तमाहुर्बुधा गार्भिकं कोष्ठबंधनम् ९

** अर्थ**—माताके स्तनविकारसे बालकके नेत्रोंमें कुक्कुण रोग हो, उससे नेत्रोंमें खुजली चलतीहै॥७॥ जब बालकके कुक्कुण रोग होजाताहै वो सूर्यके देखनेको समर्थ नहीं हो और नेत्रमिचेभी नहीं॥८॥ गर्भिणी माताके दुग्धपानसे बालकको भ्रम, श्वास, निद्रा, अग्निमंद, कृशांग, अतिखांसी, अरुचि, दंतपात, ये होते हैं, इसे वैद्य गार्भिककोष्ठबंध वा पारिगर्भिक कहते हैं॥९॥

तालुकंटरोगके लक्षण।

शिशोस्ताल्वामिषे श्लेष्मवातयुक्तालुकंटकम्॥ कुर्यात्तेन रुजा मूर्ध्नि भवेत्तालुनि निम्नता॥१०॥तालुपाकस्त्रिदोषोत्थः सर्वांगेषु विसर्प्पति॥ असाध्याय बुधैरुक्तो यंत्रमंत्रैश्च साधयेत्॥११॥क्षुद्ररोगे च कथिते ह्यजगल्ल्यहिपूतने॥ ज्वराद्या व्याधयः सर्वे महतां ये पुरोगताः॥ बालदेहेपि ते तद्वज्जानीयात्कुशलो भिषक्॥१२॥

सामान्यग्रहयुक्तबालकके लक्षण।

ग्रहैर्गृहीतोल्पशिशुः प्रवेपते मुहुर्मुहुस्त्रस्यति रौति जृम्भते॥
परं नखैर्लुञ्चति खंसमीक्षते क्वचित्क्वचित्कूजति हन्ति रोदिति १३

** अर्थ**—बालकके तालूके मांसमें वात युक्त कफ प्राप्त होकर तालुकंटक रोग पैदा करै, उससे तालू नीचे लटक आवै॥१०॥ त्रिदोषका तालुपाक सब अंगमें फैल जावै है, सो असाध्य है, वो यंत्रमंत्र आदिसे अच्छाहो॥११॥ जो क्षुद्ररोगोंमें अजगल्ली अहिपूतना रोग कहे हैं, वो और ज्वरादि सर्वरोग जो बडे मनुष्योंके होते हैं, वो सब बालककी देहमें होते हैं, ऐसे कुशल वैद्यजानैयह माधवाचार्यका मतहै॥१२॥ जो बालक ग्रहों करके गृहीत हो वो कभी कांपै त्रासखाय रोवैजंभाई ले नखोंसे अपनी देह नोचैआकाशको देखैकभी २ गूंजैऔर पीडाहो तथा रोवे॥१३॥

स्कंदग्रहके लक्षण।

स्कंदग्रहेणैव शिशुर्गृहीतः फेनं वमेद्रोदिति साश्रुपातः॥ भिन्नस्वरो भिन्नमलोरुणाक्षो जागर्त्ति रात्रौ परितोल्पसंज्ञः॥१४॥

शकुनीग्रहके लक्षण।

बालो गृहीतः परितः शकुन्यास्फोटैश्चितांगो बहुभिः स्रवद्भिः॥
दाहान्वितैःशोणितपूयगंधिभिर्भीत्यार्तिभिःसंचकितोभवेत्सः १५

रेवतीग्रहके लक्षण।

स्फोटैः स्रवद्भिर्बहुभिर्युतांगो भिन्नस्वरो हीनबलो विवर्च्चाः॥
तृष्णातिसारज्वरदाहयुक्तः स्याद्रेवतीग्रस्ततनुश्च बालः॥१६॥

