[[चरकसंहिता Source: EB]]
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अर्धांगी शिवकी मूर्ति
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धन्वंतरी वैद्यराजकी मूर्ति
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भुमिका।
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आयुर्वेदोपदेशेषु विधेयः परमादरः।
आयुर्वेदके उपदेशोंको परम आदरसे धारण करना चाहिये। यह क्यों? इसलिये कि, यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंकी आधारभूत मनुष्यकीआरोग्यताकी प्राप्ति और आयुकी रक्षाके लिये है। और “हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्। मानञ्च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदःस उच्यते॥” अर्थात्–जिस शास्त्रमें आयुसंबंधी हित अवस्था, अहित अवस्था, सुखी अवस्था, दुःखी अवस्था, आयु, आयुका हित और अहित तथा आयुकापरिमाण यथार्थरूपसे कहे हों उसे आयुर्वेद कहतेहैं। महात्मा धन्वन्तरिजीने सुश्रुतसे कहाहैकि, “एकोत्तरं मृत्युशतमथर्वाणः प्रचक्षते। तत्रैकःकालसंज्ञस्तु शेषास्त्वागन्तवः स्मृताः॥" अर्थात्–अथर्ववेदके जाननेवाले ‘१०१ मृत्युएँ होतीहैं’‘ऐसा कहतेहैं’उनमेंसे जो अवश्यम्भावी समयोचित एक मृत्यु है उसको कालमृत्यु कहतेहैं, शेष सौमृत्यु—ओंको आगन्तुक, (अकालमृत्यु) कहतेहैं। उन १०० मृत्युओंसे बचनेके लिये ही आयुर्वेदके उपदेशोंकी परम आदरसे धारण करना चाहिये क्योंकि, यह आयुर्वेदही धर्मादि चतुर्विध पुरुषार्थका साधनभूत आयुका रक्षक है।
यह आयुर्वेद प्रथम ब्रह्माके हृदयमे आविर्भूत हुआ, ब्रह्माने दक्ष प्रजापतिकों पढ़ाया, दक्षसे अश्विनीकुमारोंनेपढा, अश्विनीकुमारोंने इन्द्रको पढ़ाया, इन्द्रके यहांसे भरद्वाज (आयुर्वेदको)लाये और सांगोपांग ऋषियोंकों सुनाया। और इसी आयुर्वेदकोमहर्षि आत्रेयजीने इन्द्रके भवनमें जाकर संपूर्णरूपसे इन्द्रसेही पढा फिर इन महात्मा आत्रेयजीने आत्रेयसंहितानामक पचास हजार श्लोकोंमें एक संहिता बनाकर अग्निवेश आदि अपने छः शिष्योंकोपढाया। फिर इनछःओं शिष्योंने भगवान आत्रेयजीसे आयुर्वेदको पढकर अपने २ नामसे छः संहितायें बनाईं उनसबोंमें अग्निवेशकृतसंहिता अत्युत्तम मानी गई, इस संहिताकी ऋषिऔर देवताओंने भी प्रशंसाकी। यह संपूर्ण संहितायेंआज कल लुप्त प्राय सी होगई हैं।
इनके सिवाय शल्यशालाक्य तंत्रमें भगवान् धन्वंतरिजीकी संहिता अत्युत्तम मानी गई। भगवान् धन्वतरिजीने सुश्रुत आदि अपने शिष्योंकों शल्यशालाक्य प्रधान जो आयुर्वेदका उपदेश किया उसको महात्मा नागार्जुनने संग्रह किया, वह ग्रंथ “सुश्रुतसंहिता” नामसे प्रख्यात और अतिउत्तम तथा शल्यशालाक्य चिकित्सामेंअति श्रेष्ठतम मानागया। और वृद्धवाग्भट्ट वाग्भट्टआदि और संहितायें भी चरक और सुश्रुतसे पीछे बनीं।
चरक भगवानको शेष भगवान्का अवतार कहाजाताहै इन्होंने आत्मिक मल दूर करनेके लिये “योग दर्शन", वाणीका मल दूरकरनेके लिये व्याकरण “अष्टाध्यायी” पर “महाभाष्य” और शारीरिक मलोंकोदूरकरनेके लिये यह “चरकसंहिता” बनाई।
अग्निवेशकृत संहिताकोही महर्षिचरकजीने विधिवत्सस्कारकर जो विषय अत्यंत बढेहुएंथे उनको संक्षिप्त और जो अत्यंत सूक्ष्म थे उनको किंचित्बढाकर और बिना कथन किये विषयोंकोसम्मेलित कर यह अद्वितीय, अनुपम “चरकसंहिता” ग्रंन्थ बनाया। चिकित्सामे इसके समान अन्य कोई ग्रंथ आयुर्वेदके ज्ञाताओंकी दृष्टिमे माननीय न हुआ। इस ग्रंथमें १७ अध्याय चिकित्सास्थानके, कल्प और सिद्धिस्थान महात्मा दृढबलने अग्निवेश आदि संहिताओंमेंसे संग्रहकर मिलायेहैं इसलिये कोई ऐसी शंका भी करतेहैं कि, यह संपूर्ण संहिता महर्षि चरकप्रणीत नही है। परन्तु कुछ भी हो यह चरकसंहिता चिकित्सा शास्रमें अद्वितीय है इसीलिये कहा है कि “यदिहास्ति तदेवास्ति यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्”। अर्थात् जो विषय इस संहितमें लिखा है वही और तंत्रोमें भी मिलसकताहै परन्तु जो इसमें नहीं है वह कही भी नही। यद्यपि भावमिश्र आदिकोंने फिरंग आदि एक आध विषयको विशेषरूपसे लिखकर यह माना है कि, यह नवीन रोग हमने ही अपने ग्रन्थमे लिखाहै और फिरंगियाके संसर्गसे यह फिरंग रोग उत्पन्न हुआ परन्तु चरकसंहिताेमे ऐसे अनेक विषय सूक्ष्मरूपसे कहे गयेहैं जिनको देश व कालके भेदसे विभक्तकर स्थूलरूपसे यदि लिखाजाय तो “भावप्रकाश” जैसे पचासों ग्रन्थ तैयार करनेपर भी संपूर्ण विषय नहीं लिखेजा सकते।इसलिये कहा है कि “एकस्मिन्नपि यस्येह शास्त्रे लब्धास्पदा मतिः। स शास्त्रमन्यदप्याशु युक्तिं ज्ञात्वा प्रबुध्यते’॥ अर्थात् जिसकी मति इस एकही शास्त्रको यथोचित रीतिसे जानगईहै वह इस तंत्रकी युक्तियोंकोजानलेनेसे अन्य शास्त्रोंको भी शीघ्रजानसकतहै, तात्पर्य यह कि, जिसकोयह चरकसंहिता यथोचित रीतिसे आतीहै,वह अन्य शास्त्रोंको इस चरककी युक्तियों द्वारा शीघ्र जानलेताहै। “इदमखिलमधीत्य सम्यगर्थान्विमृशति यो विमलःप्रयोगनित्यः।स मनुजसुखजीवितप्रदानाद्भवति धृति-स्मृति-बुद्धि-धर्म-वृद्धः॥“अर्थात् जो मनुष्य इस संपूर्ण संहिताको यथोचित पढकर इसके विषयोंको भले प्रकार समझ चिकित्साका प्रयोग करताहै वह मनुष्योंकों सुख और जीवनकोदेनेवाला होनेसे धृति, स्मृति, बुद्धि और धर्ममें सबसे बडा मानाजाताहै।
“यस्य द्वादश साहस्रीहृदितिष्ठंति सहिता।
सोर्थज्ञः स विचारज्ञश्चिकित्साकुशलश्च सः।
रोगास्तेषां चिकित्साश्च स किमर्थं न बुध्यते॥
अर्थात्—यह बारह हजार श्लोकात्मक संहिता जिसके हृदयमेंस्थित है वह अर्थका जाननेवाला संपूर्ण वैद्यकीय विषयोंकोसमझनेवाला विचारान् और चिकित्सामें कुशल होताहै ऐसे कौन रोग और उनकी चिकित्सायें है जिनको इस संहिताका जाननेवाला वैद्य न समझताहो। परन्तु शोक है कि आज इस चरकसंहिताके पढने पढानेवाले और आयुर्वेदीय ज्ञानके समझने तथा समझानेवालोंका प्रायः अभाव ही सा होगयाहैजिससे इस समय आयुर्वेदकी अत्यंत अवनत दशा है।
यद्यपि आजकल सुननेमें आताहै कि आयुर्वेदकी उन्नति होने लगी है। कही आयुर्वेदविद्यापीठ, कही वैद्य महासभा, कहीनये ढंगकी शिक्षा, कही आरोग्यभवन और कहीं आयुर्वेदीय महौषधालय खोलेगयेहैं। कोई २ महाशय तो खास धन्वन्तारिसे ही गुप्तप्रयोग सीखआयेहैं, किसी किसीने वनस्पतियोंका अद्वितीय उद्धार ही करमारा है परन्तु क्या इन सब वातोंसे आयुर्वेदकी उन्नति होनेका कोई ढंग दिखाई पडताहै? विचारसे देखिये तो उन्नतिबाजोंने इस जीर्ण शीर्ण आयुर्वेदको सर्वथा नष्ट करनेकाही सूत्रपात करादियाहै। अब सम्भव है कि आयुर्वेदके जाननेवालोंको भी किसी आईनके अन्दर बन्द होना पडेगा। यह सब अदूरदर्शी उन्नतिबाजोंके झूंठे चटकीले विज्ञापनोंका फल नहीतो और क्याहै? अबआप विचारसे देखिये कि औषधालयों और विज्ञापनों द्वारा आयुर्वेदकी कितनी उन्नति हुई। यद्यपि औषधालय भी आयुर्वेदके अंग हैं, आयुर्वेद विद्यापीठसेभी बहुत कुछ लाभ पहुंच सकताहैऔर वैद्य महासभायें भी आयुर्वेदकोउन्नत अवस्थामें ला सकती हैंपरन्तु कब? जब कि आायुर्वेदके प्रेमसे आकर्षितहों, जब आयुर्वेदके पुनरुद्धारार्थ स्वार्थकों त्याग दें। जब आयुर्वेदके महत्त्वको जान, आयुर्वेदके गौखकोसमझ, भूतपूर्व आयुर्वेदकी उन्नत अवस्थाकोयादकर और पूर्वज महर्षियोंकी परोपकारितापर ध्यान दे, प्रेमभरे हृदयसे ऐहलौकिक और पारलौ- किक उन्नत्तिका आधार आयुर्वेदको ही मानने लगें।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अब आयुर्वेदकी उन्नतिके लिये ऋषियोंके समान हिमालय और देवलोकमें जानेकी आवश्यकता नहीं। क्योंकि यह आयुर्वेद भण्डार इस जीर्णशीर्णदशामें भी किसी अंगमें अपूर्ण नही है। निरूहण, अनुवासन, (गुद द्वारा पिचकारियोंका करना) आदि वस्तिकर्म, उत्तरवस्ति (मूत्रमार्गसे कैथीटर आदि प्रवेशकर मूत्राशय और उसके मार्गको दोषरहित करना) शिगवस्ति (शरीरकी नसोंमें सुक्ष्म पिचकारी द्वारा औषध पहुंचाना) अर्शके मरते काटना, पथरीनिकालना और क्षारकर्म आदि यह सब आयुर्वेदके चिकित्साका अनुकरण करके ही आज उन्नतशील शुभराजमें डाक्टरी विद्याकी उन्नति हो रही है। इस इतनी उन्नत अवस्थामें भी बहुतसी शल्यचिकित्सा इण्डियन सर्जरी कहीजाती है। आंख बनाना भारतके सामान्य वैद्योका अनुकरण है। आयुर्वेदके शल्यशालाक्य जाननेवालोंने जो २ कार्यकिये हैं उनको अभी उन्नतशील चिकित्सकोंने स्वप्नमें भी नहीं देखा, होगा। जैसे आश्वनीकुमारोंका दक्षका कटाहुआ शिर लगादेना, ब्रह्माका मस्तक जोडना, भोजका मस्तक चीरकर कपालके भीतरसे जीवोंका निकालना आदि अनेके प्रकारकी क्रियायें कैसी विचित्र थी। परन्तु समय भगवानके हेरफेरसेआज वह सब कहानी मात्र रहगई। जिसको अनुकरण मानतेहैंवह डाक्टरी विद्या अब शल्यक्रियामे इतनी उन्नत होतीजाती है कि विचारे आयुर्वेदाभिमानी उनकी बाततक नहीं समझ सकते। हा! समय भगवान् क्या नहीं कर सकते? परिवर्त्तन शील जगत्मेंऐसी कौनसी वस्तु है जिसको समय भगवानने अपने झपाटेमें न लिया हो?। आज जिसको राजा महाराजा ऋषि और देवता भी महान् सत्कारसे देखते होंकल उसीकी ओर देखकर तुच्छ प्राणी भी बडी घृणासे नाक चढाने लगतेहैं! आज जिसका झण्डा आकाशमें फहराताहै कालचक्रसे कल वह मटियामेट होकर मानो कमी था ही नहीं ऐसा प्रतीत होनेलगताहै। काल भगवानकीविचित्र महिमा है। जिस आयुर्वेदको ऋषिगण देवलोकसे लायेथे जिस आयुर्वेदकोब्रह्मासे प्राप्त न होनेके रोषमें भैरव जलकर मरनेलगेथे जिस आयुर्वेदको ऋषियोंनेहिमालयकी चोटियोंपर पहुच अनेक प्रयासोंसेप्राप्तकर निःस्वार्थभावसे जगत्के हितके लिये प्रचार कियाथा आज उन्हीं ऋषियोंकी संतान झूठे विज्ञापनों द्वारा ठगीकर उस आयुर्वेदकी लाञ्छित् करना मुख्य उन्नति माननेलगी।
यह कभी नहीं कहा जासकता कि, सब संसार ही एकसा होताहै, अब भी बहुतेरे योग्य पुरुष परोपकारी सद्वैद्य और आयुर्वेदकी महिमाको जाननेवाले हैं जिनकी कृपासे औरंगजेबी जमानेके महाआघातसे बचेहुए ग्रंथ इस उन्नतशील श्रीभारतसरकारके शुभ राज्यमें बडी आसानीसे छपछपकर प्राप्त होनेलगे हैं।
परन्तु खेदका विषय है कि,और सबविद्याओंकी उन्नति होतेहुए भी आयुर्वेदकी रक्षा व जीर्णोद्धारका कोई प्रबंध अभी तक नहीं दीखता। उचित प्रबंध नहीं होनेके अनेक कारणोंमें सबसे बड़े चार कारण हैं, जिनके बिना आयुर्वेद अपने चमत्कारकीगर्जना नहीं करसकता। वह चार कारण यह हैं—राजाओंकी ओरसे आयुर्वेदीय सर्वीय शिक्षाका कोई प्रबन्ध न होना १। आयुर्वेदेके जिस अंगके जो ज्ञाता हैं उनका स्वच्छ हृदयसे आयुर्वेदको प्रचार न करना २। आयुर्वेदीय शिक्षाकेयोग्य मनुष्योंका सीखनेमें यत्नन करना ३। आयुर्वेदीय औषधिसंग्रह आदि नियम न रखकर दुकानोंकी पुरानी गली, सडी औषधियोंसे चिकित्सा करना ४। यदि आयुर्वेदीय शिक्षाका यथोचित प्रबन्ध होजाय तो फिर भी आयुर्वेद उसी उन्नत अवस्थामें पहुंच सकताहै। उन्नतिके लिये कुछ बाहरसे लानेकी आवश्यकता नहीं। उन्हीं पुराने ऋषिप्रणीत संहिताओंकी सर्वांग शिक्षाका प्रबन्ध होजाय तो सब कुछ होसकताहै।
चरक, सुश्रुत आदि ग्रन्थोंसे ऐसा कौन विषय बचा है जो स्थूल वा सूक्ष्मरूपसे इनके भीतर न भराहो।
विचारशील महाशयगण, जरा विचार करें कि, पहलेके आप्त वैद्यकिसप्रकारसे औषधोंको सिद्ध करतेथे और निदानज्ञानपूर्वक कैसी उत्तमरीतिसे औषधप्रयोग करतेथे जिससे वे पीयूषपाणि कहे जातेथे और रोगी निस्सन्देहनीरोग होतेथे। परन्तु आजकलकेबहुतसे चिकित्सकनामधारी महाशय तो इन सब आयुर्वेदीय क्रियाओंको छोडकर आलस्यग्रस्त होअमृतसागर भाषा पढपढाकर अण्टसण्ट संस्कृत असंस्कृत जैसे तैसे गोलियें बना अपनेको रसवैद्य-देववैद्य होताहै ऐसा माननेलगे।
ऐसे वैद्यऐसी रस गोलियोंकोपास रख रोगीको देखकर निदान कहने और रोगानुसार चिकित्सा करनेकी कठिनतासे निरन्तर बचे रहतेहैंऔर इसी कारण इनकी योग्यताकी पोल भी नहीखुलनेपाती परन्तु इनकी कृपासेआयुर्वेदीय असली क्रिया नष्ट होकर आगेको प्रायः निर्मूल होतीजातीहे और इनकी उन गोलियोंके खानेसे क्या होताहै इसे तो खानेवालेया उनके परिवारके लोग या ईश्वर ही जाने।
बहुतसे लोगोंकी चरक, सुश्रुत आदि ग्रन्थोंका रहस्य जानने और इनके अनुसार क्रिया करनेका उत्साह भी होताहैतो यह बिचारे “चरक’ जैसे सर्व युक्तिसम्पन्न ग्रन्थको किससे पढे?। यद्यपि इस ग्रंथकी, भोजवृत्ति और वाचस्पतिकी टीका संपूर्ण नहीं मिलती तथापि चक्रपाणिकृत संस्कृतटीका तथा गंगाधर शास्त्रीकृत संस्कृतटीका (पुरानी) संपूर्ण मिलतीहैं। जिससे इस ग्रन्थकी योग्यतासे विद्वान् लोगोंको लाभ उठाना कठिन नहीं परन्तु केवल भाषामात्र जाननेवालोको “चरकका” भाव जाननेके लिये भाषाटीकाको छोड और कोई उपाय नहीं। यद्यपि एक दो टीकाएं हिन्दी भाषामें पहिलेभी छपचुकी हैं परन्तु वे बहुतसीजगह ग्रन्थके मर्मको अच्छी तरह न समझानेके कारण आयुर्वेद रसिकोंको आदरणीय न हुईं इसलिये यह पुस्तक “श्रीवेङ्कटेश्वर’’ स्टीम्प्रसके स्वत्त्वाधिकारीश्रीमान् सेठ खेमराज श्रीकृष्णदासजीने संवत् १९६६ में हिन्दीभाषामें मूलानुसार सरल उत्तम टीका बनानेके लिये मुझे दिया। इस डेढसालके बीचमें यद्यापि अनेक प्रकारआध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक आपत्तियोंके असामयिक आक्रमणोंसेअभिभूत होनेके कारण इस ग्रंथकी टीकाबनानेके लिये मुझे यथेष्ट अवकाश न मिलसका, तथापि इस टीकामें अपनी मति गतिके अनुसार निरालस होके कठिनसे कठिन भावोंकोसर्वसाधारणके समझने योग्य करनेमें त्रुटि नहीं की है, और यथास्थल औषधनिर्माणक्रियायें इस तौर लिखी गई हैं कि, फिर किसीसे कुछ पूछनेकी आवश्यकता नहीं। शीघ्रतावश यदि कहीं कुछ त्रुटि रहगईहो तो बुध जन क्षमाकर मुझे सूचित करेंगेजिससे दूसरी बार छपनेमें वह ठीक होजावें।
और पं० हरिदत्त शर्म्मा शास्त्रीजीने इसका शोधन करते समय, शीघ्रताके कारण पुनरुक्ति, वाक्योंमें कर्मणि कर्त्तरि प्रयोेगभेद आदिको दुरुस्त कर हमारी बडी भारी सहायताकी है इस लिये उन्हे अनेकशः धन्यवाद हैं।
इस प्रसादनीनामक भाषाटीका सहित चरक संहिताको ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पितम्’ के तौर श्रीमान् संठ खेमराज श्रीकृष्णदास अध्यक्ष “श्रीवेङ्कटेश्वर’’ स्टीम् प्रेस बम्बई को सर्वाधिकार सहित सादर अपर्ण करताहूंऔर कोई महाशय इसके छापने आदिका साहस न करे,नहीं तो लाभके बदले हानि उठानी पडेगी.
बंबई.
अश्विन शुक्ल१० सोमवार.
संवत् १९६८
भवदीय लघुसेवक—
रामप्रसाद वैद्योपाध्याय.
टकसाल—(रियासत पटियाला)
॥श्रीः॥
अथ चरकसंहिता–
विषयाऽनुक्रमणिका।
| सूत्रस्थान १. | रसस्वरूप निदर्शन |
| **१. दीर्घजीवित अध्याय | ** |
| मंगलाचरण | रसोंका कार्य |
| आयुर्वेदावतरणक्रम | द्रव्यकेतीन प्रकार |
| आयुर्वेदका प्रयोजन | जगम आदि भेदसे त्रिविधद्रव्य |
| ऋषियोंका एकत्रित हो विचार करना | जङ्गम वर्णन |
| उपायका निश्चय | पार्थिवद्रव्य वर्णन |
| भरद्वाजका इन्द्रभवनमें जाना | औद्गिज्य और मूलिनी वर्णन |
| आयुर्वेदका स्वरूप और भरद्वाजका इन्द्रसे प्राप्त करना | महास्नेहादि वर्णन |
| उर्दिकारक द्रव्य तथा शिरके विरेचन | |
| भरद्वाजसे ऋषियोंका आयुर्वेद ग्रहणकरना | वमन और आस्थापनके योग्य फल |
| पुनर्वसुका छ शिष्योंको आयुर्वेदका उपदेश | चार प्रकारके स्नेह |
| उनकी सहिताओंमे ऋषियोंकी अनुमति | लवणपंचक |
| आयुर्वेदका लक्षण | मृत्राष्टकऔर उनका उपयोग |
| आयुके नाम | मूत्रोंके गुण |
| आयुर्वेदका महत्व | भेड, बकरी, गौआदिके दूधोंकिगुण |
| आयुर्वेदका अधिकार | योहर आदि त्रिविध वृक्षोके दूधोंका गुण |
| द्विविध द्रव्य | आकके दूधके गुण |
| गुणकर्म | विरेचनीय वृक्ष औरउनके प्रयोग |
| समवाय | छ शोधनवृक्ष |
| समवायिकारण | उनके ओगोंका उपयोग |
| कर्मलक्षण | गडरियोंसे औषध ज्ञान |
| द्यकका प्रयोजन | औषधज्ञानमें कठिनता |
| याधियोंका हेतु और आश्रय | औषधजाननेवालेकी प्रशंसा |
| आत्माका लक्षण | सर्वोत्तमवैद्य |
| रोगोंके कारण | बिनाजानी औषधकेदोष |
| दोषोंका प्रशमन | मूर्खवैद्यकी औषधिका निषेध |
| वायुके गुण और शमनोपाय | **२.अपामार्गतण्डुलिया अध्याय |
| पित्तके गुण और शमनोपाय | शिरोरोगनाशक द्रव्य |
| कफके गुण और शमनोपाय | वमनकारक द्रव्य |
| चिकित्साका साधारण निर्देश | विरेचन द्रव्य |
| उदावर्त्तादि रोगोमें वस्तिकर्मके योग्य,द्रव्य | कण्ठशोधक, स्वरकारक दश द्रव्य |
| वातनाशक पांचकार्मिक संग्रह | हृदयको प्रिय (हृद्य) दशद्रव्य |
| यवागू गुण और उनका संग्रह | तृप्तिनाशक (रुचिकारक) दश द्रव्य |
| अध्यायका विषय और वैद्यकी योग्यता | अर्शनाशकदशद्रव्य |
| **३.आरग्वधीय अध्याय | ** |
| कष्ठादिकोंपर लेप | खुजलीनाशक दशद्रव्य |
| वातजन्य रोगोंपर लेप | कृमिनाशकदशद्रव्य |
| उदरपीडापर लेप | विषनाशक दशद्रव्य |
| वातरक्तपरलेप | स्तन्यवर्द्धक दशद्रव्य |
| मस्तकपीडापर लेप | स्तनोंकि दूध शुद्ध करनेवाले दश द्रव्य |
| पार्श्वपीडापरलेप | वीर्योत्पादक दश द्रव्य |
| दाहनाशक लेप | वीर्यशोधक दश द्रव्य |
| विषनाशक लेप | स्नेहोपयोगी दश द्रव्य |
| देहकी दुर्गेधिनाशक लेप | स्वेदजनक दश द्रव्य |
| अध्यायका उपसंहार | वमनकारक दश द्रव्य |
| **४. षड्विरेचनशताश्रितीय अध्याय | ** |
| अध्यायके विषय | आस्थापन योग्य दश द्रव्य |
| छःसौ विरेचनके योग | अनुवासन योग्य दश द्रव्य |
| कषाय आदि कल्पना | शिरीविरेचनीय दश द्रव्य |
| जीवनीय छ कषाय | वमननाशक दश द्रव्य |
| वलादिकारक चार कषाय | तृषानाशकदश द्रव्य |
| तृप्तिनाशक छ कषाय | हिचकीनाशक दश द्रव्य |
| स्तन्यवर्द्धक चार कषाय | मलरोधक दश द्रव्य |
| स्नेहादि उपयोगी सात कषाय | मलशोधक दश द्रव्य |
| छर्दिनिग्रहणादि तीन कषाय | मूत्र रोधक दश द्रव्य |
| पुरीष सग्रहणीय आदि पांच कषाय | मूत्र शोधकऔर मूत्र रेचक दश द्रव्य |
| कासादिहर पांच कषाय | कासहर दश द्रव्य |
| दाहादिनाशक पांच कषाय | श्वासहर दश द्रव्य |
| शोणितास्थापनादि पांच कषाय | शोथनाशक दश द्रव्य |
| पावसौकषायोंका निर्देश | ज्वरनाशक दश द्रव्य |
| जीवनीयगणके दश द्रव्य | श्रमनाशक दश द्रव्य |
| बृहणीयगणके दश द्रव्य | दाहनाशक दश द्रव्य |
| लेखनीयगणके दश द्रव्य | शीतनाशक दश द्रव्य |
| भेदनीयगणके दश द्रव्य | उदर्दनाशक दश द्रव्य |
| संधानीयगणके दश द्रव्य | अगमर्द (अंगडाई) नाशक दश द्रव्य |
| दीपनीयगणके दश द्रव्य | शूलनाशकदश द्रव्य |
| वलकारक दश द्रव्य | रक्तस्थापक दश द्रव्य |
| वर्णशोधकदश द्रव्य | पीढानाशक दश द्रव्य |
| संज्ञास्थापकदश द्रव्य | कर्ण और शरीरमें तैलसे लाभ |
| सतानस्थापन दशद्रव्य | पांवमें तेलंलगानेके गुण |
| वयस्थापन दश द्रव्य | उद्वर्त्तन और स्नानके फल |
| पाचसौकषाय | स्वच्छवस्त्रपरिधानके फल |
| कषायज्ञ वैद्यकी प्रशंसा | सुगन्धिपुष्पोंका धारण |
| **५. मात्राश्रितीय अध्याय | ** |
| मात्राविचार | शौचान्तमेंपादप्रक्षालन |
| भोजन करनेपर दुवारा भोजनकानिषेध | डाढी मूछके बालोंको स्वच्छ रखनेका फल |
| नखाने योग्य पदार्थ | जूते धारण करनेके फल |
| सेवन योग्य पदार्थ | छत्र और दण्डधारणका फल |
| अजनलगाना | शरीररक्षावृत्ति धर्मपूर्वक है |
| दिनमें तीक्ष्ण अजनका निषेध | योग्यायोग्य विचार |
| अजनंसे दृष्टिप्रसाद | **६.तस्याशितीय अध्याय |
| अजनके द्रव्य | मात्रा और ऋतुकेअनुकूल भोजनसे लाभ |
| शिरोविरेचनमें धूम | ऋतुद्वारा वर्षकी अङ्गकल्पना |
| अन्य रोगोंमे धुमप्रयोग | सूर्यादिकोंका कर्तृत्व उपदेश |
| धुमपानके काल | वलहरणमें सूर्यकी कारणता |
| धूमपानके कण्ठादिकी शुद्धि | दक्षिणायनमें रसोंसेलाभ |
| असमय धूमपानके उपद्रव | हेमन्तमें वायुका पाचकत्व |
| उपद्रव शान्तिके उपाय | शीतकालमें लवणादि और मांसका सेवन |
| धूमपानके अनधिकारी | हेमन्तमें गोरसादि सेव्य हैं |
| धूमपानके अयोग्य रोग | हल्के अघ्नपानादिका त्याग |
| विशेष रोगोंमें विशेष स्थानेंसे धूमपान | हेमन्त और शिशिरके कार्य |
| नेचा प्रमाण | वसन्तमेंवमनादिकर्मधारणीय द्रव्य तथाभोज्य पदार्थ |
| धूमपान ठीक न होना | |
| अधिक धूमपानके दोष | ग्रीष्मके गुण तथा उसमें सेवनीय पदार्थ |
| धुमपानके अयोग्यदेशकाल | वर्षमें जठराग्निका दुर्बलहोना |
| नस्यकेगुण | पवनका कोप |
| नस्यकरनेयोग्य तैल तथा प्रमाण | वर्षोमें त्यागने योग्य कर्म |
| अणुतैलकी विधि तथा उसके गुण | वर्षोमें रहनेके नियम |
| दोसमय दन्तधावन | पीने योग्य जल तथा हसोदक |
| दन्तधावनके गुण | ओकसात्म्य |
| सुवर्णादिकी जिम्मी | सात्म्यका लक्षण |
| जिह्वाकी स्वच्छतासे लाभ | **७.न वेगान्धारणीय अध्याय |
| दन्तधावनके श्रेष्ठ वृक्ष | वेगोंके रोकनेका निषेध |
| लवगादि मुखमें रखनेके लाभ | मूत्रके वेगको रोकनेसे रोग |
| तैलगण्डूपका फल | मूत्र रुकनेपर उपाय |
| शिरमें तैलमर्दनके गुण | मलरोकनेमें रोग |
| मलावरोधकी चिकित्सा | मनका विषय |
| वीर्यकेवेगकोरोकनेमें उपद्रव | प्रकृति स्थिर रखनेके हेतु |
| अधोवायुके रोकनेमें उपद्रव और उसकेउपाय | संत्कार्योंका वर्णन |
| अकर्त्तव्योंका वर्णन | |
| वमन रोकनेसे रोग और उनके उपाय | भोजन करनेके नियम |
| छींक रोकनेके उपद्रव और उपाय | अध्ययन कालके नियम |
| डकारके रोकनेमें उपद्रव | अन्य नियम |
| जभाईके रोकनेमें उपद्रव | विशेष उपयोगी नियम |
| क्षुधा रोकनेमें उपद्रव | हवनादिके नियम |
| प्यास रोकनेसे उपद्रव | अध्यायकासक्षिप्तवर्णन |
| आंसु रोकनेमें उपद्रव और उपाय | **९ खुड्डाक चदुष्पादनामक अध्याय |
| निद्रा रोकनेमें उपद्रव और उपाय | चिकिन्साके चारपाद |
| श्वास रोकनेमें उपद्रव और उपाय | विकार और स्वास्थ्यका लक्षण |
| वेगोंको कदापि न रोके | चिकित्सालक्षण |
| धारण करने योग्य वेग | वैद्यके चार गुण |
| पुण्यके लाभ | औषधि गुण चतुष्टय |
| व्यायामके लाभ | सेवकके चार गुण |
| अत्यंत कसरतके उपद्रव | रोगीके चार गुण |
| शक्तिके बाहर कोई कार्यन करे | सोलह गुणोमें वैद्यकी प्रधानता |
| हिताहित विचार करे | चिकित्साके चार अगोंमें वैद्यकोमुख्यता |
| वातादिकी समता विषमता | मुर्ख वैद्यके लक्षण |
| शरीरगत छिद्रोका वर्णन | कुत्सित वैद्यका कर्म |
| मलवृद्धिआदिका ज्ञान | वैद्यको प्राणदातृत्व |
| साध्यरोगकी चिकित्सा करे | राजयोग्य चिकित्सकके लक्षण |
| विषमवृत्तिसेवर्त्तनेमें रोग | वैद्यका कर्तव्यकर्म |
| दोष दूर करनेका समय | वैद्यके षड्गुण |
| आगन्तु रोगोका कारण | वैद्यकी व्युत्पत्ति |
| आगन्तु रोगीकी शांति | सुखदाता वैद्यकेलक्षण |
| सेवन करने योग्य पुरुष | दोषोंमे वचनेका उपाय |
| भोजन आदिमें नियम | वैद्यकेउपदेश |
| अध्यायका उपसंहार | वैद्यकी चार प्रकारकी वृत्ति |
| **८ इन्द्रियोपकरणीय अध्याय | ** |
| इन्द्रियोंका वर्णन तथा मनकी अनेकता | **१०.महाचतुष्पाद अध्याय |
| इन्द्रियोंके नाम, द्रव्य और अधिष्ठान | औषधसे आरोग्य लाभ |
| इन्द्रियोंके विषयादि | उक्तविषयमें मैत्रेयका प्रतिवाद |
| अध्यात्मिक द्रव्यगण | दृष्टान्त |
| इन्द्रियोंमें विशेषता | उक्त विषयमें आात्रेयका खण्डन |
| इन्द्रियोंकेविपरीत होनेका कारण | आत्रेयकी अनुभूत चिकित्सा |
| असाध्यरोगकी चिकित्साका फल | कर्मकृत आयतनका वर्णन |
| साध्यासाध्य रोगके भेद | वाणीके मिथ्यायोगका वर्णन |
| साध्यके अन्य भेद | मानस मिथ्यायोग |
| सुखसाध्यके लक्षण | शारीरिक मिथ्यायोग |
| कृच्छसाध्यकेलक्षण | कर्मके मिथ्यायोगका सक्षिप्त वर्णन |
| द्विदोषज तथा कष्टसाध्य व्याधिके लक्षण | कालातिवागादिकावर्णन |
| वैद्यको शिक्षा | रोगोंके कारण |
| अध्यायका सक्षिप्त वर्णन | तीन प्रकारके रोग |
| **११ तिस्त्रैषणीय अध्याय | ** |
| एषणाओंका निर्देश | रोगोंकेतीन मार्ग |
| एषणाओंकावर्णन | बहिर्मार्गजरोगोंके नाम |
| धनकी इच्छा | शाखानुसारी रोग |
| धनप्राप्तिके उपाय | मध्यमार्गानुसारी रोग |
| परलोककी इच्छा | कोष्ठानुसारी रोग |
| प्रत्यक्षकेबावक | तीन प्रकारके वैद्य |
| जन्मकारणपर विवाद | भिषक्छद्मचरके लक्षण |
| स्वभाववादियोंके मतका खंडन | सिद्धसाधित वैद्यके लक्षण |
| पर निर्माण वादियोका खंडन | वैद्य गुणयुक्तके लक्षण |
| यदृच्छावादियोंका विषय | औषधियोंके भेद |
| सत् असत्की परीक्षा | शारीरिक रोगोंमे औषध भेद |
| आप्त तथा उनका उपदेश | वालकोकी अज्ञानताका फल |
| प्रत्यक्षका लक्षण | रोगीका कर्त्तव्य |
| अनुमानका लक्षण | अध्यायका उपसहार |
| युक्तिका लक्षण | **१२. वातकलाकलीय अध्याय |
| आप्तागमका लक्षण ओर फल | वायुके विषयम ऋषेयोंका प्रश्न |
| प्रत्यक्षका फल | साकृत्यायनकुशका मत |
| अनुमानका फल | भरद्वाजका मत |
| युक्तिसे पुनर्जन्मकी सिद्धि | वाहीकका मत |
| परलोकैषणामें कर्त्तव्य कर्म | वडिश धामार्गनका मत |
| उपस्तम्भादि त्रिक | वार्योंविदका मत |
| उपस्तम्भोंका वर्णन | वायुके भेद और कर्म |
| तीन प्रकारका बल | कुपितबाह्यवायुकेकर्म |
| तीन आयतनोका वर्णन | बाह्यवायुके कर्म |
| शब्दातियोगादिका वर्णन | कुपितबाह्यवायुके कर्म |
| गन्धातियोगोदिकावर्णन | वायुकेसाधारण वर्म |
| रसातियोगादिकावर्णन | मारीचिका प्रश्न |
| स्पर्शाति योगादिका वर्णन | पित्तकी ऊष्माका वर्णन |
| स्पर्शनेन्द्रियकी सर्वव्यापकता | शरीरमें सोमकीप्रधानता |
| पुनर्वसुका सिद्धान्त | अजीर्णस्नेहपानमें उपाय |
| अध्यायका संक्षिप्त वर्णन | स्नेहभ्रमके उपद्रव |
| **१३. स्नेहाध्याय | ** |
| अग्निवेशका प्रश्न | स्नेह मिलानेयोग्य यूप और यूषकेद्रव्य |
| पुनर्वसुका उत्तर | स्निग्ध करना |
| रोगविशेषोंमें तैलोंकी उत्कृष्टता | अध्यायका संक्षिप्त वर्णन |
| घृतके गुण | **१४.स्वेदाध्याय |
| तैलके गुण | |
| वसाके गुण | स्वेदनकर्मका यत्न |
| मज्जाके गुण | स्वेदनसे रोगशान्तिमें दृष्टांत |
| स्नेहपानका समय | स्वेदनसे कार्यसिद्वि |
| स्नेहपर अनुपान | स्वेदनके भेद |
| स्नेहकी विचारणा | रोगानुसार स्वेदन विधि |
| असयुक्त स्नेहका वर्णन | स्वेदनके अयोग्य अंग |
| स्नेहकी चौसठ विचारणा | नेत्रमें स्वेदन विधि |
| मात्राओंका वर्णन | स्वेदन कर्मके योग्य रोगी |
| उत्तम मात्राके योग्य पुरुष | स्वेदनके योग्य रोग |
| प्रधानमात्राके गुण | पिण्डस्वेदका वर्णन |
| मध्यममात्राके योग्य पुरुष | कफरोगियोकोस्वेदन विधि |
| ह्रस्वमात्राके योग्य पुरुष | स्वेदनका सहज उपाय |
| घृतपानके योग्य व्यक्ति | नाडी स्वेदनकी विधि |
| तैलपानके योग्य पुरुष | लेपपर पट्टी बाधनेका सामान |
| वसापानके योग्य पुरुष | लेपबन्धनक्रा समय |
| मज्जापानके योग्य पुरुष | स्वेदके तेरह भेद |
| स्नेहपानकी अवधि | सकरस्वेदका लक्षण |
| स्नेहकर्मके योग्य पुरुष | प्रस्तरस्वेदका ल० |
| स्नेहकर्मके अयोग्य व्यक्ति | नाडीस्वेदकाल० |
| अस्निग्धकेलक्षण | परिषेकका ल० |
| सम्यक्स्निग्धके लक्षण | अवगाहका ल० |
| अतिस्निग्धके लक्षण | जेन्ताक स्वेदके लिये भूमिपरीक्षा |
| स्नेहपानके पूर्व कर्त्तव्य कर्म | अश्मघ्नस्वेदका लक्षण |
| स्नेहपानके पश्चात् कर्म | कुटीस्वेदका वर्णन |
| पीतस्नेहव्यक्तिके कर्त्तव्यकर्म | भूस्वेदका वर्णन |
| अधिकस्नेहपानके दोष | कुम्भस्वेदका वर्णन |
| कोष्ठानुसार स्नेहपान विधि | कूपस्वेदका वर्णन |
| मृदुकोष्ट व्यक्तिके विरेचन द्रव्य | होलाकस्वेदका वर्णन |
| मृदुकोष्ठकेलक्षण | विना अग्निस्वेदन विधान |
| स्नेहयुक्त अग्निका तीव्रत्व | अध्यायका सक्षिप्त वर्णन |
| **१५.उपकल्पनीयअध्याय | ** |
| मेदक्षीणके ल० | |
| निवासस्थानका वर्णन | अस्थिक्षयके ल० |
| मदन फलकी मात्राका प्रमाण | मज्जाक्षीणकेल० |
| वमन होनेपर वैद्यका कर्त्तव्य | क्षीणशुक्रकेल० |
| वमनके योगायोगादि लक्षण | विष्ठाक्षयके ल० |
| रात्रिके भोजनका क्रम | मूत्रक्षीणके ल० |
| विरेचन विधि | मलक्षीणकेल० |
| अध्यायका सक्षिप्त वर्णन | क्षीणओजका ल० |
| **१६.चिकित्सा प्रभृतीय अध्याय | ** |
| सदसद्वैद्यकेकर्मका फल | मधुमेहके उपद्रव |
| अच्छे विरेचनके लक्षण | अध्यायका सक्षिप्त वर्णन |
| दुष्टविरेचनकेल० | **१८.त्रिशोफीय अध्याय |
| अतिविरेचितकेल० | शोफभेद तथा वातादिजन्य लक्षण |
| संशोधनीय रोग | वातजशोधके ल० |
| संशोधनका फल | उपजिह्विकाका कारण |
| संशोधनकीउत्कृष्टता | गलशुण्डिकाकाकारण |
| औषध क्षीणके लिये पथ्य | गलगण्डकाकारण |
| वमन विरेचनातियोगमें चिकित्सा | गलग्रहका कारण |
| अग्निवेशकाप्रश्न | विसर्पका कारण |
| पुनर्वसुजीका उत्तर | कर्णमूलका कारण |
| अध्यायका सीक्षिप्त वर्णन | प्लीहाका कारण |
| **१७. कियंतःशिरसीय अध्याय | ** |
| रोगोंपर अग्निवेशका प्रश्न | व्रध्नका कारण |
| गुरुका उत्तर | उदरका लक्षण |
| शिरोरोगोंकेकारण | अनाहका कारण |
| शिरका लक्षण | रोहिणीका कारण |
| जन्य वातादि शिरोरोग | व्याधिके भेद |
| वातज रोगोंके कारण | दोषोंका नित्यत्व |
| पित्तज शिरोरोगोंके कारण | विकाररहित वायु आादिके कर्म |
| कफज शिरोरोगके लक्षण | अध्यायकासंक्षिप्त वर्णन |
| त्रिदोषज शिरोरोगोंके लक्षण | **१९. अष्टोदरीय अध्याय |
| कृमिज शिरोरोगोंकेल० | सपूर्ण रोगोंकी संख्या |
| वातजन्य हृदयरोग | अध्यायका उपसंहार |
| पित्तज हृदयरोग | अध्यायका सक्षिप्त वर्णन |
| कफज हृदय रोगे लक्षण | **२०. महारोगाध्याय |
| सान्निपातिक हृद्रोग वर्णन | सपूर्ण रोगोंके भेद |
| संसर्गविकारोंके भेद | तीनों दोषोंकेस्थान |
| अस्सी प्रकारकीवातव्याधियें | मासद्वारा वृहणरोगी |
| वायुके धर्म | सर्वोपयोगी वृह्णकर्म |
| वातव्याधियोंकी चिकित्सा | रूक्षण |
| चालीस प्रकारके पित्तविकार | सम्यक् लघनके लक्षण |
| पित्तके वर्म | सम्यक् वृहणके ल० |
| पित्तविकारोंकी चिकित्सा | **२३. संतर्पणाय अध्याय |
| बीस प्रकारके कफ विकार | |
| कफके धर्म | सतर्पणसे होनेवाले रोगोंके नाम |
| कफकी चिकित्सा | मोहादिनाशक क्वाथ |
| अध्यायकाउपसंहार | त्वग्दोषपर क्वाथ |
| **२१. अष्टौ निंदितीय अध्याय | ** |
| आठप्रकारकेनिदनीय पुरुष | प्रमेहादिपर क्वाथ |
| अतिस्थूल शरीरमे आठ अवगुण | अतर्पणजन्य रोग |
| अतिस्थूलताका कारण | पुष्टिकर्त्तामन्थ |
| मेदके बहुत बढजानेके दोष | विण्मुत्रानुलोभी तर्पण |
| कृशहोनेका कारण | मूत्रकृच्छादिनाशक तर्पण |
| कृशको असह्य कर्मऔर रोग | बलवर्णदायक सतर्पण |
| कृशताके लक्षण | **२४.विधिशोणितीय अध्याय |
| कृशकोउत्कृष्टत्व | शुद्वरक्तके गुण |
| समके लक्षण | दूषितरक्तके उपद्रव |
| स्थूलव्यक्तिकी चिकित्सा | दूषितरक्तमें कर्त्तव्य कर्म |
| कृशतानाशक प्रयोग | शुद्धरक्तके लक्षण |
| दिवानिद्राका निषेध | कुपितवातयुक्तका कर्म |
| दिवानिद्रामें उपद्रव | वातादिकृतउन्मादका लक्षण |
| निद्रान आनेके हेतु | वातादिजनितमूर्च्छाका लक्षण |
| अध्यायका उपसंहार | सन्यासरोगकाल० |
| **२२ लंघन बृंहणीय अध्याय | ** |
| अग्निवेशका प्रश्न | सन्यासरोगमेंचिकित्सा |
| गुरुका उत्तर | चेतनकरानेके अन्योपाय |
| लधन द्रव्य | चेत हानेके पश्चात् कर्म |
| वृंहण द्रव्य | **२५. यज्जःपुरूषीय अध्याय |
| रक्षण द्रव्य | ऋषियोंका आन्दोलन |
| स्नेहन द्रव्यकेगुण | काशीनरेशवामकका वाक्य |
| स्वेदन द्रव्यके गुण | मौद्गल्यका मत |
| स्तंभन द्रव्यके गुण | शरलोमाका मत |
| लंघन | वायोंविदका मत |
| शिशिरऋतुमेंलंघनीय रोगी | हिरण्याक्षका मत |
| वृंहणमासका वर्णन | शौनकका मत |
| भद्रकाप्यका मत | **२७.अन्नपानविधि अध्याय |
| भरद्वाजका मत | अन्नपानकी उत्कृष्टता |
| काङ्कायनकामत | अन्नपानादिके स्वाभाविककर्म |
| भिक्षुआत्रेयका मत | वर्गोके नाम |
| पुनर्वसुका वचन | **शुकधान्यवर्ग |
| वामककाप्रश्न | शालिधान्योंके गुण |
| अग्निवेशका प्रश्न | यवादिका वर्णन |
| आत्रेयजीका उत्तर | साठीचावलोंके गुण |
| अग्निवेशकाप्रश्न | व्रीहि और पाटलके गुण |
| आत्रेयजीका उत्तर | कोरदूष और श्यामाकके गुण |
| आहारोंकेभेद वर्णन | यवके गुण |
| श्रेष्ठ हितकारी द्रव्योंका वर्णन | वेणुयवके गुण |
| अग्निवेशका प्रश्न | गेहूके गुण |
| आत्रेयजीका उत्तर | नान्दीमुख और मधूलीके गुण |
| अध्यायकाउपसंहार | |
| **२६. आत्रेयभद्रकाप्यीय अध्याय | ** |
| अनेक ऋषियोंके अनेक मत | मूगके गुण |
| पार्थिवादि द्रव्योंके गुणकर्म | राजमाषके गुण |
| रसोंके विकल्पकी सख्या | उरदके गुण |
| रसविकल्पज्ञ वैद्यकी प्रशंसा | कुल्थीकेगुण |
| परादिगुणोंके नाम | मोंठके गुण |
| परापरत्वका लक्षण | चनाके गुण |
| संख्या आदिका ल° | तिलके गुण |
| रसोंकी उत्पत्ति | शिम्बीके गुण |
| पंचमहाभूतोंकेन्यूनाधिक्यका फल | अरहर आदिके गुण |
| अग्निमारुतात्मक रसोंके कर्म | **मांसवर्ग |
| मधुगदिरसोंके गुणागुण | प्रमह पशु और पक्षियोंके नाम |
| रसोंके वीर्यका वर्णन | भूमिशयके नाम |
| विपाकका वर्णन | आनुपजीवोंकेनाम |
| रसविपाक वीर्यके लक्षण | जागल पशुओंकेनाम |
| प्रभावका लक्षण | विष्किरपक्षियोंके नाम |
| मधुरादिरसोंका स्वरूप | प्रतुदपक्षियोंके नाम |
| अग्निवेशका प्रश्न | प्रसहादि मासका गुण |
| आत्रेयजीका उत्तर | बकरेके मांसका गुण |
| संयोग विरुद्ध आहार | भेडे आदिके मांसका गुण |
| विरुद्ध अन्नसेवनके कर्म | भोरके मांंसका गुण |
| विरुद्ध अन्न अन्य रोगोपाय | हंसके मांसका गुण |
| अध्यायका उपसंहार | मुर्गेके मांसका गुण |
| धन्वानूप मासके गुण | विल्वके-गुण |
| कपिञ्जलके मासका गुण | आमके गुण |
| लवाके मासका गुण | जामुनके गुण |
| कवूतरोके मासका गुण | वेरके गुण |
| शुकमासके गुण | गगेरी करील विम्वी और तोदनके गुण |
| स्वरगोशके मांसका गुण | खिरनी, पनस,केला चिरौजी |
| चिडियाके मासका गुण | लवलीके गुण |
| गीदडके मासका गुण | कदम्वादिके गुण |
| रोहृमछलीके मासका गुण | गोंदोफल आदिका गुण |
| कछुएके मासका गुण | आवलेका गुण |
| गीमासका गुण | बहेडेके गुण |
| महिषमासका गुण | अनारका गुण |
| अण्डोंकेगुण | वृक्षाम्लके गुण |
| मासकी उत्कृष्टता | अमलवेत तथा विजारेके गुण |
| **शाकेवर्ग | ** |
| वादामादिके गुण | |
| मकोयके शाकका गुण | पियालके गुण |
| राजक्षवकके गुण | अकोटके गुण |
| कालशाकके गुण | कजेके गुण |
| चागेरीके गुण | पित्तपापडाका गुण |
| पोईके शाकका गुण | भिलावेकी गुटलीके गुण |
| चौलाईका शाक | **हरितवर्ग |
| मण्डुकपर्ण्यादि शाकोंकेगुण | अदरख–सोंठके गुण |
| सूप्यशाकोंकेगुण | जभारीके गुण |
| शाकोंकी साधारण विधि | मूलीके गुण |
| विदारीकन्दके गुण | तुलसीकेगुण |
| **फलवर्ग | ** |
| दाखके गुण | गण्डीरादिके गुण |
| खज्रके गुण | भूम्तृणके गुण |
| फल्गुफालसा और महुआके गुण | धनिये आदिके गुण |
| आवडेके गुण | गाजरके गुण |
| ताल नारियलके गुण | प्याजके गुण |
| भव्यके गुण | लहसनके गुण |
| कच्चेफलोंके गुण | **मद्यवर्ग |
| पके आरुकके गुण | सुराके गुण |
| पालेवतके गुण | मदिराके गुण |
| खम्भारीतुद | जगलमद्यका गुण |
| टंकके गुण | अरिष्टके गुण |
| शर्करामद्यके गुण | **इक्षुवर्ग |
| पक्केरसके गुण | ईखकेरस |
| शीतरसिककागुण | पौंडा, गत्रा तथा गुडके गुण |
| गौडके गुण | मत्स्यपिण्डकादिके गुण |
| सुरासवके गुण | गुडशर्कगके गुण |
| धातक्यासवके गुण | मधुशर्कराके गुण |
| मधुक गुण | शहदके मेद |
| जौ, गेंहू आदिकामद्य | शहदकेरग |
| सौवीर और तुषोदकके गुण | शहदके गुण |
| अम्लाकाजिकके गुण | मधुके गुण |
| नवीन और पुराने मद्यके गुण | मधुको योगवाहित्व |
| **जलवर्ग | ** |
| दिव्यजलक षड्गुणत्व | लाजमण्डके गुण |
| पात्रभेदसेजलभेद | भातके गुण |
| ऐन्द्रजलकागुण | कुल्माषके गुण |
| हिमालयकी नदियोंकेगुण | कृताकृतयूषके लक्षण |
| मलयाचलकी नदियोंका गुण | सत्तूके गुण |
| पश्चिमकी ओर वहनेवाली नदियोंका गुण | शालिधान्यका सत्तू |
| अन्यनदियोंका जल | जौकी रोटियोका गुण |
| कूपादि जलके गुण | जौकी धानीकेगुण |
| वर्जित जल | विरूढधावाकेगुण |
| **दुग्धवर्ग | ** |
| गोदूधके गुण | वेशवारफें गुण |
| भौसके दूधेके गुण | गेंहूके पदार्थके गुण |
| ऊठनीकेदूधका गुण | पाकके गुण |
| घोडी आदीके दूधका गुण | रसालाके गुण |
| वकरीके दूधका गुण | पानकके गुण |
| भेड तथा हस्तिनीके दूधका गुण | रागषाडवके गुण |
| स्रीक दूधका गुण | आम और आवलेका अवलेह |
| दहीके गुण | शुक्तके गुण |
| दहीका निषेध | शिण्डाकीका गुण |
| मन्दकदहीके गुण | **आहारयोगवर्ग |
| तककेगुण | तैलके गुण |
| नवनीतके गुण | तैलकीउत्कृष्टतामें दृष्टान्त |
| घृतका गुण | एरण्डतैलके गुण |
| पुराने घृतका गुण | सरसोंके तैलके गुण |
| तक्रपिण्डिकाके गुण | पियालके तैलका गुण |
| अलसीके तेलका गुण | रक्तदोषज रोग |
| कसूम तैलका गुण | मांसदोषजरोग |
| फलोंके तैलकागुण | अस्थिदोषज रोग |
| मज्जा और वसाके गुण | मज्जा दोषज रोग |
| सोंठके गुण | शुक्रदोषज रोग |
| पीपलके गुण | कुपित दोषोंकि कर्म |
| मिरचके गुण | रसजरोगोंकी चिकित्सा |
| हीगकेगुण | मांसजदोषोंकी चिकित्सा |
| सेधानमकके गुण | मज्जाशुक्रदोषोंकी चिकित्सा |
| सचलनामके गुण | अध्यायका उपसहार |
| विड्नमकके गुण | **२९ दशप्राणायतनीय अध्याय |
| उद्भिदनमकके गुण | प्राणस्थान तथा प्राणाभिसर |
| समुद्रादि लवणके गुण | वैद्योंकै भेद |
| जवाखारके गुण | अग्निवेशका प्रश्न |
| क्षारोंके गुण | सैद्वद्यके लक्षण |
| जीरा और धनियाका गुण | रोगाभिसरके लक्षण |
| वर्जितमांस | अध्यायकी पूर्त्ति |
| मासरसका गुण | **३० अर्थेदशमुलीय अध्याय |
| वर्जितशाक | हृदयाधीनं अंगावयव |
| वर्जितफल | महामूलादि नामका कारण |
| अनुपानका वर्णन | ओजोधातुका गुणकर्म |
| दूधका अनुपान | महाफलकी निरुक्ति |
| अनुपानके कर्म | आयुर्वेदवित्के लक्षण |
| जलपानका निषेध | प्रथम प्रश्नकाउत्तर |
| चरादि परीक्षा | लक्षणसे आयुका ज्ञान |
| शरीरावयवे | हिताहित आयुका वर्णन |
| स्वभावकावर्णन | आयुर्वेदका नित्यत्व प्रतिपादन |
| धातुओंका लघु गुरुत्व | आयुर्वेदके आठ अग तथा उनसे धर्मप्राप्ति |
| संस्कार और मात्राकृत गुरु लघुत्व | आयुर्वेदसे अर्थप्राप्ति |
| अध्यायका उपसहार | शास्त्रविषयक आठ प्रश्न |
| **२८. विविधाशितपीतीय अध्याय | ** |
| हितकर आहारके कर्म | आठ स्थानोके नाम |
| पारपक्व आहारके भेद | भेषजाश्रय अध्यायोंके नाम |
| प्रसादाख्य रसके गुण | स्वास्थ्यवृत्तिक अध्यायोंके नाम |
| अग्निवेशका प्रश्न | नैर्देशिक अध्यायोंके नाम |
| आत्रेयजीकाउत्तर | उपकल्पना विषयक अध्यायोंके नाम |
| रसदोषसेउत्पन्न रोग | रोगाध्यायोंके नाम |
| योजनाचतुष्क अध्यायोंके नाम | अतिकुपितवायुका कर्म |
| अन्नपान चतुष्क अध्यायोंके नाम | वातज्वरके लिंग वा अंगविशेषोमें वेदनाविशेष |
| वैद्यगुणागुण विषयक अध्यायोंके नाम | पित्तकोपका कारण |
| सुत्रस्थानके अध्यायोंका सक्षिप्त वर्णन | प्रकुपितपित्तका कर्म |
| निदानस्थानके अध्यायोंका नाम | पित्तज्वरके लक्षण |
| विमानस्थानकेअध्यायोंका नाम | कफ प्रकोपका कारण |
| शारीरस्थानके अध्यायोंका नाम | प्रकुपित कफकाकर्म |
| इन्द्रियस्यानके अध्यायोंका नाम | कफज्वस्के लक्षण |
| चिकित्सास्थानके अध्यायोंका नाम | द्वन्द्वजादिज्वरके निदान |
| कल्पस्थानके अध्यायोंका नाम | द्वन्द्वजादिज्वरोंके लक्षण |
| सिद्धिस्थानके अध्यायोंका नाम | आगन्तुज्वरका कारण व उसमें दोषोत्पत्ति |
| प्रश्नका लक्षण | ज्वरको एकत्व और पूर्वरूप |
| उत्तरका लक्षण | ज्वरको पूर्वमेंकर्तव्यकर्म |
| तन्त्रादिकी निरुक्ति | ज्वरमें धृतपान |
| सूत्रस्थानकी निरुक्ति | धृतको उत्कृष्टत्व |
| **इति सृत्रस्थानकी अनुक्रमणिका | ** |
| **२. रक्तपित्तनिदान | |
| **अथ निदानस्थान | ** |
| **१. ज्वरनिदान | ** |
| निदानकेपर्यायवाची शब्द | रक्तपित्तके पूर्वरूप |
| निदानके तीन भेद. | रक्तपित्तके उपद्रव |
| व्याधियोंके भेद | रक्तपित्तके मार्ग |
| व्याधिके पर्याय शब्द | रक्तपित्त साध्यासाध्यत्व |
| रोगकीउपलब्धीके विषय | रक्तपित्तकी उत्पत्ति आदि |
| निदानका लक्षण | ससृष्टदोषोंकी चिकित्सा |
| पूर्वरूपकेलक्षण | साध्यरोगको असाध्य होनेकाकारण |
| लिङ्गके लक्षण | असाध्यके विशेष लक्षण. |
| उपशयके लक्षण | रक्तपित्तमें कर्तव्यता |
| संप्राप्तिकेपर्याय | अध्यायका उपसहार |
| संप्राप्तिके भेद | **३.गुल्मनिदान |
| संख्या संप्राप्तिकेलक्षण | गुल्मोंफेभेद |
| प्राधान्य संप्राप्तिकेलक्षण | अग्निवेशका प्रश्न |
| विधि सप्राप्तिके लक्षण | आत्रेयजीका उत्तर |
| विकल्पसम्प्राप्तिके लक्षण | वातकुपित होनेका कारण |
| बलकालका लक्षण | प्रकुपित वातसे गुल्मफी उत्पत्ति |
| ग्रन्थकारकी प्रतिज्ञा | वातगृल्ममें उपद्रव |
| ज्वरके भेद | वायुपित्त प्रकोपका कारण |
| वायुकोपका कारण | पित्तप्रकोपसे गुल्म |
| कफके प्रकुपित होनेका कारण | मज्जोमहीकि ल० |
| प्रकुपित कफसे गुल्मकी उत्पत्ति | हस्तिमेहीकाल० |
| निचयगुल्मका वर्णन | मधुमेहीका ल० |
| रक्तगुल्म | त्रिदोषजन्य प्रमेहके पूर्वरुप |
| रक्तगुल्मकी उत्पत्तिके कारण | प्रमेहके उपद्रव |
| गुल्ममे रूप | साध्य प्रमेहोंकी चिकित्साविधि |
| अध्यायका उपसहार | अध्यायका उपसंहार |
| **४. प्रमेहनिदान | ** |
| प्रमेहोंकी सख्या | कष्ठोत्पत्तिका कारण |
| प्रमेहनिदान भेद | कुष्ठ भेद |
| प्रकृपित्त कफके कर्म | सात प्रकारके कुष्ट |
| प्रमेहकि नाम | कृष्ट के भेद आर उत्पत्तिके कारण |
| कफप्रमेहका साध्यत्व | कुष्टफा सावाग्ण निदान |
| उदक्मेहका लक्षण | कुष्टक पूवरूप |
| इक्षुमेहका लक्षण | कपाल कुष्टके लक्षण |
| सान्द्रमेहके लक्षण | उदुम्बर कुष्टके ल० |
| सान्द्रप्रसादमेहका लक्षण | मण्डल कुष्टके लक्षण |
| शुक्लमेहके लक्षण | ऋष्यजिह्वष्टकेलक्षण |
| शुक्रमेहके ल० | सिध्मकुष्ठके लक्षण |
| शीतसेहके ल० | काकणफकुष्ठके लक्षण |
| सिकतामेहके ल० | कुष्ठोंकात साध्यासाध्यत्त वर्णन |
| शनैर्मेहके ल० | उपेक्षितकुष्ठका फल |
| आलालमेहके ल० | प्रकुपित दोषोंमें उपद्रव |
| पित्तमेहका ल० | कुपित दोषोंमें उपद्रव |
| छ प्रमेहोंकेनाम | अध्यायका उपसंहार |
| क्षारमेहीके ल० | **६. शोषनिदान |
| कालमेहीके ल० | शोषोंकेआयतनोंकी संग्लन |
| नीलमेहीके ल० | साहसका वर्णन |
| रक्तमेहीके ल० | वायुके कर्म |
| मांजिष्टमेहीके ल० | शोषमें उपदेश |
| हृरिद्रामेहीके ल० | सन्धारणजन्य शोपका वर्णन |
| वात प्रमेह होनेको कारण | क्षयशोषका वर्णन |
| मज्जामेहका कारण | यक्ष्माहोनेकी रीति |
| हस्तिमेहका कारण | वीर्यरक्षामें उपदेश |
| मधुमेहकाकारण | विषमाशनका वर्णन |
| वातप्रमेहोंका असाध्यत्व | विषमाशनशोषमें कर्तव्यता |
| वसामेहीके लक्षण | राजयक्ष्मानामक कारण |
| राजयक्ष्माके पूर्वरूप | **अथ विमानस्थान |
| राजयक्ष्माके रूप | **१. रसावमान |
| अध्यायका उपसहार | रसोंका वर्णन |
| **७. उन्मादनिदान | ** |
| उन्मादकेभेद | द्रव्यप्रभावकावर्णन |
| उन्मादरोगी पुरुष | क्षारसेवनविधि |
| ऊन्मादके पूर्वरूप | लवण सेवनका निषेध |
| उन्मादकी पहिचान | सात्म्यके लक्षण |
| पित्तोन्मादके लक्षण | आहारके आयतन |
| कफोन्मादके लक्षण | प्रकृतिका वर्णन |
| साध्योकी उपक्रमणविधि | करणका वर्णन |
| आगन्तुक उन्मादके लक्षण | सयोगकावर्णन |
| आगन्तुक उन्मादकी उत्पीत्तिमेंभिन्नमत | राशिका वर्णन |
| आगन्तुक उन्मादे, पूर्वरूप | देशका वर्णन |
| उन्मादोत्यत्तिमे पूर्वचेष्टा | कालका वर्णन |
| उन्मादके रूप | उपयोग सस्थाकावर्ण |
| आघातकाल | उपयोक्ताका वर्णन |
| उन्मत्तताके तीन प्रयोजन | आहारविधि |
| साध्याका वर्णन | उष्णभोजनके गुण |
| उन्मादकाद्विविधत्व | स्निग्ध भोजनके गुण |
| अध्यायका उपसहार | मात्रावत् भोजनका गुण |
| **८. अपस्मारनिदान | ** |
| अपस्मारके भेद | वीर्याविरुद्ध भोजनके गुण |
| अपस्मारके योग्य पुरुष | इष्टदेशमें भोजनका गुण |
| अपस्मरक्के लक्षण | नतिद्रुत भोजनके गुण |
| अपस्मारके पूर्वरूप | नातिविरम्वित मोजनके गुण |
| वातज अपस्मारके लक्षण | मौनसे भोजनके गुण |
| पित्तज अपस्मारके लक्षण | आत्माको देखकर भोजनके गुण |
| कफज अपस्मारकते लक्षण | अध्यायका उपसहार |
| सान्निपातिक अपस्मारके लक्षण | २.त्रिविध कुक्षीयविमान |
| रोगोंकी उत्पत्ति | त्रिविधकुक्षीयका वर्णन |
| रोगोंकेहेतुर्ओंका वर्णन | अमात्राके भेद |
| रोगोंकि लक्षणोंका वर्णन | दोषोंके कुपित होनेका कारण |
| रोगोंकी शातिका वर्णन | पृथक् २ दोषोंके उपद्रव |
| वैद्यको उपदेश | कुपित वाते उपद्रव |
| चिकित्साकी विधि | आमदूषित होनेका कारण |
| अध्यायका उपसहार | आमके भेद |
| **हडि निदानस्थानकी विषयाऽसुक्रमणिका | ** |
| साध्यआमकी चिकित्सा | **५.स्नोतोविमान |
| विषूचिकामें चिकित्सा | दूषित प्राणवाही स्त्रोतके लक्षण |
| आहारपचनेका स्यान | दूषित उदकवाही स्त्रोतके लक्षण |
| अध्यायका उपसंहार | दूषित अन्नवाही स्रोतके लक्षण |
| **२. जनपदोद्धंसनीय विमान | ** |
| पुनर्वसुका प्रस्ताव | मृत्रवाही स्रोतोंके लक्षण |
| अग्निवेशका प्रश्न | पुरीषवाही स्रोतोंकेलक्षण |
| आत्रेयजीका उत्तर | स्वेदवाही स्लोतोंके लक्षण |
| वातको अनारोग्यत्व | शरीरधात्ववकाशोंके नाम |
| जलको अनारोग्यत्व | प्राणवाही स्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| देशको अनारोग्यत्व | उदकवाहीस्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| कालको अनारोग्यत्व | अन्नवाही स्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| अग्निवेशका प्रश्न | रसवाही स्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| आत्रेयजीका उत्तर | रक्तवाहीस्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| युद्धका कारण | मासवाही स्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| अभिशापका हेतु | मेदोवाहीस्नोतोंके दूषितहोनेकाकारण |
| कर्मोंका वर्णन | अस्थिवाही स्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| कर्मकेभेद | मजापाही स्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| अन्य कारण | शुक्रवाही स्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| अग्निवेशका प्रश्न | मूत्रवाहीस्नोतोंके दूषित होनेका कारण |
| कालमृत्युका वर्णन | वचोंके स्रोतोको दूषित होनेका कारण |
| अग्निवेशका पश्न | स्वेदोवाही स्नोतोंके होनेका कारण |
| ज्वरमें उष्णजलका विधान | अन्यकारण |
| उष्णजलकेगुण | स्रोतोंकी आकृति |
| अपतर्पणके भेद | दूषित स्त्रोतोंकी चिकित्साका विधान |
| लंघनपाचनके गुण | अध्यायका उपसहार |
| दोषावसेचनफे गुण | **६. रोगानीकविमान |
| अयोग्यरोगीके लक्षण | रोगोंके विभाग |
| अध्यायका उपसहार | रोगोंको सख्यासख्येयत्व |
| दोषोंका वर्णन | |
| **४.त्रिविध रोग विशेष विज्ञनीयविमाग | ** |
| रोग विशेषज्ञानके भेद | अनुवन्धानुवन्ध भेद |
| उपदेशका लक्षण | सन्निपाति दोषभेद |
| प्रत्यक्ष और अनुमान | अग्निभेद |
| प्रत्यक्षज्ञानका लक्षण | चार प्रकारके पुरीष |
| अनुमानज्ञानका लक्षण | चार अन्न प्रणिधान |
| अन्य अनुमान ज्ञेयभावोंका वर्णन | वातप्रकृतिके रोग |
| अध्यायका उपसंहार | वायुके जीतनेका उपाय |
| पित्तके जयका यत्न | अधिकरण सिद्धान्त |
| कफके जयका उपाय | अभियुपगमसिद्धान्त |
| अध्यायकाउपसंहार | शब्द |
| **७.व्याधितकूपीयविमान | ** |
| रोगीके भेद | अनुमान |
| अज्ञानियोंका भ्रम | औपम्य |
| चारप्रकारके सहज कृमि | ऐतिह्य |
| रुधिरज कृमि | सशय |
| कफज कृमि | प्रयोजन |
| विष्ठाके कृमि | सव्यभिचार |
| क्रिमि चिकित्सा | जिज्ञासा |
| पेटके कीडोंकी चिकित्सा | व्यवसाय |
| सशोधन औषधकी विधि | अथार्थप्राप्ति |
| विरेचन होजानेपर कर्म | सम्भव |
| कृमिनाशकऔषधी | अनुयोज्व |
| विडगतैल | अनुयोज्य |
| अध्यायका उपसहार | अनुयोग |
| **८. रोगभिषग्जितीय अध्याय | ** |
| शास्त्रपरीक्षा | वाक्यदोप |
| आचार्यकी परीक्षा | वाक्यन्यूनता |
| अध्ययनकी विधि | आधिक्य |
| उपदेश. | अनर्थक |
| वैद्यको उपदेश | अपार्थक |
| सम्मापणविधि | विरुद्ध |
| वादविधि | वाक्यप्रशसा |
| प्रतिवादीके भेद | वाक्छल |
| सभाके भेद | सामन्यछल |
| वादमर्यादाके लक्षण | अहेतु |
| वादका लक्षण | अतीतकाल |
| द्रव्यादि लक्षण | उपालम्भ |
| प्रीतिज्ञा | पारहार |
| स्थापना | प्रतिज्ञाहानि |
| प्रतिष्ठापना | अभ्यनुज्ञा |
| हेतु | हेत्वन्तर |
| उत्तर | अर्थान्तर |
| दृष्टान्त | निग्रहस्थानं |
| सिद्धान्त | वाद |
| सर्वतम सिद्धान्त | वारण |
| करण | सत्त्वसेपरीक्षा |
| कार्ययोनि | मध्यसत्त्वादिपुरुष |
| कार्य | भोजन शक्तिद्वारा परीक्षा |
| कार्यफल | व्यायामशक्ति द्वारा परीक्षा |
| अनुबन्ध | अवस्थासे परीक्षा |
| देश | वालआदि अवस्था |
| काल | वय.क्रमसे औषध प्रयोग |
| प्रवृत्ति | कालभेद |
| उपाय | षट्ऋतु विभाग |
| परीक्षाके भेद | शीतमे सशोधनविधि |
| धातुसात्म्यकारक वैद्यगुण | ग्रीष्ममें निषेध |
| भेषजपरीक्षा | वर्षामेंनिषेध |
| औषधपरीक्षा | कायकाल निर्णय |
| कार्ययोनिपरीक्षा | प्रवृत्ति |
| कार्यपरीक्षा | उपाय |
| कार्यफलपरीक्षा | प्रतिपत्ति |
| देशलक्षण | वमनद्रव्य |
| रोगीपरीक्षा | विरेचकद्रव्य |
| दुर्वलरागीको औषध | आस्थापनके वर्णन |
| अल्पवल औषधकीपरीक्षा | रसानुसार आस्थापन |
| वलप्रमाण ग्रहणके कारण | अम्लस्कन्ध |
| कफप्रकृति | लवणस्कन्ध |
| पित्तप्रकृतिके लक्षण | कटुकस्कन्ध |
| वातप्रकृतिके लक्षण | तिक्तस्कन्ध |
| संर्कीणप्रकृति | कषायस्कन्ध |
| विकृतिपरीक्षा | शिरोविरेचन द्रव्य |
| सारद्वारा परीक्षा | अध्यायका सक्षिप्त वर्णन |
| रक्तसार | अनुवासन द्रव्य |
| माससार | **इतिविमानस्थानकी अनुक्रमणिका |
| मेदसार | **अथशारीरस्थान |
| अस्थिसार | |
| मज्जासार | **१. कतिधापुरुषीय अध्याय |
| शुक्रसार | अग्निवेशका वचन |
| सत्वसार | पुरुषवर्णन |
| सर्वसार | बुद्धिकी प्रवृत्ति |
| समुदाय द्वारा परीक्षा | ज्ञानेन्द्रिय |
| प्रमाणसे परीक्षा | कर्मेन्द्रिय |
| सात्म्य द्वारा परीक्षा | पञ्चमहाभूत |
| पृथ्वी आदिकि गुण | **२.अतुलगोत्रीय शारीर अध्याय |
| गुणादिके वर्णन | गर्भके चतुष्पादमें प्रश्न |
| ज्ञानोंकी अनेकता | उत्तर |
| पुरुषकी प्रधानता | गर्भके विपयमें प्रश्न |
| पुरुषकी कारणता | यथाक्रम उत्तर |
| पुरुषकी कारणताका दृष्टान्त | सन्तानका प्रश्न |
| अनाश्ववादीके मतका खण्डन | उत्तर |
| कारणोसे नाम और कर्म | सद्योगर्भकी लक्षण |
| आत्माका वर्णन | गर्भस्थवालकादिका पारचय |
| प्रकृतियोंका वर्णन | गर्भकीविकृतिका कारण |
| पुरुषकी उत्पत्ति | आत्माके देहभरमें प्राप्त होनेका कारण |
| जीवनमरणके लक्षण | दैवका लक्षण |
| आत्माको कर्तृत्व | ऋतुओके रोगोंका शमन |
| आत्माका जितेन्द्रियत्व | अध्यायका उपसहार |
| आत्माकी व्यापकता | **३.खुड्डीकागर्भावक्रान्तिशारीरअध्याय |
| आत्माका अनादित्व | |
| आत्माका सर्वसाक्षित्व | गर्भकी उत्पत्ति |
| अतीतरोगकी चिकित्सा | गर्भोंकेभेद |
| भविष्यत् रोगकी चिकित्सा | गर्भकीअसात्म्यजता |
| प्रज्ञापराध | गर्भका रससे उत्पन्न न होना |
| स्वाभाविक रोगोंका वर्णन | गर्भका सत्वगुणी न होना |
| कर्मरोगोंकी शन्ति | आत्रेयका मत |
| श्रवणसयोगादि वर्णन | मातापितासे होनेवाले अवयव |
| त्वगिन्द्रियसयोगादि वर्णन | आत्मासेउत्पन्न हुए गर्भावयव |
| दर्शानेन्द्रिय सयोगादि वर्णन | आत्मासे हुए द्रव्य |
| रसनेन्द्रिय सयोगादि वर्णन | सात्म्यसेहुए गर्भके अवयव |
| घ्राणेन्द्रिय सयोगादि वर्णन | गर्भकी रसज उत्पत्ति |
| असात्म्यलक्षण | गर्भके रसज अवयव |
| सुखद खके प्रधान हेतु | सत्त्वका उत्पादकत्व |
| वेदनाके स्थान | भरद्वाजका प्रस्ताव |
| योग और मोक्ष | आत्रेयजीका उत्तर |
| अष्टविध योगवल | अध्यायका संक्षिप्त वर्णन |
| मोक्षप्राप्तिकी रीति | **४. महतीगर्भावक्रान्तिशारीरअध्याय |
| दु.स्वोसेनिवृत्तिके उपाय | |
| स्मृतिप्राप्तिके कारण | आत्रेयजीकी प्रतिज्ञा |
| मोक्षका रूप | गर्भकीउत्पत्तिका कारण |
| अध्यायका सक्षिप्तवर्णन | गर्भके वैकारिक द्रव्य |
| गर्भकी आनुपूर्विक उत्पत्ति | **५.पुरूषविचय शारीर अध्याय |
| गर्भकीपहिली अवस्था | जगत् तथा पुरुषकी तुल्यता |
| गर्भकाआकाशात्मक अवयव | अग्निवेशका प्रश्न |
| गर्भकावाय्वात्मक अवयव | आत्रेयजीका उत्तर |
| गर्भका अग्नयात्मक अवयव | वियोगका कथन |
| गर्भकाजलात्मकअवयव | अग्निवेशका प्रश्न |
| गर्भका पृथिव्यात्मक् अवयव | प्रवृत्तिके मूलका वर्णन |
| कन्या आदिका विशेष भाव | अहकारकालक्षण |
| दौहृदलक्षण | संगलक्षण |
| गर्भनाशक भाव | संदेहका लक्षण |
| चौथेमहीनेमं गर्भके लक्षण | अभिसप्लवका लक्षण |
| पाचवें महीनेमें गर्भका लक्षण | अभ्यवपातकालक्षण |
| छठे महीनेमें गर्भका लक्षण | बिप्रत्ययका लक्षण |
| खातर महीनेमें गर्भका लक्षण | विशेषका लक्षण |
| प्रसवक समय | अनुपायका लक्षण |
| षितरक्तजन्य विकृतावयव | शुद्धसत्त्वबुद्धिकाकथन |
| दुषित शुक्रजन्य विकृतावयव | मुक्तका ल० |
| सत्त्वके अनेक भेद | अध्यायका उपसंहार |
| व्राह्मका लक्षण | |
| आर्षका लक्षण | **६. शरीरविचिय शारीर अध्याय |
| ऐन्द्रका ल० | शरीरविचयकाप्रयोजन |
| याम्यकेल० | शरीरका वर्णन |
| वारुणका ल० | धातुसात्म्यकी विधि |
| कोवेरका ल० | स्वस्थधातुसात्म्य रखनेका उपदेश |
| गाधर्वका ल० | धातुओंकी वृद्धि और द्वासकाकारण |
| व्राह्मकी उत्कृष्टता | वातुओके गुण |
| आसुरक ल० | गुरु और लघु धातुओंकावर्णन |
| राक्षसके ल० | प्रतिधातुओंकी वृद्धिका हेतु |
| पिशाच ल० | समानकी अप्राप्तिमें उपाय |
| सापेके ल० | शरीरधातुके भेद |
| प्रेतके ल० | न पूर्णवैद्यकेलक्षण |
| शाकुनके ल० | गर्भके बाहर आनेकावृत्तान्त |
| पाशवकेल० | वालककेआहारा सतान |
| मात्स्ये लक्षण | देवादिकोप निभित्त विकार |
| वानस्पत्यके लक्षण | कालकालमृत्युवर्णन |
| सत्त्वभेदोंका संक्षिप्तवर्णन | आयुक प्रमाण |
| अध्यायका उपसंहार | अध्यायका उपसंहार |
| ७.शरीर संख्या शारीराध्याय | सप्तममासमें अन्य उपचार |
| त्वचाके भेद | आठवें मासमें अन्य उपचार |
| शरीरके अंगविभाग | नवममासके गर्भकी रक्षणविधि |
| शरीरके हड्डियोंकी सख्या | सूतिकागारकी विधि |
| इन्द्रियोंके अधिष्ठान आदि | सुतिकागारका सामान |
| प्रत्यङ्गोंके नाम | प्रसवकालके चिह्न |
| अदृश्य अगोंके नाम | प्रसववेदनामें कर्त्तव्यकर्म |
| पार्थिवद्रव्योंका वर्णन | आत्रेयजीका मत |
| आप्यद्रव्योंका नाम | प्रसवकालमें औषध |
| आग्नेयद्रव्योंके नाम | प्रसवकाल मन्त्र |
| वायवीयद्रव्योंके नाम | प्रसवके उपरांत कर्म |
| आन्तीरक्ष द्रव्योंके नाम | अमरानिकालनेकी विधि |
| अध्यायका उपसहार | कुमारके कर्म |
| **८.जातिसूत्रीय शारीराध्याय | ** |
| उत्तम सतान होनेका उपाय | नाभिपाकका यत्न |
| स्त्रीपुरुषका कर्त्तव्य कर्म | जातकर्मविधि |
| स्त्रीसहवासकरनेके दिन | रक्षाविधि |
| सहवासकी विधि | प्रसूतिकाका आहदारविहार वर्णन |
| गर्भधारणके अयोग्य स्त्री | प्रसूताका रोगावस्थामें उपाय |
| स्त्रीगमनविधि | बालक होनेपर दशमदिनकी विधि |
| उत्तमपुत्र उत्पन्न करनेकी विधि | धात्रीपरीक्षा |
| उत्तमपुत्रके लिये हवने विधि | उत्तम स्तनके ल० |
| यज्ञके अन्तमें कर्म | उत्तमदूधके ल० |
| सत्तभेदका कारण | वातदूषित दुध |
| पुंसवनविधि | पित्तदषित दूध |
| गर्भस्थापन औषध | कफदूषित दूध |
| गर्भनाशक भाव | धात्रीकेखानेपीनेकी विधि |
| गर्भिणीकी उपचारविधि | दुग्धशोधक उपाय |
| गर्भिणीके उपचारमें मुख्य कर्म | दुग्धोत्पादकविधि |
| गर्भकी रक्षाविधि | शुद्धदूधवालीका कर्त्तव्य कर्म |
| आमगर्भमें पुष्पदर्शन | कुमारागारविधि |
| नागोदरगर्भके ल० | वस्त्रोमे धूपदेनेवाली औषधि |
| उक्तगर्भमें चिकित्सा | कुमारकीअन्यरक्षाविधि |
| प्रसुप्तगर्भमें चिकित्सा | वालकके खिलौने |
| उदावर्त्तरुद्वगर्भकीचिकित्सा | कुमारके रोगोंका उपचार |
| भृतगर्भका ल० | अध्यायका उपसंहार |
| भृतगर्ममें उपाय | **इति शारीरस्थानकी विषयानुक्रमाणेका |
| गर्भकी मास परत्व रक्षणविधि |
| **अथेन्द्रियस्थान | ** |
| नेत्रइन्द्रियद्वारा परीक्षा | |
| **१.वर्णस्वरीय इन्द्रियाध्याय | ** |
| आयुके प्रमाण जाननेकी रीति | नासिकाद्वारा परीक्षा |
| परीक्ष्यवस्तुओंकेभेद | त्वचाद्वारा परीक्षा |
| प्रकृतिवर्णन | **५.पूर्वरुपीय इन्द्रियाध्याय |
| विकृतिका वर्णन | भिन्न २ मृत्युकारक रोम |
| निमित्तानुरूपके लक्षण | स्वप्नके भेद |
| प्रकृतिवर्ण | |
| वैकारिकवर्ण | **६. कतमानिशरीरीय इन्द्रियाध्पाय |
| वर्णजन्य मूत्युका लक्षण हे | |
| मृत्युकेअन्य लक्षण | **७. पन्नरूपीय इन्द्रियाध्याय |
| स्वराधिकार | छायाकेभेद |
| वैकृतिकस्वरका लक्षण | पचभूतात्मक छायाका लक्षण |
| आसन्नमृत्युरोगीका लक्षण | तैजसीप्रभाका लक्षण |
| **२. पुष्पित इन्द्रियाध्याय | ** |
| पुष्पकाल० | |
| पुष्पितके ल० | **९. यस्यश्यावनिमित्तीय इन्द्रियाध्याय |
| गंधका ज्ञान | |
| रसज्ञान | |
| विरसताका ज्ञान | **१०.सद्योमरणीय इन्द्रियाध्याय |
| मयुरताका ज्ञान | |
| **३. परिमर्षणीय इन्द्रियाध्याय | ** |
| म्पर्शके लक्षण | |
| विस्तारपूर्वक स्पर्शकेलक्षण | |
| केशपरीक्षा | **१२. गोमयचुर्णीय इन्द्रियाध्याय |
| उदरपरीक्षा | |
| नखपरीक्षा | साध्यरीगीके लक्षण |
| अगुलीपरीक्षा | रोगभुक्त लक्षण |
इति इन्द्रियाध्यायकी विषयानुक्रमणिका।
———————
[TABLE]
॥ श्रीः॥
अथ चरकसंहिता।
भाषाटीकासहिता।
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प्रथम अध्याय१
मंगलाचरण।
यत्सेवया जडधियोऽपि हि तां प्रतिष्ठां
गच्छन्ति यां न विबुधा अमितप्रयासैः॥
तां वैप्रसादसुमुखीं गिरिराजकन्यां
सर्वस्य चास्य जननीं हृदि भावयामि॥१॥
अथाहीशप्रणीतायाः संहितायाः प्रसादनी॥
रामप्रसादवैद्येन भाषा वैक्रियते मया॥२॥
दोहा-
जाकी सेवा जडहु नर, लभहिं प्रतिष्टा जोय।
अतिप्रयास करि करि विबुध, पायसकैंनहिं सोय॥१॥
सो प्रसन्नमुख गिरिसुता, जो सब जगकी माय।
कारज रामप्रसादके, होवहु सदा सहाय॥२॥
चरकरचित या ग्रंथकी,भाषा लिखों बनाय।
रामप्रसादप्रसादनी, जोसबके मन भाय॥३॥
अथातो दीर्घजीवितमध्यायं व्याख्यास्याम इतिह स्माह भगवानात्रेयः॥
भगवान् आत्रेय कहने लगे कि आब हम-दीर्घजीवितीय अध्यायकी विस्तारपूर्वक कथन करतेहैं क्यो कि संसारमे धर्म, अर्थ,काम,और मोक्ष, इन चारपुरुपार्थोकी प्राप्तिके लियेही सत्पुरुषोंकी प्रवृत्ति, होतीहै इन सवपुरुषार्थोके साधनके लिये दीर्घजीवनकी, आवश्यकता है बह दीर्घजीबन अरोगिता (तंदुरुस्ती)रहनेपर होसक्तीहैअरोगिता रखनेकेलिये ही आयुर्वेदकी प्रवृत्तिंहै इसलिये अरोगिताको मुख्य रखतेहुए प्रथम दीर्घजीवितीय अध्यायकाः कथन करतेहैं॥१॥
आयुर्वेदावतरणक्रम।
दीर्घजीवितमन्विच्छन्भरद्वाजउपागमत्।
इन्द्रमुग्रतपाबुद्धाशरण्यममरेश्वरम्॥१॥
पूर्व कालमें वर्तमान समयकी समान किसीबातको जाननेके लिये सहस्रों प्राणियोंका प्राण अर्पण करनेकी आवश्यकता नहीं होतीयी। उस समय महात्मा तपस्वी अपने तप और योग बलसे भूत भविष्यत्को जानकर उसका उचित उपाय अपने तपोबलसे जानलेतेथे फिर वह कार्यजिसरीतिस सिद्ध होनेवाला हो वह प्रयत्न करलेतेथे। सो वही इसमें लिखा है कि दीर्घजीवनकी इच्छा करते हुए तपोवलशाली महात्मा भरद्वाजजी देवताओंके पति इंद्रको इस कार्यकी सिद्धिके योग्य समझकर उनके पास गये॥१॥
** ब्रह्मणाहियथाप्रोक्तमायुर्वेदंप्रजापतिः।जग्राहनिखिलेनादावश्विनौतुपुनस्ततः॥२॥अश्विभ्यांभगवाञ्छ-क्रःप्रतिपेदे हिकेवलम्। ऋषिप्रोक्तोभरद्वाजःतस्माच्छक्रमुपागमत्॥३॥**
क्योंकि पहलेपहल व्रह्यने संपूर्णरूपसे आयुर्वेद दक्षप्रजापतिके पास कथन कियाथा। फिर प्रजापतिते अश्विनीकुमारोंने क्रमपूर्वक संपूर्ण ग्रहण कियो। अश्विनीकुमारोंसेकेवल इंद्रनेही पठा इसलिये ऋषियोंके कहनेसे महार्षिभरद्वाज इंद्रके पास गये॥२॥३॥
आयुर्वेदका प्रयोजन।
** विघ्नीभूतायरोगाःप्रादुर्भूताःशरीरिणाम्। उपवातपःपाठब्रह्मचर्य्यव्रतायुषाम्॥४॥तदाभूतेष्वनुक्रोशंपुरस्कृत्य महर्षयः। समेताःपुण्यकर्म्माणः पार्श्वे हिमवतःशुभे॥५॥**
असलमें भरद्वाजका इंद्रके पास जाकर आयुर्वेदके जाननेका कारण यह था कि जब मनुष्योंके उपवास, तप, पठनपाठन, ब्रह्यचर्य, व्रत, आयु, इनके नष्ट करनेवाले अथवा यों कहिये कि इनमें विघ्न डालनेवाले रोग प्रगट हुए। तब पुण्यकर्मामहात्मा ऋषिप्राणियोंपर दया करके हिमवान् पर्वतके एकसुंदर पार्श्वमें इकट्ठे हुए॥४॥५॥
ऋषियोंका एकत्रित हो विचार करना।
** अंगिराजमदग्निश्चवसिष्ठःकश्यपो भृगुः। आत्रेयोगौतमः सांख्यःपुलस्त्योनारदोऽसितः॥६॥अगस्त्योवामदे-वश्चमार्कण्डेयाश्वलायनो। पारीक्षिद्भिक्षुरात्रेयोभरद्वाजःकपिष्ठलः॥७॥ विश्वामित्राश्वरथ्यौचभार्गवश्च्यवनोऽभिजित्।
भार्ग्यःशाण्डिल्यकौण्डिन्यौवार्क्षिर्देवलगालवौ॥८॥ साङ्कृत्योवैजवापिश्चकुशिकोबादरायणः।वडिशःशरलो-मसाचकाप्यकात्यायनावुभौ॥९॥ कांकायनकैकशेषोधौम्योमारीचिकाश्यपौ। शर्कराक्षोहिरण्याक्षोलौगाक्षिः पैंगिरेवच॥१०॥ शौनकःशाकुनेयश्चमैत्रेयो मैमतायनिः। वैखानसाबालखिल्यास्तथाचान्येमहर्षयः॥११॥**
जो ऋषि हिमालयके एकर्पाश्वमेइकट्टे हुए थे उनके नाम लिखते हैं-अंगिरा, जमदग्नि, वशिष्ठ, काश्यप, भृगु, आत्रेय, गौतम, सांख्य, पुलस्त्य, नारद, असितअगस्त्य, वामदेव, मार्कण्डेय, आश्वलायन, पारिक्षित्, भिक्षु, अत्रि, भरद्वाज कपिञ्जल, विश्वामित्र, अश्वरथ्य, भार्गव, च्यवन, अभिजित्, गर्ग, शांडिल्य,कौडिन्य,वार्क्षि,देवल, गालव, सांकृत्य, वैजवापि, कुशिक, बादरायण, वडिश, सरलोमा, काष्य, कात्यायन, कांकायन, कैकशेय, धौम्य, मरीचि, कश्यप, शर्कराक्ष, हिरण्याक्ष, लौगाक्षि, पौंगि, शौनक, शकुनेय, मैत्रेय, मैमतायनि, वैखानस, बालखिल्यतथा अन्य महर्षिलोग आनकर इकट्ठे हुए ॥६॥७॥८॥९॥१०॥ १५॥
** ब्रह्मज्ञानस्यनिधयोदमस्यनियसस्यच। तपसातेजसादीप्ताहुयमानाइवाग्नयः॥१२॥ सुखोपविष्टास्तेतत्रपुण्या-ञ्चक्रुरिमांकथाम्। धर्म्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यंमूलमुत्तमम्॥१३॥ रोगास्तस्यापहर्त्तारःश्रेयसोजीवितस्यच। प्रादुर्भूतोमनुष्याणामन्तरायोमहानयम्॥१४॥**
यह सव महात्मा ब्रह्मके जाननेमें और इद्रियोंके दमन करनेमेंतथा नियमोके पालनेमें समुद्र थे, तप और तेजके प्रभावसे हवन करनेसे प्रज्वलितअग्निके समान प्रकाशमान होरहे थे। यह सब महात्मा सुखपूर्वक बैठेहुए उस हिमालयके शिखमं यह पवित्र कथा कहने लगे–कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इनका उत्तम मूल आरोग्यता ही है अर्थात् आरोग्यता रहनेपर ही धर्मादि चतुर्विध पुरुषार्थकी प्राप्तिंहोसकती है। सो रोग (बीमारियां ) इस आरोग्यताके हरलेनेवाले हैं आरोग्यता न रहनेसे जीवन और कल्याण ( सुख ) भी नष्ट ही होजाताहै। इस लिये यह मनुष्योंके लिये महान् अंतराय ( भारी विघ्न) आन उपस्थित हुआ है॥१२॥१३॥१४॥
उपायका निश्चय।
** कःस्यात्तेषांशमोपायइत्युक्त्वाध्यानमास्थिताः। अथतेशरणं शक्रंददृशुर्ध्यानचक्षुषा॥१५॥ सवक्ष्यतिशमोपा- यंयथावदमरप्रभुः। कःसहस्राक्षभवनंगच्छेत्प्रष्टुंशचीपतिम्॥१६॥**
सो अव इन रोगोके शांत करनेका क्याउपाय करना चाहिये इसके जाननेके लिये सव ऋषियोंने ध्यान लगाया, इसके अनंतर उन ऋषियोंने इस विघ्नसे वचानेका यत्न इंद्रकेपास जानेसे प्राप्त होगा यह अपनी समाधिमें ध्यान करके जान लिया। फिर नेत्र खोलकर सव आपसमें कहने लगे कि इन रोगोंकी शांतिका ठीक २ उपाय हमको देवताओंके पति इंद्र बतलावेंगे, परंतु उन शचीपति इंद्रके भवनमें इस उपायको सीखने कौन जावेगा॥१५॥ १६॥
अहमर्थेनियुज्येयमत्रेतिप्रथमंवचः।
भरद्वाजोऽव्रवीत्तस्मादृषिभिःसनियोजितः॥१७॥
इस आन्दोलकनको सुनकर भरद्वाजजीने सवसे पहले कहा कि यह काम मुझे सौंपाजाय मैं इस कार्यको करूंगा इसलिये तव ऋषियोने इनहीको नियुक्त किया कि आप ही जाइये॥१७॥
भरद्राजका इंद्रभवनमें जाना।
** सशक्रभवनंगत्वासुरर्षिगणमध्यगम्। ददर्शवलहन्तारंदीप्यमानमिवानरम्॥१८॥ सोऽभिगम्यजयाशीर्भिर- भिनन्द्यसुरेश्वरम्। प्रोवाचभगवान्धीमानृषीणांवाक्यमुत्तमम्॥१९॥**
ऋषियोंसेबिदा होकर भरहद्वाजइन्द्रके स्थानमें ( स्वर्गमें ) पहुँचे वहां जाकर देवर्षिगणोंके मध्यमें सिहासनपर प्रदीप्तअग्निके समान तेजस्वी इन्द्रकोदेखा फिर बुद्धिमान् भगवान् भरद्वाजने इंद्रके पास जाकर आशीवादादिसे प्रसन्न कर ऋषियोंकेउत्तम वाक्योंको कथन किया॥१८॥१९॥
व्याधयोहिसमुत्पन्नाःसर्व्वप्राणिभयंकराः। तद्व्रूहिमेशसोपायं यथावदमरप्रभो॥२०॥ तस्मैप्रोवाचभगवानायुर्वेदं-शतक्रतुः। पदैरल्पैर्मतिंबुद्धाविपुलांपरमर्षये॥२१॥
कि हे देवेश! पृथ्वीमें संपूर्ण मनुष्योंको दुःख देनेवाले भयंकर रोग उत्पन्न होगयेहैं कृपा करके उन रोगोंके शांतिकारक उपायका कथनकोजिये। यह सुनकर भगवान् इन्द्रने भरद्वाजजीको विपुलबुद्धिशाली जानकर संक्षेपमें ही आयुर्वेदशास्त्रका उपदेश करदिया॥२०॥२९॥
**आयुर्वेदका स्वरूप तथा भरद्वाजका इंद्रसे उसे प्राप्तकरना। **
** हेतुलिंगौषधज्ञानंस्वस्थातुरपरायणम्। त्रिसूत्रंशाश्वतंपुण्यंवुवुधेयंपितामहः॥२२॥ सोऽनन्तपारंत्रिस्कन्धमा-युर्वेदंमहामतिः। यथावदचिरात्सर्वंबुबुधेतन्मनामुनिः॥२३॥ तेनायुरमितंलेभेभरद्वाजःसुखान्वितः। ऋषिभ्योऽन- धिकन्तञ्चशशंसाऽनवशेषयन्॥२४॥**
जिस शास्त्रमें हेतु अर्थात् रोगके उत्पन्न करनेवाला कारण और रोगबोधक चिह्न तथा औषधज्ञान होनेका भलीप्रकार वर्णन है। और आरोग्य ( तन्दुरुस्त) तथा रोगियोंको परम उपयोगी है। जिसमें वातपित्त कफ यह तीन प्रधान सूत्र हैं ऐसे इस सनातन पवित्र आयुर्वेदशास्त्रकोपहले पितामहने जाना अर्थात् इसका आविर्भाव पहले ब्रह्माके हृदयमें हुआ। सो इस अनन्तपार आयुर्वेदकी “जिसमें निवंटु, निदोन, चिकित्सा अथवा वात. पित्त, कफ, यह तीन स्कंध अर्थात् कंधे हैमहामति भरद्वाजजीने चित्त लगाकर थोडे ही कालमें संपूर्णेरूपसे जानलिया। फिर इस आयुर्वेदके प्रतापसे भरद्वाजजी दीर्घायु और सुखको प्राप्त हुए। और यह शास्त्र कमपूर्वक ऋषियोंको पडादिया॥२२॥२३॥२४॥
**भरद्वाजसे ऋषियोंका आयर्वेदका ग्रहण करना। **
** ऋषयश्चभरद्वाजाज्जगृहुस्तंप्रजाहितम्। दीर्घामायुश्चिकीर्षन्तो वेदंवर्धनमायुषः॥२५॥ महर्षयस्तेददृशुर्यथाव-ज्ज्ञानचक्षुषा॥ सामान्यञ्चविशेषञ्चगुणान्द्रत्याणिकर्म्मच॥२६॥ समवायंचतज्ज्ञात्वातन्त्रोक्तंविधिमास्थिताः। लेभिरेपरमंशर्म्मजीवितंचापिनिर्गदम्॥२७॥**
ऋषियोंने भी दीर्घायु होनेकी इच्छा करतेहुए प्रजाके हितके लिये इस आयुवर्द्धक शास्त्रको भलीभांति ग्रहण किया। फिर इस शास्त्रके ज्ञानरूपी नेत्रद्वारोऋषियोंने सामान्यतासे और अधिकतासे द्रव्योंके गुण व, स्वरूप तथा प्रयोग आदि कर्म, या वस्तिकर्म आदि कर्मको भलीप्रकार जाना । फिर इन सबके सूक्ष्म स्थूल समवायको तथा जिसप्रकार पांच भूतोंसि आरंभ हो शारीरक व द्रव्योंके सूक्ष्म अंशोंद्वारा चयापचय कोप शमन होताहैइन सवको जानकर आयुर्वेदोक्त विधिका अनुसरण करतेहुए परम-आनंद और रोगरहित जीवनको प्राप्तकिया ॥२५॥२६॥ २७॥
पुनर्वसुका छः शिष्योंकी आयुर्वेद उपदेश ।
** अथमैत्रीपरःपुण्यमायुर्वेदंपुनर्वसुः। शिष्येभ्योदत्तवान्षड्भ्यः सर्वभृतानुकम्पया॥२८॥ अभिवेशश्चभेलश्चज-तूकर्णःपराशरः। हारीतःक्षारपाणिश्चजगृहुस्तन्मुनेर्वचः॥२९॥ बुद्धेर्विशेषस्तत्रासीन्नोपदेशान्तरं मुनेः। तन्त्रप्रणे-ताप्रथममग्निवेशो यतोऽभवत्॥३०॥ अतोभेलादयश्चक्रुःस्वंस्वंतन्त्रकृतानिच। श्रावयामासुरात्रेयंसर्षिसंघंसुमे-धसः॥३१॥**
इसके अनंतर मित्रतापरायण पुनर्वसुजीने संपूर्ण प्राणियोंपर कृपा करके यह पवित्र आयुर्वेद ६ शिष्योंको पढाया और १ अग्निवेश २ भेल ३ जतूकर्ण४ पराशर ५हारीत ६ क्षारपाणी इन छहों शिष्योंने भी मानिके कहे आयुर्वेदको ग्रहण किया । यद्यपि महर्षिं आत्रेय ( पुनर्वसु ) जीके उपदेशमें कुछ भेदन था वह सबकेलिये एकसाही था परंतु इन छः शिष्योमें अग्निवेश सबमें अधिकं बुद्धिवाले थे इसलिये प्रथम तंत्र (ग्रंथ) कर्ता अग्निवेश ही हुए फिर भले आदि पांचोने भी अपने २ नामसे संहितांएं बनाकर ऋषियोंमें विराजमान आत्रेयजीकी ( अपने गुरु पुनर्वसुको) सुनाई ॥ २८॥ २५९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥
अग्निवेशादि छः संहिताओंमें ऋषियोंकी अनुमति।
** श्रुत्वासूत्रणमर्थानामृषयःपुण्यकर्म्मणाम्। यथावत्सूत्रितमितिप्रहृष्टास्तेऽनुमेनिरे॥३२॥ सर्वएवाऽस्तुवस्तां- श्चसर्वभूतहितैषिणः। सर्वभूतेष्वनुक्रोशइत्युच्चैरब्रुवन्समम्॥३३॥ तंपुण्यंशुश्रुवुः शब्दं दिविदेवर्षयः स्थिताः। सामराःपरमर्षीणांश्रुत्वामुमुदिरेपरम्॥३४॥ अहोसाध्वितिघोषश्चलोकां स्त्रीनन्ववादयत्।नभसिस्निग्धगम्भीरोहर्षाद्भूतैरुदीरितः॥३५॥ शिवोवायुर्व्ववौसर्व्वाभाभिरुन्मीलितादि-शः।निपेतुःसजलाश्चैवदिव्याःकुसुमवृष्टयः॥३६॥**
इनकी बनाईहुई संहिताओंको सुनकर संपूर्ण ऋषि प्रसन्न हुए और मनमें कहनेलगे कि बहुत अच्छे प्रकारसे सूत्नोंका क्रम रखकर ग्रंथोंकों बनायाहै, फिर संपूर्ण सृष्टिकेहितैषी वह ऋषि इनकी स्तुति करके कहनेलगे कि आपने सब प्राणियोंपर दया कीहै आपको धन्य है। ऋषियोंकी कीहुईइस पवित्र आनंदध्वनिको सुनकर स्वर्गके देवता अत्यंत प्रसन्न हुए और बहुत अच्छा हुआ २ यह प्रेमसे कहाहुआ शब्द तीनों लोकोमें उत्तम गुञ्चार कर्ता हुआ आकाशसे प्रतिशब्द देनेलगा। उस समय कल्याणकारी मंद सुगंध पवित्र वायु चलनेलगा और सब दिशा प्रकाशमय हो शोभा देनेलगीं देवलोकसे जलसे भीगेहुए सुगंधित दिव्यपुष्पोकी वृष्टि होनेलगी॥ ३२॥३३॥३४॥३५॥३६॥
** अथाग्निवेशप्रमुखान्विविशुर्ज्ञानदेवताः। बुद्धिःसिद्धिःस्मृतिर्मेधाधृतिःकीर्त्तिःक्षमादयः॥३७॥ तानिचानुमता-न्येषांतन्त्राणिपरमर्षिभिः। भावायभूतसङ्गानां प्रतिष्ठांभुविलेभिरे॥३८॥**
इसके अनेतर इस पुण्य कर्मके फलसे अग्निवेश आदि छहोंग्रंथकर्ताओके शारीरमे बुद्धि, सिद्धि स्मृति, मेधा, धृति, कीर्ति, क्षमा, दया, यहज्ञानदेवता प्रविष्ट हुए अर्थात् यह सव उत्तम गुण उनमे निवास करनेलगे। और ऋषियांसे सम्मान पाएहुए इनके ग्रंथ संपूर्ण मनुष्योंके कल्याणकारक होतेहुए पृथिवीमें प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए॥३७॥३८॥
आयुर्वेदका लक्षण।
हिताहितंसुखंदुःखमायुस्तस्याहिताहितम्।
मानञ्चतच्चयत्रोक्तमायुर्व्वेदःसउच्यते ॥ ३९ ॥
अब प्रथम आयुर्वेद शब्दकी निरुक्ति कहतेहैं। जिस शास्त्रमें आयुके हित( अच्छी) व्यवस्था, अहित ( खराब ) अवस्था, सुखयुक्त अवस्था, दुःखयुक्त अवस्था आयु और आयुका हित, अहित, तथा आयुका परिमाण कथन कियाहुआ हों या यों किये जिसके द्वाग यह सब जानाजाय उसको आयुर्वेद करतें॥३९॥
आयुके नाम।
शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगोधारिजीवितमत्।
नित्यगश्चानुवन्धश्च पर्य्यायैरायुरुच्यते॥४०॥
शरीर, इंद्रियें, मन, आत्मा, इनके संयोगको आयु कहतेहैं।उसीको धारी,जीवित, नित्यग, और अनुवंध भी कहतेहैं यह आयुके पर्यायवाचक शब्द हैं॥४०॥
आयर्वेदका महत्त्व।
तस्यायुषःपुण्यतमोविदोवेदविदांमतः।
वक्ष्यतेयन्मनुष्याणांलोकयोरुभयोर्हितः॥४१॥
वेदकेजाननेवालोंने उस आयुके वेदकोअर्थात् इस आयुर्वेद ( वैद्यक) शास्त्रको परमोत्तम मानाहै, यह मनुष्योंके लिये इस लोकमें और परलोकमें परमहितकारी है। सो उसीका यहां वर्णन करतेहैं॥४१॥
वृद्धिह्रासके कारण व सामान्य और विशेषके लक्षण।
सर्व्वदासर्व्वभावानांसामान्यंवृद्धिकारणम्।
ह्रासहेतुर्विशेषश्चप्रवृत्तिरुभयस्यतु॥४२॥
सामान्यमेकत्वकरंविशेषस्तुपृथक्त्वकृत्।
तुल्यार्थताहिसामान्यंविशेषस्तुविपर्य्ययः॥४३॥
द्रव्य गुण कर्मा की समानता उनकी वृद्धि करनेमेंकारण होतीहैजैसे चिकने पदार्थके सेवनसे उसीके समान चिकने स्वभाववाली मेदकी वृद्धि होती है। और शोकातुर अवस्थामें शोकयुक्त वात सुननेसे शोकवृद्धि होती है सर्दीकि मौसममें उसीके स्वभाववाली शीतल पवन चलनेसे शीतकी वृद्धि होती है। आठ घटोंमे समान गुणवाले दो घट और मिलादेनेसे घटोंकी संख्यामें वृद्धि होती है, वातप्रकृतिवालेकी वातकारक समानगुणवाले पदार्थसे वातवृद्धि होती है। इसी प्रकार द्रव्यादिकोंकी असमानता घटानेका कारण है, जैसे भेदसे असमान गुणवाला रुक्षपदार्थ मेदको घटाने (ह्रास) का कारण होताहै। शोकातुर चित्तमें आनंददायक वातके आनेसे शोक कम हीताहै इस प्रकार द्रव्य गुण कर्मोकी समानतासेप्रवृत्तिवृद्धि और असमानतासे प्रवृत्तिहासका कारण होती है। यहां सामान्यका अर्थ एकत्व करनेवाला जानना। और विशेषका अर्थ अलग२ करनेवाला जानना। तुल्यार्थता जैसेमेदमेंस्नेह तुल्य अर्थकरताहै उसको सामान्य करते और विपर्यय अर्थात् उलटे अर्थके करनेवालेको विशेष कहते हैं॥ ४२॥४३॥
आयुर्वेदका अधिकार।
** सत्त्वमात्माशरीरञ्चत्रयमेतत्त्रिदण्डवत्। लोकस्तिष्ठतिसंयोगात्तत्रसर्व्वंप्रतिष्ठितम्॥४४॥ सपुमांश्चेतनंतच्च- तच्चाधिकरणं स्मृतम्। वेदस्यास्यतदर्थहिविदोऽयंसम्प्रकाशितः॥४५॥**
मनशरीर आत्मा इन तीनोंका तीनदंडोंकी समान परस्पर संबंध है इन तीनोंके संबंधको वैद्यक शास्त्रमें पुरुष कहाजाताहै और संपूर्ण संसार इन तीनेंकेसंवंधसे है। इस वैद्यक शास्त्रमेंइन तीनोंके संबंधरूप पुरुषको ही पुमान्, चेतन और आयुर्वेदका अधिकरण मानते हैं। और इस पुरुषके लिये ही इस आयुर्वेदका प्रकाश ‘कियागयांहै॥ ४४॥ ४५॥
द्विविध द्रव्य।
खादीन्यात्मामनःकालोदिशश्चद्रव्यसंग्रहः।
सेन्द्रियंचेतनंद्रव्यंनिरिन्द्रियमचेतनम्॥४६॥
आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, आत्मा, मन, काल, दिशा, इन सबको द्रव्य कहते हैं। इनमें भी इंद्रियवालोंको चेतन और इंद्रियरहितकोअचेतन कहतेहैं। मनुष्य पशु पक्षी आदि इंद्रियवालोंको चेतन और वृक्षादि जड़ पदार्थोंको अचेतन कहते हैं॥ ४६॥
गुण कर्म।
सार्थागुर्वादयोबुद्धिःप्रयत्नान्ताःपरादयः।
गुणाःप्रोक्ताःप्रयत्नादिकर्म्मतेष्विदमुच्यते॥४७॥
शब्द, स्पर्श, गंध, रस, रूप, ( यह अर्थ अर्थात् इंद्रियोंके विषय कहेजातेहैं) और गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मंद, तीक्ष्ण, स्थिर, सर, मृदु, कठिन, विशद, पिच्छल, खर,मसृण, स्थूल, सूक्ष्म, सांद्र, द्रव यह बीस द्रव्यके गुण हैं। बुद्धि, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, प्रयत्न, पर, अपर, युक्ति, संख्या, संयोग, विभाग, पृथक्त्व, परिमाण, संस्कार, अभ्यास यह सब गुण कहाते हैं और प्रयत्न चेष्टा आदि कर्म कहे जाते हैं॥४७॥
**समवाय। **
समवायोऽपृथग्भावोद्रव्यादीनांगुणैर्मतः।
सनित्योयत्रहिद्रव्यंनतत्रानियतागुणाः॥४८॥
द्रव्यऔर उनके गुण आपसमें अलग नहीं होते द्रव्य और गुणका नित्य संबंध है उस नित्य संबंधको समवाय संबंध कहते हैंजहां द्रव्य रहते हैं उनमें गुणभी नियत रहते है॥४८॥
समवायिकारण।
यत्राश्रिताःकर्मगुणाःकारणंसमवायियत्।
तद्द्रव्यंसमवायी तु निश्चेष्टःकारणंगुणः॥४९॥
जिसमें गुण कर्म मिलेहुए रहते हों और जो गुण कर्मका समवायि हो उसको द्रव्य कहते हैं । जो द्रव्यमें समवाय और व्यापार रहित हुआ कारण हो उसको गुण कहत है॥४९॥
कर्मलक्षण।
संयागेचवियोगेचकारणंद्रव्यमाश्रितम्।
कर्त्तव्यस्यक्रियाकर्मकर्मनान्यदपेक्षते॥५०॥
जो द्वव्यके संयोग और वियोगमें कारण हैं और द्रव्यके आश्रय हैं उनको कर्म कहतेंहैंकतर्व्यकी जो क्रिया है उसीको कर्म कहतेहैं इसके सिवाय कर्म किसी औरका नाम नहीं, यद्यपि वैद्यतशास्त्रमें कर्म शब्दसे वमन विरेचन आरै लियेजातेहैंऔर यहां अन्य प्रकरण है परंतु इस जगह सामान्यतासे कर्मशब्दका अर्थ कियाहै। तात्पर्ययह है,जो करते समय उस कर्तव्यकी अपेक्षासे क्रिया आरंभ कीजातीहैउसको कर्म कहतेहैं यह लक्षण वैद्यकोपयोगी पंचकर्म आदिमेंभी घटसकताहै परन्तु वैद्यकर्म कर्मशब्दकी शक्ति अनेक स्थलोमें पंचकर्मसे ही संबंध रखतीहै॥५०॥
वैद्यकका प्रयोजन।
इत्युक्तंकारणंकार्यंधातुसाम्यमिहोच्यते।
धातुसाम्यक्रियाचोक्तातन्त्रस्यास्यप्रयोजनम्॥५१॥
इसप्रकार यहां पर सामान्यतासे कार्यकारणका कथन करदिया अव रस रक्त अदि धातुओंकी साम्थावस्था और उनकी साम्यावस्थामें रखनेका क्रम कहाजायगा क्योंकि इस शास्त्रका प्रयोजन ही धातुओंकी साम्यता ( आरोग्यता ) का है॥५१॥
व्याधियोंके हेतु और आश्रय।
कालबुद्धीन्द्रियार्थानांयोगोमिथ्यानचातिच।
द्वयाश्रयाणांव्याधीनांत्रिविधोहेतुसंग्रहः॥५२॥
शरीरसत्त्वसंज्ञंचव्याधीनामाश्रयोमतः।
तथासुखानांयोगस्तुसुखानांकारणंशमः॥५३॥
काल, बुद्धि, इंद्रिय, विषय इनका मिथ्या योग अयोग औरअतियोग यह तीन प्रकारका व्यापार होना ही शारीरक तथा मानसिक व्याधियोंका कारण है। शरीर औरमन यह दोनों ही रोगोंके अधिष्ठान हैं अर्थात् रोग शरीरमेंऔर मनमें ही होतेहैं। और काल, बुद्धि, इंद्रियोंके विषय, इनका उचित योग रहनेसे रोग न होकर सुख प्राप्त होताहै॥५२॥५३॥
आत्माका लक्षण।
निर्विकारःपरस्त्वात्मास्त्वभूतगुणेन्द्रियैः।
चेतनेकारणंनित्योद्रष्टापश्यतिहिक्रियाः॥५४॥
आत्मा निर्विकार है, पर है औरमन, भूतगण और इंद्रियें इनके चैतन्यमेंकारण है, नित्य है, द्रष्टा है, सव क्रियाओको देखताहै॥५४॥
रोगोंके कारण।
वायुःपित्तंकफश्चोक्तःशारीरोदोषसंग्रहः।
मानसःपुनरुद्दिष्टोरजश्चतमएवच॥५५॥
वात्त, पित्त, कफ, यह तीन शारीरक दोष हैं। रजोगुण औरतमोगुण मानसिक दोष है । अर्थात् वात, पित्त, कफ यह बिगडकर शरीरमें रोग करतेहैं और रज, तम,मनमें रोगकरनेवाले हैं॥५५॥
दोषोंका प्रशमन।
प्रशाम्यत्यौषधैःपूर्वोद्रव्ययुक्तिव्यपाश्रयैः।
मानसोज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभिः॥५६॥
शारीरक रोग द्रव्योंकी युक्तियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले औषधों द्वारा शांत होतेहैं॥ और मानासिक रोग ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, समाधि आदिसे शांत होतेहैं॥५६॥
वायुके गुण और शमनका उपाय।
रुक्षःशीतोलघुःसूक्ष्मश्चलोऽथविषदःखरः।
विपरीतगुणैर्द्रव्यैर्मारुतःसंप्रशाम्यति॥५७॥
तीनों दोषोंमेंप्रथम वायुका स्वभाव लिखतेहैं। वायु रुक्षं, शीतल, लघु, सूक्ष्म, चंचल, विशद, खर, होताहै। इसके विपरीत स्रिग्धे, उष्ण, आदि गुणोंवालेद्रव्योंसे शांतिको प्राप्त होताहै॥५७॥
पित्तके गुण और शमनोपाय।
सस्नेहमुष्णंतीक्ष्णंचद्रवमम्लंसरंकटु।
विपरीतगुणैःपित्तंद्रव्यैराशुप्रशाम्यति॥५८॥
पित्त-स्नेहयुक्त, उष्ण, तीक्ष्णः पतला, खट्टा, सारक और कटुस्वभाववाला है। अपनेसे विपरीत रुक्ष, शीतादिगुणवाले द्वव्योंसे शांत होताहै॥५८॥
कफके गुण और शमन उपाय।
गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः।
श्लेष्मणःप्रशमंयान्तिविपरीतगुणैर्गुणाः॥५९॥
कफ भारी, शीतल, मृदु, चिकना, मधुर, स्थिर, पिच्छिलस्वभाववाला है और अपनेसे विपरीत हलके, उष्ण, चरपरे, रूक्ष गुणोंवाले द्वव्योंसे शांत होताहै॥५९॥
चिकित्साका साधारण निर्देश।
विपरीतगैर्देशमात्राकालोपपादितैः।
भेषजैर्विनिवर्त्तन्तेविकाराःसाधुसंमताः॥६०॥
साधनंनत्वसाध्यानांव्याधीनामुपदिश्यते।
भूयश्चातोयथाद्रव्यंगुणकर्मप्रवक्ष्यते॥६१॥
कारण और कारणसे उत्पन्नहुई व्याधिसे विपरीत गुणवाले द्रव्योंको देश काल और मात्रा विचारकर उपयोग करनेसे साध्य व्याधियोंकी शांति होतीहै। परंतु जो संपूर्ण लक्षणोंसे असाध्य रोग हैं उनकी शांति नहीं होती। फिर भी द्रव्योमें गुण तथा कर्मको कथन करतेहैं॥६०॥६१॥
रसस्वरूपनिदर्शन।
रसनार्थीरसस्तस्यद्रव्यमापःक्षितिस्तथा।
निवृत्तौचविशेषेचप्रत्ययाःखादयस्त्रयः॥६२॥
रसका स्वाद जीमद्वारा होताहै क्योकि रस, रसना ( जीम ) इंद्रियका विषय है। उस रसका कारण पृथ्वी और जल ही मानेगयेहैं। वैसे तो उस रसमें कमी ओर अधिकता पहुंचानेमें आकाश, अग्नि,वायु, इन तीनोंकों भी कारण मानाहै॥६२॥
रसोंकी संख्या और नाम।
स्वादुरम्लोऽथलवणोकटुकस्तिक्तएवच।
कषायश्चेतिषट्कोऽयंरसानांसंग्रहःस्मृतः॥६३॥
मीठा, खट्टा, नमकीन, चर्परा, कड्डवा, कषेला. यह छः रस हैं ॥६३॥
रसोंका कार्य।
स्वाद्वम्ललवणावायुंकषायस्वादुतिक्तकाः।
जयन्तिपित्तंश्लेष्माणकषायकटुतिक्तकाः॥६४॥
इनमें मीठा, खट्टा, नमकीन, यह तीन रस वायुकों शांत करतेहैं। कषैला, मीठा, कंडुवा, यह तीन रस पित्तको शांत करतेहैं। कषैला, चर्परा, कडुवा, यह तीन कफको शांतकरतेहैं ॥६४॥
द्रव्यके तीन प्रकार।
किञ्चिद्दोषप्रशनंकिञ्चिद्धातुप्रदूषणम्।
स्वस्थवृत्तौहितंकिञ्चिद्द्रव्यंत्रिविधमुच्यते॥६५॥
कोई द्रव्य दोषोंकों शमन करनेवालाहोताहै कोई द्रव्य ऐसे हैं जो रस रक्त आदि धातुओंको दूषित करते। कोई ऐसे हैं जो स्वस्थ अवस्थाकी रक्षा रखतेंहैं। इसप्रकार द्रव्य तीन प्रकारके होतेहैं ॥६५॥
जाङ्गमादिभेदसे फिर तीनप्रकार।
तत्पुनस्त्रिविधंज्ञेयंजाङ्गमौद्भिदपार्थिवम्॥६६॥
फिर वह द्रव्य जंगम, औद्भिद, पार्थिव, इन भेदोंसे तीन प्रकारके हैं॥६६॥
जाङ्गमवर्णन।
** मधूनिगोरसाःपित्तंबसामज्जासृगामिषम्। विष्मूत्रचर्मरेतोऽस्थिस्त्रायुरङ्गंखरानखाः। जङ्गमेभ्यःप्रयुज्यन्तेके-शालोमानिः रोचना;॥६७॥**
उनमें–शहद, दूध, पित्त चरवी, मज्जा, रक्त, मांस, मल, मूत्र, चर्म वीर्य, हड्डियां, स्नायु, सींग, नख, खुर, केश, लोम, रोचन यह जंगम द्रव्य मानेजातिहैं॥६७॥
पार्थिवद्रव्यवर्णन।
** सुवर्णंसमलाःपञ्चलोहाःससिकतासुधा। मनःशिलालेमणयोलवणंगैरिकाञ्चने॥६८॥ भौममौषधमुद्दिष्टमो-द्भिदन्तुचतुर्विधम्।वनस्पतिर्वीरुधश्चवानस्पत्यस्तथौषाधिः॥६९॥फलैर्वनस्पतिःपुष्पैर्वानस्पत्यःफलैरपि। ओषध्यःफलपाकान्ताः प्रतानैर्वीरुधःस्मृताः॥७०॥**
सोना, चाँदी, तॉवा, शीशा, रांगा, लोहा और इनके मल, सिकता, ( वालू ) चुना, मनसिल, हरिताल, हीरा आदि मणियें, लवण,अंजन, गेरू, यह सवपार्थिव द्रव्य कहेहैं। औद्भिद द्रव्य ४ प्रकारक हैं जैसे-वनस्पति, वीरुध, वानस्पत्य, ओषधौ इनमें जिनमें केवल फल ही लगें उनको वनस्पति कहते हैं जिनमें फूल फल दोनोंलगें उनको वानस्पत्य कहते हैं। जो फल पकने पर सूखजावें उनको ओषधी कहते हैं । जो कैलती हैं उनको वीरुध ( वेल ) कहते हैं ॥६८॥६९॥७०॥
औद्भिज और मूलिनी वर्णन।
** मूलत्वक्सारनियोसनाडस्वरसपल्लवाोः। क्षाराःक्षीरंफलंपुष्पंभस्मतैलानिकण्टकाः॥७१॥ पत्राणिशुङ्गाक-न्दाश्चप्ररोहाश्चौद्भिदोगणः। मूलिन्यःषोडशैकोनाःफलिन्योविपरी1तकाः॥७२॥**
जड,त्वचा, सार, गोंद, नाडी, रस, कोपल, खार, दूध, फल, पुष्प, भस्म, तेल, कांटे, पत्र, शुंग, कंद, अंकुर, यह सव औद्भिदद्रव्योंके ग्रहण किये जाते हैं। इनमें सोलह १६ प्रकारकी औषधियोंकी जड ही लीजाती हैं। उन्नीस प्रकारकी फलप्रधान मानीजाती हैं । बाकी सबके फल फूल मूल त्वक रस आदि उपयोगमें आते हैं॥७१॥७२॥
महास्नेहादिवर्णन।
** महास्नेहाश्चचत्वारःपंचैवलवणानिच। अष्टौमूत्राणिसंख्यातान्याष्टावेवपयांसिच॥७३॥ शोधनार्थाश्चषड्वृक्षाः-पुनर्वसुनिदर्शिंताः।यएतान्वेत्तिसंयोक्तुंविकारेषुसवेदवित्॥७४॥**
चार महास्नेह। पांच लवण। आठ मूत्र और आठ प्रकारकेही दूध कहे हैं। और वमन विरेचन आदिसंशोधन कार्यके लिये पनर्वसुजीने ६ प्रकारके वृक्ष कहे हैं जो इन सबका विकारोंमें, विधिवत् उपयोग करना जानताहैवह आयुर्वेदका जाननेवाला मानाजातादहै ॥७३॥७४॥
छर्दनीय द्रव्य-तथा शिरके विरेचक।
** हस्तिदन्तीहैमवतीश्यामात्रिवृदधोगुडा।सप्तलाश्वेतनामाचप्रत्यक्श्रेणीगवाक्ष्यपि॥७५॥ ज्योतिष्मतीचबि-म्बीचशणपुष्पीविषाणिका। अजगन्धाद्रवन्तीचक्षीरिणीचात्रषोडशी॥७६॥ शणपृष्पीचबिम्बीचछर्दनेहैमव-त्यपि। श्वेताज्योतिष्मतीचैवयोज्याशीर्षविरेचने॥७७॥ एकादशावशिष्टायाःप्रयोज्यास्ताविरेचने। इत्युक्तानाम-कर्मभ्यांमूलिन्यः फलिनीःशृणु ॥७८॥**
अब ऋमसे ऊपर कहेहुए द्रव्योंका वर्णन करते हैं। नागदंती, बच, काली निशोथ, लाल निशोथ, विधायरा, सातला, सफेद अपराजिता वा सफेद बच, दंती, इंद्रायण, मालकांगुनी, कंटूरी, शणपुष्पी, घंटाखा ( छुनछुना ) विषाणिका (मेजसिंगी या आंवर्तकी ) अजगंधा, द्रवंती ( छोटी दंती ) दूधली यह १६ द्रव्य मूलप्रधान हैं अर्थात् जहां इनका कोई अंग न कहाहो तो मूल ही लेना चाहिये क्योकि इनके मूलमेंही अधिक गुण है। इनमें शणपुष्पी, कंटुरी, वच, यह तीनो वमन करानेके काममें लीजाती हैं। श्वेता और मालकांगुनी शिरोविरेचने प्रयुक्त की जाती हैं। और बाकी एकादश औषधियां विरेचन करानेमे काम आती हैं। यह तो १६ मूलप्रधान कहीं अब फलप्रधानोंकी सुनो॥७५॥७६॥७७॥७८॥
वमन और आस्थापन करनेवाले फल।
** शंखिन्यथविडङ्गानित्रपुषंमदनानिच। आनूपं स्थल जंचैवक्लीतकंद्विविधंस्पृतण्॥७९॥ प्रक्रीर्य्पाचोदकी-र्य्पाच प्रत्यक्पुष्पीतथाभया। अन्तःकोटरपुष्पीचहस्तिपर्ण्याश्चशारदम्॥८०॥कम्पिल्लकारग्वधयोःफलंयत्कुट-जस्यच। धामार्गवमथेक्ष्वाकुजीमूतंकृतवेधनम्॥८१॥ मदनंकुटजञ्चैवत्रपुषंहस्तिर्पणिनी। एतानिवमनेचैवयोज्यान्यास्थापनेषु च॥८२॥ दशयान्यवशिष्टानितान्युक्तानिविरेचने। नामक- र्म्मभिरुक्तानिफलान्येकोनविंशतिः॥८३॥**
शंखपुप्पी, बायविडंग, त्रपुष( खीरा ), मैनफल, अनूपज और जलज, मुलहठी, धामार्गव ( अपामार्गया कटुतुम्बी ), इक्ष्वाकु ( कडुई तोरई ), जीमूत और कृतवेधन (यह दोनों भी तोरईके भेद हैं ) कंजा, लताकरंज, चिरचिटा, हरड, अंतःकोटरपुष्पी, ( नीलिनी ) हस्तिपर्णीकेफल, (मोरट या लाल एरंडका फल ), कमीला, अमलतास, और इंद्रजो यह उन्नीस फलप्रधान हैं।इनमेंसे कडुई तोरई, कडुईघीया, कडुई तुंवी, कृत वेधन ( यह भी तोरईका ही भेद है) मैनफल, इंद्रजौ, खीरा, हस्तिपर्णी, यह नव द्रव्य वमन और आस्थापनमें काम आते हैं। प्रत्यक्पुष्पी ( चिरचिरा ) नस्य और वमनमें प्रयुक्त कीजाती है। वाकी दशफलप्रधान द्रव्य विरेचनमें प्रयुक्त किये जाते हैं। इस प्रकार फलप्रधान १९ औषधियोंके नाम और कर्मको कथन किया है॥७९॥८०॥८१॥८२॥८३॥
चारप्रकारके स्नेह।
** सर्पिस्तैलंवसामज्जास्नेहोदृष्टश्चतुर्विधः। पानाभ्यञ्जनवस्त्यर्थंनस्यार्थंचैवयोगतः॥८४॥ स्नेहनाजीवनावल्याव-र्णोपचयवर्धनाः। स्नेहाह्येतेषुविहितावातपित्तकफापहाः॥८५॥**
घी, तेल, चरवी, मज्जा, यह चार प्रकारके स्नेह देखनेमें आते हैं। यह प्रायः पीनेमें मालिश करनेमें, वस्तिकर्ममें, और नस्यमें प्रयुक्त कियेजाते हैं। यह चतुर्विध स्नेह, स्नेहन,जीवन, वर्णकारक और वलवर्धक हैं तथा वात, पित्त, कफ, इन तीनो दोपोंकों दूर करते हैं ॥८४॥८५॥
लवणपंचक।
** सौवर्चलंसैन्धवञ्चविडमौद्भिदमेवच। सामुद्रेणसहैतानिपञ्चस्युर्लवणानिच॥८६॥ स्निग्धान्युष्णानितीक्ष्णानि- दीपनीयतमानिच। आलेपनार्थेयुज्यन्तेस्नेहस्वेदविधौतथा॥८७॥ अधोभागोर्द्धभागेषुनिरूहेष्वनुवासने।अभ्य-ञ्जनेभोजनार्थे शिरसश्चविरेचने॥८८॥ शस्त्रकर्म्मणिवस्त्यर्थमञ्जनोच्छादनेषुच। अजीर्णानाहयोर्वातेगुल्मेशूले-तथोदरे॥८९॥**
संचर,सेंधा, विड, उद्भिद् (खारी ), सामुद्र यह पांच प्रकारके नमक होतेहैं, यह चिकने, गर्म, तीक्ष्ण, अत्यंत क्षुधावर्द्धक होते हैं और लेप, स्नेह,स्वेदआदि कर्ममें शरीरके नीचे ऊपरके भागोंमें प्रयुक्त कियेजाते हैं तथा निरूहण, अनुवासन, अभ्यंग, भोजन, शिरोविरेचन, शस्त्रकर्म, वर्ती, अंजन, उत्सादन, अजीर्ण, अफरा, बादी, गोला, शूल,और उदररोग इनमें इनका प्रयोग किया जाता है ॥ ८९ ॥
मूत्राष्टकतथा उपयोग।
** उक्तानिलवणान्यूर्द्धंमूत्राण्यष्टौनिवोधमे। मुख्यानियानिह्यष्टानिसर्वाण्यात्रेयशासने॥९०॥**
ऊपर सब लवणोका कथन करचुके हैं अब आठ प्रकारकेमूत्रोका वर्णन सुनो, जो आठ प्रकारके प्रधान हैं ॥९०॥
** आविमूत्रमजामूत्रंगोमृत्रमाहिषंतथा। हस्तिमूत्रमथोष्ट्रस्यहयस्यचखरस्यच॥९१॥ उष्णन्तीक्षणमथोस्निग्धंक-टुकंलवणान्वितम्। मृत्रमुत्सादनेयुक्तं युक्तमारेपनेषुच॥९२॥ युक्तमास्थापनेयुक्तंमूत्रञ्चापिविरेचने। स्वेदेष्व- पिचतद्युक्तमानाहेषुगदेषुच॥९३॥ उदरेष्वथचार्शस्सुगुल्मकुष्ठकिलासिषु। तद्युक्तमुपनाहेषुपरिषकेतथैवच ॥९४॥ दीपनीयंविषघ्नंचक्रिमिघ्नंचोपदिश्यते। पांडुरोगोपसृष्टानामुत्तमंशर्मचोच्यते॥९५॥ श्लेष्माणंशमयेत्पीतं-मारुतञ्चानुलोमयेत्। कर्षेत्पित्तमधोभागमित्यस्मिन्गुणसंग्रहः॥९६॥ सामान्येनमयोक्तंतुपृथक्त्वेनप्रवक्ष्यते ॥ ९७ ॥**
भेडका मूत्र, वकरीका मूत्र, गोमूत्र, भैंसका मृत्र, हथिनीका मूत्र, ऊंटनीका मूत्र, घोडेका मूत्र, गधेका मूत्र, यह आठ मूत्र हैं। यह-गर्म, तीक्ष्ण, चिकने, कटु, और नमकीन हैं। इन मूत्रोंका उत्सादन,लेप,आास्थापन, विरेचन, स्वेदन, अफारा, उदररोग, अर्श, गुल्म, कुष्ठ, किलास, उपनाह ( पुलटिस), परिषेक, इनमें प्रयोग किया जाताहैं। तथा अग्निको दीपन करताहै और विष तथा कृमियोंको नष्ट करताहै। इन मूत्रोका प्रयोग सब किसमके पाण्डुरोगोंमेंपरम उत्तम मानाहै। इनके पीनेसे कफ शान्तहोता है। वायुका अनुलोमन होताहै और बढाहुआ पित्त नीचे गमन कर निकल जाता है। यह सामान्यतासे मूत्रोंके लक्षण कथन किये हैं। अब विशेषतासे श्रवण करो॥९१॥९२॥९३॥९४॥९५॥९६॥९७॥
मेषादिमूत्रके गुण।
** अविमूत्रंसतित्तंस्यात् स्निग्धंपित्ताविरोधिच॥आजंकषायमधुरं पथ्यंदोषान्निहन्तिच। गव्यंसमधुरंकिञ्चिदोष-प्तंक्रिमिकुष्ठनुत्॥९८॥ कण्डूलंशमयेत्पीतंसम्यग्दोषोदरेहितम्। अर्शःशोफोदरनन्तुलक्षारंमाहिषंसरम्॥९९॥ हस्तिकंलवणंसूत्रं हितन्तुक्रिमिकुष्टिनाम्। प्रशस्तंबद्धविण्सूत्रविषश्लेष्मामयार्शसाम॥१००॥ सतिक्तंश्वास-कासनमशघ्नं चौष्ट्रमुच्यते। वाजिनांतिक्तकटु कंकुष्ठव्रणविषापहम्॥१०१॥खरमूत्रमपस्मारोन्मादग्रहविना- शनम्। इतीहोक्तानिमूत्राणियथासामर्थ्ययोगतः॥१०२॥**
भेडका मूत्र—कडुआ, चिकना, गर्म तथा पित्तको कुपित नहीं करनेवाला होता है। बकरीका मूत्रकपैला, मीठा, पथ्य, और त्रिदोषनाशक है। गोमूत्र, कपैला, मीठा, कुछ कुछ दोषोंको नष्टकरनेवाला, कृमि तथा कुष्ठको नष्ट कर्ता, खाजनाशक, और पाया हुआ उदरके सव विकारोंको शांत करता है। भैंसका मूत्रअर्श, शोथ और उदररोगोंको नष्ट करता है तथा खारा और दस्तावर है। हस्तीका मूत्रनमकीन है और कृमि, कुष्ठ और मल मूत्रके अवरोधको नष्ट करता है, तथा विपविकार, कफ और अर्शवालोंको हित है। ऊंटका मूत्र कटुतायुक्त,श्वासकासनाशक, और अर्शजित् है। घोडेका मूत्रकडवा है, चर्परा है, और कुष्ठ, घाव विप, इनको नष्ट करता है। गधेका मूत्ररगी, उन्माद, ग्रहदोष, इनको नष्ट करता है। इसप्रकार क्रमपूर्वक सूत्रोंके गुण कथन करदिये हैं॥ ९८॥ ९९॥ १००॥ १०१॥ १०२॥
भेडी बकरी गाय अदिके दूधोंका वर्णन।
** अतःक्षीराणिवक्ष्यन्ते कर्मचैषांगुणाश्चये। अविक्षीरमजाक्षीरंगोक्षीरंमाहिषंचयत्॥१०३॥उष्ट्रीणामथनागीनांवडवायाः स्त्रियास्तथा। प्रायशोमधुरंस्निग्धंशीतस्तन्यं पयः स्मृतम्॥१०४॥प्रीणनंबृंहणंवृष्यंमेध्यंबल्यंमनस्करम् जीवनीयंश्रमहरंश्वासकासनिबर्हणम्॥१०५॥ हन्तिशोणितपित्तञ्चसन्धानं-विहृतस्यच। सर्वप्राणभृतांसात्म्यंशमनंशोधनंतथा॥१०६॥ तृष्णाघ्नंदीपनीयंच्वश्रेष्ठंक्षीणक्षतेषुच। पाण्डुरोगेऽम्ल-पित्तेचशोषेगुल्मेतथोदरे॥१०७॥ अतीसारज्वरेदाहेश्वयथौचविधीयते॥ योनिशुक्रप्रदोषेषुमूत्रेष्वप्रसरेषुच॥१०८॥ पुरीषेग्रथितेपथ्यं वातपित्तविकारिणाम्। नस्यालेपावगाहेषुवमनास्थापनेषुच॥१०९॥ विरेचनेस्नेहनेच-पयःसर्वत्रयुज्यते। यथाक्रमंक्षीरगुणानेकैकस्यपृथक्पृथक्॥११०॥ अन्नपानादिकेऽध्यायेभूयो वक्ष्याम्यशेषतः॥१११॥**
अब दूधोंका और उनके गुण कर्म का कथन करते हैं। भेड, बकरी, गौ, भैंस ऊँटनी, हथनी, घोडी, स्त्री, इन आठोंके दूधमीठे, चिकने, शीतल, स्तनोमें दूध बढानेवाले, पालनकर्ता, मांसवर्द्धक, वीर्यजनक, बुद्धि, बल, मनको ताकत देनेवाले, जीवनकर्ता, श्रमहर्ता, श्वासकासनाशक, रक्तपित्तके हरनेवाले, संधानकर्ता (टूटे स्थानको जोडनेवाले), संपूर्ण प्राणियोंको सात्म्य, दोषोंको शमन और शोधन करनेवाले, तृषानाशक, दीपनीय हैं और क्षतक्षीणमें अत्यंत पथ्य हैं तथा पाण्डुरोग, अम्लपित्त, शोष, गुल्म, उदररोग, अतिसार, ज्वर, दाह, सूजन, योनिदोष, शुक्रदोष, मूत्ररोग, मलकी गांठसी बंधना, इनमें पथ्य हैं और वात पित्तके रोगियोको हितकर्ता हैं, इनका प्रयोग नस्य, लेप, अवगाहन, वमन, आस्थापन, विरेचन, स्नेहन इन कर्मोंमें किया जाता है। इसप्रकार सामान्यतासे दूधोंके गुणोंका वर्णन करदिया है। आगे अन्नपानादिवर्णनाध्याय में सबके गुणोका अलग २ वर्णन कियाजायगा॥ १०३-१११॥
बहेडा और थूहरके दूधके गुण।
** अथापरेत्रयोवृक्षाः पृथग्येफलमूलिभिः। स्नुह्यर्काश्मन्तकास्तेषामिदंकर्म्मपृथक्पृथक्॥ वमनेऽश्मन्तकंविद्या-त्स्नुहीक्षीरं विरेचने॥ ११२॥**
अब फलप्रधान व मूलप्रधान वृक्षोंसे अन्य तीन वृक्षोंका वर्णन करते है।वह यह हैं—१ थोहर, २ आक, ३ अश्मंतक (कोविदार) इनमें अश्मंतक वमन कराने में, थोहरका दूध रेचन करानेमें॥११२॥
अर्कक्षीरके गुण।
** क्षीरमर्कस्यविज्ञेयंवमनेसविरेचने॥ ११३॥**
आकका दूध, विरेचन, और वमनमें प्रयुक्त किया जाता है॥११३॥
विरेचनीय वृक्ष।
** इमांस्त्रीनपरान्वृक्षानाहुर्येषांहितास्त्वचः। पूतिकः कृष्णगन्धाचतिल्लकश्चतथातरुः।विरेचनेप्रयोक्तव्यः पूतिकस्तिल्लकस्तथा॥११४॥ कृष्णगन्धापरीसर्पेशोथेष्वर्शस्सुचोच्यते। दद्रुविद्रधिगण्डेषुकुष्ठेष्वप्यलजीषुच॥ ११५॥**
जिनकी त्वचा प्रयुक्त कीजाती है इन तीन वृक्षोंका और कथन कियाहै। वह यह हैं—१ पूतिकरंज, २ सुहॉजना, ३ पठानीलोध। इनमें पूतिकरंज और लोध विरेचन कर्ममें प्रयुक्त करने चाहिये। और सुहॉजनाविसर्प, शोथ और अर्श रोगोंमें प्रयुक्त कियाजाताहै॥११४॥११५॥
षट्कार वृक्ष गुण कथन।
** षड्वृक्षाञ्शोधनानेतानपिविद्याद्विचक्षणः। इत्युक्ताःफल मूलिन्यःस्नेहाश्चलवणानिच॥११६॥**
बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि थोहर, ऑक, अश्मंतक, पूतिकरंज, सुहांजना, लोध, इन छः वृक्षोंको दद्रु, विद्रधि, गलगंड, कुष्ठ, अलजी, (अजीर्णरोगका भेद और पादरोग) और संशोधन कर्ममें प्रयुक्त करे॥११६॥
वृक्षका किसकिसप्रकारका उपयोग होता है।
** मूत्रंक्षीराणिवृक्षाश्चषड्येदृष्टाः पयस्त्वचः॥११७॥**
इसप्रकार १९ फलप्रधान द्रव्य १६ मूलप्रधान, ४ स्नेह, ५ लवण, ८ मूत्र, ८ दूध, और जिनके दूध व त्वचाका वर्णन किया है वह ६ वृक्ष इन सबका वर्णन किया जा चुकाहै॥११७॥
गडरिये आदियोंसे औषधिका ज्ञान।
औषधीर्नामरूपाभ्यांजानतेह्यजपावने।
अविपाश्चैवगोपाश्चयेचान्येवनवासिनः॥११८॥
अब ओषधियोंके जाननेकी विधि लिखते हैं कि बकरी, भेड और गौओंके चरानेवालोंसे और वनमें रहने और विचरनेवालोंसे वनौषधियों के नाम और रूप जानना चाहिये॥११८॥
औषधियोंके ज्ञानकी कठिनता।
ननामज्ञानमात्रेणरूपज्ञानेनवापुनः।
औषधीनांपरांप्राप्तिकश्चिद्वेदितुमर्हति॥११९॥
क्योंकि कोई भी मनुष्य संपूर्ण औषधियोंके नाम और रूपोको नहीं जानसकता कोई २ पुरुष ऐसे होगे जो बहुतसी औषधियोंको जानते हैं परंतु उनमें उसीको ओषधियोंके तत्त्वका जाननेवाला कहना चाहिये जो उनके नाम रूप और प्रयोग करनेकी विधि जानता हो॥११९॥
औषधी जाननेवालेकी प्रशंसा।
योगज्ञस्तस्यरूपज्ञस्तासांतत्त्वविदुच्यते।
किंपुनर्याेविजानीयादोषधीःसर्वदाभिषक्॥१२०॥
जो वैद्य औषधियोंका नाम रूप प्रयोग और किस २ कालमें कौन २ औषधि कैसे २ संपादन कर उसका कैसे २ प्रयोग करना यह विधि जानता है उसका तो कहना ही क्या है अर्थात् उसको धन्य है॥१२०॥
सर्वोत्तम वैद्य।
** रूपन्तासान्तुयोविद्यादेशकालोपपादितम्। पुरुषंपुरुषंवीक्ष्यस विज्ञेयोभिषक्तमः॥१२१॥**
हरेक मनुष्यको देख देख कर शास्त्रविधिसे जो उसके अनुकूल हो वह औषध देना चाहिये॥१२१॥
विनजानी औषध विषतुल्य।
** यथाविषंयथाशस्त्रंयथाग्निरशनिर्यथा।तथौषधमविज्ञातोविज्ञातममृतंयथा॥१२२॥ औषधंह्यनभिज्ञातंनाम-रूपगुणैस्त्रिभिः। विज्ञातंवापिदुर्युक्तंयुक्तिवाह्येनभेषजम्।योगादपिविषं तीक्ष्णमुत्तमंभेषजंभवेत्॥१२३॥ भेष-जंवापिदुर्युक्तंतीक्ष्णं सम्पद्यतेविषम्।तस्मान्नभिषजायुक्तंयुक्तिबाह्येनभेषजम्॥१२४॥ धीमताकिञ्चिदादेयंजी-वितारोग्यकांक्षिणा। कुर्य्यान्निपतितोमूर्ध्निसशेषंवासवाशनिः॥१२५॥**
क्योंकि विना जानी औषधका प्रयोग कियाहुआ जैसे विष, शस्त्र, अग्नि, विद्युत मनुष्यको मारडालते हैं ऐसे अनर्थकारक होता है। विचारकर जानी हुई औषधी अमृतके समान गुणको करती है। जो औषध नाम, रूप, गुण इन तानास जानीहुई नही अथवा जानीहुई होनेपर भी अनुचित रीतिसे प्रयुक्त कीगई हो वह औषधी महाअनर्थको करती है। इसीप्रकार अच्छीतरह जानकर प्रयोगमें लाया हुआ विष भी उत्तम औषधीके गुणको करता है। और उत्तम औषधी अनुचित विधि से देनेसे विषकी समान मारडालती है। इसलिये वैद्योंको उचित है कि बिना युक्तिसे कभी ओषधीका प्रयोग न करें॥१२२॥१२३॥१२४॥१२५॥
मूर्खवैद्यके औषधका निषेध्।
** सशेषमातुरंकुर्य्यान्नत्वज्ञमतमौषधम्। दुःखितायशयानाय श्रद्दधानायरोगिणे॥१२६॥ योभेषजमविज्ञायप्राज्ञ-मानीप्रयच्छति। तस्याथमृत्युदूतस्यदुर्मतेस्त्यक्तधर्मणः॥१२७॥ नरोनरकपातीस्यात्तस्यसम्भाषणादपि। वरमा-शीविषविषंक्वथितंताम्रमेववा॥१२८॥ पीतमत्यग्निसन्तप्ता भक्षितावाप्ययोगुडाः। नतुश्रुतवतावेदंविभ्रताशरणा-गतात्॥१२९॥ गृहीतमन्नंपानंवावित्तंवारोगपीडितात्। भिषक्बुभूर्षुर्मतिमानतः स्याद्गुणसम्पदि॥१३०॥ परंप्रयत्नमातिष्ठेत्प्राणदः स्याद्यथानृणाम्। तदेवयुक्तं भैषज्यंयदारोग्यायकल्पते॥१३९॥ सचैवभिषजांश्रेष्ठोरोगे-भ्योयः प्रमोचयेत्। सम्यक्प्रयोगंसर्वेषांसिद्धिराख्यातिकर्म्मणाम्॥१३२॥ सिद्धिराख्यातिसर्वैश्चगुणैर्युक्तंभिषक्तमम् इति॥१३३॥ तत्र श्लोकाः। आयुर्वेदागमोहेतुरागमस्यप्रवर्त्तनम्। सूत्रणं साभ्यनुज्ञानमायुर्वेदस्यनिर्णयः॥१३४॥ सम्पूर्णकारणंज्ञेयं आयुर्वेदप्रयोजनम्।हेतवश्चैवदोषाश्चभेषजंसंग्रहेणच॥१३५॥ रसाः सप्रत्ययद्रव्यास्त्रिविधोद्रव्यसंग्रहः। मूलिन्यश्चफलिन्यश्च स्नेहाश्चलवणानिच॥१३६॥मूत्रंक्षीराणिवृक्षाश्चषड्येक्षीरत्वगाश्रयाः। कर्माणिचैषांसर्वेषां योगायोगगुणागुणाः॥१३७॥ वैद्यापवादोयत्रस्थाः सर्वेचभिषजांगुणाः। सर्वमेतत्समाख्यातंपूर्वेऽध्यायेमहर्षिणा॥१३८॥**
इति दीर्घजीविताध्यायः॥१॥
जीवन और आरोग्यताकी इच्छावालेको कभी अयोग्यरीतिसे औषध सेवन न करना चाहिये। यदि इंद्रलोकसे वज्र गिरकर मनुष्यके शिरमें लगे वह अच्छा क्योंकि उससे भी शायद मनुष्य जीवित रहसकता हो, परंतु अज्ञ ( मूर्ख ) की दीहुई औषधी उस वज्रसे भी अधिक दुर्गुण करती है अर्थात मारही डालती है। जो वैद्य दुःखसे व्याकुल शय्यापर पडे श्रद्धालु रोगीको बिनाजानी औषधी देदेता है उस धर्मरहित, पापी, नरकगामी मृत्युके दूतसे बोलनेमें भी मनुष्य नरकगामी होजाता है। सांपविष पीलेना अच्छा है, लाल कियाहुआ तपाहुआ ताम्र भी पीना अच्छा है। परंतु पाखंडसे विद्वान् वैद्यकासा रूप धारणकर शरणागत रोगियोंको भ्रममें डालकर उनसे अन्न, पान, धन आदि लेना कदापि उचित नहीं। इसलिये वैद्य होनेकी इच्छावाला बुद्धिमान मनुष्य पहले जो २ वैद्योके गुण कहेंहैं (आगे लिखेंगे) उनको अपनेमें उत्पन्न करे फिर मनुष्योके प्राणोकी रक्षा के लिये सदैव यत्नवान् रहै क्योंकि वैद्य मनुष्यों के प्राणोंका देनेवाला होताहै। औधषी वही उत्तम होती है जो रोगसे छुडाकर आरोग्य बनावे। और जो रोगोंसे छुडादे उसीको उत्तम वैद्य कहते हैं। संपूर्ण कर्मोका विधिवत् प्रयोग किया हुआ संपूर्ण गुणोसे युक्त वैद्यको सिद्धि और ख्यातिको देता है॥१२६—१३३॥
अब इस अध्यायका उपसंहार कहते हैं इस अध्यायमं आयुर्वेदका आगमन, और उसके आनेका कारण, आयुर्वेदकी प्रवृत्ति, अग्निवेशादिकोका संहिताएं बनाना, आयुर्वेदका निर्णय, संपूर्ण कारण और कार्य, आयुर्वेदका प्रयोजन, हेतु, दोष, संक्षेप से औषधसंग्रह कथन, छः रस, द्रव्य, तीन प्रकारका द्रव्यसंग्रह, फलप्रधान, मूलप्रधान द्रव्य, स्नेह, लवण, मूत्राष्टक, दूधवर्ग, छः वृक्ष जिनके दूध और छिलके काम आते हैं। इन सबके कर्म तथा योग, अयोग, गुण, अगुण, वैद्यके दोष और वैद्यकी सिद्धि ख्यातिका प्रकार यह सब इस प्रथमाध्याय में वर्णन किया है॥ १३५—१३८॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसहिताया पटियालाराज्यांतर्गतटकसालनिवासिवैद्यपंचानन प० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकाया
दीर्घजीवितीयो नाम प्रथमोध्यायः॥१॥
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द्वितीयोऽध्यायः।
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प्रतिज्ञावर्णन।
** अथातोऽपामार्गतण्डुलीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिह स्माहभगवानात्रेयः।**
भगवान् आत्रेय कहने लगे कि अब हम अपामार्गतण्डुलीय नामक दूसरे अध्यायका कथन करते हैं॥१॥
शिरोरोग नाशक औषधि।
** अपामार्गस्यबीजानिपिप्पलीर्मरिचानिच। विडङ्गान्यथशिग्रूणिसर्षपांस्तुम्बुरूणिच॥१॥ अजाजीञ्चाजगन्धा-ञ्चपीलून्येलांहरेणुकाम्। पृथ्वीकांसुरसांश्वेतांकुठेरकफणिज्जकौ॥२॥शिरीषबीजंलशुनंहरिद्रेलवणद्वयम्। ज्योतिष्मर्तीनागरञ्चविद्यानमूर्द्धविरेचने॥३॥ गौरवेशिरसःशूले पीनसेऽर्द्धावभेदके। क्रिमिव्याधौअपस्मारेघ्रा-णनाशेप्रमोहने॥४॥**
अपामार्ग के बीज, पीपल, कालीमिर्च, वायविडंग, सुहांजनेके बीज, सरसों,तुबरु, काला जीरा, अजमोद, पीलू, इलायची, रेणुका, बड़ी इलायची, तुलसीके बीज, सफेद कोयलके बीज, छोटी तुलसीके बीज, सिरसके बीज, लहसन, दोनों हलदियें, सेंधा और संचर नमक, मालकांगुनीके बीज, सोंठ, इन सब औपधियोंको शिरोविरेचनमें देवे।मस्तकके भारीपनमें, शिरकी पीड़ामें, पीनस रोगमें, आधाशीशीमें, मस्तकके कृमियोंमें, अपस्मारमें, गंध लेने की शक्ति के जाते रहनेमें, बेहोशीमें, इतने रोगों में प्रयोग करे॥१॥२॥३॥४॥
वान्तिकारक औषधियां।
** मदनंमधुकंनिम्बंजीसूतंकृतवेधनम्।पिप्पलींकुटजेक्ष्वाकूण्येलांधासार्गवाणिच॥५॥उपस्थितेश्लेष्मपित्ते-व्याधावामाशयाश्रये। वमनार्थंप्रयुञ्जीतभिषग्देहमदूषयन्॥६॥**
मैनफल, मुलैठी, नीम, जीमूत (कड़वी तोरईका भेद), कृतवेधन (तोरई), पीपल, इंद्रजौ, कटुतुंबी, बडी इलायची, कडुवी तोरई इन औषधियोंको आमाशयमें स्थितपित्त कफकी व्याधियोंमें जिस प्रकार देह दूषित न हो उस प्रकार वमन कराने के लिये प्रयुक्त करे॥५॥६॥
विरेचक द्रव्य।
** त्रिवृतांत्रिफलांदन्तींनीलिनींसप्तलांवचाम्। कम्पिल्वकंगवाक्षीञ्चक्षीरिणीमुदकीटिकाम्॥७॥ पीलून्यारग्व-धंद्राक्षांद्रवन्तींनिचुलानिच।पक्वाशयगतेदोषेविरेकार्थंप्रयोजयेत्॥८॥**
निशोत, हरड, बहेडा, आमला, दंती, नीलिनी, सप्तला, वच, कमीला, इंद्रायण, हरी दूधली, करंजुवा, पीलू, अमलतास, मुनक्का, छोटीदंती, निचुल (हिंजल) इन सबको पक्काशयेंस्थित दोष निकालनेको विरेचनके लिये प्रयुक्त करे॥ ७॥ ८॥
उदावर्तादिमें देनेयोग्य औषधि।
** पाटलाञ्चाग्निमन्थाञ्चबिल्वंश्योनाकमेवच।काश्मर्य्वंशालपर्णींचपृश्निपर्णींनिदिग्धिकाम्॥९॥ वलांश्वदंष्ट्रांवृह-तीमेरण्डं सपुनर्नवम्। यवानकुलुत्थान्कोलानिगुडूचीं मदनानिच॥१०॥ पलाशंकत्तृणंचैवस्नेहांश्चलवणानिच।उदावर्त्तेविबन्धेषुयुंज्यादास्थापनेसदा॥११॥**
पाढ, अरणी, बेलगिर, सोनापाठा, धमार वृक्ष, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कटेली, खरटी, गोखरू, बडीकटेली, एरंड, पुनर्नवा, यव, कुलथी बेर, गिलोय, मैनफल, पलास, रोहिसतृण, और चतुःस्नेह, पंचलवण, इनको उदावर्त, मल मूत्र का अवरोध तथा आस्थापन, वस्तीकर्म आदिमें प्रयुक्त करे॥९॥१०॥११॥
वातनाशक पांचकर्मिक संग्रह।
** अतएवौषधगतात्संकल्प्यमनुवासनम्। मारुतघ्नमितिप्रोक्तः संग्रहः पाञ्चकर्मिकः॥ १२॥ तान्यपस्थितदोषा-णांस्नेहस्वेदोपपादनैः। पञ्चकर्माणिकुर्वीतमात्राकालौविचारयन्॥१३॥ मात्राकालाश्रयायुक्तिः सिद्धिर्युक्तौप्र-तिष्ठिता। तिष्ठत्युपरियुक्तिज्ञोद्रव्यज्ञानवतांसदा॥१४॥**
और यही उपरोक्त द्रव्य अनुवासनवस्तिमें भी प्रयुक्त किये जाते हैं। तथा यही द्रव्य वातनाशक होनेसे पंचकर्मों में प्रयुक्त कियेजाते हैं। जिन मनुष्यों के शरीरोमेसे दोष निकालना हो उनको पहले स्नेहन स्वेदन कराकर फिर मात्रा और कालका विचार रखते हुए “वमन, विरेचन, नस्य, निरूहण, अनुवासन” यह पंचकर्म करावे औषधीकी मात्रा और समयका विचार युक्ति के अधीन है जो बुद्धिमान् वैद्य युक्तिद्वारा विचारकर काम करता है उसीको सिद्धिकी प्राप्ति होती है। औषधी जाननेवाले वैद्योंमें युक्तिकम जाननेवाला वैद्य सदा शिरोमणि रहता है॥१२॥१३॥१४॥
यवागुगुण।
** अतऊर्ध्वंप्रवक्ष्यामियवागूर्विविधौषधाः।विविधानांविकाराणांतत्साध्यानांनिवृत्तये॥१५॥ पिप्पलीपिप्पली-मूलचव्यचित्रकनागरैः।यवागूर्दीपनीयास्याच्छूलघ्नीचोपसाधिता॥१६॥**
अब अनेक प्रकार की औषधियोसे सिद्ध कीहुई यवागुओंका वर्णन जो रोग यवागूद्वारा शांत होते हैं उन रोगोंकी शांतिके लिये करते हैं। पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, इन पांचोंसे सिद्ध की हुई यवागू अग्निको दीपन करती है और उदरकेशूलको नष्ट करती है॥१५॥१६॥
दधित्थबिल्वचाङ्गेरीतकदाडिमसाधिता।
पाचनीग्राहणीपेयासवातेपाञ्चमूलिका॥१७॥
कैथ, बिल्व, चुका, तक्र (वलोई हुई दही), अनारदाना, इनसे सिद्ध कीहुई यवागू पाचन और संग्राही है। लघुपंचमूलसे सिद्ध कीहुई यवागू वातातिसार में हितकारक है॥१७॥
शालपर्णीवलाबिल्वैःपृश्निपर्ण्याचसाधिता।
दाडिमाम्लाहितापेयापित्तश्लेष्मातिसारिणाम्॥१८॥
शालिपर्णी, खरटी, बिल्वगिरी, पृष्ठपर्णी, इनसे सिद्ध कीहुई यवागू खट्टे अनारसे खट्टी करके पीहुई यवागू पित्त कफके अतिसार में हितकारक है॥१८॥
पयस्यर्ध्दोदकेछागेह्रीवेरोत्पलनागरैः।
पेयारक्तातिसारघ्नीपृश्निपर्ण्याचसाधिता॥१९॥
बकरीके दूधमें दूधसे आधा जल मिलाकर उसमें सुगंधवाला, नीलोफर, सोंठ पृष्ठपर्णी, इनसे सिद्ध की हुई पेया रक्तातिसारको नष्ट करती है॥१९॥
दद्यात्सातिविषांपेयांसामेसाम्लांसनागराम्।
श्वदंष्ट्राकण्टकारीभ्यांमूत्रकृच्छ्रेसफाणिताम्॥२०॥
अनारके रससे खट्टी की हुई और अतीस तथा सोठसे सिद्ध कीहुई पेया आमातिसारमें देना चाहिये। गोखरू और कटेलीसे सिद्ध की हुई पेयामें फाणित मिलाकर मुत्रकृच्छ्रकी शांति के लिये देवे॥२०॥
विडङ्गपिप्पलीमूलशिग्रुभिर्मरिचेनच।
तक्रसिद्धायवागूःस्यात्क्रिमिघ्नीससुवर्चिका॥२१॥
बायबिडंग, पीपलामूल, सुहांजना, काली मिर्च, और तक्रइनसे सिद्ध की हुई पेयामें संचर नमक मिलाकर पीनेसे पेटके कृमि नष्ट होते हैं॥२१॥
मृद्वीकाशारिवालाजपिप्पलीमधुनागरैः।
पिपासाघ्नीविषघ्नीचसोमराजीविपाचिता॥२२॥
मुनक्का, सारिवा, धानोंकी खील, पीपल, सोठ इनसे सिद्ध कीहुई पेया शहद मिलाकर पीनेसे प्यासको शांत करती है। बावचीसे सिद्ध की हुई पेया विषविकारको शांत करती है॥२२॥
सिद्धावराहनिर्यूहेयवागूर्बृहणीमता।
गवेधुकानांमृष्टानांकर्षणीयासमाक्षिका॥२३॥
बाराहीकंदसे सिद्ध कीहुई पेया देहको पुष्ट करती है। गवेधुका (ऋषियोंका अन्न) को भूनकर उसकी पेयाको ठंढाकर शहद मिलाकर पीनेसे स्थूलता नष्ट होती है॥२३॥
सर्पिष्मतीबहुतिलास्नेहनीलवणान्विता।
कुशामलकनिर्यूहेश्यामाकानांविरुक्षणी॥२४॥
घृत और बहुत से तिलोंकी सिद्ध कीहुई पेया लवण युक्त कर पीनेसे शरीर चिकना होता है।कुशा और आमलोंसे सिद्ध कीहुई श्यामाकके चावलोंकी पेया शरीरको रूखा करती है॥२४॥
दशमूलीशृताकासहिक्काश्वासकफापहा।
यमकेमदिरासिद्धापक्वाशयरुजापहा॥२५॥
दशमूलसे सिद्ध कीहुई यवागूरवांसी, हिचकी, श्वास, और कफको नाशकरती है। घृत, तेल, मद्य इनके साथ सिद्ध की हुई यवागू पक्काशयके सबरोगोंको नष्ट करती है॥२५॥
शाकैर्मांसैस्तिलैर्माषैः सिद्धावनिरस्यति।
जम्ब्वाम्रास्थिदधित्थाम्लबिल्वैःसांग्राहिकीमता॥२६॥
फलपत्रोंके शाक, मांस तिल, उडद, इनसे सिद्ध हुई यवागू मलको निकालती है। जामुन, आमकी गुठली, कैथका गुद्दा, कांजी, बेलगिर, इनसे सिद्ध यवागू संग्राही (दस्तरोकनेवाली) होती है॥२६॥
क्षारचित्रकहिङ्ग्वम्लवेतसैर्भेदनीमता।
अभयापिप्पलीमूलविश्वैर्वातानुलोमनी॥२७॥
खार (जवाखार), चीता, हींग, अम्लवेत इनसे बनाई हुई यवागूभेदिनी (दस्तावर) होती है। हरड, पीपलामूल, सोंठ इनसे सिद्ध यवागू वायुको अनुलोमन करती है॥२७॥
तक्रसिद्धायवागूःस्याद्घृतव्यापत्तिनाशिनी।
तैलव्यापदिशस्तातुतक्रपिण्याकसाधिता॥२८॥
तक्र(मट्ठा) से सिद्ध कीहुई यवागू अधिक घृत खानेसे पैदा हुए विकारको शांत करती है। ऐसे ही तिलोंकी खल और छाछसे सिद्ध यवागू तेलके खानेसे हुए विका रोंकी शांति करती है॥२८॥
गव्यमांसरसैःसाम्लाविषमज्वरनाशिनी।
कण्ठ्यायवानांमकेपिप्पल्यामलकैःश्रिता॥२९॥
हरिणके मांसरसके और गोदुग्धसे सिद्ध और अनारदानेसे खट्टी कीहुईयवागू विषमज्वरको नष्ट करती है।घृत, तेल, पीपल और ऑवलोंके साथ सिद्ध जौवोंकी यवागू कंठके रोगोंमें हितकारी है॥२९॥
ताम्रचूडरसेसिद्धारेतोमार्गरुजापहा।
समाषविदलावृष्याघृतक्षीरोपसाधिता॥३०॥
मुर्गेक मांससे सिद्ध पेया वीर्यमार्गके रोगोंको शांत करती है।उडदकी दाल, घी, और दूधकी पेया वीर्यको उत्पन्न करती है॥३०॥
उपोदिकादधिभ्यान्तुसिद्धामदविनाशिनी॥
क्षुधंहन्यादपामार्गक्षीरगोधारसेश्रिता॥३१॥
पोईका शाक और दहीसे सिद्ध यवागू उन्मत्तताको नष्ट करती है। अपामार्गके बीज, दूध और गोधाबूटीके रस अथवा गोधाके मांसके रससे सिद्ध यवागू क्षुधाको नष्ट करती है॥३१॥
द्वितीयाध्याय विषय वर्णन।
** तत्रश्लोकाः॥ अष्टाविंशतिरित्येतायवाग्वः परिकीर्तिताः। पञ्चकर्माणिचाश्रित्यप्रोक्तोभैषज्ज्यसंग्रहः॥ ३२॥पूर्वमूलफलज्ञानहेतोरुक्तंयदौषधम्। पञ्चकर्मश्रयज्ञानहेतोस्तत्कीर्त्तितंपुनः॥३३॥**
इस प्रकार इस अध्याय में अट्ठाईस प्रकारकी यवागुओं का और पंचकर्मके आश्रयीभूत औषधियोंका कथन किया है। जो पहले मूलफलके ज्ञानार्थ कहआयेहैं, पंचकर्ममें आश्रय होनेके कारण वे यहां फिर कहेगये हैं॥ ३२॥ ३३॥
वैद्यका लक्षण।
स्मृतिमान्युक्तिहेतुज्ञोजितात्माप्रतिपत्तिमान्।
भिषगौषधसंयोगैःचिकित्सांकर्त्तुमर्हति॥ २४॥
इति भेषजचतुष्केऽपामार्गतण्डुलीयो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥
स्मृतिमान् जितेंद्रिय, औषध और रोग तथा युक्तिको जाननेवाला वैद्य औषधियोंके संयोगसे चिकित्सा करे॥ ३४॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसहिताया पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासिधैद्यपञ्चानन प०रामप्रसादवैद्योपाध्यायकृतप्रसादन्याख्यटीकायामपामार्गतण्डुलीयो
नाम द्वितीयोभ्यायः॥२॥
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तृतीयोऽध्यायः।
** अथातआरग्वधीयमध्यायंवक्ष्यामः इति हस्माह भगवानात्रेयः।**
अब हम आरग्वधीय अध्यायकी व्याख्या करेगे ऐसा भगवान् आत्रेंय कहने लगे॥ १॥
कुष्ठ किलास आदिपर लेप।
** आरग्वधःसैडगजःकरञ्जोवासागुडूचीमदनंहरिद्रे। श्र्यह्वः सुराह्नःखदिरोधवश्चनिम्बोविडङ्गंकरवीरकत्वक्॥ १॥ ग्रन्थिश्चभौर्जेलशुनःशिरीषः सलोमशोगुग्गुलुकृष्णगन्धे। फणिज्झकोवत्सकसप्तपर्णौपीलूनिकुष्टंसुमनःप्रवालाः॥ २ ॥ वचाहरेणुस्त्रिवृतानिकुम्भोभल्लातकंगैरिकमञ्जनञ्च।मनःशिलालेगृहधूमएलाकासीसमुस्तार्जुनरोध्रसर्जाः॥ ३ ॥ इत्यर्द्धरूपैर्विहिताःषडेते गोपित्तपीताःपुनरेवपिष्टाः। सिद्धाः परंसर्षपतैलयुक्ताश्चूर्णप्रदेहाभिषजाप्रयोज्याः॥ ४ ॥ कुष्ठानिकृच्छ्राणिनवं किलासंसुरेन्द्रलुप्तंकिटिमंसदद्रु।भगन्दरार्शांस्यपचींसपामांहन्युःप्रयुक्तास्त्वचिरान्नराणाम्॥ ५ ॥**
१ अमलतास, पनवाड, करंज, अडूसा, गिलोय, मैनफल, दोनों हलदी, २ सरलवृक्ष, देवदारु, खैरसार, मुस्तक, नीम, बायविडंग, कनेरकी छाल, ३ गठिवन, भोजपत्र, लहसन, सिरसके बीज, जटामांसी, गूगल, सुहांजना ४ वनतुलसी, सतैना, पीलू (अखरोटविशेष) कूठ, चमेली, ५ वच, रेणुका, निशोत, दंती, भिलावे, गेरु, रसौत या सुर्मा। ६ मनसिल, हरिताल, घरका धूमसा, इलायची कसीस, मोथे, अर्जुनकी छाल, लोध, गल, यह आधे २ श्लोक में ६ गण कहे हैं। इनमेंसे किसी एक गणके चूर्णको गौके घृतमें मिलाकर खूब घोटे फिर सर्सोंकेतेलमेमिलाले तो यह उत्तम प्रलेप तैयार हो। इस प्रकार बनाया हुआ किसी एक गणका प्रलेप वैद्यको अत्यंत प्रयोजनीय है। इसके लेपसे मनुष्योंके कष्टसाध्य कुष्ठ, नवीन किलास कुष्ठ, इंद्रलुप्त, किटिभ, दद्रु, भगंदर, अर्श, अपची, खुजली यह सबशीघ्र नष्ट होतेहैं॥ १ ॥ २ ॥ ३ ॥ ४ ॥ ५ ॥
दूसरा लेप।
** कुष्ठंहरिद्रेसुरसंपटोलंनिम्बाश्वगन्धेसुरदारुशिग्रु।ससर्षपंतुस्बुरुधान्यवन्यंचण्डांसचूर्णानिसमानिकुर्यात्॥ ६ ॥ तैस्तक्रयुक्तैःप्रथमंशरीरंतैलाक्तमुद्वर्त्तयितुंयतेत। तथास्यकण्डूःपिडकाःसकोठाः कुष्ठानिशोफाश्चशमंव्रजन्ति॥ ७ ॥**
कूठ, दोनों हल्दी, तुलसी, पटोलपत्र, नीम, असगंध, देवदारु, सौभांजन, सरसों, तुंबुरु, धनिया, केवटीमुस्तक, चंडा ( गठौनेका भेद ), इन सबके चूर्णको छाछ और सर्सोंके तेल में घोटकर शरीर पर मालिश करनेसे खुजली, फुनसियें, चकत्ते, कुष्ठ, सृजन यह सब नष्ट होते हैं॥ ६ ॥ ७ ॥
कुष्ठामृतासङ्गकटंकटेरीकाशीशकाम्पिल्लकरोध्रमुस्ताः। सौगन्धिकंसर्जर सोविडङ्गंमनःशिलालेकरवीरक-त्वक्॥८॥ तैलाक्तगात्रस्यकृतानिचूर्णान्येतानिदद्यादवचूर्णनार्थम्। दद्रुः सकण्डुःकिटिमानिपामाविचर्चिकाचै-वतथैतिशान्तिम्॥९॥
कूठ, गिलोय, तुत्थ, दोनों हलदी, कसीस, कमीला, नागरमोथे, लोध, गंधक, राल, बायबिडंग, मनसिल, हरिताल, कनेरकी छाल, इन सबके चूर्णको सर्सोंके तेल में पकाकर देहपर मलनेसे, दाद, खाज, किटिभ, पामा, विचर्चिका यह सब नष्ट होते हैं॥८॥९॥
कुष्ठरोगपर लेप।
** मनः शिलालेमरिचानितैलमार्कस्पयःकुष्ठहरःप्रदेहः। तुल्यं विडङ्गंमरिचानिकुष्ठंलोध्रञ्चतद्वत्समनःशि-लंस्यात्॥१०॥ रसाञ्जनंसप्रपन्नाडवीजंयुक्तःकपित्थस्यरसेनलेपः। करञ्जबीजैडगजंसकुष्ठंगोमूत्रपिष्टश्च-परःप्रदेहः॥११॥**
मनसिल, हरिताल, कालीमिर्च, तेल, आकका दूध, इन सबको एकजीव कर लेपकरनेसे शरीरपरका कुष्ठ नष्ट होता है। ऐसे ही बिडंग, मिर्च कूठ, लोध, मनसिल, इन सबको बराबर ले चूर्णकर तेलके योगसे लेप करनेसे कुष्ठदूर होता है॥ १०॥ रसौत, पनवाडके बीज, इनको कैथके रस में मिला लेपकरनेसे कुष्ठदूर होता है। अथवाकरंजुवेके बीज, पनवाडके बीज, कूठ, इनको गोमूत्रमे पीसकर लेप करनेसे कुष्ठ नष्ट होता है॥ ११॥
उभेहरिद्रेकुटजस्यबीजंकरञ्जबीजं सुमनःप्रवालान्।
त्वचंसचव्यांहयमारकञ्चलेपंतिलक्षारयुतंविदध्यात्॥ १२॥
अथवा दोनों हल्दी, इंद्रजौ, करंजुवेके बीज, चमेलीकी कोंपलें, कनेरकी छाले और उसके भीतरका सार, तिलोंका खार इन सबका लेप कुष्ठको नष्टकरता है॥१२॥
** मनःशिलात्वक्कुटजात्सकुष्टःसलोमशःसैडगजःकरञ्जः। ग्रन्थिश्च भौर्जःकरवीरमूलंचूर्णानिसाध्यानितुषोद-केन॥१३॥ पलाशनिर्दाहरसेनचापिकर्षोद्धृतान्याढकसम्मितेन।दर्वीप्रलेपंप्रवदन्तिलेपमेतत्परंकुष्ठनिषूदनाय॥१४॥**
अथवा—मनसिल, कूठ, कुडाकी छाल, जटामांसी, पनवाडके बीज, करंजुवेके बीज, भोजपत्रकी गांठ, कनेरकी जडकी छाल, इन सबको एक २ कर्ष लेकर एक आढक तुषोंके पानीमें और एक आढक ढाकके खार मिले जलमें पकावे जब गाढी होकर कडछीसे लिपटने लगे तो इसको उतारलेवे इसके लेपसे अवश्य ही कुष्ठ नाशको प्राप्त होता है॥१३॥१४॥
पर्णानिपिष्ट्वाचतुरंगुलस्यतक्रेणपर्णान्यथकाकमाच्याः।
तैलाक्तगात्रस्यनरस्यकुष्ठान्युद्वर्त्तयेदश्वहनच्छदैश्च॥१५॥
आरग्वधके पत्र, मकोहके पत्र इनको छाछमें घोटकर अथवा कनेरके पत्रोंको तेलमें पकाकर शरीर पर मलनसे कुष्ठ दूर होता है॥१५॥
वातजन्यरोगोंपर लेप।
कोलंकुलत्थाःसुरदारुरास्नामाषातसीतैलफलानिकुष्ठम्।
वचाशताह्वायवचूर्णमम्लमुष्णानिवातांमयिनांप्रदेहः॥१६॥
बेर, कुलथी, देवदारु. उडद, अलसी, तिल, सर्सो, सूह, राई, एरंडबीज, कूठ, वच, सौंफ, जौ, इनके चूर्णको कांजीमें घोटकर वायुके रोगीके शरीर पर लेप करे॥१६॥
आनुपमत्स्यामिषवेशवारैरुष्णैः प्रदेहःपवनापहःस्यात्।
स्नेहेश्चतुर्भिर्द्दशमूलमिश्रैर्गन्धौषधैर्वानिलजित्प्रदेहः॥१७॥
जलयुक्त भूमिमेंरहनेवाले जीवोका तथा मछलीका मांस, हींग, मिर्च अदरक, जीरा, हलदी, धनियां इनको घोटकर गर्म करके लेप करनेसे वायुका रोग शांत होता है। अथवा चतुःस्नेहमें दशमूलका चूर्ण, और गंधद्रव्योंको मिलाकर गर्म प्रलेप वायुकी उग्रपीडा शांत होतीहै॥१७॥
तक्रेणयुक्तंयवचूर्णमुष्णंसक्षारमार्त्तिञ्जठरेनिहन्यात्।
कुष्ठंशताह्वांसवचांयवानांचूर्णसतैलालमुषन्तिवाते॥१८॥
छाछ में यवोंका चूर्ण और जवाखार मिलाकर गर्म करके पेटपर लेप करनेसे पेटकी पीडा नष्ट होती है। कूठ, सौंफ, वच, यवोंका चूर्ण तेल, कांजी इनको पकाकर गर्म २ लेप करनेसे वायुकी पीडा शांत होती है॥१८॥
उदरपीडापर लेप।
उभेशताह्वेमधुकंमधूकंबलांपियालञ्चकशेरुकञ्च।
घृतंविदारीञ्चसितोपलाञ्चकुर्यात्प्रदेहंपवनेसरक्ते॥१९॥
सोया, सौंफ, मुलैठी, खरैंटी, महुवा, चिरौजी, कसेरू, घृत, विदारीकंद, मिसरी, इनको मिलाकर किया हुआ लेप वातरक्तको शांत करताहै॥१९॥
रक्तवातपर लेप।
रास्नांगुडूचींमधुकंबलेद्वेसजीवकंसर्षभकम्पयश्च।
घृतञ्चसिद्धंमधुशेषयुक्तंरक्तानिलार्तिंप्रणुदेप्रदेहः॥२०॥
रास्ना, गिलोय,मुलैठी,खरटी, गंगेरण,जीवक, ऋषभक, इन औषधियोंके चूर्णसे चारगुना घी और १६ गुना दूध मिलाकर घृतपाकविधिसे घृत सिद्ध करे इस घृतमेशहद मिलाकर लेप करनेसे वातरक्तको शांत करता है॥२०॥
शिरःपीडा पर लेप।
वातेसरक्तेसघृतःप्रदेहोगोधूमचूर्णांछगलीपयश्च॥२१॥
अथवा घी, गेहूंका चूर्ण, बकरीका दूध इनको पकाकर लेप करना भी वातरक्तमें हित है॥२१॥
** नतोत्पलंचन्दनकुष्ठयुक्तंशिरोरुजायांसघृतःप्रदेहः। प्रपौण्डरीकंसुरदारुकुष्ठंयष्ट्याह्वमेलाकमलोत्पलेच।शिरोरुजायांसघृतःप्रदेहोलोहैरकापद्मकचोरकैश्च॥२२॥**
तगर, कमल, चंदन कूठ, इनके चूर्णको घृतसे लेप करे तो मस्तकपीडा शांत होती है। अथवा पंडयारा, देवदारु, कूठ, मुलैठी, इलायची, कमल, नीलोफर, इनको पीसकर घृत मिलाकर लेप करनेसे मस्तकपीडा शांत होती है। अथवा अगर, एरकघास, पझाख, गठिवन इनको जलमे पीस लेप करनेसे मस्तकपीडा शान्त होती है॥२२॥
पार्श्वपीडा पर लेप।
रास्नाहरिद्रेनलदंशताह्वेद्वेदेवदारूणिसितोपलाञ्च।
जीवन्तिमूलंसघृतंसतैलमालेपनंपार्श्वरुजासुकोष्णम्॥२३॥
रास्ना, हल्दी, दारुहलदी, खस, सौंफ, सोया, देवदारु मिसरी, नीवंती की ज इनको घृत और तेल में मिलाकर थोडा गर्म लेप किया हुआ पसवाडेके शूलको नष्ट करता है॥२३॥
दाहनिवारक लेप।
शैवालपद्मोत्पलवेत्रतुङ्गंप्रपौण्डरीकाण्यमृणाललोध्रम्।
प्रियंगुकालीयकचन्दनानिनिर्वापणःस्यात्सघृतःप्रदेहः॥२४॥
पानीकी काई, कमलगट्टा, नीलोफर, बेत, तुंग, पुंडरिया, कमलकी डंडी, पठानी लोद, गोदनीके फूल, कालीयक, (काली अगर) चंदन, इनको घृतयुक्त कर लेप करनेसे दाह दूर होता है॥२४॥
सितालतावेतसपझकानियष्ट्याह्वमैन्द्रीनलिनानिदूर्वा।
यवासमूलंकुशकाशयोश्चनिर्वापणःस्थाज्जलमेरकाच॥२५॥
सफेद दूब, वेतसमजनु, पद्माख, मुलैठी, इंद्रायण, कमलगट्टे, टूर्वा, जवासेकी जड़, कुशा, कांसकी जड, जल मेंकेपटेरेकी जड, इन सबको जलसे पीस लेप करनेसे दाह दूर होता है॥२५॥
विषघ्नलेप।
शैलेयमेलागुरुणीसकुष्ठेचण्डानतंत्वक्सुरदारुरास्ना।
शीतंनिहन्यादचिरात्प्रदेहोविषंशिरीषस्तुससिन्धुवारः॥२६॥
भूरिछरीला, इलायची, अगर, कूठ, गठिवन, तगर, दारचीनी देवदारु, रास्ना, इनका लेप शीतताको शीघ्र नष्ट करता है।ऐसे ही सम्भालू और सिरसका लेप विषको शीघ्र नष्ट करदेता है॥२६॥
देहदुर्गंधनाशक लेप।
शिरीषलामज्जकहेमलोघ्नैस्त्वग्दोषसंखेदहरःप्रघर्षः।
पत्राम्बुलोध्राभयचन्दनानिशरीरदौर्गन्ध्यहरः प्रदेहः॥२७॥
सिरस, खस, नागकेशर, लोध, इनके चूर्णका उवटना मलने से त्वचाका दोष और पसीना नष्ट होता है।तेजपत्र, नेत्रवाला, पठानी लोध, खस, चंदन इन सबको पीसकर लेप करनेसे देहकी दुर्गन्धि नष्ट होती है॥ २७॥
उक्त अध्यायमें ३२ चूर्णाेंके लेप।
** तत्र श्लोकः। इहात्रिजःसिद्धतमानुवाचद्वात्रिंशतंसिद्धमहर्षिपूज्यः।चूर्णप्रदेहान्विविधामयघानारग्वधीयेज-गतोहितार्थम्॥२८॥**
इति भेषजचतुर्ष्कआरग्वधीयो नाम तृतीयोऽध्यायः॥ ३॥
इस प्रकार इस आरग्वधीय अध्याय में सिद्ध और महार्षियोंके पूज्य आत्रेय भगवान् ने अनेक रोगोंको नष्ट करनेवाले ३२ प्रकारके चूर्णोके प्रलेपोंका कथन जगतके हितार्थ किया है॥२८॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतसहितायांपटियालाराज्यांतर्गतटकसालनिवासिवैद्यपंचानन
पं० रामप्रसादवैद्योपाध्यायकृतप्रसादन्याख्यभाषाटीकायामारग्वधीयो
नाम तृतीयोध्यायः॥ ३॥
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चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातःषड्विरेचनशताश्रितीयमध्यायं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम षड्विरेचनशताश्रितीय अध्यायका कथन करेगे ऐसा भगवान् आत्रेय कहनेलगे।
अध्यायभरके विषय।
इहखलुषड्विरेचनशतानिभवन्ति। षड्विरेचनाश्रयाः। पञ्चकषायशतानि।पञ्चकषाययोनयः।पञ्चविधंकषायकल्पनम्। पञ्चाशन्महाकषायाइतिसंग्रहः॥ १॥
इस ग्रंथमें ६०० योग विरेचनके है।उन छः सौ विरेचनोंको ६ स्थानों में आश्रयीभूत माना है और ५०० क्वाथ तथा ५ क्वाथोंके कारण पांचप्रकारकी क्वाथोंकी कल्पना, पचास ५० महाकषाय, यह संग्रह इस अध्यायमे वर्णन किया है॥ १॥
षड्विरेचनशतानीतियदुक्तंतदिहसंग्रहेणोदाहृत्यविस्तरेणकल्पोपनिषदिव्याख्यास्यामः॥ २॥
जो ६०० विरेचन इस अध्याय में कहें हैं इनको संक्षेपसे यहां कहकर आगे कल्पस्थान में विशेषतासे वर्णन करेंगे॥ २॥
जलादिके योग।
त्रयस्त्रिंशद्योगशतंप्रणीतंफलेष्वेकोनचत्वारिंशज्जीमृतकेषु योगाः॥ पञ्चचत्वारिंशदिक्ष्वाकुषुधामार्गवः। षष्टिधाभवति योगयुक्तः॥३॥ कुटजस्त्वष्टादशधायोगमेतिकृतवेधनंषष्टिधाभवतियोगयुक्तम्। श्यामात्रिवृद्योगशतंप्रणीतंदशापरेचात्रभवन्तियोगाः॥४॥ चतुरंगुलोद्वादशधायोगमेतिलोध्रं विधौषोडशयोगयुक्तम्।महावृक्षोभवतिविंशतियोगयुक्तः एकोनचत्वारिंशत्सप्तलाशंखिन्योर्योगाः॥५॥ अष्टाचत्वारिंशद्दन्तीद्रवन्त्योरितिषड्विरेचनशतानि॥ ६॥
इनमें १३३ विरेचन मैनफलके योगसे होते हैं। ३९ योग जंगली तोरीकेसंयोगसे ४५ कडवी तुम्बीके संयोगसे। ६० प्रकारके धामार्गव (अपामार्ग) के योगसे। १८ प्रकारके कुटजके योगसे। ६० प्रकारके कृतवेघन (कडुवी तोरी) के योगसे। ११० प्रकारके दक्षिणी निशोथ (काली निशोथ) के योगसे। १२ प्रकार अमलतासके योगसे। १६ प्रकारके लोघ्रके योगसे। २० प्रकार थोहरके योगसे। ३९ सातला और शंखिनीके योगसे। ४८ प्रकार दंती और द्रवंतीके योगसे। इसप्रकार सब मिलाकर ६०० प्रकार के विरेचनके योग होते हैं॥ ३॥ ४॥ ५॥ ६॥
षड्विरेचनाश्रयाः क्षीरमूलत्वक्पत्रपुष्पफलानीति॥ ७॥
विरेचनके छः आश्रय हैं जैसे–दूध, मूल, छाल, पत्र, फूल,। इन छहों द्वारा ही विरेचन होतेहैं॥ ७॥
कषायोंकी संज्ञा रस कल्क आदि।
पञ्चकषाययोनयइति मधुरकषायोऽम्लकषायःकटुकषायस्तिक्तकषायःकषायकषायश्चेतितन्त्रेसंज्ञा॥ ८॥
मधुरकषाय, अम्लकषाय, कटुकषाय, तिक्तकषाय, कपायकषाय यह पांच प्रकारसे शास्त्रमें कषाययोनी मानी है या ऐसे कहिये कि जिन द्रव्योंसे कषाय (क्वाथ) बनता है उनको कषाययोनि अर्थात् कषायका कारण कहते हैं वह द्रव्य मधुरादि पांच रसोंके आश्रयीभूत होनेसे कषाययोनि ५ प्रकारकी है॥ ८॥
पञ्चविधंकषायकल्पनमिति। तद्यथा।स्वरसः कल्कःशृतःशीतः फाण्टःकषायइति॥९॥ “यन्त्रप्रपीडनाद्द्रव्याद्रसःस्वरस उच्यते। यत्पिण्डंरसपिष्टानांतत्कल्कंपरिकीर्त्तितम्॥१०॥वह्नौतुक्वथितंद्रव्यंशृतमाहुश्चिकित्सकाः। द्रव्यादापोत्थितात्तोयेतत्पुनर्निशिसंस्थितात्॥११॥ कषायोयोऽभिनिर्यातिसशीतःसमुदाहृतः। क्षिप्त्वोष्णेतोयेमृदितं तत्फाण्टंपरिकीर्त्तितम्”॥१२॥ तेषां यथापूर्वंबलाधिक्यम्। अतःकषायकल्पनाव्याध्यातुरवलापेक्षिणीनत्वेवंखलुसर्वाणिसर्वत्रोपयोगीनिभवन्ति। पञ्चाशन्महाकषायाइतियदुक्तंतदनुव्याख्यास्यामः॥१३॥
ऐसे ही कषायोकी कल्पना भी पांच प्रकारकी है जैसे स्वरस, कल्क, शृत, शीत, और फांट, यह पांच कषाय हैं। यंत्र आदिसे औषधको दबाकर जो उसमेंसे रस निकले उसको स्वरस कहते हैं। जो द्रव्यको गीला ही पीसकर चटनीकी समान गोलासा बना लिया जाय उसको कल्क कहते हैं। जो द्रव्य पानीमें डालकर आगपर पकायाजाय उसको शृत (क्काथ, काढा) कहते हैं।द्रव्य (औषधि) को थोडा कूटकर शीतल पानीमे सायंकाल भिगोदेवे और रात्रीभर पडा रहनेदे फिर प्रातःकाल मलकर छानले इसको शीत (शीतकषाय, हिम) कहते हैं।द्रव्यके चूर्णको गर्म जलमें डालकर मसले फिर छानलेवे इसको फांट कहते हैं॥९॥१०॥११॥१२॥ इनमें फांटसे हिममें, हिमसे क्वाथ में, क्वाथसेकल्कमें, कल्कसे स्वरसमे अधिक गुण होता है। यह क्वाथ विना विचारे सर्वत्र ही उपयुक्त नहीं किये जाते। रोग और रोगीका बलाबल विचारकर जो जहां उपयोगी हो उसीका बर्ताव करना चाहिये। अब जो पचास महाकषाय कह आये है उनकी व्याख्या करते हैं॥ १३॥
जीवनीयादि ६ कषायवर्ग।
तद्यथा। जीवनीयोबृंहणीयो लेखनीयोभेदनीयःसन्धानीयोदीपनीय इतिषट्कःकषायवर्गः॥ १४॥
वह सब इसप्रकार हैं—जीवनीय, (जीवनके बढाने वाले) बृंहणीय (मांसको पुष्ट करनेवाले) लेखनीय (मलको उखाडकर निकालनेवाले) भेदनीय (मलको फाड़नेवाले) संधानीय (टूटेहुएको जोडनेवाले) दीपनीय (जठराग्निको चैतन्य करनेवाले) इसप्रकार यह छः कषायोंका वर्ग हुआ॥ १४॥
बलकारकादि ४ कषाय०।
बल्योवर्ण्यः कण्ठ्योहृद्यः इतिचतुष्कःकषायवर्गः॥ १५॥
बलकारक, वर्णकर्ता, कंठ्य (स्वरशोधक), हृद्य (हृदयको हितकारी) यह चार प्रकारका कषायवर्ग है॥१५॥
तृप्तिनाशकादि ६ कषाय०।
तृप्तिघ्नोऽर्शोघ्नः कुष्ठघ्नः कण्डूघ्नःकृमिघ्नोविषघ्नइतिषट्कः कषायवर्गः॥१६॥
तृप्तिनाशक (रुचिकारक) अर्शनाशक, कुष्ठनाशक, कंडू (खाज) नाशक, कृमि नाशक, विषनाशक, यह छः प्रकारके क्काथ हैं॥ १६॥
छातीके दूध बढानेवाले आदि ४ कषाय०।
स्तन्यजननःस्तन्यशोधनः शुक्रजननः शुक्रशोधनइतिचतुष्कःकषायवर्गः॥१७॥
स्तन्य (स्तनोंमें दूध) जनक, स्तन्य शधिक, शुक्रजनक, शुक्रशोधक, यह चार प्रकारके क्वाथ हैं॥१७॥
स्नेहके उपयोगी आदि ७ कषाय०।
स्नेहोपगःस्वेदोपगोवमनोपगोविरेचनोपगआस्थापनोपगोऽनुवासनोपगःशिरोविरेचनोपगइतिसप्तकःकषायवर्गः॥१८॥
स्नेहकर्मोपयोगी. स्वेदोपयोगी, वमनोपयोगी, विरेचनोपयोगी, आस्थापनोपयोगी, अनुवासनोपयोगी, शिरोविरेचनोपयोगी, यह सात प्रकार के क्वाथहैं॥ १८॥
छर्दिनिग्रहण आदि ३ कषाय०।
छर्दिनिग्रहणस्तृष्णानिग्रहणोहिक्कानिग्रहणइतित्रिकःकषायवर्गः॥१९॥
छर्दिनिग्रहण (छर्दिको रोकनेवाले), प्यासको रोकनेवाले, हिचकी रोकनेवाले यह तीन प्रकारके कषाय हैं॥ १९॥
पुरीषसंग्रहणीयआदि ५ कषाय०।
पुरीषसंग्रहणीयः पुरीषविरजनीयोमूत्रसंग्रहणीयोमूत्रविरेजनीयोमूत्रविरेचनीय इतिपञ्चकःकषायवर्गः॥२०॥
मलको बांधनेवाले, मलको शुद्ध करनेवाले, अधिक मूत्रको रोकनेवाले, मूत्रको शुद्ध करनेवाले, मूत्रको लानेवाले। यह पांच कषायोंका वर्ग है॥२०॥
कासहरआदि ५ कषाय०।
कासहरःश्वासहरःशोथहरोज्वरहरःश्रमहरइतिपञ्चकः कषायवर्गः॥२१॥
खांसीको हरनेवाला, श्वासको हरनेवाला, सूजनको हरनेवाला, ज्वरको हरनेवाला, श्रमको हरनेवाला, यह पांच प्रकारका कषायवर्ग है॥ २१॥
दाहप्रशमनआदि ५ कषाय०।
दाहप्रशमनःशीतप्रशमनउदर्दप्रशमनोऽङ्गमर्द्दप्रशमनःशूलप्रशमन इतिपञ्चकःकषायवर्गः॥२२॥
दाहको शमन करता, शीतको शांत करनेवाला, उदर्दरोगको शांत करनेवाला, अंगमर्द( अँगडाई ) को शांत करनेवाला, शूलको शांतकरनेवाला यह पांच प्रकारका क्वाथोंका वर्ग है॥ २२॥
शाैणितास्थापन आदि ५ कषाय०।
** शोणितास्थापनोवेदनास्थापनःसंज्ञास्थापनःप्रजास्थापनोवयः स्थापनइतिपञ्चकःकषायवर्गः। इतिपञ्चाशन्महाकषायाः॥२३॥**
रक्तको स्थापन करनेवाला, पीडाको हटानेवाला, बुद्धिको ठहरानेवाला, संतानकारक, आयुवर्द्धक, यह पांचप्रकारका कषाय है। इसप्रकार पचास महाकषाय होतेहैं॥ २३॥
५०० कषाय।
** महताञ्चकषायाणांलक्षणोदाहरणार्थंव्याख्याताभवन्ति। तेषामेकैकस्मिन्महाकषायेदशदशावयविकान्कषायाननुव्याख्यास्यामः। तान्येवपञ्चकषायशतानिभवन्ति॥ २४॥**
ऊपर कहे पंचास ५० कषायोके लक्षण उदाहरणके लिये कहेहैं। अब उनहीमेंसे एक २ के दश २ अंगोंका वर्णन करतेहैं। वही सब मिलकर पांच सौ होतेहैं॥ २४॥
जीवनीय १० द्रव्य।
** तद्यथा। जीवकर्षभकौमेदामहामेदाकाकोलीक्षीरकाकोलीमुद्गमाषपर्णीजीवन्तीमधुकमितिदशेमानिजीवनी-यानिभवन्ति॥ २५॥**
जैसे–जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा,काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, जीवंती, मुलहटी, यह दश औषधियोका जीवनीय गण है॥ २५॥
बृंहणीय १० द्रव्य।
**
क्षीरिणीराजक्षवकबलाकाकोलीक्षीरकाकोलीवाट्यायनीभद्रौदनीभारद्वाजीपयस्यर्ष्यगन्धाइतिदशेमानि-बृंहणीयानिभवन्ति॥ २६॥**
क्षीरविदारी, राजक्षवक् (दूधिया), खरटी, काकोली, क्षीरकाकोली, सफदे खरटी, सहदेई, वनकपास, विदारीकंद, विधायरा, यह दश औषध बृंहणीय गण हैं॥ २६॥
लेखनीयं १० द्रव्य।
**
मुस्तकुष्ठहरिद्रादारुहरिद्रावचातिविषाकटुरोहिणीचित्रकचिरबिल्वहैममत्यइतिदशेमानिलेखनीयानि-भवन्ति॥ २७ ॥**
नागरमोथा, कूठ, हलदी, दारुहलदी, वच, अतीस, कुटकी, चित्रक, करंज, सफेद बच, यह लेखनीय दशक है॥ २७॥
भेदनीय १० द्रव्य।
**
सुवहार्कोरुवूकाग्निमुखीचित्राचित्रकचिरविल्वशंखिनीशकुलादनीस्वर्णक्षीरिण्यइतिदशेमानिभेदनीयानि-भवन्ति॥ २८॥**
निशोत, आक, एरंड, भलावे, दंती, चित्रक, कंजा, शंखिनी (गुलाचीन) कुटकी, स्वर्णक्षीरी (सत्यानांसी) यह दश औषधी भेदन करनेवाली हैं॥ २८॥
सन्धानीय १० द्रव्य।
**
मधुकमधुपर्णीपृश्निपर्ण्यम्बष्ठकीसमङ्गामोचरसधातकीलोध्रप्रियंगुकट्फलानीतिदशेमानिसंधानीयानि भवन्ति॥ २९॥**
मुलहटी, गिलोय, पृष्ठपर्णी, पाटला, वाराहक्रांता, मोचरस, धावेके फूल, लोध, प्रियंगु, कायफल, यह दश औषध संधानीय ( जोडनेवाली ) हैं ( कहीं संधारणीय पाठ है जिसका अर्थ मलको धारणकरनेवाली होसकताहै )॥ २९॥
दीपनीय १० द्रव्य।
** पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकश्रृङ्गवेराम्लवेतसमरिचाजमोदाभल्लातकास्थिहिंगुनिर्यासाइतिदशेमानि-दीपनीयानिभवन्ति॥ ३०॥**
इतिषट्ककषायवर्गः।
पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, अम्लवेत, मिर्च, अजवायन, भलावेकी मींगी, हींग, यह दश औषध अग्निकोदीपन करनेवाली हैं यह ६ कषायोंका वर्ग है॥ ३०॥
बलकारक १० द्रव्य।
** ऐन्द्रीऋषभ्यतिरसर्ष्यप्रोक्तापयस्य श्वगंधास्थिरारोहिणीबलातिबलाइतिदशेमानिबल्यानिभवन्ति॥ ३१॥**
इंद्रायण, कौच, सतावर, विधायरा, विदारीकंद, असगंध, शालपर्णी, कुटकी, बला, अतिबला, यह दश बलदायक औषध हैं॥ ३१ ॥
वर्णशोधक १० द्रव्य।
** चन्दनतुङ्गपद्मकोशीरमधुकमञ्जिष्ठाशारिवापयस्यासितालता इति दशेमानिवर्ण्यानिभवन्ति॥ ३२॥**
चंदन, तुंग, नागकेशर, पद्मकाष्ठ, खस, मुलैठी, मजीठ, सारिवा, क्षीरकाकोली, सफेद दूब, यह दश औषध वर्णकारक (देहका रंग सुधारक) हैं॥ ३२ ॥
उत्तम कण्ठ करनेवाले १० द्रव्य।
** शारिवेक्षुमूलमधुकपिप्पलीद्राक्षाविदारीकैटर्यहंसपदीवृहतीकण्टकारिकइतिदशेमानिकण्ठ्यानिभवन्ति॥ ३३॥**
सारिवा, इक्षुमूल, मुलैठी, पीपल, मुनक्का, विदारीकंद, कायफल, लाजवंती, बडी कटेली, कटेली, यह दश औषध कंठको शुद्ध करती हैं॥३३ ॥
हृदय के हितकारक १० द्रव्य।
** आम्राम्रातकनिकुचकरमर्दवृक्षाम्लाम्लवेतसकुवलवदरदाडिममातुलुङ्गांनीतिदशेमानिहृद्यानिभवन्ति॥ ३४ ॥ इति चतुष्कःकषायवर्गः।**
आम, अंवाडा, बडहर, करौंदा, इमली, अम्लवेत, कलमी वेर, जंगली वेर, दाडिम, बिजौरा, यह दश हृदयको प्रिय हैं॥ यह चार कषायोका वर्ग हुआ॥ ३४ ॥
तृप्तिनाशक १० द्रव्य।
** नागरचित्रकचव्यविडङ्गमूर्वागुडूचीवचामुस्तपिप्पलीपटोलानीतिदशेमानितृप्तिघ्नानिभवन्ति॥ ३५ ॥**
सोंठ, चीता, चव्य, विडंग, मूर्वा, गिलोय, वच, मोथे, पीपल, पटोल, यह दश औषध तृप्तिनाशक (रुचिकारक) हैं॥ ३५ ॥
अर्शोनाशक १० द्रव्य।
** कुटजबिल्वचित्रकनागरातिविषाभयाधन्वयशकदारुहरिद्रावचाचव्यानीतिदशेमानिअर्शोघ्नानिभवन्ति॥ ३६ ॥**
कुडा, बेल, चीता, सोंठ, इलायची, हरड, जवासा, दारुहलदी, वच, चव्य, यह दश औषध तृप्तिनाशक हैं॥ ३६ ॥
कुष्ठनाशक १० द्रव्य।
** खदिराभयामलकहरिद्रारुष्करसप्तपर्णारग्वधकरवीरविडङ्गजातिप्रवालाइतिदशेमानिकुष्ठघ्नानिभवन्ति॥ ३७ ॥**
खैरसार, हरड, आमले, हलदी, भलावे, सप्तपर्ण, अमलतास, कनेर, विडंग, चमेलीकी कोपलें, यह दश औषध कुष्ठनाशक हैं॥ ३७ ॥
खर्जूनाशक १० द्रव्य।
** चन्दननलदकृतमालनक्तमालनिम्बकुटजसर्षपमधुकदारुहरिद्रामुस्तानीतिदशेमानिकण्डुघ्नानिभवन्ति॥ ३८ ॥**
रक्तचंदन, खस, अमलतास, कंजा, निंब, कुडा, सर्सों, मुलैठी, दारुहलदी, नागरमोथा, यह दशक खाजनाशक है॥ ३८ ॥
कृमिनाशक १० द्रव्य।
** अक्षीवमरिचगण्डीरकेवूकविडङ्गनिर्गुण्डीकिणहीश्वदंष्ट्रावृषपर्णिकाआखुपर्णिकाइतिदशेमानिकृमिघ्नानिभवन्ति॥ ३९ ॥**
सुहांजना, मिर्च, गंडीर (समठशाक), केवुक (केमुकवृक्ष), विडंग, संभालू, कटभी (मालकांगुनी या कटभीलता), गोखरू, वृषपर्णी, आखुपर्णी, यह दशक कृमिनाशक है॥ ३९ ॥
विषनाशक १० द्रव्य।
** हरिद्रामञ्जिष्ठासुवहासूक्ष्मैलापालिन्दीचन्दनकनकशिरीषसिन्धुवारश्लेष्मातकाइतिदशेमानिविषघ्नानिभवन्ति॥ ४० ॥ इतिषट्कःकषायवर्गः।**
हलदी, मंजीठ, रास्ना, इलायची छोटी,सारिवा, चंदन, निर्मलीका फल,सिरस, संभालु, लिसोडे, यह दशक विषनाशक है। यह ६ कषायोंका वर्ग है॥ ४० ॥
स्तनोंमें दूधको बढ़ानेवाले १० द्रव्य।
** वीरणशालीषष्टिकेक्षुवालिकादर्भकुमूकाशगुन्द्रेत्कटकत्तृणमूलानीतिदशेमानिस्तन्यजननानिभवन्ति॥ ४१ ॥**
खस, शालिधान्य, षष्टिकधान,इक्षुवालिका ( बडी किस्मकी डाभ ). दर्भ, कुशा, कास, गुंद्रप, टेर, उत्कट (वरू), कत्तृण (रोहिसतृण) यह दशक स्तनोंमें दूध उत्पन्न करनेवाला है॥ ४१॥
दुग्धशोधक१० द्रव्य
** पाठामहौषधसुरदारुमुस्तमूर्वागुडूचीवत्सकफलकिराततिक्तकटुरोहिणीशारिवाइतिदशेमानिस्तन्यशोधना-निभवन्ति॥४२॥**
पाठा, सोंठ, देवदारु, मोथा, मूर्वा, गिलोय, इंद्रजौं, चिरायता, कुटकी, सारिवा, यह दशक स्तनोंके दूधको शुद्ध करताहै॥ ४२ ॥
वीर्यउत्पन्नकरनेवाले १० द्रव्य।
** जीवकर्षभककाकोलीक्षीरकाकोलीमुद्गपर्णीमाषपर्णीमेदावृक्षरुहाजटिलाकुलिङ्गाइतिदशेमानिशुक्रजनना-निभवन्ति॥ ४३ ॥**
जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्रपर्णी, माषपर्णी, मेदा, वंदा, जटामांसी, कुलिंग (काकडासिंगी) यह दशक शुक्रको पैदाकरताहै॥ ४३ ॥
वीर्यशोधक १० द्रव्य।
** कुष्ठैलवालुककट्फलसमुद्रफेणकदम्बनिर्यासेक्षुकाण्डेक्ष्विक्षुरकवसुकोशीराणीतिदशेमानिशुक्रशोधनानि-भवन्ति॥ ४४ ॥**
इति चतुष्कः कषायवर्गः।
कूठ, एलवालुक, कायफल, समुद्रफेन, कदंबका गोंद, ईख, कांस, तालमखाने, अगस्तियाके फूल, खस, यह दशक शुक्रको शुद्ध करता है। यह चार कषायोंका वर्ग है॥ ४४ ॥
स्नेहके उपयोगी १० द्रव्य।
** मृद्वीकामधुकमधुपर्णीमेदाविदारीकाकोलीक्षीरकाकोलीजीवकजीवन्तीशालपर्ण्यइतिदशेमानिस्नेहोपयोगा-निभवन्ति॥ ४५ ॥**
मुनक्का, मुलैठी, गिलोय, मेदा, विदारीकंद, काकोली, क्षीरकाकोली जीवक, जीवंती, शालपर्णी, यह दशक स्नेहकर्ममें उपयोगी है॥ ४५ ॥
पसीना उत्पन्न करनेवाले १० द्रव्य।
** शोभाञ्जनकैरण्डार्कवृश्चीरपुनर्नवायवतिलकुलत्थमाषबदराणीतिदशेमानिस्वेदोपगानिभवन्ति॥ ४६॥**
सुहांजना, आक, एरंड, सफेद पुनर्नवा. लाल पुनर्नवा, जो, तिल, कुलथी, उडद,बेर, यह दशक पसीना देनेमे उपयोगी है॥ ४६॥
वमनकारक १० द्रव्य।
** मधुमधुककोविदारकर्बुदारणोपविदुलबिम्बीशणपुष्पीसदापुष्पीप्रत्यक्पुष्प्यइति दशेमानिवमनोपगानि-भवन्ति॥ ४७॥**
शहद, मुलैठी, लाल कचनार, सफेद कचनार, कदंवजलवेत, कंदूरी, शणपुष्पी, आक, अपामार्ग, यह दशक वमनकरानेमें उपयोगी है॥ ४७॥
विरेचन प्रवर्त्तक १० द्रव्य।
** द्राक्षाकाश्मर्य्यपरूषकाभयामलकविभीतककुवलबदरकर्कन्दुपीलूनीतिदशेमानिविरेचनोपगानिभवन्ति॥ ४८ ॥**
दाख, कंभारी, फालसा, हरड आमले, बहेडे, बडावेर, वेर, झडीवेर, पीलूफल, यह दशक विरेचनमें उपयोगी है॥ ४८ ॥
मलबन्धक १० द्रव्य।
** त्रिवृद्बिल्वपिप्पलीकुष्ठसर्षपवचावत्सकफलशतपुष्पामधुकमदनफलानीतिदशेमान्यास्थापनीयोपगानि-भवन्ति॥ ४९ ॥**
निशोत, बिल्व, पीपल, कूठ, सर्सों, वच, इंद्रर्जों, सौफ, मुलैठी, मैनफल, यह दशक आस्थापन वस्तीमें उपयोगी है॥ ४९॥
सुगन्धिकारक १० द्रव्य।
** रास्नासुरदारुबिल्वमदनशतपुष्पावृश्चीरपुनर्नवाश्वदंष्ट्राग्निमन्थश्योणाकाइतिदशेमानिअनुवासनोपगानि-भवन्ति॥ ५० ॥**
रास्ना, देवदारु, बिल्व, मैनफल, सौंफ, सफेद पुनर्नवा लाल पुनर्नवा, गोखरु, अरणी, सोनापाठा, यह दशक अनुवासन वस्तीमें उपयोगी है॥ ५० ॥
शिरोविरेचनीय १० दव्य।
** ज्योतिष्मतीक्षवकमरिचपिप्पलीविडङ्गशिग्रुसर्षपापामार्गतण्डुलश्वेतामहाश्वेताइतिदशेमानिशिरोविरेचनोप-गानिभवन्ति॥ ५१ ॥**
इति सप्तकः कषायवर्गः॥
मालकांगुनी, नकछिंकनी, मिरच, पीपल, वायविडंग, सुहांजना, सरसों, अपामार्गके बीज, सफेद कोयल, बडी कोयलका वृक्ष, यह दशक शिरोविरेचनमें उपयोगी है। इसप्रकार सात कषायोंका वर्ग है॥ ५१ ॥
वमन विनाशक १० द्रव्य।
** जम्ब्वाम्रपल्लवमातुलुङ्गाम्लबदरदाडिमयवयष्टिकोशीरमृल्लाजा इति दशेमानिछर्द्दिनिग्रहाणिभवन्ति॥ ५२ ॥**
जामनके पत्र, आमके पत्र, बिजौरा, खट्टा बेर, दाडिम, जव, मुलैठी, खस, सोरठकी मट्टी (गोपीचंदन), लाजा ( धानकी खील ), यह दशक वमन रोकनेवाला है॥ ५२ ॥
तृषानिग्रहकर १० द्रव्य।
** नागरधन्वयवासकमुस्तपर्प्पटकचन्दनकिराततिक्तकगुडूचीह्रीवेरधान्यकपटोलानीतिदशेमानितृष्णानिग्र-हाणिभवन्ति॥ ५३ ॥**
सोंठ, जवासा, नागरमोथा,पापडा, चंदन, चिरायता, गिलोय, खस, धनियां, पटोलपत्र, यह दश औषध प्यासको रोकती हैं॥ ५३॥
हिचकी निवारक १० द्रव्य।
** शटीपुष्करमूलवदरवीजकण्टकारिकाबृहतीवृक्षरुहाभयापिप्पलीदुरालभाकुलीरशृङ्ग्यइतिदशेमानि-हिक्कानिग्रहाणिभवन्ति॥ ५४॥**
इति त्रिकःकषायवर्गः।
कचूर, पोहकरमूल, बेरकी मींगी, कटेली, बडी कटेली, आकाशबेल, हरड, पीपलजवासा, काकडासिगी,यह दश औषध हिचकीको हटाती हैं। यह तीन कषायोका वर्ग है॥ ५४ ॥
मलरोधक १० द्रव्य।
** प्रियंग्वनन्ताम्रास्थिकट्वङ्गलोध्रमोचरससमङ्गाधातकीपुष्पपद्मापद्मकेशराणीतिदशेमानिपुरीषसंग्रहणानि-भवन्ति॥ ५५ ॥**
प्रियंगु, सारिवा, आमकी गुठली, सोनापाठा, लोध, मोचरस, समंगा, धावेके फूल, भाडंगी, कमलकी केशर, यह दश औषध मलको बांधती हैं॥ ५५ ॥
पुरीष शोधक १० द्रव्य।
** जम्बुशल्लकीत्वक्कच्छुरामधूकशाल्मलीश्रीवेष्टकभृष्टमृत्पयस्योत्पलतिलकणाइतिदशेमानिपुरीषविरज-नीयानिभवन्ति॥ ५६ ॥**
जामनकी छाल, छल्लके वृक्षकी छाल, जवासा, मुलैठी, सेमलकी छाल, सरलका गाद, भुनीहुई मिट्टी, क्षीरकाकोली, कमल, तिल, यह दशक मलको शुद्ध करनेवाला है॥ ५६ ॥
मूत्रके रोधक १० द्रव्य।
** जम्ब्वाम्रप्लक्षवटकपीतनोदुम्बराश्वत्थभल्लातकाश्मन्तकसोमवल्काइतिदशेमानिमूत्रसंग्रहणानिभवन्ति॥ ५७ ॥**
जामन, आम, पाकर, वड़, अंवाडा, गूलर, पीपल वृक्ष, भिलावा, अश्मंतक (कोविदार), खैर यह दश औषध अधिकमूत्रको रोकनेवाली हैं॥ ५७ ॥
सूत्रशोधक तथा मूत्र विरेचनीय १० द्रव्य।
** वृक्षादनीश्वदंष्ट्रावसुकोशरिपाषाणभेददर्भकुशकशागुन्द्रोंत्कटमूलानीति दशेमानिमूत्रविरेचनीयानिभवन्ति॥ ५८ ॥**
वंदा, गोखुरू, वसुक (अगस्तिया वृक्ष), हुलहुल, पापाणभेद, दर्भ, कुश, कॉस, गुद्रपटेर, बरू, यह दश औषध मूत्र लानेवाली हैं॥ ५८ ॥
** पद्मोत्पलनलिनकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रसधुकप्रियंगुधातकीपुष्पाणीतिदशेमानिमूत्रविरजनीयानि-भवन्ति॥ ५९ ॥**
इति पञ्चकः कषायवर्गः।
कमल, नीलकमल, नलिनकमल, कुमुद (भवूल), सौगंधिक कमल, पुंडरीक कमल, गुलाब, मुलैठी, फूल प्रियंगु, धावेके फूल, यह दस औषधी मूत्रको शुद्ध करनेवाली हैं। यह पांच प्रकारका कषायवर्ग है॥५९ ॥
कासहारक १० द्रव्य।
** द्राक्षाभयामलकपिप्पलीदुरालभाशृङ्गीकण्टकारिकावृश्चरिपुनर्नवातामलक्यइतिदशेमानिकासहराणि-भवन्ति॥ ६० ॥**
दाख, हरड, आमला, पीपल, जवासा, ककडसिंगी, कटेली, सफेद पुनर्नवा, लाल पुनर्नवा, भूमिआमला, यह दशक खांसीको नष्टकरनेवाली औषधियोंका है॥ ६० ॥
श्वासहर १० द्रव्य।
** शटीपुष्करसूलाम्लवेतसैलाहिंग्वगुरुसुरसातामलकीजीवन्तीचण्डाइतिदशेमानिश्वासहराणिभवन्ति॥ ६१ ॥**
कचूर, पोहकरमूल, अमलवेत, छोटी इलायची, हींग, अगर, तुलसी, भूमिआमला, जीवंती, गठौना, यह दश औषधी श्वासको हरनेवाली हैं॥६१ ॥
शोथहारक १० द्रव्य।
** पाटलाग्निमन्थबिल्वश्योणाककाश्मर्य्यकण्टकारिकाबृहतीशालपर्णीपृश्निपर्णीगोक्षुरकाइतिदशेमानिशोथ-हरणिभवन्ति॥ ६२ ॥**
पाटला, अरणी, बेल, सोनापाठा, कंभारी, कटेली, बडी कटेली, शालपर्णी, पृश्निवर्णी, गोखरू, यह दश औषधि सूजनको हरनेवाली है॥ ६२ ॥
ज्वरनाशक १० द्रव्य।
** शारिवाशर्करापाठामञ्जिष्ठाद्राक्षापीलपरूषकाभयामलकविभीतकानीतिदशेमानिज्वरहराणिभवन्ति॥ ६३ ॥**
सारिवा, शकर्रा (तरंजवीन, और शीरखीस्त या खांड), पाठा, मंजीठ, मुनक्का, पीलू, फालसा, हरड, आमले, वहेडे, यह दश औषध ज्वरनाशक हैं॥ ६३॥
श्रमनाशक १० द्रव्य।
** द्राक्षाखर्जूरपियालबदरदाडिमभल्गुपरूषकेक्षुयवयष्टिकाइतिदशेमानिश्रमहराणिभवन्ति॥ ६४ ॥** इति पञ्चकः कषायवर्गः
दाख, खजूर, चिरौंजी, बेर, अनार, गूलर, फालसा, ईख, जौ, साठीके चावल, यह दश औषधि श्रमको हरती हैं। यह पांचप्रकारका कषायवर्ग है॥ ६४ ॥
दाहनाशक १० द्रव्य।
** लाजाचन्दनकाश्मर्य्यफलमधुकशर्करानीलोत्पलोशीरशारिवागुडूचीह्रीवेराणीतिदशेमानिदाहप्रशमनानि-भवन्ति॥ ६५ ॥**
धानकी खील, चंदन, कंभारी, मुलैठी, मिसरी, नीलोफर, खस, सारिवा, गिलोय, नेत्रवाला, यह दश औषध दाहको शांत करती है॥ ६५ ॥
शीतप्रशामक १० द्रव्य।
** तगरागुरुधान्यकशृङ्गवेरभूतीकवचाकण्टकारिकाग्निमन्थश्योणाकपिप्पल्यइतिदशेमानिशीतप्रशमनानि-भवन्ति॥ ६६ ॥**
तगर, अगर, धनियां, सोंठ, अजवायन, वच, कटेली, अरणी, श्योनाक, पीपल यह दश औषध शीतको हरनेवाली हैं॥ ६६ ॥
उदर्दशामक १० द्रव्य।
** तिन्दुकपियालबदरखदिरकदरसप्तपर्णाश्वकर्णार्जुनासनारिमेदाइतिदशेमान्युदर्दप्रशमनानिभवन्ति॥ ६७ ॥**
तिंदुक (केंद) चिरौंजी, बेर, खैरसार, सफेद कत्था, सप्तवर्ण, सालवृक्ष,अर्जुनवृक्ष, विजेसार, अरिमेद यह दश औषध उदर्दको शांत करती हैं॥ ६७॥
अंगमर्दनाशक १० द्रव्य।
** विदारिगन्धापृश्निपरर्णीवृहतीकण्टकारिकैरण्डकाकोलीचन्दनोशीरैलामधुकानीतिदशेमान्यङ्गमर्दप्रशमना-निभवन्ति॥ ६८ ॥**
शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, वडी कटेली, छोटी कटेली, एरंडकी जड, काकोली, चंदन,उशीर, इलायची, मुलैठी, यह दश औषध अंगमर्दको रोकती हैं॥ ६८ ॥
शूलनाशक १० द्रव्य।
** पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरमरिचाजमोदाजगन्धाजाजीगण्डीराणीतिदशेमानिशूलप्रशमनानि-भवन्ति॥ ६९ ॥**
इति पञ्चकः कषायवर्गः।
पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक,सोंठ, मिर्च, अजवायन, अजमोद, जीरा, गंडरि, यह दश औषध शूलको शांत करतीहैं। यह पांचप्रकारका कषायवर्ग हुआ॥ ६९ ॥
रुधिरस्थापक १० द्रव्य।
** मधुमधुकरुधिरमोचरसमृत्कपाललोध्रगैरिकप्रियंगुशर्करालाजाइतिदशेमानिशोणितस्थापनानिभवन्ति॥ ७० ॥**
शहद, मुलैठी रुधिर (रक्तचंदन या केशर), मोचरस मट्टीका ठीकरा, लोध. गेरू, प्रियंगु, मिश्री, लाजा (खील) यह दश औषध रुधिरको स्थापन करती हैं॥ ७० ॥
पीडानिवारक १० द्रव्य।
** शालकट्फलकदम्बपद्मकतुङ्गमोचरसशिरीषवंजुलैलावालुकाशोकाइतिदशेमानिवेदनास्थापनानिभवन्ति॥ ७१ ॥**
शाल, कायफल, कदंव, पद्मकाष्ठ, नागकेशर, मोचरस, सिरस, वेत, एलवालुक, अशोक, यह दश औषधियोका वर्ग पीडा नष्ट करता है॥७१ ॥
संज्ञास्थापक १० द्रव्य।
** हिंगुकैटर्य्यारिमेदवचाजरिकवयःस्थागोलोमीजटिलापलंकषाशोकरोहिण्यइतिदशेमानिसंज्ञास्थापनानि-भवन्ति॥ ७२॥**
हींग, कैटर्य ( वकायन ), अरिमेद ( दुर्गंधिवाला खैर ) बच, ग्रंथिपर्ण, ब्राह्मी, जटामांसी, छड़, गूगल, कुटकी, यह दश औषध संज्ञास्थापक ( बेहोशी दूरकरनेवाले ) हैं॥ ७२ ॥
संतानस्थापन १० द्रव्य।
** ऐन्द्रीब्राह्मीशतवीर्य्यांसहस्रवीर्य्यामोघाव्यथाशिवारिष्टावाट्य पुष्पीविश्वक्सेनकान्ताइतिदशेमानिप्रजास्थाप-नानिभवन्ति॥ ७३ ॥**
ऐंद्री( इलायची या इंद्रायण ), ब्राह्मी, दूर्वा, सफेददूर्वा, पाड़र, आमला, हरड़, कुटकी, खरटी, प्रियंगु, यह दश औषध प्रजास्थापक हैं॥ ७३ ॥
वयस्थापन १० द्रव्य।
** अमृताभयाधात्रीमुक्ताश्वेताजीवन्त्यतिरसामण्डूकपर्णीस्थिरापुनर्नवाइतिदशेमानिवयस्थापनानिभवन्ति॥ ७४ ॥ इति पञ्चकःकषायवर्गः।**
गिलोय,हरडे, ऑवला, रास्ना, सफेद कोयल, जीवंती, शतावर, मंजीठ, शालिपर्णी, पुनर्नवा, यह दश औषध व्यवस्था ( आयु ) को स्थापन करते हैं। यह पांच कषायोंका वर्ग है॥ ७४ ॥
** इति पञ्चकषायशतान्यभिसमस्यपञ्चाशन्महाकषायाःमहताञ्चकषायाणां लक्षणोदाहरणार्थंव्याख्याताभवन्ति ॥ ७५ ॥ नहिविस्तरस्यप्रमाणमस्तिनचाप्यतिसंक्षेपोऽल्पबुद्धीनांसामर्थ्यायोपकल्पतेतस्मादनतिसंक्षेपेणानति-विस्तरेणचोद्दिष्टाः। एतावन्तोह्यल्पबुद्धीनांव्यवहारायबुद्धिमताञ्चस्वालक्षण्यानुमानयुक्तिकुशलानामनुक्तार्थ-ज्ञानायेति॥ ७६ ॥**
इसप्रकार यह पांच सौ महाकषाय और इनके लक्षण उदाहरणके लिये कहदिये हैं। क्योंकि यदि इनका विस्तार करनेलगें तो अप्रमाण बढजायँगे। और अत्यंत संक्षेपसे कहनेसे अल्पबुद्धिवाले समझनेमें असमर्थ होंगे। इसलिये न अति विस्तारसे और न अति संक्षेपसे इन कषायोंका वर्णन करदियाहै। इतना कहना ही अल्पबुद्धिवालोंको व्यवहारके लिये उत्तम है और बुद्धिमान् तो लक्षण, अनुमान् युक्ति द्वारा जो विषय कहनसे रहगया उसको भी समझ सकेंगे॥ ७५ ॥ ७६ ॥
एवं वादिनंभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच। नैतानिभगवन्पञ्चकषायशतानिपूर्य्यन्ते। तानितानिह्येवाङ्गानिसंप्लव-न्तेतेषु तेषुमहाकषायेष्विति॥ ७७ ॥ तमुवाचभगवानात्रेयः। नैतदेवं बुद्धिमताद्रष्टव्यमग्निवेश। एकोऽपिह्यने-कांसंज्ञांलभतेकार्य्यान्तराणिकुर्व्वन्। तद्यथापुरुषोबहूनांकर्म्मणांकरणेसमर्थो भवति। स यद्यत्कर्मकरोति-तस्यतस्यकर्मणः कर्त्तृकरणकार्य्यसंप्रयुक्तंतत्तद्गौणंनामविशेषंप्राप्नोति। तद्वदौषधद्रव्यमपिद्रष्टव्यम्। यदिचैक-मेवकिञ्चिद्द्रव्यमासादयामस्तथागुणयुक्तंयत्सर्व्वकर्मणांकरणेसमर्थंस्यात्कस्ततोऽन्यदिच्छेदुपधारयितुमुपदे-ष्टुंवाशिष्येभ्यइति॥ ७८ ॥
इसप्रकार कहते हुए आत्रेयभगवानसे अग्निवेश कहनेलगे हे भगवन् ! यह पांचसौ कषाय पूरे नहीं होसकते क्योंकि वही २ अंग और कषायों में भी हैं। जैसे मुलैठी कई जगह कषायों में गिनी जाचुकी और अलग २ एक २ अंगसे ५०० कषाय पूर्ण करने हैं फिर मुलैठीके कषायको किनमें लियाजाय ? उसीके अनेकजगह आनेसे गणना भी पूरी नहीं होती॥ ७७॥यह प्रश्न सुनकर भगवान् आत्रेय कहने लगे कि हे अग्निवेश ! बुद्धिमानोंको इस प्रकार कहना उचित नहीं क्योंकि एक वस्तु भी अलग २ कार्योंके करनेसे अनेक संज्ञाको प्राप्त होती है। जैसे एक ही पुरुष अनेक कामोंको अलग२ करनेकी सामर्थ्य रखता है। फिर वह जिस २ समय जिस २ कामको करता है उस २ समय उसी २ कामको करनेवाला होनेसे उसी २ गौण नामको प्राप्त होता है। उसीप्रकार औषध भी अलग २ कार्य करते अलग २ नामोंको प्राप्त होती हैं। यदि एक ही द्रव्य सब कर्मोंमें गुणकर्ता प्राप्त होजाय और उसीसे सब कार्य सिद्ध होसकें तो फिर और द्रव्योंका अपने शिष्यों को उपदेश करना ही वृथा है। (सो इन ५० दशकोंमें एक २ कषायमें अंगभूत होनेसे मधुंयष्टी आदिको कहना ही था इन दशों २ को ही कषायत्व है। एक २ में दश २ होनेसे ५०० संज्ञा होगई)॥७८॥
कषाय और उनके कारण व पांच प्रकारकी कल्पना।
** तत्र श्लोकाः। यतोयावन्तियैर्द्रव्यैर्विरेचनशतानिषट्। उक्तानिसंग्रहेणेहतथैवैषांषडाश्रयाः॥ ७९ ॥ रसालवणवर्जाश्चक-**
षायाइतिसंज्ञिताः। तस्मात्पञ्चविधायोनिःकषायाणामुदाहृता॥ ८० ॥ तथाकल्पनमप्येषामुक्तंपञ्चविधंपुनः। महताञ्चकषायाणांपञ्चाशत्परिकीर्तिता॥ ८१ ॥
यहां अध्यायका उपसंहार करते श्लोक कहते हैं। संक्षेपसे ६०० विरेचन संग्रहके लिये कहेहैं और उनके ६ आश्रय कहेहैं। छैरसोंमें नमकको छोड़ पांच रसोंवाले कषाय होते हैं इसीलिये कषायोंकी पांच प्रकारकी योनि है। इसीप्रकार कषायोंकी कल्पना भी पांचप्रकारकी कही है। और पचास महाकषाय कहे हैं॥ ७९ ॥ ८० ॥ ८१ ॥
पांचसौ कषाय।
पञ्चचापिकषायाणांशतान्युक्तानिभागशः।
लक्षणार्थंप्रमाणंहिविस्तरस्यनविद्यते॥ ८२ ॥
फिर उनको ५०० कषायों में विभागसे कथन करदियाहै। लक्षणार्थ कहनेमें विस्तारसे कथन करनेकी आवश्यकता नहीं॥ ८२ ॥
न्यूनाधिकताका विचार व मुख्य ५० कषाय।
नचालमतिसंक्षेपःसामर्थ्यायोपकल्प्यते।
अल्पबुद्धेरयंतस्मान्नातिसंक्षेपविस्तरः॥ ८३ ॥
मन्दानांव्यवहारायबुधानांबुद्धिवृद्धये।
पञ्चाशत्कोह्ययंवर्गःकषायाणामुदाहृतः॥ ८४ ॥
और अति संक्षेपसे कहना भी अल्पबुद्धिवालोंके लिये समझनेमें कठिन होगा॥ इसलिये न अति संक्षेपसे और न विस्तारसे, साधारण मनुष्योंके व्यवहारके लिये और बुद्धिमानोंकी बुद्धिकी वृद्धि के लिये यह पाँच सौ कषायोंका वर्ग कहा है॥८३ ॥८४ ॥
कषायज्ञवैद्यकी प्रशंसा।
तेषांकर्मसुबाह्येषुयोगमाभ्यन्तरेषुच।
संयोगंचवियोगञ्चयोवेदसभिषग्वरः॥ ८५॥
इति भेषजचतुष्कषड्विरेचनशताश्रितीयोनाम चतुर्थोध्यायः॥
सो जो मनुष्य इन ६०० विरेचनोंका और ५०० कषायोंका बाह्यकर्मोंमें और आभ्यंतर कर्मोंमें संयोग और वियोग भलीप्रकार जानकर उपयोग करताहै वही वैद्योंमें श्रेष्ठ है॥ ८५ ॥
इति श्रीचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहिताया पटियालाराज्यातर्गतटकसालनिवासिवैद्यपञ्चानन प० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां
षड्विरेचनशताश्रितीयो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥ ४ ॥
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अथ पञ्चमोऽध्यायः।
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** अथातोमात्राश्रितीयमध्यायंव्याख्यास्यामः। इतिहस्माहभगवानात्रेयः।**
अब हम मात्राश्रितीय अध्यायका कथन करतेहैं।ऐसा भगवान् आत्रेय कहनेलगे।
मात्राविचार।
** मात्राशीस्यात्। आहारमात्रापुनरग्निबलापेक्षिणी॥यावद्ध्यस्याशनमशितमनुपहत्यप्रकृतिंयथाकालंजरांग-च्छतितावदस्य मात्राप्रमाणं वेदितव्यंभवति॥ तत्रशालिषष्टिकमुद्गलावकपिञ्चलैणशशशरभशम्बरादीन्याहारद्र-व्याणिप्रकृतिलंघून्यपिमात्रापेक्षीणिभवन्ति॥ तथापिष्टेक्षुक्षीरविकृतिमाषानूपौदकपिशितादीन्याहारद्रव्याणि-प्रकृतिगुरूण्यपिमात्रामेवापेक्षन्ते॥ नचैवमुक्तेद्रव्येगुरुलाघवमकारणं मन्यते। लघूनिहिद्रव्याणिवाय्वग्नि-गणबहुलानिभवन्ति। पृथिवीसोमगुणबहुलानीतराणि।तस्मात्स्वगुणादपिलघून्यग्निसन्धुक्षणस्वभावान्यल्प-दोषाणिचोच्यन्ते अपिसौहित्योपयुक्तानिगुरूणिपुनर्नाग्निसन्धुक्षणस्वभावान्यसामान्यादतश्चातिमात्रंदोषवन्ति-सोहित्योपयुक्तानिअन्यत्रव्यायामाग्निबलात्। सैषाभवत्यग्निबलापेक्षिणीमात्रानचनापेक्षेतद्रव्यम्। द्रव्यापेक्षयाचत्रिभागसौहित्यमर्द्धसौहित्यंवागुरूणामुपदिश्यते। लघूनामपिचनातिसौहित्यमग्नेर्युक्तयर्थम्।मात्रावद्ध्यशनमशितमनु-पहत्यप्रकृतिंबलवर्णसुखायुषायोजयत्युपयोक्तारमनुष्यमिति॥ १ ॥**
मनुष्यको उचित मात्रासे भोजन करना चाहिये। वह मात्रा अर्थात् आहारका परिमाण मनुष्यकी जठराग्निके बलके आधीन है। जो भोजन कियाहुआ मनुष्यके स्वभावमें कुछ फर्क न लावे और ठीक समयपर पचजावे उस मनुष्यके लिये वही परिमित (ठीक मात्रा) भोजन है।शाली चावल, साठी चावल, मूंग, लवा, तित्तर, कृष्णसार, शशा, शरभ, शावर यह स्वभाव से ही हलके होते हैं। परंतु फिर भी मात्रासे अधिक सेवन करना उचित नही। इसीतरह पिष्टपदार्थ, खांड, गुड, आदी, दूधका विकार, खोआ, खडी आदि- उडद, और अनूपसंचारी जीवोंका मांस यह स्वभावसे ही गुरु (भारी) हैं।यह भी जितने ठीक पचसकें उतनी मात्रासे सेवन करने चाहिये। यहां पर जो इन द्रव्योंकी गुरुता, लघुता, कहीहै वह निष्प्रयोजन नहीं।क्योंकि जितने हलके पदार्थ हैं उनमें वायु और अग्निका गुण अधिक होता है। इसप्रकार गुरुपदार्थो में पृथ्वीका गुण और सोमगुण अधिक होता है। इसी कारणसे हलके पदार्थ अपने गुणके सबबसे स्वभावसे ही अग्निदीपन, अल्पदोष, और तृप्तिकर होते हैं। और भारी पदार्थ स्वभावसे ही अग्निके मंद करनेवाले होते हैं इसलिये अधिक मात्रासे उपयोग किये हुए दोषोंको प्रबल करते हैं। और बिना व्यायाम (कसरत) और जठराग्निकी ताकतसे गुरु (भारी) भोजन करना उचित नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि हलके पदार्थ यथेच्छ पेट भरकर खाय परंतु भारी पदार्थ बहुत पेट भरकर न खावे किंतु आहारकी मात्रा जठराग्निके बल पर निर्भर है द्रव्यके हलकेभारीपन पर नहीं। असल में सब पदार्थोके खानेका क्रम यह है कि जितने हलके पदार्थ हैं उनको तीन भाग पेट भर कर खाना हित है। और जितने भारी हैं उनको आधा पेट भर कर खाना हित है। ‘और हलका पदार्थ भी अधिक पेट भरकर खाना–जठराग्निकोमंद करता है। ठीक मात्रा से किया भोजन प्रकृति (स्वभाव) को नहीं बिगाडता इसलिये ठीक मात्रासे किया हुआ भोजन मनुष्योंको बल, वर्ण, सुख, आयु इनको देनेवाला होताहै॥ १॥
भोजन करने पर तुरत भोजन निषेध।
** भवन्तिचात्र॥गुरुपिष्टमयंतस्मात्तण्डुलान्पृथुकानपि। नजातुभुक्तवान्खादेन्मात्रांखादेद्बुभुक्षितः॥ २॥**
अब यहां कहतेहैं कि जब तक पहले किया हुआ आहार पाचन न होलेवे तब तक उसके ऊपर कोई भारी पदार्थ या पिष्टपदार्थ (मैदा, पिष्टी आदि) खीर, चावल, चिडुवा, कदापि न खावे। जब अन्न जीर्ण होकर भूख लगी होय तव परिमाणसे भोजन करे॥ २ ॥
न खानेयोग्य पदार्थ।
** वल्लूरंशुष्कशाकानिशालूकानिबिसानिच। नाभ्यस्येद्गौरवान्मांसंकृशंनैवोपयोजयेत्॥ ३ ॥ कूर्चिकांश्चकिलाटांश्चशौकरंगव्यमाहिषे2। मत्स्यान्दधिचमाषांश्च यवकांश्चनशीलयेत्॥ ४ ॥**
मांस, शुष्कशाक, शालूक (कमलकी डंडी), बिस, अनूपादिमांस इन सबको भारी होनेके कारण नित्य खानेका अभ्यास न करे और रोगादिसे सूखे जीवका मांस न खाय। छाछसे तथा और तरहसे फटाहुआ दूध, सूअरका मांस, गोमांस, (भैंसका मांस) इनको कभी भी ग्रहण न करे। मछली, दही, उडद, जौ, इनको नित्य खानेका अभ्यास न करे॥ ३ ॥ ४ ॥
सेवन योग्य पदार्थ।
षष्टिकाञशालिमुद्गांश्चसैन्धवामलकेयवान्।
आन्तरीक्षंपयःसर्पिर्जाङ्गलंमधुचाभ्यसेत्॥ ५ ॥
तच्चनित्यंप्रयुञ्जीतस्वास्थ्यंयेनानुवर्त्तते।
अजातानांविकाराणामनुत्पत्तिकरञ्चयत्॥ ६ ॥
सट्ठीके चावल, शाली चावल, मूंग, सेंधा नमक, आमले, गेहूं, आकाशका जल, दूध, घी, जांगल पदार्थ, सहद, इनको नित्य खायाकरे। जो द्रव्य देहकी स्वस्थावस्थाको न बिगाडे, और रोगोंको उत्पन्न न करे वह पदार्थ खाना चाहिये॥ ५॥ ६॥
अतऊर्द्ध्वशरीरस्यकार्य्यमभ्यञ्जनादिकम्।
स्वस्थवृत्तमभिप्रेत्यगुणतःसंप्रवक्ष्यते॥ ७ ॥
अब इसके उपरांत स्वस्थताकी रक्षा के लिये अभ्यंजनादि शरीर के कृत्य और उनके गुणोंका कथन करते हैं॥ ७ ॥
अंजन लगाना।
सौवीरमञ्जनंनित्यंहितमक्ष्णोःप्रयोजयेत्।
पञ्चरात्रेऽष्टरात्रेवास्रावणार्थेरसाञ्जनम्॥ ८ ॥
सफेद सुर्मा शुद्धतापूर्वक बनाया हुआ नित्यप्रति दोनों नेत्रोंमें डालना नेत्रोंको हितकारी है। और पांचवीं या आठवी रात्रीमें आंखोंसे जल निकालनेके लिये रसोत डालना चाहिये॥ ८॥
दिनमें तीक्ष्ण अंजन न लगावे।
** नहिनेत्रामयंतस्यविशेषाच्श्लेष्मतोभयम्। दिवातन्नप्रयोक्तव्यंनेत्रयोस्तीक्ष्णमञ्जनम्॥ ९ ॥ विरेकदुर्बलादृष्टि-रादित्यं प्राप्यसीदति। तस्मात्स्रव्यंनिशायान्तुध्रुवमञ्जनमिष्यते॥ १० ॥ ततःश्लेष्महरंकर्महितंदृष्टेःप्रसादनम्॥ ११ ॥**
ऐसा करनेसे मनुष्यको नेत्ररोगका आंखोंमें नजला आनेका भय नहीं होता। नेत्रों को स्रावित करनेवाला तीक्ष्ण अंजन दिनमें नही डालना चाहिये क्योंकि नेत्रोंका जल निकलकर निर्मल नेत्रोंमें सूर्यका प्रकाश लगनेसे दृष्टि कमजोर पडजातीहै। इसलिये जल निकालनेवाला अंजन रात्रीको ही डालना चाहिये। और इसी कारणसे कफको नष्ट करनेवाला तीक्ष्ण अंजन रात्रि में डालना नेत्रोंकी ज्योतिको प्रसन्न रखता है॥ ९॥ १०॥ ११॥
अंजनसे दृष्टिप्रसाद।
** यथाहिकणकादीनांमलिनांविविधात्मनाम्। धौतानांनिर्मलाृशुद्धिस्तैलचेलकचादिभिः॥ १२ ॥ एवंनेत्रेषुमर्त्या नामञ्जनाश्च्योतनादिभिः। दृष्टिर्निराकुलाभातिनिर्मलेन भसीन्दुवत्॥ १३ ॥**
जैसे सुवर्णादि धातु तेल कपडा बाल आदिके संयोगसे धुलकर स्वच्छ होजाते हैं ऐसे ही मनुष्योंके नेत्र अंजन और आश्र्योतन आदि कर्मसे स्वच्छ होकर जैसे निर्मल आकाशमें चंद्रमा प्रकाशमान होताहै ऐसे निर्मल प्रकाशमान नेत्र रहतेहैं॥ १२॥ १३॥
अंजनके द्रव्य।
** हरेणुकांप्रियंगुञ्चपृथ्वीकांकेशरंनखम्। ह्रीवेरंचन्दनंपत्रंत्वगेलोशीरपझकम्॥ १४ ॥ ध्यामकंमधुकंमांसीगुग्गुल्वगुरुशर्करम्। न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षलोध्रत्वचःशुभाः॥ १५ ॥वन्यंस्वर्जरसंमुस्तंशै-लेयंकमलोत्पले। श्रीवेष्टकंशल्लकीञ्चशुकबर्हमथापिच॥ १६ ॥ पिष्ट्वलिम्पोच्छरषिकांतांवर्त्तियवसन्निभाम्।अंगुष्ठसंमितांकुर्य्यादष्टांगुलसमांभिषक्॥ १७ ॥ शुष्कांविगर्भांतांवर्त्तिंधूमनेत्रार्पितांनरः। स्नेहाक्तामग्निसंप्लुष्टां पिबेत्प्रायोगिकींसुखाम्॥ १८ ॥**
रेणुक, प्रियंगु, कालाजीरा, नागकेशर, नख, सुगंधवाला, चंदन, तेजपत्र, तज, इलायची, खस, पद्माख, रोहिषतृण, मुलैठी, जटामांसी, गुग्गुल, अगर, मिश्री, बड़, गूलर, पीपलवृक्ष, प्लक्ष, पठानीलोध, वंशलोचन, बडा नरसल, राल, मोथा, छारछबीला, कमल, उत्पल, सरलका गोंद, छल्लवृक्ष, शुकवई (सिरस या ग्रंथिवर्ण) इन सबको पीसकर आठ अंगुल लंबे काने (सरपतेकी सींख) पर एक जौके समान मोटा लेप करके अंगूठेकी समान मोटा करके सुखालेवे सूखनेपर उसमेंसे सींख निकालडाले फिर इस बत्तीको घीमें भिगोकर एकतर्फसे नालमें लगादे दूसरी तर्फसे आग लगादेवे फिर इसके धूमको पान करे यह धूम नजलेको नष्ट करता है॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८ ॥
वसाघृतमधूच्छिष्टैर्युक्तियुक्तैर्वरौषधैः।
वर्तिंमधुरकैःकृत्वास्नैहिकींधूममाचरेत्॥ १९ ॥
चर्बी, घी, मोम और जीवनीय दश औषधी इनको मिलाकर इनका धूम पीवे इसको स्नेहिक धूमपान कहते हैं॥ १९ ॥
शिरोविरेचनमें धूम।
श्वेताज्योतिष्मतीचैवहरितालंमनःशिला।
गन्धाश्चागुरुपत्राद्याधूमोमूर्द्धविरेचनम्॥ २० ॥
सफेद कोयल, मालकांगुनी, हरिताल, मनसिल, अगर, पत्रजआदि गंधद्रव्य मिलाकर बत्ती बनावे इसका धूआं पीनेसे शिरका विरेचन होता है॥ २० ॥
अन्यरोगोंमें धूम प्रयोग।
गौरवंशिरसःशूलंपीनसार्द्धावभेदकौ। कर्णाक्षिशूलंकासश्चहिक्काश्वासौगलग्रहः॥ २१ ॥ दन्तदौर्बल्यमास्रा-वःश्रोत्रघ्राणाक्षिदोषजः। पूतिघ्राणास्यगन्धश्चदन्तशुलमरीचकः॥ २२ ॥हनुमन्याग्रहःकण्डूःक्रिमयःपाण्डुतामुखे।श्लेष्मप्रसेकोवैस्वर्य्यंगलशुण्ड्यपजिंह्विकां॥ २३ ॥ खालित्यंपिञ्जरत्वञ्चकेशानांपतनन्तथा। क्षवथुश्चातितन्द्राचबुद्धेर्मोहोऽतिनिद्रता॥ २४ ॥ धूमपानात्प्रशाम्यंतिबलंभवतिचाधिकम्। शिरोरुहकपालानामिन्द्रियाणांस्वरस्यच॥ २५ ॥नचवातकफात्मानोवलिनोऽप्यूर्द्ध्वजत्रुजाः। धूमवक्रकपान-स्यव्याधयःस्युःशिरोगताः ॥ २६ ॥
धूआं पीनेसे भारीपन, मस्तक पीडा, पीनस, अर्धावभेदक, कानकी पीडा, नेत्रपीडा, खांसी, हिचकी, श्वास, गलेका रुकना, दांतोंकी दुर्बलता, रोममार्गका वंदहोना, कान नासिका और नेत्रोंका बहना तथा दुर्गंधि, दंतपीडा, अरोचक, हनुग्रह, मन्यास्तंभ, खाज, कृमि, पांडु, मुखसे कफका गिरना, स्वरभंग, गलगुंडी, उपजिह्व, खालित्य, बालोंका पीलापन व गिरना, छींक, तंद्रा, बेहोशी, अतिनिद्रा यह सबनष्ट होते हैं। और बाल, शिर, इंद्रिय, स्वर इनका बल बढ़ता है। जो मनुष्य मुखसे धूंएको पीकर नासिका द्वारा निकालता है उस मनुष्यके ऊर्ध्वजत्रुवोंमें बात कफके बलवान रोग नहीं होते और शिरमें होनेवाली बात कफकी व्याधियें नहीं होती॥ २१–२६ ॥
धूमपानके काल।
** प्रयोगपानेतस्याष्टौकालाःसम्परिकीर्त्तिताः। वातश्लेष्मसमुत्क्लेशःकालेष्वेषुहि लक्ष्यते॥ २७ ॥ स्नात्वाभु-क्त्वासमुल्लिख्यक्षुत्त्वादन्तान्विघृष्यच। नावनाञ्जननिद्रान्तेचात्मवान्धूमपो भवेत्॥ २८ ॥ तथावातकफात्मानो-नभवन्त्यूर्द्धजत्रुजाः। रोगास्तस्यतुपेयाःस्युरापानास्त्रिस्त्रयस्त्रयः॥ २९ ॥ परंद्विकालपायीस्यादह्नःकालेषुबुद्धि-मान्। प्रयोगेस्नैहिकेत्वेवं विरेच्यंत्रिश्चतुःपिबेत्॥ ३० ॥**
धूंएके पीनेके आठ काल हैं क्योंकि बात कफके बलवान् होनेके भी यही आठ काल हैं। स्नान करके, भोजन करके, वमन करके, छींकें लेकर, दतौनके पीछे, नास लेनेके पीछे, अंजन करके, और सोकर उठके बुद्धिमान् मनुष्य धूमपान करे। इस प्रकार धूमपान करने से ऊर्द्धजत्रु (गर्दनसे ऊपर) के होनेवाले बात और कफके रोग कभी नहीं होते। यह धूमपानके आठ काल कहे हैं, इनमें एक २ समय तीन २ बार धूमपान करना चाहिये। यही धूमपानका क्रम है यद्यपि धूमपानके आठ समय कहे गये तथापि एक दिनमें प्रायोगिक धूम दो समय, स्नेहिक धूम एक बार, विरेचन धूम एकदिन में तीन चार बार पीवे॥२७–३०॥
धूमपानसे कण्ठादिकी शुद्धि।
** हृत्कण्ठेन्द्रियसंशुद्धिर्लघुत्वंशिरसःशमः।यथेरितानांदोषाणांसम्यक्पीतस्यलक्षणम्॥ ३१ ॥**
उत्तम रीतिसे धूम्रपान किया–हृदय, कंठ, इंद्रिय इनकी शुद्धि करता है और शिरमें हलकापन लाताहै तथा सब दोषोंको चलायमान कर यथास्थानमें ठीक करदेता है यह अच्छे धूमपानके लक्षण हैं॥ ३१ ॥
असमय धूमपानके उपद्रव।
बाधिर्य्यमान्द्यंमूकत्वंरक्तपित्तंशिरोभ्रमम्।
अकालेचातिपीतश्चधूमःकुर्य्यादुपद्रवान्॥ ३२ ॥
अकाल धूमपान और अतिधूमपान किया हुआ–बाधिर्य, जडता, मूकता, रक्तपित्त, शिरमें चक्कर इन उपद्रवोंको पैदा करता है॥ ३२ ॥
उपद्रवशान्तिके उपाय।
** तत्रेष्टंसर्पिषःपानंनावनाञ्जनतर्पणम्।स्नेहिकंधूमजेदोषेवायुःपित्तानुगोयदि॥ ३३ ॥शीतन्तुरक्तपित्तेस्या-च्छ्लेष्मपित्तेविव्वरूक्षणम्। परन्त्वतःप्रवक्ष्यामिधूमोयेषांविगर्हितः॥ ३४ ॥**
धूम्रपानसे हुए उपद्रवोंको शांत करनेके लिये घी पिलाना, नस्य, अंजन, और तर्पण करना हित है।यदि धूमपानसे वात पित्त कुपित हों तो चिकनी क्रिया करनी चाहिये यदि रक्तपित्त कुपित हो तो शीतल क्रिया करनी और कफ पित्त कुपित हो तो रूक्ष क्रिया करना हित है। अब जिनको धूमपान न करना चाहिये उनको कहते हैं॥ ३३ ॥ ३४ ॥
धूमपानके अनधिकारी।
** नविरिक्तःपिबेध्दूमंनकृतेबस्तिकर्मणि। नरक्तीनविषेणार्त्तोनशोचीनचगर्भिणी॥ ३५ ॥**
दस्त करायेहुए मनुष्यको धूमपान न करना चाहिये तथा बस्तिकर्मके पीछे, रक्तविकारवाला, विषार्त, शोकातुर, गर्भवती स्त्री, यह सबधूमपान न करें॥ ३५ ॥
धूमपानके अयोग्यरोग।
** नश्रमेनमदेनामेनपित्तेनप्रजागरे। नमूर्च्छाभ्रमतृष्णासुनक्षीणेनापिचक्षते॥ ३६ ॥नमद्यदुग्धेपीत्वाचनस्नेहंन-चमाक्षिकम्।धूमंनभुक्त्वादध्नाचनरूक्षःक्रुद्धएवच॥ ३७ ॥ नतालुशोषेतिमिरेशिरस्यभिहते न च। नशंखकेनरो-हिण्यांनमेहेनमदात्यये॥ ३८ ॥ एषुधूममकालेषुमोहात्पिबतियोनरः। रोगास्तस्यप्रवर्द्धन्तेदारुणाधूमविभ्रमात्॥ ३९ ॥**
एवं श्रमयुक्त, मद्य पीकर, आमाजीर्णवाला, पित्तकी कुपित अवस्थामें, रात्रिमें जागाहुआ, यह भी धूमपान न करे। ऐसे ही मूर्छा, भ्रम, तृषा, क्षतक्षीण, इनसे ग्रसित मनुष्य, और मद्य, दूध, स्नेह, शहद, इनको पानकर भी धूम न पीवे।दही खाकर, रूक्ष, क्रोधयुक्त, तालुशोषी, तिमिररोगी, जिसके सिर में चोट लगीहो, कनपटीके रोगवाला, रोहिणीरोगमें, प्रमेहमें, मदात्ययमें, इनमें भी धूमपान न करे।जो मनुष्य इन वर्जित रोगोंमें और अकालमें मोहवश धूमको पान करताहै उस मनुष्यके धूमपानकी खराबीसे दारुण रोग वृद्धिको प्राप्त होते हैं॥३५–३९ ॥
विशेष रोगोंमेंविशेषस्थानोंसेधूमपान।
** धूमयोग्यःपिबेद्दोषेशिरोघ्राणाक्षिसंश्रये। घ्राणेनास्येनकण्ठस्थेमुखेनघ्राणपोवमेत्॥ ४० ॥ आस्येनधूमकवला-न्पिबन्घ्राणेननोद्वमेत्। प्रतिलोमंगतोह्याशुधूमोर्हिस्याद्धिचक्षुषी॥ ४१ ॥ ऋज्वङ्गचक्षुस्तच्चेताःसूपविष्टस्त्रिप-र्ययम्।पिबेच्छिद्रंपिधायैकं नासयाधूममात्मवान्॥ ४२ ॥**
जिसके–मस्तक, नाक, नेत्रोंको वातादि दोष आक्रमण करलेवें तो धूमपानयोग्य वह मनुष्य नासिकाद्वारा धूमपान करके मुखमेंको धूम निकालदेवे। किंतु मुखद्वारा धूम पीकर नाकद्वारा न निकाले क्योंकि प्रतिलोम होकर धूम नेत्रोंको बिगाड देता है, सबअंगोंको नरम करके सुखपूर्वक बैठा हुआ धूमपानमें मन लगाकर नाकका एक छिद्र बंदकर दूसरे छिद्र द्वारा बुद्धिमान् मनुष्य तीन बार धूम्रपान करे॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥
नेचा प्रमाण।
** चतुर्विंंशतिकंनेत्रंस्वंगुलीभिर्विरेचने। द्वात्रिंशदंगुलंस्नेहेप्रयोगेऽध्यर्द्धमिष्यते॥ ४३ ॥ ऋजुत्रिकोषाफलितंको-लास्थ्यग्रप्रमाणितम्।बस्तिनेत्रसमद्रव्यं धूमनेत्रंप्रशस्यते॥ ४४ ॥ दूराद्विनिर्गतःपर्वच्छिन्नोनाडीतनूकृतः। नेन्द्रियंबाधतेधूमोमात्राकालनिषेवितः॥ ४५ ॥ यदाचोरश्चकण्ठश्र्वशिरश्चलघुतांव्रजेत्। कफश्चतनुतांप्राप्तःसुपीतंधूममादिशेत्॥ ४६ ॥**
विरेचन धूम्रमें २४ अंगुल लंबी नाली लेना चाहिये। स्नेह धूम्रपान में ३२ अंगुली और प्रायौगिक धूम्रपानमें १६ अंगुलकी नली लेवे धूम्रपानकी नली मुखकी तर्फसे क्रमपूर्वक सीधी होनी चाहिये इसके जोड़में भीतर छिद्र रहना चाहिये। इसमें तीन टुकडे होतेहैं। इसकी नलीका छिद्र बेरकी गुठलीके समान होना चाहिये। जिन द्रव्योंसे वस्तीके नेत्र बनते हैं उन्हींसे धूमनेत्र बनाए जातेहैं। दूरसे निकलकर खिंचता हुआ धूम नालके जोडमेंको होता हुआ बंधकर नलीकी ओर आवे ऐसी नली लेनाचाहिये। इसप्रकार मात्रा और कालके अनुसार पीया हुआ धूम इंद्रियोंको बाधा नहीं करता। धूम पान करते जब–छाती, कंठ, मस्तक, यह हलके प्रतीत होने लगे और कफ पतला होकर निकलने लगे तो जानना कि ठीक धूमपान किया गया॥४३–४६॥
धूमपान ठीक न होना।
** अविशुद्धःस्वरोयस्यकण्ठश्चसकफोभवेत्। स्तिमितोमस्तकश्चैवमपीतंधूममादिशेत्॥ ४७ ॥ तालुमूर्द्धाच-कण्ठश्चशुष्यतेपरितप्यते। तृष्यतेमुह्यतेजन्तूरक्तञ्चस्रवतेऽधिकम्॥ १८ ॥**
यदि धूमपानसे स्वर शुद्ध न हो (बिगडजाय), कंठमें कफ बोले, मस्तक भारी होजाय, तो समझो कि धूम ठीक नहीं पीयागया॥ ४७ ॥ अति धूम्रपानसे–तालु, मूर्द्धा, कंठ, यह सूखने लगतेहैं, और तपने लगते हैं, प्याससे और चक्कर आनेसे जीव व्याकुल होनेलगताहै लोहू गिरने लगता है॥ ४८ ॥
अधिकधूमपानके दोष।
शिरश्चभ्रमतेऽत्यर्थंंमूर्च्छाचास्योपजायते।
इन्द्रियाण्युपतप्यन्तेधूमेऽत्यर्थंनिषेविते॥ ४९ ॥
शिरमें बहुत चक्कर आनेलगते हैं, मूर्छा आने लगती है सब इंद्रियें व्याकुल होजाती हैं, इस प्रकार के उपद्रव होते हैं॥ ४९ ॥
धूमपानके अयोग्य देशकाल।
वर्त्मवर्षेऽणुतैलञ्चकालेषुत्रिषुनाचरेत्।
प्रावृट्शरद्वसन्तेषुगतमेघेनभस्तले॥ ५० ॥
अत्यंत धूमपानसे यदि देहके छिद्रोंसे रुधिर निकलनेलगे तो अणुतैल की शरीरपर मालिश करावे। परंतु वर्षा, शरद, वसंत इन ऋतुओंमें अणुतेल न लगावे और मेघाच्छन्न आकाशके दिन भी अणुतेल न लगावे॥ ५० ॥
नस्यके गुण।
** नस्यकर्म्मयथाकालंयोयथोक्तंनिषेवते। नतस्यचक्षुर्नघ्राणंन श्रोत्रमुपहन्यते॥ ५१ ॥ नस्युःश्वेतानकपिलाःके-शाःश्मश्रूणि वापुनः। नचकेशाःप्रलुठ्यन्तेवर्द्धन्तेचविशेषतः॥ ५२ ॥ मन्यास्तम्भःशिरःशूलमर्दितंहनुसंग्रहः।पीनसार्द्धावभेदौचशिरःकम्पश्चशाम्यति॥ ५३ ॥ शिराःशिरःकपालानांसन्धयः स्नायुकण्डराः।नावनप्रीणिताश्चा-स्यलभन्तेऽभ्यधिकंबलम्॥ ५४ ॥ मुखंप्रसन्नोपचितंस्वरःस्निग्धःस्थिरोमहान्। सर्वेन्द्रियाणांवैमल्यंबलंभवति-चाधिकम्॥ ५५ ॥ नचास्यरोगाः सहसाप्रभवन्त्यूर्द्धजत्रुजाः। जीर्य्यतंश्चोत्तमाङ्गेचजरानलभतेबलम्॥ ५६ ॥**
जो मनुष्य शास्त्रोक्त रीतिसे विधिपूर्वक ठीक समय नसवार लेताहै उसके नेत्र, नासिका और कानोकी शक्ति कभी नष्ट नहीं होती। और केश, डाढी, मूँछ सफेद तथा पीले नहीं होते और बाल बढ़ते हैं कभी उखडकर नहीं गिरते। उस मनुष्यके मन्यास्तंभ, शिरकी पीडा, अर्दितवायु, हनुस्तंभ, पीनस, अधसिरा, शिरका कांपना, यह सबरोग शांत होते हैं। और उचित नस्यके फलसे मनुष्यके मस्तक और कपाल की शिरा, संधि, स्रायु, कडंरा, तृप्तहो बलवान् होती है मुख प्रसन्न और शुद्ध रहता है। आवाज तर और बलवान् होजाती है। सब इंद्रियें निर्मल और अधिक बलवाली होती हैं। और गलेसे ऊपर होनेवाले रोग अपना प्रभाव नही दिखाते बुढापा आनेपर भी इसके बाल सफेद नहीं होते॥ ५१ ॥ ५२ ॥ ५३ ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ ५६ ॥
नस्यकरनेयोग्य तैल तथा प्रमाण।
** चन्दनागुरुणीपत्रंदार्वीित्वक्मधुकंबलाम्। प्रपौण्डरीकंसूक्ष्मैलांविडङ्गबिल्वमुत्पलम्॥ ५७ ॥ ह्रीवेरमभयंवन्यं-त्वङ्मुस्तं सारिवां स्थिराम्। सुराह्वंपृश्निपर्णीञ्चजीवन्तीञ्चशतावरीम्॥ ५८ ॥ हरेणुंबृहतींव्याघ्रींसुरभींपद्म-केशरम्। विपाचयेच्छतगुणेमाहेन्द्रेविमलेऽम्भसि॥ ५९ ॥ तैलाद्दशगुणंशेषंकषायमवतारयेत्। तेनतैलंकषायेणदशकृत्वोविपाचयेत्॥ ६० ॥ अथास्यदशमेपाकेसमांशंछागलंपयः। दद्यादेषोणुतैलस्यनावनीयस्यसंविधिः॥ ६१ ॥ तस्यमात्रांप्रयुञ्जी-ततैलस्यार्द्धपलोन्मिताम्। स्निग्धस्विन्नोत्तमाङ्गस्यपिचुनानावनैस्त्रिभिः॥ ६२ ॥**
अणुतैलकी विधि लिखते हैं—चंदन, अगर, तेजपत्र, दारुहलदी, दालचीनी, मुलैठी, खरेटी, पंड्यारा, छोटी इलायची, बायविडंग, बेलगिरी, कमल, नेत्रवाला, खस. केवटीमोथा, तज, नागरमोथा, शांरिवा, शालिपर्णी, देवदारु, पृष्ठपर्णी, जीवंती, शताबर, रेणुका, बडी कटेली, छोटी कटेली, शल्लकी, कमलकी केशर, इन सब औषधियोंको कूटकर सौगुने वर्षाके निर्मल जलमेंपकावे जब चतुर्थावशेष रहे तो उतारकर छानले फिर इससे दशवां हिस्सा तेल लेकर उसमें तेलकी बराबर क्वाथ डालकर पकावेपानी जलकर तेल रहनेपर एक भाग क्वाथ फिर मिलावे इसी प्रकार दशबारमें सब क्काथतेलमें जलादे परंतु दशवीं बार इसमें बराबरका बकरीका दूध डालकर पकावे तेलमात्र शेषरहनेपर छानले इस तेलको अणु (सूक्ष्म) तेल कहते हैं।इसके नस्यकी यह विधि है, दो तोला तेल लेकर पहले मस्तकको स्निग्धकरे फिर मस्तकको पसीना दे॥ ५७–६२ ॥
दिनप्रमाण।
त्र्यहात्त्र्यहाच्चसप्ताहमेतत्कर्म्मसमाचरेत्।
निवातोष्णसमाचारोहिताशीनियतेन्द्रियः॥ ६३ ॥
तीन २दिनके अंतरमे रुईकेफोहेके साथ इस तेलकी नसवार देवे इस प्रकार एक सप्ताह करेऔर नस्य लेनेके पीछे हवासे बचकर रहैगर्मजलका व्यवहार करे, पथ्य और मित भोजन करे जितेन्द्रिय रहे॥ ६३ ॥
तेलके गुण।
तैलमेतत्त्रिदोषघ्नमिन्द्रियाणांवलप्रदम्।
प्रयुञ्जानोयथाकालंयथोक्तानश्नुतेगुणान्॥ ६४ ॥
यह तेल त्रिदोषनाशक है और इन्द्रियोंको बल देता है। यह उचित रीतिसे काल आदि विचारकर सेवन किया हुआ अनेक गुणोंको करताहै॥ ६४ ॥
दो समय दन्तधावन।
आपोथिताग्रंद्वौकालौकषायंकटुतिक्तकम्।
भक्षयेद्दन्तपवनंदन्तमांसान्यबाधयन्॥ ६५ ॥
** **नित्य प्रातः और सायंकाल दोनों समय कूचीयुक्त नम्र दतौन करे दतौन कषैले, कडुए, चर्परेवृक्षकी होनी चाहिये। इसकी नरम कूचीसे एक २ दांतको इस प्रकार साफ करे जिससे मसूडे न छिलजायॅ॥ ६५ ॥
दन्तधावनके गुण।
निहन्तिगन्धवैरस्यंजिह्वादन्तास्यजंमलम्।
निष्कृष्यरुचिमाधत्तेसद्योदन्तविशोधनम्॥ ६६ ॥
दतौन करना मुखकी दुर्गन्धि और विरसनाको दूर करताहै तथा जीभ, दांत और मुखकी मैलको दूर करताहै और रुचिको उत्पन्न करताहै।दातोंको शीघ्र साफ करताहै॥ ६६ ॥
सुवर्णादिकी जिम्भी।
सुवर्णरूप्यताम्राणित्रपुरीतिमयानिच।
जिह्वानिर्लेखनानिस्युरतीक्ष्णान्यनृजूनिच॥ ६७ ॥
जीभका मैल दूर करनको–सुवर्ण, चांदी, ताँबा, शीशा पीतल, इनमेसे किसीकी जिम्भी होनी चाहिये वह टेढी कुछ२नरम जो जीभको न काटडाले ऐसी होनी चाहिये॥ ६७ ॥
जिह्वाकी स्वच्छतासे लाभ।
जिह्वामूलगतंयच्चमलमुच्छ्वासरोधिच।
सौगन्ध्यंभजतेतेनतस्माज्जिह्वांविनिर्लिखेत्॥ ६८ ॥
उससे जीभका मैल दूर करे (कोई वृक्षकी भी मानतेहैं) जीभका मैल उतारनेसे श्वासको रोकनेवाला मल दूर होकर मुख सुगंधित होताहै इसलिये जीभका मैल उतारडाले॥६८ ॥
दन्तधावनके श्रेष्ठ वृक्ष।
करञ्जकरवीरार्कमालतीककुभासनाः।
शस्यन्तेदन्तपवनेयेचाप्येवंविधाद्रुमाः॥ ६९॥
दतौन;कंजा, कनेर, आक, मालती, कोह, बिजेसार तथा और भी गुणदोषादि विचारकर ऐसे वृक्षकी सीधी नरम टहनीकी करनी चाहिये॥ ६९ ॥
लौगदि मुखमें रखनेके लाभ।
** धार्य्याण्यास्येनवैशद्यरुचिसौगन्धमिच्छता। जातीकटुकपूगानांलवङ्गस्यफलानिच॥ ७० ॥ कक्कोलकफलं-पत्रंताम्बूलस्यशुभं तथा। तथाकर्पूरनिर्य्यासःसूक्ष्मैलायाःफलानिच॥ ७९ ॥**
मुखकी शुद्धि, रुचि, और सुगंधिकी इच्छा करनेवाले मनुष्यको जायफल, लताकस्तूरी, सुपारी, लौंग, कंकोल, शुद्ध पान, कपूर, छोटी इलायची इनको मुखमें धारण करना चाहिये॥ ७० ॥ ७१ ॥
** हन्वोर्बलंस्वरबलंवदनापचयःपरः। स्यात्परञ्चरसज्ञानमन्नेच रुचिरुत्तमा॥ ७२ ॥ नचास्यकण्ठशोषःस्यान्नौष्ठ-योःस्फुटनाद्भयम्। नचदन्ताःक्षयं यान्तिदृढमूलाभवन्तिच॥ ७३ ॥**
मुखमें तेलको धारण करके कुल्ले करदेना ठोडीको बल देताहै स्वरको बलवान करता है। मुखकी पुष्टि, रसका परिज्ञान और अन्नमें परमरुचिको पैदा करता है॥ ७२ ॥ तथा मुख और कंठका सूखना, होठोंका फटना यह कदापि नहीं होता। और दांत गिरते नहीं उनकी जड़ें दृढ होजातीहैं॥ ७३ ॥
तैलगण्डूषका फल।
** नशूलन्तेनचाम्लेनहृष्यन्तेभक्षयन्तिच॥ परानपिपरान्भक्ष्यान्तैलगण्डूषसेवनात्॥ ७४ ॥**
तथा दांतोंमे पीडा, और खट्टेपदार्थके खानेसे दांत खट्टे नहीं होते और बहुत कडी वस्तुको भी तोडसके यह मुखमे तेल धारणकरनेका फल है॥ ७४ ॥
शिरमें तैल मर्दनके गुण।
** नित्यंस्नेहार्द्रशिरसःशिरःशूलंनजायते। नखालित्यंनपालित्यं नकेशाःप्रपतन्ति च॥ ७५ ॥ बलंशिरःकपाला-नांविशेषेणाभिवर्द्धते। दृढमूलाश्चदीर्घाश्चकृष्णाःकेशाभवन्तिच॥ ७६ ॥ इन्द्रियाणिप्रसीदन्तिसुत्वग्भवतिचा-मलम्। निद्रालाभःसुखं चस्यान्मूर्ध्नितैलनिषेवणात्॥ ७७ ॥**
प्रतिदिन मस्तकमें तेल डालनसे—मरतकपीडा, खालित्य (गंज), बालोंका सफेद होना, बालोंका टूटना यह कभी नहीं होते। और मस्तक तथा कपाल में बलआताहै।केश चिकने, दृढमूल, लंबे, और काले होतेहैं॥ ७५ ॥ ७६ ॥तेलको शरीरपर मालिस करना सबइंद्रिय और त्वचाको प्रसन्न और नरम करताहै तथा निद्राको और सुखको देता है॥ ७७ ॥
कर्ण और शरीरमें तेलसे लाभ।
** नकर्णरोगावातोत्थाःनमन्याहनुसंग्रहः। नोच्चैःश्रुतिर्नबाधिर्य्यंस्यान्नित्यंकर्णतर्पणात्॥ ७८ ॥ स्नेहाभ्यङ्गद्यथा-कुम्भश्चर्मस्नेहविमर्द्दनात्। भवत्युपाङ्गादक्षंश्चदृढःक्लेशसहोयथा॥ ७९ ॥तथाशरीरमभ्यङ्गाद्दृढंसुत्वक्प्रजायते। प्रशान्तमारुताबाधंक्लेशव्यायामसंग्रहम्॥ ८० ॥ स्पर्शनेचाधिकोवायुःस्पर्शनञ्चत्वगाश्रितम्।त्वच्यश्चपरमोभ्य-ङ्गस्तस्मात्तंशीलयेन्नरः॥ ८१ ॥नचाभिघाताभिहतंगात्रमभ्यङ्गसेविनः। विकारंभजतेऽत्यर्थ बलकर्मणिवाक्व-चित्॥ ८२ ॥ सुस्पर्शोपचिताङ्गश्चबलवान् प्रियदर्शनः। भवत्यभ्यङ्गनित्यत्वान्नरोऽल्पोजरएवच॥ ८३ ॥**
प्रतिदिन कानोमे तेल डालना–वातजनित कानके रोग, मन्यास्तंभ, हनुस्तम्भ, ऊंचा सुनना, और बहरापन इनको दूर करता है॥ ७८ ॥ चिकनाईके संयोगसे जैसा घड़ा मजबूत होता है और चमड़ा नरम होताहै, तथा रथका पहिया मजबूत और घूमनेवाला होता है; ऐसे ही स्नेह मर्दनसे शरीर भी मजबूत, नरम, क्लेशसहनकी शक्तिवाला दृढ होजाता है। बादी नष्ट होकर रोग रहित होजाता, क्लेश और श्रमको सह सकता है। स्पर्शमें वायुकी अधिकता है और वह स्पर्श त्वचाके आधीन है। तेलका मालिश करना त्वचाको बलवान् करता है इसलिये मालिस करनेका नित्य अभ्यास करे॥ ७९ ॥ ८० ॥ ८१ ॥ नित्य स्नेह मर्दन करनेवालेके शरीर में चोट आदि असर नहीं करती। कही जोरका काम करनेमें इसको कष्ट नहीं होता॥ ८२ ॥ और उत्तम नरम अंगोवाला, बलवान्, खूबसूरत, बुढापारहित, नित्यंस्नेहमर्दनके प्रभावसे होता है॥८३ ॥
पांवमें तेल लगानेके गुण।
** खरत्वंशुष्कतांरौक्ष्यंश्रमःसुप्तिश्चपादयोः। सद्यएवोपशाम्यन्ति पादाभ्यङ्गनिषेवणात्॥ ८४ ॥ जायतेसौकुमा-र्य्यञ्चबलंस्थैर्य्यञ्चपादयोः।दृष्टिःप्रसादंलभतेमारुतश्चोपशाम्यति॥ ८५ ॥**
** नचस्याद्गृध्रसीवाताः पादयोःस्फुटनंनच। नशिरास्नायुसङ्कोचःपादाभ्यङ्गेनपादयोः॥ ८६ ॥**
और पैरोंका–खरदरापन, सूखापन, रूखापन, थकावट, पैरोंका सोजाना, यह सब पैरोपर तेल मर्दनसे शीघ्र शांत होतेहैं और पैरोंमें सुकुमारता वल, दृढ़ता यह होजाते हैं। दृष्टि प्रसन्न होती है वायु शांत होजाती है। और पादाभ्यंग करनेवालेके गृध्रसी आदि वायुके रोग, पैरोंका फटना, शिरा और स्नायुओंका संकोच यह कभी नहीं होते॥ ८४ ॥ ८५ ॥ ८६ ॥
स्नानके महाफल।
** दौर्गन्ध्यंगौरवंतन्द्रांकण्डूमलमरोचकम्। स्वेदंबीभत्सतांहन्तिशरीरपरिमार्ज्जनम्॥ ८७ ॥पवित्रंवृष्यमायुष्यं-श्रमस्वेदमलापहम्। शरीरबलसन्धानंस्नानमोजस्करंपरम्॥ ८८ ॥**
शरीरको स्पंज या गीले कपडेसे अथवा उबटनसे मर्दन करे तो शरीरकी दुर्गंध, भारीपन, तंद्रा, खुजली, मैल, अरुचि, पसीना, बीभत्सता यह सब दूर होते हैं॥ ८७ ॥ स्नान करना–पवित्रताकारक, वृष्य, आयुवर्द्धक, श्रमनाशक, स्वेदनाशक, मलनाशक, बलकारक और तेजको करनेवाला है॥ ८८ ॥
स्वच्छवस्त्रपरिधानके फल।
काम्यंयशस्यमायुष्यमलक्ष्मीघ्नंप्रहर्षणम्।
श्रीमत्पारिषदंशस्तंनिर्मलाम्बरधारणम्॥ ८९ ॥
निर्मल वस्त्रोंको धारण करनेसे–शोभा, यश, आयु, लक्ष्मी, आनंद, और सभ्यता वढती है तथा प्रशंसा होती है॥ ८९ ॥
सुगन्धि पुष्पोंका धारण।
वृष्यंसौगन्ध्यमायुष्यंकाम्यंपुष्टिबलप्रदम्।
सौमनस्यमलक्ष्मीघ्नंगन्धमाल्यनिषेवणम्॥ ९० ॥
चंदन और सुगंधित फूल माला धारण करना वृष्यता, सुगंधि, आयु, सुंदरता, पुष्टि और बल को बढाताहै। तथा अलक्ष्मीका नाश करता है॥ ९० ॥
रत्नयुक्त भूषणधारणकरनेका फल।
धन्यंमङ्गल्यमायुष्यंश्रीमद्व्यसनसूदनम्।
हर्षणंकाम्यमोजस्यंरत्नाभरणधारणम्॥ ९१ ॥
रत्न, और आभूषण धारण करना–संपत्ति, मंगल, आयु, इनको बढ़ाताहै, धनवानोंके दोषोको दूर करता है, तथा आनंद, काम्यता और ओजको बढ़ाता है॥ ९१ ॥
शौचान्तमें पादप्रक्षालन।
मेध्यम्पवित्रमायुष्यमलक्ष्मकिलिनाशनम्।
पादयोर्मलमार्गाणांशौचाधानमभीक्ष्णशः॥ ९२ ॥
नित्य पैरों और गुदा आदि मलमार्गोंका धोकर शुद्ध रखना–बुद्धि, पवित्रता, आयु, इनको देताहै और अलक्ष्मी तथा कलियुगके दोषोंको दूर करता है॥ ९२ ॥
डाढीमूछके बालोंको स्वच्छ रखनेका फल।
पौष्टिकंवृष्यमायुष्यंशुचिरूपविराजनम्।
केशश्मश्रुनखादीनांकल्पनंसंप्रसाधनम्॥ १३ ॥
क्षौरकर्म कराने, नख कटानेसे तथा कंघी आदिसे केशोंको साफ रखनेसे–पुष्टि, वृष्यता, आयु, पवित्रता, और सुंदरताकी वृद्धि होती है॥ ९३ ॥
जूतेधारणरके फल।
चक्षुष्यंस्पर्शनहितंपादयोर्व्यसनापहम्।
वल्यंपराक्रमसुखंवृष्यंपादत्रधारणम्॥ ९४ ॥
जूता पहनना–नेत्रों और स्पर्शको हितकारी है तथा बल, पराक्रम, सुख, वीर्य, इनको करता है॥ ९४ ॥
छत्र और दण्ड धारणका फल।
** ईतेःप्रशमनंबल्यंगुप्त्यावरणसंकरम्।धर्मानिलरजोम्बुघ्नंछत्रधारणमुच्यते। स्खलतःसंप्रतिष्ठानं शत्रूणाञ्चनि-षेधनम्। अवष्टम्भनमायुष्यंभयघ्नंदण्डधारणम्॥ ९५ ॥**
छतरी धारण करना–टीडी आदि जानवरोंका गिरना, ओस, धूप, वायु, जल, धूल, पिशाच आदिकोंसे रक्षा करता है और बल देता है। हाथमें डंडा रखना–पांव चूककर गिरनेसे बचाता है, शत्रुओंको भय देता है, देहको सहारा देता है, और आयु तथा बलको बढाता है ॥ ९५ ॥
शरीररक्षावृत्ति धर्मपूर्वक है।
नगरोनगरस्यैवरथस्यैवरथीसदा।
स्वशरीरस्यमेधावीकृत्येस्वरहितोभवेदिति॥ ९६ ॥
जैसे नगरका रक्षक नगरकी रक्षाके लिये और रथ हाकनेवाला रथकी रक्षाके लिये सावधान रहताहै ऐसे ही बुद्धिमान् मनुष्यको अपने शरीरके कृत्योंमें सावधान रहना चाहिये॥९६ ॥
योग्यायोग्यविचार।
** भवतिचात्र।वृत्त्युपायान्निषेवेत येस्युर्द्धर्ष्माविरोधिनः। शममध्ययनञ्चैवसुखमेवंसमश्नुते॥ १७ ॥**
मनुष्यको उचित हैं कि धर्मसे अविरोधी अर्थात् धर्मयुक्त जीविकाके उपायोंको करे (अधर्मसे जीवन निर्वाह न करे) और इंद्रियोंको तथा चित्तवृत्तियोंको शांत भावसे रखता हुआ अध्ययन आदि करे ऐसा करनेसे दोनों लोकोंमें सुख प्राप्त होताहै॥ ९७ ॥
** तत्रश्लोकाः। मात्राद्रव्याणिमात्राञ्चसंश्रित्यगुरुलाघवम्।द्रव्याणांगर्हितोभ्यासोयेषांयेषाञ्चशस्यते॥ ९८ ॥ अञ्जनंधूमवर्त्तिश्चत्रिविधावर्त्तिकल्पना। धूमपानगुणाःकालाः पानमानंचयस्ययत्॥ ९९ ॥ व्यापत्तिचिह्नंभैषज्यंधू-मोयेषांविगर्हितः। पेयोयथायन्मयंचनेत्रंयस्यचयद्विधम्॥ १०० ॥ नस्यकर्म्मगुणानस्तःकार्य्यंयच्चयथायदा। भक्षयेद्दन्तपवनंयथायद्यद्गुणञ्चयत्॥ १०१ ॥ यदर्थयानिचास्येनधार्य्याणिकवलग्रहे। तैलस्यये गुणादृष्टाशिरस्तै-लगुणाश्चये॥ १०२ ॥ कर्णेतैलंतथाभ्यङ्गे पादाभ्यङ्गे च मार्जने। स्नानेवाससिशुद्धेचसौगन्ध्येरत्नधारणे॥ १०३ ॥ शौचेसंहरणेलोम्नांपादत्रच्छत्रधारणम्। गुणमात्राश्रितीयेऽस्मिन् यथोक्तादण्डधारणे॥ १०४ ॥**
इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेश्लोकस्थानेमात्राश्रितीयोनामपञ्चमोऽध्यायः॥ ५ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं। इस अध्यायमें मात्रा, द्रव्य, और मात्राको लेकर गुरु द्रव्य और हलके द्रव्य, निदनीय द्रव्य, द्रव्योंका निंदित अभ्यास और जिनको गुरुपदार्थ पच सकतेहैं इनका वर्णन कियाहै। इसके उपरान्त क्रमसे अंजन, धूमबत्ती, तीन प्रकारकी वत्तियें, धूमपानके गुण, समय, प्रमाण, धूमपानके दोष, उनका यत्न, जिनको धूम न पीना चाहिये, जैसे पीना, जैसे धूमपानकी नली बनाना, जिन चीजोंसे पीना यह सब वर्णन कियाहै तथा नस्य कर्म के गुण, जो नस्य जिस प्रकार जब लेना, दतौनकी विधि, गुण, वृक्ष, कवल, तेल मुखमें धारण करनेके गुण मस्तकमें तेल लगानेका गुण, कानमे तेल डालनेका गुण, शरीरपर तेल मलनेका गुण, पैरोंमे तेल मलनेका गुण, देहको उवटने या गीले वस्त्रसे मांजनेका गुण, स्नान, शुद्धवस्त्रधारण, सुगंधित चंदनादिधारण, रत्नाभरणधारण, शौच, क्षौरकर्म, जूता पहनना, छत्र, दंडा, इन सबको धारण करनेके गुण इस मात्राश्रितीय अध्याय में वर्णन कियेहैं॥९९॥१०४॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहिताया पटियालाराज्यातर्वर्तिटकसालनिवासिवैद्यपञ्चानन प०रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकाया मात्राश्रितीयो नाम पचमोऽध्यायः॥ ५ ॥
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षष्ठोऽध्यायः।
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** अथातःतस्याशितीयमध्यायंव्याख्यास्यामः। इतिहस्माह भगवानात्रेयः॥**
अब हम तस्याशितीय (जो पहले भोजनसंबंधी कहचुकेहैं उसीके विषयमें) अध्यायकी व्याख्या करतेहैं।ऐसा भगवान् आत्रेय कहनेलगे।
मात्रा और ऋतुके अनुकूल भोजनसे लाभ।
तस्याशितीयाध्याहाराद्बलंवर्णश्चवर्द्धते।
तस्यतुसात्म्यंविदितंचेष्टाहारव्यपाश्रयम्॥ १ ॥
ठीक मात्रासे उचित रीतिपर कियाहुआ भोजन वल और वर्णको बढाताहै परंतु जिस ऋतुमें जैसा आहार और विहार शरीरके अनुकूल हो वैसा करना ही बल और वर्णकी वृद्धि करताहै॥ १ ॥
ऋतुद्वारा वर्षकी अङ्गकल्पना।
** इहखलुसंवत्सरंषडङ्गमृतुविभागेनविद्यात्तदादित्यस्योदगयनमादानं चत्रीनृतूञ्शिशिरादीन् ग्रीष्मान्तान् व्यवस्येत्वर्षादीन्पुनर्हेमन्तान्तान्दक्षिणायनंविसर्गञ्च॥ २ ॥**
ऋतुओंके विभागसे सँवत्सर छः भागोंमें बांटाहुआहै। इन छहोंमें शिशिर, वसंत, ग्रीष्म इन तीन ऋतुओंमें सूर्यका उत्तरायण काल है इसीको आदानकाल कहते हैं (इस कालमें सूर्य अपनी किरणों द्वारा रसको ग्रहण करता है)। और वर्पा, शरद, हेमंत इन तीन ऋतुओं में सूर्य दक्षिणायन होता है इसको विसर्ग काल कहते हैं। (इस कालमें सूर्य रसादिको त्यागताहै अर्थात् छोड़ता है)॥ २ ॥
** विसर्गेचपुनर्वायवोनातिरूक्षाःप्रवान्तीतरेपुनरादानेसोमश्चाव्याहतबलः।शिशिराभिर्भाभिरापूरयञ्जगदाप्याय-यतिशश्वदतोविसर्गः सौम्यः॥ ३ ॥**
विसर्गकालकी पवन–अत्यन्त रुखी नही होती। किंतु आदानकालकी पवनअत्यंत रूखी होती है। विसर्गकालमे चन्द्रमा बलवान्, सुंदर, शीतल अपने प्रकाशसे जगत्को सुख देनेवाला होता है इस कारण विसर्गकाल सौम्य होता है॥३॥
सूर्यादिकोंका कर्तृत्व उपदेश।
** आदानंपुराग्नेयंतावेतावर्कवायूसोमश्चकालस्वभावमार्ग परिगृहीताः कालर्त्तुरसदोषदेहवलनिर्वृत्तिप्रत्ययभूताः समुपदिश्यन्ते॥ ४ ॥**
आदानकाल–अग्नितत्त्ववाला होताहै और अत्यंत रूक्ष होताहै। आदानकाल और विसर्गकाल, तथा सूर्य, वायु, चंद्रमा, यह सब अपने २ कालस्वभाव और गति में प्रवृत्त हुए काल, ऋतु, दोष, देहवल, इनको प्रवृत्त करनेवाले अर्थात् रचनेवाले कहे जाते हैं॥ ४ ॥
बलहरणमें सूर्यको कारणता।
** तत्ररविर्भाभिराददानोजगतः स्नेहंवायवस्तीव्ररूक्षाश्चोपशोषयन्तः शिशिरवसन्तग्रीष्मेषुयथाक्रमंरौक्ष्यमुत्पाद-यन्तोरूक्षान्रसान्तिक्तकषायकटुकांश्चाभिवर्द्धयन्तो नृणांदौर्बल्यमावहन्ति॥ ५ ॥**
आदानकालमें सूर्य अपनी तीक्ष्ण किरणोंसे जगत् के रसको खींचताहै।संपूर्ण वायु तीव्र और रूखा होने से चिकनाईको शोषण करता है इसप्रकार सूर्य और वायुक्रमसे शिशिर, वसंत, ग्रीष्म ऋतुओं में रूक्षताको करते हुए कडुए, कषैले, और चर्परे रसप्रधान द्रव्योंको प्रगट करतेहै। इसलिये आदानकालमें रूक्षतासे मनुष्योंको दुर्बल करतेहैं॥ ५ ॥
दक्षिणायनमें रसोंसे लाभ।
** वर्षाशरद्धेमन्तेषुतुदक्षिणाभिमुखेऽर्केकालमार्गेमेघवातवर्षाभिहतप्रतापेशशिनिचाव्याहतबलेमाहेन्द्रसलिल-प्रशान्तसन्तापे जगत्यरूक्षारसाः प्रवर्द्धन्तेऽम्ललवणमधुरायथाक्रमंतत्रबलमुपचीयन्तेनृणामिति॥ ६ ॥ भवति-चात्र॥ आदावन्तेचदौर्बल्यंविसर्गादानयोर्नृणाम्। मध्ये मध्यंवरन्त्वन्तेश्रेष्ठमग्रेचनिर्दिशेत्॥ ७ ॥**
वर्षा, शरद और हेमंत ऋतुमें सूर्य दक्षिणमें होनेसे सूर्यके प्रतापको काल, मार्ग, मेघ, वायु, वर्षा, दबा रखतेहैं। तब चंद्रमाका प्रताप बलवान् रहताहै। वर्षाके जलसेजगतका संताप दबजाता है इसी कारण संपूर्ण चिकने रसोंवाले द्रव्योंकी सामग्रीबढ़तीहै। और अम्ल, लवण, मधुर रस यथाक्रम बढकर मनुष्योंके बलको बढातेहैं॥ ६ ॥ विसर्गकालके प्रथम (वर्षाऋतु में) और आदानकालके अंत (ग्रीष्म) में मनुष्यआदिकोंमे निर्बलता होतीहै। ऐसे ही आदान और विसर्गके मध्य (शरद, वसंत) में मध्यबल होताहै। और विसर्गके अंत (हेमंत) में और आदानके आदि (शिशिर) में सब मनुष्यादिकोंमें पूर्ण बल होताहै॥७॥
हेमन्तमें वायुका पाचकत्व।
** शीतेशीतानिलस्पर्शसंरुद्धोबलिनांबली। पक्ताभवतिहेमन्ते मात्राद्रव्यगुरुक्षमः॥ ८ ॥ सयदानेन्धनंयुक्तंल-भतेदेहजं तदा। रसंहिनस्त्यतोवायुःशीतःशीते प्रकुप्यति॥ ९ ॥**
शीतकालमे ठंढे पवनके लगनेसे शरीरके भीतर रुककर बलवान् मनुष्योंकी जठराग्निबलवाली होतीहैं। इसीलिये शीतकाल में जठराग्नि भारी मात्रा और गुरुभोजनको पाचन करसकती है।यदि चैतन्य जठराग्निको इंधन (आहार) न मिले तोवह देहके रसको फूंकदेतीहै। रसके सूखनेसे शरीर रूखा होजाता है इसलिये रूक्ष, गणयुक्त शीतल शारीरिक वायु शीतकाल में कुपित होती है॥ ८ ॥ ९ ॥
शीतमें लवणादि रस और मांसका सेवन करे।
** तस्मात्तुषारसमयेस्निग्धाम्ललवणान्रसान्। औदकानूपमांसानांमेध्यानामुपयोजयेत्॥ १० ॥विलेशयानांमां-सानिप्रसहानांभृतानिच।भक्षयेन्मदिरांसीधुंमधुचानुपिबेन्नरः॥ ११ ॥**
इसलिये शीतकालमें चिकने, खट्टे, नमकीन रसयुक्त पदार्थोंको और जलचारी (मछली आदि) अनूपसंचारी जीवोंके मांस और प्रसह आदि विलमेंरहनेवालोंके मांस, मद्य, सीधु और मधु इनका सेवन करे॥ १० ॥ ११ ॥
हेमन्त में गोरसादि सेव्य है।
** गोरसानिक्षुविकृतीर्वसांतैलंनवौदनम्। हेमन्तेऽभ्यस्यतस्तोयमुष्णञ्चायुर्नहीयते॥ १२ ॥ अभ्यंगोत्सादनंमूर्ध्नि-तैलंजैन्ताकमातपम्। भजेद्भूमिगृहञ्चोष्णमुष्णंगर्भगृहंतथा॥ १३ ॥ शीतेसुखंवृतंसेव्यंयानंशयनमासनम्। प्रावाराजिनकौष्णेयप्रवेणीकुथकास्तृतम्॥ १४ ॥ गुरूष्णवासादिग्धाङ्गोगुरुणाऽगुरुणासदा।शयनेप्रमदांपीनां-विशालोपचितस्तनीम्॥ १५ ॥ आलिङ्ग्याऽगुरुदिग्धाङ्गींसुप्यात्समदमन्मथः। प्रकामञ्चनिषेवेतमैथुनंशिशि-रागमे॥ १६ ॥**
हेमंत ऋतु में–दूध, खांड, आदि मिठाई वसा, तैल, नवीन अन्न, और गर्म जलसे स्रान इनका सेवन करनेसे आयु क्षीण नहीं होती तथा शरीर पर मालिश, उवटना, सिरमें तेल लगाना, जेतकि स्वेद, धूप, गर्म घर, घरके बीचका कमरा, चारों तरफसे ढकी हुई सवारी, शय्या, आसन, बाघम्बर, शाणीके और रेशमके कपडे, रंग बेरंगे कंबल, गर्भ और भारी वस्त्र, इनका सेवन करे तथा गाढे अगरका लेपन कियाकरे और तीखे पुष्ट स्तनों वाली अगरसे सुगंधित लेपन की हुई कामदेवको भी मोहित करनेवाली स्त्रीसे लिपटकर शयन करे और इच्छापूर्वक मैथुन करे॥१२-१६॥
हलके अन्न पानादिका त्याग।
** वर्जयेदन्नपानानिलघूनिवातलानिच।प्रवातंप्रमिताहारसुदमन्थं हिमागमे॥ १७ ॥**
शिशिर ऋतु में भी हेमंतके समान किया करे। और हलके, रूक्ष, बातल, अन्नपान, वायुका वेग, अल्पाहार, जलमें घुले सत्तू शर्वत आदि सेवन न करे॥ १७ ॥
हेमन्त और शिशिरके कार्य।
** हेमन्तशिशिरेतुल्येशिशिरेऽल्पंविशेषणम्। रौक्ष्यमादानजंशीतंमेघमारुतवर्षजम्॥ १८ ॥ तस्माद्धैमन्तिकःस-र्वःशिशिरेविधिरिष्यते॥निवातमुष्णमधिकं शिशिरेगृहमाश्रयेत्॥ १९ ॥ कटुतिक्तकषायाणिवातलानिलघूनि-च।वर्जयेदन्नपानानिशि शिरेशीतलानिच॥ २० ॥ हेमन्तेनिचितःश्लेष्मादिनकृद्भाभिरीरितः। कायाग्निंबाधतेरो-गांस्ततःप्रकुरुतेबहून्॥ २१ ॥**
हेमंत और शिशिर यह दोनो ऋतु बरावर ही हैं किन्तु शिशिरमें आदानजन्य रूक्ष शीत होता है और वृष्टि, वायु आदिसे शीत अधिक होता है इतनी विशेषता है॥ १८ ॥इसीलिये शिशिर ऋतुमें सब क्रिया हेमंतके समान ही करनी चाहिये। विशेषतासे विर्वात और गर्म स्थानमें रहना चाहिये। तथा कडुए कषैले, तीते, वायुके करनेवाले हलके, शीतल पदार्थोंको त्यागदेना चाहिये॥ १९ ॥ २० ॥ हेमंतमे शीतसे संचित हुआ कफ वसंतऋतुमें सूर्यकी किरणोसे पिघलकर शरीरमें संचालित हुआ शरीरकी अग्निको बिगाडकर अनेक रोगोंको उत्पन्न करता है॥ २१ ॥
वसन्त में वमनादि कर्म धरणीय द्रव्य तथा भोज्य पदार्थ।
** तस्माद्वसन्तेकर्माणिवमनादीनिकारयेत्। गुर्वम्लस्निग्धमधुरं दिवास्वप्नञ्चवर्जयेत्॥ २२ ॥ व्यायामोद्वर्त्तनंधूमंकवलग्रहमञ्जनम्। मुखाम्बुनाशौचविधिंशीलयेत्कुसुमागमे॥ २३ ॥ चन्दनागुरुदिग्धाङ्गोयव-गोधूमभोजनः। शारभंशाशमैणेयंमार्गंलावकपिञ्जलम्॥ २४ ॥ भक्षयेन्निगदंसीधुपिवेन्माध्वीकमेववा। वसन्ते-नुपिबेत्स्त्रीणांकामिनीनाञ्चयौवनम्॥ २५ ॥**
इसलिये वसंतमें वमन विरेचनादिसे वढेहुए दोषको निकाल देना चाहिये। भारी, खट्टे, चिकने, और मीठे पदार्थ तथा दिनमें सोना इनको त्याग देवे। व्यायाम, मालिस, धूमपान, कवलग्रहण, अंजन, सुखोष्ण जलसे स्नान शौचादि, अगुरु चंदनका लेपनइनका सेवन करे। तथा जव, गेंहू, शावर, शशा, हिरन, लवा, सफेद तीतर, इनका भोजन करे और आसव, सीधु, अथवा माध्वीक इनको पीवे। और वंसतऋतु में बगीचों तथा स्त्रीकी जवानीका आनंद लेवे॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥
ग्रीष्मके गुण तथा उसमें सेवनीय पदार्थ।
** मयूखैर्जगतःसारंग्रीष्मेपेपीयतेरविः। स्वादुशीतंद्रवंस्निग्धमन्नपानंतदाहितम्॥ २६ ॥ शीतंसशर्करंमन्थंजाङ्ग-लान्मृगपक्षिणः। घृतंपयःसशाल्यन्नंभजन्ग्रीष्मेनसीदति॥ २७ ॥ मद्यमल्पंनवापेयमथवासुबहूदकम्।लवणाम्ल-कटूष्णानिव्यायामञ्चात्रवर्जयेत्॥ २८ ॥ दिवाशीतगृहेनिद्रानिशिचन्द्रांशुशीतले। भजेच्चन्दनदिग्धाङ्गःप्रवातह-र्म्यमस्तके॥ २९ ॥ व्यजनैःपाणिसंस्पर्शैश्चन्दनोदकशीतलैः। सेव्यमानोभजेदास्यांमुक्तामणिविभूषितः॥ ३० ॥काननानिचशीतानिजलानिकुसुमानिच। ग्रीष्मकालेनिषेवेतमैथुनाद्विरतोनरः॥ ३१ ॥**
ग्रीष्मऋतु में–सूर्यभगवान् अपनी किरणोंसे जगत्के सारको पीजाते हैं इसलियेग्रीष्मऋतु में–पतले, शीतल, और चिकने आहारका सेवन करना चाहिये ऐसे हीशीतल सुगंधित, मीठे जल पीने उचित हैं। और ठंढे मिसरी मिले मंथ, जंगली जीवोंका मांस, घृत, दूध, शाली चावल, इनका भोजन करनेसे मनुष्य गर्मी से दुःखित नहीं होता। ग्रीष्मऋतुमेंमद्यपीना उचित नहीं यदि पीनेकी आवश्यकता भी हो तो थोडा मद्य अधिक जल मिलाकर पीवे। गर्मीमेंनमकीन, खट्टे, चरपरे, और उष्ण पदार्थ सेवन नहीं करना चाहिये। दिनमें शीतल स्थानमें रात्रीको जहाँ चंद्रमाकी किरण पडतीहों और हवा आती हो ऐसे स्थानमें मकानके शिखर पर शीतल चंदनादिलगाकर शयन करे और शीतल चंदनादिसे सुगंधित जलसे भीगे पंखेकी पवनका सेवन करे।तथा मणि मुक्ता आदि आभूषणोंको पहने। और घने वृक्षोंके जंगल, शीतल जल, सुगंधित फूल इनको सेवे।परंतु गर्मीमे स्त्रीका सेवन न करे॥ २६–३१ ॥
वर्षामें जठराग्रिका दुर्बल होना।
आदानदुर्बलेदेहेपक्ताभवतिदुर्बलः।
स वर्षास्वनिलादीनांदूषणैर्बाध्यतेपुनः॥ ३२ ॥
आदानकालके आकर्षणसे दुर्बलहुए हमें जठराग्नि भी दुर्बल होजाती है। फिर वह जठराग्नि वर्षाकालके जल वायु आदिसे और भी क्षीण होजाती है॥ ३२ ॥
पवनका कोप।
भूवाष्यान्मेघनिस्यन्दात्पाकादम्लाज्जलस्यच।
वर्षास्वग्निवलेक्षीणेकुप्यन्तिपवनादयः॥ ३३ ॥
वर्षाकालमें पृथ्वीकी भांफ निकलने से, वर्षाके होनेसे, जलका खट्टा परिपाक होनेसे अग्नि दुर्बल होकर वातादि दोष कुपित होते हैं॥ ३३ ॥
वर्षामें त्यागनेयोग्य कर्म।
** तस्मात्साधारणःसर्व्वोविधिर्वर्षासुवक्ष्यते। उदमन्थंदिवास्वप्नमवश्यायंनदीजलम्॥ ३४ ॥ व्यायाममातपञ्चैव-व्यवायञ्चात्र वर्जयेत्। पानभोजनसंस्कारान् प्रायःक्षौद्रान्वितान्भजेत्॥ ३५ ॥ व्यक्ताम्ललवणस्नेहंवातवर्षाकु-लेऽहनि। विशेषशीते भोक्तव्यंवर्षास्वनिलशान्तये॥ ३६ ॥ अग्निंसंरक्षणवतायवगोधूमशालयः।पुराणाजाङ्गलै-र्मांसैर्भोज्ययूषैश्चसंस्कृतः॥ ३७ ॥ पिबेत्क्षौद्रान्वितञ्चाल्पंमाध्वीकानिष्टमम्बुवा। माहेन्द्रंतप्तशीतंवाकौपंसारस-मेववा॥ ३८ ॥ प्रघर्षोद्वर्त्तनस्नानगन्धमाल्यपरोभवेत्। लघुशुद्धाम्बरःस्थानंभजेदक्लेदिवार्षिकम्॥ ३९ ॥**
इसलिये वर्षाकालमें त्रिदोष नाशक साधारण क्रियाका सेवन करे वर्षाऋतु में–शर्वत आदि जलके मंथ, दिनमें सोना, ओस, नदीका पानी, कसरत, धूपमे फिरना, मैथुन, इनको त्यागदेवे। खाने पीने के पदार्थों में–प्रायः शहदका प्रयोग करना हितकारक है। जिसदिन हवा और वर्षा होनेसे ठंढा होरहाहो उसदिन खट्टे, नमकीन, चिकने, पदार्थ खाने चाहिये । ऐसा करनेसे वर्षाकालकी वायुकी शांति होती है।जठराग्निकी रक्षा करनेवालेको–यव, गेहूं, पुराने चावल, और जीवन के देनेवाले जंगली जीवोंके मांसका यूष, मधुयुक्त माध्वीक और अरिष्ट, और आकाशका जल या गर्मकरके ठंढा किया हुआ अथवा कूएका जल सेवन करना चाहिये। देहको भीगे वस्त्रसे घिसना, उबटन लगाना, स्नान करना, गंध लगाना, माला पहनना, हलके सूखे वस्त्र, इनको धारणकरना चाहिये और कीचवाले तथा गीलेस्थानमे न रहे॥ ३४–३९ ॥
वर्षामें रहनेके नियम।
** वर्षाशीतोचिताङ्गानांसहसैवार्करश्मिभिः।तप्तानामाचितंपित्तं प्रायःशरदिकुप्यति॥ ४० ॥ तत्रान्नपानंमधुरं-लघुशीतंसतिक्तकम्। पित्तप्रशमनंसेव्यंमात्रयासुप्रकाङ्क्षितैः॥ ४१ ॥ लावान्कपिञ्जलानेणानुरभ्राञ्शरभाञ्श-शान्।शालीनियवगोधूमान्सेव्यानाहुर्घनात्यये॥ ४२ ॥ तिक्तस्यसर्पिषः पानंविरेकोरक्तमोक्षणम्। धाराधरा-त्ययेकार्य्यमातपस्यचवर्जनम्॥ ४३ ॥ वसांतैलमवश्यायमौदकानूपमामिषम्। क्षारंदधिदिवास्वप्नं प्राग्वातञ्चात्र-वर्ज्जयेत्॥ ४४ ॥**
वर्षाऋतुके शीतसे संचित हुआ पित्त–शरद्ऋतुमे सूर्यकी किरणोसे तपायमान होकर कुपित होता है। इसलिये शरद ऋतुमें–मधुर, हलके, शीतल,कडुए, पित्तनाशक, पदार्थ क्षुधाके समय परिमाणसे खाने चाहिये। और लवा, सफेदतीतर, हिरन, मेढा, शावर, शशा, इनका मांस चावल, जौ, गेहूं इनका भोजन करना हित है। शरदऋतुमें तिक्तपदार्थको सेवन, घृतपान, विरेचन, रक्तमोक्षण इनको करे और धूपमें न फिरे।तथा–वसा, तेल, ओस, मछली, अनूपसंचारी जीवोंका मांस, खार, दही, दिनमें शयन, पूर्वकी वायु इनका सेवन न करे॥ ४०–४४ ॥
पीने योग्यजल तथा हंसोदक।
** दिवासूर्य्यांशुसन्तप्तंनिशिचन्द्रांशुशीतलम्। कालेनपक्वंनिर्दोषमगस्त्येनाविषीकृतम्॥ ४५ ॥ हंसोदकमिति-ख्यातंशारदंविमलंशुचि। स्नानपानावगाहेषुशस्यतेतद्यथामृतम्॥ ४६ ॥शारदानिचमाल्यानिवासांसिविमला-निच। शरत्कालेप्रशस्यन्तेप्रदोषचन्द्ररश्मयः॥ ४७ ॥**
शरदऋतु में जल–दिन में सूर्य की किरणोंसे तपकर रात्रिको चंद्रमाकी किरणोसे शीतल हो कालके प्रभावसे निर्दोषहोजाता है और अगस्त्यऋषिके उदय होनेसे निर्विष होजाता है। वह शरदऋतुका निर्मल जल हंसोदक कहा जाता है इस पवित्र जलको स्नान, पान, अवगाहन आदिमें अमृतके समान गुणकारी मानाहै शरदऋतु में उत्तम फूलमाला, स्वच्छवस्त्र, और सायंकालकी चांदनी इनका सेवन करना चाहिये॥ ४५–४७ ॥
ओकसात्म्य।
इत्युक्तमृतुसात्म्यंयच्चेष्टाहारव्यपाश्रयम्।
उपशेतेयदौचित्यादोकसात्म्यंतदुच्यते॥ ४८ ॥
इसप्रकार जिस २ ऋतुमे जैसा २ आहार विहार सात्म्य (शरीरानुकूल) है उसका कथन करदिया है।आहार विहार का सुखकारी अभ्यास “ओकसात्म्य” कहाजाता है॥ ४८ ॥
सात्म्यका लक्षण।
** दोषाणामामयानाञ्चविपरीतगुणं गुणैः। सात्म्यमिच्छन्तिसात्म्यज्ञाश्चेष्टितंचाद्यमेवच॥ ४९ ॥ इति।**
जो आहार विहार दोषोंसे और रोगोंसे विपरीत गुण करनेवाला अर्थात् रोगसे बचाकर आरोग्य रखनेवाला है उसको “सात्म्य” कहतेहैं। सात्म्याके जाननेवाले ओकसात्म्यको भी सात्म्य ही कहते हैं॥ ४९ ॥
** तत्रश्लोकः। वृतावृतोनृभिःसेव्यमसेव्यंयच्चकिञ्चन। तस्याशितीयेनिर्दिष्टंहेतुमत्सात्म्यमेवचेति॥ ५० ॥**
इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेतस्याशितीयोऽध्यायः॥६॥
यहां अध्यायकी पूर्तिका श्लोक है कि इस तस्याशितीय अध्याय में जो २ पदार्थ जिस २ ऋतुमें सेवन करने योग्य हैं उन उनका वर्णन किया गया है कारणके अनुसार सात्म्य अर्थात् शरीरानुकूल है॥ ५० ॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसहिताया पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्यपञ्चानन प०रामप्रसादकृतप्रसादन्याख्यभाषाटीकाया तस्याशितीयो नाम षष्ठोध्यायः॥ ६ ॥
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सप्तमोऽध्यायः।
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** अथातो न वेगान्धारणीयमध्यायंव्याख्यास्यामः। इति हस्माहभगवानात्रेयः।**
अब हम “न वेगान्धारणीय” नामके अध्यायकी व्याख्या करते हैं। ऐसा भगवान्आत्रेय कहनेलगे।
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वेगोंके रोकनेका निषेध।
** नवेगान्धारयेद्धीमाञ्जातान्मूत्रपुरीषयोः। नरेतसोनवातस्यनवम्याःक्षवथोर्नच॥ १ ॥ नोद्गारस्यनजृम्भायान-वेगान्क्षुत्पिपासयोः। नबाष्पस्यननिद्रायानश्वासस्यश्रमेणच॥ २ ॥ एतान्धारयतोजातान्वेगान्रोगाभवन्तिये। पृथक्पृथक्चिकित्सार्थं तन्मेनिगदतःशृणु॥ ३ ॥**
बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि–मूत्र, मल, रेत, अधोवायु, छर्दि, छींक, डकार, जंभाई, भूख, प्यास, अश्रुपात, निद्रा, श्रमजन्यश्वास, इनके वेगोंको कभी न रोके। इनके वेग रोकनेसे जो जो रोग पैदा होते हैं उनको अलग २ आगे वर्णन करते हैं सो तुम सुनो॥ १ ॥ २ ॥ ३ ॥
मूत्रके वेगको रोकनेसे रोग।
बस्तिमेहनयोःशूलंमूत्रकृच्छ्रंशिरोरुजा।
विरामोवङ्क्षणानाहःस्याल्लिङ्गेमूत्रनिग्रहे॥ ४ ॥
मूत्रका वेग रोकनेसे वस्ति और लिंग में पीडा होतीहै। मूत्रकृच्छ्र, मस्तकमें पीडा, “देहका नॅवना, पेट में पीडा, और अफारा यह उपद्रव होते हैं॥ ४ ॥
मूत्र रुकनेपर उपाय।
स्वेदावगाहनाभ्यङ्गान्सर्पिषश्चावपीडकम्।
मूत्रेप्रतिहतेकुर्य्यात्त्रिविधंबस्तिकर्मच॥ ५ ॥
(यत्न) मूत्रके रुकने में–पसीना देना, जलमें बैठना, मालिस करना, घृतपान करना, और निरूहण, अनुवासन, उत्तरवस्ति यह तीन प्रकारका वस्तिकर्म करना॥ ५ ॥
मलरोकने में रोग।
पक्वाशयशिरःशूलंवातवर्चोनिरोधनम्।
पिण्डिकोद्वेष्टनाध्मानं पुरीषेस्याद्विधारिते॥ ६ ॥
मलका वेग रोकनेसे–पक्वाशयमें और शिरमें पीडा, अधोवायु और विष्ठाका रुकना, पिंडलियो में पीडा, अफाग, यह उपद्रव होते हैं॥ ६ ॥
मलरोकने में चिकित्सा।
** स्वेदाभ्यङ्गावगाहाश्चवर्त्तयोबस्तिकर्म्मच।हितंप्रतिहतेवर्च्चस्यन्नपानं प्रमाथिच॥ ७ ॥**
(यत्न) मलके रुकनेमें–स्वेदन, मालिश, गरमजलमें बैठना, तीन प्रकारकी वर्ती, वस्तिकर्म, और वायुको अनुलोम करनेवाले अन्नपान, इनका सेवन करे॥७॥
वीर्यके वेगके रोकने में उपद्रव।
** मेढ्रेवृषणयोःशूलमङ्गमर्द्दोहृदिव्यथा। भवेत्प्रतिहतेशुक्रे विवद्धंमूत्रमेवच॥ ८ ॥ तत्राभ्यङ्गावगाहाश्चमदिराचर-णायुधाः। शालिःपयोनिरूहाञ्चशस्तंमैथुनमेवच॥ ९ ॥**
रेत (वीर्य) के आये हुए वेगको रोकनेसे–लिंग और पोतोमें पीडा, अंगोंका टूटना, हृदयमें व्यथा, और मूत्रका रुकना यह उपद्रव होते हैं। (यत्न) मालिश, अवगाहन, मद्यपान, मुरगेका मांस, चावल, दूध, निरूहनवस्ती, मैथुन यह वीर्यके वेग रोकनेके उपद्रवोंको शांत करते हैं॥८॥९॥
अधोवायुके रोकनेमें उपद्रव।
वातमूत्रपुरीषाणांसंङ्गोध्मानंक्लमोरुजा।
जठरेवातजाश्चान्येरोगाः स्युर्वातनिग्रहात्॥ १० ॥
अधोवायुका वेग रोकनेसे–वात, मूत्र, मल, इनका रुकना तथाअफारा, आलस्य, शूल, पेटमें दर्द, और वायुके रोग उत्पन्न होते हैं॥१०॥
उपाय।
स्नेहस्वेदविधिस्तत्रवर्त्तयोभोजनानि च।
पानानिबस्तयश्चैवशस्तंवातानुलोमनम्॥ ११ ॥
अधोवायुके वेग रोकनेके विकारशांतिके लिये–स्नेहन, स्वेदन, त्रिविधवर्तीका धूमपान, वातका अनुलोमन करनेवाले अन्न पान और वस्तिकर्म करना हित है॥११॥
वमन रोकनेसे रोग और उनका उपाय।
** कण्डूकोठाऽरुचिव्यङ्गशोथपाण्ड्वामयज्वराः। कुष्ठहृल्लासवीसर्पाश्छर्दिनिग्रहजागदाः॥ १२ ॥ भुक्त्वाप्र-च्छर्दनंधूमोल्लंघनं रक्तमोक्षणम्। रूक्षान्नपानंव्यायामोविरेकश्चात्रशस्यते॥ १३ ॥**
वमनका वेग रोकनेसे–खाज, कोठेमें पीडा, अरुचि, व्यंग (छांई), सूजन, पांडु, ज्वर, कुष्ठ, हृल्लास, विसर्प यह रोग होते हैं।(यत्न) वमन रोकनेसे हुए रोगोमेंभोजनके पीछे वमन कराना, धूम्रपान, लंघन, सिरामोक्षण (फस्त ), रूक्ष अन्नपानका सेवन, व्यायाम, विरेचन यह कर्म करने हितकारी हैं॥ १२ ॥ १३ ॥
छींक रोकनेके उपद्रव और उपाय।
** मन्यास्तम्भःशिरःशूलमर्दितावर्द्धभेदकौ। इन्द्रियाणाञ्चदौर्बल्यंक्षवथोःस्याद्विधारणात्॥ १४ ॥ तत्रोर्द्धजत्रु-केऽभ्यङ्गः स्वेदोधूमंसनावनः। हितंवातघ्नमाद्यञ्चघृतञ्चोत्तरभक्तिकम्॥ १५ ॥**
छींकके रोकनेसे–गरदनका अकडना, शिरमें पीडा, अर्दितवायु, अधसिरा इंद्रियोंकी दुर्बलता यह उपद्रव होते हैं। (यत्न ) छींकका वेग रोकनेसे हुए रोगोंमें–गर्दनकी नाडियोंपर मालिश करना, स्वेदन धूम्रपान, नस्य, और वायुकी नाश करनेवाली क्रिया भोजनके पीछे घृतपान करना, यह क्रियाएँ हित हैं॥ १४ ॥ १५ ॥
डकार के रोकनेमें उपद्रव।
हिक्काकासेऽरुचिःकम्पोविबन्धोहृदयोरसोः।
उद्गारनिग्रहात्तत्रहिक्कायास्तुल्यमौषधम्॥ १६ ॥
डकारका वेग रोकनेसे–हिचकी, खांसी, अरुचि, कय, हृदय और छातीका जकडन और भारी होना यह लक्षण होते हैं (यत्न) जो यत्न हिचकीके होते हैं सो करे॥ १६ ॥
जँभाईके रोकनेमें उपद्रव।
विनामाक्षेपसङ्कोचाः सुप्तिःकम्पःप्रवेपनम्।
जृम्भायानिग्रहात्तत्रसर्वंवातघ्नमौषधम्॥ १७ ॥
जँभाईका वेग रोकनेसे–अंगोंका नॅवना, आक्षेपक, संकोच, तंद्रा या अंगोंका सोना, कंप यह उपद्रव होतेहैं (यत्न) वातनाशक क्रिया करना हित है॥ १७ ॥
क्षुधा रोकनेके उपद्रव
कार्श्यदौर्बल्यवैवर्ण्यमङ्गमर्दोऽरुचिर्भ्रमः।
क्षुद्वेगनिग्रहात्तत्रस्निग्धोष्णंलघुभोजनम्॥ १८ ॥
क्षुधाका वेग रोकनेसे–कृशता, दुर्बलता, विवर्णता, अंगमर्द, अरुचि, भ्रम, यह उपद्रव होते हैं। (यत्न) इसमें उत्तम, स्निग्ध हलके भोजन कराना हितकारक है॥ १८ ॥
प्यासके रोकनेमें उपद्रव।
कण्ठास्यशोषोबाधिर्य्यंश्रमःश्वासोहृदिव्यथा।
पिपासानिग्रहात्तत्रशीतंतर्पणमिष्यते॥ १९ ॥
प्यासका वेग रोकनेसे–कंठ और मुखका सूखना, कानोंसे न सुनना, श्रम, श्वास, हृदयमें व्यथा, यह उपद्रव होते हैं। (यत्न) इसमें शीतल और तर्पण (दूध शर्वत आदि पिलाना) हित है॥ १९ ॥
आँसू रोकने में उपद्रव और उपाय।
प्रतिश्यायोऽक्षिरोगश्चहृद्रोगश्चारुचिर्भ्रमः।
वाष्पनिग्रहणात्तन्त्रस्वप्नोमद्यंप्रियाःकथाः॥ २० ॥
आंसुओंका वेग रोकनेसे प्रतिश्याय, नेत्ररोग, हृद्रोग, अरुचि, भ्रम, यह उपद्रव होते हैं (यत्न) इसमे सोना मद्यपीना, मीठी बातें सुनना हितकारक हैं॥ २० ॥
निन्द्रारोकनेमें उपद्रव और उपाय।
जृम्भाङ्गमर्दस्तन्द्राचशिरोरोगाक्षिगौरवम्।
निद्राविधारणात्तत्रस्वप्नःसंवाहनानिच॥ २१ ॥
निद्राका वेग रोकनेसे–जंभाई, अंगमर्द (अंगडाई), तंद्रा, मस्तक और नेत्रोंका भारी प्रतीत होना यह उपद्रव होते हैं। (यत्न) इसमें आनंदसे सोना, शरीरको धीरे २ दबाना, या पँवोंको हाथोंसे मलना यह हित है॥ २१ ॥
श्वासरोकनेमें उपद्रव और उपाय।
गुल्म हृद्रोगसंमोहाःश्रमनिश्वासधारणात्।
जायन्तेतत्रविश्रामोवातघ्नाश्चक्रियाहिताः॥ २२ ॥
परिश्रमका श्वास रोकनेसे–गुल्म, हृदयमें रोग, और मोह होताहै। (यत्न) विश्राम करना और वातनाशक क्रिया यह सब हित हैं॥ २२ ॥
वेगोंको कदापि न रोके।
वेगनिग्रहजारोगायएतेपरिकीर्त्तिताः।
इच्छंस्तेषामनुत्पत्तिंवेगानेतान्नधारयेत्॥ २३ ॥
वेगोंके रोकनेसे जो रोग होते हैं उन रोगोंके उत्पन्न करनेवाले वेगोंको रोकनाही नहीं चाहिये॥ २३ ॥
धारणकरनेयोग्य वेग।
** इमांस्तुधारयेद्वेगान्हितैषीप्रेत्यचेहच। साहसानामशस्तानांमनोवाक्कायकर्म्मणाम्॥ २४ ॥ लोभशोकभय-क्रोधमानवेगान् निधारयेत्। नैर्लज्जेर्ष्यातिरागाणामभिध्यायाच्चबुद्धिमान्॥ २५ ॥ परुषस्यातिमात्रस्यसूचक-स्यानृतस्यच।वाक्यस्याकालयुक्तस्य धारयेद्वेगमुत्थितम्॥ २६ ॥ देहप्रवृत्तिर्याकाचित्वर्ततेपरपीडया।स्त्रीभोगस्तेयहिंसाद्यातस्यावेगान्विधारयेत्॥ २७ ॥**
इस लोक और परलोकके सुखकी इच्छावाले मनुष्यको नीचे लिखे वेगोंको रोकना चाहिये, जैसे–अयोग्य रीतिपर–साहस, मनका वेग, वाणीका वेग, शरीरका वेग,कर्मका वेग, तथा लोभ, शोक, भय, क्रोध, अभिमान इनके वेगोंको रोकना चाहिये। और बुद्धिमान्को उचित है कि निर्लज्जता, ईर्ष्या, अत्यंत राग इनको भी त्याग देवे। कठोर, गंदे, मिथ्या, बेसमय, असंगत वाक्योंके कहनेका स्वभाव या वेग भी रोकना उचित है। जिस कार्यसे किसीको दुःख हो ऐसा कार्य कभी न करे और परस्त्रीगमन, चोरी, तथा हिंसा आदि अयोग्य कार्योंको भी न करे॥ २४ ॥२५ ॥ २६ ॥ २७ ॥
पुण्यके लाभ।
** पुण्यशब्दोविपापत्वान्मनोवाक्कायकर्म्मणाम्। धर्मार्थकामान्पुरुषःसुखोभुङ्क्तेचिनोतिच॥ २८ ॥**
जो मनुष्य, मनं, वाणी–देह, इन कर्मोंसे निष्पाप है अर्थात् मन, वाणी, देहसे, कोई पाप नहीं करता वह पवित्र धर्मात्मा पुरुष, धर्म, अर्थ, काम इनके सुखको भोगताहै और मोक्ष साधनके लिये धर्मको संचय करता है॥ २८ ॥
व्यायामके लाभ।
** शरीरचेष्टायाचेष्टास्थैर्य्यार्थाबलवर्धिनी। देहव्यायामसंख्यातामात्रयातांसमाचरेत्॥ २९ ॥ लाघवंकर्मसामर्थ्यं-स्थैर्य्यंक्लेशसहिष्णुता। दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते॥ ३० ॥**
जिस शारीरिक चेष्टासे–शरीर की दृढ़ता और बल बढ़े उस चेष्टाको व्यायाम ( कसरत ) कहते हैं।वह व्यायाम जितनी शरीरकी सामर्थ्य हो उतना-
ही करना चाहिये॥ २९ ॥ व्यायाम करनेसे–देह में हलकापन, कामकरनेकी सामर्थ्य, दृढ़ता, और कष्ट सहलेनेकी सामर्थ्य बढती है। तीनों दोष शांत होते हैं तथा जठराग्नि बलवान होती है॥ ३० ॥
अत्यन्त कसरतके उपद्रव।
** श्रमःक्लमःक्षयस्तृष्णारक्तपित्तंप्रतामकः। अतिव्यायामतः कासोज्वरश्छर्दिश्चजायते॥३१ ॥ व्यायामहास्य-भाष्याध्वग्राम्यधर्मप्रजागरान्। नोचितानपिसेवेतबुद्धिमानतिमात्रया॥ ३२ ॥**
अतिव्यायाम करनेसे–थकावट, ग्लानि, क्षय, तृषा, रक्तपित्त, तमक श्वास, खांसी, ज्वर और वमन, होते हैं॥ ३१ ॥ बुद्धिमान्को उचित है कि व्यायाम, हास्य, भाषण, रस्ताचलना, मैथुन, जागना इन को अधिकता से सेवन न करे॥ ३२ ॥
शक्तिके बाहर कोई कार्य न करे।
** एतानेवंविधांश्चान्यान्योऽतिमात्रंनिषेवते। गजःसिंहमिवाकर्षन्सहसासविनश्यति॥ ३३ ॥**
इन ऊपर लिखे कामको जो पुरुष बहुत अधिकतासे करताहै अथवा अन्य ऐसेही कामोंको अधितासे करताहै वह पुरुष जैसे सिंहको खौचनेसे हाथी नष्ट होता है ऐसा शीघ्र नष्ट होजाताहै॥ ३३ ॥
हिताहितका विचार करे।
** उचितादहिताद्धीमान्क्रमशोविरमेन्नरः। हितंक्रमेणसेवेतक्रमञ्चात्रोपदिश्यते॥ ३४ ॥ प्रक्षेपापचयेताभ्यांक्रमः-पादांशिको भवेत्। एकान्तरंततश्चोर्द्ध्वद्व्यन्तरं त्र्यन्तरंतथा॥ ३५ ॥ क्रमेणापचितादोषाःक्रमेणोपचितागुणाः। सन्तोयान्त्यपुनर्भावमप्रकम्याभवंतिच॥ ३६ ॥**
जो अफीम आदि अहित पदार्थ हैं उन्हें शरीरके अनुकूल होने पर भी सेवन न करे, यदि उनको सेवनका अभ्यास हो तो क्रमसे त्यागदेवे । इसी प्रकार दुग्धादि हित पदार्थोंका सेवन अनुकूल न होनेपर भी क्रमसे अभ्यास करे।यहां सेवन और त्यागके क्रमको दिखातें हैं–जिस द्रव्यको त्यागना या ग्रहण करना चाहे उसको एक वार ही त्यागना या ग्रहण करता उचित नहीं। जिसको त्यागना चाहे उसमें से प्रथम दिन एक अंश ( छोटासा हिस्सा ) कम करदे दो दिन या चार दिन बीचमेंदेकर एक अंश और कम करे, इस प्रकार चार चार दिनके अंतरसे एक २ अंश कम करते २ अहित पदार्थको त्यागदेवे। इसी प्रकार एक २ अंश बढाते हुए हित पदार्थकाअभ्यास करे। ऐसे ही जो २ अवगुण ( दोष ) हों उनको क्रमसे छोड़ता २ या त्याग देवे। और गुणोंको क्रमपूर्वक अभ्यास करते २ ग्रहण करलेवे। ऐसा करनेसे गुण निश्चल हो शरीरमें निवास करते हैं और दोष अपना बल नहीं करसकते॥ ३४–३६ ॥
वातादिकी समता विषमता।
** समपित्तानिलकफाःकेचिद्गर्भादिमानवाः।दृश्यन्तेवातलाः केचित्पित्तलाःश्लेष्मलास्तथा॥ ३७ ॥तेषामनातु-राःपूर्वेवातलाद्याःसदातुराः। दोषानुशयिता ह्येषांदेहप्रकृतिरुच्यते॥ ३८ ॥ विपरीतगुणस्तेषांस्वस्थवृत्तेर्विधि-र्हितः। समसर्वरसंसात्म्यं समधातोःप्रशस्यते॥ ३९ ॥**
कोई पुरुष ऐसे भाग्यवान होते हैं जिनके शरीरमेगर्भसे ही वात, पित्त, कफ, साम्यावस्थावाले होते हैं। किसीकी प्रकृति वातकी किसीकी पित्तकी, तथा किसीकी कफप्रधान होती है। इन सब मनुष्यों में पहले कहेहुए (समप्रकृतिके ) नीरोग रहते हैं और बाकी तीन सदा रोगी रहतेहैं। जिसके शरीरमें जो दोष प्रधान होता हैं उसके अनुसार उसकी प्रकृति कही जाती है॥ ३७ ॥ ३८ ॥ जिनके शरीर में वातादि दोष बढेहुए हैं उनके शरीरमें वायुआदि दोषोंसे विपरीत गुणवाली क्रिया हितकारक होतीहैं (जैसे वातप्रकृतिवालेको उष्ण और स्निग्ध तथा लवणरसयुक्त पदार्थोंका सेवन हितकर है)। और जिसके शरीरमें वातादिक और धातुसाम्य हो उसके शरीरमें तो सब रस सात्म्य (शरीरानुकूल ) ही होते हैं॥ ३९ ॥
शरीरगत छिद्रोंका वर्णन।
द्वे अधःसप्तशिरसिखानिस्वेदमुखानि च।
मलायनानिबाध्यन्तेदुष्टैर्मात्राधिकैर्मलैः॥ ४० ॥
शरीरके नीचेके भाग में गुदा, लिंग यह दो मलमार्ग होतेहैं। ऊपरके भागमें दो नेत्र, दो कान, दो नासिका, एक मुख यह सात मलमार्ग होतेहैं और इनसे अन्य रोममार्ग-पसीना निकालनके मार्ग हैं। इन सबको मलमार्ग कहते हैं। मल दुष्ट होने अथवा अधिक होनेरी मलमार्गों को दूषित करते हैं॥ ४० ॥
मलवृद्धि आदिका ज्ञान।
** मलवृद्धिंगुरुत्वेनलाघवान्मलसंक्षयम्। मलायनानांबुद्ध्येतसङ्गोत्सर्गादतीवच॥ ४१ ॥**
यदि मलमार्ग भारी हों तो मल बढेहुए जानना और मलमार्गोंके हलकेपनसे मलका क्षय जानना चाहिये। अथवा यों कहिये कि मलमार्गोंसे मल अधिक निकले तो मल बढाहुआ समझे और अत्यंत कम होनेसे मलकी क्षीणता जाने॥ ४१ ॥
साध्य रोगको चिकित्सा करे।
** तान्दोषलिङ्गैरादिश्यव्याधीन्साध्यानुपाचरेत्। व्याधिहेतुप्रतिद्वन्दैर्मात्राकालौविचारयेत्॥ ४२ ॥**
वैद्यको उचित है कि दोषोंके चिह्नोंसे रोगको समझकर जो साध्य रोग हैं उनमें रोगसे और रोगके कारणसे विपरीत गुणवाली चिकित्सा मात्रा और कालकोविचारकर करे॥४२॥
विषमवृत्तिसे वर्तनेमें रोग।
विषमस्वस्थवृत्तानामेतेरोगास्तथापरे।
जायन्तेऽनातुरस्तस्मात्स्वस्थवृत्तपरोभवेत्॥ ४३ ॥
जो मनुष्य स्वस्थ अवस्थामें ही अपनी आरोग्यताकी रक्षाका यत्न नहीं रखता उसको यह रोग तथा अन्यान्य रोग होतेहैं इसलिये अपने स्वास्थ्यकी रक्षामें सदैव सावधान रहना चाहिये॥४३॥
दोष दूर करने का समय।
माधवप्रथमेमासिनभस्यप्रथमेपुनः।
सहस्यप्रथमेचैवहारयेद्दोषसञ्चयम्॥ ४४ ॥
** स्निग्धस्विन्नशरीराणामूर्द्ध्वञ्चाधश्चबुद्धिमान्। बस्तिकर्मततःकुर्य्यान्नस्तःकर्मचबुद्धिमान्॥ ४५ ॥ यथाक्रमंय-थायोगमतऊर्द्ध्वप्रयोजयेत्। रसायनानिसिद्धानिवृष्ययोगांश्चकालवित्॥ ४६ ॥ रोगास्तथानजायन्तेप्रकृतिस्थे-षुधातुषु। धातवश्चाभिवर्द्धन्तेजराचान्त्यमुपैतिच॥ ४७ ॥ विधिरेषविकाराणामनुत्पत्तौनिदर्शितः। निजानामित-रेषान्तुपृथगेवोपदिश्यते॥ ४८ ॥**
बुद्धिमान्मनुष्य चैत्र, श्रावण, मार्गशीर्ष, इन तीन महीनों में एक २, बार शरीरको स्नेहन और स्वेदन करके वमन, विरेचन आदिसे शरीरके और नस्य आदिसे मस्तकके दोष निकाले तथा बस्ति कर्म करे। यदि उचित समझे तो नसों में सेरक्तस्राव करे।फिर यथाक्रम शरीरकी सत्ता ठीक होनेपर जैसे उचित हो वैसे रसायन और वृष्य योगोंको समय आदिको जाननेवाला वैद्य प्रयुक्त करे॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥
इस प्रकार दोषोंको दूर करनेसे नीरोग मनुष्यके शरीरमें रोग उत्पन्न नहीं होते और प्रकृतिमें स्थित हुई धातुएँ वृद्धिको प्राप्त होती हैं तथा बुढापा शीघ्र नहीं आता॥४७॥ स्वस्थ मनुष्यकी आरोग्यताकी रक्षा के लिये यह विधि कहचुकेंहैं।अब शारीरिक, आगंतुक, मानसिक, रोगोंके विषय में अलग कथन करते हैं॥ ४८ ॥
आगन्तुरोगोंका कारण।
** येभूतविषवाय्वग्निसंप्रहारादिसम्भवाः। नृणामागन्तवोरोगाः प्रज्ञातेष्वपराध्यति॥ ४९ ॥ ईर्ष्याशोकभयक्रोध-मानद्वेषादयश्चये। मनोविकारास्तेऽप्युक्ताःसर्वेप्रज्ञापराधजाः॥ ५० ॥**
भूत, विष, वायु, अग्नि, महार आदिसे उत्पन्नहुए रोगोंको आगंतुक रोग कहते हैं। यह रोग मनुष्योंकी बुद्धिके दोषसे होते हैं, अर्थात् किसी असावधानतासे होते हैं यदि बुद्धिमान् विचारपूर्वक बचकर रहे तो यह रोग नहीं होते। इन रोगोंमें बुद्धिका दोषहानेसे इनको प्रज्ञापराधज कहाजाताहै॥ ४९ ॥ और ईर्ष्या, शोक, भय, क्रोध, मान, द्वेष आदि सब मनके विकार (मानसिक रोग) भी बुद्धिके दोषसे ही होते हैं॥ ५० ॥
आगन्तुरोगोंकी शान्ति।
** त्यागःप्रज्ञापराधानामिन्द्रियोपशमःस्मृतिः। देशकालात्मविज्ञानंसद्वृत्तस्यानुवर्त्तनम्॥ ५१ ॥ आगन्तूनामनु-त्पत्तावेषमार्गो निदर्शितः। प्राज्ञःप्रागेवतत्कुर्य्याद्धितंविद्यात्तदात्मनः॥ ५२ ॥**
इन रोगोंमे बुद्धिके कुविचारोंका त्याग, इन्द्रियोंको वशमें रखना, शास्त्रोंके उपदेशोंका स्मरण, देश काल और आत्माका ज्ञान, अच्छे महात्माओंके सुयोग्य आचरणोंका सेवन, यह आगंतुक रोगोंके न होनेका मार्ग दिखायाहै अर्थात् इन आचरणोंके सेवनसे आगंतुक रोग होते ही नहीं। इसलिये बुद्धिमान्को आत्माके हितकार्यका प्रथमसे ही सेवन करना चाहिये॥ ५१ ॥ ५२ ॥
** आप्तोपदेशःप्राज्ञानांप्रतिपत्तिश्चकारणम्। विकाराणामनुत्पत्तावुत्पन्नानाञ्चशान्तये॥ ५३ ॥ पापवृत्तवचःस-त्त्वाःसूचकाःकलहप्रियाः। मर्मोपहासिनोलुब्धाःपरवृद्धिद्विषःशठाः॥ ५४ ॥ परापवादरतयःपरनारीप्रवेशिनः। निर्घृणास्त्यक्तधर्माणःपरिवर्ज्यानराधमाः॥ ५५ ॥**
प्रामाणिक भद्रपुरुषोंके उपदेश और प्राज्ञपुरुषोंके सिद्धांत पर चलना आगंतुक विकारोंको उत्पन्न नहीं होनेदेता और उत्पन्न हुए विकारोंकी शांति करताहै॥ ५३ ॥ पापके आचरणवाले, पापयुक्त वाक्य कहनेवाले, पापी मनवाले, झूठे, दंभी, कलहप्रिय, दूसरोंके चित्तोंको दुःखप्रद हास्य करनेवाले, अतिलोभी, पराई समृद्धिको देखकर जलनेवाले, शठ, पराई निदामें रत रहने वाले, परस्त्रीगामी, निर्दयी, धर्मसे विहीन ऐसे अधम मनुष्योंका संग कभी नहीं करना चाहिये॥ ५४ ॥ ५५ ॥
सेवनकरनेयोग्य पुरुष।
** बुद्धिविद्यावयःशीलधैर्य्यस्मृतिसमाधिभिः। वृद्धोपसेविनोवृद्धाःस्वभावज्ञागतव्यथाः॥ ५६ ॥ सुमुखाःसर्वभूतानांप्रशान्ताःशंसितव्रताः। सेव्याःसन्मार्गवक्तारःपुण्यश्रवणदर्शनाः॥ ५७ ॥**
जो मनुष्य बुद्धि, विद्या, अवस्था, शीलता, धैर्य, स्मृति, समाधि, इन गुणोंसे युक्त हो तथा वृद्ध पुरुषोंकी सेवा किया हुआ हो और स्वयं भी योग्य या वृद्ध हो, जिसको दुनियाके हाल मालूम हों, जिसके चित्तमें ईर्ष्या आदि विकार न हों, उत्तम, सत्य, मीठे वाक्य बोलनेवाला हो, जो सबसे शांतिपूर्वक वर्ताववाला हो, और, जिनका शुद्ध आचार हो तथा अच्छे मार्गका उपदेश करनेवाला हो जिसका दर्शन पुण्यकारक हो, ऐसे भद्रपुरुषका संग अवश्य करना चाहिये॥ ५६ ॥ ५७ ॥
भोजन आदिमें नियम।
** आहाराचारचेष्टासुसुखार्थीप्रेत्यचेहच।परंप्रयत्नमातिष्ठेद्बुद्धिमान् हितसेवने॥ ५८ ॥ ननक्तंदधिभुञ्जीतनचा-प्यघृतशर्करम्। नामुद्गसूपंनाक्षौद्रंनोष्णंनामलकैर्विना॥ ५९ ॥ अलक्ष्मीदोषयुक्तत्वान्नक्तन्तुदधिवर्जितम्। श्लेष्मणंस्यात्ससर्पिष्कंदधिमारुतसूदनम्॥ ६० ॥**
बुद्धिमान् मनुष्य इस लोक और पर लोकके सुखकी इच्छा करताहुआ हितकारक आहार विहारका यत्नसे सेवन करतारहै॥५८॥ रात्रिके समय दही न खावे। इसी प्रकार घी खांडके विना अथवा मूंग या आमलेके यूष विना, या शहतके विना मिलाये दही न खावे और गरम करके भी दहीन खाय, रात्रिमें दही खानेसे लक्ष्मीका नाश होताहै इस लिये रात्रिको दही नहीं खाना चाहिये। घीयुक्त दही कफको करता है और वायुको हरताहै और पित्तको कुपित नहीं करता, तथा भोजनको पचाताहै॥ ५९ ॥ ६० ॥
नचसन्धुक्षयेत्पित्तमाहारञ्चविपाचयेत्। शर्करासंयुतंदद्यात्तृष्णादाहनिवारणम्॥ ६१ ॥ मुद्गसूपेनसंयुक्तंदद्याद्र-क्तानिलापहम्। सुरसञ्चाल्पदोषञ्चक्षौद्रयुक्तंभवेद्दधि॥ ६२ ॥ उष्णंपित्तास्रकृद्दोषान्धात्रीयुक्तन्तुनिर्हरेत्। ज्वरासृक्पित्तवीसर्पकुष्ठपाण्ड्वासयभ्रमान्॥ ६३ ॥ प्राप्नुयात्कामलाञ्चोग्रांविधिं हित्वादधिप्रियइति॥ ६४ ॥
