बृहन्निघण्टुरत्नाकरः चतुर्थः भागः

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review करणीयम्

Barcode: 99999990292947
Title - Brhatnighamtu ratnakara Bhasha Tika Vol- IV
Author - Datta Rama
Language - Sanskrit
Pages - 380
Publication Year - 1952
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[TABLE]

प्रस्तावना.

धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं साधनं मतम् ।

समस्त पीयूषपाणि भिषग्वरों को हम अत्यंत विनयपूर्वक बडे उत्साहके साथ आज विदित करते हैं कि,–अहो समस्तभूमंडलनिवासिसद्वैद्यमहाशयो ! यद्यपि इस भूतलमें आयुर्वेदका प्रकाश प्रायः सर्वत्र सुप्रसिद्धहीहै तथापि जिसके प्रभावसे यावज्जीवमात्रोंके प्राणधारणादिक व्यापार यथावत् चलरहे हैं. जिससे इस क्षणभंगुर मानवीय शरीरमें धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चारों पुरुषार्थ सिद्धहोते हैं, उस आयुर्वेद के अनेक आचार्योंने अनेक संहिताग्रंथ बनाकर प्रसिद्ध किये हैं परंतु उन ग्रंथोंके अनेक मतोंके अनुरोधसे अनेक प्रकारके निदान, लक्षण, चिकित्सा आदिक प्रकरणोंका क्रमसे ज्ञान होना कठिनथा, इसलिये हमने पंडित दत्तरामजी चौबे मथुरा निवासीके द्वारा सर्व वैद्यकशास्त्रके संहिता ग्रंथोंको मंथन करके ऐसा एकग्रंथ बनवायाहै कि, जिसमें शरीरचिकित्साके अनेक उपायोंको सर्वभिज्ञानभिज्ञ वैद्य व सर्व साधारण जनभी अक्षरमात्रकी पँहचानसे वेप्रयास जान लें-जिस ग्रंथका नाम “बृहन्निघंटुरत्नाकर” रक्खाहै, और जो इस सर्व भारतखंडमें सुप्रसिद्धहै, वर्तमानसमयमें विद्याके अभावसे लुप्तप्राय होगयाथा उसका यह चतुर्थ भाग “चिकित्साखंड” जो चिकित्सा प्रकरणमें आदिसे अंततक सब प्रकारकी चिकित्साऑसे बिलकुल परिपूर्ण है, सो यह आप महाशयोंके सेवन करनेके योग्य तैयार होकर प्रकाशितहुआहै. इसमें जो विषय हैं, उनमें अनेक २ उपायोंके साथ चिकित्सा कहींहै, जिनका बृहत् विस्तार अनुक्रमणिकासे आप महाशयोंके चित्तको प्रसन्न करेगा, ऐसी हम आशा करते हैं और उम्मेद रखते हैं कि, –इस सर्वोपयोगी अत्यंत उपकारी चिकित्साके ग्रंथ सरीखा दूसरा कोईभी वैद्यक ग्रंथ इस भूतलमें आजतक छपाभी नहीं होगा, इसलिये सर्व सुयोग्य महाशय इस ग्रंथका उदार आश्रय लेकर सर्व प्राणीमात्रके रोग नष्टकरके धर्म आदिक चतुर्विध पुरुषार्थको सिद्धकर अपने जन्मका सार्थक करैंगे.

इस बृहत् ग्रन्थके आठ भाग हैं तिनमें १,२,३,४,५,६,ये छःभाग मथुरानिवासि विज्ञ पंडित-दत्तरामजी द्वारा निर्माण हुये हैं. और ७, ८ इन दोनों भागों को परमोदारचरित श्रीधन्वन्तरि शास्त्र पारावार पारीण मुरादाबाद निवासि श्रीलाला शालिग्रामजीने बनाया है. जिनमें संपूर्ण औषधियोंके अनेक देश देशांतर (भाषा) प्रसिद्ध नाम और गुणदोषोका सविस्तर वर्णनके अतिरिक्त इसमें संपूर्ण औषधियोंके विज्ञानार्थ चित्रभीदिये हैं. जिसका नाम “शालिग्रामनिघण्टुभूषण” रक्खाहै ऐसे १ से लेकर ८ भागोंमें यह “बृहन्निघण्टुरत्नाकर” ग्रन्थ सर्वाङ्ग सुन्दर परिपूर्ण हुआहै हमारी दृढ आशा है कि, इन आठों भागों सहित “बृहन्निघण्टुरत्नाकर” ग्रंथको संग्रह करनेसे फिर आयुर्वेदके कोई विषय जाननेकी आवश्यकता न रहेगी, इसलिये संसारको बडाही उपकारक जान मैंने निज “श्रीवेङ्कटेश्वर” छापाखानेमें मुद्रितकर प्रसिद्ध कियाहै.

अंतमें सर्व सज्जन महाशयोंको निवेदन है और आशाकरतेहैं कि, इस संपूर्ण ग्रंथको संग्रह करके उपरोक्त दोनों विद्धानोंके परिश्रमसे संस्कृत सह भाषाका अपार आनंद अनुभव कर जन्म पर्यंत इस पुस्तक की पूर्ण शक्तिसे निरोग रहेंगे और हमारे हृदयोत्साहको बढावेंगे।

आपका कृपाभिलाषी-
खेमराज श्रीकृष्णदास,
“श्रीवेङ्टेश्वर” मुद्रणालयाध्यक्ष-मुंबई.

श्रीः।
अथ बृहन्निघण्टुरत्नाकरचतुर्थभागविषयानुक्रमः ।

विषय. विषय.
जलधरादिकाढा व्याघ्यादिकाढा
दूसरातगरादिकाढा भांर्ग्यादिकाढा
उपचार बीजपूरादिकाढा
मृतोत्थापनरस मातुलुंगादिकाढा
जिह्वकसंनिपातनिदान कारव्यादिकाढा
उग्रादिकाढा पटोलादिक्वाथ
क्षुद्रादिकाढा जयमंगलरस
सिंह्यादिकाढा स्वच्छंदनामकरस
देवदार्वादिकाढा मातुलुंग्यादिरस
किरातकबल आर्द्रकादिनस्य
शालूरपर्ण्याद्यवलेह रामठादिनस्य
त्रिपुरभैरवरस मरीचादिनस्य
सामान्यउपचार लशुनादिअंजन
**अभिन्यास **
अभिन्याससंनिपातनिदान शिरीषवीजाद्यंजन
औषधोंकीअवधि दंभअथवादाग
इसमेंदृष्टांत दागदेनेकेअनंतरउपाय
सामान्यउपचार **हारिद्रक
सिंह्यादिकाढा हारिद्रकसंनिपातनिदान
कंटकार्यादिकाढा संनिपातकीमर्यादा
त्रिवृतादिकाढा धातुपाकलक्षण
त्रायत्यादिकाढा मलपाक
सुरभ्यादिकाढा संनिपातक असाध्य लक्षण
शृंग्यादिकाढा **आगंतुक
शृंग्यादिकाढा आगंतुकज्वरनिदान
तिक्तादिकाढा

[TABLE]

वाताधिकविषमज्वर भृंगराजचूर्ण
पित्ताधिकविषमकीचिकित्सा दीप्यादिचूर्ण
कफाधिकविषमचिकित्सा पंचसार
मार्केड्यादिपाचन पद्मकादिसार
महौषधादिपाचन लशुनादिकल्क
पाचन व रेचन गुइचीकल्क
द्राक्षादिपाचन विषमपर महाज्वरांकुशरस
कुमारीमूलादिवमन दूसरारस
पटोलादिकाढा मेघनाथरस
यष्ट्यादिकाढा गोपीड्यादिघृत
मुस्तादिकाढा पंचतिक्तकरस
महाबलादिकाढा पट्पलघृत
नागरादि दूसराकाढा क्षीरपट्पलघृत
पटोलादिकाढा दूसराप्रकार
कुलकादिकाढा अमृताद्यघृत
भांर्ग्यादिकाढा शुंठ्यादिघृत
दूसरा भांर्ग्यादिकाढा चंदनाद्यघृत
निशाद्यंजन महाक्ल्याणघृत
नरकेश नस्य कल्याणघृत
कणादिनस्य कोलादिघृत
सैंधवादिअंजन अमृतषट्पलघृत
लशुनादि अंजन घृतपान
चतुःपष्ठिककाढा पट्तक्रतैल
निंबादिचूर्ण लाक्षादितैल
जीरकादिचूर्ण दूसराप्रकार
उरुकी वद्रोणपुष्पीस्वरस पट्चरणतैल
कुमारीमूलकादियोग अजादिधूप
वर्धमानपीपल वचादिधूप
गुडजीरकयोग मसुराधूप
हरडादिकोंका चूर्ण सहदेव्यादिधूप
वंदाकयोग गुग्गुलादिधूप
निंबादिचूर्ण माहश्वरधूप
सर्पत्वचादिधूप दान
पलंकषादिधूप तर्पण
माहेश्वरधूप उलूक पक्ष बंध अन्येद्युष्कपर
निंबपत्रादिधूप वासादि काढा
मार्जारविष्ठाधूप पटोलादि काढा
सहदेवीमूलिकाबंध अंजन
बाँदेबंधन एकाहिकादिकोंमें हिंगुल योग
उलूकपक्षबंध **तृतीयकज्वर
गोपालिकामूलबंध तृतीयक ज्वरनिदान
भूतकेशीमूलबंध महौषधादि काढा
निर्गेडीबंध शिशिरादि काढा
कह्वेरमूलिकाबंध उशीरादि काढा
**संततज्वर **
संततज्वर निदान अपामार्ग मूलिका बंध
पटोलादि काढा वाराही मूलिका बंध
दूसराप्रकार **चातुर्थिकज्वर
तिसराप्रकार चातुर्थिक ज्वर निदान
चौथाप्रकार विषमके सामान्य उपद्रव
आमलक्यादि काढा सामान्य चिकित्सा
ज्वरभेद दूसरा प्रकार
संतत वा अन्येद्युष्कादि निदान तिसरा प्रकार
त्रायंत्यादि काढा वासादि काढा
पटोलादि काढा पथ्यादि काढा
द्राक्षादि काढा देवदार्व्यादि काढा
पटोलादि काढा स्थिरादि काढा
ब्रह्मदंडी नस्य दुस्पर्शादि काढा
सर्पाक्षीमूलिकाबंध दार्व्यादि काढा
एकाहिक ऊपर अपामार्ग मूलिकाबंध मुस्तादिकाढा
काकमाचीमूलिकाबंध वेलफल चूर्ण
सर्पाक्षीतिलक पुनर्नवा दुग्धा योग
वृषदंश पुरीषादि योग
शिरीषकल्क देवता पूजन
हिंगनस्य दूसरा प्रकार
अगस्तिपर नस्य ज्वर पूजा
उलूकपक्षधूप पद्मकादि तैल
अपामार्ग मूलिका बंध माहेश्वर धूप
सहदेवी मूलिका बंध गोजिह्वादि चूर्ण
काकंजंघादि बंध जीरकादि चूर्ण
पंच पंचकषाय त्रपुस भक्षण
**धातुशोषकअतिकष्टसाध्यविषमज्वर **
तल्लक्षण मृतकर्पटकका धूप
शीतपूर्वक दाहपूर्वक संततादिविषमोंके लक्षण जयामूलि बंध
**विषमभेदवातबलासकज्वर **
स्वरूप कांतालिंगन
**प्रलेपक **
प्रलेपक लक्षण रसोनकल्क
चिकित्सा रास्नादि काढा
सीत दाह पूर्व विषम भूतभैरव चूर्ण
दूसरा प्रकार पथ्यादि चूर्ण
सामान्य चिकित्सा हरिद्रादि चूर्ण
सीत नाशक क्रिया आरोग्यादि रस
शुद्रादि काढा शीतपूर्वज्वरपर शीतांकुश
शताह्वादि काढा तालकादि शीतारि रस
धनादि काढा दूसरा प्रकार
भद्रादि काढा तिसरा प्रकार
महाबलादि काढा चौथा प्रकार
दाह पूर्व विषम विभीतादि काढा भूतभैरव रस
दूसरा महावलादि काढा दाहपूर्वपर शीतोपचार
व्याघ्रादि काढा दाह ऊपर स्त्रीका आलिंगन
स्त्री दूरीकरण
शीतोपचार
दाह पर षट्तक्रतैल
महाषट्तैल
अंगारतैल श्वासकुठार
**रसादिधातुगतज्वर **
इसकालक्षण ज्वरधूमकेतुरस
रसरक्तगतज्वरचिकित्सा वटिका
धातुगतज्वरचिकित्सा दूसरीवटी
रक्तधातुगतज्वरलक्षण ज्वरांकुश
गायत्र्यादिकाढा नवज्वरेभांकुश
वराप्पंजाजीकाढा अमृतकलानिधि
वृषादिकाढा पंचामृतरस
रक्तगतचिकित्साक्रम जीर्णज्वरांकुश
मांसगतज्वरलक्षण पच्यमानज्वरलक्षण
मांसगतज्वरचिकित्सा निरामज्वरलक्षण
मेदोगतज्वरलक्षण ग्रंथांतरोक्तजीर्णज्वरनिदान
अस्थिगतज्वरलक्षण सामान्यचिकित्साशास्त्रार्थ
चिकित्सा लंघन
मज्जागतज्वरलक्षण ज्वरक्षीणकोवांतिनिषेध
मज्जाशुक्रगतज्वर ज्वरफेर जानेका कारण
शुक्रगतज्वरलक्षण वातजीर्णज्वर
**रसादिधातुसंबंधसेसाध्यासाध्य **
प्राकृतवैकृतज्वर लक्षण छिन्नादिकाढा
प्राकृतज्वरका उत्पत्ति क्रम त्रिकट्वादिकाढा
अन्तर्वेगज्वर लक्षण गुडूचीकाढा
बहिर्वेगज्वर लक्षण द्राक्षादिअष्टादशांगकाढा
आमाशयगतज्वर लक्षण शुंठीकाढा
कटुक्यादिकाढा कणादिकाढा
सर्वेश्वररस तिक्तादि काढा
त्रिपुरभैरवरस कलिंगादि काढा
रत्नगिरी द्राक्षादि चूर्ण
नवज्वरेभसिंह लंवगादि काढा
ज्वरघ्नीवटिका तालीसादि चूर्ण
विश्वतापहरण त्रिफलादिचूर्ण
कट्फलादिचूर्ण हरीतकी पाक
त्रिवृच्चूर्ण कोप्पुटघृत
दूसरा लवंगादि चूर्ण वासाद्य घृत
पंचाजादि पिप्पल्यादि घृत
लोध्रादिचूर्ण क्षीरवृक्षादि तैल
वर्धमान पिप्पली योग सेवंती पाक
पिप्पली मोदक पिप्पलीपाक
मधुपिप्पली योग ज्वरमुक्त लक्षण
दुग्धयोग साध्यज्वर लक्षण
पंचमूलीक्षीर असाध्यज्वर लक्षण
सितादिपेया गंभीरज्वर लक्षण
बिल्वादि काढा असाध्य लक्षण
मधुकादि काढा दुसराप्रकार
अमृतादिहिम तीसराप्रकार
गुडयोग चौथा प्रकार
वार्ताक भक्षण योग पांचवाप्रकार
गुडूची स्वरस दूसरे प्रकारके असाध्य लक्षण
गुडपिप्पली योग दूसराप्रकार
वातकफात्मक ज्वरोंपर असाध्य लक्षण ज्वर
दि० वर्धमान पिप्पली ज्वरमोक्षके पूर्वरूप
नस्य मधुरज्वर लक्षण
दि० रक्त करवीरादि लेप सुरसादियोग
हिग्वादिनस्य मुस्तादि काढा
जयंती मूलिका बंध विण्मक्षिका काढा
वायसजंधा बंध चंदनादि काढा
मुक्ता पंचामृत मक्षिकादियोग
जीर्णज्वरांकुश कृष्णमधुरा लक्षण
धातुज्वरांकुश सहस्रवेध पाषाणादियोग
कल्याणघृत भूनिंबादि काढा
चंदनादि तैल वासाद्य काढा
लाक्षादि तैल मधुकादि काढा
ढसराचंदनादि तैल
**दुर्जलजनितज्वरपर **
पटोलादिकाढा सुदर्शनचूर्ण
किराततिक्तादिचूर्ण लघु सुदर्शनचूर्ण
हरीतक्यादिचूर्ण आमलक्यादिचूर्ण
शुंठ्यादि कल्क केसरादि
आर्द्रकादि चूर्ण विदार्यादि लेप
दर्जलजेतारस ज्वरघ्नी गुटिका
ज्ञानोदयरस बलाद्यघृत
हारिद्रक वृक्षयोग मंजिष्ठाद्यघृत
मद्योद्भवज्वर कुलित्थाद्यघृत
फेर उलटकर ज्वर आया उसपरलंघन अमृताद्यघृत
रेचन गुडूच्याद्यघृत
किरात तिक्तादि काढा पंचतिक्त रस
तिक्तादि काढा दि० अमृताद्यघृत
अपथ्यज्वर लक्षण महाषट्पलघृत
कटुक्यादि काढा दूसरा प्रकार
आमलक्यादि चूर्ण लघु लाक्षादि तैल
गुडच्यादि काढा लाक्षादि तैल
क्षुद्रादि काढा मध्यम लाक्षादि तैल
नागरादि पाचन षट्चक्रतैल
पीपलसेवाआदिकोंसेज्वरनाश स्वर्जिकाद्यतैल
द्विरदनामस्मरण बलाद्यतैल
वेलाज्वर पटोलाद्यस्नेह
मूलिका बंधन चंदनाद्यनुवासन
पिप्पली चूर्ण ज्वर ऊपर पटोलाद्यनुवासन
धान्यादि चूर्ण आरग्वधादिनिरूहबस्ति
गोरोचनादि चूर्ण तैलपाकविधि
सितोपलादिचूर्ण मंदमध्य व तीक्ष्णस्नेहपाक
भांर्ग्यादिचूर्ण खरपाकलक्षण
अनंतादिचूर्ण खर व मृदु पाकका फल
चंदनबलातैल
अश्वगंधादितैल
बृहल्लाक्षादि तैल ज्वरोपद्रवचिकित्सा
पंचम महालाक्षा तैल सिंह्यादिकषाय
निरूहबस्ति द्रव्यमान द्वात्रिंशांग काढा
चतुर्थ लाक्षादितैल मध्वाद्यकाढा
घृत वा तेल पक्वहुयेकी परीक्षा श्वासपर दाग
औषधि कितनेदिन उपयोगपडतीहै आर्द्रकादिनस्य
दूसरा महाज्वरांकुश शीतांभसादियोग
ज्वरघ्नीवटिका अरुचि चिकित्सा
दूसराज्वरमुरारि मातुलिंग काढा
स्वर्णमालिनी वसंत सैंधवादियोग
लघुमालिनी वसंत अश्वत्थक्षार
दार्व्यादिवटिका शुष्क अश्वपुरीषयोग
हुताशनरस यावकादिनस्य
दूसरा लघुमालिनी वसंत ज्वरकीखांसीपर कणाद्यवलेह
अपूर्व मालिनी पुष्करादिचटनी
दूसरालघुमालिनी विभीतकयोग
लघु सुचिकाभरणरस संनिपातपर लवंगादिवटी
जलचूडामणि ज्वरदाह चिकित्सा
कनकसुंदररस संनिपातपर गुडूच्यादि काढा
संनिपातभैरव दंतशठादि काढा
रसपर्पटी जलादियोग
रविसुंदररस ज्वरे आतिसार चिकित्सा
कज्जलीगुण वत्सादन्यादि काढा
गदमुरारिरस पाठादि काढा
बालार्करस ज्वरमें दस्तके अवरोधकी चिकित्सा
ज्वरांकुश पथ्यादि काढा
विश्वतापहरण ज्वरपरपथ्य
संनिपातभैरव तरुणज्वरपर अपथ्य
त्रिभुवनकीर्ति मध्यमज्वरमें पथ्य
मृतप्राणदायी सर्वज्वरमें पथ्य
ज्वरोपद्रव जीर्णज्वरमे पथ्य
आगंतुक ज्वरपथ्य दूसरा प्रकार
विषम ऊपर तीसरा प्रकार
सर्वज्वरपर अपथ्य धान्यपंचक पावन
मंत्र धातक्यादिमोदक
पेय कुटजाष्टक काढा
ज्वरनाशक यंत्रम् **वातातिसार
लंकेश्वरोरस वातातिसार निदान
दुग्धफेनगुणाः पूतिकादि काढा
लाक्षारसविधि पथ्यादि काढा
रोगमुक्तस्नानम् वचादि काढा
ज्वरमुक्तिलक्षण सुवर्चलादि काढा
**इति ज्वरप्रकरणम् अतिसारः
अतिसारकर्मविपाक लाई चूर्ण
दूसराप्रकार कुटज चूर्ण
दानकामंत्र शुंठी चूर्ण
तीसरेप्रकारका कर्मविपाक बृहल्लवंगादि चूर्ण
रक्तातिसारका कर्मविपाक विजयायोग
अतिसारनिदान कुटजावलेह
संप्राप्ति दूसरा कुटजावलेह
षट्प्रकार कुटज पुटपाक
पूर्वरूप तंदुल जल
अतिसारके पूर्वरूपकीचिकित्सा मृतसंजीवन रस
बिल्वादि षडंग यूष कारुण्य सागर रस
यवागु कुंकुमवटी
औषधादि देना वर्ज्य कपित्थादि पेया
अतिसारपर लंघन पंचमूल बलादि पेया
यवान्यादि दीपन मसूराद्य घृत
अतिसारण क्रिया लोकनाथरस
महारस
द्वितीय महारस
वातातिसारपर शाक
**पित्तातिसार **
पित्तातिसार निदान त्रिदोषातिसार निदान
पित्तातिसार चिकित्सा क्रम वा पेय कुटजावलेह
पित्तातिसारपरपानी अन्न समंगादि काढा
मधुकादि योग पंचमूली बलादि काढा
शुंठ्यादि योग पंचमूल योजना
बिल्वादि काढा कुटज पुटपाक
कटुफलादि काढा सूतादिवटी
मधुयष्ट्यादि काढा चतुः समागुटी
समंगादिचूर्ण तृप्तिसागर रस
अतिविषादि योग आनंदभैरवी
जंब्वादिचूर्ण **शोकभयातिसार
लोकेश्वररस शोकभयातिसार निदान
दूसराप्रकार चिकित्सा
वत्सकादिघृत पृश्निपर्ण्यादि काढा
**कफातिसार **
कफातिसार निदान आमातिसार निदान
कफात्तिसार चिकित्सा क्रम आमातिसार चिकित्साक्रम
पथ्यादि काढा धान्यादि काढा पाचन
कृमिशत्र्वादि काढा अभयाविरेचन
पूतिकादि कल्क विडंगादिरेचन
गोकंटकादि काढा **क्षुधितका अतिसार
चव्यादि चूर्ण देवदारु जलपान
कणादि चूर्ण चित्रकादि काढा
हिंग्वादि चूर्ण विश्वादि योग
बब्वुलादि चूर्ण पथ्यादि काढा
पथ्यादि चूर्ण एरंडादि रस
अभयादि चूर्ण शुण्ठ्यादि चूर्ण
पथ्यादि चूर्ण दूसरा हरीतक्यादि रस
शुंठीपुटपाक शुंठीपुटपाक
दूसरा शुंठ्यादि चूर्ण जातीफलादि योग
तीसरा शुंठ्यादि चूर्ण **रक्तातिसार
साखरुंड चूर्ण रक्तातिसार निदान
यवान्यादि काढा यष्ट्यादि काढा
कलिंगादि काढा कुटजादि काढा
त्रिकंटादियव कांजी वत्सकादि काढा
शोषपरह्रीवेरादि काढा तंदुलजलादि योग
त्र्यूषणादि चूर्ण दाडिमादि काढा
पाठादि चूर्ण चंदनादि योग
पयमुस्ता योग ह्रीवेरादि काढा
आमपक्वातिसार लक्षण बिल्वादि योग
असाध्य लक्षण कलिंगयव षट्क
दूसरा असाध्य लक्षण कुटज क्षीर
अतिसारके उपद्रव रसांजनादि चूर्ण
असाध्य लक्षण कुटजावलेह
लोध्रादि चूर्ण सल्लक्यादि स्वरस
पद्मादि चूर्ण जम्ब्वादिअंगरस
कुटजादि चूर्ण गुडबिल्व योग
अंबष्ठादि गण शतावरी कल्क
समंगादि चतुश्चूर्ण तिलादि कल्क
कंचटादि चूर्ण नवनीतावलेह
अंकोट कल्क शाल्मली पुष्पयोग
मोचरसादि चूर्ण गुदपाक
मुस्तादि चूर्ण पटोलादि काढागुदक्षालनार्थ
विश्वादिवटी गुदक्षालनार्थ जल
कुटजावलेह चांगेरी घृत
रालयोग मूषकमांस स्वेद
नाभौक्षेपणीय गोधूमचूर्णस्वेद
पाठादियोग गुदान्तप्रवेशन
चांगेरी घृत **वातकफातिसार
कमलपत्र भक्षण वातकफातिसार निदान
**ज्वरातिसारचिकित्साक्रम **
उत्पल षष्टिक चित्रकादि काढा
दाडिमावलेह उपचार क्रम
कणादि काढा बिल्वादि काढा
पाठादि काढा प्रियंग्वादि काढा
कलिंगादि काढा आम्रादि काढा
गुडूच्यादि काढा मुद्ग कषाय
वत्सकादि दो काढा पटोलादि काढा
उशीरादि काढा जम्ब्वादि काढा
बिल्वादि काढा पुरीषातिसारपर
पंचमूलादि काढा पुरीषक्षय ऊपर
अरल्वादि काढा दूसराप्रकार
उत्पलादि चूर्ण **शोफातिसार
व्योषादि चूर्ण देवदार्व्यादिकाढा
इसबगोल योग विडंगादि काढा
लाजमंड किरातादि काढा
पृश्निपर्ण्यादि योग पाठादिकाढा
धातक्यादि पेया शोथघ्र्यादि काढा
विजयायोग **भस्रातिसार
पंचामृत पर्पटीरस भस्रातिसार निदान
दरदादिपुटपाक शाल्मलिचूर्ण
दुग्धयोग हिंग्वादि जलयोग
कट्फलादिचूर्ण रोहिण्यादिपाचन
**पित्तकफातिसार **
पित्तकफातिसारनिदान धातक्यादि काढा बालकोंके सर्वातिसारपर
मुस्तादि काढा आनंदभैरवरस
समंगादि काढा आनंदरस
दाडिमाष्टक गंगाधरो रसः
लघुगंगाधर चूर्ण अतिसारमें लवणनिषेध
वृद्धगंगाधरचूर्ण **प्रवाहिका
अजमोदादि चूर्ण प्रवाहिकासंप्राप्ति
बृहद्दाडिमाष्टक प्रवाहिका लक्षणादि
धातक्यादि चूर्ण बालबिल्वकल्क
भल्लातादि चूर्ण मुद्यूषादि
लघुलाई चूर्ण बालबिल्वादि योग
यवान्यादि चूर्ण बिल्वपेश्यादि काढा
वत्सकादिघृत धातक्यादि योग
बिल्वतैल मस्तावत्सकादि योग
शंखोदर रस तैलादि योग
मूलिकाबंध त्र्यूषणादि घृत
दाडिमीवटी मुस्तादि गुटी
बब्वूलादि स्वरस पथ्य
न्यग्रोधादि पुटपाक जल
अहिफेनयोग अतिसारपर अपथ्य
मुक्ताभस्मयोग ज्योतिः शास्त्राभिप्रायेणातिसार कारण
जातीफलादिवटी मृत्युयोग
मरीचादिवटी **संग्रहणी
अंकोलकल्क ज्योतिः शास्त्राभिप्रायेण ग्रहणीकर्ता योग
कपित्थफल्क ग्रहणीरोगका कर्म विपाक
आर्दकुटजावलेह संग्रहणी रोगकी शांति
दाडिवपुटपाक पद्मपुराणे गौतम
जातीफलादि पुटपाक मंत्र
मोचरसादि पुटपाक ग्रहण्याःस्वरूपम्
लघ्वीमाई चूर्ण चरकमतम्
दूसरी दाडिमीवटी
शतपुष्पादि चूर्ण
लीलावती वंटी
नृसिंहपोटलीरस
अन्यच्च द्वितीय भूनिंबाद्यचूर्ण
ग्रहणीका स्थान पाठाद्य चूर्ण
संग्रहणी निदान कटुक्यादि पीसके लेना
ग्रहणी संप्राप्ति वा लक्षण चंदनादि घृत
अन्यच्च तिक्तादि काढा
ग्रहणीकोपूर्वरूप श्रीफलादि कल्क
**वातिकग्रहणी **
वातिक ग्रहणीके कारण यवान्यादि चूर्ण
वातिक गहणीके रूप चंदनादि काढा
वातिक ग्रहणी चिकित्सा क्रमतत्र पाचन रसांजनादि चूर्ण
यवान्यादि चूर्ण निंबादि पुटपाक
ग्रंथिकादिकृततक्र आम्रादि योग
रामठादि चूर्ण आम्रादि पेया
हिग्वादि चूर्ण योग **कफसंग्रहणी
शुंठीघृत कफ संग्रहणीकी उत्पत्ति
पंचमूल घृत वमन और अग्निवृद्धि
संग्रहणीका चिकित्सा क्रम चित्रकादिचूर्ण मद्य तक्र वा उष्णजलके साथ
पक्वसंग्रहणीपर उपचार अभयादिचूर्ण गरमजलके साथ
शालीपर्ण्यादि काढा पलाशादि क्वाथ
मधुपक्वहरीतकी पथ्यादिचूर्ण
मुद्गयूष सठ्यादिचूर्ण
कपित्थादि यवागू रास्नादिचूर्ण
**पित्तसंग्रहणी **
पित्तसंग्रहणी निदान चतुर्भद्रादिकाढा
पित्तसंग्रहणी निदान कठिनमलकी चिकित्सा
नलवेण्वादि काढा विडंगादियोग
द्राक्षादि क्षीर
तंदुलोदक
भूनिंबादि चूर्ण
**वातश्लेष्मसंग्रहणी **
कुटजाद्यवलेहादि पारदादिवटी
कर्चूरादिचूर्ण सुवर्णरस पर्पटी
तालीसादिवटी पर्पटी
**कफपित्त संग्रहणी **
रसादिवटीका अग्निसुत रस
मुसल्यादि योग ग्रहणी कपाटरस
**वातपित्त संग्रहणी **
मुंड्यादि गुटिका कणादि लेह
**संनिपात संग्रहणी **
संनिपात ग्रहणी निदान सूतराज
असाध्य लक्षण पूर्णचंद रसेंद्र
**घटीयंत्र ग्रहणी लक्षण **
अरिष्ट दूसरा प्रकार
तच्चिकित्सा सिंहनपुरी चूर्ण
शतावरी घृत द्वितीय सिंहनपुरी चूर्ण
अरुष्कर घृत तृतीय सिंहनपुरी चूर्ण
तक्रसेवन लाई चूर्ण
तक्रसेवनम् (द्वितीय योग) ज्वालामुख चूर्ण
दूसरा प्रकार नारायण चूर्ण
तक्रयोग्य गौ चित्रांवर रस
पक्व और अपक्वतक्र गुण अगस्ति सूतराज रस
ज्वालालिंग रस कनक सुंदर रस
ग्रहणीकपाट रस क्षारताम्र रस
दूसरा प्रकार चित्रकादि गुटि
तिसराप्रकार शंबूक योग
वज्रकपाट रस कांकायन गुटी
ग्रहणिका मदवारण सिंह महाकल्याण गुड
पारदादिवटी कुष्मांड गुड
सज्जीक्षारादि योग कल्याण गुड
पारदादिवटी
भूनिम्बादि चूर्ण कपित्थाष्टक चूर्ण
अतिविषादि काढा दूसरा लाही चूर्ण
नागरादि काढा जातिफलादि चूर्ण
पुनर्नवादि काढा बेलफलादि चूर्ण
शुंठ्यादि काढा जातिफलादि चूर्णकापाठान्तर
तालीसादि चूर्ण ग्रहणी रोगमें पथ्य
व्योषादि चूर्ण ग्रहणी रोगमें अपथ्य
बिल्वादि दुग्ध अर्श (बवासीर)
दशमूलादि काढा ज्योतिः शास्त्रेण निदानम्
मसूरादि योग बवासीरका कर्मविपाक
कुटजावलेह सामान्य बवासीरका निदान
द्राक्षासव बवासीरकी संप्राप्ति और रूप
बिल्वाग्निघृत बवासीरका पूर्वरूप
चित्रक घृत चिकित्सा क्रम
चाङ्गेरी घृत तथा दूसरा क्रम
दाडिमाष्टक तथा अन्य क्रम
दूसरा पाठ तथा
लाई चूर्ण वातादि जन्य अर्शोका यत्न
मुस्तादि चूर्ण **वातार्शः
लवङ्गादि चूर्ण वातकी बवासीरके लक्षण
पाठादि चूर्ण वातार्शके लक्षण
तक्र सेवन तथा
महालुंगादि तक्रयोग अर्क क्षार
चित्रकादि तक्रयोग विडंगादि तक्रयोग
अन्य योग लवणादि चूर्ण
शंखवटी मरीचादि चूर्ण
जातीफलादि तक्र सूरण मोदक
वार्ताकवटी बाहुशालनामको गुडः
भल्लातक क्षार **पित्तार्शः
चव्यादि चूर्ण पित्तकी बवासीरका कारण
रुचकादि चूर्ण
पित्तकीबवासीरके लक्षण **राक्तार्शः
तिलादि चूर्ण रक्तार्श निदान
तथा अन्य प्रयोग वातादियुक्त रक्तार्शके लक्षण
भल्लातामृत सामान्य चिकित्सा
धत्तूरादि चूर्ण अश्वगंधादि धूप
भल्लातकादि मोदक अर्कमूलादि धूप
बोलबद्ध रस पिपीलिका तैल
लोहादि मोदक विषमुष्टि चूर्ण
तीक्ष्णमुख रस नवनीतादि योग
**कफार्शः **
कफकी बवासीरका कारण सिद्धघृत
कफकी बवासीरके लक्षण शिवरस
कफार्श चिकित्सा अपामार्ग बीजादिचूर्ण
सामान्य चिकित्सा लोहामृत रस
अर्शोभेद (ललित) बिम्बीपत्रादि लेप
ललितका लक्षण ज्योतिष्कबीज लेप
वंदाल लेप गुञ्जाकूष्मांड लेप
कांचनी लेप कनकार्णव रस
सूरणादि लेप योगराज गूगल
कटुतुंव्यादि लेप राल योग
पीलु तैलवर्ती कर्पूर धूप
दंत्यासव पयसादि यूष
पथ्यादि गुड कालकलांतक वटी
भल्लातकहरीतकी अपामार्गादि कल्क
लाङ्गल्यादिमोदक पद्मकेशरयोग
पथ्यादिमोदक समंगादि धूप
यवान्यादि मोदक खूनी बवासीरपर क्वाथ
भल्लातकादि लेप द्राक्षादि योग
शृंगवेर क्वाथ त्रिकट्वादि योग
विड्बंध कटुतुम्ब्यादि लेप
रक्तस्त्राव देवदाली बीज लेप
प्रकारांतर चव्यादि घृत
सक्तुपिंडी बंधन शुंठी घृत
नासार्श चिकित्सा लघु चव्यादि घृत
रजनीचूर्ण ह्रीबेरघृत
चामखील रोहितारिष्ट
दुग्धिकादिघृत मधुपक्व हरीतकी
व्योपादि मोदक गोजिह्वादि काढा
गुड चतुष्क कल्याण लवण
कार्पासमज्जागुटी तक्रादि योग
त्रिफलादि गुटिका प्रकारांतर
गुग्गुलादि वटी अरलुत्वक्
चंद्रप्रभावटी शर्करासव
सूरणपुटपाक द्राक्षासव
चित्रकादि दधि संनिपातार्श धूप
कांचन्यादि विषयोग हपुषादितक्रारिष्ट
वृद्धदारु मोदक भर्जितहरीतकी
सूरण वटक पाठमूलयोग
बृहत्सूरण बटक सूरणचूर्ण
कोशातकी घर्षण वैक्रांताख्यरस
निशादि लेप पर्पट्यादियोजना
तथा निशादि और अर्क मूलादि लेप कुटजावलेह
निम्बादि लेप कुष्मांडावलेह
एरण्ड मूलादि लेप भल्लातकावलेह
स्नुह्यादि लेप स्नुहीक्षीरलेप
कृष्ण शिरीषादि लेप कोकंवादि चूर्ण
अर्कादि लेप समशर्कर योग
गुञ्जासूरण लेप व्योपादि चूर्ण
गौरीपाषाण लेप करंजादि चूर्ण
न्यग्रोध पत्र लेप विजया चूर्ण
देवदाल्यादि योग
मरिचादि मोदक कुसुंभ पत्र भक्षण
प्राणप्रद मोदक पथ्यादि चूर्ण
कांकायनीवटी चतुःसम मोदक
सूरणमोदक हरिशंकरलोहम्
लघुसूरण मोदक लोहविकारकी शान्ति
अर्शकुठाररस लोहपरिपाकके लक्षण
कभ्रकहरीतकी लोहाजीर्णकायत्न
बवासीर मंत्र कीटकीशान्ति
दूसरा मंत्र लोहव्यापत्कायत्न
सूरणपुटपाक सिद्धसारकाचूर्ण
काशीसादितैल पारदभस्म
सूनीबवासीरका सामान्ययत्न बवासीरकेसाध्य लक्षण
चन्दनादिदार्व्यादिक्वाथ कृच्छ्रसाध्य लक्षण
प्रयोगान्तर असाध्य लक्षण
महानिम्बबीज प्रयोग याप्प लक्षण
पेया अन्य असाध्य लक्षण
लाजापेया अन्य असाध्य लक्षण
अपामार्ग बीज योग चर्मकीलकी संमाप्ति
कुशमूलादिपान चर्मकीलमें वातादि लक्षण
कुटजघृतम् इन्द्रज बवासीरके कारण
कुटजादिदुग्घ त्रिदोषकी बवासीरके कारण
अशोंरिमण्डूर याप्य लक्षण
कुटजादिकल्क असाध्य लक्षण
यवानीचूर्ण अर्शरोगपर पथ्य
शिरीषादिकल्क अर्शरोगमें अपथ्य
उपायान्तर रक्तार्शऔर चर्मकीलपर
निम्बबीजादि योग अकबर बादशाहकेअनुभवसिद्ध फारसी प्रयोग
रसांजनादिवटी
मरिचादिवटी इति बृहन्निघण्टुरत्नाकर चतुर्थभागविषयानुक्रमणिका समाप्ता.
शूरणशोधनम्
करंजादिचूर्ण

खेमराजश्रीकृष्णदास, “श्रीवेङ्कटेश्वर” मुद्रणालय-( बंबई ).