** अर्थ**—जो बालक स्कन्दग्रह करके ग्रसा गया हो वो मुखसे झाग पटकै, रोवै, भिन्न स्वरहो, पतले दस्तहों, लालनेत्र, रात्रिमें जागे, होश न रहै॥१४॥ जो बालक शकुनीग्रहसे ग्रसाहो वो जिस्में राधबहै ऐसे फोडा करके व्याप्त हो, दाहयुक्त, रुधिर निकलै, दुर्गन्ध आवे, डरपै॥१५॥जिस बालककी देह फोडोंसे व्याप्तहो और वे स्रवैं, भिन्नस्वरहो बलरहित, तथा तेजरहित, तृष्णा, अतीसार, ज्वर, दाहवान् हो उसे रेवतीग्रहग्रस्त जानना॥१६॥

पूतनाग्रह के लक्षण।

वसागंधियुक् पूतनाक्रांतदेहः शिशुर्लक्षणैर्जायते पंचषड्भिः॥
पिपासांगविस्फोटकंपार्त्तिदाहैर्ज्वरश्वासकासातिसारांगकंपैः १७

मंडिताग्रहके लक्षण।

प्रसन्नवक्त्रो बहुभुक्शिशुः स्याद्ग्रहेण यो मंडितया गृहीतः॥
विशुद्धगात्रो मलमूत्रगंधिर्वृतः शिराभिस्तु विनिर्गताभिः॥१८॥

नैगमेयग्रहके लक्षण।

वहेत्पूतिगंध मुखान्नासिकाया रदैर्मातरं संदशेत् खं विपश्येत्॥
भवेद्यस्य कंठोष्ठवक्त्रेषु शोषो गृहीतः शिशुर्नैगमेयग्रहेण॥१९॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे शिशुरोगनिदानम्।

** अर्थ**—जिसकी देहमें चर्बीकीसी बास मारै, तथा प्यास और अंगोंका टूटना, पीडा, दाह, ज्वर, श्वास, खांसी, अतीसार, कंपहो इन लक्षणोंसे बालक पूतनाग्रहग्रस्त जानना॥१७॥ जिस बालकका मुख प्रसन्नहो बहुत भोजन करै, शुद्ध देहहो, मल मूत्रकी दुर्गंध आवै; नाडीनसे व्याप्तहो, इन लक्षणोंसे बालक मण्डिताग्रहग्रस्त जानना॥१८॥ जिसकी देहमें बास आवै, माताको दांतोंसे काटै, आकाशकी ओर देखै, कंठ ओठ मुख सूखै, उसे नैगमेय ग्रहग्रस्तजानना॥१९॥

इति श्रीहंसराजार्थबोधिन्यां बालरोगनिदानं समाप्तम्।
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अथ विषरोगनिदानम्।

विषं स्थावरं मूलजं दुग्धजं वा भवेत्पत्रजं पुष्पजं त्वग्भवं वा॥
फलात्संभवं वीर्यनिर्यासजं वा द्वयोर्योगजं भूमिजं कृत्रिमं वा १

अथ स्थावरविषके अपगुण।

मूर्च्छां श्वासं ज्वरं हिक्कां फेनं छर्दिगलग्रहम्॥
दृष्टिनाशं भ्रमं मत्तं कुरुते स्थावरं विषम्॥२॥

जंगमविषके अवगुण।

जीवांगज जंगममुग्रवीर्यं हालाहलं दाहमतीव निद्राम्॥
शोथं विसंज्ञां तमकं क्लमत्वं रोमांचितांगं कुरुतेऽतिनिद्राम् ३॥

** अर्थ**—विष दोप्रकारका है, एक स्थावर, दूसरा, जंगम स्थावरविष मूल आदि और जंगम सर्पादिकका विषादि उत्पन्न करै, इसीसे इसको विष कहते हैं, स्थावर विष, मूल, दल, फल, त्वचा, दूध, फूल, वीर्य्य, गोंद, भूमिसे पैदा हीरा आदि और कृत्रिम अर्थात् बनाभया॥१॥ मूर्च्छा, श्वास, ज्वर, हिचकी, झाग, रद्द, गलग्रह, दृष्टिनाश, भ्रम, मस्तपना इतने अवगुण स्थावर विष करती है॥२॥ प्राणीसे पैदा जो विष वो जंगम विष है वह इतने अवगुण करैदाह, घोर निद्रा, सूजन, बेहोशी, अंधकार, ग्लानि, रोमांच, अतिनिद्रा॥३॥