खांड मिलाकर दही खानेसे दाह और तृषा शांत होते हैं।मूंगके यूपके साथ दही खानेसे वायु शांत होता है। शहत मिली दही सुस्वाद होती है और उसमें कफका दोष क्षीण होजाता है। गर्म दही रक्तपित्तको करती है। आमलेके यूषसे त्रिदोषको हरती है॥ ६१ ॥ ६२ ॥जो मनुष्य बिना विधिसे दहीका सेवन करता है उसको ज्वर, रक्तपित्त, विसर्प, कुष्ठ, पांडु, भ्रम, कामला, आदि रोग उत्पन्न होते हैं॥ ६३ ॥ ६४ ॥
अध्यायका उपसंहार।
अत्र श्लोकाः॥
** वेगावेगसमुत्थाश्चरोगास्तेषाञ्चभेषजम्। येषांवेगाविधार्य्याश्चमदर्थंयद्धिताहितम्॥ उचितेचाहितेवर्ज्येसेव्येचा-नुचितेक्रमः। यथाप्रकृतिचाहारोमलायनगदौषधम्॥ ६५ ॥ भविष्यतामनुत्पत्तौरोगाणामौषधञ्चयत्। वर्ज्याःसे-व्याश्चपुरुषाधीमतात्मसुखार्थिना॥ ६६ ॥ विधिनादधिसेव्यञ्चयेनयस्मात्तदत्रिजः। नवेगान्धारणेऽध्याये सर्वमेवावदन्मुनिरिति॥ ६७ ॥**
इति अग्निवेशकतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते न वेगान्धारणीयोध्यायः॥
अव अध्यायका उपसंहार करते हैं \। इस अध्याय में वेग रोकनेका निषेध, और वेगोंके रोकनेसे पैदाहुए रोग, एवं उनकी चिकित्सा रोकनेयोग्य वेग और मनुष्य के लिये हित तथा अहित, उचित अभ्यास करना और अनुचितका त्यागना और उनका क्रम, वातादि प्रकृतिके आहार, मलोंके मार्ग, रोगोंकी औषधी, जिससे रोग ही न प्रगट हो ऐसा क्रम, प्रगट हुए रोगोंकी औषध, आत्मसुखकी इच्छावाले बुद्धिमान्को सेवनीय और त्याज्य कर्म, विधिसे दहीका सेवन, इन सव बातोंको भगवान् पुनर्वसुजीने इस नवेगान् धारणीय अध्यायमें वर्णन किया है॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालग्रामनिवासिवैद्यपंचानन पं०रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां नवेगान्धारणीयों नाम सप्तमोध्यायः॥ ७ ॥
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अष्टमोऽध्यायः।
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** अथातइन्द्रियोपक्रमणीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः।**
भगवान् आत्रेय कहतेहैं कि अब हम इन्द्रियोपकरणीय अध्यायकी व्याख्या करते हैं।
इन्द्रियोंका वर्णन तथा मनकी अनेकता।
** इहखलुपञ्चेन्द्रियाणिपञ्चेन्द्रियद्रव्याणि। पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानानिपञ्चेन्द्रियार्थाः। पञ्चेन्द्रियाधिकारेअतीन्द्रियं पुनः मनः सत्त्वसंज्ञकञ्चेत्याहुरेकेतदर्थात्मसम्पत्तदायत्तचेष्टम्॥ चेष्टाप्रत्ययभूतमिन्द्रियाणाम्॥ १ ॥ स्वार्थेन्द्रियार्थस-ङ्कल्पव्यभिचरणाच्चानेकमेकस्मिन्पुरुषेसत्त्वम् रजस्तमःसत्त्वगुणयोगाच्चनचानेकत्वंनानेकंह्येककालमनेकेषु-प्रवर्त्तते॥ २ ॥ तस्माच्चानेककालासर्वेन्द्रियप्रवृत्तिः। यद्गुणंचाभीक्ष्णंपुरुषमनुवर्त्ततेसत्त्वंतत्सत्वमेवोपदिशन्ति-ऋषयोबाहुल्यानुशयात्॥ ३ ॥ मनःपुरःसराणीन्द्रियाण्यर्थग्रहणसमर्थानिभवन्ति॥ ४ ॥**
पांच इन्द्रियें हैं। पाँच ही इन्द्रियों के द्रव्य हैं। पांच इन्द्रियोंके अधिष्ठान हैं। और पांच ही इन्द्रियोंके विषय हैं। तथा पांच इन्द्रियोंकी बुद्धि हैं। ऐसा इन्द्रियाधिकारमें कहाहै। और मन अतीन्द्रिय है, कोई मनको सत्त्व भी कहते हैं।मनविषय ही आत्माकी संपत्ति है तथा आत्माके और मनके सन्निकर्षसे चेष्टाएँ निर्वाहित हैं। ऐसे ही सब इन्द्रियोंकी चेष्टाका कारणभूत भी मन ही है। यदि कहें कि स्वार्थ, इंद्रियार्थ, और संकल्पकी पृथक्तासे एक ही पुरुषमें अनेक मन हैं और सत्त्व, रज, तम, इन प्रकृतिके गुणों से भीमनअनेक हैं ऐसा प्रतीत होता है। सो ठीक नहीं। क्योंकि एक पुरुष एक ही कालमें सब गुणोंमें या स्वार्थ आदि सब कार्योंमें प्रवृत्त नहीं होता। इसी लिये अनेक कालों में सव इंद्रियोंकी प्रवृत्ति होती है अर्थात् जब चक्षु इंद्रियसे मनका संयोग होतातो देखताहै, जव श्रवणेन्द्रियसे संयोग होता है तब सुनता है किन्तु एक ही कालमे सवइन्द्रियोंकी प्रवृति नहीं होती और एक कालमें सब गुण ही पाए जाते हैं इसलिये मन एक है अनेक नहीं। जो गुण जिसके मनमें अधिकतासे निरंतर रहताहै उसके अनुसार ही ऋषिलोग उसकी वृत्तिको कथन करते हैं अर्थात् सत्वगुणकी अधिकतासे सतोगुणी, रजोगुणसे रजोगुणी, तमोगुणसे तमोगुणी वृत्ति कही जाती है। मनकी अनुगामिनी होकर इंद्रियें अपने अर्थको ग्रहण करनेमें समर्थ हो सकती हैं॥ १–४ ॥
इन्द्रियोंके नाम द्रव्य और अधिष्ठान।
** तत्रचक्षः श्रोत्रघ्राणंरसनंस्पर्शनमितिपञ्चेन्द्रियाणि॥ पञ्चेन्द्रियद्रव्याणिखंवायुर्ज्योतिरापोभूरिति। पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानान्यक्षिणीकर्णौनासिकेजिह्वात्वक्चेति॥ ५ ॥**
** **चक्षु, श्रवण, घ्राण, रसन, स्पर्श यह पांच इंद्रियें हैं। और तेज, आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, यह क्रमसे पांच इंद्रियोंके पांच द्रव्य हैं। आंख, कान, नासिका, नीभं, त्वचा, यह क्रमसे पांच इंद्रियोंके अधिष्ठान (रहनेके स्थान) हैं॥ ५ ॥
इन्द्रियों के विषयादि।
पञ्चेन्द्रियार्थाःशब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः।
पञ्चेन्द्रियबुद्धयश्चक्षुबुद्ध्यादिकास्ताः॥ ६ ॥
रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श, यह कमसे पांचों इन्द्रियोंके अर्थ (विषय) हैं॥ देखनेकी बुद्धि, सुननेकी बुद्धि, गंधलेकी बुद्धि, रसज्ञानकी बुद्धि, स्पर्शकी बुद्धि यह क्रमसे पांच इंद्रियोंकी बुद्धि (बोध) हैं॥ ६ ॥
पुनरिन्द्रियेन्द्रियार्थस्वत्त्वात्मसन्निकर्षजाः।
क्षणिकानिश्चयात्मिकाश्चेत्येतत्पञ्चपञ्चकम्॥ ७ ॥
इन्द्रियबुद्धि यह (बोध, ज्ञान) इंद्रिय और उस इन्द्रियका अर्थ (विषय) तथा मन और आत्मा इन सबके सन्निकर्षसे होती है। फिर वह बुद्धि क्षणिका और निश्चयात्मिका इन भेदोंसे दो प्रकारकी है। यह इंद्रियपंचकका पंचक कहागया अर्थात् एक २ इन्द्रियका एकएक पंचक होनेसे पांच पंचक कहेगयें हैं॥ ७ ॥
अध्यात्मिकद्रव्यगण।
** मनोमनोरथोबुद्धिरात्माचेत्यध्यात्मद्रव्यगणसग्रंहःशुभाशुभ प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुश्चद्रव्याश्रितंकर्मयदुच्यते क्रियेति॥ ८ ॥**
मन, मनके विषय, बुद्धि, आत्मा, यह अध्यात्मद्रव्योंके गणका संग्रह है। शुभ तथा अशुभ कार्यों में प्रवृत्त और निवृत्त होनेका हेतु भी यही आध्यात्मिक द्रव्यगण है। द्रव्यके आश्रयीभूत जो कर्म है उसको किया कहते हैं॥८॥
इन्द्रियोंमें विशेषता।
** तत्रानुमानगम्यानांपञ्चमहाभूतविकारसमुदायात्मकानामपिसतामिन्द्रियाणांतेजश्चक्षुषिश्रोत्रेनभः घ्राणेक्षिति-रापोरसने स्पर्शनेऽनिलोविशेषेणोपदिश्यते॥ ९ ॥**
यह अनुमान द्वारा सिद्ध है कि पांचो इन्द्रियां पांच महाभूतोंके ही विकार हैं। इनमे तेज नेत्रोमें, आकाश कानोंमें, और नासिकामें पृथ्वी, जीभमें जल, स्पर्शमें वायु, विशेषतासे रहते हैं॥९॥
** तत्रयद्यदात्मकमिन्द्रियंविशेषात्तदात्मकमेवार्थमनुधावति तत्स्वभावाद्विभुत्वाच॥ १० ॥**
इनमें जो इंद्रिय जिस महाभूतसे बनी हुई है वह उसीके स्वभाववाली होनेसे और विभु होनेसे उसी महाभूतके गुणको ग्रहण करनेवाली होती है॥ १० ॥
इन्द्रियों के विपरीत होनेका कारण।
** तदर्थातियोगायोगमिथ्यायोगात्समनस्कमिन्द्रियंविकृतिमापद्यमानंयथास्वबुद्ध्युपघातायसम्पद्यते॥ ११ ॥ समयोगात्पुनः प्रकृतिमापद्यमानंयथास्वंबुद्धिमाप्याययति॥ १२ ॥**
इनके विषयोंका अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग होनेसे मन और इन्द्रिय विकृत होजाते हैं और बुद्धि भी नाशको प्राप्त होती है। ऐसे ही ठीक योग होनेसे मन और इंद्रिय ठीक प्रकृतिस्थ रहते हैं और बुद्धि भी बढतीहै॥ ११ ॥ १२ ॥
मनका विषय।
** मनसस्तुचिन्त्यमर्थः। तत्रमनसोबुद्धेश्चतएवसमानातिहीनमिथ्यायोगाःप्रकृतिविकृतिहेतवोभवन्ति॥ १३ ॥ तत्रेन्द्रियाणां समनस्कानामनुपतप्तानामनुपतापायप्रकृतिभावेप्रयतितव्यमेभिर्हेतुभिः॥ १४ ॥**
मनका विषय चिंतन करनाहै। यहां पर मन और बुद्धिका ठीक योग होना प्रकृति (ठीकस्वभाव) का कारण है और अतियोग, मिथ्यायोग, अयोग, विकृतिकाकारण है। इसलिये जिस योगसे मन और इंद्रिय अपनी शक्तिसे हत न हों और अपने ठीक स्वभावमें रहे उस योगका अनुसरण करना चाहिये॥ १३ ॥ १४ ॥
प्रकृति स्थिर रखनेके हेतु।
** तद्यथासात्म्येन्द्रियार्थसंयोगेनबुद्ध्यासम्यगवेक्ष्यावेक्ष्यकर्मणां सम्यक्प्रतिपादनेनदेशकालात्मगुणाविपरीतो-पसेवनेनचेति॥ तस्मादात्महितंचिकीर्षतासर्वेणसर्वंसर्वदास्मृतिमास्थायसद्वृत्तमनुष्ठेयम्। तद्ध्यनुष्ठानंयुगप-त्सम्पादयत्यर्थद्वयमारोग्यमिन्द्रियविजयञ्चेति॥ १५ ॥**
इन नीचे कहेहुए हेतुओंसे असात्म्य विषयोंका सेवन न करना, और आत्माके अनुकूल अर्थोंका सेवन करना, इस लिये आत्महितेच्छावालेको सव कार्योंको विचारपूर्वक देश, काल, और आत्माके अनुकूल जानकर सेवन करना चाहिये सत्कार्योंकासेवन करे। ऐसा करनेसे आरोग्यताका लाभ और इन्द्रियोंका बल ठीक रहसकताहै॥ १५ ॥
सत्कार्योंका वर्णन।
** तत् सद्वृत्तमखिलेनोपदेक्ष्यामः। तद्यथा॥ देवगोब्राह्मणगुरुवृद्धसिद्धाचार्यानर्चयेत्। अग्निमनुचरेत्। ओषधीःप्रशस्ताधारयेत्॥ द्वौकालावुपस्पृशेत्॥ मलायतनेष्वभीक्ष्णंपादयोश्चवैमल्यमादध्यात्। त्रिःपक्षास्यकेशश्मश्रुलोमनखान्संहारयेत्। नित्यमनुपहतवासाःसुगन्धिःस्यात्॥ १६ ॥**
सो अब हम उसी संपूर्ण सद्वृत्तका कथन करतेहैं वह ऐसा है कि देवता, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धपुरुष, सिद्ध, आचार्य, इनका पूजन करे। अग्निमें हवन करे। पवित्र उत्तम औषधियोंको धारण करे। प्रातःकाल और सायंकाल जलसे आचमनआदि करे (संध्या करे) मलमार्ग और हाथ पावोंको पवित्र रखना चाहिये, एक पक्षमें (१५ दिनमें) तीन बार क्षौरकर्म दाढी नख आदि ठीक करावे मैले और फटे वस्त्रोंको न पहने। मनको प्रसन्न रक्खे।उत्तम सुगंधीको धारण करे॥ १६ ॥
** साधुवेशःप्रसाधितकेशोमूर्द्धश्रोत्रपादतैलनित्योधूमपःपूर्वाभिभाषीसुमुखः। दुर्गेष्वभ्युपपत्ताहोतायष्टादाताच-तुष्पथानांनमस्कर्त्तावलीनामुपहर्ताऽतिथीनांपूजकःपितृणांपिण्डदःकालेहितमितमधुरार्थवादी। वश्यात्मधर्मात्माहेतुवीर्य्यःफलेनेर्षुः। निश्चिन्तोनिर्भीकोधीमान्ह्रीमान्महोत्साहःदक्षःक्ष-मावान्धार्मिकःआस्तिकःविनयबुद्धिविद्याभिजनवयोवृद्धसिद्धाचार्य्याणामुपासिता। छत्रीदण्डीमौनीसोपान-त्कोयुगमात्रदृग्विचरेत्॥ १७ ॥**
श्रेष्ठ पुरुषोंकी समान वेष धारण करे। केशको साफ और संवारकर रक्खे। मस्तक, कान, नाक, और पैरोंके तलुवोंमें नित्य तैल लगायाकरे, धूमपान करे, जव कोई भले पुरुष घर आवें उनका आदर सत्कारसे सम्मान करे अथवा जिनसे मिले, पहले ही मीठे वचनोंसे प्रसन्न करले, भयसे व्याकुलको धैर्य देवे, कठिन कार्योंकी प्राप्तिके लिये होम, यज्ञ, दान, इनको करे, चतुष्पथको नमस्कार करे, बलि आदिसे अग्निदेवता, भद्रपुरुष और दीन आदिकोंको प्रसन्न रक्खे।अतिथियोका पूजन करे, पितरोंको पिंड आदि देवे, समय विचारकर हितयुक्त और मधुर अर्थवाला संभाषण करे, आत्माको वशमें रखनेमें तत्पर रहे, धर्मात्मा होय, जिस कार्यमें, सबका भलाहो वह करे, कार्यको कर फलके लिये ईर्षा न करे, निश्चित रहे, भयभीत न हो, बुद्धि, लज्जा, उत्साह, चातुरी, क्षमा इनको धारण करे।धर्म करे, आस्तिकतावाला होय, और विनय, बुद्धि, विद्या, इनमें जो वृद्ध हों और सिद्ध तथा आचार्यहों उनकी उपासना, सेवा, करे, छत्री, यष्टि, पगडी, उपानह इनको धारण करे, मार्ग चलते समय आगेको चार हाथ मार्ग देखकर चले॥१७॥
** मङ्गलाचारशीलःकुचैलास्थिकण्टकामेध्यकेशतुषोत्करभस्मकपालस्नानवलिभूमीनांपरिहर्त्ताप्राक्श्रमाद्व्या-यामवर्जीस्यात्। सर्वप्राणिषुबन्धुभूतःस्यात्क्रुद्धानामनुनेताभीतानामाश्वासयितादीनानामभ्युपपत्ता। सत्यसन्धः। सामप्रधानः। परपरुषवचनसहिष्णुःअमर्षघ्नः। प्रशमगुणदर्शी॥ १८ ॥**
सदा ही मंगलवस्तुओं और मंगल (शुभ) कार्योंका सेवन करे, खराब वस्त्र, अस्थि, कांटे अमेध्य (विष्ठाआदि), केश, तुष, कंकड आदि, भस्म, ठीकडे वाली भूमिमें और जहां स्नान करनेका जल बहरहाहो तथा जिस भूमिमें बलि दी हो एवं श्मशान आदि भूमि मे न जावे। थकावट होनेसे पहले कसरत छोडदेवे अर्थात् अत्यंत व्यायाम न करे। सब प्राणियोंसे बंधुओंकी समान प्रेम रक्खे क्रोधयुक्तोंको नम्रतासे शांत करले। भयभीतोंको आश्वासन करे अर्थात् दिलासा देवे, दीन पुरुषों पर दया करे, सत्यभापणमें तत्पर रहे, और साम, दान, दंड, भेद, इन चारोंमें सामगुणका अवलंबन करे, पराये कहेहुए कठोर वचनोंको सहन करलेनेवाला होय, आप क्रोध और अहंभाव नलावे, उत्तम शांतिदायक गुणोंका अवलंबन करे॥१८॥
अकर्तव्योंका वर्णन।
** रागद्वेषहेतूनांहन्ता॥ नानृतंब्रूयात्। नान्यस्वमाददी। नान्यस्त्रियमभिलषेत्। नान्यश्रियंनवैरंरोचयेत्। नकुर्यात् पापंन पापेऽपिपापीस्यात्। नान्यदोषान्ब्रूयात्। नान्यरहस्यमागमयेत्॥ १९ ॥ नाधार्मिकैर्ननरेन्द्रद्विष्टैःसहासीत।नोन्मत्तैर्नपतितैर्नभ्रूणहन्तृंभिर्नक्षुद्रैर्नदुष्टैः। नदुष्टयानान्यारोहेत्। नजानुसमंकठिनमासनमध्यासीत॥ २० ॥नानास्तीर्णमनुपहितमविशालमसमंवाशयनंप्रपद्येत। नगिरिविषममस्तकेष्वनुचरेत्।नद्रुममारोहेत।न जलोग्रवेगमवगाहेत। कुलच्छायां नोपासीत।नाग्न्युत्पातमभितश्चरेत्।नोच्चैर्हसेत्। नशब्दवन्तंमारुतंमुश्चेत्। नासंवृतमुखो जृम्भांक्षवथुंहास्यवाप्रवर्त्तयेत्। ननासिकांकुष्णीयात्। नदन्तान्विघट्टयेत्। ननखान्वादयेत्। नास्थीन्यभिहन्यात्। नभूमिंविलिखेत्। नछिंद्यात्तृणम्॥ नलोष्ठंमृद्गीयात्॥ २१ ॥ नविगुणसङ्गैश्चेष्टेत। ज्योतींष्यग्निञ्चामेध्यमशस्तञ्चनाभिवीक्षेतनहुंकुर्य्याच्छवम्। नचैत्यध्वजगुरुपूज्याशस्तच्छायामाक्रामेत्। नक्षपास्वमरसदनचैत्यचत्वरचतुष्पथोपवनश्मशानायतनान्यासेवेत। नैकः शून्यगृहंनचाटवीमनुप्रविशेत्।नपापवृ-त्तान्स्वीयमित्रभृत्यान्भजेत्। नोत्तमैर्विरुध्येत्नावरानुपासीतनजिह्मंरोचयेत्। नाऽनार्थमाश्रयेत्। नभयमुत्पादयेत्। नसाहसातिस्वप्नप्रजागरस्नानपानाशनान्यासेवेत। नोर्द्ध्वजानुश्चिरंतिष्ठेत्। नव्यालानुपसर्पन्नदंष्ट्रिणःनविषाणिनः। पुरोवातातपावश्यायातिप्रवाताञ्जाह्यात्कलिंनारभेत। नानिभूतोऽग्निमुपासीत।नोच्छिष्टोनाधःकृत्वाप्रतापयेत्। नाविगतक्लमोमानाप्लुतवदनोननग्नउपस्पृशेत्। नस्नानशाट्यास्पृशेदुत्त-माङ्गम्। नकेशाग्राण्यभिहन्यात्। नोपस्पृशेतएववाससीविधृयात्। नास्पृष्ट्वारत्नाज्यपूज्यमंगलसुमनसोऽभिनि-ष्क्रामेत्। नपूज्यमंगलान्यपसव्यंगच्छेम्। नेतराण्यनुदक्षिणम्॥ २२ ॥**
राग और द्वेषके कारणोंको न रहनेदे।झूठ न बोले, पराई वस्तु न लेवे, परस्त्रीकी कभी भी इच्छा न करे।परसंपति देखकर डाह न करे, किसीसे विरोध न करे, पाप न करे, पापीसे भी पाप न करे, किसीके भी दोष अपने मुखसे न कहे, किसीकी भी गुप्त बात को प्रगट न करे॥ १९ ॥ अधर्मी और राजद्रोही पुरुषके पास भीन जाय। उन्मत्त, पतित, भ्रूणहत्यारे (गर्भगिरानेवाले) तथा दुष्ट पुरुषोंका संग न करे। खराब घोडे आदिपर सवारी न करे जानु (गोडे,) ओंधे करके अथवा जिस तरह बैठनेसे कष्ट हो वैसे न बैठे॥ २० ॥ जिस शय्यापर वस्त्र न विछा हो, और ओढनेको कपडा न हो, तथा जो लंबी चौडी ठीक न हो, और नष्ट भ्रष्ट हो तथा टेढी हो ऐसी शय्यापर शयन न करे। पर्वत और पर्वतोंकी खराब घाटियोंपर न चढे। वृक्षपर न चढ़े। अधिक वेगवाली चढ़ी हुई नदीमें स्नान न करे।अपने कुलकी छाया या बेरीके वृक्षकी छायामें न बैठे। अग्नि लगे स्थानमें न जाय ऊँचे स्वरसे न हँसे। सभा आदिमे अपान वायुका शब्द न करे।मुखको विना ढके जंभाई, छीक, हास्य न करे। नाकको न कुरेले, दातोंको न कटकटावे, नखोंको न बजावे, हड्डियोंको हनन न करे, (मटकावे नहीं), पृथ्वीको न कुरेले, तिनके न तोड़ाकरे, वृथा मट्टीके डले न फोडाकरे॥२१॥ दुष्टाचारी मनुष्योंका संग अथवा उनसे कोई व्यवहार न करे।तेज, ज्योति, अग्नि, पवित्र और निंदितोंके सामने न देखे। मुर्देको देखकर हुंकार न करे। चैत्यस्थान, ध्वजा, गुरु, माता पिता आदि पूज्य जनोंकी, छायाको और खराब छायाको उलंघन न करे।रात्रिमें–देवालय, चैत्य, आंगन, चतुष्पथ, बाग, श्मशान, और हिंसाकी भूमिमें न रहे। शून्य स्थान अथवा शून्य वनमें अकेला न जाय। पापवृत्तिवाले–स्त्री, मित्र, नौकर, आदिको अपने पास न रक्खे।भद्रपुरुषोंसे विरोधन करे।कुटिल पुरुषका संग न करे। कपटी पुरुषसे मेलजोल न करे।खोटे पुरुषका आश्रय न लेय।किसीको भी भय न देवे। बहुत साहस, बहुत सोना, बहुत जागना, बहुत स्नान करना, बहुत पानी और बहुत भोजन करना उचित नहीं, अर्थात् इनको बहुत न करे।जानुओंको ऊपरको करबडी देर तक न बैठे। सांप, सिंहादि, और सींगवाले, जीवोंके पास न जाय, पूर्वकी वायु, सूर्यकी धूप, हिम, बहुत वेगवाली पवन इनको त्यागदेवे । कलह न छेडे, दावानल आदि अग्निके समीप न जाय । उच्छिष्ट होकर या शय्या आदिके नीचे रख अग्नि न सेके। जबतक थकावट दूर होकर पसीना न सुखजाय तवतक स्नान न करे।नंगा होकर न न्हावे । जिस कपडेसे स्नान कियाहो उससे मस्तकादि उत्तम अंगको न पोंछे । केशोंके अग्रभागको पकडकर न झटके। जिस कपड़े से शरीर पोछा हो या स्नान किया हो उस गीले वस्त्रको न पहिरे। रत्न, घृत, पूज्य और मंगलवस्तुओं का स्पर्श करके प्रसन्न मन हो घरसे निकले।पूज्य और मंगल वस्तुओंको बाई ओर करके न जाय। ऐसेही अपूज्य और अमंगलको दाहनी ओर करके न जाय॥ २२ ॥
भोजन करनेके नियम।
** नारत्नपाणिर्नास्नातोनोपहतवासानाऽजपित्वानाहुत्वादेवताभ्योऽनारूप्यपितृभ्योनाऽदत्त्वा गुरुभ्योनातिथि-भ्योनोपाश्रितेभ्योनापुण्यगन्धोनामालीनाप्रक्षालितपाणिपादवदनोनाऽशुद्धमुखोनोदङ्मुखीनविमनाभक्ताशि-ष्टाशुचिक्षुधितपरिचरोनापात्रीष्वमेध्यासुनादेशेनाऽकालेनाकीर्णेनाऽदत्त्वाग्रमग्नयेनाप्रोक्षितंप्रोक्षणोदकैर्नमन्त्रै-रनभिमन्त्रितंनकुत्सयन्नकुत्सितंनप्रतिकूलोपहितमन्नमाददीत। नपर्य्युषितमन्यत्रमांसहरितशुष्कशाकफलभ-क्ष्येभ्यः॥२३ ॥**
हाथोंमें रत्नको धारण किये विना, न्हाये विना, मैले तथा फटे कपडे पहनकर, विना जपकिये, हवन किये विना, देवताओंको अर्पण किये विना, पितृजनों, गुरुजनों और अतिथियोंको दिये विना, अपने आश्रित पुरुषोंको दिये विना, पवित्र चंदन गंध आदि धारण किये विना, माला पहने विना, हाथ, पांव, मुख धोये विना अशुद्ध मुखसे, उत्तरको मुख करके भोजन न करे। और अपमानित, अभक्त, दुष्ट अपवित्र, और भूखे नौकरके पास रहते हुए, अशुद्ध पात्रमें, निंदित स्थानमें, विना समय, बहुत मनुष्योंमें अकेले, अग्निमें आहुति डाले विना, प्रोक्षणोदकसे प्रोक्षण किये विना, मंत्रोंसे अभिमंत्रित किये विना, भोजनकी निंदा करते हुए, निंदितपदार्थोंको, शत्रुके हाथसे दियेको ऐसे भोजनको न करे। और मांस, हरितपक्षी,सूखे शाक, फलोंसे और पेडा आदि मिठाईसे सिवाय बासी पदार्थ न खाय॥ २३ ॥
नाऽशेषभुक्स्यादन्यत्रदधिमधुलवणसक्तुसर्पिर्भ्यः। ननक्तंदधि भुञ्जीत। नसक्तूनेकानश्नीयात्॥ २४ ॥ ननिशिनभुक्त्वान बहून्नद्विर्नोदकान्तरितान्॥ २५ ॥
भोजन करते समय दधि, मधु, लवण, और सत्तुओंके बिना सब पदार्थ, थोडे २ छोडकर भोजन करने चाहिये॥रातको दही न खाय। केवल सत्तू (घी मीठे विना) न खाय।रात्रिको और भोजनके पीछे तथा बहुत किस्मके मिलेहुए सत्तू न खाय।दो बार सत्तू न खाय। सूखे सत्तू न फांके॥ २४ ॥ २५ ॥
** नछित्त्वाद्विजैर्भक्षयेत्। नाऽनृजुःक्षुयान्नाद्यान्नशयीत।नवेगितोऽन्यकार्य्यःस्यात्। नवाय्वग्निसलिलसामार्कद्वि-जगुरुप्रतिमुखंनिष्ठीविकावातवर्च्चोमूत्राण्युत्सृजेत्। नपन्थानमवमूत्रयेन्नजनवतिनान्नकाले नजप्यहोमाध्ययनब-लिमङ्गलक्रियासुश्लेष्मसिंघाणकंमुञ्चेत। नस्त्रियमवजानीत। नातिविश्रम्भयेत्नगुह्यमनुश्रावयेन्नाधिकुर्य्यात्। नरजस्वलांनातुरांनामेध्यांनाशस्तांनानिष्टरूपाचारोपचारांनादक्षिणांनाकामांनान्यकामां नान्यस्त्रियंनान्ययो-निंनायोनौनचैत्यचत्वरचतुष्पथपवनश्मशानायतनसलिलौषधिद्विजगुरुसुरालयेषुनसन्ध्ययोर्नातिननिषिद्धति-थिषुनाशुचिर्नजग्धभेषजोनाप्रणीतसङ्कल्पोनानुपस्थितप्रहर्षोनाभुक्तवान् नात्यशितोनविषमस्थोमूत्रोच्चारपी-डितोनश्रमव्यायामोपवासक्लमाभिहतोनाऽरहसिव्यवायंगच्छेत्॥ २६ ॥**
दांतोसे कुचले विना न खाय। शरीरको टेढा करके छींकना, खाना, सोना उचित नहीं। मलादिकके वेगको रोककर कोई कार्य न करे। वायु, अग्नि, जल, चंद्रमा, सूर्य, ब्राह्मण, गुरु, इनके सामने थूक, अपानवायुका त्याग, मलत्याग, मूत्र, यह न करे।मार्गमें मल मूत्र न करे।बहुत मनुष्योंमें भोजन के समय, जप, होम, पठन पाठन, बलि, तथा मंगलकार्यमें थूक और नाककी मैलको न त्यागे। स्त्रीकोबहुत अपमानित न करे और उसका अत्यंत विश्वास भी न करे तथा अपनी गुप्त बातोंको भी स्त्रीसे प्रगट न करे और कुल अपने कारोवारकी मालिक भी न बनावे।ऐसे ही रजस्वला, रोगिणी, अशुद्ध अश्रेष्ठा, कुरूपा, खोटे आचारखाली, कुबुद्धिनी, विना इच्छावाली, दूसरे पुरुषकी इच्छावाली, परस्त्री, इनसे मैथुन न करे स्त्रीकी योनिसे विना अयोनि मैथुन न करे। चैत्य, चत्वर (देवालय मंदिर आदि), चौराहा, उपवन, श्मशान, वधस्थान, जल, औषधीदेनेके स्थान, द्विजस्थान, गुरुस्थान, देवमंदिर, इन स्थानों में भी स्त्रीगमन न करे।दोनों संध्याओंमें, एकादशी आदि निषिद्ध तिथिमें, अपवित्र अवस्था में, औषधी खाकर, विना निश्चय किये, विना कामेच्छा प्रगटहुए, भूखे, बहुत भोजन करके, विषमरीतिसे, मलमूत्रके वेगमें, थका हुआ, व्यायाम करके, व्रत करके, आलस्य युक्त भी मैथुन न करे। एकांत स्थानके विना भी स्त्रीसंग न करे॥ २६ ॥
अध्ययनकालके नियम।
** नसतोनगुरून्परिवदेत्।नाशुचिरभिचारकर्मचैत्यपूज्यपूजाध्ययनमभिनिवर्त्तयेत्। नविद्युत्स्वार्त्तवीषुनाभ्यु-दितासुदिक्षु नाग्निसंप्लवेनभूमिकम्पेनमहोत्सवेनोल्कापातेनमहाग्रहोपगमनेनष्टचन्द्रायांतिथौनसन्ध्ययोर्नमुख द्गुरोर्नावपतितंनातिमात्रं नतान्तंनविस्वरंनानवस्थितपदंनातिद्रुतंनविलम्बितंनातिक्लीबंनात्युच्चैर्नातिनीचैः। स्वरैरध्ययनमभ्यसेत्। नातिसमयंद्रुह्यात्। ननियमंभिन्द्यात्॥ २७ ॥**
** **श्रेष्ठ महात्माओंकी और गुरुजनोंकी निन्दा न करे। विना शुद्ध हुए मंत्र तंत्र देवमंदिर पीपल आदिका पूजन, पूज्योंका पूजन, विद्याध्ययन, न करे। अकाल विद्युत्पात होनेपर, दिग्दाह होनेपर, भूकंप होनेपर, बडे उत्साहमें, उल्कापातके समय, सूर्य चंद्रके ग्रहणमें, अमावस्याको, दोनों संध्याओंमें, ऐसे ही गुरुमुखसे सिवाय, अत्यंत मात्रासे, बहुत जोरसे, खराब स्वरसे, पदोंको तोड फोड कर, बहुतजल्दी २, बहुत देरमें, बहुत दुर्बलतासे, बहुत ऊंचे स्वरसे, बहुत नीचे स्वरसे, अध्ययन न करे। पढनेके समयको व्यर्थ न खोवे। पढनेके नियमको न बिगाडे॥ २७ ॥
अन्य नियम।
** न नक्तंनादेशेचरेत्। नसन्ध्यास्वभ्यवहाराध्ययनस्त्रीस्वप्नसेवी स्यात्। नबालवृद्धलुब्धमूर्खक्लिष्टक्लीबैःसह-सख्यंकुर्य्यात्। न मद्यद्यूतवेश्याप्रसङ्गरुचिःस्यात्। नगुह्यंविवृणुयात्। नकञ्चिदवजानीयात्। नाहंमानीस्यात्। नदक्षोनादक्षिणोनासूयकोनदक्षिणान्परिवदेत्। नगवांदण्डमुद्यच्छेत्। नवृद्धान्नगुरुन्नगणन्ननृपान्वाधिक्षिपेत्नचातिब्रूयात्॥ नबान्धवानुरक्तकृच्छ्राद्वितीयगुह्यज्ञान्बाहिःकुर्य्यात्॥ २८ ॥**
** **रात्रिके समय और खराब स्थानमें न फिरे। संध्याके समय भोजन, अध्ययन, मैथुन, और शयन, न करे। बालक, अतिवृद्ध, लोभी, मूर्ख, रोगी, और नपुंसकोंसे मित्रता न करे।मद्यपान, जूआ और वेश्याओंमें कभी रुचि न करे। घरकी गुप्त बातें किसीसे न कहे।किसीका भी अपमान न करे। अहंकार (मैं बडा हूं वा बडा गुणी हूँ) न करे। चतुराई रहित, सूम, तथा किसीको दोष लगानेवाला न हो। ब्राह्मण आदिकोकी निंदा न करे। गौओंपर डंडा न चलावे। वृद्धपुरुषों, गुरुजनों; बहुत दलवालों तथा राजाओंकी निदा आदि न करे। न इनके सामने बहुत वोले। अपने बांधवांको अपने प्रेमियोंको आपत्ति में सहायता करनेवालोको, अपने रहस्य जाननेवालोंको न छोडै॥ २८ ॥
विशेष उपयोगीनियम।
** नाधीरोनात्युच्छ्रितसत्त्वःस्यात्। नाभृतभृत्योनविश्रब्धास्वजनोनैकःसुखी।नदुःखशीलाचारोपचारोनसर्व-विश्रम्भी। नसर्वाभिशङ्की। नसर्वकालविचारी॥ नकार्य्यकालमतिपातयेत्। नापरीक्षितमभिनिविशेत्।नेन्द्रियवशगःस्यात्॥ २९ ॥**
** **धैर्यरहित और वडा सात्त्विक न बनैनौकरोंकी नौकरी न रक्खे। आदमियोंसे विश्वासरहित भी न बने। कुटुंबके बिना अकेला ही सुख न भोगे। और दूसरोंको दुःख मिलनेवाला आचरण न करै। सभीका विश्वास भी न करे। प्रत्येक मनुष्यके झूठा होनेका भ्रम भी न करे। सदा सोचता भी न रहे। कामके समयको व्यर्थ नष्ट न करै। विना जाने कार्यमेप्रवेश न करे। इंद्रियोंके वशमें नं होजाय॥ २९ ॥
** नचञ्चलंमनोभ्रामयेत्। नबुद्धीन्द्रियाणामतिभारभादध्यात्॥ नचातिदीर्घसूत्रीस्यात्। नक्रोधहर्षावनुविद-ध्यात्। नशोकमनुविशेत्। नसिद्धावौत्सुक्यंगच्छेन्नासिद्धौदैन्यम्। प्रकृतिमभीक्ष्णंस्मरेत्। हेतुप्रभावनिश्चितःस्यात्। हेत्वारंभनित्य।नकृतमित्याश्वसेत्॥ नवीर्यंजह्यात्।नापवादमनुस्मरेत्॥ ३० ॥**
मन स्वयं ही चंचल होताहै इसको और भी भ्रमित न करे अर्थात् मनको टिकाकर रक्खे।बुद्धि और इंद्रियोंपर बहुत भार न दे, अर्थात् जिससे रोग होजाय इतना काम न लेय।कामको बहुत देरमें करनेवाला न होय। क्रोध और हर्षको बढने न दे। शोकातुर न बनारहे। कार्य सिद्ध होनेसे अत्यंत प्रसन्न न होये। कार्यके न होनेसे अति दीनता भीन प्रगटकरे अपने जन्म कर्म आदिका सदैव स्मरण रक्खे।जिस कार्यका आरंभ करे उसके फल (नतीजे) को पहले सोचलेवे। उन्नति हेतुओंको नित्य आरंभ करतारहे। अपने आपको कभी कृतकृत्य न समझे। अपने पराक्रमकी न छोडे। किसीने अपमान कियाहो तो, उसको याद न करे॥ ३० ॥
हवनादिके नियम।
** नाशुचिरुत्तमाज्याक्षततिलकुशसर्षपैरग्निंजुहुयात्। आत्मानमाशीर्भिराशासानः॥ अग्निर्मेनापगच्छेच्छरीरात्। वायुर्मेप्राणानादधातु। विष्णुर्मेबलमादधातु।इन्द्रोमेवीर्य्यंशिवामां प्रविशंस्त्वापः॥आपोहिष्ठेत्यपःस्पृशेत्॥ द्विःपरिमृजेदोष्ठौ पदौचाभ्युक्ष्यमूर्ध्निखानिचोपस्पृशेत्॥ अद्भिरात्मानंहृदयंशिरश्चब्रह्मचर्य्यज्ञानदानमैत्रीकारु-ण्यहर्षापेक्षाप्रशमपरश्चस्यादिति॥ ३१ ॥**
शुद्ध पवित्र होकर घी, चावल, तिल, कुशा, सर्सो इनको अग्निम हवन करे।होम करनेके पीछे अपनेको इस प्रकार आशीर्वाद दे “अग्नि हमारे शरीरमेंसे मत जाय, वायु हमारे प्राणोंकी रक्षाकरे, विष्णु हमारे शरीरमें बल दे। इंद्र हमारे वीर्यको बढावे। शुभकारक जल हमारे शरीरमे प्रवेश करे।” इस प्रकार कहके आपोहिष्टामयोभुवः इत्यादि मंत्रोंसे अपने शरीरको छींटे दे। दो वार होठोको दोनों पावोंको ऊपरके सब द्वारोंको जलसे छींटे देकर मस्तक और आकाशको छींटे दे। जलसे शरीर, हृदय, मस्तक प्रोक्षण करे।ब्रह्मचर्य, ज्ञान, दान, मैत्री, कृपा तथा आनंदको चाहै, और शांतचित्त रहें॥ ३१ ॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
अत्र श्लोकाः।
** पञ्चपञ्चकमुद्दिष्टंमनोहेतुचतुष्टयम्। इन्द्रियोपक्रमेऽध्यायेसद्वृत्तमखिलेनच॥ ३२ ॥ स्वस्थवृत्तंयथोद्दिष्टंयःस-म्यगनुतिष्ठति। ससमाःशतमव्याधिरायुषानवियुज्यते॥ ३३ ॥ नृलोकमापूरयतेयशसासाधुसम्मतः।धर्मार्थौचेतिभूतानांबन्धतामुपगच्छति॥ ३४ ॥ परान्सुकृतिनोलोकान्पुण्यकर्माप्रपद्यते। तस्माद्वृत्तमनुष्ठेयमिदंसर्वेणसर्वदा॥ ३५ ॥ यच्चान्यदपिकिञ्चित्स्यादनुक्तमिहपूजितम्। वृत्तंतदपिचात्रेयःसदै-वाभ्यनुमन्यते॥ ३६ ॥**
इति स्वस्थवृत्तचतुष्कः॥ अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते
इन्द्रियोपक्रमणीयोऽष्टमोध्यायः॥ ८ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं। इस इन्द्रियोपक्रमणीय अध्यायमें पांच पंचक मन, हेतुचतुष्टय, संपूर्ण सद्वृत्त, स्वास्थ्यरक्षा, भलेप्रकार कहेगये हैं। इनका जो मनुष्य अनुसरण करेगा वह रोगरहित, शतायु, साधुसंमत यशस्वी–मनुष्यलोकको अपनी शोभासे परिपूर्ण करनेवाला होगा। सब लोग उसको धर्मात्मा कहकर उससे मित्रभाव करेंगे। वह पुण्यकर्मा सब मनुष्योंसे उत्तमलोकोंको प्राप्त होता है। इसलिये यह सद्वृत्त सबको ही ग्रहण करना चाहिये। जो इस अध्याय में कहनेसे रहेहुए सदाचरण हों महात्मा आत्रेयजीने उनकी भी प्रशंसा कीहै॥ ३२–३६ ॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसहिताया पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्यपञ्चानन
प० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायामिंद्रियोपक्रमणीयो नामाष्टमोऽध्याय॥ ८ ॥
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नवमोऽध्यायः।
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** अथातःखुड्डाकचतुष्पादमध्यायंव्याख्यास्यामः। इतिहस्माहभगवानात्रेयः॥**
अब हम खुड्डाक चतुष्पाद नामके अध्यायका व्याख्यान करेगे।ऐसा भगवान आत्रेयजी कहनेलगे।
चिकित्साके चार पाद।
भिषग्द्रव्याण्युपस्थातारोगीपादचतुष्टयम्।
गुणवत्कारणंज्ञेयंविकारव्युपशान्तये॥ १ ॥
वैद्य, औषधी, परिचारक, और रोगी यह चिकित्साके चार पाद हैं यदि यह चारों यथोचित गुणोंवाले हों तो रोगोंकी शांति अवश्य होजातीहै॥ १ ॥
विकार और स्वास्थ्यका लक्षण।
विकारोधातुवैषम्यंसाम्यंप्रकृतिरुच्यते।
सुखसंज्ञकमारोग्यंविकारोदुःखमेवच॥ २ ॥
शरीरकी धातुओंमें और वातादिदोषोंमें विषमता (यथोचित न होना) विकार अर्थात् रोग कहाजाताहै। और इनका ठीक होना आरोग्यता कहा है। सो आरोग्यताको सुख कहतेहैं।रोगको दुःख कहते॥ २ ॥
चिकित्सा ल०।
चतुर्णांभिषगादीनांशस्तानांधातुवैकृते।
प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्थाचिकित्सेत्यभिधीयते॥ ३ ॥
धातुदोष आदिकी विकृतिमें उनको ठीक अर्थात साम्याऽवस्थामें करनेके लिये वैद्य आदि चारों पादोंकी जो योग्यतासे प्रवृत्ति है वह चिकित्सा कही जाती है॥ ३ ॥
वैद्यके चार गुण।
श्रुतेपर्य्यवदातृत्वंबहुशोदृष्टकर्मता।
दाक्ष्यंशौचमितिज्ञेयंवैद्येगुणचतुष्टयम्॥ ४ ॥
शास्त्रको अच्छीतरहसे जाननेवाला, दूरदर्शी. (रोगादिमें भविष्यत्को जाननेवाला) क्रियामें कुशल, शुद्धता यह वैद्यके चार गुण हैं॥ ४ ॥
औषधिगुण चतुष्टय
बहुतातत्रयोग्यत्वमनेकविधकल्पना।
सम्पच्चेतिचतुष्कोऽयं द्रव्याणांगुणउच्यते॥ ५ ॥
अच्छे गुणयुक्त, रोगके अनुसार, अनेक प्रकारसे कल्पनापूर्वक प्रयोग और कीडे आदिसे रहित नवीन होना. यह चार गुण औषधके कहेहैं॥५॥
सेवकके चार गुण।
उपचारज्ञतादाक्ष्यमनुरागश्चभर्त्तरि।
शौचञ्चेतिचतुष्कोऽयंगुणःपरिचरेजने॥ ६ ॥
प्रेमसे सेवाकरना, सब कार्यका जाननेवाला होना, चतुरता. स्वामीका भक्त होना, यह चार गुण परिचारक (सेवक) के होनेचाहिये॥ ६ ॥
रोगीके चार गुण।
स्मृतिनिर्द्देशकारित्वमभीरुत्वमथापिच।
ज्ञापकत्वञ्चरोगाणामातुरस्यगुणाःस्मृताः॥ ७ ॥
स्मरण रखना, वैद्यकी आज्ञामे चलना, निर्भय होना (घबरानेवाला न होना)अपने रोगोको यथार्थ कहना यह चार गुण रोगीके कहेंहैं॥ ७ ॥
१६ गुणोंमें वैद्यकी प्रधानता।
कारणंषोडशगुणंसिद्धौपादचतुष्टयम्।
विज्ञाताशासितायोक्ताप्रधानंभिषगत्रतु॥ ८ ॥
वैद्य आदि चार पादोंका जो चतुष्टय है अर्थात् सोलह गुण संपन्न होनेसे रोगी आरोग्य होता है।इन संबमें ज्ञाता, उपदेश करता, औषधि आदिके क्रमको बताकर आरोग्यकारक पथपर चलानेवाला होनेसे वैद्य प्रधान होताहै॥८॥
** पक्तौहिकारणंपक्तुर्यथापात्रेन्धनानलाः। विजेतुर्विजयेभूमिश्चमूःप्रहरणानिच॥ ९ ॥ आतुराद्यस्तथासिद्धौ-पादाःकारणसंज्ञिताः। वैद्यस्यातश्चिकित्सायांप्रधानंकारणंभिषक्॥ १० ॥**
जैसे भोजन बनानेमे वर्तन, लकडी, अग्नि आदि अन्य पाकके कारण होनेपर भी बनानेवाला ही मुख्य मानाजाताहै। और विजयमें–भूमि, सेना, अस्त्र शस्त्र आदि विजयके कारण होते हुए भी सेनापति ही मुख्य माना जाता है। ऐसे ही आरोग्य करनमे रोगी, परिचारक, औषध, इनके कारण होनेपर भी वैद्यको ही प्रधान कारण समझना चाहिये॥ ९ ॥ १० ॥
** मृद्दण्डचक्रसूत्राद्याःकुम्भकारादृतेयथा। नावहन्तिगुणंवैद्यादृतेपादत्रयं तथा॥ ११ ॥**
जैसे घट आदि मट्टीका पात्र बनाते समय मट्टी, दंड, चक्र, सूतका डोरा आदि सब होते हुए भी कुम्हारके विना घडा नहीं बनासकते। ऐसे ही वैद्यके विना सेवक, औषध रोगी आरोग्यता प्राप्त नही करसकते॥११॥
रोगोंमें वैद्यको कारणता।
** गन्धर्वपुरवन्नाशंयद्विकाराःसुदारुणाः। यान्तियच्चेतरेवृद्धिमाशूपायप्रतीक्षिणः॥ १२ ॥ सतिपादत्रयेज्ञाज्ञौभिष-जावत्रकारणम्। वरमात्माहुतोज्ञेननचिकित्साप्रवर्त्तिता॥ १३ ॥**
रोगी, औषध, और परिचारक, यह चिकित्साके तीन पाद होते हुए भी इन्द्रजालके समान जो रोग शीघ्र निवृत्त होजाताहै अथवा ठीक उपाय न होनेसे बढजाताहै इसमें भी सर्वज्ञ अथवा अज्ञ वैद्यको ही कारण मानना चाहिये अर्थात् अन्य पादत्रयहोनेपर भी वैद्य अच्छा होनेसे रोगका नाश और वैद्यके मूर्ख होनेसे रोगकी वृद्धि होतीहै। इसीसे कहते हैं कि अपने आप मरजाना अच्छा है परंतु मूर्खसे चिकित्सा कराना अच्छा नहीं॥ १२ ॥ १३ ॥
मूर्ख वैद्यके लक्षण।
पाणिचाराद्यथाचक्षुरज्ञानाद्भीतभीतवत्।
नौर्मारुतवशेवाज्ञोभिषक्चरतिकर्मसु॥ १४ ॥
अंधामनुष्य जैसे चलते समय आगेको हाथ मारता है और अति पवनके वेगसे जैसे नाव डगमगाती है ऐसे ही चिकित्सा के समय मूर्ख वैद्य डगमगाताहुआ अंटसंटयत्न करता है॥ १४ ॥
कुत्सित वैद्यका कर्म।
यदृच्छयासमापन्नमुत्तार्य्यानियतायुषम्।
भिषग्मानौनिहन्त्याशुशतान्यनियतायुषाम्॥ १५ ॥
मूर्ख वैद्यके हाथसे यदि कोई दैववश एक पुरुष भी अच्छा होजाय फिर वह उसको दृष्टांत में “रख मैं ऐसा योग्य वैद्य हूँ" यह कहकर वह दुष्ट सैकडों मनुष्योंकी आयुको नष्ट करता है॥ १५ ॥
वैद्यको प्राणदातृत्व।
तस्माच्छास्त्रेऽर्थविज्ञानेप्रवृत्तौकर्मदर्शने।
भिषक्चतुष्टयेयुक्तः प्राणाभिसरउच्यते॥ १६ ॥
इसलिये जिस वैद्यने शास्त्र और उसके मर्मको समझाहो, औषध और औषधके प्रयोगको जाना हो तथा चिकित्साक्रमको अच्छी तरह देख लियाहो वह गुणचतुष्टय युक्त वैद्य प्राणोंको देनेवाला कहा जाता है॥ १६ ॥
राजयोग्य चिकित्सकके लक्षण।
हेतौलिङ्गेप्रशमनेरोगाणामपुनर्भवे।
ज्ञानचतुर्विधंयस्यसराजाहुर्भिषक्तमः॥ १७ ॥
जो वैद्य रोगके कारण और लक्षण तथा रोगनाशक उपाय और जिस प्रकार फिर रोग न होय ऐसी स्वास्थ्यरक्षा इन चार प्रकारोंके विषयको जानता है वह राजाओंकी चिकित्सा करने योग्य वैद्यराज होताहै॥ १७ ॥
वैद्यका कर्तव्यकर्म।
शस्त्रंशास्त्राणिसलिलंगुणदोषप्रवृत्तये।
पात्रापेक्षीण्यतःप्रज्ञांचिकित्सार्थविशोधयेत्॥ १८ ॥
शस्त्र, शास्त्र, जल, यह गुण और दोष में पात्रकी अपेक्षा करते हैं अर्थात् शस्त्र योग्य शूरवीरके हाथमें होनेसे गुणदायक होताहै और नालायक दुष्ट आदिके हाथमें होनेसे दोषकारक (दुःखदायक) होताहै। जल उत्तम पात्र में शुद्ध और उत्तम होताहै. मलिन पात्रमें निंदनीय होताहै अथवा यों कहिये नीममें जानेसे कडुआ और इक्षुमें मीठा होता है इसी प्रकार शास्त्र भी बुद्धि के आधार पर है। इसलिये वैद्यको निर्मल (उत्तम) बुद्धिकी आवश्यकता है॥ १८ ॥
वैद्यके षड्गुण।
विद्यावितर्कोविज्ञानंस्मृतिस्तत्परताक्रिया।
यस्यैतेषड्गुणास्तस्यनसाध्यमतिवर्त्तते॥ १९ ॥
जिस वैद्यमें–विद्या, युक्ति, विज्ञान, स्मृति, तत्परता (दत्तचित्तता) और क्रियाकुशल होना, यह छः गुण विद्यमान हैं उस वैद्यको कोई भी रोग असाध्य नहीं होता॥ १९ ॥
वैद्यकी व्युत्पत्ति।
विद्यामतिः कर्मदृष्टिरभ्यासःसिद्धिराश्रयः।
वैद्यशब्दाभिनिष्पत्तौबलमेकैकमप्यदः॥ २० ॥
विद्या, बुद्धि, वैद्यकार्यमें बहुत दृष्टि, अभ्यास, सिद्धि, आश्रय, इनमेंसे एक एक गुण पूर्ण होना भी वैद्यशब्दकी निष्पत्तिके लिये हो सकता है यदि संपूर्ण अर्थात् छः गुण हों तो फिर कहना ही क्या है अर्थात् बहुत ही अच्छा है॥ २० ॥
सुखदाता वैद्यके लक्षण।
यस्यत्वेतेगुणाः सर्वेसन्तिविद्यादयःशुभाः।
सवैद्यशब्दंसद्भूतमर्हन्प्राणिसुखप्रदः॥ २१ ॥
जिस वैद्यमें यह सब गुण हैं वही वैद्य संमानके योग्य और सबको सुख देनेवाला होताहै॥ २१ ॥
दोषोंसे बचनेका उपाय।
शास्त्रंज्योतिःप्रकाशार्थंदर्शनंबुद्धिरात्मनः।
ताभ्यांभिषक्सुयुक्ताभ्यांचिकित्सन्नापराध्यति॥ २२ ॥
शास्त्र सूर्यकी समान सब वस्तुओं और रोग द्रव्यादिकोंमें प्रकाश कारक है और इसके प्रकाशमें नेत्रोंकी समान सब वस्तुओंको देखनेवाली अपनी बुद्धि हैं। इसलिये जो वैद्य शास्त्र और बुद्धिके संयोगसे अर्थात् शास्त्र और बुद्धि इन दोनोंकों मिलाकर काम लेताहै वह चिकित्सा करनेमें दोषका भागी नहीं होता अर्थात् यशको प्राप्त होता है॥२२॥
वैद्यके उपदेश।
चिकित्सितेत्रयःपादायस्माद्वैद्यव्यपाश्रयाः।
तस्मात्प्रयत्नमातिष्ठेद्भिषक्स्वगुणसम्पदि॥ २३ ॥
चिकित्साके तीन पाद (आतुर, परिचारक, भेषज) वैद्यके ही अधीन हैं इसलिये वैद्यको उचित है, कि अपने गुणों में पूर्ण रूपसे संपन्न रहनेमें यत्नवान रहै॥ २३ ॥
वैद्यकी चार प्रकार की वृत्ति।
मैत्रीकारुण्यमार्त्तेषुशक्येप्रीतिरुपेक्षणम्।
प्रकृतिस्थेषुभूतेषुवैद्यवृत्तिश्चतुर्विधेति॥ २४ ॥
वैद्यको रोगियोंमें मित्रभाव और दयाभाव रखना योग्य है। तथा साध्य रोगोंमें साहसपूर्वक यत्न करना उचित है। और स्वस्थ मनुष्योंमें जिस प्रकार वह रोगी न हों यह यत्न रखना आवश्यक है इस चार प्रकारकी बुद्धिको ब्राह्मी बुद्धि कहते हैं॥२४॥
अध्यायका संक्षिप्त विवरण।
तत्रश्लोकौ।
** भिषग्जितांचतुष्पादंपादःपादश्चतुर्गुणः। भिषक्प्रधानंपादेभ्योयस्माद्वैद्यस्तुयद्गुणः॥ २५ ॥ ज्ञानानिबुद्धिर्ब्रा-ह्मीचभिषजांयाचतुर्विधा। सर्वमेतच्चतुष्पादेखुड्डकेसम्प्रकाशितमिति॥ २६ ॥**
खुड्डाकचतुष्पादाध्यायः समाप्तः॥ ९ ॥
चिकित्साके चार पाद और एक एक पादके चार चार गुण उन सबमें वैद्यकी प्रधानता, वैद्यके चार प्रकारके गुण और ज्ञान ब्राह्मी बुद्धि, यह इस खुड्डाकचतुष्पाद अध्यायमें वर्णन किया गयाहै॥ २५ ॥ २६ ॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहिताया पटियालाराज्यातर्वर्तिटकसालनिवासिवैद्यपञ्चानन
प० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां
मात्राश्रितीयो नाम नवमोऽध्यायः॥ ९ ॥
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दशमोऽध्यायः।
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** अथातोमहाचतुष्पादमध्यायंव्याख्यास्यामः। इतिहस्माह भगवानात्रेयः॥**
अब हम महाचतुष्पाद नामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं। ऐसा आत्रेय भगवान् कहनेलगे।
औषधसे आरोग्यलाभ।
** चतुष्पादंषोडशकलंभेषजमितिभिषजोभाषन्ते। यदुक्तंपूर्वाध्यायेषोडशगुणमितितद्भेषजम्।युक्तियुक्तमल-मारोग्यायेति भगवान्पुनर्वसुरात्रेयः॥ १ ॥**
वैद्य जन षोडशगुणसंपन्न चतुष्पादको ही औषध अर्थात् चिकित्सा मानते है। सो षोडशगुणसंपन्न चिकित्सा इससे पहले अध्यायमें कह आए हैं, वह युक्तियुक्त चिकित्सा आरोग्यताप्राप्तिके लिये बहुत है ऐसा भगवान् पुनर्वसुजीने कथन किया॥ १ ॥
उक्तविषय में मैत्रयका प्रतिवाद।
** नेतिमैत्रेयःकिंकारणंदृश्यन्तेह्यातुराःकेचिदुपकरणवन्तश्चपरिचारकसम्पन्नाश्चात्मवन्तश्चकुशलैश्चभिषग्भिर-नुष्ठिताःसमुत्तिष्ठमानास्तथायुक्त्वाश्चापरेम्रियमाणास्तस्माद्भेषजमकिञ्चित्करं भवति॥ २ ॥**
यह सुनकर मैत्रेयजी कहनेलगे ऐसा नहीं होता क्योकि हमने देखाहै कि बहुतसे रोगी तो योग्य औषध, उत्तम सेवक, बुद्धिमान्, और कुशल वैद्यकी चिकित्साद्वारा आरोग्य (तंदुरुस्त) होजाते हैं। और बहुतसे सर्वगुणयुक्त औषधादि होनेपर और योग्य चिकित्सकसे चिकित्सा किये जाने पर भी मृत्युको प्राप्त होते हैं। इसमें क्या कारण है कि उसी प्रकार चिकित्सा करनेसे बहुतसे लोग आरोग्य होजाते हैं औरउसी प्रकारकी चिकित्सासे बहुतसे मृत्युवश होतेहैं।इसलिये जानपडताहै कि मनुष्यका जीवन मरण दैवाधीन है औषध आदिसे कुछ नही होता॥ २ ॥
दृष्टान्त।
** तद्यथा–श्वभ्रेसरसिचप्रसिक्तमल्पमुदकम्, नद्यांस्यन्दमानायांपांशुधानेपांशुमुष्टिप्रकीर्णइति। तथापरेदृश्यन्ते-अनुपकरणाश्चापरिचारिकाश्चानात्मवन्तश्चाकुशलैश्चभिषग्भिरनुष्ठिताः समुत्तिष्ठमानाः। तथायुक्ताम्रियमाणाश्चा-परेयतश्चप्रतिकुर्वन् सिद्ध्यतिप्रतिकुर्वन्म्रियतेअप्रतिकुर्वन्म्रियतेततश्चिन्त्यतेभेषजमभेषजेनाविशिष्टमितिमैत्रेयः॥ ३ ॥**
उसको इसतरहसे समझिये कि जैसे एक बडे भारी गढेमेंअथवा तालावमें जलकी अंजली डालदेना अथवा किसीबहतीहुई नदी या रेतके बडे भारी ढेर पर एक बालू रेतकी मुट्टी बखेरदेना किसी गणना में नहीं होती। इसी प्रकार असंख्य प्राणियों के सरण में एक दो का अच्छा हो जाना भी किस गणनामें है।और देखने में भी आता है कि बहुतसे रोगी योग्य परिचारक के विना, उत्तम औषधादि न होनेपर, खोटे स्वभावके होनेपर, और अयोग्य वैद्यसे अथवा विना ही वैद्यसे आरोग्य होजाते हैं।एवं योग्य चतुष्पादी चिकित्सा से भी अनेक २ प्राणी मरजाते हैं। कोई यत्न नकरनेसे मरजाते हैं बस, जब यत्न करनेपर भी मरजाते हैं और विना यत्न भी आरोग्य हो जाते हैं तो चिकित्सा करना और न करना एकसा ही प्रतीत होता है। इस प्रकार मैत्रेयजीने कहा॥ ३ ॥
उक्त विषयमें आत्रेयका खण्डन।
** मिथ्याचिन्त्यतइत्यात्रेयःकिंकारणंयेह्यातुराःषोडशगुणसमुदितेनानेनभेषजेनोपपद्यमानाइत्युक्तंतदनुपपन्नन-हिभेषजसाध्यानांव्याधीनांभेषजमकारणंभवति। येपुनरातुराःकेवलाद्भेषजादृतेसमुत्तिष्ठन्तेनतेषांसम्पूर्णभेष-जोपपादनायसमुत्थानविशेषोऽस्तियथाहिपतितंपुरुषंसमर्थमुत्थानायोत्थापयन्पुरुषोवलमस्योपादध्यात्। सक्षि-प्रतरमपरिक्लिष्टएवोत्तिष्ठेत्तद्वत्संम्पूर्णभेषजोपलम्भादातुराः।येचातुराः केवलाद्भेषजादपिम्रियन्तेनच सर्वएवते-भेषजोपपन्नाःसमुत्तिष्ठेरन्नहिसर्वेव्याधयोभवन्त्युपायसाध्याः॥ ४ ॥ नचोपायसाध्यानांव्याधीनामनुपायेनसिद्धिरस्तिनचासाध्यानांव्याधीनांभेषजसमुदायोऽस्तिनह्यलं ज्ञानवान्भिषङ्मुमूर्षुमातुरमुत्थापयितुम्। परी-क्ष्यकारिणोहि कुशलाभवन्ति। यथाहियोगज्ञोऽभ्यासनित्यइष्वासोधनुरादायेषुमपास्यन्नातिविप्रकृष्टेमहतिका-र्येनापबाधोभवति। सम्पादयतिचेष्टकार्य्यम्। तथाभिषक्स्वगुणसम्पन्नउपकरणवान्वीक्ष्यकर्मारम्भमाणःसाध्य-रोगमनपराधःसम्पादयत्येवातुरमारोग्येणनतस्मान्नभेषजमभेषजेनाविशिष्टंभवति॥ ५ ॥**
यह सुनकर आत्रेय कहनेलगे हे मैत्रेय! यह शंका करना आपका वृथा है। क्या कारण है जो षोडश गुण संपन्न चिकित्सासे रोगी मरजाते हैं और आरोग्य होजातेहैं आप ऐसा कहते हैं। जो रोग भेषजसाध्य है उसमे षोडशगुणयुक्त चिकित्सा कीहुई कभी निष्फल नही जाती। और जो कहतेहो विना चिकित्सासे ही रोगी अच्छे होते देखें हैं उनके रोग विशेषतासे संपूर्ण चिकित्साकी आवश्यकता नहीं उनके अल्पदोषवाली व्याधी स्वयं भी परिपाकको प्राप्त हो शांत होजाती है। जैसे कोई मनुष्य गिरपडा हो वह अपने आप उठनेको तैयार है परंतु दूसरका दिया सहारा मिलनेसे वह और भी सुखपूर्वक उठ जाता है और दूसरेके सहारेसे उठनेका बल प्राप्त होनेसे विना कष्ट खडा होता है। ऐसाही साध्य रोगोंम औषधीके प्रयोगसे रोगी शीघ्र आरोग्य होजातेहैं। और जो औषधीके प्रयोगसे रोगी शीघ्र आरोग्य होजाते हैं। और जो औषध सेवन करने पर भी मरजातेहैं तो संपूर्ण रोग भेषजसाध्य नही होते अर्थात् असाध्य रोग औषधसे साध्य नहीं हैं॥ ४ ॥ और जो रोग चिकित्सा करनेसे दूर होते हैं वह चिकित्साके विना शांत होही नहीं सकते। ऐसे ही असाध्य रोग संपूर्ण यत्नोंसे भी साध्य नही होते। और मरणोन्मुख रोगीको ज्ञानवान् वैद्य भी आरोग्य नहीं कर सकता। इसलिये, साध्य, असाध्य, कष्टसाध्यकी परीक्षा करके चिकित्सा करनेवाले कुशल वैद्य निदानद्वारा रोगको जानकर चिकित्सा करनेसे व्याधिको जीत लेते हैं। जैसे वाणचलाने में चतुर तथा नित्यका अभ्यासवाला धनुषधारी सामने आये हुए बडे शरीरवालेको वाण मारकर विद्धकरताहुआ आप उस बडे बलवालेसे अवाध्य रहताहै। और अपने इच्छित कार्यको सिद्ध करलेताहै।ऐसे ही योग्य वैद्य भी अपने गुणोंके बलसे और उपकरण (औषधादि) के वलसे विचारपूर्वकचिकित्सा करता हुआ साध्य और कष्टसाध्य रोगोंमे निर्विघ्नतासे रोगियोंको आरोग्य कर लेता है। इसलिये चिकित्सा करना और न करना बराबर नहीं हो सकता॥ ५ ॥
आत्रेयकी अनुभूत चिकित्सा।
** इदंचेदंचनःप्रत्यक्षंयदनातुरेणभेषजेनातुरंचिकित्सामः। क्षाममक्षामेनकृशंदुर्बलमाप्याययामः॥ ६ ॥ स्थूलंमे-दस्विनमपतर्पयामः। शीतेनोष्णाभिभूतमुपचरामः। शीताभिभूतमुष्णेन। न्यूनान् धातून्पूरयामः। व्यतिरिक्ता-न्ह्रासयामः। व्याधीन्मूलविपर्ययेणोपचरन्तःसम्यक्प्रकृतौस्थापयामः। तेषांनस्तथाकुर्वतामयंभेषजसमुदायः कान्ततमोभवति॥ ७ ॥**
हे मैत्रेय! यह हमारा साक्षात अनुभव है कि हम रोगीको रोगसे विपरीत गुणवाली (आरोग्यकारक) औषधिसे, और कमजोरको शक्तिवाली औषधसे चिकित्सा कर आरोग्य करलेते हैं। ऐसे ही कृश और दुर्बलको तर्पण औषधीद्वारा पुष्ट करते हैं। स्थूल और मेदवालेको रूक्षण कर कृश करलेते हैं। एवं गर्मीसे पीडितको शीतलक्रिया द्वारा, शीतसे पीडितको उष्णक्रिया द्वारा, अच्छा करते हैं। रसरक्तादि धातुएं कम होगईहों तो औषध द्वारा बढा देते है।बढीहुई हों तो कम कर देतेहैं। विषम होगईहों तो यथोचित कर देतेहैं। इसी प्रकार जिसको जो रोग हो उस रोगके कारणसे विपरीत चिकित्सा कर रोगको दूर करके उसको स्वस्थ कर देते हैं इस प्रकार जिस २ को जो २ रोग हो उस २ रोग में उसी २ प्रकारकी चिकित्साका प्रयोग करनेपर हमारी औषधियें परम लाभदायक होती हैं॥ ६ ॥ ७ ॥
भवंतिचात्र।
साध्यासाध्यविभागज्ञोज्ञानपूर्वंचिकित्सकः।
कालेचारभतेकर्मयत्तत्साधयतिध्रुवम्॥ ८ ॥
इसी लिये कहाँ है। जो वैद्य रोगको साध्य और असाध्य विचारकर ठीक समयपर हेतु और रोगके विपरीत चिकित्सा करता है वह वैद्य औषधसाध्य रोगोंको अवश्य जीतलेताहै॥ ८ ॥
असाध्यरोगकी चिकित्साका फल।
स्वार्थविद्यायशोहानिमुपक्रोशमसंग्रहम्।
प्राप्नुयान्नियतंवैद्योयोऽसाध्यंसमुपाचरेत्॥ ९ ॥
जो वैद्य असाध्यरोग में चिकित्सा आरंभ करता है उसके स्वार्थ (धनादि), विद्या, यश, नष्ट होजातेहैं और अपयश फैलता है तथा उद्योग व्यर्थ जाताहै । इसलिये असाध्य रोगमे यत्न करना वृथा है॥ ९ ॥
साध्यासाध्यरोगोंके भेद।
सुखसाध्यंमतंसाध्यंकृच्छ्रसाध्यमथापिच।
द्विविधञ्चाप्यसाध्यंस्याद्याप्यंयदनुपक्रमम्॥ १० ॥
साध्य व्याधियें दो प्रकारकी होती हैं एक साध्य और कृच्छ्रसाध्य।ऐसे ही असाध्य भी दो प्रकारको होती हैं जैसे याप्य और अचिकित्स्य॥ १० ॥
साध्यके अन्य भेद।
साध्यानांत्रिविधश्चाल्पमध्यमोत्कृष्टतांप्रति।
विकल्पोनत्वसाध्यानांनियतानांविकल्पना॥ ११ ॥
साध्य रोगोके और भी तीन भेद कहेहें जैसे अल्प मध्य, उत्कृष्ट, परंतु असाध्य रोगके भेद नहीं यह प्राणनाशक होता है। और जो चिकित्सायोग्य हैं उनमें भेद अवश्य होता है॥ ११ ॥
सुखसाध्य के लक्षण।
** हेतवःपूर्वरूपाणिरूपाण्यल्पानियस्यच।नचतुल्यगुणोदूष्योनदोषःप्रकृतिर्भवेत्॥ १२ ॥ नचकालगुणस्तुल्यो-नदोषो दुरुपक्रमः।गतिरेकानवत्वञ्चरोगस्योपद्रवोनच॥ १३ ॥ दोषश्चैकःसमुत्पत्तौदेहःसर्वौषधक्षमः। चतुष्पा-दोपपत्तिश्चसुखसाध्यस्यलक्षणम्॥ १४ ॥**
(सुखसाध्य के लक्षण) जिस व्याधिके हेतु (रोगोत्पादक कारण) और पूर्वरूप, तथा रूप यह सब अल्प हो और दूष्य, देश, प्रकृति, काल, इनके साथ रोगकी साम्यता न होय। और रोग दुरुपक्रम न हो अर्थात् यत्नकरनेयोग्य हो। और रोग एकही गतिवाला हो तथा जो रोग नवीन हो और उपद्रवरहित हो जो एक दोषसे ही उत्पन्न हुआहो। जिस रोगीकी देह सब तरहसे चिकित्साक्रम सहन करसकतीहो। तथा चिकित्साके चारों पाढ़ संपन्न हों। यह जिस रोग में होय वह सुखसाध्यजानो॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥
कृच्छ्रसाध्यके लक्षण।
** निमित्तपूर्वरूपाणांरूपाणांमध्यमे बले। कालप्रकृतिदुष्टानां सामान्योऽन्यतमस्यच॥ १५ ॥ गर्भिणीवृद्धबालानांनात्युपद्रवपीडितम्। शस्त्रक्षाराग्निकृत्यानामनवंकृच्छ्रदोषजम्॥ १६ ॥ विद्यादेकपथंरोगंनातिपूर्णचतुष्पदम्। द्विपथना-तिकालंवाकृच्छ्रसाध्यंद्विदोषजम्॥ १७ ॥ शेषत्वादायुषोयाप्यमसाध्यं पथ्यसेवया।लब्ध्वाल्पसुखमल्पेनहेतुना-शप्रवर्त्तकम्॥ १८ ॥**
जिस व्याधिमें निमत्त, पूर्वरूप, रूप, यह मध्यम बलवाले हों और समय, स्वभाव, और दूष्य (रसरक्तादि) इनके साथ रोगकी तुल्यता होय। गर्भिणी, बालक, वृद्ध, इनके रोग, और जिनमें बहुत बढेहुए उपद्रव नहीं तथा जिन रोगोंमें शस्त्र क्षार, अग्नि इनका प्रयोग करनापडे, और बहुत दिनका रोग, यह सब कष्ट साध्य होते हैं। एक दोषज और एकमार्णी रोग भी चिकित्साके चार पादोंके विना कष्टसाध्य होता है। द्विमार्गगामी (ऊर्ध्वगामी और अधोगामी) शीघ्र प्रगटहुआ तथा द्विदोषज रोग भी कष्टसाध्य होता है॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥ यादि आयुबल बाकी हो तो असाध्य रोग में भी पथ्य आदि सेवनसे कुछ समय व्यतीत होजाता है और वह रोग कुछ दबासा रहता है ऐसे रोगको याप्य कहते हैं। इस रोगमें थोडा सा कुपथ्य करनेसे भी यह रोग बढजाता है जैसे पुराना अर्श और श्वास॥ १८ ॥
द्विदोषज तथा कष्टसाध्य व्याधिके लक्षण।
** गम्भीरंबहुधातुस्थमर्म्मसन्धिसमाश्रितम्। नित्यानुशायिनं रोगंदीर्घकालमवस्थितम्॥ १९ ॥ विद्याद्द्विदोषजं-तद्वत्प्रत्याख्येयंत्रिदोषजम्। क्रियापथमतिक्रान्तंसर्वमार्गानुसारिणम्॥ २० ॥ औत्सुक्यारतिसंमोहकरमिन्द्रिय-नाशनम्। दुर्बलस्य सुसंवृद्धंव्याधिंसारिष्टमेवच॥ २१ ॥**
(असाध्य) जो रोग गंभीर हो, बहुत धातुओंमें स्थित हो, मर्मस्थान और संधियों में पहुंचा हुआ होय, जिसमें नित्य उपद्रव बढतेहों ऐसा द्विदोषज अथवा विदोषज रोग जवाब देनेयोग्य होताहै अर्थात् यत्नकरनेयोग्य नहीं। जब व्याधि चिकितसायोग्य न रहीहो। संपूर्ण मार्गगामी होगईहो। और रोगी के शरीर में व्यग्रता (घबराहट) बीमारी अशक्ति और मोह उत्पन्न होय, तथा इंद्रियोंकी शक्ति नष्ट होगईहोतथा दुर्बल मनुष्यकी बढीहुई और मरणख्यापक व्याधिका यत्न करना उचित नहीं वह रोग असाध्य होते हैं॥ १९ ॥ २० ॥ २१ ॥
वैद्यको शिक्षा।
** भिषजाप्राक्परीक्ष्यैवंविकाराणांसुलक्षणम्।पश्चात्कार्य्यसमारम्भःकार्य्यःसाध्येषुधीमता॥ २२ ॥ साध्यासाध्य-विभागज्ञोयःसम्यक् प्रतिपत्तिमान। नसमैत्रेयतुल्यानांमिथ्याबुद्धिं प्रकल्पयेत्। इति॥ २३ ॥**
मतिमान् योग्य वैद्यको चाहिये कि इस प्रकार पहले रोगोकी परीक्षा करके यदिरोग साध्य प्रतीत हों तो उनका यत्न आरंभ करे। जो वैद्य साध्य और असाध्य रोगोंको अच्छी तरहसे जानता है जो लक्षणद्वारा रोग जानकर चिकित्सा करता है जो गुण और सामग्रीयुक्त है वह चिकित्सासे साध्य रोगीको आरोग्य कर सकता हैहे मैत्रेय ! उसकी चिकित्सामें आपको मिथ्याशंका करना उचित नहीं॥ २२ ॥ २३ ॥
अध्यायका संक्षिप्तवर्णन।
** तत्रश्लोकौ। इहौषधंपादगुणाःप्रभावौभेषजाश्रयः। आत्रेयमैत्रेयमतीमतिद्वैविध्यनिश्चयः॥ २४ ॥ चतुर्विधविक-ल्पाश्च व्याधयःस्वस्वलक्षणाः। उक्तामहाचतुष्पादेयेष्वायत्तंभिषग्जितमिति॥ २५ ॥**
अग्नीत्यादि॥ महाचतुष्पादाध्यायःसमाप्तः॥
इस महाचतुष्पाद अध्याय में–औषध, पादगुण, और औषधका प्रभाव तथा आत्रेय और मैत्रेयजीका पक्ष प्रतिपक्ष और मतभेद तथा उनका निश्चय और व्याधिके चार भेद, तथा व्याधियें और उनके लक्षण, कथन किये गये हैं जिस वैद्यको इस महाचतुष्पादका ज्ञान है बह औषधि द्वारा रोगोंको जीत सकताहै॥२४॥२५॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसहिताया पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्यपञ्चानन
पं० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकाया
महाचतुष्पादो नाम दशमोऽध्यायः॥ १० ॥
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एकादशोऽध्यायः।
** अथातस्तिस्त्रैषणीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः।**
अब हम तिस्त्रैवणीय (तीन एषणावाले) अध्यायकी व्याख्या करते हैं, ऐसा आत्रेय भगवान् कहनेलगे।
एषणाओंका निर्देश।
** इहखलुपुरुषेणानुपहतसत्त्वबुद्धिपौरुषपराक्रमेणहितमिहचामुष्मिंश्चलोकेसमनुपश्यतातिस्रएषणाःपर्य्येष्ट-व्याभवन्ति॥ १ ॥**
इस संसार में मन, बुद्धि, पुरुषार्थ और पराक्रमवाले पुरुषको इस लोक और परलोकके सुखकी इच्छा करते हुए तीन प्रकारकी एषणा अर्थात् चाहनाएं प्राप्त करनी योग्य हैं॥ १ ॥
एषणाओंका वर्णन।
** तद्यथा। प्राणैषणाधनैषणापरलोकैषणेतिआसान्तुखल्वेषणानांप्राणैषणांतावत्पूर्वतरमापद्येतकस्मात्प्राणपरि-त्यागौहिसर्वत्यागः। तस्यानुपालनंस्वस्थस्यस्वस्थवृत्तिरातुरस्यविकारप्रशमनेऽप्रमादस्तदुभयमेतदुक्तंवक्ष्यते-च। तद्यथोक्तमनुवर्त्तमानः प्राणानुपालनाद्दीर्घमायुरवाप्नोतीति। प्रथमैषणाव्याख्याता भवति॥ २ ॥**
वह तीन एषणा यह हैं । १ प्राणैषणा, २ धनैषणा, ३ परलोकैषणा, इन तीन एषणाओंमें प्राणैषणा अर्थात् प्राणरक्षामें यत्नवान् होना सबसे प्रथम कहा है क्योंकि प्राणोंके परित्याग होने पर ही सब वस्तुओंका परित्याग होजाताहै।इसीसे आरोग्य पुरुषको अपनी आरोग्यता (तन्दुरुस्ती) की सावधानीसे रक्षा करना अत्यावश्यक है और रोगयुक्तको सर्वथा रोगको शांत करनेका उपाय करना चाहिये। यह बात कह भी चुकेंहैंऔर आगेको भी कहते हैं कि जैसे स्वास्थ्यरक्षाके लिये पहले कथन करचुके हैंया कथन किये जायेंगे उनके अनुसार वर्ताव करते हुए प्राणोंका पालन करनेसे दीर्घायु होता है। यह प्रथम एषणाका कथन किया गया॥९॥
धनकी इच्छा।
** अथद्वितीयांधनैषणामापद्यते। प्राणेभ्योह्यनन्तरंधनमेवपर्य्येष्टव्यंभवति। नह्यतःपापात्पापीयोऽस्तियदनुपकर-णस्यदीर्घमायुःतस्मादुपकरणानिपर्य्येष्टुंयतेततत्रोपकरणोपायाननुव्याख्यास्यामः॥ ३ ॥**
अब दूसरी धनैषणा अर्थात् धनप्राप्तिके लिये यत्न करनेका कथन करतेहैं क्योंकि प्राणरक्षाके अनंतर धनकी आवश्यकता होतीहै। इस पापसे बढकर संसारमें कोई भीदुःखदायक पाप नहीं कि आयु तो दीर्घ होय परंतु धन पास न होय। इसलिये जीवनका परम उपकरण आरोग्यतासे अनन्तर धन होताहै सो उस धनके प्राप्त करनेके लिये यत्नवान रहना चाहिये अब उस धनप्राप्तिके यत्नोंको कथन करते हैं॥ ३ ॥
धनप्राप्तिके उपाय।
** तद्यथा। कृषिपाशुपाल्यवाणिज्यराजोपसेवादीनि। यानिचान्यान्यपिसतामविगर्हितानिकर्माणिवृत्तिपुष्टिक-राणिविद्यात्तान्यारभेतकर्तुम्। तथाकुर्वन्दीर्घजीवितमनुवसतःपुरुषोभवतीति। द्वितीयाधनैषणाव्याख्याता-भवति॥ ४॥**
जैसे खेती करना, पशुओंको पालना, वाणिज्य (व्यापार आदि) करना, राजसेवा अर्थात् नौकरी आदि करता, तथा और भी ऐसे २ धनप्राप्तिके उपाय “जिनके करनेसे श्रेष्ठ पुरुषोमें निंदा और अपयश न होय” और धन तथा जीवन की वृद्धि होय वैसे २ यत्नोंको करे। ऐसा करनेसे मनुष्य श्रेष्ठतापूर्वक दीर्घजीवनका आनंद प्राप्त करसकताहै।यह दूसरी धनकी एषणाका कथन कियागया है॥ ४ ॥
परलोककी इच्छा।
** अथतृतीयांपरलोकैषणामापद्येतसंशयश्चात्रकथंभविष्यामइतश्च्युतानवेतिकुतःपुनःसंशयइतिउच्यतेसन्तिह्ये-केप्रत्यक्षपराःपरोक्षत्वात्पुनर्भवस्यनास्तिक्यमाश्रिताःसन्तिचागमप्रत्ययादेवपुनर्भवमिच्छन्तिश्रुतिभेदाच्च।**
** “मातरंपितरञ्चैकेमन्यन्तेजन्मकारणम्।स्वभावंपरनिर्माणं यदृच्छाञ्चापरेजनाः॥”**
** इत्यतःसंशयः। किंनुखल्वस्तिपुनर्भवोनवेति। तत्रबुद्धिमान्नास्तिक्यबुद्धिंजह्यात्विचिकित्साञ्चाकस्मात्प्रत्यक्षं-ह्यल्पमनल्पमप्रत्यक्षमस्तियदागमानुमानयुक्तिभिरुपलभ्यते।यैरेवतावदिन्द्रियैःप्रत्यक्षमुपलभ्यतेतान्येवसन्ति-चाप्रत्यक्षाणि॥ ५ ॥**
अब इसके उपरांत तीसरी परलोकएषणाको कहतेहैं। सो यहां यह संशय होताहै कि इस लोकसेपतित होने पर अर्थात् यह शरीर छोडने पर हम फिर कहीप्रगट होनाहैया नहीं, अथवा शरीरत्यागके अनंतर हम किसी रूपमें रहेंगे या शरीर*******
सबका अंत है। यह संदेह कैसे हुआ उसको कहते हैं (॥ १ ॥) कुछ लोग प्रत्यक्षवादी हैं वह कहतेहैं कि हमको कोई परलोकको जाता या परलोकसे आकर जन्मलेता दिखाई नहीं देता इसलिये पुनर्जन्म या परलोकको हम नहीं मानते जो इंद्रियद्वारा प्रत्यक्ष है उसीको हम मानते हैं अप्रत्यक्ष नहीं। इस प्रकार नास्तिकताको ग्रहण करते हैं (॥ २ ॥) दूसरे (आस्तिकलोग) अनुमानसे तथा आप्तवाक्यसे और श्रुतिवाक्यसे पुनर्जन्म सिद्ध है ऐसा मानते हैं (॥ ३ ॥) तीसरे जन्मका कारण माता पिता ही होते हैं सदासे ऐसा ही चला आया है इनसे सिवाय और कोई कारण नहीं (॥ ४ ॥) चौथे स्वभावको ही मानते हैं, अर्थात् जीव अपने आप ही जन्म लेताहै अन्य कारण नहीं (॥ ५ ॥) पांचवें कहते हैं कि कोई इस संसारको रचनेवाला है वही इस जीवको उत्पन्न करता है (॥ ६ ॥) छठे कहते हैं यह विश्व में एक ऐसी शक्ति है जिससे मनुष्यादि उत्पन्न होते हैं और इसको रचनेवाला कोई नहीं। इसलिये संशय होता है कि पुनर्भव ( पुनर्जन्म ) होता है या नहीं। अव समाधान करते हैं कि धृष्टतासे नास्तिक ही बनजाना और युक्ति प्रमाण इत्यादिक न मानना इसका तो कुछ यत्न ही नहीं। यदि तुम कहो पुनर्जन्म प्रत्यक्ष नहीं अर्थात् दीखता नहीं; सो संसार में प्रत्यक्ष बहुत कम है और अप्रत्यक्ष बहुत है अर्थात् ऐसी बहुत वस्तुएं हैं जो प्रत्यक्ष तो नहीं परन्तु आप्तोपदेश अनुमान युक्ति इनसे स्पष्ट प्रतीत होती हैं। और देखिये तो सही जिन इंद्रियों द्वारा हमको प्रत्यक्षकी उपलब्धि होती है वह इंद्रियें ही अप्रत्यक्ष हैं तो प्रत्यक्ष न होनेसे क्या इंद्रियोंका अभाव मानोगे ? (कभी नहीं) ॥ ५ ॥
प्रत्यक्षके बाधक।
** सताञ्चरूपाणामतिसन्निकर्षादतिविप्रकर्षादावरणात्करणदौर्बल्यान्मनोऽनवस्थानात्समानाभिहारादभिभ-वादतिसौक्ष्म्याच्च प्रत्यक्षानुपलब्धिः। तस्मादपरीक्षितमेतदुच्यतेप्रत्यक्षमेवास्तिनान्यदस्तीतिश्रुतयश्चैतानकारणं-युक्तिविरोधात्॥ ६ ॥**
औरभी देखिये अनेक प्रकारसे रूपवाली वस्तुके विद्यमान रहते भी प्रत्यक्ष नहीं होता। जैसे अति समीप होनसे अर्थात् नेत्र में जो अंजन या अन्य कोई पदार्थ नेत्रसे छुआ देनेसे दिखाई नहीं पड़ता ऐसे ही बहुत दूर होनेसे भी प्रत्यक्ष नहीं होता। एवं बीचमें कोई भीत आदि होनेसे, इंद्रियकी दुर्बलतासे अथवा मनकी चंचलतासे अर्थात मनके संयोगके विना भी इंद्रियसे प्रत्यक्ष होने योग्य वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होता। ऐसे ही समान वस्तुओंमें मिलजानेसे अर्थात एक चावलउठाकर फिर चावलोंके बडे ढरेमें मिलादो तो फिर वह प्रत्यक्ष3 नहीं होता। एक वस्तु दूसरेसे बढजाय तबभी प्रत्यक्ष नहीं होता जैसे सूर्यके प्रकाशसे तारागण रहते हुए भी दिखाई नहीं देते और अत्यंत सूक्ष्म होनेसे (जैसे परमाणु) भी प्रत्यक्ष नहीं होता इसलिये यह कहदेना कि जो हमारी इंद्रियोंसे प्रत्यक्ष है वह ही है और कुछ नहीं यह कहना अप्रामाणिक बकवाद है।श्रुतिवाक्यसे तथा युक्तिसे भी पुनर्जन्मके न होनेमें कोई हेतु नहीं अर्थात् पुनर्जन्म युक्ति और शास्त्रसे सिद्ध है॥ ६ ॥(यह प्रत्यक्षवादियोंका खंडन हो चुका)।
जन्मकारणपर विवाद।
** आत्मामातुःपितुर्वायःसोपत्यंयदिसञ्चरेत्। द्विविधंसञ्चरेदात्मा सर्वोवावयवेनवा॥ ७ ॥ सर्वश्चेत्सञ्चरेन्मातुःपि-तुर्वामरणं भवेत्। निरन्तरंनावयवःकश्चित्सूक्ष्मस्यचात्मनः॥ ८ ॥ बुद्धिर्मनश्चनिर्णीतेयथैवात्मातथैवते। येषाञ्चैषामतिस्तेषांयोनिर्नास्तिचतुर्विधा॥ ९ ॥**
अब यदि कहो कि माता और पिताका आत्मा ही पुत्र रूपसे पैदा होता है या माता अथवा पिताके आत्मासे पुत्रका आत्मा उत्पन्न होता है तो यह भी नहीं होसकता। क्योंकि माता या पिताका आत्मा दो प्रकारसे अपत्यरूपमें आसकताहै या तो संपूर्ण रूपसे, अथवा अंशविभाग अर्थात् हिस्से से।यदि कहो कि संपूर्ण आत्मा ही अपत्य (संतान) रूपसे संचार करता है तो माता या पिताका संपूर्ण आत्मा पुत्रमें आनेसे माता या पिताका मृत्यु होजाना चाहिये। यदि कहो आत्माका कोई भाग संतानरूपसे पैदा होता है तो यह भी नही होसकता क्योंकि सूक्ष्म आत्माके विभाग नही होसकते। इसलिये यह कहना कि कर्माधीन पुनर्जन्म नहीं होता माता पितासेही आत्माकी उत्पत्ति होती है–वृथा है॥यदि कहो कि माता पिता की बुद्धि और मन संतान रूपसे पैदा होते हैं, यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि बुद्धि, मन भी आत्माके समान सूक्ष्म हैं और उनके भी विभाग नहीं होसकते दूसरे यह भी बात है जो माता पितासे ही संतानकी उत्पत्ति मानोगे तो उनके मतमें स्वेदज, अंडज, जरायुज, उद्भिज्ज, यह चार प्रकारकी योनि नहीं होसकती क्योंकि बताओ स्वेदसे उत्पन्न होनेवालोंके और जमीनकी पानीयुक्त भाफसे पैदा होनेवालोंके माता पिता कौन हैं अर्थात् कोई नहीं॥ ७ ॥ ८ ॥ ९ ॥
स्वभाववादियोंके मतका खण्डन।
विद्यात्स्वाभाविकंषण्णांधातूनांयत्स्वलक्षणम्।
संयोगेचवियोगेचतेषांकर्मैवकारणम्॥ १० ॥
यदि कहो कि यह स्वाभाविक धर्म है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु आकाश और आत्मा इनके संयोग होनेसे उत्पत्ति और वियोग होनेसे नाश होजाता है तोबतलाइये इन सबके संयोग और वियोग होनेमें कारण कौन है यदि कहो पूर्वजन्मका कर्म कारण है तो पुनर्जन्म सिद्ध होगया। नहीं तो संयोग वियोग में कोई हेतु नहीं दीखता॥ १० ॥
परनिर्माणवादियोंका खण्डन।
अनादेश्चेतनाधातोर्नेष्यतेपरनिर्मितिः।
परआत्मासचेद्धेतुरिष्टोऽस्तुपरिनिर्मितिः॥ ११ ॥
और अनादि चैतन्य आत्मा कोई बना भी नहीं सकता क्यों कि जो वस्तु बनाई जाती हैं वह जिस दिन बनी वह दिन उसकी आदिका है इसलिये जो अनादि है उसको कोई बना नहीं सकता। यदि कहो परमात्मा इसका बनानेवाला है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि परमात्माको कर्त्ता माननेमें आस्तिकतामें कोई हानि नहीं॥ ११ ॥
यदृच्छावादियोंका विषय।
** नपरीक्षानपारीक्ष्यंनकर्त्ताकारणंनच।नदेवानर्षयःसिद्धाः कर्म्मकर्म्मफलंनच॥ १२ ॥ नास्तिकस्यास्तिनैवा-त्मायदृच्छोपहतात्मनः। पातकेभ्यःपरञ्चैतत्पातकंनास्तिकग्रहः॥ १३ ॥ तस्मान्मतिंविमुच्येताममार्गप्रसृतांबुधः। सतां बुद्धिप्रदीपेनपश्येत्सर्वंयथातथम्॥ १४ ॥ इति॥**
यदि कहो प्रमाणसे कोई परीक्षा नहीं और न परीक्षाका कोई विषय है। न कोई कर्ता है। न कारण है। न ऋषि है। न देवता है। न सिद्ध है। न कुछ कर्म है। न कर्मका फल होता है। न और कुछ है। न आत्मा है।मरण जन्म भी ऐसे ही हैं इसका भी कोई कारण नही। ऐसे अंटसंट बकनेवालके समीप जाना भी पापोंसे बढकर महापाप है। क्योंकि इस मुर्ख निंदक नास्तिक को किसी प्रकार मानना तो हैही नहीं, इससे बात करना भी मूर्खता है॥ १२ ॥ १३ ॥इसलिये धृष्टता और कुमागंगाभी कुबुद्धिको त्यागकर श्रेष्ठबुद्धिरूप दीपकसे जैसा जो कुछ यथार्थ ( ठीक २ ) हो उसकी परीक्षा करे अर्थात् देखलेवे॥ १४ ॥
सत्असत् की परीक्षा।
द्विविधमेवखलुसर्वंसच्चासच्चतस्यचतुर्विधापरीक्षा।
आप्तोपदेशः प्रत्यक्षमनुमानंयुक्तिश्चेति॥ १५ ॥
संपूर्ण जगतमें भला और बुरा यह दो भेद हैं। सत् सत्यको कहतेहैं और असत झूठको कहते हैं।इन सत् और असत् केजाननेके लिये चार प्रकारकी परीक्षा है अर्थात् चार प्रमाणों द्वारा यावन्मात्रका सत् और असत् निर्णय होसकता है। वह चार परीक्षा (प्रमाण ) यह हैं। १ आप्तोपदेश, २ प्रत्यक्ष, ३ अनुमान और ४ युक्ति,॥ १५ ॥
आप्त तथा उनका उपदेश।
आप्तास्तावत्।
** रजस्तमोभ्यांनिर्मुक्तास्तपोज्ञानबलेनये। येषांत्रिकालममलंज्ञानमव्याहतंसदा॥ १६ ॥ आप्ताःशिष्टविबुद्धा-स्तेतेषांवाक्यमेसंशयम्। सत्यंवक्ष्यन्तितेकस्मादसत्यंनीरजस्तमाः॥ १७ ॥**
अब पहले आप्तके लक्षण कहतेहैं। जिन महात्माओंका रजोगुण और तमोगुण तबतथा ज्ञानके बलसे नष्ट होगयाहै और जो भूत, भविष्यत्, वर्तमान के जानने वाले हैं तथा जिनका निर्मल ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता उन महात्माओंको आप्त शिष्ट और ज्ञानी कहतेहैं इनके वाक्य निःसंदेह सत्य होते हैं क्योंकि, रज तमसे निर्मुक्त होनेके कारण यह असत्य बोलतेही नहीं इसलिये इनके वाक्य ( आप्तोपदेश ) निःसंदेह सत्य माननसि हैं॥ १६ ॥ १७ ॥
प्रत्यक्षका लक्षण।
आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानांसन्निकर्षात्प्रवर्त्तते।
व्यक्तातदात्वेयाबुद्धिःप्रत्यक्षंसानिरुच्यते॥ १८ ॥
आत्मा, इंद्रिय, मन और इंद्रियका विषय इन सबका सन्निकर्ष होनेसे जो निश्चयात्मक ज्ञान होता है उसको प्रत्यक्ष कहते हैं॥ १८ ॥
अनुमानका लक्षण।
** प्रत्यक्षपूर्वत्रिविधंत्रिकालञ्चानुमीयते। वह्निर्निगूढोधूमेनमैथुनंगर्भदर्शनात्॥ १९ ॥ एवंव्यवस्यन्त्यतीतंबीजा-त्फलमनागतम्। दृष्ट्वाबीजात्फलं जातमिहैवसदृशंबुधाः॥ २० ॥**
प्रत्यक्षपूर्वक तीन प्रकारका अनुमान होताहै। कार्य लिङ्गानुमान, कारण लिङ्गानुमान, कार्यकारण लिङ्गानुमान, अथवा यों कहिये पूर्ववत्, शेषवत्, सामान्यतोदृष्ट, यह तीनप्रकारका अनुमान अतीत, अनागत, वर्तमान, इन तीन कालोंके ज्ञानकां बोधक होताहै। जैसे धूमके दर्शनसे अग्निका बोध होजाना यह वर्तमानकालिक अनुमान है। गर्भवतीको देखकर यह बोध होना इसने पहले मैथुन किया यह अतीतकालिक अनुमान है। बीजोंको देखकर यह बोध होना कि इनसे ऐसे फल होंगे यह भविष्यत्कालिक अनुमान है अथवा यों कहिये इन बीजोंसे ऐसे फल होंगे और ऐसे फलोंसे ही यह बीज हुए इसको कार्यकारणानुमान कहते॥ १९ ॥ २० ॥
युक्तिका लक्षण।
** जलकर्षणबीजर्त्तुसंयोगाच्छस्यसंभवः। युक्तिःषड्धातुसंयोगाद्गार्भाणांसम्भवस्तथा॥ २१ ॥ मथ्यमन्थनमन्था-नसंयोगादग्निसम्भवः।युक्तियुक्ताचतुष्पादसम्पद्व्याधिनिवर्हणी॥ २२ ॥ बुद्धिःपश्यतियाभावान्बहुकारणयोग-जान्।युक्तिस्त्रिकालासाज्ञेयात्रिवर्गःसाध्यतेयया॥ २३ ॥**
** **युक्तिके लक्षण जैसे–जल, खेत, बीज, ऋतु, इन चारोंके योगसे शस्य (अन्नकी खेती) उत्पन्न होतीहै। ऐसे ही पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, और आत्माके योगसे गर्भ उत्पन्न होताहै। और जैसे मंथ और मंथन ( यज्ञमें घिसकर अग्नि पैदा करनेकी दोनों लकडियों को मंथ और मंथन कहतेहैं) तथा मंथनकर्ता, इनके संयोगसे अग्निकी उत्पत्ति होतीहै इसी प्रकार चतुष्पादसम्पन्न चिकित्सासे व्याधि भी नष्ट होजातीहै । इसप्रकार जो बुद्धि अनेक कारणोंसे पैदाहुए अनेक भावोंको देखने में समर्थ होतीहै उसीको युक्ति कहतेहैं यह युक्ति भूत, भविष्यत् वर्तमान इन तीन कालों में ही व्यापक होनेवाली है । इसीके द्वारा धर्म अर्थ काम की सिद्धि होती है॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥
एषापरीक्षानास्त्यन्याययासर्वंपरीक्ष्यते।
परीक्ष्यंसदसच्चैवंतयाचास्तिपुनर्भवः॥ २४ ॥
संपूर्ण सत् और असत् के जाननेके लिये यह चार प्रकारकी परीक्षा है अर्थात् यह चार प्रमाण हैं।इन चारोंसे अधिक परीक्षा अर्थात पाँचवां कोई प्रमाण नहीं। यद्यपि कोई २ अर्थापत्ति अनुपलब्धि आदि अन्य प्रमाण भी मानतेहैं परंतु अनुमान और युक्तिके अंतर्गत अर्थापत्ति आदिके आजानेसे इन चारोंसे अन्य प्रमाण कल्पना करना वृथा है। इन चार परीक्षाओंसे ही सभीका परीक्षण होजाताहै।इन चार परीक्षाओं द्वारा ही सत्, असत् और पुनर्भव जानाजाता है॥ २४ ॥
आतागमका लक्षण, फल।
** तत्राप्तागमस्तावद्वेदोयश्चान्योऽपिकश्चिद्वेदार्थादविपरीतःपरीक्षकैःप्रणीतः। शिष्टानुमतोलोकानुग्रहप्रवृत्तःशा-स्त्रवादः सचाप्तागमः। आप्तागमादुपलभ्यते दानतपोयज्ञसत्याहिंसाब्रह्मचर्याण्यभ्युदयनिःश्रेयस्कराणीति।नचानतिवृत्तसत्त्वदोषाणामदोषैरपुनर्भवोधर्म्यद्वारेषूपदिश्यते॥ २५ ॥**
सबसे बढकर प्रमाणिक वेद है और भी जो वेदके अशयसे विरुद्ध न हो ऐसे बाक्य तथा आप्तऋषियोंके रचेहुए शास्त्र एवं श्रेष्ठ पुरुषोंके मानेहुए और लोकपरंपरासे प्रचलित शास्त्रोंके वाक्य वेदसे आविरुद्ध आप्तागम कहेजातेहैं।इन आप्तागम (प्रामाणिक वाक्य ) द्वारा दान, तप, यज्ञ, सत्य, अहिंसा, और ब्रह्मचर्य इनकी प्राप्ति होतीहै इसीसे इस लोक और पर लोकमें सुखकी प्राप्ति होती है। आप्तका उपदेश है कि जब तक रजोगुण और तमोगुण दूर होकर मनकी शुद्धि नहीं होती तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होसकती॥ २५ ॥
प्रत्यक्षका फल।
** धर्मद्वारावहितैश्चव्यपगतभयरागद्वेषलोभमोहमानैर्ब्रह्मपरैराप्तैःकर्मविद्भिरनुपहतसत्त्वबुद्धिप्रचारैःपूर्वैःपूर्वत-रैर्महर्षिभिर्दिव्यचक्षुभिर्दृष्ट्वोपदिष्टपुनर्भवइतिव्यवस्येदेवं प्रत्यक्षमपिचोपलभ्यते॥ २६ ॥**
जो धर्ममें रत हैं और जिनके भय, राग, द्वेष, लोभ, मोह, मान, यह समूल नाशको प्राप्त हो चुके हैं तथा ब्रह्मके जाननेवाले, आप्त, कर्मके जाननेवाले, और जिनके मन, बुद्धि निश्चल हैं तथा जो सदैव ज्ञानयुक्त हैं उन पहले होनेवाले प्राचीनतम महर्षियोंने ज्ञानके नेत्रोंद्वारा पुनर्जन्मको देखकर उसे सिद्ध किया है और प्रत्यक्षमें भी पुनर्जन्मकी उपलब्धि होतीहै ॥ २६ ॥
अनुमानका फल
** मातापित्रोर्विसदृशान्यपत्यानितुल्यसम्भवानांवर्णस्वराकृतिसत्त्वबुद्धिभाग्यविशेषाः। प्रवरावरकुलजन्मदा-स्यैश्वर्य्यसुखासुखमायुः।आयुषोवैषम्यमिहकृतस्यावाप्तिरशिक्षितानाञ्चरुदितस्तनपानहासत्रासादीनाञ्चप्रवृत्ति-लक्षणोत्पत्तिःकर्मसामान्येफलविशेषोमेधाक्वचित्क्वचित्कर्मण्यमेधाजातिस्मरणमिहागमनमितश्च्युतानाञ्चभूता-नांसमदर्शनेप्रियाप्रियत्वमतएवानुमीयते। यत् स्वकृतमपरिहार्य्यमविनाशिपौर्वदेहिकंदेवसंज्ञकमानुबन्धिकंक-र्म्मतस्यैतत्फलमितश्चान्यद्भविष्यतीतिफलाद्बीजमनुमीयते। फलञ्च बीजात्॥ २७ ॥**
और यह देखनेमें भी आता है कि संतानके शरीरावयव–माता पिताके समान नहीं होते। और एक ही माता पितासे पैदा हुए पुत्रोंके भी वर्ण, स्वर, आकृति, सत्व, बुद्धि, और भाग्यमें भेद (फरक ) होताहै अर्थात् सब एकसे नहीं होते। ऐसे ही कुल, जन्म, दास्य, ऐश्वर्य, इनमें भी बडाई छोटाई तथा किसीकी सुखायु और किसीकी दुःखायु व्यतीत होती दिखाई देती है। इसी प्रकार आयुमें न्यूनता अधिकता, और इस जन्ममें कियेहुए बहुतसे कर्मोंका फल इसी जन्ममें न होना, विना ही किससे सीखे जन्मलेते4 न्या० भा०। जातः खल्वयं कुमारकोऽस्मिञ्जन्मन्यग्रहीतेषु हर्षभयशोकहेतुषु हर्षभयशोकान् प्रतिपद्यते लिंगानुमेयान ते च स्मृत्यनुबन्धादुत्पद्यन्ते नान्यथा। स्मृत्यनुवन्धश्च पूर्वाभ्यासमन्तरेण न भवति पूर्वाभ्यासश्च पूर्वजन्मनि सति नान्यथा।”) ही बच्चेका रोना, स्तनपान करना, हँसना, दुःखित होना, इनसे भी पुनर्जन्म सिद्ध है। ऐसे ही वालकके जन्मसे शुभ तथा अशुभ लक्षणोंसे कर्म तुल्य होते हुए भी फलमें भेद होनेते, एककामके करनेमें बुद्धिभेद होनेसे और इस लोकसे मरकर फिर इसी लोकमें आकर जन्म लियाहै ऐसा बहुत मनुष्योंको स्मरण होजाताहै इससे तथा एक ही वस्तुमें एकका प्रेम दूसरेका विरोध देखनमें आता है, ऐसे २हेतुओंसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि जो२ जिस २ ने पूर्वजन्ममें कियाहै वह किसीसे मिटाया नहीं जाता। वह अविनाशी है, उसी कर्मको लोकमें दैव उसीको अनुबंधी कर्म ( पुरारब्ध ) कहतेहैं जिसका फल इस जन्ममें भोगना पडताहै। ऐसे ही इस जन्मके किये कर्मके फलकोआगेको होनेवाले जन्ममें भोगना पडेगा। जैसे फलसे बीजऔर बीजसे फल होता है, ऐसे ही कर्माधीन जन्म होता जाता है॥ २७ ॥
युक्तिसे पुनर्जन्मकी सिद्धि।
** युक्तिश्चैषाषड्धातुसमुदयाद्गर्भजन्मकर्तृकरणसंयोगात्क्रियाकृतस्यकर्मणःफलंनाकृतस्यनांकुरोत्पत्तिरबी-जात्। कर्मसदृशंफलंनान्यस्माद्बीजादन्यस्योत्पत्तिरितियुक्तिः॥ २८ ॥**
और यह युक्तिसे भी सिद्ध हैं कि पांच महाभूत और छठी आत्मा इन छहोंके संबन्ध से ही गर्भकी उत्पत्ति होतीहै और गर्भमे आकर जन्म लेनेमें आत्माके पूर्वजन्मका संबंध है क्योंकि कर्ता और कारणके संयोग होने पर ही क्रियाका आरंभ होताहै।कियेहुए कर्मका ही फल होताहै विना कियेका नहीं होता । जैसे विना बीजके अंकुरकी उत्पत्ति नहीं होसकती। जैसा कोई कर्म करतहै उसी प्रकारका फल भोगना पड़ताहै। जैसे जबबीजसे जबकी उत्पत्ति सर्षपसे सर्षपकी उत्पत्ति होतीहै अन्य बीजसे अन्यकी उत्पत्ति नहीं होती ऐसे ही जैसा कर्म होताहै उसका वैसाही फल होता है। यह युक्ति है॥ २८ ॥
** एवंप्रमाणैश्चतुर्भिरुपदिष्टैःपुनर्भवोधर्म्माद्वारेष्वनुविधीयते॥ २९ ॥**
इस प्रकार चारो प्रमाणोंसे पुनर्जन्म स्पष्ट सिद्ध है इन चारप्रमाणोंद्वारा पुनर्जन्ममें आस्तिकता होनेसे मनुष्य धर्मपरायण होसकता है जिन कार्योंके करनेसे मनुष्यका परलोक अच्छा होसकता है उन धर्मकार्योंकोकथन करतेहैं॥ २९ ॥
परलोकैषणामें कर्तव्य कर्म।
** तद्यथागुरुशुश्रूषायामध्ययनेव्रतचर्य्यायांदारक्रियायामपत्योत्पादनेभृत्यभरणेऽतिथिपूजायांदानेनाभिध्यायांत-पस्यनसूयायांदेहवाङ्मनसेकर्म्मण्यक्लिष्टेदेहेन्द्रियमनोऽर्थबुद्ध्यात्मपरीक्षायांमनःसमाधाविति। यानिचान्यान्य-प्येवंविधानिकर्म्माणिसतामविगर्हितानिस्वर्ग्याणिवृत्तिपुष्टिकराणिविद्यात्तान्यारभेतकर्तुम्। तथा कुर्वन्निहचैवय-शोलभतेप्रेत्यचस्वर्गमिति। तृतीयापरलोकैषणाव्याख्याताभवति॥ ३० ॥**
वह परलोकको उत्तम बनानेवाले कर्म इस प्रकार हैं गुरुशुश्रूषा अध्ययन, और व्रत करना शास्त्रोक्त रीतिसे विवाह कर धर्मसे संतान पैदा करना, भृत्योंकापालन, अतिथिपूजन, और दान करना, पराये द्रव्यमें लोभ न करना, तप करना, अनसूया ( किसीकी निन्दा न करना ), शरीर, मन, वाणीसे, कोई अशुभ काम न करना, आलस्य न करना, और देह इंद्रिय, मनके विषय, बुद्धि और आत्मा इनकी परीक्षामें विषयोंसे मनको रोकनेमें तत्पर रहना। तथा और भी जो २ इसप्रकारके सत्कार्य स्वर्गदायक हों और जो श्रेष्ठपुरुषोंसे अनिंदित कार्य जीविकाकी वृद्धि करनेवाले समझे उनको भी किया करे।ऐसा करनेसे इस लोकमें यशकी प्राप्ति और परलोकमें स्वर्गकी प्राप्ति होती है। यह तीसरी परलोक एषणा कही गई है॥ ३० ॥
उपस्तम्भादि त्रिक।
** अथखलुत्रयउपस्तम्भाः, त्रिविधवलम्, त्रीण्यायतनानि, त्रयोरोगाः, त्रयोरोगमार्गाः, त्रिविधाभिषजः, त्रिविधमौषधमिति॥ ३१ ॥**
यहां–तीन उपस्तंभ अर्थात् खम्भे हैं। तीन प्रकारका बल है तीन आयतन है तीन रोग हैं।तीन रोगमार्ग हैं। तीन प्रकारके वैद्य हैं। तीन प्रकारकी औषधि हैं॥ ३१ ॥
उपस्तंभोंका वर्णन।
** त्रयउपस्तम्भाइत्याहारःस्वप्नोब्रह्मचर्य्यमितिएभिस्त्रिभिर्युक्तियुक्तैरुपस्तब्धमुपस्तम्भैःशरीरंबलवर्णोपचयोप-चितमनुवर्त्तते यावदायुषःसंस्कारात्॥ ३२ ॥**
( ३ उपस्तंभ ) आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य, यह तीन शरीरके उपस्तंभ–खंभ हैं। इन तीनों युक्तियुक्त स्तंभोंके ठीक सेवनसे शरीरमें वल और वर्णकी वृद्धि होती रहेगी और आयुकी वृद्धि होगी। इसी प्रकार इनके अनुचित व्यवहारसे आयुकी हानि करनेवाले रोग होते हैं उनका इसी अध्यायमें कथन करेंगे॥ ३२ ॥
तीनप्रकारका बल।
** संस्कारमहितमनुपसेवमानस्य यइहैवोपदेक्ष्यते। त्रिविधंबलमितिसहजंकालजंयुक्तिकृतञ्चसहजंयच्छरीर-सत्त्वयोःप्राकृतम्। कालकृतमृतुविभागजंवयःकृतञ्च। युक्तिकृतंपुनस्तदाहारचेष्टायोगजम्॥ ३३ ॥**
( ३ प्रकारका बल ) सहजबल, कालकृतबल, युक्तिकृतबल, यह तीन प्रकारका 6बल होताहै। इनमें शरीर और मनका जो स्वाभाविक बल है उसको सहजबल कहतेहैं। और ऋतुविशेष या अवस्थाजन्य जो बल है उसको कालकृत बल कहतेहैं। एवं आहार, कसरत, अथवा किसी औषध आदि योग या अभ्याससे प्राप्त किये हुए बलको युक्तिकृत बल कहते हैं॥ ३३ ॥
तीन आयतनोंका वर्णन।
** त्रीण्यायतनानीतिअर्थानांकर्म्मणःकालस्यचातियोगायोगाभियोगाः। तत्रातिप्रभावतांदृश्यानामतिमात्रंदर्शन-मतियोगः सर्वशोऽदर्शनमयोगः।अतिसूक्ष्मातिविप्रकृष्ठरौद्रभैरवाद्भुतद्विष्टबीभत्सविकृतादिरूपंदर्शनंमिथ्या-योगः॥ ३४ ॥**
( ३ आयतन ) इंद्रियार्थ, कर्म, काल, इन तीनोंका अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग, तीन प्रकारके आयतन अर्थात् रोगोंके पैदा करनेवाले कारण कहे जातेहैं। उनमें अत्यंत कांतिवाले पदार्थको बहुत गौरसे अधिक देर देखना यह अतियोग है। और एकदम सवतरहसे देखना बंद करदेना अयोग कहाताहै। इसी प्रकार बहुत बारीक, अत्यंत समीप, तथा बहुत दूर, अतिभयंकर, अद्भुत बुरा लगनेवाला, जिसके देखनेसे ग्लानि हो, तथा विकृत आदि वस्तुओके देखनेको मिथ्यायोग कहते हैं ( यह दर्शनें, द्रियका अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग हुआ॥३४॥
शब्दातियोगादिका वर्णन।
** तथातिमात्रस्तनितोपहतक्रुष्टादीनांशब्दानामतिमात्रश्रवणमतियोगः। सर्वशोऽश्रवणमयोगः। पुरुषेष्टविनाशो-पघातप्रधर्षणभीषणादिशब्दश्रवणंमिथ्यायोगः॥ ३५ ॥**
इसी प्रकार, वज्रपातके शब्दको सुनना, नगारे आदिका अथवा किसी वस्तुपर अन्यवस्तुके लगनके तीक्ष्ण शब्दका सुनना, अत्यंत तीक्ष्ण अनुक्रोश आदि शब्दका सुनना अथवा किसी शब्दका बहुत देर तक सुनना श्रवणेन्द्रियका अतियोग होताहै कुछ भी न सुनना अयोग कहाता है। ऐसे ही–कठोरखाक्य, प्यारी वस्तुका नाश, वज्रवात, रोमांचकारक शब्द, भयकारक शब्द, ऐसे २ शब्द सुननेको श्रवणेंद्रियका मिथ्यायोग कहाजाताहै। यह श्रवणका अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग हुआ॥ ३५ ॥
गन्धातियोगादिवर्णन।
** तथातितीक्ष्णोग्राभिष्यन्दिनांगन्धानामतिमात्रघ्राणमतियोगः सर्वशोऽघ्राणमयोगः। पूतिद्विष्टामेध्यक्लिन्नविष-पवनकुणपगन्धादिघ्राणंमिथ्यायोगः॥ ३६ ॥**
अतितीक्ष्ण अतिउग्र, और अभिष्यन्दि आदि गंध अत्यंत संघना अतियोग कहा जाताहै। कुछ भी न संघना अयोग, और दुर्गंधित, द्वेषयुक्त गंधवाला, अपवित्र, भीगाहुआ विषयुक्त पवन, मुर्देकी गंध, इनके सूंघनेको मिथ्यायोग कहते हैं। यह घ्राणका–अतियोग, अयोग, मिथ्यायोग हुआ॥ ३६ ॥
रसातियोगादिका वर्णन।
** तथारसानामत्यादानमतियोगः। अनादानमयोगः।मिथ्यायोगोराशिवर्ज्येष्वाहारविधिविशेषायतनेषूपा-देक्ष्यते॥ ३७ ॥**
रसके अधिक सेवन करनेको अतियोग, कुछ भी न खानेको अयोग, और आहारके मिथ्यासेवनको मिथ्यायोग कहतेहैं। मिथ्यायोगको अपरिमित भोजनके वर्णनमें विशेषरूपसे कहेंगे॥ ३७ ॥
स्पर्शातियोगादिका वर्णन।
** तथातिशीतोष्णानांस्पृश्यानांस्नानाभ्यङ्गोत्सादनादीनाञ्चात्युपसेवनमतियोगः। सर्वशोऽनुपसेवनमयोगः। विषमस्थानाभिघाताशुचिभूतसंस्पर्शादयश्चेतिमिथ्यायोगः॥ ३८ ॥**
अत्यंत शीतल और अतिउष्ण जलसे देर तक स्नान करना, मालिश, उद्वर्तन आदिका अतिसेवन अतियोग कहाताहै। एकदम किसी स्पर्शकारक वस्तुका सेवन न करना अयोग है। ऐसे ही विषमस्थान में फिरना, बैठना, सोना, चोट लगना तथा अपवित्र वस्तुके, स्पर्शआदिको मिथ्यायोगे कहते। यह स्पर्शके अतियोगादि हुए॥ ३८ ॥
स्पर्शनेन्द्रियकी सर्वव्यापकता।
** तत्रैकंस्पर्शनेन्द्रियमिन्द्रियाणामिन्द्रियव्यापकंततःसमवायिस्पर्शनव्याप्तेर्व्यापकमपिचचेतस्तस्मात्सर्वेन्द्रिया-णांव्यापकःस्पर्शकृतोयोभावविशेषःसोऽयमनुपशयात्पञ्चविधस्त्रिविधविकल्पो भवत्यसात्म्यन्द्रियार्थसंयोगः।सात्म्यार्थोह्युपाशयार्थः॥ ३९ ॥**
मलमूत्रादिकोंके वेगको रोकना, एवं विना वेग त्यागना विषमतासे बैठना सोना आदि, गिरना, फिसलना, अंगोंको, दूषित करना, शरीरमें चोट आदि लगाना, शरीरको बेहिसाब मलना, बेहिसाब श्वासका रोकना और शरीरको पीडा देना। यह शरीरका मिथ्यायोग है॥ ४३ ॥
कर्मके मिथ्याभोगका संक्षिप्त वर्णन।
** संग्रहेणचातियोगायोगवर्जकर्म्मवाङ्मनःशरीरजमहितमनुपदिष्टंयत्तच्चमिथ्यायोगंविद्यादिति। त्रिविधविकल्पं-त्रिविधमेवकर्म्मप्रज्ञापराध इतिव्यवस्येत्॥ ४४ ॥**
यह संक्षेपसे कहागया है इनसे अन्य, और भी अतियोग और अयोगसे भिन्न जो वाणी, मन, शरीर इनके अहित कर्म हैं उनको भी मिथ्यायोग कहतेहैं। यह जो वाणी, मन, शरीर, इन तीनोंके कर्मोंका तीन प्रकारका अतियोगादि विकल्प कहाहै। यह बुद्धि के दोषसे ही होताहै॥ ४४ ॥
कालातियोगादिका वर्णन।
** शीतोष्णवर्षालक्षणाःपुनर्हेमन्तग्रीष्मवर्षासंवत्सरःसकालः। तत्रातिमात्रस्वलक्षणःकालःकालातियोगः। हीन-स्वलक्षणःकालयोगः। यथास्वलक्षणविपरीतलक्षणस्तुकालोमिथ्यायोगः कालःपुनःपरिणामउच्यते॥ ४५ ॥**
जाड़ा, गर्मी, वर्षात, इन तीनोमें क्रमसे शीत होना गर्मीपडना, वर्षाबरसना, इन तीनांका लक्षण है, इन तीन कालोंके समुदायको संवत्सर ( वर्ष ) कहते हैं इसका नाम काल है। सो इस कालमें अपने २ समयपर सर्दी, गर्मी, वर्षा, का अत्यंत होना कालका अतियोग कहाजाताहै। न होना अयोग कहाता है। एवं अपने २ समयसे आगे पीछे होनेको और समयके विपरीत लक्षणोंको कालका मिथ्यायोग कहतेहैं कालको ही परिणाम भी कहते हैं॥ ४५ ॥
** इत्यसात्म्यन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधःपरिणामश्चेति॥ ४६ ॥**
इस प्रकार असात्म्य ( आत्माके प्रतिकूल ) इंद्रिय तथा विषयोंका संयोग, बुद्धि के दोषऔर कालका वर्णन किया गया है ॥ ४६ ॥
रोगोंके कारण।
त्रयस्त्रिविधविकल्पाःकारणंविकाराणाम्।
समयोगयुक्तास्तुप्रकृतिहेतवोभवन्ति॥ ४७ ॥
इंद्रियोर्यसंयोग, बुद्धि और कालका अतियोग, अयोग, और मिथ्यायोग यह तीन प्रकारका विकल्प–रोगोंके उत्पन्न होनेका कारण है और इन तीनोंका ही सुप्रयोग होना आरोग्यताका कारण है॥ ४७ ॥
** सर्वेषामेवभावानांभावाभावौनान्तरेणयोगायोगातियोगामिथ्यायोगात्समुपलभ्येते। यथासंयुक्त्यापेक्षिणौहि-भावाभावौ॥ ४८ ॥**
संपूर्ण वस्तुओंका अभाव और सद्भाव यह दोनों मनुष्यके शरीरमें किया करतेहैं।वह क्रिया सम्यक् योग अयोग, अतियोग मिथ्यायोग, इन भेदोंसे अलग २ है।यह भाव और प्रभाव योगमें युक्तकी अपेक्षा करतेहैं अर्थात् मन, वाणी, शरीर, इनका युक्ति पूर्वक योग सुखका हेतु और अयुक्ति योग दुखका हेतु होताहै॥ ४८ ॥
तीनप्रकारके रोग।
** त्रयोरोगाइतिनिजागन्तुमानसाःतत्रनिजःशरीरदोषसमुत्थः। आगन्तुर्भूतविषवाय्वग्निसम्प्रहारादिसमुत्थः। मानसःपुनरिष्टस्यालाभाल्लाभाच्चानिष्टस्योपजायते॥ ४९ ॥**
निज अर्थात् शारीरिक, आगंतुक, मानसिक, इन भेदोसे रोग तीन प्रकारक होतेहैं। उनमें शरीरस्थ वात, पित्त, कफके कारणसे जो व्याधि उत्पन्न हो उसको निज अर्थात् शारीरिक व्याधि कहतेहैं। भूत, विष, वाहरसे आकर लगनेवाला वायु और अग्रिमहार आदिसे होनेवाली व्याधिको आगंतुक कहतेहैं। इसी प्रकार मनकी प्रिय अर्थात् इच्छितपदार्थके न मिलनेसे अप्रिय वस्तुके मिलने से जो मनमें शोकादिक होते है। उनको मानसिक रोग कहतेहैं॥ ४९ ॥
हितकर्तव्य।
** तत्रबुद्धिमतामानसव्याधिविपरीतेनापिसताबुद्ध्याहिताहितमवेक्ष्यावेक्ष्यधर्मार्थकामानामहितानामनुपसेवने-हितानाञ्चोपसेवनेप्रयतितव्यम्॥ ५० ॥**
मानसिक व्याधिमें अथवा मानसिक व्याधिके विना भी बुद्धिमान्को उचित है कि, अपने हित और अहितका विचार कर अहितकारक धर्म अर्थ कामका त्याग और हितकारक धर्म अर्थ कामका सेवन करनेमें यत्नवान् होना चाहिये॥ ५०॥
** नह्यन्तरेणलोकेत्रयमेतन्मानसंकिञ्चिन्निष्पद्यतेसुखंवादुःखंवातस्मादेतच्चानुष्ठेयम्। तद्विद्यावृद्धानाञ्चोपसेवने-प्रयतितव्यम्। आत्मदेशकालबलशक्तिज्ञानेयथावच्चेति॥ ५१ ॥**
क्योंकि इस लोकमें धर्म अर्थ कामके बिना कोई भी मानसिक दुःख, सुख नहीं होसकता इसलिये हितकारक धर्म अर्थ काम का सेवन करे।उस धर्मादि विविध पुरुषार्थको हितकर बनानेके लिये योग्य बुद्धिमानों और वृद्धजनों का सेवन तथा सत्संग करना चाहिये। और आत्मा, देश, काल, बल, शक्ति, इनके यथावत् ज्ञानमें तत्पर रहे अर्थात् इनसे विरुद्ध आचरण न करे॥ ५९ ॥
** भवतिचात्र।मानसंप्रतिभैषज्यंत्रिवर्गस्यान्ववेक्षणम्। तद्विद्यसेवाविज्ञानमात्मादीनाञ्चसर्वशइति॥ ५२ ॥**
यहां पर श्लोक है कि–धर्म अर्थ काम इस त्रिवर्गको यथोचित जानकर सेवन करना, और इस ग्रिवर्गके ज्ञाता वृद्धजनोंकी सेवा यथा आत्म आदिकके ज्ञान में तत्पर रहना यह मानसिक व्याधिकी औषधि है॥ ५२ ॥
रोगोंके तीन मार्ग।
** त्रयोरोगमार्गाइति। शाखामर्मास्थिसन्धयःकोष्ठञ्च। तत्रशाखारक्तादयोधातवस्त्वक्चबाह्योरोगमार्गः। मर्मा-णिपुनर्बस्तिहृदयमूर्द्धादीन्यस्थिसन्धयोऽस्थिसंयोगास्तत्रोपनिबद्धाश्चस्नायुकण्डरासमध्यमोरोगमार्गः। कोष्ठंपु-नरुच्यतेमहास्रोतःशरीरमध्यंमहानिम्नमामपक्वाशयश्चेतिपर्य्यायशब्दैः सरोगमार्गआभ्यन्तरः॥ ५३ ॥**
** **रोगमार्ग तीन प्रकारके हैं वह इस प्रकार हैं १ शाखा, २ मर्म अस्थिसंधि, ३ कोष्ठ।इनमें शाखाशब्दसे रक्तादिधातुएं और त्वचा लेना इनको बाह्यमार्ग कहते हैं। और बस्ति, हृदय, सूर्द्धा आदिक मर्मस्थान, अस्थिसन्धि और अस्थिसंयोगस्थान, एवं उन २ स्थानोंमें बंधीहुई स्नायु, और कंडरा, इनको मध्य रोग मार्ग कहतेहैं। कोष्ठशब्दसे कोष्ठके अन्य पर्याय जैसे महास्रोत, शरीरमध्य, महानिम्न आमाशय, पक्वाशय, इनको आभ्यंतर रोगमार्ग कहतेहैं॥ ५३ ॥
बहिर्मार्गज रोगोंके नाम।
**
तत्रगण्डःपीडकालज्यपचीचर्म्मकीलाधिमांसालसककुष्ठव्यङ्गादयोविकाराबहिर्मार्गजाः॥ ५४ ॥**
इनमें गंड ( मलगंड ), पीडका, अलजी, अपची, चर्मकील, अर्बुद, अघिमांस, अलस(पावका रोग ), कुष्ठ, और व्यंग आदि रोग बाह्य रोगमार्गसे पैदा होतेहैं॥ १४ ॥
शाखानुसारीरोग।
** वीसर्पश्वयथुगुल्मार्शोविद्रध्यादयः शाखानुसारिणोभवन्ति रोगाः॥ ५५ ॥ **
वीसर्प, शोथ, गुल्म, ववासीर, विद्रधि आदि रोग शाखानुसारी कहेजातेहै॥ ५५ ॥
मध्यममार्गानुसारी रोग।
** पक्षवधग्रहापतानकार्दितशोषराजयक्ष्मास्थिसंधिशूलगुदभ्रंशादयःशिरोहृद्वस्तिरोगादयश्चमध्यममार्गानुसा-रिणोभवन्ति रोगाः॥ ५६ ॥**
पक्षवध ( पक्षाघात, अर्धाग ), ग्रह ( अंगग्रह, किसी अंगका रहजाना) अपतानक, अर्दित, सोजा, राजयक्ष्मा, अस्थिशूल, संधिशूल, गुदभ्रंश और शिरोगत रोग, हृदयगत रोग, एवं वस्तिगत रोग, मध्यममार्गानुसारी कहेजातेहै॥ ५६ ॥
कोष्ठानुसारी रोग।
** ज्वरातीसारछर्द्यलसकविषूचिकाश्वासहिक्कानाहोदरप्लीहादयोऽन्तर्मार्गजाश्च। विसर्पश्वयथुगुल्मार्शोविद्र-ध्यादयः कोष्ठमार्गानुसारिणोभवन्तिरोगाः॥ ५७ ॥**
ज्वर, अतिसार, बमन, अलसक ( अजीर्णका भेद ), विसूचिका, श्वास, कास, हिचकी, अफरा, उदररोग प्लीहरोग, यह अभ्यंतरमार्गजन्य रोग हैं। वीसर्प, शोथ, गुल्म, अर्श तथा विद्रधिआदि कोष्ठमार्गानुसारी रोग होतेहैं॥ ५७ ॥
तीनप्रकार के वैद्य।
** त्रिविधाभिषजइति। भिषक्छद्मचराःसन्तिसन्त्येकेसिद्धसाधिताः। सन्तिवैद्यागुणैर्युक्तास्त्रिविधाभिषजो-भुवि॥ ५८ ॥**
तीन प्रकारके वैद्य हैं। छद्मचर वैद्य १, सिद्धसाधित वैद्य २, वैद्यगुणसंपत्रवैद्य ३ ॥ ५८ ॥
भिषक्छद्मचरके लक्षण।
वैद्यभाण्डौषधैःपुस्तैःपल्लवैरवलोकनैः।
लभन्तेयेभिषक्शब्दमज्ञास्तेप्रतिरूपकाः॥ ५९ ॥
इनमें दूसरे वैद्योंके पात्र, औषध, पुस्तक पत्र आदि देखकर आपभी उनकी समानरूप बनाकर वैद्य कहलानेवाले प्रतिरूपक या छद्मचर वैद्य कहते हैं॥ ५९ ॥
सिद्धसाधितवैद्यके लक्षण।
श्रीयशोज्ञानसिद्धानांव्यपदेशादतद्विधाः।
वैद्यशब्दलभन्तेयेज्ञेयास्तेसिद्धसाधिताः॥ ६० ॥
जो वैद्य वैद्यगुणसंपन्न तो नहीं परन्तु धनवान् यशवाले ज्ञानवान् और सिद्धलोगांने उनकी प्रशंसा फैलादीहो उनको सिद्धसाधित वैद्य कहतेहैं॥ ६० ॥
वैद्यगुणयुक्त के लक्षण।
प्रयोगज्ञानविज्ञानसिद्धिसिद्धाःसुखप्रदाः।
जीविताभिसरास्तेस्युर्वैद्यत्वंतेष्ववस्थितमिति॥ ६१ ॥
जो वैद्य औषधप्रयोग आदिमे कुशल हैं तथा हेतु, रोग, चिकित्सा के ज्ञान विज्ञान में सिद्धिसंपन्न हैं, वह सुखके और जीवनके देनेवाले सद्वैद्य वैद्यगुणसंपन्न वैद्यहोते हैं इनहीमें वैद्य शब्दकी स्थिति है॥ ६१ ॥
औषधियोंके भेद।
** त्रिविधमौषधमिति।दैवव्यपाश्रयंयुक्तिव्यपाश्रयंसत्त्वावजयश्च। तत्रदैवव्यपाश्रयंमन्त्रौषधिमणिमङ्गलनियम-प्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपाततीर्थेगमनादि।युक्तिव्यपाश्रयंपुनराहारौषधद्रव्याणांयोजना। सत्त्वावजयः-पुनरहितेभ्योऽर्थेभ्यो** मनोनिग्रहः॥ ६२ ॥
** ** तीन प्रकारकी औषध होती हैं । दैवव्यपाश्रय १ युक्तिव्यपाश्रय २, सत्त्वावजय ३।इनमे मंत्र, मंगल औषधी रत्न इनका धारण, मंगलाचरण, बलि, पूजन, होम, नियम, प्रायश्चित्त, उपवास, स्वस्तिवाचन प्रणाम, तीर्थगमन आदिको दैवव्यपाश्रय औषध कहतेहैं।युक्तिपूर्वक आहार और औषधक सेवनको युक्तिव्यपाश्रय कहतेहैं। अहित अर्थोंसे मनको रोकनेका नाम सत्त्वावजय औषध है॥ ६२ ॥
शारीरिक रोगोंमें औषधभेद।
** शरीरदोषप्रकोपेखलुशरीरमेवाश्रित्यप्रायशस्त्रिविधमौषधमिच्छन्ति। अन्तःपरिमार्जनंबहिःपरिमार्जनंशास्त्र-प्रणिधानञ्चेति। तन्त्रान्तःपरिमार्जनंयदन्तःशरीरमनुप्रविश्यौषधमाहारजातव्याधीन्प्रतिमार्ष्टि। यत्पुनर्बहिःस्पर्श-माश्रित्याभ्यङ्गस्वेदप्रदेहपरिषेकोन्मर्दनाद्यैरामयान्प्रभार्ष्टितद्बहिःपरिमार्जनम्॥ ३३ ॥**
शस्त्रप्रणिधानंपुनश्छेदनभेदनव्यधनदारणलेखनोत्पाटनप्रच्छन्नसीवनैषणक्षारजलौकाश्चेति॥ ६४ ॥ प्राज्ञोरो-गेसमुत्पन्नेबाह्येनाभ्यन्तरेणवा।कर्मणालभतेशर्मशस्त्रोपक्रमणेनवा॥ ६५ ॥
शारीरक दोषोंके कोपको शान्त करनेके लिये बहुत करके तीन प्रकारकी औषधका
प्रयोग किया जाताहै। वह तीन प्रकारके औषध यह हैं–अंतः परिमार्जन, बहिःपरिमार्जन और शस्त्रप्रणिधान। इनमें जो औषध शरीरके भीतर जाकर मिथ्या आहारादि हुए रोगको नष्ट करे उसको अंतःपरिमार्जन कहते हैं। जो औषध बाहिरके आश्रयसे अर्थात् मालिश, पसीना, प्रलेप, परिषेक, उद्धर्तन आदिके संयोगसे रोगको नष्ट करे उसको बहिःपरिमार्जन कहतेहैं। शस्त्रद्वारा छेदन, भेदन, व्यधन, विदारण, लेखन, उत्पाटन, पृच्छन, सीवन, एपण तथा क्षारकर्म और जलौका आदिके प्रयोगको शस्त्रप्रणिधान कहते हैं॥६३॥६४॥बुद्धिमान् मनुष्य उत्पन्नहुए रोगकी शांतिके लिये अंतःपरिमार्जन अथवा वाह्यपरिमार्जन या शस्त्रप्रणिधान, इन तीन उपायोंको करनेसे ही सुखको प्राप्त होसकताहै॥ ६५ ॥
बालकोंकी अज्ञानताका फल।
** वालस्तुखलुमोहाद्वाप्रमादाद्वानबुध्यते। उत्पद्यमानंप्रथमंरोगंशत्रुमिवाबुधः॥ ६६ ॥ अग्राहिप्रथमंभूत्वारोगः-पश्चाद्ववर्द्धते। सजातमूलोमुष्णातिबलमायुश्चदुर्मतेः॥ ६७ ॥ नमर्त्योलभतेश्रद्धांतावद्यावन्नपीड्यते। पीडितस्तु-मतिंपश्चात्कुरुतेव्याधिनिग्रहे॥ ६८ ॥ अथपुत्रांश्चदारांश्चजातींश्चाहूयभाषते। सर्वस्वेनापिमेकश्चिद्भिषगानीयता-मिति॥ ६९ ॥ तथाविधञ्च कःशक्तोदुर्बलंव्याधिपीडितम्।कृशंक्षीणेन्द्रियंदीनंपरित्रातुं गतायुषम्॥ ७० ॥ सत्रातारमनासाद्यबालस्त्यजतिजीवितम्। गोधालांगूलबद्धेवाकृष्यमाणाबलीयसा॥ ७९ ॥**
वालक अर्थात् अज्ञानी मनुष्य पहले तो उत्पन्न होते हुए रोगको मोह अथवा प्रमादवश तुच्छ मानता है। जैसे मूर्खपुरुष अपने शत्रुको तुच्छ समझता है॥६६॥ परन्तु जब पहले उत्पन्न होते ही रोगका यत्न नही किया जाता फिर वह रोग वृद्धिको प्राप्त होकर जड पकड जाताहै और पहले ही यत्न न करनेवाले मूर्खके बलको तथा आयुको नष्ट करदेता है॥६७॥ जब तक मूर्खमनुष्यको रोग अत्यंत पीडितनही करदेता तब तक उस रांगको यत्नकरने के लिये उसकी श्रद्धा नहीं होती। जब रोगसे व्याकुल होजाताहै फिर यत्न कराने के लिये प्रयत्नवान् होताहै। और अपने पुत्र स्त्री तथा बांधवोंको बुलाकर कहताहै कि चाहे सर्वस्वभी खर्च होजाय परंतु किसी योग्य वैद्यको बुलाकर मेरी चिकित्सा करो॥ ६८ ॥ ३९ ॥ फिर वैसे दुर्बल, असाध्य व्याधिते पीडित हुए कृश, तथा क्षीण इंद्रिय होनेपर दीनऔर गतायुकी रक्षा करनेको कौन समर्थ होसकताहै अर्थात्कोई नहीं। फिर जब उसकी कोई चिकित्सा नहीं करसकता तब वह मूर्ख अपनी आयुको त्याग देताहै अर्थात् रोगवश होकर मृत्युको प्राप्त होता है जैसे गोहकी पूंछको कोई बलवान् जानवर पकडकर खींचताहै तब वह आगेको वलपूर्वक भागतीहुई अपने जीवनको त्यागदेतीहे ऐसे ही रोगोंसे खीचाहुवा मनुष्य भी अपने जीवनको त्यागदेता है॥ ७० ॥ ७९ ॥
रोगीका कर्तव्य।
** तस्मात्प्रागेवरोगेभ्योरोगेषुतरुणेषुवा। भेषजैःप्रतिकुर्व्वीतयइच्छेत्सुखमात्मनः॥७२ ॥**
इसलिये रोग होनेस पहले ही अथवा गेगके वलवान होने से पहले ही औषध द्वाराअपने सुखके लिये यत्न करे॥ ७२ ॥
अध्यायका उपसंहार।
** तत्रश्लोकौ। एषणाःससुपस्तम्भावलकारणमासयाः। तिस्रैषणीयेमार्गाश्चभिषजोभेषजानिच॥ ७३ ॥ त्रित्वेना-ष्टौसमुदिष्टाःकृष्णात्रेयेणधीमता। भावाभावेषुशक्तेनयेषुसर्वंप्रतिष्टितम्।इति॥ ७४ ॥**
अग्नीत्यादि॥एकादशस्तिस्त्रैषणीयाध्यायः समाप्तः।
यहां इस अध्यायकी प्रतिम दो श्लोक है कि इस तिस्त्रैपणीयाध्यायमें वैराग्यवान् बुद्धिसंपन्न कृष्णात्रेयजीने एपण. उपस्तंब. बल, कारण. रोग. रोगमार्ग, वैद्य. औषध इन आठोंकेतीन २ भेद कथन किये हैं। और सबके भावाभाव कहेहैं। जिसमें समस्त प्रतिष्ठित है अर्थात् जिसके आधार पर समस्त वैद्यक है॥ ७३ ॥ ७४ ॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयतहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसालनिवासिवैद्यपचानन
प० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाणटीकायां
तिनैपणीयो नामैकादशोऽध्याय॥ ११ ॥
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द्वादशोऽध्यायः।
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** अथातोवातकलाकलीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः।**
वायुके विषय में ऋषियोंका प्रश्न।
** वातकलाकलाज्ञानमधिकृत्यपरस्परमेतानिजिज्ञासमानाःसमुपविश्यमहर्षयःप्रपच्छुरन्योन्यंकिंगुणोवायुःकि-मस्यप्रकोपनमुपशमनानिवास्यकानि। कथञ्चैनमसङ्घातमनवस्थितमनासाद्यप्रकोपनप्रशमनानिप्रकोपयन्ति-प्रशमयन्तिवा। कानि चास्यकुपिताकुपितस्यशरीराशरीरचरस्यशरीरेषुचरतःकर्माणि बहिःशरीरेभ्योवेति॥ १ ॥**
** **अब हम बातकलाकलीय अध्यायका कथन करतेहैं ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे महर्षिलोग एक स्थान में एकत्रित होकर वैठेहुए वातकलाकलीय अर्थात् वायुको सूक्ष्मविचार करनेका उद्देश्य रखकर परस्पर जाननेकी इच्छा करते हुए आपसमें इस प्रकार आंदोलन करने लगे कि वायुके क्या गुण हैं। इसके प्रकोपका कारण क्या है, और इसकी शान्ति किस प्रकार होतीहै। और किस प्रकार इस असंहत और अनवस्थित वायुको प्रकोपकारक द्रव्य प्राप्त होकर प्रकुपित करतेहैं। और कैसे शमनकारक शमन करतेहैं। जब यह वायु कुपित होकर, अथवा विनाशुद्ध हुएही शरीरके भीतर या बाहर विचरतीहै तब इसकी क्या क्रिया होतीहै। और शरीरके भीतर रहकर किन कर्मोको करतीहै तथा शरीरके बाहर रहकर किन कर्माको करती है॥ १ ॥
सांकृत्यायनकुशका मत।
** अत्रोवाचकुशःसांकृत्यायनः। रूक्षलघुशीतदारुणखरविषदाः षडिमेवातगुणाभवन्ति॥ २ ॥**
उन ऋषियोंमें कुश–सांकृत्यायन ऋषि कहनेलगे कि वायुमें–रूक्ष, लघु, शीतल, दारुण, खर, विशद, यह छः गुण हैं॥ २ ॥
भरद्वाजका मत।
** तच्छ्रुत्वावाक्यंकुमारशिराभरद्वाजउवाच एवमेतद्यथाभगवानाहएतएववातगुणाभवन्ति। सत्वेवंगुणैरवंद्रव्यैरे-वंप्रभावेश्चकर्म्माभिरभ्यस्यमानैर्वायुःप्रकोपमापद्यतेसमानगुणाभ्यासो हिधातूनांवृद्धिकारणमिति॥ ३ ॥**
यह सुनकर “कुमारशिरा भरद्वाज” कहनेलगे, जैसे आपने कहा है ठीक वायुमें यही गुण होतेहैं वह वायु वैसे ही रूक्षादि गुणयुक्त द्रव्योंसे तथा वैसे ही रूक्षादि प्रभाववाले कर्मोके अभ्याससे कुपित होती है। क्योंकि समानगुणवाले द्रव्यों तथा कर्माका अभ्यास ही धातुओंकी वृद्धिका कारण होता है जैसे ‘सर्वदा सर्वभावानां’ यह पहले अध्यायमें कहचुके हैं॥ ३ ॥
वाह्लीकका मत।
** तच्छ्रुत्वावाक्यंकाङ्क्षायनोवाह्लीकभिषगुवाच। एवमेतद्यथा भगवानाह। एतान्येववातप्रकोपनानिभवन्ति। अतोविपरीतानिखल्वस्यप्रशमनानिभवन्ति। प्रकोपनविपर्य्ययोहिधातूनांप्रशमकारणमिति॥ ४ ॥**
यह वाक्य सुनकर “कांक्षायन–वाह्लीक वैद्य” कहनेलगे जैसे आपने कहाहै वैसे ही है। यही रूक्षादिगुणयुक्त द्रव्यादि वातके कोप करनेमें कारण होतेहैं। इससे विपरीत स्त्रिग्धादिगुण प्रभाव युक्त द्रव्यों या कर्मोंसे वातकी शान्ति होती हैं क्योंकि प्रकोपके कारणसे विपरीतगुणोंवाले द्रव्यादिकोंका सेवन ही धातुओं (वातादिकोंसे ही यहां धातुशब्दका लक्षण है ) को शांत करनेके कारण होते हैं॥ ४ ॥
बडिशधामार्गवका मत।
** तच्छ्रुत्वावाक्यंबडिशोधामार्गवउवाच।एवमेतद्यथाभगवानाह। एतान्येववातप्रकोपप्रशमनानिभवन्ति। यथाह्येनमसंघातमवस्थितमनासाद्यप्रकोपनप्रशमनानिप्रकोपयन्तिप्रशमयन्तिवा। तथानुव्याख्यास्यामः। वातप्रकोपनानिखलुरूक्षलघुशीतदारुणखरविषदशुषिरकराणिशरीराणांतथाविधेषुशरीरेषुवायुराश्रयंगत्वाआप्याय्यमानःप्रकोपमापद्यते। वातप्रशमतानिपुनःस्त्रिग्धगुरूष्णश्लक्ष्णमृदुपिच्छिलघनकराणिशरीराणांतथावि-धेषुशरीरेषुवायुरासज्यमानश्चरन्प्रशान्तिमापद्यते५**
यह सुनकर “वडिश धामार्गव” वोले, जैसे आपने कहा है ठीक ऐसे ही है। यह है ही वायुके प्रकोप और शांति के कारण होते हैं। जिस प्रकार इस सूक्ष्म और चल बायुको प्राप्त हो कोपकारक और शांतिकारक द्रव्य प्रकुपित और शमनको प्राप्त होतेहैं उनका वर्णन भी करते हैं। वह ऐसे वातको प्रकुपित करनेवाले पदार्थ अपने रुक्ष, लघु, शीतल, दारुण, खर, विशद और शुषिर करनेवाले गुणोसे वातस्वभाववाले शरीरोंमे वायुके आश्रय होकर वायुके कोपको प्राप्त होतेहैं अर्थात् रूक्षादि गुणोवाले पदार्थ वातप्रधान शरीरमें अपने रूक्षादि`गुणों से वायुको बढ़ाकर कुपित करतेहै। ( तात्पर्य यह हुआ कि अपने रुक्षादि गुणोको प्राप्त हो वायु बढ़कर कुपित होजाताहै )।ऐसे ही वातको शान्त करनेवाले द्रव्य शरीरोंमें–चिकनाई, गुरुता, उष्णता लक्ष्णता, कोमलता पिच्छिलता और घनताको करतेहैं।फिर स्निग्धादि गुणयुक्त शरीरमें विचरता हुआ वायु स्निग्धादिगुणोंसे मिलकर शान्तिको प्राप्त होताहै। अर्थात् वातसे विपरीत चिकने आदि गुणयुक्त पदार्थोंसे स्निग्धता आदि गुण प्राप्त होनेपर रूक्षता आदि गुण त्यागताहुआ शांत होजाताहै॥ ५ ॥
वार्योविदका मत।
** तच्छ्रुत्वाबडिशवचनमवितथमृषिगणैरनुमतमुवाचवार्योविदो राजर्षिः। एवमेतत्सर्वमनपवादंयथाभगवानाह। यानितुखलुवायोःकुपिताकुपितस्यशरीराशरीरचरस्यशरीरेषुचरतःकर्माणिवहिःशरीरेभ्योवाभवन्तितेषामक्य-वान्प्रत्यक्षानुमानोपमानैः साधयित्वानमस्कृत्यवायवेयथाशक्तिप्रवक्ष्यामः॥ ६ ॥**
इस प्रकार कहेहुए यथार्थ, और ऋषियोके बहुमत अर्थात् मानेहुए चडिशके बडिशको सुनकर राजर्षि वार्योविद कहनेलगे कि आपने जैसे कहाहै यह निर्विवाद है अर्थात् सबको मंतव्य और यथार्थ है। अब शरीरसे बाहिर विचरतेहुए कुपित अथवा शान्तिको प्राप्त हुए वायुके जो २ कार्य शरीरके भीतर और वाहर होते हैं अर्थात् कुपित या विना कुपितवायु शरीगंभ अथवा वाहिर जो २ कार्य करताहै उनसवको प्रत्यक्ष अनुमान और आतोदेश द्वारा सिद्ध करते हुए वायुको नमस्कार करके यथाशक्ति वर्णन करताहूं॥ ६ ॥
वायुके भेद और कर्म।
** वायुस्तन्त्रयन्त्रधरःप्राणोदानसमानव्यानापानात्माप्रवर्त्तकश्चेष्टानामुच्चावचानांनियन्ताप्रणेताचमनसः। सर्वेन्द्रियाणामुद्योतकः। सर्वेन्द्रियार्थानामभिवोढासर्वशरीरधातुव्यूहाकरः सन्धानकरःशरीरस्यप्रवर्त्तकोवाचःप्रकृतिःस्पर्शश-ब्दयोः श्रोत्रस्पर्शनयोर्मूलंहर्षोत्साहयोर्योनिःसमीरणोऽग्नेर्दोषसंशोषणः।क्षेप्ताबहिर्मलानांस्थूलाणुस्रोतसांभेत्ता-कर्त्तागर्भाकृतीनांआयुषोऽनुवृत्तिप्रत्ययभूतोभवत्यकुपितः॥ ७ ॥**
इस शरीरतंत्र और शरीररूपी यंत्रके धारण करनेवाला वायु प्राण, उदान, समान,व्यान, अपान, इन भेदोंसे पांच प्रकारका है। यह चलना फिरना आदि शरीरकी चेष्टाका प्रवर्तक है, और ऊंची नीची क्रियाका नियंता है। मनका प्रणेता, सब इंद्रियों में उद्योग करनेवाला, सव इंद्रियांको चलानेवाला. सब शरीरकी धातुओंका वाहक, शरीरका संधान करनेवाला, वाणीको प्रवृत्त करनेवाला, शब्द और स्पर्श स्वभाववाल शब्द और स्पर्श के बोधका कारण, हर्ष और उत्साहका कारण, अग्निको प्रेग्ण करने वाला, दोषोंका शोषण करनेवाला, मलोंको निकालकर बाहिर फेंकनेवाला, स्थूल और सूक्ष्म स्रोतोंको भेदन करनेवाला, गर्भकी आकृति बनानेवाला और आयुका आधारभूत है। यह कर्म प्रकृतिस्थ अर्थात् कोपको विना प्राप्त हुए वायुके हैं॥ ७ ॥
कुपितवायुके कर्म।
** कुपितस्तुखलुशरीरेशरीरंनानाविधैर्विकारैरुपतपतिबलवर्णसुखायुषामुपघातायमनोव्याहर्षयतिसर्वेन्द्रिया-ण्यपहन्ति। विहन्तिगर्भान्विकृतिमापादयत्यतिकालंधारयति। भयशोकमोहदैन्यातिप्रलापाञ्जनयतिप्राणांश्चोप-रुणद्धि।प्रकृतिभूतस्यखल्वस्यलोकेचरतःकर्माणीमानिभवन्ति॥ ८ ॥**
शरीरस्थ वायु कुपित होनेपर शरीरको अनेक प्रकारके रोगोंसे पीडित करता है । तथा बल, वर्ण, सुख और आयुको नष्ट करता है। और गर्भको नष्ट अथवा विकारयुक्त करदेताहै या प्रसवमें अतिकाल अर्थात् विलम्व करदेताहै।भय, शोक, मोह, बकवाद, दीनता, इनको उत्पन्न करदेता है। तथा प्राणोंकी गतिको रोकदेताहै। यह शरीरमें कुपित हुए वायुके कार्य हुए॥ ८ ॥
बाह्य वायुके कर्म।
** तद्यथा। धरणीधारणंज्वलनोज्ज्वालनम्।आदित्यचन्द्रनक्षत्रग्रहगणानांसन्तानगतिविधानंसृष्टिश्चमेधानाम्।अपाञ्चविसर्गःप्रवर्तनंस्रोतसांपुष्पफलानाञ्चाभिनिर्वर्त्तनमुद्भेदनञ्चौद्भिदानामृतूनांप्रविभागः।विभागोधातूनांधातुमान-संस्थानव्यक्तिः। बीजाभिसंस्कारःशस्याभिवर्द्धनविक्लेदोपशोषणमवैकारिकविकारश्चेति॥ ९ ॥**
वाह्यवायु–प्रकृतिस्थ अर्थात् अपने उचित स्वभावमे रहनसे संसारमेंविचरता हुआइन कर्मोको करता है।
जैसे–पृथ्वीका धारण, अग्निका ज्वालन, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, और ग्रहगणोको अपने क्रमपूर्वक गतिसे घुमाना तथा मेघ आदिको उत्पन्न करना, आकाशसे जलोका पातन करना, स्रोतों (सोतों) अर्थात् झरनोंमेंसे जलको प्रवर्तन करना, पुष्प, फल आदिकोका अपने २ समय में उत्पन्न होना, वृक्षादि उद्भिज्ज सृष्टिका ठीक उत्पन्न होना, ६ ऋतुओका ठीक होना, संपूर्ण पार्थिव धातुओंका विभाग तथा घनता और आकृतिका ठीक होना बीजोंमेंसे अंकुरादि निकलना, खेती तथा घासका बढ़ना, क्लेदका हरना, विकारयुक्त वस्तुको विकाररहित बनादेना। ऐसे ऐसे शुभ कार्यों को प्रकृतिस्थ बाह्य वायु करता है॥ ९ ॥
कुषित बाह्य वायुके कर्म।
** प्रकुपितस्यखल्चस्यलोकेषुचरतः कर्माणीमानि भवन्ति॥१० ॥**
प्रकुपित हुए बाह्यवायुके यह कर्म ( आगे कहे हुए ) होतेहैं॥१०॥
** तद्यथा।उत्पीडनंसागराणामुद्वर्त्तनंसरसांप्रतिसरणमापगानासाकम्पनञ्चभूमेराधमनमम्बुदानांशिखरेिशि-खरावमथनमुन्मथनमनोकहानांनिहारनिर्ह्रादपांशुसिकतामत्स्यभेकोरगक्षाररुधिराश्माशनिविसर्गोव्यादनञ्च-षण्णामृतूनांशस्यानामसंघातोभूतानाञ्चोपसर्गोभावानाञ्चाभावकरणम्। चतुर्युगान्तकराणांमेघसूर्य्यानलानांवि-सर्गः, सहिभगवान्प्रभवश्चाव्ययश्वभूतानांभावानामभावाकरः॥ ११ ॥**
वह ऐसे हैं समुद्रोंको डगमगा देना, तालाओके जलोका आलोडन करडालना, नदियाँको उलटा करदेना, मूकंप होना, मेघोंका इधर उधर चालन होना, पर्वतों के शिखरोका टूटना, वृक्षोंका उखाडना, नीहार ( पानी मिली हवा ), गूंजदार शब्द, गरदा, रत, मत्स्य, मेडक, सांप, खार, रुधिर, पत्थर, वज्र, इनका आकाशसे गिरना,छहों ऋतुओंमें विकृति होना, खेतीका बिगडना, भूत आदि गणोंकी वाधा होना, होनेयोग्य वस्तुओंका न होना, यह उपद्रव होते हैं। चारों युगोंके नष्टकर्ता अर्थात् प्रलयकारक मेघ, सूर्य, वायु, और अग्निको फैलाना। यह वायु भगवान् ही भूत सृष्टिकीउत्पत्ति, स्थिति और नाशको करनेवाला है॥११॥
वायुके साधारण धर्म।
सुखासुखयोर्विधातामृत्युर्यमोनियन्ताप्रजापतिरदितिर्विश्वकर्माविश्वरूपःसर्वगःसर्वतन्त्राणां विधाता।भावानामणुर्विभुविष्णुःक्रान्तालोकानांवायुरेवभगवानिति॥१२॥
यह वायु ही सुख दुःखको देनेवाला मृत्यु, यम, नियंता प्रजापति, अदिती, विश्वकर्मा, विश्वरूप, सर्वगामी, सर्वतंत्रोंको रचनेवाला है। और सब भावों में–अणु, विभुविष्णु, तीनों लोकोंमें व्यापक, और भगवान् है॥१२॥
मारीचिका प्रश्न।
तच्छ्रुत्वावाक्यविद्वचोमारीचिरुवाच। यद्यप्येवमेतत्किमर्थस्यास्यवचनेविज्ञानेवासामर्थ्यमस्ति-भिषग्विद्यायाम्। भिषग्विद्यांवाधिकृत्यकथाप्रवर्त्तते। वार्योविदउवाच। भिषक्पवनुमतिबलमति-परुषमतिशीघ्रकारिणमात्ययिकञ्चेन्नानुनिशम्येत्॥१३॥ सहसाप्रकुपितमतिप्रयतः कथमग्रेऽभिरक्षितमभिधास्यति। प्रागेवैनमत्ययभयादिति। वायोर्यथार्थास्तुतिरपिभवत्यारोग्याय- बलवर्णवृद्धयेवर्चस्वित्वायोपचयायच।ज्ञानोपपत्तयेपरसायुःप्रकर्षायचेति॥१४॥
वार्योविदके इस वाक्यको सुनकर मरीचि ऋषि बोले। जैसा आप कहतेहैं यदि वायु ऐसा ही है तो इस वायुके कहने और स्वरूप जानने के लिये वैद्यकशास्त्रमें क्या प्रयोजन है अर्थात् बाह्यवायुका इस प्रकारका प्रस्ताव पदार्थविद्या में होना चाहिये वैद्यकका संबन्ध इस प्रस्तावसे नहीं क्योंकि इस समय आयुर्वेदको आश्रय करके ही इस कथा ( बात ज्ञान ) की प्रवृत्ति है।यह प्रश्न सुनकर वार्योविद बोले कि यहां पर इस कथनका यह प्रयोजन है कि वैद्यजन पवनको अत्तिवेगसे चलता हुआ, अतिकठोर, अतिशीघ्रकारी, और विकारोंको करनेवाला जानलेवें॥१३॥ फिर शीघ्र ही उसके कोपसे होनेवाले अनिष्टोसे बचानेके यत्नमें समर्थ हों यदि वैद्य पवनकी गतिसेउसके विकार आदिको न समझेगा तो होनेवाले भयसे पहले ही रक्षा किसप्रकार करसकेगा।शुद्ध वायुका यथार्थ सेवन करनेसे आरोग्यताकी प्राप्ति, बल और वर्णकी वृद्धि होती है।तेजस्विता और पुष्टता प्राप्त हो और ज्ञानकी प्रतिपत्ति तथा आयुकी वृद्धि होती॥१४॥
पित्तकी ऊष्माका वर्णन।
**मारीचिरुवाच।अग्निरेवशरीरेपित्तान्तर्गतःकुपिताकुपितःशुभाशुभानिकरोति॥ **
तद्यथा।
पक्तिमपक्तिंदर्शनमदर्शनंमात्रामात्रत्वमूष्मणःप्रकृतिविकृतिवर्णोऽशौर्य्यभयंक्रोधंहर्षमोहं-प्रसादमित्येवमादीनिचापराणिद्वन्द्वादीनीति॥१५॥
मारीचि ऋषि कहनेलगे कि शरीर में अग्नि ही पित्तमे रहकर अकुपित और कुपित होकर शुभ तथा अशुभको करती हैं। वह इसप्रकार है जैसे विपाक और अविपाक, दर्शन, अदर्शन, गर्मीको ठीक रेखना या वेठीक रखना, प्रकृति या विकृति, वर्ण और अवर्ण शूरता, अगूरता, ऐसे ही भय, क्रोध, हर्ष, मोह, प्रसन्नता आदि और भी दो–दो हिस्समें करताहै अर्थात् कुपित अग्निअशुभ और अकुपित शुभकारक होता है॥१५॥
शरीरमें सोमकी प्रधानता।
तच्छ्रुत्वामारीचिवचः काश्यपउवाच। सोमएवशरीरेश्लेष्मान्तर्गतःकुपिताकुपितःशुभाशुभानि-करोति।
तद्यथा।
दार्ढ्यंशैथिल्यमुपचयंकार्यमुत्साहमालस्यंवृषतांक्लीवतांज्ञानमज्ञानंबुद्धिमोहमेवमादीनि-चापराणिद्वन्द्वादीनीति॥१६॥
इस प्रकार मारीचिके वाक्यको सुनकर काश्यप बोले कि सोम ही शरीरके कफमें रहकर विना कुपित हुआ शुभ और कुपित हुआ अशुभ करता है। जैसा दृढता, शिथिलता, पुष्टता कृशता; उत्साह, आलस्य; पुरुषार्थता, लीवता, ज्ञान अज्ञान;बुद्धि, मोह आदि अन्य कार्य भी प्रकृतिस्थ होनेपर शुभ और कुपित होनेपर अशुभ करता है॥१६॥
पुनर्वसुका सिद्धांत।
तछ्रुत्वाकाश्यपवचोभगवान्पुनर्वसुरात्रेयउवाच। सर्वएवभवन्तःसम्यगाहुरन्यत्रैकान्तिकवचनात्॥ सर्वएवखलुवातपित्तश्लेष्मणःप्रकृतिभूताःपुरुषसव्यापन्नेन्द्रियंबलवर्णसुखोपपन्नमायुषामहतोपपा-दयन्ति। सम्यगेवाचरिताधर्मार्थकामानिःश्रेयसेनमहतोपपादयंतिपुरुषमिहचासुष्मिंश्चलोके। विकृतास्त्वेनंमहताविपर्य्ययेणोपपादयन्ति।ऋतवस्त्रयइवविकृतिमापन्नालोकमशुभेनोपघात-कालेइत्येतदृपयः सर्वएवानुमेनिरे वचनमात्रेयस्यभगवतोऽभिननन्दुश्चेति॥१७॥
यह काश्यपका वचन सुनकर भगवान् पुनर्वसु आत्रेयजी बोले कि आप सबने ही बात पित्त और कफके विषय में ठीक कहा। यह तीनों (वात पित्तकफ) ही अपनी प्रकृति (स्वभाव, ठीक प्रमाण) में स्थित हुए पुरुपकी इंद्रियों को बलवान करतेहैं और बल, वर्ण तथा सुखको उत्पन्न करतेहैं। और दीर्घ आयुको देते हैं। जिसके प्रभावसे मनुष्य ! धर्म अर्थ काम मोक्ष इन पुरुषार्थों का साधन करसकता है अर्थात् इस लोक और परलोकका सुख प्राप्त कर सकताहै।और विकारको प्राप्तहुए यह तीनों ऊपर कहे हुए गुणों से विपरीत (दोषोंको)करतेहैं। जैसे जाडा गर्मी, वर्षा यह तीन ऋतुमी विकारको प्राप्त हुई संसारमें प्रलय कालमें अशुभ करतीहैं ऐसे ही यह वात, पित्त, कफ, तीनों शरीरमें विकारको प्राप्त होनेसे अशुभ करते हैं। इस प्रकार भगवान् आत्रेयके कहे वचनको सुनकर सब ऋषि आनन्दसे, अनुमोदन करने लगे॥१७॥
भवतिचात्र॥ तदात्रेयवचःश्रुत्वानुमेरे। ऋषयोऽभिननन्दुश्चयथेन्द्रवचनंसुराः॥१८॥
जैसे इंद्रके वचनको सुन सब देवता अनुमोदन करनेलगे वैसे ही भगवान्आत्रेयके वचनको सुनकर सब ऋषि ठीककहा २ कहकर असंशा करनेलगे॥१८॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
तत्रश्लोकौ।गुणाः षड्द्विविधोहेतुर्विविधंकर्म्मतत्पुनः। वायोश्चतुर्विधंकर्म्मपृथक्चकफपित्तयोः॥१९॥ महर्षीणांमतिर्यायापुनर्वसुमतिश्चया। कलाकलीयेवातस्यतत्सर्वसम्प्रकाशितम्॥इति॥२०॥
निर्देशचतुष्कम्।
अग्नीत्यादिवातकलाकलीयोऽध्यायःसमाप्तः।
अध्यायकी पूर्तिमें यह दो श्लोक है इस वातकलाकलीय नामके अध्यायम वायुके छः गुण, दोप्रकार के हेतु और अनेक प्रकारके वायुके कर्म, कुपित अकुपित भेदसे पित्त और कफके दो कर्म, वात पित्त कफ के संबंध ऋषियोका मत, तथा पुनर्वसुजीका अत वर्णन किया गया है॥१९२०॥
इति श्रीमहर्षिचररुप्रणीतायुर्वेदीयसंहिताया पटियालाराज्यातर्वर्तिटकसालनिवासि
वैद्यानन पं० रामप्रसादवेद्योपाध्यायविरचितप्रत्तादन्याख्यभापाटीकाया
शतकलाकलीयो नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
_____________
त्रयोदशोऽध्यायः।
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अयातःस्नेहाध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः॥
अब हम स्नेहाध्यायकी व्याख्या करतेहैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
अग्निवेशका प्रश्न।
सांख्यैःसंख्यातसंख्येयैःसहासीनं पुनर्वसुम्।जगद्धितार्थंपप्रच्छवह्निवेशः सुसंशयम्॥१॥ किंयोनयः कतिस्नेहाकेचस्नेहगुणाःपृथक्।कालानुपानेकेकस्यकतिकाचविचारणाः॥२॥ कतिमात्राःकथंमानाकाचकेषूपदिश्यते। कश्चकेभ्योहितःस्नेहः प्रकर्षः स्नेहनेचकः॥३॥ स्नेह्याः केकेचनस्त्रिग्धाःस्त्रिग्धातिस्निग्धलक्षणमाकिंपानात्प्रथमंपीतेजीर्णेकिञ्चहिताहितम्॥४॥ केमृदुक्रूरकोष्ठाः काव्यापदःसिद्धयश्चकाः। अच्छेसंशोधनेचैवस्त्रेहेकावृत्तिरिष्यते॥५॥ विचारणाःकेषुयोज्याविधिनाकेनतत् प्रभो।स्नेहस्यामितविज्ञानज्ञानमिच्छामिवेदितुम्॥६॥
सांख्य शास्त्र के विख्यात और प्रसिद्ध २ ऋषियोंमें विराजमान पुनर्वसुजीसे संसारके, हितके लिये अग्निवेश अपने संशयको पूछनेलगे॥१॥ हे प्रभो ! स्नेहके कारण कौन २ द्रव्य हैं। स्नेह कितने प्रकारके हैं। स्नेहोंके अलग२कौनसे गुण हैं। किस समयकौनसे स्नेहको पान करना चाहिये और उनके अनुपान क्या हैं।स्नेह कितने प्रकारके हैं विचारणा कितनी और कौन हैं। कितनी मात्रासे सेवन करना, इसका मान कैसा है। कैसा किसके लिये कहा है।कौन स्नेह किसको हितकारक है सब स्नेहोमें उत्तम स्नेह कौनसा है।किसको स्नेहन करना चाहिये किसको नहीं करना।स्निग्ध और अतिस्निग्धके क्या२लक्षणहैं। स्नेह पीनेसे पहले और स्नेहपीने से पीछे तथा स्नेहके जीर्ण होनेपर कौन क्रिया हित है और कौन अहितहै। मृदु कोष्ठ और क्रूर कोष्ठ कौन होते हैं। स्नेहपानके अयोगसे क्या खराबी होती है और उसका यत्न क्या है।अच्छस्नेह और संशोधन स्नेहमें क्या वर्ताव करना चाहिये।विचारणा स्नेह किस विधिसे किनको देना। हे अमितज्ञान ! स्नेहनके प्रकारोंको जाननेकी मेरी इच्छा है इसलिये कृपया स्नेहशास्त्रका विधान कीजिये॥२॥३॥४॥५॥६॥
पुनर्वसुका उत्तर।
अथतत्संशयच्छेत्ताप्रत्युवाचपुनर्वसुः। स्नेहानांद्विविधाचासौ योनिःस्थावरजङ्गमा॥७॥ तिलःपियालाभिषु कौविभीतकश्चित्राभयैरण्डमधूकसर्षपाः।कुसुम्भविल्वारुकमूलकातसी-निकोचकाक्षोडकरञ्चशिशुकाः॥८॥ स्नेहाश्रयाःस्थावरसंज्ञितास्तथास्युर्जाङ्गमामत्स्यमृगा। सपक्षिणःतेषांदधिक्षीरघृतामिषंवसास्त्रेहेषुमज्जाचतथोपदिश्यते॥९॥
अग्निवेशके इस प्रश्नको सुनकर इस संशयके दूर करनेवाले पुनर्वसुजी कहनेलगे। हे सौम्य ! स्नेहोंकी योनि (कारण) स्थावर और जंगम इन दो भेदोंसे दो प्रकारकी है॥७॥ उनमें तिल, चिंगैंजी, पहाडो पर होनेवाले फलोंकी मीग, बहेडे, चित्रा ( जमालगोटा या पहाडी एरंड ), हरड. महुवा, सर्षप, कसुंभेके बीज, विव्व. भिलावा, मूलीके बीज, अलसी, निकोटक, अखरोट, कंजेके बीज, सुहांजनके बीज, यह सब स्थावर स्नेहोंके योनि हैं अर्थात् इनमेंसे जो तैलादि निकलतेहैं वह स्थावर स्नेह हैं । ऐसे ही गौ, भैंस, बकरी आदि तथा मछली, मृग, पशु पक्षियोंको जंगम स्नेहकी योनि कहतेहैं इनके दही, दूध, घी, तथा मछली आदिके मांस, चरबी, और मजा जंगमस्नेह कहे जाते हैं॥८॥९॥
रोग विशेषोंमें तैलोंकी उत्कृष्टता।
सर्वेषांतैलजातानांतिलतैलंविशिष्यते। बलार्थेस्नेहनेचाग्न्यमैरण्डन्तुविरेचने॥१०॥ सर्पिस्तैलंवसा-मज्जासर्वस्त्रेहोत्तमामताः। एभ्यश्चैवोत्तमंसर्पिः संस्कारस्यानुवर्त्तनात्॥११॥
चिकनाईके लिये मर्दन आदिसे बल बढानेको सबप्रकारके तेलोंमें तिलोंका तेल उत्तम होताहै। और जुलाबकराने के लिये एरंडतैल उत्तम होताहै॥१०॥ सबप्रकारके स्नेहोंगे–घी, तैलं, चरबी, मज्जा यह उत्तम होतेहैं। इन सबमें घी बहुत उत्तम है क्योंकि इसको यदि औषधियोंसे सिद्ध कियाजाय तो यह उन औषधियोंके गुणको भी करताहै और अपना गुण भी करता है॥११॥
घृतकेगुण।
घृतंपित्तानिलहरंरसशुक्रौजसांहितम्।
निर्वापणमृदुकरंस्वरवर्णप्रसादनम्॥१२॥
घृत–बात और पिसको नष्ट करताहै।रस, शुक्र, बल, इनको बढाता है, अग्निको मैदकरनेवाला, शरीरको मृदुकारक, स्वर तथा वर्णको प्रसन्न अर्थात् उज्ज्वल करनेवाला है॥१२॥
तैलके गुण।
मारुतघ्नंनचश्लेष्मवर्द्धनंबलवर्द्धनम्।
त्वच्यमुष्णंस्थिरकरंतैलंयोनित्रिशोधनम्॥१३॥
तैल–वातनाशक है, कफको बढाता नहीं, बलको बढानेवाला, और त्वचाको उत्तमं बनानेवाला, उष्ण, दृढकारक, और योनिको शुद्ध करता है॥१३॥
वसाके गुण।
विद्वभग्नाहतभ्रष्टयोनिकर्णशिरोरुजि।
पौरुषोपचयेस्त्रेहेव्यायामेचेष्यतेवसा॥१४॥
चरबी–छिदेहुए और कटेहुएमें हित करतीहै।योनिभ्रंश, कानका शूल, शिरपीडा, इनको दूर करती है। तथा पुरुषार्थकी वृद्धिकारक, चिकना करनेवाली, कसरतमें हितकारी है॥१४॥
मज्जाके गुण।
बलशुक्ररसश्लेष्ममेदोमज्जाविवर्द्धनः।
मज्जाविशेषतोऽस्थ्नाञ्चबलकृत्स्नेहनेहितः॥१५॥
मज्जा–बल, वीर्य, रस, कफ, मेद, मज्जा, इनको बढातीहै और विशेषतासे हांड्डेयोंमें बल देतीहै और चिकनाई करनेमें हित है॥१५॥
स्नेहपानका समय।
सर्पिश्शरदिपातव्यंवसामज्जाचमाधवे। तैलंप्रावृषिनात्युष्णं शीतस्त्रेहपिबेन्नरः॥१६॥वातपित्ताधिकेरात्रावुष्णेचापिपिबेन्नरः। श्लेष्माधिकेदिवाशीतेपिबेच्चामलभास्करे॥१७॥ अत्युष्णेवादिवापीतेवातपित्ताधिकेनच। मूर्च्छापिपासामुन्मादंकामलांवासमीरयेत्॥१८॥
घीका शरद ऋतुमें, चरबी और मज्जाका वसंतमें, तेलका वर्षामें उपयोग करे। औरजिस कालमें अधिक गर्मी तथा अधिक सर्दी न हो उस समय एरंडतेलको पीवे॥१६॥बात और पित्तकी अधिकतामें तथा गर्म ऋतुमें रात्रिके समय स्नेहपान करे। कफकी अधिकतामें और शीतकाल में निर्मल आकाश होनेपर दिनमें स्नेहपान करे॥१७॥ वात पित्त की अधिकतामें अतिगर्मीके समयमें दिनमें स्नेहपान करनेसेसूर्छा, प्यास, उन्माद, और कामलारोग होतेहैं॥१८॥
शीते रात्रौपिबेत्स्नेहंनरः श्लेष्माधिकोऽपिवा।
आनाहमरुचिंशूलंपाण्डुतांवासमृच्छति॥१९॥
कफकी अधिकतामें और शीतकालमें रात्रिके समय स्नेहपान करनेसे अफारा, अरुचि, शूल, पांडु रोग, यह रोग होते हैं॥१९॥
स्नेहपर अनुपान।
जलमुष्णंघृतेपेयंयूषस्तैलेऽनुशस्यते।
वसामज्जोऽस्तुमण्डःस्यात्सर्वेषूष्णमथाम्बुवा॥२०॥
घृतपान करके ऊपरसे गर्म जल पीना चाहिये। और तैल पीकर ऊपरसे मांसरस पीना चाहिये। वसा और मज्जाके पीछे मांड पीना चाहिये। अथवा सब स्नेहोंके पीछे गर्म जल पीवै॥२०॥
स्नेहकी विचारणा।
ओदनश्चविलेपीचरसोमांसंपयोदधि।यवागूःसूपशाकौचयूषः काम्बलिकःखडः॥२१॥ सक्तवस्तिलपिष्टञ्चमद्यंलेहास्तथैवच।भक्ष्यमभ्यञ्जनंवस्तिस्तथाचोत्तरबस्तयः॥२२॥ गण्डूषःकर्णतैलञ्चनस्तःकर्णाक्षितर्पणम्। चतुर्विंशतिरित्येताः स्नेहस्यप्रविचारणाः॥२३॥
भात आदि अन्न, गोइ, मांसरस, मांस, दूध, दही, यवागू, सूप, साग, कांवलिकयूष, षड्यूष, सत्तू, तिलपिष्टक, सुरा, अवलेह, सब प्रकारके भोजन, मालिश, वस्ति, उत्तरवस्ति, गंडूष, कानकी औषधी डालना, नस्य कर्म, कानका तर्पण, नेत्रतर्पण, इन भेदोंसे स्नेहकी चौबीस प्रकारकी विचारणा है॥२१॥२२॥२३॥
असंयुक्तस्त्रेहका वर्णन।
अच्छपेयस्तुयःस्त्रेहोनतमाहुर्विचारणाम्।
स्नेहस्यसभिषग्दृष्टःकल्पःप्राथमकल्पिकः॥२४॥
जो स्नेह किसी अन्य द्रव्यसे न मिला हो उसको विचारण नहीं कहते उसका नाम अच्छस्नेह है। और किसी अन्य द्रव्यके योगसे स्नेहको विचारणा कहतेहैं। अच्छस्नेह अर्थात् स्वच्छस्नेहको वैद्य लोग स्नेहका प्रथम कल्प मानतेहैं॥२४॥
स्नेहकी चौंसठ विचारणा।
रसैश्चोपहतःस्नेहःसमासव्यासयोगिभिः। षड्भिस्त्रिषष्टिधासंख्याःप्राप्नोत्येकश्चकेवलः॥२५॥ एवमेषाचतुःषष्टिःस्नेहानां प्रविचारणा। सात्म्यर्तुव्याधिपुरुषान्प्रयोज्याजानताभवेत्॥२६॥
** **मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय, इन छः रसोंके मिलाप, विकल्प और अंशयोगसे रसे5 ६३ प्रकारके होते हैं इन तिरसठोके संयोग भेदसे स्नेह भी ६३ प्रकार होतेहैं। और एक अच्छस्नेह (केवल स्रेहमात्र ) है इस प्रकार रस संयोगभेदसे ६३ और विना किसी संयोगसे केवल एक यह सव मिलाकर स्नेहकी ६४ प्रकारकी विचारणा हुई, स्नेहके प्रकरण और प्रयोगको जाननेवाला वैद्य शरीरका सात्म्य, ऋतु भेद, व्याधि, मनुष्यका बलाऽवल विचारकर स्नेहका प्रयोग करे॥२५॥२६॥
मात्राओंका वर्णन।
अहोरात्रमहःकृत्स्नमर्द्धाहञ्चप्रतीक्ष्यते। प्रधानामध्यमाह्रस्वास्नेहमात्राजरांप्रति॥२७॥ इतितिस्रः- समुद्दिष्टामात्राःस्नेहस्यमानतः । तासांप्रयोगान्वक्ष्यामिपुरुषंपुरुषंप्रति॥२८॥
प्रधानमात्रा मध्यम मात्रा हस्वमात्रा इन भेदोंसे स्नेहोंकी मात्रा (खुराक) तीनप्रकारकी होतीहै। जो मात्रा एकदिन रातमें परिपाकको प्राप्त हो उसको प्रधान मात्रा कहतेहैं। जो केवल दिन में ही पाचन होजाय उसको मध्यम मात्रा कहतेहैं। जो आधे दिनमें ही पाचन होजाय उसको हस्वमात्रा कहतेहैं। अब उन स्त्रही मात्राओंको पुरुषभेदसे कथन करतेहैं॥२७॥२८
उत्तममात्राके योग्य पुरुष।
प्रभूतस्नेहनित्यायेक्षुत्पिपासासहानराः। पावकश्चोत्तमबलोयेषांयेचोत्तमाबले॥२९॥ गुल्मिनः सर्पदष्टाश्चविसर्पोपहताश्चये। उन्मत्ताःकृच्छ्रमूत्राश्चगाढवर्चसएवच॥३०॥
जो मनुष्य स्नेहपीने के अभ्यासवाले हों, जो भूख प्यासके सहन करनेकी शक्तिवाले हों, जिसकी जठराग्नि उत्तम बलवान् हो, जो शरीरमें बलिष्ठ हो, गुल्मरोगवाला, सांपका काटाहुआ, विसर्परोगवाला, उन्मत्त, मूत्रकृच्छ्रयुक्त, और जिसका मल कठोर हो, इन उपरोक्त मनुष्यको स्नेहकी प्रधान मात्रा देनी उचित है॥२९॥३०॥
प्रधानमात्राके गुण।
पिबेयुरुत्तमांमात्रांतस्याःपानेगुणाञ्शृणु। विकाराञ्ञ्जमयत्येषा शीघ्रंसम्यक्प्रयोजिता॥३१॥ दोषानुकर्षिणीमात्रासर्वमार्गानुसारिणी। वल्यापुनर्नवकरीशरीरेन्द्रियचेतसाम्॥३२॥
** **इन मनुष्योंको प्रधान मात्रासे स्नेह पान करानेसे जो गुण होतेहैं सो सुनो। इस प्रधानमात्राका विधिसे प्रयोग किया हुआ सब विकारोंको शीघ्र नष्ट करताहै।बढेहुए दोषोंको खींचकर निकालदेता है। शरीरके सब छिद्रोंमें स्नेहका प्रवेश होजाताहै, शरीरका बल बढ़ता है और शरीर, मन, इंद्रियें इनमें नवीनता आजातीहै॥३१॥३२॥
मध्यममात्राके योग्य पुरुष।
अरुष्कस्फोटपीडकाकण्डुपामाभिरर्दिताः। कुष्ठिनश्चप्रसूढाश्च चातशोणितकाञ्चये॥३३॥ नातिबहाशिनश्चैवमृदुकोष्ठास्तथैवच। पिबेयुर्मध्यमांमात्रांमध्यमाश्चापियेबले॥३४॥मात्रैषामन्द-विभ्रंशानचातिबलहारिणी। सुखेनचस्नेहयतिशोधनार्थेचयुज्यते॥३५॥
और पिडिका, विस्फोटक, अरुषिका, खाज, पामा कुष्ठ, प्रमेह, वातरक्त, इन रोगोंसे पीडितोंको तथा सामान्य आहार करनेवालको, मृदुकोष्ठयुक्तोंको और साधारण बलवालोको स्नेहकी मध्यम मात्रा देनी चाहिये, क्योंकि मध्यम मात्रा न तो अधिक विरेचन करती है और न शरीरमें अधिक शिथिलता लाती है। यह मात्रा विना किसी तकलीफके स्नेहन करनेवाली है और शोधनके लिये प्रयुक्त कीजाती है॥३३॥॥३४॥ ३५॥
ह्रस्वमात्राके योग्य पुरुष।
येतुवृद्धाश्चबालाश्चसुकुमाराःसुखोचिताः। रिक्तकोष्ठत्वमहितं येषांमन्दाग्नयश्चये॥३६॥ ज्वरातीसारकासश्चयेषांचिरसमुस्थितः। स्नेहमात्रांपिबेयुस्तेह्रस्वांयेचावराबले॥३७॥ परिहारेसुखाचैषामात्रास्त्रेहनबृंहणी।वृष्यावल्यानिराबाधाचिरञ्चाप्यनुवर्त्तते॥३८॥
इसीप्रकार अतिवृद्ध, बालक, सुकुमार, सुखमें रहनेवाले, जिनका कोष्ठ अहितकारी विरेचनसे खाली हो, मंदाग्निवाले, ज्वर, अतिसार, खांसी, यह जिनको बहुत दिनोंसे हों, जो बलहीन हैं, इन सबको स्नेहकी ह्रस्वमात्रा पिलानी चाहिये। यह मात्रा इन मनुव्योंको सुख देनेवाली है, अंतमे कष्ट नहीं देती शरीरको चिकना करतीहै। वीर्य और बलको बढातीहै।बहुत काल सेवन करनेसे भी कोई कष्ट नहीं देती ( इस समय ह्रस्वमात्रा हीं बहुतसे लोगोको हितकर होती है )॥३६॥३७॥३८॥
घृतपानके योग्य व्यक्ति ।
वातपित्तप्रकृतयोवातपित्तविकारिणः। चक्षुःकामाःक्षताः क्षीणावृद्धाबालास्तथाबलाः॥३९॥ आयुःप्रकर्षकामाश्चबलवर्णस्वरार्थिनः। पुष्टिकामाःप्रजाकामाःसौकुमार्य्यार्थिनश्चये॥४०॥ दीप्त्योजःस्मृतिमेधाग्निबुद्धीन्द्रियबलार्थिनः। पिबेयुःसर्पिरार्त्ताश्चदाहशस्त्रविषाग्निभिः॥४१॥
** **बात और पित्तंकी प्रकृतिवालेको, वात पित्त के विकारियोंको, दृष्टिकी शक्तिकी इच्छावालेको, क्षत और क्षीणको, वृद्धको बालकको, दुर्बलको, दीर्घायु की इच्छावालेको, बल, वर्ण और स्वरके उत्तम करनेको, पृष्टता की इच्छावालेको, संततिकी कामनावालेको, सुकुमारताकी इच्छावालेको, कांति, ओज, स्मरणशक्ति, मेधा, अग्नि, बुद्धिऔर इंद्रियोंके बलकी इच्छावालेको, दाह शस्त्र, विष, अग्नि, इनसे पीडितको घृतपान करना बहुत उत्तम है॥३९॥४०॥४१॥
तैलपानके योग्य व्यक्ति।
प्रवृद्धश्लेष्ममेदस्काश्चलस्थूलगलोदराः।वातव्याधिभिराविष्टावातप्रकृतयश्चये॥४२॥ बलंतनुत्वंलघुतांदृढतांस्थिरगात्रताम्। स्निग्धश्लक्ष्णतनुत्वक्तांयेचकांक्षन्तिदेहिनः॥४३॥कृमिकोष्ठाःक्रूरकोष्ठास्तथानाडीभिरर्दिताः। पिवेयुःशीतले कालेतैलंतैलोचिताश्चये॥४४॥
कफ और चरबी जिनकी बढीहुई हो, जिनका गला और पेट स्थूल हो तथा हिलता हो, जो वातव्याधिसे पीडित हों, वातके स्वभाववाले हों, तथा वल, तनुता, हलकापन, दृढता, अंगोंकी मजबूती, चिकनाहट श्लक्ष्णतायुक्त शरीर और त्वचाको करना चाहते हों, और जिनके कोष्ठमं कृमि हों तथा कठिन कोष्ठ वाले, नासूर तथा नाडीरोगस पीडित, और भी जो तैलयोग्य मनुष्य हां अथवा तैलपान या तैलमर्दन के अभ्यासवाले हों उनको शीतकालमें उचित मात्रासे तैलपान करना हितकारी है॥४२॥॥४३॥४४॥
वसापानके योग्यपुरुष।
वातातपसहायेचरूक्षाभाराध्वकर्षिताः। संशुष्करेतोरुधिरानिष्फीतकफमेदसः॥४५॥ अस्थिसन्धिशिरास्त्रायुमर्मकोष्ठमहारुजः। बलवान्मारुतोयेषांखानिचावृत्यतिष्ठति॥४६॥ महच्चाग्निवलंयेषांवसासात्म्याश्चयेनराः। तेषांस्नेहयितव्यानां वसापानविधीयते॥४७॥
जो मनुष्य वायु और धूप सहसकते हों, रूक्ष शरीवाले, भार उठाने तथा रास्ता चलनेसे कृश हुए हों, जिनका वीर्य और रक्त क्षीण होगयाहो, जिनके शरीरमेंसे कफ और मेद नष्ट होचुका हो, जिनके अस्थि, संधि, शिरा, स्नायु, मर्मस्थान तथा कोष्ठपीडायुक्त हों,जिनके शरीरके छिद्रोंको बढे हुए वायुने आवृत करलियाहो, जिनकाअग्नि और बल उत्तम हो तथा जो चरखी पीनेके अभ्यासवाले हों। उन स्नेहयोग्यं मनुष्योंको वसापान करना चाहिये॥४५॥४६ ४७॥
मज्जापानके योग्य पुरुष।
दीप्ताग्नयःक्लेशसहाघस्मराः स्नेहसेविनः।
वातार्त्ताः क्रूरकोष्ठाश्चस्नेह्यामज्जानमाप्नुयुः॥४८॥
जिनकी अग्नि बलवान् हो, जो क्लेश सहसकते हों, बहुत खाते हों, स्नेहके अभ्यासवाले हों, वातसे पीडित हों, कठिन कोष्टवाले हो स्नेहन योग्य हों ऐसे मनुष्योंको मज्जा का प्रयोग करावे॥४८॥
स्नेहपान की अवधि।
येभ्योयेभ्योहितोयोयःस्नेहःसपरिकीर्तितः।
स्नेहनस्यप्रकर्षौतुसप्तरात्रत्रिरात्रकौ॥४९॥
जिन मनुष्योंको जो जो स्नेह हितकारी हों उनका कथन कियागया है। स्नेहकर्ममें स्नेहकी अधिकता होनेसे या न्यूनता होनेसे सात दिन या तीन दिनके अंतरसे स्नेहपान
करावे॥४९॥
स्नेहकर्मके योग्य पुरुष।
स्वेद्याः शोधयितव्याश्चरूक्षवातविकारिणः।
व्यायाममद्यस्त्रीनित्याःस्नेह्याःस्युर्येचचिन्तकाः॥५०॥
रूक्ष वायुकी व्याधिवालोंको पसीना लावै, तथा स्वेदन करे एवं कसरत करनेवालेमद्यपान करनेवाले, नित्य स्त्रीगमन करनेवाले, और जिनको शोचने विचारनेका कामअधिक रहता हो वह मनुष्य स्नेहन करने योग्य हैं॥५०॥
स्नेहकर्म के अयोग्य व्यक्ति।
संशोधनादृयेषांरूक्षणंसंप्रवक्ष्यते। नतेषांस्नेहनंशस्तमुत्सन्नकफमेदसाम्॥५१॥ अभिष्यन्दानन-गुदानित्यमन्दाग्नयश्चये। तृषासूर्च्छापरीताश्चगर्भिण्यस्तालुशोषिणः॥५२॥ अन्नद्विषश्छर्दयन्तो-जठरामगरार्दिताः। दुर्बलाश्चप्रतान्ताश्चस्नेहग्लानामदातुराः॥५३॥ नस्नेह्यावर्त्तमानेषुननस्तोवस्ति-कर्म्मसु। स्नेहपानात्प्रजायन्तेतेषांरोगाःसुदारुणाः॥५४॥
जिन मनुष्योंको संशोधन नहीं करना और रूक्षण करना है अर्थात् जो मनुष्य रूक्षण करनेके योग्य हैं उनको स्नेहपान कराना हितकर नहीं है ।कफप्रकृतिवालेको और भेदवालेको भी स्नेहन नहीं करना। एवं जिनके मुखसे और गुदासे स्राव होताहै,जो मंदाग्निवाले हों, तृष्णा तथा मूर्छायुक्त हों, जो गर्भवती हो उनको तथा तालुशोयमें, अरुचिमें, वमनमें, उदररोगमें, आमदोष तथा गरदोषमें, दुर्बल, बहुत कृश, स्नेहपानसे ग्लानि माननेवालेको, मदात्ययवालेको, नस्यकर्म कियेहुएको वस्तिकर्म कियेहएको स्नेहपान करना उचित नहीं। यदि इनको स्नेहपान करावे तो दारुण रोग उत्पन्न होजातेहैं॥५१॥५२॥५३॥५४॥
अस्निग्धके लक्षण।
पुरीषंग्रथितंरूक्षंवायुरप्रगणोमृदुः।
पक्ताखरत्वंरौक्ष्यञ्चगात्रस्यास्निग्धलक्षणम्॥५५॥
स्नेहन न होनेके यह लक्षण होते हैं। जैसे–मलका गांठदार और रूक्ष होना, वायुका विलोम होना, अग्निका मंद होना, पाचक, देह कठोर और रूक्ष होना॥५५॥
सम्यक स्निग्धके लक्षण।
वातानुलोम्यंदीप्तोग्निर्वर्चःस्निग्धमसंहतम्।
मार्द्दवंस्निग्धताचाङ्गेस्निग्धानामुपजायते॥५६॥
ठीक स्नेहन हुए मनुष्यके वायुका ठीक अनुलोमन होना, आने चैतन्य होना, मल गांठरहित स्निग्ध होना, शरीरमें नम्रता तथा चिकनाहट होना यह लक्षण होतेहैं॥५६॥
अतिस्निग्धके लक्षण।
पाण्डुतागौरवंजाड्यंपुरीषस्याविपक्वता।
तन्द्राह्यरुचिरुत्क्लेशःस्यादतिस्निग्धलक्षणम्॥५७॥
अत्यंत स्नेहन होनेसे–पांडु, गुरुता, जडता, मलका कच्चा गिरना, तंद्रा, अरुचि,जी मचलाना, यह लक्षण होते हैं॥५७॥
स्नेहपानके पूर्व कर्तव्यं कर्म।
द्रवोष्णमनभिष्यन्दिभोज्यमन्नंप्रमाणतः।
नातिस्निग्धमसंकीर्णश्वःस्नेहपातुमिच्छता॥५८॥
स्नेहपान करनेसे पहले दिन पतला, उष्ण, हलका थोडीसी चिकनाईयुक्त खिचडी आदि प्रमाणसे भोजन करे॥५८॥
स्नेहपान के पश्चात्कर्म ।
पिबेत्संशमनंस्नेहमन्नकालेप्रकांक्षितः।
शुद्ध्यर्थंपुनराहारेनैशेजीर्णेपिबेन्नरः॥५९॥
संशमन स्नेह अर्थात् वातकी शांतिके लिये भोजनके समय पान करे। जब रातका किया भोजन पचचुकाहो उस समय ( प्रातःकाल ) संशोधन स्नेहपान करे॥५९॥
पीतस्नेहव्यक्ति के कर्तव्य कर्म।
उष्णोदकोपचारीस्याद्ब्रह्मचारीक्षपाशयः। शकुन्मूत्रानिलोद्गारानुदीर्णाश्चनधारयेत्॥६०॥ व्यायाममुच्चैर्वचनंक्रोधशोकौहिमातपौ। वर्जयेदप्रवातञ्चसेवेतशयनासनम्॥६१॥
स्नेहपान करके गरम पानी पीना चाहिये। और इंद्रियोको वशमे रक्खे।दिनमें न सोवे। मल, मूत्र, और डकारके वेगको न रोके। व्यायाम, ऊंचा बोलना, क्रोध, शोक, हिम, धूप, इनको त्यागदेवे जिस स्थानमें अधिक पवन न लगतीहो उसमें बैठे और शयन करे॥६०॥६१॥
अधिक स्नेहपानके दोष।
स्नेहंपीत्वानरःस्नेहंप्रतिभुञ्जानएव च।
स्नेहमिथ्योपचाराद्धिजायन्तेदारुणागदाः॥६२॥
जब तक पहला स्नेहपान किया हुआ जीर्ण न होलेवे उसके ऊपर फिर स्नेह नहीं पीना चाहिये। यदि उसके ऊपर फिर स्नेहपान करे तो इस मिथ्या उपचारसे अनेक दारुण रोग उत्पन्न होतेहैं॥६२॥
कोष्ठानुसार स्नेहपानविधि।
सुदुकोष्ठस्त्रिरात्रेणस्निह्यत्यच्छोपसेवया।
स्निह्यतिक्रूरकोष्ठस्तुसप्तरात्रेणमानवः॥६३॥
जिस मनुष्यका कोष्ठ नग्म होता है वह तीन दिन अच्छा स्नेहपान करनेसे स्निग्ध होजाता है। और क्रूर कोष्ठवाला सात दिन स्नेहपान करनेसे स्निग्ध होता है॥६३॥
मृदुक्रोष्ठव्यक्तिके विरेचन द्रव्य।
गुडमिक्षुरसंमस्तुक्षीरमुल्लोडितंदधि। पायसंकृसरंसर्पिः काश्मर्य्यत्रिफलारसम्॥६४॥ द्राक्षारसंपीलुरसंजलमुष्णमथापिवा। मद्यंवातरुणंपीत्वामृदुकोष्ठोविरिच्यते॥६५॥ विरेचयन्ति-नैतानिक्रूरकोष्ठंकदाचन। भवतिक्रूरकोष्ठस्यग्रहण्यत्युल्वणानिला॥६६॥
गुड, इक्षरस, दहीका पानी, दूध, अधबिलोया दही, खीर, कृसरा, घी, काश्मरीके फलोंका क्वाथ, त्रिफलेका क्वाथ, मुनक्काका क्वथ, पीलूका क्वाथ, अथवा गर्म जल, इनकेपनिसे ही मृदुकोठेवालेको विरेचन होजाता है। परंतु क्रूर कांठेशलेको इन वस्तुओंसे विरेचन नहीं होता क्योंकि क्रूर कोष्ठवाकी ग्रहणीकला वातप्रधान होती है इसीलिये कोष्ठमें क्रूरता और वातजन्य रूक्षता होनेसे विरेचन नहीं होता॥६४॥६५॥६६॥
मृदुकोष्ठके लक्षण।
उदीर्णपित्ताल्पकफाग्रहणमन्दमारुता।
मुदुकोष्ठस्यतस्मात्ससुविरेच्योनरःस्मृतः॥६७॥
जिसकी ग्रहणीकलामें पित्त प्रधान है और कफ अल्प तथा वायु मंद है उसका
कोष्ठ मृदु ( नरम ) होता है । इसलिये उसको सहजमें ही विरेचन होसकता है \।\।
६७ ॥
सेहयुक्त अग्निका तीव्रत्व।
उदीर्णपित्ताग्रहणीयस्यचाग्निबलंमहत्। भस्मीभवतितस्याशुस्नेहःपीतोऽग्नितेजसा॥६८॥ सजग्ध्वास्नेहमात्रांतामोजःप्रक्षालयन्वली। स्नेहाग्निरुत्तमांतृष्णांसोपसर्गामुदीरयेत्॥६९॥ बालंस्नेहसमृद्धस्यशमायान्नंसुगुर्वपि। सचेत्सुशीतंसलिलं नासादयतिदह्यते॥७०॥ यथैवाशीविषःकक्षमध्यगःस्वविषाग्निना॥७१॥
जिस मनुष्यकी ग्रहणीकलामें पित्त बहुत बढाहुआ है और अग्निका वल अधिक वह मनुष्य यदि स्नेह पीवे तो अग्निके बलसे वह स्नेह भस्म होजाताहै।फिर वह बढाहुआ अग्नि स्नेहको जलाकर शरीरके ओजतेजको दहन करने लगताहै और घोर व्यासको प्रगट करता है, उस समय स्नेहसे बढे हुए अग्निमें भारी अन्न भी बहुत नहीं होता अर्थात् उस भस्मकाग्निमें यदि भारी भोजन और शीतल जल न दिया जाय तो वह शरीरकी धातुओंको ऐसे दहन करदेताहै जैसे कक्षामें स्थित आशीविष अपने विषरूप अग्निसे दहन करदेता है॥६८॥६९॥७०॥७१॥
अजीर्ण स्नेहपानमें उपाय।
अजीर्णेयदितुस्नेहेतुषास्याच्छर्द्दयेद्भिषक्॥ शीतोदकंपुनःपीत्वाभुक्त्वारूक्षान्नमुल्लिखेत्॥७२॥ नसर्पिःकेवलेपित्तेपेयंसामेविशेषतः॥ सर्वंह्यनुचरेद्देहंहत्वासंज्ञाञ्चमारयेत्॥७३॥
जब तक स्नेह जीर्ण न हुआ हो और तृषा आदि उपद्रव न बढगये हों तब तक शीघ्र छर्दन करादेवे और शीतल जल पिलावे।तथा रूक्ष भोजन कराके फिर छर्दन करावे॥७२॥ केवल पित्तमें और आमसहित पित्तमें विशेष करके घृतपान न करे, क्योंकि वह स्नेह सर्वशरीरमें व्याप्त होकर संज्ञाको नष्ट करदेताहै और मृत्यु तक करदेताहै॥७३॥
स्नेहभ्रमके उपद्रव।
** तन्द्रासोतक्लेशआनाहोज्वरःस्तम्भोविसंज्ञता। कोष्ठानिकण्डूःपाण्डुत्वंशोफार्शांस्यरुचिस्तृषा।जठरंग्रहणी-दोषःस्तैमित्यंवाक्यनिग्रहः॥ ७४ ॥ शूलमामप्रदोषाश्चजायन्तेस्नेहविभ्रमात्। तत्राप्युल्लेखनंशस्तंस्वेदःकालप्र-तीक्षणम्॥ ७९ ॥ प्रतिपत्तिर्व्याधिबलंबुद्ध्वास्रंसनमेवच।तक्रारिष्टप्रयोगश्चरूक्षपानान्नसेवनम्॥ मूत्राणांत्रिफ-लायाश्चस्नेहव्यापत्तिभेषजम्॥ ७६ ॥ अकालेचाहितश्चैवमात्रयानचयोजितः॥ ७७ ॥**
स्नेहपान में कुपथ्य होनेसे–तंद्रा, उत्क्लेश, अफारा, ज्वर, स्तंभ, वेहोशी, कुष्ठ, खुजली, शोथ, अर्श, अरुचि, प्यास, उदररोग, ग्रहणीदोष, देहमें गीलापनसा, वाणीका स्तंभन होना, शूल, आमदोष यह उपद्रव होतेहैं। यहां पर भी वमन कराना अथवा स्वेद स्नेह होय तो जीर्ण होनेकी प्रतीक्षा करना और व्याधिका बलाऽबल विचारकर दोषको निकालो तथा तक्र, अरिष्ट, रूक्ष अन्न पान तथा गोमूत्र, वा त्रिफलाका सेवन करना हितकारी है विना समय अथवा अहितकारी या अतिमात्रासे स्नेहपान करनेसे अथवा स्नेहपान के मिथ्या योग होनेसे स्नेहव्यापत्ति ( स्नेहसे प्रगट रोग ) होते हैं॥७४-७७॥
स्नेहपानमें विरेचनविधि।
** स्नेहोमिथ्योपचाराच्चव्यापद्येतातिसेवितः। स्नेहात्प्रस्कन्दनोजन्तुस्त्रिरात्रोपरतःपिबेत्॥ ७८ ॥ स्नेहञ्चद्रवमुष्ण-ञ्चत्र्यहं भुक्त्वारसौदनम्। एकाहोपरतस्तद्वद्भुक्त्वाप्रच्छर्द्दनंपिबेत्॥ ७९ ॥**
विना विधि स्नेहपानसे यदि रोगादि होय तो तीन दिन स्नेहको त्यागदेवे और मांसग्स तथा अन्न भोजन करे फिर चौथे दिन बहुतसे स्नेहको द्रव और गर्म पदार्थोंमेंमिलाकर पीदै।अथवा वमन करादेवे और एक दिन ठहर कर फिर स्नेह पीवे। संशोधन स्नेह पीकर जैसे विरेचनके दिन गर्म जल आदि पीते हैं वैसा उपचार करे॥७८॥७९॥
स्यात्तुसंशोधनार्थायवृत्तिःस्नेहेविरिक्तिवत्। स्नेहद्विषःस्नेहनित्यामृदुकोष्ठाश्चयेनराः॥ क्लेशासहामद्यनित्यास्तेषामिष्टाविचारणा॥८०॥ लावतैत्तिरिमायूरहंसवाराहकौक्कुटाः॥८१॥ गव्यजोरभ्रमात्स्याश्चरसाःस्वेस्नेहनेहिताः॥८२॥
जिसको स्नेहपानसे द्वेष हो, जो सदैव स्नेह पीताहो, जो मृदुकोष्ठवाला हो, जो वलेशको सहन करनेवाला हो, जो नित्य मद्य पीताहो, इनको विचारणास्नेह (किसी रसआदि योगसे ) पानकरना चाहिये। ऐसे मौके पर गौके दूध अथवा लवा, तीतर, भोर, सूकर, मुरगा, बकरी, मेढा, मछली इनके मांसरस के संयोगसे स्नेहपान करावे॥८०॥८१॥८२॥
स्नेहमें मिलानेयोग्य यूष।और यूषके द्रव्य।
यवकोलकुकत्थाश्चस्नेहाःसगुडशर्कराः॥
दाडिमंदधिसव्योषंरससंयोगसंग्रहः।
स्नेहयन्तितिलाःपूर्वंजग्धाःसस्नेहफाणिताः॥८३॥
और जो, बेर, कुलथी इनके यूप। गुड, खांड, अनारका रस, दही, और त्रिकुटा इनके योगसे स्नेहपान करावे, इस प्रकार स्नेहके योगका संग्रह कहाहै।तिल, स्नेह, फाणित, इनका मिलाकर भोजन से पहले सेवन करे तो शरीरको चिकना करतेहैं॥८३॥
कुशराश्चबहुस्नेहास्तिलकाम्बलिकास्तथा। फाणितंशृङ्गवेरश्चतैलञ्चसुरयासह॥८४॥ पिबेद्रूक्षोघृतैर्मांसैर्जीर्णेऽश्रीयाच्च भोजनम्। तैलंसुरायामण्डेनवसांमज्जानमेववा॥८५॥ पिबेत्सफाणितंक्षीरंनरःस्निह्यतिवातिकः। धारोष्णंस्नेहसंयुक्तंपीत्वासशर्करंपयः॥८६॥
खिचडी तिल कांबलिक बहुतसे स्नेहको साथ सेवन करनेसे शरीर चिकना होताहै।एवं–फाणित, सोंठ, तैल, सुरा, इनको मिलाकर पीवे, जीर्ण होनेपर घृत और मांसरससे भोजन करे तो रूक्ष शरीर भी स्निग्ध होय। वातप्रधान मनुष्य वारुणीमंडक साथ तैल मिलाके पीवे अथवा केवल वसा और मज्जाको पानकरे॥८४॥८५॥ अथवा फाणितके साथ दूध पीनेसे वातप्रधान मनुष्यका शरीर चिकना होताहै। अथवा धारोष्णदूध, घृत और खांड मिलाके पीवे॥८६॥
स्निग्धकरना।
नरःस्निह्यतिपीत्वावासरंदध्नःसफाणितम्। पाञ्चप्रकृतिकीपेयापायसोमाषमिश्रकः॥८७॥ क्षीर-सिद्धोबहुस्नेहःस्नेहयेदचिरान्नरम्।सर्पिस्तैलवसामज्जातण्डुलप्रसृतैःकृता॥८८॥ पाञ्चप्रसृतिकी-पेयापेयास्नेहनमिच्छता।ग्राम्यानूपोदकंमांसं गुडंदधिपयस्तिलान्॥८९॥ कुष्ठीशोषीप्रमेहीच- स्नेहनेनप्रयोजयेत्। स्नेहैर्यथास्वंतान्सिद्धैःस्नेहयेदविकारिभिः॥१०॥
अथवा दहीकी मलाई और फाणितके पीनेसे मनुष्य स्निग्ध होजाताहै। अथवा आगे कहीहुई पांच प्रतिपेया या दूधमे सिद्ध की हुई उडदोकी खीर अत्यंत चिकनी हानेसे मनुष्यको शीघ्र स्निग्ध करदेतहै। घी, तेल, वसा, मज्जा और चावलोंको दोछटांक लेकर इकट्ठेकर पकावे इसको पांचप्रकृतिकी पेया कहते हैं अपने शरीरको चिकना करनेकी इच्छाकरनेवाला इस पेयाको पीवे। कोढी, शोथवाला, प्रमेहरोगी, स्नेहनके लिये ग्राम्य और अनूप संचारी जीवोंके मांसरस तथा जलसंचारी मांस अथवा गुड़, दही, दूध, और तिलोंका प्रयोग न करे क्योकि यह इनके रोगोंको बढातेहैं एवं विकाररहित मनुष्योंको विकाररहित अनुकूल उचित द्रव्योंसे सिद्धकर स्नेहपान करावे॥८७॥८८॥८९॥९०॥
पिप्पलीभिर्हरीतक्यासिद्धेस्त्रिफलयापिवा। द्राक्षामलकयूषाभ्यांदध्नाचाम्लेनसाधयेत्॥९१॥
उनको–पीपल, हरड, और त्रिफलाके साथ सिद्ध कर अथवा ऑवले और द्राक्षाके रस या कांजीके साथ सिद्ध कर त्रिकुटा बुरकाकर स्नेहपान करावे तो मनुष्य स्निग्ध हो॥९९॥
व्योषगर्भंभिषक्स्नेहंपीत्वास्निह्यतितन्नरः। यवकोलकुत्थानां रसाःक्षीरंसुरादधि॥९२॥ क्षीरः- सर्पिश्चतत्सिद्धंस्नेहनीयंघृतोत्तमम्। तेलमज्जावसासर्पिर्बदरत्रिफलारसैः॥९३॥ योनिशुक्रप्रदोषेषुसाधयित्वाप्रयोजयेत्।गृह्णात्यम्बुयथावस्त्रंप्रस्त्रवत्यधिकंयथा॥९४॥ यथाग्निर्जीर्य्यतिस्नेहस्तथास्रवतिचाधिकः। यथावाक्लेद्यमृत्पिण्डमासिक्तंत्वरयाजलम्।स्त्रवतिस्रंसते स्नेहस्तथात्वरितसेवितः॥१५॥
जो, बेर और कुलथीका यूष, दूध, मद्य, दही, एवं दूधका निकाला घृत इनसे सिद्ध किया घृत सब उत्तम स्नेहन है। तैल, मज्जा, वसा, घी, बेर, और त्रिफलाको क्वायसे सिद्ध स्नेह योनि और शुक्रके दोषोंमें प्रयुक्त करे।जैसे वस्त्र परिमाणके अलको ग्रहण करके अधिकको छोड़ देता है, ऐसे ही मनुष्यकी जठराग्नि परिमाणका स्नेह ग्रहण कर बाकीको मलद्वारसे निकालदेती है। जैसी मट्टीके डलैमें अधिक पानी पडनेसे उसको भिगोकर अधिक पानी बाहर चला जाताहै। ऐसे ही मनुष्यके शरीरमें अधिक स्नेहं जीर्ण न होकर झट बाहर निकल जाता है॥९२॥९३॥९४॥९५॥
लवणोपहिताःस्नेहाःस्नेहयन्त्यचिरान्नरम्। तद्ध्यभिष्यन्द्यरूक्षञ्चसूक्ष्ममुष्णंव्यवायिच॥९६॥ स्नेहमग्रेप्रयुञ्जीतततःस्त्रेदमनन्तरम्॥स्नेहस्वेदोपपन्नस्यसंशोधनमथेतररामिति॥९७॥
लवणके संयोगसे स्नेहपान किया हुआ मनुष्यको शीघ्र स्नेहन कर देता है। वह अभिष्यन्दि, सूक्ष्म, उष्ण और शीघ्र व्यापक होजाताहै। पहले स्नेहन, फिर स्वेदन, फिर वमन तदनंतर विरेचन सबसे पीछे नस्य कर्म आदिसे शिरोविरेचन करे। (परंतु स्नेहन वातरोग में ही हित है। सन्निपातादिकमें रूक्षस्वेदन करे )॥९६॥९७॥
अध्यायकासंक्षिप्त वर्णन।
तत्रश्लोकः॥
स्नेहःस्नेहविधिःकृत्स्नव्यापत्सिद्धिःसभेषजा।
यथाप्रश्नंभगवताव्याहृतंचान्द्रभागिना॥१८॥
स्नेहाध्यायः समाप्तः ।
इस स्नेहाध्याय में स्नेहके प्रकार, स्नेहविधि, स्नेहके मिथ्यायोगसे रोगोंका होना उनकी औषधि जैसे अग्निवेशने पूछा तदनुसार उनके उत्तर भगवान् आत्रेजीयने कथन किये॥९८॥
इति श्रीमहर्षि चरकप्रणीतायुर्वेदीयसहिताया पटियालाराज्यांतर्गतटकसालग्राम निवासिवैद्य-
पंचानन पं० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां
स्नेहाध्यायो नाम त्रयोदशोध्यायः॥१३॥
__________
चतुर्दशोऽध्यायः।
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अथातःस्वेदाध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम स्वेदाध्यायका कथन करतेहैं।ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहने लगे।
स्वेदनकर्मका यत्न।
अतःस्वेदाःप्रवक्ष्यन्तेयैर्यथावत्प्रयोजितैः।
स्वेदसाध्याःप्रशाम्यन्तिगदावातकफात्मकाः॥१॥
अब हम स्वेदोंका कथन करतेहैं जिन स्वेदोके ठीकै २ प्रयोग करनेसे स्वेदसाध्य वातकफात्मक रोग शीघ्र शांत होतेहैं॥१॥
स्वेदनसे रोगशान्तिमें दृष्टान्त।
स्नेहपूर्वप्रयुक्तेनस्वेदेनावर्जितेऽनिले।
पुरीषमूत्ररेतांसिनसज्जन्तिकथञ्चन॥२॥
प्रथम स्नेहन करके यदि स्वेदन करदिया जाताहै तो उससे शरीरका वायु शांत होजाता है इसलिये मल,मूत्र, शुक्र, यह विना श्रम निकल जातेहैं॥२॥
शुष्काण्यपिहिकाष्ठानिस्नेहस्वेदोपपादनैः।
नमयन्तियथान्यायंकिंपुनर्जीवतोनरान्॥३॥
सूखी लकडीभी चिकनाईका योग देकर स्वेदन करनेसे नमजाती है, यदि जीवित मनुष्य स्नेहन स्वेदन द्वारा नम्र होजाय तो आश्चर्य ही क्या है॥३॥
स्वेदन से कार्यसिद्धि।
रोगर्त्तव्यधितापेक्षोनात्युष्णोऽतिमृदुर्नच।
द्रव्यवान्कल्पितोदेशेस्वेदःकार्य्यकरोमतः॥४॥
जैसा रोग और ऋतु हो अथवा अन्य कोई भी व्याधि हो उसमें उस रोगके लिये जैसा स्वेद उचित हो वैसा विचारकर करे। विना विचारे अत्यंत तेज या अत्यंत मंद स्वेद न देवे। देश काल औषधि विचारकर उचित स्थानमें स्वेद दिया हुआ गुणकारी होता है॥४॥
स्वेदनके भेद।
व्याधौशीतेशरीरेचमहान्स्वेदोमहाबले।
दुर्बलेदुर्बलःस्वेदोमध्यमेमध्यमोहितः॥५॥
जब रोगसे शरीर शीतल पडजाय उसमें गर्मी रोममार्गसे न आती हो अथवा शीत आदिसे शरीर जकडजाय तो अवश्य स्वेदन करना चाहिये। यदि व्याधि बलबती हो तो स्वेद भी वैसा ही अधिक बलवाला देना चाहिये। दुर्वल रोगमें दुर्वछ स्वेद करना और मध्यबल रोगमें स्वेद भी मध्यम ही करना चाहिये॥५॥
रोगानुसार स्वेदनविधि।
वातश्लेष्मणिवातेवाकफेवास्वेदइष्यते।
स्निग्धरूक्षस्तथास्निग्धोऽरूक्षश्चाप्युपकल्पितः॥६॥
वात कफ की व्याधिमें स्निग्ध, रूक्ष, स्वेद करना चाहिये वातव्याधिमें स्निग्ध स्वेद करना चाहिये। और कफकी व्याधिमें रूक्ष स्वेद करना चाहिये॥६॥
आमाशयगतेवातेकफेपक्वाशयाश्रिते।
रूक्षपूर्वोहितः स्वेदः स्नेहपूर्वस्तथैवच॥७॥
** **वात आमाशयमें प्राप्तहो तो पहले रूक्ष फिर स्निग्ध स्वेद करे क्योंकि आमाशय कफका स्थान होताहै। इसी प्रकार यदि कफ पक्वाशयमें हो तो पहले स्निग्ध स्वेद करके फिर रूक्ष स्वेद करे॥७॥
स्वेदनके अयोग्य अंग।
वृषणौहृदयंदृष्टीस्वेदयेन्मृदुनैववा।
मध्यमंवंक्षणौशेषमाङ्गावयवमिष्टतः॥८॥
अंडकोश, हृदय, और नेत्रोंमें स्वेदन करना उचित नहीं, यदि किसी कारणसे आवश्यकता भी हो तो मृदु स्वेद करे। और वंक्षणमें स्वेद करना हो तो मध्यम स्वेद करे।किन्तु अन्य अंगोमें जैसा उचित हो वैसा स्वेदन करे॥८॥
नेत्रमें स्वेदन विधि।
सुशुद्धैर्नक्तकैःपिण्ड्यागोधूमानामथापिवा।
पद्मोत्पलपलाशैर्वास्वेद्यःसंवृत्यचक्षुषी॥९॥
शुद्ध स्वच्छ नरम वस्त्रसे या गेहूंके मैदेके पिंडसे अथवा कमलके पत्रसे या अन्य कमलविशेषके पत्रसे नेत्रोंको ढककर शिर आदिमें स्वेद करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि नेत्रों में स्वेदन करनेकी गर्मी न पहुंचनी चाहिये॥९॥
मुक्तावलीभिःशीताभिःशीतलैर्भाजनैरपि।
जलार्द्रैर्जलजैर्हस्तैःस्विद्यतोहृदयंस्पृशेत्॥१०॥
मोतियोंकी माला, शीतल पात्र, पानीमे भिगोया हुआ कमलविशेष, अथवा शीतल हाथ स्वेदन योग्य मनुष्यके हृदय पर रखना चाहिये॥१०॥
शीताशूलव्युपरमेस्तम्भगौरवनिग्रहे।
सञ्जातेमार्दवेस्वेदेस्वेदनाद्विरतिर्मता॥११॥
शीत, शूल, जडता, भारीपन, यह नष्ट होकर जब देहम नरमी आजाय तो पसीना देना बंद करदेना चाहिये॥११॥
पित्तप्रकोपोमूर्च्छाचशरीरसदनंतृषा।
दाहस्वेदाङ्गदौर्बल्यमतिस्विन्नस्यलक्षणम्॥१२॥
अधिक पसीना देनेसे–पित्तका कोप, मूर्छा, शरीरमें शिथिलता, प्यास, दाह पसीना, और अंगोंमे दुर्बलता यह लक्षण होतेहैं॥१२॥
उक्तस्तस्याश्रितीयेयोग्रैष्मिकःसर्वशोविधिः।
सोऽतिस्विन्नस्यकर्तव्योमधुरःस्निग्धशीतलः॥१३॥
ऐसा होनेपर तस्याशितीय (छठे ) अध्यायमें जो ग्रीष्मकालकी विधि कहीहै वही विधि अतिस्विन्नकी करे और मथुर, स्त्रिग्ध, शीतल क्रिया करे॥१३॥
स्वेदनकर्म के योग्य रोगी।
कषायमद्यनित्यानांगर्भिण्यारक्तपित्तिनाम्। पित्तिनांसातिसाराणांरूक्षाणांमधुमेहिनाम्॥१४॥ विदग्धभ्रष्टनाडीनांविषमद्यविकारिणाम्।श्रान्तानांनष्टसंज्ञानांस्थूलानांपित्तमेहिनाम्॥१५॥ तृष्यतांक्षुधितानाञ्चक्रुद्धानांशोचतामपि। कामल्युदरिणाञ्चैव क्षतानामाढ्यरोगिणाम्॥१६॥ दुर्बलातिविशुष्काणामुपक्षीणौजसांतथा।भिषक्तैमिरिकाणाञ्चनस्वेदमवतारयेत्॥१७॥
नित्य कषाय या मद्य पान करनेवालेको, गर्भवती, रक्तपित्तवाला, पित्तप्रधान, पित्तके अतिसारखाला, रूक्ष, मधुमेही, अग्निदग्ध, भ्रष्टांग, बदका रोगवाला, विष तथा मद्यके विकारवालेको, कायलीयुक्तको, मूर्छित, स्थूल, पित्तमेहयुक्त, प्यासयुक्त, भूखा, क्रोधी, शोकयुक्त, कामलारोगी, उदररोगी, क्षतरोगी, यकृत प्लीहाके रोगवालेको, दुर्बल, अतिसूखा हुवा और जिसका ओजक्षीण होगयाहो, तथा तिमिररोगवाला इनको कभी स्वेदन न करे॥१४॥१५॥१६॥१७॥
स्वेदनके योग्य रोग।
प्रतिश्यायेचकासेचहिक्काश्वासेष्वलाघवे।कर्णमण्यांशिरःशूले स्वरभेदेगलग्रहे॥१८॥ अर्दितैकाङ्गसर्वाङ्गपक्षाघातेविनामके। कोष्ठानाहविबन्धेषुशुक्राघातेविजृम्भके॥१९॥ पार्श्वपृष्टकटीकुक्षिसंग्रहेगृध्रसीषुच। मूत्रकृच्छ्रेमहत्त्वेचमुष्कयारङ्गममर्दके॥२०॥ पादोरुजानुजङ्घार्तिसंग्रहेश्वयथावपि।खल्लीप्वामेषुशीतेचवेपथौवातकण्टके॥२१॥ सङ्कोचायाम-शूलेषु स्तम्भगौरवसुप्तुषु।सर्वाङ्गेषुविकारेषुस्वेदनंहितमुच्यते॥२२॥
प्रतिश्याय, खांसो, हिचकी, श्वास, गुरुता, कर्णशूल, मन्यास्तंभ, शिरःशूल, स्वरभंग, गलग्रह, अर्दितवात, एकांगगतवात, सर्वागगतवात, पक्षाघात, विनाम ( शरीरका या किसी अंगका नमजाना कुबडा आदि ), कोष्ठरोग, अनाह, विबंध, शुक्राघात, विशेष जंभाई आना, पसलीशूल, पृष्ठशूल, कटिशूल, कुक्षिशूल, गृध्रसी, मूत्रकृच्छ्र, अंडवृद्धि, अंगमर्द, उरुस्तंभ, जानु और जंघाकी पीडा, सूजन, खल्ली, आमरोग, शीत, कंप, वातकंटक, संकोच, आयाम, शूल, अंगोंकी गौरवता, और अंगोंका सृजना, इन सब विकारों में स्वेदन करना परम हितकारक है॥१८॥१९॥२०॥२१॥२२॥
पिण्डस्वेदका वर्णन।
तिलमाषकुलत्थाम्लघृततैलामिषौदनैः।
पायसैःकृसरैर्मासैःपिण्डस्वेदंप्रयोजयेत्॥२३॥
तिल, उडद, कुलथी कांजी, घृत, तेल, मांस, भात, खीर, तिलोंकी खिचडी, अथवा मांस, इन सबका अथवा इनमें से किसी एक दो का पिडसा बनाकर उससे जो स्वेद कियाजाय उसको पिण्डस्वेद कहतेहैं॥२३॥
कफरोगियोंको स्वेदनविधि।
गोखरोष्ट्रवराहाश्वशकृद्भिःसतुषैर्यवैः। सिकतापांशुपाषाणकरीषायसपूटकैः॥२४॥ श्लेष्मिकन्स्वेदयेत्पूर्वैर्वातिकान्समुपाचरेत्। द्रव्याण्येतानिशस्यन्तेयथास्वंप्रस्तरेष्वपि॥२५॥
गौ, गधा, ऊंट, सूकर, घोडा, इनकी विष्ठाको गर्म करके अथवा तुष, जौ, इनके चूर्णसे, या बालूरेत, पत्थरका चूग, सूखे गोवरका चूर्ण, लोहचूर्ण, इनको गरम करके कफप्रधान रोगमे स्वेदन करे। और पहले कहाहुआ पिडस्वेद वातप्रधानव्याधिमें करे। प्रस्तरस्वेदके लिये भी इन ही द्रव्योंको दोषानुसार प्रयुक्त करे॥२४॥२५॥
स्वेदनका सहज उपाय।
भूगृहेषुचजेन्ताकेषूष्णगर्भगृहेषुच।
विधूमाङ्गारतप्तेष्वभ्यक्तःस्विद्यतिनासुखम्॥२६॥
भूमिके भीतरके घरमें, जेंताकमें, गरम घरमें, प्रथम तेलकी मालिस कर धूमरहिक अंगागंकी गर्मीसे ही विना परिश्रम पसीने आजातेहैं॥२६॥
नाडीस्वेदन की विधि।
ग्राम्यानूपौदकंमांसंपयोवस्तशिरस्तथा। वराहमध्यपित्तासृक्स्नेहवत्तिलतण्डुलान्॥२७॥ इत्येतानिसमुत्क्वाथ्यनाडीस्वेदंप्रयोजयेत्। देशकालविभागज्ञोयुक्त्यपेक्षोभिषक्तमः॥२८॥वारणाघृतकैरण्डशिग्रुमूलकसर्षपैः। वासावंशकरञ्जार्कपत्रैरश्मन्तकस्यच॥२९॥ शोभाञ्जनकशैरीयमालतीसुरसार्जकैः। पत्रैरुत्क्वथ्यसलिलंनाडीस्वेदंप्रयोजयेत्॥३०॥
ग्राम्य, आनूप, और जलसंचारी जीवोंका मांस, दूध, बकरीका शिर, सुअरकी अंतडी, पित्ता, रुधिर, घी, तेल, तिल, चावल, इन सबको एक बड़े वर्तनमें पकाकर एक नली द्वारा इसकी भांफ शरीरमें दीजाय इसको नाडीस्वेद कहते है। देश, काल, व्याधि, स्वभाव, युक्तिआदि जाननेवाला वैद्य परीक्षा करके वरना, गिलोय, एरंड, लालमुहांजना, मूली, सरसो, अडूसा, वास, करंज, ऑकके पत्र, अश्मंतकके पत्र, सिरस, मालती, तुलसी, वनतुलसी, इन सबके पत्रोका क्वाथ करके नाडीस्वेद् करे॥२७॥२८॥२९॥३०॥
भूतीकपञ्चमूलाभ्यांसुरयादधिमस्तुना।
मूत्रैरम्लैश्चसस्नेहैर्नाडीस्वेदंप्रयोजयेत्॥३१॥
अथवा अजवायन, बृहत्पंचमूल, मद्य, दहीका पानी, गोमूत्र, कांजी, इनमें घृत, तेल आदि मिला तथा क्वाय करके नाडीस्वेद करे॥३१॥
एतएवचनिर्य्यूहाःप्रयोज्याजालकोष्ठके।
स्वेदनार्थंघृतक्षीरतैलकोष्ठांश्चकारयेत्॥३२॥
इन उपरोक्त क्वाथोंको एक बडे पात्र में भरकर उस सहते २ क्वाथमें रोगीको विठानेसे स्वेदक्रिया होतीहै। ऐसे ही घृत तैलादिकोंमें भी स्वेदनके रोगीको बिठाया जाताहैं॥३२॥
गोधूमशकलैश्चूर्णैर्यवानामम्लसंयुतैः।
सस्नेहकिण्वलवणैरुपनाहःप्रशस्यते॥३३॥
गेहूं और जौवोंके चूर्णमें–कांजी, स्नेह, मदिराकी किट्ट, सेंधा नमक, इनको मिलाकर लेप करनेसे भी उत्तम स्वेदन होताहै॥३३॥
गन्धैः सुरायाः किण्वेनजीवन्त्याशतपुष्पया।
उमयाकुष्ठतैलाभ्यांयुक्तयाचोपनाहयेत्॥३४॥
गंधद्रव्य, मदिराकी किट्टी, जीवंती, सौंफ, बावची, कूठ, तेल, इनको मिलाकर कुछ गर्म लेप करनेसे स्वेदन होताहै॥३४॥
लेपपर पट्टी बांधनेका सामान।
चर्मभिश्चोपत्तद्धव्यःसलोमभिरपूतिभिः।
उष्णवीर्य्यैरलाभेतुकौशेयाविकशाटकैः॥३५॥
लेप करके ऊपरसे कोमल और दुर्गधरहित उष्णवीर्य चमडा बांधे, यदि ऐसा चमडा न मिले तो रेशमी वस्त्र या भेडकी उनसे बनाहुआ वस्त्र लपेटे॥३५॥
लेपबन्धनका समय।
रात्रौबद्धंदिवामुञ्चेन्मुञ्चेद्रात्रौदिवाकृतम्।
विदाहपरिहारार्थंस्यात्प्रकर्षस्तुशीतले॥३६॥
रातका किया हुआ लेप दिनमें उतारदेवे और दिनका किया रातको उतारदे। और दाह आदिकी निवृत्तिके लिये कियाहुआ लेप ठंढा होने पर भी देर तक रहे तो कोई हानि नहीं॥३६॥
स्वेदके तेरह भेद।
सङ्करःप्रस्तरोनाडीपरिषेकोऽवगाहनम्।जेन्ताकोश्मघनःकर्षुकुटीभूःकुम्भिकैवच॥३७॥ कूपोहोलाकइत्येतेस्वदेयन्तित्रयादेश।तान्यथावत्प्रवक्ष्यामिसर्वानेवानुपूर्वशः। इति॥३८॥
शंकर, प्रस्तर, नाडी, परिषेक, अवगाहन, जंताक, अश्मचन, कर्षू, कुटी, भू, कुम्भी, कूप, होलाक, इन भेदोंसे स्वेद तेरह प्रकारके हैं। उनको क्रमपूर्वक ठीक २ कथन करते हैं॥३७॥३८॥
संकरस्वेदका लक्षण।
तत्रवस्त्रान्तरितैरवस्त्रान्तरितैर्वापिण्डैर्यथोक्तैरुपस्वेदनंशङ्करस्वेदइतिविद्यात्॥३९॥
उनमें गर्म की हुई औषधिको कपडेमें लप्टेकर उससे स्वेदन करे, अथवा गीलीऔषधियोंका पिडसा बनाकर उसको गर्म करके उससे स्वेदन कियाजाय उसकोशंकर स्वेद कहते॥३९॥
प्रस्तरस्वेदका लक्षण।
शूकशमीधान्यपुलाकानांवेशवारायसकृशरोत्कारिकादीनांवाप्रस्तरेकौशेयाविकोत्तरप्रच्छदेपञ्चाङ्गुलोरुबुकार्कपत्रप्रच्छदेवास्वभ्यक्तसर्वगात्रस्यशयानस्योपरिस्वेदनंप्रस्तरस्वेदइतिविद्यात्॥४०॥
** **पहले स्नेहसे रोगीका सव शरीर चिकना करे।फिर शूकधान्य, शमीधान्य और फलकधान्यको खिचडीकी समान पकाकर अथवा वेशवार, खीर, खिचडी, उडदोकी रोटीसी आदि जो उचित हो वनाकर रोगीका शरीर जिस पर आसके उतनी भूमिमें बिछावे उसके ऊपर रेशमी या ऊनका वस्त्र अथवा एरंडके पत्र बिछाकर उसके ऊपर रोगीको सुलाया जावे उसको प्रस्तरस्वेद कहतेहैं (परंतु नीचे ‘विछाया हुआ द्रव्य गर्म होना चाहिये)॥४०॥
नाडीस्वेदका लक्षण।
स्वेदनद्रव्याणांपुनर्मूलफपत्रशुङ्गादीनां मृगशकुनपिशितशिरःस्पादादीनामुष्णस्वभावानांवा-यथार्हमम्ललवणस्नेहोपसंहितानांमूत्रक्षीरादीनांवाकुम्भ्यांबाष्पमनुद्वमत्यामुत्क्वथितानांनाड्याशरे-षीकावंशदलकरञ्जार्कपत्रान्यतमकृतयागजाग्रहस्तसंस्थानयाव्यामदीर्घयाव्यामार्द्धदीर्घयावाव्या-मचतुर्भागाष्टभागमूलाग्रपरिणाहस्रोतसासर्वतोवातहरपत्रसंवृतच्छिद्रयाद्विस्त्रिर्वाविनामितयावा-तहरसिद्धस्नेहाभ्यक्तगात्रोवाष्पमपहरेत्।
वाष्पोह्यनूर्द्धगामीविहलचण्डवेगस्त्वचमविदहन्सुखंस्वेदयतीतिनाडीस्वेदः॥४९॥
स्वेदनके द्रव्योंके–जड, पत्र, फल, शुंग, आदि लेकर और उष्णस्वभाववाले मृग, पक्षी आदिकोंके मांस, शिर, पाद आदि लेकर और यथोचित अम्ल, लवण, स्नेह, मिलाकर तथा मूत्र, दूध. जल आदि किसी पात्रमें डालकर उसीमे उपरोक्त औषधियें डालकर पकावे और उस पात्रका मुख बंद करके उसमे एक नाल लगावे उसमेंसे जो भाफ आवे उससे रोगी स्वेदन करे।इस नालको सरपते, नरसल, बांस,करंज, ऑक इनमेंसे किसीके पत्रोंसे या अन्य उचित द्रव्यसे बनावे।यह हाथीकी सूडके अग्रभा गके समान मोटी और दोनों बाहोंको फैलानेसे जितना लंबा होताहै उतनी लंबी होनी चाहिये।या एक गज लंबी हो और पात्रके मुखपरसे अधिक खुला और आगेसे छोटा ऐसा उस नालमें छिद्र होना चाहिये। वातनाशक पत्रोंसे नालके सब स्रोत वंद होने चाहिये जिससे भाफ बाहर न निकले। इस नालको दो तीन जगहसे नवाकर भाफ देनी चाहिये। भाफ देनेसे पहले ही वातनाशक तेलोंकी मालिशसे रोगीका शरीर नम्र रखना चाहिये। भाफको रोगीके शरीरमें छोडते समय नालका मुख तिरछा रक्खे जिससे भाफ रोगीकी छालको दहन न करे क्योंकि सीधी भाफ अत्यंत गर्म लगतीहै।इसको नाडी स्वेद कहतेहैं॥४१॥
परिषेकका लक्षण।
वातिकोत्तरवातिकानांपुनर्मूलादीनामुत्क्वाथैःसुखोष्णैःकुम्भीर्वार्षुलिकाःप्रनाडीर्वापूरयित्वायथार्ह-सिद्धस्नेहाभ्यक्तगात्रंवस्त्रावच्छन्नंपरिषेचयेदितिपरिषेकः॥४२॥
रोगीको वातनाशक तैलादिकोंसे स्निग्धकर ऊपर वस्त्र देकर फिर वातनाशक द्रव्योंके मूल, फल, शुंगादिकोंके सुखोष्ण क्काथको किसी तूतनीदार लोटेमें भरकर वस्त्रवेष्टित स्निग्धगात्र रोगी पर सींच देना। इसको परिषेक स्वेद कहते हैं॥४२॥
अवगाहका लक्षण
वातहरोत्क्वाथक्षीरतैलघृतपिशितरसोष्णसलिलकोष्ठकावनाहस्तुयथोक्तएवावगाहः॥४३॥
** **एक खुले पात्रमें वातनाशक औषधियोंका क्वाथ या दूध, तेल, घी, मांसरस, अथवा गर्म जल भरकर उसमें बैठना। उसको अवगाहन स्वेद कहतेहैं॥४३॥
जेन्ताकस्वेद के लिये भूमिपरीक्षा।
अथजेन्ताकंचिकीर्षुर्भूमिंपरीक्षेत। तत्रपूर्वस्यांदिश्युत्तरस्यांवागुणवतिप्रशस्तभूमिभागेकृष्णमृत्ति- केसुवर्णमृत्तिकेवापरीवापपुष्करिण्यादीनांजलाशयानामन्यतमस्यकूलेदक्षिणेपश्चिमेवासूपतीर्थेस-मसुविभक्तभूमिभागेसप्ताष्टौवाअरत्नीमुपक्रम्योदकात्प्राङ्मुखमुदङ्मुखंवाभिमुखतीर्थकूटागा-रंकारयेत्॥४४॥
** **जेताकस्वेद करनेकी इच्छावाला मनुष्य पहले भूमिकी परीक्षा करे।रोगीके स्थानसे पूर्व अथवा उत्तर दिशामे गुणयुक्त पवित्र भूमि देखकर जहां काली या पीली, मधुर, उत्तम मिट्टी हो और जिस भूमिके समीप ही नदी, वापी, पुष्करणी आदि कोई जलाशय हो उस जलाशयके दक्षिण या पश्चिमके किनारे दूसरा तीर्थ हो वहां पवित्र सीधी उत्तम भूमिमेंजलाशयसे सात आठ हाथ पर एक मकान ऐसा बनावे जिसका मुख जलाशयकी ओर हो॥४४॥
उत्सेधविस्तारतःपरमरत्नीहिषोडशसमन्तात्सुवृत्तंमृत्कर्म्मसम्पन्नमनेकवातायनम्। अस्यकूटा-गारस्यान्तःसमन्ततोभित्तिमरत्नीविस्तारोत्सेधांपिण्डिकांकारयेत्कपाटवर्जम्।मध्येचास्यकूटा-गारस्यचतुष्किष्कुमात्रपुरुषप्रमाणं मृण्मयंकन्दुसंस्थानंबहुसूक्ष्मच्छिद्र मङ्गारकोष्ठकान्तंसपिधानं कारयेत्॥४५॥
और वह मकान लंबा चौडा ऊंचा परिमाणसे चारों ओर सोलह हाथ होना चाहिये यह घर मृत्तिकासे बनाहुआ और जिसमें हवा आनेको कई जगह खिडकी रखीहुई हों। इस मकानके भीतर चारों ओर दीवारमें एक २ हाथकी भीत बनावे और उनमें किवार्ड न लगावे।फिर मकानके ठीक बीचमे एक चार हाथका चौडा और सात हाथ लंबा भाड सा वनाले उसके ऊपर वारीक २ छिद्रोयुक्त ढकना रक्खे॥४५॥
तञ्चखादिराणामाश्वकर्णादीनांवाकाष्ठानांपूरयित्वाप्रदीपयेत्।सयदाजानीयात्साधुदग्धानि-काष्ठानिगतधूमानिअवतप्तञ्चकेवलमग्निनातदग्निगृहंस्वेदयोग्येनचोष्मणायुक्तमिति॥१६॥ तत्रैनं-पुरुषंवातहराभ्यक्तगात्रंवस्त्रावच्छन्नंप्रवेशयेत्प्रवेशयंश्चैनमनुशिष्यात्। सौम्यप्रविश-कल्याणायारोग्यायचेति। प्रविश्यचैनांपिण्डिकामधिरुह्यपार्श्वापरपार्श्वाभ्यांयथासुखंशयीथाः नचत्वयास्वेदमूर्च्छापरीतेनापि-सतापिण्डिकैषाविमोक्तव्यात्मा आप्राणोच्छ्रासात्। भ्रश्यमानोह्यतः पिण्डिकावका-शाद्द्वारमनधिगच्छन्स्वेदमूर्च्छापरीततयासद्यः प्राणाञ्जह्याः॥१७॥
** **इसके भीतर खैर या शालविशेषकी लकडीके अंगार रक्खे जब वूम निकललेवे और भीतरका स्थान तपगयाहो और स्वेदनयोग्य गर्मीसे भरजाय।फिर रोगीको वातनाशक तेलोंसे स्निग्धगात्र कर, कपड़ा लपेटकर इस गर्म घरमेंप्रविष्ट करावे,और कहे हे सौम्य! अपनी आरोग्यता और कल्याणके लिये इस घरमें प्रवेश कर। इस बीचमेंवनीहुई पिंडका पर चढकर जिस करवटमे तुझे सुभीता हो उस करवट सोजा। तुमको इस पर लेटनेसे पसीने आवेगे उस समय यदि तुमको मूर्छा भी आवे तो वहांसे नही उठना, जब तक तुम्हारे प्राण चलतेरहें तब तक उसको मत त्यागो।यदि तुम डरकर उसके ऊपरसे एकदम भागआ ओगे तो द्वारमें आते ही पसीने और मूर्छासे प्राण निकल जायंगे॥४६॥ ४७ ॥
तस्मात्पिण्डिकामेनांनकथञ्चनमुञ्चेथाः त्वंयदाजानीयाः विगताभिष्यन्दमात्मानंसम्यक्प्रस्रुत-स्वेदपिच्छंसर्वस्रोतोविमुक्तंलघुभूतमपगतविबन्धस्तम्भसुत्पिवेनागौरवामिति। ततस्तां पिण्डि-कामनुसरन्द्वारंप्रपद्येथाः। निष्क्रम्यचनसहसाचक्षुषोः परिपालनार्थंशीतोदकमुपस्पृशेथाः। अपगतसन्तापक्लमस्तुमुहूर्त्तात्सुखोष्णेनवारिणायथान्यायंपरिषिक्तोऽश्नीयाइतिजेन्ताकस्स्वेदः॥४८॥
** **इसलिये उस पिंडिकाको मत छोडना, जब तुम्हारा शरीर बिलकुल कफ रहित होजाय और पसीनेका स्राव सब होचुके, शरीरके सब छिद्र खुल जायँ, और शरीर हलका होजाय। तथा शरीरका विबंधस्तंभ, सुप्ति, पीडा, गुरुता यह सच दूर होकर शरीर हलका होजाय तब उस पिडिकाके सहारेसे उसको धीरे २ छोडकर सहजसे द्वारकी ओर आना।फिर बाहर आते ही नेत्रोके आरामके लिये शीत जल स्पर्श न करना। जब संताप और क्लम दूर होजाय तव एक मुहूर्त सुखोष्ण जलसे स्नान करके पथ्य भोजन करना इसको जेंताकस्वेद कहतेहैं॥४८॥
अश्मघनस्वेदका लक्षण।
शयानस्यप्रमाणेनघनामश्ममयींशिलाम्। तापयित्वामारुतघ्नैर्दारुभिः संप्रदीपितैः॥४९॥ व्यपोह्यसर्वानङ्गारान्प्रोक्ष्यचैबोष्णवारिणा। तांशिलामथकुर्वीतकौशेयाविकसंस्तराम्॥५०॥ तस्यांस्वभ्यक्तसर्वाङ्गः शयानः स्विद्यतेसुखम्। रौरवाजिनकौशेयप्रावाराद्यैस्सुसंवृतः॥५१॥ इत्युक्तोऽश्मघनस्वेदः कर्पूस्वेदः प्रवक्ष्यते॥५२॥
रोगीके मोनेके प्रमाण योग्य एक शिलाको वातनाशक लकडियोंकी आगसे गरम करे।फिर सव अंगार हटाकर गरम पानीसे धो देवे। फिर उस धुलीहुई गरम शिलापर रेशमी वस्त्र या कंवल विछावे।उसपर वातनाशक तेलोंसे अभ्यक्त रोगीको सुलावे तो सुखपूर्वक पसीने आंव।रुरु मृगके चर्मसे या रेशमी कपडेसे अथवा अन्य वस्त्रसे आच्छादितहो, रोगी इस शिलापरलेटे। इसको अश्मघन स्वेद कहतेहैं ॥४९॥५०॥६१॥५२॥
खानयेच्छयनस्याघः कर्षूंस्थानविभागवित्। दीप्तैरधूमैरङ्गारैस्तांकर्षूपूरयेत्ततः। तस्यामुपरिशय्यायांस्वपन्स्विद्यतिना सुखम्॥५३॥
बुद्धिमान वैद्य रोगीकी शय्याके नीचे एक भीतरसे खुले मुखवाला छोटा गढा वनाकर निर्वूम प्रदीप्तअंगारोसे उसको भरदे।उसके ऊपर विछी हुई शय्या पर पडा रोगी सुखपूर्वक पसीना लेता है इसको कर्पूस्वेद कहतेहैं॥५३॥
कुटीस्वेदका वर्णन।
अनत्युत्सेधविस्तारांवृत्ताकारामलोचनाम्।धनभित्तिंकुटींकृत्वाकुष्टाद्यैः सम्प्रलेपयेत्॥५४॥ कुटीमध्येभिषक्शय्यांस्वास्तीर्णाञ्चोपकल्पयेत्। प्रावाराजिनकौशेयकुत्थकम्बलगोलकैः॥५५॥ सहंडिकाभिरङ्गारपूर्णाभिस्ताञ्चसर्वशः। परिवार्य्यान्तरारोहेदभ्यक्तः स्विद्यतेसुखम्॥५६॥
** **न बहुत ऊंची न लंबी और न चौडी एक उचित गोल, छिद्ररहित कडी भीतवाली कुटिया बनावे उसको कूठ आदि औषधियोंसे लेपन करे। फिर वैद्य उस कुटीम आकर, मृगछाला, कौशेयवस्त्र, गुदडी कंवल, गोनक आदि बिछाकर शय्या वनावेऔर इस कुटीके चारों ओर भीतकी जडमे अंगारोंसे भरकर हांडियें रखदे फिरस्निग्धगात्र रोगीको इसमें मुलावे तो सुखपूर्वक स्वेदन होगा। इसको कुटीस्वेदकहतेहैं॥५४॥५५॥५६॥
भूस्वेदका वर्णन।
यएवाश्मघनस्वेदविधिर्भूमौसएवतु।
प्रशस्तायांनिवातायांसमायामुपदिश्यते॥५७॥
अश्मघन स्वेदकी समान ही भूस्वेद होताहै अश्मघन स्वेदमें पत्थरकी शिलातपाई जाती है और भूस्वेदम निर्वातस्थानमेंपवित्र और सीधी भूमि तपाकरभूस्वेद होताहै॥५७॥
कुम्भीस्वेदका वर्णन।
कुम्भींवातहरक्वाथपूर्णांभूमौनिखातयेत्। अर्द्धभागंत्रिभागंवाशयनंतत्रचोपरि॥५८॥स्थापयेदासनंवापिनातिसान्द्रपरिच्छदम्। अथकुम्भ्यांसुसन्तप्तान्प्रक्षिपेदयसोगुडान्॥॥५९॥ पाषाणान्वोष्मणातेनतत्स्थः स्विद्यतिनासुखम्। सुसंवृताङ्गस्स्वभ्यङ्गः स्नेहैरनिलनाशनैः॥६०॥
पहले वातनाशक क्वाथोंसे घडेको आधा या तीन भाग भरकर जमीनमे गाडदेउसके ऊपर रागाक शय्या या वैठनेयोग्य कोई वस्तु रखकर ऊपर वारीक वस्त्र विछादेउस पर तैलादिसे स्निग्धहुए रोगीको कंवल आदि वस्त्र लपेटकर विठा या लेटा देवेऔर पत्थर या लाहेके टुकडे आगमें लालकरके नीचेके घडेमें डाले उससे भाफ निकलकर जो रोगीको पसीना आवे उसको कुम्भीस्वेद कहतेहैं॥५८ ॥५९॥६०॥
कूपस्वेदका वर्णन।
कूपंशयनविस्तारंद्विगुणञ्चापिवेधतः। देशेनिवातेशस्तेचकुर्य्यादन्तः सुमार्जितम्॥६१॥हस्त्यश्वगोखरोष्ट्राणांकरीषैर्दग्धपूरिते। स्ववच्छन्नः ससंस्तीर्णेऽभ्यक्तस्खिद्यतिनासुखम्॥६२॥
पहले निर्वात और सीधी भूमिमेसोनेयोग्य लंबा चौडा और उससे दुगुना गहरा कूपबनावे और अंदर साफ करदे। फिर उसमें हाथी, घोडा, गौ, गर्दभ, ऊंट इनकीसूखीहुई लीद भरकर आग लगादेवे। जब धूम निकललेवे तो उसपर शय्या बिछाकररोगीके शरीरपर तेल मलकर उस शय्यापर सुलावे इससे सुखपूर्वक स्वेदन होगाइसको कूपस्वेद कहतेहैं॥६१॥६२॥
होलाकस्वेदका वर्णन।
धीतिकान्तुकरीषाणांयथोक्तानांप्रदीपयेत्। शयनान्तः प्रमाणेनशय्यामुपरितत्रच॥६३॥ सुदग्धायांविधूमायांयथोक्तामुपकल्पयेत्। स्ववच्छन्नः स्वपंस्तत्राभ्यक्तः स्विद्यतिनासुखम् ॥६४॥ होलाकस्वेदइत्येषसुखः प्रोक्तोमहर्षिणा। इतित्रयोदशविधः स्वेदोऽग्निगुणसंश्रयः॥६५॥
हाथी आदिकी सूखी लीदकी शयन प्रमाण ढेरी लगाकर जलावे जब जलकर धूम निकलजाय फिर उसपर ऊंची सी चारपाई बिछावे। फिर वातनाशक तेलोंसे स्निग्ध कर रजाई आदि वस्त्र लेकर उस शय्यापर रोगी सोवे तो सुखपूर्वक पसीना आवे इसको होलाक स्वेद कहतेहै। इस प्रकार अग्निके योगसे १३ प्रकारके स्वेद होतेहैं॥६३॥६४॥६५॥
विना अग्नि स्वेदनविधान।
व्यायामउष्णसदनंगुरुप्रावरणंक्षुधा। बहुपानंभयक्रोधावुपनाहाहवातपाः॥६६॥ स्वेदयन्ति-दशैतानिनरमग्निगुणादृते। इत्युक्तोद्विविधः स्वेदःसंयुक्तोऽग्निगुणैर्नच॥६७॥
व्यायाम करनेसे, गरम घरमे रहनेसे, भारी वस्त्र धारण करनेसे, भूखे रहनेसे, बहुत मद्य पीनेसे भयसे, क्रोधसे, उपनाहसे, धूप लगनेसे, इन दश कारणसे अग्निके विना ही पसीने होजातेहैं। इस प्रकार अग्निके योगसे और विना अग्निसे दो प्रकारसे पसीने आतेहैं॥६६॥६७॥
एकाङ्गसर्वाङ्गगतः स्निग्धोरूक्षस्तथैव च। इत्येतन्त्रिविधंद्वन्द्वंवेदमुद्दिश्यकीर्तितम्॥६८॥स्निग्धःस्वैदैरुपक्रम्यः स्विन्नः पथ्याशनोभवेत्। तदहः स्विन्नगात्रस्तुव्यायामंवर्जयेन्न रइति॥६९॥
इसी प्रकार एकांगगत और सर्वागगत इन भेदोसे स्वेद दो प्रकार हैं। और रूक्षस्वेद तथा स्निग्धस्वेद इन भेदोसे दो प्रकारके हैं यह तीन द्वंद्वस्वेदके कहेहैं। स्नेहन स्वेदन के अनंतर रोगी पथ्यपूर्वक रहे। जिस दिन पसीना लियाहो सब कामाोकोछोडकर वैद्यकी आज्ञाका पालन करे॥६८॥६९॥
तत्र श्लोकाः।
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
स्वेदोयथाकार्यकरोहितोयेभ्यश्चयद्विधः। यत्रदेशेयथायोग्यो देशोरक्ष्यश्चयोयथा॥७०॥स्विन्नातिस्विन्नरूपाणितथातिस्विन्नभेषजम्। अस्वेद्याः स्वेदयोग्याश्चस्वेदद्रव्याणि कल्पना॥७९॥ त्रयोदशविधः स्वेदोविनादशविधोऽग्निना। संग्रहेणचषट्स्वेदाः स्वेदाध्यायेनिदर्शिताः॥७२॥
अब अध्यायका उपसंहार करतेहैं, कि इस स्वेदाध्याय में जो २ स्वेदसे लाभ होते हैं। जिमतरहका स्वेद जिसके लिये हित और अहित है। जिस देशमें जैसे जो स्वेद योग्य है। उत्तम स्वेद और अतिस्वेदके लक्षण। अतिस्वेदित की औषधि जिनको स्वेदन नहीं करना जो स्वेदनयोग्य हैं। स्वेदनके द्रव्य और उनकी कल्पना तेरह प्रकार के स्वेद। अग्निसे विना दश प्रकारसे स्वेद छः स्वेदोंका संग्रह। ये वर्णन किये॥७०॥७१॥७२॥
स्वेदाधिकारेयद्वाच्यमुक्तमेतन्महर्षिणा। शिष्यैस्तुप्रतिपत्तव्यमुपदेष्टापुनर्वसुरिति॥७३॥
इस प्रकार इस अध्यायमेंपुनर्वसुजीन कथन किया जो कुछ भी स्वेदाधिकारमें कहना था वह सब महर्षिजीने कथन करदिया। शिष्यगणोको इस कथनका पालन करना चाहिये॥७३॥
इति श्रीमहपिंचरक० प० रामप्रसाद० भापाटीकायां स्नेहाऽध्यायश्चतुर्दशः॥१४॥
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पंचदशोऽध्यायः।
अथातउपकल्पनीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम उपकल्पनीय अध्यायकी व्याख्या करतेहैं। ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
इहखलुराजानंराजमात्रमन्यंवाविपुलद्रव्यंसंभृतसम्भारंवमनंविरेचनंवापाययितुकामेनभिषजा-प्रागेवौषधपानात्सम्भारा उपकल्पनीयाभवन्ति। सम्यक्चैवहिगच्छत्यौषधेप्रतिभोगार्थाः व्यापन्नेचौषधेव्यापदः परिसंख्यायप्रतीकारार्थाः।
नहिसन्निकृष्टेकालेप्रादुर्भूतायामापदिसत्यपिक्रयाक्रयेसुकरमाशुसम्भरणमौषधानांयथावदित्येवंवादिनंभगवन्तमात्रेयमाग्निवेश उवाच॥१॥
जब राजा अथवा राजाके समान अन्य धनाढ्य पुरुष हो जिसके यहां बहुतसा द्रव्य, धन, संपत्ति, साधन, सामग्री हो उसको वमन या विरेचनकी औषधिका पान कराना हो तो वैद्यको उचित है कि औषध पिलानेसे प्रथम सब प्रकार की आवश्यक वस्तुएं अपने समीप रखले। क्योंकि वमन विरेचनके समय और वमन विरेचन हो लेनेके अनंतर जिन २ वस्तुओंकी आवश्यकता पड़तीहै वह उसी समय तैयार मिलनेसे रोगीको आराम मिलता है और उसके वमनादि कार्यमें कोई हानि नहीं होती ऐसा होनेसे रोगीका उपकार होता है। यदि वमन विरेचनमे कोई उपद्रव भी होजाय तो औषध तैयार पास होनेसे झट उपद्रव शांत होसकते हैं। ऐसा न करने पर यदि वमन विरेचनके समय कोई उपद्रव होनेलगे तो औषध बेचनेकी दूकान समीप होनेपर भी यथोचित औषध तैयार करके देनेमे समय लगजाताहै उस समय बडी कठिनता पड़तीहै। इसप्रकार कथन करतेहुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहनेलगे॥१॥
ननुभगवन्नादावेवज्ञानवतातथाप्रतिविधातव्यंयथाप्रतिविहितेसिद्ध्येदेवौषधमेकान्तेन। सम्यक्प्रयोगनिमित्ताहिसर्वकर्मणांसिद्धिरिष्टाव्यापञ्चासम्यक्प्रयोगनिमित्ता। अथसम्यगसम्यक्चसमारब्धंकर्मसिद्ध्यतिव्यापद्यतेवानियमेन। तुल्यंभवतिज्ञानमज्ञानेनेति॥२॥
हे भगवन् ! इसमें कोई संशय नहीं कि सब सामग्री समीप रहनेसे आपत्तिके समय आपति दूर करनेमे काम आतीहै। परंतु ज्ञानवान् वैद्यको पहलेसे ही इस प्रकार विचारकर कार्य करना चाहिये जिस प्रकार कार्य करनेसे विना विघ्नके औषधि प्रयोगका फल सिद्ध होसकेंअर्थात् पहले ही विचारकर ऐसी रीतिसे वमन विरेचन की औषधि प्रयुक्त करनी चाहिये जिससे बीचमे कोई उपद्रव ही न हो और ठीक वमन न विरेचन होजाय क्योकि समझकर भलेप्रकार प्रयोग करनेसे सब कार्य ठीक सिद्ध होजातेहैं। विना विचारे अनुचित रीतिसे प्रयोग कियाजाय तो उसमे उपद्रवरूप विपत्ति अवश्य होतीहै। बस, इससे यह नियम सिद्ध है कि सम्यक् प्रयोगसे कर्मकी सिद्धि होतीहै। और असम्यक् प्रयोगसे कर्ममे विपत्ति अर्थात् विघ्न होता है। यदि ऐसा न हो तो फिर जानकारी और अनजानपनेमें फरक ही क्या रहा अर्थात् चिकित्साका जानना और नेजानना दोनों बराबर है॥२॥
तमुवाचभगवानात्रेयः।शक्यंतथाप्रतिविधातुमस्माभिरस्मद्विधैर्वाप्यग्निवेशयथाप्रतिविहिते-सिद्ध्येदेवौषधमेकान्तेनतच्चप्रयोगसौष्टवमुपदेष्टुंयथावन्नहिकश्चिदस्ति। यएतदेवमुपदिष्टमुप-धारयितुमुत्सहेत॥३॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! जैसा तुम कहतेहो ऐसा विचारकर कार्य हम लोग और हमारे समान अन्य वैद्य भी करसकतेहैं। जिस प्रकार प्रयोग करनेसे वमनादि किसी कार्यमें कोई विघ्न न हो। और उसी प्रकार के प्रयोगोंकी सुंदरताका उपदेश भी किया जा सकता है। परंतु इस प्रकारके उपदेशको सब कोई धारण नहीं करसकते॥३॥
उपधार्थ्यवा तथाप्रतिपत्तुंप्रयोक्तुं वा। सूक्ष्माणिहिदेशभेषजदेशकालबलशरीराहार-सात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणि॥४॥ यान्यनुचिन्त्यमानानिविमलविपुलबुद्धेरपिबुद्धि-माकुलीकुर्य्यःकिंपुनरल्पबुद्धेः॥५॥
यदि कोई समझही लेवे अर्थात् उस प्रयोगविधिको धारण भी करले तो उन प्रयागोको यथोचित करलेना कठिन है। क्योंकि दोष, औषध, देश, काल, वल, शरीर, आहार सात्म्य, सत्त्व, प्रकृति, अवस्था, इनका यथोचित विचार बहुत सुक्ष्म अर्थात् बारीक है। इनके सूक्ष्म विचार करनेमें वडे २ निर्मल और विपुल बुद्धिवालेकी बुद्धि भी व्याकुल होजाती है। फिर विचारे अल्पबुद्धिवालोंका तो कहना ही क्या है॥४॥५॥
तस्मादुभयमेतद्यथावदुपदेक्ष्यामः। सम्यकप्रयोगञ्चौषधानां व्यापन्नानाञ्चव्यापत्साधनानि-सिद्धिषूत्तरकालम्। इदानींतावत्संभारान्विविधानपिसमासेनोपदेक्ष्यामः॥६॥
इसलिये हम दोनों प्रकारोंको अर्थात् जिस प्रयोगसे उपद्रव न हों उनका कथन करेंगे और यदि किसी कारणसे कहीं कोई उपद्रव होजाय उनका शमनोपाय भी कथन करेंगे। औपधोंका उत्तम प्रयोग, और वमनादिमें कोई विकार हो तो उसका शमनोपाय, इन दोनोंको हम उत्तरकालमें सिद्धिस्थानमें कहेंगे। और वमन विरेचन विषयक सामग्रियोंको और उनके प्रकारोंको यहां संक्षेपसे कथन करते हैं॥६॥
निवासस्थानका वर्णन।
तद्यथा। दृढंनिवातंप्रवातैकदेशंसुखप्रविचारमनुपत्यकंधूमातपरजसामनभिगमनीयमनिष्टानाञ्च-शब्दस्पर्शरसरूपगन्धानां सोपानोदूखलमुसलवर्चःस्थानस्नानभूमिमहानसोपेतंवास्तुविद्या-कुशलःप्रशस्तंगृहमेवतावत्पूर्वमुपकल्पयेत्॥७॥
पहले घरके रचनेमें कुशल वैद्य एक ऐसा घर बनवावे जिसमेदीवारें आदि सव मजबूत हों, एक भागमे हवा आतीहै। और एक भागमे बिल्कुल हवा न लगे, जिसमें इधर उधर फिरनेको सीधी और खुली जगह हो, तथा इधर उधरके मकानोसे रुकाहुआ नहो, जिसमे धूम, धूप, धूल, न आतेहों, और बुरे लगनेवाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, न होंय, कुंडी सोटा आदि दवाई कूटनेका सामान रखाहुआ हो, और पौडसाल (सीडी), पाखाना, स्नान करनेका स्थान, औषध भोजन आदि बनानेका स्थान विधिवत् यथास्थान बनेहुए हों॥७॥
ततःशीलशौचाचारानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्नानुपचारकुशलान्सर्वकर्मसुपर्य्यवदातान्पौदनपा-चकस्रापकसंवाहकोत्थापकसंवेशकौषधपेषकांश्चपरिचारकान्सर्वकर्मस्वप्रतिकलांस्तथागीतवा-दित्रोल्लापकश्लोकगाथाख्यायिकेतिहासपुराणकुशलानभिप्रायज्ञाननुमतांश्चदेशकालविदःपरिष-द्यांश्च। तथालावकपिञ्जलशशहरिणैणकालपुच्छकमृगमातृकोरभ्रान्॥८॥
फिर उस घरमे सुशील, शुद्ध आचारवाले, स्वामिके भक्त, चतुर, सेवाकरनेमे कुशल, सब कामोमे निपुण भोजन बनानेमें चतुर स्नान करानेवाले, सुलानेवाले, हाथ पकडकर चलनेवाले, उठाने बिठानेवाले, औषध पीसनेवाले, अन्य सब काम करनेमें योग्य, परिचारकोको रक्खे। तथा गाने, बजाने, आलाप करनेवाले, श्लोक, कहानिये, कथा, इतिहास, पुराण, इनमें कुशल और अभिप्राय तथा मनकी इच्छाके समझनेवाले, देशकालके अनुसार बात चीत करके चित्तको प्रसन्न रखनेवाले सभासदोको नियुक्त करै। और लवा, तीतर, शशा, हिरन, काला हिरन, कालपुच्छक, मृगविशेष, मेढा, इन सबको उस घरमें स्थापन करे॥८॥
गांदोग्ध्रींशीलवतीमनातुरांजीवद्वत्सांसुप्रतिविहिततृणशरणपानीयाम्। पात्र्याचमनीयोदकोष्ठ-मणिकघटपिठरपर्थ्योगकुम्भीकुम्भकुण्ड-शरावदर्वीकटोदञ्चनपरिपचनमन्थानचर्म्मचेलसूत्रकार्पासोर्णादीनिचशयनासना-दीनिचोपन्यस्तभृङ्गारप्रतिगृहाणिसुप्रयुक्तास्तरणोत्तर-प्रच्छदोपधानानिस्वापाश्रयाणि संवेशनस्नेहस्वेदाभ्यङ्गप्रदेहपरिषेकानुलेपनवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनमूत्रोच्चारकर्मणा-मुपचारसुखानि सुप्रक्षालितोपधानाश्चसुश्लक्ष्णखरमध्यमादृषदःशस्त्राणिचोपकरणार्थानि। धूमनेत्रंबस्तिनेत्रञ्चोत्तरबस्तिकञ्च। कुशहस्तकञ्चतूलाञ्चमानभाण्डञ्चघृततैलवसामज्जक्षौद्र- फाणितलवणेन्धनोदकमधुसीधुसुरासौवीरकतुषोदकमैरेयमेदकद-धिदधिमण्डोदस्विद्धान्यम्ल-मूत्राणिच॥९॥
और दूध देनेवाली, सुशीला, नीरोग, जिसका बछडा जीताहो ऐसी गौको रक्खेऔर उस गौको यथेच्छ घास, जल तथा उत्तम स्थान मिलना चाहिये और जल तथा आचमन आदिके लिये पात्र, जलकी कोठी, पतीला. कलशा, घडा, माट, झारी, शराव, कडछी, पाक बनानेके पात्र, थाली, कटोरे, गिलास, आदि मथानी कपडे, सूत, कपास, ऊन आदिकसे बनीहुई सोनेकी शय्या, आसन आदि आराम के सामान स्थापन करे। और शय्या आसनके समीप ही जलकी झज्झर और थूकने आदिके लिये पीकदान आदि स्थापन करे। सुंदर बिछौना, ओढना, तकिया, पलंगके पडावे, बैठने लेटनेमें सुखदायक सामान रहना चाहिये तथा स्नेह, स्वेद, मालिश प्रलेप, परिषेक, अनुलेपन, वमन, विरेचन, शिरोविरेचन, आस्थापन, अनुवासन, इन सबकी यथायोग्य साधनसामग्री होनी चाहिये और मलमूत्र त्यागनेका पात्र और वमनके पात्र धोकर साफ रखने चाहिये अन्य उपधान, शिला, श्लक्षण और शुद्ध होनी चाहिये। तथा वस्त्रशस्त्रआदि अन्य उपकरण भी रक्वे। धूमपानकी नलीबस्तिकर्मके लिये पिचकारी, और उत्तरबस्तिका सामान कृशहस्त, तराजूकॉटा आदि, मापनेका पात्र, घृत, तेल, चरबी, मज्जा, शहद, फाणित, लवण, काष्ठ, जल, सहदकी बनी सुरा, सीधु, सौवीर, तुषोदक, मैरेय, मेदक, दही, दधिमंड, उदस्वित्,धान्याम्ल, और गोमूत्र आदिक सामान रखने चाहिये॥९॥
तथाशालिषष्टिकमुद्रमाषयवतिलकुलत्थवदरमृद्वीकाश्मर्य्यपरूषाभयामलकविभीतकानिनानाविधानिचस्नेहस्वेदोपकरणानिद्रव्याणितथैवोर्द्धहरानुलोमिकोभयभाञ्जिसंग्रहणीयदीपनीयपाचनीयोपशमनीयवातहराणिसमाख्यातानिचौषधानि यच्चान्यदपिकिंञ्चिद्व्या-पदःपरिसंख्यायोपकरणंविद्यात्। यच्चप्रतिभोगार्थं तत्तदुपकल्पयेत्॥१०॥
तथा शालीचावल, साठी, मूंग, उडद, जौ, तिल, कुल्थी, उन्नाभ, मुनक्का फालसा, हरड, बहेडा, आमला, और अनेक स्नेह तथा स्वेदनकी सामग्री और ऊपरका दोष निकालनेवाली, अनुलोमन, ऊपर नीचेक़ाशोधन करनेवाली, स्तंभनकर्ता, दीपनीय, पाचनीय, उपशमनीय, और वायुनाशक औषधिये तथा अन्यान्य औषधिय जो वमन विरेचनमें किसी कारणसे हुए उपद्रवोंमे काम देनेवाली हो ऐसी औषधिये पास रक्खे। तथा जिन अन्य द्रव्योसे रोगीको सुख प्राप्त होसके उनको भी संग्रह करे॥१०॥
ततस्तंपुरुषंयथोक्ताभ्यांस्नेहस्वेदाभ्यांयथार्हमुपपादयेत्। तञ्चेदस्मिन्नन्तरेमानसःशारीरोवाव्याधिः कश्चित्तीव्रतरःसहसाभ्यागच्छेत्तमेवतावदस्योपावर्त्तयितुंयतेत। ततस्तमुपावर्त्यतावन्तमेवैनं-कालंतथाविधेनैवकर्मणोपाचरेत्। ततस्तंपुरुषस्नेहस्वेदोपपन्नमनुपहतमानसमभिसमीक्ष्य-सुखोषितंप्रजीर्णभक्तंशिरःस्त्रातमनुलिप्तगात्रंस्रग्विणमनुपहतवस्त्रसंवीतंदेवताग्निद्विजगुरुवृद्धवै-द्यानर्चितवन्तमिष्टेनक्षत्रेतिथिकरणमुहूर्तेकारयित्वाब्राह्मणान्स्वस्तिवाचनंप्रयुक्ताभिराशीर्भिरभि-मन्त्रितांमधुमधुकसैन्धवफाणितोपहितांमदनफलकषायमात्रांपाययेत्॥११॥
इसके उपरांत जिसको वमन विरेचन कराना हो उसको यथोचित रनेहन और स्वेदन द्वारा नम्र बनालेवे। यदि उसको इस अवसरमे कोई मानसिक या शारीरिक तीव्र व्यथा शीघ्र उपस्थित हुई हो तो पहले उसका यत्न करले। फिर विकार शांत होनेपर कुछ काल टहरकर स्नेहन, स्वेदन करे। जब वह स्नेह स्वेद द्वारा मृदु होजाय और स्वस्थचित्त हो तथा भोजन कियाहुआ अच्छीतरह पाचन होचुकाहो तब उसका शिर धुलावे और सुगंधित द्रव्योसे शरीरको सुगंधित करे तथा माला आदि धारण करा और शुद्ध वस्त्र पहनाकर देवता, अग्नि, ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध, और वैद्य आदिकोंका पूजन करावे। फिर शुभ नक्षत्र, तिथि, करण, मुहूर्तमे ब्राह्मणों के आशीर्वादके मंत्रोंद्वारा अभिमंत्रित कियाहुआ मधु, मुलहटी, सेंधानमक, फाणित, यह यथोचित मैनफलके क्वाथमें मिलाकर पीवे॥११॥
मदनफलकी मात्राका प्रमाण।
मदनफलकषायमात्राप्रमाणन्तुखलुसर्वसंशोधनमात्राप्रमाणानिच प्रतिपुरुषमपेक्षितव्यानि भवन्ति। यावद्धियस्यसंशोधनंपीतंवैकारिकदोषहरणायोपपद्यते॥१२॥ नचोतियोगायोगाय-तावदस्यमात्राप्रमाणंवेदितव्यंभवति॥१३॥
मैनफलके क्वाथकी मात्राका प्रमाण तथा अन्य संशोधन द्रव्योंकी मात्राका प्रमाण मनुष्यके बलाबलके अनुसार है। जितनी मात्रासे पान कीहुई औषधि यथोचित शोधन करदे और विकारोंकी शांति करे उसके लिये उतनी ही मात्रा ठीक है। औषधका अतियोग और अयोग न होना ही औषधकी मात्राको प्रमाण जानना चाहिये॥१२॥१३॥
पीतवन्तन्तुखल्वेनंमुहूर्तमनुकांक्षेत्। तस्ययंदाजानीयात्स्वेदप्रादुर्भावेणदोषप्रविलयनमापद्यमानं लोमहर्षेणचस्थानेभ्यःप्रचलितंकुक्षिसमाध्मानेनचकुक्षिमनुगतंहल्लासास्यश्रवणाभ्यामपचितोर्द्ध-मुखीभूतमथास्मैजानुसममसम्बाधंसुप्रयुक्तास्तरणोत्तरप्रच्छदोपधानंस्वापाश्रयमासनमुपवेष्टुं प्रयच्छेत्॥१४॥
औषध पीकर मनुष्य थोडी देर तक चित्तको टिकाकर वमनकी प्रतीक्षा करे। फिर जब पसीने आनेलगें तो समझले कि अब वातादिदोष लीन होगयेंहैं। अथवा जब रोमांच होनेलगे तो जाने कि दोष अपने स्थानसे चलायमान होगये और जव कुक्षिमें अफारा सा होकर दोष कूख तक-फैलकर दिल मचलाने लगे तथा मुखसे पानी गिरनेलगे तो समझे कि अब दोष ऊर्द्धमुख होगयेहैं। फिर इसको सुखपूर्वक घुटनोंके बल ग़द्दाआदि विछीहुई आश्रययुक्त चौकी आदि पर बिठावे॥१४॥
प्रतिग्रहांश्चोपचारयेत्। ललाटप्रतिग्रहेपार्श्वोपग्रहणेनाभिप्रपीडनेपृष्ठोन्मर्द्दनेचअव्युपक्रमणीयाः सुहृदोऽनुमताःप्रवर्तेरन्। अथैनमनुशिष्यात्। विवृतौष्ठतालुकण्ठोनातिमहताव्यायामेन-वेगानुदीर्णानुदीरयन्किञ्चिदवनम्यग्रीवामूर्द्धशरीरमुपवेगमप्रवृत्तान्प्रवर्त्तयन्सूपलिखि-तनखाभ्यामङ्गुलीभ्यामुत्पलकुमुदसौगन्धिकनालैर्वाकण्ठमनभिस्पृशन्सुखंप्रवर्त्तयस्वेति॥१५॥
और इसके आगे छर्दि करनेका पात्र हाथ पोछनेका साफा जल आदि रक्खे। फिर वैद्य या परिचारक अपने दोनों हाथोंसे वमनकर्ताके ललाटकी दोनों पसलियोंको पकडे। और नाभि तथा पीठको उसके मित्र या परिचारक धीरे २ मसलें जिससे सुखपूर्वक वमन हो। और इस रोगीको भी ऐसी शिक्षा देवे कि तू होठ तालु कंठ खोलकर जिस तरह अधिक श्रम न हो वैसे वमनके वेगको निकालदे। और गरदन मस्तक शरीरको कुछेक आगेको झुकाले। यदि वमनका वेग न आताहो तो उसके लानेको साफ किये हुए नखोवाली उंगलियोंसे अथवा कमल, कुमोदनी, कह्लार आदिकी नरम डंडीसे हृदयको स्पर्श करे जिससे सुखपूर्वक वमन हो॥१५॥
वमन होनेपर वैद्यका कर्तव्य।
सतथाविधंकुर्य्यात्ततोऽस्यवेगान्प्रतिग्रहगतानवेक्षेतावहितःवेगविशेषदर्शनाद्धिकुशलोयोगायोगा-तियोगविशेषानुपलभेतवेगविशेषदर्शीपुनःकृत्यंयथार्हमवबुद्ध्येतलक्षणेन। तस्माद्वेगानवेक्षेता-वहितः॥१६॥
रोगीको इसी प्रकार करना चाहिये। फिर कुशल वैद्य सावधानतासे देखे कि वमन ठीक होगये या नहीं वमनके वेगोंको देखकर कुशल वैद्य वमनके योग, अतियोग, अयोगकी परीक्षा करे। यदि कुछ अतियोग आदि दिखाईदेवे तो उस समय करनेयोग्य कृत्योंको विचार ले। इसलिये सावधान होकर वेगोंको देखे॥१६॥
वमनके योगायोगादि लक्षण।
तत्रअमून्ययोगयोगातियोगविशेषज्ञानानिभवन्ति। तद्यथा-अप-वृत्तिःकुतश्चित् केवलस्य-वाप्यौषधस्यविभ्रंशोविबन्धोवेगानाम् योगलक्षणानिभवन्ति॥१७॥
उसमें वमनके अयोग, सम्यक् योग, अतियोगके यह लक्षण होतेहैं। वमनका न होना या जो औषध वमनके लिये पीगई हो केवल वह निकलजाय और वमन न होय। यह वमनके अयोगके लक्षण हैं॥१७॥
कालेप्रवृत्तिरनतिमहतीवयथास्वंदोषहरणंस्वयञ्चावस्थानमिति योगलक्षणानिभवन्ति। योगेनतु-दोषप्रमाणविशेषेणतीक्ष्णमृदुमध्यविभागोज्ञेयः। योगाधिक्येनतुफेनिलरक्तचन्द्रिकोपगमनमित्यतियोगलक्षणानिभवन्ति। तत्रातियोगायोगनिमित्तानिमानुपद्रवान्विद्यात्। आध्मानंपरिकर्त्तिकापरिस्रावोहृदयोपशरणमङ्ग-ग्रहोजीवादानंविभ्रंशःस्तंभक्लमउपद्रव इति॥१८॥
ठीक समयपर वमन होय अति अधिक वमन न होय, वमनकर्ताको अधिक कष्ट न होय पहले दोषोंको निकालकर फिर औषध निकले। यह वमनके ठीक योगके लक्षण हैं। ठीक योगमें भी तीक्ष्ण, मृदु, मध्य, यह तीन भेद हैं। वमनको प्रतियोग योग होनेसे छर्दमें झाग, रुधिर, चमक, आदि होतेहैं और वमनके वेग बहुत ज्यादा आतेहैं यह वमनके अतियोगके लक्षण हैं। उनमे अयोग और अतियोग होनेसे यह उपद्रव होते हैं जैसे—अफारा, पेटमें काट्युक्त पीडा, रुधिरका निकलना, हृदयकी रुकावट, अंगोकी शिथिलता. जीवसंज्ञक रक्तका निकलना अथवा जीवनका क्षय होना, जभिका निकलआना, शरीरका स्तंभ, और कायली होना, यह लक्षणः होतेंहें॥१८॥
योगेनतुखल्वेनंछर्द्दितवन्तमभिसमीक्ष्यसुप्रक्षालितपाणिपादास्यंमुहूर्तमाश्वास्यस्नैहिकवैरेचनिको-पशमनायानांधूमानान्यतमंसामर्थ्यतःपाययित्वापुनरेवोदकमुपस्पर्शयेत्। उपस्पृष्टोदकञ्चैनं-निवातमगारमनुप्रवेश्यसंवेश्यचानुशिष्यात्॥१९॥ उच्चैर्भाष्यमत्यासनमतिस्थानमतिचंक्रमणं-क्रोधशोकहिमातपावश्यायातिप्रवातान्। यानयानंग्राम्यधर्म्ममस्वपनंनिशिदिवास्वप्नम्। विरुद्धाजीर्णासात्म्याकालाप्रमितामितातिहीनगुरुविषमभोजनवेगसन्धारणोदीरणमितिभावाने-तान्मनसाप्यसेवमानःसर्वमाहारमद्यादिति। सतथाकुर्य्यात्॥२०॥
यदि उत्तम प्रकारसे वमन होलेवे तो उस वमनकर्ताके हाथ, पांव, मुख, धुलाकर आराम करनेदे फिर दोघडी पश्चात् उसको स्नैहिक धूम या विरेचक धूम अथवा शमन धूम वा यथासाध्य अन्य धूम पान करावे। फिर हाथ पॉव नेत्र मुख धुलाकर चात रहित स्थानमे सुखोचित शय्या पर सुलावे और कहे कि ऊंचे स्वरसं बोलना, अधिक बैठना, अत्यंत आराममेंही पड़ेरहना, अति फिरना, क्रोध, शोक, हिम, धूप, शीत, अत्यंत वायु, सवारी, स्त्रीसंग, जागरण, दिनमें सोना, विरुद्ध भोजन,अजीर्णकर्ता तथा असात्म्य भोजन, असमय भोजन, अल्प भोजन, अतिभोजन, हीन तथा भारी और विषम भोजन, मलमूत्रादिका वेग रोकना, विना वेग मलादि त्यागना, इन कामोंको मनसे भी न करना। और मद्य आदि भी सेवन न करना वमनकर्ताको भीवैद्यके कथनानुसार ही करना चाहिये॥१९॥२०॥
रात्रिके भोजनका क्रम।
अथैनंसायाह्नेपरेवाहिसुखोदकपरिषिक्तंपुराणानांलोहितशालितण्डुलानांस्ववक्लिन्नानांमण्ड-पूर्वांसुखोष्णांयवागूंपाययेदग्निवलमभिसमीक्ष्यचैवंद्वितीयेतृतीयेचान्नकालेचतुर्थेवन्नकाले तथा-विधानामेवशालितण्डुलानामुत्स्विन्नांविलेपमुष्णोदकद्वितीयामस्नेहलवणामल्पस्नेहलवणांवा-भोजयेत्। एवंपञ्चमेषष्ठे चान्नकालेसप्तमेत्वन्नकालेतथाविधानामेवशालीनांद्विप्रसृतंसुस्विन्न-मोनमुष्णोदकानुपानंतनुमातनुस्नेहलवणोपपन्नेनमुद्गयूपेणभोजयेत्। एवमष्टमेनवमेचान्नकाले-दशमेत्वन्नकालेलावकपिञ्जलादीनामन्यतमस्यमांसरसेनौदकलावणिकेनापिसारवताभोजयेत्। उष्णोदकानुपानमेवमेकादशेद्वादशेचान्नकाले॥२१॥
इसके अनंतर उस मनुष्यको सायंकाल या दूसरे दिन प्रातःकाल सुखोष्ण जलसे स्नान कराके पुराने साठीके चावल आदिकोंका यवागू बनाकर सुखोष्ण पिलावे। ऐसे ही दूसरे तीसरे समयभी सुखोष्ण नरम २ साठी चावलों आदिकी पेया बनाकर देवे। चौथे समय साठीके चावलोको बहुत नरम और गाढेसे वनाकर देवे अथवा उन चावलोकी विलेपीमे थोडी सी चिकनाई और सेधानमक मिलाकर टेवे। और गर्म जल पीनेको देवे। ऐसे ही पांचवे, छठे भोजनके समय भी करे। सातवेसमय साठी या शालिचावलोंका नरम बनाहुआ आधसेर भात णौर थोडेसे नमक और चिकनाई युक्त मूंगका यूप देवे और गर्म जल पिलावे। आठवे, नवमें अन्नकालमेभी ऐसा ही करे। दशवे समय लवा, तीतर आदिक किसी पवित्र पक्षीके मांसरससे यथेच्छ स्नेह लवण मिलाकर अन्न खावे और गरम जल पीवे। ऐसे ही ग्यारहवें, बारहवे समय भी करे॥२१॥
अतऊर्द्धमन्नगुणान्क्रमेणोपभुञ्जानःसप्तरात्रेणप्रकृतिभोजनमागच्छेत्॥२२॥
इसके उपरांत सात द्विनं तक सात्म्य और पथ्य भोजन कर्ताहुआ अपने स्वाभाविक भोजन पर आजाये॥२२॥
विरेचनविधि।
अर्थेनंपुनरेवस्त्रेहस्वेदाभ्यामुपवाद्यानुपहतमनसमभिसमीक्ष्य सुखोषितंसुप्रजीर्णभक्तंकृतहोम-बलिमङ्गलजप्यप्रायश्चित्तमिष्टतिथिनक्षत्रकरणमुहुर्तेब्राह्मणानस्वस्तिवाचयित्वात्रिवृतकल्कमक्ष-मात्रांयथार्हालोडनप्रतिविनीतंपाययेत्॥२३॥
अब फिर स्नेहन स्वेदन करके सर्वदुःखहित सुखपूर्वक बैठे हुए इसको पहले दिनका अन्न जीर्ण होनेपर होम, वलिदान, मंगलाचरण, जप, प्रायश्चित्त आदि कगक शुभ तिथि, नक्षत्र, करण मुहूर्तमें ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन और पुण्याहवाचन कराके एक बहेडंके समान (अथवा जितना उचित हो) निशोथका कल्क लेकर पानीमें घोलकर पिलादेवे॥२३॥
प्रसमीक्ष्यदोषभेषजदेशकालवलशरीराहारासात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणिविकारांश्च-सम्यक्विरिक्तञ्चैनंवमनोक्ते-नधूमवर्जेनविधिनोपपादयेदावलवर्णमतिलाभात्॥२४॥
फिर दोप औषध, देश, काल, वल, शरीर, आहार, सात्म्य, सत्त्व, प्रकृति, वय, तथा अन्य व्यवस्था, और रोगोंको विचारकर तथा रोगको उत्तम विरेचन होचुका यह विचारकर जबतक वल वर्ण ठीक न होजाय तब तक वमनमें कहीं विधिके वर्ताव करतारहै। परंतु वमनमें कहेहुए धूमपानको न करे॥२४॥
वलवर्णोंपपन्नञ्चैनमनुपहतमनसमभिसमीक्ष्यसुखोषितंसुप्रजीर्णभक्तंशिरःस्नातमनुलिप्तगात्रंस्त्रग्विणमनुपहतवस्त्रसंवीतमनुरूपालङ्कारालंकृतंसुहृदांदर्शयित्वाज्ञातीनांदर्शयेदथैनंकामेष्वव-सृजेत्॥२५॥
जब वह मनुष्य वलवर्ण युक्त होजाय और मन प्रसन्न हो तब पहले दिनका अन्न जीर्ण होनेपर सुखपूर्वक बिठाकर शिरसे स्नान करावे। और शरीर में चंदनादि सुगंधित लेप कर–फुलमाला, शुद्ध हलके वस्त्र और यथायोग्य वस्त्र आदिमे शोभायमान कर इसके मित्र और बांधवोंके दर्शन करावे। फिर इसको इसकी इच्छानुसार चतविकी आज्ञा देवे॥२५॥
भवंतिचात्र। अनेनविधिनाराजाराजमात्रोऽथवापुनः। यस्य वाविपुलंद्रव्यंससंशोधनमर्हति॥२६॥ दरिद्रस्त्वापदंप्राप्यप्राप्तकालंविरेचनम्। पिबेत्काममसंभत्यसम्भारानपिदुर्लभान्॥२७॥
यहां कहतेहै कि, इस विधिसे राजा अथवा राजाओंकी समान धनिक पुरुष जिसके यहां बहुत द्रव्य हो उसको शोधन करना चाहिये॥२६॥ और दरिद्रीके पास सव सामान हो नहीं सकता इसलिये जब उसको कोई वमन विरेचन साध्य रोग होय उसी समय यथासंभव योग्य औषध देकर आरोग्य करे॥२७॥
नहिसर्वमनुष्याणांसन्तिसर्वपरिच्छदाः। नचरोगानवाधन्ते दरिद्रानपिदारुणाः॥२८॥ यद्यच्छक्यंमनुष्येणकर्त्तुमौषधमापदि। तत्तत्सेव्यंयथाशक्तिवमनान्यशनानिच॥२९॥
क्योंकि सब मनुष्योंके यहां सब साधन नहीं होसकते और रोग तो दरिद्रियोंको भी वैसाही दारुण कष्ट देतेहैं। इसलिये जिससे जिस प्रकार यत्न हो जैसी, औषध आदि होसकती हो उसको रोग होनेपर वैसे ही यथाशक्ति शोधन और भोजनादि करने चाहिये॥२८॥२९॥
मलापहंरोगहरंवलवर्णप्रसादनम्। पीत्वासंशोधनंसम्यगायुषायुज्यतेचिरम्॥३०॥
उत्तम प्रकारसे संशोधन करनेसे दुष्ट मल और रोग नष्ट होताहैं। तथा बल और वर्ण उत्तम होतेहैं और आयु दीर्घ होती है॥३०॥
अध्यायका संक्षिप्तवर्णन।
तत्रश्लोकाः। ईश्वराणांवसुमतांवमनंसविरेचनम्। सम्भाराये यदर्थञ्च समानीयप्रयोजयेत्॥३१॥ यथाप्रयोज्यंयामात्रायदयोगस्यलक्षणम्। योगातियोगयोर्यच्चदोषायेचाप्युपद्रवाः॥३२॥ यदसेव्यं- विशुद्धेनयश्चसंसर्जनक्रमः। तत्सर्वंकल्पनाध्यायेव्याज हारपुनर्वसुः॥३३॥
इतिकल्पनाचतुष्केउपकल्पनीयोऽध्यायः।
** ** अध्यायके उपसंहारमें यह श्लोक है कि इस कल्पनीयाध्याय में राजाओं और धनिक पुरुषोको वमन विरेचन का क्रम और उनके साधनकी सामग्री, तथा वमन विरेचनकी मात्रा अयोगके लक्षण तथा सम्यक् योग और अतियोगके लक्षण अतियोगके उपद्रव, संशोधित मनुष्य के सेवनका क्रम और उसको छुट्टी देनेकी विधि, यह सब भगवान् पुनर्वसुजीने कथन किया है॥३१॥३२॥३३॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यांतर्वर्तिटकसालनिवासि-
वैद्यपञ्जानन प० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभापाटीकाया-
सुपकल्पनीयो नामः पंचदशोऽध्यायः॥१५॥
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षोडशोऽध्यायः।
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अथातश्चिकित्साप्राभृतीयमध्यायंव्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम चिकित्साप्राभृतीय अध्यायका कथन करतेहैं। ऐसा भगवान आत्रेयजी कहनेलगे।
सदसद्वैद्यके कर्मका फल।
चिंकित्साप्राभृतोविद्वान् शास्त्रवान् कर्मतत्परः। नरंविरेचयतियंसयोगात्सुखमश्नुते॥१॥
चिकित्सामेनिपुण, शास्त्रको जाननेवाला, अपने चिकित्साकर्ममें तत्पर वैद्य जिस मनुष्यको विरेचन कराताहै वह मनुष्य रोगमुक्त होकर परम सुखको भोगताहै॥१॥
यंवैद्यमानीत्वबुधोविरेचयतिमानवम्।
सोऽतियोगादयोगाच्चमानवोदुःखमश्नुते॥२॥
** ** और अपने आप वैद्य कहलानेवाला मूर्ख जिसको विरेचन देताहै वह अतियोग अथवा अयोगके होनेसे दुःखको भोगताहै॥२॥
अच्छे विरेचनके लक्षण।
दौर्बल्यंलाघवंग्लानिर्व्याधीनामणुतारुचिः। हृद्वर्णशुद्धिःक्षुत्तृष्णाकालेवेगप्रवर्त्तनम्॥३॥ बुद्धीन्द्रियमनःशुद्धिर्मारुतस्यानुलोमता। तम्यग्विरिक्तलिङ्गानिकायाग्नेश्चानुवर्त्तनम्॥४॥
देहमें दुर्बलता, हलकापन, ग्लानि, रोगका हास, रुचि, हृदय और वर्णकी शुद्धि, क्षधा, तृपाका ठीक होना, समयपर मलमूत्रका होना, बुद्धि, इन्द्रिय, और मनका शुद्ध होना, वायुका अनुलोम होना, जठराग्निका वलवान् होना यह लक्षण उत्तम विरेचन होनेके हैं॥३॥४॥
दुष्टविरेचनके लक्षण।
ष्ठीवनंहृदयाशुद्धिरुत्क्लेशःश्लेष्मपित्तयोः। आध्मानमरुचिच्छर्दिरदौर्वल्यमलाघवम्॥५॥ जंघोरुसादनंतन्द्रास्तैमित्यंपीनसागमः। लक्षणान्यविरिक्तानांमारुतस्यचनिग्रहः॥६॥
मुखसे पानी गिरना, हृदयका भारी होना, कफपित्तके निकलनेकी सी शंका रहना, अफाग, अरुचि, छर्दि, देहमे पुष्टता सीऔर भारीपन, टांगोंमें और घुटनोमे शिथिलता, तन्द्रा, देहमें गीलापन, प्रतिश्याय, अधोवायुका ठीक न निकलना यह लक्षण ठीक विरेचन न होनेसे होते॥५॥६॥
अतिविरेचितके लक्षण।
विट्पित्तश्लेष्मवातानामागतानांयथाक्रमम्। परंस्रवतियद्रक्तंमेदोमांसोदकोपमम्॥७॥ निःश्लेष्मपित्तमुदकंशोणितंकृष्णमेववा। तृष्यतोमारुतार्त्तस्यसोतियोगप्रमुह्यतः॥८॥
पहले विष्ठा, पित्त, बलगम, वात यह यथाक्रम निकलकर फिर भेद और मांसके धोवनकी समान रक्त निकलनेलगे और कफपित्त रहित पानीका निकलना अथवा काले रंगका रुधिर गिरना। और बेहोशी, प्यासकी अधिकता तथा वायुका कोप होना यह विरेचनके अतियोगके लक्षण हैं॥७॥८॥
वमनातिकृतेलिङ्गान्येतान्येवभवन्तिहि।
ऊर्द्धगावातरोगाश्चवाग्ग्रहश्चाधिकोपमः॥९॥
वमनके अतियोग होनेसे भी यही लक्षण होतेहैं परंतु ऊर्ध्वजत्रुगत वायुके रोग और वाणीका रुकना यह विरेचनके अतियोगसे वमनके अतियोगमे अधिक होतेहै॥९ ॥
चिकित्साप्राभृतंतस्मादुपेयात्कारणंनरः।
युञ्ज्याद्यएनमत्यन्तमायुषाचसुखेनच॥१०॥
इसीलिये चिकित्साके जाननेवाले सुज्ञ वैद्यकी शरणमें ही मनुष्यको स्वेदन, वमन, विरेचनादि लेने चाहिये क्योंकि योग्य वैद्य ही इसकी आयु और सुखकी रक्षा करताहै॥१०॥
संशोधनीय रोग।
अविपाकोऽरुचिःस्थौल्यंपाण्डुतागौरवंक्लमः। पित्तकाकोठकण्डूनांसम्भवोऽरतिरेवच॥११॥ आलस्यंश्रमदौर्बल्यंदौर्गन्ध्यमवमादकः। श्लेष्मपित्तसमुत्क्लेशोनिद्रानाशोऽतिनिद्रता॥१२॥ तन्द्राक्लैव्यमबुद्धित्वमशस्तस्वप्नदर्शनम्। बलवर्णप्रणाशश्चतृप्यतोबृंहणैरपि॥१३॥ बहुदोषस्य-लिङ्गानितस्मैसंशोधनं हितम्। ऊर्द्धञ्चैवानुलोमञ्चयथादोषंयथाबलम्॥१४॥
अन्नका परिपाक न होना, अरुचि, स्थूलता, पांडु, गुरुता, क्लाम, फोडे, कोठ जिल्दपर चकत्तेसे होना, खाज, इन सबका अधिकतासे होना. आलस्य, दुर्बलता, श्रम, देहसे दुर्गंध आना, अंगोका अवसाद, श्लेष्मा और पित्तकी अधिकता, दिलमचलानानिद्राका नाश, अथवा अतिनिद्रा, नपुंसकता, तन्द्रा, बुद्धिनाश, खराव स्वप्न दीखना, बल और वर्णका नाश होना, यह लक्षण वृंहणद्वारा अत्यंत संतर्पित होनेसे होतेहैं ॥११॥१२॥१३॥ और यही लक्षण जिसके शरीरमे बहुत दोष वढेहुए हों उसके भी होतेहैं। ऐसे समय संशोधन करना परम हितकारक होताहै। वह शोधन दोपादि विचारकर ऊर्ध्वशोधन या अधःशोधन अथवा वमन विरेचन द्वारा दोनों तर्फसे शोधन करना चाहिये॥१४॥
संशोधनका फल।
एवंविशुद्धकोष्ठस्यकायाग्निरभिवर्द्धते। व्याधयश्चोपशाम्यन्तिप्रकृतिश्चानुवर्तते॥१५॥ इन्द्रियाणि-मनोबुद्धिर्वर्णश्चास्यप्रसीदति। वलंपुष्टिरपत्यञ्चवृषताचास्यजायते॥१६॥ जरांकृच्छ्रेणलभतेचिरं-जीवत्यनामयः। तस्मात्संशोधनंकाले युक्तियुक्तंपिबेन्नरः॥१७॥
इस प्रकार शुद्ध कोष्ठवाले मनुष्यके जठराग्निकी वृद्धि होती हैं। सब रोग शांत होजातेहैं। सब स्वाभाविक गुण ठीक होजातेहैं। इंद्रियें, मनबुद्धि, वर्ण, यह प्रसन्न होंय। वल पुष्टि, संतान, पुरुषपना यह उत्पन्न होय। वुढापा जल्दी नहीआता, नीरोग रहकर बडी आयुवाला होय। इसलिये युक्तियुक्त वमन विरेचनसे शरीरको उचित कालमें शुद्ध करना चाहिये॥१५॥१६॥१७॥
संशोधनकी उत्कृष्टता।
दोषाःकदाचित्कुप्यन्तिजितालंघनपाचनैः। जिताःसंशोधनैर्येतुनतेषांपुनरुद्भवः॥१८॥ दोषाणाञ्च-द्रुमाणाञ्चमूलेऽनुपहते सति। रोगाणांप्रस्रवाणाञ्चगतानामागतिर्ध्रुवा॥१९॥
यदि लंघन और पाचनद्वारा दोष जीतेजांय तो वह कभी फिर भी कुपित होसकतेर्है। परंतु संशोधनद्वारा जीतेहुए दोष फिर प्रगट नहीं होसकते। दोषोको और वृक्षोको यदि विल्कल जडसे न निकालदिया जाय तो उन दवेहुएदोषांसे काल पाकर रोग और रहीहुई वृक्षकी जडसे फिर अंकुरादि पैदा होना अवश्यंभावी है इसलिये इनको जडसे निकालदेना ही अच्छा है॥१८॥१९॥
औषधक्षीणके लिये पथ्य।
भेषजक्षपितेपथ्यमाहारैरेववृंहणम्। घृतमांसरसक्षीरहृद्ययूषोपसाधितैः॥२०॥ अभ्यङ्गोत्सादनैःस्नानैर्निरूहैःसानुवासनैः। तथासलभतेशर्मयुज्यतेचायुषाचिरम्॥२१॥
यदि वमन विरेचनकी औषधिके अधिक सेवनसे मनुष्य क्षीण होजाय तो उसको पथ्य आहारोसे पुष्ट करना चाहिये। तथा घृत, मांसरस, दूध, हृद्य (हृदयको प्रिय) पदार्थ, यूषआदि देकर पुष्ट करे। और तैलकी मालिश, उवटना, स्नान, निरूहण और अनुवासन वस्ति, करे ऐसा करनेसे उसका कल्याण होताहै और आयु वढतीहै॥२०॥२१॥
वमनविरेचनातियोगमें चिकित्सा।
अतियोगानुवद्धानांसर्पिःपानंप्रशस्यते। तैलंमधुकरैःसिद्धमथवाप्यनुवासनम्॥२२॥ यस्यत्वयोगस्तंसिद्धंपुनःसंशोधयेन्नरम्। मात्राकालवलापेक्षीस्मरन्पूर्वमितिक्रमम्॥२३॥
यदि वमन विरेचनका अतियोग होगयाहो तो उसको योग्य औषधियोसे सिद्ध किया हुआ घृत पिलावे। अथवा मधुक आदिं गणसे सिद्ध कियेहुए तैलकी मालिशकरे अथवा ऐसे ही तेलसे अनुवामनक्रिया को॥२२॥ जिस मनुष्यकों वमन, विरेचनका अयोग हुआहो उसको फिर स्नेहन, स्वेदन करके संशोधन करे। और मात्रा, समय, वल, इनका ध्यान रखना चाहिये तथा प्रथम कहेहुए वमन विरेचनके क्रम और पेयादि पान करानेको याद रक्खे॥२३॥
स्नेहनेस्वेदनेशुद्धौरोगाःसंसर्जनेचये। जायन्तेऽमार्गविहितेतेषांसिद्धिषुसाधनम्॥२४॥
स्नेहन, स्वेदन, संशोधनआदि किसी क्रमके बिगडनेने जो रोग होते हैं उनका यत्न सिद्धिस्थानमें कहाजायगा॥२४॥
जायन्तेहेतुवैषम्याद्विषमादेहधातवः। हेतुसाम्यात्समास्तेषांस्वभावोपरमःसदा॥२५॥ प्रवृत्तिहेतु-र्भावानांननिरोधेऽस्तिकारणम्। केचित्त्वत्रापिमन्यन्तेहेतुंहेतोरवर्त्तनम्॥२६॥
आहार विहार आदि किसी कारणकी विषमतामे शारीरिक धातुवोंमें विषमता होतीहै और इसी प्रकार हेतु (कारण) की समतासे देहधारी धातुओंमें भी समता रहतीहै अर्थात् हेतुवैषम्यसे विषमता और हेतुसाम्यसे समता होना यह देहधारक धातुओंमें जो विषमता आदि अर्थात् कम और ज्यादा होना है इसका उपराम (नाश) होसकता है। परंतु धातुओंका नाश कभी नहीं होता। धातुओंको वढानेमें कारणोकी प्रवृत्ति होसकतीहै अर्थात् अपने कारणोंके प्रवृत्त होनेसे देहधारी धातु बढ़ तो सकतेहैं परंतु नाशको प्राप्त नहीं होसकते कोई कहतेहैं कि वढानेवाले कारणोंकी अप्रवृति (अभाव) से वह वदृते नहीं अर्थात् कम होजाते हैं॥२५॥२६॥
अग्निवेशकाप्रश्न।
एवमुक्तार्थमाचार्य्यमग्निवेशोऽभ्यभाषत। स्वभावोपरमेकर्मचिकित्साप्राभृतस्यकिम्॥२७॥ भेषजैर्विषमान्धातून्कान्समीकुरुतेभिषक्। कावाचिकित्साभगवन् किमर्थंवाप्रयुज्यते॥२८॥
इस प्रकार कहेहुए आचार्यके वचनको सुन अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन् ! उन रसादिक देहधारी धातुओंके स्वभावका उपराम होने पर चिकित्सामेंनियुत वैद्यका क्या कार्य है। और किन २ विषम धातुओंको वैद्य औषधिद्वारा साम्क्त करताहै और वह चिकित्सा क्या है। तथा किस कार्यके लियेउस चिकित्साका प्रयोगंकियाजाताहै॥२७॥२८॥
पुनर्वसुका उत्तर।
तच्छिष्यवचनंश्रुत्वव्याजहारपुनर्वसुः। श्रूयतामत्रयासौम्ययुक्तिर्दृष्टामहर्षिभिः॥२९॥ ननाश-कारणाभावाद्भावानां नाशकारणम्। ज्ञायतेनित्यगस्येवकालस्यात्ययकारणम्॥३०॥ शीघ्रगत्वाद्यथाभूतस्तथाभावोविपद्यते। विरोधकारणंतस्यनास्तिनैवान्यथाक्रिया॥३१॥
ऐसा शिष्यका कहाहुआ वचन सुनकर पुनर्वसुजी कहनेलगे कि हे सौम्य ! इस विषयमेमहपियोने जिस युक्तिका कथन कियाहै वह सुन जैसे नित्य कालके नाशका कारण नही प्रतीत होता अथवा यो कहिये कि जैसे भूतकालका शीघ्रगामी हानेस भी नाशका कारण प्रतीत नहीं होता ऐसे ही नाशके कारणके अभावसे भावोका नाश नहीं जाना जाता अर्थात् अभावको जो नाशका कारण मानतेहैं वह नहीं हो सकता क्योकि भूत, अवस्थासे जव द्रव्य विकृत हुआ तब वर्तमान अवस्थामे भी वही भूत अवस्था आई और भूत अवस्थाको ही सब लोग नाश कहतेहैं दर असलमे वह नाशको प्राप्त नहीं हुआ इसलिये चिकित्साका करना भी अन्यथा नहीं है॥२९॥३०॥३१॥
याभिःक्रियाभिर्जायन्तेशरीरेधातवःसमाः। साचिकित्साविकाराणांकर्मतद्भिषजांस्मृतम्॥३२॥ कथंशरीरेधातूनांवैषम्यंन भवेदिति। समानाञ्चानुबन्धःस्यादित्यर्थकुरुतेक्रियाः॥३३॥
जिस क्रियाके करनेसे शरीरकी धातुएं साम्यावस्थामेप्राप्त होजायं उस क्रियाको विकारोंकी चिकित्सा कहते। और चिकित्साकरनेमें जो कर्म होताहै वह वैद्याका कर्म है॥३२॥ जिस प्रकार करनेसे शरीरकी धातुएं विषम न होने पावे और जो विषम हो वह साम्यावस्थामे आजायॅतथा धातुओंकी समता बनी रहैइस कार्यके लिये चिकित्साका प्रयोग किया जाताहै॥३३॥
त्यागाद्विषमहेतूनांसमानाञ्चोपसेवनात्। विषमानानुवघ्नन्ति जायन्तेधातवःसमाः॥३४॥
धातुओंको विषम करनेवाले जो हेतु हैं उनको त्यागनेसे और साम्यावस्थाम रखनेवाले हेतुओके सेवनसे धातुओंमें विषमता नहीं आती और समता प्राप्त रहती है॥३४॥
समैस्तुहेतुभिर्यस्माद्धातून्सञ्जनयेत्समान्। चिकित्साप्राभृतस्तस्माद्दातादेहसुखायुषाम्॥३५॥ धर्मस्यार्थस्यकामस्यत्रिलोकस्याभयस्यच। दातासम्पद्यतेवैद्योदानाद्देहसुखायुषाम्॥३६॥
सम हेतु ओंसे जिसलिये धातुओंमें समता प्राप्त करताहै इसीलिये चिकित्सासंपन्न वैद्य ही आयु और सुखका दाता मानना चाहिये। धर्म, अर्थ, काम, और त्रिलोकीके सुखका कारण आरोग्यताको प्राप्त करनेवाला होनेसे वैद्यही देहसुख और आयुका दाता कहाजासकता है॥३५॥३६॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
तत्रश्लोकाः।
चिकित्साप्राभृतगुणोदोषोयश्चेतराश्रयः। योगायोगातियोगानांलक्षणंशुद्धिसंश्रयम्॥३७॥ वहुदोषस्यलिङ्गानिसंशोधनगुणाश्चये। चिकित्सासूत्रमात्रञ्चसिद्धिव्यापत्तिसंश्रयम्॥३८॥ याचयुक्तिश्चिकित्सायांयंचार्थंकुरुतेभिषक्॥ चिकित्साप्राभृतेऽध्यायेतत्सर्वमवदन्मुनिः॥३९॥
इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेकल्पनाचतुष्केचि-
कित्साप्राभृतीयोनामषोडशोऽध्यायः समाप्तः॥१६॥
अध्यायपूर्तिमे यह श्लोक हैं कि इस चिकित्साप्राभृत अध्यायमें चिकित्साप्राभृत वैद्यके गुण और मूर्ख वैद्यके दोषसंशोधन विषके योग, अयोग, अतियोग, इनके लक्षण, बहुत दोषके चिह्न, और संशोधनके गुण, सिद्धि और व्यापत्तिके आश्रयीभूत चिकित्साका सूत्रमात्र, चिकित्साके संबंधमें युक्ति, जिसकार्यके लिये वैद्य चिकित्सा करताहै यह सब मुनिजीने वर्णन कियाहै॥३७॥३८॥३९॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्र० प० रामप्रसाद० प्रसादन्यारव्यभापाटीकायां चिकित्सा-
प्राभृतीयो नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥
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सप्तदशोऽध्यायः।
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अथातःकियन्तःशिरसीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हेम कियंतःशिरसीय अध्यायका कथन करतेहैं। ऐसा आत्रेय भगवान् कहनेलगे।
रोगोंपर अग्निवेशका प्रश्न।
कियन्तःशिरसिप्रोक्तारोगाहृदिचदेहिनाम्॥१॥ कतिचाप्यनिलादीनांरोगामानविकल्पजाः। क्षयाःकतिसमाख्याताः पिडकाःकतिचानघ॥२॥ गतिःकतिविधाचोक्तादोषाणांदोषसूदन। हुताशवेशस्यवचःतच्छ्रुत्वगुरुरब्रवीत्॥३॥
अग्निवेश पूछनेलगे हे अनघ ! मनुष्योंके शिरमे कितने रोग होतेहैं, हृदयमें कितने रोग होतेहैं तथा वात, पित्त, कफ के भेदसे और इनके विकल्प तथा अंशादिभेदोंसे रोग कितने प्रकारके होतेहैं, क्षय कितने प्रकारके होतेहैं; पिडिका कितने प्रकारकी हैं। हे दोषोंके दूरकरनेवाले गुरो ! दोषोकी गति कितने प्रकारकी है। अग्निवेशके इस वचनको सुनकर गुरु कहनेलगे॥१॥२॥३॥
गुरुका उत्तर।
पृष्ठवानसियत्सौम्य। तन्मेशृणुसुविस्तरम्। दृष्टाःपञ्चशिरोरोगाःपञ्चैवहृदयामयाः॥४॥व्याधीनांद्व्यधिकाषष्टिर्दोषमानविकल्पजा। दशाष्टौचक्षयाःसप्तपिडकामधुमेहिकाः॥५॥ दोषाणांत्रिविधाचोक्तागतिर्विस्तरतःशृणु॥६॥
हे सौम्य ! जो तुमने मुझसे पूछाहै उसको विस्तारपूर्वक श्रवण करो। शिरमें होनेवाले रोग पांच प्रकारके देखनेमें आतेहैं। हृदयके रोग भी पांच प्रकारके ही होतेहैं। वातादि दोषोंकी अंशादिभेदकल्पनासे ६२ बासठ प्रकारके रोग होतेहैं। क्षय १८ प्रकारके होते हैं। मधुमेहसे सात प्रकारकी पिडका होतीहैं। दोषोंकी गति तीन प्रकारकी है। इन सबको अब विस्तारसे सुनो॥४॥५॥६॥
शिरोरोगोंके कारण।
सन्धारणाद्दिवास्वप्नाद्रात्रौजागरणान्मदात्। उच्चैर्भाष्यादवश्यायात्प्राग्वातादतिमैथुनात्। गन्धादसात्म्यादाघ्राताद्रजोधूमहिमातपात्॥७॥ गुर्वम्लहरिता-दानादतिशीताम्बुसेवनात्। शिरोऽभितापादृुष्टामाद्रोदनाद्बाष्पनिग्रहात्॥८॥ मेघागमान्मनस्ता-पाद्देशकालविपर्य्ययात्। वातादयःप्रकुप्यन्तिशिरस्यस्रंप्रदुष्यति॥९॥ ततःशिरसिजायन्तेरोगा-विविध लक्षणाः॥१०॥
मलमूत्रका वेग रोकनेसे, दिनमेसोनेसे, रात्रिमेंजागनेसे, मदसे, बहुत ऊंचे भाषणसे, सरदीसे, पूर्वकी पवनमे अतिमैथुनसे, असात्म्य गंध लेनेसे, रज, ध्म वायु, धूप इनके, सेवनसे, गुरु, अम्ल, शाक, सब्जी आदिके खानेस अत्यंत शीतल जल पीनेसे, शिरमें चोट आदि लगनेसे, आमके दोषस रोनेसे, आंसुआंके रोकनेसे अथवा भाफके निग्रहसे, वादलोके होनमे, मनके संतापसे देश और कालकी विकृतिसेऐसे २ कारणोंसे वातादि दोष कुपित होकर शिरके रक्तको दूषित करनेरहेतव शिरमें अनेक प्रकारके लक्षणोवाले रोग उत्पन्न होते है॥७॥८॥९॥१०॥
शिरका लक्षण।
प्राणाः प्राणभृतांयत्रश्रिताःसर्वेन्द्रियाणिच।
यदुत्तमाङ्गमङ्गानांशिरस्तदभिधीयते॥११॥
जिस जगह प्रणधारियोंके प्राण है और सब इंद्रिये आश्रित है तथा जो सब अंगोंमें उत्तम अंग है उसको “शिर” कहतेहैं॥११॥
जन्य वातादि शिरोरोग।
अर्द्धावभेदकोवास्यात्सर्वंवारुज्यतेशिरः। प्रतिश्यामुखनासाक्षिकर्णरोगाःशिरोभ्रमाः। अर्दितं-शिरसःकम्पोगलमन्याहनु ग्रहः॥१२॥ विविधाश्चापरेरोगावातादिक्रिमिसम्भवाः। पृथग्दृष्टास्तु- येपञ्चसंग्रहेपरमर्षिणा। शिरोगदांस्तान्शृणुमेयथास्वैर्हेतुलक्षणैः॥१३॥
आधे शिरमें पीडा होना वा संपूर्ण शिरमें पीडा होना, प्रतिश्याय, मुखरोग, नासारोग, अक्षिरोग, कर्णरोग, शिरका भ्रमणा, लकवा, शिरःकंप, गलेका अकडजानामन्यास्तंभ, हनुस्तंभ, तथा अन्य भी अनेक प्रकारके रोग वातादिभेदसे और कृमिजन्य रोग शिरमेंहोतेहैं। इनसे अलग जो पांच प्रकारके रोग महर्षियाने संग्रहमें कहेहैंउनशिरके रोगांको, जिन २ अपने कारणोंसे वह होतेहैं और उनके लक्षणोंको सुनो॥१२॥१३॥
वातज रोगोंके कारण।
उच्चैर्भाष्यातिभाष्याभ्यांतीक्ष्णपानात्प्रजागरात्। शीतमारुतसंस्पर्शाद्व्यवायाद्वेगनिग्रहात्। उपवासाच्चाभिघाताद्विरेकाद्वमनादपि॥१४॥ बाष्पशोकपरित्रासाद्भारमार्गातिकर्षणात्। शिरोगताःशिरावृद्धोवायुराविश्यकुप्यति॥१५॥ ततःशूलंमहत्तस्यवातात्समुपजायते। निस्तुद्येत-भृशंशंखौघाटासम्भिद्यतेतथा॥१६॥ भ्रुवोर्मध्यंललाटंचतपतीवातिवेदनम्। बाध्येतेस्वनतःश्रोत्रे-निष्कृष्येतइवाक्षिणी॥१७॥ घूर्णतीव शिरःसर्वसन्धिभ्यइवमुच्यते। स्फुरत्यतिशिराजालंतुद्यतेच शिरोधरा॥१८॥
बहुत ऊंचे और अधिक बोलनेसे, तीक्ष्ण मद्यादि पीनेसे, रात्रिमे जागनेसे, शीत पवनके लगनेसे, अति कसरतमे, मलादिवेगोंको रोकनेसे, उपवास करनेसे, अभिघातसे विरेचन और वमनजन्य विकारसे, रोनेसे, शोकसे, भयसे, त्राससे, बोझ उठानेसे, अति मार्गचलनेसे, अत्यंत दुःखसे, मस्तकगत वायु शिरकी नसीमेप्रवेश कर कुपित होजाताहै तब उस वायुसे भारी शूल उत्पन्न होताहै। और दोनों कनपटियोंमे पीडा होना, गरदनमें, पीडा, भॉवके मध्यमे पीडा, मस्तकका तपना और पीडायुक्त होना, कानोम शब्दसा होना, नेत्रोंमे खिंचावट, शिरका घूमना और शिरकी संधियोका खुलसा जाना, शिरकी नसोंका फडकना, शिरके धारण करनेवाली नसोमे पीडा होना, यह लक्षण वातजन्य शिरोरोगमें होते हैं॥१४॥१५॥१६॥१७॥१८॥
स्निग्धोष्णमुपसेवेतशिरोरोगेऽनिलात्मके॥१९॥
वातजन्य शिरोरोगमेस्निग्ध और उष्णक्रियाका सेवन करे॥१९॥
पित्तज शिरोरोगोंके कारण।
कट्वम्ललवणक्षारमद्यक्रोधातपानलैः। पित्तंशिरसिसन्दुष्टंशिरोरोगायकल्पते॥२०॥ दह्यतेरुज्यते-तेनशिरःशीतेनशूयते। दह्येतेचक्षुषीतृष्णाभ्रमःस्वेदश्चजायते॥२१॥
चर्परे, खट्टे, नमकीन और खारे पदार्थोंके सेवनसे, मद्य पीनेसे क्रोधसे, धूप, और अग्निके परितापसे, मस्तकका पित्त कुपित होकर मस्तकमें पित्तकी पीडा करताहै। तब मस्तकमे दाहयुक्त तोद (पीडा) होताहै वह तोद शीतल पदार्थोंके सेवनसे शान्त होताहै। जब पित्तजन्य मस्तकपीडा होतीहै तो नेत्रोंमें दाह प्पास भ्रम, पसीना आना, यह उपद्रव होतेहैं॥२०॥२१॥
कफज शिरोरोगके लक्षण।
आस्यासुखैःस्वप्नसुखैर्गुरुस्निग्धातिभोजनैः। श्लेष्माशिरसि सन्दुष्टःशिरोरोगायकल्पते॥२२॥ शिरोमन्दरुजंतेन सुप्तिस्तिमितभारिकम्। भवत्युत्पद्यतेतन्द्रातथालस्यमरोचकः २३॥
बहुत बैठारहनेसे, बहुत सोनेसे भारी और चिकने पदार्थोंके अधिक सेवनसे,शिरमें रहनेवाला कफ दूषित होकर कफजन्य मस्तक पीडा करता है। उससे शिरमें मंद २ पीडा होना, निद्रा आईहुईसी रहना, मस्तक गीलासा प्रतीत होना और बोझल होना, तंद्रा, आलस्य, और अरुचिका होना यह लक्षण कफजन्य मस्तक पीडाके होते हैं॥२२॥२३॥
त्रिदोषज शिरोरोगके लक्षण।
वाताच्छ्रलंभ्रमःकम्पःपित्ताद्दाहोमदस्तृषा।
कफाद्गुरुत्वंतन्द्राचशिरोरोगेत्रिदोषजे॥२४॥
त्रिदोषसे उत्पन्नहुए शिरोरोगमें वायुसे शूल और भ्रम; पित्तसे दाह, मद, तृषाःकफसे भारीपन और तंद्रा, यह लक्षण होते हैं॥२४॥
कृमिज शिरोरोगका लक्षण।
तिलक्षीरगुडाजीर्णपूतिसंकीर्णभोजनात्। क्लेदोऽसृक्कफमांसानांदोषश्चास्योपजायते॥२५॥ ततःशिरसिसंक्लेदात्क्रिमयः पापकर्मणः। जनयन्तिशिरोरोगंजातबीभत्सलक्षणम्॥२६॥ व्यवच्छेदरुजाकण्डूशोफदौर्गन्ध्यदुःखितम्। क्रिमिरोगातुरं विद्यात्क्रिमीणांलक्षणेनच॥२७॥ तिल, दूध, गुड, अजीर्णकर्ता पदार्थ, दुर्गंधित और बासी विरुद्ध भोजनके सेवनसे मस्तकके रक्त, कफ और मांसमें दोषयुक्त क्लेद (गीलापन) होजाताहै।
इस कुपथ्य पर चलनेवाले मनुष्यके शिरमें उस दूषित क्लेदसे कृमि उत्पन्न होजातेहैं। जो भयानक लक्षणोवाले शिरोरोग उत्पन्न करतेहैं तब शिरमे वेधने और छेदनेकी सी पीडा, खाज, सूजन, दुर्गधसे दुःखित होना, कृमियोंके अन्य लक्षण होना यह कृमिजन्य मस्तकपीडामे होतेहैं॥२५॥२६॥२७॥
वातजन्य हृदयरोग।
शोकोपवासव्यायामशुष्करूक्षाल्पभोजनैः। वायुराविश्यहृदयं जनयत्युत्तमांरुजम्॥२८॥ वेपथुर्वेष्टनंस्तम्भःप्रमोहःशून्यता द्रवः। हृदिवातातुरेरूपंजीर्णेचात्यर्थवेदना॥२९॥
शोक, उपवास और व्यायाम, शुष्क, रूक्ष और अल्प भोजनके करनेसे वायु हृदय में प्रवेश कर अत्यंत पीडाको पैदा करता है। तव हृत्कंप, लपेटनेकी सी पीडा, स्तंभ, मोह, शून्यता, हौलदिली, यह वातके हृदयरोगमें होतेहै और अन्न जीर्ण होनेपर विशेषतासे पीडा होती है॥२८॥२९॥
पित्तज हृदयरोग।
उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनैः। मद्यक्रोधातपैश्चाशु हृदिपित्तंप्रकुप्यति॥३०॥ हृद्दाहस्तिक्ततावक्त्रेक्लमःपित्ताम्लकोद्गरः। तृष्णामूर्च्छाभ्रमःस्वेदःपित्तहृद्रोगलक्षणम्॥३१॥
गरम, खट्टे, नमकीन, खारे, चरपरे और अजीर्णकर्ता पदार्थोके खानेसे, मद्य पीनेसे क्रोधसे, धूपके लगनेसे, हृदयमे पित्त कुपित होताहै। तब हृदयमे दाह होताहै, मुखमें कड्डवापन, खट्टी, कडुई डकारोका आना, कायली, तृषा, मूर्छा, भ्रम, दाह, यह लक्षण पित्तसे उत्पन्नहुए हृद्रोगमेहोतेहैं॥३०॥३१॥
कफज हृद्रोगके लक्षण।
अत्यादानंगुरुस्निग्धमचिन्तनमचेष्टनम्। निद्रासुखंचाभ्यधिकंकफहृद्रोगलक्षणम्॥३२॥ हृदयं-कफहृद्रोगेसुप्तंस्तिमितभारिकम्। तन्द्रारुचिपरीतस्यभवत्यश्मावृतंयथा॥३३॥
अत्यंत भोजनसे, भारी और चिकने पदार्थोके खानेसे, बेफिकरी और आलस्यसे, अधिक सोनेसे, कफजन्य हृद्रोग उत्पन्न होताहै। कफके हृद्रोगमे हृदय सोयाहुआ सा, गीला और भारी प्रतीत होताहै। तथा तन्द्रा, अरुचि, और हृदयका पत्थरोंसे दवा हुआसा प्रतीत होना यह लक्षण कफजन्य हृद्रोगमें होतेहैं॥३२॥३३॥
सांन्निपातिक हृद्रोगवर्णन।
**हेतुलक्षणसंसर्गादुच्यतेसान्निपातिकः। त्रिदोषजेतुहृद्रोगेयो दुरात्मानिषेवते। तिलक्षारगुडादीनि-ग्रन्थिस्तस्योपजायते॥३४॥ मर्मैकदेशेसंक्लेदंरसश्चास्योपगच्छति। संक्लेदात्क्रिमयश्चास्य-भवन्त्युपहतात्मनः॥३५॥ मर्मैकदेशेतेजाताःसर्पन्तोभक्षयन्तिच। तुद्यमानंस्वहृदयंसूचीभिरिव-मन्यते॥२६॥ छिद्यमानंयथाशस्त्रैर्जातकण्डूमहारुजम्। हृद्रोगंक्रिमिजंत्वेतैर्लिङ्गैर्बुद्धासुदारु-णम्। त्वरेतजेतुंतविद्वान्विकारंशीघ्रकारिणम् ३७ **
तीनों दोषोंके हेतुओंसे त्रिदोषके लक्षणोवाला हृद्रोग होताहै। जो अजितात्मा मनुष्य त्रिदोषके हृद्रोगमें तिल, दूध, गुड, आदि पदार्थोको खाताहै उसके हृदयमें ग्रंथि उत्पन्न होजातीहै। तब मर्मके किसी एक स्थानमें ग्स संक्लेदित होजाताहै, उत्क्लेदसे कृमि होजातेहैं वह किसी एक स्थानमें पैदाहुए कृमि इधर उधर घूमते और खाते फिरतेहैं। उस समय इस मनुष्यको अपने हृदयमें सूई चुभनेकीसी पीडा प्रतीत होतीहै। और जैसे शस्त्रसे कोई काटताहोऐसा प्रतीत होताहै। खुजली और भारी शूल भी कृमिजन्य हृद्रोगके लक्षण हैं। ऐसे घोर लक्षणोंवाले हृद्रोगको बुद्धिमान् वैद्य त्यागदेवे (या शीघ्र उपायकरे) क्योंकि यह रोग मनुष्यको शीघ्र मार डालताहै॥३४॥३५॥३६॥३७॥
द्व्युल्वणैकोलवणैःषट्स्युर्हीनमध्याधिकैश्चषट्। समैश्चैकेविकारास्तेसन्निपातेत्रयोदश॥३८॥
दो दो दोषोंकी प्रबलतासे ३ एक २ दोपकी प्रवलतासे ३ मिलकर छः हुए जैसे चातपित्तोल्वण, वातकफोल्वण, कफपित्तोल्वण, वातोल्वण, पित्तोल्वण, कफोल्वण यह ६ हुए ऐसे ही वात पित्त कफ इनके हीन मध्य अधिकके भेदोंसे छः हुए और एक तीनोंकी समतासे, ऐसे सब मिलकर सन्निपात १३ प्रकारके हुए॥३८॥
संसर्गविकारोंके भेद।
संसर्गेणचषट्तेभ्यएकवृद्ध्यासमैस्त्रयः।
पृथक्त्रयश्चतैर्वृद्धैर्व्याधयःपञ्चविंशतिः॥३९॥
एक दोषकी वृद्धिसे छः भेद और दोनोकी समतासे तीन भेद इस प्रकार द्विदोषज व्याधि ९ प्रकारकी होतीहै। और अलग २ एक २ दोषके वढनेसे एकदोषज रोग तीन प्रकारके है। इस प्रकार दोषोंकी वृद्धि आदिके भेदसे २५ प्रकारकी व्याधियां होतीहैं॥३९ ॥
य़थावृद्धैस्तथाक्षीणैर्दोषैःस्युःपञ्चविंशतिः।
वृद्धिक्षयकृतश्चान्योविकल्पउपदेक्ष्यते॥४०॥
दोपोकी वृद्धिके अनुसार दोषोकी क्षीणतासे भी २५ प्रकारकी व्याधियां होती हैं। ऐसे ही दोषोंकी वृद्धि और क्षीणताके विकल्पसे व्याधियें होतीहैं॥४०॥
वृद्धिरेकस्यसमताचैकैकस्यचसंक्षयः।
द्वन्द्ववृत्तिःक्षयश्चैकस्यैकावृद्धिर्द्वयोःक्षयः॥४१॥
एक दोषकी वृद्धि, दूसरेकी समता तीसरेका क्षय इस प्रकार ६ भेद हुए। दोनोकी वृद्धि एकका क्षय और एककी वृद्धि दोनोंका क्षय इस प्रकारसे छः भेदहोसकतेहैं उनको ही आगे कहतेहैं॥४१॥
प्रकृतिस्थंयदापित्तंमारुतःश्लेष्मणःक्षये। स्थानादादायगात्रेषुतत्रतत्रविसर्पति॥४२॥ तदाभेदश्च-दाहश्चतत्रतत्रानवस्थिताः। गात्रदेशेभवेत्तस्यश्रमोदौर्बल्यमेवच॥४३॥
जब कफक्षय होजाताहै तो प्रकृतिस्थ पित्तको उसके स्थानसे लेकर वायु इधर उधर शरीरके अंगोमें भ्रमण करताहै। वह वायु इधर उधर फिरताहुआ जिस २ अंगमें घूमताहै उसी २ स्थानमें भेदनकी सी पीडा, दाह, भ्रम और दुर्बलताको करताहै॥४२॥४३॥
साम्येस्थितंकफंवायुःक्षीणेपित्तेयदावली।
कर्षेत्कुर्य्यात्तदाशूलंसशैत्यस्तम्भगौरवम्॥४४॥
जब पित्त क्षीण होजाताहै तो प्रकृतिस्थ कफको बलवान् वायु जिस २ स्थानमें लेजाताहै उस २ अंगमें शूल, शीतता, स्तंभ, और भारीपनको करता है॥४४॥
यदानिलंप्रकृतिगंपित्तंकफपरिक्षये।
संरुणद्धितदादाहःशूलंचास्योपजायते॥४५॥
कफके क्षय होनेसे प्रकृतिस्थ वायुके सूक्ष्म मार्गोंको जब पित्त गेकदेताहै तो इस मनुष्यके शरीरमें दाह और शूल होतेहै॥४५॥
श्लेष्माणंहिसमपित्तंयदावातपरिक्षये।
निपीडयेत्तदाकुर्य्यात्सतन्द्रागौरवंज्वरम्॥४६॥
वायुके क्षय होनेपर प्रकृतिस्थ कफकी गतिको जब रोकदेताहै तब तन्द्रा, भारीपन और ज्वर इनको उत्पन्न करताहै॥४६॥
प्रवृद्धोहियदाश्लेष्मापित्तेक्षीणेसमीरणम्।
रुन्ध्यात्तदाप्रकुर्वीतशीतकंगौरवंज्वरम्॥४७॥
पित्तकी क्षीणतामे प्रकृतिस्थ वायुको जब कफ रोकदेताहै तब शीत लगना गौरव और ज्वर यह होतेहैं॥४७॥
समीरणेपरिक्षीणेकफःपित्तंसमत्वगम्। कुर्वीतसन्निरुन्धानो मृद्वग्नित्वंशिरोग्रहम्॥४८॥ निद्रां-तन्द्रांप्रलापञ्चहृद्रोगंगात्रगौरवम्। नखादीनाञ्चपीतत्वंष्ठीवनंकफपित्तयोः॥४९॥
वायुके क्षय होनेपर यदि प्रकृतिस्थ पित्तको कफ रोकदेवे तो मंदाग्नि, शिरमें पीडा, निद्रा, तन्द्रा, वकवाद, हृद्रोग, गौरव, नख नेत्र मूत्रमें पीलापन, कफ और पित्तका मुखसे थूकना यह लक्षण होतेहैं॥४८॥४९॥
हीनवातस्यतुकफःपित्तेनसहितश्चरन्। करोत्यरोचकापाकौसदनंगौरवंतथा॥५०॥ हृल्लास-मास्यस्रवणंदूयनंपाण्डुतांमदम्। विरेकस्यहिवैषम्यंवैषम्यमनलस्यच॥५१॥
जिस मनुष्यके शरीरमें वायुकी क्षीणता हो उसके शरीर में कफ पित्तसे मिलकर विचरती हुई अरुचि, अपाक, देहका रहजाना, गुरुता, हृल्लास, मुखस्राव, पांडु, वेदना, मद, मलकी विषमता और जठराग्निकी विषमताको करतीहैं॥५०॥५१॥
क्षीणपित्तस्यतुश्लेष्मामारुतेनोपसंहितः। स्तम्भंशैत्यंचतोदञ्चजनयत्यनवस्थितम्॥५२॥ गौरवं-मृदुतामग्नेर्भक्ताश्रद्धां प्रवेपनम्। नखादीनाञ्चशुक्लत्वंगात्रपारुष्यमेवच॥५३॥
पित्तके क्षय होनेपर कफ—वायुसे मिलकर विचरताहुआ स्तंभ, शीतता, तोद, गुरुता मंदाग्नि, अन्नसे द्वेष, कंप, नखादिकोंमें श्वेतता तथा देहमे कठोरता करताहै॥५२॥५३॥
हीनेकफेमारुतस्तुपित्तंतुकुपितंद्वयम्। करोतियानिलिङ्गानिशृणुतानिसमासतः॥५४॥ भ्रममुद्वेष्ट-नन्तोदंदाहंस्फोटनवेपनम्। अङ्गमर्दंपरीशोषंहृदयेधूपनंतथा॥५५॥
कफके क्षय होनेपर वायु और पित्तोंके मिलकर जो चिह्न होतेहैं उनको भी संक्षे पसे सुनो। वह यह हैं—भ्रम, उद्वेष्टन, तोद, दाहं, हड्डियोंका स्फोटन, कंपन, अंगमर्द, देहका शोप, हृदयमें धूवांसा उठना॥५४॥५५॥
वातपित्तक्षयेश्लेष्मास्रोतांस्यभिदधद्भृशम्।
चेष्टाप्रणाशंमूर्च्छाञ्चवाक्सङ्गचकरोतिहि॥५६॥
वात पित्तके क्षय होनेपर कफ स्रोतोंको अच्छीतरहसे रोककर चेष्टाका नाश, मूर्छा, और वाणीका अवरोध करताहै॥५६॥
श्लेष्मवातक्षयेपित्तंदेहौजःस्रंसयेद्यदा।
ग्लानिमिन्द्रियदौर्बल्यंतृष्णांमूर्च्छांक्रियाक्षयम्॥५७॥
वात और कफके क्षय होने पर पित्त देहके ओजको बिगाडकर ग्लानि, इंद्रियोंकी दुर्बलता, तृषा, गुर्छा और देहकी क्रियाका नाश करताहै॥५७॥
पित्तश्लेष्मक्षयेवायुर्मर्माण्यतिनिपीडयन्।
प्रणाशयतिसंज्ञांचवेपयत्यथवानरम्॥५८॥
जब पित्त और कफ क्षीण होजातेहैं तो वायु मर्मस्थानोको पीडित करता हुआ संज्ञाका नाश करताहै अथवा कंप पैदा करताहै॥५८॥
दोषाःप्रवृद्धाःस्वंलिङ्गदर्शयन्तियथाबलम्।
क्षीणाजहतिलिङ्गंस्वंसमाःसङ्कर्म्मकुर्वते॥५९॥
जब दोष वढ जातेहैं तो अपने २ लक्षणोको दिखातेहैं। ऐसे ही क्षीण हुए दोष अपने चिह्नोको त्यागदेतेहै। और साम्यावस्थामे स्थितहुए दोप अपने योग्य कार्य करतेहैं॥५९॥
वातादीनांरसादीनांमलानामोजसस्तथा॥
क्षयस्तत्रानिलादीनामुक्तंसंक्षीणलक्षणम्॥६०॥
वातादि तीन दोष, रसादि सात धातु, मलसमूह और ओज इन सबका क्षय होताहै। इनमे वातादि तीन दोषों के १८ प्रकारसे क्षयके लक्षण कहे जाचुके हैं (अब रसादिकोके कहतेहैं)॥६०॥
क्षीणरसके लक्षण।
घट्टतेसहतेशब्दंनोचैर्द्रवतिदूयते। हृदयंताम्यतिस्वल्पचेष्टस्यापिरसक्षये॥६१॥ परुषास्फुटि-ताम्लानात्वग्रूक्षारक्तसंक्षये। मांसक्षयेविशेषेणस्फिग्ग्रीवोदरशुष्कता॥६२॥
रसके क्षय होनेसे हडवडी, ऊंचा शब्द न सहाजाना, खडे होनेकी ताकत न रहना, हौल होना, हृदयका धक २ करना, अल्प परिश्रम करनेसे भी मनकी व्याकुलतानेत्रोंके आगे अंधकार सा आजाना यह लक्षण होतेहैं॥६१॥ रक्तके क्षय होनेसे त्वचा कठोर फटीसी और रूखी होजातीहै। मांसके क्षय होनेसे कमर, गर्दन और उदर यह विशेषतासे सूख जावें॥६२॥
भेदक्षीणके लक्षण।
सन्धीनांस्फुटनंग्लानिरक्ष्णोरायासएवच।
लक्षणंमेदसिक्षीणेतनुत्वंचोदरत्वचः॥६३॥
मेदके क्षय होनेसे-संधियोंका स्फोटन, ग्लानि, नेत्रोंका निकलसा पडना, थकावट, और उदर तथा त्वचाका कृश होना यह लक्षण होतेहैं॥६३॥
अस्थिक्षयके लक्षण।
केशलोमनखश्मश्रुद्विजप्रयतनंश्रमः।
ज्ञेयमस्थिक्षयेरूपंसन्धिशैथिल्यमेवच॥६४॥
अस्थियोमें क्षीणता होनेसे केश, लोम, नख, डाढीमूछ, और दांतोंका गिरना और भ्रम तथा संधियोमें शिथिलता यह लक्षण हो॥६४॥
मज्जाक्षीणके लक्षण।
शीर्य्यन्तइवचास्थीनिदुर्वलानिलघूनिच।
प्रततंवातरोगीचक्षीणमज्जनिदेहिनाम्॥६५॥
मज्जाके दाय होनेसे हड्डियोंका गिरपडना सा प्रतीतहोना और दुर्बल तथा हलकी होना और दुर्बल तथा हलकी होजाना, और सदैव शरीर में वातव्याधिका रहना यह लक्षण होतेहैं॥६५॥
क्षीणशुक्रके लक्षण।
दौर्बल्यंमुखशोषश्चपाण्डुत्वंसदनंक्लमः।
क्लैव्यंशुक्राविसर्गश्चक्षीणशुक्रस्यलक्षणम्॥६६॥
वीर्यके क्षय होनेसे दुर्बलता, मुखका सूखना, शरीरका पीला पडजाना, अंगोंका रहजाना, क्लम, नपुंसकता, और वीर्यका न आना यह लक्षण होतेहैं॥६६॥
विष्टाक्षयके लक्षण।
क्षीणेशकृतिचान्त्राणिपीडयन्निवमारुतः।
रूक्षस्योन्नमयन्कुक्षिंतिर्य्यगूर्द्धञ्चगच्छति॥६७॥
मलके क्षय होनेसे—वायु आतोको पीडन करताहै ऐसा प्रतीत होता है। और इसी कारण उस रूक्ष मनुष्यके शरीरमे वायु कूखको ऊंची तिरछी करता हुआ ऊपरको गमन करता है॥६७॥
मूत्रक्षीणका लक्षण।
मूत्रक्षयेमूत्रकृच्छ्रंमूत्रवैवर्ण्यमेवच।
पिपासाबाधतेचास्यमुखञ्चपरिशुष्यति॥६८॥
मूत्रके क्षय होनेसे–मूत्रकृच्छ्र, मूत्रकी विवर्णता, प्यास, मुखशोप, यह लक्षण होतेहै॥६८॥
मलक्षीणके लक्षण।
मलायनानिचान्यानिशून्यानिचलघूनिच।
विशुष्काणिचलक्ष्यन्तेयथास्वंमलसंक्षये॥६९॥
अन्य २ मलमार्गाके मलहीन होनेसे वह मार्ग शून्यतायुक्त तथा हलके और सूखेसे प्रतीत होतेहैं॥६९॥
क्षीण ओजका लक्षण।
विभेतिदुर्वलोऽभीक्ष्णंध्यायतिव्यथितेन्द्रियः।
दुच्छायोदुर्मनारूक्षःक्षामश्चैवौजसःक्षये॥७०॥
ओजके क्षयहोनेसे मनुष्य-भयभीत, दुर्बल, निरंतर चिंतायुक्त, विकलेंद्रिय, कांतिगहत, रूक्ष और कृश होजाताहै॥७०॥