श्रीः।

बृहन्निघण्टुरत्नाकरे-चतुर्थोभागः।

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जलधरादिकाढा।**

जलधरदशमूलंबारिशुंठीसमेतंमलयजकृतमालंवासकंपर्पटं च ॥ समधरणघृतांशःक्वाथएषप्रभातेशमयतिसमुदीर्णंपीतमात्रः प्रलापम्॥

**अर्थ–**नागरमोथा, दशमूल, नेत्रवाल, सोंठ, चंदन, अमलतासका गूदा, अडूसा, और पित्तपापडा, ए प्रत्येक पावतोला लेय, इसका काढा लेनेसे शीघ्र प्रलापक दूर हो ।

दूसरातगरादिकाढा

सतगरवरतिक्ताखेतांभोदतिक्तानलदतुरगगंधाभारतीहारहूराः ॥ मलयजदशमूलीशंखपुष्प्यःसुपक्वाप्रलपनमवहन्युःपानतोनातिदूरात् ॥

**अर्थ–**तगर, पाढ, अमलतासका गूदा, नगरमोथा, कुटकी, जटामांसी, असगंध, ब्राझी, दाख, चंदन, दशमूल, और शंखाहूली, इनका काढा पीवेतो प्रलापक सन्निपातको, तत्काल हरणकरे ॥

उपचार।

सांत्वनैरंजनैर्नस्यैस्तीक्ष्णैस्तीमिरसेवनैः॥
सर्वतोविकृतंचित्तमस्यप्रकृतिमानयेत् ॥

**अर्थ–**शांतिपूर्वकं बोलना, अंजन, तीक्ष्ण नस्य, अंधकारका नाश, इन उपायोंसे विकृत हुए चित्तको प्रकृतिपर लाना चाहिये ।

मृतोत्थापनरस।

शुद्धसूतंद्विधागंधंशिलाचविपहिंगुलौ ॥ मृतकांताभ्रताम्रायस्तालकंमाक्षिकंसमं ॥अम्लवेतसजंबीरचांगेरीनागरेणच ॥ निर्गुंड्याहस्तमुंड्याश्चरसैर्मर्द्यंदिनद्वयं ॥ रुध्वाथभूधरेपक्त्वादिनांतेतत्समुद्धरेत् ॥चित्रकस्यकपायेणमर्दयेत्प्रहरद्वयं ॥मापमात्रंप्रदातव्योहिंगुत्र्यूपार्द्रकद्रवैः॥ सकर्पूरानुपानैःस्यान्मृतोत्थापनकोरसः ॥

पीडितः सन्निपातेनगतोवापियमालयं ॥तत्क्षणाज्जीवदःसत्यंपथ्यंक्षीरंप्रयोजयेत् ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा १ भाग, गंधक २भाग, मनसिल, विष, हिंगलू, कांतलोहकीभस्म, अभ्रक भस्म, ताम्रभस्म, हरतालभस्म, और माक्षिक भस्म, ए एक२भाग ले सबको एकत्र कर अमलवेत, जंभीरी, चूका, अदरख, सह्यातू, इन प्रत्येकके रसमें एक२दिन खरलकरे और मुंडीके रसमें दोदिन खरल कर शराव संपुटमें धर कपड मिट्टी चडाय भूधरयंत्रमें चार प्रहर पवावे सायंकालको निकाल चीतेके काढेसे दो महर खरल करे तो (मृतोत्थापन) रस बने इसमेंसेश्मासे अदरसके रसमें हींग, त्रिकुटा, और कपूर डालके देय तो संनिपात कर्के मृतप्राय हुआभी तक्षण सावधान होय इसके ऊपर दूधभात पथ्य देव ॥

जिव्हकसन्निपातनिदान ।

श्वसनकासपरितापविह्वलः कठिनकंटकवृतोजिह्वकः ॥
बधिरमूकवलहीनलक्षणोभवतिकष्टतरसाध्यजीवकः॥

**अर्थ–**वास, खाँसी, संताप, और विव्हल, कठिन और काँटेयुक्त जिव्हा बहरेपना, गूंगा और बलहानि इन लक्षण करके युक्त ऐसा जिव्हकसन्निपात कष्टसाध्य है ॥

उग्रादिकाढा।

उपासिंहीयासरानास्रामृताव्हाशुंठीतिक्ताभृंगिकापौष्कराणां ॥ बाह्मीभांर्गीतिक्तवासासठीनांक्वाथोहन्यांज्जिव्हकंसंनिपातं ॥

**अर्थ–**वच, कटेरी, धमासा, रास्ना, गिलोय, सोंठ, कुटकी, काकडासिंगी, पुहकरमूल, ब्राह्मी भारंगी, चिरायता, अडूसा, और कचूर इनका काढा जिव्हक संनिपातको दूर करे ॥

क्षुद्रादिकाढा।

क्षुद्रानागरपुष्करामृतलताब्राह्मीवचासुव्रताभांर्गीवासकयासतोयसुरसाक्वाथोजयेज्जिव्हकं॥ विश्वाचर्मविभावरीयुगवरावत्सादनीवारिदव्याघ्रीनिंबपटोलपुष्करजटारुग्दारुभिर्वाकृतः॥

**अर्थ–**कटेरी, सोंठ, पुहकरमूल, गिलोय, ब्राह्मी, वच, कपूरकचरी, भारंगी, अडूसा, धमासा, नेत्रवाला, तुलसी, इनका अथवा सोंठ, पित्तपापडा,हलदी, दारुहलदी, त्रिफलां, नागरमोथा, कटेरी, नीमकी छाल, पटोलपत्र,पुहकर मूल, कृठ और देवदारु इनका काढा देय तो जिव्हक संनिपातको जीते ॥

सिंह्यादिकाढा।

सिंहीनागरपुष्करैःसकटुकैरास्नागुडूचीयुतैर्भांर्गीकर्कटशृंगिकासठिसमैर्दुःस्पर्शवासाधनैः ॥ पीतंजिह्वकहारिवारिभवतिब्राह्मीवचामिश्रितैः प्रोक्तंवैद्यवरेणवंद्यमुनिभिर्भूनिंबमिश्रंशृतं ॥

**अर्थ–**कटेरी, सोंठ, पुहकरमूल, कुटकी, रास्ना, गिलोय, भारंगी, काकडासिगी, कचूर, धमासा, अडूसा, नागरमोथा, ब्राह्मी, वच, और चिरायता इनका काढा जिव्हक संनिपातको हरण करे ॥

देवदार्वादिकाढा।

सुरतरुकटुनिंबैरूक्षपथ्यापटोलीरजनियुगुलविश्वासिंहिकापुष्कराव्हैः॥
सलिलधरगुडूचीवासकः सर्वमेभिः प्रशमयतिकपायोजिह्वकंकष्टसाध्यं ॥

**अर्थ–**देवदार, नीमकी छाल, बहेडा, हरड, पटोलपत्र, हलदी, दारुहलदी, सोंठ, कटेरी, पुहकरमल, नागरमोथा,गिलोय और अडूसा, इनका काढा कष्टसाध्य ऐसा जिह्वकका नाशक है ॥

किरातकवल।

किराततिक्ताकुलकृत्कलिंजकर्चूरकृष्णाकटुतैलयुक्तः॥
अम्लद्रवः संशमयेद्रसज्ञादोपांस्तुतोदाशरथिर्यथाघं ॥

**अर्थ–**चिरायता, अकरकरा, कुलीजन, कचूर, और पीपल, इनका चूर्ण सरसोके तेल और बिजोरेके रससे एक्त्रकर मुखमें रक्खे तो जिव्हाका दोष शमन करे जैसे रामचंद्रकी स्तुति करनेसे पाप शमन होते है ॥

शालूरपर्ण्यादिअवलेह ।

शालूरपर्णीमालूरमूलामयमधुप्लुता ॥
शंबूकपुष्पीसहितासेव्यावाचांविशुद्धये ॥

**अर्थ–**कमलकंद (भसीडे) पिठवन, कुठ, और शंखपुष्पी इनका चूर्ण शहत मिलायके चाटे तो वाणी शुद्ध होय ॥

त्रिपुरभैरवरस।

विश्वाभर्मविभावरीयुगवरावत्सादनीवारिदव्याघ्रीनिंबपटोलपुष्करजटारुग्दारुभिर्वाकृतः ॥विषमहौषधमागधिकोपणाद्युमणिरक्तकमार्द्रकमर्दितं ॥ क्रमविवर्धितमुद्वलितंज्वरंत्रिपुर- भैरवएपरसोवरः॥

**अर्थ–**सोंठ, सुवर्णभस्म, हलदी, दारुहलदी, त्रिफला, गिलोय, नागरमाथा, कटेरी, नीमकी छाल, पटोलपत्र, पुहकरमूल, कूठ, और देवदार, इनका काढा देय तो जिव्हक संनिपात दूरहोय ॥ अथवा विष, सोंठ, पीपर, गजपीपर, आक और लाल अंडौआ ये औषध क्रमसे वढती लेये (जैसे विष १ भाग, सोंठ २ भाग, पीपर३ भाग,) इसप्रकार ले अदरखके रसमें खरल करे तो इसे त्रिपुरभैरव रस कहते है इसको चाटनेसे जिव्हक सन्निपात दूर होय ॥

सामान्यउपचार।

गुंजैकंमधुनाप्यत्रदेयोह्यनंदभैरवः॥
दध्यन्नंदापयेत्पथ्यंत्रिनेत्राख्योरसोहितः॥

**अर्थ–**आनंदभैरव रस शहत से चाटे और दहीभात पथ्य देवे अथवा त्रिनेत्राख्य रस देय तो जिव्हकसंनिपात नाश

होय ॥

अभिन्याससन्निपातनिदान।

दोषत्रयस्निग्धमुखत्वनिद्रावैकल्यनिश्चेष्टनकष्टवाग्मी ॥ बलप्रणाशःश्वसनादिनिग्रहोभिन्यासउक्तोननुमृत्युकल्पः॥

**अर्थ–**दोषत्रयोके कोप करके मुखपर चिकनाई, निद्रा, अंगोमें विक्लता, निश्चेष्टता, बडे कठिनतासे बोलना, वलनाश, दमका चढना ए लक्षण अभिन्यास सन्निपातमें होते है यह पेचल मृत्युही है ॥

औषधोंकीअवधि।

यावच्चश्वसतेजीवोयावत्कामतिभेषजं ॥
तावत्क्रियाप्रकर्तव्यादैवस्यकुटिलागतिः॥

**अर्थ–**यावत्पर्यंत यह प्राणी शासोछ्वास लेता है और औषध कठमें उतरती है, तबतक औषधके विषयमें उपेक्षा न करे अर्थात्तावत्काल पर्यंत ओषध दीये जाप क्यों कि दैवकीगति विचित्र है कदाचित् रोगी वचजावे।

इसमेंदृष्टांत।

दुर्गेभसियथामज्जन्भाजनंत्वरयाबुधः ॥

गृण्हीयात्तलमप्राप्तं तथाभिन्यासपीडितं ॥

निद्रोपेतमभिन्यासंक्षिप्रंविद्याद्धतौजसं ॥

**अर्थ–**जैसे अथाह जलमें बरतन गिरे हुएको तलमें न पहुँचने पावे उस्से प्रथमही पकडले उसीप्रकार अभिन्यास संनिपात पीडित रोगीका बहुतही शीघ्र यत्न करना चाहिये अभिन्यासमें निद्रा आतेही हतवीर्य जानना ॥

सामान्यउपचार।

सन्निपातांतकंचात्रमापैकंदापयेद्रसं ॥
पथ्यंपूर्वोदितंदेयंरसोह्यानंदभैरवः॥

**अर्थ–**अभिन्यास संनिपातमें एक मासे संनिपातांतक रस देवे किंवा आनंदभैरव रस देय और पूर्वोक्त पथ्य देवे ॥

सिंहयादिकाढा।

सिंहीव्याघ्रीमृताद्राक्षाअजाजीसकटुत्रिकं ॥ भृंगीविडंगंचसमंपक्त्वाविश्वांव्यसाधयेत् ॥ घृताक्तैस्तंडुलैर्भ्रष्टैः पेयामुष्णां ज्वरीपिबेत् ॥ हिक्काश्वासीचकासीचतथाभिन्यासपीडितः॥ विबद्धवातविण्मूत्रोपानमस्मिन्प्रयोजयेत् ॥

**अर्थ–**कटेरी, बडी कटेरी, गिलोया दाख, जीरा, सोंठ, मिरच, पीपर, काकडासिंगी, वायविडंग, इनका काढा कर उस काढेमें चावल घीमें भून उनकी पेया करावे उस पेयाको गरमागरम ज्वरवालेको देय तो हिचकी, श्वास, खाँसी, अभिन्यास संनिपात और वायु मलमूत्र इनका अवरोध ये दूर होय ॥

कंटकार्यादिकाढा।

बृहतीपौष्करंभांर्गीसठीशृंगीदुरालभा ॥
पक्त्वापानंप्रशंसतिश्लेष्मातेनोपशाम्यति ॥

**अर्थ–**कटेरी, पोहकरसूल, भारंगी, कचूर और धमासा इनका काढा देय तो इससे कफशांति होय ॥

त्रिवृतादिकाढा।

त्रिवृद्विशालात्रिफलाकटुकारग्वधैःकृतः ॥

सक्षारोभेदनः क्वाथोज्ञेयःसर्वज्वरापहः ॥

**अर्थ–**निसोथ, इन्द्रायनकी जड, त्रिफला, कुटकी और अमलतासका गूदा, इनके काढेमें जवाखार डालके देय तो रेचक और सर्व ज्वरनाशक है ॥

त्रायंत्यादिकाढा।

त्रायंतीदशमलपुष्करजटावातारिभिःकारवीभांर्गीस्यादमृताटरूपकशटीगोमूत्रसंयोजितैः ॥ शृंगीव्योपपुनर्नवाभिरचिरादुष्णः कपायोहरेत्साभिन्यासगदं कफज्वरहरांनिःसंशयंपाययेत् ॥

**अर्थ–**त्रायमाण, दशमूल, पुहकरमूल, अंडकी जड, सोंफ, भारंगी,गिलोय, अडूसा, कचूर, काकडासिंगी, सोंठ, मिरच, पीपल, पुनर्नवा इनका गोमूत्रमें काढा कर किंचित् उष्ण पिवावे तोअभिन्यास संनिपात कफज्वरको नाश करे॥

सुरभ्यादिकाढा।

सुरभिसलिलयुक्तःसिंहिकाश्रीफलाभ्यांप्रवरलवणयासोविश्वपापाणभेदैः॥ पवनरिपुजटाभिः संयुतः क्वाथएपांप्रतिदिनमपिपीतोहंत्यभिन्यासशूलं ॥

**अर्थ–**कटेरी, वेलगिरी,सैधानिमक, धमासा, सोंठ, पाखानभेद, अंडकीजड, जटामांसी इनका काढा करके गोमूत्रके साथ देवे तो अभिन्यास सन्निपात और शूल इनको नाश करे॥

श्रृंग्यादिकाढा।

शृंगीभांर्ग्यभयाजाजीकणाभूनिंंबपर्पटैः ॥ देवदारुवचाकुष्ठयासकट्फलनागरैः॥ मुस्तधान्यकतिकेंद्रयवपाठाहरेणुभिः॥ हस्तिपिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकैः ॥ विशालारग्वधारिष्टशठीवाकूचिकाफलैः ॥ विडंगरजनीदार्वीयवानीद्वयसंयुतैः।
समांशैर्विहितः क्वाथोहिंग्वार्द्रकरसान्वितः ॥ अभिन्यासज्वरंघोरंहंतितंद्रांचतत्क्षणात् ॥प्रमोहंकर्णमूलंचसन्निपातांस्रयोदश॥ हिक्कांश्वासंचकासंचतथासर्वानुपद्रवान्॥

**अर्थ–**काकडासिंगी, भारंगी, हरड, जीरा, पीपल, विरायता, पित्तपापढा, देवदारु, वच, कूट, धमासा, कायफल, सोंठ, नागरमोथा, धनिया, कुटकी, इन्द्रजौ , पाढ, रेणुकाद्रव्य, गजपीपर, ओंगा, पीपरामूल, चीतेकेछालइन्द्रायनकी जड अमलतासका गूदा, नीमकी छाल, कचूर, वावची, वायविडंग, हलदी, दारुहलदी. अजमायन, अजमोज ये औषध सब समान भाग ले काढा करके उसमें हीग और अदरखका रस डालके पीवे तो अभिन्यास संनिपात, ज्वर, तंद्रा, मोह कर्णमूल, तेरह प्रकारके संनिपात, हिचकी, श्वास, खांसी और ज्वरके सर्व उपद्रव इनको नाश करे॥

शृंग्यादिकाढा।

शृंगीधन्वयवासपुष्करजटाभांर्गीशठीसिंहिकाक्वाथः पानविधानतःकफहरोभिन्यासविध्वंसकः ॥

**अर्थ–**कांकडासिंगी, लालधमासा, पुहकरमूल, भारंगी, कचूर, कटेरी, इनका काढा पीवै तो कफ, और अभिन्यास संनिपात इनका नाश करे ॥

तिक्तादिकाढा।

तिक्ताभयाबृहद्दंतीत्रायंतीराजवृक्षकः॥
क्षाराढ्यःसैंधवोपेतः क्वाथोभेदीज्वरापहः ॥

**अर्थ–**कुटकी, हरड, बड़ी दंती, त्रायमाण, और अमलतासका गूदा इनका काढा जवाखार और सैधानिमक डालके देय तो भेदीऔर ज्वरनाशक होय ॥

व्याघ्र्यादिकाढा।

व्याघ्रीदुरालभाभांर्गीसठीशृंगीसपौष्करं ॥

पक्त्वांवुश्लेष्महृदयमभिन्यासप्रशांतये ॥

**अर्थ–**कटेरी, धमासा, भारंगी, कचूर, कांकडासिगी, और पुहकरमूल, इन औषधोंका काढा करके पीवे तो कफ, पेटका दूखना, और अभिन्यास संनिपात शांति होय ॥

भांर्ग्यादिकाढा।

भांर्गीपुष्करमूलंचरास्नाविल्वंसमुस्तकं॥ नागरंदशमूलंचपिप्पल्याविश्वसाधितं ॥ हिंग्वार्द्रकरसोपेतंपिप्पलीचूर्णसंयुतं ॥ सन्निपातज्वरंचोरमभिन्यासंचदारुणं ॥ हृत्पार्श्वशूलमात्राहंसद्यःपीतंनियच्छति ॥

**अर्थ–**भारंगी, पुहकरमूल, रास्ना, वेलगिरी, नागरमोथा, सोंठ, दशमूल. पीपल, अतीस इन औषधोका काढा करके उसम हींग और अदरखका तथा पीपलका चूर्ण मिलायके देवे तो संनिपातज्वर, अभिन्यास, हदय और पार्श्वइनका शूल इनकोनाश करे॥

बीजपूरादिकाढा।

बीजपूरकबिल्वाश्मभेदकंवृहतीद्वयं ॥ सकार्षिकंतथैरंडंजलेचाष्टगुणेशृतं॥पक्वगोमूत्रसंयुक्तबिडसौवर्चलान्वितं ॥ हृद्वस्तिशूलेसानाहेअभिन्यासेज्वरेहितं ॥

**अर्थ–**विजोर, वेलगिरी, पाषाणभेद, कंटेरी वडी, कटेरी छोटी, प्रत्येक एक २ तोले ले, इसमें अंडकी जड आठ तोले डालके अठगुने जलमें काढा करे, इसमें गोमूत्र, बिडलोन, और संचरनोन डालके पीवे तो हृदय और बस्ती इनके शूलको मलबद्धता और अभिन्यास ज्वर इनपर हितकारक है ॥

मातुलुंगादिकाढा।

मातुलुंगाश्मभिद्विल्वव्याधीपाठाऋबूकजः॥
क्वाथोलवणसूत्राढ्योभिन्यासानाहशूलनुत् ॥

**अर्थ–**विजोरेकी केशर, पाषाणभेद, वेलगिरी, कटेरी, पाढ, और अंडकी जड इनके काढेमें निमक और गोमूत्र मिलायके पीवे तो अभिन्यास संनिपात अफरा और शूल दूर हो ॥

कारव्यादिकाढा।

कारखीपौष्करैरंडत्रायंतीनागरामृता ॥ दशमूलसठीशृंगीवालाभांर्गीपुनर्नवा ॥ तुल्यामूत्रेणनिःक्वाथ्यपीताःस्रोतोविशोधिनी॥ अभिन्यासज्वरायासमाशुघ्नंतिसमुद्धतं ॥

**अर्थ–**कलौजी, पुहकरमूल, त्रायमाण, सोठ, गिलोय, दशमूल, कचूर, काँकडासिंगी, अडूसा, भारंगी, और सॉठकी जड सब समान ले गोमूत्र में काढा करके पीवे तो नाडियोंके मार्गको शुद्ध करे और अभिन्यास ज्वर परिश्रम इन सवको तत्काल दूर करे ॥

पटोलादिक्वाथ।

पटोलपत्रंबृहतीसुपवीकंटकारिका ॥ मरीचंपिप्पली बिल्वंचिरिबिल्बंचित्रकं ॥ करंजबीजमंजिष्ठात्रायतीविश्वभेषजं ॥ गलप्रबोधनं श्रेष्ठमभिन्यासज्वरापहं॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, कटेरी बडी, कलोजी, छोटी कटेरी, कालीमिरच, पीपल, वेलगिरी, कंजेकी छाल, चीता, कंजेके बीज, मँजीठ, त्रायमाण, और सोंठ, इनका काढा करके पीवे तो कंठको शुद्ध करे, और अभिन्यास ज्वर दूर हो॥

जयमंगलरस।

मृतसूताभ्रकंनिंबंक्षारंमरिचमुंडकं ॥ तालकंमाक्षिकंव्योपं विपंटंकणचित्रकं ॥ समांशंमर्दयेत्खल्वेपाठानिर्गुंडिबिल्वजैः ॥ द्रवैर्यष्ट्यादिनैकंतुरुध्वापाच्यंतुभूधरे ॥ पुटैकेनभवेत्सिद्धोरसोयंजयमंगलः ॥ दशमूलकपायेणमापैकः संनिपातजित् ॥ अंजनेवाथवानस्येअभिन्यासांतकोभवेत् ॥

**अर्थ–**पारद, अभ्रक, इनकी भस्म, नीम, जवाखार, मिरच, मुंडलोहको भस्म, हरताल, सुवर्ण माक्षिक, त्रिकुटा, विष, सुहागा, और चीतेकी छाल सब बराबर ले सबको पाढ निर्गुंडी और वेल इनके रसमें एकदिन खरल करे, एक दिन मुलहटीके रसमें खरलकर भूधर यंत्रमें धरके पचावे तो एकही पुटमें यह (जयमंगलरस ) सिद्ध होय ॥ १ मासे दशमूलके काढेमें सेवन करे तो संनिपात जीते इसके अंजन करनेसे अथवा नास लेनेसे अभिन्यासको दूर करे॥

स्वच्छंदनामकरस।

शुद्धसूतंद्विधागंधंसूतांशंमृतहेमकं ॥ मृतरौप्यंचताम्रंचसूततुल्यंपृथक्पृथक् ॥ सूर्यावर्तस्यनिर्गुंड्यास्तुल्यंचार्द्रार्द्रकद्रवैः ॥ भृंगोन्मत्ताखुकर्णीनामग्निकर्ण्याग्निमंथयोः ॥ तिलपर्णीचित्रकयोःकाकमाच्यारसैःसह ॥ मर्दयेत्त्रिदिनंखल्वेशुष्कंपित्तैर्विभावयेत् ॥ मत्स्यमाहिपवाराहछागमायूरजैर्दिनं ॥ अंधमूपागतंपाच्यंवालुकायंत्रगैर्दिनं ॥ आदायचूर्णितंखादेन्मापैकंचार्द्रकद्रवैः ॥ निर्गुंड्यादशमूलानांकपायंमरिचंपिबेत् ॥ अभिन्यासंनिहंत्याशुरसःस्वच्छंदनामकः ॥ पथ्यंस्यान्मुद्गयूपे पक्षीरैर्वाज्यैर्विधापयेत् ॥

**अर्थ–**शुद्ध पारा तोलेभर, गंधक २ तोले ,सुवर्णभस्म ३ मासे, रूपरस, ताम्रभस्म दोनों तोले तोले भर ले सवको एकत्र कर हुलहुल, निर्गुंडी, अदरख,भांगरो, धतूरी, मुसाकर्णी, अग्निकर्णी, अरनी, तिलपर्णी, चीता और मकोय, इनके रसमें ३ दिन खरल करे जब मुख जाय तव रोहू मछली, भैंसा, सूअर, बकरा, और मौर इनके पित्तेकी भावना देय फिर शीशीमें भर वालुकायंत्रमें अधमूपामें १ दिन पचावे, फिर निकाल चूर्णकर१ मासे अदरखके रससे खाय ऊपरसे निर्गुंडी, दशमूल, मिरच इनका काढा पीबेतो यह(स्वच्छंदरस) अभिन्यास सन्निपातको दूर करे इसके ऊपर मूंगका यूष, दूध, और घी देवे॥

मातुलुंग्यादिरस ।

मातुलुंगरसंतस्यहिंगुशुंठीयुतंमुखे ॥
दद्यात्प्रधमनंतीक्ष्णंकटुतीक्ष्णोपसंहितं ॥

**अर्थ–**विजोरेके रसमें हींग और सोंठ, मिलायके मुखमें रक्खे और तीखी तथा चरपरी औषध नेत्र तथा नाक कानमें फूंके तो सन्निपातकी वेहोसी दूर हो।

आर्द्रकादिनस्य।

आर्द्रकंस्वरसोपेतंसिंधूत्थंसकटुत्रिकं ॥

प्रबोधायमुखेदद्यान्नस्यंवामरिचेनच ॥

अर्थ– अदरखके रसमें त्रिकूटा और सैंधानिमक इनका चूर्ण मिलाय मुखमें धरनेको देय और अदरखके रसमें मिरच मिलाय नास देवे तो संनिपातवाला रोगी सावधान होय ॥

रामठादि नस्य ।

रामठनागरसहितंभृंगरसाम्लंतुलेहतःप्रातः॥
अथकटुतिक्तोपयुतंभवतिसुखप्रबोधनंनस्यं ॥

**अर्थ–**हींग, और सौंठ इन औषधोंको भांगरेके और नींबूके रसमें मिलाय चाटे अथवा तीक्ष्ण और कडुई औषधोंकी नस्य देवे तो रोगी सावधान होय॥

मरीचादिनस्य ।

मरिचलवणंकृष्णाभूतकेशीमधूकैः कटुफलमृदुकृत्वाकोण्णनीरेणनस्यं ॥ प्रकटयतिविकीर्णश्चाष्टभिर्वाचतुर्भिःसकलकरणबोधंविंदुभिर्दीयमानं ॥

**अर्थ–**कालीमिरच, सैंधानिमक, पीपल, निर्गुंडी, महुआके फूल, और कायफल, इन औषधोंका चूर्ण कर गरम जलमें डाल उसके आठ अथवा चार बूंदकी नास लेय तो संनिपातका रोगी चैतन्य होय ॥

लशुनादिअंजन।

लशुनमरिचकृष्णामाणिमंथोग्रगंधाशुकतरुफलबीजैर्विश्वगोमूत्रपिष्टैः ॥ कफपवनविकारेरक्तपित्तप्रभेदेगदितमगदविद्भिर्नेत्रयोरंजनंस्यात् ॥

**अर्थ–**लहसन, कालीमिरच, पीपल, सैधानिमक, बच, सिरसका फूल और सोंठ, इन औषधोंका चूर्ण गोमूत्रमें खरल कर अंजन करे तो कफ, वायु, और रक्तपिरा, इनको दूर करे ॥

जात्यादिअंजन ।

जातीपुष्पंप्रवालंचमरिचंरोहिणींवचां ॥
सैंधवंबस्तमूत्रेणतंद्रानाशनमुत्तमं ॥

**अर्थ–**चमेलीके फूलोंका रस,काली मिरच, कुटकी, वच, और सैधानिमक, इनका चूर्ण कर उसको बकरीकेमूत्रमें घिसकर अंजन करे तो तंद्रा दूर होय॥

शिरीषबीजादिअंजन।

शिरीषबीजंमरिचंबस्तमूत्रेणतत्समं ॥
अंजनंतदभिन्यासेसंज्ञाबोधनमिप्यते ॥

**अर्थ–**सिरसके बीज और मिरच ये समान भाग ले बकराके मूत्रमें पीस अंजन करे तो अभिन्यास सन्निपातमें उत्तम संज्ञा प्रबोध करे ॥

दंभ अथवा दाग।

संज्ञायस्यनजायतेचरणयोर्द्वंद्वंसमादह्यते ॥
भालेलोहशलाकयासतिकृतेसर्वक्रियाकर्मणि ॥

**अर्थ–**सन्निपातमें जिसकी संज्ञा जाती रहे उसके दोनों पैर और कपाल इनमें लोहकी सलाईसे दाग देवे ॥

दागदेनेकेनंतरउपाय।

एवंविधेस्मिन्विहितेविधानेनयातिसंज्ञांयदियश्चजंतुः॥
तंपादमूलेभृकुटौलालटेशलाकयालोहजयादहेत्तु ॥

**अर्थ–**इस प्रकार दाग देने पर भी जिसको होस न होवे उसके तरवा, भौंह और ललाट, इनमें लोहकीसलाईसे दाग देना चाहिये॥

हारिद्रकसंनिपातनिदान ।

हारिद्रदेहनखनेत्रकरांघ्रितातापनिष्ठीवनादिकसनैरुपलक्षितोयः॥

हारिद्रकः सकथितःकिलसंनिपातःसाध्योनचैषभिषजांज्वरकालरूपः॥

**अर्थ–**देह, नख, नेत्र, हाथ, पैर, ये हलदीके समान पीले हो जाय, ज्वर, थूकना और खांसी ये लक्षण जिस संनिपातमें होय उसको (हारिद्रक) सन्निपातज्वर जानना यह कालरूप है अर्थात् वैद्यसे साध्य नहीं हो सकता यह तेरह संनिपातोंसे पृथक् है ॥