विषदेनेवाले मनुष्यकी परीक्षा।

पृष्टो विषादो न ददाति चोत्तरं ग्रस्तो ग्रहेणैव मुहुर्निरीक्षते॥
नाना विचेष्टां कुरुते विकंपते कंडूयतेङ्गं रुदते विशङ्कते॥४॥

मूलजविषके लक्षण।

मूलजं भक्षितं कुर्याद्विषं मोहं विजृम्भणम्॥
प्रलापं वेपनं श्वासं मोहं दाहं विचेष्टनम्॥५॥

पत्रविषके लक्षण।

पत्रोद्भवं विषं कुर्यान्मुखशोथं च शोषणम्॥

फलके विषके लक्षण।

फलोत्थं दाहमन्नाहं वैकल्यं दृष्टिनाशनम्॥६॥

** अर्थ**—जो पूछनेसे उत्तर न दे, मानों किसी ग्रहने ग्रसलिया, बारबार देखने लगे, नाना प्रकारकी चेष्टाकरै, कांपै, कभी खुजानेलगै, कभी रोवै, तथा शंकाकरै, उसको जानले कि किसीने विष दियाहै॥४॥ जो मनुष्य मूलज कहिये जड कंद आदि जैसे सिंगीमोहरा ऐसे विष खानेसे मोह, जंभाई, प्रलाप, कंप, श्वास, मोह, दाह, चेष्टाहीन होताहै॥५॥ मुखशोष, देहशोष ये अवगुण पत्रका विषभक्षण करैहै, दाह, अनाह, बेकली, दृष्टिनाश, ये फल विषके अवगुण हैं।॥६॥

फूलगोंदत्वचाके विषके लक्षण।

पुष्पोत्थं छर्दिराध्मानं मोहं च कुरुते विषम्॥
त्वङ्निर्यासोद्भवं स्रावं पूतिकंपशिरोरुजम्॥७॥

दुग्धविषके लक्षण।

विषं क्षीरसमुद्भूतमाध्मानं कंठशोषणम्॥
विड्बंधमूत्रसंरोधं दृढांगं कुरुते भ्रमम्॥८॥

धातुहरतालआदिके लक्षण।

धातूत्थं यद्विषं कुर्यान्मूर्च्छां दाहं च तालुनि॥
विषाणि प्राणघातीनि सर्वाणि कथितानि च॥९॥

** अर्थ**—फूलका विष रद्द अफरा मोहको करै, तथा गोंद और त्वचाका विष स्राव दुर्गंध, कंप, शिरमें दर्द॥७॥ दूधका विष अफरा, कंठ शोष, दस्त, मूत्रका रुकना, दृढांग और भ्रम करै॥८॥ हीरा हरताल आदि धातुका विष मूर्च्छा, तालुयेमें दाह तथा सर्व विष प्राणके हर्ता जानने॥९॥

सर्पकाटेके लक्षण।

भुजंगेन दृष्टस्य नासामुखाभ्यां पतेद्रक्तधारांगदेशेषु शोफः॥ भवेन्मंडलैर्मंडितांगो विवर्णो विशीर्णांगमांसोथ निःशोणितांगः॥१०॥ विषादोंगकंपो भयो रोमहर्षः शरीरे गुरुत्वं भ्रमो दृष्टिनाशः॥ तृषाध्मानमानीलता गात्रदेशे ह्यनाहो रतिर्जृम्भणं मूर्च्छता स्यात्॥११॥

देशविशेषऔरकालविशेषमेंजोसर्पकाटेउसके लक्षण।
अश्वत्थमूले पिचुमंदमूले चतुष्पथे देवगृहे श्मशाने॥