ओजलक्षण।
हृदितिष्ठतियच्छुद्धंरक्तमीषत्सपीतकम्।
ओजःशरीरेसंख्यातंतन्नाशान्नाविनश्यति॥७१॥
जो शुद्ध रक्त किचित् पीतता लिये हृदयमें रहताहै शरीरमें उसको ओज कहतेहैं, उस ओजके नाश होनेसे मनुष्य भी नाशको प्राप्त होताहै॥७९॥
धातुक्षयके कारण।
व्यायामोऽनशनंचिन्तारूक्षाल्पप्रमिताशनम्।
वातातपौभयंशोकोरूक्षपानंप्रजागरः॥७२॥
कफशोणितशुक्राणांमलानांचातिवर्त्तनम।
कासोभूतोपघातश्चज्ञातव्याःक्षयहेतवः॥७३॥
अतिव्यायाम, भूखे रहना, चिंता, रूक्ष और थोडा भोजन करना, वायु और धूपका सहना, भय, शोक रूक्ष वस्तुओंका सेवन, बहुत जागना कफ और रक्त तथा वीर्यका अत्यंत निकलना, या निकालना, खॉसी और भूतबाधा यह सब क्षय होनेके कारण हैं॥७२॥७३॥
गुरुस्निग्धाम्ललवणंभजतामतिमात्रशः। नवमन्नंचपानंचनिद्रामास्यासुखानिच॥७४॥ त्यक्तव्यायामचिन्तानांसंशोधनमकुर्वताम्। श्लेष्मापित्तञ्चमेदश्चमांसंचातिप्रवर्द्धते॥७५॥ तैरावृतःप्रसादंहिगृहीत्वायातिमारुतः। यदावस्तिंतदाकृच्छ्रो मधुमेहःप्रवर्त्तते॥७६॥
भारी, चिकने, खट्टे, और नमकीन पदार्थोके अधिक सेवनसे नवीन अन्नके खानसे, बहुत जल अथवा मद्यके पीनेसे बहुत सोनेसे बहुत सुखपूर्वक बैठे रहनेस, कसरतके न करनेसे, बेफिकर रहनेसे, संशोधन कम करनेसे कफ, पित्त, मेद और मांस बहुत बढजातेहैं। फिर वायु उनसे आवृत हो ओज (सवधातुओके परम तेजको लेकर जब वस्तिस्थानमें प्राप्त होताहै तब दुःसाध्य मधुमेह उत्पन्न होजाता है॥७४-७६॥
समारुतस्यपित्तस्यकफस्यचमुहुर्मुहुः।
दर्शयत्याकृतिंकृत्वाक्षयमाप्याय्यतेपुनः॥७७॥
वह मधुमेह पहले वात पित्त और कफके लक्षणोको वारंवार दिखाताहै फिर क्षयको उत्पन्न करदेताहै॥७७॥
मधुमेहके उपद्रव।
उपेक्षयास्यजायन्तेपिडकाःसप्तदारुणाः। मांसलेष्ववकाशेषुमर्म्मस्वपिचसन्धिषु॥७८॥शराविकाकच्छपिकाजालिनी सर्षपीतथा। अलजीविनताख्याचविद्रधीचेतिसप्तमी॥७९॥
मधुमेहकी उपेक्षासे सात प्रकारकी दारुण पिडका मांसवाले स्थानोमें, मर्मस्थानमें, संधिस्थानमें, उत्पन्न होतीहैं। उनके-शराविका, कच्छपिका, जालनी, सर्षपी,अलजी, विनता, विद्रधि, यह सात नाम हैं॥६८॥७९॥
अन्तोन्नतामध्यनिम्नाश्यावाक्लेदरुजान्विता। शराविकास्यात्पिडकाशरावाकृतिसंस्थिता॥८०॥
जो पिडका ऊंचे किनारोंवाली हो मध्यमेंसे नीची हो स्राव क्लेद और पीडा युक्त हो तथा शराबके आकारकी हो उसको शराविका कहतेहैं॥८०॥
अवगाढार्त्तिनिस्तोदामहावास्तुपरिग्रहा। श्लक्ष्णाकच्छपपृष्ठाभापिडकाकच्छपीमता॥८१॥ स्तब्धाशिराजालवतीस्निग्धस्रावामहाशया। रुजानिस्तोदबहुलासूक्ष्मच्छिद्राचजालिनी॥८२॥
जिसमें कडापन हो, भेदनकी सी पीडा होतीहो, गंभीर हो, जो अनेक स्थानोंमें व्यापक हो, जिसका ऊपरका भाग चिकना और कछुवेकी पीठके समान हो उसको कच्छपिका कहतेहै॥८१॥ जो पिडक चौडीसी हो, उसपर नसोंका जालसा दिखाई देताहो, उसमेसे चिकना २ स्राव होताहो, अधिक दूर तक व्याप्तहो, जिसमें अत्यंत पीडा हो भेदनकी सी पीडा हो, छोटे २ बहुतसे छिद्र हों उसको जालनी कहतेहैं॥८२॥
पिडकानातिमहतीक्षिप्रपाकामहारुजा। सर्षपीसर्षपाभाभिः पिडकाभिश्चिताभवेत्॥८३॥ दहतित्वचमुत्थानेतृष्णामोहज्वरप्रदा॥ विसर्पत्यनिशंदुःखाद्दहत्यग्निरिवालजी॥८४॥
जो पिडका बडी न हो, और शीघ्र पकजावे, उसमे पीडा बहुत हो, सर्सैके समान हो, खुजलीयुक्त हो उसको सर्षपिका कहतेहै॥८३॥ जिस पिडकामें करडापन हो, पीडा अधिक हो, क्लेद अधिक हो, पीठ अथवा पेट पर प्रगट हुईहो, जो बडी हो, दबानेमे नरम हो, नीले रंगकी हो उसको विनता कहतेहै॥८४॥
अवगाढरुजाक्लेदापृष्ठेवाप्युदरेऽपिवा। महतीविनतानीला पिडकाविनतामता॥८५॥
विद्रधी दो प्रकार की होतीहै एक बाहरी दूसरी भीतरी। बाह्य विद्रधि—त्वचा, स्नायु और मासमे प्रगट होतीहै यह देखनेमे मोटी नसके समान होतीहै और इसमें पीडा अधिक होतीहै॥८५॥
विद्रधिंद्विविधामाहुर्वाह्यामाभ्यन्तरीतथा॥ बाह्यात्वक्स्नायुमांसोत्थाकण्डराभामहारुजा॥८६॥ शीतकान्नविदाह्युष्णरूक्षशुष्कातिभोजनात्। विरुद्धाजीर्णसंक्लिष्टविषमासात्म्यभोजनात्। व्यापन्नबहुमद्यत्वाद्वेगसन्धारणाच्छ्रमात्॥८७॥ जिह्मव्यायामशयनादतिभाराध्वमैथुनात्। अन्तःशरीरेमांसासगत्विशन्तियदामलाः॥८८॥ तदासञ्जायतेग्रन्थिर्गम्भीरस्थःसुदारुणः। हृदयेक्लोम्नियकृति-प्लीह्निकुक्षौचवृक्कयोः॥८९॥ नाभ्यांवंक्षणयोर्वापिवस्तौवातीव्रवेदनः। दुष्टरक्तातिमात्रत्वात्सवै-शीघ्रंविदह्यते॥९०॥ ततःशीघ्रविदाहित्वाद्विद्रधीत्यभिघ्रीयते॥११॥
शीतल अन्न, बिदाही, रूक्ष, सुखे पढार्थोके खानसे अत्यंत भोजन करनेसे विरुद्ध भोजनअजीर्णकर्ता पदार्थ, सडेवासे पदार्थ, विषम भोजन, अमात्म्य भोजन, तथा दूषित भोजन के सेवनसे, अधिक मद्य पीनेसे बेगांको रोकनेसे, श्रमसे, शरीरको विषमतासे रखनेसे, व्यायामकी अधिकतामे, अतिसोनेमे, मार उठानेसे, अति मार्ग चलने और अति मैथुनसे दूषित मल जब शरीरके भीतर मांस और रक्तमें प्रवेश करतेहैं, तो शरीरके भीतर गंभीर और दारुण ग्रंथिको पैदा करदेतेहैं। वह ग्रंथे (गांठ )–हृदय, क्लोम, यकृत्, प्लीहा, कुक्षि, दोनोवृक्क, नासी, वृक्षण अथवा वस्तिमे तीव्र वेदना युक्त होतीहै। वह गांठ दुष्टरुधिरकी अधिकता के कारण दाहपूर्वक शीघ्र पाकको प्राप्त होती है। इसलिये वही विदाही होनेसे विद्रधि कही जातीहै॥८६-९१॥
व्यधच्छेदभ्रमानाहशब्दस्फुरणसर्पणैः। वातिकींपैत्तिकीं तृष्णादाहमोहमदज्वरैः। जृम्भोत्क्लेशारुचिस्तम्भशीतकैः श्लैष्मिकींगिदुः॥९२॥ सर्वास्वासुमहच्छूलंविद्रधीषूपजायते॥ तप्तैःशस्त्रैर्यथामध्येतोल्मुकैरिव दह्यते। विद्रधीव्यम्लतांयातावृश्चिकैरिवदश्यते॥९३॥
बंधने और छेदनेकी सी पीडा, भ्रम, अफारा, शब्द, फडकना, सरसराहट, यह लक्षण वातकी विद्रधिमें होते हैं। प्यास, दाह, मोह, मद, तथा ज्वर यह पित्तकी विद्रधिमें होतेहैंजंभाई, उत्क्लेश (वमनको जी चाहना), अरुचि, स्तंभ, इनका होना तथा विद्रधिका शीतल होना यह कफकी विद्रधिंमें होतेहैं। इन सब प्रकारकी विद्रधियोंमें अत्यंत पीडा होतीहै। जैसे तपेहुए शस्त्रसे मथाजाय अथवा अंगारसे दहन कियाजाय ऐसा प्रतीत होता है। जब विद्रधि परिपाकको प्राप्त होती है तो बिच्छूके काटनेकी सी पीडाहोतीहै॥१२॥१३॥
तनुरूक्षारुणस्रावंफेनिलंवातविद्रधी। तिलमाषकुलत्थोदसन्निभंपित्तविद्रधी॥१४॥ श्लैष्मिकीस्त्रवतिश्वेतंबहुलंपिच्छिलंबहु। लक्षणंसर्वमेवैतद्भजतेसान्निपातिकी॥९५॥
वातकी विद्रधिमें अल्प, रूखा, लाल, झागदार स्राव होताहै। पित्तकी विद्रधिमेंतिल, उडद, अथवा कुलथीके क्वाथकी समान स्राव होताहै। कफकी विद्रधिमे—श्वेत पिच्छल, बहुत और गाढा स्राव होता है। सन्निपातकी विद्रधिमें तीनों दोषोंके लक्षण होतेहैं॥९४॥९५॥
अथासांविद्रधीनांसाध्यासाध्यविशेषज्ञानार्थस्थानकृतंलिङ्गविशेषमुपदेक्ष्यामः। तत्रप्रधानमर्म-जायांविद्रध्यांहृद्धट्टनतमकप्रमोहकासाःक्लोमजायांपिपासासुखशोषगलग्रहाः। यकृज्जायां श्वासः। प्लीहजायामुछ्वासोपरोधः। कुक्षिजायांकुक्षिपार्श्वान्तरांसशूलम्। वृक्कजायांपार्श्व-पृष्ठकटिग्रहः नाभिजायांहिक्का वंक्षणजायां सक्थिसादः। वस्तिजायांकृच्छ्रमूत्रपूतिवर्चस्त्वं चेति॥९६॥
अब हम इन विद्रधियोके साध्यासाध्य विशेष ज्ञानके लिये स्थानभेदसे लक्षणोंको कहतेहैं। इनमें प्रधान मर्म (हृदय) मे विद्रधि हो तो हृदयका घबडाना, तमकश्वास, बेहोशी, खांसी, यह उपद्रव होतेहैं। लोमस्थानमें विद्रधि हो तो—प्यास लगना, मुखका सूखना, गलेका रुकना, यह लक्षण होतेहैं। यकृतमे विद्रधि हो तो श्वास होता है। प्लीहामें विद्रधि होनेसे श्वास रुक जाताहै। कुक्षिमे विद्रधि हो तो कुख, पसवाडा, और पीठका बांस तथा इनके भीतरी अंशमे पीडा होती है। वृक्क स्थानमें विद्रधि होनेसे पसवाडा, पीठ और कमरमे पीडा होतीहै। नाभिमें होनेसे हिचकी होतीहै। वंक्षणस्थानमे होनेसे हड्डियोमें पीडा और टांगोका रहजाना यह लक्षण होतेहैं। वस्तिस्थानमें विद्रधि होनेसे मूत्रकृच्छ्र, और मलमूत्रका राधकीसी दुर्गन्धयुक्त आना यह लक्षण होतेहैं॥९६॥
पक्वामभिन्नासुऊर्द्धजासुमुखात्स्रावःस्रवति।
अधोजासुगुदात्, उभयतस्तुनाभिजायाम्॥१७॥
नाभिसे ऊपरके स्थानोंमें हुई अन्तविद्रधि जब पककर फूटतीहै तो मुखद्वारा स्राव निकलता है। नाभिसे नीचेके भागोमे अन्तर्विद्रधि पककर फूटे तो गुदाद्वारा स्रावहोताहै। नाभिमें हुई अंतर्विद्रधि फूटे तो मुख और गुदा दोनों द्वारा स्राव होताहै॥९७॥
तासांहृन्नाभिबस्तिजाः परिपक्वाःसान्निपातिकीचमरणाय। अवशिष्टाःपुनःकुशलमाशुप्रति-कारिणंचिकित्सकमासाद्योपशाम्यन्ति। तस्मादचिरोत्थितांविद्रधींशस्त्रसर्पविद्युदग्नितुल्यां स्नेहस्वेदविरेचनैश्चोपक्रामेत्। सर्वशोगुल्मवच्चेति॥१८॥
इन सब स्थानोंकी विद्रधियोंमें हृदय, नाभि, और वस्तिस्थानकी विद्रधि तथा सन्निपातकी विद्रधि मनुष्यकी मृत्युको करनेवाली होती है और अन्य विद्रधियां शीघ्र यत्न करनेवाले कुशल वैद्यसे शीघ्र यत्न करानेसे शांत होसकती हैं। इसलिये शस्त्र, सॉप, विद्युत्, अग्निके, समान, प्राण हग्नेवाली विद्रधिका, विद्रधि होते ही स्नेहन, स्वेदन, विरेचन द्वारा शीघ्र यत्न करे। संपूर्ण अंतर्विद्रधियोंमें गुल्मरोगकी समान चिकित्सा करे॥९८॥
भवंतिचात्राविनाप्रमेहमप्येताजायन्तेदुष्टमेदसः।
तावच्चैतानलक्ष्यन्तेयावद्वस्तुपरिग्रहः॥१९॥
और यहां यह भी कहा जाताहै कि प्रमेहके विना भी मेदके दूषित होनेसे यह विद्रधियें उत्पन्न होजातीहैं। जब तक यह विद्रधियां जड नहीं वांधलेतीं अर्थात् अपना जमाव नहीं करलेती तब तक पहिचानी नहीं जासकती॥९९॥
शराविकाकच्छपिकाजालिनीचेतिदुःसहाः।
जायन्तेताह्यतिवलाःप्रभूतश्लेष्समेदसाम्॥१००॥
शराविका, कच्छपिका और जालनी, यह तीन प्रकारकी पिडका अतिदुःसह होतीहैं और कफप्रकृति तथा मेदस्वी शरीरमे यह पिडका अतिबलपूर्वक होतीहैं॥१००॥
सर्षपीचालजीचैवविनताविद्रधीचयाः।
सद्यःपित्तोल्वणास्ताहिसम्भवन्त्यल्पमेदसाम्॥१०१॥
सर्षपी, अलजी, और विनता, तथा बाह्य विद्रधि यह पिडका पित्तप्रधान होती हैं और साध्य हैं, तथा अल्पमेदवाले शरीरमें होतीहैं॥१०१॥
मर्मस्वंसेगुदेपाल्योःस्तनेसन्धिषुपादयोः। जायन्तेयस्यपिडकाःसप्रमेहीनजीवति॥१०२॥ तथान्याःपिडकाःसन्तिरक्तपीतासितारुणाः। पाण्डुराःपाण्डुवर्णाश्चभस्माभामेचकप्रभाः॥१०३॥मृद्व्यश्चकठिनाश्चान्याःस्थूलाःसूक्ष्मास्तथापराः। मन्दवेगामहावेगाःस्वल्पशूलामहारुजाः॥१०४॥
जिस प्रमेहपीडित मनुष्यके मर्मस्थान, कंधा, गुदा, पाली, स्तन, संधि और पैरोंमे पिडका होजावे उसकी अवश्य मृत्यु होतीहै॥१०२॥ इनके सिवाय अन्य पिडका (फोडे) भी अनेक प्रकारकी होती हैं। वह पिडका–पीली, लाल, सफेद, किचित् लाल, भूरी, पाण्डुरंगकी, भस्मके रंगकी, मेचकके रंगकी, कोई नरम, कोई कठोर, कोई छोटी, कोई बडी, कोई मंदवेगवाली, कोई शीघ्र वेगवाली, कोई अल्प पीडावाली, कोई महापीडावाली, होतीहैं॥१०३॥१०४॥
ताबुद्धामारुतादीनांयथास्वैर्हेतुलक्षणैः।
ब्रूयादुपाचरेच्चाशुप्रागुपद्रवदर्शनात्॥१०५॥
उन पिडकाओको बातादिकोंके हेतु लक्षणोद्वारा जानकर वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, जो हो सो कहे। और उत्पन्न होते ही उपद्रव वढनेसे पहले यत्न करे॥१०५॥
तृट्श्वासमांससंकोथमोहहिक्कामदज्वराः।
वीसर्पमन्दसंरोधाः पिडकानामुपद्रवाः॥१०६॥
प्यास, श्वास, मांसका पचना, मोह, हिचकी, मद, ज्वर, विसर्प, हृदयका रुकासा होना, यह पिडकाओंके उपद्रव होतेहै॥१०६॥
क्षयःस्थानंचवृद्धिश्चदोषाणांत्रिविधागतिः। ऊर्द्ध्वञ्चाधश्चतिर्य्यक्चविज्ञेयात्रिविधापरा॥१०७॥ त्रिविधाचापराकोष्ठशाखामर्मास्थिसन्धिषु। इत्युक्ताविधिभेदेनदोषाणांत्रिविधागतिः॥१०८॥
क्षीण होजाना, साम्यावस्थामें रहना, और वढजाना, दोषों (वातपित्तकफ) की यह तीन प्रकारकी गति होती हैं। ऐसे ही ऊर्द्धगमन, अधोगमन, तिर्यक् गमन, एक यह गतिहै। इनसे सिवाय कोष्ठगति, शाखा (रक्तादि) गति, और मर्म, अस्थि, संधिमें गति, यह अन्य तीन प्रकारकी गति हैं। इस प्रकार वातादि दोषोकी विधिभेदसे तीन प्रकार तीन गतियां हैं॥१०७॥१०८॥
चयप्रकोपप्रशमाःपित्तादीनांयथाक्रमम्।
भवन्त्येकैकशःषट्सुकालेष्वभ्रागमादिषु॥१०९॥
वर्षा आदि छः ऋतुओंमें क्रमपूर्वक पित्त, कफ और वात इनमें एक २ के संचय प्रकोप और उपशम होतेहैं। अर्थात् वर्षामेंपित्तका संचय, शरदमें कोप, हेमंतमे शमन, शिशिरमें कफका संचय, वसंतमें कोप, ग्रीष्म में शांति एवं ग्रीष्ममें वायुका संचय, वर्षामेंकोप, और शरदमें उपशम होताहै॥१०९॥
गतिःकालकृताचैषाचयाद्यापुनरुच्यते।
गतिश्चद्विविधादृष्टाप्राकृतावैकृताचया॥११०॥
यह चय आदि गति अर्थात् दोपोका संचय, प्रकोप, उपशम यह त्रिविध गति कालकृत कही जाती है। वह कालकृत गति भी प्राकृत और वैकृत भेदसे दो प्रकारकी है॥११०॥
पित्ताद्द्ध्यूष्मोष्मणःपक्तिर्नराणामुपजायते।
तच्चपित्तंप्रकुपितंविकारान्कुरुतेवहून्॥१११॥
प्राकृत अर्थात् प्रकृतिस्थ पित्तकी गर्मीसे मनुष्योंके अन्नका यथोचित परिपाक होताहै, और विकारको प्राप्तहुआ पित्त अनेक रोगोको उत्पन्न करताहै॥१११॥
प्राकृतस्तुवलंश्लेष्माविकृतोमलउच्यते।
सचैवौजःस्मृतःकायेसचपाप्मोपदिश्यते॥११२॥
प्रकृतिस्थ अर्थात् ठीक स्वभावमें स्थित हुआ कफ शरीर में वल और ओज कहा जाताहै। और वही कफ विकृत होनेसे मल (दोष) और पाप कहाजाताहै॥११२॥
सर्वाहिचेष्टावातेनसप्राणःप्राखिनांस्मृतः।
तेनैवरोगाजायन्तेतेनचैवोपरुध्यते॥११३॥
प्रकृतिस्थ वायुसे ही शरीरियोंके शरीरकी सब प्रकारकी चेष्टा होतीहैं और यह वायु ही प्राणियोंका प्राण कंहाजाताहै। यदि यह वायु विकृत होजाय तो इसिसे अनेक रोग उत्पन्न होतेहैं और यही प्राणोंका अवरोध करताहै॥११३॥
नित्यंसन्निहितामित्रंसमीक्ष्यात्मानमात्मवान्।
नित्यंयुक्तःपरिचरेद्विच्छिन्नायुरभित्वरम्॥११४॥
क्योंकि रोगरूपी शत्रु सदैव मनुष्योंके निकट रहतेहैं इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य उचितानुचितको देखताहुआ आयुकी रक्षामें नित्य यत्नवान् रहे॥११४॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
तत्रश्लोकौ।
शिरोरोगाःसहृद्रोगारोगामानविकल्पजाः। क्षयाःसपिडकाश्चोक्तादोषाणांगतिरेवच॥११५॥ कियन्तःशिरसीयेऽस्मिन्नध्यायेतत्त्वदर्शिना। ज्ञानार्थंभिषजाञ्चैवप्रजानाञ्चहितैषिणा॥११६॥
इति रोगचतुष्के कियन्तःशिरसीयोनाम सप्त-
दशोऽध्यायः समाप्तः।
यहां अध्यायकी समाप्तिमें श्लोक है कि इस ‘कियन्तः शिरसीय’ अध्यायमें–शिरीरोग, हृद्रोग, रोगोंका मानभेद, क्षयोंके प्रकार, पिडकाओंके भेद, दोषोंकी गति, यह सब वैद्यलोगोंके ज्ञानके लिये और प्रजाके हितके लिये भगवान् आत्रेयजीने वर्णन किया॥११५॥११६॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसाद० भाषाटीकायां कियन्तःशिरसीयो नाम
सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
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अष्टादशोऽध्यायः।
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अथातस्त्रिशोफीयमध्यायंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम त्रिशोफीय अध्यायकी व्याख्या करतेहैं ऐसा भगवान आत्रेयजी कहनेलगे।
शोफमेद तथा वातादिजन्य लक्षण।
त्रयःशोथाभवन्ति। वातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः। तेपुनर्द्विविधाः निजागन्तुभेदेन। तत्रागन्तवः। छेदनभेदनक्षणनभञ्जनपिच्छनोत्पेषणप्रहारवधबन्धनवेष्टनव्यधनपीडनादिभिर्वा। भल्लातक-पुष्पफलरसात्मगुप्ताशूकक्रिमिशूकाहितपत्रलतागुल्मसंस्पर्शनैर्वास्वेदनपरिसर्पणावमूत्रणैर्वा-विषिणाम्। सविषाविषप्राणिदंष्ट्रादन्तविषाणनखनिपातैर्वा। सगरविषवातहिमदहनसंस्पर्शनैर्वाशोथाः-समुपजायन्ते। तेयथास्वंहेतुजैर्व्यञ्जनैरादावुपलभ्यन्ते। निजव्यञ्जनैकदेशविपरीतैःव्रणबन्ध-मन्त्रागदप्रलेपप्रवातनिर्वापणादिभिश्चोपक्रमैरुपक्रम्यमाणाःप्रशान्तिमापद्यन्ते॥१॥
शोथ (सूजन) तीन प्रकारका होता है। एक वातका, दूसरा पित्तका, तीसरा कफका। वह भी फिर दो प्रकारका होताहै एक निज, दूसरा आगंतुक। उनमें आगंतुक शोथ-छेदन,भेदन, क्षणन (घसीट लगना), भंजन, पिच्छन (दवना) उत्पेषण, प्रहार, वध, बंधन, वेष्टन, व्यधन और पीडन आदिसे उत्पन्न होताहै। अथवा भिलावेके फूल, फल, रस, कौंचकी फली, शूकविशेष, कृमियोंसे वा अन्य विषैले पत्र, लता, गुल्म, आदिके स्पर्श, स्वेद, परिसर्पण, वा मूत्रआदिसे अथवा विषवाले वा विना विपवाले प्राणियोंके दांत, सींग, नख, आदि लगनेसे अथवा गर, विष, पवन, हिम और अग्निके लगनेसे जो शोथ (सूजन) होताहै उसको आगंतुक शोथ कहतेहैं। वह आगंतुक शोथ अपने कारण और लक्षणोंसे प्रथम ही जाना जासकता है, क्योंकि यह शोथ निज कारणोंसे विपरीत अर्थात् बाहरी कारणोंसे प्रगट होताहै। व्रणबंधन, मंत्र, अगद, प्रलेप, सेक और निर्वार्पण आदि चिकित्सा द्वारा आगंतुज शोथ शांत होजाताहै॥१॥
निजास्तुपुनःस्नेहस्वेदनवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानामयथावत्प्रयोगान्मिथ्यासंसर्जनाद्वा। छर्द्यलसकविसूचिकाश्वासकासातीसारशोषपाण्डुरोगज्वरोदरप्रदरभगन्दरार्शो-विकारातिकर्षणैर्वा। कुष्ठकण्डूपिडकादिभिर्वाछर्दिक्षवथूद्गारशुक्रवातमूत्रपुरीषवेगधारणैर्वाचर्म-रोगोपवासकर्षितस्यवा। सहसातिगुर्वम्ललवणपिष्टान्नफलशाकरागदधिहरीतकमद्यमन्दक-विरूढयावशूकशमीधान्यानूपौदकपिशितोपयोगान्मृत्पङ्कलोष्ट्रभक्षणाल्लवणातिभक्षणाद्वागर्भ-सम्पीडनादामगर्भप्रपतनात्प्रजातानाञ्चमिथ्योपचारादुदीर्णदोषत्वाच्छोथाःप्रादुर्भवन्ति। इत्युक्तः- सामान्योहेतुः॥२॥
निज शोथ, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवांसन और शिरोविरेचनके अनुचित प्रयोगसे अथवा इनमे कुपथ्यादि होनेसे उत्पन्न होताहै। ऐसे ही वमन, अलसक, विसूचिका, श्वास, खांसी, अतिसार, शोष, पांडु, उदररोग, प्रदर, भगंदर, अर्श, इनके कारणसे क्षीणहुए पुरुषोंके भी शोथ उत्पन्न होजाताहै। एवं कुष्ठ, खाज, पिडका आदिसे अथवा वमन, छीक, डकार, शुक्र, अधोवात, मल और मूत्रके वेगके धारणसे और चर्मरोग तथा उपवाससे कृश हुए मनुष्यके भी शोथ उत्पन्न होजाताहै। और एकाएकी बहुत भारी, खट्टे, नमकीन, पिष्टपदार्थ, फल, शाक, राग, दही, हरित, मद्य, मंदक, अंकुर आयेहुए धान्य, शूकधान्य, शमीधान्य, अनुपसंचारी और जलचारी जीवोंके बहुत मांस खानेसे। मट्टी, कीच और रोडके खानेसे अधिक नमक खानेसे। गर्भके पीडन या पात होनेसे अथवा प्रसूतकालमें मिथ्या उपचार होनेसे। से और उखडे हुए दोर्पोको रोक लेनेसे शोथ उत्पन्न होता है। यह शोथके सामान्य कारण कहेगयेहैं॥२॥
अयंत्वत्रविशेषः। शीतरूक्षलघुविषदश्रमोपवासातिकर्षणक्षेपणादिभिर्वायुःप्रकुपितःत्वङ्मांस-शोणितादीन्यभिभूयशोथञ्जनयति। सक्षिप्रोत्थापनप्रशमोभवति। श्यावारुणवर्णः प्रकृतिवर्णोवा-चलःस्पन्दनःखरपरुषभिन्नत्वग्लोमाच्छिद्यतइवभिद्यतइवपीड्यतइवसूचीभिरिवतुद्यतेपिपीलिका-भिरिवसंसृप्यतेसर्षपकल्कालिप्तइवचिमिचिमायतेसंकुच्यतेआयम्यतेइतिवातशोथः॥३॥
शोथके विशेष कारण यह हैं कि शीतल, रूक्ष, हलके, और विशद पदार्थके अधिक सेवनसे, परिश्रम और उपवासके कारण कृश होनेसे और आक्षेपण आंदिसे वायु कुपित होकर त्वचा, मांस, रक्तादिकमे प्राप्त हो, शोथको उत्पन्न करदेता है। वह वातजन्य शोथ शीघ्र प्रगट और शीघ्र ही शांत होजाताहै। वह काला, लाल तथा रूक्षवर्ण होताहै, इधर उधर चलनेवाला होताहै और फडकताहै। इसमे त्वचा, लोम, कडे खरदरे तथा फटेसे होतेहैं। और छेदने, भेदने, पीडन करने तथा सुई चुभोनेके समान पीडा होती है। इस शोथमे कीडियोंके चलनेके समान प्रतीत होताहै और सर्षप पीसकर लेपकरनेसे जैसी चरचराहट लगतीहै यह शोथ कभी कम होजातीहै कभी फैलजाती है। यह सब लक्षण वातके सूजनके हैं॥३॥
उष्णतीक्ष्णकटुकक्षारलवणाम्लाकीर्णभोजनैरग्न्यातपप्रतापैश्चपित्तंप्रकुपितंत्वङ्मांसशोणितान्यभि-भूयशोथञ्जनयति। साक्षिप्रोत्थानप्रशमोभवति। कृष्णपीतनीलताम्रकावभासउष्णो मृदुःकपिलताम्रलोमाउष्यतेदूयते-धूप्यतेऊष्मायतेस्विद्यतेक्लिद्यतेनचस्पर्शमुष्णंवासुषूयतेइतिपित्तशोथः॥४॥
उष्ण, तीक्ष्ण, कटु, क्षार, नमकीन और अजीर्णकारक पदार्थोंके खानेसे, अग्नि, धूप और संतापके सहनेसे पित्त कुपित होकर त्वचा, मांस, रक्त आदिको बिगाडकर सूजन प्रगट करताहै। यह शीघ्र ही उत्पन्न होजाता और शांत होजाता है। और यह काले, पीले, नीले और तामेके वर्णका होता है। तथा स्पर्शमें उष्ण और नम्र होता है। लोम भूरे और ताम्रवर्णके प्रतीत होते है। इसमें दाह और पीडा अधिक होतीहै, धूआंसा उठता है अग्निके समान गर्म मालूम हो, पसीना आवे, क्लेद निकले। गरम वस्तु छू ही न जाय। यह पित्तशोथके लक्षण हैं॥४॥
गुरुमधुरशीतस्निग्धैरतिस्वप्नव्यायामादिभिश्चश्लेष्माप्रकुपितः त्वङ्मांसशोणितादीन्यभिभूय-शोथञ्जनयति। स कृच्छ्रोत्थानप्रशमोभवति। पाण्डुःश्वेतावभासःस्निग्धःश्लक्ष्णःगुरुःस्थिरः- स्त्यानःशुक्लाग्रारोमास्पर्शोष्णसहश्चेतिश्लेष्मशोथः॥५॥
भारी, मीठे, शीतल, चिकने, पदार्थोंके सेवनसे, अधिक सोनेसे, परिश्रम न करनेसे कफ कुपित होकर त्वचा, मांस, रुधिर आदिकोंमें प्रवेश कर शोथको उत्पन्न करताहै। वह (शोथ देरमें प्रगट होताहै और देरमें ही शांत होता है। और पांडु या सफेद वर्णका होताहै, तथा चिकना, गाढा, भारी, कठोर, गीला सा होताहै लोमोंका अग्रभाग सफेद सा होजाता है और इस शोथ पर गरम स्पर्श प्रिय मालूम होता है। यह कफके सूजनके लक्षण हैं॥५॥
यथास्वकारणाकृतिसंसर्गाद्द्विदोषशजास्त्रयःशोथाःभवन्ति। तथास्वकारणाकृतिसन्नि-पातात्सान्निपातिकएकः। एवंसप्तविधोभेदः। प्रकृतिभिस्ताभिर्भिद्यमानोद्विविधस्त्रिविधश्चतुर्विधः सप्तविधश्वशोथउपलभ्यते। पुनश्चैकएवोत्सेधसामान्यादिति॥६॥
दो दो दोषोंके कारण और लक्षणोंके सम्बन्धसे वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज, इन भेदोंसे तीन प्रकारका सूजन होताहै। ऐसे ही तीनों दोषोंके कारण और लक्षण मिलनेसे सन्निपातका १ सूजन होताहै। इस प्रकार निज सूजनके सात भेद हुए।प्रथम स्वभावभेदसे निज और आगंतुज सूजन दो प्रकारका है। फिर वात, पित्त, कफ इन भेदोंसे तीन प्रकारका होताहै। और वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज, सन्निपातज इन भेदोंसे चार प्रकारका हुआ, वातादिकोंके भेदोंसे सन्निपातपर्यंत सात प्रकारका हुआ। सामान्य शोथ धर्मसे देखाजाय तो शोथ एक ही प्रकारका है॥६॥
वातजशोथके लक्षण।
भवतिचात्र। शूयन्तेयस्यगात्राणिस्वपन्तीवरुजन्तिच। मिपीडितान्युन्नमन्तिवातशोथन्तमादिशेत्॥७॥ यश्चाप्यरुणवर्णाभःशोथोनक्तप्रणश्यति। स्नेहोष्णमर्दनाभ्याञ्चप्रणश्येत्सचवातिकः॥८॥
औरभी कहाहै कि जिस सूजनके अंग सोएहुएसे प्रतीत हों और पीडा होतीहो तथा अंगुलीसे दबाने पर दवजाय और अंगुली उठानेसे फिर ऊपर उठआये उसको बातका सूजन जानना। और जो शोथ लाल वर्णका हो, रात्रिमें कुछ शांत होजाय तथा स्नेहन करनेसे और गरम वस्तुओंके लेप या मर्दनसे शांत होजाय वह वायुका सूजन जानना॥७॥८॥
यःपिपासाज्वरार्तस्यदूयतेऽथविदह्यते। स्विद्यतेक्लिद्यतेगन्धी सपित्तश्वयथुःस्मृतः॥९॥ यःपीतनेत्रवक्रत्वक्पूर्वमध्यात्प्रसूयते। तनुत्वक्चातिसारीचपित्तशोथःसउच्यते॥१०॥
जिस शोथमें–प्यास, ज्वर, पीडा, दाह, हों और पसीना आताहो तथा क्लेद, दुर्गन्ध, आतेहों वह पित्तका सूजन कहाहै। और जिसमें रोगीके मुख, नेत्र, त्वचा पीले होगयेहों, पहले शरीरके मध्य भागसे उत्पन्न हो, शोथके ऊपर त्वचा पतली सी प्रतीत हो, और रोगीको दस्त आतेहों तो वह पित्तकी सूजन कही जाती है॥९॥१०॥
यःशीतलःसक्तगतिःकण्डूमान्पाण्डुरेवच। निपीडितोनोन्नमतिश्वयथुःस कफात्मकः॥११॥ यस्यशस्त्रकुशच्छेदाच्छोणितेनप्रवर्त्तते। कृच्छ्रेणपिच्छान्स्रवतिसचापिकफसम्भवः॥१२॥
जो शोथ स्पर्शमें शीतल हो, स्थिर रहे, खुजलीयुक्त हो, पांडुवर्णका हो, दबानेसे न दबे वह सूजन कफात्मक होताहै। जिस सूजनमें कुशा, शस्त्र, आदिसे छेदन करंनेपर भी रक्त न निकले, और कठिनतासे थोडा २ गाढा स्राव हो उस सूजनको कफसे उत्पन्नहुआ जानना॥११॥१२॥
निदानाकृतिसंसर्गाच्छ्वयथुःस्याद्विदोषजः।
सर्वाकृतिःसन्निपाताच्छोथोव्यामिश्रहेतुजः॥१३॥
दो दोषोंके निदान और लक्षण मिलनेसे द्विदोषज शोथ जानना। जिसमें तीनों दोशोंके हेतु, लक्षण मिलते हों वह सन्निपातका सूजन जानना॥१३॥
यस्तुपादाभिनिर्वृत्तःशोथःसर्वाङ्गगोभवेत्।
जन्तोःसचसुकष्टःस्यात्प्रसृतःस्त्रीमुखाच्चयः॥१४॥
जो सोज पुरुषके पावोंसे उत्पन्न होकर सब अंगोंमें व्यापक होजाय और त्रीके मुख्से उठकर सब अंगोंमें प्राप्त होजाय वह सूजन कष्टसाध्य होता है॥१४॥
यश्चापिगुह्यप्रभवःस्त्रियोवापुरुषस्यवा।
सचकष्टतमोज्ञेयोयस्यचस्युरुपद्रवाः॥१५॥
जो शोथ स्त्रीके अथवा पुरुषके गुह्यस्थानमें प्रगट हुआ हो वह कष्टसाध्य होताहै। यदि उसमें अन्य उपद्रव भी हों तो बहुत ही कष्टसाध्य होजाताहै॥१५॥
छर्दिःश्वासोऽरुचिस्तृष्णाज्वरोऽतीसारएवच।
सप्तकोऽयंसदौर्बल्यःशोथोपद्रवसंग्रहः॥१६॥
छर्दि, श्वास, अरुचि, प्यास, ज्वर, अतिसार, दुर्बलता, यह सात शोथरोगके उप द्रव होतेहैं॥१६॥
उपजिह्विकाकारण।
यस्यश्लेष्माप्रकुपितःजिह्वामूलेऽवतिष्ठते।
आशुसंजनयेच्छोथंजायतेऽस्योपजिह्विका॥१७॥
जिस मनुष्यके कफ कुपित होकर जीभकी जडमें स्थित होजाताहै उसके उपजिह्नका नामका सूजन प्रगट करताहै॥१७॥
यस्यश्लेष्माप्रकुपितःकाकलेव्यवतिष्ठते।
आशुसञ्जनयञ्छोथंकरोतिगलशुण्डिकाम्॥१८॥
जिसके कफ कुपित होकर काकलकी जडमें सूजन प्रगट करे उस सूजनको गलशुंडिका कहतेहैं॥१८॥
गलशुण्डिकाकारण।
यस्यश्लेष्माप्रकुपितस्तिष्ठत्यन्तर्गलेस्थितः।
आशुसञ्जनयञ्छोथंगलगण्डोऽस्यजायते॥१९॥
जिसके कफ कुपित होकर गलेकी नसोंमे प्रवेश कर बाहरको सूजन प्रगट करे उस गलके बाहरी शोथको गलगंड कहतेहैं॥१९॥
गलगण्डका कारण।
यस्यश्लेष्माप्रकुपितोगलबाह्येऽवतिष्ठते।
शनैःसञ्जनयञ्छोथंजायतेऽस्यगलग्रहः॥२०॥
जिसके कफ कुपित हो गलेके भीतर शोथको प्रगढ करे उस शोथको गलग्रह कहतेहैं॥२०॥
गलग्रहका कारण।
यस्यपित्तंप्रकुपितंसरक्तंत्वचिसर्पति।
शोथंसरागंजनयन्विसंर्पस्तस्यजायते॥२१॥
जिसके पित्त कुपित होकर रुधिरके साथ मिलकर त्वचामें विचरता हुआ लाल रंगका शोध प्रगट करे उस शोथको विसर्प कहतेहैं॥२१॥
विसर्पका कारण।
यस्यपित्तंप्रकुपितंत्वचिरक्तेऽवतिष्ठते।
रागंसशोथञ्जनयन्पिडकातस्यजायते॥२२॥
जिसके पित्त कुपित होकर त्वचाके रक्तमें स्थित होकर लाल रंगकी फुनसी सी प्रगट करे उस सूजनको पिडका कहतेहैं॥२२॥
यस्यपित्तंप्रकुपितंशोणितं प्राप्यशुष्यति।
तिलकापिप्लवोव्यंगो नीलिकाचास्यजायते॥२३॥
यस्यपित्तंप्रकुपितंशंखयोरवतिष्ठते।
श्वयथुःशंखकोनामदारुणस्तस्यजायते॥२४॥
कुपितहुआ पित्त जिसके रक्तमें प्रवेश करके सूखजाय उसके शरीरमें तिल, छाई लहसन, नीलिका आदि क्षुद्ररोगोंको प्रगट करताहै जिसके कुपितहुआ पित्त शंखें, (शिरकी हड्डियोमें) में प्राप्त हो शोथ करे उस शोथको ‘शंखक’ नामक दारुणशोष कहतेहैं॥२३॥२४॥
कर्णमूलका कारण।
यस्यपित्तंप्रकुपितंकर्णमूलेऽवतिष्ठते।
ज्वरान्तेदुर्जयोऽन्तायशोथस्तस्योपजायते॥२५॥
जिसके पित्त कुपित होकर कानकी जडमें शोध प्रगटकरे तो यह कर्णमूल शोथ दुर्जय होताहै यदि यह शोथ ज्वरके अंतमें प्रकट होय तो मनुष्यका भी अंत करदेताहै॥२५॥
प्लीहाका कारण।
वातःप्लीहानमुद्ध्यकुपितोयस्यतिष्ठति।
शूलैःपरिदन्पार्श्वंप्लीहातस्याभिवर्द्धते॥२६॥
जिसके वायु कुपित होकर प्लीहा (तिल्ली) में प्रवेश कर उसको ऊंची करदेवे वह प्लीहा धीरे २ पीडाके साथ बढजाती है (यह प्लीहशोथ कहाजाताहै)॥२६॥
गुल्मका कारण।
यस्यवायुःप्रकुपितोगुल्मस्थानेचतिष्ठति।
शोथंसशूलञ्जनयन्गुल्मस्तस्योपजायते॥२७॥
कुपित वायु जिसके गुल्मस्थानमें प्रवेश करताहै उसके पीडाके साथ गुल्मरूपी शोथको पैदा करदेताहै॥२७॥
ब्रध्नका कारण।
यस्यवायुःप्रकुपितःशोथशूलकरश्चरन्।
वंक्षणाद्वृषणौयातिब्रघ्नंतस्योपजायते॥२८॥
जिसके वायु कुपित होकर पीडायुक्त शोथवंक्षण (जंघाके मूल) में पेडूसे अंडकोशकी ओरको उत्पन्न करे उस शोथको ब्रध्न कहतेहैं॥२८॥
उदरका लक्षण।
यस्यवातःप्रकुपितःत्वङ्मासान्तरमाश्रितः।
शोथंसञ्जनयन्कुक्षावुदरंतस्यजायते॥२९॥
कुपित वायु जिसके कुक्षिस्थानकी त्वचा और मांसमें मिल पेटको सुजा देताहै उस शोथको शोथोदर कहतेहैं॥२९॥
अनाहका कारण।
यस्यवातःप्रकुपितःकुक्षिमाश्रित्यतिष्ठति।
नाधोव्रजतिनाप्यूर्द्धञ्चानाहस्तस्यजायते॥३०॥
क्रुद्ध वायु जिसकी कुक्षिमें स्थित होकर न नीचे गमन करे न ऊपर जावे इस वायुके अवरोधको अफारा कहतेहैं॥३०॥
रोगाश्चोत्सेधसामान्यादधिमांसार्बुदादयः।
विशिष्टानामरूपाभ्यांनिर्देश्याःशोथसंग्रहे॥३१॥
अधिमांस और अर्बुदादिक नाम रूप करके शोथसे अलग होनेपर भी उठनेवाले सामान्यधर्मसे शोथोंमें ही गणना करने चाहियें॥३१॥
रोहिणीका कारण।
वातपित्तकफायस्ययुगपत्कुपितास्त्रयः।
जिह्वामूलेऽवतिष्ठन्तेविदहन्तःसमुच्छ्रिताः॥३२॥
जनयन्तिभृशंशोथंवेदनाश्चपृथग्विधाः। तंशीघ्रकारिणंरोगंरोहिणीकेतिनिर्दिशेत्॥३३॥ त्रिरात्रं-परमंतस्यजन्तोर्भवतिजीवितम्। कुशलेनत्वनुप्राप्तःक्षिप्रंसम्पद्यतेसुखी॥३४॥
जिस मनुष्यके वात पित्त कफ यह तीनों ही एककालमें कुपित होकर जीभकी जड़में स्थित होजातेहैं उसकी जीभकी जडमें दाहयुक्त ऊंचा सा शोध प्रगट करदेतेहैं इस शोथमें नाना प्रकारकी पीडा उत्पन्न होतीहै इस शीघ्रमारक रोगको ‘रोहिणिका, कहतेहैं। इसके होनेसे मनुष्य तीन दिनसे अधिक नहीं जीसकता। इसलिये यदि कुशल चिकित्सकसे शीघ्र यत्न करायाजावे तो मनुष्य बचसकताहै॥३२-३४॥
सन्तिह्येवंविधारोगाःसाध्यादारुणसम्मताः।
येहन्युरनुपक्रान्तामिथ्यारम्भेणवापुनः॥३५॥
अन्य भी जो इस प्रकारके दारुण रोगहैंवह युक्तिपूर्वक शीघ्र कुशल वैद्य द्वारा चिकित्सा किये जानेसे साध्य होतेहैं। और वही रोग उचित यत्नोंके शीघ्र न होनेसे अथवा अनुचित यत्नोंके होनेसे शीघ्र मारडालतेहैं॥३५॥
व्याधिके भेद।
साध्याश्चाप्यपरहन्तिव्याधयोमृदुसम्मताः। यत्नायत्नकृतंयेषुकर्मसिध्यत्यसंशयम्॥३६॥असाध्याश्चापरेसन्तिव्याधयोयाप्यसंज्ञिताः। सुसाध्येऽपिकृतंयेषुकर्मयाप्यकरंभवेत्॥३७॥ सन्तिचाप्यपरेरोगाःकर्मयेषुनसिध्यति। अपियत्नकृतंवैद्यैर्नतान्विद्वानुपाचरेत्॥३८॥
बहुतसे ऐसे मृदु रोग हैं जो शीघ्र यत्न करनेसे तो साध्य हैं ही परंतु विना चिकित्साके भी साध्य होजातेहैं॥३६॥ और बहुतसे रोग असाध्य हैं। बहुत से याप्य होतेहैं। जिन असाध्य और याप्य रोगोंमे योग्य चिकित्सा होनेपर भी वह रोगनाशकारक ही रहते हैं। और ऐसे २ अन्यं भी बहुत से रोग हैं जो सुयोग्य वैद्योंद्वारा चिकित्सा किये जाने पर भी साध्य नहीं होसकते। विद्वान वैद्यको उचित है जो रोग यत्नद्वारा साध्य न होसके उसकी चिकित्सा न करे॥३७॥३८॥
व्याधिके भेद।
साध्याश्चैवाप्यसाध्याश्वव्याधयोद्विविधाःस्मृताः। मृदुदारुणभेदेनतेभवन्तिचतुर्विधाः॥३९॥ तएवापरिसंख्येयाभिद्यमाना भवन्तिहि। निदानवेदनावर्णास्थानसंस्थाननामभिः॥४०॥ व्यवस्थाकारणंतेषांयथास्थूलेषुसंग्रहः। तथाप्रकृतिसामान्यंविकारेषूपदिश्यते॥४१॥
व्याधियां साध्य और असाध्य भेदसे दो प्रकारकी होती हैं। वह दोनों भी मृदु और दारुण भेदसे चार प्रकारकी होजाती हैं॥३९॥ फिर वह व्याधियां–पीडा, वर्ण, कारण, स्थान, आकृति, इन भेदोंसे अलग २ होती हुई असंख्य होजाती हैं। फिर भी उनकी व्यवस्था करनेके लिये उनमेंसे मुख्य २ व्याधियोंका संग्रह किया गया है। विकारोंका स्वभाव और तुल्यता देखकर उनको जिस दोषजन्य देखे वैसा उपदेश करना चाहिये॥४०॥४१॥
विकारनामाकुशलोनजिह्रीयात्कदाचन। नहिसर्वविकारणां नामतोऽस्तिध्रुवागतिः॥४२॥ सएव-कुपितोदोषः समुत्थानविशेषतः। स्थानान्तरगतश्चैवजनयत्यामयान्बहून्॥४३॥ तस्माद्विकार-प्रकृतीरधिष्ठानान्तराणिच। समुत्थानविशेषांश्चबुद्धाकर्मसमाचरेत्॥४४॥
इसीलिये यदि किसी रोगका नाम न मिलसके तो वैद्यको लज्जित नहीं होना चाहिये, क्योंकि संपूर्ण रोगोंका नाम नहीं कहा जासकता ( हां उन रोगोंको प्रकृति और तुल्यतासे वातादिदोषजन्य जानकर यत्न करे ) ॥४२॥ क्योंकि एक दोष ही कुपित होकर भिन्न २ कारणोंसे अलग २ स्थानों में जाकर अनेक रोगोंको उत्पन्न करता है। इसलिये ऐसे रोगों की प्रकृति और स्थानभेद तथा कारणविशेष को जानकर चिकित्साकर्म करे॥४३॥४४॥
योह्येतत्रिविधंज्ञात्वाकर्माण्यारभतेभिषक्।
ज्ञानपूर्वंयथान्यायंसकर्मसुनमुह्यति॥४५॥
जो वैद्य–साध्य, असाध्य, याप्य, इन तीन भेदोंको समझकर चिकित्सा आरंभ करता है वह मोहको प्राप्त नहीं होताहै ॥४५॥
दोषोंका नित्यत्व।
नित्याःप्राणभृतांदेहेवातपित्तकफास्त्रयः।
विकृताःप्रकृतिस्थावातान्बुभुत्सेतपण्डितः॥४६॥
वात, पित्त, कफ यह तीन प्राणधारियोंके शरीरमें नित्य रहतेहैं। परंतु यह साम्यावस्था में है अथवा विकृत (बिगडी) अवस्था में हैं यह बुद्धिमान्को परीक्षा करलेना चाहिये॥४६॥
विकाररहित वायुआदिके कर्म।
उत्साहोच्छ्वासनिःश्वासचेष्टाधातुगतिःसमा।
समोमोक्षोगतिमतांवायोः कर्माविकारजम्॥४७॥
शरीरमें प्रकृतिस्थ वायु रहनेसे–उत्साह, सांसका आना जाना, चेष्टा, धातुओंकी अवस्था यह समान रहतीहै और मलमूत्रादिकी गति ठीक रहती है। यह विकारको नही प्राप्त हुए वायुके कर्महैं॥४७॥
दर्शनंपक्तिरुष्माचक्षुत्तृष्णादेहमार्दवम्।
प्रभाप्रसादोमेधाचपित्तकर्म्माविकारजम्॥१८॥
दीखना, अन्नका परिपाक, शरीरमें गरमाई, भूख, प्यास, देहमें नरमी, कांति, प्रसन्नता, मेधा, इनका उत्तम होना यह प्रकृतिस्थ अर्थात् विकाररहित पित्तका कर्म है॥४८॥
स्नेहोबद्धःस्थिरत्वञ्चगौरववृषताबलम्।
क्षमाधृतिरलोभश्चकफकर्माविकारजम्॥४९॥
कफके प्रकृतिस्थ रहनेसे शरीर में स्निग्धता, गठनता, दृढता, गुरुता, वृष्यता, बल, क्षमा, धृति, निर्लोभता, यह होते हैं ॥४९॥
वातपित्तकफैश्चैवन्यूनेलक्षणमुच्यते।
कर्मणांप्रकृतेर्हानिर्वृद्धिर्वापिविरोधिनाम्॥५०॥
वात, पित्त, और कफके क्षीण होनेसे ऊपर कहेहुए स्वाभाविक गुणोंकी हानि होती है और विपरीत कर्मोंकी वृद्धि होती है॥५०॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
दोषप्रकृतिवैशेष्यंनियतंवृद्धिलक्षणम्।
दोषाणांप्रकृतिर्हानिर्वृद्धिर्वापिपरीक्ष्यतेइति॥५१॥
दोषोंको स्वभावोंका विशेष प्रतीत होना दोष वृद्धिके लक्षण हैं, इसलिये दोषोंकी साम्यावस्था, क्षीणता, और वृद्धिकी परीक्षा करना चाहिये॥५१॥
तत्रश्लोकौ।
संख्यानिमित्तरूपाणिशोथानांसाध्यतानच।
तेषांतेषांविकाराणांत्रिविधंबोध्यसंग्रहम्॥
विधिभेदविकाराणांत्रिविधं दोषसंग्रहम्॥५२॥
प्राकृतंकर्मदोषाणांलक्षणंहानिवृद्धिषु। वीतमोहरजोदोषमोहमानमदस्पृहः। व्याख्यातवांस्त्रि-शोफीयरोगाध्यायेपुनर्वसुः॥५३॥
इतिरोगचतुष्केत्रिशोफीयोऽष्टादशोऽध्यायः समाप्तः॥१८॥
** **इस त्रिशोथीय अध्यायमें शोथोंके कारण, शोथ, शोथजविकार और उनकी संख्या उनके रूप तथा साध्यासाध्यता, दोषज और आगंतुज शोथ, शोधके विकारोंके भेद, तीन प्रकारका दोषसंग्रह, प्रकृतिस्थ दोषोंके कर्म, दोषोंकी क्षीणता और वृद्धिके लक्षण, यह सब मोह, रजोदोष, लोभ, मान, मद और स्पृहारहित पुनर्वसुजीने कथन किया है॥५२॥५३॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसहितायां पटियालाराज्यांतर्गतटकसाल निवासिवैद्यपञ्चानन प० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां
त्रिशोफीयो नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
_________________
एकोनविंशोऽध्यायः।
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अथातोऽष्टोदरीयमध्यायंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम अष्टोदरीय अध्यायकी व्याख्या करेंगे ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
रोगों की संख्या।
इहखल्वष्टावुदराणिअष्टौमूत्राघाताःअष्टौक्षीरदोषाअष्टौरेतोदोषाःसप्तकुष्ठानिसप्तपिडकाःसप्तवी-सर्पाःषडतीसाराःषडुदावर्ताःपञ्चगुल्माःपञ्चप्लीहदोषाःपञ्चकासाःपञ्चश्वासाःपञ्चहिक्काःपञ्च-तृष्णाःपञ्चछर्दयःपञ्चभक्तस्यानशनस्थानानिपञ्चशिरोरोगाःपञ्चहृद्रोगाःपञ्चपाण्डुरोगाःपञ्चोन्मा-दाःचत्वारोऽपस्माराःचत्वारोऽक्षिरोगाःचत्वारःकर्णरोगाःचत्वारःप्रतिश्यायाः चत्वारोमुखरोगाः-चत्वारोग्रहणीदोषाःचत्वारोमदाःचत्वारोमूर्च्छाःचत्वारःशोषाःचत्वारिक्लैब्यानित्रयः शोथाःत्रीणि-किलासानित्रिविधंलोहितपित्तंद्वौज्वरोद्वौव्रणोद्वावायामौद्वेगृध्रस्यौद्वेकामलेद्विविधमामंद्विविधंवातरक्तंद्विविधान्यर्शंसिएकःऊरुस्तम्भः एकःसन्यासःएकोमहागदःविंशतिः क्रिमिजातयःविंशतिः-प्रमेहाः विंशतिर्योनिव्यापदः। इत्यष्टाचत्वारिंशद्रोगाधिकरणान्यस्मिन्संग्रहेभवन्ति। उद्दिष्टानि-एतानियथोदेशमभिनिर्देक्ष्यामः॥१॥
इस संग्रह में ८ प्रकारके उदररोग हैं। ८ मूत्राघात हैं। ८ प्रकारके स्तन्यदोष हैं। ८ प्र० शुक्रदोष हैं। ७ प्र०कुष्ठ हैं। ७ प्रकारकी पिडका। ७ म० विसर्प।६ प्र० अतिसार। ६ प्रकारके उदावर्त। ५ प्रकारके गुल्म।५ प्रकारके सहिदोष। ५ प्र० खांसी। ५ प्र० श्वास। ५ प्रकारकी हिचकी ५ प्रकारकी प्यास। ५ प्रकारकी छर्दि।५ प्र० अरुचि ५ प्र० शिरोरोग।५ प्र० हृद्रोग।५ म० पांडुरोग।५ प्र० उन्माद।४ प्र० मृगी। ४ प्र० नेत्ररोग।४ प्र० कर्णरोग। ४ प्र० प्रतिश्याय। ४ प्र० मुखरोग।४ प्र० ग्रहणीदोष।४ म० मदात्यय।४ म० मूर्छा।४ प्र० शोष। ४ प्र० नपुंसकता।३ प्र० शोथ।३ प्र० किलास।३ प्र० रक्तपित्त । २ प्र० ज्वर।२ म० व्रण २ प्र० आयाम।२ प्र० गृध्रसी।२ प्र० कामला। २ ५० आमदोष।२ प्र० वातरक्त।२ म० अर्श।१ म० ऊरुस्तंभ।१ प्र० संन्यास। १ प्र० महाव्याधि।२० प्र० कृमिरोग।२० प्र० प्रमेह।२ प्र० योनिव्यापकरोग, इस प्रकार इस संग्रहमें ४८ रोग हैं।अब इन सबको यथाउद्देश आगे वर्णन करतेहैं॥१॥
अष्टावुदराणीतिवातपित्तकफसन्निपातप्लीहबद्धच्छिद्रोदकोदरानीति॥ अष्टौमूत्राघाताइतिवात-पित्तकफसन्निपाताश्मरीशर्कराशुऋशोणितजाः॥ अष्टौक्षीरदोषाइतिवैवर्ण्यंवैगन्ध्यंवैरस्यं पैच्छिल्यंफेनसङ्घातरौक्ष्यंगौरवमतिस्नेहश्चेति॥ अष्टौरेतोदोषाइतितनुशुष्कंफेनिलमश्वेतंपूति-पिच्छिलमन्यधातूपहितमवसादिचेति॥ सप्तकुष्ठानीतिकपालोडुम्बरमण्डलर्ष्याजिह्वपुण्डरीक-सिध्मकाकणकानि॥ सप्तपिडकाइतिशराविकाकच्छपिकाजालिनीसर्षप्यलजीविनताविद्रधी-च॥ सतवीसर्पइतिवातपित्तकफाग्निकर्दमग्रन्थिसन्निपाताख्याः॥ षडतीसाराख्याइतिवातपित्त-कफसन्निपातभयशोकजाः॥ षडुदावर्त्ताइतिवातमूत्रपूरीषशुक्रच्छर्द्दिक्षवथुजाः॥ पञ्चगुल्माइति-वातपित्तककसन्निपातरक्तजाः॥पञ्चप्लीहदोषाइतिगुल्मैव्याख्याताः॥ पञ्चकासा इतिवात-पित्तकफक्षतक्षयजाः॥ पञ्चश्वासाइतिमहोर्द्धाच्छिन्नतमकक्षुद्राः॥ पञ्चहिक्काइतिमहती-गम्भीराव्यपेताक्षुद्राचान्नजाच॥ पञ्चतृष्णा इतिवातपित्तामक्षयोपसर्गात्मिकाः॥ पञ्चच्छर्द्दयइति-द्विष्टान्नसंयोगजावातपित्तकफसन्निपातोद्रेकात्मिकाश्च॥ पञ्चभक्तस्थानशनस्थानानीतिवात-पित्तकफद्वेषायासाः॥ पञ्चशिरोरोगाइतिपूर्वोद्देशमभिसमस्यवातपित्तकफसन्निपातक्रिमिजाः॥ पञ्चहृद्रोगाइतिशिरोरोगैर्व्याख्याताः॥ पञ्चपापडुरोगाइतिवातपित्तकफसन्निपातमृद्भक्षणजाः॥ पञ्चोन्मादा इतिवातपित्तकफसन्निपातागन्तुनिमित्ताः॥ चत्वारोऽपस्माराइतिवातपित्तकफ-सन्निपातनिमित्तजाः॥ चत्वारोक्षिरोगाः चत्वारः कर्णरोगाः चत्वारः प्रतिश्यायाः चत्वारोमुखरोगाः चत्वारोग्रहणीदोषाः चत्वारोमदाः चत्वारोमूर्च्छाइति अपस्मारैव्याख्याताः॥चत्वारः शोषाइतिसाहससन्धारणक्षयविषमाशनजाः॥ चत्वारिक्लैब्यानीतिबीजोपघाताद्धजभङ्गाज्जरायाःशुक्रक्षयाच्च॥ त्रयःशोथाश्चेति-वातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः॥ त्रीणिकिलासानीतिरक्तताम्रशुकानि॥ त्रिविधंलोहितपित्तमित्यूर्द्ध-भागमधोभागमुभयभागञ्च।द्वौज्वरौ शीतसमुत्थश्चशीताभिप्रायश्चोष्णसमुत्थ इति उष्णाभिप्रायः द्वौत्रणौइतिनिजश्चागन्तुजश्च॥ द्वावायामावितिबाह्यश्चाभ्यन्तरश्च॥ द्वेगृध्रस्यावितिवाताद्वात-कफाञ्च॥ द्वेका मलेइतिकोष्ठाश्रयाशाखाश्रयाच॥ द्विविधमाममित्यलसकोविसूचिकाचेति॥ द्विविधंवातरक्तमितिगम्भीरमुत्तानञ्च।द्विविधान्यर्शंसीतिआर्द्राणिशुष्काणिच॥ एकऊरुष्कंभ-इतिआमत्रिदोषसमुत्थानः॥ एकःसंन्यासइति॥ त्रिदोषात्मकोमनःशरीराधिष्ठानसमुत्थः॥ एकोमहागदइतिअतत्त्वाभिनिवेशः॥२॥
वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, प्लीहोदर, बद्धोदर, छिद्रोदर, जलोदर, इन भेदोसे ८ प्रकारके उदररोग हैं वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, अश्मरीजन्य, शर्कराजन्य, शुक्रदोषज, और रक्तजन्य, यह आठ प्रकारके मूत्राघात हैं। विवर्णता, विकृतगंधि, वैरस्य, पिच्छिलता, फेनयुक्तता, रूक्षता, भारीपन, यह आठ स्तनोके दूधके विकार है। पतलापन, सूखापन, फेनयुक्त, सफेदी न होना, दुर्गधित, पिच्छिल, अन्यधातुमिश्रित, अवसादयुक्त, यह आठ वीर्यके दोप होते हैं। कुष्ठके सात भेद है । जैसे–कपाल, उदुंवर, मंडल, ऋष्यजिह, पुंडरीक, सिध्म, और काकण।शराविका, कच्छपिका, जालनी, सर्षपी, अलजी, विनता, विद्रधि, इन भेदोसे पिडका ७ प्रकारकी है। वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, अग्निविसर्प, कर्दमविसर्प, ग्रंथिविसर्प इन भेदोंसे विसर्प ७ प्रकारका है। वातज, पित्तज, कफज सन्निपातज, भयज, शोकज इन भेदोंसे अतिसार ६ प्रकारके है। अधोवात, मूत्र पुरीष, शुक्र, छर्दि, छीक, इन छहाँका वेग रोकनेसे छ प्रकार के उदावर्त होतेहै।वातज, पित्तज, फफज, सन्निपातज, रक्तज इन भेदोसे गुल्म पांच प्रकारके हैं। गुल्मके समान ही पांच प्रकारके प्लीहाके विकार होतेहैं।वात, पित्त, कफ, सन्निपात, क्षत, क्षय इनसे पांच प्रकारकी खांसी होती है। ऐसे ही वातज, पित्तज कफज, सन्निपातज, क्षतज, क्षयज, इन भेदोसे श्वास पांच प्रकारका है। महती, गंभीरा, व्यपेता, क्षुद्रा, अन्नजाइन भेदोंसे पांच प्रकारकी हिचकी है। वातज, पित्तज, आमज, क्षयज, उपसर्गज इन भेदोंसे तृषा पांच प्रकारकी होती है। द्वेषजनक अन्नसे, वात, पित्त, कफ, और संन्निपातसे छर्दि पांच प्रकारकी है। वातज, पितज, कफज, द्वेषज, श्रमज इन भेदोंसे अरुचि पांच प्रकारकी है। सामान्य संग्रहके उद्देशसे वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, कृमिजन्य, इन भेदोंसे शिरोरोग पांच प्रकारका है। शिरोरोगवाले भेदोंसे ही पांच प्रकारका हृद्रोग है। वात, पित्त, कफ, सन्निपात, और मृक्षणसे पांच प्रकारका पांडुरोग होताहै।वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज और आगंतुज इन भेदोंसे उन्मादरोग पांच प्रकारका है। वात, पित्त, कफ, और सन्निपात से चार प्रकारका अपस्मार ( मृगी ) रोग होता है। अपस्मारके समान ही वातादि चार २ भेद–नेत्ररोग, कर्णरोग, प्रतिश्याय, मुखरोग, ग्रहणीदोष, मदरोग, मूर्च्छारोग इन सबके भी कहेहें। साहसजन्य, वेगावरोधजन्य, क्षयजन्य और विषमा कानजन्य इन भेदोंसे शोषरोग चार प्रकारका है। वात, पित्त, कफजनित तीन प्रकारकी सूजन होतीहैं।रक्तवर्ण, ताम्रवर्ण, और श्वेत, इन तीन प्रकारका किलासरोग होता है। ऊर्ध्वग, अधोगामी, उभयगामी, इन तीन प्रकारका रक्त पित्त होताहै। ज्वर दो प्रकारके हैं। एक ठंढेसे, जिसमें शीतकी अधिकता होतीहै।दूसरा गरमीसे प्रगट होकर गरमीकी अधिकतावाला होताहै। निज और आगंतुज भेदसे व्रण दो प्रकारके होतेहैं।आयाम दो प्रकारका है एक अंतरायाम दूसरा बाह्यायाम।गृध्रसी दो प्रकारका है–एक वातज, दूसरा वातकफज। कोष्ठाश्रय और शाखाश्रयके भेदसे कामला
दो प्रकारका है। अलसक और विसूचिका मेदसे आमरोग दो प्रकारका है। वातरक्त दो प्रकारका है गंभीर और उत्तान।बवासीर दो प्रकारकी है एक आर्द्र दूसरी शुष्क। आमयुक्त त्रिदोषसे उत्पन्नहुआ उरुस्तंभ एक प्रकारका है।त्रिदोषसे उत्पन्न हुआ संन्यास एकप्रकारका है इसका अधिष्ठान मन और शरीर है। तत्त्वज्ञानमें मनका योगन होना ही एक महाव्याधि है॥२॥
विंशतिः क्रिमिजातयइतियूकाःपिपीलिकाश्चेतिद्विविधाबहिर्मलजाः केशादाःलोमादालोमद्वीपाः सौरसाऔदुम्बराजन्तुमातरश्चेतिषट्शोणितजाः अन्त्रादाउदरादाहृदयचराः चुरवोदर्भपुष्याः-सौगन्धिकामहागुदाश्चेतिससकफजाः ककेरुकामकेरुकालेलिहाःसशूलकाःसौसुरादाश्चेतिपञ्च-पुरीषजाइति विंशतिः क्रिमिजातयः॥३॥
बीस प्रकारकी कृमियोकी जातिय हैं। उनमे यूका और पिप्पलीक यह दो प्रकारके कृमि वाहरके मलसे होते है। और केशाद, लोमाइ, लोमद्वीप, सौरस, उदुंवर, जंतुमातर, यह छः प्रकारके कृमि रक्तसे प्रकट होतेहै। अंत्राद, उदराद, हृदयचर, च्युरव, दर्भपुष्प, सौगंधिक, महागुद यह सात प्रकारके कृमि कफसे प्रकट होतेहैं। ककेरुक, मकेरुक, लेलिह, सशूलक और सौसुराद यह पांच प्रकारके पुरीषज कृमि होतेहैं। इस प्रकार सब मिलकर २० प्रकारकी कृमिजाति है। इन बीसोसे ही शरीरको कष्ट होताहै इसलिये वीस प्रकारका कृमिरोग मानाहै॥३॥
विंशतिःप्रमेहाइतिउदकमेहश्चेक्षुमेहश्वरसमेहश्चसान्द्रमेहश्वसान्द्रप्रसादमेहश्चशुक्लमेहश्चशुक्रमेहश्चशीतमेहश्चशनैर्मेहश्चसिकतामेहश्चलालामेहश्चेतिदशश्लेष्मनिमित्ताः। क्षारमेहश्चकालमेहश्चनील-मेहश्चलोहितमेहश्चमञ्जिष्टामेहश्चहिरद्रामेहश्चेतिषट् पित्तनिमित्ताः। वसामेहश्चमज्जमेहश्चहस्ति-मेहश्चमधुमेहश्चेतिचत्वारोवातनिमित्ताइतिविंशतिःप्रमेहाः॥४॥
बीस प्रकार प्रमेह हैं।उनमे–उदकमेह, इक्षुमेह, रसमेह, सांद्रमेह, सान्द्रप्रसाद मेह, शुक्लमेह शुक्रमेह, शीतमेह, शनैर्मेह, मिकतामेह, लालामेह यह १० प्रकारके प्रमेह कफसे होतेहै। क्षारमेहं, कालमेह, नीलमेह, लोहितमेह, मंजिष्ठामेह, हरिद्रामेह यह छः प्रमेह पित्तसे होतेहै।वसामेह, मज्जामेह, हस्तिमेह, मधुमेह, यह ४ प्रमेह वातसे होतेहै। इस प्रकार सव मिलकर बीस प्रकारके प्रमेह हुए॥४॥
विंशतियनिव्यापदइतिवातिकीपैत्तिकीश्लैष्मिकीसान्निपातिकीचेतिचतस्रः दोषजाः। दूष्यसंसर्ग-प्रकृतिनिर्देशैरवशिष्टाःषोडशनिर्दिश्यन्ते। तद्यथा—रक्तयोनिश्चारजस्काचाचरणाचातिचरणाच-प्राक्चरणाचोप्लताचोदावर्त्तिनीचकर्णिनीचपुत्रघ्नीचान्तर्मुखीचसूचीमुखीचशुष्काचवामिनीचषण्डयोनिश्चमहायोनिश्चेतिविंशतियोनिव्यापदःकेवलश्चायमुद्देशः। यथोद्देशमभिनिर्दिष्टइति॥५॥
बीस प्रकारके योनिव्यापत् रोग हैं। उनमें–वात, पित्त, कफ, सन्निपात इनसे चार प्रकारके हुए।दोप, दूष्य, संसर्ग और स्वभावके निर्देशसे १६ प्रकारके औरहोतेहैं।वह इस प्रकार हैं जैसे–रक्तयोनि, अरजस्का, अचरणा, अतिचरणा, प्राकूचरणा,
उपप्लुता, उदावर्तनी, कर्णिनी, पुत्रघ्नी, अंतर्मुखी, सूचिमुखी, शुष्का, वामिनी षंडयोनि और महायोनि इस प्रकार सब मिलकर २० योनिरोग हुए। यहां पर पूर्वसंग्रहके उद्देशसे संख्यामात्र कथन कीगई है॥५॥
अध्यायका उपसंहार।
सर्वएवनिजविकारानान्यत्रवातपित्तकफेभ्योनिवर्त्तन्ते। यथा शकुनिः सर्वांदिशमपिपरि-पतन्स्वांछायांनातिवर्त्ततेतथास्वधातुवैषम्यनिमित्ताःसर्वविकारावातपित्तकफान्नातिवर्त्तन्ते। वात-पित्तश्लेष्मणांपुनःसमुत्थानस्थानसंस्थानप्रकृतिविशेषानभिसमीक्ष्य तदात्मकानपिचसर्व-विकारांस्तानेवोपदिशन्तिबुद्धिमन्त इति॥६॥
सव प्रकारके निज रोग–चात, पित्त, कफ, से विना नहीं होसकते। जैसे पक्षी उड़ता २ किसी भी दिशामें घूमताहुआ अपनी छायासे अलग नहीं होसकता इसी प्रकार अपनी २ धातुकी विषमतासे उत्पन्न हुए भी रोग वात, पित्त कफसे अलग नहीं होसकते। इसी लिये बुद्धिमान्को उचित है कि वात, पित्त, कफ इन तीन दोषांके कारण, स्थान, लक्षण और प्रकृतिको विचारकर संपूर्ण रोगोको वात, पित्त, कफ इन दोषोंके अंतर्गत ही माने, क्योंकि संपूर्ण धात्वादि इन तीनोंके ही अधीन हैं॥६॥
भवतिचात्र।
स्वधातुवैषम्यनिमित्तजायेविकारसंघाबहवःशरीरे। नतेपृथक्पित्तकफानिलेभ्यआगन्तवस्त्वेवत-तोविशिष्टाः॥७॥ आगन्तुरन्वेतिनिजंविकारंनिजस्तथागंतुरतिप्रवृद्धः। तत्रानुबन्धं प्रकृतिंच-सम्यक्ज्ञात्वाततःकर्मसमारभेत॥८॥
शरीर में होनेवाले संपूर्ण विकार अपने २ धातुकी विषमतासे अनेक प्रकारके होते हुए भी वह वात, पित्त, कफसे अलग नहीं होसकते। और आगंतुज विकार भी शरीर में होकर पीछेसे निज (शारीरिक) रोगोंके समान ही वातादिदोषात्मक होजाते हैं। ऐसे ही निज रोग भी आगंतुओंके समान लक्षणोंको धारण करतेहैं इस लिये कारणानुबंध और प्रकृतिको भली प्रकार समझकर चिकित्सा आरंभ करनी चाहिये॥७॥८॥
अध्यायका संक्षिप्तवर्णन।
तत्रश्लोकौ।
विंशकाश्चैककाश्चैवत्रिकाचोक्तास्त्रयस्त्रयः। द्विकाश्चाष्टौचतुष्काश्रदशद्वादशपञ्चकाः॥ चत्वारश्चाष्टकावर्गाःषट्कौद्वौसप्तकास्त्रयः। अष्टोदरीयेरोगाणामध्यायेसम्प्रकाशितः॥९॥१०॥
इति अग्निवेशकृततन्त्रचरकप्रतिसंस्कृतेरोगचतुष्के, अष्टो-
दरीयोनामोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
यहां अध्यायकी पूर्तिमें दो श्लोक हैं कि इस अष्टोदरीय अध्यायमें–बीस २ प्रकारके तीन रोग। एक २ प्रकारके तीनरोग।तीन २ प्रकारके तीन रोग।दो दो प्रकार के आठ रोग। चार २ प्रकारके १० रोग।पाच २ प्रकारके १२ रोग।आठ २ प्रकारके चार रोग। छ २ प्रकारके दो रोग। सात २ प्रकारके तीन रोग इस प्रकार रोगसंग्रहका कथन कियाहै॥९॥१०॥
इति श्रीमहर्पिचरकप्र० १० रामप्रसाद० भापाटीकायामष्टोदरीयो नामैकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
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विंशोऽध्यायः।
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अथातो महारोगाध्यायंव्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम महारोगाध्याय की व्याख्या करते हैं ऐसा आत्रेय भगवान् कहनेलगे।
रोगोंके भेद।
चत्वारोरोगाभवन्तिआगन्तुवातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः। तेषांचतुर्णामपिरोगाणांरोगत्वमेकेविरु-क्सामान्यात्। द्विविधापुनः प्रकृतिरेषामागन्तुनिजविभागाद्द्विविधंचैषामधिष्ठानमनःशरीर-विशेषात्। विकाराःपुनरेषामपरिसंख्ययाः प्रकृत्यधिष्ठानलिङ्गायतन विकल्पविशेषाणामपरि-संख्येयत्वात्॥१॥
रोग चार प्रकार के होतेहैं।वातज, पित्तज श्लेष्मज, और आगंतुज। परन्तु उन चाराके ही दुःखदाई होनेसे सामान्यतासे एक प्रकारका ही रोग मानाहै।वह फिर निज,और आगंतुज भेदसे दो प्रकार के स्वभाववाले होतेहैं। इन द्विविध रोगोंका अधिष्ठान भी मन और शरीर दो प्रकारका है।फिर रोगोंके, स्वभाव, अधिष्ठान, लक्षण, निदान, विकल्प इनमें अंशादि असंख्यता होनेसे रोग भी असंख्य होतेहैं॥१॥
मुखानितुखल्वागन्तोःनखदशनपतनाभिचाराभिशापाभिषङ्गव्यधबन्धपीडनरज्जुदहनमन्त्राशनि-भूतोपसर्गादीनि॥२॥ निजस्यतुमुखंवातपित्तश्लेष्मणांवैषम्यम्॥३॥
आगंतुज रोगोंके कारण यह होते हैं। जैसे–नख, दंतादिका लगना, गिरना, अभिचार, अभिशाप, अभिषंग, बेधन, बंधन, पीडन, रस्सी आदिका बंधन, दहन, मंत्र, वज्रपात और किसी जानवर आदिके उपसर्गसे आगंतुज रोग होते हैं॥२॥ और वात, पित्त, कफकी विषमतासे निज ( शारीरिक ) रोग होते हैं॥३॥
द्वयोस्तुखलुआगन्तुनिजयोःप्रेरणसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगःप्रज्ञापराधःपरिणामश्चेति। सर्वेपितु-खल्वेतेऽभिप्रवृद्धाश्चत्वारोरोगा परस्परमनुबध्नन्तिनचान्योन्यसन्देहमापद्यन्ते॥४॥
आगंतुज और निज इन दोनों रोगोंको प्रेरण करके लानेका कारण असात्म्य पदार्थोंका संभोग होना ही है और बुद्धिके अपराधका परिणाम भी कारण है क्योंकि सव
वस्तुओंका अयोग, अतियोग, मिथ्यायोग होनेसे ही दोनो प्रकारके रोगोंकी उत्पत्ति होती है । यह वातज, पित्तज, कफज, आगंतुज, चारों रोग बहुत वृद्धिको प्राप्त होनेसे परस्पर लक्षणोंको प्रकाशित करते हैं । परंतु इनके एकके लक्षणों में दूसरेका संदेह नहीं होता॥४॥
आगन्तुर्हिव्यथापूर्वसमुत्पन्नोजघन्यंवातपित्तश्लेष्मणांवैषम्यमापादयति। निजेतुवातपित्त-श्लेष्माणःपूर्वंवैषम्यमापद्यन्ते जघन्यंव्यथामभिनिर्वर्त्तयन्ति। तेषांत्रयाणामपिदोषाणां-शशरीरेस्थानविभागउपदेक्ष्यते॥५॥
निज और आगंतुज रोगोंमें भेद केवल इतना ही है कि आगंतुज रोग पहले प्रगट होकर पछि वात, पित्त, कफकी विषमताको धारण करताहै। और निज रोगोंमें पहले वात, पित्त, कफकी विषमता होकर पीछे रोगको उत्पन्न करतेहैं। अब उन वात, पित्त,कफके स्थान विभागको कहते हैं॥५॥
तद्यथावस्तिःपुरीषाधानंकटिःसक्थिनीपादावस्थीनिवातस्थानानि। तत्रापिपक्वाशयोविशेषेण-वातस्थानम्॥६॥ स्वेदोरसोलसीकारुधिरमामाशयश्चपित्तस्थानानितत्रापिआमाशयोविशेषेण-पित्तस्थानम्॥७॥ उरःशिरोग्रीवापर्वाण्यामाशयामेदश्चश्लेष्मणः स्थानानि तत्रापिउरोविशेषेण श्लेष्मणःस्थानम्॥८॥
वस्ति, मलस्थान, कमर, नितंब, दोनों पांव, हड्डी यह वायुके स्थान हैं। इनमें भी पक्वाशय विशेषतासे वातका स्थान है॥६॥ स्वेद, रस, लसीका, रक्त और आमाशय यह पित्तके स्थान हैं। इनमें भी आमाशय, विशेषतासे पित्तका स्थान है। इस जगह आमाशय शब्दसे आमाशयांशभूत ग्रहणी समझना॥७॥ उरःस्थल, मस्तक, गर्दन, पर्व, आमाशय, और मेद यह कफके स्थान है। इनमें भी उरःस्थल (छाती) विशेषतासे कफका स्थान है॥८॥
सर्वशरीरचारास्तुवातपित्तश्लेष्माणोहिसर्वस्मिञ्चछरीरेकुपिताकुपिताःशुभाशुभानिकुर्वन्ति। प्रकृतिभूताःशुभानि, उपचयबलवर्णप्रसादादीनि। अशुभानिपुनः विकृतिमापन्नानिविकार- संज्ञकानि। तत्रविकाराःसामांन्यजानानात्मजाश्चतत्रसामान्यजाः पूर्वमष्टोदरीयेव्याख्याताः। नानात्मजास्त्विहाध्यायेनुव्याख्यास्यामः॥९॥
संपूर्ण शरीरमें वात, पित्त, कफ, यह तीनो विचरतें हैं और कुपित या अकुपित हुए सर्वशरीरमें शुभ तथा अशुभको करते है।यदि यह वातादि प्रकृतिस्थ हों तो शरीरमें पुष्टि, बल, वर्ण, प्रसन्नता आदि शुभ शुभलक्षणोंको करते है और विकृत होनेसे अनेक प्रकारके विकारोंको करते हैं। इन दोपोका विकृत होना ही विकार कहाजाताहै। वह विकार सामान्यज और नानात्मज इन भेदोंसे दो प्रकार है। सामान्यज विकार अष्टोदरीय अध्यायमें कह चुके हैं और नानात्मज विकारोंको इस अध्यायमें कथन करतेहै॥९॥
तद्यथा—अशीतिर्वातविकाराःचत्वारिंशत्पित्तविकाराः विंशतिः श्लेष्मविकाराः॥१०॥
वह इस प्रकार हैं जैसे ८० प्रकारके वातविकार हैं। ४० प्रकारके पित्तविकार हैं और बीस २० प्रकारके कफके विकार होतेहैं॥१०॥
तत्रादौवातविकाराननुव्याख्यास्यामः। तद्यथा—नखभेदश्च, विपादिकाच, पादशूलञ्च, पादभ्रंशश्च, सुप्तपादताच, वातखुड्डुताच, गुल्फग्रहश्च, पिण्डिकोद्वेष्टनञ्च, गृध्रसीच, जानुभेदश्च, जानुविश्लेषश्च ऊरुस्तम्भश्च, ऊरुसादश्च, पाङ्गुल्यञ्च, गुदभ्रंशश्च, गुदार्त्तिश्च, वृषणोत्क्षेपश्च, शेफस्तम्भश्च, वङ्क्षणानाहश्च, श्रोणिभेदश्व, विड्भेदश्च, उदावर्त्तश्च, खञ्जत्वञ्च, कुब्जत्वञ्च, वामनत्वञ्च, त्रिकग्रहश्च, पृष्ठग्रहश्च, पार्श्वावमर्दश्च, उदरवेष्टश्च, हृन्मोहश्च, हृद्द्रवश्च, वक्ष–उपरोधश्च, वक्ष–उद्घर्षश्च, बाहुशोषश्च, ग्रीवास्तम्भश्च, मन्यास्तम्भश्च, कण्ठोद्धंसश्च, हनुस्तम्भश्च, ओष्ठभेदश्च, दन्तभेदश्च, दन्तशैथिल्यञ्च, मूकत्वञ्च, वाक्सङ्गश्च, कषायास्यताच, मुखशोषश्च, अरसज्ञताच, घ्राणनाशश्च, कर्णशूलञ्च, अशब्दश्रवणञ्च, उच्चैःश्रुतिश्च, बाधिर्य्यञ्च, वर्त्मस्तम्भश्च, वर्त्मसङ्कोचश्च, तिमिरञ्च, अक्षिशूलञ्च, अक्षिव्युदासश्च, भ्रूव्युदासश्च, शंखभेदश्च, ललाटभेदश्च, शिरोरुक्च, केशभूमिस्फुटनञ्च, आर्दितञ्च, एकाङ्गरोगश्च सर्वाङ्गरोगश्च, पक्षवधश्च, आक्षेपकश्च, दण्डकश्च, श्रमश्न, भ्रमश्च, वेपथुश्च, जृम्भाच,विषादश्चातिप्रलापश्च, ग्लानिश्च, रौक्ष्यञ्च, पारुष्यञ्च, श्यावारुणावभासताच, अस्वप्नश्च अनवस्थितत्वञ्चेत्यशीतिर्वातविकाराः॥११॥
उनमें पहले वातविकारोंको कहते है। नखभेद, विपादिका पादशूल, पादभ्रंश’ पादसुप्ति, वातखुडुता, गुल्फग्रह, पिंडिकोद्वेष्टन, गृध्रसी, जानुभेद, जानुविश्लेष, उरुस्तंभ, उरुसाद, पांगुल्य, गुदभ्रंश, गुदार्ति, वृषणोत्क्षेप, शेफस्तंभ वंक्षणानाह, श्रोणीभेद, विड्भेद, उदावर्त, खंजता, कुबडापन, वामनत्व, त्रिकशूल, पृष्टशूल, पार्श्वशूल, उदरवेष्ट, हन्मोह, हृद्रव, वक्षोपरोध, वक्षोद्धर्प, बाहुशोष, ग्रीवास्तंभ, मन्यास्तंभ, कंठोध्वंस, हनुस्तंभ, ओष्ठभेद, दंतभेद, दंतशिथिलता, मूकता, वाण्यवरोध, कषायास्यता, मुखशोष,रसाज्ञान, प्राणनाश, कर्णशूल, कर्णनाद, उच्चैः श्रवण, वाधिर्य वर्त्मस्तंभ, वर्त्मसंकोच, तिमिर, अक्षिशूल, अक्षिव्युदास, भ्रूव्युदास, शंखभेद, ललाटभेद, शिरःशूल, केशभूमिस्फुटन, अति, एकांगरोग, सर्वागरोग, पक्षाघात, आक्षेपक, दंडक, श्रमबोध, भ्रम, कंप, जृंभा, विषाद, अतिमलाप, ग्लानि, रूक्षता, पारुष्य, श्याम या अरुणावभास,
अनिद्रा, चलचित्तता, यह अस्सी रोग वातसे होते॥११॥
वातविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्कृततमाव्याख्याताः सर्वेष्वपिखल्वेतेषुवातविकारेषु अन्येषुचानुक्तेषुवायोरिदमात्मरूपमपरिणामिकर्मणश्चस्वलक्षणंयदुपलभ्यतदवयवंवाविमुक्त-सन्देहावातविकारमेवाध्यवस्यन्तिकुशलाः॥१२॥
वातरोग असंख्य होतेहैं परंतु यहां पर उन असंख्य विकारोमें जो मुख्य २ हैं उनका कथन कर दिया है इन वातविकारोंमें तथा इनसे अन्य जो यहां पर नहीं कहेगये उनमें भी वायुके विकृत और अविकृत अवस्थाके कर्म, लक्षण तथा अंशादि विचार कर संदेहरहित कुशल वैद्य वातविकारोंको जाने क्योंकि विकृत वायु अपनी अवस्था छोडदेनेसे जिस स्थानमें प्रवेश करताहै उसी स्थानमेंअनेक विकारोको उत्पन्न कर देता है, इसलिये वातके स्वभाव, लक्षणोंको ससझलेना बुद्धिमान् वैद्यका कर्म है॥१२॥
तद्यथा।
रौक्ष्यंलाघवंवैषद्यंशैत्यंगतिरमूर्त्तत्वञ्चेतिवायोरात्मरूपाणि। एवंविधत्वाच्चकर्मणश्चस्व-लक्षणमिदमस्यभवति तंतंशरीरावयवमाविशतःस्रंसभ्रंशव्यासाङ्गभेदसाहर्ष–तर्षावर्त्त–मर्दकम्पचालतोदव्यधवेष्टभङ्गास्तथाखरपरुषविषदसुषिरतारुणकषायविरसता–शोषाशूल-सुप्तिसंकुचनस्तम्भनानिवायोः कर्माणितैरन्वितंवातविकारमेवाध्यवस्येत्॥१३॥
** **अब उन वायुके धर्मोंको कहतेहैं। जैसे–रूक्षता, लघुता, विशदता, शीतता, गमनशीलता, सूक्ष्मता, यह वायुके आत्मरूप है। इन ही धर्मोवाले वायुके कर्म और लक्षण होते हैं। जबयह शरीरस्थ विकृत वायु शरीरके जिस २ अंगमें प्रवेश करताहै उसी २ अंगमें वायुके कार्य और लक्षण दिखाईदेतेहैं जैसे स्रंस, भ्रंश, प्रसार, अंगभेद, विषाद, हर्ष, तर्ष, आवर्तन, मर्द, कंप, चालन, तोद, व्यध, वेष्ट, भंगता,कर्कशता, परुषता, विशदता, सुषिरता, अरुणवर्णता, कषायता, रसाज्ञान, शोष, शूल, सुप्ति, संकोचन, स्तंभन यह वायुके कर्म हैं। इन लक्षणोंवाले विकारोंको वातविकार जानै॥१३॥
तंमधुराम्ललवणस्निग्धोष्णैरुपक्रमैरुपक्रमेत। स्वेदस्नेहास्थापनानुवासननस्तःकर्म-भोजनाभ्यङ्गोत्सादनपरिषेकादिभिर्वातहरैर्मात्रांकालञ्च प्रमाणीकृत्यास्थापनानुवासनन्तु-सर्वथोपक्रमेभ्योवातेप्रधानतमंमन्यन्तेभिषजः॥१४॥
वैद्यको उचित है कि मधुर, अम्ल, लवण, स्निग्धं और उष्ण द्रव्य द्वारा वातकी चिकित्सा करे। वातनाशक स्वेदन, स्नेहन, आस्थापन, अनुवासन, नस्यकर्म, उष्णस्निग्धभोजन, अभ्यंग, उत्सादन और परिषेक आदिसे मात्रा और काल विचारकर वायुको जीते।वातनाशक सब क्रियाओंमें वैद्य लोग आस्थापन और अनुवासन वस्तिकर्मको ही मुख्य मानते हैं॥१४॥
तद्ध्यादितएवपक्वाशयमनुप्रविश्यकेवलंवैकारिकंवातमूलंछिनत्ति। तत्रावजितेवातेऽपि-शरीरान्तर्गतावातविकाराःप्रशान्तिमापद्यन्ते। यथावनस्पतेर्मूलेछिन्नेस्कन्धशाखावरोहकुसुम-फलपलाशादीनांनियतोविनाशस्तद्वत्॥१५॥
(क्योंकि) आस्थापन और अनुवासन कर्म पक्वाशय में प्रवेश करके विकार करनेवाले वायुको जडसे ही नष्ट कर देता है। जब पक्वाशयस्थ वैकारिक वायु नष्ट होजाताहै फिर वातजन्य विकार स्वयं शांतिको प्राप्त होजाते हैं। जैसे वृक्षकी जड काटदेनेसे उसके टहने, टहनियां, अवरोह, फूल, फल, पत्ते आदि सबस्वयं विनाशको प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे ही पक्काशयस्थ वायुके उच्छेदसे सव वातविकार शांत होजातेहैं॥१५॥
पित्तविकाराश्चत्वारिंशदतऊर्द्धंव्याख्यास्यन्ते। तद्यथा—ओषश्च, प्लोषश्च, दाहश्च, दवथुश्च, धूमकश्च, अम्लकश्च, विदाहश्च, अन्तर्दाहश्च, अंसदाहश्च, ऊष्माधिक्यञ्च, अतिस्वेदश्चाङ्गगन्धश्च, अङ्गावयवदरणञ्च, शोणितक्लेदश्च, मांसक्लेदश्च, त्वग्दाहश्च, मांसदाहश्च, त्वङ्मांसदरणञ्च, चर्मदरणञ्च, रक्तकोठाश्च,रक्तविस्फोटाश्च, रक्तपित्तञ्च, रक्तमण्डलानिच, हरितत्वञ्च, हारिद्रत्वञ्च, नीलिकाच, कक्षाच, कामलाच, तिक्तास्यताच, पूतिमुखताच, तृष्णायाआधिक्यञ्च, अतृप्तिश्च, आस्यपाकश्च, गलपाकश्च, अक्षिपाकश्च, गुदपाकञ्च, मेढ्रपाकश्च, जीवादानञ्च, तमःप्रवेशश्च, हरितहारिद्र-मूत्रनेत्रवर्चस्त्वच्चेतिचत्वारिंशत्पित्तविकाराः। पित्तविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्कृततमा-व्याख्याताभवन्ति॥१६॥
अब इसके उपरांत चालीस प्रकारके पित्तविकारोंका कथन करतेहैं। अग्निके तापके समान ताप, जलन, दाह, हृदयमें धक २ आगसी जलना, धूवांसा निकलना, खट्टी डकार, विदाह, अंतर्दाह, अंशदाह, गर्मीकी अधिकता, अतिस्वेद, अंगगंध, अंग और अवयवोका फटना, शोणितक्लेद, मांसक्लेद, त्वग्दाह, मांसदाह, त्वचा और मांसका फटना, चर्मदरण, रक्तके चकत्ते पडना, लाल रंगके फोडे, रक्तपित्त, रक्तमंडल, हरा वर्ण होजाना, हलदीका सा रंग होना, नीलिका, कछराली, कामला, मुखमें कडुवापन, मुखदुर्गंध, तृष्णाकी अधिकता, अतृप्ति, मुखपाक, गलपाक, नेत्रपाक, गुदपाक, शिश्नपाक, जविसंज्ञक रक्तका क्षय, अंधकार प्रतीतहोना, हरे तथा हलदीके वर्णके समान नेत्र, मूत्र, पुरीष, त्वचाका वर्णहोजाना, यह चालीस पित्तके विकार है। पित्तके विकार अंसख्य होतेहैं परंतु उन असंख्योमें जो मुख्य है उन ४० विकारोंका यहां कथन किया गयाहै॥१६॥
सर्वेष्वपिखल्वेतेषुपित्तविकारेष्वन्येषुचानुक्तेषुपित्तस्येदमात्मरूपमपरिणामिकर्मणश्चस्वलक्षणंयत्तदुपलभ्यतदवयवंवाविमुक्तसन्देहाःपित्तविकारमेवाध्यवस्यन्तिकुशलाः॥१७॥
इन सब पित्तविकारोंमें तथा जो यहां नहीं भी कहे उन अन्य पित्तविकारोंमें पित्तके आत्मिक स्वभाव और परिणामको तथा पित्तके कर्म और लक्षणों द्वारा पित्तके अंशविकारादि देखकर चतुरलोग निस्सन्देह उस रोगको पित्तजन्य मानतें॥१७॥
तद्यथा।
औष्ण्यंतैक्ष्ण्यंलाघवमनतिस्त्रेहोवर्णश्चशुक्लारुणवर्जोगन्धश्च विस्रोरसौचकटुकाम्लौपित्तस्यात्म-रूपाणि।एवंविधत्वाच्चकर्मणः स्वलक्षणमिदमस्यभवति। तंतंशरीरावयवमविशतोदाहोष्मपाकस्वेदक्लेदकोथस्त्रावरागाः यथास्वञ्चगन्धवर्णरसादिभिर्निर्वर्त्तनंपित्तस्यकर्माणितैरन्वितंपित्तविकारमेवाध्यवस्येत्॥१८॥
अब पित्तके कर्म और लक्षणोंको कहतेहैं जैसे उष्णता, तीक्ष्णता, लघुता, किचित्स्निग्धता, शुक्ल और अरुणवर्णसे भिन्न वर्णवाला, दुर्गेधित, पूति, कटु, खट्टा, यह सव पित्तके आत्मधर्म हैं इस ही प्रकार के इसके कर्म और लक्षण होतेहैं। जब यह कुपित होकर जिस २ अंगमें जाताहै उसी २ अंगमें दाह, गर्मी, पाक, स्वेद, क्लेद, कोथ, स्राव, लाली यह लक्षण होतेहैं और पित्तके धर्मवाले ही गंध, वर्ण, मुखका स्वाद आदि होते हैं ऐसे २ पित्तात्मक लक्षणोंके होनेसे पित्तविकारको निश्चय करे॥१८॥
पित्तविकारोंमें चिकित्साक्रम।
तंमधुरतिक्तकषायशीतैरुपक्रमैरुपक्रमेतस्नेहविरेकप्रदेहपरिषेकाभ्यङ्गावगाहादिभिःपित्तहरै-र्मात्रांकालञ्चप्रमाणीकृत्य।विरेचनन्तुसर्वोपक्रमेभ्यःपित्तेप्रधानतमंमन्यन्तेभिषजः॥१९॥
पित्तकी चिकित्सा मीठे, कडुवे, कषैले और शीतल द्रव्यों द्वारा करे। तथा पित्तको शान्त करनेवाले स्नेहन, विरेचन, प्रलेप, परिषेक, अभ्यंग, अवगाह द्वारा मात्राकाल विचारकर चिकित्सा करे। पित्तनाशक संपूर्ण चिकित्साओंमें विरेचन कराना वैद्यजन सबसे उत्तम चिकित्सा मानतेहैं॥१९॥
तद्ध्यादितएवामाशयमनुप्रविश्यकेवलंवैकारिकंपित्तमूलञ्चापकर्षतितत्रावजितेपित्तेऽपिशरीरान्त-र्गताःपित्तविकाराःप्रशान्तिमापयन्ते। यथाग्नौव्यपोढेकेवलमग्निगृहञ्चशीतंभवतितद्वत्॥२०॥
क्योंकि विरेचनकारक औषधि आमाशयमें प्रवेश करके विकारकारक पित्तको जडसे उखाडकर विरेचन द्वारा निकालदेतीहैं आमाशयमें बढेहुए पित्तको जीतलेनेसे शरीरान्तर्गत पित्तविकार स्वयं शांत हो जाते हैं जैसे अग्निके नष्ट होनेसे अग्निका स्थान भी स्वयं शीतल होजाता है उसीके समान पित्तविकार स्वयं शांत होजातेहैं॥२०॥
श्लेष्मविकाराश्चविंशतिरतऊर्द्धंव्याख्यास्यन्ते। तद्यथा–तृप्तिश्च, तन्द्राच, निद्राधिक्यञ्च स्तैमित्यञ्च, गुरुगात्रताच, आलस्यञ्च, मुखमाधुर्य्यञ्च, मुखस्त्रावश्च उद्गारश्च श्लेष्मोद्गरणञ्च, मलस्याधिक्यञ्च, कण्ठोपलेपश्च, वलाशश्च, हृदयोपलेपश्च, धमनीप्रतिचयश्च, गलगण्डश्च, अतिस्थौल्यञ्च, शीताग्निताच, उदर्दश्व, श्वेतावभासताच, श्वेतमत्रनेत्रवर्च्चस्त्वञ्चेतिविंशतिः श्लेष्माधिकाराः॥२१॥
अव बीस प्रकारके कफके विकारोंको कहतेहैं। वह इस प्रकारहैं।तृप्ति ( अरुचि) तन्द्रा, निद्राकी अधिकता, स्तैमित्य, अंगोंका भारीपन, आलस्य, मुखमें मीठापन, लारबहना, उद्गार, बारबार कफका थूकना, मलकी अधिकता, कंठमे कफका लिपा रहना, वलास, हृदयका ल्हिसा सां रहना, धमनियोंमें स्थूलता, गलगंड, अतिस्थूलता, मंदाग्नि, उदर्द, सफेद वर्ण होना, मूत्र, नेत्र और पुरीषका सफेद होना, यह बीस प्रकार के कफके विकार हैं॥२१॥
श्लेष्मविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्कृततमाख्याताः। सर्वेष्वपितुखल्वेतेषुश्लेष्म-विकारेष्वन्येषुचानुक्तेश्लेष्मणइदमात्मरूपमपरिणामिकर्मणश्चस्वलक्षणंयदुपलभ्यतेतदवयवंवाविमुक्तसन्देहाःश्लेष्मविकारमध्यवस्यन्तिकुशलाः॥२२॥
यद्यपि कफके विकार असंख्य होसकतेहै परंतु उनमे जो मुख्य बीस विकार है यहां उनका कथन कियाहै। इन सब विकारोंमे जो यहां कथन कियेहैं और जो कथन नहीं किये गये इन सबमें कफके धर्म और लक्षणोंको और कफकी विकृतावस्थाके कर्मोको विचारकर कुशल वैद्य कफके विकारोका निश्चय करे॥२२॥
तद्यथा–श्वैत्यशैत्यगौरवमाधुर्य्यमात्सर्य्याणिश्लेष्मणआत्मरूपाण्येवंविधत्वाच्चकर्मणः स्वलक्षणमिदमस्यभवति। तंतंशरीरावयवमाविशतः श्वैत्यशैत्यकडूस्थैर्य्यगौरवस्त्रेहस्तम्भ-सुतिक्लेदोपदेहबन्धमाधुर्य्यचिरकारित्वानिश्लेष्मणःकर्माणितैरन्वितंश्लेष्मविकारमेवाध्यवस्येत्॥२३॥
वह कफात्मक धर्म इसप्रकार है। जैसे–शैत्य, गौरव, माधुर्य, मात्सर्य, यह कफकेआत्मरूप हैं। और इस ही प्रकारके इसके कर्म और लक्षण होतेहैं। यह जब जिस २ शरीरके अवयवमें प्रवेश करताहै उसमें श्वेतता, शीतता, खाज, स्थिरता, भारीपन, स्निग्धता, स्तंभ, सुप्ति, क्लम, क्लेद, उपलेप, वंध, माधुर्य, चिरकारीपन इन अपने कर्म लक्षणोंको दिखाताहै। इन लक्षणोयुक्त विकारोंको कफके विकार जाने॥२३॥
श्लेष्मविकारकी चिकित्सा।
तंकटुकतिक्तकषायतीक्ष्णोष्णरूक्षैरुपक्रमैरुपक्रमेतस्वेदनवमनशिरोविरेचनव्यायामादिभिः श्लेष्महरैर्मात्रांकालञ्चप्रमाणीकृत्य।वमनन्तुसर्वोपक्रमेभ्यः श्लेष्मणिप्रधानतमंमन्यन्तेभिषजः॥२४॥ तद्ध्यादितएवामाशयमनुप्रविश्यकेवलंवैकारिकंश्लेष्ममूलमपकर्षति। तत्रावजिते-श्लेष्मण्यपिशरीरान्तर्गताः श्लेष्मविकाराःप्रशान्तिमापद्यन्ते। यथाभिन्नेकेदारसेतोशालियव-षष्टिकादीन्यभिष्यन्द्यमानानि, अम्भसाप्रशोषमापद्यन्तेतद्वदिति॥२५॥
उस कफ्को कटु, तिक्त, कपाय, तीक्ष्ण और उष्ण तथा रूक्ष उपायों द्वारा जीते। एवं स्वेदन, वमन, शिरोविरेचन, व्यायाम आदिक कफनाशक उपायों द्वारा मात्रा और काल विचारकर चिकित्सा करे। कफनाशक सब उपायों में वैद्यजन वमन कराना सबसे उत्तम मानतेहैं, क्योंकि वामक औषधि प्रथम ही आमाशयमें प्रवेश कर वैकारिक करुको जडसे आकर्षण करके निकालदेतीहै। फिर उस वैकारिक कफके जीते जानेसे शरीरान्तर्गत सबकफके विकार स्वयं शान्त होजाते हैं। जैसे पानीके भरे खेतकी डौल तोडदेनेसे खेतका सबपानी बाहर निकल जाता है और उस खेतके अंदर के सब धान सुखजाते हैं ऐसे ही कफविकार भी सबशांत होजातेहैं॥२४॥२५॥
भवन्तिचात्र।
अध्यायका उपसंहार।
रोगमादौपरीक्षेतततोऽनन्तरमौषधम्।
ततः कर्मभिषक्पश्चाज्ज्ञानपूर्वंसमाचरेत्॥२६॥
यहां कहा है कि पहले रोगकी परीक्षा करे फिर औषधिकी परीक्षा करे, इन दोनोंका यथोचित निश्चय करके फिर ज्ञानपूर्वक चिकित्साकर्मका आरंभ करे॥२६॥
यस्तुरोगमविज्ञायकर्माण्यारभतेभिषक्।
अप्यौषधविधानज्ञस्तस्यसिद्धिर्यदृच्छया॥२७॥
जो वैद्य रोगको यथोचित समझे बिना ही चिकित्साका आरंभ करदेताहै वह यदिऔषधज्ञान में कुशल भी हो फिर भी उसकी सिद्धि दैवाधीन है अर्थात् अन्दाज लगगया तो लगगया नहीं तो नुकसान भी होजाता है॥२७॥
यस्तुरोगविशेषज्ञःसर्वभैषज्यकोविदः।
देशकालप्रमाणज्ञस्तस्यसिद्धिरसंशयम्॥२८॥
जो वैद्य रोगको भले प्रकार समझलेता है तथा सब प्रकारसे औषधक्रियामें भी कुशल है और देश काल विचारकर चिकित्सा करता है उसकी सिद्धि अवश्य ही होतीहै॥२८॥
अध्यायका संक्षिप्तवर्णन।
तत्रश्लोकाः। संग्रहःप्रकृतिर्देशोविकारमुखमीरणम्। असन्देहोऽनुबन्धश्चरोगाणांसम्प्रकाशितः॥२९॥ दोषस्थानानिरोगाणांगणानानात्मजाश्रये। रूपंपृथक्त्वाद्दोषाणांकर्मचापरिणामियत्॥३०॥ पृथक्त्वेनचदोषाणांनिर्दिष्टाःसमुपक्रमाः।सम्यङ्महतिरोगाणामध्यायेतत्त्वदर्शिना॥३१॥
इत्यग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेरोगचतुष्केमहारोगा-
ध्यायोनामविंशोऽध्यायःसमाप्तः॥२०॥
अब यह अध्यायके उपसंहारमेश्लोक है कि इस महारोगाध्यायमें रोगोंका संग्रह, प्रकृति, देश, काल, विकार, कारण, वातादिभेदसे अलग २ कारण स्वभाव, रोगोंका निश्चय, रोगोंका अनुबंध, दोषोंके स्थान, रोगोके गण, विकारोंकी अनेकता, दोषोंके अलग २ धर्म, और उनके परिणामि कर्म, तथा वातादिदोषोंकी अलग २ चिकित्सा यह सब तत्त्ववेत्ता महात्मा पुनर्वसुजीने कथन कियाहै॥२९॥३०॥३१॥
इति श्रीमहर्षिचरक० प ० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकाया महारोगाध्यायो
नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥
_______________
एकविंशोऽध्यायः।
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अथातोऽष्टौनिन्दितीयमध्यायंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अबहम अष्टौनिदितीय नामके अध्यायकी व्याख्या करतेहैं ऐसा आत्रेय भगवान् कहनेलगे।
आठप्रकारके निन्दनीय पुरुष।
इहखलुशरीरमधिकृत्याष्टौपुरुषानिन्दिताभवन्ति। तद्यथा—अतिदीर्घश्चातिह्रस्वश्चाति-लोमाचालोमाचातिकृष्णश्चातिगौरश्चातिस्थूलश्चातिकृशश्चेति॥१॥
इस शास्त्र में आठ प्रकारके शरीरोंवाले पुरुष निन्दनीय कहेजाते हैं। वह आठ इस प्रकार हैं जैसे–बहुत लंबा, बहुत छोटा, बहुत बालोवाला, जिसके शरीरपर रोम बिलकुल न हों, अत्यंत काला, बहुत गोरा, और अतिस्थूल, एवं अति कृश, यह आठ प्रकारके शरीर, निंदाके योग्य हैं॥१॥
अतिस्थूल में आठ अवगुण।
तत्रातिस्थूलकृशयोर्भयएवापरेनिन्दितविशेषाभवन्ति। अतिस्थूलस्यतावदायुषोहासःजरोपरोधः- कृच्छ्रव्यवायतादौर्बल्यंदौर्गन्ध्यंस्वेदाबाधःक्षुदतिमात्रंपिपासातियोगश्चेतिभवन्त्यष्टौदोषाः॥२॥
इन आठोंमें, अधिक मोटा, एवं अधिककुश, विशेष निदाके योग्य होते हैं, क्योंकि, अधिक मोटा होनेसे आयुका ह्रास होता है और बुढापा शीघ्र ही आजाताहै तथा शरीरकेसूक्ष्म छिद्र रुक जाते है। एवं स्त्रीसंगमे कष्ट, दुर्बलता, शरीरमें दुर्गन्धि, पसीना, अधिक क्षुवा, अधिक प्यास यह आठ दोषहोतेहैं। इस लिये बहुत मोटा शरीर निंदनीय होताहै॥ २॥
अति स्थूलताका कारण।
तदतिस्थौल्यमतिसंपूरणागरुमधुरशीतस्निग्धोपयोगादव्यायामादव्यवायादिवास्वप्नाद्धर्ष-नित्यत्वादचिन्तनाद्बीजस्वभावाच्चोपजायते॥३॥
वह अतिस्थूलपना अधिक तृप्तिकारक, भारी, मीठे, शीतल, चिकने, पदार्थोंके खानेसे, कसरत न करनेसे, स्त्री सैंग न करनेसे, दिनमें सोनेसे, सदा प्रसन्न रहनसे, चिन्ता न करनेसे, और माता पिताके मुटाईके कारणसे होताहै॥३॥
तस्यातिमात्रंमेदस्विनोमेदएवोपचीयतेनेतरेधातवस्तस्मादस्यायुषोह्रासः, शैथिल्यात्सौकुमार्य्याद्गुरुत्वाञ्चमेदसोजरोपरोधः, शुक्राबहुत्वान्मेदसावृतमार्गत्वात्कृच्छ्र-व्यवायता दौर्बल्यमसमत्वाद्धातूनां, दौर्गन्ध्यंमेदोदोषान्मेदसःस्वभावत्वात्स्वेदलत्वाच्चमेदसः, श्लेष्मसंसर्गाद्विष्यन्दित्वाच्चबहुत्वाद्व्यायामासहत्वात्स्वेदाबाधः, तीक्ष्णाग्नित्वात्प्रभूत-कोष्ठवायुत्वाच्चक्षुदतिमात्रं पिपासातियोगश्चेति॥४॥
उस अति स्थूल पुरुषके शरीरमें केवल चर्बीमात्र बढती जाती है और सब धातु बढनेसे बन्द होजातेहैं तथा क्षीण होने लगजातहैं इस लिये मेदस्वी पुरुषकी आयुका ह्रास होना आरंभ होजाता है तथा शरीरमें शिथिलता सुकुमारता और भारीपनसे बुढापा और छिद्रोका रुकजाना, वीर्यकी अल्पता, तथा मेदसे शरीरके मार्गोका रुकजाना, स्त्रीसंगमे अधिक कष्ट होना, धातुओंकी सामान्यावस्था न रहने से दुर्बलता होना, चर्बीके बढनेसे, चर्बीके दोषसे और चर्बी के स्वभावसे एवं पसीनेके आनेसे शरीरमें दुर्बलता बढजाती है तथा कफका संसर्ग, स्थूलता, व्यायाम की असह्यताके कारण पसीने अधिक आने लगतेहैं। एवं अग्निकी क्षीणता, और कोष्ठवायुकी अधिकताके कारण क्षुधा और प्यास बहुत बढजातीहै॥४॥
भवन्तिचात्र।
मेदसावृतमार्गत्वाद्वायुःकोष्ठेविशेषतः। चरनुसन्धुक्षयत्यग्निमाहारंशोषयत्यपि॥५॥ तस्मात्सशीघ्रं- जनयत्याहारञ्चावकांक्षति। विकारांश्चाश्नुतेघोरान्किञ्चित्कालव्यतिक्रमात्॥६॥ एतावुपद्रवकरौ विशेषादग्निमारुतौ। एतौहिदहतःस्थूलंवनदावोवनंयथा॥७॥
यहां पर कहते हैं कि, मेदद्वारा सूक्ष्म मार्गोंके बंद होजानेसे वायु कोठेमें विशेषतासे
विचरण करता है तथा जठराग्निको प्रज्वलित करके आहारको सुखादेता है। यही कारण है कि मेदस्वी पुरुषका आहार शीघ्र पचजाताहै एवं भोजन करनेकी बारबार इच्छा होने लगती है, यदि मेदस्वी मनुष्यको भोजन मिलनेमे किंचित् देर होती है तो वह घोरतरं दुःखौको प्राप्त होता है। मेदस्वी पुरुषके शरीरमें अग्नि और वायु इस प्रकार विशेष उपद्रव करतेहैं जैसे दावानल वनको भस्मकर डालता है ऐसे ही मेदके सिवाय अन्य धातुओंको भी यह नाश करडालतेंहैं॥५॥६॥७॥
मेदके बहुत बढजानेके दोष।
मेदस्यतीवसंवृद्धेसहसैवानिलादयः। विकारान्दारुणान्कृत्वानाशयन्त्याशुजीवितम्॥८॥ मेदोमांसातिवृद्धत्वाञ्चलस्फिगुदरस्तनः। अयथोपचयोत्साहोनरोऽतिस्थूलउच्यते॥९॥ इतिमेदस्विनोदोषाहेतवोरूपमेवच। निर्दिष्टंवक्ष्यतेवाच्यमतिकार्श्येऽप्यतःपरम्॥१०॥
शरीरमें मेद वृद्धिको प्राप्त होकर वात, पित्त, कफके अनेक प्रकारके रोगोंको प्रकट करके जीवनको नष्ट करदेताहै॥८॥ मेद और मांसके अत्यन्त बढ़नेसे नितंब उदर एवं स्तन थलथल करने लगजाते हैं। इस प्रकार वृथा मोटापन होनेसे उस मनुष्यको अतिस्थूल कहतेहैं॥९॥ इस प्रकार मेदस्वी मनुष्य के दोष और हेतु तथा रूपोंका कथन किया गया है।अब अत्यन्त कृश शरीरवालोंके हेतु और लक्षणोंको कहतेहैं॥१०॥
कृशहोनेका कारण।
सेवारूक्षांन्नपानानांलंघनंप्रमिताशनम्। क्रियातियोगःशोकश्चवेगनिद्राविनिग्रहः॥११॥ रूक्षस्योद्वर्त्तनंस्नानस्याभ्यासः प्रकृतिर्जरा।विकारानुशयःक्रोधःकुर्वन्त्यतिकृशंनरम्॥१२॥
रूक्ष अन्न पानके अधिक सेवन करनेसे, लंघन करनेसे, अल्पभोजन करनेसे, अति शोधन अथवा परिश्रम करनेसे, शोकसे, मलमूत्रादि वेगोंको रोकनेसे, रात्रिमें जागनेसे, रूखे द्रव्योंके उद्वर्तन करनेसे, स्नानका अभ्यास न रखनेसे, कृशताकारक आहार विहारके सेवनसे, एवं बुढापेसे, तथा सदैव रोगी और क्रोधी रहनेसे मनुष्य दुर्बल अर्थात् कृश होतेहैं॥११॥१२॥
कृशको असह्यकर्म और रोग।
व्यायाममतिसौहित्यक्षुत्पिपासामथौषधम्। कृशोनसहतेतद्वदतिशीतोष्णमैथुनम्॥१३॥ प्लीहाकासःक्षयःश्वासोगुल्मार्शांस्युदराणिच। कृशंप्रायोऽभिधावन्तिरोगाश्चग्रहणीगताः॥१४॥
कृशशरीरवाला मनुष्य परिश्रम नहीं कर सकता, एवं पेट भरकर भोजन, भूंख, प्यास, अधिक औषधि सेवन, बहुत सर्दी, बहुत गर्मी, अधिक मैथुन इन सबको सम्हार नहीं सकता। एवं इस दुर्बल शरीरवाले मनुष्यको–तिल्ली, खांसी, क्षय, श्वास, गोला, अर्श और उदररोग आकर घेर लेते हैं तथा कृश मनुष्यको ग्रहणी रोग भी होजाताहै॥१३॥१४॥
कृशता के लक्षण।
शुष्कस्फिगुदरग्रीवोधमनीजालसन्ततः। त्वगस्थिशोषोऽतिकृशःस्थूलपर्वानरोमतः॥१५॥ सततव्याधितावेतावतिस्थूलकृशौनरौ।सततंचोपचर्य्यौहिकर्षणैर्बृंहणैरपि॥१६॥
कृश मनुष्यके–नितंब उदर, और ग्रीवा सूखजाती हैं तथा शरीर नसोके जालसे व्याप्तहुआ दिखाई देने लगता है, त्वचा और हड्डिएं सूखजाती हैं और गांठोके स्थान मोटे मोटे दिखाई देने लगते हैं॥१५॥ क्योंकि स्थूल और कृश यह दोनों ही सर्वदा रोगग्रस्त होते हैं इसलिये इनको यथाक्रम लंघन और बृंहणते सदैव उपचार करना योग्य है॥१६॥
कृशके उत्कृष्टत्व।
स्थौल्यकार्श्येवरंकार्श्यंसमोपकरणौहितौ।
यद्युभौव्याधिरागच्छेत्स्थूलमेवातिपीडयेत्॥१७॥
अधिक स्थूल और अधिक कृश इन दोनोंमें स्थूलकी अपेक्षा कृश फिर भी अच्छा माना जाता है क्योंकि दोनोंके उपकरण समान होनेपर भी स्थूल मनुष्यको रोगग्रस्त होनेपर अधिक कष्ट सहना पडताहै॥१७॥
समके लक्षण।
सममांसप्रमाणस्तुसमसंहननोनरः।दृढेन्द्रियत्वाद्व्याधीनांन बलेनाभिभूयते॥१८॥ क्षुत्पिपासातपसहःशीतव्यायामसंसहः। समपक्तासमजरःसममांसचयोमतः॥१९॥
जिस मनुष्यके शरीरमें मांसका परिमाण ठीक होताहै और देह सुडौल और सौम्य होता है उसके सब इंद्रिय दृढ और बलवान् रहतेहै। इसीलिये व्याधि उस मनुष्य पर अपना बल नहीं पासकती॥१८॥ वह सुडौल शरीरवाला मनुष्य क्षुधा, प्यास, धूप तथा सर्दी और परिश्रम सह सकताहै। एवं उसकी पाचनशक्ति विषम नहीं होती उसे छोटी उमरमें बुढापा भी नहीआता, ऐसा मनुष्य सम और उत्तम कहा जाता है, इस मनुष्यको अतिकृशता और अति स्थूलता नहीहोती॥१९॥
गुरुचातर्पणंचेष्टंस्थूलानांकर्षणप्रति।
कृशानांबृंहणार्थंचलघुसन्तर्पणञ्चयत्॥२०॥
स्थूल मनुष्यको यदि कृश करनाहो तो कठोर और लंघन द्रव्य सेवन कराना चाहिये। एवं कृशको पुष्ट करनेके लिये लघुसंतर्पण द्रव्य सेवन करना चाहिये॥२०॥
स्थूलव्यक्तिकी चिकित्सा।
वातघ्नान्यन्नपानानिश्लेष्ममेदोहराणिच। रूक्षोष्णावस्तयस्तीक्ष्णारूक्षाण्युद्वर्त्तनानिच॥२१॥ गुडूचीभद्रमुस्तानांप्रयोगस्त्रैफलस्तथा। तक्रारिष्टप्रयोगस्तुप्रयोगोमाक्षिकस्यच॥२२॥ विडङ्गनागरंक्षारःकाललोहरजोमधु। यवामलकचूर्णञ्चप्रयोगःश्रेष्ठउच्यते॥२३॥
अब स्थूल मनुष्यकी चिकित्साका वर्णन करतेहैं। वात और कफनाशक तथा मेदके हरनेवाले अन्न पानोंका सेवन करावे और रूक्ष, गरम, तीक्ष्ण, वस्ति करे। रूक्ष उद्वर्तनोंका प्रयोग करावे॥२१॥ तथा गिलोय और भद्रमुस्तकका क्वाथ, त्रिफलेका क्वाथ, छाँछ, अरिष्ट, शहद, बायविउंग, सोंठ, जवाखार, शहदके संग उत्तम लोहभस्म,जब, आमलेका चूर्ण इन सबका प्रयोग करना मेंदरोगके नष्ट करनेके लिये उत्तम मानाहै॥२२॥२३॥
बिल्वादिपञ्चमूलस्यप्रयोगःक्षौद्रसंयुतः।शिलाजतुप्रयोगस्तु साग्निमन्थरसाशिला॥२४॥ प्रसातिकाप्रियंगुश्चश्यामाकायवकायवाः। जूर्णाह्वाःकोद्रवामुद्राकुलत्थाश्चक्रमर्दकाः॥२५॥आढकीनाञ्चबीजानिपटोलामलकैः सह। भोजनार्थंप्रयोज्यानिपानञ्चानुमधूदकम्॥२६॥ अरिष्टांश्चानुपानार्थेमेदोमांसकफापहान्। अतिस्थौल्यविनाशायसंविभज्यप्रयोजयेत्॥२७॥
एवं–बिल्वादि पंचमूलके क्वाथ में शहद मिलाकर पिलाना उत्तम मानाहै। अथवा शिलाजीतका प्रयोग करे। अथवा अग्निमंथका रस एवं मनशिलका प्रयोग भी परम उत्तमहै॥२४॥अणुब्रीहि नामक धान्य, प्रियंगु (कांगनी धान्य), श्यामाकधान्य, क्षुद्रधान्य, जवार, जव, कोद्रव, मूंग, कुलथी, पनवाड ( चक्रमर्द), अरहर, पटोल और आंवलेका यूषयह सब खानेके लिये देना चाहिये। और मधु तथा जल या समयानुसार दोनों मिलाकर अनुपानके लिये देना चाहिये॥२५॥२६॥ और पीनेके लिये या औषधिके पीछे अनुपानके लिये मेदनाशक तथा स्थूलताके नष्ट करनेवाले एवं कफनाशक अरिष्ट देना चाहिये॥२७॥
प्रजागरंव्यवायञ्चव्यायामंचिन्तनानिच। स्थौल्यमिच्छन्परित्यक्तुंक्रमेणाभिप्रवर्द्धयेत्॥२८॥
जिस मनुष्यको अपने शरीरकी स्थूलता दूर करनेकी इच्छा हो वह रात्रिको जागरण, स्त्रीसेवन, व्यायाम, एवं चिन्ता इनका यथाक्रम सेवन करताजावे और धीरेधीरे इनके सेवनको बढाता जावे॥२८॥
कृशतानाशक प्रयोग।
स्वप्नोहर्षःसुखाशय्यामनसोनिर्वृतिःशमः। चिन्ताव्यवायव्यायामविरामःप्रियदर्शनम्॥२९॥ नवान्नानिनवंमद्यंग्राम्यानूपौदकारसाः। संस्कृतानिचमांसानिधिसर्पिःपयांसिच॥३०॥ इक्षवःशालयोमांसागोधूमागुडवैकृतम्।वस्तयः स्निग्धमधुरास्तैलाभ्यङ्गश्चसर्वदा॥३१॥ स्निग्धमुद्वर्त्तनंस्नानंगन्धमाल्यनिषेवणम्। शुक्लोवासोयथाकालंदोषाणामवसेचनम्॥३२॥ रसायनानांवृष्याणांयोगानामुपसेवनम्। हत्वातिकार्श्यमादत्तेनृणामुपचयंपरम्॥३३॥
अब कृशताके नाश करनेवाले यत्नोंको कहतेहैं। जैसे इच्छापूर्वक सोना, हर्ष, सुंदर नरम शय्या, संतोष, शांति, चिन्ता ने करना, स्त्री संग नकरना, व्यायाम न करना, इष्टवस्तुको प्राप्त होना, नवीन अन्न, नवीन मद्य, ग्रामसंचारी जीव, अनूप संचारी जीव, जलचर जीव, इनका मांसरस, उत्तम बनाया हुआ मांस, दधि, घृत, दूध, ईख, शालीचावल, उडद, गेहूं, मिठाई, चिकने और मीठे पदार्थोंकी बस्ति, नित्यतैलमर्दन, चिकने उद्वर्तन, स्नान, चंदनका लेपन, सुगंधित फूलमाला, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, समय पर शरीर का शोधन करना, रसायन तथा वृष्य योगोंका सेवन करना इन सब द्रव्योंका उपयोग मनुष्य की कृशता (दुबलापन) को दूर करके परमपुष्टिको देनेवाला है॥२९॥३०॥३१॥३२॥३३॥
अचिन्तनाच्चकार्य्याणांध्रुव्रंसन्तर्पणेनच।स्वप्नप्रसङ्गाच्चनरो वराहइवपुष्यति॥३४॥
एवं किसी कार्यकी भी चिन्ता न करनेसे तथा सदैव संतर्पण द्रव्योके सेवन करनेसे और मस्त पडे रहने से मनुष्यका शरीर सूकरके समान पुष्टे होजाताहै॥३४॥
निद्राका कारण और उसके उचितानुचितप्रकार।
यदातुमनसिक्लान्तेकर्मात्मानःक्लमान्विताः। विषयेभ्योनिवर्त्तस्तेतदास्वपितिमानवः॥३५॥ निद्रायत्तंसुखंदुःखंपुष्टिःकार्श्यंबलाबलम्। बृषताक्लीवताज्ञानमज्ञानंजीवितंनच॥३६॥ अकालेऽतिप्रसङ्गाच्चनचनिद्रानिषेविता।सुखायुषीपराकुर्य्यांत्कालरात्रिरिवापरा॥३७॥ सैवयुक्तापुनर्युङ्क्तेनिद्रादेहंसुखायुषा। पुरुषंयोगिनंसिद्ध्यासत्याबुद्धिरिवागता॥३८॥
जब मनुष्यके मनमें क्लांति आजाती है और कर्मेद्रियें थककर अपने विषयोंसे निवृत्त होजाती हैं तब इस मनुष्यको निद्रा आती है अर्थात् सो जाता है॥३५॥ सुख और दुःख पुष्टता और कृशता, बल तथा निर्बलता, वृषता तथा क्वीबता, ज्ञान और अज्ञान एवं जीवन और मरण यह सब निद्राके अधीन है॥३६॥ वे समय सोनेसे बहुत ज्यादा सोनेसे, एवं एकसाथ ही निद्राका त्याग देनेसे मनुष्योंका सुख और आयु रात्रि के प्रातःकालके समान किंचित् शेष रहजाता है, तात्पर्य यह कि जैसे दोघडी रात बाकी रहनेपर रात्रि नष्टप्राय ही होतीहै ऐसेही निद्राकी विपरीततासे मनुष्यका सुख और आयु भी नष्टप्राय समझना चाहिये॥३७॥ और वही निद्रा यदि युक्तिपूर्वक ठीक सेवन कीजावे तो जैसे योगी पुरुष सिद्धिको प्राप्त होकर सत्यबुद्धिका लाभ करलेता है उसी प्रकार उचित रीतिसे निद्रासेवन करनेवाला मनुष्य सुख और दर्घाियुको प्राप्त होता है॥३८॥
गीताध्ययनमद्यस्त्रीकर्मभाराध्वकर्षिताः। अजीर्णिनःक्षताःक्षीणावृद्धाबालास्तथाबलाः॥३९॥ तृष्णातीसारगूलार्त्ताः॥ श्वासिनः शूलिनः कृशाः।पतिताभिहतोन्मत्ताःक्लान्तायानप्रजागरैः॥४०॥ क्रोधशोकभयक्लान्तादिवास्वप्नोचिताश्चये।सर्वएतेदिवास्वप्नंसेवेरन्सार्वकालिकम्॥४१॥
** **जो मनुष्य गायन, अध्ययन, मद्यपान, स्त्रीसंग, कर्म, भार और मार्गसे थक गये हैं एवं–अजीर्णरोगी, उरक्षतवाला, क्षीण, वृद्ध, बालक, दुर्बल तथा प्यास, अतिसार, शुलसे पीडित, श्वासरोगी, हिचकीसे, ग्रसाहुआ और कृश तथा गिरपडा हुआ एवं जिनके चोट लगीहो बावला और सवारीसे थकाहुआ, जो रात्रि में जागाहो, क्रोधी, शोकाकुल, भयातुर, दिनमें सोनेके अभ्यासवाला इन सब मनुष्योंको सब ऋतुओंमें दिनमें भी सोना अनुचित नहीं ( इनसे सिवाय अन्य मनुष्योंको दिन में सोना नहीं चाहिये )॥३९॥४०॥४१॥
धातुसाम्यात्तथाह्येषांबलञ्चाप्युपजायते॥ श्लेष्मापुष्यतिचाङ्गानिस्थैर्य्यंभवतिचायुषः॥४२॥ श्लेष्माचादानरूक्षाणांवर्द्धमानेचमारुते।रात्रीणांचातिसंक्षेपाद्दिवास्वप्नःप्रशस्यते॥४३॥
ऊपर कहेहुए मनुष्योके दिनमें सोनेसे सब धातु साम्यावस्थामें आकर बलकी वृद्धिको प्राप्त होतेहैं और श्लेष्मा इनके अंगोंको पुष्ट करता है जिससे इनके आयुमें स्थिरता प्राप्त होती है॥४२॥ ग्रीष्मऋतु में मनुष्यों के शरीर आदानकालके आकर्षण से रूक्ष होतेहैं और वायुका संचय होता है तथा रात्रि बहुत छोटी होती हैं इसलिये गर्मियोंमे दिनका सोना भी उत्तम कहाँहै॥४३॥
दिवानिद्राका निषेध।
ग्रीष्मवर्ज्येषुकालेषुदिवास्वप्नात्प्रकुप्यतः। श्लेष्मपित्तेदिवास्वप्नस्तस्मात्तेषुनशस्यते॥४४॥ मेदस्विनःस्नेहनित्याःश्लेष्मलाःश्लेष्मरोगिणः। दूषीविषार्त्ताश्चदिवानशयीरन्कदाचन॥४५॥
गर्मियोंके सिवाय अन्यऋतुओंमें दिनके सोनेसे कफ और पित्त कुपित होतेहैं इस लिये अन्य ऋतुओंमें दिनका सोना अनुचित कहाँहै॥४४॥ जो मनुष्य अधिक मेदवाले हैं अथवा स्नेहको सेवन करनेवाले एवं कफप्रधान और कफके रोगवाले तथा दूषीविषसे पीडित हो उन मनुष्योंको किसी कालमें भी दिनमें सोना नहीं चाहिये॥४५॥
दिवानिद्रामें उपद्रव।
हलीमकःशिरःशूलंस्तैमित्यंगुरुगात्रता।अङ्गमर्दोऽग्निनाशश्च प्रलेपोहृदयस्यच॥४६॥ शोथारोचकहृल्लासपीनसार्द्धावभेदकाः। कोठाश्चपिडकाःकंडूस्तन्द्राकासोगलामयाः॥४७॥स्मृतिबुद्धिप्रमोहाश्चसंरोधःस्रोतसांज्वरः। इन्द्रियाणामसामर्थ्यंविषवेगप्रवर्त्तनम्॥४८॥ भवेन्नृणांदिवास्वप्नस्याहितस्य निषेवणात्। तस्माद्धिताहितंस्वप्नंबुद्धास्खप्यात्सुखंबुधः॥४९॥
वे समय अथवा बहुत सोनेसे मनुष्योंके शरीर में हलमिक, मस्तकपीडा, स्तैमित्य, भारीपन, अंगमर्द, मंदाग्नि, हृदयका लिपासा होना, शोथ, अरुचि, हल्लास, पीनस, अर्धावभेदक, कोठरोग, पिडका, खुजली, तंद्रा, कास, गलरोग, स्मृति और बुद्धिका नाश, स्त्रोतोंका अवरोध, ज्वर, इंद्रियों में निर्बलता, यदि दूषित विष हो तो उसके वेगकी प्रवृत्ति इतने उपद्रव होते हैं इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि वह सोने (निद्रा ) के विषय में उचितानुचित एवं हिताहित विचारकर शयन करे॥४६॥॥४७॥ ४८॥४९॥
रात्रौजागरणरूक्षंस्निग्धमस्वपनंदिवा।अरूक्षमनभिष्यन्दित्वासीनप्रचलायितम्॥५०॥ देहवृत्तौयथाहारःतथास्वप्नःसुखोमतः। स्वाप्नाहारसमुत्थेचस्थौल्यकार्श्येविशेषतः॥५१॥ अभ्यङ्गोत्सादनंस्नानंग्राम्यानूपौदकारसाः।शाल्यन्नंसदधिक्षीरंस्नेहोमद्यंमनःसुखम्॥५२॥ मनसोऽनुगुणागन्धाः शब्दाःसंवाहनानिच। चक्षुषस्तर्पणंलेपःशिरसोवदनस्यच॥५३॥ स्वास्तीर्णंशयनंवेश्मसुखकालस्तथोचितः। आनयन्त्यचिरान्निद्रांप्रनष्टायानिमित्ततः॥५४॥
रात्रिको जागनेसे रूक्षता उत्पन्न होतीहै, दिनमें सोनसे स्निग्धता उत्पन्न होतीहै एवं आसनपर बैठे बैठे ऊंघनेसे न तो रूक्षता ही होती है और न स्निग्धता प्रकट होती हैं॥५०॥ शरीरवृत्तिके निर्वाह के लिये जैसे आहार उपयोगी है वैसेही निद्रा भी परम उपयोगी है इस लिये प्रायः स्थूलता और कृशता यह दोनों निद्रा और आहारके अधीनही हैं॥५१॥ यदि किसी कारणसे मनुष्यकी निद्राका नाश होगया हो तो अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नान और ग्राम्य तथा जलचारी जीवोंके मांसका रस, शालिचावल, दही, दूध, स्नेह, मंद्य और मनको सुख देनेवाले कर्म और मनको हरनेवाली सुगंधि तथा प्यारे प्यारे शब्द और देहका मसलना तथा दबाना, नेत्रोंका सन्तर्पण और मस्तक पर सुगंधित लेप तथा शिरके ऊपर पानीकी धारा देना सुखकारक शय्या, समयोचित घरका सुख यह सब शीघ्र निद्राके लानेवाले हैं॥५२॥॥५३॥५४॥
निद्रा न आनेके हेतु।
कायस्यशिरसश्चैवविरेकश्छर्दनंभयम्। चिन्ताक्रोधस्तथाधूमोव्यायामो रक्तमोक्षणम्॥५५॥ उपवासःसुखाशय्यासत्त्वौदार्य्यंतमोजयः। निद्राप्रसङ्गमहितंवारयन्तिसमुत्थितम्॥५६॥ एतएवचविज्ञेयानिद्रानाशस्यहेतवः। कार्य्यंकालोविकारश्च प्रकृतिर्वायुरेवच॥५७॥
शिरका और शरीरका विरेचन, सर्दी, भय, चिन्ता, क्रोध, धूम, परिश्रम, रक्तमोक्षण, उपवास, खराब शय्या, सत्त्वगुणकी अधिकता तमोगुणकी क्षीणता इन सबसे प्राप्त हुई निद्रा भी नष्ट होजाती है॥५५॥५६॥ कार्य, काल, रोग, स्वभाव और वायु यह पांच ही सूक्ष्म रूपसे तथा स्थूल रूपसे भी निद्रानाशके कारण कहे हैं॥५७॥
अध्यायका उपसंहार।
तमोभवाश्लेष्मसमुद्भवाचमनः शरीरश्रमसम्भवाच। आगन्तुकीव्याध्यनुवर्तिनीचरात्रिस्वभावप्रभवाचनिद्रा॥५८॥ रात्रिस्वभावप्रभवामतायातांभूतधात्रींप्रवदन्तिनिद्राम्।तमोभवामाहुरघस्य मूलंशेषंपुनर्व्याधिषुनिर्दिशन्ति॥५९॥
निद्रा तमोगुणसे उत्पन्न होतीहै तथा कफसे उत्पन्न होतीहै एवं मन और शरीरके परिश्रमसे निद्रा आतीहै तथा विषआदि सेवनसे अथवा भूतादि आवेशसे आगन्तुक निद्रा उत्पन्न होती है और किसी किसी रोगमें भी निद्रा उत्पन्न होतीहै तथा रात्रिमें स्वाभाविक निद्रा उत्पन्न होतीहै, निद्राको भूत धात्री भी कहतेहैं, तमोभव निद्रा पापका मूल हैं और बाकी निद्राको व्याधिके प्रति निदर्शन कहतेहैं अर्थात् स्वाभाविक निद्रा तो मनुष्योके लिये प्राणरक्षक है और तमोभव पापका कारण है, अन्य निद्रा रोगरूप है॥५८॥५९॥
तत्र श्लोकाः।
निन्दिताः पुरुषास्तेषांयौविशेषेणनिन्दितौ। वक्ष्यामिकारणंदोषास्तयोर्निन्दितभेषजम्॥६०॥येभ्योयदाहितानिद्रायेभ्यश्वाप्यहितायदा। अतिनिद्रानिद्रयोश्चभेषजंयद्भवाचसा॥६१॥ यायायथाप्रभावाचनिद्रातत्सर्वमत्रिजः।अष्टौनिन्दितसंख्यातेव्याजहारपुनर्वसुः॥६२॥
इति योजनाचतुष्केऽष्टौनिन्दितीयोनामैकविंशोऽध्यायः।
अब अध्यायके उपसंहारमें यह श्लोक हैं इस अष्टौनिन्दनीय अध्यायमें आठ प्रकारकेपुरुष निंदनीय और दो प्रकारके विशेष निंदनीय और निंदित होनेका कारण–स्थूल और कृशके दोष तथा औषधि, निद्रा हिताहित और जिसको जिस समय हितकर है, अतिनिद्रा, अनिद्रा, निद्राके उत्पन्न होनेके कारण, जो जो निद्रा जिस जिस स्वभावकी है यह सब भगवान् पुनर्वसुजीने कथन किया है॥६०॥६१॥६२॥
इति श्रीमहर्षिचरक० प० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायामष्टौनिन्दितीयो नामैकविंशोऽध्यायः॥२१॥
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द्वाविंशोऽध्यायः।
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अथातोलंघनबृंहणीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम लंघनबृंहणीय नामक अध्यायकी व्याख्या करतेहैं। ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
तपःस्वाध्यायनिरतानात्रेयःशिष्यसत्तमान्। षडग्निवेशप्रमुखानुक्तवान्परिचोदयन्॥१॥ लंघनंबृंहणंकालेरूक्षणंस्नेहनंतथा। स्वेदनंस्तम्भनञ्चैवजानीतेयः सवैभिषक्॥२॥
तप और स्वाध्यायपरायण अग्निवेश आदि अपने ६ शिष्योंको सम्बोधन करके महात्मा आत्रेयजी कहने लगे कि जो वैद्य समयानुसार लंघन, बृंहण, रूक्षण, स्नेहन, स्वेदन एवं स्तम्भन इन छहोंका प्रयोग करना जानता है उसको ही यथार्थ वैद्य कहते हैं,अन्य वैद्य नहीं कहाजाता॥१॥२॥
अग्निवेशका प्रश्न।
इतितमेवमुक्तवन्तंभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच। भगवल्ँलंघनंकिंस्विल्लंघनीयाश्चकीदृशाः। बृंहणं बृंहणीयाश्चरूक्षणीयाश्चरूक्षणम्॥३॥ स्नेहनंस्नेहनीयाश्चस्वेदाःस्वेद्याश्चकेमताः। स्तम्भनंस्तम्भनीयाश्चवक्तुमर्हसितद्गुरो॥४॥ लंघनप्रभुतीनाञ्चषण्णामेषांसमासतः। कृताकृतातिवृत्तानांलक्षणंवक्तुमर्हसि॥५॥
इस प्रकार कहते हुए भगवान् आत्रयेजीसेमहात्मा अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन्! लंघन किसको कहते हैं और वह लंघन कैसे मनुष्योंको कराया जाता है। बृंहण किसको कहते हैं और वह कैसे मनुष्योंको कराया जाता है। रूक्षण क्या वस्तु है और कौन २ मनुष्य रूक्षणके योग्य हैं एवम् स्नेहन किसको कहते हैं और किन मनुष्योंको करानांचाहिये। हे गुरो ! स्तम्भन क्या है और किनको कराना चाहिये। इन सबके विषय में कृपया कथन कीजिये तथा संक्षेपसे लंघन आदि छहोंका योग, अयोग, अतियोगके लक्षणोंका भी वर्णन कीजिये॥३॥४॥५॥
गुरुरुवाच।
यत्किञ्चिल्लाघवकरंदेहेतल्लङ्घनंस्मृतम्।बृहत्त्वंयच्छरीरस्यजनयेत्तच्चबृंहणम्॥६॥ रौक्ष्यंखरत्वंवैषद्यंयत्कुर्य्यात्तद्धिरूक्षणम्।स्नेहनंस्नेहनिःष्यन्दमार्दवक्लेदकारकम्॥७॥ स्तम्भगौरवशीतघ्नंस्वेदनंस्वेदकारकम्।स्तम्भनंस्तम्भयतियद्गतिमन्तंचलंध्रुवम्॥८॥
इस प्रकार अग्निवेशके कहे हुए वाक्यको सुनकर आत्रेय भगवान् इस प्रकार कथन करने लगे। जो शरीरमें लघुताका करनेवाला है उसको लंघन कहते है। जो शरीरको पुष्ट करनेवाला है उसको बृंहण कहतेहैं एवम् जो शरीरमें रूक्षता, खरत्व, विशदता उत्पन्न करे उसको रूक्षण कहतेहैं। चिकनाई, अभिष्यंद, मृदुता, क्लेद उत्पन्न करनेवाली क्रियाको स्नेहन कहतेहैं।स्तम्भ, गुरुता, शीतता नष्ट करके पसीना लानेवाले को स्वेदन कहतेहैं, जो पदार्थ चलनेवाले पतले द्रव्यको रोकदेवे उसको स्तम्भन कहतेहैं॥६॥७॥८॥
लंघन द्रव्य।
लघूष्णतीक्ष्णविषदंरूक्षंसूक्ष्मखरंसरम्।
कठिनञ्चैवयद्द्रव्यंप्रायस्तल्लङ्घनंस्मृतम्॥९॥
जो द्रव्य लघु, उष्ण, तीक्ष्ण, विषद, रूक्ष, सूक्ष्म, खर, सर और कठिन हो वह प्रायः लंघन कहा जाताहै॥९॥
बृंहण द्रव्य।
गुरुशीतभृदुस्निग्धंबहुलंसूक्ष्मपिच्छिलम्।
प्रायोमन्दंस्थिरंसूक्ष्मंद्रव्यंबृंहणमुच्यते॥१०॥
जो भारी, शीतल, मृदु, स्निग्ध, धन, सूक्ष्मपिच्छिल, मन्द, स्थिर और सूक्ष्म होवह द्रव्य प्रायः बृंहण कहा जाता है॥१०॥
रूक्षण द्रव्य।
रूक्षंलघुखरंतीक्ष्णमुष्णंस्थिरमपिच्छिलम्।
प्रायशः कठिनञ्चैवयद्द्रव्यंतद्धिरूक्षणम्॥११॥
** **जो द्रव्य रूक्ष, लघु, खर, तीक्ष्ण, उष्ण, स्थिर, अपिच्छिल तथा कठिन हो वह प्रायःरूक्षण होता है॥११॥
स्नेहनद्रव्य के गुण।
द्रवंसूक्ष्मंसरंस्त्रिग्धंपिच्छिलंगुरुशीतलम्।
प्रायोमन्दंमृदुचयद्रव्यंतत्स्नेहनंमतम्॥१२॥
जो द्रव्य द्रव, सूक्ष्म, सर, स्निग्ध, पिच्छिल, गुरु, शीतल और मन्दतथा मृदु हो वह स्नेहन कहा जाता है॥१२॥
स्वेदन द्रव्य।
उष्णंतीक्ष्णंसरंस्निग्धंरूक्षंसूक्ष्मंद्रवंस्थिरम्।
द्रव्यंगुरुचयत्प्रायःतद्धिस्वेदनमुच्यते॥१३॥
जो द्रव्य उष्ण, तीक्ष्ण, सर, स्निग्ध, रूक्ष, सूक्ष्म, द्रव, स्थिर और गुरु हो उसको प्रायः स्वेदन कहते हैं॥१३॥
स्तम्भन द्रव्यके गुणं।
शीतंमन्दंमृदुश्लक्ष्णंरूक्षंसूक्ष्मंद्रवंसरम्।
यद्द्रव्यंलघुचोद्दिष्टंप्रायस्तत्स्तम्भनंस्मृतम्॥१४॥
जो द्रव्य शीतल, मन्द, मृदु, श्लक्ष्ण, रूक्ष, सूक्ष्म, द्रव, सर और लघु हो उसको प्रायः स्तम्भन कहतेहैं॥१४॥
लंघन।
चतुष्प्रकारासंशुद्धिः पिपासामारुतातपौ।
पाचनान्युपवासश्चव्यायामश्चेतिलंघनम्॥१५॥
चार प्रकारकी संशुद्धि होती है अर्थात् संशोधन होता है और प्यास, पवनका सेवन, धूप, पाचन, उपवास एवम परिश्रम यह लंघन कहे जाते हैं॥१५॥
प्रभूतश्लेष्मपित्तास्रमलाःसंदुष्टमारुताः।
बृहच्छरीराबलिनोलंघनीयाविशुद्धिभिः॥१६॥
जिनके शरीरमें श्लेष्म, पित्त, रुधिर और मल बढेहुए हों तथा पवन दूषित होगया हो एवम् जो स्थूल और बलवान्होनेसे संशोधनके योग्य हैं वह मनुष्य लंघनीय हैं॥१६॥
येषांमध्यबलारोगाः कफपित्तसमुत्थिताः। वम्यतीसारहृद्रोगविसूच्यलसकज्वराः॥१७॥ विबन्धगौरवोद्गारहृल्लासारोचकादयः। पाचनैस्तान्भिषक्प्राज्ञःप्रायेणादावपाचरेत्॥१८॥
जिनके शरीरमें कफ, पित्तसे उत्पन्न हुए रोग मन्दबल हैं उनको तथा जिनको वमन, अतिसार, हृदयरोग, विषूचिका, अलसक, ज्वर, विबंध, गुरुता, उद्गार, अरोचक आदि रोग हों उन पाचनयोग्य मनुष्योंको लंघन कराना चाहिये॥१७॥१८॥
अतएवयथोद्दिष्टायेषामल्पबलागदाः। पिपासानिग्रहैस्तेषासुपवासैश्चताञ्जयेत्॥१९॥ रोगाञ्जयेन्मध्यबलान्व्यायामातपमारुतैः। बलिनांकिंपुनर्येषांरोगाणामवरंबलम्॥२०॥
उपरोक्त रोग तथा अन्य भी अल्पबल जो रोग हैं वह सब प्यासके रोकनेसे, संयमसे तथा उपवाससे जीतने योग्य हैं॥१९॥ मध्यवली रोग व्यायाम, धूप और वायुसे लंघन करने योग्य हैं। लंवन द्वारा बडे २ बलवान् रोग भी जीते जा सकतेहैं और अल्पबल रोगोंका तो कहना ही क्या है॥२०॥
शिशिरऋतुमें लङ्घनीय रोगी।
त्वग्दोषिणांप्रमीढानांस्निग्धाभिष्यन्दिवृंहिणाम्।
शिशिरेलंघनंशस्तमपिवातविकारिणाम्॥२१॥
त्वक्रोगी प्रमेहवाला, स्निग्ध, अभिष्यंदयुक्त, स्थूल, और वातरोगीके भी शिशिरऋतुमें लंघन पथ्य हैं॥२१॥
बृंहणमांसका वर्णन।
अदिग्धविद्धमक्लिष्टंवयःस्थंसात्म्यचारिणाम्।
मृगमत्स्यविहङ्गानां मांसंबृंहणमुच्यते॥२२॥
जो दुर्बल, किसीका माराहुआ और कठोर, जीर्ण न हों, स्वस्थ हों ऐसे सब प्रकारके मृगोंका मांस और मछलियों तथा पक्षियोका मांस बृंहण कहाजाता है॥२२॥
क्षीणाःक्षताः कृशावृद्धादुर्बलानित्यमध्वगाः।
स्त्रीमद्यनित्याग्रीष्मेचबृंहणीयानराः स्मृताः॥२३॥
जो मनुष्य क्षीण, क्षत, कृश, वृद्ध, दुर्बल तथा रास्ता चलनेसे थकाहुआ हो तथा स्त्रीसंग और मद्यका सेवन करनेवाला हो, ग्रीष्मऋतुमे वह बृंहण करनेकें योग्य है॥२३॥
मांसद्वारा बृंहणीय रोगी।
शोषार्शोग्रहणीदोषैर्व्याधिभिःकर्शिताश्चये।
तेषांक्रव्यादमांसानांबृंहणालघवोरसाः॥२४॥
जो मनुष्य शोष, अर्श, ग्रहणी आदि रोगोंसे क्षीण होगये हों उनको मांस भक्षण करनेवाले जीवोंका मांसरस बृंहण कर्ता तथा लघु कहा गया है॥२४॥
सर्वोपयोगी बृंहणकर्म।
स्नानमुत्सादनंस्वप्नोमधुराःस्नेहवस्तयः।
शर्कराक्षीरसर्पीषिसर्वेषांविद्धिबृंहणम्॥२५॥
स्नान, उत्सादन, निद्रा, मधुर पदार्थ, स्नेहबस्ती, शर्करा, दूध और घी ये सब मनुष्योंके लिये बृंहण ( पुष्ट ) करनेवाले हैं॥२५॥
रूक्षण।
कटुत्तिक्तकषायाणांसेवनंस्त्रीष्वसंयमः।
खलीपिण्याकतक्राणांमध्वादीनांचरूक्षणम्॥२६॥
कडुवे, कषैले, चर्परे रसोंका सेवन, स्त्रियोंका अत्यन्त सेवन, खल, तिलकल्क, छाछ और मधु आदि रूखे पदार्थ सब मनुष्योंको रूक्षणकर्ता कहे जाते हैं॥२६॥
अभिष्यन्दामहादोषामर्मस्थाव्याधयश्चये।
ऊरुस्तम्भप्रभृतयोरुक्षणीयानिदर्शिताः॥२७॥
जिनके शरीरमें अधिक मोटा होनेके कारण अथवा दोषोंकी वृद्धि के कारण गिलगिलाहट उत्पन्न होगई हो और कफ बढाहुआ हो वे तथा मर्मस्थानमें बढे हुए दोष एवम् ऊरुस्तम्भ आदि रोग रूक्षण करनेके योग्य हैं॥२७॥
स्नेहाःस्नेहयितव्याश्चस्वेदाःस्वेद्याश्चयेनराः।
स्नेहाध्यायेमयोक्तास्तेस्वेदाख्येचसविस्तराः॥२८॥
सब प्रकारके स्नेह और स्नेहनके योग्य मनुष्य तथा सब प्रकारके स्वेद और स्वेदनयोग्य मनुष्य हम स्नेह स्वेदाध्यायमें विस्तारपूर्वक वर्णन कर चुके हैं॥२८॥
द्रवंतनुसरंयावच्छीतीकरणमौषधम्।
स्वादुतिक्तंकषायञ्चस्तम्भनंसर्वमेवतत्॥२९॥
द्रव, तनु, सर, शीतल, स्वादु, तिक्त और कषाय द्रव्य स्तम्भन कहे जाते हैं॥२९॥
पित्तक्षाराग्निदग्धायेवम्यतीसारपीडिताः।
विषस्वेदातियोगार्त्तास्तम्भनीयास्तथांपरीः॥३०॥
जो मनुष्य पित्त, क्षार तथा अग्निसे दग्ध हुए हो और वमन तथा अतिसारसे पीडित हो अथवा विष और स्वेदके अतियोगसे क्लेशित हो वह सब स्तम्भन करने योग्य हैं॥३०॥
सम्यक् लंघनके लक्षण।
वातमूत्रपुरीषाणांविसर्गेगात्रलाघवे।हृदयोद्गारकण्ठास्यशुद्धौतन्द्राकमेगते॥३१॥ स्वेदेजातेरुचौचैवक्षुत्पिपासासहोदये। कृतंलंघनमादेश्यंनिर्व्यथेचान्तरात्मनि॥३२॥
जब रोगीके वात, मूत्र और मलका त्याग होने लगे, शरीर हलका पडजाय, हृदय शुद्ध होय, डकार शुद्ध आने लगें, कण्ठ और मुख स्वच्छ प्रतीत होने लगे, तंद्रा और क्लम दूर होजाय, शुद्ध पसीना आने लगे, रुचि प्रकट हो, भूख और प्यास लगने लगे, अपना शरीर शुद्ध, हलका और व्यथाहीन प्रतीत होवे तो समझना चाहिये कि उत्तम लंघन होगया॥३१॥३२॥
पर्वभेदोऽङ्गमर्दश्चकासःशोषोमुखस्यच। क्षुत्प्रणाशोऽरुचिस्तृष्णादौर्बल्यंश्रोत्रनेत्रयोः॥३३॥ मनसःसम्भ्रमोऽभीक्ष्णमूर्द्धंवायुस्तमोहृदि। देहाग्निबलनाशश्चलंघनेऽतिकृतेभवेत्॥३४॥
पर्वमेद, अंगमर्द, खांसी, मुख सूखना, क्षुधा बंद होना, अरुचि, प्यास, श्रोत्र, और नेत्रोमें दुर्बलता, मनमें व्याकुलता, सांस फूलना भ्रम, मोह, हृदयमें व्याकुलता, मंदाग्नि ये सब लक्षण अतिलंघनके होते हैं॥३३॥३४॥
सम्यक् बृंहणके लक्षण।
बलंपुष्ट्युपलम्भश्चकार्श्यंदोषविवर्जितम्। लक्षणंबृंहितेस्थौल्यमतिचात्यर्थबृंहिते॥३५॥ कृताकृतस्यचिह्नंयल्लंघितेतद्विरूक्षिते। स्तम्भितःस्याद्बलेलब्धेयथोक्तैश्चामयैर्जितैः॥३६॥ श्यावतास्तब्धगात्रत्वमुद्वेगोहनुसंग्रहः।हृद्वर्चोनिग्रहश्चस्यादतिस्तम्भितलक्षणम्॥३७॥
बल, पुष्टि, दृढता, अकृशता ये सब लक्षण बृंहणक होते हैं। अत्यन्त बृंहण होनेसे शरीरमें स्थूलता बढजातीहै॥३५॥ जैसे लंघनके योग और अयोगसे लक्षण होतेहैं वैसेही रूक्षणके योग और मिथ्यायोगसे भी जानने। यथोक्त रोगोंके उपद्रवोंको स्तम्भन द्वारा जीतकर शरीरमें बल प्राप्त होय तो उत्तम स्तम्भन हुआ जानो॥३६॥ अति स्तम्भन होनेसे शरीरका रंग काला पडजाता है और गात्रस्तम्भ, उद्वेग और हनुस्तम्भ, हृदयका उपरोध एवम् मलबद्धता उत्पन्न होजाती है॥३७॥
लक्षणंचकृतानांस्यात्षण्णामेषांसमासतः। तदौषधीनांव्याधीनामशमोवृद्धिरेववा॥३८॥ इतिषट्सर्वरोगाणांप्रोक्ताःसम्यगुपक्रमाः।साध्यानांसाधनेसिद्धामात्राकालानुरोधिनइति॥३९॥
इस प्रकार लंघनादि ६ प्रकारके उपयोग होनेसे जो लक्षण होते हैं उनकी औषधि और धातुओंकी अशान्ति और वृद्धि यह सब कह चुके हैं। इस ६ प्रकारकी चिकित्सा द्वारा मनुष्य सब रोगोंको जीत सकता है, परन्तु यह सबमात्रा, काल आदि विचारकर प्रयोग करनेसे सब साध्यरोगोंको नष्ट कर देतेहैं॥३८॥३९॥
भवति चात्र।
दोषाणांबहुसंसर्गात्सङ्कीर्य्यन्तेह्युपक्रमाः। षट्त्वंतुनातिवर्त्तन्तेत्रित्वंवातादयोयथा॥४०॥ इत्यस्मिल्लंघनाध्यायेव्याख्याताःषडुपक्रमाः। यथाप्रश्नंभगवताचिकित्सायैःप्रवर्त्तिता॥४१॥
इति योजनाचतुष्केलंघनबृंहणीयो नाम द्वाविंशोऽध्यायः समाप्तः।
वात, पित्त, कफके बहुतसे प्रकार मिश्रित चिकित्सासे नष्ट करनेयोग्य हैं। जैसे वात, पित्त, कफ इन तीन दोषोके सिवाय और कोई दूषित करनेवाला नहीं है ऐसे ही लंघन प्रभृति ६ चिकित्सा भी इन वातादिकसे मिश्रित और पृथक् दोषोंको दूर करनेमें परमोपयोगी हैं। इस प्रकार भगवान् पुनर्वसुजीने अग्निवेशके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए इस लंघनबृंहणीयाध्याय में ६ प्रकारकी चिकित्साका वर्णन कियाहै॥४०॥४१॥
इति श्रीमहर्षि चरक० प० रामप्रसाद० भाषाटीकायां योजनाचतुष्के लंघनबृहणीयो नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
त्रयोविंशोऽध्यायः।
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अथातः सन्तर्पणीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम संतर्पणीय नामके अध्यायकी व्याख्या करतेहैं।ऐसा भगवान्, ओत्रय कहनेलगे।
सन्तर्पणसे होनेवाले रोगोंके सकारण नाम।
सन्तर्पयतियःस्निग्धैर्मधुरैर्गुरुपिच्छिलैः। नवान्नैर्नवभद्यैश्चमांसैश्चानूपवारिजैः॥१॥ गोरसैर्गौडिकैश्चान्नैःपिष्टकैश्चतिमात्रशः। चेष्टाद्वेषीदिवास्वप्नशय्यासनसुखेरतः॥२॥ रोगास्तस्योपजायन्तेसन्तर्पणनिमित्तजाः। प्रमेहकण्डूपिडकाः कोठपाण्ड्वामयज्वराः॥३॥ कुष्ठान्यामप्रदोषाश्चमूत्रकृच्छ्रमरोचकम्। तन्द्राक्लैब्यमतिस्थौल्यमालस्यंगुरुगात्रता॥४॥ इन्द्रियेस्रोतसांरोधोबुद्धेर्मोहः प्रमीलकः। शोफाश्चैवंविधाश्चान्येशीघ्रमप्रतिकुर्वतः॥५॥
जिस प्रकार चिकने, मीठे, भारी और पिच्छिल द्रव्य तथा नवीन अन्न, मद्य, अनूपसंचारी जीवोका मांस, जलचर जीवोंका मांस, दूध और मिठाई, पुष्ट पदार्थ तृप्तिपूर्वक भोजन करनेसे संतर्पण होताहै। उसी प्रकार व्यायाम न करना, दिनमें सोना, सोने बैठनेके सुखमें आरामसे रहना इनसे प्रमेह, खुजली, पिडका, कोष्ठरोग, पाण्डुरोग ज्वर, कुष्ठ, आमदोष, मूत्रकृच्छ, अरुचि, तन्द्रा, नपुंसकता, मेदरोग, आलस्य, भारीपन, इन्द्रियोंके स्रोतोंका अवरोध, बुद्धिनाश, प्रमीलक, सूजन आदि अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं॥१॥२॥३॥४॥५॥
शतमुल्लेखनंतेषांविरेकोरक्तमोक्षणम्। व्यायामश्चोपवासश्चधूमाश्चस्वेदनानिच॥६॥ सक्षौद्रश्चाभयाप्रासः प्रायोरूक्षान्नसेवनम्। चूर्णप्रदेहायेचोक्ताःकण्डूकोठविनाशनाः॥७॥
अधिक संतर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोंमें वमन कराना विरेचन, रक्तमोक्षण, व्यायाम, उपवास, धूम्रपान, स्वेदन, मधुके साथ हर्डका खाना और रूक्ष अन्नपानका सेवन तथा खाज और कुष्ठके नाश करनेवाले चूर्ण तथा प्रदेह अदिकोंका सेवन करना चाहिये॥६॥७॥
मोहादि नाशक क्वाथ।
त्रिफलारग्वधंपाठांसंसपर्णंसवत्सकम्। मुस्तंनिम्बंसमदनंजलेनोत्क्वथितंपिबेत्॥८॥ तेनमोहादयोयान्तिनाशमभ्यस्यंतांध्रुवम्। मात्राकालप्रयुक्तेनसन्तर्पणसमुत्थिताः॥९॥
त्रिफला, अमलतास, पाटला, सतवन, कुडाकी छाल, नागरमोथा, नीमका छिलका और मैनफल इन सबका क्वाथ (काढा) बनाकर मात्रा और कालको विचारकर सेवन करने से संतर्पण से उत्पन्नहुए प्रमेह आदि रोग नष्ट होतेहैं॥८॥९॥
त्वग्दोषपर क्वाथ।
मुस्तमारग्वधः पाठात्रिफलादेवदारुच। श्वदंष्ट्राखदिरोनिम्बोहरिद्रात्वक्चवत्सकात्॥१०॥ रसमेषांयथादोषंप्रातःप्रातःपिबेन्नरः। सन्तर्पणकृतैः सर्वैर्व्याधिर्भिर्विप्रमुच्यते॥११॥
नागरमोथा, अमलतास, पाठा, त्रिफला, देवदारु गोखरू, कत्था, नीमका छिलका, हल्दी, कुडाकी छाल इन सबका क्वाथ (काढा) नित्य प्रातःकाल पीनेसे संतर्पणसे उत्पन्नहुई सबप्रकारकी व्याधियां नष्ट होती हैं॥१०॥११॥
एभिश्चोद्वर्त्तनोद्धर्षस्नानयोगोपयोजितैः।
त्वग्दोषाःप्रशमंयान्तितथास्नेहोपसंहितैः॥१२॥
इन ऊपर कही हुई औषधियोंके तैलसे अथवा इन सबका उवटन बना मालिश करनेसे किंवा इनके क्वाथमें स्नान करनेसे संतर्पण से उत्पन्न हुए त्वचाके रोग दूर होते हैं॥१२॥
मूत्रदोषोंपर क्वाथ।
कुष्ठंगोमेदकंहिङ्गुक्रौञ्चास्थित्र्यूषणंवचाम्। वृषकैलेश्वदंष्ट्रांचखराह्वाञ्चाश्मभेदिकम्॥१३॥ तक्रेणदधिमण्डेनबदराम्लरसेनवा। मूत्रकृच्छ्रप्रमेहञ्चपीतमेतद्व्यपोहति॥१४॥
** **कडुआ कूट, गोमेदक नामका पत्थर, हींग, कमलगट्टेकी गिरू, सोंठ, पीपल, मिर्च, बच, अडूसा, इलायची, गोखरू, अजमोद, पाषाणभेद इन सब औषधियोंके चूर्णको छाछ अथवा दहीका जल या बेरके क्वाथके साथ पीनेसे संतर्पण जनित मूत्रकृच्छ्र और प्रमेह दूर होतेहैं॥१३॥१४॥
प्रमेहादिपर क्वाथ।
तक्राभयाप्रयोगैश्चत्रिफलायास्तथैवच।
अरिष्टानांप्रयोगैश्चयान्तिमेहादयःशमम्॥१५॥
तक्र, हरड, त्रिफला और ऐसे ही अरिष्टोंके प्रयोग करनेसे प्रमेह आदि रोग नाशको प्राप्त होतेहैं॥१५॥
त्र्यूषणंत्रिफलाक्षौद्रंक्रिमिघ्नंसाजमोदकम्।
मन्थोऽयंसक्तवःसर्पिर्हितोलोहोदकाप्लुतः॥१६॥
सोठ, मिर्च, पीपल, त्रिफला, शहद, विडंग, अजमोद इन सबके चूर्णमें अगरका जल और सत्तू तथा घी इनका मंथ बनाकर पीवे तो संतर्पणसे उत्पन्न हुए सब रोग नष्ट हो॥१६॥
व्योषंविडङ्गशिग्रूणित्रिफलाकटुरोहिणी। बृहत्यौद्वेहरिद्रेद्वेपाठासातिविषास्थिरा। हिङ्गुकेवुकमूलानियवानीधान्यचित्रकम्॥१७॥ सौवर्चलमजाजीञ्चहवुषांचेतिचूर्णयेत्। चूर्णतैलघृतक्षौद्रभागाःस्युर्मानतःसमाः॥१८॥ सक्तूनांषोडशगुणोभागःसन्तर्पणंपिबेत्। प्रयोगादस्यशाम्यन्तिरोगाःसन्तर्पणोत्थिताः॥१९॥ प्रमेहामूढवाताश्चकुष्ठान्यर्शांसिकामलाः।प्लीहापाण्ड्वामयःशोफोमूत्रकृच्छ्रमरोचकः॥२०॥ हृद्रोगोराजयक्ष्माचकासःश्वासोगलग्रहः। क्रिमयोग्रहणीदोषाःश्वैत्र्यंस्थौल्यमतीवच। नराणांदीप्यतेचाग्निःस्मृतिर्बुद्धिश्चवर्द्धते॥२१॥
सोंठ, मिर्च, पीपल, सोहाञ्जनेके बीज, हरड, बहेडा, आमला, कुटकी, दोनों कटेली, हलदी, दारुहलदी, पाठा, अतीश, शालपर्णी, हीग, केवूककी जड, अजवायन, धनियां, चित्रक, संचरनमक, कालाजीरा, हाऊबेर इन सबका चूर्ण करके चूर्ण के समान तैल, घी और शहद मिलावे तथा १६ गुना सत्त मिलावे। इस औषधिके सेवनसे संतर्पणसे उत्पन्न हुआ प्रमेह और ऊर्द्धवात, कुष्ठ, अर्श, कामला, प्लीहा, पांडु, सूजन, मूत्रकृच्छ्र, अरुचि, हृद्रोग, यक्ष्मा, काश, श्वास, गलग्रह, कृमि, ग्रहणी, स्थूलता, चित्र ये सबनष्ट होते हैं और अग्नि चैतन्य होती है तथा स्मृति और बुद्धिकी वृद्धि होती है॥१७॥१८॥१९॥२०॥२१॥
व्यायामनित्योजीर्णाशीयवगोधूमभोजनः।
सन्तर्पणकृतैर्दोषैर्मुक्तास्थौल्याद्विमुच्यते॥२२॥
नित्य व्यायाम करनेवाला तथा उचित रीति पर भोजन करनेवाला मनुष्य जौ, गेहूँ भोजन करते हुए भी संतर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोंसे तथा स्थूलतासे छूट जाताहै॥२२॥
उक्तसन्तर्पणोत्थानामपतर्पणमौषधम्।
वक्ष्यन्तेसौषधाश्चोर्द्धमपतर्पणजागदाः॥२३॥
इस प्रकार संतर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोंकी औषधियां वर्णन करचुके हैं अब लंघनसेउत्पन्न हुए रोगोंकी औषधियां कहते हैं॥२३॥
अतर्पणजन्य रोगोंके नाम।
देहोग्निबलवणजःशुक्रमांसबलक्षयः॥ ज्वरःकासानुबन्धश्चपार्श्वशूलमरोचकः॥२४॥ श्रोत्रदौर्बल्यमुन्मादःप्रलापोहृदयव्यथा। विपमूत्रसंग्रहःशुलंजंघोरुत्रिकसंश्रयम्॥२५॥पंर्वास्थिसन्धिभेदश्चयेचान्येवातजागदाः। ऊर्द्धवातादयः सर्वे जायन्तेतेऽपतर्पणात्॥२६॥
** **अत्यन्त लंघन करनेसे अथवा अनुचित रीति पर लंघन करनेसे शरीर, जठराग्नि, बल, वर्ण, ओज, शुक्र, मांस और बलका क्षय होता है और ज्वर, खांसी इनका अनुबंध पार्श्वशूल, अरुचि और श्रवणशक्तिकी दुर्बलता, उन्माद, बकवाद, हृदयमें पीडा, मल मूत्रका विबंध, जंघा और ऊरु तथा त्रिकस्थान में पीडा और पर्व, अस्थि, सन्धि इनमें भेदनकसी पीडा, ऊर्द्धवात आदिक बहुतसे रोग उत्पन्न होते हैं॥२४॥॥२५॥२६॥
तेषांसन्तर्पणंतज्ज्ञैः पुनराख्यातमौषधम्। यत्तदात्वेसमर्थंस्यादभ्यासेवातदिष्यते॥२७॥ सद्यःक्षीणोहिसद्योवैतर्पणेनोपचीयते। नर्त्तेसन्तर्पणाभ्यासाच्चिरक्षीणस्तुपुष्यति॥२८॥देहाग्निदोषभैषज्यमात्राकालानुवर्त्तिना।कार्य्यमत्वरमाणेनभेषजंचिरदुर्बले॥२९॥ हितामांसरसास्तस्मैपयां सिचघृतानिच। स्नानानिबस्तयोऽभ्यङ्गास्तर्पणास्तर्पणाश्चये॥३०॥ ज्वरकासप्रसक्तानांकृशानांमूत्रकृच्छ्रिणाम्।तृष्यतामूर्द्धवातानांहितंवक्ष्यामितर्पणम्॥३१॥
इन लंघनसे उत्पन्न हुए रोगोंमें संतर्पणके जाननेवाले वैद्योंको उचित रीतिपर हलके संतर्पणसे अभ्यास कराकर सामर्थ्यानुसार संतर्पणकी मात्राको बढाना चाहिये। जो मनुष्य अवतर्पण (लंघन) से शीघ्र क्षीण हुआहो वह संतर्पण के सेवनसे शीघ्रही पुष्ट होजाताहै और जो मनुष्य बहुत दिनका क्षीण है वह कुछ काल पर्यन्त संतर्पणका अभ्यास करने बिना पृष्ट नहीं होसकता॥२७॥२८॥ जो मनुष्य बहुत दिनसे क्षीण होरहा हो उसके देह, अग्नि, बल और दोषको विचारकर तथा औषध मात्रा, और कालका विचार करते हुए अल्प २ (थोडी २) मात्रासे संतर्पणका अभ्यास करना चाहिये॥२९॥ बहुत रोजसे क्षीण हुए मनुष्यके लिये मांसरस, दूध, घृत, स्नान, वस्तिकर्म और अभ्यंग एवम् अनेक प्रकारके तर्पण योग्य रीति पर उपयोग करना चाहिये॥३०॥ जो मनुष्य ज्वर और खांसीसे पीडित हो, कृश हो, मूत्रकृच्छ रोगवाला, तृषायुक्त एवम् उर्द्धवातवाला हो ऐसे रोगियोके लिये हितकारी संतर्पणोका कथन करते॥३१॥
पुष्टिकर्त्ता मन्ध।
शर्करापिप्पलीतैलघृतक्षौद्रसमांशकैः।
सक्तुद्विगुणितोवृष्यस्तेषांमन्थःप्रशस्यते॥३२॥
खांड, पीपल, तैल, घृत, मधु इनको समान भाग लेकर इनमें उनके दूने सत्तू मिलावे यह मंथ सब प्रकारके क्षीण मनुष्योंके लिये परम हितकारी है॥३२॥
विष्णूत्रानुलोमी तर्पण।
सक्तवोमदिराक्षौद्रंशर्कराचेतितर्पणम्।
पिबेन्मारुतविषमूत्रकफपित्तानुलोमनम्॥३३॥
सत्तू, मद्य, शहद, खांड इनका तर्पण सेवन करनेसे वायु, मल, मूत्र और कफ तथा पित्तका अनुलोमन होताहै॥३३॥
मूत्रकृच्छ्रादिनाशक तर्पण।
फाणितंसक्तवः सर्पिर्दधिमण्डोऽम्लकाञ्जिकम्।
तर्पणंमूत्रकृच्छ्रघ्नमुदावर्त्तहरंपिबेत्॥३४॥
फाणित, सत्तू, घृत, दही, मंड, खट्टी कांजी इनका तर्पण पीनेसे मूत्रकृच्छ्र और उदावर्तका नाश होताहै॥३४॥
मन्थःखर्जूरमृद्वीकावृक्षाम्लाम्लीकदाडिमैः
परूषकैः सामलकैर्युक्तोमद्यविकारनुत्॥३५॥
छुहाडा, मुनक्का, तंतडीक, इमली, अनारदाना, फालसा, आँवले इन सबका बनाया मंथ मद्य पीनेसे हुए विकारोंको नष्ट करता है॥३५॥
बलवर्णदायक सन्तर्पण।
स्वादुरम्लोजलकृतःसस्नेहोरुक्षएववा।
सद्यःसन्तर्पणोमन्थःस्थैर्य्यवर्णबलप्रदः॥३६॥
मीठे और खट्टे पदार्थोंको लेकर जलके संयोगसे मंथ बनावे अथवा मीठे खट्टे पदार्थोंका स्वरस स्नेहनके साथ या रूखा ही पीनेसे शरीरमें स्थिरता होती है और बल तथा वर्णकी वृद्धि होतीहै॥३६॥
तत्रश्लोकः।
सन्तर्पणोत्थायेरोगारोगायेचापतर्पणात्।
सन्तर्पणीयेतेऽध्यायेसौषधाःपरिकीर्तिताः॥३७॥
इतिसन्तर्पणीयोऽध्यायःसमाप्तः।
इस संतर्पणीय नामक अध्यायमें संतर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोंका और लंघनसे उत्पन्न हुए रोंगोंका वर्णन तथा उनकी चिकित्साका वर्णन किया गयाहै॥३७॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकाया सन्तर्पणीयो नाम
त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥
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चर्तुविंशोऽध्यायः।
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अथातोविधिशोणितीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम विधिशोणितीय नामके अध्यायकी व्याख्या करतेहैं, ऐसा आत्रेय भगवान् कहनेलगे।
शुद्ध रक्तके गुण।
विधिनाशोणितंजातंशुद्धंभवतिदेहिनाम्। देशकालौकसात्म्यानांविधिर्यःसंप्रदर्शितः॥१॥ तद्विशुद्धंहिरुधिरंबलवर्णसुखायुषा।युनक्तिप्राणिनंप्राणःशोणितंह्यनुवर्त्तते॥२॥
देश, काल विचारकर आत्माके अनुकूल व्यवहार करनेवाले मनुष्योंके शरीरमें जिस प्रकार शुद्ध रक्त रहे वह विधि हम प्रकाशित करतेहैं, क्योंकि शरीरमें शुद्ध रक्तके रहनेसे वल, वर्ण, सुख और आयुकी वृद्धि होती है कारण कि मनुष्योके शरीरोंमें प्राण रुधिरके अनुवर्ती होते हैं॥१॥२॥
प्रदुष्टबहुतीक्ष्णोष्णैर्मद्यैरन्यैश्चतद्विधैः। तथातिलवणक्षारैरम्लेःकटुभिरेवच॥३॥ कुलत्थमाषनिष्पावतिलतैलनिषेवणैः। पिण्डालुमूलकादीनांहरितानाञ्चसर्वशः॥४॥जलजानूपबैलानांप्रसहानांचसेवनात्। दध्यम्लमस्तुसक्तूनांसुरासौवीरकस्यच॥॥५॥ विरुद्धानामुपक्लिन्नपूतीनांभक्षणेनच। भुक्त्वादिवाप्रस्वपतांद्रवस्निग्धगुरूणिच॥६॥ अत्यादानंतथाक्रोधंभजतांचातपानलौ। छर्द्दिवेगप्रतीघातात्कालेचानवसेचनात्॥७॥श्रमाभिघातसन्तापैरजीर्णाध्यशनैस्तथा। शरत्कालस्वभावाच्चशोणितंसंप्रदुष्यति॥८॥
अब रुधिरके दूषित करनेवाले कारणोंको कहते है। खराब हुए बहुतसे तीक्ष्ण, गर्म पदार्थोंके सेवनसे मादक द्रव्य, लवण, क्षार, खटाई, चपेरे पदार्थ, कुलथी, उडद, सेम, तिल, तैल, पिंडालु, मूली, सज्जी तथा जलसंचारी और अनूपसंचारी एवम् विलेशय और मसह आदि जीवोंके मांस खानेसे दही, कांजी, दहीका तोड, सत्तू, सुरा, सौवीर इनके सेवनसे एवम् अपनी आत्माके विरुद्ध आहार करनेसे तथा कुलिन्न, सडाबुसा आहार बहुत सेवन करनेसे शरीरमेंका रक्त दूषित होताहै। इसी प्रकार पतले, चिकने और भारी भोजन करनेसे, दिनमें सोनेसे, मात्रा से अधिक भोजन करनेसे और क्रोध, धूप, अग्नि इनके सेवनसे, वमनका वेग रोकनेसे, समयोचित रक्तमोक्षण न करानेसेभी रक्त दूषित होता है। तथा परिश्रम, चोट लगना, अजीर्ण होना, विना पचे भोजन करना इत्यादि कारणोंसे भी रक्त दूषित होता है एवम शरद ऋतु में स्वभावसे ही रक्तकें दूषित होनेका समय है॥३॥४॥५॥६॥७॥८॥
दूषितरक्तके उपद्रव।
ततःशोणितजारोगाःप्रजायन्तेपृथग्विधाः। मुखपाकोऽक्षिरोगश्चपूतिघ्राणास्यगन्धता॥९॥गुल्मोपदंशवीसर्परक्तपित्तप्रमीलकाः। विद्रधीरक्तमेहश्चप्रदरोवातशोणितम्॥१०॥वैवर्ण्यमग्निनाशश्चपिपासागुरुगात्रता।सन्तापश्चातिदौर्बल्यमरुचिःशिरसश्चरुक्॥११॥ विदाहश्चान्नपानस्यतिक्ताम्लोद्गरणंक्रमः।क्रोधप्रचुरताबुद्धेःसंमोहोलवणास्यता॥१२॥ स्वेदःशरीरदौर्गन्ध्यंमदःकम्पःस्वरक्षयः। तन्द्रानिद्रातियोगश्चतमसश्चातिदर्शनम्॥१३॥ कण्डूरुक्कोठपिडकाःकुष्ठचर्मदलादयः। विकाराःसर्वएवैतेविज्ञेयाःशोणिताश्रयाः॥१४॥
** **फिरवह दुष्ट हुआ रक्त अनेक प्रकारके रोगोको उत्पन्न करताहै। उन रोगोंका यहां वर्णन करतेहैं।मुखरोग तथा मुख, नाक और नेत्रोंका परिपाक होना नाकसे और मुखसे दुर्गन्धआना, गुल्म, उपदंश, विसर्प, रक्तपित्त, प्रमीलक, विद्रधि, रक्तमूत्र (पेशाब में रक्तका आना), प्रदर वातरक्त, शरीरकी विवर्णता, मंदाग्नि, प्यास, भारीपन, संताप, अति दुर्बलता, अरोचक, मस्तकपीडा, अन्नपानका विदाही परिपाक होना, खट्टे तथा कडुए डकार आना, क्लम, क्रोधकी अधिकता, बुद्धिका नाश, मुखका नमकीन स्वाद, दुर्गधित स्वेद, शरीरमे दुर्गध, मस्ती, कम्प, स्वरभंग, तन्द्रा, अत्यन्त निद्रा, अंधकार, खाज, पीडा, कोष्ठरोग, पिडका, कुष्ठ, चर्मदल ऐसे २ रोग रक्तके दूषित होनेसे उत्पन्न होते हैं॥९॥१०॥११॥१२॥१३॥१४॥
शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैरुपक्रान्ताश्चयेगदाः।सम्यक्साध्यानसिध्यन्तिरक्तजांस्तान्विभावयेत्॥१५॥
इसी प्रकार जो रोग साध्य प्रतीत होने पर भी शीतल, उष्ण तथा रूक्ष आदि क्रिया करने पर भी शांत नहीं होते उनको भी रक्तके विकारसे उत्पन्न हुआ जानना॥१५॥
दूषितरक्तमें कर्तव्य कर्म।
कुर्य्याच्छोणितरोगेषुरक्तपित्तहरींक्रियाम्।
विरेकमुपवासंवास्त्रावणंशोणितस्यवा॥१६॥
रक्तके विकारोंमे रक्तपित्तनाशक क्रिया, विरेचन, उपवास एवम् रक्तका निकालना ऐसे २ उपायोंको करे। रक्तमोक्षण (फस्त खुलाना) के समय देश, काल, बल और दोष एवम् शुद्धरक्तका प्रमाण जानकर तथा शारीरिक स्थान परीक्षा करके ही रुधिर निकालना चाहिये॥१६॥
बलदोषप्रमाणाद्वाविशुद्ध्यारुधिरस्यवा।रुधिरंस्रावयेज्जन्तोराशयंप्रसमीक्ष्यवा॥१७॥ अरुणाभंभवेद्वातात्पिच्छिलंफेनिलंतनु। पित्तात्पीतासितंरक्तंसौष्ण्यात्स्त्यायतिवैचिरात्॥१८॥ईषत्पाण्डुकफाद्दुष्टंपिच्छिलंतन्तुमद्धनम्। द्विदोषलिङ्गंसंसर्गात्त्रिलिङ्गंसान्निपातिकम्॥१९॥
वायुसे दूषितहुआ रक्त–लाल, झागदार, पिच्छिल और पतला होताहै। पित्तसे दूषित हुआ रक्त–पीला, काला, लालं, गर्म और देरमें जमनेवाला होताहै॥१७॥ इसी प्रकार कफसे दूषितहुआ रक्त–कुछ २ पांडुवर्णका, पिच्छिल, तारयुक्त, गाढा होता है।दो दोषोके लक्षणोंवाला दो दोषोसे दूषित जानना एवम् त्रिदोषके लक्षण मिलनेसे तीनों दोषोसे दूषित समझना चाहिये॥१८॥१९॥
शुद्धरक्तके लक्षण।
तपनीयेन्द्रगोपाभंपद्मालक्तकसन्निभम्।गुञ्जाफलसवर्णञ्चविशुद्धंविद्धिशोणितम्॥२०॥
जो रक्त सुवर्णके समान तथा वीरवहूटीके समान लाल वर्णका हो एवम् पद्मराग मणिके समान प्रकाशवाला हो अथवा रक्तक (चिरमटी, घुंघची) के वर्णसमान लालरंगका होता है वह शुद्ध रक्त जानना॥२०॥
नात्युष्णशीतंलघुदीपनीयंरक्तेऽपनीतेहितमन्नपानम्।
तदाशरीरंह्यनवस्थितासृगग्निर्विशेषेण चरक्षितव्यम्॥२१॥
रक्त निकलवानेके अनन्तर जो अधिक गर्म तथा अधिक शीतल न हो ऐसा हलका और अग्निको उद्दीपन करनेवाला अन्नपान सेवन करना चाहिये क्योकि रक्तकी ताकतसे ही अन्नका परिपाक होता है सो रुधिर निकल जाने पर शरीरमे रक्तकी स्थिरता नहीं रहती इसलिये ऐसे समय पाचन करनेवाली अग्निकी विधिपूर्वक रक्षा करनी चाहिये॥२१॥
प्रसन्नवर्णेन्द्रियमिन्द्रियार्थानिच्छन्तमव्याहतपक्तृवेगम। सुखान्वितं मुष्टिबलोपपन्नंविशुद्धरक्तंपुरुषंवदन्ति॥२२॥
मनुष्यके शरीरमें रक्तके शुद्ध होजानेसे वर्ण और इन्द्रियोंकी प्रसन्नता होतीहै तथा भोगकी इच्छा, पाचनशक्ति, सुख, पुष्टि और बलकी वृद्धि होतीहै॥२२॥
यदातुरक्तवाहीनिरससंज्ञावहानिच।पृथक्पृथक्समस्तावास्रोतांसिकुपितामलाः॥२३॥मलिनाहारशीलस्यरजोमोहावृतात्मनः। प्रतिहत्यावतिष्ठन्तेजायन्तेव्याधयस्तदा॥२४॥मदमूर्च्छायसंन्यासास्तेषांविद्याद्विचक्षणः। यथोत्तरंबलाधिक्यंहेतुलिङ्गोपशान्तिषु॥२५॥
जो मनुष्य सडेबुसे दूषित भोजनको करताहै उसके शरीरमें बात आदि दोष कुपित होकर अलग २ अथवा मिलकर रक्तवाहिनी नसोंको दूषित करके उनमें रहतेहैं॥२३॥ तब उस दूषित आहारके करनेवाले मनुष्यके शरीरमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होतेहैं॥२४॥ जैसे–उन्माद, मूर्छा, संन्यास (बेहोशी) इत्यादि इस लिये बुद्धिमान् वैद्यको हेतु, लक्षण, उपशय इनको विचारकर चिकित्सा करना चाहिये। रक्तमे दोषके बलवान् होनेसे मद, मूर्छा, संन्यास यह तीनों प्रथमकी अपेक्षा दूसरा, दूसरेकी अपेक्षा तीसरा घोरतर होता है। दूसरी बात यह है कि बढेहुए दोषोंसे दूषित हुए रक्तविकारोंको कारण और लक्षणोंसे उपशम अर्थात् उपाय द्वारा शान्त करना भारी बात है॥२५॥
कुपितवायुका कर्म।
दुर्बलञ्चेतसःस्थानंयदावायुः प्रपद्यते। मनोविक्षोभयञ्जन्तोःसंज्ञांसंमोहयेत्तदा॥२६॥ पित्तमेवंकफश्चैवंमनोविक्षोभयन्नृणाम्। संज्ञांनयत्याकुलतांविशेषश्चात्रवक्ष्यते॥२७॥
जब मनुष्यके दुर्बल चित्तमें कुपित होकर वायु प्रवेश करता है उस समय उस मनुष्यके मनको चञ्चल करके ज्ञानको बिगाड देता है॥२६॥ इसी प्रकार कुपित हुआ पित्त और कफ मनुष्योंके मनको चञ्चल करता हुआ ज्ञानको नष्ट करदेताहै। उसीको विशेष रूपसे वर्णन करतेहैं॥२७॥
वातादिकृत उन्मादका लक्षण।
सक्तानल्पद्रुताभाषंचलस्खलितचेष्टितम्।विद्याद्वातमदाविष्टंरूक्षश्यावारुणाकृतिम्॥२८॥
वातजनित मदरोगमें मनुष्य जल्दी २ और अधिक बकवाद करता है।उसका स्वभाव चंचल होजाताहै एवम् चेष्टा स्खलित होजाती है तथा आकृति रूखी, काली और लालसी होती है। ऐसे मनुष्यको वायुके मदसे दूषित जानना॥२८॥
**सक्रोधपरुषाभाषंसंग्रहारकलिप्रियम्। **
विद्यात्पित्तमदाविष्टंरक्तपतिसिताकृतिम्॥२९॥
पित्तजनित मदमें मनुष्य क्रोधयुक्त और कटु भाषण करनेवाला तथा मारनेको दौडनेवाला और कलह करनेवाला होताहै। उसका वर्ण लाल, पीला और काले रंगका होताहै॥२९॥
स्वल्पसम्बन्धवचनंतन्द्रालस्यसमन्वितम्।
विद्यात्कफमदाविष्टंपाण्डुंप्रध्यानतत्परम्॥३०॥
कफजनित मदरोगमें अंटसंट बकना, तंद्रा, आलस्य इन लक्षणोंवाला होताहै और उसका वर्ण पांडुरंगका होताहै तथा वह फूत्कार करनेमें तत्पर रहताहै॥३०॥
सर्वाण्येतानिरूपाणिसन्निपातकृतेमदे।जायन्तेशाम्यतित्वाशुभदोमद्यमदाकृतिः॥३१॥ यश्चमद्यमदःप्रोक्तोविषजोरौधिरश्रयः। सर्वएतेमदानत्तेवातपित्तकफाश्रयात्॥३२॥
तीन दोषोंके लक्षण मिलनेसे त्रिदोषज मदरोग जानना। मद्यपानसे उत्पन्न हुआ रोग शीघ्र ही प्रगट होजाताहै और शीघ्र ही नाशको प्राप्त होता है। अन्य भी जितने प्रकारके मदरोग हैं जैसेमदजनित, विषजनित, रक्तजनित यह सबवात, पित्त, कफके आश्रय होकर ही होतेहैं॥३१॥३२॥
वातादिजनितमूर्च्छाका लक्षण।
नीलंवायदिवाकृष्णमाकाशमथवारुणम्।पश्यंस्तमःप्रविशतिशीघ्रञ्चप्रतिबुध्यते॥३३॥वेपथुश्चाङ्गमर्दश्चप्रपीडात्हृदयस्य च। कार्यंश्यावारुणाछायामूर्च्छायेवातसम्भवे॥३४॥
जो मनुष्य आकाशको नीला काला, लाल देखताहुआ झटझट अपने आपको अंधकारमे प्रवेश होता मालूम करे, शीघ्र ही होशमें आजाय तथा जिसके शरीरमें कम्प, अंगमर्द, हृत्पीडा कृशता, श्यामता तथा अरुणता प्रतीत हो उसको वातजनित मूर्च्छा जानना चाहिये॥३३॥३४॥
रक्तंहरितवर्णंवावियत्पतिमथापिवा। पश्यंस्तमः प्रविशतिसस्वेदश्चप्रबुध्यते॥३५॥सपिपासः ससन्तापोरक्तपित्ताकुलेक्षणः। संभिन्नवर्चाः पीताभोर्मूर्च्छायेपित्तसम्भवे॥३६॥
पित्तकी मूर्च्छामे आकाश लाल, हरित, पीला दिखाई देकर झट अंधकारमें प्रवेश होना प्रतीत होताहै और अत्यन्त पसीना आकर फिर होशमें आजाताहै फिर उसको प्यास, संताप, लाल पीले नेत्र, दस्त, देहका वर्ण पीला ये लक्षण होते हैं ॥३५॥३६॥
मेघसङ्काशमाकाशमावृतंवातमोघनैः। पश्यस्तमःप्रविशतिचिराच्चप्रतिबुध्यते॥३७॥गुरुभिःप्रावृतैरङ्गैर्यथैवार्द्रेणचम्मणा। सप्रसेकःसहल्लासोमूर्च्छायेकफसम्भवे॥३८॥
कफकी मूर्च्छामें मनुष्य आकाशको बादलोंसे ढकाहुआ और अंधेरी छाई हुई देखते २ अंधकारमें प्रवेश करताहै बहुत देरमें होश आने पर अपने शरीरको गीले वस्त्रसे ठकासा प्रतीति करता है। मुखसे पानीका बहना, और हल्लास (जीमचलाना) यह लक्षण होतेहैं॥३७॥३८॥
सर्वाकृतिःसन्निपातादपस्मारइवागतः।
सजन्तुंपातयत्याशुविनाबीभत्सचेष्टितैः॥३९॥
** **सन्निपातकी मूर्च्छामें अपस्मार (मृगी) रोगके समान लक्षण होतेहैं अन्तर केवल इतनाही होताहै कि अपस्मारमें बीभत्स (भयानक) चेष्टा नहीं होती और सन्निपात की मूर्च्छामें होतीहै॥३९॥
दोषेषुमदमूर्च्छायाःहृतवेगेषुदेहिनाम्।
स्वयमेवोपशाम्यन्तिसंन्यासोनौषधैर्विना॥४०॥
** **मदसे उत्पन्नहुई मूर्छामें दोपोंका वेग शान्त होने पर मूर्छा भी स्वयम् शान्त होजातीहै। परन्तु संन्यासरोग बिना औषधि के कदापि शान्त नहीं होता॥४०॥
संन्यास रोगका लक्षण।
वाग्देहमनसांचेष्टामाक्षिप्यातिबलामलाः। संन्यस्यन्त्यबलंजन्तुप्राणायतनसंश्रिताः॥४१॥सनासंन्याससंन्यस्तःकाष्ठभूतोमृतोपमः। प्राणैर्वियुज्यतेशीघ्रंमुक्त्वासद्यःफलांक्रियाम्॥४२॥
वात, पित्त, कफ अत्यन्त कुपित होनेसे प्राणोंका आश्रय लेते हुए जब देह, मन और वाणीकी क्रियाको नष्ट कर देतेहैं तब मनुष्य पृथ्वी पर गिरकर बेहोश पडा रहता है। इस रोगको संन्यास रोग कहते हैं।संन्यासरोगमें मनुष्य गिरकर लकडीके समान मराहुआ सा पड़ा रहता है। उस समय यदि शीघ्र फल देनेवाली चिकित्सा न कीजाय तो वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होजाताहै॥४१॥४२॥
संन्यासरोगकी चिकित्सामें शीघ्रता।
दुर्गेऽम्भसियथामज्जद्भाजनन्त्वरयाबुधः।
गृह्णीयात्तलमप्राप्तंतथासंन्यासपीडितम्॥४३॥
** **जैसे अथाह जलमें डुबते हुए पात्रको डूबजानेसे पहिले ही निकाल लिया जाय तब वह हाथ लग सकताहै नहीं तो फिर उसका हाथ आना कठिन होता है। इसी प्रकार संन्यासरोगीका रोग भी जबतक जड न पकडलेवे तबतक उसकी चिकित्सा करनेसे वह अच्छा हो सकता है। नहीतो उसका बचना भी कठिन है॥४३॥
संन्यासरोगमें चिकित्सा।
अञ्जनान्यवपीडाश्चधूमःप्रधमनानिच।सूचीभिस्तोदनंशस्त्रैर्दाहःपीडानखान्तरे॥४४॥ लुञ्चनंकेशलोम्नांचदन्तैर्दशनमेवच।आत्मगुप्तावघर्षाश्चहतास्तस्यावबोधने॥४५॥
अब संन्यासरोगकी चिकित्सा कहतेहै।संन्यास रोगमें होश लानेके लिये अंजन और पीडन, नस्य, धूम्रप्रयोग, प्रधमन, नस्य, सूई चुभाना, शस्त्रसे दागदेना, नखोंका पीडन करना, बालोंको खींचना, दांतोसे काटना, कौचकी फली लगाना आदि उपाय करने चाहिये।ऐसा करनेसे संन्यास छूटकर चैतन्यता लाभ होसकती है॥४४॥४५॥
चेतकरानेके अन्योपाय।
संमूर्च्छितानितीक्ष्णानिमद्यानिविविधानिच। प्रभूतकटुतिक्तानितस्यास्येगालयेन्मुहुः॥४६॥ मातुलुङ्गरसंतद्वन्महौषधसमायुतम्। तद्वत्सौवीरकंदद्याद्युक्तंमद्याम्लकाञ्जिकैः॥४७॥ हिङ्गूषणसमायुक्तंयावत्संज्ञाप्रबोधनात्। प्रबुद्धसंज्ञमन्नैश्चलघुभिस्तमुपाचरेत्॥४८॥ विस्मापनैःस्मरणैश्चप्रियश्रुतिभिरेवच।पटुभिर्गीतवादित्रशब्दैश्चित्रैश्चदर्शनैः॥४९॥ स्रंसनोल्लेखनै र्धूमैरञ्जनैःकवलग्रहैः।शोणितस्यावसेकैश्चव्यायामोद्धर्षणैस्तथा॥५०॥
** **बेहोश मनुष्यको जब तक होश न आवे तब तक उसके मुख पर अनेक तरहके संमूर्च्छितऔर तीक्ष्ण मद्य तथा अत्यन्त चरपरे रसयुक्त पतले पदार्थोंके छीटे देने चाहिये॥४६॥ बिजौरेके रसमें सोंठका चूर्ण और काला नमक मिलाकर अथवा संचर नमक मिलाकर मद्य एवम् खट्टी कांजी, हींग और मिर्चका चूर्ण मिलाकर अथवा हींग और मिर्चका चूर्ण ही होश आनेके लिये देना चाहिये। जबतक रोगीको होश आये उसको हलका अन्न भोजन कराना चाहिये॥४७॥४८॥ कौतूहलजनक उपाय और होशके लानेवाली बातोंको एवम् जो प्रिय लगे ऐसे मीठे वचन और गीत, बाजा यह उसको सुनावे। एवम् विचित्र शब्द और नयी २ वस्तुयें दिखावे॥४९॥बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि होश लानेके लिये युक्तिपूर्वक मलको निकाले तथा वमन, धूम्रपान, अंजन, कुल्ले, परिश्रम, रक्त मोक्षण, उद्धर्षणआदि कर्मों द्वारा चिकित्सा करे॥५०॥
चेत होनेके पश्चात् कर्म।
प्रबुद्धसंज्ञंमतिमाननुबद्धमुपाचरेत्।
तस्यसंरक्षितव्यंहिमनःप्रलयहेतुतः॥५१॥
होश आनेके अनन्तर भी विधिपूर्वक यत्न करते रहना चाहिये और जिस प्रकार उसका मन खराबन हो तथा अन्य रोग अपना अधिकार न करनेपावें वैसा यत्न करता रहे॥५१॥
स्नेहस्वेदोपपन्नानांयथादोषंयथाबलम्।
पञ्चकर्माणिकुर्वीतमूर्च्छायेषुमदेषुच॥५२॥
मूर्च्छा और मदरोगमें मनुष्यका दोष और बल विचारकर फिर स्नेहन और स्वेदन करके विधिपूर्वक वमन विरेचनादि पंचकर्म द्वारा दोष हरना चाहिये॥५२॥
अष्टाविंशत्यौषधस्याथवातिक्तस्यसर्पिषः। प्रयोगःशस्यतेतद्वन्महतःषट्पलस्यवा॥५३॥ त्रिफलायाःप्रयोगोवासघृतक्षौद्रशर्करः। शिलाजतुप्रयोगोवाप्रयोगःपयसोऽपिवा॥५४॥ पिप्पलीनांप्रयोगोवाप्रयोगश्चित्रकस्यवा।रसायनानांकौम्भस्थसर्पिषोवाप्रशस्यते॥५५॥
मूर्च्छा और मदात्ययकी निवृत्तिके लिये अट्ठाईस औषधियोंसे सिद्ध किया हुआ कल्याणघृत, तिक्तकघृत, महाषट्पलघृत अथवा त्रिफलाघृत वा वांसेका घृत या घी और शहद तथा खांडके साथ त्रिफलेका प्रयोग अथवा शीलाजीत, दूध, पीपलका प्रयोग अथवा चित्रकका प्रयोग तथा रसायन प्रयोग और पुराना घृत इन सबका प्रयोग करना चाहिये॥५३॥५४॥५५॥
रक्तावसेकाच्छास्त्राणांसतांसत्त्ववतामपि। सेवनान्मदमूर्च्छायाःप्रशाम्यन्तिशरीरिणाम्, इति॥५६॥
रक्तका निकालना, अच्छे शास्त्रोंका सुनना, श्रेष्ठ महात्माओंका सेवन करना इनसे भी मनुष्योंके मद और मूर्च्छारोगकी शान्ति होतीहै॥५६॥
तत्रश्लोकौ।
विशुद्धञ्चाविशुद्धंचशोणितंतस्यहेतवः। रक्तप्रदोषजारोगास्तेबुरोगेषुचौषधम्॥५७॥ मदमूर्च्छायसंन्यासहेतुलक्षणभेषजम्। विधिशोणितकेऽध्यायेसर्वमेतत्प्रकाशितम्॥५८॥
इतियोजनाचतुष्केविधिशोणिताध्यायःसमाप्तः।
इस प्रकार इस शोणितीयाध्यायमें शुद्ध और अशुद्ध रक्तके लक्षण और उनके कारण तथा रक्तजन्य रोग और उनके उपाय एवम् मद, मूर्च्छा, संन्यासके हेतु और लक्षण तथा चिकित्सा भगवान् पुनर्वसुजीने वर्णन की है॥५७॥५८॥
इति श्रीमहर्षिचरक० प० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकाया योजनाचतुष्के
विधिशोणिताध्यायश्चतुर्विंशः॥२४॥
______________
पंचविंशोऽध्यायः**
____________**
अथातोयज्जःपुरुषीयमध्यायंव्याख्यास्यामः इतिहस्माहभगवानात्रेयः।
** **अब हम यज्जःपुरुषीयनामक अध्यायकी व्याख्या करतेहैं। ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
ऋषियोंका आन्दोलन।
पुराप्रत्यक्षधर्म्माणंभगवन्तंपुनर्वसुम्।समेतानांमहर्षीणांप्रादुरासीदियंकथा॥१॥ आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानांयोऽयंपुरुषसंज्ञकः।राशिरस्यामयानाञ्चप्रागुत्पत्तिविनिश्चये॥२॥
पहिले एक समय भूत, भविष्य वर्त्तमानके जाननेवाले भगवान् पुनर्वसुजके पास बैठेहुए महर्षि लोग इस प्रकारका आन्दोलन करनेलगे कि आत्मा, मन, इन्द्रिय औरइन्द्रियोंके विषय इन सबका समुदायरूप यह पुरुष है । सो इस शरीरमे पहिले किस प्रकार रोगोंकी उत्पत्ति होती है इस विषय में कुछ निश्चय करना चाहिये ॥१॥२॥
काशीनरेशवामकका वाक्य ।
अथकाशिपतिर्वाक्यंवामकोऽर्थवदन्तरा। व्याजहारर्षिसमितिमभिसृत्याभिवाद्यच॥३॥ किन्नुस्यात्पुरुषोयज्जस्तजास्तस्यामयाःस्मृताः। नवेत्युक्तेनरेन्द्रेणप्रोवाचर्षीन्पुनर्वसुः॥४॥ सर्वएवामितज्ञानविज्ञानच्छिन्नसंशयाः। भवन्तश्छेत्तुमर्हन्ति काशिराजस्यसंशयम्॥५॥
उनमेसे वामक नामके ऋषि उस सभा बैठे हुए ऋषियोमं अग्रणी होकर कहनेलगे कि हे भगवन् ! जिससे यह पंचभूतात्मा पुरुष उत्पन्न हुआ है क्या रोग भी उसीसे प्रगट हुए हैं? वामक इस प्रश्नको सुनकर भगवान् पुनर्वसुजी सव ऋषियों को सम्बोधन कर कहनेलगे कि आप सब अपार ज्ञानवाले और विज्ञानवल से संशयरहित हो इसलिये आपही सब लोग काशीराज महर्षि वामकके संदेहको दूर कीजिये॥३॥४॥५॥
मौद्गल्यका मत।
पारीक्षिस्तत्परीक्ष्याग्रेमौद्गल्योवाक्यमब्रवीत्। आत्मजःपुरुषोरोगाश्चात्मजाःकारणंहिसः॥६॥ सचिनोत्युपभुङ्क्तेचकर्म्म कर्म्मफलानिच।नह्यृतेचेतनाधातोःप्रवृत्तिःसुखदुःखयोः ॥७॥
यह सुनकर परीक्षीकें पुत्र महर्षि मौद्गल वोले कि आत्मासे पुरुष और सबरोग प्रगट हुए हैं इसलिये आत्मा ही इस जगह कारण है क्योंकि आत्मा कर्मसंचय और कर्मका फल भोगनेवाला है उस चैतन्य आत्मा बिना किसी प्रकार भी सुख और दुःख की प्रवृत्ति नहीं होसकती॥६॥७॥
शरलोमाका मत ।
शरलोमातुनेत्याहनह्यात्मात्मानमात्मना। योजयेद्व्याधिभिर्दुःखैर्दुःखद्वेषीकदाचन॥८॥ रजस्तमोभ्यांतुमनःपरीतंसत्त्वसंज्ञकम् ।शरीरस्यसमुत्पत्तौविकाराणाञ्चकारणम्॥९॥
** **यह सुनकर शरलोमा ऋषि कहनेलगे कि यह आपका कहना ठीक नहीं है क्योंकि आत्मा तो स्वभावसे ही दुःखका द्वेषी है, वह तो कभी भी अपनेको व्याधियोंके दुःखमेंदुःखित होना नहीं चाहता। हमारी समझमेंरज और तमके अधीन होकर यह सत्त्व संज्ञक मन जो है यही शरीर और रोगोंको उत्पन्न करनेका कारण है॥८॥९॥
वार्योविदका मत।
वार्य्योविदस्तुनेत्याहनह्येकंकारणंमनः। नर्त्तेशरीरंशारीरारोगा नमनसः स्थितिः॥१०॥ रसजानितुभूतानिव्याधयश्चपृथग्विधाः। आपोहिव्याधिवत्यस्तास्मृतानिर्वृतिहेतवः॥११॥
यह सुनकर महर्षि वार्योविद कहने लगे कि ऐसा नहीं हो सकता। अकेला मन पुरुषकी उत्पत्ति और रोगोका कारण नहीं होता है। क्योकि शरीरके विना शरीरमें होनेवाले रोग और मनकी स्थिति यह दोनों नहीं हो सकते इसलिये ऐसा कहना चाहिये कि समस्त प्राणी और अनेक प्रकारके रोग यह सब रससे उत्पन्न होते हैं और वह रसही इनकी उत्पत्तिका कारण है॥ १०॥ ११॥
हिरण्याक्षका मत।
हिरण्याक्षस्तुनेत्याहनह्यात्मारसजःस्मृतः। नातीन्द्रियंमनःसन्तिरोगाः शब्दादिजास्तथा॥१२॥ षड्धातुजस्तुपुरुषो रोगाःषड्धातुजास्तथा। राशिः षड्धातुजोह्येषसांख्यैराद्यःपरीक्षितः॥१३॥
यह सुनकर हिरण्याक्ष ऋषि कहनेलगे कि आत्मा भी कभी रससे उत्पन्न हो सकता है और मन अतीन्द्रिय है वह रससे कैसे उत्पन्न हुआ तथा रोग जो हैं वह शब्द सुनने मात्र से भी उत्पन्न होसकते हैं इसलिये पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश और आत्मा इन ६ पदार्थोंसे पुरुष और रोगों की उत्पत्ति माननी चाहिये। इस वातको पहिले सांख्यक कर्त्ता भगवान् कपिलजीने भी कथन किया है और परीक्षा कीहै॥ १२॥ १३॥
शौनकका मत।
तथाब्रुवाणंकुशिकमाहतन्नेतिशौनकः। कस्मान्मातापितृभ्यां हिविनाषड्धातुजोभवेत्॥१४॥ पुरुषः पुरुषाद्गौर्गोरश्वादश्वः प्रजायते। पैत्र्यामेहादयश्चोक्तारोगास्ताएवकारणम्॥१५॥
इस तरह कुशिक हिरण्याक्ष ऋषिके प्रस्तावको सुनकर शौनक ऋषि कहने लगे कि भला यह जो आपने ६ धातुओसे पुरुषकी उत्पत्ति मानी है यह ६ धातु माता पिता विना पुरुषको कैसे उत्पन्न कर सकते हैं। हम देखते हैं जैसे पुरुषसे पुरुष गौसेगौ, घोडेसे घोडा, उत्पन्न होते हैं वैसे ही मेह आदि विकार भी पितासे ही उत्पन्न होते हैं इसलिये पुरुषकी उत्पत्तिमें और रोगकी उत्पत्तिमें भी माता पिताहीको कारण मानना चाहिये॥१४॥१५॥
भद्रकाप्यका मत।
भद्रकाप्यस्तुनेत्याहनह्यन्धोऽन्धात्प्रजायते। मातापित्रोश्चतेपूर्वमुत्पत्तिर्नोपपद्यते॥१६॥ कर्म्मजस्तुमतोजन्तुःकर्म्मजास्तस्यचामयाः। नह्यृतेकर्मणोजन्मरोगाणांपुरुषस्यच॥१७॥
यह सुनकर भद्रकाप्य कहने लगे कि ऐसा नहीं होता। हम देखते हैं कि अंधेकी सन्तान कभी अंधी नहीं होती इसलिये माता पिता पुरुष और रोगकी उत्पत्तिके कारण हैं यह नहीं होसकता। सो हमारे मतमें तो पुरुष और व्याधियां कर्मसे हैं उत्पन्न होती हैं। कर्मके विना पुरुषका जन्म एवम् रोगोंकी उत्पत्ति होही नहीं सकती॥१६॥१७॥
भरद्वाजका मत।
भरद्वाजस्तुनेत्याह कर्तापूर्वंंहिकर्मणः। दृष्टंनचाकृतंकर्मयस्यस्यात्पुरुषःफलम्॥१८॥ भावहेतुःस्वभावस्तुव्याधीनांपुरुषस्यच। खरद्रवचलोष्णत्वंतेजोऽन्तानांयथैवहि॥१९॥
इसके उपरान्त भरद्वाज कहनेलगे इस तरह नहीं होता क्योंकि कर्म बिचारा स्वयम उत्पन्न होनेकी ताकत ही नहीं रखता, वह कर्त्ताके आधीन है। जब कर्म किया ही नहीं गया तो वह पुरुषकी उत्पत्ति और रोगका उत्पत्तिरूपी फल कैसे दे सकता है इसलिये कर्म पुरुष और रोगोंका कारण कभी नहीं होसकता। पुरुष और रोगोंकी उत्पत्तिका कारण तो स्वभावको ही मानना चाहिये। जैसे- पंच महाभूतोंका खरत्व, द्रवत्व, चरत्व, उष्णत्व, प्रकाशत्व, यह धर्म स्वभावसे ही उत्पन्न होता है इसी प्रकार पुरुषका जन्म और रोगकी उत्पत्ति भी स्वाभाविक धर्म है॥१८॥१९॥
काङ्कायनका मत।
काङ्कायनस्तुनेत्याहनह्यारम्भेफलंभवेत्। भवेत्स्वभावाद्भावा नामसिद्धिःसिद्धिरेववा॥२०॥ स्रष्टात्वमतिसङ्कल्पोब्रह्मापत्यं प्रजापतिः। चेतनाचेतनास्यास्यजगतःसुखदुःखयोः॥२१॥
** **यह सुनकर कांकायन ऋषि कहने लगे यह भी नहीं होसकता क्योंकि फल आरम्भ के बिना नहीं होसकता।हम देखते हैं कर्मका फल कर्म नहीं होता। यदि आपकहे कि स्वभाव से ही जन्मादिकोंकी सिद्धि होती हैं या असिद्धि होती है यह हम नहीं देखते।क्योकि रचनेवाला संकल्पविशिष्ट प्रजापतिही पुरुष और उसके सुख दुःखका कारण है। यदि ऐसा न होता तो बिना किसीको कर्ता माने स्वभावाधीन जगत् नियमबद्ध नही होता। जगत्मेनियम है, नियम नियंताके अधीन होता है सो वह नियंता प्रजापति जगत्काकर्त्ता ही पुरुषके जन्म और सुख दुःखोंका कारण है॥ २०॥ २१॥
भिक्षुआत्रेयका मत।
तथेतिभिक्षुरात्रेयोनह्यपत्यंप्रजापतिः। प्रजाहितैषीसततंदुःखैर्युञ्ज्यान्नसाधुवत्॥२२॥ कालज्ञस्त्वेवपुरुषःकालजास्तस्य चामयाः। जंगत्कालवशंसर्वकालःसर्वत्रकारणम्॥२३॥
यह सुनकर भिक्षु आत्रेय कहने लगे कि ऐसा नहीं होता क्योंकि प्रजाका हित चाहनेवाला और उत्पन्न करनेवाला प्रजापति ऐसा द्वेषी नहीं होसकता जो अपनी रचीहुई प्रजाको दुःखित करे इसलिये यह कहना चाहिये कि पुरुष कालसे उत्पन्न होता है एवम् व्याधियां भी कालहीसे उत्पन्न होती हैं। और सम्पूर्ण जगत् कालके ही अधीन है सो हमारे मतसे काल ही सवका कारण है॥२२॥२३॥
पुनर्वसुका वचन।
तथर्षीणांविवदतामुवाचेदंपुनर्वसुः। मैवंवोचततत्त्वंहिदुष्प्रापंपक्षसंश्रयात्॥२४॥ वादासप्रतिवादान्हिवदन्तोनिश्चितानिच।पक्षान्तंनैव गच्छन्तितिलपीडकवद्गतौ॥२५॥ मुक्त्वैनंवादसंघट्टमध्यात्ममनुचिन्त्यताम्। नाविधूतेतमःस्कन्धेज्ञेयेज्ञानंप्रवर्त्तते॥२६॥ येषामेवहिभावानांसम्पत्सञ्जनयेन्नरम्।तेषामेवविपद्व्याधीन्विविधान्समुदीरयेत्॥२७॥
इस प्रकार ऋपियों के विवादको सुनकर पूनर्वसु आत्रेयजी कहनेलगे, इस प्रकार झगडा क्यों करतेहो ? क्योकि पक्षपात करनेसे शक्तिका निश्चय नही होसकता। जबएक प्रश्न करताहै दूसरा उत्तर देता है तीसरा अपना और ही पक्ष लेलेता है ऐसा होनेसे वाद प्रतिवाद बढता चला जाता है और जैसे तैलके कोल्हूकी लकडी चारों तरफ घूमघामकर अपनी सीमासे बाहर नहीं जासकती ऐसे ही पक्षपातपूर्वक झगडोसे भी यथार्थका निश्चय नही होता जब तक अंधकार दूर नहीं होता तब तक जाननेयोग्यपदार्थ पर दृष्टि नहीं पहुंच सकती। यथार्थ बात तो यह है कि जिन भावोंसे मनुष्योंका यथोचित संयोग होनेसे सुख संपत्ति उत्पन्न होती है उन्होंके अनुचित व्यवहारसे अनेक प्रकार के रोगोंकी उत्पत्ति होती है॥२४॥२५॥२६॥२७॥
वामकका प्रश्न।
अथात्रेयस्यभगवतोवचनमनुनिशम्यपुनरेववामकःकाशिपतिरुवाचभगवन्तमात्रेयम्।भगवन्सम्पन्निमित्तजस्यपुरुषस्यविपन्निमित्तजानांचरोगाणांकिमभिवृद्धिकारणमिति। तमुवाच भगवानात्रेयोहिताहारोपयोगःएकएवपुरुषस्यअभिवृद्धिकरोभवतिअहिताहारोपयोगःपुनर्व्याधीनांनिमित्तमिति॥२८॥
इस प्रकार भगवान् आत्रेयके कथनको सुनकर काशपिति वामकनामा ऋषि कहने लगे कि हे भगवन् ! शुभ भावोंके संयोगसे पुरुषकी उत्पत्ति और अशुभभावाके संयोगसे व्याधिकी उत्पत्ति होनेका कारण क्या है ? यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हितकर आहार विहारके सेवनसे पुरुषों के सुखकी वृद्धि होती हैं इसी प्रकार अहितकारक आहारादिकके सेवन से रोग उत्पन्न होते हैं॥२८॥
अग्निवेशका प्रश्न।
एवंवादिनंभगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच।कथमिहभगवन्! हिताहितानामाहारजातानांलक्षणमनपवादमभिजानीयाहितसमाख्यातानांचैवहारजातानामहितसमाख्यातानाञ्चमात्राकालक्रियाभूमिदेहदोषपुरुषावस्थान्तरेषुविपरीतकारित्वमुपलभामहेइति॥२९॥
इस प्रकार कथन करते हुए आत्रेय भगवान् के प्रति अग्निवेश वोले कि हे भगवन् ! हितकर और अहितकर आहारादिकोंका स्पष्ट लक्षण किस प्रकार जानना चाहिये। हित करनेवाले आहारों और अहित करनेवाले आहारोंकी मात्रा, काल, क्रिया, देश, देह, दोष और पुरुपकी अवस्था और पुरुषके लिये विपरीतकारी पदार्थों को हम किस प्रकार जान सकते हैं सो आप कृपा कर कहिये॥ २९॥
आत्रेयका उत्तर।
तमुवाचभगवानात्रेयः**।यदाहारजातमग्निवेश।समांश्चैवशरीरधातून्प्रकृतौस्थापयतिविषमांश्चसमीकरोतिइत्येतद्धितंविद्धिविपरीतमहितमितिएतद्धिताहितलक्षणमनपवादंभवति॥३०॥**
यह सुनकर आत्रेयजी कहनेलगे कि, हे अग्निवेश ! सब प्रकारके आहार शरीरके सात्म्य (अनुकूल) होनेसे शारीरिक धातुओंको यथार्थ रखता है और विषम हुए धातुओं को भी समान अवस्था में कर देता है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस आहारके हैसेवनसे शरीरके सब धातु ठीक रहें उसको हितकारक आहार जानना, इससे विपरीत अहितकारी समझना चाहिये। वस हितकर और अहितकर आहारके यह निर्विवादलक्षण समझो॥३०॥
अग्निवेशका प्रश्न।
एवंवादिनञ्चभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच।भगवन्! नन्वेतदेवमुपदिष्टंभूयिष्ठकल्पाःसर्वभिषजोविज्ञास्यन्ति॥३१॥
अग्निवेश फिर आत्रेय भगवान् से कहने लगे कि संक्षेपसे कहे हुए आपके इस उपदेशको सव वैद्य नहीं समझ सकते इसलिये कृपया विस्तारपूर्वक कथन कीजिये॥३१॥
आत्रेयका उत्तर।
तमुवाचभगवानात्रेयः। येषांविदितमाहारतत्त्वमग्निवेश।गुणतोद्रव्यतःकर्म्मतःसर्वावयवतो मात्रादयोभावास्तएतदेवमुपदिष्टंविज्ञातुमुत्सहन्ते। यथातुखल्वेतदुपदिष्टंभूविष्टकल्पाः सर्वभिषजोविज्ञास्यन्तितथैतदुपदेक्ष्यामः। मात्रादीन्भावानुदाहरन्तःतेषांहिबहुविधविकल्पाभवन्ति।आहारविधिविशेषांस्तुखलुलक्षणतश्चावयवतश्चानुव्याख्यास्यामः॥३२॥
तव आत्रेय भगवान अग्निवेशसे कहने लगे कि गुणसे, द्रव्यसे, कर्मसे और संपूर्ण अवयवोंसे मात्रादि भावके भेदसे आहार तत्त्वको जो वैद्य जानता है उसके लिये यह संक्षेपसे दिया हुआ उपदेश बोधगम्य होसकता है अर्थात् समझ में आसकता है किन्तु साधारण बुद्धि के मनुष्य इस विचारको नहीं समझ सकते इसलिये साधारण वैद्योंको चोध होनेके लिये मात्रादिकोका उपदेश करते हैं। मात्रादि भावोंकी अनेक प्रकारसै कल्पना है उनम जो विशेष २ आहार विधिके लक्षण और विभाग हैं उनका कथन कर सो श्रवण करो॥३२॥
आहारोंके भेदवर्णन।
आहारत्वम्। आहारस्यैकविधमर्थाभेदात्सपुनर्द्वियोनिःस्थावरजङ्गमात्मकत्वात्। द्विविधःप्रभावोहिताहितोदर्कविशेषाच्चतुर्विधोपयोगःपानाशनभक्ष्यलेह्योपयोगात्। षडास्वादोरसभेदतःषड्विधत्वाविंशतिगुणो गुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षमन्दतीक्ष्णास्थिरसरमृदुकठिनविशदपिच्छिललक्ष्णखरसूक्ष्मस्थूलसान्द्रद्रवानुगमनात्॥३३॥
वह हेसा है कि अर्थमात्र में भेद न होनेसे सब प्रकारक आहारोंमेंही आहारत्व है। स्थावर और जंगम भेदसे आहारकी उत्पत्ति दो प्रकारकी है। हितकर और अहितकर इन दो भेदोसे आहार दो प्रकारका है। पान, भोजन, चर्वण और लेहन इन भेदांसे आहारका सेवन चार प्रकारका है। रसभेदसे आहारका स्वाद ६ प्रकारका है। गुरु. लघु, शीतल, उष्ण, चिकना, रूक्ष, मंद, तीक्ष्ण, स्थिर, सर, मृदु, कठिन, विषद, पिच्छिल, लक्ष्ण, खर, सूक्ष्म, स्थूल, वन और द्रव इन भेदोंसे आहारके गुण बीस प्रकारके हैं॥३३॥
अपरिसंख्येयविकल्पोद्रव्यसंयोगकरणबाहुल्यात्तस्ययेयेविकारावयवाभूयिष्ठमुपयुज्यन्ते। भूयिष्ठकल्पनाश्चमनुष्याणांप्रकृत्यैवहिततमाश्चाहिततमाश्चतांस्तान्यथावदनुव्याख्यास्यामः॥३४॥
द्रव्योंके संयोगवशसे आहारकी कल्पना असंख्य प्रकारकी है। मनुष्योंके वह आहार असंख्य प्रकार के होते हुए हितकर और अहितकर दो प्रकारों में विभक्त हैं। उनका अब वर्णन करते हैं॥ ३४॥
श्रेष्ठहितकारी द्रव्योंका वर्णन।
तद्यथालोहितशालयःशूकधान्यानांपथ्यतमत्वेश्रेष्ठतमाः। मुद्गाःशमीधान्यानाम्, आन्तरीक्ष्यमुदकानां, सैन्धवंलवणानां, जीवन्तीशाकंशाकानाम्। ऐणेयंमृगमांसानां, लावःपक्षिणां,गोधाबिलेशयानां, रोहितोमत्स्यानां, गव्यंसर्पिःसर्पिषां, गोक्षीरंक्षीराणां, तिलतैलंस्थावरजातानांस्नेहानां, वराहवसाअनूपमृगवसानांचुलुकीवसामत्स्यवसानां, हंसवसाजलचरविहङ्गवसानां, कुक्कुटवसाविष्किरशकुनिवसानामाजमेदःशाखादमेदसां, शृङ्गवेरंकन्दानां, मृद्वीकाफलानां, शर्कराइक्षुविकाराणाम्। इतिप्रकृत्यैवहिततमानामाहारविकाराणां प्राधान्यतोद्रव्याणिव्याख्यातानि॥३५॥
वह इस प्रकार हैं लाल शालिचावल सव शुक धान्यों में सर्वश्रेष्ठ पथ्य गिने जाते हैं। इसी प्रकार सब प्रकारके शमीधान्योंमें मूंग सर्वश्रेष्ठ है। जलोमें आकाशका जल सर्वश्रेष्ठ है। नमकों सेधा नमक श्रेष्ठ है सागोमें जीवन्तीका साग श्रेष्ठ है। में मृगमांसोंगे काले हिरणका मांस श्रेष्ठ है। पक्षियोंमें लवा, विलेशगों में गोह, मछलियों में रोहित, घृतों में गोघृत, दूधमें गोदूध, स्थावर स्नेहोंमे तिलतैल, अनूपसंचारी चीवोंकी चर्बीमें सूअरकी चर्बी, मछलियोकी चर्बीमे चुलुकीनामक मछलीकी चर्बी, जलसंचारी पक्षियोंकी चर्बीमे हंस या वत्तककी चर्बी सर्वोत्तम मानी जाती है। विष्किर पक्षियोंकी चर्बी में मुर्गेकी चर्बी, शाखापत्र खानेवाली में बकरेकी चर्बी उत्तम है। मूलो में अदरक, फलोमें मुनक्का, ईसके विकारोंमें मिश्री सर्वोत्तम कही जाती है। इस प्रकार स्वभावसे ही हितकारी प्रधान २ आहारोंका वर्णन।कियागया॥३५॥
अहिततमानामप्युपदेक्ष्यामः। यवकःशूकधान्यानामपथ्यत्वेप्रकृष्टतमाभवन्ति। माषाः शमीधान्यानां, वर्षानादेयमुदकानामौषरंलवणानां सर्षपशाकंशाकानां, गोमांसंमृगमांसानां, कालकपोतःपक्षिणां, भेकोबिलेशयानां, चिलिचिमोमत्स्यानामाविकंसर्पिः सर्पिषामाविक्षीरंक्षीराणां, कुसुम्भस्नेहःस्नेहानां स्थावराणां, महिषवसाआनूपमृगवसानां, कुम्भीरवसामत्स्यवसानां, काकमद्गुवसाजलचरविहंगवसानां मुलकंकन्दानां, चाटकवसाविष्किरशकुनिवसानां, हस्तिमेदः शाखादमेदसां, लिकुचंफलानां, फाणितमिक्षुविकाराणामितिप्रकृत्यैवअहिततमानामाहारविकाराणांनिकृष्टतमानिद्रव्याणिव्यातानि॥३६॥
अब अहितकारक द्रव्योंका वर्णन करतेहै। शुकधान्यो मे जव, शमीधान्याम उडद, जलोंमें बर्सातकी नदीका जल, नमकोंमें खारी नमक, सागोमे सरसोंका साग अहितकर और कुपथ्य होता है। पशुओके मांसोमें गोमांस, पक्षियोमे कालकपोत है बिलेशयोंमें मेढक, मछलियोंमें चिलचिम मछली, वृतोंमे भेडका वृत, दूधो में भेडका दूध, स्थावर स्नेहोंगे करडका तैल आहतकारी होता है। अनृपसंचारी जीवोकी चर्बीम भैसेकी चर्बी, मछलियोंकी चर्बीमे कुम्भीरकी चर्बी, जलचर जीवांमे जलकौआकी चर्बी अहितकारी होती है। विष्किर पक्षियोमें चिडियाकी चर्बी, शाखा पत्र खानेवालेजानवरोंमें हाथी की चर्बी निंदनीय होती है। कंदोंमें पकी हुई मूली, फलोमें कटहर, ईखके पदार्थो खांडित अहितकारी होता है। इस प्रकार स्वभावसे ही अहितकारी द्रव्यों का वर्णन किया गया है॥३६॥
हिताहितावयवानामाहारविकाराणाम्, अतोभूयःकर्मौषधानां प्राधान्यतः॥ सानुबन्धानिद्रव्याणिअनुव्याख्यास्यामः। तद्यथा-अनंवृत्तिकराणांश्रेष्ठम्।उदकमाश्वासकराणां, सुराश्रमहराणां, क्षीरंजीवनीयानां, मांसंबृंहणीयानां, रसस्तर्पणीयानां लवणमन्नद्रव्यरुचिकराणामम्लंहृद्यानां, कुक्कुटोवल्यानां, नक्ररेतोवृष्याणां, मधुश्लेष्मपित्तप्रशमनानां, सर्पिर्वातपित्तशमनानां,तैलंवातश्लेष्मप्रशमनानां, वमनंश्लेष्म हराणा, विरेचनंपित्तहराणां, बस्तिर्वातहराणां, स्वेदोमार्दवकराणां, व्यायामःस्थैर्यकाराणां, क्षारः पुंस्त्वोपघातिनां,तिन्दुकमन्नद्रव्यरुचिकराणामामंकपित्थमकण्ठ्यानामाविकंसर्पिरंद्यानामजाक्षीरंशोषघ्नस्तन्यसात्म्यरक्तसांग्राहिकरक्तपित्तप्रशमनानामविक्षीरंश्लेष्मपित्तोपचयकराणां,महिषीक्षीरंस्वप्नजननानां, मन्दकंदध्यंभिष्यन्दकराणां, गवेधुकान्नंकर्षणीयानामुद्दालकान्नंविरूक्षणीयानाभिक्षुर्मूत्रजननां, यवाःपुरीषजननानां, जाम्बवंवातजननानां, शकुल्यःश्लेष्मपित्तजननानां, कुलुत्थाअम्लपित्तजननानां, माषाः श्लेष्मपित्तजननानां, मदनफलंवमनास्थापनानुवासनोपयोगिनां, त्रिवृत्सुखविरेचनानां, चतुरङ्गलंमृटुविरेचनानां, स्नुक्पयस्तीक्ष्णविरेचनानां, प्रत्यक्पुष्पीशिरोविरेचनानां, विडङ्गंक्रिमिघ्नानां, शिरीषोविषघ्नानां, खदिरःकुष्ठघ्नानां, रास्नावातहराणामामलकंवयःस्थापनानां, हरीतकीपथ्यानामेरण्डमूलंवृष्यवातहराणां, पिप्पलीमूलंदीपनीयपाचनीयानाहप्रशमनानां, चित्रकमूलंदीपनीयगुदालशोथहराणां, पुष्करमूलंहिकाश्वासकासपार्श्वशूलहराणां, मुस्तंसंग्राहकदीपनीयपाचनीया-नामुदीच्यंनिर्वापणीयदीपनीयच्छर्द्यतीसारहराणां, कट्वङ्गंसंग्राहकदीपनीय पाचनीयानाम्।अनन्तासंग्राहिकदीपनीयरक्तपित्तप्रशमनानाममृतासंग्राहिकवातहरदीपनीयश्लेष्मशोणितविबन्धप्रशमनानां, बिल्वंसंग्राहिकदीपनीय-वातकफशमनानामतिविषादीपनीयपाचनीयसंग्राहिकसर्वदोषहराणामुत्पलकुमुदपद्मकिञ्जल्काःसंग्राहकरक्तपित्तप्रशमनानां, दुरालभापित्तश्लेष्मोपशोषणानां, गन्धप्रियङ्गुः शोणितपित्तातियोगप्रशमनानाम् ॥३७॥
अब हितकर और अहितकर आहारका वर्णन करते हुए वस्ति आदि कर्म और औषधोंमे उत्तम तथा निकृष्ट आदि द्रव्योका वर्णन करते हैं, जीवन रखनेवाले पदार्थोमेंअन्न, तृषानाशक पदार्थोंमे जल, परिश्रम हरनेवाले पदार्थोंमे मद्य, जीवनदायक पदार्थोंमेदूध, पुष्ट करनेवाले पदार्थोंमे मांस, रुचिकारक पदार्थोंमे नमक, हृदयको प्रिय पदार्थोंमें खट्टा सर्वश्रेष्ठ है। बलकारी पदार्थोंमेमुर्गेका मांस, वीर्यवर्द्धक पदार्थोंमेकुम्भीर (मगरमच्छ) का वीर्य, कफ पित्त नाशकोंमे शहद, वातपित्तहरोमेघृत, वात कफ नाशकोमे तैल, कफनाशक कर्मोमे वमन, पित्तनाशक कर्मोमें विरेचन, वातनाशक कर्मोमेवस्तिकर्म, शरीरको नम्र करनेवालोमेस्वेद, दृढ करनेवालोंमे कसरत, पुरुषत्व नष्ट करनेवालों में क्षार, अन्न पर अरुचि करने वालोमेतिन्दुकफल सर्वप्रधान माने जाते है। स्वर विगाडनेवालोंमे कैथके कच्चे फल, हृदयको अप्रिय द्रव्योमेभेडका घृत प्रधान माना जाता है। शोकके हरनेवाले, स्तनोंमें दूध बढानेवाले, रक्तविकार और रक्त पित्तके नाशकों में बकरीका दूध सर्वश्रेष्ठ है। पित्त-कफ-वर्द्धकोमेभेडका दूध, निद्राजनक द्रव्यांमे भैंसका दूध, अभिस्पंदकारी द्रव्योंमे मंदक दही, कृशताकारक द्रव्योमे गवेधुक धान्य, रूक्षकारक द्रव्योमे उद्दालक धान्य, मूत्रवर्द्धक पदार्थोमेगन्ना, मलवर्द्धक पदार्थोमे जव, वायु वर्द्धक पदार्थोमे जामुन, कफ पित्त वर्द्धक पदार्थों में तिलोकी खल, अम्लपित्तकारक पदार्थों में कुल्थी, पित्त कफ-कारकोंमे उड़द एवम् वमन, आस्थापन और अनुवासन कर्ममें मैनफल प्रधान माना जाता है। उत्तम विरेचन करनेवालोमें निशोथकी जड, मृदु विरेचकोंमें एरंडतैल, तीक्ष्ण विरेचकोंमें थोहरका दूध, शिरोविरेचन करनेवालोंमे अपामार्गके बीज, कृमिनष्ट करनेवालोमें बायविडंग, विषनाशकोमेसिरसके बीज, कुष्ठके नाश करनेवालोंमे कत्था, वातनाशकोंमें रासना, आयुके स्थापन करनेवालोंमें आंवला, सब प्रकारके पथ्योंमें हरड वृष्यकर्ता और वायुके हरनेवालों में एरंडकी जड, दीपन, पाचन कर्त्ताओं में तथा अनाह-रोग-नाशको में पिपलामूल, दीपनीय और गुदाके शूल तथा शोथनाशकोंमें चित्तेकी छाल, संग्राहक और दीपन तथा पाचन द्रव्योंमें नागरमोथा, हिचकी श्वास, खांसी तथा पार्श्वशूलनाशक द्रव्योंमें पोहकर मूल, भस्मकनिवारक, दीपनीय, पाचन और वमनके हरनेवाले एवम् अतिसारके नष्ट करनेवालोंमें अनन्तमूल संग्राहक वातकनाशक दीपन कफनाशक कफरक्तनाशक विबंधनाशक द्रव्यों में गिलोह (गुरुच), संग्राहक दीपन वातकफनाशक द्रव्यों में कच्चा बेलफल, दीपनीय पाचनीय संग्राहक सर्वदोषहारक द्रव्योंमें अतीस, संग्राहक रक्तपित्तनाशक द्रव्योमें कमलगट्टा नीलोफर और कमलकेशर सर्वोत्तम मानी जाती है। पित्तकफनाशकोंमे जवासा सर्वश्रेष्ठ है। रक्तपित्तके शमन करनेवालोंमें दुरालभा (वंसा) पित्त और कफके उपशोषण करनेवालोंमें गंधप्रियंगु सर्वश्रेष्ठ माना जाता है॥३७॥
कुटजत्वक्श्लेष्मपित्तरक्तसंग्राहकोपशोषणानां, काश्मर्य्यफलंरक्तसंग्राहक रक्तपित्तप्रशमनानां, पृश्निपर्णीसंग्राहकवातहरदीपनीयवृष्याणां, विदारिगन्धावृष्यसर्वदोषहराणां, बला संग्राहकबल्यवातहराणां, गोक्षुरकोमूत्रकृच्छ्रानिलहराणां, हिङ्गुनिर्व्यासःछेदनीयदीपनीयभेदनीयानुलोमिकवातकफप्रशमनानामम्लवेतसोभेदनीयदीपनीयानुलोसिकवातश्लेष्मप्रशमनानां, यावशूकःस्रंसनीयपाचनीयार्शोघ्नानां, तक्राभ्यासो ग्रहणीदोषार्शोघृतव्यापत्प्रशमनानां क्रव्यादमांसाभ्यासोग्रहणीदोषशोषाशनानां, घृतक्षीराभ्यासोरसायनानां, समघृतसक्तुकाभ्यासोवृष्योदावर्त्तहराणां, तैलगण्डूषाभ्यासो दन्तबलरुचिकराणां, चन्दनोडुम्बरंदाहनिर्वापणानां, रास्नागुरुणीशीतापनयनप्रलेपनाननला मज्जकोशीरेदाहत्वग्दोषस्वेदापनयनप्रलेपनानां, कुष्ठंवातहराभ्यङ्गोपनाहयोगिनां, मधुकं चक्षुष्यवृष्यकेश्यकण्ट्यवर्ण्यबल्यविरजनीयरोपणीयानां, वायुः प्राणसंज्ञाप्रधान हेतूनामग्निरामस्तम्भशीतशलोद्वेपनप्रशमनानाम्॥३८॥
कफ पित्त और रक्तको संग्रहण तथा उपशोषण करनेवाले द्रव्योमे कुशकी छाल, संग्राहक और रक्तपित्तनाशक द्रव्योमे काश्मरीके फल, संग्राहक वातनाशक और वृष्योमे पृष्ठपर्णी, वृष्य और दोषनाशक द्रव्यों में विदारीकंद, संग्राही बलकारक और वातनाशक द्रव्योंमे खरैटी, मूत्रकृच्छ्र और वातनाशक द्रव्योंमें गोखरू, छेदनीय दीपनीय अनुलोमकर्ता एवम् वातकफनाशक द्रव्योमे होग, भेदन-अनुलोमन और दीपन-कर्त्ता एवम् वात कफ हरणकर्ता द्रव्योंमे अमलवेत, स्रंसनकर्त्ता पाचनकर्ता अर्शहर्ताद्रव्योंमें जवाखार, ग्रहणीविकारनाशक अर्शोऽघ्नअतिघृतपान जन्य विकारनाशक द्रव्योमे तक, ग्रहणीदोष शोप और अर्शनाशक मांसमें मांसभक्षी जीवोका मांस, रसायन पदार्थों में दूध और बीका अभ्यास, वृष्य तथा उदावर्तनाशक द्रव्यांमं परिमाणसे घृत और सत्तुओका सेवन, दांतोको बलदेनेवालामें और रुचिकारक पदार्थोमें तैलको मुखमे धारणकर कुल्ले करना, दाहनाशक लेपोंमे चंदनका लेप तथागूलर, शीतनाशक लेपनोमे रासना और अगर, दाह त्वग्दोष और स्वेदके हरनेवाले के लेपोमे खस, वातनाशक अभ्यंगों और प्रलेपोमें कूठ, नेत्रोंको हितकारी वीर्यवर्द्धक केशकण्ठ वर्ण इनको हितकर्त्ता एवम् विग्जनीय और रोपणकर्त्ता द्रव्योमे मुलैठी, बल और प्राणोंमे चैतन्यता प्राप्त करनेवाले पदार्थोंमे उत्तम वायु, आम, स्तम्भ शीतता शूल, कम्पनाशक द्रव्याेमेअग्नि सर्वश्रेष्ठ तथा सबोमे प्रधान माना जाताहै ॥ ३८ ॥
जलंस्तम्भनीयानां, मृद्भृष्टलोष्टनिर्वापितमुदकंतृष्णातियोगप्रशमनानामतिमात्राशनमामप्रदोषहेतूनां, यथाग्न्यभ्यवहरणोऽग्निसन्धुक्षणानां, यथासात्म्यंचेष्टाभ्यवहारःसेव्यानां, कालभोजनमारोग्यकराणां, वेगसन्धारणमनारोग्यकराणां, तृप्तिराहारगुणानां, मद्यंसौमनस्यजननानां, मद्याक्षेपोधीधृतिस्मृतिहराणां, गुरुभोजनंदुर्विपाकानामेकाशनभोजनंसुखपरिणामकराणां, स्त्रीषुअतिप्रसङ्गःशोषकराणां, शुक्रबेगनिग्रहःषाण्ड्यकराणां,परायतनमन्नमश्रद्धाजननानामनशनमायुषोह्रासकराणां, प्रमिताशनंकर्षणीयानामजीर्णाध्यशनंग्रहणीदूषणानां विषमाशनमग्निवैषम्यकराणां, विरुद्धवीर्य्याशनंनिन्दितव्याधिकराणां, प्रशमःपथ्यानामायासःसर्वापथ्यानां, मिथ्यायोगोव्याधिसुखानां, रजस्वलाभिगमनमलक्ष्मीकाणां, ब्रह्मचर्य्यमायुष्यकराणां, सङ्कल्पोवृष्याणां, दौर्मनस्यमवृष्याणामयथाबलप्रारम्भःप्राणोपरोधिनां, विषादोरोगवर्द्धनानाम्॥३९॥
स्तम्भनीय द्रव्योंमें जल अति प्यासनाशक द्रव्योंमें तप्त मट्टींके ढेलेसे बुझाया जल।आमदोषकारक पदार्थोमें बहुत भोजन, अग्निबद्ध आहारोंमें यथाग्नि भोजन, सेवनयोग्य कालों में अभ्यासके अनुरूप कार्य, आरोग्यकर्ता उपायोंमे यथोचित भोजन, व्याधिकारकों में मलमूत्रादिकोका वेग रोकना, आहारके गुणोमें तृप्ति, मस्त करनेमें मद्य, बुद्धि धारणशक्ति स्मृति इनके नष्ट करने वालों में मद्यका विकार, कठिनता से पचनेवालोंमें गुरु भोजन भलीप्रकार पचनेवालों में एकसमय भोजन, राजयक्ष्माकारकोंमें मैथुन, नपुंसककर्त्ताओंमें शुक्रके वेगको रोकना, अन्नसे घृणा करानेवालोंमे सडा बुसा भोजन, आयु घटानेवालोंमें उपवास, कृशता करनेवालोंमे यथासमय भोजन न मिलना, ग्रहणीरोगकर्ता पदार्थों मे अजीर्णमें भोजन, अग्निविषमकर्त्ताओं में विषमभोजन, कुष्ठ आदिक निंदित व्याधि करनेवालोंमें मछली दूध आदि विरुद्ध द्रव्योंका एकसमय सेवन करना, हितकर्ता पदार्थो में शान्ति, सबप्रकार के कुपथ्योंमें शक्ति से अधिक परिश्रम, रोगकारकामें आहारविहारका अनुचित योग, अलक्ष्मीकारकोंमे रजस्वलागमन, आयुवर्द्धकोंमें ब्रह्मचर्यपालन, पुरुषार्थकारकोंमें दृढसंकल्प, अवृष्योंमें मनकी स्फूर्ति न होना, प्राणहरनेवालोंमें सामर्थ्य से अधिक कार्यका करना, रोगबढानेवालों में विषाद प्रधान माना जाता है॥३९॥
स्नानंश्रमहराणां, हर्षःप्रीणनानां, शोकःशोषणानां, निर्वृतिः पुष्टिकराणामतिस्वप्नस्तन्द्राकराणां सर्वरसाभ्यासोबलकराणामेकरसाभ्यासोदौर्बल्य कराणां, गर्भशल्यमनाहार्य्याणामजीर्णमुद्धार्थ्याणां, बालोमृदुभेषजीयानां वृद्धोयाप्यानां, गर्भिणीतीक्ष्णौषधव्यायामवर्जनीयानां, सौमनस्यंगर्भधारकाणां, सन्निपातोदुश्चिकित्स्यानामामोविषमचिकित्स्यानां, ज्वरोरोगाणां, कुष्ठं दीर्घरोगाणां,राजयक्ष्मारोगसमूहानां, प्रमेहोऽनुषङ्गिणाम्॥४०॥
परिश्रम हरनेवालोंमें स्नान, प्रीति बढानेवालों में हर्ष, शोषणकर्त्ताओंमें पत्र शाक, पुष्टिकर्ताओं में संतोष, निद्राकारकोंमें पुष्टता, तंद्राकारकोंमें निद्रा, बलकारकोंरसोंका अभ्यास, दुर्बलकर्ता पदार्थोंमे एकही रसका सेवन, अनाकर्षणीयोमें गर्भशल्य,वमनके योग्योंमें अजीर्ण, मृदु औषधोसे चिकित्सा करनेयोग्योंमें बालक, याप्यसाध्योंमें वृद्धपुरुषोंके रोग, तीक्ष्ण औषधिमें व्यायाम पुरुष संसर्ग में इन सबसें वर्जनीयोंमें गर्भवती स्त्री, गर्भधारणमे मनकी प्रसन्नता, दुश्चिकित्स्योंमें सन्निपात, विरुद्धचिकित्सा में आमचिकित्सा, रोगोमे ज्वर, दीर्घरोगोमें कुष्ठ रोगसमूहों में राजयक्ष्मा, अनुषंगी रोगोंमे राजयक्ष्मा प्रधान मानेजाते हैं॥४०॥
जलौकसोऽनुशस्त्राणां, बस्तिस्तन्त्राणां, हिमवानौषधिभूमीनां, मरुभूरारोग्यदेशानामनूपमहितदेशानां, निर्देशकारित्वमातुरगुणानां, भिषक् चिकित्साङ्गानां, नास्तिकोवर्ज्यानांलौल्यंक्लेशकराणामनिर्देशकारित्वमरिष्टानामनिर्वेदआर्त्तलक्षणानां, योगोवैद्यगुणानां, विज्ञानमौषधीनां, शास्त्रसहितस्तर्कःसाधनानां, सम्प्रतिपत्तिःकालज्ञानप्रयोजनानामनुद्योगोव्यवसायकालातिपत्तिहेतूनां, दृष्टकर्मतानिःसंशयकराणामसमर्थताभयकराणां, तद्विद्यसम्भाषावुद्धिवर्द्धनानामाचार्य्यःशास्त्राधिगमहेतूनामायुर्वेदोऽमृतानां, सद्चनमनुष्ठेयानामसम्बद्धवचनंसंग्रहणं सर्वाहितानां, सर्वसंन्यासःसुखानामिति॥४१॥
उपशस्तोमेजलौका, पंचकर्मोंमें वस्ति, औषधियोंके योग्य भूमिमे हिमालय पर्वत,आरोग्यदेशोंमे मरुभूमि, औषधियोमे सोमलता, अहितकारी देशोमें अनूप देश,रोगीके गुणोंमें वैद्यकी आजाका पालन, चिकित्साके चार पादोंमे वैद्य, वर्जनीयोंमें नास्तिक, क्लेशकर्त्ताओमे-लोभ, मृत्युके लक्षणों मेंरोगीकी अबाध्यता, आर्त्तके लक्षणोंमें-अस्थिरता, वैद्यके गुणोंमे उचित रीतिपर प्रयोग करना, निःसंशयकर्त्ताओमें - वैद्य समूह, औषधियोंमे - विज्ञान, साधनो में शास्त्रविहित युक्ति, कालज्ञानके प्रयोजनोंमें उत्तमज्ञान, समयनाशक हेतुओंमें आलस्य, निःसंदेहकारकोंमें दृष्टकर्मता (जानकारी), भयकारकोंमें असमर्थता, बुद्धिविवर्द्धकोमें स्वाध्यायियोंसे शास्त्रार्थ करना, शास्त्रजानने के हेतुओंमें आचार्य, अमृतोमे आयुर्वेद, करनेयोग्य कार्योंमें सत्यवचन बोलना, सब तरहसे अहित करनेवालोंमें बिना विचारे बकवाद करना, परमानन्ददायकों में सर्वत्याग प्रधान माना है॥४१॥
भवन्तिचात्र।
अग्र्याणांशतमुद्दिष्ट्यंद्विपञ्चाशदुत्तरम्। अलमेतद्विकाराणां विघातायोपदिश्यते॥४२॥ समानकारणायेऽर्थास्तेषांश्रेष्ठस्यलक्षणम्।ज्यायस्त्वंकार्यकारित्वेऽवरत्वंचाप्युदाहृतम्॥४३॥
इस प्रकार १५२ प्रधान २ वार्त्ताओंका कथन किया गया है सो रोगशान्तिके लिये इन एकसौ बावन प्रधान बातोंका जानना ही बहुत है। इनमें समान कार्यकर्त्ता द्रव्योंमें श्रेष्ठके लक्षण और प्रधानता तथा कार्यकारिता और निकृष्टता कथन कर दीगई है॥४२॥४३॥
वातपित्तकफेभ्यश्चयद्यत्प्रशमनेहितम्। प्राधान्यतश्चनिर्दिष्टंयद्वयाधिहरमुत्तमम्॥४४॥ एतन्निशम्यनिपुणंचिकित्सांसम्प्रयोजयेत्। एवंकुर्वन्सदावैद्योधर्मकामौसमश्नुते॥४५॥ पथ्यंयथानपेतंयद्यच्चोक्तंमनसःप्रियम्। यच्चाप्रियमपथ्यञ्चनियतंतन्नलक्षयेत्॥४६॥
वात, पित्त, कफकी शान्ति करनेवाला में हितकारी और प्रधान तथा रोगनिवारक द्रव्योंका वर्णन किया गया है। बुद्धिमान् वैद्यको यह सब विषय स्मरण रखकर चिकित्सा करना चाहिये। इस प्रकार करनेसे वैद्य धर्म, अर्थ और कामको भली-प्रकार प्राप्त होता है। जो पदार्थ पुरुषके लिये सात्म्य (उपयोगी) और मनको हितकारी कहे गये हैं उनको पथ्य समझना चाहिये। जो असात्म्य और कुपथ्य हैं उनकी ओर ध्यान भी देना नहीं चाहिये॥४४॥४५॥४६॥
मात्राकालक्रियाभूमिदेहदोषगुणान्तरम्। प्राप्यतत्तद्धिदृश्यन्तेततोभावास्तथातथा॥४७॥ तस्मात्स्वभावोनिर्दिष्टस्तथामात्रादिराश्रयः। तदपेक्ष्योभयंकर्मप्रयोज्यंसिद्धिमिच्छता॥४८॥
मात्रा, काल, क्रिया, देश, देह, दोष और गुण आदिकांके अन्तर होनेसे अहितकर पथ्य और हितकर कुपथ्य होजाते हैं। इसलिये सब द्रव्यों का स्वभाव मात्रा आदि विचारकर उपयोग करना चाहिये। सिद्धिलाभ करनेवाले वैद्योंको इन सब बातोंको विचारकर ही चिकित्सा करनी चाहिये॥ ४७॥४८॥
अग्निवेशका प्रश्न।
तदात्रेयस्यभगवतोवचनमनुनिशम्यपुनरपिभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच। यथोद्देशमभिनिर्दिष्टः केवलोऽयमर्थोभगवताश्रुतस्त्वस्माभिः। आसवद्रव्याणामिदानींलक्षणमनतिसंक्षेपेणोपदिश्यमानंशुश्रूषामहेइति॥४८॥
आत्रेय भगवान्कायह सम्पूर्ण उपदेश सुनकर अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन् ! जिस २ वातकी जानने की हमने इच्छा की वह सब आपने कृपापूर्वक निर्देश कर दिया है। अब हम आसवद्रव्योकी प्रकृति और लक्षण विस्तारपूर्वक सुनना चाहते है,कृपाकर उनका भी विस्तारपूर्वक कथन कीजिये॥४९॥
तमुवाचभगवानात्रेयः। धान्यफलसारपुष्पकाण्डपत्रत्वचोभवन्त्यासवयोनयः अग्निवेश! संग्रहेणाष्टौशर्करानवमास्तासुद्र व्यसंयोगकरणतोऽपरिसंख्येयासुयथापथ्यतमानासवानांचतुरशीतिंनिबोधसुरासौवीरतुषोदकमैरेयमेदकधान्याम्लषड्धान्यावासवाः।मृद्विकाखर्जूरकाश्मर्यधन्वनराजादनतृणशूल्यपरूषाभयामलकमृगलण्डिकाजाम्बवकपित्थबकुलदरकर्कन्धुपीलुपियालपेनसन्यग्रोधाश्वत्थप्लक्षकपीतनोदुम्बराजमोदशृङ्गाटकशंखिनीतिफलासवाःषड्विंशतिः। विदारिगन्धाश्वगन्धाकृष्णगन्धाशतावरीश्यामात्रिवृद्दन्तीद्रवन्तीबिल्वोरुमु कचित्रमूलैरेकादशमूलासवाः। शालप्रियकाश्वकर्णचन्दनस्यन्दन खदिरकदरसप्तपर्णार्जुनासनारिमेदतिन्दुककिणिहीशमीशुक्तिशिंशपाशिरीषवञ्जुलधन्वनमधूकसारासवाविंशतिः॥५०॥
यह सुन आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश! धान्य, फल, मूल, सार, फूल,डंडी, पत्र, छाल इन आठ वस्तुओंसे आसव बनता है और नवम पदार्थ आसव बनाने का खांड है। इन द्रव्योंके परस्पर संयोग विशेषसे असंख्य आसव बन सकते हैं उनमें चौरासी ८४ प्रकार के आसव उत्तम और पथ्य माने जाते हैं। इन आसवोंमें सुरा,सौवीरक, मैरेय, भेदक, धान्याम्रयह छः प्रकारके आसव धान्यांसे उत्पन्न होते हैं। मुनक्का, खजूर, काश्मरीके फल, वामन, खिरनी, केतकी फल, फालसा, हरडे, आमलेचहेडे, जामुन, कैथ, मौलसरी, बेर, जंगलीवर, अखरोट, प्रियाल, कटहर, बडके फल,पीपलके फल, पिलखनेके फल अमाडा, गूलर, अजमोद, सिंघाडा, शंखिनी ग्रह २६ छब्बीस प्रकारके आसव फलों से प्रगट होते हैं।शालपर्णी, असगंध, सुहांजना, शतावर, काला निशोथ, लाल निशोथ, दंती, द्रवंती, विल्व, एरंड, चित्रक, इनके मूलोसे ११ ग्यारह प्रकारके आसव वनते हैं।शालवृक्ष, प्रियंगु, अश्वकर्णशाल, रक्तचंदन, तिनस, खैर,हैंश्वेत खैर, सप्तपर्ण, अर्जुन, विजयसार, अरिमेद, तिन्दुक, किरवण, शमीवृक्ष, बेरी,शीशम, सिरस, अशोक, धन्वन, महुआ, इन वीस प्रकार के वृक्षांके सारसे २० बीसप्रकार के आसव बनते हैं॥५०॥
पद्मोत्पल नलिनकुमुद सौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रमधूक प्रियङ्गुधातकीपुष्पैर्देशमाःपुष्पासवाः। इक्षुकाण्डेक्षुइक्षुबालिकापुण्ड्रकचतुर्थाः काण्डासवाः। पटोलताडौपत्रासबौद्वौभवतः। तिल्लकलोघ्रैलवालुक्रमुकचतुर्थास्त्वगासवाभवन्ति। शर्करासवएकएव।इत्येषामासवानांमासुतत्त्वादासवसंज्ञाएवमेषामासवानांचतुरशीतिः परस्परेणासंस्पृष्टानामासवद्रव्याणासुपनिर्दिष्टाः।द्रव्यसंयोगविभागस्त्वेषांबहुविकल्पसंस्कारश्चयथास्वयोनिसंस्कारसंस्कृताश्चासवाःस्वंकर्मकुर्वन्तिसंयोगसंस्कारदेशकालमात्रादयश्चभावास्तेतेषांतेषामासवानांतेतेसमुपदिश्यन्तेतत्तत्कार्यमभिसमीक्ष्येति॥५१॥
कमल, उत्पल, नलिन, कुमुद, कह्लार, पुण्डरीक, शतपत्र, महुएका फूल, प्रियंगुके फूल, वावके फूल इनसे १० दस प्रकारके फूलोंके आसव बनते हैं।पटोलपत्र और देवदालीके पत्रोंसे २ दो प्रकारके आसव बनते हैं। ईख, कांडे, इक्षुवालिका, पुण्ड्रक,ये चार ४ प्रकारके आसव डांडरोंसे बनते हैं। तिल्वकलोध, एलवाडक, सुपारी इन चार ४ वृक्षोंकी छालसे चार प्रकार के आसव बनते हैं। शर्करासे शर्करासव एक १ प्रकारका वनता है। इन आसवोंकी उन २ पदार्थों में व्याप्त रहने और दवाकर निकाले जानेसे आसव संज्ञा है, इस प्रकार ८४ चौरासी प्रकारके आसवोंका उपदेश कियागया है।द्रव्य विशेषके संयोग, विभाग, कल्पना और संस्कार विशेषसे आसव अपने २ कारणांके अनुसार अनेक प्रकारके गुण करते हैं। संयोग, संस्कार, देश, काल,मात्रा आदिका विचार करके ही आसवोंका उपयोग करना चाहिये।इस प्रकार जोआसवे जिस २ प्रकार मिस २ पदार्थसे बनताहै उसका यथोचित वर्णन किया गया हैं॥५१॥
भवंतिचात्र।
उपसंहार।
मनःशरीराग्निबलप्रदानामस्वप्नशोकारुचिनाशनानाम्।संहर्षंणानांप्रवरासवानामशीतिरुक्ताचतुरुत्तरैषा॥५२॥ शरीरयोगप्रकृतोमतानितत्वेनचाहारविनिश्चयोयः।उवाचयज्जःपुरुषादिकेऽस्मिन्मुनिस्तथाग्र्याणिवरासवांश्चइति॥५३॥
इत्यन्नपानचतुष्केयज्ज्ःपुरुषीयोऽध्यायःसमाप्तः।
** **इस यज्ञःपुरुषीय अध्यायमें मन, शरीर, अग्निऔर वर वढानेवाले और अनिद्रा, शोक तथा अरुचिको नष्ट करनेवाले हर्षके उत्पन्न करनेवाले ८४चौरासी आसवोंका वर्णन किया गया है तथा शरीरकी रक्षाके लिये सव प्रकारके आहार और उपाय यथोचित रीति पर महर्षि आत्रेयजीने वर्णन किये॥५२॥५३॥
इति श्रीमहर्षिचरक० प० रामप्रस्तादवैद्य० भाषाटीकायायज्ञःपुरुषीयो
नाम पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥
___________________
षड्विंशोऽध्यायः।
__________________
अथातआत्रेयभद्रकाप्यीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम आत्रेयभद्रकोप्यीय नामके अध्यायकी व्याख्या करते देता आत्रेय भगवान् कहने लगे।
अनेक ऋषियों के अनेक मत।
आत्रेयोभद्रकाप्यश्चशाकुन्तेयस्तथैवच। पूर्णाख्यश्चैवमौद्गल्योहिरण्याक्षश्चकोशिकः॥१॥ यःकुमारशिरानामभरद्वाजःसचानघः।श्रीमान्वार्य्योविदश्चैवजामतिमतांवरः॥२॥ निमिश्चराजावैदेहोबडिशश्रमहामतिः। काङ्कायनश्चवाह्लीकोबाह्लीकभिषजांवरः॥३॥ एतेश्रुतवयोवृद्धाजितात्मानोमहर्षयः।वनेचैत्ररथेरम्येसमीयुर्विजिहीर्षवः॥४॥ तेषांतत्रोपविष्टानामियमर्थवतीकथा।बभूवार्थविदांसम्यक्ररसहारविनिश्चये॥५॥
एक समय आत्रेय भद्दकाप्य शाकुन्तेय, पूर्णाक्ष, मौल्य, हिरण्याक्ष, कौशिक,महात्मा कुमारशिरा भरद्वाज, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीमान् राजर्षि वायोंविद, निमि,राजर्षि वैदेह, विशालबुद्धि, बड़िश, कांकायन, वाह्लीक ( वैद्योंमें श्रेष्ठ ) यहसम्पूर्ण विद्यामें और आयुमें वृद्ध, जितेन्द्रिय महात्मालोग, रमणकरनेयोग्य चैत्रस्थ प्रभृति स्थानों में विचरण करते हुए एक स्थान में एकत्रित हुए। उस मसय इन ऋषियोंकी सभा रसाहार सम्बन्धी सिद्धान्त निश्चय करनेके लिये आन्दोलन आरंभ हुआ॥१॥२॥३॥४॥५॥
एकएवरसइत्युवाचभद्रकाप्योयंपञ्चानामिन्द्रियार्थानामन्यतमंजिह्वावैषयिकंभावमाचक्षतेकुशलाः। सपुनरुदकादनन्य इति॥६॥
** **प्रथम भद्रकाप्य बोले कि रस १ एक प्रकारका होता है। और यह रस सब प्रकारके इन्द्रियार्थीमें जिह्वाग्राह्य है और जिह्वेन्द्रिय जलीय है इसलिये इस जलके छोड़ और कोई वस्तु नहीं॥६॥
द्वौरसावितिशाकुन्तेयोब्राह्मणश्छेदनीयश्चोपशमनीयश्चेति॥७॥
यह मुनकर शाकुन्तेय ब्राह्मण कहनेलगे कि रस दो प्रकारका होता है। १ छेदनकर्ता २ उपशमनकर्ता॥७॥
त्रयोरसाइतिपूर्णाक्षःमौद्गल्यश्छेदनीयोपशमनीयौसाधारणाश्च॥८॥
पूर्णाक्ष मौल्य कहने लगे कि रस तीन प्रकारका होता है ? छेदन - (शोधन )कर्ता २ शमनकर्ता ३ साधारण॥८॥
चत्वारोरसाइतिहिरण्याक्षःकौशिकःस्वादुर्हितश्चस्वादुरहितश्च अस्वादुरहितश्चास्वादुर्हितश्चेति॥९॥
हिरण्यकौशिक कहने लगे कि हितकर स्वादु, अहितकर स्वादु, अहितकर अस्वादु और हितकर अस्वादु, इन भेदोंसे ४ चार प्रकारका रस है॥ ९॥
पञ्चरसाइतिकुमारशिराभरद्वाजोभौमौदकाग्नेयवायवीयान्तरिक्षाः॥१०॥
कुमारशिरा भरद्वाज कहनेलगे कि भौम, औदक आग्नेय, वायव्य, आन्तरिक्ष इन भेदोसे ५ पांच प्रकारका रस होताहै॥१०॥
षड्रसाइतिवार्य्योंविदाराजर्षिःगुरुलघुशीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षाः॥११॥
राजर्षि वार्योविद कहनेलगे कि, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष इन भेदोसे रस ६ छःप्रकारका होता है॥११॥
सप्तरसाइतिनिमिर्वैदेहोमधुराम्ललवणकटुकतिक्तकषायक्षाराः॥१२॥
निमि वैदेह कहनेलगे कि रस ७ सात प्रकारके होत है। जैसे-मधुर, अम्ल, लवण,कटु, तिक्त, कषाय, क्षार॥१२
अष्टौरसाइतिबडिशोधामार्गवोमधुराम्ललवणकटुतिक्तकषायक्षाराव्यक्ताः॥१३॥
वडिश धामार्गव कहते हैं कि मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, कषाय, क्षार और व्यक्त इन भेदोसे रस आठ प्रकारके हैं॥१३॥
अपरिसंख्येयारसाइतिकाङ्कायनोवाह्लीकभिषगाश्रयगुणकर्मसंस्कारविशेषाणामपरिमेयत्वात्॥१४॥
कांकायन कहने लगे कि रस अपरिसंख्यय है क्योंकि आयुर्वेदाश्रित गुणकर्म,संस्कार विशेपासे असंख्य कल्पना होसकतीं॥१४॥
षडेवरसाइत्युवाचभगवानात्रेयःपुनर्वसुःमधुराम्ललवणकटुतिक्तकषायाः।तेषांषण्णांरसानांयोनिरुदकम्।छेदनोपशमनेद्वेकर्मणी। तयोमिंश्रीभावात्साधारणत्वंस्वाद्वस्वादुताभक्तिः। द्वौहिताहितोप्रभावौ।पञ्चमहाभूतविकारास्त्वाश्रयाः॥१५॥
इस पर भगवान् पुनर्वसु आत्रेयने कहा कि नहीं रस छही प्रकारके होते हैं। जैसे-मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कपाय और इन छहो रसोका कारण जल है। छेदन और उपशमन यह रसोके दो कर्म है।इन सब रसोंक मिलजुलकर साधारणतासे दो स्वाद माने गये हैं। १ स्वादु और २ अस्वादु हितकर और अहितकर यह दो प्रकारके रसोंके प्रभाव होते हैं। और पांच महाभूतांके विकार रसके आश्रय माने जाते हैं॥१५॥
प्रकृतिविकृतिविचारदेशकालवशास्त्रेषुआश्रयेषुद्रव्यसंज्ञकेषुगुणागुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्याः॥१६॥
वह आश्रय - प्रकृति, विकृति, विकार, देश, कालके वश माने जाते है। फिर वह द्रव्यनामक आश्रय गुरु, लघु, शीत, उष्ण, रूक्ष आदि, गुणोंके आश्रयीभूत हैं॥१६॥
क्षरणात्क्षारोनासौरसोद्रव्यंतदनेकरससमुत्पन्नमनेकरसंकटुकलवणभूयिष्ठमनेकन्द्रियार्थसमन्वितंकरणाभिनिवृत्तम्॥१७॥
क्षरण होनेसे क्षार कहा जाता है इसलिये यह रस नहीं द्रव्य है क्योंकि वह अनेक प्रकारके रस से प्रकट होता है। इसीलिये अनेक रमयुक्त है किन्तु क्षारमे कटु और लवण रस अधिकता से प्रतीत होता है। क्षार रस अनेक विषयांसे युक्त और करणसे उत्पन्न होता है॥१७॥
अव्यक्तीभावस्तुखलुरसानांप्रकृतावनुरसे अनुरससमन्वितेवाद्रव्ये॥१८॥ अपरिसंख्येयत्वंपुनरेतेषामाश्रयादीनांभावानां विशेषान्नाश्रीयतेनचतुस्मादन्यत्वमुपपद्यते॥१९॥
रस अपनी प्रकृति में तथा अनुरसद्रव्यांमे मिलाहुआ रहताहै इससे मालुम नहीं होता है॥१८॥इन रसोंके आश्रित असंख्य द्रव्य हैं इसीलिये आश्रयके भेदसे रस भी असंख्य प्रकारके होसकते हैं। परन्तु रस रसही रहता है अन्यत्वको प्राप्त नहीं होता॥१९॥
परस्परंसंसृष्टभूयिष्ठत्वान्नचैषामनिवृत्तिर्गुणप्रकृतीनामपरिसंख्येयत्वंभवति। तस्मान्नसंसृष्टानांरसानांकर्मोपदिशन्तिबुद्धिमन्तः॥२०॥
इस प्रकार परस्पर विशेष संयोग होनेसे और असंख्य द्रव्याश्रित होनेसे रस असंख्य होते हुए भी गुण प्रकृति, स्वभावसे ६ छः प्रकारके ही होते हैं। इसलिये बुद्धिमानोंने गुण, प्रकृति के संयोग से असंख्य होने पर भी रसोंके कर्म अधिक नहीं कहे॥२०॥
तच्चैवकारणमपेक्षमाणाःषण्णांरसानांपरस्परेणासंसृष्टानांलक्षणपृथक्त्वमुपदेक्ष्यामः। अग्रेतुतावद्रव्यभेदमभिप्रेत्यकिञ्चिदभिधास्यामः।सर्वद्रव्यंपाञ्चभौतिकमस्मिन्नेवार्थेतच्चेतनावदचेतनञ्च।तस्यगुणाःशब्दादयोगुर्वादयश्चद्रवान्ताः। कर्मपञ्चविधमुक्तंवमनादि॥२१॥
इसी लिये कारणोंकी अपेक्षा करते हुए ६ छह रसोके द्रव्यादिकोकी सहकारितासे अलग २ लक्षणोको कहते हैं। एवम् द्रव्यभेदका आश्रय लेकर रसोंके गुणोंको कहते है। सम्पूर्ण द्रव्य पांचभौतिक हैं फिर इनके चेतन और अचेतन भेदसे दो प्रकार हैं। फिर उनके गुण शब्दादिक और गुरुआदिक द्रवपर्यन्स होते हैं। एवम् पांच प्रकारका वमनादिक कर्म है॥२१॥
पार्थिवादिद्रव्योंके गुणकर्म।
तत्रद्रव्याणिगुरुखरकठिनमन्दस्थिरविषदसान्द्रस्थूलगन्धगुणबहुलानिपार्थिवानितान्युपचयसङ्घातगौरवस्थैर्यकराणि॥२२॥
उन द्रव्योंमें गुरु, खर, कठिन, मंद, स्थिर, विषद सान्द्र, स्थूल और गंध ये गुण पार्थिव (पृथ्वीसम्बन्धी) होते हैं। पार्थिव द्रव्य शरीरको पुष्ट, कठिन, गुरुता और स्थिरताके करनेवाले होते हैं॥२२॥
द्रवस्निग्धशीतमन्दमृदुपिच्छिलरसगुणबहुलान्याप्यानितान्युत्क्लेद्स्नेहबन्धविष्यन्दप्रह्लादकराणि॥२३॥
जो द्रव्य द्रव, स्निग्ध, शीत, सन्द, मृदु, पिच्छिल, सर तथा रसगुणप्रधान होते हैं उनको जलीयद्रव्य जानना। जलीय द्रव्य - चलेद, स्निग्धता, बंध, विष्यंद और आल्हादता करनेवाले हैं॥२३॥
उष्णतीक्ष्णसूक्ष्मलघुरूक्षविषदरूपगुणबहुलानिआग्नेयानितानिदाहपाकप्रभाप्रकाशवर्णकराणि॥२४॥
जो द्रव्य उष्ण, तीक्ष्ण, सूक्ष्म, लघु, रूक्ष, विषद, एवम् रूप - गुण - प्रधान होते हैं उनको आग्नेय जानना।आग्नेय द्रव्य - शरीरमें दाह, पाक, प्रभा, प्रकाश और वर्णको करते॥२४॥
लघुशीतरूक्षखरविषदसूक्ष्मस्पर्शगुणबहुलानिवायव्यानितानिरौक्ष्यग्लानिविचारवैषद्यलाघवकराणि॥२५॥
जो द्रव्य लघु, शीत, रूक्ष, खर, विषद, सूक्ष्म और स्पर्शगुणप्रधान होते हैं उनको वायवीय जानना \। वायवीय द्रव्य - रूक्षता, ग्लानि, विचार, विषद्ता तथा लघुताको करते हैं॥२५॥
मृदुलघुसूक्ष्मश्लक्ष्णशब्दगुणबहुलान्याकाशात्मकानितानिमार्दवसौषिर्य्यलाघवकराणि॥२६॥
जो द्रव्य मृदु, लघु, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण और शब्दगुणप्रधान होते हैं वह आकाशीय हैं। आकाशीय द्रव्य मृदुता, पित्त तथा लघुताको करते हैं॥२६॥
अनेनोपदेशेननानौषधिभूतंजगतिकिञ्चिद्रव्यमुपलभ्यते। तांयुक्तिमर्थञ्चतंतमभिप्रेत्यनचगुणप्रभावादेवकार्मुकाणिभवन्ति॥२७॥
इस नियमसे यह सिद्ध है कि संसारमं यत्किचित् वस्तु हैं उन सबमें ही औषध होता है।सम्पूर्ण द्रव्य उक्त गुण प्रभावसे ही कार्यकर्ता नहीं होते किन्तु युक्ति, अर्थ, योगविशेषकी अपेक्षासे ही कार्यकर्ता होते हैं॥२७॥
द्रव्याणिहिद्रव्यप्रभावाद्गुणप्रभावाच्चतस्मिंस्तस्मिन्कालेतत्तदधिष्ठानमासाद्यतांताञ्चयुक्तिंयत्कुर्वन्तितत्कर्मयेनकुर्वन्तितद्वीर्य्यं, यत्रकुर्वन्तितदधिकरणंयदाकुर्वन्तिसकालो यथाकुर्वन्तिसउपायोयत्साधयन्तितत्फलम्॥२८॥
सम्पूर्ण द्रव्य द्रव्यके प्रभाव से, गुण के प्रभावसे और द्रव्यगुण के प्रभावसे यथासमय यथोचित रीति पर प्रयोग करनेसे जो कार्य करते हैं उसको कर्म कहते हैं, तथा जिसके द्वारा करते हैं उसको वीर्य कहते हैं और जिस समय करते हैं उसको काल कहते हैं एवम् जिस प्रकार करते हैं उसको उपाय कहते हैं और कर्मद्वारा जो सिद्ध होता है उसको फल कहते हैं॥२८॥
रसोंके विकल्पकी संख्या।
भेदश्चैषांत्रिषष्टिविधिविकल्पोद्रव्यदेशकालप्रभावात्तदुपदेक्ष्यामः॥२९॥
इन द्रव्योंके - देश, काल, और प्रभावविशेषसे ६३ तिरसठ प्रकार होते हैं उनकाआगे वर्णन करते हैं॥२९॥
स्वादुरम्लादिभिर्योगंशेषैरम्लादयःपृथक्या। निपञ्चदशैतानिद्रव्याणिहिरसानितु॥३०॥पृथगम्लादियुक्तस्ययोगःशेषैः पृथग्भवेत्। मधुरस्यतथाम्लस्यलवणस्यकटोस्तथा॥३१॥ त्रिरसानियथासंख्यंद्रव्याण्युक्तानिविंशतिः। वक्ष्यन्तेतुचतुष्केणद्रव्याणिदशपञ्चच॥३२॥ स्वाद्वम्लौसहितौयोगंलवणाद्यैःपृथग्गतौ। योगंशेषैःपृथक्यातःचतुष्कंरससंख्यया॥३३॥ सहितौस्वादुलवणौतद्वत्कट्वादिभिः पृथक्। युक्तौशेषैःपृथग्योगं यातःस्वादूषणौयथा॥३४॥ कट्वाद्यैरम्ललवणौसंयुक्तौसहितौपृथक्। यातःशेषैःपृथग्योगंशेषैरम्लकटूतथा॥३५॥ युज्यतेतुकषायेणसतिक्तौलवणोषणौ। षट्तुपञ्चरसान्याहुरेकैकस्यापवर्जनात्॥३६॥ षट्चैवैकरसानिस्युरेकंषड्रसमेवतु।इतित्रिषष्टिर्द्रव्याणांनिर्दिष्टारससंख्यया॥३७॥ त्रिषष्टिःस्यात्त्वसंख्येयारसानुरसकल्पनात्।रसास्तरतमाभ्यांतांसंख्यामभिपतन्तिहि॥३८॥
मधुर आदिक जो छः रस हैं उनमेसे स्वादुरसका अम्ल आदिके संग दो दोका संयोग करनेसे पांच प्रकार होते हैं। जैसे मधुराम्ल, मधुरलवण, मधुरतिक्त, मधुरकटु, मधुरकपाय।एवम् अम्लरसका दो दोसे संयोग कियाजाय तो चार प्रकार होते है। जैसे अम्ललवण, अम्लतिक्त, अम्लकटु, अम्लकपाय यह चार प्रकार हुए, क्योकि अम्लमधुर पहिले पांच प्रकारोंमें आचुका है इसलिये छः रसोमेंसे एक रसके दूसरे दूसरेके साथ मिलानेसे जिस रसका मिलान किया जायगा वह कम होनेसे पांच प्रकार के होते है। दूसरे रसका मिलान करनेसे चार प्रकार रह जाते हैं। इसी प्रकार लवणरसका मिलान करनेसे तीन प्रकार होते है।तिक्तरसका मिलान करनेसे दो प्रकार होते हैं तथा कटुरस केवल एक प्रकारका रहजाता है। इस प्रकार सव मिला १५ प्रकारके हुए। तीन तीनके मिलानेसे मधुर रस १० प्रकारका अम्लरस ६ प्रकारका, लवणरस ३ प्रकारका होता है एवम् तिक्तरस १ प्रकारका हुआ। कुल मिलकर २० प्रकार हुए। चार चारके संयोगसे मधुरं रस १० प्रकारका, अम्ल रस४ प्रकारका, लवण रस १ प्रकारका इन सबको जोडदेने से १५ होते है।पांच पांचके मिलानेसे मधुर ५ प्रकारका, अम्ल १ प्रकारका, दोनोको मिलानेसे ६ प्रकार हुए। और ६ रसोको ही एकत्रित करनेसे १ प्रकार हुआ, एवम मधुर आदि मुख्यरर्सोको अलग २रखनेसे ६ प्रकार हुए। सबका मिलान करनसे ६३ प्रकारके रस भेद हुए। इन् ६३ तिरसठ ही प्रकारोंमें रस और अनुरस ये अंशांश कल्पना करनेसे अत्यन्त संख्या चढजाती है॥३०॥३१॥३२॥३३॥३४॥३५॥३६॥३७॥३८॥
संयोगाःसप्तपञ्चाशत्करूपनातुत्रिषष्टिधा। रसानांतन्नयोग्यत्वाकल्पितारसचिन्तकैः॥३९॥ क्वचिदेकोरसःकल्प्यःसंयुक्ताश्चरलाःक्वचित्। दोषौषधादीन्सञ्चिन्त्यभिषजासिद्धिमिच्छता॥४०॥ द्रव्याणिद्विरसादीनिसंयुक्तांश्चरसान्बुधः। रसानेकैकशश्चैवकल्पयन्तिगदान्प्रति॥४१॥
इस प्रकार संयोगसे ५७ सत्तावन और कल्पनाविशेषसे ६३ तिरसठ रसोंके प्रकार होते हैं। रसचितकोंने रसतन्त्रमें इस प्रकार कल्पना कीहै। सिद्धिकी इच्छाकरनेवाले वैद्यको कहीं एक कहीं बहुत रसोंसे युक्त दोष और औषधियोंको विचारलेना चाहिये। बुद्धिमान वैद्यको चाहिये कि द्रव्य और द्रव्योंके रम तथा रससंयोग आदि विचारकर रोगोंमें प्रयोग करें॥३९॥४०॥४१॥
रसविकल्पज्ञ वैद्यकी प्रशंसा।
यःस्याद्रसविकल्पज्ञः स्याच्चदोषविकल्पवित्।
नसमुह्येद्विकाराणां हेतुलिङ्गोपशान्तिषु॥४२॥
जो वैध रसोंके विकल्पको जानता है तथा दोषोंके विकल्पको भली प्रकार जानता है वह वैद्य रोगके निदान, लक्षण और उपाय करनेमें मोहको प्राप्त नहीं होता॥४२॥
व्यक्तःशुक्तस्यचादौचरसोद्रव्यस्यलक्ष्यते।
विपर्य्ययेणानुरसोरसोनास्तिहिसतमः॥४३॥
सम्पूर्ण द्रव्योंमें रस दो प्रकारका देखनमें आताहै।१ व्यक्त रस, २ अनुरस। सुखे वा गले द्रव्यको मुखमें रखने से जो रस प्रतीत होता है वह व्यक्तरस होताहै एवम् जो रस पीछेसे प्रतीत हो उसको अनुरस कहते हैं सो यह व्यक्तरस और अनुरस छः रसोंमें ही हैं। अनुरस छहोंसे अलग कोई सातवां रस नहीं है॥४३॥
परादिगुणोंके नाम।
परापरत्वेयुक्तिश्चसंख्यासंयोगएव च। विभागश्चपृथक्त्वञ्चपरिमाणमथापिच॥४४॥ संस्कारोऽभ्यासइत्येतेगुणाज्ञेयाःपरादयः। सिद्धयुपायश्चिकित्सायालक्षणैस्तान्प्रवक्ष्यते॥४५॥
परत्व, अपरत्व, युक्ति, संख्या, संयोग, विभाग, पृथक्तव, परिमाण, संस्कार और अभ्यास इन सबका यथोचित ज्ञान होने विना चिकित्सा की सिद्धि नहीं होती इसलिये अब इनके लक्षणोंको कहतेहैं॥४४॥४५॥
परापरत्वका लक्षण।
देशकालवयोमानपाकवीर्य्यरसादिषु।
परापरत्वेयुक्तिस्तुयोजनायाचयुज्यते॥४६॥
देश, काल, अवस्था, मान, पात्र, वीर्य, रम आदिकोंमे प्रधानको परत्व और अप्रधानको अपरत्व समझना चाहिये। इन देश, कालादिकोंका परत्वापरत्व विचार जो प्रयोग किया जाता है उसको युक्ति कहते है॥४६॥
संख्याआदिका लक्षण।
संख्यास्याद्गणितंयोगः सहसंयोग उच्यते।
द्रव्याणांद्वन्द्वसर्वैकर्मजोनित्यएवच॥४७॥
द्रव्यकी गणनाको संख्या कहते हैं उसके विधिपूर्वक मिलानको संयोग कहते हैं। वह संयोग तीन प्रकारका होता है। १ द्वन्द्वकर्मज, २ सर्वकर्मज ३ एककर्मज। वह संयोग अनित्य होता है॥४७॥
विभागस्तुविभक्तिस्तुवियोगोभागशोग्रहः।
पृथक्त्वंस्यादसंयोगोवैलक्षण्यमनेकता॥४८॥
विभागशब्दका अर्थ हिस्से करना अर्थात् भागपूर्वक वियोग करना है पुकत्तवएक से दूसरेमे पृथकता प्रतिपादन करना है। जैसे-गौसे भैंस पृथक होती है। घटसे पट पृथक् होता है। इस प्रकार एक जगह संयोग होनेपर भी जो गुणविशेषसे अलग ही प्रतीत हो उसको पृथत्तत्र कहते॥४८॥
परिमाणं पुनर्मानंसंस्कारःकरणंमतम्।
भावाभ्यसनमभ्यासःशीलनंसततक्रिया॥४९॥
परिमाण - मान (तोल) के विधानका नाम है।द्रव्यादिकांका संयोग करनेसे जो विशेष रूप प्रगट होता है उसको संस्कार कहते है। मकियाका निरन्तर सेवन करना अभ्यास कहा जाता है॥४९॥
इतिस्वलक्षणैरुक्तागुणाः सर्वेपरादयः।
चिकित्सायैरविदितैर्नयथावत्प्रवर्त्तते॥५०॥
इस प्रकार परत्व आदिकोंके लक्षणोंका वर्णन कियागयाहै इनके यथोचित ज्ञान विना यथार्थ चिकित्सा नहीं होती॥५०॥
गुणागुणाश्रयानोक्तास्तस्माद्रसगुणान्भिषक्।
विद्याद्रव्यगुणान्कर्त्तुरभिप्रायाः पृथग्विधाः॥५१॥
अतश्चप्रकृतिंबुद्धादेशकालान्तराणिच।
तन्त्रकर्त्तुरभिप्रायानुपायांश्चार्थमादिशेत्॥५२॥
गुण गुणोंके आश्रित नहीं होते किन्तु द्रव्य गुणके आश्रय कहे गये हैं। इसलिये वैद्य रसके गुणोंको द्रव्यके गुणोंमें समझे क्योंकि रसका गुण अन्य होनेपर भी द्रव्यमें अन्य गुण पाया जाता है। जैसे-कुल्थीका कषाय रसमें कसैला होने पर भी वातको उत्पन्न नहीं करता वल्कि नाश करता है॥५१॥ इसलिये तंत्रकर्ताका अभिप्राय और देश काल आदिकोंको यथोचित विचारकर उपाय आदि करना चाहिये॥५२॥
परञ्चातःप्रवक्ष्यन्तेरसानांषड्विभक्तयः॥
षट्पञ्चभूतप्रभवाःसंख्याताश्चयथारसाः॥५३॥
अब फिर रसोंके ६ विभाग तथा इन छहोंकी पांच महाभूतोंसे उत्पत्तिको कथन करते हैं। जैसे - ६ प्रकारके रस पांच महाभूतोंसे उत्पन्न हुए हैं॥५३॥
सौम्याःखल्वापोऽन्तरिक्षप्रभवाःप्रकृतिशीतालघ्व्यश्चअव्यक्तरसाश्चतास्त्वन्तरिक्षाद्भ्रश्यमानाभ्रष्टाश्चपञ्चमहाभूतविकारगुणसमन्विताजङ्गमस्थावराणांभूतानांमूर्त्तीरभिप्रीणयन्तितासुमूर्त्तिषुषड्भिर्मूर्च्छन्तिरसाः॥५४॥
अन्तरिक्षका जल प्रायः सौम्य ( सोमगुणप्रधान) होता है इसीलिये स्वभावसे ही शीतल और हल्का होताहै। यह अव्यक्त रस होता है। आकाशसे गिरकर पंच- महाभूतोंके गुणों से युक्त होता है और जंगम तथा स्थावरोंको प्रीणनकर्त्ता होता है वही स्थावरों में ६ प्रकारके रसोंको प्रगट करता है॥५४॥
रसोंकी उत्पत्ति।
तेषांषण्णांरसानांसोमगुणातिरेकान्मधुरोरसः पृथिव्यग्निभूयिष्ठत्वादम्लः सलिलाग्निभूयिष्ठत्वाल्लवणोवाय्वग्निभूयिष्ठत्वात्क-टुकोवाय्वाकाशातिरेकात्तिक्तःपवनपृथिव्यतिरेकात्कषायः। एवमेषांरसानांषट्त्वमुत्पन्नम्॥५५॥
उन छः रसोमं मधुर रस सोमगुणविशिष्ट होता है। पृथ्वी और तेज, गुण विशिष्ट अम्लरस होता है। जल और अग्निगुणविशिष्ट लवण रस होताहै। वायु और अग्निगुण- विशिष्ट कटु ग्स होता है।वायु और आकाशगुण विशिष्ट कपाय रस होता है। इस प्रकार पंचमहाभूतात्मक ६ रस होते हैं॥५५॥
पंचमहाभूतोंके न्यूनाधिक्यका फल।
न्यूनातिरेकविशेषान्महाभूतानामिवजङ्गमस्थावराणांनानावषड्ऋतुकत्वाच्चकालस्यउत्पन्नोमहाभूतानांन्यूनाकृतिविशेषाःनातिरेकविशेषः॥५६॥
इन पांच महाभूतोंके ही न्यूनाधिक भावसे संपूर्ण स्थावर जंगम जगत् के वर्ण और आकृतिमे भेद होता है। एवम छः ऋतुओं के भेदसे कालजनित करणोसे महाभूतांके गुणोंमें न्यूनाधिकता होती है॥५६॥
अग्निमारुतात्मक रसोंके कर्म।
तत्राग्निमारुतात्मकारसाःप्रायेणोर्द्धभाजोलाघवात्प्लवकत्वाच्च वायोरूर्द्धज्वलनत्वाच्चवह्नेःसलिलपृथिव्यात्मकास्तुप्रायेणाधोभाजःपृथिव्यागुरुत्वान्निम्नगत्वाच्चोदकस्यव्यामिश्रात्मकास्तु पुनरुभयतोभागभाजः॥५७॥
इन द्रव्योमे अग्नि और वाशुआत्मक रस प्रधान कटुद्रव्य चरगति और लघुता आदि वायुके गुण होनेसे और ऊर्द्धगति आदि अग्निके गुण होनेसे शरीर के ऊपरके भागमे अपने गुणको दिखाते हैं। जल और पृथ्वीप्रधान रस जलकी गति नीचे गमन करनेवाली और पृथ्वी के गुण गुरुत्व होनेसे शरीरके नीचके भागमें अपनी क्रियाको करते है ऊपर के भागमे क्रिया करनेवाले और नीचेके भागमें क्रिया करनेवाले सब प्रकारके रसोंको मिलानेसे उभयतः क्रिया करते हैं॥५७॥
मधुरादि रसोंके गुणागुण।
तेषांषण्णांरसानामेकैकस्ययथाद्रव्यगुणकर्माण्यनुव्याख्यास्यामः। तत्रमधुरोरसःशरीरसात्म्याद्रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जौजःशुक्राभिवर्द्धनआयुष्यःषडिन्द्रियप्रसादनोवलवर्णकरः
पित्तविषमारुतघ्नस्तृष्णाप्रशमनस्त्वच्यःकेश्यःकण्ट्यःप्रीणनोजीवनस्तर्पणःस्नेहनःस्थैर्यकरःक्षीणक्षतसन्धानकरोघ्राणमुखकण्ठौष्ठतालुप्रह्लाद नोदाहमूर्च्छाप्रशमनः षट्पदपिपीलिकानामिष्टतमःस्निग्धःशीतोगुरुश्च॥५८॥
अब उन ६ रसोंमें एक एक द्रव्यमे पृथक २ होनेसे जो गुण, कर्म होते हैं उनका वर्णन करते हैं।मधुर रस शरीर के सात्म्य होनेसे ग्स, मांस, मेद, अस्थि, भज्जा, ओज, शुक्र इन धातुओकी वृद्धि करता है तथा आयुको बढाता है। पंचेन्द्रिय और एक अतीन्द्रिय (मन) को प्रसन्नता देता है वल तथा वर्णको उत्तम बनाता है।) पित्त, विप. वायु और तृपाको नष्ट करता है।त्वचा, केश, और कण्टको उत्तम करता है तथा प्रीणन (शरीरको पुष्ट करना) जीवन तर्पण, स्नेहन करताहै तथा) आयुको स्थिर करता है। क्षीण क्षतपीडित मनुष्योंको सन्धान करता है नाक, मुख, कण्ठ, ओष्ठ, और तालुका प्रसादन करता है।दाह तथा मूर्च्छाको शान्त करता है।भ्रमर, चीटी आदिकोको अत्यन्त प्रिय है तथा स्निग्ध, शीतल और मारी गुणयुक्त है॥५८॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानःस्थौल्यंमार्दवमालस्यमतिस्वप्नंगौरवमनन्नाभिलाषमग्नेदौर्बल्यमास्यकण्ठमांसाभिवृद्धिश्वासकासप्रतिश्यायालसकशीतज्वरानाहास्यमाधुर्यवमथुसंज्ञास्वरप्रणाशगण्डमालाश्लीपदगलशोफवस्तिधमनीगुदोपलेपाक्ष्यामयानमभिष्यन्दमित्येवंप्रभृतीन्कफजान्विकारानुपजनयति॥५९॥
इस प्रकार गुणयुक्त होने पर भी मधुररसको सदैव और निरंतर सेवन करने से मनुष्यों के शरीर में मोटापन, नम्रता, आलस्य, निद्राधिक्य, गौरवता, मंदाग्नि, अरुचि, मुख तथा कण्ठके मांसकी वृद्धि, उवास, खांसी, प्रतिव्याय, अलसक, शीतज्वर, अफारा मुखमें मीठापन, छर्दि, संज्ञा और स्वरका नाश, गलगण्ड, गण्डमाला, इलीपद, गलशोथ आदि रोगोंको करता है तथा वस्ति, धमनी और मलद्वारमें दोषका उपले पसा करताहै।एवम् नेत्रोंके अभिष्यन्द आदि रोगोंके तथा कफके विकारोंको उत्पन्न करता है॥५९॥
अम्लोरसोभक्तंरोचयति, अग्निदीपयति, देहंबृंहयति, जर्जरयति, मनोबोधयति, इन्द्रियाणिदृढीकरोति, बलंवर्द्धयति,
वातमनुलोमयति, हृदयंतर्पयति आस्यंसंस्त्रवयति. भुक्तमपकर्षयति, क्लेदंजनयति, प्रीणयतिलघुरुष्णः स्निग्धश्च॥६०॥
खट्टा रस अन्नमे रुचि, अग्निको दीपन देहमें पुष्टि करता है। जीर्णकारी है, मनको वोधन करता है, इन्द्रियोको दृढ करता है,चलकी वृद्धि करताहै, वायुको अनुलोमन करता है, हृदयको तृप्त करता है, मुखको श्रावण करता है,आहारको नीचेकी ओर खीचता है, क्लेदको उत्पन्न करताहै. मीणन करता है एवम् लघु उष्ण तथा तीक्ष्णगुणयुक्त है॥६०॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानोदन्तान्हर्षयतितर्पयति, संमीलयतिअक्षिणी संवीजयतिलोमानि, कफंविलापयति, पित्तमभिवर्द्धयति,रक्तंदूषयति,मांसंविदहति,कायंशिथिलीकरोति,क्षीणक्षतकृशदुर्बलानांश्वयथुमापादयति। अपि चक्षताभिहतदष्टभग्नशूलिच्युतावमृदितपरिसर्पितमर्दितच्छिन्नवद्धोत्पिष्टादीनिपाचयत्याग्नेयस्वभावात्परिदहतिकण्ठमुरोहृदञ्च॥६१॥
इस प्रकारके गुणवाला अम्लरस अत्यन्त और निरंतर सेवन कग्नेमे ढंतहर्ष रोग करता है। भोजनमें अनिच्छा नेत्रसंमीलन और रोमहर्षको उत्पन्न करता है। अपने स्वभावमं स्थित कफको पतला करता है. पित्तको वढाता हैरक्तको दूषित करता है, मांसको विदग्ध करता है, शरीरको शिथिल करताहै। क्षीण क्षत. कृश तथा दुर्बल मनुष्यों के शरीरमं सूजन उत्पन्न करता है। यह रस आग्नेय गुण प्रधान होनेसे क्षत, आहत. दष्ट, दुग्ध, भग्न, झूलाहत प्रच्युत, मृदित परिसर्पित, मदिंत छिन्न, विद्ध उत्पिष्ट स्थानोम पाकको उत्पन्न करता है तथा अपने स्वभावसे कण्ड, छाती एवम हृदय में दाहको उत्पन्न करता है॥६१॥
लवणोरसःपाचनःक्लेदनोदीपनश्च्यावनश्छेदनोभेदनस्तीक्ष्णः सरोविकास्यधःस्त्रंस्यवकाशकरोवातहरःस्तम्भबन्धसंघातविमनःसर्वरसप्रत्यनीकभूतआस्यंविस्त्रावयति,कफंविष्यन्दयति, मार्गाञ्छोधयतिसर्वशरीरावयवान्मृदूकरोति,रोचयत्याहारमाहरयोगीचात्यर्थंगुरुः स्निग्धउष्णश्च॥ ६२॥
लवण रस-पाचन है, क्लेदन है, दीपन है, च्यावन है, छेदन है, तीक्ष्ण है, सर है, विकाशी है, संसन है, भ्रंसन है, वातनाशक है, स्तम्भनाशक है, विबंधके संघातकोनष्ट करता है, सब रसोंसे विपरीत है, मुखको स्रावण करता है, कफको पतला करताहै,छिद्रोको शोधन करता है शरीरके संपूर्ण अवयवोंको नम्र करता है, आहार में रुचि प्रगट करता है तथा भोजनको अत्यन्त उपयोगी है एवम गुरु, स्निग्ध और उष्ण गुण प्रधान है॥६२॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानः पित्तंकोपयति, रक्तंवर्द्धयति, तर्षयति, मूर्च्छयति, तापयति, दाहयति, कुष्णाति,मांसानि, प्रगालयतिकुष्ठानि विषंवर्द्धयति, शोफान्स्फोटयति, दन्ताञ्छ्यावति, पुंस्त्वमुपहन्ति, इन्द्रियाण्युपरुणद्धि,वलीपलितखालित्यमापादयतिच, लोहितपित्ताम्लपित्तवीसर्पवातरक्तविचर्च्चिकेन्द्रलुप्तप्रभृतीन्विकारानुपजनयति॥६३॥
इन गुणोंवाला होनेपर भी लवण रस अधिक सेवन करनेसे पित्तको कुपित करता है, रक्तविकारको बढाताहै, और तृषा, मूर्च्छा, ताप, दाह, मांसमें खुजलीइनको उत्पन्न करता है। कुष्ठोंको प्रगलित करता है, विषके वेगको बढाताहै, सृजनोंको फटी हुईसी बनाता है, दांतों को काला करताहै, पुरुषार्थको नष्ट करता है, इन्द्रियोंका उपरोध करता है, शरीर में सलवट, केशोंका सफेद होना, शिरमें गंजापन इन रोगोंको उत्पन्न करता है तथा रक्तपित्त, अम्लपित्त, विसर्प, वातरक्त, विचर्चिका, और इन्द्रलुप्त, रोगोंको प्रगट करता है॥६३॥
कटुकारोरसोवक्त्रंशोधयति, अग्निंदीपयति, भुक्तंशोषयति, घ्राणमास्रावयति, चक्षुर्विरेचयति, स्फुटीकरोतीन्द्रियाणि, अलसकश्वयथूपचयोदर्दाभिष्यन्दस्नेहस्वेदक्लेदमलानुपहन्ति, रोचयत्यशनं, कण्डूर्विनाशयति, व्रणानवसादयति, क्रिमीन्हिनस्ति, मांसंविलिखति, शोणितसङ्घातंभिनत्ति, बन्धांश्छिनत्ति, मार्गान् विवृणोति, श्लेष्माणंशमयति, लघुरुष्णोरुक्षश्च॥६४॥
चरपरा रस-मुखको शुद्ध करता है। अग्निको दीप्त करता है। भोजनको शोषण करता है। नासिकाका स्राव करता है। आंखोंसे पानी निकालताहै।इन्द्रियोंको स्फुट करता है। अलसक, शोथ, उदर्द, अभिष्यंद, स्नेह, स्वेद, क्लेद और मल इन सबको नष्ट करता है। अन्नमें दृचि प्रगट करता है। खाज, व्रण और कृमियोंका नाश करताहै। मांसको लेखन करता है।रुधिरके जमावको नष्ट करता है। विर्बंधका छेदन करता है। स्रोतको खोलता है। कफको नष्ट करता है एवम् लघु, उष्ण और रूक्ष गुणसे युक्त है॥६४॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानोविपाकप्रभावात् पौंस्त्वमुपहन्ति, रसवीर्यप्रभावान्मोहयतिग्लापयतिसादयतिकर्षयति, मूर्च्छयतिनमयतितमयतिभ्रमयतिकण्ठंपरिदहतिशरीरतापमुपजनयतिवलंक्षिणोतितृष्णांजनयतिवाव्यग्निवाहुल्याममददवथुकम्पतोदभेदैश्चरणभुजपार्श्वपृष्ठप्रभृतिषुमारुतजान्विकारानुपजनयति॥६५॥
इन गुणोवाला होनेपर भी चरपरे रसको अधिक सेवन करनेसे तीक्ष्ण रसका तीक्ष्ण विपाक होनेसे पुरुषत्व नष्ट होता है। रस और वीर्यके प्रभावसे मोह करता है, ग्लानि करता है, अवसाद करता है, कृशता करता है, मूर्च्छा करता है, शरीरको नमन करता है, अंधकारको प्रकट करता है, भ्रम, कण्ठमे जलन, शरीरमे गर्मी उत्पन्न करताहै।बलको क्षय करता है।तृषाको प्रकट करता है एवम वायु और अग्नि - गुण - विशिष्ट होनेसे भ्रम, मद, अतिदाह, कम्प, तोदको और भेदको उत्पन्न करता है। भुजा, पार्श्व और पीठ आदि स्थानों में वायुके विकारोको उत्पन्न करता है॥६५॥
तिक्तोरसःस्वयमरोचिष्णुररोचकनोविषघ्नःकृमिघ्नोमूर्च्छादाहकण्डूकुष्ठतृष्णाप्रशमनःत्वड्ंमांसयोःस्थिरीकरणोज्वरघ्नोदीपनःपाचनःस्तन्यशोधनोलेखनःक्लेदमेदोवसामज्जालसिकापूयस्वेदमूत्रपुरीषपित्तश्लेष्मोपशोषणोरुक्षशीतोलघुश्च॥६६॥
तिक्तरस- स्वयम् रुचिके योग्य नहीं है परन्तु इसके सेवन करने के उपरान्त अन्नपररुचि बढतीहै। यह रस कृमियोको नष्ट करता है, विषको नष्ट करता है। मूर्च्छा, दाह,कण्ड्डु, कुष्ठ, और तृषाको शान्त करता है। त्वचा और मांसको स्थिर करता है, ज्वरको नष्ट करता है, दीपन है, पाचन है, स्तनोके दूधको शुद्ध करता है, लेखन है, एवम् क्लेद,मेद, वसा, मज्जा, लसिका, राध, पसीना, मूत्र, मल, पित्त और कफको सुखाता है तथा रूक्ष, शीत और लघु गुण वाला है॥६६॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानोरौक्ष्यात्खरविषदस्वभावाच्चरसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राण्युच्छोषयतिस्रोतसांख-
रत्वमुपपादयतिबलमादत्तेकर्षयतिमोहयतिवदनसुपशोषयति, अपरांश्चवातविकारानुपजनयति॥६७॥
इन गुणोवाला होनेपर भी तिक्त रस अत्यन्त सेवन कियाहुआ रूक्ष खर और विषद होनेसेरस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि मज्जा, और शुक्रको सुखाता है। रोममार्गाको खर्दरा करता है, बलको हरताहै। शरीरको कृश करता है, मोहको उत्पन्न करता है, मुखको सुखादेता है, एवम् विकारोंको उत्पन्न करता है॥६७॥
कषायोरसःसंशमनःसंग्राहीसन्धारणःपीडनोरोपणःशोषणःस्तम्भनःश्लेष्मरक्तपित्तप्रशमनःशरीरक्लेदस्योपयोक्ता रूक्षः शीतोगुरुश्च॥६८॥
कषाय रस-संशमन है, संग्राही है, संधारण है तथा पीडन, रोपण, शोषण और स्तम्मन करताहै।कफ तथा रक्तपित्तको शान्त करता है, शरीरके क्लेदको हरता है एवम् रूक्ष, शीतल और गुरु है॥६८॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानआस्यंशोषयति, हृदयंपीडयति, उदरमाध्मापयति, वाचंनिगृह्णाति, स्रोतांस्यवबध्नाति, श्यावत्वमापादयति, पौंस्त्वमुपहन्ति, विष्टब्धजरांगच्छति,बातमूत्रपुरषाण्यवगृह्णाति, कर्षयति, ग्लापयति, तर्षयति, स्तम्भयति, खरविषदरुक्षत्वात्पक्षवधग्रहापतानकार्दितप्रभृतींश्चावातविकारानुपजनयतीति॥६९॥
इन गुणवाला होनेपर भी कपायरस अत्यन्त व्यवहार किये जानेसे मुखको सुखाताहै, हृदयको पीडन करताहै, पदम अफारा करता है, वाणीको जकडता है, स्रोतोंको बन्द करता है, शरीरको काला बनाता है, पुरुषत्वको नष्ट करता है, बुढापेको शीघ्र लाता है, वात, मूत्र और मलको बाँधता है. शरीरको कुश करता है ग्लानि तथा तृषाको उत्पन्न करता है एवम् खर, विषद तथा रूक्ष रवभाववाला होनेसे पक्षावात, हनुस्तम्भ,अपतानक और अदिति आदि वायुके रोगोको उत्पन्न करता है॥६९॥
एवमेतेषड्रसाःपृथक्तेनवामात्रशःसम्यगुपयुज्यमानाउपकारकराअध्यात्मलोकस्यापकारकराःपुनरतोऽन्यथोपयुज्यमानांस्तान् विद्वानुपकारार्थमेवमात्रशःसम्यगुपयोजयदिति॥७०॥
इस प्रकार यह छःरस पृथक् २ यथोचित मात्रा से उचित रीति पर सेवन किये हुए शरीरका उपकार करते हैं। नहीं तो विकारोंको उत्पन्न करनेवाले होते हैं अतएवविद्वान् मनुष्य इस लोक और परलोकके हितकी इच्छा करता हुआ रसोंको विधिवत् उचित मात्रा से सेवन करे॥७०॥
रसोंके वीर्यका वर्णन।
भवन्तिचात्र।शीतंवीर्ये्यणद्द्रव्यंमधुरंरसपाकयोः। तयोरम्लंयदुष्णंचयच्चोष्णंकटुकंतयोः॥७९॥
अब यहां पर कहा जाता है कि जो द्रव्य रस और विपाकमें मधुर हो वह शीतवीर्य होता है एवम् जिस द्रव्यका रस और विषाक दोनो अम्ल हो वह उष्णवीर्य होता है एवम जिस द्रव्यका रस और विपाक कटु हो वह भी उष्णवर्य होता है॥७१॥
तेषांरसोपदेशेननिर्देश्योगुणसंग्रहः।
वीर्य्यतोविपरीतानांपाकतश्चोपदेक्ष्यते॥७२॥
इस प्रकार द्रव्योके रसके उपदेश से रसांके गुणका संग्रह किया गया है।अब वीर्यग्फ़्च्व् न्तथा पाकसे विपरीत नियमोंका कथन करते हैं॥७२॥
यथापयोयथासर्पिर्यथावाचव्यचित्रकौ। एवमादीनिचान्यानिमिर्दिशेद्रसतोभिषक्॥७३॥मधुरंकिञ्चिदुष्णंस्यात्कषायंतिक्तमेव च। यथा महत्पञ्चमूलंयथाचानुपमामिषम्॥७४॥
वैद्यको दूध, घृत, चव्य, चित्रक आदि द्रव्यांका रसानुसार वीर्य और विषाक जानना चाहिये कोई २ मधुर द्रव्य तथा कोई कपाय द्रव्य एवम् कोई द्रव्य उष्णवीर्य होते हैं। जैसे-वृहतूपंचमूलका क्वाथ तिक्त होनेपर भी उष्णवीर्य है। और अनूपसंचारी जीवांका मांस मधुर होनेपर भी उष्णवीर्य होता है॥७३॥७४॥
लवणसैन्धवंनोष्णमम्लमामलकंतथा।
अर्कागुरुगुडूचीनांतिक्तानामुष्णमुच्यते॥७९॥
ऐसे ही सेधा नमक लवणरस होने पर भी और आमला अम्लरस होनेपर भी उष्ण-वीर्य नही किन्तु शीतवीर्य होता है। और आक, अगर, गिलोय तिक्तरस होनेपर भी उष्णवीर्य कहे जाते हैं॥७५॥
किञ्चिदम्लंहिसंग्राहिकिञ्चिदम्लंभिनत्तिच।यथाकपित्थंसंग्राहिभेदिचामलकंतथा। पिप्पलीनागरंवृष्यंकटुचावृष्यमुच्यते॥७६॥ कषायःस्तम्भनःशीतःसोऽभयात्वन्यथामता।तस्माद्रसोपदेशेननसर्वद्रव्यमादिशेत्॥७७॥ दृष्टेतुल्यरसेऽप्वेवंद्रव्येद्रव्येगुणान्तरम्। रौक्ष्यात्कषायोरूक्षाणामुत्तमोमध्यमः कटुः॥७८॥ तिक्तोऽवरस्तथोष्णानामुष्णत्वाल्लवणःपरः।मध्योऽम्लःकटुकश्चान्त्यः स्निग्धानांमधुरःपरः। मध्योऽम्लोलवणश्चान्त्योरसःस्नेहान्निरुच्यते॥७९॥
कोई अम्लरस संग्राही अर्थात् मलको बांधनेवाला होता है और कोई अम्लरस मलको भेदन करनेवाला (दस्त लानेवाला) होता है। जैसे- कपित्यका फल संग्राही अर्थात् मलको बांधनेवाला है और आमलाका फल भेदनकर्त्त होता है। कटुरस प्रायः वृश्य नहीं होता परन्तु पीपल, सोठ आदि कटु होनेपर भी वृत्र्य होते हैं। इसी प्रकार कषायरस मलको रोकनेवाला और शीतल होता है परन्तु हरड कपायरस होनेपर भी दस्तावर और उष्ण है। इसी लिये रसमात्रके गुणसे ही द्रव्योंका गुण नही कहना चाहिये क्योंकि एकसे रसवाले द्रव्यों में भी दो प्रकारके गुण पाये जाते हैं। कपायरस सब प्रकारके रूक्ष रसोमे प्रधान होता है। कटु रस मध्यम है और तिक्त रस रूक्षता में कनिष्ठ होता है एवम् सब प्रकारके उष्णतामे लवण रस प्रधान में है।अम्ल रस मध्यम है।कटुरस कनिष्ठ है। स्निग्ध विशिष्ट रसोंमें मधुर रस प्रधान है।अम्ल रस मध्यम है। लवण रस कनिष्ठ होता है॥७६॥७७॥७८॥ ७९॥
मध्यःकृष्टावराःशैत्यात्कषायस्वादुतिक्तकाः।तिक्तात्कषायोमधुरःशीताच्छीततरः परः। स्वादुर्गुरुत्वादधिकःकषायाल्लवणोऽवरः॥५०॥
इसी प्रकार शीतलतामें मीठा रस मधान है ओर कपाय रस मध्यम तथा तिक्त रस कनिष्ठ है। जैसे तिक्तसे कपाय और कपायसे मधुर शीतलता के गुणम श्रेष्ठ माने जाते हैं।और गुरुतामें मधुररस प्रधान है, कपाय मध्यम है और लवण रस कनिष्ठ होता है॥८०॥
अम्लात्कटुस्ततस्तिक्तोलघुत्वादुत्तमोमतः। केचिल्लघूनामवरमिच्छंतिलवणंरसम्॥८१॥गौरवेलाघवेचैव सोऽवरस्तूभयोरपि।परञ्चातोविपाकानांलक्षणंसम्प्रवक्ष्यते॥८२॥
अम्लरससे कटु और कटुसे तिक्त लघुता में प्रधान होते है। कोई कहते हैं कि लवणरस लघुताके विषय में सबसे निकृष्ट होता है तथा अम्ल और लवण रसामं लवण रसकी गुरुताम प्रधान है और लघुतामे कनिष्ठ है। अब इसके उपरान्त विपाकोंके लक्षणोका वर्णन करते हैं॥८१॥८२॥
विपाकका वर्णन।
कटुतिक्तकषायाणांविपाकःप्रायशःकटुः।
अम्लोऽम्लंपच्यतेस्वादुमधुरंलवणस्तथा॥८३॥
कंटु, तिक्त और कपाय रसका प्रायः कटु विपाक होता है ।अम्लरसका मायः अम्ल विपाक होता है। मीठे और लवणरसका प्रायः मधुर विपाक होताहै॥८३॥
मधुरोलवणाम्लौचस्निग्धभावास्त्रयोरसाः।
वातमूत्रपुरीषाणांप्रायोमोक्षेसुखामताः॥८४॥
मधुर, लवण और अम्ल यह तीनों रस स्निग्ध होनेसे वायु, मूत्र और मल इनको सुखपूर्वक निकालते हैं॥८४॥
कटुतिक्तकषायास्तुरूक्षभावास्त्रयोरसाः।
दुःखाविमोक्षेदृश्यन्तेवातविण्मूत्ररेतसाम्॥८५॥
कटु, तिक्त और कषाय यह तीन रस रूक्ष होनेसे वात, मूत्र, मल और शुक्रको सुखपूर्वक नही निकलने देते अर्थात् इनके निकलने में रुकावट डालते हैं॥८५॥
शुक्रहाबद्धविण्मूत्रोविपाकोवातलःकटुः।
मधुरःसृष्टविण्मूत्रोविपाकेकफशुक्रलः॥८६॥
कटुरस - विपाक होने पर शुक्रको हरता है। मल मूत्रको बद्ध करता है। वायुको उत्पन्न करता है। मधुररस - विपाक होने पर मल, मूत्रको निकालताहै, कफ तथा वीर्यको उत्पन्न करताहै॥८६॥
पित्तकृत्सृष्टविण्मूत्रःपाकेऽम्लः शुक्रनाशनः।
तेषांगुरुःस्यान्मधुरःकटुकाम्लावतोऽन्यथा॥८७॥
अम्लरस - विपाक होने पर पित्तको करता है, मल, मूत्र निकालता है, वीर्यको नष्ट करता है। ऊपर कहेहुए मधुर, अम्ल और कटु इन विषाकोंमें मधुर विपाक गुरु है, अम्ल मध्यम है और कटु कनिष्ठ है॥८७॥
विपाकलक्षणस्याल्पमध्यभूयस्त्वमेवच।
द्रव्याणांगुणवैशेष्यात्तत्रतत्रोपलक्षयेत्॥८८॥
वैद्यको उचित है कि विपाक लक्षणोंकी अल्पता, मध्यता, अधिकता विचारकर द्रव्यमात्रके गुणकी विशेषता आदिको जाने॥८८॥
तीक्ष्णंरूक्षंमृदुस्निग्धंलघूष्णंगुरुशीतलम्।
वीर्य्यमष्टविधंकेचिकेचिद्द्विविधमास्थिताः॥८९॥
शीतोष्णमितिवीर्य्यन्तुक्रियतेयेनयाक्रिया।
नावीर्य्यंकुरुतेकिंचित्सर्वावीर्य्यकृताकिया॥१०॥
किसीके मतसे, तीक्ष्ण, रूक्ष, मृदु, स्निग्ध, लघु, उष्ण, गुरु और शीतल इन भेदोंसे द्रव्योंका वीर्य आठ प्रकारका होता है। कोई शीतल और उष्ण इन दो भेदोंसे २ प्रकारका ही मानते हैं। जिस शक्तिद्वारा शरीर में क्रिया होती है उसको वीर्य कहते हैं जितने द्रव्य हैं बिना वीर्यके वह कुछ नहीं करसकते क्योंकि संपूर्ण किया वीर्यके ही अधीन है। इसी लिये वीर्य नष्ट हुआ द्रव्य किसी कामका नहीं होता॥८९॥१०॥
रसविपाक वीर्यके लक्षण।
रसोनिपातेद्रव्याणांविपाकःकर्म्मनिष्ठया
वीर्य्ययावदधीवासान्निपाताच्चोपलभ्यते॥११॥
किसी पदार्थको मुखमें लेनेसे जो आस्वादन होता है उसको रस कहते हैं। रसका परिपाक होनेपर जो कुछ बनता है उसको वीर्य कहते हैं॥९१॥
प्रभावका लक्षण।
रसवीर्य्यविपाकानांसामान्यंयस्यलक्ष्यते।
विशेषःकर्मणाञ्चैवप्रभावस्तस्यचस्मृतः॥१२॥
जिस द्रव्यके रस, वीर्य, विपाकमे कोई विशेषता प्रतीत न हो किन्तु कर्ममें विशेषरूपसे विशेषता पाई जाय उसको प्रभाव कहते हैं।जैसे-विष तथा हीरा आदि॥९२॥
कटुकःकटुकःपाकेवीर्योष्णचित्रकोमतः।
तद्वद्दन्तीप्रभावात्तुविरेचयतिमानवम्॥९३॥
जैसे चित्रक, रसमें कटु और पाकमें भी कटु तथा वीर्यमें भी उष्णवीर्य है ऐसे हो दंती (जमालगोटेकी जड) भी स्वाद, विपाक, वीर्यमें उसके समान होते हुए भी विरचनका प्रभाव चित्रकसे अधिक रखती है॥९३॥
विषंविषघ्नमुक्तंयत्प्रभावस्तत्रकारणम्।
ऊर्द्धानुलोमनंयच्चतत्प्रभावप्रभावितम्॥९४॥
विषको विष ही नष्ट करता है यह जो कहावत है इसमें भी प्रभाव ही कारण होता है। कुछ द्रव्य जिस प्रकार खाये जानेसे वमनादि ऊर्द्धृविरेचन करते हैं उसी प्रकार दूसरे द्रव्यों में अधोविरेचनका प्रभाव देखने में आना॥१४॥
मणीनांधारणीयानांकर्मयद्विविविधात्मकम्।
तत्प्रभावकृतंतेषांप्रभावोऽचिन्त्यइष्यते॥१५॥
मणि आदि धारण करनेके जो द्रव्य हैं उनमें भी अच्छे और बुरे दो प्रकारके प्रभाव पाये जाते हैं।सो उनमें वह प्रभाव अचिंत्य है॥९५॥
किञ्चिद्रसेनकुरुतेकर्म्मवीर्येणचापरम्।द्रव्यंगुणेनपाकेनप्रभावेणचकिञ्चन॥९६॥ रसंविपाकस्तौवीर्यंप्रभावस्तानपोहति। गुणसाम्येरसादीनामितिनैसर्गिकंबलम्॥९७॥ सम्यग्विपाकवीर्य्याणिप्रभावश्चाप्युदाहृतः॥१८॥
कोई द्रव्य रससे, कोई वीर्य से, कोई गुणसे, कोई विपाकसे एवम् कोई प्रभावसे अपनी क्रियाको करते हैं॥९६॥ इन रस आदिकोंकी साम्यतामें विपाकक्रिया करनेमे रससे बलवान् है।वीर्य - रस, विपाक इन दोनोंसे बलवान् है एवम् प्रभावरस, वीर्य, विपाक इन तीनोंसे बलवान् है। इस प्रकार रसादिकोंमे पहिलेसे सदूरी किया करनेमें गुणकी अधिकतारखता है॥९७॥ इस प्रकार विपाक और वीर्य एवम प्रभावका वर्णन किया गया है॥९८॥
मधुरादिरसोंके स्वरूप।
षण्णांरसानांविज्ञानमुपदेक्ष्याम्यतःपरम्।स्नेहनप्रीणनाह्लादमार्दवैरुपलभ्यते॥९९॥ मुखस्थोमधुरश्चास्यंव्याप्नुवँलिम्पतीवच। दन्तहर्षान्मुखस्रावात्स्वेदनान्मुखबोधनात्। विदाहाच्चास्यकण्ठस्यप्राश्यैवाम्लंरसंवदेत्॥१००॥
अब आगे ६ प्रकारके रसोंके विज्ञानका वर्णन करते हैं। जैसे मधुर रस स्नेहन,प्रीणन, आह्लादन, मधुर यह गुण मधुर पदार्थके मुखमें रखते ही प्रतीत होने लगते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मुखमें मधुर रस मानो लिपसा गया।इन लक्षणों से मधुर रसका ज्ञान होता है जैसे अम्लरस-मुख में धारण करते ही दंतहर्ष होना, मुखसे स्राव होना, पसीने आना, मुखका उद्धोधन होना, खाते ही कण्ठ मेंसे दाह सा निकलना इन लक्षणोंसे खट्टे रसका विज्ञान होता है॥९९॥१००॥
प्रलीयनक्लेदविष्यन्दलाघवंकुरुतेमुखे।
यःशीघ्रंलवणोज्ञेयःसविदाहान्मुखस्यच॥१०१॥
जो मुखमें देते ही झट लीन होजाय और गीलापन होकर लार बहनेलगे, शीघ्र लाघवताको करे, तथा मुखमें दाहको करे उसको लवणरस कहते हैं॥१०१॥
संवेजयेद्योरसानांनिपातेतुदतीवच।
विदहन्मुखनासाक्षिसंस्रावीसकटुःस्मृतः॥१०२॥
जो रस मुखमें डालते ही घबराहट सी पैदा करे,जीभमें सईसी चुभे, मुख दाह और चरचराइट उत्पन्न करे एवम् मुख, नासिका, और नेत्रमेंसे पानीका स्राव करेउसको कटु रस कहते हैं॥१०२॥
प्रतिहन्तिनिपातेयोरसनंस्वदतेनच।
सतिक्तोमुखवैषद्यशोषप्रह्लादकारकः॥१०३॥
जो रस जीभ पर गिरते ही जीभको विगाडे और स्वाद बुरा प्रतीत हो और जीभको तथा मुखको विपद और शोषण करे एवम् मुखको कडुआ बनादे उसको तिक्त रस कहते हैं॥१०३॥
वैषद्यस्तम्भजाड्यैर्योरसनंयोजयेद्रसः। बध्नातीवचयःकण्ठंकषायःसविकास्यपिइति॥१०४॥
जो रस जीभको विषद, स्तम्भ, जडतायुक्त करे वाणी और कण्ठको जकडसा देवे एवम विकाशी हो उसको कषाय (कसैला) रस कहते हैं॥१०४॥
अग्निवेशका प्रश्न।
एवंवादिनंभगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच।भगवन् श्रुतमेतदवितथमर्थसम्यद्युक्तंभगवतोयथावद्द्रव्यकर्माधिकारेवचः
परन्त्वाहारविकाराणांवैरोधिकानांलक्षणमनतिसंक्षेपेणोपदिश्यमानंशुश्रूषामहेति॥१०५॥
इस प्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन् द्रव्यकर्माधिकारमें आपने जो कुछ उपदेश किया है यह यथार्थ और श्रेष्ठ एवम् सर्वगुणसम्पन्न उपदेश, श्रवण कर लिया है। अब कृपा कर आहारके विषयमं विकारकारक तथा विरुद्ध रसोका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।इस विषय में आपके उपदेश किये लक्षण श्रवण करने की इच्छा है॥१०५॥
आत्रेयका उत्तर।
तमुवाचभगवानात्रेयः।देहधातुप्रत्यनीकभूतानिद्रव्याणिदेहधातुविरोधमापाद्यन्तेपरस्परविरुद्धानिकानिचित्संयोगात्संस्कारादपराणिदेशकालमात्रादिभिश्चापराणितथास्वभावादपराणि॥१०६॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान् अग्निवेशसे कहने लगे कि देह और धातुओंसे प्रतिकूल जितने ही द्रव्य हैं वह सब देह और धातुओंसे विरोधको उत्पन्न करते हैं। बहुतसे द्रव्य ऐसे भी हैं जो आपस में संयोग विरोधी होनेसे देहधातुओमे विकारको उत्पन्न करते हैं एवम् कोई गुणविरुद्ध होनेसे, कोईसंयोगविरुद्ध होने से कोई संस्कारविरुद्ध होनेसे रोगोत्पादक होते हैं तथा देश, काल, मात्रा आदि के विरुद्ध होने से भी द्रव्यशरीर और धातुओंसे विरोधी होता है। कोई ऐसे द्रव्य भी हैं जो स्वभावसे ही विरुद्ध हो॥१०६॥
तत्रयान्याहारमधिकृत्यभूयिष्ठमुपयुज्यन्तेतेषामेकदेशंवैरोधिकमधिकृत्योपदेक्ष्यामः॥१०७॥
उनमे जो द्रव्य सदैव आहारमें भोजनके उपयोगमें लिये जाते हैं उनके एकांश विरोधकारक होनेका वर्णन करते हैं॥१०७॥
संयोग विरुद्ध आहार।
नमत्स्यान्पयसासहाभ्यवहरेदुभयंह्येतन्मधुरंमधुरविपाकान्महाभिष्यन्दिशीतोष्णत्वाद्विरुद्धवीर्य्यंविरुद्धवीर्य्यत्वाच्छोणितप्रदूषणायमहाभिष्यन्दित्वान्मार्गोपरोधायच॥१०८॥
मछलियोंको दूधके संयोगसे सेवन करनेसे विरोध आजाता है, क्योंकि यह दोनों मधुर हैं और मधुरविपाकवाले हैं। तथा अभिष्यंदी हैं परन्तु शीत और उष्णवीये होने से विरोधी भावको प्राप्त हो रक्तको दूषित करते हैं और मल अभिष्यन्दी होनेसे मार्गोको रोकदेते हैं। इसीलिये वीर्य गुण विरुद्ध होनेसे रक्तको दूषित कर कुष्ठ आदि रोगोंको उत्पन्न करते हैं॥१०८॥
तदनन्तरमात्रेयवचनमनुनिशम्यभद्रकाप्योऽग्निवेशमुवाच। सर्वानेवमत्स्यान्पयसासहाभ्यवहरेत्, अन्यत्रैकस्माच्चिलिचिमात्। सपुनःशकलीसर्वतोलोहितरराजिःरोहितप्रकारःप्रायोभूमौचरतितञ्चेत्पयसांसहाभ्यवहरेन्निः संशयंशोणितजानांविबन्धजानांवाव्याधी-नामन्यतममथवामरणंप्राप्नुयादिति॥१०९॥
इसके उपरान्त आत्रेय भगवान् के इस उपदेशको सुनकर भद्रकाप्य ऋषि अग्निवेश् सेकहनेलगे कि चिलचिमनामक मछलीके सिवाय और मछलियाको दूधकेसंयोगसे चाहे खाया भी जोय परंतु चिलचिम मछलको कभी न खाना चाहिये चिलचिम मछलीके शरीर में कांटे और लालवर्णकी रेखा होती हैं तथा लाहित मछलीके आकार की होती हैं और कीचड पर फिरा करती है यदि उसको दूधके साथ सेवन कियाजाय तो निश्चय ही रक्तजन्य तथा विबंधजनित रोग उत्पन्न होकर खानेवाला मृत्युको प्राप्त होजाय॥१०९॥
नेतिभगवानात्रेयः।सर्वानेवमत्स्यान्नपयसाभ्यवहरेद्विशेषतस्तुचिलिचिमंसहिमहाभिव्यन्दितमत्वात्स्थूललक्षणतरानेतान्व्याधीनुपजनयत्यामविषमुदीरयति च॥११०॥
भगवान् आत्रेय कहने लगे कि किसी भी मछलीको दूधके साथ नहीं खाना चाहिये और चिलचिम मछलीको कभी भूलकर भी दूधके संयोगसे नहीं खाना चाहिये क्योंकि अभिष्यन्दी होनेसे महाव्याधियोंको उत्पन्न करती है तथा शरीर में आम विपका संचार करतीह॥११०॥
ग्राम्यानूपौद कपिशितानिमधुतिलगुडपयो मापमूलकविसर्विरूढधान्यैश्च नैकाअद्यात्। तन्मूलञ्चवाधिर्यान्ध्यवेपथुजाड्यविकलमूकतामैन्मिण्यमथवामरणमाप्नोति॥११९॥
ग्राम्य जीवोका मांस, अनूपसंचारी जीवोंका मांस, जलचर जीवोंका मांस, शहद,तिलं, गुड, दूध, उडद, मूली चिस, विरूढधान्य इन सबको मिलाकर एक समय भक्षण नहीं करना चाहिये । ऐसा करनेसे मनुष्य बहरापन, अंधता, कम्प, जडता,विकलता, मूकता, सिनमिनता अथवा मृत्युको प्राप्त होता है॥११९॥
नपौष्करंरोहिणीकंवाशाकंनकपोतान्सापतैलभृष्टान्मधुपयोभ्यांसहाभ्यवहरेत्। तन्मूलंहिशोणिताभिष्यन्दधमनीप्रतियापस्मारशंखकगलगण्डरोहिणीकानामन्यतमंप्राप्नोत्यथवामरणमिति॥११२॥
शहद और दूध के साथ पुष्करपत्र और रोहिणीका साग नहीं खाना चाहिये। सरसों के तेल में भूना कपोतका मांस दूध और शहद के साथ नहीं खाना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यके शरीरमे रक्तका क्लेद, धमनियोंका फड़कना, अपस्मार,कनपटीके रोग, गलगण्ड और रोहिणी आदि रोग उत्पन्न होते हैं अथवा मृत्युको प्राप्त होता है॥११२॥
नमूलकलशुनकृष्णगन्धार्जकसुमुखसुरसादीनिभक्षयित्वापयःसेव्यंकुष्ठाबाधभयात्॥११३॥
मूली, लहसन, काली तुलसी, श्वेत तुलसी, वनतुलसी आदि खाकर ऊपरसे दूध पीना कुष्ठरोगको उत्पन्न करता है। इसलिये ऐसा न करे॥११३॥
नजातुशाकंनलिकुचंपकंमधुपयोभ्यांसहोपयोज्यम्। एतद्धिमरणायाथवाबलवर्णतेजोवर्थ्यांपरोधायालघुव्याधयेषाण्ड्यायच॥११४॥
संपूर्ण शाक तथा कटहर, शहद इन सबको दूधके साथ मिलाकर नहीं खाना चाहिये ऐसा करनेसे मृत्यु होती है अथवा वल, वर्ण, तेज और वीर्य नष्ट होते हैं और महारोग तथा नपुंसकता उत्पन्न होती है। कोई कहते हैं कि मूलमें जातूशाक जो लिखा है वह वांसकी कोपलका वाचक है॥११४॥
तदेवलिकुचपक्कंन मापसूपगुडसर्पिभिः सहोपयोज्यंवैरोधकत्वात्॥११५॥ तथानातकमातुलुङ्गालकुचकरमर्दमोचदन्तशठबदरकोशाम्रभव्यजाम्बवकपित्थतिन्तिडीकपारावताक्षोटपनसनालिकेरदाडिमामलकान्येवम्प्रकाराणिचान्यानिसर्वचाम्लंद्रव्यमद्रवंचपयसासहविरुद्धम्॥११६॥
** **इसी प्रकार पके हुए कटहरको उडदकी दाल, गुड, और घीके संग नहीं खानाचाहिये क्योंकि यह भी विरोधकारक हैं॥११५॥ अम्बाडा, विजौरा, कटहर,करौंदा, मांच ( सहॅजनेकी फली), जंभीरी नींबू, चेर, कोशाम्र, भव्यफल (कमरख),जामुन, कैथ, इमली, पारावत (लवलीफल) अखरोट, पीलू, वडहर, नारियल, अनार,ऑवले एवम् जितने प्रकारके खटाई तथा खट्टे फल तथा कांजी आदि द्रवपदार्थ है उन्हें दूध के साथ नहीं खाना चाहिये॥११६॥
कंगुवरकमकुष्ठककुलत्थमाषनिष्पावाः पयसासहविरुद्धाः पद्मोतरिकाशाकंशार्करोमैरेयोमधुचसहोपयुक्तंविरुद्धंवातञ्चातिकोपयति॥११७॥ हारिद्रकःसर्षपतैलभृष्टोविरुद्धपित्तञ्चातिकोपयतिश्लेष्माणंचातिकोपयति पायसोमन्थानुपानोविरुद्धः। उपोदिकातिलकल्कसिद्धाहेतुरतीसारस्य॥११८॥ वलाकावारुण्याकुल्माषैरपिविरुद्धा।सैवशूकरवसापरिभृष्टासद्योव्यापादयति॥११९॥
कंगुधान्य, वरक (चीनाअथवा वनमूल) धान्य, मोठ, कुलयी, उडद, मदर इन सवको भी दूधके साथ मिलाकर नहीं खाना चाहिये। कसोमाका साग, शर्करा से बने मद्य, और शहद तथा मैरेय मद्य इन सबको एकसाथ मिलाकर खानेसे विरुद्ध भोजन होता है तथा वायुका अत्यन्त कोपकारक है॥११७॥ हारिद्रकको सरसोंके तेल में भूनकर खाना विरुद्ध हैं और पित्तको कुपित करता है जलमें मिलेहुए घी और सत्तू खाकर ऊपरसे खीर खाना अनुपान विरुद्ध है तथा कफको अत्यन्त कुपित करता हैं। तिलके कल्कम सिद्ध किया हुआ पोईका साग अतिसारको उत्पन्न करता है॥११८॥वारुणी मद्यके साथ एवम् कुल्माषके साथ बगुलेका मांस विरुद्ध हैयदि वह वगुलेका मांस सूअरकी चर्बीमें भूजकर सायाजाय तो शीघ्र प्राणोंको नष्ट करता है॥११९॥
मायूमांसमेरण्डसीसकासक्त मेरण्डाग्निप्लुसद्योव्यापादयति॥१२०॥तदेवभस्मपांसुपरिध्वस्तंसक्षौद्रंमरणाय॥१२१॥ हारीतकमांसंहारिद्राग्निष्टंसद्योव्यापादयति। मत्स्यतैलानिस्ताडन्सिद्धाः पिप्पल्यस्तथाकाकमाचीमधुचमरणाय॥१२२॥मधुचोष्णमुष्णार्त्तस्यचमधुमरणाय॥१२३॥
मोरका मांस एरंडतैलमें एरंडकी लकडीके आगसे भूंजाहुआ शीघ्र माणोंको नष्ट करता है। हरियलपक्षीका मांस कदम्बकी लकडीकी आगसे भूंजा हुआ प्राणनाशक होता है। एवम् हरियल पंक्षीका मांस भस्म और धूल तथा शहदयुक्त होनेसे माणनाशक होता है। मछलकि तेलवाले पात्र में सिद्ध कीहुई पिपली तथा मकोह शहद के साथ खानेसे मृत्युकारक होते हैं॥१२०॥१२१॥१२२॥शहदको गर्मकर खाना अथवा गर्मीसे पीडितको गर्मकर शहद देना मृत्युकारक होता है॥१२३॥
मधुसर्पिपीतुल्येमधुवारिचान्तरिक्षंसमधृतंमधुपुष्करवीजंमधुपीत्वोष्णोदकंभल्लातकोष्णोदकम्॥१२४॥
शहद और घी दोनों बराबर मिलाकर खाना, अथवा शहद और आकाशका जल या शहद और कमलगट्टे अथवा शहद पीकर गर्म जल पीना एवम् भेलावा खाकर गर्म जल पीना विषके समान होताहै॥१२४॥
तक्रसिद्धःकम्पिल्लकःपर्युषिताकाकमाची,अङ्गारशूल्योभासइतिविरुद्धानीत्येतद्यथाप्रश्रमभिनिर्दिष्टम्॥१२५॥
कमीलेको छाछमें सिद्ध करके खाना, बासी मकोयका साग और सींखचे (शूलमंतपाया मांस) ये विरुद्ध भोजन हैं। इस प्रकार जैसे तुमने पूछा वैसा हमने यथोचित सति पर विरुद्ध आहारका वर्णन करदिया है॥१२५॥
भवन्ति चात्र श्लोकाः।
यत्किञ्चिद्दोषमासाद्यननिर्हंरतिकायतः।
आहारजातंतत्सर्वमहितायोपपद्यते॥१२६॥
यहां श्लोक हैंः—कि जो आहार दोषोको कुपित कर देहसे बाहर नहीं निकालता वह सबअहितकर्त्ताजानना चाहिये॥१२६॥
यच्चापिदेशकालाग्निसात्म्यासात्म्यानिलादिभिः। संस्कारतोवीर्य्यतश्चकोष्ठावस्थाकमैरपि॥१२७॥ परिहारोपचाराभ्यां पाकात्संयोगतोऽपिच। विरुद्धंतच्चनहितंहृत्संपद्विधिभिश्चयत्॥१२८॥
जो द्रव्य देश, काल और अग्नि, सात्म्य, असात्म्य इनसे विरुद्ध हो और वायु आदिको करके प्रतिकूल हो तथा संस्कारसे अथवा वीर्यसे अथवा परिपाकसे, परिहार अथवा उपचारसे, परिपाकसे अथवा - संयोगसे अथवा हार्दिक सम्पत्तिसे विरुद्ध हो वह सब पदार्थ हानिकारक और रोगोत्पादक होते हैं॥१२७॥१२८॥
विरुद्धंदेशतस्तावद्र्क्षतीक्ष्णादिधन्वनि।
आनूपेस्निग्धशीतादिभेषजंयन्निषेव्यते॥१२९॥
अब देशविरुद्धोंका वर्णन करते हैं। रूक्ष और तीक्ष्ण पदार्थ मिलाकर सेवन करना धन्व (जलरहित ) देशमं विरुद्ध है। स्निग्ध और शीत आदि पदार्थ मिलाकर खाना अनूपदेश में विरुद्ध है॥१२९॥
कालतोऽपिविरुद्धंयच्छीतरूक्षादिसेवनम्।
शीतेकाले तथोष्णेचकटुकोष्णादिसेवनम्॥१३०॥
शीत और रूक्ष पदार्थोंको मिलाकर शीतकाल में सेवन करना काल विरुद्ध है तथा उष्ण, कटु पदार्थोंका उष्णकाल में सेवन करना कालविरुद्ध होता है॥१३०॥
विरुद्धमन लेतद्वन्नानुरूपंचतुर्विधे। मधुसर्पिःसमघृतंमात्रया तद्विरुध्यते॥१३१॥ कटुकोष्णादिसात्म्यस्यस्वादुशीतादिसेवनम्।यत्तत्सात्म्यविरुद्धन्तुविरुद्धत्वनलादिभिः॥१३२॥