सन्निपातकीमर्यादा।

सद्यस्त्रिपंचसप्ताहाद्दशाहाद्वादशादपि ॥
एकविंशद्दिनैः शुद्धः सन्निपातीसुजीवति ॥

**अर्थ–**सन्निपात प्रगट होनेके नंतर तत्काल अथवा तीन, पांच, सात, दश और वारह दिन व्यतीत होनेपर २१ दिन जव होजावे तब संनिपातसे मुक्त हुआ रोगी अच्छे प्रकार बचता है ॥

त्रिदोषज्वरोंकीसाधारणमर्यादा।

सप्तमीद्विगुणायावन्नवम्येकादशीतथा ॥
एषात्रिदोषमर्यादा मोक्षायचवधायच ॥
पित्तकफानिलवृद्ध्यादशदिवसद्वादशाहसप्ताहात् ॥
हंतिविमुंचतिपुरुषंत्रिदोषतो- धातुमलपाकात् ॥

**अर्थ–**विदोषहोनेसे वह रोगी ७, १४, ९, १८, ११, २२, इतते दिन में कि तो मर जावे, अथवा इतने दिनके पश्चात् बचनेसे ज्वरमुक्त होय तिनमें सात, नौ और ग्यारह, ये तीन मर्यादा वाताधिक, पित्ताधिक, और कफाधिक, इस क्रमसे है, इस मर्यादामें त्रिदोषज्वरमें धातुपाक होनेसे रोगी मरे और मलपाक होनसे रोगी सन्निपातसे छूटे धातुपाक और मलपाकका होना ईश्वरके आधीन है ॥

धातुपाकलक्षण।

निद्रानाशोत्दृदिस्तंभोविष्टंभोगौरवारुची ॥
अरतिर्बलहानिश्चधातूनांपाकलक्षणं ॥

**अर्थ–**निद्राका नाश, हृदयका स्तंभित होना, मलमूत्रका रुकना शरीर भारी,अरुचि, मनका न लगना, बलक्षीणता, ये धातुपाकके लक्षण हैं ।

मलपाक ।

दोषप्रकृतिवैकृत्यंलघुताज्वरदेहयोः॥
इंद्रियाणांचवैमल्यंदोषाणांपाकलक्षणं ॥

**अर्थ–**पूर्वदोषोंका पलटना, ज्वर और देहमें हलकापना, इन्द्रियोंकी शुद्धता ये मलपाकके लक्षण हैं ॥

सन्निपातके असाध्यलक्षण ।

दोषेविबद्धेनष्टेऽग्नौसर्वसंपूर्णलक्षणः॥
सन्निपातज्वरोऽसाध्यकृच्छ्रसाध्यस्ततोऽन्यथा ॥

**अर्थ–**मलादि और पित्तादि दोष बद्ध होनेसे तथा अग्नि शांत होनेसे वातादि सर्व दोषेंके संपूर्ण लक्षण होकर संनिपातज्वर असाध्य होता है, और इसके विपरीत अर्थात् दोषेंकी प्रवृत्ति होकर अग्नि थोडीसी दीप्त हो, सबके लक्षण थोडे २ होय तो सनिपातज्वर कष्टसाध्य होता है॥

आगंतुकज्वर।

अभिचाराभिघाताभ्यामभिपंगाभिशापतः।
आगंतुर्जायतेदोषैर्यथास्वंतंविभावयेत् ॥

**अर्थ–**मारणादि प्रयोग,ताड़न, भूतप्रेत बाधा, तथा ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध,इनके कोपसे और शाप इन कारणोंसे वातादि दोष कुपित हो आगंतुक ज्वरको उत्पन्न करते हैं वो ज्वर वात, पित्त, और कफ इन भेदोंसे तीन प्रकार का है॥

आगंतुकज्वरचिकित्साक्रम ।

आगंतुकज्वरेनैवनरः कुर्वीतलंघनं ॥

शुद्धवातक्षयागंतुजीर्णज्वरिपुलंघनं ॥

**अर्थ–**आगंतुक ज्वरमें मनुष्यको लंघन नहीं कराने, केवल शुद्ध वात क्षय दोषजन्य आगंतुक ज्वर और अजीर्ण ज्वर इनपर लंघन करावे ॥

अभिचाराभिघातज्वरनिदान ।

अभिचाराभिघाताभ्यांमोहस्तृष्णाचजायते ॥

**अर्थ–**अभिचार और अभिघात इनसे प्रगट हुए ज्वरमें मोह होता है और प्यास लगती है ॥

अभिचारज्वरपरचिकित्सा।

अभिचाराभिशापोत्थौज्वरौहोमादिनाजयेत् ॥
देहंस्वस्त्ययनैस्तीर्थैरुत्पातग्रहपूजनैः॥

**अर्थ–**अभिचार और अभिघात इनसे उत्पन्न हुए ज्वरको होम, देवपूजा, तथा, देहमें मंगलकारी मणि आदिका धारण, तीर्थस्नान, और जिससे पीडा हो उस ग्रहका पूजन इत्यादि यत्नोंसे जीते ॥

अभिघातज्वरपर चिकित्सा।

अभिघातज्वरेयुंज्यात्क्रियामुष्णविवर्जितां ॥
कषायंमधुरंस्निग्धंयथादोषमथापिवा ॥

**अर्थ–**अभिघात ज्वरपर उष्णवर्जित और कषेली, मधुर, स्निग्ध ऐसी अथवा जो दोष होय उसपर जो चिकित्सा लिखी है वो करनी चाहिये ॥

सामान्यउपचार।

अभिघातज्वरोनश्येत्पानाभ्यंगेनसर्पिषः॥
रक्तावसेकैर्मेध्यैश्चतथामांसरसोदनैः॥

**अर्थ–**अभिघात ज्वरपर घृतका पान, तथा देहमें घीकी मालिस, रुधिर निकलवाना, शेक देना, ये उपचार करके पथ्यमें मांसरस और भात देवे ॥

व्यधादिकोंपर ।

व्यधबंधश्रमात्यध्वभंगभ्रंशसमुद्भवान् ॥

ज्वरानुपचरेत्पूर्वंक्षीरमांसरसौदनैः ॥

**अर्थ–**वेध, बंधन, श्रम, बहुत मार्ग चलना, गिरना इन कारणों से उत्पन्न ज्वरपर प्रथम दूध, मांसरस, और भात देवे॥

मार्गश्रमजन्यज्वरपर ।

अध्वश्रांतेषुचाभ्यंगंदिवानिद्रांचकारयेत् ॥

**अर्थ–**बहुत चलनेसे जो थकगया हो इस कारणसे जो ज्वर आया हो उसका मालिस कर दिनमें सुलाना चाहिये ॥

दूसराप्रकार।

व्यधबंधसमावेशभग्ननष्टसमुद्भवान्॥
ज्वरानुपाचरेत्पूर्वंमदिराक्षीरभोजनैः॥

**अर्थ–**वेध,बंध, भूतबाधा,चोट लगनेसे और प्रिय वस्तूके नाश होनेसे जिसको ज्वर आया हो उसको प्रथम मद्य और दूध पिलाना चाहिये ॥

भूताभिपंगज्वरनिदान।

कामशोकभयाद्वायुः क्रोधात्पित्तंत्रयोमलाः॥
भूताभिपंगात्कुप्यतिभूतसामान्यलक्षणं॥

**अर्थ–**काम शोक और भय इनसे वात कुपित होताहै क्रोधसे पित्त कुपित होताहै और भूताभिपंगसे तीनों दोष कुपित होतेहैं इसमें औरभी लक्षण होतेहैं अर्थात् उन्माद निदानमें जिसजिस देवग्रहोंके लक्षण (हास्यरोदनकंपादिक) कहेहैं वो लक्षण होतेहैं ॥

दूसराप्रकार।

भूताभिपंगादुद्वेगोहास्यरोदनकंपनं ॥

**अर्थ–**भूतबाधा करके ज्वर आनेसे चित्तमें उद्वेग हो,हँसे,रोवे,और कँपताहै।

सामान्यचिकित्सा।

शीतभंजीरसोवात्रह्यनुपानेद्विगुंजकः ॥

**अर्थ–**भूतज्वरपर शीतभंजीर नामकरस यथायोग्यअनुपानसे दोरत्ती देवे॥

त्रिकट्वादियोग ।

गंधकंत्रिकटुंसाज्यंपिबेद्भूतज्वरापहं ॥

**अर्थ–**गंधक और त्रिकुटा इनके चूर्णको घीमें मिलायके देवतो भूतज्वरदूरहो॥

गंधकादियोग।

गंधकेनसमाधात्रीभुक्तासाभूतजंज्वरं॥
कर्पमात्रंप्रदातव्यंसर्वभूतज्वरेहितं ॥

**अर्थ–**गंधक औरआमले इनके समभाग चूर्ण को १० मासे पर्यंत देवैयह सर्वभूतज्वरोंपर हितकारक है॥

अष्टमूर्तिरस।

हेमरूप्यंताम्रनागंमृतंगंधकमाक्षिकं ॥ विमलाचशिलाशुद्धा सर्वांशंशुद्धसूतकं ॥ अम्लेनमर्दयेद्यामंपुटेकुंभधरेपचेत् ॥ अष्टमूर्तिरसोनामगुंजैकंभूतिकेज्वरे ॥ देयश्चातुर्थिकंत्र्याहंद्व्याहिकंचविनाशयेत् ॥

**अर्थ–**सुवर्ण, चांदी, तामा,और शीशा इनकी भस्म, गंधक, विमला, मनसिल ए शुद्ध करी हुई समान भागले, इन सबकी बराबर शुद्धपाराले, सबको एकत्र कर नीचूके रसमें एक प्रहर घोटके फिर कुंभपुट देवे यह (अष्टमूर्ती रस) रत्ती ज्वरखालेको देय ती भूतज्वर, चातुर्थिक, व्याहिक, याहिक, इनको दूर करे ॥

मधुकनस्य ।

मधुकसारमरिचंसैंधवंपिप्पलीवचा ॥
संज्ञाप्रबोधनंनस्यंदेयंभूतज्वरेसदा॥

**अर्थ–**महुआका गोंद कालीमिरच, सैधानिक, पीपल, और वच इनकी नस्य भूतज्वरमें सदैव देवे ॥

व्योषादिनस्य ।

कुर्याद्भूतज्वरेनस्यंव्योपाष्टतुलसीदलैः॥

**अर्थ–**सौंठ, मिरच, पीपल, और तुलसीके आठ पत्र, इनके रसकी नस्य देवे तो भूतज्वर दूर होय ॥

सहदेवीमूलिकाबंध।

सहदेवायामूलंविधिनाकंठेनिवद्धमपहरति ॥
एकद्वित्रिचतुर्भिर्दिवसैर्भूतज्वरंपुंसाम् ॥

**अर्थ–**सहदेईकी जड़को विधियुक्त कंठमें बाँधे तो एक, दो, तीन चार दिनमें भूतश्वर दूर हो ।

सूर्यावर्तबंध ।

सूर्यावर्तस्यमूलंचकर्णेभूतज्वरापहं ॥

**अर्थ–**हुलहुलकीजडको कानमें बाँधेतो भूतज्वर दूर हो ।

विजयावंध।

सायंकालेभिमन्त्र्यैवविजयांप्रातरुद्धरेत् ॥
बद्धाशिरसितन्मूलंभूतज्वरहरंपरम् ॥

**अर्थ–**भांगके वृक्षको सायंकालमें निमंत्रणकर आवे प्रातःकाल उखाड उसकी जडको मस्तकमें बाँधे तो भूतज्वरको नाश करे ॥

पुष्पार्कयोग।

पूष्यार्केकातुंड्याश्चमूलंभूतज्वरापहं॥
बंधयेद्रक्तसूत्रेणबाहौशिरसिवागले ॥

**अर्थ–**पुष्पार्कमें काकडोडीकीजडको लावे उसको लालसूतसे भुजामें अथवा मस्तकमें वा गलेमें बाँधे तो भूतज्वरको दूर करे ॥

मृत्तिकातिलक।

कर्कटस्यबिलोद्भूतमृदातुतिलकेकृते ॥

**अर्थ–**केकडेके विलेकी मिट्टीका तिलक करनेसें भूतज्वर दूर हो ।

मंत्र ।

गोमयंमंडलंकृत्वापुष्पगंधाक्षतादिभिः ॥ अर्चयेन्मंत्रावित्सम्यक्स्वहस्तंमंडलोपरि ॥ स्थापयित्वाजपेन्मंत्रंस्पृशेत्साध्यस्यमस्तकम् ॥ स्पृष्ट्वातत्रजपेन्मंत्रंयावदष्टोत्तरंशतम् ॥ अथमंत्रः ॥ कालकालमहाकालकालदंडनमोस्तुते ॥ कालदंडनिपातेनभूम्यंतर्निहितंज्वरम् ॥ त्रिदिनंकारयेदेवहन्याद्भूता दिकाञ्ज्वरान् ॥

**अर्थ–**गौके गोवरका चौका देकर उसकी गंधाक्षतसे पूजनकर उसकेउपर हात धरके “काल काल महा काल” इस मंत्रको १०८ बार जपके उस हाथको रोगीके मस्तकपर धरफ फिर १०८ बार मंत्रको जपे इसप्रकार तीन दिन करे तो भूतज्वरादिक दूरहो ॥

अभिपंगज्वरपरचिकित्सा।

भूतविद्यासमुद्दिष्टैर्वेधावेशनताडनैः॥

जयेद्भूताभिपंगोत्थंअनुशांत्यादिभिर्ज्वरम् ॥

**अर्थ–**भूतविद्यामें कहे जो गाडना, देहमें भराना, और मारना इत्यादि प्रयोग इनसे अथवा शांति आदि करके भूतबाधा जनित ज्वरको जीते ॥

अभिशापज्वरपरचिकित्सा।

लंघनंनहितंकामशोकचिंताप्रहारजे ॥

भयभूतश्रमक्रोधलंधनैश्चकृतेज्वरे ॥

किंतुदीप्ताग्नयेतत्रदद्यान्मांसरसौदनम् ॥

**अर्थ–**काम, शोक, चिंता, प्रहार भय, भूतबाधा, श्रम, क्रोध और लंघन इनसे उत्पन्नज्वरवालोंको लंघन हितकारी नहीं है इसका यह कारण है कि, रोगीकी जठराग्नि प्रदीप्त होती हैं इसंवारत उसको मांसरस तथा भात पथ्यमें देवे ॥

दूसराप्रकार।

अभिचाराभिशापोत्थौज्वरौहोमादिभिर्जयेत् ॥
दानस्वस्त्ययनातिथ्यैरुत्पातग्रहदूषितौ ॥

**अर्थ–**अभिचार (घात मूढ आदि ) अभिशाप, उत्पात और दुष्टप्रह इनसे प्रगट हुए ज्वरको होम, दान, पुण्याहवाचन, तथा आतिथ्य इन उपचारोंसे जीते ॥

विषजन्यआगंतुकज्वर।

शावास्यताविपकृतेदाहोतीसारएवच ॥
भक्तारुचिःपिपासाचतोदश्चसहमूर्च्छया ॥

**अर्थ–**विषकेसंबंधसे उत्पन्न हुए ज्वरमें मुखकाला, दाह, अतिसार अरुचि, तृषा चोटनी और मोह ये लक्षण होते हैं,इसकी चिकित्सा विषनिदानमें कहीहै॥

औषधीगंधसेहोनेवालेज्वर।

औषधीगंधजेमूर्च्छाशिरोरुग्वमथुःक्षवः ॥

**अर्थ–**दुष्टविषैल औषध सूंघनेसे जो ज्वर होता है उसमें मूर्च्छा, मस्तक शूल,वांति, हृल्लास और छींक ये लक्षण होते हैं ॥

चिकित्सा।

औषधीगंधविषजौविषपित्तप्रवाधनैः॥
जयेत्कपायैर्मतिमान्सर्वगंधकृतैभिषक् ॥

**अर्थ–**औषधिगंध और विष इनसे प्रगट हुए ज्यरमें विषऔर पित्तनाशक औषध इन करके अथवा सर्व गंधादिगणके क्वाथइत्यादि करके जीते ॥

अव सर्वगंधकहते हैं।

चातुर्जातंककर्पूरंकंकोलागरुकुंकुमम् ॥
लवंगसहितंचैवसर्वगंधविनिर्दिशेत् ॥

**अर्थ–**इलायची, दालचीनी, तालीसपत्र, नागकेशर, कपूर, कंकोल, काली अगर, केशर और लौंग ये एकत्र करनेसे इसको सर्व गंध कहते है ।

कामज्वरनिदान।

कामजेचित्तविभ्रंशस्तंद्रालस्यमभोजनम् ॥
हृदयेवेदनाचास्यगात्रंचपरिशुष्यति ॥

**अर्थ–**चित्तका डामाडोल होना, तंद्रा, आलस्य, भोजनमें अरुचि, हृदयमें और देहमें शुष्कता ये लक्षण कामज्वर में होते हैं॥

चिकित्सा।

श्रीखंडमंडितकलेवरवल्लरीणांमुक्ताफलाकुलितलोलकुचस्थलीनाम्1 ॥ वैदग्ध्यमुग्धवचसांसुविलासिनीनामालिंगनंसकलदाहमपाकरोति ॥

**अर्थ–**चंदन करके चर्चित देह मोतियोंके हार जिस्के स्तनोंपर गिरे हुए तथा शृंगार रस भरित मिष्टभाषण करनेमें चतुर और रूप लावण्य संपन्न ऐसी प्यारी स्त्रियोंके आलिंगन करनेसे कामज्वर और पित्तज्वर शांत होता है ॥

दूसराप्रकार।

शय्यापल्लवपद्मपत्ररचितावासोवयस्यैः समंकांतारेकुसुमस्फुरत्तरुवरेवापीजलालोकनम्2 ॥ आलापाश्चशुकालिकोकिलकृताः कांताश्चकांताः कथावाताश्चामलवालकव्यजनजादाधंनिराकुर्वते ॥

**अर्थ–**वृक्षकी नवीन कोमल, उलहाती पातीसैंअथवा कमलके पत्रोंकी सेज बिछाकर उसपर निद्रा लेना, मित्रोंके साथ रहना, वागोंमें डोलना, बावडी अथवा सरोवरके किनारे बैठकर पवनलेना,सुंदर स्वर युक्त गान, तथा तोता मैना इनके मंजुल शब्द सुनना, परस्पर हाँसी ठठोरीकी वार्ता करना, तथा खसके पंखोंसे पवनका करना ये उपचार कामज्वरको शांति करते हैं।

तीसराप्रकार।

अयिनितंबिनिगायनलालसेमधुरचारिणिकाममदालसे ॥
पपुपिदाहवतां3विहितंहितंहिमहिमांशुजलैरनुलेपनम् ॥

**अर्थ–**हे नितंविनि ! चंदन, कपूर और खसः इनके जलका लेप करना दाहको दूर करता है ॥

चौथाप्रकार।

शुभ्राभ्रविभ्रमधरेशशांककरसुंदरे॥
चंदनैश्चर्चितेहर्म्येस्वापस्तापमपोहति ॥

**अर्थ–**मेघके समान शुभ्र तथा चंद्रकिरणों करके सुंदर और चंदनसे पुताहुआ ऐसे घरमें शयन करनेसे ताप शमन होता है ॥

पाचवाँप्रकार।

यदिपर्य्पुपितंधान्यसलिलंसितयासह ॥
प्रभातसमयेपीतमंतर्दाहंविनाशयेत् ॥

**अर्थ–**सायंकालमें धनियेंको कोरे कुल्हड़ेमें भिगो देवे दूसरे दिन प्रातःकाल हाथोंसे मसलकर कपड़ेमें छान ले फिर इसमें मिश्री मिलायके पीवे तो दाह दूर हो ॥

छठवाँप्रकार ।

पित्तज्वरेकिंरसफांटलेपैःकिंवाकपायैरमृतेनकिंवा ॥पेयंप्रियायामुखमेकमेवलोलिंबराजेनसदानुभूतम् ॥प्राणप्रेयसिमापिबंतुपुरुषाः पित्तज्वरव्याकुलानानावल्लिजलंविलंबितफलंपाने विषादप्रदम् ॥ तैस्तैः किंक्रियतांचिकित्सकपतेमुग्धेसुखं सेव्यतांसद्यस्तापहरः सुधाधिकतरः कांताधरः केवलम् ॥

**अर्थ–**हे प्रिये! पित्तज्वरपर अर्थात् कामज्वरपर रस, फांट, लेप, किंवा काढे अथवा अमृत देनेसे भी क्या उपयोग है, कुछ नही ? किंतु उस रोगीको प्यारी मृगनयनीके सुखका चुंबन करनाही इस रोगकी उत्तम औषध है, लोलिंबराज अपनी स्त्रीसे कहते हैं कि यह प्रयोग मेरा अनुभव करा हुआ है। हे प्राणप्यारी ! कामज्वरपीडित पुरुषोंको बहुत कालमें गुणकर्त्ताऐसे अनेक प्रकार की बेलोंकारस तथा कडुए काढे दुखदाई नहीं पीने चाहिये किंतु उस रोगीको तत्काल ताप हरण कर्त्ताऔर अमृतसे भी अधिक मिष्ट तथा सुखसे सेवन करा जाय ऐसा अपनी प्यारीका अधरोष्ठ चुंबन करना चाहिये॥

सातवाँप्रकार।

कांताकटाक्षदग्धानांवदवैद्यकिमौषधम् ॥
दृढमालिंगनंपथ्यंक्वाथश्चाधरचुंबनम् ॥

**अर्थ–**स्त्रीके कटाक्ष अग्निसे झुरते हुएन्को यही औषध हितकारी है कि सुंदर स्त्रीका अधर चुंबन यह काढा और आलिंगन करना यह पथ्य ॥

भयशोककोपइनसेपैदाहुवाज्वरकानिदान।

भयात्प्रलापः शोकाच्चभवेत्कोपाच्चवेपथुः ॥

**अर्थ–**भय, और शोकसे प्रगट ज्वरमें रोगी बकवादकरे और क्रोधसे उत्पन्न ज्वरमें देह काँपता है॥

सामान्य उपचार।

व्याघ्रचित्तकघातार्थंस्थापयेज्जलमध्यगम् ॥
अनयाशीतक्रिययाभयरोगःप्रशाम्यति ॥

**अर्थ–**व्याघ्रादिकोंकी भय चित्तसे दूर करनेकेलिये रोगीको जलमें खडाकरे इस शीतल क्रियाके करनेसे भय दूर होय ॥

चिकित्सा।

हर्षणैश्चसमंयांतिकामशोकभयज्वराः॥
कामैरथोमनोज्ञैश्चपित्तघ्नैश्चाप्युपक्रमैः॥

**अर्थ–**काम, शोक और भय, इनसे उत्पन्न हुए ज्वर हर्षोत्पादक पदार्थकरके अथवा मित्रमंडलीमें बैठनेसे दूर होता है, अथवा मनवांछित पदार्थके मिलनेसे अथवा पित्तनाशक यन्न करनेसे शांत होय ॥

आश्वासनेष्टलाभेनवायोः प्रशमनेनच ॥
हर्षणेचशमंयांतिकामशोकभयज्वराः ॥

**अर्थ–**धीरज बँधाना, इष्टवस्तुका लाभ, वायुका नाश करनेवाले और आनंददायक पदार्थ इन करके काम, शोक, और भयसे उत्पन्न ज्वर शांत होते हैं॥

कामज्वर वा क्रोधज्वरइसपरसामान्यउपचार ।

कामात्क्रोधज्वरोनश्येत्क्रोधात्कामज्वरस्तथा ॥
यांतिताभ्यामुभाभ्यांचकामक्रोधज्वराःक्षयम् ॥

**अर्थ–**क्रोधवर कामोत्पत्तिसे दूर होय और कामज्वर क्रोध उत्पन्न होनेसे नाश होय, इस प्रकार ये दोनों परस्पर एक दूसरेकी उत्पत्तिसे नाश होते हैं॥

क्रोधज्वरचिकित्सा।

क्रोधजेपित्तजित्कार्यानार्याः सद्वाक्यमेवच ॥

आश्वासेनेष्टलाभेनवायो प्रशमनेनच ॥

**अर्थ–**क्रोध करके उत्पन्न ज्वरमें पितनाशक उपाय, सुंदर स्त्रियोंका भाषण उत्तम गोष्टी, आश्वासन ( दिलासा देना) तथा इष्टपदार्थका लाभ और वायुके नाश करनेवाले उपचार इत्यादि करने चाहिये॥

विसर्पादिज्वरेघृतपान ।

विसर्पेणज्वरोयश्चयश्चविस्फोटकज्वरः ॥
तत्रादौसर्पिपंपानंकफपित्तोत्तरेभवेत् ॥

**अर्थ–**विसर्पसे किंवा विस्फोटक (फोड़ा) होनेसे जो ज्वर होय ऐसे कफपित्ताधिक ज्वर इन पर प्रथम घृतपान करावे॥

विषमज्वरकीसंप्राप्ति ।

आतंकमुक्तेःकृशताश्रयाणांविमुक्तपथ्याद्युचितक्रियाणाम् ॥ अल्पोपिदोषोविषमंविदध्याज्ज्वरंविवृद्धंप्रतिपक्षरुद्धम् ॥

**अर्थ–**रोगसे मुक्ति होनेके पश्चात् कृशता करके अथवा कुपथ्य करनेसे अल्पभी रहे हुए दोष विरुद्ध होकर विषमज्वरको उत्पन्न करते हैं॥

दूसराप्रकार।

दोषोल्पोहितसंभूतोज्वरोत्सृष्टस्यवापुनः ॥
धातुमन्यतमंप्राप्यकरोतिविषमज्वरम् ॥

**अर्थ–**जिसमनुष्यको ज्वर औषधादि सेवन करनेसे शांत होगया हो और आरंभसे २१ दिन व्यतीत होनेपर तथा जीर्णावस्या होने पर अपथ्य करनेसे वातपित्तादिक दोय फिर थोड़े २ कुपित हो रसरक्तादि धातुओंमेंसे किसी एक धातुमें प्राप्त हो उसको दूषित कर विषमज्वर (तिजारी चातुर्थकादि ज्वर) को उत्पन्न करे, वा शब्दकरके प्रथमहीसे विषमज्वरहोता है ये सूचना करी जैसे (आरंभाद्विषमोयस्तु ) अल्पशब्दसे यह दिखाया कि उक्त दोष बलहीन होनेके कारण कालांतरमे बलिष्ठ हो ज्वरको करैहै और जो दोष बलीहै वो सदैव ज्वर करते है विषमज्वरके लक्षण (भालुकीने ) इस प्रकार कहे है (यःस्यादनियतात्कालाच्छीतोष्णाभ्यांप्रवर्तते) अर्थात् जो शीत किंवा उष्ण इन करके अनियतकालमे ज्वर आवे उसको विषम ज्वर कहते हैं. दूसरे लक्षण ये है कि (मुक्तानुबंधित्वं विषमत्वम् ) अर्थात् ज्वर चलाजाय और फिर आय जावे उसको विषम ज्वर कहते है ॥

विषमज्वरकेनाम।

संततःसततोन्येद्युस्तृतीयकचतुर्थकौ॥

**अर्थ–**संतत, सतत, अन्येदुष्क, तृतीयक और चतुर्थक, ऐसे विषमज्वरके पांच भेद है॥

संततादिकोंमें नियतदूष्य ।

संततोरसधातुस्थः सततोरक्तधातुगः ॥ भिषजासचविज्ञेयः सोन्येद्युःपिशिताश्रितः॥ मेदोगतस्तृतीयेह्निअस्थिमज्जागतःपुनः॥ कुर्याच्चातुर्थिकंघोरमंतकंरोगसंकरम् ॥

**अर्थ–**रसधातुगत दोष सतत ज्वरको उत्पन्न करे है तथा रक्तधातुगतदोषसंतत ज्वरको उत्पन्न करे वहीदोषमासाश्रित होनेसे अन्येद्युष्क (द्व्याहिक) ज्वरको उत्पन्न करे, और मेदोगत दोषहोनेसे त्र्याहिक (तिजारी) ज्वरको और अस्थि तथा मजागत दोष होकर मृत्युके समान तथा रोगोमें संकर ऐसा घोर चातुर्थिक ( चौथैया ) ज्वरको उत्पन्न करे है ॥

विषमज्वरचिकित्सा।

विषमाश्चज्वराःसर्वेसन्निपातसमुद्भवाः॥
अथोल्बणस्यदोषस्यतेपुकार्यंचिकित्सितम् ॥

**अर्थ–**संपूर्ण विषमज्वर संनिपातसे होते हैं परंतु उनमें अधिक दोषपर चिकित्सा करनी चाहिये ॥

शोधन।

विषमेष्वथकर्तव्यमूर्ध्वेचाधश्चशोधनं ॥
स्निग्धोष्णैरन्नरपानैश्चशमयेद्विषमज्वरं ॥

**अर्थ–**विषमज्वरमें ऊर्ध्वशोधन वांती आदि और अधःशोधन रेचनादि देवे और स्निग्ध तथा उष्ण ऐसे अन्न तथा पान करके विषमज्वर शमन परना चाहिये।

विषममें अन्नकहतेहैं।

तक्रंमांसंपयोमांसंदधिमांसमथापिबा ॥
मापमांसंतुभुंजानोमुच्यतेविषमज्वरात् ॥

**अर्थ–**छाँछ, तथा मांसरसा किंवा दूधमांस, अथवा दहीमांस, तथा माषमांस, इनका भोजन करनेसे विषमज्वर दूरहोय ॥

दूसरेप्रकारकेअन्न।

सुरासमंडापानायभोजनेचरणायुधाः॥
तित्तिराविष्करापथ्याःकुक्कुटाविषमज्वरे ॥

**अर्थ–**मद्य और मंड इनका पीना तथा मुरगा, तीतर, विष्कर जीव इन का मांस भोजनको देवे ये विषम ज्वरपर पथ्यकारक है ॥

विषमज्वरपरसामान्यचिकित्सा।

सततंविषमंवापिक्षीणस्यमुचिरोत्थितं ॥
ज्वरंसंभोजनैः पथ्यैर्ज्वरघ्नैःसमुपाचरेत् ॥

**अर्थ–**क्षीणरोगीका बहुत दिनमें आनेवाला संतत अथवा विषमज्वर पथ्यकारक भोजन तथा ज्वरघ्न औषध इन करके शमन करे ॥

घृतपान।

ज्वरःकपायैर्विविधैर्लेपनैर्लघुभोजनैः॥
रूक्षस्येतनशाम्यंतिसर्पिस्तेपांभिषङ्मतं ॥

**अर्थ–**रुक्षरोगीका ज्वर अनेक प्रकारके काढे अनेक प्रकारके लेप तथा लघु भोजन करके शांति नहीं होता इस वास्ते उस रोगीको वैद्यके संमतिसे घृतपान करावे ॥

वाताधिकविषमज्वर।

विषमज्वरनाशायचिकित्सावक्ष्यतेधुना॥
वातप्रधानंसर्पिर्भिर्वस्तिभिःसानुवासनैः॥

**अर्थ–**विषमज्वरके नाशार्थ चिकित्सा कहते हैं वातप्रधान विषमज्वरको वृत पान अथवा अनुवासन बस्ति करके जीते ॥

पित्ताधिकविषमकीचिकित्सा।

विरेचनंचपयसासर्पिपासंस्कृतेनच ॥

विषमंतिक्तशीतैश्चज्वरंपित्तोत्तरंजयेत् ॥

**अर्थ–**पित्ताधिक विषमज्वरको ओंटे हुए दूधमें धृत मिलायके रेचनार्थ देवे तथा कटुशीतल ऐसे उपचारों करके जाते है ॥

कफाधिकविषमचिकित्सा।

वमनंपाचनंरुक्षमन्नपानंचलंघनं ॥
कषायोष्णंचविषमेज्वरेशस्तंकफोत्तरे ॥

**अर्थ–**कफाधिक विषमज्वरमें वमन, पाचन तथा रूक्ष ऐसे अन्न तथा पान लंघन, तथा कषेले और गरम ऐसे औषध इत्यादि उपचार करावे ॥

मार्कंड्यादिपाचन ।

मार्कंडीवालपथ्याचमृद्धीकास्थूलजीरकं ॥
पाचनंस्मृतमेतेपांदेयंचविषमज्वरे ॥

**अर्थ–**आहुली, छोटी हरड, कालीदाख और कलौंजी, इनका काढाविषम ज्वरमे पाचनार्थ देवे ॥

महौषधादिपाचन ।

महौषधाग्रंथिकतालपर्णीमार्कंडिकारग्वधवालपथ्या॥
सक्षारमेपांविषमज्वरेच हितंशृतंपाचनरेचनंच ॥

**अर्थ–**सोंठ, पीपरामूल, वडीसौंफ, आहुली, किरवारेकी गिरी, और छोटी हरड हुनका काढा सैंधानिमक डालकै पिवावेयह विषमज्वरमें पाचन और रेचन है॥

पाचनवरेचन।

नलिकावालपथ्यानांचूर्णंचसितयासह ॥
पाचनंरेचनंचोष्णसलिलैश्चगुर्डेःसमं ॥

**अर्थ–**नलिका (यवारी ) और छोटोहरड इनका चूर्ण मिश्री अयवा गुडमिलाय गरमकर पानीकेसाथ देय यह पाचक और रेचकहै ॥

द्राक्षादिपाचन।

गोस्तनीत्रिफलाविश्वधान्यकैः पाचनंमतं ॥
द्रावकंभेषजतमंयोजयेत्सर्वकर्मणि॥

**अर्थ–**कालीदाख, त्रिफला, सोंठ और धनिया, इनकाकाढा पाचन और द्रावक ऐसा है यह ओषधसर्व कामोंमें देना चाहिये।

कुमारिमूलादिवमन।

कुमारिमूलंकर्पैकंपीत्वाकोष्णजलैर्वमेत् ॥
विषमंतुज्वरंहंतिवमनेनचिरंतनं॥

**अर्थ–**धीगुवारका कंद १० मासे लेकर गरम जलसे देय और वमन करे तो पुराना विषमज्वर दूर हो ॥

पटोलादिकाढा।

पटोलयष्टीमधुतिक्तरोहिणीधनाभयाभिर्विषमज्वरघ्नम् ॥
कृतः कषायस्त्रिफलामृतावृषैः पृथक्पृथग्वाविषमज्वरापहः॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, मुलहटी, चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, और हरड़ इनका अथवा त्रिफला, गिलोय, अडूसा, इनका काढा विषमज्वर नाशकरे ये दानों काढोको एकत्र कर देवे अथवा पृथक२ देवे ॥