वाल्मीकदेशे दिनसंध्ययोर्वा सर्प्पेण दष्टः सुधया न जीवेत् १२

** अर्थ**—जिसे सर्प्प काटे उसकी नाक और मुखसे रुधिरकी धार गिरै, सबदेहमें सूजन हो, देहमें रुधिरके चकत्तेहों, देहका मांस बिखर जाय, तथा देहमें रुधिर न रहे॥१०॥ खेद, अंग कंप, तथा विवर्ण हो, भय, रोमांच, देह भारी, भ्रम, नेत्रोंसे न दीखे, प्यास, अफरा, शरीर नीला, अनाह, अरति, मूर्च्छा, जंभाई, ये लक्षण सर्प्प काटेके हैं॥११॥ पीपलके वृक्षके नीचे, तथा निम्बके वृक्षके नीचे, चौराहेमें, मंदिरमें, श्मशानमें, बांबीके पास, संध्याकेसमय (भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, मूल, कृत्तिका, इननक्षत्रों में) जो सर्प्पकाटे तो मनुष्य मरजावै १२

मूषकविषलक्षण।

मूषकस्य विषं कुर्याच्छर्द्दिशोफं विवर्णताम्॥
मूर्च्छां मंदश्रुतिं श्वासं लालास्राव शिरोरुजम्॥१३॥

कीटआदिविषके लक्षण।

दृष्टस्य कीटेंर्विषदिग्धतुंडैः कृष्णाभमंगं बहुवेदना स्यात्॥
शोफोतिदाहः परिभिन्नवर्च्चामोहप्रलापोधिकरोमहर्षः॥१४॥

कालेविच्छू के लक्षण।

दष्टो मनुष्योऽसितवृश्चिकेन नाना विचेष्टां कुरुते विषार्त्तः॥
भीतो विषण्णोग्निसमानदाहः पीडार्द्दितो रौति विलापमुच्चेः १५

** अर्थ**—विषैल भूषेका विष रद्द, सूजन, विवर्ण, मूर्च्छा, मंद सुने, श्वास, लार टपकें, शिरमें पीडा ये लक्षण हों॥१३॥ कीट अथवा जिसे विषैलंडाढवाला जानवर काटे उसके कक्षण देहकाला तथा पीडायुक्त सूजन दाह तेजरहित मोह, प्रलाप, रोमांच ये हों॥१४॥ काले बिच्छू काटेके ये लक्षण हैं, नानाप्रकारकी चेष्टाकरे, डरपै, शून्यता, अग्निके समान दाह, घोर पीडा, पुकारकर रोवै॥१५॥

विषं वृश्चिकं दुःसहं प्राणहारि महामोहदं सौख्यविध्वंसकारि॥
बलज्ञानविज्ञानतेजोपहारि व्यथाशोफवैकल्यदाहार्तिकारि १६

बर्हीसर्पकाटेके लक्षण।

ज्वरो घोरतरं शूलं छर्दिः शोफो विसर्पति॥ वर्णनाशोभवेत्पीडा बर्हिदष्टस्य लक्षणम्॥१७॥ प्राणीदंशेन संदष्टो हृष्टरोमा क्षतार्तिमान्॥ स्तब्धलिंगो भवेच्छोफो विनिद्रश्चकितोनिशम १८॥

** अर्थ**—विच्छूका विष नहीं सहाजाय, प्राणहर्ता, महामोह करै, सुखको दूर करै, बल, ज्ञान, तेज, इनको दूर करे व्यथा, सूजन, बेकली दाह, और पीडा करे॥१६॥ घोरज्वर, शूल, रद्द, सूजनता बढे, वर्णका नाश और पीडा होय, ये बर्हीनाम सर्पकाटेके लक्षणहैं।॥१७॥ प्राणीके विषसे डसेडयेके ये लक्षणहैं, रोमांच; घावसे पीडित, टढा डिंग, सूजन, निद्राहीन और चकित॥१८॥

मेंडकमछलीके विषके लक्षण।

शोफश्छर्द्दितृषानिद्रामंडूकविषलक्षणम्॥
मत्स्योत्थितं विषं कुर्याद्दाहं शोफं तृषां व्यथाम्॥१९॥