जो ४ प्रकारकी अग्निसे प्रतिकूल हो वह अग्निविरुद्ध होता है। मधु और घृतको समान भांगमें मिलाकर खाना मात्राविरुद्ध होता है।उष्ण प्रकृतिके मनुष्योंको चरपरा आदि उष्ण पदार्थ सात्म्य विरुद्ध है।एवम् शीतल और मधुर आदि सेवन असात्म्य विरुद्ध है। जो पदार्थ अग्नि आदिसे विरुद्ध होता है वह सब ही सात्म्य विरुद्ध जानना॥१३१॥१३२॥
यासमान गुणाभ्यासविरुद्धान्नौषधक्रिया।
संस्कारतोविरुद्धन्तद्यद्भोज्यविषवद्वजेत्॥१३३॥
जो द्रव्य गुणसे और अभ्यास से विरुद्ध हो वह औषध क्रिया में नहीं लेना चाहिये क्योंकि गुण, अभ्यास, संस्कार और प्रकृतिसे विरुद्ध पदार्थ विपके समान मनुष्यको मारडालनेवाले होते हैं॥१३३॥
** ऐरण्डसीसकासक्तंशिखिमांसंतथैवाहि। विरुद्धंवीर्य्यतोज्ञेयं वीर्य्यतःशीतलात्मकम्॥१३४॥ तत्संयोज्योष्णवीर्येणद्रव्येणसहसेव्यते। क्रूरकोष्ठस्यचात्यल्पमंदवीर्य्यमभेदनम्॥१३५॥ मृदुकोष्ठस्य गुरुचभेदनीयंतथावहु। एतत्कोष्ठविरुद्धन्तुविरुद्धं स्यादवस्थया॥१३६॥ श्रमव्यवायव्यायामसक्तस्यानिलकोपनम्। निद्रालसस्यालसस्य भोजनंश्लेष्मकोपनम्॥१३७॥**
एरंडके तेल में मिला हुआ - मोरका मांस संस्कारविरुद्ध होता है। उष्णवीर्य द्रव्यके साथ शीतवीर्य द्रव्यको मिलाकर देना वीर्यविरुद्ध कहा जाता है। क्रूरकोष्ठवालेको मन्दवीर्य अभेदनकर्त्ता पदार्थ एवम मृदुकोष्ठवालेको भारी और भेदनकर्ता पदार्थ तथा बहुतसा पदार्थ कोष्ठविरुद्ध कहा जाता है। श्रम, मैथुन और व्यायामसे थकेहुए मनु व्यको वातकारक पदार्थ, निद्रा और आलसवालेको कफकारक भोजन अवस्थाविरुद्ध कहा जाता है॥१३४॥१३५॥१३६॥१३७॥
यच्चानुत्सृज्यविण्मूत्रंभुंक्तेयश्चानुभुक्षितः।
तच्चकर्मविरुद्धंस्याद्यच्चात्तिक्षुद्वशानुगः॥१३८॥
जो मनुष्य मल, मूत्रके त्याग किये बिना अथवा बिना भूखके भोजन करता है तथा अत्यन्त भूख लगने पर भोजन नहीं करता है। उसको कर्मविरुद्ध कहते हैं॥१३८॥
परहारविरुद्धन्तुवराहादीन्निषेव्ययत्।
सेवेतोष्णंघृतादींश्चपीत्वाशीतंनिषेवते॥१३९॥
वाराह आदिका मांस खाकर गर्म पदार्थोका सेवन करना और घृत आदि पदार्थों को पीकर शीत पदार्थों का सेवन करना भी आहारविरुद्ध कहा जाता है॥१३९॥
विरुद्धंपाकतश्चापिदुष्टदुर्दारुसाधितम्।
अपक्वतण्डुलात्यर्थपक्कदग्धंचयद्भवेत्॥१४०॥
विषैली लकडियोंकी अग्निसे सिद्ध किया पदार्थ एवम् कच्चे, जले भुने चावल आदिक पाकविरुद्ध कहे जाते हैं॥१४०॥
संयोगतोविरुद्धंतद्यथाम्लंपयसासह।
अमनोरुचितंयच्चहृद्विरुद्धंतदुच्यते॥१४१॥
खट्टे पदार्थोंको दूध में मिलाकर खाना संयोगविरुद्ध होता है। मनको बुरा लगने वाला पदार्थ हृदयसे विरुद्ध कहा जाता है॥१४१॥
सम्पद्विरुतद्विद्यादसञ्जातरसन्तुतत्।
अतिक्रान्तरसंवापिविपन्नरसमेववा॥१४२॥
जिस पदार्थमे यथोचित परिपक्व होकर रस बनगया हो उसको सम्पदविरुद्ध कहते हैं। एवम् जिसका रस खराब होगयाहो अथवा नष्ट होगयाहो उसको भी सम्पद विरुद्ध कहते हैं॥१४२॥
ज्ञेयंविधिविरुद्धन्तुभुज्यतेनिभृतेनयत्।
तदेवंविधमन्नंस्याविरुद्धमुपयोजितम्॥१४३॥
जो मनुष्य भोजन किया हुआ होने पर फिर भोजन करे अथवा कच्चा भोजन करेया स्वेदन आदिसे नम्र होनेपर एकदम अंटस्ट भोजन करर्जाय उसको विधिविरुद्ध कहते हैं। इस प्रकार भोजनकी विरुद्धताका वर्णन कियागयाहै॥१४३॥
सात्म्यतोऽल्पतयावापिदीप्ताग्नेस्तरुणस्यच।
स्नेहव्यायामवलिनोविरुद्धंवितथंभवेत्॥१४४॥
अपनी प्रकृतिसे किंचित् विरुद्ध पदार्थ और बलवान्अग्निवाले पुरुष तथा तरुण पुरुष एवम् स्नेह या व्यायाम आदिसे बलवान् पुरुषको मी प्रकृतिसे किंचित् विरुद्ध होने पर भी हानिकारक होताहै॥१४४॥
विरुद्ध अन्न सेवनके कर्म।
पाण्ड्यान्ध्यवीसर्पदकोदराणांविस्फोटकोन्मादभगन्दराणाम्।मूर्च्छामदाष्मानगलग्रहाणांपाण्ड्वामयस्यामविषस्यचैव॥१४५॥किलासकुष्ठग्रहणीगदानांशोषास्त्रपित्तज्वरपीनसानाम्।सन्तानदोषस्यतथैवमृत्योर्विरुद्धमन्नंप्रवदन्तिहेतुम्॥१४६॥
विरुद्ध भोजन करने से नपुंसकता, अंधापन, विसर्प, उदररोग, विस्फोटकरोग उन्माद, भगन्दर, मूर्च्छा, मद, आध्मान, गलग्रह, पांडु, विषैली आम, किलास,कुष्ठ, ग्रहणी, शोष, रक्तपित्त, ज्वर,प्रतिश्याय, त्रिदोष तथा संतानदोष एवम् मरणहोताहै॥१४५॥१४६॥
विरुद्ध अन्नजन्यरोगोपाय।
एषाञ्चखलुपरेषाञ्चवैरोधिकनिमित्तानांव्याधीनामिमेभावाःप्रतिकाराः। यथावमनंविरेचनञ्चतद्विरोधिनाञ्चद्रव्याणांसंशमनार्थमुपयोगस्तथाविधैश्चद्रव्यैःपूर्वमभिसंस्कारःशरीरस्येति॥१४७॥
भवतिचात्र।
विरुद्धाशनजानरोगान्प्रतिहन्तिविरेचनम्।
वमनंशमनञ्चैवपूर्ववाहितसेवनम्॥१४८॥
ऊपर कहे हुए सब रोगोंके तथा विरुद्ध भोजन करनेसे उत्पन्न हुए अन्यरोगोंके भी शान्तिकारक उपाय करनेसे वह सव रोग नष्ट हो जाते हैं। वह उपाय यह हैं चमन,विरेचन एवम् विरोधी भोजनको परिपाक करनेवाले तथा उनके दोषोंको शान्त करनेवाले संशमन हितकर होते हैं। जिस विरुद्ध भोजनका प्रथमसे ही अभ्यास हो गया हो वह विरुद्ध भोजन अधिक अनिष्टकारक नहीं होता। इसी लिये संक्षेपसे कहा गया है कि विरुद्ध भोजनसे उत्पन्न हुए जो रोग हैं वह तो - वमन, विरेचन और शमन द्रव्यद्वारा शान्त होसकते हैं और जिस विरुद्ध भोजनका शरीरको सदासे अभ्यास होगया हो वह अनुकूल होजानेसे हानिकारक नहीं होता॥१४७॥१४८॥
तत्रश्लोकाः।
मतिरासीन्महर्षीणांयायारसविनिश्चये।द्रव्याणिगुणकर्मभ्यांद्रव्यसंख्यारसाश्रयाः॥१४९॥ कारणंरससंख्याचरसानुरसलक्षणम् परादीनांगुणानाञ्चलक्षणानिपृथक्पृथक्॥१५०॥ पञ्चात्मकानांषट्त्वञ्चरसानांयेनहेतुना। ऊर्द्धानुलोमभाजश्च यद्गुणातिशयाद्रसाः॥१५१॥ षण्णांरसानांषट्चैवसुविभक्ताविभक्तयः। उद्देशश्चापविद्धश्चद्रव्याणांगुणकर्मणि॥१५२॥ प्रवरावरमध्यत्वंरसानांगौरवादिषु। पाकप्रभावयोर्लिङ्गवीर्य्यसंख्याविनिश्चयः॥१५३॥षण्णामास्वाद्यमानानांरसानां यत्स्वलक्षणम्। यद्यद्विरुध्यतेतस्माद्येन यत्कारिचैवयत्॥१५४॥
वैरोधिकनिमित्तानांव्याधीनामौषधञ्चयत्। आत्रेयभद्रकाप्यीयेतत्सर्वमवदन्मुनिः॥१५५॥
इत्यन्नपानचतुष्कआत्रेयभद्रकाप्यीयोनामषड्विंशोऽध्यायःसमाप्तः॥२६॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैंः- कि इस आत्रेय भद्रकाप्यीय अध्याय रस के विषय में महर्षियोंके मत द्रव्योंके गुण, कर्म, द्रव्यसंख्या, रसका आश्रय, रसोंका कारण, रससंख्या, रस तथा अनुरसके लक्षण, पर, अपरादि-विशेष गुणांका वर्णन,रसोंका पंचभूतात्मक होना और उनके ६ भेद तथा उनका कारण भूतगुणविशिष्ट रसोंसे ऊर्द्धशोधन, और अनुलोमन ६ रसके यथोचित विभाग, द्रव्योके गुण कर्मके सम्बन्धमें उद्देश और अपवाद, गौरव आदि गुणोमे रसोंकी प्रधानता, मध्यता एवम् निकृष्टता, विपाक और प्रभावके लक्षण, वीर्य, संख्या आस्वादन द्वारा ६ रसोंके पृथक्पृथक् लक्षण, जो द्रव्य जिससे मिलाये जानेपर विरुद्ध होजाता है और जो द्रव्य विरुद्ध होनेपर जिस जिस प्रकार विकार करता है एवम् विरुद्ध भोजनसे उत्पन्न है दुए रोगोंकी चिकित्सा यह सब भगवान् पुनर्वसुजीने वर्णन किया है॥१४९॥॥१५०॥१५१॥१५२॥१५३॥१५४॥१५५॥
इति श्रीमहर्षिचरक० प० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायामात्रेयभद्रकाप्यीयोनामपषड्विंशोऽध्यायः॥२६॥
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सप्तविंशोऽध्यायः ।
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अथातोऽन्नपानर्विधिमध्यायंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम अन्न पानविधि नामके अध्याय की व्याख्या करते हैं ऐसा आत्रेय भगवान् कहने लगे ।
अन्नपानकी उत्कृष्टता ।
इष्टवर्णगन्धरसस्पर्शंविधिविहितमन्नपानंप्राणिनांप्राणसंज्ञकानांप्राणमाचक्षतेकुशलाः। प्रत्यक्षफलदर्शनात्तदिन्धनाह्यन्तराग्नेः स्थितिस्तदेवसत्त्वमूर्जयति । तच्छरीरधातुव्यूहबलवर्णेन्द्रियप्रसादकरंयथोक्तमुपसेव्यमानंविपरीतमहितायसम्पद्यते॥१॥
सुन्दर गंधवर्णवाले तथा सुसंपन्न रसवाले और पवित्र स्पर्शयुक्त एवम् यथार्थरीति पर बनाये हुए अन्न पान प्राणियोंके प्राण मानेजातें हैं बुद्धिमानोंका ऐसा कथन ह \। यथार्थ देखने में भी ऐसा ही आता है कि उत्तम आहार ही अंतराग्निके लियेईंधन स्वरूप है एवम् मनुष्योंके प्राणोंको धारण करनेका हेतु है ।उचित रीतिपर सेवन किया हुआ अन्न पान धातुओंको बलवान् करता है तथा वर्णकारक है । इन्द्रियोंको प्रसन्न करता है और अनुचित रीतिपर सेवन किया हुआ हानिकारक होता है॥ १॥
तस्माद्धिताहितावबोधनार्थमन्नपानविधिमखिलेनोपदेक्ष्यामोऽग्निवेश॥२॥
हे अग्निवेश ! अब हम अन्न पानका हित और अहित ज्ञान होनेके लिये संपूर्ण अन्नपान विधिका वर्णन करते हैं॥२॥
अन्नपानादिके स्वाभाविक कर्म।
तत्स्वभावादुदकंक्लेदयति, लवणंविष्यन्दयति, क्षारःपाचयति,मधुसन्दधाति, सर्पिःस्नेहयति, क्षीरंजीवयति, मांसंबृहयति, रसःप्रीणयति, सुराजर्जरीकरोति, शीधुअवधमयति, द्राक्षारसोदीपयति, फाणितमाचिनोति, दधिशोफंजनयति, पिण्याकशाकंग्लपयति, प्रभूतान्तर्मलोमाषसूपः, दृष्टिशुकघ्नक्षारः,प्रायःपित्तलमम्लमन्यत्रमधुनः पुराणाच्चशालियवगोधूमात्, प्रायः सर्वंतिक्तंवातलमवृष्यञ्चान्यत्रवेत्राग्रपटोलात्, प्रायःकटुकंवातलमवृष्यञ्चान्यत्र पिप्पलीविश्वभेषजात्॥३॥
सो उस अन्न पानमे जल स्वभावसे ही क्लेदकारक होता है, लवण विष्यंदकारक होताहै,क्षार पाचनकर्त्ता होता है, शहद व्रणसंधानकारक होता है, घृत स्नेहन है, दूध जीवन हैं,मांस बृंहण है, रस मीणन है, मद्य जीर्णकारी है, सीधु अवधमनकारी है, दाख दीपनकर्ता है, फाणित दोपका मंचय करता है, दही सूजन करता है, पिण्याक तथा शाक ग्लानिकारक होताहै। उडदांका जूस मलको बढानेवाला है। क्षार दृष्टि तथा वीर्यका नाश करता है। खटाई पित्तको उत्पन्न करती है, शहद, पुराने शालिचाबल, यव और गेहूं के सिवाय सर्व प्रकारके मीठे द्रव्य कफोत्पादक होते हैं। इसी प्रकार वेतकी कोंपल और पटोलके सिवाय सब कडुए द्रव्य वायुको बढानेवाले होते एवम् पीपल और सौंठके सिवाय सत्र प्रकार के चरपरे द्रव्य वीर्यनाशक,कुशकर्ता एवम वातल होते है॥३॥
परमतोवर्गसंग्रहेणाहारद्रव्याण्यनुव्याख्यास्यामः॥४॥
अब हम आगे वर्गसंग्रहपूर्वक आहारद्रव्योंकी व्याख्या करते हैं॥४॥
वर्गोंके नाम।
शूकधान्यशमीधान्यमांसशाकफलाश्रयान्। वर्गान्हरितमद्याम्बुगोरसेक्षुविकारिकान्॥५॥ दशद्वौचपरौवर्गौकृतान्नाहारयोगिनाम्।रसवीर्य्यविपाकैश्चप्रभावैश्चोपदेक्ष्यते॥६॥
जैसे शुकधान्यवर्ग, शमीधान्यवर्ग, मांसवर्ग, शाकवर्ग, फलवर्ग, हरितंवर्ग, मद्यवर्ग,जलवर्ग, गोरसवर्ग, इक्षुवर्ग यह अलग अलग दश वर्ग तथा कृतान्नवर्ग, तैलवर्ग और झुण्ठ्यादिवर्ग यह सब आहारके उपयोगी होनेसे रस, वीर्य, विपाक तथा प्रभावसहित वर्णन करते हैं॥५॥६॥
अथ शुकधान्यवर्गः।
रक्तशालिर्महाशालिःकलमःशकुनाहृतः। चूर्णकोदीर्घशूकश्चगौरःपाण्डुकलांगुलौ॥७॥ सुगन्धिकालोहवालाःशालिवाख्याःप्रमोदकाः। पतङ्गास्तपनीयाश्चयेचान्येशालयःशुभाः॥८॥ शीतारसेविपाकेचमधुराःस्वल्पमारुताः।बाद्धाल्पवर्चसःस्निग्धाबृंहणाः शुक्रमूत्रलाः॥९॥
रक्तशालि, महाशालि, कलमशालि, शकुनाहृत चूर्णक, दीर्घशुक, गौर, पाण्डुक, कांगुल, सुगंधिक, लोहवाल, शालिका, शालिव, प्रमोदक, तपनीय, पतंग इनक सिवाय और भी जो उत्तम २ चावलोंकी जातियें हैं वह सब शीतवीर्य, रस और पाकमें मधुर किंचित् वातकारक, मलको बांधनेवाले, अल्पमलकारक, चिकने, बृंहण, वीर्य तथा मूत्रको बढानेवाले होते हैं । प्रायः यह उत्तम जातिके चावलोंके गुण हैं॥७॥८॥९॥
शालिधान्योंके गुण।
रक्तशालिर्वरस्तेषांतृष्णाघ्नस्त्रिमलापहः।
महांस्तस्यानुकलमस्तस्याप्यनुततःपरे॥१०॥
लालरंगके शालिचावल इनमें श्रेष्ठ मानेगयेंहैं तथा तृषा और त्रिदोषको नष्ट करतेहैं। रक्तशालि चावलोंकी अपेक्षा मोटे शालिचावल और मोटे शालिचावलोंकी अपेक्षा कलमचावल हीनगुण होते हैं। इसी प्रकार पहिलेसे दूसरे हीनगुण जानने चाहिये॥१०॥
यवकादिका वर्णन।
यवकाहायनाःपांशुवाप्योनैषधकादयः।
शालीनांशालयःकुर्वन्त्यनुकारंगुणागुणैः॥११॥
यवकधान्य, हायधान्य, पांशुधान्य, तालाबके धान्य, नैषधकधान्य, यह भी सब चावलोंकी जानि यथा गुणागुणकी अपेक्षासे उत्तरोत्तर हीनगुण जानने चाहिये॥११॥
साठीचावलोंके गुण।
शीतःस्निग्धोगुरुःस्वादुत्रिदोषघ्नःस्थिरात्मकः।
षष्टिकःप्रवरोगौरःकृष्णगौरस्ततोऽनुच॥१२॥
षाष्ठिकधान्य–शीतल, चिकने, भारी, मधुर एवम् त्रिदोषनाशक, शरीरको स्थिर करनेवाले होतेहैं। इनमें भी श्वेतवर्णके षाष्टिक चावल उत्तम और कृष्णवर्ण के हीन गुण होतेहैं॥१२॥
वरकोद्दालकौचीनशारदोज्ज्वलदर्दुराः।
गन्धलाःकुरुविन्दाश्चषष्टिकाल्पान्तरागुणैः॥१३॥
वरकधान्य, उद्दालक, चीना, शारद, उज्ज्वल, दुर्दुर, गंधल, कुविन्द आदिक धान्य षाष्टिक चावलोकी अपेक्षा किचित् हीनगुण होते हैं॥१३॥
व्रीहिऔर पाटलके गुण।
मधुरश्चाम्लपाकश्चव्रीहिःपित्तकरोगुरुः।
बहुमूत्रपुरीषोष्मात्रिदोषस्त्वेवपाटलः॥१४॥
व्रीहिधान्य–मधुर हैं, पाकमें अम्ल हैं, पित्तकारक तथा भारी होतेहैं।पाटलधान्य–अधिक मूत्र लानेवाले तथा मलको बढ़ानेवाले एवम गर्मी प्रकट करनेवाले तथा त्रिदोपको कुपित करनेवाले हैं॥१४॥
कोरदूष और श्यामाकके गुण।
सकोरदूषःश्यामाकःकषायमधुरोलघुः।
वातलःकफपित्तघ्नःशीतसंग्राहिशोषणः॥१५॥
कोद्रव और श्यामक धान्य–कसैले, मधुर, हलके, वातकारक, कफपित्तनाशक, शीतल, संग्राही तथा शोषण करनेवाले हैं॥१५॥
हस्तिश्यामाकनीवारतोयपर्णीगवेधुकाः। प्रशातिकाम्भःश्यामाकलौहित्याणुप्रियङ्गवः॥१६॥ मुकुन्दझिण्टिगर्मूटीचरुकावरकास्तथा। शिविरोत्कटजूर्णाह्वःश्यामाकसदृशा गुणैः॥१७॥
हस्तिश्यामाक, नीवार, तोयपर्णी, गवेधुक, प्रशातिक, जलजश्यामक, लौहित्य श्यामक, अनुश्यामक, कंगुनी, मुकुंद, झिटी, गर्मुटी, चरुका, वरका, शिविर, उत्कट, जवार इन सबके गुण श्यामाक (सौंक ) चावलके समान जानना॥१६॥१७॥
यवके गुण।
रूक्षःशीतोगुरुःस्वादुःबहुवातशकृद्यवः।
स्थैर्य्यकृत्सकषायस्तुवल्यःश्लेष्मविकारनुत्॥१८॥
जब–रूखे, शीतल, गुरु, स्वादु, बहुत वायु और बलके करनेवाले, स्थिरताकारक, कषाय, बलकारक एवम् कफविकारनाशक हैं॥१८॥
वेणुयवके गुण।
रूक्षःकषायानुरसोमधुरःकफपित्तहा।
मेदःक्रिमिविषघ्नश्चबल्योवेणुयवोमतः॥१९॥
वेणुयव–रूक्ष, कसैले, मधुर, कफपित्तनाशक, मेदको हरनेवाले, कृमि तथा विषको नाश करनेवाले एवम् बलकारक होतेहैं॥१९॥
गेहूंके गुण।
सन्धानकृद्वातहरोगोधूमःस्वादुशीतलः।
जीवनोबृंहणोवृष्यःस्निग्धःस्थैर्य्यकरोगुरुः॥२०॥
गोधूम (गेहूं)–संधानकर्त्ता, वातहर, स्वादु, शीतल, जीवनकर्त्ता, पुष्टकर्त्ता, वीर्यवर्द्धक, स्निग्ध, दृढकारक एवम् भारी होताहै॥२०॥
नान्दीमुख और मधुलीके गुण।
नान्दीमुखीमधूलीचमधुरस्निग्धशीतले। इत्ययंशूकधान्यानां पूर्वोवर्गःसामाप्यते॥२१॥ इतिशुकधान्यवर्गः।
नान्दीमुखी तथा मधूलिका (गेहूंका भेद)–मधुर स्निग्ध और शीतल होतेहैं। इस प्रकार यह शूकधान्योंका वर्ग समाप्त हुआ॥२१॥
अथशमीधान्यवर्गः।
मूंगके गुण।
कषायमधुरोरूक्षःशीतःपाकेकटुर्लघुः।
विषदःश्लेष्मपित्तघ्नोमुद्गःसूप्योत्तमोमतः॥२२॥
सब प्रकारके शर्माधान्योंमें मूंग उत्तम होताहै । मूंग–कषाय, मधुर, रूक्ष, शीतल, पाकमें कटु, इलका, विशद और कफपित्तनाशक होताहै॥२२॥
राजमाषके गुण।
रूक्षश्चैवकषायश्चवातलः श्लेष्मपित्तहा।
विष्टम्भीचाप्यवृष्यश्चराजमाषः प्रकीर्तितः॥२३॥
राजमाष (लोबिया)–खर, रुचिकारक, कफ, शुक्र तथा अम्लपित्त करनेवाला है। एवम् स्वादु, वातकारक, रूक्ष, कषाय, विशद और गुरु होताहै॥२३॥
उरदके गुण।
बृष्यःपरंवातहरःस्निग्धोष्णमधुरोगुरुः।
बल्योबहुमलःपुंस्त्वंभाषःशीघ्रंददातिच॥२४॥
उडद–बृष्य, वायुनाशक, स्निग्ध, उष्ण, मधुर, गुरु, बल्य, बहुत मलका करनेवाला, शीघ्र पुरुषत्वको देनेवाला होताहै॥२४॥
कुलथीके गुण।
उष्णाःकषायाःपाकेऽम्लाःकफशुक्रानिलापहाः।
कुलत्थाग्राहिणःकासहिक्काश्वासार्शसांहिताः॥२५॥
कुल्थी–गर्म, कसैली, पाकमें अम्ल, कफ, शुक्र एवम् वायु इन तीनोको नष्ट करनेवाली है। संग्राही है तथा कास, हिक्का, श्वास एवम् अर्शरोगमें हितकारक होती है॥२५॥
मोंठके गुण।
मधुरामधुराःपाकेग्राहिणोरूक्षशीतलाः।
मकुष्ठकाःप्रशस्यन्तेरक्तपित्तज्वरादिषु॥२६॥
मोठ–रस और पाकमें मधुर, ग्राही, रूखा, शीतल, रक्तपित्तनाशक एवम् ज्वरादिरोगोंमें हितकारक होता है॥२६॥
चनाके गुण।
चणकाश्चमसूराश्चखण्डिकाःसहरेणवः। लघवःशीतमधुराः संकषायाविरूक्षणाः॥२७॥ पित्तश्लेष्मणिशस्यन्तेसूपेष्वालेपनेषुच। तेषांमसूरःसंग्राहीकषायोवातलः परम्॥२८॥
चना, मसुरी, दोनो प्रकारके मटर–यह लघु, शीतल, मधुर, कषाय, रूक्ष एवम्पित्तकफ के विकारोमें इनका यूषऔर आलेपन उत्तम कहाजाताहै।इनमें मसुरी संग्राही और कषाय तथा चातल होती है॥२७॥२८॥
तिलके गुण।
स्त्रिग्धोष्णमधुरस्तीक्ष्णःकषायःकटुकस्तिलः।
त्वच्यःकेश्यश्चबल्यश्चातःकफपित्तकृत्॥२९॥
तिल–चिकने, उष्ण, मधुर, तीक्ष्ण, कषाय, कटु, त्वचाको सुन्दर बनानेवाले, केशोको बढ़ानेवाले, बलकारक, वातनाशक तथा कफपित्तको उत्पन्न रनेवाले हैं॥२९॥
शिम्बीके गुण।
गुर्व्योऽथमधुराःशीताबलघ्नारूक्षणात्मिकाः सस्नेहाबलिभिर्भोज्याविविधाःशिम्बिजातयः॥३०॥शिम्बीरूक्षाकषाया च कोष्ठेवातप्रकोपनी॥ न च वृष्या नचक्षुष्या विष्टभ्य च विपच्यते॥३१॥
सब प्रकारकी शिम्बी (सेम)–भारी, मधुर, शीतल, बलघ्न, रूक्षस्वभाववाली, स्नेहयुक्त, बलवान् पुरुषोंके खानेयोग्य होती है॥३०॥ सेम–रूक्ष, कषाय, कोष्ठमें वायुको कुपित करनेवाली, शरीरको दुर्बल करनेवाली, विष्टम्भकारक, दुर्जर तथा नेत्रोंकी हितकारी नहीं है॥३१॥
अरहर आदिके गुण।
आढकीकफपित्तघ्नीवातलाकफवातनुत्। अवलगुजःसैडगजोनिष्पावावातपित्तलाः॥३२॥ काकाण्डोलात्मगुप्तानांमाषवत्फलमादिशेत्। द्वितीयोऽयंशमीधान्यवर्गःप्रोक्तोमहर्षिणा॥३३॥
इतिशमीधान्यवर्गः ।
अरहर–कफ और पित्तको नष्ट करनेवाली और वातकारक होती हैं। बावचीके बीज–वात और कफको नाश करते हैं।मनवाड (चक्रमर्द) के बीजमें भी यही गुण हैं। निष्पाव (सेमविशेष) वातपित्तको करनेवाला है। कोलसिम्बी और कोंचके बीजो में भी उडदोंके समान गुण जानना। इस प्रकार, महर्षि आत्रेयजीने यह शमीधान्यवर्गनामक दूसरा वर्ग कथन किया॥३२॥३३॥
अथमांसवर्गः।
प्रसह पशु और पक्षियों के नाम।
गोखराश्वतरोष्ट्राश्वद्वीपिसिंहर्क्षवानरा।वृकोव्याघ्रस्तरक्षश्चबभ्रुमार्जारमूषिकाः॥३४॥ लोपाकोजम्बुकःश्येनोवान्तादश्चाषवायसौ। शशघ्नीमधुहाभासोगृध्रोलूककुलिङ्गकाः॥३५॥ धूमीकाकुररश्चेतिप्रसहामृगपक्षिणः॥३६॥
गाय, गदहा, घोडा, ऊंट और शार्दूल सिंह, रीछ, बन्दर, भेडिया, बवेरा, तरख, नेवला, बिल्ला, मूसा, लोपाक, गीदड, शिकरा, कुत्ता, नीलकंठ, कौआ, बाज, उल्लू, चिडा, झींगर, टटेहरी इन जानवरोंको प्रसह कहाजाता है॥३४॥३५॥३६॥
भूमिशयके नाम।
श्वेतःश्यामश्चित्रपृष्ठःकालकःकाकुलीमृगः। कुचीकाचिल्लकोभेकोगोधाशल्लकगण्डकौ। कदलीनकुलःश्वाविदितिभूमिशयाः स्मृताः॥३७॥
सफेदापक्षी, श्यामा, चित्रपृष्ठ, कालक (सांपविशेष), काकुली मृग, कुचीक, चील, मेढक, गोह, सेह, गण्डक, कदली, नकुल श्वावित् इनको भूमिशय ( विलेशय ) कहते हैं॥३७॥
आनूपजीवोंके नाम।
सृमरश्चमरःखगोमहिषोगवयोगजः।
न्यङ्कुर्वराहश्चानूपामृगाःसर्वेरुरुस्तथा॥३८॥
जंगली सूअर, चमरगऊ, गेंडा, भैंसा, रोझ, हाथी, हरिण, ग्रामशकर, वारहसिघा इन सबको अनूपसंचारी जीव कहते हैं॥३८॥
जलमें सोनेवाले व जलचर पक्षियोंके नाम।
कूर्मःकर्कटकोमत्स्यःशिशुमारस्तिङ्गिलिः। शुक्तिशंखोद्रकुम्भीरचुलुकीमकरादयः॥३९॥ इतिवारिशयाःप्रोक्तावक्ष्यन्तेवारिचारिणः। हंसःक्रौञ्चोबलाकाचबकःकारण्डवःप्लवः॥४०॥ शरारीपुष्कराह्वश्चकेशरीमानतुण्डिकः। मृणालकण्ठोमद्गुश्च कादम्बःकाकतुण्डकः॥४१॥ उत्क्रोशः पुण्डरीकाक्षोमेघरावोऽम्बुकुक्कुटी। आरानन्दीमुखीवाटीसुमुखाःसहचारिणः॥४२॥ रोहिणीकामकालीचसारसोरक्तशीर्षकः। चक्रवाकास्तथान्ये चखगाःसन्त्यम्बुचारिणः॥४३॥
कूर्म, कंकडा, मत्स्य, सूंस (सिनसुमार), तिमिंगल मछली, सीप, शंख, उद्र, कुंभीर ( घढ़ियाल ), चिरुकी, मगर इन सबको जलेशय जीव कहते हैं। हंस, क्रौंच, बलाका, काकवक, बगुला, कारण्डव, प्लव, शरारी, पुष्कर, केशरी, मानतुण्डिक, मृणालकंठ, मदगु, कादम्ब, काकतुण्ड, उत्क्रोश, पुण्डरीक, मेघराव, जलकुकुकुट, आरा, नंदीमुखी, वाटी, सुमुखा, सहचारिण, रोहिणी, कामकाली, सारस, रक्तशीर्षक, चकवा यह सब जलचारी कहे जाते हैं तथा और भी जलमैसे मछलियें पकडनेवाले पक्षीविशेष जलचारी कहातेहैं॥३९॥४०॥४१॥४२॥४३॥
जाङ्गल पशुओंके नाम।
पृषतःशरभोवामःश्वदंष्ट्रामृगमातृकाः।शशोरणौकुरङ्गश्चयोकर्णःकोट्टकारकः॥४४॥ चारुष्कोहरिणैणौचशम्बरःकालपुच्छकः। ऋष्यश्चतरपोतश्चविज्ञेयाजाङ्गलामृगाः॥४५॥
चित्रहरण, महाशृंग, हरिण, कस्तूरामृग, श्वदंष्ट्रा, मुगमात्रिका, खरगोश, उरण, कुरंग, गोकर्ण, कोट्टकारक, चारुष्क, हरिण, ताम्रवर्णका हरिण, साबर, कालपुच्छक, ऋष्य, तरपोत इन सबको जंगलके मृग कहते हैं॥४४॥४५॥
विष्किरपक्षियों के नाम।
लावोवर्तीरकश्चैववार्तीकःसकपिञ्जलः। चकोरश्चोपचक्रश्चकुक्कुटोरक्तवर्त्तकः॥४६॥ लावाद्याविष्किरास्त्वेतेवक्ष्यन्तेवर्त्तकादयः। वर्त्तकोवर्त्तिकाचैवबर्हीतित्तिरिकुक्कुटौ॥४७॥ कङ्कसारपदेन्द्राभगोनर्दगिरिवर्त्तकाः। क्रकरोऽवकरचैववराहश्चेतिविष्किराः॥४८॥
लवा, बटेर, वार्तीक, कपिंजल, चकोर, उपचक्र, कुक्कुट, लालवर्त्तक, वर्तिका, बहीं, तित्तरी, मुर्गा, कंक, सारपद, इन्द्राभ, सारस, गिरिवर्त्तक, कुकर, अवकर, वराह इन सबको विष्किर कहते हैं॥४६॥४७॥४८॥
प्रतुदपक्षियों के नाम ।
शतपत्रोभृङ्गराजःकोयष्टीजीवजीवकः। कैरातःकोकिलोऽत्यूहोगोपापुत्रःप्रियात्मजः॥४९॥ लट्वालट्टषकोबभ्रुर्वटहाडिण्डिमानकः।जटीदुन्दुभिवाक्कावलोहपृष्ठकुलिङ्गकाः॥५०॥ कपोतशुकसारङ्गाश्चिरिटीकंकुष्टिकाः सारिकाकलविङ्कश्चचटकोऽङ्गारचूडकः। पारावतः पाण्डविकइत्युक्ताःप्रतुदाद्विजाः॥५१॥
शतपत्र, भृंगराज, कोयष्टी, जीवजीवक, कैरात, कोकिल, अत्यूह, गोपापुत्र, प्रियात्मज, लट्वा, लट्टिषक, नकुल, वटहा, डिंडिमानक, जटी, दुंदुभीवाक, अवलोह, पृष्ठकुलिंगक, कपोत, शुक, सारंग, चिरटी, कंकुयष्टी, सारिका, कलविंक, अंगारचूडक, पारावत, पाण्डवीक इन सब पक्षियोंको प्रतुद कहते हैं तथा द्विज भी कहते हैं॥४९॥५०॥५१॥
प्रसह्यभक्षयन्तीतिप्रसहास्तेनसंज्ञिताः॥५२॥ भूशयाबिलवासित्वादानूपानूपसंश्रयात्। जलेनिवासाज्जलजाजलचर्य्याजलेचराः। स्थलजाजाङ्गलाःप्रोक्तामृगाजाङ्गलचारिणः॥५३॥विकीर्य्यविष्किराश्चेतिप्रतुद्यप्रतुदाःस्मृताः। योनिरष्टविधा त्वेषांमांसानांपरिकीर्त्तिता॥५४॥
जो जीव बलपूर्वक अपने भोजनकी सामग्रीको ग्रहण करके खाते हैं उन सबको प्रसह कहतेहैं जो पृथ्वी में बिल बनाकर रहतेहैं उनको बिलेशय कहतेहैं। जलके समीप वास करनेवाले अनूपसंचारी कहेजातेहैं। जलमें रहनेवालोंको जलेशय कहते हैं। जलमें विचरनेवालोंको जलचर कहतेहैं।स्थलचर जीवोंको जो जंगलमें रहते हैं उनको जांगल कहतेहैं।चोंचसे बखेरकर अथवा पंजोंसे बखेरकर खानेवालोको विष्किर कहतेहैं। कीट आदिकोंको पंजेसे दवाकर चोंचके साथ खानेवालोंको प्रतुद कहतेहै। इस प्रकार मांसोंकी आठ प्रकारकी योनि वर्णन हैं॥५२॥५३॥५४॥
प्रसहादिके मांसका गुण।
प्रसहाभूशयानूपवारिजावारिचारिणः। गुरुष्णस्निग्धमधुरा बलोपचयवर्द्धनाः॥५५॥ वृष्याःपरवातहराःकफपित्ताभिवर्द्धिनः। हिताव्यायामनित्यानांनरादीप्ताग्नयश्चये॥६६॥
इनमें प्रसह, बिलेशय, अनूपसंचारी, जलेशय और जलसंचारी जीवोंका मांस गुरु उष्ण, स्निग्ध, मधुर, बलवर्द्धक, पुष्टिजनक, वीर्यवर्द्धक, परमवातनाशक, कफपित्तवर्द्धक होताहै। व्यायाम करनेवाले और दीप्ताग्नि मनुष्योंको हितकारक है॥५५॥५६॥
प्रसहानांविशेषेणमांसंमांसाशिनांभिषक्। जीर्ण्णाशेग्रहणीदोषशोषार्त्तानांप्रयोजयेत्॥५७॥
वैद्यको उचित है कि पुरानी बवासीर और संग्रहणी तथा शोषसे पीडित मनुष्योंको प्रसहजीवोंका मांस उपयोग करे॥५७॥
लावाद्योवैष्किरोवर्गःप्रतुदाजाङ्गलामृगाः।लघवःशीतमधुराः सकषायाहितानृणाम्॥५८॥ पित्तोत्तरेवातमध्यसन्निपाते कफानुगे। विष्किरावर्त्तकाद्यास्तुप्रसहाल्पान्तरागुणैः॥५९॥
लवासे लेकर विष्किरवर्ग तथा प्रतुद और जांगल जीवोका मांस, हलका, शीतल, मधुर, कषाय होताहै।इन जीवोंके मांसका यूष पित्तप्रधान, वातमध्य, कफहीनसन्निपातमें प्रयोग करना चाहिये। वर्तकसे आदि लेकर विष्किरपक्षियका मांस प्रसह जातियोंके पक्षियोंसे किंचित् अल्पगुणवाला होताहै॥५८॥५९॥
बकरेके मांसका गुण।
नातिशीतगुरुस्निग्धंमांसमाजमदोषलम्।
शरीरधातुसामान्यादनभिष्यन्दिबृंहणम्॥६०॥
बकरेका मांस न तो अधिक शीतल न अधिक भारी एवम् न अधिकस्निग्ध होताहै अतएव दोषोंको कुपित नहीं करता। मनुष्योंके शरीर और धातुके अनुकूल होनेसे अनभिष्यन्दी तथा पुष्टकारी होता॥६०॥
भेडेआदिके मांसके गुण।
मांसमधुरशीतत्वाद्गुरुंबृंहणमाविकम्। योनावजाविकेमिश्रेगोचरत्वादनिश्चिते॥६१॥ सामान्येनोपदिष्टानांमांसानांस्वगुणैःपृथक्।केषाञ्चिद्गुणवैशेष्याद्विशेषउपदेक्ष्यते॥६२॥
भेडका मांस मधुर शीतल होनेसे भारी तथा बृंहण है। बकरा और मेढा यह देखनेमें मिलेजुलेसे होते हैं और ग्राम्य तथा वन्य भेदसे कई प्रकार के होतेहैं। इस लिये इनके गुणोंको उपरोक्त भेदसे अलग अलग जानना। किसी २ जीवोंके मांसमें गुण विशेष होनेसे विशेषरूपसे वर्णन करतेहैं॥६१॥६२॥
मोरके मांसका गुण।
दर्शनश्रोत्रमेधाग्निवयोवर्णस्वरायुषाम्।
बर्हीहिततमोबल्योवातघ्नोमांसशुक्रलः॥६३॥
मोरकामांस–दृष्टि, कान, बुद्धि, अग्नि, अवस्था, वर्ण, स्वर और आयु इनको हितकारी है तथा बलकारक, वातनाशक, मांसवर्द्धक एवम् वीर्यजनक है॥६३॥
हंसके मांसका गुण।
गुरुष्णस्निग्धमधुराःस्वरवर्णबलप्रदाः।
बृंहणाशुकलाश्चोक्ताहंसामारुतनाशनाः॥६४॥
हंसका मांस भारी, गर्म, स्निग्ध, मधुर स्वर और वर्णप्रद, बलकारक, बृंहण, शुक्रजनक, वातनाशक होताहै॥६४॥
मुर्गेके मांसका गुण।
स्त्रिग्धाश्चोष्णाश्चवृष्याश्चबृंहणाःस्वरबोधनाः।
बल्याःपरंवातहराःस्वेदनाश्चरणायुधाः॥६५॥
मुर्गेका मांस–स्निग्ध, उष्ण, वृष्य, बृंहण, स्वरकारक, बलवर्द्धक, वातनाशक एवम् स्वेदकारक होता है॥६५॥
धन्वानूप मांसके गुण।
गुरुष्णमधुरोनातिधन्वानूपनिषेवणात्।
तित्तिरिःसञ्जयेच्छीघ्रंत्रीन्दोषाननिलोल्वणान्॥६६॥
अनूपसंचारी जीवोंका मांस तथा जंगलीजीवोंका मांस न अधिक भारी, न अधिक गर्म और न अधिक मधुर होताहै। तीतरका मांस वातप्रधान सन्निपातको जीतनेवाला है॥६६॥
कपिञ्जलके मांसका गुण।
पित्तश्लेष्मविकारेषुसरक्तेषुकपिञ्जलाः।
मन्दवातेषुशस्यन्तेशैत्यमाधुर्य्यलाघवात्॥६७॥
कपिंजलका मांस–थोडे वायुवाले पित्त कफ विकार तथा रक्तविकारोंको जीतनेवाला है। क्योकि यह शीतल, मधुर और हलका होता है॥६७॥
लवाके मांसका गुण।
लावाःकषायमधुरालघवोऽग्निविवर्द्धनाः।
सन्निपातप्रशमनाःकटुकाञ्चविपाकतः॥६८॥
लवाका मांस–कपाय, मधुर, हलका, अग्निवर्द्धक होताहै तथा सन्निपातको शान्तकरताहै एवम् विपाकमें कटु होताहै॥६८॥
कबूतरोंके मांसका गुण।
कषायमधुराःशीतारक्तपित्तनिबर्हणाः। विपाकेमधुराश्चैवकपोतागृहवासिनः॥६९॥ तेभ्योलघुतराःकिञ्चित्कपोतावनवासिनः। शीताःसंग्राहिणश्चैवस्वल्पयूषाश्चतेमताः॥७०॥
घरमें रहनेवाले कबूतरका मांस–कषाय, मधुर, शीतल, रक्तपित्तनाशक तथा वनके रहनेवाले कबूतरोका मांस–घरके कबूतरोंकी अपेक्षा हलका है, विपाक में मधुर है, शीतल है, संग्राही है, थोडा यूसवाला है॥६९॥७०॥
शुकमांसके गुण।
शुकमांसंकषायाम्लंविपाकेरूक्षशीतलम्।
शोषकासक्षयहितसंग्राहिलघुदीपनम्॥७९॥
तोतेका मांस–कसैला, विपाकमें अम्ल, रूक्ष तथा शीतल है। शोष, खांसी, क्षयमें अच्छा है, संग्राही, हलका और अग्निवर्धक है॥७१॥
खरगोशके मांसका गुण।
कषायविशदोरूक्षःशीतःपाकेकटुर्लघुः।
शशःस्वादुःप्रशस्तश्चसन्निपातेऽनिलावरे॥७२॥
खरगोशका मांस–कसैला, विषद, रूक्ष, शीतल, पाकमें कटु, हलका और मधुर होताहै।इसका मांसरस, हीनबात सन्निपात में हितकर होताहै॥७२॥
चिडियाके मांसके गुण।
चटकामधुराःस्निग्धाबलशुक्रविवर्द्धनाः।
सन्निपातप्रशमनाःशमनामारुतस्यच॥७३॥
चिड़ियाका मांस–मधुर, चिकना, बलवर्द्धक, शुक्रजनक, संन्निपातनाशक तथा वायुको शान्त करनेवाला होताहै॥७३॥
गीदडके मांसके गुण।
मधुराःकटुकाःपाकेत्रिदोषशमनाःशिवाः।
लघवोबद्धविण्मत्राःशीताश्चैणाः प्रकीर्तिताः॥७४॥
** **गीदडका मांस–मधुर, पाक में कटु और त्रिदोषको शान्त करनेवाला होताहै। काले हरिणका मांस हलका, मल, मूत्र विबंधक और शीतल होताहै॥७४॥
गोधाविपाकेमधुरा कषायकटुकारसे।
वातपित्तप्रशमनीबृंहणीबलवर्द्धिनी॥७५॥
गोहका मांस विपाकमें मीठा है, रसमें कषाय तथा कटु है, एवम् वातपित्त नाशक बृंहण तथा बलवर्द्धक होताहै॥७५॥
शल्लकोमधुराम्लस्तुविपाकेकटुकःस्मृतः।
वातपित्तकफघ्नश्चकासश्वासहरस्तथा॥७६॥
सेंहका मांस–मधुर है, अम्ल है, विपाकमें कटु है तथा वात, पित्त, कफ इनको नष्ट करता है एवम् कास, श्वासको हरताहै॥७६॥
रोहूमछलीके मांसके गुण।
शैवलाहारभोजित्वात्स्वप्नस्यचविवर्जनात्।
रोहितोदीपनीयश्चलघुपाकोमहाबलः॥७७॥
रोहमछली–सिवार खाती है और निद्रा रहित है इसलिये इसका मांस दीपन, लघुपाकी और अत्यन्त बलकारक है॥७७॥
गुरूष्णमधुराबल्याबृंहणाःपवनापहाः।
मत्स्यास्निग्धाश्चवृष्याश्चबहुदोषाःप्रकीर्त्तिताः॥७८॥
अन्य मछलियां–भारी, उष्ण, मधुर, बलकारक, बृंहण, वातनाशक, स्निग्ध, वीर्यवर्द्धक तथा बहुतेरे दोषोंको करनेवाली होती हैं॥७८॥
कछुएके मांसका गुण।
बल्योवातहरोवृष्यश्चक्षुष्याबलवर्द्धनः।
मेधास्मृतिकरःपथ्यःशोषघ्नःकूर्मउच्यते॥७९॥
कूर्मका मांस–बलकारक, वातनाशक, वीर्यवर्द्धक, नेत्रोंको हितकारी, मेधा और स्मृतिका बढ़ानेवाला, पथ्य एवम् शोषनाशक होताहै॥७९॥
स्नेहनंबृंहणवृष्यंश्रमघ्ननिलापहम्।
वराहपिशितंबल्यंरोचनंस्वेदगुरु॥८०॥
सूअरका मांस–स्नेहन बृंहण, वीर्यवर्द्धक, श्रमनाशक, वातहर, बलवर्द्धक, रुचिकारक, स्वेदजनक एवम् भारी होता है॥८०॥
गोमांसका गुण।
गव्यंकेवलवातेषुपनिसेविषमज्वरे।
शुष्ककासश्रमात्यग्निमांसक्षयहितञ्चयत्॥८१॥
गवय (रोझ)–का मांस–जिस जगह केवल वात ही प्रधान हो और कफ तथा पित्त न हो एवम् प्रतिश्याय एवम् विषमज्वरमें सूखी खांसी, भ्रम, भस्मकाग्नि और यक्ष्मामें हितकारी होता है॥८१॥
महिषमांसका गुण।
स्निग्धोष्णमधुरंवृष्यंमाहिषंगुरुतर्पणम्।
दार्ढ्यंबृहत्त्वमुत्साहंस्वप्नञ्चजनयत्यपि॥८२॥
भैंसेका मांस–चिकना, उष्ण, मधुर, वृष्य, बृंहण, शरीरको दृढ़ करनेवाला एव बृहत्व, साहस, निद्रा इनको उत्पन्न करनेवाला होता है॥८२॥
अण्डोंके गुण।
धार्तराष्ट्रचकोराणांदक्षाणांशिखिनामपि। चटकानाञ्चयानि स्युरण्डानिचहितानिच॥८३॥ रेतःक्षीणेषुकासेषुहृद्रोगेषु क्षतेषु च। मधुराण्यवपाकीनिसद्योबलकराणिच॥८४॥
हंस, चकोर, मुर्गा, मोर, चिडे इनके अंडे हृद्रोग और क्षतरोगमें हितकारी हैं तथा मधुर, अविपाकी, शीघ्र बलवर्द्धक होतेहैं॥८३॥८४॥
मांसकी उत्कृष्टता।
शरीरबृंहणेनान्यत्दार्ढ्यंमांसाद्विशिष्यते।
इतिवर्गस्तृतीयोऽयंमांसानांपरिकीर्तितः॥८५॥
इति मांसवर्गः।
जितने प्रकारके पदार्थ शरीरको पुष्ट करनेवाले हैं उनमें मांस प्रधान होताहै। इस प्रकार यह मांसवर्गनामक तीसरा वर्ग कथन किया गया॥८५॥
अथ शाकवर्गः।
पाठातुषाशठीशाकंवास्तुकंसुनिषण्णकम्।
विद्याद्ग्राहित्रिदोषघ्नंभिन्नवर्चस्तुवास्तुकम्॥८६॥
पाठा, ऊषा, साठी, सुनिषण्ण (चौपतिया शाक) यह सब शाक ग्राही तथा त्रिदोषनाशक हैं और बथुवेका शाक मलवेधक और त्रिदोषनाशक होताहै॥८६॥
मकोयके शाकका गुण।
त्रिदोषशमनीवृष्याकाकमाचीरसायनी।
नात्युष्णशीतवीर्य्याचभेदनीकुष्ठनाशिनी॥८७॥
काकमाची (मकोय) का शाक त्रिदोषको शान्त करनेवाला, वीर्यवर्द्धक, रसायन, वीर्यमें न बहुत गर्म और न बहुत शीतल, मलवेधक एवम् कुष्ठनाशक होताहै॥८७॥
राजक्षवकके गुण।
राजक्षवकशाकन्तुत्रिदोषशमनंलघु।
ग्राहिशस्तविशेषेणग्रहण्यर्शोविकारिणाम्॥८८॥
राजक्षवक, जीवक, सर्सो, दुग्धिका का शाक त्रिदोषको शान्त करनेवाला, हलकाविशेषकर संग्रहणी और अर्शरोगमें हितकारी है॥८८ ॥
कालशाक–करालशाक।
कालशाकन्तुकटुकंदीपनंगरशोफजित्।
लघूष्णंवातलंरूक्षंकरालंशाकमुच्यते॥८९॥
कालशाक (नाडीका शाक)–कटु, दीपन, विषविकार तथा सूजनको नष्ट करनेवाला होताहै। करालशाक (काली तुलसीका शाक)–हलका, उष्ण, वातकारक तथा रूक्ष होता है॥८९॥
चांगेरीके गुण।
दीपनीचोष्णवीर्य्याचग्राहिणीकफमारुते।
प्रशस्यतेऽम्लचाङ्गेरीग्रहण्यर्शोहिताचसा॥९०॥
अम्लचांगेरी (चूका) का शाक अग्निदीपन, उष्णवीर्य, ग्राही तथा कफ और वायुके रोगोंमे, ग्रहणीमें एवम् अर्शरोग में हितकारी होता है॥९०॥
पोईका शाक।
मधुरामधुरापाकेभेदनीश्लेष्मवर्द्धिनी।
वृष्यास्निग्धाचशीताचमदघ्नीचाप्युपोदका॥९१॥
उपोदकी (पोई) का शाक मधुर, पाकमें भी मधुर, मलवेधक, कफवर्द्धक, वृष्य, स्निग्ध, शीतल एवम् मदविनाशक होता है॥९९॥
चौलाईका शाक।
रूक्षोमदविषघ्नश्चप्रशस्तोरक्तपित्तिनाम्।
मधुरोमधुरःपाकेशीतलस्तण्डुलीयकः॥९२॥
चौलाईका शाक रूक्ष, मदविकार तथा विषविकारनाशक, रक्तपित्तमें हितकारी, रस तथा पाकमें मधुर एवम् शीतल होताहै॥९२॥
मण्डूकपर्ण्यादिशाकोंके गुण।
मण्डूकपर्णीवेत्राग्रंकुचेलावनतिक्तकम्। कर्कोटकावल्गुजकौ पटोलंशकुलादनी। वृषपुष्पाणिशार्ङ्गष्ठाकेवूकंसकटिल्लकम्॥९३॥ नाडीकलायंगोजिह्वावार्त्ताकंतिलपर्णिका। कुलकंकर्कशंनिम्ब शाकंपर्पटकञ्चयत्। कफपित्तहरंतित्तंशीतंकटुविपच्यते॥९४॥
मण्डकपर्णी (ब्राह्मी) वेतकी कोपल, कुचेला (विद्धकर्णी) वनतिक्तक, ककाडाके फल, वल्गुज (बनमूल) पटोल, शकुलादनी (कंचटशाक) वृष (अडृसा या ऋषभक) के फूल, शार्गष्ठा (महाकरंज) केबूक, करैला, नाडी, मटर, गोभी, बडीकटेरीके फल तिलपर्णी, कुलक (करैलेकी जाति) छोटा ककौडा, नीम, पर्पट ये सब कफपित्तनाशक, कड्डुए, शीतल एवम् पाकमें कटु होते हैं॥९३॥९४॥
सूप्य शाकोंके गुण।
सर्वाणिसूप्यशाकानिफञ्जीचिल्लीकतुम्बुकः॥ आलुकानिचसर्वाणिसपत्राणिकटिञ्जरः। शणशाल्मलिपुष्पाणिकर्वुदारः सुवर्च्चला॥९५॥ निष्पावःकोविदारश्चपत्तुरश्चाखुपर्णिका। कुमारजीवोलोट्टाकपालङ्क्यामारिषस्तथा॥९६॥ कलम्बोनालिकाश्मर्य्युःकुसुम्भवृकधूमकौ। लक्ष्मणश्चप्रपुन्नाडोनलिनीकाकुवेरकः॥९७॥ लोणिकायवशाकञ्चकूष्माण्डकमवल्गुजः। यातुकःशालकल्याणीत्रिपर्णीपीलुपर्णिका॥९८॥ शाकंगुरुचरूक्षञ्चप्रायोविष्टभ्यजीर्य्यति।मधुरंशीतवीर्य्यञ्चपुरीषस्यचभेदनम्॥९९॥
सब प्रकारके सूप्यशाक (मटर, सेम आदि) फंजी, चिल्लिक, तुंवा, सब प्रकारके आलू तथा आलुओके पत्र, कटिंजर, सण तथा सेमरके फूल, सफेद कचनारकी कली, सुवर्चला (हुलहुल) सेमरके फूल, लालकचनार, पत्तूर, मूसाकर्णी, जीवकशाक, नाडीशाक, पालक रामदानेका शाक (लालपत्तेवाला बडावाथु) केलाचशाक, नालिकाशाक, स्मर्यु (कौंचकीफलीका शाक) कसूम, वृकधूमक, लक्ष्मणा, पंमार (पनवाड) कमलकी डण्डी, शहतूत, सलोनक, यवशाक, पेटा बावची, श्वेत शालपर्णी जीवन्ती, हंसपदी, पीलूपर्णी इन सबके शाक गुरु, रुक्ष, देरमेंपचनेवाले, मीठे, शीतवीर्य तथा मलवेधक होते हैं॥९५-९९॥
शाकोंकी साधारण विधि।
स्विन्नंनिष्पीडितरसंस्नेहाढ्यंतत्प्रशस्यते।शणस्यकोविदारस्य कर्बुदारस्यशाल्मलेः॥१००॥ पुष्पग्राहिप्रशस्तञ्चरक्तपित्तेविशेषतः॥१०१॥
सब सागोंको पहिले उबालकर निचोड देना चाहिये फिर उसको घीआदिमें सिद्ध कर खाना उत्तम कहाहै।सणके फूल, दोनों प्रकारोंके कचनारोके फूल, सेमलके फूल ये सब–संग्राही तथा रक्तपित्तमें विशेष हितकारी होते हैं॥१००॥१०१॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षपद्मादिपल्लवाः। कषायाःस्तम्भनाःशीताहिताःपित्तातिसारिणाम्॥१०२॥ वायुंवत्सादनीहन्यास्कफंगण्डीरचित्रकी। श्रेयसीबिल्वपर्णीचबिल्वपत्रन्तुवातनुत्।भाण्डीशतावरीशाकंबलाजीवन्तिजञ्चयत्॥१०३॥ पर्वण्याः पर्वपुष्प्याश्चवातपित्तहरंस्मृतम्। लघुभिन्नशकृतित्तंलाङ्गुलक्युरुवूकयोः॥१०४॥
बड़, गूलर, पीपल, पिलखन और कमल आदिकों के पत्र–कसैले, स्तम्भनकर्त्ता, शीतवीर्य तथा पित्तके अतिसारवालोको हितकारक होतेहैं। गिलोयके पत्रोंका शाक वातनाशक होता है। गण्डीर और चित्रकके पत्रोका शाक–कफनाशक होता है। गजपीपल और बिल्वपर्णी तथा बेलके पत्र वातनाशक होतेहैं। भाण्डीशाक तथा शतावरका शाक, बलाकाशाक, जीवन्तीका शाक, पर्वणीशाक, पर्वपुष्प यह सब वात, पित्तनाशक होते है। लांगुलीके पत्र और एरंडके पत्र हल्के और मलवेधक होते है। (लांगुंलीका कंद तीक्ष्ण विष होता है)॥१०२॥१०३॥१०४॥
तिलवेतसशाकञ्चशाकंपञ्चांगुलस्यवा।वातलंकटुतिक्ताम्लमधोमार्गप्रवर्त्तकम्॥१०५॥ रुक्षालमुष्णंकौसुम्भंकफघ्नंपित्तवर्द्धनम्। त्रपुसैर्वारुकंस्वादुगुरुविष्टम्भिशीतलम्॥१०६॥ मुखप्रियञ्चरूक्षञ्चमूत्रलंत्रपुसंत्वति। एर्वारुकञ्चसंपक्वंदाहतृष्णाक्लमार्त्तिनुत्। वर्चोभेदीन्य लावूनिरूक्षशीतगुरूणि च॥१०७॥
तिलशाक तथा बेतका शाक तथा क्षुद्र एरंडका शाक वातल, कटु, तिक्त, अम्ल और मलको निकालनेवाला है॥१०५॥ कुसुम्भेका शाक–रूक्ष, अम्ल, उष्ण, कफनाशक तथा पित्तवर्द्धक होताहै। खीरे और ककडी का शाक–मधुर, भारी, विष्टम्भकारक, शीतल, सुस्वादु और रूक्ष होताहै। इनमें खीरा बहुत मूत्रको लानेवाला और पकी हुई आर्या ककडी–दाह, तृषा और बलगमकी पीडाको शान्त करती है। तुंबेका शाक–मलवेधक, रूक्ष और भारी होताहै॥१०६॥१०७॥
चिर्भिट्येर्वारुकेतद्वद्वर्चोभेदहितेतुते। कूष्माण्डमुक्तंसक्षारंमधुराम्लंतथालघु॥१०८॥ स्रष्टमूत्रपुरीषञ्चसर्वदोषनिबर्हणम्। केलूटञ्चकदम्बञ्चनदीमाषकमैन्दुकम्॥ विषदंगुरुशीतंचसमभिष्यन्दिचोच्यते॥१०९॥
चिरभिट (चचेड) और तर्बूजका शाक–मलको वेधन करनेवाला और हितकर्त्ता होताहै। कुंभडा (कोंहडा और कद्दू ) का शाक–मधुर, अम्ल, क्षार एवं हलका होताहै तथा मलमूत्रको निकालनेवाला और सर्वदोषोको हरनेवाला होताहै।केलूट, कदम्ब, नदीमाष, ऐन्दुक ये सब–विशद, भारी, शीतल तथा अभिष्यन्दी होते हैं॥१०८॥१०९॥
उत्पलानिकषायाणिपित्तरक्तहराणिच। तथातालप्रलम्बञ्च उरःक्षतरुजापहम्॥११०॥ खर्जूरंतालशस्यञ्चरक्तपित्तक्षयापहम्॥ भरूटंबिसशालूकक्रौञ्चानकशेरुकम्। शृङ्गाटकंकलोड्यञ्चगुरुविष्टम्भिशीतलम्॥१११॥ कुमुदोत्पलनालास्तु सपुष्पाःसफलाःस्मृताः। शीताःस्वादुकषायास्तुकफमारुतकोपनाः॥११२॥
सब प्रकारके कमल–कसैले और रक्तपित्त नाशक होते हैं। तालजटा (ताडकी हैं कोमल जटा) उरःक्षत विकारको शान्त करताहै। खजूरकी कोंपल–रक्तपित्त और क्षयको नष्ट करती है॥११०॥ कह्लारका कंद, भिस, शालूक, पद्मबीज, कसेरू, सिंघाडा, छोटा कमलकंद ये सब भारी, विष्टम्भकर्ता और शीतल होते हैं॥१११॥
कुमुद और उत्पलकी नाल और इनके फूल, फल शीतल, मधुर, कषाय तथा कफ वातको कुपित करनेवाले होते हैं॥११२॥
कषायमीषद्विष्टम्भिरक्तपित्तहरंस्मृतम्।
पौष्करन्तुभवेद्बीजंमधुररसपाकयोः॥११३॥
पुष्करनामक कमलके बीज और फूल तथा नाल–विष्टम्भकर्त्ता, रक्तपित्तनाशक, रस तथा विपाकमें मधुर होते हैं॥११३॥
बल्यः शीतोगुरुःस्निग्धस्तर्पणोबृंहणात्मकः।
वातपित्तहरःस्वादुर्वृष्योमुञ्जातकःस्मृतः॥११४॥
मुंजातक–बलकारक, शीतल, गुरु, स्निग्ध, बृंहण, तर्पण, वातपित्त नाशक, स्वादु और वीर्यवर्द्धक होताहै॥११४॥
विदारीकन्दके गुण।
जीवनोबृंहणोवृष्यःकण्ठ्यःशस्तोरसायने। विदारीकन्दोबल्यश्चमूत्रलःस्वादुशीतलः। अम्लीकायाःस्मृतःकन्दोग्रहण्यर्शोहितोलघुः॥११५॥नात्युष्णःकफवातघ्नोग्राहीशस्तोमदात्यये। त्रिदोषंबद्धविण्मूत्रंसार्षपंशाकसुच्यते॥११६॥
विदारीकंद–जीवन, बृंहण, वीर्यवर्द्धक, स्वरकारक और रसायनमें श्रेष्ठ बलकारक, मूत्र लानेवाला, मधुर, शीतल, अम्लीका कन्द–ग्रहणी और अर्शमें हितकारी है,हल्का है, अधिक गर्म नहीं है, कफवातको हरता है, संग्राही है, मदात्ययरोगमें हितकारक है। सरसोंका शाक–तीनो दोषोंको कुपित करनेवाला, मलमूत्रको बांधनेवालाहोता है॥११६॥
तद्वत्पिण्डालुकंविद्यत्कन्दत्वाच्चमुखप्रियम्। सर्पच्छत्रकवर्ज्यास्तुबह्व्योन्यच्छत्रजातयः॥११७॥ शीताःपीनसकर्त्र्यश्चमधुरागुर्व्यएवच।चतुर्थःशाकवर्गोऽयंपत्रकन्दफलाश्रयः॥११८॥
इतिशाकवर्गः।
पिडआलूका शाक भी सरसोंके समान गुणवाला है परन्तु खानेमें इसका कंद मुखको प्रिय मालुम होताहै। सर्पछत्रकके सिवाय अन्य सबप्रकारके छत्रजाति (बरसातमें लकडी तथा जमीनपर उत्पन्न होते हैं) शीतल, प्रतिश्याय कर्त्ता, मधुर तथा भारी होते हैं। इस प्रकार शाकवर्गनामक पत्र, कन्द, फल शाकाश्रित यह चौथा वर्ग समाप्त हुआ॥११७॥११८॥
अथफलवर्गः।
दाखके गुण।
तृष्णादाहज्वरश्वासरक्तपित्तक्षतक्षयान्। वातपित्तमुदावर्तं स्वरभेदमदात्ययम्॥११९॥ तिक्तास्यतामास्यशोषंकाशञ्चाशुव्यपोहति। मृद्वीकाबृंहणीवृष्यामधुरस्निग्धशीतल॥१२०॥
मुनक्का–तृषा, दाह, ज्वर, श्वास, रक्तपित्त, क्षत, क्षय, वातपित्त, उदावर्त्त, स्वरभेद, मदात्यय, मुखकी कडुआहट ‘शोष, खांसी इन सबको नष्ट करता है तथा पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, मधुर, स्निग्ध और शीतल है॥११९॥१२०॥
खजूरके गुण।
मधुरंबृंहणंवृष्यंखर्जूरंगुरुशीतलम्।
क्षयेऽभिघातेदाहेचवातपित्तेचतद्धितम्॥१२१॥
खजूरका फल–मधुर, पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, भारी, शीतल होता है तथा क्षय, अभिघात, दाह और वातपित्तमें हितकारक होताहै॥१२१॥
फल्गु–फालसा–महुआ।
तर्पणंबृंहणंफल्गुगुरुविष्टम्भिशीतलम्।
परूषकंमधूकञ्चवातपित्तेचशस्यते॥१२२॥
कठूमरका फल–तृप्तिकारक बृंहण, भारी, विष्टम्भी और शीतल होताहै। फालसा और महुआ–वातपित्त में हितकारी होते हैं॥१२२॥
आंवडेके गुण।
मधुरंबृंहणंबल्यमाम्रातंतर्पणंगुरु।
सस्नेहंश्लेष्मलंशीतवृष्यंविष्टभ्यजीर्य्यति॥१२३॥
पका हुआ आमडाका फल–पुष्टिकारक, बलवर्द्धक, तर्पण, मीठा, कफकारक, शीतल, वृष्य और विष्टम्भ होकर पाचन होनेवाला है॥१२३॥
ताल नारियल।
तालशस्यानिसिद्धानिनारिकेलफलानिच।
बृंहणस्त्रिग्धशीतानिबल्यानिमधुराणिच॥१२४॥
सिद्धकिया ताडका फल और नारियलका फल–पुष्टिकर्त्ता, चिकना, शीतल, बलकारक और मधुर होताहै॥१२४॥
भव्यके गुण।
मधुराम्लकषायञ्चविष्टम्भिगुरुशीतलम्।
पित्तश्लेष्महरंभव्यंग्राहिवक्रविशोधनम्॥१२५॥
भव्यफल–मीठा, खट्टा, कसैला, विष्टम्भकर्त्ता, शीतल, भारी, पित्तकफनाशक, संग्राही और मुखका शोधकर्ता है॥१२५॥
कच्चे फलोंके गुण।
अम्लंपरूषकंद्राक्षावदर्य्याण्यारुकाणिच।
पित्तश्लेष्मप्रकोपीणिकर्कन्धुलकुचान्यपि॥१२६॥
खट्टे–फालसा, दाख, बेर, आडू, वनवेर बडहर यह सबपित्त, कफको कुपित करनेवाले होते हैं॥१२६॥
पके आरुकके गुण।
नात्युष्णंगुरुसम्पक्वंस्वादुप्रायमुखप्रियम्।
बृंहणंजीर्य्यतिक्षिप्रंनातिदोषलमारुकम्॥१२७॥
पका हुआ मीठा आडू अधिक गर्म नहीं है–मीठा है, मुखको प्रिय है, पुष्टिकारक है, शीघ्र पचनेवालाहै तथा दोषोंको अधिक कुपित करनेवाला नहीं है॥१२७॥
पालेवतके गुण।
द्विविधंशीतमुष्णञ्चमधुरञ्चाम्लमेवच।
गुरुपालेवतंज्ञेयमरुच्यत्यग्निनाशनम्॥१२८॥
पारावतफल–शीतल और उष्ण दो प्रकारका होताहै। जो मीठा होताहै वह शीतल है और खट्टा उष्ण होता है। यह दोनों प्रकारके अरुचि तथा भस्मकाग्निको नष्ट करनेवाले हैं॥१२८॥
खम्भारीतूद।
भव्यादल्पान्तरगुणंकाश्मर्य्यफलमुच्यते।
तथैवाल्पान्तरगुणन्तूदमम्लंपरूषकम्॥१२९॥
काश्मरी (कंभारी) फल–भव्यफल से गुणोंमें किंचित् न्यून होता है एवम् खट्टा शहतूत फालसेसे गुणोंमें न्यून होता है॥१२९॥
टड्कके गुण।
कषायमधुरंटङ्कवातलंगुरुशीतलम्।कपित्थंविषकण्ठघ्नमामंसंग्राहिवातलम्॥१३०॥ मधुराम्लकषायत्वात्सौगन्ध्याच्चरुचिप्रदम्। परिपक्वंसदोषघ्नंविषघ्नंग्राहिगुर्वपि॥१३१॥
** **रंक (नील कपित्य) पहाडी कच्चा कैथ का फल–कषाय, वातकारक, भारी और शीतल होता है। कैथका फल–विषनाशक, स्वरको बिगाडनेवाला, संग्राही और वातकारक होताहै।पकाहुआ कैथका फल–मधुर, अम्ल, कषाय, सुगंधयुक्त होनेसे रुचिकारक त्रिदोषनाशक, विषनाशक, संग्राही और भारी होताहै॥१३०॥१३१॥
बिल्वके गुण।
दुर्जरंबिल्वसिद्धन्तुदोषलंपूतिमारुतम्।
स्निग्धोष्णतीक्ष्णंतद्बालंदीपनंकफवातजित्॥१३२॥
पका हुआ बिल्वफल–दुर्जर, दोषयुक्त, वायुमें गंधका फैलानेवाला, चिकना और गर्म और तीक्ष्ण होता है। कच्चा बिल्वफल–दीपन और कफ वातको जीतनेवाला होता है॥१३२॥
आमके गुण।
वातपित्तकरंबालमापूर्णंपित्तवर्द्धनम्।
पक्वमाम्रंजयेद्वायुंमांसशुक्रबलप्रदम्॥१३३॥
बहुत छोटा आम्रका फल रक्तपित्तको करनेवाला होताहै। कच्चा आमका फल पित्तको कुपित करताहै।पकाहुआ आमका फल वातनाशक, मांसवर्द्धक, शुक्रजनक तथा बलकारक होताहै॥१३३॥
जामुनके गुण।
कषायमधुरप्रायंगुरुविष्टम्भिशीतलम्।
जाम्बवंकफपित्तघ्नंग्राहिवातकरंपरम्॥१३४॥
पके हुएं जामुन–कषाय, मधुर, भारी, विष्टम्भकारक, शीतल, कफपित्तनाशक, संग्राही और वायुको कुपित करतेहैं॥१३४॥
बेरके गुण।
मधुरंबदरंस्त्रिग्धंभेदनवातपित्तजित्। तच्छुष्कंकफवातघ्नपित्तेनचविरुध्यते। कषायमधुरंशीतग्राहिसिञ्चितिकाफलम्॥१३५॥
पके हुए बैर–स्निग्ध, मधुर, भेदनकर्ता, वातपित्तनाशक होतेहैं, सूखेहुए बेर बात और कफको हरते हैं तथा पित्तके विरोधी नहीं हैं सिंचितिका फल–कषाय, मधुरै, शीतल और संग्राही होता है॥१३५॥
गङ्गेरी–करील–बिम्बी–तोदन।
गाङ्गेरुकीकरीरञ्चविम्बीतोदनधन्वनम्।
मधुरंसकषायञ्चशीतपित्तकफापहम्॥१३६॥
गांगरूकी ( नागवला ) का फल और करीरके फल तथा कंदूरी, तोदन, धन्वन यह सब फल मधुर किंचित् कपाय, शीतल और पित्तकफको हरनेवालेहैं॥१३६॥
खिरनी–पनस–कैला–चिरौंजी।
क्षीरिकंपनसंमोचंराजादनफलानिच।
स्वादूनिसकषायाणिस्निग्धशीतगुरूणिच॥१३७॥
खिरनी, पकाहुआ कटहर, केलेकी फली, चिरौंजी ये सब मीठे, कषाय, स्निग्ध, शीतल और भारी होतेहैं॥१३७॥
लवलीके गुण।
कषायविषदत्वाच्चसौगन्ध्याञ्चरुचिप्रदम्।
अवदंशक्षमंरूक्षंवातलंलवलीफलम्॥१३८॥
लवलीके फल कषाय और विशद होनेसे तथा सुगंधयुक्त होनेसे रुचिकारक होतेहैं तथा चटनी आदिमें मिलाने योग्य, रूक्ष तथा वातकारक होतेहैं॥१३८॥
कदम्बादिके गुण।
नीपसभार्गकंपीलुतृणशून्यंविकङ्कतम्।
प्राचीनामलकञ्चैवदोषघ्नंगरहारिच॥१३९॥
कदम्ब, भांगीके फल, पीलूफल, केतकीफल, विकंकतके फल, प्राचीनाम्लके फल यह सबदोषनाशक तथा गरनाशक होतेहै॥१३९॥
गोंदीफलआदिका गुण।
इंगुदंतिक्तमधुरंस्निग्धोष्णंकफवातजित्।
तिन्दुकंकफपित्तघ्नंकषायमधुरंलघु॥१४०॥
गोंदनीके फल–कड्डुए, मधुर, चिकने, गर्म एवम् कफ और वातको जीतनेवाले होतेहैं। तिंदुकफल (तेंदु) कफपित्तनाशक, कषाय, मधुर और हलके होतेहैं॥१४०॥
आंवलेका गुण।
विद्यादामलकेसर्वानरसान्लवणवर्जितान्।
स्वेदमेदःकफोत्क्लेदपित्तरोगविनाशनम्॥१४१॥
ऑवलेमे–लवणरसके बिना, मीठा, खट्टा, कडुआ, कसैला, चरपरा ये पांच रस हैं। आँवला–कफके उत्क्लेशको और पित्तविकारको नष्ट करताहै। तथा मेदरोग और अधिक पसीना आना इनको भी दूर करताहै॥१४१॥
बहेडेके गुण।
रूक्षंस्वादुकषायाम्लंकफपित्तहरंपरम्।
रसासृङ्मांसमेदोजान्दोषान्हन्तिविभीतकम्॥१४२॥
बहेडा–रूक्ष, स्वादु, कषाय, अम्ल एवम् कफ, पित्तको अत्यन्त नष्ट करनेवाला तथा रस, रक्त, मांस और मेदके सम्पूर्ण दोषोंको नष्ट करताहै॥१४२॥
अनारका गुण।
अम्लंकषायमधुरवातघ्नंग्राहिदीपनम्।
स्निग्धोष्णंदाडिमंहृद्यंकफपित्ताविरोधिच॥१४३॥
अनार–खट्टा, कषाय, मधुर, वातघ्न, ग्राही, दीपन, स्निग्ध उष्ण, हृदयको प्रिय तथा कफ और पित्तसे विरोध नहीं करनेवाला होताहै॥१४३॥
रुक्षाम्लंदाडिमंयत्तुतत्पित्तानिलकोपनम्।
मधुरंपित्तनुत्तेषान्तद्धिदाडिममुत्तमम्॥१४४॥
खट्टा अनार–रूक्ष, पित्तजनक और वातको कुपित करनेवाला होताहै। मीठा अनार–पित्तको नष्ट करताहै। इन दोनों प्रकारके अनारोंमें मीठा अनार उत्तम होताहै॥१४४॥
वृक्षाम्लके गुण।
वृक्षाम्लंग्राहिरूक्षोष्णंवातश्लेष्मणिशस्यते
अम्लिकाषाःफलंशुष्कंतस्मादल्पान्तरंगुणैः॥१४५॥
तितिडीक–संग्राही, रूक्ष, गर्म एवम् वात, कफको नाश करनेवाला है।पकाहुआ इमलीका फल तितिडीकसे किंचित् हीनगुण होताहै॥१४५॥
अमलवेत तथा बिजौरेके गुण।
गुणैस्तैरेवसंयुक्तंभेदनन्त्वम्लवेतसम्।शूलेऽरुचौविबन्धेचमन्देऽग्नौमद्यविक्षये॥१४६॥ हिक्काकासेचश्वासेचवम्यांवर्चोगदेषुच। वातश्लेष्मसमुत्थेषुसर्वेष्वेतेषुदिश्यते॥१४७॥ केशरंमातुलुङ्गस्यलघुशीतमतोऽन्यथा। रोचनोदीपनोहृद्यः सुगन्धिस्त्वग्निवर्जितः। कर्पूरःकफवातघ्नःश्वासहिक्कार्शसांहितः॥१४८॥
अम्लवेत–तिंतिडीकके समान गुणवाला तथा मलको भेदन करनेवाला होता है। विजौरेकी केशर-शूल, अरुचिविबंध, मंदाग्नि, मदात्यय, हिचकी, श्वास, खांसी, वमन, मलरोग तथा वात और कफसे उत्पन्न भये संपूर्णरोग इन सबमें हितकारक है तथा शीतल और हल्की होती है। बिजौरेकी केशरके सिवाय छिलका आदि अन्य अंगोंमें अन्य गुण होते हैं । छिला हुआ कचूरका फल शुचिकारक, अग्निदीपक, हृदयको प्रिय, सुगंधित, कफ, वातको नष्ट करनेवाला, हिचकी और बवासीरमें हितकारक होता है॥ १४६॥१४७॥१४८॥
नारंगीके गुण।
मधुरंकिञ्चिदम्लञ्चहृद्यंभक्तप्ररोचनम्।
दुर्जरंवातशमनंनागरङ्गफलंगुरु॥१४९॥
नारंगीका फल–दुर्जर, वातनाशक, भारी, मीठा किचित् अम्ल, हृदयको प्रिय तथा भोजनमें रुचिका करनेवाला है॥१४९॥
बादामादिके गुण।
वातामाभिषुकाक्षोटमकूलकनिकोचकाः॥१५०॥ गुरूष्णस्निग्धमधुराःसोरुमाणाबलप्रदाः। वातघ्नाबृंहणावृष्याकफपित्ताभिवर्द्धनाः॥१५१॥
बादाम, पिस्ता, अखरोट, मकूलक (किसीके मतमें यह भी अखरोटकी जाति है) निकोचक (चिलगोजा), उरुमाणफल इन सब फलोंकी मज्जा गुरु, उष्ण, स्निग्ध, मधुर, बलवर्द्धक, वातनाशक, पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक एवम् कफ और पित्तको बढानेवाली होती है॥१५०॥१५१॥
पियालके गुण।
पियालमेषांसदृशंविद्यादौष्णंविनागुणैः।
श्लेष्मलंमधुरंशीतंश्लेष्मातकफलंगुरु॥१५२॥
चिरौंजी गुणोंमें उपरोक्त फलोंकी मज्जाके समान गुणवाली है परन्तु पित्तको उत्पन्न नहीं करती। लसोढा–कफकारक, मधुर, शीतल और भारी होता है (खुष्क खांसीको निकालनेवाला है)॥१५२॥
अंकोटके गुण।
श्लेष्मलंगुरुविष्टम्भिचाङ्कोटफलमग्निजित्।
गुरुष्णमधुरंरूक्षंकेशघ्नंचशमीफलम्॥१५३॥
अंकोटफल–कफकारक, भारी, विष्टम्भी एवम् क्षुधानाशक होताहै। (अंकोर नाम ढेराका है)। शमीफल–भारी, गर्म, मधुर, शीतल एवम् केशोंको नष्टकरनेवाला होताहै। (कोई शमीफलका अर्ध सेमलक फल करतेहैं परन्तु शमी नाम जंडके वृक्षका है)॥१५३॥
कंजेके गुण।
विष्टम्भयतिकारञ्जंपित्तश्लेष्माविरोधिच। आम्रातकंदन्तशठमम्लंसकरमर्दकम्॥१५४॥ रक्तपित्तकरंविद्यादैरावतकमेवच। वातघ्नंदीपनञ्चैववार्ताकंकटुतिक्तकम्॥१५५॥
करंजफल–विष्टम्भकर्ता और पित्त, कफसे अविरोधी होताहै। पहाडी अम्बाडा, जंभीरी, करौंदा, ये सबअम्ल, रक्तपित्तकारक होतेहैं एवम् पहाडी खट्टे नीबुओं में भी यही गुण होतेहैं। वार्ताकफल–वातनाशक, दीपन, कटु और तिक्त होताहै। (वार्ताकनाम बैंगनका है परन्तु यह वार्ताक अन्नफल विशेष है)॥१५४॥१५५॥
पित्तपापडाका गुण।
वातलंकफपित्तघ्नंविद्यात्पर्पटकीफलम्।
पित्तश्लेष्मघ्नमम्लञ्चवातिकञ्चाक्षिकीफलम्॥१५६॥
पाखरका फल–कफ, पित्तनाशक होताहै। अच्छूका फल (हीहर) पित्त, कफ नाशक, खट्टा एवम् वातकारक होता है॥१५६॥
मधुराण्यविपाकीनिवातपित्तहराणिच।
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षन्यग्रोधानांफलानिच॥१५७॥
पीपर, गूलर, पिलखन, बड इनके फल मधुर, देरमें परिपक्क होनेवाले तथा बातपित्त हरनेवाले होते हैं॥१५७॥
भिलावेकी गुठलीके गुण।
भल्लातकास्थ्यग्निसमंत्वङ्मांसंस्वादुशीतलम्॥१५८॥
पञ्चमःफलवर्गोऽयमुक्तःप्रायोपयोगिकः॥१५९॥
इति फलवर्गः।
भिलावेके फलोंकी मज्जा–अनिके समान गर्म है तथा उसकी छाल और गुद्दा विपाकमें मधुर तथा शीतल होताहै। (भिलावा विना युक्तिसे खाया त्वचा और मांसमें सूजन प्रगट करता है, दांतोंको गिरादेताहै तथा विषके समान है। यदि उक्तिपूर्वक सेवन कियाजाय तो अमृतके समान रसायन होताहै) इस प्रकार उपयोगी फलोंसे युक्त फलवर्ग नामक यह पञ्चमवर्ग कहागया॥१५८॥१५९॥
अथ हरितवर्गः।
अदरख–सौंठके गुण।
रोचनंदीपनंवृष्यमाद्रकंविश्वभेजम्।
वातश्लेष्मविबन्धेषुरसस्तस्योपदिश्यते॥१६०॥
अदरक और सोंठ–रुचिकारक, दीपन और वृष्य है। अदरखका रस–वात और कफके विबंधको फाड देताहै॥१६०॥
जंभीररीके गुण।
रोचनोदीपनस्तीक्ष्णःसुगन्धिर्मुखबोधनः।
जम्बीरःकफवातघ्नःक्रिमिघ्नोभुक्तपाचनः॥१६१॥
जंभीरी नीबू–रुचिकारक, दीपन, तीक्ष्ण, सुगंधित, मुखको बोधन करनेवाला, कफ और वात तथा कृमियोको नष्ट करनेवाला और भोजन किये आहारको पचानेवाला होताहै॥१६१॥
मूलीके गुण।
बालंदोषहरंवृद्धंत्रिदोषंमारुतापहम्।
स्निग्धसिद्धंविशुष्कन्तुमूलकंकफवातजित॥१६२॥
कच्चीमूली–त्रिदोषको नष्ट करती है। पकीहुई मूली–त्रिदोषकारक होती है। चिकनाई युक्त सिद्धकिया मूलीका शाक वातनाशक होताहै। सूखी मूली–वात, कफको
हरती है॥१६२॥
तुलसीके गुण।
हिक्काकासविष श्वासपार्श्वशूलविनाशनः।
पित्तकृत्कफवातघ्नःसुरसः पूतिगन्धनुत्॥१६३॥
तुलसीके पत्र–हिचकी, खांसी, विषविकार, श्वास तथा पार्श्वशूलको नष्ट करते हैं। पित्तकारक, कफ, वात नाशक एवम दुर्गंधनाशक होते हैं॥ १६३॥
अजवायनआदिके गुण।
यवानीचार्जकश्चैवशिग्रुशालेयष्टकम्॥
हृद्यान्यास्वादनीयानिपित्तमुक्लेशयन्तिच॥१६४॥
अजवायन, अर्जक (नाजवूं, तुलसीका भेद) सुहांजनेकी फली, सौंफ, काली मिर्च ये सब–हृदयको प्रिय तथा अन्नमें स्वादके बढ़ानेवाले होते हैं। परन्तु पित्तको उत्क्लेशित करते है॥१६४॥
गण्डीरादिके गुण।
गण्डीरोजलपिप्पल्यस्तुम्बुरुःशृङ्गवेरिका।
तीक्ष्णोष्णकटुरुक्षाणिकफवातहराणिच॥१६५॥
गण्डीर ( सुंठियासाग), जलपीपल, काला जीरा, शुंठी ये सब–तीक्ष्ण, उष्ण, कटु,रूक्ष तथा कफ, वातनाशक होते हैं॥१६५॥
भूस्तृणके गुण।
पुंस्त्वघ्नःकटुरूक्षोष्णोभूतृणोवक्रशोधनः॥
खराश्वाकफवातघ्नीबस्तिरोगरुजापहा॥१६६॥
भूतृण ( शाक विशेष )–पुंस्त्वनाशक, कटु, रूक्ष, उष्ण, और मुखशोधक होताहै। अजमोद कफ, वातनाशक, वस्ति के रोगोंको दूर करनेवाला है॥१६६॥
धनियेआदिके गुण।
धान्यकंचाजगन्धाचसुमुखाश्चेतिरोचनाः।
सुगन्धानातिकटुकादोषानुक्लेशयन्तितु॥१६७॥
धनिया, अजवायन, तुलसी यह सब–अत्यन्त रुचिकारक, सुगंधित, किंचित् कटु, एवम् त्रिदोषको उखाडनेवाले हैं॥१६७॥
गाजरके गुण।
ग्राहीगृञ्जनकस्तीक्ष्णोवातश्लेष्मार्शसांहितः॥
स्वेदनेऽभ्यवहार्य्येचयोजयेत्तमपित्तिनाम्॥१६८॥
गुंजन–संग्राही, तीक्ष्ण, वात, कफ एवम् अर्शरोगमें हितकारक है। पसीना देनेके लिये और भोजनमें इसका उपयोग करे। पित्तकी प्रकृतिवाले मनुष्योंको नहीं खाना चाहिये॥१६८॥
प्याजके गुण।
श्लेष्मलोमारुतघ्नश्चपलाण्डुर्नचपित्तनुत्।
आहारयोगीबल्यश्चगुरुर्वृष्योऽथरोचनः॥१६९॥
प्याज–कफकर्त्ता, वातनाशक, किंचित् पित्तकर्त्ता, आहारमें उपयोगी, बलकारक, भारी, पुष्टिकारक, और गुरुवृष्य तथा रुचि कारक होता है॥१६९॥
लहसनके गुण।
क्रिमिकुष्ठकिलासघ्नोवातघ्नोगुल्मनाशनः।
स्निग्धश्रोष्णश्चवृष्यश्चलशुनःकटुकोगुरुः॥१७०॥
लहसुन–कृमि, कुष्ठ, किलास तथा वात और गुल्मको नष्ट करता है एवम् स्निग्ध, उष्ण, वृष्य, कटु और भारी है॥१७०॥
शुष्काणिकफवातघ्नान्येतान्येषांफलानितु।
हरितानामयंचैषांषष्ठोवर्गःसमाप्यते॥१७१॥
इति हरितवर्गः।
यह सूखेहुए तथा इनके बीज यह सब–कफ और वायुके नष्ट करनेवाले होतेहैं। इस प्रकार हरितवर्गनामक यह छठा वर्ग समाप्त हुआ॥१७१॥
॥इति हरितवर्गः॥
अथमद्यवर्गः।
प्रकृत्यामद्यमम्लोष्णमम्लंचोक्तंविपाकतः।
सर्वंसामान्यतस्तस्यविशेषउपदेक्ष्यते॥१७२॥
मद्य–प्रायः स्वभावसे ही खट्टा और उष्ण होताहै और विपाकमें भी अम्ल ही होताहै। पहले सामान्यतासे मद्यके गुणोंका वर्णन करचुकेहैं अव विशेषतासे कथन करते हैं॥१७२॥
सुराके गुण।
कृशानांसक्तमूत्राणांग्रहण्यर्शोविकारिणाम्।
सुराप्रशस्तावातघ्नीस्तन्यरक्तक्षयेषुच॥१७३॥
जो मनुष्य–कृश, मूत्ररोगी, अर्शपीडित हों उनको तथा क्षयरोगवालोंको, एवं जिस स्त्रीके स्तनोंमे दूध सूख गयाहो उसको, और रक्तक्षयवालेको सुरा ( शराब ) पीना हितकारी है। सुरा–वात नाशक होती है॥१७३॥
मदिराके गुण।
हिक्काश्वासप्रतिश्यायकासवर्चोग्रहारुचौ।
वम्यानाहविबन्धेषुवातघ्नीमदिराहिता॥१७४॥
मद्य–वातनाशक होनेसे हिक्का, श्वास, प्रतिश्याय, खांसी, मलग्रह ( कब्जी ), अरुचि, वमन, आनाह (अफारा ), विबंध इन रोगो में हितकारक होतीहै॥१७४॥
जगलमद्यका गुण।
शूलप्रवाहिकाटोपकफवातार्शसांहितः।
जगलोग्राहिरूक्षोष्णःशोफघ्नोभुक्तपाचनः॥१७५॥
जगलनामक मद्य–शूल प्रवाहिका, पेटका फूलना, कफ, वात और अर्शरोगमें हितकारक होतीहै तथा ग्राही, रूक्ष, उष्ण, शोथनाशक और भोजनको पचानेवाली है॥१७५॥
अरिष्टके गुण।
शोफार्शोग्रहणीदोषपाण्डुरोगारुचिज्वरान्।
हन्त्यरिष्टःकफकृतान्रोगारोचनदीपनः॥१७६॥
अरिष्ट सूजन, अर्श, पांडुरोग, ग्रहणीरोग, अरुचि, ज्वर एवम् कष्टके रोगोंको नष्ट करता है तथा रोचन और दीपन है॥१७६॥
शर्करामद्यके गुण।
मुखप्रियःसुखमदः सुगन्धिर्बस्तिरोगनुत्।
जरणीयः परिणतोहृद्योवर्ण्यश्चशार्करः॥१७७॥
खांडसे–बना अरिष्ट मुखप्रिय, सुखका देनेवाला, मदकारक, मुगंधित, वस्तिरोगनाशक, पाचनकर्त्ता यदि पुराना होतो हृदयको प्रिय और वर्णकारक होताहै॥१७७॥
पक्वरसके गुण।
रोचनोदीपनोहृद्यःशोषशोफार्शसांहितः।
स्नेहश्लेष्मविकारघ्नोवर्ण्यःपक्वरसोमतः॥१७८॥
पक्वरसनामक मद्य–रोचक, दीपन, हृद्य, शोषनाशक, सूजन तथा अर्शरोगमें हितकारी है एवम् स्नेहसे और कफसे उत्पन्न हुए रोगोंको नष्ट करताहै तथा वर्णकारक है॥१७८॥
शीतरसिकका गुण।
जरणीयोविबन्धघ्नःस्वरवर्णविशोधनः॥
लेखनःशीतरसिकोहितःशोफोदरार्शसाम्॥१७९॥
शीतरसिकनामक मद्य–भोजनको जीर्ण करनेवाला, विबंधनाशक स्वर और वर्णको उत्तम बनानेवाला, लेखन, एवंम् उदररोग तथा अर्शरोगवालेको हितकारी है॥१७९॥
गौडके गुण।
मृष्टोभिन्नशकृद्दातोगौडस्तर्पणदीपनः।
पाण्डुरोगव्रणहितादीपनीचाक्षिकीमता॥१८०॥
गुडसे बना मद्य–स्वच्छ, मल और अधोवायुको निकालनेवाला, तृप्तिकारक और दीपन होताहै। बहेडेके संयोगसे बना मद्य पांडुरोग तथा व्रण विकारमें हितकारी होता है एवम अग्निको दीपन करताहै॥१८०॥
सुरासबके गुण।
सुरासवस्तीव्रमदोवातघ्नोवदनप्रियः।
छेदीमध्वासवस्तीक्ष्णोमैरेयोमधुरोगुरुः॥१८१॥
सुरासे दोबारैसे खींचाहुआ मद्य–तीव्रमदको करनेवाला, वातनाशक, और मुखप्रिय होताहै। मध्यासव अर्थात् शहदसे बनाहुआ मद्य–छदेन और तीक्ष्ण होताहै। मैरेयनामक मद्य मधुर और भारी होताहै॥१८१॥
धातक्यासवके गुण।
धातक्यभिषुतोहृद्योरूक्षोरोचनदीपनः।
माध्वीकवन्नचात्युष्णोमृवीकेक्षरसासवः॥१८२॥
धावेके फूलोंके संयोगसे बना मद्य हृदयको प्रिय, सूक्ष, रुचिकारक और दीपन होताहै। मुनक्का और ईखके रससे बना आसव मध्वासबके समान गुणवाला होताहै किन्तु अधिक गर्म नही होता॥१८२॥
मधुके गुण।
रोचनंदीपनंहृद्यंबल्यंपित्ताविरोधिच।
विबन्धघ्नंकफघ्नञ्चमधुलघ्वल्पमारुतम्॥१८३॥
मधुनामकमद्य रुचिकारक, अग्निदीपक, हृदयको प्रिय, बलकारक, पित्तको उत्पन्न करता, विबंधनाशक, कफनाशक, हल्का एवम् किचित् वायुकारक होताहै॥१८३॥
जौ गेहूं आदिका मद्य।
सुरासमण्डारूक्षोष्णायवानांवातपित्तला।
गुर्वीजीर्य्यतिविष्टभ्यश्लेष्मलस्तुमधूलकः॥१८४॥
जवोंसे वनाहुआ मद्य–तथा उसका मंड रूक्ष, उष्ण, वात, पित्तकारक, भारी तथा देरमेंजीर्ण होनेवाला होताहै।मधूलकनामक मद्य कफकारक होतीहै॥१८४॥
सौवीर–तुषोदकके गुण।
दीपनंजरणीयञ्चहृत्पाण्डुऋिमिरोगनुत्।
ग्रहण्यर्शोहितंभेदिसौवीरकतुषोदकम्॥१८५॥
सौवीरक ( कांजीका भेद) और तुषोदक यह दोनों दीपन, पाचन, हृद्रोग, पांडुरोग एवम् कृमिरोग नाशक, मलबेधक तथा ग्रहणी और अर्शरोगमें हितकारक होतेहैं॥१८५॥
अम्लकांजिकके गुण।
दाहज्वरापहंस्पर्शात्पानाद्वातकफापहम्।
विबन्धघ्नमविस्रंसिदीपनञ्चाम्लकाञ्जिकम्॥१८६॥
खट्टी कांजी–स्पर्शसे दाहज्वरनाशक अर्थात् इसमें कपडा भिगोकर रोगीके शरीरपर लपेटनेसे ज्वरकी दाह शान्तहोती है, पीनेसे वात, कफ विबंध, मलबद्ध इनको नष्ट करती है तथा अग्निको दीपन करती है॥१८६॥
नवीन और पुराने मद्यके गुण।
प्रायशोऽभिनवंमद्यंगुरुदोषसमीरणम्॥ स्रोतसांशोधनंजीर्णंदीपनंलघुरोचनम्॥१८७॥ हर्षणंप्रीणतंबल्यंभयशोकश्रमापहम्॥ प्रागल्भ्यर्वार्य्यप्रतिभातुष्टिपुष्टिबलप्रदम्॥ सात्त्विकैर्विधिवद्युक्त्यापीतस्यादमृतंयथा॥१८८॥ वर्गोऽयंससमोमद्यमधिकृत्यप्रकीर्त्तितः॥१८९॥
इतिमद्यवर्गः॥
प्रायः नवीन मद्य–भारी और दोषकारक होती है। पुरानी मद्य–स्रोतोंको शुद्धंकरनेवाली, पाचन, दीपन, हलकी, रुचिकारक, हर्षकर्ता, पुष्टिजनक, बलवर्द्धक, भयकारक, शोकोत्पादक, भ्रमनाशक, बकवादकारक, वीर्यवर्द्धक तथा हृष्टपुष्ट करनेवाली होतीहै। विधिपूर्वक पीने से अमृतके समान होती है । इस प्रकार मद्यवर्गनामक यह सातवॉ वर्ग समाप्त हुआ। इति मद्यवर्गः॥१८७॥१८८॥१८९॥
अथजलवर्गः॥
जलमेकविधंसर्वंपतत्यैन्द्रंनभस्तलात्॥
तत्पतत्पतितञ्चैवदेशकालावपेक्षते॥१९०॥
वर्षाका जल–आकाश से गिरताहुआ प्रायः सब जगह एकसे गुणवाला होताहै परन्तु आकाशसे पृथ्वीमें गिरनेपर देश, कालकी अपेक्षासे भिन्न २ गुणोंवाला होजाताहै॥१९०॥
खात्पतत्सोमवाय्वर्कैःस्पृष्टंकालानुवर्त्तिभिः॥
शीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षाद्यैर्यथासन्नंमहीगुणैः॥१९१॥
आकाशसे गिरता हुआ जल–शीत, उष्ण, कालानुगामी, चन्द्रमा, वायु, सूर्यके सम्पर्कसे तथा शीत उष्ण स्निग्ध रूक्षादि पृथ्वीके गुणों से युक्त होजाताहै॥१९१॥
दिव्यजलको षड्गुणत्व।
शीतंशुचिशिवंसृष्टंविमलंलघुषड्गुणम्॥
प्रकृत्यादिव्यमुदकंभ्रष्टंपात्रमपेक्षते॥१९२॥
आकाशका जल–स्वभावसे ही शीतल, स्वच्छ, शुभ, शुद्ध, निर्मल, हलका, मधुरादि षड्गुण संपन्न होताहै। पृथ्वीपर गिरजानेसे जैसे स्थानमें गिरे वैसे गुणवाला होजाताहै॥१९२॥
पात्रभेद से जलभेद।
श्वेतेकषायंभवतिपाण्डुरेचैवतिक्तकम्। कपिलकटुकंतोयमूषरेलवणान्वितम्। कटुपर्वतविस्त्रावेमधुरंकृष्णमृत्तिके॥१९३॥ एतत्षाड्गुण्यमाख्यातंमहीस्थस्यजलस्यहि। तथाव्यक्तरसंविद्यादैन्द्रकारंहिमञ्चतत्॥१९४॥
वह अन्तरिक्ष से गिरा जल, श्वेत भूमिमें गिरनेसे कषाय होताहै। पांडुरभूमिमें तिक्त होताहै। कपिलभूमिमें तिक्त होता है। ऊपरभूमिमें लवणांन्वित होता है। पर्वतोंमें गिराहुआ कटु होताहै, काली भूमिमें मधुर होताहै॥१९३॥ इस प्रकार पृथ्वीमें गिरे हुए जलके यह ६ गुण कहे हैं। आकाशसे गिराहुआ जल–अव्यक्त रस, शीतल तथा उत्तम गुणकारी होताहै। आकाशके जलको ऐन्द्रजल कहते हैं॥१९४॥
ऐन्द्रजलका गुण।
यदन्तरिक्षात्पततीन्द्रसृष्टञ्चोक्तञ्चपात्रेपरिगृह्यतेऽम्भः।
तदैन्द्रमित्येववदन्तिधीरानरेन्द्रपेयंसलिलंप्रधानम्॥१९५॥
जो जल आकाशसे गिरता हुआ पृथ्वीपर गिरने न पाये और पात्रमें ही ग्रहण कियाजाये वह जल राजाओंके पीने योग्य सब जलोंमें प्रधान मानाजाताहै॥१९५॥
ऋतावृताविहाख्याताः सर्वएवाम्भसोगुणाः। ईषत्कषायमधुरं सुसूक्ष्मंविषदंलघु॥१९६॥ अरूक्षमनभिष्यन्दिसर्वपानीयमुत्तमम्॥ गुर्वभिष्यन्दिपानीयवार्षिकंमधुरंसरम्॥१९७॥
ऋतु ऋतुके भेदसे जलोंके अलग गुण कहेजातेहैं। प्रायः सामान्यतासे जल–किचित् कसैला, मीठा, सूक्ष्म, विशद, हलका, चिकना, अनभिष्यन्दी इन गुणोंसे युक्त सब प्रकारके जलोंमें उत्तम होताहै । वर्षाऋतुका जल-भारी, क्लेदकारक, मीठा और दस्तावर होताहै॥१९६॥१९७॥
तनुलध्वनभिष्यन्दिप्रायःशरदिवर्षति॥ तत्तुयेसुकुमाराः स्युः स्निग्धभूयिष्ठभोजिनः॥१९८॥ तेषांभक्ष्येचभोज्येचलेह्येपेयेचशस्यते॥ हेमन्तेसलिलंस्निग्धंवृष्यंबल्यंहितंगुरु॥१९९॥
शरदऋतुका जल–सूक्ष्म, हुलका, और क्लेद रहित होता है इसलिये यह जल सुकुमार पुरुषोंको चिकना और अधिक भोजन करनेवालोंको भक्ष्य, भोज्य, लेह्य पदार्थोंमें तथा पीनेमें उत्तम कहा है।हेमन्त ऋतुका जल–चिकना, वीर्यवर्द्धक, बलकारक और भारी होताहै॥१९८॥१९९॥
किञ्चित्ततोलघुतरंशिशिरेकफवातजित्॥ कषायमधुरंरूक्षंविद्याद्वासन्तिकंजलम्॥ ग्रैष्मिकंत्वनभिष्यन्दिजलमित्येवनिश्चयः॥२००॥
शिशिरऋतुका जल–किंचित् हलका, कफ और वायुको जीतनेवाला होताहै। वसन्त ऋतुका जल–कषाय, मधुर और रूक्ष होताहै। ग्रीष्म ऋतुका जल–क्लेद–राहत और स्वच्छ होताहै॥२००॥
विभ्रान्तेष्वृतुकालेषुयत्प्रयच्छन्तितोयदाः॥
सलिलंतत्तुदोषाययुज्यतेनात्रसंशयः॥२०१॥
इस प्रकार ऋतुभेदसे जलका निश्चय कियागयाहै। विना ऋतुसे आगे पीछे वर्साहुआ जल दोषकारक होता है इसमें संदेह नहीं॥२०१॥
राजभीराजमात्रैश्चसुकुमारैश्चमानवैः॥
संगृहीताःशरद्यापःप्रयोक्तव्याविशेषतः॥२०२॥
राजालोग, धनाढ्य पुरुष तथा सुकुमार मनुष्य इनको प्रायःशरदऋतु में संग्रह किया जल पीना चाहिये॥२०२॥
हिमालयकी नदियोंके गुण।
नद्यःपाषाणविच्छिन्नविक्षुब्धाविमलोदकाः॥
हिमवत्प्रभवाःपथ्याःपुण्यादेवर्षिसेविताः॥२०३॥
हिमालय पर्वतसे निकली भई नदियोंका जल पत्थरोंसे आहत और विक्षोभित होताहै तथा निर्मल पुण्य देवर्षियोंसे सेवित एवम् पथ्य होता है॥२०३॥
मलयाचलकी नदियोंका गुण।
नद्यःपाषाणसिकतावाहिन्योविमलोदकाः।
मलयप्रभवायाश्चजलंतास्वमृतोपमम्॥२०४॥
मलयाचलसे निकली हुई नदियोंका जल पत्थर और रेतमें बहता हुआ निर्मल होताहै तथा अमृतके समान होताहै॥२०४॥
पश्चिमकी ओर बहनेवाली नदियोंका गुण।
पश्चिमाभिमुखायाञ्चपथ्यास्तानिर्मलोदकाः।
प्रायोमृदुवहागुर्व्योयाश्चपूर्वसमुद्रगाः॥२०५॥
पश्चिमके समुद्र में गिरनेवाली नदियोका जल पथ्य तथा निर्मल होताहै। तथा पूर्वके समुद्रमें गिरनेवाली नदियोका जल मृदुगामी और भारी होताहै॥२०५॥
अन्य नदियोंका जल।
पारियात्रभवायाश्चविन्ध्यसह्यभवाश्चयाः।
शिरोहृद्रोगकुष्ठानांताहेतुःश्लीपदस्यच॥२०६॥
पारियात्र पर्वत, विध्याचल तथा सह्याद्रिसे निकली नदियोंका जल–शिरोरोग, हृद्रोग, श्लीपद, तथा कुष्ठोको करनेवाला होताहै॥२०६॥
वसुधाकीटसर्पाखुमलसंदूषितोदकाः।
वर्षाजलवहानद्यःसर्वदोषसमीरणाः॥२०७॥
मट्टी तथा कीट, सर्प, और मूषक आदियोके मल इनसे दूषित होनेके कारण बरसाती नदियोंका जल सव दोषोंको कुपित करनेवाला होताहै॥२०७॥
कूपादि जलके गुण।
वापीकूपतडागोत्थसरःप्रस्रवणादिषु।
आनूपशैलधन्वानांगुणदोषैर्विभावयेत्॥२०८॥
बावडी, कूप, तालाव, सूहा, निर्झर और सरोवर आदिकोंका जल–अनूप शैल और जांगल देशके गुणोंके समान जानना। अर्थात् जिस देशमें जो बावडी आदिक होंगे वह उसीके अनुसार होगे॥२०८॥
वर्जित जल।
पिच्छिलंक्रिमिलंक्किन्नंपर्णशैवालकर्द्दमैः।
विवर्णंविरसंसान्द्रंदुर्गन्धिनहितंजलम्॥२०९॥
जो जल–गाढा, कृमियुक्त, क्लिन्न, पत्र और सिबार तथा कीचडयुक्त, रस और वर्णसे रहित, सान्द्र, और दुर्गंधित हो उसका कभी सेवन नहीं करना चाहिये ॥२०९॥
वित्रंत्रिदोषंलवणमम्बुयद्वरुणालयम्।
इत्यम्बुवर्गःप्रोक्तोऽयमष्टमःसुविनिश्चितः॥२१०॥
इति अम्बुवर्गः।
समुद्रका जल–विस्रगंधयुक्त, त्रिदोषकारक, लवणयुक्त होताहै। इस प्रकार जलवर्गनामक यह अष्टम वर्ग वर्णन किया गया॥२१०॥
इति जलवर्गः॥
अथ दुग्धवर्गः।
गोदुग्धके गुण।
स्वादुशीतंमृदुनिग्धंवहलंश्लक्ष्णपिच्छिलम्।गुरुमन्दंप्रसन्नञ्चगव्यंदशगुणंपयः॥२११॥ तदेवंगुणमेवौजःसामान्यादभिवर्द्धयेत्। प्रवरंजीवनीयानांक्षीरमुक्तंरसायनम्॥२१२॥
गौका दूध–स्वादु, शतिल, मृदु, स्निग्ध, वन, इलक्ष्ण, पिंच्छिल, गुरु, मंद, पवित्र इन १० गुणोंवाला होता है तथा इन गुणोंसे संपन्न होने से और ओजधातुके सात्म्य होनेसे ओजको बढानेवाला, श्रेष्ठ, जीवनदायक और रसायन होता है॥२११॥२१२॥
भैंसके दूधके गुण।
महिषीणांगुरुतरंगव्याच्छीततरंपयः।
स्नेहन्यूनमनिद्रायहितमग्नयेचतत्॥२१३॥
भैंसका दूध–गोदूधसे भारी, शीतल, अधिकलेहयुक्त, जिनको निद्रा नहीं आती और बलवान् अग्निवालोको परम हितकारक है॥२१३॥
ऊंटनीके दूधका गुण।
रुक्षोष्णंक्षीरमुष्ट्रीणामीषत्सलवणंलघु।
शस्तंबातकफानाहक्रिमिशोफोदरार्शसाम्॥२१४॥
ऊंटनीका दूध–रूक्ष, गर्म, किंचित् नमकीन और हलका होता है एवम् वात, कंफ, अफारा, कृमि, सूजन, उदररोग और बवासीरमें हितकारी होता है॥२१४॥
घोडीआदिके दूधका गुण।
बल्यंस्थैर्यकरंसर्वमुष्णञ्चैकशफंपयः।
साम्लंसलवणंरूक्षंशाखावातहरंलघु॥२१५॥
एक खुवाले जानवरोंका दूध–जैसे, घोडी, गधा आदिकोका दूध बलकारक, शरीरको दृढ करनेवाला, उष्ण, किंचित् अम्ल और नमकीन, रूक्ष तथा शाखागत वायु नष्ट करता है॥२१५॥
बकरीके दूधका गुण।
छागंकषायमधुरंशीतंग्राहिपयोलघु।
रक्तपित्तातिसारघ्नंक्षयकासज्वरापहम्॥२१६॥
** **वकरीका दूध–कसैला, मधुर, शीतल, ग्राही और हलका है तथा रक्तपित्त और अतिसार, क्षय, काश, ज्वर इनको नष्ट करता है॥२१६॥
भेड तथा हस्तिनीके दूधका गुण।
हिक्काश्वासकरन्तूष्णंपित्तश्लेष्मलमाविकम्।
हस्तिनीनांपयोबल्यंगुरुस्थैर्य्यकरंपरम्॥२१७॥
भेडका दूध–गर्म है तथा पित्तकफकारक, हिचकी तथा श्वासको उत्पन्न करनेवाला है।हथिनीका दूध–बलकारक, भारी, शरीरको परमदृढकरनेवाला होता है॥२१७॥
स्त्रीके दूधका गुण।
जीवनंबृंहणंसात्म्येस्नेहनंमानुषंपयः।
नावनंरक्तपित्तेचतर्पणञ्चाक्षिशूलिनाम्॥२१८॥
स्त्रीका दूध–जीवनदायक, पुष्टिकारक, सात्म्य, स्नेहन, रक्तपित्तमें नसवार और नेत्ररोगमें नेत्रतर्पणकें लिये परमहितकारक है॥२१८॥
दहीके गुण।
रोचनंदीपनंवृष्यंस्नेहनंबलवर्द्धनम्। पाकेऽम्लमुष्णवातघ्नंमङ्गलंबृंहणंदधि॥२१९॥ पीनसेचातिसारेचशीतकेविषमज्वरे। अरुचौमूत्रकृच्छ्रेचकार्श्येचदधिशस्यते॥२२०॥
दही–रुचिकारक, दीपन, वीर्यवर्द्धक, स्नेहन, बलवर्द्धक, पाक में अम्ल, उष्ण, वातनाशक, मंगलकारक एवम् पुष्टिजनक होताहै।दही–प्रतिश्याय, अतिसार, शीर्तकरोग, विषमज्वर, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र और कृशतारोगमें परम हितकारक है॥२१९॥२२०॥
दहीका निषेध।
शरग्रीष्मवसन्तेषुप्रायशोदधिगर्हितम्।
रक्तपित्तकफोत्थेषुविकारेष्वहितञ्चतत्॥२२१॥
शरद, ग्रीष्म और वसन्तऋतुमे दही नहीं खाना चाहिये। रक्तपित्त और कफसे उत्पन्नभये रोगोंमें भी दहीका खाना उचित नहीं॥२२१॥
मन्दकदहीके गुण।
त्रिदोषंमन्दकंजातंवातघ्नंदधिशुक्रलम्॥
सरःश्लेष्मानिलघ्नस्तुमण्डःस्रोतोविशोधनः॥२२२॥
मंदक दही अर्थात् विना जमा दूध–त्रिदोषकारक होताहै। दहीकी मलाई वातनाशक और वीर्यवर्द्धक होतीहै। दहीका तोड–दस्तावर, कफवातनाशक एवम रोममार्गको शुद्ध करनेवाला होताहै॥२२२॥
तक्रके गुण।
शोफार्शोग्रहणीदोषमूत्रकृच्छ्रोदरारुचि॥
स्नेहव्यापदिपाण्डुत्वेतक्रंदद्याद्गरेषुच॥२२३॥
तक्र–सूजन, अर्श, संग्रहणी, मूत्रकृच्छ्र, उदररोग, अरुचि, स्नेहपानसे उत्पन्न हुआ दोष, पांडुरोग, गरदोष. इन सबमें सेवन करना योग्य है॥२२३॥
नवनीतके गुण।
संग्राहिदीपनंहृद्यंनवनीतनबोद्धतम्॥
ग्रहण्यर्शोविकारघ्नमर्द्दितारुचिनाशनम्॥२२४॥
** **ताजामक्खन–संग्राही, दीपन, हृदयको हितकारी, ग्रहणीरोगनाशक, बवासीरनाशक, अर्दितरोगनाशक एवम् रुचिकारक है॥२२४॥
घृतका गुण।
स्मृतिबुद्ध्यशिशुक्रौजःकफमेदोविवर्द्धनम्॥
वातपित्तविषोन्मादशोषालक्ष्मीज्वरांपहम्॥२२५॥
सर्वस्नेहोत्तमंशीतंमधुरंरसपाकयोः॥
सहस्रवीर्य्यंविधिभिर्घृतकमसहस्रकृत्॥२२६॥
घृत–स्मृति, बुद्धि, अग्नि, वीर्य, ओज, कफ और मेद इनको बढानेवाला है तथा वात, पित्त, विषविकार, उन्माद, शोष, अलक्ष्मी, स्वरर्भगं इन सबको नष्ट करताहै। संपूर्ण स्नेहोंमें उत्तम है। रस तथा विपाकमें मधुर है।घृत सहस्रों द्रव्योंके संयोगसे अलग २ संस्कार किया सहस्र प्रकारके गुणोंको करता है॥२२५॥२२६॥
पुरानेघृतका गुण।
मदापस्मारमूर्च्छायशोषोन्मादगरज्वरान्॥
योनिकर्णशिरःशूलंघृतंजीर्णमपोहति॥२२७॥
पुराना घी–मदरोग, मृगी, मूर्च्छा, शोष, उन्माद, गर, ज्वर, योनि, कान तथा शिरके शूल इन सबको दूर करता है॥२२७॥
सर्पीष्यजाविमहिषीक्षीरवत्स्वानिनिर्दिशेत्॥ पीयूषोमोरटञ्चैवकिलाटाविविधाश्चये॥२२८॥ दीप्ताग्नीनामनिद्राणांसर्व एतेसुखप्रदाः॥ गुरवस्तर्पणावृष्यावृंहणाःपवनापहाः॥२२९॥
महिषी, भेड, बकरी इनके घृत–इनके दूधके समान गुणवाले जानने। पीयूष (तत्काल बिआई–गौका दूध), मोरट (खडी), किलाट (खोआ) ये सब बलवान् अग्निवालेको तथा जिनको निद्रा कम आती हो उनको परम सुखके देनेवाले हैं तथा भारी, तृप्तिकारक, वीर्यवर्द्धक, पुष्टकारक एवम वातनाशक होते हैं॥२२८॥२२९ ॥
तऋपिण्डिकाके गुण।
विषदागुरवोरुक्षाग्राहिणस्तक्रपिण्डकाः।
गोरसानामयंवर्गोनवसःपरिकीर्त्तितः॥२३०॥
इति गोरसवर्गः।
तक्रपिंड (पनीर)–स्वच्छ, भारी, रूक्ष और ग्राही होता है। इस प्रकार दूधवर्ग नामक यह नवम वर्ग समाप्तहुआ॥२३०॥
अथेक्षुवर्गः।
ईखके रसका गुण।
वृष्यःशीतःस्थिरःस्निग्धोबृंहणोमधुरोरसः।
श्लेष्मलोभक्षितस्येक्षोर्यान्त्रिकस्तुविदह्यते॥२३१॥
दांतोंसे चूसा हुआ ईखका रस–वीर्यवर्द्धक शीतल, दस्तावर, स्निध, पुष्टिकारक, मधुर और कफकारक होताहै।कोल्हुसे निकाला हुआ ईखका रस–विदग्धपाकी होता है। तथा उपरोक्त संपूर्ण गुणयुक्त भी होताहै॥२३१॥
पौंडा–गन्ना तथा गुड़के गुण।
शैत्यात्प्रसादान्माधुर्य्यात्पौण्ड्रकाद्वंशकोवरः।
प्रभूतक्रिमिमज्जासृङ्मेदोमांसकरागुडः॥२३२॥
पौंडा–शीतल, स्वच्छ और मीठा होता है। वंशकईख–गुणमें इससे अधिक है। गुड–कृमिकारक, मज्जा, रुधिर, मेद, मांस इनको करनेवाला होता है॥२३२॥
क्षुद्रोगुडश्चतुर्भागस्त्रिभागार्द्धार्द्धशोषितः।
रसोगुरुर्यथापूर्वंधौतंस्वल्पमलोगुडः॥२३३॥
गुड पकाते समय जिसमें चारभाग रस हो उस गुडसे जिसमें तीनभाग रसं बाकी रहगया वह गुड उससे दो भाग बाकी रहनेवाला तथा जिसमें आधाभाग रस गया हो यह क्रमपूर्वक पहिलेसे दूसरे भारी होतेहैं। शुद्ध किया गुड़ अल्प मलकारक होताहै॥२३३॥
मत्स्यण्डिकादिके गुण।
ततोमत्स्यण्डिकाखण्डशर्कराविमलाःपरम्।
यथायथैषांवैमल्यंभवेच्छैत्यंतथातथा॥२३४॥
गुडकी अपेक्षा राब, राबकी अपेक्षा खांड और खांडकी अपेक्षा बूरा तथा इनमें पूर्वकी अपेक्षा जो जितना निर्मल होगा वह गुणमें उतना ही शीतल होता जाताहै॥२३४॥
गुडशर्करादिके गुण।
वृष्याः क्षीणक्षतहिताः सस्नेहागुडशर्कराः।
कषायमधुराःशीताःसतिक्तायाःसशर्कराः॥२३५॥
गुड शर्करा (यवनाल शर्करा, क्षीरखिस्त)–वलकारक, क्षीण और क्षतमें हितकारी तथा स्निग्ध एवम् शुद्धदस्त लानेवाला है।यासशर्करा (करंजवीत)–कसैली, मधुर,शीतल किंचित् तिक्त तथा मलको शोधन करनेवाली होतीहै॥२३५॥
मधुशर्कराके गुण।
रुक्षावम्यतिसारघ्नीछेदनीमधुशर्करा।
तृष्णासृकृपित्तदाहेषुप्रशस्ताःसर्बशर्कराः॥२३६॥
मधुशर्करा–रूक्ष, वमन और अतिसारनाशक तथा मलको छेदन करनेवाली है। सब प्रकारकी खांड प्यास, रक्तपित्त और दाह इनको शान्त करनेवाली है॥२३६॥
शहतके भेद।
माक्षिकंभ्रामरंक्षौद्रंपौत्तिकंमधुजातयः।
माक्षिकंप्रवरंतेषांविशेषाद्भ्रामरंगुरु॥२३७॥
मधु–माक्षिक, भ्रामर, क्षौद्र, पौत्तिक इन भेदोंसे चार प्रकारका होता है।इन सबमें माक्षिक मधु उत्तम है और भ्रामरमधु संवकी अपेक्षा भारी है॥२३७॥
शहतके रंग।
माक्षिकंतैलवर्णंस्याच्छेतंभ्रामरमुच्यते।
क्षौद्रन्तुकपिलंविद्याद्घृतवर्णन्तुपौत्तिकम्॥२३८॥
माक्षिकमधु तैलके वर्णका होताहै। भ्रामर मधु श्वेत होताहै। क्षौद्रमधु कपिलवर्णका होताहै। पौत्तिकमधु घृतके वर्णका होता है॥२३८॥
शहतके गुण।
वातलंगुरुशीतञ्चरक्तपित्तकफापहम्।
सन्धातृच्छेदनंरूक्षंकषायमधुरंमंधु॥२३९॥
मधु–वातकारक, भारी, शीतल, रक्तपित्तनाशक, कफनाशक, संधानकारक, छेदक, रूक्ष, कषाय और मधुर होता है॥२३९ ॥
हन्यान्मधूष्णमुष्णार्त्तमथवासविषान्वयात्।
गुरुरुक्षकषायत्वाच्छेत्याच्चाल्पंहितंमधु॥२४०॥
क्योकि मक्खिया सब प्रकारके पुष्पोंमेसे रस लेतीहै उनमें कुछ ऐसे पुष्प भी होतेहैं जो विपके समान है इस लिये मधुको विषके सम्पर्क होनेसे गर्म करके गर्म औषधिके साथ गर्मीसे व्याकुल मनुष्योको नहीं खाना चाहिये क्योंकि ऐसा होनेसे मधु विषके समान प्राणनाशक होता है।मधु–भारी, रूक्ष, कषाय तथा शीतल होनेसे थोडा खाना हितकारक होताहै॥२४०॥
मधुके गुण।
नातःकष्टतमंकिञ्चिन्मध्वामात्तद्धिमाधवम्।उपक्रमविरोधित्वात्सद्योहन्याद्यथाविषम्॥२४१॥आमेसोष्णाक्रियाकार्य्या सामध्वामेविरुध्यते। मध्वामंदारुणंतस्मात्सद्योहन्याद्यथाविषम्॥१४२॥
मधुके अधिक सेवन करनेसे यदि पेटमें आम प्रगट होजाय तो उसको मध्वाम कहते हैं। इससे बढकर कष्टदायक दूसरा रोग नहीं है। क्योंकि इसकी चिकित्सामें उपक्रम विरोध होनेसे चिकित्सा करना कठिन पडताहै। प्रायः आमरोगमें उष्णक्रिया करना आवश्यक होता है वह उष्णक्रिया मध्याममें विरोधी पडतीहै अतएव यह रोग दारुण और विषके समान प्राणनाशक होता है॥२४१॥२४२॥
मधुको योगवाहित्व।
नानाद्रव्यात्मकत्वाच्चयोगवाहिहिमंमधु।
इतीक्षविकृतिप्रायोवर्गोऽयंदशमोमतः॥२४३॥
इति इक्षुवर्गः।
मधु अनेक गुणवाले द्रव्योके पुष्पोंसे संग्रह कियाजाताहै इसलिये अनेक द्रव्यों के साथ इसका उपयोग करनेमें आताहै। यह योगवाही और शीतल है। इसप्रकार यह इक्षुवर्ग नामक दशमवर्ग समाप्त हुआ॥२४३॥
अथकृतान्नवर्गः।
क्षुत्तृष्णाग्लानिदौर्बल्यकुक्षिरोगविनाशिनी।
स्वेदाग्निजननीपेयावातवर्चोऽनुलोमनी॥२४४॥
पेया–क्षुधा, तृषा, ग्लानि, दुर्बलता, कुक्षिरोग इन सबको शान्तकरतीहैं।स्वेद उत्पादक अग्नि एवम् अधोवात और मलको निकालनेवाली है॥२४४॥
तर्पणीग्राहिणीलध्वीहृद्याचापिविलेपिका॥२४५॥ मण्डस्तु दीपयत्यग्निंवातञ्चाप्यनुलोमयेत्॥ मृदूकरोतिस्रोतांसिस्वेदंसंजनयत्यपि॥२४६॥ लंघितानांविरिक्तानांजीर्णेस्त्रेहेचतृष्यताम्॥दीपनत्वाल्लघुत्वाच्चमण्डःस्यात्प्राणधारणः॥२४७॥
विलेपी–तृप्तिकर्त्ता, ग्राही, हलकी एवम हृदयको प्रिय होतीहै।मंड–अग्निदीपक, वायुको अनुलोमनकर्त्ता, स्रोतोंको मृदु करनेवाला और स्वेदजनक होताहै। लंघन करनेवाले मनुष्योंको, विरिक्त मनुष्योंको और स्नेहजीर्ण होनेपर दीपन और हलका होनेसे मंड पिलाना प्राणधारक होता है॥२४५॥२४६॥२४७॥
लाजमण्डके गुण।
शतः पिप्पलिशुण्ठीभ्यांयुक्तोलाजाम्लदाडिमैः। तृष्णातीसारशमनोधातुसाम्यकरःशिवः॥ लाजमण्डोऽग्निजननो दाहूमचर्च्छानिवारणः॥२४८॥ मन्दाग्निविषमाग्नीनांबालस्थविरयोषिताम्। देयश्चसुकुमाराणांलाजमण्डःसुसंस्कृतः॥ क्षुत्पिपासासहः पथ्यः शुद्धानान्तुमलापहः॥२४९॥
धानोंकी खीलोंका बनायाहुआ मांड–पीपल, सोठ और खट्टे अनारोंका रस युक्त कर पीनेसे तृष्णा और अतिसार शान्त करताहै और धातुओको साम्यावस्थामें लाताहै, शुभ है, अग्निजनक, दाह और मुर्च्छाको निवारण करनेवालाहै। यह अच्छे प्रकार बनायाहुआ लाजामंड मंदाग्नि वालोंको, विषमाग्निवालको, बालकोंको, वृद्धोंको, स्त्रियोंको, सुकुमार पुरुषोको, क्षुधा, पिपासाके शान्तिके लिये देनाचाहिये। यह संशोधित मनुष्योंको पथ्य है एवम् मलका निकालनेवाला है॥२४८॥२४९॥
भातके गुण।
सुधौतःप्रसुतःस्विन्नःसन्तप्तश्चौदनोलघुः। भृष्टतण्डुलमिच्छन्तिगरश्लेष्मामयेष्वपि॥२५०॥ अधौतःप्रस्रुतः स्विन्नःशीतश्चाप्योदनोगुरुः॥२५१॥
चावलोंको भले प्रकार धोकर सिद्ध करे और उनकी पीछ वगैरह दूरकर उत्तम तैयार होजानेपर इनका गर्मगर्म भोजन करना हलका और उत्तम कहाहै।विषदोष और कफके विकारमें चावलोंको भूनकर भात सिद्ध होनेपर देनाचाहिये। विना वोयेहुए, विना पीछ निकाले सिद्धकिया भात एवं शीतलभात भक्षण किया हुआ भारी तथा गुरुपाकी होताहै॥२५०॥२५१॥
मांसशाकवसातैलघृतमजाफलौदनाः।
बल्याःसन्तर्पणाढद्यागुरवोबृंहयन्तिच॥२५२॥
मांस, शाक, वसा (चर्बी), तैल, घृत, मज्जा एवम् फलोंके साथ सिद्ध किया हुआ अन्न बलकारक, तृप्तिकारक, हृद्य, भारी, पुष्टिकारक होताहै॥२५२॥
कुलमाषके गुण।
तद्वन्माषतिलक्षीरमुद्गसंयोगसाधिताः।
कुल्माषागुरवोरुक्षावातलाभिन्नवर्चसः॥२५३ ॥
उसीके समान उडद, तिल, दूध, मूंग इनके संयोगसे सिद्धकिया हुआ अन्न भी उपरोक्त गुणवाला होता है। कुल्माष (गेहू और चनेका होला )–भारी, रूक्ष वातकारक एवम मलभेदक होता है॥२५३॥
स्विन्नभक्ष्यास्तुयेकेचित्सौप्यगोधूमयावकाः।
भिषक्तेषांयथाद्रव्यमादिशेद्गुरुलाघवम्॥२५४॥
दाल, गेहूं, यव–इनसे सिद्ध किये भोजनमें उस पदार्थके अनुसार गुरु और लाघव जानकर वैद्य कथन करे॥२५४॥
कृताकृतयूषके गुण।
अकृतंकृतयूषञ्चतनुसंस्कारितंरसम्।
सूपमम्लमनलञ्चगुरुंविद्याद्यथोत्तरम्॥२५५॥
विना घृत, मसालेवाला यूष एवम् घृत मसालायुक्त यूप, पतला संस्कार किया हुआ रस, खटाई युक्त दाल, खटाई रहित दाल, यह सब क्रमपूर्वक एकसे दूसरा उत्तरोतर भारी जानना॥२५५॥
सत्तूके गुण।
सक्तवोवातलारूक्षाबहुवर्चोऽनुलोमिनः।
तर्पयन्तिनरंसद्यःपीताःसद्योबलाश्चते॥२५६॥
सत्तू जलमें घोलकर पिये हुए–वातकारक, रूक्ष, मलवर्द्धक, अनुलोमन, भूखे मनुष्यको शीघ्र तृप्त करनेवाले तथा शीघ्र बल देनेवाले होते हैं॥२५६ ॥
शालिधान्यका सत्तू।
मधुरालघवःशीतासक्तवःशालिसम्भवाः।
ग्राहिणोरक्तपित्तघ्नास्तृषाछर्दिज्वरापहाः॥२५७॥
शालीचावलोंके सत्तू–मधुर हलके, शीतल, ग्राही, रक्तपित्तनाशक, तृपानाशक एवम् वमन तथा ज्वरको शान्त करतेहैं॥१५७॥
जौकी रोटियोंका गुण।
हन्याद्व्याधन्यिवापूपायावकोवाट्यएवच।
उदावर्त्तप्रतिश्यायकासमेहगलग्रहान्॥२५८॥
यवके पूढे और वाटियें–उदावर्त्त, प्रतिश्याय, खांसी प्रमेह और गलग्रहको नष्ट करते हैं॥२५८॥
जौकी धानीके गुण।
धानासंज्ञास्तुयेभक्ष्याःप्रायस्तेलेखनात्मकाः।
शुष्कत्वात्तर्षणाश्चैवविष्टम्भित्वाञ्चदुर्जराः॥२५९॥
धाना (भुनेहुए यव या गेहूं)–प्रायः लेखन होते हैं और शुष्क होनेसे तृषाजनक होते हैं तथा विषटम्भी होनेसे दुर्जर होते हैं॥२५९॥
विरूढधानाके गुण।
विरूढधानाःशकुल्योमधुक्रोडाःसपिण्डिकाः।
सूपाःपूपुलिकाद्याश्चगुरवःपैष्टिकाःपरम्॥२६०॥
‘पिष्ट धान्योकी शष्कुली, मीठी गुझियं, लड्डू, पूडे, पूडियें और कचौरियें ये सब अत्यन्त भारी होते हैं ॥२६०॥
फलादिसंस्कृतके गुण।
फलमांसवसाशाकपललक्षौद्रसंस्कृताः।
भक्ष्यावृष्याश्चबल्याश्चगुरवोबृंहणात्मकाः॥२६१॥
फल, मांस, चर्वी, शाक, पल्वल, शहद इन सबके संयोगसे सिद्धकिये भोजनके पदार्थ–वीर्यवर्द्धक, बलकारक, भारी और पुष्टिजनक होते हैं॥२६१॥
बेशवारके गुण।
वेशवारोगुरुःस्निग्धोबलोपचयवर्द्धनः।
गुरवस्तर्पणावृष्याःक्षीरेक्षरससूपकाः॥२६२॥
बेसवार (पिष्ठमांस)–भारी, स्निग्ध और बलवर्द्धक होताहै। दूध और खांडसे बनाईहुई खीर–भारी, तृप्तिकारक एवम् वीर्यवर्द्धक होती है॥२६२॥
सगुडाः सतिलाञ्चैवसक्षीरक्षौद्रशर्कराः।
वृष्याबल्याश्चभक्ष्यास्तुतैपरंगुरुवः स्मृताः॥२६३ ॥
गुड, तिल, दूध, शहद, खांड इनसे बने पदार्थ–वीर्यवर्द्धक, बलकारक, एवम्, अत्यन्त भारी होते हैं॥२६३ ॥
गेहूंके पदार्थके गुण।
सस्नेहाःस्नेहसिद्धाश्चभक्ष्याविविधलक्षणाः।
गुरवस्तर्पणावृष्याहृद्यागोधूमिकामताः॥२६४॥
चिकनाईयुक्त एवम् घृतमेसिद्ध किये हुए गेहूंके आटेके पदार्थ–भारी, तृप्तिकारक वीर्यवर्द्धक एवम हृदयको प्रिय होते है॥२६४॥
संस्काराल्लघवःसन्तिभक्ष्यागोधूमपैष्टिकाः।
धानापर्पटपूपाद्यास्तानबुद्धानिर्दिशेत्तथा॥२६५॥
संस्कारविशेषसे गेहूंके बने पदार्थ हलके भी होते हैं। जो धानिये, और भारी कहना पापड, पूडे आदिक पदार्थ हैं इन सबको संस्कारविशेषसे हलके चाहिये॥२६५॥
पृथुकागुरवोभृष्टान्भक्षवेदल्पशस्तुतान्।
यावाबिष्टभ्यजीर्य्यन्तिसतुषाभिन्नवर्चसः॥२६६॥
चूडा–भारी होताहै इनको भूनकर थोडा खाना चाहिये। यवके चूडे–विष्टम्भ करके पाचन होते हैं। यदि तुषों सहित हो मलके भेदन करनेवाले होते हैं॥२६६॥
सूप्यान्नविकृताभक्ष्यावातलारूक्षशीतलाः॥
सकटुस्नेहलवणानल्पशोभक्षयेत्तुतान्॥२६७॥
उडद आदिकी दालसे बने हुए यूष–रूक्ष, शीतल और वायुकारक होते हैं इस लिये उनको पीपल, मिर्च, सोंठ मिलाकर तथा घृतयुक्त कर थोडा खाना चाहिये॥२६७॥
पाकके गुण।
मृदुपाकाश्चयेभक्ष्याःस्थूलाञ्चकठिनाश्चये॥
गुरवस्तेऽप्यतिक्रान्तपाकाःपुष्टिबलप्रदाः॥२६८॥
स्थूल और कठिनद्रव्य जो मृदुपाकी होते हैं वह सव भारी, देरमें पचनेवाले, पुष्टिकारक और बलके देनेवाले होतेहैं॥२६८॥
द्रव्यसंयोगसंस्कारंद्रव्यमामंपृथक्तथा।
भक्ष्याणामादिशेद्बुद्धायथास्वंगुरुलाघवम्॥२६९॥
बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि संपूर्ण भक्षण करनेके पदार्थोंको द्रव्य, संयोग, संस्कार, मान विशेषसे यथोचित रीतिपर जानकर उनके अनुसार गुरु, लघु आदि कथन करे॥२६९॥
रसालाके गुण।
रसालाबृंहणीवृष्यास्निग्धावल्यारुंचिप्रदा।
स्नेहनंतर्पणंहृद्यंवातघ्नंसगुडंदधि॥२७०॥
शिखरन–वीर्यवर्द्धक, पुष्टिकारक, स्निग्ध, बलवर्द्धक एवम् रुचिकारक होताहै। गुडयुक्त दही–तृप्तिकारक, स्नेहन और वातनाशक होता है॥२७०॥
पानकके गुण।
द्राक्षाखर्जूरकोलानांगुरुविष्टम्भिपानकम्।
परूषकाणांक्षौद्रस्ययच्चेक्षविकृतिप्रति॥२७१॥
तेषांकट्वम्लसंयोगाःपानकानांपृथक्पृथक्।
द्रव्यमानञ्चविज्ञायगुणकर्माणिचादिशेत्॥२७२॥
मुनक्का, खजूर, उन्नाव इनसे बनाया हुआ पानक भारी और विष्टम्भी होती है। फालसेका रस और शहदसे बनाया हुआ पानक तथा खांड विशेषसे बनाया हुआपानक उनके चरपरे, खट्टे आदि गुणांसे तथा संयोग और द्रव्य मानको जानकर गुण कर्माको कथन करे।इसी प्रकार प्रायः सबफलोंके पानक (शरवत) जानने चाहिये॥२७१॥२७२॥
रागषाडवके गुण।
कट्वम्लस्वादुलवणालघवोरागषाडवाः।
मुखप्रियाश्चहृद्याश्चदीपनाभक्तरोचनाः॥२७३॥
रागखांडव–चरपरे, अम्ल, मधुर, नमकीन, हलके, मुखप्रिय हृद्य, दीपन और भोजनमें रुचि करनेवाले होते हैं॥२७३॥
आम और आंवलेका अवलेह।
आम्रामलकलेहाश्वबृंहणाबलवर्द्धनाः।
रोचनास्तर्पणाश्चोक्तास्नेहमाधुर्य्यगौरवात्॥२७४॥
पके हुए आम और आमले के संयोगसे बनाई हुई चटनी–चिकनी मीठी, भारी, से
बलवर्द्धक, बृंहण, रुचिकारक तथा तृप्तिकारक होतीहै॥२७४॥
बुद्धासंयोगसंस्कारंद्रव्यमानञ्चतत्स्मृतम्।
गुणकर्माणिलेहानांतेषांतेषांतथावदेत्॥२७५॥
जितने प्रकार के लेह पदार्थ हैं वह सब संयोग, संस्कार द्रव्य परिमाण इनके भेदसे उनके गुण कर्मोंको कथन करे॥२७५॥
शुक्तके गुण।
रक्तपित्तकफोत्क्लेदिशक्तंवातानुलोमनम्।
कन्दमूलफलाद्यञ्चतद्वद्विद्यात्तदासुतम्॥२७६॥
कंद, मूल, फल आदिकोका अचार–रक्तपित्त, कफ इनको उत्क्लेश करनेवाला तथा वातको अनुलोम करनेवाला होताहै। शिरकेमें डाला हुआ अचार भी उन्हीके समान गुणवाला होताहै॥२७६॥
शिण्डाकीका गुण।
शिण्डाकीचासुतञ्चान्यत्कालाम्लंरोचनंलघु।
विद्याद्वर्गंकृतान्नानामेकादशतमंभिषक्॥२७७॥
इति कृतान्नवर्गः।
चटनिये, अचार, कांजी आदि सब प्रकारकी खटाई रुचिकारक और हलकी होतीहै। इसप्रकार कृतान्नवर्ग नामक एकादश वर्ग समाप्त हुआ॥२७७॥
अथाहारयोगवर्गः।
तैलके गुण।
कषायानुरसंस्वादुसूक्ष्ममुष्णंव्यवायिच। पित्तलंबद्धविण्मूत्रंनचश्लेष्माभिवर्द्धनम्॥२७८॥ वातघ्नेषूत्तमंबल्यंत्वच्यंमेधाग्निवर्द्धनम्। तैलंसंयोगसंस्कारात्सर्वरोगापहंमतम्॥२७९॥
तिलोंका तेल–कषाय, अनुग्स, स्वादु, सूक्ष्म, उष्ण, व्यवायी, पित्तवर्द्धक, मल मूत्रको बांधनेवाला तथा कफवर्द्धक नहीं है। वातनाशकोंमें उत्तम, बलकारक, त्वचाको उत्तम बनानेवाला, मेधा और अग्निको बढानेवाला होता है एवम् औषधियोंके संयोगसे सिद्ध किया तैल संपूर्ण रोगोंको नष्ट करता है॥२७८॥२७९॥
तैलकी उत्कृष्टतामें दृष्टान्त।
तैलप्रयोगादजरानिर्विकाराजितश्रमाः।
आसन्नातिबलाःसंख्येदैत्याधिपतयःपुरा॥२८०॥
किसी समयमें दैत्योंके राजा तैलके प्रयोगसे अजर, निर्विकार, श्रमरहित एवम् ललडनेमें अत्यन्त बलवान् हुए थे। (यदि मनुष्यभीविधिवत् तैलका उपयोग करे तो बलवान् तथा उपरोक्त गुणोंवाला होसकताहै परन्तु तैल मर्दन करनेसेही अधिक गुण करता है॥२८०॥
अरण्डतैलके गुण।
ऐरण्डतैलंमधुरंगुरुश्लेष्माभिवर्द्धनम्।
वातासृग्गुल्महृद्रोगजीर्णज्वरहरंपरम्॥२८१॥
एरंड तैल–मधुर, भारी, कफवर्द्धक तथा वात, रक्त, गुल्म, हृद्रोग, जीर्णज्वर इनको हरनेवाला है॥२८१॥
सरसोंके तैलके गुण।
कटूष्णंसार्षपंतैलंरक्तपित्तप्रदूषणम्।
कफशुक्रानिलहरंकण्डूकोठविनाशनम्॥२८२॥
सरसोंका तेल–कटु, उष्ण, रक्तपित्तको दूपित करनेवाला, कफ, शुक्र एवम् वायुको हरनेवाला तथा खुजली कोष्ठ आदि त्वचाके रोगांको नष्ट करता है॥२८२॥
पियालके तैलके गुण।
पियालतैलंमधुरंगुरुश्लेष्माभिवर्द्धनम्।
हितमिच्छन्तिनात्यौष्ण्यात्संयोगेवातपित्तयोः॥२८३॥
चिरौंजीका तेल–मीठा भारी, कफ वर्द्धक तथा अत्यन्त गर्म न होनेसे द्रव्य के संयोग द्वारा वातपित्तको नष्ट करता है॥२८३॥
अलसीके तैलके गुण।
आतस्यंमधुराम्लन्तुविपाकेकटुकंतथा।
उष्णवीर्य्यंहितंवातेरक्तपित्तप्रकोपनम्॥२८४॥
अलसीका तेल–मीठा, अम्ल, विपाकमें कटु, उष्णवीर्य, वातरोगोंमें हित एवम् रक्तपित्तको कुपित करनेवाला है॥२८४॥
कसूमके तैलके गुण।
कुसुम्भतैलसुष्णञ्चविपाकेकटुकंगुरु।
विदाहिचविशेषेणसर्वरोगप्रकोपनम्॥२८५॥
कुसुम्भके बीजोंका तेल–गर्म, विपाकमें कटु, भारी, विशेषकर विदाही, एवम्–सर्व दोषेंको कुपित करनेवाला है॥२८५॥
फलोंके तैलके गुण।
फलानांथानिचान्यानितैलान्याहारसन्निधौ।
युज्यन्तेगुणकर्मभ्यांतानिब्रूयाद्यथायथम्॥२८६॥
इसीप्रकार अनेक प्रकारके फलोंके तैलाको आहारके संयोगमे गुणकर्मो करके उनके गुणोको कथन करे॥२८६॥
मज्जावसाके गुण।
मधुरोबृंहणोवृष्योबल्योमज्जातथावसा।
यथासत्त्वन्तुशैत्योष्णेवसामज्ज्ञोर्विनिर्दिशेत्॥२८७॥
मज्जा और चर्बी ये दोनो–मधुर, पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, बलकारक होती हैं। शीतगुणविशिष्ट तेलोको गर्मीमें तथा उष्णगुणविशिष्ट तेलोंको सदर्दीमें उपयोग करे॥२८७॥
सोंठके गुण।
सस्नेहंदीपनंवृष्यमुष्णवातकफापहम्।
विपाकमधुरंहृद्यंरोचनंविश्वभेषजम्॥२८८॥
सोंठ–चिकनी, दीपन, वृष्य, उष्ण वातकफनाशक, विपाकमें मधुर, हृद्य और रुची कारक है॥२८८॥
पीपलके गुण।
श्लेष्मलामधुराचार्द्रागुर्वीस्निग्धाचपिप्पली।
साशुष्काकफवातघ्नीकटुकावृष्यसम्मता॥२८९॥
कच्चीपीपल–कफकारक, मधुर, भारी, एवम् स्निग्ध होतीहै। सूखी पीपल–कफ–वात नाशक चरपरी एवं वीर्यवर्द्धक होती है॥२८९॥
मिरचके गुण।
नात्यर्थमुष्णंमरिचमवृष्यंलघुरोचनम्।
छेदित्वाच्छोषणत्वाच्चदीपनंकफवातजित्॥२९०॥
कालीमिर्च–अधिक गर्म नहीं है। अवृष्य, हलकी एवम् रुचिकारक है तथा छेदी होनेसे और शोषण होनेसे दीप्तिकारक एवम् वातकफनाशक है॥२९०॥
हींगके गुण।
वातश्लेष्मविबन्धघ्नंकटुकंदीपनंलघु।
हिंगुशूलप्रशमनंविद्यात् पाचनरोचनम्॥२९१॥
होंग–चात, कफ, विबंध इनको नष्ट करनेवाली, कटु, उष्ण, दीपन, लघु, शुलनाशक, पाचन और रुचिकारक है॥२९९॥
सेन्धानमकके गुण।
रोचनंदीपनंहृद्यंचक्षुष्यमविदाहिच।
त्रिदोषघ्नंसमधुरंसैन्धवंलवणोत्तमम्॥२९२॥
सेंधानमक–रुचिकारक, दीपन, हृदयको प्रिय, नेत्रोंको हितकारी, अविदाही, त्रिदोषनाशक, एवम् मधुर होताहै॥२९२॥
संचलनमकके गुण।
सौक्ष्म्यादौष्ण्याल्लघुत्वाच्चसौगन्ध्याच्चरुचित्रदम्।
सौवर्च्चलंविबन्धघ्नंहृद्यमुद्वारशोधिच॥२९३॥
संचर नमक–सूक्ष्म होनेसे तथा उष्ण होनेसे एवम् हलका और सुगंधित होने से रुचिकारक, विबंध नाशक हृद्य तथा उद्गारको शुद्ध करता है॥२९३॥
विडनमकके गुण।
तैक्ष्ण्यादौष्ण्याद्व्यवायित्वाद्दीपनंशूलनाशनम्।
ऊर्द्धञ्चाधश्चवातानामानुलोम्यकरंविडम्॥२९४॥
विडनमक–तीक्ष्ण होनेसे, उष्ण होनेसे एवम् व्यवायी होनेसे दीपन, शूलनाशक, ऊपर और नीचेके भागोमें होनेवाली वायुको अनुलोमन करता है॥२९४॥
उद्भिदनमकके गुणं।
सतिक्तकटुसक्षारंतीक्ष्णमुत्क्लेदिचौद्भिदम्॥
नकाललवणेगन्धःसौवर्च्चलगुणाश्चते॥२९५॥
उद्भिद नमक ( खारी नमक ) किंचित् कडुआ, चरपरा, खारा, तीक्ष्ण तथा उत्क्लेदकारक है। कालानमक–गंधहीन होता है और सब गुण संचरनमकके समान होताहै॥२९५॥
समुद्रादिलवणके गुण।
सामुद्रकंसमधुरंसतिक्तंकटुपांशुजम्॥
रोचनंलवणंसर्वपाकिस्रंस्यनिलापहम्॥२९६॥
सामुद्रनमक किचित् मधुर होता है।पांगुलवण किचित् तिक्त और कटु होताहै। प्रायः सब प्रकारके लवण रुचिकारक, पाचन, दस्तावर, एवम् वातनाशक होतेहैं॥२९६॥
जवाखारके गुण।
हृत्पाण्डुग्रहणीदोषप्लीहानाहगलग्रहान्।
कासंकफजमर्शंसियावशूकोव्यपोहति॥२९७॥
जवाखार–हृद्रोग, पांडुरोग, ग्रहणी, प्लीहा, अफरा, गलग्रह, कफकी खांसी और बवासीरको नष्ट करताहै॥२९७॥
क्षारोंके गुण।
तीक्ष्णोष्णोलघुरूक्षश्चक्लेदीपाकीविदारणः।
दहनोदीपनश्छेत्तासर्वःक्षारोऽग्निसन्निभः॥२९८॥
प्रायः सब प्रकार के क्षार–तीक्ष्ण, गर्म, लघु, रूक्ष, क्लेंदी, पाचनकर्त्ता, विदारण, दाहन, दीपन, छेदन और अनिके समान होते हैं॥२९८॥
जीरा और धनियाका गुण।
कारव्यःकुञ्जिकाजाजीकवरीधान्यतुम्बुरुः।
रोचनंदीपनंवातकफदौर्गन्ध्यनाशनम्॥२९९॥
कलौंजी, कालाजीरा, अजवायन, सफेद जीरा, मेथी, नैपाली धनिया, तुबरु, ये सब रुचिकारक, दीपन, वातकफनाशक एवम् दुर्गंधनाशक होते हैं॥२९९॥
आहारयोगिनांभक्तिनिश्चयोनतुविद्यते
समाप्तोद्वादशश्चायंवर्गआहारयोगिनाम्॥३००॥
इत्याहारयोगवर्गः।
आहारके उपयोगी पदार्थों में कहांपर कौन वस्तुएं कितनी डालनी चाहिये इसका कोई यथार्थ नियम नहीं है। इस प्रकार आहारोपयोगी नामक द्वादशवर्ग समाप्त हुआ ॥३००॥
शूकधान्यंशमीधान्यंसमातीतंप्रशस्यते।
पुराणंप्रायशोरूक्षंप्रायेणाभिनवंगुरु॥३०१॥
शूकधान्य और शमीधान्य एकवर्षके पुराने होनेसे हितकारी होते हैं। पुराने धान्य प्रायः रूक्ष होते हैं और नवीन धान्य भारी होते हैं॥३०१॥
यद्यदागच्छतिक्षिप्रंतत्तल्लघुतरं स्मृतम्॥३०२॥
जो धान्य शीघ्र परिपाकको प्राप्त होते हैं वह उतने ही हलके होते हैं॥३०२॥
निस्तुषंयुक्तिभृष्टन्तुसूप्यंलघुविपच्यते॥३०३॥
तुषरहित युक्तिपूर्वक सुनी हुई दाल लघुपाकी होती है॥३०३॥
वर्जित माँस।
मृतंकेशातिमेध्यञ्चवृद्धंवालंविषैर्हतम्।
अगोचरभृतंव्याडमृदितंमांसमुत्सृजेत्॥३०४॥
अपने आप मराहुआ कृश, सडाबुसा, वृद्ध, वाल, विष आदिसे मरा हुआ, अपरोक्ष मराहुआ, व्याघ्र आदिका माराहुआ ऐसे जीवोंका मांस त्यागदेने योग्य है॥३०४ ॥
मांसरसका गुण।
अतोऽन्यथाहितंमांसंबृंहणंबलवर्द्धनम्। प्रीणनःसर्वभूतानांहृद्योमांसरसःपरम्॥३०५॥शुष्यतांव्याधियुक्तानांकृशानांक्षीणरेतसाम्॥बलवर्णार्थिनाञ्चैवरसंवियाद्यथामृतम्॥३०६॥
इनसे सिवाय प्रायः संपूर्ण जीवोंका मांस पुष्टिकारक और बलवर्द्धक होता है। मांसरस—सब मनुष्यों के लिये प्रीणन और हृद्य होता है तथा सूखेहुए शरीरवालोंको अथवा शोषरोगवालोंको, कृश मनुष्योंको, क्षीणवीर्यवालोंको, बल वर्णकी इच्छावालोंको मांसरस अमृतके समान है॥३०५॥३०६॥
सर्वरोगप्रशमनंयथास्वविहितंरसम्। विद्यात्स्वर्य्यंबलकरंवयोबुद्धीन्द्रियायुषाम्॥३०७॥व्यायामनित्याःस्त्रीनित्यामयनित्याश्च-येनराः।नित्यंमांसरसाहारानातुराःस्युर्नदुर्बलाः॥३०८॥
मांसरस द्रव्यविशेषके संयोगसे सिद्ध किया जानेपर संपूर्ण रोगको नष्ट करता है तथा स्वरकारक, बलवर्द्धक, अवस्था स्थापक, बुद्धिवर्द्धक, इन्द्रियोंका वल तथा आयुको बढ़ानेवाला है। व्यायाम करनेवाले मनुष्योंको, स्त्री सेवन करनेवालोंको, सुरापियोको नित्य मांसरसका आहार करना चाहिये।मांसरस सेवन करने से रोगग्रस्त मनुष्य भी दुर्बल नहीं होते ॥३०७॥३०८॥
वर्जित शाक।
क्रिमिवातातपहतंशुष्कंजीर्णमनार्त्तवम् ।
शाकंनिःस्नेहसिद्धञ्चवर्ज्यंयच्चापरिस्रुतम्॥३०९॥
कीडेका खाया हुआ, वायुका माराहुआ, सूखा, धूपसे जलाहुआ, पुराना, वेमौसम, बिना चिकनाई से बनाया हुआ, जिस शाकको उबालकर पानी न निकालाहो अथवा जो साफ न कियागयाहो ऐसा शाक खाने योग्य नहीं होता॥३०९॥
वर्जित फल ।
पुराणमामंसंक्लिष्टंक्रिमिव्यालहिमातपैः।
अदेशाकालजंक्लिन्नंयत्स्यात्फलमसाधुतत्॥३१०॥
पुराना, कच्चा, सडाहुआ, कीडे सर्प आदिका खाया हुआ, धूपसे मुर्झाया हुआ, सर्दीसे माराहुआ, खराब भूमिमें उत्पन्न भया, वे समय उत्पन्न भया, दुर्गंधयुक्त ऐसे फलको निदनीय समझ त्याग देवे। अर्थात् कभी न खाये॥३१०॥
हरितानांयथाशाकंनिर्देशंसाधनादृते॥३११॥
सब प्रकार के सब्जियोंको पत्र शाकोके समान संस्कार कर खाना चाहिये परन्तु इनको उबालकर शाके समान निचोडना नहीं चाहिये॥३११॥
मयाम्बुगोरसादीनांस्वेस्वेवर्गेविनिश्चयः॥३१२॥
मद्य, जल, दूध, आदिकोंके गुणदोष उनके वर्गोमें कथन कियेगये हैं॥३१२॥
अनुपानका वर्णन।
यदाहारगुणैः पानंविपरीतंतदिष्यते।अम्लानुपानंधातूनांदृष्टं6 यन्नविरोधिच॥३१३॥आसवानांसमुद्दिष्टाअशीतिश्चतुरुत्तराः ३१४॥
जिस गुणवाला आहार हो उससे विपरीत गुणवाला अनुपान करनाचाहिये अर्थात् आहार उष्णता प्रधान हो तो अनुपान शीतल होनाचाहिये, शीतल आहार हो तो अनुपान गर्म होना चाहिये परन्तु खट्टे पदार्थपरसे मीठा अनुपान नहीं करनाचाहिये क्योंकि तीक्ष्ण खट्टेके ऊपरसे मीठा खाना धातुओं में विकार उत्पन्न करता है अथवा अन्नका इस प्रकारका अनुपान करना चाहिये जो धातुओंका विरोधी न हो॥३१३॥आसव ८४ प्रकार के होते हैं उनको हम प्रथमही कथनकर आयेंहैं॥३१४॥
जलंपेयमपेयञ्चपरीक्ष्यानुपिवेद्धितम्॥३१५॥
जल परीक्षा करके पीने योग्य है या नहीं ऐसा विचारकर पीनाचाहिये॥३१५॥
स्निग्धोष्णंमारुतेशस्तंपित्तेमधुरशीतलम्
कफेऽनुपानंरूक्षोष्णंक्षयेमांसरसःपरम्॥३१६॥
वायुके रोगमें चिकना और गर्म अनुपान करना चाहिये।पित्तजनित रोग में मधुर और शीतल अनुपान करनाचाहिये।कफजनित रोगमें रूक्ष और गर्म अनुपान करना चाहिये।एवम् सब धातुओंकी क्षीणतामें मांसरसका अनुपान करना चाहिये॥३१६॥
दूधका अनुपान।
उपवासाध्वभारस्त्रीमारुतातपकर्म्मभिः।
क्लान्तानामनुपानार्थंपयः पथ्यंयथामृतम्॥३१७॥
उपवास, मार्गसे थका, बहुत भाषण किया हुआ, स्त्री संभोगके अनन्तर, वायु, धूप तथा अन्य कर्मोंसे थके हुए मनुष्योंको दूधका अनुपान पथ्य और अमृत समान है॥३१७॥
सुराकृशानांपुष्ट्यर्थमनुपानंप्रशस्यते। कार्यार्थंस्थूल देहानामनुशस्तंमधूदकम्॥३१८॥अल्पाग्नीनामनिद्राणांतन्द्राशोकभयक्लमैः। मद्यमांसोचितानाञ्चमद्यमेवानुशस्यते॥३१९॥
कृश मनुष्योंको पुष्टिके लिये सुराका अनुपान उत्तम हैं।एवम् स्थूल मनुष्योंके कृश करनेके लिये शहदयुक्त पानीका अनुपान करना चाहिये॥३१८॥मंदाग्निवालोंको अनिद्रा, तन्द्रा, शोक, भय तथा क्लान्ति युक्त मनुष्योंको और जो मद्यमांसके सेवन करनेवाले हैं उनको मद्यका अनुपान करना उत्तमहै॥३१९॥
अनुपानके कर्म।
अथानुपानकर्मप्रवक्ष्यामि। अनुपानंतर्पयतिप्रीणयतिऊर्जयतिपर्य्याप्मभिनिर्वर्त्तयतिभुक्तमवसादयति अन्नसङ्घातंभिनत्तिमार्दवमापादयतिक्लेदयतिजरयतिमुखपरिणामितामाशुव्यवायिताञ्चाहारस्योपजनयतीति॥३२०॥
अब अनुपानके गुणको कहते हैंः—अनुपान—तर्पणकारक, प्राणदायक, बलवर्द्धक, भोजनको अवसादनकर्त्ता तथा भोजनके संघातको भेदनकर्त्ता, मृदुताकारक, क्लेदकारक, पाचनकर्त्ता, आहारके परिणामको सुखावह करनेवाला तथा किये हुए भोजनको शीघ्र फैला देनेवाला होता है॥३२०॥
तत्रश्लोकाः।
अनुपानंहितंयुक्तंतर्पयत्याशुमानवम्।
सुखंपचतिचाहारमायुषेचबलायच॥३२१॥
यहां कहा जाता है कि युक्तिपूर्वक अनुपान किया हुआ मनुष्यको शीघ्र तृप्त करता है तथा हितकारक है एवम् सुखपूर्व आहारको पचानेवाला, आयुवर्द्धक और बलदायक होता है॥ ३२१॥
जलपानका निषेध।
नोर्द्धाङ्गमारुताविष्टानहिक्काश्वासकासिनः।
नगीतभाषाध्ययनप्रसक्तानोरसिक्षताः॥३२२॥
पिबेयुरुदकंभुक्तातद्धिकण्ठोरसिस्थितम्
स्नेहमाहारजंहत्वाभूयोदोषायकल्पते॥३२३॥
ऊर्द्ध्वागगत वातवालोंको हिचकी तथा श्वास और खांसीवालोंको एवम जिनको गायन और भाषण एवम् अध्ययन इनका अधिक काम पडता हो तथा उरक्षत रोगवालोको भोजनके अनन्तर पानी नहीं पीनाचाहिये क्योंकि इन पुरुषोंको भोजनके अनन्तर पानी पीनेसे वह पानी कष्ट और वक्षस्थलमेंसे होकर आहार के स्नेहको नष्ट कर दोषोंको कुपित करता है॥३२२॥३२३॥
अनुपानेकदेशोऽयमुक्तःप्रायोपयोगिकः द्रव्यन्तुनहिनिर्देष्टुंशक्यं कृत्स्नेननामभिः॥३२४॥यथानामौषधंकिञ्चिद्देशजानांवचोयथा॥द्रव्यंतत्तत्तथावाच्यमनुक्तमिहतद्भवेत्॥३२५॥
** **इस प्रकार आहार द्रव्य और अनुपान साधारणरूपसे प्रायः उपयोगी पदार्थोंका वर्णन करदिया हैं। और संपूर्ण द्रव्योंका संपूर्ण नामों सहित वर्णन होना मुश्किल हैक्योंकि जैसे यावन्मात्र संपूर्ण द्रव्य जाने जा नहीं सकते एवम् उन संपूर्ण द्रव्योंको
संपूर्ण भाषाओं में नाम नहीं जानेजाते इसी प्रकार संपूर्ण द्रव्योंकी इस आहार विषयमेंकथन करना कठिन प्रतीत होता है क्योंकि देशभेदसे, क्रमभेदसे, संस्कार भेदसेआहारविशेष द्रव्योंकी कल्पना असंख्य प्रकारसे है॥३२४॥३२५॥
चरादिपरक्षिा।
चराःशरीरावयवाःस्वभावोधातवःक्रिया। लिङ्गंप्रमाणसंस्कारोमात्राचास्मिन्परीक्ष्यते॥३२६॥चरोऽनूपजलाकाशधन्वाद्योभक्ष्यसंविधौ॥जलजानूपजाश्चैवजलानूपचराश्चये॥३२७॥गुरुभक्ष्याश्चयेसत्त्वाःसर्वेतेगुरुवःस्मृताः। लघुभक्ष्यास्तुलघवोधन्वजाधन्वचारिणः॥३२८॥
आहारविषयक प्रायः चर और अचर द्रव्योंका कथन करचुके हैं अब यहांपर चर जातीय अर्थात् आहारमें आनेवाले जीवोंका शरीरके अंग, स्वभाव, धातुयें, लक्षण,प्रमाण, संस्कार और मात्रा भी परीक्षा करने योग्य है सो उनका वर्णन करते हैं। जलचर, अनूपचर, आकाशचर एवम् जंगलमें फिरनेवाले तथा जलमें उत्पन्न भये और अनूपदेशके रहनेवाले और जो संपूर्ण जीव गुरुपदार्थोंको भक्षण करनेवाले हैं वे सवसंपूर्ण अंगोंमें भारी अर्थात् गुरुपाकी होते हैं। इसी प्रकार हलके पदार्थोके खानेवाले और जंगल में उत्पन्न भये तथा जंगलमें फिरनेवाले जानवर हलके अर्थात् लघुपाकीदेते हैं॥३२६॥३२७॥३२८॥
शरीरावयवका वर्णन।
शरीरावयवाः सक्थिशिरः स्कन्धादयस्तथा। सक्थिमांसागुरस्कन्धस्ततः क्रोडस्ततश्शिरः॥३२९॥वृषणौचर्ममेढ्रश्चश्रोणीवृक्कौयकृद्गुदम्। मांसाद्गुरुतरंविद्याद्यथात्वंमध्यमस्थिच॥३३०॥
जांघ, मस्तक, कंधा आदिक जो शरीरके अवयव हैं इनमें जंघाके मांससे कंधेका मांस और कंधेके मांससे छातीका मांस तथा छातीके मांससे मस्तकका मांस और मस्तकके मांससे पैरोंका मांस भारी होता है। दोनों अण्डकोश, चर्म, मेद्र (गुह्यस्थान) वृकस्थान, यकृत् एवम् गुदाका मांस प्रथमकी अपेक्षा दूसरे क्रमपूर्वक भारी होते हैं और अस्थियोंमें लगा हुआ मांस इन सबकी अपेक्षा भारी होता है॥३२९॥३३०॥
स्वभावका वर्णन।
स्वभावाल्लघवोमुद्गास्तथालावकपिञ्जलाः।
स्वभावाद्गुरवोमाषावराहमहिषास्तथा॥३३१॥
मूंग, लवा और कपिंजल यह स्वभावसे ही हलके होते हैं एवम् उडद, वराह, भैंसा यह स्वभावसे ही भारी होते हैं॥३३१॥
धातुओंका लघुगुरुत्व।
धातूनांशोणिताद्यानांगुरूंविद्याद्यथोत्तरम्। अलसेभ्योविशिष्यन्तेप्राणिनोयेबहुक्रियाः॥३३२॥ गौरवेलिङ्गसामान्येपुंसांस्त्रीणाञ्चलाघवम्। महाप्रमाणागुरवःस्वजातौलघवोऽन्यथा ॥३३३॥
रक्तसे लेकर वीर्यपर्यन्त सब धातुये प्रथमकी अपेक्षा दूसरी क्रमपूर्वक भारी जाननी।सामान्य जातिके पशुओंमें भी आलसियोंकी अपेक्षा बहुत फिरनेवाले पशु उत्तम होते हैं। इसी प्रकार स्त्री और पुरुषजातिके जीवों में पुरुषजातिके जीव भारी और स्त्रीजातिके हलके होते हैं। एकजातिमें भी बडे शरीरवाला जीव भारी और छोटे शरीवाला उसकी अपेक्षा हलका होता है ॥३३२॥३३३ ॥
संस्कार और मात्राकृत गुरुलघुत्व।
गुरूणांलाघवविद्यात्संस्कारात्सविपर्ययम्।
व्रीहेर्लाजायथाचस्युःसक्तूनांसिद्धपिण्डकाः॥३३४॥
संस्कारके भेदसे भारी पदार्थ हलके हो सकते हैं। और हलके भारी हो सकते हैं। जैसे चावलोकी अपेक्षा खीर हलकी होती एवम् सत्तुओंकी अपेक्षा घृतपक्व मोदक भारी होजाते हैं॥३३४॥
अल्पादानेगुरूणाञ्चलघूनांचातिसेवने।
मात्राकारणमुद्दिष्टंद्रव्याणांगुरुलाघवे॥३३५॥
भारी पदार्थ थोडा भक्षण करनेसे लघुपाकी अर्थात् हलका होजाता है और हलका पदार्थ भी बहुत खायाजानेसे भारी होजाता है इसलिये द्रव्योंके हलके और भारीपन में मात्राहीको कारण कहना चाहिये॥३३५॥
गुरूणामल्पमादेयंलघूनांतृप्तिरिष्यते।
मात्रामपेक्षतेद्रव्यंमात्राचाग्निमपेक्षते॥३३६॥
जो पदार्थ भारी हैं उनको थोडा खाना चाहिये और हलके पदार्थोंको पेटभरकर खालेना चाहिये। आहारकी लघुता और गुरुता मात्राके आधीन है और मात्रा जठराग्निके बलावलपर निर्भर है॥३३६॥
चलमारोग्यमायुश्चप्राणाश्चाग्नौ प्रतिष्ठिताः।
अनुपाने न्धनैश्चाग्निर्दीप्यतेशाम्यतेऽन्यथा॥३३७॥
बल, आरोग्यता, आयुकी स्थिरता, प्राण ये सब जठराग्निके ही आश्रयभूत हैं सो वह जठराग्नि अनुपानरूपी इंधनसे चैतन्य रहती है। यदि वह अनुपान अनुचित रीतिपर सेवन कियाजाय तो वही उस अग्निको नष्टकरनेवाला होता है॥३३७॥
गुरुलाघवचिन्तेयंप्रायेणाल्पबलान्प्रति।
मन्दकर्माननारोग्यान्सुकुमारान्सुखोचितान्॥३३८॥
यह गुरु, लाघवका विचार प्रायः अल्पवलवालोंको, आलसीपुरुषोंको, रोगियों को, सुकुमारोंको, सुखपूर्वक रहनेवालों को विशेषतासे रखना चाहिये॥३३८॥
दीप्ताग्नयः खराहाराः कर्म्मनित्यामहोदराः।
येनराःप्रतितांश्चिन्त्यंनावश्यंगुरुलाघवम्॥३३९॥
जिनकी अग्नि बहुत बलवान् है जो अंटसंट, कठोर वस्तुओंके खानेके अभ्यासवाले हैं. जो दिनभर बहुत कामकरनेवाले हैं तथा जो बहुत आहार करते हैं उनको गुरु, लाघवका विचार कर आहार करने की विशेष आवश्यकता नहीं है॥ ३३९॥
हिताभिर्जुहुयान्नित्यमन्तराग्निसमाहितः॥
अनुपान समिद्भिर्नामात्राकालौविचारयन्॥३४०॥
संपूर्ण मनुष्यमात्रको मात्रा और काल विचारकर हितकारक आहाररूपी ईंधन द्वारा जठराग्निको चैतन्य रखना चाहिये॥३४०॥
आहिताग्नेःसदापथ्यान्यन्तराग्नौजुहोतियः। दिवसेदिवसेब्रह्मजपत्यथददातिच। नरनिःश्रेयसेयुक्तंसात्म्यज्ञंपानभोजने॥॥३४१॥भजन्तेनामयाःकेचिद्भाविनोऽप्यन्तरादृते। षट्त्रिंशञ्चसहस्राणिरात्रीणांहितभोजनःजीवत्यनातुरोजन्तुर्जितात्मासम्मतःसतामिति॥३४२॥
जो मनुष्य सदैव अंतराग्निमें पथ्यरूपी आहुती देता है और नित्यप्रति भगवानका भजन कर यथाशक्ति दानदेता है, ऐसे कल्याण में तत्पर और सात्म्य अन्नपान करनेवाले मनुष्यको अवश्यम्भावीके बिना कोई रोग या दुःख नहीं सताते अथवा यों कहिये कि रोगोंके कारण न होनेके सबबरोग होते ही नहीं ऐसे वह जितेन्द्रिय धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष रोगरहित, होकर सौवर्षपर्यन्त जीवित रहता है॥३४१॥३४२॥
तत्र श्लोकाः।
अनुपानगुणाःसाग्र्यावर्गाद्वादशनिश्चिताः।
सगुणान्यन्नपानानिगुरुलाघवसंग्रहः॥३४३॥
अनुपानविधावुक्तंतत्परीक्ष्यविशेषतः। प्राणाःप्राणभृतामन्नमलोकोऽभिधावति॥३४४॥वर्णप्रसादःसौस्वर्यंजीवितंप्रतिभासुखम्॥ तुष्टिःपुष्टिर्बल॑मेधासर्वमन्नेप्रष्ठितम्॥३४५॥लौकिकंकर्म्मयवृत्तौस्वर्गतौयच्चवैदिकम्। कर्मापवर्गेयच्चोक्तंतच्चाप्यन्नेप्रतिष्टितम्॥३४६॥
इत्यन्नपान चतुष्केऽन्नपानविधिरध्यायः।
यहांपर अध्याय के उपसंहारमें श्लोक हैंः—कि इस अन्नपानविधि नामक अध्याय मेंअन्नपानके गुण तथा उसकी सामग्री के विषय में बारहवर्ग, अन्नपान गुण और उनका गौरव तथा लाघव अन्नपान विधि नियमकी विशेषरूप से परीक्षा, अन्नमें प्राणियोंके प्राण और अन्नमें ही लोककी प्रतिष्ठा, वर्ण, प्रसन्नता, सुंदरता, जीवन, कांति, सुख, पुष्टि, तुष्टि, बल, मेधा यह सब अन्नमें ही प्रतिष्ठित हैं । इसीमें लौकिक और पारलौकिक तथा दैवलौकिक और मोक्षसाधन यह संपूर्ण अन्नमें ही प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार इस अन्नपानविधि नामक अध्याय में निरूपण किया गया है॥३४३॥॥३४४॥३४५॥३४६॥
इति श्रीमहर्षि चरक० प० रामप्रसादवैद्य०भाषाटीकायामन्नपान विधिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥
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अष्टाविंशोऽध्यायः।
अथातोविविधाशितपीतयमध्यायंव्याख्यास्यामइति हस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम विविध अशितपीतीय नामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं। ऐसा भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे। हितकर आहारके कर्म।
विविधमशितपीतलीढखादितंजन्तोर्हितमन्नमग्निसन्धुक्षितवलेनयथास्वेनोष्मणासम्यग्विपच्यमानंकालवदनवस्थितसर्वधातुपाकमनुपहतसर्वधातूष्ममारुतस्रोतःकेवलंशरीरमुपचयबलवर्णसुखायुषायोजयतीतिशरीरधातूनर्जयन्धातवोहिधात्वाहाराःप्रकृतिमनुवर्त्तन्ते॥१॥
अनेक प्रकारके हितकारक भोजन करनेके पदार्थ, पीनेके पदार्थ, चाटनेके पदार्थ, खानेके पदार्थ—अन्तराग्निकी गर्मीसे यथोचित रीतिपर परिपाक होकर यथा समय रस, रक्त, मांसादि बनकर सम्पूर्ण धातुओं में प्राप्त होजाता है। इसी लिये शरीरके संपूर्ण धातु वायुके निकलनेवाले छिद्रों में व्याघात न करते हुए शरीरके वल, वर्ण, सुख, पुष्टता तथा आयुकी वृद्धि करते हैं।आहारसे बलप्राप्त हुए धातु धातुरूप होते अपनी २ प्रकृतिमें आहारको प्राप्त कर स्वभावानुकूल रहतेहैं॥१॥
परिपक्वआहारके भेद।
तत्राहारप्रसादाख्योरसःकिट्टञ्चमलाख्यमभिनिर्वर्त्ततेकिट्टात्मूत्रस्वेदपुरीषवातपित्तश्लेष्माणःकर्णाक्षिनासिकास्यलोमकूपप्रजननमलकेशश्मश्रुलोमनखादयश्चावयवाः॥२॥
किये हुए आहारका परिपाक होनेपर उसके दो विभाग होजाते हैं। उनमें जो उत्तम सार होता है उसको रस कहते हैं और जो फोकट वचता है उसको किट्ट अथवा मल कहते हैं उस किट्टसेमूत्र, स्वेद, विष्ठा, वायु, पित्त तथा कफ ये उत्पन्न होते हैं एवम् कान, नेत्र, नाक, मुख, रोमकूप इन सबका मल तथा बाल, श्मश्रु, रोम और नख यह संपूर्ण उस किट्ट्केअंशाोंसे बनते हैं॥२॥
प्रसादाख्यरसके गुण।
पुष्यन्तित्वाहाररसात्रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रौजांसिपञ्चेन्द्रियद्रव्याणिधातुप्रसादसंज्ञकानिशरीरसन्धिवन्धपिच्छादयश्चावयवाःतेसर्वेएवधातवोमलाख्याःप्रसादाख्याश्चरंसमलाभ्यांपुष्यन्तःस्वमानमनुवर्त्तन्ते॥३॥
उस आहारका जो उत्तम भाग रस है वह शरीरको पृष्ट करता है तथा उस रससे रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र एवम् मोज बनते हैं एवम् इसी रससे पंचेन्द्रियोंमें पुष्टि, प्रसन्नता, धातुओंमें वल, शरीरके संधिबन्धनोंका प्रसाद और दृढता आदिक उत्पन्न होते हैं। यह संपूर्ण धातुएं दो भागों में विभक्त हैं—एक प्रसादसंज्ञक, दूसरी मलसंज्ञक यह दोनों साररूप रसोंसे और शरीर रक्षक मलोंसे पुष्ट होतीहुई अपने परिमाणोंकी रक्षा करती हैं॥३॥
यथावयःशरीरमेवरसमलौस्वप्रमाणावस्थितौआश्रयस्यसमधातोर्धातुसाम्यमनुवर्त्तयतोनिमित्ततस्तुक्षीणातिवृद्धानांप्रसाख्यानांधातूनांवृद्धिक्षयाभ्यामाहारमूलाभ्यांरसःसाम्यमुत्पादयतेआरोग्याय॥४॥
इस प्रकार व्यवस्था तथा शरीरके अनुसार अपने २ प्रमाणमें स्थित हुए रस औरमल अपने आश्रित शरीर के धातुओको साम्यावस्था में रखते हुए रक्षा करते हैं एवम् कारण विशेषसे प्रसाद संज्ञक जो धातुएं हैं उनकी आहार मूलक वृद्धि क्षीणताको रस साम्यावस्था में लाता है और यह रस ही मनुष्योंकी आरोग्यताको रखता है॥४॥
किट्टञ्चमलानामेवमेव॥ स्वमानातिरिक्ताः पुनरुत्सर्गिणःशीतोष्णपर्य्यायगुणैश्चोपचर्य्यमाणामलाः शरीरधातुसाम्यकराः समुपलभ्यन्ते॥५॥
जिस प्रकार रस संपूर्ण धातुओको साम्यावस्थामें रखता है उसी प्रकार किट्ट भी संपूर्णमलोंको साम्यावस्थामे रखता है। अपने ठीक परिमाणपूर्वक निकलते हुए मल (तथा वात, पित्त, कफ भी) शीत, उष्ण आदि गुणों से परिवर्तित होते हुए धातुओंको साम्यावस्था में करनेवाले होते हैं अथवा यों कहिये कि अपने मानसे क्षीणता और वृद्धिको प्राप्त हुए मल शीत, उष्ण द्रव्योंद्वारा चिकित्सित होकर साम्यावस्थाकोप्राप्त हो धातुओंको साम्यावस्था में करनेवाले होते हैं॥५॥
तेषान्तुमलप्रसादाख्यानांधातूनांस्त्रोतांस्ययनमुखानितानियथाविभागेनयथास्वंधातूनापूरयन्त्येवमिदंशरीरमशितपीतलीढखादितप्रभवम्। आशितलीढखादितप्रभवाश्चास्मिञ्शरीरेव्याधयोभवन्ति॥६॥ हिताहितोपयोगविशेषास्त्वत्रशुभाःशुभविशेषकराभवन्ति,इति॥ ७॥
इन मल और प्रसाद संज्ञक धातुओंके स्रोतस्थान तथा मार्ग अपने उपयोगी धातुओं द्वारा पूर्णताको और पुष्टताको प्राप्त होते हैं।इस प्रकार यह शरीर अशित (भोज्य), पीत, आलीढ़ और खाद्य पदार्थों द्वारा वृद्धि संपन्न होता है इसी प्रकार शारीरिक व्याधियां भी खानेपीने, चूसने और चाटने के आहारों द्वारा ही उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार हित आहारसे शरीरकी उत्पत्ति तथा वृद्धि उत्पन्न होतीहै अर्थात् हित आहारका सेवन करना सुखकारक होता एवम् अहित आहारका करना दुःखकारक होताहै॥६॥७॥
अग्निवेशका प्रश्न।
एवंवादिनंभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच। दृश्यन्तेहिभगवन्!हितसमाख्यातमप्याहारमुपयुञ्जनाव्याधिमन्तश्चागदाश्चतथैवाहितसमाख्यातमेवंदृष्टेकथंहिताहितोपयोगविशेषात्मकंशुभाशुभविशेषमुपलभेमहीति ॥ ८ ॥
इस प्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन् ! आपने कथन किया है कि हित आहारका सेवन करनेसे रोगी पुरुष भी निरोग हो जातें हैं और निरोग मनुष्यों के शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ होते हैं उसी प्रकार अहित आहारके सेवनसे व्याधियां उत्पन्न होती हैं। सो —हे गुरो ! संसारमें ऐसा भी देखने में आता है कि अहित आहारके सेवन करनेवाले पुरुष नीरोग रहते हैं और हित आहार सेवन करनेवालोंको अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होजाते हैं। इस लिये हित और अहित आहार विशेषात्मक शुभ और अशुभका किस प्रकार हमको ज्ञान होसकताहै सो कृपाकर कथन कीजिये॥८॥
आत्रेयका उत्तर।
तमुवाचभगवानात्रेयः। नहिताहारोपयोगिनामग्निवेश तन्निमित्ताव्याधयोजायन्ते। नचकेवलंहिताहारोपयोगादेवसर्वं व्याधिभयमतिक्रान्तंभवति। सन्तिहिॠतेऽपिहिताहारोपयोगादन्यरोगप्रकृतयः। तद्यथा— कालविपर्य्ययःप्रज्ञापराधः परिणामश्चशब्दस्पर्शरूपरसन्धाश्चासात्म्याइति।ताश्चरोगप्रकृतयोरसान्सम्यगुपयुञ्जानं-पुरुषमशुभेनोपपादयन्ति। तस्माद्धिताहारोपयोगिनोऽपिदृश्यन्ते व्याधिमन्तः। अहिताहारोपयोगिनांपुनःकारणतोनसद्योदोषवान्भवत्यपचारोनहिसर्वाण्यपथ्यानितुल्यदोषकराणि। नचसर्वेदोषास्तुल्यवलाः। नचसर्वाणिशरीराणि- व्याधिक्षमत्वेसमर्थानि। तदेवह्यपथ्यंदेशकालसंयोगवीर्य्यप्रमाणातियोगाद्भूयस्तरमपथ्यंसम्पद्यतेसएवदोषःसंसृष्टयोनिविरुद्वोपक्रमोगम्भीरानुगतःप्राणायतनसमुत्थोमर्मोपघातीवाभूयान्कष्टतमःक्षिप्रकारितमश्चसम्पद्यते ॥९॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! आहारसे उत्पन्न होनेवालेजो रोग हैं, हित आहारके सेवन करनेवाले मनुष्य के शरीर में कभी उत्पन्न नही होतेपरन्तु संपूर्ण व्याधियां हित आहार करनेसेही नहीं होतीं यह बात नहीं है। क्योंकि हित आहारकी उपयोगी आरोग्यताके सिवाय और भी ऐसे कारण हैं जो रोगोंको उत्पन्न करते है।जैसे—कालविपर्यय (कालकी विपरीतता) और प्रज्ञापराध और परिणाम एवम् असात्म्य—शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, ये सब हित आहार सेवन करनेवाले मनुष्योको भी अशुभके करनेवाले होते हैं अर्थात रोग उत्पन्न करनेके हेतु होते है। इसलिये ही हित और पथ्य भोजन करनेवाले मनुष्यभीव्याधियुक्त दिखाई देते हैं। और अहित आहारके सेवन करनेवाले मनुष्योंको भी तत्काल रोग ग्रसित नहीं देखा जाता क्योंकि संपूर्ण कुपथ्यही सब दोषोंके तुल्य नहीं होते एवम् सब दोष भी समान बलवाले नहीं होते और व्याधि सहन शक्तिके स्वभावसे सब शरीर भी एकसे नहीं होते। इस प्रकार अपथ्य भोजन—देश, काल, संयोग, वीर्य, प्रमाण इनके अतियोगसे और भी अधिक कुपथ्य होजाता है और दोषोंको कुपित करदेता है। एक दोष भी अनेक रोगोंको उत्पन्न करनेवाला चिकित्सा विरोधी, गंभीरानुगत, प्राणस्थान तथा मर्मस्थानका उपघाती होता हुआ अत्यन्त कष्टको उत्पन्न करनेवाला और शीघ्रकारी होजाता है॥९॥
शरीराणिचातिस्थूलानिअतिकृशानिअनिविष्टमांसशोणितास्थीनिदुर्बलानिअसात्म्याहारोपचितान्यल्पाहाराणिअल्पसत्त्वानिवाभवन्तिअव्याधिसहानि॥१०॥विपरीतानिपुनर्व्याधिसहानि एभ्यश्चैवापथ्याहारदोषशरीरविशेषेभ्योव्याधयोमृदवोदारुणाःक्षिप्रसमुत्थाश्चिरकारिणश्च भवन्ति॥११॥
** **स्वभावसेही अतिस्थूल और अतिकृश शरीरवाले जिनके शरीर में रक्त तथ मांस आदि क्षीण होगयाहो, दुर्बल मनुष्य असात्म्य आहारके कारण अल्पभोजन करनेवाले तथा कमजोर मनुष्य व्याधियोंके सहन करनेमें असमर्थ होते हैं। इनसे विपरीत व्याधिसहनकर्त्ता होते हैं। इन अपथ्य आहार, दोष, शरीर विशेषके प्रभावसे व्याधियें भी मृदु, दारुण, शीघ्रकारी और चिरकारी भी होती हैं॥१०॥११॥
अतएवचवातपित्तश्लेष्माणःस्थानविशेषेणप्रकुपिताव्याविघिशेषानभिनिर्वर्त्तयन्तिअग्निवेश। तत्ररसादिषुस्थानेषुप्रकुपितानां दोषाणां यस्मिन्स्थानेयेयेव्याधयःसम्भवन्तितांस्तान्यथावदनुव्याख्यास्यामः॥ १२॥
इसलिये हे अग्निवेश ! वात, पित्त, कफ—स्थानविशेषमें कुपित होकर रोगविशेषको करते हैं सो उन रसादि स्थानों में कुपित हुए दोष जिस जिस स्थान में जिस जिस प्रकार जिन जिन रोगोंको उत्पन्न करते हैं उन उन सबको यथा क्रम वर्णन करते॥१२॥
रसदोषसे उत्पन्न रोग।
अश्रद्धाचारुचिश्वास्यवैरस्यमरसज्ञता। हृल्लासोगौरवंतन्द्रासाङ्गमर्दोज्वरस्तमः॥१३॥ पाण्डुत्वंस्रोततसांरोधःक्लैव्यंसादःकृशाङ्गता। नाशोऽग्नेरयथाकालंवलयःपलितानिच। रसप्रदोषजारोगावक्ष्यन्तेरक्तदोषजाः॥१४॥
दोषों करके रसके दूषित होनेसे भोजनमें अश्रद्धा, अरुचि, मुखकी विरसता, रसका अज्ञान, हल्लास, गुरुता, तन्द्रा, अंगमर्द, ज्वर, आंखोंके आगे अन्धकार, पांडुपन, स्रोतोंका अवरोध, क्लीवता, अंगोंका अवसाद, कृशता, मंदाग्नि, विनाही समयकेवालोंका सफेद होजाना, शरीरमें, सरवट पडना, यह रोग होते हैं। अब आगे रक्त दूषित होनेसे जो रोग उत्पन्न होते हैं उनको कहते हैं॥१३॥१४॥
रक्तदोषजरोग।
कुष्ठवीसर्पपिडकारक्तपित्तमसृग्दरः। गुदमेढास्यपाकञ्चप्लीहागुल्मोऽथविद्रधी॥१५॥नीलिकाकामलाव्यङ्गपिलवस्तिलकालकाः। दद्रुश्चर्म्मदलंश्वित्रःपामाकोठास्रमण्डलम्।रक्तप्रदोषाज्जायन्तेशृणुमांसप्रदोषजान्॥१६॥
कुष्ठ, विसर्प, पिडका, रक्तपित्त प्रदर, गुदा, लिंग तथा मुखका पकना, प्लीहा, गुल्म, विद्रधी, नीलिका, कामला, व्यंग, पिल्लव, तिल, कालक, दाद, चर्मदल, श्वेतकुष्ठ, पामा, कोष्ठरोग, रक्तमंडल तथा अन्यरक्त के विकार उत्पन्न होते हैं। यहरक्त दूषित होनेके दोष कहे गये। अब आगे मलदूषित होने से जो रोग होते हैं उनको वर्णन करते हैं॥१५॥१६॥
मांसदोषजरोग। अधिमांसार्बुदकीलगलशालकशुण्डिकाः। पूतिमांसालजीगण्डगण्डमालोपजिह्निकाः॥१७॥ विद्यान्मांसाश्रयान्मेदःसंश्रयांस्तुप्रवचम्यथ॥ निदानानिप्रमेहाणांपूर्वरूपाणियानिच॥१८॥
मांसदूषित होने से अधिमांस अर्बुद, कीलक, गलसारूक, गलगुंडी, पूतिमांस, अलजी, गलगंड, गण्डमाला और उपजिहिका यह मांसाश्रित रोग होते हैं। अव मेद दूषित होनेसे जो रोग होते हैं उनका कथन करते हैं कि अष्टौनिदनीय अध्याय में तथा प्रमेहरोगके पूर्वरूप में दूषित मेदरोगोंका वर्णन कियागयाहै॥१७॥१८॥
अस्थिदोषज रोग।
अध्यस्थिदन्तदन्तास्थिभेदःशूलंविवर्णता
केशलोमनखश्मश्रुदोषाश्चास्थिप्रकोपजाः॥१९॥
अस्थि दूषित होनेसे अध्यस्थि, अधिदन्त, दन्तभेद, अस्थिभेद, दन्तशूल, अस्थिशूल और विवर्णता होते हैं तथा केश, लोम, नख और श्मश्रुइनमें भी अस्थि दूषित होनेसे विकार उत्पन्न होते हैं॥१९॥
मज्जादोषज रोग।
रुकूपर्वणांभ्रमोमूर्च्छादर्शनंतमसोमताः।
अरुषांस्थूलमूलानांपर्वजानाञ्चदर्शनम्॥२०॥
मज्जा दूषित होनेसे पर्वभेद, भ्रम, मूर्च्छा, अंधकार बडी २ मोटी तथा जडयुक्तअरुषिका नामक फुंसियें पर्वस्थानमें (संधिस्थान में) उत्पन्न होती हैं॥२०॥
शुक्रदोषज रोग।
मज्जाप्रदोषाच्छुक्रस्यदोषात्क्लैब्यमहर्षणम्।रोगिणंक्लीबमल्पायुंविरूपंवाप्रजायते॥२१॥ नवासञ्जायतेगर्भःपतति प्रस्रवत्येपि।शुक्रं हिदुष्टंसापत्यंसदारंबाधतेनरम् ॥ २२ ॥
शुक्र (वीर्य) दूषित होनेसे नपुंसकता, हर्षका न होना एवम् बहुत रोजतक रोगी रहनेके कारण आयुका कम होना, संतानका न होना या कुत्सित संतान होना अथवा गर्भका पतन या स्राव होजाना ऐसे २ उपद्रव होते हैं।दूषित हुआ शुक्र अपने शरीरके हैं सिवाय स्त्री और संतानको भी दुःखदायी होता है अर्थात् स्त्री पुत्रो सहित पुरुषको दुःखित रखता है॥२१॥२२॥
कुपितदोषोंके कर्म ।
इन्द्रियाणिसमाश्रित्यप्रकुप्यन्तियदामलाः ।
उपतापोपघाताभ्यां योजयन्तीन्द्रियाणिते ॥ २३ ॥
** **यदि कुपितहुए दोष इन्द्रियोंमें आश्रित होजांय तो इन्द्रियोंका उपताप तथाउपघात होता है॥२३॥
स्नायौशिराकण्डरयोर्दुष्टाः क्लिश्यन्तिमानवम्।
स्तम्भसङ्कोचखल्लीभिग्रन्थिस्फुरणसुप्तिभिः॥२४॥
यदि वातादिदोष—स्नायु, शिरा एवम् कण्डरा आदि नाडियों में प्रकुपित होकर व्यापक होजांय तो मनुष्य के शरीर में स्तम्भ, संकोच, खल्ली, गाठोंका फड़कना तथा अंगोंका सोजाना यह उपद्रव होते हैं॥२४॥
मलानाश्रित्यकुपिताभेददोषप्रदूषणम्।
दोषामलानांकुर्वन्तिसङ्गोत्सर्गावतीवच॥२५॥
कुपित हुए वातादि दोष मलस्थानमें व्यापक होनेसे मलोंका बिलकुल रुकजानाया अत्यन्त निकलना आदि उपद्रव होते हैं॥२५॥
विविधादशितात्पीतादहिताल्लीढखादितात्।
भवन्त्येते मनुष्याणांविकारायउदाहृताः॥२६॥
इस प्रकार अहित भुक्त, पीत, आलीढ, चवित अनेक प्रकारके आहारोंके करनेसे मनुष्योंके शरीरोमें यह विकार उत्पन्न होते है॥२६॥
तेषामिच्छन्ननुत्पत्तिंसेवेतमतिमान्सदा
हितान्येवाशितादीनिनस्युस्तज्जास्तथामयाः॥२७॥
जो मनुष्य अपने शरीरमेंदोषोंके प्रकोपको होने देना नहीं चाहते उन बुद्धिमानोंको हित आहारोंको ही सेवन करना चाहिये क्योंकि हित आहार सेवन करनेसे आहारजनित रोग उत्पन्न ही नहीं होनेपाते॥२७॥
रसजरोगोंकी चिकित्सा।
रसजानांविकाराणांसर्वंलंघनमौषधम्।
विधिशोणित केऽध्याये रक्तजानांभिषग्जितम्॥२८॥
रसजन्य विकारोंमें लंघन करना ही सर्वोत्तम औषधि है। रक्तजनित विकारोंमें विविध शोणतीयाध्याय में कही हुई चिकित्सा द्वारा रक्त विकारोंको जीतना चाहिये॥२८॥
मांसजदोषोंकी चिकित्सा।
मांसजानान्तुसंशुद्धिःशस्त्रक्षाराग्निकर्म्मच।
अष्टौनिन्दितसंख्याते मेदोजानांचिकित्सितम्॥२९॥
मांस जनित विकारोमे शुण शोधन (वमन, विरेचन) किया तथा शस्त्रक्रिया अथवा क्षार या अग्निक्रिया हितकारक होती है। भेदजनित विकारोंकी चिकित्सा अष्टौनिन्दनीय अध्यायमे कथन कर आयें हैं॥२९॥
अस्थ्याश्रयाणांव्याधीनांपञ्चकर्माणिभेषजम्।
बस्तयःक्षीरसर्पिंषितिक्तकोपहितानिच॥३०॥
अस्थिजनित विकारोंमे—वमन, विरेचनादि पंचकर्म, तिक्तकगण तथा दूध, घृतकी वस्तिद्वारा चिकित्सा करनी चाहिये॥३०॥
मज्जाशुक्रदोषोंकी चिकित्सा।
मज्जाशुक्रसमुत्थानामौषधंस्वादुतिक्तकम्।
अन्नंव्यवायव्यायामौ शुद्धिःकालेचमात्रया॥३१॥
मज्जा और शुक्रजनित विकारोंमे मधुर और तिक्त औषधियो द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये तथा हित अन्न, उचित मैथुन, व्यायाम एवम् यथा समय उचित मात्रासे संशोधन करना चाहिये॥३१॥
शान्तिरिन्द्रियजानान्तुत्रिमर्मीयेप्रवक्ष्यते॥३२॥
इन्द्रियजनित विकारों में आगे त्रिमर्मीय चिकित्सित नामक अध्याय में चिकित्सा स्थानमे कहेंगे॥३२॥
स्नाय्वादिजानांप्रशमोवक्ष्यतेवातरोगिके। नवेगान्धारणेऽध्यायेचिकित्सासंग्रहः कृतः॥३३॥ मलजानांविकाराणांसिद्धिश्रोक्ताक्वचित्क्वचित्॥३४॥
स्नायु, शिरा, कण्डरा इनके दोष जनित विकारोंमें(वातव्याधि चिकित्सा अध्याय में कथन करेगे) वह यत्न करना चाहिये। मलजनित विकारोंकी चिकित्सा न वेगान्धारणीयाध्याय में कथन कर चुके हैं तथा अन्य २ स्थानोमे भी कहीं कहीं कथन कियाजायगा॥३३॥३४॥
व्यायामादुष्मणस्तैक्ष्ण्याजितस्यानवधारणात्। कोष्ठाच्छाखामलायान्तिद्रुतत्वान्मारुतस्यच ॥३५॥तत्रस्थाश्चविलम्बन्तेकदाचिन्नासमीरिताः। नादेशकालेकुप्यन्ति भूयोहेतुप्रतीक्षिणः॥ ३६॥
हितकारक आचरण न करनेसे, व्यायाम न करनेसे अथवा अहित व्यायाम करनेसे, गर्मीकी तीक्ष्णतासे, वायुकी द्रुतगति होनेसे दोष कोष्ठसे शाखा और मर्मस्थानमें गमन करते हैं फिर उन स्थानों में पहुंचकर प्रबलता पाने पर्यन्त विलम्बित रहते हैं फिर बिना समय तथा विना देश इनमें अपने हेतुकी परीक्षा करते हुए कुपित नहीं होते और कारण जनित सहायता प्राप्तकर कुपित हो अनेक प्रकारके रोग उत्पन्नकरते हैं॥३५॥३६॥
वृद्ध्याभिष्यन्दनात्पाकात्स्रोतोमुखविशोधनात्।
शाखांमुक्त्तामलाः कोष्ठंयान्तिवायोश्चनिग्रहात्॥३७॥
वृद्धिको प्राप्त हुए वह दोषअभिष्यंदी होजानेसे, अथवा स्रोतोंका मुख शुद्ध होनेसे या पाचन औषधियों द्वारा दोषोंके परिपाक होनेसे दोष वायुके निग्रह होनेसे शाखाओंको छोड़कर कोष्ट में आकर प्राप्त होजाते हैं॥३७॥
अजातानामनुत्पत्तौजातानांविनिवृत्तये।
रोगाणांयोविधिर्दृष्टः सुखार्थीतं समाचरेत्॥३८॥
जो रोग उत्पन्न नहीं हुए हैं उनको उत्पन्न न होने देना और उत्पन्न हुए दोषांको नष्ट करदेना इन दोनोंके लिये शास्त्र में जो प्रकार लिखा है उसका सेवन करना सुखकी इच्छावाले मनुष्यको अत्यावश्यक है॥३८॥
सुखार्थाः सर्वभूतानांमताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
ज्ञानाज्ञानविशेषात्तुमार्गामार्गप्रवृत्तयः॥३९॥
संपूर्ण प्राणीमात्र अपने सुखकी इच्छा करते हुए ही सब कार्योंमे प्रवृत्त होते हैं परन्तु वह प्रवृत्ति सुमार्ग और कुमार्गके भेदसे दो प्रकार की होजाती है। इसद्विविध प्रवृत्तिका कारण ज्ञान और अज्ञान ही है क्योंकि अज्ञानवश मनुष्य अपने सुखकी इच्छा करता हुआ कुमार्ग में प्रवृत्त होजाता है और ज्ञानवश सुमार्ग में प्रवृत्त होता है॥३९॥
हितमेवानुरुध्यन्तेप्रसमीक्ष्यपरीक्षकाः।
रजोमोहावृतात्मानः प्रियमेवतुलौकिकाः॥४०॥
बुद्धिमान मनुष्य विचारपूर्वक हितकारी वस्तुओंकाही अवलम्बन करता है एवम् रज और मोहसे ढकी हुई आत्मावाले प्यारी वस्तुओंका अवलम्बन करते हैं। प्रायः संसार में हित और प्रिय भेदसे दो प्रकारके पदार्थ होतेहैं। जो पदार्थ न अच्छा लगनेपर भी हितकारी होता है उसको हित कहते हैं जैसे ज्वरमें निम्बादिचूर्ण। इसी,प्रकार जो पदार्थ अहितकारी होनेपर भी प्रिय मालुम होता है उसको प्रिय कहते हैं जैसे कफ प्रधान ज्वरमें दही वडे॥४०॥
श्रुतंबुद्धिःस्मृतिर्दार्ढ्यधृतिर्हितनिषेवणम्। वाक्प्रशुद्धिःशमोधैर्य्यमाश्रयन्तिपरीक्षकम्॥४१॥ लौकिकंनाश्रयन्त्येतेगुणामोहतमाश्रितम्। तन्मूलाबहुलाश्चैवरोगाः शारीरमानसाः॥४२॥
बुद्धिमान परीक्षक शास्त्र, बुद्धि, स्मृति, दृढता, धृति, हितसेवन, वाणीकी शुद्धि, शान्ति और धैर्य इनका आश्रय लेकर कार्य में प्रवृत्त होताहै॥४२॥ और लौकिक मनुष्य इन गुणोंका आश्रय न लेकर मोह और तम आदिके वशहो कार्योंमे प्रवृत्त होता है। सो मोह और तममूलकही संपूर्ण शारीरिक और मानसिक रोग होते हैं॥४२॥
प्रज्ञापराधाद्ध्यहितानर्थान्पञ्चनिषेवते। सन्धारयतिवेगांश्चसेवतेसाहसानिच॥४३॥ तदात्व-सुखसंज्ञेषुभावेष्वज्ञोऽनुरज्यते। रज्यतेनतुविज्ञाताविज्ञानेह्यमलीकृते॥१४॥ नरोगान्नाप्य-विज्ञानादाहारमुपयोजयेत्। परीक्ष्यहितमश्नीयाद्देहोह्याहारसम्भवः॥४५॥
मनुष्य बुद्धिके अपराधसे ही पांच प्रकारके अहित विषयोका सेवन करताहै। अज्ञानता वशही मल आदिके वेगोंको धारण करता है तथा अनुचित साहसको करता है इसी लिये वह अज्ञानी मनुष्य परिणामको न समझता हुआ असुखकारक अर्थातदुःखदायी भावो में आसक्त होजाता है। परन्तु ज्ञानी मनुष्य निर्मल ज्ञानके प्रभावसे असुखकारी विषयोमें प्रवृत्त नहीं होता और रागसे तथा अज्ञानसे अहित आहारका सेवन नहीं करता इसलिये हित और अहितका विचार कर हित आहारकाही सेवन करना चाहिये क्योंकि यह शरीर आहारसे ही उत्पन्न होताहै॥४३॥४४॥४५॥
आहारस्यविधावष्टौविशेषाहेतुसंज्ञकाः। शुभाशुभसमुत्पत्तौतान्परीक्ष्योपयोजयेत्॥४६॥परिहार्य्याण्यपथ्यानिसदापरिहरन्नरः। भवत्यनृणतांप्राप्तःसाधूनामिहपण्डितः॥४७॥
आहारके सम्बन्ध में हेतुसंज्ञक आठप्रकारका विधान किया गयाहै (विमान स्थान देखो)।मनुष्य को उचित है कि शुभ और अशुभकी उत्पत्तिके विषय में पूर्णरूपसे परीक्षाकरता हुआ आहारका उपयोग करे जो पदार्थ त्याग देने योग्य हों उनको त्यागताहुआ पथ्य वस्तुओंका सेवन करे। ऐसा करनेसे बुद्धिमान मनुष्य त्रिविध ऋणसे विमुक्त होकर सुखको प्राप्त होता है॥४६॥४७॥
यत्तुरोगसमुत्थानमशक्यमिहकेनचित्।
परिहर्तुंनतत्प्राप्यशोचितव्यंमनीषिणा॥४८॥
और जो मनुष्य रोगके कारणरूपी अहित सेवनको त्यागने में असमर्थ है वह मूर्ख बुद्धिमानों करके सोचने योग्य है अथवा यदि कोई रोगका ऐसा कारणहो जो किसीप्रकार भी दूर न किया जासक्ताहो तो बुद्धिमान्को चाहिये कि उसके लिये चिंतित होकर अपने शरीरको और भी कष्ट न बढावे॥४८॥
तत्र श्लोकाः।
आहारप्रभवोयस्तुरोगाश्चाहारसम्भवाः। हिताहितविशेषाश्च विशेषःसुखदुःखयोः॥४९॥सहत्वेचासहत्वेनदुःखानांदेहसत्त्वयोः। विशेषोरोगसंघाश्चधातुजायेपृथक्पृथक्॥५०॥ तेषाञ्चैवप्रशमनंकोष्ठाच्छाखाउपेत्यच।दोषायथाप्रकुप्यन्ति शाखाभ्यःकोष्ठमेत्यच॥५१॥प्राज्ञाज्ञयोर्विशेषश्चस्वस्थातुरहितञ्चयत्। विविधाशितपीतीयेतत्सर्वसम्प्रकाशितम्॥५२॥इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतसूत्रस्थानेअन्नपानचतुष्केविविधाशितपीतीयोनामअष्टाविंशोऽध्यायः समाप्तः।
यहांपर अध्यायकी पूर्ति श्लोक है। आहारसे उत्पन्न होनेवाला रोग और आहारसे उत्पन्न होनेवाला शरीर, शरीरका हित और अहित तथा हित और अहित विशेषसे सुख दुःख विशेष और दुःखके सहन योग्य तथा असहन योग्य शरीर, धातुओंमें होनेवाले विविध प्रकारके रोग समूह, उनके शान्तिके उपाय, दोषोंका कोष्ठाश्रित और शाखाश्रित होना, बुद्धिमान् तथा अज्ञानीका कृत्य, स्वस्थ और आतुरकेलिये हितकारक उपदेश, यह सब इस विविध अशितपीतीय अध्याय में वर्णन किया गया है ॥४९॥५०॥५१॥५२॥
इति श्रीमहर्षि चरक० पं० रामप्रसाद० भाषाटीकाया विविधाशितपीतीयो नामाष्टाविंशोऽयायः॥२८॥
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एकोनत्रिंशोऽध्यायः।
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** अथातोदशप्राणायतनीयमध्यायंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः।**
अब हम दशप्राणायतनीय अध्यायकी व्याख्या करते हैं ऐसे भगवान्आत्रेयजी कथन करनेलगे।
प्राणस्थान तथा प्राणाभिसर।
दशैवायतनान्याहुःप्राणायेषुप्रतिष्ठिताः। शंखोमर्म्मत्रयंकण्ठोरक्तशुक्रोजसीगुदम्॥१॥ तानीन्द्रियाणिविज्ञानंचेतनाहेतुमामयम्। जानीतेयःसविद्वान् वैप्राणाभिसरउच्यते इति॥२॥
जिनमें प्राण आश्रयभूत रहते हैं वह दश स्थान हैं अथवा यों कहिये कि शरीरमें प्राणोंके रहनेके दश स्थान हैं। जैसे दोनों कनपटी, मस्तक, हृदय, वस्ती, कोष्ठरक्त, शुक्र, ओज और गुदा, जिस वैद्यको यह दश प्राणायतन और इन्द्रियें इनका विज्ञान, चेतना, हेतु तथा समस्त रोग इन सबका यथोचित ज्ञान है वह ही प्राणाभिसर अर्थात् प्राणोंका रक्षक वैद्य कहाजाताहै॥१॥२॥
वैद्योंके भेद।
द्विविधास्तुखलुभिषजोभवन्तिअग्निवेश!प्राणानामेकेऽभिसराहन्तारोरोगाणां, रोगाणामेकेऽभिसराहन्तारःप्राणानामिति॥३॥
संसार में दो प्रकारके वैद्य होते हैं।हे अग्निवेश ! एक वैद्य तो रोगोंको नष्ट करनेवाले और प्राणों की रक्षाकरनेवाले होते हैं, दूसरे रोगोंको बढानेवाले और प्राणोंको हनन करनेवाले होते हैं॥३॥
अग्निवेशका प्रश्न।
** एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाचभगवन्!तेकथमस्माभिर्वेदितव्याभवेयुरिति॥४॥**
इस प्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन् हम इन दोनोंको किस प्रकार जान सकते हैं अर्थात् इन दोनोंके जाननेका क्या उपाय है॥४॥
सद्वैद्यके लक्षण।
भगवानुवाचयइमेकुलीनाः पर्य्यवदातश्रुताः परिदृष्टकर्माणो दक्षाः शुचयोजितहस्ताजितात्मानःसर्वोपकरणवन्तःसर्वेन्द्रियोपपन्नाःप्रकृतिज्ञाःप्रतिपत्तिज्ञास्ते प्राणिनामभिसराहन्तारो रोगाणांतथाविधाहिकेवलेशरीरज्ञानेशरीराभिनिवृत्तिज्ञानेप्रकृतिविकारज्ञानेच निःसंशयाः सुखसाध्यकृच्छ्रसाध्ययाप्यप्रत्याख्येयानाञ्चरोगाणांसमुत्थानपूर्वरूपलिङ्गवेदनोपशयविशेषविज्ञानेव्यपगतसन्देहाःत्रिविधस्यायुर्वेदसूत्रस्यससंग्रहव्याकरणस्यसत्रिविधौषधग्रामस्य प्रवक्तारः॥५॥
यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि जो वैद्य कुलीन अनुभवसम्पन्नं, शास्त्रज्ञ, दृष्टकर्मा, चतुर, पवित्र, सिद्धहस्त, जितात्मा औषधादि सब उपकरण संयुक्त सर्वेन्द्रियसम्पन्न तथा प्रकृतिका जाननेवाला होता है उसको प्राणाभिसर अर्थात् प्राणरक्षक वैद्य कहते हैं तथा शारीरिक सम्बन्ध में पूर्णज्ञानी शरीरनाशक रोग तथा द्रव्योंका जाननेवाला, शरीरके उत्पत्तिकारक पदार्थोंको जाननेवाला, प्रकृतिके ज्ञानके विषय में निःसंशय हो तथा सुखसाध्य, कष्टसाध्य, याप्यसाध्यऔर असाध्य रोगोके कारण, पूर्वरूप, रूप, वेदना और उपशय इनके ज्ञानविशेषमें संदेहरहित एवम् हेतु, लक्षण, औषधि इस त्रिविध आयुर्वेदसूत्रके संग्रह और व्युत्पत्ति एवम् त्रिविध औषधंके जानने में यथार्थज्ञानी हो उसको प्राणाभिसर, रोगहन्ता वैद्य कहतेहैं ॥५॥
पञ्चत्रिंशतश्चमूलफलानांचतुर्णांमहास्नेहानांपञ्चानांलवणानामष्टानाञ्चसूत्राणामष्टानाञ्चमूत्राणामष्टानाञ्चक्षीराणांक्षीरत्वक्वृक्षाणाञ्चषण्णांशिरोविरोचनादेश्चपञ्चकर्माश्रयस्यौषधगणस्याष्टाविंशतेश्चयवागूनांद्वात्रिंशतश्चचूर्णप्रदेहानांषण्णांविरेचनशतानां पञ्चानाञ्चकषायशतानामितिस्वस्थवृत्तौचभोजनपाननियमस्थानचङ्क्रमणशय्यासन—मात्रा—द्रव्याञ्जनधूमनावनाभ्यञ्जन—परिमार्जनवेगविधारणाविधारण—व्यायामसात्म्येन्द्रियपरीक्षोपक्रमसत्त-कुशलाः॥६॥
** **तथा पैंतीसप्रकारके मूल और फल, चार महास्नेह, पञ्चलवण, अष्टमूत्र, आठप्रकारके दूध, क्षीरप्रधान तथा त्वचाप्रधान वृक्षोंके षट्क (छः प्रकार) शिरोविरेचनादिपंचकर्माश्रित औषधिगण, अढाइसप्रकारकी यवागू, बत्तीसप्रकारके चूर्ण और प्रलेप, छःसौ विरेचन, पांचसौ कषाय, स्वास्थ्यरक्षाके लिये भोजन पानके नियम, स्थान, भ्रमण, शय्या, आसन, मात्रा, द्रव्य, अंजन, धूम्रपान, नस्य, अभ्यंजन, परिमार्जन, बेगोका धारण, और वेगोंका अविधारण, व्यायाम, इन्द्रिय, सात्म्य और पदार्थों की परीक्षा, एवम् रोगोंका निवृत्तिकारक यत्न आदि श्रेष्ठवृत्त में कुशल हो उसको ही प्राणाभिसरवैद्य कहते हैं॥६॥ (प्रथमाध्यायसे नवमतकका कथन इसमें कियागया)
चतुष्पादोपगृहीतेचभेषजेषोडशकलेसविनिश्चयेसत्रिपर्येषणेसवातकलाकलज्ञानेव्यपगतसन्देहाः। चतुर्विधस्यचस्नेहस्यचतुर्विंशत्यपनयनस्यउपकल्पनीयोक्तचतुःषष्टिपर्य्यन्तस्यव्यवस्थापयितारोवहुविधविधान– युक्तानाञ्चस्नेहस्वेद्यवम्यविरेच्यौषधोपचाराणांकुशलाः।शिरोरोगादेश्चदोषांशविकल्पजस्यव्याधिसंग्रहस्यसंक्षयपिडकविद्रधेःत्रयाणाञ्चशोफानांबहुविधशोफानुवन्धानामष्टाचत्वारिंशतश्चरोगाधिकारिणांचत्वारिंशदधिकस्यचनानात्मजस्यव्याधिशतस्य। तथाविगर्हितातिस्थूलातिकृशानांसहेतुलक्षणोपक्रमाणांस्वतस्यचहिताहितस्यास्वप्नातिस्वप्नस्यचसहेतूपक्रमस्यषण्णाञ्चलंघनादीनामुपक्रमाणांसन्तर्पणापतर्पणजानांरोगाणांस्वरूपप्रशमनानांशोणितजानाञ्चव्याधीनांमदमूर्च्छायसंन्यासानाञ्चसकारणरूपौषधानांकुशलाः। कुशलाश्चाहारविधिनिश्चयस्यप्रकृत्याहिततमानामाहारविकाराणामग्र्यसंग्रहस्यासवानाञ्चचतुरशीतेःद्रव्यगुणविनिश्चयस्यरसानुरससंश्रयस्यसविकल्पकवैरोधिकस्यद्वादशवर्गाश्रयस्यचान्नपानस्यसगुणप्रभावस्यसानुपानगुणस्यविविधस्यान्नसंग्रस्य आहारगतेश्चहिताहितोपयोगविशेषात्मकस्यचशुभाशुभविशेषस्यधात्वाश्रयाणाञ्चरोगाणामौषधसंग्रहाणाञ्चदशानाञ्चप्राणायतनानांयञ्चवक्ष्याम्यर्थेदशमहामूलीयेत्रिंशत्तमाध्यायेतत्रचकृत्स्नस्यतन्त्रोदेशलक्षणस्यतन्त्रस्यचग्रहणधारणविज्ञानप्रयोगकर्मकार्य्यकालकर्तृकरणकुलाः॥७॥
** **षोडशकलायुक्त चतुष्पाद औषधका ज्ञान, त्रिविध एषणा, वातकलाकल ज्ञानमें निःसंदेह, चतुर्विध स्नेह, चौबीस प्रकार स्नेहकी विचारणा, उपकल्पनीय अध्यायमें कही हुई चौंसठ प्रकारकी व्यवस्थापयिता हो एवम् अनेक प्रकारके विधानसे स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचनके योग्य प्रयोग, औषध, उपचार इनमें कुशल हो उसको ही प्राणाभिसर वैद्य कहना चाहिये। शिरोरोगादि रोगोंके दोषोंका अंशांश कल्पनाजन्य विकल्प, व्याधिसंग्रह, दोष और धातुओंका क्षय, पिडका, विद्रधी, त्रिविध शोथ, शोथके अनेक प्रआरके अनुबंध, अडतालीस रोगाधिकरण, चालीस पित्तरोग, बीस कफरोग, अस्सी वातरोग, अतिस्थूल और अतिकृश शरीरोंकी निंदा और उनके कारण तथा लक्षण एवम् चिकित्सा।निद्रा, अनिद्रा, अतिनिद्राका हित और अहित, कारण, यत्न।लंघन आदि छःप्रकारकी चिकित्सा, ससर्पण और अपतर्पणजन्य रोगोंके स्वरूप और उपाय, रक्त रोग, मद, मूर्च्छा, संन्यास इनके हेतु रूप और चिकित्सा इन सबमें कुशल हो। एवम् आहार विधिके विनिश्चय में कुशल स्वभावसे ही हितकारक आहार तथा आहारजन्य विकार और आहारजनित विकारोंके सिवाय अन्य विकारोंके कारण चौरासी प्रकार के आसव द्रव्योंके गुणोंका विनिश्चय रस तथा अनुरसोंका विनिश्चय तथा उनके भेद विरोधकारक आहारोंका वर्णनअन्नपान विषयक द्वादश वर्गोंका निश्चय अन्नपान और गुणके प्रभाव तथा उनके अनुपानोंके गुण तथा उनकी विधि अनेक प्रकारके द्रव्योंकी गुरुता और लघुताका संग्रह आहार सम्बन्धी हित और अहित पदार्थोंका उपयोग तथा उनसे होनेवाले शुभ अशुभ रसादिक धातुओंके आश्रितरोग और उनके उपाय प्राणोंके दश स्थान और जो कुछ दशमूलीय नामक तीसवें अध्याय में कथन करेंगे वह संपूर्ण तथा इस प्रकार शास्त्रका उद्देश्य, लक्षण, ग्रहण धारणका अनेक प्रकारका ज्ञान एवम् प्रयोगज्ञान, कर्म, कार्य, काल, कर्त्ता, और करण इन संपूर्ण विषयों में कुशल हो। (नौसे लेकर तीसवें अध्यायतककी सूची इसमें देदीहै॥७॥
कुशलाश्चस्मृतिमतिशास्त्रयुक्तिज्ञानस्यात्मनःशीलगुणैरविसंवादनेनसम्पादनेनसर्वप्राणिषुचचेतसोमैत्रस्यमातृपितृभ्रातृबन्धुवदेवंयुक्ताभवन्तिअग्निवेश। प्राणानामंभिसराहन्तारो-रोगाणामिति॥८॥
इस प्रकार सूत्रस्थानोक्त तीस अध्यायोंके विषयोंका यथोचित ज्ञान रखता हुआ स्मृति, मति, शास्त्र युक्ति तथा ज्ञान सम्पन्न हो एवम् आत्माके शील आदि गुणोंसे सव मनुष्यों में मैत्री भाव रखता हुआ तथा निर्विवाद होकर संपूर्ण मनुष्योंका माता, पिता, भाई और बंधुवर्गके समान हितकरनेवाला हो।इन उपरोक्त संपूर्ण गुणोंवाला जो वैद्य होता है हे अग्निवेश ! उसको ही प्राणाभिसर और रोगोका नाश करनेवाला वैद्य कहना चाहिये॥८॥
रोगाभिसरके लक्षण।
अतोविपरीतारोगाणामभिसराहन्तारःप्राणिनामिति। भिषक्छद्मप्रतिच्छन्नाः कण्टकभतालोकस्यप्रतिरूपिकसहधर्माणो राज्ञांप्रसादाच्चरन्तिराष्ट्राणि। तेषामिदंविशेषविज्ञानमत्यर्थंवैयवेशेनश्लाघमाना विशिखान्तरमनुचरन्तिकर्मलोभात् श्रुत्वाचकस्यचिदातुर्य्यमभितःपरिपतन्तिसंश्रवणेचास्यात्मनोवैद्यगुणानुच्चैर्वदन्तियञ्चास्यवैद्यः प्रतिकर्म्म-करोतितस्यचदोषान्मुहुर्महुरुदाहरन्तिआतुरमित्राणिचप्रहर्षणोपजापोपसेवाभिरिच्छन्तिआत्मीकर्तुमल्पेच्छताञ्चात्मनः ख्यापयन्तिकर्मचासाद्यसुहुर्मुहुरवलोकयन्तिदक्ष्येणाज्ञानमात्मनः छादयितुकामाव्याधिञ्चापवर्त्तयितुमशक्नुवन्तो-व्याधितमेवानुपकरणमपचारिकमनात्मवन्तमुद्दिश्यन्तिअन्तर्गतञ्चाभिसमीक्ष्यान्धमाश्रयन्तिदेशमादेशमात्मनःकृत्वा। प्राकृतजनसन्निपातेचात्मनःकौशलमकुशलवद्वर्णयन्तिअधीरवच्चधैर्य्यमपवदन्तिधीराणाम्। विद्वज्जनसन्निपातञ्चाभिसमीक्ष्यप्रतिभयमिवकान्तारमध्वगाःपरिहरन्तिदूरात्॥९॥
इन उपरोक्त संपूर्ण लक्षणोंसे विपरीत गुणवालेको रोगाभिसर और प्राणनाशक कहना चाहिये। जो लोग वैद्यका वेश धारण किये, संसार में कंटकरूप वैद्योंकेसे रूप धारण कियेहुए राजाओंकी असावधानीसे राज्य के अन्दर फिरते है उन धूर्तीकी यही पहिचान है कि वह वैद्यका वेश धारण किये हुए अपने मुखसे अपनी वडी वडाई करते हुए रास्ते में तथा जिस मार्गपर बहुत आदमी फिराकरते हैं उन स्थानोंमे कर्मलोभसे फिरा करते है और किसी मनुष्यको बीमार सुनकर झट उसके पास जा
पहुँचते हैं और उसके कानके समीप विना ही पूछे अपने वडेभारी वैद्य होनेके गुणवर्णन करने लगजाते हैं। और जो वैद्य पहिले उपाय कर रहादो उसके दोषोंको बारबार अपने मुखसे कथन करते हुए अपनी प्रशंसा करते हैं तथा रोगीके मित्रोंको किसी प्रकार की सेवा आदिसे या अन्य किसी लोभसे प्रसन्न कर अपना बनानेकी इच्छा करते हैं और अपने आपको निर्लोभ जंचाते हुए रोगीके सम्बन्धियोंसे अपने लेनेके विषयमे बडी युक्ति के साथ थोडीसी इच्छा जंचाते हैं।तथा चिकित्सा करते हुए पाखण्डसे रोगी और औषधीको वारवार देखते हुए अपनी औषधीकी तारीफ करते हैं और चतुराईपूर्वक अपनी मूर्खताको छिपाते जाते हैं। जब रोग बढ़ने लगता है तो रोगीको कुपथ्य करनेवाला और अजितात्मा बताकर अपने को निर्दोष ठहरा अपने अवगुणको छिपाना चाहते हैं।रोगीकी अवस्था बिगडते देख उसके मकानको छोड दूसरे स्थान में चलेजाते हैं। और हमको कही अत्यावश्यक कार्य है ऐसा कहकर अन्यस्थानमें चले जाते हैं। यह दुष्ट साधारण मनुष्योंके समूहमें उन लोगोंको मूर्खसा बनाते हुए अपनी इतनी चतुराई दिखाते हैं और अधीरके समान ऐसी बातें बनाते हैं कि जिनको सुनकर धीरपुरुषोंका भी धैर्य जातारहे। जब किसी विद्वान्को आते देखते हैं तो मारे भयके दूरसे ही उनको देखकर स्त्रियोंके आने जानेके रास्तेसे झट इधर उधर छिपजाते हैं॥९॥
यश्चैषांकश्चित्सूत्रावयवउपयुक्तस्तंप्रकृतेप्रकृतान्तरेवासततमुदाहरन्तिनचानुयोगमिच्छन्तिअनुयोक्तुंवास्मृत्योरिवचानुयोगादुद्विजन्ते। नचैषामाचार्यःशिष्योवासब्रह्मचारीवैवादिकोवाकश्चित्प्रज्ञायते इति॥१०॥
यह दुष्ट किसी एकाध वैद्यकके सूत्रके अवयवको अण्टसण्ट याद कररखते हैं उसीको सव लोगों में बारम्बार उच्चारण करतेहुए अहंकारपूर्वक कहाकरते हैं कि हमाराकिससे शास्त्रार्थ कराओ जिस प्रकार मेहनतसे हमने वैद्यकशास्त्रको पढा है, और कौन परिश्रम करसकताहै यदि दैवयोगसे इनको कोई बुद्धिमान् शास्त्री बातचीत करनेवाला मिलजाय तो उससे बात करते हुए भी घबडाते हैं। यदि कोई इनसे शास्त्रार्थ करनेकी इच्छा करे तो मृत्युके समान डरतेंहैं। न तो कहीं इनके गुरुका पता होता है न इनके शिष्य आदिक कहीं होते हैं न कोई इनका स्वाध्यायी दिखाई है न पडता है न किसी ऐसे वैद्यका पता लगता है कि जिससे इन्होंने कभी शास्त्रकी बातचीत की हो॥१०॥
भिषकुछद्मप्रविश्यैवव्याधितांस्तर्कयन्तिये। वसंतमिवसंश्रित्यवनेशाकुन्तिकोद्विजान्। श्रुतदृष्टक्रियाकालमात्रास्थानबहिष्कृता। वर्ज्जनीयाहितेमृत्योश्चरन्त्यनुचराभुवि॥११॥
जैसे शिकारी पक्षियोको जालमें फंसानेके लिये वनमें छिपे हुए रहते हैं उसीप्रकार यह दुष्ट भी वैद्योंका स्वरूप बनाये हुए रोगियोंको अपने जाल में फंसाने की कोशिश में रहते हैं। शास्त्र, अनुभव, क्रिया, काल, मात्रा, स्थान, इन सबके ज्ञानसे राहत, ‘मृत्युके अनुचररूप जो वैद्यका वेश धारण किये फिरते हैं उनको वैद्यकीय क्रियामें दृष्टिमात्र से ही त्याग देना चाहिये॥११॥
वृत्तिहेतोर्भिषङ्मानपूर्णान्मूर्खविशारदान्।
वर्ज्जयेदातुरोविद्वान् सर्पास्तेपीतमारुताः॥१२॥
जो मनुष्य सामान्य आजीवन के निमित्त वैद्यवेश धारण किये हुए हैं, ऐसे धूर्तीके गुरुओंको बुद्धिमान् रोगी दूरसे ही त्याग देवे क्योंकि यह दुष्ट पवन पिये हुए सर्पोंके समान जानने चाहिये॥१२॥
येतुशास्त्रविदोदक्षाःशुचयःकर्मकोविदाः।
जितहस्ताजितात्मानस्तेभ्यो नित्यकृतंनमः॥१३॥
जो वैद्य शास्त्रके जाननेवाले है तथा आयुर्वेद के सब विषयोंमे चतुरहैं, शुद्धचित्त है, वैद्यकर्ममे विशारद हैं, जिन्होने हस्तक्रियाको भले प्रकार सीखाहै उन जितात्मा वैद्योंको नित्यप्रति नमस्कार है॥१३॥
तत्र श्लोकः।
दशप्राणायतनिकेश्लोकस्थानार्थसंग्रहः।
द्विविधाभिषजश्चोक्ताः प्राणस्यायतनानिच॥१४॥
इति दशप्राणायतनीयोनामोनत्रिंशोऽध्यायः समाप्तः।
अध्यायकी पूर्तिमे यह एक श्लोक है—इस दश प्रणायतनीयनामक अध्याय में संपूर्ण सूत्रस्थान के विषयोंका संग्रह, दो प्रकारके वैद्य और प्राणोंके दश स्थान वर्णन कियेगये हैं॥१४॥
इति श्रीमहर्षिचरक० प० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकाया दशप्रणायतनीयो नामैकोनत्रिंशोऽध्याय॥२९॥
त्रिंशत्तमोऽध्यायः।
** अथातोऽर्थेदशमूलीयमध्यायं व्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः।**
अब हम अर्थदशमूलीय नामक अध्यायका वर्णन करते हैं ऐसा आत्रेय भगवान्कहने लगे।
अर्थेदशमाहमूलाः समासक्तामहाफलाः।
महञ्चार्थश्चहृदयं पर्य्यायैरुच्यतेबुधैः॥१॥
महत्, हृदय और अर्थ यह तीनों शब्द हृदयके वाचक हैं। हृदयसे दश धमनी संज्ञक नाडी लगी हुई हैं यह नाडियां महामूला और महाफला कही जाती हैं॥१॥
हृदयाधीन अङ्गावयव।
षडङ्गमङ्गविज्ञानमिन्द्रियाण्यर्थपञ्चकम्। आत्माचसगुणश्चेतः चिन्त्यञ्चहृदिसंश्रितम्॥२॥ प्रतिष्ठार्थहिभावानामेषां-हृदयमिष्यते। गोपान सीनामागारकर्णिकेवार्थचिन्तकैः॥३॥
दो हाथ, दो पांव, मस्तक और देहका मध्यभाग यह शरीरके ६ अंग कहेजाते हैं।कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका यह ५ इन्द्रिये कही जाती हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह ५ इन्द्रियोंके विषय होते हैं।सगुण आत्मा और चेतना शक्ति यह चिन्तनके योग्य हृदयके आश्रित हैं।संपूर्ण शारीरिक भावोंके आश्रयके लिये शरीरमें हृदयरूप खंभा है जैसे—घासके छप्परके नीचे संपूर्ण छप्परके अवयवोको टिकाने के लिये एक स्तम्भ रहता है उसी प्रकार शरीरके संपूर्ण भावोंको टिकानेके लिये हृदयके जाननेवालोंने हृदय कहाँ है॥२॥३॥
महामूलादिनामका कारण।
तस्योपघातान्मूर्च्छायंभेदान्मरणमृच्छति।
यद्धितत्स्पर्शविज्ञानंधारितत्तत्रसंश्रितम्॥४॥
हृदय में चोट आदि किसी प्रकारका उपघात होनेसे संपूर्ण शरीर में मूर्च्छा आजातीहै एवम् हृदयके फटजानेसे मृत्यु होजाती है। जो स्पर्शेन्द्रिय आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुई ज्ञानको धारण करनेवाली जीवनी शक्ति है वह हृदयके ही आश्रयीभूत है॥४॥
तत्परस्यौजसःस्थानंतत्रचैतन्यसंग्रहः।
हृदयंमहदर्थश्चतस्मादुक्तंचिकित्सकैः॥५॥
चैतन्यशक्तिका धारण करनेवाला जो ओजधातु है वह ओज और चैतन्य भी हृदयके ही आश्रय हैं इस लिये चिकित्सकोंने हृदयको महत् और अर्थ कहाहै॥५॥
ओजोधातुका गुणकर्म।
तेनमूलेनमहतामहामूलामतादश। ओजोवहाःशरीरेवाविधम्यन्तेसमन्ततः॥६॥ येनौजसावर्त्तयन्तिप्रीणिताःसर्वदेहिनः॥ यतेसर्वभूतानां जीवितंनावतिष्ठते॥७॥
यह हृदय ही उन बडीबडी दश धमनियोंका मूल होनेसे वह नाडियाँ महामूला कहीजाती हैं। यह दश धमनिये शरीरमें ओजको वहन करती हुई संपूर्ण शरीर में धूमायमान होती हैं इसलिये इनको धमनी कहते हैं। उस ओजके द्वारा ही संपूर्ण शरीरको पालन करती हुई देहको जीवित रखती है जिस ओजके विना संपूर्ण मनुष्योंका जीवन नहीं रहसकता॥६॥७॥
यंत्सारमादौगर्भस्ययोऽसौगर्भरसाद्रसः। संवर्द्धमानंहृदयंसमाविशतियत्पुरा॥८॥ यस्यनाशान्ननाशोऽस्तिधारि-यद्धृदयाश्रितम्॥ यः शरीररसः स्नेहः प्राणायत्रप्रतिष्ठिताः॥९॥
ओज ही आदिमे गर्भका सारभूत है तथा गर्भके उत्पन्न करनेवाले रसका भी सार है। यह ओज ही शरीरको उत्पन्न करनेके लिये हृदयमे प्रथम प्रवेश होताहै जिस ओजके नष्ट होनेसे शरीर भी नष्ट होजाता है वह ओजही हृदयमें रहकर शरीरको धारण करता है।य ही शरीरका बल हैं, देह और प्राण इसीके आश्रित तथा शरीरके धारण करनेवाले रस और स्नेह यह सव उस ओजके ही आश्रय हें और उस ओजका स्थान हृदय है॥८॥९॥
महाफलकी निरुक्ति।
तत्फलांविविधावाताः फलन्तीतिमहाफलाः॥ ध्यानाद्धमन्यः स्रवणात्स्रोतांसिसरणाच्छिराः॥१०॥ तन्महत्ता महामूलास्तचौजः परिरक्षता॥ परिहार्य्याविशेषेणमनसोदुःखहेतवः॥११॥
शरीरको जीवित रखनेवाली अनेक किस्मकी वायुमें हृदयका फल है उन पवनरूपी फलोंको हृदयसे लगी हुई धमनियें फलती हैं॥इसीलिये इनको महाफला कहाजाताहै शरीरमे धमन (रससे पूर्ण) करती हैं इसलिये धमनी कहीजाती हैं। स्रवण (पोषणकर्ता रसका स्राव करनेसे ) कहेजाते है।स्रोतरस गमन करनेसे इनका नाम सिराहै॥१॥ उस हृदय तथा उन धमनियों एवम् उस ओजकी रक्षा करते हुए मनुष्यको मांसादिक
दुःखोंके हेतुओंसे वचना चाहिये अर्थात् जो जो वस्तुयें इन हृदय और ओजमें हानिकारक हों उनको त्याग देना चाहिये॥११॥
हृद्यंयत्स्याद्यदौजस्यंत्रोतसांयत्प्रसादनम्।
तत्तत्सेव्यंप्रयत्नेनप्रशमोज्ञानमेवच॥१२॥
जो पदार्थ हृदयको प्रिय हो तथा ओजको वढानेवाला हो एवम् धमनियों के स्रोतोंको प्रसन्न करनेवाला हो उसका ही यत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये एवम् यत्नपूर्वक शान्ति और ज्ञानको धारण करना चाहिये॥१२॥
अनेकमें एकको उत्कृष्टता।
अथखलएकंप्राणवर्द्धनानामुत्कृष्टतममेकंबलवर्द्धनानामेकंबृंहणानामेकंनन्दनानामेकंहर्षणानामेकमयनानामिति। तत्राहिंसाप्राणिनांप्राणवर्द्धनानामुत्कृष्टतमम्। वीर्य्यबलवर्द्धनानाम्। वृष्यंबृंहणानाम्। इन्द्रियजयोनन्दनानाम्। तत्त्वावबोधोहर्षणानाम्। ब्रह्मचर्य्यमयनानामित्यायुर्वेदविदोमन्यते॥१३॥
शरीरकी रक्षाके सम्बन्ध में अनेक उपाय होते हुए भी प्राणोंको बढानेवाला सबमें उत्तम एक उपाय है बल्कि बलवर्द्धक पदार्थों में एक उपाय प्रधान है, वृहणकर्ताओंमें, आनन्द बढानेवालोंमें, हर्षोत्पादकोंमें, सब प्रकारकी गति बढानेवालों में एक एक उपाय सर्वोत्तम और प्रधान कहा है। वह इस प्रकार है—किसी प्रकारकी भी हिंसा न करना सबसे उत्तम प्राण वढानेका उपाय है। वीर्य की रक्षा सवसे बढकर बलवर्द्धक उपाय है। विद्या होना सबसे बढकर वृहण (पुष्टता) का उपाय है। इन्द्रियोंको अपने वश में रखना सबसे बढकर आनन्द वढानेका उपाय है।तत्त्वका ज्ञान होना सबसे बढकर हर्ष (प्रसन्नता) के वढानेका उपाय है। ब्रह्मचर्य पालन करना सर्व प्रकारकी गतिके वढानेका उपाय है।आयुर्वेद के जाननेवाले इस प्रकार कथन करते हैं या मानते हैं॥१३॥
आयुर्वेदवित्केलक्षण।
तत्रायुर्वेदविदस्तन्त्रस्थानाध्यायप्रश्नानांपृथक्त्वेनवाक्यशोवाक्यार्थशोऽर्थावयवशश्चप्रवक्तारोमन्तव्याः॥१४॥
जिसको इस आयुर्वेद तन्तुके स्थान, अध्याय, क्रमपूर्वक प्रश्नोंका विभाग, वाक्य वाक्यार्थ, अर्थावयव अच्छी तरहसे आतेहों अर्थात् इन सबका कथन करनेवाला हो उसको आयुर्वेदवित् (आयुर्वेदका जाननेवाला) कहते हैं॥१४
अत्राहकथंतन्त्रादीनिवाक्यशोवाक्यार्थशोऽवयवशश्चेतिउक्तानिभवन्ति, अत्रोच्यतेतन्त्रमार्षंकार्त्स्नेनयथास्थानमुच्यमानं वाक्यशोभवत्युक्तम्। बुद्ध्यासम्यगनुप्रविश्यार्थतत्त्वंवाग्भिर्वाससमासप्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनयुक्ताभिःत्रिविधशिष्यबुद्धिगम्याभिरुच्यमानंवाक्यार्थशोभवत्युक्तम्। तन्त्रनियतानामर्थदुर्गाणां पुनर्भावनैरुक्तमर्थावयवशोभवत्युक्तम्। तत्रचेत्प्रष्टारः स्युः चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानांकंवेदमुपदिशन्तिआयुर्वेदविदः। किमायुः कस्मादायुर्वेदविदः। किमायुःकस्मादायुर्वेदःकिञ्चायमायुर्वेदःशाश्वतोऽशाश्वतइति। कानि चास्याङ्गानिकैश्चायमध्येतव्यः किमर्थञ्चेति॥१५॥
अब कहते है कि तन्त्रादिक वाक्यद्वारा तथा वाक्यार्थ द्वारा एवम् अर्थावयवद्वारा किस तरह जानेजाते हैं और किनको नन्त्रादि कहते हैं।सो कहाजाता है कि भूत, भविष्यत, वर्त्तमानके जाननेवाले ऋषियोंके बनाये हुए ग्रंथको तन्त्र कहा जाता है। बहुत से विषयोंके कथनके समुदायको स्थान कहते है और वह वेदानुसार कहा हुआ होनेसे वाक्य कहाजाता है। इस प्रकार संपूर्ण तन्तुको भलेप्रकार जानकर उसके अर्थतत्त्वको प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमनके साथ उत्तम बुद्धिवाले तथा मध्यम बुद्धिवाले एवम् कनिष्ठ बुद्धिवाले शिष्यो की बुद्धिको जानकर संक्षेपसे अथवा विस्तारसे समझायाजानेवाला उपदेश वाक्यार्थ से कथन करना कहाजाता है। ग्रंथ में कहेहुए कठिन कठिन शब्दोंको फिर अंशांशद्वारा स्पष्ट कर कहना अर्थाव्यव, कहाजाताहै।यदि वहांपर कोई ऐसा प्रश्न करनेवाला हो कि ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद इन चारो वेदोमेंसे किस वेदके कथन करनेवालेको आयुर्वेदकजाननेवाला कहना चाहिये, आयु क्या है, आयुर्वेद कहांसे हुआ और आयुर्वेद किसको कहते है?यह आयुर्वेद प्रामाणिक है अथवा अप्रामाणिक एवम् नित्य है या अनित्य?आयुर्वेदके कौन २ अंग हैं ? किन लोगोंको आयुर्वेद पढना चाहिये?आयुर्वेदके पढनेसे सिद्ध क्या होता है अथवा आयुर्वेद किसलिये बनायागया ?॥१५॥
प्रथमप्रश्नका उत्तर।
तत्रभिषजापृष्ठेनैवञ्चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानामात्मनोऽथर्ववेदेभक्तिरादेश्यावेदोह्यथर्वणः स्वस्त्ययनबलिमङ्गलहोम-
नियमप्रायश्चित्तोपवासमन्त्रादिपरिग्रहाच्चिकित्सांप्राह। चिकित्साचायुषोहितायोपदिश्यतेवेदञ्चोपदिश्यआयुर्वाच्यम्। तत्र आयुश्चेतनाप्रवृत्तिर्जीवितमनुबन्धोधारिचेत्येकोऽर्थः तत्र आयुर्वेदयतीत्यायुर्वेदःकथमित्युच्यते-स्वलक्षणतः सुखासुखतोहिताहिततःप्रमाणाप्रमाणतश्च। यतश्चायुष्यानायुष्याणिचद्रव्यगुणकर्माणिवेदयत्यतोऽप्यायुर्वेदः। तत्रआयुष्याण्यनायुव्याणिचद्रव्यगुणकर्माणिकेवलेनोपदेक्ष्यन्ते॥१६॥
वैद्यके इस प्रकार प्रश्न करनेपर कहना चाहिये कि ऐसे मत कहो। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इन चारों वदोंमें अथर्वेद ही आयुर्वेवेदकी आत्मा कहना चाहिये क्योंकि अथर्ववेद में कहहुए, स्वस्त्ययन, बलिदान, मंगलकर्म, होम, नियम, प्रायश्चित्त, उपवास और मंत्र आदिकोंसे ही चिकित्साका निर्देश कियागया है। और आयुके हितके लिये ही चिकित्सा का उपदेश कियागया है। इसप्रकार आयुके वेदका कथनकर अब आयुका कथन करते हैं कि आयु, चेतना, प्रवृत्ति, जीवित, अनुबंध यह सव आयुके पर्यायवाचक शब्द हैं इन सब शब्दोंमें आयुशब्द प्रसिद्ध होनेसे मुख्य रक्खा गयाहै सो आयुको विदित करानेवाला अर्थात् आयुसम्बन्धी ज्ञानके करानेवाले शास्त्रको आयुर्वेद कहते हैं। आयुर्वेद आयुका परिज्ञान किस प्रकार कराता है सो कहते हैं।जैसे—आयुके लक्षण सुखायु, दुःखायु, हितआयु तथा अहितआयु, आयुका प्रमाण और अप्रमाण, जिसप्रकार आयुके बढानेवाले पदार्थ आयुको बढाते हैं एवम् क्षय करते हैं और द्रव्य, गुण, कर्म इन सवका यथार्थ ज्ञान करानेवाला आयुर्वेद कहा जाता है।इस आयुर्वेद में—आयुके बढानेवाले और आयुके नष्ट करनेवाले द्रव्य, गुण, कर्मोंका ही कथन किया जाता है॥१६॥
लक्षणसे आयुका ज्ञान।
तन्त्रेणतंत्रायुरुक्तंस्वलक्षणतोयथावदिहैवतत्रशारीरमानसाभ्यांरोगाभ्यामनभिद्रुतस्यविशेषेण यौवनवतः समर्थानुगतबलवीर्य्यपौरुषपराक्रमस्यज्ञानविज्ञानेन्द्रियेन्द्रियार्थबलसमुदायेवर्त्तमानस्यपरमर्द्धिरुचिरविविधोपभोगस्यस-मृद्धसर्वारम्भस्य यथेष्टविचारणात्सुखमायुरुच्यते असुखमतोविपर्य्ययेण॥१७॥
आयुर्वेद शास्त्र करके आयुर्वेद और आयुका कथन किया जा चुका है अब सुखायु और असुखायुका लक्षण कहते हैं। जो मनुष्य शारीरिक और मानसिक व्याधियोंसे दुःखित नहीं है और पूर्णरूपसे युवावस्थावाला है, जिसके शरीर में भले प्रकार—बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम प्राप्त है—और ज्ञान, विज्ञान, इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ इन सबके बल समुदाय से सम्पन्न हैं एवम परम ऋद्धि सम्पन्न सुन्दर शोभायुक्त अनेक प्रकारके उपयोगयुक्त जिसके सबआरम्भ यथोचित समृद्ध हैं तथा वह मनुष्य स्वाधीन तथा सुन्दर विचारयुक्त हो उसके जीवितको सुखायु कहते हैं। इससे विपरीत असुखायु (दुःखायु) जानना चाहिये॥१७॥
हिताहितआयुका वर्णन।
हितैषिणःपुनर्भूतानांपरस्वात्उपरतस्यसत्यवादिनःशमपरस्यपरीक्ष्यकारिणोऽप्रमत्तस्यत्रिवर्गपरस्परेणानुपहतमुपमेवमानस्यपूजार्हसम्पूजकस्यज्ञानविज्ञानोपशमशीलवृद्धस्योपसेविनः सुनियतरागेर्ष्यामदमानवेगस्यसततंविविधप्रदानपरस्यतपोज्ञानप्रशमनित्यस्यअध्यात्मविदस्तत्परस्यलोकमिमञ्चामुञ्चावेक्ष्यमाणस्यस्मृतिमतिमतोहितमा-युरुच्यतेअहितमतो विपर्य्ययेण॥१८॥
जो मनुष्य संपूर्ण प्राणियोंका हित चाहनेवाला, परधनकी इच्छा न रखनेवाला, सत्यवादी, शान्तचित्त, विचारकर करनेवाला, अप्रमत्त, धर्म, अर्थ, काम इन सबको परस्पर अनुपहत विधिसे सेवन करनेवाला, पूज्यजन गुरुजन आदिकोंकी सेवा करनेवाला, ज्ञान, विज्ञान और उपशमशील, वृद्धजनोंकी सेवा करनेवाला, राग, द्वेष, मद और मनके वेगको वशमे रखनेवाला, नित्य प्रति यथाशक्ति दान देनेवाला, तप, ज्ञान, और इन्द्रियोंका सहन इनका अभ्यास करनेवाला, अध्यात्म विद्यायुक्त, ईश्वरपरायण इस लोक और परलोक में हितका चाहनेवाला तथा स्मृतिसम्पन्न—इन सबगुणोंयुक्त मनुष्यकी आयु हितआयु कही जाती है और इससे विपरीत गुणोंवाले की आयु अहित आयु कही जातीहै॥१८॥
आयुका प्रमाण।
प्रमाणमायुषस्त्वर्थेन्द्रियमनोबुद्धिचेष्टादीनांस्वेनाभिभूतस्यविकृतिलक्षणैरुपलभ्यतेअनिमित्तैरिदमस्मात्क्षणान्मुहूर्त्तादिवसात्त्रिपञ्चदश
सप्तदशद्वादशाहात्पक्षात् मासात्षण्मासात्संवत्सराद्वास्वभावमापत्स्यते इति। तत्रस्वभावःप्रवृत्तेरुपरमोमरणमनित्यतानिरोध इत्येकोऽर्थः। इत्यायुषःप्रमाणमतोविपरीतमप्रमाणम्॥१९॥
अब आयुके प्रमाणको कथन करते हैं।इन्द्रियोंके अर्थ यथा शब्द, स्पर्श आदि इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चेष्टा आदिकोंकी विकृति आदिके लक्षणोंसे आयुका प्रमाण जाना जाता है यदि इनमें अकस्मात् विकृति होजाय तो क्षणभरमें या मुहूर्त्तमें, एक दिनमें अथवा तीन दिन, पाँच दिन, सात दिन, दशदिन एवम् वारहदिनमे तथा पक्ष में या महीने में अथवा छःमहीनेमें या एक वर्षमें मनुष्य स्वभावमें स्थित होजाताहै। यहांपर स्वभाव, प्रवृत्तिका उपराम, मरण, अनित्यता, निरोध यह सब एक हीअर्थवाले शब्द हैं।अर्थात् मरणके वाचक हैं बस यही आयुके प्रमाण हैं। इससे विपरीत आयुका अप्रमाण जानना॥१९॥
आयुर्वेदका नित्यत्व प्रतिपादन।
अरिष्टाधिकारेदेहप्रकृतिलक्षणमधिकृत्यचोपदिष्टमायुषःप्रमाणमायुर्वेदे। प्रयोजनञ्चास्यस्वस्थस्यस्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनम्। सोऽयमायुर्वेदःशाश्वतोनिर्दिश्यतेऽनादित्वात्स्वभावसंसिद्धस्वलक्षणत्वाद्भावस्वभावनित्यत्वाच्च। नहि नाभत्कदाचिदायुषःसन्तानोवृद्धिसन्तानोवाशाश्वतश्चायुषोवेदिताअनादिमञ्चसुखदुःखंसद्रव्यहेतुलक्षणमपरापरयोगादेष चार्थसंग्रहाविभाव्यते। आयुर्वेदलक्षणमितियत्पुनःगुरुलघुशीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षादीनाञ्चद्वंद्वानांसामान्यविशेषाभ्यांवृद्धिह्रासौयथोक्तंगुरुभिरभ्यस्यमानैर्गुरूणामुपचयोभवत्यपचयोलघूनामेवमेवेतरेषामित्येषभावस्वभावोनित्यः। स्वस्वलक्षणञ्च द्रव्याणांपृथि-व्यादीनांसन्तितुद्रव्याणिगुणाश्चनित्यानित्याः॥२०॥
इन्द्रिय स्थानके अरिष्टाधिकार में—देह, प्रकृति, लक्षण इनका वर्णन करते हुए आयुका प्रमाण कथन कियागया है। (इसको देखो) इस आयुर्वेदका प्रयोजन श्वस्थ(तन्दुरुस्त) मनुष्यकी ओराग्यावस्था स्थिर रखना और रोगी मनुष्यको
रोगसे छोडाना अर्थात् रोगीके रोगका शान्तकरनाही है। सो यह आयुर्वेद अनादि होनेसे और स्वभाव संसिद्ध लक्षण होनेसे अर्थात् आयुर्वेद अपने संपूर्ण लक्षणोंद्वारा स्वभावके अनुकूल और स्वतः सिद्ध होनेसे एवम् भावोंका स्वभावके नित्य होनेसे आयुर्वेद नित्य है। आयुकी जो संतान है और वृद्धि संतान यह नित्य नहीं है ऐसा नही होसकता अर्थात् आयुक्रम और भावकी वृद्धि संतति भी अनादि है इसलिये नित्य है और आयुर्वेदका ज्ञाता भी नित्य है अर्थात् आयु आयुर्वेद और इनका ज्ञान और ज्ञानवाला यह सदासेही नित्य हैं क्योंकि सुख और दुःखके सर्व भावका लक्षण परम्परासे सम्बन्ध रखता चलां आता है इससे इस संग्रहकी स्पष्ट नित्यता प्रतीति होती है। आयुर्वेदके नित्य होनेमें और भी लक्षण कथन करते हैं कि द्रव्योंका जोस्वभाव है यह भी नित्य है क्योंकि गुरु, जघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, और रूक्ष आदिकोके सामान्य विशेष योगसे वृद्धि और ह्रास होता है (प्रथमाध्यायमे कथन कर चुके हैं सबभावकी सामान्यतासे प्रवृत्ति वृद्धिका कारण और असामान्यतासे प्रवृत्ति ह्रासका कारण होता है, जैसे कि गुरु वस्तुओंका अभ्यास करनेसे गुरुताका उपचय और लघुताका अपचय होता है इसी प्रकार रूक्ष, स्निग्ध आदि भावोंको भी जानना चाहिये। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि द्रव्योंके भावका स्वभाव नित्य है। पृथ्वी आदिक पंचमहाभूतोंके गुणविशिष्ट जो द्रव्य है उनमें भी अपने २ लक्षणोंसे पृथिव्यादि महाभूतोंके गुण नित्य प्रतीति होते हैं यद्यपि द्रव्योंमे रसादिगुण अनित्य होते हैं परन्तु जिस द्रव्यमें जो आग्नेय या जलीयगुण प्रधान होता है वह कभी नष्ट नहीं होता। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि भावोंकी स्वभावोकी नित्यता होनेसे भी आयुर्वेद नित्य ही है॥२०॥
नहिआयुर्वेदस्याभूत्वोत्पत्तिरुपलभ्यते। अन्यत्रावबोधोपदेशाभ्यामेतद्वैद्वयमधिकृत्यउत्पत्तिमुपदिशन्त्येकेस्वाभाविकञ्चास्य लक्षणमधिकृत्ययदुक्तमिहचाद्येअध्यायेयथाग्नेरोष्ण्यमपांद्रवत्वं भावस्वभावनित्यत्वमपिचास्ययथोक्तंगुरुभिरभ्यस्यमानैर्गुरूणामुपचयोभवत्यपचयोलघूनामित्येवमादि॥२१॥
आयुर्वेद उत्पन्न हुआ है ऐसा भी नहीं कहसकते क्योंकि ब्रह्माको आयुर्वेदका ज्ञान हुआ और इन्द्रने आयुर्वेदका उपदेश किया यह दो प्रकारसे आयुर्वेद उत्पन्न हुआ इस कथनसे भी आयुर्वेद अनित्य नहीं होसकता क्योकि ब्रह्माको ज्ञान होनेसे प्रथम भी आयुर्वेद था यह स्पष्ट प्रतीत होता है। कोई कहते हैं कि आयुर्वेदका नित्य होना स्वभावसे ही सिद्ध है। जैसे प्रथमाध्याय में कहआये हैं कि अग्निमें उष्णता और जलमें
द्रवता उनका स्वाभाविक और नित्यधर्म है उसी प्रकार गुरु द्रव्योंके सेवनसे गुरुताका उपचय होना और लघुताका अपचय होना आदि भी स्वमावसिद्ध हैं। सो इन सब प्रमाणोंसे आयुर्वेद स्वभाव सिद्ध और नित्य सिद्ध होचुका॥२१॥
आयुर्वेदके आठ अङ्ग तथा उनसे धर्मप्राप्ति।
तस्यायुर्वेदस्य अङ्गानि अष्टौ। तद्यथा। कायचिकित्साशालाक्यंशल्यापहर्तृकंविषगरवैरोधिकप्रशमनं-भूतविद्याकौमारभृत्यकंरसायनानिवाजीकरणमितसचाध्येतव्योत्राह्मणरजन्यवैश्यैः। तत्रानुग्रहार्थंप्राणिनांब्राह्मणैरात्मरक्षार्थराजन्यैर्वृत्त्यर्थंवैश्यैःसामान्यतोवाधर्मार्थकामप्रतिग्रहार्थसर्वैःतत्रचयदध्यात्मविदांधर्मपथस्थानांधर्मप्रकाशानांवामातृपितृभ्रातृवन्धुगुरुजनस्यवाविकारप्रशमनेप्रयत्नवान्भवति। यश्चायुर्वेदोक्तमध्यात्ममनुध्यायत्यवैत्यधीतेवासोऽप्यस्यपरोधर्मः॥२२॥
उस आयुर्वेदके आठ अंग हैं जैसे काय चिकित्सा, शालाक्यतन्त्र, शल्यापहर्तृकतन्त्र, विषगरवैरोधिकतन्त्र, भूतविद्या, कौमारभृत्यक, रसायनतन्त्र और वाजीकरण तन्त्र इन आठ तन्त्रोंसे युक्त आयुर्वेद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यको पढनाचाहिये।सामान्यतासे उनमें ब्राह्मणोंको सम्पूर्ण जीवोंपर दया करनेके लिये, क्षत्रियोंको अपनी आत्मरक्षाके लिये और वैश्योंको अपनी वृत्तिके लियेः अध्ययन करना चाहिये।अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबको इनके साधन के लिये आयुर्वेदका अध्ययन करना चाहिये। उन आत्मज्ञानी, धर्मपरायण, धर्मके प्रकाश करनेवालोंको माता, पिता, भाई, बन्धु और गुरुजनोंके विकार शान्तिके लिये यत्नवान् रहनाचाहिये।जो मनुष्य आयुर्वेदोक्त अध्यात्म विषयोंको अनुध्यायन करते हैं अर्थात् जानते हैं अथवा आयुर्वेदीय विषयोको जानना, मनन करना और संपूर्ण आयुर्वेदकें जानने में यत्नवान् रहना यह इसका परमधर्म है॥२२॥
आयुर्वेद से अर्थप्राप्ति।
यापुनरीश्वराणांवसुमतांवासकाशात्सुखोपहारनिमित्ताभवत्यर्थलवावातिरवेक्षणञ्चयाचस्वपरिगृहीतानांप्राणिनामातुर्य्याद्रक्षाक्षमत्वञ्चास्यार्थः। यत्पुनरस्यविद्वद्ग्रहणंयशःशरण्यत्वंयाच समानशुश्रूषायच्चेष्टानांजनानामारोग्यमाधत्तेसोऽस्यकामइति २३
आयुर्वेद पढनेसे धनिक पुरुषोंसे अथवा राजाओंसे सुखपूर्वक आहार आदिके लिये द्रव्य की प्राप्ति होना और अपने परिवारकी रोगसे रक्षा करना तथा जो मनुष्य इसके आश्रयी भूत हों उनको रोगसे बचाना यह उसका परमअर्थलाभ है। जो आयुर्वेदीय चिकित्साद्वारा विद्वानोंमें यशका फैलना तथा बडे २ योग्य पुरुषों को अपने वशीभूत करलेना, अपने समान मनुष्योमें बडाईका पाना एवम् अपने प्रियपात्रोंको आरोग्यकर चित्त में आनन्दलाभ करना यह परम कामनाकी प्राप्ति है।इस प्रकार आयुर्वेद के अध्ययनसे धर्म, अर्थ, और काम इन सबकी सिद्धि होती है॥२३॥
शास्त्रविषयक आठ प्रश्न।
यथाप्रश्नमुक्तमशेषेण। अथभिषगादितएवभिषजाप्रष्टव्यइति अष्टविधम्। तद्यथा—तन्त्रंत-न्त्रार्थस्थानानि-स्थानार्थानध्यायानध्यायार्थान्प्रश्नान्प्रश्नार्थाश्चेति॥२४॥पृष्टेचैतद्वक्तव्यमशेषेणवाक्यशोवाक्यार्थशोऽर्थावयवशश्चेति ॥२५॥
इस प्रकार अशेषरूपसे संपूर्ण प्रश्नोका उत्तर कहा गया। अब कहते हैं कि वैद्यको वैद्यके ऊपर प्रथम ही यह आठप्रकार के प्रश्न करना चाहिये। जैसे तंत्र क्या है, तंत्रार्थ किसे कहते हैं, स्थान क्या है, स्थानार्थ किसको कहते हैं एवम् अध्याय अध्यायार्थ प्रश्न, और प्रश्नार्थ किसको कहते हैं इन आठ प्रकारके प्रश्नोंको करना चाहिये॥२४॥ यदि कोई अपने ऊपर इन आठ प्रश्नोंको करे तो वाक्यसे, वाक्यार्थसे एवम् अर्थावयव से भलेप्रकार वर्णन करदेनाचाहिये॥२५॥
आयुर्वेदके पर्यायवाची शब्द।
तत्रायुर्वेदःशाखाविद्यासूत्रंज्ञानंशास्त्रंलक्षणंतन्त्रमित्यनर्थान्तरम्। तन्त्रार्थःपुनःस्वलक्षणेनोपदिष्टःसचार्थः प्रकरणैर्विभाव्यमानोभयएवशरीरवृत्तिहेतुव्याधिकर्मकार्य्यकालकर्तृकरणविधिविनिश्चयोदेशप्रकरणाःतानिचप्रकरणानिकेवलेनोपदेक्ष्यन्तेतन्त्रेण॥२६॥
शाखा, विद्या, सूत्र, ज्ञान, शास्त्र, तंत्र, आयुर्वेद यह सबशब्द पर्यायवाचक हैं अर्थात् इन सबमें किसी एकके कहनेसे आयुर्वेदका ही नाम जानना।यह सबशब्द तंत्रके वाचक हुए।तंत्रार्थ उसके लक्षणोंकी व्याख्यामे कथन कियागया है और फिर भी तंत्रका अर्थ अर्थात् विषय इसके प्रकरणोंसे जानाजाता है। जैसे
शरीरवृत्ति, हेतु, व्याधि, कर्म, कार्य, काल, कर्त्ता, करण, विधि, विनिश्चय और कल्पना यह सव तंत्र अर्थात् आयुर्वेदके प्रकरण हैं इनके देखनेसे तंत्रार्थ अर्थात्तंत्रका विषय जाना जाता है॥२६॥
आठ स्थानोंके नाम
तन्त्रमष्टौ स्थानानि।तद्यथा—श्लोक—निदान—विमानशारीरेन्द्रिय—चिकित्सित—कल्प—सिद्धिस्थानानितत्रत्रिंशद्ध्यायकंश्लोकस्थानम्। अष्टाध्यायकानिनिदानविमानशरीरस्थानानि। द्वादशकमिन्द्रियाणाम्। त्रिंशकंचिकित्सितानाम्।द्वादशकेकल्पसिद्धिस्थानेइति ॥२७॥
तंत्र के आठ स्थान हैं।जैसे श्लोक (सूत्र) स्थान, निदानस्थान, विमानस्थान,शारीरस्थान, इन्द्रियस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान, और सिद्धिस्थान इन आठोंमें तीस अध्यायोंका सूत्रस्थान है, निदानस्थान, विमानस्थान और शारीरस्थान इन सबमें आठआठ अध्याय हैं।इन्द्रियस्थानमें वारह—अध्याय हैं।चिकित्सास्थानमें तीस अध्याय हैं।कल्पस्थान में बारह अध्याय हैं एवम् सिद्धिस्थानमें वारह अध्याय है॥२७॥
भवतिचात्र।
द्वात्रिंशकेद्वादशकंत्रयञ्चत्रीण्यष्टकान्येषुसमाप्तिरुक्ता॥ श्लोकौषधारिष्टविकल्पसिद्धिनिदानमानाश्रय संज्ञकेषु॥२८॥
यहांपर कहा है कि दो स्थान तीस तीस अध्यायोंके हुए और तीन वारह अध्यायके हुए एवम् तीन आठ आठ अध्यायों में समाप्त कियेगये हैं। इनमें सूत्रस्थान और चिकित्सास्थान तीस तीस अध्यायों में, इन्द्रियस्थान और कल्पस्थान एवम् सिद्धिस्थान बारह बारह अध्यायोमें तथा।निदानस्थान और विमानस्थान एवम् शारीरस्थान आठ आठ अध्यायोंमें वर्णन कियेगये हैं॥२८॥
स्वेस्वेस्थानेयथास्वञ्चस्थानार्थ उपदेक्ष्यते ।
सविंशमध्यायशतंशृणुनामक्रमागतम्॥२९॥
सूत्रादिस्थानों में उन स्थानोंके स्थानार्थ अर्थात् स्थानों के विषय कथन किये है।इन सबस्थानोंके १२० अध्याय हुए।उन सब अध्यायोंके क्रमपूर्वक नाम श्रवण करो॥२९॥
भेषजाश्रय अध्यायोंके नाम।
दीर्घञ्जीवोऽप्यपामार्गतण्डुलारग्वधादिकौ
षड्विरेकाश्रयश्चेति चतुष्कोभेषजाश्रयः॥३०॥
जैसे—दीर्घजीवितीय, अपामार्गतंडुलीय, आरग्वधादि, और षड्विरेचन शताश्रितीय—इन चार अध्यायोमे औषधियोंका विषय वर्णन कियागया है॥३०॥
स्वास्थ्यवृत्तिक अध्यायों के नाम।
मात्रातस्याशितीयौचनवेगान्धारणंतथा।
इन्द्रियोपक्रमश्चेतिचत्वारःस्वास्थ्यवृत्तिकाः॥३१॥
मात्राशितीय, तस्याशितीय, नवेगान्धारणीय और इन्द्रियोपक्रमणीय—ये चार,अध्याय स्वाथ्यरक्षाके विषय में कथन कियेगये हैं॥३१॥
नैर्देशिक अध्यायोंके नाम।
खुड्डाकश्चचतुष्पादोमहांस्त्रिस्त्रेषणस्तथा।
सहवातकलाख्येनविद्यान्नैर्देशिकान्बुधः॥३२॥
खुड्डाकचतुष्पाद, महाचतुष्पाद, त्रिस्रैषणीय और वातकलाकलीय—ये चारअध्याय कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के विषय में कथन किये गये हैं ॥३२॥
उपकल्पना विषयक अध्यायोंके नाम।
स्नेहनस्वेदनाध्यायावुभौयश्वोपकल्पनः।
चिकित्साप्रभृतश्चैव सर्वाएवोकल्पनाः॥३३॥
स्नेहाध्याय, स्वेदाध्याय, उपकल्पनीयाध्याय और चिकित्साप्रभृतीय—ये चारअध्याय उपकल्पनाके विषय में कथन कियेगये हैं॥३३॥
रोगाध्यायों के नाम।
कियन्तः शिरसीयश्चत्रिशोफाष्टोदरादिकौ।
रोगाध्यायोमहांश्चैवरोगाध्यायचतुष्टयम्॥३४॥
कियन्तः शिरसीय, त्रिशोफीय, अष्टोदरीय और महारोगाध्याय—इन चार अध्यायोमें रोगोंका विषय है॥३४॥
योजनाचतुष्क अध्यायोंके नाम।
अष्टौनिन्दितसंख्यातस्तथालंघनतर्पणौ।
विधिशोणितकश्चेतिव्याख्यातास्तत्रयोजनाः॥३५॥
अष्टौनिन्दनीय, लंबनबृंहणीय, संतर्पणीय और विधिशोणतीय—ये चार अध्याय औषधीके प्रयोग विषयमे कथन कियेगये हैं॥३५॥
अन्नपानचतुष्कअध्यायोंके नाम।
यज्जःपुरुषकःख्यातोभद्रकाप्योऽन्नपानिको
विविधाशितपीतश्चचत्वारोऽन्नविनिश्चये॥३६॥
यज्जःपुरुषीय, आत्रेयभद्रकाप्यीय, अन्नपानविधि और विविधाशितपीतीय—इनचार अध्यायोमें आहार द्रव्योंका वर्णन कियागया है॥३६॥
वैद्यगुणागुणविषयक अध्यायोंके नाम।
दशप्राणायतनिकस्तथार्थेदशमूलिकः।
द्वावेतौप्राणदेहार्थोप्रोक्तौवैद्यगुणाश्रयौ॥३७॥
दशप्राणायतनीय, अर्थेदशमूलीय—ये दो अध्याय वैद्यके गुणोंके विषय में वर्णन किये गये हैं॥३७॥
सूत्रस्थानके अध्यायोंका संक्षिप्त वर्णन।
औषधस्वस्थनिर्देशकल्पनारोगयोजनाः।
चतुष्काः षट्क्रमेणोक्ताः सप्तमश्चान्नपानिकः॥३८॥
औषध, स्वस्थ, निर्देश, कल्पना, रोग और योजना—यह छः चतुष्क कथन किये गये और सातवां क्रमपूर्वक अन्नपानिकचतुष्क हुआ॥३८॥
द्वौचान्यौसंग्रहाध्यायावितित्रिंशकमर्थवत्।
श्लोकस्थानं समुद्दिष्टंतन्त्रस्यास्यशिरःशुभम्॥३९॥
वाकी दो अध्याय—संग्रह अर्थात् संपूर्ण तंत्र के संग्रह के विषय में कथन किये गये हैं। संपूर्ण तंत्रका शिरोभूत यह सूत्रस्थान इस प्रकार तीस अध्यायोमे संपूर्ण हुआ ३९
चतुष्काणांमहार्थानांस्थानेऽस्मिन्सञ्चयः कृतः।
श्लोकार्थः संग्रहार्थश्चश्लोकस्थानमतः स्मृतः॥४०॥
इस प्रकार इस सूत्रस्थान में परम योग्य विषययुक्त चतुष्कोंका संग्रह कियागयाहै। इसमें समस्त विषयोंका अर्थ सूत्ररूपसे संग्रह कियागया है इसलिये इसको सूत्रस्थान कहते॥४०॥
इति सूत्रस्थानोक्तत्रिशतकम्।
निदान स्थानके अध्यायों के नाम।
ज्वराणांरक्तपित्तस्यगुल्मानांमेहकुष्टयोः। शोषोन्मादनिदानेचस्यादपस्मारणञ्चयत्। इत्यध्यायाष्टकमिदंनिदानस्थानमुच्यते॥४१॥
निदानस्थान में—ज्वरनिदान, रक्तपित्त निदान, गुल्म निदान, प्रमेहनिदान, कुष्ठ निदान, शोषनिदान, उन्मादनिदान एवम् अपस्मारनिदान विषयक आठ अध्याय वर्णन कियेगये॥४१॥
इति निदानस्थानोक्ताष्टकम्।
विमानस्थानके अध्यायोंके नाम।
रसेषुत्रिविधेकुक्षौध्वंसेजनपदस्यच॥४२॥ त्रिविधेरोगविज्ञानेस्रोतःस्वपिचवर्त्तते।रोगानीकेव्याधिरूपेरोगाणाञ्चभिषगुजिते। अष्टौविमानान्युक्तानिमानार्थानि महर्षिणा॥४३॥
विमानस्थानमे—रसविमानाध्याय, त्रिविधकुक्षीय, जनपदोध्वंसनीय, त्रिविधरोगविशेष विज्ञानीय, श्रोतोविमान, रोगानीकविमान, व्याविरूपीय विमान एवम् रोगभिपग्जितीय विमान ये आठ अध्याय महर्षि आत्रेयजीने वर्णन किये हैं॥४२॥४३॥
इति विमानाष्टकम्।
शारीरस्थानके अध्यायोंके नाम।
कतिधापुरुषीयञ्चगोत्रेणातुल्यमेवच॥१४॥ खुड्डीकामहती चैवगर्भावक्रान्तिरुच्यते। पुरुषस्यशरीरस्यविचयौद्वौविनिश्चितौ॥४५॥ शरीरसंख्यासूत्रञ्चजातेरष्टमउच्यते।इत्युद्दिष्टानिमुनिनाशारीराण्यत्रिसूनुना॥४६॥
शारीरस्थानमे—कतिधापुरुषीय, तुल्यगोत्रीय, खुड्डीका गर्भावक्रान्ती, महती गर्भावक्रान्ती, पुरुषविचय, शरीरविचय, शरीरसंख्या और जातिसूत्रीय यह आठ अध्याय भगवान् आत्रेयजीने वर्णन कियेहैं ॥४४॥४५॥४६॥
इति शारीरस्थानोक्ताष्टकम्।
इन्द्रियस्थानके अध्यायोंके नाम।
वर्णस्वरीयंपुष्पाख्यस्तथैवपरिमर्षणः। तथैवंचेन्द्रियानीकःपौर्वरूपकमेवच॥४७॥ कतमानिशरीरीयः पन्नरूपोऽप्यवाक्शिराः।
यस्यश्यावनिमित्तश्चसद्योमरणएवच॥४८॥ अणुज्योतिरितिख्यातस्तथागोमयचूर्णवान्। द्वादशाध्यायकंस्थानमिन्द्रियाणांप्रकीर्त्तितम्॥४९॥
इन्द्रियस्थानमें—वर्णस्वरीय और पुष्पाख्य, परिमर्षण, इन्द्रियानीक, पौर्वरूपिक, कतमानिशरीरीय, पन्नरूपीय, अवाक्शिरसीय, यस्यश्याबनिमित्तीय, सद्योमरणीय, अणुज्योतीय और गोमयचूर्णीय—ये बारह अध्याय इन्द्रियस्थानमें वर्णन किये गये॥४७॥४८॥४९॥
इतीन्द्रियस्थानोक्तद्वादशकम्।
चिकित्सास्थानके अध्यायों के नाम।
अभयामलकीयञ्चप्राणकामीयमेवच।
करप्रचितिकंवेदसमुत्थानंरसायनम्॥५०॥
चिकित्सास्थान में—अभयामलकीय, प्राणकामीय, करप्रचितिक,आयुर्वेदसमुत्थानीय—यह चार रसायनपाद है॥५०॥
संयोगशरमूलीयमासक्तक्षीरकंतथा।
माषपर्णतृतीयञ्चपुमान्जातवलादिकम्॥५१॥
संयोगशरमूलीय, आसक्तक्षीरीय माषपर्णतृतीय पुमान् जातवलादिक—यह चार पाद वाजीकरण पादके हुए॥५१॥
चतुष्कद्वयमप्येतदध्यायद्वयमुच्यते।
रसायनमितिज्ञेयंवाजीकरणमेवच॥५२॥
यह दो चतुष्क—रसायनपाद और वाजीकरण पाद इन नामोंसे दो अध्याय माने जाते हैं (इन दोनोंके आठ विभाग करनेसे चिकित्सास्थान के छत्तीस अध्याय होजाते हैं इसलिये इन दो चतुष्कोंको दो अध्यायों में माना है)॥५२॥
ज्वराणांरक्तपित्तस्यगुल्मानांमेहकुष्ठयोः। शोषेऽर्शसमतीसारेवीसर्पेचमदात्यये॥५३॥ द्विव्रणीयेतथोन्मादेस्यादपस्मारएव च। क्षतशोथोदरेचैवग्रहणीपाण्डुरोगयोः॥५४॥ हिक्काश्वासे चकासेचछर्द्दितृष्णाविषेषु च। मर्मत्रयेचोरुसादेसवातेवातशोणिते॥५५॥ त्रिंशच्चिकित्सितान्येवंयोनीनांव्यापदासह॥५६॥
ज्वरचिकित्सित, रक्तपित्त चिकित्सित, गुल्मचिकित्सित, प्रमेह चिकित्सित, कुष्ठचिकित्सित, शोषचिकित्सित, अर्शचिकित्सित, अतिसार चिकित्सित, विसर्प चिकित्सित, मदात्ययचिकित्सित, द्वित्रणीय चिकित्सित, उन्माद चिकित्सित, अपस्मार चिकित्सित, क्षतक्षीण चिकित्सित, शोथचिकित्सित, उदररोग चिकित्सित, ग्रहणीरोग चिकित्सित, पांडुचिकित्सित, हिक्काश्वास चिकित्सित, काशचिकित्सित, छर्दीचिकित्सित, तृष्णाचिकित्सित, विषचिकित्सित, त्रिमर्मीय चिकित्सित, उरुस्तम्भ चिकित्सित, वातव्याधिचिकित्सित और वातरक्तचिकित्सित एवम् योनिव्यापदचिकित्सित—यह सब मिलाकर चिकित्सास्थानोक्त तीस अध्याय हुए अर्थात् इन तीस अध्यायोंसे चिकित्सास्थान पूरितहै॥५३॥५४॥५५॥५६॥
इति चिकित्सास्थानोक्तत्रिशकम्।
कल्पस्थान के अध्यायोंके नाम।
फलजीमूतकेक्ष्वाकुकल्पोधामार्गवस्यच। पञ्चमोवत्सकस्योक्तः षष्ठश्चकृतवेधने॥५७॥श्यामात्रिवृतयोऽकल्पस्तथैवचतुरंगुलेः। तिल्वकस्यसुधायाश्चसप्तलाशंखिनीष्वपिदन्तीद्रवगुन्त्योः कल्पश्चद्वादशोऽयंसमाप्यते॥५८॥
कल्पस्थानमे—मदनकल्प, जीमूतकल्प इक्ष्वाकु कल्प, धामार्गव कल्प, वत्सक कल्प, कृतवेधन कल्प, श्यामात्रिवृत् कल्प, चतुरंगुल कल्प, तिल्वक कल्प, महावृक्ष कल्प, सप्तला शंखिनी कल्प और दंती द्रवन्तीकल्प—यह बारह कल्पस्थानोक्त अध्याय समाप्त हुए॥५७॥ ५८॥
इति कल्पस्थानोक्तद्वादशकम्।
सिद्धिस्थान के अध्यायोंके नाम।
कल्पनापञ्चकर्माख्याबस्तिमूत्रातथैवच। स्नेहव्यापादिकासिद्विर्नेत्रव्यापादिकातथा॥५९॥सिद्धिःशोधनयोश्चैववस्तिसिद्विस्तथैव च॥ प्रासृतीमर्मसंख्यातासिद्धिर्वस्त्याश्रयाचया॥६०॥ फलमात्रातथासिद्धिःसिद्धिश्चोत्तरसंज्ञिता॥ सिद्ध्योद्वादशैवैतास्तन्त्रञ्चासुसमाप्यते॥६१ ॥
सिद्धि स्थान में—कल्पनासिद्धि, पंचकर्मीयसिद्धि, वस्तिमूत्रीयसिद्धि, स्वेदव्यापादिका सिद्धि, नेत्रव्यापादिकासिद्धि, वमन विरेचन व्यापत्सिद्धि, वस्तिव्यापादिका
सिद्धि, प्रासृत योगिका सिद्धि, त्रिमर्मीयसिद्धि, वस्तिसिद्धि, फलमात्रासिद्धि और उत्तर सिद्धि इन बारह अध्यायोंसे सिद्धिस्थान समाप्त किया है॥५९॥६०॥६१॥
इति सिद्धिस्थानोक्तद्वादशकम्।
प्रश्नका लक्षण।
स्वेस्वेस्थाने तथाध्यायेचाध्यायार्थः प्रवक्ष्यते॥
तंब्रूयात्सर्वतः सर्वंयथास्वंह्यर्थसंग्रहात्॥६२॥
पृच्छातन्त्राद्यथाम्नायंविधिनाप्रश्नउच्यते।
हरएक स्थानमें तथा अध्याय में स्थानार्थ (स्थानका विषय) और अध्यायका विषय वर्णन कियागया है सो उसको उसीउसी अध्याय और उसीउसी स्थानके विषयके अनुसार स्थानार्थ और अध्यायार्थ कथन करना चाहिये।यदि कहीं किसी अध्यायके विषय में कुछ आगे पीछे हो अथवा नामानुरूप विषयमें कुछ न्यूनता आतीहो तो बुद्धिमान् वैद्यको बुद्धि अनुसार विचारकर स्थानार्थ अथवा अध्यायार्थ कहना चाहिये वेदानुसार प्रसंग कमसे तंत्रमे पूछनेको प्रश्न कहते हैं॥६२॥
उत्तरका लक्षण॥
प्रश्नार्थोयुक्तिमांस्तस्यतन्त्रेणैवार्थनिश्चयः॥६३॥
युक्तियुक्त तंत्रद्वारा ही उस प्रश्नकी मीमांसा किये जानेको प्रश्नार्थ कहते हैं॥६३॥
तन्त्रादिकी निरुक्ति।
निरुक्तंतन्त्रणात्तन्त्रेस्थानसर्थप्रतिष्टया।
अधिकृत्यार्थमध्यायनामसंज्ञाः प्रतिष्ठिताः॥६४॥
सब विषयोको इसमें तंत्रण कियागया इसलिये इसको तंत्र कहते हैं। अर्थ (विषय) प्रतिष्ठित अर्थात् स्थित होनेसे स्थान कहा जाता है (जैसे सूत्रस्थानादि)॥६४॥
इतिसर्वंयथाप्रश्नमष्टकंसम्प्रकाशितम्।
कार्त्स्न्येनचोक्तस्तन्त्रस्यसंग्रहःसुविनिश्चितः॥६५॥
इस प्रकार यह प्रश्नाष्टक कहागया अर्थात् जो पहिले आठ प्रश्नोंको कथन कियाथा उनके उत्तर रूपमें यह प्रश्नाष्टककी मीमांसा की गई सो संपूर्णरूपसे यथावत् तंत्रके संग्रहको कथन कियागया है॥६५॥
सन्तिपाल्लविकोत्पाताःसंक्षोभंजनयन्तिये। वर्त्तकानामिवोत्पाताः सहसैवविभाविताः। तस्मात्तान्पूर्वसंजल्पेसर्वत्राष्टकमादिशेत्॥६६॥
परस्परपरीक्षार्थंनात्रशास्त्रविदांबलम्। शब्दमात्रेणतन्त्रस्यकेवलस्यैकदेशिकाः।भ्रमन्त्यल्पबलास्तन्त्रेज्याशब्देनैववर्त्तकाः॥६७॥
बहुतसेलोग इधरउधरसे एकाधा बात सीखकर इस प्रकार अभिमान और क्रोध दिखाते हैं जैसे चटेरपक्षी अपने चोंचसे एक पत्रको उठाकर इधरउधर उलटा और सीधा नाच करता है ठीक उसी प्रकार यह लोग भी किसी ग्रंथकी एकाधामूलबातको याद कर घमण्डी वैद्यराज वन बैठते हैं।इसलिये उनसे बात करतेही प्रथम प्रश्नाष्टक (पूर्वोक्त आठ प्रश्न) कर देना चाहिये।इसपर यथार्थ और अयथार्थ कथन करनेमे अथवा पर अपरकी परीक्षा के लिये प्रश्नाष्टक कियेजानेपर आयुर्वेद के न जाननेवाले मनुष्यका बल स्पष्ट रूपसे दिखाई देजाताहै। तात्पर्य यह हुआ कि आयुर्वेदका ज्ञाता ही प्रश्नाष्टकका यथोचित उत्तर देसकता है। जो मनुष्य केवल एकदेशका जाननेवाला है वह इस प्रश्नाष्टकको सुनकर इस प्रकार घवराजाता है जैसे—धनुषकी टंकारको सुनकर बटेर उडजाया करते हैं॥६६॥६७॥
पशुः पशूनांदौर्बल्यात्कश्चिन्मध्येवृकायते। समत्वं वृकमासाद्य प्रकृतिंभजतेपशुः॥६८॥ तद्वदज्ञोऽज्ञमध्यस्थःकश्चिन्मौखर्य्यसाधनः। स्थापयत्याप्तमात्मानमाप्तन्त्वासाद्यभिद्यते॥ ६९॥
जैसे—दुर्बल पशुओमे बलवान् पशु भेडियेका आकार बनाकर अपने आपको मह पराक्रमी जंचाता है परन्तु असली भेडियेके आजानेपर जैसा वह पशु होता है वैसा ही होकर भागना पडताहै।ठीक उसी प्रकार मूर्खोके बीचमे बकवाद करनेवाला चपल मनुष्यभी अपने आपको बडाभारी योग्य और प्रमाणिक जंचाता है और किसी योग्य पंडितके आजानेपर पूर्वोक्त पशुके समान पूंछको छिपाता फिरताहै॥६८॥६९॥
बभ्रुर्मूढइवोर्णाभिरबुद्धिरबहुश्रुतः।
किंवैवक्ष्यतिसंजल्पेकुण्डभेदीजडोयथा॥७०॥
जैसे—मूंड मकडीके तारोंसे जकडा जानेपर कुछ नहीं बोल सकता और जैसे नीच जातिका मनुष्य अपने आपको ब्राह्मण बताकर फिर बहुतसे लोगोंमे नीचजाति प्रगट होजानेपर कुछ नहीं कहसकता एवम् जैसे—बुढ्ढानेवला रस्सियोंसे जकडा जानेपर चुपका बैठारहता है उसी प्रकार ढोंग मारनेवाला मुर्ख वैद्य भी विद्वान् वैद्यको देखकर अपने छलके प्रगट होनेके भयसे भीत हुआ मूढ वनाबैठा रहताहै॥७०॥
सद्वृत्तैर्नविगृह्णीयाद्भिषगल्पश्रुतैरपि। हन्यात्प्रश्नाष्टकेनादावितरांस्त्वात्ममानिनः॥७९॥दम्भिनोमुखराह्यज्ञाः प्रभूताबद्धभाषिणः॥७२॥
यदि थोडा पढा हुआ वैद्य भी शुद्ध और पवित्र आचरणवाला हो तो बुद्धिमानको चाहिये, प्रश्नाष्टक द्वारा हरानेका यत्न न करे।परन्तु मूर्ख, पाखण्डी, वकवादी, चपल और अभिमानी इनको तो प्रथम ही प्रश्नाष्टकद्वारा हतबुद्धि वनादेनाचाहिये ७१-७२॥
प्रायः प्रायेणसुसुखाः सन्तोयुक्ताल्पभाषिणः। तत्त्वज्ञानप्रकाशार्थमहंकारमाश्रिताः॥७३॥स्वल्पाधाराज्ञमुख-रान्दर्शेंयुर्नविवादिनः॥ परोभूतेष्वनुक्रोशस्तत्त्वज्ञानेपरादया। येषां तेषामसद्वादनिग्रहेनिरतामतिः॥७४॥
प्रायः श्रेष्ठ मनुष्य विनयको ग्रहण करके युक्तियुक्त बहुत थोडा और मीठा बोलनेवाले होते हैं। वह एकाधावातके जाननेवाले मूर्खोंसे विवाद करके अपने आपको वडा दिखाना नहीं चाहते क्योंकि वह महात्मा अहंकाररहित होकर तत्त्वज्ञान केप्राप्त करने के लिये अथवा तत्त्वज्ञानका प्रकाश करनेके लिये सद्वृत्तिका अवलम्बन करते हैं।संपूर्ण जीवोंपर परमदया करने में तथा तत्त्वज्ञान में जिनकी बुद्धि लगीहुई है वह लोग झूठे बकवादको खण्डन करने या उससे अलग रहनेमे दत्तचित्त रहते हैं॥७३॥७४॥
असत्पक्षाक्षणित्वार्त्तिदम्भपारुष्यसाधनाः॥७५॥ भवन्त्यनाप्ताः स्वेतन्त्रेप्रायः परविकत्थनाः॥ तत्कालपाशसदृशान्वर्जयेच्छास्त्रदूषकान्॥७६॥
झूठे पक्षका अवलम्बन करनेवाले पाखण्डी, कठोर प्रकृतिवाले, पराई निंदा करनेवाले इस शास्त्र से कुछ भी लाभ नहीं उठासकते। अर्थात् ऐसे दुष्टोंको यह शास्त्र नही आता और जिनको शास्त्र आता है उनमें यह दुष्टभाव नहीं होते।इस लिये उन शास्त्रनिंदकोंको कालकी फांसीके समान दूरसे ही त्याग देनाचाहिये॥७५॥७६॥
प्रशमज्ञान विज्ञानपूर्णाः सेव्याभिषक्तमाः॥७७॥ समग्रंदुःखमायातमविज्ञानेद्वयाश्रयम्।सुखसमग्रंविज्ञानेविमलेचप्रतिष्ठितम्॥७८॥
जो वैद्य प्रशम अर्थात् रोगनाशक शास्त्रके ज्ञानी हैं एवम् चिकित्सा सम्बन्धी संपूर्ण विषयोंके विज्ञानसे पूर्ण हैं ऐसे योग्य पुरुषोका नित्य सेवन करनाचाहिये।क्योकि संसार में संपूर्ण दुःख अज्ञानसे और संपूर्ण सुख निर्मल ज्ञानसे प्राप्त होते है। तात्पर्य यह हुआ कि अज्ञानमें संपूर्ण दुःख प्रतिष्ठित रहते है और निर्मल ज्ञानमें संपूर्ण सुख प्रतिष्ठित रहतेहैं॥७७॥७८॥
इदमेवमुदारार्थमज्ञानार्थप्रकाशकम्।
शास्त्रंदृष्टिप्रणष्टानांयथैवादित्यमण्डलमिति॥७९॥
जैसे नष्टदृष्टि अर्थात् चक्षुहीन मनुष्योंको सूर्यके प्रकाशसे कुछ लाभ नहीं पहुंच सकता उसी प्रकार मूर्खोको इस बहुमूल्य आयुर्वेदशास्त्र से कुछ लाभ नहीं पहुंचसकता अथवा जैसे योगदृष्टिहीन मनुष्योंके लिये और धर्मदृष्टिहीन मनुष्योंके लिये सूर्यका प्रकाश उनके कार्यकी सहायताका कारण होता है उसी प्रकार यथार्थ ज्ञानहीन मनुष्योंको आयुर्वेदकी एकाधाबात सीखलेना लोगकोठगने में सहायताकारक होताहै॥७९॥
तत्रश्लोकाः।
अर्थेदशमहामूलाः संज्ञास्तेषांयथाकृताः। अयनान्ताः षडग्र्याश्चरूपंवेदविदाञ्चयत्॥८०॥ सप्तकश्चाष्टकश्चैव परिप्रश्नः सनिर्णयः। यथावाच्यंयदर्थञ्चषडिधाश्चैकदेशिकाः॥८॥ अर्थेदशमहामूलेसर्वमेतत्प्रकाशितम्। संग्रहश्चैवमध्यायस्तन्त्रस्यास्यैवकेवलः॥८२॥
यहांपर अध्यायकी पूर्तिमें श्लोक हैंः—इस अर्थदशमूलीय अध्याय में महादशमूलोकी संज्ञा, स्थान, छःअंग, आयुर्वेदके जाननेवालोंका स्वरूप, सप्तक तथा अष्टक प्रश्नावलीकी मीमांसा कथन करनेका निर्देश और अर्थ षड़ावध तथा एकदेशिक विद्वान् और अध्यायोंका संग्रह तथा स्थानसंग्रह एवम् इस तंत्रका विषय वर्णन कियागयाहै॥८०॥८१॥८२॥
सूत्रस्थान की निरुक्ति।
यथासुमनसांसूत्रसंग्रहार्थविधीयते।
संग्रहार्थेयथार्थानामृषिणासंग्रहःकृतः॥८३॥
इति अग्निवेशकृते तन्त्रे चरक प्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने अर्थे महादशमूलीयो नाम त्रिंश-त्तमोऽध्यायः॥३०॥
जिस प्रकार फूलोंको गठन करनेकेलिये धागा होता है अर्थात् जिस प्रकार धागेमं फूल गूंथे जाते हैं उसी प्रकार संपूर्ण संग्रहको इस सूत्रस्थानमें भगवान् आत्रेयजीने गठन किया है ॥८३॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसादवैद्य० भापोटीकायामन्नपानविधिर्नाम त्रिंशत्तमोऽध्याय॥३०॥
अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते।
इयंतावधिनासर्वंसूत्रस्थानं समाप्यते॥
महर्षि अग्निवेशके रचेहुए तथा महात्मा चरकद्वारा प्रतिसंस्कार किये हुए इस आयुर्वेद तंत्र में यह सूत्रस्थान इन तीस अध्यायों में समाप्त हुआ॥
दोहा।
इह विधि सूत्रस्थान यह, सूत्रित तंत्र महान।
सो प्रसादनीयुत भयो, लघुमति जैहैं जान॥१॥
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अथ निदानस्थानम्।
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प्रथमोऽध्यायः।
अथातोज्वरनिदानंव्याख्यास्याम इतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम, ज्वरनिदान की व्याख्या करते हैं, इस प्रकार भगवान् आत्रेयजीकथन करने लगे।
निदानके पर्यायवाची शब्द।
इहखलुहेतुर्निमित्तमायतनंकर्त्ताकारणंप्रत्ययःसमुत्थाननिदानमित्यनर्थान्तरम्॥१॥
इस शास्त्रमे—हेतु, निमित्त, कर्त्ता, कारण, प्रत्यय, समुत्थान, निदान इन सव शब्दोका एक ही अर्थ है अर्थात् यह सव शब्द निदानके वाचक हैं॥१॥
निदानके कारण।
तत्त्रिविधम् असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणामश्चेति॥२॥
वह निदान तीन प्रकारका है—१ असात्म्येन्द्रियार्थ, २ प्रज्ञापराध, ३ परिणाम ॥२॥
व्याधियोके भेद।
अतस्त्रिविधविकल्पाव्याधयःप्रादुर्भवन्त्याग्नेयसौम्यवायव्याःद्विविधाश्चापरेराजसास्तामसाश्च॥३॥
निदान—तीन प्रकारका होनेसे व्याधियां भी तीन प्रकारकी ही होती हैं। उन तीनोंमें शारीरिकव्याधि—वात, पित्त, कफजनित होनेसे तीन प्रकार की होती हैं। मानसिक व्याध—राजस और तामस भेदसे दो प्रकारकी हैं॥३॥
व्याधिके पर्याय शब्द।
तत्रव्याधिरामयोगदआतङ्कोयक्ष्माज्वरोविकारइत्यनर्थान्तरम्॥४॥
व्याधि, आमय, गद, आतंक, यक्ष्मा, ज्वर, विकार, और रोग यह सब शब्द एक ही अर्थवाले है। अर्थात् रोगके वाचक है॥४॥
रोगकी उपलब्धिके विषय।
तस्योपलब्धिनिदानपूर्वरूपलिङ्गोपशयसम्प्राप्तितश्च॥५॥
वह, रोग, निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय, संप्राप्ति इन पांच प्रकारोंसे जाना जासकता है। अर्थात् रोगके वतलानेवाले यह पांच प्रकार हैं॥५॥
निदानका लक्षण।
तत्रनिदानंकारणमित्युक्तमये॥६॥
उनमें निदान कारण को कहते हैं—यह पहिले ( सूत्रस्थान में ) कथन कर आये हैं। (निदान रोगके उत्पन्न करनेवाले कारण को कहते हैं)॥६॥
पूर्वरूपके लक्षण।
रूपंप्रागुत्पत्तिर्लक्षणव्याधेः॥७॥
रोग उत्पन्न होनेसे प्रथम होनेवाले लक्षणोंको पूर्वरूप कहते हैं॥७॥
लिङ्गके लक्षण।
प्रादुर्भूतलक्षणंपुनर्लिङ्गंतत्रलिङ्गमाकृतिर्लक्षणंचिह्नंसंस्थानंव्यअनंरूपमित्यनर्थान्तरम्॥८॥
व्याधिके प्रगट हो जानेको रूप अथवा लक्षण कहते हैं। या यो कहिये कि, व्याधिके प्रगट होजाने पर व्याधिके जो लक्षण होते हैं उनको रूप कहते हैं लिंग, आकृति, लक्षण, चिह्न, संस्थान,व्यंजन और रूप यह सव शब्द एकहीअर्थके वाचक हैं॥८॥
उपशयके लक्षण।
उपशयः पुनर्हेतुर्व्याधिविपरीतानां विपरीतार्थकारिणाञ्चोषधाहारविहाराणां उपयोगः सुखानुवन्धः॥९॥
हेतुसे विपरीत, व्याधिसे विपरीत और विपरीत अर्थके करनेवाले औषधि आहार विहारका उपयोग करना सुखकारक अर्थात् आरोग्यकारी होता है उसीको उपशय कहते हैं। और उसीको सात्म्य कहते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि रोगोत्पादक हेतुसे विपरीत आर व्याधिसे विपरीत तथा हेतु और व्याधि इन दोनोंसे विपरीत अर्थ करनेवालाअर्थात् व्याधि और व्याधिके कारणको हटानेवाला औषध, अन्न और बिहार सुखको देनेवाला होता है उसीको सात्म्य (शरीरके अनुकूल) और उपशय कहते हैं॥९॥
संप्राप्तिके पर्याय।
संप्राप्तिजतिरागतिरित्यनर्थान्तरंख्याधेः॥१०॥
रोगकी उत्पत्तिको अर्थात् जिस प्रकार जितने अंशोंसे जिनजिन दोषोंको लेकर व्याधि उत्पन्न होती है उसको समाप्ति कहते हैं। संप्राप्ति, जाति, आगति ये सब एकही अर्थके वाचक शब्द हैं॥१०॥
सम्प्राप्तिके भेद।
सासंख्याप्राधान्यविधिविकल्पबलकालविशेषैर्भिद्यते॥११॥
संख्या, प्राधान्य, विधि, विकल्प एवम् बल, कालके भेदसे संप्राप्तिके विभाग कियेगये हैं अर्थात् संख्यादि संप्राप्तिके भेद हैं॥११॥
संख्यासम्प्राप्तिके लक्षण।
संख्या यथाष्टौज्वराः पञ्चगुल्माः सप्तकुष्ठान्येवमादि॥१२॥
अब संख्या के लक्षणको कहते हैं जैसे, आठ प्रकारके ज्वर, पांच प्रकारके गुल्म,सात प्रकारके कुष्ठ इत्यादिक जो गणना है उसको संख्या कहते है॥१२॥
प्राधान्यसम्प्राप्तिके लक्षण।
प्राधान्यंपुनर्दोषाणांतरतमयोगेनोपलभ्यते तत्र द्वयोस्तरस्त्रिषु तमइति॥१३॥
वात, पित्त, कफ इन तीन दोषोंमें—वात और पित्त अल्प होनेसे अप्रधान और कफ अधिक होनेसे प्रधान माना जाता है। इस प्रकार दोपके न्यूनाधिक योग द्वारा प्राधान्य जानना चाहिये।जैसे—त्रिदोषज्वर में वात अल्प हो पित्त मध्य हो और कफ अधिक हो तो उस सन्निपातको अल्पवात, मध्य पित्त, और कफ प्रधान, कहाजाता है। अथवा ज्वरातिसारमे ज्वर प्रधान है कि अतिसार प्रधान है इस तरह पर एक कालमें एक पुरुषको दो तीन व्याधियोंमेसे जो व्याधि स्वतंत्र हो उसको प्रधान कहते है और जो परतंत्र हो उसको अप्रधान कहते हैं।इस प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये॥१३॥
विधिसम्प्राप्तिके लक्षण।
विधिर्नामद्विविधाव्याधयोनिजागन्तुभेदेनत्रिविधास्त्रिदोषभेदे,नचतुर्विधाःसाध्यासाध्यमृदुदारुणभेदेनपृथक्॥१४॥
अब विधिके लक्षणो को कहते हैं। यथा—व्याधि दो प्रकार की होती है, एक निज, दूसरी आगन्तुक, फिर वह वात, पित्त, कफ भेद से तीन प्रकार की है।साध्य, असाध्य, मृदु और दारुण, इन भेदोंसे चार प्रकार की होती है इस प्रकार रोगोंके भेदके क्रमको विधि कहते हैं॥१४॥
विकल्पसम्प्राप्तिके लक्षण।
विकल्पोनामसमवेतानांपुनर्दोषाणामंशांशबलविकल्पोऽस्मिन्नर्थे॥१५॥
मिले हुए दोषों के अंशांश कल्पना को विकल्प कहते है। जैसे—सन्निपात ज्वरका बावन प्रकार का विकल्प है॥१५॥
बलकालका लक्षण।
बलकालविशेषः पुनर्व्याधीनामृत्वहोरात्राहारकालविधिनियतोभवति॥१६॥
व्याधियोंका ऋतु, दिन, रात्रि, आहार, काल और विधि भेदसे वल औरकालका जानना बलकाल विशेष संप्राप्ति कहा जाता है। जैसे-वसन्त ऋतु में कफका - काल कृत बल होता है एवम् रात्रिके प्रथम भागमें कफका वल होता है,दिनके प्रथम भागमें कफका बल होता है और भोजनके प्रथम भागमें कफका बलहोता है एवम् शरद ऋतुमें, मध्य रात्रि में, मध्य दिन में भोजन के मध्य में अथवाभोजनकी परिपाकावस्थामें पित्तका बल होता है। इसी प्रकार वर्षा ऋतु, रात्रिकेअंतमें दिनके अंत में, भोजनके अंतमें बातका बल होता है। इस प्रकार बल, काल,विशेष, संप्राप्ति जानना॥१६॥
ग्रन्थकारकी प्रतिज्ञा।
तस्माद्व्याधीन्भिषगनुपहतसत्त्वबुद्धिर्हेत्वादिभिर्भावैर्यथावदनुबुध्येत्॥१७॥
इस लिये बुद्धियुक्त वैद्य हेतु आदिक भावोंसे अर्थात् निदानादिकों द्वारा रोगकीयथार्थ परीक्षा करे॥१७॥
इत्यर्थसंग्रहोनिदानस्थानस्योद्दिष्टः भवति तं विस्तरेण भूयः परमतोऽनुव्याख्यास्यामः॥१८॥
इस प्रकार संक्षेपसे संपूर्ण निदानको कथन किया है।अब फिर विशेष रूपसे कथनकरते हैं ॥१८॥
तत्र प्रथम एव तावदाद्यालोभाभिद्रोहकोपप्रभवानष्टौ व्याधीन्निदानपूर्वेण क्रमेण अनुव्याख्यास्यामः॥१९॥
अब क्रमपूर्वक लोभ और अभिद्रोह अथवा मिथ्याआहार और अनाचारसेउत्पन्न हुई आठ प्रकारकी व्याधियोंको निदानादि कमसे कथन करते हैं॥१९॥
तथासूत्रसंग्रहमात्रं चिकित्सायाः चिकित्सितेषु चोत्तरकालं यथोदिष्टं विकाराननुव्याख्यामः॥२०॥
और चिकित्साको भी सूत्रसंग्रह मात्र अर्थात् संक्षेपरूपसे कथन करते हैंविशेषरूपसे तो संपूर्ण रोगोंका निदान और उपाय यथाक्रम चिकित्सा स्थानमेंकथन करेंगे॥२०॥
ज्वरके भेद।
इह खलु ज्वर एवादौ विकाराणामुपदिश्यते।तत्प्रथमत्वाच्छारीराणाम्॥२१॥
क्योंकि संपूर्ण शारीरिक विकारोंमें ज्वरही प्रधान माना गया है अथवा संपूर्णविकारों में प्रथम ज्वरकी उत्पत्ति हुई है इसलिये इस निदानस्थान में प्रथम ज्वरकांहीकथन करते हैं॥२१॥
अथ खल्वष्टाभ्यः कारणेभ्योज्वरः सञ्जायते मनुष्याणां तद्यथावातात् पित्तात्कफाद्वातपित्ताभ्यां पित्तश्लेष्मभ्यां वातश्लेष्मभ्यांवातपित्तश्लेष्मभ्यः आगन्तोरष्टमात्कारणात्।तस्य निदानपूर्वरूपलिङ्गोपचयविशेषानुपदेक्ष्यामः॥२२॥
** **अब कहते है कि ज्वर आठ कारणोंसे मनुष्योंके शरीरमें उत्पन्न होता है। वहआठ कारण इस प्रकार हैं। जैसे—वातसे, पित्तसे, कफसे, वातपित्तसे, पित्तकफ सेवातकफसे एवम् वातपित्तकफसे आठवां आगन्तुक कारणसे सो उस आठ प्रकारके ज्वरको निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय और संप्राप्ति विशेषसे कथन करते हैं॥२२॥
वायुकोपका कारण।
तद्यथा रूक्षलघुशीतव्यायामवमनविरेचनास्थापनशिरोविरेचनातियोगवेगसन्धारणानशनाभिधातव्यवायोद्वेगशोकशोणितातिसेकजागरणविषमशरीरन्यासेभ्योऽति सेवितेभ्यो वायुः प्रकोपमापद्यते॥२३॥
** **वह इस प्रकार है। रूक्ष, लघु, शीतल पदार्थों के सेवनसे। परिश्रम करनेसे, वमन,विरेचन, और आस्थापनके अतियोगसे\। मलमूत्रादि वेगोंको रोकनेसे उपवास करनेसे, चोट लगनेसे, मैथुन करनेसे, उद्वेग और शोच होनेसे, रक्तके अत्यन्त निकलनेसे,रात्रिमे जागनेसे, शरीरको ऊंचा नीचा तिरछा आदि करनेसे इन सब कारणोंकेअधिक सेवनसे शरीरमें वायुका कोप होताहै॥२३॥
अतिकुपितवायुका कर्म।
स यदा प्रकुपितः प्रविश्यामाशयमुष्मणः स्थानमुष्मणा सह मिश्रीभूतआद्यमाहारपरिणामधातुं रसनामानमन्ववेद्यसस्वेदवहानिचस्रोतांसि
च पिधायाग्निमुपहत्य पक्तिस्थानादुष्माणं बहिः निरस्यकेवलं शरीरमनुपद्यते तदा ज्वरमभिनिर्वर्त्तयति तस्येमानिलिङ्गानि भवन्ति॥२४॥
वह कुपित हुई वायु-आमाशय में प्रवेश करके आमाशयकी गर्माईमें मिल जातीहै। फिर वह आहारके सारभूत रस नामक धातु का आश्रय लेकर रस और स्वेदकेवहने वाले छिद्रोंको रोक देती है। फिर पाचकानिको हनन करके पति स्थानकीगर्माईको बाहर निकाल देती है। फिर वह वायु शरीरको यथोचित अग्निवलहीनदेखकर वल पा जाती है। वह बल पाया हुआ वात वातज्वरको उत्पन्न करता है॥२४॥
वातज्वरके लिंग व अंगविशेषोंमें वेदना विशेष।
तद्यथा विषमारम्भविसर्गित्वमूष्मणो वैषम्यं तीव्रतनुभावानवस्थानानि ज्वरस्य जरणान्ते दिवसान्ते धर्मान्ते वा ज्वराभ्यागमनमभिवृद्धिर्वा ज्वरस्य विशेषेण परुषारुणवर्णत्वंन खनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्यर्थं क्लिप्ती-भावश्चानेकविधोपमाश्चचलाचलाश्चवेदनास्तेषांतेषामङ्गावयवानाम्। तद्यथापादयोः सुप्ततापिण्डिकयोरुद्वेष्टनं जानुनोः केवलानाञ्चसन्धीनांविश्लेषणमूर्वोः सादःकटीपीश्वपृष्टस्कन्धबाह्वंसोरसाञ्चभग्नरुग्णमृदित मथितचटिः
तावपीडिताव तुन्नत्वमिवहन्वोरप्रसिद्धिः स्वनश्चकर्णयोः शंखयोर्निस्तोदः कषायास्यत्वमास्य वैरस्यं वा मुखतालुकण्ठशोषःपिपासाहृदयग्रहःशुष्कच्छर्दिः शुष्ककासः क्षवयूद्गारविनिग्रहोऽन्नरसखेदः प्रसेकारोचका विपाकाः विषादविजृम्भाविनामवेपथुश्रमभ्रमप्रलापजागरणलोमहर्षदन्तहर्षास्तथोष्माभिप्रायतानिदानाक्तानामनुपचयोविपरीतोपचयश्चेतिवातज्वरलिङ्गानि स्युः॥२५॥
उस ज्वरके यह लक्षण होते हैं। जैसे-ज्वरके चढनके समय और उनरनके समयशरीरके तापमें विषमता, कभी शरीरका अधिक तपना और कभी थोडा तपना,ज्वरका एकसा न रहना, कभी ज्वर तीक्ष्ण और कभी मंद होना, तथा भोजनके
पचजानेके अनन्तर सायंकालमे एवम वर्षा ऋतुमे उत्पत्ति अथवा वृद्धि होना एवम्नख, नेत्र, मुख, मूत्र, मल और त्वचा इन सवका कठोर और शुष्क होजाना थतालाल वर्णके दिखाई देना, शरीरका वर्ण चिकटा सा हो जाना, शरीर के अंगोमे क्षणक्षणमें इधर उधर चलने वाली तथा स्थिर रहने वाली वायुकी पीडा होना जैसे पैरोंकासोजाना, पिण्डलियोंमें उद्वेष्टन (लपेटनेकीसी पीडा) होना, जानुओंका तथा अन्यसंधियोंका ढीले ढीलेसे पड जाना, दोनों जांघोका रहसा जाना, कटि, पार्श्व, पीठ,कंधे, भुजा और कंधेके ऊपरके भागमें एवम वक्षस्थलमे तोडनेकीसी पीडा तथामर्दन करनेकीसी पीडा एवम मथनेकीसी पीडा होना तथा चटकाने कीसी पीडा,मीडनेकीसी पीडा और सूई चुभानेसी पीडा होना, ठोडीका जकडना, कानोमेंशब्द होना, कनपटियोंमें सई चुभनेकीसी पीडा होना, मुखका कसैला होनाएवम् विरस होना। मुख, तालु, और कण्ठका सूखना, तृपा, छातीमें दर्द, सूखीछर्दी, सूखी खांसी और छीक इनका होना, डकार न आना, अन्नके ग्सयुक्त थूकना,अरुचि, अन्नका न पचना, चित्तमें विषाद रहना, जंघाई अधिक आना, शरीरकानमजाना, कंप होना, थकावट मालूम देना, भ्रम होना, वकना, निद्रा न आना,रोमाञ्च होना, दंतहर्ष होना, गर्मीकी इच्छा होना, वातनाशक, उष्ण स्निग्ध आदिपदार्थोंसे रोगकी शान्ति होना, एवम् रूक्ष, शीत आदिकोंसे रोगका बढना यह सबलक्षण वातज्वरके होते हैं॥२५॥
पित्तकोपका कारण
उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनेभ्योऽतिसेवितेभ्यस्तथातितीक्ष्णातपाग्निसन्तापश्रमक्रोधविषमाहारेभ्यः पित्तप्रकोपमापद्यते॥२६॥
अब पित्तकोपके कारणोंको कहते हैं। जैसे उष्ण, अम्ल, लवण, क्षार, चरपरे पदार्थोके सेवनसे एवम् अजीर्णकर्त्ता भोजनके अधिक सेवनसे तथा अतितीक्ष्ण,धूप, अग्नि और संतापके सेवनसे, परिश्रम करनेसे तथा विषम भोजन करनेसे इन सवकारणोंसे पित्तका प्रकोप होताहै॥२६॥
प्रकुपितपित्तका कर्म।
तद्यथा प्रकुपितमामाशयादेवोष्माणमुपसंसृज्याद्यमाहारपरिणामधातुंरसनामानमन्वावेद्यरसस्वेदवहानि च स्रोतांसि पिधाय द्रवत्वादग्निमुपहत्य पंक्तिस्थानादूष्माणं बहिर्द्वारं निरस्य प्रपीडयन्केवलं शरीरमुपपद्यते तदा ज्वरमभिनिर्वर्त्तयति॥२७॥
फिर वह पित्त कुपित होकर आमाशयसे गर्मीको उत्तेजन करताहुआ आहारकापरिणामरूप जो रसनामक धातु है उसमें मिलकर स्वेद और रसके बहानेवाले छिद्रोंकोरोक देता है। फिर अपने द्रवसे जठराग्निको हनन कर पाचकस्थानकी गर्मीको बाहरनिकाल देता है। तब अपना अधिकार पाकर शरीरको पीडन करताहुआ पित्तज्वरको उत्पन्न करता है॥२७॥
पित्तज्वरके लक्षण।
तस्येमानि लिङ्गानि भवन्ति। तद्यथा युगपदेव केवले शरीरे ज्वराभ्यागमनमभिवृद्धिर्वा। भुक्तस्य विदाहकाले मध्यन्दिनेऽर्द्धरात्रेशरदिवाविशेषेण कटुकास्यताप्राणमुखकण्ठोष्ठतालुपाकस्तृष्णाम्रमोमदोमूर्च्छापितच्छर्दनमती सारोऽन्नद्वेषः सदनं स्वेदः प्रलापो रक्तकोठाभिनिर्वृत्तिः शरीरे हरितहारिद्रत्वं नखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्वचामत्यर्थ मुष्मणस्तीत्रभावोऽतिमात्रं दाहः शीताभिप्रायतानि दानोकानामनुपचयो विपरीतोपचयश्चेति पित्तज्वरलिङ्गानि भवन्ति॥२८॥
उसके ये लक्षण होतेहैं । शरीरसें एकदम ज्वरका वेग होना, भोजनके पार्कके समयदिनके मध्य में, अर्धरात्रिमें, शरदऋतु में विशेष करके ज्वरकी वृद्धि होना या उत्पन्नहोना, मुखमें कटुता, नाक, मुख, कण्ठ, ओष्ट और तालुका पकना, तृषा, भ्रमंमोह, मूर्च्छा, मुखसे पित्तका निकलना, पतला दस्त होना, आहारमें अरुचि, स्वेद,प्रलाप, शरीरमें लाल वर्णके चकत्ते मगट होना, नेत्र, नख, मुख, मूत्र, पुरीष, त्वचाइनका हल्दीके समान पोलावर्ण होना, गर्मी अधिक प्रतीत होना, अधिक दाह होनाशीतल वस्तुकी इच्छा होना एवम् उष्ण वस्तुओंसे रोगका वढना, शीतल वस्तुओंसेशान्त होना यह पित्तज्वर के लक्षण होतेहैं॥२८॥
कफप्रकोपका कारण।
स्निग्धमधुरगुरुशीतपिच्छिलाम्ल–लवण–दिवास्वप्नहर्षव्यायामेभ्योऽतिसेवितेभ्यः श्लेष्माप्रकोपमापद्यते॥२९॥
चिकने, मधुर, भारी, शीतल, पिच्छिल, अम्ल, एवम् लवण पदार्थोंके खानेसे,दिनमें सोनेसे, हर्षसे, परिश्रम न करनेसे इत्यादि कफवर्द्धक पदार्थोंके अधिक सेवनसेकफका कोप होता है॥२९॥
प्रकुपितकफका कर्म।
स यदा प्रकुपितः प्रविश्यामाशयमूष्मणा सह मिश्रीभूतमाद्यमाहारपरिणामधातुं रसनामानमन्ववेत्य रसस्वेदवहानि च स्रोतांसिपिधायाग्निमुपहत्य पंक्तिस्थानादूष्माणं वा बहिः निरस्य प्रपीडयन् केवलं शरीरमुपपद्यते तदा ज्वरमभिनिर्वर्त्तयति॥३०॥
वह कुपित हुआ कफ आमाशयमे प्रवेश करके जेठराग्निकी गर्मी के साथ मिलकरआहारके परिणामरूप रस नामक धातुके साथ जाकर रम और स्वेदके बहानेवालेछिद्रों को रोक देता है। तब जठराग्निको हनन करके पाचकाग्निकी गर्मीको बाहरनिकाल देता है।फिर अपना अधिकार पाकर शरीरको पीडित करताहुआ कफज्वरउत्पन्न करताहै॥३०॥
कफज्वरके लक्षण।
तस्येमानि लिङ्गानि भवन्ति।तद्यथा युगपदेव केवले शरीरे ज्वराभ्यागमनमभिवृद्धिर्वा भुक्तमात्रे पूर्वाह्णेपूर्वरात्रे वसन्तकाले वाविशेषेण गुरुगात्रत्वमनन्नाभिलाषः श्लेष्मप्रसेको मुखस्य च माधुर्य्यं हृल्लासो हृदयोपलेपस्तिमिरत्वं छर्द्दिमृद्वग्निता निद्राया आधिक्यं स्तम्भः तन्द्रा श्वासः कासः प्रतिश्यायः शैत्यं श्वैत्यञ्च नयननखवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्यर्थशीतपिडका भृशमङ्गेभ्य उत्तिष्ठतिउष्णाभिप्रायता निदानोक्तानामनुपचयो विपरीतोपचयश्चेति श्लेष्मज्वरलिङ्गानि भवन्ति॥३१॥
उसके ये लक्षण होतेहैं शरीरमें एकदम ज्वरका प्रगट होना, भोजन करते हीपूर्वाह्णमें, रात्रिके प्रथमभागमे एवम् वसन्तऋतुमे ज्वरका अधिक होना अथवा उत्पन्नहोना एवम् शरीरमें भारीपन, अन्नमें अरुचि, मुखसे कफका गिरना, मुखका स्वाद,मीठा होना, कफकी छर्दी होना, हृदय कफसे लिपासा प्रतीत होना, देहमें गीलापनप्रतीत होना, अग्निकी मंदता, अधिक निद्रा, स्तम्भ, तन्द्रा, श्वास, कास, प्रतिश्याय,शीतता, नेत्र, नख, मुख, मूत्र, पुरीष, त्वचा इनका श्वेत होना, देहमें श्वेतरंगकीपिंडकाका होना गर्मीकी इच्छा होना, चिकने एवम् कफकारक पदार्थोंसेरोगका बढना, रूक्ष, उष्ण आदि पदार्थोसे शान्त होना यह सब कफज्वरके लक्षणहोतेहैं॥३१॥
द्वन्द्वजादिज्वरोंका निदान।
विषमाशनादनशनादन्नस्य अपरिवर्तादृतुव्यापत्तेः असात्म्यागन्धोपत्राणाद्विषोपहतस्योदकस्य उपयोगाद्गरेभ्यो गिरीणामुपश्लेषात् स्नेहस्वेदवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानामयथावत् प्रयोगात् स्त्रीणाञ्च विषमप्रजननात्प्रजातानाञ्च मिथ्योपचाराद्यथोक्तानाञ्च हेतूनां मिश्रीभावाद्यथानिदानं द्वन्द्वानामन्यतमः सर्वे वा त्रयो दोषा युगपत्प्रकोपमापद्यन्ते॥३२॥
विषम भोजन करनेसे ऋतुओंके परिवर्त्तनसे, ऋतुओंके बिगडनेसे, असात्म्य गंधकेसूंघनेसे, विषैले जलके पीने से, गर (गर संख्यक विष) विकारसे, पहाडोंके समीपतासे,स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन और शिरोविरेचन इन सबकेमिथ्यायोग होनेसे, स्त्रियोके वेसमय प्रसव होनेसे अथवा प्रसव के समय कुपथ्य हाजानेसे एवम् ऊपर कहेहुए वात, पित्त, कफ, इनमेंसे दो दोषोंके कारणोंके मिलनेसेदो दोष कुपित होते हैं और तीनों दोषोके कोप कारक कारणोंके मिलजानेसे तीनोंदोष एकही कालमें कुपित होते हैं॥३२॥
द्वन्द्वजादिज्वरोंके लक्षण।
ते प्रकुपितास्तयैवानुपूर्व्या ज्वरमभिनिर्वर्त्तयन्ति तत्र यथोक्तानांज्वरलिङ्गानां मिश्रीभावविशेष-दर्शनाद्वान्द्विकमन्यतमं ज्वरं सान्निपातिकं वाविद्यात्॥३३॥
वे कुपित हुए दोष क्रमपूर्वक द्वन्द्वजज्वरको अथवा सन्निपातज्वरको उत्पन्न करते हैं।दो दोष कुपित हुए इन्द्र-जज्वरको उत्पन्न करते हैं। तीनों दोष कुपित होनेसे सन्निपातज्वर उत्पन्न होताहै।दो दोषोंके लक्षण मिलनेसे इन्द्वज(द्विदोपज) ज्वर जाननाऔर तीनो दोषोके लक्षण मिलनसे त्रिदोषज्वर जानना चाहिये॥३३॥
आगन्तुज्वरका कारण व उममें दोषोत्पत्ति।
अभिघाताभिषङ्गाभिचाराभिशापेभ्य आगन्तुर्व्यथापूर्वो ज्वरोऽष्टमोभवति। स कञ्चित्कालमागन्तुः केवलो भूत्वा पश्चाद्दोषैरनुबध्यते। अभिघातजो वायुना दुष्टशोणिताधिष्ठानेन अभिषङ्गजः पुनर्वातपित्ताभ्याम्
अभिचाराभिशापजौ तु सन्निपातेन उपनिबध्येते। सप्तविधाज्ज्वराद्विशिष्टलिङ्गोपक्रमसमुत्थितत्वाद्विशिष्टो वेदितव्यः।कर्मणा साधारणेन चोपक्रम्येति अष्टविधा ज्वरप्रकृतिरुक्ता॥३४॥
चोट आदिके लगनेसे, काम क्रोधादि अभिष्यंदसे, अविचार तथा अभिशापसेआगन्तुकज्वर उत्पन्न होता है। आगन्तुक ज्वरके मिलानसे ज्वर आठ प्रकार के होतेहैं।आगन्तुकज्वर पहिले स्वयं प्रगट होकर पीछे वात, पित्त, कफकी सहायताको प्राप्तहोता है अर्थात् आगन्तुज व्याधिमे पहिले व्याधि उत्पन्न होकर पीछे वातादि दोषकुपित होतेहैं। (और निज व्याधिमें पहिले वातादि दोष कुपित होकर पीछे रोगउत्पन्न होता है)। अभिघात निमित्तक आगन्तुजज्वरमें वायुदूषित रुधिरका आश्रयलेकर अभिघातज्वरका सहायक बनता है। अभिष्यंदजानत ज्वरमें वात और पित्तकाअनुबंध होता है। अविचार और अभिशापजनित ज्वरमें तीनो दोषोका अनुबंधहोताहै। आगन्तुजज्वर पूर्वोक्त सात प्रकारके ज्वरोसे लक्षण, उपाय कारणों द्वाराअलग जानना चाहिये अर्थात् वातादि सात प्रकारके ज्वरोंसे आगन्तुजज्वरके कारण,लक्षण उपाय और प्रकार के होतेहैं। कि आगन्तुजज्वर उसके साधारण कारण की चिकित्सामात्र से शान्त होजाता है। इस प्रकार ज्वरोंकी आठ प्रकारकी प्रकृति कही है॥३४॥
ज्वरको एकत्व और पूर्वरूप।
ज्वरस्त्वेक एव सन्तापलक्षणस्त मेवाभिप्रायविशेषाद्विविधमाचक्षतेनिजागन्तुविशेषाच्च तत्र निजं द्विविधं त्रिविधं चतुर्विधं सप्तविधाहुर्वातादिविकल्पात्॥३५॥ तस्येमानि पूर्वरूपाणि॥ तद्यथा मुखवैरस्यं गुरुगात्रत्वमनन्नाभिलाषश्चक्षुषोराकुलत्वमस्रागमनंनिद्राया आधिक्यमरतिर्जम्भाविनामो वेपथुश्रमभ्रमप्रलापजागरणलोमहर्षशब्दगीतवातातपासहत्वमरोचकाविपाकौदौर्बल्यमङ्गमर्द्दः सदनमल्पप्राणता दीर्घसूत्रता आलस्यमुपचितस्यकर्मणो हानिः प्रतीपता स्वकार्येषु गुरूणां वाक्येषु अभ्यसूया बालेषु प्रद्वेषः स्वधर्मेषु अचिन्तामाल्यानुलेपभोजनक्लेशनं मधुरेषुभक्ष्येषु प्रद्वेषोऽम्लवणकटुकप्रियता चेति ज्वरपूर्वरूपाणि॥३६॥
यद्यपि संतापमात्र लक्षणसे अर्थात् शरीरके तपायमानहोनेसे ज्वर (ताप) एकही प्रकारका होता है परन्तु उसीको निज और आगन्तुकभेदसे दो प्रकारका
कथन करते हैं। उनमें निजज्वर एक प्रकारका तथा दो प्रकारका एवम् तीनप्रकारका और चार प्रकारका अथवा सांत प्रकारका वात आदिके विकल्पसे मानाहैउस सामान्य ज्वरके यह पूर्वरूप होतेहैं जैसे मुखकी विरसता, अंगोंका भारीपन,अन्नमें अरुचि, आंखोंमें दाह अथवा स्राव होना एवम् आंखोंका लाल होना अधिकनिद्रा आना, चित्त न लगना तथा जंभाई आना, शरीरका ऐठना एवम् कम्प, श्रम,भ्रम, मलाप, जागरण, रोमहर्ष, दंतहर्ष, इन सबका होना तथा शब्द, गीत, पवन,धूप इनकी इच्छा होना और क्षणमात्रमें इनसे द्वेष होना तथा अरुचि, अविपाक, दुर्बलता, अंगमर्द, अवसाद, प्राणोंका क्षीण होना, कामको बहुत देरमें करना, आलस्यउपस्थित कामको छोडदेना, अपने कार्यमें वेपरवाही करना, गुरुजनोंके वाक्योंको नमानना, वालकोंकी बोलचाल बुरी मालूम होना, अपने धर्मका चिन्तन ने करना,पुष्पमाला चन्दनादिका लेप और भोजन इनसे भी क्लेश प्रतीत होना, मधुर पदार्थोंसेभी द्वेष होना, खट्टे, नमकीन, चरपरे पदार्थोंकी इच्छा होना यह सर्व लक्षण ज्वर केपूर्वरूपमें होतेहैं ॥३५॥३६॥
प्राक् सन्तापादपि चैनं सन्तापार्त्तमनुवघ्नन्तीत्येतानि एकैकज्वरलिङ्गानि विस्तरसमासाभ्याम्॥३७
संताप होनेसे अर्थात् ज्वरसे पहिले प्रगट होनेसे इसको ज्वरका पूर्वरूप कहतेहैं।और यह लक्षण ज्वर प्रगट होनेके अनन्तर होनेसे ज्वरके रूपमे गिने जाते हैं अर्थातपूर्वरूपावस्था में जो संताप प्रगट नहीं था वह प्रगट होजानेपर रूप कहा जाताहै।सो यह लक्षण हरएक ज्वरमे संक्षेप और विस्तारसे जान लेना चाहिये॥३७॥
ज्वरस्तु खलु महेश्वरकोपप्रभवः सर्वप्राणिनां प्राणहरो देहेन्द्रियमनस्तापकरः प्रज्ञाबलवर्णहर्षोत्साह-सादनार्त्तिश्रमक्लममोहाहारोपरोधसञ्जननोज्वरयतिशरीराणि इति ज्वरः। नान्ये व्याधयःतथा दारुणा वहूपद्रवादुश्चिकित्स्या यथायमिति। सर्वरोगाधिपतिर्ध्वरः नानातिर्य्यग्योनिषु बहुविधैः शब्दरभिधीयते सर्वप्राणभृतश्चसज्वराएवजायन्तेसज्वराएवम्रियन्ते समहामोहाः तेनाभिभूताः प्राग्दैहिकं देहिनः कर्म किञ्चिन्नस्मरन्तिसर्वप्राणिभ्यश्चज्वर एव प्राणानादत्ते॥३८॥
अब ज्वरकी उत्पत्ति और उसके नामादिकोंका वर्णन करतेहैं। ज्वर महादेवकेकोपसे उत्पन्न हुआ है। और सब प्राणियों के प्राणोंको हरनेवाला देह, इन्द्रिय, मन
इनको तपायमान करनेवाला बुद्धि, वल, वर्ण, हर्ष, उत्साह इनको नष्ट करनेवाला है।पीडा, थकावट, घबराहट, मोह इनको करनेवाला है तथा आहारका उपरोध करनेवाला है। शरीरको जर्जर करदेता है इसलिये इसको ज्वर कहते हैं। अन्य व्याधियांइस प्रकार दारुण और बहुतसे उपद्रवोवाली एवम् दुश्चिकित्स्य नहीं होतीं जिसप्रकार यह ज्वर है। ज्वर सब रोगोंका राजा है और अनेक प्रकारकी पशु आदियोनियोंमे अनेक नामोंसे कहा जाता है। संपूर्ण जीवमात्र ज्वरसहित जन्म लेते हैं औरमरनेके समय भी ज्वरसहित प्राणोंको त्यागते हैं ज्वररूप महामोहसे व्याप्त हुआ मनुष्य जन्मके समय पूर्वजन्मकी किसी वातको भी स्मरण नहीं कर सकता यह ज्वरही संपूर्णप्राणियोंके प्राणोंको आकर्षण करता है अर्थात् ग्रहण करता है॥३८॥
ज्वर के पूर्व में कर्तव्य कर्म।
तत्रास्य पूर्वरूपदर्शने ज्वरादौ वाहितंलघ्वशनमतर्पणंवाज्वरस्यामाक्षयसमुत्थत्वात्॥३९॥
क्योंकि ज्वर आमाशयसे उत्पन्न होता है इसलिये ज्वरके पूर्वरूप दिखाई देते हीअथवा ज्वरके आदिमे हित और हलके भोजन अथवा अतर्पण (लंघन)करनाचाहिये॥३९॥
ततः कषायपानाभ्यङ्गस्वेदप्रदेहपरिषेकानुलेपनवमनविरेचनास्थापनानुवासनोपशमननस्तः कर्मधूपधूमपानाञ्जनक्षीरभोजनविधानम्॥४०॥
ज्वर उत्पन्न होनेपर क्वाथ पीनाज्वरनाशक तेलका मलना, पसीना देना एवम्लेप, परिषेक, अनुलेपन, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, उपशमन, नस्य,धूम्रपान, अंजन, दूधपान इन सबको जिस जगह जिस विधिसे जिसका प्रयोग करनाउचित हो उस प्रकार प्रयोग करे॥४०॥
ज्वर में घृतपान।
यथा स्वंयुक्तया जीर्णज्वरेषु सर्वेष्ववसर्विषः पानं प्रशस्यते। यथास्वमौषधसिद्धस्य सर्पिर्हिस्नेहाद्वातं शमयति संस्कारात्कफं शैत्यात्पित्तमुष्माणं च तस्माज्जीर्णज्वरेषु सर्वेष्वेव सर्पिर्हितमुदकामवाग्निप्लुष्टेषु द्रव्येष्विति॥४१॥
सब प्रकारके जर्णिज्वरोंमें, उनके लक्षणोंके अनुसार युक्तिपूर्वक ज्वरनाशक द्रव्योंद्वारा सिद्ध किये हुए घृतोंका पान करना परमोत्तम कहाहै।यथा लक्षणयुक्त
औौषधियोंसे सिद्ध किया घृत अपने स्नेहके योगसे वायुको शान्त करता है। कफनाशकद्रव्योंके संयोगसे कफको शान्त करता है एवम् शीतल होनेसे पित्तको शान्त करताहै।इसलिये संपूर्ण जीर्णज्वरोंमें घृतका पान करना इस प्रकार शान्तिकारक है जैसेअनि लगे पदार्थोंपर जलका डालदेना शान्तिकारक होताहै॥४१॥
तत्र श्लोकाः।
यथा प्रज्वलितं वेश्म परिषिञ्चन्ति वारिणा\।
नराः शान्तिमभिप्रेत्य तथा जीर्णज्वरे घृतम्॥४२॥
यहां पर श्लोक है कि जैसे, अग्निसे जलते हुए घरको मनुष्य जलसे सींचता हैऔर वह जल शान्तिकारक होता है उमी प्रकार जीर्णज्वरमें वृत भी शान्तिकारकहोता है॥४२॥
स्नेहाद्वातं शमयति शैत्यात् पित्तं नियच्छति।
घृतं तुल्यगुणं दोषं संस्कारात्तु जयेत्कफम्॥१३॥
घृत–स्नेहसे वायुको शान्त करता है और शीततासे पित्तको शान्त करता है।घृत–कफके तुल्यगुण होनेसे औपधियोंके संस्कार द्वारा कफको जीत लेताहै॥४३॥
घृतको उत्कृष्टत्\।
नान्यः स्नेहस्तथा कश्चित्संस्कारमनुवर्त्तते।
यथा सर्पिरतः सर्पिः सर्वस्नेहोत्तरं परम्॥४४॥
और स्नेह अर्थात तैल आदिक द्रव्यान्तरसे संस्कार किया हुआ द्रव्योंके गुणोंकोग्रहण नहीं करते। जिस प्रकार संस्कार द्वारा वृत औषधियोंके गुणको ग्रहण करलेताहै। इसलिये सव प्रकारके स्नेहोंमें घृत परमोत्तम माना जाताहै॥४४॥
गद्योक्तोयः पुनः श्लोकैरर्थः समनुगीयते।
तद्व्यक्तिव्यवसायार्थद्विरुक्तः सनगर्ह्यते॥४५॥
गद्योंमें कहाहुआ विषय यदि श्लोकों द्वारा फिर कथन करदियाजाय तो उसमेंपुनरुक्ति दोषनहीं मानना चाहिये क्योंकि वह श्लोकोंमें मनुष्यों को याद रह सकता हैऔर प्रिय मालूम होता है इसलिये कथन कियाजाहै॥४५॥
त्रिविधं नाम पर्य्यायैर्हेतुं पञ्चविधान्गदान्। गदलक्षणपर्य्यायान् व्याधेः पञ्चविधं ग्रहम्॥४६॥ज्वरमष्टविधं तस्य प्रकृष्टासनकारणम्। पूर्वरूपञ्च रूपञ्च संग्रहे भेषजस्य च॥४७॥
व्याख्यातवाञ्ज्वरस्थाग्रे निदाने विगतज्वरः। भगवानग्निवेशायप्रणतायपुनर्वसुः॥४८॥
इति चरकप्रतिसंस्कृते तन्त्रे ज्वरनिदानो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं। कि इस ज्वरनिदाननामक अध्याय में तीनप्रकारका कारण, पाच प्रकारका रोग विज्ञान, पांच प्रकारके रोगोके लक्षणोका पर्यायतथा उनका संग्रह, आठ प्रकारके ज्वर, उस ज्वरके विप्रकृष्ट और संनिकृष्ट कारण,पूर्वरूप, रूप, संक्षेपसे औषधिसंग्रह, संतापरहित भगवान् पुनर्वसुजीने इस ज्वरनिदानमें कथन कियेहै॥४६॥४७॥४८॥
‘‘इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसहिताया निदानस्थाने टकसालनिवासि प०रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकाया ज्वरनिदान नाम
प्रथमोऽध्यायः॥१॥
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द्वितीयोऽध्यायः।
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रक्तपित्तनिदानम्।
अथातो रक्तपित्तनिदानं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम रक्तपित्त के निदानका कथन करते हैं। इस प्रकार भगवान् आत्रेयजीकहने लगे॥
रक्तपित्तका कारण।
पित्तं यथाभूतं लोहितपित्तमिति संज्ञां लभते तत्तथानुव्याख्यास्यामः। यदा यस्तु जन्तुर्यवकोद्दालकोरदूषकप्रायाणि अन्नानि नित्यं भुङ्क्ते भृशोष्णतीक्ष्णमपि चान्यदन्नजातं निष्पाव-माषकुलत्थक्षारसूपोहितं दधिमण्डोदश्वित्कट्वम्लकाञ्जिकोपहितं वाराहमाहिषाविकमत्स्यगव्यपिशितं पिण्याकं पिण्डालुकशाकोपहितं मूलकसर्षपलशुनकरञ्जशिग्रुकखडयूषभूस्तृणसुमुखसुरसकुठेरगण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफणिज्जकोपदंशंसुरासौवीरतुषोदकमैरेयमेचकमधूलककुदलवदराम्लप्रायान्न पानं पिष्टान्नोत्तरभयिष्ठमुष्णाभितप्तोऽतिमात्रमतिवेलं वापयसासमश्नातिरोहिणीकालकपोतमांसं
वा सर्षपतैलक्षारसिद्धं कुलत्थमाषपिण्याकजाम्बलकुचपकैः शौक्तिकैर्वा सह क्षीरमाममतिमात्रमथवा पिबत्युष्णाभितप्तस्तस्यैवमाचरतः पित्तं प्रकोपमापद्यते।
लोहितञ्च स्वप्राणमतिवर्त्तते॥१॥
पित्त जिस प्रकार रक्तपित्त संज्ञाको प्राप्त होता है उस प्रकारकी उसकी व्याख्याकरतेहैं\। जब मनुष्य-जौ, उद्दालक, कोद्रव आदिक द्रव्योंका निरन्तर सेवन करता हैएवम् अत्यन्त उष्ण और तीक्ष्ण अन्नोंको सेवन करता है अथवा निष्पाव उडद, कुल्थीदाल आदिमें दहीका मण्ड उदश्वित् मिलाकर खाताहै अथवा चरपरे, खट्टे, कांजीआदिक पदार्थों को अधिक सेवन करताहै तथा सूअर, भैंसा मेंढा, मछली, गो आदिकोकेमांसको खाता है। तिलोंकी खली, पिडालुका शाक एवम् पकी मूली, सरसों, लहसुन,कंजा, सुहॉजना, पड्यूष, भूतृण, शाक, पर्णाश सुमुख, सुरस (तुलसीके भेद) कुठेरगण्डीरशाक कालमालकशाक, फणीझक (मरुआ), उपदंशक (चर्वीसांसविशेषकावना पदार्थ) सुरा, सौवीर, तुषोदक, मैरेय, भेदक, मधूलक, वेर तथा अन्य खट्टेपदार्थोंका अत्यन्त सेवन करता है। मिष्टान्नका अधिक सेवन करता है। गर्माईसे ततमनुष्य बहुत भोजन करे एवम् भोजनका समय लंघनकर भोजन करे अथवा रोहिणीनामक मछली वा कालकपोतके मांसको दूधके साथ कालकपोतके मांसको सरसोकेतेल और क्षारके साथ सिद्ध कर खाताहै एवम् कुल्थी, उडद, तिलकल्क, जामुन,वडहरके साथ पकाये हुए दूधको अथवा इन सब वस्तुओंको कच्चे दूध के साथ वाकांजीके साथ पित्त प्रकृतिवाला मनुष्य निरन्तर सेवन करता है उसके शरीरमें पित्तकोपको प्राप्त होजाताहै। एवम् रक्त अपने प्रमाणको छोडकर बढजाता है॥१॥
रक्तके दूषित होनेका कारण।
तस्मिन्प्रमाणातिप्रवृत्ते पित्तं प्रकुपितं शरीरमनुसर्पद्यदैव यकृत्प्लीहप्रभावाणां लोहितवहानां स्रोतसां लोहिताभिष्यन्दगुरूणि सुखान्यासाद्य प्रतिपद्यते तदैव लोहितं दूषयति॥२॥
रक्त अपने प्रमाणसे अधिक होकर और पित्त कुपित होकर शरीर में अनुसर्पण(विचरण) करतेहैं फिर यकृत और प्लीहासे प्रगट हुई रक्तके वहानेवाली नाडियोंकारक्त संचित होकर उन नाडियोंका मुख भारी होकर रुधिरके जमनसे गिलगिलासाहो जाता है तब वह कुपित हुआ पित्त रक्तको भी दूषित करदेताहै॥२॥
रक्तपित्तनामका कारण।
संसर्गान्तर्लोहितप्रदूषणाल्लोहितगन्धवर्णानुविधानाच्च पित्तं लोहितमित्याचक्षते॥३॥
रक्तके साथ पित्तका संसर्ग होनेसे और दूषित रक्तसे रक्तकी गंध और वर्ण होनेकेकारण वह रक्तयुक्त पित्त–रक्तपित्त ऐसा कहाजाताहै॥३॥
रक्तपित्तके पूर्वरूप।
तस्येमानि पूर्वरूपाणि। तद्यथा।अनन्नाभिलाषोभुक्तस्य विदाहः शुक्ताम्लरसगन्धस्योद्गारश्छर्देः अभीक्ष्णागमनं छर्दितस्य बीभत्सतास्वरभेदो गात्राणां सदनं परिदाहश्च मुखाद्धूमागम इव लोहलोहित-मत्स्यामगन्धित्वमपि चास्यस्य रक्तहरितहारिद्रवत्वमङ्गावयवशकृन्मूत्रस्वेदलालाशिंघानकास्यकर्ण-मलपिडकानामङ्गसंवेदनालोहितनीलपीतश्यावानामर्च्चिष्मताञ्च रूपाणां स्वप्नदर्शनमभीक्ष्णमिति लोहित-पित्तपूर्वरूपाणि॥४॥
उस रक्तपित्तके यह पूर्वरूप होतेहैं। जैसे—अन्नमे अरुचि, भोजनका विदाहीपरिपाक, कांजी और खट्टेरसकी गंधयुक्त छर्दी तथा डकार आना, सदा छर्दका होना,वीभत्सता, स्वरभेद, अंगोंका सूजना, छातीमें दाहजैसा होना, मुखसे धूआंसा निकलना और उसके मुखसे लोहा, रुधिर, आम, मछलीकीसी दुर्गंध आना, हल्दीकेरंगके समान अंगोके अवयव, मल, मूत्र, पसीना, नाकका मैल, मुखकी लार, कानकामैल और पिडकाओंका वर्ण पीला होना अथवा लाल होना और अंगोंमें पीडा होनातथा स्वप्नमें नित्य लाल, नीले, पीले, काले प्रकाशवाले रूपोंको देखना यह सबरक्तपित्त रोग प्रगट होनेसे प्रथम प्रगट (पूर्वरूप) होतेहैं॥४॥
रक्तपित्तके उपद्रव।
उपद्रवास्तु खलु दौर्बल्यारोचकाविपाकश्वासकासज्वरातीसारशोफशोषपाण्डुरोगस्वरभेदाः॥५॥
दुर्बलता, अरुचि, अन्नका न पचना, श्वास, कास, ज्वर, अतिसार, शोथ, शोष,पाण्डु, स्वरभंग यह रक्तपित्तके उपद्रव होते हैं॥५॥
रक्तपित्तके मार्ग।
मार्गौपुनरस्य द्वौ ऊर्द्धञ्चाधश्च तद्बहुश्लेष्मणि शरीरे श्लेष्मसंसर्गादूर्द्धं
प्रपद्यमानं कर्णनासिकानेत्रास्येभ्यः प्रच्यवते। बहुवाते तु शरीरे वातसंसर्गादधः प्रपद्यमानं मूत्रपुरीषमार्गाभ्यां प्रच्यवते। बहुवातश्लेष्मणि शरीरे श्लेष्मवातसंसर्गाद्द्वापि मार्गौप्रपद्यते।तौ मार्गौ प्रपद्यमानं सर्वेभ्य एव यथोक्तेभ्यः खेभ्यः प्रच्यवते शरीरस्य॥६॥