यष्ट्यादिकाढा।

यष्टीदुरालभावासात्रिफलावालकामृता ॥
मुस्ताक्वाथः सितायुक्तोविषमज्वरनाशनः॥

**अर्थ–**मुलहटी, धमासा, अडूसा, त्रिफला, नेत्रवाला, गिलोय और नागरमोथा, इनका काढामिश्री मिलायके देवे तो विषमज्वर दूर हो ।

मुस्तादिकाढा।

मुस्ताक्षुद्रामृतागुंठीधात्रीक्वाथः समाक्षिकः॥
पिप्पलीचूर्णसंयुक्तोविषमज्वरनाशनः॥

**अर्थ–**नागरमोथा, कटेरीका पंचांग, गिलोय, सोंठ, आमले इनके काढेमे शहत और पीपलका चूर्ण मिलायकै पीवे तो विषमज्वर दूर हो ॥

महाबलादिकाढा।

महाबलामूलमहोषधाभ्यांक्वाथोनिहन्याद्विषमज्वरंहि ॥

शीतंसकंपंपरिदाहयुक्तविनाशयेद् द्वित्रिदिनप्रयोगात् ॥

**अर्थ–**सहदेईकीजड, और सोंठ, इनका काढाशीत, कंप और दाह इन करके युक्त ऐसे विषमज्वरंपर दो अथवा तीन दिन लेनेसे ज्वरनाश होय ॥

नागरादिदूसराकाढा ।

सनागरायाःसपयोधरायाः ससिंहिकायाःसगुडूचिकायाः ॥

धात्र्याः कपायोमधुनाविमिश्रःकणाविमिश्रोविषमज्वरघ्नः ॥

**अर्थ–**सोंठ, नागरमोथा, कटेरीका पंचांग, गिलोय और आमले इन औषधोंका काढा शहत और पीपलका चूर्ण मिलायके देवेतोविषमज्वरका नाश करे॥

पटोलादिकाढा।

स्वकांतिजितरोचनेचपललोचनेमालतिप्रसूननिकरस्फुरत्कबरिपंचवनोक्रोदरि ॥ पटोलकटुरोहिणीमधुकचेतकीमुस्तकप्रकल्पितकपायकोविषममाशुजेजीयते ॥

**अर्थ–**हे स्वकांतिजितरोचने ! हे चपललोचने ! पटोलपत्र, कुटकी, मुलहटी, हरड और नागरमोथा इनका काढा करके देनेसे विषमज्वरको शीघ्र दूर करे ॥

कुलकादिकाढा ।

किमुभ्रमयसिप्रियेकुवलयंकराभ्यामिदंमदीयवचनंसुधारससमंसमाकर्णय ॥ पुराणपिषमज्वरेकुलकनिंबसिंहींद्रजामृताकृतकपायकोमधुयुतोवरीवर्तति॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, नीमकीछाल, कटेरीका पंचांग, इन्द्रजौऔर गिलोय इनका काढा करके शहत डालके लेयतो पुराना विषमज्वर नाश होय ॥

भांर्ग्यादिकाढा।

भांर्गीपर्पटविश्ववासककणाभूनिंबनिंबामृतामुस्ताधन्वकभेषजैश्चदशभिर्निघ्नंतिसर्वज्वरान्॥ जीर्णान्धातुगतांस्तथाचविषमान्सोपद्रवान्दारुणान्क्वाथोयंयदियुग्मवासरमिदंदद्याद्यमाद्रक्षिता॥

**अर्थ–**भारंगी, पित्तपापडा, सोंठ, अडूसा, पीपल, चिरायता, निमकीछाल, गिलोय, नागरमोथा और धमासा इनका कढा जीर्णज्वर धातुगतज्वर उपद्रवसहित विषमज्वर तथा सर्वज्वर इनको नाश करे यह दो दिन सेवन करनेसे यमराज सेभी वचजावे ॥

भार्ग्यांदिकाढा

भांर्ग्यब्दपर्पटकधन्वयवासविश्वभूनिंबकुष्ठककणासिंह्यमृताकपायः॥

जीर्णज्वरंसततसंततकौनिहन्यादन्येद्युकंसहतृतीयचतुर्थकंच ॥

**अर्थ–**भारंगी, नागरमोथा, पित्तपापडा, धमासा, सोंठ, चिरायता, कूठ, पीपल, कटेरी, और गिलोय, इनका काढा जीर्णज्वर, संततज्वर, अन्येद्युष्क ज्वर, तृतीय ज्वर, और चातुर्थिक इनका नाश करे ॥

निशाद्यंजन ।

ज्वरेंजनंनिशातैलकृष्णामरिचसैंधवैः॥

**अर्थ–**हलदी, तिलका तेल, पीपल, कालीमिरच और सैंधानिमक इनका अंजन विषमज्वरको दूर करे ॥

नरकेशनस्य।

नरकेशोत्थितेतैलेकाकचंचुंविघर्पयेत् ॥
नस्यंसर्वज्वरहरंनात्रकार्याविचारणा ॥

**अर्थ–**मनुष्यके वालोंके तेलमें कौएकीचोंच घिसके नस्य देवे तो ज्वर नाशहोय इसमें संदेह नहीं है ॥

कणादिनस्य ।

कृष्णामलकसरामठदार्वीवचाराजसर्षपरसोनैः॥
छागमूत्रमृष्टैर्नस्यंचैकाहिकादिहरं ॥

**अर्थ–**पीपल, आमले, हींग, दारुहलदी, वच, सपेदसरसो, और लहसन इन औषधोंको बकरके मूत्रमें पीसकर नस्य देय तो ऐकाहिकादि विषमज्वर नाश होय ॥

सैंधवादिअंजन।

सैंधवंपिप्पलीनांचतंडुलाः समनःशिलाः॥
नेत्रांजनंतैलपिष्टंशस्यतेविषमज्वरे॥

**अर्थ–**सैंधानिमक, पीपलकेबीज, और मनसिल इनको तेलमें पीस नेत्रोंमें लगावे तो विषमज्वर दूर होय ॥

लशुनादिअंजन।

लशुनंपिप्पलीराजीवचाकुष्ठंसमांशतः॥

एतच्चूर्णंजलेपिष्टंचक्षुष्यंज्वरनाशनं ॥

**अर्थ–**लहसन, पीपल, राई, वच और कूठ इनका समान भाग चूर्ण पानीमें पीस अंजन करनेसे विषमज्वर नष्ट होय॥

चतुःषष्टिककाढा।

शृंगीरामठरामसेनरजनीरुक्रेणुकारोहिणीरास्नैरंडरसोनदारुरजनीराजद्गुराजीफलैः ॥ त्रायंतीत्रिवृताहुताशनलतानंतामृतामुद्रितादंतीतुंवरुचित्रतंडुलत्रुटित्वक्तिक्तनक्तंचरैः ॥ वासावत्सकबीजवासवसुराबल्यावरीवेल्लजंब्रह्मीब्राह्मणयष्टिवारणकणाविश्वावयस्थावृषैः ॥ मूर्वामालविकासमूलमगधामुस्ताजमोदाद्वयैर्मिश्रेयागरुचंदनेंद्रचविकास्फोटाचाकट्फलैः ॥ इत्येतैर्दशमूलयुङ्निगदितः क्वाथश्चतुषष्टिकः शृंग्यादिर्मदनागसिंहभिषजासर्वामयोन्मूलने ॥ पुंसामष्टविधज्वरार्तिशमनेवाताग्नि- संधुक्षणेसर्वांगेचसमीरणद्विपघटेशार्दूलविक्रीडितम् ॥

**अर्थ–**काकडासिंगी, हींग, कायफल, हलदी, कूठ, रेणुका, कुटकी, रास्ना, अंडकी जड, हलसन, दारुहलदी, अमलतालका गूदा, पटोलपत्र, त्रायमाण, निसोथ, चित्रक, मूर्वा, धमासा, गिलोय, खरेटी, दंती, तुंवरु, वायविडंग, छोटी इलायचीके बीज, दालचीनी, चिरायता, गूगल, अडूसा, इन्द्रजौकालीमूंग, क्षीरकाकोली, बला, शतावर, मिरच, बह्मी, भारंगी, गजपीपल, सोंठ, हरड, कालसे, मूर्वा, काली निसोथ, पीपरामूल, नागरमोथा, अजमोद, अजमायन, सौंफ, कालीअगर, लालचंदन, कूडेको छाल, चव्य, सारिवासपेद, वच, कायफल, और दशमूल, इनको एकत्रित करे, यह चतुःषष्टिक काढाहै इसको शृंगादि अथवा मदनादि कहते हैं,यह रोगरूपी हाथीको मारनेमें सिंहके समान है यह आठ प्रकारकी ज्वर पीडाका शामक है और अग्निको बढाने वाला तथा सर्व वातके रोगोंको नाश कर्ता है ॥

निंबादिचूर्ण।

भूनिंबपथ्याघनकंटकारीत्रायंतिकानागरयासतिक्तः ॥वाट्यालकर्चूरकणापटोलीक्षुद्राजलग्रंथिकपर्पटाश्च ॥ एपांततोपोडशकांगचूर्णंज्वरान्समस्तान्विषमान्निहति ॥

**अर्थ–**चिरायता, हरड, नागरमोथा, कटेरी, त्रायमाण, सोंठ, कुटकी, कटेरी, कचूर, पीपल, पटोलपत्र, छोटी कटेरी, नेत्रवाला, पीपरामूल, और पित्तपापडा, इन सोलह औषधोंका चूर्ण सर्व विषमज्वरोंको नाश करे ॥

जीरकादिचूर्ण।

कालाजाजीतुसगुडाविषमज्वरनाशिनी ॥
मधुनाचाभयालीढाहंत्याशुविषमज्वरं ॥

**अर्थ–**कालेजीरेका चूर्ण गुडके साथ अथवा छोटी हरडका चूर्ण शहतके साथ, खानेसे विषमज्वर नाश होय ॥

तुलसी व द्रोणपुष्पीस्वरस।

पीतोमरीचचूर्णेनतुलसीपत्रजोरसः॥
द्रोणपुष्पीभवोवापिनिहंतिविषमज्वरान् ॥

**अर्थ–**तुलसीके पत्तोंके रसमें काली मिरचका चूर्ण मिलायके अथवा गोमाके रसमें काली मिरचका चूर्ण मिलायके पीवे तो विषमज्वर दूर होय ॥

कुमारीमूलकादियोग।

कुमारिमूलंकर्पैकंपीत्वाकोष्णजलैर्वमेत् ॥
विषमंतुज्वरंहंतिवातश्लेष्मगदानपि ॥

**अर्थ–**धीगुवारकीजड तोले भरलेकर गरम जलसे देय तो वमन होकर विषमज्वरवातरोग इनका नाश होय ॥

वर्धमानपीपल।

क्षीरेणपंचवृद्ध्यावादुग्धान्नाशीकणांपिबेत् ॥ यावत्पूर्णंशतंतत्स्यात्तांतथैवापकर्षयेत् ॥ वातास्रस्तापपांड्वर्शोगुल्मशोफोदुरापहं ॥ विषमेपुजतदृष्यंपिप्पलीवर्धमानकम् ॥

**अर्थ–**दूधसे पांच पांचकी वृद्धि करके पीपल पीसके पिबावे, इस प्रकार सो पीपल पर्यंत करे फिर उसी पांच पांचके क्रमसे घटाता हुआ चला आवे, और दूधभात भोजनको देवे तो वातरक्त, दाह, पांडु, बवासीर, गोला, सूजन उदर और विषमज्वर इनका नाश होय, ये वृष्य है इसको वर्द्धमान पीपल कहते हैं ॥

गुडजीरकयोग।

जीरकंगुडंसंयुक्तविषमज्वरनाशनं ॥
अग्निमांद्यंजयच्छीतंवातरोगहरंपरं॥

**अर्थ–**जीरा गुडकेसाथ खानेसे विषमज्वर मंदाग्नि, शीत और वातके रोग को दूर करे ॥

हरडादिकोंकाचूर्ण।

भवतिविषमहंत्रीचेतकीक्षौद्रयुक्ताभवतिविषमहंत्रीपिप्पलीवर्धमाना ॥ विपरुजमजाजीहंतियुक्तागुडेनप्रशमयतितथाग्य्रासेव्यमानागुडेन ॥

**अर्थ–**छोटी हरडका चूर्ण शहतसे चाटे, अथवा जीरा और गुड मिलायके खाय, एवं त्रिफलेका चूर्ण गुडमें मिलापके खाय ए चारयोग पृथक्२विषमज्वर नाशक जानने ॥

वंदाकयोग।

वंदाकंविषजातंचतक्रेणविषमज्वरे ॥
सर्पिपादधिमंडेनहिंगुनाचप्रयोजितं॥

**अर्थ–**विषवृक्षके ऊपरका वांदा छाछ, घृत, दहीकामांढ, अथवा हींगसे सेवन करे तो विषमज्वर दूर हो॥

निंबादिचूर्ण।

निंबच्छदोदशपलंत्र्यूपणंचपलत्रयं ॥ त्रिपलंत्रिफलाचैवत्रिपलंलवणत्रयं॥ द्वौक्षारौद्विपलंचैवयवानीपलपंचकं ॥ सर्वमेकीकृतंचूर्णंप्रत्यूपंभक्षयेन्नरः॥एकाहिकंद्व्याहिकंचतथात्रिदिवसंज्वरं ॥ चातुर्थिकंमहाघोरंशमयेत्सततज्वरं ॥

**अर्थ–**नीमको पत्ती ४०तोले, सोंठ, मिरच, पीपल, १२ तोले, त्रिफला १२ तोले, तीनों नोन १२ तोले, दोनो क्षार ८ तोले और अजमायन २० तोले इन सबका चूर्ण कर प्रतःकालमें देवे तो इकतरा, संतत, तिजारी चौथेया और सतत ज्यरको शांति करे ॥

भुंगराजचूर्ण ।

समूलंभंगराजंचछायाशुष्कंविचूर्णयेत् ॥ तत्समंत्रिफलाचूर्णं सर्वतुल्यासिताभवेत् ॥ एकीकृत्यपलैकैकंभक्षयेच्चानुपानतः ॥ अग्निमांद्यंचविट्बंधपाडुतांहरतेध्रुवं ॥

**अर्थ–**जडसुद्धा भांगरेको छायामें सुखाय उसका वर्ण और इतनाही त्रिफलेका चूर्ण तथा सबकी बराबर मिश्री मिलायके इसमेंसे ४तोले योग्य अनुपानके साथ देवे तो मंदाग्नि, विट्बंध, और पांडुरोग इनको हरण करे॥

दीप्यादिचूर्ण ।

दीप्याजयारामठवह्निविश्वाक्षारद्वयंजीरकयुग्मकृष्णा ॥

फलत्रयंसंचलसैंधवंच कृतंहिचूर्णंविषमज्वरघ्नं ॥

**अर्थ–**अजमोद, हरड, हींग, चित्रक, सोंठ, जवाखार, सज्जीखार, काला जीरा, पीपल, त्रिफला, संचरनोन, और सैंधानोन इनका चूर्ण विषमज्वर नाशक है।

पंचसार।

सर्पिः क्षौद्रंसिताक्षीरंपिप्पल्यः सितशर्करा ॥
पिबेत्सजेनमथितंपंचसारमिदंस्मृतम् ॥
विषमज्वरहृद्रोगकासश्वासक्षयापहं॥

**अर्थ–**घृत, सहत, पीपल, दूध, सपेद खांड इन पांचोंको एकत्र मिलायके पीबेतो यह पंचसार विषमज्वर, हृद्रोग, खांसी, श्वास, और क्षय इनको दूर करें॥

पद्मकादिसार।

पद्मकंबिल्वजंपेयंसर्पियामथितेनवा ॥
विषमज्वरनाशायक्षीरंवागोमयान्वितं ॥

**अर्थ–**पद्माख, वेलगिरी इनके चूर्णको घृत अथवा मट्ठा इनमें मिलायके पीवेतो विषमज्वर दूर होय ॥

लशुनादिकल्क।

तिलतैललवणयुक्तःकल्कोलशुनस्यसेवितःप्रातः ॥
विषमज्वरमपहरतेवातव्याधीनशेषांश्च ॥

**अर्थ–**लहसनके कल्कमें तिलकातेल और निमक मिलायके प्रातःकाल सेवन करे तो पिषमज्वर, और संपूर्ण वातव्याधियोंको हरण करे ॥

गुडूचीकल्क।

अमृतायाःशृतंचूर्णंवाससापरिशोधितं ॥ पृथक्पोडशभागाः स्युर्गुडमाक्षिकसर्पिपां॥ यथाग्निभक्षयेदेतन्नरोहितमिताशनः॥ नास्यकश्चिद्भवेद्व्याधिर्नजरापलितंनच ॥ नज्वराविषमानैवमेहाश्चानिलरक्तकं ॥ नचनेत्रगतारोगाः परमेतद्रसायनं ॥ मेधाकरंत्रिदोषघ्नंप्रयोगादस्यबुद्धिमान् ॥ जीवेदर्पशतंसाग्रं यथैवादितिजस्तथा॥

**अर्थ–**गिलोयका चूर्ण कपडछान १०० तोले तया गुड, शहत, घी ये प्रत्येक सोलह २ तोले लेकर मिलावे, इसको अग्निकाबल देखकर भक्षण करे तथा हितकारी और परिमाणका ऐसा अन्न भक्षण करें तो किसीप्रकारकी व्याधि तथा वृद्धावस्था बालोंकी संपेदी, ज्वर, विषमज्वर, प्रमेह, वातरक्त,और नेत्ररोग कदाचित् नहीं हो, यह उत्कृष्ट रसायन बुद्धि देनेवाली त्रिदोष नाशक है, इसके सेवनसे मनुष्य १०० वर्षनीवे तथा देवताओंके समान वली होय ॥

विषमपरमहाज्वरांकुशरस।

शुद्धसूतंविषंगंधंधूर्तबीजत्रिभिःसमं ॥ चतुर्णंद्विगुणंव्योपंचूर्णंगुंजाद्वयंहितं ॥ जंबीरकस्यमज्जाभिरार्द्रकस्यद्रवैर्युतं ॥ महाज्वरांकुशोनामज्वराणामंतकोभवेत् ॥ ऐकाहिकंद्व्याहिकंवात्र्याहिकंवाचतुर्थकं॥ विषमंवात्रिदोषोत्थंनाशयेद्याममात्रतः॥

**अर्थ–**शुद्धपारा, विष, गंधक, सब समान भाग लेय और इन तीनोंकेबराबर धतूरेके बीज ले और सबसे दूनी सोंठ, मिरच और पीपलका चूर्ण ले इन सबको नींबू और अदरखके रसमें खरलकर दो रत्तीकीगोली बनावे यह महाज्वरांकुश सर्वज्वरोंको कालरूप है और एकाहिक, द्व्याहिक, त्र्याहिक, चातुर्थिकक, विषम अथवा संनिपातज्वर, इनको एक प्रहरमें नाश करे॥

दसरारस।

रसस्यद्विगुणोगंधोगंधतुल्यश्चटंकणः ॥ रसतुल्यंविषंयोज्यं मरीचंपंचधाभिषक् ॥ कट्फलंदंतिबीजंचक्षिणोतिज्वरमुत्कटं ॥ क्वचिद्रात्रौदिवाक्वापिद्वितीयंत्र्याहिकंक्वचित् ॥ चलचातुर्थिकंचापिविषमज्वरलक्षणं ॥

**अर्थ–**पारा १ भाग, गंधक २ भाग, सुहागा २ भाग, विष १ भाग काली मिरच ५ भाग और कायफल तथा जमालगोटा एक एक भाग सबका चूर्ण कर अदरखके रसमे गोली बनाय ले इसके सेवन करनेसे दिन रात्रिमें आनेवाला ज्वर द्व्याहिक, त्र्याहिक, चलज्वर और चातुर्थिक ज्वर ऐसे विषमज्वरोंको शांत करे ॥

मेघनादरस।

आरंकांस्यंमृतंताम्रांत्रिभिस्तुल्यंतुगंधकं॥ क्वाथेनमेघनादस्य पिष्ट्वारुध्वापुटेपचेत् ॥ पड्भिस्तुजायतेसिद्धोमेघनादोमहारसः॥ पर्णखंडेनमापैकोविषमज्वरनाशनः॥

**अर्थ–**लोहा, काँसा और तामा इनकी भस्म बराबर लेवे सबकी बराबर गंधक लेय, सबको खरलमें डाल चौलाई के रसमे खरलकर संपुटमे फूक देवे इस प्रकार छ पुट चौलाईके देवे तो यह मेघनाद महारस सिद्ध होवे एक मासा पानके टुकडेमें खाय तो विषमज्वर दूर होये ॥

गोपीड्यादिधृत।

गोपीड्यामलकीस्थिरामगधजातिक्तापयःपालिनी द्राक्षाश्रीफलधावनीहिमविषामुस्तेंद्रजैः साधितं ॥ स्यादाज्यंविषमज्वरक्षयशिरः पार्श्वव्यव्यथारोचकच्छर्दीशोपहलीमक- प्रशमनंलीलालतामंजरी॥

**अर्थ–**सारिवा, भूयआमला, आमला, सालपर्णी, पीपल, कुटकी, नेत्रवाला, मुनक्का, दाख, बेलगिरी, चंदन, लालचंदन, अतीस, नागरमोथा और इन्द्रजौइनका काढा कर उसमे घृत मिलाय घृतको सिद्ध करे इसके पीनेसे विषमज्वर, क्षय, मस्तकशूल, पँसवाडेकीपीडा, अरुचि, वमन, शोप, हलीमक, इनको तत्काल शांत करे ॥

पंचतिक्तकघृत।

वृषनिंबामृताव्याघ्रीपटोलानांश्रितेनच ॥
कल्केनपक्वंसर्पिस्तु निहन्याद्विषमज्वरान्॥
पांडुंकुष्ठंविसर्पंचकृमीनर्शांसिनाशयेत् ॥

अर्थ– अडूसा, नीमकी छाल, गिलोय, कटेरी, पटोलपत्र इनको कल्ककी विधिसे पक्ककर पीवे तो विषमज्वर, पांडुरोग, कोढ, विसर्प, कृमि और ववासीर इनको दूर करे ॥

षट्पलघृतम्।

शुंठीकणाचित्रकंचचव्यंग्रथिकमेवच ॥ कुर्यात्पंचपलान्भागाने कैकस्यचकुट्टितान्॥जलद्रोणेविपक्तव्यंयावत्पादावशेषितं ॥ एतैस्तुपलिकःकल्कैःसैंधवेनसमन्वितैः॥ षट्पलंनामविख्यातं विषमज्वरनाशनं॥ कासश्वासातिदौर्बल्यंप्रतिश्यायित्वमेवच ॥ प्लीहोर्ध्ववातश्वयथुपांडुरोगांश्चनाशयेत् ॥

**अर्थ–**सोंठ, पीपल, चित्रक, चव्य और पीपरामूल, इनको २० बीस तोले लेय, सबको कूटपीस १०२४ तोले जल डाल चतुर्थांश शेष काढा करे, फिर इसकाढेका जल और सेधानिमक डालके घृत तयार करावे यह षट्पल घृत विषमज्वर, कास, श्वास,दुर्बलता, पीनस, प्लीहा, ऊर्ध्ववात, सूजन और पांडुरोग इनको नाश करे ॥

क्षीरषट्पलघृत ।

पंचकोलैःससिंधूत्थैःपालिकैः पयसासमं॥
सर्पिः प्रस्थंघृतंप्लीहविषमज्वरनाशनं ॥

**अर्थ–**पीपल, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, तथा सैधानिमक ये सब औषध चार तोले ले, कूटके काढाकरे तथा काढेके बराबर दूध और घी सेरभर डालके पचावे जब सिद्ध हो जाय तब उतारके धर रक्खे इसके सेवन करनेसे प्लीह और विषमज्वर दूर होय ॥

दूसराप्रकार।

दशमूलरसेसर्पिः सक्षीरेपंचकोलकैः ॥
पक्वंनिहंतिसत्पीतंज्वरकासाग्निमार्दवं ॥
वातपित्तज्वरव्याधिंप्लीहानंचापिपांडुतां ॥

**अर्थ–**दशमूल, और पंचकोल इनका काढा कर उसमें काढेके समान दूध तथा घी डालके सिद्धकरे, इसके सेवन करनेसे ज्वर, खांसी, मंदाग्नि, वातपित्तज्वर, प्लीहा और पांडुरोग इनको नाश करे ॥

टं ॥ क्वचिद्रात्रौदिवाक्वापिद्वितीयंत्र्याहिकंक्वचित् ॥चलचातुर्थिकंचापिविषमज्वरलक्षणं ॥

**अर्थ–**पारा १ भाग, गंधक २ भाग, सुहागा २ भाग, विष १ भाग काली मिरच ५ भाग और कायफल तथा जमालगोटा एक एक भाग सबका चूर्ण कर अदरखकेरसमें गोली बनाय ले इसके सेवन करनेसे दिन रात्रिमें आनेबाला ज्वर द्व्याहिक, त्र्याहिक, चलज्वर और चातुर्थिक ज्वर ऐसे विषमज्वरोंको शांत करे ॥

मेघनादरस।

आरंकांस्यंमृतंताम्रांत्रिभिस्तुल्यंतुगंधकं ॥ क्वाथेनमेघनादस्य पिष्ट्वारुध्वापुटेपचेत् ॥ षभिस्तुजायतेसिद्धोमेघनादोमहारसः॥ पर्णखंडेनमापैकोविषमज्वरनाशनः॥

**अर्थ–**लोहा, काँसा और तामा इनकी भस्म बराबर लेवे सबकी बराबर गंधक लेय, सबको खरलमें डाल चौलाईके रसमें खरलकर संपुटमें फूंक देवे इस प्रकार छःपुट चौलाईके देवे तो यह मेघनाद महारस सिद्ध होवे एक मासा पानके टुकडेमें खाय तो विषमज्वर दूर होवे ॥

गोपीड्यादिघृत।

गोपीड्यामलकीस्थिरामगधजातिक्तापयःपालिनी द्राक्षाश्रीफलधावनीहिंमविषामुस्तेंद्रजैःसाधितं ॥ स्यादाज्यंविषमज्वरक्षयशिरःपार्श्वव्यथारोचकच्छर्दीशोपहंलीमकप्रशमनंलीलालतामंजरी॥

**अर्थ–**सारिवा, भूयआमला, आमला, सालपर्णी, पीपल, कुटकी, नेत्रवाला, मुनक्का, दाख, बेलगिरी, चंदन, लालचंदन, अतीस, नागरमोथा और इन्द्रजौइनका काढा कर उसमे घृत मिलाय घृतको सिद्ध करे इसके पीनेसे विषमज्वर, क्षय, मस्तकमूल, पँसवाडेकी पीडा, अरुचि, वमन, शोप, हलीमक, इनको तत्काल शांत करे॥

पंचतिक्तकघृत।

वृषनिंबामृताव्याघ्रीपटोलानांश्रितेनच ॥
कल्केनपक्वंसर्पिस्तु निहन्याद्विषमज्वरान् ॥
पांडुंकुष्ठंविसर्पंचकृमीनर्शांसिनाशयेत्॥

**अर्थ–**अडूसा, नीमकी छाल, गिलोय, कटेरी, पटोलपत्र इनको कल्ककी विधिसे पक्वकर पीवे तो विषमज्वर, पांडुरोग, कोढ, विसर्प, कृमि और बवासीर इनको दूर करे ॥

पट्पलघृतम्।

शुंठीकणाचित्रकंचचव्यंग्रंथिकमेवच ॥ कुर्यात्पंचपलान्भागाने कैकस्यचकुट्टितान्॥जलद्रोणेविपक्तव्यंयावत्पादावशेषितं ॥ एतैस्तुपलिकःकल्कैः सैंधवेनसमन्वितैः॥ पट्पलंनामविख्यातं विषमज्वरनाशनं ॥ कासश्वासातिदौर्बल्यंप्रतिश्यायित्वमेवच ॥ प्लीहोर्ध्वावातश्वयथुपांडुरोगांश्चनाशयेत् ॥

**अर्थ–**सोंठ, पीपल, चित्रक, चव्य और पीपरामूल, इनको २० बीस तोले लेय, सबको कूटपीस १०२४ तोले जल डाल चतुर्थांश शेष काढा करे, फिर इसकाढेका जल और सेधानिमक डालके घृत तयार करावे यह पट्पल घृत विषमज्वर, कास, श्वासः दुर्बलता, पीनस, प्लीहा, ऊर्ध्ववात, सूजन और पांडुरोग इनको नाश करे ॥

क्षीरपट्पलघृत ।

पंचकोलैःससिंधूत्यैःपालिकैः पयसासमं ॥
सर्पिप्रस्थंघृतंप्लीहविषमज्वरनाशनं ॥

**अर्थ–**पीपल, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, तथा सेंधानिमक ये सब ओषध चार तोले ले, कूटके काढाकरे तथा काढेके बराबर दूध और घी सेरभर डालके पचावे जव सिद्ध हो जाय तब उतारके घर रक्खें इसके सेवन करनेसे प्लीह और विषमज्वर दूर होय ॥

दूसराप्रकार।

दशमूलरसेसर्पिः सक्षीरेपंचकोलकैः॥
पक्वंनिहंतिसत्पीतंज्वरकासाग्निमार्दवं॥
वातपित्तज्वरव्याधिंप्लीहानंचापिपांडुतां ॥

**अर्थ–**दशमूल, और पंचकोल इनका काढा कर उसमें काढेके समान दूध तथा घी डालके सिद्धकरे, इसके सेवन करने से ज्वर, खांसी, मंदाग्नि, वातपित्तज्वर, प्लीहा और पांडुरोग इनको नाश करे ॥

अमृताद्यघृत ।

अमृतात्रिफलापटोलयासैः संपक्वंविधिवद्धृतेविपक्वं॥ विषमज्वरनाशनंप्रधानंक्षयगुल्मारुचिकामलापहारि॥

**अर्थ–**गिलोय, त्रिफला, पटोलपत्र और धमासा, इनका काढा और घृत डालके पचावे, जब घृत सिद्ध हो जावे तब उतारले इसके सेवन करनेसे विषमज्वर, क्षय, गोला, अरुचि और कामला इनको दूर करे ॥

शुंठ्यादिघृत।

शुंठीकणाग्रंथिकचव्यवह्निक्षाराःपृथक्त्वेकपलप्रमाणाः॥ प्रस्थंघृतंनागरवारिमस्तुप्रस्थद्वयंतद्विपचेत्कषाये ॥ संसिद्धमाज्यंविषमज्वरेपुजीर्णज्वरेवर्षभवेपिशस्तं ॥

**अर्थ–**सोंठ, पीपर, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, जवाखार, प्रत्येक चार २ तोले लेवे इनका काढा करके इस काढेमें सेरभर घीऔर अदरखका रस तथा दहीका जल दोसेर मिलाके फिर अग्निपर चढायके घृत सिद्धकर यह विषमज्वर, जीर्णज्वर, एक वर्षका ज्वर इनको नष्ट करे ॥

चंदनाद्यवृत।

चंदनंचित्रकंसिंहीवत्सकंमुस्तनागरैः॥
कटुकात्रायमाणाच धात्र्यूशीरेद्विसारिवे॥
द्रव्यार्धपलमात्राणिसौम्यवारेपुसंहरेत् ॥
क्षीराढकसमायुक्तांसर्पिपोर्धतुलांपचेत् ॥
चातुर्थिकंहरेत्पीतं उन्मादंविषमज्वरं ॥
त्र्याहिकंश्वासकासौचसर्वापस्मारमेवच ॥

**अर्थ–**चंदन, चित्रक, कटेरीकी जड, इन्द्रजौ, नागरमोथा, सोंठ, कुटकी, त्रायमाण, आमले, नेत्रवाला, तथा दोनों प्रकारकी सारिवा इन औषधोंका काढा करके उसमें दूध चार सेर घृत सेरभर डालके सिद्ध करे जब घृतमात्र बाकी रहे तब उतार लेवे यह चातुर्थिक, उन्माद, विषमज्वर, श्वास, खाँसी, और मृगीरोगको नाश करे, इसको चंदनादि घृत कहते हैं ॥

महाकल्याणघृत।

एतदेवहविःपक्वंजीवनीयोपसंमृतं ॥ द्विपंचमूलक्वाथेनशतावर्यारसेनच ॥ चतुर्गुणेनपयसामहाकल्याणमिष्यते ॥ अपस्मारज्वरंशोषंक्लैव्यंकाश्मर्यबीजतः ॥ घृतमेतन्निहंत्याशुयेचापिविषमज्वराः ॥ जीवनीयगणत्वेनकाकोल्यादिगणग्रहः ॥ महाकल्याणकेकार्योघृतेतुदशकार्षिकः॥

**अर्थ–**अब महाकल्याण घृतको कहते हैं–कल्याण इतकी औषध और जीवनीय गण दशतोले, काकोल्यादिगण १० तोले, तथा दशमूल, इन औषधोंका काढा लेकर उसमें शतावरका रस डालके सबसे चौगुणा दूध डाले और सेर मात्र घृत डालके सिद्धकरे इस घृतके सेवन करनेसे मृगी, ज्वर, तृषा, इनको नष्ट करे तथा कंभारीके फलका चूर्ण डालके लेयतो नपुंसकता और विषमज्वर इनका नाश करे॥

कल्याणघृत।

विडंगमुस्तत्रिफलामंजिष्ठादाडिमोत्पलैः ॥ श्यामैलवालुकैलानिचंदनागरुदारुभिः ॥ वर्हिष्ठकुष्ठरजनीपर्णिनीसारिवाह्वयैः॥ हरेणुत्रिवृतादंतीवचातालीसपत्रकैः॥ बलाविशालाबृहतीमालतीपृष्टिपर्णिभिः ॥ एतैश्चकार्षिकैः कल्कैर्घृतप्रस्थंविपाचयेत्॥ चतुर्गुणेनपयसाद्विगुणेनजलेनच॥ एतत्कल्याणकंनामसर्पिःपक्वंत्रिदोषनुत् ॥ विषमज्वरश्वासकासगुल्मोन्मादज्वरापहम् ॥

**अर्थ–**अव कल्याण घृत कहते हैं. वायविडंग, नागरमोथा, त्रिफला, मँजीठ अनारदाना, नीलकमल, पीपल, नेत्रपाला, चंदन, काली अगर, देवदारु सुगंधवाला, फूल, हलदी, दोनों सारिवा, पित्तपापडा, निसोथ, दंती, वच, तालीसपत्र, खरेटी, इन्द्रायणकागूदा, घडीकटेरी, मालती, पृष्टपर्णी, ये प्रत्येक औषध तोले २ भरले इनका कल्ककर इसमें सेरभर घृत और चारसर दूध डाले. तथा दुगुना जल डालके सिद्ध करे जवघृत मात्र शेषरहे तब उतार लेवे इसकल्याण घृतके सेवन करनेसे त्रिदोष, विषमन्बर, श्वास, खाँसी, गोला, उन्माद और ज्वर इन रोगोंको नाश करे॥