जोंकके विषका लक्षण।

मूर्च्छां शोफज्वरं कंडूं तृषां कुर्युर्जलौकसः॥

छिपकलीके विषका लक्षण।

दाहं स्वेदं व्यथां शोथं कुर्याच्च गृहगोधिका॥२०॥

शतपदी (खानखजूरा ) के विषके लक्षण।

शतपद्याविषं कुर्यात्स्वेदं दाहं रुजं बहु॥

मच्छरकेविषका लक्षण।

मशकानां विषं कुर्याच्छोफाल्पं तुच्छवेदनाम्॥२१॥

** अर्थ**—मेंडकका विष सूजन, रद्द, प्यास, निद्राकरेहै, और मछलीका विष दाह, सूजन, प्यास और, व्यथाको करे॥१९॥ विषैल जोंककाटे तो मूर्च्छा, सूजन, ज्वर, खुजली, प्यास हो, दाह, पसीना, पीडा सूजन, ये छिपकली काटेसे होते हैं॥२०॥ कातरके काटनेसे पसीना, दाह, पीडाहो मच्छरका विष थोडी सूजन, और थोडीही पीडा करे है॥२१॥

लूताविषके लक्षण।

लूताविषं महाघोरं पिंडिकां बहुवेदनाम्॥
कुरुते चंचलां तीव्रां पाकदाहज्वरान्विताम्॥२२॥

मक्खीके विषके लक्षण।

मक्षिकाणां विषं तुच्छ शोफतोदसमन्वितम्॥

नखदंतविषके लक्षण।

नखदंतविषं रौद्रं दाहस्रावव्यथाकरम्॥२३॥

सर्पादिककाटेका असाध्यलक्षण।

दृष्टिर्गता यस्य पतंति केशा नासामुखाभ्यां रुधिरस्य पातः॥
वक्रं मुखं यस्य विवर्णमंगं विषाभिभूतं परिवर्जयेत्तम्॥२४॥

** अर्थ**—लूताविष महाघोर ये लक्षण करे है, पीडिका चंचलतीव्रपीडा, पाक, दाह, ज्वर॥२२॥ विषैलमक्खी काटे उसकी थोडी सूजन, और पीडायुक्त हो जिसके सिंह आदिका नख लगाहो मगर आदिकी डाढ लगीहो उसके लक्षण दाहहो, स्रावहो, व्यथा हो॥२३॥ जिस पुरुषकी दृष्टि मारीजाय, और शिरके बाल गिरपडैं, नाक सुखसे रुधिर गिरै, टेढामुख होजाय, तथा विवर्ण ऐसे रोगीको बैद्य त्यागदे॥२४॥

(तथा) हीनस्वरं यस्य पतंति दंष्ट्राःसर्वांगशीतं रसनातिकृष्णा॥
वैकल्यमंगे वदनं करालं विषार्दितं दूरतरं त्यजेत्तम्॥२५॥

दूषीविषके लक्षण।

जलस्य पानाद्विषदूषितस्य दिग्देशकालांतरसंभवस्य॥ नरस्य देहे विषलक्षणस्य दूषीविषं चोच्छलते कृशस्य॥२६॥ दूषीविषं संकुरुते नरस्य हस्तांघ्रिशोथं मुखकंठशोषम्॥ मूर्च्छां ज्वरं मंडलचर्चितांगं कुष्ठंरुजत्वं जठरस्य वृद्धिम्॥२७॥

** अर्थ**—हीनस्वर होजाय, दांत डाढाँ गिरपडैं, सर्वांग में शीतलगे, कालीजीभ हो जाय, देहमें बेकली, करालमुखहो, ऐसे विषार्दित मनुष्यको वैद्य त्याग करदे॥२५॥ दिशा देश कालमें प्रगट ऐसे विषदूषित जल पीनेसे विषके वा विषमिले पदार्थ के खानेसे कृशमनुष्यकी देहमें नाना प्रकारके रोग करे है॥२६॥ दूषी विष ये लक्षण करैहै, हाथ, पैरमें सूजन, मुख कण्ठका सूखना, मूर्च्छा, ज्वर, रुधिरके चकत्ते, कोढ, पेटका बढजाना॥ २७॥