रक्तपित्तके दो मार्ग हैं एक ऊर्द्धमार्ग दूसरा अधःमार्ग। वह रक्तपित्त–कफप्रधान शरीरमें कफके संसर्गसे ऊपरको गमन करताहुआ–कान, नेत्र, नासिका औरमुख द्वारा निकलता है। वातप्रधान शरीरमें वायुके संसर्गसे नीचेको गमन करताहुआ मूत्र और मलके द्वारोंसे निकलता है। जिसके शरीरमें वायु और कफ इन दोनों–की अधिकता होती है उसके शरीरमें वात और कफ के संसर्गसे दोनों (ऊपरके औरनीचेके) मार्गों द्वारा निकलता है। जब दोनों मार्गोसे प्रवृत्त होता है तो शरीरके संपूर्णद्वारोंसे अर्थात् मुख, नासिका, नेत्र, गुदा, लिंग इन सब मार्गोंसे निकलताहै॥६॥
रक्तपित्तका साध्या साध्यत्व।
तत्र यदुर्द्धभागं तत्साध्यं विरेचनोपक्रमणीयत्वाद्बह्वौषधत्वाच्च॥७॥
उनसे ऊपरके मार्गसे प्रवृत्त होनेवाला रक्तपित्त विरेचन द्वारा शांत होनेसे, एवम्बहुतसी औषधिये ऊर्द्धगत रक्तपित्त नाशक होनेसे ऊर्द्धगत रक्तपित्त साध्य हैं॥७॥
यदधोभागं तद्याप्यं वमनोपक्रमणीयत्वादल्पौषधत्वाच्च॥८॥
अधोमार्गगामी–रक्तपित्त–याप्य साध्य होता है क्योंकि उसकी शांति करनेवालीऔषधियें बहुत थोडी हैं और उसमें वमन द्वारा शांति होती है॥८॥
यदुभयभागं तदसाध्यं वमनविरेचनायोगित्वादनौषधत्वाच्च॥९॥
जो दोनों मार्गोंसे गमन करता है वह असाध्य है क्योंकि न तो उसमें वमन विरेचनकरासन उभयतः शांत करनेमें औषधी यथोचित क्रिया कर सकती॥९॥
रक्तपित्तकी उत्पत्ति आदि।
रक्तपित्तप्रकोपस्तु खलु पुरादक्षयज्ञध्वंसे रुद्रकोपामर्षाग्निना प्राणिनां परिगतशरीरप्राणानामनुज्वरमभवत्॥१०॥
पहले दक्षप्रजापतिका यज्ञ विध्वंस होनेके समय महादेवके कोपरूप अग्निद्वाराज्वर उत्पन्न होनेके उपरांत रक्तपित्त उत्पन्न हुआ वह रक्तपित्त शरीरधारियोंकेप्राणोंको दावाग्निके समान सर्वतः प्रवेश करताहुआ शीघ्र नष्ट करदेता है। इसलिये इसशीघ्रकारी रोगकी शांतिका उपाय भी शीघ्र ही करना चाहिए॥१०॥
तस्याशुकारिणो दावाग्नेरिवापतितस्यात्ययिकस्याशुप्रशान्तौ यतितव्यं मात्रां देशं कालञ्चाभिसमीक्ष्य सन्तर्पणेनापतर्पणेन वा मृदुमधुरशिशिरतिक्तकषायैरभ्यवहार्यैः प्रदेहपरिषेकावगाहसंस्पर्शनैर्वमनाद्यैर्वा तत्रावहितेनेति॥११॥
मात्रा, देश, काल इन सबको विचारकर संतर्पण अथवा अपतर्पण क्रियाद्वाराएवम् मृदु, मधुर, शीतल, कडुए, कसैले आदि योगोंसे रक्तपित्तको शान्त करै। अथवालेप, परिशेक, अवगाहन, रत्नआदिका धारण, एवम् वमनआदिकोंसे अथवा अन्य जोक्रिया उचित हो उसके द्वारा रक्तपित्तको शान्त करे॥११॥
तत्र श्लोकाः।
साध्यं लोहितपित्तं तद्यदूर्द्धं प्रतिपद्यते।
विरेचनस्य योगित्वाद्बहुत्वाद्भेषजस्य च॥१२॥
इसी विषयमें यहांपर श्लोक हैं—ऊर्द्धगामी रक्तपित्त विरचेनके योगसे एवम् उसकेनाश करनेवाली बहुतसी औषधियां होनेके कारण साध्य होताहै॥१२॥
वमनं न हि पित्तस्य हरणे श्रेष्ठमुच्यते। यश्च तत्रानुगोवायुस्तच्छान्तौ चावरं मतम्॥१३॥ स्याच्च योगावहं तत्र कषायं तिक्तकानिच। तस्माद्याप्यं समाख्यातं यद्रक्तमनुलोमगम्॥१४॥रक्तन्तु यदधोभागं तद्याप्यमिति निश्चयः। वमनस्याल्पयोगित्वादल्पत्वाद्भेषजस्य च ॥१५॥
क्योंकि पित्तको हरण करनेकेलिये वमन कराना श्रेष्ठ नहीं होता और अधोमार्गगामी रक्तपित्तमें वायुका संसर्ग होनेसे उसकी शान्तिकें लिये, वमन कराना उचितहोता है\। एवम् तिक्त, कषाय पदार्थोंद्वारा पित्त शान्त होता है परन्तु वायु शान्त नहींहोता इसलिये अधोगामी रक्तपित्त चिकित्सा में कठिनाई पडनेसे याप्यसाध्य होताहै।क्योंकि अधोगामी रक्तपित्तमें यथोचित रीतिपर वमन भी नहीं करासकते। औरतिक्त, कपाय द्रव्योंद्वारा भी यथोचित रीतिपर शान्त नहीं करसकते। इसलिये इसकोयाप्यसाध्य मानतेहैं॥१३॥१४॥१५॥
संसृष्टदोषोंकी चिकित्सा।
रक्तपित्तन्तु यन्मार्गौ द्वावपि प्रतिपद्यते। असाध्यमपितज्ज्ञेयं पूर्वोक्तादपि कारणात्॥१६॥ न हि संशोधनं किञ्चिदस्त्यस्य प्रतिमार्गगम्।
प्रतिमार्गञ्चहरणंरक्तपित्तेविधीयते। एवमेवोपशमनं सर्वशो नास्य विद्यते॥१७॥संसृष्टेषु च दोषेषु सर्वजिच्छमनं मतम्॥१८॥
जो रक्तपित्त दोनों मार्गों से प्रवृत्त होता है वह ऊपर कहेहुए कारणोसे असाध्यहोताहै। क्योंकि उर्द्धगामी होनेसे इसमें वमन नहीं करासकते और अधःगामीहोनेके कारण विरेचन नहीं करा सकते इसलिये दोनों मार्गोंद्वारा उभ्यगामी रक्तपित्तमेंशोधनक्रिया नहीं होसकती अतएव सर्वया इसका कोई उपाय शान्तिकारक नहींहोता। सब दोपोंसे मिलेहुए रक्तपित्त में सर्वतः शान्ति कारक औषधियोंका सेवनहितकर होता है एवम् सब प्रकारसे उभयगामी रक्तपित्तको जीतनेकेलिये औषधियभी अपना काम नहीं करसकतीं इसलिये इसको असाध्य मानाहै॥१६॥१७॥१८॥
इत्युक्तं त्रिविधोदकरक्तं मार्गविशेषतः॥१९॥
इस प्रकार मार्ग विशेषसे रक्तपित्तके तीन भेद कथन कियेहैं॥१९॥
साध्यरोगको असाध्य होने का कारण।
एभ्यस्तु खलु हेतुभ्यः किञ्चित्साध्यं न सिध्यति। प्रेष्योपकरणाभावाद्दौरात्म्याद्वैद्यदोषतः।अकर्म्मतश्वसाध्यत्वंकश्चिद्रोगोऽतिवर्त्तते॥२०॥
चार हेतुओंके अच्छा न होनेसे कोई भी रोग साध्य नहीं रहता वह चार हेतु यहहैं। परिचारक अच्छा न होनेसे, औषधी आदि उपकरण अच्छा नं होनेसे, रोगीकास्वभाव अथवा, आचार अच्छा न होनेसे, एवम् वैद्यके दोषसे साध्य रोग भी असाध्यहोजाते हैं।तथा यत्न न करनेसे भी साध्यरोग कोई ही शान्त होता है अर्थातसाध्यरोग भी विना उपाय किये शान्त होना कठिन होताहै॥२०॥
तत्रासाध्यत्वमेकं स्यात्साध्ययाप्यपरिक्रमात्।
रक्तपित्तस्य विज्ञानमिदं तस्योपदेक्ष्यते॥२१॥
साध्य, याप्यसाध्य, और असाध्य इन तीनोंमें असाध्यता सिर्फ एक प्रकारकीहोती है अर्थात् असाध्यरोगका यत्न नहीं होसकता।साध्य और याप्यसाध्यकीक्रमपूर्वक चिकित्सा हो सकती है। इसलिये रक्तपित्तकी असाध्यताके लक्षण कथनकरतेहैं ॥२१॥
असाध्यके विशेष लक्षण।
यत्कृष्णमथवानीलंयद्वाशक्रधनुष्प्रभम्।
रक्तपित्तमसाध्यंतद्वाससोरञ्चनञ्चयत्॥२२॥
जो रक्तपित्त काला, नीला, इन्द्रधनुषके समानवर्णवाला, होता है वह असाध्यजानना। एवम् जिसमे रंगाहुआ कपडा फिर स्वच्छ न होसके उसको भी असाध्यजानना॥२२॥
भृशं पूत्यतिमात्रञ्चसर्वोपद्रववच्च यत्।
बलमांसक्षये यच्च तच्च रक्तमसिद्धिमत्॥२३॥
जिस रक्तपित्तमें अत्यन्त दुर्गंध आवे, तथा संपूर्ण उपद्रवो सहित हो एवमरोगीका वल और मांस क्षीण हो वह रक्तपित्त भी असाध्य होता है॥२३॥
येन चोपहतो रक्तं रक्तपित्तेन मानवः।
पश्येद्दृश्यं वियच्चैव तच्चासाध्यमसंशयम्॥२४॥
जिस रक्तपित्तके होनेसे मनुष्य आकाश और संपूर्ण पदार्थोंको लालवर्णका देखेवह भी असाध्य जानना॥२४॥
रक्तपित्तमें कर्तव्यता।
तत्र साध्यं परित्याज्यं याप्यं यत्तेन यापयेत्।
साध्यञ्चावहितः सिद्धैर्भेषजैः साधयेद्भिषक्॥२५॥
इनमे असाध्यको त्यागकर याप्यताध्यकी यत्नपूर्वक चिकित्सा करनीचाहिये।और साध्यरक्तपित्तको सिद्ध औषधियो द्वारा जीत लेनाचाहिये॥२५॥
तत्र श्लोकौ।
कारणं नाम निर्वृत्तिपूर्वरूपाण्युपद्रवान्। मार्गौ दोषानुबन्धञ्च साध्यत्वं न च हेतुमत्॥२६॥ निदाने रक्तपित्तस्य व्याजहार पुनर्वसुः। वीतमोहरजोदोषलोभमानमदस्पृहः॥२७॥
‘‘इति अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते रक्तपित्तनिदानं नाम द्वितीयोऽध्यायः’’।
अब अध्यायका उपसंहार करतेहैं। इस रक्तपित्त निदाननामक अध्याय में रक्तपित्तके कारण, उत्पत्ति, पूर्वरूप, उपद्रव, ऊर्द्ध और अवःगमन, वातादि दोषोंकाअनुबंध, साध्य और असाध्य तथा उनके कारण यह सर्व मोह, रजोदोष, लोभ,मान, मद और स्पृहारहित भगवान् पुनर्वसूजीने कथन कियेहै॥२६॥२७॥
‘‘इति श्रीमहार्षिचरक० नि० स्था० प० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकाया रक्तपित्तनिदान नामद्वितीयोऽध्यायः॥२॥’’
तृतीयोध्यायः।
अथातो गुल्मनिदानंव्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम गुल्मनिदानकी व्याख्या करते हैं— इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथनकरने लगे।
गुल्मोंके भेद।
इह खलु पञ्च गुल्मा भवन्ति। तद्यथावातगुल्मः पित्तगुल्मःश्लेष्मगुल्मो निचयगुल्मः शोणितगुल्म इति॥१॥
गुल्मरोग पांच प्रकारका होता है—जैसे, बातगुल्म, पित्तगुल्म, कफगुल्म औरसन्निपातगुल्म तथा रक्तजगुल्म॥१॥
अग्निवेशका प्रश्न।
एवं वादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच कथमिह भगवन् !पञ्चानां गुल्मानां विशेषमभिजानीमहे। न ह्यविशेषविद्रोगाणामौषधविदपि भिषक्प्रशमनसमर्थ इति॥२॥
इस प्रकार कथन करते हुए भगवान् आत्रेयजसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन ! इन पांच प्रकारके गुल्मोंको हम यथोचित रीतिपर कैसे जान सकते हैं अर्थात्इनके जाननेका प्रकार कथन कीजिये क्योंकि रोगके निदानको यथोचित रीतिपरविना जाने अर्थात् रोगके विना समझे औषध क्रिया में कुशल वैद्य भी रोग शान्तिनहीं कर सकता॥२॥
आत्रेयका उत्तर।
तमुवाच भगवानात्रेयः। समुत्थानपूर्वरूपलिङ्गवेदनोपशयविशेषेभ्यो विशेषविज्ञानंगुल्मानां भवत्यन्येषाञ्च रोगाणामग्निवेश!तत्तु खलु गुल्मेषूच्यमानं निवोध॥३॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! कारण, पूर्वरूप, रूप,वेदना और उपशयके भेदसे गुल्मोंका विशेषरूपसे अलग २ ज्ञान होसकता है। इसीप्रकार कारणादि द्वारा अन्य रोगोंका भी ज्ञान हो सकता है । सो यहांपर गुल्मरोगकेकारण आदिकोंका श्रवण करो॥३॥
वातकुपितहोनेका कारण।
यदा पुरुषो वातलोविशेषेण ज्वरवमनविरेचनातीसाराणामन्यतमेन कर्शनेन कर्शितो वा तलमाहारमाहरति शीतं वा विशेषेणातिमात्रस्नेहपूर्वे
वा वमनविरेचने पिबत्यनुदीर्णान् वातमूत्रपुरीषवेगान्विरुणद्धि अत्यशितो वा पिबति नवोदकमतिमात्रसंक्षोभिणा वायानेन याति अतिव्यवायव्यायाममद्यरुचिर्वाभिघातमिच्छति वाविषमाशनशयनस्थानचंक्रमणसेवी वा भवति अन्यहाकिञ्चिदेवंविधं वा अतिमात्र॑व्यायामजातं वा आरभते तस्यापचाराद्वातःप्रकोपमापद्यते॥४॥
जब वातप्रधान मनुष्य— ज्वर, वमन, विरेचन, अतिसार अथवा अन्य कर्षणद्वाराविशेषरूपसे कृश होजाता है फिर वह वातकारक और शीतल द्रव्योंको विशेषरूपसेसेवन करे अथवा विना स्नेहन कियेही वमन, विरेचनादिकोंका उपयोग करे अथवाविनाही वेग के वमन आदिकोंको करे एवम् मल, मूत्रके वेगोंको राकै अथवा नवीनअन्नोंको और नवीन जलको अधिक मात्रासे सेवन करे या बहुत संक्षोभ (हिलाना)करनेवाली सवारीमें बैठे एवम् मैथुन व्यायाम, मद्य, इनका अधिक सेवन करे एवम्चोट लगनेसे विषम भोजन और विषम शयन करनेसे ऊंचे नाच स्थानमें अधिक फिरनेसेअथवा इस प्रकार के अन्य थकावट आदि पैदा करनेवाले कारणोंसे तथा वातकारककारणोंके उपस्थित होनेसे एवम् उपरोक्त वमन, विरेचनादिकों में किसीमकारकाअपचार होनेसे वायुका कोप होताहै ॥४॥
प्रकुपित वातसे गुल्मकी उत्पत्ति।
स प्रकुपितो महास्रोतोऽनुप्रविश्य रौक्ष्यात्कठिनीकृत्याप्लुत्य पिण्डितोऽवस्थानं करोति। ह्रदि वस्तौ पार्श्वयोर्नाभ्यां वा सशूलमुपजनयति।स वातजन्याननेकविधान्वेदनाविशेषाञ्जनयति ग्रन्थींश्चानेकविधान्। पिण्डितश्चावतिष्ठते स पिण्डितत्वाद्गुल्म इत्युपचर्य्यते॥५॥
फिर वह कुपित हुई वायु महासतों में अर्थात् आमाशय और पक्काशय आदिमें प्रवेशकरके अपने रूक्षतादि गुणोंसे कठोरताको प्राप्त हो चक्कर खाकर एक गोलमोल गोलेकोउत्पन्नकर देती है वह गोला– बस्ती अथवा दोनों पंसवाडे तथा नामिमें पीडाकोउत्पन्न करता है। तथा वातजनित और भी अनेक प्रकारके रोगोंको उत्पन्न करताहै तथा अनेक प्रकारकी ग्रंथियें गोलेकी समान वनकर रहती हैं वह ग्रन्थियें भी गुल्मनामसे ही उच्चारण कीजाती हैं॥५॥
वातगुल्ममें उपद्रव।
समुहुरादधाति मुहुरल्पत्वमापद्यते अनियतवेदनाच्चलत्वाद्वायोः
**पिपीलिकासंप्रकीर्ण इवतोदस्फुरणायामसङ्कोचहर्षप्रलयोदयवहुलस्तदातुरश्च सूच्ये वशंकुनेव चातिविद्धमात्मानं मन्यतेऽपिच दिवसान्ते ज्वर्य्यते शुष्यति चास्यास्य मुच्छासश्चोपरुध्यते हृष्यन्ति रोमाणि वेदनायाः प्रादुर्भावे प्लीहाटोपान्त्रकूजविपाको दावर्त्ताङ्गमर्दमन्याशिरः शंखशूलव्रध्नरोगाश्चैनमुपद्रवन्ति कृष्णारुणपरुषत्वङ्नखनयनवदनमूत्रपुरीषश्च भवति निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते विपरीतानि चोपशेरत इति वातगुल्मः॥६॥ **
वह गोला वायुकी चलगति होनेसे कभी वडा, कभी छोटा प्रतीत होता है। इसमेंपीडा भी कभी अधिक और कभी कम होती है। और चींटिओंके काटनेके समान तोदहोता है और स्फुरण एवम फैलाव तथा संकोच और प्रकटता तथा कभी नष्टप्रायसाहो जाना एवं फिर प्रकट रूपसे दीखना यह लक्षण होते हैं। पीडा होने के समय रोगीको सूई चुभने एवम्शूल चुभनेके समान प्रतीत होना सायंकाल में ज्वर चढ़ना,मुखका सुखजाना, श्वास रुकरुककर आना, रोमोंका खडा होना पीडाका प्रगट होना प्लीहा, अफरा, आंतोंका बोलना, अन्नका न पचना, उदावर्त्त, अंगमर्द तथा गर्दनशिर, कनपट्टी इनमें पीडा होना, वद निकलना आदि उपद्रवोंसे रोगीका पीडित होनाएवम् त्वचा, नख, नेत्र, मुख, मूत्र, मल ये सब कालेरंग तथा लालरंग एवम् कठोरहोजाना तथा निदानमें कहे हुए कारणोंसे रोगका बढ़ना उससे विपरीत द्रव्योंकेसेवनसे रोगका शान्त होना यह सब लक्षण वातजगुल्मके होतेहैं॥ ६॥
वायुपित्तप्रकोपका कारण।
तैरेव तु कर्षणैः कर्षितस्याम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णशुष्कव्यापन्नमद्यहरितकफलाम्लानां विदाहिनाञ्च शाकमांसानामपयोगादजीर्णाध्यशनाद्रौक्ष्यानुगते चामाशयेवमनविरेचनमतिवेलसन्धारणं वातातपौ चातिसेवमानस्य पित्तं सह मारुतेन प्रकोपमापद्यते॥७॥
पूर्वोक्त वमन, विरेचन आदि कर्षणों द्वारा कर्षित हुआ मनुष्य यदि खट्टे, नमकीन,चरपरे, खारे, उष्ण, तीक्ष्ण और शुष्क पदार्थोंको खाता है अथवा सडेहुए मद्य तथादूषित शाक आदि एवम् खट्टेफल, विदाहकारी पदार्थ, शाक, मांस इनका उपयोगकरता है तथा अजीर्णकारी पदार्थ अध्यशन (अधिक भोजन या विषम भोजन) तथा
रूक्षता आदि कारणोंसे एवम् वमन, विरेचनके अतियोगसे मल मूत्र आदि वेगोंको रोकनेसे, पवन और धूपके अत्यन्त सेवन से पित्त—वायुके साथ कुपित हो जाता है॥७॥
पित्तप्रकोपसे गुल्म।
तत्प्रकुपितं मारुत आमाशयैकदेशे संवर्त्यतानेव वेदनाप्रकारानुपजनयति ये उक्ता वात्तगुल्मे पितं तेन विदहति कुक्षौ हृद्युरसिकण्ठेवासविदह्यमानः सधूममिवोद्गारमुद्गिरत्यम्लान्वितं गुल्मावकाशश्चास्य दह्यते दूयते धूप्यतेउष्मायते स्विद्यति क्लिद्यति मृदुशिथिल इव चास्पर्शासहोऽल्परोमाञ्चो भवति ज्वरभ्रमदवथुपिपासागलवदनतालुशोषप्रमोहविड्भेदाश्च भवन्ति।हरितहारिद्रत्वङ्नखनयनवदनमूत्रपुरीषञ्च भवति निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते विपरीतानि चास्य चोपशेरत इति पित्तगुल्मः॥८॥
उस कुपित हुए पित्तको वायु आमाशयके एकदेशमें अर्थात् ग्रहणीविभाग में प्राप्तकर वातगुल्ममें कही हुई संपूर्ण पीडाओंको प्रकट करता है। और पूर्वोक्त प्रकारसे गुल्मको उत्पन्न करदेता है। फिर वह पित्तगुल्म—कुक्षि हृहय, छाती, कण्ठ इन सबमें दाहको उत्पन्न करता है वह गुल्म दाहयुक्त होकर धूएंकीसी तथा खटाईयुक्त डकारको उत्पन्न करता है और गुल्म स्थानमेंदाह तथा पीडा होती है एवम् धूंआंसा निकलता हुआ प्रतीत होता है, पसीने आते हैं शरीर में गीलापनसा उत्पन्न होजाताहै। वहगीला नरम और शिथिलसा प्रतीत होता है स्पर्शको सह नहीं सकता, थोडाथोडा रोमाञ्च होता है एवम् ज्वर, भ्रम, दाह, प्यास, मुख, गल, तालू इनका सूखना, मोह तथा दस्तका लगना और त्वचा, नख, नेत्र, मुख, मूत्र, पुरीष इन सबका हल्दी के समान रंग होना, पित्तकारक पदार्थों से बढना और उसके विपरीतोसे शान्त होना यह पित्तगुल्मके लक्षण होतेहैं॥८॥
कफ के प्रकुपित होने का कारण।
तैरेव तु कर्षणैः कर्षितस्यात्यशनात् स्निग्धगुरुमधुरं शीताशनात्पिष्टेक्षुक्षीरमाषतिलगुडविकृतिसेवनमद्यपानाद्धरितकातिप्रीणनयादानूपौदकग्राम्यमांसातिभक्षणात्सन्धारणादतिसुहितस्य चातिप्रगाढमुदकपानात्संक्षोभणाद्वा शरीरस्य श्लेष्मा सह मारुतेन प्रकोपमापद्यते॥९॥
उसी प्रकार वमन, विरेचनादि कारणोंसे कर्षित हुए मनुष्य के अधिक भोजनकरनेसे तथा स्निग्ध, गुरू, मधुर, शीतल पदार्थोंके खानेसे, मैदा आदि पिष्ट पदार्थ,गुड, दूध, उडद, तिल, मिठाई आदि पदार्थों के अधिक सेवनसे, गंदक तथासडी हुई मद्यके पीनेसे अधिक सब्जियोंके खानेसे, अनूपसंचारी तथाग्राम्यजीवोंका मांस अधिक खानेसे, मल, मूत्रादि वेगोंको रोकनेसे, प्यारे पदार्थोंकोबहुत ज्यादे खानेसे, अधिक जलपीने से शरीरके अधिक हलचल होनेसे, कफ—वायुकेसाथ कोपको प्राप्त होताहै॥९॥
प्रकुपितकफ से गुल्मकी उत्पत्ति।
तं कुपितं मारुत आमाशयैकदेशे संवर्त्त्य तानेव वेदनाप्रकारानुपजनयति य उक्ता वातगुल्मे। श्लेष्मात्वस्य शीतज्वरा रोचका विपाकाङ्गमर्दहर्षहृद्रोगच्छर्द्दिनिद्रालस्यस्तैमित्य गौरवशिरोऽभितापानुपजनयति अपिच गुल्मस्यस्थैर्थ्यगौरवकाठिन्यावगाढसुप्तताः तथा कासश्वासप्रतिश्यायान्राजयक्ष्माणञ्चातिप्रवृद्धः श्वैत्यं त्वङ्नखनयनवदनमूत्रपुरीषेषु उपजनयति। निदानोक्तानिचास्य नोपशेरते तद्विपरीतानि चोपशेरत इति श्लेष्मगुल्मः॥१०॥
उस कुपित हुए कफको वायु, आमाशयमें ले जाकर चक्कर देकर गोलाकार बनादेतीहै और वातगुल्ममें कहेहुए पीडाके प्रकारोंको उत्पन्न करती है। फिर यह कफसेबना हुआ गुल्म—शीतज्वर, अरुचि, अन्नका, अविपाक, अंगमर्द, रोमहर्ष, हृद्रोग,वमन, निद्रा, आलस्य, शरीरका गीलासा होना, गुरुता और शिरमें झूल इन सबकोप्रगट करता है तथा वह गुल्म—स्थिर, भारी, कठिन, गाढतायुक्त तथा सुप्तसा होता है।उस गुल्मके बढनेसे—काश, श्वास, प्रतिश्याय, राजयक्ष्मा यह उत्पन्न होते हैं एवम्त्वचा, नख, नेत्र, मुख, मूत्र, मल, ये सब सफेद वर्णके होते हैं। और निदान में कहेहुए कारणोंसे रोगका बढना तथा तद्विपरीत कारणोंसे शान्त होना यह सब कफजन्यगुल्मके लक्षण होतेहैं॥१०॥
निचयगुल्मका वर्णन।
त्रिदोषहेतुलिङ्गसन्निपातात्तु सान्निपातिकं गुल्ममुपदिशन्ति कुशलाः। स प्रतिषिद्धोपक्रमत्वादसाध्यो निचयगुल्मः॥११॥
जिस गुल्ममें गुल्मदोषों के कारण और लक्षण मिलते हों उस गुल्मको बुद्धिमान्वैद्य सन्निपातसे उत्पन्न हुआ मानते हैं।सन्निपातके गुल्ममें चिकित्साकी विरोधतापडनेसे इसको असाध्य गुल्म जानना॥११॥
रक्तगुल्म।
शोणितगुल्मस्तु खलु स्त्रिया एव भवति न पुरुषस्य।
गर्भकोष्ठार्त्तवागमनवैशेष्यात् ॥१२॥
रक्तजनित गुल्म केवल स्त्रियोंकोही होता है। पुरुषोंको नहींहोता क्योंकि गर्भकोष्ठऔर मासिक ऋतुका बहाव स्त्रियों के ही होनेसे रक्तगुल्म भी स्त्रियोंके ही होता है ॥१२॥
रक्तगुल्माकी उत्पत्ति के कारण।
पारतन्त्र्यादवैशारद्यात् सततमुपचारानुरोधाद्वेगानुदीर्णानुपरुन्धन्त्या आमगर्भे वापि अचिरात्पतिते तथाप्यचिरप्रजाताया ऋतौ वा वातप्रकोपनान्यासेवमानाया वातप्रकोपमापद्यते॥१३॥
स्त्रिये परतंत्र होनेसे और शारीरिक विषयमें मूर्ख होनेसे निरन्तर अपने घरअथवा संतान आदिके काममें लगी हुई रहती हैं और मल मूत्रादिके आये हुए वेगोकोरोकलेती हैं अतएव वेग आदिकोंके रोकनेसे, कच्चे गर्भके पात होजानेसे अथवा प्रसूतकालमेही या ऋतुकालमें वात—प्रकोप कारक पदार्थके सेवनसे उस स्त्रीके शरीरमेंवायु कोपको प्राप्त होजाताता है॥१३॥
सप्रकुपितो योन्यामुखमनुप्रविश्यार्त्तवमुपरुणद्धिमासिमासितदार्त्तवमुपरुध्यमानं कुक्षिमभिवर्द्धयति॥१४॥
फिर वह कुपित हुआ वायु योनिके मुखमें प्रवेश करके स्त्रीके मासिक ऋतुको बंदकर देता है फिर महीने २ ऋतुके रजको रोकता हुआ कुखमें वृद्धिको प्राप्त होताहैअर्थात् रक्तका गोलासा बना २ कर कूख में बंढताजाता है ॥१४॥
तस्याः शूलकासातीसारछर्द्यरोचका विपाकाङ्गमर्दनिद्रालस्य कफप्रसेकाः समुपजायन्ते स्तनयोश्च स्तन्यमोष्ठयोस्तनमण्डलयोश्च कार्ष्ण्यंग्लानिःचक्षुषोर्मूर्च्छाहृल्लासो दोहदः श्वयथुः पादयोरीषच्चोद्गमो रोमराज्यायोन्याश्चाजननत्वमपि च योन्या दौर्गन्ध्यमास्रावश्चोपजायते॥१५॥ केवलश्चास्यागुल्मः स्पन्दते तामगर्भां गर्भिणीमित्याहुर्मूढाः॥१६॥
इसके होनेसे उस स्त्रीके—शूल, खांसी, अतिसार, वमन, अरुचि, अन्नका न पचना,अंगमर्द, निद्रा, आलस्य, कफका थूकना ये उत्पन्न होते हैं तथा दोनों स्तनो में दूधउत्पन्न होजाता है । ओष्ठ और स्तनोंके अग्रभाग काले होजाते हैं एवम् ग्लानीनेत्रोंका निकलसाजाना, मूर्च्छा, अहृल्लास तथा सब गर्भकेसे लक्षण होना, पावोंपरकिंचित सूजन, रोमाञ्च होना, योनिका गर्भ प्रगट करनेकेसे लक्षण दीखना, योनिकादुर्गंधित तथा स्रावित होना और वह गोला किंचित् फडकताहै।उस गुल्मयुक्तस्त्रीको मूर्खलोग गर्भवती समझने लगजातें हैं।ये रक्तजगुल्मके लक्षण हैं॥१५॥१६॥
गुल्ममें रूप।
खलु पञ्चानां गुल्मानां प्रागभिनिर्वृत्तेरिमानि पूर्वरूपाणि।तद्यथा—अनन्नाभिलषणमरोचकाविपाकावग्निवैषम्यं विदाहो भुक्तस्य पाककाले चायुक्त्या छर्द्दिरुद्गारो वातमूत्रपुरीषवेगाणामप्रादुर्भावः प्रादुर्भूतानाञ्चाप्रवृत्तिः सङ्गः ईषदागमनं वा वातशूलाटोपान्त्रकूजनपरिहर्षणाभिवृत्तपुरीषता अबुभुक्षा दौर्बल्यं सौहित्यस्य चासहत्वमिति गुल्मपूर्वरूपाणि॥१७॥
इन पांच प्रकारके ही गुल्मों के प्रगट होनेसे पहिले यह पूर्वरूप होते हैं। जैसेअन्नकी अभिलाषा न होना, अरोचक, अन्नका न पचना, अग्निकी विषमता, भोजनकिये हुएका विदाही विपाक, भोजन पचनेके. समय विनाही कारणसे छर्द होजाना,डकारोंका आना, अधोवायु, मूत्र, मल इनके वेगोंका न होना, आयेहुए बेगोंकायथोचित निःसर्ग न होना अथवा वेगोका निवृत्त होजाना या किंचित् किंचित्आना, शूल, पेटमें वायुका फैलना, अफारा आंतोंका बोलना, रोमहर्ष, मलकागांठदार होना, भूख थोडी लगना, शरीर दुर्बल होजाना, पेटभरके भोजन न करसकनायह गुल्म रोगके पूर्वरूप होतेहैं॥१७॥
सर्वेष्वपि च गुल्मेषु न कश्चिद्वातादृते सम्भवति। गुल्मस्तेषां सन्निपातजमसाध्यं ज्ञात्वा नोपक्रमेत।एकदोषजे तु यथास्वमारम्भंप्रणयेत् संसृष्टास्तु साधारणेन कर्मणोपचरेत्॥१८॥
संपूर्ण गुल्मवायुके बिना नहीं होसकते अर्थात् वायु ही स्वयम् या अन्यदोषोंसेमिश्रित होकर उत्पन्न करता है। इन पांच प्रकारके गुल्मों में संन्निपात जनित गुल्मवाले रोगीको असाध्य समझकर त्याग देना चाहिये। एक दोषसे उत्पन्न हुए गुल्मकोअर्थात् वातजगुल्मको उसके कारण और लक्षणोंद्वारा जानकर चिकित्सा करेऔर अन्य तीन प्रकारके गुल्मोंमें यथोचित रीतिसे चिकित्सा करे॥१८॥
यद्वा अन्यदप्यविरुद्धं मन्येत तदवचारयेद्विभज्य गुरुलाघवमुपद्रवाणां समीक्ष्यगुरूपद्रवांस्त्वरमाणः चिकित्स्येज्जघन्यमितरांस्त्वरमाणस्तु विशेषमुपलभ्य गुल्मेष्वात्ययिके कर्मणि वातचिकित्सितं प्रणयेत्॥१९॥
यदि सन्निपातज मुल्मको भी चिकित्सा योग्य समझे तो उसमें दोष औरउपद्रवोंकी गुरुता और लघुता विचारकर पहिले भारी उपद्रवोंको शीघ्र जीत लेवे फिरमध्यम उपद्रवोको शान्त करे तदनन्तर वाकीके अंशांको छांटते हुए अधिक समयव्यतीत होगा ऐसा विचारकर वायुकी चिकित्सा करे क्योंकि भारी उपद्रवोंके नष्टहोनेपर केवल वातमात्रकी चिकित्सा करने से रोगको परमलाम पहुंच सकता है॥१९॥
स्नेहस्वेदौ वातहरौ स्नेहोपसंहितञ्च मृदुविरेचनं वस्तीनम्ललवणमधुरांश्च रसान्युक्तितोऽवचारयेत् मारुते ह्युपशान्ते स्वल्पेनापि प्रयत्नेन शक्यमन्योऽपि दोषो नियन्तुं गुल्मेविति॥२०॥
स्नेहन करना, स्वेदन करना, एवम् स्नेहयुक्त मृदु विरेचन करना तथा अम्ललवण और मधुर रसयुक्त, युक्तिपूर्वक वस्तीकर्म करना इनसे गुल्मरोगमें वायुकीशान्ति होती है। इस प्रकार वायुके शान्त होनेपर अथवा अल्प रहजानेपर यत्नपूर्वकअन्य दोषोंको भी शान्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये। यह सामान्यरूपसे गुल्मोंकीचिकित्साका क्रम हैं॥२०॥
तत्र श्लोकौ।
गुल्मिनामनिलशान्तिरुपायैः सर्वशोविधिवदाचरितव्या। मारुते ह्यवजितेऽन्यमुदीर्णदोषमल्पमपि कर्म निहन्यात्॥२१॥
उसीको यहां कहते हैं कि गुल्मरोगमेंसबतरहसे विधिपूर्वक उपायों द्वारा वायुकोशान्त करे।उस वायुके शान्त होनेपर बाकी रहे दोष साधारण क्रियाद्वारा भी शान्तहो जातेहैं॥२१॥
संख्या निमित्तरूपाणि पूर्वरूपमथापि च।
दृष्टं निदाने गुल्मानामुपदेशश्च कर्मणाम्॥२२॥
‘इति अग्निवेशकृतेतन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते गुल्मनिदानं नामतृतीयोऽध्यायः’’॥३॥
इस गुल्मनिदान नामक अध्याय में गुल्मोंकी संख्या, निमित्त, पूर्वरूप, रूप, आरगुल्म रोगमें चिकित्सा कर्मोका उपदेश किया गयाहै॥२२॥
इति श्रीमहर्षि चरक० नि० स्था० प० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायां गुल्मनिदान
नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
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चतुर्थोऽध्यायः।
प्रमेहनिदानम्।
अथातः प्रमेहनिदानं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम प्रमेहके निदानकी व्याख्या करते हैं। ऐसा भगवान् आत्रेयजी कथनकरनेलगे।
प्रमेहोंकी संख्या।
त्रिदोषकोपनिमित्ताविंशतिः प्रमेहविकाराः चापरेऽपरिसंख्येयाः।तत्र यथा त्रिदोषप्रकोपः प्रमेहानभिनिवर्त्तयति तथानुव्याख्यास्यामः॥१॥
वात, पित्त, कफ इन तीनों दोषोंके निमित्तसे बीस प्रकार के प्रमेह उत्पन्न होतेहैं।यद्यपि इन बीस प्रकारोंके सिवाय प्रमेहोंके अन्य प्रकार भी हैं परन्तु वह गणनामें नहींआसक्ते। अतएव प्रमेहोंकी बीसप्रकारकी ही संख्या है सो जिस प्रकार तीनोंदोष कुपित होकर प्रमेहोंको उत्पन्न करते हैं उनका वर्णन करते हैं॥१॥
इह खलु निदानदोषदूष्यविशेषेभ्यो विकाराणां विघातभावाभावप्रतिविशेषा भवन्ति॥२॥
इस स्थान में हेतु दोष और दृष्यके भेदसे रोगोंका विघात, भाव और अभावकीभेदता होती है॥२॥
यदा ह्येतत्र योनिदानादिविशेषाः परस्परं नानुबध्नन्ति अयथाप्रककर्षादबलीयांसो वानुबध्नन्ति न तदा विकाराभिनिर्वृत्तिः। चिराद्वाप्यभिनिवर्त्तन्ते तनवो वा भवन्त्यथवाप्ययथोक्तसर्वलिङ्गाविपर्ययेण विपरीता इति सर्वविकारविघातभावाभावप्रतिविशेषाभिनिवृत्तिर्हेतुरुक्तः॥३॥
जब वातादि तीनों दोषोंके हेतु परस्पर अर्थात् आपसमें एकसे दूसरा प्रतिषेधकारक होनेके कारण रोगको उत्पन्न नही होनेदेता उसको रोगोका विघात कहतेहैं।जैसे दुर्वलभावसे दोषोंका परस्पर अनुबंध होनेसे रोगोंकी उत्पत्ति नहीं होती इसकोरोगोंका विघात कहतेहैं। अथवा रोग विलम्बसे उत्पन्न हो या बहुत थोडा उत्पन्नहो अथवा जैसा होना चाहियेथा वैसे लक्षणयुक्त न हो । इस प्रकार रोगोंका विघात,भाव, अभाव, प्रतिनिर्वृतिके हेतुओंको कहा है।तात्पर्य यह हुआ कि निदान, दोष, दूष्य विशेषों करके जो विकारोंका इकठ्ठाहोना है उसको विघात कहते हैं। अथवावातकारक हेतुसे विपरीत गुणकारक हेतुके मिलजानेसे जो रोगका उत्पन्न न होना हैउसको विघात जानना चाहिये। और दो दोषोंका मिल करके अथवा दो हेतुओकामिल करके रोगका होना भाव कहा जाताहै।एकदम रोगोंका हेतु आदि न होनसेरोगका उत्पन्न न होना अभाव कहा जाता है। हेतु आदिकोंसे रोगका प्रगट होजानानिर्वृति कहा जाता है।इन सबके कारणोंको संक्षेपसे कहा है।अथवा निदान,दोष दूष्य विशेष करके विकारोंका विघात, भाव, अभाव, प्रतिविशेष आदिसे रोगोंकेविभाग किये गये है॥३॥
प्रमेहनिदान भेद।
तत्र इमे निदानादिविशेषाः श्लेष्मनिमित्तानां प्रमेहाणामाशु अभिनिर्वृत्तिकराः। तद्यथा— हायनकयवचीनकोद्दालकनैषधोत्कटमुकुन्दकमहाव्रीहिप्रमोदकसुगन्धकानां नवान्नानामतिवेलमतिप्रमाणेनोपयोगः।तथासर्पिष्मतां नवहरेणुमाषसूपानां ग्राम्यानूपौदकानां मांसानां शाकतिलपललपिष्टान्न पायसकृसरविलेपक्षिविकाराणां क्षीरमन्दकदधिद्रवमधुरतरुणप्रायाणामुपयोगो मृजाव्यायामवर्जनस्वप्नशयनासनप्रसङ्गो यश्च कश्चिद्विधिरन्योऽपि श्लेष्ममेदोमूत्रसंजननः सर्वः स निदानविशेषः॥४॥
सो यह निदानादि विशेष कफ निमित्तक प्रमेहोंको शीघ्र उत्पन्न करनेवाले होते हैंजैसे जौ, शालिधान्य, चीना, कोदों, नैषध, मुकुन्दक, महाव्रीहि, प्रमोदक, सुगंधकआदि धान्यांकी जातियोंका निरन्तर अधिक सेवन करना और घृतके साथ नवीनमटर और उडदकी दाल अधिक सेवन करना ग्रामसंचारी, अनूपसंचारी एवम् जलजजीवों का मांस तथा शाक, तिल, पिष्टक मैदा आदि गरिष्ठ पदार्थ, खीर, खिचरी,
विलेपी, शक्कर, गुड आदि ईखके विकार दूध, मंदक, दही एवम् पतले और मीठेपदार्थ, नवीन पदार्थ इन सबका अधिक सेवन करना तथा देहको सुकुमार बनारखना, कसरत न करना, बहुत सोना, सुन्दर नर्म शय्या और आसन आदिकाउपयोग करना इनके सिवाय अन्य भी जो आहार और बिहार कफ मेद तथा मूत्रकेबढानेवाले हैं वह सब कफजनित प्रमेहोंके निदान (कारण) होते हैं॥४॥ (यह कारण कहेगये)
दोषदूष्यका वर्णन।
बहुद्रवश्लेष्मादिदोषविशेषः बहुबद्धंमेदो मांसञ्च शरीरक्लेदःशुक्रंशोणितञ्च वसामज्जालसीकारसश्चौजः संख्याता इति दूष्यविशेषाः॥५॥
अबदोष और दृष्यांको कहते हैं। कफजनित प्रमेहों में बहुतसे पतले द्रव्ययुक्तकफ जो है उसको दोष कहतेहैं। बहुत और बंधीहुई मेद, मांस, शरीरका क्लेद, शुक्र,रक्त, चर्वी, मज्जा, लसीका रस और ओज यह सबप्रमेहरोगमें दूष्यहोतेहैं।कफदोषको उपरोक्त कारणोका सेवन करनेसे कुपित करता है इसलिये उन कारणोंकोकफके कोपका निदान अर्थात् हेतु मानागयाहै।अपने कारणों से बढाहुआ कफ मेदआदि धातुओंको दूषित करता है इसलिये उसको दोष कहतेहैं। उस दोषद्वारा मेदआदि धातुएं दूषित होती हैं इसलिये उनको दूष्य कहाजाता है॥५॥
प्रकुपित कफके कर्म।
त्रयाणामेषां निदानादिविशेषाणां सन्निपाते क्षिप्रश्लेष्माप्रकोपमापद्यते प्रागतिभूयस्त्वात्। सप्रकुपितःक्षिप्रमेव शरीरेविसृप्तिं लभते। शरीरशैथिल्यात्स विसर्पन् शरीरेमेदसैवादितो मिश्रीभावं गच्छति। मेदसश्चैवबहुबद्धत्वान्मेदसश्च गुणानां गुणैः समानगुणभूयिष्ठत्वात् समेदसामिश्रीभावं गच्छन्दूषयत्येतद्विकृतत्वात्सविकृतो दुष्टेन मेदसोपहितः शरीरक्लेदमांसाभ्यां संसर्गं गच्छति। क्लेदमांसयोरतिप्रमाणाभिवृद्धित्वात्समांसे मांसप्रदोषात्पूतिमांसपिडकाः शराविकाकच्छपिकाद्याः संजनयति अपकृतिभूतत्वाच्छरीरक्लेदं पुनर्दूषयन् मूत्रत्वेन परिणमयति। मूत्रवहाणां स्रोतसां वङ्क्षणवस्तिप्रभवाणां मेदः
क्लेदोपहितानि गुरूणि मुखान्यासाद्य प्रतिरुध्यते। ततः स्थैर्य्यंसाध्यतां वा जनयति प्रकृतिविकृतिभूतत्वात्॥६॥ शरीरेक्लेदस्तु श्लेष्ममेदो मिश्रः प्रविशन्मूत्राशये मूत्रत्वमापद्यमानः श्लैष्मिकैरेभिर्दशभिर्गुणैरुपसृज्यते वैषम्यहानिवृद्धियुक्तैः। तद्यथा—श्वेतशीतमूर्त्तपिच्छिलाच्छस्निग्धगुरुमधुरसान्द्रप्रसादगन्धैस्तत्र येन गुणेनैकेनानेकेन वा भूयस्तरमुपसृज्यते तत्समाख्यं गौणंनामविशेषं प्राप्नोति॥७॥
इन निदान और दोषतथा दूष्योंके संयोगले कफ कुपित होता है क्योंकि वहप्रथम ही अधिकतायुक्त होता है। वह कुपित हुआ कफ संपूर्ण शरीरमें झट फैलजाता है। शरीरकी शिथिलतासे इधर ऊधर फिरता हुआ वही कफ पहिले मेदमेंमिलजाता है फिर मेदके बहुत और वध्यहोनेके कारण तथा मेदके समान गुणवालाहोनेसे वह कफ मेदमें मिलकर मेदको विगाड देता है। फिर विकृतहुए मेदके संयोगसे शरीरके क्लेद और मांसमें मिलजाता है। उस क्लेद और मांसकेअत्यन्त वढजानेसे मांस में—मांस के दोषसे दुर्गंधित मांसकी शराविका, कच्छपिकाआदि पीडका उत्पन्न होजाती हैं। फिर वह दूषित कफ मेदादिकोंसे मिलाहुआक्लदको दूषित करकेप्रकृतिस्थमूत्रको बिगाड देता है। तब मूत्रवाही स्रोतोके मुखमेद और क्लेदके द्वारा भारी कर देता है और रोक देता है। तथा वंक्षण और वस्तीकेमुखोंको भी भारी कर देता है।फिर उन छिद्रोंके मुख दृढ होजाते हैं अथवा किसीप्रकार प्रकृतिस्थ होनेसे साध्य भी होजाते है।कफ और मेदसे मिश्रित हुआ शरीरकाक्लेद—मुत्राशय में प्राप्त होकर मूत्ररूप होजाता है फिर वह कफजनित दश प्रकार के विषमता न्यूनता एवम् अधिकता युक्त गुणोंको उत्पन्न करता है। जैसे—श्वेतता, शीतलता,मूर्तता, पिच्छलता अच्छता, स्निग्धता, गुरुता, मधुरता, सांद्रता एवम् गंधता इनदश गुणोको उत्पन्न करता है।इनमें यदि वह क्लेद एक गुणयुक्त हो तो सम कहाजाता है और बहुतसे गुणयुक्त होनेसे गौण कहा जाता है॥६॥७॥
प्रमेहोके नाम।
ते तु खलु इमे दशप्रमेहानामविशेषेण भवन्ति। तथा उदकमेहश्चेक्षुमेहश्च सान्द्रमेहश्च सान्द्रप्रसादमेहश्च शुक्लमेहश्च शुक्रमेहश्च शीतमेहश्च सिकतामेहश्च शनैर्मेहश्च लालामेहश्चेति॥८॥
फिर उन दश गुणयुक्त होनेसे दश प्रकारके प्रमेहोंको उत्पन्न करताहै। वह दशप्रमेह यह हैं—उदकमेह, इक्षुमेह, सान्द्रमेह, सान्द्रप्रसादमेह, शुक्रमेह, शुक्रमेह,शीतमेह, सिकतामेह, शनैर्मेह और लालामेह॥८॥
कफप्रमेहका साध्यत्व।
ते दश प्रमेहाः साध्याःसमानगुणमेदः स्थानत्वात् कफस्य प्राधान्यात्समानक्रियत्वाच्च॥९॥
वह दश प्रकारके प्रमेह साध्य होते हैं क्योंकि मेदके समान गुण होनेसे, मेदसेकफके प्रधान होनेसे तथा कफ और मेदकी समान चिकित्सा होनेसे साध्य होते हैं।अर्थात् जो चिकित्सा कफनाशक की जायेगी वह मेदके विकारोंको भी शान्त करतीहै। इसलिये चिकित्सा में विरोध नपडनेसे कफजनित प्रमेह साध्य होते हैं॥९॥
उदकमेहका लक्षण।
तत्र श्लोकाः।
श्लेष्मप्रमेहविज्ञानार्थाः।अच्छं बहुसितं शीतं निर्गन्धमुदकोपमम्। श्लेष्मकोपान्नरोमूत्रमुदमेहीप्रमेहति॥१०॥
उन कफके प्रमेहोंके विज्ञानके लिये यहांपर श्लोक कहे जातेहैं।
उदकमेही मनुष्य—कफके कोपसे स्वच्छ बहुत, सफेद, शीतल, निर्गंध, जलकेसमान मूत्रको मूतता है॥१०॥
इक्षुमेहके लक्षण।
अत्यर्थमधुरं शीतमीषत्पिच्छिलमाविलम्।
काण्डेक्षुरससङ्काशं श्लेष्मकोपात्प्रमेहति॥११॥
इक्षुमेही मनुष्य—अधिक मधुर, शीतल, किंचित् पिच्छल, गंधला, काण्डेक्षुकेइसके समान भूतताहै॥११॥
सान्द्रमेहके लक्षण।
यस्य पर्य्युषितं मूत्रं सान्द्रीभवति भाजने।
पुरुषं कफकोपेन तमाहुः सांद्रमेहिणम्॥१२॥
सान्द्रमेही मनुष्य का मूत्र—देरतक रक्खा रहनेसे गाढा और आन्तयुक्तसा होजाताहै इसीलिये इस कफजनित प्रमेहको सान्द्रमेह कहतेहैं॥१२॥
सान्द्रप्रसादमेहके लक्षण।
यस्य संहन्यते मूत्रं किञ्चित्किञ्चित्प्रसीदति।
सान्द्रप्रसादमेहीतितमाहुः श्लेष्मकोपतः॥१३॥
जिस मनुष्यका मूत्र—देरतक रक्खा रहनेसे नीचेसे जमजाय और ऊपरसे हिलानेसे कुछ कुछ फैलावयुक्तसा होजाय उसको सान्द्रप्रसादमेही कहते हैं॥१३॥
शुक्लमेहके लक्षण।
शुक्लं पिष्टनिभं मूत्रमभीक्ष्णं यः प्रमेहति।
पुरुषं कफकोपेन तमाहुः शुक्लमेहिनम्॥१४॥
जो मनुष्य—श्वेत और पिट्टीके धोवनके समान मूत्र करता है उसको शुक्लमेहीकहतेहैं॥१४॥
शुक्रमेहके लक्षण।
शुक्राभं शुक्रमिश्रं वा मुहुर्मेहति यो नरः।
शुक्रमेहिणमेवाहुः पुरुषश्लेष्मकोपतः॥१५॥
जिस मनुष्यका मूत्र शुक्रयुक्त अथवा शुक्रके समान हो तथा वह वारंवार थोडाथोडा मूतता हो उसको कफजनित शुक्रमेह कहतेहैं॥१५॥
शीतमेहके लक्षण।
अत्यर्थशीतमधुरं सूत्रं क्षरति यो भृशम्।
शीतमेहिनमाहुस्तं पुरुषं श्लेष्मकोपतः॥१६॥
जिस मनुष्यका मूत्र—अधिक, शीतल एवम् मधुर उतरता है उसको कफजनितशीतमेही कहतेहैं॥१६॥
सिकतामेहके लक्षण।
मूर्त्तान्मूत्रगतानदोषानणून्मेहति यो नरः।
सिकतामेहिनं विद्यान्नरं तं श्लेष्मकोपतः॥१७॥
जिस मनुष्यका मूत्र—कठिन स्पर्शवाले रेतकेसे कणकोयुक्त हो उसको सिकतामेहीकहतेहैं॥१७॥
शनैर्मेहके लक्षण।
मन्दं मन्दमवेगन्तुकृच्छ्रं यो मूत्रयेच्छनैः।
शनैर्मेहिनमाहुस्तं पुरुषं श्लेष्मकोपतः॥१८॥
जिस मनुष्यकें कफ कोपके कारण—वेगरहित थोडा २ एवम् शनैः शनैः मूत्र आताहो उसको शनैमेही कहते हैं॥१८॥
आलालमेह के लक्षण।
तन्तुबद्धमिवालालं पिच्छिलं यः प्रमेहति।आलालमेहिनं विद्यात्तंनरं श्लेष्मकोपतः॥ इत्येते दश प्रमेहाः श्लेष्मप्रकोपनिमित्ताव्याख्याताः॥१९॥
जिस मनुष्यको—तंतुओंके समान, पिच्छिल, लारयुक्त मूत्र आता हो उसकोलालामेही कहतेहैं। इस प्रकार कफकोप से उत्पन्न हुए दश प्रकारके प्रमेहोंका कथनकियागया है।इति कफजनित दशमेह॥१९॥
पित्तप्रेमहका लक्षण।
उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनोपसेविनस्तथातितीक्ष्णातपाग्निसन्तापश्रमक्रोधविषमाहारोपसेविनश्च तथात्मकशरीरस्यैव क्षिप्रं पित्तं प्रकोपमापद्यते॥२०॥
अव पित्तके प्रमेहोंके कारणोंको कहतेहैं। गर्म, खट्टे, नमकीन चरपरे एवम् अजीर्णकर्त्ता पदार्थों के सेवन से तथा अजीर्ण में भोजनके करनेसे एवम् अत्यन्त तीक्ष्ण, धूप,अग्नि, संताप, श्रम, क्रोध और विषम आहारके सेवनसे पित्तप्रकृति मनुष्य के शरीर मेंपित्तका शीघ्र प्रकोप होजाता है॥२०॥
तत्प्रकुपितं तयैवानुपूर्व्या प्रमेहानिमान्षट् क्षिप्रमभिनिर्वर्त्तयति॥२१॥
वह कुपित हुआ पित्त पूर्वोक्त क्रमसे मेदादिकोंको दूषित करता हुआ छःप्रकार के प्रमेहों को उत्पन्न करता है॥२१॥
छः प्रमेहों के नाम।
तेषामपि च पित्तगुणविशेषेण नामविशेषाः। तद्यथा—क्षारप्रमेहश्च कालमेहश्च नीलमेहश्च लोहितमेहश्च मञ्जिष्ठामेहश्च हरिद्रामेहश्चेति ते षड्भिरेव क्षाराम्ललवणकटुकविस्रोष्णैः पित्तगुणैः पूर्ववत्समन्विताः। सर्व एव ते याप्याः विषमगुणमेदः स्थानत्वाद्विरुद्धोपक्रमत्वाच्चेति॥२२॥
उन छःओंके पित्तगुणके भेदसे छःप्रकारके नाम होते हैं। जैसे—क्षारमेह, कालमेह,नीलमेह, लोहितमेह,मंजिष्ठामेह, हरिद्रामेह, यह छः प्रकारके ही प्रमेह—क्षार, अम्ल,लवण, कटु, विस्र, ऊष्ण इन पित्तके गुणों से युक्त होते हैं।यह पित्तके छः प्रकारकेप्रमेह—मेदके गुणोंसे विरुद्ध क्रिया द्वारा शान्त होनेवाले होनेसे याप्य साध्य होते हैंअर्थात् इन पित्तजनित विकारोंको शान्त करनेवाली क्रिया मेदके विकारोको शमनकरनेवाली नहीं होसकती इसलिये चिकित्सा में विषमता पडनेसे इन प्रमेहोंको याप्यसाध्य कहाहै॥२२॥
क्षारमेहीके लक्षण।
तत्र श्लोकाः।
पित्तप्रमेहविज्ञानार्थाः। गन्धवर्णरसस्पर्शैर्यथा क्षारस्तथात्मकम्। पित्तकोपान्नरो मूत्रं क्षारमेही प्रमेहति॥२३॥
उन पित्तके प्रमेहोंके विज्ञान के लिये यहांपर श्लोक कहते हैं। क्षारममेहमें—पित्तके कोपसे गंध, वर्ण, रस, और स्पर्श यह सब क्षारके समान गुणों से युक्त मूत्र॥२३॥
कालमेहीके लक्षण।
मसीवर्णमजस्रं यो मूत्रमुष्णं प्रमेहति।
पित्तस्य परिकोपेन तं विद्यात्कालमेहिनम्॥२४॥
पित्तके कोपसे स्याहीके समान काला और गर्भमूत्र जिसको नित्य आता है उसकोकालमेही कहते हैं॥२४॥
नीलमेहीके लक्षण।
चाषपक्षनिभं मूत्रमम्लं मेहति यो नरः।
पित्तस्य परिकोपेन तं विद्यान्नीलमोहनम्॥२५॥
जिसको नीलकंठके पत्रके समान—नीलवर्णका मूत्र थोडा थोडा आता है उसकोनीलमेही कहते हैं॥२५॥
रक्तमेहीके लक्षण।
विस्रं लवणमुष्णञ्च रक्तं मेहति यो नरः।
पित्तस्य परिकोपेन तं विद्याद्रक्तमेहिनम्॥२५॥
रक्तमेही मनुष्यको—आमकीसी गंधयुक्त, नमकीन, गर्म तथा रक्तके समान मूत्रआता है—उसको रक्तमेही कहते हैं॥२६॥
मञ्जिष्ठमेहीके लक्षण।
मञ्जिष्ठारूपियोऽजस्रं भृशं विस्रं प्रमेहति।
पित्तस्य परिकोपात्तं विद्यान्माञ्जिष्ठमेहिनम्॥२७॥
जिस मनुष्यको मंजीठके समान बहुत गंधवाला नित्य मूत्र आता है उसको मंजिष्ठामेहीकहतेहैं॥२७॥
हरिद्रामेहों के लक्षण।
हरिद्रोदकसङ्काशं कटुकं यः प्रमेहति। पित्तस्य परिकोपात्तु विद्याद्धारिद्रमेहिनम्॥ इति षट् प्रमेहाः पित्तप्रकोपनिमित्ता व्याख्याताः॥२८॥
जिस मनुष्यको हल्दीके समान वर्णवाला और कटुमूत्र आता है उसको हरिद्रामेहीकहतेहैं। इस प्रकार पित्तके कोपसे उत्पन्न हुए छः प्रमेहिओंका कथन कियागया है।इति पित्तजनितषट्प्रमेहाः॥२८॥
वातप्रमेहहोनेका कारण।
कटुककषायतिक्तरूक्षलघुशीतव्यवायव्यायामवसनविरेचनास्थापनशिरोविरेचनातियोगसन्धारणानशनाभिघातातपोद्वेगशोकशोणिताभिषेकजागरणविषमशरीरन्यासानभ्युपसेवमानस्य तथात्मकशरीरस्यैव क्षिप्रं वायुः प्रकोपमाद्यते। स प्रकुपितस्तथात्मके शरीरे विसर्पन्यदावसामादाय मूत्रवहानि स्रोतांसि प्रतिपद्यते तदावसामेहमभिनिर्वर्त्तयति॥२९॥
अब वातके प्रमेहोंका कथन करतेहैं।कडुए, कसैले, चरपरे रूखे, हल्के शीतलपदार्थोंके सेवनसे, मैथुन और अधिक परिश्रम के करने से, वमन, विरेचन, आस्थापन,शिरोविरेचन इनके अति योगसे, मलमूत्रादि वेगों को रोकनेसे, लंघन करनेसे, चोटलगनेसे, तप, उद्वेग और शोकके होनेसे रक्तके निकलनेसे अधिक जागनेसे, शरीरको विषमावस्था में रखनेसे तथा अन्य वातकोपकारक कारणोंसे वातप्रधान मनुष्यकेशरीरमें शीघ्र वायु कोपको प्राप्त होता है। वह कुपित हुआ वातात्मक शरीरमें इधर
उधर भ्रमण करता हुआ वसाधातु (चर्वी) से मिलकर मूत्रवाहिनी स्रोतोंमे प्रवेशकरवसामेहको उत्पन्न करताहै॥२९॥
मज्जामेहका कारण।
यदा पुनर्मज्जानं मूत्रवस्तावाकर्षति तदा मज्जा मेहमभिनिर्वर्त्तयति॥३०॥
फिर वह जब मज्जाको आकर्षण करताहुआ मूत्रवस्तीमें प्राप्त होता है तो मज्जामेहको उत्पन्न करताहै॥३०॥
हस्तिमेहका कारण।
यदा लसीकां मूत्राशयेऽभिवहन्मूत्रमनुबन्धंश्च्योतयति लसीकातिबहुत्वाद्विक्षेपणाच्च वायोः खल्वस्यातिमूत्रप्रवृत्तिसङ्गं करोति, तदासमत्त इव गजः क्षरत्यजस्रं मूत्रमवेगं तं हस्तिमेहिनमाचक्षते॥३१॥
जब वह (कुपितवायु) लसीकामें मिलकर मूत्राशय में प्रवेश करता है तवलसीकाकी अधिकता होनेसे और वायुका विक्षेपण होनेसे लसीकायुक्त मूत्रकीअधिक प्रवृत्ति होती है। फिर वह मनुष्य मत्तहस्तीके समान निरन्तर विना वेगमूत्रको मृतता रहता है उसको हस्तीमेह कहतेहैं॥३१॥
मधुमेहका कारण।
ओजः पुनर्मधुरस्वभावं तद्रौक्ष्याद्वायुः कषायत्वेनाभिसंसृज्यमूत्राशयेऽभिवहति तदा मधुमेहिनं करोति॥३२॥
ओजधातु स्वभावसे मधुर है। उसको जव वायु रूक्षतासे तथा कषाय स्वभावसेआकर्षण करलेती है और मूत्राशय में लेजाकर मथुरस्वभाववाले ओजसे प्रमेहको उत्पन्नकरता है उसको मधुमेह कहतेहै॥३२॥
बातप्रमेहोंको असाध्यत्व।
तानिमांश्चतुरः प्रमेहान्वातजानसाध्यानाचक्षते। महात्ययिकद्विप्रतिषिद्धोपक्रमत्वात् तेषामपि च पूर्ववदगुणविशेषेण नामविशेषाः॥३३॥
इन वातसे उत्पन्न हुए चारो प्रमेहोंको असाध्य कहते है क्योंकि यह प्रमेहं चिकित्सामें विरोध पढनेसे और अत्यन्त सांघातिक होनेसे असाध्य होते हैं। और इनमेंसा और मज्जा आदि गुणयुक्त मूत्रक आनेसे उन्हीके समान नाम रक्खेगयेहै॥३३॥
तद्यथा।
वसामेहश्च मज्जमेहश्च हस्तिमेहश्च मधुमेहश्चेति॥३४॥
जैसे वसामेह, मज्जामेह, हस्तीमेह और मधुमेह यह चार प्रकार के नाम हैं॥३४॥
तत्र श्लोकाः।
वसामेही के लक्षण।
वातप्रमेहविशेषविज्ञानार्थाः।वसामिश्रं वसाभञ्च मूत्रं मेहतियो नरः। वसामेहिनमाहुस्तमसाध्यं वातकोपतः॥३५॥
उन वातजनित प्रमेहोंके विशेष ज्ञानके लिये यहां पर श्लोक कहेजातेहैं। जिस मनुष्यकोवसा (चर्बी ) युक्त तथा वसाके वर्णवाला मूत्र आता है उसको वातके कोपसेउत्पन्न हुआ वसामेह कहते हैं। यह वसामेह असाध्य होताहै॥३५॥
मज्जामेहीके लक्षण।
मज्जानं सह मूत्रेण मुहुर्मेहति यो नरः।मज्जा मेहिनमाहुस्तमसाध्यं वातकोपतः॥३६॥
जो मनुष्य मज्जायुक्त मूत्रको वारंवार मूतता है उसको मज्जामेही कहतेहै। यहवात कोपजनित मज्जामेह भी असाध्य होताहै॥३६॥
हस्तिमेहीका लक्षण।
हस्ती मत्त इवाजस्रं मूत्रं क्षरति यो भृशम्।हस्तिमेहिनमाहुस्तमसाध्यं वातकोपतः॥३७॥
जो मनुष्य मत्तहस्तीके समान निरन्तर बहुत मूता करता है उसको हस्तिमेहीकहते हैं। यह वातजनित हस्तिमेह भी असाध्य होता है ॥३७॥
मधुमेहीके लक्षण।
कषायमधुरं पाण्डुंरूक्षं मेहति यो नरः।वातकोपादसाध्यं तं प्रतीयान्मधुमेहिनम्॥३८॥
जो मनुष्य कषाय, मधुर, रूक्ष एवम् पाण्डुवर्णका मूत्र मूतता है उसको वातकेकोपसे उत्पन्न हुआ असाध्य मधुमेह जानना॥३८॥
इति चत्वारः प्रमेहावातप्रकोपनिमित्ताः।ते एवं त्रिदोषप्रकोपनिमित्ता विंशतिप्रमेहा व्याख्याताः॥३९॥
इस प्रकार वायुके कोपसे उत्पन्न हुए चार प्रकारके प्रमेहोका वर्णन कियाहै। वहसब मिलकर तीनों दोषोंके कोपसे उत्पन्न हुए बीस प्रकार के प्रमेहोंका कथनकियाहै॥३९॥
त्रिदोषजन्य प्रमेहके पूर्वरूप।
त्रयस्तु दोषाः प्रकुपिताः प्रमेहानभिनिवर्त्तयिष्यन्त इमानि पूर्वरूपाणि दर्शयन्ति॥
तद्यथा।
जटिलीभावं केशेषु माधुर्यमास्ये करपादयोः सुप्ततां दाहमुखतालुकण्ठशोषं पिपासामालस्यं मलञ्च काये कायच्छिद्रेषूपदेहं परिदाहंसुप्ततां चाङ्गेषु षट् पदपिपीलिकाभिः शरीरसूत्राभिसरणं मूत्रे च मूत्रदोषान्वितशरीरगन्धं निद्रां तन्द्राञ्च सर्वकालमिति॥४०॥
यह तीन वातादि दोष ही कुपित होकर प्रमेहोंको उत्पन्न करते हुए इन पूर्वरूपोको करते हैं। उन रूपोंको दिखाते हैं। जैसे बालोंकी जटे बंधना, मुखमेंमीठापन, हाथपैरोंका सोना, दाह, मुख, तालु और कण्ठका सूखना, प्यास, आलस्य,शरीरमें मैलका बहुत बढना, रोममार्गों का बन्द होना, शरीरमें दाह होना, अंगोंकासोजाना, मक्खियें और चीटियोंका शरीरपर बहुत आना तथा मूत्रमें लगना, शरीरसेमूत्रकीसी गंध आना, सव कालमें निद्रा तथा तन्द्राकी अधिकता रहना यह सबप्रमेहके पूर्वरूप होते॥४०॥
प्रमेह के उपद्रव।
उपद्रवास्तु खल प्रमेहिणां तृष्णातीसारज्वरदाहदौर्बल्या रोचकाविपाकाः पूतिमांसपिडका अलजीविद्रध्यायश्च तत्प्रसङ्गाद्भवन्ति॥४१॥
अब प्रमेहके उपद्रवोको कथन करते है।प्यास, अतिसार, ज्वर, दाह, दुर्बलता,अरुचि, अन्नका न पचना, मांस में से दुर्गंध आना, शरीरमें पीडका होना तथा अलजीविद्रधी आदिक प्रमेह पिडकाओंका होना यह प्रमेहके उपद्रव होतेहैं॥४९॥
साध्यप्रमेहोंकी चिकित्साविधि।
तत्र साध्यान्प्रमेहानुसंशोधनोपशमनैर्यथार्हमुपपादयेच्चिकित्सेच्चेति॥४२॥
इनमें साध्य प्रमेहों मेंसंशोधन और उपशमन द्रव्यों द्वारा यथोचित रीतिपरचिकित्सा करे॥४२॥
तत्र श्लोकाः।
गृध्रमभ्यवहार्य्येषु स्नानचंक्रमणाद्विषम्।
प्रमेहः क्षिप्रमभ्येति नीचद्रुममिवाण्डजः॥१३॥
यहां कहते हैं कि जिस प्रकार साधारण वृक्षोंपर उडता हुआ पक्षी विना ही प्रयाससे झट आन बैठता है उसी प्रकार जो मनुष्य नित्य प्रति आहारके लोभमें फंसेरहते हैं और नित्य स्नान तथा भ्रमण आदि नहीं करते उनके शरीरमें प्रमेह भी झटअधिकार जमा बैठता है॥४३॥
मन्दोत्साहमतिस्थूलमतिस्निग्धं महाशनम्।
मृत्युः प्रमेहरूपेण क्षिप्रमादाय गच्छति॥४४॥
आलसयुक्त तथा अत्यन्त स्थूल और अधिकस्निग्ध शरीरवाले एवम् बहुतखानेवाले मनुष्य के शरीरमें प्रमेहके रूपको धारण करके मृत्यु झट प्रवेशकर लेताहै॥४४॥
यस्त्वाहारं शरीरस्य धातुसाम्यकरं नरः।
सेवते विविधाश्चान्याश्चेष्टाः स सुखमश्नुते॥४५॥
जो मनुष्य शरीरकी धातुओंको साम्यावस्था में रखनेवाले आहार विहारोंका सेवनकरता है वही मनुष्य परमसुखको भोग करताहै॥४५॥
तत्र श्लोकाः।
हेतुव्याधिविशेषाणां प्रमेहाणाञ्च कारणम्। दोषधातुसमायोगोरूपविविधमेव च॥४६॥ दश श्लेष्मकृता यस्मात्प्रमेहाः षट् च पित्तजाः। यथा करोति वायुश्च प्रमेहांश्चतुरो बली॥४७॥ साध्यासाध्यविशेषाश्च पूर्वरूपाण्युपद्रवाः। प्रमेहाणां निदानेऽस्मिन्क्रियासूत्रञ्च भाषितम्॥१८॥
इति अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते प्रमेहनिदानं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
अव अध्यायका उपसंहार करतेहैं। इस प्रमेह निदान नामक अध्यायमें—हेतु औरव्याधिविशेषोंको तथा प्रमेहके कारणोंको दोष, धातुके संयोगको तथा उनके अनेक
प्रकारके रूपोको कथन किया है। और दश प्रकारके कफजानेत प्रमेह, छः प्रकार केपित्तजनित प्रमेह और जिस प्रकार बलवान वायु चार प्रकारके प्रमेहोंको उत्पन्नकरताहै।एवम् प्रमेहोंको साध्य, असाध्यता तथा उनके पूर्वरूप, उपद्रव एवम् चिकित्साका क्रम यह सब कथन कियाहै॥४६॥४७॥४८॥
इति श्रीमहर्षिचरक० निदान०प० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकाया प्रमेहनिदान
नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
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पंचमोऽध्यायः ।
अथातःकुष्ठनिदानं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम कुष्ठके निदानको व्याख्या करते है। इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथनकरनेलगे।
कुष्ठोत्पत्तिका कारण।
सप्त द्रव्याणि कुष्ठानां प्रकृतिविकृतिमापन्नानि भवन्ति। तद्यथा—त्रयो दोषा वातपित्तश्लेष्माणः प्रकोषणविकृता दूष्याश्च शरीरधातवस्त्वङ्मांसशोणितलसीकाश्चतुर्द्धा दोषोपघातविकृता इति एतत्सप्तानां सप्तधातुकमेवं गतमाजननं कुष्ठानामतः प्रभवाण्यभिनिर्वर्त्यमानानि केवलं शरीरमुपतपन्ति। न च किञ्चिदस्ति कुष्ठमेकदोषप्रकोपनिमित्तम्॥१॥
विकारको प्राप्तहुए सातद्रव्य कुष्ठोके प्रकृति अर्थात् कारण होते हैं। वह सात इसप्रकार हैं। वात, पित्त, कफ यह तीन दोष अपने कुपितकारी कारणोंसे विगडते हैंऔर त्वचा, मांस, रक्त एवं लसीका यह चार चातादि दोषों द्वारा बिगडजाते हैं।बस इन सात प्रकारके द्रव्योंके विकृत होनेसे ही कुष्ठोकी उत्पत्ति होती है। ऐसाकोई भी कुष्ठ नहीं होता जो केवल एक ही दोषके कोप होनेसे उत्पन्न हो जाताहो॥१॥
अस्ति तु खलु समानप्रकृतीनामपि सप्तानां कुष्ठानां दोषांशबलविकल्पानुबन्धस्थानविभागेन वेदनावर्णसंस्थान प्रभावनामचिकित्सितविशेषः॥२॥
सात प्रकारकेही कुष्ठ समान प्रकृति और समान कारणोसे उत्पन्न होनेपर भीदोष, अंश, बल इनके विकल्पसे और स्थानके विभागसे वेदना, वर्ण, संस्थानऔर नामके प्रभावसे सबकी अलग २ प्रकारकी चिकित्सा की जातीहै॥२॥
कुष्ठभेद।
स सप्तविधोऽष्टादशविधोऽपरिसंख्येयविधो वा॥३॥
यह कुष्ठ मुख्य सात प्रकारके होते हैं और दोषांश बलके विकल्पसे वह अठारहप्रकारके होते हैं एवम् सूक्ष्म विचार करने लगें तो असंख्य होजातेहैं॥३॥
सातप्रकार के कुष्ठ।
दोषा हि विकल्पनैर्विकल्प्यमाना विकल्पयन्ति विकारानसंख्यानसाध्यभावात् तेषां विकल्पविकारसंख्यानेऽतिप्रसङ्गमभिसमीक्ष्यसप्तविधमेव कुष्टविशेषमुपदेक्ष्यामः॥४॥
वातादि दोष ही अंशांश कल्पनासे अनेक भेदोवाले होते हुए अनेक प्रकारकेविकारों को उत्पन्न करतेहैं। उनके सूक्ष्म अंशांश कल्पना द्वारा रोगोंकी गणनाकरनेसे सब विकारोंका वर्णन करना कठिन होजाता हैइसलिये विशेषरूपसे कुष्ठसात प्रकार केही होते हैं सो उनका वर्णन करतेहैं ॥४॥
कुष्ठोंके भेद और उत्पत्तिके कारण।
इह वातादिषु त्रिषु प्रकुपितेषु त्वगादींश्चतुरः प्रदूषयत्सुवातेऽधिकतरे कपालकुष्टमभिनिर्वर्त्तते। पित्ते त्वौदुम्बरं श्लेष्मणिमण्डलकुष्ठम्॥५॥
यह वातादि तीनों दोषकुपित होकर त्वचाआदि चार प्रकारके दूष्य धातुओंकोदूषित करदेते हैं तो इनमें वायुकी अधिकता होनेसे कपालनामक कुष्ठ उत्पन्न होता है।पित्तकी अधिकता होनेसे—उदुम्बरनामक कुष्ट उत्पन्न होता है। एवम् कफकी अधिकताहोनेसे मण्डलनाम कुष्ठ उत्पन्न होता है॥५॥
वातपित्तयोर्ऋष्यजिह्वं पित्तश्लेष्मणोः पुण्डरीकं श्लेष्ममारुतयोःसिध्मकुष्टं सर्वदोषातिवृद्धौ काकणकसभिनिर्वर्त्तते। इत्येवमेष सप्तविधःकुष्ठविशेषो भवति॥६॥
बात और पित्त इन दोनोंकी अधिकता होनेसे ऋष्यजिह्वानामक कुष्ठ उत्पन्नहोता है। पित्त और कफके कोपकी अधिकता होनेसे पुण्डरीकनामक कुष्ठ उत्पन्नहोता है।एवम् कक और वायुका कोप अधिक होनेसे सिध्मनामक कुष्ठ उत्पन्न होताहै। तथा तीनों दोषों के मिलकर वृद्धि होनेसे काकणकनामक कुष्ठ उत्पन्न होताहै।इन सात प्रकारके कुष्ठोंका कथन किया गया है॥६॥
स चैष भूयोऽतः प्रकृतिविकल्पनया भूयसींविकारसंख्यामापद्यते॥७॥
सो ये सात प्रकारके ही कुष्ठ कारणादिकों के विकल्पसे अनेक प्रकारकेहोजातेहैं॥७॥
कुष्ठका साधारण निदान।
तत्रेदं सर्वकुष्ठनिदानं पुनः समासेन उपदेक्ष्यामः। शीतोष्णव्यत्यासमलानुपूर्व्योपसेवमानस्य तथा सन्तर्पणापतर्पणाभ्यवहार्य्यव्यत्यासं च मधुफाणितमत्स्यमूलककाकमाचीः सततमतिमात्रमप्यजीर्णे समश्नतश्चिलिचिमञ्च पयसाहायनकयवकचीनकोद्दालककोरदूषप्रायाणि चान्नानि क्षीरदधितक्रकोलकुलत्थमाषातसीयूषकुसुम्भस्नेहवन्त्येंतैश्चापि सुहितस्य व्यवायव्यायामसन्तापानप्युपसेवमानस्य भयश्रमसंतापोपहतस्य सहसा शीतोदकमवतरतो विदग्धमाहारमनुल्लिख्य विदाहीन्यभ्यवहरतः छर्द्दिञ्च प्रतिघ्नतः स्नेहांश्चाभिचरतः युगपत्त्रयो दोषाः प्रकोपमापद्यन्ते।त्वगादयश्चत्वारः शैथिल्यमापद्यन्ते। तेषु शिथिलेषु दोषाःप्रकुपिताः स्थानमभिगम्य सन्तिष्ठमानास्तानेव त्वगादीन् दूषयन्तः कुष्ठान्यभिनिर्वर्त्तयन्ति॥८॥
सो अब फिर उन संपूर्ण प्रकारके कुष्ठोंका निदान संक्षेपसे कथन करतेहैं। सर्दीऔर गर्भीकी विपरीततासे अथवा विपरीतभावसे सेवन करनेसे या अपने स्वाभाविकआहार विहारादिकोंको विपरीत रीतिपर सेवन करनेसे मलोंके कुपित करनेवाले पदार्थोंको निरन्तर सेवन करने से संतर्पण और अपतर्पणकी विपरीततासे भोजन, मधु,खांणित, मछली, मूलियें मकोहका शाक, इनका सदैव अधिक सेवन करनेसे अजीर्णमेंभी भोजन करनेसे और अधिक भोजन करनेसे, दूधके साथ चिलीचिमनामक मछलीखानेसे तथा हायनक, यवक, चीनक, कोद्रव, उद्दालक आदि धान्योंको दूध मछलीआदि संयोग सहित निरन्तर अधिक खानेसे, दूध, दही, छाछ, कुल्थी, वेर, उडद,अलसीका यूष, करडका तैल इन सबके अत्यन्त सेवन करनेसे एवम् अधिक संतर्पण,मैथुन, व्यायाम तथा अन्य संतापकारी वस्तुओंके सेवन करनेसे और भय, श्रम, संतापइनसे व्याकुल हुआ मनुष्य सहसा शीतल जलपीवे अथवा शीतल जलमें तैरने लगजाय
उससे विदग्धकारी आहारके सेवनसे अथवा विदग्धहुए आहारको उखाडकरकेविदाही पदार्थों का सेवन करनेसे एवम् आये हुए वसनके वेगको रोकनेसे, शरीरकोअत्यन्त स्नेहन करनेसे वातादि तीनों दोष एकसाथ कुपित होजाते हैं। फिर वह कुपितहोकर त्वचा आदि चारों धातुओंको शिथिल करदेते हैं। उन शिथिल हुई धातुओं मेंकुपित हुए दोष प्रवेश करके उनके स्थान विशेषोंमें प्राप्त होकर रहते हुए उन त्वचा,मांस आदिकोंको बिगाडते हुए कुष्ठोंको उत्पन्न करतेहैं॥८॥
कुष्टके पूर्वरूप।
तत्रेमानि पूर्वरूपाणि॥ तद्यथा अस्वेदनमतिस्वेदनं पारुष्यमतिश्लक्ष्णतावैवर्ण्यं कण्डूर्निस्तोदः सुप्ततापरिदाहः परिहर्षो लोमहर्षो खरत्वमुष्मायणं गौरवंश्वयथुर्वीसर्पागमनमभीक्ष्णं कायच्छिद्रेषूपदाहः पक्वदग्धदष्टक्षतोपस्खलितेष्वतिमात्रं वेदनास्वल्पानामपि च व्रणानां दुष्टिरसंरोहणञ्चेति तेभ्योऽनन्तरं कुष्टा निजायन्ते॥९॥
उन कुष्ठोंके पूर्वरूप यह हैं।जैसे पसीनेका न आना अथवा अधिक आना,त्वचाका अत्यन्त कठोर होना या अधिक नरम होजाना, एवम् त्वचाका रंग विगडजाना, खाज, पीडा, शून्यता, दाह और हर्षण इन सबका शरीरमें होना, रोमहर्ष,शरीरका खर्दरापन, त्वचामें गर्मीकी अधिकता, शरीरमें भारीपन, सूजन, विसर्परोगका होना, शरीरके रोम मार्गों में तथा अन्य छिद्रोंमें निरन्तर दाहका होना औरशरीरमें यदि कोई जखम या आगसे दग्ध अथवा किसी जानवरके काटनेसे जखमहोजाय तो उसमें अत्यन्त पीडा होना और छोटी २ फुंसियें होकर उनमें भी काटनेतथा दागनेकीसी दाह और पीडा होना और उन छोटे २ व्रणोंका भी दूषितसाहोजाना और फिर नहीं भरना ऐसे २ उपद्रव होनेके अनन्तर कुष्ठ उत्पन्न होतेहैंअर्थात् यह कुष्ठोंके पूर्व रूप है॥९॥
कपालकुष्ठके लक्षण।
तेषामिदं वेदनावर्णसंस्थानप्रभावनामविशेषविज्ञानम्। तद्यथा।रूक्षारुणपरुषाणि विषमविसृतानि खरपर्य्यन्तानि तनून्युद्वृत्तबहिस्तनूनि सुप्तसुप्तानि हृषितलोमाचितानि निस्तोदबहुलानि अ-
ल्पकण्डूदाहपूयलसीकान्याशुगतिसमुत्थानानिआशुभेदीनिजन्तुमन्तिकृष्णारुणकपालवर्णानिकपालकुष्ठानीतिविद्यात्॥१०॥
उन सात प्रकारके कुष्ठोंकी वेदना, वर्ण, स्थान और प्रभावोंके ज्ञानको यथोचितरीतिपर वर्णन करते है। जैसे रूक्ष, अरुण, कठोर, विषम गतिवाले जिसका अंतकाभाग खरदरा हो तथा थोडे २ ऊंचे हों, बाहरके भागमें किचित् ऊंचे हो, छोटे २हों, शून्यसे हो, जिनके ऊपर रोम खडे हों, प्रायःअधिक पीडा होती हो, किंचित् खाजयुक्ते एवम् दाह, पूय (राध ) और लसीका (मांसकासा धोवन) ये उनजख्मोंसे निकलते हो तथा झटपट फैलजानेवाले झट अपनी पीडाको उत्पन्न करनेवाले,कृमियुक्त काले और लालवर्णके तथा कपालके समान वर्ण युक्त इन सब लक्षणोंवालेकष्ठका कपालकुष्ठ कहतेहैं॥१०॥
उदुम्बरकुष्ठके लक्षण।
ताम्राणि ताम्ररोमराजीभिरवनद्धानि बहुलानि बहुबहलरक्तपूयलसीकानि कण्डूक्लेदकोथदाहपाकवन्त्याशुगतिसमुत्थानभेदीनि ससन्तापक्रिमीण्युदुम्बरफलपक्वपर्णान्युदुम्बरकुष्ठानीतिविद्यात्॥११॥
तांवेके समान वर्णवाला तथा ताम्रवर्णके रोमयुक्त, सघन और बहुत तथा गाढी राधतथा लसीका युक्त एवम् खाज, क्लेद, सडन, जलन, पाक, इनसे युक्त शीघ्र फैलनेवाला, झटग्रगट हो जानेवाला, एवम् शीघ्र फटजानेवाला संताप और कृमियुक्त और पके हुएगूलग्के समान वर्णवाला हो इन सब लक्षणोंवाले कुष्ठको उदुम्बर कुष्ठ कहते हैं॥११॥
मण्डलकुष्ठ के लक्षण।
स्निग्धानि गुरूण्युत्सेधवन्ति श्लक्ष्णस्थिरपनिपर्यन्तानि शुक्लरक्तावभासानि बहुलवहलशुक्लपिच्छिलस्रावीणिशुक्लरोमराजीसन्तानानि बहुकण्डूक्रिमीणिसक्तगतिसमुत्थानभेदीनिपरिमण्डलानि मण्डलकुष्ठानीति विद्यात्॥१२॥
चिकना, भारी, ऊंचा, मृदु, दृढ तथा किनारोंपर्यंत मोटा, श्वेत और लालवर्णकाबहुत बहाव करनेवाला और वह बहाब श्वैत तथा पिच्छलवर्णका स्रवता हो सुफेदरोमोसे युक्त हो तथा उसमें अत्यन्त खाज होतीहो और कृमि पडे हो एवम् उसके
सब मण्डल देरसे फैलनेवाले, देर में उत्पन्न होनेवाले, तथा देरमें, फटनेवाले हों इस प्रकारके गोलगोल मण्डलोंवाले कुष्ठको मण्डल कुष्ठ कहतेहैं॥१२॥
ऋष्यजिह्वकुष्ठके लक्षण।
परुषाण्यरुणवर्णानि बहिरन्तःश्यावानि नीलपीतताम्रावभासान्याशुगतिसमुत्थानान्यल्पकण्डूक्लेदक्रिमीणिदाहभेदनिस्तोदपाकबहुलानि शकोपहतोपसानवेदनान्युत्सन्नमध्यानि तनुपर्य्यन्तानि कर्कशपिडकाचितानि दीर्घपरिमण्डलानि ऋष्यजिह्वाकृतीनि ॠष्यजिह्वानीतिविद्यात्॥१३॥
कठोर तथा लालवर्णका, बाहरका भाग एवम् भीतरका भाग काला, नीला, पीलाएवम् ताम्रवर्णका हो, शीघ्र फैलनेवाला हो, शीघ्र उत्पन्न होनेवाला हो, खाज, कृमि,दाह, भेद, निस्ताद यह हों एवम् अधिक पकनेवाला, सुईसी चुभनेकी पीडायुक्त,बीचका भाग अधिक ऊंचा न हो किनारे पतले हों और छोटी २ कठोर फुंसियोंसेयुक्त हो जिसमें लम्बे २ मण्डल हों वह मण्डल रीछकी जीभके समान हों इन सबलक्षणों युक्त कुष्ठकों ऋष्यजिह्व कुष्ठ कहतेहैं॥१३॥
पुण्डरीककुष्ठके लक्षण।
शुक्लरक्तावभासानि रक्तपर्यन्तानि रक्तशिराराजीसन्ततान्युत्सेधवन्ति बहुबहलरक्तपूयलसीकानि कण्डूक्रिमिदाहपाकवन्त्याशुगतिसमुत्थानभेदीनि पुण्डरीकपलाशसंकाशानि पुण्डरीकाणीतिविद्यात्॥१४॥
जो कुष्ठ—सफेद तथा लालवर्णवाले अथवा गुलाबीवर्णवाले हों एवम् किनारे लालवर्णके होंलालरोमयुक्त हो एवम् ऊंचे हों उनमें से अधिक रक्त, राध, और लसीकानिकलती हों एवम् खाज, कृमिदाह, पाक इन सबसे युक्त हो, शीघ्र फैलने और उत्पन्नहोने एवम् फटजानेवाले हों और कमलके फूलकी कंकडीके समान हो इन सव लक्षणयुक्त कुष्टको पुण्डरीक कुष्ठ कहतेहैं॥१४॥
सिध्मकुष्ठके लक्षण।
परुषारुणविशीर्णबहिस्तनून्यन्तःस्निग्धानि शुक्लरक्तावभासानि बहून्यल्पवेदनान्यल्पकण्डूदाहपूयलसीकानि लघुसमुत्थाना-
न्यल्पभेद—क्रिमीण्यलावु—पुष्पसङ्काशानि सिध्म—कुष्ठानीतिविद्यात्॥१५॥
जो कुष्ठ बाहरके भागमें कठोर, लाल, और फैला हुआसा हो और भीतर हलका हो, तथा चिकना, सुफेद और लालवर्णयुक्त हो और बहुतही थोडी पीडावाला हो, जिसमें अल्पखुजली उठती हो एवम् दाह, राध और लसीका इन करके युक्त हो और बहुत छोटेपनसे प्रगट होना और फटना यह लक्षण हों, कृमियुक्त हो घीयाके फूलके समान वर्णवाला हो उसको सिध्मकुष्ठ कहतेहैं॥१५॥
**काकणक कुष्ठके लक्षण। **
**काकणन्तिकावर्णान्यादौ पश्चात्सर्वकुष्ठलिङ्गसमन्वितानि पापीयसां सर्वकुष्ठलिङ्गसम्भवेनानेकवर्णानि काकणकानीतिविद्यात् १६॥ **
काकणनामक कुष्ठ—पहिले रक्तकके समान वर्णवाले होते हैं, फिर संपूर्ण कुष्ठोंके लक्षणोसे युक्त होजाते है। पापीजनोंके शरीर में यह कुष्ठ होकर सब कुष्ठोंके लक्षणोंको धारण करते हैं तथा अनेक वर्णके होते हैं। इन अनेक लक्षणवाले कुष्ठोंके वर्ण, वेदनादियुक्त कुष्ठको काकणकुष्ठ कहते है॥१६॥
कुष्ठोंका साध्यासाध्य वर्णन।
तान्यसाध्यानि साध्यानि पुनरितराणि। तत्र यदसाध्यं तदसाध्यतां नातिवर्त्तते। साध्यं पुनः किञ्चित्साध्यतामतिवर्त्तते कदाचिदपचारात्॥१७॥
वह सब कुष्ठ साध्य और असाध्यके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। उनमेंकाकण असाध्य हैं और बाकी साध्य हैं। इनमें जो असाध्य है वह अपनी असाध्यताको नहीं छोडता जो साध्य है वह किसी प्रकार के कुपथ्य के होजानेसे असाध्यताको प्राप्त होजातेहैं ॥१७॥
साध्यानीह षट्काकणकवर्ज्यानि अचिकित्स्यमानानि अपचारतो वा दोषैरभिष्यन्दमानानि असाध्यतामुपयान्ति॥१८॥
इनमें काकणकि कुष्टके सिवाय बाकी छःकुष्ठ साध्य मानेगयेंहैं।परन्तु चिकित्साके दोषसे अथवा चिकित्सा न करनेसे या किसी अपचारके होजानेसे वृद्धि कें प्राप्त होकर फैलते हुए असाध्यताको प्राप्त होजातेहैं॥१८॥
उपेक्षितकुष्ठका फल।
साध्यानामपि ह्युपेक्षमाणानामेषां त्वङ्मांसशोणितलसीकाकोथक्लेदसंस्वेदजाः क्रिमयोऽभिमूर्च्छन्ति। ते भक्षयन्तोत्वगादीन् दोषान्पुनर्दूषयन्तः इमानुपद्रवान् पृथक् पृथगुत्थापयन्ति॥१९॥
साध्य कुष्ठोंमें भी शीघ्र यत्न न करनेसे त्वचा, मांस, रुधिर और लसीका इनसबके सडने और क्लेद तथा पसीने आदिसे कृमि उत्पन्न होजाते हैं। वह कृमि कुष्ठीकोहुए फिर त्वचा आदिकोंको दूषित करते हैं और नीचे लिखे हुए इन उपद्रवोको अलग २उत्पन्न करते हैं॥१९॥
प्रकुपितदोषोंके उपद्रव।
ततो वातः श्यावारुणपरुषवर्णतामपि च रौक्ष्यशूलशोथतोदवेयथुहर्षसङ्कोचायासस्तम्भसुप्तिभेदभङ्गान्। पित्तं पुनर्दाहस्वेदक्लेदकोथकण्डूस्रावपाकरागान्। श्लेष्मात्वस्य श्वैत्यशैत्यस्थैर्य्यकण्डूगौरवोत्सेधोपस्नेहोपलेपान्।क्रिमयस्त्वगादींश्चतुरः शिराःस्नायून्यस्थीन्यपि च तरुणानि खादन्ति॥२०॥
इन कुमियों से दूषित हुए त्वचा आदिकों में वायु कुपित होकर, कृष्णता, अरुणता,कठोरता, रूक्षता एवम् शूल, शोथ, तोद, कम्प, रोमहर्ष, संकोच, आयास, स्तब्धताशून्यता और भेदनकीसी पीडा तथा भग्नता इनको उत्पन्न करता है। कुपित हुआपित्त—दाह, स्वेद, क्लेद, सडन, खुजली, स्राव, पाक और लालवर्णता इनको उत्पन्नकरता है एवम् कफ कुपित होकर शीतता, स्थिरता, खाज, भारीपन कुष्ठमें ऊंचापन,चिकनाहट, उपलेप इनको प्रगट करताहै। और वह बढे हुए कृमि—त्वचा, मांस,रुधिर, लसीका, शिरा, स्नायु और पुष्टहड्डियोंको भी खाना आरम्भ करदेतेहैं॥२०॥
कुपितदोषों में उपद्रव।
अस्यामवस्थायामुपद्रवाः कुष्ठिनं स्पृशन्ति। तद्यथा—प्रस्रवणमङ्गभेदः पतनान्यङ्गावयवानां तृष्णाज्वरातीसारदाहदौर्बल्यारोचकाविपाकाश्च तद्विधमसाध्यं विद्यादिति॥२१॥
ऐसी अवस्था में कुष्ठीको वेउपद्रव दुःख देतेहैं। जैसे राधका स्राव अंगोंका भेदनरंगुली आदि अंगोंका गिरना, प्यास, ज्वर, अतिसार, दाह, दुर्बलता, अरुचि औरअन्नका न पचना इत्यादि असाध्य उपद्रव होजातेहैं॥२१॥
तत्र श्लोकाः।
साध्योऽयमिति यः पूर्वं नरो रोगमुपेक्षते।
स किञ्चित्कालमासाद्य मृत एवावबुध्यते॥२२॥
यहांपर श्लोकहैं। कि जो मनुष्य रोगको साध्य समझकर उसका यत्न नहीं करतेऔर यह कहते हैं कि अभी क्या है जब अवकाश मिलेगा तब यत्न कर लेंगे। ऐसेमनुष्य कुछ कालके अनन्तर मरे हुए ही दिखाई पड़ते है॥२२॥
यस्तु प्रागेव रोगेभ्यो रोगेषु तरुणेषु च।
भेषजं कुरुते सम्यक्सचिरं सुखमश्नुते॥२३॥
जो मनुष्य रोगोंसे प्रथम ही अथवा रोग होनेपर भी शीघ्र यत्न कर लेतेहैं वहशरीरके सुखको सुखपूर्वक भोगतेहै॥२३॥
यथा स्वल्पेन यत्नेन च्छिद्यते तरुणस्तरुः।
स एवातिप्रवृद्धस्तु न सुच्छेद्यतमो भवेत्॥२४॥
एवमेव विकारोऽपि तरुणः साध्यते सुखम्।
विवृद्धः साध्यते कृच्छ्रादसाध्यो वापि जायते॥२५॥
जैसे छोटासा वृक्ष साधारण यत्न करनेसे झट उखड सकता है और अधिक वडाहोजाने से उखाडना कठिन होजाताहै। उसी प्रकार रोग भी बल पानेके पहिले सुखपूर्वक निवृत्त होजाताहै। वही रोग वृद्धिको प्राप्त होनेसे कष्टसाध्य अथवा असाध्यहोजाताहै॥२४॥२५॥
संख्याद्रव्याणि दोषाश्च हेतवः पूर्वलक्षणम्।
रूपाण्युपद्रवाश्चोक्ताः कुष्ठानां कौष्टिके पृथक्॥२६॥
इति अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते कुष्ठनिदानं
नाम पञ्चमोऽध्यायः’’॥५॥
अब अध्यायका उपसंहार करतेहै। कि, इस कुष्ठनिदान नामक अध्याय में कुष्ठोंकीसंख्या, द्रव्य, दूष्यधातु, दोष, हेतु, पृर्वरूप, रूप, उपद्रव यह सब पृथक् २ कथनकियेहैं॥२६॥
‘इति श्रीमहर्षिचरकप्र० निदान० प० रामप्रसाद वैद्य० भाषाटीकायां
कुष्टनिदान नाम पञ्चमोऽध्यायः’’॥५॥
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षष्ठोऽध्यायः
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शोषनिदानम्।
अथातः शोषनिदानं व्याख्यास्याम इति ह स्माहभगवानात्रेयः।
अब हम शोषके निदानको व्याख्या करते हैं ऐसे भगवान् आत्रेयजी कथनकरनेलगे।
शोषों के आयतनों की संख्या।
इह खलु चत्वारि शोषस्यायतनानि। तद्यथा—
साहसं सन्धारणं क्षयो विषमाशनमिति॥१॥
इस शररिमें शोषरोग होनेके चार कारण होतेहैं। जैसे अपनी ताकतसे बढकरसाहस करना संधारण (मलमूत्रादि वेगोंको रोकना) धातुओंका क्षय होना औरविषमभोजन करना॥१॥
साहसका वर्णन।
तत्र यदुक्तं साहसं शोषस्यायतनमिति तदनु व्याख्यास्यामः। यदा पुरुषो दुर्बलो हि सन्बलवता सह विगृह्णाति अतिमहता वा धनुषा व्यायच्छति जल्पति वातिमात्रमतिमात्रं वा भारमुद्वहति अप्सुवा प्लवते चातिदूरमुत्सादनपदाघातने वातिप्रगाढमासेवते अतिप्रकृष्टं वाध्वानं द्रुतमभिपतति अभिहन्यते वान्यद्वा किञ्चिदेवंविधं विषममतिमात्रं वा व्यायामजातमारभते तस्यातिमात्रेण कर्मणा उरः क्षण्यते तस्य उरःक्षतमुपप्लवते वायुः।स तत्रावस्थितः श्लेष्माणमुरःस्थमुपसंगृह्य शोषयन्विहरत्यूर्द्धमधस्तिर्य्यक् च॥२॥
उनमें प्रथम साहस जो शोषका कारण कथन किया है उसकी व्याख्या करते हैं।जब दुर्बल मनुष्य बलवान् मनुष्यसे मल्लयुद्ध करता है अथवा बडे भारी धनुषकोअधिक बलसे खींचता है एवम् बहुत जोरसे बहुत बोलता है और अपनी सहनशक्तीसेबढकर भारको उठाताहै एवम् जलमें अधिक तैरता है। अत्यन्त बलपूर्वक अपनीछातीमें तैल आदिका मालिश कराता है अथवा लात आदिकी बलवान् चोट लगजानेसे या बहुत ज्यादे पैरोंको हिलाता है अथवा अत्यन्त कठिन मार्गमें बहुत भागता है।
इन कारणोंसे अथवा गिरपडनेसे, चोट आदि लगनेसे, विषम या अत्यन्त व्यायामकरनेसे एवम् अपनी शक्तिसे बढकर काम करनेसे, मनुष्यकी छाती (फुप्फुस हृदयआदिमें) घाव अथवा क्षीणता उत्पन्न होजाती है तब वायु कुपित होकर उस मनुष्य केशरीरमें उरक्षतरोगको उत्पन्न करता है। फिर वही वायु उर अर्थात् छातीमें स्थितहोकर छातीके कफको ग्रहण करके शोष रोगको प्रगट करताहै। और ऊपर, नीचेतथा तिरछा गमन करता हुआ शरीरकी धातुओको सुखा डालताहै॥२॥
वायुके कर्म।
योऽंशस्तस्य शरीरसन्धीन् आविशति तेन जृम्भाङ्गमर्दो ज्वरश्चोपजायते। यस्त्वामाशयमुपैति तेन रोगा भवन्ति उरस्या अरोचकश्च।यः कण्ठं प्रपद्यते कण्ठस्वनमुद्ध्वंसते स्वरश्चावसीदति यः प्राणवहानि स्त्रोतांस्येति तेन श्वासः प्रतिश्यायश्वोपजायते। यः शिरस्यवतिष्ठते शिरस्तेनोपहन्यते॥३॥
उसी वायुके जो अंश शरीरकी संधियों में प्रवेश करते हैं वह जंभाई, अंगमर्द औरज्वर इनको उत्पन्न करतेहैं। जो अंश आमाशय में प्राप्त होता है वह छातीके रोगोंकोतथा अरुचिको प्रगट करताहै। जो अंश कण्ठ में प्रवेश करता है वह कण्ठके शब्दकोतथा स्वरको बिगाड देता है। जो अंश प्राणवाहक स्रोतोंमे प्रवेश करता है उससे श्वासऔर प्रतिश्यायको उत्पन्न करताहै। जो अंश शिरमें प्रवेश करता है उससे शिरमें दर्दउत्पन्न होतीहै॥३॥
ततः क्षणनाच्चैवोरसो विषमगतित्वाच्च वायोः कण्ठस्योद्ध्वंसनात्कासः संजायते।कासप्रसङ्गादुरसि क्षते सशोणितंष्ठीवति शोणितागमाच्चास्य दौर्गन्ध्यमुपजायते एवमेते साहसप्रभवाः साहसिकमुपद्रवाः स्पृशन्ति॥४॥
इसके अनन्तर छातीके क्षरण होनेसे तथा वायुकी विषमगति होनेसे एवम् वायुद्वारा कण्ठके रुकजानेसे खांसी उत्पन्न होजाती है उस खांसीके सबसे छातीकेघावों का रक्त थूकमें आनेलगजाता है। उस रक्तके निकलनेसे मुखसे दुर्गंध आने,लगजाती है । इस प्रकार यह साहससे उत्पन्न हुए उपद्रव अधिक साहस करनेवालेमनुष्यको घेर लेतेहैं॥४॥
शोषमें उपदेश।
ततः सोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैः शनैरुपशुष्यति। त
** स्मात्पुरुषोमतिमान्बलमात्मनः समीक्ष्यतदनुरूपाणिकर्माण्यारभेतकर्त्तुम्। बलसमाधानंहिशरीरंशरीरमूलश्चपुरुषइति॥५॥**
फिर वह मनुष्य इन शोषणकर्त्ता उपद्रवों द्वारा पीडित हुआ धीरे धीरे सूखजाताहै। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको अपने बलकी परीक्षा करके उसके अनुरूप कर्मोंको ही आरम्भ करना चाहिये। क्योंकि बल ही शरीरका आश्रय है और मनुष्यका जीवन शरीरके आधीन होताहै॥५॥
तत्रश्लोकः।
साहसंवर्जयेत्कर्मरक्षन्जीवितमात्मनः।
जीवन्हिपुरुषस्त्विष्टंकर्मणःफलमश्नुते॥६॥
यहां एक श्लोक है कि बुद्धिमान् मनुष्य अपने जीवनकी रक्षा करता हुआ बहुतसाहसके कर्मको त्याग देवे क्योंकि पुरुषोके वांछित कर्मोका फल जीवन ही होताहैअर्थात् संपूर्ण सुखोंका मूल जीवन है उस जीवनके रहनेपर ही मनुष्य अपने शुभकर्मोका फल भोग सकताहै ॥ ६ ॥
दूसरा कारण संधारण—शोषका कारण कथन कियाहै सो उसकी व्याख्या करते हैं।
सन्धारणजन्य शोषका वर्णन।
सन्धारणंशोषस्यायतनमिति यदुक्तंतदनुव्याख्यास्यामः। यदा पुरुषो राजसमीपे भर्तृसमीपे वा गुरोर्वा पादमूलेद्यूतसभांसभाजयन्स्त्रीमध्यंवानुप्रविश्ययानैर्वाप्युच्चावचैर्गच्छन्भयात्प्रसंगाद्धीमत्वाद्घृणित्वाद्वानिरुणद्ध्यागतानिवातमूत्रपुर्राषाणि तस्य ससन्धारणाद्वायुप्रकोपमापद्यते॥७॥
जब पुरुष राजाके समीप अथवा मालिकके समीप या गुरू आदिकोंके चरणोंकेसमीप अथवा जूआ आदि किसी खेलमें बैठे हुए या किसी सभामें एवम् स्त्रियोंमेंवैठकर या किसी ऊंची नीची सवारी आदिमें चलते हुए अथवा भयसे या किसीऔर प्रसंगसे या उपरोक्त सभा आदिकोंमे लज्जाके मारे अथवा घृणासे वात,मूत्र, पुरीषआदिक वेगोंको रोक लेता है तो उसके शरीरमें वायु कोपको प्राप्तहोजाता है॥७॥
** सप्रकुपितः पित्तश्लेष्माणौसमुदीर्य्योर्द्धमधस्तिर्य्यक्चावहरति ततश्चांश विशेषेणपूर्ववच्छरीरावयवविशेषंप्रविश्यशूलंजनयति**
भिनत्तिपुरीषमुच्छोषयतिवा, पार्श्वेचाभिरुजतिगृह्णात्यं सौकण्ठमुरश्चावधमतिशिरश्चोपहन्ति, कासं श्वासं ज्वरं स्वरभेदं प्रतिश्यायञ्चोपजनयति॥८॥
फिर वह कुपित हुआ वायु पित्त और कफको उठाकर पूर्वोक्त क्रमसे ऊपर, नीचे,तिरछा तथा भिन्न २ अंशोंसे शरीरके भिन्न २ भागोंमें प्रवेश करके पीडाको उत्पन्नकरताहै। और मलको पतला करके निकालता है अथवा सुखादेताहै। दोनों पार्श्वभागोमे शूलको करताहै एवम् अंशनामक कंधोसे ऊपरके स्थानमें ( हंसलीमें ) पीडाकोकरताहै एवम् छातीमे पीडा उत्पन्न करता है। शिरमें दर्दको करताहै और कण्ठकोपीडायुक्त बनाता है तथा खांसी, श्वास, ज्वर, स्वरभेद, प्रतिश्याय इनको उत्पन्नकर देताहै॥ ८॥
** ततः सोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैः शनैरुपशुष्यति। तस्मात्पुरुषोमतिमानात्मनः शरीरेष्वेवयोगक्षेमकरेषु प्रयतेतविशेषेणशरीरं ह्यस्यमूलं शरीरमूलश्च पुरुष इति॥९॥**
फिर वह इन शोषणकर्त्ता उपद्रवोंद्वारा धीरे धीरे शरीरकी सव धातुओंको सुखाडालताहै। इस लिये बुद्धिमान् मनुष्यको अपने शरीरके योग और क्षेमकी इच्छाकरते हुए मल मूत्रादि वेगोको नहीं रोकना चाहिये। क्योंकि शरीरके आधार ही पुरुषका जीवन है इसलिये शरीरकी रक्षा करना सबसे मुख्य धर्म है॥९॥
तत्रश्लोकः।
सर्वमन्यत्परित्यज्यशरीरमनुपालयेत्।
तदभावेहिभावानांसर्वाभावःशरीरिणामिति॥१०॥
यहांपर एक श्लोक कहा है—कि अन्य सव आडम्बरोंको छोडकर शरीरको हीपालन करना चाहिये क्योंकि शरीरके नष्ट होनेसे संपूर्ण सम्पत्तियोंका भी अभावहोजाताहै॥१०॥
क्षयशोषका वर्णन।
** क्षयः शोषस्यायतनमितियदुक्तंतदनुव्याख्यास्यामः! यदा पुरुषोतिमात्रंशोकचिन्तापरीतहृदयो भवति, ईर्षोत्कण्ठाभयधादिभिर्वासमाविश्यते, कृशोवासन्रूक्षान्नपानसेवी भवति, दुर्बलप्रकृतिरनाहारोऽल्पाहरोवा आस्तेतदातस्य हृदयस्थायी**
रसःक्षयमुपैति। सतस्योपक्षयत्सिंशोषं प्राप्नोति अप्रतीकारांच्चानुबध्यते यक्ष्मणायथोपदेक्ष्यमाणरूपेण॥११॥
तीसरा जो शोषरोगका कारण क्षय कथन कियाहै अब उसकी व्याख्या करतेहैं।जबमनुष्यके हृदयको अत्यन्त शोक एवम् चिंता घेर लेतेहैं अथवा-ईर्षा, उत्कंठा,भय, क्रोध इनकी अत्यन्ततासे घिर जाता है अथवा अत्यन्त कृश होनेपर भी रूक्षअन्नपानोंका सेवन करताहै एवम् दुर्बल शरीवाला लंघन-अथवा बहुत-थोडा आहारकरताहै तब इसके हृदयमें रहनेवाला रस क्षय होजाता है। उसके क्षय होनेसे मनुष्यकेसब धातु सूख जाते हैं। इसका शीघ्र यत्न न करनेसे आगे कहा हुआ यक्ष्मारोगउत्पन्न होजाता है॥११॥
यक्ष्माहोने की रीति।
यदा पुरुषोऽतिहर्षात्प्रसक्तभावः स्त्रीषु अतिप्रसङ्गमारभतेतस्यातिप्रसङ्गाद्रेतः क्षयमुपैतिक्षयमपिचोपगच्छतिरेतसियदिमनः स्त्रीभ्योनैवास्य निवर्त्तते अतिप्रवर्त्तते एव तस्यातिप्रणीतसङ्कल्पस्य मैथुनमापद्यमानस्य शुक्रंनप्रवर्त्तते अतिमात्रोपक्षीणत्वात्। अथास्य वायुर्व्यायच्छमानस्यैवधमनीरनुप्रविश्यशोणितवाहिनीस्ताभ्यः शोणितंप्रच्यावयतितच्छुक्रक्षयाच्छुक मार्गेणशोणितप्रवर्त्ततेवातानुसृतलिंगम् ॥ १२ ॥
जव मनुष्य अत्यंत हर्षसे आसक्त होकर अधिक मैथुन करता है। उस अधिकमैथुन करनेसे उसका वीर्य क्षय होजाता है। वीर्य के क्षय होनेपर भी जिसका चित्तस्त्री संगसे निवृत्त नहीं होता बल्कि और भी अधिक प्रवृत्ति होती जाती है। इस प्रकार’स्त्री संसर्ग में अधिक प्रवृत्ति होनेसे वीर्यका क्षय होकर पुनः मैथुन करनेपर भी वीर्यकेन रहनेसे वीर्यकी प्रवृत्ति नहीं होती क्योंकि वह अत्यन्त क्षीणताको प्राप्त हो लेताहैऐसा करनेसे फिर उसके शरीरमें वायु प्रवेश हो धमनीय नसोंके बीचमें प्रवेश करकेरक्तवाहिनी नसोंमेंसे रक्तको लेकर वीर्यके मार्गसे वीर्यके क्षय होनेके अनन्तर उसरक्तको निकालता है। और वायु उस रक्तके साथ मिलजाता है ॥ १२ ॥
अथास्य शुक्रक्षयाच्छोणितप्रवर्तनाच्चसन्धयः शिथिली भवन्ति।रौक्ष्यमुपजायते। भूयः शरीरेदौर्बल्यमाविशतिवायुः प्रकोपमापद्यते। सप्रकुपितोऽवशकंशरीरमनुसर्पन्परिशोषयतिमांसशोणि-
ते प्रच्यावयति श्लेष्मपित्तेसंरुजतिपार्श्वेचावगृह्णात्यंसौकण्ठसुद्ध्वं सयतिशिरश्लेष्माणमुपक्लिश्य प्रतिपूरयतिश्लेष्मणासन्धींश्च प्रपीडयन्करोत्यङ्गमर्दमरोचकाविपाकौचपित्तश्लेष्मोत्क्लेशात्प्रतिलोमगत्वाच्चवायुर्ज्वरंकासं स्वरभेदं प्रतिश्याञ्चोपजनयति॥१३॥
** **फिर उस मनुष्यके वीर्यके क्षीण होनेसे और रक्तकी प्रवृत्ति होनेसे संधिये शिथिलहोजातीहैं तथा शरीर में रुक्षता उत्पन्न होजाती है। और शरीर दुर्बलताकोप्राप्त होजाताहै। शरीरमें वायुका कोप होजाता है। वह कुपित हुआ वायु उस दुर्बलशरीरमें इधर उधर फिरता हुआ मांस और रुधिरको सुखा देताहै एवम् कफ औरपित्तको निकालता है। दोनों पसवाडों में तथा दोनो अंशों में और कण्ठमें पीड़ाकोउत्पन्न करताहै। एवम् शिरको पीडन करता है और कफको बिगाडकर मस्तकमेंपूरित करताहै। संधियों में पीडा उत्पन्न करता है एवम् अरोचकता, अंगमर्द, अविपाकइनको उत्पन्न करताहै। पित्त और कफके उत्क्लेशसे वायुकी गति प्रतिलोम होनेसे ज्वर, खांसी, स्वरभंग, प्रतिश्याय इनको प्रगट करताहै॥१३॥
वीर्यकी रक्षामें उपदेश।
ततः सोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैः शनैरुपशुष्यति। तस्मात्पुरुषो मतिमानात्मनः शरीरमनुरक्षञ्शुक्रमनुरक्षेत्। पराह्येषाफलनिर्वृत्तिराहारस्येति॥१४॥
फिर वह मनुष्य इन शोषणकारक उपंद्रवो द्वारा पीडित हुआ धीरेधीरे सूख जाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको शरीरकी रक्षाके लिये वीर्यकी भी रक्षा करनी चाहिये। क्योंकि वीर्य शरीरमें आहार द्रव्योका सर्वोत्तम और अन्तिम फल होताहै॥१४॥
तत्रश्लोकः।
आहारस्य परं धामशुक्रं तद्रक्ष्यमात्मनः।
क्षयेह्यस्य बहून्रोगान्मरणं वानियच्छति॥१५॥
यहांपर एक श्लोक कहाहै कि भोजनका परमधाम शुक्र है इसलिये उस शुक्र (वीर्य) की रक्षा करनी चाहिये। क्योंकि उसके क्षय होनेसे अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं अथवा मनुष्य मृत्युको प्राप्त होजाताहै॥१५॥
विषमाशनका वर्णन।
विषमाशनशोषस्यायतनमिति यदुक्तं तदनुव्याख्यास्यामः। यदापुरुषः पानाशनभक्ष्यलेह्योपयोगान्प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपशयविषमानासेवतेतदातस्य वातपिचश्लेमाणोवैषम्यमापद्यन्ते। ते विषमाः शरीरमनुपसृत्य यदास्रोतसांमुखानिप्रतिवार्य्यवतिष्ठन्तेतदाजन्तुर्यदाहारजातमाहरतितदस्य मूत्रपुरीषमेवोपचीयते भूयिष्ठम्, नान्यस्तथाशरीरधातुः सपुरीषोपष्टम्भाद्वर्त्तयति॥१६॥
विषमाशन जो चौथा कारण कहाहै। अब उसकी व्याख्या करतेहैं। जब मनुष्य पान,अशन, भक्ष्य, लेह्य इन चार प्रकारके पदार्थोंको कारण, करण, संयोग, राशि, देश,काल, भोजन प्रकार एवम् सात्म्य इन आठ प्रकारके भोजनके स्थानों अर्थात् विधानोंको त्यागकर विषमरीतिसे सेवन करता है तब उसके शरीर में वात, पित्त,कंफ यह तीनों दोष विषमताको प्राप्त हो जाते हैं। वह तीनों दोष विषमताको प्राप्तःहुए शरीरके आश्रयीभूत स्रोतोंके मुखो को ढककर स्थित होते हैं। फिर यह मनुष्यजो २ पदार्थ खाताहै उससे मल और मूत्रकी ही वृद्धि होतीहैं और अन्य शरीरकेधातुओंकी वृद्धि नहीं होती और धातुएं क्षीण होकर केवल मलही अधिक निकलताजाताहै॥१६॥
तस्माच्छुष्यतो विशेषेणपुरीषमनुरक्ष्यम्, तथा सर्वेषामत्यर्थकृशदुर्बलानाम्। तस्यानाप्याय्यमानस्य विषमाशनोपचितादोषाःपृथक्पृथगुपद्रवैर्युञ्जतो भूयःशरीरमुपशोषयन्ति॥१७॥
क्योंकि मलकी अधिक प्रवृत्ति होनेसे शरीर स्थिर नहीं रह सकता। इसलियेसंपूर्ण कृश और दुर्बल मनुष्यके मलकी रक्षा करनी चाहिये। उस विषमाशनकरनेवाले मनुष्य के शरीर में मलकी रक्षा न करनेसे और अन्य धातुओंको पुष्ट करनेकाउपाय न करनेसे वह वातादि दोष फिर अलग २ उपद्रवोंको करतेहुए शरीर मेंशोषरोग उत्पन्न करतेहैं॥१७॥
तत्र वातः शूलमङ्गमर्दं कण्ठोद्धंसनं पार्श्वसंरोजनमं सावमर्दनस्वरभेदं प्रतिश्यायञ्चोपजनयति। पित्तंपुनर्ज्वरमतीसारंसान्तर्दाहञ्च श्लेष्माप्रतिश्यायं शिरसो गुरुत्वं कासमरोचकञ्च॥१८॥
उनमें वायु कोपको प्राप्त होकर शूल, अंगमर्द, कण्ठका बैठना, दोनो पार्श्वों मेंपीडा, मांसका क्षय होना, स्वरभङ्गऔर प्रतिश्यायको उत्पन्न करताहै। एवम् पित्तकुपित होकर ज्वर, अतिसार और देहमें अंतर्दाह इनको उत्पन्न करता है तथा कफकुपित होकर प्रतिश्याय, शिरका भारीपन, खांसी और अरुचिको उत्पन्न करताहै॥१८॥
स कासप्रसङ्गादुरसि क्षते शोणितं ष्ठीवति। शोणितगमनाच्चास्य दौर्बल्यमुपजायते। एवमेते विषमाशनोपचिता दोषाराजयक्ष्माणमभिनिर्वर्त्तयन्ति॥१९॥
फिर खांसी होनेके कारण छातीमें घाव उत्पन्न होकर रक्त थूकमे आनेलगता है।उस रक्तके निकलनेसे मनुष्य के शरीर में दुर्बलता उत्पन्न होजातीहै। इस प्रकार विषमाशनसे संचित हुए दोष राजयक्ष्माको प्रकट करते हैं॥१९॥
विषमाशनशोषमें कर्तव्यता।
सतैरुपशोषणैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैः शनैरुपशुष्यति। तस्मात्पुरुषोमतिमान् प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपशयादविषमाहारमाहरेदिति॥२०॥
फिर वह मनुष्य उन शोषणकर्त्ता उपद्रवो द्वारा धीरे २ सूख जाता है। इसलियेबुद्धिमान् मनुष्यको प्रकृति, करण, संयोग, राशि, देश, काल, उपयोग संस्था, एवम् उपशय इनसे अविपरीत अर्थात् इनके अनुकूल भोजन करनाचाहिये॥२०॥
तत्र श्लोकः।
हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः। पश्यन्रोगान् बहून् कष्टान् बुद्धिमान् विषमाशनादिति॥२१॥
यहांपर एक श्लोक है कि बुद्धिमान् मनुष्यको हितभोजी, मितभोजी, कालभोजीएवम् जितेन्द्रिय होनाचाहिये। क्योंकि विषमाशनसे अनेक प्रकारके कष्ट उत्पन्नहोते हैं॥२१॥
राजयक्ष्मानामका कारण।
** एतैश्चतुर्भिः शोषस्यायतनैरभ्युपसोवितैर्वातपित्तश्लेष्माण एवप्रकोपमाद्यन्ते। ते प्रकुपितानानाविधैरुपद्रवैः शरीरमुपशोषयन्ति। तं सर्वरोगाणां कष्टतमंमत्वा राजयक्ष्माणमाच-**
क्षते भिषजः। यस्माद्वा पूर्वमासीद्भगवतः सोमस्योडुराजस्यतस्माद्राजयक्ष्मेति॥२२॥
इस प्रकार इन चार शोषरोगके कारणोंको सेवन करनेसे वात, पित्त, कफ यहतीनों कोपको प्राप्त होतेहैं। वह कोपको प्राप्त हुए अनेक प्रकारके उपद्रवों द्वाराशरीरको सुखा देते हैं। इसलिये सव रोगोमें कष्टतम इस रोगको जानकर वैद्यलोगराजयक्ष्मा कहतेहैं। अथवा तारागणोंके पति भगवान् चन्द्रमाके शरीरमें यह रोगपहिले हुआ था इसलिये भी इस शोपरोगको राजयक्ष्मा कहते हैं॥२२॥
राजयक्ष्माके पूर्वरूप।
तस्येमानिपूर्वरूपाणि। तद्यथा—प्रतिश्यायः क्षवथुरभीक्ष्णंश्लेष्मप्रसेको मुखमाधुर्य्यमनन्नाभिलाषोऽन्नकालेचायासोदोषदर्शनमदोषदर्शनमदोषेष्वल्पदोषेषु वाभावेषु पात्रोदकान्नसूपापूपोपदंशपरिवेशकेषु भुक्तवतोहृल्लासस्तथोल्लेखनमाहारस्यान्तरान्तरामुखपादस्य शोषः पाण्योरवेक्षणमत्यर्थमक्ष्णोः श्वेततावाह्वोः प्रमाणजिज्ञासास्त्रीकामतातिघृणित्वं बीभत्सदर्शनताचकाये स्वप्नेहि अभीक्ष्णं दर्शनमनुदकानामुदकस्थानां शून्यानाञ्च ग्रामनगरनिगमजनपदानां शुष्कदग्धभग्नानाञ्च वनानां कृकलासमयूरवानरशुकसर्पकाकोलूकादिभिः संस्पर्शनमधिरोहणं वा अश्वोष्ट्रखरवराहैर्यानञ्च केशास्थि भस्मतुषाङ्गारराशीनाञ्चाधिरोहणमितिशोषपूर्वरूपाणि भवन्ति॥२३॥
उस राजयक्ष्माके यह पूर्वरूप होतेहैं जैसे प्रतिश्याय छींक आना, निरन्तर कफगिरना, मुखमें मीठापन, अन्नकी इच्छा न होना, अन्नके समय थकावटसी मालुमदेना, दोषरहित वस्तुओं में भी दोषोका दिखाई देना अथवा थोडे दोषवाली वस्तुओं में भी अधिक दोषदिखाना और उनके सेवनसे अनिच्छा एवम् पात्र, जल, अन्न, दालपिष्ट पदार्थ, चटनी एवम् मसाले आदि युक्त पदार्थ इन सबमें अनिच्छा, भोजनकेपश्चात् सूखी छर्द होना और जो भोजन कियाहो उसका वमनमें निकलना, बीचबीचमें मुख और पैरोंका सूखना, हाथोंको नित्यप्रति देखने की इच्छा होना, नेत्र सफेदहोना, दोनों बाहोंके प्रमाण जाननेकी इच्छा होना एवम् स्त्रीकी कामना होना तथाअत्यन्त घृणा, देहमें भयंकरताका होना स्वप्न में तालाव, सरोवर, नदी आदि जला-
शयोंका जलरहित और सूखा हुआ देखना एवम् ग्राम नगर, रास्ता, देश इन सबकासूखे हुए अथवा दग्ध होते हुए एवम् टूटे फूटे दीखना तथा वनोको कटा हुआ देखनाएवम् त्रिफला, मोर, बंदर, तोता, सांप, कौआ, उल्लू इनका स्वप्न में स्पर्श करनाऔर घोडा, ऊंट, गधा, तथा सूअर युक्त सवारीमें बैठना और केश, अस्थि,भस्म, तुष, अंगार इनकी ढेरोंपर चढना ऐसा स्वप्नमें दीखना। यह सब शोषरोगकेपूर्वरूप है॥२३॥
राजयक्ष्माके रूप।
अत ऊर्द्धमेकादशरूपाणि। तद्यथा—शिरसःप्रतिपूरणं कासःश्वासः स्वरभेदः श्लेष्मणश्छर्द्दनं शोणितष्ठीवनं पार्श्वसंरोजनंअंसावमर्दोज्वरः अतीसारस्तथा अरोचक इति॥२४॥
अब शोषरोगके ग्यारह प्रकारके रूपोंका कथन करते हैं। जैसे, मस्तकका बहुतभारी होना अथवा पीडायुक्त होना। खांसी, स्वरभेद, कफका गिरना, श्वास, थूकमें,रुधिरका आना, पसलियोंमें पीडा तथा कंधोंमें पीडा, ज्वर, अतिसार औरअरुचि॥२४॥
तत्रापरिक्षीणमांसशोणितो बलवानजातारिष्टः सर्वैरपि शोषलिङ्गैरुपद्रुतः साध्यो ज्ञेयः॥२५॥
अबसाध्य असाध्यको कहते हैं। जिस मनुष्य के शरीरमें मांस और रक्त क्षीण न हुए हों और स्वयं बलवान् हो तथा मरणख्यापक लक्षण न हों वह शोषरोगी शोषरोगके लक्षणयुक्त होनेपर भी साध्य होता है॥२५॥
बलवर्णोपचयोपचितो हि सहिष्णत्वाद्व्याध्यौषधबलस्य कामं बहुलिङ्गोऽप्यल्पलिङ्ग एवमन्तव्यः॥२६॥
जो मनुष्य बल और वर्णसे युक्त हो एवम् व्याधि तथा औषधीके बलको सहनकरसकता हो ऐसे मनुष्यके शरीरमें राजयक्ष्माके संपूर्ण लक्षण मिलनेपर भी वहसाध्य होताहै॥२६॥
दुर्बलन्त्वतिक्षीणमांसशोणितमल्पलिंगमप्यजातारिष्टमपिबहुलिङ्गमेव विद्यादसहत्वाद्व्याध्यौषधबलस्य तं परिवर्जयेत्॥२७॥
यदि रोगी दुर्बल हो तथा उसके रक्त और मांस क्षीण होगये हो वह मनुष्य अरिष्टकारक सब लक्षण न होनेपर भी असाध्य जानना चाहिये। उसको व्याधि औरऔषधीका बल न सहन करनेवाला देखकर त्याग देना चाहिये॥२७॥
क्षणेनहिप्रादुर्भवन्त्यरिष्टानि। अन्यनिमित्तश्चारिष्टप्रादुर्भाव इति॥२८॥
इस प्रकार राजरोगमें क्षणमात्र में अरिष्टकारक सव लक्षण प्रगट होजाते हैं तथाअन्य कारणोंसे भी अरिष्टकारक लक्षण उत्पन्न होते हैं॥२८॥
तत्र श्लोकः।
समुत्थानञ्च लिङ्गञ्च यः शोषस्यावबुध्यते।
पूर्वरूपञ्च तत्त्वेन सराज्ञः कर्तुमर्हति॥२९॥
इति चरकसंहितायां निदानस्थाने शोषनिदानं समाप्तम्॥६॥
अब यहां अध्यायकी पूर्तिमें एक श्लोकहैं। शोषरोगके कारण, लक्षण औरपूर्वरूप इन सबको जो वैद्य विधिपूर्वक जानता है वही राजाओंकी (राजयक्ष्माकी) चिकित्सा करनेयोग्य है॥२९॥
इति श्रीमहर्षिचरक० निदान० प० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायां शोषरोगनिदान
नाम षष्टोऽध्याय॥ ६ ॥
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सप्तमोऽध्यायः।
अथोन्मादनिदानं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम उन्मादके निदानकी व्याख्या करते हैं। इस प्रकार भगवान आत्रेयजीकथन करनेलगे।
उन्मादके भेद।
** इह खलु पञ्च उन्मादाभवन्ति। तद्यथा—वातपित्तकफसन्निपातागन्तुनिमित्तास्तत्र दोषनिमित्ताश्चत्वारः॥१॥**
मनुष्य के शरीर में उन्माद रोग पांच प्रकारसे होताहै। वातसे, वित्तसे, कफसे, सन्निपातसे और आगन्तुक कारणोंसे॥१॥
उन्मादरोगी पुरुष।
पुरुषाणामेवं विधानां क्षिप्रमभिनिर्वर्त्तन्ते। तद्यथा—भीरूणामुपक्लिष्टसत्त्वानामुत्सन्नदोषाणाञ्चमलविकृतोपहितान्यनुचितानि आहारजातानि वैषम्ययुक्तेनोपयोगविधिनोपयुञ्जा-
नानातन्त्रप्रयोगं वा विषममाचरतामन्यां वा चेष्टां विषमांसमाचरतामत्युपक्षीणदेहानाञ्च व्याधिवेगसमुद्भ्रमितानामुपहतमनसांवाकामक्रोधलोभहर्षभयशोकचिन्तोद्वेगादिभिः पुनरभिघाताभ्याहतानां वा मनसि उपहतेबुद्धचप्रचलितायामभ्युदीर्णादोषाः प्रकुपिताहृदयमुपसृत्यमनोवहानिस्त्रोतांसि आवृत्यजनयंति उन्मादम्। उन्मादं पुनर्मनो बुद्धिसंज्ञाज्ञानस्मृतिभक्तिशीलचेष्टाचारविभ्रमं विद्यात्॥२॥
वह उन्माद रोग इस प्रकारके पुरुषोके शरीरमें शीघ्र उत्पन्न होतेहै। जो मनुष्यअधिक डरपोक हैं, जिनका सत्वगुण विगड गया हो, जिनके शरीरमें वात, पित्त,कफ यह अत्यन्त बढे हों। जिनके मल बिगडे हुए हों जिनके अनुचित आहारकेकरनेसे एवम् विषमभोजनके करनेसे तथा पूर्वोक्त विधिसे विपरीत रीतिपर भोजनकरनेसे अथवा विषम चेष्टाओंके करनेसे शरीरमें दोष कुपित हुए हों। जिस मनुष्यकाशरीर क्षीण होगया हो अथवा व्याधिके वेगसे व्याकुल हो, जिसका चित्त काम,क्रोध, लोभ, हर्प, भय शोक, चिन्ता और उद्वेग अन्य मद आदिसे व्याकुल होअथवा दिमाग आदि स्थानमें चोट लगी हो। ऐसे ऐसे कारणोंसे मनुष्यका मनउपहत होकर बुद्धि चलायमान होजातीहै। उस समय बढे हुए दोष कुपित होकरहृदय में प्रवेशकर मनके वहनेवाले छिद्रोंको रोककर उन्मादरोगको उत्पन्न करतेहै। उस उन्मादके होनेसे—मन,बुद्धि, संज्ञा ज्ञान, स्मृति भक्ति, शील, चेष्टा तथा आहारइन सबमें विभ्रम होजाताहै॥२॥
उन्मादके पूर्वरूप।
तस्येमानिपूर्वरूपाणि। तद्यथा शिरसः शून्यभावः चक्षुषोराकुलतास्वनः कर्णयोरुच्छ्वासस्याधिक्यमास्य संस्रवणमनन्नाभिलाषोऽरोचकाविपाकौहृदयग्रहोध्यानायाससम्मोहोद्वेगाश्चास्थानेसततंलोमहर्षोज्वरश्चाभीक्ष्णमुन्मत्तचित्तत्वमुदर्दितत्वमर्दिताकृतिकरणञ्चव्याधेः।स्वप्नेचदर्शनमभीक्ष्णंभ्रान्तचलितावस्थितानवस्थितानाञ्चरूपाणामप्रशस्तानाञ्चतिलपीडकचक्राधिरोहणंवातकुण्डलिकाभिश्चोन्मथनंनिमज्जनंकलुषाणामम्भ
सामावर्तेषु चक्षुषोश्चापसर्पणमिति दोषनिमित्तानामुन्मादानां पूर्वरूपाणि॥३॥
उस उन्माद रोगके यह पूर्वरूप होते हैं। जैसे—शिरका शून्य होजाना,नेत्रोंका व्याकुलहोना, कानों में शब्दकाहोना, ऊपरको श्वास लेनेकी अधिकता होना, मुखसे लालका बहना, अन्नसे द्वेष, अरुचि अविपाक, हृदयका रुकना, विना किसी कारणके ध्यानसालगा रहना, शरीरमें थकावट प्रतीत होना एवम् संभोह, उद्वेग, निरन्तर रोमोंकाखडा होना, ज्वर हरसमय उन्मत्त चित्त होना, उदर्दरोग होना, अर्दितवायुसे पीडितहुए मनुष्यकीसी आकृति बनाये रखना स्वप्नमें निरन्तर भूलेहुएसा। तथा चलितऔर अतिचंचल तथा अधिक भयानक रूपोंको देखना। अपने आपको तेलीकेकोल्हूपर चढेहुए देखना, वात कुण्डलिका ( मूत्रकी विमारी) रोगसे पीडित होना,बिगडे हुए जलोंके चक्रमें अपनेको डूबते हुए देखना, नेत्रोंका चलायमान होजाना यहसब उन्माद रोगके पूर्वरूप होते हैं॥३॥
उन्मादकी पहिचान।
ततोऽनन्तरमुन्मादाभिनिर्वृत्तिस्तत्रेदमुन्मादविज्ञानं भवतितद्यथा—परिर्पणक्षिभ्रुवामोष्ठांसहनुहस्तपादविक्षेपणमकस्मात् अनियतानाञ्च सततं गिरामुत्सर्गः फेनागमनमास्यात्स्मितहसितनृत्यगीतवादित्रादिप्रयोगाश्चास्थाने, वीणावंशशङ्खशम्यातालशब्दानुकरणम् असाम्ना। यानमयानैरलङ्करणमलङ्कारिकैद्रव्यैर्लोभोऽभ्यवहार्येष्वलब्धेषु। लब्धेषुचावमानस्तीव्रं मात्सर्य्यं कार्श्यं पारुष्यमुत्पिंण्डतारुणाक्षता वातोपशयविपर्य्यासादनुपशयिता चेति वातोन्मादलिङ्गानिभवन्ति॥४॥
उसके उपरान्त उन्मादरोग प्रगट होजाताहै सो उसके लक्षणविशेषोंका कथनकरते हैं। जैसे नेत्र और भौंका चलायमान होना, वह रोगी अकस्मात् होठ, कंधा,ठोडी, हाथ और पांव इनको हिलावे, सदैव अंटसंट वकवाद करे, मुखसे झाग गिरे।हर एक जगह विना ही किसी प्रसंगसे मुस्कुराना, हंसना, नाचना, गाना, मुख तथाहाथों से बाजे बजाना एवम् वीणा वांसुरी, शंख, सम्या, ताल, शब्द आदि मुखसेवाजे वंजाना अर्थात्, असंबद्धस्वर करना, कुत्ते, गधे, आदिकोंपर तथा लकडीपत्थर आदिपर सवारी करना एवम् लकडी, पत्थर, जूते आदिके आभूषण पहिनना
जो चीजें मिल न सके उनकेलिये इच्छा करना, मिलेहुए भोजनादिक पदार्थोकोअपमानित करना, बहुत मत्सरता, कृशता, कठोरपन यह सबहोना, नेत्रोंकोऊपरको चढायेरखना तथा नेत्रोका लालरंग होना, वातनाशक द्रव्यों से उपद्रवोंकाशान्त होना और वातकारक द्रव्योसे रोगका बढना यह लक्षण वातजनित उन्मादरोगके होते॥४॥
पित्तोन्मादके लक्षण।
अमर्षः क्रोधः संरम्भश्चास्थानेशस्त्रलोष्टकाष्ठमुष्टिभिरभिद्रवणंस्वेषां परेषां वा प्रच्छायशीतोदकान्नाभिलाषः सन्तापोऽतिवेलः। ताम्रहरितहारिद्रसंरब्धाक्षतापित्तोपशयविपर्य्यासादनुपशयिताचेतिपित्तोन्मादलिंगानि भवन्ति॥५॥
किसीकी वातको न सहना, क्रोध, गर्व, करना, बिना कारणके शस्त्र, मट्टीकाडला, लकडी लेकर अथवा मुक्की बांधकर किसीके पीछे दौडना, अपने और पराये मनुष्योंको मारना, शीतलछाया, शीतलजल शीतल अन्न इनकी अभिलाषा होना,शरीरमें अधिक संताप रहना, नेत्र ताम्रवर्णके अथवा हरे वा हल्दीके समान पीलेवर्णके हों तथा टेढे और विक्षिप्तसे दिखाईदें एवम् क्रोधयुक्त प्रतीत हों। पित्तनाशकद्रव्योंद्वारा शान्ति प्राप्त हो और पित्तकारक द्रव्योद्वारा रोगकी वृद्धि हो यह पित्तजनितउन्मादके लक्षण हैं॥५॥
कफोन्मादके लक्षण।
स्थानमेकदेशेतूष्णोम्भावोऽल्पशश्चं क्रमणं लालाशिंघाणकप्रस्रवणमनन्नाभिलाषोरहस्कामता बीभत्सत्वंशौचद्वेषःस्वल्पनिद्रताश्वयथुराननेशुक्लस्तिमितमलोपदिग्धाक्षताश्लेष्मोपशयविपर्य्यासादनुपशयिताचेतिश्लेष्मोन्मादलिङ्गानि भवन्ति॥६॥
किसी एक स्थानमें चुपचाप बैठे रहना, इधर उधर, बहुत थोडा फिरना, मुखसेलार और नाकसे मलका अधिक गिरना, अन्नमे रुचि न होना, एकान्तमें वैठेरहनेकी इच्छा होना शरीरकी आकृतिका भयानक होना, शुद्धता बुरी मालूम होना,थोडी २ नीदका आना, मुखपर सूजन होना और नेत्रों का श्वेत, गिलेगिले, मलयुक्तहोना। देहका गीलासा तथा मलयुक्त रहना कफकारक द्रव्योसे रोगका बढ़ना और कफनाशक द्रव्योंसे रोगका शान्त होना। यह लक्षण कफजनित उन्मा, दके हैं॥६॥
त्रिदोषलिङ्गसन्निपातेतसान्निपातिकं विद्यात्।
तमसाध्यमित्याचक्षतेकुशलाः॥७॥
वात, पित्त, कफ इन तीनों दोषोंके लक्षण एकसाथ मिलनेसे सन्निपातजानतउन्माद जानना। इस उन्मादको वैद्यलोग असाध्य कथन करते हैं॥७॥
साध्योंकी उपक्रमणविधि।
साध्यानान्तुत्रयाणां साधनानि भवन्ति। तद्यथा—स्नेहस्वेदवमनविरेचनास्थापनानुवासनोपशमननस्तः कर्मधूपधूमपानाञ्जनावपीडप्रघमनाभ्यङ्गप्रदेहपरिषेकानुलेपनवधबन्धनावरोधनवित्रासनविस्मापनविस्मारणापतर्पणशिराव्यधनानि॥८॥
सन्निपातके सिवाय और वातादि दोषोंसे उत्पन्न हुए तीन प्रकारके उन्माद साध्यहोतेहैं। सो उनके यत्नोंको कथन करते हैं। उनका क्रम यह है कि उन्माद रोगमेंवातादि दोष भेद विचारकर स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन,उपशमन नस्यकर्म, धूपन, धूम्रपान, अंजन और पीडन प्रधमन, अभ्यंग, प्रदेहपरिषेक, अनुलेपन, प्रहार, बंधन अवरोधन, वित्रासन विस्मयोत्पादन, विस्मारण,अपतर्पण, शिरावेधन यह सब उचित रीतिपर यत्न करना चाहिये॥८॥
भोजनविधानञ्च यथा स्वंयुक्तयायच्चान्यदपिकिञ्चिन्निदानविपरीतमौषधंकार्य्यं तत्स्यादिति॥९॥
तथा दोषके अनुसार युक्तिपूर्वक आहार विधिका सेवन कराना एवम् अन्य भीदोषको शान्त करनेवाले जो उपाय प्रतीत हों उनको करना चाहिये॥९॥
तत्र श्लोकः।
उन्मादान्दोषजान्साध्यान्साधयेद्भिषगुत्तमः।
अनेनविधियुक्तेनकर्मणायत्प्रकीर्त्तितमिति॥१०॥
यहां एक श्लोक है—कि वात, पित्त, कफसे उत्पन्न हुए उन्माद रोगोंको बुद्धिमान् वैद्य उपरोक्त विधि और क्रियाके अनुसार साधन करे अर्थात् साध्य उन्मादरोगोंकोशान्त करे॥१०॥
आगन्तुकउन्मादके लक्षण।
यस्तुदोषनिमित्तेभ्य उन्मादेभ्यः समुत्थानपूर्वरूपलिङ्गवेदनोपशयविशेषसमन्वितो भवति उन्मादस्तमागन्तुमाचक्षते॥११॥
जिस उन्माद रोग में वातादि दोषोंके लक्षणोंसे अन्य प्रकारके कारण, पूर्वरूपऔर रूप मिलते हों उसको आगन्तुज उन्मादरोग जानना॥११॥
आगन्तुउन्मादकी उत्पत्तिमें भिन्नमत।
केचित्पुनः पूर्वकृतंकर्माप्रशस्तमिच्छन्ति। तस्य निमित्तं प्रज्ञापराध एवेतिभगवान्पुनर्वसुरात्रेय उवाच॥१२॥ प्रज्ञापराधाद्धि अयं देवर्षिपितृगन्धर्वयक्षराक्षसपिशाचगुरुवृद्धसिद्धाचार्य्यपूज्यानवमत्याहितानि आचरति अन्यद्वाकिश्चित् कर्माप्रशस्तमारभते॥१३॥
कोई कहतेहैं कि पूर्वजन्मके कियेहुए पापही मनुष्य के उन्मादरोगके कारणहोतेहैं। भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! उन्मादरोगके उत्पन्न होनेमें बुद्धिका ही दोष है क्योंकि बुद्धिका दोष ही संसारमें देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व,यक्ष, राक्षस, पिशाच गुरु, वृद्ध, सिद्ध, आचार्य और पूज्योका अपमान कराकरउनसे अहित आचरण कराताहै तथा अन्य भी जो कुछ निदनीय कर्म हैं उनकेकरानेवाला होता है॥१२॥१३॥
आगन्तु उन्माद के पूर्वरूप।
** तमात्मनोपहतमुपघ्नन्तोदेवाः कुर्वन्त्युन्मत्तम्। तत्रदेवादिप्रकोपनिमित्तेनागन्तुकोन्मादेनपुरस्कृतस्य इमानि पूर्वरूपाणि। तद्यथा देवगोब्राह्मणतपस्विनां हिंसारुचित्वं कोपनत्वं नृशंसाभिप्रायता अरतिरोजोवर्णच्छायाबलवपुषाञ्चोपतप्तिः। स्वप्नेचदेवादिभिरभिभर्त्सनं प्रवर्त्तनञ्चेति आगन्तुनिमित्तस्य उन्मादस्य पूर्वरूपाणि भवन्ति ततोऽनन्तरमुन्मादाभिनिर्वृत्तिः॥१४॥**
इसलिये क्रोधितहुए देवता उस हतबुद्धि मनुष्यके शरीरमें उन्मादरोगको उत्पन्नकरते हैं। सो उस देषादि प्रकोपसे उत्पन्न हुए उन्माद रोगके यह पूर्वरूप होतेहैं। जैसेदेवता, गौ, ब्राह्मण, तपस्वी इनको मारनेकी इच्छा होना तथा इनमें अरुचि होना एवम्इनपर क्रोध होना और निदनीय लज्जारहित कर्मोंके करनेकी इच्छा होना चित्तकाकहीं न लगना, ओज, वर्ण, कांति, बल इन सबका नष्ट होना, शरीरका तपायमानरहना, स्वप्ममें देवता आदि उसको बहुत डरावे और बुरे २ शब्द कहें। यह आगन्तुज उन्मादरोगके पूर्वरूपहैं। इसके उपरान्त उन्मादरोगके लक्षण प्रगट होजातेहैं ॥ १४॥
उन्मादोत्पत्तिसे पूर्वचेष्टा।
तत्रायमुन्मादकराणांभूतानामुन्मादयिष्यतामारम्भविशेषःतद्यथा—अवलोकयन्तोदेवाजनयन्ति उन्मादम्। गुरुवृद्धसिद्धर्षयोऽभिशपन्तःपितरोधर्षयन्तः। स्पृशन्तोगन्धर्वाः। समाविशन्तोयक्षराक्षसास्त्वामगन्धमाघ्रापयन्तः पिशाचाः पुनरधिरुह्य वाहयन्तः॥१५॥
आगन्तुक उन्माद प्रगट होनेके समय उन्मादकारक देवादिकोंके अलग २ प्रकारभेदसे उन्मादरोगका आरम्भ होताहै। जैसे—देवता देखनेमात्रसेही उन्माद रोगको सेउत्पन्न करतेहैं। गुरु, वृद्ध, सिद्ध और ऋषि इनके शाप देनेसे उन्माद रोग होताहै।पित्तरोंके डरानेसे उन्माद रोग होता है। गंधर्व शरीरको स्पर्शकर उन्मादको उत्पन्नकरतेहैं। यक्ष, राक्षस शरीरमें प्रवेश होकर उन्मादको उत्पन्न करतेहैं। पिशाच देहमें आमगंधको सूंघकर और शरीरके ऊपर चढकर उन्माद रोगको उत्पन्न करते हैं॥१५॥
उन्मादके रूप।
तस्येमानिरूपाणि। तद्यथा—अमर्त्यबलवीर्य्यपौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणज्ञानवचनविज्ञानानि अनियतश्चोन्मादकालः॥१६॥
उस उन्माद रोगके यह लक्षण होतेहैं। जो मनुष्योंमें न हों उस प्रकारके अर्थात् अमानुषीय—बल, वीर्य, पराक्रम, पौरुष, ज्ञान, और विज्ञान यह सब उस मनुष्यकेशरीरमें उन्मादके समय उत्पन्न हो जांय तथा उस उन्मादके होनेका कोई नियत समय न हो॥१६॥
आघातकाल।
उन्मादयिष्यतामपिखलुदेवर्षिपितृगन्धर्वयक्षराक्षसपिशाचानांगुरुवृद्धसिद्धानां वा एषु अन्तरेषु अभिगमनी याः पुरुषा भवन्तितद्यथा—पापस्य कर्मणः समारम्भेपूर्वकृतस्य वा कर्मणः परिणामकाले एकस्य वा शून्यगृहवासेचतुष्पथाधिष्ठानेवासन्ध्यावेलायामप्रयतभावेवापर्वसन्धिषु वा मिथुनभावेरजस्वलाभिगमनेचाविगुणेवाध्ययनवलिमङ्गलहोमप्रयोगेनियमव्रतब्रह्मचर्य्यभ-
ङ्गेवामहाहवेवादेशकुलपुरविनाशेवामहाग्रहोपगमने वा स्त्रियाःप्रजननकाले विविध भूताशुभाशुचिस्पर्शने वा वमनविरेचनरुधिरस्त्रावेवाशुचेरप्रयतस्य वा चैत्यदेवायतनाभिगमने वा मांस मधुतिलगुडमद्योच्छिष्टेवादिग्वाससिवानिशिनगरनिगमचतुष्पथोपवनश्मशानायतनाभिगमनेवाद्विजगुरुसुरपूज्याभिधर्षणेवा धर्माख्यानव्यतिक्रमेवा अन्यस्यकर्मणोऽप्रशस्तस्यारम्भे वा इत्याघातकालाः॥१७॥
उन्मादके करनेवाले देवता, ऋषि, पितृगण, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पिशाच इनकातथा गुरु, वृद्ध, सिद्ध इनका भी उन्मादके उत्पन्न करनेका समय होताहै अर्थात् यहसबभी मनुष्यमें किसी प्रकारका छिद्र पाकर ही उन्माद रोगको उत्पन्न करतेहैं।इनके कुपित होनेके यह समय होतेहैं। पापकर्म करनेसे अथवा पूर्वजन्मके कियेपापोके फलसे-शून्य घरमें अकेला देखकर चौराहेमेदोनो संध्याओंके समय, विनाकाम कही खाली बैठे हुए, पर्वके समय, अपवित्र समय, सैथुनके समय अथवारजस्वलासे गमन करनेके समय, या पर्व संधियों में स्त्रीगमनके समय, अथवा पढने, बलिदान करने एवम् मंगल तथा होम कर्म करनेके समय किसी प्रकारका उपद्रव करलेनेसे। नियम, व्रत और ब्रह्मचर्य इनमे किसी प्रकारकी विगुणता होजाने के समय,घोर युद्धमे अथवा देश, कुल और नगरके विनाशके समय या किसी ग्रहण आदि महाग्रहके आगमनके समय, स्त्रियांके मस्तकालके समय एवम् अनेक प्रकारके भूत तथाव्यपवित्र स्पर्शके समय व्यथवा वमन, तथा रुधिरके स्रावके समय एवम अपवित्रावस्थामें तथा वेसमय पीपल आदि देवताकें वृक्ष तथा देवमंदिरमें प्रवेश करनेसे अथवाउच्छिष्ट मांस, मधु, तिल, गुड, गद्य इनके सेवनसे बिलकुल नंगा रहनेके समय,रात्रिमं, रास्तेमें, चौराहेमें, आंधीमें एवम् श्मशानमें अकेला होनेके समय धर्मकीमर्यादाके बिगाडनेसे अथवा अन्य कोई निंदितकर्म करनेके समय उपरोक्त देवतादिआघात पाकर उन्माद रोगको उत्पन्न करते हैं॥१७॥
उन्मत्तताके तीन प्रयोजन।
त्रिविधन्तुखलुउन्मादकराणां भूतानामुन्मादनेप्रयोजनं भवति। तद्यथा—हिंसारतिरभ्यर्च्चनञ्चेति। तेषां तत्प्रयोजनमुन्मत्ताचरणविशेषलक्षणैर्विद्यात्। तत्रहिंसार्थमुन्मायमानोऽ
ग्निंप्रविशति अप्सुवानिमज्जतिस्थलात्श्वभ्रेवानिपतति। शस्त्रकशाकाष्ठलोष्टमुष्टिभिर्हन्त्यात्मानमन्यञ्च प्राणवधार्थमारभते। हिंसार्थिनमुन्मत्तमसाध्यंविद्यात्। साध्यौपुनवितरौ॥१८॥
उन्मादकारक देवताओंका उन्मादरोग उत्पन्न करनेमें तीन प्रकारका प्रयोजनहै।१ हिंसा २ अरति ३ अभ्यर्चन। इन तीनों प्रयोजनोंको उन्मत्त मनुष्यके आचरणोंसेजाना जासकताहै उनमें हिंसा अर्थात् मनुष्यके पापकर्मसे कुपित हुए देवादि जबउसके ( हिंसा-मारने ) के लिये उन्मादरोगको उत्पन्न करतेहैं तब वह मनुष्य अग्निमेंप्रवेश करे अथवा जलमें डूब मरे या ऊंचे स्थान से नीचे गिर पडे अथवा किसी गढेआदिमें गिरे एवम् शस्त्र, कशा, काष्ठ, पत्थर मुक्का, आदिसे अपने प्राणोंको नष्टकरनेमें लगे। इस प्रकार देवादिकोंसे हिंसाके लिये उन्मादित कियाहुआ मनुष्यअसाध्य होताहै। अरति और अभ्यर्चनाके लिये जो दो प्रकारके उन्मादरोग हैंउनको साध्य जानना॥१८॥
साध्योंका वर्णन।
तयोः साधनानि। मन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमव्रतप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनादीनि इति एवमेतेपञ्चोन्मादाव्याख्याता भवन्ति॥१९॥
उन साध्य उन्मादोंको साधन करनेके यह उपाय हैं। जैसे—मंत्र औषध, मणिमंगलकर्म, बलिदान, उपहार (भोजनादि देना) हवन, नियम, व्रत, प्रायश्चित्त,उपवास, स्वस्त्ययन (स्वस्तिवाचन आदि अथवा शान्तिकारक कर्म) प्रणिपातन(वंदना) एवम् देवयात्रादि कर्म आगन्तुज उन्माद रोगकी शान्तिके लिये करनाचाहिये। इस प्रकार पांच प्रकारके उन्मादका वर्णन कियागया है॥१९॥
उन्मादका द्विविधत्व।
ते तु खलु निजागन्तुविशेषेणसाध्यासाध्यविशेषेण च प्रविभज्यमानाः पञ्च सन्तो द्वौ एव भवतः॥२०॥
वह उन्मादरोग निज और आगन्तुज भेदसे पांच प्रकारके और साध्य असाध्यकेभेदसे दो प्रकारके होतेहै॥२०॥
** तौ परस्परमनुबध्नीतः। कदाचिद्यथोक्तहेतुसंसर्गाच्च तयोः संसृष्टमेव पूर्वरूपं भवति संसृष्टमेवलिङ्गञ्च। तत्र असाध्य-**
संयोगंसाध्यासाध्यसंयोगंवा असाध्यंविद्यात्। साध्यन्तुसाध्यसंयोगं तस्य साधनं साधनसंयोगमेव विद्यादिति॥२१॥
उन आगन्तुज और निज अर्थात् दोषज उन्मादोंका भी आपसमें संबन्ध होताहै।निज और आगन्तुज कारणोंका संसर्ग होनेसे पूर्वरूप में तथा लक्षणोमें भी संसर्गहोजाताहै। वह इस प्रकार निज और आगन्तुज उन्मादोका संसर्ग हुआ असाध्यताको प्राप्त होजाताहै एवम् साध्य और असाध्योका संसर्ग होना भी असाध्य हीजानना चाहिये। इस प्रकार मिलेजुले निज और आगन्तुज उन्मादोमें तथा साध्यऔर असाध्योमें चिकित्सा भी मिलीजुली करनी चाहिये॥२१॥
तत्र श्लोकाः।
नैव देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
न चान्ये स्वयमक्लिष्टमुपक्लिश्यन्ति मानवम्॥२२॥
जो मनुष्य अपने पाप तथा दोषोसे रहित होता है उसके शरीरमें कोई देवता,गंधर्व, पिशाच, राक्षस, आदि तथा अन्य भी कोई किसी प्रकारका उपद्रव नहींकरते॥२२॥
ये त्वेनमनुवर्त्तन्ते क्लिश्यमानं स्वकर्मणा।
न तन्निमित्तः क्लेशोऽसौ न ह्यस्तिकृतकृत्यता॥२३॥
जो मनुष्य अपने पापकर्मौसे कष्टको भोगते हुए देवता आदिको दोष देतेहैं औरअपने किये पापोंको अपने दुःखका कारण नहीं समझते वह संपूर्ण रूप से झूठेहैं औरअपने कार्यकी कृतकृत्यताको प्राप्त नहीं होते॥२३॥
प्रज्ञापराधात् सम्प्राप्से व्याधौ कर्मज आत्मनः। नाभिशंसेद्बुधोदेवान् न पितॄन् नापि राक्षसान्॥२४॥
अपनी बुद्धिसे अपराधसे किये हुए कुकर्मोंके फलसे संकट प्राप्त होनेपर बुद्धिमान मनुष्य देवता तथा पितृगण एवम् राक्षसादिकोंको दोष न देवे॥२४॥
आत्मानमेव मन्येत कर्त्तारं सुखदुःखयोः।
तस्माच्छ्रेयस्करं मार्गंप्रतिपद्येत नोत्रसेत्॥२५॥
बुद्धिमान्को उचित है कि अपनेको ही सुखदुःखका कारण माने।इसलिये कल्याण के करनेवाले मार्गपर, चलता रहे। ऐसा करनेसे मनुष्य त्रासको प्राप्तनहीं होता ॥ २५ ॥
देवादीनामुपचितिर्हितानामुपसेवनम्।
न च तेभ्यो विरोधश्च सर्वमायत्तमात्मनि॥२६॥
हित वस्तुओंका सेवन करना एवम् हित आचरण रखना यही देवतादिकोंकापूजन है क्योंकि देवताओंको प्रसन्न रखना तथा उनसे विरोध उत्पन्न करना यह सबअपनेही आधीन होता है॥२६॥
संख्यानिमित्तं द्विविधं लक्षणं साध्यता न च। उन्मादानांनिदानेऽस्मिन् क्रियासूत्रञ्च भाषितम् ॥ २७ ॥
इस उन्मादरोग निदान नामक अध्याय में उन्मादरोगकी संख्या, कारण, उनकेदोनों प्रकारोंके लक्षण, साध्यता और असाध्यता तथा संक्षेपसे उनकी चिकित्साकेक्रमका वर्णन किया है ॥ २७ ॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहिताया पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासि-
वैद्यपञ्चानन पं० रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकाया-
मुन्मादरोगनिदान नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
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अष्टमोऽध्यायः।
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अथापस्मारनिदानं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम अपस्मार रोगके निदानको कथन करतेहैं। इस प्रकार भगवान् आत्रेयजीकथन करनेलगे।
अपस्मारके भेद।
इह खलु चत्वारोऽपस्मारा वातपित्तकफसन्निपातनिमित्ताः॥१॥
इस शरीरमें अपस्माररोग चारप्रकारसे उत्पन्न होता है। जैसे वातसे, पित्तसे,कफसे एवम् सन्निपातसे॥१॥
अपस्मारके योग्यपुरुष।
** ते एवंविधानां प्राणभृतां क्षिप्रमभिनिर्वर्त्तन्ते। तद्यथा। रजस्तमोभ्यामुपहतचेतसामुढ्भ्रान्तविषमबहुदोषाणां समलविकृतोपहितानि अशुचीनि अभ्यवहारजातानि वैषम्य युक्तेनउपयोगविधिनोपयुञ्जानानांतन्त्रप्रयोगमपिचविषममाचरता-**
मन्याश्च शरीरचेष्टाविषमाः समाचरतामत्युपक्षीणदेहानां वा दोषाः प्रकुपिता रजस्तमोभ्यामुपहतचेतसामन्तरात्मनः श्रेष्ठतममायतनंहृदयमुपसंगृह्यपर्य्यवतिष्ठन्ते तथा इन्द्रियायतनानि तत्र चावस्थिताः सन्तोयदाहृदयमिन्द्रियायतनानि चेरिताः कामक्रोधभयलोभमोहहर्षशोकचिन्तोद्वेगादिभिः भूयः सहसा अभिपूरयन्ति तदा जन्तुरपस्मरति॥२॥
वह अपस्मार (मृगी) रोग ऐसे मनुष्योके शरीरमें शीघ्र होता है, जिनका नीचेकथन करते हैं। जैसे रजोगुण और तमोगुणसे ढकेहुए चित्तवाले। जिनके शरीर मेंवातादिदोष उद्भ्रान्त अथवा विषम, या बढेहुए हों। जो मनुष्य आहार विधिकोत्याग कर मलीन, बिगडाहुवा, गतरस, अपवित्र, ऐसे २ आहारको करता है। अथवाविषमभोजनको करता है। जो शास्त्रीयविधिके प्रतिकूल अन्यान्य आहारविहारोंकोकरता है। तथा अनेकप्रकारकी विषमचेष्ठा करनेवाले एवम् क्षीणदेहवाले। ऐसे२ मनुष्योंके शरीरमें वातादि दोष कुपितही अंतरात्माके श्रेष्ठस्थानरूप चित्तमें प्रवेश करते हैंऔर उस चित्तको रजोगुण और तमोगुणते उपहत (बिगाड) कर स्थितरहते हैं।फिर उस मनुष्यके काम, क्रोध, भय, लोभ, मोह, हर्ष, शोक, चिंता, और उद्वेगआदिसे सहायता पाकर हृदय और इंद्रियों के स्थानोंको सहसा पूरणकर अपस्माररोगको उत्पन्न करते हैं॥२॥
अपस्मारके लक्षण।
अपस्मारंपुनः स्मृतिबुद्धिसत्त्वसंप्लवाद्बीभत्सचेष्टमावस्थिकंतमःप्रवेशमाचक्षते॥३॥
स्मरणशक्ति बुद्धि, सत्व, यह सब नष्ट होकर भयानक चेष्टाकी अवस्थारूप अंधकारमें प्रवेश होनेको अपस्मार (मृगी) रोग कहतेहैं॥३॥
अपस्मारके पूर्वरूप।
तस्येमानिपूर्वरूपाणि भवन्ति। तद्यथा—भ्रूव्युदासः सततमक्ष्णोर्वैकृतमशब्दश्रवणंलालाशिंघाणकप्रस्रवणमनन्नाभ्यशनमरोचकाविपाकौहृदयग्रहः कुक्षेराटोपोदौर्बल्यमङ्गमर्द्दोमोहस्तमसोदर्शनं मूर्च्छाभ्रमश्चाभीक्ष्णञ्च स्वप्रेमदनर्त्तनपीडनवेपनव्य-
धनपतनादीनि अपस्मार पूर्वरूपाणि भवन्ति ततोऽनन्तरमपस्माराभिनिवृत्तिः॥४॥
उस अपस्माररोगके यह पूर्वरूप होते हैं। जैसे—दोनों भृकुटियोंका संकोच, नेत्रों कीनिरंतर विकृति (टेढ़ेसे रहना) कानोंमें शब्दसा सुनना, अथवा श्रवणशक्ति नष्टहोजाना, मुखसे लार वहना, नाकसे मैल गिरना, अन्नका न खाना, अरुचि, अविपाक,हृदयका रुकजाना, कुखका फूलना, दुर्बलता, अंगमर्द मोह अंधकार दर्शन, मूर्च्छा,भ्रम, सोते हुए मस्त होजाना, नाचना, दोनों हाथों को मींजना, कांपना, व्यथाकाप्राप्तहोना, और गिर पडना, यह अपस्माररोगके पूर्वरूप हैं। यह अपस्मार रोग के पूर्वरूप हैं। इसके अनंतर अपस्माररोग प्रगट होजाता है॥४॥
वातज अपस्मारके लक्षण।
तत्रेदमपस्मारविशेषविज्ञानं भवति। तद्यथा—अभीक्ष्णमपस्मरन्तं क्षणे क्षणे संज्ञां प्रतिलभमानमुत्पिण्डिताक्षमसाम्ना वाविलपन्तमुद्वमन्तं फेनमतीवाध्मातग्रीवमाविद्धशिरस्कं विषम विनतांगुलिमनवस्थित सक्थिपाणिपादमरुणपरुषश्यावनखनयनवदनत्वचमनवस्थित च पलपरुषरूक्षरूपदर्शिनं वातलानुपशयं विपरीतोपशयं वातेनापस्मारवन्तं विद्यात्॥५॥
अब अपस्मारके भेदोंके ज्ञानको कथन करतेहैं वह इस प्रकार हैं। जिस मनुष्यकोअपस्माररोग होताहो अथवा स्मरणशक्ति नष्ट होजाय और अपस्मार होनेके समयथोडी थोडी देरमें होश आजाताहो जिसके नेत्रकी पुतली सिकुडगईहो जो मनुष्यबकवाद करताहो एवम् मुखसे झाग निकालताहो तथा गर्दन फूली हुईसी हो, मस्तकरुका हुआसा हो हाथोकी अंगुलियें टेढी होगई हों तथा हाथपैर अनवस्थित हों एवम्नख, नेत्र, मुख और त्वचा यह सब लाल कठोर और काले होगयेहों, मन चलायमान हो सब वस्तुयें चपल, कठोर और रूक्ष दिखाई देंवें तथा वातकारक पदार्थोंसेरोगकी वृद्धि हो और वातनाशक पदार्थोंके सेवनसे शान्ति हो। यह सब लक्षण वातजनित अपस्मार में होते हैं॥५॥
पित्तज अपस्मार के लक्षण।
अभीक्ष्णमपस्मरन्तं क्षणे क्षणे संज्ञां प्रतिलभमानमनुकूजन्तमास्फालयन्तं च भूमिहारतहारिद्रताम्रनखनयनवदनत्वचं
रुधिरोक्षितोग्रभैरवप्रदीप्तरुषितरूपदर्शिनं पित्तलानुपशयं विपरीतोपशयं पित्तेनापस्मारितं विद्यात्॥६॥
पित्तके अपस्मारमें निरन्तर अपस्मार रोगका होना क्षण २ परहोश आजाना,कण्ठसे कील्हनेकासा शब्द करना, हाथपैरोंको इधर ऊधर भूमिमें पटकना, नेत्र,नख, मुख, त्वचा इन सबका वर्ण हरा, पीला तथा ताम्रवर्णका होना और उसमनुष्यको स्वप्नमें अथवा अपस्मार रोग होनेके समय रक्तसे भरेहुए उग्र, भयानकप्रकाशयुक्त, क्रोधित रूपोका देखना तथा पित्तकारक द्रव्योंसे रोगका वढना एवम्पित्तनाशक द्रव्योसे शान्त होना। यह सब लक्षण पित्तजनित अपस्मारमें होते हैं॥६॥
कफज अपस्मारके लक्षण।
चिरादपस्मरन्तं चिराच्चसंज्ञां प्रतिलभमानं पतन्तमनतिविकृतचेष्टंलालामुद्वमन्तं शुक्लनखनयनवदनत्व चंशुक्लागुरुस्निग्धरूपदर्शिनं श्लेष्मलानुपशयं विपरीतोपशयं श्लेष्मणापस्मारितं विद्यात्॥७॥
जिस अपस्माररागमें देरदरमें वेहोशी हो और देरमें ही संज्ञा प्राप्तहो पृथ्वीपरगिरते ही अत्यन्त विकृत चेष्टा न हो, मुखसे लार गिरतीहो, नख, नेत्र, मुख, त्वचायह सब सफेद हों, रोगके समय श्वेत और भारीरूप दिखाई देतेहो अथवा सबवस्तुयें सफेद और भारी दीखती हो कफकारक वस्तुओंसे रोगकी वृद्धि हो औरकफनाशक पदार्थासे शान्ति होतीहो। इन लक्षणोसे युक्त अपस्मारको कफजनितअपस्मार जानना॥७॥
सान्निपातिक अपस्मारके लक्षण।
समवेतसर्वलिंगमपस्मारं सान्निपातिकं विद्यात्। तमसाध्यमाचक्षते। इति चत्वारोऽपस्माराः। तेषामागन्तुरनुबन्धोभवत्येव।कदाचित्स उत्तरकालमुपदेक्ष्यते। तस्य विशेषविज्ञानं यथोक्तैलिङ्गैलिङ्गाधिक्यमदोषलिंगानुरूपं किञ्चिद्धितं तत्तु अपस्मारिभ्यस्तीक्ष्णानिचैवसंशोधनानि उपशमनानियथास्वंमन्त्रादीनिचागन्तुसंयोगे॥८॥
तीनों दोषोंके लक्षणोंयुक्त अपस्मारको सान्निपातिक जानना। सन्निपातके अपस्मारकोअसाध्य कथन करतेहैं। इस प्रकार अपस्मारके चार भेद होतेहैं। इन चारों प्रकारके अपस्मार
होनेमें कोई भी आगन्तुक कारण अवश्य होताहै। जिसका विषय चिकित्सा स्थान में कथन किया जायगा। उस आगन्तुज अपस्मारको अन्य अपस्मारोंके कथन किये हुएलक्षणोंसे विशेष लक्षणोंवाला तथा विशेषरूप से प्रगट होनेवाला और दोषोंके लक्षणोंसेविचित्र लक्षणोवाला होनेसे जान लेना चाहिये। कि यह आगन्तुज अपस्मारहै। इसप्रकार अपस्मारोंके लक्षणों को जानकर उनमें हित तथा तीक्ष्ण उपशमनों द्वारा चिकित्साकरनी चाहिये। आगन्तुज लक्षणके अनुबंध होनेपर मंत्रादिकोंसे शान्ति करनीचाहिये॥८॥
रोगोंकी उत्पत्ति।
तस्मिन्हिदक्षाध्वरोद्धंसेदेहिनांनानादिक्षुविद्रवतामतिसरणप्लवनलङ्घनाद्यैर्देहविक्षोभणैः पुरागुल्मोत्पत्तिरभूद्धविष्प्राशान्मेहकुष्टानां भयत्रासशोकैरुन्मादानां विविधभूताशुचिसंस्पर्शादपस्मांराणाम्॥९॥ ज्वरस्तुमहेश्वरललाटप्रभवः। तत्सन्तापाद्रक्तपित्तमतिव्यवायात् पुनर्नक्षत्रराजस्वराजयक्ष्मेति॥१०॥
उस दक्षयज्ञकेही नष्ट होनेके समय जब महादेवके भय से दशोदिशाओंमें यज्ञस्थमनुष्य भागने लगे और इधर उधर उछलना, कूदना आदि देहका विक्षेप करते हुएभागने लगे तब उनके शरीरमें पहिले गुल्म रोग उत्पन्न हुआ और उसी यज्ञमें अत्यन्तघृतके खानेसे प्रमेह और कुष्ठ रोगकी उत्पत्ति हुई तथा तप और उपवास एवम् शोकसे उन्मादोंकी उत्पत्ति हुई। उसी यज्ञके नष्ट होते समय भूत गणादिकोंकेस्पर्शसे अपस्माररोग पैदा हुआ। और महादेवके मस्तकसे ज्वर उत्पन्न हुआ। उसकेसंतापसे रक्तपित्त उत्पन्न हुआ। एवम् मैथुनके प्रभावसे चन्द्रमाके शरीरमें राजयक्ष्मापैदा हुआ॥९॥१०॥
तत्रश्लोकाः।
अपस्मरति वातेन पित्तेन च कफेन च।
चतुर्थः सन्निपातेन प्रत्याख्येयस्तथा विधः॥११॥
यहांपर श्लोक कहेंहैं—कि अपस्माररोग वातसे, पित्तसे, कफसे और सन्निपातसेइन चार भेदोंसे कहा गया है। इन अपस्मारोंमें सन्निपात जनित अपस्मार असाध्य हैतथा अन्य तीन प्रकारके अपस्मार साध्ये हैं॥११॥
साध्यांस्तु भिषजः प्राज्ञाः साधयन्तिसमाहिताः। तीक्ष्णैः संशोधनैश्चै वयथास्वंशमनैरपि॥१२॥ यदा दोषनिमित्तस्य भवत्यागन्तुरन्वयः। तदा साधारणं कर्मप्रवदन्तिभिषग्वराः॥१३॥
बुद्धिमान् वैद्यको चाहिये कि साध्य अपस्मारोको सावधान होकर तीक्ष्ण संशोधनोंद्वारा तथा उनमें जैसे उचित हों वैसे संशमनों द्वारा चिकित्सा करे। यदि उनदोषजनित अपस्मारोमें आगन्तुज कारणोका संबंध हो तो उस समय मंत्रादि साधारण कर्मोद्वारा शान्तिकरे॥१२॥१३॥
सर्वरोगविशेषज्ञः सर्वौषधविशेषवित्। भिषक्सर्वामयानहन्तिनचमोहंनियच्छति। इत्येतदखिलेनोक्तं निदानस्थानमुत्तमम्॥१४॥
जो वैद्य संपूर्ण रोगोको जानता है तथा संपूर्ण औषधियोके परिज्ञानयुक्त है वह वैद्यसंपूर्ण रोगोको नष्ट करता है और मोहको प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार संपूर्णतासेइस उत्तम निदानस्थानको कथन किया है॥१४॥
एकरोगसे अनेकरोगोंकी उत्पत्ति।
निदानार्थकरोरोगोरोगस्याप्युपलभ्यते। तद्यथाज्वरसन्तापाद्रक्तपित्तमुदीर्य्यते॥१५॥ रक्तपित्ताज्ज्वरस्ताभ्यांशोषश्चाप्युपजायते। प्लीहाभिवृद्ध्याजठरं जठराच्छोफ एव च॥१६॥
कोई रोग भी रोगके उत्पन्न करनेका हेतु होता है अर्थात् जैसे कारण रोगको उत्पन्नकरता है उसी प्रकार कोई रोग भी रोगको उत्पन्न करनेवाला होताहै। उसमें दृष्टान्तदेतेहैं। जैसे–ज्वरके अत्यन्त संतापसे रक्तपित्त उत्पन्न होजाताहै। रक्तपित्त औरज्वर–इन दोनोके होनेसे श्वास उत्पन्न होजाताहै। एवम् प्लीहाके बढनेसे–उदररोगउत्पन्न होता है। उदररोगसे सूजन उत्पन्न होजातीहै॥१५॥१६॥
अर्शोभ्योजठरं दुःखंगुल्मश्चाप्युपजायते। प्रतिश्यायादथोकासः कासात्संजायतेक्षयः। क्षयोरोगस्य हेतुत्वेशोषश्चाप्युपजायते॥१७॥
बवासीरसे–जठररोगकी तथा गुल्मरोगकी उत्पत्ति होतीहै। प्रतिश्यायसे–खांसीउत्पन्न होजातीहै। खासीके होनेसे क्षयरोग उत्पन्न होजाताहै। क्षेयरोगके कारण शोषरोग उत्पन्न होजाताहै॥१७॥
तेपूर्वं केवलारोगाः पश्चाद्धेत्वर्थकारिणः। उभयार्थकदृष्टास्तथैवैकार्थकारिणः॥१८॥ कश्चिद्धिरोगोरोगस्य हेतुर्भूत्वाप्रशाम्यति।नप्रशाम्यतिचाप्यन्योहेतुत्वं कुरुतेऽपि च॥१९॥
वह रोग पहिले तो स्वयं रोग होतेहैं फिर दूसरे रोगोंको उत्पन्न करनेके कारण बनजातेहैं। कोई रोग आप भी रहताहै तथा दूसरे रोगको भी उत्पन्न कर देताहै।कोई रोग एक ही अर्थके करनेवाला रहता है। जैसे–कोई रोग दूसरे रोगको उत्पन्नकरके स्वयम् शान्त होजाताहै और कोई रोग स्वयं भी रहताहै तथा दूसरेको भी उत्पन्नकर लेता है॥१८॥१९॥
एवं कृच्छ्रतमानॄणां दृश्यन्ते व्याधिसंकराः। प्रयोगापरिशुद्धत्वात् तथा चानोन्य सम्भवात् ॥२०॥ प्रयोगः शमयेद्व्याधिं योऽन्यमन्यमुदीरयेत्। नासौविशुद्धः शुद्धस्तुशमयेद्योनकोपयेत्॥२१॥
इस प्रकार मनुष्योंको कष्ट देनेवाले रोगोका व्याधिसंकर अर्थात् व्याधियोकामिलना जुलना होनेसे व्याधियें कष्टसाध्य होजातीहैं। एक रोगकी चिकित्सा करतेसमय दूसरे रोगका उत्पन्न होजाना इसमें चिकित्साके प्रयोगकी अविशुद्धता रोगकाकारण होतीहै। जो औषधी प्रयोग एक रोगको शान्त करे और दूसरेको उत्पन्नकरे उसको विशुद्धचिकित्सा नहीं कहते। जो चिकित्सा रोगको शान्त करे तथा अन्यव्याधियोंको भी होने न देवे उसको शुद्ध चिकित्सा कहतेहैं॥२०॥२१॥
रोगोंके हेतु ओंका वर्णन।
एको हेतुरनेकस्यतथैकस्यैक एव हि।
व्याधेरेकस्य चानेको बहूनां बहवोऽपिच॥२२॥
कहीं कहीं एकही कारण बहुतसे रोगोंको उत्पन्न करताहै। कहीं एक कारणएकहीको उत्पन्न करताहै। कहीं एक व्याधिके अनेक कारण होतेहैं और कहीं बहुतसीव्याधियोंके बहुतसे कारण भी होतेहैं॥२२॥
ज्वर भ्रमप्रलापाद्यादृश्यन्तेरूक्षहेतुजाः।
रुक्षेणै केन चाप्येकोज्वर एवोपजायते॥२३॥
जैसे ज्वर, भ्रम, प्रलाप आदिक यह सव रूक्षतासे उत्पन्न होतेहैं। कहीं अकेलीरूक्षतासे केवल ज्वर ही उत्पन्न होता है॥२३॥
हेतुभिर्बहुभिश्चैकोज्वरोरूक्षादिभिर्भवेत्।
रूक्षादिभिर्ज्वराद्याश्चव्याधयः सम्भवन्तिहि॥२४॥
कही रूक्ष आदिक बहुतसे हेतुओसे केवल एक ज्वर ही उत्पन्न होताहै। कही उन्हीं रूक्ष आदि बहुतसे हेतुओंसे ज्वर आदिक बहुतसे रोग भी उत्पन्न होजातेहै॥२४॥
रोगोंके लक्षणोंका वर्णन।
लिङ्गञ्चैकमनेकस्यतथैकस्यैकमुच्यते।
बहून्येकस्य च व्याधेर्बहूनां स्युर्बहूनिच ॥ २५ ॥
कही बहुतसे रोगोंका एक ही लक्षण होताहै। कही एक रोगका एकही लक्षणहोताहै। कही एक व्याधिके बहुत से लक्षण होतेहै कहीं बहुतसी व्याधियोंके बहुतसे लक्षण होते हैं॥२५॥
विषमारम्भमूलानांलिङ्गमेकंज्वरोमतः। ज्वरस्यैकस्यचाप्येकःसन्तापोलिङ्गमुच्यते॥२६॥ विषमारम्भमूलैश्च ज्वर एको निरुच्यते। लिङ्गैरेतैर्ज्वरश्वासहिक्काद्याः सन्तिचामयाः॥२७॥
जैसे बहुतसे विषमारंभ रोगोंका केवल एक ज्वर ही चिह्न दिखाई देता है। कहींकेवल ज्वरका एक संतापमात्र लक्षण दिखाई देताहै। कहीं बहुतसे विषमारंभ मूलकलक्षणोसे केवल ज्वरमात्र दिखाई देताहै। कहीं उन्ही लक्षणोंसे ज्वर, श्वास, हिचकीआदिरोग दिखाई देते हैं ॥२६॥२७॥
रोगोंकी शान्तिका वर्णन।
एकाशान्तिरनेकस्य तथैकैकस्य लक्ष्यते।
व्याधेरेकस्यचानेको बहूनां बह्व्य एव च॥२८॥
कही अनेक प्रकारके रोगोंकी एक ही प्रकारकी चिकित्साद्वारा शान्ति होजातीहै।कही एक प्रकारके रोग में एक ही प्रकारकी चिकित्सा करनी पड़ती है॥२८॥
शान्तिरामाशयोत्थानां व्याधीनां लंघनक्रिया।
ज्वरस्यैकस्यचाप्येकाशान्ति र्लंघनमुच्यते॥२९॥
जैसे आमाशयकी खराबीसे उत्पन्न हुए बहुतसे रोगोंकी शान्तिके लिये केवललंघन करनाही उन सबविकारोंकी शान्तिका एक ही उपाय है। उसी प्रकारज्वररूप एक व्याधिकी शान्तिके लिये केवल लंघन शान्ति कारक होताहै॥२९॥
तथा लघ्वशनाद्यैश्च ज्वरस्यैकस्यशान्तयः।
एताश्चैवज्वरश्वासहिक्कादीनांप्रशान्तयः॥३०॥
जैसे हलका भोजन आदि एकज्वरकी शान्तिके लिये अनेक उपाय शान्तिकारकहोतेहैं। वैसे ही ज्वर, श्वास, हिचकी आदि अनेक रोगोमें भी हलका भोजन आदिअनेक क्रियाद्वारा शान्ति होती है॥३०॥
सुखसाध्यः सुखोपायः कालेनाल्पेन साध्यते। साध्यते कृच्छ्रसाध्यस्तुयत्नेनमहताचिरात्॥३१॥ यातिनाशेषतां व्याधिरसाध्योयाप्यसंज्ञितः। परोऽसाध्यः क्रियाः सर्वाः प्रत्याख्येयोऽतिवर्त्तते॥३२॥
सुत्वसाध्यरोग साधारण उपाय करनेसे थोडे ही कालमें शान्त होजातेहैं। कष्टसाध्य रोग अत्यन्त यत्न करनेपर बहुत कालमें शान्त होतेहैं। याप्यसाध्यरोग यद्यपिउत्तम वैद्यके द्वारा चिकित्सा की जानेपर कुछ कालके लिये थोडी शान्ति रहतीहै।परन्तु वह रोग समूलनष्ट नहीं होता। असाध्यरोग सबप्रकारके चिकित्साओं द्वाराशान्त नहीं होसकता। इस लिये वह प्रत्याख्येय अर्थात् त्यागदेने योग्य होताहै।चिकित्सा करने योग्य नहीं होता॥३१॥३२॥
नासाध्यः साध्यतां याति साध्योयातित्वसाध्यताम्।
पादापचाराद्दैवाद्वायान्तिभावान्तरंगदाः॥३३॥
असाध्यरोग साध्य नहीं होसकते परन्तु साध्यरोगभी चिकित्सामें किसी प्रकारकाअन्तर पडनेसे असाध्य होजातेहैं। चिकित्साके पादचतुष्टयका अपचार होनेसे अथवादैवयोगसे व्याधियां भावान्तरको प्राप्त हो जातीहैं अर्थात् साध्य भी असाध्य होजातीहैं। (दैवयोगसे तो असाभ्योंका भी साध्य होना संभव है)॥३३॥
वैद्यको उपदेश।
वृद्धिस्थानक्षयावस्थादोषाणामुपलक्षयेत्। सुसूक्ष्मामपिचप्राज्ञोदेहाग्निवलचेतसाम्॥३४॥व्याध्यवस्थाविशेषान्हिज्ञात्वाज्ञात्वाविचक्षणः। तस्यां तस्यामवस्थायांतत्तच्छ्रेयः प्रपद्यते॥ ३५ ॥
वैद्यको उचित है कि दोषोंकी वृद्धि और क्षीणावस्थापर भले प्रकार ध्यान रक्खेऔर वह बुद्धिमान् वैद्य देहं, अग्नि, बल, तथा चित्तकी वृत्तिको बहुत सूक्ष्मविचारद्वारा परीक्षा करे। एवम् व्याधिकी अवस्था विशेषको जानकर जैसी जैसी अवस्थाएँ होवैसी वैसी चिकित्सा करनेसे चतुरवैद्य कल्याणको प्राप्त होता है॥३४॥३५॥
चिकित्साकी विधि।
प्रायस्तिर्य्यग्गतादोषाः क्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम्। तेषुनत्वरयाकुर्य्याद्देहाग्निबलविक्रियाम्॥३६॥ प्रयोगैः क्षपयेद्वातान्सुखं वा कोष्ठमानयेत्। ज्ञात्वा कोष्ठप्रपन्नां स्तान्यथास्वंतंहरेद्बुधः॥३७॥
दोष प्रायः तिर्यक्गामी होनेसे मनुष्यको बहुत कालतक कष्ट देतेहैं उनमें देह,अग्नि और बलकी परीक्षा करनेवाला वैद्य शीघ्रता न करे। ऐसे समयमें जब किदोष तिर्यक्गामी हो गये हो औषधी प्रयोगद्वारा उनको धीरे २ पकाकर कोष्ठ मेंले आवे। फिर जब वह कोष्ठमें आजांय तब उनको जो २ जिस प्रकार निकालनेयोग्य हों उस प्रकार निकाल डाले॥३६॥३७॥
ज्ञानार्थं यानि चोक्तानिव्याधिलिङ्गानिसंग्रहे। व्याधयस्तेतदात्वेतुलिङ्गानीष्टानिनामयाः॥३८॥ विकाराः प्रकृतिश्चैवद्वयं सर्वं समासतः। तद्धेतुवशगंहेतोरभावान्नानुवर्त्तते॥३९॥
रोगके परिज्ञानके लिये संग्रहमें जो लक्षण कथन कियेहैं उनको भी अलग २ होनेपर रोगही जानना चाहिये जैसे–किसी रोगके लक्षणमें श्वासका होना कथन कियाहै अथवाअतिसारका होना कथन कियाहै यदि यह रोगके विना शरीरमें प्रगट हों तो यहीरोग होते हैं। परन्तु ज्वरादिकोंके समय ज्वरके वेगसे इनका होना रोग न कहा जाकरज्वररोगका उपद्रव माना जायगा। रोग और प्रकृति यह दोनो ही संक्षेपसे सबरोगोंमें कथन करनेमें आतेहै। सो वह प्रकृति अर्थात् रोग जनक कारण और रोगयह दोनोंही अपने हेतुके वश हैं अर्थात् अनुचित आहार विहारके होजानसेही बलकोप्राप्त होतेहैं। यदि अहित आहार आदि रोग और रोगकी प्रकृतिका कारण न होनेपावें तो कारणके अभावसे यह दोनों उत्पन्न नहीं हो सकते॥३८॥३९॥
तत्र श्लोकाः।
हेतवः पूर्वरूपाणिरूपाण्युपशयस्तथा। संप्राप्तिः पूर्वमुत्पत्तिः सूत्रमात्रं चिकित्सितम्॥४०॥ ज्वरादीनां विकाराणामष्टानां साध्यतान च। पृथगेकैकशश्चोक्ताहेतुलिङ्गोपशान्तयः॥४१॥ हेतुपर्य्यायनामानिव्याधीनां लक्षणस्य च। निदानस्थानमेतावत्संग्रहेणोपदिश्यते॥४२॥
** इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतसंहितायां निदानस्थानं सम्पूर्णम्।**
अब निदानस्थानका उपसंहार करतेहैं। इस निदानस्थानमें–हेतु, पूर्वरूप, रूप,उपशय, संप्राप्ति, पूर्व उत्पत्ति तथा चिकित्साका सूत्रपात एवम् ज्वरादिक आठविकारोंकी साध्यता और असाध्यता इन सबका कथन कियागयाहै तथा इन सवकोअलग २ एकएक करके इनके हेतु, चिह्न तथा उपशान्तिकारक उपाय एवम् हेतुकेपर्यायवाचक नाम एवम् व्याधिके पर्याय वाचकनाम तथा लक्षणके पर्यायवाचकनाम यह सबइस निदानस्थानके संग्रहमें कथन कियेगयेहैं अर्थात् इन सब विषयोंकरके युक्त यह निदानस्थान समाप्त हुआ॥४०॥४१॥४२॥
दोहा।
हेतु रूप आदिक सब, विधिवत् व्याधिज्ञान॥
सो प्रसादनीयुक्त यह, भयो निदान स्थान॥१॥
इति श्रीमहषिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहिताया निदानस्थाने पं० रामप्रसादवैद्यविरचितप्रसादन्याख्यभापाठीकायामपस्मारनिदानं नामाष्टमोऽव्यायः॥८॥
समाप्तमिदं निदानस्थानम्।
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अथविमानस्थानम्।
प्रथमोऽध्यायः।
अथातो रसविमानं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।इहखलुव्याधीनां निमित्तपूर्वरूपरूपोपशयसंख्याप्राधान्यविधिविकल्पबलकालविशेषाननुप्रविश्यानन्तरंरसद्रव्यदोषविकारभेषजदेशकालबलशरीराहारसारसात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसां मानमवहितमनसायथावज्ज्ञेयं भवति भिषजारसादिमानज्ञानायत्तत्वात्क्रियायाः। नहि अमानज्ञोरसादीनां भिषक्व्याधिनिग्रहसमर्थो भवति। तस्माद्रसादिमानज्ञानार्थं विमानस्थानमुपदेक्ष्यामोऽग्निवेश।तत्रादौरसद्रव्यदोषविकारप्रभावान्वक्ष्यामः॥१॥
अब हम इस विमानस्थानकी व्याख्या करतेहैं, इस प्रकार भगवान् आत्रेयजीकथन करने लगे। प्रथम वैद्यको चाहिये कि व्याधियोंके–निमित्त पूर्वरूप, रूप,उपशय, संख्या, प्राधान्य, अनेक प्रकारका विकल्प, विधि, बल और कालविशेषकोयथोचित रीतिसे जानलेवे, तदनन्तर, दोष, औषध, देश, काल, बल, शरीर, आहार,सार सात्म्य, सत्त्व, और प्रकृति तथा अवस्थाके मानको सावधानतासे यथोचितरीतिपर जानना चाहिये। क्योंकि जबतक इन दोष आदिकोंका यथोचित ज्ञान नहोगा तबतक वैद्यककी क्रियाका आरंभ नही होसकता। इन सबके प्रमाणको नजाननेवाला वैद्य व्याधिको दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता। हे अग्निवेश ! इस लियेदोष आदिकोंके यथोचित प्रमाण जाननेके अर्थ विमानस्थानका कथनकरतेहैं।इनमें प्रथम रस और द्रव्य तथा दोष और विकार इनके विमान (प्रमाण) को कथनकरते हैं॥१॥
रसोंका वर्णन।
रसास्तावत्षट्मधुराम्ललवणकटुतिक्तकषायास्तेसम्यगुपयुज्यमानाः शरीरंयापयन्ति। मिथ्योपयुज्यमानास्तुखलुदोषप्रक्रोपनायोपकल्पयन्ति॥२॥
रस छः प्रकारके होतेहैं। जैसे–मीठा, खट्टा, नमकीन, चरपरा, कडुआ,और कसैला। यह छः रसउत्तम रीतिसे सेवन किये जानेपर शरीरको पालनकरतेहैं। और यही छः रस अनुचित रीतिसे उपयोग किये हुए दोषोंके प्रकोपकेकारण हैं॥२॥
दोषोंका वर्णन।
** दोषाः पुनस्त्रयो वातपित्तश्लेष्माणः ते प्रकृतिभूताः शरीरोपकारका भवन्ति। विकृतिमापन्नाः खलु नानाविधैर्विकारैः शरीरमुपतापयन्ति॥३॥**
दोष—तीन प्रकारके होतेहैं। वात, पित्त और कफ। वह तोनों दोष परिमाणसेठीक रहनेपर शरीरको पुष्ट करते हैं और विकृत होनेसे शरीरको अनेक प्रकारके रोगोंद्वारा तपायमान करतेहैं॥३॥
तत्र दोषमेकैकं त्रयस्त्रयो रसाजनयन्ति, त्रयस्त्रयश्चोपशमयन्ति।
तद्यथा—
कटुतिक्तकषाया वातं जनयन्ति, मधुराम्ललवणास्त्वेनं शमयन्ति। कटुकाम्ललवणाः पित्तं जनयन्ति, मधुरतिक्तकषायाः पुनरेनं शमयन्ति। मधुराम्ललवणाः श्लेष्माणं जनयन्ति,कटुतिक्तकषायास्त्वेनं शमयन्ति॥४॥
उनमें एक एक दोषको तीनतीन रस उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार तीनतीन रसशान्तिको करते हैं अर्थात् दोषोंको शमन करते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि तीनरस एकदोषको बढाते हैं और अन्य तीन रस उसी दोषको शान्त करते हैं। जैसे—चरपरा,कडुआ, कसैला यह तीन रस वायुको उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार मीठा, खट्टाऔर नमकीन यह तीन रस वायुको शान्त करते हैं। चरपरा, खट्टा और नमकीन यहतीन रस पित्तको उत्पन्न करते हैं और मीठा कडुआ, कसैला यह तीन रस पित्तकोशान्त करते हैं। मीठा, खट्टा, नमकीन यह तीन रस कफको उत्पन्न करते हैं औरचरपरा, कडुआ, कसैला यह तीन रस कफको शान्त करते हैं॥४॥
रसदोषसन्निपाते तु ये रसा यैर्दोषैः समानगुणाः समानगुणभूयिष्टा वा भवन्ति ते तानभिवर्द्धयन्ति। विपरीतगुणास्तुविपरीतगुणभूयिष्ठा वा शमयन्त्यभ्यस्यमानाः इत्येतद्वयवस्था–
हेतोः षट्त्वमुपदिश्यते रसानां परस्परेणासंसृष्टानाम्। त्रित्वञ्च दोषाणाम्। संसर्गविकल्पविस्तारोह्येषामपरिसंख्येयोभवति विकल्पभेदापरिसंख्येयत्वात्॥५॥
शरीरमें कई एक रसों तथा दोषोंका मिलाप होनेपर जो रस जिस दोषके समानगुणवाले हों उस दोषको बढाते हैं तथा समान गुणवालोमें भी जिस दोषके बढानेवालोंकी अधिकता हो वह उसकीही वृद्धि करते है। इसी प्रकार विपरीत गुणवालेरस दोषोको शान्त करते हैं। उनमें भी विशेषतासे विपरीत गुणवाले जिस दोषसेविपरीत गुणवाले हो उसकोही शमन करते हैं। इस प्रकार व्यवस्था स्थापन करनेकेलिये अलग अलग छः रसोका कथन किया है, और तीन दोषोका कथन किया है।रसोंके संसर्ग जनित विकल्पोंसे इनकी संख्या परिमाणसे बढजातीहै अर्थात् असंख्य होजातेहैं। क्योंकि विकल्प द्वारा अंशांश कल्पनाकर भेद विशेषसे असंख्यहोजाते है॥५॥
तत्र खलु अनेकरसेषु द्रव्येष्वनेकदोषात्मकेषु च विकारेषुरसदोषप्रभावमेकैकत्वेनाभिसमीक्ष्य ततो द्रव्यविकारप्रभावतत्त्वं व्यवस्येत्। नत्वेवंखलु सर्वत्र।न हि विकृतिविषमसमवेतानां नानात्मकानां द्रव्याणांपरस्परेण चोपहतानामन्यैश्च विकल्पनैर्विकल्पितानामंवयवप्रभावानुमानेन समुदायप्रभावतत्त्वमध्यवसितुमशक्यम्॥६॥
उन अनेक रसोंवाले अनेक द्रव्योमें अनेक रस मिले हुए होनेपर उनके एकएकरसको अलग अलग जानकर द्रव्य प्रभाव जान लेना चाहिये। उसी प्रकार अनेकदोषोंके मिले हुए विकारोमें कौन २ दोषकितने २ अंशसे मिला हुआ है इसकोअलग अलग जानकर दोषप्रभाव जानलेना चाहिये। परन्तु सब जगह यही क्रम नहीं होता क्योंकि विकृत भाव तथा विषममानसे मिले हुए अनेक आत्मक द्रव्योका एककेरससे दूसरेके रसका तथा आपसमें स्वभाव तत्त्वका परस्पर हनन् होनेसे रसके समुदायप्रभावका तत्त्व पृथक् पृथक् नहीं जाना जा सकता। उसी प्रकार विकृत औरविषमभावसे मिले हुए दोषोका आपसमें परस्पर हनन भाव होनेसे विकल्प जनित सूक्ष्मअंशोका पृथक् पृथक् जान लेना भी कठिन होता है॥६॥
तथा युक्ते हि समुदाये समुदायप्रभावतत्त्वमेवोपलभ्य ततो रसद्रव्यविकारप्रभावतत्त्वं व्यवस्येत् तस्माद्रसप्रभावतश्च द्रव्य-
प्रभावतश्च दोषप्रभावतश्चाविकारप्रभावतश्चतत्त्वमुपदेक्ष्यामः।तत्रैपरसद्रव्यदोषविकारप्रभाव उपदिष्टो भवति॥७॥
इसलिये बहुतसे द्रव्य समुदायके मिलनेसे उस समुदायके प्रभावको जानकर फिर रस तथा द्रव्य एवम् विकार इनके प्रभावोंके जाननेका यत्न किया जासकता है। इसलिये रसप्रभावसे, द्रव्यमभावसे, दोषप्रभावसे और विकारप्रभावसे तत्वको कथन करते हैं। सो यहांपर रस, द्रव्य, दोष, विकार इनके प्रभावोंका कथन कियाजाता है॥७॥
द्रव्यप्रभावका वर्णन।
द्रव्यप्रभावं पुनरुपदेक्ष्यामः। तैलसर्पिर्मधूनिवातपित्तश्लेष्मप्रशमनानिद्रव्याणिभवन्ति। तत्रतैलं स्नेहोष्ण्याद्गौरवौपपन्नत्वाद्वातं जयति सततमभ्यस्यमानम्। वातोहिरौक्ष्यशैत्यलाघवोपपन्नोविरुद्धगुणो भवति। विरुद्धगुणसन्निपाते हि भूयसाल्पमवजीयतेतस्मात्तैलं वातं जयति सततमभ्यस्यमानम्॥८॥
रसके प्रभावको प्रथम कथन करचुके अब यहांपर द्रव्यके प्रभावको कहते हैं। जैसे तैल, घृत, शहद यह बात, पित्त, कफको शमन करनेवाले द्रव्य होते हैं। इनमें तैल चिकना और गरम होनेसे, एवम् गौरवगुण विशिष्ट होनेसे, निरन्तर मालिश किया हुआ अथवा विधिपूर्वक खाया हुआ वायुको शान्त करता है। क्योंकि वायु तैलके गुणसे विरुद्ध गुणवाला रूक्ष, शीतल और हलकापन युक्त होता है। दो प्रकारके विरुद्धगुण आपस में मिलनेसे भारी गुण अल्प गुणको जीत लेते हैं। इसीलिये अभ्यासकिया हुआ तैल अपने स्निग्धादि गुणोंद्वारा वायुको जीतलेता है॥८॥
सर्पिः खलु एवमेवपित्तं जयति माधुर्य्याच्छेत्यात्मन्दवीर्य्यत्वाच्चपित्तं ह्यमधुरमुष्णं तीक्ष्णम्॥९॥
इसी प्रकार सेवन किया हुआ घृत भी पित्तको जीतलेता है। घृत मीठा, शीतल, और मंद होनेसे मधुरतारहित उष्ण और तीक्ष्ण इन विपरीत गुणोंवाले पित्तको जीतलेताहै॥९॥
मधु च श्लेष्माणं जयति रौक्ष्यात् तैक्ष्ण्यात् कषायत्वाच्च श्लेष्मा हि स्निग्धो मन्दो मधुरश्च॥१०॥
शहद रूक्ष, कषाय और तीक्ष्ण होनेसे स्निग्ध, मंद, मधुर इन विपरीत गुणोंवाले कफको जीतलेता है॥१०॥
यच्चान्यदपि किञ्चिद् द्रव्यमेवं वातपित्त कफेभ्यो गुणतो विपरीतं तच्चैताञ्जयत्यभ्यस्यमानम्॥११॥
इसी प्रकार अन्य भी जोद्रव्य वात, पित्त, कफसे गुणोंमें विपरीत हो वह भी विधिवत् सेवन किये हुए इनको जीतलेते हैं॥११॥
अथ खलु त्रीणि द्रव्याणि नात्युपयुञ्जीताधिकमन्येभ्योद्रव्येभ्यः तद्यथा—पिप्पली क्षारं लवणमिति पिप्पल्यो हि कटुकाः सद्योमधुरविपाका गुर्व्योनात्यर्थम्। स्निग्धोष्णाःप्रक्लेदिन्यो भेषजाभिमताश्च। ताः सद्यः शुभाशुभकारिण्यो भवन्त्यापातभद्राः प्रयोगसमसाद्गुण्याद्दोषसञ्चयानुबन्धाः सततमुपयुज्यमानाहिगुरुप्रक्लेदित्वात् श्लेष्माणमुत्क्लेशयन्ति। औष्ण्यात् पित्तम्। न च वातप्रशमनायोपकल्पन्ते अल्पस्नेहोष्णभावात्। योगवाहिन्यस्तु खलु भवन्ति। तस्मात् पिप्पलीर्नात्युपयुञ्जीत॥१२॥
किसी योगमें भी और द्रव्योंसे इन तीन दव्योको अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिये। जैसे पिप्पली, क्षार और लवण। क्योकि पीपलं चरपरी है और शीघ्र मधुर विपाक होजाती है, अत्यन्त भारी नहीं है एवम् स्निग्ध, उष्ण, क्लेदकर्त्ता तथा औषधियोमेंमुख्य है। सो वह पीपली प्रयोग करनेसे शीघ्र ही अपने शुभ और अशुभ गुणोंको करती है। किसी रोगमें देते ही हितकारक होजाती है। इसका निरन्तर प्रयोग करनेसे दोषोंका संचय होता है। क्योंकि यह भारी और क्लेदी होनेसे कफको उठाती है। गर्म होने से पित्तको प्रबल करती है। इसमें स्नेह और उष्णता अधिक न रहनेसे वायुको भी शान्त नहीं करती परन्तु किसी योगमें मिलाकर दीहुई योगवाही होनेसे उस योगके समान गुण करनेवाली अवश्य होती है। इसलिये पिप्पलीका अधिक और निरन्तर सेवन नहीं करना चाहिये॥१२॥
क्षारसेवनका निषेध।
क्षारः पुनरौष्ण्यतैक्षण्यलाघवोपपन्नः क्लेदयत्यादौ पश्चात्विशोधयति।स पचनदहनभेदनार्थमुपयुज्यते। सोऽतिप्रयुज्यमानः केशाक्षिहृदयपुंस्त्वोपघातकरः सम्पद्यते। ये ह्येनं
ग्रामनगरनिगमजनपदाः सततमुपयुञ्जते तेह्यान्ध्यषाण्ड्याखालित्यपालित्यभाजो हृदयोपकर्तिनश्च भवन्ति तद्यथा—प्राच्याश्चीनाश्च तस्मात् क्षारं नात्युपयुञ्जीत॥१३॥
क्षार उष्ण, तीक्ष्ण और हलका होताहै। प्रथम गीलापन उत्पन्नकर फिर शोधनकरदेताहै। पाचन, दहन एवम् भेदन करनेके लिये क्षारका प्रयोग कियाजाताहै। वहक्षार अत्यन्त सेवन किया जानेसे केश, नेत्र, हृदय और पुंस्त्वशक्तिको नष्ट करनेवालाहोताहै। ग्राम, नगर, प्रान्त, देशमें रहनेवाले जो लोग क्षारका अधिक सेवन करतेहैं। वह लोग अंधे, नपुंसक, गंजे, सफेदबालोंवाले एवम् हृदयके रोगयुक्त होतेहैं। प्रायःऐसे लोग पहिले पूर्व और चीनमें होतेथे। इसलिये क्षारका अधिक प्रयोग नहींकरनाचाहिये॥१३॥
लवण सेवनका निषेध।
लवणं पुनरौष्ण्यतैक्ष्ण्योपपन्नमनति गुरु अनतिस्निग्धमुपक्लेदिविस्रंसनसमर्थमन्नद्रव्यरुचिकरमापातभद्रम्। प्रयोगातिरेकाद्दोषसञ्जयानुबन्धम्। तद्रोचनपाचनोपक्लेदनविस्रंसनार्थमुपयुज्यते।तदत्यर्थमुपयुज्यमानं ग्लानिशैथिल्यदौर्बल्याभिनिर्वृत्तिकरं शरीरस्य भवति। येह्येतद्ग्रामनगरनिगमजनपदाः सततमुपयुञ्जते, तेभूयिष्टंग्लास्नवः शिथिलमांसशोणिता भवन्ति अपरिक्लेशसहाश्च। तद्यथा—वाह्लीकसौराष्ट्रिकसैन्धवसौवीरकाः। तेहिपयसापिसदालवणमश्नंति। येऽपीहभूमेरत्यूषरादेशास्तेषु औषधिवीरुद्वनस्पतिवानस्पत्यानजायन्ते। अल्पतेजसोवाभवन्तिलवणोपहतत्वात्। तस्माल्लवणंनात्युपयुञ्जीत।ये ह्यतिलवणसात्म्याः पुरुषास्तेषामपिखालित्येन्द्रलुप्तपालित्यानि तथा वलयश्चाकाले भवन्ति। तस्मात्तेषांतत्सात्म्यतः क्रमेणापगमनं श्रेयः॥१४॥
लवण गर्म, तीक्ष्ण, किंचित् भारी, किंचित् स्निग्ध, क्लेदकारक, स्रंसन, अन्नादिद्रव्योंमें रुचिकारक, किसी द्रव्यमें डालते ही अपने गुणको करनेवाला होताहै।अत्यन्त सेवन करनेसे दोषोंको संचित करता है। इसलिये यह केवल रुचि उत्पन्न
करनेके लिये, पाचनके लिये तथा क्लेदन और स्रंसन होनेसे इसका उचित रीतिपरप्रयोग कियाजाताहै। इसके अधिक सेवन करनेसे शरीरमें ग्लानि, शिथिलता, दुर्बलतायह उत्पन्न होते हैं। ग्राम, नगर, प्रान्त तथा देशोंमें जो लोग लवणका अधिक सेवनकरतेहैं उनके शरीरमें ग्लानि, मांस और रुधिरमें शिथिलता होतीहै तथा वहसामान्य क्लेशको भी सहन नहीं करसकते। जैसे वाह्लीक, सौराष्ट्र, सिन्ध, सौवीरदेशोंके रहनेवाले मनुष्य दूधके साथमें भी लवणको भक्षण करतेहैं। जिन देशोंमेंअत्यन्त ऊपर भूमि है उनमें क्षारकी अधिकता होनेसे ओषधी, वीरुध, और वानस्पति इन चार प्रकारकी औषधियोमेंसे कोई भी उत्पन्न नहीं होती। यदि कोईहो भी जाय तो उस पृथ्वीके लवणके बलसे उन औषधियोका तेज माराजाताहै।इसलिये लवणका अधिक उपयोग नहीकरना चाहिये। जिन मनुष्योंको लवणसात्म्य है उनको भी अधिक सेवन करनेसे गंजापन, बालोका सफेद होना, वालोंकाउखडना, शरीरमें छोटी उमरमें सरवट पडना यह विकार होते है। इसलिये लवणजितना रुचि आदिके लिये सेवन करना उचित हो उससे अधिक नहीं खानाचाहिये॥१४॥
सात्म्यके लक्षण।
सात्म्यमपिहिक्रमेणोपनिवर्त्त्यमानमदोषमल्पदोषं वा भवति। सात्म्यं नामतद्यदात्मनि उपशेते। सात्म्यार्थोह्युपशयार्थः। तत्त्रिविधं प्रवरावरमध्यविभागेन, सप्तविधञ्च रसैकैकत्वेनसर्वरसोपयोगाच्च।तत्र सर्वरसंप्रवरमवरमेकरसंमध्यमन्तुप्रवरावरमध्यस्थम्। तत्रावरमध्याभ्यां सात्म्याभ्यां क्रमेण प्रवरमुपपादयेत्सात्म्यम्। सर्वरसमपिचद्रव्यं सात्म्यमुपपन्नं सर्वाणि आहारविधिशेषायतनानि अभिसमीक्ष्यहितमेवानुरुध्यते॥१५॥
यदि किसी हानिकारक वस्तुके सेवनका अभ्यास होगया हो ( जैसे अफीम शंखियाआदि) तो उसको धीरेधीरे क्रमपूर्वक छोडदेना चाहिये। ऐसा करनेसे अल्पदोषअथवा निर्दोष होजाताहै। जो पदार्थ अपने शरीरको हितकारी हो उसको सात्म्यकहते हैं। सात्म्यका जो अर्थ है उपशयका भी वही अर्थ है। वह सात्म्य–उत्तम,मध्यम और कनिष्ठ इन भेदोंसे तीन प्रकारका है। फिर वह मधुर आदि एकएकरसके योगसे तथा एकसाथ संपूर्ण रसोंके योग भेदसे सात प्रकारका होताहै। उनमेंसव रसोंका अभ्यास उत्तम होता है। एक रसका उपयोग कनिष्ठ माना जाता है
कनिष्ठ और उत्तमके मिलनेसे मध्यम सात्म्य होता है। उनमें कनिष्ठ और मध्यमसात्म्योंसे क्रमपूर्वक उत्तम सात्म्यका अभ्यास करना चाहिये। संपूर्ण रसांको तथासंपूर्ण द्रव्योंको सात्म्य होनेपर एवम् आहार विधिके विशेष आयतनोंको बिचारकरअहित पदार्थोंको त्याग देवे एवम् हितोंका सेवन करे॥१५॥
आहारके आयतन।
तत्र खल्विमानि अष्टावाहारविधिविशेषायतनानि भवन्ति। तद्यथा—प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपयोक्ताष्टेमानि भवन्ति॥१६॥
उनमें आहार विधिके यह अष्टविध आयतन कथन किये हैं। जैसे—प्रकृति, करण,संयोग, राशि, देश, काल, उपयोग, संख्या तथा उपयोगको करनेवाला। यह आठआयतन हैं॥१६॥
प्रकृतिका वर्णन।
तत्र प्रकृतिरुच्यतेस्वभावोयः सपुनराहारौषधद्रव्याणां स्वाभाविकोगुर्वादिगुणयोगः। तद्यथा—माषमुद्गयोः शूकरैणयोश्च॥१७॥
इनमें प्रकृति—स्वभावको कहतेहैं। आहार और औषध द्रव्योंका जो स्वाभाविकगुरु, आदि गुणका योग है उसको प्रकृति कहतेहैं। जैसे—उडद स्वभावसे ही भारी हैऔर मूंग स्वभावसे ही हल्के गुणवाला है। सूअरका मांस–स्वभावसे ही भारी गुणवाला है और हिरनका मांस स्वभावसे ही हलका होताहै॥१७॥
करणका वर्णन।
करणं पुनः स्वाभाविकानां द्रव्याणामभिसंस्कारः। संस्कारोहिगुणान्तराधानमुच्यते। तेगुणाश्च तोयाग्निसन्निकर्षशौचमन्थनदेशकालवशेनभावनादिभिः कालप्रकर्षभाजनादिभिश्चाभिधीयन्ते॥१८॥
स्वाभाविक द्रव्योंके संस्कारको करण कहते हैं। संस्कारका अर्थ गुणान्तरको प्राप्तकरना है वह गुण–जल और अग्निके सन्निकर्षसे एवम् शौच, मन्थन, देश, काल, बल, भावना आदिसे तथा समयके उत्कर्षसे एवम् पात्रादिकोंके संसर्गसे गुणान्तरको प्राप्त होते हैं॥१८॥
संयोगका वर्णन।
संयोगस्तुद्वयोर्बहूनां वा द्रव्याणां संहतीभावः सविशेषमारभतेयत्रैकशोद्रव्याणि आरभन्ते। यथा मधुसर्पिषोमधुमत्स्यपयसाञ्जसंयोगः॥१९॥
दो अथवा बहुतसे द्रव्योका संसर्ग होना संयोग कहाताहै। द्रव्योका संयोग विशेषहोनेसे गुण उत्पन्न होता है। जैसे–शहद और घृतको समान भागमें लानेसे एवम् शहद मछली और दूधके मिलानेसे विषके समान गुण उत्पन्न होजाताहै ॥ १९ ॥
राशिका वर्णन।
राशिस्तुसर्वग्रहपरिग्रहौमात्राऽमात्राफलविनिश्चायार्थः प्रकृतः।तत्र सर्वस्याहारस्यप्रमाणग्रहणमेकपिण्डेनसर्वग्रहः। परिग्रहश्चपुनः प्रमाणग्रहणमेकैकत्वेनाहारद्रव्याणाम्। सर्वस्यहिग्रहः सर्वग्रहः सर्वतश्चग्रहः परिग्रहः उच्यते॥२०॥
राशि–सब द्रव्योंके सर्वग्रह और परिग्रहको कहते हैं। इसका वर्णन मात्राऔर अमात्राके फलनिश्चयार्थ किया है उनमें सबप्रकारके भोजन सामग्रीकागोलासा बनाकर खाना सर्वग्रह कहा जाताहै। व्यंजन आदि आहार द्रव्योको अलगअलग भक्षण करनेको परिग्रह कहते हैं। सब द्रव्योंको मिला एकसाथ ग्रहणकरनेको सर्वग्रह कहते हैं और सबमें से थोडाथोडा खानेको परिग्रह कहते हैं॥२०॥
देशका वर्णन।
देशः पुनः स्थानं द्रव्याणामुत्पत्तिप्रचारौदेशसात्म्यञ्चाचष्टे॥२१॥
द्रव्यके उत्पन्न होनेके स्थानको तथा प्रचार (फिरना तुरना आदि ) आदिके स्थानको देश कहते हैं॥२१॥
कालका वर्णन।
कालोहिनित्यगश्चावस्थिकञ्च। तत्रावस्थिकोविकारमपेक्ष्यते। नित्यगस्तु खलु ऋतुसात्म्यापेक्षः॥२२॥
काल दो प्रकारका होता है। नित्यग। आवस्थिक। उनमें आवस्थिक कालविकारकी अपेक्षा करताहै अर्थात् बाल्यावस्थासे विकृति प्राप्त होकर तरुणावस्थामेंप्राप्त होना आवस्थिक काल कहा जाता है। नित्यगकाल ऋतु और सात्म्यकी अपेक्षाकरता है। अर्थात् नित्यगकाल क्षण, दिवस, मास, ऋतु आदिके चक्रको कहते हैं॥२२॥
उपयोगसंस्थाका वर्णन।
उपयोगसंस्थातूपयोगनियमः सजीर्णलक्षणापेक्षः॥२३॥
भोजन आदिके उपयोगके नियमको उपयोग कहते हैं। वह उपयोग विधिवत् होनेसे यथोचित रीतिपर भोजनादि जीर्ण होजाते हैं॥२३॥
उपयोक्ताका वर्णन।
उपयोक्ता पुनर्यस्तमाहारमुपयुंक्ते। यदा यत्तमोकसात्म्यम्॥२४॥
उपयोक्ता भोजन के उपयोग करनेवालेको कहते हैं। भोक्ता मनुष्य अपने आधीन भोजनको करके यथोचित रीतिपर पचावे उसको ओकसात्म्य कहते हैं॥२४॥
इत्यष्टावाहारविधिविशेषायतनानि भवन्ति। एषां विशेषाः शुभाशुभफलप्रदाः परस्परोपकारका भवन्ति। तान्बुभुत्सेत। बुद्ध्वाचहितेप्सुरेवस्यान्नचमोहात्प्रमादाद्वाप्रियमहितमसुखोदर्कमुपसेव्यमाहारजातमन्यद्वा॥२५॥
इस प्रकार आहारविधिके आठ आयतन विशेषोंका कथन किया है। यह आहारका अष्टविध भेद शुभ और अशुभ फलको देनेवाला है एवम् परस्पर उपकारकारकहै। इसलिये आहारविधिको यथोचित रीतिपर जानकर हितकी इच्छावाला मनुष्यमोहसे और प्रमादसे भी अपने अहित और सुखके नष्ट करनेवाले पदार्थों कोसेवन न करे॥२५॥
आहार विधि।
तत्रेदमाहारविधिविधानमरोगाणामपिचातुराणां हितम्। केषाञ्चित्काले प्रकृत्यैवहिततमं भुञ्जानानां भवति। उष्णं स्निग्धं मात्रावज्जीर्णेवीर्य्याविरुद्धं इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं नातिद्रुतनाति विलम्वितं न जल्पन्नहसंस्तन्मनाभुञ्जीत आत्मानमभिसमीक्ष्यसम्यक्॥२६॥
यह आहार विधिसे सेवन करना आरोग्य मनुष्योंके लिये तथा रोगियोंके लियेहितकर होताहै। और समयपर भोजन करना स्वभावसे ही भोजनकर्त्ताको हितकारकहोता है। तथा किसी २ के लिये कोई नियत समय हितकर होताहै। अब आहारकी विधिको कथन करते हैं। गर्म, चिकना, और परिमाणका भोजन–प्रथमभोजनके पाचन होनेपर खाना चाहिये। वह भोजन–अविरुद्धवीर्य होना चाहिये तथा
पवित्रस्थानमें बैठकर वांच्छित सबपदार्थोंसे युक्त हो, भोजनको न बहुत जल्दी न बहुतदेरमें करना चाहिये। और भोजन करते हुए बहुतवोलना और हंसना त्यागकरभोजनमें मन लगाकर अपने शरीरके बलाबलको देखकर भोजन करे॥२६॥
उष्णभोजनके गुण।
तस्य साद्गुण्यमुपदेक्ष्यामः। उष्णमश्नीयादुष्णं हि भुज्यमानं स्वदते भुक्तञ्चाग्निमुदीर्य्यमुदीरयति। क्षिप्रञ्चजरां गच्छति, वातञ्चानुलोमयति, श्लेष्माणञ्चपरिशोषयतितस्मादुष्णमश्नीयात्॥२७॥
उस भोजनके विधिवत् किये जानेसे जो उत्तम गुण होते हैं उनका वर्णन करते हैं।भोजन सदैव ताजा और गर्म करना चाहिये। क्योंकि उस आहारमें स्वादुशक्ति उत्तमरहती है एवम् उससे अग्निचैतन्य होकर आहारको पाचन करती है। औरवह आहार शीघ्र जीर्ण होजाताहै। गर्म आहारके भोजन करनेसे वायुका अनुलोमहोता है और कफका परिशोषण होताहै। इसलिये गर्म आहारका ही सेवन करनाचाहिये॥२७॥
स्निग्धभोजनके गुण।
स्निग्धमश्नीयात्। स्निग्धं हि भुज्यमानं स्वदते। भुक्तञ्चाग्निमुदीरयतिक्षिप्रंजरां गच्छति वातमनुलोमयतिदृढीकरोति। शरीरोपचयं बलाभिवृद्धिञ्चोपजनयति, वर्णप्रसादमपिचाभिनिर्वर्त्तयति। तस्मात् स्निग्धमनीयात्॥२८॥
भोजन सदैव चिकना करना चाहिये। चिकने पदार्थोका स्वादु उत्तम होताहै।और भोजन कियेजानेपर अग्निको बलवान् करताहै। तथा वायुको अनुलोमनकरता है। एवम् शरीरको दृढ तथा पुष्ट करता है और बलकी वृद्धिको उत्पन्न करताहै।वर्णको प्रसन्न करताहै। इसलिये आहारको घृतयुक्तकर खाना चाहिये॥२८॥
मात्रावत्मोजनका गुण।
मात्रावदश्नीयात्। मात्रावद्धिभुक्तं वातपित्तकफानप्रपीडयदायुरेवविवर्द्धयतिकेवलं सुखं सम्यक्पक्वं विड्भूतं गदमनुपर्य्येतिनचोष्माणमुपहन्ति अव्यथञ्चपरिपाकमेति। तस्मान्मात्रावदश्नीयात्॥२९॥
भोजन सदैव परिमाणसे करना चाहिये। परिमाणसे किया हुआ भोजन बातपित्त, कफको साम्यावस्था में रखता हुआ आयुको बढाता है। और सुखपूर्वक पाचनहोजाता है। इसका मलभाग मलस्थान द्वारा यथोचित रीतिसे निकल जाता है। जठराग्निकी गर्मी में किसी प्रकारका विघ्न न करके परिपाकको प्राप्त होजाता है। इसलियेभोजन उचित मात्रासे करना चाहिये॥२९॥
जीर्णभोजन में भोजनके गुण।
जीर्णेऽश्नीयात्। अजीर्णे हि भुञ्जानस्य पूर्वस्याहार स्वर समपरिणतमुत्तरेणाहाररसेनोपसृजन्सर्वान्दोषान्प्रकोपयत्याशु। जीर्णे तु भुञ्जनस्य स्वस्थानस्थेषु दोषेषु अग्नौचोदीर्णेजातायाञ्चवुभुक्षायां विवृतेषु च स्रोतसांमुखेषु चोद्गारेविशुद्धेहृदयेविशुद्धेवातानुलोम्येविसृष्टेषु च वातमूत्रपुरीषवेगेषुजीर्णमभ्यवहृतमाहारजातं सर्वशरीरधातूनप्रदूषयदायुरेवाभिवर्द्धयति केवलम्। तस्माज्जीर्णेऽश्नीयात्॥३०॥
प्रथम दिनका आहार जीर्ण होजानेपर तबभोजन करना चाहिये। अजीर्ण मेंभोजन करनेसे अर्थात् पहिले कियेहुए आहारका रस शरीरमें यथोचित रीतिपरपचजानेके विना भोजन करनेसे उस दूसरे आहारके साथ मिलकर दोपोंको कुपितकरताहै। और पहिला भोजन पचजानेपर फिर भोजन कियाजाय तो दोष अपने २स्थानोंमें स्थित रहते हैं। अग्नि चैतन्य होकर भूख लगातीहै और नाडियोंके मुख शुद्धहोकर डकार शुद्ध आती है। हृदय शुद्ध रहताहै। वायुका अनुलोम होता है। वात,मूत्र, मल ये अपने समयपर ठीक निकलते हैं। वह आहार यथोचित रीतिपर जीर्णहोकर धातुओंको दूषित न करता हुआ केवल आयुको बढाता है॥३०॥
वीर्य्याविरुद्धभोजनके गुण।
वीर्य्याविरुद्धमश्नीयात्। अविरुद्धवीर्य्यमश्नन्हिनविरुद्धवीर्य्याहारजैर्विकारैरयमुपसृज्यते तस्माद्वविरुद्धमश्नीयात्॥३१॥
अविरुद्ध वीर्यवाले पदार्थोंका सेवन करना चाहिये। अविरुद्ध वीर्यवाले पदार्थोकेखानेसे जो विकार विरुद्धवीर्य आहारसे उत्पन्न होतेहै वह नहीं होते। इसलिये विरुद्धवीर्यपदार्थोंको न खाना चाहिये॥३१॥
** इष्टदेशमें भोजनका गुण।**
इष्टेदेशेऽश्नीयात्। इष्टेहि देशे भुञ्जानोनानिष्टदेशजैर्मनोविघातकरैर्भावैर्मनोविघातं प्राप्नोतितथेष्टैः सर्वोपकरणैस्तस्मादिष्टेदेशेतथेष्टसर्वोकरणञ्चाश्नीयात्॥३२॥
इष्ट अर्थात् पवित्रस्थानमें भोजन करना चाहिये। पवित्रस्थानमें भोजन करनेवालेमनुष्यको दुष्टस्थानजनित मनमें ग्लाने आदि उत्पन्न नहीं होती। इसलिये वांछितस्थानमें मनको प्यारे लगनेवाले, उत्तम उपकरणोंके सहित भोजनकरे॥३२॥
नातिद्रुतभोजन के गुण।
नातिद्रुतमश्नीयात्। अतिद्रुतं हि भुञ्जानस्य उत्स्नेहनमवसदनं भोजनस्याप्रतिष्ठानम्। भोज्यदोषसाद्गुण्योपलब्धिश्चन नियता। तस्मान्नातिद्रुतमश्नीयात्॥३३॥
अत्यन्त जल्दी भोजन नहीं करना चाहिये। अत्यन्त जल्दी भोजनकरनेसे शरीरके स्नेहकी ऊर्द्ध्वगति, देहका रहजाना एवम् किया हुआ आहार यथोचित रीतिपर अपने स्थानमें नहीं पहुंच सकता और जो भोजन किया जाय उसकायथोचित दोष, गुण प्रतीति नहीं होसकता इसलिये, भोजनको अत्यन्त शीघ्र नहींकरना चाहिये॥३३॥
नातिविलम्बित भोजनके गुण।
नातिविलम्वितमश्नीयात्। अतिविलम्बितं हि भुञ्जानोनतृप्तिमधिगच्छतिबहुभुंक्तेशीतीभवतिचाहारजातं विषमपाकञ्च भवति तस्मान्नातिविलम्वितमश्नीयात्॥३४॥
बहुत देरमें भी भोजन नही करना चाहिये। बहुत देरमें भोजन करनेसे मनुष्यतृप्तिको प्राप्त नहीं होता। और बहुत भोजन करता है एवम् भोजनके पदार्थ शीतलहोजाते हैं तथा आहारका विषम परिपाक होता है इसलिये अधिक देरमें भोजन नहींकरना चाहिये॥३४॥
मौनसे भोजनके गुण।
अजल्पन्नहसन्तन्मनाभुञ्जीत। जल्पतो हसतोऽन्यमनसोवा भुञ्जानस्यत एव हि दोषा भवन्ति य एवातिद्रुतमश्नतः। तस्मादजल्पन्नहसंस्तन्मनाभुञ्जीत॥३५॥
भोजन करते हुए-हंसना और बहुत बोलना नहीं चाहिये। तथा भोजन में चित्तलगाकर भोजन करना चाहिये। हंसते हुए और बोलते हुए तथा दूसरी जगहचित्त लगाकर भोजन करनेसे जो अवगुण बहुत शीघ्र भोजन करनेसे होतेहैं सोईइनमें भी होतेहैं। इसलिये चुपचाप हास्य रहित भोजनमें चित्त लगा भोजन करनाचाहिये॥३५॥
आत्माकों देखकर भोजनके गुण।
आत्मानमभिसमीक्ष्यभुञ्जीतसम्यक्। इदं ममोपशेते इदं नोपशेते इति। विदितं हि अस्य आत्मन आत्मसात्म्यं भवति। तस्मादात्मनात्मानमभिसमीक्ष्यभुञ्जीतसम्यगिति॥३६॥
अपने शरीरके बलाबलको विचार कर ही विधिवत् भोजन करना चाहिये कि यहपदार्थ मुझे सात्म्य है और यह असात्म्य है। इस प्रकार विचारकर भोजन किया हुआअन्न शरीरके सात्म्य अर्थात् अनुकूल होता है। इस लिये अपनी अग्निका बलाबलविचारकर जो पदार्थ अपने शरीरको हितकर हो वह खाना चाहिये ॥ ३६ ॥
तत्र श्लोकाः।
रसान्द्रव्याणिदोषांश्च विकारांश्चप्र भावतः। वेदयो देशकालौ चशरीरञ्चसनाभिषक्॥३७॥ विमानार्थोरसद्रव्यदोषरोगाःप्रभावतः। द्रव्याणिनातिसेव्यानित्रिविधं सात्म्य मे वच॥३८॥ आहारायतनान्यष्टौ भोज्यसागुण्य मे वच। विमाने रससंख्यातेसर्वमेतत्प्रकाशितम्॥३९॥
इति अग्निवेशकृते तंत्रेचरकप्रतिसंस्कृते विमानस्थानेरसविमानंनामप्रथमोध्यायः ॥ १ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करतेहैं। यहांपर श्लोक हैं–कि जो मनुष्य रस, द्रव्य,दोष, और रोगोंके प्रभावको जानता है और देश, काल, तथा शारीरिक अवस्थाकोजानताहै उसीको वैद्य कहना चाहिये ॥ ३७ ॥ इस विमाननामक अध्यायमें विमानकाअर्थ, रसके प्रभाव, द्रव्य के प्रभाव, दोषोंके प्रभाव एवम् रोगोंके प्रभाव तथा आहारविधि और अत्यन्त न सेवन करनेयोग्य द्रव्य, तीन प्रकारका सात्म्य, आठ प्रकारके आहारके आयतन, आहारके गुण ये सब वर्णन किये गये हैं ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० विमानस्थान पं० रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायां रसविमानंनामप्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
द्वितीयोऽध्यायः।
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अथातस्त्रिविधं कुक्षीयं विमानं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम त्रिविध कुक्षीय विमानका कथन करते हैं। इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
त्रिविधकुक्षीयका वर्णन।
त्रिविधं कुक्षौस्थापयेदवकाशां शमाहारस्याहारमुपयुञ्जानः। तद्यथैकमवकाशांशं मूर्त्तानामाहारविकाराणामेकंद्रवाणामेकंपुनर्वातपित्तश्लेष्मणाम्॥१॥
भोजन करते समय–उदरमें तीन विभाग करने चाहिये। उनमें उदरके एक भागको पेडा, पूडी, परांवठा आदि गरिष्ठ पदार्थोंसे पूरित करना चाहिये। और एकभागको खीर, दूध आदि पतले पदार्थोंसे पूरित करना चाहिये। तीसरा भाग वात,पित्त, कफके संचारके लिये खाली रखना चाहिये॥१॥
एतावतीं ह्याहारमात्रामुपयुञ्जनोनामात्राहारजं किञ्चिदशुभं प्रानोति। न च केवलं मात्रावत्त्वादेवाहारस्यकृत्स्नमाहारफलसौष्ठवमवाप्तुं शक्यम्। प्रकृत्यादीनामष्टानामाहारविधिविशेषायतनानां प्रविभक्तफलकत्वात्। तत्र तावदाहारराशिमधिकृत्यमात्रामात्राफलविनिश्चयार्थः प्रकृतः। एतावानेवह्याहारराशिविधिविकल्पोयावन्मात्रावत्त्वममात्रावत्त्वञ्च तत्र मात्रावत्त्वं पूर्वमुपदिष्टं कुक्ष्यंशविभागेन। तद्भूयोविस्तरेणानुव्याख्यास्यामः॥२॥
यही आहारकी मात्रा है। इस प्रकार मात्रासे भोजन करनेवाला मनुष्य आहारजनित विकारोंसे बचा रहता है अर्थात् उसको आहारजनित कोई रोग नहीं होताऔर यथोचित रीतिपर भोजन करनेके कारण आहार करनेके जो उत्तम फल होते हैंऔर शरीरको पुष्टता आदि उत्तम गुण प्राप्त होते हैं। संपूर्ण आहार पूर्वोक्त आहारकेआठ आयतनोको विचारकर फिर मात्रानुसार भोजन करना चाहिये। आहारके समूहमें इतना ही विधि और विकल्प है कि उसको मात्रा और अमात्राको विचारकर
भोजन करे। मात्राक्रमसे भोजन कर्ना उदरके अंश विभागसे प्रथम कथन कर चुके हैं। अब उसका विस्तारपूर्वक फिर वर्णन करते हैं॥२॥
तद्यथा—कुक्षेरप्रपीडनमाहारेण हृदयस्यानवरोधः पार्श्वयोरविपाटनमनति गौरवमुदरस्य प्रीणनमिन्द्रियाणांक्षुप्तिपासोपरमःस्थानासनशयनगमनप्रश्वासोच्छ्वासहास्य संकथासु च सुखानुवृत्तिः सायं प्रातश्च सुखेन परिणमनम्। बलवर्णोपचयकरत्वश्चेति मात्रावतोलक्षणमाहारस्य भवति॥३॥
आहारको इस प्रकार करना चाहिये जिससे कोखमें पीडा न हो और हृदयकाअवरोध न हो। दोनों तरफके पार्श्वभाग फटें नहीं, पेटमें अधिक भारीपन न हो। इसप्रकार मात्रानुसार भोजन करनेसे–इन्द्रियें पुष्ट होती हैं। क्षुधा और प्यास शान्त होतीहै। बैठने, सोने, चलने, श्वास प्रतिश्वास लेनेमें तथा हंसने और बोलने आदिमें सुखप्राप्त होताहै। सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय आहार पाचन हुआ प्रतीतिहोताहै तथा मलादि वेग ठीक परिमाणसे ही निकलते हैं। बल और वर्णकीवृद्धिहोती है। ठीक मात्रापूर्वक आहार करनेके यह लक्षण होते हैं॥३॥
अमात्राके भेद।
अमात्रावत्त्वं पुनर्द्विविधमाचक्षते। हीनमधिकञ्च। तत्र हीनमात्राहारराशिं बलवर्णोपचयक्षयकरमतृप्तिकरमुदावर्तकरमवृष्यमनायुष्यमनौजस्वं मनोबुद्धीन्द्रियोपघातकरं सारविधमनमलक्ष्म्यावहमशीतेश्च वातविकाराणामायतनमाचक्षते॥४॥
अमात्राके दो भेदहैं। १ हीनमात्रा। २ अधिकमात्रा। हीनमात्रा से भोजन कियाजाय तो–बल, वर्ण और पुष्ठिकी क्षीणता, पेटका नहीं भरना, उदावर्त रोग तथा अवृश्यता होती है। वह आयुको नहीं बढाता, ओज, मन, बुद्धि, इन्द्रिय इन सबकीशक्ति होत होती हैं। सारका प्रधमन, (इसी विमानस्थानके आठवें अध्याय में आठप्रकारके सारोंका कथन किया जायगा ) अलक्ष्मी एवम् अस्सी प्रकारकी वातव्याधियेउत्पन्न होती हैं॥४॥
अतिमात्रं पुनः सर्वदोषप्रकोपनमिच्छन्तिसर्वकुशलाः॥५॥
अब अधिकमात्रामें भोजनके अवगुणोको कथन करते हैं। सब दोषोंको जाननेवाले बुद्धिमान कथन करते हैं कि अधिक मात्रासे भोजन कियाहुआ आहार संपूर्णदोषोंको कुपित करताहै॥५॥
दोषोंके कुपित होनेका कारण।
यो हि मूर्त्तानामाहारविकाराणां सौहित्यं गत्वापश्चाद्द्रवैस्तृप्तिमापद्यते भूयस्तस्यामाशयगतावातपित्तश्लेष्माणोऽभ्यवहारेण अतिमात्रेणातिप्रपीड्यमानाः सर्वेयुगपत्प्रकोपमापद्यन्ते॥६॥
जो मनुष्य पूडी आदि कडे पदार्थासे पेट भरकर फिर दूध, जल आदिसे पेटको पूर्णकर लेता है उस मनुष्य के आमाशय में प्राप्त हुए वात, पित्त, कफ अधिक भोजन करनेसे पीडित हुए एककालमें ही सबकोपको प्राप्त होते हैं॥६॥
पृथक् २ दोषोंके उपद्रव।
ते प्रकुपितास्तमेवाहारराशिमपरिणतमाविश्यकुक्ष्येकदेशमाश्रिताविष्टम्भयन्तः सहसावापि उत्तराधराभ्यां मार्गाभ्यां प्रच्यावयन्तः पृथक्पृथग्विकारानभिनिर्वर्त्तयन्ति अतिमात्रभोक्तुः॥७॥
फिर वह कुपित हुए दोष उसी आहारसमूहमें मिलकर कोखके एक देश में स्थित होजाते हैं। तब वह विष्टम्भको करते हुए सहसा ऊपरको या नीचेको निकलने आरम्भ होते हैं। तब वह दोष अत्यन्त भोजन करनेवाले मनुष्य के शरीरमें अपने अलग २ विकारोंको करते हैं॥७॥
कुपितवात के उपद्रव।
तत्र वातः शूलानाहाङ्गमर्दमुखशोषमूर्च्छाभ्रमाग्निवैषम्यशिरासङ्कोचनसंस्तम्भनानि करोति॥८॥
इनमें कुपित हुआ वायु–शूल, अफारा, अंगमर्द, मुखशोष, मूर्च्छा, भ्रम, अग्निकी विषमता, सिराओंका संकोच और अंगोका स्तम्भ आदि उपद्रवोंको करता है॥८॥
पित्तं पुनर्ज्वरमतीसारमन्तर्दाहंतृष्णामदभ्रमप्रलपनानि॥९॥
बहुत आहारसे कुपित हुआ पित्त–ज्वर, अतिसार, अन्तरदाह, तृषा, मद, भ्रम और वकवादको उत्पन्न करता है॥९॥
श्लेष्मातुछरोचकाविपाकशीतज्वरालस्य गात्रगौरवाभिनिवृत्तिकरः सम्पद्यते॥१०॥
इसी प्रकार कुपित हुआ कफ–छर्दी, अरुचि, अविपाक, शीतज्वर, आलस्य, देहमें भारीपन इनको उत्पन्न करता है॥१०॥
आम दूषितहोनेका कारण।
नखलुकेवलमतिमात्रमेवाहारराशिमामप्रदोषकारणमिच्छन्ति।
अपि तु खलु गुरुरूक्षशीतशुष्कद्विष्टविष्टम्भिविदाह्यशुचिविरुद्धानामकाले अन्नपानानामुपसेवनम्।कामक्रोधलोभमोहेर्ष्याह्रीशोकलोभोद्वेगभयोपतप्तेनमनसावायदन्नपानमुपयुज्यतेतदपि आममेवप्रदूषयति॥११॥
केवल अधिक मात्रासे आहार करनाही मुक्ताहारको आमदोषादि युक्त करता है यही नहीं किन्तु भारी, रूक्ष, शीतल, सूखे, द्वेषी, विष्टम्भकारक, विदाही, अपवित्र और विरुद्ध अन्नपानोंका विना समय सेवन करना भी आमदोषको कुपित करताहै। इसी प्रकार–काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्षा, लज्जा, शोक, लोभका उद्वेग, भय इनसे उत्तप्त मन होनेपर जो अन्न पान कियाजाता है वह सब आमकोही दूषित करता है॥११॥
भवति चात्र।
मात्रयाप्यभ्यवहृतं पथ्यञ्चान्नं नजीर्य्यति।
चिन्ताशोकभयक्रोधदुःखशय्याप्रजागरैः॥१२॥
सो यहांपर कहतेह कि, जो आहार मात्रापूर्वक पथ्य ही कियाजाय वह भी चिंता, शोक, भय, क्रोध, दुःख, सोना और जागना इन कारणों से यथोचित परिपाकको प्राप्त नहीं होता॥१२॥
आमके भेद।
तं द्विविधमामप्रदोषमाचक्षतेभिषजः। विसूचिकामलसञ्च। तत्र विसूचिकामूर्द्ध्वञ्चाधश्चप्रवृत्तामदोषांयथोक्तरूपां विद्यात्॥१३॥
उस आमदोषको वैद्यलोग दो प्रकारका कथन करते हैं। १ विसूचिका। २ अलसक। उनमें विसूचिका रोग–छर्दद्वारा ऊपरके मार्गसे, दस्तद्वारा नीचेके मार्गसे दोनों ओरसे प्रवृत्त होता है। तथा शरीरमें सूई चूभनेका तोद और उत्क्लेश होताहै। इसको लोकमें हैजा और कौलरा कहते हैं॥१३॥
अलसकके लक्षण।
अलसकमुपदेक्ष्यामः। दुर्बलस्याल्पाग्नेर्बहुश्लेष्मणावातमूत्रपुपुरीषवेगविधारिणः स्थिरगुरुबहुरूक्षशीतशुष्कान्नसेविनस्तदन्नपानमनिलप्रपीडितं श्लेष्मणाचविबद्धमार्गमतिमात्रप्रलीनमलसत्वान्नबहिर्मुखी भवति। ततश्छर्यतीसारवर्ज्यानि आमप्रदोषलिङ्गानि अभिदर्शयति अतिमात्राणि। अतिमात्रप्रदुष्टा
श्च दोषाः प्रदुष्टामबद्धमार्गास्तिर्य्यग्गच्छन्तः कदाचित्केवलमेवास्यशरीरं दण्डवत्स्तम्भयन्ति। ततस्तमलसकमसाध्यंब्रुवते॥१४॥
अब अलसकका वर्णन करते हैं–अल्प अग्निवाला और बढेहुए कफवाला दुर्बल मनुष्य जब मल आदि वेगको रोकता है तथा कठोर, भारी, अधिक, रूक्ष, शीतल एवम् शुष्क अन्नपानका सेवन करता है तो उस मनुष्य के शरीर में वह अन्नपान–वायुसे पीडित होकर कफसे विवद्धमार्ग होकर विरजाता है और मूच्छित तथा अलसीभूत होकर देहसे बाहर नहीं निकल सकता। वह छर्दी और दस्तके सिवाय और संपूर्ण आमके दोषोंके लक्षणों से युक्त होताहै। फिर अत्यन्त कोपको प्राप्त हुए दोष दुष्टहुए तथा बद्धमार्ग हुए तिरछा गमन करते हैं। कभी उसके शरीरको दण्डके समान स्तम्भनकर देते हैं। इस रोगको अलसकरोग कहते हैं। यह रोग असाध्य है॥१४॥
विरुद्धाध्यशनाजीर्णाशनशीलिनः पुनरेव दोषमामविषमित्याचक्षते भिषजोविषसदृशलिङ्गत्वात्, तत्परमसाध्यमाशुकारित्वात्, विरुद्धोपक्रमत्वाच्चेति॥१५॥
विरुद्ध भोजन करनेवाले और अधिक भोजन करनेवाले तथा अजीर्णमें भोजन करनेवाले मनुष्यों के शरीरमें जो आमदोष होता है वैद्यलोग उसको आमविष कहते। क्योंकि यह आमविषके समान शीघ्र मारकलक्षणवाला होता है। यह रोग शीघ्र नाश करनेवाला होनेसे तथा चिकित्सा में विरोध पडनेसे यह विषके समान असाध्य होता है॥१५॥
साध्य आमकी चिकित्सा।
तत्र साध्यमामं प्रदुष्टमलसीभूतमुल्लेखयेदादौपाययित्वालवणसुष्णञ्चवारि। ततः स्वेदनवर्त्तिप्रणिधानाभ्यामुपाचरेदुपवासयेच्चैनम्॥१६॥
यदि उस अलसक रोगमें वह दुष्ट आम अलसीभूत हुई कुछ साध्य प्रतीति हो तो उस आमको नमक और गरमजल पिलाकर वमनद्वारा दोषको निकाल दे। उसके अनन्तर स्वेदन तथा बस्ति प्रयोगद्वारा चिकित्सा करे और लंघन करावे॥१६॥
विषूचिकामें चिकित्सा।
विषूचिकायान्तुलंघनमेवाग्रेविरिक्तवच्चनुपूर्वी॥१७॥
विसूचिकामें तो प्रथम लंघन कराना चाहिये और तदनंतर जैसा विरेचन होजाने पर विरिक्त मनुष्यकी किया कीजाती है उसी प्रकार क्रमपूर्वक चिकित्सा करनीचाहिये॥१७॥
आमप्रदोषेषुत्वन्नकालेजीर्णाहारं पुनर्दोषावलिप्तामाशयस्तिमितगुरुकोष्ठमनन्नाभिलाषिणमभिसमीक्ष्यपाययेद्दोषशेषपाचनार्थमौषधमग्निसन्धुक्षणार्थञ्चनत्व जीर्णाशनम्। आमप्रदोषदुर्वलोह्यग्निर्युगपद्दोषमौषधमाहारजातञ्चाशक्तः पक्तुम्॥१८॥
आमके दूषित होनेपर प्रथम लंघन कराना चाहिये। लंघनद्वारा अन्न जीर्ण होनेपर यदि फिर भी ऐसा देखे कि आमाशय में दोष लिपायमान है तथा कोष्ठ क्लेदयुक्त है एवम् भारी है तथा अन्नमें रुचि भी नहीं है तो शेष दोषोंके पाचन करनेके लिये तथा अग्निको चैतन्य करनेके लिये पाचन औषधी देवे। परन्तु आमयुक्त अजीर्णमें पाचन औषध देनेकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आमदोष बलवान् होताहै। उस बढेहुए आमदोषको दुर्बल अग्नि तथा औषधी पाचन नहीं करसकती॥१८॥
अपि चामप्रदोषाहारौषधविभ्रमोऽतिबलत्वादुपरतकायाग्निं सहसैवातुरमबलमभिपातयेत्॥१९॥
आम, दोष, आहार, औषध, इनका विभ्रम बलवान् होनेसे क्षीणाग्नि बल मनुष्यको शीघ्र नष्ट करडालतेहैं इसलिये अजीर्णमें अग्निकी चैतन्यता करनी चाहिये केवल पाचन औषध न देवे॥१९॥
आमप्रदोषजानां पुनर्विकाराणामपतर्पणेनैवोपरमो भवति।सतित्वनुबन्धे कृतापतर्पणानां व्याधीनां निग्रहेनिमित्तविपरीतमपास्यौषधमातङ्कविपरीतमेवावचारयेत्। यथास्वंसर्वविकाराणामपिचनिग्रहेहेतुव्याधिविपरीतमौषधमिच्छन्तिकुशलाः॥२०॥
आमदोषसे उत्पन्न हुए रोग अपतर्पण क्रिया द्वारा शान्त होते हैं। यदि अपतर्पण करनेपर भी आमदोषजनित विकार बाकी रहजांय तो रोगके नाश करनेवाले यत्न करनेचाहिये। अर्थात् अपतर्पण करना आमदोषकी चिकित्सा है। यदि अपतर्पण करनेपर भी आमसे उत्पन्नहुए रोग शेष रहजांय तो उन रोगोंकी नाश करनेवाली औषधी करनी चाहिये। जैसे संपूर्ण विकारोंकी शान्ति के लिये वैद्यलोग हेतु व्याधिके विपरीत अर्थकारी चिकित्सा करतेहैं वैसे ही यहांपर भी करनी चाहिये॥२०॥
तदर्थकारिविपक्वभुक्तामप्रदोषस्यपुनः परिपक्वदोषस्य दीप्ते चाग्नौ अभ्यङ्गास्थापनानुवासनं विधिवत्स्नेहपानञ्चयुक्त्याप्रयोज्य-
म्, प्रसमीक्ष्यदोषभेषजदेशकालबलशरीराहारसात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणिविकारांश्च सम्यगिति॥२१॥
फिर हेतु और व्याधिके विपरीत अर्थवाली चिकित्सा करने से जब आमदोषपचजाय और दोषके पचनेसे जठराग्नि चैतन्य होजाय फिर विधिपूर्वक अभ्यंजन,अनुवासन और आस्थापन तथा स्नेहपान यह युक्तिपूर्वक कराने चाहिये। तथा दोष,औषधी, देश, काल, बल, शरीर, आहार, सात्म्य, सत्त्व, प्रकृति और अवस्था इनसबको भली प्रकार विचारकर तथा विकारोको देखकर विधिवत् चिकित्सा करे॥२१॥
भवति चात्र।
** अशितं खादितं पीतं लीढञ्च क्व विपच्यते। एतत्त्वांधीर !पृच्छामस्तन्न आचक्ष्वबुद्धिमन्॥२२॥ इत्यग्निवेशप्रमुखैःशिष्यैः पृष्टः पुनर्वसुः। आचचक्षेततस्तेभ्यो यत्राहारोविपच्यते॥२३॥**
यहां पर कहा है कि खानेके चाबनेके, पनिके, चाटनेके योग्य जो पदार्थ हैं वह शरीरके किस स्थान में प्राप्त होते हैं यह हे धीर! हम आपसे पूछते हैं कृपाकर आप कथन कीजिये। इस प्रकार अग्निवेश आदि शिष्योंके पूछने पर भगवान् पुनर्वसुजी कथन करने लगे कि जिस जगह आहार परिपाक को प्राप्त होता है वह तुम सबसे कथन करता हूँ॥२२॥२३॥
आहारपचनेका स्थान।
नाभिस्तनान्तरं जन्तोरामाशय इति स्मृतः। अशितं खादितं पीतं लीढञ्चात्रविपच्यते॥२४॥ आमाशयगतः पाकमाहारः प्राप्यकेवलम्। पक्वः सर्वाशयः पश्चाद्धमनीभिः प्रपद्यते॥२५॥
मनुष्यके नभि और स्तनके बीच में अर्थात् नाभिसे ऊपर और छातीसे नीचे आमाशय है उस आमाशय में ही भक्ष्य, मोज्य, चोष्य लेह्य, यह सबपदार्थ परिपाकको प्राप्त होते हैं। आमाशय में आहार पहिले परिपाकको प्राप्त होकर फिर धमनियोंद्वारा उसका रस सबआशयोंमें पहुंच जाता है॥२४॥२५॥
तस्य मात्रावतो लिङ्गं फलञ्चोक्तं यथायथम्। अमात्रस्य तथा लिङ्गं फलञ्चोक्तं विभागशः॥२६॥ आहारविध्यायतनानिचाष्टौस-
म्यक्परीक्ष्यात्महितं विदध्यात्। अन्यश्च यः कश्चिंदिहास्तिमार्गोहितोपयोगेषु भजेततञ्च॥ २७॥
इति अग्निवेशकृतेतंत्रेचरकप्रतिसंस्कृते विमानस्थाने त्रिविधकुक्षीयं
विमानं नाभद्वितीयोऽध्यायः॥ २ ॥
इस प्रकार मात्रासे भोजन करनेवालोंके लक्षण और फल कथन करदिये गयेहैं। इसीप्रकार विना मात्रासे भोजन कियेके लक्षण और फल भी यथाक्रम कथन किये गये हैं॥२६॥ सो बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि, आहारविधिके आठ आयतनोंको भले प्रकार परीक्षा करके अपनी आत्माके हितके लिये साधन करना चाहिये। इसके सिवाय अपनी आत्मा के हित करनेवाले अन्य भी जो हितकारक मार्ग हों उनका सेवन करना चाहिये॥२७॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं०रामप्रसादवैद्य० भाषाटीकायां त्रिविधकुक्षीयो नाम
द्वितीयोऽध्यायः॥ २ ॥
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तृतीयोऽध्यायः।
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अथ जनपदोद्धंसनीयमध्यायं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम जनपदोद्धंसनीय विमानाध्यायका कथन करते हैं ऐसे भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
पुनर्वसुका प्रस्ताव।
जनपदमण्डलेपाञ्चालक्षेत्रेद्विजातिवराध्युषितायां काम्पिल्यराजधान्यां भगवान्पुनर्वसुरात्रेयोऽन्तेवासिगणपरिवृतः पश्चिमेघर्म्ममासेगङ्गातीरेवनविचारमनुविंचरञ्शिष्यमग्निषेशमनर्वात्॥१॥
पांचालदेशमें द्विजवरोंसे शोभायमान काम्पिल्य राजधानीमें भगवान् पुनर्वसु आत्रेयजी अपने शिष्यगणों से परिवृत हुए ग्रीष्मऋतुके अंत में गंगाके किनारे वनमें विचरते हुए अपने शिष्य अग्निवेशसे कहनेलगे॥१॥
दृश्यन्तेहिखलुसौम्य! नक्षत्रग्रहचन्द्रसूर्य्यानिलानलानां दिशाञ्च प्रकृतिभूता ऋतुवैकारिकाभावा अचिरादितो भूरपिचनय-
थावद्रसवीर्य्यविपाकप्रभावमोषधीनां प्रतिविधास्यति। तद्वियोगाच्चातङ्कप्रायतानियता। तस्मात्प्रागुद्धं सात्प्राक्च भूमेर्विरसीभावादुद्धरसौम्य!भैषज्यानि, यावन्नोपहतरसवीर्य्यविपाकप्रभावाणि। वयंचैषां रसवीर्य्यविपाकप्रभावानुपदेक्ष्यामहे, ये चास्माननुकाङ्क्षन्ति, यांश्च वयमनुकांक्षामः॥२॥
हे सौम्य! ऐसा दिखाई देताहै कि नक्षत्र, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, पवन, अग्नि तथा दिशाओंके स्वभाव विकारको प्राप्त होगये है और ऋतुएं भी अपने स्वभावों से विपरीत प्रतीति होती हैं और पृथ्वी के भी ऐसे लक्षण देख पडते है कि, यह भी औषधियोंके यथोचित रस, वीर्य, विपाक और प्रभावको नष्ट करडालेगी अर्थात् अव पृथ्वीमें जो औषधियें उत्पन्न होंगी वह अपने गुणोंको नहीं करेगी। जब औषधिये अपने गुणोंको न करेंगी तो मनुष्यमी नित्यम्प्रति रोगी होगे और ऋतुआदिकों के विकारसे रोग उत्पन्न हो देशको नष्ट करडालेंगे। इसलिये उद्धंसकारक रोग उत्पन्न होनेसे पहिले तथा पृथ्वीका स्वभाव बिगडजानेसे पहिले ही हे सौम्य ! औषधियोंका संग्रह करलो जबतक इन औषधियोंके रस, वीर्य, विषाक और प्रभाव नष्ट न हो उससे प्रथम ही इनको संग्रह कर लेना चाहिये। जो मनुष्य हमारेपर विश्वास रख हमारे पास आवेंगे। तथा जिनके हितके लिये हम इच्छा करते हैं उन सबको रस, वीर्य, विपाक, प्रभावयुक्त औषधियोंके उपयोग द्वारा आरोग्य रखसकेंगे॥२॥
नहि सम्यगुद्धृतेषु भैषज्येषु सम्यग्विहितेषु सम्यग्विचारचारितेषु जनपदोद्धं सकराणां विकाराणां किञ्चित्प्रतीकारगौरवम्भवति॥३॥
भले प्रकार उखाडी हुई औषधियोंको उत्तम विधिसे बनाकर यथोचित विचारपूर्वक प्रयोग करनेसे देश के नष्ट करनेवाले रोग अपना जोर न पासकेंगे। यदिविना विचारे और बिना ही समय उखाडे तथा भले प्रकार संस्कार किये बिना औषषियोका प्रयोग किया जायगा तो वह जनपदोद्धंसनके समय विकारोंमें अपना कुछ भी गुण न दिखा सकेगी॥३ ॥
अग्निवेशका प्रश्न।
एवं वादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच। उद्धृतानिखलुभगवन्!भैषज्यानिसम्यग्विहितानि सम्यग्विचारचारितानि।अपितुखलुजनपदोद्धं सनमेकेन व्याधिनायुगपदसमानप्रकृत्याहारदेहबलसात्म्यासत्त्ववयसांमनुष्याणां कस्माद्भवतीति॥४॥
इस प्रकार कथन करते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन्! औषधियोंको भले प्रकार उखाड लिया है और विधिपूर्वक संस्कार किया हुआ है तथा उनके प्रयोगके विधानको विचारा हुआ है अथवा यों औषधियोंको भले प्रकार उखाडना तथा संस्कार करना एवम् विधिवत् प्रयोग करना यह आपका उपदेश रोगोंमें हितकारक होना बहुत ठीक है परन्तु मनुष्योंकी प्रकृति, आहार, देह, बल, सात्म्य, सत्त्व और अवस्था यह सब अलग २ होतेहुए एक रोग एक समयमें जनपद (देश) को कैसे उध्वंसन ( नष्ट ) कर सकताहै। सो हमारी समझमें नहीं आया कृपया उसका कथन कीजिये॥४॥
आत्रेयका उत्तर।
तमुवाच भगवानात्रेयः। एवमसामान्यानामेभिराप अग्निवेश! प्रकृत्यादिभिर्भावैर्मनुष्याणां येऽन्येभावाः सामान्यास्तद्वैगुण्यात्समानकालाः समानलिंगाश्च व्याधयोभिनिवर्त्तमानाजनपदमुद्धंसयन्ति। ते तु खलु इमेभावाः सामान्याजनपदेषु भवन्ति। तद्यथा—वायुरुदकं देशः काल इति॥५॥
यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश! यद्यपि सत्र मनुष्यों के प्रकृति आदि भाव समान नहीं होते अर्थात् एकसे दूसरे मनुष्यके स्वभाव आदिक अलग २ होतेहैं। जैसे-कोई मनुष्य शीत प्रकृतिवाला, कोई उष्ण प्रकृतिवाला। पर मनुष्योंके प्रकृति आदि भाव समान न होनेपर भी इनसे पृथक्जो अन्य सामान्य भाव हैं उनकी विगुणतासे अर्थात् उनके बिगडजाने से समानकालमें समानलक्षणोंवाली व्याधियें प्रगट होकर देशको नष्ट कर‚ डालती हैं। वह समानभाव देशमें ये होते हैं जैसे वायु, जल, देश और काल॥५॥
वातको अनारोग्यत्व।
**तत्र वातमेवं विधमनारोग्यकरं विद्यात्। तद्यथा—ऋतुविषममतिस्तिमितमति चलमतिपरुषमतिशीतमत्युष्णमतिरुक्षमत्यभिष्यन्दिनमतिभैरवारावमतिप्रतिहतपरस्परगतिमतिकुण्डलिनमसात्म्यगन्धबाष्पसिकतापांशुधूमोपहतमिति॥६॥ **
उनमें इस प्रकारका वायु होनेसे व्याधियों के उत्पन्न करनेवाला जानना। जैसे विकृत ऋतुके गुणोंसे मिलाहुआ, अत्यन्त गीला, अत्यन्त वेगयुक्त, अति कठोर,
अत्यन्त शीतल, अधिक गर्म, अत्यन्त रूक्ष क्लेदकारक, अतिभयंकरशब्दयुक्त, दो तीन तरफसे वायु मिलकर टक्कर खानेवाला, अत्यन्त चक्कर खानेवाला, जिसकी गंधसे लोगोंके शरीरमें विकार उत्पन्न हो एवम् भाफ, सिकता, धूल, गर्दा, धूंआं आदिसे मिलाहुआ वायु विकारयुक्त होताहै॥६॥
जलको अनारोग्यत्व।
उदकन्तु खलु अत्यर्थविकृतगन्धवर्णरसस्पर्शवत्क्लेदबहुलमपक्रान्तजलचरविहङ्गमुपक्षीणजलाशयमप्रीतिकरमपगतगुणं विद्यात्॥७॥
जल इस प्रकारका रोगकारक होताहै। जैसे दुर्गंधयुक्त विकृतवर्णवाला और जिसका रस तथा स्पर्श बुरा हो, गिलगिला जिसको जलचर पक्षियोने त्याग दियाहो तथा जिसका जल सूख गयाहो, एवम् जिसका जल हानिकारक हो अथवा जिसके समीप जानेसे चित्त खराब होजाय और जलके गुणोसे रहित हो ऐसे जलको रोगकारक जानना चाहिये॥७॥
देशको अनारोग्यत्व।
देशं पुनः विकृतप्रकृतिवर्णगन्धरससंस्पर्शं क्लेदबहुलमुपसृष्टं सरीसृपव्यालमशकशलभमक्षिकामूषकोलूकश्माशानिकशकुनिजम्बुकादिभिस्तृणोलूपोपवनवन्तंप्रतानादिबहुलमपूर्ववदवपतितं शुष्कनष्टशस्यं धूम्रपवनं प्रध्मातपतत्रिगणमुत्कुष्टश्वगणमुद्भ्रान्तव्यथितविविधमृगपक्षिसंघमुत्सृष्टनष्टधर्म्मसत्यलज्जाचारगुणजनपदं शश्वत्क्षुभितो दीर्णसलिलाशयं प्रततोल्कापातनिर्घातभूमिकम्पमति भयारावरूपं रूक्षताम्रारुणसिताम्रजालसंवृतार्कचन्द्रतारकमभीक्ष्णं सम्भ्रमो द्वेगमिवसत्रासरुदितमिवसतमस्कमिवगुह्यकाचरितमिवाक्रन्दितशब्दबहुलञ्चाहितं विद्यात्॥८॥
देशको ऐसे लक्षण होने पर रोगकारक जानना चाहिये। जिस देशके स्वभाव, वर्ण¸ रस, गंध, स्पर्श यह सब बिगडगयेहों तथा संपूर्ण भूमिमें गिलगिलापन हो एवम् सांप, व्याल, मच्छर, टिडी, मक्खी, मूषक, उल्लू, गीध आदि श्मशान में रहनेवाले जानवर तथा गीदड आदिक बहुत हों। बहुत से घास और बेलें इनके फैलाव हों एवम् अनेक प्रकारकी बेलें उत्पन्न हो। पहिलेसे सब लक्षण विपरीत प्रतीति हों एवम् अपूर्व लक्षण दिखाई देतेहों बिना
बोये हुए अंटसंटअनेक प्रकारके घास उत्पन्न हुए हों, खेती सूख या नष्ट होगई हो, पवन धूएंसे युक्त हो पक्षीगण आकाशमें इधर उधर बहुत उडते हों गीदड और कुत्ते रोते हों, अनेक प्रकारके मृग और पक्षी व्याकुल हुए इधर उधर फिरते हों। एवम् उस देशमें धर्म, सत्य, लज्जा, आचार, शुभगुण यह सब नष्ट होगये हों तथा जलाशय सहसा क्षुभित हुए हों। और उस देशमें उल्कापात हो अर्थात् तारे टूटे, बिजली गिरे। भूकम्प हो, भारी आंधी आवे तथा देशका भयंकर रूप होजाय। चंद्रमा, सूर्य और तारागण कमी रूखे, कभी लाल, कभी सफेद एवम् मेघजालसे ढकेहुए निरन्तर ऐसे २ रूपमें दिखाई दिया करें और उस देशमें संभ्रम, उद्वेग, त्रास और रोनेकेसे लक्षण दिखाई दियाकरें निरन्तर अन्धकारसा छाया रहे तथा भूत, प्रेतोका घूमना और शब्द करना प्रतीत हुआकरे ऐसे लक्षणवालादेश भयानक रोगोंको उत्पन्न करनेवाला होताहै॥८॥
कालको अनारोगत्व।
कालन्तुखलुयथर्त्तुलिङ्गाद्विपरीतलिङ्गं मतिलिङ्गहीनलिङ्गञ्चाहितं व्यवस्येत्॥९॥
अब काल अर्थात् समयके रोगोत्पादक होनेके लक्षण कहतेहैं। जैसे ऋतुओंका अपने लक्षणोंसे विपरीत होना। जैसे जिस ऋतुमें जैसे लक्षण होनेचाहिये उससे अत्यन्त अधिक होना, बहुत कम होना, या न होना अथवा आगे पीछे होना। इसप्रकारके लक्षणवाला समय रोगोंको उत्पन्न करनेवाला होताहै॥ ९ ॥
इमानेवं दोषयुक्तांश्चतुरोभावान्जनपदोद्धं सकरान्वदन्तिकुशलाः। अतोऽन्यथाभूतांस्तुहितानाचक्षते॥१०॥
इस प्रकार वायु, जल, देश और काल इन चारोंके विकृतगुण होनेसे जनपदका उध्वंस होता है। अर्थात् जिस प्रान्त अथवा जिस देश या जिस द्वीपमें उपरोक्त चारों भावोंकी विकृतावस्था होजाती है वह देश, वह प्रान्त, वह द्वीप भयानक रोगयुक्त होकर नष्ट हो जाता है। इससे विपरीत अर्थात् अपने ठीक लक्षणवाले—वायु, जल, पृथ्वी, समय होनेसे सब मनुष्योंके लिये हितकारक होते हैं॥१०॥
विगुणेष्वपितखलु एतेषु जनपदोद्धंसनकरेषु भावेषु भेषजेनोपपाद्यमानानां न भयं भवति रोगेभ्य इति॥११॥
जब यह चारों भाव बिगडकर जनपदका उध्वंसन करते हुए रोगोंको उत्पन्न करते हैं उस समय भी विधियुक्त संस्कार करीहुई औषधियोंका उपयोग जिन मनुष्योंको कियाजाताहै उन मनुष्योंको जनपदोध्वंसनकारक रोगोंका भय नहीं होता॥११॥
भवन्ति चात्र। वैगुण्यमुपपन्नानां देशकालानिलाम्भसाम्। गरीयस्त्वं विशेषेणहेतुमत्संप्रवक्ष्यते॥१२॥
यहांपर कहा है कि देश, काल, वायु, जल इनका विकृत होजाना रोगोंके उत्पन्न करनेके लिये एक बडा भारी कारण होताहै॥ १२ ॥
वाताज्जलंजलाद्देशंदेशात्कालंस्वभावतः।
विद्याद्दुष्परिहार्य्यत्वाद्गरीयस्तरमर्थवित्॥१३॥
वायुसे जल, जलसे देश और देशसे काल स्वंभावसे ही दुर्निवार और अधिक रोगोत्पादक होते हैं॥१३॥
वाय्वादिषु यथोक्तानां दोषाणान्तुविशेषवित्।
प्रतीकारस्य सौकर्य्येविद्याल्लाघवलक्षणम्॥१४॥
वायु आदिक चारो भावोंके दोषोंकी विशेषताको जाननेवाला और वात, पित्त, कफ इन तीनो दोषोंकी विशेषताको जाननेवाला वैद्य उन रोगोका प्रतिकार करते हुए उनके लक्षणोंके हल्केपन आदिको जाने। अथवा यों कहिये कि इन चारों भावोंमे जलसे वायु, देशसे जल और कालसे देश रोगोत्पादक हेतुओंमें हल्के मानना चाहिये॥१४॥
चतुर्ष्वपितुदुष्टेषुकालान्तेषुयदानराः।
भेषजेनोपपाद्यन्तेनभवन्त्यातुरास्तदा॥१५॥
जब चारो भाव विगडकर देशको नष्ट करनेकें लिये प्रपन्न होते हैं अर्थात् वायु, जल, देश और काल यह चारो बिगडकर जब देशको नष्ट करते हैं तव जिन मनुष्योंको विधिवत् औषधियों का प्रयोग करा दियागया है अथवा कराया जाता है वह मनुष्य व्याधियोंसे पीडित नहीं होते॥१५॥
येषां न मृत्युसामान्यं सामान्यं न च कर्मणाम्।
कर्मपञ्चविधं तेषां भेषजं परमुच्यते॥१६॥
जिन मनुष्योके मृत्युसाम्य (पूर्णआयु होकर आवश्यकीय मृत्यु काल) नहीं एवम् किसी मारक विष आदिका प्रयोग आदि कोई मारक कर्म उपस्थित नहीं है उनको रोगशान्तिके लिये पंचक्रम द्वारा चिकित्सा करना परम उत्तम औषध कहा है॥१६॥
रसायनानां विधिवच्चोपयोगः प्रशस्यते।
शस्यते देहवृत्तिश्च भेषजैः पूर्वमुद्धृतैः॥१७॥
ऐसे समयपर जब कि जनपदोद्धंसनकारी भाव दिखाई पडे तो कोई उत्तम रसायन औषधीका (लाक्षादि तैलकी नित्य मालिश, विडंगरसायन, चावनप्राश आदि २) सेवन करना चाहिये। तथा जनपदोद्धंसनकारी भावोंके होनेसे प्रथम संग्रहकियेहुए औषधोद्वारा और हितकर अन्न आदि द्वारा देहकी रक्षा करता रहे॥१७॥
सत्यं भूतेदयादानं बलयोद्रेवताच्चैनम्। सद्वृत्तस्यानुवृत्तिश्च प्रशमोगुप्तिरात्मनः॥१८॥ हितं जनपदानाञ्च शिवानामुपसेवनम्।सेवनं ब्रह्मचर्यस्य तथैवब्रह्मचारिणाम्॥१९॥ सङ्कथाधर्मशास्त्राणां महर्षीणां जितात्मनाम्। धार्मिकैः साच्चिकैर्नित्यं सहास्यावृद्धसम्मतैः॥२०॥ इत्येतद्भेषजंप्रोक्तमायुषः परिपालनम्।येषां न नियतो मृत्युस्तस्मिन्काले सुदारुणे॥२१॥
जब जनपदके उद्धंसनकारी भाव उत्पन्न होते दिखाई दें व्यथवा उत्पन्न होजांय तव मनुष्यों को अपनी शरीर रक्षा के लिये एवम् कुटुम्बसम्बन्धी तथा देशकी रक्षा के लिये जो यत्न करना चाहिये उनका वर्णन करते हैं। वह ये हैं—सत्य भाषण, जीवमात्रपर दया, दान, देवताओंके अर्पण बली देना, देवताओंका पूजन करना, श्रेष्ठ आचरणका धारण करना, मंत्र पाठादिकोंसे अपनी आत्माको रक्षित रखना, देशके हितकारक मंगलाचरण करना, अथवा शिवजीका पूजन करना, ब्रह्मचर्यका पालन एवम् अथवा उस देशको त्यागकर अन्य शुभदेश में रहना, उत्तम शास्त्रों की धर्मसंबंधी कथाओंकोसुनना।महर्षि महात्मा तथा ऋषियोंके उपदेश श्रवण करना, धर्मात्माओं, सत्पुरुषों तथा वृद्धजनोंकी आज्ञानुसार नित्य आचरण करना और उन्हीं महात्माओंके पास निवास करना यह सब जनपदोद्धंसनके समय मनुष्योंको आयुके देनेवाले परम औषधियोंका कथन किया है। उस दारुण कालमें जिनकी आवश्यकीय नियत मृत्यु नहीं है उनके लिये उपरोक्त कर्मोंका सेवन आयुवर्द्धक और परमहितकर होताहै। तथा अकालमृत्युसे बचानेवाला होता है (मरणासन्न मनुष्योंको परलोकमें हितकर होता है)॥१८॥१९॥२०॥२१॥
अग्निवेशका प्रश्न।
इति श्रुत्वाजनपदोद्धं सनेकारणानि आत्रेयस्यभगवतः पुनरपिभ-
गवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच। अथ खलु भगवन्! कुतो मूलमेषां वाय्वादीनां वैगुण्यमुत्पद्यतेयेनोपपन्नाजनपदमुद्धंसयन्तीति॥२२॥
इस प्रकार भगवान् आत्रेयजीके मुखसे जनपदोध्वंसनके कारणांको सुनकर अग्निवेश फिर भगवान् आत्रेयजीसे पूछनेलगे कि हे भगवन्! इन वायु आदिक चारों भावोंके विगड जानेका क्या कारण है? जिससे ग्रह चागे विगडकर जनपदका उद्धंसन करते हैं सो कृपाकर कथन कीजिये॥२२॥
आत्रेयका उत्तर।
तमुवाच भगवानात्रेयः। सर्वेषामनिवेश। वाय्वादीनां यद्वैगुण्यमुत्पद्यतेतस्य मूलमधर्मस्तन्मूलञ्चासत्कर्मपूर्वकृतम्। तयो योनिः प्रज्ञापराध एव॥२३॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान्जी कहनेलगे कि हे अग्निवेश! इन वायु आदिक चारों भावोंके विकारी होनेका कारण अधर्म है। और उस अधर्मका कारण प्रथम बुरे कर्मोका करनाहै। वह बुरे कर्म बुद्धिके अपराधसे होतेहैं॥२३॥
तद्यथा—यदा देशनगरनिगमजनपदप्रधानधर्ममुत्क्रम्य अधर्मेण प्रजां प्रवर्त्तयन्ति तदाश्रितोपाश्रिताः पौरजनपदाव्यवहा रोपजीविनश्चतमधर्ममभि वर्द्धयन्ति॥२४॥
उसीको कथन करते हैं।जब देश, नगर, निगम और जनपढ़के मालिक अर्थात् राजा आदि प्रधान पुरुष धर्मको उल्लंघनकर प्रजासे अधर्मका वर्ताव करते हैं तव उनके आश्रित और उपाश्रित अर्थात् मंत्री मुख्याध्यक्ष तथा अन्य अहलकार और ग्रामोंके नम्बरदार आदिक अथवा अन्य ऐसे पुरुप जो कि उन राजा आदिकोके यहां मुख्य मानेजाते हो उनके आश्रयसे अपना आजीवन करनेवाले (खुशामदखोरे) उस अधर्मको लेकर खूब फैला देतेहै अथवा यो कहिये कि, राजा आदि देशके प्रधान पुरुष जब अपनी बुद्धिके अपराधसे थोडा बहुत भी अधर्म करनेलगते हैं तो उनके आश्रय रहकर अपनी आजीविकों चलानेवाले खुशामदखोर लोग उस अवर्मको खूब वढादेतेहैं॥ २४ ॥
ततः सोऽधर्मः प्रसभं धर्ममन्तर्धत्ते। ततस्तेऽन्तर्हितधर्माणोदेवताभिरपित्यन्यन्ते। तेषां तथान्तर्हितधर्माणामधर्मप्रधानानामपक्रान्तदेवतानामृतवोव्यापद्यन्ते। तेननापो यथा कालं देवो-
**वर्षति। विकृतं वा वर्षतिवातानसम्यगभिवान्तिक्षितिर्व्यापद्यतेसलिलानि उपशुष्यन्ति। ओषधयः स्वभावं परिहायापद्यन्ते विकृतिम्। तत उद्धं सन्तेजनपदाः स्पर्शाभ्यवहार्य्यदोपात्॥२५॥ **
वह वृद्धिको प्राप्तहुआ तथा सर्वतः फैलाहुआ अधर्म, धर्मको छिपादेताहै अर्थात् नष्टप्राय बनादेताहै। तब उन लोगोंको धर्मरहित जानकर और अधर्म प्रधान होनेसे उस देशके रक्षक देवतागण उस देशको त्याग जातेहैं। फिर उन धर्मरहित और अधर्मप्रधान तथा देवताओंसे त्यागेहुए देशोंमें ऋतुएं विकृत होजाती हैं।तबऋतुओंके विकृत होनेसे इन्द्रदेव समयपर वृष्टि नहीं करते अथवा वर्षाकालसे आगे पीछे या विकृतरूपमें वृष्टि होतीहै और वायु भी हितकारक शुभगतिवाला नहीं रहता। पृथ्वी दोषयुक्त होजातीहै, जलाशय सूख जातेहैं जडी बूटी आदि अपने स्वभावको छोडकर विकारयुक्त होजाती हैं।तब इन सबके विकृत होनेसे मनुष्योंमें रोग उत्पन्न होते हैं और परस्पर संसर्ग और अन्नपान आदि संसर्गोंसे वह रोग देशमें फैलकर समस्त लोगोंको नष्ट करते हैं॥२५॥
युद्धका कारण।
तथा शस्त्रप्रभवस्य अपि जनपदोद्धंसस्य अधर्म एव हेतुर्भवति। येऽतिवृद्धलोभक्तोधरोषमानास्ते दुर्बलानवमत्य आत्मस्वजनपरोपघातायशस्त्रेणपरस्परमभिक्रामन्तिपरान्वाभिकामन्तिपरैर्वाभिक्राम्यन्तेरक्षोगणादिभिर्वाविविधैर्भूत सङ्ङ्घैस्तमधर्ममन्यद्वाप्यपचारान्तरमुपलभ्याभिहन्यन्ते॥२६॥
तथा राजाओंमें परस्पर शस्त्रयुद्ध होना भी जनपदोध्वंसन कहा जाता है उसका कारण भी अधर्म ही होताहै। जब मनुष्योंमें लोभ, क्रोध, रोष और अभिमान बहुत, बढजाता है तब वह दुर्बल मनुष्योंका, गरीबोंका, निरपराधोंका अपमान करनेलगते हैं फिर वह अधर्मी लोग अपने और परायेको कुछ न समझकर लोभ और अहंकारसे न अंधे बनेहुए शस्त्रादिकोंसे उनको मारनेके लिये परस्पर आक्रमण करते हैं और दूसरोंको मारनेके लिये आक्रमण करते हैं। तथा उसके ऊपर अन्य मनुष्य भी उसी प्रकार आक्रमण करते हैं। ऐसे समय अनेक प्रकारके भूत, प्रेत, राक्षस आदि भी उन अधर्मके आचरण करनेवालोंको जहां पाते नष्टभ्रष्ट कर डालतेहैं॥२६॥
अभिशापका हेतु।
तथाभिशापस्याप्य धर्म एव हेतुर्भवतियेलुप्तधर्माणोधर्मादपेताः ते गुरुवृद्धसिद्धर्षिपूज्यानवमत्य अहितानि आचरन्ति। ततस्ताः प्रजागुर्वादिभिरभिशप्ताभस्मतामुपयान्ति।प्रागण्यभूदनेकपुरुषकुलविनाशाय॥२७॥
तथा अभिशापका भी अधर्म ही कारण होताहै । जब धर्मरहित मनुष्य अधर्मसे गुरुजन, वृद्धजन, सिद्ध, ऋषि तथा अन्य पूज्य महात्माओंका अपमान करते हैं और अहितकर्मका आचरण करतेहै तब उन गुरुजन आदिकोके अभिशापसे अधर्मी प्रजा नष्टताको प्राप्त होजातीहै। ऐसे गुरुजनोंके अभिशापसे पहिलेके युगमें अनेक पुरुषोके वंश नष्ट होगयेहै॥२७॥
नियतप्रत्ययोपलम्भान्नियताश्चपरे।
अनियतप्रत्ययोपलम्भादनियताश्चापरे॥२८॥
बहुतसे मनुष्य आयुके नियत होनेसे पूर्ण आयुको भोगते हैं। बहुतसे आयुके हैं अनिश्चित होनेसे अकालमें ही अर्थात् बाल अथवा युवावस्थामें ही मृत्युको प्राप्त होते हैं। (तात्पर्य यह है कि अधर्मकी वृद्धिसे आयु नियत न रहकर अकालमे मृत्यु होती है और धर्मके रहने से मनुष्य पूर्णआयु भोगते हैं।जब अधर्म नहीं होताथा तब वर्तमान समयके अनुसार अनियत मृत्युमें भी नहीं होतीथीं।)॥२८॥
प्रागपि चाधर्म्मादृते नाशुभोत्पत्तिरन्यतोऽभूत्। आदिकालेहि अदितिसुतसमौजसोऽतिविमलविपुलप्रभावाः प्रत्यक्षदेवदेवर्षिधर्म्मयज्ञविधिविधानाः शैलेन्द्रसारसंहतस्थिरशरीराः प्रसन्नवर्णेन्द्रियाः पवनसमबलजवपराक्रमाश्चारुफिचोऽभिरूपप्रमाणाकृतिप्रसादोपचयवन्तः सत्यार्जवानृशंस्य दानदमनियमतप उपवासब्रह्मचर्य्यव्रतपराव्यपगतभयरागद्वेषमोहलोभक्रोधशोकमानरोगनिद्वातन्द्राश्रक्लमालस्य परिग्रहाश्च पुरुषाबभूवुरमितायुषः॥२९॥
पूर्वकाल (सत्ययुग) मे भी अधर्मके बिना कभी किसी अशुभकी उत्पत्ति नहीं होतथी देखिये पहिले समयमें मनुष्य दैत्योके समान बलवान् होतेथे अत्यन्त विमल
और विपुल प्रभावशाली होतेथे देवता तथा देवर्षि उनको प्रत्यक्ष मिलतेथे, वह लोग धर्म और यज्ञोंको विधिपूर्वक किया करतेथे, उनके शरीर पहाडोंके समान सारयुक्त संगठित और स्थिर रहतेथे, वर्ण और इन्द्रियें सबप्रसन्न होतीथीं पवनके समान बल और वेग तथा पराक्रमयुक्त होतेथे।उनके नितम्ब तथा अन्य शरीरके अंग उत्तम होतेथे, उनके शरीर सुन्दर गठनयुक्त तथा उचित प्रमाणवाले और सुन्दर आकार तथा प्रसन्नता एवम् पुष्टियुक्त होतेथे। वह लोग सत्य, आचार, दयालुता, लज्जा, दान, दम, नियम, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य और व्रत इनका भलेप्रकार पालन करतेथे अर्थात् इनका सेवन करना ही अपना परम कर्त्तव्य मानतेथे। उस समय उनके समीप, भय, राग, द्वेष, मोह, लोभ, क्रोध, शोक, अहंकार, रोग, निद्रा, तन्द्रा, श्रम, क्लम और आलस्य नहीं आतेथे और वह अन्यकी वस्तुके हरनेकी कभी इच्छा नहीं रखतेथे। इसीलिये उनकी आयु भी बहुत बडी होतीथी॥ २९ ॥
तेषामुदारसत्त्वगुणकर्म्मणामचिन्त्यत्वात्रसवीर्य्यविपाकप्रभावगुणसमुदितानिप्रादुर्बभूवुः शस्यानिसर्वगुणसमुदितत्वात्पृथिव्यादीनां कृतयुगस्यादौ। भ्रश्यति तु कृतयुगे केषाञ्चिदत्यादानात्साम्पन्निकानां शरीरगौरवमासीत्।सत्त्वानां गौरवाच्छ्रमः श्रमादालस्य मालस्यात्सञ्चयः सञ्चयात्परिग्रहः परिग्रहाल्लोभः प्रादुर्भूतः॥३०॥
उनके उदारभाव तथा सत्त्वगुण एवम् शुभकर्मोंके फलसे रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव इन उत्तम गुणोंयुक्त खेतियें तथा औषधियें उत्पन्न होती।उस समयकी अवस्था अब स्मरण भी नहीं की जासकती। क्योंकि तब सत्ययुगके प्रारम्भ में पृथ्वी आदिक सर्वगुणसंपन्न होतेथे।सत्ययुगके व्यतीत होजानेपर कुछ मनुष्योंके अत्यन्त आदान (ग्रहण) करनेसे सम्पन्न होकर शरीरमें गौरव उत्पन्न हुआ।गौरव होनेसे श्रम उत्पन्न हुआ, श्रमसे आलस्य, आलस्यसे संचय और संचयसे परिग्रह तथा परिग्रहसे7 लोभ उत्पन्न हुआ॥३०॥
ततः कृतयुगे गते त्रेतायां लोभादभिद्रोहः। अभिद्रोहानृतवचनमनृतवचनात्कामक्रोधमानद्वेषपारुष्याभिघातभयतापशोकचित्तोद्वेगादयः प्रवृत्ताः॥३१॥
सत्ययुगके चलेजानेपर त्रेतायुगमें लोभके होनेसे अभिद्रोह उत्पन्न हुआ। अभिद्रोहसे असत्यभाषण उत्पन्न हुआ। असत्यभाषणसे काम, कामसे क्रोध,
क्रोधसे मान, मानसे द्वेष, द्वेषसे कठोरपन, कठोरपनसे अभिघात, अभिघातसे भय, ताप, शोक, चित्तमें उद्वेग आदिक उत्पन्न हुए॥३१॥
ततस्त्रेतायां धर्म्मपादोऽन्तर्द्धानमगमत्। तस्यान्तर्द्धानात्पृथिव्यादीनां गुणपादप्रणाशोऽभूत्। तत्प्रणाशकृतश्चशस्यानांस्नेहवैमल्यरसवीर्य्यविपाकप्रभावगुणपादभ्रंशः॥३२॥
ऐसा होनेसे त्रेतायुगमे धर्मका एकपाद अन्तर्धान होगया। उसके अन्तर्धानसे पृथ्वी आदिके गुणोंमें भी एक पादकी न्यूनता उत्पन्न होगई है। पृथ्वी आदिमे गुणोंके एकपाद नष्ट होनेसे औषधी, अन्न आदिकोंके स्नेह, विमलता, रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव आदि गुणोंका एकपाद नष्ट होगया॥३२॥
ततस्तानिप्रजाशरीराणिहीनगुणपादैर्हीयमानगुणैश्चाहारविहारैरयथापूर्वमुपष्टभ्यमानानिअग्निमारुतपरीतानिप्राग्व्याधिभिर्ज्वरादिभिराक्रान्तानि अतः प्राणिनोह्रासमवापुरायुषः क्रमश इति॥३३॥
जब द्रव्योंके गुणोंका एकपाद नष्ट होगया तो इन द्रव्यादिकांके और पृथिव्यादिकोके एकपाद गुणहीन होनेसे संपूर्ण प्राजागणोके शरीरोमें भी एकपाद गुणकी हीनता होगई।तब एकपाद गुणसे हीन शरीर होनेसे आहार विहारादिकोंमें भी ययाक्रम न्यूनता प्राप्त होगई। तथा अग्नि और वायुके व्यतिक्रमसे पहिले ज्वरादिरोगोंसे शरीर आक्रान्त हुआ फिर क्रमपूर्वक मनुष्योंकी आयुका भी हास होने लगा॥३३॥
भवति चात्र।
युगे युगे धर्म्मपादः क्रमेणानेनहीयते।
गुणपादश्च भूतानामेवं लोकः प्रलीयते॥३४॥
यहांपर कहा है कि युगयुगमें धर्मका एकएक पाद इसी क्रमसे क्षीण होता रहा और उसके क्षीण होनेसे पृथिव्यादिके गुणोंमें द्रव्योंके प्रभावोंमें एवम् मनुष्योंके शरीरमें क्रमसे क्षीणता होती रही॥३४॥
संवत्सरशते पूर्णे याति संवत्सरः क्षयम्।
देहिनामायुषः काले यत्र यन्मानमिष्यते॥३५॥
सौवर्ष व्यतीत होजानेपर एक शताब्दी क्षय होजाती है इसी प्रकार मनुष्योंकी आयु भी सौवर्ष व्यतीत होनेपर क्षीण होजाती है कलियुगमें आयुका सौवर्षपर्यन्त ही प्रमाण है॥३५॥
इति विकाराणां प्रागुत्पत्तिहेतुरुक्तो भवति॥३६॥
इस प्रकार रोगोंकी प्रथम उत्पत्तिके कारणको कथन कियागया है॥३६॥
एवं वादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच। किन्नुखलुभगवन्! नियतकालप्रमाणमायुः सर्वं नवेति भगवानुवाच। इह अग्निवेश! भूतानामायुर्युक्तिमपेक्षते॥३७॥
इस प्रकार कथन करते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन्! क्या आयुका प्रमाण सौवर्षका निश्चयात्मक है या नहीं? अर्थात् सब मनुष्योंकी आयु सौवर्षकी नियत है या नहीं। यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहने लगे कि, हे अग्निवेश! संपूर्ण मनुष्योंकी आयु युक्तिकी अपेक्षा करती है (प्रारब्ध और पुरुषार्थके योगाधीन आयुका प्रमाण है)॥३७॥
कर्मोंका वर्णन।
‘दैवेपुरुषकारे च स्थितं ह्यस्य बलाबलम्।
दैवमात्मकृतं विद्यात्कर्मयत्पूर्वदैहिकम्॥३८॥
स्मृतः पुरुषकारस्तु क्रियते यदि हापरम्।
बलाबलविशेषोऽस्तितयोरपिचकर्म्मणोः॥ ३९ ॥
आयुका बलाबल दैव और पुरुषकारके आधीन है। मनुष्य के पूर्वजन्मके कियेहुए कर्मको दैव कहते हैं और इस जन्मके कियेहुए कर्मको पुरुषकार कहते हैं।इन दोनों प्रकारके कर्मोंमें भी बलाबलकी विशेषता होती है॥३८॥३९॥
कर्मके भेद।
दृष्टं हि त्रिविधं कमहीनं मध्यममुत्तमम्।
तयोरुदारयोर्युक्तिर्दीर्घस्य स्वसुखस्य च॥४०॥
यह द्विविध कर्म तीन प्रकारका होताहै हीन, मध्यम और उत्तम। इनमें दैव और पुरुषार्थ दोनों उत्तम होनेसे मनुष्यके सुख और आयुकी नियत अवस्था होतीहै अर्थात् जिस मनुष्यका दैव और पुरुषकार यह दोनों उत्तम होतेहैं वह सुखपूर्वक सौवर्ष जीता रहता है॥४०॥
नियतस्यायुषोहेतुर्विपरीतस्य चेतरा।
मध्यमामध्यमस्येष्टाकारणं शृणुचापरम्॥ ४१ ॥
यह तो हुआ आयुके सौवर्षका प्रमाण।और इससे विपरीत अर्थात् दैव और पुरुषकारके हीनबल होनेसे मनुष्योंकी आयु भी अल्प होती है। दैव और पृरुषकार मध्यम होनेसे आयु भी मध्यम होतीहै। अब दैव और पुरुषकारमें भी विशेषताको श्रवण करो॥४१॥
अन्य कारण।
दैवं पुरुषकारेण दुर्बलं ह्युपहन्यते। दैवेनचेतरत्कर्म्मविशिष्टेनोपहन्यते॥४२॥ दृष्ट्वायदेके मन्यन्ते नियतं मानमायुषः। कर्म किञ्चित्कचित्काले विपाके नियतं महत्। किञ्चित्त्वकालनियतं प्रत्ययैः प्रतिबोध्यते इति॥४३॥
यदि दैव दुर्बल हो और मनुष्यका किया हुआ यह लौकिककर्म ( पुरुषकार ) बलवान् हो तो पुरुषकार दैवको नष्ट कर देता है। यदि दैव बलवान् हो और पुरुषकार दुर्बल हो तो दैव (प्रारब्धकर्म ) पुरुषकारको नष्ट कर देता है॥४२॥ यह देखकर कोई कहते हैंकि आयुका प्रमाण विधाताने जिसका जैसा नियतकर दियाहै वही आयुका प्रमाण है। कोई कहते है कि आयुका प्रमाण कर्माधीन है। जब किसी महाफल कर्मका विपाकका समय आता है वही आयुका नियत प्रमाण है कोई कहते हैं कि आयुका नियत समय नहीं होता क्योकि कोई किसी अवस्थामें कोई किसी अवस्थामें मृत्युको प्राप्त होता है। कोई भी नहीं इस प्रकारका महाफल कर्मही आयुका कारण प्रतीत होता है॥४३॥
तस्मादुभयदृष्टत्वादेकान्तग्रहणमसाधुनिदर्शनमपिचात्र उदाहरिष्यामः। यदि हि नियतकालप्रमाणमायुः सर्वंस्यात्तदायुष्कामाणां नमन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनाद्याःक्रिया इष्टयश्च प्रयुज्येरन्॥४४॥
इसलिये इन सब पक्षोंको देखकर विना प्रमाण किसी एकको मानलेना अन्याय है सो सब प्रमाण निश्चयात्मक आयुके विषयका उदाहरण देकर कथन करते हैं। यदि विधाताका रचाहुआ ही प्रत्येक व्यक्तिकी आयुका प्रमाण नियत है तो संपूर्ण आयुकी कामनावाले मनुष्यको मंत्र, औषधी, मणि, मंगलकर्म, बलिदान, उपहार, होम, नियम, प्रायश्चित्त, उपवास, स्वस्त्ययन, नम्रता, शुभ आचरण आदि करनेकी कोई आवश्यकता न होती। अर्थात् दीर्घायुकी कामनासे इन सव शुभकर्मोको तथा यज्ञादिकोंको कोई भी नहीं किया करता। क्योंकि आयुका प्रमाण तो नियत था ही फिर शुभकर्मौंकी क्या आवश्यकता थी॥४४॥
न उद्भ्रान्तचण्डचपलगोगजोष्ट्रखरतुरगमहिषादयः पवनादयश्च दुष्टाः परिहार्य्याः स्युः नप्रपातगिरिविषमदुर्गाम्बुवेगाः। तथा न प्रमत्तोन्मत्तोद्धान्तचण्डचपलमोहलोभाकुलमतयोनारयोनप्रवृद्धोऽग्निर्नचविविधविषाश्रयाः सरीसृपोरगादयः। न साहसं न देशकालचर्य्याननरेन्द्रप्रकोप इत्येवमादयो भावानाभावकराः स्युः आयुषः सर्वस्य नियतकालप्रमाणत्वात्॥४५॥
तथा उद्भ्रांत, चंड, चपल हुए गौ, हाथी, ऊंट, गधा, घोडा, भैंसा तथा दुष्ट पवन आंधी आदिसे बचनेकी कोई आवश्यकता न होती। एवम् पहाड आदिसे गिरनेका, विषमस्थानोंमें जानेका, वेगवान् नदी आदिमें बहनेका भी कोई भय न होता और न उपरोक्त कारणोंसे आयु नष्ट हुआ करती। इसीप्रकार प्रमत्त, उन्मत्त, उद्भ्रांत, चंड, चपल, मोह तथा लोभसे व्याकुल मतिवाले शत्रुओंसे भी कोई भय न होता। और प्रबल अग्नि, अनेक प्रकारके विषभरे सर्प आदिकोंसे बचनेकी भी कोई आवश्यकता न होती और साहस तथा देश, कालका विचार राजाओंके क्रोधका भय आदिक मनुष्योंकी आयुमें हानिकारक न होते। यदि सबमनुष्योंकी आयु नियत समयपर निश्चित होती। इसलिये आयुका नियत मानना ठीक नहीं है॥४५॥
नचानभ्यस्ताकालमरणभयनिवारकाणामकालमरणभयमागच्छेत् प्राणिनाम्। व्यर्थाश्चारम्भकथाप्रयोगबुद्धयः स्युर्महर्षीणां रसायनाधिकारी॥४६॥
और भी कहतेहैं। यदि अकालमृत्युका अभाव है तो मनुष्योंके हृदय में अकाल मृत्युका भय भी नहीं होनाचाहियेथा और आयुके बढानेवाले रसायनप्रयोग जो रसायनाधिकारमें महर्षियोंके कथन कियेंहैं वह सबभी वृथा और झूठे मानेजायेंगे॥४६॥
नापीन्द्रोनियतायुवंशत्रुं वज्रेणाभिहन्यात्। नाश्विनावार्त्तं भेषजेनोपपादयेताम्। नर्षयो यथेष्टम् आयुस्तपसाप्राप्नुयुर्न च विदितवेदितव्यामहर्षयः ससुरेशाः सम्यकूपश्येयुरुपदिशेशुराचरेयुर्वा॥४७॥
तथा इन्द्र नियत आयुवाले अपने शत्रुओंको वज्रसे नहीं मारसकता और न अश्विनीकुमार औषधियों द्वारा किसीको आरोग्य कर सकते अर्थात् उनकी चिकित्सा
ही वृथा जाती और ऋषिलोग तपके प्रभाव से दीर्घायुको प्राप्त न होते। तथा प्रत्यक्षदर्शी महर्षिगण और इन्द्र भूत, भविष्य वर्तमानको जानते हुए आयुवर्द्धक और हितकारक आयुर्वेदका उपदेश न करते। एवम् स्वयं भी यज्ञादिक न किया करते॥४७॥
अपिचसर्वचक्षुषामेतत्परं यदैन्द्रं चक्षुरिदञ्चास्माकं तेन प्रत्यक्षं यथा पुरुषसहस्राणामुत्थायोत्थायाहवं कुर्वतामकुर्वताञ्चातुल्युष्ट्वंतथा जातमात्राणामप्रतीकारात्प्रतीकाराच्च अविषाविषप्राशिनां चापि अतुल्यायुष्ट्वं न च तुल्योयोगक्षेम उदपानघटानां चित्रघटानाञ्चोत्सीदताम्॥४८॥
सर्वज्ञ महर्षियों तथा प्रत्यक्षदर्शी इन्द्रका तो कहना ही क्या है परन्तु हम लोग भी प्रत्यक्ष देखते हैं कि सहस्रों मनुष्यों में जो मनुष्य-लडाई युद्ध आदिमें जातेहैं और जो कभी किसी लडाई, दंगेमें शामिल न होते उनकी आयुमें भी तुल्यता नहीं है अर्थात् संग्राम आदिमें जानेवाले शीघ्र मृत्युको प्राप्त होतेहैं और जो संग्राममे नहीं जाते वह उस तात्कालिक मृत्युसे बचे रहते है।इसीप्रकार जो मनुष्य जन्म लेते ही औषधादि द्वारा रक्षित रहते है और जो नहीं रहते उनकी आयुमें भी तुल्यता नहीं होती। जिन मनुष्योंने प्राणनाशक विष खाया है और जिन्होंने नहीं खाया उनकी आयु भी तुल्य नहीं होती। जो जल पीनेके पात्र नित्यप्रति वर्तनेमें आतेहैं और जो चित्रयुक्त पात्र विना वर्त्ते रक्खे रहतेहैं उनकी आयुमें तुल्यता नहीं है अर्थात् नित्य वर्त्ते हुए पात्र शीघ्र घिसकर टूट जाते है और जो रक्खे रहते हैं वह चिरकालतक वैसे ही पडे रहतेहैं॥४८॥
तस्माद्धितोपचारमूलं जीवितमतो विपर्य्ययान्मृत्युः॥ अपि च देशकालात्मगुणविपरीतानां कर्मणामाहारविकाराणाञ्चक्रि योपयोगः॥४९॥
इसलिये मनुष्यका जीवन हित उपचारके आश्रित है। इससे विपरीत अर्थात्अहित सेवनसे आयु नष्ट होतीहै। तथा देश, काल और सात्म्यके विपरीत कर्मोके करनेसे एवम् आहारविहारके अनुचित उपयोगसे भी अकालमें आयु नष्ट होतीहै॥४९॥
सम्यक्सर्वातियोगसन्धारणमसन्धारणमुदीर्णानाञ्च गतिमतां सहसानाञ्च वर्जनमारोग्यानुवृत्तौ उपलभामहेहेतुमुपदिशामःसम्यक्पश्यामश्चेति॥५०॥
सबप्रकारके अतियोगोंको न करना तथा मलमूत्रादि वेगोंको न रोकना और उचित रीतिपर नित्य भ्रमण करना, खोटे साहसोंको त्याग देना यह सबमनुष्योंको आरोग्यरखनेवाले कारण हैं।यह हमको निश्चय है और ऐसा ही हम देखते भी हैं तथा ऐसा ही कथन करते हैं॥५०॥
अग्निवेशका प्रश्न।
अतः परमग्निवेश उवाच। एवं सति अनियतकालप्रमाणायुषां भगवन्! कथं कालमृत्युरकालमृत्यु र्भवतीति॥५१॥
इसके उपरान्त अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन्! यदि आयुका प्रमाण निश्चित नहीं है तो कालमृत्यु और अकालमृत्यु कैसे होतीहै अर्थात् कालमृत्यु और अकालमृत्युमें क्या भेद है॥५१॥
कालमृत्युका वर्णन।
तमुवाच भगवानात्रेयः। श्रूयतामग्निवेश! यथा यानसमायुक्तोऽक्षः प्रकृत्यैवाक्षगुणैरुपेतः स्यात्। स च सर्वगुणोपपन्नोवाह्यमानो यथा कालं स्वप्रमाणक्षयादेवावसानं गच्छेत्तथायुः शरीरोपगतं बलवतः प्रकृत्यायथावदुपचर्य्यमाणं स्वप्रमाणक्षयादेव अवसानं गच्छति॥५२॥ समृत्युः काले यथा च स एवाक्षोऽतिभाराधिष्ठितत्वाद्विषमपथाद-पथादक्षचक्रभङ्गाद्वाह्यवाहकदोषादनिर्मोक्षात्पर्य्यसनादनुपाङ्गाच्चान्तराव्यसनमापद्यते॥५३॥ तथा युरप्ययथा बलमारम्भाद यथाग्न्यभ्यवहरणाद्विषमाभ्यवहरणाद्विषमशरीरन्यासादतिमैथुनादसत्संश्रयादुदीर्णवेगविनिग्रहात्।विधार्य्यवेगाविधारणाद्भूतविषवाय्वग्न्युपतापादभिघातादाहारप्रतीकारविवर्जनाच्चान्तराव्यसनमापद्यते। समृत्युरकाले॥५४॥
** **यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! सुनो जैसे रथमें लगा हुआ रथचक्रका मध्यमभाग (अक्षी) अपने स्वाभाविक गुणों से युक्त, हुआ सर्वगुण सम्पन्न होनेपर भी चलते चलते जीर्ण होजानेपर यथासमय अपनी शक्तिके क्षय होजानेसे नष्टभ्रष्ट होजाताहै वैसे ही इस शरीरकी आयु भी बलवान् मनुष्यकी प्रकृतिके गुणोंसे यथायोग्य निर्वाहित होतीहुई अपने प्रमाण के क्षय होनेसे नाशको
प्राप्त होजातीहै।वही इसका मृत्युकाल है अर्थात् उसको कालमृत्यु कहतेहैं और जैसे उस रथचक्रका अक्ष अत्यन्त भार लादनेसे अथवा ऊंचेनीचे विषम रास्तेपर चलानेसे, कुमार्ग लेजानेसे अथवा, चकके कोई अंग अंग होजानेसे या चलानेवाले वाहक आदिके दोषसे तथा उसकी कील आदि नखडजानेसे वह चक्रमण्डल नष्टभ्रष्ट होजाताहै वही उसकी अकालमृत्यु है। उसी प्रकार आयु और बलसे विपरीत शरीर की चेष्टाओंको करनेसे अनिके बलसे अधिक भोजन करनेसे, विषम आहारके शरीरकी विषमावस्था होनेसे अधिक मैथुन करनेसे दुष्टोंके संगसे आयेहुए मलादि वेगोंको रोकनेसे, काम, क्रोधादि वेगोंको न रोकनेसे, भूत, विष, अग्नि, उपताप, चोट इनके संयोगसे, आहारके न करनेसे मनुष्य पूर्णआयुको प्राप्त न होकर बीचमेंही मृत्युको प्राप्त होजाताहै। इसीको अकालमृत्यु कहते है॥५२॥५३॥५४॥
तथा ज्वरादीनप्यातङ्कान्मिथ्योपचारितानकालमृत्यून्पश्याम इति॥५५॥
तथा ज्वरादिरोगोंका मिथ्या उपचार करनेसे भी अकालमृत्यु देखनेमें आती है॥५५॥
अग्निवेशका प्रश्न।
अथाग्निवेशः पप्रच्छकिन्नुखलुभगवन्! ज्वरितेभ्यः पानीयमुष्णं भूयिष्ठं प्रयच्छन्ति भिषजोन तथाशीतम्। अस्ति च शीतसाध्योधातु र्ज्वरकर इति॥५६॥
इसके उपरान्त अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन्! प्रायःऐसा देखनेमें आता है कि जैसे ज्वरार्दित मनुष्योंको प्रायःगर्मजलही पीनेके लिये दियाजाताहै वैसे शीतलजल नहीं दियाजाता। और शीतक्रिया साध्य धातु भी ज्वरको उत्पन्न करनेवाली होती है इसलिये उन ज्वरोंमें शीतलजल क्यों नहीं दियाजाता॥५६॥
ज्वर में उष्णजलका विधान।
तमुवाच भगवानात्रेयो ज्वरितस्य कायसमुत्थानदेशकालानभिसमीक्ष्यपाचनार्थपानीयमुष्णं प्रयच्छन्तिभिषजः। ज्वरोह्यामाशयसमुत्थः, प्रायो भेषजानि चामाशयसमुत्थानां विकाराणां पाचनवमनापतर्पणानिशमनानि भवन्तिपाचनार्थञ्चपानीयमुष्णं तस्मादेतज्ज्वरितेभ्यः प्रयच्छन्ति भिषजो भूयिष्ठम्॥५७॥
तब भगवान् आत्रेयजी अग्निवेशसे कहनेलगे कि ज्वरवाले मनुष्य के शरीर, कारण, देश, काल इन सबको विचारकर आमदोषको पचाने के लिये वैद्यलोग गर्मजल पीनेको देते हैं। इसका कारण यह है कि ज्वर—आमाशयसे उत्पन्न होताहै और प्रायःआमाशय से प्रगट होनेवाले रोगमात्रको पाचन, वमन, लंघन आदिकोंसे शान्त करते हैं। और आपके पचानेके लिये गर्म जलका देना उत्तम मानाहै। इसलिये वैद्यलोग ज्वरवाले मनुष्यको अधिकतर गर्मजल ही पिलाते हैं ॥ ५७ ॥
उष्णजलके गुण।
तद्ध्येषां पीतं वातमनुलोमयति अग्निमुदर्य्यमुदीरयति। क्षिप्रं जरां गच्छतिश्लेष्माणञ्च परिशोषयतिस्वल्पमपिच पीतं तृष्णाप्रशमनायोपपद्यतेतथायुक्तमपिचैतन्नात्यर्थोत्सन्नपित्तेज्वरेसदाहभ्रमप्रलापातिसारेवा प्रदेयमुष्णेन हिदाहभ्रमप्रलापातिसाराभूयोऽभिवंर्द्धन्ते शीतेनोपशाम्यन्तीति॥५८॥
ज्वरार्दित मनुष्योंको गर्मजल पिलानेसे उनके शरीरमें वह जल—वायुको अनुलोमन करताहै अग्निको दीपन, शीघ्र पाचन होजाताहै, कफको परिशोषण करताहै तथा थोडाही पीनेसे तृषा शान्त होजातीहै। परन्तु यह गर्मजल—इसप्रकार युक्ति सम्पन्न और गुणकारी होनेपर भी अत्यन्त बढेहुए पित्तके कोपवालेको तथा दाह, भ्रम और प्रलाप एवम् अतिसारयुक्त ज्वरोंमें देना उचित नहीं। क्योंकि ऐसे ज्वरोंमें गरमजल देनेसे—दाह, भ्रम, प्रलाप औ अतिसार अधिक बढ़जातेहैं। और शीतल क्रिया करनेसे तथा शीतलजल देनेसे शान्तिको प्राप्त होते हैं॥५८॥
भवतिचात्र।
शीतेनोष्णकृतान्रोगान्शमयन्तिभिषग्विदः।
येतुशीतकृतारोगास्तेषाञ्चोष्णं भिषग्जितम्॥५९॥
यहां पर कहाहै कि चिकित्साके जाननेवाले वैद्य—गरमीके रोगोंको शीतलक्रिया द्वारा और शीतसे उत्पन्न हुए रोगोंको उष्ण क्रिया द्वारा शान्त करते हैं॥५९॥
एवमितरेषामपिव्याधीनां निदानविपरीतमौषधं कार्य्यम्॥६०॥
इसीप्रकार अन्य व्याधियोंमें भी कारणसे विपरीत औषवादि द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये॥६०॥
तथा तर्पणनिमित्तानामपिव्याधीनां नान्तरेणपूरणमस्तिशान्तिस्तथापूरणनिमित्तानां नान्तरेणापतर्पणम्॥६१॥
जैसे अपतर्पणसे उत्पन्न हुए रोगों की तर्पणके बिना शान्ति नहीं हो सकती। तर्पणसे उत्पन्न हुए रोगोकी अपतर्पणके बिना शान्ति नहीं होसकती॥६१॥
अपतर्पणके भेद।
अपतर्पणमपिचत्रिविधं लंघनं लंघनपाचनं दोषावसेचनञ्चेति। तत्र लंघनमल्पदोषाणाम्। लंघनेन ह्यग्निमारुतवृद्ध्यावातातपपरीतमिवाल्पमुदकमल्पदोषः प्रशोषमापद्यते॥६२॥
तर्पणके तीन भेद हैं–लंघन और लंघन पाचन तथा दोषावसेचन इनमें अल्पदोपवाले मनुष्यको लंघन कराना चाहिये। लंघनके करनेसे जठराग्नि और वायुकी वृद्धि होकर जैसे–पवन और धूपके योगसे अल्पजल सूख जाता है उसीप्रकार अल्पदोप शोषणको प्राप्त होजाते हैं। अर्थात् नष्ट होजाते हैं॥६२॥
लंघनपाचनके गुण।
लंघनपाचनाभ्यांमध्यबलः सूर्य्यसन्तापमारुताभ्यां पांशुभस्मावकिरणैरिवचानति बहूदकं मध्यदोषः प्रशोषमापद्यते॥६३॥
यदि दोषमध्यबल हो तो उसको लंघन पाचन कराना चाहिये। जैसे सूर्यके संतापसे और वायुके वेगसे तथा गर्दा, मिट्टी आदि डालनेसे मध्यमजल सूखजाता है वैसेही लंघन और पाचन द्वारा मध्यम दोषभी शोषण होजाते हैं॥६३॥
दोषावसेचनके गुण।
बहुदोषाणां पुनदर्दोषावसेचनमेवकार्य्यम्। नह्यिभिन्नेकेदारसेतौपल्वलप्रसेकोऽस्ति। तद्वद्दोषावसेचनम्। दोषावसेचनन्तुखलु अन्यद्वाभेषजं प्राप्तकालमप्यातुरस्य नैवंविधस्यकुर्य्यात्॥६४॥
बढे हुए दोषोमें दोषावसेचन अर्थात् वमनादि द्वारा विधिपूर्वक दोषोंको निकाल देना चाहिये। जैसे किसी खेतमें बहुतसा जल इकट्टा हो एक तरफसे खेतकी डौल (सीमा) तोड देनेसे वह जल सबवाहर निकलजाता है। उसी प्रकार दोषावसेचन द्वारा दोपको निकाल डालना चाहिये। परन्तु यह दोषावसेचन वा अन्य उत्कट औषधियोका प्रयोग एवम् शीघ्रकारी औषधी आगे कथन किये हुए रोगियो को नहीं देना चाहिये॥६४॥
अयोग्यरोगीके लक्षण।
अनपवादप्रतीकारस्याधनस्यापरिचारकस्य वैद्यमानिनश्चण्डस्यासूयकस्य तीव्राधर्म्मरुचेरतिक्षीणबलमांसशोणितस्य असाध्यरो-
गोपहतस्यमुमूर्षुलिंगान्वितस्यचेति। एवंविधंह्यातुरमुपचरन्भिषक्पापीयसाअयशसायोगंगच्छतीति॥६५॥
जैसे—जिस रोगीको अपने अपयशका भय न हो, जो निर्धन हों, जिसकी कोई सेवा करनेवाला न हो, जो अपने आपको बैद्य मान रहाहो जो कठोर स्वभाववाला हो, जो निंदक हो, जो अत्यंत पापी हो, जो अतिक्षीण होगयाहो जो स्वयम् मरनेकी इच्छा रखता हो। इतने प्रकार के रोगियोंकी चिकित्सा करनेसे वैद्य पाप और अपयश अर्थात् बदनामीको प्राप्त होता है॥६५॥
तत्र श्लोकाः।
अल्पोदकद्रुमोयस्तुप्रवातःप्रचुरातपः।
ज्ञेयःसजाङ्गलोदेशःस्वल्परोगतमोऽपिच॥६६॥
यहांपर श्लोक हैं—जिन देशोंमें जल और वृक्ष थोडे होते हैं, वायु बडे वेगसे चलती है, धूप अधिक पडती है उस देशको जांगल देश कहते हैं। ऐसे देशोंमें रोग बहुत कम होतेहैं॥६६॥
प्रचुरोदकवृक्षोयोनिवातोदुर्लभातपः।
अरूपोऽबहुदोषश्चसमःसाधारणोमतः॥६७॥
जिस देशमें जल और वृक्ष बहुत होते हैं, वायु और धूप बहुत कम लगती है उस देशको आनूप देश कहते है। इस देशमें रोग अधिक होतेहैं। जिस देशमें यह दोनों बातेंसामान्य हों उसको साधारण देश कहतेहैं॥६७॥
तदात्वेचानुबन्धोवायस्यस्यादशुभंफलम्।
कर्म्मणस्तन्नकर्त्तव्यमेतद्बुद्धिमतांमतम्॥६८॥
जिस कर्मके करनेसे उसी समय अथवा कुछ काल पाकर अशुभफल हो वह कर्म कभी भी न करना चाहिये। यह बुद्धिमानोंका मंतव्य है॥६८॥
पूर्वरूपाणिसामान्याहेतवःस्वस्वलक्षणाः। देशोद्धंसस्यभैषज्यंहेतूनांमूलमेवच॥६९॥प्राग्विकारसमुत्पत्तिरायुषश्चक्षयक्रमः।मरणंप्रतिभूतानांकालाकालविनिश्चयः॥७०॥यथा चाकालमरणंयथायुक्तञ्चभेषजम्। सिद्धिंयात्यौषधंयेषांनकुर्य्याद्येनहेतुना॥७९॥तदग्निवेशायात्रेयोनिखिलंसर्वमुक्तवान्। देशोद्धंसनिमित्तीयेविमानेमुनिसत्तमः॥७२॥
** इति च०सं० जनपपोद्ध्वंसनीयविमानं समाप्तम्॥३॥**
इस जनपदोद्धंसनीय विमान नामक अध्यायमें जनपद उध्वंसनके पूर्वरूप, सामान्य हेतु, और उन सब भावोंके अलग २ लक्षण देशोध्वंसकी चिकित्सा, उसके कारण तथा पूर्वक्रमसे विकारोकी उत्पत्ति, आयुके क्षय होनेका क्रम तथा मनुष्योंकी काल और अकाल मृत्युका निश्चय, जैसे अकाल मरण होताहै जैसे उनकी औषधी करना चाहिये, जिनको औषधी फलदायक होतीहै, जिनको जिन हेतुओंसे औषधी लाभदायक नहीं होती यह सब भगवान पुनर्वसु आत्रेयजीने अग्निवेशके प्रति कथन किया है॥६९॥७०॥७१॥७२॥
इति श्रीमहर्षिचरक ० विमानस्थाने प० रामप्रसादवैद्य ० भाषाटीकाया जनोपदोद्ध्वसनीय विमान तृतीयोध्यायः॥३॥
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चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातस्त्रिविधरोगविशेषविज्ञानीयविमानंव्याख्यास्यामइति हस्माहभगवानात्रेयः॥
अब हम त्रिविध रोग विशेष विज्ञानीय विमान नामक इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे।
रोगविशेषज्ञानके भेद।
त्रिविधंखलुरोगविशेषज्ञानंभवति।
तद्यथा—आप्तोपदेशः, प्रत्यक्षमनुमानञ्चेति॥१॥
आप्तोपदेश प्रत्यक्ष अनुमान इन तीन प्रमाणों द्वारा ही संपूर्ण रोगोंका विशेष ज्ञान होता है॥१॥
उपदेशका लक्षण।
तत्राप्तोपदेशोनामआप्तवचनम्। आप्ताह्यवितर्कस्मृतिविभागविदोनिष्प्रीत्युपतापदर्शिनश्च।तेषामेवंगुणयोगाद्यद्वचनंतत्प्रमाणम्। अप्रमाणंपुनर्मत्तोन्मत्तमूर्खरक्तदुष्टान्तःकरणवचनमिति॥२॥
इनमें आप्तोपदेश—आप्त पुरुषोंके वचनको कहते हैं। जिन महर्षियोंको संपूर्ण विषयोंमें तर्करहित यथार्थ निश्चयात्मकज्ञान हो। जो भूत, भविष्यत्, वर्तमानके
ज्ञानको जाननेवाले हैं। जिनकी स्मरणशक्ति कभी नष्ट नहीं होती। जिनको किसीसे राग, द्वेष नहीं है तथा पक्षपात रहित हैं। उन ऋषियोंको आप्त कहते हैं। इस प्रकारके गुणवाले ऋषियोंके वचनको अप्तोपदेश कहते हैं और वह आप्तोपदेश वितर्करहित प्रमाण होता है जो मनुष्य–मत्त, उन्मत्त, मूर्ख और पक्षपाती हैं तथा जिनका अंतःकरण दुष्ट है उनका वचन अप्रमाणिक होत है॥२॥
प्रत्यक्ष और अनुमान।
प्रत्यक्षन्तुखलुतद्यत्स्वयमिन्द्रियैर्मनसाचोपलभ्यते।
अनुमानंखलुतर्कोयुक्त्यपेक्षः॥३॥
इन्द्रिय और मनके संयोगसे जो अस्मदादिकोंका यह घंट है, यह पट है, यह स्थाणु है, यह पुरुष है इस प्रकारका जो निश्चयात्मक ज्ञान होता है उसको प्रत्यक्ष कहते हैं।तर्क और युक्तिसे जो ज्ञान होता है उसको अनुमान कहतेहैं॥३॥
त्रिविधेनखल्वनेनज्ञानसमुदयेनपूर्वंपरीक्ष्यरोगंसर्वथासर्वमेवोत्तरकालमध्यवसानमदोषंभवति॥४॥
इन तीन प्रकार के प्रमाणों द्वारा अर्थात् ज्ञान समुदाय द्वारा रोगोंकी परीक्षा करके तदनन्तर उनकी चिकित्सा करनी चाहिये। इस प्रकार करनेसे प्रथम, मध्यम और उत्तरकाल पर्यन्त सब प्रकार वैद्य निर्दोषी रहताहै॥४॥
नहिज्ञानावयवेनकृत्स्नेज्ञेयेज्ञानमुत्पद्यते। त्रिविधेत्वस्मिञ्ज्ञानसमुदायेपूर्वमाप्तोपदेशाज्ज्ञानंततःप्रत्यक्षानुमानाभ्यांपरीक्षोपपद्यते। किंह्यनुपदिष्टपूर्वंप्रत्यक्षानुमानाभ्यांपरीक्ष्यमाणोविद्यात्। तस्माद्द्विविधापरीक्षाज्ञानवतांप्रत्यक्षमनुमानञ्चेति। त्रिविधावासहोपदेशेन। तत्रेदमुपदिशान्तिबुद्धिमन्तोरोगमेकैकमेवंप्रकोपमेवंयोनिमेवात्मानमेवमधिष्ठानमेवंवेदनमेवंसंस्थानमेवंशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमेवमुपद्रवमेवंवृद्धिस्थानक्षयसमन्वितमेवमुदर्कमेवंनामानमेवंयोगंविद्यात्।तस्मिन्नियंप्रतीकाराप्रवृत्तिरथवानिवृत्तिरित्युपदेशाज्ज्ञायते॥५॥
उपरोक्त तीनों प्रमाणोमेंसे एकही प्रमाण द्वारा संपूर्ण रोगोंका ज्ञान नहीं हो सकता इसलिये इन तीन प्रकारके ज्ञानसमुदाय में व्याधिको प्रथम आप्तोपदेश द्वारा जानना चाहिये। उसके अनन्तर प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा उपपन्न होती है। तात्पर्य यह हुआ कि, वैद्यक परीक्षा शास्त्रमें पहिले आप्तोपदेश द्वारा व्याधि तथा
द्रव्योंके प्रभावको जानकर पीछेप्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा निश्चय करना चाहिये। यदि मानुषी बुद्धिके कारण प्रथम ही प्रत्यक्ष और अनुमान् द्वारा द्रव्योंकी तथा व्याधियोंकी परीक्षा कीजायगी तो अनेक मनुष्यों के प्राणोंका घात होना संभव है जैसे कोई तत्काल प्राणहारक विषोंके लेकर उससे प्रत्यक्षानुमानकी सिद्धि करना चाहे तो जिस प्राणीपर उसकी परीक्षा कीजायगी उसकी हिसाका भार वैद्यपरही होगा। इसलिये वैद्यक शास्त्रमे प्रथम आप्तोपदेश द्वारा ज्ञेय विषयको जानकर तदनन्तर प्रत्यक्ष और अनुमानसे जानलेना चाहिये। अब शंका करते हैं कि जिस विषयको प्रथम आप्तोपदेश द्वारा नहीं जाना है उसको प्रत्यक्ष और अनुमानसे भी जानसकते हैं कि नही सो कहतेहैं कि जिस पदार्थ के ज्ञानके लिये प्रथम आप्तोपदेश नहीं हुआ है उसको प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा जानना चाहिये। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्योंने प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रकारकी परीक्षा मानीहै। उन दोनोंमें आप्तोपदेश मिलादेनेसे परीक्षा तीन प्रकारकी होती है परन्तु वैद्यक शास्त्र में प्रत्यक्ष और अनुमान, आप्तोपदेशका आश्रय लेकर ही प्रवृत्त होता है। सो बुद्धिमान् यहां इसप्रकार उपदेश करते हैं कि प्रत्येक रोग इसे प्रकार होता है उनके यह २ लक्षण होते हैं। दोषोंका प्रकोपन इस प्रकार होताहै। रोगोंके कारण इस प्रकार होतेहैं। वातादिकोंके तथा ज्वरादिकोंके स्वरूप इस प्रकार के होते है। अधिष्ठान इसको कहते हैं।शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इस प्रकार के होते हैं। उपद्रव इनको कहते हैं। दोषोकी तथा रोगोंकी वृद्धि इसप्रकार होतीहै। दोष साम्यावस्था में इसप्रकार रहतेहै। धातु आदि क्षीण इसप्रकार होते हैं। रोगोंका उत्तरकाल इस प्रकार जानना रोगोंका नाम इस प्रकार जानाजाताहै। रोगके जाननेका यह प्रकार है ऐसे स्थान मे चिकित्सा करनी चाहिये अथवा नहीकरनी इत्यादि सब ज्ञान आप्तोपदेशसेही होते हैं। इसलिये वैद्यकमें प्रत्यक्ष और अनुमान आप्तोपदेशको पूर्व लिये विना चलही नहीं सकता॥५॥
प्रत्यक्षज्ञानका लक्षण।
प्रत्यक्षतस्तुखलुरोगतत्त्वंबुभुत्सुःसर्वैरिन्द्रियैःसर्वानिन्द्रियार्थानातुरशरीरगतान्परीक्षेतान्यत्ररसज्ञानात्। तद्यथा, अन्त्रकूजनं सन्धिस्फोटनमंगुलीपर्वणांचस्वरविशेषांश्चयेचान्येऽपिकेचिच्छरीरोपगताःशब्दाःस्युस्ताञ्श्रोत्रेणपरीक्षेत। वर्णसंस्थानप्रमाणच्छायाशरीरप्रकृतिविकारौचक्षुर्वैषयिकाणिचान्यानिकानिचतानिचक्षुषापरीक्षेत॥६॥
प्रत्यक्ष द्वारा रोगके तत्त्वकोजाननेकी इच्छावाला वैद्य रसज्ञानके विना सब इन्द्रियों द्वारा रोगीके शरीरगत इन्द्रियार्थोंकी परीक्षा करे उसीको दिखाते हैं। जैसे–आंतोंका गूंजना, संधियोंका स्फोटन, अंगुलियोंका तथा पर्वोंका मटकना, स्वरभंग होना इनके सिवाय अन्यभी रोगीके शरीरमें होनेवाले जितने प्रकारके शब्द हों उनको वैद्य अपनी कर्णेन्द्रिय द्वारा परीक्षा करे तथा हृदय और धमनी आदिकोंकी गति तथा शब्दज्ञानकारक यन्त्रद्वारा परीक्षा करे।शरीर तथा नेत्र जिह्वा, नख आदिकोंका वर्ण, मूत्र आकार, प्रमाण, कांति, क्षरीरकी प्रकृति और विकृति आदिकोंका वर्ण तथा अन्यभी देखने योग्य जो विषय हों उनकी चक्षुइंद्रियद्वारा परीक्षा करे॥६॥
अनुमानज्ञानका लक्षण।
रसन्तुखलुआतुरशरीरगतमिन्द्रियवैषयिकमप्यनुमानादवगच्छेत्। नह्यस्यप्रत्यक्षेणग्रहणमुपपद्यते। तस्मादातुरपरिप्रश्नेनैवातुरमुखरसंविद्यात्। यूकापसर्पणेनत्वस्यशरीरवैरस्यंमक्षिकोपदर्शनेनशरीरमाधुर्य्यम्। लोहितपित्तसन्देहेतुकिन्धारिलोहितलोहितपित्तंवेतिक्ष्वकाकभक्षणात्धारिलोहितमभक्षणाल्लोहितमित्यनुमातव्यम्एवमन्यानप्यातुरशरीरगतान्रसाननुमिमीत। गन्धांस्तुखलुसर्वशरीरगतानातुरस्यप्रकृतिवैकारिकान्ध्राणेनपरीक्षेतस्पर्शञ्चपाणिनाप्रकृतियुक्तमितिप्रत्यक्षतोऽनुमानैकदेशतश्चपरीक्षणमुक्तम्॥७॥
परन्तु रोगीके शरीरगत रसनेंद्रियका विषय होनेपरभी अनुमान द्वारा जानना चाहिये। क्योंकि रसका नेत्रोंद्वारा प्रत्यक्ष हो नहीं सकता और जिह्वाद्वारा उसको कोई जान नहीं सकता इसलिये रोगीसे प्रश्नद्वारा उसके मुखके रसादिकोंको जानना चाहिये। शरीरपर यूका आदिके चलनेसे शरीरकी विरसताको जानना चाहिये. मक्खियोंके शरीरपर पडनेसे शरीरके मीठेरसका अनुमान होसकता है। रक्तपित्त रोगवालेका रक्त तथा विना रक्तपितवालेके रक्तमें संदेह हो तो कुत्ते और कागको भक्षण करानेसे जान सकतेहैं यदि उसको श्वान आदि भक्षण करे तो आरोग्य पुरुषका रक्त समझना चाहिये और यदि वह श्वान आदिक उस रक्तको न छूएं तो रक्तपित्त है ऐसा जानना चाहिये इसी प्रकार रोगीके शरीरगत अन्य रसोंका भी अनुमान करे रोगीके शरीरगत गन्धोंको स्वाभाविक प्रकृतिसे विकारको प्राप्त
हुए गंधको घ्राणेन्द्रियद्वारा परीक्षा करे। शरीरकीप्रकृति, विकृति, उष्णता, शीतता आदि एवम् धमनीकी गति आदि—हाथके स्पर्शद्वारा परीक्षा करे इस प्रकार प्रत्यक्षसे तथा अनुमानसे एकदेशसे परीक्षाका कथन किया गया है॥७॥
अन्य अनुमान ज्ञेय भावोंका वर्णन।
इमेतुखलुअन्येष्येवमेवभूयोऽनुमानज्ञेयाभवन्तिभावाः। तद्यथा—अग्निंजरणशक्त्या, बलंव्यायामशक्त्या, श्रोत्रादीञ्छब्दादिग्रहणेन, मनोऽर्थाव्यभिचारेण, विज्ञानंव्यवसायेन, रजः सङ्गेन, मोहमविज्ञानेन, क्रोधमभिद्रोहेण, शोकं दैन्येन, हर्षमामोदन, प्रीतिं तोषेण, भयंविषादेन, धैर्य्यमविषादेन, वीर्यमुत्साहेन, स्थानमविभ्रमेण, श्रद्धामभिप्रायेण, मेधां ग्रहणेन, सज्ञांनामग्रहणेन, स्मृतिं स्मरणेन, ह्रियमपत्रपेण, शीलमनुशीलनेन, द्वेषंप्रतिषेधेन, उपाधिमनुबन्धेन, धृतिमलौल्येन, वश्यतांविधेयतया, वयोभक्तिसात्म्यव्याधिसमुत्थानानिकालदेशोपशयवेदनाविशेषेणगूढलिङ्गंव्याधिमुपशयानुपशयाभ्यां दोषप्रमाणविशेषमपचारविशेषेणआयुषःक्षयमरिष्टैरुपस्थितश्रेयस्त्वंकल्याणाभिनिवेशेनअमलंसत्त्वमविकारेणेति। ग्रहण्यास्तुमृदुदारुणत्वंदुःस्वप्नदर्शनमभिप्रायंद्विष्टेष्टसुखदुःखानि चातुरपरिप्रश्नेनैवविद्यादिति॥८॥