कोलादिघृत।

कोलाग्निमंथत्रिफलाक्वाथोदध्नावृतैःपिबेत् ॥

तिल्वकाचूर्णमेतद्धिविषमज्वरनाशनम् ॥

**अर्थ–**बेर, अरनी और त्रिफला, इनके काढेमें दही और घृत तथा हिंगोटका चूर्ण डालके घृत सिद्ध करे यह विषमज्वरको दूर करता है ॥

अमृतषट्पलघृत।

नागरंचविकाक्षारः पिप्पलीमूलचित्रकं॥ कृष्णाचपलिकान्भा गान्घृतमस्थेविपाचयेत् ॥शृंगवेररसंप्रस्थंमधुप्रस्थंतथैवच ॥ एकाहिकंद्व्याहिकंचत्र्याहिकंचचतुर्थकं ॥ एतान्सर्वज्वरान्हंतिस्थूलंचकुरुतेभृशम् ॥ दुर्नामश्वासकासघ्नंबलवर्णाग्निवर्धनम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, चव्य, जवाखार, पीपरामूला चित्रक, पीपर, ये प्रत्येक औषध तोले २ लेकर काढा अथवा कल्ककरे, उसमें सेरभर घृत और सेरभर अदरखका रस तथा सेरभर शहत डालके सिद्ध करे जब घृतमात्र बाकी रहे तब उतारले इसके सेवन करनेसे एकाहिक, द्व्याहिक, त्र्याहिक, चातुर्थिक इत्यादि सर्वज्वरोंका नाशकरें और देहको स्थूल करे एवं बवासीर, श्वस, खांसीको नष्ट करे और बल वर्ण तथा अग्निको बढावे॥

घृतपान।

सर्पिर्दद्यात्कफेमंदेवातपित्तोत्तरेज्वरे॥
पक्वेपुदोषेष्वमृतंतद्विषोपममन्यथा ॥

**अर्थ–**मंदकफ और वातपित्तोल्बण ऐसे ज्वरवालेको घृत पान करावे, ये पक्वदोषोंमें अमृतके समान तथा अपक्वदोषों में विषके समान दुष्टगुण करता है॥

षट्तक्रतैल।

सुवर्चिकानागरकुष्टमूर्वलाक्षानिशालोहितयष्टिकाभिः॥ तैलं ज्वरेषड्गुणक्वाथसिद्ध- मभ्यंजनाच्छीतविदाहनुत्स्यात् ॥ दध्नासंसारकंतत्स्यात्षट्तक्रतैलमुत्तमम् ॥

**अर्थ–**षट्तक्र तेल कहते है–तैल १ भाग, तथा सज्जीखार सोंठ, कूठ,मूर्वा, लाख, हलदी और मँजीठ इनका काढा छः भाग तथा दही एक भाग लेकर तेल सिद्ध करे इस षट्तक्र तैलकी देहमे मालिस करनेसे दाहको शांत करे यह विषमज्वरपर आति उत्तम है॥

लाक्षादितैल।

पद्मकोत्पलकह्लारमृणालविषपैष्करैः ॥ कुमुदोशीरमंजिष्ठाग्रेयगैरिककट्फलैः ॥सारिवाद्वयलोध्राब्दक्षीरीखर्जूरमुस्तकैः ॥ धात्रीशतावरीयुक्तैःक्वाथकल्पैःप्रयोजितैः ॥ लाक्षारसपयस्तक्रमस्तुभिः सहकांजिकैः॥ पक्वंतैलमिदंत्वच्यंदाहज्वरहरंपरं ॥

**अर्थ–**पद्माख, फूठ, लालकमलका कंद, अतीस, पुहकरमूल, कमोदनी खस, मँजीठ, चित्रक, गेरू कायफल, दोनों सारिवा, लोध, मोथा, क्षीरकाकोलो, खजूर, नागरमोथा, आमले और सतावर, इनका काढा और कल्क, तथा लाखका सीरा, दहीका तोर और कांजी इन सबको मिलाय तेल सिद्ध करे ये त्वचाको हितकारक तथा दाह, पूर्वज्वरका नाशक है ॥

दूसराप्रकार।

लाक्षारसाढकेप्रस्थंतैलस्यविपचेद्भिषक् ॥ मस्त्वाठकसमायुक्तंपिष्ट्वाचात्रविनिःक्षिपेत् ॥ शतपुष्पांहरिद्रांचमूर्वांकुष्टंहरेणुकं ॥ कटुकंमधुकंरास्नाअश्वगंधाचदारुच ॥ मुस्तकंचंदनंचैवपृथगक्षंसमांशकैः ॥ द्रव्यैरेतैस्तुसंसिद्धमभ्यंगान्मारुतापहं ॥ विषमाख्यान्ज्वरान्सर्वानाश्वेवप्रशमंनयेत् ॥ कासंश्वासंप्रतिश्यायंकंडूंदौर्गंध्यमेववा ॥ त्रिकपृष्ठग्रहंशूलंगात्राणांकुट्टनंतथा ॥ पापालक्ष्मीप्रशमनंसर्वग्रहनिवारणं ॥ अश्विभ्यांनिर्मितंसम्यक्तैलंलाक्षादिकंत्विदं ॥

अर्थ– २५६ तोले लाखका काढा, ६४ तोले तेल, दहीका तोर २५६ तोले ये सब एकत्र कर उसमें सौफ, हलदी, मूर्वा, कुठ, पित्तपापडा, कुटकी, महुआके फूल, रास्ना, असगंध, देवदारु, मोथा और चंदन ये प्रत्येक तोले तोले भर लेय, सबका कल्ककर पूर्वोक्त लाखके काढेआदिमें मिलाय तेल सिद्ध करे यह तेल वादी, विषमज्वर, खाँसी, श्वास, पीनस, खुजली, अंगकी दुर्गंधी तथा त्रिकस्थान, पीठ, इनका शूल, देहका फड़फना, पाप, दुष्टचेष्टासर्व ग्रहदोष इनको नाश करै यह लाक्षादितैल अश्विनीकुमारने निमार्ण करा ऐसा जानना॥

षट्चरणतैल।

लाक्षामधुकमंजिष्ठामूर्वाचंदनसारिवाः ॥

तैलंपट्चरणंनामअभ्यंगाज्ज्वरनाशनं ॥

**अर्थ–**लाख, महुआ, मँजीठ, मूर्वा, चंदन और सारिवा इनके काढेमें तेलको सिद्ध करें तो यह षट्चरण तैल मालिस करनेसे सर्वज्वरोंको नाश करे ॥

अजादिधूप।

अजायाश्चर्मरोमाणिवचाकुष्टंपलंकपा॥

निंबपत्राणिमधुचधूपनंज्वरनाशनं ॥

**अर्थ–**बकरीकी चॉम और बाल, वच, कूठ, गूगल, नीमके पत्ते और शहत इनकी धूनी देनेसे सर्वज्वर नाश होय ॥

वचादिधूप।

वचाहरीतकीसर्पिधूपः स्याद्विषमज्वरे॥

**अर्थ–**वच, हरड और घी इनकी धूनी विषमज्वर नाशक है ॥

मसुराधूप ।

मसुरातूपकैर्धूपःसर्वज्वरगदापहः ॥

**अर्थ–**मसूरकी भूसीको धनी देनेसे सर्व ज्वर दूर हो ॥

सहदेव्यादिधूप।

सहदेवीवचाभद्रानाकुलीभिः प्रधूपनं ॥
प्रदेहोद्वर्तनंकर्यादेभिर्वाज्वरशांतये ॥

**अर्थ–**सहदेई, वच, हलदी और रास्ना, इनकी धूनी देना, अथवा देहमें उवटना करनेसे सर्वज्वर दूर हो ॥

गुग्गुलादिधूप।

पुरध्यामवचासर्जनिंबाकार्गरुदारुभिः॥
सर्वज्वरहरोधूपः श्रेष्ठोयमपराजितः ॥

**अर्थ–**गूगल, रोहिसतृण, वच, राल, नीमके पत्ते, आकके पत्ते, अगर और दारु हलदी, इनकी धूनी सर्वज्वरोंको नष्ट करहै इसे अपराजित धूप कहतेहै॥

माहेश्वरधूप।

रुद्रजटागोशृंगविडालविष्ठोरगस्यनिर्मोकः ॥ मदनफलभूत केशैर्वंशत्वक्रुद्रनिर्माल्यं ॥ घृतयवमधुरंचंद्रकलाछागलरोमाणिसर्पपाःसवचाः ॥हिंगुगवाक्षमिरचाः समभागा- श्छागमूत्रसंपिष्टाः ॥ धूपनविधिनाशमयंत्येतेसर्वज्वरान्नियतं ॥ ग्रहशाकिनी- पिशाचप्रेतविकारानयंधूपः॥

**अर्थ–**शिवलिंगी, गौकासींग, बिलावकी विष्ठा, सांपकी काँचली, मैनफल जटामांसी, बाँसकीछाल, शिवनिर्माल्य, घृत, जौ, गुड, वावची, बकरीकेबाल, सपेदसरसों, वच, हींग, इन्द्रायण और कालीमिरच, ये समान भाग लेकरके मूत्रमें पीस धूनी देवे तो सर्वज्वर, शाकिनी, पिशाच और प्रेतविकार इनको दूर करे इसे (माहेश्वर धूप ) कहते हैं ॥

सर्पत्वचादिधूप।

सर्पत्वचासर्षपहिंगुनिंबपत्रोण्यमीपांसमचूर्णधूपः॥
विनिग्रहंराक्षसडाकिनीनांकरोतिरक्षांविषमज्वरस्य ॥

**अर्थ–**साँपकी काँचली, सरसों, हींग, नीमकेपत्ते इनका समान भाग चूर्ण कर धूनी देय तो राक्षस, डाकिनी और विषमज्वरको दूर करे ॥

पलंकपादिधूप।

पलंकपानिंबपत्रंवचाकुष्ठंहरीतकी ॥
सर्षपाः सयवासर्पिर्धूपनंज्वरनाशनं ॥

**अर्थ–**लाख, नीमकेपत्ते, वच, कूठ, हरड, सरसों, जौऔर घृत इनकी धूनी ज्वरको नाश करे ।

माहेश्वरधूप।

कार्पासास्थिमयूरपिच्छबृहतीनिर्माल्यपिंडीतकत्वङ्मांसीविषदंशविडूनखवचाकेशाहिनिर्मोचनैः॥ वागेंद्रद्विजशृंगहिंगुमरिचैस्तुल्यंकृतंधूपनंस्कंदोन्मादपिशाचराक्षससुरावेशज्वरघ्नंपरं ॥

**अर्थ–**विनोले, मोरपंख, कटेरी, लजालु, मैनलफ, दालचीनी, जटामांसी, बिलावकी विष्ठा, नखसुगंध द्रव्य, वच, मनुष्यके वाल, साँपकी काँचली, हाथीदांत, शींग,हींग और कालीमिरच ये समान भाग लेकर कूटपीस धूनी देवे तो स्कंदग्नहोन्माद, पिशाच, यक्ष, राक्षस और देवताओंकादेहमें आना इनको नाश करे॥

निंबपत्रादिधूप।

निंबपत्रंवचाकुष्ठंपथ्यासिद्धार्थकंघृतं ॥
विषमज्वरनाशायगुग्गुलुश्चेतिधूपनं ॥

**अर्थ–**नीमकेपत्ते, वच, कूठ, हरड, सपेदसरसों, घृत और गूगल इनकी धूनी विषमज्वरको दूर करती है ॥

मार्जारविष्ठाधूप।

बैडालंवाशकृद्योज्यंवेपमानस्यधूपने ॥

**अर्थ–**जिसको ज्वरके कारण सरदी लगनेसे काँपता हो उसको बिलावके विष्ठाको धूनी देवे ॥

सहदेवीमलिकाबंध।

श्मशानसहदेव्यावादूर्वायावाथमूलिका ॥
सूत्रेणवेष्टिताबद्धाहस्ते सर्वज्वरापहा ॥

**अर्थ–**श्मशानमें उत्पन्न हुई सहदेई अथवा दूबकी जडको सूतमें लपेट कर हाथमें बाँधे तो सर्वप्रकारके ज्वर दूर हो ॥

बाँदेवंधन।

आम्रबंदंविशेपोयंकरेवध्वाज्वरंजयेत् ॥ आहरेदनुराधायांक रवीरस्यबंदकं ॥ ब्रह्मवृक्षस्यबंदंवाऋक्षेउत्तरभाद्रके ॥ करे बद्धंज्वरंहंतिसर्वमेतत्पृथक्पृथकू॥

**अर्थ–**अनुराधा नक्षत्र, अथवा उत्तराभाद्रपदा नक्षत्रमें आमका अथवा कन्हेर तथा ढाकका बाँदा लायकर हाथमें बॉधे तो सर्वप्रकारके ज्वरोंको दूर करे॥

उलूकपक्षबंध

उलूकदक्षिणंपक्षंसितसूत्रेणवेष्टयेत् ॥
बद्धंवावामकर्णेतुहरत्यैकाहिकंज्वर ॥

**अर्थ–**उल्लू (घूघ्घू) का दहना पंख सपेद सूतमें लपेट कर बाँए कानमें बाँधे तो एकाहिकज्वर दूरहोय ॥

गोपालिकामूलबंध।

गोपालपत्रिकामूलंसहदेवीबलाथवा ॥

गोजिह्वाविजयामूलंगलेवद्धंवरापहम् ॥

**अर्थ–**गोपालककडी, सहदेई, खरेटी, गोभी और भांग इनमें से किसीएक की जडको गलेमें बांधनेसे ज्वर दूर होय ॥

भूतकेशीमूलबंध।

भूतकेश्याश्चमूलंवासप्तखंडानिकारयेत् ॥
वंधयेद्रक्तसूत्रेणहस्तेचज्वरनाशनम् ॥

**अर्थ–**भूतकेशीकी जडके सात टुकड़े कर उनको लाल सूतमें बांधके हाथमें बांधे तो ज्वर दूर होय ॥

निर्गुंडिबंध ।

निर्गुंड्याःसहदेव्यश्चकटौबद्धंजटाद्वयं॥
प्रातरादित्यवारेचसर्वज्वरविनाशकृत् ॥

**अर्थ–**रविवारको निर्गुंडी और सहदेई की जड़को प्रातःकाल कमरमें बांधे तो सब ज्वरोंको दूर करे ॥

कण्हेरमूलिकाबंध।

कर्णेबद्धारवौश्वेततुंरगरिपुमूलिका ॥
सर्वज्वरहराश्वेतमंदारस्यचमूलिका॥

**अर्थ–**रविवारमें सपेद कनेरंको अथवा सपेद मंदारकी जडको कानमें वांधेतो सर्वज्वरका नाश करे ॥

संततज्वरनिदान।

सप्ताहंवादशाहंवाद्वादशाहमथापिवा ॥
संतत्यायोविसर्गीस्यात्संततःसनिगद्यते ॥

**अर्थ–**७–१०–अथवा १२–दिन पर्यंत एकसा ज्वर रहें उसको संतत ज्वर कहते हैं ! सात, दश और बारह ये जो विकल्प कहा वो अनुक्रम करके वात, पित्त और कफ, इनके उल्वण करकेकहा है । यह संततज्वर त्रिदोषज है, वातादिदोषसे ३, सप्तधातु ७, मूत्र ११, पुरीष ( मल) १२ ये बारह वस्तु दुष्टहोनेसे इनसे कोप करके मलका आकर्षण होकर संतत ज्वर होता है यह चरकका मत है ॥

पटोलादिकाढा।

पटोलेंद्रयवादारुगुडूचीनिंबपल्लवाः॥
हंतिक्वाथोनिपीतोयंसंततंविषमज्वरम् ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, इन्द्रजो, देवदारु, गिलोय, नीमके पत्ते, इन सबका क्वाथ पीनेसे संतत नाम विषमज्वर दूर होय ॥

दूसराप्रकार।

पटोलेंद्रयवादारुत्रिफलामुस्तगोस्तनैः ॥ मधुकामृतवासानां क्वाथक्षौद्रयुतंपिबेत् ॥ संततेसततेचैवद्वितीयकतृतीयके ॥ ऐकाहिकेवाविषमेदाहपूर्वेनवज्वरे ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, इन्द्रजौ–देवदारु, त्रिफला; नागरमोथा, दाख, मुलहटी, गिलोय और अडूसा, इनका काढा शहतके साथ पीवे तो संतत, सतत, द्वितीयक, तृतीयक, ऐकाहिक, तथा दाह पूर्वक नवीन ज्वरको दूर करे ॥

तीसराप्रकाश।

पटोलाब्दवृषातिक्तासारिवाभिःशृतंजलं ॥
संतताख्येज्वरेदेयंवातादीनांनिवृत्तये ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, नागरमोथा, अडूसा, कुटकी, सारिवा, इनको, जलमें रातको भिगो देवे प्रातःकाल छानके पीवे तो संततादि ज्वर वातादि दूर होवे ॥

चौथाप्रकार।

पटोलेंद्रयवानंतापथ्यरिष्टामृताजलं ॥
क्वथितंतज्जलंपीतंज्वरंसंततकंजयेत् ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, इन्द्रजौ, धमासा, हरड, नीमको छाल, गिलोय, नेत्रवाला, इनके काटेको पीवे तो संतत ज्वर दूर होवे ॥

आमलक्यादिकाढा।

आमलकीघननागरसिंहिछिन्नलताविहितश्चकषायः॥
माक्षिकमागधिकापरिमिश्रोहंत्यनिशंसंततज्वरमाशु॥

**अर्थ–**आमला, नागरमोथा, कटेरी, गिलोय, इनके काढेमें शहत और पीपलका चूर्ण डालके पीवे तो अत्यंत निद्रा और संततज्वर दूर होवें ॥

ज्वरभेद।

एकद्वित्रिचतुर्थःस्याद्विषमोन्यस्तुजीर्णकः ॥

एतेपंचज्वराःपीडयंत्येवबहुवासरं ॥

**अर्थ–**एकाहिक, इकतरा, तिजारी और चौथैया ये चार विषमज्वर और दूसरा जीर्णज्वर ऐसे ये पांचज्वर बहुतदिनतकपीडा देते हैं ॥

सततवाअन्येद्युष्कादिकोंकेलक्षणनिदान ।

अहोरात्रेसततकौद्वौकालावनुवर्तते ॥ अन्येद्युष्कस्त्वहोरात्रंएकालंप्रवर्तते ॥ तृतीयकस्तृतीयेह्निचतुर्थेह्निचतुर्थकः॥ केचिद्भूताभिषंगोत्थंवदंतिविषमज्वरम् ॥

**अर्थ–**सततज्वर दिनरात्रिमें दोबार आता है, अन्येद्युष्कज्वर दिनरात्रिमें एकवार आता है, तृतीयक ( तिजारी) ज्वर आये दिनसे फिर तीसरे दिन आता है और चातुर्थिक ज्वर जिसदिन आता है उसके चौथेदिन आता है और कोई आचार्य इस विषमज्वरको भूताभिषंगोत्य अर्थात् भूतबाधा जनित कहते हैं॥

त्रायंत्यादिकाढा ।

त्रायंतीकटुकानंतासारिवाभिःशृतंजलं ॥
सतताख्येज्वरेदयंवातादीनांनिवृत्तये ॥

**अर्थ–**त्रायमाण, कुटकी, जवासो, सारिवा, इनके काढेको शीतल करके पीनेसे संतत ज्वर दूर होय तथा वातादिरोग दूर हो ॥

पटोलादिकाढा।

पटोलपथ्यापिचुमंदशक्रबीजामृतायासकृतःकषायः ॥

निपीतमात्रः शमयत्युदीर्णंकासादियुक्तंसततंज्वरंहि ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, हरड, नीमकीछाल, इन्द्रजौ, गिलोय, जवासो, इनका काढा पीतेही खाँसीयुक्त सतत ज्वर दूर होय ॥

द्राक्षादिकाढा।

द्राक्षापटोलनिंबाब्दाशक्राह्वात्रिफलाशृतं ॥
जलंजंतुःपिबेच्छीघ्रमन्येद्युर्ज्वरशांतये ॥

**अर्थ–**मनक्कादाख, पटोलपत्र, नीमकीछाल, नागरमोथा, इन्द्रजौ, त्रिफला इनकाकाढाअन्येदुष्क(इकतरा) ज्वरको शांतिकरे ॥

पटोलादिकाढा।

पटोलत्रिफलानिंबाद्राक्षाशम्याकवासकैः॥
क्वाथःसितामधुयुतोजयेदेकाहिकंज्वरं ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, त्रिफला, नीमकीछाल, दाख, अमलतासका गूदा और अडूसा इन आठ औषधोंका काढा शहत मिश्रीमिलायके पीवे तो नित्य आनेवाले स्वरको दूर करे ॥

ब्रह्मदंडीनस्य ।

एकाहिकंज्वरंहंतिनस्याद्वागिरिकर्णिका ॥
ब्रह्मदंडीतिविख्याताअधःपुष्पीतुनामतः॥

**अर्थ–**गिरिकर्णिकाके अथवा ब्रह्मदंडी जिसको अधःपुष्पी कहते हैं उसके रसको नस्य देनेसे एकाहिक ज्वर नाश होय ॥

सर्पाक्षीमूलिकाबंध।

सोमग्रहणवेलायांसर्पाक्षीमभिमंत्रयेत् ॥
शिफांहिकृष्णसूत्रेणवामकर्णेनिवंधयेत् ॥
ऐकाहिकंज्वरंहंतिद्व्याहिकंदक्षकर्णके ॥

**अर्थ–**चंद्रग्रहणके समय सरफोकांको अभिमंत्रणकर, विधीसे उखाड उसकी जड़को काले सूतसे वाँएकानमें बाँधे तो एकांहिक ज्वर जाय, यदि द्व्याहिक ज्वर होय तो दहने कानमें बाँधे तो द्व्याहिकभी दूर हो ॥

एकाहिकऊपरअपामार्गमूलिकाबंधन।

कन्याकर्तितसूत्रेणवद्धापामार्गमूलिका ॥
एकाहिकंज्वरंहंतिशिखायामतिवेगतः॥

**अर्थ–**कन्याके हाथसे कते सूतमें ओंगेकी जड लपेट चुटियामें बाँधनेसे एकाहिक ज्वर दूर हो ॥

काकमाचीमूलिकाबंधन।

काकमाच्याश्चमूलंतुकर्णेबद्धंनिशिज्वरन्॥

**अर्थ–**जिसको रात्रिमें ज्वर आता होय उसके मकोयकी जडको कन्याके काते हुए सूतसे बाँधे तो आराम होय ॥

सर्पाक्षीतिलक।

श्मशानजातसर्पाक्ष्यारवौमूलंसमुद्धरेत् ॥

घृतैर्धृत्वाललाटेतुतिलकःस्याद्धितत्प्रणुत् ॥

**अर्थ–**श्मशानमें उत्पन्न हुई सरफोकेकी जड़को रविवारके दिन उखाड कर उसे घीमें सानके ललाटमें तिलक करनेसे एकाहिक ज्वर दूर होय ॥

दान।

अंगवंगकलिंगेषुसौराष्ट्रमगधेपुच ॥
वाराणस्यांचयद्दत्तंतत्तदैकाहिकेस्मरेत् ॥

**अर्थ–**अंग, वंग, कलिंग, सौराष्ट्र, मगध और काशीक्षेत्रमें एकाहिक ज्वरका स्मरण कर दान देवे तो एकाहिक ज्वर दूर हो॥

तर्पण।

योसौसरस्वतीतीरेअपुत्रस्तापसोमृतः ॥
तस्मैतिलोदकंदद्यान्मुंचेदैकाहिकोज्वरः ॥

**अर्थ–**जो सरस्वतीके किनारे अपुत्र तपस्वी मरा, उसके अर्थ तिलांजली देनेसे एकाहिक ज्वर दूर हो ॥

उलूकपक्षबंधअन्येद्युष्कपर ।

उलूकस्योत्तरंपक्षंरक्तसूत्रेणवेष्टयेत् ॥
वद्धंतुदक्षिणेकर्णेद्व्याहिकंवाज्वरंजयेत् ॥

**अर्थ–**उलूकके वामपंखको लाल सूतमें लपेट दहने कानमें बांधे तो अन्येाद्युष्कतथा द्व्याहिक ज्वरको दूर करे ॥

वासादिकाढा।

वासापटोलत्रिफलाद्राक्षाशम्याकनिंबजः॥
समधुःससितः क्वाथोहन्याद्वैद्व्याहिकज्वरं ॥

**अर्थ–**अडूसा, पटोलपत्र, त्रिफला, मुनक्कादाख, अमलतासका गूदा और नीमकी छाल, इनके काढमें शहत और मिश्री मिलायके पीनेसे द्व्याहिक ज्वर दूर होय ॥

पटोलादिकाढा।

पटोलारिष्टमृद्धीकाशम्याकस्त्रिफलावृषं ॥

क्वाथएकहिकंहंतिशर्करामधुसंयुतः॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, नीमकीछाल, दाख, अमलतासका गूदा, त्रिफला और अडूसा इनके काढेमें मिश्री शहत मिलायके पीवे तो एकाहिक ज्वर दूरहो ॥

अंजन।

ऊर्णनाभिस्थजालेनवर्तिकृत्वाप्रयत्नतः ॥
ज्वालयेत्तिलतैलेनकज्जलंग्राहयेच्छनैः ॥
अंजयेन्नेत्रयुगलंद्व्याहिकंतुज्वरंजयेत् ॥

**अर्थ–**मकडीके जालकी बत्ती बनाय तिलके तेलमें गैर काजल पाडे, उस काजलको दोनोंनेत्रोंमें लगावे तो द्व्याहिक ज्वर ( इकतरा ) दूर हो ॥

एकाहिकादिकोंमेंहिंगुलयोग ।

म्लेच्छंसमंविषंपिष्ट्वाप्रदद्याद्भद्रिकासमं ॥
ऐकाहिकंद्व्याहिकंवातृतीयंचचतुर्थकं ॥
निहन्यान्नात्रसंदेहोयथासूर्योदयेतमः॥

**अर्थ–**हींगलू और सिंगिया विष ये समान ले एकत्र खरल कर १ रत्ती देय तो एकाहिक, द्व्याहिक, त्र्यहिक और चातुर्थिक ज्वरोंको नाश करे॥

तृतीयकज्वरनिदान।

कफपित्तात्रिकग्राहीपृष्ठाद्वातकफात्मकः ॥
वातपित्ताच्छिरोग्राहीत्रिविधः स्यात्तृतीयकः ॥

अर्थ– कफपित्तात्मक जो तृतीयक ज्वर वो कमर तथा पीठके बांसकीसंधिमें उत्पन्न होकर फिर शरीरमें प्रवेशकरे है और जो वातकफात्मक तृतीयज्वर है वो पीठमे उत्पन्न होता है, उसीप्रकार वातपित्तजन्य जो तृतीयज्वर है वो मस्तक में उत्पन्न हो फिर सब देहमे फैलेहै इस प्रकार तीनप्रकारका तृतीयकज्वर है॥

महोषधादिकाढा।

मुस्तामहोषधामृताचंदनोशीरधान्यकैः ॥
क्वाथस्तृतीयकंहंतिशर्करामधुयोजितः॥

अर्थ–सोंठ, गिलोय, नागरमोथा, लालचंदन, खस और धनिया इनके काढेमें मिश्री और शहत मिलायके देवे तो तृतीयक(तिजारी) ज्वर दूर होय॥

शिशिरादिकाढा ।

सशिशिरः सघनः समहौषधः सनलदः सकणः सपयोधरः॥

समधुशर्करएपकपायकोजयतिवालमृगाक्षितृतीयकं ॥

**अर्थ–**हे बालमृगाक्षि ! लालचंदन, धनिया, सोंठ, नेत्रवाला, पीपर और नागरमोथा इन औषधोंका काढा करके उसमें शहत और मिश्री मिलायके देवे तो तृतीयक ज्वर दूर हो ॥

उशीरादिकाढा।

उशीरंचंदनंमुस्तंगुडूचीधान्यनागरं ॥
अंभसाक्वथितंपेयंशर्करामधुयोजितं ॥
ज्वरेतृतीयकेपुंसातृष्णादाहसमन्विते ॥

**अर्थ–**खस, लालचंदन, नागरमोथा, गिलोय, धनिया और सोंठ इनका काढा करके उसमें शहत और मिश्री मिलायके रोगीको देय तो तृतीयक ज्वर तृषा तथा दाहयुक्त ज्वर इनका नाश होय ॥

शीतभंजीरस।

शीतभंजीरसोप्यत्रसानुपानोद्विगुंजकः ॥
मुसलीमारनालेनपीत्वाहंतितृतीयकं ॥

**अर्थ–**इस तिजारीके ऊपर (शीतभंजीररस ) दो रत्ती अनुपानके साथ देवे अथवा मूसलीको पीस काँजीकेसाथ देय तो तृतीयकज्वर नाश होय ॥

अपामार्गमूलिकाबंध।

अपामार्गजटाकट्यांलोहितैः सप्ततंतुभिः॥
वद्धावारेरवेस्तूर्णंज्वरंहंतितृतीयकं ॥

**अर्थ–**ओंगेकी जड, सात लाल डोरेमें लपेट रविवार दिन कमरमें वाँधे तो तृतीयक ज्वर शीघ्र शांत होय ॥

वाराहीमूलिकाबंध ।

वाराहीशिखिकामूलंकर्णबद्धंतृतीयकं ॥
ज्वरंहंत्यथबाहुस्थोपक्षस्तूलूकसंभवः ॥
वेष्टयेत्पंचरंगेणसूत्रेणाबंधयेद्गले ॥

**अर्थ–**विलारी कंद गाँठ अथवा जडको अथवा उलूककी पाँखको पंचरंगी डोरेमें कसके गलेमें अथवा भुजामें बाँधे तो तिजारी जाती रहे ॥

चातुर्थिकज्वरनिदान।

चातुर्थिकोदर्शयतिप्रभावंद्विविधंज्वरः ॥ जंघाभ्यांश्लेष्मिकःपूर्वंशिरसोनिलसंभवः ॥ विषमज्वरएवान्यश्चातुर्थिकविपर्ययः॥ समध्येज्वरयत्यह्निआदावंतेचमुंचति ॥

**अर्थ–**चातुर्थिक (चौथैया) ज्वर अपनी सामर्थ्य दोप्रकारकी दिखाता है जो कफजन्य चातुर्थिक है वो प्रथम पैरोंकी पीडरीन्से देहमें फैले है और जो वातजन्य है वो मस्तकमें प्रथम उत्पन्न हो फिर सब देहमें संचार करे हैं और एक चातुर्थिकका भेद यह है कि आदिअंतके दोदिन छोडके बीचके दोदिनों में रोगीको चढे ॥

विषमकेसामान्यउपद्रव।

विषमज्वरस्यतेस्युःपंचसाध्याउपद्रवाः ॥
अधिशेतेयथाभूमिंबीजंकालेप्ररोहति ॥
अधिशेतेतथाधातौदोषःकालेप्रकुप्यति ॥

**अर्थ–**विषमज्वरके पूर्व कहे हुए पांच उपद्रव औषधादिकसे साध्य जानने जैसे पृथ्वीमें पड़े हुए बीज अपने २ समय पर उत्पन्न होते हैं । उसीप्रकार धातुमें वातादिक दोष मूक्ष्मरूपसे रहते हैं, जब काल आता है तब कुपित होते हैं॥

वेगेतुसमतिक्रांतगतोयमितिलक्ष्यते॥
धात्वंतरेपुलीनत्वात्सोक्षम्यान्नैवोपलक्ष्यते ॥

**अर्थ–**ज्वरका वेग शांति होनेपर ज्वर गयासा प्रतीत होता है,परंतु वह ज्वर अन्य धातुके प्रति पहुँच कर सूक्ष्म रूपसे रहता है अत एव दीखता नहीं है ॥

सामान्यचिकित्सा।

कर्मसाधारणंत्यक्त्वातृतीयकचतुर्थकौ॥
भिषजाप्रतिकर्तव्यौविशेपोक्तचिकित्सितैः॥

**अर्थ–**तृतीय और चतुर्थक ज्वरोंकी साधारण क्रिया त्याग कर जो विशेष क्रिया कही है उस क्रियाको करनी चाहिये ॥

दूसराप्रकार।

ज्वरस्यवेगकालंचचिंतयनज्वर्यतेतुयः॥
तस्येष्टैरद्भुतैर्वापिविषर्यनाशयेत्स्मृतिं॥

**अर्थ–**जिस रोगीको ज्वरके भयसे (अर्थात् आज मेरी ज्वर आनेकी पाली है सो मुझको ज्वर आवेगा इस कारण ) ज्वर आता है उसको इष्टसाधनअर्थात् जिस क्स्तुकी रोगी इच्छा करे वो देना, अथवा कोई अद्भत साधन करके उसकी उस चिंतवनको दूर करे तो ज्वर अवश्य नाश होय ॥

तीसराप्रकार।

संततंविषमंवापिक्षीणस्यसुचिरोत्थितं ॥
ज्वरंसंभोजनैः पथ्यैर्ज्वरघ्नैःसमुपाचरेत् ॥

**अर्थ–**संतत, अथवा विषमज्वर क्षीण पुरुपको बहुत दिन आता है उसको उत्तम भोजन, पथ्य ऐसे ज्वर नाशक यत्नोंकर्के उपाय करे ॥

वासादिकाढा।

वासाधात्रीस्थिरादारुधान्यानागरसाधितं ॥
सितामधुयुतंकुर्याच्चातुर्थिकनिवारणं ॥

अर्थ– अडूसा, आमले, सालपर्णी, देवदारु, धनिया, और सोंठ, इनका काढा शहत और मिश्री मिलायके पीबे तो चातुर्थिक ज्वर दूर होय ॥

पथ्यादिकाढा।

पथ्यास्थिरानागरदेवदारुधात्रीवृषैरुत्क्वथितःकषायः॥ सितोपलामाक्षिकसंप्रयुक्तश्चातुर्थिकंहंत्यचिरेणपीतः॥

**अर्थ–**हरड, सालपर्णी, सोंठ, देवदारु, आमले और अडूसा इनके काढेको मिश्री और शहत मिलायके पिवे तो शीघ्र चातुर्थिक ज्वरको दूर करे ॥

देवदार्व्यादिकाढा।

देवदारूशिवावासाशालिपर्णीमहौषधैः ॥
धात्रीयुतंशृतंशीतंदद्यान्मधुसितायुतं ॥
चातुर्थिकज्वरेश्वासेकासेमंदानलेतथा॥