मांसक्षयं पाण्डुरचर्चितांग निद्रां विजृम्भां बलवीर्यनाशम्॥
छर्दिं पिपासां विकलं विवर्णं दूषीविषं संकुरुते विकारम्॥२८॥

दूषीविषं त्रिदोषोत्थं यन्त्रमंत्रौषधादिभिः॥ असाध्यं मुनिभिः प्रोक्तं तस्य जाप्यं हितं भवेत्॥२९॥

इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यकशास्त्रे
विपलक्षणनिदानं संपूर्णम्।

** अर्थ**—पीलिया, मांसका क्षय, निद्रा, जंभाई, बल वीर्य्यका नाश, रद्द, प्यास, बेकली, देहका विवर्ण ये, दूषीविष विकार करैहै॥२८॥ त्रिदोषसे उठा दूषीविष असाध्यहै, वो मंत्र औषधियोंसे और जाप्यसे हित होय॥२९॥

इति श्रीमाथुरदत्तरामपाठककृतहंसराजार्थबोधिन्यां विषरोगनिदानम्।
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मूत्रपरीक्षा।

सुपात्रे समादाय मूत्रं गदीनां प्रभाते भिषक् चिंतयेत्तैलबिंदुम्॥विनिक्षिप्य तस्मिन्विकाशं समेति तदा साध्यमेवं वदेद्रोगिणं तम्॥१॥ यदा बिंदुरूपस्थितं मूत्रमध्ये तले संश्रितं वा तदा साध्यमेवम्॥ त्रिकोणस्थितं तैलबिंदुर्यदि स्यात्तदा चैव दोषं वदेन्मानवानाम्॥२॥ क्षुरादंडकोदंडतूणीरखङ्गं गदाचक्रबाणासिरूपं विधत्ते॥ यदा तैल-बिंदुस्त्रिशूलाकृतिर्वा तदा रोगिणो यास्यते मृत्युवक्रे॥३॥

** अर्थ**—वैद्य रोगीके मूत्रको प्रातःकाल कांसीके पात्र में वा कांचके पात्रमें तेलकी बूंद डालकर परीक्षा करै, यदि मूत्रमें तेलकी बूंद प्रकाशमान देखे तो रोगीको साध्य कहै॥१॥ और जो तेलकी बूंद मूत्रमें डूबजाय तो असाध्य कहै, और जो मूत्रकी बूंद त्रिकोणके आकार होजाय तो द्विदोष युक्त मनुष्य जाने॥२॥ कदाचित् तेलकी बूंद छुराके वा दण्डके वा गदाके वा तरवारके वा बाणके वा खड्गके वा धनुषके वा फरसाके आकार होजाय, अथवा त्रिशूलके आकार होजाय, वो रोगी मौतके मुखमें जाय॥३॥

ज्वरार्त्तस्य मूत्रे यदा तैलबिन्दुर्विधत्ते भुजङ्गाकृतिं मध्यरंध्रम्॥ विरूपं कृतान्ताकृतिं वृश्चिकाभं स रोगी यमस्यालये शीघ्रगंता॥४॥ ज्वरार्त्तस्य पुंसो यदा मूत्रमध्ये समादाय तैलं तृणेन प्रभाते॥ विनिक्षिप्य सिंहासनाभ विधत्ते तडागाकृतिं दीर्घमायुर्वदंति॥५॥ भेरीदुंदुभिशंखगोमुखतुरी-तुल्यंमृदंगाकृतिं वीणातोरणहंसकम्बुसुरभीछत्राश्वयानासनम्॥ ढक्काकुम्भकिरीटहारसदृशं केयूररत्नद्युतिंसन्धत्तेतिलतैलबिंदुरनिशंमूत्रेमहारोगिणः ६