यह आग कथन किये हुए विषयो तथा उनके सिवाय और भी जो भाव हैं उनकी अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिये। जैसे भोजनके परिपाक द्वारा जठराग्निकी परीक्षा, परिश्रम आदिसे बलकी परीक्षा, शब्दादिकसे कर्णादिकोंकी परीक्षा, मनके विषयोंके अव्यभिचारसे मनकी परीक्षा, व्यवसाय—अर्थात् बुद्धिके कार्योंसे विज्ञान की परीक्षा, संगद्वारा रजोगुणकी परीक्षा, नष्टज्ञानद्वारा मोहकी परीक्षा, अभिद्रोह द्वारा क्रोधकी परीक्षा, दीनताद्वाग शोककी परीक्षा प्रसन्नता से हर्षकी परीक्षा, संतोषसे प्रीतिकी परीक्षा, विषादसे भयकी परीक्षा, अविषादसे धैर्यकी परीक्षा, उत्साहसे पराक्रमकी परीक्षा, अभ्रान्तिसे स्थिरताकी परीक्षाका अनुमान करना
चाहिये एवम् मनके अभिप्रायसे श्रद्धा, धारणासे मेधा, नाम लेनेसे संज्ञा, स्मरणसे स्मृति, संकोचसे लज्जा, शीलतासे स्वभाव, त्यागसे द्वेष, अनुबंधसे उपाधि, चपलता न होनेसे धृति और विधेयतासे वशीभूत की परीक्षाका अनुमान किया जाता है। इसी प्रकार–काल, देश, उपशय और विशेषसे यथाक्रम, अवस्था, भक्ति, सात्म्य, व्याधि तथा निदानका अनुमान किया जाता है। उपशय और अनुपशय द्वारा गूढलक्षणवाली व्याधियोंका अनुमान किया जाता है। अपचार विशेषसे दोषका प्रमाण विशेष जाना जाता है अरिष्टद्वारा आयुके क्षयका अनुमान किया जाता है।कल्याणकारक योगोंमें चित्तके लगनेसे शुभका अनुमान कियाजाता है और विकाररहित होनेसे विमल सतोगुणका अनुमान कियाजाताहै। ग्रहणीकी नम्रता और कठोरता दुःस्वप्न, दर्शन, अभिप्राय, द्वेष, इष्ट, सुख, दुःख यह सब विषय रोगीसे प्रश्नद्वारा जानने चाहिये॥८॥
भवन्तिचात्र।
आप्ततश्चोपदेशेनप्रत्यक्षकरणेनच।
अनुमानेनचव्याधीन्सम्यग्विद्याद्विचक्षणः॥९॥
यहांपर कहा है कि, चतुर वैद्य आप्तोंके उपदेशसे, प्रत्यक्ष करणसे एवम् अनुमानसे व्याधियोंको भली प्रकार जाने॥९॥
सर्वथासर्वमालोच्ययथासम्भवमर्थवित्।
अथाध्यवस्येत्तत्त्वेचकार्य्येचतदनन्तरम्॥१०॥
अर्थको जाननेवाला वैद्य सब प्रकारसे सब विषयोंको विचारकर यथा संभव कारण और कार्यको जान लेवे। जब संपूर्ण कारणादिका निश्चय करलेवे तदनन्तर कार्यके विषयमें निश्चय करे॥१०॥
कार्य्यतत्त्वविशेषज्ञःप्रतिपत्तौनमुह्यति।
अमूढःफलमाप्नोतियदमोहनिमित्तजम्॥११॥
कार्यके तत्त्वके निश्चयज्ञानवाला वैद्य समय प्राप्त होनेपर मोहको प्राप्त नहीं होता मोहको प्राप्त न होनेसे यथार्थ फलको प्राप्त होता है॥११॥
ज्ञानबुद्धिप्रदीपेनयोनाविशतितत्त्ववित्।
आतुरस्यान्तरात्मानंनसरोगांश्चिकित्सति॥१२॥
जिस वैद्यने कारणादि ज्ञान तथा बुद्धिरूप दीपकसे रोगीके शरीरमें प्रवेश नहीं किया है वह वैद्य रोगोंकी चिकित्सा नहीं कर सकता॥१२॥
सर्वरोगविशेषाणांत्रिविधंज्ञानसंग्रहम्।
यथाचोपदिशन्त्याप्ताःप्रत्यक्षंगृह्यतेयथा॥१३॥
येयथाचानुमानेनज्ञेयास्तांश्चात्युदारधीः।
भावांस्त्रिरोगविज्ञानेविमानेमुनिरुक्तवान्॥१४॥
इतिश्रीमच्चरकसंहितायां त्रिविधरोगविशेषविज्ञानीयं नामचतुर्थोऽध्यायः॥४॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं कि त्रिविध रोगविशेषविज्ञानीयअध्यायमें संपूर्ण रोगविशेषको जाननेके लिये तीन प्रकारके ज्ञानका संग्रह जैसे आप्त पुरुष उपदेश करतेहैं। जैसे प्रत्यक्षका ग्रहण होता है, जो विषय अनुमान द्वारा जैसे जानेजाते हैं। इन सब भावोंको उदार बुद्धि भगवान् आत्रेयजीने वर्णन किया है॥१३॥१४॥
इति श्रीमहर्पिचर० वि० स्था० भा० टी० त्रिविधरोग विशेषविज्ञानीयविमान
नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
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पंचमोऽध्यायः।
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अथातः स्रोतोविमानंनामाध्यायं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम स्रोनोविमाननामकअध्यायकी व्याख्या करते हैं। इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
यावन्तःपुरुषेमूर्त्तिमन्तोभावविशेषास्तावन्तएवास्मिन्स्रोतसांप्रकारविशेषाः, सर्वेभावाहिपुरुषेनान्तरेणस्रोतांस्यभिनिवर्तन्ते क्षयंवानगच्छन्ति। स्रोतांसिखलुपरिणाममापद्यमानानांधातूनामभिवाहीनिभवन्तिअयनार्थेनापिचैकेमहर्षयःस्रोतसामेवसमुदयपुरुषमिच्छन्तिसर्वगतत्वात्सर्वसरत्वाच्चदोषप्रकोपणप्रशमनानांनत्वेतदेवंयस्यसहिपुरुषःस्रोतांसियच्चवहन्तियच्चावहन्तियत्रचावस्थितानिसर्वंतदन्यत्तेभ्यः॥१॥
पुरुषके शरीरमे शिरा, कोष्ठ आदि स्थूल पदार्थ हैं वह सब स्रोतोंके ही प्रकारान्तर हैं क्योंकि पुरुषके शरीरमें संपूर्णभाव स्रोतोंद्वाराही उत्पन्न होते हैं और क्षय नहीं होते। स्रोत ही परिणामको प्राप्त हुए संपूर्ण धातुओंके वहन करते हैं अर्थात यथा-स्थानमें पहुंचा देते हैं। स्रोत ही अयनार्थ होते हैं क्योंकि संपूर्ण शरीरमें सर्वगामी होनेसे तथा दोषोंके प्रकोपकारक अथवा शमनकारक किये हुए आहारादिकोंको संपूर्ण शरीरमें व्यापक करदेतेहैं। इसलिये कोई २ स्रोतोंके सुमदायको ही पुरुष मानते हैं।परन्तु स्रोतोंका समुदाय पुरुष नहीं होता। स्रोतोके समुदायका जो अधिष्ठाता है स्रोत जिसके आश्रित हैं, जिसके लिये स्रोत रसादिकोंको वहन करते हैं वह पुरुष है तथा स्रोत जिसको वहन करतेहैं और जिसका आवहन करते हैं वह स्रोतोंसे पृथक्पुरुषहै॥१॥
अतिबहुत्वात्तुखलुकेचिदपरिसंख्येयानिआचक्षतेस्रोतांसि, परिसंख्येयानिपुनरन्ये, तेषांस्रोतसांयथास्थानंकतिचित्प्रकारान्मूलतश्चप्रकोपविज्ञानतश्चानुव्याख्यास्यामः। येभविष्यन्त्यलमनुक्तार्थज्ञानवतेविज्ञानायचाज्ञानाय, तद्यथा, प्राणोदकान्नरसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जांशुक्रमूत्रपुरीषस्वेदवहानिवातपित्तश्लेष्मणांपुनःसर्वशरीरचराणांसवर्स्त्रोतांसिअयनभूतानि॥२॥
अत्यन्त अधिक होनेसे कोई २ स्रोतोंको असंख्य कहते हैं। कोई कहते हैं कि स्रोतोंकी संख्या होसकतीहै। उन स्रोतोंका प्रकार भेदसे तथा मूलभेदसे और उनके प्रकोप विज्ञानके यथा स्थानमें आगे कथन करेंगे। क्योंकि संपूर्ण स्रोतोंका विषय जानलेनेसे जिन स्रोतोंका कथन नहीं भी कियागया उनको भी ज्ञानवान् मनुष्य जान सकताहै। तथा यथोचित उपदेश द्वारा अज्ञानी भी जानसकेंगे। वह इस प्रकार हैं प्राणवाही, उदकवाही अन्नवाही, रसवाही, रक्तवाही, मांसवाही, मेदवाही एवम् अस्थि, मज्जा, शुक्र, मूत्र, मल, स्वेद इनके वहन करनेवालोंको स्रोत कहते हैं तथा वात, पित्त और कफ संपूर्ण शरीरमें गमन करानेवाले मार्गभूत भी स्रोतही होते हैं। यह स्रोतही संपूर्ण रस, धातु, वायु आदिके अयन अर्थात् गतिस्थान और आधिष्ठान होते हैं॥२॥
तद्वदतीन्द्रियाणांपुनःसत्त्वादीनां केवलंचेतनावच्छरीरमयनभूतमधिष्ठानभूतञ्च‚ तदेतत्स्रोतसांप्रकृतिभूतत्वान्नविकारैरुपसृज्यते शरीरम्। तत्रप्राणवहानांस्रोतसांहृदयंमूलंमहास्रोतश्च, प्रदुष्टानामिदंविशेषज्ञानंभवति, अतिसृष्टकुपितंसप्रति-
बन्धमल्पाल्पमभीक्ष्णंवासशब्दशूलमुच्छ्वसन्तंदृष्ट्वाप्राणवहान्यस्यस्रोतांसिप्रदुष्टानीतिविद्यात्॥३॥
उसी प्रकार चेतनायुक्त केवल शरीर—इन्द्रियोंका तथा मन आदिकोंका गतिस्थान मार्गरूप एवम् अधिष्ठान होता है। यही कारण है कि संपूर्ण स्रोत प्रकृतिभूत होनेसे शरीरमें विकारको नहीं होनेदेते। इनमें प्राणोंके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल हृदय है और उसको महास्रोत भी कहते हैं। यह स्रोत जब दूषित होतेहैं तब इनमें यह विशेषता होती है कि उच्छ्वासको अधिक छोडे, बहुत तेज या रुककर थोडा २ अथवा शब्दयुक्त गूलके साथ श्वास आवे।इन लक्षणोसे प्राणवाहक स्रोतोंको दूषित हुआ जाने॥३॥
दूषित उदकवाही स्रोतके लक्षण।
उदकवहानांस्रोतसांतालुमूलंक्लोमच प्रदुष्टानामिदंविज्ञानं, तद्यथाजिह्वाताल्वोष्ठकण्ठक्लोमशोषंपिपासाञ्चातिप्रवृद्धांदृष्ट्वोदकवहान्यस्यस्रोतांसिप्रदुष्टानीतिविद्यात्॥४॥
जलके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल तालु और क्लोम होता है। यदि यह स्रोत दूषित होजांय तो इनके ये लक्षण होते हैं। जैसे—जिह्वा, तालु, ओष्ठ और क्लोम (प्यास लगानेवाली कारणभूत स्थान) ये सूखने लगे प्यास अधिक लगे। इन लक्षणोंसे जलके वहन करनेवाले स्रोतोंको दूषित हुआ जाने॥४॥
दूषितअन्नवाही स्रोतके लक्षण।
अन्नवहानांस्रोतसामामाशयोमूलंवामञ्चपार्श्वम्, प्रदुष्टानान्तु खल्वेषामिदंविशेषविज्ञानंभवति, तद्यथाअनन्नाभिलषणमरोचकाविपाकौछर्द्दिञ्चदृष्ट्वाअन्नवहानिस्रोतांसिप्रदुष्टानीतिविद्यात् ५॥
अन्नके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल—आमाशय और वामपार्श्वभाग है।इन स्रोतोंके दूषित होनेसे यह लक्षण होते हैं। जैसे—अन्नकी अभिलाषा न होना अरुचि होना, अन्नका परिपाक न होना, छर्दि होना इन लक्षणोंसे अन्नंके वहन करनेवाले स्रोतोको दूषित हुवा जानना चाहिये॥५॥
रसवहादिस्रोतोंका वर्णन।
रसवहानांस्रोतसांहृदयंमूलंदशचधमन्यः, शोणितवहानांस्रोतसांयकृतमूलंप्लीहाच, मांसवहानाञ्चस्रोतसांस्नायुमूलंत्वक्च,
मज्जावहानांस्त्रोतसामस्थीनिमूलंसक्थयश्च‚ शुक्रवहानांस्रोृतसांवृषणौमूलंशेफश्च।प्रदुष्टानान्तुरसादिस्रोतसांखलुएषांविज्ञानान्युक्तानिविविधाशितीयेअध्यायेयान्येवहिधातूनांप्रदोषविज्ञानानितान्येवयथास्वंधातुस्रोतसाम्॥६॥
रसके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल हृदय और दश धमनियें हैं।रक्तवाहक स्रोतोंका मूल—यकृत (जिगर) और प्लीहा (तिल्ली) होते हैं। मांसके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल स्नायु नसे और त्वचा हैं। मज्जाके वहन करनेवाले स्त्रोतोंका मूल अस्थिमें और सक्थि हैं। वीर्यके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल दोनों वृषण और लिंग हैं। इन रसादिक वहन करनेवाले स्रोतोंके बिगडनेसे जो लक्षण होते हैं वह विविधाशित पीतीय अध्यायमें वर्णन किया गया है॥६॥
मूत्रवाहीस्रोतोंके लक्षण।
मूत्रवहाणांस्त्रोतसांबस्तिर्मूलंवंक्षणौच, खल्वेषामिदंप्रदुष्टानांविज्ञानमतिसृष्टंप्रतिबद्धंकुपितमल्पाल्पमभीक्ष्णंवासशूलंमूत्रं मूत्रवन्तंदृष्ट्वामूत्रवहाण्यस्यस्तोतांसिप्रदुष्टानीतिविद्यात्॥७॥
मूत्रको वाहन करनेवाले स्रोतोंका मूल—बस्ति और वंक्षण हैं। इनको दूषित हुए जाननेके ये लक्षण होतेहैं। जैसे–मूत्रका अधिक आना अथवा मूत्रका बद्ध होजाना मूत्रका बिगडा हुआ होना, मूत्रका लगकर आना थोडा २ आना वा दर्दके साथ आना इस प्रकारके मूत्रके लक्षणोंको देखकर मूत्रवाहक स्रोतोंको दूषित जानना॥७॥
पुरीषवाहीस्त्रोतोंके लक्षण।
पुरीषवहाणांस्त्रोतसांपक्वाशयोमूलंस्थूलगुदश्च‚ प्रदुष्टानाखलु एषामिदंविज्ञानं, कृच्छ्रेणअल्पाल्पंसशूलमतिद्रवंकुपितमतिवृद्धंचोपविशन्तंदृष्ट्वापुरीषवहाण्यस्यस्त्रोतांसिप्रदुष्टानीतिविद्यात्॥८॥
पुरीष (मल) के वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल–पक्वाशय, स्थूल अंतडी और गुदा हैं। उनके दूषित होनेसे यह लक्षण होते हैं। जैसे–कष्टके साथ थोडा२ मल उतरना, दर्दके साथ मल उतरना, बहुत पतला मल आना, तेजगर्मीके साथ मल आना, रुककर अत्यन्त सूखा मल आना।इन लक्षणोंको देखकर मलके वहन करनेवाले स्रोतोंको दूषित जनना॥८॥
स्वेदवाही स्त्रोतोंके लक्षण।
स्वेदवहानांस्त्रोतसांमेदोमूलंरोमकूपाश्च प्रदुष्टानांखल्वेषामिदंविज्ञानमस्वेदनमतिस्वेदनंपारुष्यमतिश्लक्ष्णतांपरिदाहंलोमहर्षञ्चदृष्ट्वास्वेदवहान्यस्यस्रोतांसिप्रदुष्टानीतिविद्यात्॥९॥
स्वदेके वहन करनेवाले स्रोतोका मूल भेद तथा रोमकूप हैं। इनको दूषित हुए जाननेके ये लक्षण है। पसीना न आना अथवा अधिक आना, रोमकूपोंका कठोर होना या अत्यंत नरम होना, शरीरमे दाह होना, रोमोंका खडाहोना इन लक्षणोंको देखकर स्वेदवाहक स्रोतोका दूषित हुआजानना॥९॥
शरीरधात्ववकाशोंके नाम।
स्त्रोतांसिशिराधमन्योरसवाहिन्योनाड्यः पन्थानोमार्गाःशरीरच्छिद्राणिसंवृतासंवृतानिस्थानानिआशयाःआलयाःनिकेताश्वेतिशरीरधात्ववकाशानांलक्ष्यालक्ष्याणांनामानि॥१०॥
स्रोत, शिरा, धमनिये, रसवाहनी, नाडियें, पथसमूह, मार्ग, शरीरछिद्र, संवृतस्थान, असंवृतस्थान, आशय, निकेतन, आलय, यह सब नाम–शरीर के धातुओके लक्ष तथा अलक्ष्य स्थानोंके हैं॥१०॥
तेषांप्रकोपात्स्थानस्थाश्चैवमार्गगाश्चैवशरीरधातवःप्रकोपमापद्यन्ते॥१९॥
उनके कुपित होनेसे स्थान में स्थित तथा मार्गमे गमन करनेवाली शारीरिक धातुयेंभी कोपको प्राप्त होजाती हैं॥११॥
इतरेषांवाप्रकोपादितराणि॥१२॥
अन्य स्रोतोंके कोपसे अन्य स्रोत भी कुपित होजाते है॥१२॥
स्रोतांसिस्रोतांस्येवधातवश्चधातून्प्रदूषयन्ति॥१३॥
एकधातु दूषित होकर दूसरी धातु दूषित करदेतीहै स्रोत दूषित होकर अन्य स्रोतोंको भी दूषित कर देते हैं॥१३॥
प्रदुष्टास्त्वेषांसर्वेषामेववातपित्तश्लेष्माणोदुष्टादूषयितारोभवन्तिदोषस्वभावादिति॥१४॥
वात, पित्त कफ दूषित होकर इन सब स्रोतोंको अपने दोष स्वभावसे दूषित करदेते हैं॥१४॥
प्राणवाहीस्त्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
भवतिचात्र।
क्षयात्सन्धारणाद्रौक्ष्याद्व्यायामात्क्षुधितस्यच।
प्राणवाहीनिदुष्यन्तिस्रोतांस्यन्यैश्चदारुणैः॥१५॥
सोई कहते हैं। प्राणोंको वहन करनेवाले स्रोत—धातुओंके क्षीण होनेसे, वेगोंको धारण करनेसे रूक्षतासे अधिक परिश्रम करनेसे, बहुत क्षुधा लगनेसे तथा अन्य दुष्ट कारणोंसे दूषित होते हैं॥१५॥
उदकवाहीस्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
औष्ण्यादामाद्भयात्पानादतिशुष्कान्नसेवनात्।
अम्बुवाहीनिदुष्यन्तितृषायाश्चातिपीडनात्॥१६॥
उष्णतासे, आमदोषसे, भयसे, मद्य आदि पीनेसे, अधिक शुष्क अन्न सेवनसे, अत्यन्त प्यास लगनेसे जलके वहन करनेवाले स्रोत दूषित होते हैं॥१६॥
अन्नवाहीस्त्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
अतिमात्रस्यचाकालेचाहितस्यचभोजनात्।
अन्नवाहीनिदुष्यन्तिवैगुण्यात्पावकस्यच॥१७॥
अधिक भोजनकरनेसे, बेसमय भोजन करनेसे विषमभोजन करनेसे, अहित भोजन करनेसे, जठराग्निकी विगुणतासे अन्नके वहन करनेवाले स्रोत दूषित होते हैं॥१७॥
रसवाहीस्त्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
गुरुशीतमतिस्निग्धमतिमात्रनिषेवणात्।
रसवाहीनिदुष्यन्तिचिन्त्यानाञ्चातिचिन्तनात्॥१८॥
भारी, शीतल और अत्यन्त स्निग्ध पदार्थोंके अधिक सेवनसे बहुत चिन्ताके करनेसे रसके वहन करनेवाले स्रोत दूषित होते हैं॥१८॥
रक्तवाहीस्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
विदाहीन्यन्नपानानिस्निग्धोष्णानिद्रवाणिच।
रक्तवाहीनिदुष्यन्तिभजताञ्चातपानलौ॥१९॥
विदाही अन्नपान के सेवन से तथा स्निग्ध, उष्ण और द्रव पदार्थोंके सेवनसे धूप, अग्नि इनके सेवन से रक्तवाही स्रोत दूषित होते हैं॥१९॥
मांसवाहीस्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
अभिष्यन्दीनिभोज्यानिस्थूलानिचगुरूणिच।
मांसवाहीनिदुष्यन्तिभुक्त्वाचस्वपतोदिवा॥२०॥
अभिष्यन्दी, स्थूल और भारी पदार्थोके भोजन कग्नेसे, भोजनकर दिनमें सोजानसे मांसवाही स्रोत दूषित होते हैं॥२०॥
मेदोवाहीस्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
अव्यायामाद्दिवास्वप्नान्मेध्यानाञ्चातिभक्षणात्।
मेदोवाहीनिदुष्यन्तिवारुण्याश्चातिसेवनात्॥२१॥
व्यायाम न करनेसे दिनमें सोनेसे, चिकने पदार्थोंके अधिक खानेसे और मद्यके अधिक पीनेसे, मेदको वहन करनेवाले स्रोत दूषित होते है॥२१॥
अस्थिवाहीस्त्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
व्यायामादतिसंक्षोभादस्थ्नामतिचभक्षणात्।
अस्थिवाहीनिदुष्यन्तिवातलानाञ्चसेवनात्॥२२॥
अधिक व्यायामके करनेसे, अत्यंत संक्षेपणसे, अस्थियोके चवानेसे तथा वातवर्द्धक पदार्थोंके सेवनसे अस्थिवाही स्रोत दूषित होजातहै॥२२॥
मज्जावाहीस्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
उत्पेषादत्यभिष्यन्दादभिघातात् प्रपीडनात्।
मज्जावाही निदुष्यन्तिविरुद्धानाञ्चसेवनात्॥२३॥
किसी वस्तुके नीचे दबजानेसे, अभिप्यंदीपदार्थों के सेवनसे, चोटके लगनेसे, शरीर के प्रपीडनसे, एवम विरुद्ध पदार्थोंके सेवनसे मज्जाके वहन करनेवाले स्रोतदूषितहैं॥२३॥
शुक्रवाहीस्त्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
अकालायोनिगमनान्निग्रहादतिमैथुनात्।
शुक्रवाहीणिदुष्यन्तिशस्त्रक्षाराग्निभिस्तथा॥२४॥
विना समय मैथुन करनेसे, अयोग्य मैथुन करनेसे, बिलकुल मैथुन न करनेसे, अधिक मैथुन करने से, शस्त्र, क्षार तथा अग्निके संयोगसे वर्यिवाही स्रोत दूषित होतेहैं॥२४॥
मूत्रवाहीस्त्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
मूत्रितोदकभक्षस्त्रीसेवनान्मूत्रनिग्रहात्।
मूत्रवाहीणिदुष्यन्तिक्षीणस्याथकृशस्यच॥२५॥
मूत्रके वेग आये हुए पर मूत्रको रोककर पानी पीनेसे एवम् मूत्रके वेगको रोककर स्त्री गमन करनेसे, मूत्रको रोकनेसे तथा क्षीणता और कृशता होनेसे मूत्रवाही स्रोत दूषित होजाते हैं॥२५॥
वर्चोके स्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
विधारणादत्यशनादजीर्णाध्यशनात्तथा।
वर्च्चोवहीनिदुष्यन्तिदुर्बलाग्नेःशस्यच॥२६॥
मलके वेगको रोकनेसे, अधिक भोजन करनेसे, अजीर्ण में भोजन करनेसे, दुर्बल अग्निके होनेसे तथा कृशताके कारण मलवाही स्रोत दूषित होतेहैं॥२६॥
स्वेदवाहीस्रोतोंके दूषितहोनेका कारण।
व्यायामादतिसन्तापाच्छीतोष्णाक्रमसेवनात्।
स्वेदवाहीनिदुष्यन्तिक्रोधशोकभयैस्तथा॥२७॥
अधिक व्यायाम करनेसे, अधिक धूप, तथा तापके सहनेसे, विकृतभावसे सर्दी गर्मीके सेवनसे, शोक तथा भयसे, स्वेदके वहन करनेवाले स्रोत दूषित होजातेहैं॥२७॥
अन्यकारण।
आहारश्वविहारश्चयःस्याद्दोषगुणैःसमः।
धातुभिर्विगुणश्चापिस्त्रोतसांसप्रदूषकः॥२८॥
जो आहार विहार–वात, पित्त, कफके साम्यगुणकारी हैं वह स्रोतोंको दूषित करते हैं जो आहार विहार धातुओंके असमान गुण करनेवाले हैं वह भी स्रोतोंको दूषित करते हैं॥२८॥
अतिप्रवृत्तिःसङ्गोवाशिराणांग्रन्थयोऽपिवा।
विमार्गगमनंवापिस्रोतसांदुष्टलक्षणम्॥२९॥
मलादिकोंकी अधिक वृद्धि अथवा विरोध होना तथा नसोंमें गांठीका पडना और मलोंको अपने मार्ग त्यागकर दूसरे मार्गद्वारा निकलना यह दूषितहुए स्रोतोंके लक्षण होतेहैं॥२९॥
स्त्रोतोंकी आकृति।
स्वधातुसमवर्णानिवृत्तस्थूलान्यणूनिच।
स्त्रोतांसिदीर्घाण्याकृत्याप्रतानसदृशानिच॥३०॥
संपूर्ण स्रोत अपने २ धातुके समान वर्णवाले गोलाकार मुखवाले, स्थूल अथवा सूक्ष्म आकार के होते हैं॥३०॥
दूषितस्रोतोंकी चिकित्साका विधान।
प्राणोदकान्नवाहानांदुष्टानां श्वासिकीक्रिया।
कार्य्यातृष्णोपशमनीतथैवामप्रदोषिकी॥३१॥
प्राणवाही स्रोत, जलवाही स्रोत, और अन्नवाही स्रोतके दूषित होनेपर श्वास रोगके समान चिकित्सा करनी चाहिये तथा तृषानाशक और आमनाशक चिकित्सा करनी चाहिये। अर्थात् प्राणवाही स्रोतोंके दूषित होने से श्वास चिकित्सा, जलवाही स्रोतोंके दूषित होनेसे तृषानाशक चिकित्सा, अन्नवाही स्रोतोंके दूषित होनेसे आमदोष नाशक चिकित्सा करनी चाहिये॥३१॥
विविधाशितपीतीयेरसादीनांयदौषधम्।
दूषितस्रोतसांकुर्य्यात्तद्यथास्वमुपक्रमम्॥३२॥
रस आदि धातुओके वहन करनेवाले स्रोतोके दूषित होनेपर विविधाशित पीतीय अध्यायमें कथन की हुई रस रक्तादिकोंकी चिकित्सा क्रमपूर्वक करनी चाहिये॥३२॥
मूत्रविट्स्वेदवाहानांचिकित्सामौत्रकृच्छ्रिकी। तथातिसारिकी कार्य्यातथाज्वरचिकित्सिकी इति॥३३॥
मूत्रवाही स्रोतोके दूषित होनेपर मूत्रकृच्छ्रमें कही चिकित्सा करनी चाहिये। मलवाही स्रोतोके दूषित होनेपर अतिसार रोगके समान चिकित्सा करनी चाहिये। स्वेदवाही स्रोतोके दूषित होनेपर ज्वरके समान चिकित्सा करनी चाहिये॥३३॥
तत्र श्लोकाः।
त्रयोदशानांमूलानिस्रोतसांदुष्टलक्षणम्।
सामान्यंनामपर्य्यायाःकोपनानिपरस्परम्॥३४॥
दोषहेतुःपृथक्त्वेनभेषजोद्देशएव च।
स्रोतोविमानेनिर्द्दिष्टस्तथाचादौविनिश्चयः॥३५॥
अब अध्यायकी पूर्त्तिमें श्लोक कहते हैं कि इस स्रोतोविमान नामक अध्यायमें–तेरह स्रोतोंके मूल, उनके दूषित होने के लक्षण, सामान्यनाम, पर्यायवाचक शब्द, परस्पर कोपक्रम, पृथक् २ दोषोंके हेतु और औषध उद्देश तथा स्रोतोंका निश्चय इनका वर्णन कियागया है॥३४॥३५॥
केवलंविहितंयस्यशरीरंसर्वभावतः।
शारीराः सर्वरोगाश्चसकर्म्मसुनमुह्यति॥३६॥
इति चरकसंहितायां विमानस्थाने स्रोतोविमानम्।
जिस वैद्यको संपूर्ण भावोंसे शरीरका ज्ञान है तथा शरीरके संपूर्ण रोगोंको जानता है वह वैद्य चिकित्सा क्रममें मोहको प्राप्त नहीं होता॥३६॥
इति श्रीमहर्षिचरक० विमानस्थाने भाषाटीकाया स्रोतोविमान नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
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षष्टोऽध्यायः।
अथातो रोगानीकं विमानंव्याख्यास्थाम इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम रोगानीक विमानकी व्याख्या करते हैं। इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
रोगोंके विभाग।
द्वेरोगानीकेभवतःप्रभावभेदेनसाध्यञ्चासाध्यञ्च, द्वेरोगानीके बलभेदेनमृदुचदारुणञ्च, द्वेरोगानीके अधिष्ठानभेदेनमनोऽधिष्ठानंशरीराधिष्ठानञ्च, रोगानीकेद्वेनिमित्तभेदेनस्वधातुवैषम्यनिमित्तञ्चागन्तुनिमित्तञ्च, द्वेरोगानीकेआशयभेदेनआमाशयसमुत्थञ्चपक्वाशयसमुत्थञ्च॥१॥
रोगोंके समूह प्रभाव के भेदसे दो प्रकारके होते हैं। प्रथम साध्य।द्वितीय असाध्य।
रोग समूहके बलके भेदसे दो भेद होते हैं मृदु और दारुण।अधिष्ठान भेदसे दो प्रकारके हैं। मनोधिष्ठान और शरीराधिष्ठान। निमित्त भेदसे दो प्रकारके हैं निजधातु वैषम्यनिमित्तक और आगन्तुक निमित्तक।आशय भेदसे दो प्रकारके हैं आमाशय से उत्पन्न होनेवाले और पक्वाशयसे उत्पन्न होनेवाले॥१॥
रोगोंको संख्यासंख्येयत्व।
एवमेतत्प्रभावबलाधिष्ठाननिमित्ताशयद्वैधंसमुद्भेदप्रकृत्यन्तरेणभिद्यमानमथवासन्धीयमानंस्यादेकत्वंवाबहुत्वंवा, एकत्वं तावदेकमेवरोगानीकंदुःखसामान्यात्, बहुत्वन्तुदशरोगानीकानिप्र- भावभेदादीनि, बहुत्वमपिसंख्येयंवास्यादसंख्येयं, संख्येयंयथोक्तम्—अष्टोदरीये, असंख्येयंयथामहतिरोगाध्याये रुग्वर्णसमुत्थानादीनामसंख्येयत्वात्॥२॥
इस प्रकार प्रभाव, बल, अधिष्ठान, निमित्त, और आशयभेदसे दो दो प्रकारके होते हुए भी निदान और प्रकृतिके भेदसे सब रोग पृथक २ अथवा मिले हुए होते है इस प्रकार संपूर्ण रोगोको एकत्व अथवा बहुत्व कथन किया है। जैसे–संपूर्णरोग दुःख देनेवाले होनेसे अर्थात् दुःखदायित्व होनेसे संपूर्ण रोगसमूहको एकत्व कथन किया है अब बहुत्वको कथन करते हैं। प्रभाव भेदादिकोंसे रोगसमूह दश भेदमें विभक्त हैं। रोगोंके बहुत्वकी संख्या हो भी सकती है और सूक्ष्म अंशांश विकल्पना द्वारा इनकी संख्या नहीं होसकती। जैसे—अष्टोदरीयाध्याय में रोगोकी संख्या और महारोगाध्यायमे असंख्यता वर्णन की है। संपूर्ण रोगसमूह पीडा, वर्ण, कारण आदि भेदोंसे कल्पना किये जानेपर असंख्यताको प्राप्त होतेहैं॥२॥
नचसंख्येयाग्रेषुभेदप्रकृत्यन्तरीयेष्वविगीतिरित्यतोनदोषवतीस्यादत्रकाचित्प्रतिज्ञानचाविगीतिरित्यतःस्याददोषवद्भेत्ताहिभेद्यमन्यथाभिनत्त्यन्यथापुरस्ताद्भिन्नं भेदप्रकृत्यन्तरेणभिन्दन्भेदसंख्याविशेषमापादयत्यनेकधानचपूर्वंभेदाग्रमुपहन्ति॥३॥
संपूर्ण रोगोंके एक ही समय संख्येय और असंख्येय होनेसे कोई विरोध उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि जिस प्रकार रोग संख्येय और असंख्येय होते हैं उनका वर्णन प्रथम करचुके हैं। इसलिये इसस्थानमें कोई विरोधी दोष उत्पन्न नही होसकता भेद करनेवाला अपनी इच्छासे एक वस्तुको एक प्रकारका कथन कर दूसरे समय उसी वस्तुके अनेक भेद दिखा सकता है। और प्रकारान्तरसे भेद संख्याको अनेक प्रकारकी करते हुए प्रथम कथन किये हुए एक प्रकारके भेदमे किसी प्रकारकी आपत्ति नहीं होने देता॥३॥
समानायामपिखलुभेदप्रकृतौप्रकृतानुपयोगान्तरमपेक्ष्यसन्तिह्यर्थान्तराणिसमानशब्दाभिहितनि।समानोहिरोगशब्दोदोषेषुव्याधिषुचवर्त्तते। दोषाअपिरोगशब्दमातङ्कशब्दंयक्ष्मशब्दंदोषप्रकृतिशब्दंविकारशब्दञ्चलभन्ते। तत्रदोषेषुचैवव्याधिषुचरोगशब्दःसमानःशेषेषुतुविशेषवान्॥४॥
भेदक कारण के समान होनेपर भी कहीकहीं प्रयोगान्तरकी अपेक्षा करते हुए समान शब्दसे कहे हुए शब्दोंके अर्थ अलग २ ग्रहण किये जाते हैं। जैसे—रोग शब्दसे दोष और व्याधि इन दोनोंकाही बोध होता है अर्थात् रोगशब्द दोषो और व्याधियोंमें सामान्यरूपसे व्यापक है।दोषभी रोगशब्द, आतंकशब्द, यक्ष्मशब्द, दोष तथा प्रकृति शब्द वा दोष प्रकृति शब्द एवम् विकार शब्दसे ग्रहण किये जाते हैं। इनमें रोगशब्द दोषोंमें तथा व्याधियोंमें समान है और अन्य स्थलोंमें विशेष अर्थात् असमान होता है॥४॥
तत्रव्याधयोऽपरिसंख्येयाभवन्त्यतिबहुत्वाद्दोषास्तुपरिसंख्येयाअनतिबहुत्वात्तस्माद्यथोचितंविकाराउदाहरणार्थमनशेषेणचदोषाव्याख्यास्यन्ते॥५॥
इनमें व्याधियें अपरिसंख्येय अर्थात् अगण्य होती हैं क्योंकि वह बहुत तथा अंशांश कल्पना द्वारा अत्यन्त ही बहुत हैं। परन्तु दोष संख्यावानहैं क्योंकि यह बहुत नहीं हैं। इसलिये उदाहरण के लिये विकारोंको तथा दोषोंको विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं॥५॥
दोषोंका वर्णन।
रजस्तमश्चमानसौदोषौ, तयोर्विकाराःकामक्रोधलोभमोहेर्ष्यामानमदशोकचित्तोद्वेगभयहर्षादयः॥६॥
रजोगुण और तमोगुण मनके दोष हैं।काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्षा, अभिमान, मद, शोक, चित्तका उद्वेग, भय और हर्ष आदिक इन मनके दोषोंके विकार हैं। अर्थात् मनके रोग हैं॥६॥
वातपित्तश्लेष्माणस्तुशारीरादोषास्तेषामपिचविकाराज्वरातीसारशोथशोषमेहकुष्ठादयइति॥७॥
वात, पित्त और कफ यह शरीरमें रहनेवाले दोष हैं। ज्वर, अतिसार, शोथ, शोष प्रमेह, कुष्ठ आदिक उन दोषोंके विकार हैं॥७॥
दोषाश्चकेवलाव्याख्याताः, विकारैकदेशश्च॥८॥
यहांपर केवल दोषोंका कथन कियाहै और विकारोंके एकदेशका कथन कियाहै८
दोषोंका त्रिविधकोप।
तत्रतुखल्वेषांद्वयानामपिदोषाणांत्रिविधंप्रकोपणमसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगःप्रज्ञापराधःपरिणामश्चेति। प्रकुपितास्तुप्रकोपणविशेषात्।द्रव्यविशेषाच्चविकारविशेषानभिनिर्वर्त्तयन्तिअपरिसंख्येयास्ते विकाराःपरस्परमनुवर्त्तमानाः। कदाचिदनुबध्नन्तिकामादयोज्वरादयश्च।नियतस्त्वनुबन्धोरजस्तमसोःपरस्परंनह्यरजस्कन्तमः॥९॥
इन शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकारके दोषोंके ही कुपित करनेवाले तीन प्रकार के कारण होतेहै। जैसे असात्म्य विषयोंका सेवन, प्रज्ञापराध और परिणाम (समय) इनमें पृथक् २ प्रकोपके कारणों से तथा द्रव्यविशेष बलसे कुपितहुए दोष अनेक प्रकारके विकारोंको उत्पन्न करतेहैं। वह विकार असंख्य होतेहैं। कामादिक मानसिक विकार, ज्वरादिक शारीरिक विकार कभी २ आपसमें एक दूसरेके आश्रयीभूत होजातेहै अर्थात् एक दूसरेके सहायक होजातेहैं या आपसमें मिलजातेहैं क्योंकि रजोगुण और तमोगुणका आपसमें परस्पर अनुबंध है। तमोगुण रजोगुणके विना रह नही सकता॥९॥
प्रायःशरीरदोषाणामेकाधिष्ठीयमानानांसन्निपातःसंसर्गोवासमानगुणत्वाद्दोषाहिदूषणैःसमानाः॥१०॥
शारीरिक दोषोंका एक ही अधिष्ठान (रहनेका स्थान) होता है अर्थात् वात, पित्त और कफका अधिष्ठान शरीर है। इसलिये प्रायः उनका संसर्ग और सन्निपात होजाताहै। क्योंकि उष्ण शीत आदि तथा रूक्ष, स्निग्ध आदि दोषोके पृथक्पृथक गुण होनेपर भी दूषण करनेवाला गुण तीनों दोषोंमे समान होनेसे एक दोष दूसरेको भी दूषित करलेताहै। अर्थात् दूषण स्वभाववाले होनेसे दोषएक दूसरेके सहायक होजाते हैं और दूषण स्वभावसे समानगुणवाले होजातेहैं॥१०॥
अनुबन्धानुबन्ध भेद।
तत्रानुबन्ध्यानुबन्धकृतोविशेषः स्वतन्त्रोव्यक्तलिङ्गोयथोक्तसमुत्थानप्रशमोभवत्यनुबन्ध्यस्तद्विपरीतलक्षणोऽनुबन्ध॥११॥
उनमें अनुवन्ध्य और अनुबंधकी विशेषता यह है कि अनुवन्ध्य स्वतंत्र और प्रकटलक्षणवाला होताहै और उसका प्रकट होना तथा, शमन होना भी यथोक्त प्रकार होता है अर्थात् स्वतंत्र होताहै। और अनुबंध परतंत्र तथा छिपेहुए लक्षणवाला होता है। इसके समुत्थान और प्रशमन भी पूर्वोक्त क्रमसे नहीं होते। तात्पर्य यह हुआ कि दूषित हुए वायुने अपने साथमें पित्तको भी दूषित करलिया। इस जगह वायु अनुबंध्य और पित्त अनुबंध होताहै। इसलिये वायु स्वतंत्र और प्रकटलक्षणवाला तथा अपने कारणोंसे कुपित हुआ और वातनाशक द्रव्योंद्वारा शान्त होनेवाला होताहै। पित्त अनुबंध होनेसे परतंत्रादि गुणवाला जानना॥११॥
सन्निपातादि दोष भेद।
अनुबन्ध्यानुबन्धलक्षणसमन्वितास्तत्रयदिदोषाभवान्ततंत्रिकंसन्निपातमाचक्षतेद्वयंवासंसर्गम्। अनुबन्ध्यानुबन्धविशेषकृतस्तुबहुविधोदोषभेदः। एवमेषसंज्ञाप्रकृतोभिषजांदोषेषुचव्याधिषुचनानाप्रकृतिविशेषाद्व्यूहः॥१२॥
यदि किसी ज्वरमें—वात, पित्त, कफ अनुवन्ध्य तथा स्वतंत्र और प्रगट लक्षणवाले हों तो उन तीनों दोषोंके मिलापको सन्निपात कहाजाताहै। यदि दो दोष स्वतंत्र होकर और प्रगट लक्षणोंद्वारा मिले हुएहों तो उनको संसर्ग कहतेहैं। इसप्रकार अनुवंध्य और अनुबन्ध विषयके किये हुए रोगोंके बहुत प्रकारके भेद होजाते हैं। इस तरह वैद्योंके कथन किये हुए संज्ञा जौर प्रकृतिके भेदसे दोषोंमें तथा व्याधियोंमें अनेक प्रकारके भेद होजाते हैं॥१२॥
अग्निभेद।
अग्निषुतुशरीरेषुचतुर्विधोविशेषोबलभेदेन। तद्यथा–तीक्ष्णोऽमन्दःसमोविषमइति। तत्रतीक्ष्णोऽग्निःसर्वापचारसहस्तद्विपरीतलक्षणोमन्दः। समस्तुखलुअपचारतः विकृतिमापद्यते अनपचारतः प्रकृताववतिष्ठते। समलक्षणविपरीतलक्षणस्तुविषमइत्येतेचतुर्विधाअग्नयश्चतुर्विधानामेवपुरुषाणाम्॥१३॥
शारीरिक अग्निके बल भेदसे चार प्रकार होतेहे। जैसे—तीक्ष्णाग्नि, मंदाग्नि, समाग्निऔर विषमाग्नि।इनमे तीक्ष्णाग्निसब प्रकारके कुपथ्योको सहन करसकती है। और मंदाग्नितीक्ष्णाग्निसे विपरीत लक्षणवाली होतीहै अर्थात् यह किचित् कुपथ्यको भी सहन नहीं कर सकती। जो अग्निकुपथ्यादि अपचार करनेसे विकृत होजाय और कुपथ्य न करनेसे अपनी ठीक अवस्थामें रहे उसको समाग्निकहतेहैं। एवम् समाग्निसे विपरीत लक्षणवालीको विषमाग्नि कहतेहैं। इस प्रकार चार प्रकारके पुरुषोकी चार प्रकारकी अग्नि होतीहै॥१३॥
चारप्रकारके पुरुष।
तत्रसमवातपित्तश्लेष्मणांप्रकृतिस्थानांसमाभवन्तिअग्नयः। वातलानान्तुवाताभिभूतेऽग्न्यधिष्ठानेविषमाभवन्तिअग्नयः। पित्तलानान्तुपित्ताभिभूतेऽग्न्यधिष्ठानेतीक्ष्णाभवन्तिअग्नयःश्लेष्मलानान्तुश्लेष्माभिभूतेह्यग्न्यधिष्ठानेमन्दाभवन्तिअग्नयः। तत्रकेचिदाहुर्नसमवातपित्तश्लेष्भाणोजन्तवःसन्तिविषमाहारोपयोगित्वान्मनुष्याणाम्, तस्माच्चकेचिद्वातप्रकृतयः केचित् पित्तप्रकृतयः केचित्पुनःश्लेष्मप्रकृतयोभवन्तीति। तच्चानुपपन्नंकस्मात् कारणात्समवातपित्तश्लेष्माणंह्यरोगमिच्छन्तिभिषजः प्रकृतिश्चारोग्यम्, आरोग्यार्थाचभेषजप्रवृत्तिःसाचेष्टारूपा, तस्माद्भवन्तिसमवातपित्तश्लेष्माणः।नतुखलुसन्ति वातप्रकृतयःपित्तप्रकृतयः श्लेष्मप्रकृतयोवातस्यतस्यकिलदोषस्यहिअधिकभावात्सासादोषप्रकृतिरुच्यतेमनुष्याणाम्॥१४॥
इनमें वात, पित्त, कफकी साम्यावस्था रहनेसे अर्थात् अपने २ स्वभावमें स्थित रहनसे अग्नि सम रहती है।वातप्रधान मनुष्योंके वायुद्वारा अग्निस्थान व्याप्त होनेसे अग्नि विषम होती है।यहापर कोई कहते है कि वात, पित्त, कफ किसी मनुष्यके शरीरमें साम्यावस्थामे नहीरहते क्योकि सब मनुष्योंका आहार एक प्रकारका और वात, पित्त, कफको समान रखनेवाला नहीं होता। इसीलिये कोई मनुष्य वातप्रकृति कोई पित्तप्रकृति और कोई कफप्रकृतिवाले होतेहैं। सो यह कथन ठीक नहीं है क्योकि जिसके शरीरमे वात, पित्त और कफ साम्यावस्थामे हैं अर्थात अपने २ परिमाणमे स्थित है उन्हीं मनुष्योंको वैद्य आरोग्य अर्थात् निरोगी कहतेहैं।
आरोग्यताही मनुष्योंकी प्रकृति है। आरोग्यताके लियेही औषध आदिकोंका प्रयोग किया जाता हैइसीलिये वात, पित्त कफकी साम्यावस्थावाले मनुष्य ही आरोग्य कहे जाते हैं और उनको वातप्रकृति पित्तप्रकति अथवा कफप्रकृति नहीं कहा जाता। जिस जिस दोषकी अधिकता जिस मनुष्यमें होती है उसको उसी दोषकी प्रकृतिवाला कहा जायगा॥१४॥
नचविकृतेषुदोषेषुप्रकृतिस्थत्वमुपपद्यतेतस्मान्नैताः प्रकृतयः सन्तिसन्तिनुखलुवातलाःपित्तलाःश्लेष्मलाश्चाप्रकृतिस्थास्तु तेज्ञेयाः॥१५॥
अब कहतेहैं कि यदि किसी मनुष्यके शरीरमें वायु अधिक हो तो उसको वातप्रकृति नहीं कहना चाहिये क्योंकि प्रकृतिनाम अपने ठीक स्वभावमें स्थित रहनेका है। वायुकी अधिकता होनेसे वायुकी विकृति माननी चाहिये। इसलिये विकृत हुए। दोषोंको प्रकृति नहीं कहना चाहिये। सो वातल, पित्तल, श्लेष्मल अर्थात् वातप्रधान कफप्रधान और पित्तप्रधान मनुष्य प्रकृतिस्थ नहीं होते॥१५॥
चारअन्नप्रणिधान।
तेषान्तुखलुचतुर्विधानांपुरुषाणांचत्वार्य्यन्नप्रणिधानानिश्रेयस्कराणि। तत्रसमसर्वधातूनांसर्वाकारसममधिकदोषाणान्तु त्रयाणांयथास्वदोषाधिक्यमभिसमीक्ष्यदोषप्रतिकूलयोगीनि त्रीणिअन्नप्रणिधानानिश्रेयस्कराणियावदग्नेःसमीभावात्, समेतुसममेवतुकार्य्यमेवंचेष्टाभेषजप्रयोगाश्चापरे, तद्विस्तरेणानुव्याख्यास्यन्ते। त्रयस्तुपुरुषाभवन्त्यातुरास्तेअनातुरास्तन्त्रान्तरीयाणांभिषजाम्। तद्यथा—वातलः श्लेष्मलः पित्तल इति॥१६॥
उन चार प्रकारके पुरुषों के लिये अग्निके अनुसार चार प्रकारके ही आहार हितकारक होते हैं उनमें जिस मनुष्यके शरीरकी सब धातुयें साम्यावस्थामें हों तथा तीनों दोष पूर्णरूपसे बढ़े हुए हें। उनमें तीनों दोषोंके लक्षणों की अधिकता को देखकर दोषोंके प्रतिकूल अर्थ के करनेवाले अर्थात् दोषोंको साम्यावस्थामें लगानेवाले औषध अन्नपानादिकोंको दे अथवा यों कहिये कि जिस मनुष्यके शरीरमें वातादि कोई दोष बढा हुआ हो उसको साम्यावस्थामें करनेवाले अन्नपानादि देवे। जब उस मनुष्यकी अग्नि
दोषोंकी साम्यावस्था होनेसे समअवस्थामें आजाय तब उसको त्रिविध आहारोंको समरीतिपर उपयोग करावे। जिस प्रकार अन्नपान तथा अन्यान्य क्रिया और औषधादिक प्रयोग दोषोको तथा अग्निको साम्यावस्थामें करने के लिये किये जाने चाहिये उनका विस्तारपूर्वक आगे वर्णन करते हैं। तीन प्रकारके पुरुष—रोगी होते हैं परन्तु अन्य शास्त्रोंके माननेवाले वैद्य उनको रोगी नहीं मानते। वह तीन प्रकारके पुरुष यह हैं। जैसे—वातप्रधान, पित्तप्रधान और कफप्रधान॥१६॥
तेषांविशेषविज्ञानंवातलस्यवातनिमित्ताः पित्तलस्यपित्तनिमित्ताः श्लेष्मलस्यश्लेष्मनिमित्ताव्याधयः प्रायेणबलवन्तश्च॥१७॥
उनका विशेष विज्ञान इस प्रकार है कि वातप्रधान मनुष्यको वातके रोग अधिक होतेहैं। पित्तप्रधान मनुष्यको पित्तके रोग अधिक होते हैं। तथा कफप्रधान मनुष्यको कफके रोग प्रायः अधिक होतेहैं॥१७॥
वातप्रकृतिके रोग।
तत्रवातलस्यप्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्यक्षिप्रंवातःप्रकोपमापद्यतेनतथेतरौ॥१८॥
इनमें वातप्रधान मनुष्यके शरीरमें वातकारक पदार्थोंको खानेसे वायु शीघ्र कोपको प्राप्त होता है। इस प्रकार पित्तकारक और कफकारक पदार्थोंको अधिक खानेसे वातप्रधान मनुष्यके शरीरमें पित्त और कफका कोप नहीं होता॥१८॥
सतस्यप्रकोपमापन्नोयथोक्तैर्विकारैःशरीरमुपतपतिबलवर्णसुखायुषासुपघाताय॥१९॥
वातप्रधान मनुष्यके शरीरमे वायुका कोप होनेसे—वायुके रोग उत्पन्न होकर शरीरको दुःखित कर देते हैं तथा बल, वर्ण, सुख और आयुको भी नष्ट कर डालते हैं॥१९॥
वायुके जीतनेका उपाय।
तस्यावजयनंस्नेहस्वेदौविधियुक्तौमृदूनिचसंशोधनानिस्नेहोष्णमधुराम्ललवणयुक्तानितद्वदभ्यवहार्य्याण्युपनाहनोपवेष्टनोन्मर्दनपरिषेकावगाहनसंवाहनावपीडनवित्रासनविस्मापनविस्मारणानिसुरासवविधानंस्नेहाश्चअनेकयोनयोदीपनीयपाच-
नीयावातहरविरेचनीयोपहिताःशतपाकाःसहस्रपाकाःसर्वशः प्रयोगार्थाबस्तयोबस्तिनियमःसुखशीलताचेति॥२०॥
उस मनुष्यके शरीरमें—वायुको जीतनेवाली स्नेहन और स्वेदन किया विधिपूर्वक करे। एवम् चिकने, गरम, मधुर, खट्टे लवणयुक्त पदार्थोंद्वारा मृदू संशोधन करे। तथा चिकने, गर्म आदि आहार करावे और वातनाशक, लेप, बंधन, मर्दन, परिषेक, अवगाहन, संवाहन और पीडन, वित्रासन, विस्मापन, विस्मारण, मद्य और आसव आदिकोंका तथा अनेक वातनाशक द्रव्योंका उपयोग करना चाहिये। एवम् वातनाशक स्नेह और दीपन तथा पाचन एवम् वायुके हरनेवाले शतपाकी तथा सहस्रपाकी घृतों और तैलोंका सेवन करावे।अथवा वातनाशक द्रव्यों द्वारा सौवार अथवा सहस्रवार पकाये हुए घृत तथा तैलों द्वारा बस्तिकर्म या अन्य प्रकारसे सुखदायक प्रयोगकर वायुको जीतना चाहिये॥२०॥
पित्तके जयका यत्न।
पित्तलस्यापिपित्तप्रकोपणाक्तान्यासेवमानस्यक्षिप्रंपित्तंप्रकोपमापद्यते, तथानेतरौ॥२१॥
पित्तप्रधान मनुष्योंके शरीरमें पित्तकारक पदार्थोंके खानेसे पित्तका शीघ्र कोप होजाताहै तथा वात और कफका कोप इसप्रकार नहीं होता॥२१॥
तदस्यप्रकोपमापन्नंयथोक्तैर्विकारैःशरीरमुयतपतिबलवर्णसुखायुषामुपघाताय॥२२॥
तब पित्तप्रधान मनुष्यके शरीरमें कोपको प्राप्त हुआं पित्त शरीरको पित्तके विकारोंसे तपायमान करतीहै तथा बल, वर्ण, सुख और आयुको भी नष्ट कर डालता है॥२२॥
तस्यावजयनंसर्पिष्पानंसर्पिषाचस्नेहनमधश्चदोषहरणंमधुरतिक्तकषायशीतानाञ्चौषधानामभ्यवहार्य्याणामुपयोगोमृदुमधुरसुरभिशीतहृद्यानांगन्धानाञ्चोपसेवामुक्तामणिहारावलीनाञ्चपवनशिशिरवारिसंस्थितानांधारणमुरसाक्षणेक्षणेस्रक्चन्दनप्रियङ्गुकालीयमृणालशीतवातवारिभिरुत्पलकुमुदकोकनदसौगन्धिकपद्मानुगतैश्चवारिभिरभिप्रोक्षणंश्रुतिसुखमृदुमधुरमनोऽनुगानाञ्चगीत- वादित्राणांश्रवणञ्चाभ्युदयानांसुहृद्भिश्चसंयोगःसं-
योगश्चइष्टाभिःस्त्रीभिःशीतोपहितांशुकस्रग्धारिणीभिर्निशाकरांशुशीतप्रवातहर्म्यवासःशैलान्तरपुलिनशिशिरसदनवसनव्यजनपवनानांसेवारम्याणाञ्चोपवनानांसुखशिशिरसुरभिमारुतोपवातानामुपसेवनंसेवनञ्चनलिनोत्पलपद्मकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रहस्तानांसौम्यानाञ्चसर्वभावानामिति २३॥
उस पित्तको जीतनेके लिये पित्तनाशक घृतका पीना तथा पित्तनाशक घृतोंद्वारा स्नेहन करना, विरेचन कराना एवम् मधुर, तिक्त, कषाय, शीतल औषधियोंका सेवन करना तथा मृदु, मधुर, सुगंधित, शीतल, हृदयको प्रिय ऐसे आहारोंका सेवन करना, सुगंधीका लेना तथा चंदन आदि शीतल गंधोंका लगाना, मोती और मणियोंकी माला पहिनना, शीतल पवन तथा शीतल जलके छोटे छातीपर लेना, क्षणक्षणमें चंदन, अगर, प्रियंगु, कमलकी डण्डी, शीतल और सुगंधित कमल कुमोदनी, कोकनद, कल्हार, आदिक कमलोंको शीतल जल और पवनसे ठण्डे करके उनसे शीतल जल अपने शरीरपर छिडकना, कानोंको सुखदायक मृदु मधुर, मनोहर गीत और बाजोंका सुनना, उत्तम शब्दोंको सुनना, अपने प्यारे मित्रोंसे मिलना शीतल, सुगंधित पुष्पमाला आदि धारण कियेहुए सुशोभित स्त्रियोसे सहवास करना शीतल वायुयुक्त चंद्रमाकी चांदनीको महलकी छतपर लेटकर सेवन करना, पहाडमें बहनेवाली नदियोंके किनारे तथा ठण्डे मकानोंमें रहना, शीतल वस्त्र धारण करना शीतल पंखेकी पवन लेना, रमणीय सुगंधित शीतल बागोंमे शीतल सुगंधित पवनका सेवन करना, नलिनी, उत्पल, पद्म, कुमुद, कह्लार, पुण्डरीक शतपत्र आदि पुष्पोको धारण किये सब प्रकारके सौम्यभावोंका सेवन करना पित्तके कोपको शान्त करता है॥२३॥
कफके जयका उपाय।
श्लेष्मलस्यापिश्लेष्मप्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्यक्षिप्रंश्लेष्माप्रकोपमापद्यते, नतथेतरौदोषौ॥ २४॥ तदस्यप्रकोपमापन्नो यथोक्तैर्विकारैःशरीरमुपतपतिबलवर्णसुखायुषामुपघाताय॥२५॥
कफप्रधान मनुष्योंके शरीरमें—कफकोपकारक पदार्थोंके सेवनसे कफ शीघ्र प्रकोपको प्राप्त होजाताहै। उस प्रकार वात, पित्त नहीं होते। फिर इसके शरीरमें यह कोपको प्राप्त हुआ कफ अपने विकारों द्वारा शरीरको कष्ट देता है तथा बल, वर्ण सुख और आयुको भी नष्ट कर डालता है॥२४॥२५॥
तस्यावजयनंविधियुक्तानितीक्ष्णोष्णानिसंशोधनानिरूक्षप्रायाणिचाभ्यवहार्य्याणिकटुतिक्तकषायोपहितानितथैवधावनलंघनप्लवनपरिसरणजागरणानियुद्धव्यवायव्यायामोन्मर्दनस्नानोत्सादनानिविशेषतस्तीक्ष्णानांदीर्घकालस्थितानांमद्यानामुपयोगःसर्वशश्चोपवासस्तथोष्णवासःसधूमपानः सुखप्रतिषेधश्चसुखार्थमेवेति॥२६॥
उस कफके जीतनेके लिये अनेक प्रकारके विधिपूर्वक तीक्ष्ण और उष्ण संशोधनोंको करे और प्रायः रूक्ष, पदार्थोंका एवम् कटु, तिक्त, कषाय रसवाले द्रव्योका सेवन करे। एवम् भागना, लंघन करना, उछलना, कूदना, परिसर्पण करना जागना तथा कुश्ती, मैथुन, व्यायाम, मर्दन, स्नान और उत्सादन आदिका उपयोग करना विशेषतासे तीक्ष्ण और पुराने मद्यका सेवन करना, सब प्रकारसे उपवास करना गर्म स्थानोंमें रहना, गर्म वस्त्र पहनना धूम्रपान, करना, आलस्य के नष्ट करनेवाले पदार्थोंका उपयोग करना चाहिये इनके करनेसे कफके विकार नष्ट होतेहैं॥२६॥
अध्यायका उपसंहार।
भवतिचात्र।सर्वरोगविशेषज्ञः सर्वकार्य्यविशेषवित्। सर्वभेषजतत्त्वज्ञोराज्ञःप्राणपतिर्भवेत्॥२७॥
यहांपर कहतेहैं कि, संपूर्ण रोगविशेषको जाननेवाला तथा संपूर्ण कार्य विशेषोंको समझनेवाला एवम् संपूर्ण औषधियोंके तत्त्वको जाननेवाला वैद्य राजाओंका प्राणपति होताहै॥२७॥
अध्यायका संक्षेप।
तत्रश्लोकाः।
प्रकृत्यन्तरभेदेनरोगानीकविकल्पनम्।परस्पराविरोधश्चसामान्यंरोगदोषयोः॥२८॥दोषसंख्याविकाराणामेकदोषप्रकोपनम्।जरणंप्रतिचिन्ताचकायाग्नेर्धुक्षणानिच॥२९॥नराणांवातलादीनांप्रकृतिस्थापनानिच।रोगानीकेविमानेऽस्मिन् व्यात्दृतानिमहर्षिणा॥३०॥
इति श्रीचरकसंहितायां विमानखण्डे रोगानीकं विमानम्।
अध्यायके उपसंहारमें यहांपर श्लोक हैं। इस रोगानीक विमाननामकअध्यायमें प्रकृतिके भेद, रोगसमूहोंके विभाग, रोगोंका परस्पर अविरोध, रोगसामान्यता तथा दोषसामान्यता एवम् दोषों और विकारोंकी संख्या एक २ दोषका प्रकोपन, भोजनके। पचनेकी अवस्था, जठराग्निकी चैतन्यता, वातप्रधान आदि मनुष्योंका प्रकृतिस्थ करना यह सब महर्षि आत्रेयजीने कथन किया है॥ २८॥२९॥३०॥
इति श्रीमहर्षिचरक० वि० स्था० भाषाटीकाया रोगानीक नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
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सप्तमोऽध्यायः।
अथातो व्याधितरूपीयंविमानं व्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम व्याधितरूपीय विमानकी व्याख्या करतेहैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कहने लगे।
रोगीके भेद।
द्वौपुरुषौव्याधितरूपौभवतः‚ तद्यथा—गुरुव्याधितएकःसत्त्ववलशरीरसम्पदुपेतत्वाल्लघुव्या धितवदृश्यते। लघुव्याधितोऽपरःसत्त्वादीनामधमत्वाद्गुरुव्याधितवदृश्यते॥१॥
दो प्रकार के पुरुष व्याधितरूप अर्थात् रोगी देखनेमें आतेहैं। उनमें एक तो इस प्रकारके होतेहैं कि अत्यन्न व्याधियुक्त होनेपर भी सत्त्व, बल और शारीरिक सम्पत्तिके सामर्थ्ययुक्त होनेसे थोडी व्याधिवाले दिखाई देतेहैं दूसरे इस प्रकारक होतेहैं कि जो थोडी व्याधियुक्त होनेपर भी सत्त्व, बलादिकों की हीनतासे भारी व्याधिवाले दिखाई देतेहैं॥ १॥
अज्ञानियोंका भ्रम।
तयोरकुशलाःकेवलंचक्षुषैवरूपं दृष्ट्वाव्यवस्यन्तोव्याधिगुरुलाघवेविप्रतिपद्यन्ते। नहिज्ञानावयवेनकृत्स्त्रेज्ञेयेज्ञानमुत्पद्यते॥२॥
इन दोनों प्रकारके पुरुषोंकी चिकित्सा करते समय अनभिज्ञ वैद्य केवलनेत्रोंसे रोगीकी आकृतिको देखकर ही व्याधिक गौरव और लाघवका निश्चय मान लेतेहैं। पर वह रोगके यथार्थ ज्ञानको संपूर्ण रूपसे नहीजान शकते॥२॥
विप्रतिपन्नास्तुखलुरोगज्ञानेउपक्रमयुक्तिज्ञानेचअपिविप्रतिपद्यन्ते। तेयदागुरुव्याधितंलघुव्याधितरूपमासादयन्तितदात-
मल्पदोषंमत्वासंशोधनकालेऽस्मैमृदुसंशोधनंप्रयच्छन्तोभूयएवास्यदोषमुदीरयन्ति। यदातुलघुव्याधितंगुरुव्याधितरूपमासादयन्तितंमहादोषंमत्वासंशोधनकालेऽस्मैतीक्ष्णंसंशोधनंप्रयच्छन्तोदोषानतिनिर्हृत्यशरीरमस्यक्षिण्वन्ति॥३॥
रोगका यथार्थ ज्ञान न होनेसे उस रोगकी चिकित्सा करना भी मूर्खता करने लगतेहैं। जब वह किसी भारी व्याधिवाले मनुष्य के सत्त्वे, बल शरीर आदिको देखकर व्याधिको लघु मान लेतेहैं तब रोगीको अल्प दोषवाला समझकर बहुत नर्मशोधन आदि करते हैं। ऐसा करनेसे दोषोंको उलट उत्तेजित कर देतें हैं। जब यह अनभिज्ञ किसी लघु व्याधिवाले मनुष्यका उसका रंगढंग देखकर भारी व्याविवाला मानलेतेहैं तो उसको तीक्ष्ण संशोधज्ञादि प्रयोग करतेहैं जिससे दोषोंको अत्यन्त हरण करके शरीरको क्षीण कर देतेहैं॥३॥
एवमवयवेनज्ञानस्यकृत्स्त्रेज्ञेयेज्ञानमितिमन्यमानाःस्खलन्ति, विदितवेदितव्यास्तुभिषजःसर्वंसर्वथायथासम्भवंपरीक्ष्यंपरीक्ष्याध्यवस्यन्तोनक्वचनविप्रतिपद्यन्ते, यथेष्टमर्थमभिनिर्वर्त्तयन्तिचेति॥४॥
केवल दृष्टीमात्रसेही हमने संपूर्ण रोगकी यथार्थताको ससझ लिया है ऐसा माननेवाले मूर्ख वैद्य चिकित्साके मार्गसे पतित होजाते हैं।सुज्ञ वैद्य तो ज्ञातव्य विषयको यथोचित रीतिपर जानकर संपूर्ण भागोंमें सर्वथा उचित रीतिपर परीक्षा करके व्याधिका यथार्थ निश्चय कर लेतेहैं। तब उचित रीतिसे चिकित्सा करनेमें प्रवृत्त होतेहैं। इसी प्रकार चिकित्सा करते हुए किसी स्थानमें भी नाकामयाब नहीं होते अर्थात् अपने कार्य्य में कहीं भी निष्फलताको प्राप्त नहीं होते किन्तु अपने अभीष्ट कार्यको साधन कर लेते हैं॥४॥
तत्रश्लोकाः।
सत्त्वादीनांविकल्पेनव्याधितंरूपमातुरे।दृष्ट्वाविप्रतिपद्यन्ते बालाव्याधिबलाबले॥५॥तेभेषजमयोगेनकुर्वन्त्यज्ञानमोहिताः। व्यांधितानांविनाशायक्लेशायमहतेऽपिवा॥६॥
यहांपर श्लोक हैं—जो मूर्ख वैद्य सत्त्वादिकों के भेदसे ही रोगीके रूपको देखकर व्याधिका बलावल समझ लिया मान लेते हैं और उसीमकार चिकित्सा करने लग-
जाते हैं वह अज्ञानसे मोहित हुए वैद्य औषधियोंके प्रयोगद्वारा रोगी मनुष्योंको महान कष्ट देते हैं अथवा मृत्युको प्राप्त कर देते हैं॥५॥६॥
प्रज्ञास्तुसर्वमाज्ञायपरीक्ष्यमिहसर्वथा।
नस्खलन्तिप्रयोगेषुभेषजानांकदाचन॥७॥
बुद्धिमान् वैद्य तो संपूर्ण विषयोको जानकर तथा सर्वथा संपूर्णरूपसे परीक्षा करके तदनन्तर औपधियोंका यथोचितरूपसे प्रयोगकरते है इसीलिये कभी भी चिकित्साक्रममे धोखा नहीं खाते॥७॥
इतिव्याधितरूपाधिकारेश्रुत्वाव्याधितरूपसंख्याग्रसम्भवंव्याधितरूपहेतुविप्रतिपत्तौचकारणंसापवादंसम्प्रतिपत्तिकारणञ्चानपवादंनिशम्यभगवन्तमात्रेयमग्निवेशोऽतःपरंसर्वक्रिमीणांपुरुषसंश्रयाणांसमुत्थानस्थानसंस्थानवर्णनामप्रभावचिकित्सितविशेषान्पप्रच्छोपसंगृह्यपादावथास्मैप्रोवाचभगवानात्रेयः। इहखलुअग्निवेश! विंशतिविधाःक्रिमयःपूर्वमुक्तानानाविधेनप्रविभागेनान्यत्रसहजेभ्यः॥८॥
इसप्रकार व्याधितरूपीय अधिकारमें व्याधिके दो प्रकारके रूपोंकी संख्या, उनमे होनेवाला विषय, व्याधितरूपके कारण उनमे वैद्यके विप्रतिपन्न अर्थात् न समझनेके कारण साथ अपवादके स्खलित होनेके कारण एवम् योग्य वैद्यद्वारा निरपवाद चिकित्सा होनेके कारणोको सुनकर अग्निवेश आत्रेय भगवान्के दोनों चरणोंको पकडकर पूछनेलगे कि हे भगवन्! शरीरमें होनेवाले सब प्रकारके कृमियोंके निदान, स्थान, आकृति, वर्ण नाम और प्रभाव तथा चिकित्साका वर्णन कीजिये।यह सुनकर अग्निवेशके प्रति आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश! सहज कृमियोंके सिवाय अन्य बीस प्रकारके कृमियोका विभागपूर्वक अलग २ पहिले कथन करचुके हैं॥८॥
४ प्रकारके सहजकृमि।
तेपुनःप्रकृतिभिर्भिद्यमानाश्चतुर्विधास्तद्यथा—पुरीषजाःश्लेष्मजाःशोणितजामलजाश्चेति। तत्रमलोबाह्यश्चाभ्यन्तरश्च, तत्र बाह्येमलेजातान्मलजान्संचक्ष्महे, तेषांसमुत्थानंमृजावर्जनं, स्थानंकेशश्मश्रुलोमपक्ष्मवासांसि, संस्थानमणवस्तिलाकृत-
योबहुपादावर्णस्तुकृष्णःशुक्लश्च, नामानिचैषांयूकाःपिपीलिकाश्चेति, प्रभावःकण्डूजननंकोठपिडकाभिनिर्वर्त्तनञ्चचिकित्सितन्त्वेषामपकर्षणं मलोपघातोमलकराणाञ्चभावानामनुपसेवनमिति॥९॥
उनमें सहज कृमि प्रकृतिभेदमे चार प्रकारके होते हैं। जैसे पुरीषज, श्लेष्मज, शोणितज और मलज। उनमे मल दो प्रकारका होता है। एक बाह्यमल और द्वितीय भीतरीमल उनमें बाहरके मलमें उत्पन्न होनेवाले कृत्रियोंका वर्णन करते हैं। बाहिरके कृमि उत्पन्न होनेका कारण शरीरको शुद्ध न रखना है अर्थात् शरीरको शुद्ध न रखनेसे बाह्यकृमि उत्पन्न होते हैं। केश, श्मश्रु, लोम, पक्ष्म और वस्त्र यह बाह्य कृमियोंके स्थान हैं। इनका आकार और स्वरूप बहुत छोटा और तिलके समान होता हैतथा बहुतसे पांवयुक्त और काले तथा सफेद वर्णके होते हैं। नाम इनके यूका और पिपीलिका होते हैं। यह कृमि खुजली, चकत्ते और फुंसियोको उत्पन्न करते हैं यही इनका प्रभाव है।यत्न इनका कंघी आदिसे खींचकर निकालदेना, शारीरिक मैलको दूर करना मलके उत्पन्न करनेवाले उपयोगोंको नही करना यही इनकी चिकित्सा है आमलोग इनकी जूआं और लीख कहते हैं॥९॥
रुधिरजकृमि।
शोणितजानान्तुकुष्ठैःसमानंसमुत्थानं, स्थानंरक्तवाहिन्योधसन्यः, संस्थानमणवोवृत्ताश्रापादाश्चसूक्ष्मत्वाच्चैकेभवन्त्यदृश्याः वर्णस्ताम्रः नामानिकेशादालोमादालोमद्वीपाःसौरसाऔदुम्बराजन्तुमातरइति। प्रभावःकेशश्मश्रुनखलोमपक्ष्मापध्वंसोव्रणगतानाञ्चहर्षकण्डूतोदसंसर्पणानिअतिवृद्धानाञ्चत्वक्शिरास्नायुमांसतरुणास्थिभक्षणमिति, चिकित्सितमप्येषांकुष्ठैःसमानं तदुत्तरकालमुपदेक्ष्यामः॥१०॥
शोणितज अर्थात् रक्तसे उत्पन्न होनेवाले कृमियोंका समुत्थान कुष्ठके समान जानना रक्तवाहिनी धमनियोंमें इनके रहनेका स्थान है। पांवरहित और बहुत बारीक होतेहैं। अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण दिखाई नहीं देते। तांबेके समान उनका वर्ण होता है। केशाद, लोमाद, लोमद्वीप, सौरस, औदुम्बर और जन्तुमाता ये इनके नाम हैं। केश, मोंछ, दाढी, नाखून रोम इनको नष्ट करना इनका प्रभाव है। जब यह किसी
जख्म (व्रण) में पडजाते हैं तो उस व्रणमें हर्ष, खुजली, तोद और इधरउधर चलनेसे सरसराहट उत्पन्न होते हैं।जब यह अत्यन्त बढजाते हैं तो त्वचा, शिरा, स्नायु, मांस और नरम हड्डिये इनको खाते हैं। चिकित्सा इनकी कुष्ठरोगके समान करनीचाहिये उसको आगे कथन भी करेगे॥१०॥
कफजकृमि।
श्लेष्मजाःक्षीरगुडतिलमत्स्यानूपमांसपिष्टान्नपरमान्नकुसुम्भस्नेहाजीर्णपूतिक्लिन्नसंकीर्णविरुद्धासात्म्यभोजनसमुत्थानाः। तेषामामाशयःस्थानं, प्रभावस्तुतेप्रवर्द्धमानास्तूर्द्ध्वमधोवाविसर्पन्ति, उभयतोवा। संस्थानवर्णविशेषास्तुश्वेताःपृथुव्रध्नसंस्थानाःकेचित् केचिद्वृत्तपरिणाहाःगण्डूपदाकृतयश्चश्वेताः। श्वेतास्ताम्रावभासाः, केचिदणवोदीर्घास्तन्त्वाकृतयःश्वेताः। तेषांत्रिविधानांश्लेष्मनिमित्तानांक्रिमीणांनामानिअन्त्रादाः,
उदरादाः, हृदयादाश्चरवो, दर्भपुष्पाः, सौगन्धिकाः, महागुदाश्चइति। प्रभावोहृल्लासास्यसंस्रवणमरोचकाविपाकौज्वरोमूर्च्छाजृम्भाक्षवथुरानाहोऽङ्गमर्दःछर्दिःकार्श्यंपारुष्यमिति॥११॥
श्लेष्मज कफजनित कृमियोके निदानको कहतेहै। दूध, गुड, तिल, मछली, अनुपदेशके जीवोंका मांस, पीठी अथवा मैदा आदि पिसेहुए अन्न, खीर आदि उत्तम पकवान कुसुंभका तेल, अजीर्णके करनेवाले सडेबुसे क्लेदकारक, संकीर्ण तथा विरुद्ध पदार्थोंके सेवन करनेसे एवम् असात्म्य पदार्थोंके सेवन करनेसे श्लेष्मज कृमि उत्पन्न होते हैं। आमाशय इनके रहनेका स्थान है। जब यह बढजाते हैं तो ऊपर अथवा नीचे या दोनो तरफ फिरते हैं। वर्ण विशेष इनका सफेद होता है। आकारमे गोल, लम्बे है होते हैं। कोई केचुएके समान आकारवाले होते हैं। कोई श्वेत, कोई ताम्रवर्णके, कोई बहुत छोटे, कोई बहुत लम्बे धागेके आकारके होते हैं। उन तीन प्रकारके कफजनित कृमियोके नाम यह होते हैं। जैसे अंत्राद, उदराद, हृदयाद, चुरू, दर्भपुष्प, सौगंधिक, महागुद।प्रभाव इनका जी मचलाना, मुखसे पानी बहना, अरुचि, अन्नका परिपाक न होना, ज्वर, मूर्च्छा, जंभाई, छीक, अफारा, अंगमर्द, छर्दि, शरीरका कृश होना एवम् शरीर अथवा कोष्ठका कठोर होना है। यह कफजनित कृमियोका कार्य वर्णन कियागया॥११॥
विष्ठाके कृमि।
पुरीषजास्तुल्यसमुत्थानाःश्लेष्मजैस्तेषांसंस्थानंपक्वाशयः। प्रभावास्तुतेप्रवर्द्धमानास्त्वधोविसर्पन्ति। यस्यपुनरामाशयाभिमुखास्युस्तदनन्तरंतस्योद्गारनिश्वासाःपुरीषगन्धिनःस्युः।
संस्थानवर्णविशेषास्तुसूक्ष्मवृत्तपरीणाहाःश्वेतादीर्घोर्णांशुकसङ्काशाः केचित्केचित्पुनःस्थूलवृत्तपरीणाहाःश्यावनीलहरितपीताः। तेषांनामानिककेरुकामकेरुकालेलिहाःशालूवकाःसौसुरादाश्चेति। प्रभावःपुरीषभेदःकार्श्यंपारुष्यंलोमहर्षाभिनिर्वर्त्तनञ्च। तत्रवास्यगुदमुखंपरितुदन्तःकण्डूश्चोपजनयन्तोगुदमुखंपर्य्यासते। सजातहर्षोगुदान्निष्क्रमणमतिवेलं करोति॥१२॥
** **पुरीष अर्थात् मलजनित कृमियोंका निदान कफके कृमियोंके सदृश जानना। इनके रहनेका स्थान पक्वाशय (मलाशय) है। जब यह मलके कृमि अत्यन्त बढजाते हैं तो नीचेकी ओर गमन करतेहैं तथा आमाशयकी ओर ऊपरको गमन करते हैं। इनके ऊपरको गमन करनेसे डकार और श्वासमें विष्ठाकीसी गंध आने लगती है। इनका आकार और वर्ण विशेष सूक्ष्म गोल. तथा श्वेत, लम्बा, ऊनके धागेके समान होता है। इनमें कोई बडे स्थूल, कोई बत्तीके समान आकारवाले तथा काले, पीले, नीले एवम्हरेवर्णके होते हैं, नाम इनके इस प्रकार हैं ककेरुक, मकेरुक, लेलिह्य, शालूवक और सौसुराद। प्रभाव अर्थात् कार्य इनका इस प्रकार है। मलका पतला होना, शरीरका कृश होना, कोष्ठका कठोर होना और रोमहर्ष होना तथा जब यह गुदाके मुखपर आते हैं तो गुदामें सूई चुभनेकीसी पीडा और खुजलीको उत्पन्न करते हुए गुदाके मुखमें व्यापक रहते हैं। गुदासे बाहर निकलते समय सरसराहटसी उत्पन्न करते हैं। यह पुरीषज कृमियोंके लक्षण हैं॥१२॥
इत्येषश्लेष्मजानांपुरीषजानाञ्चक्रिमीणांसमुत्थानादिविशेषः। चिकित्सितन्तुखल्वेषांसमासेनोपदिश्यपश्चाद्विस्तरेणोपदेक्ष्यते तत्रसर्वक्रिमीणामपकर्षणमेवादितःकार्य्यम्। ततःप्रकृतिविघातोऽनन्तरं निदानोक्तानांभावानामनुपसेवनमिति॥१३॥
इस प्रकार कफजनित और पुरीषजनित कृमियोंके निदान आदिकोंको कथन कियागया है। इनकी संक्षेपसे चिकित्साका कथन करके फिर विस्तारपूर्वक वर्णन करेंगे। सब प्रकारकें कृमियोंमें कृमियोको निकाल डालना मुख्य कार्य है। फिर कृमियोको नाश करनेवाले द्रव्यों द्वारा कृमियोंका प्रकृति विघात अर्थात् कृमीनाशक द्रव्योंद्वारा उनको नष्ट कर तदनन्तर कृमियोंको उत्पन्न करनेवाले कारणोंको त्याग देना चाहिये॥१३॥
क्रिमिचिकित्सा।
तत्रापकर्षणंहस्तेनाभिमृश्यापनयनमुपकरणवतामुपकरणेन वा।स्थानगतानान्तुक्रिमीणांभेषजेनापकर्षणंन्यायतश्चतुर्विधम्। तद्यथा, शिरोविरेचनंवमनंविरेचनमास्थापनमित्यपकर्षणविधिः॥१४॥
अब कृमियोंकेअपकर्षण अर्थात् निकालनेका क्रम कथन करते हैं। कृमियोको हाथ से मसलकर अथवा पकडकर या किसी यंत्रद्वारा दबाकर निकाल देना अथवा चूर देनाचाहिये। जो कृमि आमाशय आदि तथा अन्य किसी भीतरी स्थानमें हो उनको औषधी द्वारा निकाल देनाचाहिये। औषधी द्वारा कृमियोंको निकालनेकी चार विधि है। जैसे शिरोविरेचन, वमन, विरेचन और आस्थापन इसप्रकार कृमियोका अपकर्षण अर्थात् निकालनेकी विधिका कथन कियागया॥१४॥
प्रकृतिविघातस्त्वेषांकटुतिक्तकषायक्षारोष्णानांद्रव्याणामुपयोगोयच्चान्यदपिकिञ्चिच्छ्लेष्मपुरीषप्रत्यनीकभूतंतत्स्यादितिप्रकृतिविघातः॥१५॥
अब प्रकृतिविघातको कहते हैं कटु, तिक्त, कषाय, क्षार तथा उष्ण द्रव्योंका उपयोग करना और इनके सिवाय अन्य भी जो द्रव्य कफ और मलके विरोधी हों अथवा शुद्ध करनेवाले हों उनका सेवन करना एवम कृमियोके उत्पन्न करनेवाले कारणोंको नष्ट करनेवाले द्रव्योंका सेवन करना कृमियोंका प्रकृतिविघात कहाजाता है॥१५॥
अनन्तरंनिदानोक्तानांभावानामनुपसेवनंयदुक्तंनिदानविधौतस्यवर्जनंतथाविधप्रायाणाञ्चपरेषांद्रव्याणामितिलक्षणतश्चिकित्सितमनुव्याख्यातमेतदेवपुनर्विस्तरेणोपदेक्ष्यते॥१६॥
इसके अनन्तर निदानमें कहेहुए भावोंका अर्थात् कृमियोंके उत्पन्न करनेवालेपदार्थों का सेवन नहीं करना और इनके उत्पन्न करनेवाले भावोंको त्याग देना निदानमें कथन किये हुए भावोंके सिवाय और भी जो कृमियोंके उत्पन्न करनेकेकारण हों उनको त्याग देनाचाहिये। यह कृमियोंकी संक्षेपसे चिकित्साकथन कीगईहैं अब विस्तारसे कथन करते हैं॥१६॥
पेटके कीडोंकी चिकित्सा।
अथैनंक्रिमिकोष्ठमातुरमग्रेषड्रात्रंसतरात्रंवास्नेहस्वेदाभ्यामुपपाद्यश्वोभूतेएनंसंशोधनंपाययितास्मीति, क्षीरदधिगुडतिलमत्स्यानूपमांसपिष्टान्नपरमान्नकुसुम्भस्नेहसम्प्रयुक्तैर्भोज्यैःसायं प्रातरुपपादयेत्समुदीरणार्थञ्चैवक्रिमीणांकोष्ठाभिसरणार्थञ्च॥१७॥ भिषगथव्युष्टायांरजन्यांसुखोषितंसुप्रजीर्णभुक्तञ्चविज्ञायास्थापनवमनविरेचनैस्तदहरेवोपपादयेत्॥१८॥
जिस मनुष्यके कोष्ठमेकृमि होंउसको पहिले छः दिन या सात दिन स्नेहन और स्वेदन करना चाहिये। फिर स्नेहन, स्वेदन करके जब देखे कि कल प्रातःकाल संशोधन करावेंगे तो प्रथम दिन रात्रिके समय दूध, दही, गुड, तिल, मछली, अनूपसंचारी जीवोंका मांस, पिष्टान्न, खीर आदि पकवान कसूंमेकी चिकनाई आदि खूब पेटभर खिला देनाचाहिये ऐसा करनेसे सब कृमि इधर उधरसे आकर अपने स्थानोंको छोडकर कोष्ठ में आजाते हैं और आहार द्रव्यके साथ मिलकर कुलबुलाने लगते हैं फिर रात्रि बीतजानेपर प्रातःकाल ही अन्नको पाचन हुआ जान योग्य वैद्य आस्थापन, वमन, तथा विरेचन द्वारा कृमियोंको निकाल डाले॥१७॥१८॥
उपपादनीयश्चेत्स्यात्सर्वान्परीक्ष्यविशेषान् समीक्ष्यसम्यक्। अथाहरेतिब्रूयान्मलकसर्षपलशुनकरञ्जशिग्रुमधुशिखरपुष्पभूस्तृणसुमुखसुरसकुठेरक ‘गण्डी’कण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफणिज्जकानि।सर्वाणिअथवायथालाभम्। तानि आहृतानिअभिसमीक्ष्यखण्डशश्छेदयित्वाप्रक्षाल्यपानीयेनसुप्रक्षालितायांस्थाल्यांसमवाप्यगोमूत्रेणार्द्धोकेनाभ्यासिच्यसाधयेत्। सततमवघट्टयेत्दर्व्यातस्मिञ्शीतीभूतेतुउपयुक्तभूयिष्ठेऽम्भसिगतरसेषुऔषधेषुस्थालीमवतार्य्यसुपरिपूतंकषा-
यंसुखोष्णंमदनफलपिप्पलीविडङ्गकल्कतैलोपहितंसर्जिकालवणसभ्यासिच्यवस्तौविधिवदास्थापयेदेनम्॥१९॥
यदि वह रोगी फिर भी ऐसा करनेके योग्य हो तो सब प्रकारसे उसकी परीक्षा करके तथा संपूर्ण विशेषरूपसे जानकर उचित रीतिपर फिर संशोधन करे। अब संशोधन द्रव्योको कथन करते हैं—मूली, सरसो, लहसुन, करंज, साहजना, अजवायन, भृतृण, सुमुख, (तुलसीका भेद) सुफेद तुलसी, वनतुलसी, गण्डीर, कालमालक, पार्णास, क्षबक, और फणिज्झक (मरुएके भेद) इन सबको अथवा जो मिलसके उनको विधिवत् परीक्षा कर छोटे २ टुकडेकर डालेफिर पानी के साथ धोकर शुद्ध वर्तनमेडाल देऔर उस वर्तनमेगोमूत्र और गोमूत्रसे आधा पानी मिलाकर पकावे और कडछीसेवरावर हिलाता जावे।जब सब पानी सूखकर गोमूत्र भी चतुर्थभाग रहजाय तबउसको उतारकर कपडेसे छान डाले फिर उस शुद्ध स्वच्छ काढेमें मैनफल, पीपल और वायविडंग इनका कल्क मिला दे तथा सज्जीखार और सेधानमकको थोड़ा डाले फिर उसमे तेल और उचित समझे तो थोडा गर्मजल मिलाकर सद्दती२ आस्थापन, वस्तिकर्म करे॥१९॥
संशोधन औषधकी विधि।
तथार्कालर्ककुटजाढकीकुष्ठकैटर्य्यकषायेणतथाशिग्रुपीलुकुस्तुम्बुरुकटुकसर्षपकषायेणतथाम लकशृवङ्गवेरदारुहरिद्रापिचुमर्दकृपायेणमदनफलसंयोगसंयोजितेनत्रिरात्रंसप्तरात्रंवास्थापयेत्॥२०॥
अथवा इसी प्रकार लाल तथा सफेद आक, कुडा,अरहर, कूठ और कायफल इनके क्वाथमे मैनफलका कल्क मिलाकर आस्थापन वस्तिकर्म करे। अथवा साहंजना, पीलु, धनिया, कुटकी और सरसोके काढेमेंअथवा इसीप्रकार आमले सोंठ, दारुहल्दी, नीमकी छालके काढेमें मैनफलका कल्क मिलाकर तीन रात्रि अथवा सात गत्रि आस्थापन वस्तिकर्म करे॥२०॥
प्रत्यागतेचपश्चिमेवस्तौप्रत्याश्वस्तंतदहरेवोभयतोभागहरणंसंशोधनंपाययेत्युक्त्या, तस्यविधिरुपदेक्ष्यते॥२१॥
जब पिछली वस्ति गुदाद्वारा उलटकर बाहर निकलजाय तब उससे दूसरे दिन प्रातःकाल शोधनकर्ता द्रव्योंद्वारा विधिपूर्वक वमन विरेचन करावे।उसकी विधिको कान करते हैं॥२१॥
मदनफलपिप्पलीकषायेषुअञ्जलिमात्रेणत्रिवृत्कल्काक्षमात्रमालोड्यपातुमस्मैप्रयच्छेत्। तदस्यदोषमुभयतोनिर्हरतिसाधु॥२२॥
मैनफल और पीपलके सोलह तोला क्वाथमें एक तोला निशोथका कल्क मिलाकर रोगीको पिलावे। इसके पीनेसे वमन और विरेचन द्वारा ऊपर और नीचेके दोष भली प्रकार निकल जाते हैं॥२२॥
एवमेवकल्पोक्तानिवमनविरेचनानिसंसृज्यपाययेदेनंबुद्ध्यासर्वविशेषानवेक्ष्यमाणः॥२३॥
इसीप्रकार कल्पस्थानमें कहेहुए वमन विरेचन द्रव्योंको विधिवत् सम्पादनकर यथोचित रीतिसे दोषादिकोंको तथा बलादि व्यवस्था देखकर रोगीको पिलावे॥२३॥
विरेचन होजानेपर कर्म।
अथैनंसम्यग्विरिक्तंविज्ञायापराह्णशैखरिककषायेणसुखोष्णेन परिषेचयेत्। तेनैवचकषायेणबाह्याभ्यन्तरान्सर्वोदकार्थान्कारयेत्शश्वत्।तदभावेवाकटुतिक्तकषायाणामौषधानांक्वाथैर्मूत्रक्षारैर्वा परिषेचयेत्। परिषिक्तञ्चएनंनिवातमागारमनुप्रवेश्यपिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरसिद्धेनयवाग्वादिनाक्रमेणउपक्रामयेत्॥२४॥
जब देखे कि यह रोगी यथोचित विरिक्त (वमन विरेचन द्वारा शुद्ध) होगया तब दिनके पिछले प्रहरमें अपामार्गके सुखोष्ण क्वाथ द्वारा परिसेचन करे। और उसी क्वाथ द्वारा बाह्य और आभ्यन्तर संपूर्ण जलके कार्योंको साधन करे अर्थात् अपामार्गके क्वाथसे ही हाथ, पांव धोना, कुल्ला स्नान आदि सब काम करे। यदि उस समय अपामार्गका क्वाथ न मिलसके तो कटु, तिक्त द्रव्योंकें कषायसे अथवा गोमूत्र और क्षार मिलेहुए सुखोष्ण जलसे स्नान आदि करावे। स्नान करनेके अनन्तर निर्वात स्थानमें रक्खे और पिप्पली, पिपलामूल, चव्य, चित्रक और अदरख इनके संयोगसे सिद्ध कीहुई यवागु पीनेको देवे।तथा विधिवत्सब उपचार करे॥२४॥
विलेपीक्रमागतञ्चैनमनुवासयेद्विडङ्गतैलेनैकान्तंद्विस्त्रिर्वा। यदि पुनरस्यातिप्रवृद्धाञ्छीर्षादीन्क्रिमीन्मन्येत, शिरस्येवअभिसर्प-
तःकदाचित्ततःस्नेहस्वेदाभ्यामस्यशिरउपपाद्याविरेचयेदपामार्गतण्डुलादिनाशिरोविरेचनेन॥२५॥
उस यवागु पीनेके अनन्तर क्रमपूर्वक विलेपी सेवन करावे। फिर दो तीन दिनके अनन्तर वायविडंगके तेलसे अनुवासन कर्म करे। यदि फिर भी देखे कि इसके शिर आदि अंगोंमें कृमि बढे हुएहै तो शिरोविरेचन करानेके लिये पहिले सिरको स्नेहन और स्वेदन करके फिर अपामार्ग तण्डुल आदि शिरोविरेचन द्रव्योंद्वारा शिरका विरेचन करे॥२५॥
कृमिनाशक औषधि।
यस्त्वभ्याहार्य्योविधिःप्रकृतिविघातायोक्तःक्रिमीणां, सोऽनुव्याख्यास्यते। मूषिकपर्णींसमूलाग्रप्रतानामपहृत्यखण्डशश्छेदयित्वाउलूखलेक्षोदयित्वापाणिभ्यांपीडयित्वाचरसंगृह्णीयात्। तेनरसेनलोहितशालितण्डुलपिष्टंसमलोड्यपूपलिकांकृत्वाविधूमेषुअङ्गारेषुविपाच्यविडङ्गतैललवणोपहितांक्रिमिकोष्ठायभक्षयितुंप्रयच्छेत्। तदनन्तरंचअम्लकाञ्जिकमुदश्विद्वापिप्पल्यादिपञ्चवर्गसंसृष्टंसलवणमनुपाययेत्॥२६॥
जो कृमिनाशक पथ्यादि कृमियोंके प्रकृति विघातक कथन करआयेंहै अब उनकी व्याख्या करते हैं। जैसे मूषिकपर्णीको जडसहित तथा अग्रभागसहित लेकर उसके छोटे २ टुकडेकर डाले फिर उसको उखलीमें कूटकर दोनों हाथोंसे दवा उसका रसनिचोड ले। उस रसमें लालचावलोंके आटेको मिलाकर विधिवत् पूडियें बनाले इन पूडियोंको निर्धूम अग्निपर पका विडंगका तैल और सेंधानमक मिलाकर जिस मनुष्यके कोष्ठमें कृमि हों उसको यह खानेको देवे।इसके ऊपर खट्टी कांजीका, जल अथवा दहीका पानी सेंधे नमकयुक्त पंचकोलका चूर्ण मिलाकर पीने के लिये देवे॥२६॥
अनेनकल्पेनमार्कवार्कसहचरनीपनिर्गुण्डीसुमुखसुरसकुठेरककण्डीरकालमालकपर्णासक्षवक फणिज्झकबकुलकुटजसुवर्णक्षीरीसुरसानामन्यतमस्मिन्कारयेत्पूपलिकानितथाकिलिहीकिराततिक्तकसुवहामलकहरीतकीविभीतकस्वरसेषुकारयेत्
पूपलिकाः। स्वरसांश्चैतानेकैकशोद्वन्द्वशःसर्वशोवामधुविलुलितान्प्रातरनन्नायपातुंप्रयच्छेत्॥२७॥
इसी प्रकारसे भांगरा, आक, कठसरइया, कदंब, निर्गुण्डी और सुसुख, सुरस यह तुलसीकी जातियें, बनतुलसी, काण्डीर, कालमालक, पर्णाश क्षवक और फणिज्झक यह मरुएंकी जातियें। मौलसरी, कुडा, सत्यानाशी, तुलसी इनमेंसे किसी एकके स्वरसको पूर्वोक्त रीतिपर निकालकर उस रसमें लालचावलोंके आटेको मांडकर पूडियें बनावे उन पूडियोंको जंगली उपलोंकी निर्धूम अग्निपर पकाकर पूर्वोक्त रीतिसे कृमि कोष्ठवाले मनुष्यको खिलावे अथवा अपामार्ग, चिरायता सुवहा, हरड, वहेडे आमले इन सबमेंसे किसी एकके स्वरसमें तथा दोनोंके स्वरसको मिलाकर अथवा सबके रसमें लालचावलके आटोंकी पूडियें बनावे उनको शहद लपेटकर प्रातःकाल कृमियोंवाले रोगीको खिलावे अथवा उपरोक्त सबऔषधियोंके रसमें या किसी एकके स्वरसमें शहद मिलाकर भोजनसे प्रथम प्रातःकाल पीनेके लिये देवे॥२७॥
अथाश्वशकृदाहृत्यमहतिकिलिञ्जेप्रस्तीर्य्यातपेशोषयित्वोलूखलेक्षोदयित्वादृषदिपुनः सूक्ष्माणिचूर्णानिकारयित्वाविडङ्गकषायेणत्रिफलाकषायेणवाअष्टकृत्वोदशकृत्वोवाआतपेसुपरिभावितानिभावयित्वादृषदिपुनःसूक्ष्माणिचूर्णानिकारयित्वानवेकलशेसमवाप्यानुगुप्तंनिधापयेत्। तेषान्तुखलुचूर्णानांपाणितलंचूर्णंयावद्वासाधुमन्येतक्षौद्रेणसंसृज्यक्रिमिकोष्ठायलेढुंयच्छेत् २८
अथवा घोडेकी ताजी लीद लेकर किसीवडे टाट या चटाईपर डाल सुखा लेवे फिर उस सूखी लीदको ऊखलीमें डालकर वारीक चूर्ण करे फिर उसको सिलपर पीसकर अत्यन्त महीन बनाले इसके अनन्तर वायविडंगके क्वाथकी आठ भावना अथवा त्रिफलेके क्वाथकी दश भावना या दोनोंकी भावना देवे और प्रत्येक भावनोंके अनन्तर धूपमें सुखाता जावे फिर इसको सुखाकर कपडछानकर लेवे और एक नये मट्टीके पात्र में भरकर अलग रख देवे और इसका किसीको भेद न बतावे।इसमेंसे एक तोलाभर चूर्ण अथवा दो या तीन तोलाभर जितना उचित समझे शहद में मिलाकर जिस मनुष्यके कोष्ठमें कृमि हों उसको चटादियाकरे॥२८॥
तथाभल्लातकास्थीन्याहार्य्यकलशप्रमाणेनसम्पोथ्यस्नेहभावितेदृढेकलशेसूक्ष्मानेकच्छिद्रबध्नेमृदावलिप्तेसमवाप्योडुपेनपिधायभूमौआकण्ठंनिखातस्यस्नेहभावितस्यैवअन्यस्यदृढस्यकु-
म्भस्यउपरिसमारोप्यसमन्तात्गोमयैरुपचित्यदाहयेत्। सयदाजानीयात्साधुदग्धानिगोमयानिगलितस्त्रेहानिभल्लातकास्थीनिततस्तंकुम्भमुद्धारयेत्। अथतस्माद्द्वितीयात् कुम्भात्तंस्नेहमादायविडङ्गतण्डुलचूर्णैःस्नेहार्द्धमात्रैःप्रतिसंसृज्यातपेसर्वमहः स्थापयित्वाततोऽस्मैमात्रांप्रयच्छेत्पानाय। तेनसाधुविरिच्यते विरिक्तस्यचानुपूर्वीयथोक्ता॥२९॥
अथवा भेलावेकी १६ सेर गुठलियोंको लेकर थोडा कूट लेवे फिर किसी पक्के चिकने घडेमे भरदेवे और उस घडेके नीचे वारीक वारीक छिद्र रहने देवे तथा उसके मुखको सरावसे ढककर कपडमट्टी करदेवे और उस घडेके नीचे जिस जगह छिद्र होंएक खुलेमुखका चिकना पात्र रखदेवे अर्थात् नीचेके खाली चिकने पात्रके मुखपर औषधी वाले घडेके छिद्रोंको टिका कपडमिट्टीसे बंद करदेवे फिर जमीनमें एक गढा खोदकर उसमे नीचेकेसंपूर्ण पात्रको दवा देवे और थोडासा हिस्सा उपरले घडेका भी मट्टीमें आजाना चाहिये। फिर इस घडेके चारोंतरफसे मट्टीको दवा इसके ऊपर चारोओर सखे जंगली उपले लगाकर आग लगादेवे।जब जाने कि उपरले घडेके भेलावोंका आगकी गर्मीसे सब तेल नीचेके पात्र में टपक चुकाहै तो शीतल होजानेपर घडेके ऊपरकी राख मट्टी सावधानी से हटाकर नीचेके पात्र में आये हुए तेलको निकाल लेवे।और किसी दूसरे उत्तम पात्रमें भरकर रक्खे।फिर इसमेंसे थोडा तेल लेकर उसमे तेलसे आधा बायबिडंगका चूर्ण मिला देवे और उसको धूपमें रखदेवे।तमाम दिन धूपमे रखकर इसमेंसे यथोचित मात्रा खिलाकर ऊपरसे गर्मपानी पिलावे। जब इससे ठीक विरेचन होचुके तब संशोधन किये मनुष्यका जिसप्रकार उपचार करनाचाहिये उस विधि से इसकी रक्षा करे। (भेलावेके फलका तेल लगजानेसे मनुष्यके शरीर में खुजली, सृजन, घाव आदि अनेक उपद्रव होजाते हैं। विना विधिसे भेलावेका सेवन करना विषके समान होता है। परन्तु यह विकार भेलावेके फलके रसमें होते हैं। फलाके गुठलियोमेसे निकाले तेलमें नहीहोते। तौ भी भेलावेका तथा अन्य किसी विषैले पदार्थका उपयोग सुयोग्य वैद्यके ही हाथसे करनाचाहिये विना जाने स्वयं करने से मनुष्य अपने शरीरको भी नष्ट कर बैठता है।)॥२९॥
एवमेवभद्रदारुसरलकाष्ठस्नेहानुपकल्प्यपातुंप्रयच्छेत्। अनुवासयेच्चैनमनुवासनकाले॥३०॥
इसी प्रकार देवदारु तथा सरलकाष्ठका तेल निकालकर उसमें वायविडंगका चूर्ण मिलाकर १ दिन धूप में रक्खे और दूसरे दिन गर्मजलके योगसे पिलावे।देवदारु
और सरलके तेल द्वारा अनुवासनके समय अनुवासनवस्ति करना हितकर होता है। (परन्तु भेलावेके तेलसे अनुवासनवस्ति नहीं करना)॥३०॥
बिडंगतैलम्।
अथाहरेतिब्रूयाच्छारदान्नवांस्तिलान्सम्पदुपेतानाहृत्यसुनिष्पूतान्निष्यूयसुशुद्धाञ्छोधयित्वाविडङ्गकषायेसुखोष्णेप्रक्षिप्यसुनिर्वापितान्निर्वापयेदादोषगमनात्। गतदोषानभिसमीक्ष्यसुप्रलूनान् प्रलुच्यपुनरेवसुनिष्पूतान्निष्पूयसुशुद्धाञ्छोषयित्वाविडङ्गकषायेणत्रिःसप्तकृत्वःसुपरिभावितान् भावयित्वाऽऽतपेशोषयित्वोलूखलेसंक्षुद्यदृषदिपुनःश्लक्ष्णपिष्टान्कारयित्वाद्रोण्यामभ्यवधायविडङ्गकषायेणमुहुर्मुहुरवसिञ्चन्पाणिमर्दंमर्दयेत्। तस्मिन्खलुप्रपीड्यमानेयत् तैलमुदियात्तत्पाणिभ्यांपर्यादायशुचौदृढेकलशेसमासिच्यानुगुप्तंनिधापयेत्। अथाहरेतिब्रूयात्तिल्वकोद्दालकयोर्द्वौबिल्वमात्रौपिण्डौश्लक्ष्णपिष्टौविडङ्गकषायेण, ततोऽर्द्धमात्रौश्यामत्रिवृतयोरर्द्धमात्रौदन्तीद्रवन्त्यारतोऽर्द्धमात्रौचव्यचित्रकयोरित्येतत्सम्भारंविडङ्गकषायस्यार्द्धाढकमात्रेणप्रतिसंसृज्यततस्तैलप्रस्थमावाप्यसर्वमालोड्यमहतिउपयोगेसमासिच्याग्नावधिश्रित्यमहत्यासनेसुखोपविष्टःसर्वतःस्नेहमवलोकयन्अजस्त्रंमृद्वग्निना साधयेद्दर्व्यासततमवघट्टयन्। सयदाजानीयाद्विरमतिशब्दः प्रशाम्यति चफेनः, प्रसादमापद्यते स्नेहोयथास्वंगन्धवर्णरसोत्पत्तिःसंवर्त्ततेच, भेषजमंगुलिभ्यां मृद्यमानमनतिमृदुमनतिदारुणमनंगुलिग्राहिचेति।सकालस्तस्यावतारणाय। ततस्तमवतीर्णंहृतंशीतीभूतमहतेनवाससापरिपूयशुचौदृढेकलशेसमासिच्यपिधानेनपिधायशुक्लेनवस्त्रपट्टेनआच्छाद्यसूत्रेणसुबद्धंसुनिगुप्तंनिधापयेत्। ततोऽस्मैमात्रां प्रयच्छेत्पानाय॥३१॥
अब बिडंगतैलकी विधि कथन करते हैं। पहिले रोगीसे कहे कि तू शरदऋतुके अर्थात् नवीन और उत्तम तिलोंको इकट्ठे कर जब वह तिलोंको इकट्ठे करलेवे तो उन तिलोंको फटक तथा संबार कर एवम् उनमें मट्टी पत्थर आदि चुनकर स्वच्छ बनावे फिर उनको सुन्दर रीतिसे धोकर धूपमे सुखा लेवे। जब सूख जायं फिर उन तिलोको वायबिडंगके क्वाथकी भावना देकर धूपमें सुखाता जावे। इसी प्रकार बायविडङ्गके क्वाथकी इक्कीस भावना देवे। जब सूख जांय तो उखलीमें कूटकर फिर सिलपर बारीक पीस डाले। फिर उस बारीक तिलोंके चूर्णको किसी चिकनेपात्र में भरकर उसमें बायबिडंगका गर्मगर्म क्वाथछिडकता जाय और हाथोसे उन तिलोंको मीडताजाय जो उनमेंसे तेल हाथोंको लगे अथवा पात्रमे निकले उस तेलको हाथसे किसी स्वच्छ पात्रमें पोंछता जाय जब सब तेल निकल आवे तो उस तेलको किसी स्वच्छ पात्रमेंभरकर रखदेवे। फिर पठानी लोद कोद्रव (कोदाअन्न) यह दोनों चार चार तोला लेवे। इनको वायविडंगके क्वाथके साथ पीसकर दो पिड बनालेवे। इसके अनन्तर दो दो तोला दक्षिणी और पहाडी निशोथ दो दो तोला दोनो प्रकारकी दंती एक एक तोला चव्य और चित्रक इन सबको चार सेर वायविडंगके क्वाथमें मिलाकर पूर्वोक्त चार सेर तेलमें मिलादेवे। फिर सब औषधियोंको एक बड़ी कडाहीमे चढाकर भट्टीपर रक्खे।स्वयं एक ऊंचे आसनपर बैठकर उस कहाडीमेतेलको सब तरहसे देखताहुआ मंदमंद अग्निसे पकावे।जब देखे कि पानी जलचुकाहै और औषधियोके पकनेका शब्द शान्त होगया।फेन भी जाता रहा। तैल स्वच्छ होगया।जैसे—द्रव्या दिक उसमे डाले हैं उन सबका गंध, रस, वर्ण तेलमे आगया तब उस तेलमें पडीऔषधियों के कल्कको निकालकर अंगुलियोंसे मसलताहुआ बत्ती बनाकर देखे। यदि उस कल्कद्रव्यकी बत्ती बनजाय और तेलको छोडने लगजाय और अंगुलियोंसे न चिपटे तो जाने कि तेल अब सिद्ध होगया और यह समय उस तेलके उतारनेका है। फिर उसको उतारकर जब वह ठंडा होजाय किसी अच्छे वस्तुसे विधिपूर्वक छानकर शुद्ध और दृढ कलशमें भरकर ऊपरसे किसी पात्रद्वारा ढकदेवे तथा श्वेत और नये वस्त्रसे उसके मुखको बांधकर किसी उत्तम स्थानमेरख देवे फिर जब आवश्यकता हो तो इस तैलमेंसे रोगीको यथोचित मात्रा पान करावे॥३१॥
तेनसाधुविरिच्यते। सम्यगपहृतदोषस्यचास्यानुपूर्वीयथोक्ता। ततश्चैनमनुवासयेदनुवासनकाले॥३२॥
इस तैलके उपयोगसे उत्तम विरेचन होता है। जब उत्तम विरेचन होकर दोष निकलने से मनुष्य शुद्धदेह होजाय तब इसको विधिवत् यवागू आदि पथ्य सेवन करावे। और अनुवासन के समय अनुवासन कर्म करे ॥ ३२ ॥
एतेनैवचपाकविधिनासर्षपकरञ्जकोषातकीस्नेहानुपकल्प्यपाययेत्सर्वविशेषानवेक्ष्यमाणस्तेनागदोभवति॥३३॥
इसी तैलपाकविधिसे—सरसों, करंज और कडवी तोरीके बीजोंका भी तैल बनाना चाहिये। फिर विचार पूर्वक कृमिनाश करने के लिये इन तेलोंका उपयोग करे।ऐसा करनेसे मनुष्य कृमिरोगसे छूटकर नीरोग होजाता है॥३३॥
इत्येतद्द्वयानांश्लेष्मपुरीषसम्भवानांक्रिमीणांसमुत्थानस्थानसंस्थानवर्णनामप्रभावचिकित्सितविशेषाव्याख्याताः सामान्यतः॥३४॥
इसप्रकार—कफजन्य और पुरीषजन्य कृमियोंके निदान, लक्षण, वर्ण, प्रभाव, नाम और चिकित्सा विशेषका सामान्यरूपसे कथन कियागया है॥३४॥
विशेषतस्तुअल्पमात्रमास्थापनानुवासनानुलोमहरणंभूयिष्ठंतेष्वौषधिपुरीषजानांक्रिमीणांचिकित्सितंकार्य्यंमात्राधिकम्पुनः शिरोविरेचनवमनोपशमनभूयिष्ठंतेष्वौषधेषुश्लेष्मजानांक्रिमीणांचिकित्सितंकार्य्यम्। इत्येवंक्रिमिघ्नोभेषजविधिरनुव्याख्यातोभवति॥३५॥
विशेषतासे ध्यान देने योग्य यह बात हैं कि पुरीषजन्य कृमियोंकी चिकित्सा प्रायः यही है कि स्वल्पमात्रासे आस्थापन तथा अनुवासनवस्ति करना और अनुलोमताके हरण करनेवाली औषधियोंका प्रयोग करना। यह पुरीषज कृमियोकी चिकित्सा है। कफजन्य कृमियोंमें अधिक मात्रासे वमन, शिरोविरेचन तथा उपशमन औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये। यह कफजनित कृमियोंकी चिकित्साका वर्णन कियागया। इसप्रकार कृमिनाशक औषधविधिका वर्णन कियागया है॥३५॥
तमनुतिष्ठतायथास्वंहेतुवर्जनेप्रयतितव्यम्। यथोद्देशमेवमिदंक्रिमिकोष्ठचिकित्सितंयथावदनुव्याख्यातंभवतीति॥३६॥
कृमिनाशक औषधियोंके सेवन करनेवाला मनुष्य कृमियोंके उत्पन्न करनेवाले कारणोंको त्यागनेमें विशेष यत्नवान् रहे। इसप्रकार यथा उद्देश कृमिकोष्ठकी चिकित्साका क्रमपूर्वक वर्णन कियागया॥३६॥
तत्र श्लोकाः।
अपकर्षणमेवादौक्रिमीणांभेषजंस्मृतम्। ततोविघातःप्रकृतेर्नि-
दानस्यचवर्जनम्॥३७॥ एतावद्भिषजाकार्य्यंरोगेरोगेयथाविधि। अयमेवविकाराणांसर्वेषामपिनिग्रहे॥३८॥
यहांपर श्लोक हैं कि पहिले कृमियोका आकर्षण करनाही उत्तम चिकित्सा है। उसके अनन्तर कृमियोंकी प्रकृतिका नाश करना तथा कृमिकारक पदार्थोंका त्याग देना। इसप्रकार वैद्यको प्रत्येक रोग में विधिपूर्वक करना चाहिये। संपूर्ण विकारोंके शान्त करनेका यही क्रम है॥३७॥३८॥
विधिर्दृष्टस्त्रिधायोऽयंक्रिमीनुद्दिश्यकीर्त्तितः।
संशोधनसंशमनंनिदानस्यचवर्जनम्॥३९॥
कृमियोंके उद्देशसे संशोधन, संशमन और निदानका परिवर्ज्जन इस तीन प्रकारकी विधिका कथन किया है॥३९॥
अध्यायका संक्षेप।
व्याधितौपुरुषौज्ञाज्ञौभिषजौसप्रयोजनौ। विंशतिःक्रिमयस्त्वेषांहेत्वादिःसप्तकोगणः॥४०॥उक्तोव्याधितरूपीयविमाने परमर्षिणा।शिष्यसंबोधनार्थञ्चव्याधिप्रशमनायच॥४१॥
इति व्याधितरूपीयंविमानं समाप्तम्॥७॥
इस व्याधितरूपीय विमानमें शिष्यके सम्बोधनके लिये और व्याधिकी शान्तिके लिये दो प्रकारके व्याधितपुरुष, सुज्ञ और अज्ञ दो प्रकारके वैद्य और उनके प्रयोगके भेद, बीस प्रकार के कृमि और उनके कारण आदि सातगण, महर्षिआत्रेयजीने कथन किये हैं॥४०॥४१॥
इति श्रीमहर्षिचरक० विमानस्थाने मात्रा ० व्याधीतरूपीयविमान नाम सप्तमोऽन्यायः॥७॥
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अष्टमोऽध्यायः।
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अथातो रोगभिषग्जितीयमध्यायंव्याख्यास्याम इतिहस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम रोगभिषग्जितीय अध्यायकी व्याख्या करतेहैइस प्रकार भगवान आत्रेयजी कथन करनेलगे।
शास्त्रपरीक्षा।
बुद्धिमानात्मनःकार्य्यगुरुलाघवेकर्मफलमनुबन्धंदेशकालौचविदित्वायुक्तिदर्शनाद्भिषगबुभूषुः
शास्त्रमेवादितःपरीक्षेत। विविधानिहिशास्त्राणिभिषजांप्रचरन्तिलोके। तत्रयन्मन्येत महद्यशस्विधीरपुरुषानुमोदितमर्थबहुलमाप्तजनपूजितंत्रिविधशिष्यबुद्धिहितमपगतपुनरुक्तदोषमार्षंसुप्रणीतसूत्रभाष्यसंग्रहक्रमंस्वाधारमनवपतितशब्दमकष्टशब्दंपुष्कलाभिधानंक्रमागतार्थमर्थतत्त्वनिश्चयप्रधानंसङ्गतार्थमसंकुलप्रकरणमाशु प्रबोधकंलक्षणवच्चोदाहरणवच्चतदभिप्रपद्येतशास्त्रम्। शास्त्रंह्येवंविधममलइवादित्यस्तमोविधूयप्रकाशयतिसर्वम्॥१॥
वैद्य होनेकी इच्छावाला बुद्धिमान् मनुष्य प्रथम अपनी कार्यकी गुरुता, लघुता, कर्म, उसका फल तथा सहायता आदि संयोग, देश और कालको विचारकर एवम्युक्ति अर्थात् अनुमानसे अपने पूर्वपरको विचारता हुआ इन संपूर्ण भावोंपर दृष्टि देकर जिस शास्त्रको पढना हो पहिले उसकी परीक्षा करे अर्थात् यह देखेकि यह ग्रंथ पढनेयोग्य है या नहीं क्योंकि वैद्यकके अनेक ग्रंथ वैद्यलोगोंके रचेहुए लोकमें प्रचलित हैं। उन सबमें जिस ग्रंथका लोकमेंयश छाया हुआहो और योग्य पुरुष उसकी प्रशंसा करतेहों। जिसके पढनेसे वैद्यकका यथोचित ज्ञान प्राप्त होता हो, जिसमें अर्थ बहुत हों जो प्रामाणिक पुरुषोंका मानाहोय, उत्तम, मध्यम, अधम इन तीनों प्रचार के शिष्योंकी बुद्धिमें आसकता हो। पुनरुक्त दोषसे रहित हो, ऋषि, प्रणीत हो, सूत्र, भाष्य, संग्रहक्रम विधिवत् बना हुआहो, अपने आधार हो अर्थात उसमें ऐसी बातें न हों जिनको जाननेके लिये अन्य ग्रंथोंके देखनेकी आवश्यकता होतीहों, जिसमें भ्रष्टशब्द न हों तथा कठिन शब्द न हों, जिसका कथन स्पष्ट और बहुत अर्थको बतानेवाला हो, जिसमें क्रमपूर्वक विषय चलताहो और अर्थ, तत्त्वका निश्चय ही मुख्य मानाहो, सब विषय संगत हों, शीघ्र बोधको करानेवाला हो एवम्लक्षण और उदाहरण देकर विषयको स्पष्टरूपसे वर्णन करता हो ऐसे ग्रंथको पढनेके लिये ग्रहण करना चाहिये। ऐसा शास्त्र सूर्यके समान अंधकारको दूरकर सब अर्थोंका अर्थात अर्थ, धर्म, यश आदिकोका प्रकाश करता है॥१॥
आचार्यकी परीक्षा।
ततोऽनन्तरमाचार्य्यंपरीक्षेत। तद्यथा—पर्य्यवदातश्रुतंपरिदृष्ट-
कर्माणंदक्षंदक्षिणंशुचिंजितहस्तमुपकरणवन्तंसर्वेन्द्रियोपपन्नं प्रकृतिज्ञंप्रतिपत्तिज्ञमनुपस्कृतविद्यमनहंकृतमनसूयकमकोपनं क्लेशक्षमंशिष्यवत्सलमध्यापकंज्ञापनासमर्थञ्चइत्येवंगुणोह्याचार्य्यःसुक्षेत्रमार्त्तवोमेघइवशस्यगुणैः सुशिष्यमाशुवैद्यगुणैःसम्पादयति। तमुपसृत्यारिराधयिषुरुपचरेदग्निवच्चदेववच्चराजवच्चपितृवच्चभर्तृवच्चाप्रमत्तस्ततस्तत्प्रसादात्कृत्स्नंशास्त्रमधिगम्य शास्त्रस्यदृढतायामभिधानसौष्ठवस्यार्थस्यविज्ञानेवचनशक्तौ चभूयःप्रयतेतसम्यक्॥२॥
इसके अनन्तर पढानेवाले आचार्यकी परीक्षा करना चाहिये। वह इस प्रकार है, जो वेदोंके अथवा आयुर्वेदके संपूर्ण रूपसे सर्वांशको जाननेवाला हो, जिसने आयुर्वेद संबंधी संपूर्ण कर्मोंको गुरूसे सीखाहो और स्वयं भी यथोचित रीतिपर संपूर्ण कर्मोंको अनेक वार किया हुआ हो। सबकार्मोमें चतुर हो, संपूर्ण आयुर्वेद विद्याको जाननेवाला हो पवित्र हो, जिसका हाथ हरएक कार्यके करनेमेहल्का और स्पष्ट हो जो आयुर्वेदीय यंत्र, शस्त्र, क्षार, औषध आदि संपूर्ण सामग्री रखता हो, सर्वेन्द्रिय सम्पन्न हो, जिसके शरीरके संपूर्ण अंग उत्तम हों। सबमनुष्योंकी प्रकृति तथा भेदको जाननेवाला हो आयुर्वेदके संपूर्ण सिद्धान्तोको ठीक जाननेवाला हो, जिसने संपूर्ण शास्त्र पढे हों और वह याद हों, अहंकार रहित हो, निदक और क्रोधी न हो, क्लेशोको सहन करनेवाला हो, शिष्यपर प्रेम करनेवाला हो और प्रेमपूर्वक पढानेवाला हो, जिस विषयको पढावे उसको उदाहरण आदि द्वारा स्पष्टरूप से समझानेवाला हो। इसप्रकार आचार्य—जैसे ऋतुकाल में अच्छी भूमिमेंमेघ बरसकर उत्तम खेतीको उत्पन्न करता है उसीप्रकार अपने शिष्य को शीघ्र वैद्यकके गुणोसे सम्पन्न कर देता है।वैद्य होनेकी इच्छावाले शिष्यको उचित है कि ऐसे गुरूके समीप जाकर उसको अग्निके समान, देवताके समान, राजाके समान, पिताके समान तथा स्वामीके समान जानकर अप्रमत्त होकर सेवा करे।ऐसे गुरुकी कृपासे संपूर्ण शास्त्रको पढकर शास्त्रमे दृढता उत्पन्न करनेके लिये तथा कथन करनेमें चतुराई उत्पन्न करनेके लिये शास्त्रीय विषयका यथोचित ज्ञान प्राप्त करने के लिये और जाने हुए विषयको वर्णन करने के लिये उत्तम शक्ति उत्पन्न करनेका यत्नवान् रहे॥२॥
तत्रोपायाव्याख्यास्यन्ते। अध्ययनमध्यापनंतद्विद्यासम्भाषेत्युपायाः॥३॥
अब उन उपायोंका अर्थात् योग्य वैद्य बननेके उपायोंका कथन करते हैं। जैसे पढना (अध्ययन करना) पढाना और उसी शास्त्रमें शास्त्रार्थ आदि सम्भाषण करना यह तीन उपाय शास्त्र में व्युत्पन्न होनेके हैं॥३॥
अध्ययनकी विधि।
तत्रायमध्ययनविधिःकल्येकृतक्षणःप्रातरुत्थायोपव्यूषंवाकृत्वावश्यकमुपस्पृश्योदकंदेवगोब्राह्मणगुरुवृद्धसिद्धाचार्येभ्योनमस्कृत्यसमेशुचौदेशेसुखोपविष्टोमनःपुरःसराभिर्वाग्भिःसूत्रमनुक्रामन्पुनःपुनरावर्त्तयेदबुद्ध्यासम्यगनुप्रविश्यार्थतत्त्वंस्वदोषपरिहारपरदोषप्रमाणार्थमेवंमध्यन्दिनेऽपराह्णेरात्रौचशश्वदपरिहापयन्नध्ययनमभ्यसेदित्यध्ययनविधिः॥४॥
अब प्रथमअध्ययन विधि अर्थात् पढनेके क्रमको कथन करते हैं। पढनेकी इच्छावाला आरोग्य ब्रह्मचारी नियत समयपर प्रातःकाल अथवा सूर्य उदय होनेके चार घडी प्रथम उठकर परमेश्वरका स्मरण करे और मलमूत्रादि त्यागन करनेके अनन्तर स्नान आदि कर पवित्र हो देवता, गौ, ब्राह्मण, गुरू, वृद्ध, सिद्ध और आचार्य आदिकोंको प्रणामकर शुद्ध, समान, पवित्र स्थान में सुखपूर्वक बैठा हुआ शास्त्रमें मन लगाये हुए जिन सूत्रोंको पढाहो उन सूत्रोंमें चित्त लगाकर स्पष्ट स्वरसे उनको उच्चारण करताहुआ बारबार पाठ करता जाय फिर उस सब पाठको अपनी बुद्धिमें जमाकर उस पाठमें अथवा उस विषय में जो दोष अथवा अदोष एवम् तर्क वितर्क जो कुछ उत्पन्न हो उसको निश्चय करनेके लिये मध्यदिनमें अथवा अपराह्णमें या रात्रिके समय अथवा उसी समय गुरुके समीप जा अपनी शंकाओंको निवृत्त कर लेवे। और इसी विधिसे नित्य पढता रहे। यह अध्ययनकी विधि है॥४॥
अथाध्यापनविधिः, अध्यापनेकृतबुद्धिराचार्य्यःशिष्यमादितःपरीक्षेततद्यथा— प्रशान्तमार्य्यप्रकृतिकमक्षुद्रकर्माणमृजुचक्षुर्मुखनासावंशंतनुरक्तविशदजिह्वमविकृतदन्तौष्ठम्अभिन्मिणंधृतिमन्तम्अलंकृतंमेधाविनंवितर्कस्मृतिसम्पन्नमुदारसत्त्वंतद्विद्यकुलजमथवातत्त्वाभिनिवेशिनमव्यङ्गमव्यापन्नेन्द्रियंनिभृतमनुद्धतमव्यसनिनंशीलशौचाचारानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्नमध्ययनाभिकाममत्यर्थविज्ञानकर्मदर्शनेचानन्य-
कार्य्यमलुब्धमनलसंसर्वभूतहितैषिणमाचार्य्यंसर्वानुशिष्टिप्रतिकरमनुरक्तमेवंगुणसमुदितमध्याप्यमेवमाहुः। एवंचिरमाचार्य्यश्चाध्ययनार्थमुपस्थितमारिराधयिषुमनुभाषेत॥५॥
अब अध्यापन (पढाने) की विधिका कथन करते हैं। पढानेकी इच्छावाला वैद्य प्रथम शिष्यकी परीक्षा करे शिष्य ऐसा होना चाहिये। जो शान्तचित्त और श्रेष्ठ स्वभाववाला हो, नीच कर्मोंको करनेवाला तथा नीच आशयवाला न हो, जिसके नेत्र, मुख, नासिका यह सब सुन्दर और सुडौल हो, जिसकी पतली, लाल, सुन्दर जीभ हो, दंतपंक्ति और ओष्ठ उत्तम हों तथा धारण शक्तिवाला हो, अहंकार रहित हो मेधायुक्त हो, तर्क शक्ति और स्मरण शक्तिवाला हो, उदार स्वभाववाला हो और उनके कुलमें परम्परासे विद्या, पढने, पढानेकी प्रथा चली आती हो अथवा उस विद्याको पढना चाहताहो।उस विद्यासे अपने लाभकी इच्छा करता हो, जो विद्याके तत्त्वको जाननेमे चित्त लगाये हुए हो, जिसके शरीरके संपूर्ण अंग उत्तम हों, सर्वेन्द्रिय सम्पन्न हो, विनीत हो, अकड रहित हो, दुर्व्यसन रहित हो, सुशील हो, पवित्र हो, अनुरागी, हो, चतुर हो, हरएक कार्य बुद्धिमत्तासे करनेवाला हो, पढनेमें चित्त लगाये हुए हो, अर्थके जानने और वैद्यकर्म सीखने में तथा देखनेमें चित्त लगाये हुए हो,गुरुकी।आज्ञा पालन करनेवाला हो और गुरुमे प्रेमभाव रखनेवाला हो। इस प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न शिष्य पढाने योग्य होता है। इन संपूर्ण गुणोयुक्त शिष्य बहुत कालतक पढनेकी इच्छासे आवे तो ऐसे शिष्यको मुरु विधिवत् शास्त्रका उपदे कर देवे॥५॥
उपदेश।
उदगयनेशुक्लपक्षेप्रशस्तेऽहनिपुष्यहस्तश्रवणाश्वयुजामन्यतमेननक्षत्रेणयोगमुपगतेभगवतिशशिनिकल्याणेमुहूर्तेस्त्रातःकृतोपवासोमुण्डःकषायवस्त्रसंवीतःसमिधोऽग्निमाज्यमुपलेपनमुदककुम्भांश्चसुगन्धिहस्तमाल्यदामहिरण्यान्हेमरजतमणिमुक्ताविद्रुमक्षौमपरिधींश्चकुशलाजसर्षपाक्षतांश्चशुक्लाश्चसुमनसोग्रथिताग्रथितांश्चमेध्यांश्चभक्ष्यानगन्धांश्चपिष्टापिष्टानादायोपतिष्ठस्वेति। सतथाकुर्य्यात्॥६॥
जब शिष्यको अध्ययन करानाहो तो आचार्य कहे कि तुम उत्तरायणमें शुक्लपक्षमे और शुभदिनमे पुष्य, हस्त, श्रवण, अश्विनी इन नक्षत्रोंमें से किसी नक्षत्रयुक्त
चंद्रमा होनेपर सुमुहूर्त्त और शुभलग्नमें—स्नान और उपवास करके मुंडन करा, कषाय वस्त्रोंको धारणकर यज्ञकी समिधा, अग्नि, घृत, उपलेपन द्रव्य, जल, घट, सुगंधित द्रव्य स्रुक्, माला, नेती मृगछाला, सुवर्ण, रजत, मणि, मुक्ता, मूंगा, रेशमी धोती, कुशा, लाजा, सरसों, अक्षत, श्वेतपुष्प, और पुष्पोंकी माला, पवित्र भक्ष्य पदार्थ, केशर चंदनादि उत्तम गंध पिसे हुए और विना पिसे हुए लेकर हमारे पास आवो। शिष्य उसीप्रकार करे॥६॥
तमुपस्थितमाज्ञायसमेशुचौदेशेप्राक्प्रवणेवाचतुष्किष्कुमात्रं चतुरस्रंस्थण्डिलंगोमयोदकेनोपलिप्तंकुशास्तीर्णंसुपरिहितंपरिधिभिश्चतुर्दिशंयथोक्तचन्दनोदककुम्भक्षौमहेमहिरण्यरजतमणिमुक्ताविद्रुमालंकृतंमेध्य—भक्ष्य—गन्धशुक्लपुष्पलाजासर्षपाक्षतोपशोभितंकृत्वातत्रपालाशीभिरैङ्गुदीभिरौदुम्बरीभिर्माधुकीभिर्वासमिद्भिरग्निमुपसमाधायप्राङ्मुखःशुचिरध्ययनविधिमनुविधायमघुसर्पिर्भ्यांत्रिस्त्रिर्जुहुयादग्निम्।आशीःसंप्रयुक्तैर्मन्त्रैर्ब्राह्मणमग्निंधन्वन्तरिंप्रजापतिमश्विनाविन्द्रमृषींश्चसूत्रकारानभिमन्त्रयमाणः। पूर्वंस्वाहेतिशिष्यंश्चैनमन्वारभेतहुत्वाचप्रदक्षिणमग्निमनुपरिक्रामेत्। ततोऽनुपरिक्राम्यब्राह्मणान्स्वस्तिवाचयेत्। भिषजश्चाभिपूजयेत्॥७॥
जब इन संपूर्ण वस्तुओंको लेकर शिष्य गुरूके पास आवे तब गुरु उस आये हुएको देखकर सम और पवित्र भूमिमें, पूर्व अथवा उत्तरकी ओर चार हाथकी चौकोनी वेदी बनावे उसको गोबर और जलसे लिपाकर उसके ऊपर विधिवत् कुशाको बिछावे और वेदीके चारों ओर चारपरिधि बनावे फिर शास्त्रोक्त रीतिसे चंदन, जलके कुंभ, रेशमी वस्त्र, सुनहरी वस्तु, हिरण्य, रजत, मणि, मोंती, मूंगा, इनसे यथाविधि स्थानको विभूषित करे फिर पवित्र, भक्ष्य पदार्थ, कर्पूर, केशर चंदनादि गंधद्रव्य, श्वेतपुष्प लाजा (धानकी खील) सरसों, अक्षत आदिको यथाक्रम स्थापन करे तथा पलाश, इंगुदी, गूलर, महुआ इनकी समिधाओंसे अग्निको विधिवत् प्रज्वलित करे फिर पूर्वाभिमुख होकर शिष्यको शुद्धभावसे अध्ययन विधिके अनुसार बिठाकर शहद और घीसे तीनतीन आहुतियें अग्निमें हवन करे। फिर वेदोक्त आशीर्वादके मंत्रोंद्वारा ब्रह्मा, अग्नि, धन्वंतरि, प्रजापति, अश्विनीकुमार, इन्द्र, ऋषियों तथा सूत्र-
कारोंको आवाहन करताहुआ पहिले आप स्वाहा कहकर आहुती देवे फिर शिष्य भी उसीप्रकार हवन करे। हवन करनेके अनन्तर अग्निकी प्रदक्षिणा करे और ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन करावे तथा वैद्योंका पूजन करे॥७॥
अथैनमग्निसकाशेब्राह्मणसकाशेभिषक्सकाशेचानुशिष्यात्।ब्रह्मचारिणाश्मश्रुधारिणासत्यवादिनाअमांसादेनमेध्यसेविना निर्मत्सरेणशास्त्रधारिणाभवितव्यम्। नचतेमद्वचनात्किञ्चिदकार्य्यस्यादन्यत्रराजद्विष्टात्प्राणहराद्विपुलादधर्म्यादनर्थसंप्रयुक्ताद्वाप्यर्थात्।मदर्पणेनमत्प्रधानेनमधीनेनमत्प्रियहितानुवर्त्तिनाचशश्वद्भवितव्यम्। पुत्रवद्दासवदर्थिवच्चोपचरतानुसर्त्तव्योऽहम्। अनुत्सुकेनावहितेनअनन्यमनसाविनीतेनावेक्ष्यावेक्ष्यकारिणाअनसूयकेनचाभ्यनुज्ञातेनप्रविचरितव्यम् अनुज्ञातेनचप्रविचरता॥८॥
फिर शिष्यको अग्निके समीप, ब्राह्मणोके समीप और वैद्योंके समीप बिठाकरइसप्रकार शिक्षा देवे। कि हे शिष्य! तुमको ब्रह्मचारी बनकर श्मश्रु धारणकर, सत्यवादी रहना होगा तथा, निरामिषभोजी और पवित्रभोजन करना मत्सर (ईर्षा, द्वेष) रहित और शास्त्रोको धारण करना होगा, मेरी आज्ञासे बाहर किंचित् काम भी नहीकरना, राजाका द्वेष, हिसा, अधर्म, अनर्थ, अनर्थसे धन प्राप्त करना इनको छोडकर और संपूर्ण काम मेरी आज्ञानुसार करना, मेरे आगे नम्रतापूर्वक हरएक काममें मुझे प्रधान मानताहुआ मेरे आधीन, और मेरी प्रियता, मेरा हित तथा मेरा अनुवर्ती बनकर निरन्तर रहना चाहिये। जैसे, पिता की सेवा पुत्र करताहै, मालिककी सेवा नौकर करता है, जैसे अर्थकी इच्छासे अर्थीपुरुषधनिककी आज्ञा पालन करताहै् उसी प्रकार सब स्थानमेतुमको मेरा अनुसरण करना होगा। उत्सुकतारहित होकर सावधानी से अनन्यमन होकर विनीतभावसे हरएक कामको विचार विचारकर करते हुए ईर्षा अभिमान, निदा आदिको त्यागकर मेरी आज्ञाके अनुसार सब काम करने होंगे। मेरी आज्ञा लेकर इधरउधर जानाहोगा॥८॥
वैद्यको उपदेश।
पूर्वंगुर्वर्थोपाहरणेयथाशक्तिप्रयतितव्यम्। कर्मसिद्धिमर्थसिद्धिं यशोलाभञ्चप्रेत्यचसर्वमिच्छताभिषजा। गोब्राह्मणमादौ-
कृत्वासर्वप्राणभृतांशर्मण्याशासितव्यम्। अहिरहरुत्तष्ठताचोपविशताचसर्वात्मना-चातुराणामारोग्येप्रयतितव्यम्। जीवितहेतोरपिचातुरेभ्योनातिदोग्धव्यम्।मनसापिच-परस्त्रियोनाभिगमनीयाः। तथासर्वमेवपरस्वम्। निभृतवेशपरिच्छेदेनचभवेतव्यम्। अशौण्डेन-अपापेनअपापसहायेनचश्लक्ष्णशुक्लधर्म्यशर्म्यधन्यसत्यहितमितवचसादेशकालावचाारणा-स्मृतिमताज्ञानोत्थानोपकरणसम्पत्सुनित्यंयत्नवता।नचकदाचिद्राजद्विष्टानांराजद्वेषिणांवा-महाजनद्विष्टानांमहाजनद्वेषिणांवाऔयधमनुविधातव्यम्। एवंसर्वेषामत्यर्थविकृतदुष्टदुःख-शीलाचारोपचाराणामनपवादप्रतिकरादीनांमुमूर्षुताञ्चतथैवासन्निहितेश्वराणांस्त्रीणामनध्यक्षाणांवा॥९॥
पहिले गुरुकेलिये धन इकट्ठा करने में यत्न करना होगा।कर्मसिद्धि के लिये, अर्थ सिद्धिके लिये, यशप्राप्त करनेके लिये, मरकर मोक्ष प्राप्ति के लिये इच्छा करनेवाला वैद्य पहिले गौ ब्राह्मणोंको आदि लेकर संपूर्ण माणियोंके कल्याण करनेमें यत्नवान रहे। नित्यम्प्रति उठता बैठता संपूर्णरूपसे रोगियोंके आरोग्य करनेमें यत्नवान रहना। अपने आजीवनके लिये भी रोगियोंको दिक्क न करना।मनसे भी परस्त्रीकी इच्छा न करना तथा किसी भी पराई वस्तुके लेनेकी इच्छा न करना।स्वच्छ, साधारण, उत्तम वेश धारण रखता, मद्य न पीना, पापी न बनना, पापरहित मनुष्योंके साथ रहना, पवित्र, उत्तम, धर्मात्माओंकी संगति करना, शरण आये हुएकी रक्षा करना, धन्य, सत्य, हित और देश, काल विचार कर मितभाषण करना, देशकालसे विचारवान् रहना, स्मृतिवान् होकर ज्ञान साधनकी सामग्रीको नित्य संग्रह करना। और राजद्रोही तथा जिनसे राजा द्वेष करताहो, जो बडे पुरुषोंके द्वेषी हों अथवा जिनसे बडे पुरुष द्वेष रखतेहों ऐसे पुरुषोंको औषधी नहीं देना। इसी प्रकार सबका बुरा करनेवाले दुष्ट तथा खोटे आचारवाले पुरुषोंको भी औषधी न देना एवम् जो स्वयं मरना चाहता है, जिसको अपने अपवादका भय नहीं, जो कुपथ्यकारी है उनकी तथा जिन स्त्रियोंके पति, पुत्र आदि कोई समीप न हों ऐसी अकेली स्त्रियोंकी चिकित्सा नहीं करना॥९॥
नचकदाचित्स्त्रीदत्तमामिषमादातव्यमननुज्ञातंभर्त्राअथवाअध्यक्षेण। आतुरकुलञ्चानु-प्रविशतात्वयाविदितेनानुमतप्रवेशिनासार्द्धंपुरुषेणसुसंवीतेनावाक् शिरसास्मृतिमतास्तिमितेन अवेक्ष्यावेक्ष्यबुद्ध्यामनसासर्वमाचरतासम्यगनुप्रवेष्टव्यम्। अनुप्रविश्यचवाङ्मनोबुद्धीन्द्रियाणिन क्वचित्प्रणिधातव्यानिअन्यत्रातुरोपकारार्थावाआतुर गतेष्वन्येषुवाभावेषु। नचातुरकुलप्रवृत्तयोव-हिर्निश्चारयितव्याः।हासितञ्चायुषःप्रमाणमातुरस्यनवर्णयितव्यंजानतापिच। तत्रयन्त्रोच्यमान-मातुरस्यअन्यस्यवाप्युपघातायसम्पद्यते। ज्ञानवतापिचनात्यर्थमात्मनोज्ञानेनविकस्थितव्यम्। आप्तादपिहि। आप्तादपिविकत्थमानादत्यर्थमुद्विजन्तिअनेके॥१०॥
यदि कोई स्त्री अपने पति अथवा अध्यक्षकी आज्ञा विना आमिष अथवा कोई अन्य वस्तुएं देवे तो नहीं लेना चाहिये। जब किसी रोगीको देखनेके लिये जावे तो जो मनुष्य उनके घर में आनेजानेवाला हो उसके संगमे अथवा पहिले खबर वैद्यके आनेकी देकर जानकार पुरुषके साथ स्वच्छ वस्त्रोंको पहिनेहुए, सिरको नीचा किये हुए, विना कुछ वोले स्मृतिवान् होकर सावधानीसे पूर्वापरको विचारते हुए बुद्धि और मनसे उत्तम विधिका विचार करते हुए रोगीके घर में प्रवेश करना। फिर घरमें जाकरभी अपने मन, वाणी, बुद्धि और इन्द्रियोको रोगीके उपकार तथा उसके निदान, कारणादि द्वारा रोगके संपूर्ण भावोंको जाननेम लगावे।किन्तु अन्य उनके घरकी किसी वस्तु तथा स्त्री आदिकोंपर न तो दृष्टि डाले और न उनका विचारतक करे। रोगीके कुलके योग्य पुरुषोंको उसके समीपसे बाहर न निकाले। यदि देखे कि रोगीकी आयु बहुत कम शेष है अर्थात् मरजानेवाला है तब भी अपने मुखसे न कहे क्योंकि इधर उधरसे अपने मरनेकी बात सुनकर रोगी शीघ्र घबडाकर मृत्युके वश होजाता है एवम् उनके कटुम्बी आदि सुनकर भी बडा भारी दुःख मानते हैं।स्वयं बुद्धिमान होते हुए भी और वैद्यकका योग्य ज्ञानी होते हुए भी अपने मुखसे अपनी प्रशंसा न करे। यदि योग्य बुद्धिमान भी अपने मुखसे अपनी बडाई करने लगजाता है तो उसको सुनकर बहुतसे लोगोंको उसमें अश्रद्धा उत्पन्न होजाती है॥१०॥
नचैवहिअस्तिआयुर्वेदस्यपारं, तस्मादप्रमत्तःशश्वदभियोगमस्मिन् गच्छेत्। तदेवंकार्य्यमेवं भूयश्चप्रवृत्तस्यसौष्ठवमनुसू-
यतापरेभ्योऽप्यगमयितव्यम्। कृत्स्त्रोहिलोकोबुद्धिमतामाचार्य्यःशत्रुश्चाबुद्धिमतामेतच्चाभि-समीक्ष्यबुद्धिमताअमित्रस्यापि धन्यंयशस्यमायुष्यं पौष्टिकंलौकिकमभ्युपदिशतोवचःश्रोतव्यमनु-विधातव्यञ्चेति॥११॥
आयुर्वेद शास्त्रका पार नहीं है। इसलिये सदैव अप्रमत्त होकर इसमें चित्त लगा योग्यता प्राप्त करे। और यह जानकर कि अमुकस्थलमें अमुकप्रकारसे रोग शान्ति करनाचाहिये इत्यादि वैद्यकशास्त्रके प्रकारोंको अपने गुरूके सिवाय और योग्य वैद्योंसे भी सीखतारहे तथा निंदा आदिको त्याग देवे। बुद्धिमान् मनुष्यके लिये संपूर्ण संसार ही शिक्षा देनेवाला गुरु है और मूर्खोंके लिये शत्रु है।ऐसा विचारकर बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि शत्रुका कहाहुआ भी वाक्य सुनना यदि प्रशंसाके योग्य हो हितकारी हो और यशको बढानेवाला हो तथा आयुवर्द्धक हो तो उसको विचार कर मान लेना और उसके अनुकूल आचरण करना चाहिये॥११॥
अतः परमिदंब्रूयाद्देवताग्निद्विजातिगुरुवृद्धसिद्धाचार्येषुतेसम्य-ग्वर्त्तितव्यम्। तेषुतेसम्यग्वर्त्त-मानस्यायमग्निः सर्वगन्धरसरत्न-बीजानियथेरिताश्चदेवताःशिवाय स्युःअतोऽन्यथाचावर्त्त-मानस्याशिवायेति। एवंब्रुवतिचाचार्येशिष्यस्तथेतिब्रूयात्।यथोपदेशञ्चकुर्वन्नध्याप्योज्ञेयेअतः अन्यथातुअनध्याप्यःअध्याप्यमध्यापयन्हिआचार्योयथोक्तैश्चाध्यापनफलैर्योगमाप्नोति अन्यैश्चानुक्तैःश्रेयस्करैर्गुणैः शिष्यमात्मानञ्चयुनक्ति। इतिअध्यापनविधिरुक्तः॥१२॥
इसके अनन्तर आचार्य शिष्यसे यह और कहे कि देवता, अग्नि, ब्राह्मण, गुरु वृद्धजन, सिद्ध और आचार्य इनसे सदैव भले प्रकार विनीतभाव से वर्ताव रखना। इन सबके साथ विनयपूर्वक उत्तम वर्ताव करनेसे यह सबतथा अग्नि और सबप्रकारके गंध, रस, रत्नादिक और देवता तथा वृद्ध, सिद्ध, आचार्य आदिक तेरे कल्याणको करेंगे। इसके विपरीत करनेसे तुम्हारा अमंगल होगा।शिष्य यह सुनकर हाथ जोडकर कहे बहुत अच्छा महाराज ऐसा ही करूंगा तथा जैसे गुरुने उपदेश किया है उसीके अनुसार संपूर्ण कार्योंको करे।ऐसा शिष्य पढानेके योग्य है इससे विपरीत पढानेके योग्य नहीं है। पढाने के योग्य शिष्यको पढाताहुआ आचार्य अध्यापनके
संपूर्ण फलोंको प्राप्त होता है। शिष्यको चाहिये कि इनके सिवाय अन्य भी जो हितकर कल्याणकारी गुण हों उनको ग्रहण करे।इसप्रकार अध्यापन विधिका कथन कियागया॥१२॥
सम्भाषणविधि।
अध्ययनाध्यापनविधिवत्सम्भाषाविधिमतऊर्द्धंव्याख्यास्यामः। भिषग्भिषजासहसम्भाषेत।तद्विद्यसम्भाषाहिज्ञानाभियोगसंहर्षकरीभवति। वैशारद्यमपिचाभिनिर्वर्त्तयतिवचनशक्तिमपि चाधत्तेयशश्चाभिदीपयति। पूर्वश्रुतेचसन्देहबतःपुनःश्रवणाच्छुतसंशयमपकर्षति। श्रुतेचासन्देहवतोभूयोऽध्यवसायमभिनिवर्तयति। अश्रुतमपिचकञ्चिदर्थंश्रोत्रविषयमापादयति।यच्चाचार्य्यःशिष्यायशुश्रूषवेप्रसन्नक्रमेणोपदेशतिगुह्याभिमतमर्थजातम्, तत्परस्परेणसह-जल्पन्पिण्डेनविजिगीषुराहसंहर्षात्तस्मात्तद्विद्यसम्भाषामभिप्रशंसन्तिकुशलाः॥१३॥
इसके उपरान्त अध्ययन और अध्यापन विधिके समान अबसंभाषण विधिका कथन करते हैं। वैद्यको वैद्यसे संभाषण करना चाहिये क्योकि वैद्यसे वैद्य संभाषण करता हुआ आयुर्वेदके संबंधमें तर्क वितर्ककी सामर्थ्यवाला होजाता है और उसकी ज्ञान शक्ति तथा कथनशक्ति बढजाती है एवम् बोलनेकी चतुराई उत्पन्न होजाती है। यश बढता है, पहिले सुने हुए विषय जिनमे संदेह होगया हो वह परस्पर शास्त्रार्थ द्वारासुननेसे उनका संशय दूर होजाता है और संदेह रहित वाक्य भी बोले और सुने जानेसे निश्चयात्मक और याद होजाते हैं। जो विषय कभी सुननेमें नहीं भी आये वह भी शास्त्रार्थ में श्रवणगोचर होजाते हैं। जिन गुह्य विषयोंको आचार्य शिष्यसे प्रसन्न होकर भी क्रमपूर्वक कथन करते हुए इस विचारमे रहता है कि किसी समय योग्य शिष्यको बतलावेंगे या बडे प्रेमी शिष्यको और अत्यन्त सुश्रूषा करनेवाले को क्रमसे बतलाता है वह गुह्य विषय भी शास्त्रार्थ के समय एक दूसरेको जीतनेकी इच्छा करता हुआ और अपने पक्षको पुष्ट करनेके लिये तथा अपने पांडित्यको दिखाता हुआ झट आवेशमें आ प्रगटकरदेता है। इसलिये तद्विद्य संभाषा अर्थात् वैद्यको वैद्यमे वैद्यक विषयमें संभाषण करनेकी बुद्धिमान् परीक्षा करते हैं॥१३॥
द्विविधातुखलुतद्विद्यसम्भाषाभवतिसन्धायसम्भाषाविगृह्यसम्भाषाच। तत्रज्ञानविज्ञानवचन- प्रतिवचनशक्तिसम्पन्नेनाको-
पनेनअनुपस्कृतविद्येनानसूयकेनअनुनेयकोविदेनक्लेशक्षमेण प्रियसम्भाषणेनचसहसन्धाय-सम्भाषाविधीयते। तथाविधेनसहकथयन्विश्रब्धःकथयेत् पृच्छेदपिचविश्रब्धः पृच्छतेचास्मै-विश्रब्धायविशदमर्थंब्रूयात्। नचनिग्रहभयादुद्विजेत। निगृह्यचैनंनहृष्येत्, नचपरेषुविकत्थेत। नचमोहादेकान्तग्राहींस्यात्, नचाप्रस्तुतमर्थमनुवर्णयेत्। सम्यक् चानुनयेनानुनीयेत, अनुनयाच्चपरंतत्रचावहितः स्यादित्यनुलोमसम्भाषाविधिः॥१४॥
वह तद्विद्य संभाषा दो प्रकारकी होती है। १ संधाय संभाषा।२ विगृह्य संभाषा उनमें ज्ञान और विज्ञानयुक्त वचन और प्रतिवचन में सम्पन्न क्रोधरहित, बहुत विद्याको जाननेवाला, निंदा रहित, नम्रतायुक्त, कष्टको सहनेवाला, एवम् प्रियभाषण करनेवाला जो विद्वान हो उसके साथ ऐसे ही गुणोंवाला योग्य वैद्य मिलकर मित्रता के भावसेप्रीतिपूर्वक संभाषण करे। ऐसे वैद्यके साथ शास्त्रार्थ करते हुए शान्तिपूर्वक भाषणकरे और शान्तस्वभावसे उसके प्रश्नोंका उत्तर देवे तथा स्पष्ट अर्थोंवाले शब्दोंको उच्चारण करे और हारनेके भयसे उद्विग्न न होवे एवम् उसको जीतकर मनमें प्रसन्न भी न होवे तथा दूसरोंक पास कथन न करे और तर्क वितर्क के समय मोहसे उन्मत्त न होजाय अर्थात् एकान्तग्राही न बने एवम् झूठे तथा जिनकी आवश्य-कता न हो ऐसे शब्दोंको उच्चारण न करे और दोनों आपसमें नम्रतापूर्वक प्रेमसे भाषण करें। इस प्रकारकी प्रेममयी संभाषाको अनुलोम (संधाय) संभाषा कहते हैं॥१४॥
वादविधि।
अतऊर्द्धमितरेणसहविगृह्यसम्भाषेतश्चेयसायोगमात्मनःपश्यन्। प्रागेवचजल्पाज्जल्पान्तरं परावरान्तरंपरिषद्विशेषांश्चसम्यक्परीक्षेतसम्यक्परीक्षाहिबुद्धिमतां कार्य्यप्रवृत्तिनिवृत्तिकालौच शंसति। तस्मात्परीक्षामतिप्रशंसन्तिकुशलाः। परीक्षमाणस्तुखलुपरावरान्तरमिमाञ्जल्पक-गुणाञ्छ्रेयस्करांश्च दोषवतश्चपरीक्षेतसम्यक्। तद्यथा—श्रुतं विज्ञानंधारणंप्रतिभानंषचन-शक्तिरित्ये तान्गुणाञ्छ्रेयस्करानाहुः। इमान्पुनर्दो-
षवतःकोपनत्वमवैशारद्यंभीरुत्वमनवहितत्वमिति। एतान्द्व-यानपिगुणान्गुरुलाघववतःपरस्यचैवात्मनश्चतोलयेत्॥१५॥
इसके उपरान्त विगृह्य संभाषाका कथन करते हैं। जब वैद्य दूसरे वैद्योसे अपने कल्याण अर्थात् जीतने की इच्छासे एवम् दूसरे वैद्यको पराजय करनेकी इच्छासे करना चाहे तो प्रथम संभाषण करनेसे पहिले ही परावरान्तर (अपना और दूसरे वैद्यका शास्त्र में बल) तथा परिषद (सभा) विशेषको उचित रीतिपर परीक्षा कर लेवै। प्रथम भले प्रकार परीक्षा करलेनाही बुद्धिमानोंको कार्यमें प्रवृत्त होने का तथा निवृत्त होने का समय दिखादेता है। इसलिये प्रथम परीक्षा करलेनेकी प्रशंसा करते हैं। परीक्षा करते हुए अपने और दूसरेके शास्त्रबलमें अन्तरको तथा जल्प (जीतने की इच्छा से शास्त्रार्थ) करनेवालेके गुणोंको उसके और अपने कल्याणकारी भावोंको एवम् दोषोको भलेप्रकार परीक्षा करे। वह गुण और दोष इस प्रकार होते हैं। जैसे श्रुत, विज्ञान, धारणा, स्फुरणा, तेजस्विता वाक्यशक्ति यह शास्त्रार्थ करनेवालेके श्रेयस्कर अर्थात कल्याणकारी गुण कहेजाते हैं। क्रोधित होना, बोलनेमे चतुराई न होना, डरना, असावधान रहना यह शास्त्रार्थ करनेवालेके दोष होते हैं। प्रथम अपने और दूसरेके इन दोनों प्रकारके गुणदोषोको बुद्धिमें तौल लेवे॥१५॥
प्रतिवादीके भेद।
तत्र त्रिविधःपरःसम्पद्यते, प्रवरःप्रत्यवरःसमोवागुणविनिक्षेपतोनत्वेवंकार्त्स्न्येन॥१६॥
प्रतिवादी तीन प्रकारका होता है। १ अपनेसे उत्तम गुणवाला।२ अपनेसे होन गुणवाला। ३ अपनेसे समान गुणवाला।यह तीन प्रकारका भेद केवल गुण-निक्षेपसे ही कहा है संपूर्ण विषयोमें नहीं॥१६॥
सभाके भेद।
परिषच्चखलुद्विविधा, ज्ञानवतीमूढपरिषच्च, सैवद्विविधासतीत्रिविधापुनरनेनकारणविभागेन-सुहृत्परिषत्उदासीन्परिषत्प्रतिनिविष्टपरिषञ्चेति॥१७॥
परिषद अर्थात् सभा दो प्रकारकी होती है। १ ज्ञानवती सभा।२ मूढसभा। यह दो प्रकारकी होतीहुई भी इस प्रकार कारणभेदसे प्रत्येक सभा तीनतीन प्रका-रकी होती है। जैसे-सुहृद परिषद (अपने मित्रोंकी सभा) उदासीन परिषद् (सामान्य पुरुषोकी सभा) और प्रतिनिविष्ट (पंडितों अथवा बडे पुरुषोंकी)परिषद्॥१७॥
तत्रप्रतिनिविष्टायांपरिषदिज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनशक्तिसम्पन्नायांमूढायांवानकथञ्चित्केन-चित् सहजल्पोविधीयते। मूढायान्तुसुहृत्परिषदिउदासीनायांवाज्ञानविज्ञानमन्तरेणाप्यदीप्त-यशसामहाजनद्विष्टेनसहजल्पोविधीयते। तद्विधेनचसहकथयताआविद्धद्वीर्घसूत्रसंकुलैर्वाक्य-दण्डकैःकथयितव्यम्। अतिहृष्टंमुहुर्मुहुरुपहसतापरं निरूपयताचपरिषदमाकारैब्रुवतश्चास्य-वाक्यावकाशोनदेयः। काष्टशब्दञ्चब्रुवन्वक्तव्योनोच्यतइति। अथवापुनर्हीनातेप्रतिज्ञेति-पुनश्चाह्वयमानःप्रतिवक्तव्यः। परिसंवत्सरंभवान्शिक्षतांतावत्। अथवापर्य्याप्तमेतावत्ते। सकृदेवहिपारिक्षेपिकंनिहितंनिहतमाहुरिति। नास्ययोगः कर्त्तव्यः कथञ्चिदप्येवंश्रेयसासह-विगृह्यवक्तव्यमित्याहुरेके। नत्वेवंज्यायसासहविग्रहप्रशंसन्तिकुशलाः॥१८॥
ज्ञान, विज्ञान, प्रतिवचन, शक्तिसंपन्न प्रतिनिविष्ट परिषदमें अर्थात् अपनेसे बहुत बडे २ विद्वानोंकी सभा में तथा मूर्खोंकी सभा में किसीसे किसी प्रकारका जल्प करना उचित नहीं है। सुहृद्सभाऔर उदासीन सभा यदि मूढ भी हो तो उसमें कोई् दूसरा वैद्य अपने ऊपर जीतने की इच्छा से आवे तो ज्ञान, विज्ञान के विना भी अपने यशकी इच्छासे उसको जीतनेके लिये शास्त्रार्थ करे। ऐसे पुरुषके साथ संभाषण करते हुए कठिन तथा दीर्घ संकुलीदार गूढार्थ सूत्रोंद्वारा पेचीदा बांतोंसे उसको जीतनेका यत्न करे और अति प्रसन्न मुख होकर हंसता हुआ प्रतिवादीसे मसखरी करता हुआ सभाके आकारको जानकर उसको बोलनका अवकाश न दे और यदि यह कठिन शब्दोंको बोले तो उसको कहे भाई अन्टसन्ट क्या बकते हो फिर तो कहो क्या कहते हो यदि वह उत्तर देवे तो कहे कि भाई ऐसा मत कहो इसमें तो तुम्हारे ही पक्षका खण्डन होगया अभी तुम एकवर्ष और पढो फिर आकर शास्त्रार्थ करना अथवा ऐसा कहे कि बस हमने जानलिया आपको जो कुछ आता है। हमने आपकी भले प्रकार परीक्षा करली है इतना ही बहुत है। यदि वह अपने ऊपर कोई आक्षेप करे तो झट कटिन संस्कृत बोलकर यह लो तुम्हारा यह पक्ष भी खण्डन होगया। मित्र अभी और पढ़िये। परन्तु इस प्रकारका प्रयोग विद्वानोंकी सभामें अथवा किसी भले पुरुषके साथ नहीं करना चाहिये। इस प्रकारके संभाषण
करनेका किसी २ आचार्यका मत है। हमारे मतमें यह अन्याय है। बुद्धिमान्को इस प्रकारका शास्त्रार्थ पंडितोंके संमुख और किसी योग्य पुरुषसे नहीं करना चाहिये ऐसा बुद्धिमानोंका मत है॥१८॥
प्रत्यवरेणतुससमानाभिमतेनवाविगृह्यजल्पतासुहृत्परिषदिकथयितव्यम्। अथवाप्युदासीन-परिषदिअनवधानश्रवणज्ञानविज्ञानोपधारणवचनशक्तिसम्पन्नायांकथयताचावहितेनपरस्य-साद्गुण्यदोषबलमवेक्षितव्यम्समवेक्ष्यचयत्रैनंश्रेष्ठंमन्येतनास्यतत्रजल्पंयोजयेत् अनाविष्कृतमयोगंकुर्वन्। यत्रत्वेनमवरंमन्येततत्रैवैनमाशुनिगृह्णीयात्॥१९॥
सुहृद् सभामें हीन समान और उत्तम गुणोंवाले से अर्थात् तीनों प्रकारके पुरुषोंसे शास्त्रार्थ कर लेना अनुचित नही। अथवा उदासीन सभामें अर्थात् जिस सभामें अप्रमत्त, श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, उपधारण और वचन शक्ति सम्पन्न पुरुष बैठे हुए हों ऐसी सभामे प्रतिवादीके सद्गुणों और दोषोंको सावधानीसे परीक्षा कर लेवे। यदि प्रतिवादी गुणोंमे अपनेसे क्लवान हो तो उससे शास्त्रार्थ न करे और एकाध शास्त्रकी बात इसप्रकार कहकर चुपहोजावे जिससे सभाके मनुष्य इसको प्रतिवादीसे हीन न समझें यदि प्रतिवादी गुणोंमे अपनेसेहीन प्रतीत हो तो उसको झट शास्त्रार्थमें दबालेवे॥१९॥
तत्रनुखल्विमेप्रत्यवराणामाशुनिग्रहेभवन्तिउपायाः। तद्यथा, श्रुतहीनंमहतासूत्रपाठेनाभि-भवेत्विज्ञानहीनंपुनःकष्टशब्देन वाक्येन, वाक्यधारणाहीन माविद्धदीर्घसंकुलैर्वाक्यदण्डकैः, प्रतिभाहीनंपुनर्वचनेनानेकविधानानेकार्थवाचिना, वचनशक्तिहीनमर्द्धो्क्तस्यवाक्यस्याक्षेपेण, अविशारदमपत्रपणेन, कोपनमायासनेन, भीरुंवित्रासनेन, अनवहितंनियमनेन-इत्येवमेतैरुपायैरवरमभिभवेत्॥२०॥ विगृह्यकथयेद्युक्त्यायुक्तञ्चन निवारयन्। विगृह्यभाषा-तीव्रंहिकेषाञ्चिद्रोहमावहेत्॥२१॥ नाकार्य्यमस्तिक्रुद्धस्यनावाच्यमपिविद्यते। कुशलानाभि-नन्दन्तिकलहंसमितौसताम्॥२२॥
उसको शास्त्रार्थ में पराजय करनेके लिये ये उपाय है। जैसे यदि वह शास्त्रमे हीन है तो उसके आगे बडे २ सूत्र और बहुतसा संस्कृतका पाठ उच्चारण करे।यदि वह
विज्ञान शक्तिमें हीन हो तो कठिन शब्दोंसे उसको जीते। यदि उसमें वाक्यधारण करनेकी शक्ति न हो तो बंधेहुए संकुलीदार बहुत लम्बे २ दण्डकवाक्यों द्वारा शास्त्रार्थ करे। यदि वह तेजहीन और स्फुरणाहीन हो तो अनेक प्रकारसे अनेकार्थ शब्दों द्वारा पराजय करे। और वक्तृताशक्तिहीनको उपरोक्त वाक्योंके आक्षेपद्वारा अर्थात् एक पंक्तिपर दूसरी पंक्ति बोलबोलकर मुग्ध बनादेवे। चातुर्य रहितको लज्जित करनेवाले वाक्यों द्वारा पराजित करे। यदि वह क्रोधी हो तो उसके आगे इसप्रकार के कटाक्ष करे जिससे वह बोलना ही छोड देवे। धरनेवालेको शास्त्रीय घर्षणाद्वारा परास्त करे। असावधानको नियममें फंसाकर परास्त करे। इन उपायों द्वारा प्रतिवादीको पराजय करनाचाहिये॥ २०॥ शास्त्रार्थ करते समय युक्तियुक्त वाक्योंको बोलना चाहिये अर्थात् अन्टसन्ट झूठा पक्ष न लेवे और प्रतिपक्षीके कहे हुएयुक्तिसंमत सच्चे वाक्यको भी न माननेका झगडा न करे क्योंकि परस्पर जीतने की इच्छा से शास्त्रार्थ करते समय बहुतसे पुरुषोंके चित्तमें तीव्र द्रोह उत्पन्न होजाता है। क्रोधित मनुष्यके लिये कुछ भी, अवाच्य और अकार्य नहीं होता अर्थात् क्रोधमें भराहुआ मनुष्य जो कुछ आगे आये सो उचितानुचित बक देता है और लडाई आदि वृथा उपद्रव उत्पन्न होजाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य कलहको अच्छा नहीं समझते क्योंकि कलह करना सज्जन पुरुषोंका काम नहीं है॥ २१॥२२॥
एवंप्रवृत्तेतुवादेप्रागेववादात्तावादिदंकर्त्तींयतते। सन्धायपरिषदाऽयनभूतमात्मनःप्रकरणमादेश-यितव्यम्।यद्वापरस्यभृशदुर्गंस्यात्। पक्षमथवापरस्यभृशंविमुखमानयेत्। परिषदिचोप-संहितायामशक्यमस्माभिर्वक्तुमितितूष्णीमासीदेषै वचतेपरिषद्यथेष्टंयथायोग्यंयथाभिप्रायवादं- वादमर्य्यादाञ्चस्थापयिष्यतीत्युक्त्वा॥२३॥
जब प्रतिवादीसे शास्त्रार्थ करनेके लिये प्रवृत्त हो तो शास्त्र करनेसे प्रथम ही सभामें जो सभासद बैठे हों उनकी अनुमति से जिस विषयमें उनकी इच्छा हो उस विषयमें शास्त्रार्थ करना प्रारम्भ करना चाहिये अर्थात् सभासदोंकी अनुमतिसे अपना पूर्वपक्ष करना चाहिये अथवा ऐसे पक्षको छेडे जो प्रतिवादीको अत्यन्त कठिन प्रतीत हो अथवा पूर्वपक्ष द्वारा प्रतिवादीको अत्यन्त विमुख बनादेवे। जब देखे कि यह सभासे विमुख है अथवा सभा उससे विमुख हो तब सभा में इस प्रकार प्रतिवाद उठावे कि मैं आपसे बोलनेकी ताकत नहीं रखता यह सज्जन पुरुषोंकी सभा ही तुम्हारे अभिप्रायके
अनुसार अथवा जैसा उचित समझेगी वैसा हमारे तुम्हारे वादके मर्यादाको स्थापनकर देगी। यह कहकर चुप हो जाय॥२३॥
वादमर्यादाके लक्षण।
तत्रेदंवादमर्य्यादालक्षणंभवतिइदंवाच्यमिदमवाच्यमेवंसतिपराजितोभवतीति इमानिखलुपदानि-भिषग्वादमार्गज्ञानार्थमधिगम्यानिभवन्ति। तयथावादो, द्रव्यं, गुणाः, कर्म्म, सामान्यं, विशेषः, समवायः, प्रतिज्ञा, स्थापना, प्रतिष्ठापना, हेतुः, उपनयः, निगमनम्, उत्तरं दृष्टान्तः, सिद्धान्तः, शब्दः, प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, औपम्यम्, ऐतिह्यं, संशयः, प्रयोजनं, सव्यभिचारं, जिज्ञासा, व्यवसायः, अर्थप्राप्तिः, सम्भवः, अनुयोज्यम्, अननुयोज्यम्, अनुयोगः, प्रत्यनु-योगः, वाक्यदोषः, वाक्यप्रशंसा, छलम्, अहेतुः, अतीतका-लम्, उपालम्भः, परिहारः, प्रतिज्ञाहानिः, अभ्यनुज्ञा, हेत्वन्तरम्, अर्थान्तरं, निग्रहस्थानमिति॥२४॥
वाद प्रतिवाद अर्थात् शास्त्रार्थ करते समय प्रथम शास्त्रार्थकी मर्यादाको स्थापितकर लेना चाहिये कि यह बात कहना और यह नहीं कहना। इसप्रकार मर्या-दामे बांध लेनेसे प्रतिवादी परास्त हो जाता है। वैद्यको शास्त्रार्थका मार्ग जाननेके लिये इन आगे कहेहुए वाक्योंको भलीप्रकार याद करलेना चाहिये। जैसे—वाद, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, प्रतिज्ञा, स्थापना, प्रतिष्ठापना, हेतु, उपनय, निगमन, उत्तर, दृष्टांत, सिद्धांत, शब्द, प्रत्यक्ष, अनुमान, औषम्य, ऐतिह्य, संशय, प्रयोजन, सव्यभिचार, जिज्ञासा, व्यवसाय, अर्थप्राप्ति, संभव, अनुयोज्य, अननुयोज्य, अनुयोग, प्रत्यनुयोग, वाक्यदोष, वाक्यप्रशंसा, छल, अहेतु, अतिकाल, उपालंभ, परिहार, प्रतिज्ञाहानि, अभ्यनुज्ञा, हेत्वंतर, अर्थातर, निग्रहस्थान। इन सब शब्दार्थों को यथोचित रीतिपर जानलेना चाहिये। आगे इन प्रत्येकका कथन करते हैं॥२४॥
वादका लक्षण।
तत्र वादोनामयत्परस्परेणसहशास्त्रपूर्वकं विगृह्यकथयति। सवादोद्विविधः संग्रहेण, जल्पो-वितण्डाच। तत्रपक्षाश्रितयोर्वच-
नंजल्पः। जल्पविपर्य्ययोवितण्डा। यथैकस्यपक्षःपुनर्भवोऽस्तीतिनास्तीत्यपरस्य। तौच स्वपक्षं स्वहेतुभिःस्वस्वपक्षं स्थापयतः परपक्षमुद्भावयतः एष जल्पोजल्पविपर्य्ययोवितण्डा।वितण्डानामपरपक्षेदोषवचनमात्रमेवमेव॥२५॥
शास्त्रार्थ में क्रमपूर्वक परस्पर तर्क वितर्क करनेको वाद कहते हैं। उसवादके संग्रहकमसे दो भेद हैं। १ जल्प। २ वितण्डा। उनमें अपने पक्षको लेकर शास्त्रसम्मत उक्तिद्वारा अपने २ पक्षके जयकी इच्छासे संभाषण करना जल्प कहाता है जल्पसे विपरीत अर्थात् अपने पक्षको स्थापन न करके दूसरेके पक्ष में दोष देते जानेको वितण्डा कहते हैं। जैसे- एकका पक्ष है कि पुनर्जन्म होता है। दूसरेका पक्ष है कि पुनर्जन्म नहीं होता। यह दोनों अपने २ पक्षको स्थापन करते हुए और हेतुओं द्वारा पुष्ट करते हुए परस्पर दूसरेके पक्ष में दोष दिखाते हुए जो शास्त्रार्थ होता है उसको जल्प कहते हैं। इससे विपरीत वितण्डा होती है। वितण्डा केवल दूसरेके पक्ष में दोष निकालनेका ही नाम है अर्थात् दूसरेमें दोष निकालनेके सिवाय अपना कोई खास पक्ष न रखना वितण्डा कहाती है॥२५॥
द्रव्यादि लक्षण।
द्रव्यगुणकर्म्मसामान्यविशेषसमवायाः स्वलक्षणैः श्लोकस्थाने पूर्वमुक्ताः॥२६॥
द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन सबको इनके लक्षणोंके द्वारा पहिले सूत्रस्थान में कथन कर चुके हैं॥२६॥
अथ प्रतिज्ञा।
प्रतिज्ञानामसाध्यवचनंयथानित्यःपुरुषइति॥२७॥
अब प्रतिज्ञादिकोंका कथन करते हैं। साध्यवचनका कथन करना प्रतिज्ञा कहा जाता है। जैसे पुरुष नित्य है इस जगह किसी हेतु आदिसे प्रथम जिस बातको सिद्धकरना हो उसको दृढ़तासे कथन करना प्रतिज्ञा कहता है। इस स्थान में “पुरुष नित्य है”। इस वाक्यके कथन करने को प्रतिज्ञा कहते हैं ॥२७॥’
अथ स्थापना।
स्थापनानामतस्याएवप्रतिज्ञायाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमैःस्थापना, पूर्वंहिप्रतिज्ञा, पश्चात्स्थापना- किंह्यप्रतिज्ञातंस्थापयिष्य-
तियथानित्यःपुरुषइतिप्रतिज्ञाहेतुरकृतकत्वादिति। दृष्टान्तोयथाकाशंतच्चनित्यम्। उपनयोयथा-चाकृतकमाकाशंतथापुरुषः। निगमनंतस्मान्नित्य इति॥२८॥
पहिले कीहुई प्रतिज्ञाको—हेतु, दृष्टांत, उपमा और निगमन द्वारा सिद्ध करना स्थापना कहाता है। पहिले प्रतिज्ञा कहकर पीछे उसको स्थापना किया जाता है क्योंकि प्रतिज्ञा किये बिना स्थापना होही नहीं सकती। जैसे पुरुष नित्य है यह प्रतिज्ञाकी अकृत होनेसे अर्थात् किसीका बनायाहुआ न होनेसे यह हेतु हुआ। जैसे—आकाश अकृत होनेसे अर्थात् किसीका बनायाहुआ न होनेसे, नित्य है यह दृष्टान्त हुआ।जैसे—आकाश किसीका बनाया न होनेसे नित्य है उसी प्रकार पुरुष भी किसीका बनाया न होनेसे नित्य है यह दृष्टांत इसलिये पुरुष नित्य है यह निगमन हुआ॥२८॥
अथ प्रतिष्ठापना।
प्रतिष्ठापनानामयापरप्रतिज्ञायाः प्रतिविपरीतार्थस्थापना। यथा अनित्यः पुरुषइतिप्रतिज्ञा-हेतुरैन्द्रियकत्वात्। दृष्टान्तोयथा घटऐन्द्रियकः सचानित्यः। उपनयोयथाघटस्तथापुरुषः-तस्मादनित्यइति॥२९॥
जो पर प्रतिज्ञासे विपरीत अर्थवाली प्रतिज्ञाका स्थापन करना है उसको प्रति-ष्ठापना कहते हैं। जैसे—पुरुष नित्य नहीं अनित्य है यह प्रतिज्ञा हुई। इसके अनित्य होनेमे हेतु यह है कि यह इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष होता है। दृष्टान्त यह है कि जैसे—इन्द्रियों द्वारा घटका ज्ञान होताहै सो घट अनित्य है। जैसे घट अनित्य है है वैसेही पुरुष भी अनित्य है यह उपमान हुआ। इसलिये पुरुष अनित्य है यह निगमन हुआ ॥२९॥
अथ हेतुः।
हेनुर्नामोपलब्धिकारणंतत्प्रत्यक्षमनुमानमैतिह्यमौपम्यमित्येभिर्हेतुभिर्यदुपलभ्यतेतत्तत्त्वम्॥३०॥
जिसके द्वारा उपलब्धि हो उसको हेतु कहते हैं। हेतु द्वारा जो प्राप्त हो वह हेतुका तत्त्व है। वह तत्त्वप्रत्यक्ष अनुमान, ऐतिह्य और उपमान द्वारा प्राप्त होता है॥३०॥
उपनयोनिगमनञ्चोक्तंस्थापनाप्रतिष्ठापनाव्याख्यायाम्॥३१॥
उपनय अर्थात् उपमान और निगमनको स्थापनाकी व्याख्या में कथनकर चुके हैं॥३१॥
अथ उत्तरम्।
उत्तरंनामसाधर्म्योपदिष्टेवाहेतौवैधर्म्यवचनंवैधर्म्यापदिष्टेवासाधर्म्यवचनंयथाहेतुसधर्म्माणो-विकाराःशीतकस्यहिव्याधेर्हेतुसाधर्म्यवचनंहिमशिशिरवातसंस्पर्शाइतिब्रुवतः परोब्रूयाद्धेतु-विधर्म्माणोविकारायथाशरीरावयवानांदाहौष्णंकोथप्रपचनेहेतुवैधर्म्यंहिमशिशिरवातसंस्पर्शा-इति। एतत्सविपर्य्ययमुत्तरम्॥३२॥
साधर्म में कहे हुए हेतुसे विपरीत हेतुको दिखाना अर्थात् उससे विपरीत वचनको कहना वैधर्मसे कहे हुए हेतुओंके विपरीत साधर्म वचनको कथन करना उत्तर कहा जाता है। जैसे–किसीने कहा कि जो धर्म हेतुके होते हैं व्याधिके भी वही धर्म होते हैं।जैसे–शीतसे उत्पन्न हुई वातव्याधिके जो धर्म होते हैं उसके हेतुभूत हिम, शिशिर और वायुके संस्पर्श के भी वही धर्म होते हैं। इसप्रकार कहतेहुएको प्रतिवादी कहे कि जिस हेतुसे व्याधि उत्पन्न होती है उस हेतुके जो धर्म होते हैं वह व्याधिकेनहीं होते क्योंकि देखनेमें आता है कि दाह, उष्णता, कोथ (सडन) शतिके धर्म न होनेपर भी शरीरके अवयवोंमें दाह, उष्णता आदि उत्पन्न करते हैं। और उन दाह उष्णतादिकोंके हिम शिशिर आदि विधर्मी गुणवाले कारण होते हैं। इसलिये हेतु और व्याधिके गुणोंमें साधर्म्यता नहीं होती। इस प्रकार विपरीतवाक्यके कथन करनेको “उत्तर कहते हैं”॥३२॥
अथ दृष्टान्तः।
दृष्टान्तोनामयत्रमूर्खविदुषांबुद्धिसाम्यंयोवर्ण्यंवर्णयति। यथाग्निरुष्णोद्रवमुदकंस्थिरापृथिवी आदित्यःप्रकाशक इतियथावादित्यः प्रकाशकस्तथासांख्यवचनंप्रकाशकमिति॥३३॥
जिस कथनमें मूर्ख और विद्वानों की बुद्धिकी साम्यता हो अर्थात् जिसको मूर्ख और पंडित दोनों एकरूपसे मानजांय इस प्रकारके कथनको दृष्टान्त कहते हैं। जैसे-
अग्नि उष्ण है जल पतला है, पृथ्वी स्थिर होती है, आदित्य प्रकाशमान है अथवा यो कहिये जैसे आदित्य प्रकाशमान है वैसे ही सांख्यके वचन भी प्रकाशको करनेवाले हैं। इसको दृष्टान्त कहते हैं॥ ३३॥
अथ सिद्धान्तः।
सिद्धान्तोनामयःपरीक्षकैर्बहुविधंपरीक्ष्यहेतुभिःसाथयित्वास्थाप्यतेनिर्णयः ससिद्धान्तः। सचोक्तश्चतुर्विधः। सर्वतन्त्रसिद्धान्तः। प्रतितन्त्रसिद्धान्तोऽधिकरणसिद्धान्तोऽभ्युपगमसिद्धान्त
इति॥३४॥
जो परीक्षकोंने अनेक प्रकारसे परीक्षाकर हेतुओंद्वारा साधन करके स्थापन किया हो अर्थात् निर्णय किया हो उसको सिद्धान्त कहते है। वह सिद्धान्त—सर्वतंत्र सिद्धान्त प्रतितंत्र सिद्धान्त, अधिकरण सिद्धान्त और अभ्युपगमसिद्धान्त इन भेदोसे चार प्रकारका कहा है॥३४॥
सर्वतन्त्र सिद्धान्तः।
तत्र सर्वतन्त्रसिद्धान्तोनामतस्मिंस्तस्मिन् सर्वस्मिंस्तन्त्रेतत्प्र-सिद्धंसन्तिनिदानानिसंतिव्याधयः सन्तिसिद्ध्युपायाःसाध्यानामिति॥३५॥
उनमें जो सिद्धान्त संपूर्ण तंत्रो (ग्रंथों) मे एक समान हो और उसको सब मानते हों उसको सर्वतंत्र सिद्धान्त कहते हैं \। जैसे व्याधिका कारण और व्याधि तथा साध्यव्याधिकी चिकित्सा इसको सब तंत्रों में कहा है और सब मानते है। इसलिये यह सर्वतंत्र सिद्धान्त है॥३५॥
प्रतितन्त्रसिद्धान्तः।
प्रतितन्त्रसिद्धान्तोना मतस्मिंस्तस्मिंस्तन्त्रेतत्तत्प्रसिद्धंयथान्य-त्राष्टौरसाः षडन्यत्र।पञ्चेन्द्रियाणि-यथान्यत्रषडिन्द्रियाणि। वातादिकृताः सर्वविकारायथान्यत्रवातादिकृताभूतकृताश्चप्रसिद्धाः॥३६॥
प्रतितंत्र सिद्धान्त उसको कहते हैं जो एक २ तंत्र मे अपने अपने रूपसे प्रसिद्ध हो और उसको वही वही तंत्रकार मानते हो \। जैसे किसीके मतमें रस आठ प्रकारके हैं और कोई रसको छःप्रकारका कहते है एवम् कोई कहते हैं कि इन्द्रियें पांच हैं
और किसी तंत्र में इंन्द्रियोंको छः माना है। कोई मानता है कि संपूर्ण व्याधियें चातादिकोंसे उत्पन्न होती हैं और किसीके मतमें संपूर्ण रोग भूत प्रेत आदिकोंके किये होते हैं। इस प्रकार अपने २ तंत्रमें माने हुए सिद्धान्तको प्रतितंत्र सिद्धान्त कहते हैं॥३६॥
अधिकरणसिद्धान्तः।
अधिकरणसिद्धान्तोनामसयस्मिन्नधिकरणेसंस्तूयमानेसिद्धान्यन्यान्यपिअधिकरणानिभवन्ति। यथानमुक्तःकर्मानुबन्धिकंकुरुतेनिस्पृहत्वादितिप्रस्तुतेसिद्धाः कर्म्मफलमोक्षपुरुषप्रेत्यभावा- भवन्ति॥३७॥
किसी एकपक्षको लेकर निर्णय करते करते बीचमें किसी अन्य विषयका निश्चय होजाना अधिकरण सिद्धान्त कहता है। जैसे—जिन मनुष्यों की मोक्ष हो चुकी है। वह निस्पृही मनुष्य आगेको होनेवाले जन्मके अनुबंध करनेवाले कर्मको नहीं करते क्योंकि वह आगेके लिये अपने किसी कर्मके फलकी इच्छा नहीं रखते। इस प्रकारके प्रस्तावमें कर्मका फल मोक्ष, पुरुषऔर उसके होनेवाले जन्मादिकोंका निश्चय होजाना यह अधिकरण सिद्धान्त कहा जाता है॥३७॥
अभ्युपगमसिद्धान्तः।
अभ्युपगमसिद्धान्तोनामयमर्थमसिद्धमपरीक्षितमनुपदिष्टमहेतुकंवावादकालेऽभ्युपगच्छन्ति-भिषजः। तद्यथा—द्रव्यंनप्रधानमितिकृत्वावक्ष्यामः। गुणः प्रधानम्इति कृत्वावक्ष्याम- इत्येवमादिश्चतुर्विधः सिद्धान्तः॥३८॥
शास्त्रार्थ के समय किसी असिद्ध विना परीक्षा किये तथा आप्तजनोंके विना उपदेश किये अर्थको विना ही हेतुसे थोडी देरके लिये मानलेना अभ्युपगम सिद्धान्त कहा जाता है।जैसे–द्रव्य प्रधान नहीं है इसका कथन करते हुए गुण प्रधान है यह मानकर फिर अपने असली कथनपर आजाना अभ्युपगम सिद्धान्त कहता है। इस प्रकार चतुर्विध सिद्धान्त होते हैं॥३८॥
शब्दः।
शब्दोनामवर्णसमाम्नायःसचतुर्विधः दृष्टार्थश्चादृष्टार्थश्चसत्यश्चानृतश्चेति। तत्रदृष्टार्थस्त्रिभिर्हेतुभि-र्दोषाः प्रकुप्यन्तिषभि-
रुपमैश्वप्रशाम्यन्ति। श्रोत्रादिसद्भावेशब्दादिग्रहणमिति अदृष्टार्थःपुनरस्तिप्रेत्यभावोऽस्ति-मोक्षइति सत्योनामयथार्थभूतः। सन्त्यायुर्वेदोपदेशाः। सन्त्युपायाः साध्यानाम। सन्त्यारम्भ-फलानीति।सत्यविपर्य्ययाच्चानृतम्॥३९॥
शब्द–इस स्थानमे वर्णके उच्चारणको कहते हैं। वह शब्द दृष्टार्थक, अदृष्टार्थक, सत्य और अमृत इन भेदोंसे चार प्रकारका है। दृष्टार्थक—उस शब्दको कहते हैं जो स्पष्ट और प्रत्यक्ष अर्थको बोध करै जैसे— तीन हेतुओंसे तीन दोष कुपित होते हैं। छः प्रकारके उपक्रमोंसे शान्त होते हैं। कर्णादि द्वारा शब्दादिका ग्रहण होना अदृष्टा-र्थक शब्द कहाजाता है। जैसे–फिर जन्म होता है, ज्ञानसे मोक्ष होजाता है यह अट्ट-ष्टार्थक शब्द है। यथार्थ शब्दको सत्य शब्द कहते हैं। जैसे–आयुर्वेद उपदेश सत्य हैं। साध्य रोग उपाय द्वारा शान्त हो सकते हैं। आरम्भका फल अवश्य होता है। इन सबको सत्य शब्द कहते हैं। सत्यसे विपरीत अर्थात् मिथ्या शब्दको अनृत शब्द कहते हैं॥३९॥
अथ प्रत्यक्षम्।
प्रत्यक्षंनामतद्यदात्मनापञ्चेन्द्रियैश्चस्वयमुपलभ्यते। तत्रात्मप्रत्यक्षाः सुखदुःखेच्छाद्वेषादयः। शब्दादयस्त्विन्द्रियप्रत्यक्षाः॥४०॥
जो विषय आत्मद्वारा अथवा पंचेन्द्रिय द्वारा निश्चयात्मकरूपसे जाना जाय उसको प्रत्यक्ष कहते हैं। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, आदिक आत्माके प्रत्यक्ष हैं और शब्दा-दिक इन्द्रियोके प्रत्यक्ष हैं॥४०॥
अनुमानम्।
अनुमानंनामतर्कोयुक्त्यपेक्षोयथोक्तमग्निंजरणशक्त्याबलंव्यायामशक्त्या श्रोत्रादीनिशब्दादि-ग्रहणेनेन्द्रियाणीत्येवमादिः॥४१॥
युक्ति युक्त तर्कको अनुमान कहते हैं। जैसे–पाचनशक्तिसे जठराग्नीका अनुमान करना व्यायामकी शक्ति से बलका अनुभव करना शब्दादिक ग्रहणसे श्रोत्रादिक इन्द्रियोंका अनुमान करना ॥४१॥
अथ औपम्यम्।
औपम्यंनामयदन्येनान्यस्यसादृश्यमधिकृत्यप्रकाशनंयथादण्डेनदण्डकस्यधनुषाधनुष्टम्भस्य-इष्वसिनाआरोग्यदस्येति॥४२॥
जो विषय दूसरेसे दूसरेकी सादृश्यताको प्रकाश करता है उपमान कहा जाता है। जैसे–दण्डक रोगडण्डे के समान होता है। धनुष्टंभ रोगमें मनुष्य धनुषके आकार टेढ़ा होजाता है। जो औषधी रोगको शीघ्र नष्ट कर डाले उसको तीस्की उपमा दी जाती है। इसको उपमान कहते हैं॥४२॥
अथ ऐतिह्यम्।
ऐतिह्यंनामआप्तोपदेशोवेदादिः॥४३॥
ऐतिह्य-इतिहासको ऐतिह्य कहते हैं॥४३॥
अथ संशयः।
संशयोनामसन्दिग्धेष्वर्थेष्वनिश्चयः। यथाकिमकालमृत्युरस्तिनास्तीति॥४४॥
संदिग्ध अर्थोंके अनिश्चयको संशय कहते हैं। जैसे–अकालमृत्यु है या नहीं। इस संशयात्मक अनिश्चित ज्ञानको संशय कहते हैं॥४४॥
अथ प्रयोजनम् ।
प्रयोजनंनामयदर्थमारभ्यन्तआरम्भाः। यथायद्यकालमृत्युरस्तिततोऽहमात्मानमायुष्यैरुप-चरिष्यामिअनायुष्याणिचपरिहरिष्यामिकथंमामकालमृत्युःप्रसहेतेति॥४५॥
जिस अर्थके लिये आरम्भ कियाजाताहै उस अर्थको प्रयोजन कहते हैं। जैसे-यदि अकालमृत्यु है तो में अपनेको आयुवर्द्धक उपचारों द्वारा रक्षित रक्खूंगा और आयुनाशक पदार्थोंका त्याग करूंगा। क्योंकि मैं अकालमृत्युको सहन करना नहीं चाहता। इस स्थान में दीर्घायु होनेके लिये प्रयत्न करना “प्रयोजन”कहता है॥४५॥
अथ सव्यभिचारम् ।
सव्यभिचारंनामयद्वयभिचरणंयथाभवेदिदमौषधंतस्मिन्व्याधौयौगिकमथवानेति॥४६॥
किसी विषयका एक जगहसे दूसरी जगह भी व्यापक होजाना सव्यभिचार कहाता है। जैसे–यह औषधी इस रोग में हितकारक है और नहीं भी है॥४६॥
अथ जिज्ञासा।
जिज्ञासानामपरीक्षायथाभेषजपरीक्षोत्तरकालमुपदेक्ष्यते॥४७॥
किसी विषयकी परीक्षा करना अर्थात् उसके जाननेका यत्न करना जिज्ञासा कहाती है। जैसे—औषधकी परीक्षा आगे कथन करेंगे॥४७॥
अथ व्यवसायः।
व्यवसायोनामनिश्चयःयथावातिकएवायंव्याधिरिदमेवास्यभेषजमिति॥४८॥
निश्चयात्मक अर्थका कथन करना अथवा निश्चय कर लेना व्यवसाय कहा जाता है। जैसे—यह व्याधी वायुसेही उत्पन्न हुई है और इसकी यही औषधी है॥४८॥
अथार्थप्राप्तिः ।
अर्थप्राप्तिर्नामयत्रैकेनार्थेनोक्तेनापरस्यार्थस्यानुक्तस्यसिद्धिः। यथानायंसंतर्पणसाध्यो-व्याधिरित्युक्तेभवत्यर्थप्राप्तिरतर्पणसाध्योऽयमिति। नानेनदिवाभोक्तव्यमित्युक्तेभवत्यर्थ-प्राप्तिर्निशिभोक्तव्यमिति॥४९॥
कहे हुए अर्थसे बिना कहे हुए दूसरे अर्थकी सिद्धि होजाना अर्थ प्राप्ति कहाजाता है। जैसे यह व्याधि संतर्पणद्वारा साध्य नहीं हो सकती इससे यह अर्थ निकल आया कि अपतर्पणद्वारा साध्य होसकतीहै। इस मनुष्यको दिनमें भोजन नहीं करनाचाहिये इससे यह अर्थ निकल आया कि रात्रिको करनाचाहिये इसको अर्थप्रप्ति कहते॥४९॥
अथ सम्भवः।
सम्भवोनामयोयतःसम्भवतिसतस्यसम्भवः। यथाषड्धात-वोगर्भस्यव्याधेरहितं हितमारोग्यस्येति॥५०॥
जो जिससे होसकताहो उसको संभव कहतेहै। जैसे षड्धातु गर्भका संभव अर्थात गर्भहोनेका कारण है। तात्पर्य यह हुआ कि छः धातुओंसे गर्भ हो सकता है। अहितसेवनसे व्याधिका होना संभव है और हितपदार्थके सेवन से आरोग्य रहना संभव है॥५०॥
अथानुयोज्यम् ।
अनुयोज्यंनामयद्वाक्यंवाक्यदोषयुक्तंतदनुयोज्यमुच्यते। सामान्योदहृतेष्ववर्थेषुवाविशेष-ग्रहणार्थंतद्वाक्यमनुयोज्यम्। यथा—
संशोधनसाध्योऽयंव्याधिरित्युक्तेकिंवमनासाध्यः किंविरेचनसाध्यइत्यनुयुज्यते॥५१॥
जो वाक्य दोषयुक्त हो उसको अनुयोज्य कहते हैं। जहां सामान्यतासे थोडासा कहना उचित हो उस स्थानमें बडी लम्बी कथाको छेडदेना अनुयोज्य कहाता है। जैसे किसीको कहागया कि यह रोगी संशोधन द्वारा साध्य होसकताहै उसमें यह पूछना क्या इसको वमन और विरेचन भी कराना होगा इत्यादि वाक्योंको पूछना अनुयोज्य कहता है॥११॥
अथाननुयोज्यम्।
अननुयोज्यंनामातोविपर्ययेणयथायमसाध्यः॥५२॥
अनुयोज्य से विपरीतको अननुयोज्य कहते हैं। जैसे यह मनुष्य असाध्य है॥१२॥
अथाऽनुयोगः।
अनुयोगोनामयत्तद्विद्यानांतद्विद्यैरेवसार्द्धंतन्त्रेतन्त्रैकदेशेवा प्रश्नःप्रश्नैकदेशोवाज्ञानविज्ञानवचन- परीक्षार्थमादिश्यते। अथवानित्यःपुरुषइतिप्रतिज्ञातेयत्परःकोहेतुरित्याहसोऽनुयोगः ५३॥
वैद्य वैद्यके साथ परस्पर वैद्यक शास्त्र में अथवा वैद्यकशास्त्रके एक अंशमें प्रश्न करे अथवा प्रश्नके एक देशको करता हुआ ज्ञान, विज्ञान, वचन इनकी परीक्षाके लिये बरावरीवालेसे जो प्रवृत्ति करे उसको अनुयोग कहते हैं। अथवा एकने कहा कि पुरुष नित्य है उसमें यह कहना कि पुरुषके नित्य होनेमें हेतु क्या है अनुयोग कहता है॥५३॥
अथ प्रत्यनुयोगः।
प्रत्यनुयोगोनामानुयोगस्यानुयोगः। यथाऽनुयोगस्यपुनः कोहेतुरिति॥५४॥
अनुयोग में अनुयोग करनेको प्रत्यनुयोग कहते हैं। जैसे आप ऐसा प्रश्न हमारे ऊपर कैसे करसकतेहैं यह कहना प्रत्यनुयोग कहाजाताहै॥१४॥
अथ वाक्यदोषः।
वाक्यदोषोनामयथाखल्वस्मिन्नर्थेन्यूनमधिकमनर्थकमपार्थकं विरुद्धञ्चेति॥५५॥
जिस विषयमे कथन करनेलगे उसमे न्यून, अधिक, अनर्थक, अपार्थक और विरुद्धताका कथन करना वाक्यदोषकहता है॥५५॥
वाक्यन्यूनता।
अत्रहेतूदाहरणोपनयनिगमनानामन्यतमेनापिन्यूनंन्यूनंभवतियद्वावहूपदिष्टहेतुकमेकेनसाध्यते-हेतुनातच्चन्यूनम् एतानिह्यन्तरेणप्रकृतोप्यर्थः प्रणश्येत्॥५६॥
उदाहरण, उपमा, निगमन इनमेंसे किसी एकका अभाव होना न्यून कहाता है। अथवा जिस विषयको बहुतसे हेतुओंसे पुष्ट करना उचित हो उसको अल्पहेतु द्वारा कथन करना न्यून कहाता है। न्यूनतासे अर्थका कथन करना प्रकृत अर्थको भी नष्ट करदेता है ॥ ५६ ॥
अथाधिक्यम्।
आधिक्यंनामयदायुर्वेदेभाष्यमाणेबार्हस्पत्यमौशनसमन्यद्वाप्रतिसम्बद्धार्थमुच्यतेयद्वापुनः प्रतिसम्बद्धार्थमपिद्विरभिधीयते, तत्पुनरुक्तत्वादधिकं तच्चपुनरुक्तंद्विविधंमर्थपुनरुक्तंशब्द- पुनरुक्तञ्च। तत्रार्थपुनरुक्तंनामयथाभेषजमौषधंसाधनमिति, शब्द्पुनरुक्तञ्चभेषजंभेषजमिति ॥५७॥
आयुर्वेदमें संभाषण करते हुए बार्हस्पस तथा औशनस अथवा अन्य प्रासंगिक इधर उधरकी कथा कहानियोंका छेड देना तथा एक वाक्यको अनेक प्रकारसे कई बारउच्चारण करना अथवा एक वाक्यको दोहराकर कहना वाक्यकी अधिकता कही जाती है उनमें एक बातको दोहराकर कहना पुनरुक्त कहाता है। उसके दो भेद हैं। १ अर्थसे पुनरुक्त। २ शब्दपुरुक्त। जैसे–औषधको–, भेषज औषध, साधन इन तीन नामोसे उच्चारण करना यह अर्थपुनरुक्त कहा जाता है। तथा भेषज भेषज बारबार कहना शब्दपुनरुक्त कहा जाता है॥५७॥
अनर्थक।
अनर्थकंनामयद्वचनमक्षरग्राममात्रमेवस्यात्पञ्चवर्गवन्नचार्थतोगृह्यते॥५८॥
जिस वचनसे किसी भी अर्थकी प्राप्ति न हो केवल जिह्वासे उच्चारण तो किया जाय परन्तु उसमेंसे अर्थ कुछ न निकले उसको अनर्थक कहते हैं। जैसे, क, च, ट, आदि वर्गोंका उच्चारण करना कुछ भी अर्थवाला नहीं होता॥५८॥
अपार्थक।
अपार्थकंनामयदर्थवच्चपरस्परेणचायुज्यमानार्थंयथातकनक्र-वंशवज्रनिशाकराइति॥५९॥
पृथक् २ अर्थोंवाले शब्दोंको वाक्यक्रमसे न मिलते हुए भी उच्चारण कर देना अपार्थक कहाता है। जैसे—तक्र, नक, वंश, वज्र, निशाकर आदि॥५९॥
विरुद्ध।
विरुद्धंनामयदृष्टान्तसिद्धान्तसमयैर्विरुद्धंतत्रपूर्वदृष्टान्तसिद्धान्तावुक्तौ। समयःपुनस्त्रिधा-भवतियथायुर्वैदिकसमयोयाज्ञियसमयोमोक्षशास्त्रिकसमय इति। तत्रायुर्वैदिकसमयश्चतुष्पाद-सिद्धिः। आलभ्यायजमानैःपशवइतियाज्ञियसमयः। सवभूतेष्व हिंसेतिमोक्षशास्त्रिकसमयस्तत्र-स्वसमयविपरीतमुच्यमानविरुद्धमितिवाक्यदोषाः॥६०॥
जो वाक्य दृष्टान्त और सिद्धान्त तथा समय से विरुद्ध हो उसको विरुद्ध अथवा विरुद्धता दोषयुक्त कहते हैं इनमें दृष्टान्त और सिद्धान्तको पहिले कथन कर चुके हैं समय–तीन प्रकारका होता है। जैसे– आयुर्वैदिक समय, याज्ञीय समय और मोक्ष शास्त्रिक समय। आयुर्वैदिक समयकी चार पदोंसे सिद्धि हैं। जस–वैद्य, रोगी, परि-चारक और औषधी। यजमानों द्वारा पशु आलंभनीय है यह याज्ञिकसमय है। है। संपूर्ण जीवमात्रकी हिंसा नहीं करना यह मोक्षशास्त्रिक समय अपने समयमेंदूसरेके समयका उच्चारण कर देना अर्थात् आयुर्वैदिक चतुष्पाद सिद्धिमें याज्ञीय, यजमान, पशु आदिकोंका प्रयोग करना समयविरुद्ध वाक्यदोष कहाजाता है॥६०॥
वाक्यप्रशंसा।
वाक्यप्रशंसानामयथाऽन्यूनमनधिकमर्थवदनपार्थकमविरुद्धमधिगतपदार्थञ्चतद्वाक्यमननु-योज्यमितिप्रशस्यते॥६१॥
जो न्यूनतारहित, अनधिक अर्थगला अनपार्थक, अविरुद्ध पदार्थके अर्थको यथार्थ कथन करनेवाला वाक्यहो उसको वाक्यप्रशंसा अर्थात् प्रशंसनीय वाक्य कहते हैं॥६१॥
वाक्छल।
छलंनामपरिशठमर्थाभाससनर्थकंवाग्वस्तुमात्रमेव। तद्द्विविधंवाक्छलंसामान्यछलञ्च। वाक्छलंनामयथाकश्चिद्ब्रूयात्नवतन्त्रोऽयंभिषगिति, भिषग्ब्रूयान्नाहंनवतन्त्रएकतन्त्रोऽहमिति।परोब्रूयान्नाहंब्रवीमिनवतन्त्राणितवेति, अथतुनवाभ्यस्तंतेतन्त्रमिति, भिषक्ब्रूयान्नमयानवाभ्यस्तं- तन्त्रमनेकशताभ्यस्तं मयातन्त्रमितिवाक्छलम्॥६२॥
किसी अर्थको शठतासे दूसरे रूपमें प्रकाश करके वादीके लक्ष्य विषयका दूसरी ओर अर्थ लेजाना छल कहाता है। छल वाणीके फेर मात्रको कहते है। वह छल दो प्रकारका है। १ वाक् छल। २ सामान्य छल । वाक्छल जैसे–कोई कहे कि यह वैद्य नवतंत्र है अर्थात् नवीन शास्त्रका जाननेवाला है इस जगह नवशब्दका अर्थ छल-पूर्वक नौ संख्याका वाचक बनाकर कहे कि मैं नौ तंत्र नहीं केवल एकही तंत्र हूं अर्थात नौ तंत्रोंको नहीं जानता, एक ही तंत्र को जानता हूं। फिर पूर्वपक्षवाला कहे कि मैंने यह नहीं कहा कि आप नौ तंत्रोको जानते हैं मैंने तो यही कहा है कि आपने नया शास्त्र पढ़ा है अर्थात् आपके नवीन अभ्यास किया है उसपर वैद्य फिर कहे कि मैंने शास्त्रको नौवार अभ्यास नही किया किन्तु अनेक सौवार अभ्यास किया है । इस प्रकार दूसरेके लक्ष्यको छल्से दूसरी ओर डाल देना वाक्छल कहाजाता है॥६२॥
सामान्यछल।
सामान्यच्छलंनामयथाव्याधिप्रशमनायोषधमित्युक्तेपरोब्रूयात्सत्सत्प्रशमनायेतिकिन्नुभवाना-हसद्रोगः सदौषधंयादेचससत्प्रशमनायभवतितत्रसत्कासःसत्क्षयःसत्सामान्यात्कासःक्षय-प्रशमनायभविष्यतीतिएतत्सामान्यच्छलम्॥६३॥
जैसे किसी वैद्यने कहा कि व्याधीकी शान्ति के लिये औषध होती है अर्थात् औषधसे रोगनाश होता है। इसपर प्रतिवादी मनुष्य कहे कि क्या सत्–सत्को शान्त करता है आप ऐसा कहते हैं ? यदि सत्को सत् शान्त करता है अर्थात् सत् वस्तुद्वारा सत्की
शान्ति होती है तो रोग भी सत् है और औषधी भी सत् है सो सत्रोगको सत् औषधी शान्त करती है ऐसा आप कहते हैं तो खांसी भी सत् है और क्षयरोग भी सत है। बस सत् सामान्य खांसी सत् क्षयरोगको शान्त करनेवाली आपके मतसे सिद्ध होगई। इस प्रकारके कथनको सामान्यछल कहते हैं ॥६३॥
अहेतु ।
अहेतुर्नामप्रकरणसमः संशयसमोवर्ण्यसमइति। तत्रप्रकरण समोनामाहेतुर्यथान्यःशरीरादात्मा-नित्यइतिपक्षेपरोब्रूयाच्छरीरादन्यआत्मातस्मान्नित्यः शरीरमनित्यमतोविधर्मिणानेनचभवितव्यम् एषचाहेतुर्नहियएवपक्षःसवहेतुः॥६४॥
प्रकरणसम, संशयसम, वर्ण्यसम, इन भेदोंसे तीन प्रकारका होता है । प्रकरणसम अहेतु–जैसे–किंसीने कहा कि आत्मा शरीरसे भिन्न है और नित्य है। उसपर प्रतिवादी यह कहे कि आत्मा शरीरसे भिन्न है इसलिये नित्य है और शरीर अनित्य है तो आत्मा विधर्मी होनेसे अर्थात् शरीरसे विरुद्धधर्मवाला होनेसे शरीर तो अनित्य होना ही चाहिये। इस प्रकारका कथन अहेतु कहाता है। क्योंकि जो पक्ष है वही हेतु नहीं होसकता॥६४॥
संशयसमोनामाहेतुर्यएवसंशयहेतुः सएवसंशयच्छेदहेतुर्यथा अयसायुर्वेदैकदेशमाहकिन्वयं-चिकित्सकः स्यान्नवेतिसंशयेपरो ब्रूयाद्यस्मादयमायुर्वेदैकदेशमाहतस्माच्चिकित्सकोऽयमिति। नचसंशयस्थेहेतुंविशेषयत्येषचाहेतुः नहियएवसंशयहेतुःसएव संशयच्छेदहेतुः॥६५॥
संशयके हेतुको संशयके छेदनका हेतु कर लेना संशय सम अहेतु कहाता है। जैसे—यह आयुवर्देका एक देश कथन कर रहा है इसलिये यह वैद्य है कि, नहीं ऐसासंशय, उत्पन्न होनेपर कोई कहे कि जिससे यह आयुर्वेदका एक देश कथन करता हैइसीसे यह सिद्ध होगया कि यह वैद्य है। इस स्थानमें संशय में जो हेतु था उसको ही संशय छेद करने में हेतु बनाया गया। जो संशय में हेतु होता है वह संशयके छेद करने में हेतु नहीं होसकता इसलिये यह संशय सम अहेतु हुआ॥६५॥
वर्ण्यसमोनामाहेतुर्योहेतुर्वर्ण्याविशिष्टःयथापरोब्रूयादस्पर्शत्वाद्बुद्धिरनित्याशब्दवदितितत्रवर्ण्यः शब्दोवुद्धिरपिवर्ण्यातदुभयवर्ण्याविशिष्टत्वाद्वर्ण्यसमोऽप्यहेतुः॥६६॥
दो वस्तुओंको समानरूपसे वर्णन किया गया फिर उनमें अभेद दिखाया जाय उसको वर्ण्यसम अहेतु कहते हैं। जैसे कोई कहे कि स्पर्श न होनेसे बुद्धि अनित्य है क्योंकि शब्दका भी स्पर्श नहीं कियाजाता वह स्पर्शवाला न होनेसे अनित्य है उसी प्रकार बुद्धि भी स्पर्शवाली न होनेसे अनित्य है। इस प्रकार कथन करना वर्ण्यसम अहेतु होता है॥६६॥
अतीतकालम्।
अतीतकालंनामयत्पूर्वंवाच्यंतत्पश्चादुच्यतेतत्कालातीतत्वादग्राह्यं भवतिपरंवानिग्रहप्राप्तमनिगृह्य परिगृह्यपक्षान्तरितंपश्चानिगृहीतेतत्तस्यातीतकालत्वान्निग्रहवचनसमर्थंभवतीति॥६७॥
जिस विषयको पहिले कथन करना हो उसका पीछे कथन किया जाना अतीतकाल होता है। अतीतकाल होनेसे वह वचन अग्राह्य होजाता है। अथवा निग्रहस्थानको प्राप्त होकर दूसरे पक्षको मान लेना फिर अपने पहिले पक्षकी पुष्टिके लिये कथन करना कालातीत होता है। इसलिये वह निग्रहमें ही गिना-जाताहै॥६७॥
उपालम्भ।
उपालम्भोनामहेतोर्दोषवचनंयथापूर्वमहेतवाहेत्वाभासाव्याख्याताः॥६८॥
हेतुमे दोष वर्णन करना उपालंभ कहाता है। यह अहेतु वर्णन कियाजाचुकाहै। इसको होत्वाभास भी कहते हैं॥६८॥
परिहार।
परिहारोनामतस्यैवदोषवचनस्यपरिहरणंयथानित्यमात्मनिश-रीरस्थेजीवलिङ्गान्युपलभ्यन्तेतस्य चापगमान्नोपलभ्यन्तेतस्मा-दन्यः शरीरादात्मानित्यःशरीराच्चेति॥६९॥
प्रतिवादीके दोषयुक्त वाक्यको परिहरण करतेहुए जो सत्यताका प्रतिपादन कियाजाय उसको परिहार कहते हैं। जैसे कहाजाय कि शरीरमे स्थित हुआ आत्मा जीवके लक्षणोंसे उपलब्ध होता है, जब आत्मा शरीरको त्यागकर अलग होजाता है तव जीवन लक्षण नहीं दिखाई देते।इससे सिद्ध है कि आत्मा नित्य है और शरीरसे भिन्न है। इसप्रकार प्रतिवादीके वाक्यदोषका परिहार कियाजाता है॥ ६९॥
प्रतिज्ञाहानिः।
प्रतिज्ञाहानिर्नामयःपूर्वप्रतिगृहीतांप्रतिज्ञांपर्य्यनुयुक्तःपरित्यजंतियथाप्राक्प्रतिज्ञांकृत्वानित्यः पुरुषइतिपर्य्यनुयुक्तस्त्वाहअनित्यइति॥७०॥
दूसरेके दोषोंको दिखातेहुए अपनी प्रतिज्ञाको त्याग देना प्रतिज्ञाहानि कही-जाती है। जैसे पहिले यह प्रतिज्ञा करे कि पुरुष नित्य है फिर प्रतिपक्षीकी युक्तियों द्वारा दूषित होकर यह कहदेवे कि हां पुरुष अनित्य होता है। इसको प्रतिज्ञाहानि कहते हैं॥७०॥
अभ्यनुज्ञा।
अभ्यनुज्ञानामयइष्टानिष्टाभ्युपगमः॥७९॥
प्रतिवादीके इष्ट अनिष्ट वाक्योंको स्वीकार करलेना अर्थात सुनकर चुप होजाना अभ्यनुज्ञा कहाताहै॥७९॥
हेत्वन्तर।
हेत्वन्तरंनामप्रकृतहेतौवाच्येयद्विकारहेतुमाह॥७२॥
प्रकृति हेतुको कथन करते समय विकारहेतुको कथनकर देना हेत्वन्तर कहा है॥७२॥
अर्थान्तर।
अर्थान्तरनामज्वरलक्षणेवाच्येप्रमेहलक्षणमाह॥७३॥
ज्वरके लक्षणोंको कथन करनेके समय प्रमेहके लक्षणोंको कथन करता अर्थान्तर कहाताहै॥७३॥
निग्रहस्थान
निग्रहस्थानंनामपराजयप्राप्तिस्तच्चत्रिरुक्तस्यवाक्यस्यअविज्ञा-नंपरिषदिविज्ञानवत्याम् यद्वाअननुयोज्यस्यानुयोगोअनुयो-ज्यस्यचाननुयोगः॥७४॥
सभा में बैठकर जो वाक्य तीनवार उच्चारण कियाजाय उसको भी वह न समझे और सभासद समझतेहों इसप्रकार उस (प्रतिपक्षी) को सभामें बात नहीं करनेदेना अर्थात् पराजित करदेना निग्रहस्थान कहाताहै। अथवा अनुयोज्य वाक्योंका अनुयोग न करना और अननुयोज्योंका अनुयोग करना भी निग्रहस्थान (हारज्ञाना) कहाताहै॥७४॥
प्रतिज्ञाहानि ।
प्रतिज्ञाहानिरभ्यनुज्ञाकालातीतवचनमहेतुः न्यूनमतिरिक्तंव्यर्थमनर्थकंपुनरुक्तंविरुद्धं हेत्वन्तरमर्थान्तरं निग्रहस्थानमितिवादमर्थ्यादापदानियथोद्देशमभिनिर्दिष्टानि॥७५॥
प्रतिज्ञाहानि, अभ्यनुज्ञा, कालातीत, वचन, अहेतु, न्यूनता, अधिकता, व्यर्थ, अपार्थक, पुनरुक्त, विरुद्ध हेत्वन्तर, अर्थान्तर और निग्रहस्थान यह सब वादमा-र्गके पदोंको यथोद्देश निर्दिष्ट करचुके हैं अर्थात् निर्देश कर चुकेहैं॥७५॥
वाद।
वादस्तुखलुभिषजांवर्त्तमानोवर्त्तेतायुर्वेदएवनान्यत्र॥७६॥
वादानुवाद वैद्यको आयुर्वेद शास्त्र में ही करना चाहिये। अन्यशास्त्रोंमें नही॥७६॥
तत्रहिवाक्यप्रतिवाक्यविस्ताराःकेवलाश्चोपपत्तयश्चसर्वाधिकरणेषुताः सर्वाः सम्यगवेक्ष्यावेक्ष्य-
सर्वंवाक्यंब्रूयान्नाप्रकृतिकमशास्त्रमपरीक्षितमसाधकमाकुलप्रज्ञापकंवासर्वञ्चहेतुमद्ब्रूयाद्धेतु-मन्तो ह्यकलुषाः सर्वएववादविग्रहाश्चिकित्सितेकारणभूताः।प्रशस्तबुद्धिवर्द्धकत्वात्सर्वारम्भ-सिद्धिंह्यावहतिअनुपहताबुद्धिः॥७७॥
इस स्थानमें वाक्य प्रतिवाक्यका ही विस्तार कियागया है। इनके सिवाय शास्त्र में जो २ उपपत्तियें हैं उन सबको अच्छीतरह विचारकर वादानुवाद करना चाहिये। अर्थात् सब उपपत्तियोंको भले प्रकार विचारकर ही सभामें बोलना चाहिये। तथ अप्रकृत, अशास्त्र, अपरीक्षित, अप्रमाण, आकुल और अज्ञापक शब्दोंको कभी उच्चारण करना नहीं चाहिये। सब शब्द हेतुमान् बोलना चाहिये। हेतुयुक्त शब्दोंका बोलना, निर्दोष शब्दोंका उच्चारण करना शास्त्रार्थ करना यह सब वैद्यकी बुद्धि के बढानेवाले होते हैं। बुद्धि निर्मल तथा अनुपहत एवं स्वच्छ होनेसे संपूर्ण कार्योंकीसिद्धि होती है॥७७॥
इमानिखलुतावदिहकानिचित्प्रकरणानिब्रूमः। ज्ञानपूर्वकंकर्मणांसमारम्भंप्रशंसन्तिकुशलाः॥ ७८॥
यहाँपर हम इन और प्रकरणोंका कथन करते हैं। क्योंकि बुद्धिमान् सब कमोंके आरम्भको ज्ञानपूर्वक करनेकी ही प्रशंसा करते हैं॥७८॥
ज्ञात्वाहिकारणकरणकार्य्ययोनिकार्य्यकार्य्यफलानुबन्धदेशकालप्रवृत्त्युपायान्सम्यगभिनिर्वर्त्य-मानः कार्य्याभिनिर्वृत्ताविष्टफलानुबन्धकं कार्य्यमभिनिर्वर्त्तयत्यनतिमहताप्रयत्नेनकर्त्ता॥७९॥
कारण, करण, कार्ययोनि, कार्य, कार्यफल, अनुबंध, देश, काल, प्रवृत्ति और उपाय इन सबको भले प्रकार जानकर कार्य करनेमें प्रवृत्त होनेसे इष्टफलकी प्राप्ति होती है और कर्ता थोडा ही यत्न करनेपर कार्य की सिद्धिको प्राप्त होता है॥७९॥
कारण।
तत्रकारणंनामतद्यत्करोतिसएवहेतुःकर्त्तासः॥८०॥
कार्यके करनेवालेको कारण कहते हैं। और उसीको हेतु तथा कर्त्ता भी कहते हैं॥८०॥
करण।
करणंपुनस्तद्यदुपकरणायोपकल्पतेकर्त्तुःकार्य्याभिनिर्वृत्तौप्रयतमानस्य॥८१॥
कार्यसिद्धिमें कर्ता जिस उपकरण द्वारा कार्यको करे उसको करण कहतेहैं। अर्थात् कर्त्ता जिस सामग्रीको लेकर कार्यसिद्धिमें प्रवृत्त हो उस सामग्रीका नाम करण है॥८१॥
कार्ययोनि।
कार्य्ययोनिस्तुसायाविक्रियमाणाकार्य्यत्वमापद्यते॥८२॥
जो पदार्थ विकृत होकर कार्यरूपसे पलटजाय उसको कार्ययोनि कहते हैं॥८२॥
कार्य।
कार्यन्तुतद्यस्याभिनिर्वृत्तिमभिसन्धायप्रवर्त्ततेकर्त्ता॥८३॥
जिसकी उत्पत्तिको लक्ष्यकर कर्त्ता प्रवृत्त होताहै उसको कार्य कहते हैं॥८३॥
कार्यफलम् ।
कार्यफलंपुनस्तद्यत्प्रयोजनाकार्य्याभिनिर्वृत्तिरिष्यते॥८४॥
जिस प्रयोजनसे कार्य कियाजाय उसी प्रयोजनकी सिद्धिको कार्यफल कहते हैं॥८४॥
अनुबन्ध।
अनुवन्धस्तुकर्त्तारमवश्यमनुवघ्नातिकार्य्यादुत्तरकालंकार्य्यनिमित्तःशुभोवाप्यशुभोवाभावः॥८५॥
कार्य के अंत में होनेवाला अवश्यंभावी शुभाशुभभाव अनुबंध कहाजाता है॥८५॥
देश।
देशस्त्वधिष्ठानम्॥८६॥
अधिष्ठानको देश कहते हैं॥८६॥
काल।
कालःपुनःपरिणामः॥८७॥
और काल परिणामको कहतेहैं॥८७॥
प्रवृत्ति।
प्रवृत्तिस्तुखलुचेष्टाकार्य्यार्थासैवक्रियाकर्मयत्नःकार्य्यसमारम्भश्च॥८८॥
कार्यके सम्पादन करनेके लिये जो कर्त्ताकी चेष्टा है उसको प्रवृत्ति कहतेहैं । वही क्रिया, कर्म, यत्न और कार्यसमारंभ भी कहीजाती है॥८८॥
उपाय।
उपायाः पुनः कारणादीनांसौष्ठवमभिसन्धानञ्चसम्यक्कार्य्यफलानुबन्धोपायवर्ज्यानां-कार्य्याणामभिनिर्वर्त्तकइत्यतोऽभ्युपायःकृतेनोपायार्थोऽस्तिनचविद्यतेतदात्वेकृताच्चोत्तरकालं-फलंफलच्चानुबन्धइतिव्याख्यातंदशविधम्॥८९॥
कार्यके उत्पादन करने में कारण, करण, संवायिकारण, देश, काल और प्रवृत्ति आदिकोंकी कार्यफल उत्पन्न करनेमें जिसकी जिस प्रकार जिससे अनुकूलता हो उसको उपाय कहते हैं। और कारणादिकों को भी उपाय कहते हैं क्योंकि कारणा-दिक न होनेसे भीं कार्यसिद्धि नहीं होती । फल और अनुबंध उपाय कहे नहीं जा सकते क्योंकि यह कार्य होजानेपर उत्पन्न होते हैं। इस दशप्रकारके कारणादिकोंकी वर्णन कियागया॥८९॥
अग्रेपरीक्ष्यंततोऽनन्तरकार्य्यार्थाप्रवृत्तिरिष्टातस्माद्भिषक्कार्य्यचिकीर्षुःप्राक्कार्य्यसमारम्भात्परी-क्षया केवलंपरीक्ष्यंपरीक्ष्यार्थकर्मसमारभेतकर्तुम्॥९०॥
पहिले परीक्षा करके तदनन्तर कार्यार्थके लिये प्रवृत्ति करना चाहिये। इसलिये चिकित्सा करनेकी इच्छावाला वैद्य चिकित्सा आरम्भ करनेसे प्रथम परीक्ष्य विषयको परीक्षा करके फिर चिकित्सा करनेमें प्रवृत्त हो॥९०॥
तत्रचेद्भिषगभिषग्वाभिषजंकश्चित्पृच्छेद्वमनविरेचानास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानिप्रयोक्तु-कामनभिषजाकतिविधया परीक्षयाकतिविधमेवपरीक्ष्यंकश्चात्रपरीक्ष्यविशेषः कथञ्चपरीक्षितव्यं-किंप्रयोजनाचपरीक्षाक्वचवमनादीनांप्रवृत्तिःक्वचनिवृत्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिसंयोगेचकिंनैष्ठिकंकानिच- वमनादीनांभेषजद्रव्याणिउपयोगंगच्छन्तीति। सएवंपृष्टोयदिमोहयितुमिच्छेद्ब्रूयादेनंबहुविधाहि-परीक्षातथापरीक्ष्यविधिभेदः। कतमेनविधिभेदप्रकृत्यन्तरेणपरीक्ष्यस्यभिन्नस्यभेदागं-भवान्पृच्छति आख्यायमानंनेदानभवतोऽन्येनविधिभेद प्रकृत्यन्तरेणभिन्नयापरीक्षया अन्येनवा विधिभेदप्रकृत्यन्तरेणपरीक्ष्यस्यभिन्नस्याभिलषितमर्थश्रोतुमहमन्येनपरीक्षाविधिभेदेनअन्येनवा-विधिभेदप्रकृत्यन्तरेणपरीक्ष्यभित्त्वार्थमाचक्षाणइच्छांप्रपूरयेयमिति॥९९॥
याद वैद्य अथवा कोई अन्य मनुष्य प्रश्न करे कि — वमन, विरेचन, आस्थापन अनुवासन और शिरोविरेचन इनका प्रयोग करनेकी इच्छावाले वैद्यको कितने प्रकाकी परीक्षासे कितने प्रकारके परीक्ष्य विषय परीक्षा करने चाहिये। और इस स्थानम परीक्ष्य विशेष क्या है कैसे परीक्षा करनी चाहिये परीक्षाका प्रयोजन क्या है औ चमनादिकोंकी कहां २ प्रवृत्ति और निवृत्ति है। प्रवृत्ति और निवृत्तिके लक्षण दिखाइ देनेपर क्या करना चाहिये, वमन, विरेचनादिकोंमें कौन २ द्रव्य उपयोगी होते हैं। इस प्रकार प्रश्न करनेपर यदि देखे कि प्रश्नकर्त्ताको परास्त करदेना और मुग्ध कर देना उचित है तो उससे कहे कि परीक्षा बहुत प्रकारकी होती है और परीक्षणीय विषय भी अनेक प्रकारके होते हैं। आप किस प्रकारकी परीक्षाके भेदको पूछना चाहते हैं और परीक्षा के एवम् परीक्षणीय विषयके किन २ भेदोंको जानना चाहते हैं। क्योंकि यदि आप जिस परीक्ष्य विषयको जिस प्रकार जानना चाहते हैं हम उस विधि भेद प्रकारसे कथन न करके यदि अन्य प्रकारसे कथन करनेलगेंगे तो आपकी इच्छा परिपूर्ण न होगी॥९१॥
सयद्युत्तरंब्रूयात्तत्परीक्ष्योत्तरंवाच्यंस्याद्यथोक्तंप्रतिवचनमवेक्ष्य सम्यग्यदितुब्रूयान्नचैनं-मोहयितुमिच्छेत्प्राप्तन्तुवचनकालंमन्येतकाममस्मै्ब्रूयादामेवनिखिलेन॥९२॥
इस प्रकार कथन करनेसे वह जो कुछ उत्तर देवै उसकी परीक्षाकर लेना चाहिये। यदि वह पराजय करनेकी इच्छासे उत्तर देवे तो पूर्वोक्त विधानसे निरुत्तर कर डाले यदि यह यथार्थ भलाईके साथ उत्तर देवे तो उसको मुग्ध न करके उससे यथार्थ विधिवत् प्रमाणिक रीतिसे संपूर्ण कथनको करे ॥९२॥
परीक्षाके भेद।
द्विविधापरीक्षाज्ञानवतांप्रत्यक्षमनुमानञ्च, एतत्तुद्दयमुपदेशश्च परीक्षात्रयमेवमेषाद्विविधापरीक्षा-त्रिविधावासहोपदेशेन॥९३॥
परीक्षा दो प्रकारकी होती है।– १ प्रत्यक्ष। २ अनुमान और आप्तोपदेशके मिला देनेसे तीन प्रकारकी होजाती है॥९३॥
दशविधन्तुपरीक्ष्यंकारणादियदुक्तमग्रेतदिहभिषगादिषुसंसार्य्यसन्दर्शयिष्यामः, इहकार्य्यप्राप्तौ- कारणंभिषक् करणंपुनर्भेषजं, कार्य्ययोनिर्धातुवैषम्यं, कार्यधातुसाम्यं, कार्य्यफलंसुखावाप्तिः, अनुबन्धआयुः, देशोभूमिरातुरश्च, कालः संवत्सरश्चातुरावस्थाच, प्रवृत्तिःप्रतिकर्मसमारम्भः, उपायोभिषगादीनांसौष्ठवमभिसन्धानञ्चसम्यगिहापिअस्योपायस्यविषयः पूर्वेणैवोपायविशेषेण-व्याख्यातइतिकारणादीनिदश।दशसुभिषगादिषुसंसार्थ्यसन्दर्शितानि, तथैवानुपूर्व्याएतद्दश-विधंपरीक्ष्यमुक्तञ्च॥९४॥
परीक्ष्य विषय दश प्रकारके होते हैं। उन दश प्रकारके कारणादिकोंको पहिले कथन कर चुके हैं। अब उन्हींको विस्तारपूर्वक वैद्य आदिको दिखाते हैं। वैद्यकशास्त्र में चिकित्सारूपी कार्यका कारण अथवा कर्त्ता वैद्य और औषधी करण है। धातुओंकी विषमता कार्ययोनि कहाती हैं। धातुओंकी साम्यावस्था कार्य है। आरो-ग्यताके सुखकी प्राप्ति होना कार्यफल है। आयु अनुबंध है। देश भूमि और रोगीका शरीर है ।काल संवत्सर और अवस्थाको कहते हैं। प्रत्येक कर्मके आरंभको प्रवृत्ति
कहतेहैं।कार्य करने की इच्छासे वैद्यादिकोंका उचित भावसे योग होना उपाय कहाजाताहै। तथा औषधादिकोंका प्रयोग करना भी उपाय कहाजाताहै। विषय पहिले उपाय विशेषसे कथन करचुकेहैं। इस प्रकार यह करणादिक दश परीक्षणीय विषय वैद्यादिकों में संभार करके दिखादिये गये हैं। इसप्रकार आनुपूर्व्या दशविध परीक्षणीय विषयोंका कथन कियागयाहै॥९४॥
तस्ययोयोपरीक्ष्यविशेषोयथायथाचपरीक्षितव्यःससतथातथा व्याख्यास्यते। कारणंभिषगित्युक्तमग्रेतस्यपरीक्षाभिषङ्नामसयोभेषतियःसूत्रार्थप्रयोगकुशलःयस्यचायुःसर्वथाविदितम्॥९५॥
उन परीक्ष्य विषयोंमें जो २ परीक्षणीय विषय जैसे २ परीक्षा करनी चाहिये उसका वैसा २ वर्णन करतेहैं। उनमें कारण वैद्य कहा गयाहै। सो उस वैद्यकी परीक्षा यह है कि जो भेषज अर्थात् औषध किया करता है उसको भिषक अर्थात् वैद्य कहते हैं। वह वैद्य सूत्र, अर्थ और प्रयोग में कुशल तथा आयुका सम्पूर्ण रूपसे ज्ञाता होनाचाहिये॥९५॥
धातुताम्यकारक वैद्यगुण।
यथावत्सर्वधातुसाम्यंचिकीर्षन्नात्मानमेवादितःपरीक्षेत। गुणिषुगुणतःकार्य्याभिनिर्वृत्तिं- पश्यन्कञ्चिदहमस्यकार्य्यस्यअभिनिर्वर्त्तनेसमर्थोनवेति॥९६॥
वैद्यको चाहिये कि संपूर्ण धातुओंको साम्यावस्था में करनेकी इच्छा करताहुआ प्रथम अपनी परीक्षा करे। गुणोंमें गुणसे कार्य की सफलता देखताहुआ यह विचार करे कि मैं इस कार्यको समर्थन करनेके योग्य हूं या नहीं॥९६॥
तन्त्रेमेभिषग्गुणायैरुपपन्नोभिषग्धातुसाम्याभिनिवर्त्तनेसमर्थो भवतितद्यथापर्य्यवदश्रुततापरिदृष्ट-कर्मतादाक्ष्यंशौचंजितहस्तताउपकरणवत्तासर्वेन्द्रियोपपन्नताप्रकृतिज्ञताप्रतिपत्तिज्ञता चेति॥९७॥
जिस वैद्य में यह आगे कहेहुए संपूर्ण गुण विद्यमान हों वह ही धातुओंको साम्यावस्था में लानेके लिये समर्थ होता है। वह गुण इस प्रकार हैं। जैसे–शास्त्रमें पारंगत होना, बहुश्रुत होना आयुर्वेदीय कर्मों में चतुर होना, बहुदर्शी होना, पवित्र
होना जितहस्त होना, औषधादि संपूर्ण उपकरणयुक्त (सामग्रीयुक्त) होना। सर्वेन्द्रियसम्पन्न होना प्रकृति विशेषका ज्ञाता होना। चिकित्सा कर्मके फल विशेष जाननेमें तथा चिकित्सा क्रमके जाननेमें चतुर होना इन गुणोंसे युक्त वैद्य उत्तम होता है॥९७॥
भेषजपरीक्षा।
करणंपुनर्भेषजम्।भेषजंनामतद्यदुपकरणायोपकल्प्यते, भिषजोधातुसाम्याभिनिर्वृत्तौप्रयत-मानस्य, विशेषतश्चोपायान्तरेभ्यः तद्द्विविधंव्यपाश्रयभेदाद्दैवव्यपाश्रयंयुक्तिव्यपाश्रयञ्च। तत्रदैवव्यपाश्रयंमन्त्रौषधि मणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासदानस्वस्त्ययन-प्रणिपातगमनादि। युक्तिव्यपाश्रयंसंशोधनोपशमनेचेष्टाश्चदृष्टफलाः एतच्चैवभेषजमङ्गभेदादपि-द्विविधंद्रव्यभूतमद्रव्यभूतञ्चतत्रयदद्रव्यभूतंतदुपायाभिप्लुतम्। उपायोनामभयदर्शनविस्मापन-क्षोभणहर्षणभर्त्सनवधवन्धस्वप्नसंवाहनादिरमूर्त्तोभावोयथोक्ताःसिद्ध्युपायाश्च। यत्तुद्रव्यभूतं-तद्वमनादिषुयोगमुपैति॥९८॥
करण औषधिका नाम है। औषध चिकित्सा कार्यका उपकरण होता है। इसलिये औषधकी परीक्षा करनी चाहिये। जब वैद्य धातुसाम्य करनेके लिये प्रवृत्त हो तो विशेषतासे औषधकी परीक्षा करे।वह औषध दो प्रकारके होतेहैं। १ दैवव्यपाश्रय।२ युक्तिव्यपाश्रय उनमें–मणि, मंत्र, औषध, मंगलक्रिया, बलिदान, उपहार, होम, नियम, प्रायश्चित्त उपवास, स्वस्त्ययन, प्रणिपातन और देवयात्रा आदि दैव व्यपाश्रय औषध कहा जाता है। और संशोधन, संशमन तथा दृष्टफलकी चेष्टा आदिको युक्तिव्यपाश्रय औषध कहते हैं। वह औषध अंगभेदसे भी दो प्रकारकी होती है १ द्रव्यभूत।२ अद्रव्यभूत (उपायभूत) उनमें–जो अद्रव्यभूत औषधी है वह उपाययुक्त होती है। जैसे–भय दिखाना विस्मापन, क्षोभण, हर्पण, भर्त्सन, प्रहार, बंधन, निद्रा और संवाहन आदि। यह सब प्रत्यक्षरूपसे चिकित्साकी सिद्धिके उपाय हैं। जो द्रव्यभूत हैं उनका वमनादि कार्योंमें उपयोग किया जाता है॥९८॥
औषधपरीक्षा।
तस्यापिइयंपरीक्षाइदमेवंप्रकृत्याएवंगुणमेवंप्रभावमस्मिन्देशे जातमस्मिनृतौएवंगृहतिमेवं-निहितमेवमुपस्कृतमनयामात्रयायुक्तमस्मिन् रोगेएवंविधस्यपुरुषस्यैतावन्तंदोषमपकर्षयति उपशमयतिवाअन्यदपिचैवंविधंभेषजंभवेत्तच्चानेनान्येनवाविशेषेणयुक्तमिति॥९९॥
सकी इस प्रकार परीक्षा करनी चाहिये। जैसे—इस द्रव्यकी प्रकृति ऐसी है इसमें यह गुण होते हैं और इसका यह प्रभाव है इसके उत्पन्न होनेका यह स्थान है, इस ऋतुमें यह उत्पन्न होती तथा उसके उखाडनेका समय यह है। संयोग विशेषसे ऐसा गुण करती है, मात्रा उतनी है, ऐसे रोगोंमें ऐसे समयमें एवम् ऐसे पुरुषके लिये तथा ऐसे दोषोंको अपकर्षण करनेके लिये एवम् ऐसे दोषोंको शान्त करने के लिये इसका उपयोग कियाजाता है। इत्यादिक और भी औषध सम्बन्धी जो विचार हैं अथवा इस प्रकारके अन्य द्रव्य इसके समान है अथवा इससे गुणोंमें न्यून और अधिक हैं इत्यादिक विषयोंकी समालोचना करतेहुए द्रव्यकी परीक्षा करनी चाहिये॥९९॥
कार्ययोनिपरीक्षा।
कार्य्ययोनिर्धातुवैषम्यंतस्यलक्षणंविकारागमःपरीक्षात्वस्यविकारप्रकृतेश्चैवोनातिरिक्तलिङ्ग- विशेषवेक्षणंविकारस्यचसाध्यासाध्यमृदुदारुणलिङ्गविशेषावेक्षणमिति॥१००॥
कार्ययोनि—धातुओंकी विषमताको कहते हैं।रोगोंका प्रगट होना धातुओंकी विषमताका लक्षण है। विकार प्रकृति अर्थात् विकारोंके कारणीभूत वात, पित्त, कफ जो हैं उनकी हीनता और अधिकताकी परीक्षा द्वारा इनकी परीक्षा होती है। एवम् विकारोंकी साध्यता, असाध्यता, मृदुता और दारुणताको भी लक्षण विशेषसे प्रतीक्षा करनी चाहिये॥१००॥
कार्यपरीक्षा ।
कार्य्यंधातुसाम्यं, तस्यलक्षणंविकारोपशमः, परीक्षात्वस्यरुगपशमनंस्वरवर्णयोगःशरीरोपचयः-बलवृद्धिरभ्यवहार्य्याभिलाषोरुचिराहारकालेभ्यवहृतस्यचाहृतस्यचाहारस्यसम्यग्जरणं
निद्रालाभोयथाकालंवैकारिकाणांस्वप्नानामदर्शनंसुखेनचप्रतिबोधनंवातमूत्रपुरीषरेतसांमुक्तिः। सर्वाकारैर्मनोबुद्धीन्द्रियाणाञ्चाव्यापत्तिरिति॥१०१॥
धातुओंकी साम्यावस्था रखना या होना अथवा साम्यावस्था उत्पन्न करना चिकित्साका कार्य है। तथा विकारोंकी शान्ति होना उसका लक्षण है। पीडा आदि का शान्त होना, स्वर, वर्णका पूर्ववत् उत्तम होना, शरीरका पुष्ट होना एवम् बलकी वृद्धि, आहारकी अभिलाषा, आहारकी रुचि, भोजनका समयपर पचजाना, समय पर क्षुधा लगना, सुखपूर्वक निद्रा आना, बुरे स्वप्नोंका न दीखना, सुखपूर्वक इच्छानुसार जागृत होना समयपर सुखपूर्वक वात, मूत्र, पुरीष और वीर्यका मुक्त उचित रीतिपर होना। संपूर्ण आकारोंसे मन, बुद्धि और इन्द्रियोंका स्वास्थ्य अर्थात् विकार रहित होना यह सव विकार शान्तिके लक्षण होते हैं॥१०१॥
कार्यफलपरीक्ष।
कार्यफलंसुखावाप्तिस्तस्यलक्षणंमनोबुद्धीन्द्रियशरीरतुष्टिः॥१०२॥
चिकित्सा कार्यका फल–सुख अर्थात् आरोग्यताकी प्राप्ति है।मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर की तुष्टि ही उसका लक्षण है॥१०२॥
अनुबन्धस्तुखल्वायुस्तस्यलक्षणंप्राणैःसंयोगः॥१०३॥
अनुबंध–अर्थात् आरोग्यताका फल दीर्घायु होना है।प्राणोंका शरीरके साथ संयोग रहना आयुका लक्षण है॥१०३॥
देशलक्षण।
देशस्तुभूमिरातुरश्चतत्रभूमिपरीक्षाआतुरस्यपरिज्ञानहेतोर्वास्यादौषधपरिज्ञानहेतोर्वास्यादौषध-परिज्ञानहेतोर्वा।तत्रतावदियमातुरपरिज्ञानहेतोः। तद्यथा—अयंकस्मिन्भूमिदेशेजातःसंवृद्धो-व्याधितोवेतितस्मिंश्चभूमिदेशेमनुष्याणामिदमाहारजातमिदंविहारजातमेतद्बलमेवंविधंसत्त्वमेवंविधंसात्म्यमेवंविधोदोषोभक्तिरियमिमेव्याधयोहितमिदमहितमिदमितिप्रायोग्रहणेन॥१०४॥
देश—भूमिको और रोगीके शरीरको कहतेहैं। उनमें भूमिकी परीक्षा करना आतुरके परिज्ञानके लिये और औषधके परिज्ञान के लिये होताहै। उनमें भूमिकी परीक्षा और रोगीकी परिक्षा इस प्रकार करना। जैसे—यह किसी भूमि अर्थात किस
देशमें उत्पन्न हुआ, किस देश में वृद्धिको प्राप्त हुआ, किस देशमें रोगग्रस्त हुआ, जिस देशमें यह उत्पन्न हुआ और पला है उस देशके मनुष्योंका आहार विहार और बल तथा सत्त्व एवम् सात्म्य किस प्रकार के होतेहैं। उस देश में दोष भेद इस प्रकार होते हैं। इस प्रकारके पदार्थ इनको हितकर होतेहैं, व्याधियें इस प्रकारकी होती हैं ये पदार्थ हितकर और अहितकर होते हैं। इसप्रकार रोग परिज्ञानके लिये भूमिकी परीक्षा करना चाहिये॥१०४॥
औषधपरिज्ञानहेतोस्तुकल्पेषुभूमिपरीक्षावक्ष्यते॥१०५॥
औषध परिज्ञानके लिये भूमिकी परीक्षा करना चाहिये सो कल्पस्थानमें कथन करेंगे॥१०५॥
रोगिपरीक्षा।
** आतुरस्तुखलुकार्य्यदेशस्तस्यपरीक्षाआयुषःप्रमाणज्ञानहेतोर्वास्याद्वलदोषप्रमाणज्ञानहेतोर्वा॥१०६॥**
चिकित्साका देश—अर्थात् चिकित्सा कार्यकी भूमि रोगी कथन किया है सो उस रोगीकी आयु, बल, दोषोंका प्रमाण आदिकी परीक्षा करना आतुरपरीक्षा है॥१०६॥
तत्रतावदियंबलदोषविशेषप्रमाणापेक्षासहसाहिअतिवलमौषधमपरीक्षकप्रयुक्तमल्पवल-मातरमभिघातयेत्, नह्यतिबलान्याग्नेयसौम्यवायवीयान्यौषधान्यग्निक्षारशस्त्रकर्माणि वा शक्यन्तेऽल्पबलैःसोढुमविषह्यातितीक्ष्णवेगत्वाद्धिसद्यःप्राणहराणिस्युः॥१०७॥
चिकित्सा–रोगीके बल तथा दोष विशेषके प्रमाणकी अपेक्षा रखतीहै। जब वैद्य अल्प बलवाले रोगीको विनाही परीक्षा किये बलवान् औषधीका प्रयोग करताहै तो उसके प्राणोंको नष्ट करदेताहै। बलहीन रोगीको अतिबलवान् अत्यंत उष्ण, अत्यंतशीतल तथा अत्यंतवातप्रधान औषध प्रयोग करना तथा जो रोगी सहन नहीं करसकता उसको दागना, शस्त्रक्रम करना और क्षारकर्म (तेजाव आदिसे दग्ध करना) आदि तीक्ष्णकर्म और तीक्ष्ण औषध असह्य और तीक्ष्ण होनेसे उसके प्राणोंको शीघ्र नष्ट करदेती है॥१०७॥
दुर्बलरोगीको औषध।
एतच्चैवकारणमवेक्ष्यमाणाहीनबलमातुरमविषादकरैर्मृदुसुकमारप्रायैरुत्तरोत्तरगुरुर्भिरविभ्रमै-रनात्ययिकैश्चोपचरन्त्यौष-
धैःविशेषतश्चनारीस्ताह्यनवस्थितमृदुविकृतविकृवहृदयाःप्रायःसुकुमारानार्य्योऽबलाःपरम-संस्तभ्याश्च॥१०८॥
इसलिये इन सब कारणोंकी अपेक्षा करता हुआ वैद्य हीनबल रोगीको कष्ट न देनेचाली मृदु तथा सुकुमार औषवों द्वारा साधन करे। यदि प्रवल औषधीकी भी आवश्यकता हो तो उसको क्रमपूर्वक जैसे वह सहन करसके वैसे उपयोग करे। जिससे वह कोई उपद्रव न करसके विशेषतासे स्त्रियोंकी नर्म औषधीद्वारा चिकित्सा करनी चाहिये। क्योंकि उनका हृदय अस्थिर, नर्म, विवृत्त, विकल (डरपोक) होता है। प्रायः सुकुमार स्त्रियें निर्बल होती हैं और परकृत सांत्वनाकी अपेक्षा रखती हैं॥१०८॥
अल्पबल औषधकी व्यर्थता।
तथाबलवतिबलवद्व्याधिपरिगतेस्वल्पबलमौषधमपरीक्षकप्रयुक्तमसावकं भवतितस्मादातुरं-परीक्षेतप्रकृतितश्चविकृतितश्रसारतश्चसंहननतश्चप्रमाणतश्चसात्म्यतश्चसत्त्वतश्चाहारशक्तितश्च-व्यायामशक्तितश्चवयस्तश्चेति॥१०९॥
इसी प्रकार बलवान् व्याधिमें एवम् बलवान् रोगीको विना परीक्षा किये अल्पवल औषधीका प्रयोग हानिकारक होता है। इसलिये रोगीकी प्रकृतिसे, विकृतिसे, सारसे, शरीरसे सबप्रकार परीक्षा करे एवम् सात्म्य, सत्त्वं, आहारशक्ति, परिश्रम शक्ति और अवस्था इन सबकी परीक्षा करनी चाहिये॥१०९॥
बलप्रमाण ग्रहणके कारण।
बलप्रमाणविशेषग्रहणहेतोः तत्रामीप्रकृत्यादयोभावाः। तद्यथा–—शुक्रशोणितप्रकृतिंकाल-गर्भाशयप्रकृतिमातुराहारविहारप्रकृतिमहा–भूतविकारप्रकृतिञ्चगर्भशरीरमपेक्षते। एताहियेन-येनदोषेणाधिकतमेनैकेनाने कतमेनवासमनुबध्यन्ते तेन तेन दोषेणगर्भोऽनुबध्यते। ततःसासादोषप्रकृतिरुच्यते मनुष्याणांगर्भादिप्रवृत्ता।तस्माद्वातलाःप्रकृत्या केचित्पित्तलाः-केचिच्छ्लेष्मलाःकेचित्संसृष्टाः समधातवःप्रकृत्याकेचिद्भवन्ति। तेषांहिलक्षणानिव्याख्यास्यामः॥११०॥
बलका प्रमाण जाननेके लिये प्रकृति आदि भावोंकी इस प्रकार परीक्षा करे। जैसे शुक्र और शोणितकी प्रकृति कालप्रकृति, गर्भाशयकी प्रकृति, रोगीके आहार विहारकी प्रकृति, पंचमहाभूतोंके विकारकी प्रकृतिकी परीक्षा करे।यह सबप्रकृति गर्भशरीरकी अपेक्षा करती हैं। जैसे–पिताके शुक्र और माताके रुधिरमें गर्भाधानके समय जिस जिस दोषकी अधिकता होती है गर्भमें भी उन्हीं उन्हीं दोषोंकी अधिकता अर्थात् अनुबंध होताहै। इसीलिये गर्भसे ही लेकर अर्थात् जन्मकालसे ही किसी २ की वातप्रकृति, कीसीकी पित्तप्रकृति और किसीकी कफ प्रकृति, किसीकी मिली हुई प्रकृति एवम् किसी २ की समधातु प्रकृति होती है। उन सब वातादि प्रकृतिवाले मनुष्योंके लक्षणोंको कथन करते हैं॥११०॥
कफप्रकृति।
श्लेष्माहि स्निग्धलक्ष्णमृदुमधुरसारसान्द्रमंदस्तिमितगुरुशीतविजलाच्छः। अस्यस्नेहाच्छ्लेष्मलाः-स्निग्धाङ्गाः, श्लक्ष्णत्वाच्छक्ष्णाङ्गाः, मृदुत्वाद्दष्टिसुखसुकुमारावदातशरीराः माधुर्य्यात्प्रभूतशुक्र-व्यवायापत्याः, सारत्वात् सारसंहतस्थिरशशीराः, सान्द्रत्वादुपचितपरिपूर्णसर्वगात्राः, मन्दत्वान्मन्दचेष्टाहारविहाराः, स्तैमित्यादशीघ्रारम्भक्षोभविकाराः, गुरुत्वात्साराधिष्ठितगतयः-शैत्यादल्पक्षुत्तृष्णासन्तापस्वेददोषाः, विज्जलत्वात्सुश्लिष्टसारवन्धसन्धानाः तथाच्छत्वात्प्रसन्न-दर्शनाननाःप्रसन्नस्निग्धवर्णस्वराश्चभवन्ति। तएवंगुणयोगाच्छ्लेष्मलाबलवन्तोवसुमन्तो-विद्यावन्तओजस्विनःशान्ताआयुष्मन्तश्चभवन्ति॥१११॥
** **कफप्रकृति–कफ–चिकना, श्लक्षण, मधुर, मृदु, सार, सांद्र, मंद, स्तिमित, भारी, शतिल, पिच्छल और स्वच्छ गुणवाला होताहै। प्रकृति मनुष्यका शरीर कफके चिकने गुणसे चिकना होताहै, श्लक्ष्णसे गठनदार होता है, मृदु होनेसे नम्र होता है और सुन्दर तथा सुकुमार और खूबसूरत होताहै।सार होनेसे–संहत और स्थिर होताहै सांद्र होनेसे सर्वाग परिपूर्ण और पुष्ट होतेहैं। कफक मंद स्वाभावसे मंद चेष्टा और आहार विहार मंद होतेहैं। स्तैमित्य होनेसे–उद्योग, क्षोभ और विकार यह सब विलंबसे होते हैं। भारी होनेसे सारवान् और स्थिरगति होताहै। शैत्य होनेसे-
क्षुधा, तृषा, संताप, स्वेद और दोष यह अल्प होते हैं। पिच्छलगुण होनेसे–शरीरके सव बंधन दृढ होते हैं एवम् कफका स्वच्छ गुण होनेसे दर्शन, मुख यह प्रसन्न होतेहैं। और स्निग्ध होतेहैं। इस प्रकार इन गुणोंके वर्णकारण कफप्रकृति मनुष्य–बलवान्, विद्यावाला, ओजस्वी, शान्तस्वभाव तथा दीर्घायु होते हैं॥१११॥
पित्तप्रकृत्तिके लक्षण।
पित्तमुष्णंतीक्ष्णंद्रवंविस्रमम्लंकटुकञ्च।तस्यौष्ण्यात्पित्तला भवन्तिउष्णासहाःशुष्कसुकु-मारावदातगात्राः प्रभूतपिप्लव्यङ्गतिलकपिडकाःक्षत्पिपासावन्तःक्षिप्रवलीपलितखालित्यदोषाः। प्रायोमृद्वल्पकपिलश्मश्रलोमकेशाःतैक्ष्ण्यात्तीक्ष्णपराक्रमाःतीक्ष्णाग्नयःप्रभूताशनपानाःक्लेश-सहिष्णवोदन्दशूकाःद्रवत्वाच्छिथिलमृदुसन्धिबन्धमांसाःप्रभूतसृष्टस्वेदमूत्रपुरीषाश्चविस्त्रत्वात्। प्रभूतपूतिवक्षःकक्षस्कन्धास्यशिरःशरीरगन्धाः कट्वम्लत्वादल्पशुक्रव्यवायापत्याः।तएवंगुण-योगात्पित्तलामध्यबलामध्यायुषोमध्यज्ञानविज्ञानवित्तोपकरणवन्तश्चभवन्ति॥११२॥
पित्तप्रकृति—पित्तका स्वभाव गर्म, तीक्ष्ण, द्रव, विस्र, अम्ल और चरपरे गुणवाला होताहै।पित्तप्रकृति मनुष्य—पित्तके उष्णगुण होनेसे गर्मी सहन नहीं करसकता और उनका शरीर कोमल और स्वच्छ होता है। शरीरमें पिपलू झाई, तिल तथा खुजली आदि अधिक होतेहैं। क्षुधा, प्यास अधिक लगतीहै। शरीरमें सलवट पडना, वालोंका सफेद होजाना, सिरमें गंज होजाना यह सव छोटी ही अव्यवस्थामें होजातेहैं। डाढी, मूछ, रोम और केश प्रायः नरम, छोटे २ और भूरेरंगके होते, पित्तके तीक्ष्ण गुण होनेसे पित्तप्रकृति मनुष्य तीक्ष्ण ‘पराक्रमवाले’ तीक्ष्ण अग्निवाले अन्नजलको शीघ्र पचाजानेवाले या अधिक खानेवाले, क्लेश सहन करनेकी सामर्थ्यवाले तथा ददशक अर्थात् खानेके लोभी होतेहैं। पित्तके पतले स्वभाववाले होनेसे उनके संधि और मांस नरम तथा शिथिल होते हैं और, मल, मूत्र तथा पसीना अधिक आहे पित्तके विस्र अर्थात् दुर्गंधयुक्त होनेसे उनके वक्षस्थल, कांच, मुख, मस्तक और शरीरसे दुर्गंध आती हैं। पित्तके चरपरे गुणसे और अम्लताके कारण अल्पशुक्र और अल्प मैथुन एवम् अल्प संतान होती है। इसप्रकार इन गुणोंवाले होनेसे पित्तप्रकृति मनुष्म मध्य आयु तथा मध्यम बलवाले और ज्ञान, विज्ञान तथा धनसामग्रीवाले होते है॥११२॥
वातप्रकृतिके लक्षण।
वातस्तुरूक्षलघुचलबहुशीघ्रशीतपरुषविशदस्तस्यरौक्ष्याद्वातलारूक्षापचिताल्पशरीराःप्रतत-रूक्षक्षामभिन्नसक्तजर्जरस्वराजागरूकाञ्चभवन्तिलघुत्वाच्चघुचपलगतिचेष्टाहारविहाराः
चलत्वादनवस्थितसन्ध्यक्षिभ्रूहन्वोष्ठजिहाशिरःस्कन्धपाणिपादाःबहुत्वाद्बहुप्रलापकण्डराशिरा-प्रतानाःशीघ्रत्वाच्छ्रीघ्रसमारम्भक्षोभविकाराःशीघ्रोत्रासरागविरागाःश्रुतग्राहिणःअल्पस्मतयश्च-शैत्याच्छीतासहिष्णवःप्रततशीतकोद्वेपकस्तम्भाः पारुष्यात्परुषकेशष्मथुश्रुरोमनखदशनवदन-पाणिपादाङ्गावैशद्यात्स्फुटिताङ्गावयवाःसततसन्धिशब्दगामिनश्चभवन्ति। तएवं गुणयोगाद्वातलाः प्रायेणाल्पबलाश्चाल्पायुषश्चाल्पापत्याश्चाल्पसाधनाश्चाधन्याश्च॥११३॥
वातप्रकृति—वायुका स्वभाव रूक्ष, हलका, चल, बहुल, शीघ्र, शीत, परुष और विशद गुणवाला होताहै।वातप्रकृति मनुष्यका शरीर वायुके रूक्षगुण हानेसे रूखा गिराहुआसा औरं कृश होताहै। स्वर अत्यंत रूक्ष, तीक्ष्ण, सक्त भिन्न और जर्जरसा होताहै। निद्रा कम आतीहै। वायुका हलकागुण होनेसे उनकी गति, चेष्टा, आहार और व्यवहार लघु तथा चपल होते हैं।वायुके चलगुण होनेसे उनकी संधि, अस्थि, भौहं, ठोडी, होठ, जिह्वा, शिर, कंधे, हाथ, पांव यह अस्थिर अर्थात् ताकतवर नहीं होते तथा कभी भी फडकते हैं। वायुके बहुत्व गुण होनेसे बहुत बोलनेवाला होता है तथा पंडरा और नसोंके जालसे संपूर्ण शरीर व्याप्त होताहै। वायुकी शीघ्र गति होनेसे आरम्भ, क्षोभ, विकार यह चिंत्तमें शीघ्र उत्पन्न होते हैं एवम् त्रास, रोग, वैराग्य यह शीघ्र उत्पन्न होतेहैं।तथा शीघ्र श्रुतको शीघ्र ग्रहण करलेना और भूलजाना यह गुण होतेहैं।वायुके शीतगुण होनेसे शीतको सहन न करसके तथा उनके शरीरमें शीत, कम्प और जडता अधिक होतेहैं।वायुके परुष अर्थात् कठोरे गुण होनसे केश, श्मनु, रोम, नख, दांत, मुख, हाथ, पांव, अंग यह सब कठोर होतेहैं। तथा वायुके विशद गुणसे अंगावयव फटे हुए होतेहैं। एवम् नित्य संभियें मटका करतीहैं। यह सब गुण होनेसे वातप्रधान मनुष्य अल्पायु अल्पसंतानवाले और अल्पसाधनवाले तथा निर्धन होते हैं॥११३॥
संकीर्णप्रकृति।
संसर्गात्सृष्टलक्षणाःसर्वगुणसमुदितास्तुसमधातवः इत्येवंप्रकृतितः परीक्षेत॥११४॥
दो दोषोंके संसर्गसे दो दोषोंके मिले जुले लक्षण होतेहैं।संपूर्ण दोषोंके समान होनेसे मनुष्य समधातु अर्थात् सम प्रकृतिवाला कहा जाताहै। इसप्रकार पुरुषकी प्रकृतिकी परीक्षा करनी चाहिये॥११४॥
विकृतिपरीक्षा।
विकृतितश्चेति। विकृतिरुच्यते विकारः। तत्रविकारहेतुदोषदूष्यप्रकृतिदेशकालबलविशेषै-र्लिङ्गतश्चपरीक्षेत।नह्यन्तरेण हेत्वादीनांबलविशेषंव्याधिवलविशेषोपलब्धिः। यस्यहिव्याधेर्दूष्य दोषप्रकृतिदेशकालसाम्यंभवतिमहच्चहेतुलिङ्गबलंसव्याधिर्बलवान्तद्विपर्य्ययाच्चाबलः। मध्यबलस्तुदूप्यादीनामन्यतमसामान्याद्धेतुलिङ्गमध्यबलत्वाच्चउपलभ्यते॥११५॥
** **अबविकृतिकी परीक्षाको कथन करतेहैं। विकृति विकारको कहतेहैं सो विकारको हेतु, दूष्य, दोष, प्रकृति, देश और काल तथा बल इनसे एवम् लक्षणसे परीक्षा करे। क्योंकि हेतु आदिकोंके बल विशेषको विनाजाने व्याधिके बलविशेषकी उपलब्धि नहीं होसकती। इनमें जिस व्याधिके दूष्य, दोष, प्रकृति, देश और काल समान हों अर्थात् एकही स्वभाववाले हों तथा हेतु आदिकोंके लक्षण बलवान् हों तो उस व्याधिको बलवान् व्याधि जानना। इससे विपरति लक्षण होनेसे अल्पबल जानना।हेतु और दूष्य आदिकोंकी तुल्यता न होनेसे अन्य दोषोंकी किंचित् साम्यता होतेहुए भी हेतुओंके लक्षण, मध्यबल होनेसे व्याधिको मध्यवल जानना चाहिये॥११५॥
सारद्वारा परीक्षा।
सारतश्चेतिसाराण्यष्टौपुरुषाणांबलमानविशेषज्ञानार्थमुपदिश्यन्ते। तद्यथा—त्वग्रक्तमांस-मेदोऽस्थिमज्जाशुक्रसत्त्वानितत्रस्निग्धलक्ष्णमृदुप्रसन्नसूक्ष्माल्पगम्भीरसुकुमारलोमासप्रभाचत्व-कुसाराणाम्।सासारतासुखसौभाग्यैश्वर्योपभोगबुद्धिविद्यारोग्यप्रहर्षणान्यायुष्यत्वञ्चाचष्टे॥११६॥
अब सारसे परीक्षा कहतेहैं। मनुष्योंका सार आठ प्रकारका होताहै। पुरुषके बलविशेषको जाननेके लिये आठप्रकार के सारोंकी परीक्षा करें।वह इसप्रकार है। जैसे त्वचा, रक्त, मांस, मेद, अस्थि मज्जा, शुक्र और सत्व यह आठ प्रकारके सार हैं। इनमें त्वचासारवाले पुरुषकी त्वचा चिकनी, लक्ष्ण, मृदु, प्रसन्न, सूक्ष्म, किंचित् गंभीर, सुकुमार, रोम तथा कांतियुक्त होतीहै। इस सारताके होनेसे मनुष्य सुखी, सौभाग्ययुक्त ऐश्वर्य तथा भोग और बुद्धियुक्त होताहै।एवम् विद्वान्, निरोग, हर्षयुक्त और दीर्घायु होताहै॥११६॥
रक्तसार।
कर्णाक्षि–मुखजिह्वानासौष्ठपाणिपादतल–नख–ललाटमेहनानिस्निग्धरक्तानिश्रीमन्तिभ्राजिष्णू-निरक्तसाराणाम्। सासारतासुखमुदग्रतांमेधांमनस्वित्वंसौकुमार्य्यमनतिबलमक्लेश-सहिष्णुत्वञ्चाचष्टे॥११७॥
रक्तमें सारता होनेसे मनुष्योंके कान, नेत्र, मुख, जीभ, नाक, ओठ, हाथ, पांव, नख, मस्तक, लिंग ये सब चिकने और लालवर्णके होतेहैं तथा शोभा और कांतियुक्त होतेहैं। रक्त में सारता होनेसे मनुष्य सुख, उन्नति और मेधायुक्त तथा मनस्त्री, सुकुमार, साधारण बलवाला और क्लेशकें न सहनेवाला होताहै॥११७॥
मांससार।
शंख–ललाट–कुकाटिकाक्षिगण्ड हनुग्रीवास्कन्धोरःकक्षवक्षः पाणिपादसन्धयः स्थिरगुरुशुभ-मांसोपचितामांससाराणाम्। सासारताक्षमांधृतिमलौल्यंवित्तंविद्यांसुखमार्जवमारोग्यं-वलमायुश्चदीर्घमाचष्टे॥११८॥
मांसमें सारता होनेसे मनुष्योंके कनपटी, मस्तक, गर्दनका पिछलाभाग, नेत्र, कपोल, ठोडी, गर्दन, कंधे, छाती, वक्षस्थल, कांख, हाथ, पांव और संधियें दृढ, तथा मांसयुक्त पुष्ट होतीहैं। और मांससार होनेसे मनुष्य क्षमा, धृति, निर्लोभ, धन, विद्या, सुख, नम्रता, आरोग्यता और बल तथा दीर्घायुवाला होताहै॥११८॥
मेदः सार।
वर्णस्वरनेत्रकेशलोमनखदन्तौष्ठमूत्रपुरीषेषुविशेषतःस्नेहोमेदःसाराणाम्। सासारतावित्तैश्वर्य्य-सुखोपभोगप्रदानान्यार्जवंसुकुमारोपचारतामाचष्टे॥११९॥
मेदसार मनुष्योंके वर्ण, स्वर, नेत्र, केश, लोम, नख, दंत, होठ, मूत्र और मल ये सब विशेष चिकने होतेहैं और यह पुरुष थन, ऐश्वर्य, सुख, भोग, दातृभाववाला होताहै तथा सरलतायुक्त, सुकुमार और उपकरणयुक्त होताहै॥११९॥
अस्थिसार।
पार्ष्णिगुल्फजान्वरत्निजत्रुचिबकशिरःपर्वस्थूलाःस्थूलास्थिनखदन्ताश्चास्थिसारास्तेमहोत्साहाः-क्रियावन्तश्चक्लेशसहाःसारस्थिरशरीराभवन्तिआयुष्मन्तश्च॥१२०॥
अस्थिसार मनुष्योंके गुल्फ, जानु, अरत्नी (कलाई ) अंश, चिवुक, मस्तक और संपूर्ण, संघियें तथा अस्थि, नख और दांत यह सब स्थूल होतेहैं। वह मनुष्य महोत्साही क्रियावान्, क्लेश सहन करनेवाला, सारयुक्त तथा दृढ शरीवाला और दुर्घाियु होताहै॥१२०॥
मज्जासार।
तन्वङ्गाबलवन्तःस्निग्धवर्णस्वरास्थूलदीर्घवृत्तसन्धयश्चमज्जासारास्तेदीर्घायुषोबलवन्तः॥१२१॥
मज्जासार मनुष्य पतली देहवाले, बलवान् चिकनेवर्ण और स्वरवाले होतेहैं। इनकी संपूर्ण संधियें दृढ, स्थूल, लम्बी और गोल होती हैं। यह मनुष्य दीर्घायु और बलवान् होतेहैं॥१२१॥
शुक्रसार।
श्रुतविज्ञानवित्तापत्यसम्मानभाजश्चसौम्याःसौम्यप्रेक्षिणश्चक्षीरपुर्णलोचनाइवप्रहर्षबहुलाःस्निग्ध-वृत्तसारसमसंहतशिखरिदशनाःप्रसन्नस्निग्धवर्णस्वराभ्राजिष्णवोमहास्फिजश्चशुक्रसाराः-तेस्त्रीप्रियाःप्रियोपभोगाबलवन्तः॥१२२॥
शुक्रसार मनुष्य शास्त्र, ज्ञान, धन, संतानयुक्त और सन्मानके योग्य होताहै। तथा सौम्य, सुन्दरस्वरूप, दूधकीसी कांतिवाला, पूर्ण और प्रसन्न नेत्रोंवाला होताहै। चिकने शरीरवाला, धनयुक्त, सुन्दर, सुडौल, शरीर, तथा खूबसूरत दंतपंक्तीवाला होताहै। एवम् स्वर, वर्ण, उत्तम, चिकने होताहै तथा यह कांतिवान् और बड़े नितम्बोंवाला अधिक वीर्ययुक्त स्त्रियका प्यारा, कामी तथा बलवान् होताहै॥१२२॥
सत्त्वसार।
सुखैश्वर्य्यारोग्यवित्तसम्मानापत्यभाजःस्मृतिमन्तोभक्तिम-
न्तः कृतज्ञाःप्राज्ञाःशुचयोमहोत्साहादक्षाधीराःसमरविक्रान्तयोधिनःत्यक्तविषादाःसुव्यवस्थिता-गम्भीरबुद्धिचेतसःकल्याणाभिनिवेशिनश्चसत्त्वसाराः॥१२३॥
सत्त्वसार मनुष्य सुख, ऐश्वर्य, आरोग्यता, वित्त, सन्मान और संतानवाला होताहै तथा स्मृतिवान्, भक्तिवान्, कृतज्ञ, बुद्धिमान् शुद्ध, महोत्साही, चतुर और धीर होतेहैं। एवम् युद्ध के समय पराक्रमके सार्थ युद्ध करनेवाले, विषादरहित, स्थिरस्वभाव, गंभीरबुद्धि और गंभीरचित्त तथा कल्याणकी इच्छावाले होतेहैं॥१२३॥
तेषांखलक्षणैरेवगुणाव्याख्याताः॥१२४॥
इसप्रकार लक्षणों सहित त्वक्, सार आदि आठ प्रकारके सारवाले पुरुषोंके लक्षण और गुणोंका वर्णन कर दिया गयाहै॥१२४॥
सर्वसार।
तत्रसर्वैःसारैरुपेताःपुरुषाभवन्त्यतिबलाःपरंगौरवयुक्ताःक्लेशसहाःसर्वारंभेष्वात्मनिजातप्रत्ययाः कल्याणाभिनिवेशिनः स्थिरसमाहितशरीराःसुसमाहितगतयःसानुनादस्निग्धगम्भीरमहास्वराः-सुखैश्वर्य्यवित्तोपभोगसम्मानभाजोमन्दजरसोमन्दविकाराःप्रायस्तुल्यगुणविस्तीर्णापत्याःचिर-जीविनश्च॥१२५॥
जो मनुष्य इन संपूर्ण सारोंसे युक्त होते हैं वह अत्यन्त बलवान् गौरवयुक्त, क्लेश सहन करनेकी सामर्थ्यवाले, संपूर्ण कामको अपने आप करनेकी इच्छावाले, कल्याण करनेकी इच्छावाले, स्थिर और दृढशरीरवाले सुसमाहित गतिवाले, अनुनादसहित स्निग्ध, गंभीर और महास्वरवाले, सुख, ऐश्वर्य, वित्त, उपभोगवाले, सम्मान पात्र और उनको बुढापा शीघ्र नहीं आता, विकार शीघ्र उत्पन्न नहीं होते, उनकी संतान उन्हीं के समान गुणवाली, वंशके विस्तार करनेवाली और चिरंजीवी होती है॥१२५॥
अतोविपरीतास्त्वसाराः॥१२६॥
इससे विपरीत गुणोंवाले मनुष्य असार अर्थात् सारहीन होतेहैं॥१२६॥
मध्यानांमध्यैःसारविशेषैर्गुणविशेषाव्याख्याताः। इतिसाराण्यष्टौपुरुषाणांबलप्रमाणविशेष-ज्ञानार्थानि॥१२७॥
मध्यमसार मनुष्य के शरीरमें संपूर्ण लक्षण मध्यम होते हैं। इस प्रकार मनुष्योंकेबल, प्रमाण, विशेषके ज्ञानके लिये आठ प्रकारके सारोंका वर्णन कियागया॥१२७॥
कथंनुशरीरमात्रदर्शनादेवभिषक्मुह्येदयमुपचितत्वाद्बलवानयमल्पबलःकृशत्वान्महाबलवानयं-महाशरीरत्वादयमल्पशरीरत्वादल्पबलइति। दृश्यन्तेह्यल्पशरीराःकृशाश्चैकेबलवन्तःतत्र-पिपीलिकाभारहरणवत्सिद्धिः। अतश्चसारतःपरीक्षेतइत्युक्तम्॥१२८॥
वैद्य रोगीके शरीरमात्रकोही देखकर मोहित न होजाय। जैसे—हृष्टपुष्ट शरीरकों देखकर यह बलवान् है।कृश शरीरको देखकर यह दुर्बल है। बडे शरीरको देखकर बडा शरीर होनेसे बलवान् समझ लेना, छोटा शरीर देखकर निर्बल समझ लेना इत्यादि मोहको न प्राप्त होजाय । क्योंकि छोटे शरीवाले और कृश शरीरवाले भी बहुतसे वलवान् देखनेमें आतेहैं । जैसे—पिपीलिका (चींटी विशेष) बहुत छोटी और कृश शरीर होते हुए भी अपनेसे अधिक भारको उठालेती है। इसी प्रकार सारवान् मनुष्य भी जानना। इसलिये सारद्वारा मनुष्यकी परीक्षा करनी चाहिये। यह वर्णन कियागया है॥१२८॥
समुदायद्वारा परीक्षा।
संहननतश्चेतिसंहननंसंघातःसंयोजनमित्येकोऽर्थः॥१२९॥
वैद्यको चाहिये कि शरीरकी संहनतासे भी परीक्षा करे।संहनन–संघातक और संयोजन इन तीनों शब्दोंका एक ही अर्थ है।यह शब्द शरीरके संगठन के वाचक हैं॥१२९॥
तत्रसमसुविभक्तास्थिसुबद्धसन्धिसुनिविष्टमांसशोणितंसुसंहतंशरीरमित्युच्यते। तत्रसुसंहत-शरीराः पुरुषाबलवन्तोविपर्य्ययेणाल्पबलाःप्रवरावरमध्यत्वात् संहननस्यमध्यबलाभवन्ति॥१३०॥
जिसके शरीर में हड्डियें सब बराबर और सुविभक्त और संधियोंमें भले प्रकार सुबन्ध हो और मांस तथा रुधिर शरीरमें सुडौल और उचित रीतिपर पूरित हो उस शरीरको सुसंगत कहते हैं। वह सुसंगत शरीवाले पुरुष बलवान् होते हैं। इससे विपरीत गुणवाले दुर्बल होते हैं। मध्यम लक्षणवाले मध्य बल होते हैं॥१३०॥
प्रमाणसे परीक्षा।
प्रमाणतश्चेतिशरीरप्रमाणंपुनर्यथास्वेनांगुलिप्रमाणेनोपदेक्ष्यते। उत्सेधविस्तारायामैर्यथाक्रमम्॥१३१॥
शरीरके प्रमाणके अनुसार भी परीक्षा करनी चाहिये। प्रत्येक मनुष्यका प्रमाण उसकी अंगुलियों द्वारा प्रमाण कियाजाता है। अर्थात् प्रत्येक मनुष्यकी लंबाई, चौडाई और ऊंचाईको उसकी अंगुलियों द्वारा प्रमाणित जानना। उसको यथाक्रम वर्णन करते हैं॥१३१॥
तत्रपादौचत्वारिषट्चतुर्दशचाङ्गुलानि, जंघेत्वष्टादशांगुलेषोडशांगुलिपरिक्षेपे, जानुनीचतुरंगुले-षोडशांगुलिपरिक्षेपे, त्रिंशदंगुलपरिक्षेपावष्टादशांगुलावूरू, वृषणौषडंगुलदीर्घावष्टांगुलपरिणाहौ, शेफःषडंगुलदीर्घंपञ्चांगुलपरिणाहं, द्वादशांगुलपरिणाहोभगः, षोडशांगुलविस्ताराकटी, दशांगुलंबस्तिशिरः, दशांगुलविस्तारंद्वादशांगुलमुदरं, दशांगुलविस्तीर्णेद्वादशांगुलायामेपार्श्वे-द्वादशांगुलविस्तारंस्तनान्तरंद्व्यंगुलंस्तनपर्य्यन्तं, चतुर्विंशत्यंगुलविशालंद्वादशांगुलोत्सेधमुरः-द्व्यंगुलंहृदयम्, अष्टांगुलौस्कन्धौ, षडंगुलावंसौ, षोडशांगुलौबाहू, पञ्चदशांगुलौपाणी, हस्तौ-द्वादशांगुलौ, कक्षावष्टांगुलौ, त्रिकं द्वादशांगुलोत्सेधम्, अष्टादशांगुलोत्सेधंपृष्ठं, चतुरंगुलोत्सेधा द्वाविंशत्यंगुलपरिणाहाशिरोधरा, द्वादशांगुलोत्सेधंचतुर्विंशत्यंगुलपरिणाहमाननं, पञ्चांगुलमास्यं, चिबुकौष्ठकर्णाक्षिमध्यनासिकाललाटानि, चतुरंगुलानि, षोडशांगुलोत्सेधंद्वात्रिंशदंगुलपरिणाहं-शिरइतिपृथक्त्वेनाङ्कावयवानांमानमुक्तंकेवलं पुनःशरीरमंगुलिपर्वाणिचतुरशीतिस्तदायाम-विस्तारसमंसमुच्यते॥१३२॥
पैरोंकी–ऊंचाई चार अंगुल, चौडाई छः अंगुल और लंबाई चौदह अंगुल होतीहै घुटनेसे नीचे–टागों (पिंडलियों) की लंबाई–अठारह अंगुल और घेर सोलह अंगुल होता है। जानुकी लंबाई–चार अंगुल और वेष्टन सोलह अंगुल होता है। जानुसे ऊपर उरूस्थल अर्थात् मोटी जांघकी लंबाई तीस अंगुल, और घेर अट्ठारह अंगुल होताहै। वृषण अर्थात् फोतके नसोंकी लंबाई छः अंगुल और वेष्टन आठ अंगुलका होताहै। शिश्न इन्द्रियकी लंबाई छः अंगुल और वेष्टन पांच अंगुलका होताहै।
भगकी गहराई–बारह अंगुल होतीहै। कमर सोलह अंगुल चौडी होतीहै। मूत्रवस्ती दश अंगुलके विस्तारवाली होतीहै उदरका बारह अंगुल विस्तार है। दोनों पार्श्वोका दशदश अंगुल विस्तार, और बारह बारहअंगुल लंबाई है दोनों स्तनोंका बारह अंगुलका अंतर और दोदो अंगुलकी सीमा होती है। छाती–चौवीस अंगुल चौडी और वारह अंगुल लम्बी होती है। हृदय–दो अंगुल कंधे–आठ २ अंगुल।दोनों अंश–छः अंगुल होते हैं। सोलह अंगुल बाहोंका ऊपरका भाग। पंद्रह अंगुल कोहनीसे नीचेका भाग। दश अंगुल हाथ और आठ अंगुल कांख होतीहै। त्रिकस्थान–बारह अंगुल ऊंचा।पृष्ठस्थान–आठ अंगुल ऊंचा।गर्दन चार अंगुल ऊंची और बारह अंगुल घेरमें होती है। बारह अंगुल ऊंचा और चौबीस अंगुलमें चेहरा होताहै। पांच अंगुलका मुख। चिबुक ओष्ठ, दोनों कान दोनों नेत्र, नाक और मस्तक चार २ अंगुल विस्तार में होते हैं। शिरका लंबाव सोलह अंगुल और घेर बत्तीस अंगुल होताहै। इस प्रकार शरीरके पृथक् २ अवयवोंका परिमाण वर्णन किया गयाहै। संपूर्ण शरीरकी उंचाई चौरासी अंगुल होतीहै।शरीरकी उंचाई और धेर प्रायः बराबर होताहै यह लक्षण समान्यतासे कथन किया गयाहै॥१३२॥
तत्रायुर्बलमोजःसुखमैश्वर्य्यंवित्तमिष्टाश्चापरेभावाभवन्त्यायत्ताः प्रमाणवतिशरीरेविपर्य्ययस्तु-हीनेऽधिकेवा॥१३३॥
जो शरीर प्रमाणयुक्त यथार्थ होता है उस शरीरवाले मनुष्यकी, आयु, बल, ओज,सुख, ऐश्वर्य, वित्त और अन्य भी संपूर्ण भाव स्वाधीन होते हैं। हीन वा अधिक होनेसे विपरीत होते हैं॥१३३॥
सात्म्यद्वारा परीक्षा।
सात्म्यतश्चेति। सात्म्यंनामतद्यत्सातत्येनोपयुज्यमानमुपशेतेतत्रयेघृतक्षीरतैलमांसरससात्म्याः सर्वरससात्म्याश्चतेबलवन्तःक्लेशसहाश्चिरजीविनश्चभवन्ति। रूक्षनित्याः पुनरेकरससात्म्याश्चयेते प्रायेणाल्पबलाश्चाक्लेशसहाअल्पायुषोऽल्पसाधनाश्च भवन्ति॥१३४॥
मनुष्योंके सात्म्यकी भी परीक्षा करनी चाहिये। जो पदार्थ निरन्तर सेवन किया जानेपरभी शरीरके अनुकूल अर्थात् हितकारी प्रतीति हो उसको सात्म्य कहते है। जिन मनुष्योंको–घृत, दूध, तैल, मांसरस तथा मधुर आदि संपूर्ण रस सात्म्य होते वह मनुष्य बलवान् और क्लेश सहन करनेमें समर्थ तथा दीर्घजीवी होतेहैं। जो
मनुष्य निरन्तर रुक्ष पदार्थोंको सेवन करते हैं तथा जिनको एक रस ही सात्म्य है वह मनुष्य प्रायः अल्पबलवाले क्लेश सहन करनेमें असमर्थ, अल्पायु और अल्पसाधनवाले होते हैं॥१३४॥
व्यामिश्रसात्म्यास्तुयेतेमध्यबलाःसात्म्यनिमित्ततः॥१३५॥
जिन मनुष्योंको मिले जुले रस सात्म्य हों और पृथक् २ सात्म्य न हों अथवा उपरोक्त दोनों प्रकारके मनुष्यके कुछ २ लक्षण मिलते हों। वह मनुष्य मध्यबल सात्म्यके निमित्तसे मध्यमबलवाले होतेहैं॥१३५॥
सत्त्वसे परीक्षा।
सत्त्वतश्चेति। सत्त्वमुच्यतेमनस्तच्छरीरस्यतन्त्रकमात्मयोगात्तत्त्रिविधंबलभेदेनप्रवरंमध्यम-वरमिति। अतश्चप्रवरमध्यावरसत्त्वाश्चपुरुषाभवन्ति। तत्रप्रवरसत्त्वाः सत्त्वसाराःसारेषु-उपदिष्टाःस्वल्पशरीराह्यपि ते निजागन्तुनिमित्तासुमहतीष्वपि पीडास्वव्यग्रादृश्यन्तेसत्त्वगुण-वैशेष्यात्॥१३६॥
मनुष्यके सत्वकी भी परीक्षा करनी चाहिये। सत्वनाम मनका है। वह मन आत्माके संयोग से शरीरका तंत्रक है। अर्थात् शरीरको पालन पोषण आदि करनेवला होताहै। वह बलके भेदसे उत्तम मध्यम और कनिष्ठ इन तीन प्रकारका होताहै इसीलिये मनुष्य उत्तम सत्त्व, मध्यमसत्त्व और अधमसत्त्व होतेहैं उनमें उत्तमसत्त्व पुरुष सत्वसारोंमें कथन कर चुकेंहैं। वह उत्तमसारमनुष्य अल्प शरीर होनेपरभी निज और आगन्तुक महाकष्ट उपस्थित होनेपर भी व्यग्रचित्त नहीं होते क्योंकि इनमें सत्त्वगुणकी विशेषता होती है॥१३६॥
मध्यसत्त्वादिपुरुष।
मध्यसत्त्वास्तुपरानात्मन्युपनिधायसंस्तम्भयन्त्यात्मनात्मानं परैर्वापिसंस्तभ्यन्तेहीनसत्त्बास्तु-नात्मनानचपरैःसत्त्वबलंशक्यन्ते उपस्तम्भयितुंमहाशरीराह्यपिते स्वल्पानामपिवेदनानामसहा-दृश्यन्ते। सन्निहितभयशोकलोभमोहमाना रौद्रभैरवद्विष्टबीभत्सविकृतसंकथास्वपिचपशुपुरुष-मांसशोणितानिचावेक्ष्य विषादवैवर्ण्यमूर्च्छान्मादश्रमप्रपतनानामन्यतममाप्नुवन्त्यथवा-मरणमिति॥१३७॥
मध्यमसत्त्ववाले मनुष्य—अन्य मनुष्योको कष्ट सहते देखकर स्वयं भी उनके सहारेसे अथवा दूसरोकी सहायतासे या दूसरोंके धैर्य देने आदिपर किसी प्रकार कष्ट सहन कर सकते हैं। हीनसय पुरुष–न तो स्वयं कष्ट सहन करसकते हैं और न दूसरेकी सहायता देनेपर भी धैर्य धारण करते हैं। यह मनुष्य बडे भारी शरीवाले अल्पकष्टको सहन नहीं कर सकते। और सदैव इनके चित्तमें भय, शोक, लोभ, मोह स्थित रहते हैं। एवम् लडाई व्यथवा डरावनी बात एवं भयानक बात और द्वेषकारक बातोंको सुनकर तथा पशु, पुरुषांदिकोंके मांस रक्त आदि देखकर ही विषाद, विवर्णता, मूर्च्छता, उन्माद, गिरजाना अथवा अन्य किसी प्रकारका विकार होना या मृत्युतकको प्राप्त होना ऐसे उपद्रव होते हैं॥१३७॥
भोजनशक्तिद्वारा परीक्षा।
आहारशक्तितश्चेति। आहारशक्तिरभ्यवहरणशक्तयाजरणशक्त्याचपरीक्ष्यबलायुषी-ह्याहारायत्ते॥१३८॥
मनुष्यकी आहारशक्ति भी परीक्षा करनी चाहिये। भोजन करनेकी शक्ति से, आहारके परिमाणसे, आहारकी परिपाक शक्तिसे आहार शक्तिकी परीक्षा की जाती है। मनुष्योंका बल और आयु आहारके ही आधीन है॥१३८॥
व्यायामशक्तिद्वारा परीक्षा।
व्यायामशक्तितश्चेति। व्यायामशक्तिमपिकर्मशक्त्यापरीक्ष्याकर्मशक्त्यायनुमीयतेबलं त्रिविधम्॥१३९॥
व्यायाम शक्तिद्वारा भी परीक्षा करनी चाहिये। कर्मशक्तिसे व्यायाम शक्तिकी परीक्षा हो सकती है। कर्मशक्तिसे ही मनुष्य के उत्तम मध्यम और हीनबलकी परीक्षा कीजासकती है॥१३९॥
अवस्थासे परीक्षा।
वयस्तश्चेति। कालप्रमाणविशेषापेक्षिणीहिशरीरावस्थावयोऽभिधीयते। तद्वयोयथावस्थान-भेदेनत्रिविधंबालंमध्यंजीर्णमिति॥१४०॥
वय अर्थात् अवस्था विशेषकी भी परीक्षा करनी चाहिये। कालप्रमाणकी अपेक्षा करनेवाली जो शरीरकी अवस्था है उसको वय कहते हैं। वह वय स्थूल भेदसे बाल, मध्य और जीर्ण अर्थात् बाल्यावस्था, तरुणावस्था और वृद्धावस्था इन तीन भेदों वाली होती है॥१४०॥
बाल आदि अवस्था।
तत्रबालमपरिपक्कधातुगुणमजातव्यञ्जनंसुकुमारमक्लेशसहमसम्पूर्णबलं श्लेष्मधातुप्रायमा-षोडशवर्षम्। विवर्द्धमानधातुगुणंपुनःप्रायेणानवस्थितसत्त्वमात्रिंशद्वर्षमुपदिष्टम्। मध्यंपुनः
समर्थागतबलवीर्य्यपौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणवचनविज्ञानसर्वधातुगुणं बलस्थितमवस्थितसत्त्वमविशीर्य्यमाणधातुगुणं पित्तधातुप्रायमाषष्टिवर्षमुद्दिष्टम्। अतःपरं परिहीयमाणधात्विन्द्रियबलपौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणवचनविज्ञानंश्यमानधातुगुणंवातधातुप्रायंक्रमेणप्रजीर्णमुच्यते आवर्षशतम्॥१४१॥
उनमें बाल्यावस्था में सव धातु विना पकी होतीहैं और मोछ, दाढी, आदि धातुओंके गुण प्रगट नहीं होते। शरीर सुकुमार, कष्ट सहनेक अयोग्य असंपूर्ण बल और कफ प्रधान होता है।सोलह वर्ष पर्यन्त बाल्यावस्था होतीहैं।सोलह वर्षसे तीसवर्ष पर्यन्त संपूर्ण धातुओंके बल और गुण बढ़ते हैं और मन प्रायः अनवस्थित होताहै ( इस अवस्थाको युवावस्था तथा किसीके मतमें बाल, वृद्धि संपूर्णता और हानि यह चार अवस्थाहैं)।तीसवर्षके उपरान्त साठवर्षकी अवस्थातक मध्यअवस्था होतीहै। इस अवस्थामें बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, ग्रहणशक्ति, धारणा, स्मणरशक्ति, वचनशक्ति और विज्ञान परिपूर्ण होते हैं तथा संपूर्ण धातुओंके गुण भी पूर्णतायुक्त होतेहैं। यह अवस्था पित्तप्रधान होतीहै। इसके उपरान्त मनुष्यकी धातु, इन्द्रिय बल, पुरुषार्थ, पराक्रम, ग्रहणशक्ति, स्मणरशक्ति, वंचनशक्ति और विज्ञानशक्ति घटनेलगजाती है। संपूर्ण धातुयें अपने गुणोंसे भ्रश्यमान होजाती हैं। इस अवस्थाकों वृद्धावस्था कहते हैं। इसमें वायुकी प्रधानता होती है। साठसे सौवर्षतक वृद्धावस्था कहीजातीहै॥१४१॥
वयःक्रमसे औषधप्रयोग।
वर्षशतंखल्वायुषःप्रमाणमस्मिन्काले। सन्तिपुनरधिकोनवर्षशतजीविनोमनुष्याः। तेषां-विकृतिवज्यैःप्रकृत्यादिबलविशेषरायुषोलक्षणतश्चप्रमाणमुपलभ्यवयसस्त्रित्वंविभजेत। एवं-प्रकृत्यादीनांविकृतिवर्ज्यानांभावानां प्रवरमध्यावरविभागेनब-
लविशेषंविभजेत्। विकृतिबलत्रैविध्येनतु दोषवलंत्रिविधमनुमीयते। ततोभैषज्यस्यतीक्ष्णमृदु-मध्यविभागेनत्रित्वंविभज्ययश्रादोषंभैषज्यमवचारयेदिति॥१४२॥
आयुका प्रमाण इस कालमें मायः सौवर्षका होताहै।किन्तु बहुतसे मनुष्य सत्त्वादि गुणविशेषसे और पुण्यशाली होनेसे सौवर्ष से अधिक भी जीतेहैं। परन्तु आयुका प्रमाण सौवर्ष से अधिक नहीं है। मनुष्यके जीवनकी विकृतिको त्यागकर प्रकृति आदिके बल विशेषसे और आयुके लक्षणोंसे आयुके प्रमाणको जानकर अवस्था के तीन भेद करनेचाहिये। इसीप्रकार विकृतिको त्यागकर प्रकृत्यादिक भावोंका उत्तम, मध्यम और अधम विभाग करनेसे तीन प्रकारका बलविशेष जानना चाहिये। विकृतिके तीन प्रकारके बलसे दोषोंके बलका तीन प्रकारका अनुमान कियाजाताहै। इसीप्रकार इन सबका विचार करनेके अनन्तर औषधीको तीक्ष्ण, मध्यम और मृदु विभागकर बलवान् दोषमें तीक्ष्ण औषधी, मध्यम दोष में मध्य औषधी और थोडे दोषमें मृदु औषधीका उपयोग करनाचाहिये॥१४२॥
आयुषःप्रमाणज्ञानहेतोःपुनरिन्द्रियेषुजातिसूत्रीयेचलक्षणान्युपदेश्यन्ते॥१४३॥
आयुका प्रमाण जानने के लिये, इन्द्रिय स्थानके जातिसूत्रीयाध्यायमे लक्षणोंको कथन करेंगे॥१४३॥
कालभेद।
कालःपुनःसंवत्सरश्चातुरावस्थाच। तत्रसंवत्सरोद्विधात्रिधा षोढाद्वादशधाभयश्चातः प्रविभज्यते तत्तत्कार्य्यमभिसमीक्ष्य॥१४४॥
काल, सम्वत्सर और आतुरकी अवस्थाको कहतेहैं। इनमें सम्वत्सर काल अयन विभागसे दो प्रकारका और सर्दी, गर्मी, वार्षा इन भेदोंसे तीन प्रकारका ऋतुभेदसे छः प्रकारका महीनोंके विभागसे बारह भागोंमें विभक्त होताहै। इसके उपरान्त कार्यविभागसे और भी विभागोमें विभक्त होता जाताहै॥१४४॥
षड्ऋतुविभाग।
तत्रखलुतावत्षोढाप्रविभज्यकार्य्यमुपदेक्ष्यते। हेमन्तोग्रीष्मो वर्षाश्चेतिशीतोष्णवर्षलक्षणास्त्रयः- ऋतवोभवन्ति। तेषामन्तरेष्वितरेसाधारणलक्षणास्त्रयःऋतवः प्रावृशरद्वसन्ताइति।
प्रावृइतिप्रथमःप्रवृष्टेःकालस्तस्यानुबन्धोवर्षाएवमेतेसंशोधनमधिकृत्यषड्विभज्यन्तेऋतवः॥१४५॥
उस सम्वत्सर कालके छः विभागकर कार्योको कथन करतेहैं।उन छः ऋतुओंमें हमन्त, ग्रीष्म और वर्षा यह तीन सर्दी, गर्मी और वर्षात इन तीन लक्षणोंवाली तीन ऋतुयें होती हैं। इनके अन्तरमें प्रावृद्ध, शरद और वसन्त यह तीन ऋतुयें साधारण लक्षणोंवाली होती हैं। प्रावृद्ध ऋतु ग्रीष्म और वर्षाऋतुके साधारण लक्षणवाली होती है। शरदऋतु वर्षा और सर्दीके साधारण लक्षणवाली होतीहै। वसन्तऋतु–सर्दी और गर्मीके लक्षणवाली होती है। संशोधन क्रिया करनेके लिये उन छः ऋतुओंके विधानका कथन कियाहै॥१४५॥
तत्रसाधारणलक्षणेष्वृषुवमनादीनांप्रवृत्तिर्विधीयतेनिवृत्तिरितरेषु। साधारणलक्षणाहिमन्द-शीतोष्णवर्षत्वात्सुखतमाश्चभवन्त्यविकल्पकाश्चशरीरौषधानामितरेपुनरत्यर्थशीतोष्णवर्षत्वाद्दुःखतमाञ्चभवंतिविकल्पाश्चशरीरौषधानाम्॥१४६॥
** **इन छः ऋतुओंमें साधारण लक्षणोंवाली तीन ऋतुओंमें वमनादि संशोधन किय करनी चाहिये। साधारणसे विपरीत तीन ऋतुओं वमनादि नहीं करने चाहिये साधारण लक्षणोंवाली ऋतुयें–अल्प शीतगुणवाली, अल्प गर्मीवाली और अल्पवर्षागुणवाली होनेसे सुखदायी होती हैं। इन प्रावृट् और शरद तथा वसन्त ऋतुमें औषधियें सब कार्य सिद्ध करनेवाली होती हैंतथा शरीर भी शोधनके योग्य होते हैं। इनसे विपरीत ऋतुओंमें अधिक सर्दी, अधिक गर्मी और अधिक वर्षा होनेसे ये ऋतुयें दुःखदायक होती हैं। उस समय शरीरसंशोधन करनेके योग्य नहीं होते और औषधियें अपना यथोचित कार्य नहीं कर सकतीं॥१४६॥
शीतमें संशोधननिषेध।
तत्रहेमन्तेह्यतिमात्रशीतोपहतत्वाच्छरीरमसुखोपपन्नंभवति।अतिशीतवाताध्मातमतिदारुणी-भूतमवनद्धदोषम्। भेषजं पुनः संशोधनार्थमुष्णस्वभावमन्तेशीतोपहतत्वान्मन्द-वीर्य्यत्वमापद्यते। तस्मात्तयोः संयोगेसंशोधनमयोगायोपपद्यतेशरीरञ्चवातोपद्रवाय॥१४७॥
हेमन्त ऋतुमें–शीतके अत्यन्त पडनेसै शरीरको दुःख प्राप्त होता है। शीतलपवनके लगनसे शरीर अत्यन्त रूक्ष होजाता है रोम मार्गके संकुचित होजानेसे पसीना
नहीं आता और दोषअत्यन्त बंधी हुआ होता है। उस समय उष्ण स्वभाववाली संशोधन औषधी दी जानेपर शीतसे उपहत होकर मंदवीर्य होजातीहै। इसलिये उससमय शरीर और औषधीका संयोग होनेसे संशोधनका प्रयोग होजाताहै और शरीरमें वायुके उपद्रव होनेलगजाते हैं॥१४७॥
ग्रीष्ममें निषेध।
ग्रीष्मेपुनर्भृशोष्णोपहतत्वाच्छरीरमसुखोपपन्नंभवति। उष्णवातातपाध्मातमतिशिथिलमत्यन्त-प्रविलीनदोषभेषजंपुनःसंशोधनार्थमुष्णस्वभाव मेवात्युष्णानुगमनातक्षिणतरत्वमापद्यते। तस्मात्तयोःसंयोगेसंशोधनमतियोगायोपपद्यतेशरीरमपिपिपासोपद्रवाय॥१४८॥
ग्रीष्मऋतुमें अत्यन्त गर्मीके पढनेसे शरीर दुःखित होजाताहै। गर्म वायुके लगनेसे शरीर शिथिल होजाताहै। दोष सत्र विलीन होजातेहैं। उस समय संशोधन कर्त्ता औषधी उष्णवीर्य होनेसे गर्मीकी सहायता पाकर और भी अधिक तीक्ष्ण होजाती है। उस समय दोषोंके अत्यन्त नर्म होनेसे और औषधका तीक्ष्ण स्वभाव होजानेसे तथा शरीरके मृदु होनसे संशोधनका अतियोग होजाता है। शरीरमें भी पिपासा आदि उपद्रव उत्पन्न होजातेहैं॥१४८॥
वर्षामें निषेध।
वर्षासुतुमेघजालावततेगूढार्कचन्द्रतारेधाराकुलेवियतिभूमौपङ्कजलपटलसंवृतायामत्यर्थोप-क्लिनशरीरेषुभूतेषुविहतस्वभावेषुचकेवलेष्वौषधग्रामेषुतोयदानुगतमारुतसंसर्गोपहतेषुगुरुप्रवृत्तीनिवमनादीनिभवन्ति।गुरुसमुत्थानानिशरीराणि।तस्माद्वमनादीनांनिवृत्तिर्विधीयते-वर्षान्तेषुऋतुपुनचेदात्ययिकेकर्म॥१४९॥
वर्षाऋतुमें आकाश मेघजालसे सदैव आच्छादित रहताहै, सूर्य, चन्द्रमा, तारागण मेघोंसे ढके रहते हैं। पृथ्वी कीचड और जलसे संवृत होती है, उस समय मनुष्योंके शरीर अत्यन्त आर्द्रता युक्त होते हैं तथा औषधियोंके स्वभाव विहत होजातेहैं तथा वर्षा के जल और वायुसे उपहत स्वभाव होजाती है उससमय वमनादिक कर्मके करनेसे उनकी अधिक प्रवृत्ति होती है। इस लिये वर्षाऋतु में किसी अत्यावश्यकताकें विना वमन आदि कर्म नहीं करने चाहिये॥१४९॥
आत्ययिकेपुनःकर्म्मणिकाममृतुविकल्प्यकृत्रिमगुणोपधानेनयथर्त्तुगुणविपरीतेनभैषज्यंसंयोगसंस्कारप्रमाणविकल्पेनोपपाद्यप्रमाणवीर्य्यसमंकृत्वाततःप्रयोजयेदुत्तमेनयत्नेनावहितः॥१५०॥
यदि ऐसी ऋतुओंमें शोधन करानेकी किसीप्रकार आवश्यकता पडजाय तो युक्तिपूर्वक उस ऋतुके गुणोंके विपरीत भाव उत्पन्नकर संयोग, संस्कार और प्रमाण विकल्पसे औषध कल्पनाकर सब भावोंको समान बना सावधानीसे औषध प्रयोग करनाचाहिये॥१५०॥
कार्यकालनिर्णय।
आतुरावस्थास्वपितुकार्य्याकार्य्यंप्रतिकालाकालसंज्ञातद्यथा अस्यामवस्थायामस्यभेषजस्य-कालोऽकालःपुनरस्येति॥१५१॥
रोगीकी अवस्थामेंभी कार्य, अकार्य, काल और अकालकी संज्ञा जाननी चाहिये जैसे इस अवस्थामें इस औषधका समय है अथवा नहीं है॥१५१॥
एतदपिभवत्यवस्थाविशेषेणतस्मादातुरावस्थास्वपिहिकालाकालसंज्ञातस्यपरीक्षामुहुर्मुहुरातु-रस्यसर्वावस्थाविशेषावेक्षणंयथावत्भेषजप्रयोगार्थम्। नातिपतितकालमप्राप्तकालंवाभेषजमुप-युज्यमानंयौगिकंभवति। कालोहिभैषज्यप्रयोगपर्य्याप्तिमभिनिर्वर्त्तयति॥१५२॥
इसप्रकार विचारपूर्वक कार्य करना अथवा न करना चाहिये इस प्रकारकी परीक्षा रोगीके अवस्था विशेपसे होतीहै। इसलिये रोगीकी अवस्थामें भी समय और असमयकी संज्ञा होती है उसकी परीक्षा बारम्बार रोगीकी संपूर्ण अवस्थाविशेषकी अपेक्षा करतीहै। जैसे औषधप्रयोग के लिये भी अवस्थाविशेष विचारनेकी आवश्य कता पडतीहै। जिस समय औषधका काल न हो अर्थात् औषध देनेका समय व्यतीत होचुकाहो और उस औषधी के लिये दूसरा समय कुसमय हो या औषध देनेका समय न आया हो तो औषधका प्रयोग नहीं करना चाहिये। ठीक समयपर औषधका प्रयोग करनाही उत्तम योग कहाजाताहै। काल ही औषधक योगकी परिपूर्णता करताहै॥१५२॥
प्रवृत्ति।
प्रवृत्तिस्तुप्रतिकर्म्मसमारंभः। तस्यलक्षणंभिषगातुरौषधपरिचारकाणांक्रियासमायोगः॥१५३॥
प्रवृत्ति प्रत्येक कर्मके समारंभको कहतेहै। वैद्य, रोगी, औपथ और परिचारक इनको क्रियाका समायोग होना प्रवृत्तिका लक्षण है॥१५३॥
उपाय।
उपायः पुनर्भिषगादीनांसौष्ठवमभिसन्धानञ्चसम्यक्।तस्वलक्षणंभिषगादीनांयथोक्तगुणसंपद्देश-कालप्रमाणसात्म्यक्रियादिभिश्चसिद्धिकारणैःसम्यगुपपादितस्यौषधस्यावचारणमिति। एवमेते-दशपरीक्ष्यविशेषाः पृथक्पृथकूपरीक्षितव्याभवन्ति। परीक्षायास्तुखलुप्रयोजनंप्रतिपत्तिज्ञानम्॥१५४॥
वैद्यादिकोंका चिकित्साके उद्देश्यसे अनुकूल रीतिपर उपस्थित होना उपाय कहाजाताहै। वैद्य आदिक चिकित्सा के चारों पादोंका यथोचित गुणसम्पन्न होकर देश, काल, प्रमाण, सात्म्य और क्रिया सिद्धि आदि कारणोंसे उत्तम रीतिपर औषधका आचरण करना उपायका लक्षण होताहै। इन दश प्रकारके लक्षणोकी परीक्षा करनेका अयोजन प्रतिपत्तिज्ञान है॥१५४॥
प्रतिपत्ति।
प्रतिपत्तिर्नामसयस्तुविकारःयथाप्रतिपत्तव्यस्तस्यतथानुष्ठानज्ञानम्॥१५५॥
जो विकार जिस प्रकार जिस स्थान में प्राप्त हो उसका उसी प्रकार ठीक समझकर यत्न करनेके लिये प्रवृत्त होना प्रतिपत्ति कहाजाताहै॥१५५॥
यत्रतुखलुवमनादीनांप्रवृत्तिर्यत्रचनिवृत्तिस्तद्व्यासतः सिद्धिपूत्तरकालमुपदेक्ष्यते। प्रवृत्तिनिवृत्ति-लक्षणसंयोगतुखलगुरुलाघवंसंप्रधार्य्यसम्पगध्यवस्थेदन्यतरनिष्टायाम्। सन्तिहिव्याधयः शास्त्रेषूत्सर्गापवादैरुपक्रमंप्रतिनिर्दिष्टाः।तस्माद्गुरुलाघवसम्प्रधार्य्यसम्यगध्यवस्येदित्युक्तम्॥१५६॥
जिस जिस स्थानमें वमन विरेचनका प्रयोग करना चाहिये और जिस स्थानमें नहीं करनाचाहिये उन सबका वर्णन सिद्धिस्थानमे कथन करेंगे। वमन विरेचनादिकोंकी प्रवृत्ति ( प्रयोग करना ) और निवृत्ति ( प्रयोग न करने ) के लक्षणके विषयमें गुरु और लाववको विचारकर जिस जगह जिसकी आवश्यकता हो अर्थात् जिस स्थानमें कराने हों और जिसमें न कराने हों या उनमें से केवल वमन
ही या केवल विरेचन ही कराना हो और उनके करानेमें लाभ है या हानि है उनको भले प्रकार विचार लेना चाहिये। क्योंकि शास्त्रमें व्याधियोंकी सामान्य चिकित्सा और विशेष चिकित्सा इन दोनों प्रकारका वर्णन कियागया है। इसलिये उनके गुरु और लाघवको विचारकर और भले प्रकार निश्चय करके तब उनमें प्रवृत्त होना चाहिये॥१५६॥
वमनद्रव्य।
यानितखलुवमनादिषुभेषजद्रव्याण्युपयोगंगच्छन्तितान्यनुव्याख्यास्यन्ते। तद्यथा—फलजीमूत-केक्ष्वाकुधामार्गवकुटजकाण्डिकाकृतवेधनफलानि।जीमूतकेक्ष्वाकुकुटजकृतवेधनपत्रपुष्पाणि।आरग्वषवृक्षकमदनस्वादुकण्टक पाठापाटलाशार्ङ्गष्ठामूर्वासप्तपर्णनक्तमाल-पिचुमर्दपटोल-सुबवी–गुडूचीसोनवल्कचित्रकद्वीपिशिशुमूलकषायैश्च। मधुमधूककोविदारकर्बुदारनीपनिचुल-विम्बीशणपुष्पीसदापुष्पीप्रत्यकुपुष्पीकपायैश्चेलाहरेणुप्रियङ्ग–पृथ्वीका–कुस्तुम्बुरुतगरनल-दहीवेरतालीशोषीरकषायैश्च। इक्षुकाण्डेक्ष्विक्षुबालिकादर्भपोटगलकालङ्कृतकषायैश्च। सुमनाः सौमनसायिनीहरिद्रादारुहरिद्रावृश्वीरपुनर्नवामहासहाक्षद्रसहाकषायैश्चशाल्मलिशाल्मक-भद्रपयेलापर्ण्युपोदिकोद्दालकधन्वनराजादनोपचित्रागोपशृिङ्गाटिकाकपिकच्छुकषायैश्च। पिप्पलीपिप्पलीसूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरसर्षपफाणितक्षीरक्षारलवणोदकैश्चयथोपलासंयथेष्टंवाप्युप-संस्कृत्यवर्तिक्रियाचूर्णवलेहस्नेहकषायमांसरसयवागूयूषकाल्बालिकक्षीरोपधेयान्मोदकानन्यांश्चयोगान्विविधानसुविधाययथार्हवमनार्हायदद्याद्विधिवद्वमनमितिकल्पसंग्रहोवमनद्रव्याणां-कल्पस्त्वेषांविस्तरेणोत्तरकालमुपदेक्ष्यते॥१५७॥
जो औषध द्रव्य वमन आदिकोंमें उपयोग किये जाते हैं उनका वर्णन करते हैं। जैसे–मैनफल, देवदाली, कडवीघीआ, कडवी तोरी, इन्द्रयव, काण्डिका, कृतवेधनतोरी इनके फल बमनकारक होतेहैं।देवदालीके पत्र, फूल। कडवी घीआके पत्र,
फूल।कुडाके पत्र, फूल।कडवी तोरीके पत्र, फूल वमनकारक होते हैं।अमलतास, कुडाकी छाल, मैनफल, स्वादुकण्टक, पाठा, पाढ, घुंघुंची (रक्तक ) मुरबा, तप्तपर्ण, करंज, नीम, पटोलपत्र, सुखवि, गिलोय इनके क्वाथ, सोमनलकल, चित्रक, एरंड, सतावर, सहांजनेकी जड, मुलठ्ठी, महुआ, कचनार, सफेद कचनार, कदंव, निचुल, तंदूरी, शणष्पुष्पी, आक, अपामार्ग इन सबके क्वाथ वमनके उपयोगमें आते हैं। बडी इलायची, रेणुका, प्रियंगु, छोटी इलायची, कुस्तुम्बरी, जटामांसी, नेत्रवाला, तालीसपत्र और खस इनके क्वाथ भी वमनके उपयोगमें आते हैं। ईख, तालमखाना, रामसर, कुशा, कास, कसौंदी इन सबका रस और क्वाथ वमनमें उपयोग किया जाता है। जायफल, जावित्री, हल्दी, दारुहल्दी, दोनों पुनर्नवा, मापपर्णी, मुग्धपर्णी इनका क्वाय वमनमें उपयोग कियेजाते है। सेमल, रोहीतृण, प्रसारणी, रासना, उद्दालक, धान्य, ढामणवृक्ष, खिरनी, मूसाकर्णी, सारिखा, अतीस, कौंच इनका कल्क अथवा क्वाथ वमनमें उपयोग कियाजाता है। पिप्पली, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, अदरख, सर्सों, फाणित, दूध, क्षार और लवणयुक्त जल। इनमेसे जिस समय जो मिलसके और जिसप्रकार प्रयोग करनेसे हितकर होसके उस प्रकार इनका उपयोग करे। इनमें कोई बर्तिबनाकर उपयोग करने में काम आते हैं। कोई चूर्ण, कोई अवलेह, कोई स्नेह, कोई क्वाथ कोई मांस रसमें, कोई यवागूम, कोई यूपमें, कांबलिक, तथा क्षीरके संयोगसे काम में आतेंहे कोई संवनेके पदार्थ में कोई मोदकमें, कोई अन्य उपयोगी द्रव्य के संयोगसे वमनसंबंधी कार्योंमें प्रयोग की जाती हैं। इनमेंसे जो औषधी जिस समय जिसप्रकार जिस वमन योग्य मनुष्यको देना हो उसको विधिपूर्वक प्रयोग करे।यह वमनोपयोगी द्रव्योंका कल्प संग्रह किया गया है इसको विस्तार पूर्वक कल्पस्थानमें कथन करेंगे॥१५७॥
विरेचके द्रव्य।
विरेचनद्रव्याणितुश्यामात्रिवृच्चतुरंगुलतिल्वकमहावृक्षसप्तलाशंखिनीदन्तीद्रवन्तीनांक्षीरमूल-त्वक्पत्रपुष्पफलानियथायोगमेतैश्चैवक्षीरमूलत्वक्पत्रफलपुष्पफलैर्विकृताविक्लृतैरगन्धाश्वगन्ध-जगृङ्गीक्षीरिणीनीलिनीक्लीतककषायैश्चप्रकीर्य्योदकीर्य्यामसूरविदलाकम्पिल्लकविडङ्गगवाक्षी-कषायैश्चपीलुप्रियालमृद्वीकाकामर्थ्यपरूषकवदरदाडिमामलकहरीतकीविभीतकवृश्चीरपुनर्नवा-विदारिगन्धादिकषायैश्चशीधुसुरासौवीरकतुषोदकमैरैयमेदकमदिरामधुमधूलकधान्याम्लकुवलबदर-
खर्जूरकर्कन्धुभिश्चदधिदधिमण्डोदश्विद्भिश्चगोमहिष्यजावीनाञ्चक्षीरमूत्रैर्यथोपलासंयथेष्टंवाप्युप-संस्कृत्यवर्त्तिक्रियाचूर्णावलेहनेहकषायमांसरसयूषकाम्बलिकयवागूक्षीरोपधेयान्मोदकानन्यांश्च-भक्ष्यविकारान्विविधांश्चयोगानभिविधाययथार्हंविरेचनार्हायदद्याद्विरेचनमितिकल्पसंग्रहोविरेचन-द्रव्याणां कल्पस्त्वेषांविस्तरेणोपदेक्ष्यतेउत्तरकालम्॥१५८॥
अब विरेचनोपयोगी औषधद्रव्योंको कथन करते हैं। जैसे—श्यामा, निशोथ, अमलतास, लोध्र, थोहर, सातला, शंखिनी, दंती, द्रवंती, इनके दूध, जड, छाल, पत्र, पुष्प, फल, जैसे जिस स्थानमें उचितहों विरेचनके लिये उपयोग किये जातेहैं। तथा– अजवायन, असगंध, मेडासिंगी, दूधली, नीलनी, मुलहठी, इनके क्वाथ विरेचनोपयोगी होतेहैं। पृतीकरंज, करंज, मसूर, अनारका छिलका, कमीला, विडंग, इन्द्रायन इनके क्वाथ विरेचनोंके योग्य होते हैं।पीलू, चिरौंजी, किसमिस, कंभारी, फालसा, बेर, अनार, आम्ले, हरड, बहेडा, दोनों पुनर्नवा, विदारीगंधा इनके कषाय विरेचनोके योग्य होते हैं। सीधू, सुरा, सौवीरक, तुषोदक, मैरेय, मेदक, मदिरा, मधु, मधूलक, धान्याम्ल, पेवन्दी बेर, छोटा बेर, खजूर, जंगलीवेर, दही, दधिमण्ड, घोल यह सब विरेचन के उपयोगी होते हैं। गौ, भैंस, बकरी और भेडका दूध तथा मूत्र विरेचनोपयोगी होता है। इनमेंसे जिस समय जो मिल सके और जिसमकार जिस स्थानमें जैसे उपयोग करना उचित हो उस प्रकार इनको बत्ती बनाकर अथवा चूर्ण या अवलेह, स्नेह, क्वाथ, मांसरस, यूष, तांबलिक, यवागू, दूध, नर्य, मोदक आदिमें तथा अन्य द्रव्यके उपयोगसे जैसे उपयोग करना उचित हो उसप्रकार योग बनाकर उचित रीतिसे विरेचन योग्य मनुष्यको देवे। यह विरेचनद्रव्योंके कल्पका संग्रह कथन कियागया और विस्तारपूर्वक इनका वर्णन कल्पस्थानमें करेंगे॥१५८॥
आस्थापनका वर्णन।
आस्थापनेषुतुभूयिष्ठकल्पानिस्युर्द्रव्याणिनामतोविस्तरेणोपदिश्यमानान्यपरिसंख्येयानि-स्युरतिहत्वात्। इष्टवानतिसंक्षेपविस्तरोपदेशस्तन्त्रे इष्टञ्चकेवलंज्ञानंतस्माद्रसतएवतान्यनु-व्याख्यास्यन्ते॥१५९॥
आस्थापन द्रव्योंके अनेक नाम होते हैं। उन संपूर्ण द्रव्य नामको विस्तारसे वर्णन करें तो वह बहुत होनेसे असंख्य हो जातेहैं। और शास्त्र में अत्यन्त विस्तारसे और
अतिसंक्षेपसे कथन करना इष्ट नहीं है केवल उन संपूर्ण द्रव्योका ज्ञान होना इष्ट है। इसलिये उनके ज्ञानको रसके अनुसार वर्णन करतेहैं॥१५९॥
रसानुसार आस्थापन।
रससंसर्गविकल्पविस्तारोह्येषामपरिसंख्येयःसमवेतानांरसानामंशांशबलविकल्पाति-बहुत्वात्तस्माद्द्रव्याणाञ्चैकदेशसुदाहरणार्थरसेष्वनुविभज्यरसैकैकदेशेनचनामलक्षणार्थञ्च-षडास्थापनस्कन्धारसतोऽनुविभज्यव्याख्यास्यन्ते। यत्तुषड्विधमास्थापनमाचक्षतेभिषजस्त-दुर्लभतरंसंसृष्टरसभूयिष्ठत्वाद्द्रव्याणाम्। तस्मान्मधुराणिमधुरप्रायाणिमधुरप्रभावाणिमधुर-प्रभावप्रायाण्यपिचमधुरस्कन्धेमधुराण्येवकृत्वोपदेक्ष्यन्तेतथेतराणिद्रव्याण्यपि॥तद्यथा—जीवकर्षभकौ जीवन्तीवीरातामलकीकाकोलीक्षीरकाकोलीमुद्गपर्णीमाषपर्णीशालपर्णीपृश्नि-पर्ण्यसनपर्णीमेदामहामेदाकर्कटशृङ्गीशृङ्गाटिकाछिन्नरुहाच्छनातिच्छत्राश्रावणमहाश्रावणी-अलम्बुपासहदेवाविश्वदेवाशुक्लाक्षीरशुक्लाबलातिबलाविदारी, क्षीरविदारी, क्षुद्रसहामहासहा-ऋप्यगन्धाश्वगन्धापयस्यावृश्चीरपुनर्नवावृहतीकण्टकारिकैरण्डमोरश्वदंष्ट्रासंहर्षाशतावरीशतपुष्पा-मधूकपुष्पीयष्टिमधुमधूलिकामृद्वीकाखर्जूरपरूषकात्मगुप्तापुष्करबीजकशेरुकाराजकशेरुका-कालङ्कृतककाश्मर्य्यशीतपाक्योदनपाकीतालखर्जूरमस्तकेक्ष्चिक्षुवालिकादर्भकुशकाश-शालिगुन्द्रोत्कटकशरमूलराजक्षवकर्ण्य प्रोक्ताद्वारदाभारद्वाजीवनत्रपुष्यभीरुपत्रीहंसपदी-काकनासाकुलिंगाक्षीक्षीरवल्लीकपोतवल्लीगोपवल्लीमधुवलीसोमवल्लीति। एषामेवं-विधानामन्येपाञ्चमधुरवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणांछेद्यानिखण्डशश्छेदयित्वाभेद्यानिचाणु-शोभेदयित्वाप्रक्षाल्यपानीयेनसुप्रक्षालितायांस्थाल्यांसमवाप्यपयसाअर्द्धदकेनाभ्याषिच्यसाध-
येद्दर्व्यासततमुपघट्टयन्तदुपयुक्तंभूयिष्ठेऽम्भसिगतरसेष्वौषधेषुपयसिचानुपदग्धेस्थालीमुहत्यपरि-स्रुतंपयःसुखोष्णंघृततैलवसामज्जालवणफाणितोपहितंबस्तिंवातविकारिणेविधिज्ञो विधि-वद्दाद्यात्। शीतन्तुमधुसर्पिर्भ्यामुपसंसृज्यपित्तविकारिणेदद्यादितिमधुरस्कन्धः॥१६०॥
रसोंके संसर्ग और विकल्पसे अलग अलग वर्णन करें तो रस असंख्य होजाते हैं क्योंकि मिलेहुए रसोंके अंशांश बल और विकल्प बहुत होतेहैं। इसलिये एकदेशी उदाहरणके लिये संपूर्ण द्रव्यांको छः रसोंमें विभागकर रसके एक २ देशसे नाम और लक्षणोंको वर्णन करनेके लिये रसके छः आस्थापनरकन्धोंको विभागपूर्वक वर्णन करते हैं। जो छः प्रकारका आस्थापन कथन कियाहै। वैद्यलोग उसको यथोचित रीतिपर नहीं जान सकते क्योंकि बहुतसे द्रव्य ऐसे हैं जिनमें कई एक रसोंका संसर्ग पायाजाताहै। इसलिये मधुर और मधुर प्रायः तथा मधुरप्रभाव एवम् मधुरमभाव प्रायः द्रव्य मधुर मान करके मधुर स्कंधमें कथन कियेजातेहैं। उसी प्रकार और द्रव्योंको भी जानना। अब मधुर स्कन्धका वर्णन करतेहैं। जैसे जीवक, ऋषभक, जीवन्ती, शतावर, भूईआमला, काकोली, क्षीरकाकोली, मापपर्णी, सुग्धपर्णी, शालिपर्णी, पृष्णपर्णी, सणपर्णी, मेदा, मेहामदा, काकडासिंगी, सिंघाडा, गिलोय, धनियां, वडीधनियां, मुण्डी, महामुण्डी, सहदेवी, विश्वदेवा, मिश्री, खरहटी अतिबला, विदासकंद, वाराहीकंद, क्षुद्रसहा, महासहा, विधायरा, दोनों प्रकारकी पुनर्नवा, अश्वगंधा, दोनों कटेली, लाल और सफेद एरंड, गोखरू, बंदा, शतावरी, सौंफ, सोय, मुलहठी, गेहूं, किसमिस, छोहारा, फालसा, कौंचके बीज, कमलगट्टेकसेरू, राजकसेरू, कालंकत, काश्मरीफल, शीतपाकी, नीले रंगकी कठसरैया, ताल खजूर, खजूर, ईख, इक्षुवालिका, दर्भ, कुशा, कांस, शालिचावल, गुंद्रपटेर, सर्पता, सरमूल, सरसों गंगेरन, पालक, वनकपास, खीरा, महाशतावरी, हंसपदी, काकजंघा, कुलिंगा, क्षीरविदारी, कपोतवल्ली, सारिवा, मधुवल्ली, सोमलता और भी अन्यान्य मधुवर्गमें कहेहुए द्रव्योंको लेकर पहिले शुद्धजलसे धोडाले फिर टुकडे करके वारीक कूट दूध में मिलाकर किसी पात्र में डाल अग्निपर पकावे तथा मंद मंद आंचसे पकाताजावे।जब देखे कि औषधियोंका रस दूधमें आगया है तो उस दूधको उतारकर मुखोष्ण होनेपर उस दूधमें घी, तेल, चर्वी, मज्जा, लवण, फाणित इनमें से सब अर्थवा जो उचित हो वह मिलाकर बस्तिकर्मको जाननेवाला वैद्य वात विकारवाले मनुष्यको बस्तिकर्म करे। यदि पित्तविकारवालेको बस्तिकर्म करना हो तो शीतल होनेपर शहद
और घृत मिलाकर वस्तिकर्म करे। वस्तिकमके लिये उपरोक्त संपूर्ण द्रव्योंको एकही समय एकत्रित करने की आवश्यकता नहीं उनमेंसे जिस समय जिसको वैद्य जिसप्रकार उपयोग करना चाहे वैसे–उचित रीतिपर करे।इतिमधुरस्कंधः॥१६०॥
अम्लस्कन्ध।
आम्राम्रातकलकुचकरमर्दवृक्षाम्लाम्लवेतसकुवलबदरदाडिसमातुलुङ्गकण्डीरामलकनन्दी-तकलालतिकाशीतदन्तशठैरावतककोषाम्रधन्वनानां फलानि पत्राणिचाइमन्तकचाङ्गेरीणां-चतुर्विधानांचाम्लिकानांद्रयोःकोलयोर्द्वयोश्चामशुष्कयोर्द्वेयोश्चशुष्काम्लिकयोग्राभ्यारण्ययोश्चासव-द्रव्याणिचसुरासौवीरतुषोदकमैरेयमेदकमदिरामधुशीधुशक्तिदधिदधिमण्डोदश्विद्धान्याम्लादी-न्येषामेवंविधानाञ्चान्येषाञ्चालवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणांछेद्यानिखण्डशच्छेदयित्वा-भेद्यानिचाणुशोभेदयित्वाद्रवैःस्थितान्यवसिच्यसाधयित्वोपसंस्कृत्ययथावतैलवसामधुमज्जालवण-फाणितोपहितंसुखोष्णंबस्तिवातविकारिणेविधिवद्दद्यादित्यम्लस्कंधः॥१६१॥
** **अब अम्लस्कंघका कथन करते है। जैसे–आम, आंबाडा, बडहर, करौंदा, अम्लवेत, अम्लवेद, दोनों प्रकारके बेर, अनार, विजौरा, कण्डीर, आमले, नन्दीतक, इमली, शीतक, जंभीरी नींबू, संतरा, कोशाम, धन्वन इनके फल और पत्र तथा असमंतक, चांगेरी, चार प्रकारके अमली, दो प्रकारके जामुन, तथा सूखी हुई अमली एवम् ग्रामके और जंगलके सब आसव द्रव्य, सुरा, सौवीर, तुपोदक, मैरेय, मेदक, मदिरा, मधुसीधू, सुक्तीमधू, दही, दहीका मंड, दहीका तोड, काजी अथवा अन्य अम्लवर्गमें कहे हुए द्रव्योके टुकडेकर कूटकर, साफजलसे धो, किसी उचित पतले पदार्थमें सिद्ध कर छान लेवे। फिर उसमें तेल, वसा, शहद, मज्जा और फाणित मिलाकर वातवाले मनुष्य के विधिपूर्वक आस्थापन वस्ति करे।इति अम्लस्कंधः॥१६१॥
लवण स्कन्ध।
सैन्धवसौवर्च्चलकालविडपाक्यानृपकूप्यबालकैलमूलकसामुद्ररोसकौद्भिदौषरपाटेयकपांशजा-नीतिएवंप्रकाराणिचान्यानि
लवणवर्गपरिसंख्यातानिएतानिअम्लोपहितानिउष्णोदकोपहितानिवास्नेहवन्तिसुखोष्णंबस्ति-वातविकारिणेविधिज्ञोविधिवद्दद्यादितिलवणस्कन्धः॥१६२॥
अब लवणस्कंधको कहते हैं। जैसे—सेंधानमक, संचरनमक, कालनमक, विडनमक, तथा पाक्य, आनूप, कूप्य, बालक, एलमूलक, सामुद्र, रोमक, उद्भिद, औषर, पाटेयक, पांसुज यह सब प्रकारके लवण तथा अन्य लवण वर्गोक्त द्रव्य, कांजी अथवा गर्मजलमें मिलाकर घृत, तैलादि चिकनाईके संयोगसे सुखोष्ण बस्तिकी वेधिको जाननेवाला वैद्य विधिपूर्वक वातविकारी मनुष्यको देनी चाहिये॥ इति लवणस्कंधः॥१६२॥
कटुकस्कन्ध।
पिप्पलीपिप्पलीमूलहस्तिपिप्पलीचव्यचित्रकशृङ्गबेरमरिचाजमोदार्द्रकविडङ्गकुस्तुम्बुरुपीलु-तेजोवत्येलाकुष्ठभल्लातकास्थिहिंगुकिलिममूलकसर्षप–लशुन–करञ्जशिग्रुकमधुराशियुक-खरपुष्पाभूस्तृणसुमखसुरस–कुठेरक–काण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफणिज्जकक्षारमूत्र-पित्तानामेषामेवंविधानाञ्चान्येषांकटुकवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणांछेद्यानिखण्डशश्छेद-यित्त्वाभेद्यानिचाणुशोभेदयित्वागोमूत्रेणसहसाधयित्वोपसंस्कृत्ययथावन्मधुतैललवणोपहितं-सुखोष्णंबस्तिंश्लेष्मविकारिणेविधिज्ञोविधिवद्दद्यात्, इतिकटुकस्कन्धः॥१६३॥
अब कटुस्कंधको कहतेहैं पीपल, पिपलामूल, गजपीपल, चव्य, चित्ता, सोंठ, मिर्च, अजमोद, बायविडंग, नैपालीधनियां, अखरोट, तेजबल, इलायची, कूठ, भेलावेकी गुठली, हींग, देवदार, मूली, सरसों, लहसुन, करंज, सोहांजना, मीठा सोहांजना, वनतुलसी, गंधवण, सुमुखतुलसी, सुरस, कुठेरक, काण्डीर, कालमालक, पर्णास, क्षवक यह सब तुलसीकी जातियें, और मरुआ, क्षार, मूत्र, पित्त एवम् अन्य कटुवर्गमें कहे द्रव्य लेकर छोटे २ टुकडेकर शुद्धजलसे धो बारीक करलेवे।फिर गोमूत्रमें पकाकर शुद्धवस्त्रद्वारा छान लेवे। सुखोषण रहनेपर मधु, तेल और लवण मिलाकर कफविकारी मनुष्यके आस्थापन बस्ति करे। इति कटु ( चरपरा ) स्कंधः॥१६३॥
तिक्तस्कन्ध।
चन्दननलदकृतमालनक्तमालनिम्बतुम्बुरुकुटजहरिद्रादारूहरिद्रामुस्तमूर्वाकिराततिक्तककटु-रोहिणीत्रायमाणाकरवीरकेवुककटिल्लकवृषमण्डूकपर्णीककर्टोकवार्त्ताकुकर्कशकाकमाची-कारवेल्लकाकोदुम्बरिकासुषव्यतिविषापटोलकुणकपाठागुडूचीवेत्राप्रवेतसविकंकतवकुलसोम-वल्कसप्तपर्णसुमनोऽर्कावल्गुजवचातगरागुरुवालकोशीराणाम्॥ एषामेवंविधानाञ्चान्येषां तिक्तवर्गपरिसंख्याताना मौषधद्रव्याणांछेद्यानिखण्डशश्छेदयित्वाभेद्यानिचाणुशोभेदयित्वा-प्रक्षाल्यपानीयेनाभ्यासिच्यसाधयित्वोपसंस्कृत्ययथावन्मधुतैललवणोपहितंसुखोष्णंबस्तिश्लेष्म-विकारिणेविधिज्ञोविधिवदद्यात्। शीतन्तुमधुसर्पिर्धामुपसंस्कृत्यपित्तविकारिणेदयादितितिक्त-स्कन्धः॥१६४॥
अब तिक्तस्कंथको कहतेहैं चंदन, खस, अमलतास, करंजुवा, नीम, नैपालीधनियां, कुडा, हल्दी, दारुहल्दी, नागरमोथे, मुर्वा, चिरायता, कुटकी, त्रायमाण, कनेर, केवुक, करैला, अडूसा, मण्डूकपर्णी, ककौडा, बैंगन, कमीला, मकौह, छोटा करैला, कडूमर, कालाजीरां, अतीस, पटोलपत्र, परवल, पाढ, गिलोय, वेतकी कोपल, वेतस मजनू, विकंकत, मौलसरी, सफेदकत्था, सतवन, धतूरा, आक, बावची, वच, तगर अगर, नेत्रवाला और खस, तथा तिक्तवर्गमें कहेहुए सब द्रव्योंको जलसे धोकर तथा कूटछानकर जलमे पकावे। फिर छानकर जब सुखोष्ण रहे तो सेधानमक और शहद मिलाकर कफरोगीको आस्थापन बस्ति करना चाहिये। यदि पित्तरोगीको आस्थापनवस्ति करना हो तो शीतल होनेपर शहद और घृत मिला आस्थापनबस्ति करे॥ इतितिक्तस्कंधः॥१६४॥
केषोयस्वन्ध।
प्रियङ्वनन्ताम्रास्थ्यम्बष्ठकीकट्वङ्गलोध्रमोचरससमङ्गाधातकीपुष्पपद्मापद्मकेशरजम्ब्वाम्रप्लक्ष-वटकपीतनोदुम्बराश्वत्थल्लातकाश्मन्तकाशिरीषशिंशपासोमवल्कतिन्दुकपियालबदरखदिर-सप्तपर्णाश्वकर्णस्यन्दवार्जुनासनारिमेदैलवालुकपरिपे-
लवकदम्बशल्लकीजिङ्गिनीकाशकशेरुकाराजकशेरुकाकट्फलवंशपद्मकाशोकशालधवसर्ज-भूर्जशणपुष्पीशमीमाचीकवरकतुङ्गाजकर्णाश्वकर्णस्फुर्जकबिभीतककुम्भीकपुष्करबीजविस-मृणाल–तालखर्जूरतरुणीनामेषामेवंविधानाञ्चान्येषांकषायवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणां-छेद्यानिखण्डशश्छेदयित्वाभेद्यानिचाणुशोभेदयित्वाप्रक्षात्यपानीयेनसहसाधयित्वोपसंस्कृत्य-यथावन्मधुतैललवणोपहितंसुखोष्णंबस्तिश्लेष्मविकारिणेदयादिति। शीतन्तुमधुसर्पिर्भ्यामुप-संस्कृत्यपित्तविकारिणेदद्यादितिकषायस्कन्धः॥१६५॥
अब कषायस्कंधको कथन करते हैं प्रियंगु, शारिवा, आमकी गुठली, पाटला, टाटमढंगा, लोध्र, मोचरस, मंजीठ, धावेके फूल, कमलकी केशर, भारङ्गी, जामुन, आमकी छाल, पाखर, कपीतन, गूलर, पीपल, भेलावेकी वृक्षकी छाल, अश्मंतक, सिरस, सीसम, सफेदकत्था, तेंदु चिरौंजी और बेर इन सब वृक्षोंकी छाल इसीप्रकार खदिर, सतवन, तिनस, स्यंदन अर्जुन, विजयसार, अरिमेद, एलवाडु, केवटीमोथा, कदंब, शल्लकी, जींगन, कांस, कसेरू, राजकसेरू, कायफल, वांस, पद्माख, अशोक, शाल, धावी, भोजपत्र, खरपुष्प, जण्डीवृक्ष, माचिका, उन्नाव, अजकर्ण, अश्वकर्ण, स्फूरजत, बहेडा, कुम्भीक, कमलगट्टे, बिस (कमलकी जड ) मृणाल, तालखजूर, ढिकवार, इन सबको अथवा अन्य कषायवर्गमें कहेहुए औषधद्रव्योंको कूट छानकर पानीसे धोकर पानीमें थोडासा पकाकर और वस्त्रसे छानकर इसमें शहद और घृत मिला पित्तज रोगीको आस्थापनबस्ति देवे। इसि कषायस्कन्धः॥१६५॥
तत्र श्लोकाः।
षड्वर्गाः परिसंख्यातायएतेरसभेदतः। आस्थापनमभिप्रेत्यतान्विद्यात्सार्वयौगिकान्॥१६६॥ सर्वतोहिप्रणिहिताःसर्वरोगेषुजानता। सर्वान्रोगान्नियच्छन्तियेभ्यआस्थापनं हितम्॥१६७॥
यहां पर श्लोक हैं रस भेदसे जो उपरोक्त छः वर्गोंका कथन कियाहै। यह आस्थापनबस्तिकर्ममें सब प्रकार हितकारी होतेहैं। यदि आस्थापनबस्तिके क्रमको
जाननेवाला वैद्य जिनके लिये आस्थापनवस्ति हितकारी हो इन सार्वयोगिक द्रव्योंद्वारा बस्तिकर्म करनेसे रोगियोंके संपूर्ण रोगोको नाश करदेताहै॥१६६॥१६७॥
येषांयेषांप्रशान्त्यर्थंयेयेनपरिकीर्त्तिताः।
द्रव्यवर्गाविकाराणांतेषांतैपरिकोपकाः॥१६८॥
परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि जो जो द्रव्य जिस २ विकारको शान्त नहीं करता उसके द्वारा आस्थापन किया करना विकारोको उलटा कुपित करताहै। जैसे वातप्रधान मनुष्यको रूक्ष पदार्थों द्वारा बस्तिकर्म करना हानिकारक होताहै। और कफप्रधान मनुष्यको रूक्ष पदार्थों द्वारा बस्ति कर्म हितकर होताहै॥१६८॥
इत्येतेषडारथापनस्कन्धारसतोऽनुविभज्यव्याख्याताः। तेभ्योभिषग्वुद्धिमान्परिसंख्यातमपि-यद्द्रव्यमयौगिकमन्येततदपकर्षयेत्। यद्यच्चानुक्तमपियौगिकंवामन्येततद्दद्यात्। वर्गसपिवर्गेण-उपसंसृजेदेकमेकेनअनेकेनवायुक्तिंप्रमाणीकृत्य।प्रचरणमिवभिक्षुकस्यबीजमिवकर्षकस्यसूत्रं-बुद्धिमतामल्पमपि अनल्पज्ञानायभवति॥१६९॥
** **इस प्रकार रसभेदसे छः प्रकारके आस्थापनके स्कंधोंको कथन कियाहै। इन ऊपर कहेहुए छः प्रकार के स्कंधोंमें जो द्रव्य कथन किये भी हों परंतु आस्थापनयोगमें हानिकारक समझे उनको बुद्धिमान् वैद्य निकालडाले और जो कथन नहीं भी कियेगये उनको यदि उचित समझे तो प्रयोग करे। बुद्धिपूर्वक विचार एकवर्गके द्रव्योंको यदि उचित समझे तो उनमेंसे एक अथवा अनेक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें भी मिला सकता है। जैसे भिक्षा मांगनेवालेको एकमुट्ठी चावलोंकी और बगीचेके मालीको एक बीज भी उसके काममें बडा भारी लाभदायक होता है उसी प्रकार युक्ति और प्रमाणके आश्रित बुद्धिमान् वैद्यको वैद्यकका एक छोटासा सूत्र भी बडे ज्ञानको करनेवाला होता है॥१६९॥
तस्माद्बुद्धिमतामूहापोहवितर्कामन्दबुद्धेस्तुयथोक्तानुगमनमेवश्रेयः॥१७०॥
इसलिये बुद्धिमान् वैद्यको विचारपूर्वक द्रव्य ग्रहण करना चाहिये। और मूर्ख वैद्य जितनी बातें सीखी हुई हैं उसके सिवाय अन्य किसी पदार्थसे कुछ लाभ नहीं उठा सकता॥१७०॥
यथोक्तंहिमार्गमनुगच्छन्भिषक्संसाधयतिवाकार्य्यमनतिमहत्त्वादनतिह्रस्वत्वादुदाहरणस्येति॥१७१॥
जिस प्रकार यहांपर कथन किया है यह न बहुत विस्तार से है और न अधिक संक्षेपसे कथन किया गयाहै। इसको उदाहरण मात्र जानकर बुद्धिमान् वैद्य कार्यको सिद्ध करसकता है॥१७१॥
अतःपरमनुवासनद्रव्याणिअनुव्याख्यास्यन्ते। अनुवासनन्तु स्नेहएव। स्नेहस्तुद्विविधः। स्थावरो-जङ्गमात्मकश्चतत्रस्थावरात्मकःस्नेहःतैलमतैलञ्च। तत्रतैलमेवकृत्वोपदिश्यतेसर्वतस्तैल-प्राधान्यात्। जङ्गमात्मकस्तुवसामज्जासर्पिरिति॥१७२॥