**अर्थ–**देवदारु, छोटीहरड, अडूसा, सालपर्णी, सोंठ और आमले, इन छः औषधोंका काढा शीतल होनेपर उसमें शहत और खांड मिलायके पीवे तो चातुर्थिक ज्वर, श्वास, खाँसी, और मंदाग्निको नाश करे ॥

स्थिरादिकाढा ।

स्थिरासामलकादारुश्रीवेष्टकमहौषधैः ॥
शृतंशीतंजलंदद्यात्सितामधुविमिश्रितं ।
चातुर्थिकेज्वरेतीव्रेमंदेचैवाथपावके॥

**अर्थ–**सालपर्णी, आमले, देवदारु, सरलवृक्ष और सोंठ, इनका काढा करके शीतल होनेपर शहत मिश्री मिलायके पीवे तो तीन चातुर्थिकज्वर और मंदाग्निको दूर करे ॥

दुःस्पर्शादिकाढा ।

दुःस्पर्शोशीरसिंहीघनमधुकशिवावाजिविश्वाटरूपश्छिन्नारेणूकषायः समधुमगधकोवापितश्चाष्टमांशं ॥ दाहंस्वेदंचशोषंकृमिमथरुधिरंशैत्यमुद्भ्रांतचित्तंश्वासंशूलंचतृष्णांदिननिशि विषमंहंतिचातुर्थिकाद्यम् ॥

**अर्थ–**कटेरीका पंचांग, खस, छोटी कटेरी, महुआ, हरड, असगंध, सोंठ, अडूसा, गिलोय और पित्तपापडा, इन औषधोंके काढेमें शहत और पीपलका चूर्ण डालके देवे तो दाह, पसीने, प्यास, कृमिरोग, रुधिरविकार, शीत लगना, भ्रांति, श्वास, शूल, शोप, दिनका ज्वर, रात्रिज्वरऔर चातुर्थिक आदि ज्वर दूर हो॥

दार्व्यादिकाढा।

दार्वीदारुकलिंगलोहितलताशम्याकपाठाशौंडीविश्वकिरातवारणकणात्रायंतिकापद्मकैः॥ उग्राधान्यकनागराब्दसरलैः शिग्रत्वगंबूशिवाव्याघ्रीपर्पटदर्भमूलकटुकानंतामृतापौष्करैः ॥ धातुस्थंविषमंत्रिदोषजनितंचैकाहिकंद्व्याहिकंक्वाथो हंतितृतीयकज्वरभयंचातुर्थिकंभूतजं ॥

**अर्थ–**दारहलद, देवदारु, इन्द्रजौ, मजीठ, अमलतासका गूदा, पाढ, कचूर, पीपल, सोंठ, चिरायता, गजपीपल, त्रायमाण, पद्माख, वच, धनिया, अदरख, नागरमोथा, सहँजना, दालचीनी, नेत्रवाला, हरड, कटेरी, पित्तपापडा, कुशाकी जड, कटकी, धमासा, गिलोय और पुहकरमूल, इन औषधोंका काढा करके देवे तो धातुगत ज्वर, विषमज्वर, त्रिदोषज्वर, ऐकाहिक, द्व्याहिक, त्र्याहिक और चातुर्थिक ज्वरको नाश करे ॥

मुस्तादिकाढा।

मुस्तापाठाशिवाक्वाथश्चातुर्थिकज्वरापहः ॥

दुग्धेनत्रिफलापीताहंतिचातुर्थिकंचरं॥

**अर्थ–**नागरमोथा, पाढऔर आमले इनका काढा अथवा त्रिफलेका चूर्ण दूधसे पीवे तो चातुर्थिक ज्वर दूर होय॥

बेफलचूर्ण ।

शैलूपमंडनरजोवयसानुरूपशुभ्रांगवत्ससुरभीपयसानिपीतं॥ आदित्यवारभवपालिदिनेनरेणचातुर्थिकंसुचिरजंजयतिक्षणेन ॥

**अर्थ–**वेलगिरी और मधुमाधवी इनके चूर्णको तरुण और सपेद बछरेवाली गौके दूधसे रविवारकेदिन पीबेया जिस दिनकी पाली हो उस दिन पीवे तो बहुत दिनका भी चातुर्थिक ज्वर क्षणमात्रमें दूर होय॥

पुनर्नवादुग्धयोग।

सितवर्षाभवोमूलंपयसापीतंचपैत्तिकंहरति ॥
चातुर्थिकंसुचिरजंतांबूलेनैवभक्षणादथवा ॥

**अर्थ–**सपेद पुनर्नवाकी जडको दूधके साथ पीवे अथवा वीडीमें धरके खाय तो पुरानाभी चातुर्थिक ज्वर दूर होय॥

वृषदंशपुरीषादियोग।

वृषदंशपुरीपंचपयसालोड्यपाययेत् ॥
चातुर्थिकस्यागमनेनियतंनभविष्यति ॥

**अर्थ–**बिल्लीकी विष्ठाको दूधमें मिलायके चातुर्थिक आनेके समय पीवेतो निश्चय चातुर्थिक ज्वर दूर हो ॥

शिरीषकल्क।

कल्कः शिरीषपुष्पस्यरजनीद्वयसंयुतः॥
तस्यसर्पिः समायोगाज्ज्वरंचातुर्थिकंजयेत् ॥

**अर्थ–**सिरसके फूल, हलदी और दारुहलदी, इनको एकत्र पीस कर कल्क करके उसमें घृत मिलायके देवे तो चातुर्थिक ( चौथैया ) ज्वरको नष्ट करे॥

हिंगुनस्य।

चातुर्थिकोगच्छतिरामठस्यघृतेनजीर्णेनयुतस्यनस्यात् ॥ लीलावतीनांनवयौवनानांमुखावलोकादिवसाधुभावः॥

**अर्थ–**पराने घृतमें हींग ओंटायके उस घीकी नस्य देवे उससे चातुर्थिकज्वर नाश होय । इसमें दृष्टांत है, जैसे तरुण नवयौवना स्रीके मुख देखते ही साधुता नष्ट होती है ॥

अगस्तिपत्रनस्य।

अखंडितशरत्कालकलानिधिसमानने ॥
चातुर्थिकहरंनस्यंमुनिद्रुमदलांबुना ॥

**अर्थ–**हे पूर्णशरदकालीन चंद्रानने ! अगस्तियाके पत्तोंका रस निकालके उसकी नस्य लेनेसे चातुर्थिक ज्वर दूर होय ॥

उलूकपक्षधूप।

कृष्णांबरेदृढंबद्धोगुग्गुलूलूकपक्षकः ॥
धूपश्चातुर्थिकंहन्यात्तमः सूर्यइवोदितः॥

**अर्थ–**काले कपडेमें गूगल और उल्लूकी पंख लपेटके धूनी देवे तो जैसे सूर्योदय होतेही अंधकार नष्ट होता है उस प्रकार चातुर्थिक ज्वर नष्ट होय ॥

अपामार्गमूलिकाबंध।

कन्याकर्तितसूत्रेणअपामार्गस्यमूलिका ॥
रवौषध्वाज्वरंहंतितृतीयकचतुर्थकम् ॥

**अर्थ–**क्वारी कन्याके काते हुए मूतसे ओंगाकी अड बाँधके रविवारके दिन ज्वरवालेके हाथमें वॉधनेसे तिजारी और चौथैया ज्वर दूर हो ॥

सहदेवीमूलबंध ।

विवस्त्रेणधृतादेवीमूलिकाकर्णबंधनात् ॥
चातुर्थिकंज्वरंहंतिद्रोणपुष्पीरसांजनात् ॥

**अर्थ–**नंगा होकर सहदेईकी जड़को उखाड कानमें बांधे तो चातुर्थिक ज्वर दूर हो । तथा गोमाके रसका अंजन करनेसे चातुर्थिक ज्वर दूर हो ॥

काकजंघादिबंध ।

काकजंघावलाश्यामाभृंगराजापमार्गकाः॥
एकैकंपुष्ययोगेनबध्वाचातुर्थिकहरेत् ॥

**अर्थ–**काकजंघा, खेरेटी, पीपल, भांगरा और ओंगा, इनमेंसे किसी एककी जडमूलनक्षत्रमें उखाडके हाथमें बांधे तो चातुर्थिक ज्वर नष्ट होय ॥

पंचपंचकषाय।

कालिंगकः पटोलस्यपत्रंचकटुरोहिणी ॥ पटोलंसारिवामुस्तंपाठाकटुकरोहिणी ॥ निंबःपटोलंत्रिफलामृद्धीकामुस्तवासकौ॥किरातत्तिक्तोह्यमृताचंदनंविश्वभेषजं ॥ गुडूच्यामलकंमुस्तमर्धश्लोकसमापनाः ॥ कषायाः शमयंत्याशुपंचपंचविधंज्वरं ॥

अर्थ–(१) कूडाकी छाल, पटोलपत्र, और कुटकी इनका (२) पटोलपत्र, सारिवा,नागरमोथा, पाढ और कुटकीइनका (३) नीमकी छाल, पटोलपत्र, त्रिफला, दाख, नागरमोथा, और अडूसा,इनका अथवा (४) चिरायता, गिलोय, लालचंदन, और सोंठ, इनका अथवा (५) गिलोय, आमले,नागरमोथा,इनमेंसे किसीएक काढेको पीवेतो पांचप्रकारके ज्वरदूर करे॥

धातुको शोषणकरनेवाला अत्यंत कष्टसाध्य

ऐसा विषमज्वर कहेते हैं॥

विदग्धेऽन्नरसेदेहेश्लेष्मपित्तेव्यवस्थिते ॥
तेनार्धंशीतलंदेहमर्धमुष्णंचजायते ॥

**अर्थ–**शरीरमें अन्न रस दुष्ट होनेसे तथा कफ और पित्त कुपित होनेसे शरीरका अर्ध भाग (कमरके नीचेका भाग अथवा ऊपरका भाग अथवा दहना बांया ) कफसे शीतल रहता है और आधा भाग पित्तसे गरमरहता है ॥

कायेदुष्टंयदापित्तंश्लेष्माचांतेव्यवस्थितः॥
तेनोष्णत्वंशरीरस्यशीतत्वत्वहस्तपादयोः॥

**अर्थ–**जिस समय कोठेके भीतर पित्त दुष्ट होता है और कफ हाथ पैर आदि शाखागत होता है उस समय देह ज्वरसे गरम रहती है और हाथ पैर शीतल होते है ॥

कायेश्लेष्मायदादुष्टःपित्तंचांतेव्यवस्थितं ॥
शीतत्वंतेनगात्राणामुष्णत्वंहस्तपादयोः ॥

**अर्थ–**जिस समय कोठेके भीतर कफ दुष्ट होय और पित्त हाथ पैरमें प्राप्त हुआ होउस समय ज्वर आनेस देह शीतल रहतीहैऔर हाथ पैरगरमहोतेहै॥

ऋतेनिलान्नविषमोज्वरः समुपजायते॥

कफपित्तेहिनष्टेचेच्चेष्टयत्यनिलः सदा ॥

**अर्थ–**बादीके विना विषमज्वर नहीं होता और कफ तथा पित्त ये नष्ट होनेपर वायु विशेष करके शरीरमें संचार करता है ॥

शीतपूर्वक वा दाहपूर्वक संततादि

विषमोंके स्वरूप कहतेहैं।

त्वक्स्थौश्लेष्मानिलौशीतमादौजनयतोज्वरं॥

तयोः प्रशांतयोः पित्तमंतेदाहंकरोतिच ॥

**अर्थ–**त्वचामें अर्थात् रस धातुमें कफ और वात ये रहकर शीत ज्वरको उत्पन्न करे हैं जब कफ वात शांति होजाते हैं तत्पश्चात् पित्त दाहकोकरता है॥

विषमभेदवातवलासकज्वर ।

नित्यंमंदज्वरोरुक्षः शुनः कृच्छ्रेणसिध्यति ॥
स्तब्धांगः श्लेष्मभूयिष्ठोनरोवातबलासकी ॥

**अर्थ–**जिस रोगीके अल्पज्वर, रूक्षता, सूजन, देहका भारीपना, और अति कफाधिक्य ये लक्षण सर्वकाल हो उसको वातबलासक ज्वर कहते हैं यह कृच्छ्रसाध्य है ॥

प्रलेपकलक्षण।

प्रलिंपत्रिवगात्राणिश्लेष्मणागौरवेणच ॥
मंदज्वरोविलेपीचसशीतः स्यात्प्रलेपकः॥

**अर्थ–**जिस ज्वरमें देह पसीनेंसे सर्वकाल पुता हुआसा रहे,तथा भारी हो इसी योगसे ज्वर मंद होय, शीत लगे यह ज्वर कफपित्तजन्य है यह राजयक्ष्मा रोगमें होता है इसे प्रलेपक ज्वर कहते हैं॥

चिकित्सा।

प्रालेपकेप्रयुंजीतश्लेष्मज्वरहरीं क्रियां ॥

**अर्थ–**प्रलेपक ज्वरपर कफज्वर नाशक यत्न करना चाहिये तो इसकीशांतिहोय॥

शीतदाहपूर्वविषम ।

करोत्यादौतथापित्तंत्वक्स्थंदाहमतीवच ॥
तस्मिन्प्रशांतेत्वितरौकुरुतः शीतमंततः॥

**अर्थ–**त्वचामें कहिये रक्तधातुमें पित्त स्थित होकर अत्यंत दाह पूर्वक ज्वर उत्पन्न करे जबपित्त शांति हो जाये तब कफ और बादी शीत उत्पन्नकरते हैं॥

दूसराप्रकार।

द्वावेतौदाहशीतादिज्वरौसंसर्गजौस्मृतौ ॥
दाहपूर्वस्तयोः कष्टः कृच्छ्रसाध्यस्तथेतरः॥

**अर्थ–**ये दोनों शीत पूर्वक और दाह पूर्वक ज्वर त्रिदोष संसर्गज मुनियोंने कहे हैं तिनमें दाहपूर्वक ज्वर अत्यंत दुःसाध्य है और शीतपूर्वक ज्वर कृच्छ्र साध्य जानना ॥

सामान्यचिकित्सा।

शीताभिभूतेपुरुषेकुर्याच्छीतहरांक्रियां॥
दाहाभिभूतेतुविधिंविदध्याद्दाहनाशनं ॥

**अर्थ–**शीतज्वर करके रोगीके व्याकुल होनेपर शीत नाशक यत्नकरे तथा दाह होनेपर दाह नाशक यत्न वैद्यको करना चाहिये ॥

शीतनाशकक्रिया।

आच्छादनैर्बहुतरैर्गुरुभिःकंवलादिभिः॥
तूलवत्यामहाशीतंशीतादिज्वरिणोहरेत् ॥

**अर्थ–**शरदी लगनेवाले ज्वररोगीको बहुत उढाना, बिछाना, तथा भारी कंबल, रजाई तोषक इत्यादि करके शीतका निवारण करे ॥

क्षुद्रादिकाढाशीतपूर्वज्वरपर।

क्षुद्रानागरमुस्तपर्पटधनाभूनिंबनिंबामृताभांर्गीचंदनपुष्कराव्हकुलकैस्तिक्ताटरूपान्वितैः ॥ पद्मास्थेंद्रयवान्वितैश्चरचितः क्वाथोनिपीतःप्रगेशीताद्यंज्वरमुत्थितंतुविषमं त्रिद्व्येकघस्रोद्भवं ॥

**अर्थ–**कटेरी, सोंठ, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, धनिया, चिरायता, नीमकी छाल, गिलोय, भारंगी, लालचंदन, पुहकरमूल, पटोलपत्र, कुटकी, अडूसा, मजीठ, और इन्द्रजौ, इनका काढा प्रातःकाल देवे तो शीतज्वर, विषमज्वर, ऐकाहिक, द्व्याहिक, और त्र्याहिक, इत्यादि ज्वरोंको नाश करे ॥

शक्राह्वादिकाढा ।

शक्राह्वदद्रुघ्नवृपामृतानांनिर्गुंडिकाभृंगमहौषधानां ॥

क्षुद्रायवानीसहितः कषायः शीतज्वरारण्यहिरण्यरेताः॥

**अर्थ–**कूडाको छाल, पमारकी जड़ अडूसा, गिलोय, निर्गुंडी, भाँगरा, सोंठ, कटेरी और अजमायन, इनका काढा शीतज्वररूप वनके नाश करनेको दावानल रूप है ॥

धनादिकाढा।

घननिंबमहौषधामृताकटुवार्ताकिपटोलवत्सजैः ॥
विहितंमधुनायुतंपिबेत्किलशीतज्वरशांतयेशृतं ॥

**अर्थ–**नागरमोथा, नीमकी छाल, सोंठ, गिलोय, कटेरी, पटोलपत्र, और इन्दजौ इनका काढा शहत डालके देवे तो शीतज्वर नाश होय ॥

भद्रादिकाढा।

भद्राधान्याकशुंठीभिर्गुडूचिमुस्तपद्मकैः ॥ रक्तचंदनभूनिंबपटोलवृपपौष्करैः ॥ कटुकेंद्रयवारिष्टभांर्गीपर्पटकैः समं ॥ क्वाथः प्रातर्निपेवेतसर्वशीतज्वरापहं॥

**अर्थ–**थूहर, धनिया, सोंठ, गिलोय, नागरमोथा, पद्माख, लालचंदन, चिरायता, पटोलपत्र, अडूसा, पुहकरमूल, कुटकी, इन्द्रजौ, नीमकीछाल, भारंगी और पित्तपापड़ा ये समानभाग लेकर काढा कर प्रातःकाल देनेसे सर्व शीतज्वर दूर हो ॥

दाहपूर्वविषमपेविभीतादिकाढा।

विभीतोव्याधिघातश्चकटुकीत्रिवृताभया ॥
क्वाथोह्ययंतृपादाहविषमज्वरनाशकृत् ॥

**अर्थ–**बहेडा, अमलतासका गूदा, कुटकी, निसोथ और हरड, इनका काढा तृषा, दाह, और विषमज्वर को नाश करे ॥

महाबलादिकाढा।

महाबलामूलमहौषधाभ्यांक्वाथोनिहन्याद्विषमज्वरंहि ॥ शीतंसकंपंपरिदाहयुक्तंविनाशयेद्द्वित्रिदिनप्रयोगात् ॥

**अर्थ–**खरेटीकी जड, और सोंठ, इनका काढाशीत, कंप, और दाहयुक्त ज्वरको दो तीन दिनमें नाश करे ॥

व्याघ्य्रादिकाढा।

व्याघ्रीविश्ववितुन्नपुष्कररजोभूनिंबवासामृताभांर्गीनिंबपटोलपद्मकपघनेंस्तिक्ताकलिंगैःकृतः ॥ क्वाथोहंतिसचंदनः कफमरुत्पित्तंसदाहंतृषांकासंपंचविधंज्वरंकृमिरुजंपाडुंवमिंकामलाम् ॥

**अर्थ–**कटेरी, सोंठ, गुडतजी, पुहकरमूल, पित्तपापडा, चिरायता, अडूसा, गिलोय, भारंगी, नीमकी छाल, पटोलपत्र, नागरमोथा, कुटकी, इन्द्रजौओर लालचंदन, इनका काढा कफ, वात, पित्त, दाह, प्यास, पांचप्रकारको खांसी, वर, कृमि, पांडुरोग, वमन और कामला इनको नाश करे ॥

देवतापूजन।

सोमंसानुचरंदेवंसमातृगणमीश्वरं ॥
पूजयन्प्रयतःशीघ्रंमुच्यतेविषमज्वरात् ॥

**अर्थ–**पार्वती, तथा पार्वतीके गण मातृगण और प्रमथादि गण इनके साथ शिवकी भक्ति करके पूजा करने से रोगी विषमज्वरसे शीघ्र मुक्त हो ॥

दूसराप्रकार।

विष्णुंसहस्रमूर्धानंचराचरपतिंविभुम् ॥
स्तुवन्नामसहस्रेणज्वरान्सर्वान्व्यपोहति ॥

**अर्थ–**जो अनंतशिरा, तथा चराचरका स्वामी, ऐसे विष्णुभगवानके सहस्र नाम पाठ करनेसे सर्व ज्वर दूर हो॥

ज्वरपूजा।

तीर्थाध्ययनदेवाग्निगुरुवृद्धोपसर्पर्णः ॥
श्रद्धयापूजनैश्चापिसहसाशाम्यतिज्वरः॥

**अर्थ–**तीर्थसेवन, वेदपाठ, देव, अग्नि, गुरु, युद्ध इनकी सेवा भक्ती और पूजन करनेसे विषमज्वर दूर होय ॥

पद्मकादितैल।

पद्धकोत्पलकह्लारमृणालबिसपौष्करैः ॥ कुमुदोशीरमंजिष्ठापद्मगैरिककट्फलैः ॥ सारिवाद्वयलोध्राब्दक्षीरीखर्जूरमुस्तकैः॥ धात्रीशतावरीयुक्तैः क्वाथेकल्केप्रयोजितैः॥ द्राक्षारसपयःशुक्लामस्तुभिःसहकांजिकैः ॥ पक्वंतैलमिदंपाच्यंदाहज्वरहरंपरम् ॥

**अर्थ–**कूठ, कमलका कंद, लाल कमलका कंद, खस पुहकरमूल, कमांदनी नेत्रवाला, मँजीठ, पद्माख , गेरू, कायफल, दोनो सारिवा, लोध, मोथ मोखावृक्षकी छाल, खजूर, नागरमोथा, आमले और शतावर, इनका काढा कर इसमें इन्ही औषधोका कल्क मिलाय और लाखका सीरा, दूध, विदारी कंदका रस, दहीका तोड और काँजी ये प्रत्येक तेलके समान डालके तैलसिद्ध करे इसको देहमें मालिस करनेसे दाह ज्वरका नाश करे ॥

माहेश्वरधूप।

जटाधरीगोशृंगंबिडालविष्टोरगस्यनिर्मोकः ॥ मदनफलभूतकेशीवंशत्वग्नुद्रनिर्माल्यं॥ घृतयवमयूरचंद्रच्छगलकलोमानिसर्पपाःसवचाः ॥ हिंगुगवास्थिमरीचासमभागाश्छागमूत्रसं पिष्टाः॥ धूपनविधिनाशमयंत्येतेसर्वान्ज्वरान्नियतं ॥ ग्रहडाकिनीपिशाचप्रेतविकारानयंधूपः॥

**अर्थ–**ईश्वरी गौका सींग, विलावकी विष्ठा, सॉपकी कॉचली, मैनफल, भूतकेशी, बांसकी छाल, शिवनिर्माल्य, घी, जौ, मोरकी चंद्रिका, बकरीके बाल, सपेद सरसों, वच, हींग, गौका हाड और काली मिरच, सव समान भाग लेकर बकरीके मूत्रसे पीसे इसकी धूनी देनेस यह सर्व ज्वरोंको ग्रहपीडाको, डाकिनी, पिशाच और प्रेतबाधा, इन सबको दूर करे ॥

गोजिह्वादिचूर्ण।

गोजिह्वाचजयामूलंपिष्ट्वातंडुलवारिणा ॥
पीतंशीतज्वरंहंतिपाठाद्भिर्मरिचानिच ॥

**अर्थ–**गोभी और जयाकीजड़, इनको चावलके पानीसे पीस कर पीबे अथवा पाढके काढेमें कालीमिरच डालके पीबे तो शीतज्वर नष्ट होय ॥

जीरकादिचूर्ण।

जीरकंलशुनंव्योपंपाठापिष्ट्वोष्णवारिणा ॥
शीतज्वरस्यागमनेपिबेद्गुडयुतेनच॥

**अर्थ–**जीरा, लहसन, त्रिकुटा,पाढ और गुड़ इनको गरम जलके साथ पीबे तो शीतज्वर दूर हो प्रथम इन औषधोंको पीसके कल्क कर लेवे फिर गुड मिलावे ॥

त्रपुसभक्षण।

पुसंभक्षयित्वाग्रेतक्रमम्लंपिवेदनु ॥
ततोहुताशंसेवेतप्रावृतोवातपेस्फुटम्॥
ततःप्रस्विद्यसर्वागंयातिशीतज्वरःक्षयं ॥

**अर्थ–**खीरा खायकर ऊपरसे खट्टी छॉछ पीवे फिर अग्निसे तापे अथवा धूपमें ओंढ कर बैठे तो सर्व देहमें पसीने आन्कर शीतज्वर दूर होय ॥

कायस्थादिधूपलेपन व तैल।

कायस्थानाकुलीतिक्तावयस्थापुरचोरकैः ॥ सहदेवीवचाकुष्ठैःशीतघ्नैर्धूपलेपुनैः॥ एतैरेवौषधैःपिष्टैर्लवणक्षारसंयुतैः ॥ साम्लैर्विपाचितंतैलमभ्यंगाच्छीतनाशनम् ॥

**अर्थ–**तुलसी, रास्ना, कुटकी, दारुहलदी, गूगल, गठोना, सहदेवी, वच और कूठ, इनकी धूनी अथवा लेप फरे अथवा इस औषधोंका कल्क और सैंधानिमक, जवाखार और नींबका रसडालके तेल सिद्ध करे इसकी मालिस करनेसे शीतज्वर दूर हो ॥

मृतकर्पटककाधूप।

मृतकर्पटधूपेनसद्यःशीतज्वरंजयेत् ॥

**अर्थ–**मुरदेके कपडेकी धूनी देनेसे शीतज्वर तत्काल दूर होय ॥

जयामूलीबंध।

जयामूलंशीरोबद्धाहंतिशीतज्वरंध्रुवं ॥ किंवागुंडफलामूलं कर्णेबद्धंनिशिज्वरं ॥ शीतज्वरंहरेत्तूर्णमथवाम्रस्यमूलकं ॥ शिखायांचकरेबद्धंहंतिचोष्णज्वरंद्रुतं ॥

**अर्थ–**अरनीकी जडको मस्तकमें बाँधनसे निश्चय शीतज्वर दूरहो, अथवा बंदालको जडको कानमें बाँधे तो रात्रिमें आनेवाला ज्वर नाश होय तथा आमकी जड़को चोटीमें अथवा हाथमें बाँधे तो उष्णज्वरका तत्कालनाश होय॥

बांदाबंधनम् ।

ऋक्षेपुनर्वसौग्राह्यंमंदारस्यतुवृंदकं॥

तद्दक्षिणकरेबद्धंशीतज्वरविनाशनं ॥

**अर्थ–**पुनर्वसु नक्षत्र में मंदारका बंदा लायके दहने हाथमें बाँधेतो शीतज्वर अवश्य नष्ट होय॥

कांतालिंगन।

चेतोमुपांपीनपयोधराणांकस्तूरिकाचंदनचर्चितानां ॥
शीतज्वरेशस्तमथांगनानामालिंगनंचारुहिमावधिस्यात् ॥

**अर्थ–**चित्तको हर्ष देनेवाली, पुष्टस्तनी, तरुण और कस्तूरी देहमें लगी हुई ऐसी स्त्रियोंका आलिंगन जबतक शीत दूर न होय तबतक करे ॥

दूरीकरण।

कांतांगसंगसंजातात्तस्यशीतेनिवारिते॥
प्रल्हादंचास्यविज्ञायपृथक्तांकारयत्स्त्रियम् ॥

**अर्थ–**स्त्रीके आलिंगन करनेसे जब शीत चलानाय और जब जाने कि रोगीको आनंद हुआ अब मैथुन करेगा तभी स्त्रीको दूर करदेवे अन्यथा मैथुन करनेसे विषमज्वर होजाता है ॥

रसोनकल्क।

रसोनकल्कंतैलेनसर्पिपावातिलैरपि ॥
सेवितंविषमंहंतिवातश्लेष्मगदानपि ॥

**अर्थ–**लहसनका तथा तिलोंका कल्क घृतसे अथवा तेलसे सेवन करे तो विषमज्वर और वातश्लेम संबंधि ज्वरनाश होय ॥

रास्नादिकाढा।

रास्नानागरकृष्णांचकल्कमुष्णांबुनापिबेत् ॥
श्वासकासाग्निमाद्यंचज्वरंशीतंविनाशयेत् ॥

**अर्थ–**रास्ना, सोंठ और पीपल, इनका कल्क करके गरम जलसे देय तो खांसी, श्वास, मंदाग्नि और शीतज्वर, इनका नाश करे ॥

भूतभैरवचूर्ण।

तालकंशुक्तिकाचूर्णंतुल्यंतत्रोभयोरपि॥ नवमांशंतुतुत्थंस्यान्मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः॥ तत्तुसंशुष्कमुपलैर्वन्यर्गजपुटेपचेत् ॥ शीतंतत्पेपयेच्चूर्णंगुंजामात्रंसितायुतं ॥ प्रभातेभक्षयेत्तेनयातिशीतज्वरःक्षयं ॥ वांतिर्भवतिकस्यापिकस्यापिनभवत्यपि॥ एकेनदिवसेनैवशीतज्वरहरंपरं ॥ मध्याह्नसमयेपथ्यं भक्तंशिखरिणीतथा ॥

**अर्थ–**हरताल, सीपका चूर्ण, दोनो बराबर ले इन दोनोंका नववां भागलीलाथोया लेवे सबको घीगुवारके रसमें खरल करे जब सूख जाये तब गजपुटमें धरके फूंक देवे जब शीतल होजाय तब निकालके खरल कर डारेऔर १ रत्ती रस मिश्रीके साथ प्रातःकाल देवे तो शीतज्वर एक दिनमें दूर होय जब दोप्रहर हो जाये तब भात और सिखरनका भोजन करावे इस औषधसे किसीको वमन होती है और किसीको नहीं होती ॥

पथ्यादिचूर्ण।

पथ्याशक्रशताचूर्णकर्पमात्रंगुडेनतु ॥
भक्षितंनाशयत्याशुशीतकंविषमज्वरम् ॥

**अर्थ–**हरड, और इन्द्रजौइनका तोले भर चूर्ण गुडके साथ खाय तो शीत ज्वर तत्काल दूर होवे ॥

हरिद्रादिचूर्ण।

हरिद्रानिंबमात्रापिपिप्पल्यामरिचानिच ॥ भद्रमुस्त

विल निसप्तमंविश्वभेषजं ॥ सैंधवंचित्रकंकुष्ठंविषपाठाहरी

तकी॥ एतानिसमभागानिअजामूत्रेणपेपयेत् ॥ नावनांजनपानेषु गोमूत्रासृग्रसांजनैः ॥ जयेत्प्रयुक्तंविषमंज्वरमाशुनिकृंतति ॥ सर्वजंसमधुव्योपंगवांमूत्रेणशीतलं ॥ मधुनाशीतकंदेयंरक्तपित्तंपस्यता ॥ क्षयंक्षीराश्वगंधाभ्यांकासश्वासार्दितान्गदान् ॥ तक्रादिग्रहणीरोगान्कृच्छ्रंतण्डुलवारिणा ॥ प्रमेहंमधुनागुल्मशूलंचगुडवारिणा ॥ पीतमुष्णांभसावातंशूलस्यालेपनाद्रुजात्॥

**अर्थ–**हलदी, नीमके पत्ते, पीपल, कालीमिरच, नागरमोथा, वायविडंग, सोंठ, सैंधानिमक, चीता, कूठ, पाढऔर हरड, ये समान भाग लेकर वकरीके मूत्रसे पीसे इस चूर्णको गोमूत्रसे नस्य देवे,रक्तमें अंजन करावे और रसोतके साथ पान करे तो विषमज्वर जाय और सन्निपातमें शहत तथा त्रिकुटाके साथ शीतज्वरमें गोमूत्र अथवा शहतसे देवे, रक्तपित्तमें अडूसके साथ, भय, खाँसी, श्वास, इनमें दूध, तथा असगंधके चूर्णके साथ, संग्रहणी में छाँछके साथ, मूत्रकृच्छू चावलोंके धोवनके पानीकेसाथ, प्रमेहमें शहतके साथ, गोला और शूल इनमें गुडके पानीके साथ, बादीके रोगमें गरम जलके साथ तथा शूलमें अदरखके रसके साथ, देवे तो उक्त रोगोंको दूर करे॥

आरोग्यरागीरस।

रसोगंधकणामूलंवंशजंजयपालकं ॥ व्योपञ्चबाणलवणंबिडं चंद्रलवंक्षिपेत् ॥ तांबूलरसतोमर्द्यंदिनंतांबूलपत्रयुक् ॥ दत्तोनवज्वरंहंतितापेशीतक्रियोचिता ॥ सर्वज्वरेसन्निपातेददेत्तंतुद्विगुंजकं ॥ आरोग्यरागिनामायंरसः परमदुर्लभः॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, पीपरामूल, वंशलोचन, जमालगोटा,सोंठ,मिरच,पीपर, पॉचोंनिमक और विड, ये सब एक २ भाग, एकत्र कर पानके रसमें एक दिन खरल कर २ रत्तीकी गोली करे एक गोली दो पानमें धरके देय तो यह (आरोग्यरागी रस ) पूर्णज्वर, तथा संनिपात इनका नाश करे यह रस अत्यंत दुर्ल्लभ है॥

शीतांकुश।

तुत्थंटंकणसूतखर्परविपंस्याद्गंधकंतालकंसर्वंखल्वतलेविमर्द्यघटिकांतंकारवेल्लीरसैः ॥ गुंजैकागुटिकासशर्करयुतासंजीरकेणाथवाएकाद्द्वित्रिचतुर्थशीतहरणाच्छीतांकुशोनामतः॥

**अर्थ–**लीलाथोथा, सुहागा, पारा, खपरिया, विष, गंधक और हरताल, इन सबको करेलेके रससे घडीभर खरल कर रत्तीभरकी गोली बनावे एकगोली मिश्रीके साथ अथवा जीरेके साथ देवे तो यह (शीतांकुश) रस ऐकाहिक, द्व्याहिक, त्र्यहिक और चातुर्थिक, ज्वरोंका नाश करे ॥

तालकादिशीतारिरस ।

तालकखर्परमूपकयुग्मं कांचनपल्लवरसेनघृष्टं॥
मर्दयमर्दयपुनरपिमर्दय शीतभयादिनिवारणगुटिका ॥

**अर्थ–**हरताल, खपरिया, तथा छोटी बडी दोनों मूषाकर्णी इनको धतूरेकेपत्नोंके रसमें खरलकर गुटिका बनाये इसके सेवन करनेसे शीतज्वर दूर हो॥

दूसराप्रकार।

पिष्ट्वातालकमेकभागममलंशंबूकचूर्णंक्षिपेद्दत्वाचाथनवांशतोपिचशिखिग्रीवंयुनःपेपयेत् ॥ कौमारीरसमर्दितंगजपुटेपाकंचशीतंततोगृह्णीयादथगुंजयाज्वरहरंखंडेनसंयोजयेत् ॥ एकद्वित्रिभवंचतुर्थकमयंवेलाज्वरंनाशयेच्छीतारिश्चपलाययेज्वर मिमंभानुंयथाशर्वरी॥