** अर्थ**—ज्वरवान् पुरुषके मूत्रमें तेलकी बूंद सर्पके आकार और बीचमें छिद्रहों तथा बुरी और मौतके आकारहो तथा बिच्छूके आकारहो वो रोगी जल्दी यमराजके घरजाय॥४॥ और जिस ज्वरवाले पुरुषके मूत्रमें तेलकी बूंद डारनेसे सिंहासनके आकार, अथवा तालावके आकार होजाय, उस रोगीको दीर्घआयु जानना॥५॥ भेरी, दुंदुभी शंख, गोमुख, तुरही, मृदङ्ग, तमूरा, तोरण, हंस, कमल, गौ, छत्र, घोडा, सवारी, ढक्का, घट, किरीट, हार, केयूर, रत्न, इनकीसी आकृतिके सदृश तेलकी बूंद होय वो महारोगी जानना॥६॥

प्रसरति यदि मूत्रे रोगिणस्तैलबिन्दुर्दिशि विदिशि समंतान्नीरुजं तं हि विद्यात्॥ व्रजति दिशि मघोनः पश्चिमायां दिशायां पवनककुभि रोगी रोगमुक्तं नितान्तम्॥७॥

वातपित्तकफके मूत्रकी परीक्षा।

श्यामं स्निग्धं तारकाभिर्युतं तद्विद्यान्मूत्रं रोगिणो वातभूतम्॥
पीतं रक्तं पित्तजम्बुद्बुदोक्तं श्लेष्मोद्भूतं पल्वलंवारितुल्यम्॥८॥

द्विदोषऔरत्रिदोषमूत्रकी परीक्षा।

रोगीमूत्रं द्विदोषोत्थं सर्षपतैलसन्निभम्॥
संनिपातोत्थितं कृष्णं विद्याद्बुद्बुदसंयुतम्॥९॥

** अर्थ**—जिस रोगीके मूत्रमें तेलकी बूंद दिशा और विदिशामें फैल जाय, उसे नैरोग्य जानना चाहिये, और तेलकी बूंद पूर्व दिशामें वा पश्चिम दिशामें तथा वायव्य और उत्तरदिशामें फैलजाय तोभी रोगी रोगमुक्त जानना॥७॥ वातसे मूत्र नीला, और चिकना, उतरताहै, पित्तसे लाल, और पीला तथा बबूलेयुक्त उतरे है, कफसे गाढा, और चिकना तथा तलैयाके जल समान उतरै॥८॥ द्विदोषवाले पुरुषका मूत्र सरसोंके तेलके समान उतरै, और सन्निपातवाले पुरुषका मूत्र काला और बबूलेयुक्त उतरता है॥९॥

अजीर्णसंभवं मूत्रमजामूत्रसमं भवेत्॥ ज्वरोत्थं कुंकुमाकारं सुखिनो जलसन्निभम्॥१०॥ भिषक्चक्रचित्तोत्सवंवैद्यशास्त्रं कृतं हंसराजेन पद्यैर्मनोज्ञैः॥ सुहृद्यैरदोषैरुजोध्वांतनाशं हरेंघ्रिसंसेवनानंदमूर्तेः॥११॥॥ इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे रोगमूत्र-लक्षणानि समाप्तानि।

** अर्थ**—अजीर्णसे मूत्र बकरीके मूत्रके समान उतरै; ज्वरसे केसरियारंग सरीखा उतरैहै, सुखी पुरुषका मूत्र जलके समान उतरै॥१०॥ भिषक्चक्रचित्तोत्सव वैद्यशास्त्र हंसराज कविने मनको प्रसन्नकारक पदोंसे तथा हृदयके हरणकारक दोष रहित पदोंसे रोगका हरणकरनेवाला श्रीनिकुंजविहारीके चरणारविन्द सेवकने बनाया है॥११॥

इति श्रीमाथुरदत्तरामपाठकप्रणीतायां हंसराजार्थसुबोधिनीटीकायां रोगमूत्रलक्षणानि समाप्तानि।

नपुंसकलक्षणानि सुश्रुताल्लिख्यंते॥

आसेक्यनपुंसकके लक्षण।

पित्रोरत्यल्पवीर्यत्वादासेक्यः पुरुषो भवेत्॥
सशुक्रं प्रास्य लभते ध्वजोच्छ्रायमसंशयम्॥१॥