अब अनुवासन द्रव्योंका वर्णन करतेहैं।अनुवासन स्नेह द्रव्य ही होताहै। वह स्नेह दो प्रकारका है। १ स्थावर।२ जंगम।स्थावर स्नेहोंगे तिलोंका तेल अन्य सरसोंआदि स्थावर द्रव्योंके तेल ग्रहण किये जातेहैं।संपूर्ण स्थावर स्नेहोंमें तिलोंका तेल प्रधान होनेसे सबको तैल ही कहाजाताहै।वसा, मज्जा और घृतको जंगमनेह कहते हैं॥१७२॥
तेषांतैलवसामज्जासर्पिषांतुयथापूर्वंश्रेष्ठम्। वातश्लेष्मविकारेषुअनुवासनीयेषुयथोत्तरंपित्त-विकारेषुसर्वएववासर्वेषुयोगमायान्तिसंस्कार विधिविशेषादिति॥१७३॥
वात और कफके विकारोंमें अनुवासन करनेके लिये–तैल, वसा, मज्जा और घृत इन चतुर्विध स्नेहोंमें क्रमपूर्वक परकी अपेक्षा पूर्ववाला श्रेष्ठ मानाजाता है। जैसे–बात और कफके विकारों में घृतकी अपेक्षा मज्जा मज्जाकी अपेक्षा वसा और वसाकी अपेक्षा तैल श्रेष्ठ होता है।एवम् पित्तके विकारों–में तैलसे वसा, वसासे मज्जा, मज्जा से घृत अनुवासन कर्म करनेके लिये श्रेष्ठ माना जाताहै। अथवा संस्कार विधि विशेषसे सब दोषों के विकारों में सब प्रकार स्नेह हितकारक होतेहैं। जैसे–वातनाशक द्रव्योंद्वारा सिद्ध किये वातविकारमें तथा पित्तकारक द्रव्योंद्वारा सिद्ध किये पित्त विकारोमेंएवम् कफनाशक द्रव्योद्वारा सिद्ध किये कफ विकारमें सब प्रकारसे हितकर होते हैं॥१७३॥
शिरोविरेचनद्रव्य।
शिरोविरेचनद्रव्याणिपुनःअपामार्गपिप्पलीमरिचविडङ्गशियशिरीष–कुस्तुम्बुरु–बिल्वा-जाज्याजमोदावार्ताकीपृथ्वीकैलाह-
रेणुफलानिच।
सुमुखसरसकुठेरकगण्डीरककालमालकपर्णासक्षवकफणिज्जकहरिद्राङ्गवेरमलकलशुन-तर्कारीसर्षपपत्राणिच। अर्कालर्ककुष्ठनागदन्तीवचाभार्गी श्वेताज्योतिष्मतीगवाक्षीगण्डीरावाक्ष्पी-वृश्चिकालीवयस्थातिविषामूलानिच। हरिद्राशृङ्गवेरमूलकलशुनकन्दाञ्चलोध्रमदनसप्तपर्ण-निम्बार्कपुष्पाणिच।देवदार्वगुरुसरलशल्लकीजिङ्गिन्यसनहिंगुनिर्य्यासाश्चतेजोवराङ्गेंगुदी-शोभाञ्जनबृहतीकण्टकारिकात्वगिति। शिरोविरेचनंसप्तविधंफलपत्रमूलकन्दपुष्पनिर्य्यास-त्वगाश्रयभेदात्॥१७४॥
** **अबशिरोविरेचन द्रव्यांको कथन करते है।जैसे–अपामार्ग, पीपल, मिर्च, वायविडंग, सोहांजना, सिरस, धनियां, बिल्वफल, कालाजीरा, अजमोद, बडी कटेरीके फल, काश्मीरी जीरा, इलायची, रेणुका बीज और सुमुख, कुठेरक, सुरस, गण्डीर, कालमालक, पर्णाश तथा क्षवक यह तुलसीकी जातियें, मरुआ, हल्दी, अदरख, मूली, लहसुन, अर्णी, सरसों इनके पत्र तथा आक, कूट, नागदंती, षच, भारंगी, अपराजिता, मालकांगुनी, इन्द्रायण, गण्डीर, अवाक्पुष्पी, वृश्चिका, वयस्था, अतीस, इन सबके मूल और हल्दी, अदरख, मूली इनके कंद।लोध, मैनफल, सतवन, नीम और आक इनके फूल एवम् देवदारु, अगर, सरल, शल्लकी, जीगन पीनमाला और हींग इनका गोंद लेना चाहिये। इसी प्रकार चव्य, दालचीनी, गोंदनी, सोहांजना, दोनों कटेरी इनकी छाल लेना चाहिये। इस प्रकार फल, पत्र, मूल, कंद, फूल, गोंद और त्वचाके भेदसे शिरोविरेचन (नस्य ) सात प्रकार के होते हैं॥१७४॥
लवणकटुतिक्तकषायाणिचइन्द्रियोपशयानितथापराण्यनुक्तान्यपिद्रव्याणियथायोगविहितानिशिरोविरेचनार्थमुपदिश्यन्ते इति॥१७५॥
लवण, कटु, तिक्त तथा कषाय रसवाले द्रव्य और जो इन्द्रियोको उपशय अर्थात् हितकारक हों उन द्रव्योंके प्रयोगको शिरोविरेचनके अर्थ कथन किया है॥१७५॥
अध्यायका संक्षिप्तवर्णन।
लक्षणाचार्य्यशिष्याणांपरीक्षाकारणञ्चयत्। अध्येयाध्यापनविधिःसम्भाषाविधिरेवच॥१७६॥ षड्भिर्यूनानिपञ्चाश-
द्द्वाशाथपदानिच।पदानिदशचान्यानिकारणादीनितत्त्वतः॥१७७॥ सम्प्रश्नश्चपरीक्षादेर्नवको-वमनादिषु। भिषग्जितीयेरोगाणांविमानेसम्प्रदर्शितः॥१७८॥
यहांपर अध्यायके उपसंहार में श्लोक हैं—गुरु और शिष्योंके लक्षण, परीक्षा, कारण पढ़ने और पढानेकी विधि, संभाषण विधि, छिआलीस और बारह अर्थपद, इनके सिवाय तत्त्वसे दश प्रकार के अन्य कारणादि कथन और दश प्रकारके परीक्ष्य विषयोंमें प्रश्न, वमनादि विषयमेंनौ प्रकारकी परीक्षाको रोगभिवगाजतीय अध्यायमें कथन किया गया है॥१७६॥१७७॥१७८॥
अनुवासन द्रव्य।
बहुविधमिदमुक्तमर्थजातंबहुविधवाक्यविचित्रमर्थजातम्।
बहुविधशुभशब्दसन्धियुक्तंबहुविधवादनिषूदनंपरेषाम्॥१७९॥
अनेक प्रकारके अर्थोंका समूह और अनेक अर्थोंवाले विचित्र वाक्य तथा अर्थजात, सुन्दर शब्द, संधियुक्त अर्थ, अनेक प्रकार के बाद और प्रतिपक्षीके पक्षका खण्डनका वर्णन कियागया है॥१७९॥
इमांमतिवहुविधहेतुसंश्रयांविजज्ञिवान्परमतवादसूदनीम्।
निलीयतेपरवचनावमर्दनेनशक्यतेपरवचनैश्चमर्दितुम्॥१८०॥
जो वैद्य इन बहु प्रकारके हेतुओंसे युक्त तथा प्रतिपक्षके मत और बादके खण्डन करनेवाली इस मतिको जान लेता है। वह प्रतिपक्षीके संपूर्ण वचनकों मर्दन करनेको समर्थ होता है और प्रतिपक्षीके वचनों से अपने पक्षको कभी खण्डन होने नहीं देता॥१८०॥
दोषादीनांलुभावानांसर्वेषामेवहेतुना।
मानात्समस्तमानानिनिरुक्तानिविभागशः॥१८१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते विमानस्थानं समाप्तम्।
इस प्रकार इस विमानस्थानमें वात, पित्त, कफ आदिक दोषोंका और संपूर्ण भावोंका हेतु विशेषसे तथा परिमाण विशेषसे विभागपूर्वक संपूर्ण मान ( परिमाणका कथन कियागया है॥१८१॥
इति श्रीमहर्षि चरकप्रणीतायुर्वेदसहितायां विमानस्थाने प० रामप्रसादवैद्योपाध्याय विरचित- भाषाटीकायां रोगभिपग्विज्ञानीयविमानं नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
संहित चरक विमान, जानहि विधिवत् जे भिषक्।
सदसि पावही मान, विजय होहि वैद्यनविषे॥
इति विमानस्थानम्।
शारीरस्थानम्।
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प्रथमोऽध्यायः।
अथातःतिधापुरुषीयंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम कतिधापुरुपीय शारीरकी व्याख्या करतेहैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे।
अग्निवेश उवाच।
कतिधापुरुषोधीमन् धातुभेदेनभिद्यते। पुरुषःकारणंकस्मात्प्रभवःपुरुषस्यकः॥१॥ किमज्ञोऽज्ञः-सनित्यःकिंकिमनित्योनिदर्शितः। प्रकृतिःकाविकाराःकेकिंलिङ्गंपुरुषस्यच॥२॥
अग्निवेश बोले कि हे धीमन्! धातुभेदसे पुरुष कितने प्रकार के होते हैं। पुरुषको कारण किसलिये कहाजाता है । पुरुषके कारण कौन हैं। पुरुष अज्ञ है अथवा ज्ञाता है। नित्य है अथवा अनित्य है। प्रकृति क्या है। विकार क्या हैं। पुरुषके क्या लक्षण हैं॥१॥२॥
निष्क्रियञ्चस्वतन्त्रञ्चवशिनंसर्वगंविभुम्। वदन्त्यात्मानमात्मज्ञाःक्षेत्रज्ञंसाक्षिणंतथा॥३॥ निष्क्रियस्यक्रियातस्यभगवन्! विद्यतेकथम्। स्वतन्त्रश्चेदनिष्टासुकथंयोनिषुजायते॥४॥ वशीयद्यसुखैःकस्माद्भावैराक्रम्यतेबलात्। सर्वाःसर्वगतत्वाच्चवेदनाःकिंनवेत्तिसः॥५॥
आत्माके जाननेवाले पुरुष आत्माको किया रहित, स्वतंत्र, वशी, सर्वग, विभु, क्षेत्रज्ञ और साक्षी कहते है सो हे भगवन्! किया रहित पुरुषमें क्रिया किसप्रकार है। दिना इच्छासे अनिष्ट योनियोंको किसमकार धारण करता है। वशी पुरुष इन्द्रियोंके सुखके वशमें बलात्कार क्यों फंसजाता है। सर्वज्ञ होनेसे संपूर्ण विकारोको क्यो नहीं जानसकता॥३॥४॥५॥
नपश्यतिविभुःकस्माच्छेलकुड्यतिरस्कृतम्। क्षेत्रज्ञःक्षेत्रमथवाकिंपूर्वमितिसंशयः॥६॥ ज्ञेयंक्षेत्र-विनापूर्वक्षेत्रज्ञोहिनयुज्यते। क्षेत्रश्चयदिपूर्वस्यात्क्षेत्रज्ञःस्यादशाश्वतः॥७॥
यदि वह विभु है तो पर्वत और दीवार आदि उसकी दृष्टिको रोककर पदार्थको क्यों नहीं देखने देते। यदि वह क्षेत्रज्ञ है तो प्रथम क्षेत्र था, या यह पुरुष था। क्योंकि इस स्थानमें ज्ञेय विषय क्षेत्र है सो ज्ञेय क्षेत्र–क्षेत्रजसे पीछे उत्पन्न नहीं हो सकता । यदि क्षेत्र प्रथम था तो क्षेत्रज्ञ नित्य नहीं हो सकता॥६॥७॥
साक्षिभूतश्चकस्यायंकर्त्ताह्यन्योनविद्यते।
स्यात्कथञ्चाविकारस्यविशेषोवेदनाकृतः॥८॥
जब अन्य कोई कर्त्ता नहीं है तो यह साक्षी किसका है। और यदि निर्विकार है तो इस निर्विकार पुरुषको अनेक प्रकारकी पीडा कैसे होतीहै॥८॥
अथचार्त्तस्यभगवंस्तिसृणांकांचिकित्सति। अतीतांवेदनांवैद्योवर्त्तमानांभविष्यतीम्॥९॥ भविष्यन्त्याअसंप्राप्तिरतीतायाअनागमः।साम्प्रतिक्याअपिस्थानंनास्त्यर्तेःसंशयोद्यतः॥१०॥
हे भगवन् ! व्याधियोंके लक्षण क्षणक्षण में पलटते रहते हैं और रोग तीन विभा गोंमें ( भूत, भविष्य, वर्तमान कालमें ) विभक्त हैं।ऐसे स्थान में रोगीकी किस अवस्थाका निश्चय कर चिकित्सा करनी चाहिये। क्योंकि भविष्यत् व्याधि तो उस समय है ही नहीं और भूतव्याधि व्यतीत होचुकी है वह फिर आ नहीं सकती और जो वर्तमान व्याधि है वह क्षणक्षणमें बदलती जाती है। इसलिये इन तीनों प्रकारकी व्याधियोंमें किसको स्थिरकर चिकित्सा करनी चाहिये। यह संशय उत्पन्न होता है॥९॥१०॥
कारणंवेदनानांकिंकिमधिष्ठानमुच्यते।
क्वचैतावेदनाः सर्वानिवृत्तिंयान्त्यशेषतः॥११॥
हे प्रभो ! व्याधियोंका कारण क्या है। और अधिष्ठान किसको कहते हैं । यह संपूर्ण व्याधियें किस स्थानमें किस प्रकार संपूर्णरूपसे निवृत्त होतीहैं॥११॥
सर्ववित्सर्वसन्न्यासीसर्वसंयोगनिःसृतः।
एकः प्रशान्तोभूतात्माकैलिंङ्गैरुपलभ्यते॥१२॥
सर्वज्ञ, संपूर्णभावोंसे विरक्त और सर्व संयोगवर्जित एक शान्तिपरायण जीवात्मा किन लक्षणोंसे जानाजाताहै॥१२॥
वचइत्यग्निवेशस्यश्रुत्वामतिमतांवरः।
सर्वेयथावत्प्रोवाचप्रशान्तात्मापुनर्वसुः॥१३॥
इसमकार अग्निवेशके प्रश्नोंको सुनकर बुद्धिंसानोमें श्रेष्ठ, मशान्तचित्त, भगवान् पुनर्वसूजी सवको यथाविधि वर्णन करनेलगे॥१३॥
पुरुषवर्णन।
खादयश्चेतनाषष्ठाधातवःपुरुषःस्मृतः।
चेतनाधातुरप्येकःस्मृतःपुरुषसंज्ञकः॥१४॥
हे अग्निवेश! पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश और चेतना इनके मिलेहुए समवाय संबंधको पुरुष कहते है॥१४॥
पुनश्चधातुभेदेनचतुर्विंशतिकः स्मृतः।
मनोदशेन्द्रियाण्यर्थाःप्रकृतिश्चाष्टधातुकी॥१५॥
फिर वह पुरुष पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पांच महाभूत, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचतन्मात्रा और एक मन।इनके संयोगमे चौबीसतत्वका कहाजाताहै॥१५॥
लक्षणंमन लोज्ञानस्याभावोभावएववा। सतिह्यात्मेन्द्रियार्थानांसन्निकर्षणवर्त्तते॥१६॥ वैधृत्यान्मनसोज्ञानंसान्निध्यात्तच्चवर्त्तते। अणुत्वमथचैकत्वंद्वगुणीमनसःस्मृतौ॥१७॥
ज्ञान होना और ज्ञानका न होना मनका लक्षण है अर्थात् एक कालमें एक वस्तुका ज्ञान होना और दूसरेका न होना, या यो कहिये कि दो ज्ञानोका एकही कालमें उत्पन्न न होना मनका लक्षण है। आत्मा, इन्द्रिय और इन्द्रियोंका विषय इनका संयोग होनेपर भी मनके सन्निकर्षके विना किसी इन्द्रियके विषयका ज्ञान नहीं होता, अर्थात आत्मा, इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ रहतेहुए भी मनके सन्निकर्षसेही ज्ञानकी उत्पत्ति होतीहै। इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्ष होनेपर भी यदि मनका संयोग हो तब ज्ञान उत्पन्न होसकताहै।सनके संयोग न होनेसे ज्ञान उत्पन्न नहीं होसकता। इससे यह सिद्ध हुआ कि मन इन्द्रियों से भिन्न कोई अलग वस्तु है जिसका इन्द्रियोंसे संयोग होनेपर ज्ञान उत्पन्न होता है। एकत्व और अणुत्व मनके ये दो गुण हैं अर्थात् मन असंक्लिष्ट और सूक्ष्म है॥१६॥१७॥
चिन्त्यंविचार्थ्यमाञ्चध्येयंसङ्कल्प्यमेवच।
पत्किञ्चिन्मनसोज्ञेयंतत्सर्वंह्यर्थसंज्ञकम्॥१८॥
चिन्ता, विचार, तर्क, ध्यान, और संकल्प तथा जाननेयोग्य यह सच मनका अर्थ (विषय) है॥१८॥
बुद्धिकी प्रवृत्ति।
इन्द्रियाभिग्रहःकर्म्ममनसस्त्वस्यनिग्रहः।
ऊहोविचारश्चततःपरंबुद्धिःप्रवर्त्तते॥१९॥
इन्द्रियोंकी गति कराना और स्वयम् गमनशील रहना यह मनके दो कर्म होतेहैं। तर्क और विचार उत्पन्न होनेके अनन्तर बुद्धिकी प्रवृत्ति होती है॥१९॥
इन्द्रियेणेन्द्रियार्थोहिसमनस्केनगृह्यते।
कल्प्यतेमनसाप्यूर्द्धंगुणतोदोषतोयथा॥२०॥
इन्द्रियें अपने अर्थको मनकी सहायता से ही ग्रहण करती हैं। और इन्द्रियों द्वारा अर्थज्ञान होनेके अनन्तर भी उसके गुण दोषको मनही कल्पना करताहै॥२०॥
जायतेविषचेतत्रयाबुद्धिर्निश्चयात्मिका।
व्यवस्यतेतयावक्तुंकर्तुंवाबुद्धिपूर्वकम्॥२१॥
फिर उस विषय में जिस प्रकार की निश्चयात्मिका बुद्धि होती है उसको उस निश्चयात्मिका बुद्धिद्वारा कहनेको अथवा बुद्धिपूर्वक करनेको निश्चय करताहै॥२१॥
ज्ञानेंद्रिय।
एकैकाधिकयुक्तानिखादीनामिन्द्रियाणितु।
पञ्चकर्म्मानुमेयानियेभ्योबुद्धिःप्रवर्त्तते॥२२॥
शब्दगुणवाला आकाश शब्द और स्पर्श गुणवाला वायु, शब्द, स्पर्श और रूप गुणवाला अग्नि।शब्द, स्पर्श, रूप और रस गुणवाला जल।शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध गुणवाली पृथ्वी होती है। इसप्रकार एकएक महाभूत एकएक गुण पूर्ववाले महाभूतका लेताजाताहै। यद्यपि आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इनके शब्द, स्पर्श, रस और गंध यह क्रमसे एकएकका एकएक गुण हैं परन्तु यह एकएक गुण क्रमपूर्वक दूसरेका लेते जातेहैं। इन पंचमहाभूतांकी श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, रसन और घ्राण ये पांच इन्द्रियं हैं।सुनना, छूना, देखना, स्वादलेना और सूंघना ये इनपाचोंके कर्म हैं। इन पांच कमसे ही इनका अनुमान कियाजाताहै। इन इन्द्रियों द्वारा ही बुद्धिकी प्रवृत्ति होतीहै॥२२॥
कर्मेन्द्रिय।
हस्तपादंगुदोपस्थंजिह्वेंद्रियमथापिवा। कर्मेन्द्रियाणिपञ्चैवपादौगमनकर्मणि॥२३॥पायूपस्थौ-विसर्गार्थेहस्तौग्रहणधारणे। जिह्वावागिन्द्रियंवाक्चसत्याज्योतिस्तमोऽनृता॥२४॥
हाथ, पांव, गुदा, गुह्य और जिह्वा ये पांच कर्मेन्द्रिय हैं। पांवोंका चलना, गुदाका मलत्याग, गुह्यका मूत्रत्याग, और हाथोका ग्रहण करना कर्म है एवं जिह्वाका उच्चारण करना कार्यहै। वह उच्चारण करना दो प्रकारका है। १ सत्य।२ असत्य। सत्य ज्योतिःस्वरूप है और असत्य तमःस्वरूप है॥२३॥२४॥
पञ्चमहाभूत।
महाभूतानिखंवायुरनिरापःक्षितिस्तथा। शब्दःस्पर्शश्वरूपञ्चरसोगन्धश्चतद्गुणाः॥२५॥ तेषामेको गुणःपूर्वोगुणवृद्धिः परेपरे। पूर्वःपूर्वोगुणश्चैवक्रमशोगुणिषुस्मृतः॥२६॥
आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये पांच महाभूत हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ये इनके पांच गुण हैं। इनमें पहिलेमें एक, दूसरेम दो तीसमें तीन, चौथेमें चार और पांचवेंमें पांच ये गुण है।(इनको २२ के श्लोककी व्याख्यामें लिख चुके है)॥२५॥२६॥
पृथ्वीआदिके गुण।
खरद्रवचलोष्णत्वंभूजलानिलतेजसाम्। आकाशस्याप्रतीघातोदृष्टंलिङ्ग्यथाक्रमम्॥२७॥ लक्षणं सर्वमेवैतरस्पर्शनेन्द्रियगोचरः।स्पर्शनेन्द्रियविज्ञेयःस्पर्शोहिसविपर्ययः॥२८॥
** **पृथ्वीका खर, जलका द्रव, वायुका चल और अग्निका ऊष्ण लक्षण होता है। इसी प्रकार आकाशका प्रतिघात लक्षण है। यह संपूर्ण लक्षण स्पर्शनेन्द्रियके गोचर है।स्पर्शनेन्द्रिय से ही स्पर्श और स्पर्शाभावका ज्ञान होता है॥२७॥२८॥
गुणादिवर्णन।
गुणाःशरीरेगुणिनांनिर्दिष्टाश्चिह्नमेवच।
अर्थाशब्दादयोज्ञेयागोचराविषयागुणाः॥२९॥
जिसमें गुण होते हैं उसको गुणी कहते है अथवा शरीरमें गुण जो है वह गुणीके चिह्न हैं अर्थात लक्षण हैं।और शब्दादिक इन्द्रियों के विषय है॥२९॥
यायदिन्द्रियमाश्रित्यजन्तोर्बुद्धिःप्रवर्त्तते।
यातिसातेननिर्देशमनसाचमनोभवा॥३०॥
जिस इन्द्रियके आश्रयसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसको उस इन्द्रियकी बुद्धि कहते हैं। जो मनसे ज्ञान उत्पन्न होता है उसे मनोभव बुद्धि अथवा मानसिक ज्ञान कहते है॥३०॥
ज्ञानोंकी अनेकता।
भेदात्कार्य्येन्द्रियार्थानांबह्व्योवैबुद्धयःस्मृताः। आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानामकैकासन्निकर्षजा॥३१॥ अंगुल्यंगुष्ठतलजस्तन्त्रीवीणानखोद्भवः। दृष्टःशब्दोयथाबुद्धिर्दृष्टासंयोगजा तथा॥३२॥
कार्यभेदसे और इन्द्रियोंके विषयभेदसे अनेक प्रकारकी बुद्धिये प्राप्त होती हैं। आत्मा इन्द्रिय, मन और अर्थके संनिकर्षसे पृथक् २ बुद्धि उत्पन्न होती है। जैसे—अंगुली, अंगूठा, हथेली, तंत्री, वीणा नख इनके संयोगसे पृथक २ शब्द उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार जैसे जैसे अर्थसे संयोग होता है वैसे वैसे संयोगभेद से पृथक् २ बुद्धि उत्पन्न होती है॥३१॥३२॥
बुद्धीन्द्रियमनोऽर्थानांविद्याद्योगधरंपरम्।
चतुर्विंशकइत्येषराशिःपुरुषसंज्ञकः॥३३॥
बुद्धि, इन्द्रिय, मन और इनके विषयोंके योगको धारण करनेवाला चौबीस तत्त्वकी राशिवाला पुरुष कहा जाताहै॥३३॥
रजस्तमोभ्यांयुक्तस्यसंयोगोऽयमनन्तवान्।
ताभ्यांनिराकृताभ्यान्तुसत्त्वबुद्ध्यानिवर्त्तते॥३४॥
यह अनन्त पुरुष रजोगुण और तमोगुणके संयोगसे अनादि कालसे बंधा है परन्तु सत्वगुणकी वृद्धिसे रज और तमका संयोग भी निवृत्त होजाताहै अर्थात् सत्वगुणका प्रकाश होनेसे शुद्ध ज्ञान होकर मोक्षको प्राप्त होताहै॥३४॥
पुरुषकी प्रधानता।
अत्रकर्मफलञ्चात्रज्ञानञ्चात्रप्रतिष्ठितम्।
अत्रमोहःसुखंदुःखंजीवितंमरणंस्वतः॥३५॥
इस पुरुषमें कर्मफल तथा ज्ञान यह दोनो प्रतिष्ठित हैं और मोह, सुख, दुःख, जीवन और मरण यह चतुर्विंशति तत्त्वात्मक पुरुषके आश्रित हैं॥३५॥
एवंयोवेदतत्त्वेनसवेदप्रलयोदयौ॥३६॥
जिस पुरुषको इस प्रकार तत्त्वका ज्ञान है वह उत्पत्ति और प्रलयको जानता है॥३६॥
पुरुषकी कारणता।
पारम्पर्य्यंचिकित्साचज्ञातव्यंयञ्चकिञ्चन॥३७॥ भास्तमः
सत्यमनृतंवेदःकर्म्मशुभाशुभम्।नस्यात्कर्त्तावेदिताचपुरुषोनवेद्यदि॥३८॥
यदि पुरुषज्ञाता न होता तो लोक परम्परा चिकित्सा, जानने योग्य विषय, तम, ज्योतिः, सत्य, अनृत, वेद, कर्म, शुभ, अशुभ, कर्त्ता और ज्ञाता, यह कुछ भी न होते॥३७॥३८॥
नाश्रयोनसुखनार्त्तिर्नगतिर्नागतिर्नवाक्। नविज्ञानंनशास्त्राणिनजन्ममरणंनच॥३९॥ नबन्धोनच-मोक्षःस्यात्पुरुषोनभवेद्यदि। कारणंपुरुषस्तस्मात्कारणज्ञैरुदाहृतः॥४०॥
एवम्आश्रय, सुख, रोग, गति, अगति, वाणी, विज्ञान, शास्त्र, जन्म, मरण, बंध और मोक्ष यह भी न होते। इसलिये कारणके जाननेवाले बुद्धिमानोंने पुरुषको कहा है॥३९॥४०॥
नचकारणमात्मास्यात्खादयःस्युरहेतुकाः।
नचैषुसम्भवेज्ज्ञानंनचतैःस्यात्प्रयोजनम्॥४१॥
यदि आत्मा कारण न हो तो आकाश आदि अहेतुक हो जायेंगे। आकाशादिकोमें जडत्व होनेसे ज्ञान तो होताही नहीं। इसलिये उन जडोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। अथवा यो कहिये कि वह जड होनेसे चैतन्य पुरुपको अथवा जगत् को बना नहीं सकते॥४१॥
पुरुषकी कारणताका दृष्टान्त।
मृद्दण्डचक्रैश्चकृतंकुम्भकारादृतेघटम्। कृतंमृत्तृणकाष्ठैश्वगृहकाराद्विनागृहम्॥४२॥ यावदेत्स-वदेद्देहंसम्भूयकरणैःकृतम्। विनाकरमज्ञानायुक्त्यागमवहिष्कृतः। कारणंपुरुषः सर्वैः प्रमाणैरुपलभ्यते॥४३॥
जैसे मट्टी, दंड, चक्र यह सब उपस्थित होते हुए भी घट कुम्हारके बिना उत्पन्न नही होसकता। इसी प्रकार मट्टी, पत्थर, लकडी आदि सब सामान होनेपर भी विना वनानेवाले के घर स्वयं तय्यार नही होसकता। जो मनुष्य यह कहे कि बिना कुम्हारके घट उत्पन्न होसकता है और विना बनानेवालेके घर स्वयं बन सकता है। वह अज्ञानी मनुष्य युक्ती और शास्त्रसे विरुद्ध यह भी कह सकता है कि आकाशादि जड पदार्थोंने ही इस देहको रचाहै॥४२॥४३॥
येभ्यःप्रमेयंसर्वेभ्यआगमेभ्यःप्रतीयते॥४४॥
इसलिये सब प्रमाणोंसे पुरुषही कारण प्रतीत होता है। जिन सब प्रकारके शास्त्रीय प्रमाणोंसे प्रमेयकी उपलब्धि होतीहै, उन सबसे सिद्ध है कि कारण पुरुषही है॥४४॥
अनीश्वरवादीके मतका खण्डन।
नतेतत्सदृशास्त्वन्येपारम्पर्येसमुत्थिताः।सारूप्याद्येतवेतिनिर्दिश्यन्तेनरान्नराः॥४५॥ भावास्त्वेषां समुदयोनिरीशः सत्त्वसंज्ञकः। कर्त्ताभोक्तानसपुमानितिकेचिद्व्यवस्थिताः॥४६॥ तेषामन्यैः कृतस्यान्येभावाभावैर्नराःफलम्। भुञ्जतेसंदृशाःप्राप्तंयैरात्मानोपदिश्यते॥४७॥
कोई कहते हैं कि इसका कर्त्ता कोई नहीहै यह परम्परासे ऐसाही चलाआता है मनुष्यसे मनुष्य, पशुसे पशु सानुरूप होता चलाआता है। यह ईश्वरने उत्पन्न नहीं किया है। संपूर्णभाव पृथ्वी, आकाश, अप, तेज, वायुके समानही शरीरकी सादृश्यताहै। उस ईश्वरके समान सृष्टि दिखाई नहीं देती। इसलिये ईश्वरने इसको नहीं बनाया यह निरीश्वरवादियोंका पक्ष है। अनात्मवादी कहतेहैं कि पुरुष न कर्ता है न भोक्ता है, यह स्वयं ऐसाही चला आताहै। उनके मतमें करनेवाला और होताहै, फल और भोगता है। देखिये खानेकेलिये दूसरा पुरुष बनाता, खाता दूसरा है। इसलिये न कोई करता है और न कोई फल भोगता है और न कोई आत्मा है॥४५॥४६॥४७॥
कारणानन्यतादृष्टाकर्त्तुः कर्त्तीसएवतु।कर्त्ताहिकरणैर्युक्तः कारणंसर्वकर्मणाम्॥४८॥ निमेष-कालाद्धावानांकालःशीघ्रतरोऽत्यये। भग्नानांचपुनर्भावः कृतंनान्यमुपैतिच॥४९॥
आत्मवादी कहते हैं कि कर्त्ताही करणांकी सहायतासे कर्मको करता है क्योंकि शरीरके कियेहुए कर्मोंका फल कर्त्ता अर्थात् आत्माही भोगताहै। देखनेमें भी आताहै कि परोपकारतादि जितने काम किये जातेहैं सबको आत्माही भोगता है। जिस शरीरसे जो कार्य कियाजाताहै वह शरीर विनाशको प्राप्त होता तथा होसकताहै परन्तु करनेवाला आत्मा नहीं रहता है। वह कर्त्ताही अपने करणोंसे युक्तहुआ संपूर्ण कार्योंको करता है।निमिपमात्र में शरीरादि संपूर्ण भाव शीघ्र नष्ट होजाते हैं और उन नष्टहुए शरीर आदि भावोंका पुनर्भाव नहीं होता। जो कर्म किया जाता है उसका फल दूसरा नहीं भोगसकता वह कर्त्ताही कर्मोके फलको भोगनेवाला है। क्योंकि यदि
ऐसा न हो तो जिस शरीरसे यज्ञादि किये जातेहैं वह तो इसी लोकमें नष्ट होजाताहै फिर उसके किये कर्मोंको भोगनेवाला कौन मानाजायगा। इसलिये आत्माकोही कर्ता और कर्मका फल भोगनेवाला माननाचाहिये॥४८॥४९॥
मतंतत्त्वविदामेतद्यस्मात्कर्त्तासकारणम्।क्रियोपभोगेभूतानांनित्यःपुरुषसंज्ञकः॥५०॥ अहङ्कारः फलंकर्मदेहान्तरगतिः स्मृतिः। विद्यतेसतिभूतानांकारणेदेहमन्तरा॥५१॥
तत्त्वके जाननेवाले इसप्रकार कहते हैं कि जिस लिये आत्मा कर्त्ता है इसीलिये इसको कारण कहतेहैं। वह कारण आत्माही मनुष्योंके कियेहुए कर्मोंको भोगनेवाला है, और नित्य है तथा उसीको पुरुष कहतेहै। अहंकार, कर्मफल, पुनर्जन्म और स्मृति तथा अन्य धर्माधर्म यह सव मनुष्योंके उस कारणरूप अन्तरात्मामेंही अवस्थित है देहमें नहीं॥५०॥५१॥
प्रभवोनह्यनादित्वाद्विद्यतेपरमात्मनः।
पुरुषोराशिसंज्ञस्तुमोहेच्छाद्वेषकर्मजः॥५२॥
वह परमआत्मा अनादि है इसलिये उसको करनेवाला कारण कोई नहीं। परन्तु चौबीस तत्त्वकी राशिभूत जो पुरुष है वह मोह, इच्छा और द्वेषजनित कर्मोंसे उत्पन्न होता है॥५२॥
आत्मज्ञःकरणैर्योगाज्ज्ञानंतस्यप्रवर्त्तते। करणानामवैमल्यादयोगाद्दानवर्त्तते॥५३॥ पश्यतोऽपि-यथादर्शेसंक्लिष्टेनास्तिदर्शनम्। तद्वज्जलेवाकलुषेचेतस्युपहतेतथा॥५४॥
आत्मा अज्ञ नहीं है अर्थात् ज्ञानवान् है। करणोके संयोगसे इसको ज्ञान उत्पन्न होताहै।वह (करण, मन, बुद्धि और ज्ञानेद्रियोंको कहते हैं)।इनकरणोंके निर्मल न होनेसे तथा अयोगी होनेसे ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। जैसे दर्पणमें धूल जमीरहनेसे प्रतिबिबदिखाई नहीं देता, काई आदि जमीरहनेमें जलमें कुछ दिखाई नहीं देता। उसी प्रकार मन आदि करणोंके मलयुक्त होनेसे ज्ञान उत्पन्न नहींहोता॥५३॥५४॥
करणोंके नाम और कर्म।
करणानिमनोबुद्धिर्बुद्धिकर्मेन्द्रियाणिच।
कर्त्तुःसंयोगजंकर्मवेदनाबुद्धिरेवच॥५५॥
मन, बुद्धि और बुद्धीन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय इनसबको करण कहतेहैं। कर्त्ताके साथ करणका संयोग होनेसे कर्म, दुःख और ज्ञान आदि उत्पन्न होते हैं॥५५॥
नैकःप्रवर्त्ततेकर्त्तुंभूतात्मानाश्नुतेफलम्। संयोगाद्वर्त्ततेसर्वतमृतेनास्तिकिंचन॥५६॥ नोह्येकोवर्त्तते-भावोवर्त्ततेनाप्यहेतुकः।शीघ्रगत्वात्स्वभावात्तुभावोनव्यतिवर्त्तते॥५७॥
आत्मा अकेलाही किसी कर्ममें प्रवृत्त नहीं होता और न अकेला होनेपर फल भोगता है।सबका संयोग होनेसेही सब कुछ करता है और करणादिकोंका संयोग न होनेसे कुछ नहीं करता। इसी प्रकार पंचभूतादिभाव भी अकेले कुछ नहीं करते और न विना हेतु कुछ कर सकतेहैं अथवा यों कहिये कि आकाशादिभाव अकेले होनेसे कुछ कर नहीं सकते और कार्य विना हेतुके नहीं होता।भाव शीघ्रगामी स्वभाववाला होनेसे अपने क्रमका उल्लंघन नहीं कर सकता॥५६॥५७॥
अनादिःपुरुषोनित्योविपरीतस्तुहेतुजः।सदाकारणवन्नित्यंदृष्टंहेतुमदन्यथा॥५८॥ तदेव-भावादग्राह्यंनित्यत्वान्नकुतश्चन।भावाज्ज्ञेयंतदव्यक्तमचिन्त्यंव्यक्तमन्यथा॥५९॥
अनादि पुरुष नित्य है जो किसी हेतुसे उत्पन्न होता है वह अनित्य होताहै। और कारणरहित पदार्थ नित्य देखने में आताहै।हेतुओंसे उत्पन्न हुआ अनित्य होताहै।इसीलिये जिसका कारण नहीं उसको अनित्य मानना सर्वथा भूल है। नित्य पदार्थ किसी अन्य पदार्थ से उत्पन्न नहीं होता।वह नित्य आत्मा अव्यक्त और अचित्य है। उससे अन्यथा अर्थात् राशिरूप पुरुष अनित्य और प्रगटहै ५८/५९
आत्माका वर्णन।
अव्यक्तमात्माक्षेत्रज्ञःशाश्वतोविभुरव्ययः। तस्माद्यदन्यत्तद्व्यक्तंवक्ष्यतेचापरंद्वयम्॥६०॥ व्यक्तञ्चेन्द्रियकञ्चैवगृह्यते तयदिन्द्रियैः। अतोऽभ्यत्पुनरव्यक्तंलिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम्॥६१॥
आत्मा अव्यक्त क्षेत्रज्ञ, नित्य, विभु और अव्यय है। उससे विपरीत जो है वह व्यक्त प्रकट कहाजाताहै।व्यक्त पदार्थ इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाताहै तथा अव्यक्त अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होसकता। तात्पर्य यह हुआ कि जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण न किया जाकर केवल लक्षणों द्वारा जाना जाय उसको अतीन्द्रिय तथा अव्यक्त कहते हैं॥६०॥६१॥
प्रकृतियोंका वर्णन।
खादीनिबुद्धिरव्यक्तमहङ्कारस्तथाष्टमः। भूतप्रकृतिरुद्दिष्टाविकाराश्चैवषोडश॥६२॥ बुद्धीन्द्रियाणिपञ्चैवपञ्चकर्मेन्द्रिया-
णिच।समनस्काञ्चपञ्चार्थाविकाराइतिसंज्ञिताः॥६३॥ इतिक्षेत्रंसमुद्दिष्टंसर्वमव्यक्तवर्जितम्। अव्यक्तमस्यक्षेत्रस्यक्षेत्रज्ञमृषयोविदुः॥६४॥
आकाशादि पंचतन्मात्रा (परमाणुरूप महाभूत) महत् तत्त्व, बुद्धि, मूल प्रकृति और अहंकार यह आठ भृत प्रकृति कहेजातेहै । मन पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय और पांचमहाभूत इनको सोलह विकार कहते है। क्योंकि यह आठ प्रकृतिक कार्य है उनसे विकार भावको प्राप्त होकर उत्पन्न हुए हैं इसलिये उनको विकार कहते है। अव्यक्तको छोड़कर अन्य सवको क्षेत्र कहते हैं। और ऋषिलोग अव्यक्तआत्माको इस क्षेत्रको जाननेवाला (क्षेत्रज्ञ) कहते है॥६२॥६३॥६४॥
पुरुषकी उत्पत्ति।
जायतेबुद्धिरव्यक्ताद्ध्याहमितिमन्यते। परंखादीन्यहङ्कारउपादत्तेयथाक्रमम्॥६५॥ ततःसम्पूर्ण-सर्वाङ्गोजातोऽभ्युदितउच्यते।पुरुषःप्रलयेचेष्ठैःपुनर्भावैर्नियुज्यते॥६६॥ अव्यक्ताद्व्यक्ततांयाति-व्यक्तादव्यक्ततांपुनः। रजस्तमोभ्यामाविष्टश्चक्रवत्परिवर्त्तते॥६७॥
अव्यक्त प्रकृतिसे बुद्धि, वृद्धिसे अहंकार, अहंकारसे पंच तन्मात्रा, और मन तथा इन्द्रियोंकी क्रमपूर्वक उत्पत्ति होती है। उसके उपरान्त संपूर्ण सर्वांग पुरुष राशि उत्पन्न होती है। इस चतुर्विंशति तत्त्वोके पुतलेसे कर्माधीन अनादि कालसे मिला हुआ चैतन्य आत्मा पुरुष कहाजाता है। यह पुरुष मलय समयमे इच्छित वस्तुओंसे पृथक् होजाता है। फिर इसी प्रकार अव्यक्तसे व्यक्तभावको, और व्यक्तसे अव्यक्तताको पुनःपुनः प्राप्त होता रहता है। यह पुरुप रजोगुण और तमोगुणसे आवेष्टित हुआ चक्रके समान घूमता रहता है॥६५॥६६॥६७॥
येषांद्वन्द्वेपरासक्तिरहङ्कारपराश्चये।
उदयप्रलयौतेषांनतेषांयेत्वतोऽन्यथा॥६८॥
जिन मनुष्योकी द्वन्द्वमें परम शक्ति है अर्थात् रजोगुण और तमोगुणसे आवेष्टित होकर—ढेप, काम, अहंकार आदिमें चित्तवृत्ति लगी रहती है वह मनुष्य वारंवार जन्म लेतेहैं और मरते है। परन्तु इनसे विपरीत अर्थात् सतोगुणवाले मनुष्योंको ज्ञान प्राप्त होनेसे इस जन्म मरणके चक्रमेंनहीं आना पडता॥६८॥
जीवनमरणके लक्षण।
प्राणापानौनिमेषाद्याजीवनंमनसोगतिः। इन्द्रियान्तरसञ्चाराप्रेरणंधारणञ्चयत्॥६९॥ देशान्तर-गतिःस्वपञ्चत्वग्रहणं तथा। दृष्टस्यदक्षिणेनाक्ष्णासव्येनापगमस्तथा॥७०॥ इच्छाद्वेषःसुखंदुःखं-प्रयत्नश्चेतनाधृतिः। बुद्धिःस्मृतिरहङ्कारोलिङ्गानिपरमात्मनः॥७१॥ यस्मात्समुपलभ्यन्ते-लिंगान्येतानिजीवतः। नमृतस्यात्मलिंगानितस्मादाहुर्महर्षयः॥७२॥ शरीरंहिगते-तस्मिञ्छून्यागारमचेतनम्। पञ्चभूतावशेषत्वात्पञ्चत्वंगतमुच्यते॥७३॥
श्वासलेना और छोडना, आंखका झपकना, जीवन, मनकीगती, एक इन्द्रियसे दूसरी इन्द्रियमें सञ्चारकरना इन्द्रियोंका इधरउधर प्रेरण करना, देशांतर आदिकमें गमनकरना, स्वममे अनेक प्रकारका ज्ञान होना, पंचभूतोंके तत्वोंको जानना। दक्षिण नेत्रसे देखेहुए पदार्थको वामनेत्रसे पहिचानलेना इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, प्रयत्न, चेतना, वृति, बुद्धि, स्मृति और अहंकार यह सव लक्षण जीवित मनुष्यके है। मृत मनुष्यमें यह लक्षण नहीं होते। इसीलिये आत्माके जाननेवाले महर्षि इन सबको आत्माके लक्षण कथन करतेहैं। इन लक्षणोंवाली आत्माके निकलजानेसे शरीर भयानक, चेतनारहित, शून्य घरके समान दिखाई देने लगता है। आत्माके निकल जानेपर केवल पंचभूतमात्रका पूतला पडा रहताहै। इसीलिये इसको पंचत्व (मरण) को प्राप्त होगया ऐसा कहतेहैं॥६९॥८०॥७१॥७२॥७३॥
आत्माको कर्तृत्व।
अचेतनंक्रियावच्चमनश्चेतयितापरः। युक्तस्यमनसातस्यनिदिश्यंतेविभोःक्रियाः॥७४॥ चेतनावान्यतश्चात्माततःकर्त्तानिरुच्यते। अचेतनत्वाच्चमनःक्रियावदपिनोच्यते॥७५॥
मन अचेतन है और आत्मा चैतन्य है। वह आत्माही मनको चैतन्यकरनेवाला है। आत्माके आश्रयही मनकी संपूर्ण क्रियायें होती हैं। क्योंकि आत्मा चेतनावान् है उसलिये मनकी क्रियाओंका वही कर्त्ता माना जाता है। मन अचेतन होने से क्रिया करता हुआ भी कर्त्ता नहीं कहा जाता॥७४॥७५॥
यथास्वेनात्मनःसर्वेमनःसर्वासुयोनिषु।
प्राणैस्तन्त्रयतेप्राणीनह्यन्योऽन्यस्यतन्त्रकः॥७६॥
जो जिस प्रकारका कर्म करताहै वह अपनी इच्छा न होनेपर भी अपने किये हुए कर्म के आधीन होकर सवप्रकार की योनियोंमें प्राप्त होता है। मनुष्य अपने कर्मोंद्वाराही अपनी आत्माको अनेक प्रकारकी योनियोंमे लेजाताहै इसको और कोई किसी योनिमें प्राप्त नहीं करता॥७६॥
आत्माका जितेन्द्रियत्व।
वशीतत्कुरुतेकर्मयत्कृत्वाफलमश्नुते।
वशीचेतःसमाधत्तेवशीससर्वंनिरस्यति॥७७॥
अपनी इच्छाके अनुसार प्रवृत्त होनेवाला आत्मा शुभाशुभ कर्मको करताहै और उस कर्मके करनेसे शुभ और अशुभ फलोको भोगता है। और अपने आधीनही होकर योग, समाधि आदिमें प्रवृत्त हो संपूर्ण जालको छोडकर मोक्षको प्राम होजाता है उसको वशी कहते हैं॥७७॥
देहीसर्वगतोह्यात्मास्त्रेस्वेसंस्पर्शनेन्द्रिये।
सर्वाःसर्वाश्रयस्थास्तुनात्मातोवेत्तिवेदनाः॥७८॥
देहको धारणकरनेवाला आत्मा संपूर्ण शरीरमे गमनकरनेवाला होनेसे–स्पर्शयुक्त शरीरकेही सुख दुःखको जानता है। केश, नख आदि जो स्पर्शयुक्त नहीं हैं अर्थात् मनुष्यके शरीरकी स्पर्शनेन्द्रिय जिस स्थान में प्राप्त नहीं है उसके सुख दुःखको नही जानसकता॥७८॥
आत्माकी व्यापकता।
विभुत्वमतएवास्ययस्मात्सर्वंगतोमहान्। मनसश्चसमाधानात्पश्यत्यात्मातिरस्कृतम्॥७९॥नित्यानुषन्धंमनसादेहकमनुपातिना।सर्वयोनिगतं विद्यादेकयोनावपिस्थितम्॥८०॥
क्योंकि आत्मा सर्वगत है और महान है इसलिये इसको विभु कहते हैं।यह आत्मा योग, समाधीके वलसे दीवार और पर्वतसे छिपी हुई वस्तुको भी देखसकता है। कर्म देहका अनुवर्त्ती होनेसे देहान्तरमे गमन कर सकता है। मनके साथ आत्माका नित्य संबंध होनेसे वह नाना योनियोमें गमन करता हुआ भी एक योनिमें रहनके समान होताहै॥७९॥८०॥
आत्माका अनादित्व।
आदिर्नास्त्यात्मनःक्षेत्रपारम्पर्य्यमनादिकम्।
अतस्तयोरनादित्वात्किंपूर्वमितिनोच्यते॥८१॥
आत्मा अनादि है और क्षेत्र परम्परा भी अनादि है। जब दोनों अनादि है फिर उनमें पहिले और पीछेका प्रश्नही नहीं होसकता॥८१॥
आत्माका सर्वसाक्षित्व।
ज्ञःसाक्षीत्युच्यतेनाज्ञःसाक्षीह्यात्माह्यतःस्मृतः।
सर्वभावाहिसर्वेपांभूतानामात्मसाक्षिकाः॥८२॥
आत्मा ज्ञाता होनेसे साक्षी कहा जाताहै क्योंकि अज्ञ साक्षी नहीं होसकता। मनुष्यके संपूर्ण भावका साक्षी आत्माहीहै॥८२॥
नैकःकदाचिद्भूतात्मालक्षणैरुपलभ्यते। विशेषोऽनुपलभ्यस्यतस्यनेकस्यविद्यते॥८३॥ संयोगः-पुरुषस्येष्टोविशेषोवेदनाकृतः। वेदनायत्रनियताविशेषस्तत्रतत्कृतः॥८४॥
पुरुष (आत्मा) एकही है यह किसी लक्षणद्वारा सिद्ध नहीं होसकता अर्थात् पुरुष अनेक हैं। तात्पर्य यह हुआ कि चैतन्य आत्मा संपूर्ण संसारमें एकही है ऐसा है नहीं, किन्तु अनन्त और अनेक आत्मा हैं। इसीलिये दूसरे आत्माके सुखदुःखादिकोंको अथवा पीडाको दूसरा आत्मा नहीं जानसकता। पुरुष (आत्मा) का जिस स्थानतक संयोग होता है वहांतककी पीडाको जान सकताहै। इसलिये शरीरमें होनेवाली पीडाको तथा ज्ञानद्वारा जहांतक गति है वहांतक जानसकता है॥८३॥८४॥
अतीतरोगकी चिकित्सा।
चिकित्सतिभिषक्सर्वास्त्रिकालावेदनाइति।
यथायुक्त्यावदन्त्येकेसायुक्तिरुपधार्थ्यताम्॥८५॥
चिकित्सक भूत, भविष्य और वर्त्तमान इन तीनो प्रकारकी व्याधियोंकी चिकित्सा कर सकताहै।इनकी चिकित्सा करनेकी जिस युक्तिको आचार्योंने कथन किया है उसको तुम श्रवण करो॥८५॥
पुनस्तच्छिरसःशूलंज्वरःसपुनरागतः। पुनःसकालोबलवांश्छर्द्दिःलापुनरागता॥८६॥ एभिःप्रसन्नै-र्वचवैरतीतागमनंसतम्। कालश्चायमतीतानामार्त्तीनांपुनरागतः॥८७॥ तमर्त्तिकालमुद्दिश्यभेषजं-यत्प्रयुज्यते। अतीतानांप्रशमनवेदनानांतदुच्यते॥८८॥
सिरकी पीडाका एकवार शान्तहोकर फिर प्रगटहोजाना तथा ज्वर, खांसी और वमनका एकवार शान्तहोकर फिर प्रगटहोजाना अतीतागमन कहाजाताहै। अतीत
(भूतकाल) व्याधियें फिर पहिलेकी समान आकर उपस्थित होजातीहैं। इसलिये उनका दोरा होनेसे प्रथम उनके अतीतकालके लक्षणोंको विचारकर औषधीका प्रयोगकरना अतीतव्याधियोकी चिकित्सा कही जातीहै। जैसे नित्य दोपहर के समय किसीके शिरमें पीडा होतीहो और सायंकाल में शान्त होजाय उस शान्तावस्थामें चिकित्सा करते समय जो पीडा व्यतीत होचुकीहै उसकाही लक्ष्य रखकर औषध प्रयोग कियाजाताहै।इसीप्रकार चातुर्थिकज्वर आदिमें जाननाचाहिये इसको अतीतव्याधीकी चिकित्सा कहते हैं॥८६॥८७॥८८॥
भविष्यत्रोगकी चिकित्सा।
आपस्तापुनरागुर्यायाभिःशस्यंपुराहतम्। तथाप्रक्रियतेसेतुः प्रतिकर्मतथाश्रयेत्॥८९॥ पूर्वरूपं-विकाराणांदृष्ट्वाप्रादुर्भविष्यताम्।याक्रियाक्रियतेसाचवेदनांहन्त्यनागताम्॥९०॥
जिस जलकी बाढने पहिले खेतीको नष्टकर डालाथा वह फिर आकर खेतीको नष्ट न करदेवे उसके बचावके लिये खेतकी रक्षाकारक सेतु आदि बना रखना अथवा नदीक वेगको देखकर खेतीके नष्टताका अनुमान करके बाढआनेसे पहिले रक्षाका प्रबंध करलेना, जिसप्रकार भविष्यत् हानिकी रक्षाका उपाय है उसी प्रकार विकारोके पूर्वरूपको देखकर उनके प्रकटहोनेके पहिले किया करना अनागतव्याधी अर्थात् भविष्यव्याधीकी चिकित्सा कीजातीहै॥८९॥९०॥
पारम्पर्य्यानुबन्धस्तुदुःखानांविनिवर्त्तते। सुखहेतूपचारेणसुखञ्चापिप्रवर्त्तते॥९१॥ नसमायान्ति-वैषम्यंविषमाःसमतां नच।हेतुभिःसदृशानित्यंजायन्तेदेहधातवः॥९२॥
वर्तमान व्याधीकी चिकित्सामें कोई आक्षेप नहीं होसकता क्योंकि रोगका परम्परासे जो अनुबंध चलाआता है अर्थात् क्रमपूर्वक क्षणक्षणमे रोग जो कष्ट आदि देरहा है वह चिकित्साद्वारा निवृत्त होनेसे रोगीको सुख प्राप्त होताहै और सुखके लियेही चिकित्साकी प्रवृत्ति है तथा समधातुपे विषमताको प्राप्त नहीं होती और संपूर्ण धातुये सम भी नहीं होती क्योंकि जैसे हेतुओंका संयोग होता है वैसी शरीरकी धातुयें होतीजातीहैं। इसलिये धातुओकी अवस्थाका ध्यान रखतेहुए संपूर्ण औषधी तया आहारादिकोंका प्रयोग वर्तमान व्याधीकी चिकित्सा कहीजातीहै॥९१॥९२॥
युक्तिमेतांपुरस्कृत्यत्रिकालांवेदनांभिषक्।
हन्तीत्युक्त्त्वाचिकित्सासानैष्ठिकीयाविनोपधाम्॥९३॥
वैद्य इस युक्तीका आश्रय लेकर तीनोकालकी व्याधियोंको नष्ट कर सकता है। इस चिकित्साकोही नैष्ठिकी अर्थात् रोगनाशनी चिकित्सा कहतेहैं॥९३॥
उपधाहिपरोहेतुर्दुःखदुःखाश्रयप्रदः।त्यागःसर्वोपधानाञ्चसर्वदुःखव्यपोहकः॥९४॥ कोषकारो-यथाह्यंशूनुपादत्तेवधप्रदान्। उपादत्तेतथार्थेभ्यस्तृष्णामज्ञःसदातुरः॥९५॥ यस्त्वग्निकल्पानर्था-ञ्ज्ञोज्ञात्वातेभ्योनिवर्त्तते। अनारम्भादसंयोगात्तंदुखंनोपतिष्ठते॥९६॥
जिस चिकित्सामें किसीमकारका लोभ, आदिक उपाधि न हो वह चिकित्सा सुखदायक होतीहै। क्योंकि उपाधिही दुःखका कारण है। सबप्रकारकी उपाधियोंको त्यागदेनाही परमसुखका अवलंबन है। जैसे कोषकार (मकडी) अपने सूत्रसे बंधकर आपही प्राणोको त्यागदेतीहै वैसेही मूर्ख मनुष्य भी अतिलोभ आदि उपाधि से ग्रसितहो अपनेको आपही नष्टकर डालताहै। जो मनुष्य काम, लोभादिक विषयोको अग्निके समान समझकर उनसे निवृत्त रहते हैं अर्थात् विषयोंकी उपाधियोमें नहीं फंसते वह रागद्वेषसे किसी काम में प्रवृत्त न होकर दुःखके संयोगसे बचे रहते हैं॥९४॥९५॥९६॥
धीधृतिस्मृतिविभ्रंशःसम्प्राप्तिःकालकर्मणाम्। असात्म्यार्थागमश्चेतिज्ञातव्याहुःखहेतवः॥९७॥ विषमाभिनिवेशोयोनित्यानित्येहिताहिते। ज्ञेयःसबुद्धिविभ्रंशःसमंबुद्धिर्हिपश्यति॥९८॥ विषय-प्रवणंचित्तंधृतिभ्रंशान्नशक्यते। नियन्तुमहितादर्थाद्धृतिर्हिनियमात्मिका॥९९॥ तत्त्वज्ञानेस्मृति-र्यस्यरजोमोहावृतात्मनः। भ्रश्यतेसस्मृतिभ्रंशःस्मर्त्तव्यंहिस्मृतौस्थितम्॥१००॥
बुद्धि, धृति और स्मृति इनका नष्टहोना अयोग्य काल और अयोग्य कर्मोंका संयोग होना तथा असात्म्य पदार्थोंका संयोग होना यह सबदुःखके हेतु हैं। नित्य और अनित्य, हित और अहित इनको उल्टी रीतिसे देखना अर्थात् हितको अहित जानना और अहितको हित जानना, नित्यको अनित्य, अनित्यको नित्य जानना इत्यादि सबबुद्धि का विभ्रंश कहाजाता है।यथोचित रीतिपर जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसाही जानना उसको सद्बुद्धि कहते हैं।विषयों में चित्तको लगाना अप-
नेको विषयोंसे न हटासकना धृतिभ्रंश कहाजाताहै। क्योंकि प्रतिही महत् अर्थाको नियममें लानेवाली होनेसे नियमात्मिका कहीजातीहै। रजोगुणसे और मोहसे आवृत हुए मनुष्यकी स्मरणशक्तिका नष्टहोजाना स्मृतिभ्रंश कहाजाताहै। ज्ञानका स्मरण रहनाही स्मर्त्तव्य विषय है और उस स्मर्त्तव्य विषयके धारण करनेवाली स्मृति होती है॥९७॥९८॥९९॥१००॥
प्रज्ञापराध।
धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टःकर्मयत्कुरुतेऽशुभम्। प्रज्ञापराधंतंविद्यात्सर्वदोषप्रकोपणम्॥१०१॥ उदीरणंगतिमतामुदीर्णानाञ्चनिग्रहः। सेवनंसाहसानाञ्चनारीणाञ्चातिसेवनम्॥१०२॥ कर्म-कालातिपातश्चमिथ्यारम्भश्चकर्मणाम्। विनयाचारलोपश्चपूज्यानाञ्चाभिधर्षणम्॥१०३॥ ज्ञातानां-स्वयमर्थानामहितानांनिषेवणम्। परमौन्मादिकानाञ्चप्रत्ययानांनिषेवणम्॥१०४॥ अकालादेश-सञ्चारौमैत्रीसंक्लिष्टकर्मभिः। इन्द्रियोपक्रमोक्तस्यसद्वृत्तस्यवर्जनम्॥१०५॥ ईर्ष्यामानमदक्रोध-लोभमोहमदभ्रमाः।तज्जंवाकर्मयत्क्लिष्टंक्लिष्टंयद्देहकर्मच॥१०६॥यच्चान्यदीदृशंकर्मरजोमोह-समुत्थितम्। प्रज्ञापराधंतंशिष्टाब्रुवतेव्याधिकारणम्॥१०७॥ बुद्ध्याविषमविज्ञानंविषमञ्च-प्रवर्त्तनम्। प्रज्ञापराधंजानीयान्मनसोगोचरहितत्॥१०८॥
** **बुद्धि, धृति और स्मृतिके नष्टहोनेसे यह मनुष्य जिन अशुभ कर्मोको करता है उसको प्रज्ञापराध अर्थात् बुद्धिका दोष कहते हैं। और वह बुद्धिका दोष सब दोषोंको कुपितकरनेवाला होता है । जैसे—काम, क्रोधादि वेगोको न रोकना और मल मूत्रादि वेगोंको रोकलेना अयोग्य साहस करना, अति स्त्रीसंग करना, संपूर्ण कर्मोंको यथासमय न करना, कर्मोंका मिथ्यारंभ करना, विनय और आचार त्यागदेना माता पिता गुरुजन आदिकोंका अपमान करना जानबूझकर बुरे कर्मोका सेवनकरना परम उन्मादकेसे कर्मोंका करना, बेसमय निदितस्थानमें डोलना, फिरना, खोटे कर्मोमेंप्रेम रखना, इन्द्रियोपक्रम अर्थात् इन्द्रियोपयोगी श्रेष्ठ आचरणका त्यागदेना, ईर्षा, मान, मद, क्रोध, लोभ, मोह और भ्रम उनका धारण करना और इनसे उत्पन्न होनेवाले निदित कर्मोंका सेवन करना, एवम् देहजनित और मनके सब खोटे कर्मोंका
सेवन तथा इसी प्रकारके अन्य कर्म जो रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होते हैं उनका सेवन करना भद्रपुरुष इन सब कर्मोंको प्रज्ञापराध कहते हैं प्रज्ञापराधही व्याधियोंके उत्पन्न करनेका हेतु है।योग्य विषयको विपरीत भावसे समझना और अयोग्यको योग्य समझना इस प्रकार जो बुद्धिका दोष है उसीको प्रज्ञापराधकहतेहैं। वह प्रज्ञापराध मनके आधीन है॥१०१॥१०२॥१०३॥१०४॥१०५॥१०६॥१०७॥१०८॥
निर्दिष्टाकालसम्प्राप्तिर्व्याधीनांहेतुसंग्रहे। चयप्रकोपप्रशमाः पित्तादीनांयथापुरा॥१०९॥ मिथ्यातिहीनलिंगाश्चवर्षान्ता रोगहेतवः। जीर्णभुक्तप्रजीर्णान्नकालाकालस्थितिश्चया॥११०॥
पूर्वमध्यापराह्णाश्चवरात्र्यायांमास्त्रयश्चये। येषुकालेषुनियतायेरोगास्ते च कालजाः॥१११॥ अन्ये-द्युष्कोद्व्यहग्राहीतृतीपकचतुर्थकौ। स्वेस्वेकालेप्रवर्त्तन्तेकाले ह्येषांबलागमः॥११२॥ एतेचान्ये चयेकेचित्कालजाविविधागदाः।अनागते चिकित्स्यास्तेबलकालौविजानता॥११३॥
जिसप्रकार काल सम्प्राप्ति तथा व्याधियोंके हेतु संग्रह (कियंत शिरशीय अध्याय) में पित्त आदिकोंका चय, प्रकोप और प्रशमन पहिले कथनकर आये हैं तथा शीत आदिक वर्षापर्यन्त ऋतुओंका मिथ्यायोग, अतियोग हनियोग होनेसे रोग उत्पन्न होतेहैं। भोजनके जीर्ण होनेपर भोजनके समय, भोजनके पाककालमें दोषोंकी जिसप्रकार स्थिति होतीहै, पूर्वाह्न, मध्याह और अपराह्नमें इसीप्रकार रात्रिके तीनोभागोंमें और जिनकालोंमें जो रोग जिसप्रकार नियत हैं तथा जो जिसकालमें उत्पन्न होतेहैं एवम् इकतरा, द्व्याहिक, तृतीयक और चातुर्थिक ज्वर जिसप्रकार अपने २ कालमें आकर स्थित होतेहैं इन सबको कालजन्य व्याधियें कहतेहैं। बुद्धिमान वैद्य इन व्याधियोंके प्रगट होनेके कालसे पहिलेही चिकित्साद्वारा बल काल विचारकर उसका उपाय करे॥१०९॥११०॥१११॥११२॥११३॥
स्वाभाविकरोगोंका वर्णन।
कालस्यपरिणामेनजरामृत्युनिमित्तजाः।
रोगाःस्वाभाविकादृष्टाःस्वभावोनिष्प्रतिक्रियः॥११४॥
कालके परिणामसे बुढ़ापे और मृत्युके निमित्तसे जो रोग उत्पन्न होतेहैं उनको स्वाभाविकरोग कहतेहैं।स्वाभाविकरोगोंकी कोई चिकित्सा नहीं है॥११४॥
निर्दिष्टंदैवशब्देनकर्मयरपोर्वदैहिकम्।
हेतुस्तदपिकालेनरोगाणामुपलभ्यते॥११५॥
पूर्वजन्म के किये हुए कर्मोंको दैव अथवा प्रारब्ध कहतेहैं।वह दैव भी काल पाकर रोगोका कारण प्रतीत होताहै॥११५॥
कर्मरोगोंकी शान्ति।
नहिकर्ममहत्किञ्चित्फलंयस्यनभुज्यते।
क्रियाघ्नाःकर्मजारोगाःप्रशमंयान्तितत्क्षयात्॥११६॥
ऐसा कोईभी सूक्ष्मसे सूक्ष्म और महान्से महान् कर्म नहीं है जिसका फल न भोगना पडता हो। वह कर्ममें उत्पन्न हुए रोग किया अथवा प्रायश्चित्त करनेसे शान्त हो॥११६॥
श्रवणसंयोगादिवर्णन।
अत्युग्रशब्दश्रवणाच्छ्रवणात्सर्वशोनच।शब्दानाञ्चातिहीनानांभवन्तिश्रवणाज्जडाः॥११७॥ परुषोद्भीषणप्रशस्ताप्रियव्यसनसूचकैः। शब्दैःश्रवणसंयोगोमिथ्यायोगःसउच्यते॥११८॥
अत्यन्त उग्र शब्द सुनना और बहुत कालपर्यन्त तीक्ष्ण अवाजका सुनतेरहना श्रवणेन्द्रियका अतियोग है। सर्वथा न सुनना अथवा अत्यन्त हीन शब्दोंका सुनना यह श्रवणेन्द्रिय का अयोग है। कठोर शब्द, निंदित शब्द, अप्रिय शब्द और विपत्तिके याद दिलानेवाले शब्दोंका सुनना श्रवणेन्द्रियका मिथ्यायोग है। इन तीनों योगोंके संयोगसे श्रवणेन्द्रियमें जडता उत्पन्न होती है॥११७॥११८॥
त्वगिन्द्रियसंयोगादिव०।
असंस्पर्शोऽतिसंस्पर्शोहीनसंस्पर्शएवच।स्पृश्यानांसंग्रहेणोक्तः स्पर्शनेन्द्रियबाधकः॥११९॥ योभूतविषवातानामकालेनागतश्चयः। स्नेहशीतोष्णसंस्पर्शोमिथ्यायोगः सउच्यते॥१२०॥
किसी वस्तुका भी स्पर्श न करना, अत्यंत स्पर्श करना, बहुत हीन स्पर्श करना, भूतसंस्पर्श होना, विषसंस्पर्श, तीक्ष्णवायुका संस्पर्श, बेसमयके स्नेह, शीत और ऊष्णका संस्पर्श मिथ्यायोग कहाजाताहै।स्पर्शनेन्द्रियका मिथ्यायोग होने से स्पर्शशक्ति हीन होजातीहै॥११९॥१२०॥
रूपाणांभास्वतांदृष्टिर्विनश्यतिचदर्शनात्॥१२१॥ दर्शनाच्चातिसूक्ष्माणांसर्वशश्चाप्यदर्शनात्।द्विष्टभैरवबीभत्सद्वरातिक्लिदर्शनात्। तामसानाञ्चरूपाणांमिथ्यासंयोग उच्यते॥१२२॥
अत्यन्त प्रकाशवान् वस्तुओंको देखना अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थोंका देखना सर्वथा किसी वस्तुको भी न देखना, द्वेषयुक्त, भयानक बीभत्स पदार्थोंका देखना बहुत दूरसे बडी देरतक देखना और जिसके देखनेसे कष्ट हो उसको देखना, तथा तामसरूपोंका देखना यह सब दृष्टिका मिथ्यायोग कहाजाताहै॥१२१॥१२२॥
रसनेन्द्रियसं० व०।
अत्यादानमनादानमोकसात्म्यादिभिश्चयत्।
रसानांविषमादानमल्पादानञ्चदूषणम्॥१२३॥
रस विशेषोंको अत्यन्त ग्रहण करना, अथवा कोई रस भी बिलकुल ग्रहण न करना, विपरीततासे ग्रहणकरना, या अत्यन्तही हीनतासे ग्रहणकरना अत्यंत तीक्ष्ण रसोंका ग्रहणकरना रसनेन्द्रियका मिथ्यायोग कहाताहै। रसनेन्द्रियका मिथ्यायोग होनेसे जिह्वाकी शक्ति हीन होजातीहै॥१२३॥
घ्राणेन्द्रिय सं० व०।
अतिमृद्वतितीक्ष्णानांगन्धानामुपसेवनम्॥१२४॥ असेवनं सर्वशश्चघ्राणेन्द्रियविनाशनम्। पूति-भूतविषद्विष्टागन्धाये चाप्यनार्त्तवाः॥१२५॥ तैर्गन्धैर्घ्राणसंयोगोमिथ्यायोगः स उच्यते॥१२६॥
अति मृदु और अत्यन्त तीक्ष्ण गंधके सूंघनेसे या सर्वथा किसी गंधके न सूंघनेते और दुर्गंध तथा विषदूषित अथवा जो बुरी प्रतीत हो उस गंधके सूंघनेसे, और अकालमें प्रगट हुई गंधके मूंघनेसे घ्राणेन्द्रियका मिथ्यायोग होनेसे घ्राणशक्ती हीन होजातीहै॥१२४॥१२५॥१२६॥
असात्म्यलक्षण।
इत्यसात्म्यार्थसंयोगस्त्रिविधोदोषकोपनः।
असात्म्यमितितद्विद्याद्यन्नयातिसहात्मताम्॥१२७॥
इसप्रकार इन्द्रियोंका अयोग, अतियोग और मिथ्यायोग यह तीन प्रकारका असात्म्य संयोग होनेसे दोष कुपित होकर इन्द्रियोंको नष्ट करतेहैं।जो पदार्थ
अथवा जो विषय आत्मा के साथ न मिले अर्थात् अपने स्वभावके अनुकूल न हो उसको असात्म्य कहते हैं॥१२७॥
मिथ्यातिहीनयोगेभ्योयोव्याधिरुपजायते।
शब्दादीनांसविज्ञेयोव्याधिरैन्द्रियकोबुधैः॥१२८॥
शब्दादिक विषयोका श्रवणादि इन्द्रियोंसे मिथ्यायोग, अंतियोग और हीनयोग होनेसे जो व्याधिये उत्पन्न होतीहैं उनको बुद्धिमान् लोग ऐन्द्रियकव्याधि कहतेहैं॥१२८॥
वेदनानामशातानामित्येतेहेतवःस्मृताः।
सुखहेतुर्मतस्त्वेकःसमयोगःसुदुर्लभः॥१२९॥
इसमकार असात्म्य पदार्थोंका सेवन अथवा मिथ्यायोगसे सेवन व्याधि उत्पन्न करनेका कारण होताहै। और विधिवत् समानयोगसे सेवन करना सुखका हेतु होता है परन्तु संपूर्ण पदार्थोंका समयोगसे सेवन करना भी दुर्लभहै॥१२९॥
सुखदुःखोंके प्रधानहेतु।
नेन्द्रियाणिनचैवार्थाःसुखदुःखस्यहेतवः।हेतुस्तुसुखदुःखस्य योगोदृष्टश्चतुर्विधः॥१३०॥ सन्तीन्द्रियाणिसन्त्यर्थायगोन चनचास्तिरुक्।नसुखकारणं तस्माद्योगएवचतुर्विधः॥१३१॥
सुख और दुःखके हेतु न तो संपूर्ण इन्द्रिय हैं और न अर्थही (इन्द्रियों के विषय) है।किन्तु चतुर्विध योगका होनाही सुखदुःखका हेतु होताहै। अर्थात् तीन प्रकारके असात्म्य योगोंका होना दुःखका कारण होता है और केवल समयोगका होनाही सुखका कारण होता है संपूर्ण इन्द्रिये भी हो और इन्द्रियों के विषय भी हों परन्त पूर्वोक्त चारमकारका योग न होनेसे न सुख होता है और न व्याधीही होसकती है॥१३०॥१३१॥
नात्मेन्द्रियंमनोबुद्धिगोचरंकर्मवाविना।
सुखंदुःखंयथायच्चबोद्धव्यंतत्तथोच्यते॥१३२॥
यद्यपि सुख और दुःख आत्मा, इन्द्रिय, मन और बुद्धिके गोचरहैं परन्तु कर्मके संयोग विना वह नही होसकते कर्मही सुख और दुःखका इनके साथ संयोग कराताहै। जिसप्रकार कर्म सुखदुःखके संयोगको कराताहै उसका कथन करतेहै॥१३२॥
स्पर्शनेन्द्रियसंस्पर्शःस्पर्शोमानसएवच।द्विविधःसुखदुःखानां वेदनानांप्रवर्त्तकः॥१३३॥ इच्छा-द्वेषात्मिकातृष्णासुखदुःखा-
त्प्रवर्त्तते। तृष्णाचसुखदुःखानांकारणंपुनरुच्यते॥१३४॥ उपादत्तेहिसाभावान्वेदनाश्रयसंज्ञकान्।स्पृश्यतेनानुपादानोनास्पृष्टोवेत्तिवेदनाः॥१३५॥
जैसे—स्पर्शनेन्द्रिय संस्पर्श और मानससंस्पर्श यह दो प्रकार के संस्पर्शरूपी जो कर्म हैं यही सुखदुःखके ज्ञानके प्रवर्त्तक हैं। फिर सुखदुःखसे इच्छा द्वेषमयी तृष्णा उत्पन्न होतीहै। वह तृष्णाही सुखदुःखका कारण कहीजातीहै। क्योंकि वह तृष्णाही वेदनाश्रय भावोंको ग्रहण करती है। जिसका ग्रहण नहीं किया जाता उसका स्पर्शभी नहीं होता किसीप्रकारका भी स्पर्श न होनेसे पीडाकी उत्पत्ति नहीं होती॥१३३॥ ॥१३४॥१३५॥
वेदनाके स्थान।
वेदनानामधिष्ठानंमनोदेहश्चसेन्द्रियः।
केशलोमनखाग्रान्नमलद्रवगुणैर्विना॥१३६॥
मन और इन्द्रिययुक्त शरीर पीडका अधिष्ठान है।स्पर्शइन्द्रियरहित केश, रोम, नख, मल, मूत्र और शरीरमें होनेवाले शब्द आदिक यह कोई भी वेदनाके अधिष्ठान नहीं हैं॥१३६॥
योग और मोक्ष।
योगेमोक्षेचसर्वासांवेदनानामवर्त्तनम्। मोक्षोनिवृत्तिर्निःशेषायोगोमोक्षप्रवर्त्तकः॥१३७॥ आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानांसन्निकर्षात्प्रवर्त्तते। सुखंदुःखमनारम्भादात्मस्थेमनसिस्थिते॥१३८॥निवर्त्ततेतदुभयंवशित्वञ्चोपजायते। सशरीरस्ययोगज्ञास्तंयोगमृषयोविदुः॥१३९॥
योग और मोक्षमें किसी प्रकारके दुःखादिक उत्पन्न नहीं होते। और मोक्षमें तो निःशेषरूपसे दुःखकी निवृत्तिही होती है और योगद्वाराही मोक्षकी प्राप्ति होतीहै। आत्मा, इंद्रिय मन और इन्द्रियोंके विषय इनका संयोग होनेसेही सुखदुःखकी प्रवृत्ति है। योगावस्थामें मन निष्क्रिय होकर आत्मामें स्थित होजाताहै। इसलिये उस अवस्थामें सुखदुःखकी निवृत्ति होजाती हैं और वशित्व उत्पन्न होजाता है। सब इन्द्रियांको तथा मनको वशमें करलेनाही ऋषिलोग योग कथन करते हैं॥१३७॥१३८॥१३९॥
अष्टविध योगबल।
आवेशश्चेतसोज्ञानमर्थानांछन्दतः क्रिया।दृष्टिःश्रोत्रंस्मृतिःकान्तिरिष्टतश्चाप्यदर्शनम्॥१४०॥ इत्यष्टविधमाख्यातं योगिनांबलमैश्वरम्। शुद्धसत्त्वसमाधानात्तत्सर्वमुपजायते॥१४१॥
सत्त्वगुण के प्रगट होनसे योगियोंके शरीरमें आठ प्रकारका ईश्वरीयबल आजाता है। जैसे–चित्तको एकाग्र करलेना, संपूर्ण विषयोंको जानलेना, इच्छानुसार क्रिया करना, योगदृष्टिसे संपूर्ण पदार्थोंको देखलेना, दूरकी बातोंको श्रवण करलेना, पूर्वजन्मके विषयोंको स्मरण करलेना, प्रकट होना और अन्तर्धान हो जाना यह ईश्वरीयबल योगाभ्याससे शुद्धसत्त्वगुण के प्रकट होजाने पर उत्पन्न हो जाते हैं॥१४०॥१४१॥
मोक्षप्राप्तिकी रीति।
मोक्षोरजस्तमोऽभावाद्बलवत्कर्मसंक्षयात्।
वियोगःकर्मसंयोगैरपुनर्भावउच्यते॥१४२॥
रजोगुण और तमोगुणका एकदम अभाव होनेसे और योगद्वारा बलवान् कर्मके क्षय होनेसे तथा कर्मके संयोगोंसे वियोग होनेसे जो पुर्नभाव होताहै अर्थात् फिर जन्मलेनेका अभाव होजाता है उसको मोक्ष कहते हैं॥१४२॥
दुःखोंसे निवृत्तिके उपाय।
सतामुपासनंसम्यगसतांपरिवर्जनम्।
व्रतचर्य्योपवासञ्चनियमाश्चपृथग्विधाः॥१४३॥
श्रेष्ठ पुरुषोंका सेवन, दुर्जनोंके संगका त्याग, ब्रह्मचर्यपालन और उपवास इन सबको धारणकरना नियम कहाजाताहै॥१४३॥
धारणंधर्मशास्त्राणांविज्ञानंविजनेरतिः।
विषयेष्वरतिर्मोक्षेव्यवसायःपराधृतिः॥१४४॥
धर्मका धारणकरना, विज्ञान, निर्जनस्थानम गत (प्रीति), विषयोंमें वैराग्य, मोक्षसाधनमें तत्परता यह सब धृतिक लक्षण है॥१४४॥
कर्मणामसमारंभःकृतानाञ्चपरिक्षयः। नैष्कर्म्यमनहंकारःसंयोगेभयदर्शनम्॥१४५॥ मनोबुद्धि-समाधानमर्थतत्त्वपरीक्षणम्।तत्त्वस्मृतेरुपस्थानात्सर्वमेतत्प्रवर्त्तते॥१४६॥
कर्मका अनारंभ किये हुए कर्मोका क्षय, गृहादिकोंका त्याग, निरहंकार, विषयोंमें भयदर्शन, मन और बुद्धि का समाधान, अर्थतत्त्वकी परीक्षा यह सबआत्मतत्त्वकी उत्कर्षतासे उत्पन्न होतेहैं। अर्थात् यह यौगिक स्मृतिके लक्षण हैं॥१४५॥१४६॥
स्मृतिःसत्सेवनाद्यैश्चधृत्यन्तैरुपलभ्यते।
स्मृत्यास्वभावंभावानांस्मरन्दुःखात्प्रमुच्यते॥१४७॥
महात्मादिकोंके सेवन आदि नियमांसे, और संपूर्ण धृतिके गुणोंके उत्कर्षसे स्मृतिकी उपलब्धी होतीहै। उसी यौगिकस्मृतिद्वारा संपूर्ण भावोंका स्मरण होनेसे मनुष्य दुःखसुखसे छूट मोक्षका अधिकारी होजाताहै॥१४७॥
स्मृतिकी प्राप्तिके कारण।
वक्ष्यन्तेकारणान्यष्टौस्मृतिर्यैरुपजायते। निमित्तरूपग्रहणात्सादृश्यात्सविषयात्॥१४८॥ सत्त्वानु-बन्धादभ्यासाज्ज्ञानयोगात्पुनःश्रुतात्। दृष्टश्रुतानुभूतानांस्मरणात्स्मृतिरुच्यते॥१४९॥
जिन आठकारणोंसे स्मृतिकी उत्पत्ति होतीहै उन आठ कारणोंका कथन करतेहैं। जैसे–निमित्त, रूपग्रहण, सादृश्य विपर्यय सत्त्वानुबंध, अभ्यास, ज्ञानयोग और पुनःश्रवण करना यह स्मृतिके उत्पन्न होने के कारण हैं।देखेहुए, सुनेहुए, अनुभव कियेहुए भूतोंको स्मरणकरनेसे इसको स्मृति कहतेहैं॥१४८॥१४९॥
एतत्तदेकमयनंमुक्तैर्मोक्षस्यदर्शितम्। तत्त्वस्मृतिबलंयेनगतानपुनरागताः॥१५०॥ अयनंपुनरा-ख्यातमेतद्योगस्ययोगिभिः। संख्यातधर्मैःसांख्यैश्चमुक्तैर्मोक्षस्यचायनम्॥१५१॥
योगीजनोंने यही मोक्षसाधनका एकमात्र मार्ग दिखायाहै। जो महात्मा तत्त्वस्मृतिके बलसे मोक्षको प्राप्त हुए हैं वह फिर कभी जन्मको धारण नहीं करते। इसीको योगियोंने योगका स्थान कथन किया है और विख्यातवर्मा सांख्यवादियोंने इसीको मोक्षका मार्ग कथन कियाहै॥१५०॥१५१॥
सर्वंकारणवद्दुःखमस्खञ्चानित्यमेवच।नचात्माकृतकंतद्धितत्रचोत्पद्यतेखता॥१५२॥ यावन्नोत्पद्यतेसत्याबुद्धिर्नैतदहंयया। नैतन्ममचविज्ञायज्ञःसर्वमतिवर्त्तते॥१५३॥
यह जो संपूर्ण भावहैं यह सब दुःखके कारण हैं।अपना कुछ नहीं है यह सब अनित्य है। आत्मा उदासीन है इसलिये यह आत्माका किया हुआ नहीं है।शरीरादिकोंमें ममता होना वृथा है इत्यादिक सत्या बुद्धिकी जबतक उत्पत्ति नहीं होती तबतक
अहंबुद्धि आदि नष्ट नहीं होते। जब सात्विकी बुद्धि उत्पन्न होनेसे यह मेरा नहीं, मै इनसबसे अलग हूँ इत्यादि यथावत् विज्ञान प्राप्त होजाताहै तब यह आत्मा ज्ञानी होनेसे संपूर्णका त्यागकर देता है॥१५२॥१५३॥
मोक्षका रूप।
तस्मिंश्चरमसंन्यासेसमूलाःसर्ववेदनाः।समज्ञाज्ञानविज्ञानान्निवृत्तिंयान्त्यशेषतः॥१५४॥ अतःपरं-ब्रह्मभूतोभूतात्मानोपलभ्यते। निःसृतःसर्वभावेभ्यश्चिह्नंयस्यनविद्यते॥१५५॥गतिर्ब्रह्मविदांबह्म-तच्चाक्षरमलक्षणम्। ज्ञानंब्रह्मविदाञ्चात्रनाज्ञस्तज्ज्ञातुमर्हति॥१५६॥
जब आत्मामें इसप्रकार यथावत् ज्ञान होनेसे संन्यास उत्पन्न होजाता है तब संपूर्ण कामादिकवेदना अज्ञता, ज्ञान, विज्ञान यह सब निःशेषतासे निवृत्त होजातेहैं। फिर यह परब्रह्मभावको प्राप्त होकर शरीरआदिकोंको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार संपूर्ण भावोसे मुक्त होनेपर इस पुरुषका कोई चिह्न बाकी नहीं रहता। वह ब्रह्म ब्रह्मके जाननेवालोंकी गतिहै अर्थात् ब्रह्मके जाननेवालेही उस अवस्थाको जान सकते हैं और प्राप्त होसकतेहैं। वह अक्षर है और लक्षणरहित है। ब्रह्मज्ञानरहित मनुष्य उसको किसी प्रकार भी नहीं जान सकते॥१५४॥१५५॥१५६॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
प्रश्नाःपुरुषमाश्रित्यत्रयोविंशतिरुत्तमाः।
कतिधापुरुषीयेऽस्मिन्निर्णीतास्तत्त्वदर्शिना॥१५७॥
इत्यग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेकतिधापुरुषीयंशारीरंसमाप्तम्॥१॥
यहां अध्यायकी पूर्ति में कहतेहै कि इस कतिधापुरुषीय अध्याय में तत्त्वज्ञाता महर्षि आत्रेयजीने पुरुषका आश्रय लेकर तेईसप्रकारके उत्तम प्रश्नो के उत्तररूप निर्णयको विधिपूर्वक कथन कियाहै॥१५७॥
इति श्रीमहपिंचर० वि० स्था० मा० टी० कतिवापुरुषीयशारीर नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
________________
द्वितीयोऽध्यायः।
अथातोऽतुल्पगोत्रीयं शारीरं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानेत्रयः।
अब हम अतुल्यगोत्रीय शारीरनामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
गर्भके चतुष्पादमें प्रश्न।
अतुल्यगोत्रस्यरजःक्षयान्तेरहोविसृष्टंमिथुनीकृतस्य।किंस्याच्चतुष्पात्प्रभवञ्चषड्भ्योयत्स्त्रीषु-गर्भत्वमुपैतिपुंसः॥१॥
जब स्त्री रजोधर्मसे शुद्ध हो लेवे अर्थात् रजोदर्शनके चार दिन उपरांत अपनेसे अन्य गोत्रवाले पुरुषके संयोगसे रात्रिके समय गर्भाधान करे तब उस ऋतुसे शुद्धहुई स्त्रीके गर्भाशय में जो शारीरिक द्रव्य गिरताहै तथा चतुष्पाद और छः रसोंसे प्रगट होनेवाला जो जो द्रव्य है अर्थात् जो चतुष्पाद गर्भ कहाजाता है और गर्भत्वको प्राप्तहोताहै वह क्या पदार्थ है॥१॥
उत्तर।
शुक्रंतदस्यप्रवदन्तिधीरायद्धीयते गर्भसमुद्भवाय। वाय्वग्निभूम्यब्गुणपादवत्तंषड्भ्योरसेभ्यः-प्रभवश्चतस्य॥२॥
इसप्रकार अग्निवेश के प्रश्नको सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहतेहैं कि, छः रसोंका अन्तिम परिणामभूत जो वीर्य है उसको बुद्धिमान् शुक्र कहतेहैं । वह पुरुषका शुक्रही स्त्रीकी योनि में प्राप्तहो शुद्ध आर्तवसे मिलकर गर्भको प्रगट करताहै क्योंकि छः रसोंसे इसकी उत्पत्ति होतीहै इसलिये इसकी छःरसोंसे उत्पत्ति मानते हैं। वह वायु, अग्नि, पृथ्वी और जल इनके गुणोंसे युक्त होताहै इसलिये इसको चतुष्पाद कहते हैं॥२॥
गर्भके विषयमें प्रश्न।
सम्पूर्णदेहःसमयेसुखञ्चगर्भःकथंकेनचजायतेस्त्री। गर्भंचिराद्विन्दतिसप्रजापिभूत्वाथवानश्यति-केनगर्भः॥३॥
(प्रश्न) वह वायु, अग्नि, पृथ्वी और जलसे युक्तहुआ गर्भ किससमय संपूर्णदेहको प्राप्त होताहै? और स्त्री किसप्रकार कैसे सुखपूर्वक प्रगट करतीहै। और जो स्त्रियेंवंध्या दोषयुक्त नहीं भी हैं वह भी कभी कभी बहुत समय में अर्थात् विलम्बसे गर्भको क्यों धारण करती हैं।बहुतसी स्त्रियोंको गर्भ होकर फिर वह नष्ट क्यों हो जाता है॥३॥
यथाक्रम उत्तर।
शुक्रासृगात्माशयकालसम्पद्यस्योपचाराश्चहितैस्तथार्थैः।
गर्भश्चकालेचसुखीसुखञ्चसञ्जायतेसम्परिपूर्णदेहः॥४॥
(उत्तर) शुद्ध शुक्र और शुद्ध रक्त, आत्मा, जरायु और काल इन सबके उत्तम होनेसे तथा हितकारक पदार्थोंके सेवनसे एवम् हितकारक भावोंके होनेसे अपने समयपर संपूर्णदेह हुआ वह सुखी गर्भ सुखपूर्वक उत्पन्न होता है॥४॥
योनिप्रदोषान्मनसोऽभितापाच्छुकासृगाहारविहारदोषात्।
अकालयोगाद्बलसंक्षयाच्चगर्भचिराद्विन्दतिसप्रजापि॥५॥
योनिके दोषसे और मनके अभितापसे शुक्र और रजके दोषसे, अहित आहार विहारके सेवनसे, अकालका योग होनेसे और बलके क्षीण होनेसे इत्यादि कारणोंसे जो स्त्रिये वंध्या नहीं भी है वह भी गर्भको बहुत विलंबसे धारण करतीहै॥५॥
असृङ्निरुद्धंपवनेननार्य्यागर्भंव्यवस्यन्त्यबुधाःकदाचित्।
गर्भस्यरूपंहिकरोतितस्यास्तदासुगस्त्राविविवर्द्धमानम्॥६॥
तदग्निसूर्य्यश्रमशोकरोगैरुष्णान्नपानैरथवाप्रवृत्तम्।
दृष्ट्वासृगेकेनचगर्भमज्ञाःकेचिन्नराभूतहृतंवदन्ति॥७॥
जब गुल्म आदिका योग होनेसे वायु स्त्रीके रजोधर्मको रोकदेताहै तब बहुतसे मूर्खलोग यह समझ लेते है कि यह गर्भ है और वह मासिकऋतुके स्राव नहोनेसे वृद्धिको प्राप्तहो गर्भकैसे रूपोको धारणकर लेताहै। जब कभी अचानक अग्नि अथवा सूर्यके संतापसे वा किसी शोक या रोगसे अथवा गर्मअन्नपानके सेवनसे स्राव होने लगताहै तो उस रुधिरको देखकर और शरीरमें पहिलेकेसमान गर्भकेसे चिह्न न पाकर कोई २ कहनेलगती है कि इस गर्भको भूतोंने नष्टकर डालाहै॥६॥७॥
ओजोऽशनानांरजनीचराणामाहारहेतोर्नशरीरमिष्टम्।
गर्भंहरेयुर्यदितेनमातुर्लब्धावकाशंनहरेयुरोजः॥८॥
परन्तु यह सब विश्वास उनका मूर्खताका होताह क्योकि भूत, प्रेत केवल ओजकोही अशन करनेवाले हैं। शरीरको वह नहीं खाते यदि वह स्त्रीके शरीरमें प्रवेश होकर गर्भको नष्ट करते तो माताके ओजको पीकर उसको नष्ट क्यो न कर डालते।इस लिये यह सब उनका विश्वास मूर्खताका जानना॥८॥
सन्तानका प्रश्न।
कन्यांसुतंवासहितौपृथग्वासुतौसुतेवातनयान्बहून्वा।
कस्मात्प्रसूतेसुचिरेणगर्भमेकोऽभिवृद्धिञ्चयमेऽभ्युपैति॥९॥
(प्रश्न) गर्भसे कन्या किस प्रकार उत्पन्न होती है।पुत्र कैसे होता है।दो पुत्र या दो कन्या किस तरह होतेहैं।अथवा कन्या और पुत्र मिलकर दो कैसे होतेहै। उस
एकही गर्भसे बहुत से पुत्र कैसे प्रगट होते हैं। प्रसूत होनेमें अधिक बिलंब किसमकार होताहै और एक गर्भसे यदि दो बालक उत्पन्न हों तो उनमें एक हृष्टपुष्ट और एकके कृश होनेका क्या कारण है॥९॥
उत्तर।
रक्तेनकन्यामधिकेनपुत्रंशुक्रेणतेनद्विविधीकृतेन।
बीजेनकन्याञ्चसुतञ्चसूतेयथाखबीजान्यतराधिकेन॥१०॥
शुक्राधिकंद्वैधमुपैतिबीजंयस्यासुतौसासहितौप्रसूते।
रक्ताधिकंवायदिभेदमेतिद्विधासुतेसासहितेप्रसूते॥११॥
(उत्तर) गर्भाधानके समय स्त्रीके रक्तकी अधिकता होनेसे कन्या उत्पन्न होती है, और पुरुषके शुक्रकी अधिकता होनेसे पुत्र उत्पन्न होता है।यदि वह दोनों मिलते समय गर्भाशयकी वायुसे दो विभागको प्राप्त होजांय तो उनमें एक भागमें रक्तकी अधिकता एकमें वर्यिकी अधिकता होनेसे एक कन्या और एक पुत्र उत्पन्न होताहै।यदि उस समय शुक्रकी अधिकता हो फिर शुक्र और रज मिलकर दो विभाग होजांय तो दो पुत्र उत्पन्न होतेहैं । इसी प्रकार रजकी अधिकता होनेसे दो कन्यायें उत्पन्न होती हें॥१०॥११॥
भिनत्तियावद्वहुधाप्रपन्नःशुक्रार्त्तबंवायुरतिप्रवृद्धः।
तावन्त्यपत्यानियथाविभागंकर्मात्माकान्यस्ववशात्प्रसूते॥१२॥
यदि गर्भाशयमें अत्यन्त बढा हुआ वायु उस रज वीर्षके पांच चार विभाग बना देवे तो कर्माधीन उतने बालक गर्भसे प्रगट होते हैं॥१२॥
आहारमाप्नोतियदानगर्भःशोषंसमाप्नोतिपरिसृतिंवा।
तंस्त्रीप्रसूतेसुचिरेणगर्भंपुष्टोयदावर्षगणैरपिस्यात्॥१३॥
जब गर्भको आहार नहीं मिलता वा गर्भवती स्त्री अत्यन्त हानिकारक रूक्ष आदि पदार्थोंका सेवन करतीहै तब गर्भ सूखजाताहै अथवा गिर भी जाता है। यदि वह गर्भ सूखजाता है तो बहुत कालमें पुष्ट होता और बहुत विलंबसे उत्पन्न होताहै।कभी २ उस गर्भके प्रगट होनेमें एकवर्षसे भी अधिक समय लगनाताहै॥१३॥
कर्मात्मकत्वाद्विषमांशभेदाच्छुक्रासृजंवृद्धिमुपैतिकुक्षौ।
एकोधिकोन्यूनतरोद्वितीयएवंयमेऽप्यभ्यधिकोविशेषः॥१४॥
कर्माधीन रज और वीर्यके बडे छोटे दो अंश होजानेसे वह दोनों भाग कुक्षीमें वृद्धिको प्राप्त होकर जब समयपर उत्पन्न होतेहैं तो उनमें एक बडा और एक छोटा होताहै॥१४॥
कस्माद्विरेताःपवनेन्द्रियोवासंस्कारवाहीनरनारिषण्डः।
वक्रीतथेर्ष्याभिरतिःकथंवासञ्जायतेवातिकषण्डकोवा॥१५॥
(प्रश्न) द्विरेता—द्विरेता किसप्रकार होताहै। पवनेन्द्रिय कैसे होताहै। और संस्कारवाही किस कारणसे होता है। नरखण्ड किस कारणसे होताहै। नारखण्ड किस कारणसे होताहै। नारीखण्ड कैसे होताहै। वक्री कैसे होताहै। ईर्षक किसप्रकार होताहै। वातिकखण्ड होनेके क्या कारण है॥१५॥
बीजात्समांशादुपतप्तबीजात्स्त्रीपुंसलिङ्गीभवतिद्विरेताः। शुक्राशयंगर्भगतस्यहत्वाकरोतिवायुः-पवनेन्द्रियत्वम्॥१६॥ शुक्राशयद्वारविघट्टनेनसंस्कारवाहंहिकरोतिवायुः।मन्दाल्पबीजावबलाव-हर्षोक्लीबौचहेतुर्विकृतिद्वयस्य॥१७॥ मातुर्व्यवायप्रतिघेनवक्रीस्याद्बीजदौर्बल्यतयापितुश्च। ईर्ष्याभिभूतावपि मन्दहर्षावीर्य्यारतेरेववदन्तिहेतुम्॥१८॥ वाय्वग्निदोषाद्वृषगौतुयस्यनाशंगतौ-वातिकषण्डकःसः। इत्येवमष्टौविकृतिप्रकाराःकर्मात्मकानामुपलक्षणीयाः॥१९॥
(उत्तर) गर्भाधान के समय रज और बीर्य दोनो समांश अर्थात् बराबर होनेसे गर्भ हो जो संतान होतीहै उसको द्विरेता नपुंसक कहतेहैं।यह स्त्री और पुरुषकेसे लक्षणवाला होताहै। जब वायु गर्भके शुक्राशयको नष्ट करदेताहै उससे जो बालक प्रगट होता है उसको पवनेद्रिय (नपुंसक) कहते हैं इसको वीर्य नहीं होता। यदि वायु गर्भ में शुक्राशय के द्वारको रोक देवे तो उस गर्भसे उत्पन्न हुए संतानको शुक्रवाह कहते है। इस पुरुषके शरीर में वीर्याश होतेहुए भी वीर्य निकल नहीं सकता। माता पिताके अत्यन्त अल्प और दुर्बल वीर्य होनेसे तथा अप्रसन्न होकर मैथुन करनेसे जो गर्भ होताहै उससे यदि पुरुषकेसे लक्षणवाला उत्पन्नहो तो नरषण्ड कहते हैं और स्त्रीके लक्षणवाला हो तो नारीषण्ड कहतेहैं।स्त्री पुरुषके समान ऊपर हो और पुरुष स्त्रीके समान नीचे हो उस अवस्थामें गर्भरहनेसे और पुरुषका वीर्य कम होनेसे जो संतान होतीहै उसको वक्री कहतेहैं। यदि वह पुरुष हो तो स्त्रीके लक्षणवाला होताहै और स्त्री हो तो पुरुष के लक्षणवाली होतीहै। गर्भाधानके समयमें मातापिताके ईर्षायुक्त तथा मंदहर्ष होनेसे जो संतान होती है उसको ईर्षक कहते हैं। वायु और अग्निके दोपसे जिसके दोनो फोते नष्ट होगयेहों उसको वातिकषण्ड कहते हैं। इसप्रकार अपने कर्मदोपसे यह आठ प्रकारके गर्भकी विकृतियोसे उत्पन्न होनेवाले नपुंसक कहेजाते हैं॥१६॥१७॥१८॥१९॥
गर्भस्यसद्योऽनुगतस्यकुक्षौस्त्रीपुंनपुंसामुदरस्थितानाम्।
किंलक्षणंकारणमिष्यतेकिंसरूपतांयेनचयात्यपत्यम्॥२०॥
(प्रश्न) तत्काल हुए गर्भके क्या लक्षण होते हैं गर्ममें कन्या है अथवा पुरुषहै या नपुंसक है इनके पृथक् २ जानने के क्या लक्षण होते हैं। सव संतानोंका एकसा स्त्ररूपं न होनेमें क्या कारण है॥२०॥
सद्योगर्भके लक्षण।
निष्ठीविकागौरवमङ्गसादस्तन्द्राप्रहर्षोहृदयव्यथाच।
तृप्तिश्चबीजग्रहणञ्चयोन्यागर्भस्यसद्योऽनुगतस्यलिंगम्॥२१॥
(उत्तर) सद्योगृहीतगर्भा के लक्षण ये हैं जैसे—मुखसे थूकका आना, शरीर भारी होना, जांघोंका रहसा जाना ग्लानि, तंद्रा, अमहर्ष, हृदयमें व्यथा, विनाही भोजन तृप्ति, योनिका फडकना यह सब योनिद्वारा बीज ग्रहणकरनेके अर्थात् तत्काल गर्भ होनेके लक्षण हैं॥२१॥
गर्भस्थबालकादिका परिचय।
सव्यांगचेष्टापुरुषार्थिनीस्त्रीस्त्रीस्वप्नपानाशनशलिचेष्टा। सव्यांगगर्भानचवृत्तगर्भासव्यप्रदुग्धा-स्त्रियमेवसूते॥२२॥ पुत्रन्त्वतोलिङ्गविपर्ययेण व्यामिश्रलिङ्गाप्रकृतिंतृतीयाम्। गर्भोपपत्तौतुमनः-स्त्रियायंजन्तुंव्रजेतत्सदृशंप्रसूते॥२३॥
गर्भधारण होजानेके अनन्तर जो स्त्री वामअंगसे अधिक बर्ताव करे अथवा जिसका बामअंग भारी हो जिसको पुरुषसंगकी इच्छाहो, निद्रा अधिक आतीहो, खानेपीनेकी अधिक इच्छा हो, अधिक चेष्टा करती हो, जिसके वामभागमें गर्भके लक्षण हों और गर्भ लंबासा प्रतीत होताहो, वामस्तनमें प्रथम दूधका संचारहो उस स्त्रीके गर्भसें कन्या उत्पन्न होतीहै। इससे विपरीत अर्थात् दहिनाअंग भारीही, दहिने स्तनमें दूधकी प्रवृत्तिहो, दहिनी और गर्भस्थित प्रतीतहो इत्यादि लक्षणोंसे पुत्रवाला गर्भ जानना चाहिये। जिस गर्भ में दोनोंके लक्षण बराबरहों उसमें नपुंसक जानना चाहिये। गर्भाधानके समय स्त्रीका मन जैसे पुरुषमें होताहै वैसी स्वरूपवाली संतान उत्पन्न होती है॥२२॥२३॥
गर्भस्यचत्वारिचतुर्विधानिभूतानिमातापितृसम्भवानि। आहारजन्यात्मकृतानिचैवर्सवस्यसर्वाणिभवन्तिदेहे॥२४॥
तेषांविशेषाद्बलवन्तियानिभवन्तिमातापितृकर्मजानि। तानि व्यवस्येत्सदृशत्वलिङ्गसत्त्वं-यथानूकमपिव्यवस्येत्॥२५॥
आत्मा और इन चार महाभूतोंसे गर्भ प्रगट होताहै। वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी यह गर्भके चारों महाभूत मातापिताके चारमहाभूतोंसेही उत्पन्न होते हैं फिर चह गर्भशरीर माताके आहारसे पुष्ट होताहै।उस गर्भशरीरके स्वरूप आदि कल्पनामें उसके किये शुभाशुभ कर्मोंकोही कारण मानना चाहिये। उपरोक्त चारमहाभूतं संपूर्ण देहधारियोंके शरीर में मातापिताकी सादृश्यता आदि होने के कारण होते हैं। उन चार महाभूतोमें पिताके अंश बलवान् होनेसे पिताके समान माताके अंश बलवान् होनेसे माता के समान अथवा इन चारोंमें भी जो बलवान् हो उस गुणवाली संतानहोतीहै॥२४॥२५॥
कस्मात्प्रजांस्त्रीविकृतांप्रसूतेहीनाधिकाङ्गीविकलेन्द्रियाञ्च।
देहात्कथंदेहमुपैतिचान्यमात्मासदाकैरनुबध्यतेच॥२६॥
(प्रश्न) विकृत संतान होनेमें क्या कारण है। हीनांग तथा अधिकांग संतान किस कारणमेंप्रगट होतीहै, विकलेन्द्रिय संतान क्यों होती है। एक दे से दूसरी देहमें आत्मा कैसे पहुंच सकतीहै। और आत्मा किन बंधनोंसे बंधीहुई दूसरे शरीरमें प्रवेश करती है॥२६॥
गर्भकी विकृतिका कारण।
बीजात्मकर्म्माशयकालदोषैर्मातुस्तदाहारविहारदोषैः। कुर्वन्तिदोषाविविधानिदुष्टाःसंस्थानवर्णेन्द्रियवैकृतानि॥२७॥
वर्षासुकाष्टाश्मघनाम्बुवेगास्तरोःसरित्स्त्रोतसिसंस्थितस्य।यथैवकुर्य्युर्विकृतिंतथैवगर्भस्यकुक्षौनियतस्यदोषाः॥२८॥
(उत्तर) बीजके विकारसे अथवा अपने किये हुये कर्मोंके दोषसे माताके किये अहित आहार विहारके दोषसे कुपितहुए वातादि दोष गर्भके आकार, वर्ण, तथा इन्द्रियोंको बिगाड देतेहै।फिर वह दोष शरीरके अंग और वर्ण, तथा इन्द्रियोंको न्यून अधिक, कुरूप तथा विकलकर देतेहैं। जैसे—बर्सातमें, काष्ठ, पत्थर, मेघ और जल इकट्टेहोकर नदीके किनारेके वृक्षोंको टेढे कुरूपादि कर देते्हैं उसीमकार दोष कुपित होकर कुक्षीमें स्थित हो गर्भको बिगाड देतेहैं॥२७॥२८॥
आत्माके देहभरमें प्राप्त होनेका कारण।
भूतैश्चतुर्भिःसहितःसुसूक्ष्मैर्मनोजवोदेहमुपैतिदेहात्। कर्म्मात्मकत्वान्नतुतस्यदृश्यंदिव्यंविनादर्शनमस्तिरूपम्॥२९॥
ससर्वगःसर्वशरीरभृञ्चलविश्वकर्म्मासचविश्वरूपः।सचेतनाधातुरतीन्द्रियश्चसनित्ययुक्सानुशयःसएव॥३०॥
ग्रथम देह त्याग देनेके अनन्तर सूक्ष्मरूपसे चारों भूतोंके साथ संयुक्त हुआ आत्मा अपने कियेहुए कर्मोंके आधीन होकर मनके वेगके समान शीघ्र गर्भमें प्राप्त होजाताहै। जिस समय सूक्ष्म अंशोंसहित आत्मा गर्भमें आकर प्रवेश करताहै उसकोप्राणी दिव्याष्टके बिना नहीं देख सकताहै। वह आत्माही सर्वगामी, सर्वशरीरभूत, विश्वकर्म एवं विश्वरूप है। वही आत्मा शरीरमें चेतनारूप धातु है। अतीन्द्रिय है, शरीरसे नित्य संबंध रखनेवाला हैं। (मोक्ष होनेपर शरीरसे संबंध छोडदेताहै) सुखदुःखको जाननेवाला है॥२९॥३०॥
रसात्ममातापितृसम्भवानिभूतानिविद्यादशषट्चदेहे। चत्वारितत्रात्मनिसंश्रितानिस्थितस्तथात्माचचतुर्षुतेषु॥३१॥
रस, आत्मा, मातापितासे प्राप्त चारभूत, दश इन्द्रिय तथा छः धातुयें यह सब तत्त्व देहमें स्थित रहतेहैं। इनमें सूक्ष्म चतुर्भूत आत्माके आश्रित और आत्मा उन चतुर्भूतोंके आश्रितहै। इस प्रकार इनका परस्पर मोक्षपर्यन्त नित्य संबंध रहताहै॥३१॥
भूतानिमातापितृसम्भवानिरजश्चशुक्रञ्चवदन्तिगर्भे। आप्याय्यतेशुक्रमसृक्भूतैर्यैस्तानिभूतानिरसोद्भवानि॥३२॥
भूतानिचत्वारितुकर्मजानियानात्मलीनानिविशन्तिगर्भम्।
सद्बीजधर्माह्यपरापराणिदेहान्तराण्यात्मनियानियानि॥३३॥
गर्भ में माताका रज और पिताका वीर्य जो है इन्हीं दोनोंको मातापितासे उत्पन्न हुए चतुर्भूत कहतेहैं। यह सब भूत उस रक्त शुक्रकाही पालन करते हैं। यद्यपि यह चारों भूत छः रसोंसे मातापिताके शरीरमें उत्पन्न होतेहैं। परन्तु यह चतुर्भूत अपने पूर्वजन्मके किये कर्म के आधीनही होकर आत्मसंसृत हुए गर्भ में प्रवेश करते हैं। यह आत्मायुक्त भूत समुदाय अपने किये कर्म के आधीन बीजस्वरूप होतेहुए बारंबार अच्छे और बुरे शरीरोंको धारण करते॥३२॥३३॥
रूपाद्विरूपप्रभवःप्रसिद्धःकर्म्मात्मकानांमनसोमनस्तः।
भवन्तियेत्वाकृतिबुद्धिभेदारजस्तमस्तत्रचकर्म्महेतुः॥३४॥
अतीन्द्रियैस्तैरतिसूक्ष्मरूपैरात्माकदाचिन्नवियुक्तरूपः। नकर्म्मणानैवमनोमतिभ्यांनचाप्यहंकारविकारदोषैः॥३५॥
रजस्तमोभ्यान्तुमनोऽनुबद्धंज्ञानंविनातत्रहिसर्वदोषाः। गतिप्रवृत्योस्तुनिमित्तमुक्तंमनःसदोषंबलवच्चकर्म॥३६॥
जैसे बीज अपने समानही अंकुरको उत्पन्न करनेवाला होताहै। उसीप्रकार गर्भका स्वरूप भी उसके बीजके समान होताहै। पूर्वजन्मके किये हुए कर्मके आधीन मनसेही गर्भका मन उत्पन्न होताहै। आकृतिका भेद और बुद्धिकी विशेषता तथा कर्मादिकोकी विशेषतामें भी रजोगुण और तमोगुण कारण होतेहैं।उन अतीन्द्रिय तथा अत्यंत सूक्ष्मभूत समूहसे आत्मा कभी पृथक् नहीं होसकता और वह भूतगण कर्म, मन, बुद्धि और अहंकारसे अलग नहीं होसकते। मनका रजोगुण और तमोगुणसे नित्यसंबंध है इसीलिये ज्ञानके बिना अन्य इसमें संपूर्ण दोषही दोष होतेहैं। दोषयुक्त मन और बलवान् कर्म मनुष्यकी गति और प्रवृत्तिके निमित्त होतेहैं॥३४॥३५॥३६॥
रोगाःकुतःसंशमनंकिमेषांहर्षस्यशोकस्यचकिंनिमित्तम्। शरीरसत्त्वप्रभवाविकाराःकथंनशान्ताःपुनरापतेयुः॥३७॥
(प्रश्न) रोग किसप्रकार कहांसे उत्पन्न होतेहैं। उनका शान्तकरता उपाय क्या है।आनन्द और शोक होनेका कारण क्या है। शारीरिक तथा मानसिक संपूर्ण विकार कैसे शान्तहोकर फिर उत्पन्न नहीं होते॥३७॥
प्रज्ञापराधोविषमास्तदर्थाहेतुस्तृतीयःपरिणामकालः। सर्वामयानांत्रिविधाचशान्तिर्ज्ञानार्थकालाःसमयोगयुक्ताः॥३८॥
धर्म्याःक्रियाहर्षनिमित्तमुक्तास्ततोऽन्यथाशोकवशंनयन्ति।
शरीरसत्त्वप्रभवास्तुदोषास्तयोरवृत्त्यानभवन्तिभूयः॥३९॥
रूपस्यसत्त्वस्यचसन्ततिर्यानोक्तस्तदादिर्नहिसोऽस्तिकश्चित्।
तयोरवृत्तिःक्रियतेपराभ्यांधृतिस्मृतिभ्यांपरयाधियाच॥४०॥
(उत्तर) रोग तीनप्रकारके कारणोंसे उत्पन्न होताहै जैसे प्रज्ञापराध और असात्म्य इन्द्रियार्थसंयोग तथा परिणाम काल। यह तीन रोगके उत्पत्तिके कारण हैं। इसीप्रकार संपूर्ण रोगोकी शान्तीके भी तीनही उपाय हैं। जैसे ज्ञान सात्म्य इन्द्रियार्थसंयोग, और कालका उचितयोग।धर्मके काम करना आनन्दके हेतुहैं। और यावन्मात्र पापकर्म दुःखके कारण हैं शारीरिक और मानसिक रोग एकबार शान्तहोकर फिर उत्पन्न नहीं होते क्योंकि शरीर और मनकी जो धारावाही संतति है वह कहांसे हुई और कब उत्पन्न हुई इसप्रकार उसका कोई आदि क्रम नहीं है।
परंतु परमधृति और यौगिक स्मृति तथा बुद्धिकी विमलता होनेसे उन शारीरिक और मानसिक रोगोंकी सदाके लिये निवृत्ति होजातीहै अर्थात् मोक्ष होजानेसे वह फिर कभी दुःखसुख नहीं भोगता॥३८॥३९॥४०॥
दैवका लक्षण।
सत्याश्रयेवाद्विविधेयथोक्तेपूर्वंगदेभ्यःप्रतिकर्म्म नित्यम्। जितेन्द्रियंनानुपतन्तिरोगास्तत्कालयुक्तंयदिनास्तिदैवम्॥४१॥दैवंपुरायत्कृतमुच्यतेतुतत्पौरुषंयत्त्विहकर्म्मदृष्टम्। प्रवृत्तिहेतुर्विषमःसदृष्टोनिवृत्तिहेतुस्तुसमःसएव॥४२॥
शरीर और मन यह दो प्रकारके रोगोंके स्थान कथन कियेहैं। अर्थात् संपूर्ण रोग शरीर और मनके आश्रय हैं। यदि मनुष्य जितेन्द्रिय और अपनेको वशमें रखता हुआ रोगोंसे प्रथमही यत्नवान् रहे अर्थात् अहितका सेवन न करे तो यदि प्रारब्धके आधीन आवश्यक कालमें होनेवाली व्याधीके सिवाय और कोई रोग उत्पन्नही नहीं होसकता। पूर्वजन्मके कियेहुए कर्मको प्रारब्ध कहतेहैं। इस जन्ममें जो पुरुषार्थ किया जाताहै उसको कर्म कहतेहैं। धर्मका सेवन करना रोगोंके निवृत होनेका कारण है और अधर्मका सेवन रोगोंकी प्रवृत्तिका कारण है अथवा विषम संयोगसे रोगोंकी प्रवृत्ति और समसंयोगसे आरोग्यताकी प्राप्ति होती है॥४१॥४२॥
ऋतुओंके रोगोंका शमन।
हैमन्तिकंदोषचयंवसन्तेप्रवाहयन्ग्रैष्मिकमभ्रकाले। घनात्यये वार्षिकमाशुसम्यक्प्राप्नोतिरोगानृतुजान्नजातु॥४३॥
हेमन्तकालमें संचितहुए दोषोंको वसन्तकालमें शोधनकर देना चाहिये, और ग्रीष्मकालमें संचितहुए दोषोंको प्रावृट्कालमें तथा वर्षाकालके संचितहुए दोषोंको शरदऋतुमें संशोधन अर्थात् वमन, विरेचन द्वारा शुद्धकर देना चाहिये। ऐसा करनेसे ऋतुजन्य दोष उत्पन्न नहीं होते॥४३॥
नरोहिताहारविहारसेवीसमीक्ष्यकारीविषयेष्वसक्तः। दातासमःसत्यपरःक्षमावानाप्तोपसेवीचभवत्यरोगः॥४४॥
जो मनुष्य हित आहार और हितविहारोंका सेवन करताहै तथा संपूर्ण कार्योंको विचारकर करताहै और विषयोंमें आसक्त नहीं होता तथा दान, समता, सत्य और क्षमापरायण होता है तथा आप्तजनोंका सेवन करताहै वह सदा रोगरहित रहताहै॥४४॥
मतिर्वचःकर्म्मसुखानुवन्धिसत्त्वंविधेयंविशदाचबुद्धिः। ज्ञानं तपस्तत्परताचयोगेयस्यास्तितंनानुपतन्तिरोगाः॥४५॥
जिस मनुष्यकी मती, वचन, कर्म यह हितकारक हों और मन अपने आधीन हो, बुद्धि स्वच्छ हो, एवम् ज्ञान, तपस्या तथा योगमें चित्त लगा हुआ हो ऐसे मनुष्योंके ऊपर रोग आक्रमण नहीं कर सकते॥४५॥
अध्यायका उपसंहार।
इहाग्निवेशस्यमहार्थयुक्तंषड्विंशकंप्रश्नगणंमहर्षिः। अतुल्यगोत्रेभगवान्यथावन्निर्णीतवाञ्ज्ञानविवर्द्धनार्थम्॥४६॥
इति चरकसंहितयां शारीरस्थानेऽतुल्यगोत्रीयंशारीरं समाप्तम्॥२॥
यहां अध्यायकी पूर्तिमे श्लोक है–
कि इस अतुल्यगोत्रीय शारीराध्यायमेंअग्निवेशके महान् अर्थवाले छब्बीस २६ प्रश्नोका निर्णय भगवान् आत्रेयजीने वैद्याके ज्ञानकी वृद्धिकेलिये कथन कियाहै॥४६॥
इति श्रीमहार्षिचर० शारी० स्था० भापाटी० अतुल्यगोत्रीयशारीर नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
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तृतीयोऽध्यायः।
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अथातः खुड्डीकागर्भाऽवक्रान्तिशारीरं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम खुड्ठीकागर्भावक्रान्ति शारीरकी व्याख्या करतेहैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
गर्भकी उत्पत्ति।
पुरुषस्यानुपहतरेतसःस्त्रियाश्चाप्रदुष्टयोनिशोणितगर्भाशयाययदाभवतिसंसर्गःऋतुकाले। यदाचानयोस्तथैवयुक्तयोःसंसर्गेतुशुक्रशोणितसंसर्गमन्तर्गर्भाशयगतंजीवोऽवक्रामतिसत्त्वसम्प्रयोगात्तदागर्भोऽभिनिर्वर्त्तते॥१॥
अनुपहत अर्थात् पुष्ट और शुद्धवर्यवाले पुरुषका ऋतुसे शुद्धहुई शुद्धयोनि, शुद्धरज और दोषरहित गर्भाशयवाली स्त्रीसे संयोगहोनेसे पुरुषका वर्यि और स्त्रीका रज यह दोनों मिलकर जब गर्भाशयमें पहुंचतेहैं उसीसमय जीवात्मा भी मनोवेगसे झट उस शुक्रशोणितके साथही गर्भाशयमें प्रवेश करजाता है फिर वह गर्भ कहा जाताहै॥१॥
ससात्म्यरसोपयोगादरोगोऽभिसंवर्द्धतेसम्यगुपचारैश्चोपचर्य्यमाणः। ततःप्राप्तकालः सर्वेन्द्रियोपपन्नःपरिपूर्णसर्वशरीरोबलवर्णसत्त्वसंहननसम्पदुपेतःसुखेनजायतेसमुदायादेषांभावानाम॥२॥
वह गर्भ माताके सात्म्यरसके सेवनकरनेसे और उत्तम हितकर उपचारके आचरणसे वृद्धिको प्राप्त होताजाताहै। फिर इसप्रकार संपूर्ण इन्द्रियोंसे सम्पन्न सर्वांग संपूर्ण बल, वर्ण, और सत्त्वयुक्त होकर गुठनको प्राप्तहुआ अपने ठीकसमयपर इन सब
भावोंके पूर्णहोने से सुखपूर्वक जन्म लेताहै॥२॥
गर्भोंके भेद।
मातृजश्चायंगर्भःपितृजश्चात्मजश्चसात्म्यजश्चरसजश्चास्तिचसत्त्वसंज्ञमौपपादिकमितिहोवाचभगवानात्रेयः॥३॥
इसके उपरान्त भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि यह गर्भ मातृजहै और पितृजहै तथा आत्मज और सात्म्यज एवम् रसजहै और सत्त्वसंज्ञकमन इस गठनके संबंधको उत्पन्न करता है॥३॥
नेतिभरद्वाजः। किंकारणंहिनमातानपितानात्मानंसात्म्यंनपानाशनभक्ष्यलेह्योपयोगागर्भंजनयन्तिनचपरलोकादेत्यगर्भंसत्त्वसंज्ञकमवक्रामति। यदिहिमातापितरौगर्भंजनयेतांभूयस्य श्चस्त्रियःपुमांसश्चभूयांसःपुत्रकामाः, तेसर्वेपुत्रजन्माभिसन्धायमैथुनधर्ममापद्यमानाःपुत्रानेवजनयेयुर्दुहितॄर्वादुहितृकामाः।
नचकाश्चित्स्त्रियःकेचिद्वापुरुषानिरपत्याःस्युःअपत्यकामाश्चपरिदेवेरन्। नचात्मात्मानंजनयति। यदिह्यात्मात्मानंजनयेज्जातोवाजनयेदात्मानमजातोवाजनयति। तच्च उभयथाप्ययुक्तम्। नहिजातोजनयतिसत्त्वान्नचैववाजातोजनयेत्सत्त्वात्तस्मादुभयथाप्यनुपपत्तिस्तिष्ठतु। अथतावदेतद्यदिअयमा-
त्मानंशक्तोजनयितुंस्यान्नतुएनमिष्टास्वेवकथंयोनिषुजनयेद्वशिनमप्रतिहतगतिकामरूपिणंतेजोबलजववर्णसत्त्वसंहननसमुदितमजरमरुजममरमेवं विधंहिआत्मात्मानमिच्छन्नित्यतोवाभूयः॥४॥
भरद्वाज कहनेलगे कि ऐसा नहीं होता। गर्भके कारण माता, पिता, आत्मा और सात्म्य इनमेंसे कोई नहींतथा न पान, अशन, भक्ष, लेह्य पदार्थही गर्भको उत्पन्नकर सकतेहैं।एवम् परलोकसे आकर सत्त्वसंज्ञक मन भी गर्भको उत्पन्न नही करसकता। यदि मातापिताही गर्भको उत्पन्नकर सकते तो बहुतसे संतानकी इच्छावाले स्त्री पुरुष पुत्रकी कामनासे मैथुन धर्मको प्रवृत्त होकर बहुतसे पुत्र उत्पन्न करलेते और कन्याकी इच्छावाले कन्या उत्पन्न करलेते। और जगतमें कोई स्त्री और कोई पुरुष भी संतान रहित न रहता संतान के लिये उनको किसी प्रकारके देव आदिके मनाने अथवा व्याकुलरहनेकी आवश्यकता न पडती। संपूर्ण जगत्ही अपनी इच्छानुसार संतानवाला होजाता। आत्मा भी आत्माको उत्पन्न नहीं करसकता और न स्वयं उत्पन्न होता है।यदि आत्मा आत्माको उत्पन्न करे तो जन्म किसका हुआ। वह आत्मा आत्माको प्रगट करताहै जिसका जन्म होचुका। अथवा जिस आत्माका जन्म नही हुआ वह आत्माको प्रगट करताहै। यदि कहो कि आत्मा स्वयं अपने आपको प्रगट करताहै तो जो आत्मा एकबार जन्म लेचुकाहै वह फिर किसप्रकार अपनेकों प्रगटकर सकताहै अर्थात् नहीं प्रगटकर सकता और अज्ञात आत्मा भी आत्माको प्रगट नहीं करसकता क्योंकि वह अजातहै। अजात होनेसे वह अपनेको जन्मदेही नहीं सकता। यदि उसमें स्वयं यह शक्ति होती तो अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ २ शरीरोंमें प्रवेश करता। इसलिये दोनों प्रकार होना अयुक्त है अर्थात् नहीं होसकता। यदि ऐसा होता तो सत्तावान् आत्मा वशी, अमतिहतगती कामरूपी तेजसम्पन्न और बल, वेग, वर्ण तथा सत्त्व एवं दृढतासम्पन्न होने से तथा अजर, अमर, रोगरहित एवं इससे भी अधिक २ उत्तम २ गुणोंकी इच्छा करताहुआ आत्माको कही बहुतही उत्तम शरीगें में प्रगट करता॥४॥
गर्भकी असात्म्यजता ।
असात्म्यजश्चायंगर्भोयदिहिसात्म्यजःस्यात्तर्हिसात्म्यसेविनामेवैकान्तेनव्यक्तंप्रजास्यात्। असात्म्यसेविनश्चनिखिलेनानपत्याःस्युस्तच्चोभयमुभयन्त्रैवदृश्यते॥५॥
सात्म्यसे भी गर्भकी उत्पत्ति नहीं होती यदि सात्म्य पदार्थोंके सेवनसेही गर्भ उत्पन्न होता तो जो मनुष्य सात्म्य पदार्थोंका सेवन करते है केवल उन्हीके संतान
हुआ करती और असात्म्य पदार्थोंके सेवन करनेवाले संपूर्ण मनुष्योंके वंशही न चलते अर्थात् उनकी संतान ही न हुआ करती। परन्तु देखनेमें ऐसा आता है कि सात्म्य पदार्थोंके सेवन करनेवालोंमें भी संतान बहुतोंको नहीं होती और असात्म्य सेवन करनेवालोंको संतान होती है। इसलिये सात्म्यसेवनसे गर्भ उत्पन्न होता है यह कहना वृथाहै॥५॥
गर्भका रससे उत्पन्न न होना।
अरसजश्चायंगर्भोयदिहिरसजः स्यान्नकेचित्स्त्रीपुरुषेषुअनपत्याः स्युर्नहिकश्चिदस्त्येषांयोरसान्नोपयुङ्के। श्रेष्ठरसोपयोगिनांचेद्गर्भाजायन्तेइत्यतोऽभिप्रेतमित्येवं सति, आजोरभ्रमार्गमायूरगोक्षीर–दधि–घृत–मधु–तैल–सैन्धवेक्षुरसमुद्गशालिभृतानामेवएकान्तेनप्रजास्यात्। श्यामाकवरकोद्दालककोरदूषककन्दमूलभक्ष्याश्चानिखिलेनानपत्याःस्थुः तच्चोभयमुभयत्रैवदृश्यते॥६॥
रससे भी गर्भकी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि रसजगर्भ होता तो भी यावन्मात्र प्राणियोंमें कोई भी संतानरहित देखनेमें नहीं आता। क्योंकि ऐसा कोई भी पुरुष और स्त्री नहीं है जो रसोंका सेवन न करता हो। यदि कहें कि उत्तम रस सेवनसे संतान होती है तो जो मनुष्य निरंतर बकरा, मेंढा, मृग और मोर आदिका मांसरस खाते हैं तथा गौओंका दूध, दही, घृत एवं मधु, तैल, लवण, इक्षुरस, (खांड, मिसरी) मूंग, चावल आदिका उत्तम भोजन करतेहैं और हृष्टपुष्ट शरीर हैं उन्हीको संतान होनी चाहिये थी और जो मनुष्य श्यामाक, क्षुद्र जब, कोदो, कोर्दुसक, कंद, मूल तथा अन्य रूक्ष भोजन करते हैं वह सब संतानरहित होते। परन्तु दोनों प्रकार देखनेमें नहीं आता। जो मनुष्य उत्तम रसोंका भोजन करते हैं और जो रूक्ष भोजन करतेहैं इन दोनोकाही संतानयुक्त होना और निःसंतान होना बराबर दिखाई देता है। इसलिये गर्भ रसज होता है यह भी सिद्ध नहीं होता॥६॥
गर्भका सत्त्वगुणी न होना।
नखलुअपिपरलोकादेत्यसत्त्वंगर्भमवक्रामति। यदित्वेनमवक्रामेन्नास्यकिञ्चिदेवपौर्वदेहिकंस्यादविदितश्रुतमदृष्टं वा।सचकिञ्चिदपिनस्मरतितस्मादेतद्ब्रूमहे अमातृजश्चायंगर्भःपितृजश्चानात्मजश्चासात्म्यजश्चारसजश्चनचास्तिसत्त्वमौपपादिकमितिहोवच भरद्वाजः॥७॥
परलोकसे आकर सत्त्वसंज्ञकमन भी गर्भके संबंधको उत्पन्न नहीकरता। यदि वह परलोकसे आकर गर्भमें मिलजाता तो उसको पहिले देहके संपूर्ण व्यापार जाने सुने और देखे याद रहने चाहिये थे। परन्तु वह किसीको भी स्मरण नहीं करता। इसलिये सत्त्व संज्ञक मन भी गर्भसे संबंध नही रखता। इस कारणसेही हम कहते हैं कि गर्भ न मातृज है, न पितृज है न आत्मज है न सात्म्यज है और न रसज है तथा सत्त्व संज्ञक मन भी उसके संबंधका उत्पादक नहीं है। जब इसप्रकार कुमारशिरा भरद्वाजने कहा॥७॥
आत्रेयका मत।
नेतिभगवानात्रेयः। सर्वेभ्यएभ्यो भावेभ्यःसमुदितेभ्योगर्भोऽभिनिर्वर्त्तते। मातृजश्चायंगर्भोनहि मातुर्विनागर्भोपपत्तिःस्यान्नचजन्मजरायुजानाम्। यानिखलुअस्यगर्भस्य मातृजानियानिचास्य मातृतःसम्भवतःसम्भवन्तितानि अनुव्याख्यास्यामः। तद्यथा–त्वक्चलोहितञ्चमांसञ्चमेदश्चनाभिश्चहृदयञ्चक्लोमचयकृच्चप्लीहा चबुक्कौचबस्तिश्चपुरीषाधानञ्चामाशयश्चपक्वाशयश्चोत्तरगुदञ्चाघरगुदञ्चक्षुद्रान्त्रञ्च स्थूलान्त्रञ्च वपाचवपावहनञ्चेतिमातृजानि॥८॥
तबभगवान् आत्रेयजीने कहा कि ऐसा नहीं होता। गर्भ इन संपूर्ण भावोंके होनेसेही प्रगट होता है।यह गर्भ मातासे भी उत्पन्न होता है क्योंकि माताके विना गर्भ उत्पन्न होही नहीं सकता और जितने जरायुज प्राणी हैं वह विना माताके जन्म लेही नहीं सकते और इस गर्भमें मातासे जो २ अवयव उत्पन्न होतेहैं उनको वर्णन करते हैं। जैसे–त्वचा, रक्त, मांस, मेद, नाभि, हृदय, क्लोम, प्लीहा, यकृत, दोनों बुक्क, वस्ती, आमाशय, मलाशय, पक्वाशय, उत्तरगुद, अधःगुद, क्षुद्रअंतडियें, वसा, बसाके वहनस्थान, यह सब माता से उत्पन्न होते हैं तथा इनको मातृज अवयव कहते हैं। इसलिये गर्भको मातृज कहना चाहिये॥८॥
पितासे होनेवाले अवयव।
पितृजश्चायंगर्भोनहिपितुर्ऋगर्भोत्पत्तिःस्यान्नचजन्मजरायुजानाम्। यानिखलुअस्यगर्भस्यपितृजानियानिचास्यपितृतः सम्भवतःसम्भवन्तितानिअनुव्याख्यास्यामः। तद्यथा–केश श्मश्रुनखलोमदन्तास्थिशिरास्त्रायुधमन्यःशुक्रमितिपितृजानि॥९॥
गर्भ पितृजभीहै। क्योंकि पिताके बिना गर्भकी उत्पत्तिही नहीं होती। विना पिताके जरायुजोंका जन्मही नहीं हो सकता। अब गर्भके जो जो अंग गर्भमें पितासे उत्पन्न होते हैं उनका कथन करते हैं। जैसे–केश, इम, नख, रोम, दांत, अस्थियां शिरा और स्नायु तथा धमनियें एवम् शुक्र पितासे उत्पन्न होते हैं। इसलिये गर्भको पितृज भी कहना चाहिये॥९॥
आत्मासे उत्पन्नहुए गर्भाावयव।
आत्मजश्चार्यगर्भोगर्भात्माह्यन्तरात्मायस्तमेनंजीवइत्याचक्षतेशाश्वतमरुजमजरममरमक्षयमभेषमच्छेद्यमलेह्यंविश्वरूपं विश्वकर्माणमव्यक्तमनादिमनिधनमक्षरमपि। सगर्भाशयमनुप्रविश्यशुक्रशोणिताभ्यांसंयोगमेत्यगर्भत्वेनजनयत्यात्मनात्मानमात्मसंज्ञाहिगर्भेतस्यपुनरात्मनोजन्मादिसत्त्वान्नोपपद्यतेतस्मादजातएवायंजातंगर्भंजनयतिजातोऽप्यजातञ्चगर्भजनयति। सचैवगर्भःकालान्तरेणबालयुवस्थविरभावानवाप्नोति॥१०॥
यह गर्भ आत्मज भी है क्योंकि गर्भात्माही अन्तरात्मा और जीवके नामसे उच्चारण किया जाताहै। यह अन्तरात्मा नित्य, निरोग, अजर, अमर, अक्षय, अभेद्य, अच्छेद्य, अलेह्य, विश्वरूप, विश्वकर्मा, अव्यक्त, अनादि, मृत्युरहित, अक्षर कहा जाताहै। यह गर्भाशयमें अनुप्रवेशकर शुक्रशोणितके साथ मिलजाताहै तबही गर्भ उत्पन्न होजाताहै। आत्माही आत्माको उत्पन्न करताहै। गर्भमेंही इसकी आत्मासंज्ञा होतीहै यदि अजात आत्माही स्वयं अपनेको गर्भमें प्रगट न करता तो अनादि और नित्य होनेसे इसका जन्मलेना किसीप्रकार सिद्ध नहीं होसकता। इसलिये यह अजात होताहुआ भी जातगर्भको उत्पन्नकरताहै।और जात होकर भी अजात रहताहै। वह गर्भ समयपाकर प्रगटहोनेसे बाल्यावस्था, यौवनावस्था और वृद्धावस्थाको प्राप्तहोताहै॥१०॥
सयस्यांयस्यामवस्थायां वर्त्तते तस्यांतस्यांजातोभवतियात्वस्यपुरस्कृतातस्यांजनिष्यमाणश्चतस्मात्सएवजातश्चाजातश्च युगपद्भवतितस्मिंश्चैतदुभयंसम्भवतिजातत्वञ्चैवजनिष्यमाणत्वञ्च। सजातोजन्यतेसचैवानागतेष्ववस्थान्तरेषुअजातो जनयत्यात्मनात्मानम्। सतोह्यवस्थानुगमनमात्रामेवहिजन्म
चोच्यतेतत्रतत्रवयसितस्यांतस्यामवस्थायाम्।यथासतामेवशुक्रशोणितजीवानांप्राक्संयोगाद्गर्भत्वंनभवतितच्चसंयोगाद्भवति। यथासतस्तस्यैवपुरुषस्यप्रागपत्यात्पितृत्वंनभवतितच्चापत्याद्भवति। तथासतस्तस्यैवगर्भस्यतस्यांतस्थामवस्थायांजातत्वमजातत्वञ्चोच्यते॥११॥
वह गर्भ जिस २ अवस्था में जैसे २ रहताहै उसीउसी अवस्थामें जात मानाजाताहै। जो अवस्था इसकी आनेवाली है उस अवस्थाको जनिष्यमाण कहते हैं। इसलिये एककालमेही इसमें जात और व्यजात दोनो धर्म रहतेहैं । अतएव इसमें जातत्व और जनिष्यमाणत्व दोनोही हैं। वह गर्भात्मा जात होकरभी अर्थात् गर्भावस्थामें उत्पन्न होकर भी गर्भको उत्पन्न करताहै और वही अपनी आनेवाली अवस्थान्तरको भी उत्पन्न करताहै। नित्य पदार्थका अवस्थान्तरही जन्म कहाजाताहै। वह जिसजिस अवस्थामें पहुंचता है वही उसका जन्म है। जैसे–शुक्र, शोणित और जीवके पृथक् २ रहते हुए भी संयोग होने विना जीवत्वउत्पन्न नहीहोता। और जैसे पुत्र उत्पन्नहोनेसे पहिले पिता रहतेहुए भी उसमें पितृत्वधर्म नहीं आता उसीप्रकार आत्मा भी उसउस अबस्था में रहताहुआ जातत्व और अजातत्वको प्राप्त नहीं होता॥११॥
नतुखलुगर्भस्यमातुर्नपितुर्नात्मनःसर्वभावेषुयथेष्टकारित्वमस्ति। तेकिञ्चित्स्ववशात्कुर्वन्ति किञ्चित्कर्मवशात्क्वचिच्चैषांकरणशक्तेर्भवतिक्वचिन्नभवति। यत्रसत्त्वादिकरणसम्पत्तत्रयथाबलमेवयथेष्टकारित्वमतोऽन्यथाविपर्य्ययः। नचकरणदोषादकारणमात्मागर्भजननेसम्भवति॥१२॥
माता पिता और आत्मा इन सबमें से कोई एक संपूर्णभावसे गर्भको उत्पन्न करने में यथेष्टकारी नहीं होसकता। अर्थात् अपने आधीन होकर ( अपनेवशसे ) माता या पिता या आत्मा अकेला कोई गर्भ को प्रगट नहीं करसकता। इनमें कोई अपने वशसे गर्भमें इष्टकारी होतेहैं, कोई कर्मवशसे इष्टकारी होतेहैं। कही इनकी करणशक्तिकार्यकरनेमें सामर्थ्यवान् होती है और कही नहीभी होती। इसलिये जिस जगह सत्वादि करणशक्तिकी उत्कृष्टता होतीहै उसजगह यथाबल यथेष्टकारिता होजातीहै। जिसजगह सत्त्वादि करणशक्तिकी उत्कृष्टता नहीं होती वहांपर कार्यसिद्धि नहीं होसकती। करणके दोषसे आत्मा गर्भोत्पन्न करनेमें कारण नहीहोता, ऐसा नहीअर्थात् आत्मा संपूर्णसंयोग मिलनेसे गर्भको उत्पन्नकरनेमें कारण होताहै॥१२॥
दृष्टञ्चचेष्टायोनिरैश्वर्य्यंमोक्षश्चात्मविद्भिरात्मायत्तम्। नह्यन्यः सुखदुःखयोःकर्त्तानचान्यतोगर्भोजायतेजायमानोनचअंकुरोत्पत्तिरबीजात्॥१३॥
आत्मज्ञानी महात्मा चेष्टा, योनि, ऐश्वर्य और मोक्ष इनसबको अपने आधीन रखतेहैं ऐसा देखनेमें आताहै। आत्माके सिवाय सुखदुःखका और कोई कर्त्ता नहीं है। आत्माके सिवाय और कोई गर्भको उत्पन्न नहीं कर सकता। आत्मासेही गर्भकी उत्पत्ति है। कारणके समानही कार्यकी उत्पत्ति देखनेमें आती है। ऐसा नहीं होता कि विना बीजके अंकुर पैदाहो॥१३॥
आत्मासे हुए द्रव्य।
यानितुखलुअस्यगर्भस्यात्मजानियानिचअस्यात्मतःसम्भवतःसम्भवन्तितानिअनुच्याख्यास्यामः। तद्यथा——तासुतासुयोनिषुउत्पत्तिरायुरात्मज्ञानंमनइन्द्रियाणिप्राणापानौप्रेरणंधारणमाकृतिस्वरवर्णविशेषाःसुखदुःखेइच्छाद्वेषौचेतनाधृतिबुद्धिस्मृतिरहंकारःयत्नश्चेत्यात्मजानि॥१४॥
गर्भमें जो जो भाव आत्मासे उत्पन्न होतेहैं उनउन आत्मजभावोंको वर्णन करतेहैं। यह आत्मा जिसजिस समय जिसजिस योनिमें जन्मधारण करताहै उससमय उसी योनिमें इसका जन्म, आयु, आत्मज्ञान, मन, संपूर्ण इन्द्रियें, प्राण, अपान, प्रेरणा शक्ति, धारणा, आकृति, स्वर, वर्ण, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, चेतना, धृति, बुद्धि, स्मृति, अहंकार, प्रयत्न, यह सब उत्पन्न होतेहैं। यह सब आत्माकेही लक्षण हैं इसलिये गर्भ आत्मज होताहै॥१४॥
सात्म्यजश्चायंगर्भःनहिअसात्म्यसेवित्वमन्तरेणस्त्रीपुरुषयोर्वन्ध्यत्वमस्तिगर्भेषुवाअनिष्टोभावः। यावत्खलुअसात्म्यसेविनांस्त्रीपुरुषाणांत्रयोदोषाः प्रकुपिताः शरीरमुपसर्पन्तोनशुक्रशोणितगर्भाशयोपघातायोपपद्यन्तेतावत्समर्थागर्भजननायभवन्ति। सात्म्यसेविनांपुनःस्त्रीपुरुषाणामनुपहतशुक्रशोणितगर्भाशयानामृतुकालेन्निपातितानांजीवस्यानवक्रमणाद्गर्भानप्रादुर्भवन्ति। नहिकेवलंसात्म्यजएवायंगर्भःसमुदायोऽत्रकारणमुच्यते॥१५॥
यह गर्भ सात्मज भी है। यदि स्त्री पुरुष असात्म्यपदार्थको सेवन न करें तो उनमें वंध्यादोष तथा गर्भमेंअनिष्टभाव कभी उत्पन्न न होवे। जबतक असात्म्यसेवनसे दोष कुपितहोकर स्त्रीपुरुषोके शरीरमें उपसर्पण करतेहुए और शुक्रशोणितसे मिलकर गर्भाशयमेउपघात नहीकरते तभीतक गर्भाधान होसकताहै।तथा असात्म्यसेवनसे दोषकुपित होजानेपर गर्भाधान नहीं होने देते। सात्म्यसेवन करनेवाले स्त्रीपुरुषोका रज और वीर्य शुद्ध होताहुआ ऋतुकालमें मिलापद्वारा गर्भाशयमें प्रवेश करनेपर भी यदि जीवात्मा अणु प्रवेश न करे तो गर्भ नही रहता। केवल सात्म्यसेवनसेही गर्भ उत्पन्न होताहै यह वात नहीं है। किन्तु गर्भके उत्पन्नकरनेवाले संपूर्ण भावोमें सात्म्यसेवन भी एक कारण मानाजाताहै॥१५॥
सात्म्यसे हुए गर्भके अवयव।
यानितुखल्वस्यगर्भस्यसात्म्यजानियानिचअस्यसात्म्यतःसम्भवतःसम्भवन्तितानिअनुव्याख्यास्यामः। तद्यथा–आरोग्यमनालस्यमलोलुपत्वमिन्द्रियप्रसादःस्वरवर्णबीजसम्पत्प्रहर्षभूयस्त्वञ्चेतिसात्म्यजानि॥१६॥
सात्म्यसेवनसे गर्भमें जो भाव पैदा होतेहैं उनका वर्णन करतेहैं। जैसे आरोग्यता, अनालस्य, निर्लोभता, इन्द्रियोका प्रसाद, स्वर, वर्ण और वीर्यका उत्तम होना, चित्त प्रसन्न रहना यह सब सात्म्यसेवनके फल हैं। इसलिये गर्भकी उत्पत्तिमें सात्म्यको भी कारण मानाजाताहै॥१६॥
गर्भकी रसज उत्पत्ति।
रसजश्चायंगर्भोनहिरसादृतेमातुःप्राणयांत्रापिस्यात्किंपुनर्गर्भजन्म, नचैवास्यसम्यगुपयुज्यमानारसागर्भमभिनिर्वर्त्तयन्ति।नचकेवलंसम्यगुपयोगादेवरसानांगर्भाभिनिर्वृत्तिर्भवतिसमुदायोऽप्यन्नकारणमुच्यते॥१७॥
यह गर्भ रसज भी है। यदि रसोंका सेवन न कियाजय तो माताके प्राण भी नहीरहसकते और गर्भके उत्पन्न होनेको तो कहनाही क्या है। रसही उत्तमरूपसे सेवन किये जानेपर गर्भको उत्पन्न करतेहैं। यद्यपि केवल रसोंकाही उत्तमरीतिसे प्रयोग कियाजाना गर्भको उत्पन्न नहीं कर सकता परन्तु गर्भके उत्पन्नकरनेवाले कारणोमें रस भी एक कारण होताहै॥१७॥
गर्भके रसज अवयव।
यानितुखल्वस्यगर्भस्यरसजानियानिचास्यरसतः सम्भवतः सम्भवन्तितान्यनुव्याख्यास्यामः। तद्यथा–शरीरस्याभिनिर्वृत्तिरभिवृद्धिःप्राणानुबन्धस्तृप्तिःपुष्टिरुत्साहश्चेतिरसजानि॥१८॥
इस गर्भके जो जो भाव रससे उत्पन्न होतेहैं उनका वर्णन करते हैं। जैसे शरीरका उत्पन्न होना और बढना, प्राणोंका अनुबंध तृप्ति और पुष्टि तथा उत्साह यह सब रससेही होतेहैं। इसलिये गर्भके प्रगटहोनेमें रसको भी कारण मानाजाताहै॥१८॥
सत्त्वका उत्पादकत्व।
अस्तिखल्वपिसत्त्वमौपपादिकं यज्जीवस्पृक्शरीरेणाभिसम्बध्नाति। यस्मिन्नपगमनपुरस्कृतेशीलमस्यव्यावर्त्ततेभक्तिर्विपर्य्यस्यतेसर्वेन्द्रियाण्युपतप्यन्तेबलंहीयतेव्याधयआप्यायन्ते। यस्माद्धीनःप्राणाञ्जहातियदिन्द्रियाणामभिग्राहकञ्चमनइत्यभिधीयतेतत्रिविधमाख्यायतेशुद्धंराजसंतामसञ्चइति॥१९॥
सत्त्व भी गर्भके संबंधको उत्पन्नकरनेवाला होताहै। यही सूक्ष्मभावोंसहित आत्माका स्थूलशरीरके साथ संबंध कराताहै।जब यह सत्त्व शरीरसे अलग होनेलगताहै तो इसके अलगहोनेसे प्रथमही शरीरका स्वभाव भी बदलजाताहै। इच्छा विपरीत होजातीहै, इन्द्रियें क्लेशित होजाती हैं, शरीरमेंसे बल क्षय होजाताहै, रोग बढ़ने लगतेंहैं। जब यह सत्त्वसंज्ञक मन शरीरको त्यागताहै उसी समय प्राणोंका परित्याग होजाताहै। यह सत्त्वही इन्द्रियोंका अभिग्राहक मन कहाजाताहै। यह सत्त्व, रज, और तमके भेदसे तीनप्रकारका होता है॥१९॥
येनास्यखलुप्रयतोभूयिष्ठंतेनद्वितीयायामाजातौसम्प्रयोगोभवति। यदातुतेनैवशुद्धेनसंयुज्यंतेतदाजातेरतिक्रान्तायाश्चस्मरति। स्मार्त्तंहिज्ञानमात्मनस्तस्यैव मनसोऽनुबन्धादनुवर्त्तते यस्यानुवृत्तिंपुरस्कृत्यपुरुषोजातिरित्युच्यतेइतिसत्त्वमुक्तम्॥२०॥
मनमें सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों गुणोंमेंसे जो गुण अधिक होता है उसका दूसरे जन्मतक संयोग रहताहै। यदि सतोगुणके साथ संयोग होताहै तो इसको पूर्वजन्मका भी स्मरण आताहै। स्मार्त्तज्ञानयुक्त मनके साथ जब आत्माका संयोग होताहै तब आत्माको अपने जन्मांतरका भी स्मरण आने लगताहै। उस पुरुषको जातिस्मर कहतेहैं। यह गुण सतोगुण प्रधान मनोंके संयोगसे होताहै॥२०॥
यानिखल्वस्यगर्भस्यसत्त्वजानियानिचअस्यसत्त्वतःसम्भवतःसम्भवन्तितानिअनुव्याख्यास्यामः। तद्यथा–भक्तिःशीलंशौचंद्वेषःस्मृतिर्मोहस्त्यागोमात्सर्य्यशौर्य्यंभयंक्रोधस्तन्द्राउत्साहस्तैक्ष्ण्यंमार्दवंगाम्भीर्य्यमनवस्थितत्वमित्येवमादयश्चान्येतेसत्त्वजाविकारायानुत्तरकालंसत्त्वभेदमधिकृत्यउपदेक्ष्यामइति सत्त्वजानि।नानाविधानितखलुसत्त्वानितानिसर्वाणिएकपुरुषेभवन्तिनचभवन्तिएककालम्, एकन्तु प्रायोऽनुवृत्त्याह। एवमयंनानाविधानामेषांगर्भकराणांभावानांसमुदायादभिनिर्वर्त्ततेगर्भः॥२१॥
गर्भके बीचमें सत्त्वसे उत्पन्न होनेवाले जो भाव होतेहैं उनको वर्णन करते है।भक्ति,
सुशीलता, शौच, द्वेष, स्मृति, मोह, त्याग, मात्सर्य, शूरता, भय, क्रोध, तंद्रा, उत्साह, क्षीणता, मृदुता, गंभीरता, चंचलता तथा अन्य भी इसीप्रकारके गुण, सात्त्विक, राजस और तामस मनके भेदसे अनेक प्रकार के उत्पन्न होतेहैं। इनसबको आगे वर्णन करेंगे। सत्त्वसे उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके गुण होतेहैं।वह सब गुण एकही मनुष्यमें पायेजातेहैं परन्तु एककालमें सतोगुण तमोगुण और रजोगुण एकही पुरुषमें नही होसकते। यद्यपि सब मनुष्योंमें प्रायः तीनगुणका संयोग होताही है परन्तु जिसमें जिसगुणकी अधिकता होती है उसको उसी गुणसे प्रधान मानाजाताहै। ( सतोगुणके केवल प्रकाश होनेसे रजोगुण और तमोगुण नष्ट होकर मोक्ष होजाताहै ।) इसप्रकार गर्भकर्त्ताभावोंके समुदायसेही गर्भकी उत्पत्ति होतीहै॥२१॥
यथाकूटागारंनानाद्रव्यसमुदयाद्यथावारथोनानारथाङ्गसमुदायात्तस्मादेतदवोचाममातृजश्चायंगर्भःपितृजश्चात्मजश्चसात्म्यजश्चरसजश्च। अस्तिसत्त्वमौपपादिकमितिहोवाचभगवानात्रेयः॥२२॥
जैसे–कूटागार ( घर विशेष ) अनेक द्रव्योंके होनेसे बनाया जाताहै और रथ अनेक अंगोके समुदायसे बनताहै उसीप्रकार गर्भभी गर्भोत्पादकसंपूर्णभावोके संबंधसेही उत्पन्न होताहै इसलिये कहते है कि गर्भ मातृज, पितृज, आत्मज, सात्म्यज, तथा रसज होताहै। एवम् सत्त्वसंज्ञक मन उसके संबंधको उत्पन्न करनेवाला होताहै। इसप्रकार भगवान् आत्रेयजीने कथन कियाहै॥२२॥
भरद्वाजकां प्रस्ताव।
भरद्वाजउवाच। यद्ययमेषांनानाविधानांगर्भकराणांभावानां समुदायादभिनिर्वर्त्ततेगर्भःकथमयंसन्धीयते। यदिचापिसन्धीयतेकस्मात्समुदायप्रभवःसन्गर्भोमनुष्यविग्रहेणजायतेमनुष्यश्चमनुष्यप्रभवउच्यते। तत्रचेदिष्टमेतद्यस्मान्मनुष्योमनुष्यप्रभवस्तस्मान्मनुष्यविग्रहेणजायते। यथागौर्गोप्रभवः यथाचाश्वोऽश्वप्रभवइत्येवंयदुक्तमग्रेसमुदायात्मकइतितदयुक्तंयदिचमनुष्योमनुष्यप्रभवःकस्माज्जडान्धकुब्जमूकवामनमिन्विनव्यङ्गोन्मत्तकुष्टकिलासिभ्योजाताःपितृसदृशरूपानभवन्ति। अथात्रापिबुद्धिरेवंस्यात्स्खेनैवायमात्माचक्षुषारूपाणिवेत्तिश्रोत्रेणशब्दान्घ्राणेनगन्धान्रसनेनरसान्स्पर्शनेनस्पर्शान् बुद्धयाबोद्धव्यमित्यनेनहेतुनाजडादिभ्योजाताः पितृसदृशा भवन्ति। अत्रापिप्रतिज्ञाहानिदोषःस्यादेवमुक्तेह्यात्मासत्खिन्द्रियेषुज्ञः स्यादसत्स्वज्ञोयत्रचैतदुभयंसम्भवतिज्ञत्वमज्ञत्वञ्चसविकारप्रकृतिकश्चात्मानिर्विकारोज्ञश्च।यदिचदर्शनादिभिरात्माविषयान्वेत्तिनिरिन्द्रियोदर्शनादिविरहादज्ञःस्यादज्ञत्वाच्चकारणमकारणत्वाच्चानात्मेतिवाग्वस्तुमात्रमेतद्वचनमनर्थकंस्यादितिहोवाचभरद्वाजः॥२३॥
** **यह सुनकर भरद्वाज कहनेलगे कि यदि अनेक प्रकारके गर्भकारक भावोंके समुदायसेही गर्भकी उत्पत्ति होतीहै तो यह गर्भ सबसे मिलाहुआ किसप्रकार होताहै। अर्थात् यह सब भाव गर्भमें किसप्रकार मिलजाते हैं। और मिलजानेपर भी इनके समुदायसे मनुष्यके आकारका किस प्रकार होजाताहै अर्थात् वह गर्भ मनुष्यरूपमें किसप्रकार प्रगट होताहै।और इन संपूर्णभावोंसे उत्पन्नहुआ गर्भ मनुष्यसे मनुष्य हुआ कैसे कहाजाताहै। यदि आप ऐसा मानतेहैं कि मनुष्यसे मनुष्य प्रगट होताहै यह मनुष्य विग्रहसे अर्थात् जैसे–गौसे गौ, घोडसे घोडा, पशुजगत्में उत्पन्न होताहै। इसीप्रकार मनुष्यसे मनुष्यके आकारवाला गर्भ होताहै। तो जो पहिले आत्मादिक समुदायसे गर्भकी उत्पत्ति कहआयेहैं वह अयुक्त होजायगा और
मनुष्यसे मनुष्य–मनुष्यके आकारही पैदा होताहै तो क्या कारण है कि माता पिता उस प्रकारके न होतेहुए भी संतान उनके आकारकी नहीहोती। जैसे–जड, अंधा, कुबडा, गूंगा, बवना, मिनमिनाहा, व्यंग, उन्मत्त, कुष्ठी और किलास आदि रोमचाले मनुष्योकी संतान अपने माता पिताके समान अंधी, कुबडी आदि क्यों नहीं होती यदि इनमें भी आपका ऐसा भाव हो कि मातापिताके किसी इन्द्रियहीन होनेसे संतानके मनुष्यत्वमें फर्क नहीं पड़ता आत्मा अपने नेत्रोद्वारा रूपको देखता है, कानसे शब्द सुनताहै, नासिकासे गंधको सूंघताहै, जिहासे रसको लेताहै, स्पर्शनेन्द्रियसे स्पर्शका ज्ञान करताहै, बुद्धिसे बोध करताहै अर्थात् जानताहै इसलिये जडआदिकोकी संतान मातापिताके समान जडत्वादि दोपोवाली नहीं होती तो इस तरह कहने से भी आपके पक्षकी हानि होतीहै। और प्रतिज्ञाहानिका दोष आताहै क्योंकि ऐसा कहनेसे यह सिद्ध होजायगा कि इन्द्रियें होनेसे आत्मज्ञानी है तथा किसी इन्द्रियके नष्ट होनेसे आत्मा मूर्ख होजायगा। जिसमें ज्ञान उत्पन्न होना और ज्ञान नष्ट होना यह दो भाव आजायेंगे तो आत्मा निर्विकार न कहा जाकर विकार प्रकृति अथवा प्रकृतिका विकार सिद्ध होजायगा। क्योंकि ज्ञानी आत्माही निर्विकार होता है। यदि ऐसा कहो कि, दर्शन आदि इन्द्रियों द्वारा आत्मा विपयोंका ग्रहण करताहै अर्थात् उनको इन्द्रियोंद्वारा जानताहै तो इन्द्रियोंके विना दर्शनादि ज्ञान न होनेसे आत्माको अज्ञ मानना होगा। आत्मा अज्ञसिद्ध होजानेसे कारण न माना जायगा।कारण न माना जानेसे अनात्मा सिद्ध होजायगा।फिर आपका यह जितना कथन है सव वकवादमात्र और अनर्थक सिद्ध होजायगा।इसप्रकार कुमार शिरा भरद्वाजने कहा॥२३॥
आत्रेयजीका उत्तर।
आत्रेय उवाच। पुरस्तादेतत्प्रतिज्ञातंसत्त्वंजीवस्पृक्शरीरेणाभिसम्बन्धातीति। यस्मात्तुसमुदायप्रभवःसन्गर्भोमनुष्यविग्रहेणजायतेमनुष्यश्चमनुष्यप्रभवइत्युच्यतेतद्वक्ष्यामः॥२४॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहने लगे कि यह तो हम प्रथम ही कथनकर चुके हैं कि सत्त्वसंज्ञक मन–अनेक द्रव्यों के समूहरूप शरीरसे जीवका संबंध उत्पन्नकर देताहै अर्थात् सत्व–सब भावोंको आत्मासे मिलादेताहै और जिस प्रकार द्रव्योंके समूहसे बने हुए गर्भका मनुष्य देहके साथ जन्म लेता है तथा जिसप्रकार मनुष्यसे मनुष्य उत्पन्न होताहै उसका वर्णन अब करतेहै॥२४॥
भूतानांचतुर्विधायोनिर्भवतिजराय्वण्डखेदोद्भिदः। तासांखलुचतसृणामपियोनीनामेकैकायोनिरपरिसंख्येयभेदाभवतिभू-
तानामाकृतिविशेषापरिसंख्येयत्वात्। तत्रजरायुजानामण्डजानां प्राणिनामेतेगर्भकराभावायांयांयोनिमापद्यन्तेतस्यांतस्यांयोनौतथातथारूपाभवन्ति। तद्यथा कनकरजतताम्रत्रपुसीसाआसिच्यमानास्तेषुतेषुमधूच्छिष्टबिम्बेषुतेयदामनुष्यबिम्बमापद्यन्तेतदामनुष्यविग्रहेणजायन्ते। तस्मात्समुदायात्मकःसन्गर्भोमनुष्यविग्रहेणजायतेमनुष्योमनुष्यप्रभवइत्युच्यतेतद्योनि त्वात्॥२५॥
संपूर्ण प्राणीमात्रकी जरायुज, अण्डज, स्वदेज और औद्धिद यह चार प्रकारकी योनिहै इन चारप्रकारकी योनियोंके अनेक और असंख्य भेद होतेहैं। क्योंकि प्राणियोंके आकार विशेषभी असंख्य होते हैं। उन चारोंमें जरायुज और अण्डज प्राणियोंके यह गर्भकारक भाव जिस जिस योनिमें प्राप्त होतेहैं उसीउसी योनिके अनुरूप अपने अपने गठनको प्राप्त होतेहुए उनके अनुसार बनावटके होजातेहैं। जैसे–एक मनुष्यके अनुरूप सांचेमें सोना, चांदी, तांबा, रांगा, सीशा अथवा मोम गलाकर ढालदेनेसे मनुष्यके आकारकी प्रतिमाको प्राप्त होजाते हैं । उसीप्रकार गर्भकारक संपूर्ण भावोंका समुदाय–मनुष्य आकारके रचनेवाली योनिमें पडजानेसे मनुष्यसे मनुष्य उत्पन्न होताहै क्योंकि वह मनुष्ययोनि होनेसे मनुष्यही होसकताहै॥२५॥
यच्चोक्तंयदिचमनुष्योमनुष्यप्रभवःकस्मान्नजडादिभ्योजाताः पितृसदृशरूपाभवन्तीतितत्रउच्यते यस्ययस्यहिअङ्गावयवस्यबीजेबीजभावउपतप्तोभवतितस्यतस्याङ्गावयवस्यविकृतिरुपजायतेनउपजायतेचअनुतापात्तस्मादुभयोपपत्तिरपिअत्रसर्वस्यचात्मजानिइन्द्रियाणितेषांभावाभावहेतुर्दैवंतस्मान्नैकान्ततोजडादिभ्योजाताःपितृसदृशरूपाभावन्ति॥२६॥
और यह जो आपने कहाहै कि जब मनुष्यसे मनुष्य प्रगट होताहै तो जडादिकों-की संतान उनके समान जड, अंधी, कुबडी, आदि क्यों नहीं होतीं तो उसका यह स्पष्ट उत्तर है कि बीजके संपूर्ण अंगोंमें बीजकी शक्ति है उस बीजके जो अंश, अवयव खराव होजातेहैं संतानके भी उन्हीं अंश या अवयवोंमें विकार उत्पन्न होजातेंहैं यदि बीजमें किसीप्रकारका कोई विकार नहीं है तो उससे उत्पन्न होनेवाली संतानमें भी कोई विकार नहीं होते। क्योंकि जड आदिकोंके
वीर्यमें विकार न होनेसे उस वीर्य से उत्पन्न होनेवाली संतानमेभी कोई विकार उत्पन्न नहीहोते। उस वीर्यमेही प्रमेहादि दोष होनेसे संतानकोभी प्रमेहादि दोष होतेंहै। इससे आपके कहेहुए दोनो प्रश्नोंका उत्तर दिया जाचुका।सबकी सब इन्द्रियें आत्मज होतीहैं और उनके साथ पूर्वजन्मके कर्मका संबंध होताहै। वह पूर्वजन्मका कर्मही इन्द्रियोंके भावाभावका कारण है। अर्थात् किसी पूर्वजन्मके पापकर्मक प्रभावसे वैसाही संयोग मिलकर इन्द्रियोंका विघात होताहै पूर्वजन्मकृत कोई उस प्रकारका पापकर्म न होनेसे इन्द्रियोंमे कोई विकार नही होसकता। इसीलिये जडादिकोंसे उत्पन्न हुई संतानके रूप पितामाताके समान नहीहोते॥२६॥
नचात्मासत्स्विन्द्रियेषुअज्ञोऽसत्सुवाभवत्यज्ञोनह्यसत्त्वःकदाचिदात्मासत्त्वविशेषाच्चउपलभ्यतेज्ञानविशेषइति॥२७॥
आत्मा इन्द्रियोके होनेसे ज्ञाता और इन्द्रियोंके न होनेसे अज्ञाता नहीं होसकता क्योंकि आत्मा मनसे रहित कभी नहीहोता। इसलिये वाह्य इन्द्रियके नष्ट होनेपर भी मनयुक्त आत्माको ज्ञानकी उपलब्धी होती रहती है॥२७॥
भवंतिचात्र।
नकर्त्तुरिन्द्रियाभावात्कार्य्यज्ञानंप्रवर्त्तते। यैः क्रियावर्त्ततेयातुसाविनातैर्नवर्त्तते॥२८॥ जानन्नपिमृदोभावात्कुम्भकुन्नप्रवर्त्तते। श्रूयताञ्चेदमध्यात्ममात्मज्ञानबलंमहत्॥२९॥
यहां कहाहै कि इन्द्रियोका अभाव होनेसे कर्त्ताकीकार्यज्ञानमें प्रवृत्ति नहीं होती। क्योंकि जो किया जिसके द्वारा होसकती है वह उसके विना हो ही नहीसकती जैसे–कुम्हार घटके बनानेकी क्रियाको जानता हुआ भी मट्टींके बिना उसके बनाने के लिये प्रवृत्त नहीहोता। सो तुम इस महत् अध्यात्म ज्ञानके वलको श्रवण करो॥२८॥२९॥
देहेन्द्रियाणिसंक्षिप्यमनःसंगृह्यचञ्चलम्।प्रविश्याध्यात्ममात्मज्ञःखेज्ञानेपर्य्यवस्थितः॥३०॥ सर्वत्र विहितज्ञानःसर्वभावान्परीक्षते।गृह्णीष्ववेदद्मपरंभरद्वाजविनिर्णयम्॥३१॥
आत्माको जाननेवाला बुद्धिमान् देह और इन्द्रियोंको वशमेकरके मनकी चंचलताको रोककर अध्यात्म तत्वोंमें प्रवेश करके अपने ज्ञानको अर्थात् आत्मज्ञांनको प्राप्त होजाताहै। फिर वह सर्वज्ञ सबका पूर्णज्ञान रखते हुए अहतज्ञान द्वारा संपूर्ण भावोंकी परीक्षा करता है। हे भरद्वाज ! एक और विनिर्णयको श्रवण करो॥३०॥३१॥
निवृत्तेन्द्रियवाक्चेष्टःसुप्तःस्वप्नगतोयदा।विषयान्सुखदुःखेच वेत्तिनाज्ञोऽप्यतःस्मृतः॥३२॥ नात्माज्ञानाद्दतेचैकंज्ञानंकिञ्चित्प्रवर्त्तते। नह्येकोवर्त्ततेभावोवर्त्ततेनाप्यहेतुकः॥३३॥
जब मनुष्यकी इन्द्रिय तथा वाक्चेष्टा निवृत्त होजातीहैं और मनुष्य सोजाताहै उस अवस्थामें भी सुखदुःखको ग्रहण करताहै अर्थात् सोजानेपर इन्द्रिय आदिकोंकी चेष्टा बंद होजाती है उस समय भी यह सुखदुःखका स्वभावस्थामें अनुभव करताहै इसलिये इसको अज्ञ नहीं कहना चाहिये। आत्मज्ञानके विना कोई भी ज्ञान स्वतंत्र नहीं है और कोई भाव विना किसी हेतुके स्वयं अकेला प्रवृत्त नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि इन्द्रिय आदि व्यापार और चंचलताको वशमें करलेनेसे मनुष्यको साक्षात्कार ज्ञानका प्रकाश होजाताहै। और इन्द्रियोंके रुक जानेपर भी यह मनुष्य स्वप्नावस्थामें अनेक प्रकारके ज्ञानका अनुभव करता रहताहै। इसलिये आत्मा कभी भी अज्ञानी नहीं कहा जासकता॥३२॥३३॥
तस्माज्ज्ञःप्रकृतिश्चात्माद्रष्टाकारणमेवच।
सर्वमेतद्भरद्वाज! निर्णीतंजहिसंशयमिति॥३४॥
सो इसप्रकार ज्ञेय, प्रकृति, आत्मा, द्रष्टा और कारण इन सबके समुदायका वर्णन कियागया है। अब तुम संशयको त्यागदो॥३४॥
अध्यायका संक्षिप्तवर्णन।
हेतुगर्भस्यनिर्वृत्तौवृद्धौजन्मनिचैव यः।पुनर्वसुमतिर्याचभरद्वाजमतिश्चया॥३५॥ प्रतिज्ञाप्रतिषेधश्चविशदश्चात्मनिर्णयः। गर्भावकान्तिमुद्दिश्यखुड्डीकंसम्प्रकाशितम्॥३६॥
इतिखुड्डीकागर्भावसंक्रांतिः शारीरः समाप्तः॥३॥
यहां अध्यायकी पूर्तिमें दो श्लोक हैं–कि इस खुड्डीका गर्भावक्रान्ति शारीर नामक अध्यायमें गर्भकी उत्पत्ति, कारण, वृद्धि और जन्म इन सबके हेतु, आत्रेय भगवान्का मत और भरद्वाजका प्रस्ताव, प्रतिज्ञा, प्रतिबंध, स्पष्ट, निर्णय यह सब विधिवत् वर्णन कियेगयेहैं॥३५॥३६॥
इति श्रीमहर्षिचरक० शारीरस्थाने भाषाटीकाया खुट्टीकागर्भावक्रान्तिशारीरंनाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
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चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातो महर्तीगर्भावकांतिशारीरंव्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः।
अब हम महती गर्भावक्रान्ती शारीरकी व्याख्या करतेहैं इसप्रकार भगवान् आत्रेन्यजी कथन करनेलगे।
आत्रेयजीकी प्रतिज्ञा।
यतश्चगर्भःसम्भवतियस्मिंश्चगर्भसंज्ञायद्विकारश्चगर्भोयथाचानुपूर्व्याभिनिर्वर्त्ततेकुक्षौयश्चास्यवृद्धिहेतुर्यतश्चास्यावृद्धिर्भवतियतश्चजायमानःकुक्षौविनाशंप्राप्नोतियतश्चकार्त्स्येनाविनश्यन्विकृतिमापद्यतेतदनुव्याख्यास्यामः॥१॥
जिससे गर्भ उत्पन्न होताहै जिसलिये उसकी गर्भसंज्ञा है, जिन द्रव्योंके रूपान्तर होनेको गर्भ कहतेहैं, जिस प्रकार कुक्षीमें गर्भ प्राप्त होताहै, जो उसके बढनेके हेतु हैं जिसप्रकार वह वृद्धिको प्राप्त नहीहोता, जिनकारणोसे गर्भ उत्पन्न होकर भी कुक्षीमें ही नष्ट होजाताहै, जिनकारणोंसे संपूर्ण नष्ट न होकर विकृत होजाता है इनसबको हम क्रमपूर्वक वर्णन करतेहैं॥१॥
गर्भकी उत्पत्तिका कारण।
मातृतःपितृतआत्मतःसात्म्यतो रसतःसत्त्वतइत्येतेभ्योभावेभ्यःसमुदितेभ्योगर्भःसम्भवति। तस्ययेयेऽवयवायतोयतः सम्भवतःसम्भवन्तितान्विभज्यमातृजादीनवयवान्पृथक्पृथगुक्तमग्रे। शुक्रशोणितजीवसंयोगेतुखलुकुक्षिगतेगर्भसंज्ञाभवति॥२॥
यह गर्भ माता, पिता, आत्मा, सात्म्य और रस तथा सत्त्व इन सब भावोंसेही उत्पन्न होताहै। उसगर्भके जोर अवयव जिसाजिस प्रकार जैसेजैसे उत्पन्न होतेहैं उनसबके मातृज आदि अवयवोंको विभागपूर्वक अलग अलग प्रथम कथन करचुकेहैं। वीर्य और रजके तथा जीवका संयोग होकर कुक्षीमेप्राप्त होनेका नामही गर्भ है॥२॥
गर्भके वैकारिकद्रव्य।
गर्भस्तुखलुअन्तरिक्षवाय्वन्नितोयभूमिविकारश्चेतनाधिष्ठान
भूतएवमनयैवयुक्त्यापञ्चमहाभूतविकारसमुदायात्मकोगर्भश्चेतनाधात्वधिष्ठानभूतःसह्यस्यषष्ठोधातुरुक्तः॥३॥
वह गर्भ–आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और चेतनाका अधिष्ठानभूत है। इसलिये गर्भ–पंचमहाभूतोंके विकारोंका समुदायात्मक है और चेतनाधातुका अधिष्ठान भूत है। वह चेतनाही गर्भकी छठी धातु मानीजातीहै॥३॥
गर्भकी आनुपूर्विक उत्पत्ति।
यथात्वानुपूर्व्याभिनिर्वर्त्ततेकुक्षौतदनुव्याख्यास्यामः।गते पुराणेरजसिनवेचअवस्थितेपुनःशुद्धस्नातांस्त्रियमव्यापन्नयोनिशोणितगर्भाशयामृतुमतीमाचक्ष्महेतयासहतथाभूतयायदा पुमानव्यापन्नबीजोमिश्रीभावंगच्छतितस्यहर्षोदीरितः परःशरीरधात्वात्माशुक्रभूतोऽङ्गादङ्गात्सम्भवति। स तथाहर्षभूतेनात्मनोदीरितश्चअधिष्ठितबीजधातुःपुरुषशरीरादमिनिष्पद्योदितेनहितेनपथागर्भाशयमनुप्रविश्यार्त्तवेनाभिसंसर्गमेति। तत्र पूर्वंचेतनाधातुःसत्त्वकरणोगुणग्रहणायपुनःप्रवर्त्तते। सहिहेतुः कारणंनिमित्तमक्षरंकर्त्तामन्तावेदिताबोद्धाद्रष्टाधाताब्रह्माविश्वकर्माविश्वरूपःपुरुषःप्रभवोऽव्ययोनित्यःगुणीग्रहणंप्राधान्यमव्यक्तंजीवोज्ञःप्रकुलश्चेतनावान्विभुर्भूतात्माचेन्द्रियात्माचान्तरात्माचेति॥४॥
जिसप्रकार आनुपूर्विक क्रमसे कुक्षीमें गर्भ उत्पन्नहोकर परिणत होताहुआ वृद्धिको प्राप्त होताहै अब उसका वर्णन करतेहैं। जब स्त्री प्राचीन रजके निवृत्त होनेसे नवीन रजोदर्शन होनेके अनन्तर शुद्धस्नान करलेती है और रजके साफ होजानसे उसकी योनिस्राव, गर्भाशय शुद्ध होताहै। उससमय वह स्त्री गमनीयां अर्थात् पुरुषके सहवासयोग्य होतीहै। उस स्त्रीके साथ शुद्धवीर्यवाले पुरुषका संयोग होकर शरीरकी संपूर्ण धातुओंका सारभूत वीर्य आनन्दके कारण शरीरमेंसे प्रचलित होताहै। वह वीर्य आनन्दरूप आत्मासे उदीरित हुआ जीवधातु पुरुषके शरीरसे निकलकर उसी रास्तेसे गर्भाशयमें प्रवेश हो शुद्धआर्तव (मासिक ऋतुका शुद्धरज) से मिलजाता है। वह चेतनाधातु सत्त्वसंज्ञकमनरूप करणसे युक्तहोकर गुणग्रहण करनेमें प्रथम प्रवृत्त होताहै।इसीलिये यह कारण, निमित्त, अक्षर, कर्त्ता, मंता, वेदिता, बोद्धा, द्रष्टा,
धाता, ब्रह्मा, विश्वकर्मा, विश्वरूप, प्रभव, अव्यय, नित्य, गुणी, ग्रहणकर्त्ता, प्रधान, अव्यक्त, जीव, ज्ञाता, प्रकुल, चेतनावान, विभु, भूतात्मा इन्द्रियात्मा और अन्तरात्मा कहाजाताहै॥४॥
सगुणोपादानकालेऽन्तरिक्षंपूर्वतरमन्येभ्योगुणेभ्यउपादत्तेयथा प्रलयात्ययेसिसृक्षुर्भूतान्यक्षरभूतःसत्त्वोपादानंपूर्वतरमाकाशंसृजति। ततःक्रमेणव्यक्ततरगुणान्धातून् वाय्वादींश्चतुरः।तथादेहग्रहणेऽपिप्रवर्त्तमानःपूर्वतरमाकाशमेवोपादत्तेततःक्रमेणव्यक्ततरगुणान्धातून्वाय्वादींश्चतुरः। सर्वमपितुखल्वेतद्गुणोपादानमणुनाकालेनभवति॥५॥
वह चेतनाधातु गुणग्रहण करनेके समय और अन्यगुण ग्रहणकरनेसे प्रथम आकाशको ग्रहण करके रहताहै। जैसे–विधाता प्रलयके अनन्तर सृष्टि रचनाकरनेकी इच्छासे सत्त्वोत्पादन करनेसे प्रथम आकाशको रचताहै।फिर उस आकाशमें क्रमपूर्वक वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन व्यक्तगुणोवाली धातुओंको रचताहै। उसीप्रकार देहको ग्रहणकरनेमें प्रवृत्तहोनेकी इच्छावाला आत्मा पहिले आकाशको ग्रहण करताहै। फिर क्रमसे वायु, आदि चार व्यक्तधातुओंके गुणोको ग्रहण करताहै।यह संपूर्णही गुर्णोकाका उपादान अर्थात् ग्रहणकरना अणुकाल द्वारा होताहै॥५॥
गर्भकी पहिली अवस्था।
ससर्गगुणवान्गर्भत्वमापन्नःप्रथमेमासिसंमूर्च्छितःसर्वधातुकलुषीकृतःखेटभूतोभवतिअव्यक्तविग्रहःसचसदसद्भूताङ्गावयवः॥६॥
वह चेतनाधातु इसप्रकार गुणोको ग्रहणकर गर्भत्वको प्राप्त होजाताहै। पहिले महीनमें समूर्च्छित हुआ संपूर्ण धातुओंसे कलुपित होकर कफके समान गाढासा होताहै। इस अवस्थामें इसका शरीर दिखाई नहीं देता।वह प्रथम महीनेमें कललभूत गाढासा क्लेद अंगावयवकी सूक्ष्म सत्तासे युक्त होताहै॥६॥
द्वितीयेमासिघनःसम्पद्यतेपिण्डंपेश्यर्बुदंवातत्रघनःपुरुषःस्त्रीपेशीअर्बुदंनपुंसकम्॥७॥
दूसरे महीनेमें घनहोकर पिडके आकारका बनजाताहै।यदि पुरुषका शरीर होना हो तो वह पिड गोल होजाताहै। और स्त्रीका हो तो लम्बी मांसपेशीसी होजातीहै। और नपुंसक होना हो तो अर्बुद (बुलबुला ) के समान होताहै॥७॥
तृतीयेमासिसर्वेन्द्रियाणिसर्वाङ्गावयवाश्चयौगंपद्येनअमिनिर्वर्त्तते॥८॥
तीसरे महीनेमें सम्पूर्ण इन्द्रियां और सर्वांगावयव एककालमें ही प्रगट होजातेहैं॥८॥
तत्रास्यकेचिदङ्गावयवामातृजादीनवयवान्विभज्यपूर्वमुक्तायथावन्महाभूतविकारप्रविभागेनतुइदानीमस्यतांश्चैवअङ्गावयवान्कांश्चित्पर्य्यायान्तरेणपरांश्चअनुव्याख्यास्यामः॥९॥
उनसब अंगावयवोंमें जो मातृज आदिक अंगावयव होतेहैं उनको तो हम क्रमपूर्वक प्रथमही कथन करचुकेहैं।अब पांचमहाभूतकेक्रमसे आकाशादिकोंके जो जो अंग उत्पन्न होतेहैं तथा अन्य भी जो अंग जिसप्रकार उत्पन्न होते हैं उनका वर्णन करतेहैं॥९॥
गर्भका आकाशात्मक अवयव।
मातृजादयोऽप्यस्यमहाभूतविकाराएवतत्रास्याकाशात्मकंशब्दःश्रोत्रंलाघवंसौक्ष्म्यंविवेकश्च॥१०॥
मातृज आदिक जितने गर्भके अंग होतेहैं वह सबपांचमहाभूतोकेही विकारहैं उन पांचोंमें शब्द, श्रोत्र, लघुता, सूक्ष्मता और विभाग अथवा छिद्र यह सब आकाशके विकार होतेहैं। अर्थात् आकाशसे उत्पन्न होतेहैं॥१०॥
गर्भका वाय्वात्मक अवयव।
वाय्वात्मकंस्पर्शःस्पर्शनञ्चरौक्ष्यं प्रेरणंधातुव्यूहनंचेष्टाश्चशारीर्य्यः॥११॥
स्पर्श, स्पर्शनेद्रिय, रूक्षता, प्रेरणा, धातुओंकी रचना और शरीरकीचेष्टा यह सब वायुके विकारहैं॥११॥
गर्भका अग्न्यात्मक अवयव।
अग्न्यात्मकंरूपंदर्शनंप्रकाशःपक्तिरौष्ण्यञ्च॥१२॥
रूप, चक्षुइन्द्रिय, प्रकाश, जठराग्नि और गर्मी यह सब अग्निके विकार हैं॥१२॥
गर्मका जलात्मक अवयव।
अवात्मकंरसोरसनंशैत्यंमार्दवःस्नेहःक्लेदश्च॥१३॥
रस, जिह्वा, शीतलता, मृदुता, चिकनाई और गीलापन यह सब जलके विकार होते हैं॥१३॥
गर्भका पृथिव्यात्मक अवयव।
पृथिव्यात्मकोगन्धःघ्राणंगौरवंस्थैर्य्यमूर्त्तिश्च॥१४॥
गंध, घाणेन्द्रिय, भारपिन, स्थिरता और मूर्त्तता यह सब पृथिव्यात्मक विकार हैं॥१४॥
एवमयंलोकसम्मतःपुरुषः।यावन्तोहिलोकेभावविशेषाःतावन्तः पुरुषेयावन्तः पुरुषेतावन्तोलोकेइतिवुधास्त्वेवंद्रष्टुमिच्छंति॥१५॥
इसप्रकार यावन्मात्र लोकसंमित पुरुष हैं और जितने भाव विशेष जिसजिस प्रकार जिसजिस महाभूतके पूर्वमें होतेहैं वह सब बाह्यजगतमें देखेजातेहैं।ज्ञानियोंने इस प्रकार पंचभौतिक विकारोंका दृश्य कथन कियाहै॥१५॥
एवमस्येन्द्रियाणिअङ्गावयवाश्चयौगपद्येनाभिनिर्वर्त्तन्तेअन्यत्रतेभ्योभावेभ्योयेऽस्यजातस्योत्तर कालंजायन्तेतद्यथा, दन्ताव्यञ्जनानिव्यक्तीभावःतथायुक्तानिचापराणिएषाप्रकृतिविकृतिः
पुनरतोऽन्यथा। सन्तिखलुअस्मिन्गर्भेनित्याभावाःसन्तिचानित्याःतस्ययएवाङ्गावयवाःसन्तिष्ठन्तेतएवस्त्रीलिङ्गंपुरुषलिङ्गंनपुंसकलिङ्गवाबिभ्रति॥१६॥
इसप्रकार संपूर्ण इन्द्रियां और अंग वयव एकही कालमें उत्पन्न होजातेहै। परन्तु कुछ भाव इसप्रकारके होतेहैं जो इसके जन्मलेनेके अनन्तर होतेहैं। उन भावांके सिवाय
और संपूर्ण अंगावयव क्रमपूर्वक गर्भमेंही परिपूर्ण होजातेहैं। जो जन्म लेने उपरान्त भाव उत्पन्न होतेहैं वह इसप्रकार हैं। जैसे–दांत, दाढी, मूंछ आदि। इनके सिवाय अन्य भी प्राकृतिकभाव उत्पन्न होतेहैं। इससे विपरीत इन्द्रियानि आदि विकृतभाव उत्पन्न होतेहैं। गर्भके बहुतसे भाव नित्य होतेहैं। बहुतसे अनित्य होतेहैं। जिस अंगावयोंसे स्त्रीके लक्षण पुरुषके लक्षण और नपुंसकके लक्षण दिखाई देतेहैं । वह गर्भके भाव नित्य हैं। और दांत आदि भाव अनित्य होतेहैं॥१६॥
कन्या आदिका विशेषभाव।
ततःस्त्रीपुरुषयोर्येवैशेषिकाभावाःप्रधानसंश्रयागुणसंश्रयाश्चतेषां यतोभूयस्त्वंततोऽन्यतरभावः। तद्यथाक्लैब्यभीरत्वमवैशारद्यंमोहोऽवस्थानमधोगुरुत्व मसंहनशैथिल्यंमार्दवंगर्भाशयवीजभाग
स्तथायुक्तानिचापराणिस्त्रीकराणि। अतोविपरीतानिपुरुषक राणिउभयभागभावानिनपुंसककराणि।यस्ययत्कालमेवइन्द्रियाणिसन्तिष्ठन्तेतत्कालमेवास्यचेतसिवेदनानिबन्धंप्राप्नोति। तस्मात्तदाप्रभृतिगर्भःस्पन्दतेप्रार्थयतेचजन्मान्तरानुभूतमिहयत्किञ्चित्तद्द्वैहृदय्यमाचक्षसेवृद्धाः।मातृजञ्चास्यहृदयंमातृहृदयाभिसम्बद्धंरसवाहिनीभिःसंवाहिनीमिस्तस्मात्तयोस्ताभिर्भक्तिः सम्पद्यते। तच्चैवकारणमवेक्षमाणानद्वैहृदय्यंविमानितंगर्भमिच्छन्तिकर्तुंविमानेह्यस्यदृश्यतेविनाशोविकृतिर्वा॥१७॥
गर्भमें स्त्रीपुरुषके रज और वीर्याश्रित भावोंमें स्त्रीके भावांकी अधिकता होनेसे कन्या उत्पन्न होतीहै और पुरुषके भावोंकी अधिकता होनेसे पुत्र उत्पन्न होताहै। एवं दोनोंके बराबर होनेसे नपुंसक संतान होतीहै। उनमें कन्याके उत्पन्न करनेवाले ये भाव होतेहैं। जैसे कातरता, भीरुता, अचतुरता, मोह, चंचलता, अधोगुरुता, अदृढता, शिथिलता, मृदुता और रजकी आधिक्यका आदिक भाव कन्या के उत्पन्न करनेवाले होतेहैं। इससे विपरीत सब भाव जैसे शौर्यता, शुक्राधिक्यता, धैर्य, दृढता आदि पुत्र उत्पन्नकरनेवाले भाव होतेहैं। दोनोंके बराबर होनेसे नपुंसक संतान होतीहैं। जब गर्भमें इन्द्रियें उत्पन्न होजातीहैं उसी समयसे चित्तमें पीडा आदि जाननेका संबंध उत्पन्न होजाताहै। जबसे इसको गर्भमें पीडा आदि प्रतीत होने लगतीहै और गर्भ फडकने लगजाताहै उसी समयसे यह जन्मांतरमें होनेवाले सुख दुःखोंका अनुभव करने लगजाताहै और जिस २ प्रकारकी इच्छा करताहै वह इच्छा माताके हृदय में पहुंचकर मातासेही उसी प्रकारकी इच्छाको उत्पन्न करताहै। गर्भका हृदय माताके हृदयके साथ रसवाहिनी नाडियोंद्वारा संबंवरखताहै उन्ही रसवाहिनी नाडियोंके संयोगसे गर्भके हृदयकी इच्छा माताके हृदयमेंपहुंचती है। उन भावोंको देखकरही गर्भवती स्त्रीको दौर्हद ( दोहृदयोंवाली ) कहाजाताहै। जिस प्रकारकी गर्भके हृदयमें इच्छा उत्पन्न होतीहै माता उसी प्रकारकी इच्छाको प्रगट करतीहै।इसलिये बुद्धिमान् गर्भकी इच्छाका व्याघात कभी नहीं करते अर्थात् गर्भवती जिस पदार्थको चाहतीहै उसको वही देतेहैं। दौहृदके समय माता के इच्छित पदार्थ न मिलनेसे गर्भमें विकार उत्पन्न होताहै। अथवा गर्भनाश होजाताहै॥१७॥
समानयोगक्षेमाहिमातातदागर्भेणकेषुचिदर्थेषुतस्मात्प्रियहिताभ्यांगर्भिणीविशेषेणोपचरन्तिकुशलाः॥१८॥
माता और गर्भ यह दोनो समान योगक्षेम हैं अर्थात् माताका हित होनेसे गर्भका भी हित होताहै और माताका अधिक होनेसे गर्भमेभी विकार उत्पन्न होजाताहै। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य गर्भवती स्त्रीके प्रियकर्त्ता पदार्थोंसे और हित उपचारसे इच्छा पूर्ण करते रहते हैं॥१८॥
दौहृदलक्षण।
तस्याद्वैहृदय्यस्यचविज्ञानार्थंलिङ्गानिसमासेनउपदेक्ष्यामः॥१९॥
उस स्त्रीके दौहृद जाननेके लिये लक्षण और उसकी रक्षाके लिये हितउपायोंका संक्षेपसे वर्णन करतेहैं॥१९॥
उपचारसंबोधनंह्यस्याज्ञानेदोषज्ञानञ्चलिङ्गतस्तस्मादिष्टोलिङ्गोपदेशस्तद्यथाआर्त्तवादर्शनमास्यसंस्रवणमनन्नाभिलाषश्छर्दिररोचकोऽम्लकामताचविशेषेण।श्रद्धाप्रणयनञ्चोच्चावचेषुभावेषुगुरुगात्रत्वंचक्षुषोर्ग्लानिःस्तनयोःस्तन्यमोष्ठयोःस्तनमण्डलयोश्चकार्ष्ण्यमत्यर्थंश्वयथुःपादयोरीषल्लोमराज्युद्गमोयोन्याश्चाटालत्वमितिगर्भेपर्य्यागतेरूपाणिभवंति॥२०॥
** **क्योंकि गर्भवतीके लक्षणोंको न जाननेसे और उपचारको न जाननेसे गर्भमें अनेक प्रकारकी बाधाये होसकतीहैं। इसलिये लक्षणोंसे ज्ञानकी उत्पत्तिके लिये उन लक्षणोंका वर्णन करतेहैं अर्थात् गर्भवती स्त्रीके यह लक्षण होतेहै । जैसे–मासिकऋतुका न दीखना, मुखसे पानीका गिरना, अन्न अच्छा न लगना, छर्दी होना, अरुचि और खट्टे पदार्थोकी इच्छा होना, ऊंच और नीचभावोमेश्रद्धा होना और इच्छा होना, शरीरका भारी होना, नेत्रोंमे ग्लानि होना, स्तनोंमें दूधकी प्रवृत्तिहोना, दोनो ओष्ठ और स्तनोंके मुख काले होना, पांवोंपर सूजन होना योनिका बंद होना, किचित रोमांच होना यह सब लक्षण पूर्णगर्भवतीके होतेहैं॥२०॥
गर्भनाशक भाव।
सा यद्यदिच्छेत्तत्तदस्यैदद्यादन्यत्र गर्भोपघातकरेभ्योभावेभ्यः। गर्भोपघातकरास्त्विमे भावाः तद्यथासर्वमतिगुरूणतीक्ष्णदारुणाश्चचेष्टाइमांश्चान्यानुपदिशन्तिवृद्धाः। देवतार-
क्षोऽनुचरपरिरक्षणार्थंनरक्तानिवासांसिबिभृयान्नमदकराणि चाद्यान्नाभ्यवहरेन्नयानमधिरोहेन्नमांसमश्नीयात्सर्वेन्द्रियप्रतिकूलांश्चभावान्दूरतःपरिवर्जयेत्॥२१॥
वह गर्भवती जिनेजिन पदार्थोंकी इच्छाकरे उसको वही पदार्थ देने चाहिये। परन्तु जो द्रव्य गर्भको हानि पहुंचानेवाले हों वह नहीं देने चाहिये। गर्भको हानि पहुंचानेवाले यह भावहैं। जैसे अत्यन्तभारी, तीक्ष्ण और दारुण द्रव्योंका सेवन और उल्टीपुल्टी चेष्टा करना।इनके सिवाय और भी भावोंको गर्भके हानिकारक कथन कियाहै। जैसे देवता और राक्षस तथा उनके अनुचर भी गर्भमें हानि पहुंचाते हैं। इसलिये वृद्धजनोंने कहाहै कि गर्भवती स्त्रीको रक्तवस्त्र धारण नहीं करने चाहिये और मदकारक द्रव्योंका सेवन नहीं करना चाहिये तथा सवारी आदिमें चढना अतिवेगसे चलना, मांसखाना, एवम् इन्द्रियोंके प्रतिकूल संपूर्ण भावोंको दूरसेही त्याग देना चाहिये॥२१॥
यच्चान्यदपिकिञ्चित्स्त्रियोविदुस्तीव्रायान्तुखलुप्रार्थनायांकाममहितमप्यस्यैहितेनोपसंहितंदद्यात्प्रार्थनाविलयनार्थम्। प्रार्थनासन्धारणाद्धिवायुःकुपितोऽन्तःशरीरमनुचरन्गर्भस्यापद्यमानस्यविनाशंवैरूप्यंवाकुर्थ्यात्॥२२॥
यदि किसी अहितकारक द्रव्यके ऊपर स्त्रीकी बहुत इच्छा चलती हो तो उसको वह द्रव्य किसी हितकारी द्रव्यके संयोगसे जिसप्रकार वह हानि न करसके दे देना चाहिये। क्योंकि गर्भवतीस्त्रीकी तीव्र इच्छाको रोकनेसे गर्भमें दोष उत्पन्न होताहै और वायु कुपित होकर विगाड देताहै॥२२॥
चौथे महीनेमें गर्भके लक्षण।
चतुर्थेमासिस्थिरत्वमापद्यतेगर्भस्तस्मात्तदागर्भिणीगुरुगात्रत्वमधिकमापद्यतेविशेषेण॥२३॥
चौथे महीनेमें वह गर्भ दृढ होजाताहै इसलिये गर्भवती स्त्रीका विशेषरूपसे शरीर भी भारी होजाता है॥२३॥
पांचवें महीनेमें गर्भका लक्षण।
पञ्चमेमासिगर्भस्यमांसशोणितोपचयोभवतिअधिकमन्येभ्योमासेभ्यस्तस्मात्तदागर्भिणीकार्यमापद्यतेविशेषेण॥२४॥
पांचवें महीनेमें गर्भके मांस और रक्तकी वृद्धि अन्य महीनोंसे अधिक होतीहै। इसलिये गर्भवती स्त्रीका शरीर विशेषतासे कृश होनेलगताहै॥२४॥
छठे महीनेमें गर्भका लक्षण।
षष्ठेमासिगर्भस्यबलवर्णोपचयोभवतिअधिकमन्येभ्योमासेभ्यस्तस्मात्तदागर्भिणीबलवर्णहानिमापद्यतेविशेषेण॥२५॥
छठवे महीनेमें गर्भके बल और वर्णकी अन्य महीनोंसे अधिक वृद्धि होतीहै। इसलिये गर्भवती स्त्रीके बल, और वर्णकी हानि विशेषरूप से होतीहै॥२५॥
सांतवें महीनेमें गर्मलक्षण।
सप्तमेमासिगर्भः सर्वभावैराण्यायतेऽस्याः।
तस्मात्तदागर्भिणीसर्वाकारैःक्लान्ततमाभवति॥२६॥
सांतव महीनेमें संपूर्ण भावोसे गर्भ पुष्ट होजाताहै। इसलिये गर्भिणी सबप्रकारसे क्लान्त अर्थात् व्याकुलसी रहतीहै॥२६॥
आठवे महीनेमें गर्भके लक्षण।
अष्टमेमासिगर्भश्चमातृतोगर्भतश्चमातारसवाहिनीभिःसंवाहिनीभिर्मुहुर्मुहुरोजःपरस्परतआददातिगर्भस्यासम्पूर्णत्वात्तस्मात्तदागर्भिणीमुहुर्मुहुःसुदायुक्ताभवतिमुहुर्मुहुश्चग्लानातस्मात्तदागर्भस्यजन्मव्यापत्तिमद्भवत्योजसोऽनवस्थितत्वात्तञ्चैवमभिसमीक्ष्याष्टमंमासमगर्भण्यमित्याचक्षतकुशलाः॥२७॥
आठवें महीनेमें गर्भ मातासे और माता गर्भसे रसवहनकरनेवाली नाडियोंद्वारा परस्पर ओजको ग्रहण करतेहैं।और गर्भ संपूर्ण होताहै। इसलिये गर्भवती स्त्री बारंबार आनन्दयुक्त और बारंबार ग्लानियुक्त होती जातीहै। उससमय गर्भमें ओज स्थिरभावसे नहीं होता। इसीलिये बुद्धिमानोंने अष्टम महीना बालकके उत्पन्न होनेका नहीं मानाहै। क्योंकि आठवे महीनेका उत्पन्नहुआ बालक जीता नहींहै॥२७॥
प्रसवका समय।
तस्मिन्नेकदिवसातिक्रान्तेऽपिनवमंमासमुपादायप्रसवकालमित्याहुरादशमान्मासादेतावान्कालोवैकारिकम्॥२८॥
आठवें महीनेके उपरान्त नवम महीनेका एकदिन व्यतीत होनेपर भी नवां महीनाही गिनाजाता है और वह प्रसवका समय मानाजाता है । नवमें मासके
प्रथम दिनसे लेकर दशम महीनेके अंततक प्रसूतका प्राकृत ( ठीक ) अर्थात् योग्य समय मानाजाताहै।फिर दशवेंके उपरान्त सत्र दिन वैकारिक समय माना जाता है॥२८॥
अतःपरंकुक्षौस्थानंगर्भस्य। एवमनयानुपूर्व्याभिनिर्वर्ततेकुक्षौ॥२९॥
गर्भका निवासस्थान कुक्षी है और उस कुक्षीमेंही इस पूर्वोक्त कमसे गर्भ प्रकट होताहै॥२९॥
मात्रादीनान्तुखलुगर्भकराणांभावानांसम्पदस्तथातिवृत्तस्यसौष्टवान्मातृतश्चैवोपस्नेहोपस्वेदाभ्यांकालपरिणामात्स्वभावसंसिद्धेश्चकुक्षौवृद्धिप्राप्नोति। मात्रादीनान्तुखलुगर्भकराणां।
भावानांव्यापत्तिनिमित्तमस्याजन्मभवति॥३०॥
माता आदिके गर्भकारक भावोंका सम्पन्न होनेसे तथा हित आचारादिकोंके सेवनसे, उपस्नेह और उपस्वेदके योगसे, तथा काल और स्वभावके प्रभावसे गर्भ कुक्षीमें वृद्धिको प्राप्त होता है। और माता आदिक भावोंकेही संपन्न न होनेसे अथवा अनाचार के होनेसे गर्भका जन्म नहीं होता॥३०॥
येत्वस्यकुक्षौवृद्धिहेतुसमाख्याताभावास्तेषांविपर्य्ययादुदरेविनाशमापद्यतेऽथवाप्यचिरजातः स्यात्॥३१॥
गर्भको बढानेवाले भावोंकी प्राप्ति न होनेसे गर्भ पेटमेही नष्ट होजाताहै। यदि नष्ट न हो तो बहुत विलंबसे उत्पन्न होताहै॥३१॥
यतस्तुकार्त्स्न्येनाविनश्यन्विकृतिमापद्यतेतदनुव्याख्यास्यामः॥३२॥
जिन कारणोंसे गर्भ सर्वथा नष्ट न होकर विकारको प्राप्त होजाताहै उनको कथन करते हैं॥३२॥
दूषितरक्तजन्यविकृतावयव।
यदास्त्रियादोषप्रकोपनोक्तान्यासेवमानायादोषाःप्रकुपिताःशरीरमुपसर्पन्तःशोणितगर्भाशयौदूषयन्तितदायंगर्भलभतेस्त्रीतदागर्भस्यमातृजानामवयवानामन्यतमोऽवयवोविकृतिमापद्यतेएकोथवानेकः॥३३॥
जब स्त्री दोपोके कुपित करनेवाले पदार्थोंको सेवन करतीहै तव उसके शरीरमें दोष कुपित होकर रक्तको और गर्भाशयको दूषितकर देतेहैं। फिर जब वह गर्भको धारण करती है तो उस गर्भके मातृज अवयव अथवा अन्य अवयव एक अथवा अनेक अवयव विकृत होजातेहै॥३३॥
यस्ययस्यह्यवयवस्यबीजेबीजभागेवादोषाःप्रकोपमापद्यन्तेतंतमवयवंविकृतिराविशति॥३४॥
गर्भके जिस २ बीजावयवको दोष दूषित करतेहैं वही २ अवयव अर्थात् वही २ हिस्सा विगड जाताहै॥३४॥
यदाह्यस्याःशोणितगर्भाशयबीजभागःप्रदोषमापद्यतेतदावन्ध्यांजनयति। यदापुनरस्याःशोणितेगर्भाशयबीजभागावयवःप्रदोषमापद्यतेतदापूतिप्रजांजनयति॥३५॥
जब गर्भमेंदोप वीर्यके रजभाग और गर्भाशयकर्ता बीजके भागको दोष दूषितकर देतेहैं तो इसको वंध्या कन्या उत्पन्न होतीहै। जब स्त्रीके रजमें गर्भाशय बीजभावके अवयवको दूषितकर देताहै तब उस स्त्रीको दुर्गंधित संतान उत्पन्न होतीहै अथवा सडी गली होतीहै॥३५॥
यदात्वस्याःशोणितगर्भाशयबीजभागावयवःस्त्रीकराणाञ्चशरीरबीजभागानामेकदेशःप्रदोषमापद्यतेतदाख्याकृतिभूयिष्ठामस्त्रियंवार्त्तानामजनयतितांस्त्रीव्यापदमाचक्षते॥३६॥
जब उसके रजमें गर्भाशय बीजभागको दूषितकर स्त्रीके शरीरके एक देश भागको दूषितकर देताहै तो योनिरहित स्त्रीके आकारवाली वार्ताक नामकी संतान उत्पन्न होतीहै। इसप्रकार स्त्रीके गर्भाशयमें दोष कुपित होकर गर्भको हानि पहुंचातेहैं॥३६॥
दूषित शुक्रजन्य विकृतावयव।
एवमेवपुरुषस्यबीजदोषेपितृजावयवविकृतिंविद्यायदापुनरस्यबीजेबीजभागावयवःप्रदोषमापद्यतेतदापूतिप्रजांजनयति॥३७॥
इसीप्रकार पिताके बीज दोषसे पितृज अवयवोंमें विकृति होती है। जब पुरुषके बीजमें बीजभागके अवयव दूषित होजातेहैं तब दुर्गंधित, सडीहुई अथवा मरीहुई संतान उत्पन्न होतीहै॥३७॥
यदात्वस्यबीजेबीजभागावयवःपुरुषकराणाञ्चशरीरबीजभागानामेकदेशःप्रदोषमापद्यतेतदापुरुषाकृतिभूयिष्ठमपुरुषंतृणपूलिकंनामजनयतितांपुरुषव्यापदमाचक्षते॥३८॥
जब मनुष्यके वीज में पुरुपकारक शरीरके वीजभागके एक देशको दोष दूषितकर देतेहैं तब इस पुरुषके चिह्नरहित और बीर्यरहित पुरुषके आकारवाला तृणपूलक नामकी संतान उत्पन्न होती है। इसप्रकार पुरुषके बीजावयवसे गर्भमेंविकार होनेका कथन कियागया।पुरुषके बीजका जो अंश दूषित होताहै, संतानके शरीर में उसी २ भागमें विकृति होजातीहै॥३८॥
एतेनमातृजानांपितृजानाञ्चावयवानांविकृतिव्याख्यानेनसात्म्यजानांरसजानां सत्त्वजानाञ्चावयवानांविकृतिर्व्याख्याता॥३९॥
इस कथनसे माता और पिताके बीजमें होनेवाले विकार आदिकोंका वर्णन कियागया और सात्म्यज रसज तथा सत्त्वज विकृतियोंका भी निर्देश कियागया॥३९॥
निर्विकारःपरस्त्वात्मासर्वभूतानांनिर्विशेषःसत्त्वशरीरयोस्तुविशेषाद्विशेषोपलब्धिः॥४०॥
परमात्मा निर्विकार है। वह आत्मा सर्वभूतोंमें समानभावसे वर्तमान है। इस लिये उसमें किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती। मन और शरीर सबके एक बराबर नहीं होते इसलिये उनमें दोषादिकोंकी उपलब्धि है॥४०॥
तत्रत्रयस्तुशारीरदोषावातपित्तश्लेष्माणस्तेशरीरंदूषयन्ति॥४१॥ द्रौपुनःसत्त्वदोषौरजस्तमश्च। तौसत्त्वंदूषयतस्ताभ्याञ्चसत्त्वशरीराभ्यांदुष्टाभ्यांविकृतिरुपजायतेनोपजायतेचाप्रदुष्टाभ्याम् ४२॥
वात, पित्त और कफ यह तीनों शारीरिक दोष हैं। यह दोष शारीरिक होनेसे शरीरावयवोंको अथवा शरीरको दूषित करते हैं। रज और तम, यह दो मनके दोष हैं। यह दोनो मनको दूषित करते हैं\। इसप्रकार शारीरिक और मानसिक भेदसे दो प्रकारके दोष होते हैं। यह दोनो प्रकारके दोष दुष्ट होनेसे शरीर और मनको विकृत करदेतेहैं। और दुष्ट न होनेसे विकृत नहीं करते। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा तो निर्दोष है इसलिये आत्मामें कोई विकृति भी नहीं होती। परंतु शारीरिक और मानसिक दो प्रकारके दोष होतेहैं । सो शरीर और मनको दूषित करतेहैं। यदि उनका कोई गर्भसे संबंध होजाताहै तो जिसप्रकार जिस अवयव
और जिसअंशमें उनको दुष्टहोकर प्रवेश होताहै उसीको विगाड देते हैं। यदि वह कुपित नहीं होते किंवा दुष्ट नहीं होते तो किसी प्रकारके उपद्रवको भी नहीं करते॥४१॥४२॥
तत्रशरीरंयोनिविशेषाञ्चतुर्विधमुक्तमग्रेत्रिविधंखलुसत्वंशुद्धंराजतंतामसमिति। तत्रशुद्धमदोषमाख्यातंकल्याणांशत्वात्। राजसंसदोषमाख्यातंरोषांशत्वात्। तथातामसमपिसदोषमाख्यातंमोहांशत्वात्॥४३॥
शरीरकी चार प्रकारकी योनिका पहिले कथन करचुकेहैं। मन तीन प्रकार का होताहै। सात्विक, राजस और तामस।इनमें सात्त्विक मन निर्दोष होताहै। इसलिये वह कल्याणयुक्त कहा जाताहै। और यह मोक्षसाधनादि कार्यको करनेवाला होताहै। राजस मन रोपका अंशवाला होनेसे दोपयुक्त कहाजाताहै। तामस मन मोहका अंग अधिक होनेसे अतिदोषयुक्त होताहै॥४३॥
सत्त्वके अनेक भेद।
तेषान्तुत्रयाणामपिसत्त्वानामेकैकस्यभेदाग्रमपरिसंख्येयंतरतमयोगाव्छरीरयोनिविशेषेभ्यश्चान्योन्यानुविधानत्वाच्च। शरीरमपिसत्त्वमनुविधीयतेसत्त्वञ्चशरीरंतस्मात्कतिचिच्चसत्त्वभेदाननूकसादृश्याभिनिर्दृेशेननिदर्शनार्थमनुव्याख्यास्यामः॥४४॥
** **इन तीनों प्रकारके मनोंमें एकएकका भेद भी असंख्य होताहै। क्योंकि एकएक की अधिकता और न्यूनता आदि भेदसे और शरीरयोनि विशेषसे तथा इनके परस्पर अनुसंधान विशेषसे असंख्य होजातेहैं। शरीर भी सत्त्वकेही अनुरूप होताहै और सत्त्व शरीरके अनुरूप होताहै। इन दोनोके सादृश्यके अनुसार कितने प्रकारके पुरुष विशेष होते है उनके निदर्शनके लिये वर्णन करतेहैं॥४४॥
ब्राह्मका लक्षण।
तद्यथाशुचिंसत्याभिसन्धंजितात्मानंसंविभागिज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनशक्तिसम्पन्नंस्मृतिमन्तंकामक्रोधलोभमानमोहेर्ष्याहर्षोपेतं समसर्वभूतेषुब्राह्मंविद्यात्॥४५॥
जिस मनुष्यमें पवित्रता, सत्यता, जितात्मता, विचार, ज्ञान, विज्ञान, वचनशक्ती, प्रतिवचनशक्ती, स्मृति यह सब सम्पत्तिमें होतीहै तथा काम, क्रोध, लोभ, मान, मोह,
राग, और द्वेष यह नहीं होते और संपूर्ण जीवमात्र में एकसी दृष्टि रखते हैं उनको ब्राह्म्यमनुष्य कहते हैं ॥ ४५ ॥
आर्षका लक्षण।
इज्याध्ययनत्रतहोमब्रह्मचर्य्यमतिथिव्रतमुपशान्तमदमानरागद्वेषमोहलोभरोषंप्रतिभावचनविज्ञानोपधारणशक्तिसम्पन्नमार्षं विद्यात्॥४६॥
जो मनुष्य—यजन, अध्ययन, व्रत, होम, ब्रह्मचर्य, अतिथिव्रतका पालन करते हैं। और मंद, मान, द्वेष, राग, मोह, लोभ, रोष, रहितहों तथा प्रतिवचन, विज्ञान, उपधारणशक्तीसंपन्न होते हैं उनको आर्षजानना॥४६॥
ऐन्द्रका लक्षण।
ऐश्वर्यवन्तमादेयवाक्यंयज्वानंशूरमोजस्विनंतेजसोपेतमक्लिष्टकर्माणं दीर्घ दर्शिनं धर्मार्थकामाभिरतमैन्द्रं विद्यात्॥४७॥
जो मनुष्य ऐश्वर्ययुक्त हों, जिनकी आज्ञाको लोग मानते हों, यज्ञ आदि करते हों, एवम् शूर, ओजस्वी, तेजस्वी, अनिन्दितकर्मा, दीर्घदर्शी, धर्म, अर्थ और काम में प्रवृत्त हों उनको ऐन्द्र जानना॥४७॥
याम्यके लक्षण ।
लेखास्थवृत्तं प्राप्तकारिणमसंहार्य्यमुत्थानवन्तं स्मृतिमन्तमैश्वर्य्यालम्विनं व्यपगतरागद्वेषमोहं याम्यं विद्यात्॥४८॥
जो मनुष्य शास्त्रके माननेवाले हों, कर्त्तव्य, अकर्त्तव्यको विचारकर करनेवाले हों समयपर चूकनेवाले न हों, जिनका कार्य अप्रतिहत हो । उत्थानवान् हों, स्मृतियुक्त हों, ऐश्वर्यावलम्बी हों और राग, द्वेष तथा मोहसे रहित हों उनको याम्पशरीर कहते हैं॥४८॥
वारुणके लक्षण ।
शूरं धीरं शुचिमशुचिद्वेषिणं यज्वानमम्भोविहाररतिमक्लिष्टकर्माणं स्थानकोपप्रसादं वारुणं विद्यात्॥४९॥
जो मनुष्य, शूरवीर हों, शुद्ध हों, अपवित्रतासे द्वेष करनेवाले हों, यजन करनेवाले हों, जलमें विहार करनेवाले हों, अनिन्दितकर्मा हों, उचित समयपर क्रोध और प्रसन्नता करनेवाले हों उनको वारुणशरीर कहते हैं॥४९॥
कौबेरका लक्षण।
स्थानमानोपभोगं परिवारसम्पन्नं सुखविहारं धर्मार्थकामनित्यंशुचिंव्यक्तकोपप्रसादंकौबेरंविद्यात् ॥ ५० ॥
जो मनुष्य यथास्थानमे मान, और भोगको सेवन करनेवाले हों, परिवारयुक्त हों, सुखपूर्वक विहार करनेवाले हो, धर्म, अर्थ और कामसाधनमें तत्पर हों, पवित्र हों, जिनका क्रोध और प्रसन्नता प्रगट हो उनको कौवेरशरीर जानना॥५०॥
गांधर्वका लक्षण।
प्रियनृत्यगीतवादित्रोल्लापकं श्लोकाख्यायिकेतिहासपुराणेषुकुशलं गन्धमाल्यानुलेपनवसनस्त्रीविहारकामनित्यमनसूयकं गान्धर्व विद्यात्॥५१॥
जिन मनुष्योको नाचना, गाना, बाजाबजाना और स्तुतिकरना यह सब प्यांरा लगताहो, जो श्लोक, कहानियां, इतिहास और पुराणमें कुशल हों, गंध, माला, अनुलेपन, वस्त्र, स्त्री इनमें नित्य आसक्त रहतेहो, निन्दारहित हों उनको गांधर्वकाय कहते हैं॥५९॥
ब्राह्मकी उत्कृष्टता ।
इत्येवंशुद्धस्य सत्त्वस्य सप्तविधं भेदांशं विद्यात्कल्याणां शत्वात्तत्संयोगात्तुब्राह्ममत्यन्तशुद्धं व्यवस्येत्॥५२॥
इस प्रकार सतोगुणप्रधान मनके सातभेदके अंशविशेषसे सातमकारके मनुष्योंका वर्णन किया है।उनमें कल्याणका अंश होनेसे यह सातों सात्त्विक मनुष्य कहेजाते है। सतोगुणका अधिक संबंध होनेसे ब्राह्म्यशरीर सबसे उत्तम है॥५२॥
आसुरके लक्षण ।
शूरं चण्डमसूयकमैश्वर्य्यवन्तमौदरिकं रौद्रमननुक्रोशकमात्मपूजकमासुरं विद्यात्॥५३॥
शूर, चण्ड, साहसी, निंदक, ऐश्वर्यवान्, पेटपालक, उग्रस्वभाववाला, निर्दयी और अपनेको पूजन करने तथा करानेवाला अर्थात् आत्मश्लाधी, आसुर मनुष्य जानना॥५३॥
राक्षसके लक्षण ।
अमर्षिणमनुबन्धकोपच्छिद्रप्रहारिणंक्रूरमाहारातिमात्ररुचिमामिषप्रियतमं स्वप्नायासबहुलमीर्षुंराक्षसं विद्यात्॥५४॥
जो मनुष्य अपने अपमानको न सह सके, जिसके शरीरमें बहुत कालतक क्रोध बनारहे, जो छिद्र पाकर प्रहारकरनेवाला हो, क्रूर स्वभाव हो बहुत आहारकरनेवाला हो, मांस खाने में प्रेम रखनेवाला हो, अधिक सोनेवाला हो, अधिक परिश्रमकर सकता हो और ईर्षायुक्त हो उसको राक्षसकाय जानना॥५४॥
पिशाच लक्षण।
महालसंस्त्रैणं स्त्रीरहस्काममशुचिंशाचद्वेषिणं भीरुभीषयितारं विकृतिविहारहारशीलं पैशाचं विद्यात्॥५५॥
जो मनुष्य अत्यन्त आलसी हो, स्त्रियोंमें बैठा रहता हो, स्त्री भोगकी इच्छावाला हो, अपवित्र हो, शुद्धतासे द्वेष रखनेवाला हो, डरनेवालेको डराता हो, विकृत आहार विहारका सेवन करनेवाला हो, उसको पैशाचकाय कहते हैं॥५५॥
सार्पके लक्षण ।
क्रुद्धं शूरं प्रकृच्छ्रभीरुं तीक्ष्णमायासबहुलं मन्त्रसुगोचरमाहारविहारपरं सार्पं विद्यात्॥५६॥
जो मनुष्य क्रोधी, शूर, कठोर, डरपोक, तीक्ष्णस्वभाववाला, अधिक परिश्रम करनेवाला, थोडा कहेको समझ जाननेवाला, आहार और विहारसे युक्त हो उसको सार्यकाय कहते हैं॥५६॥
प्रैतके लक्षण।
आहारकाममतिदुःखशीलाचारोपचारमसूयकमसंविभागिनमतिलोलुपसकर्मशीलं प्रैतं विद्यात्॥५७॥
जो मनुष्य अत्यन्त भोजनकी इच्छा रखता हो, जिसका स्वभाव, आचार और उपचार यह सब दुःखितसे हो एवम् निन्दक विना विचारे करनेवाला अतिलोलुप और अकर्मोंको करनेवाला हो उसको प्रेतकाय जानना॥५७॥
शाकुनके लक्षण।
अनुषक्तकाममजस्रमाहारविहारपरमनवस्थितममर्षिणमसञ्चयं शाकुनं विद्यात्॥५८॥
जो मनुष्य निरन्तर इच्छावाला हो, कामनामें आसक्त हो, हरसमय अपने खाने कमानेकी चिन्तामें लगा रहताहो, अनवस्थित चित्त हो, क्रोधी हो और संचय न करता हो उसको शाकुन अर्थात् पक्षीकाय कहते हैं॥५८॥
इत्येवं खलुराजसस्यसत्त्वस्य षड्विधं भेदांशं विद्याद्रोषां शत्वात्॥५९॥
इसप्रकार रोषांशयुक्त होनेसे राजस मनके छःभेद अंगभेद जानने॥५९॥
पाशवके लक्षण।
निराकरिष्णुमधमवेषमजुगुप्सितारम्।
आहारविहारमैथुनपरं स्वप्नशीलं पाशवं विद्यात्॥६०॥
हरएकको तुच्छ समझनेवाला अधमवेष धारण करनेवाला निन्दारहित, आहार विहार और मैथुनमें आसक्त रहनेवाला एवम् अधिक सोनेवाला पाशव शरीर जानना॥६०॥
मात्स्यके लक्षण।
भीरुमबुधमाहारलुब्धसनवस्थितमनुषक्तकामक्रोधं सरणशीलं तोयकामं मात्स्यं विद्यात्॥६१॥
डरपोक, मूर्ख, आहारलोभी, असावधान, कामक्रोध में आसक्त, इधर उधर फिरनके स्वभाववाला, जल में फिरने की इच्छावाला मनुष्य मत्स्यकाय जानना॥६१॥
वानस्पत्यके लक्षण।
अलसंकेवलमभिनिविष्टमाहारेसर्वबुद्ध्यङ्गहीनं वानस्पत्यं विद्यात्॥६२॥
आलसी, केवल भोजनमें ही चित्त लगानेवाला, सब प्रकार से बुद्धिहीन मनुष्य वानस्पत्यकाय जानना॥६२॥
इत्येवं खलुतामसस्य सत्वस्य त्रिविधं भेदांशं विद्यान्मोहांशत्वात्॥६३॥
इस प्रकार तामस सत्त्व के विधिमेदसे, और मोढांशयुक्त होनेसे तीन प्रकारके तामसी मनुष्य होते हैं॥६३॥
इत्यपरिसंख्येय भेदानां खलत्रयाणामपिसत्त्वानां भेदैकदेशोव्याख्यातः॥६४॥
इसमकार तीनो प्रकारके सत्खोके अंश मेदसे असंख्य भेद होजाते हैं। इस स्थानमेंकेवल निदर्शन मात्र कथन किया है॥६४॥
सत्वके भेदोंका संक्षिप्तवर्णन।
शुद्धस्य सत्वस्य सप्तविधो ब्रह्मर्षि शक्रवरुणयमकुबेरगन्धर्वसत्त्वानुकारेण। राजसस्य षड्विधो दैत्यराक्षसपिशाचसर्पप्रेतशकुनिसत्त्वानुकारेण। तामसस्य त्रिविधः पशुमत्स्य वनस्पतिसत्त्वानु-
कारेण। कथञ्चयथासत्त्वमुपचारः स्यादिति। केवलश्चायमुद्देशः यथो द्देशमभिनिर्दिष्टो भवति। गर्भावक्रान्तिसंप्रयुक्तस्यार्थस्य विज्ञाने सामर्थ्यं गर्भकराणाञ्च भावानामनुसमाधिर्विघातश्च विघातकराणां भावानामिति॥६५॥
शुद्ध सत्त्वके—ब्रह्म, ऋषि, इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर और गंधर्व सत्त्वानुक्रमसे सत्त्वकेसातभेद कथन कियेहैं। रजोगुण प्रधान दैत्य, राक्षस, पिशाच, सर्प, प्रेत, पक्षी यह छः प्रकारके भेद राजसमनके कथन किये हैं। तामस सत्त्वके अनुक्रमसे पशु, मत्स्य, वनस्पति यह तीनभेद कथन किये हैं। जिस गर्भमें जिस सत्त्वके लक्षण पाये जांय उसका उसी प्रकार पालन पोषण आदि उपचार करना चाहिये । यह उपरोक्त लक्षण यदि दौहृदकी समय गर्भवती स्त्रीमें हो तो जिस प्रकारके लक्षण हों उसको उसी प्रकारकी संतान होगी। इस स्थान में इन तीनप्रकारके सत्त्वोंका इसी उद्देशसे वर्णन कियागया है। इस संपूर्ण विवरणके जानलेनेसे किससमय गर्भ में किस प्रकारके द्रव्योंका प्रयोग करना और गर्भमें हितकारक तथा गर्भकारण द्रव्योंका अनुयोजनएवम् गर्भविघातक कारणोंके प्रतिविधान में योग्यता उत्पन्न होजातीहै॥६५॥
अध्यायका उपसंहार।
तत्रश्लोकाः।
निमित्तमात्माप्रकृतिर्वृद्धिः कुक्षौक्रमेणच।
वृद्धिहेतुश्च गर्भस्य पञ्चार्थाः शुभसंज्ञिताः॥६६॥
यहाँपर श्लोक हैं कि—निमित्त, आत्मा, प्रकृति, गर्भक्रमऔर गर्भका कुक्षी में क्रमपूर्वक बढना, उसके वढनेके हेतु, गर्भके उत्पन्न करनेवाले पांच शुभ अर्थ, वर्णन कियेगये हैं॥६६॥
यज्जन्मनिचयोहेतुर्विनाशे विकृतावपि।
इमां स्त्रीनशुभान्भावानाहुर्गर्भविघातकान्॥६७॥
तथा जन्मके न होनेमें एवम् गर्भके नाश होजानेमें और विकृत होजानेमें जो हेतु हैं। उन गर्भविनाशक तीन प्रकारके अशुभ हेतुओंको वर्णन कियागया॥६७॥
शुभाशुभसमाख्यातानष्टौ भावानिमान्भिषक्।
सर्वथावेदयः सर्वान्सराज्ञः कर्तुमर्हति॥६८॥
जो वैद्य इन शुभ और अशुभ आठभावोंको संपूर्णरूपसे जानलेताहै वही राजाओंके चिकित्साकरने योग्य उत्तम वैद्य होताहै॥६८॥
अवाप्त्युपायान्गर्भस्य स एवं ज्ञातुमर्हति।
ये च गर्भविघातोक्ताभावास्तांश्चाप्युदारधीः॥६९॥
इति चरकसंहितायां शारीरस्थाने महतीगर्भावक्रान्तिः शारीरं समाप्तम्॥४॥
योग्य वैद्यको चाहिये कि गर्भके उत्पन्न करनेके उपाय तथा गर्भके उत्पन्न करनेवाले भाव एवम् गर्भविघातक भाव इन सबको बुद्धिपूर्वक पूर्णरूपसे जानलेवे॥६९॥
इति श्रीचरकप्र० आ० वे०स० शरीरस्थाने भाषाटीकाया महतीगर्भाऽवक्राति शारीर नाम
चतुर्थोऽध्याय॥४॥
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पञ्चमोऽध्यायः ।
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अथातः पुरुषविचयं शारीरं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम पुरुषविचय शारीरकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान आत्रेयजी कथन करनेलगे।
पुरुषोऽयं लोकसम्मित इत्युवाचभगवान्पुनर्वसुरात्रेयः। यावन्तो हिमूर्त्तिमन्तोलोकेभावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे, तावन्तोलोके॥१॥
** **यह पुरुष लोकसंमित अर्थात् जगत् के समान है। इसप्रकार भगवान् पुनर्वसु आत्रेयजी कथन करनेलगे।यह जितना मूर्तिमान लोकमें भावविशेष है वह सब पुरुप में होता है और जो पुरुपमें है वह इस मूर्त्तिमान् जगत्में पायाजाताहै॥१॥
इत्येवं वादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच। नैतावतावाक्येनोक्तं वाक्यार्थमवगाहामहे। भगवतावुद्ध्याभूयस्तरमतोऽनुव्याख्यायमानं शुश्रूषामहे॥२॥
इसप्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश बोले कि हे भगवन् ! इतनेही कथनसे आपके वाक्यके व्यर्थको नहीं जान सकते। इसलिये आप कृपाकरके इस विषयकी विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिये हमको इसके सुननेकी इच्छा है॥२॥
और जगत् तथा पुरुषकी तुल्यता।
इति तमुवाचभगवानात्रेयः। अपरिसंख्येयालोकावयवविशे
षाः पुरुषावयवावशेषा अप्यपरिसंख्येयाः। यथायथाप्रधानञ्च तेषां यथा स्थूलं भावान्सामान्यमभिप्रेत्योदाहरिष्यामः तानेकमनानिबोधसम्यगुपवर्ण्यमानानग्निवेश! षड्धातवः समुदिता लोक इति शब्दंलभन्ते। तद्यथा—पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं ब्रह्मचाव्यक्तमित्येत एव च षड्धातवः समुदिताः पुरुष इति शब्दलभन्ते। तस्य पुरुषस्य पृथिवीमूर्त्तिरापः क्लेदस्तेजोऽभिसन्तापोवायुः प्राणोवियच्छिद्राणिब्रह्मान्तरात्मा॥३॥
यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी बोले कि जगत्के अवयव विशेष और पुरुषके अवयवविशेष अपरिसंख्येय हैं अर्थात् गणनामें नहीं आसकते।उनमें जो २ जैसे २ प्रधान और स्थूल भाव हैं उनको सामान्यतासे उदाहरणके लिये वर्णन करते हैं।हे अग्निवेश! उन भलेप्रकार वर्णन किये हुए भावोंको एकाग्रचित होकर श्रवणकरो। छःधातुओंसे मिला हुआ जगत् है ऐसा सुनने में आता है। वह छः धातुयें इसप्रकार हैं। जैसे—पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश और अव्यक्तब्रह्म इनसे सम्मिलित मूर्त्तिमान्जगत्है इसीप्रकार पुरुष भी यही छः धातुओंसे सम्मिलित है। जैसे—पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा आत्मा यह दोनों धारा बरावर देखने में आती हैं। जैसे मूर्तिमान जगत्में यह मूर्तिमानपृथ्वी देखने में आती है उसी प्रकार दूसरीओर पुरुषका शरीर पृथ्वी है। जैसे एकओर जगत् में जलका प्रवाह है वैसेही पुरुष के शरीरमें क्लेदरूप जल है। जैसे जगत्में एकओर अग्नि है उसीमकार दूसरी ओर पुरुषमें जठराग्नि है जैसे में जगत्में एकआरे पूर्वपश्चिमकी वायुका गमन है वैसेही दूसरीओर पुरुषके शरीरमें प्राण और अपानवायुका गमन होता है। जैसे मूर्तिमान् जगत्में एकओर आकाश है ऐसे ही दूसरीओर शरीरमें छिद्रसमूहरूपी आकाश है। जैसे मूर्तिमानजगत्में एक ओर जगत्का प्रकाशक ब्रह्म है उसीमकार दूसरीओर शरीररूपी जगत्को प्रकाश करने वाला आत्मा है। इसप्रकार दोनोंओर दोनों धारा देखने में बराबर आती हैं॥३॥
यथा खलु ब्राह्मीविभूतिर्लोके तथा पुरुषेऽप्यान्तरात्मिकीविभूतिर्ब्रह्मणो विभूतिर्लोके प्रजापतिरन्तरात्मनो विभूतिः पुरुषसत्त्वम्। यस्त्विन्द्रोलोके सपुरुषेऽहङ्कारः आदित्यास्तु आदानं रुद्रोरोषः सोमः प्रसादोवसवः सुखमश्विनौकान्तिर्मरुदुत्साहोविश्वेदेवा सर्वेन्द्रियाणि सर्वेन्द्रियार्थाश्च तमो मोहोज्योतिर्ज्ञानम्। यथालोकस्य स्वर्गादिस्तथा पुरुषस्य गर्भाधानं यथा कृतयुगमेवं बाल्य-
म्। यथा त्रेता तथा यौवनं यथा द्वापरस्तथास्थाविर्य्यं यथा कलिरेव मातुर्य्यं यथा युगान्तस्तथा मरणमित्येव मनुमानेनानुक्तानामपिलोकपुरुषयोरवयवविशेषाणामग्निवेश! सामान्यं विद्यात्॥४॥
जैसे जगत्में ब्राह्मीविभूति है उसी प्रकार पुरुषमें भी आत्मिकीविभूति है। जैसे जगत्मे ब्रह्मकी विभूति प्रजापति है उसी प्रकार अन्तरात्माकी विभूति सत्य है। जगत्में जैसे इन्द्र है उसी प्रकार पुरुषमें अहंकार है। जैसे जगत्में सूर्य है वैसेही पुरुषमें आदान (ग्रहणशक्ति) है।जैसे जगत्में रुद्र है वैसेही पुरुषमें क्रोध है।जैसे जगत् में चन्द्रमा है उसीप्रकार पुरुष में प्रसन्नता है। जैसे जगत्में वसु है उसीप्रकार पुरुषमें सुख है। जैसे जगत् में अश्विनी कुमार हैं वैसे दूसरीओर पुरुषमें कांती है। जैसे एक ओर जगत्में वायु है वैसेही दूसरीओर पुरुषमें उत्साह है। जैसे जगत्में देवता हैं उसीमकार पुरुष में इन्द्रियें हैं। जैसे जगत्में तम है उसीप्रकार पुरुषमें मोह है। जैसे एकओर जगत्में ज्योती है उसी प्रकार दूसरीओर पुरुषमें ज्ञान है। जैसे जगत में स्वर्गादि हैं वैसेही पुरुषमें रतिसुख है। जैसे जगत् में सत्ययुग है उसीमकार पुरुषमें बाल्यावस्था है। जैसे जगत् में त्रेतायुग है वैसेही पुरुषमें यौवनावस्था है। जैसे जगत्में द्वापर है उसीप्रकार पुरुषमें बुढापाहै। जैसे जगत् में कलियुग है उसीप्रकार पुरुषमें रोगग्रस्त अवस्था है। जैसे एकओर जगतकी प्रलय होता है वैसेही दूसरीओर पुरुषका मरण होता है। हे अग्निवेश! यह दोनों धारा पुरुष और जगत्में बराबर देखनेमें आती हैं। इनके सिवाय और भी संपूर्णभावोंको इसीप्रकार जगत् और पुरुषमें समान जानलेना चाहिये॥४॥
अग्निवेशका प्रश्न।
इत्येवं वादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच। एवमेतत्सर्वमनपवादं यथोक्तं भगवतालोकपुरुषयोः सामान्यं किन्तु अस्य सामान्योपदेशस्य प्रयोजनमिति॥५॥
** **इसप्रकार कथन करते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन्! आपने जिसप्रकार जगत् और पुरुषकी समानताको वर्णन कियाहै यह सर्वथा यथार्थ है और निर्विवाद है। परन्तु इन दोनोंकी समानता वर्णन करनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ सो कृपाकर वर्णन कीजिये॥५॥
आत्रेयजीका उत्तर।
भगवानुवाच। कथमग्निवेश! सर्वलोकमात्मन्यात्मानञ्च सर्वलोकेसमनुपश्यतस्तस्यात्मबुद्धिरुत्पद्यते इति। सर्वलोकं हि आ-
त्मनिपश्यतो भवति आत्मैव सुखदुःखयोः कर्त्तानान्य इति कर्मात्मकत्वाच्च। हेत्वादिभिरयुक्तसर्वलोकोऽहमितिविदित्वाज्ञानं पूर्वमुत्थाप्यतेऽपवर्गायेति॥६॥
आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश! जो मनुष्य संपूर्ण जगत्के भावोंको अपने शरीरमें देखता है और अपने शरीरके संपूर्णभावोंको जगत् में देखता है।उस मनुष्यको आत्मबुद्धि उत्पन्न होजाती है, संपूर्ण जगत् को आत्मामें देखता हुआ आत्माही सुखदुः खका कर्त्ता है और कोई कर्त्ता नहीं है। क्योंकि कर्म आत्माही करता है।संपूर्ण हेतु आदिकोंसे आत्मा अलग है केवल कर्मवशसे जगत् में मिलाहुआ है। कर्मक्षय होनेसे आत्मा इन सबभावोंसे अलग होजाता है । इसप्रकारका ज्ञान उत्पन्न होकर मैं इन संपूर्णभावोंसे अलगहूं यह ज्ञान उत्पन्न होजाता है। और साक्षात् आत्मज्ञान प्राप्त होजानेसे मोक्षको प्राप्त होजाता है॥६॥
तत्र संयोगापेक्षीलोकशब्दः षड्धातुसमुदायो हि सामान्यतः सर्वलोकः तस्य हेतुरुत्पत्तिर्वृद्धिरुप्लवोवियोगश्च। तत्र हेतुरुत्पत्तिकारणमुत्पत्तिर्जन्मवृद्धिराप्यायनमुपप्लवोदुःखागमः षड्धातुवियोगः। सजीवापगमः स प्राणनिरोधः सभङ्गः सलोकखभावः॥७॥
इस स्थान में लोकशब्द संयोगकी अपेक्षा करता है। सामान्यतासे छः धातुओंका समुदाय संपूर्ण लोक है। इसजगह लोकशब्दसे पुरुष और जगत् दोनोंका ग्रहण है। उस लोकके हेतु, उत्पत्ति, वृद्धि, उपप्लव और वियोग यह सब होते हैं।इसजगह हेतुशब्द उत्पत्ति में कारण जानना। जन्मको उत्पत्ति कहते हैं। वृद्धिशब्दसे बढना और पुष्ट होना जानना। उपप्लव शब्द दुःखकी प्राप्तीका वाचकहै।छः धातुओंका पृथक् २ होजाना वियोग कहाजाता है। वह वियोग जीवापगम, (जीवनत्याग) प्राणनिरोध, भंग, लोकस्वभाव, नामसे उच्चारण किया जाता है॥७॥
वियोगका कथन।
तस्य मूलं सर्वोपप्लवानाञ्च प्रवृत्तिर्निवृत्तिरुपरमश्च प्रवृत्तिर्दुःखंनि वृत्तिः सुखमितियज्ज्ञानमुत्पद्यते तत्सत्यम्। तस्य हेतुः सर्वलोक सामान्यज्ञानमेतत्प्रयोजनं सामान्योपदेशस्येति॥८॥
इस वियोगका मूल प्रवृत्तिही है। प्रवृत्तिही संपूर्ण दुःखोंका मूल है और निवृत्ति संपूर्ण सुखोंका मूल है । तब यह सिद्ध हुआ कि प्रवृत्ति दुःख और निवृत्ति सुखदै।
इसप्रकारका जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह सत्य है।इस सत्यज्ञानके उत्पन्न होनेका कारण संपूर्णजगत् और पुरुषकी समानताका ज्ञान होनाही है। सो समानतासे जगत् और पुरुषकी तुल्यताके वर्णनका प्रयोजन कथनकर दिया है॥८॥
अग्निवेशका प्रश्न।
अथाग्निवेश उवाच।किं मूलाभगवन्! प्रवृत्तिर्निवृत्तौवा उपाय इति॥९॥
यह सुनकर अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन्! प्रवृत्तिका क्या कारण है और निवृत्तिका क्या उपायहै॥९॥
प्रवृत्तिके मूलका वर्णन।
भगवानुवाच। मोहेच्छाद्वेषकर्ममूलाप्रवृत्तिस्तज्जह्यहङ्कारसङ्गसन्देहाभिसंप्लवाभ्यवपातविप्रत्ययाविशेषानुपायाः। तरुणमिवद्रुममतिविपुलशाखास्तरवोऽभिभूय पुरुषमंवतत्योत्तिष्ठन्ते यैरभिभूतोनसत्तामतिवर्त्तते॥१०॥
यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि मोह, इच्छा, द्वेष और कर्मही प्रवृत्तिका मूल अर्थात् कारण हैं। उस प्रवृत्तिके होनेसे अहंकार, संग, संदेह, अभिसंप्लव, अभ्यवपात, विप्रत्यय, विशेष और अनुपाय यह उपस्थित होजाते है। जैसे—तरुणवृक्षमें शाखा आदि निकलकर बडी २ टहनी बढकर होजाती है और वृक्षसे सबटहनी व्याप्त रहतीहै उसीमकार अहंकारादि बढकर पुरुषसे व्याप्त रहते हैं। उन अहंकार आदिकोंसे व्याप्तहुआ पुरुष आत्मज्ञानको नहीं जानसकता॥१०॥
अहंकारका लक्षण।
तत्रैवं जातिरूपवित्तबुद्धिशीलविद्याभिजनवयो वीर्य्यप्रभावसम्पन्नोऽहमित्यहङ्कारः॥११॥
में अच्छीजातिका हूं, मेरा रूप बहुत उत्तम है एवम् मैं बुद्धि, शील, विद्या, कुल, यौवन, वीर्य और प्रभाववाला हूं इस प्रकार चित्तमें अहंभाव आनेका अहंकार कहते हैं॥११ ॥
संगलक्षण।
यन्मनोवाक्कायकर्मनापवर्गायससङ्गः॥१२॥
मन, वाणी, देह और कर्म इनका इसप्रकार उपयोग करना जिससे मोक्षको प्राप्त न होसके उसको संग कहते हैं॥१२॥
संदहका लक्षण।
कर्मफलमोक्षपुरुषप्रेत्यभावादयः सन्तिवानेति संशयः॥१३॥
कर्मका फल और मोक्ष तथा आत्मा एवं पुनर्जन्म है या नहीं इसमकार बुद्धिहोने को संशय कहते हैं॥१॥
अभिसंप्लवका लक्षण।
सर्वास्ववस्थास्वनन्योऽहमहं स्रष्टास्वभावसंसिद्धोऽहमहं शरीरेन्द्रियबुद्धिस्मृतिविशेषराशिरितिग्रहणमभिसंप्लवः॥१४॥
जो कुछ हूँ सो मैंही हूं, सबअवस्थाओंमें मैं अनन्य हूं अर्थात् मेरे समान कोई नहीं मैं श्रेष्ठ हूं मेरा स्वभाव बहुत अच्छा और ठीक है, मैं शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, और स्मृति विशेषका राशि हूं, ऐसी बुद्धिहोनेका नाम संप्लवे है॥१४॥
अभ्यवपातका लक्षण।
मम मातृपितृभ्रांतदारापत्यबन्धुमित्रभृत्यगणोगणस्य चाहमित्यभ्यवपातः॥१५॥
माता, पिता, भाई, स्त्री, संतान, बंधु, मित्र, नौकर आदि सब मेरे हैं और मैं हैं उनका हूं इसप्रकारकी बुद्धिहोनको अभ्यवपात कहते हैं॥१५॥
विप्रत्ययका लक्षण।
कार्य्याकार्य्यहिताहितेशुभाशुभेषु विपरीताभिनिवेशोविप्रत्ययः॥१६॥
कार्य और अकार्य, हित और अहित, शुभ और अशुभ, इन सबमें विपरीतभावसे प्रवृत्तहोना। जैसे अकार्यको कार्य, हितको अहित और अहितको हित मानना आदि इस बुद्धिको विप्रत्यय कहते हैं॥१६॥
विशेषका लक्षण।
ज्ञाज्ञयोः प्रकृतिविकारयोः प्रवृत्तिनिवृत्त्योश्चासामान्यदर्शनं विशेषः॥१७॥
यह अज्ञ है, यह ज्ञानी है, यह प्रकृति है यह विकार है, यह प्रवृत्ति है, यह निवृत्ति है, इनसबको असामान्यदृष्टि से देखना विशेष कहाजाताहै॥१७॥
अनुपायका लक्षण।
प्रोक्षणानशनाग्निहोत्रत्रिषवणाभ्युक्षणवाहनयजनयाजनयाचनसलिलहुताशनप्रवेशनादयः समारम्भाः प्रोच्यन्तेह्यनुपायाः॥१८॥
प्रोक्षण, उपवास, अग्निहोत्र, त्रिपवण, अभ्युक्षण, आवाहन, यजन, याजन, याचन, इनका करना तथा जल वा अग्नि में प्रवेश आदि यह मोक्षलाभका अनुपाय है। अर्थात् मोक्षकी ओरसे हटकर स्वर्गादिकों की कामनासे प्रवृत्त होना अनुपाय कहाजाता है॥१८॥
एवमयमधधृतिस्मृतिरहङ्काराभिनिविष्टः संसक्तः ससंशयोऽभि संप्लुतबुद्धिरभ्यवपतितोऽन्यथादृष्टिर्विशेषग्राहीविमार्गगतिर्निवासवृक्षः सत्त्वशरीरदोषमूलानां मूलं सर्वदुःखानां भवति॥१९॥
यह पुरुष इसप्रकार बुद्धि, धृति और स्मृतिसे रहितहोकर अहंकारी, आसक्त, संशयी प्लुतचित्तवृत्ति, अभ्यवपतित, अन्यथादृष्टि, विशेषग्राही कुमार्गगामी होजाताहै। सत्त्वदोष अर्थात् मनके दोषऔर शरीर के दोषसे बढे हुए दुःखरूपी वृक्षका मूल होजाता है। इसप्रकार अहंकार आदिकोंसे दुःखोकी उत्पत्ति होती है॥१९॥
इत्येवमहंकारादिभिर्दोषैर्भ्राम्यमाणोनातिवर्त्ततेप्रवृत्तिः सामूलमघस्य॥२०॥
इसप्रकार अहंकार आदि दोषोंसे भ्रमवाला हुआ मनुष्य निवृत्त नही होसकता और प्रवृत्तिमें आकर स्थित होजाता है। यह प्रवृत्तिही सम्पूर्ण दुःखोका मूल है॥२०॥
निवृत्तिरपवर्गस्तत्परं प्रशान्तं तदक्षरं तद्ब्रह्मसमोक्षः। तत्र मुमुक्षूणामुदयनानि व्याख्यास्यामः। तत्र लोकदोषदर्शिनोमुमुक्षोरादित एवाचार्य्याभिगमनं तस्योपदेशानुष्ठानम्॥२१॥
निवृत्तिही मोक्ष है, निवृत्तिही अपवर्ग और और शान्ती है, और अक्षर है, निवृत्तिही ब्रह्म है।मोक्षके इच्छावालोंके उपयोगी विषयका वर्णन करते हैं। जगत् में दोषदृष्टि से देखनेवाला मुमुक्षु अर्थात् मोक्षकी इच्छा करताहुआ गुरूके पास जाय और उसके उपदेशको श्रवणकरके तदनुसार वर्तावकरे॥२१॥
अग्नेरेवोपचर्य्याधर्मशास्त्रानुगमनं तदर्थावबोधस्तेनावष्टम्भः तत्रयथोक्ताः क्रियाः सतामुपासनमसतां परिवर्जनं नसङ्गतिर्दुर्जनेनसत्यं सर्वभूतहितमपरुषमनतिकाले परीक्ष्यवचनं सर्वप्राणिषु आत्मनीवावेक्षा सर्वासामस्मरणमसंकल्पनमप्रार्थना अनभिभाषणञ्च स्त्रीणां सर्वपरिग्रहत्यागः कौपीनं प्रच्छादनार्थं धातुरागनिव सन्कन्थासीवन हेतोः सूचीपिप्पलकं शौचाधानहेतोः जलकुण्डिकादण्डधारणं भैक्ष्यचर्य्यार्थं पात्रं प्राणधारणार्थमेककालमग्रा-
म्यो यथोपपन्न एवाव्यवहारः। श्रमापनयनार्थं शीर्णशुष्कपर्णतृणास्तरणोपधानं ध्यानहेतोः कायनिबन्धनं वनेषु अनिकेतवासस्तन्द्रानिद्रालस्यादिकर्मवर्जनमिन्द्रियार्थेषु अनुरागोपतापनिग्रहः सुप्तस्थितगतप्रेक्षिताहारविहारप्रत्यङ्गचेष्टादिकेषु आरम्भेषु स्मृतिपूर्विका प्रवृत्तिः सत्कारस्तुतिगर्हावमानक्षमत्वं क्षुत्पिपासायासश्रमशीतोष्णवातवर्षासुखदुःखसंस्पर्शसहत्वं शोकदैन्यद्वेषमदमानलोभरागेर्ष्याभयक्रोधादिभिरसञ्चलनमहङ्कारादिषूपसर्गसंज्ञालोक पुरुषयोः सर्गादिसामान्यावेक्षणं कार्य्यकालात्ययभयं योगारम्भेसततमनिर्वेदः सत्त्वोत्साहापवर्गायधीधृतिस्मृतिबलाधानं नियमनमिन्द्रियाणां चेतसिचेतस आत्मन्यात्मनश्च धातुभेदेन शरीरावयवसंख्या नाम भीक्ष्णं सर्वं कारणवद्दुःखमस्वमनित्यमित्यभ्युपगमः। सर्वप्रवृत्तिषुदुःखसंज्ञासर्वसंन्या सेसुखमित्यभिनिवेशएषमार्गोऽपवर्गाय अतोऽन्यथाबध्यते इत्युदयनानिव्याख्यातानि॥२२॥
और अग्निसेवन धर्मशास्त्रको पढना और उसके अर्थको जानना तथा धर्मशास्त्रका आश्रयलेना और जो २ उसमें क्रिया कथन की हों उनको करना। श्रेष्ठ पुरुषोंकी सेवा करना।खोटे पुरुषोंको त्याग देना, दुर्जनोंसे संगति न करना सत्य बोलना, संपूर्ण जीवोंका हित चाहना, विनासमय विनाविचारे तथा कठोर वाक्योंको न बोलना, सब प्राणियों को अपनी आत्माके समान जानना, विषयोंका स्मरण न करना, विषयोंका संकल्प तथा इच्छा न करना, स्त्रियोंसे भाषण और प्रेम न करना तथा स्त्रियोंसे सबप्रकारके संबंधोंको त्यागदेना। गुह्यस्थान, ढकनेके लिये कौपीन, गेरुए कपडे, गुदडी, सूई सीने के लिये तुंबा (जलपात्र) शौचके लिये, दण्डधारण, दांतन, भिक्षा भांगनेका पात्र, प्राणधारण के लिये एकसमय वनके कंद मूलादिक सेवन, यथाप्राप्ति भोजन, थकावट दूर करनेका ऊपरसे सूखकर गिरेहुए पत्रोंका आश्रय तथा घासका आसन।ध्यान लगाने के लिये योगपट्ट वनवृक्षों के नीचे निवास तंद्रा, निद्रा और आलस्यादि कर्मोका वर्जन, इन्द्रियोंके विषयोंसे उपताप रखना तथा इन्द्रियोंको वशमें रखना, निद्रा, स्थिति, गति, दृष्टि, आहार, विहार, तथा अंगादिकोंकी चेष्टामें विचारपूर्वक प्रवृत्त होना। तथा सत्कार, स्तुति, निन्दा और अपमान आदिकोंमें
प्रसन्न तथा रंज न होना। श्रम, सर्दी, गर्मी, पवन, वृष्टि, सुख और दुःखको सहन करना। शोक, दीनता, द्वेष, मद, मान, लोभ, राग, ईर्षा, भय, और क्रोध आदि—कोसे चलायमान न होना। अहंकारादिकोंको उपद्रव समझकर त्याग देना। आत्मामें और लोकपुरुषमें तुल्य दृष्टिसे देखना, अपने योगोदिक या समाधि आदिक किसी कालको विगडने नहीं देना। योगके आरम्भमें सदैव प्रेम लगाये रहे। अपने मनको सदैव सात्त्विक बनाता रहे। मोक्षके लिये बुद्धि, धृति, स्मृति इनके वलको ग्रहण करे। इन्द्रियोंका नियमन करे अर्थात् जीते। अथवा इन्द्रियोको चित्तमें और चित्तको आत्मामें स्थापन करे। शरीरावयवोको धातु भेदसे जाने। यह शरीर धातुभेदसे बना हुआ है और निरन्तर संपूर्ण कार्य, कारण इसीसे होते है। यह संयोगही दुःखका कारण है। यह शरीर अनित्य है। सब प्रकारकी प्रवृत्ति दुःखको देनेवाली है और संपूर्ण सुखोंका अभिनिवेश त्यागमें है। इसप्रकारका निश्चयकरे। यही मोक्षका सीधा मार्ग है। इससे विपरीत प्रवृत्तिमार्ग है। उससे मनुष्य दुःखसे बंधजाता है मोक्षका सुख प्राप्त करनेके लिये इन निवृत्ति मागोंका कथन किया है॥२२॥
भवन्तिचात्र ।
एतैरविमलं सत्त्वं शुद्ध्युपायैर्विशुध्यति। मृज्यमान इवादर्शस्तैलचेलकचादिभिः॥२३॥ ग्रहाम्बुदरजोधूमनीहारैरसमावृतम्। यथार्कमण्डलं भातिभातिसत्त्वं तथामलम्॥२४॥ ज्वलत्यात्मनिसंरुद्धं तत्सत्त्वं संवृतायने। शुद्धः स्थिरः प्रसन्नार्चिर्दीपोदीपाशये यथा॥२५॥
इन सब शुद्ध उपायोद्वारा मन निर्मल होजाता है। जैसे—तेल, वस्त्र और बाल आदिकोंसे साफ कियाजानेपर शीशा निर्मल होजाता है तथा घर, बादल, धूल, धूम, नीहार इनसे ढका हुआ सूर्यमण्डल प्रतीत नहीं होता उसी प्रकार अहंकारादिकोसे व्याप्त हुआ मन होनेपर ज्ञानका प्रकाश नहीं होता। और उन बादलादिकोके उडजानेसे सूर्यका स्वच्छ प्रकाश दिखाई देने लगता है उसीप्रकार अहंकार आदिकोके चले जाने से मन स्वच्छ होजाता है। जिस प्रकार स्थिर और प्रसन्न दीपककी ज्योति शुद्ध रीतिसे टिकाई जानेपर निर्मल टिका हुआ प्रकाश करती है उसीमकार शुद्धसत्त्व आत्मा में ज्ञानका प्रकाश करता है॥२३॥२४॥२५॥
शुद्धसत्वबुद्धिका कथन।
शुद्धसत्त्वस्य याशुद्धासत्याबुद्धिः प्रवर्त्तते। ययाभिनत्यतिबलं महामोहमयं तमः॥२६॥
शुद्ध सवसे शुद्ध सत्य बुद्धि उत्पन्न होती है । वह बुद्धि महामोहरूपी अतिवलवान् अंधकारको दूरकर देती है ॥ २६ ॥
सर्वभावस्वभावज्ञोययाभवतिनिस्पृहः। योगंवयासाधयते सांख्यः सम्पद्यतेयया॥२७॥ यया नोपैत्यहङ्कारं नोपास्तेकारणं यया। ययानालम्बते किञ्चित्सर्व संन्यस्यतेयया॥२८॥ याति ब्रह्माययानित्यमजरः शान्तमक्षरम्। विद्यासिद्धिर्मतिर्मेधाप्रज्ञाज्ञानञ्चसामता॥२९॥
जिस बुद्धिके द्वारा मनुष्य संपूर्ण भावोंके स्वभावांको जानताहुआ निष्क्रिय होजाता है। जिस बुद्धिके द्वारा योग साधन कियाजाता तथा सांख्यके जाननेवाले सांख्यके ज्ञाता होते हैं। जिससे अहंकार उत्पन्न नहीं होता और दुःखसुखके कारण आकर प्राप्त नहीं होते।जिस बुद्धि के होनेसे अन्य किसी विषयकी इच्छा नहीं रहती है जिस बुद्धिसे मनुष्य संपूर्ण त्याग करता है और नित्य, अजर, शान्त, अक्षर ब्रह्मको प्राप्त होजाता है। वह बुद्धिही विद्या, सिद्धि, मति, मेधा, प्रज्ञा, ज्ञाने, स्वरूप कही जाती है॥२७॥२८॥२९॥
लोके विततमात्मानं लोकञ्चात्संनिपश्यतः।
परावरदृशः शान्तिर्ज्ञानमूलाननश्यति॥३०॥
जो मनुष्य संपूर्ण जगत् में अपने आपको देखता है और अपनेमें संपूर्ण जगतको देखता है उस मनुष्यकी परावरदृष्टि और ज्ञानमूला शान्ती कभी नष्ट नहीं होती है॥३०॥
पश्यतः सर्वभूतानिसर्वावस्थासुसर्वदा।
ब्रह्मभूतस्य संयोगोनशुद्धस्योपपद्यते॥३१॥
संपूर्ण प्राणियों में ब्रह्ममयी दृष्टि से देखताहुआऔर संपूर्ण अवस्था तथा संपूर्ण कालों में उस ब्रह्मभूत ज्ञानीको पुनर्जन्मके कारण उपस्थित नहीं होते हैं॥३१॥
मुक्तका लक्षण।
नात्मनः कारणाभावाल्लिङ्गमप्युपलभ्यते। स सर्वकारणत्यागा-
न्मुक्त इत्यभिधीयते॥३२॥ विपापंविरजः शान्तं परमक्षरमव्ययम्। अमृतं ब्रह्मनिर्वाणं पर्यायैः शान्तिरुच्यते॥३३॥
जब आत्माके कारणभावसे और कोई चिह्न प्रतीत नहीं होता तो वह संपूर्ण कारणोके त्यागसे मुक्त है ऐसा कहा जाता है। विपाक, विरज, शान्त, पर अक्षर, अव्यय, अमृत, ब्रह्म और निर्वाण यह सब शान्ती अर्थात् मोक्षके पर्यायवाचक शब्द हैं॥३२॥३३॥
एतत्तत्सौम्यविज्ञानं यज्ज्ञात्वामुक्तसंशयाः। मुनयः प्रशमं जग्मुर्वीतमोहरजः स्पृहाः॥३४॥
हे सोम्य! इस विज्ञानके जाननेसे ही मुनीश्वर संशयरहित और मोह, राग तथा स्पृहारहित हुए हैं। और मोक्षको प्राप्त हुए हैं॥३४॥
अध्यायका उपसंहार।
सप्रयोजनमुद्दिष्टं लोकस्य पुरुषस्य च। सामान्यं मूलमुत्पत्तौनिवृत्तौमार्ग एव च॥३५॥ शुद्धसत्त्वसमाधानं सत्याबुद्धिश्च नैष्ठिकी। विचयेपुरुषस्योक्तानिष्ठाचपरमर्पिणा॥३६॥
इति चरकसंहितायां शारीरस्थाने पुरुषविचयं शारीरं समाप्तम् ॥५॥
यहां अध्यायके उपसंहारमें श्लोक है—इस पुरुषविचयशारीरनामक अध्याय में जगत् और पुरुषकी सामान्यताका विचार तथा उसका प्रयोजन, दुःखोंकी उत्पत्तिका मूल और निवृत्ति मार्ग, शुद्ध सत्त्वका समाधान, मोक्ष प्राप्त करनेवाली सत्यबुद्धि तथा मोक्ष इन सबका महर्षि आत्रेयजीने वर्णन किया है॥३५॥३६॥
इति श्रीमहपिंचरक० शारीरस्थाने भाषाठीकाया पुरुषविचयशारीरनाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
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षष्ठोऽध्यायः ।
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अथातः शरीरविचयशारीरं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम शरीरविचय नामक शारीरकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कहने लगे।
शरीरविचयका प्रयोजन।
शरीरविचयः शरीरोपकारार्थमिष्यतेभिषग्विद्यायाम्।ज्ञात्वा-
हिशरीरं तत्त्वं शरीरोपकारकरेषु भावेषु ज्ञानमुत्पद्यते तस्माच्छरी रविचयं प्रशंसन्ति कुशलाः॥१॥
हे अग्निवेश! वैद्यक शास्त्र में शरीरके उपकारके लिये शरीर विचय जानना चाहिये शरीरतत्त्वको जाननेसेही शरीरके उपकारक भावोंमें ज्ञान उत्पन्न हो सकता है। इसलिये शरीरविचयके जाननेकी विद्वान्लोग प्रशंसा करते हैं॥१॥
शरीरका वर्णन।
तत्र शरीरं नाम चेतनाधिष्ठानभूतं पञ्चभूतविकारसमुदायात्मकम्॥२॥
शरीर चेतनाके अधिष्ठानभूत पांच महाभूतोंके विकारोंका समुदाय है॥२॥
समयोगवाहिनोयदाह्यस्मिञ्च्छरीरेधातवोवैषम्यमापद्यन्तेतदायं क्लेशं विनाशं वाप्राप्नोति वैषम्यगमनं वापुनर्धातूनां वृद्धिहासगमनसकार्त्स्नेन॥३॥
शरीरकी संपूर्ण धातुयें समयोगवाही हैं। जब यह धातुयें शरीर में विषमताको प्राप्त होजाती हैं। तब यह मनुष्य कष्टको पाताहै अथवा विनाशको प्राप्त होजाताहै। धातुओंका अपने परिमाणसे वढजाना या कमहोजानाही विषमताको प्राप्त होना कहा जाता है॥३॥
प्रकृत्याचयौगपद्येन तु विरोधिनां धातूनां वृद्धिहासौभवतः॥४॥
प्रायःयह स्वभावसेही वातुओंका गुण है कि जब एक धातु वृद्धिको प्राप्त होती है तो उससे विपरीत दूसरा धातु हीनताको प्राप्त होजाता है॥४॥
यद्धियस्य धातोर्वृद्धिकरं तत्ततोविपरीतगुणस्य धातोः प्रत्यवायकरन्तुसम्पद्यते। तदेवतस्माद्भेषजं सम्यगवधार्य्यमाणं युगपन्न्यूनातिरिक्तानां घातूनां साम्यकरं भवति अधिकमपकर्षतिन्यूनमाप्याययति। एतावदेवहि भैषज्यप्रयोगेफलमिष्टं स्वस्थवृत्तानुष्ठानञ्च यावद्धातूनां साम्यंस्यात्॥५॥
जो द्रव्य एक धातुको बढानेवाला होता है वह उससे विपरीत गुणवाली दूसरी धातुको हीन करनेवाला होता है। इसलिये वह एकही औषधी विधिवत् सेवन की हुई न्यून और अधिकहुई धातुओंको साम्यावस्था में करदेती है। क्योंकि जो धातु बढीहुई होती है उसको अपकर्षण करके घटा देती है और घटी हुईको बढा देती है। इसप्रकार औषधीका प्रयोग करनेका श्रेष्ठ फल है। और स्वस्थवृत्त मनुष्यका अनुष्ठान है। जिससे संपूर्ण धातुओंकी साम्यता बनीरहे॥५॥
धातुसाम्धकी विधि।
स्वस्थस्यापिसमधातूनां साम्यानुग्रहार्थमेव कुशलारसगुणानाहारविकारांश्च पर्य्ययेणेच्छन्ति उपयोक्तम्। सात्म्यसमाख्यातानेकप्रकारभूयिष्ठां चोपयुञ्जानास्तद्विपरीतकरणलक्षणसमाख्यातचेष्ट्यासममिच्छन्तिकर्तुम्॥६॥
स्वस्थ मनुष्योंकी भी समधातुओंकी साम्यता रखनेकेलिये रस, गुण आदि आहारके विकारोंको उनके पर्यायकमसे निश्चयकर देना उचित समझते हैं। क्योंकि एक प्रकारका रस सात्म्य होनेपर भी बहुत खाया जाय तो उससे जो धातुओंमें विषमता होनेवाली हो उसके विपरीत कार्य करनेवाले द्रव्यके उपयोगसे धातुओमें समता रहती है और सात्म्यता में कोई विघ्न उपस्थित नहीं होता। इसलिये अनेक प्रकारके रसोंका भोजन करते हुए उनके गुणादिकोंसे उनको धातुसात्म्य बना, सेवन करना अथवा जिसप्रकार सेवनकरनेसे धातुएं सात्म्य रहें उसप्रकार साधनकरना उचित है। तथा जिसके सेवन से जो धातु अधिक होनेवाली हो उससे विपरीत द्रव्यका सेवनकरना और चेष्टा करना धातुओको सात्म्य रखताहै॥६॥
स्वस्थ के धातुसाम्यरखनेका उपदेश।
देशकालात्मगुणविपरीतानां हि कर्मणामाहारविकाराणाञ्चक्रमेणोपयोगः सम्यक्।सर्वाभियोगोनुदीर्णानां सन्धारणमसन्धारणमुदीर्णानाञ्चगतिमतांसाहसानाञ्चवर्जनम्। स्वस्थवृत्तमेतावद्धातूनां साम्यानुग्रहार्थमुपदिश्यते॥७॥
देश, काल और आत्मगुणसे विपरीत कर्मोंका तथा आहारसमूहोंका क्रमपूर्वक उपयोग करना अर्थात् शीतदेश में गर्मं वस्तुओंका उपयोग और उष्णदेशमें शीतवस्तुओंका उपयोग करना। इसीप्रकार शीतकाल में उष्णपदार्थों का सेवन और उष्णकालमें शीतपदार्थों का सेवन एवम् रूक्ष प्रकृतिको स्निग्ध द्रव्योंका सेवनकरना और स्निग्धको रूक्षका सेवनकरना इत्यादि कर्म तथा जो वेग आयेहुए है उनको धारण न करना और नहीं आये हुए वेगोंको धारण करना साहसीकर्मों को छोडदेना, यह सब स्वस्थ मनुष्योंकी धातुओंको सात्म्य रखनेकेलिये कथन किये गये हैं॥७॥
धातुओंकी वृद्धि और ह्रासका कारण।
धातवः पुनः शारीराः समानगुणैः समानगुणभूयिष्ठैर्वापि आहार-
विहारैरभ्यस्यमानैर्वृद्धिं प्राप्नुवन्ति ह्रासन्तुवितरीतगुणैर्विपरीतगुणभूयिष्ठेर्वाप्याहारैरभ्यस्य मानैः॥८॥
शरीरकी धातुयें अपने समान गुणवाले तथा समानगुणविशेषवाले आहारविहारोंके सेवनसे वृद्धिको प्राप्त होती हैं। और विपरीतगुणवाले तथा विपरीतप्रभाववाले आहार, विहारसे धातुयें ह्रासको प्राप्त होती हैं॥८॥
धातुओंके गुण।
तत्रेमेशरीरधातुगुणाः संख्यासामर्थ्यरूपकरास्तयथागुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षमन्दतीक्ष्णस्थिरसरमृदुकठिनविशदपिच्छिलश्लक्ष्णखरसूक्ष्मस्थूलसान्द्रद्रवाः॥९॥
उन शारीरिक धातुओंके गुण इस प्रकार हैं और वह संख्या, सामर्थ्य और रूपक विभागसे जानने चाहिये। जैसे गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मंद, तीक्ष्ण, स्थिर, सर, मृदु, कठिन, विशद, पिच्छिल, श्लक्ष्ण, खर, सूक्ष्म, सान्द्र, स्थूल और द्रव॥९॥
गुरु और लघुधातुओंका वर्णन।
तेषु येगुरवोधातवोगुरुभिराहारविकारगुणैरभ्यस्यमानैराण्याय्यन्तेलघवश्च हसन्ति।लघवस्तुलघुभिरेवाप्याय्यन्तेगुरवश्चह्रसन्त्येवमेव सर्वधातुगुणानां सामान्ययोगाद्वृद्धिविपर्य्ययाद्धासः॥१०॥
उनमें जो गुरु धातु हैं वह गुरुगुणवाले आहारके सेवनसे बढते हैं। और लघु धातुएं हास होती हैं। इसप्रकार लघुगुणवाले द्रव्योंके सेवन करनेसे लघुधातुयें पुष्ट होती हैं। और गुरुधातुयें हास होती हैं। इसप्रकार संपूर्ण धातुओंकी समानगुणवाले द्रव्यसे वृद्धि और विपरीत गुणवाले द्रव्योंसे हास होता है॥१०॥
प्रतिधातुओंकी वृद्धिका हेतु।
तस्मान्मांसमाप्याय्यतेमांसेन भूयोन्येभ्यः शरीरधातुभ्यः। तथा लोहितं लोहितेन मे दोमेदसावसावसया अस्थितरुणास्थ्नामज्जामज्जयाशुक्रं शुक्रेण गर्भस्त्वामगर्भेण॥११॥
इसलिये और धातुओंकी अपेक्षा मांसके खानेसे मांस।रुधिरसे रुधिर। चर्बीसे चर्बी। कोमल अस्थियोंसे अस्थियें। मज्जासे मज्जा।वीर्यसे वीर्य बढताहै। इसी प्रकार गर्म—आमगर्भ (अण्डा) के सेवनसे बढताहै॥११॥
समानकी अप्राप्तिमें उपाय।
यत्र तु एवं लक्षणेन सामान्येन सामान्यवतामाहारविकाराणामसान्निध्यस्यात्।सन्निहितानां वापि अयुक्तत्वान्नोपयोगोघृणित्वादन्यस्माद्वाकारणात्सचधातुरभिवर्द्धयितव्यः स्यात्। तस्य येसमानगुणाः स्युः आहारविकारा असेव्याश्च तत्र समानगुणभूयिष्ठानामन्यप्रकृतीनामपि आहारविकाराणामुपयोगः स्यात्॥१२॥
इस स्थानमें इस सामान्य निर्देश से संपूर्ण आहार आदिकोका भाव जानना। शरीरके धातुओंके समानगुणवाले मांसादि आहारसे मांस आदिकोंकाही आवश्यक कथन नहीं है किन्तु मांस आदि आहार बढानेवाले जो आहारविशेष हैं उनका प्रयोजन है। जिनको मांस आदिकोसे घृणा है अथवा न मिलनेसे वा अन्य किसी कारसे वह असेवनीय है उनको मांस आदिके बढानेवाले अन्य दूध आदि पदार्थ सेव नकरने चहिये॥१२॥
तद्यथा—शुक्रक्षयेक्षीरसर्पिषोरुपयोगोमधुर स्निग्धसमाख्यातानाञ्चापरेषामेवद्रव्याणाम्। मुत्रक्षयेपुनरिक्षर सवारुणीमण्डद्रवमधुराम्ललवणोपक्लेदिनाम्। पुरीषक्षयेकुल्माषमाषकूष्माण्डाजमध्ययवशाकधान्याम्लानाम्।वातक्षयेकटुतिककषायरूक्षलघुशीतानाञ्च। पित्तक्षयेम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णानाम्। श्लेष्मक्षयेस्निग्धगुरुमधुरसान्द्रपिच्छिलानां द्रव्यागां कर्मापिचयद्यद्यस्य धातोर्वृद्धिकरं तत्तदनुसेव्यम्॥१३॥
वह इसमकार जानना। जैसे शुक्रके क्षीण होनेपर दूध, घृतका उपयोग करना, मधुर तथा चिकने एवम् अन्य वीर्यवर्द्धक पदार्थों का सेवनकरना उचित है। मूत्रक्षय होनेपर ईखका रस, वारुणी, मण्ड तथा पतले और मधुर, अम्ल, लवण, एवम् मंत्रके लानेवाले अन्यपदार्थ सेवनकरने चाहिये। मलके क्षय होनेपर कुल्माष (मटर) उडद, कूष्माण्ड, अजमध्य, यव, शाक, धान्यामल सेवनकरना चाहिये।वातके क्षीण होनेपर कडुए, चरपरे, कसैले, रूक्ष, हल्के तथा शीतल द्रव्य सेवनकरना चाहिये। पित्तके क्षय होनेपर खट्टे, नमकीन, चरपरे, क्षार, उष्ण तथा तीक्ष्ण द्रव्योका सेवनकरना चाहिये। कफके क्षीण होनेपर स्निग्ध, भारी, मधुर, सान्द्र, पिच्छिल द्रव्योंका सेवन करना चाहिये। इसीप्रकार जो कर्म भी जिस २ धातुको बढानेवाला हो उसका सेवन करना चाहिये॥१३॥
एव मन्येषामपिशररिधातूनां सामान्यविपर्य्ययाभ्यां वृद्धिह्रासौ यथा कालं कार्याविति। सर्वधातूनामेकैकशोऽतिदेशतश्च वृद्धिह्रासकराणि व्याख्यातानि भवन्ति॥१४॥
एवम् अन्य भी जो शरीरकी धातुयें हैं उनके समान और विपर्यय करनेवाले द्रव्योंसे धातुओंकी वृद्धि और हास होताहै। उनसबका धातुओंको साम्य रखनेके लिये यथासमय सेवन करना चाहिये। इसप्रकार संक्षेपसे संपूर्ण धातुओंके वृद्धि और हास करनेवाले भावोंका एकएक करके वर्णन किया गयाहै॥१४॥
कृत्स्नशरीरपुष्टिकरास्त्वि मे भावाः कालयोगः स्वभावसिद्धिराहारसौष्ठवमविघातश्चेति बलवृद्धिकरास्त्वि मे भावा भवन्ति। तद्यथा—बलवत्पुरुषेदेशेजन्मबलवत्पुरुषेचकाले। सुखश्च कालयोगो बीजक्षेत्रगुणसम्पच्चाहारसम्पञ्च शरीरसम्पञ्च सात्म्य संपञ्चसत्त्वसम्पच्चस्वभावसंसिद्धिश्चयौवनञ्च कर्मचसंहर्षश्चेति॥१५॥
संपूर्ण मनुष्योंके सब धातुओंको पुष्ट करनेवाले यह भाव होते हैं। जैसे—समयका उत्तमयोग, स्वभावसिद्धि, आहारकी उत्तमता, किसीप्रकारका विघात न पहुंचना यह मनुष्योंके बलके बढानेवाले भाव होते हैं। जैसे—बलवान् पुरुषसे बलवान् स्त्रीमें और बलवान् देशमें, तथा बलवान् समय में जन्म होना। सुखकारक कालका योग, बीज और क्षेत्रकी उत्तमता, सत्त्वकी उत्तमता, व्यायाम आदि बलकारक कर्म, यौवनावस्था, अपना किया कर्म और प्रसन्नता यह सब मनुष्यों के शरीरको पुष्ट तथा बल और धातुओंकी वृद्धि करनेवाले भाव हैं॥१५॥
आहारपरिणामकरास्तु इमे भावा भवन्ति। तद्यथा उष्मा, वायुः, क्छेदः, स्नेहः, कालः, संयोगश्चेति॥१६॥ तत्र तु खल्वेषामुष्मादीनामाहारपरिणामकराणां भावानामिमे कर्मविशेषाभवन्ति तद्यथा। उष्मापचतिवायुरपकर्षतिक्लेदः शैथिल्यमापादयतिस्नेहोमार्द वंजनयतिकालः पर्य्याप्तिमभिनिर्वर्त्तयतिसंयोगस्तु एषां परिणामधातुसाम्यकरः सम्पद्यते ॥१७॥
आहारको पाचन करनेवाले यह भाव होते हैं। जैसे—गर्मी, वायु, क्लेद, स्नेह काल, और संयोग। इन गर्मी आदि आहारके पाचन करनेवाले भावोंके आहारके पाचन करनमें पृथक् २ कर्म हैं।जैसे—गर्मी पंचानेवाली है।वायु आकर्षण करती है। क्लेद्
आहार को शिथिल करता है। स्नेह मृदु अर्थात् आहारको नरम बनाता है। काल पर्याप्ति करता है। अर्थात् ठीक समयपर उचित २ कार्यों को करता है। समयपर भोजन न होनेसे परिपाकमें भी विघ्न होताहै। संयोग इन सबके परिमाणसे धातुओंको साम्य करताहै॥१६॥१७॥
परिणामतस्त्वाहारस्य गुणाः शरीरगुणभावमापद्यन्ते यथा स्वमविरुद्धाविरुद्धाश्च विहन्युर्विहताश्च विरोधिभिः शरीरम्॥१८॥
जब आहार पाचन होजाताहै तो उसके गुण शरीरके गुण भावोंमें प्राप्त हो जाते हैं यदि आहार अविरुद्ध गुणवाला हो तो शरीरको पुष्ट करता है और विरोधी गुणवाला होनेसे शरीरको नष्ट करदेता है॥१८॥
शरीरधातुके भेद।
शरीरधातवस्त्वेवं द्विविधाः संग्रहेणमलभूताः प्रसादभूताश्च। तत्र मलभूतास्ते शरीरस्यये बाधकराः स्युस्तद्यथाशरीरच्छिद्वेषु उपदेहाः पृथग्जन्मानोबहिर्मुखाः परिपक्काश्च धातवः। प्रकुपिताश्च वातपित्तलेष्माणो ये चान्येऽपिकेचिच्छरीरेतिष्ठन्ति भावाःशरीरस्योपघातायोपपद्यन्ते सर्वांस्तान्सलान्सं प्रचक्ष्महे। इतरांस्तु प्रसादेगुर्वादींश्चद्रव्यान्तान्गुणभेदेनरसादींश्चशुक्रान्तान्द्रव्यभेदेन॥१९॥
शारीरिक धातुएं सामान्यतासे दो प्रकार की होती हैं। १ मलभूत २ प्रसादभूत उनमें जो शरीरको बाधा करनेवाली हैं उनको मलभूत धातु कहते है। वह इस प्रकार है।जैसे—शरीरछिद्रों में भरा हुआ क्लेद और जो शरीरसे पृथक् उत्पन्न होनेवाले हो अर्थात् शरीरमेंन मिलकर फोकट रूपसे अलग निकल जानेवाली हो और परिपाकको प्राप्त हो अपने छिद्रद्वारा बाहर निकल जानेवाली हों (विष्ठाआदि) इनको मल कहते है तथा कुपित हुए वात, पित्त, कफ और इनके सिवाय भी जो शरीरको बिगाडनेवाले भाव है।उन सबको मलभूत धातु कहते हैं।इनके सिवाय गुरु आदि गुणसे लेकर द्रव पर्यन्त गुण भेदसे, और रससे लेकर शुक्रपर्यन्त द्रवभेदसे सब धातुयें प्रसाद संज्ञक होती हैं॥१९॥
तेषां सर्वेषामेव वातपित्तश्लेष्माणोदुष्टादूषयितारोभवंति दोषत्वाद्वातादीनां पुनर्धात्वन्तरेकालान्तरे प्रदुष्टानां विविधाशितपीतीयेऽध्याये विज्ञानान्युक्तानि एतावत्येवदुष्टदोषगतिर्यावत्संस्पर्शना-
च्छरीरधातूनाम्। प्रकृतिभूतानान्तुखलुवातादीनांफलमारोग्यं तस्मादेषां प्रकृतिभावे प्रयतितव्यं बुद्धिमद्भिः॥२०॥
उन सबधातुओंकोही दुष्ट हुए वात, पित्त, कफ दूपित करनेवाले होते हैं। दोष होनेसे वातादिकोंद्वारा जो संपूर्ण धातुयें दृषित होकर जिन २ लक्षणोंको धारण करती हैं वह सब विविधाशितपीतीयाध्याय में विशेषरूपसे कथनकर चुके हैं। दोष दुष्ट होकर शरीरकी धातुओंको संस्पर्श करतेही दूषित करदेते हैं। जब यह वातादि दोष अपनी प्रकृतिमें स्थिर रहे तो इनका फल आरोग्यता होता है। इसलिये बुद्धिमान् दोषोंको प्रकृतिस्थ रखने में यत्नवान् रहते हैं॥२०॥
पूर्णवैद्यके लक्षण।
सर्वदासर्वथासर्वं शरीरं वेदयोभिषक्।
आयुर्वेदं सकार्त्स्येन वेदलोकसुखप्रदम्॥२१॥
यहांपर श्लोक हैं। जो वैद्य सबप्रकार से सबकालमं संपूर्ण शरीर के संपूर्णभावोंको यथावत् जानता है वह लोकको सुख देनेवाले आयुर्वेदको संपूर्ण रूप से जानता है॥२१॥
तमेवमुक्तवन्तं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच। श्रुतमेतद्यदुक्तं भगवताशरीराधिकारेवचः। किन्नु खलुगर्भस्याङ्गं पूर्वमभिनिवर्त्तते कुक्षौकुतोमुखं कथं वाचान्तर्गतस्तिष्ठति।किमाहारश्च वर्त्तयति कथं भूतश्च निष्क्रामतिकैश्चायमाहारोपचारैर्जातस्त्वव्याधिरभिवर्द्धतेसघोहन्यतेकैः कथञ्चास्य देवादिप्रकोपनिमित्ताविकारा उपलभ्यन्ते आहोस्मिन्नकिञ्चास्य कालाकालमृत्योर्भावा
भावयोर्भगवानध्यवस्यति। किञ्चास्य परमायुः कानिचास्य परमायुषोनिमित्तानीति॥२२॥
इसप्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजसे अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन्! शरीरसंबंधी जो विषय आपने कथन किया है वह हमने श्रवण किया।अबकृपाकर यह कथन कीजिये कि गर्भका प्रथम कौनसा अंग उत्पन्न होता है और गर्भ में बालक किसओर मुखकरके किस प्रकार गर्भाशय के भीतर रहता है। और क्या आहारकर जीता है, किसप्रकार निकलता है, कैसे आहार और उपचार के होनेसे आरोग्य रहकर वृद्धिको प्राप्त होता है। किन कारणों से शीघ्र नष्ट होजाता है। देव आदिकांके कोपसे उत्पपन्न हुए विकार कैसे जाने जाते हैं। हे भगवन्! आप इसके काल और अकाल-
मृत्युके भाव और अभावका क्या निश्चय करतेहो अर्थात् भावाभावमें कौनसी अकालमृत्यु और कौनसी कालमृत्यु होती है तथा उनके कारण क्या हैं। इसकी परमआयु कितनी हैं और उसके निमित्त क्या हैं॥२२॥
तमेवमुक्तवन्तमग्निवेशं भगवान् पुनर्वसुरात्रेय उवाच। पूर्वमुक्तमेतद्गर्भावकान्तौयथा यमभिनिर्वर्त्तते कुक्षौयच्चास्य यदा सन्तिष्ठतेऽङ्गजातम्। विप्रतिपत्तिवादास्त्वत्रबहुविधाः सूत्रकारिणामृषीणां सन्ति सर्वेषां तानपि निबोध उच्यमानान्। शिरः पूर्वमभिनिर्वर्त्तते कुक्षावितिकुमारशिराभरद्वाजः पश्यति सर्वेन्द्रियाणां तदधिष्ठानमितिहृदयमितिकाङ्कायनो बाह्लीकभिषक्चेतनाधिष्ठानत्वात्। नाभिरिति भद्रकाप्य आहारागम इति कृत्वापक्वगुदमितिभद्रशौनकोमारुताधिष्ठानत्वात्। हस्तपादमिति बडिशस्तत्करणत्वात्पुरुषस्य इन्द्रियाणीति जनको वैदेहस्तान्यस्य बुद्व्याधिष्ठानानीति कृत्वा। बुद्धिपरोक्षत्वादचिन्त्यमितिमारीचिः कश्यपः सर्वाङ्गनिर्वृत्तियुगपदिति धन्वन्तरिः। तदुपपन्नं सर्वाङ्गानां तुल्यकालाभिनिर्वृत्तत्वाद्धृदयप्रभृतीनां सर्वाङ्गानां ह्यस्य हृदयं मूलमधिष्ठानञ्च केषाञ्चिद्भावानां न च तस्मात्पूर्वाभिनिर्वत्तिरेषान्तस्माद्धृदयपूर्वाणां सर्वाङ्गानां तुल्यकालाभिनिर्वृत्तिः सर्वभावाह्यन्योन्यप्रतिबद्धास्तस्माद्यथा भूतं दर्शनम्॥२३॥
इसप्रकार अग्निवेश के कथनको सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश! जिसप्रकार कुक्षीमें गर्भ उत्पन्न होता है उसका वर्णन तो हम गर्भावक्रांति अध्याय में करही चुकें हैं। और गर्भका जो अंग जिससमय उत्पन्न होता है यह भी उसीस्थानमें कह चुके हैं परन्तु जिसप्रकार बहुतसे सूत्रकार ऋषियोका इस विषय में पृथक् २ मत है उसको श्रवणकरो। कुमारशिरा भरद्वाज कहते हैं कि पहिले गर्भमें मस्तक उत्पन्न होता है। क्योकि मस्तक संपूर्ण इन्द्रियोंका निवासस्थान है। कांकायणह्लीक वैद्यका मत है कि प्रथम हृदय उत्पन्न होता है क्योंकि चेतनाशक्तीका स्थान हृदयही है। भद्रकाप्य कहते हैं कि पहले नाभी उत्पन्न होती है। क्योंकि गर्भको पालनकरनेके लिये आहार नाभिद्वाराही पहुंचता है। भद्रशौनक कहनेलगे कि पहले पक्वाशय उत्पन्न हुआ क्योंकि शारीरिकवायुका प्रधानस्थान पक्वाशयही है। बडिश
ऋषिका मत है कि पहिले हाथपैर उत्पन्न होते हैं क्योंकि हाथपैरही मनुष्यके करण अर्थात् कार्यकरनेवाले हैं। विदेह देशके पति जनकका मत है कि पहिले इन्द्रियें उत्पन्न होती हैं क्योंकि इन्द्रियर्येही बुद्धिके अधिष्ठान हैं। मारीचि कहते हैं कि यह सब अपरोक्ष है इसके विषय में यह जाना नहीं जाता कि कौन पहिले तथा कौन पछि उत्पन्न होते हैं। कश्यप कहते हैं कि संपूर्ण अंग एकबारही उत्पन्न होते हैं। और यही मत धन्वंतरीजीका भी है कि संपूर्ण अंग एकहीसमय में उत्पन्न होते हैं। सो-हमारे मतमें भी हृदय प्रभृति संपूर्ण अंग एकहीसाथ उत्पन्न होते हैं। संपूर्णअंगोंका मूल आधिष्ठान हृदय है। किसी भावकी भी हृदयसे प्रथम उत्पत्ति है नहीं होती। संपूर्णभावही आपस में परस्पर उत्पत्तिके विषय में अपेक्षा रखते हैं। इसलिये हे अग्निवेश सब अंगोंका एकही कालमें उत्पन्नहोना युक्तिसिद्ध है॥२३॥
गर्भस्तुखलुमातुः पृष्ठाभिमुख ऊर्द्ध्वशिराः संकुच्याङ्गान्यास्तेजरायुवृतः कुक्षौ। व्यपगतपिपासावुभुक्षुस्तुखलुगर्भः परतन्त्रवृत्तिर्मातरमाश्रित्यवर्त्तयति उपस्नेहोपखेदाभ्याम्। गर्भस्तु सदसद्भूताङ्गावयवस्तदन्तरं ह्यस्यलोमकूपायनैरुपस्नेहः कश्चिन्नाभिनाड्ययनैः नाभ्यां ह्यस्य नाडी प्रसक्तासानाभ्याञ्चामराचास्य मातुः प्रसक्ताहृदयेमातृहृदयं ह्यस्थताममरामभिसंप्लवतेशिराभिः स्यन्दमानाभिः॥२४॥
गर्भ माताके पीठकी ओर मुखकरके उपरको सिर किये हुए सब अंगोंको संकोचकरके जरायुसे लिपटा हुआ कुक्षीमें रहताहै। और यह भूख प्याससे रहित रहताहै। यह गर्भ परतंत्रवृत्ति है। माता के किये हुए आहार के उपस्वेद और उपस्नेहसे पलता है। तथा इसका जीवन माताके आहारके आश्रय है। गर्भके अंगावयव जबतक नहीं होते तबतक माताके गर्भाशय के सूक्ष्मरूप से उपस्नेहको प्राप्त होता रहता है। फिर रोममार्गद्वारा गर्भका उपस्नेह होता है। गर्भकी नाभिसे एक नाडी लगी हुई है जिसको नालवा कहते हैं। यही नाडी माताकी नाडियों से मिली हुई है। यह गर्भकी नाभिकी नाल माताके हृदय और गर्भके हृदयसे मिलीहुई है। इस नाडीको अमरा कहते हैं। रसके स्यंदन करनेवाली नाडियोंसे यह नाभिकी नाडी रस लेकर गर्भको पुष्ट करती रहती है॥२४॥
सतस्य रसो सर्वबलवर्णकरः सम्पद्यतेच। सचसर्वरसवानाहारः स्त्रिया ह्यापन्नगर्भायास्त्रि धारसः प्रतिपद्यते स्वशरीरपुष्टयेस्तन्यायगर्भवृद्धये च स तेनाहारेणोपस्तब्धोवर्त्तयति अन्तर्गतः॥२५॥
वही रस गर्भको सब प्रकार बल और वर्ण उत्पन्न करता है। गर्भवती स्त्री सबप्रकारके रस जो आहार करती है उसका तीन प्रकारका रस होता है। उनमें से एक रससे गर्भवती के शरीरकी पुष्टि होती है दूसरे प्रकारके रस स्तनोमें दूध प्रकट करते हैं। तीसरे प्रकारका रस अंतर्गत हो गर्भको पालन करता है॥२५॥
गर्भके बाहर आने का वृत्तांत ।
स चोपस्थितकाले जन्मनि प्रसूतिमारुतयोगात्परिवृत्त्याऽवाक्शिरानिष्क्रामत्यपत्यपथेन। एषा प्रकृतिर्विकृतिरतोऽन्यथापरन्त्वत एव स्वतन्त्रवृत्तिर्भवति॥२६॥
फिर वह गर्भ पूर्ण हो सर्वांगसम्पन्न होकर जन्म के समय प्रसूत वायुके वेगसे परिवृत हो नीचेको सिर किये संतानमार्ग द्वारा बाहर गिरजाताहै।यह गर्भकी प्रकृति (स्वाभाविक धर्म) है।इससे अन्यथा विकृति (वैकारिक धर्म) होती है। गर्भाशयसे बाहर होकर अर्थात् जन्मलनेके अनन्तर इस बालककी वृत्ति स्वतंत्र होजाती है॥२६॥
बालकके आहारका संतान।
तस्याहारोपचारौ जातिसूत्रीयोपदिष्टौ अविकारकरौ चाभिवृद्धिकरौभवतः। ताभ्यामेव च सेविताभ्यां विषमाभ्यां जातं सद्य अपहन्यते तरुरिवाचिरव्यपरोपितोवातातपाभ्यामप्रतिष्ठितमूलः॥२७॥
गर्भका जिसप्रकार आहार और उपचार करना चाहिये उसको आगे जातिसूत्रीय नामक आठवें अध्याय मे कथन करेंगे। किसमकारका आहार और आचार करनेसे आहार और उपचार निर्विकार होते हुए गर्भको बढानेवाले होते हैं। उन्ही आहार और उपचारोंके विषम होनेसे गर्भ अथवा जन्महुआ बालक इसमकार नष्ट होजाता है जैसे—नया लगाया हुआ छोटासा वृक्ष जिसकी जडोंको पृथ्वीने पकड़ा न हो वह अधिक वायुके लगनेसे और तेज धूपके पडनेसे जडसे नष्ट होजाता है॥२७॥
देवादिकोपनिमित्त विकार।
आप्तोपदेशदद्भुतरूपदर्शनात्ससुत्थानलिङ्गचिकित्सितविशेषाच्च दोषप्रकोपानुरूपाश्च देवादिप्रकोपनिमित्ताश्च विकाराः समुपलभ्यन्ते॥२८॥
आप्तपुरुषोंके रचे हुए बालतंत्रों के उपदेशसे और अद्भुतरूपोंके देखनेसे विचित्र रूपके अर्थात् दैवी कारण और लक्षणोंके देखनेसे, यथोचित रीतिपर निदान, लक्षण और चिकित्साका ज्ञान होनेसे, दोषोंके कोपसे और देवादिकोंके कोपसे उत्पन्न हुए विकार जानेजासकते हैं॥२८॥
कालाकाल मृत्युवर्णन।
कालाकालमृत्योस्तुखलुभावाभावयोरिदमध्यवसितंनः। यः कश्चिनम्रियतेसर्वः काल एव सम्रियतेन हि कालच्छिद्रमस्तीत्येके भाषन्ते। तच्चासम्यक्नह्यच्छिद्रतासच्छिद्रता वा कालस्योपपद्यते कालस्वलक्षणभावात्॥२९॥
कालमृत्यु और अकालमृत्युके होने न होने में हमारा मंतव्य सुनो कोई कहता है कि जब मनुष्य मरता है वह किसी प्रकारसे भी कभी मरे परन्तु उसका वही कालहै। कोई कहता है कि काल छिद्र प्राप्त होनेसे घात पाकर आक्रमण करता है। अर्थात् मृत्युके लिये मनुष्यमें जब जो अवकाश होता है वही उसका मृत्युकाल है। परन्तु यह कथन सत्य नहीं क्योंकि कालके लिये कोई छिद्रता और अच्छिद्रता नहीं है। काल तो स्वयं स्वलक्षण सिद्ध है। उसमें कोई छिद्रता और अच्छिद्रता नहीं होसकती॥२९॥
तथाहुरपरेयोयदाम्रियते स तस्य नियतो मृत्युकालः स सर्वभूतानां सत्यः समक्रियत्वादिति। तदपि चान्यथार्थग्रहणं न हि कश्चिन्न म्रियते इति समक्रियः कालः पुनरायुषः प्रमाणमधिकृत्योच्यते॥३०॥
अन्य इसप्रकार कहते हैं कि जो जब मरता है उसका वही मृत्युकाल है। क्योंकि काल सत्य है और रागद्वेष रहित है। सबके लिये एकसी क्रिया करनेवाला है। परन्तु यह भी ठीक नहीं। देखने में आता है कि बहुत से मरजाते हैं और बहुतसे नहीं मरते इसलिये काल समक्रिय अर्थात् एकसी क्रिया करनेवाला नहीं है। यदि सबके लिये एककाल एकसाही होय तो उस कालमें या तो सबकी मृत्युही होजाती अथवा कोई भी न मरता।यदि आयुके प्रमाणसे काल मानाजाय तो सौवर्षसे पहिले किसीको मरनाही नहीं चाहिये इसलिये कालको आयुके प्रमाणसे भी समक्रिय नहीं कहा जासकता॥३०॥
यस्य चेष्टं यो यदा म्रियते तस्य स नियतमृत्युकाल इति तस्य सर्वेभावा यथा स्वनियतकाला भविष्यन्ति। तच्चनोपपद्यते प्रत्यक्षं ह्य-
कालाहारवचनकर्मणां फलमनिष्टविपर्य्यये चेष्टम्। प्रत्यक्षतश्चोपलभ्यते खलु कालाकालयुक्तिस्तासुतासु अवस्थासु ततमर्थमभिसमीक्ष्य।तद्यथा कालोऽयमस्य तु व्याधेराहारस्यौषधस्य, प्रतिकर्मणो विसर्गस्य चाकालो वेति लोकेऽप्येतद्भवति। काले देवो वर्षत्यकाले देवो वर्षति काले शीतमकाले शीतं काले तपत्यकाले तपतिकाले पुष्पफलमकाले पुष्पफलमिति। तस्मादुभयमस्ति काले मृत्युरकाले च नैकान्तिकमत्र।यदि ह्यकाले मृत्युर्नस्यान्नियतकालप्रमाणमायुः सर्वस्यात्॥३१॥
यदि कहो कि जो जिससमय मरे उसका वही मृत्युकाल निश्चित है। तो उसके जितने भाव है वह सबही मृत्युके संबंध में निश्चित काल मानने पडेंगे सो ऐसा भी नहीं होसकता। क्योंकि प्रत्यक्ष देखनेमेंआता है कि काल और अकालकी व्यवस्यामें जिस जिस समय जैसे २ भले या बुरेआहारविहारादि किये जाते है उनका वैसाही वैसा फल होता है।जैसे इस व्याधीमें आहार अथवा औषधका यह काल है, चिकित्साका यह समय है, व्याधीका यह समय है अथवा असमय है। इसीप्रकार लोकमें भी देखा जाता है कि अपने ठीक समयपर ऋतुकालमें वर्षा होना और अकालमें वर्षा होना, शतिकालमें शीतपडना और अकालमें शीत पडना, उष्णकालमें उष्णता होनी तथा अकालमें उष्णता होनी। समयपुर फूलफल आना और वेसमय फूलफल आना। इस प्रकार काल और अकाल युक्तिसिद्ध है। इसलिये दोनो होसकते हैं।कालमें भी मृत्यु होती है और अकालमृत्यु भी होसकती है यह दोनो एक नहीं मानी जासकती। यदि अकालमृत्यु नहोती तो सवही मनुष्य आयुके प्रमाणसे निश्चित. समयपर मराकरते॥३१॥
एवं गते हिताहितज्ञानमकारणस्यात्प्रत्यक्षानुमानोपदेशाचाप्रमाणी स्युः ये प्रमाणभूताः सर्वतन्त्रेषु यैरायुष्याण्यनायुष्याणि चोपलभ्यन्ते वाग्वस्तुमेतद्वादमृषयोसन्यन्तेनाकालमृत्युरस्तीति॥३२॥
यदि अकालमृत्यु न होती तो हिताहित जाननेकी कोई आवश्यकता न रहती। और प्रत्यक्ष तथा अनुमान एवम् आप्तोपदेश इन तीनों प्रमाणोकी भी प्रमाणता नहीं रहेगी।तथा ऋषियोंके शास्त्रोंमे जो आयुष्य और अनायुष्यकर्त्ता प्रयोग आदि
कथन किये गये हैं वह सब वकवादमात्र हो जांयगे। इसलिये कालमृत्यु और अकाल स्मृत्यु दोनो होती हैं ऐसा निश्चय है॥३२॥
आयुका प्रमाण ।
वर्षशतं खलु आयुषः प्रमाणमस्मिन्काले तस्य निमित्तं प्रकृतिगुणात्मसम्पत्सात्म्योपसेवनञ्चेति॥३३॥
वह कालमृत्यु और अकालमृत्यु इसप्रकार है। कि इससमय आयुका प्रमाण १०० वर्षका है उस सौवर्षकी आयु होनेका कारण मातापिताके रज, वीर्यकी उत्तमता, प्रकृतिके गुण और आत्मकृत कर्मोंका उत्तम होना, सात्म्यका सेवन है अर्थात् इन सबके उत्तम होनेसे आयु सौवर्षकी होती है।उस सौवर्षकी आयुको भोगकर मरनेको कालमृत्यु कहते हैं।इससे विपरीत अकालमृत्यु होती है॥३३॥
अध्यायका उपसंहार।
शरीरं यदुयथा तच्च वर्त्तते क्लिष्टमायैः । यथा क्लेशं विनाशञ्च याति ये चास्य धातवः॥३४॥ वृद्धिह्रासौतथा चैषां क्षीणानामौषधश्चयत्। देहवृद्धिकराभावाबलवृद्धिकराश्रये॥३५॥ परिणासकराभावायाचतेषां पृथक्रिया।मलाख्याः सम्प्रसादाख्या धातवः प्रश्न एव च॥३६॥नव को निर्णयश्चास्य विधिवत्सम्प्रकाशितः। तथा शरीरविचये शारीरे परमर्षिणा ॥ ३७ ॥
इति चरकसंहितायां शारीरस्थाने शरीरविचयः शारीरः समाप्तः॥६॥
यहांपर श्लोक हैं कि इस गरीरविचयशारीर अध्याय में शरीरका रूप तथा जो गर्भ जिसप्रकार जीता है जिसप्रकार रोगोंसे क्लेशित होता है, जिसप्रकार क्लेश तथा विनाशको प्राप्त होता है और इसके संपूर्णवातुओंकी वृद्धि और ह्रास, क्षीण धातुओंके बढानेकी औषधी, देहवृद्धि करनेवाले भाव तथा बलवृद्धि करनेवाले भाव, भोजनके के परिणाम करनेवाले भाव और उनकी भिन्न २ क्रिया मल संज्ञक धातुयें तथा प्रसादसंज्ञक प्रातुर्य, नौप्रश्न, उन प्रश्नोका निर्णय, यह सब महर्षि आत्रेयजीने वर्णन किया है॥३४॥३५॥३६॥३७॥
इति श्रीमहार्पचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहिताया शारीरस्थाने पं० रामप्रसाद वैद्यविरचितप्रसा-
दन्याख्यभाषाटीकायामपस्मारनिदानं नामपष्टोऽध्यायः॥६॥
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सप्तमोऽध्यायः
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अथातः शारीरसंख्यानाम शारीराध्यायं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम शरीरसंख्या नामक शारीराध्यायकी व्याख्या करते है इसप्रकार भगवान्आत्रेयजी कथन करने लगे।
शरीरसंख्यामवयवशः कृत्स्त्रं शरीरं प्रविभज्यसर्वशरीरसंख्यानप्रमाणज्ञानहेतोर्भगवन्तमात्रेयमग्निवेशः पप्रच्छ॥१॥
संपूर्ण शरीरके अवयवो के विभाग से संपूर्ण शरीर के अवयवोकी संख्याको अग्निवेश आत्रेयजीसे पूछनेलगे॥१॥
तमुवाच भगवानात्रेयः। शृणुमत्तोऽग्निवेश! सर्वशरीरमभिचक्षाणाद्यथा प्रश्नमेकमनाः॥२॥
भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे कि हे अग्निवेश ! संपूर्ण शरीर के अवयवोकी व्याख्या एकाग्रचित्त होकर मुझसे यथा प्रश्न श्रवणकरो॥२॥
त्वचाके भेद।
यथावच्छरीरे षट्त्वचस्तद्यथा—उदकधरात्वग्वाह्याद्वितीयात्वगसृग्धरातृतीयासिघ्मकिलाससम्भवाधिष्ठानाचतुर्थीकुष्ठसम्भवाधिष्ठानापञ्चमी अलजीविद्रधीसम्भवाधिष्ठानाषष्ठीतुयस्यां
छिन्नायांताम्यत्यन्ध इव चतमः प्रविशति यां चाप्यधिष्ठायारूंषिजायन्ते पर्वसन्धिषु कृष्णरक्तानिस्थूलमूलानिदुश्चिकित्स्यतमानीतिषट्त्व च एताः षडङ्गं शरीरमवतत्यतिष्ठन्ति॥३॥
यथावत् शरीरमें छः त्वचा होती है। वह इसप्रकार हैं। जैसे—पहिली उदकधर त्वचां अर्थात् ऊपरवाली बाहरी त्वचा दूसरी असृग्धरा, तीसरी त्वचा सिध्म (छींम) यह किलास रोगके उत्पन्न होनेका स्थान है, चौथी त्वचामें कुष्ठ आदि रोग उत्पन्न होते हैं, पांचवी त्वचामें अलजी, विद्रधी आदि रोग उत्पन्न होते हैं, छठी त्वचा वह है जिसके फटजानेसे मनुष्यको मूर्च्छा उत्पन्न होजाती है, नेत्रोंमें अंधकार आजाता है। इसीके आश्रय से जोडोंकी संधियोमें काला, तथा लालवर्णके अत्यंत दुश्चिकित्स्य व्रण प्रगट होते हैं।यह त्वचा षडंग शरीरको लपेटकर रहती है॥३॥
शारीरके अंगविभाग।
तत्रायं शरीरस्याङ्गविभागः तद्यथा—द्वौबाहूद्वेसक्थिनी शिरो ग्रीवसन्तराधिरितिषडङ्गमङ्गम्॥४॥
यह शरीर छ अंगों में विभक्त है। जैसे—दो बाहें और दो ऊरू (टांगें) तथा एक गर्दनसहित शिर एवम् छठा मध्यभाग॥४॥
शरीरकी हड्डियों की संख्या।
त्रीणिषष्ट्यधिकानिशतान्यस्थ्नां सह दन्तोलूखलनखैस्तद्यथा—द्वात्रिंशद्दन्तोलूखलानि द्वात्रिंशद्दन्ता विंशतिर्नखा विंशतिः पाणिपादशलाकाश्च त्वार्य्यधिष्टानान्यासांचत्वारिपाणिपादपृष्ठानि षष्टि रंगुल्यस्थीनि द्वेपार्ष्ण्योर्द्वेकूर्च्चाधश्चत्वारः पाण्यर्मणिकाश्वत्वारः पादयोर्गुल्फाः चत्वार्य्यरत्न्योरस्थीनि चत्वारि जंघयोर्द्वेजानुनोर्द्वेकूर्परयोर्द्वे ऊर्वोबाह्वोः सांसयोः द्वावक्षको द्वे तालूनि द्वे श्रोणिफलके एकं भगास्थि पुंसां मेद्रास्थि एकं त्रिकसंश्रितमेकं गुदास्थिपृष्ठगतानि पञ्चत्रिंशत्पञ्चदशास्थीनि ग्रीवायां द्वे जत्रुण्येकं हन्वस्थि द्वे हनुमूलबन्धने द्वेललाटे द्वे अक्ष्णोर्द्वे गण्डयोर्नासिकायां त्रीणिघोणाख्यानि द्वयोः पार्श्वयोश्चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिः पञ्जरास्थीनि च पार्श्वकानि।तावन्ति चैषां स्थालिकान्यर्बुदाकाराणि तानि द्वि सप्ततिर्द्वौशंखकौ चत्वारिशिरः कपालानि वक्षसिसप्तदशेति त्रीणिषष्ट्यधिकानिशतान्यस्थ्नामिति॥५॥
दांतों और उलूखलों (जिसमें दांत जडे रहते हैं) सहित संपूर्ण शरीर में तीनसौ साठ ३६० हड्डियें हैं। जैसे—बत्तीस ३२ दांत ३२ बत्तीस उलूखल।२० बीस नख २० बीस हाथपावोंकी शलाका।४ चार उन शलाकाओंके अधिष्ठान।४ चार हाथ पावोंके पृष्ठस्थान ६० साठ अंगुलियोंकी हड्डियें।२ पार्श्वणी।दो २ त्वर्चके अघोभाग।दोनो हाथोंकी ४ चार मानिक।दोनो पैरोंके ४ चार गुल्फ।४ चार अरत्नी। चार जंघाकी हड्डियें।२ दो जानुकी हड्डियें।२ दो कहुनीकी हड्डियें।दो २ उरूकी हड्डियें।२ दो बाहुकी हड्डियें।दो २ कंधेकी हड्डियें।दो २ दोनों जत्रुसंधियों में अक्षक (कीलक)।दो २ तालुकी हड्डियें।दो २ श्रोणी फलक (दोनों चूतडोंके ऊपरकी हड्डी )।१ एक भगकी हड्डी १ पुरुषके लिंगकी हड्डी। एक १
त्रिकस्थानकी हड्डी। १ एक गुदाकी हड्डी। ३५ पैंतीस पीठकी हड्डियें। १५ पंद्रह गर्दनकी हड्डियें।२ दो जत्रुकी हड्डियें।१ एक ठोडीकी हड्डी।२ दो ठोडीके मूलबंधकी। दो २ ललाटकी हड्डियें।दो २ नेत्रोंकी हड्डियें। २ दो गण्डस्थलकी हड्डियें।३ तीन नासिकाकी हड्डियें।२४ चौवीस दोनों पार्श्वभागकी हड्डिये। २४ चौबीस दोनोतरफ पंजरकी हड्डियें।२४ चौबीसही इनके अर्बुदाकार स्थालिक।२ दो दोनो संखोकी हड्डियां।४ चार कपालकी हड्डियां।१७ सत्रह वक्षस्थकी हड्डियां।इसप्रकार सब मिलकर संपूर्ण शरीरकी हड्डियें ३६० होती हैं॥५॥
इन्द्रियोंके अधिष्ठान आदि ।
पञ्चेन्द्रियाधिष्टानानि तद्यथा—त्वग्जिह्वानासिकाक्षिणीकर्णौ च॥६॥
पांच इन्द्रियोंके अधिष्ठान हैं। जैसे—त्वचा, जिह्वा, नासिका, आंख, कान॥६॥
पञ्चबुद्धीन्द्रियाणि तद्यथा—स्पर्शनरसनं घ्राणं दर्शनश्रोत्रमिति॥७॥
पांच बुद्धि इन्द्रिय अर्थात् ज्ञान इन्द्रिय होती हैं। जैसे—स्पर्शन, रसन, घ्राण, दर्शन और श्रोत्र इन्द्रिय॥७॥ ,
पञ्चकर्मेन्द्रियाणि तद्यथा हस्तौ पादौ पायुरुपस्थोजिह्वाचेति॥८॥
पांच कर्म इन्द्रिय हैं। जैसे हाथ, पांव, पायु (गुदा) उपस्थ (भग या लिंग) और जिह्वा॥८॥
हृदयं चेतनाधिष्ठानमेकम्॥९॥
चेतनाका अधिष्ठान हृदय है॥९॥
दशप्राणायतनानितद्यथामूर्द्धाकण्ठोहृदयं नाभिर्गुदबस्तिरोजःशुक्रं शोणितं मांसमिति। तेषु षट्पूर्वाणिमर्म संख्यातानि॥१०॥
दश प्राणायतन हैं। जैसे—मस्तक, कण्ठ, हृदय, नाभि, गुदा, बस्ती, ओज, शुक्र, रुधिर और मांस।इन दश स्थानों में प्राण रहनेसे इनको प्राणायतन अर्थात् प्रार्णोके रहनेके स्थान कहते हैं। इनमें कण्ठ, मस्तक, हृदय, नाभिं, गुदा, वस्ती इन छओंको सर्मस्थान भी कहते हैं॥१०॥
पञ्चदशकोष्टाङ्गानि तद्यथा नाभिश्चहृदयञ्च क्लोमचयकृञ्चप्लीहा च वृक्कौ च बस्तिश्च पुरीषाधानञ्चामाशयश्चेति पक्वाशयश्चोत्तरगुदञ्चाधरगुदञ्च क्षुद्रान्त्रञ्च स्थूलान्त्रञ्च वपावह्ञ्चेति॥११॥
कोष्ठांग (कोठे) पंद्रह हैं।जैसे—नामि, हृदय, क्लोम, यकृत, प्लीहा, वृक, बस्ती, मलाशय, आमाशय पक्काशय, उत्तरगुइ, अधोगुद, क्षुद्रांत्र, स्थूलांत्र, वपावन॥११॥
प्रत्यङ्गोंके नाम।
षट्पञ्चाशत्प्रत्यङ्गानिषट्सु अङ्गेषु उपनिबद्धानि यान्यपरिसंख्या तानि पूर्वमङ्गेषु परिसंख्यायमानेषु तान्यन्यैः पर्य्यायैरिहप्रकाश्यव्याख्यातानि भवन्ति। तद्यथा—द्वे जंघापिण्डिके द्वे ऊरुपिण्डिके द्वौस्फिचौ द्वौ वृषणौ एकं शेफः द्वे उखे द्वौ वंक्षणौ द्वौ कुकुन्दरौ एकं बस्तिशीर्षमेकमदरं द्वौ स्तनौ द्वौ भुजौ बाहुपिण्डिके चिबुकमेकं द्वावोष्टौ द्वे सृक्कण्यौ द्वौदन्तवेष्टकौ एकं तालु एकागलशुण्डिका द्वे उपजिह्विके एकागोजिह्विका द्वौ गण्डौ द्वे कर्णशष्कुलिके द्वौ कर्णपत्रकौ द्वे अक्षिकूटे चत्वारि अक्षिवत्मनि द्वे अक्षिकनीनिके द्वे भ्रुबौ एकमवटु चत्वारि पाणिपादहृदयानि नव महान्ति छिद्राणि सप्त शिरसि द्वे चाधः॥१२॥
छप्पन ५६ प्रत्यंग (उपांग) हैं।वह पूर्व कहेहुए छःअंगोमं बंधेहैं। जिनका पहिले छः अंगोंका कथन करते समय कथन नहीं कियागयाथा। अब उन छप्पन अंगोंका कथन करते हैं। जैसे—२ जंघाओंकी पिंडलियें। २ उरूस्थलकी पिंडलियें। २ स्फिक २ वृषण।१ लिंग।१ आमाशय । १ ग्रहणी ।२ वंक्षण ।२ कुकुन्दर। १ बस्तिशीर्ष ।१ उदर ।२ स्तन ।२ भुजा ।२ कुहुनियां ।१ ठोंडी ।२ होठ ।२ सृक्कणी । २ दंतवेष्ट । १ तालु ।१ गलशुण्डिक । २ उपजिह्न।१ गोजिह्विका। २ गण्डस्थल ।२ कर्णशकुलिका।२ कर्णपुत्र । २ अक्षीकूट ।४ अक्षीवर्त्म । २ अक्षीकनीनिका । २ भौंह ।१ गर्दन । २ अथेली ।२ तलंवे । ९ महाछिद्र ।उन नवोमेंसात छिद्र गर्दन से ऊपर और दो नीचेके भागमें॥१२॥
अदृश्य अङ्गोंके नाम।
एतावद्द्दृश्यं शक्यमपिनिर्देष्टुमानिर्देश्यमतः परं तर्क्यमेव तद्यथा नवस्नायुश तानि सप्तशिराशतानि द्वे धमनशिते पञ्च पेशशितानि सप्तोत्तरं मर्मशतं द्वे पुनः सन्धिशते॥१३॥
यह सबअंग दृश्य अर्थात् देखने में आते हैं और बहुत से ऐसे अंग भी हैं जो व्यदृश्य हैं वह केवल तर्कद्वाराही जाने जासकते हैं। जैसे—नौसौ ९०० स्रायु।सातसौ ७०० शिरा।दोसौ २०० धमनिया।पांचसौ ५०० पेशियां।एकसौ सात१०७ मर्म। दोसौ २०० सधियां होती हैं॥१३॥
त्रिंशच्छतसहस्त्राणि नवचरातानि षट्पञ्चाशत्सहस्राणि शिराधमनीनामशःप्रविभज्यमानानां मुखाग्रपरिमाणम्।तावन्ति चैत्र केशश्मनुलोमानीत्येतद्यथावद्यत्संख्यातं त्वक्प्रभृति दृश्यमतः परंतर्क्यम्॥१४॥
इन शिरा और धमनियोके सूक्ष्म विभाग करनेसे इनके मुखाग्रभागका परिमाण अर्थात् संख्या ३० तीस लाख ५६ छप्पन हजार ९ नोसो होती है। उतनेही केश, श्मश्रुऔर रोम होते हैं। इसप्रकार इनकी यथावत् संख्याका वर्णन किया गया है।है त्वचा प्रभृतिजो दीखनमें आते हैं उनको दृश्य कहते हैं तथा अन्यको तर्क्य कहते हैं॥१४॥
एकेतदुभयमपिनविकल्पयन्ते प्रकृतिभावाच्छरीरस्य यत्त्वञ्जलि संख्येयं तदुपदेक्ष्यामः तत्परं प्रमाणमभिज्ञेयं तच्च वृद्धिहासयोगितर्क्यमेव तद्यथादशोदकस्याञ्जलयः शरीरेस्वेनाञ्जलिप्रमाणेयत्तु प्रच्यवमानं पुरीषमनुबध्नाति अतियोगेन। तथामूत्रंरुधिरमन्यांश्च शरीरधातून यत्तु सर्वशरीरचरं बाह्यत्वग्विभर्त्ति यतुत्वगन्तरे व्रणगतं लसीकाशब्द लभते यच्चोष्मणानुबद्धं लोमकूपेभ्यो निष्पतत्स्वेदशब्दमवाप्नोति तदुदकं दशाञ्जलि प्रमाणम्॥१५॥ नवाञ्जलयः पूर्वस्याहारपरिणामधातोर्यद्रसमित्याचक्षते। अष्टौशोणितस्य सप्तपुरीषस्य षट्श्लेष्मणः पञ्चपित्तस्य चत्वारो मूत्रस्य त्रयोवसायाद्वौमेदसः एको मज्ज्ञः। मस्तिष्कस्य अर्द्धाञ्जलिः शुक्रस्य तावदेव प्रमाणं तावदेव श्लेष्मणश्चोजस इत्येतच्छरीर तत्त्वमुक्तम्॥१६॥
कोई कहते हैं कि अंगका विभाग प्रत्यक्ष और अनुमानद्वारा दोनों प्रकार नहीं होसकता। वह शरीरके स्वभावतेही है। शरीरके धातुओंका अंजली द्वारा परिमाण कथन करते हैं। वह परिमाण प्रत्येक मनुष्यकी अपनी अंजलीपर निर्भर है। अत्यंत तीक्ष्ण विरेचन देनेसे जो जल विरेचन द्वारा पुरीषसे मिलकर निकल जाता है वह दश अंजली प्रमाण होता है। तथा जो जल मूत्र द्वारा, रुधिर द्वारा निकलता है एवम्
संपूर्ण शरीरमें विचरण करनेवाला त्वचाको पालन करनेवाला, जो त्वचामें व्रण होजानेसे लसीका कहाजाता है, जो गर्मीके आनेसे रोमकूपों द्वारा निकलता है। यह सब दश अंजली प्रमाण जल होता है।जो आहार किया जाता है उसका परिमाण धातु, रस नौ अंजली होता है। रक्त आठ अंजली होता है। पुरीष सात अंजली होता है। कफ छः अंजली होता है। पित्त पांच अंजली होता है। मूत्र चारअंजली होता है। वसा तीन अंजली होताहै।दोअंजली मेद।एक अंजली मज्जा। आधी अंजली मस्तिष्क। आधी अंजली शुक्र। आधी अंजली श्लेष्मका ओज। इसप्रकार शरीरमें अंजलियोंका प्रमाण जानना॥१५॥१६॥
प्रार्थिव द्रव्योंका वर्णन।
तत्र यद्विशेषतः स्थूलं स्थिरं मूर्तिमद्गुरुखरकठिनमङ्गनखास्थिदन्तमांसचर्मवर्चः केशश्मश्रुनखलोमकण्डरादितत्पार्थि वंगन्धोघ्राणञ्च॥१७॥
उन सब अंगों में जो विशेषकरके स्थूल, स्थिर, मूर्तिमान्, भारी, खर, कठोर, अंग होता है तथा दांत, नख, हड्डी, मांस, चर्म, मल, केश, इम, रोम और कण्डरा आदि पार्थिव अंग होते हैं तथा गंध और घ्राणेन्द्रिय भी पार्थिव अर्थात् पृथ्वीक अंग हैं॥१७॥
आप्यद्रव्यों के नाम।
यद्रवसरमन्दस्निग्धमृदुपिच्छिलरसरुधिरवसाकफपित्तमूत्रखेदादितदाप्यं रसोरसनञ्च॥ १८॥
जो विशेषरूपसे द्रव, सर, मंद, स्निग्ध, मृदु, पिच्छिल, अवयव हैं तथा रस, रुधिर, वसा, कफ, पित्त, मूत्र, स्वेद आदिक जलके अंग हैं। एवम् रस और रसना भी जलके अंग हैं॥१८॥
आग्नेयद्रव्यों के नाम।
यत्पित्तमुष्माचयोयाचभाः शरीरेतत्सर्वमाग्नेयं रूपं दर्शनञ्च॥१९॥
शरीरमें पित्त, उष्णता, प्रकाश, पाचनशक्ति, रूप और दर्शनेन्द्रिय यह सब आग्नेय अर्थात् अग्निके अंग हैं॥१९॥
वायवीय द्रव्योंके नाम ।
यदुच्छ्रास प्रश्वासोन्मेषनिमेषाकुञ्चनप्रसारणगमनप्रेरणधारणादितद्वायवीयं स्पर्शः स्पर्शनञ्च॥२०॥
उच्छास, निःश्वास, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, आकुंचन, प्रसारण, गमन, प्रेरण, धारण और स्पर्श तथा स्पर्शनेन्द्रिय यह सब वायवीय अर्थात् पवनके अंग हैं॥२०॥
आन्तरिक्षद्रव्यों के नाम।
यद्विविक्तमुच्यते महान्ति चाणूनिचस्रोतांसि तदान्तरिक्षं शब्दः श्रोत्रञ्च॥२१॥
शरीरके वडे छोटे सब छिद्र, स्रोत, शब्द और श्रोत्रइन्द्रिय यह सब आकाशके अंग हैं॥२१॥
यत्प्रयोक्तृतत्तत्प्रधानं बुद्धिर्मनश्चेतिशरीरावयवसंख्यायथास्थूलभेदेनावयवानां निर्दिष्टा॥२२॥
जो प्रयोग करनेवाला है उसको प्रयोक्ता कहते हैं। मन और बुद्धि प्रयोक्ता हैं इसलिये प्रधान हैं। इसमकार शरीर के अवयवोकी संख्याका भेद, अवयवोकीस्थूल भेद वर्णन किया गया है ॥ २२ ॥
शरीरावयवास्तु परमाणुभेदेनापरिसंख्येयाभवन्त्यति बहुत्वाददतिसौक्ष्म्यादतीन्द्रियत्वाच्च। तेषां संयोगविभागेवायुः परमाणूनां कारणं कर्मस्वभावश्च तदेतच्छरीरसंव्यातमनेकावयवं दृष्टमेकत्वेन सङ्गः संख्यातम्। पृथक्त्वेनापवर्गः तत्र प्रधानमशक्तं सर्वसत्त्वातिवृत्तौ निवर्त्तते इति॥२३॥
परमाणु भेदसे शरीर के अवयव असंख्य होते हैं क्योंकि वह भेद अत्यंत अधिक, अत्यंत सूक्ष्म और अतीन्द्रिय होते है।उन परमाणुओंके संयोग विभाग में वायु कर्म और स्वभावही कारण होता है। इसप्रकार शरीरकी संख्याका वर्णन कियागया उन अनेक अवयवोंसे बना हुआ यह शरीर एक दिखाई देता है और यह कर्माधीन मोहवश एकत्वके संगको प्राप्त हुआ है। इन सब भावोंकोपृथक् २ विचारनेसे और असंगसे मोक्ष प्राप्त होता है। संपूर्ण अवयवोमें यथोचित दृष्टि देनेसे ज्ञान उत्पन्न होकर संपूर्ण भावोंकी निवृत्ति होजातीं॥२३॥
अध्यायका उपसंहार।
शरीरसंख्यां यो वेदसर्वावयवशोभिषक्। तदज्ञाननिमित्तेन स मोहेननयुज्यते॥२४॥ अमूढोमोहमूलैश्चनदोषैरभिभूयते। निर्दोषोनिः स्पृहः शान्तः प्रशाम्यत्यपुनर्भवः॥२५॥
इति चरकसं० शारीर० शरीरसंख्यः शारीरः समाप्तः ॥ ७ ॥
यहांपर अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं। जो वैद्य संपूर्ण अवयवोंसे शरीरकी संख्याको जान लेता है वह अज्ञान निमित्तक मोहसे युक्त नहीं होता। वह बुद्धिमान् मूढतारहित मोहमूलक दोषोंसें दूषित नहीं होसकता तथा निर्दोष, निस्पृह और शान्तिको प्राप्त होकर मोक्षको प्राप्त होता है॥२४॥२५॥
इति श्रीमहर्षिचरक० शारीरस्थाने भाषाटीकाया शरीरसंख्याशारीरं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
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अष्टमोऽध्यायः।
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अथातो जातिसूत्रीयं शारीरं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम जातिसूत्रीय शारीरकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
उत्तम संतानहोनेका उपाय।
स्त्रीपुरुषयोरव्यापन्नशुक्रशोणितयो निगर्भाशययोः श्रेयसीं प्रजामिच्छतोस्तन्निर्वृत्तिकरं कर्मोपदेक्ष्यामः॥१॥
स्त्री और पुरुषका रज, वीर्य, योनि और गर्भाशय निर्दोष होनेपर उत्तम संतानउत्पन्न करनेकी इच्छावाले स्त्री पुरुषोंको जो कर्म करना चाहिये उसका वर्णनकरते हैं॥१॥
अथाप्येतौ स्त्रीपुरुषौ स्नेहस्वेदाभ्यामुपपाद्यवमनविरेचनाभ्यां संशोध्यक्रमात्प्रकृतिमापादयेत्संशुद्धौचास्थापनानुवासनाभ्यामुपाचरेदुपाचरेच्चमधुरौषधसंस्कृताभ्यां घृतक्षीराभ्यां पुरुषं स्त्रियन्तुतैलमांसाभ्याम्॥२॥
प्रथम स्त्री और पुरुष स्नेहन स्वेदनसे शरीरको नरम बनाकर क्रमपूर्वक वमन, विरेचन द्वारा संशोधनकर शरीरको उत्तम बनावे और दोषादिकोंसे शुद्ध शरीर होनेपर मधुर द्रव्योंसे और घृत दूधसे पुरुषको आस्थापन और अनुवासन करे। स्त्रीको तैल और मांसरससे अनुवासन करे॥२॥
स्त्रीपुरुषका कर्त्तव्य कर्म।
ततः पुष्पात्प्रभृतित्रिरात्रमासीद्ब्रह्मचारिण्यधः शायिनीपाणिभ्यामन्नमजर्जरपात्रे भुञ्जानानचकाञ्चिदेवमृजामापद्येत॥३॥
इनके अनन्तर जब स्त्री ऋतुमती हो तो जिस समय से रजोदर्शन हो उसी समय से तीन रात्रितक ब्रह्मचर्य में स्थित रहे और पृथ्वीमें शयन करे, पुराने बर्तन अथवा मट्टीके पात्र में या हार्थोपर लेकर भोजन किया करे किसीसे स्पर्श न करे और किसी प्रकारका भी अहित कार्य न करे॥३॥
ततश्चतुर्थेऽहन्येनामुत्साद्यसशिरस्कंस्नापयित्वाशुक्लानिवासां स्याच्छादयेत्पुरुषञ्च॥४॥
इसके अनन्तर चौथे दिन शरीरमें तैलकी मालिशकर उबटन लगा शिरसहित स्नान करे। स्वच्छ सुन्दर वस्त्र तथा फूलमाला आदि धारणकरे। और पुरुषकोभी स्नानकग गंधादि लेपनकरा, श्वेत स्वच्छ वस्त्रोंको धारण करावे॥४॥
ततः शुक्लवाससौचस्रग्विणौ सुमनसावन्योन्यमभिकामौ संवसेतामिति ब्रूयात्॥५॥
फिर वैद्य इन दोनो शुद्ध पवित्र वस्त्र धारण कियेहुए फूलमालासे विभूषित शुद्धमनवाले, परस्पर सहवासकी इच्छावाले स्त्री पुरुषोसे कहे कि तुम दोनों संतानकी कामनासे जाकर सहवास करो॥५॥
स्त्रीसहवासकरनेके दिन।
स्नानात्प्रभृतियुग्मेष्वहः सुसंवसेतां पुत्रकामौ तौ चाग्मेषु दुहितृकामौ॥६॥
स्नान के दिनसे अर्थात् चौथे दिन के उपरान्त युग्म ( ६, ८, १२, १४) रात्रियों में पुत्रकी कामनासे सहवास करे। अर्थात् इन रात्रियोंमें गमन करनेसे पुत्र उत्पन्न होताहै। और अयुग्म अर्थात् (५, ७, ९, ११, १३, १५) इन रात्रियों में गमनमें करनेसे कन्या उत्पन्न होतीहै॥६॥
सहवासकी विधि ।
नचन्युव्याजां पार्श्वगतां वासं सेवेत। न्युब्जायावातो बलवान्सयोर्निपीडयति। पार्श्वगतायादक्षिणे पार्श्वे श्लेष्मासंच्युतोऽपिदधातिगर्भाशयम्। वामे पार्श्वो पित्तं तदस्यां पीडितं विदहतिरक्तशुक्रं तस्मादुत्तानासतीबीजं गृह्णीयात्। तस्याहि यथा स्थानमवतिष्ठन्ते दोषापर्य्याप्ते चैनां शीतोदकेन परिषिञ्चेत्॥७॥
स्त्री औंधी लेटकर अथवा वामे दहिने करवट लेकर सहवास न करे। क्योंकि औंधी होनेसे बलवान् वायु योनिको पीडन करता है।दहिने पंसवाडे करवटलेकर
सहवास करनेसे कफ टपककर गर्भाशयको आच्छादन कर देता है। और बायीं करनेसे पीडित हुआ पित्त रज और शुक्रको दूषितकर देता है इसलिये सीधी उत्तान लेटकर पुरुषके वीर्यको ग्रहण करे। ऐसा होनेसे संपूर्ण दोष अपने २ स्थानों में स्थित रहते हैं। गर्भ ग्रहण करनेके एक प्रहर बाद शीतलजलसे अपने नेत्रों, मुख तथा योनिको धोवे॥ ७ ॥
गर्भधारणके अयोग्य स्त्री।
तत्रात्यशिताक्षुधितापिपासिताभीताविमनाः शोकार्त्तुक्रुद्धाचान्यञ्च पुमांसमिच्छन्ती मैथुने चातिकामावानारीगर्भं न धत्ते विगुणां वा प्रजां जनयति॥८॥
गर्भाधान में इसप्रकारकी स्त्री निषिद्ध होती है। जिसने अधिक भोजन कियाहों अथवा भूखी, तृपातुर, भयभीत, जिसका चित्त मैथुन में न हो या अन्यमकारसे मन बिगडाहो, शोक अथवा क्रोधवाली, दूसरे पुरुषकी इच्छा रखनेवाली एवम् जो मैथुनसे तृप्तही न होतीहो। ऐसी स्त्रियें गर्भको धारण नहीं करतीं। अर्थात् इनको गर्भ नहीं रहता यदि रहे भी तो कुरूप, और विगुण संतान उत्पन्न होती है॥८॥
अतिबालामतिवृद्धां दीर्घरोगिणीमन्येन वा विकारेणोपसृष्टां वर्जयेत्॥९॥
अत्यन्त छोटी अवस्थाकी, अत्यन्त वृद्धा, जिसके शरीर और योनिपर अत्यन्त बाल हों अथवा और किसी विकारसे युक्त हो ऐसी स्त्री मैथुन में त्याज्य है॥९॥
पुरुषेऽप्येत एव दोषाः। अतः सर्वदोषवर्जितौ स्त्रीपुरुषौ संसृज्येयाताम्॥१०॥
पुरुषमें भी यदि इसीप्रकार कोई दोष हो तो उसको भी मैथुनमें त्यज्य जानना इसलिये संपूर्ण दोषोंसे रहित स्त्री पुरुषोंको संतानकी कामनासे मैथुन करना चाहिये॥१०॥
स्त्रीगमनविधि ।
सञ्जातहर्षोमैथुने चानुकूलाविष्टगन्धं सास्तीर्णं सुखं शयनमुपकल्प्यमनोज्ञं हितमशनमशित्वादक्षिणपादेन पुमान्वामपादेनस्त्री चारोहेत्तत्र मंत्र प्रयुञ्जीत (अहिरसि आयुरसिसर्वतः प्रतिष्ठासिधातात्वादधातुविधातात्वादधातुब्रह्मवर्च्चसाभवेदिति॥ ब्र-
ह्माबृहस्पतिर्विष्णुः सोमः सूर्य्यस्तथाश्विनौ। भगोऽथ मित्रावरुणौ पुत्रं वीरं दधातु मे॥११॥१२॥) इत्युक्त्वासंवसेताम्॥१३॥
स्त्री और पुरुष हर्षसहित मैथुनाभिलाषी प्रीतिपूर्वक दोनो सुन्दर सुसज्जित ऐसी शय्यापर जिसमें तकिया, स्वच्छ चद्दर, तथा गद्दा बिछाहो मनको प्यारी लगनेवाली हो ऐसी शय्याषर पुरुष दहिने पांवसे और स्त्री पहिले वामपांव से आरोहित होवें। (इन स्त्री पुरुषोंके उसदिन हितभोजन करना चाहिये।) फिर उस शय्यापर दोनों बैठकर इस मंत्र को पढे। “अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठासि" मादि “पुत्रं वीरं दधातु मे" पर्यन्त।ऊपरके मूलमें लिखेहुए मंत्रको पढकर शयनकरे॥११॥१२॥१३॥
उत्तम पुत्र उत्पन्न करनेकी विधि।
सा चेदेवमासीतबृहन्तमवदातं हर्थ्यक्षमोजस्विनं शुचिं सत्त्वसम्पन्नं पुत्रमिच्छेयमिति। शुद्धस्नानात् प्रभृत्यस्यैमन्थमवदातं यवानां मधुसर्पिभ्यां संसृज्यश्वेतायागोः सरूपवत्सायाः पयसालोड्यराजतेकांस्ये वा पात्रे काले काले सप्ताहं सततं प्रयच्छेत्पानायप्रातश्च शालियवान्न विकारान्दधिमधुसर्पिर्भिः पयोभिर्वा संसृज्यभुञ्जीत॥ १४॥
यदिउस स्त्रीको गौरवर्ण, सिंहके समान पराक्रमी, तेजस्वी, पवित्र, सत्वसंपन्न पुत्र उत्पन्नकरनेकी इच्छा हो तो ऋतुस्नानसे शुद्ध होकर यवके सत्तुओका मंथ बना, मधु घृतयुक्तकर, सफेदरंग के बछडेवाली सफेद गौके दूध के साथ चांदी या कांसे के पात्र में घोलकर नित्यम्मति प्रातःकाल सावरोजतक पीया करे और भोजन भी शालिचावल, यवके मैदेसे बना हुआ पदार्थ, दही, मधु, घृत, दूध इन सबको मिलाकर खाया करे॥१४॥
तथा सायमवदातशरणशयनासनयानवसनभूषणवेषा च स्यात्॥१५॥
फिर सायंकालमेंसुन्दर सुसज्जित घरमें उत्तम शय्या, आसन आदिपर आराम करे एवम् उत्तम वस्त्र, भूषण और वेषको धारण करे॥१५॥
सायं प्रातश्च शश्वत्श्वेतं महान्तम् ऋषभम्आ जानेयं हरिचन्दनाङ्कितं पश्येत्। सौम्याभिश्चैनां कथाभिर्मनोऽनुकूलाभिरुपासीत। सौम्याकृतिवचनोपचारचेष्टांश्च स्त्रीपुरुषानितरानपिचेन्द्रि-
यार्थानवदातान्पश्येत्। सहचर्य्यश्चैनां प्रियहिताभ्यां सततमुपचरेयुः तथा भर्त्तानचमिश्रीभावमापद्येयाताम्॥१६॥
तथा सायंकाल और प्रातःकाल नित्य सफेदवर्णके वडेभारी बैलको और पीले चंदनसे चर्चित हुए उत्तम सफेद घोडेको देखा करे। और उस स्त्रीके चित्तको सुन्दर, मनोहर, पवित्र वचन, उपचार, चेष्टा आदिसे प्रसन्न रक्खे। तथा पुरुषका भी ऐसाही आचरण रहना चाहिये। एवं इन दोनोंका सुन्दर दैवी वस्तुओंका दर्शन कराना चाहिये। इस स्त्रीके समीप रहनेवाली उत्तम सहचारिणी स्त्रियें उसको हित और प्रिय आचरणसे सेवा करती रहें। और इन सातदिनों में उस स्त्रीका पति भी उत्तम आचारोंका सेवनकरे परन्तु यह दोनों आपस में सहवास न करें॥१६॥