**अर्थ–**हरताल १ भाग, शंखकी भस्म और लीलाथोथा नवमांश इन तीनोंका चूर्ण धीगुवारके रसमें खरलकर गजपुटमें फूंक देवे जब शीतल होजाय तब निकालके १ रत्ती यह रसखांडके साथ देवे तो ऐकाहिक, द्व्याहिक, त्र्याहिक, चातुर्थिक और वेलाज्वर इनका नाश होय इसको (शीतारि रस ) कहते हैं इसके देतेही ज्वर दूर हो जैसे सूर्यके उदयसे रात्रि ॥

तीसराप्रकार ।

मनःशिलातालकतुत्थताम्ररसेनगंधंसमकर्पभागं ॥ संमर्दयेतत्रिफलारसेनगोलं- न्यसेत्संपुटकेप्रदद्यात् ॥ पुटांततोद्धृत्यचभानुवज्रीदुग्धेनभाव्यःकिलसप्तवारं ॥ क्वाथेनदंतीत्रिवृतोद्भवेनविभावनाः सप्तपुनः प्रदेयाः ॥ ततोस्यमापंमरिचैः शतार्धैर्गद्याणमात्रेणगुडेनयुक्तं ॥ संभक्षयेद्वातुलसीदलाभ्यांदिनत्रयंपथ्यमितोदनंच ॥ शीतारिनामारसएपहंतिशीतज्वरंघोरतरंसवातम् ॥

**अर्थ–**मनसिल, हरताल, लीलाथोथा, ताम्रभस्म, पारा, गंधक ये सब समान भागले त्रिफलेके रसमें खरलकर गोला बनाय उसपर कपड मिट्टी कर गजपुटमें फूंकदेवे, फिर निकालके आक, थूहर इनके रसकी सात २ भावना दे फिर दंती निसोथइनके काढेकी सात २ भावना देकर मासेभरको गोली बनाय ले, एक गोली तुलसीके रसमें पचास कालीमिरचका चूर्ण छः मासे और गुड इनके साथ देवे और तीन दिन पथ्य तथा अल्पभोजन करे तो यह (शीतारिनामा) रस घोर शीतज्वरको नाश करे ॥

चौथाप्रकार।

रसंगंधंचदरदंजेपालंक्रमवर्धितं ॥ दंतीरसेनसंपिप्यवटीगुंजामिताकृता ॥ प्रभातेसितयासार्धंभक्षिताशीतवारिणा ॥ एके नदिवसेनैवशीतज्वरमपोहति ॥

**अर्थ–**पारा १ भाग; गंधक २ भाग हिंगुल ३ भाग, और जमालगोटा चार भाग, ले दंतीके रसमें खरलकर रत्तीभरकी गोली करे इस गोलीको प्रातःकाल मिश्री और शीतल जलके साथ लेवे तो, यह (शीतारी रस) जीर्ण ज्वरका नाश करे ॥

भूतभैरवरस।

एककर्पंभवेत्तालंद्विकर्पंतुत्थकंभवेत् ॥ षट्कर्पंभृष्टशुक्तीनांचूर्णमेकत्रकारयेत् ॥ धत्तूरपत्रस्वरसैर्मर्दयेद्याममात्रकं ॥ निधायभाजनेलौहेसंमर्द्यक्रमशोबुधः ॥ उपर्यग्नेः स्थापयित्वातच्चसंशोपयेद्भिषक् ॥ पुनःपर्युपितंप्रातर्गृहीत्वाकिंचिदग्नितः॥ कोष्णंकृत्वाकल्कमेतत्ततोवैद्यःप्रसाधितः ॥ चणकप्रमितांदद्यादेकांशर्करयासह॥ शीतज्वरंनिहंत्येवसर्वंनास्त्यत्रसंशयः॥

**अर्थ–**हरताल १ तोला, लीलाथोथा २ तोले, शीपकी भस्म ६ तोले, सबको एकत्र कर धतूरेके पत्तोंके रसमें लोहके पात्रमें प्रहरभर खरल करे फिर उसको चूल्हेपर चढायके घोटे जब रस सूखजाय तब उसमें नींबूका रस दे प्रातःकाल अग्निपर कुछ गरम कर धतूरेका रस डालके सिद्धकरे और इसकी चनेके प्रमाण गोली वनावे एक गोलो मिश्रीके साथ देय तो यह (भूतभैरव रस) सर्व शीतज्वरोंको निःसंदेह नाश करे ॥

दाहपूर्वपरशीतोपचार।

एरंडस्यतुपत्राणिलिप्त्वाभूमौनिधापयेत् ॥ दाहादिज्वरिणोदेहेतानिपत्राणिधारयेत् ॥ तेननश्यतिदाहोस्यज्वरश्चैवोपशाम्यति ॥ दाहेशांतेयदाशैत्यंतच्चयुक्त्यानिवारयेत् ॥

**अर्थ–**अंडकेपत्ते लिपीहुई पृथ्वीमें विछायदे जब शीतल होजावे तब दाह ज्वरवाले रोगीकेदेहपर लगावे तो उसका दाह शांत हो और ज्वरभी नष्ट हो जब दाह शांत होजावे और शीतलगे तो उसको वैद्य युक्तिपूर्वक अपनी बुद्धिसे दूर करे ॥

दाहऊपरस्त्रीकाआलिंगन ।

जघनचक्रचलन्मणिमेखलासरसचंदनचंद्रविलेपना॥
वनलतेवतरुंपरिवेष्टयेत्प्रबलदाहनिपीडितमंगना ॥

**अर्थ–**प्रबलदाहसे पीडित रोगीको जिसके कमरमें कोंधनी बजतीहो, तथा जिसने सुगंध, चंदन और कपूर, अंगमें लगाय रक्खा ही ऐसी स्त्री जैसे वेल वृक्षसे लपटती है इस प्रकार आलिंगन करे तो दाह शांत हो ॥

स्त्रीदूरीकरण।

तदंगसंगसंजातः शैत्यैर्दाहेनिवारिते॥
प्रह्लादंचास्यविज्ञायतांस्त्रीमपनयेत्युनः॥

**अर्थ–**जबस्त्रीके आलिंगन करनेसे दाह जाता रहे और रोगीको हर्ष हो तब उस स्त्रीको शीघ्र उसके पाससे हटाय लेवे ॥

शीतोपचार।

उत्तानसुप्तस्यगभीरताम्रर्कास्यादिपात्रंप्रणिधायनाभौ ॥
तत्रांवुधाराबहुलापतंतीनिहतिदाहंत्वरितंसुशीतम् ॥

**अर्थ–**दाहवाले पुरुषको चित्त ( सीधा ) लिटायकर उसकी नाभीपर तामेंका अथवा कांसेका पात्र धरके उसमें शीतल पानीकी धार दिवावे इस प्रकार शीतल धारासे तत्काल दाह दूर होय ॥

दाहपरषट्तक्रतैल ।

सुवर्चिकानागरकुष्टमूर्वालाक्षानिशालोहितयष्टिकाभिः॥

सिद्धंहरेत्पङ्गुणतक्रपक्वंतैलंज्वरंदाहसमन्वितंच ॥

**अर्थ–**सज्जीखार, सोंठ, कूठ, मूर्वा, लाख, हलदी, पतंग और मुलहटी, इनके काढेमें तेल तथा तेलसे छःगुना दहीका जल डालके सिद्ध करे जब तेल मात्र रहे तब उतारके इस तेलका मालिस करे तो दाहयुक्त ज्वरको शांत करे॥

महाषट्कतैल।

रास्नानागरकुष्टचंदननिशायष्ट्याह्वकृष्णावलालाक्षासैंधवसारिवामधुरसादेवद्रुरोहीतकैः ॥ सोशीरांबुधिफेनरौहिपजलैस्तैलंपचेत्पड्गुणेतकेतच्छमयेज्ज्वरंदृढतरंदाहादिशीतादिकम् ॥

**अर्थ–**रास्ना, सोंठ, कुठ, लालचंदन, हलदी,मुलहटी, पीपल, खरेटी, लाख, सैंधानिमक,सारिवा, मूर्वा, देवदारु, लालरोहिडा, नेत्रवाला, समुद्रफेन और रोहिसतृण, इनके काढेमें तेल और तेलसे छः गुनी छाँछमिलाय तेल सिद्ध करे यह तेल दाहपूर्वक तथा शीतपूर्वक ज्वरका शमन करे ॥

अंगारतैल।

मूर्वालाक्षाहरिद्रेद्वेमंजिष्ठासेंद्रवारुणी ॥ बृहतीसैंधवंकुष्टंरानामांसीशतावरी ॥ आरनालाढकेचैवतैलप्रस्थंविपाचयेत् ॥ तैलमंगारकंनामसर्वज्वरविमोक्षणम् ॥

**अर्थ–**मूर्वा, लाख, हलदी, दारुहलदी, मँजीठ, इन्द्रायनका गूदा, कटेरी, सैंधानिमक, कूठ, रास्ना, जटामांसी और सतावर, इनका काढा और काँजी २५६ तोले लेय, तथा तेल १ सेर सबको एकत्रकर तेल सिद्धकरे इसकी मालिस करनेसे सर्व ज्वरोंको नाश करे इसे अंगारक तेल कहते हैं ॥

रसादिधातुगतज्वरलक्षण ।

गुरुताहृदयोत्क्लेदसदनंछर्द्यरोचकौ ॥
रसस्थेतुज्वरेलिंगंदैन्यंचास्योपजायते ॥

**अर्थ–**रसधातुगतज्वर होनेसे देहमें भारीपना, हृदयस्थ दोष, उलटी द्वारा निकल पडेसे प्रतीतहो, देहके सब अवयवोमें ग्लानि, वमन, अरुचि और उदासपना ये लक्षण होते हैं ॥

रसरक्तगतज्वरकीचिकित्सा।

रसस्थेचाज्वरेतस्मिन्कुर्याद्वमनलंघनं ॥

**अर्थ–**रसधातुगतज्वर होनेसे वमन और लंघन कराने चाहिये ।

धातुगतज्वरचिकित्साप्रक्रिया।

रसस्थेरससंशुद्धिरक्तस्थेरक्तमोक्षणं ॥ मांसस्थेरेचनंशस्तंमेदस्थेचसहिष्णुता॥ रेचनंवमनंस्वेदंचास्थिस्थेस्वेदमर्दनम्॥ मज्जाशुक्राशयंदृष्ट्वातमसाध्यंज्वरंजयेत् ॥

**अर्थ–**रसधानुगतज्वर होनेसे पसीने निकालना और रक्तधातुगतज्वर होनेसे फस्तखोलना, मांसधातुगतज्वर होनेसे उसमें दस्तकराना और मेदधातुगतज्वर होनेसे कोई वस्तु सहन नहीं होती परंतु रेचन, वमन और पसीने निकालना ये क्रिया करावे, अस्थिगतज्वर होनेसे पसीने निकाले और मर्दन करावेमज्जा और शुक्रधातुगतज्यर होनेसे असाध्य जानना इनका यत्न नहीं है।

रक्तधातुगतज्वरलक्षण ।

रक्तनिष्ठीवनंदाहोमोहश्छदंनविभ्रमः॥

प्रलापःपिटिकातृष्णारक्तप्राप्तेज्वरेनृणाम् ॥

**अर्थ–**रुधिर मिलाथूके, देहमेंदाह, मोह, ओकी, भ्रम, असंबद्ध भाषण, देहमें फुंसी और प्यास ये रक्तधातुगतज्वरके लक्षण जानने ॥

गायत्र्यादिकाढा।

गायत्रीत्रिफलानिंबपटोलीवासकामृता ॥
क्वाथोमधुघृताभ्यांचरक्तदोषेतिशस्यते ॥

**अर्थ–**स्वैर, त्रिफला, नीमकीछाल, पटोलपत्र, अडूसा और गिलोय, इनका काढा शहत और घी डालके देय तो यह रक्तदोष पर अति उत्तम है॥

वराप्यजादिकाढा।

वराप्यजाजीबृहतीहरिद्रावेण्वाटरूपप्रभवः कषायः ॥
जहातिदूरंमधुवाविमिश्रितोरक्तोद्भवंदारुणमूर्तिवेगम् ॥

**अर्थ–**त्रिफला, अजमायन, कटेरी, हलदी, रेणुकाबीज और अडूसा, इसमें शहत डालके पीवे तो रुधिरसे उत्पन्न हुआ दारुणज्वरका नाश करे ॥

वृषादिकाढा।

वृषोदुरालभाश्यामापर्पटः कटुरोहिणी ॥ किरातमथमेतेषां क्वाथः पीतः सितायुतः ॥ रक्तोद्भवंमहादाहंतृष्णांमूर्छांमतिभ्रमं ॥ पित्तज्वरंहरत्याशुपापमीशोयथास्मृतः॥

**अर्थ–**अडूसा, धमासा, पीपल, पित्तपापड़ा, कुटकी और चिरायता इनका काढा शहत मिलायके देवे तो रक्ताश्रितज्वर, दाह, तृषा, मूर्च्छा, मतिभ्रंश और पित्तज्वर ये दूर हो, जैसे परमात्माके स्मरणसे पाप दूर होते हैं ॥

रक्तगतचिकित्साक्रम।

सेकसंशमनालेपरक्तमोक्षस्त्वमृग्गते ॥

**अर्थ–**रक्तगतज्वर होनेसे देह पर पानीका तरडा देना ज्वरशमन कर्त्ताऔषध लेना, लेप करना और रुधिर निकलवाना ये उपचार कराने चाहिये॥

मांसगतज्वरलक्षण।

पिंडिकोद्वेष्टनंतृष्णासृष्टमूत्रपुरीपता ॥

उष्मांतर्दाहविक्षेपोग्लानिःस्यान्मासगेज्वरे ॥

**अर्थ–**जानुके नीचे मांसकी गांठ हो, प्यासलगे, मलमूत्र ये बहुत हो, गरमी तथा अंतरदाह हो, हाथ पैर अस्तव्यस्त हले, शरीरमें ग्लानि आवे, इत्यादिक मांस गतज्वरके लक्षण होते हैं ।

मांसगतज्वरचिकित्सा।

तीक्ष्णान्विरेकांश्चतथाकुर्यान्मांसगतेज्वरे ॥

**अर्थ–**मांसमें ज्वर चलागया होवे तो तीक्ष्ण ( तेज) जुलाब देय ॥

मेदगतज्वरलक्षण ।

भृशंस्वेदस्तुपामूर्छाप्रलापश्छर्दिरेवच ॥
दौर्गंध्यारोचकोग्लानिर्मदस्थेचासहिष्णुता ॥

**अर्थ–**अंगमें अत्यंत पसीने, प्यास, मूर्च्छाऔर वकवाद, वमन, अंगमें दुर्गंधी, अरुचि और ग्लानि तथा अल्प कारणसे बहुत दुख हो, ये मेदगत ज्वरके लक्षण जानने ॥

अस्थिगतज्वरलक्षण।

मेदोस्थ्नांकूजनंश्वासोविरेकश्छर्दिरेवच ॥

विक्षेपणंचगात्राणांविद्यादस्थिगतेज्वरे॥

**अर्थ–**हाडोंमें पीडा, तथा हाडोंका बोलना, श्वास, दस्तहोना, वमन और हात पैरोंका इधर उधर गिरना इत्यादि लक्षण अस्थिगतज्वरके जानने ॥

चिकित्सा।

अस्थित्वेवांतिनाशनं ॥बस्तिकर्मप्रयोक्तव्यमभ्यंगोद्वर्तनंतथा॥

**अर्थ–**अस्थिगतज्वर होनेसे वांति नाशक औषध, बस्तिकर्म, अभ्यंग और उवटना ये उपचार करने चाहिये ॥

मज्जागतज्वरलक्षण।

तमःप्रवेशनंहिक्काकासः शैत्यंवमिस्तथा ॥
अंतर्दाहोमहाश्वासोमर्मछेदश्चमज्जगे॥

**अर्थ–**अंधकार दर्शन, हिचकी, खाँसी, शीत लगना, वमन,देहके भीतर दाह, महाश्वास और अंडकोश, ललाट, हृदय, नेत्र इन मर्मस्थानों में अत्यंत व्यथा होय ये मज्जागतज्वरकेलक्षण जानने ॥

मज्जाशुक्रगतज्वर।

मज्जाशुक्रक्रियानोक्तामरणंतत्रभाषितं ॥

**अर्थ–**मज्जागत तथा शुक्रगतज्वरका कोई यत्न नहीं कहा यदि मज्जा और शुक्रमें ज्वर पहुँच जाय तो रोगी अवश्य मरे ॥

शुक्रगतज्वरलक्षण।

शेफसः स्तब्धतामोक्षः शुक्रस्यतुविशेषतः॥
मरणंप्राप्नुयात्तत्रशुक्रस्थानगतेज्वरे ॥

**अर्थ–**शुक्रस्थानमें ज्वर पहुँचनेसे लिंगेन्द्री जिकडीसी होजावे और वीर्य क्षण क्षणमें बहुत गिरे ऐसा रोगी मरजावे॥

रसादिधातुसंबंधसेसाध्यासाध्य ।

रसरक्ताश्रितः साध्योमांसमेदगतश्चयः॥
अस्थिमज्जागतस्थोपिशुक्रस्थोपिनजीवति ॥

**अर्थ–**रस, रुधिर, मांस, मेद, इन धातुओंमें ज्वर पहुँचनेसे औषधोंकर साध्य होय हड्डी और मजागतज्वर दुःसाध्यहै तथा शुक्रगतज्वर होनेसे रोगी मरणको प्राप्त हो॥

प्राकृत व वैकृतज्वर ।

वर्षाशरद्वसंतेषुवाताद्यैः प्राकृतैः क्रमात् ॥
वैकृतोन्यःसुदुःसाध्यः प्राकृतश्चानिलोद्भवः॥

**अर्थ–**वर्षा, शरद् और वसंत इनमें क्रम करके वातादि करके ज्वर उत्पन्न होय वो (प्राकृतज्वर ) जानना और अन्यऋतुमें उत्पन्न होनेवाले ज्वरको (वैकृत) जानना जैसे वर्षाकालमें वातज्वर, शरद्कालमें पित्तज्वर और वसंतकालमें कफज्वर ये प्राकृत है, एवं वर्षा कालमें पित्तज्वर, शरत्कालमें कफज्वर, वसंतकालमें वातज्वर ये वैकृत दुःसाध्य जानना और प्राकृत वातज्वर दुःसाध्य है तथा प्राकृत पित्तज्वर सुसाध्य है ॥

प्राकृतज्वरकीउत्पत्तिक्रमकहतेहैं ।

वर्षासुमारुतोदुष्टःपित्तश्लेष्मान्वितोज्वरं ॥ कुर्याच्चपित्तंशरदितस्यचानुबलःकफः ॥ तत्प्रकृत्याविसर्गाच्चतत्रनानशनाद्भयं ॥ कफोवसंतेतमपिवातपित्तंभवेदनु ॥

**अर्थ–**ग्रीष्मऋतुमें संचित वायु वर्षाकालमें कुपित हो पित्तकफयुक्त होकर ज्वर उत्पन्नकरता है, उसीप्रकारका वर्षाकालमें संचित पित्त शरत्कालमें दुष्टहो, ज्वरको करे हैं उसका सहायकर्ताकफ है, उसज्वरमें कफपित्तके स्वभाव करके और विसर्ग काल होनेके कारण लंघन करानेसे भय नहीं रहता है,उसीप्रकार हेमंत कालमें संचित कफ वसंतकालमें ज्वर उत्पन्न करता है उसके वातपित्त ये सहायकरता जानने ॥

कालेयथास्वंसर्वेपांप्रवृत्तिर्वृद्धिरेववा ॥
निदानोक्तोनुपशयोविपरीतोपशायिता॥

**अर्थ–**काल जैसे दोषेंको उत्पन्न कर बढाने बालाहै उसीप्रकार उपशयानुपशय भी हैं तहां दोषोंके बढानेवाले जे आहार विहारादि आचार वो अनुपशयअर्थात् उससे पीडा होती है और दोषोंका नाश करनेवाले जे आहारादि आचार बो उपशय कहिये इसके द्वारा सुख होता है॥

अंतर्वेगज्वरकेलक्षण ।

अंतर्दाहोधिकातृष्णाप्रलापःश्वसनंभ्रमः ॥
संध्यस्थिशूलमस्वेदोदोषवर्चोविनिग्रहः ॥
अंतर्वेगस्यलिंगानिज्वरस्यैतानि लक्षयेत् ॥

**अर्थ–**अंतर्दाह, अत्यंततृषा, बकवाद करना, श्वास, भ्रम, संधि और हड्डीइनमें पीडा, पसीने आवै तथा अधोवायु और मलका अच्छी तरह न उतरना ये अंतर्वेग ज्वरके लक्षण हैं यह असाध्य हैं ॥

बहिर्वेगज्वरलक्षण।

संतापोह्यधिकोबाह्यस्तृष्णादीनांचमार्दवम्॥

बहिर्वेगस्यलिंगानिसुखसाध्यत्वमेवच ॥

**अर्थ–**देहमें अत्यंत संताप और तृष्णादिक लक्षण अल्पहो, ये बहिर्वेग ज्वरके लक्षण जानने यह सुसाध्य है इस कहनेसे यह सिद्ध हुआ कि उक्तअंतर्वेग ज्वर असाध्य है ॥

आमाशयगतज्वरलक्षण।

लालाप्रसेकहृल्लासहृदयाशुध्यरोचकाः ॥ तंद्रालस्याविपाकास्यवैरस्यंगुरुगात्रता ॥ क्षुन्नाशोबहुमूत्रत्वंस्तब्धतावलवान्ज्वरः ॥ आमज्वरस्यचिह्नानिनदद्यात्तत्रभेषजम्॥ भेषजंह्यामदोषस्यभूयोजनयतिज्वरम्॥ शोधनंशमनीयंचकरोतिविषमज्वरं॥

**अर्थ–**लारका गिरना, ओकारी आनेकोसी भ्रांति, छाती भरीसी प्रतीत हो, अन्नद्वेष, अरुचि, तंद्रा, आलस्य, अन्न पचे नहीं, मुख बेरस हो, देहमें भारीपना, क्षुधा न लगे, वारंवार मूत्रका उतरना, अंगोंका जिकडना, तथा अंगोंमें अधिक ज्वर होना ये अपक्वज्वरके लक्षण जानने । इस ज्वरपर औषध नहीं देनी, अपक्व दोषोंमें औषध देनेसे ज्वरकी वृद्धि होती है शोधन अथवा शमन औषध देनेसे विषमज्वर करे है ॥

कटुक्यादिकाढा।

कटुकारोहिणीमुस्तापिप्पलीमूलमेवच ॥
हरीतकीततोतोयमामाशयगतेज्वरे ॥

**अर्थ–**कुटकी, नागरमोथा, पीपलामूल और छोटीहरड इनका काढा देनेसे आमाशयगतज्वर नाश होवे ॥

सर्वेश्वररस।

रसाद्विगुणितंगंधंचतुर्भागंतुटंकणं ॥ तथाष्टभागंजैपालंत्र्यहंसंमर्दयद्दृढम् ॥ वल्लोनवज्वरंहंतिरससर्वेश्वराभिधः ॥ वल्लद्वयंहरीतक्यायुक्तंवातज्वरेतथा ॥ द्विवल्लोमधुखंडेनपीतः क्षौद्रयुतः कफम् ॥ गुंजाजीर्णज्वरंघोरमतिलंघितजंतथा॥ वल्लस्तुसूतिकारोगेपिप्पलीमधुसंयुतः ॥ पंचवर्षस्थवालस्ययवमात्रोज्वरंजयेत् ॥ गुंजाभिवृध्याविषयान्यावच्चातुर्थिकानपि ॥ मलखंडेनसंयुक्तोहन्याज्ज्वरत्रयंतथा ॥ यवानीक्रिमिशत्रुभ्यां वल्लोहन्यात्कृमीनपि ॥ एवंसर्वगदान्हंतिरसोभैरवभाषितम् ॥

**अर्थ–**पारा १ भाग, गंधक २ भाग, सुहागा ४ भाग और जमाल गोटा ८ भाग , येसबएकत्रकर तीनदिन खरलकरे यह सर्वेश्वर रस नवज्वरको नाशकरै, हरडके साथ वातज्वरमें देय दो वल्लके अनुमान शहत और मिश्रीके साथ कफमें देय, १ रत्ती जीर्णज्वरमें देय और पीपल तथा शहतके साथ ३ रत्ती प्रसूतके रोगमें देय और पांच वर्षके बालकके ज्वरमें यव मात्र देवे यह रत्ती २ की वृद्धि से विषमज्वरमें देवे तो सातुर्थिक आदिका नाश करे तथा सपेद मिश्रीके साथ ज्वरत्रयका नाश करे तथा ३ रत्ती अजवायन, तथा वायविडंगके साथ देनेसे कृमिरोग दूर हो इस प्रकार यह सर्वरोगोंको नाश करे हैं ऐसा भैरवका वाक्य है ॥

त्रिपुरभैरवरस।

विषटंकंबलिम्लेच्छदंतिबीजंक्रमाद्बहु ॥ दंत्यंचुमर्दितोयामंरसस्त्रिपुरभैरवः ॥ वल्लव्योपेणचार्द्रस्यरसेनसितयाथवा ॥ दत्तोनवज्वरंहंतिमांद्यमानिलशोथहा ॥ हंतिशूलंसविष्टंभमर्शांसिकृमिजान्गदान ॥ पथ्यंतक्रेणभंजीतरसेस्मित्रोगहारिणि ॥

**अर्थ–**वच्छनागविष १ तोला, गंधक, ताम्रभस्म और जमालगोटा, ये समान भाग लेवे इनको दंतीके रसमें प्रहरमात्र खरल करे इसको (त्रिपुर भैरव) रस कहते है यह तीन रत्ती सोंठ, मिरच और पीपल, अदरखका रस, अथवा मिश्री, इनमेंसे किसीएकके साथ भक्षण करे तो नवज्वर, मंदाग्नि, वातशोथ, शूल, मलका रुकना, बवाशीर और कृमिसे होनेवाले रोग इनको नाश करे इसपर छाँछ भातका पथ्य देना चाहिये॥

रत्नगिरि।

सूताभ्रताम्रवर्णानिगंधश्चार्धांशिलोहकम् ॥लोहार्धंमृतवैक्रांतंमर्दयेद्भृंगजैर्द्रवैः॥ पर्पटीरसवत्पाच्यंचूर्णितंभावयेच्छरनैः॥ शिग्रुवासकनिर्गुंडीगुडूच्याग्नाग्निभृंगजैः ॥ क्षुद्रामुंडीजयंत्याथमुनिब्राहयथतिक्तकैः ॥ कन्यायाश्चद्रवैर्भाव्यंत्रिवारंतुपृथक्पृथक् ॥ ततोलघुपुटेपक्वंस्वांगशीतंसमुद्धरेत् ॥ मापोदत्तःकणाधान्ययुक्तश्चाभिनवज्वरम् ॥ कुर्याज्ज्वरविनिर्मुक्तंरोगिणंघटिकाद्वयात् ॥ अयंरत्नगिरिर्नामरसोयंयोगवाहकः ॥ मुद्गान्नंमुद्गयूपंवासमीरंतक्रभुक्तकम् ॥ रसेचोक्तंपथ्यमस्मिन्शाकंसर्वज्वरोदितम् ॥

**अर्थ–**पारा, अभ्रक, ताम्र, सुवर्ण और गंधक समान लें गंधकसे आघा लोहभस्म और लोहसे आधा वैक्रांत भस्म ले सबको एकत्रकर भाँगरेकेरसमें खरलकर पर्पटी रसके समान पचाय पर्पटी करे फिर इसका चूर्णकर, सहिंजना,अडूसा, सह्माँलू ,गिलोय, त्रिफला, चीता, भाँगरा, कटेरी, गोरखमुंडी अरनी, अगस्तिया, ब्राह्मी, चिरायता, और धीगुवार प्रत्येक रसकी तीन २ भावना,पृथक्२देके फिर इसको लघुपुटमें धरके फूंक देवे, जब स्वांगशीतल होजाय तब निकालके धर रक्खे इसमेंसे ६ रत्ती पीपल और धनियेके साथ देवे तो नवीन ज्वर दो घडीमें दूर हो इस रसको ( रत्नगिरी) कहते हैं इसको जिस औषधके योगसे देवे उसी उसी रोग को दूर करे इसके ऊपर मूंग अथवा मूंगका यूष, पवन, छाँछ और जो जो ज्वर रोगमें शाक देने पथ्य कहे हैं वो देने चाहिये॥

नवज्वरेभसिंह।

शुद्धसूतंतथागंधलोहंताम्रंचसीसकं ॥ मरीचंपिप्पलीविश्वं समभागानिचूर्णयेत् ॥ अर्धभागंविषंदत्वामर्दयेद्वासरद्वयम् ॥ शृंगवेरानुपानेनदद्याद्गुजाद्वयंभिषक् ॥ नवज्वरेमहाघोरेवातसं ग्रहणीगदे ॥ नवज्वरेभसिंहोयंसर्वरोगप्रशस्यते ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा, गंधक, लोहभस्म, सीसा, कालीमिरच, पीपल और सोंठ सब समान भाग लेवे, पारेसे आधा विष शुद्ध डाले, सबको एकत्र कर अदरखके रससे दोदिन खरल करे फिर दो रत्तीको गोली करे, इसको अदरखके रसके साथ घोर नवीन ज्वरमें और वातसंग्रहणीमें देवे, यह ( नवज्वरेभसिंहरस ) सर्व रोगमें देना चाहिये ॥

ज्वरघ्नीवटिका ।

एकभागोरसः शुद्धःशैलेयः पिप्पलीशिवा ॥ आकारकरभोगंधः कटुतैलेनशोधितः ॥ फलानिचेंद्रवारुण्याश्चतुर्भागमिताअमी ॥ एकत्रमर्दयेत्तूर्णमिंद्रवारुणिकारसैः॥ मापोन्मितावटी- कृत्वादद्यात्सद्योज्वरेबुधः ॥ छिन्नारसानुपानेनज्वरघ्नीवटिकामता ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा १ भाग और शिलाजीत, पीपर, हरड, अफरकरा, सरसोंके तेलमें शुद्ध करी हुई गंधक और इन्द्रायनके फलका गूदा, प्रत्येक चार २ भाग लेकर इन्दायनकेही रसमें खरल करे पश्चात् १ मासेकी गोली बनावे एक गोली गिलोयके रससे देव तो नवीन ज्वर दूर हो इसे ज्वरघ्नी गुटिका कहते हैं॥

विश्वतापहरण।

सूतंशुल्बंत्रिवृतावलितिक्तादंतीबीजंचपलाविषतिंदु ॥ पथ्ययासहविचूर्ण्यसमांशमेह- वारिसहितंदिनमेकं ॥ वल्लयुग्मगुटिकार्द्रकतोयैर्नाशयेदभिनवज्वरमाशु ॥ विश्वताप- हरणोत्रचपथ्यंमुद्गयूपसहितंलघुभुक्तम् ॥

**अर्थ–**पारा, ताम्रभस्म निशोथ, गंधक, कुटकी, जमालगोटा,पीपर, विष, कुचला और हरड,ये समान भाग लेकर उनको धतूरेकेरसमें १ दिन खरल कर ६ रत्तीको गोली करे १ गोली अदरखके रससे देव तो नवीन ज्वरका नाश करे इस विश्वतापहरण रसपर मूंगकी दाल और हलका अन्न देवे ॥

श्वासकुठाररस।

सूतंगंधंविषंचैवटंकणंचमनःशिला ॥ एतानिटंकमात्राणिमरिचंत्वष्टटंककं ॥ कटुत्रयंचषट्टंकंखल्वेक्षिप्त्वाविचूर्णयेत् ॥ रसःश्वासकुठारोयंश्वाससर्वज्वरापहः॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, विष, सुहागा और मनसिल, ये प्रत्येक समान भाग लेवे और कालीमिरच एक औषधसे आठ गुनी लेय, तथा सोंठ, कालीमिरच, पीपल ये छः,छः भाग ले, सबको खरल कर बारीक चूर्ण करे यह श्वासकुठार श्वास और सर्वज्वर इनका नाश करे ॥

उदकमंजरीरस ।

सूतोगंधश्चोपणंटंकणंचसर्वैस्तुल्याशर्करामत्स्यपित्तैः ॥भूयो भूयोमर्दयेत्तंत्रिरात्रंबल्लोदेयः शृंगवेरद्रवेण ॥ तापेशीतंबीजनैस्तक्रभक्तंवृंताकाढ्यंपथ्यमेतत्प्रदिष्टं ॥ अन्हैवोग्रंहंति- सद्योज्वरंतुपित्ताधिक्येमूर्ध्नितोयंचदद्यात् ॥

**अर्थ–**पारा,गंधक, कालीमिरव और सुहागा, ये समान भाग ले, तथा सबकी बराबर मिश्री मिलाय सबको मछलीके पित्तेसे३ दिन खरल करे जब बराबर तीन दिन हो चुके तब ३ रत्तीकी गोली बनावे, एक गोली अदरखके रससे देय यदि इसके खानेसे दाह होय तो पंखेकी पवन करे, छाँछ , भात, वैंगनका शाक, ये पथ्यमें देवे इस प्रकार करनेसे एक दिन में नवीन ज्वर दूर होय यदि पित्त अधिक उपद्रव करे तो उस रोगीके मस्तक पर शीतल जलका तरडा देवे ॥

ज्वरधूमकेतुरस।

जह्यात्समंसूतसमुद्रफेनंहिंगूलगंधंपरिमर्द्ययामं ॥
नवज्वरेवल्लयुगंत्रिघस्रतमार्द्रांभसायंज्वरधूमकेतुः ॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, समुद्रफेन और हिंगलू इनको अदरखके रससे प्रहरभर खरलकर ६ रत्तीकी गोली बनावे १ गोली अदरखके रससे ३ दिन देवे तो नवज्वरको नाश करे इसको ज्वरधूमकेतु रस कहते है ॥

वटिका।

रसंगंधंचदरदंजैपालंक्रमवर्द्धितं ॥ दंतीरसेनसंपिष्यवटीगुंजामिताकृता॥ प्रभातेसितयासार्धमशिताशीतवारिणा ॥ एकेनदिवसेनैपानवज्वरहराभवेत् ॥

**अर्थ–**पारा १ भाग,गंधक २ भाग,हिंगुल ३ भाग,जमालगोटा ४ भाग, इस प्रकार लेकर दंतीके रससे खरलकर रत्तीभरकी गोली बनावे इसको प्रातःकाल शीतलजल और मिश्रीकेसाथ सेवन करे तो एकदिनमें नवज्वरका नाश करे ॥