सौगंधिकनपुंसकके लक्षण।

यः पूतियोनौ जायेत स सौगंधिकसंज्ञितः॥
सयोनिशेफसोर्गंधमाघ्राय लभते बलम्॥२॥

कुंभिकनपुंसकके लक्षण।

स्वगुदेऽब्रह्मचर्याद्यः स्त्रीषु पुंवत्प्रवर्त्तते॥
कुंभिकः स तु विज्ञेय ईर्ष्यकं शृणु चापरम्॥३॥

** अर्थ**—माता पिताके अति अल्पवीर्य्यसे जो गर्भ रहता है, वो पुरुष आसेक्य नाम नपुंसक होता हैं, वो दूसरेके मैथुनके करनेसे पैदा शुक्र खाय जावै तब उसको चैतन्यता पैदाहो तब विषय करनेको प्रवृत्तहो इसका दूसरा नाम मुखयोनि है॥१॥ जो पुरुष दुष्टयोनिसे पैदा हुआ हो वो योनि वा लिंगको सूंघले तब चैतन्यता प्राप्तहो उसे सौगंधिक कहते हैं और दूसरा नाम नासायोनि कहते हैं॥२॥ जो पुरुष पहले दूसरे पुरुषसे अपनी गुदा भंजन करावे, तब उसको चैतन्यता प्राप्तहो, तब स्त्रीके विषे पुरुषताको प्राप्तहो, उसे कुम्भिक नपुंसक कहते हैं॥३॥

ईर्ष्यकके लक्षणोंको सुनो।

इर्ष्यकके लक्षण।

दृष्ट्वा व्यवायमन्येषां व्यवाये यः प्रवर्त्तते॥
ईर्ष्यकः स तु विज्ञेयो दृग्योनिरयमीर्ष्यकः॥४॥

महाषंढके लक्षण।

यो भार्य्यायामृतौ मोहादंगनेव प्रवर्त्तते॥
तत्र स्त्रीचेष्टिताकारो जायते पंढसंज्ञितः॥५॥

नारीषंढके लक्षण।

ऋतौ पुरुषवद्वापि प्रवर्त्तेतांगना यदि॥ तत्र कन्या यदिभवेत्सा भवेन्नरचेष्टिता॥६॥ ॥ इति श्रीभिषक्चक्रचित्तोत्सवे हंसराजकृते वैद्यशास्त्रे नपुंसकलक्षणानि समाप्तानि।

** अर्थ**—जो पुरुष दूसरेको मैथुन करतादेख आप मैथुन करनेको प्रवृत्त हो, उसे ईर्ष्यक नपुंसक कहते हैं, दूसरा नाम दृक्योनि है॥४॥ जो पुरुष ऋतुके समय स्त्रीके प्रमाण प्रवृत्तहो अर्थात् विपरीत रतिकरै, उसके वीर्य्यसे पैदा जो बालक वो स्त्रीकीसी चेष्टावान् हो, और स्त्रीके आकार युक्तहो उसे महाषण्ढ कहते हैं॥९॥ ऋतुकालके समय जो स्त्री पुरुषके प्रमाण प्रवृत्तहो अर्थात् पुरुषको नीचे सुलाय आप ऊपर चढ़ मैथुन करे उसमें जो कन्या पैदाहो वह पुरुषके आकारहो और पुरुषकीसी चेष्टावालीहो॥६॥

इति श्रीमाथुरवंशोत्पन्नप्रशंसनीयगुणगणालंकृतकन्हैयालालपाठ-कतनयदत्तरामप्रणीतहंसराजार्थसुबोधिनीटीका समाप्तिमगात्।

इति हंसराजनिदानं सम्पूर्णम्।
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पुस्तक मिलनेका ठिकाना—खेमराज श्रीकृष्णदास, “श्रीवेङ्कटेश्वर” स्टीम् प्रेस—बंबई.

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  1. “१ जो मूत्राघातमें कहा है।” ↩︎