इत्यनेन विधिना सप्तरात्रं स्थित्वाष्टमेऽहन्याप्लुत्याद्भिः सशिरस्कं सह भर्त्रातानिवस्त्राणि आच्छादयेदवदातानि अवदाताश्च स्रजो भूषणानि विभूयात्॥१७॥
इस विधीसे सात रात्रि व्यतीत होनेके अनन्तर आठवें दिन प्रातःकाल शिरसहित स्नानकर यह दोनों स्त्री पुरुष पवित्र सुन्दर नवीन वस्त्रोंको धारणकर उत्तम भूषण और सुन्दर फूलोंकी मालाओंको धारणकरें॥१७॥
उत्तमपुत्र के लिये हवन विधि ।
तत ऋत्विवप्रागुत्तरस्यां दिशि अगारस्य प्राक्प्रवणमुदक्प्रवर्ण वा प्रदेशमभिसमीक्ष्यगोमयोदकाभ्यां स्थण्डिलमुपसंलिप्यप्रोक्ष्य चोदकेन वेदिमस्मिन्स्थापयेत्। तां पश्चिमे नाना हतवस्त्रसञ्चये श्वेतार्षभेवाप्यजिन उपविशेद्व्राह्मणप्रयुक्तो राजन्यप्रयुक्तस्तुवैया घ्रेचर्मण्यानुडुहेवावैश्यप्रयुक्तस्तुरौरवेवास्ते वा। तत्रोपविष्टः पालाशीभिरैगुदीभिरौदुम्बरीभिर्माधूकीभिर्वासमिद्भिरग्निमु पसमाधायकुशैः परिस्तीर्थ्यपरिधिभिश्च परिधायलाजैः शुक्लाभिश्च गन्धवतीभिः सुमनोभिरुपकिरेत्। तत्र प्रणीयोदपात्रं पवित्रं पूतमुपसंस्कृत्य सर्पिराज्यार्थयथोक्तवर्णानाजानेयादीन्समन्ततः स्थापयेत्॥१८॥
फिर ऋत्विज (यज्ञकरानेवाला पुरोहित) पूर्वकी दिशामें अथवा उत्तरकी दिशामें या घरसे जिस ओर जल पूर्व या उत्तरको ढलताहो उस स्थान में गोवरसे लीपकर वेदीको चनावे।उस वेदीको जलसे छिड़ककर ग्रहादिकोंको यथास्थान स्थापित करे। फिर उस स्त्रीको वेदीसे पश्चिमकी ओर शुद्ध विच्छेहुए वस्त्रके ऊपर या सफेद वृषभ के अजिनके ऊपर अथवा मृगछालापर बिठावे।ब्राह्मण हो तो इस विधि से बिठावे, क्षत्री हो तो व्याघ्र के चर्मपर, वैश्य होय तो रुरु मृगके चर्मपर अथवा बकरेके चर्मपर बिठावे। फिर पलाश, इंगुदी, औदुम्बर महुआ आदिकी समिधोंसे अग्निको स्थापन करे और कुशकण्डी कर्म विधिसे कुशाको विस्तीर्ण करे।फिर वेदीकी परिधि स्थापन होनेके अनन्तर सफेद धानकी खील, सफेद सुगंधित फूलों से स्वस्तिवाचनपूर्वक वेदीको सुशोभित करे एवम्प्रणीता पात्र, उदकपात्र, पवित्रा, पवित्र घृतपात्र तथा पुत्रेष्टी यज्ञविधिसे वरण आदि संपूर्ण सामग्रीको विधिवत् स्थापन करे॥१८॥
ततः पुत्रकामापश्चिमतोऽग्निं दक्षिणतो ब्राह्मणमुपवेश्य अन्वालभेत सह भर्त्रायथेष्टं पुत्रमाशासाना। ततः तस्या आशासानाया ऋत्विक्प्रजापतिमभिनिर्दिश्ययोनौतस्याः कामपरिपूरणार्थं काम्यामिष्टिं निर्वपेद्विष्णुर्योनिं कल्पयत्वित्यन्वयार्च्चाततश्चैवाज्येनस्थालीपाकमभिसंसार्य्यत्रिर्जुहुयात्। यथाम्नायञ्चोपमन्त्रितमुदकपात्रं तस्यैदद्यात् सर्वोदकार्थान्कुरुष्वेति॥१९॥
इसके अनन्तर इस पुत्रकी कामनावाली स्त्रीको अग्निसे पश्चिमकी ओर और ब्रह्माको अग्निसे दक्षिण और स्थापन करे। और उस स्त्रीके भर्ताको यथेष्ट पुत्रके उत्पन्न होनेकी इच्छा से इसके पास बैठावे। फिर आचार्य प्रजापति के उद्देशसे अथवा “प्रजापति” आदि मंत्रका निर्देशकर उस स्त्रीके पतिका हाथ स्त्रीकी योनिसे स्पर्श कराकर “विष्णुर्योनि कल्पयतु” इसको पढते हुए पुत्रेष्टी यज्ञ करावे और घृतके साथ चरू मिलाकर स्थालीपाक वनाकर तीनवार हवन करावे।फिर वेदोक्त मंत्रोसे उपमंत्रित किया हुआ जलपूर्ण कलश उस स्त्रीको देवे। और यह कहे कि, संपूर्ण जलके कार्य इस जलसे करना॥१९॥
यज्ञके अंतमें कर्म।
ततः समाप्ते कर्मणि पूर्वं दक्षिणपादमभिहरन्ती प्रदक्षिणमग्निमनुपरिकामेत्ततो ब्राह्मणान्स्वस्तिवाचयित्वा सह भर्त्राऽऽज्यशेषं प्राश्नीयात्। पूर्वं पुमान्पश्चात्स्त्री न च उच्छिष्टमवशेषयेत्ततस्तौस-
ह संवसेतामष्टरात्रं तथा विधपरिच्छदावेव च स्यातां तथेष्टपुत्रं जनयेताम्॥२०॥
फिर इस कर्मके समाप्त होनेके अनन्तर पहिले दक्षिण पावोको आगे रखतीदुई अग्निकी क्रमपूर्वक प्रदक्षिणा करे। फिर ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर यज्ञसे बचे हुए घृतको और स्थालीपाक चरूको पतिसहित स्त्री भक्षण करे अर्थात् पहिले उसको पति भक्षण करे फिर स्त्री भक्षण करे। परन्तु उसमें से बाकी जूठा न छोडे। फिर वह इस आंठवीं रात्रि में पूर्वोक्त उत्तम शय्यापर पूर्वोक्त विधीसे सहवास करावे।इसप्रकार करनेसे इच्छानुरूप पुत्र उत्पन्न होता है॥२०॥
यातुस्त्रीश्यामं लोहिताक्षं व्यूढोरस्कंमहाबाहुं पुत्रमाशासीत। यावाकृष्णं कृष्णमृदुदीर्घकेशं शुक्लाक्षं शुक्लदन्तं तेजस्विनमात्मवन्तम् एष एवानयोरपिहोमविधिः किन्तुपरिबर्हवर्णवज्यं स्यात् पुत्रवर्णानुरूपस्तु यथा शीरेवतयोः परिबर्होऽन्यः कार्य्यः स्यात्॥२१॥
जिस स्त्रीको लालनेत्र, श्यामवर्ण, बडे २ कंधे, विशाल छाती और महाबाहु पुत्र के उत्पन्न करनेकी इच्छा हो अथवा कृष्णवर्ण नम्र, दीर्घ कालेकेशोंवाले श्वेत नेत्रोंवाले, श्वेत दंत पंक्तीवाले, तेजस्वी, ज्ञानसंपन्न पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छा हो तो इन दोनों स्त्री पुरुषोंको उपरोक्त विधिसे यज्ञ करना चाहिये । परन्तु श्वेतवस्त्र और श्वेतचर्म आदिकोंको त्यागकर जैसा पुत्र उत्पन्न करना हो उसीके अनुरूप भोजन, परिवर्धन होम आदि करना चाहिये॥२१॥
द्विजेभ्यः शूद्रातुनमस्कारमेव कुर्य्याद्देवगुरुतपस्वि सिद्धेभ्यश्च॥२२॥
शूद्रकी स्त्रीको वेदोक्त मंत्रोंसे यज्ञ करनेका निषेध है इसलिये वह देवता गुरु तपस्वी सिद्ध और ब्राह्मणों को नमस्कारपूर्वक पुत्रेष्ठिको करे॥२२॥
या या च यथा विधं पुत्रमाशासीततस्यास्तस्यास्तां तां पुत्राशिषमनुनिशम्यतां स्ताञ्जनपदानां मनुष्याणामनुरूपं पुत्रमाशाशीतसा तेषां तेषां जनपदानामाहारविहारोपचारपरिच्छदाननुविधीयस्वेतिवाच्या स्यात्। इत्येतत्सर्वपुत्राशिषांसमृद्धिकरंकर्मव्याख्यातंभवति ॥ २३ ॥
** **जो जो स्त्री पुरुष जैसे जैसे पुत्रोंको उत्पन्न करनेकी इच्छा करतेहों उसी उसी प्रकार ब्राह्मणोंके आशीर्वादों को श्रवण करें तथा तदनुरूप मनसे स्मरण करें और जिस २
देशके मनुष्योंके जैसे २ पराक्रमी पुत्रोंको उत्पन्न करना चाहे वैसे २ देश, आहार विहार उपचर्या वस्त्र शय्या आदिकोंका सेवनकरे। ऐसा करनेसे उनकी इच्छानुसार संतान उत्पन्न होती है इसप्रकार इच्छानुरूप पुत्रके उत्पन्न करनेकी शिक्षा और समृद्विका करनेवाला कर्म कथन कियाजाताहै॥२३॥
न तु खलु केवलमेतदेवकर्मवर्णानां वैशेष्यकरमपि तु तेजो धातुरप्युदकान्तरिक्षधातुप्रायोऽवदातवर्णकरो भवति। पृथिवीवायुधातुप्रायः कृष्णवर्णकरः समसर्वधातुप्रायः श्यामवर्णकरः॥२४॥
स्त्रीकी इच्छानुरूप पुत्रका वर्ण रूप होनेमें केवल इतनाही नहीं किन्तु और भी ऐसे भाव होते हैं जो पुत्रके श्याम गौर ब्यादि वर्णको उत्पन्न करते है जैसे—तेजधातु और उदकधातु तथा अंतरिक्षधातु अधिक होनेसे गौरवर्ण होता है। पृथ्वी और वायु धातु अधिक होनेसे कृष्णवर्ण होता है। सबधातुये समान होनेसे श्यामवर्ण होताहै॥२४॥
सत्त्वभेदका कारण।
सत्त्ववैशेष्यकराणि पुनस्तेषां तेषां प्राणिनां मातापितृं सत्त्वान्यन्तर्वत्न्याः श्रुतयश्चाभीक्ष्णं स्वोचितञ्च कर्मसत्त्वविशेषाभ्यासश्चेति॥२५॥
अब गर्भके मनके विषयमें श्रवण करो।जैसे माता और पिताका गर्भाधानके समय जैसा मन होता है वैसाही संतानका भी मन होता है। तथा गर्भवती स्त्री जिस प्रकारके नित्यम्प्रति कथा आदि श्रवण किया करे और जिसप्रकारके कर्मोमें चित्त लगाय रक्खे प्रायः गर्भका मन उसीप्रकारका होताहै॥२५॥
यथोक्तेन विधिनोपसंस्कृतशरीरयोः स्त्रीपुरुषयोस्तुमिश्रीभावमापन्नयोः शुक्रं शोणितेन सह संयोगे समेत्याव्यापन्नमव्यापनेन
योनावनुपहतायामप्रदुष्टेगर्भाशये गर्भमभिनिर्वर्त्तयति एकान्तेन। यथा निर्मले वाससीसु परिकल्पते रञ्जनं समुदित गुणमुपनिपातादेवरागमभिनिर्वर्त्तयतितद्वत्।यथा वा क्षीरं दध्नाभियुतमभिषवणाद्विहायस्वभावमापद्यते दधिभाशुक्रं तद्वत्॥२६॥
पूर्वोक्त विधिसे संस्कार किये हुए शरीरोवाले स्त्रीपुरुषका जब विधिवत् आपसमें संयोग होता है तबदोषरहित पुरुषके वीर्य और स्त्रीके रजका संयोग होकर गर्भ उत्पन्न होजाता है। यदि योनिमें किसीमकारका विकार न हो और गर्भाशय शुद्ध हो एवम्
रज वीर्य भी निर्दोष हों तो अवश्यही स्त्री गर्भको धारण कर लेतीहै। जैसे निर्मल वस्तुमें जिसप्रकारका रंग चढाना चाहते हो उसीप्रकारका रंग वस्तुको रंगमें डालतेही चढजाता है। उसीप्रकार शुद्ध शुक्र और रजके संयोगसे गर्भाशय झट गर्भको धारणकर लेताहैं। जैसे दूध दहीके साथ मिलजानेसे अपने स्वभावको छोड दहीके अनुरूप होजाता है उसी प्रकार वीर्य भी शुद्ध रजके संयोगसे गर्भाशय में प्राप्त हो गर्भको प्रगरकर देता है॥२६॥
एवमभिनिर्वर्त्तमानस्य गर्भस्य तु स्त्रीपुरुषत्वेहेतुः पूर्वमुक्तः॥२७॥
इसप्रकार गर्मके उत्पन्न करने में जिसप्रकारके स्त्रीपुरुष होने चाहिये सो पहिले कथनकर चुके हैं॥२७॥
यथा हि बीजमनुपतप्तमुप्तं स्वां स्वां प्रकृतिमनुविधीयते ब्रीहिर्वा ब्रीहित्वं यवोवायवत्वं तथा स्त्रीपुरुषावपि यथोक्तं हेतु विभागमनुविधीयते॥२८॥
जैसे जो २ बीज बोया जाय वह अपनी अपनी प्रकृतिके अनुरूप उत्पन्न होता है। जैसे धानका बीज धानको उत्पन्न करता है।यवसे यव उत्पन्न होता है और वह भी बीज, पृथ्वी तथा समयके अनुरूप होता है उसीप्रकार स्त्रीपुरुषोंके बीजके अनुरूप संतान होती है॥२८॥
तयोः कर्मणा वेदोक्तेन विवर्त्तनमुपदिश्यते प्राग्व्यक्तीभावात्॥२९॥
उन स्त्रीपुरुषोंको गर्भके प्रगट होनेसे पहिले जिसप्रकारका वर्त्ताव करना चाहिये उनको वेदोक्तरीतिसे वर्णन करते हैं॥२९॥
प्रयुक्तेन सम्यक्कर्मणां हि देशकालसम्पदुपेतानां नियतमिष्टफलत्वं तथेतरेषामितरत्वम्। तस्मादापन्नगर्भां स्त्रियमभिसमीक्ष्य प्राग्व्यक्तीभावाद्दर्भस्य पुंसवनमस्यैदद्यात्॥३०॥
जो कर्म जैसे देश, जैसे समयमें जैसी सामग्रीसे विधिवत् किया जाता है उसका वैसा फल होता है। इसलिये जोकर्म उत्तम रीतिसे उत्तम सामग्रीद्वारा उत्तम समयपर कियाजाता है उसका उत्तम फल प्राप्त होता है तथा इसके विपरीत करनेसे उसका अनिष्ट फल प्राप्त होता है। अतएव गर्भवती स्त्रीको दूसरे महीने में पुंसवन कर्म करना चाहिये॥३०॥
पुंसवनविधि।
गोष्टे जातस्यन्यग्रोधस्य प्रागुत्तराभ्यां शाखाभ्यां शुङ्गेऽनुपहते
आदाय द्वाभ्यां धान्यमाषाभ्यां सम्पदुपेताभ्यां गौरसर्षपाभ्यां वासहदध्निप्रक्षिप्यपुष्येऋक्षे पिबेत् ॥ ३१ ॥
गौओंके विश्राम करनेकी जगहके वट वृक्षोका जो टहना पूर्व और उत्तरकी ओरहो उसमेंसे निर्दोष उत्तम दो शूंग (अंकुर या कली) तोडलावे और दो स्वच्छ मोटे" चावल तथा दो उडद उन दोनो अंकुरोमें मिलाकर अथवा दो सफेद सरसोके दाने मिलाकर दहींमे मिलाकर वह गर्भवती स्त्री पुष्यनक्षत्र में पीवे॥३१॥
तथैव अपराञ्जीवकर्षभकापामार्गसहचरकल्कांश्च युगपदेकैकशोयथेष्टं वाष्युपसंस्कृत्यपयसां॥३२॥ कुड्यकीटकं मत्स्यकञ्चोदकाञ्जलौ प्रक्षिप्यपुष्येणपिबेत्॥३३॥
अथवा जीवक, ऋषभक, सफेद अपामार्ग, सफेद सहचर, इन सबका कल्क बना अथवा इनमें से किसी एकका कल्क बनाकर गौके दूधके संग पुष्य नक्षत्र में पानकरे अथवा कुड्यकीट (दीवारमेहोनेवाला धन्वी कीट विशेष) उसको अथवा छोटीसी मछलीको पुष्यनक्षत्र में एक अंजली जलके साथ पीवे॥३२॥३३॥
तथा कनकमयान्राजतानायसांश्च पुरुषकानग्निवर्णाननुप्रमाणान्दध्नि पयसि उदकाञ्जलौवाप्रक्षिप्यपिबेदनवशेषतः पुष्येण॥३४॥
अथवा सुवर्ण, चांदी या लोहेकी उत्तम भस्म लेकर अपने अग्नि, वर्णके समान सूक्ष्म मात्रासे दही अथवा दूध या एक अंजली जलके साथ पुष्यनक्षत्रमें पीवे। (वाग्भटने लिखा है कि सोने चांदी अथवा लोहेका एक छोटासा पुरुष बना उसको अग्निमें तपा एक अंजली जलमें अथवा दूध या दहीमें बुझाकर उस जल या दूध दहीको पीवे)॥३४॥
पुष्योद्धृतलक्ष्मणामूलस्य पयसा पुत्रकामोऽस्य दक्षिणनासापुटे कन्याकामस्य वामनासापुटे सिंचेत्। एवं श्वेतकंटकार्यारससिंचनेन पुत्रावाप्तिः। पुष्येणैव च पिष्टस्य पच्यमानस्योष्माणमुपघ्रायतस्यैवचपिष्टस्योदकसंसृष्टस्य रसं देहलीमुपनिधायदक्षिणेनासापुटे स्वयमासिञ्चेत्पिचुना॥३५॥ इति पुंसवनानियच्चान्यदपि ब्राह्मणाब्रूयुराप्ता वा पुंसवनमिष्टंतच्चानुष्ठेयम्॥३६॥
अथवा पुष्यनक्षत्र में उखाडीहुई लक्ष्मणाकी जडको दूध में घोटकर पुत्रकी इच्छावाली स्त्री नाकके दहिने नथने और कन्याकी कामनावाली बायें नथने द्वारा पीछे। या नस्य के प्रकारसे टपकावे। इसीप्रकार रविवार पुष्य में उखाडीहुई सफेद कटेलीका रस भी पुत्रको देनेवाला होता है। लक्ष्मणाकी पुष्य नक्षत्र में उखाडी हुई जडको दूध में पीसकर उसके रसको वा दूधमें पकाकर उसकी भांफको सूर्यके सामने प्रातःकाल खडे हो नासिकाद्वारा संचे अथवा केवल लक्ष्मणाको पीस उसका रस निकाल पूर्वको मुखकर अपने दक्षिण नयनेमें घरकी देहलीपर खडे होकर अपने हाथसेही टपकावे। यह सब कर्म अथवा अन्य पुंसवन कर्म ब्राह्मणोंके और आप्तपुरुषोंके आज्ञानुसार अनुष्ठान करने चाहिये॥३५॥३६॥
गर्भस्थापन औषध।
अत ऊर्द्धं गर्भस्थापनानि व्याख्यास्यामः॥३७॥
अब गर्भके स्थापन करनेकी विधिको कथन करते हैं॥३७॥
ऐन्द्रीब्राह्मीशतवीर्य्यासहस्त्रवीर्य्या अमोघा अव्यथाशिवाबला अरिष्टावाट्यपुष्पीविष्वक्सेनाकान्ता च आसामोषधीनां शिरसा दक्षिणेन पाणिनाधारणमेताभिश्चैव सिद्धस्य पयसः सर्पिषो वा पानमेताभिश्चैव पुष्ये पुष्ये स्त्रानं सदा चैताभिः समालभेत॥३८॥ तथा सर्वा सांजीवनी योक्तानामोषधीनां सदोषयोगस्तैस्तैरुपयोगविधिभिरिति गर्भास्थापनानि व्याख्यातानि भवन्ति॥३९॥
इन्द्रायण, ब्राह्मी (वाढंगी, हुलहुल अथवा ब्राह्मी बूटी) सफेद दूब, काली दूब, अमोघा, अव्यथा (गेंदा) हरड, बला, नीम, कुटकी, गंगेरण, प्रियंगु, शतावर इन औषधों में से किसी एक औषधीको पुष्यनक्षत्र में उखाडकर उसके स्वरसको दक्षिण हाथसे दहिनी नासामें टपकावे और शिरको दहिनी और दहिने हाथ से धारणकर रक्खे तथा इन्हीं सब औषधियों के साथ सिद्ध किये हुए दूध और घृतको पानकरे। एवम् इन्हींसे औटाये जलसे हरएक पुष्य नक्षत्र में स्नान किया करे इनके उपयोगसे गर्भस्थापन होता है। अथवा जीवनीयगणकी संपूर्ण औषधोंके उपयोगसे सिद्ध किये दूध, घृत आदिक और पूर्वोक्त विधानसे पुष्यनक्षत्र में सब उपयोग करनेसे गर्भस्थापन होताहै॥३८॥३९॥
गर्भनाशक भाव।
गर्भोपघातकरास्त्विमेभावा भवन्ति तद्यथा उत्कटुकविषमस्थानं
कठिनासनसेविन्यावातमूत्रपुरीषवेगानुपरुन्धत्यादारुणानुचितव्यायामसेविन्यास्तीक्ष्णोष्णातिमात्रसेविन्याः प्रमिताशनसेविन्यागर्भो म्रियतेऽन्तः कुक्षेरकालेवास्रंसते शोषी वा भवति॥४०॥
गर्भके उपघात करनेवाले यह भाव हैं। जैसे-गर्भवती स्त्रीका उत्कट रीतिसे बैठना व्यथवा ऊंचेनीचे तथा विषमस्थानमें फिरना, कंठिन आसन आदि से बैठना, वात, मूत्र और पुरीषके वेगको रोकना, दारुण और अनुचित परिश्रम आदि करना, तीक्ष्ण तथा ऊष्ण द्रव्योंका अधिक सेवन करना, बहुत भूखे रहना इत्यादि कारणोंसे गर्भ कुक्षीमही मरजाता है अथवा स्राव होजाताहै या सूखजाता है॥४०॥
तथाभिघात प्रपीडनैः श्वभ्रकूपप्रपातदेशावलोकनैर्वाभीक्ष्णं मातुः प्रपतत्यकाले। तथातिमात्रसंक्षोभिभिर्यानैरप्रियातिमात्रश्रवणैर्वा। प्रततोत्तानशायिन्याः पुनर्गर्भस्य नाभ्याश्रयानाडीकण्ठमनुवेष्टयति॥४१॥
इसप्रकार चोट आदि लगनेसे, किसीप्रकार से गर्भके दबजानेसे तथा अत्यंत भयंकर, गढे, कूप, पहाडके विकट गिरेहुए किनारोंका देखना आदि भयकारक स्थानोंको देखने से भी गर्भपात होजाता है। अथवा गर्भवतीके शरीरमें किसीप्रकार अत्यंत हलचल होजानेसे वा किसी विकट सवारीपर चढनेसे एवं अत्यंत भयंकर और बहुत ऊंचा शब्द सुनने से भयंकर अप्रिय शब्द के सुननेसे भी अकालमें गर्भपात होजाता है। और सदैव सीधी उत्तान पडी रहनेसे गर्भकी नाभिसे आश्रित नाडी गर्भके कण्ठमें लिपट जातीहै। इसलिये गर्भका उपघात होता है॥४१॥
विवृतशायिनीनक्तञ्चारिणीचोन्मत्तं जनयत्यपस्मारिणं पुनः कलिकलहाचारशीला। व्यवायशीलादुर्वपुषमहीकंस्त्रैण वा शोकनित्याभीतमपचितमल्पायुषं वा। अभिध्यात्रीपरोपतापिनमीर्ष्युंस्त्रैणं वा तेनात्यायासबहुलमतिद्रोहिणमकर्मशीलं वा। अमर्षिणीचण्डमौपाधिकमसूयकं वा। स्वप्ननित्यातन्द्रालुमवुधमल्पाग्निं वा। मद्यनित्यापिपासालुमनवस्थितचित्तं वा। गोधामांसप्रियाशर्करिणमश्मरिणं शनैर्शर्मेहिनिं वा। वराहमांसप्रियारक्ताक्षंकथनमनतिपरुपरोमाणं चा। सत्स्यमांसनित्याचिरनि-
मिषं स्तब्धाक्षंवा। मधुरनित्याप्रमेहिणं मूकमग्निस्थूलं वा। अम्लनित्यारक्तपित्तिनंत्वगक्षिरोगिणं वा। लवणनित्याशीघ्रबलीपलितखालित्यरोगिणं वा कटुकनित्यादुर्बलमल्पशुक्रमनपत्यं वा। तिक्तनित्याशोषिणम्बलमपचितं वा। कषायनित्याश्यावमानाहिनमुदावर्त्तिनं वा॥४२॥
यदि गर्भवती स्त्री नग्न होकर सोया करे अथवा इधर उधर अधिक फिरे तो उसके गर्भसे उन्मत्त ( पगली ) संतान होती है। गर्भवती स्त्री यदि अधिक कलह और उपद्रव करनेवाली हो तो मृगीरोगवाली संतान होती है। यदि गर्भवती स्त्री अधिक मैथुन करे तो विकल और निर्लज्ज अथवा स्त्रैण (स्त्रियोंकेसे कृत्यवाला) संतान उत्पन्न होती है। यदि गर्भवती निरन्तर शोकसे व्याकुल रहा करे तो उसकी संतान भयातुर, क्षीण और अल्पायु होती है। यदि गर्भके समय स्त्री परधनके लेने की इच्छा रखती हो तो उसकी संतान परायी संपत्तिको देखकर जलनेवाली और इर्ष्यायुक्त तथा स्त्रैण संतान होती है।अथवा चोर, आलसी, अतिद्रोही, कुकर्म करनेवाली संतान होती है। गर्भवती स्त्री, अत्यंत क्रोध किया करे तो उसकी संतान अत्यंत क्रोधी, छली और चुगलखोर उत्पन्न होती है। अत्यंत सोनेवाली गर्भवती स्त्रीकी संतान निद्रालु, आलसी, मूर्ख, मंदाग्निवाली उत्पन्न होती है। यदि गर्भवती स्त्री मद्य पीये तो तृषार्त और विकलचित्त संतान होती है। जो स्त्री गौका मांस खाय उसके गर्भसे सरकरा, पथरी और शनैर्मेहवाली संतान उत्पन्न होती है। वराहका मांस खानेवाली गर्भवती के गर्भसे लालनेत्रोंवाला और हत्यारा तथा कठोर रोमोंवाला पुत्र उत्पन्न होता है। मछली खानेवाली गर्भवतीकी संतान बहुत देरमें पलक झपकनेवाली तथा टेढे नेत्रोंवाली होती है। गर्भवतीके अत्यन्त मीठा खानेसे प्रमेही, गूंगी और अधिक स्थूल संतान उत्पन्न होती है। गर्भवतीके अधिक खट्टा खानेसे रक्तपित्त रोगवाली, त्वचाके रोग तथा नेत्ररोगवाली संतान होती है गर्भवतीके अत्यंत लवणरस सेवनसे अकालमें सफेद बाल होजानेवाली, सलवटवाली तथा गंजी संतान उत्पन्न होती है। गर्भवती के चरपरे रसके अत्यंत सेवनसे दुर्बल अल्पशुक्र तथा अनपत्य संतान उत्पन्न होती है। गर्भवती के अत्यंत कडुआ रस सेवनसे सखेहर शरीरवाला अथवा शोथरोगी, निर्बल और कृश संतान उत्पन्न होती है। गर्भवतीके अत्यंत कषायरस सेवनसे काले वर्णकी अफारा रोगवाली और उदावर्त्त रोगवाली संतान उत्पन्न होती है॥४२॥
यद्यच्चयस्य यस्य व्याधेर्निदानमुक्तं तत्तदासेवमानान्तर्वत्नीतद्विकारबहुलमपत्यं जनयति॥४३॥
गर्भवती स्त्री जो २ द्रव्य जिन २ रोगोंक उत्पन्न करने के कारण कह गये है उनके अधिक सेवनसे उन २ रोगासे ग्रसित संतान उत्पन्न करती है॥४३॥
पितृजास्तुशुक्रदोषामातृजैरपचारैर्व्याख्याता इति गर्भोपघातकराभावाव्याख्याताः॥४४॥
पिताके जो शुक्र दोषहै माताके अपचारीने उनका भी निर्देश जान लेना। इस प्रकार गर्भ उपघातकारक भावोका वर्णन किया गया॥४४॥
गर्भिणीकी उपचारविधि।
तस्मादहितानाहारविहारान्प्रजासम्पदमिच्छन्ती स्त्रीविशेषेण वर्जयेत्साध्याचाराचात्मानमुपचरेद्धिताभ्यामाहारविहाराभ्याम्॥४५॥
इसलिये संतान के हितकी इच्छा करती हुई गर्भवती स्त्री अहित आहार विहारोको त्याग देवे। तथा श्रेष्ठ आचार और हित आहार विहारसे शरीरकी रक्षा करती रहे॥४५॥
व्याधीं चास्यामृदुमधुरशिशिरसुखसुकुमारप्रायैरौषधाहारोपचारैरुपचरेत्। न चास्यावमनविरेचनशिरोविरेचनानि प्रयोजयेन्नरक्तमवसेचयेत्। सर्वकालञ्चनास्थापनमनुवासनं वा कुर्य्यादन्यत्रात्ययिकाद्व्यधेः। अष्टमं मासमुपादायवमनादिसाध्येषु पुनर्विकारेषु आत्ययिकेषु मृदुभिर्वमनादिभिर्वोपचारः स्यात्॥४६॥
यदि गर्भवती स्त्रीको किसीप्रकारका रोग उत्पन्न होजाय तो वैद्यको चाहिये कि नरम, मधुर, शीतल, सुखदायक और सुकुमार औषधियोंसे विधिवत् चिकित्सा करे। और गर्भवतीको वमन, विरेचन, शिरोविरेचन तथा रक्तमोक्षण कभी न करावे। और गर्भकी सब अवस्थामेंअस्थापन वस्ति तथा अनुवासन बस्ति भी न करावे यदि कोई शीघ्र प्राणनाशक व्याधी उपस्थित न हो। जब गर्भके आठवें महीनेमें प्राप्त होंनपर यदि कोई ऐसा विकार हो कि जिसमें वमनादिकोंके बिना प्राणही न बच सकतेहो तो युक्तिपूर्वक बहुत नम्र और हितकारी औषधियों द्वारा नरम चमनादि उपचार करे॥४६॥
गर्भिणीके उपचारमें मुख्य कर्म ।
पूर्णमिवतैलपात्रमसंक्षोभ्याऽन्तर्वत्नीभवत्युपचर्य्या॥४७॥
जिसप्रकार तैलसे मुखपर्यन्त पूर्ण भराहुआ पात्र इधर उधर उठाने धरनेमें उसकेगिरनेका भय रहता है उसीप्रकार थोडा भी असावधानी और अहित उपचार होनेसेगर्भके गिरनेका भय रहता है॥४७॥
सा चेदपचाराद्द्वयो स्त्रिषु मासेषु पुष्पं पश्येन्नास्यागर्भःस्थास्यतीति विद्यात्। अजातसारा हितस्मिन्काले भवन्ति गर्भाः॥४८॥
यदि किसी कुपथ्यके करने से गर्भवतीको दूसरे या तीसरे महीने में मासिकऋतुकेसमान रक्तस्राव होने लगे तो उसको वह गर्भ नहीं रह सकता। क्योंकि इस काल तकगर्भ साररहित होता है। इसलिये कुपथ्य आदिसे शीघ्र स्राव हो जाता है॥४८॥
सा चेच्चतुष्प्रभृतिषु मासेषु क्रोधशोकासूयेर्ष्याभयत्रासव्यवायव्यायामसंक्षोभसन्धारणविषमाशनशयनस्थानक्षुत्पिपासाद्यतियोगात्कदाहाराद्वापुष्पं पश्येत्तस्यागर्भस्थापनविधिमुपदेक्ष्यामः॥४९॥
यदि गर्भवती स्त्री चौथे आदि महीनोंमें क्रोध, शोक अथवा असूया, ईर्षा, भय,त्रास, मैथुन, परिश्रम, संक्षोभ, वेगावरोध, विषमाशन और विषमरीतिसे शयनतथा विषमभावसे विषम स्थानों में रहे एवं अधिक भूख प्यासके समय अधिक भोजनकरे अथवा भूखी रहे या दुष्ट आहार व्यवहार करे तो इनसे उसके गर्भके पतन होनेकाभय है। इसलिये गर्भवती स्त्रीको हित आहार और हित आचार एवं शुद्ध प्रसन्न मनरहना चाहिये। यदि ऐसे कार्योंसे गर्भका पात या स्राव होनेलगे तो उसमें जो उपायकरने चाहिये उनका वर्णन करते हैं॥४९॥
गर्भकी रक्षाविधि।
पुष्पदर्शनादेवैनां ब्रूयाच्छयनं तावन्मृदुसुखशिशिरास्तरणसंस्तीर्णमीषदवनतशिरस्कं प्रतिपद्यस्वेति। ततो यष्टि मधुकसर्पिर्भ्यां परमशिशिरवारिणि संस्थिताभ्यां सर्पिचुमाप्लाव्योपस्थसमीपेस्थापयेत्।तस्याः तथा शतधौतसहस्रधौताभ्यां सर्पिर्भ्यामधोनाभेः सर्वतः प्रदिह्यात्। गव्येनचैनां पयसासुशीतेनमधुकाम्बुनावान्य ग्रोधादिकषायेण वा परिषेचयेदधोनाभेः। उदकं वासुशीतमवगाहयेत्क्षीरिणां कषायद्रुमाणाञ्च स्वरसपरिपीतानिचेलानि ग्राहयेत्। न्यग्रोधादिसिद्धयोर्वा क्षीरसर्पिषोः पिचुंग्राहयेदतश्चै वा क्षमात्रं प्राशयेत्प्राशयेद्वाकेवलञ्च क्षीरसर्पिः॥५०॥
जिससमय गर्भवतीकी योनिसे रजस्राव होने लगे उसको उसीसमय कहे कि तूं नरमसुखकारी शीतल बिछी हुई शय्यापर मस्तकको कुछ नीचाकर लेटजा। इसके अनन्तरमुलहठी और घृतको मिलाकर शीतल पानीके संयोगसे शीतलकर एक रुईका फोहाबना किसी नरमवस्त्रसे भिगोकर और लपेटकर उस फोहेको स्त्रीकी योनिमें रखदे।तथा एकसौ वार या हजारवार धोयेहुए मक्खनको नाभिसे नीचे शीतल २ लेपकरदेवे। और शीतल गौका दूध अथवा मुलहठीका क्वाय या न्यग्रोधादिगणको क्वाथशीतलकरके उससे मंदमंद तरडे नाभिकेनीचे देवे। अथवा शीतल जलकीही धाराडाले। अथवा वड आदि क्षीरी वृक्षोंके कषाय और कसैले रसवाले वृक्षोंके स्वरसमेंछोटासा नम्रवस्त्रका टुकडा भिगो योनिमें रक्खे। अथवा वड आदिके क्वाथसेसिद्धकिये दूध या घृतमें भिगोया हुआ फोहा योनिमें रक्खे और इस घृत औरदूधमेंसे दो तोला पीनेको भी दे देवे। अथवा इन औषधियोंसे सिद्धकिये घृत औरदूध पिलावे॥५०॥
पद्मोत्पलकुमुदकिजञ्जल्कांश्चास्यैसमधुशर्कराल्लेहार्थं दद्यात्। शृङ्गाटकपुष्करबीजकशेरुकान्भक्षणार्थम्। गन्धप्रियंग्वसितोत्पलशालुकोदुम्बरशलाटुन्यग्रोधशुङ्गानिवापाययेदेनाभाजेनपयसा॥५१॥
कमल और कमोदनीकी केशर अथवा फूलही शहद और मिसरीके साथ पीसकरचटावे। और सिंघाडे, कमलगट्टे, तथा कसेरू ये खानेके लिये देवे अथवा गंधप्रियंगु, नीलोफर, कमलकी जड, गुल्लडके कच्चे फल, वडके अंकुर इनको बकरीकेदूधमे घोटकर पिलावे॥५१॥
पयसा चैनां बलातिबलाशालि यष्टिकेक्षुमूलकाकोलीशृतेन समधुशर्करं रक्तशालीनामोदनम्मृदुसुरभिशीतं भोजयेत्। लावकपिञ्जलकुरङ्गशम्बरशशहरिणैणकालपुच्छकरसेनवाघृतसलिलसिद्धेन सुखशिशिरोपवातदेशस्थां भोजयेत्॥५२॥
अथवा बला, अतिबला, शालीचावल, साठीके चावल, ईखकी जड, काकोली इनसबसे सिद्धकिये दूध में मिसरी मिला सेवन करावे। तथा शालिचावलोंको नर्मसे।पकाकर शीतल होनेपर उनमें शहद, मिसरी और दूध मिला भोजन करनेको देवे। अथवा लवा, कपिजल, कुरंग, सांभर, शशा, हरिण, कालकुच्छक इनके मांसरसकोघृत और जलसे सिद्धकर सुशीतल हवाके स्थान में उस रसके संग भातका भोजनकरावे॥५२॥
तथा क्रोधशोकायासव्यवायव्यायामतश्चाभिरक्षेत्सौम्याभिश्चैनां कथाभिर्मनोऽनुकूलाभिरुपासीततथास्यागर्भस्तिष्ठति॥५३॥
और ऐसी अवस्थामें उस गर्भवती स्त्रीको क्रोध, शोक, परिश्रम, मैथुन, देहकाहिलाना अदि कर्म नहीं करना चाहिये। तथा सुन्दर पवित्र मनके हरनेवाली बातोंसेउस गर्भवती स्त्रीके चित्तको प्रसन्न रखना चाहिये। इन उपायोंके करनेसे गर्भ अपनेस्थान में टिका रहता है॥५३॥
आमगर्भ में पुष्पदर्शन।
यस्याः पुनरामान्वयात्पुष्पदर्शनं स्यात्प्रायस्तस्यास्तद्गर्भवाधकं भवति विरुद्धोपक्रमत्वात्तयोः॥५४॥
जिस गर्भवतीके आमदोषसे रज दिखाई देने लगजाय उससमय उसकी चिकित्सामेंविरोधी औषधियोंका उपयोग होनेसे प्रायः गर्भको हानि होती है। परन्तु विधिवत्समयानुकूल उससमय भी उपचार करना चाहिये॥१४॥
यस्याः पुनरुष्णतीक्ष्णोपयोगाद्गर्भिण्यामहतिसंजातसारे गर्भे पुष्पदर्शनं स्यादन्यो वायो निप्रस्त्रावः। तस्यागर्भो वृद्धिं न प्राप्नोतिनिःस्रुतत्वात्सकालान्तरमवतिष्ठतेऽतिमात्रं तमुपविष्टकमित्याचक्षते केचित्॥५५॥
जब गर्भवती स्त्रीके उष्ण, तीक्ष्ण पदार्थों के सेवनसे मासिकऋतु अथवा अन्यप्रकारसे योनिस्राव होजाय तो उसके होनेसे जातसार गर्भ भी अर्थात् चौथे महीनेकागर्भ भी बढ़नेसे बंद हो जाता है और अपूर्ण रहता है इसलिये वह बहुत काल पेटमें हीरहता है यदि यह बहुत रोजतक पेटमेंही रहे तो इस गर्भको कोई आचार्य उपविष्टककहते हैं॥५५॥
नागोदरगर्भके लक्षण।
उपवासव्रतकर्मपरायाः पुनः कदा हारायाः स्नेहद्वेषिण्यावातप्रकोपनोक्तान्यासेवमानायागर्भो न वृद्धिं प्राप्नोति परिशुष्कत्वात्। स चापिकालान्तरभव तिष्ठतेऽतिमात्रं स्पन्दनञ्च भवति। तन्तुनागोदरमित्याचक्षते॥५६॥
उपवास, व्रत, कर्मपरायण स्त्री जब रूक्ष आदि आहारको करती है और चिकनाईनहीं खाती और वायुके कुपित करनेवाले रूक्ष पदार्थोंको सेवन करती है तो कुपित हुआ
वायु गर्भको बढने नहीं देता तथा सुखा देता है। वह सूखा हुआ गर्भभी बहुतकालतकपेटमें स्थिर रहता है और अधिक फडकता है। इस गर्भको नागोदर कहते हैं॥५६॥
नार्य्योस्तयोरुभयोरपिचिकित्सितविशेषमुपदेक्ष्यामः॥५७॥
अब नागोदर और उपविष्टक गर्भवाली स्त्रियोकी चिकित्साको कथन करते हैं॥५७॥
उक्तगर्भ में चिकित्सा।
भौतिकजीवनीय बृंहणीय मधुरवातहरसिद्धानां सर्पिषमुपयोगः। नागोदरेतुयोनिव्यापन्निर्दिष्टं पयसामामगर्भाणाञ्च गर्भवृद्धिकराणाञ्च सम्भोजनमेतैरेव सिद्धैश्च घृतादिभिः सुबुभुक्षायासभीक्ष्णं यानवाहनापमार्जनावजृम्भणैरुपपादनमिति॥५८॥
उपविष्टक गर्भ होनेपर भौतिक अर्थात् गर्भमेंपार्थिव आदि गुण बढानेवाले द्रव्यअथवा भूतहर लाक्षादि द्रव्य और जीवनीयगण तथा बृंहणीयगण, मधुरगण औरवातहरगणोसे सिद्ध किया घृत पिलाना चाहिये। नागोदर हो जानेपर जिन द्रव्योंसेस्निग्ध होकर वह प्रगट हो जाय अर्थात् उस बालकका जन्म हो जाय वैसी क्रियाकरनी चाहिये। और गर्भके बढानेवाले द्रव्योंसे सिद्ध किये हुए दूध तथा घृत हमेशाभूखके समय देने चाहिये। तथा इस नागोदर गर्भवाली स्त्रीको सदैव पालकी आदिसवारीमें बैठाना, स्नान कराना, उत्तम बातोंका सुनाना हितकर होता है। (जो गर्भवातकारक कारणोंसे रूक्ष होकर बहुत कालतक अर्थात् ग्यारहवे या वारहवें महीनेतकप्रगढ न हो उसको नागोदर कहते है)॥५८॥
प्रसुप्तगर्भ में चिकित्सा।
यस्याः पुनर्गर्भः प्रसुप्तोनस्पन्दते तांश्येनमत्स्यगवयतित्तिरताम्रचूडशिखिनामन्यतमस्य सर्पिष्मतारसेनमाषयूषेण वा प्रभूतसर्पिषा मूलकयूषेणवारक्तशालीनामोदनं मृदुमधुरशीतं भोजयेत्। तैलाभ्यं गेनास्याश्चाभीक्ष्णमुदरवंक्षणोरुकटिपार्श्वपृष्ठप्रदेशानीपदुष्णेनोपाचरेत्॥५९॥
जिस स्त्रीका गर्भ सोया हुआसा स्थिर रहे और फडके नहीं उस स्त्रीको सिकरामछली, रोझ, तीतर, मुर्गा और मोरके मांसरसको घृतयुक्तकर पिलावे अथवा उडदकेयूषको घृतयुक्त करके या सलजमका यूषअधिक घीके संयोगसे पिलावे अथवा लाल शालिचावलोको मिसरीके साथ वा अन्य मधुर शीतल द्रव्योंके साथ भोजनके लियेदेवे। तथा किसी उत्तम उष्ण तेलद्वारा पेट, वंक्षण, पसली और पीठको सदैव नरमहाथने मालिश कराया करे॥५९॥
उदावर्त्तरुद्धगर्भकी चिकित्सा।
यस्थाः पुनरुदावर्त्तविबन्धः स्यादष्टमेमासेन चानुवासनसाध्यं मन्यते ततस्तस्यास्तद्विकारप्रशमनमुपकल्पयेन्निरूहमुदावर्तो ह्युपेक्षितः सगर्भं सगर्भां गर्भिणीं वा निपातयेत्॥६०॥
** **यदि आठवें महीने में स्त्रीको उदावर्त्तरोगसे बंध पडजाय और वह अनुवासनबस्तिद्वारा शान्ति होता न दिखाई दे तो निवरूहण बस्ति द्वारा विधिवत् चिकित्साकर्म करेक्योंकि उस समय उदावर्त्तकी चिकित्सा न करनेसे वह उदावर्त्तरोग गर्भको अथवागर्भसहित गर्भवती स्त्रीको भी नष्ट कर डालता है॥६०॥
तत्र वीरणशालिषष्टि ककुशकाशेक्षु बालिका वेतसपरिव्याधमूलानां भूतौकानन्ताकाश्यमर्य्यपरूषमधुकमृद्वीकानाञ्च पयसार्द्धोदकेनोद्गमय्यरसं प्रियालविभीतकमज्जातिलकल्कसम्प्रयुक्तमीषल्लवणमनत्युष्णं निरुहं दद्यात्॥६१॥
ऐसे समय में वीरणतृण, शालि, और घृष्टिक चावल, कुशा, कांस, इक्षुबालिका,वेतस, व्यूंस इन सबकी जड लेकर अथवा अजवायन, सारिवा, कुम्हार वृक्ष, फालसा,मुलहठी, मुनक्का इन सबको बराबरके जलयुक्त दूधमें पकावे फिर उस दूधमें चिरौंजीबहेडेकी मज्जा तिलोंका कल्क और बहुत थोडा सेंधा नमक मिला इससे निरूहणबस्ति देवे॥६९॥
व्यपगतविबन्धाञ्चैनां सुखसलिलपरिषिक्तां गींस्थैर्य्यकरमविदाहिनमाहारं भुक्तवतीं सायं मधुरकसिद्धेन तैलेनानुवासयेन्न्युब्जान्त्वेनामास्थापनानुवासनाभ्यामुपचरेत्॥६२॥
जब विबंध खुल जाय तो उस गर्भवती स्त्रीको सुखोष्ण गर्भ जलसे परिसेचनकरशान्तिदायक तथा अविदाही आहारको देवे। और सायंकालके समय मधुरगणसेसिद्ध किये हुए तैलद्वारा अनुवासन कर्म करे। तथा उस गर्भवतीको जब अनुवासनऔर आस्थापन करे तो औंधे (मूंधे) लेटाकर करे। क्योंकि अन्य पुरुषोंके समानसीधी लेटाकर आस्थापनकर्म करनेसे गर्भ हिल जाता है॥६२॥
मृतगर्भका लक्षण।
यस्याः पुनरतिमात्रदोषोपचयाद्वातीक्ष्णोष्णातिमात्रसेवनाद्वातमूत्रपुरीषवेगधारणैर्वा विषमाशनशयनस्थानसंपीडनैर्वाक्रोध-
शोकेर्ष्यासूयाभयत्रासादिभिर्वापरैः कर्मभिरन्तः कुक्षौगर्भौ म्रियते।तस्याः स्तिमितस्तब्धमुदरमाततं शीतमश्मान्तर्गतमिव भवत्य स्पन्दनो गर्भः शूलमधिकमुपजायतेनचाव्यः प्रादुर्भववन्ति योनिर्न प्रस्रवत्यक्षिणीचास्याः स्रस्ते भवतः ताम्यतिव्यथते भ्रमतेश्वसित्यरतिबहुला च भवति न वास्यावेगप्रादुर्भावो वा यथावदुपलभ्यते इत्येवं लक्षणां स्त्रियं मृतगर्भेयमिति विद्यात्॥६३॥
गर्भवतीके शरीरमें दोषोका अत्यंत संचय होनेसे अथवा अत्यंत तीक्ष्ण और गरमद्रव्योंके सेवनसे तथा अधोवात औरमलमूत्रके आये वेगोंको रोकनेसे एवम् विषमरीतिपर भोजन, शयन और उठने बैठने आदि से ऊंचे नीचे पांव रखनेसे या किसीप्रकार गर्भक संपीडन होनेसे अथवा अत्यंत क्रोध, शोक, भय, ईर्षा, असूया औरत्रास आदिसे या अन्य किसी दुष्ट कर्मके योगसे गर्भ कुक्षिमेंही मर जाता है। उसके येलक्षण हैं।पेट—स्तिमित, स्तब्धऔर विस्तृतसा हो जाय और शीतल पडजाय तथाऐसा प्रतीत हो कि पेटमें पत्थरसा रक्खा है, गर्भ फडके नही अत्यंत दर्द हो,पीडा अत्यंत हो पर प्रसूत कालसी न हो योनिसे पानीका स्राव हो, दोनों नेत्रशिथिल हो जाय गर्भवती स्त्री ग्रस्तसी हो जाय, शरीरमें अत्यंत व्यथा हो, भ्रांती हो,श्वास अधिक चलनेलगे। व्याकुलता अत्यंत बढ जाय मल मूत्र आदि वेगके उपस्थितहोनेपर भी यथावत् न आसके। इनलक्षणोसे गर्भवती के गर्भमें बालककी मृत्युहो गई है ऐसा जानना॥६३॥
मृतगर्भमें उपाय।
तस्य गर्भशल्यस्य जरायुप्रपातनेकर्मसंशमनमित्याहुरेके। मन्त्रादिकमथर्ववेदविहितमित्येके। परिदृष्टकर्मणाशल्यहर्त्रा हरणमित्येक॥६४॥
ऐसे समय किसी २ आचार्यका मत है कि औषधीद्वारा वा अन्य प्रकार जरायुकोनिकाल देनाही उत्तम उपाय है क्योंकिजरायुके साथही मरा हुआ गर्भभीबाहरआ जाता है। कोई आचार्य कहते हैं कि अथर्ववेद के मंत्रोद्वारा मार्जन करनेसे मरा हुआगर्भनिकल जाता है कोई आचार्य कहते हैं कि जो वैद्य शस्त्रकर्ममें दृष्टकर्मा (तजुर्वेकार) हो उससे शस्त्रद्वाराजिसप्रकार निकल सके मृतगर्भको शीघ्र निकाल देनाचाहिये॥६४॥
व्यपगतगर्भशल्यान्तुस्त्रियमामगर्भां सुराशीध्वरिष्टमधुमदिरासवानामन्यतममग्रे सामर्थ्यतः पाययेत् गर्भकोष्ठविशुद्ध्यर्थमर्त्तिविस्मरणार्थं प्रहर्षणार्थञ्च॥६५॥
जब उस स्त्रीका मरा हुआ गर्भ निकल जाय तो उसको उसी समय सुरा, सीधु,अरिष्ट, मधुनामक मद्य, मदिरा और आसव सामर्थ्यानुसार पिला देवे। उससमयनशेवाली मद्यके पिला देनेसे उसके गर्भ कोष्ठकी शुद्धि होती है और स्त्री दुःखको भूलजाती है और उसको आनन्द उत्पन्न हो जाता है॥६५॥
अतः परं बृंहणैर्बलानुरक्षिभिः स्नेहसम्प्रयुक्तैर्यवाग्वादिभिर्विलेप्यादिभिर्वातत्कालयोगिभिराहारैरुपाचरेद्दोषधातुक्लेदविशोषणमात्रं तत्कालम्॥६६॥
इसके उपरान्त उस स्त्रीको बृंहण बलकी रक्षा करनेवाली स्नेहयुक्त यवागू पिलानाचाहिये। फिर यथाक्रम विलेपी अथवा उस समय जो उचित हो उस रस या आहारका सेवन कराना चाहिये। जबतक उस स्त्रीके शरीर में दोष और धातुओंके क्लेदउत्पन्न न हो जांय तबतक स्निग्ध हलके और बलकारक आहारोंसे उसकी रक्षा करनीचाहिये॥६६॥
अतः परं स्नेहपानैर्बस्तिभिराहारविधिभिश्च दीपनीय जीवनीय बृंहणीय मधुरवातहरसमाख्यातैरुपचारैरुपाचरेत्॥६७॥
इसके उपरान्त स्नेहपान द्वारा एवं स्नेहनबस्तिद्वारा तथा दोपनीय, जीवनीय,बृंहणीय और मधुर तथा वातनाशक आहार द्वारा उपचार करना चाहिये॥६७॥
परिपक्वगर्भशल्यायाः पुनर्विमुक्तगर्भशल्यायास्तदहरेवस्नेहोपचारः स्यात्॥६८॥
यदि गर्भ पूरे दिनोंकापूर्णांग होकर मरे तो उस गर्भके निकालनेके अनन्तर उसीदिन स्नेहद्रव्योंसे उपचार करना चाहिये॥६८॥
परमनो निर्विकारमाप्यायमानस्य गर्भस्य मासेमासेकर्मोपदेक्ष्यामः॥६९॥
अब इसके उपरांत जिसप्रकार गर्भ निर्विकार होकर वृद्धिको प्राप्त हो उसप्रकार प्रथम महीने से लेकर महीने २ जो कर्म करना चाहिये उसकी व्याख्याकरते॥६९॥
गर्भकी मासपरत्वरक्षणविधि।
प्रथमे मासे शङ्किताचेद्गर्भमापन्नाक्षीरमनुपस्कृतं मात्रावच्छीतं काले पिबेत्सात्म्यञ्च भोजनं सायं प्रातश्च भुञ्जीत॥७०॥
प्रथम महीने में जब स्त्रीको यह प्रतीत होजाय कि गर्भ रह गया तो बिना औषधीसे केवल दूध मात्र, शीतल उचित मात्रासे पीयाकरे। और प्रातः तथा सायंकालदोनो समय सात्म्य भोजनको किया करे॥७०॥
द्वितीये मासे क्षीरमेवचमधुरौषधसिद्धम्। तृतीये मासे क्षीरं मधुसर्पिर्भ्यामुपसंसृज्य। चतुर्थे मासे तुक्षीरनवनीतमक्षमात्रमश्नीयात्।पञ्चमे मासे क्षीरसर्पिः। षष्ठे मासे क्षीरसर्पिर्मधुरौषधसिद्धं तदेवसप्तमे मासे॥७९॥
दूसरे महीनेमे मधुरगणकी औषधियोंसे सिद्ध किया हुआ दूध पीना चाहिये। तीसरे महीने में शहद और घृतयुक्त दूध पीना चाहिये। चौथे महीने में ताजे दूध मेंएकतोला ताजा मक्खन मिला पीना चाहिये। पाचवे महीनेमें घी और दूध मिलापीना चाहिये। छठवें महीनेमें मधुर आदि गणसे सिद्ध किये दूधमें भी मिला पीनाचाहिये। और सांतवें महीने में भी यही करना चाहिये॥७९॥
सप्तममासमें अन्य उपचार।
तत्र गर्भस्य केशाजायमानामातुर्विदाहं जनयन्तीति स्त्रियो भाषन्ते तन्नेति भगवानात्रेयः।किन्तु गर्भोत्पीडनाद्वातपित्तश्लेष्माण उरः प्राप्यविदहन्तिततः कण्डूरुपजायते कण्डूमूलाचकिक्काशावाप्तिर्भवति तत्र कोलोदकेननवनीतस्य मधुरौषधसिद्धस्य पाणितलमात्रं कालेऽस्यैदद्यात्। चन्दनमृणालकल्कैश्चास्याः स्तनोदरं विमृद्गीयात्। शिरीषधातकीसर्षपमधुकचूर्णैः कुटजार्जकबीजमुस्तहरिद्राकलकैर्वा निम्बकोलसुरसमञ्जिष्ठाकल्कैर्वा।पृषद्धरिणशशरुधिरयुतया त्रि फलयावाकरवीरकपत्रसिद्धेन वा तैलेनाभ्यङ्गः। परिषेकः पुनर्मालतीमधुकसिद्धेनाम्भसाजातकण्डूयाचकण्डूयनं वर्जयेत्त्वग्भेदनवैरूप्यपरिहारार्थमशक्यायान्तु कण्ड्वामुन्मर्दनोद्धर्षणाभ्यां परिहारः स्यात्। मधुरमाहारजातं वातहरमल्पसल्पस्नेहलवणमल्पोदकानुपानञ्च भुञ्जीत॥७२॥
स्त्रियें कहा करती हैं कि सातवें महीने में गर्भ में बालकको केश उत्पन्न हो जाते हैंउसके कारण माताके कुक्षिमें दाह उत्पन्न हुआ करती है। परन्तु भगवान् आत्रेयजीकहते हैं कि ऐसा नहीं होता। उससमय गर्भके उत्पीडन होनेसे वात, पित्त, कफवक्षस्थलमें प्राप्त हो दाहको उत्पन्न करते हैं। इसीलिये उससमय खाजसी भी प्रतीतहोती है। और उस खाजके होतेही पेटके त्वचाको फाडदेनेवाली किक्कस खाजकीअधिकता से त्वचाका फटना उत्पन्न होती है। उससमय इस स्त्रीको बेरके क्वाथ मेंमधुरगणकी औषधियोंको सिद्धकर उन औषधियोंसे सिद्ध किया हुआ मक्खन दो तोलामात्र समयसमयपर खिलाया करे। चंदन और कमलके कल्कको उस स्त्रीके स्तनोंतथा पेटपर मालिश करना चाहिये अथवा सिरसका छिलका, धावेके फूल, सरसोंऔर मुलहठीके चूर्णसे सिद्ध किया तैल या कुडा, वनतुलसीके बीज, नागरमोथा औरहल्दीके कल्कसे सिद्ध किया हुआ तैल अथवा नीम, बेर, तुलसी और मंजीठकेकल्कसे सिद्ध किया तैल अथवा पृषतहरिण या खरगोशके रुधिरयुक्त त्रिफलेकेकल्कसे या कनेरके पत्तों से सिद्ध कियेहुए तेलकी स्तनों और पेटपर मालिश करावे।यदि स्तनोंमें खुजली होय तो उनको खुजलाना नहीं चाहिये। मालतीके फूल औरमुलहठीके क्वाथसे स्तनोंको धो डालना चाहिये। उस समय खुजलाने से पेटकीचमडी फट जाती है तथा त्वचा बिगड जाती है। यदि उस समय खुजलीको सहन सके तो मर्दन और त्वचाको हाथसे घिसे।परन्तु नाखूनोंसे खाज न करे। उससमय मधुर तथा वातनाशक आहारको थोडी चिकनाई मिला खाया करे और नमकबहुत थोडा खावे। तथा जलभी थोडा २ पीया करे॥७२॥
आठवें मासमें गर्भरक्षणविधि।
अष्टमे तु मासे क्षीरयवागूं सर्पिष्मतीं काले काले पिबेत्। तन्नेतिभद्रकाप्यः, पैङ्गल्याबाधोह्यस्या गर्भमागच्छेदिति। अस्त्वत्र पैङ्गल्याबाध इत्याह भगवान्पुनर्वसुरात्रेयोनह्येतदकार्य्यमेवं कुर्वतीह्यारोग्यबलवर्णस्वरसंहननसम्पदुपेतं ज्ञातीनामपिश्रेष्ठमपत्यं जनयति॥७३॥
आठवें महीने में दूधमें सिद्धकी हुई यवागृको घृतयुक्तकर समय समयपर पीयाकरे। इस विषय में भद्रकाप्य ऋषि कहने लगे कि यदि गर्भवती स्त्री इस प्रकार पथ्यसेवन करने लगेगी तो उसकी संतान पंगुला होगी। यह सुनकर भगवान् पुनर्वसुआत्रेयजी कहने लगे कि ऐसा नहीं होता बल्कि इसप्रकार पथ्य सेवन करने से संतानआरोग्य, बलवर्णयुक्त, स्वरयुक्त, दृढ अंगोंवाली तथा अपने अन्य भाइयों में भी श्रेष्ठसंतान उत्पन्न होती है॥७३॥
नवममासके गर्भकी रक्षणविधि।
नवमे तु खलु एनां मासे मधुरौषधसिद्धेन तैलेनानुवासयेत्।अतश्चास्यास्तैलं पिचमिश्रं योनौ प्रणयेद्गर्भस्थानमार्गस्नेहनार्थम्॥७४॥
नवम महीनेमें मधुर द्रव्योंसे सिद्ध किये तैल द्वारा इस स्त्रीको अनुवासन करनाचाहिये और गर्भमार्गको चिकना करनेके लिये इस तैलका फोहा योनिमें रखनाचाहिये॥७४॥
यदिदं कर्मप्रथममासमुपादायोपदिष्टमानवमान्मासात्।तेन गर्भिण्यागर्भसमये गर्भधारणे कुक्षिकटिपार्श्वपृष्ठं मृदु भवति वातश्चानुलोमः सम्पद्यते मूत्रपुरीषे च प्रकृतिभूते सुखेन मार्गमनुपद्येतचर्मनखानिचमार्दवमुपयान्ति बलवर्णौ चोपचीयेते पुत्रं चेष्टसम्पदुपेतं सुखिनं सुखेनैषाकालेन प्रजायत इति॥७५॥
इसप्रकार प्रथम महीने से लेकर नवम महीने पर्यन्त जो इस क्रियाका वर्णन किया है इसके करनेसे गर्भवती स्त्रीके कूख, कमर, पसली और पीठ यह नरम रहती है। तथाधारण किया गर्भ सुखपूर्वक पुष्ट होता है। एवं वायुका अनुलोम होता है। मल मूत्रका त्याग ठीक समयपर उचित रीतिसे हो जाता है नख और त्वचा नरम रहती है।बल, वर्णकी वृद्धि होती है। और उत्तम सुन्दर शरीवाले, बलयुक्त पुत्रको सुखपूर्वकठीक समयपर प्रसव करती है॥७५॥
सूतिकागारकी विधि।
प्राक्चैवास्यानवमान्मासात्सूतिकागारं कारयेदपहृतास्थिशर्कराकपालं देशं प्रशस्तरूपरसगन्धायां भूमौ प्राग्द्वारमुदग्द्वारं वा॥७६॥
गर्भको नवम महीना प्रवेश होनेसे प्रथमही सूतिकागार (प्रसूतस्थान) बनानाचाहिये। वह ऐसी उत्तम भूमिमें हो जिसमें हड्डी, कंकड, ठिकरे आदि न हो तथारूप, रस, गंधयुक्त पवित्र भूमि हो उस भूमिमे पूर्व या उत्तरको द्वार रखकर प्रसवकेलिये घर बनावे॥७६॥
तत्र बैल्वानां काष्ठानां तिन्दुकैं गुदानां भल्लातकानां वारुणानां खदिराणां वा यानि चान्यान्यपि ब्राह्मणाः शंसेयुरथर्ववेदविदस्तद्वसनालेपनाच्छादनापि धानसम्पदुपेतं वास्तुविद्यात्। हृदययोगेनाग्निसलिलोलखलवर्च्चः स्थानस्नानभूमिमहानसमृतुमुखञ्च॥७७॥
उस स्थान में बिल्व, तेंदु, गोंदनी, मिलावा, वर्णवृक्ष और खैरकी लकडियें तथाअन्य सब प्रकारकी लकडियोंको मंगावे। फिर अथर्ववेदको जाननेवाला ब्राह्मण जो २वस्तुयें बतावे उन सबको संचय करे और वस्त्र, आलेपन तथा बिछानेके कपडे औरओढनेके कपडे आदि वस्तुओंको उस घरमें स्थापन करे और जिन २ पदार्थों कीगर्भवती इच्छा करे अथवा उसके लिये उचित हो उनउनको समयके अनुसारजिस ऋतु में जैसे द्रव्योंकी आवश्यकता हो वैसे २ द्रव्य, अग्नि, जल, ओखली, मलसूत्रके त्यागनेका स्थान, स्नान करनेका स्थान भोजन बनानेका स्थान इन सबकोजिसऋतु में जिस प्रकार उचित हो बनावे॥७७॥
सूतिकागृहका सामान।
तत्र सर्पिस्तैलमधुसैन्धवसौ वर्च्चलकाललवणविडङ्गगुडकुष्ठकिलिमनागरपिप्पलीमूलहस्तिपिप्पलीमण्डूकपर्ण्येलालाङ्गलीवचाचव्यचित्रकचिरबिल्वहिंगुसर्षपलशुनकणकणिकानीषातलीवल्वजभूर्जाः कुलत्थमैरेयसुरासवाः सन्निहिताः स्युः॥७८॥
उस घरमें घी, तेल, शहद, सेंधानमक, संचरनमक, कालानमक, वायविडंग, गुड,कुडा, देवदार, सोंठ पिपलामूल, गजपीपल, मण्डूकपर्णी, इलायची, लांगुलीकंद, वच,चीता, चव्य, लताकरंज, हींग, सरसों, लहसुन, कनकवृक्ष, गेहूं, कढ़व, अलसी, पेठा,भोजपत्र, कुलथी, मैरेय सुरा और आसव, इन सबको संग्रह करके यथास्थानरक्खे॥७८॥
तथा श्मानौद्रौद्वेचण्डसुसले द्वे उलूखले खरो वृषभश्च द्वौ चतीक्ष्णौ सूचीपिप्पलकौसौ वर्णराजतौ द्वे शस्त्राणि च तीक्ष्णायसानि द्वौ च बिल्वमयौपर्य्यङ्कौ तेन्दुकैं गुदानिचकाष्ठानि अग्निसन्धुक्षणानि स्त्रियश्च वह्व्योबहुशः प्रजाताः सौहार्दयुक्ताः सततमनुरक्ताः प्रदक्षिणाचाराः प्रतिपत्तिकुशलाः प्रकृतिवत्सलास्त्यक्तविषादाः क्लेशसहिष्णवोऽभिमताब्राह्मणाश्चाथर्ववेदविदोयञ्चान्यदपितत्रसमर्थंमन्येत यच्च ब्राह्मणाब्रूयुः स्त्रियश्च वृद्धास्तत्कार्य्यम्॥७९॥
तथा दो पत्थर, दो मूसल, दो ऊखल, एक गधा एक बैल, दो तीक्ष्ण सूइयें, सुवर्ण,चांदीकी, धागेकी गोली, लोहेके तीक्ष्ण शस्त्र, सोना, चांदी, बिल्वकी लकडीकी वनीचारपाई, तेंदु और इंगुदीकी लकडिये आग जलाने के लिये। जिन स्त्रियोंने अनेकवार
प्रसव करायाहो ऐसी हितके रखनेवाली जो गर्भवती से अत्यंत प्रेम रखतीही ऐसी स्रियें रखनी चाहिये परन्तु वह स्त्रिये बच्चा पैदाकरानेमें अत्यंत चतुर, चित्तकी बातकोसमझलेनेवाली, विषादरहित और स्वभावसेही दयालु, कष्टके सहन करनेवाली होनीचाहिये। तथा अथर्ववेदके जाननेवाले ब्राह्मण तथा अन्य भी जो २ वस्तुयेआवश्यकप्रतीत हों और जिन वस्तुओको वह ब्राह्मण कहे सबको उपस्थित करना चाहिये।जिस २ वातको वृद्धस्त्रिये और वह अथर्ववेदी ब्राह्मण कहे सो उसस्थानमेंरखनाचाहिये तथा उसी प्रकार करना चाहिये॥७९॥
ततः प्रवृत्तेनवमेमासिपुण्येऽहनिप्रशस्तनक्षत्रयोगमुपगते भगवतिशशिनिकल्याणेकरणेमैत्रेमुहूर्ते शान्तिॆ हुत्वागोब्राह्मणमग्निमुदकञ्चादौप्रवेश्यगोभ्यस्तृणोदकं मधुलाजांश्च प्रदायब्राह्मणेभ्योऽक्षतामनसोनान्दीमुखानि च फलानीष्टानि दत्वा उदक्पूवैमासनस्थेभ्योऽभिवाद्यपुनराचम्यस्वस्तिवाचयेत्ततः पुण्याहशशब्देनगोब्राह्मणमन्वावर्त्तमानाप्रविशत्सृतिकागारम्। तत्र स्थाचप्रसवकालं प्रतीक्षेत॥८०॥
फिर नवम महीना प्रवेश होतेही उत्तम, दिन, नक्षत्र, चन्द्रमा और शुभ करण तथामंत्र मुहूर्तमें शान्तिकर्म कर, गौ, ब्राह्मण, अग्नि और जलके भरेहुए कलशको पहिलेप्रवेश कर गौओंको पासजल और शहद तथा धानकी खीर दें। फिर ब्राह्मणीकोचावल और फूल देकर नान्दीमुखके योग्य उत्तम फलोको देकर उत्तर या पूर्वमें आसनांपर विठाकर प्रणाम करे। और उनके चरणादि प्रक्षालनकर फिर आचमन करे।तदनन्तर स्वस्तिवाचन और पुण्याहवाचनपूर्वक गौ ब्राह्मणोको आगेकर सूतिकास्थान में प्रवेशकरे।फिर उसी स्थान में रहती हुई प्रसवकालकी परीक्षा करे॥८०॥
प्रसवकालके चिह्न।
तस्यास्तु खलु इमानिलिङ्गानि प्रजननकालमभितो भवन्ति तद्यथाक्लमोगात्राणां ग्लानिराननस्य अक्ष्णोः शैथिल्यं विमुक्तवन्धनत्वमिववक्षसः कुक्षेरवस्रंसनमधोगुरुत्वं वंक्षणबस्तिकटिपार्श्वपृष्ठनिस्तोदोयोनेः प्रस्रवणमनन्नाभिलाषश्चेति। ततोऽनन्तरमार्वानां प्रादुर्भावःप्रसेकश्चगर्भोदकस्य॥८१॥
प्रसवकालके समय स्त्रीके ये लक्षण होते हैं जैसे क्लम, अंगोमें ग्लानि, मुख
और नेत्रोंकी शिथिलता, वक्षस्थलके बंधनसे खुल गये प्रतीत होना, कुक्षिका नीचेकी ओर जाना, नीचेका भाग भारी प्रतीत होना, बिस्ती, वैक्षण, कमर, पसवाडे औरपीठमें चमकके साथ पीडा होना, योनिका स्राव होना, अन्नमें रुचि न होना, उसकेअनन्तर प्रसवकी पीडा होना, गर्भका जल निकलने लगना॥८१॥
प्रसववेदना में कर्त्तव्यकर्म।
आवीप्रादुर्भावे तु भूमौशयनं विदध्यान्मृद्वास्तरणोपपन्नं तदध्यासीनांतां ततः समन्ततः परिवार्य्य यथोक्तगुणाः स्त्रियः पर्य्युपासीरन्नाश्वासयन्त्योवाग्भिर्ग्राहिणीभिरुपदिष्टवदर्थाभिधायिनीभिः॥८२॥
प्रसवकी पीडा उत्पन्न होतेही गर्भवती स्त्रीको पृथ्वीपर नरम बिछीहुई शय्यापरलेट जाना चाहिये और योग्य गुणोंवाली जिनका पहिले वर्णन किया जा चुकाहैउन सब स्त्रियोंको उसके चारोंओर बैठकर मीठे १- वाक्योंसे धैर्य देते हुए उसकेचित्तको शान्त करते रहना चाहिये॥८२॥
सा चेदावीभिः संक्लिश्यमानानप्रजायेताथैनां ब्रूयादुत्तिष्ठमुसलमन्यतरञ्च गृह्णीष्वानेनैतदुलूखलं धान्यपूर्णं मुहुर्मुहुरधिजहिमुहुर्सुहुरवजृम्भस्वचं क्रमस्वचान्तरान्तरा इत्येवमुपदिशन्त्येके॥८३॥
कोई कहते हैं कि यदि वह गर्भवती प्रसववेदनासे पीडित होते हुए भी प्रसव न करेतो उसको कहना चाहिये कि तूं उठकर बैठजा और दो मूसल या एक मूसल लेकरऊखलीमें भरे हुए धानोंको कूट और बारबार हाथपावोंको हिला, बारबार जंभाई ले,इधरउधरफिर॥८३॥
आत्रेयजीका मत।
तन्नेत्याह भगवानात्रेयः।दारुणव्यायामवर्जनं हि गर्भिण्याः सततमुपदिश्यते। विशेषतश्च प्रजननकाले प्रचलितसर्वधातुदोषायाः सुकुमार्य्यानार्य्यामुसलव्यायामसमीरितोवायुरन्तरं लब्ध्वाप्राणान्हिंस्याद्दुष्प्रतीकारतमाहितस्मिन्काले विशेषेण भवति गर्भिणी।तस्मान्मुसलग्रहणं परिहार्य्यमृषयोमन्यन्ते जम्भणञ्चंक्रमणञ्च पुनरनुष्ठेयमिति॥८४॥
इसपर भगवान् आत्रेयजी कहने लगे कि ऐसा कभी नहीं करना चाहिये। गर्भवती
स्त्रीको दारुण परिश्रम करना किसी कालमें भी उचित नहीं है और विशेषकरप्रसवकालमें तो सबधातु और वातादि दोष शीघ्र ही प्रचलित हो जाते है। यदिसुकुमार स्त्री ऊखलमें धान कूटने लगेगी तो इस परिश्रम से कुपित हुआ वायु छिद्रकोप्राप्तहो प्राणीको नष्ट कर देता है और वह समय भी ऐसा होता है कि चिकित्सा करनेमेंबडीभारी कठिनाई पड़ती है। उससमय किसी प्रकारका उपद्रव हो जानेसे उसकी शान्तिनहीं होती। इसलिये ऋषिलोग मूसल लेकर धान कूटना उचित नहीं समझते किन्तुजॅभाई लेना और इधर उधर टहलना यह क्रम अच्छा प्रतीत होता है॥८४॥
प्रसवकालमें औषध।
अथास्यैदद्यात्कुष्टैलालाङ्गलिकीवचाचित्रकचिरबिल्वचूर्णमुपघ्रातुं सातन्मुहुर्मुहुरूपजिघ्रेत्।तथा भूर्जपत्रधूमं शिंशपासारधूमं तस्याश्चान्तरान्तरा।कटिपार्श्वपृष्ठ सक्थिदेशादीपदुष्णेनतैलेनाभ्यज्यानुसुखमवमृद्गीयादित्यनेन तु कर्मणागर्भोऽवाक्प्रतिपाद्यते। स यदा जानीया द्वि मुच्यहृदयसुदरमस्यास्त्वाविशतिबस्तिशिरोऽवगृह्णातित्वरयन्ति एनासाव्यः परिवर्त्तते अस्या अवाग्गर्भ इत्यस्यामवस्थायां पर्य्यङ्कमेनामारोप्यप्रवाहितमुपक्रमेतकर्णेचास्यामन्त्रमिममनुकूलास्त्री जपेत्॥८५॥
ऐसे समय गर्भवती स्त्रीको कूट, इलायची, लांगुलीकंद, वच, चित्रक और कंजेकाचूर्णकर वारंवार सुंघाना चाहिये। तथा भोजपत्रकी और शीशमकी गोंदकी धूनी थोडेथोडेदेरके बाद योनिमें देनी चाहिये। तथा कमर दोनों पसवाडे, पीठ और नितम्बआदि स्थानोको सुखोष्ण तैल लगाकर धीरे २ मालिश करना चाहिये। ऐसा करनेसे गर्भकी नीचेकी ओर प्रवृत्ति हो जाती है। जब ऐसा प्रतीत हो कि गर्भ हृदय कीओरसे पेटमें आगया है और योनिद्वार में पहुंचनाही चाहता है और प्रसवकी वेदनाअत्यंत शीघ्र शीघ्र होने लगती है तब जानना कि इसका गर्भ अधोमुख होकर बाहरआनाही चाहता है तो इसको शय्यापर बिठाकर कहे कि तू अब भीतरसे गर्भकोबाहर ढकेलनेका यत्न कर और इधर उधरसे मालिशपूर्वक नरम हाथसे उस गर्भकेबाहर निकालनेका यत्न कराना चाहिये। जब देखे कि अब बालक प्रगट होनेहीवाला है तो योग्य स्त्री उसके कान में यह मंत्र पढे॥८५॥
प्रसवकालका मंत्र।
(क्षितिर्जलं वियत्तेजोवायुर्विष्णुः प्रजापतिः। सगभीत्वां सदा
पान्तुवैल्यञ्च दशन्तुते॥८६॥ प्रसुवत्वमविक्लिष्टमविक्लिष्टाशुभानने!कार्तिकेयद्युतिं पुत्रं कार्त्तिकेयाभिरक्षितमिति)॥८७॥
८६ और ८७ का श्लोक मंत्र है।इस मंत्रका यह अर्थ है। पृथ्वी, जल, आकाश,तेज, वायु, विष्णु, और प्रजापति हे गर्भवती स्त्री! यह तुम्हारी सदा रक्षा करें। औरतुम्हारे गर्भमें किसी प्रकारका उपद्रव न होने देवें। हे शुभानने! तू क्लेशरहित पुत्रकोउत्पन्न कर तथा स्वामी कार्तिक के समान कान्तिवाला और स्वामीकार्तिकसे अभिरक्षित पुत्रको प्रगट कर॥८६॥८७॥
ताश्चैनां यथोक्तगुणाः स्त्रियोऽनुशिष्युरनागतावीर्माप्रवाहिष्ठाः याह्यनागतावीः प्रवाहयतेव्यर्थमेवास्यास्तत्कर्म भवति। प्रजाचास्याविकृतिमापन्ना च श्वासकासशोषप्लीहप्रसक्ता वा भवति यथा हि क्षवथूद्गारवातमूत्रपुरीषवेगान्प्रयतमानोऽप्यप्राप्तकालान्न लभते कृच्छ्रेण व्याप्यवाप्नोति तथानागतकालं गर्भमपि प्रवाहमाणा यथाचैषामेवक्षवथ्वादीनां सन्धारणमुपघातायोपपद्यते तथाप्राप्तकालस्य गर्भस्याप्रवहणमिति। सा यथा निर्देशं कुरुष्वेति वक्तव्यास्यात्। तथा च कुर्वतीशनैः शनैः पूर्वं प्रवाहेत ततोऽनन्तरं बलवत्तरमितितस्याञ्चप्रवाहमाणायां स्त्रियः शब्दं कुर्य्युः प्रजाताप्रजाताधन्यं धन्यं पुत्रमिति तथास्याहर्षेणाप्यायन्ते प्राणाः॥८८॥
यदि उससमय बालक प्रगट न हो तो यथोक्त गुण संपन्न स्त्रियें इस गर्भवतीस्त्रीको कहें कि यदि इससमय तुम्हारे प्रसवकी पीडा न होती हो तो अधिक जोरलगाकर ढकेलने में यत्न मत कर। क्योंकि प्रसव वेदनाके विनाही जो स्त्री गर्भकोढकेलनेके लिये यत्न करती है तो वह इसका यत्न व्यर्थही जाता है। और इसकीसंतान भी विकृतिको प्राप्त हो जाती है। अथवा उस स्त्रीको विकृति होकर श्वास,खांसी, राजयक्ष्मा और प्लीहा रोग उत्पन्न हो जाता है। जैसे- छींक, डकार, वात, मूत्र,पुरीष इनका वेग यत्न करनेपर भी विना समय नहीं हो सकता अर्थात् विना समयपेटको कितना ही दवा दिया जाये परन्तु कभी मल, मूत्र नहीं आता उसीप्रकारविना प्रसव के समय उपस्थित होने के कितनेही जोरसे प्रसव होनेका यत्न कियाजाय परन्तु वह अपने समय के विना प्रगट नहीं होता। वैसेही आये हुए छींक आदिवेगोंको रोकने से जिस प्रकार रोगादि उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार प्रसवकाल प्राप्त
होनेपर उसको निकालनेका यत्न न करनेसे भयंकर परिणाम होता है। समीपवाली स्त्रियोंको गर्भवतीसे कहना चाहिये किजिसतरह हम कहें उसीप्रकार तुम करना। और उस गर्भवतीको भी उनकी आज्ञानुसार करना चाहिये। फिर प्रसव वेदना उपस्थित होनेपर उसको धीरे २ बालक बाहरको ढकेलना चाहिये। जब बालक प्रकट होते हुए उसके शरीरमें बालकके प्रगट होनेकी योनिमें पीडा होनेसे व्याकुलता उत्पन्न होनेलगे तो उससमय उसकी समीपवाली सब स्त्रियें कहें कि धन्य है धन्य है लडका पैदा हुआ है। लडका पैदा हुआ है। ऐसा कहनेसे उस स्त्रीके शरीरमें हर्ष उत्पन्न होकर प्राण प्रफुल्लित हो जाते हैं॥८८॥
प्रसेक उपरांत कर्म।
यदा च प्रजातास्यात्तदैनामवेक्षेत काचिदस्या अमराप्रपन्नावाप्रपन्नानेति।तस्याश्चेदमरानप्रपन्नास्यादथैनामन्यतमास्त्रीदक्षिणेनपाणिनानाभेरुपरिष्टाद्बलवन्निपीड्यसव्येन पाणिनापृष्ठत उपसंगृह्यसुनिर्द्धूतं निर्द्धूनुयात्। अथास्याः पादपार्ष्ण्याश्रोणीमाकोटयेदस्याः स्फिचावुपसंगृह्यसुपीडितं पीडयेत्। अथास्या बालवेण्याकण्ठतालूपरिमृशेत्॥८९॥
बालकका जन्म होनेके अनन्तर देखे कि अमरा अर्थात् जेर निकल गई है कि नहीं यदि अमरा न निकली हो तो एक स्त्री प्रसूताकी नाभिके ऊपर दहिना हाथ रखकर उससे नाभिको दबावे और बायें हाथसे पीठको बलपूर्वक दवावे और हिलावे फिर पांवकी एडियोको नाभिके समीप ले जाकर उसके दोनों नितम्बोंको अच्छी तरहसे पीडन करे। फिर उस वेणीको (गूंथको) मुखमें प्रवेशकरके कंठ और तालु पर फेरे॥८९॥
भूर्जपत्रकाचमणिसर्पनिर्मोकैश्चास्यायोनिं धूपयेत्। कुष्ठतालीसकल्कं बल्वज यूपेमैरेयसुरामण्डेवाकौलत्थेवामण्डूकपर्णिपिप्पलीक्वाथे वा संप्लाव्यपाययेदेनाम्॥१०॥
फिर भोजपत्र, कांच, मणि और सांपके कांचुलीकी इसकी योनिमें धूनी देवें तथा वल्बज बूटीके जडका क्वाथ, मैरये मद्य, सुरामण्ड, कल्थीका यूष अथवा पीपलके क्वाथ के साथ कुष्ठ और तालीशपत्र के कल्कको मिलाकर पीने के लिये देवे॥९०॥
अमरानिकालनेकी विधि।
तथा सूक्ष्मैर्लाकिलिमकुष्ठनागरविडङ्गकालविडचव्यपिप्पलीचित्रकोपकुञ्चिकाकल्कं खरवृषभस्यजरतोवादक्षिणं कर्णमुत्कृत्यदृषदिजर्जरीकृत्यबल्वजयूषादीनामन्यतममस्मिन्प्रक्षिप्यमुहूर्त्तस्थितमुद्धृत्यतदाप्लावनं पाययेदेनाम्॥९१॥
तथा छोटी इलायची, देवदारु, कूट, सोंठ, वायविडंग, विडनामक, चव्य, पीपल,चित्रक और कालाजीरा इनके कल्कको बिल्वजवृणके क्वाथ आदिमें मिलाकरपिलावे। और वृद्ध खर तथा वृषभके दक्षिण कर्णको जरासा काटकर पत्थरके ऊपरजरजरी बना बल्वज आदि क्वाथमें दो घडी भिगोरक्खे फिर वह क्वाथ छानकर इसप्रसूतस्त्रीको पिलाना चाहिये॥९१॥
शतपुष्पाकुष्ठमदनहिंगुसिद्धस्यचैनां तैलस्य पिचुं ग्राहयेदतश्चैवानुवासयेदेतैरेवचाप्लावनैः फलजीमूतकेक्ष्वाकुधामार्गवकुटजकृतवेधनहस्तिपर्ण्युपहितैरास्थापयेत्॥१२॥
फिर सौंफ, कूट, मैनफल, हींग इनसे सिद्धकिया तिलोंके तैलका फोहा प्रसूताकीयोनिमें रक्खे। इसके उपरांत मैनफल, नागरमोथा, कडुवी तुंवी, कुडा, कडवी तोरीऔर हस्तिपर्णी इन सबके कल्कको उपरोक्त बल्वज आदिके क्वाथमें मिला आस्थापनवस्ति करे॥९२॥
तदा स्थापनमस्याहि सहवातमूत्रपुरीषैर्निर्हरत्यमरामासक्तां वायोरनुलोमगमनात्। अमरां हि वातमूत्रपुरीषाण्यन्यानिचान्तर्बहिर्मुखानिसृजन्ति॥९३॥
उस आस्थापन वस्तिके करनेसे वायु अनुलोम होकर वात, मूत्र और मल साफनिकलते हैं और साथही अमरा भी निकल जाती है। क्योंकि वात, मूत्र, पुरीष तथाअन्य भी सब अमराके साथही खिंचे हुए होनेसे अन्तर्मुख और बहिर्मुख होते हैं।आस्थापन द्वारा पुरीष आदिकोंके बहिर्मुख होनेसे अमरा (आंवल ) भी बाहर निकलआती है॥९३॥
कुमारके कर्म।
तस्यान्तुखल्वमरायाः प्रपतनार्थे खल्वेवमेव कर्मणि क्रियमाणेजातमात्रेऽस्यैवकुमारस्य कार्य्याण्ये तानि कर्माणि भवन्ति तद्य-
था—अश्मनोः संघट्टनं कर्णयोर्मूलेशीतोदकेनोष्णोदकेन वासुखपरिषेकः।तथा संक्लेशविहतान्प्राणान्पुनर्लभेतकृष्णकपालिकाशूर्पेणचैनमभिनिष्पुणीयाद्यच्चेष्टं स्याद्यावत्प्राणानां प्रत्यागमनातत्तत्सर्वमेवकुर्य्युः॥९४॥
यह सब कर्म तो अमरा (आंबल) गिराने के लिये किये जाते है। अब बालककेसंबंध में जो कर्म करने चाहिये उनको वर्णन करते हैं। जैसे—जब बालक उत्पन्नहो तो उस बालकके कानके समीप दो पत्थरोंको बजाना और शीतल अथवा गरमजलसे धीरेधीरे मुखको धोना और मुखपर छोटे देना जिससे प्रसवसमयके कष्टसेउत्पन्न हुई मूर्च्छा दूर होकर बालकके प्राण प्रफुलित हों अर्थात् शरीरमें फिर आ जांय।फिर एक काले बडे शरावसे मथवा छानसे इस बालकको धीरे २ हवा करे तथाबालककी मूर्च्छा दूर करनेके लिये और उनके शरीर में प्राणोंका आगमन होनेके लियेजो २ उपाय उचित हों करने चाहिये॥९४॥
ततः प्रत्यागतप्राणं प्रकृतिभूतमभिसमीक्ष्यस्नानोदकग्रहणाभ्यामुपपादयेत्। अथास्यताल्वोष्ठकण्ठजिह्वाप्रमार्जनमारभेत अंगुल्यामुपरिलिखितनखया सुप्रक्षालितोपधानकार्पासपिचुमत्या प्रथमं प्रमार्जितस्यास्य च शिरस्तालुकार्पासपिचुनास्नेहगर्भेण प्रतिच्छादयेत्। ततोऽस्यानन्तरं कार्य्यं सैन्धवोपहितेनसर्पिषा प्रच्छर्दनम्॥१५॥
जब बालक होश में आकर रोने लगे और स्वस्थवृत्ति होजाय फिर उसको स्नानकरावे तथा हाथ आदिसे स्वच्छ करे।उसके उपरान्त कोई स्त्री हाथकी अंगुलीकोसाफ करके उस अंगुलीका नख उत्तमतासे कटा होना चाहिये फिर उस अंगुलीपरउत्तम साफ धुनी हुई रुईके फोहेको लपेट उस बालक के तालू, होंठ और कण्ठकोसाफ करे। फिर रुईके फोहेको तैलमें भिगोकर बालकके तालुवेपर रक्खे।फिर इसकेउपरान्त सेंघानमक और घीसे बालकको वमन करावे॥१५॥
नालुवाछेदन विधि।
नाड्यास्तस्याः कल्पनविधिमुपदेक्ष्यामः।नाभिबन्धनात्प्रभूतिहित्वाष्टांगुलमभिज्ञानं कृत्वाछेदनावकाशस्यद्वयोरन्तरयोः शनैर्गृहीत्वातीक्ष्णेनरौक्मराजतायसानां छेदनानामन्यतमेनो-
र्द्धधारेणछेदयेत्तामग्रेसूत्रेणोपनिबध्यकण्ठेचास्यशिथिलमवसृजेत्॥९६॥
अब बालककी नाल काटने की विधि कथन करते हैं। नाभिसे आठ अंगुल लम्बीछोडकर जिस स्थानपरसे काटनी हो उसके दोनों ओर ऊपर और नीचसे धागेकेसाथ बांध देना चाहिये। फिर उन दोनों बंधनोंके बीचमेंसे सोना,चांदी अथवा लोहेकीतीक्ष्ण (पैनी) धारवाली छूरीसे नालको काट देना चाहिये। फिर जो नाल नाभिसेआठ अंगुल लगी हुई है उसको सूतके डोरेसे बांधकर बालकके गले में इसप्रकार ढीलीबांध देनी चाहिये जिससे वह खिंचे नहीं और डोरा भी ऐसी युक्तिसे और नरम बांधनोचाहिये कि जिससे उस बालकके नरम शरीरमें कहीं अपना असर न दिखावे॥९६॥
नाभिपाकका यत्न।
तस्य चेन्नाभिः पच्येत्तां लोध्रमधुकप्रियं गुदारुहरिद्राकल्कसिद्धेन तैलेनाभ्यज्यादेषामेवतैलौषधानां चूर्णेनावचूर्णयेदेषनाडीकल्पनविधिरुक्तः सम्यक्॥९७॥
यदि बालककी नाभि पक जाय तो पठानी लोध, मुलहठी, प्रियंगु, हल्दी औरदारुहल्दी इनके कल्क द्वारा सिद्ध किया हुआ तैल उस नाभिपर लगाना चाहिये।अथवा इन उपरोक्त औषधियोंके बारीक चूर्णको तैलमें मिलाकर नाभिपर लगा देनाचाहिये। इसप्रकार नालवाकल्पनविधि कथन की गई है॥९७॥
असम्यक्कल्पेन हि नाड्या आयामव्यायामोत्तुण्डितपिण्डालिकाविनामिकाविजृम्भिकाबाधेभ्यो भयम्॥९८॥ तत्राविदाहिभिर्वातपित्तप्रशमनैरभ्यङ्गोत्सादनपरिषेकैः सर्पिभिश्चोपक्रमेतगुरुलाघवमभिसमीक्ष्यकुमारस्य॥९९॥
यदि नालवेका उत्तमप्रकारसे छेदन न किया जायेगा तो उस बालकको आयामकेव्यायाम उतुण्डिका, पिण्डालिका, विमानिका और विजृम्भिका नामक व्याधियोंकेउत्पन्न होनेका भय है॥९८॥ इनके उत्पन्न होनेपर इन व्याधियोंकी लघुता, गुरुताआदि देखकर अविदाही वातपित्तनाशक, उत्सादन और परिषेकों द्वारा तथा सिद्धघृत द्वाराचिकित्सा करना चाहिये। (इसका विशेष वर्णन चिकित्सास्थान १३वें अध्याय में देखना)॥९५॥
जातकर्मविधि।
प्रागतो जातकर्मकार्य्यं ततो मधुसर्पिषीमन्त्रोपमन्त्रिते यथान्यायं
प्राशितुमस्मै दद्यात्। स्तनमत ऊर्द्धमनेनैव विधिना दक्षिणं पातुं पुरस्तात्प्रयच्छेत्। अथातः शीर्षतः स्थापयेदुदकुम्भं मन्त्रोण्मन्त्रितम्॥१००॥
प्रथम बालकका जातकर्म करना चाहिये। वेदोक्त मंत्राद्वारा मंत्रित कियाहुआ घृत और मधु विषमभाग मिलाकर बालकको चटाना चाहिये। इसके उपरान्तइसी विधिसे पहिले दाहिना स्तन पीनेके लिये देना चाहिये। फिर उसके सिरके समीपमंत्रोंसे मंत्रित किया जलका कलश रखना चाहिये॥१००॥
रक्षाविधि।
अथास्य रक्षां विदध्यादादानीखदिरकर्कन्धूपीलुपरूषकशाखाभिरस्यागृहं भिषक्समन्ततः परिवारयेत्। सर्वतश्च सूतिकागारस्य सर्षपातसीतण्डुलकणकणिकाः प्रकिरेत्। तथा तण्डुलबलिमङ्गलहोमः सततमुभयकालं क्रियते प्राङ्नामकर्मणोर्द्वारेचमुसलमनुतिरश्चीनंन्यस्तं कुर्य्यात्। वचाकुष्ठक्षौमकहिंगुसर्षपातसीलशुनकणकणिकानां रक्षोघ्नसमाख्यातानाञ्च औषधीनां पोट्टलिकां बद्धासूतिकागारस्योत्तरदेहल्यामासृजेत्। तथा सूतिकायाः कण्ठे सपुत्रायाः स्थाल्युदककुम्भपर्य्यङ्केष्वपितथैवचद्वयोरपक्षयोः सकणकुम्भकेन्धनाग्निस्तिन्दुककाष्ठेन्धनश्चाग्निः सूतिकागारस्याभ्यन्तरतो नित्यं स्यात्। स्त्रियश्चैनां यथोक्तगुणाः सुहृदश्चानुजागृयुर्दशाहं द्वादशाहं वानुपरतप्रदानमङ्गलाशीः स्तुतिगीतवादित्रमन्नपानविशदमनुरक्तप्रहृष्टजनसम्पूर्णं तद्वेश्मकार्य्यम्।ब्राह्मणश्चाथर्ववेदवित्सततमुभयकालंशान्तिं जुहुयात्स्वस्त्ययनार्थं सुकुमारस्य तथा सूतिकाया इत्येतद्रक्षाविधानमुक्तम्॥१०१॥
इसके उपरांत इस बालककी रक्षा करे। उस रक्षाविधिका वर्णन करते हैं। जैसे—आदानी (घोषकलता) खैर, वेर, पीलू, फालसा इन सब वृक्षोंकी शाखाओंको घरकेचारों ओर लटका देवे। और उस प्रसूत घरमें सफेद सरसों, अलसी और चावलोंकेदाने वखेरदेवे। प्रातःकाल और सायंकाल दोनों समय चावलोंका बलिदान औरमंगलकर्म, हवन, आदि नित्यम्प्रति करना चाहिये। तथा नामकरण संस्कार होनेसे
प्रथम द्वारमें एक लोहेका भूसल टेढाकर रख देना चाहिये। और वच, कूट, अजवायन, हींग, सफेद सरसों, अलसी, लहसुन, चावल इन सबकी पोटली बांधकर तथा भूतादिनाशक औषधियों की पोटली बांधकर प्रसूतघरके उत्तरके द्वारकी देहलपिर रखदेना चाहिये। या चौकठमें बांधकर लटका देना चाहिये। इसीप्रकार इन भूतनाशकद्रव्योंकी छोटी २ पोटली बना प्रसूता स्त्री और बालकके गलेसे बांधदेना चाहिये। एवंप्रसूताके भोजन करनेके पात्र में और जलपीने के घट में तथा चारपाईमें और दोनों ओरकेकिवाडोंमें भी बांधनी चाहिये। इस प्रसूताके घरमें सरसों आदिके कणके, चावल,जलका घडा, लकडियें, अग्नि, तेदुंकी लकडीसे प्रज्वलित हुई अग्नि सदैव रखनी चाहिये। और यथोक्तगुणसंपन्न तथा इससे स्नेह रखनेवाली स्त्रियें और सुहृद्रण इसकीसबप्रकारसे सेवामें सावधानीमें लगे रहें। इसप्रकार दश बारह दिन व्यतीत करनाचाहिये। इसके अनंतर भी दान देना, मंगलकर्म, आशीर्वाद लेना, वेदध्वनि, गीत औरबाजे आदि शुभकर्मोको करते रहना चाहिये। अथर्ववेदके जाननेवाले ब्राह्मण दोनोंसमय इस बालककी रक्षा के लिये और प्रसूताकी रक्षा के लिये दोनों समय कल्याणकारी शान्तिपाठ और होमादिक किया करें। इस प्रकार रक्षाविधिका कथनकियागया॥१०१॥
प्रसूतिकाका आहारविहार वर्णन।
सूतिकान्तुखलु बुभुक्षितां विदित्वास्नेहं पाययेत्प्रथमं परमयाशक्त्यासर्पिस्तैलं वसां मज्जानं वासात्म्यीभावमभिसमीक्ष्यभिषक्।पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेर चूर्णसहितं स्नेहं पीतवत्याश्च सर्पिस्तैलाभ्यामभ्यज्यवेष्टयेदुदरं महतावाससातथातस्यानवायुरुदरेविविकृतिमुदयत्यनवकाशत्वात्। जीर्णेतुस्नेहेपिप्पल्यादिभिरेवसिद्धां यवागूं सुस्निग्धां द्रवां मात्रशः पाययेतोभयकालञ्चोष्णोदकेन परिषेचयेत्प्राक्स्नेहयवागूपानाभ्याम्। एवं पञ्चरात्रं सप्तरात्रञ्चानुपाल्यततः क्रमेणाप्ययेत्स्वस्थवृत्तमेतत्सूतिकायाः॥१०२॥
प्रसूता स्त्रीको जिससमय क्षुधा लगे तो उसको उसकी सामर्थ्यानुसार, उत्तममात्रासे स्नेहपान करावे। और उसका सात्म्य विचार करके जिस देश में उसकेलियेजो हितकारी हो सो घृत तैल अथवा वसा या मज्जा पान करावे।तथा पीपलामूलचव्य, चित्रक और सोंठ इनका चूर्ण मिलाकर स्नेहपान कराना चाहिये। और उसस्त्रीके पेटपर घृत और तैल दोनों मिलाकर चोपड देवे। इसके उपरान्त पेटपर को
लम्बा कपडा लपेट देवे।ऐसा करनेसे उसके पेट में वायु प्रवेश होकर अवकाश नमिलनेसे विकार नहीं कर सकता। जब स्नेहपान किया हुआ जीर्ण हो जाय फिर पीपल,पिपलामूल, चव्य, चित्रक और सोंठ यह मिलाकर सिद्ध कीहुई चिकनी यवागूपतलीसी बनाकर मात्रानुसार दोनों समय पीनेको देवे। स्नेह और यवागू पानकरनेके पहिलेही प्रसूता स्त्रीको गर्मजलसे परिषेक करा देना चाहिये। फिर पांच यासात रात्रिपर्यन्त इसी नियमको पालन करे और फिर क्रमसे इसको पुष्ट करताजाय।यह प्रसूताके स्वास्थ्य अर्थात् तन्दुरुस्त अवस्था के क्रमका वर्णन किया है॥१०२॥
प्रसूताका रोगावस्था में उपाय।
तस्यास्तुखलु यो व्याधिरुत्पद्यते स कृच्छ्रसाध्योभवत्यसाध्यो वा।गर्भवृद्धिक्षयितशिथिलसर्वशरीरधातुत्वात्प्रवाहणवेदनाक्लेदनरक्त निःसृतिविशेषशून्यशरीरत्वाच्च तस्मात्तां यथोक्तेन विधिनोपचरेद्भौतिकजीवनीय बृंहणीयमधुरवातहरसिद्धैरभ्यङ्गोत्सादनपरिषेकावगाहन्नापानविधिभिर्विशेषतश्चोपचरे द्विशेषतो हि शून्यशरीराः स्त्रियः प्रजाता भवन्ति॥१०३॥
यदि प्रसूता स्त्रीको किसी प्रकारकी व्याधि उत्पन्न हो जाय तो वह व्याधि कष्टसाध्य अथवा असाध्य होजाती है। क्योंकि उससमय गर्भके बढनेके कारण स्त्रीकाशरीर और संपूर्ण धातुयें क्षीण और शिथिल होती है और प्रसव के समय प्रसूतकीपीडा और शरीरसे क्लेद और रक्तके निकलजानेसे शरीर और भी विशेषरूपसे शून्यहोजाताहै। इसलिये सावधान होकर प्रसूतके समय पूर्वोक्त विधिका पालन करे।और विशेषकर भूतनाशकगण, जीवनीयगण, बृंहणीयगण और वातनाशक द्रव्योंसेसिद्धकिये तैलकी मालिश, उत्सादन, परिषेचन अवगाहन और अन्नपानोंका उपयोगकरे। क्योंकि प्रसवहोनेसे स्त्रियोंका शरीर विशेषरूपसे शून्य (खाली) होता है॥१०३॥
बालकहोनेपर दशमदिनकी विधि।
दशम्यां निश्यतीतायां स पुत्रास्त्रीसर्वगन्धौषधैर्गौरसर्षपलोध्रैश्च स्नातालध्वहतवस्त्रं परिधायपवित्रेष्टलघुविचित्रभूषणवती संस्पृश्यमङ्गलान्युचितामर्च्चयित्वाचदेवतां शिखिनः शुक्लवाससोव्यङ्गाश्च ब्राह्मणान्स्वस्तिवाचयित्वाकुमारमहतेनशुचिवाससाच्छादयेत्। प्राक्शिरसमुदक्शिरसं वा संवेश्यदेवं ता पूर्वं द्विजातिभ्यः प्रणमतीत्युक्त्वा
कुमारस्य पिताद्वेनामनीकारयेत्नाक्षत्रिकं नामाभिप्रायिकञ्च। तत्राभिप्रायिकं नामघोषवदाद्यन्तस्थान्तमूष्मान्तञ्च वृद्धं त्रि पुरुषान्तरमनवप्रतिष्ठितम्। नाक्षत्रिकन्तुनक्षत्रदेवतासंयुक्तं कृतं द्व्यक्षरं चतुरक्षरं वा॥१०४॥
दशरात्रि व्यतीत होनेके अनन्तर ग्यारहवें दिन प्रसूता स्त्री और उस बालककोसर्वौषधी तथा सर्वगंध, सफेद सरसों और पठानी लोध इनसबका कल्क शरीरमें लगाफिर उष्णजलसे स्नान करावे। तदनंतर स्वच्छ, हल्के और नये वस्त्रोंको धारणकरकेमंगलद्रव्योंका स्पर्श करावे।और इष्टदेवताओंका पूजन करावे।फिर शिखासूत्रधारणकिये श्वेत वस्त्रोंवाले सर्वांगसंपन्न योग्य ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन करावे तथाउस बालकको निर्मल कोमल नवीन सफेद वस्त्र धारणकरावे। फिर उस बालककोपूर्व अथवा उत्तर की ओर मुखकर लेटादेवे।फिर उस बालकका पिता प्रथम देवताऔर ब्राह्मणोंको प्रणाम करके उस लडकेके नक्षत्र संबंधी और अपना इच्छित दोनाम रक्खे।उनमें बोलनेका अर्थात् अपनी इच्छानुसार जो नाम रक्खा जायउस नामके आदि और अन्त में क्रमसे घोषवान् और अन्तस्थ अक्षर होने चाहिये।अथवा अन्त में ऊष्मा अक्षर होना चाहिये। पुत्रका नाम रखते समय अपने पिता,पितामह आदि तीन पीढीके नाम बचाकर और अपने गुरु आदिका नाम बचाऔर कोई नाम रखना चाहिये। वह नाम भी वर्तमान समयका कल्पना किया नहोना चाहिये किन्तु पुराने समयके देवता या ऋषियोंकासा नाम होना चाहिये।तथा नाक्षत्रिक अर्थात् जन्म नक्षत्रके चरणगत अक्षरसे जो नाम रक्खाजाय वह दोअक्षरोंवाला अथवा चार अक्षरोंवाला होना चाहिये॥१०४॥
कृतेचनामकर्मणि कुमारं परीक्षितुमुपक्रामेदायुषः प्रमाणज्ञानहेतोः। तत्रेमानि आयुष्मतां कुमाराणां लक्षणानि भवन्ति। तद्यथा—एकैकजामृदवोऽल्पाः स्निग्धाः सुबद्धमूलाः कृष्णाः केशाः प्रशस्यंते।स्थिराबहलात्वक्प्रत्याकृतिसुसम्पन्नमीषत्प्रमाणातिरिक्तमनुरूपमातपत्रोपमं शिरः प्रशस्यते। व्यूढं दृढं समं सुश्लिष्टशंखसन्ध्यर्द्धव्यञ्जनमुपचितं बलिनमर्द्धचन्द्राकृतिललाटं बहलौ विपुलसमपीठौ समौ नीचौ वृद्धौ पृष्ठतोऽवनतौ सुश्लिष्टकर्णपुटकौमहाच्छिद्रौ कर्णौ ईषत्प्रलम्बिन्यावसङ्गगते समे संह तेमहत्यौ भ्रुवौ। समेसमाहितदर्शने व्यक्तभागविभागे बलवतितेजसो पपन्नेस्वाङ्गोपाङ्गेचक्षुषी।ऋज्वीम-
होच्छ्वासावंशसम्पन्नेषदवतताग्रानासिकामहदृजुसुनिविष्टदन्तमास्य मायाविस्तरोपपन्नाश्लक्ष्णातन्वीप्रकृतियुक्तापाटलवर्णाजिह्वा। श्लक्ष्णं युक्तोपचयमूष्मोपपन्नं रक्तं तालुमहानदीनः स्निग्धोऽनुनादीगम्भीरसमुत्थोधीरः स्वरः। नातिस्थूलौनातिकृशौविस्तारोपपन्नावास्य प्रच्छादनौरक्तावोष्ठौ। महत्यौहनूवृत्तौ नातिमहतीग्रीवाव्यूढमुपचितमुरोदृढं जत्रुपृष्ठवंशश्च।विकृष्टान्तरौस्तनौ अंसपातिनीस्थिरे पार्श्वे वृत्तपरिपूर्णायतौ बाहूसक्थिनी अंगुलयश्च महदुपचितं पाणिपादम्। स्थिरावृत्ताः स्निग्धास्ताम्रास्तुङ्गाः कूर्माकाराः करजाः। प्रदक्षिणावर्त्तासोत्सङ्गाचनाभिः। नाभ्युरस्त्रिभागहीनासमासमुपचितमांसाकटीवृत्तौस्थिरोपचितमांसौनात्युन्नतौ नात्यवनतौ स्फिचावनुपूर्ववृत्तौ उपचययुक्तावूरू।नात्युपचितेनात्यपचिते एणीपदेप्रगूढशिरास्थिसन्धीजङ्गे।नात्युपचितौ नात्यपचितौ गुल्फौ पूर्वोपदिष्टगुणौ पादौ कूर्माकारौ। प्रकृतियुक्तानि वातसूत्रपुरीषगुह्यानि तथा स्वप्नजागरणायासस्मितरुदितस्तनग्रहणानि। यच्चकिञ्चिदन्यदपि अनुक्तमस्तितदपिसर्वं प्रकृतिसम्पन्नमिष्टं विपरीतं पुनरनिष्टमिति दीर्घायुर्लक्षणानि॥१०५॥
नामकरण करनेके अनन्तर उस बालक की आयुका प्रमाण जानने के लिये उसकीपरीक्षा करे। उनमें दीर्घजीवी अर्थात् दीर्घायु होनेवाले बालकोंके यह लक्षण होते हैं।जैसे सिरके बाल अलग २ नरम, चिकने, थोडे, काले और दृढ, बद्धमूल, अच्छेहोते हैं।त्वचा स्थिर और पुष्ट उत्तम होती है। सिर स्वभावसेही सुन्दर आकारकाप्रमाणसे किंचित् बडा, सुन्दर लक्षणोंवाला, अनुरूप, तथा छत्रके समान उत्तमहोता है।ललाट विशाल, दृढ, सुडौल, सुन्दर, उत्तम कनपटियोंकी संधियुक्त, कुछऊंचा और कुछ ढलाहुआसा उत्तम आकारवाला उपचित बलियुक्त औरअर्धचन्द्र के समान आकारवाला होना श्रेष्ठ होता है। दोनों कान पुष्ट, कानोंके पीछेकाभाग विपुल और सुडौल तथा दोनों कान ऊंचे नीचे समान और पीछेको नवेहुए सेदोनों कर्णपुट सुश्लिष्ट तथा कार्योंके छिद्र अर्थात् कोकरू बडे होना श्रेष्ठ मानेजाते हैं।भौहें लंबी परस्पर मिली हुई एकसी घनकी और बडी २ होना उत्तम होता है।दोनों नेत्र एकसे देखनेवाले, सुडौल, अलग २ सीधे, तेजयुक्त, पलक आदि सुन्दर
उपांगयुक्त उत्तम होते हैं। नाक सुडौल, लम्बी, श्वासयुक्त, लम्बे बांसवाली, कुछ २आगेको झुकी हुई उत्तम होती है। मुख बडा सुडौल, सुन्दर जिसके दोनों ओरसुन्दरतायुक्त हों तथा दंतपंक्ति सुन्दरतायुक्त हो वह मुख उत्तम होता है। जिह्वालंबी, चिकनी, पतली, सुडौल, गुलाबी रंगकी और अपने गुणोंसे संपन्न उत्तमहोती है। तालु मसूण, पुष्ट, ऊंचा, तथा लालवर्णका उत्तम होता है।स्वर बड़ादीनतारहित, चिकना, प्रतिध्वनियुक्त, गंभीर तथा धीर उत्तम होता है।होठ नबहुत मोटे न अधिक पतले, विस्तारयुक्त, मुखको ढके हुए और लालवर्णके उत्तम होतेहैं। ठोडी गोल अधिक लम्बी न होना उत्तम होता है। गर्दन दृढ और थोडीलम्बी उत्तम होती है। दोनों कंधे, व्यूढ और दृढ तथा ऊंचे उत्तम होते हैं।हंसुली दृढऔर छातीमें मिली हुई उत्तम होती है। पीठका बांस मांसमें छिपाहुआ उत्तम होता है।स्तनोंके बीचका भाग फैला हुआ चौडा अच्छा होता है। दोनों पार्श्व दोनों कंधों की ओरढलेहुए और दृढ उत्तम होते हैं। दोनों बाहु, नितम्ब और अंगुलियें लंबी, गोल, परिपूर्णऔर दृढ होना उत्तम है।हाथ और पांव—पुष्ट, दृढ, और लम्बे उत्तम होते हैं। नखचिकने, ताम्रवर्ण, ऊंचे कुछएकी पीठके समान, सुडौल उत्तम होते हैं। नाभि—दक्षिणावर्त्तऔर बीचमेंसे गहरी किनारेसे ऊंची उत्तम होती है। नाभि और उरुस्थलके बीचमेंचौथा भाग प्रमाणसे सुडौल और पुष्ट कमर उत्तम होती है। दोनों नितम्ब गोल,दृढ, मांससे पुष्ट न अति ऊंचे और न अधिक नीचे उत्तम होते हैं, दोनों उरुस्थलगोल, पुष्ट और मोटे उत्तम होते हैं। दोनों जानु गोल, और पुष्ट उत्तम होतीहैं। दोनोंजांघ—हिरणीके पैरके समान और पुष्ट छिपीहुई हड्डियोंवाली जिनमें कोई नाडीदिखाई न देतीहो और उनकी संधियें भी छिपीहों ऐसी उत्तम होती हैं। दोनों गुल्फन बहुत पुष्ट और न अधिक कृश उत्तम होते हैं। दोनों पांव पूर्वोक्त लक्षणवाले कछुएकी पीठके समान सुडौल उत्तम होते हैं। इनके सिवाय वायु, मूत्र, मल, गुह्यावयत्र,निद्रा, जागरण, आदि अन्य व्यवहार तथा हास्य और रोदन तथा स्तनोंका पीनास्वाभाविक ठीक होने उत्तम होते हैं। यह लक्षण दीर्घायु कुमार के होते हैं इससेविपरीत लक्षण अल्पायु बालकोंके होते हैं।इसप्रकार दीर्घजीवी बालकोंके लक्षणकथन कियेगये॥१०५॥
धात्रीपरीक्षा।
अतो धात्रीपरीक्षामुपदेक्ष्यामः॥१०६॥
अब धात्रिकी परीक्षाका वर्णन करते हैं॥१०६॥
अथ ब्रूयाद्धात्रीमानयेतिसमानवर्णां यौवनस्थां निभृतामनातुरामव्यङ्गामव्यसनामविरूपामजुगुप्सितां देशजातीयामक्षुद्रामक्षुद्रक-
र्मिणीं कुले जातां वत्सलामरोगजीवद्वत्सां पुंवत्सां दोग्ध्रीमप्रमत्तामशायिनीमनुच्चारशायिनीमनन्तावशायिनीं कुशलोपचारां शुचिमशुचिद्वेषिणीं स्तन्यसम्पदुपेतामिति॥१०७॥
इसके अनन्तर एक मनुष्यको कहे कि धात्री (धाय) को लावो। वह धात्री अपनेसमान वर्णकी हो, युवा हो, अयोग्य न हो, रोगरहित हो, सर्वांग संपन्न हो, कुरूपऔर कुचरित्र न हो निदनीय न हो, अपने देशकी हो नीच न हो, उत्तम स्वभावव कर्मवाली हो, अच्छे कुलकी हो, बालकको प्यार करनेवाली हो, जिसको अपने बच्चेजीते हों अर्थात् मृतवत्सा न हो और लडकेवाली हो, जिसके स्तनों में बहुतसा दूध हो,असावधान न हो, बहुत सोनेवाली न हो तथा विना कहे कहीं एकान्तमें सोनेवाली नहो, जातिसे पतित न हो, चतुर उपचार करनेवाली हो, पवित्र हो, अपवित्रतासे द्वेषरखतीहो, जिसका स्तन्य उत्तम हो ऐसे गुणोंवाली धात्री उत्तम होती है॥१०७॥
उत्तम स्तनके लक्षण।
तत्रेयं स्तनसम्पन्नात्यूर्द्ध्वौ नातिलम्बौ अनतिकृशौ अनतिपीनौ युक्तपिप्पलकौ सुखप्रपानौ चेति स्तनसम्पत्॥१०८॥
स्तनोके यह लक्षण उत्तम होते हैं। अर्थात् धायके स्तन ऐसे होने चाहिये।अधिक ऊंचें, अधिक लम्बे, अधिक कृश और अधिक मोटे न हों। अनुरूप लक्षणवाले खूबसूरत पीपल के पत्तेके समान पीछेसे चौडे और आगेसे नोंकीले जिनमेंसेबालक सूखपूर्वक दूध पी सके ऐसे उत्तम होते हैं॥१०८॥
उत्तमदूधके लक्षण।
स्तन्यसम्पत्तुप्रकृतिवर्णगन्धरसस्पर्शमुदपात्रे च दुह्यमानं दुग्धमुदकं वेतिप्रकृतिभूतत्वात्तत्पुष्टिकरमारोग्यकरञ्चेतिस्तन्यसम्पदतोऽन्यथा व्यापन्नं ज्ञेयम्॥१०९॥
अब दूधके लक्षणोंका वर्णन करते हैं। स्तनोंका दूध वर्ण, गंध, रस और स्पर्शमेंस्वाभाविक गुणोंवाला होना चाहिये। स्वाभाविक गुणेके ये लक्षण हैं कि जो दूधजलके पात्र में डालनेसे जलके साथही मिलजाय वही दूध पुष्टिकारक, आरोग्य रखनेसेवाला तथा उत्तम होता है। इन लक्षणों से विपरीत लक्षणोवाला दूध दूषित जानना॥१०९॥
वातदूषितदूध।
तस्य विशेषाः श्यावारुणवर्णं कषायानुरसंविशदमनतिलक्ष्यगन्धं रूक्षं द्रवं फेनिलं लघु अतृप्तिकरं कर्षणं वातविकाराणां कर्तृवातोपसृष्टं क्षीरमभिज्ञेयम्॥११०॥
दूषित दूधके ये लक्षण हैं। जो दूध काले या लालवर्णका हो कसैले रसयुक्त होजिसमेंसे कुछ २ गंध आतीहो, जो अत्यंत रूखा होय, चंचल तथा झागयुक्त हो,जिसके पीनेसे तृप्ति न होतीहो, बहुत हल्का हो, जिसक पीनेसे बालक कृश होजायतथा वायुके विकारों को उत्पन्न करताहो वह वातदूषित दूध जानना॥११०॥
पित्तदूषितदूध।
कृष्णनीलपीतताम्रावभासंतिक्ताम्लकटुकानुरसंकुणपरुधिरगन्धिभृशोष्णं पित्तविकाराणां कर्तृपित्तोपसृष्टंक्षीरमभिज्ञेयम्॥१११॥
जो दूध कृष्ण तथा नीलवर्णका अथवा पीले या तांबेके वर्णका हो और उसदूधका कडुआ, खट्टा, अथवा चरपरा अनुरस हो, मुर्देकीसी गंध आतीहो, अथवारुधिरकीसी गंध हो और अत्यंत गरम हो एवम् पित्तके रोगोंको उत्पन्न करनेवाला होउसको पित्तदूषित जानना॥११९॥
कफदूषित दूध।
अत्यर्थशुक्लमतिमाधुर्य्योपपन्नं लवणानुरसंघृततैलवसामज्जगन्धिपिच्छिलं तन्तुमदुदकपात्रेऽवसीदतिश्लेष्मविकाराणां कर्त्तृश्लेष्मोपसृष्टं क्षीरमभिज्ञेयम्॥११२॥
जो दूध अत्यन्त श्वेतवर्ण हो, अधिक मीठा हो, लवण अनुरसयुक्त हो, घृत तैलवसा मज्जाकीसी गंधवाला हो, गाढा हो, तारयुक्त हो, जलमें डालनसे डूब जाताहोएवम् कफरोगोंको उत्पन्न करनेवाला हो उसको कफदूषित जानना॥११२॥
तेषान्तुत्रयाणामपिक्षीरदोषाणां प्रकृतिविशेषमभिसमीक्ष्य यथा स्वं यथा दोषञ्च वमनविरेचनास्थापनानुवासनानिविभज्यकृतानि प्रशमनाय भवन्ति॥११३॥
उन तीनों प्रकारके दूषित दूधोंको शुद्ध करने के लिये धायको वमन, विरेचनऔर आस्थापन तथा अनुवासन कर्म यथायोग्य रीतिपर विभागपूर्वक करनाचाहिये॥११३॥
धात्रीके खानेपीनेकी विधि।
पानाशनविधिस्तुदुष्टक्षीरायायवगोधूमशालिषष्टिकमुद्गहरेणुककुलत्थसुरासौ वीरकतुषोदकमैरेयमेदकलशुनकरञ्जप्रायः स्यात्॥११४॥
उस दूषित दूधवाली धायको खानेपोनेके लिये प्रायः यव, गेहूं, उत्तम शालिचा-
बल, साठीचावल मूंग, हरेणु, कुल्थी, सुरा, सौवीर, मैरेय, तुषोदक, मेदक, लहसुनऔर करंज आदि द्रव्योंको देना चाहिये॥११४॥
क्षीरदोषविशेषांश्चावेक्ष्यावेक्ष्यतत्तद्विधानं कार्य्यं स्यात्॥११५॥
क्षीर (दूध) के दोषोंको विशेषरूप से विचारकर और उनमें वातादि दोषोंकीपृथक् पृथक् परीक्षाकर चिकित्सा करनी चाहिये॥११५॥
दुग्धशोधक उपाय।
पाठामहौषध—सुरदारु—मुस्तमूर्वागुडूची—वत्सकफल—किराततिक्तकटुकरोहिणीशारिवाकषायाणाञ्च पानं प्रशस्यते। तथान्येषां तिक्तकषायकटुकमधुराणां द्रव्याणां प्रयोगः। इति क्षीरशोधनान्युक्तानि भवन्ति।क्षीरविकारविशेषानभिसमीक्ष्यमात्राकालञ्चेति क्षीरविशोधनानि॥११६॥
धात्रीके दूधको शुद्धकरने के लिये पाठा, सोठ, देवदारु, नागरमोथा, मूर्वा, गिलोय,इन्द्रयव, चिरायता, कुटकी और सारिवाका क्वाथ बना पिलाना चाहिये। तथादोषोंके अनुसार विचारपूर्वक कडवे, कसैले, चरपरे तथा मधुर द्रव्योंका प्रयोगकरना चाहिये। इसप्रकार क्षीरके शोधनके उपाय कहेगये। और क्षीरके विकारोकोपृथक् पृथक् विचारकर मात्रा तथा कालका ध्यान रखकर उचित रीतिसे उचितद्रव्योंद्वारा शोधन करना चाहिये यह दूधशोधनकी विधि कहीगई॥११६॥
दुग्धोत्पादकविधि।
क्षीरजननानितुमद्यानिसीधुवर्ज्यानिग्राम्यानूपौदकानिचशाकधान्यमांसानिद्रवमधुराम्लभूयिष्ठाश्चाहाराः क्षीरिण्यश्चौषधयः क्षीरपानञ्चानायासश्चेति वीरणषष्टिशालिकेक्षुबालिकादर्भकुशकाशगुन्द्रोत्कटमूलकषायाणाञ्चपानमितिक्षीरजननान्युक्तानि॥११७॥
स्तन्य अर्थात् स्तनोंमें दूध बढानेवाले यह द्रव्य हैं। जैसे शीधुमद्यके सिवायअन्य सबप्रकारके मद्य, ग्राम्य और अनूप तथा जलमें होनेवाले शाक, धान्य औरमांस, पतले पदार्थ,मधुर और खटमीठे द्रव्य, गुल्लड आदि क्षीरीगण, दूधका पीना, परिश्रमनकरना, वीरणतृण, साठीचावल, इक्षुबालिका दर्भ, कुशा, काश, गुन्द्रपटेर और उत्कटइन सबकी जडोंका क्वाथ बना मिसरी मिला पीना स्तनों में दूधको बढाता है॥११७॥
शुद्धदूधवालीका कर्त्तव्यकर्म।
धात्री तु यदा खादुबहुलशुद्धदुग्धास्यात्तदास्नातानुलिप्ताशुक्लवस्त्रं परि-
धायैन्द्रीं ब्राह्मीं शतवीर्य्यां सहस्रवीर्य्यां मोघामव्यथां शिवामरिष्टां वाठ्यपष्पीं विष्वक्सेनकान्तामिति बिभ्रत्यौषधीः कुमारं प्राङ्मुखं प्रथमं दक्षिणं स्तनं पाययेदिति धात्रीकर्म॥११८॥
जब देखे कि धायका दूध स्वादिष्ठ, बहुत और शुद्ध होगया है तब इस धायकोस्नान कराकर चंदनादिसे सुशोभित करा स्वच्छ निर्मल वस्त्र पहिना इन्द्रायण, ब्राह्मी,सफेद और हरी दूब, पाढ, हरड, आमले, नीम, बला, प्रियंगु, रेंडुका, इन सब औषधियोंको एक धागे में मालाके समान वांध गले में धारणकरे फिर पूर्वकी ओर मुखकर बालकको पहिले दहिना स्तन पानकरावे॥१९८॥
कुमारागारविधि।
अतोऽनन्तरं कुमारागारविधिमनुव्याख्यास्यामः।वास्तुविद्याकुशलः प्रशस्तरम्यमतमस्कं निवातं प्रवातैकदेशं दृढसपगतश्वापदपशुदंष्ट्रिमूषिकपतंगं सुसंविभक्तसलिलोलूखलमूत्रवर्च्चः स्थानस्नानभूमिमहानसमृतुसुखं यथा तु शयनासनास्तरणसम्पन्नं कुर्य्यात्। तथा सुविहितरक्षाविधानबलिमंगलहोमप्रायश्चितं शुचिवृद्धवैद्यानुरक्तजनसम्पूर्णमिति कुमारागारविधिः॥११९॥
इसके उपरांत अब बालकके रहनेका स्थान बनानेकी विधिका कथन करते हैं।उत्तम वास्तुविद्याको जाननेवाला चतुर पुरुष उत्तम इधर उधर फिरने योग्य अंधकाररहित, जिसस्थान में अधिक वायु न आतीहो तथा एक ओर सुन्दर पवन आती भीहो ऐसा दृढ अर्थात् पक्का मकान बनावे। जिस मकान में कुत्ते, पशु, अन्य दांतोंवालेजानवर तथा हिंसक जीव, मच्छर, मूषक, पतंग, आदि न आसकें। और उस घरमेंविधिपूर्वक यथास्थान जल, ऊरवल, मलमूत्र त्यागनका स्थान, स्नान करनेका स्थानभोजन वनानेका स्थान यथाऋतु शयन करने और वैठनेके लिये तथा बिछाने और ओढनेके लिये सुखदायी वस्त्र एवं इस घरमें संपूर्ण रक्षाके विधान, बलिदान, मंगलकर्म, होम और प्रायश्चित्तकी सामग्री तथा पवित्र वृद्ध, वैद्य और बालकसे प्रीतिरखनेवाले मनुष्य रहने चाहिये। इसप्रकार कुमारागारकी विधि वर्णन कीगई॥११९॥
शयनास्तरणप्रावरणानि कुमारस्य मृदुलघुशुचिसुगन्धीनिस्युः स्वेदमलजन्तुमन्तिमूत्रपुरीषोपसृष्टानि च वर्ज्यानि स्युः॥१२०॥
बालकके सोनेकी शय्या और बिछानेके वस्तु और ओढनेके वस्त्र हल्के सुन्दर,
नरम, पवित्र और सुगंधित होने चाहिये। उनमें पसीना, मल, मूत्र, जीव, विष्ठाआदि किसीसमय भी न रहना चाहिये॥१२०॥
असतिसम्भवेऽन्येषां तान्येवचसुप्रक्षालितोपधानानि सुधूपितानि सुशुद्धशुष्काण्युपयोगं गच्छेयुः॥२१॥
यदि बारबार नये और स्वच्छ वस्त्र प्राप्त न करसकें तो उन्ही वस्त्रोको उत्तमरीतिसे धोकर स्वच्छ करे और अच्छीतरह सुखा शुद्ध सूखे होनेपर सुगंधित धूप आदि दे उन्हीका वर्ताव करे। अर्थात् पहिले बदल दिया करे और दूसरे घुले हुआको उपयोग किया करे॥१२१॥
वस्त्रों में धूपदेनेवाली औषधी।
धूपनानिपुनर्वाससांशयनास्तरणप्रावरणानाञ्च यवसर्षपातसीहिंगु—गुग्गुलु—वचाचोरकवयः स्थागोलोमीजटिला—पलङ्कषाशोकरोरोहिणी सर्पनिर्मोकाणि घृते सपृक्तानि स्युः॥१२२॥
धूपनद्रव्य अर्थात् बालकोंके वस्त्रोंको धुनी देनेके यह द्रव्य हैं। जैसे यव, सरसा,अलसी, होग, गूगल, वच, गठीवन, हरड, बालछडे, जटामांसी, लाख, अशोक,कुटकी और सांपकी कांचुली इनसबके बारीक चूर्णको घृत में मिला बालकके वस्त्र, शय्या आदि सबको धूनी देनीचाहिये॥१२२॥
कुमारकी अन्यरक्षा विधि।
मणयश्च धारणीयाः कुमारस्य खड्गरुरुगवयवृषभाणां जीवतामेवदक्षिणेभ्यो विषाणेभ्योऽग्राणिगृहीतानि स्युः। मन्त्राद्याश्चौषधयोजीवकर्षभकौचयान्यपि अन्यानि ब्राह्मणाः प्रशंसेयुः॥१२३॥
इस बालकको मणि धारण कराना चाहिये। और गैंडा, रुरू, गज, अथवा रोझया वृषभ इन जीते हुओंमेंसे किसीका दहिनी सीगका अग्रभाग या इनसबकेही दहिनीसींगका अग्रभाग और मंत्रादिकोंसे अभिमंत्रित औषधियें, जीवक, ऋषभक, अन्यवच, सीप आदि जिन द्रव्योको ब्राह्मण अच्छा कहतेहों वह सब इस बालकको धारणकराना चाहिये॥१२३॥
बालकके खिलौने।
क्रीडनकानिखल्वस्य तु विचित्राणि घोषवन्त्याभिरामाणि अगुरूण्यतीक्षणाग्राणि अनास्य प्रवेशीनि अप्राणहराणि अवित्रासनानि स्युः॥१२४॥
इस बालकके खेलनेके लिये चित्र विचित्र शब्द करनेवाले अर्थात् बजनेवाले सुन्दरखिलौने रखने चाहिये। वह खिलौने हलके, जिनके हाथ पावो पर गिरजानेसे चोट न
लगे तथा आगेसे पैनें न हों एवं मुखमें न चुभजांय, ऐसे तीक्ष्ण न हों जो बालककेप्राणोंको लेलें या कष्ट देवें। इसप्रकारके हलके खिलौने होने चाहिये॥१२४॥
नहि अस्य वित्रासनं साधुतस्मात्तस्मिन्रुदत्यभुञ्जाने वा अन्यत्र विधेयतामगच्छतिराक्षसपिशाचपूतनाद्यानां नामान्याह्वयताकुमारस्य वित्रासनार्थं नामग्रहणं न कार्य्यं स्यात्॥१२५॥
बालकको कभी भी डराना नहीं चाहिये। यदि बालक रोता हो और खाता न हो वाअन्य उपद्रव करताहो तौभी उसको भयभीत नहीं करना चाहिये। और उसकोडराने के लिये किसी राक्षस, पिशाच, पूतना आदिका नामतक नहीं लेना चाहिये। तथा उस बालकको डरानेके लिये वह देख।भूत आया इत्यादि शब्द कभी भी नहींकहना चाहिये॥१२५॥
कुमार के रोगोंका उपचार।
यदि तु आतुर्य्यं किञ्चित्कुमारमागच्छेत्तत्प्रकृतिनिमित्तपूर्वरूपलिङ्गोपशयविशेषैस्तत्त्वतोनुबुध्यसर्वविशेषानातुरौषधदेशकालाश्रयानवेक्षमाणश्चिकित्सितुमारभेतैनं मधुरमृदुलघुसुरभिशीतसङ्करं कर्मप्रवर्त्तयन्नेवं सात्म्याहिकुमारा भवन्ति तथा ते शर्म लभन्ते अचिरायरोरोगे तु अरोगवृत्तमातिष्ठेद्देशकालात्मगुणविपर्य्ययेणवर्त्तमानः॥१२६॥
यदि बालकको किसीप्रकारकी व्याधि उत्पन्न होजाय तो उस रोगकी प्रकृतिनिमित्त पूर्वरूप, रूप, उपशयके भेदेसे रोगके तत्त्वको निश्चयकरके फिर रोगीऔषधि देश, काल और आश्रय इनको विशेषरूपसे विचारकर मधुर, नरम, लघु,सुगंधित, तथा शीतल द्रव्ययुक्तकर विधिपूर्वक चिकित्सा करे। इसप्रकारकी चिकित्सा करना बालकोंको सात्म्य होती है। और इसप्रकारकी चिकित्सासे बालककोशीघ्र आराम होजाताहै। जब बालकको व्याधि हो तो देश, काल और शारीरिकस्वभाव देखकर उनसे विपरीत गुण करनेवाली जैसे शीतकाल में उष्ण, उष्णमेंशीतलक्रिया व्याधिको शीघ्र नाश करनेके लिये युक्तिपूर्वक करना चाहिये॥१२६॥
क्रमेणासात्म्यानि परिवर्त्योपयुञ्जनः सर्वाणि अहितानि वर्जयेत्तथा बलवर्णं शरीरायुषां सम्पदमवाप्नोतीति॥१२७॥
असात्म्यद्रव्य तथा अहितकर्ता सबपदार्थों का बालकसे क्रमपूर्वक त्यागकरादेना चाहिये। ऐसा करनेसे बालकके बल, वर्ण, शरीर और आयुकी वृद्धिहोती है॥१२७॥
एवमेनं कुमारमायौवनप्राप्तेर्धर्मार्थकुशलागमनाच्चानुपालयेदितिपुत्राशिषां समृद्धिकरं कर्मव्याख्यातम्। तदाचरन्यथोक्तैर्विधिभिः पूजां यथेष्टंलभतेऽनसूयक इति॥१२८॥
जबतक यह बालक युवा न होजाय तबतक इस बालकको धर्म और अर्थकीयोग्यता प्राप्त करने लिये इस विधिसे पालन करना चाहिये। बालकके हित औरशुभकी इच्छाके लिये तथा समृद्धिके करनेवाले यह कर्म कहेगये हैं। जो मनुष्य निन्दाद्वेष आदिको त्यागकर इस कथन की हुई विधिका पालन करते हैं वह अपनी इच्छानुरूप प्रतीष्ठाको प्राप्त होते हैं॥१२८॥
अध्यायका उपसंहार।
पुत्राशिषां कर्मसमृद्धिकारकं यदुक्तमेतन्महदर्थ संहितम्। तदा चरज्ज्ञोविधिभिर्यथातथंपूजां यथेष्टं लभतेऽनसूयः॥१२९॥ शरीरंचिन्त्यतेसर्वं दैव मानुषसम्पदा। सर्वभावैर्यतस्तस्माच्छारीरं स्थानमुच्यते॥१३०॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायां शारीरस्थानं समाप्तम्॥
अब अध्यायके उपसंहारमें दो श्लोक हैं कि पुत्रके हितके लिये और पुत्रकीसमृद्धिके करनेवाला जो यह महान् अर्थका संग्रह कथन किया है इस विधिकोईर्षा, द्वेष तथा निन्दारहित ज्ञानी वैद्यके करनेसे अपनी इच्छानुरूप प्रतिष्ठाकोप्राप्त होता है। शरीरको लक्ष्य रखकर देवी और मानुषी संपत्तिका संपूर्णभावोंसे इसस्थानमें ही सबप्रकारसे चिन्तन कियागया है इसलिये इस स्थानको शारीरस्थानकहते हैं॥१२९॥१३०॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसहितायां शारीरस्थाने टकसालनिवासि प० रामप्रसाद-
वैद्योपाध्यायविरचितभाषाटीकाया जातिसूत्रीयशारीर नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
शारीरिक निर्देशसो, मनुज सृष्टि विज्ञान।
संख्या नाडी मर्मयुत, यथा शरीर विधान॥१॥
आत्मजगत् अध्यात्म यह, द्विविध विश्व सामान॥
साधन मोक्ष शरीर सब, कथन कियो भगवान्॥२॥
चरकरचित शुभतंत्रमे, भयो चतुर्थस्थान॥
सो प्रसादनीयुत कियो, रामप्रसाद सुजान॥३॥
॥समाप्तमिदं शारीरस्थानम्॥
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इन्द्रियस्थानम्।
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प्रथमोऽध्यायः।
अथातोवर्णस्वरीयमिद्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम वर्णस्वरीय इन्द्रियकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजीकथन करनेलगे।
आयुके प्रमाण जाननेकी रीति।
इह खलु वर्णश्च स्वरश्च गन्धश्च रसश्च स्पर्शश्च चक्षुश्च श्रोत्रञ्च घ्राणञ्च रसनञ्च स्पर्शनञ्च सत्त्वञ्च भक्तिश्च शौचञ्च शीलञ्चाचारश्च स्मृतिश्चाकृतिश्च बलञ्चग्लानिश्च तन्द्राचारम्भश्च गौरवञ्च लाघवञ्च आहारश्च विहारश्चाहारपरिणामश्चोपायश्चापायश्च व्याधिश्च व्याधिपूर्वरूपञ्च वेदनाश्चोपद्रवाश्च छाया च प्रतिच्छाया च स्वप्नदर्शनञ्च दूताधिकारश्च पथिचौत्पातिकञ्चातुरकुले भावावस्थान्तराणि च भेषजसंवृत्तिश्च भेषजविकारयुक्तिश्चेति परीक्ष्याणि प्रत्यक्षानुमानोपदेशैरायुषः प्रमाणविशेषं जिज्ञासमानेनभिषजा॥१॥
वैद्यको रोगीके वर्ण, स्वर, गंध, स्पर्श, नेत्र, कान, नासिका, जिह्वा, त्वचा, सत्त्व,इच्छा, शौच, शील, आचार, स्मृति, आकृति, बल, ग्लानि, तंद्रा, कर्म, शरीरकीगौरवता और लाघवता, आहार, विहार, आहारका परिणाम, रोगकी शान्तिकाउपाय, अपाय, व्याधि, व्याधिके पूर्वरूप, वेदना, उपद्रव, छाया, प्रतिच्छाया, स्वप्नदेखना, दूतकी योग्यता, रोगीको देखने के लिये जाते हुए रास्ते में औत्पातिक भाव,रोगीके घरवालोंकी अवस्था विशेष, तथा अन्य अवस्था, औषधीके गुण विशेष,औषधी के दोष, रोगमें किसप्रकार से किस औषधका प्रयोग करना इन सबको रोगीकेजीवन, मरण तथा आयु विशेषके प्रमाण जानने की इच्छा करनेवाले वैद्यको योग्यहै कि, प्रत्यक्ष अनुमान और आप्तोपदेशके द्वारा परीक्षा करे॥१॥
परीक्ष्यवस्तुओं के भेद।
तत्र तु खलु एषां परीक्ष्याणां कानिचित्पुरुषमनाश्रितानिकानिचिच्चपु-
रुषसंश्रयाणि। तत्र यानि पुरुषमनाश्रितानि तानि उपदेशतो युक्तितश्च परीक्षेत।पुरुषसंश्रयाणिपुनः प्रकृतितश्च विकृतितश्च॥२॥
इन सब प्रकारकी परीक्षाओं में बहुतसी परीक्षा तो पुरुषके आश्रय होती हैंऔर बहुतसी ऐसी हैं जो पुरुषाश्रित नहीं हैं। उनमें जो पुरुषाश्रित नहीं हैं उनकीउपदेश और युक्ति अर्थात् अनुमान और आप्तोपदेशके द्वारा परीक्षा करनीचाहिये। एवम् जो पुरुषाश्रित हैं उनकी प्रकृति और विकृतिद्वारा परीक्षा करनीचाहिये॥२॥
प्रकृतिवर्णन।
तत्र प्रकृतिर्जाति प्रसक्ताकुलप्रसक्ता च देशानुपातिनी च कालानुपातिनी च वयोऽनुपातिनी च प्रत्यात्मनियताचेति। एवावज्जातिकुलदेशकालवयः प्रत्यात्मनियताहितेषां तेषां पुरुषाणां ते ते भावविशेषा भवन्ति॥३॥
प्रकृति (स्वभाव) की परीक्षा इतने प्रकार की होती है। जैसे—जातिगत प्रकृति,कुलगत प्रकृति, देश के अनुरूप प्रकृति, तथा समयानुरूप प्रकृति और प्रतिपुरुष मेंउसकी आत्मनियत प्रकृति इसप्रकार पुरुषकी जाति, कुल, देश, काल, अवस्थाऔर शरीरभेदसे प्रकृति अर्थात् स्वभाव प्रत्येक पुरुषका उसके अनुरूप होता है सोइन भेदोंसे और पुरुषभेदसे मनुष्यों में भाव विशेष होते है। इन सब भावोंका अपनेअपने ठीक स्वभावमें रहना प्रकृति कहाजाता है॥३॥
विकृतिका वर्णन।
विकृतिः पुनर्लक्षणनिमित्ता च लक्ष्यनिमित्ता च निमित्तानुरूपा च।तत्र लक्षणनिमित्तानामसायस्याः शरीरे लक्षणान्येव हेतु भूतानि भवन्ति। लक्षणानिहिकानिचिच्छरीरोपनिबद्धानि भवन्ति। यानि हितस्मिंस्तस्मिस्तत्राधिष्ठानमासाद्यतां तां विकृतिमुत्पादयन्ति॥४॥
और विकृति तीन प्रकार की होती है। जैसे—लक्षणनिमित्ता विकृति, लक्ष्यनिमित्ताविकृति और निमित्तानुरूपा विकृति। शरीरकी आरोग्यताके हेतुभूत जो लक्षण होते हैंउनके विकृत होजानेसे वह विकृति के निमित्त मानेजाते हैं उनको लक्षणनिमित्ताविकृति कहते है क्योंकि कोई २ लक्षणही इसमकार शरीरसे बंधे हुए हैं समय समयपर प्रगट होकर जिस २ समय में जिस २ प्रकारसे शरीर में वह लक्षण होते हैं उस उस प्रकारकी विकृति (विकार) को उत्पन्न करतें हैं॥४॥
लक्ष्यनिमित्तातुसायस्या उपलभ्यते निमित्तं यथोक्तं निदानेषु॥५॥
रोगका निदान कथन करनेके समय लक्ष्यनिमित्ता विकृतिका कथन करचुकेंहैंअर्थात् रोगोंके निमित्तरूप वातादिकोंकी विकृतिको लक्ष्यनिमित्ता विकृतिकहते हैं॥५॥
निमित्तानुरूपाके लक्षण।
निमित्तानुरूपातुनिमित्तार्थानुकारिणीयातामनिमित्तां निमित्तमायुषः प्रमाणज्ञानस्येच्छन्ति भिषजो भूयश्चायुषः क्षयनिमित्तां प्रेत लिङ्गानुरूपांयामायुषोऽन्तर्गतस्य ज्ञानार्थमुपदिशन्ति धीराः॥६॥
निमित्तकी अर्थानुरूपा विकृतिको निमित्तानुरूपा विकृति कहते हैं अर्थात् विनाहीकारणके स्वभावादिकोंमें विकृति होजाना निमित्तानुरूपा विकृति कहीजाती है। इसीविकृतिको वैद्यलोग अनिमित्त होनेसे आयुकी परीक्षाका निमित्त मानते हैं। बुद्धिमान् इसी विकृतिको आयुके क्षयका निमित्त और प्रेतत्वका चिह्न, मानते हैं। तथागतायु मनुष्यकी आयुनाशके ज्ञान के लिये इसी विकृतिको कथन करते हैं॥६॥
यामधिकृत्य पुरुष संश्रियाणिमुमूर्षतां लक्षणानि उपदेक्ष्यामः। इत्युदेशः। तद्विस्तरेणानुव्याख्यास्यामः॥७॥
इस विकृति के आश्रयसेही मरनेवाले पुरुषके लक्षणोंका उपदेश करेंगे। यह उद्देशहै। पुरुषके जिन लक्षणों को देखकर उसके मरनेका ज्ञान होसकता है उन्हीं विकृतिआदिकोंको विशेषरूपसे वर्णन करते हैं॥७॥
प्रकृतिवर्ण।
तत्रादित एव वर्णाधिकारस्तद्यथा कृष्णः कृष्णश्यामः श्यामावदातो वदातश्च इति प्रकृतिवर्णाः शरीरस्य॥८॥
उनमें पहिले वर्णकी प्रकृति और विकृतिका वर्णन करते हैं। जैसे–कृष्णवर्ण,कृष्ण श्यामवर्ण, श्याम गौरवर्ण और गौरवर्ण यह शरीरके प्रकृतिवर्ण अर्थात् स्वाभाविकवर्ण होते हैं॥८॥
यांश्चापरानुपेक्षमाणोविद्यादनुकतोऽन्यथावापिनिर्दिश्यमानांस्तज्ज्ञैः॥९॥
इनके सिवाय और भी जो शरीर के वर्ण (रंग) होते हैं वह सब इन ऊपर कहे हुएवर्णोंकी न्यूनाधिक्यतासे और वर्णविशेषको जानलेना चाहिये । वर्णके जानने वाले बुद्धिमान् इसप्रकार उपदेश करते हैं और यह शरीरके स्वाभाविक वर्ण हैं॥९॥
वैकारिकवर्ण।
नीलश्यामताम्रहरितशुक्लाश्च वर्णाः शरीरस्य वैकारिका भवन्ति।यांश्चापरानुपेक्षमाणो विद्यात्प्राग्विकृतानभूत्वोत्पन्नानितिप्रकृतिविकृतिवर्णाभवन्त्युक्ताः शरीरस्य॥१०॥
नील, श्याम, ताम्र, हरित और सफेद, यह शरीर के विकृति वर्ण हैं।इनके सिवायऔर भी जैसे कि जो वर्ण पहिले देखा न हो अथवा पहिलेसे दूसरे प्रकारका होजायउसको भी विकृतवर्ण कहते हैंबुद्धिमानोंको पहिले शरीरको प्रकृतिवर्ण और विकृतवर्णकी परीक्षा करनी चाहिये । इसमकार शरीरके वर्णकी प्रकृति और विकृति वर्णनकीगई है॥१०॥
वर्णजन्यमृत्युलक्षण।
तत्र प्रकृतिवर्णोऽर्द्धशरीरे विकृतिवर्णोऽर्द्धशरीरे द्वावपि वर्णौमर्य्यादाविभक्तौ दृष्ट्वायद्येनं सव्यदक्षिणविभागेन यद्येवं पूर्वपश्चिमविभागेनयद्युत्तराधरविभागेन यद्यन्तर्वहिर्विभागेन आतुरस्यारिष्टमिति विद्यात्॥११॥
यदि प्रकृतिवर्णवाले मनुष्यके शरीरमें वामभाग अथवा दक्षिण भाग या बागे पीछेदोनो ओर या केवल पीछे तथा केवल आगे या किसी अंग में स्वाभाविक औरकिसी अंगमें वैकारिक वर्ण दिखाई देवे तो उस रोगीको अरिष्ट लक्षण जानना॥११॥
मृत्युके अन्यलक्षण।
एवमेव वर्णभेदो मुखेऽप्यन्यतोवर्त्तमानो सरणाय भवति॥१२॥
यदि रोगीके मुखका वर्ण पहिलेसे बिलकुल बदलजाय अथवा और प्रकार स्वाभाविक वर्ण एकदम पलटजाय तो यह मृत्युका चिह्न जानना॥१२॥
वर्णभेदेन ग्लानिहर्षरौक्ष्यस्नेहा व्याख्याताः॥१३॥
वर्णभेदसे ग्लानि, हर्ष, रूक्षता और स्नेह इनसबका निर्देश कियागया है॥१३॥
तथापि प्लवव्यंगतिलकालकपिडकानामन्यतमस्यांननेजन्मातुरस्यैवमेव अप्रशस्तं विद्यात्॥१४॥
तथा प्लव (लहसन) व्यंग, तिल, कालक, पिडका इनका वेसमय एकाएकरोगीके मुखपर प्रगट होजाना रोगीके लिये अशुभ कहाजाताहै॥१४॥
नखनयनवदनमूत्रपुरीषहस्तपादौष्ठादिष्वपि च वैकारिकोक्तानां वर्णानामन्यतमस्य प्रादुर्भावोहीनबलवर्णेन्द्रियेषु लक्षणमायुषः क्षयस्य
भवति। यच्चान्यदपि किञ्चिद्वर्णवैकृतमभूतपूर्वं सहसोत्पद्येतानिमित्तमेव हीयमानस्यातुरस्यतच्चारिष्टमिति वर्णाधिकारः॥१५॥
रोगीके नख, नेत्र, मुख, मूत्र, मल और हाथ पैरोंके वर्ण एकाएक विकृत होजायँतथा स्वाभाविक नष्ट होकर और प्रकारके वैकारिक वर्ण उत्पन्न होंजायँ अथवा बल,वर्ण और इन्द्रियोंमें एकाएक हीनता उत्पन्न होजाय तो यह रोगीके आयुनाशक चिह्नजानने चाहिये इनके सिवाय और भी जो कभी पहिले न देखाहो उस प्रकारके वर्णविकारका एकाएक उत्पन्न होजाना भी रोगीकी मृत्युका चिह्न होताहै। इसप्रकारअरिष्टकारक वर्णाधिकारका वर्णन कियागया॥१५॥
स्वराधिकारः।
स्वराधिकारस्तु हंसकौञ्चनेमिदुन्दुभिकलविंककाककपोतझर्झरानुकराः प्रकृतिस्वराः।यांश्चापरानुपेक्षमाणोऽपिविद्यादनूकतोन्यथा वापि निर्दिश्यमानांस्तज्ज्ञैः॥१६॥
अब स्वराधिकार वर्णन करते हैं।हंस, बगुला, चकवा, नगारा, चिडा, कौआ,कबूतर और झींगुर इनके समान स्वर होनेसे प्रकृतिस्वर अर्थात् स्वाभाविक स्वर हैइनके सिवाय जिनका कथन यहांपर नहीं किया गया है उनको भी जिसप्रकार स्वरकेजाननेवालोंने कथन कियाहो उस प्रकारसे जानलेना चाहिये। यह स्वाभाविकस्वरवर्णन कियागया॥१६॥
वैकृतिकस्वरका लक्षण।
एडकग्रस्ताव्यक्तगद्गदक्षामदीनानुकीर्णास्तु आतुराणां स्वरावैकारिकाः।यांश्चापरानुपेक्षमाणोऽपि विद्यात्प्राग्विकृतानभूत्वोत्पन्नान्इ इति प्रकृतिविकृतिस्वराव्याख्याताः॥१७॥
यदि रोगियोंका स्वर मेढेके समान अथवा जो समझा न जाय इसप्रकारका यागद्गद स्वर अथवा शान्त और हीनशब्द या फटाहुआ हो तो वैकारिकस्वर जानना।इसके सिवाय जो पहिले श्रवण न कियाहो इसप्रकारका अभूतपूर्व स्वर भी वैकारिकहोता है। यह स्वरोंकी प्रकृति और विकृतिका वर्णन कियागया॥१७॥
आसन्नमृत्युरोगीका लक्षण।
तत्र प्रकृतिवैकारिकाणां स्वराणामाश्वभिनिर्वृत्तिः स्वरानेकत्वमेकस्य चानेकत्वमप्रशस्तमिति स्वराधिकारः। इति वर्णस्वराधिकारौ यथावदुक्तौमुमूर्षतां ज्ञानार्थमिति॥१८॥
रोगियोंके स्वरका एकाएकी बदलजाना और अनेक प्रकारका स्वर होना तथाअनेक प्रकारसे फटाहुआसा होजाना यह रोगियोंके अरिष्टका चिह्न है। इस प्रकारमरनेवाले रोगियोंके स्वर और वर्णका उनके मृत्युज्ञानके लिये वर्णन कियागया॥१८॥
तत्रश्लोकाः।
यस्य वैकारिकोवर्णः शरीर उपजायते।
अर्द्धेवायदिवाकृत्स्त्रेऽनिमित्तं न च नास्ति सः॥१९॥
यहांपर श्लोक है—जिस मनुष्य के शरीरमें आधेमें वा संपूर्णमें एकाएकी वैकारिकवर्ण प्रगट होजाय वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१९॥
नीलं वायदिवाश्यावं ताम्रं वायदिवारुणम्।
मुखार्द्धमन्यथावर्णोमुखार्द्धेऽरिष्टमुच्यते॥२०॥
यदि रोगीके आधेमुखका वर्ण नीला, श्याम, ताम्रवर्ण या लालवर्ण होजाय औरआधा अन्य वर्णका हो तो यह अरिष्टकारक लक्षण होते है॥२०॥
स्नेहो मुखार्द्धे सुव्यक्तो रौक्ष्यमर्द्ध मुखे भृशम्।
ग्लानिरर्द्धे तथा हर्षो मुखार्द्धे प्रेतलक्षणम्॥२१॥
आधा मुख चिकना हो अर्थात् तेलसे भिगाहुआसा प्रतीत होताहो तथा आधा मुखबिलकुल रूक्ष हो तथा आधेचेहरेमें ग्लानि और आधेमें हर्ष प्रतीत होताहो तो यहरोगीकी मृत्यु होनेके लक्षण हैं॥२१॥
तिलकापिप्लवोव्यङ्गाराजयश्चपृथग्विधाः।
आतुरस्याशुजायन्ते मुखे प्राणान्मुमुक्षतः॥२२॥
जिस रोगीके मुखपर एकाएकी तिल पिप्लव (लहसुन) व्यंग, (झाई) तथा अनेकप्रकारकी रेखा आदि विचित्ररूपसे प्रगट होजायँ तो उसके मरणख्यापक लक्षणजानना॥२२॥
पुष्पाणि नखदन्तेषु पङ्कोवादन्तसंस्थितः।
चूर्णकोवापिदन्तेषुलक्षणं मरणस्य तत्॥२३॥
जिस रोगीके नख और दातोपर रंगविरंगे फूलसे पडजायँअथवा दांतोंपर बहुतगाढी मैल जमजाय एवं दातोंमें चूर्णसा लगा हुआ प्रतीत हो तो उस रोगीके मरणकेलक्षण जानना॥२३॥
ओष्ठयोः पादयोः पाण्योरक्ष्णोर्मूत्रपुरीषयोः।
नखेष्वपि च वैवर्ण्यमेतत्क्षीणबलेऽन्तकृत्॥२४॥
जिस रोगीक दोनों होठ, दोनों पावँ, हाथ, नेत्र, मूत्र, पुरीष और नख इन सबमें एकाएकी विवर्णाता उत्पन्न होजाय और वह रोगी क्षीणबल हो तो उसकी मृत्युकेलक्षण जानना॥२४॥
यस्य नीलावुभावोष्ठौपक्वजाम्बवसन्निभौ।
मुमूर्षुरितितं विद्यान्नरोधीरोगतायुषम्॥२५॥
जिस रोगीके दोनों होठ नीले या पकी हुई जामुनके समान होजायँ तो उस रोगीकोबुद्धिमान् मनुष्य गतायु जाने॥२५॥
एकोवायदिवानेकोयस्य वैकारिकः स्वरः।
सहसोत्पद्यतेजन्तोर्हीयमानस्य नास्ति सः॥२६॥
जिस रोगका स्वर एकाएकी बदलजाय अथवा अनेक प्रकारका वैकारिक होजायउस नष्ट आयु रोगीको नहीं है ऐसा जानना॥२६॥
यच्चान्यदपिकिञ्चित्स्याद्वैकृतं स्वरवर्णयोः।
बलमांसविहीनस्य तत्सर्वं मरणोदयम्॥२७॥
बल और मांसहीन रोगीके स्वर और वर्णमें अन्य किसी प्रकार की विकृति होनाभी उसके मरणका चिह्न जानना॥२७॥
इति वर्णस्वरावुक्तौलक्षणार्थं सुमूर्षताम्।
यस्तु सम्यग्विजानातिनायुर्ज्ञाने समुह्यति॥२८॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थाने वर्णस्वरीयमिंद्रियम्॥१॥
इसप्रकार मरणाभिमुख मनुष्योंके लक्षणों को जानने के लिये वर्ण और स्वरकाकथन किया है। जो वैद्य इनके ज्ञानको भले प्रकार जानता है वह आयुके जाननेमेंमाहेको प्राप्त नहीं होता॥२८॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायामिन्द्रियस्थाने टकसालनिवासिपण्डितरामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभाषाटीकायां वर्णस्वरीयमिन्द्रियं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
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द्वितीयोऽध्यायः।
अथातो पुष्पितमिन्दियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥
अब हम पुष्पित इन्द्रियकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथनकरनेलगे।
पुष्पका लक्षण
पुष्पं यथा पूर्वरूपं फलस्येह भविष्यतः।
तथा लिङ्गमरिष्टाख्यं पूर्वरूपं मरिष्यतः॥१॥
जैसे—जगत् मेहोनेवाले फलका पूर्वरूप फूल देखाजाता है वैसेही मरनेहारे मनुष्यकापूर्वरूप अरिष्टनामके लक्षण भी है॥१॥
अप्येवन्तु भवेत्पुष्पं फलेनाननुबन्धियत्। फलञ्चापिभवेत्किञ्चिद्यस्य पुष्पं न पूर्वजम्॥२॥ नत्वरिष्टस्य जातस्य नाशोऽस्तिमरणादृते।मरणञ्चापितन्नास्ति यन्नारिष्टपुरः सरम्॥३॥
यद्यपि इसप्रकारके भी बहुतसे फूल होते हैं जिनसे फलकी उत्पत्ति नहीं होतीऔर ऐसे फल भी बहुतसे हैं जिनके फूल नहीं होते परन्तु ऐसा कोई अरिष्ट नहीं होता जो मृत्युको उत्पन्न न करताहो और ऐसा मृत्यु भी नहीं होता जिससे पहिलेअरिष्ट न होताहो॥२॥३॥
मिथ्यादृष्टमरिष्टाभमनरिष्टमजानता।
अरिष्टञ्चाप्यसम्बुद्धमेतत्प्रज्ञापराधजम्॥४॥
प्रायःबहुत स्थानोंमें अरिष्टके न जाननेवाले मनुष्य विनाही अरिष्टके लक्षणोंसेअरिष्ट मानते हैं।और बहुतसी जगह अरिष्टके लक्षण न होते हुए भी अपनी बुद्धि केदोषसे अरिष्ट मानलेते हैं॥४॥
ज्ञानसम्बोधनार्थन्तुलिङ्गैर्मरणपूर्वकैः।
पुष्पितानुपदेक्ष्यामोनरान्बहुविधाञ्छृणु॥५॥
ऐसे बुद्धिहीन वैद्योंकी बुद्धिको चैतन्य करनेके लिये मृत्युसे प्रथम होनेवाले मरणख्यापक पुष्पितनामक चिह्नोंको कथन करतेहैं उन अनेक प्रकारके लक्षणोंको श्रवणकरो। (निश्चय नियत मरणकेबतलानेवाले लक्षणको अरिष्ट कहतेहै)॥५॥
पुष्पितके लक्षण।
नानापुष्पोपमोगन्धोयस्य वातिदिवानिशम्।पुष्पितस्य वनस्येवनानाद्रुमलतावतः॥६॥ तमाहुः पुष्पितं धीरानरं मरणलक्षणैः।सवैर्संवत्सराद्देहं जहातीतिविनिश्चयः॥७॥
जिस शरीरमें अनेक प्रकारके पुष्पित वनके समान अनेक वृक्ष, लताके फूलोंकेसमान सुगंध दिनरात बरावर आनेलगे उस मनुष्यको बुद्धिमान् मनुष्य मरणके
लक्षणोंसे पुष्पित समझे और वह मनुष्य एकवर्षके अन्दर निश्चयही देहको त्याग करदेताहै॥६॥७॥
एवमेकै कशः पुष्पैर्यस्य गन्धः समोभवेत्। इष्टैर्वायदिवानिष्टैः स च पुष्पित उच्यते॥८॥ समासेनाशुभान्गन्धानेकत्वेनाथवा पुमान्।आजिघ्रेद्यस्य गात्रेषु तंविद्यात्पुष्पितं भिषक्॥९॥ आप्लुतानाप्लुतेकाये यस्य गन्धाः शुभाशुभाः। व्यत्यासेनानिमित्ताः स्युः स च पुष्पित उच्यते॥१०॥
जिस मनुष्यके शरीरमें किसी एकएक फूलकी गंध आतीहो वह गंध सुगंधित होअथवा दुर्गंधित हो परन्तु उसको पुष्पित कहते हैं।अथवा जिस मनुष्यके शरीरमेंएक अथवा अनेक प्रकारकी अशुभ गंध आतीहो उसको भी वैद्य पुष्पित जाने।अथवा जिस मनुष्यके स्नान न करने पर अथवा स्नान करनेपर भी विनाही कारणअशुभगंध आतीहो उसको भी पुष्पित कहते हैं॥८॥॥९॥१०॥
तद्यथा चन्दनं कुष्ठं तगरागुरुणीमधु। माल्यं मूत्रपुरीषेवामृतानिकुणपानि वा॥११॥ ये चान्ये विविधात्मानोगन्धाविविधयोनयः। तेऽप्यनेनानुमानेनविज्ञेयाविकृतिंगताः॥१२॥ इदञ्चाप्यतिदेशार्थं लक्षणं गन्धसंश्रयम्।वक्ष्यामोयदभिज्ञायभिषङ्मरणमादिशेत्॥१३॥
जिसके शरीरमें चंदन, कूट, तगर, अगर, शहद, माला, मूत्र, मल और मुर्देकीसीतथा अनेक प्रकारकी अनेक कारणोंवाली गंधे आतीहों वह मनुष्य भी विकृतिकोप्राप्त हुआ जानलेना चाहिये। इसमकार अनुमान द्वारा गंधज्ञानसे मरणके लक्षण जाननेके लिये यह निर्देश किया गया है और भी गंधाश्रित लक्षणोंको कथन करते हैंजिनको जानकर वैद्य मनुष्यके मृत्युका कथनकर सकता है॥११॥१२॥१३॥
गंधका ज्ञान।
वियोनिर्विदुरोयस्य गन्धोगात्रेषु दृश्यते।
इष्टोवायदिवानिष्टोनसजीवतितांसमाम्॥१४॥
जिस मनुष्यकी देहमें विनाही कारण पशु पक्षियोंकीसी सुगंधि अथवा दुर्गंधिआनेलगे वह मनुष्य उसीवर्षमें मृत्युको प्राप्त होजाताहै॥१४॥
एतावद्गन्धविज्ञानं रसज्ञानमतः परम्।
आतुराणां शरीरेषु वक्ष्यामो विधिपूर्वकम्॥१५॥
इसप्रकार गंधके विज्ञानको वर्णन करचुके अब इससे आगे रसके ज्ञानको कथनकरते हैं, जिसप्रकार रोगियोंके शरीर में विधिपूर्वक रस जानना चाहिये॥१५॥
रसज्ञान।
यो रसः प्रकृतिस्थानां नराणां देहसम्भवः। स एषां चरमेकाले विकारान्भजते द्वयम्॥१६॥
जो रस प्रकृतिस्थ मनुष्योंकी देहमें उत्पन्न होता है वह मरनेके समय दो प्रकारकीविकृतिको धारण करताहै॥१६॥
कश्चिदेवास्यवैरस्यमत्यर्थमुपपद्यते।
स्वादुखमपरश्चापि विपुलं भजते रसः॥१७॥
कोई रस तो अत्यंतही विरसताको प्राप्त होजाता है और कोई अत्यंत भारी स्वादुताको प्राप्त होजाता है। यह मरणके समय रसके दो भेद होते हैं॥१७॥
तमनेनानुमानेन विद्याद्विकृतिमागतम्। मनुष्यो हि मनुष्यस्य कथं रसमवाप्नुयात्॥१८॥
मनुष्य मनुष्य के शरीरके रसको किसप्रकार जान सकता है सो कहते हैं कि शरीरकेविकृत हुए रसको इसप्रकार अनुमानसे जाने कि मनुष्यके मरणासन्न होनेसे जबशरीरका रस विकृत होजाताहै अर्थात् बहुत बदजायका होजाता है॥१८॥
विरसताका ज्ञान।
मक्षिकाश्चैवयुकाश्च दंशाश्चमकैः सह।
विरसादपसर्पन्तिजन्तोःकायान्मुमूर्षतः॥१९॥
तो उसके शरीरपर मक्खी, जूआँ, दंश, मच्छर आदि कोई भी स्पर्श नहीं करतेअर्थात् अलग होजातें हैं॥१९॥
मधुरताका ज्ञान।
**अत्यर्थरसिकं कायं कालपक्वस्य मक्षिकाः। **
अपिस्नातानुलिप्तस्यभृशमायान्तिसर्वशः॥२०॥
तथा जिसके शरीर में कालके पकजानेसे अर्थात् मरणासन्न समयमें रस अत्यंतसुस्वादु होजाता है तो वह मनुष्य यदि स्नान आदिकर और चंदनका लेपनकरनसे शुद्धभी हो तो भी उसके शरीरपर चारों ओरसे बहुतही मक्खियें, मच्छर आ आकरपडते हैं॥२०॥
तत्रश्लोकः।
यान्येतानिमयोक्तानि लिङ्गानिरसगन्धयोः।
पुष्पितस्य नरस्यैतैः फलं मरणमादिशेत्॥२१॥
इति चरकसं० इन्द्रि० पुष्पितकमिद्रियं समाप्तम्॥२॥
यहांपर श्लोक है कि जो वैद्य इन हमारे कहेहुए रस और गंधके लक्षणोंसेपुष्पित (मरणासन्न) मनुष्यके लक्षणोंको जानलेता है वह मृत्युके लक्षणोंको कथनकर सकता है॥२१॥
** **इति श्रीमहर्षिचरक० इन्द्रियस्थाने भाषाटीकायां पुष्पितमिन्द्रियनाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
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तृतीयोऽध्यायः।
अथातः परिमर्षणीयमिन्द्रियंव्याख्यास्याम इति ह स्माहभगवात्रेयः॥
अब हम परिमर्षणीय इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे।
वर्णेस्वरेचगन्धेचरलेचोक्तंपृथक्पृथक्।
लिङ्गंमुमूर्षतांसम्यक्स्पर्शेष्वपिनिबोधत॥१॥
हे अग्निवेश! वर्ण, स्वर और गंध तथा रसविज्ञानसे मरणासन्न मनुष्योंके लक्षणकथन किये गये हैं। अब स्पर्शसे भी मरनेवाले मनुष्योंके लक्षणोंको श्रवणकरो॥१॥
स्पर्शप्राधान्येन आतुरस्यायुषः प्रमाणविशेषं जिज्ञासुः प्रकृतिस्थेनपाणिना केवलमस्य शरीरं स्पृशेत्। परिमर्षयेद्वान्येन॥२॥
रोगीको स्पर्श द्वारा उसकी आयुका विशेषरूपसे प्रमाण जाना जासकता है इसलियेरोगीकी आयु जानने की इच्छावाला रोगरहित मनुष्यके हाथसे केवल इसके शरीरकासेस्पर्श करावे अथवा स्वयं करे॥२॥
स्पर्शके लक्षण।
परिमृषतातुखलु आतुरशरीरमिमेभावास्तत्रावबोद्धव्याः।तद्यथासततं स्पन्दनानां शरीरोद्देशानांस्तम्भः। नित्योष्मणां शीतीभावः।मृदूनांदारुणत्वम्। श्लक्ष्णानां खरत्वम्। सतामसद्भावः सन्धीनांस्रंसभ्रंशच्यवनानि। मांसशोणितयोवतीभावः। दारुणत्वंस्वेदानुबन्धः स्तम्भोवायच्चान्यदपि किञ्चिद्भृशविकृतमनिमित्तस्यादितिलक्षणं स्पृश्यानां भावानाम्॥३॥
स्पर्श करनेवाले मनुष्यको स्पर्शद्वारारोगीके यह भाव जानने चाहिये जैसे—जो शरीर केअंग निरंतर फडकनेवाले हों उनका स्थिर होकर स्तंभ होजाना। जो अंग नित्य गरमरहनेवाले है उनका शीत होजाना। जो नरम हों उनका कठिन होजाना। जो चिकनेहों उनका खरदरे होजाना।जिनका जिसस्थानमें होना उचित हो उनका उसस्थानमें न रहना।संधियोका ढीला पडजाना या विगडजाना। तथा नष्ट होजाना। मांसऔर रक्तका देहसे हीन होजाना। शरीरका कठिन होजाना। पसीना अधिक आनाअथवा विल्कुल न आना। शरीरका स्तंभ होजाना।इनके सिवाय विनाही कारणएकाएकी स्पृश्य भावके जो लक्षण उत्पन्न हों उनको भी जानलेना चाहिये।इन स्पर्शजनित लक्षणोंसे रोगीको कालग्रस्त जानना चाहिये॥३॥
विस्तारपूर्वक स्पर्शका लक्षण।
तद्व्यासतोऽनु व्याख्यास्यामः। तस्य चेत्परिदृश्यमानं पृथक्त्वेन पादजङ्घोरुस्फिगुदरपार्श्वयष्टेषिकापाणिग्रीवाताल्वोष्ठललाटं खिन्नं शीतं प्रस्तब्धं दारुणं वीतमां सशोणितं वास्यात्परासरयं पुरुषोनचिरात्कालं करिष्यतीति विद्यात्॥४॥
उन्ही स्पृश्यभावोको विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं।यदि उस रोगीके संपूर्ण दृश्यमान अंगोंको एक एककर देखाजाय कि पांव, जंघा, घुटना, पार्श्वभाग, कुल्ले, गुदा,उदर, पीठका बांसा, हाथ, गर्दन, तालु, होठ और ललाट यह शीतल, पसीनेयुक्त,स्तब्ध, कठोर, मांस और रक्तरहित होजायँ तो इस गतायु मनुष्यको तत्काल मरजानेवाला जानना चाहिये॥४॥
तस्य चेत्परिमृश्यमानानि पृथक्तेन गुल्फजानुवंक्षणगुदवृषणमेढ्रनाभ्यं सस्तनमणिकहनुस्पर्शका नासिकाकर्णाक्षिभ्रूशं खादीनिस्रस्तानिव्यस्तानिच्युतानिस्थानेभ्यः स्युः परासुरयं पुरुषोनचिरात्कालं करिष्यतीति विद्यात्॥५॥
यदि रोगीके यह अंग पृथक २ देखे जायँ जैसे गुल्फ, घुटने, वंक्षण, गुदा, अण्डकोष,लिग, नाभि, कंधे, स्तन, दोनों हाथोंके पहुॅचे, ठोढी, पसली, नाक, कान, नेत्र,भौंह और कनपटी आदि अंग अलग २ अपने स्थानसे छूटजायँ और हटजायें तोउस मनुष्यको गतायु अर्थात् शीघ्र मरनेवाला जानना चाहिये॥५॥
तथास्योच्छ्छ्रासमन्यादन्तपक्ष्मचक्षुः केशलो मोदरनखांगुलीरालक्षयेत्।तस्य चेदुच्छासोऽतिदीर्घः अतिह्वस्वोवास्यात्परासुरिति विद्यात्।
तस्य चेन्मन्येपरिदृश्यमानेन स्पन्देयातां परासुरिति विद्यात्। तस्य चेद्दन्ताः प्रतिकीर्णा श्वेतजातशर्कराः स्युःपरासुरिति विद्यात्। तस्य चेत्पक्ष्माणिजटाबद्धानिस्युः परासुरिति विद्यात्।तस्य चेच्चक्षुषीप्रकृतिहीने विकृतियुक्ते अव्युत्पिण्डिते अतिप्रविष्टे अतिजिह्मे अतिविषमे अतिप्रस्रुते अतिविमुक्तबन्धने सततोन्मेषितसततनिमेषिते निमेषोन्मेषातिप्रवृत्तविभ्रान्तदृष्टिकेविपरीतदृष्टिकेहीनदृष्टिकेव्यस्तदृष्टिकेनकुलान्धेकपोतान्धे अलांतवर्णे कृष्णनीलपीतश्यावताम्रहरितहारिद्रशुक्लवैकारिकाणां वर्णानामन्यतमेनाभिसंप्लुतेवास्यातांपरासुरिति विद्यात्॥६॥
तथा रोगीके उच्छ्रास, ठोडी, दांत, पलकें, नेत्र, केश, लोम, उदर, नख औरअंगुली इनकी भी परीक्षा करनी चाहिये। यदि रोगीका उच्छास अत्यंत लंबा याबहुतही ह्रस्व चलनेलगे तो रोगीको प्राणरहित होनेवाला जानना चाहिये। जिसरोगीकी दोनों तरफसे ठोढीकी नोंडे फडकनेलगे और ठोडी हिलनेलगे उस रोगीकोभी गतायु जानना चाहिये। जिस रोगीके दांत अधिक मैले बिखरे हुए और सफेदशर्करायुक्त हों उसको भी शीघ्र मृत्युग्रस्त होनेवाला जानना चाहिये। जिस रोगीकीपलकें जटाके समान बंधजाय वह भी गतायु होता है। जिस रोगीके नेत्र अपने स्वभाव सेहीन होकर विकृत होजायँ अत्यंत बाहर निकल आवें अथवा अधिक भीतरकोबढजायँ या टेढे होजायें या एक बड़ा एक छोटा होजाय अथवा एक बंद होजायएक खुला रहे एवम् अत्यंत पानी बहना, बहुत ही शिथिल होजाना बिलकुल बंदहोजाना या खुलेही रहना या थोडी २ देरमें खुलना या बंद होवें अथवा फटेसेहोजायँ या भयानक रीति से देखे या दृष्टिहीन होजायँ या अपूर्वदृष्टि होजाय, दिन मेंसब वस्तुएं साधारण देखना अथवा सब वस्तुयें काली देखना अंगारके समानकाले, नीले, पीले, श्याम, ताम्रवर्ण, हरे, हल्दीके रंगके या सफेद इन सब वर्णो सेवर्णोंमेंसेअत्यत विकृत होकर किसी वर्णका होना यह सब लक्षण गतायु मनुष्य हैं॥६॥
केशपरीक्षा।
अथास्य केशलोमान्यायच्छेत्तस्य चेत्केशलोमान्यायम्यमानानिप्रलुच्येरन्नचेद्वेदयेत्परासुरिति विद्यात्॥७॥
रोगी मनुष्यके केश और रोमोंकी भी परीक्षा करनी चाहिये। जिस रोगीके केश
या रोम खीचनेसे उखडजायँ और उस रोगीको किंचित् पीडा भी प्रतीत नं होउसको गतायु जानना॥७॥
उदरपरीक्षा।
तस्य चेदुदरेशिराः प्रदृश्येरन्, श्यावताम्रनीलहारिद्रशुक्लावास्युः परासुरिति विद्यात्॥८॥
जिस रोगीके पेटपर काली, लाल, नील, पीत और श्वेत नसें दीखनेलगें उसकोभी गतप्राण जानना चाहिये॥८॥
नखपरीक्षा।
तस्य चेन्नखावीतमांसशोणिताः पक्वजाम्बववर्णाः स्युः परासुरिति विद्यात्॥९॥
जिस रोगीके नख मांसरहित तथा रुधिररहित होजायँ और पके हुए जामुनके समानकालेवर्ण के होजायँउसको भी गतप्राण जानना चाहिये॥९॥
अंगुलीपरीक्षा।
अथास्यांगुलीरायच्छेत्तस्य चेदंगुलय आयस्य मानानचेत्स्फुटेयुः परासुरिति विद्यात्॥१०॥
इसके उपरात इसकी अंगुलियोंकी भी परीक्षा करनी चाहिये। यदि रोगीकीअंगुलियें खीचनेसे शब्द नहीं करें तो उस रोगीको भी मरणासन्न जानना चाहिये॥१०॥
भवतिचात्र।
एतान्स्पृश्यान्बहून्भावान्यःस्पृशन्नावबुध्यते।
आतुरेनससम्मोहमायुर्ज्ञानस्य गच्छति॥११॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थाने परिमर्शनीयमिंद्रियं समाप्तम्॥३॥
यहांपर अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं जो वैद्य इन अनेक प्रकारके स्पृश्यभावोंकोस्पर्शद्वारा जानलेता है वह रोगीके आयुज्ञानमें मोहको प्राप्त नहीं होता॥११॥
इति श्रीमहपिंचर० शारी० स्था० भाषाटी० अतुल्यगोत्रीयशारीर नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
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चतुर्थोऽध्यायः।
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अथात इन्द्रियानी कमिद्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम इंद्रियानीक इंद्रियकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजीकथन करनेलगे।
इन्द्रियाणियथा जन्तोः परीक्षेत विशेषवित्।
ज्ञातुमिच्छन्भिषङ्मानमायुषस्तन्निबोधमे॥१॥
हे अग्निवेश! बुद्धिमान् वैद्यको आयुका प्रमाण जानने की इच्छासे जिसप्रकारमनुष्यके इंद्रियोंकी परीक्षा करना चाहिये सो तुम श्रवण करो॥१॥
अनुमानात्परीक्षेतदर्शनादीनितत्त्वतः।
अद्धाहिविदितंज्ञानमिन्द्रियाणामतीन्द्रियम्॥२॥
स्वथेभ्योविकृतं यस्य ज्ञानमिन्द्रियसम्भवम्।
आलक्ष्येता निमित्तेनलक्षणं मरणस्य तत्॥३॥
मनुष्यकी दर्शनादिक संपूर्ण इद्रियोंके तत्त्वको अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहियेजिसको अकस्मात् अतीन्द्रिय ज्ञान इन्द्रियोंद्वारा साक्षात् होनेलगे। अथवा जिसमनुष्यके इद्रियोंका ज्ञान विनाकारणही सहसा विकृत होजाय तो यह लक्षण मृत्युकापूर्वरूप है॥२॥३॥
इत्युक्तं लक्षणं सर्वमिन्द्रियेष्वशुभो दयम्।
तदेव तु पुनर्भूयो विस्तरेण निबोधत॥४॥
इसप्रकार संक्षेपसे सब इन्द्रियोंमें होनेवाले अशुभ लक्षण कथन कियेगये हैं। अबउनको ही विस्तारसे वर्णन करते हैं॥४॥
नेत्रइन्द्रियद्वारा परीक्षा।
घनीभूतमिवाकाशमाकाशमिवमेदिनीम्।
विगीतं ह्युभयं ह्येतत्पश्यन्मरणमृच्छति॥५॥
जिस मनुष्यको आकाश पृथ्वी के समान घनीभूत (कठोर) दिखाई देवे औरकेपृथ्वी आकाशके समान खाली दिखाई देनेलगे इसप्रकार विपरीतभाव दोनों में प्रतीतहो तो वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होता है॥५॥
यस्य दर्शनमायातिमारुतोऽम्बरगो चरः।
अग्निर्ना याति वादीप्तस्तस्यायुः क्षयमादिशेत्॥६॥
जिस रोगीको आकाशमें विचरनेवाली वायु मूर्तिमान् दिखाई देनेलगे अथवा प्रज्जलित अग्नि दिखाई न देवे उसकी शीघ्र मृत्यु होजाताहै॥६॥
जले सुविमले जालमजालावतते तथा।
स्थिते गच्छति वा दृष्ट्वा जीवितात्परिमुच्यते॥७॥
जिस रोगीको निर्मल जलमें जिसमें जाल न षडाहो उसमें जाल प्रतीत हो औरजो स्थिरजलको चंचल समझे वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होता है॥७॥
जाग्रत्पश्यतियः प्रेतान्रक्षांसि विविधानि च।
अन्यायद्भुतं किंचिन्नसजीवितुमर्हति॥८॥
जिस रोगीको जाग्रत अवस्थामेही अनेक प्रकारके प्रेत और राक्षस दिखाई देनेलगेअथवा अन्य इसीप्रकार अद्भुत सामान प्रतीत होनेलगे वह जीता नही रहसकताअर्थात् मृत्युको प्राप्त होताहै॥८॥
योऽग्निं प्रकृतिवर्णस्थनीलं पश्यति निष्प्रभम्।
कृष्णं वायदिवाशुक्लं निशां वसति सप्तमीम्॥९॥
जो रोगी अपने ठीक स्वभाव और वर्णमें स्थित अग्निको नीले रंग और कान्तिरहित अथवा कृष्ण या श्वेत देखे वह आठ दिनके बीच में मृत्युको प्राप्त होता है॥९॥
मरीचीनसतो मेघान्मेघान्वाप्यसतोऽम्बरे।
विद्युतो वा विना मेघैः पश्यन्मरणमृच्छति॥१०॥
जिस रोगीको विना प्रकाशके आकाश में प्रकाश प्रतीत होताहो अथवा विनाही बादलोंके आकाश मेघाच्छन्न प्रतीत होताहो अथवा विनाही मेघोंके बिजली चमकतीदिखाई देतीहो वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१०॥
मृण्मयीमि त्रयः पात्रीं कृष्णाम्बरसमावृताम्।
आदित्यमीक्षते शुद्धं चन्द्रं वानसजीवति॥११॥
जिस रोगीको स्वच्छ सूर्य अथवा चन्द्रमा काले कपडेसे लिपटा हुआ या मट्टी केपात्रके समान दिखाई देवे वह मृत्युको प्राप्त होताहै॥११॥
अपर्वणियदापश्येत्सूर्य्याचन्द्रमसोर्ग्रहम्।
अव्याधितोव्याधितोवातदन्तं तस्य जीवनम्॥१२॥
जिस मनुष्यको पर्वके विना ही सूर्य और चन्द्रमाका ग्रहण दिखाई देताहो वहरोगी हो अथवा नीरोगी हो अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१२॥
नक्तं सूर्य्यमहश्चन्द्रमनग्नौ धूममुत्थितम्।
अग्निं वा निष्प्रभं रात्रौ दृष्ट्वामरणमृच्छति॥१३॥
अब हम इंद्रियानीक इंद्रियकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजीकथनकरनेलगे।
इन्द्रियाणि यथा जन्तोः परीक्षेतविशेषवित्।
ज्ञातुमिच्छन्भिषङ्मानमायुषस्तन्निबोध मे॥१॥
हे अग्निवेश! बुद्धिमान्वैद्यको आयुका प्रमाण जानने की इच्छासे जिसप्रकारमनुष्यके इंद्रियोंकी परीक्षा करना चाहिये सो तुम श्रवण करो॥१॥
अनुमानात्परीक्षेतदर्शनादीनितत्त्वतः।
अद्धाहिविदितं ज्ञानमिन्द्रियाणामतीन्द्रियम्॥२॥
स्वथेभ्योविकृतं यस्य ज्ञानमिन्द्रियसम्भवम्।
आलक्ष्येतानिमित्तेनलक्षणं मरणस्य तत्॥३॥
मनुष्यकी दर्शनादिक संपूर्ण इद्रियोंके तत्वको अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहियेजिसको अकस्मात् अतीन्द्रिय ज्ञान इन्द्रियोंद्वारा साक्षात् होनेलगे। अथवा जिसमनुष्यके इद्रियोंका ज्ञान विनाकारणही सहसा विकृत होजाय तो यह लक्षण मृत्युकापूर्वरूप है॥२॥३॥
इत्युक्तं लक्षणं सर्वमिन्द्रियेष्वशुभोदयम्।
तदेवतुपुनर्भयो विस्तरेण निबोधत॥४॥
इसप्रकार संक्षेपसे सब इन्द्रियों में होनेवाले अशुभ लक्षण कथन कियेगये हैं। अबउनको ही विस्तारसे वर्णन करते हैं॥४॥
नेत्र इन्द्रियद्वारा परीक्षा।
घनीभूतमिवाकाशमाकाशमिवमेदिनीम्।
विगीतं ह्यभयं ह्येतत्पश्यन्मरणमृच्छति॥५॥
जिस मनुष्यको आकाश पृथ्वी के समान घनीभूत (कठोर) दिखाई देवे औरपृथ्वी आकाशके समान खाली दिखाई देनेलगे इसप्रकार विपरीतभाव दोनों में प्रतीतहो तो वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होता है॥५॥
यस्य दर्शनमायातिमारुतोऽम्बरगोचरः।
अग्निर्ना याति वा दीप्तस्तस्यायुः क्षयमादिशेत्॥६॥
जिस रोगीको आकाश में विचरनेवाली वायु मूर्तिमान् दिखाई देनेलगे अथवा प्रज्जलित अग्नि दिखाई न देवे उसकी शीघ्र मृत्यु होजाता है॥६॥
जलेसुविमलेजालमजालावततेतथा।
स्थितेगच्छतिवादृष्ट्वाजीवितात्परिमुच्यते॥७॥
जिस रोगीको निर्मल जलमें जिसमें जाल न पडाहो उसमें जाल प्रतीत हो औरजो स्थिरजलको चंचल समझे वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होता है॥७॥
जाग्रत्पश्यतियः प्रेतान्रक्षांसि विविधानि च।
अन्यद्वाप्यद्भुतं किंचिन्न सजीवितुमर्हति॥८॥
जिस रोगीको जाग्रत अवस्थामें ही अनेक प्रकारके प्रेत और राक्षस दिखाई देनेलगे अथवा अन्य इसीप्रकार अद्भुत सामान प्रतीत होनेलगे वह जीता नहीरहसकताअर्थात् मृत्युको प्राप्त होता है॥८॥
योऽग्निंप्रकृतिवर्णस्थं नीलं पश्यति निष्प्रभम्।
कृष्णं वायदि वा शुक्लं निशां वसति सप्तमीम्॥९॥
जो रोगी अपने ठीक स्वभाव और वर्णमें स्थित अनिको नीले रंग और कान्तिरहित अथवा कृष्ण या श्वेत देखे वह आठ दिनके बीचमें मृत्युको प्राप्त होता है॥९॥
मरीचीनसतोमेघान्मेधान्वाप्यसतोऽम्बरे।
विद्युतोवाविनामेघैः पश्यन्मरणमृच्छति॥१०॥
जिस रोगीको विना प्रकाशके आकाशमें प्रकाश प्रतीत होताहो अथवा विनाहीबादलोंके आकाश मेघाच्छन्न प्रतीत होताहो अथवा विनाही मेघोंके बिजली चमकतीदिखाई देतीहो वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१०॥
मृण्मयीमिवयः पात्रीं कृष्णाम्बरसमावृताम्।
आदित्यमीक्षतेशुद्धं चन्द्रं वानसजीवति॥११॥
जिस रोगीको स्वच्छ सूर्य अथवा चन्द्रमा काले कपडेसे लिपटा हुआ या मट्टीकेपात्रके समान दिखाई देवे वह मृत्युको प्राप्त होताहै॥११॥
अपर्वणियदापश्येत्सूर्य्यार्थ्याचन्द्रमसोर्ग्रहम्।
अव्याधितोव्याधितोवातदन्तं तस्य जीवनम्॥१२॥
जिस मनुष्यको पर्वके बिना ही सूर्य और चन्द्रमाका ग्रहण दिखाई देताहो वहरोगी हो अथवा नीरोगी हो अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१२॥
नक्तं सूर्य्यमहश्चन्द्रमनग्नौधूममुत्थितम्।
अग्निं वा निष्प्रभं सूत्रौदृष्ट्वामरणमृच्छति॥१३॥
जिस मनुष्यको रात्रिको सूर्य और दिनमें चन्द्रमाका प्रकाश दिखाई देताहोऔर अग्निके विना ही धुआँ उठता दिखाई देताहो अथवा रात्रि के समय प्रकाशमान अग्नि भी प्रभारहित दिखाई देतीहो वह मृत्युको प्राप्त होता है॥१३॥
प्रभावतः प्रभाहीनान्निष्प्रभावान्प्रभावतः।
नराविलिङ्गान्पश्यन्तिभावान्प्राणाञ्जिहासवः॥१४॥
जिस मनुष्यको प्रकाशमान वस्तुयें निस्तेज प्रतीत होतीहों और प्रकाशरहित प्रकाशमान दिखाई देती हों। इसी प्रकार अन्य द्रव्योंमें भी विपरीत लक्षणोंको देखे उस मनुष्यकी अवश्य मृत्यु होतीहै॥१४॥
व्याकृतानिविवर्णानिविसंख्योपगतानिच।
विनिमित्तानिपश्यन्तिरूपाण्यायुः क्षयेनराः॥१५॥
जिस रोगीकी आयु नष्ट होगयीहो वह संपूर्ण वस्तुओंको विकृतरूपसे विकृतवर्णवाली और विपरीत संख्यावाली तथा कारणसे विपरीत ही देखता है॥१५॥
यश्चपश्यत्यदृश्यान्वैदृश्यान्यश्चनपश्यति।
तावुभौपश्यतः क्षिप्रंयमक्षयमसंशयम्॥१६॥
जो मनुष्य अदृश्य वस्तुओंको देखे और जो दृश्योंको भी न देखे यह दोनों निश्चय मृत्युको प्राप्त होतेहैं॥१६॥
कर्णेन्द्रियद्वारा परीक्षा।
अशब्दस्य चयःश्रोताशब्दान्यश्च न बुध्यते।
द्वावप्येतौ यथा प्रेतौतथाज्ञेयौ विजानता॥१७॥
जो रोगी शब्दोंको श्रवण न करे और जो विना ही शब्द होनेके शब्दोंको सुने यह दोनों मृत्युके मुखमें पडे जानना चाहिये॥१७॥
संवृत्त्याङ्गुलिभिः कर्णौ ज्वालाशब्दंय आतुरः।
नशृणोतिगतासुंतंबुद्धिमान्परिवर्जयेत्॥१८॥
जो रोगी अपने दोनों कानोंको अंगुलियोंसे दबाकर बंदकर लेनेपर साँय साँय सुनाई पडनेवाले अनाहत शब्द जो होताहै उसको न सुनसके उसकी अवश्य मृत्यु होतीहै। बुद्धिमान् वैद्य ऐसे रोगियोंको मृतप्राय समझकर त्याग देवे॥१८॥
नासिकाद्वारा परीक्षा।
विपर्य्ययेण यो विद्याद्गं धानां साध्वसाधुताम्।
नवातान्सर्वशोविद्यात्तं विद्याद्विगतायुषम्॥१९॥
जो रोगी उत्तम सुगंधिको दुर्गंध और दुर्गंधको उत्तम सुगंध प्रतीतकरे अथवा बिल्कुल गंधज्ञानरहित होजाय उसको गतायु जानना चाहिये॥१९॥
त्वचाद्वारा परीक्षा।
योरसान्नविजानातिनवाजानातितत्त्वतः।
मुखपाकादृतेपक्वं तमाहुः कुशलानरम्॥२०॥
जिस रोगीको विना किसी मुखके विकार के किसी प्रकारके भी मीठे, खट्टे रसका ज्ञान हो अथवा रसके तत्त्वको न जानसके उस मनुष्यको मरणासन्न जानना चाहिये॥२०॥
उष्णाञ्छीतान्खराञ्छूक्ष्णान्मृदूनपिचदारुणान्।
स्पर्शान्स्पृष्ट्वाततोऽन्यत्वंमुमूर्षुस्तेषुमन्यते॥२१॥
जो मनुष्य उष्ण द्रव्योंको शीतल, खरदरे द्रव्योको चिकने, नरम द्रव्योंको कठोर इनके सिवाय अन्य भी स्पृश्य वस्तुओंको स्पर्शकर विपरीत प्रतीत करे उसको भी मरनेवाला जानना चाहिये॥२१॥
अन्तरेणतपस्तीव्रंयोगं वा विधिपूर्वकम्।
इन्द्रियैरधिकंपश्यन्पञ्चत्वमधिगच्छति॥२२॥
जो मनुष्य तीव्र तपस्याके विना अथवा विधिवत् योगसाधन विना अतीन्द्रिय विषयोको जानने लगजाय, अथवा इन्द्रियोंसे देखने लगजाय वह मृत्युको प्राप्त होता है॥२२॥
इन्द्रियाणामृतेदृष्टेरिन्द्रियार्थानपश्यति।
विपर्य्ययेणयोविद्यात्तं विद्याद्विगतायुषम्॥२३॥
जो मनुष्य दृष्टिके विना अन्य इन्द्रियोंके शब्दादि ज्ञानको न जानसके परन्तु दृष्टिद्वारा अन्य इन्द्रियोंके विषयोको भी जानने लगजाय अथवा संपूर्ण इन्द्रियोंके ज्ञानको विपरीत भावसे जाने वह मृत्युको प्राप्त होता है॥२३॥
स्वस्थाः प्रज्ञाविपर्य्यासैरिन्द्रियार्थेषु वैकृतम्।
पश्यन्ति येऽसद्बहुशस्तेषां मरणमादिशेत्॥२४॥
यदि स्वस्थ मनुष्य भी बुद्धिके विपरीत भावसे संपूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको विपरीत देखे एवम् अच्छेको बुरा और बुरेको अच्छा प्रतीत करे वह भी मरणासन्न जानना चाहिये॥२४॥
तत्रश्लोकः।
एतदिन्द्रियविज्ञानं यः पश्यति यथा तथा।
मरणं जीवितं चैतत्सभिषक्ज्ञातुमर्हति॥२५॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रि० इंद्रियानीकमिंद्रियं समाप्तम्॥१४॥
यहां अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है— कि जो वैद्य इस इन्द्रियविज्ञानको यथोचित रीतिपर ठीक परीक्षा करना जानता है वही वैद्य मनुष्य के जीवन और मरणको जान सकता है॥२५॥
इति श्रीमहर्षिचरके० इन्द्रिस्थाने भाषाटीकायामिन्द्रियानीकमिन्द्रियनाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
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पञ्चमोऽध्यायः।
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अथातः पूर्वरूपीयमिंद्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम पूर्वरूपीय इन्द्रियकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
पूर्वरूपाण्यसाध्यानां विकाराणां पृथक्पृथक्।
भिन्नाभिन्नानिवक्ष्यामोभिषजां ज्ञानवृद्धये॥१॥
वैद्यजनोंके ज्ञानवृद्धि के लिये पृथक २ रोगोंके असाध्य पूर्वरूपोंको अलग २ करके वर्णन करतेहैं॥१॥
पूर्वरूपाणिसर्वाणिज्वरोक्तान्यतिमात्रया।
यं विशन्ति विशत्ये नं मृत्युर्ज्वरपुरः सरः॥२॥
यदि ज्वरके संपूर्ण पूर्वरूप बलवान्होकर अधिकतासे जिस रोगीका आश्रय लेवें तो उस रोगीके शरीरमें ज्वरको आगेकर मृत्यु प्रवेश करतीहै॥२॥
अन्यस्यापि चरोगस्य पूर्वरूपाणि यं नरम्।
विशन्त्ये तेन कल्पेन तस्यापि मरणं ध्रुवम्॥३॥
अन्य रोगोंमें भी यदि किसी रोगके संपूर्ण पूर्वरूप बलवान् होकर अधिकरूपसेजिस मनुष्य के शरीरमें प्रवेश करतेहैं तो उसकी अवश्य मृत्यु होजातीहै॥३॥
पूर्वरूपैकदेशांस्तुवक्ष्यामोऽन्यान् सुदारुणान्।
ये रोगाननुबध्नन्तिमृत्युर्यैरनुबध्यते॥४॥
अबअन्य रोगोंमें भी जो दारुण पूर्वरूप होनेसे रोग मनुष्यकी मृत्युकरदेते हैं उन पूर्वरूपोंका वर्णन करतेहैं॥४॥
भिन्न २ मृत्युकारक रोग।
बलञ्च हीयते यस्य प्रतिश्यायश्च वर्द्धते।
तस्य नारीप्रसक्तस्य शोषोन्तायोपजायते॥५॥
जिस मनुष्यका बल क्षीण होगयाहो और प्रतिश्याय बहुत जोरसे बढाहुआ हो वह मनुष्य यदि स्त्रीसंगमें अत्यंत आसक्त रहे तो उस मनुष्यको शोषरोग अवश्य नष्ट करदेताहै॥५॥
श्वभिरुष्ट्रैः खरैर्वापि याति यो दक्षिणां दिशम्।
स्वप्नेयक्ष्माणमासाद्यजीवितं सविमुञ्चति॥६॥
जो मनुष्य स्वप्न में कुत्ता, ऊंट वा गधेके ऊपर चढकर दक्षिणकी ओर गमन करे उस मनुष्यको राजयक्ष्मा रोग प्रवेशकर उसके जीवनको नष्ट करदेताहै॥६॥
प्रेतैः सह पिबेन्मद्यं स्वप्नेयः कृष्यतेशुना।
सघोरं ज्वरमासाद्यनजीवेन्न च सृज्यते॥७॥
जो मनुष्य स्वप्नमें प्रेतों (मरेहुए) के साथ मिलकर मद्यको पीता है अथवा जिसको स्वप्नमें कुत्ते घसीटते है उस मनुष्यको घोर ज्वर उत्पन्न होकर नष्ट करदेताहै॥७॥
लाक्षारक्ताम्बराभं यः पश्यत्यम्बरमन्तिकात्।
सरक्तपित्तमासाद्यतेनैवान्तायनीयते॥८॥
जिस मनुष्यको अपने समीपका आकाश लाखके रंगसे रंगाहुआसा प्रतीत होवे उस मनुष्यको रक्तपित्त रोग होकर शीघ्र यमलोकको लेजाता है॥८॥
रक्तस्रग्रक्तसर्वां गोरक्तवासामुहुर्हसन्।
यः स्वप्ने ह्रियते नार्य्यासरक्तं प्राप्यसीदति॥९॥
जिस मनुष्यको स्वप्नमें लाल वस्त्र, लालफूलोंकी माला पहिने हुए संपूर्ण लाल अंगोंवाली स्त्री वारंवार हंसती हुई आकर हरण करती है, उसको रक्तपित्त रोग होकर मृत्युको प्राप्त करदेता है॥९॥
शूलाटोपान्त्रकूजाश्च दौर्बल्यं चातिमात्रया।
नखादिषु च वैवर्ण्यं गुल्मेनान्तरोग्रहः॥१०॥
जिस मनुष्यको अत्यंत शूल, अफारा, आंतोंका कूजन, दुर्बलता यह अधिक होजायँ और नखादिकोंमें विवर्णता होजाय उस मनुष्य की गुल्मरोग द्वारा मृत्यु होजातीहै॥१०॥
लताकण्टकिनीयस्य दारुणाहृदि जायते।
स्वप्ने गुल्मस्तमन्तायक्रूरो विशति मानवम्॥११॥
जिसमनुष्यको स्वपमें अत्यंत कांटोंसे युक्त बेल अपने गले में पडीहुई छातीपर लटकती दिखाई दे उसकी गुल्मरोगसे मृत्यु होजाती है॥११॥
कायेऽल्पमपि संस्पृष्टं सु भृशं यस्य दीर्य्यते।
क्षतानिचनरोहन्ति कुष्ठैर्मृत्यृर्हि नस्तितम्॥१२॥
जिस मनुष्य के शरीर में थोडासा स्पर्शकरनेसे भी शरीर फटजाय और जो शरीरमें घाव उत्पन्न हों वह हटें नहीं तो उस मनुष्यकी कुष्ठरोगसे मृत्यु होजाती है॥१२॥
नग्नस्याज्यावसिक्तस्य जुह्वतोऽग्निमनर्चिषम्।
पद्मान्युरसिजायन्ते स्वप्ने कुष्ठैर्मरिष्यतः॥१३॥
जो मनुष्य स्वममें नग्न होकर संपूर्ण देहमें घी लगा ज्वालारहित अग्निमें हवनकरे अथवा अपने छाती में कमल उत्पन्न हुआ देखे तो उस मनुष्यकी कुष्ठ रोग से मृत्यु होतीहै॥१३॥
स्नातानुलिप्तगात्रेऽपि यस्मिन्गृध्नन्तिमक्षिकाः।
स प्रमेहेण संस्पर्शं प्राप्यतेनैवहन्यते॥१४॥
जिस मनुष्यके शरीरपर स्नानकर चंदन आदि लगा लेनेपर भी बहुतसी मक्खियें आकर बैठें उस मनुष्यकी प्रमेह रोगसे मृत्यु होतीहै॥१४॥
स्नेहं बहुविधं स्वप्ने चण्डालैः सहयः पिबेत्।
बुध्यते सप्रमेहेण स्पृश्यतेऽन्तायमानवः॥१५॥
जो मनुष्य स्वममें चाण्डालोंके साथ मिलकर अनेक प्रकारके घृत, तेल आदिकोंका पान करता है उसकी प्रमेह रोगसे मृत्यु होतीहै॥१५॥
ध्यानायासौतथोद्वेगोमोहश्चास्थानसम्भवः।
अरतिर्बलहानिश्चमृत्युरुन्मादपूर्वकः॥१६॥
जिस मनुष्यको ध्यान, थकावट, घबराहट, भ्रम, उद्वेग और मोह तथा चित्तका नलगना यह सब एकही कालमें उत्पन्न होजायँ उसकी उन्माद रोगसे मृत्यु होतीहै॥१६॥
आहारद्वेषिणं पश्यल्लुँप्तचित्तमुदर्दितम्।
विद्याद्धीरोमुमूर्षुं तमुन्मादेनातिपातिना॥१७॥
जिस मनुष्यको भोजनके सब पदार्थ बुरे प्रतीत होतेहों और ज्ञान जातारहे, उदर्द रोग हो उस मनुष्यको बुद्धिमान् उन्माद रोगसे मृत्यु होनेवाला जाने॥१७॥
क्रोधनं त्रासबहुलं सकृत्प्रहसिताननम्।
मूर्च्छापिपासाबहुलं हन्त्युन्मादः शरीरिणम्॥१८॥
जिस मनुष्यको अत्यंत क्रोध, त्रास, और हास्य ये एककालमें ही प्रगट होजायँ तथा बारबार मूर्च्छा और प्यासकी अधिकता हो उसकी उन्माद रोगसे मृत्यु होतीहै॥१८॥
नृत्यन्रक्षोगणैः सार्द्धं यः स्वप्नेऽम्भसिसीदति।
सप्राप्यभृशमुन्मादं याति लोकमतः परम्॥१९॥
जो मनुष्य स्वप्नमें राक्षसोके साथ नाच करता हुआ जलमें डूबजाय वह उन्माद रोगसे ग्रसित होकर परलोकको प्राप्त होताहै॥१९॥
असत्तमः पश्यतियः शृणोत्यप्यसतः स्वरान्।
बहून्बहुविधाञ्जाग्रत्सोऽपस्मारेण बध्यते॥२०॥
जिस मनुष्यको बिना अंधकारके अंधकार प्रतीत होताहो और विना ही किसीप्रकारकी आवाजसे अनेक प्रकारके गायनके स्वरोंको श्रवण करे वह मनुष्य मृगीरोगसे मृत्युको प्राप्त होताहै॥२०॥
मत्तं नृत्यन्तमाविध्यप्रेतो हरति यं नरम्।
स्वप्ने हरति तं मृत्युरपस्मारपुरः सरः॥२१॥
जो मनुष्य स्वप्नमें अपनेको उन्मत्त होकर नाचताहुआ देखे और उस नाचतीहुई अवस्थामें उसको प्रेत उठाकर लेजावे। ऐसा स्वप्न आनेवाले मनुष्यको अपस्मार (मृगी) रोगको आगेकर मृत्यु प्रवेश करताहै॥२१॥
स्तुभ्येते प्रति बुद्धस्य हनुमन्ये तथाक्षिणी।
यस्य तं बहिरायामो गृहीत्वाहन्त्यसंशयम्॥२२॥
जिस मनुष्यके ठोडी, गर्दन और दोनो नेत्र अकडजायँ उसको बहिरायाम नामक वातव्याधि प्राप्त होकर नष्ट करदेतीहै॥२॥
शष्कुलीरप्यपूपान्वैस्वप्ने खादति यो नरः।
स चेत्तादृक्छर्दयति प्रति बुद्धोनजीवति॥२३॥
जो मनुष्य स्वप्नमें पूडियें, और पूर्वोको खाताहै और जागकर उन्हींके समान वमनकर देताहै वह मृत्युको प्राप्त होताहै॥२३॥
एतानि पूर्वरूपाणि यः सम्यगवबुद्ध्यते।
स एषा मनुबन्धञ्च फलञ्च ज्ञातुमर्हति॥२४॥
इन सब प्रकारके पूर्वरूपोंको जो वैद्य भलेप्रकार जानताहै वह ही इस अनुबंधके फलको जानताहै। अर्थात् मनुष्यकी रोगों द्वारा मृत्युको कहसकताहै॥२४॥
य इमांश्चापरान्स्वप्नान्दारुणानुपलक्षयेत्।
व्याधितानां विनाशाय क्लेशाय महतेऽपि वा॥२५॥
जो मनुष्य इन आगे कहे दारुण स्वप्नोंको देखता है वह यदि रुग्णावस्थामें देखे तो अवश्य मृत्यु होतीहै और यदि स्वस्थावस्थामें देखे तो महान् कष्ट उपस्थित होताहै॥२५॥
यस्योत्तमाङ्गे जायन्ते वंशगुल्मलतादयः। वयांसि च विलीयन्ते स्वप्ने मौढ्यमियाच्चयः॥२६॥ गृध्रोलूकश्वकाकाद्यैः स्वप्नेयः परिवार्य्यते। रक्षःप्रेतपिशाचस्त्रीचण्डालद्रवितान्धकैः॥२७॥ वंशवेत्रलतापाशतृणकण्टकसङ्कटे। प्रमुह्यतिहियः स्वप्नेलगति प्रपतत्यपि॥२८॥
जिस मनुष्य के स्वप्नमें शिरपर बांस, गुल्म, बेलें आदि प्रकट होजायँ और कौआ आदि पक्षी मुख आदि किसी अंगमें छिपजावें अथवा स्वप्न में जिसका शिर मुण्डन कियाजावेअथवा गीध, उल्लू, कुत्ते, काग, राक्षस, प्रेत, पिशाच स्त्रियें, चाण्डाल और दैत्य आदि चारों तरफसे घेरे हुए हों अथवा बांस, वेत, लता, फांसी, तृण, कांटे आदिके संकटमें फसजाय और उन्ही में फंसकर बेहोश हो गिरजाय तो यदि यह स्वप्न रोगीको आवे तो उसकी मृत्यु होय और स्वस्थ अवस्थामें आवें तो वह महान् संकटमें पडे॥२६॥२७॥२८॥
भूमौपांशूपधानायां बल्मीकेवाथ भस्मनि।श्मशानायतनेश्वभ्रेस्वप्नेयः प्रपतत्यपि॥२९॥ कलुषेऽम्भसि पङ्के च कूपे वातमसावृते। स्वप्नेमज्जति शीघ्रेण स्रोतसाह्रियतेचयः॥३०॥ स्नेहपानं तथाभ्यङ्गः स्वप्ने बन्धपराजयौ। हिरण्यलाभः कलहः प्रच्छर्दनविरेचने॥३१॥ उपानद्युगनाशश्च प्रपातः पांशुचर्मणोः। हर्षः स्वप्नेप्रकुपि-
तैः पितृभिश्चापि भर्त्सनम्॥३२॥ दन्तचन्द्रार्कनक्षत्रदेवतादीपचक्षुषाम्। पतनं वा विनाशो वा स्वप्ते भेदोनगस्य वा॥३३॥
जो मनुष्य स्वप्नमें धूलियुक्त पृथ्वीमें अथवा सांपकी बॉवीमें या भस्ममें या श्मशान में या गढेमें गिरजाय अथवा मलिन जलमें कीचड में, कुएमें या अंधकारमें डूबजाता है या नदीके प्रवाहमें बहजाता है अथवा स्नेहपान या अपने शरीरपर तैल मर्दन करता है या बंधनमें फँसजाय अथवा शत्रुओंसे हाग्जाय या जिसको स्वप्न में सुवर्ण मिले या कलह हो वमन अथवा विरेचन हो अथवा दोनो जूते नष्ट होकर शरीरपर बालू और चमडेकी स्वप्नमें वृष्टि हो स्वप्नमें हँसना और कुपित हुए पितरोंसे ताडित होना या स्वप्नमें दांत, चंद्रमा, सूर्य, नक्षत्र, देवता, दीपक और नेत्रोका गिरजाना देखे या नष्ट होते देखे एवं पर्वतका फटना देखे तो वह यदि रोगी हो तो मृत्युको प्राप्त होता है और आरोग्य हो तो संकट में पडताहै॥२९॥३०॥३१॥३२॥३३॥
रक्तपुष्पं वनं भूमिं पापकर्मालयं चिताम्। गुहान्धकारसम्बाधं स्वप्नेयः प्रविशत्यपि॥३४॥ रक्तमालीहसन्नुच्चैर्दिग्वासादक्षिणां दिशम्। दारुणामटवीं स्वप्ने कपियुक्तः प्रयाति वा॥३५॥ कषायिणामसौम्यनां नग्नानां दण्डधारिणाम्। कृष्णानां रक्तनेत्राणां स्वप्ने नेच्छन्ति दर्शनम्॥३६॥ कृष्णापापानिराचारीदीर्घकेशनखस्तनी। विरागसाल्यवसनास्वप्नेकालनिशामता॥३७॥ इत्यन्येदारुणाः स्वप्नारोगीयैर्याति पञ्चताम्। अरोगः संशयं गत्वाकश्चिदेव विमुच्यते॥३८॥
जो मनुष्य स्वप्नमें लाल फूलोके वनमें तथा पापकर्म होते हुए स्थानमें, अंधकारयुक्तगुफामें प्रवेश करता है अथवा लाल फूलोका हार धारण किये हुए हंसता २ दक्षिण दिशामें या बन्दरके ऊपर चढकर घोर जंगल में प्रवेश करता है अथवा भगूए वस्त्र पहिने विकराल रूपवाले नग्न, हाथों में डण्डे लिये हुए कृष्णवर्ण और लाल नेत्रोंवाले दूतोंको स्वप्नमें देखकर डरताहै अथवा कालेवर्णकी पापाचारिणी लंबे बालोंवाली तथा लंबे नख और स्तनोंवाली मलिन माला और मलिन वस्त्रोंवाली काली निशाचरीको देखता है अथवा अन्य इसीप्रकारके दारुण स्वप्नोको देखता है तो वह यदि रोगी हो तो मृत्युको प्राप्त होता है और नीरोगी मनुष्यभी ऐसे स्वप्नोंको देख महान् कष्टको प्राप्त होताहै॥३४॥३५॥३६॥३७॥३८॥
मनो वहानां पूर्णत्वाद्दोषैरति बलैस्त्रिभिः। स्रोतसां दारुणान्स्वप्ना-
न्कालेपश्यतिदारुणे॥३९॥ नातिप्रसुप्तः पुरुषः सफलानफलानपि। इन्द्रियेशेनमनसास्वप्नान्पश्यत्यनेकधा॥४०॥
जब वातादि तीनों दोष बलवान् होकर मनकी वहन करनेवाली नाडियोंमें प्राप्त होजातेहैं तब उस समयमें वह मनुष्य शुभ और अशुभ स्वप्नोंको देखताहै। जिससमय मनुष्य अधिक निद्रामें नहीं होता उस समय इन्द्रियोंके पति मनके द्वारा अनेक प्रकारके स्वप्नोंको देखताहै वह स्वप्न कोई सफल होते हैं कोई निष्फल होते हैं॥३९॥४०॥
स्वप्नके भेद।
दृष्टं श्रुतानुभूतञ्चप्रार्थितंकल्पितं तथा।
भाविकं दोषजञ्चैव स्वप्नं सप्तविधं विदुः॥४१॥
सुनेहुए, देखेहुए, अनुभव किये हुए, इच्छा कियेहुए, कल्पना कियेहुए, भावी फलके करनेवाले और तीनों दोषोंसे होनेवाले इन भेदोंसे स्वप्न सात प्रकारके होतेहैं॥४१॥
तत्र पञ्चविधं पूर्वमफलं भिषगादिशेत्।
दिवास्वप्नमतिह्रस्वमतिदीर्घञ्चबुद्धिमान्॥४२॥
इनमें पहिले पांच प्रकारके स्वप्नोंको वैद्य निष्फल कथन करे।अथवा जो स्वप्नदिनमें देखा गया या बहुत छोटासा हो या बहुत लम्बा हो उसको भी बुद्धिमान् निष्फल जाने॥४२॥
दृष्टः प्रथमरात्रेयः स्वप्नः सोऽल्पफलो भवेत्।
न स्वपेद्यः पुनर्दृष्ट्वाससद्यः स्यान्महाफलः॥४३॥
जो स्वप्न रात्रिके प्रथम प्रहर में दिखाई देताहै वह अल्प फलको करनेवाला होताहै जिस स्वप्नको देखकर मनुष्यको फिर निद्रा न आवेवह स्वप्न महाफलको देनेवाला होता है॥४३॥
अकल्याणमपि स्वप्नं दृष्ट्वातत्रैवयः पुनः।
पश्येत्सौम्यं शुभाकारं तस्य विद्याच्छुभं फलम्॥४४॥
यदि प्रथम अशुभ स्वप्नको देखकर फिर उसी समय शुभ स्वप्नको देखे तो उसका शुभही फल होता है॥४४॥
तत्रश्लोक।
पूर्वरूपाण्यथस्वप्नान्य इमान्वेत्तिदारुणान्।
न समोहादसाध्येषु कर्माण्यारभतेभिषक्॥४५॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थाने पूर्वरूपीयमिंद्रियं समाप्तम्॥५॥
जो वैद्य इन संपूर्ण पूर्वरूपांको तथा इन दारुण स्वप्नोको भलेप्रकार जानता है वह असाध्यरोगोमें मोहके वश चिकित्सा करनेके लिये नहीं फँसता॥४५॥
इति श्रीमहर्षिचरक०इन्द्रियस्थाने भाषाटीकाया पूर्वरूपीयमिन्द्रिय नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
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षष्ठोऽध्यायः।
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अथातः कतमानिशरीरीयमिन्द्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम कतमानिशरीरीय इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते है इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
कतमानि शरीराणि व्याधिमन्ति महामुने।
यानि वैद्यः परिहरेद्येषु कर्मनसिध्यति॥१॥
अग्निवेश कहनेलगे कि हे महामुने! कितने प्रकारकी व्याधियोवाले रोगियोके शरीर ऐसे होते हैं जिनको वैद्य त्याग देवे और जिनमें चिकित्सा की हुई सफल नहीं होती॥१॥
इत्यात्रेयोऽग्निवेशेन प्रश्चं पृष्ठः सुदुर्वचम्।
आचचक्षे यथा तस्मै भगवंस्तन्निबोध मे॥२॥
इसप्रकार यह गहन विषय अग्निवेशके पूछनेपर भगवान् आत्रेयजीने जिसप्रकार निवेश के प्रति वर्णन किया उसको श्रवण करो॥२॥
त्याज्यरोगोंके लक्षण।
यस्य वैभाषमाणस्य रुजत्यूर्ध्वमुरोभृशम्।अन्नञ्चच्यवते भुक्तं स्थितञ्चापिनजीर्य्यति॥३॥ बलञ्चहीयते यस्य तृष्णाचाभिप्रवर्द्धते। जायतेहृदिशूलञ्चतं भिषक्परिवर्जयेत्॥४॥
जिस रोगीके बोलते समय छातीके ऊपरके भागमें अत्यंत पीडा हो और भोजन कियाहुआ उसी समय निकलजाया करे अर्थात् उदरमें ठहर नहीं सके यदि ठहरे भी तो पचे नहीं और जिसका प्रतिदिन बल क्षीण होता जाय तथा प्यास बढती चलीजाय हृदयमें शूल हो उसको वैद्य त्याग देवे॥३॥४॥
हिक्कागम्भीरजायस्य शशोणितञ्चातिसार्य्यते।
नतस्मैभेषजं दद्यात्स्मरन्नात्रेयशासनम्॥५॥
जिस रोगीको गंभीरनामक हिचकी आनेलगे और अत्यंत रुधिर निकलताहो उसको आत्रेयजीकी आज्ञाका स्मरण कराता हुआ कोई औषध न देवे॥५॥
आनाहश्चातिसारश्च यमेतौदुर्बलं नरम्।
व्याधितं विशतोरोगौदुर्लभं तस्य जीवितम्॥६॥
जो रोगी अत्यंत दुर्बल होजाय और उस क्षीण अवस्था में अफारा और अतिसार भी आकर प्रवेश होजायं तो उस रोगीके जीवनको दुर्लभ जानना चाहिये। अर्थात् उसकी अवश्य मृत्यु होजायगी॥६॥
आनाहश्चैवतृष्णाचयमेतौ दुर्बलं नरम्।
विशतो विजहत्येनं प्राणानतिचिरान्नरम्॥७॥
जिस रोगीको अफारा और तृष्णा यह दोनों अत्यंत वढजायँ और वह रोगी अधिक दिनोंसे वीमार होनेके कारण अत्यंत दुर्बल हो तो यह रोग उस मनुष्यके प्राणोंको थोडे ही समयमें नष्टकर डालतेहैं॥७॥
ज्वरः पौर्वाह्णिकोयस्य शुष्कः कासश्चदारुणः। ज्वरोयस्यापराह्णेतु श्लेष्मकासश्च दारुणः।बलमांसविहीनस्य यथाप्रेतस्तथैवसः॥८॥
जिस मनुष्यको प्रातःकालमें ज्वर चढजायाकरे और साथ ही साथ दारुण सूखी खांसी भी होजाय और इस ज्वर तथा खांसीसे बल और मांस क्षीण होजायँ तो उस मनुष्यकी मृत्यु होनेवाली है ऐसा जानना अथवा अपराह्णमें नित्य ज्वर उत्पन्न होताहो और कफकी खांसी अत्यंत दारुण हो तथा इसी ज्वर, खांसीसे बल और मांस क्षीण होजायँ तो वह रोगी भी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥८॥
यस्य मूत्रं पुरीषञ्च ग्रथितं सम्प्रवर्त्तते।
निरुष्मिणोजठरिणः श्वसनोनस जीवति॥९॥
जिस रोगीका मल और मूत्र गांठदार निकले और शरीरमें गर्मी बिल्कुल न रहे तथा उदररोग हो और श्वासका रोग हो वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥९॥
श्वयथुर्यस्य कुक्षिस्थोहस्तपादं विसर्पति।
ज्ञाति संघं ससंक्लिश्यते नरो गेणहन्यते॥१०॥
जिस रोगीके कुक्षि (कोख) से आरम्भ होकर संपूर्ण हाथपांवोंपर सूजन पहुॅच जाय वह सूजन उसके जाति समूहको कष्ट देता रोगीको नष्ट करडालता है॥१०॥
श्वयथुर्यस्य पादस्थस्तथास्रस्ते च पिण्डिके।
सीदतश्चाप्युभेजं घेतं भिषक्परिवर्जयेत्॥११॥
जिस रोगीके पैरों में सूजन उत्पन्न हो जाय और दोनों पिण्डलियें शिथिल पडजायँ तथा दोनों जंघा हिल न सकें उस रोगीको वैद्य त्याग देवे॥११॥
शूनहस्तं शूनपादं शूनगुह्योदरं नरम्।
हीनवर्णबलाहारमौषधैर्नोपपादयेत्॥१२॥
जिस रोगीके हाथपांव सूख जायँतथा गुह्यस्थान और उदरपर सूजन होजाय, वर्ण और बल तथा आहार हीन होजाय उस रोगीकी औषधों द्वारा चिकित्सा नहीं करनी चाहिये क्योंकि वह अवश्य मरजानेवाला है॥१२॥
उरोयुक्तो बहुश्लेष्मानीलः पीतः सलोहितः।
सततं च्यवतेयस्य दूरात्तं परिवर्जयेत्॥१३॥
जिस पुराने रोगीकी छातीमेंसे नीलवर्ण और पीला तथा लालीयुक्त बहुतसा बलगम आताहो तो उस रोगीको दूरसेही त्याग देवे॥१३॥
हृष्टरोमासान्द्रमूत्रः शूनः कासज्वरार्दितः।
क्षीणमांसो नरो दूराद्वर्ज्योवैवैद्येन जानता॥१४॥
जिस रोगीके रोम खडे हों, मूत्र आत्रसहित आताहो, शरीरपर सूजन हो तथा खांसी और ज्वरसे पीडित हो, मांस क्षीण होगया हो उसको ज्ञानी वैद्य दूरसे ही त्याग देवे॥१४॥
त्रयः प्रकुपिता यस्य दोषाः कोष्ठेऽभिलक्षिताः।
कृशस्य बलहीनस्य नास्ति तस्य चिकित्सितम्॥१५॥
जिस बलहीन दुर्बल रोगीके कोष्ठमें वातादि तीनों दोष कुपित होकर प्राप्त होजायँउस रोगीकी कोई चिकित्सा नहीं है अर्थात् वह अवश्य मरेगा॥१५॥
ज्वराति सारौ शोफान्तेश्ववयुर्वातयोः क्षये।
दुर्बलस्य विशेषेण नरस्यान्ताय जायते॥१६॥
जिस मनुष्यको ज्वर और अतिसारके अन्तमें सूजन उत्पन्न होजाय अथवा सूजनके अंतमें ज्वर और अतिसार उत्पन्न होजायँ और वह मनुष्य विशेषरूपसे बलहीनहो तो उसकी अवश्य मृत्यु होतीहै॥१६॥
पाण्डूदरः कृशोऽत्यर्थं तृष्णयाभिपरिप्लुतः।
डम्बरीकुपितोच्छ्रासः प्रत्याख्येयो विजानता॥१७॥
जो रोगी पांडुरोग सहित उदर रोगसे पीडित हो और अत्यंत कृश तथा तृषासे व्याकुल हो, दोनों नेत्र जिसके बैठजावें और वेगसे श्वास चलनेलगे तो उस रोगीको प्रत्याख्येय जानना अर्थात् यह नहीं बचेगा इसप्रकार कहदेने योग्य जानना॥१७॥
हनुमन्याग्रहस्तृष्णाबलह्रासोऽतिमात्रया।
प्राणाश्चोरसि वर्त्तन्ते यस्य तं परिवर्जयेत्॥१८॥
जिस रोगीकी ठोड़ी और मन्या यह दोनों अकड गईहोंप्यासकी अधिकता हो, चल अत्यंत क्षीण होगयाहो और प्राण केवल छातीमें आगयेहों उस रोगीको त्यागदेना चाहिये॥१८॥
ताम्यत्यायच्छतेशर्मनकिञ्चिदपि विन्दति।
क्षीणमांसबलाहारोमुमूर्षुरचिरान्नरः॥१९॥
जो रोगी अत्यंत व्याकुल होगयाहो और उसको किसीप्रकारभी शान्ति प्राप्त न होती हो, ज्ञान एकदम नष्ट होगयाहो एवं मांस बल और आहार क्षीण होगयेहों उसको थोडे ही समयमें मरनेवाला जानना चाहिये॥१९॥
विरुद्धयो न यो यस्य विरुद्धोपक्रमाभृशम्।
वर्द्धन्ते दारुणारोगाः शीघ्रं शीघ्रं सहन्यते॥२०॥
सब रोग परस्पर विरोधी कारणोंके उत्पन्न होनेसे तथा विरोधी चिकित्सा करनेसे शीघ्र २ वृद्धिको प्राप्त होकर मनुष्यको मारडालते हैं॥२०॥
बलं विज्ञानमारोग्यं ग्रहणीमांसशोणितम्।
एतानि यस्य क्षीयन्ते क्षिप्रं क्षिप्रं सहन्यते॥२१॥
जिस मनुष्यका बल, ज्ञान, आरोग्य, ग्रहणी, मांस और रक्त यह क्षीण होगये होंवह रोगी शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है॥२१॥
विकारायस्य वर्द्धन्ते प्रकृतिः परिहीयते।
सहसासहसातस्य मृत्युर्हरतिजीवितम्॥२२॥
जिस रोगीके शरीरमें विकार बढते चलेजायँऔर स्वाभाविक प्रकृति नष्ट होती चलीजाय उस रोगीके जीवितको मृत्यु शीघ्र हरलेती है॥२२॥
तत्रश्लोकः।
इत्येतानि शरीराणि व्याधिमन्ति विवर्जयेत्।
नह्येषुधीराः पश्यन्ति सिद्धिं काञ्चिदुपक्रमात्॥२३॥
इति चरकसंहितायाामीन्द्रि० कतमानिशरीरीयमिंद्रियं समाप्तम्॥६॥
अब अध्यायके उपसंहार में एक श्लोक है इसप्रकार ऊपर कहे लक्षणोंवाले रोगियोंको त्यागदेना चाहिये क्योंकि इसप्रकारके रोगियोंकी किसीप्रकार चिकित्सा करनेमें बुद्धिमान् सिद्धिको नहीं देखते॥२३॥
इति श्रीमहर्षिचरक० इन्द्रियस्थाने भाषा०कर्तमानिशरीरीयमिन्द्रिय नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
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सप्तमोऽध्यायः।
अथातः पन्नरूपीयमिंद्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्साह भगवानात्रेयः।
अब हम पन्नरूपीय इन्द्रियनामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
दृष्ट्यां यस्य विजानीयात्पन्नरूपां कुमारिकाम्।
प्रतिच्छायामयीमक्ष्णोर्तैनमिच्छेच्चिकित्सितुम्॥१॥
जिस रोगीकी छाया विकृतरूप दिखाई दे अथवा दिखाई न देवेया उस रोगीको अपनी छाया न दिखाई देती हो या वह किसीकी छाया न देखसकता हो तो वैद्य उसकी चिकित्सा करनेमें यत्नवान् न होवे॥१॥
ज्योत्स्नायामातपेदीपेसलिलादर्शयोरपि।
अङ्गेषु विकृतायस्य छायाप्रेतस्तथैवसः॥२॥
जिसको चंद्रमाकी चांदनी, धूप, दीपक इनके आगे खडे होनेसे अपनी छाया विकृतांग दिखाई देतीहो अथवा जल या शीशेमें अपने प्रतिबिम्बको विकृतांग देखे तो वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥२॥
छिन्नाभिन्नाकुलाछायाहीनावाप्यधिकापिवा। नष्टातन्वीद्विधाछायाविशिराविस्तृताचया॥३॥ एताश्चान्याश्चयाः काश्चित्प्रतिच्छायाविगर्हिताः। सर्वामुमूर्षतां ज्ञेयानचेल्लक्ष्यनिमित्तजाः॥४॥
जिस मनुष्यकी छाया छिन्न, भिन्न, व्याकुल, हीन, अधिक, नष्ट, वारीक, दो भागों में कटी हुई, मस्तकरहित और वडे विस्तार पूर्वक दिखाई देतीहो इनके सिवाय अन्य निंदित प्रकारकी या छिद्रयुक्त दिखाई देतीहो वह छाया भी यदि किसी पवन आदि निमित्तसे, या ऊँचे नीचे स्थान आदि किसी कारणसे विकृत नहीं है तो अवश्य मृत्यु होनेवाले मनुष्यकी जाननी॥३॥४॥
संस्थानेन प्रमाणेन वर्णेन प्रभया तथा।
छायाविवर्त्तते यस्य स्वप्नेऽपिप्रेत एव सः॥५॥
जिस मनुष्यकी आकृति, वर्ण, प्रमाण, कांति आदिसे छाया विकृत हुई स्वप्न में भी दिखाई दे वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥५॥
छायाके भेद।
संस्थानमाकृतिर्ज्ञेयासुषमाविषमा चया। मध्यमल्पं महच्चोक्तं प्रमा-
णं त्रिविधं नृणाम्॥६॥ प्रतिप्रमाणसंस्थानाजलादर्शातपादिषु। छायायासाप्रतिच्छायायाचवर्णप्रभाश्रया॥७॥
स्थान आकृतिको कहतेहैं वह आकृति सुषमा (सुन्दरता) और विषमा इन दो भेदोंसे दो प्रकारकी होतीहैं और मनुष्योंका प्रमाण अल्प, मध्य और बृहत्के भेदसे तीन प्रकारका होताहै॥६॥ प्रत्येक मनुष्यके अपने प्रमाण और आकृतिके अनुसार जल दर्पण और धूप आदिमें जो छाया पडतीहै उसीको छाया कहते हैं।छाया में वर्ण और प्रभा रहनेसे उसको प्रतिच्छाया तथा कांति कहते हैं॥७॥
पंचभूतात्मक छायाका लक्षण।
खादीनां पञ्चपञ्चानां छायाविविधलक्षणाः।
नाभसीनिर्मलानीलासस्नेहासप्रभेव च॥८॥
आकाशादि पांच महाभूतोंकी अनेक प्रकारके लक्षणोंवाली छाया होती है उनमें नीलवर्णकी और निर्मल तथा चिकनी और कांतियुक्त छाया आकाशीय होतीहै॥८॥
रुक्षाश्यावारुणायातुवायवीसाहतप्रभा।
विशुद्धरक्तात्वाग्नेयीदीप्ताभादर्शनप्रिया॥९॥
रूक्ष, काली, लाल, प्रभारहित छाया वायवीय होती है। विशुद्ध, लालवर्णकी, कांतियुक्त, देखनेमें प्रिय इन लक्षणोंवाली आग्नेयी छाया होती है॥९॥
शुद्धवैदूर्य्यविमलासुस्निग्धाचाम्भसीमता।
स्थिरास्निग्धाघनाश्लक्ष्णाश्यामाश्वेताचपार्थिवी॥१०॥
स्वच्छ, वैदूर्य मणिके समान निर्मल और चिकनी जलकी छाया होती है। स्थिर, चिकनी, घनी, श्लक्ष्ण, श्याम और श्वेत पार्थिवी छाया होती है॥१०॥
वायवीगर्हितात्वासां चतस्रः स्युः शुभोदयाः।
वायवीतुविनाशायक्लेशायमहतेऽपि वा॥११॥
इन सब छायाओंमें वायवीय छाया निन्दनीय होती है। और चार प्रकारकी छाया सुखदायक होती हैं। वायवीय छाया तो मृत्युको करनेवाली अथवा महाकष्ट देनेवाली होतीहै॥११॥
तैजसी प्रभाका वर्णन।
स्यात्तैजसीप्रभासर्वासातुसप्तविधास्मृता।
रक्तापीतासिताश्यावाहरितापाण्डुराऽसिता॥१२॥
सब प्रकार की प्रभा तैजसी होती है और उस प्रभाके सात भेद हैं। जैसे लाल, पीली, सफेद, श्याम, हरित, पाण्डुर और काली॥१२॥
तासां याः स्युर्विकासिन्यः स्निग्धाश्च विपुलाश्चयाः।
ताः शुभारूक्षमलिनाः संक्षिप्ताश्चाशुभोदयाः॥१३॥
उनमें जो प्रभा विकाशवाली, चिकनी और विपुल होतीहै वह तीन प्रकारकी प्रभा शुभ होतीहै। और रूक्ष, मलिन, संक्षिप्त यह तीन प्रकारकी अशुभ होता है॥१३॥
वर्णमाक्रामतिच्छायाभास्तुवर्णप्रकाशिनी।
आसन्ना लक्ष्यते छायाभाः प्रकृष्टा प्रकाशते॥१४॥
छाया वर्णको छिपा लेतीहै अथवा यों कहिये कि वर्णरहित प्रतिबिम्बको छाया कहते है। और वर्ण प्रकाशयुक्त प्रतिबिम्बको प्रभा कहते हैं। छाया समीपके मनुष्यकी दिखाई देती है और प्रभा दूरके मनुष्यकी भी दिखाई देती है॥१४॥
नाच्छा यो नाप्रभः कश्चिद्विशेषाच्चिह्नयन्ति तु।
नृणां शुभाशुभोत्पत्तिं काले छायाः प्रभाश्रिताः॥१५॥
किसी मनुष्यकी भी प्रभा और छाया विशेषरूपसे विकृत नहीं होती न कभी किसी मनुष्यको छायामें किसी प्रकार की विशेषता देखने में आती है परन्तु जब किसी प्रकारका शुभ अथवा अशुभ होनेवाला होता है तब ही छाया और प्रभामें किसीप्रकारके विशेष लक्षण दिखाई पड़ते हैं॥१५॥
कामलाक्ष्णोर्मुखं पूर्णं गण्डयोर्युक्तमांसता।
सन्त्रासश्चोष्णगात्रञ्च यस्य तं परिवर्जयेत्॥१६॥
जिस रोगीके दोनों नेत्र कामलारोगसे पीले पडगयेहों, मुख बहुत भारी होगयाहो और दोनों कपोल मांससे फूले हुएसे होगये हों, अंगोंमें त्रास तथा उष्णता अधिक हो उस रोगीको त्याग देना चाहिये॥१६॥
उत्थाप्यमानः शयनात्प्रमोहं याति यो नरः।
मुहुर्मुहुर्न सप्ताहं सजीवति विकत्थनः॥१७॥
जो मनुष्य शय्यासे उठाया हुआ झट वेहोश होजाय और वारंवार इसीप्रकार हो तथा प्रलाप अर्थात् अंटसंट वकता हो वह मनुष्य सात दिनकी आयुवाला होता है अर्थात् सातरोजमें मरजाताहै॥१७॥
संसृष्टाव्याधयो यस्य प्रतिलोमानुलोमगाः।
व्यापन्नाग्रहणीप्रायः सोऽर्द्धमासं न जीवति॥१८॥
जिसके शरीर में प्रतिलोमगामी अर्थात् उल्टी चलनेवाली और अनुलोमगामी अर्थात् सीधी चलनेवाली दोनों प्रकारकी व्याधियें आपसमें मिलजावें और जिसकी ग्रहणी दोषोंसे युक्त हो वह मनुष्य प्रायः पंद्रह दिनमें मरजाताहै॥१८॥
उपद्रुतस्य रोगेणकर्षितस्याल्पमश्नतः।
बहुमूत्रपुरीषं स्याद्यस्यतं परिवर्जयेत्॥१९॥
जो रोगी रोगोंसे ग्रसाहुआ हो, जिसका शरीर कृश होगया हो तथा भोजन बहुत ही थोडा करता हो और मल मूत्र बहुत अधिक आताहो उस रोगीको त्यागदेना चाहिये॥१९॥
दुर्बलो बहुभुङ्क्तेयः प्राग्भुक्तादन्नमातुरः।
अल्पमूत्रपुरीषश्च यथा प्रेतस्तथैवसः॥२०॥
जो रोगी दुर्बल हो और उस रोगग्रस्त दुर्बल अवस्था में यदि रोगी पहिलेसे भी अर्थात् अपनी स्वस्थ अवस्थासे भी बहुत अधिक खानेलगे और मलमूत्र भी बहुत कम त्याग करे तो उसको प्रेत (मरेहुए) के समान जानना चाहिये॥२०॥
वर्द्धिष्णुगुणसम्पन्नमन्नमश्नातियो नरः।
शश्वच्चबलवर्णाभ्यां हीयतेन सजीवति॥२१॥
जो मनुष्य पुष्टिकारक पदार्थोंको भोजन करता हुआ भी प्रति दिन बल, वर्णसे हीन होता चलाजाय वह मृत्युको प्राप्त होता है॥२१॥
प्रकूजतिप्रश्वसितिशिथिलञ्चातिसार्य्यते।
बलहीनः पिपासार्त्तः शुष्कास्योन सजीवति॥२२॥
जिस रोगीका कण्ठ गूंजे और श्वास अधिक आवे, शरीर शिथिल होजाय तथा अतिसार हो, बलहीन हो, प्यास अधिक लगे, मुख सूखजाय वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥२२॥
ह्रस्वञ्चयः प्रश्वसितिव्याविद्धं स्पन्दते चयः।
मृतमेवतमात्रेयो व्याचचक्षे पुनर्वसुः॥२३॥
जिसका श्वास अत्यंत हीन होजाय और बिंधे हुएकी समान खडकने लगे भगवान् पुनर्वसुजी कहते हैं कि, उस मनुष्यको मराहुआही समझना चाहिये॥२३॥
ऊर्द्धञ्चयः प्रश्वसितिश्लेष्मणाचामिभूयते।
हीनवर्णबलाहारोयो नरो न सजीवति॥२४॥
जिस मनुष्यका ऊर्द्धश्वास जल्दी जल्दी चले और कफ अधिक वोलनेलगे। बल, वर्ण और आहार हीन होगयेहों वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होताहै॥२४॥
ऊर्द्धाग्रेनयनेयस्य मन्येचानतकम्पने।
बलहीनः पिपासार्त्तः शुष्कास्योनसजीवति॥२५॥
जिस रोगीके नेत्रोंके अग्रभाग ऊपरको होगये हों और ठोडीकी दोंनो संधियें नीचेको होकर कांपने लगें बलसे हीन हो, प्याससे व्याकुल हो और मुख सूखजाय तो वह मृत्युको प्राप्त होता है॥२५॥
यस्य गण्डावुपचितौ ज्वरकासौच दारुणौ।
शूलीप्रद्वेष्टिचाप्यन्नं तस्मिन्कर्मन सिद्ध्यति॥२६॥
जिस रोगीके दोनो गण्डस्थल (गडवाले) फूलजायँ, ज्वर और खांसी अत्यंत दारुण हो, छाती में शूल हो तथा अन्नसे द्वेषहो तो उस रोगीकी चिकित्सा करना वृथाहै॥२६॥
व्यावृत्तमूर्द्धजिह्वाक्षोभ्रुवौयस्य च विच्युते।
कण्टकैश्चाचिताजिह्वा यथा प्रेतस्तथैवसः॥२७॥
जिस रोगीके मस्तक, जीभ और दोनों भौंह टेढी अथवा ऊपरको उल्टीसी होगई हो, तथा जीभके ऊपर बहुत कांटेसे होगयेहों उसको मरे हुएके समान जानना॥२७॥
शेफश्चात्यर्थमुत्सिक्तं निसृतौ वृषणौ भृशम्।
अतश्चैवविपर्यासोविकृत्याप्रेतलक्षणम्॥२८॥
जिस मनुष्यका लिग पीछेको हटगया हो और दोनो फोते लटक आये हों अथवा इससे विपरीत होगये हो या स्वभावसे विपरीत होगये हों यह मरनेवाले मनुष्यके लक्षण जानने॥२८॥
निचितं यस्य मांसं स्यात्त्वगस्थिचैवदृश्यते।
क्षीणस्यानश्नतस्तस्य मासमायुः परं भवेत्॥२९॥
जिस मनुष्यके शरीरमें मांस बिलकुल क्षीण होगयाहो, केवल त्वचा और अस्थिमात्र दिखाई देतेहों तथा वह आहार न करताहो इसप्रकारके क्षीण मनुष्यकी एक महीनेकी परमआयु जानना चाहिये॥२९॥
तत्र श्लोकः।
इदं लिङ्गमरिष्टाख्यमनेकमभिजज्ञिवान्।
आयुर्वेदविदित्याख्यां लभते कुशलो नरः॥३०॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रि० पूर्वरूपीयमिद्रियं समाप्तम्॥७॥
अब अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है कि, जो वैद्य इन अरिष्टनामक अनेक प्रकारके लक्षणोंको भलेप्रकार जानताहै उसी कुशल पुरुषको आयुर्वेदका जाननेवाला कहना चाहिये॥३०॥
इति श्रीमहर्षिचरक०इन्द्रियस्थाने भाषाटीकायां पूर्वरूपीयमिन्द्रिय नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
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अष्टमोऽध्यायः।
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अथातोऽवाक्शिरसीयमिन्द्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम अवाक्शिरशीय नामक इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
अवाक्शिरावाजिह्मावायस्य वा विशिराभवेत्।
जन्तोरूपप्रतिच्छायानैनमिच्छेच्चिकित्सितुम्॥१॥
जो मनुष्य अपनी छायाका नीचेको शिर देखे अथवा टेढा देखे या विना शिरके देखे उस मनुष्यकी चिकित्सा नहीं करनी चाहिये॥१॥
जटीभूतानि पक्ष्माणि दृष्टिश्चापि निगृह्यते।
यस्यजन्तोर्नतं धीरो भेषजेनोपपादयेत्॥२॥
जिस मनुष्यकी पलकें जटाओंके समान बंधजायँ और दृष्टि जातीरहे उस मनुष्यकी बुद्धिमान् वैद्य चिकित्सा न करे॥२॥
यस्य शूनानि वर्त्मानि नसमायान्ति शुष्यतः।
चक्षुषीचोपदह्येते यथा प्रेतस्तथैवसः॥३॥
जिस रोगीकी दोनों पलकें सूज जावें और दोनों पलकें आपसमें न मिलसकें नेत्रों में अत्यंत दाह होतीहो और वह पलकें सूखने में न आवेंवह रोगी भी मृत्युके वश जानना॥३॥
भ्रुवोर्वा यदि वा मूर्ध्निसीमन्तावकान्बहून्। अपूर्वानकृतान्व्यक्तान्दृष्ट्वामरणमादिशेत्॥४॥ त्र्यहमेतेन जीवन्ति लक्षणेनातुरानराः। अरोगाणां पुनस्त्वेतत्षड्रात्रं परमुच्यते॥५॥
जिस रोगकी दोनों भौंहें या मस्तकमें अपूर्व जटासी होजायँ तो इन अपूर्व विना किसीकी बनाई प्रगट भंवरियोंको देखकर रोगीकी मृत्यु जानलेना चाहिये यदि यह
लक्षण रोगी मनुष्यके हो तो वह तीन दिनमें मरजाताहै और रोगरहितके होजायें तो वह छः दिनमें मरजाताहै॥४॥५॥
आयम्योत्पाटितान्केशान्योनरोनावबुध्यते।
अनातुरोवारोगीवाषड्रात्रं नातिवर्त्तते॥६॥
जिस मनुष्यके वालोंको खीचकर उखाड डियाजाय और वह उसके किसी प्रकारके दुःखको प्रतीत न करसके तो यदि वह रोगी हो तो तीन दिनमें और रोगरहित हो तो छः दिनमें मृत्युके वश होजाता है॥६॥
यस्य केशानिरभ्यङ्गमादृश्यन्ते भ्यक्तसन्निभाः।
उपरुद्धायुषं ज्ञात्वातं धीरः परिवर्जयेत्॥७॥
जिस मनुष्यके केश विनाही तेलके लगाये तेलसे भिगेहुएसेप्रतीत हो तो उस रोगीको गतायु समझकर धीर वैद्य त्याग देवे॥७॥
ग्लायतोनासिका वंशः पृथुत्वं यस्य गच्छति।
अशूनः शूनसङ्काशः प्रत्याख्येयः सजानता॥८॥
जिस रोगी मनुष्यके नाकका बांस मोटा होजाय और सूजनके बिनाही सूजा हुआसा दिखाई दे और वह पुगना रोगी तथा कृश शरीर हो तो उसको मरनेवाला जानना चाहिये॥८॥
अत्यर्थविवृता यस्य यस्य चात्यर्थसंकृता।
जिह्वावापरिशुष्कावानासिकान सजीवति॥९॥
जिस रोगीकी जीभ अधिक बाहर निकल आवे अथवा अधिक भीतर चली जाय तथा नाक सूखजाय उस रोगीकी अवश्य मृत्यु होती है॥९॥
मुखं शब्दस्रवावोष्ठौ शुक्लश्यावातिलोहितौ।
विकृतौ यस्य वानीलौनसरोगाद्विमुच्यते॥१०॥
जिस मनुष्यके मुखसे अवध्य शब्द निकले अथवा मुख कान, दोनों होट यह काले या अत्यंत लाल, नीले एवं विकृत होजायँ वह रोगी मृत्युको प्राप्त होता है॥१०॥
अस्थि श्वेताद्विजा यस्य पुष्पिताः पङ्कसंवृताः।
विकृत्यानसरोगं तं विहायारोग्यमश्नुते॥११॥
जिस रोगीके दांत विकृत होजायँ और श्वेत तथा फुलडीयुक्त, हट्टियोके वुगदे युक्त एवं कीचडयुक्त होजायँ वह मनुष्य कभी रोगोंमे मुक्त नहीं होता अर्थात् मरजाताहै॥११॥
स्तब्धानिश्चेतनागुर्वीकण्टकोपचिताभृशम्।
श्यावाशुष्काथवाशूनाप्रेतजिह्वाविसर्पिणी॥१२॥
जिस रोगीकी जीभ टेढी, बाहरको निकलीहुई चैतन्यता रहित, भारी, कॉटेयुक्त, काली, सूखी या सूजीहुई हो वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१२॥
दीर्घमुच्छ्वस्य यो ह्रस्वं नरो निश्वस्य ताम्यति।
उपरुद्धायुषं ज्ञात्वातं धीरः परिवर्जयेत्॥१३॥
जिस मनुष्यका श्वास लम्बा लम्बा आताहुआ क्रमसे धीरेधीरे अत्यंत हीन होजाय और वह मनुष्य बेहोश होजाय उसको गतायु जानकर त्यागदेना चाहिये॥१३॥
हस्तौ पादौ च मन्ये च तालु चैवातिशीतलम्।
भवत्यायुः क्षये क्रूरमथवापि भवेन्मृदु॥१४॥
जिस रोगीके हाथ, पांव, मन्या और तालु यह सब अत्यंत शीतल अथवा क्रूर या बहुत नरम पडजायँ उस रोगीका आयु क्षीण हुआ जानना॥१४॥
घट्टयञ्जानुनाजानुपादावुद्यम्यपातयन्।
योऽप्यास्यति मुहुर्वक्त्रमातुरोन सजीवति॥१५॥
जो रोगी अपनी दोनों जंघाओंको कटकट बजावे और पांवको उठा २ जमीनपर फेंके और अपने मुखको बारबार फिरावे वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१५॥
दन्तैच्छिन्दन्नखाग्राणिनखैश्छिंन्दञ्शरोरुहान्।
काष्ठेन भूमिं विलिखन्नरोगात्परिमुच्यते॥१६॥
जो रोगी दांतोंसे अपने नखोंको काटे और नखोंसे अपने शिरके बालोको उखाडे एवं लकडीसे जमीनको खुरेदे वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१६॥
दन्तान्खादति यो जाग्रदसाम्नाविरुदन्हसन्।
विजानाति न चेद्दुःखं नसरोगाद्विमुच्यते॥१७॥
जो रोगी अपनी जाग्रत अवस्थामें दांतोंको पीसे और ऊंचे स्वरसे रोवे तथा हॅसे और अपने शरीर के किसीमकारके दुःखोंका होश न हो वह रोगी रोगसे नहीं बचसकता अर्थात् मृत्युको प्राप्त होता है॥१७॥
मुहुर्हसन्मुहुः क्ष्वेडञ्शय्यां पादेन हन्तियः।
उच्चैश्छिद्राणि विमृशन्नातुरोन सजीवति॥१८॥
जो रोगी बारबार हंसे और चींख मारे, पैरोंसे अपनी शय्याको खराब करे तथा
अपने हांधोंसे नाक कान आंख आदि छिद्रोंको मर्दन करे या छूता जाय उसको मरणासन्न जानना चाहिये॥१८॥
यैर्विन्दति पुराभावैः समेतैः परमांरतिम्।
तैरेवारममाणस्य ग्लास्त्रोर्मरणमादिशेत्॥१९॥
जो भाव रोगीको अपनी रोगावस्था से पहिले उत्तम प्रतीत होते हो, जो २ वस्तुएं अत्यंत प्रिय हों वह सब जिस रोगीको बुरी और ग्लानिकारक प्रतीत होनेलगें उसकी अवश्य मृत्यु होती है॥१९॥
न बिभर्तिशिरोग्रीवां न पृष्टं भारमात्मनः।
नहनूपिण्डमास्यस्थमातुरस्य मुमूर्षतः॥२०॥
जिस रोगीकी गर्दन शिरके भारको न संभाल सके और पीठ शरीरके भारको न संभाल सके और ठोडी मुखके भारको न सॅभालसके वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै॥२०॥
सहसाज्वरसन्तापस्तृष्णामूर्च्छाबलक्षयः।
विश्लेषणञ्च सन्धीनां मुमूर्षोरुप जायते॥२१॥
जिस रोगीको एकाएकी ज्वर, संताप, प्यास, मूर्च्छा, बलकी क्षीणता, संधियोंका ढीला हो जाना यह सब लक्षण होजायँ उसकी मृत्यु होती है॥२१॥
गोसर्गे वदनाद्यस्य स्वेदः प्रच्यवते भृशम्।
लेपज्वरोपतप्तस्य दुर्लभं तस्य जीवितम्॥२२॥
जिस प्रलेपक ज्वरवाले रोगीके मुखसे प्रातःकाल गौओंको छोड़ने के समय अत्यंत पसीना टपकने लगे और वह प्रलेपक ज्वरसे पीड़ित हो तो उसका जीता रहना कठिन है॥२२॥
नो पैतिकण्ठमाहारो जिह्वाकण्ठमुपैति च।
आयुष्यन्तं गते जन्तोर्बलञ्च परिहीयते॥२३॥
जिस रोगीकी जीभ कण्ठ में चलीगई हो, बल क्षीण होगया हो और आहार कण्ठसे नीचे न जा सकता हो उस रोगी के आयुको नष्ट जानना चाहिये॥२३॥
शिरो विक्षिपते कृच्छ्रान्मुञ्चयित्वाप्रपाणिकौ।
ललाटप्रस्रुतस्वेदो मुमूर्षुः श्लथबन्धनः॥२४॥
जो रोगी बड़ी कठिनता से अपने दोनों हाथोंको शिरके ऊपर रखकर शिरको
बड़े कष्टसे इधर उधर हिलासके और उसके मस्तकसे अत्यंत पसीना निकलने लगे, शरीरके बंधन ढीले पड़जायँ तो उस रोगीको मृत्युवश जानना॥२४॥
तत्रश्लोकः।
इमानि लिङ्गानि नरेषु बुद्धिमान्विभावयेतावहितो मुहुर्मुहुः।
क्षणेनभूत्वाह्यपयान्ति कानिचिन्नचाफलं लिङ्गमिहास्तिकिञ्चन॥२५॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थानेऽवाक्शिरसीयमिंद्रियं समाप्तम्॥८॥
अब अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है बुद्धिमान् वैद्य मनुष्योंमें इन लक्षणों को देखकर वारवार अपने अनुभवको सावधानीसे पुष्ट करता जाय क्योंकि बहुतसे ऐसे भी लक्षण होतेहैं जो थोडेसे काल रहकर फिर नष्ट होजाते हैं। और कोई लक्षण ऐसे होते हैं जो निष्फल नहीं जाते अर्थात् अवश्य मृत्युके करनेवाले होतेहैं इसलिये सावधानी से परीक्षा करते हुए अपने अनुभवको पुष्ट कर लेना चाहिये॥२५॥
इति श्रीमहर्षिचरक० इन्द्रियस्थाने भाषाटीकायामवाक्शिरशीयमिन्द्रियं नामाष्टमोध्यायः॥८॥
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नवमोऽध्यायः।
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अथातो यस्य श्यावनिमित्तीयमिंद्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम यस्यश्यावनिमित्तीय इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते हैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
यस्य श्यावेपरिध्वस्तेहरिते चापिदर्शने।
आपन्नोव्याधिरन्तायज्ञेयस्तस्यविजानता॥१॥
जिस रोगीके दोनों नेत्र श्याम, अथवा हरे और टेढे अथवा शिथिल होजायँ, बुद्धिमान् वैद्य उसकी व्याधिको उसके नाशके लिये उपस्थित जाने॥१॥
निःसंज्ञः परिशुष्कास्यः संविद्धोव्याधिभिश्चयः।
उपरुद्धायुषं ज्ञात्वातं धीरः परिवर्जयेत्॥२॥
जिस रोगीकी संज्ञा (होश) नष्ट होजाय, मुख सूखजाय और व्याधियोंसे अत्यंत संविद्ध हो उस रोगीको गतायु समझलेना चाहिये॥२॥
हरिताश्च शिरायस्य लोमकूपाश्च संवृताः।
सोऽम्लाभिलाषीपुरुषः पित्तान्मरणमश्नुते॥३॥
जिस रोगीकी सब नसें हरी होगई हों और संपूर्ण रोममार्ग बंद होगये हों और खटाई खानेकी इच्छा रखता हो वह मनुष्य पित्तरोगसे मृत्युको प्राप्त होताहै॥३॥
शरीरान्ताश्च शोभन्ते शरीरञ्चोपशुष्यति।
बलञ्च हीयते यस्य राजयक्ष्माहिनस्तितम्॥४॥
जिस रोगीके शरीरके सबअंग शोभायुक्त प्रतीत हों और शरीर सुखा हो तथा उस मनुष्यका बल नष्ट होगया हो वह राजयक्ष्मावाला रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥४॥
अंसाभितापोहिक्काचछर्दनं शोणि तस्य च।
आनाहः पार्श्वशूलञ्च भवत्यन्तायशोषिणः॥५॥
जिस शोषरोगीके दोनो पार्श्वभागोंमें शूल होता हो तथा अफारा हिचकी, रुधिरकी छर्दि और कंधोंमें पीडा होती हो वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥५॥
वातव्याधिरपस्मारीकुष्ठीशोफी तथोदरी। गुल्मीचमधुमेहीचराजयक्ष्मीच यो नरः॥६॥ अचिकित्स्याभवन्त्येते बलमांसक्षयेसति। अन्येष्वपिविकारेषु तान्भिषक्परि वर्जयेत्॥७॥
वातव्याधि, अपस्मार, कुष्ठ, सूजन, उदर, गुल्म, मधुमेह और राजयक्ष्मा इन रोगोमसे किसी एक रोगवालेका बल और मास क्षीण होजायँ तो वह चिकित्साके योग्य नहीं रहता। इसीप्रकार अन्य विकारोमें भी बल और मांसके क्षीण होजानेपर प्रायः रोग असाध्य होजाते हैं॥६॥७॥
विरेचनहृतानाहो यस्तृष्णानुगतो नरः।
विरिक्तः पुनराध्माति यथा प्रेतस्तथैवसः॥८॥
जिस रोगीको विरेचन होनेके अनन्तर अफारा दूर होनेपर अधिक प्यास लगे अथवा विरेचन होनेके पीछे फिर अफारा उत्पन्न होजाय वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥८॥
पेयं पातुं न शक्नोति कण्ठस्य च मुखस्य च।
उरसश्च विबद्धत्वाद्यो नरो न सजीवति॥९॥
जिस रोगीका कण्ठ, मुख और छाती यह बिल्कुल रुकजायँ और वह जल, दूध आदि पतले पदार्थों को भी न पीसके उसकी अवश्य मृत्यु होती है॥९॥
स्वरस्य दुर्बलीभावं हानिञ्च बलवर्णयोः।
रोगवृद्धिमयुक्त्याचदृष्ट्वामरणमादिशेत्॥१०॥
जिस रोगीका स्वर हीन होजाय, बल और वर्ण नष्ट होजायँ और रोगकी वृद्धि होती चलीजाय उसको विनाही किसी परीक्षाके मरनेवाला जानना चाहिये॥१०॥
ऊर्द्धश्वासं गतोष्माणं शूलोपहतवंक्षणम्।
शर्मचानधिगच्छन्तं बुद्धिमान्परिवर्जयेत्॥११॥
जिस रोगीके उर्द्धश्वास चलनेलगे शरीर शीतल पडजाय, दोनों वंक्षणोंमें अत्यंत शूल होनेलगे और किसीप्रकार भी शान्तिको प्राप्त न हो ऐसे रोगीको बुद्धिमान्त्याग देवे॥११॥
अपस्वरं भाषमाणं प्राप्तं मरणमात्मनः।
श्रोतारञ्चाप्यशब्दस्यदूरतः परिवर्जयेत्॥१२॥
जो रोगी अनेक प्रकारके विनाहुए शब्दोंको सुने और अपने मुखसे आप ही अपनी मृत्युको हतस्वरसे होनेवाली कथन करताहो उस रोगीको त्याग देना चाहिये॥१२॥
यं नरं सहसारोगो दुर्बलं परिमुञ्चति। संशयप्राप्तमात्रेयो जीवितं तस्य मन्यते॥१३॥ अथचेज्ज्ञातयस्तस्य याचेरन्प्रणिपाततः। रसेनाद्यादितिब्रूयान्नास्मैदद्याद्विशोधनम्॥१४॥ मासेन चेन्नदृश्येतविशेषस्तस्य शोभनः। रसैश्चान्यैर्बहुविधैर्दुर्लभं तस्य जीवितम्॥१५॥
जिस अत्यंत दुर्बल रोगीको झट एकसाथ रोग छोडकर अलग होजाय उसका जीवन संशययुक्त ही जानना चाहिये यदि ऐसे समय रोगीके घरवाले वैद्यसे अधिक प्रार्थना करें कि, इसकी चिकित्सा कीजिये तो उनको कहे कि इसको मांसरस या विधिवत् बनाया हुआ यवोंका रस पीनेको दो परंतु ऐसे मनुष्यको विशोधन नहीं दना चाहिये। यदि उस रोगीको अनेक प्रकारके रस आदिकोंके सेवन से एक महीने भी कुछ फायदा प्रतीत न हो तो उसका जीवन दुर्लभ समझकर त्याग देवे॥१३॥१४॥१५॥
निष्ट्यूतञ्च पुरीषञ्च रेतश्चाम्भसिमज्जति।
यस्य तस्यायुषः प्राप्तमन्तमाहुर्मनीषिणः॥१६॥
जिस रोगीका थूक, पुरीषऔर वीर्य जलमें डूबजाय बुद्धिमान् उस रोगीका अंत आया हुआ कथन करते हैं॥१६॥
निष्ठ्यूते यस्य दृश्यन्ते वर्णाबहुविधाः पृथक्।
तच्चसीदत्यपः प्राप्यनसजीवितुमर्हति॥१७॥
जिस रोगीका थूक अलग २ अनेक वर्णोंवाला दिखाई दे और जलमें डालने से डूवजाय वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१७॥
पित्तमुष्मानुगं यस्य शंखौ प्राप्यविमूर्च्छति।
सरोगः शंखकोनाम्नात्रिरात्राद्धन्ति जीवितम्॥१८॥
जिसके पित्त ऊष्माको लेकर दोनों कनपटियोमें प्राप्त होकर विमूर्च्छित होजाय उसको शंखके रोग कहते है। (इस रोगमें कनपटियें अत्यंत चटकती हैं और उनमें अत्यंत दारुण शूल उत्पन्न होजाता है) इससे रोगी तीन दिनमें मरजाताहै॥१८॥
सफेनं रुधिरं यस्य मुहुरास्यात्प्रमुच्यते।
शूलैश्च तुद्यते कुक्षिः प्रत्याख्येयः सतादृशः॥१९॥
जिस रोगीके मुखसे झाग मिलाहुआ रक्त वारंवार गिरे और उस रोगीकी कूखमें अत्यंत शूल होता हो उस रोगीको मरजानेवाला जानना चाहिये॥१९॥
बलमांसक्षयस्तीव्रोरोगवृद्धिररोचकः।
यस्यातुरस्य लक्ष्यन्तेत्रीनहान्न सजीवति॥२०॥
जिस रोगीका बल और मांसक्षीण होगया हो और रोग सहसा बढकर तीव्र होजाय तथा अरुचि हो वह रोगी तीन दिनमें मरजाताहै॥२०॥
तत्रश्लोकौ।
विज्ञानानिमनुष्याणां मरणे प्रत्युपस्थिते। भवन्त्येतानिसम्पश्येदन्यान्येवं विधानि च॥२१॥ तानि सर्वाणि लक्ष्यन्ते न तु सर्वाणि मानवम्। विशन्ति विनशिष्यन्तं तस्माद्बोध्यानिसर्वशः॥२२॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थाने यस्यश्यावमिंद्रियं समाप्तम्॥९॥
यहां अध्यायके उपसंहारमें दो श्लोक है जब मनुष्योंका मरणसमय आजाता है उस समय ऐसे २ लक्षण उत्पन्न होते है तथा इसी प्रकारके और भी लक्षण उत्पन्न होते है सो वैद्यको चाहिये कि इन मरणख्यापक सब प्रकारके लक्षणोको विज्ञानपूर्वक सावधानीसे देखा करे। सब लक्षण एक ही मनुष्यमें नहीं होसकते इसलिये अनेक मरणासन्न मनुष्योमें सबप्रकारके लक्षणोको सावधानीसे देखना चाहिये॥२१॥२२॥
इति श्रीमहर्षिचर० इन्द्रि० स्था० भाषाटी० यस्यश्यावनिमित्तीय नाम नवमोऽध्यायः॥९॥
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दशमोऽध्यायः।
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** अथातः सद्योमरणीयमिन्द्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।**
अब हम सद्योमरणीय इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
सद्यस्तितिक्षतः प्राणान्लक्षणानि पृथक्पृथक्।
अग्निवेश! प्रवक्ष्यामि संस्पृष्टो यैर्न जीवति॥१॥
हे अग्निवेश! जिन लक्षणों के स्पर्शमात्रसे ही मनुष्यकी शीघ्र मृत्यु होजातीहै उन प्राणोंके नष्ट करनेवाले लक्षणोंको हम अलग २ वर्णन करते हैं॥१॥
वाताष्ठीलाः सुसंवृत्तास्तिष्ठन्ति दारुणाहृदि।
तृष्णयाभिपरीतस्य सद्योमुष्णाति जीवितम्॥२॥
जिस मनुष्यके शरीरमें बाताष्ठीला रोग बढकर हृदय में दारुणभावसे स्थित होजाय तथा उसको अधिक प्यास लगनेलगे तो वह रोगी शीघ्र मरजाताहै॥२॥
पिण्डिकेशिथिलीकृत्यजिह्मीकृत्यचनासिकाम्।
वायुः शरीरे विचरन्सद्योमुष्णाति जीवितम्॥३॥
जिस रोगीके शरीरमें वायु दोनों पिण्डलियोंको शिथिल करके नाकको टेढा बनादेवे तथा शरीरमें विचरण करनेलगजाय वह रोगी शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है॥३॥
भ्रुवौयस्य च्युते स्थानादन्तर्दाहश्च दारुणः।
तस्य हिक्काकरो रोगस्सद्योमुष्णाति जीवितम्॥४॥
जिस रोगीकी दोनों भौहें अपने स्थानसे हटजांय शरीरमें अत्यंत दारुण अन्तर्दाह हो और हिचकी अधिक आनेलगे वह रोगी शीघ्र मरजाताहै॥४॥
क्षीणशोणितमांसस्य वायुरूर्द्धगतिश्चरन्।
उभेमन्येसमेयस्य सद्योमुष्णाति जीवितम्॥५॥
जिस रोगीके रक्त और मांस क्षीण होगये हों तथा वायु ऊर्द्धगतिसे चलनेलगे और दोनों मन्या (ठोडीकी दोनों ओरकी संधियें) अकडजायँ वह मनुष्य शीघ्र मृत्युको प्राप्त होता है॥५॥
अन्तरेण गुदं गच्छन्नाभिञ्च सह सानिलः।
कृशस्य वंक्षणौ गृह्णन्सद्योमुष्णाति जीवितम्॥६॥
यदिक्षीण रोगीके शरीरमें वायु गुदासे नाभि में होती हुई दोनों वंक्षणोंको ग्रहण करे अर्थात् गुदामेंसे वायु उठकर नामिमें प्रवेश करती हुई दोनों वंक्षणों (वक्खी) में दारुण पीडाको उत्पन्न करे तो वह मनुष्य शीघ्र मरजाता है॥६॥
वितत्यपर्शुकाग्राणिगृहीत्वोरश्च मारुतः।
स्तिमितस्यायताक्षस्य सद्योमुष्णाति जीवितम्॥७॥
जिस रोगीके दोनों पांसुओंका अग्रभाग वायुसे फैलजाय तथा उसकी छातीको वायु रोककर अत्यंत पीडा उत्पन्न करे उस पीडासे रोगीका संपूर्ण शरीर गीला होजाय और आंखें बडी २ खुलजायँ तो उस रोगीका शीघ्र मरण होता है॥७॥
हृदयञ्च गुदञ्चोभे गृहीत्वामारुतो बली।
दुर्बलस्य विशेषेणसद्योमुष्णातिजीवितम्॥८॥
यदि दुर्बल रोगीके हृदयको और गुदाको रोककर बलवान् वायु अत्यंत पीडा उत्पन्न करे तो वह रोगी शीघ्र अपने जीवनको त्याग देता है॥८॥
वंक्षणौ च गुदञ्चोभे गृहीत्वामारुतोबली।
श्वासं सञ्जनयञ्जन्तोः सद्योमुष्णाति जीवितम्॥९॥
यदि बलवान् वायु दोनोवंक्षण और उत्तरगुद तथा अधोगुदको रोककर उनमें अत्यंत पीडा करताहुआ श्वासको उत्पन्न कर देवे तो रोगीके प्राणोको शीघ्र नष्टकर देता है॥९॥
नाभिं वस्तिं शिरोमूत्रं पुरीषञ्चापिमारुतः।
विबध्यजनयञ्छूलं सद्योमुष्णाति जीवितम्॥१०॥
यदि बलवान् वायु मनुष्य के नाभि, वस्ति, शिर, मूत्र और पुरीषको रोककर दारुण शूलको उत्पन्नकरदेवे तो मनुष्यका जीवन शीघ्र नष्ट होजाता है॥१०॥
भिद्येत वंक्षणौ यस्य वातशुलैः समन्ततः।
भिन्नं पुरीषं तृष्णा च सद्यः प्राणाञ्जहातिसः॥११॥
जिस रोगीके दोनों वंक्षणोंजांघोंकी सन्धियोंमें वायुके शूलोसे सर्वतः अत्यंत भेद (काटनेकीसी पीडा) होतीहो तथा साथ ही दस्तोंका लगना और दारुण प्यास भी हो वह मनुष्य शीघ्र अपने जीवनको त्याग देता है॥११॥
आप्लुतं मारुतेनेहशरीरं यस्य केवलम्।
भिन्नं पुरीषं तृष्णा च सद्योजह्यात्सजीवितम्॥१२॥
जिस मनुष्यका शरीर केवलवायुकेवेगसेही पसीनेसे भीगजाय और साथमें दस्तोंका वेग तथा प्यास भी हो वह शीघ्र अपने जीवनको त्याग देताहै॥१२॥
शरीरं शोफितं यस्य वातशोफेन देहिनः।
भिन्नं पुरीषं तृष्णा च सद्योजह्यात्सजीवितम्॥१३॥
जिस मनुष्यका शरीर वायुकी सूजनसे सूजाहुआ हो और उसको दस्त तथा ज्यासकी भी अधिकता होजाय तो वह मनुष्य शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त होता है॥१३॥
आमाशयसमुत्थाना यस्य स्यात्परिकर्तिका।
तृष्णागुदग्रहश्चोग्रः सद्योजह्यात्सजीवितम्॥१४॥
जिस मनुष्य के आमाशयमें मांस काटनेकी सी पीडा हो और अधिक प्यास तथा गुदामें उग्र पीडा भी साथ में प्रगट होजाय वह मनुष्य शीघ्र ही मरजाताहै॥१४॥
पक्वाशयमधिष्ठायहत्वासंज्ञाञ्च मारुतः।
कण्ठेघुर्घुरकं कृत्वासद्योहरतिजीवितम्॥१५॥
जिस मनुष्य के पक्वाशय में बलवान् वायु प्रविष्ट होकर संज्ञाको नष्ट कर देता है अर्थात् बेहोश करदेताहै और कण्ठमें घुरघुर शब्द करने लगता है वह मनुष्य शीघ्र मृत्युको प्राप्त होताहै॥१५॥
दन्ताः कर्दमचूर्णाभामुखं चूर्णकसन्निभम्।
शिप्रायन्ते च गात्राणि ल्लिङ्गं सद्योमरिष्यतः॥१६॥
जिस रोगीके दांतों पर कीचडसा लगा हो और सफेद चूनासा बुरका प्रतीत होता हो तथा मुख भी चूनेके समान सफेद होगया हो तथा सव अंग पसीनेसे युक्त हो और शिथिल होजायँ उसे शीघ्र मरनेवाला जानना॥१६॥
तृष्णा श्वासशिरोरोगमोहदौर्बल्यकूजनैः।
स्पृष्टः प्राणाञ्जहात्याशुशकृद्भेदेनचातुरः॥१७॥
यदि दुर्बल रोगीको प्यास, श्वास, शिरोरोग, मोह, क्षीणता, कण्ठका कूजन एक साथ ही होजायँ तथा दस्त लगनेलगे वह रोगी शीघ्र अपने प्राणोंको त्याग देताहै॥१७॥
तत्रश्लोकः।
एतानि खलुलिङ्गानियः सम्यगवबुध्यते।
सजीवितञ्च मर्त्यानां मरणञ्चावबुध्यते॥१८॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रिय० सद्योमरणीयमिंद्रियं समाप्तम्॥१०॥
यहां अध्याय के उपसंहारमें एक श्लोक है। जो वैद्य इन संपूर्ण लक्षणोंको भले प्रकार जानताहै वह मनुष्योंके जीवन और मरणको भी अच्छीतरह जानलेताहै॥१८॥
इति श्रीमहर्षि चरक० इन्द्रियस्थाने भा०टी० सद्योमरणीयमिन्द्रिय नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
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एकादशोऽध्यायः।
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अथातोऽणुज्योतीयमिन्द्रियं व्याख्यास्याम इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम अणुज्योतीय इन्द्रियनामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
अणुज्योतिरनेकाग्रोदुश्छायोदुर्मनाःसदा।
रतिं न लभते याति परलोकं समान्तरे॥१॥
जिस मनुष्यकी ज्योति (कान्ति) क्षीण होजाय, चित्तमें अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प उत्पन्न हो, शरीरकी छाया हीन लक्षणोवाली होजाय, मन खिन्नसा रहे, किसी समय किसी वस्तु में भी प्रीति न हो वह मनुष्य एक वर्षके भीतर परलोककी यात्रा करता है॥१॥
बलिं बलिभुजो यस्य प्रणीतं नोपभुञ्जते।
लोकान्तरगतः पिण्डं भुङ्क्ते संवत्सरेण सः॥२॥
जिस मनुष्यके हाथकी दी हुई बलि काग, कुत्ते आदि न खाते हों वह मनुष्य एक वर्षके भीतरही परलोक में प्राप्त हो प्रेतत्वके पिडको ग्रहण करता है॥२॥
सप्तर्षीणां समीपस्थां यो न पश्यत्यरुन्धतीम्।
संवत्सरान्ते जन्तुः ससम्पश्यतिमहत्तमः॥३॥
जो मनुष्य सामने आये हुए सप्तऋषियों (तुलालग्नमेंउदय होनेवाले साततारों) को और अरुंधतीको नहीं देखसकता वह मनुष्य एक वर्षके भीतर ही यमलोकका दर्शन करता है॥३॥
विकृत्याविनिमित्तं यः शोभामुपचयं धनम्।
प्राप्नोत्यतोवाविभ्रंशं समान्तं न सजीवति॥४॥
जिस मनुष्यके शोभा, स्वभाव, पुष्टि, धना, विना ही कारणसे एकाएक अपने स्वभावको छोड़कर बदलजायँ अर्थात् विकृत होजायँ वह मनुष्य एक वर्षके भीतर मृत्युको प्राप्त होजाताहै॥४॥
भक्तिः शीलं स्मृतिस्त्यागोबुद्धिर्बलमहेतुकम्।
षडेतानिनिवर्त्तन्ते षड्भिर्मासैर्मरिष्यतः॥५॥
जिस मनुष्य के भक्ति, शील (स्वभाव) स्मृति, त्याग, बुद्धि और बल यह विनाही कारणसे बदलजायँ उस मनुष्यकी छः महीनेके भीतर मृत्यु होती है॥५॥
धमनीनामपूर्वाणां जालमत्यर्थशोभनम्।
ललाटे दृश्यते यस्य षण्मासान्नसजीवति॥६॥
जिस मनुष्य के ललाटपर अपूर्व और सुन्दर नसोंका जाल दिखाई देने लगता है वह मनुष्य छः महीनेमें मृत्युको प्राप्त होता है॥६॥
लेखाभिश्चन्द्रवक्राभिर्ललाटमुपचीयते।
यस्य तस्यायुषः षड्भिर्मासैरन्तं समादिशेत्॥७॥
जिस मनुष्यके मस्तकमें चन्द्रमाके समान एक ऊंची रेखासी उठखडी हो वह मनुष्य छः महीनेमें मरजाताहै॥७॥
शरीरकम्पः संमोहोगतिर्वचन मे वच।
मत्तस्येवोपलक्ष्यन्ते यस्य मासं न जीवति॥८॥
जिस मनुष्यका शरीर कांपने लगजाय और बहोशी उत्पन्न होजाय तथा चलने और बोलनेकी गति बिगडजाय वह मनुष्य एक महीनेमें मृत्युको प्राप्त होता है॥८॥
रेतो मूत्रपुरीषाणि यस्य मज्जन्ति चाम्भसि।
समासात्स्वजनद्वेष्टामृत्युवारिणि मज्जति॥९॥
जिस मनुष्यका वीर्य, मूत्र और मल जलमें डूबजाताहै और अपने मित्रोंको भी द्वेषभावसे देखने लगता है वह मनुष्य एक महीनेमें मृत्युको प्राप्त होजाताहै॥९॥
हस्तपादं मुखञ्चो भौविशेषाद्यस्य शष्यतः।
शूयेते वा विना देहात्स च मासं न जीवति॥१०॥
जिस मनुष्यके हाथ, पांव, मुख यह विशेषकर सुखजायँ अथवा इनमें सूजन उत्पन्न होजाय परन्तु वह सूजन और देहमें न हो वह मनुष्य एक महीने में मृत्युको प्राप्त होजाताहै॥१०॥
ललाटे मूर्ध्निबस्तौ वानीला यस्य प्रकाशते।
राजीबालेन्दुकुटिलान सजीवितुमर्हति॥११॥
जिस मनुष्य के ललाट और मूर्धा (शिर) तथा वस्ति में बालचंद्रमाके समान नीले रंगकी और टेढी रेखा उत्पन्न होजायँ वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होताहै॥११॥
प्रबालगुटिकाभासा यस्य गात्रेमसूरिकाः।
उत्पाद्याशुविनश्यन्ति न चिरात्सविनश्यति॥१२॥
जिस मनुष्यके शरीरमें मूंगेके वर्णवाली गोल मसूरिका (शीतला) बहुतसी निकल आवें और वह जल्दी सूखें नहीं तो वह रोगी अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१२॥
ग्रीवावमर्दोबलवाञ्जिह्वाश्वयथुरे वच।
ब्रध्नास्य गलपाकश्च यस्य पक्वं तमादिशेत्॥१३॥
जिस मनुष्यकी गर्दनमें अत्यंत पीडा होती हो तथा जीभ सूजजाय, वर्धे निकलआवें गला पकजाय वह मनुष्य अवश्यही शरीरके अंतको प्राप्त होता है॥१३॥
संभ्रमोऽतिप्रलापोऽतिभेदोऽस्थ्नामतिदारुणः।
कालपाशपरीतस्य त्रयमेतत्प्रवर्तते॥१४॥
जो रोगी कालरूपी फांसीसे बंधजाताहै उसको भ्रम, प्रलाप, और हड्डियोंका फूटना यह तीनांही अति दारुणरूपसेप्रगट होजाते है॥१४॥
प्रमुह्यल्लुँञ्चयेत्केशान्परान्गृह्णात्यतीवच।
नरः स्वस्थवदाहारमबलः कालचोदितः॥१५॥
जो मनुष्य बेहोशीको प्राप्त होकर अपने केशोंको उखाडता है तथा अन्य मनुष्योंसे लिपट जाता है एवं रुग्णावस्था में भी रोगरहित मनुष्योंके समान बहुत भोजन करताहै वह क्षीण मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१५॥
समीपेचक्षुषोः कृत्वामृगयेतां गुलीयकम्। स्मयतेऽपि च कालान्धऊर्द्ध्वाक्षोऽनिमिषेक्षणः॥१६॥ शयनाद्वसनादङ्गात्काष्ठात्कुड्यादथापिवा। असन्मृगयते किञ्चित्समुह्यन्कालचोदितः॥१७॥
जो रोगी अपने हाथोंकी अंगुलियोंको नेत्रोंके समीप लेजाकर उनको वारवार देखे और विस्मितके समान ऊपरको नेत्र करके किसी विचित्र अवस्थाको देखे तथा पलक न झपके अथवा अपनी शय्यामें वा अंगोंमे अथवा किसी काष्ठ या दिवार आदिमें जैसे किसी खोयी हुई वस्तुको ढूंढा करते हैं इस तरह बारबार टटोले और बेहोश होजाय वह मनुष्य कालका प्रेरा हुआ जानना चाहिये॥१६॥१७॥
अहास्य हसनो मुह्यन्प्रलेढिदशनच्छदौ।
शीतपादकरोच्छ्वासो यो नरो न स जीवति॥१८॥
जो रोगी विना ही कारण हंसे, विना ही किसी कारणके बेहोश होजाय तथा अपने दांतोंको और होठोंको जीभसे चाटे, जिसके हाथ और पांव ठण्डे हों तथा जो दीर्घ श्वास लेता हो वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१८॥
आह्वायन्तं समीपस्थं स्वजनं जनमेव वा।
महामोहावृतमनाः पश्यन्नपि न पश्यति॥१९॥
जो रोगी अपने समीप बैठे हुए बांधवोंको भी अमुक कहां हैं अमुक कहां हैं इस प्रकार बुलावे और मनके महामोहावृत होनेके कारण देखता हुआ भी न देखे अथवा अपने पास बैठे हुए बांधवोंको भी न देखकर महामोहसे व्याकुल हो और बारंबार बुलावे वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है॥१९॥
अयोगमतियोगं वाशरीरे मतिमान्भिषक्।
खादीनां युगपद्दृष्ट्वाभेषजं नावचारयेत्॥२०॥
जिस रोगीके शरीरमें पांचभौतिक पदार्थोंको हीन देखे अथवा अत्यंत बढे देखे उसकी चिकित्सा न करे॥२०॥
अतिप्रवृद्ध्यारोगाणां मनसश्च बलक्षयात्।
वासमुत्सृजतिक्षिप्रंशरीरीदेहसंज्ञकम्॥२१॥
रोगोंके अत्यंत बढकर बलबान् होनेसे, मन और बलके क्षीण हो जानेसे जीव देहरूपी घरको छोडकर शीघ्र बाहर होजाता है॥२१॥
वर्णस्वरावग्निबलं वागिन्द्रियमनोबलम्।
हीयतेऽसुक्षयेनिद्रानित्या भवति वा न वा॥२२॥
जब मनुष्यके वर्ण, स्वर, अग्नि, बल, वाणी, इन्द्रिय और मन इनका बल क्षीण होजाताहै तब वह मनुष्य यातो अधिक सोता ही रहता है अथवा जागताही रहता है तब इस मनुष्यके प्राण शीघ्र नष्ट होजाते हैं॥२२॥
भिषग्भेषजपानान्नगुरुमित्रद्विषश्चये।
वशगाः सर्व एवैतेबोद्धव्याः समवर्त्तिनः॥२३॥
जो मनुष्य—वैद्य, औषधि, अन्न, पान, माता, पिता आदि गुरुजन, और मित्र आदिकोंसे द्वेष करने लगते हैं कालवश हुए इस प्रकारके मनुष्य एक वर्षके भीतर मृत्युको प्राप्त होजाते हैं॥२३॥
एतेषु रोगः क्रमते भेषजं प्रतिहन्यते।
नैषामन्नानिभुञ्जीत न चोदकमपि स्पृशेत्॥२४॥
इस प्रकार असाध्य रोगियोंको औषध नहीं देना चाहिये और न इनके अन्न और जलका स्पर्श करना चाहिये॥२४॥
पादाः समेताश्चत्वारः सम्पन्नाः साधकैर्गुणैः।
व्यर्थागतायुषो द्रव्याद्विनानास्ति गुणोदयः॥२५॥
यदि एकत्रित औषध, वैद्य, परिचारक, रोगी यह सब चिकित्साके चारो पाद साधकगुणोंसे सपन्न भी हो तो भी आयुरहित मनुष्यकी चिकित्सा करना वृथा है। जैसे—औषध के बिना गुण नहीं रह सकता उसी प्रकार आयुके विना चिकित्सा भी निष्फल है॥२५॥
परीक्ष्यमायुर्भिषजानीरुजस्यातुरस्य च।
आयुर्वेदफलं कृत्स्नमायुर्द्देह्यनुवर्त्तते॥२६॥
वैद्यको चाहिये कि रोगी तथा नीरोग मनुष्यके आयुकी परीक्षा करके ही चिकित्सा करे। क्योकि संपूर्ण आयुर्वेदका फल आयु ही है। वह आयु देहके आधीन है इसलिये रोगीका देह तथा आयुकी परीक्षा कर चिकित्सा प्रवृत्त होना चाहिये॥२६॥
तत्रश्लोकः।
क्रियापथमतिक्रान्ताः केवलं देहमाप्लुताः।
चिह्नं कुर्वंति यद्दोषास्तदरिष्टं निरुच्यते॥२७॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थानेऽणुज्योतीयमिंद्रियं समाप्तम्॥११॥
यहां अध्यायके उपसंहारये श्लोक है— कि बातादि दोष क्रियामार्गसे अतिक्रान्त हो अर्थात् चिकित्सा द्वारा सिद्ध होनेवाले न रहकर केवल शरीरमें प्राप्त होकर जिन लक्षणोंको करते हैं उनको अरिष्ट कहते हैं। अर्थात् अवश्य मृत्यु करनेवाले लक्षणोको अरिष्ट कहते हैं॥२७॥
इति श्रीमहर्षि चरक० इन्द्रियस्थाने भा० टी० अणुज्योतीयमिन्द्रिय नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
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द्वादशोऽध्यायः।
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अथातो गोमयचूर्णीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः इति ह स्माह भगवानात्रेयः।
अब हम गोमयचूर्णीय नामक इन्द्रियाध्यायकी व्याख्या करते हैं इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करने लगे।
यस्य गोमयचूर्णाभं चूर्णं मूर्द्धनि जायते।
सस्नेहं भ्रश्यतेचैवमसान्तं तस्य जीवितम्॥१॥
जिस रोगीके मस्तकमें गोवरके चूर्णके समान (चूर्णसा) उत्पन्न होजाय तथा वह चूर्ण चिकनाई युक्त होकर झडे तो उस रोगीका जीवन एक महीने के भीतर नष्ट होजाताहै॥१॥
निर्घर्षन्निवयः पादौ च्युतां सः परिधावति।
विकृत्यानसलोकेऽस्मिंश्चिरं वसति मानवः॥२॥
जिस रोगीको अपने दोनों पांव आपस में घिसतेहुए से भागते प्रतीत होते हो और दोनों कंधे या छातीके अंश ढीले पडकर गिरेहुएसे प्रतीत हों वह मनुष्य इस विकृतिसे मनुष्यलोकमें अधिक नहीं रहसकता॥२॥
यस्य स्नातानुलिप्तस्यपूर्वं शुष्यत्युरोभृशम्।
आर्द्रेषु सर्वगात्रेषु सोऽर्द्धमासं न जीवति॥३॥
जिस मनुष्यके स्नान करनेपर अथवा चंदनादि लेपन करनेपर संपूर्ण अंग गीले रहते हुए भी छाती झटपट सूखजाय वह मनुष्य पंद्रह दिनके भीतरमें मृत्युको प्राप्त होताहै॥३॥
यमुद्दिश्यातुरं वैद्यः संवर्त्तयितुमौषधम्।
यतमानो न शक्नोति दुर्लभं तस्य जीवितम्॥४॥
जिस रोगीकी योग्य वैद्योंसे अनेक प्रकार चिकित्सा कराई जानेपर भी औषधियें अपना कुछ गुण न करसकें उस मनुष्य का जीवन दुर्लभ ही जानना चाहिये॥४॥
विज्ञातं बहुशः सिद्धं विधिवच्चावचारितम्।
न सिध्यत्यौषधं यस्य नास्ति तस्य चिकित्सितम्॥५॥
जिन औषधियोंको अनेक रोगियोंपर अनेक प्रकारसे अनुभव करचुके हैं और वह तत्काल फल दिखाने वाली हों उन औषधियोंसे योग्य वैद्य विधिपूर्वक अनेक प्रकार से जिसकी चिकित्सा करे उनसे भी उसको किंचित् लाभ न पहुंचे तो उस रोगीकी चिकित्साही नहीं है॥५॥
आहारमुपयुञ्जानोभिषजासूपकल्पितम्।
यः फलं तस्य नाप्नोति दुर्लभं तस्य जीवितम्॥६॥
जिस रोगीको वैद्यकशास्त्र के अनुसार विधिवत् पथ्य आहार दिया जावे और उस पथ्यका कुछ भी फल न होकर विपरीत गुण उत्पन्न होवे उस रोगीका जीवन दुर्लभ जानना चाहिये॥६॥
दूताधिकारे वक्ष्यामोलक्षणानि मुमूर्षताम्।
यानि दृष्ट्वाभिषक्प्राज्ञः प्रत्याख्येयादसंशयम्॥७॥
अब दूतपरीक्षा वर्णन करते हैं। इस दूताधिकार में मरनेवाले रोगियोंके लक्षणोंको दूतको देखनेसेही जानकर रोगीको प्रत्याख्येय (चिकित्सा न करनेयोग्य) कह सकताहै॥७॥
मुक्तकेशेऽथवानग्नेरुदत्यप्रयतेऽथवा।
भिषगभ्यागतं दृष्ट्वादूतं मरणमादिशेत्॥८॥
यदि दूत शिरके बालोंको छोडाये हुए, नंगेशिर, अथवा नंगा, हाथसे अपने मुखपर पवन करता हुआ, अपवित्र अवस्था में वैद्यको बुलाने आवे तो उसको देखकर रोगी मरजावेगा ऐसा समझ लेवे॥८॥
सुप्तेभिषजि ये दूताश्छिन्दत्यपि च भिन्दति।
आगच्छन्ति भिषक्तेषां न भर्त्तारमनुव्रजेत्॥९॥
यदि वैद्य सो रहा हो, अथवा कुछ काट रहा हो या कुछ छेदन कर रहा हो उस समय जो दूत वैद्यको बुलाने आवे तो उसके मालिककी चिकित्सा करने नहीं जाना चाहिये॥९॥
जुह्वत्यग्निं तथा पिण्डं पितृभ्यो निर्वपत्यपि।
वैद्येदूताय आयान्ति तेघ्नन्ति प्रजिघांसवः॥१०॥
जब वैद्य अग्निमें हवन कररहाहो अथवा पितरोंके अर्पण श्राद्ध कररहाहो तो ऐसे समय यदि रोगीका दूत बुलाने आवे तो जानलेना चाहिये कि यह दूत रोगीके प्राणोका नाशक है॥१०॥
कथयत्यप्रशस्तानिचिन्तयत्यथवापुनः।
वैद्येदूतामनुष्याणामागच्छन्ति मुमूर्षताम्॥११॥
यदि वैद्य किसी प्रकारकी अशुभ बातें कररहा हो अथवा किसी प्रकारकी चिंतामें मग्न हो तो उस समय जो किसी रोगीका दूत आवे तो वह दूत रोगीके मृत्युका पूर्वरूप जानना॥११॥
मृतदग्धविनष्टानि भजति व्याहरत्यपि।
अप्रशस्तानि चान्यानि वैद्येदूतामुमूर्षताम्॥१२॥
जब वैद्य किसी मरी अथवा जली या नष्ट हुई वस्तुके विषय में शोचता हो अथवा उसी विषयमें कुछ कार्य करता हो या अन्य किसी निंदित कर्मकी बातचीत कररहा हो उस समय रोगीका दूत वैद्यको बुलाने आवे तो वह रोगीके मृत्युका कारण होता है
विकारसामान्यगुणे देशकालेऽथवाभिषक्।
दूतमभ्यागतं दृष्ट्वानातुरं तमुपाचरेत्॥१३॥
अथवा रोगके समान गुणवाले देश, कालमें अर्थात् जिस प्रकृतिका रोगी हो उस रोगको बढानेवालाही देश और काल हो तो ऐसे समयमें यदि रोगीका दूत वैद्यको बुलाने आवे तो वैद्यको उस समय उसकी चिकित्सा करनेके लिये नहीं जाना चाहिये॥१३॥
दीनभीतद्रुतत्रस्तां मलिनामसतीं स्त्रियम्।
त्रीन्व्याकृतांश्चपण्डांश्चदृतान्विद्यान्मुमूर्षताम्॥१४॥
यदि वैद्यको बुलाने रजस्वला अथवा व्यभिचारिणी, मलिन, दीन, भयभीत स्त्री अथवा तीन स्त्रियें मिलकर या जल्दी २ भागीहुई स्त्रियें बुलाने आवें अथवा बुलानेके लिये तीन दूत इकट्ठे होजायं, या विकृत अंगवाला दूत हो अथवा नपुंसक दूत बुलाने आवे तो वैसे दूतोंको देखकर रोगीकी मृत्यु जानना चाहिये॥१४॥
अङ्गव्यसनिनं दूतं लिङ्गिनं व्याधितं तथा।
संप्रेक्ष्यचोग्रकर्माणं नवैद्योगन्तुमर्हति॥१५॥
यदि वैद्यको बुलानेके लिये अंगहीन अथवा कोई संन्यास आदिका चिह्न धारणकिये या रोगी अथवा किसी विकट कर्मको करनेवाला रोगीका दूत आये तो ऐसे दूतको देखकर वैद्यको चिकित्सा करनेके लिये जाना उचित नहीं॥१५॥
आतुरार्थमनुप्राप्तं खरोष्ट्रमथवाहनम्।
दूतं दृष्ट्वाभिषग्विद्यादातुरस्य पराभवम्॥१६॥
यदि दूत वैद्यको बुलानेके लिये गधा, ऊंट आदि निंदित, सवारियोंपर चढकर आवे तो ऐसे दूतको देखकर वैद्य रोगीके मरणको जान लेवे॥१६॥
पलालबुषमांसास्थिकेशलो मनखद्विजान्। मार्जनीं मुसलं शूर्पमुपानद्भग्नविच्युते॥१७॥ तृणकाष्ठतुषाङ्गारं स्पृशन्तो लोष्टभस्म च। तत्पूर्वदर्शने दूताव्याहरन्ति मुमूर्षताम्॥१८॥
जब रोगीका दूत वैद्यको बुलाने आवे और वह आतेही पहिले पराली, तुष, मांस, हड्डी, केश, लोम, नख, दांत, झाड, मूमल, सूप (छाज), जूता अथवा जूतेका टूटाहुआ चमडा, घास, लकडी, किसी प्रकार के अन्नका छिलका या अंगार, मिट्टीका डला अथवा पत्थरका स्पर्श करे या इनके ऊपर हाथ रक्खे तो ऐसे दूतको देखतेही रोगीका मरण जान लेना चाहिये॥१७॥१८॥
यस्मिंश्च दूते ब्रुवति वाक्यमातुरसंश्रयम्।
पश्येन्निमित्तमशुभं तञ्चनानुव्रजेद्भिषक्॥१९॥
यदि वैद्य दूतसे रोगीके संबंधमें बातचीत करते हुए अशुभ शकुनों को देखे तो उस दूतके साथमें नहीं जाना चाहिये॥१९॥
यथा व्यसनिनं प्रेतं प्रेतालङ्कारमेव वा। भिन्नं दग्धं विनष्टं वातद्वादीनिवचांसि वा॥२०॥ रसोवाक टुकस्तीव्रोगन्धोवाकौणपोमहान्। स्पर्शोवाविपुलः क्रूरोयद्वान्यदशुभं भवेत्॥२१॥ तत्पूर्वमभितो वाक्यं वाक्यकालेथवा पुनः। दूतानां व्याहृतं श्रुत्वाधीरोमरणमादिशेत्॥२२॥
जब दूत वैद्यके पास बुलानेके लिये आवे और वैद्यसे रोगीके संबंध में कुछ बातचीत करना चाहे तो उसी समय वैद्यके समीप बात करनेसे प्रथमही किसी व्यसन अथवा प्रेतकी बात चलपडे अथवा कटे हुए, जलेहुए या किसी नष्ट हुएके विषयकी बात चलपडे। अथवा कडुए और तीव्ररस तथा मुर्देकी दुर्गंध या किसी दुष्ट और क्रूर वस्तुका स्पर्श होजाय या अन्य किसी प्रकारका अशुभ हो अथवा कोई सर्प विच्छू आदि क्रूर जानवर दिखाई दे जायँ तो यह अशुभ शकुन दूतके आनेके समय या दूतसे बातचीत करनेसे प्रथम अथवा दूतसे बोलते समय वा दूतकी बात सुननेके अनन्तर हो जाय तो बुद्धिमान् रोगीके मरणको कथन करे अर्थात् ऐसी अवस्था में रोगीको मरनेवाला जानकर दूतके साथ न जावे॥२०॥२१॥२२॥
इति दूताधिकारोऽयमुक्तः कृस्त्नो मुमुर्षताम्।
पथ्यातुरकुलानाञ्च वक्ष्याम्यौत्पातिकं पुनः॥२३॥
इसप्रकार मरनेवाले रोगियों के विषय में संपूर्णरूपसे दूताधिकार वर्णन करदिया गया है। अब मरनेवाले रोगीको देखने के लिये जाते हुए मार्ग में होनेवाले तथा रोगीके घरमें होनेवाले अशुभ उत्पातोंका वर्णन करते हैं॥२३॥
अवक्षुतमथोत्कुष्टं स्खलनं पतनं तथा। आक्रोशः संप्रहारोवाप्रतिषे-
धोविगर्हणम्॥२४॥ वस्त्रोष्णीषोत्तरासङ्गश्छत्रोपानद्युगाश्रयम्। व्यसनं दर्शनञ्चापि मृतव्यसनिनं तथा॥२५॥
जब वैद्य रोगीको देखनेके लिये चले तो रास्तेमें सामनेसे छींक होना अथवा अशुभ किलकारीका सुनना या पांवका स्खलन होना अथवा ठोकर खाकर गिरजाना या चिंघाड वा गालीका सुनना या चोट लगना या चलते हुए कोई रोके अथवा आगेसे कोई ताडना करे या कोई मनुष्य आगेसे कपडा, पगडी, चद्दर, छतरी, जूता आदि मृतशय्याका सामान लिये मिले अथवा इनमें से किसी एक वस्तुको भी लेकर मिले या रास्तेमें किसी प्रकारके व्यसनका दर्शन हो अथवा किसी मरेहुए मनुष्यका रोदन आदि सुनाई पडे या लाश दिखाई देवेतो रोगीको देखनेके लिये नहीं जाना चाहिये॥२४॥२५॥
चैत्यध्वजपताकानां चूर्णानां पतनानि च।हतानिष्टप्रवादाश्च दर्शनं भस्मपांसुभिः॥२६॥ पथच्छेदोविडालेनशुनासर्पेणवापुनः। मृगद्विजानां क्रूराणां गिरोदीप्तां दिशं प्रति॥२७॥ शयनासनयानानामुत्तानानां प्रदर्शनम्। इत्येतान्यप्रशस्तानिसर्वाण्याहुर्मनीषिणः॥२८॥
अथवा बौद्धोंका मन्दिर या देवस्थान देववृक्ष या ध्वजा, पताका वा चूना रास्तेमेंगिराहुआ हो या गिरताहुआ दिखाईदे किसीकी मारनेकी अथवा अन्य प्रकारकी अनिष्ट आवाज सुनाई दे वा रास्तेमें राख या धूल उडती हो या विल्ली, कुत्ता अथवा सांप वैद्यके आगे रास्ता काटकर निकलजावें या मृग अथवा पक्षियोंका सूर्यके सन्मुख दूर शब्द करना अथवा शय्या, आसन, यान, रास्तेमें उलटे पडे देखना इत्यादि सब प्रकारके अशुभोंको बुद्धिमान् वैद्य रोगीको देखनेके लिये जाते समय अशुभ शकुन कहतेहैं॥२६॥२७॥२८॥
एतानि पथिवैद्येन पश्यतातुरवर्त्मनि।
शृण्वताचनगन्तव्यं तदागारं विपश्चिता॥२९॥
वैद्य मार्गमें इस प्रकारके अशुभ शकुनोंको देखकर अथवा अशुभ शब्दोंको सुनकर रोगीक घरको न जावे॥२९॥
इत्यौत्पातिकमाख्यातं पथिवैद्यविगर्हितम्।
इमामपि च बुध्येत गृहावस्थां मुमूर्षताम्॥३०॥
इसप्रकार रोगीको देखने जाते हुए मार्गमेंहोनेवाले अशुभ उत्पातोंका वर्णन क
दियागया है। अब रोगीके घर पहुंचनेपर जो मरनेवालेके उत्पात होते है उनको भी श्रवण करो॥३०॥
प्रवेशपूर्णकुम्भाग्निमृद्बीजफलसर्पिषाम्। वृषब्राह्मणरत्नानां देवतानां विनिर्गतिम्॥३१॥ अग्निपूर्णानि पात्राणि भिन्नानि विशिखानि च। भिषङ्मुमूर्षतां वेश्मप्रविशन्नेव पश्यति॥३२॥
जब वैद्य रोगीके घरमें प्रवेश करे उस समय रोगीके घरसे जलका भरा कलश अग्नि, मृत्तिका, फल, बीज, घृत, बैल, ब्राह्मण, रत्न और देवता आदिको बाहर निकलते देखे तथा उसके घरके पात्रोंको अग्निसे भरेहुए, फूटेहुए, बिना गलेके देखे तो समझे कि इस रोगीका मरण होनेवालाहै॥३१॥३२॥
छिन्नभिन्न विदग्धानि भग्नानि मुदितानि च।
दुर्बलानि च सेवन्ते मुमूर्षोर्वैश्मिकाजनाः॥३३॥
अथवा रोगीके घरके मनुष्य—छिन्न, भिन्न (फूटे टूटे) जलेहुए, फटेहुए, मलिन और दुर्बल वस्त्र आदि अशुभ द्रव्योंको धारण किये बैठे हो एवं अशुभ शब्दोंको करते हों तो रोगीका मृत्यु समीप जानना॥३३॥
शयनं वसनं यानं गमनं भोजनं रुतम्।
श्रूयतेऽमङ्गलं यस्य नास्ति तस्य चिकित्सितम्॥३४॥
जिस रोगीकी शय्या विछाते समय, वस्त्र पहिनाते समय अथवाबैठते, उठते, चलते, फिरते, भोजनकरते सबसमय रोनेकी अथवा अशुभ आवाज आती हो उस रोगीकी कोई चिकित्सा नहीं है॥३४॥
शयनं वसनं यानमन्यद्वापिपरिच्छदम्।
प्रेतवद्यस्य कुर्वन्ति सुहृदः प्रेत एव सः॥३५॥
जिस रोगीके सुहृद्गण सोना, बैठना, उठना, वस्त्रपहिनाना, वा अन्य सवकर्म मरे हुएके समान करते हो उसको मराही जानना चाहिये॥३५॥
अन्नं व्यापद्यतेऽत्यर्थं ज्योतिश्चैवोपशाम्यति।
निवातेसेन्धनं यस्य तस्य नास्ति चिकित्सितम्॥३६॥
जिस रोगीके लिये पथ्य आदि बनाते हुए किसी न किसी प्रकारका अशुभ उपद्रव होजाय जिससे पथ्य बननेमें कोई विघ्न होजाय तथा विनाही पवनके लगे लकडी आदि रहते हुए भी अग्निबुझजाय अथवा तेल वत्ती रहते हुए भी विनाही कारण दीपक बुझजाय उस रोगीकी चिकित्सा नहीं है अर्थात् वह मरजानेवाला है॥३६॥
आतुरस्य गृहेयस्य भिद्यन्ते वा पतन्ति वा।
अतिमात्रममत्राणि दुर्लभं तस्य जीवितम्॥३७॥
जब वैद्य रोगीके वरमें पहुंचे तब यदि किसी बर्तन आदिका फूटना अथवा मट्टी, पत्थर बरसना आदि अत्यंत अमंगल उत्पात हों तो उस रोगीका वचना दुर्लभ जाने॥३७॥
भवतिचात्र।
यद्द्वादशभिरध्यायैर्व्यासतः परिकीर्त्तितम्। मुमूर्षतां मनुष्याणां लक्षणं जीवितान्तकृत्॥३८॥ तत्समासेन वक्ष्यामि पर्य्यायान्तरमाश्रितम्। पर्य्यायवचनं ह्यर्थविज्ञानायोपपद्यते॥३९॥
अब यहां कहतेहैं कि, मरणासन्न मनुष्योंके जीवनका अंत करनेवाले जो लक्षण इन बारह अध्यायोंमें विस्तारपूर्वक कथन करचुकेहैं उनको स्थानकी समाप्तिमें पर्याय भेदसे संक्षेप रूपमें वर्णन करतेहैं। क्योंकि पर्यायद्वारा दूसरीवार कहाजानेसे पढनेवालोंको अर्थविज्ञानका सहज उपाय होजाता है॥३८॥३९॥
इत्यर्थं पुनरेवेयं विवक्षानो विधीयते।
तस्मिन्नेवाधिकरणेयत्पूर्वमभिदर्शितम्॥४०॥
जिस विषयको हम पहिलेही इस इन्द्रियस्थान में वर्णन करचुके हैं उसी विषयको फिर वर्णन करतेहैं॥४०॥
वसतां चरमे काले शरीरेषु शरीरिणाम्। अत्युग्राणां विना शायदेहेभ्यः प्रविवत्सताम्॥४१॥ इष्टांस्तितिक्षतां प्राणान्कान्तं वासंजिहासताम्।तन्त्रयन्त्रेषु भिन्नेषु तमोऽन्त्यं प्रविविक्षताम्॥४२॥ विनाशायेहरूपाणि यान्यवस्थान्तराणि च। भवन्ति तानि वक्ष्यामि यथोद्देशं यथागमम्॥४३॥
शरीरमें रहते हुए शरीरियोंके अन्तकालके समय शरीरके नष्ट करने के लिये जो अत्यंत उग्र विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं और देहरूपी यंत्रमें छिन्न भिन्नता उत्पन्न होकर प्राणोंको त्यागनेवाले और शरीररूपी घरको छोड़कर प्रस्थान करनेवाले, अपने प्रिय शरीरको छोड देनेवाले, कालके मुखमें पड़नेवाले, प्राणोंको त्यागनेवाले, प्राणियोंके शरीरमें वा इन्द्रियोंमें अथवा अन्य शरीर संबंधी तंत्रोंमें शरीरके विनाशके लिये जो रूपांतर उत्पन्न होते हैं उन सबको शास्त्रानुसार यथा उद्देश वर्णन करतेहैं॥४१॥४२॥४३॥
प्राणाः समुपतप्यन्ते विज्ञानमुपरुध्यते। वमन्ति बलमङ्गानिचेष्टाव्युपरमन्ति च॥१४॥ इन्द्रियाणि विनश्यन्ति खिलीभूतेवचेतना। औत्सुक्यं भजते सत्त्वं चेतोभीराविशत्यपि॥४५॥ स्मृतिस्त्यजति मेधाचह्रीश्रियौचापसर्पतः। उपप्लवन्तेपाप्मानओजस्तेजश्चनश्यति॥ ४६॥
जैसे- प्राणोंको उपताप हो, ज्ञान नष्ट हो जाय, अंग बलहीन होजायॅ, संपूर्ण चेष्टा जातीरहे, इन्द्रियें नष्ट होजायँ, चैतन्यता जाती रहे, मन व्याकुल होजाय चित्त भयातुर होजाय, स्मृति जाती रहे तथा मेधा, कांति, लज्जा यह सब नष्ट होजायँ उपद्रवरूपी पापोंका प्रवेश हो, ओज और तेज सबनष्ट होजायँ यह सब यमलोक जानेवाले मनुष्योंके लक्षण होते हैं॥४४॥४५॥४६॥
शीलं व्यावर्त्ततेऽत्यर्थं भक्तिश्च परिसर्पते। विक्रियन्ते प्रतिच्छायाश्छायाश्च विकृतिं गताः॥४७॥ शुक्रं प्रच्यवते स्थानादुन्मार्गं भजतेऽनिलः। क्षयं मांसानिगच्छन्ति गच्छत्यसृगुपक्षयम्॥४८॥ ऊष्माणः प्रलयं यान्ति विश्लेषं यान्ति सन्धयः। गन्धाविकृततां यान्ति भेदं वर्णस्वरौतथा॥४९॥ वैरस्यं भजते कायः कायश्छिद्रं विशुध्यति। धूमः सञ्जायते मूर्ध्निदारुणाख्यश्च चूर्णकः॥५०॥
स्वभाव अत्यंत बिगडजाय, भक्ति जातीरहे, छाया और प्रतिच्छायामें विकारयुक्त लक्षण होनेलगें अथवा स्थानसे वीर्य गिरताहो वायु अपने स्थानों को छोड उलटे मार्गोंसे गमन करने लगजाय, मांस क्षीण होजाय, रक्त नष्ट होजाय, शरीर की गरमी शान्त होजाय, संपूर्ण संधिये ढीली पडजायँ, गंधमें विकृति होजाय, वर्ण और स्वर विगडजायॅ, शरीर विरस होजाय, संपूर्ण शरीरमें छिद्रोंकी उत्पत्ति होजाय अथवा शरीरके छिद्र सूखजायँ, मस्तकसे धुआंसा निकले और मस्तकपर गोवरके चूर्णके समान दारुण चूर्णसा उत्पन्न होजाय यह सबशरीर त्याग करनेवाले रोगियोके लक्षण है॥४७॥४८॥४९॥५०॥
सततस्पन्दनादेशाः शरीरेयेऽभिलक्षिताः। तेस्तम्भानुगताः सर्वेन चलन्ति कथञ्चन॥५१॥ गुणाः शरीरदेशानां शीतोष्णमृदुदारुणाः। विपर्य्यासेन वर्त्तन्ते स्थानेष्वन्येषु तद्विधाः॥५२॥ नखेषु जायते पुष्पं पङ्कोदन्तेषु जायते। जटाः पक्ष्मसु जायन्ते सीमन्ताश्चापिमूर्द्ध-
नि॥५३॥ भेषजानि न संवृत्तिं प्राप्नुवन्ति तथा रुचिम्। यानिचाप्युपपद्यन्ते तेषां वीर्य्यं न सिध्यति॥५४॥ नानाप्रकृतयः क्रूराविकाराविविधौषधाः॥५५॥
शरीरके कई भागोंमें फडकन उत्पन्न होजाय अथवा शरीरके कई स्थान सोयहुएसे सुन्न रहजायँ, हृदयकी गति अथवा धमनीकी गति बंद होजाय, या देहके सव अंगोंका स्तंभ होकर हिलने चलनेसे बंद होजायँ, शरीरके सब अंगोंकी शीतलता गरमी, नरमाई, कठोरपन यह सब विपरीत भावको प्राप्त होजायँ, अपने २ स्थानोंके गुणोंको छोड़ देवें। दूसरे अंगोंमें अन्य प्रकारके गुण उत्पन्न होजायँ, नखोंपर फुलडियेंसी पडजायँ, दांतोंपर कीचसा जमजाय, पलकोंकी जटेंसी बंधजायँ, शिरके केशोंमें अपूर्व भौरियेंसी पडजायँ, जिन औषधियोंको लेने जाय वह न मिलें अथवा अपना गुण न करें या उनके अनुरूप क्रिया न होसके तथा जो औषधियोंके द्वारा साध्य न हों ऐसे अनेक प्रकारके उपद्रव होजायँ। अथवा जिनमें अनेक प्रकारकी अलभ्य औषधियोंकी आवश्यकता पडे इस प्रकारके भयंकर और विरोधी विकार उत्पन्न होजायँ तो ऐसे लक्षणवाले रोगी प्रायः अवश्यही कालके मुखमें पड़नेवाले होतेहैं॥५१॥५२॥५३॥५४॥५५॥
क्षिप्रं समभिवर्त्तन्ते प्रतिहत्यबलौजसी। शब्दः स्पर्शो रसो रूपं गन्धश्चेष्टाविचिन्तितम्॥५६॥उत्पद्यन्तेऽशुभान्येव प्रतिकर्मप्रवृत्तिषु। दृश्यन्ते दारुणाः स्वप्नादौरात्म्यमुपजायते॥५७॥ प्रेष्याः प्रतीपतां यान्ति प्रेताकृतिरुदीर्य्यते। प्रकृतिर्हीयतेऽत्यर्थं विकृतिश्चाभिवर्द्धते॥५८॥
रोगीके शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध, और चेष्टा तथा अपकर्म यह सब अपनी २ शीघ्र गतिसेप्रवृत्त होजायँ जिससे रोगीका बल और ओज नष्ट होजाय। चिकित्सा करनेके लिये प्रवृत्त होनेके सयय अनेक प्रकार के अशुभ उपद्रव उत्पन्न होजायँ तथा खोटे, दारुण स्वप्न दिखाई देनेलगें। और रोगी सबसे विनाही कारण द्वेष करनेलगे तथा प्रेष्य (नौकर चाकर) सब प्रतिकूल होजायॅ, रोगीके सब लक्षण मरेहुएके समान होजायँ, शरीरके सब स्वभाव विगडजायँ, वैकारिक स्वभाव उत्पन्न होजायँ। यह सब मृत्युके ग्रास होनेवाले रोगियोंके लक्षण होतेहैं॥५६॥५७॥५८॥
कृत्स्नमौत्पातिकं घोरमरिष्टमुपलक्ष्यते।
इत्येतानिमनुष्याणां भवन्ति विनशिष्यताम्॥५९॥
तथा संपूर्ण लक्षण घोर उत्पातकेसे होने लगजायँ। यह संपूर्ण लक्षण विनाशको प्राप्त होनेवाले मनुष्योंके होते हैं॥५९॥
लक्षणानियथोद्देशं यान्युक्तानि यथा गमम्। मरणायेहरूपाणि पश्यतापि भिषग्विदा॥६०॥ अपृष्टेननवक्तव्यं मरणं प्रत्युपस्थितम्। पृष्ठेनापिनवक्तव्यं तत्र यत्रोपघातकम्॥६१॥ आतुरस्य भवेद्दुःखमथवान्यस्य कस्यचित्। अध्रुवंमरणं यस्य नैनमिच्छेच्चिकित्सितुम्। यस्य पश्येद्विनाशाय लिङ्गानि कुशलोभिषक्॥६२॥
यह संपूर्ण लक्षण शास्त्रानुकूल और अपने उद्देश्यके अनुसार कथन करदियेगये हैं। इन मरणख्यापक रूपोंको देखते हुए भी विनापूछे वैद्यको किसीके पास नहीं कहना चाहिये। और पूछनेपर भी यह अवश्य मरजायगा इस प्रकार नहीं कहना चाहिये और खासकर जिस जगह रोगी और रोगीके घरवाले हों उस स्थान में तो कहनाही नहीं चाहिये क्योकि ऐसा खोटाशब्द कहनेसे रोगीको अत्यंत दुःख होताहै और उसके घरवालोंमें भी व्याकुलता उत्पन्न होजाती है।जब वैद्य किसीको मरनेके लक्षणोंवाला देखे तो कहदे कि इस समय हम इसकी चिकित्सा नहीं करसकते परन्तु यह कभी न कहे कि यह मरजायगा क्योंकि यदि दैवयोगसे वह बचजाय तो वैद्यको वडीभारी हानि पहुंचती है इसलिये कुशलवैद्य अपने मुखसे रोगीके पास या रोगियोंके संबंधियोंके पास उसके मरणकी बात न कहे॥६०॥६१॥६२॥
साध्यरोगीके लक्षण।
लिङ्गेभ्यो मरणाख्येभ्यो विपरीतानिपश्यता। लिङ्गान्यारोग्यमागन्तुवक्तव्यंभिषजाध्रुवम्॥६३॥ दूतैरौत्पातिकैर्भावैः पथ्यातुरकुलाश्रयैः। आतुराचारशीलेष्टद्रव्यसम्पत्तिलक्षणैः॥६४॥
जिस रोगीके कोई लक्षण उपरोक्त लक्षणोमेंसे न हों अर्थात् ऊपर कहेहुए सबअशुभ लक्षणोंसे विपरीत शुभ लक्षण दिखाई देते हो तथा अन्य किसी प्रकारके उत्पात न होते हों एवं दूतसंबंधी वा मार्गसंबंधी, कुलसंबन्धी, पथ्यसंबन्धी किसी प्रकारकेअशुभ लक्षण न हो तथा रोगीके आचार, स्वभाव, इन्द्रियादि द्रष्टव्य विषय और शारीरिक संपत्ति इन सबके शुभ लक्षण हों तो वह रोगी अवश्य नीरोग होजाताहै ऐसा वैद्यको कहना चाहिये॥६३॥६४॥
स्वाचारं हृष्टमव्यङ्गं यशस्यंशुक्लवाससम्। अमुण्डमजटं दूतं जातिवेशक्रियासमम्॥६५॥ अनुष्ट्रखरयानस्थमसन्ध्यास्वग्रहेषु च।
अदारुणेषु नक्षत्रेष्वनुग्रेषु ध्रुवेषु च॥६६॥ विनाचतुर्थीनवमीं विना रिक्ताञ्चतुर्दशीम्। मध्याह्नञ्चार्द्धरात्रञ्च भूकम्पंराहुदर्शनम्॥६७॥
यदि दूत शुद्ध आचारवाला, प्रसन्न, सर्वांग संपन्न, यशस्वी, श्वेत वस्त्रोंको धारण किये न शिर मुंडा और न जटोंवाला, अपनी जातिके अनुकूल वेष और क्रियावाला हो तथा गधे, ऊंट आदि सवारियों पर न चढा हो, संध्या के समय अथवा क्रूरसमयमें न आया हो, खोटे नक्षत्रमें, उग्रनक्षत्रोंमें ध्रुवसंज्ञक नक्षत्रोंमें (ज्येष्ठा, मूल, आदि उग्रनक्षत्र एवं उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा आदि नक्षत्रों के उदयमें) न आया हो तथा चतुर्थी नवमी, चतुर्दशी इन रिक्ता तिथियोंमें मध्याह्नके समय अथवा आधीरात्रिमें जब भूकम्प होरहा हो उस समय तथा ग्रहणकालमें न आया हो तो वह दूत शुभ जानना॥६५॥६६॥६७॥
विना देशमशस्तञ्च शस्तौत्पातिकलक्षणम्।
दूतं प्रशस्तमव्यग्रं निर्दिशेदागतं भिषक्॥६८॥
तथा बेसमय, निन्दितस्थानमें और निन्दित वस्तुओंको बिनाछुए, उत्पातके लक्षणोंके विना शुभ समयमें शुभदेशमें शुद्ध चित्तवाला दूत यदि वैद्यको बुलाने आवे तो उत्तम जानना चाहिये॥६८॥
दध्यक्षतद्विजातीनां वृषभाणां नृपस्य च। रत्नानां पूर्णकुम्भानांसितस्य तुरगस्य च॥६९॥ सुरध्वजपताकानां फलानां याचकस्य च। कन्यानां वर्द्धमानानां बद्धस्यैकपशोस्तथा॥७०॥ पृथिव्या उद्धृतायाश्च वह्नेः प्रज्वलितस्य च।मोदकानां सुमनसां शुक्लानां चन्दनस्य च॥७१॥ मनोज्ञस्यान्नपानस्य पूर्णस्य शकटस्य च। नृभिर्धेन्वाः सवत्सायावडवायाः स्त्रियास्तथा॥७२॥
रोगीके घरको जाते समय वैद्यको दही, अक्षत, ब्राह्मण, बैल, राजा, रत्न, जलक, भरेघट, सफेद घोडा, आगे मिलें अथवा इन्द्रधनुष, ध्वजा, पताका, हल, याचक, बढनेवाली कन्या, बंधाहुआ पशु, खुदी हुई भूमि प्रज्वलित अग्नि, मोदक, सफेदफूल सफेद चंदन, मनोज्ञ अन्नपान और मनुष्योंसे भरा हुआ शकट (छकडा) बछडेवाली गौओंको आगे किये मनुष्य, बच्चेवाली घोडी, लडकेको गोद में लिये स्त्री इन सबका आगे मिलना रोगीकी आरोग्यताके लिये शुभ होता है॥६९॥७०॥७१॥७२॥
जीवञ्जीवकसिद्धार्थसारसप्रियवादिनाम्।हंसानां शतपत्राणां चा-
षाणां शिखिनां तथा॥७३॥ मत्स्याजद्विजशंखानां प्रियङ्गूनां घृतस्य च।रोचिष्कादर्शसिद्धानां रोचनायाश्च दर्शनम्॥७४॥
तथा जीवन्तीशाक, जीवक, सफेद सरसों अथवा सारस पक्षी, चकोर चातक, हंस, शतपत्र (खुटकबडहिया पक्षी, या गुलाबके फूल अथवा शत्रपत्री कमल) नीलकण्ठ, मोर, मछली बकरी, श्वेतवस्त्रोंको धारणकिये ब्राह्मण, शंख, प्रियंगु, घृत, नमक, दर्पण, सिद्ध, गोरोचन इनका दर्शन होना रोगीको आरोग्य करनेवाला शुभ लक्षण जानना॥७३॥७४॥
गन्धः सुरभिवर्णश्च सुशुक्लो मधुरोरसः। मृगपक्षिमनुष्याणां प्रशस्ताश्च गिरः शुभाः॥७५॥छत्रध्वजपताकानामुत्क्षेपणमभिप्लुतिः। भेरीमृदङ्गशंखानां शब्दाः पुण्याहनिस्वनाः॥७६॥ वेदाध्ययनशब्दाश्च सुखोवायुः प्रदक्षिणः। पथिवेश्मप्रवेशेतुविद्यादारोग्यलक्षणम्॥७७॥
सुगंधित पदार्थ, सुन्दर वर्णवाले श्वेत पदार्थ, मीठे रस, मृग, पक्षी और मनुष्योंकी शुभवाणी, छत्र, ध्वजा और पताकाका ऊपरको उठाना, भेरी और मृदंग आदिका शब्द, शंखध्वनि, पुण्याहवाचन आदिका मधुरस्वर, वेदाध्ययनका शब्द, सुन्दर सुखदायी दहिनी ओरका पवन यह सब शकुन वैद्यको रोगीके घरको जाते हुए या रोगीके घरमें प्रवेश करते हुए होना रोगीकी आरोग्यताका लक्षण जानना चाहिये॥७५॥७६॥७७॥
मङ्गलाचारसम्पन्नः सातुरोवैश्मिकोजनः। श्रद्दधानोऽनुकूलश्च प्रभूतद्रव्यसंग्रहः॥७८॥ धनैश्वर्य्यसुखावाप्तिरिष्टलाभः सुखेन च। द्रव्याणां तत्र योग्यानां योजनासिद्धिरेव च॥७९॥
रोगीके घरमें संपूर्ण मनुष्य मंगलाचारसे संपन्न हों और सव श्रद्धावान् हों और अनुकूल हों तथा चिकित्साके उपयोगी सबद्रव्य विधिवत् संग्रह किये हों और रोगी भी शुभगुण संपन्न हो एवं धन, ऐश्वर्य, सुख इनसे संपन्न हो और जिस वस्तुकी उस जगह इच्छा कीजाय वह सुखपूर्वक झट प्राप्त होसकती हो ऐसे स्थानमें वैद्य योग्य औषधियोंके द्वारा चिकित्सा करे तो शीघ्र सिद्धिको प्राप्त होता है॥७८॥७९॥
गृहप्रासादशैलानां नागानां वृषभस्य च।हयानां पुरुषाणाञ्च स्वप्ने-
समधिरोहणम्॥८०॥ सोमार्काग्निद्विजातीनां गवां नॄणां यशस्विनाम्। अर्णवानां प्रतरणं वृद्धिः सम्बाधनिः सृतिः॥१॥
जो रोगी स्वप्नमें घर, महल, पर्वत, हाथी, बैल, अथवा घोडेके ऊपर चढे तथा चंद्रमा, सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण और गौको देखे एवं यशस्वी पुरुषोंसे मिलाप करे, समुद्रको तैरकर पार हो किसी बडेभारी संकटमेंसे छूटे तो अवश्य आरोग्यताको प्राप्त होताहै॥८०॥८१॥
स्वप्ने देवैः सपितृभिः प्रसन्नैश्चाभिभाषणम्।दर्शनं शुक्लवस्त्राणां ह्रदस्य विमलस्य च॥८२॥ मांसमत्स्य विषामेध्यच्छत्रादर्शपरिग्रहः। स्वप्नेसुमनसाञ्चैव शुक्लानां दर्शनं शुभम्॥८३॥
एवं स्वप्नमें देवता और पितरगणोंको प्रसन्न देखना और प्रसन्नतापूर्वक भाषण सुनना, सफेद वस्त्रोंका देखना, निर्मल तालावका देखना, मांस, मछली, विष और अपवित्र वस्तुओंको, तथा छत्री और दर्पणको ग्रहण करना, सफेद फूलोंको देखना यह स्वप्न रोगीके लिये शुभकारक होते हैं॥८२॥८३॥
अश्वगोरथयानञ्च यानं पूर्वोत्तरेण च।
रोदनं पतितोत्थानं द्विषताञ्चावमर्दनम्॥८४॥
इसी प्रकार घोडा, गौ, और रथमें चढना तथा उनपर चढकर पूर्व या उत्तरकी दिशामें जाना, रोना, और शत्रुको जीतना यह सवस्वप्न शुभकारक होतेहैं॥८४॥
रोगमुक्तलक्षण।
सत्त्वलक्षणसंयोगाभक्तिर्वैद्यद्विजातिषु।
साध्यत्वं न च निर्वेदस्तदारोग्यस्य लक्षणम्॥८५॥
अब रोग मुक्तके लक्षणोंको कहते हैं। मन प्रसन्न होना, शरीरमें चैतन्यता प्रतीत होना, वैद्य और ब्राह्मणोंमें भक्ति होना, रोगमें साध्यता उत्पन्न होकर शरीरमें किसी प्रकारकी पीडा या ग्लानि न होना यह आरोग्यताके लक्षण हैं। अर्थात् जब मनुष्य रोगसे छूटकर आरोग्य होजाताहै तब उसके यह लक्षण होते हैं॥८५॥
आरोग्याद्बलमायुश्च सुखञ्च लभते महत्।
इष्टांश्चाप्यपरान्भावान्पुरुषः शुभलक्षणः॥८६॥
आरोग्य होनेसे मनुष्य बल आयु तथा महान् सुखके लाभको प्राप्त होताहै। तथा अन्य भी उत्तम २ भावोंको वह शुभलक्षण पुरुष प्राप्त होताहै॥८६॥
तत्रश्लोकः।
उक्तं गोमयचूर्णीयेमरणारोग्यलक्षणम्।
दूतस्वप्नातुरोत्पातयुक्तिसिद्धिव्यपाश्रयम्॥८७॥
यहां अध्यायके उपसंहार में एक श्लोक है कि, इस गोमयचूर्णीय नामक अध्यायमें रोगीके मरनेके और आरोग्यताके लक्षणोका कथन कियागयाहै तथा दूत और स्वप्न और उत्पात तथा वैद्यकी सिद्धिके आश्रित लक्षणोंका कथन कियागयाहै॥८॥
भवतिचात्र।
इतीदमुक्तं प्रकृतं यथा तथा तदन्ववेक्ष्यं सततं भिषग्विदा।
तथा हि सिद्धञ्च यशश्च शाश्वतं स सिद्धकर्मालभते धनानि च॥८८॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थानं समाप्तम्॥
यहां यह श्लोक है कि, इस इन्द्रियस्थानमें जो संपूर्ण तत्त्व जिसप्रकार मनुष्यकी प्रकृति और विकृतिके विषयमें वर्णन कियागयाहै। वैद्यलोगोंको यह सब जिस २ प्रकार वर्णन कियागया है उसको जानकर इन संपूर्ण लक्षणोंको देखना चाहिये। इस प्रकार करनेसे वैद्यको सिद्धि और स्वच्छ यश तथा धनकी प्राप्ति होतीहै और वह सिद्धकर्मा होजाताहै॥८८॥
इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदसंहितायामिन्द्रियस्थाने टकसालनिवासिप० रामप्रसाद-वैद्योपाध्यायविरचित—प्रसादन्याख्यभाषाटीकायां गोमयचूर्णीयमिन्द्रिय नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
दोहा।
मनुजनके जीवन मरण, विषयक पूरण ज्ञान॥
जानाचाहैं भिषक् जो, पढलेंइन्द्रिय स्थान॥१॥
द्वादश अध्यायन विषे, ऋषिजन वाक्य विचार।
सो प्रसादनीयुत भयो, तिलकित भलेप्रकार॥२॥
वैद्यजननको चाहिये, राखें नित निज ध्यान॥
ऋषिप्रणीत इस तंत्रमें, पूरण पंचमस्थान॥३॥
॥इतीन्द्रियस्थानं पञ्चमम्॥
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“विंशतिःस्मृताः इत्यपिपाठः।” ↩︎
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“आमिषमिति पाठान्तरम्।” ↩︎
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“इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षसे व्यभिचार रहित निश्वयात्मक ज्ञानको प्रत्यक्ष कहतेहै.” ↩︎
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“पूर्वाऽभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धाज्जातस्यहर्षभयशोकसंप्रतिपत्तेः ↩︎
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“सुश्रुतके उत्तर तत्रके ६३ वें अध्यायमें।” ↩︎
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“अन्नानुपानम् इतिपुस्तकान्तरे।” ↩︎
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“१ परिग्रह परवस्तुके ग्रहणको कहते हैं।” ↩︎