दूसरीवटी।

रसोगंधोविषंशुंठीपिप्पलीमरिचानिच ॥ पथ्यंविभीतकंधात्रीदंतीबीजचशोधितं॥चूर्णमेषांसमांशानांद्रोणपुप्पीरसैर्भवेत्॥ वटींमापनिभांकुर्याद्भक्षयेन्नूतनज्वरे ॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, विष, सोंठ, पीपर, कालीमिरच, हरड, आमला और शुद्ध जमालगोटा, ये समान भाग ले चूर्णकरे फिर गोमाके रसमें खरलकर उड़दके बराबर गोली बनावे इसके खानेसे नवीन ज्वर दूर हो ॥

ज्वरांकुश।

खंडितंहारिणंशृंगंज्वालमुख्यारसैःसमं ॥ रुद्धाभांडेपचेच्चुल्यां यामयुग्मंततोनयेत् ॥ अष्टांशंत्रिकटुंदद्यान्निष्कमात्रंचभक्षयेत् ॥ नागवल्यारसैःसार्धंवातपित्तज्वरापहं ॥ अयंज्वरांकुशोनामरसःसर्वज्वरापहः॥

**अर्थ–**हिरणके सींगके वारिक टुकडेकर किसी पात्रमें रखके ज्वालामुखीके रसको उसमें ढाल उसके मुखपर दूसरा छोटा पात्र उलटा रखके कपर मिट्टी कर देवे, चूल्हेपर रखके दो प्रहरतक अग्नि देवे, जब शीतल होजावे तब उन टुकडोंकी भस्म बाहर निकाल लेंवे फिर इस भस्मका आठवाँभाग सोंठ, मिरच, पीपल, इनका चूर्ण करके रस भस्ममें मिलाय देवे फिर इस भस्मको१ टंककेअनुमान नागरवेल पानके रससे खाय तो यह ज्वरांकुशसंपूर्ण ज्वरोको दूर करे परंतु बहुधा वातपित्त ज्वरको दूर करे॥

नवज्वरेभांकुश।

सगंघटंकंरसमूपणंचविमर्दितंभावयमीनपित्तैः॥ दिनत्रयंवल्लयुगंप्रद्याद्वृताकतक्रौदनपथ्यमत्र ॥

नवज्वरेभांकुशनामधेयः क्षणेनघर्मोद्गममातनोति ॥

**अर्थ–**गंधक, सुहागा, पारा और कालीमिरच, इनको मछलीके पित्तेमें तीन दिन खरल करे ४रत्तीरोगीको देय पथ्यमें बैंगन छाछ भात देवे यह क्षणभरमें पसीने उत्पन्न करता है ॥

अमृतकलानिधि।

अमृतवराटिकमरिचैर्द्विपंचनवमांशकैः कुर्यात् ॥
मुद्गप्रमाणवटिकाज्वरपित्तकफाग्निमांद्यहारीस्यात्॥

**अर्थ–**बच्छनाग विषदो भाग, कोडीकीभस्म ५ भाग, कालीमिरच ९ भाग लेकर खरलकरे, इस रसकी मूंगके प्रमाण गोली बनावे तो ज्वर, पित्त. कफ और मंदाग्नि इनको दूर करें ॥

पंचामृतरस।

स्वर्णरौप्यरविनागलोकंचंद्रदृ्कशिसिचतुःशरभागं ॥
मर्दितंदृढतरंदिनमेकंभावितंमकरपित्तरसेन ॥

बल्लयुग्ममखिलज्व रशांत्यैशर्करार्द्रकरसेनददीत ॥

**अर्थ–**सोनेकीभस्म १ भाग, रूपेकीभस्म २ भाग, ताम्रभस्म३ भाग, शीशोकीभस्म४भाग और लोहेकीभस्म५ भाग लेवे सव एकत्रमगरके पित्तेकी भावना देकर ४ रत्तीकी गोली वनावे इनको मिश्रीऔर अदरखरके रसमे१ गोली देवे तोसम्पूर्ण ज्वरदूर हो॥

जीर्णज्वरांकुश।

मृतंसूताभ्रनागार्ककांतंवैक्रांतमेवच ॥ हिंगुलंटंकणंगंधविषंकुष्टं समांशकं ॥ निकटुत्रिफलामुस्ताभृंगनिर्गुंडिकाद्रवैः ॥ भावयेत्त्रिदिनंचैवमापमात्रानुपानतः ॥ जीर्णज्वरंक्षयंकासंदोषान्मंदानलंतथा ॥ पांडुहलीमकंगुल्ममुदरंचार्दितंजयेत् ॥ ग्रहणींशूलरोगांश्चअरोचकमनेकधा ॥ कांतिंतेजोबलंपुष्टिंवीर्यवृद्धिंविवर्द्धयेत् ॥ साध्यासाध्यंनिहंत्याशुरसोजीर्णज्वरांकुशः॥

**अर्थ–**पारेकी भस्म, अभ्रकभरम, शीशेकी भस्म, ताम्रभस्म,कांतलोहभस्म, वैक्रांतकी भस्म, हिगुल, सुहागा, गंधक, विष और कूठ, ये औषध समान, भाग लेकर सोंठ, मिरच, पीपल, हरड़, बहेडा, आमला और नागरमोथा इनके काढेमें तथा भाँगरा, निर्गुंडी, इनके रसमें तीन दिन भावना देवे और यथा योग्य अनुपानके साथ देवे तो यह जीर्णज्वर, क्षय, खाँसी,त्रिदोष, मंदाग्नि, पांडुरोग, हलीमक, गोला, उदररोग, अर्दितवायुः संग्रहणी शूल और सर्व प्रकारकी अरुचि इनका नाश करे तथा कांति, तेज, बल, पुष्टि और वीर्यवृद्धी इनको बढावे, एवं यह जीर्णश्वरांकुश रस साध्य अथवा असाध्य रोगोंको नाश कर है ॥

पच्यमानज्वरलक्षण।

ज्वरवेगोधिकातृष्णाप्रलापश्वसनंभ्रमः॥
मलप्रवृत्तिरुत्के्लदःपच्यमानस्यलक्षणम् ॥

**अर्थ–**ज्वरका अधिक वेग, प्यास, प्रलाप, श्वास, भ्रम, मलका उतरना और उत्क्लेश ये पच्यमान ज्वरके लक्षण है॥

निरामज्वरलक्षण।

क्षुत्क्षामतालघुत्त्वंचगात्राणांज्वरमार्दवं ॥
दाषप्रवृत्तिरुत्साहोनिरामज्वरलक्षणम् ॥

**अर्थ–**क्षुधाका लगना, देहमें हलका पना, ज्वरका नम्र होना, दोषेंकी प्रवृत्ति और उत्साहका होना, ये निरामज्वरके लक्षण है ॥

ग्रंथांतरोक्तजीर्णज्वरनिदान

त्रिःसप्ताहेव्यतीतेतुज्वरोयस्तनुतांगतः॥

प्लीहाग्निमांद्यंकुरुतेसजीर्णज्वरउच्यते॥

**अर्थ–**इक्कीस दिन व्यतीत होनेपर जो ज्वर देहमें बारीक होकर रहे और तापतिल्ली मंदाग्नि को करे उसे जीर्ण (पुराना ) ज्वर कहते है॥

सामान्यचिकित्साशास्त्रार्थ ।

जीर्णज्वरीनरः कुर्यान्नोपवासंकदाचन ॥
लंघनात्सभवेत्क्षीणोज्वरस्तुस्याइलीयतः॥

**अर्थ–**जीर्णज्वरवाला मनुष्य संपन कदाचित् न करे कारण कि लेपन करनेसे रोगी क्षीण होजाता है और ज्वर बलवान हो जाता है ॥

लंघन।

पुराणेपिज्वरेदोषायद्यपथ्यैःपुनस्तथा ॥
लंघयेत्तत्रतंपश्चात्पूर्ववत्कारयेत्क्रियां ॥

**अर्थ–**यदि जीर्णज्वरमें अपथ्यके करनेसे दोष कुपित हुए होय तो उस जीर्णज्वरवालेको लंघन करावे जब लंघन करके क्षीण दोष होजावे फिर पूर्व प्रमाण क्रिया करावे ॥

ज्वरक्षीणकोवांतिनिषेध।

ज्वरक्षीणस्यनहितंवमनंनविरेचनं ॥
कामंतुपायसंतस्यनिरूहैर्वाहिरेन्मलान् ॥

**अर्थ–**जो मनुष्य ज्वरसे क्षीण है उसको वमन और विरेचन सर्वथा अहितहै उसको यथेच्छ दूधपिवावे अथवा निरूहण वस्ती करके उसके मलको निकाले॥

ज्वरफेरआनेकाकारण ।

आवर्ततेगात्रसादेवैवर्ण्येमंगलादिषु॥
शांतज्वरोप्यसाध्यःस्यादनुबंधभयान्नरः॥

**अर्थ–**अंगोंका रहजाना विवर्णता इत्यादि विकार करके अथवा अमंगलादिकोंके देखनेसे शांत ज्वरभी फिर लौटकरके आता है ॥

वातजीर्णज्वर।

ज्वरोष्मणाज्वरेजीर्णेवायुःकुप्यतिरूक्षिते॥
घृतंसंशमनंतस्यदीप्तस्येवांबुवेश्मनः॥

**अर्थ–**जीर्णज्वरकी गरमीसे देह रूक्ष होनेसे वायुका कोप होता है उसकी शांति होनेके वास्ते घृतपान योग्य है जैसे फूँकते हुए घरमें पानीका डालना॥

जीर्णज्वरमेंपक्वाशयाश्रितदोषकीचिकित्सा।

जीर्णज्वरेषुसर्वेषुदोषेपक्वाशयाश्रिते॥
स्नेहबस्तिःप्रकर्तव्यःसनिरूढोयथाविधि ॥

**अर्थ–**संपूर्ण जीर्णज्वरमें दोष पक्वाशयाश्रित होनेसे स्नेहवस्ती, अथवा यथाविधि निरूहण बस्ती करनी चाहिये ॥

छिन्नादिकाढा।

पिप्पलीचूर्णसंयुक्तः क्वाथश्छिन्नोद्भवोद्भवः॥
जीर्णज्वरकफध्वंसीपंचमूलकृतोऽथवा ॥

**अर्थ–**कुटकीके काढेमें पीपलका चूर्ण डालके पीवे तो जीर्णज्वर और कफकोनष्ट करे अथवा पंचमूलका काढा करके पीवेतो जीर्णज्वर ओर कफ दूर हो ॥

त्रिकंटकादिकाढा।

निदिग्धिकानागरकामृतानांक्वाथंपिबेन्मिश्रितपिप्पलीकम् ॥ जीर्णज्वरारोचककासशूलश्वासाग्निमांद्यार्दितपीनसेषु ॥

हंत्यूर्ध्वजानयंप्रायः सायंतेनोपयुज्यते ॥

**अर्थ–**कटेरीका पंचांग, सोंठ, गिलोय, इनकेकाढमें पीपलका चूर्ण मिलायकेपीबे तो जीर्णज्वर, अरुचि, खाँसी शूल, श्वास, मंदाग्नि, अर्दितवायु, पीनस, तथा ऊर्ध्वविकार इनकानाश करे यह काढा सायंकालको देव ॥

गुडूचीकाढा।

अमृतायाःकषायंतुशीतलीकृतमीरितम् ॥
मधुपादयुतंपतिजीर्णज्वरहरंपरम् ॥

**अर्थ–**गिलोयका काढा करकेशीतल होनेपर उसमें चतुर्थांश शहत मिलायके पीवे तो जीर्णबर दूर हो ॥

द्राक्षादिअष्टादशांगकाढा ।

द्राक्षामृताशठीशृंगीमुस्तकंरक्तचंदनम् ॥ नागरंकटुकापाठाभूनिंबःसदुरालभः ॥ उशीरंधान्यकंपद्मबालकंकंटकारिका ॥पुष्करंपिचुमंदश्वस्यादष्टांगमिदंस्मृतम् ॥ जीर्णज्वरारुचिश्वासकासश्वयथुनाशनम् ॥

**अर्थ–**मुनक्कादाख, गिलोय, कचूर, काकडासींगी, नागरमोथा, लालचंदन, सोंठ, कुटकी, पाढ, चिरायता, धमासा, नेत्रवाला, धनिया, पद्माख, खस, कटेरी, पुहकरमूल और नीमकी छाल, इनका काढा जीर्णज्वर, अरुचि, श्वास, खांसी और सूजन, इनका नाश करे ॥

शुंठीकाढा।

अरुचिमनलमांद्यंपीनसश्वासकासानुदरमुदकदोषानाशुहन्यादशेषान् ॥ जनयतितनुकांतिंचित्तनेत्रप्रसादंपलपरिमितशुंठीक्षौद्रसिद्धः कषायः॥

**अर्थ–**चारतोले सोंठके काढेमें शहत डालके पीवे तो अरुचि, मंदाग्नि, पीनस, श्वास, खाँसी, उदर, जलदोष, इनको दृरकरे तथा कांति, चित्त और नेत्र इनको प्रसन्नता देता है॥

कणादिकाढा ।

कणामधुकमृद्वीकाबलाचंदनसारिवा॥
निःक्वाथ्यपयसापीताः क्षीणज्वरविनाशनाः॥

**अर्थ–**पीपल, महुआके फूल, मुनक्कादाख, खरेटी, लालचंदन और सारिवा इन ओषधोंका काढा करके देवे तो जीर्णज्वरका नाश करे ॥

तिक्तादिकाढा।

तिक्तापर्पटभूनिंबमुस्ताछिन्नरुहांपिबेत् ॥
अभ्यासेनजयत्येपज्वरमामृत्युमातुरः॥

**अर्थ–**कुटकी, पित्तपापडा, चिरायता, नागरमोथा और गिलोय इनका काढा करकेकुछ काल सेवन करे तो असाध्यभी ज्वर जाय ॥

कलिंगादिकाढा।

कलिंगकटुकीमुस्ताभूनिंबोग्रथिनागरं ॥ राजकन्यादेवदारुः पिबेत्क्वार्थंसकृष्णकम् ॥ जीर्णज्वरगदेनित्यंसामेचैवनिरामये ॥ ज्वरांश्चविषमांश्चैवशीतंचातुर्थिकंजयेत् ॥

**अर्थ–**इन्दजौ, कुटकी, नागरमोथा, चिरायता, पीपरामूल, सोंठ और देवदारु और पीपल इनका काढा कर पीवेतो जीर्णज्वर, साम और निराम ज्वर तथा विषमज्वर शीतज्वर, चातुर्थिक आदिको दूर करे ॥

द्राक्षादिचूर्ण।

द्राक्षामृतानागरतोयमुष्णंकृष्णाविपाकंबहुरोगनिघ्नम् ॥
श्वासंचशूलंकसनंचमांद्यंजीर्णज्वरंचैवजलेनतृष्णा ॥

**अर्थ–**दाख, गिलोय, सोंठ और पीपल इनका चूर्ण कर गरम जलके साथ लेवे तो अनेक रोग दूर हो और श्वास, खांसी, शूल, मंदाग्नि, जीर्णज्वर और तृषा इनको शीतल जलके साथ लेनेसे दूर करे ॥

लवंगादिकाढा।

देवपुष्पचपलाग्रथितंचसिंहिकानलकिरातपयोदाः ॥ त्रायमाणभृगुजासुरवासाब्राह्मि- काकरिकणादशमूलम् ॥ शक्रपुष्पशरटीनवरास्नाशृंगिनागरवचाःसमभागाः ॥ साधितंचक्वथनंकिलपेयंयोजितंचसुरसास्वरसेन ॥ ज्वरेचसूतिकारोगेशीतेरोचकसंभ्रमे ॥ अग्निमांद्येवातगुल्मेलवंगादिःप्रशस्यते ॥

**अर्थ–**लौंग, पीपल, पीपरामूल, कटेलीकीजड़, चित्रक, चिरायता, नागरमोथा, त्रायमाण, भारंगी, देवदारु, अडूसा, ब्राह्मी, गजपीपर, दशमूल, इन्द्रजौ, खदिरपर्णी, रास्ना, काकडासीगी, सोंठ और वच, इनके काढ़ेमें, तुलसीका रस मिलायके देवे यह, ज्वर, प्रसूत, शीत, अरुचि, भ्रम, मंदाग्नि , वायगोला इनमें यह परमोत्तम उपाय है ॥

तालीसादिचूर्ण।

तालीसंमरिचंशूंठीपिप्पलीवंशलोचनम् ॥ एकद्वित्रिचतुः पंचकर्यैभार्गान्प्रकल्पयेत् ॥ एलात्वचोस्तुकर्षार्धंप्रत्येकंभागमावहेत् ॥ द्वात्रिंशत्कर्पतुलिताप्रदेयाशर्कराबुधैः ॥ तालीसाद्यमिदंचूर्णंरोचनंपाचनंस्मृतम् ॥ कासश्वासज्वरहरंछर्द्यतीसारनाशनम् ॥ शोफाध्मानहरंप्लीहग्रहणीपांडुरोगजित्॥ पक्त्वावाशर्कराचूर्णक्षिपेत्सागुटिकामता॥

**अर्थ–**तालीसपत्र, कालीमिरच, सोंठ, पीपल और वंशलोचन ये क्रमसे१- २-३-४-५ भाग लेवे तथाइलायची दालचीनी ये आधे २ भाग लेय और मिश्री ३२ तोले लेवे इस प्रकार सब वस्तु ले चूर्णकरे यह तालीसादि चूर्णरोचक और पाचक है तथा खांसी, श्वास, ज्वर, वमन, अतिसार, सूजन, पेटका फूलना, प्लीहा संग्रहणी और पांडुरोग इनका नाश करे यदि इसकी गोली बनानी होय तो खांडकी चासनीमें बनावे ॥

त्रिफलादिचूर्ण।

कासश्वासज्वरहरापिप्पलीत्रिफलायुता॥
चूर्णितामधुनालीढाभेदिनीचाग्निबोधिनी ॥

**अर्थ–**पीपर और त्रिफला इनका चूर्ण शहतसे चाटे तो भेदक और अग्निदीप्त कर्ता है॥

कट्फलादिचूर्ण।

कट्फलंमुस्तकंतिक्तासठीशृंगीचपौष्करम् ॥ चूर्णमेपांचमधुना शृंगवेररसेनवा॥लिहेज्जीर्णज्वरहरंकासश्वासारुचिंजयेत्॥ वायुं शूलंतथाछर्दिक्षयंचैवव्यपोहति ॥

**अर्थ–**कायफल, नागरमोथा, कुटकी, कचूर काकडासींगी और पुहकरमूल, इनका चूर्ण शहतसे अथवा अदरखके रसमें चाटे तो जीर्णज्वर, खांसी, श्वास, अरुचि वायुशूल, वमन और क्षयरोग इनको नाश करे ॥

त्रिवृच्चूर्ण।

चूर्णंत्रिवृत्कणाश्यामात्रिफलानांसितासमम् ॥
भेदिकोष्ठरुजादाहगौरवज्वरनाशनम् ॥

**अर्थ–**निसोथ, पीपल, सारिवा, हरड, बहेडा, और आमला, इनका समान भाग चूर्ण करे सब चूर्णके बराबर मिश्री मिलावे यह भेदी, पेटके शूलको, दाह भारीपना और ज्वर इनका नाश करे ॥

दूसरालवंगादिचूर्ण।

लवंगजातीफलपिप्पलीनांभागंप्रकल्प्याक्षसमानमेषां ॥
पलार्धमेकंमरिचस्यदेयंपलानिचत्वारिमहौषधस्य ॥
सितासमंचूर्णमिदंप्रगृह्मरोगांश्चचाशुप्रबलान्निहंति ॥
कासज्वरारोचकमेहगुल्मश्वासाग्निमांद्यंग्रहणीप्रदोषम् ॥

**अर्थ–**लौंग, जायफल और पीपल ये प्रत्येक छः छः मासे, कालीमिरच २ तोले सोंठ १६ तोले इन सबका चूर्ण करके इसमें बराबरको मिश्री मिलायके देनेसे प्रबलरोग, खांसी, ज्वर, अरुचि, प्रमेह, गोला, श्वास, मंदाग्नि , और संग्रहणीके विकारोंको दूर करे ॥

पंचाजादि।

पंचाज्यंपंचगव्यंवापंचाविकमथापिवा ॥ जीर्णज्वरविनाशार्थंपिबेद्वापंचमाहिषं॥दधिदुग्धंतथाज्यंचविण्मूत्रेपंचशस्यते ॥ पूर्वोक्तंपंचकंज्ञेयंचिकित्सायांभिषग्वरः॥

**अर्थ–**बकरी और गौका दूध, दही, घी, गोबर, मूत्र ये एकत्र कर जीर्णज्वरमें देय तो जीर्णज्वर दूर हो, अथवा भैसका दूध दही आदि पांचो पदार्थ रोगीको देवे तो उसका जीर्णज्वर दूर हो ॥

लोध्रादिचूर्ण।

लोध्रचंदनषट्ग्रंथिशर्कराघृतमाक्षिकैः॥
सक्षीरेणविषंयुक्तंजीर्णज्वरहरंपरम् ॥

**अर्थ–**लोध, चंदन, पीपरामूल और अतीस इनके चूर्णमें मिश्री, शहत, घृत और दूध मिलायके लेवे तो ये जीर्णज्वरको दूर करे ॥

वर्धमानपिप्पलीयोग।

क्रमवृद्ध्यादशाहानिदशपैप्पलिकंत्विदं ॥ वर्धयेत्पयसासार्धं तथैवानमयेत्पुनः ॥ पिप्पलीनांसहस्रस्यप्रयोगोयंरसायने ॥ पिष्टास्ताबलिभिः पेयाः शृतामध्यबलैर्नरैः ॥ चूर्णिताहीनबलिनांहितामधुसमायुताः॥ कासाजीर्णारुचिश्वासहृत्पांडुकृमिरोगिणाम् ॥ मंदाग्निविषमाग्नीनांशस्यतेगुडपिप्पली॥ पंचद्वौसप्तदशवापिप्पल्यः क्षौद्रसर्षिपा ॥ लीढाज्वरंश्वासकासंहृद्रोगंपांडुकामलाम् ॥ प्रदरंचप्रमेहंचहन्यात्तत्रकिमद्भुतम्॥

**अर्थ–**क्रमवृद्धिसे दशपीपल दशदिन दूधमें औटायके पीबे इस प्रकार रसायनमें यह हजार पीपलोंका प्रयोग कहा है,तहां बलवान् पुरुषको पीसके देवे तथा मध्यबलवारे पुरुषकोदूध औटायके देवे और हीनवली रोगीको चूर्ण कर शहतके साथ चाटे तो खांसी, अजीर्ण, अरुचि, श्वास, हृद्रोग, पांडुरोग, कृमि, मंदाग्नि, तथा विषमाग्नि, इनको उत्तम है, यदि गुड, शहत, घृत इनसेदश अथवा इससे अधिक देवे तो श्वास, खांसी हृद्रोग, पांडु, कामला, प्रदर, और प्रमेह इनको नाश करे इसमें आश्चर्य नहीं है॥

पिप्पलीमोदक।

क्षौदाद्द्विगुणितंसर्पिघृताद्द्विगुणपिप्पली ॥ सिताचद्विगुणातस्याः क्षीरंदेयंचतुर्गुणम् ॥ चातुर्जातंक्षौद्रतुल्यंपक्त्वाकुर्याच्चमोदकान् ॥ धातुस्थांश्चज्वरान्सर्वानश्वासंकासंचपांडुताम् ॥ धातुक्षयंवह्निमांद्यंपिप्पलीमोदकोजयेत् ॥

**अर्थ–**शहत १ भाग, घृत २ भाग, पीपर ४ भाग, मिश्री ८ भाग, दूध वत्तीसभाग, और चातुर्जात १ भाग इस प्रमाण सब वस्तु लेकर पाककी विधिसे लड्डू बनावे इसमेंसे १ लड्डू नित्य खावे तो यह पिप्पलीमोदक धातुगत संपूर्ण ज्वरोंको, श्वास, खांसी, पांडुरोग, धातुक्षय, और मंदाग्नि इनको नाश करे॥

मधुपिप्पलीयोग।

पिप्पलीमधुसंयुक्तामेदःकफविनाशिनी ॥
श्वासकासज्वरहरापांडुप्लीहोदरापहा ॥

**अर्थ–**पीपल शहतके साथ सेवन करनेसे मेद, कफ, श्वास, खाँसी, ज्वर, पांडुरोग, प्लीहा और उदररोगको दूर करे ॥

दुग्धयोग।

क्षीणेकफेज्वरेजीर्णेअल्पदोषेपिपासिते ॥
दाहार्तेतुपयोयोज्यंतेनैवतुविषंभवेत् ॥

**अर्थ–**क्षीण कफवालेके तथा जीर्णज्वर होनेपर अल्पदोषहोने के कारण प्यास और दाह होते हैं, इसीसे उसको दूध पिबावे परंतु नवीन ज्वरमें दूध देना विषतुल्य है ॥

पंचमूलीक्षीर।

सर्वज्वराणांजीर्णानांक्षीरंभैषज्यमुत्तमं ॥
श्वासात्कासाच्छिरः शूलात्पार्श्वशूलात्सपीनसात् ॥
मुच्यतेज्वरितःपीत्वापंचमूलीशृतंपयः॥

**अर्थ–**सालपर्णी, पृष्ठपर्णी, छोटी कटेरी, वड़ी कटेरी, और गोखरू, इन पांचोकी जडको कूट उसमें अठगुना दूध और दूधका चौगुना पानी डालके औटावे जब दूध मात्र रह जावे तब रोगीको पिवावे तो श्वास,खांसी,मस्तकशूल , पीठका दर्द पीनस और जीर्णज्वर ये दूर होय, इन संपूर्ण जीर्णज्वरोंमें यह दुग्ध पीना उत्तम है ॥

सितादिपेया।

सिताज्यविश्वखर्जुरीमृद्वीकाभिःशृतंपयः ॥
पृथ्वीचबिल्ववर्पाभूपयश्चोदकमेवच ॥
क्षीरावशिष्टंतत्पीतंतद्धिसर्वज्वरापहं॥

**अर्थ–**मिश्री, घृत सोंठ, छुहारे और दाख, इनको डालके औटायेहुए दूधको अथवा वेलगिरी, साँठ, दूध और पानी ये एकत्र करके दूध मात्र-शेपरहने पर्यंत औटावे फिर इसको पीवे तो सर्वज्वरको दूर करे ॥

बिल्वादिकाढा।

साधितंविल्वपेशीभिर्मूलेनामंडकस्यच ॥
सद्योहंतिपयः पीतंज्वरंसंपरिवर्तकं ॥

**अर्थ–**दूधमें बेलगिरीका अथवा सपेद बडीजाईके जडका काढा करके लेनेसे यह घोर ज्वरका नाश करे ॥

मधुकादिकाढा।

मधुकारग्वधाद्राक्षातिकायासफलत्रिकैः॥
सपटोलैर्जलंभेदिज्वरंहंतित्रिदोषजं ॥

**अर्थ–**मुलहटी, अमलतासका गूदा, मुनक्कादाख, कुटकी,धमासो,हरड,बहेडा, आमला और पटोलपत्र इनका काढा भेदी और सब तरहके ज्वरोंका नाशकरेहै॥

अमृतादिहिम॥

अमृतायाहिमः पेयोजीर्णज्वरहरः परः॥

**अर्थ–**पूर्वोक्त प्रकारसे गिलोयका हिम करक पीवे तो जीर्णज्वरका नाशहोय॥

गुडयोग।

गुडंपिप्पलिमूलस्यजलेनालोडितंपिबेत् ॥

चिरादपिचसन्नष्टांनिद्रामाप्नोतिमानवः॥

**अर्थ–**गुडको पीपरामूलकेजलमें पीस छानके पीवे तो बहुत कालकी गई दुई निद्रा आवे ॥

वार्ताकभक्षणयोग।

सायंस्विन्नमशेषंकृत्वावार्ताकमेवपूर्वाह्णे॥
मधुयुतमश्नन्नचिरान्नष्टामथाजयेन्निद्रा ॥

**अर्थ–**सायंकालमें बैंगनको भून शहतमें मिलायके खायतो तत्काल निद्राआवै॥

गुडूचीस्वरस ।

पिप्पलीमधुसंमिश्रंगुडूचिस्वरसंपिबेत् ॥
जीर्णज्वरकफप्लीहाकासारोचकनाशनम् ॥

**अर्थ–**गिलोयके रसमें पीपल और शहत मिलायके पीवे तो जीर्णज्वर, कफ प्लीहा, खांसी और अरुचि इनको नाश करे ॥

गुडपिप्पलीयोग।

जीर्णज्वरेग्निमांद्येचशस्यतेगुडपिप्पली ॥
कासाजीर्णारुचिश्वासहृपांडुकृमिरोगनुत् ॥
द्विगुणः पिप्पलीचूर्णात्गुडोत्रभिषजांमतः॥

**अर्थ–**जीर्णज्वरपर और मंदाग्निपर गुड और पीपर सेवन उत्तम है, तथा खांसी, अजीर्ण, जरुचि, श्वास, पांडु, और कृमिरोग इनको नाश करे, इस जगह गुड पीपलसे दूंना मिलाना चाहिये॥

वातकफात्मकज्वरोंपर।

वातश्चेष्माज्वरोक्तास्याक्रियावातबलासके॥ जीर्णज्वरेकफेक्षीणेदाहतृष्णासमन्विते ॥पयःपीयूपसदृशंतन्नवेतुविषोपमं॥ चंदनाद्यंहितंतैलंशोपाधिकारकीर्तितम् ॥ तथानारायणं तैलंजीर्णज्वरहरंपरम् ॥

**अर्थ–**घातकफ संबंधी जीर्णज्वरपर वातश्लेष्मज्वरोक्त क्रिया करनी चाहिये, और जिनके कफ न होय केवल दाह और तृषा मात्र विकार हो उसको दूध पीना अमृतके तुल्य है और वहीदूध नवीन ज्वरवालेको विषके समान अवगुणकरता हे और शोषाधिकारमें चंदनादि तैल कहा है वो तथा नारायण तैल ये जीर्णज्वर नाशक है इसवास्ते इनका मालिश करे ॥

द्वितीयवर्धमानपिप्पली।

त्रिवृध्यापंचवृध्यावासप्तवृध्याथवाकणाः॥ गव्यक्षीरेणसंपिष्टाः पिबेद्दशदिनानिह ॥ तथैवह्रासयेदेताएवंविंशतिवासरान् ॥ पिबतांज्वरशांतिः स्यात्पांडुरोगश्चशाम्यति ॥ कासश्वासोग्निमांद्यंचकफाधिक्यंचनश्यति ॥

**अर्थ–**तीन २ वृद्धि करके अथवा पांच पांच वृद्धि करके पीपल गौके दूधमें औटाय और पीसके दशदिनतक सेवन करे, फिर उसी प्रकार क्रमसे घटाता चलाआवे इस प्रकार वीस दिनतक लेय तो ज्वरकी शांति होय, तथा पांडुरोग, खांसी, श्वास, मंदाग्नि और कफ इनका नाश करै ॥

नस्य।

शिरोगौरवशूलघ्नमिंद्रियप्रतिबोधनम् ॥
जीर्णज्वरेरुचिकरंदद्याच्छिर्पविरेचनम् ॥
मधुनावाथतैलेनज्वरघ्नेनप्रयोजयेत् ॥

**अर्थ–**जीर्णज्वरमें मस्तकका भारीपनशूल इनके नाशके वास्ते और इन्दियोंके चैतन्यता करनेके वास्ते, तथा रुचि देनेवाला ऐसा मस्तक रेचन देवे वो शहतसे अथवा तैल करके किंवा ज्वरघ्न योगों करके देवे ॥

रक्तकरवीरादिलेप।

रक्तकरवीरपुष्पंकुष्ठंधात्रीफलंसधान्यांबु ॥
कल्कैः कोष्णोलेपोज्वरेपुशिरसोरुजोहंति ॥

**अर्थ–**लालकनेरके फूल, कूट,आमला, धनिया और नेत्रवाला इनको गरमजलमें पीस गरम करके जव थोडा गरम रहे तब लेप करे तो मस्तक पीडा दूर होय॥

हिंग्वादिनस्य।

हिंगुसैंधवसंयुक्तंनस्यंस्यादनवंघृतम् ॥

**अर्थ–**पुराने घीमें हींग और सेंधानिमक मिलायके नस्य देवेतो ज्वरशांति होय॥

जयंतीमूलिकाबंध।

श्वेतजयंतीमूलंविधिनाबद्धशिखांतरेहंति ॥
क्षीणज्वरंनराणांखलइवदुरितेनचात्मानम् ॥

**अर्थ–**सपेद जयंती को जडको विधियुक्त चुटियामें बांधेइससे जीर्णज्वर दूर होय जैसे दुष्टपुरुष पापोंसे अपनी आत्माको नाश करता है ॥

वायसजंघाबंध ।

वायसजंघामूलंशिरसिनिबद्धंतुकाकमाच्याश्च ॥
विधृतंनिद्राकरणंस्नुङ्मूलंवाशितंसगुडम् ॥

**अर्थ–**कौआडोडीकी जडको अथवा मकोयकी जडको मस्तकमें बांधनेसे निद्राको उत्पन्न करे,अथवा थूहरकी जडको गुडके साथ खानेसे निद्राको उत्पन्न करे॥

मुक्तापंचामृत।

मुक्ताप्रवालखुरवंगककंवुशुक्तिभूनिंबभूदधिदृगिंदुसुधांशुभागम् ॥इक्षूरसेनसुरभेः- पयसाविदारीकन्यावरीषुरसहंसपदीरसैश्च ॥ संमर्द्ययामयुगलंचवनोत्पलाभिर्दद्यात्पु- टानिमृदुलानिचपंचपंच ॥ पंचामृतंरसविभुंभिषजाप्रयोज्यंगुंजाचतुष्टयमितंचपलारजश्च ॥ पात्रेनिधायचिरसूतवनस्पतीनांदुग्धेनयः प्रपिबतःखलुचात्मभुक्तम् ॥ जीर्णज्वरः- क्षयमियादथसर्वरोगाःस्वीयानु पानकलिताश्चशमंप्रयांति ॥

**अर्थ–**मोती १ तोले, मूंगा ४ तोले, उत्तम बंग २ तोले, शंख १ तोले सीपी १ तोले, इनकी भस्म तथा चिरायता, १ तोले, इन सबको एकत्र कर इसके रस, गौका दूध, विदारीकंद घीगुवार, सतावर, डाभ और हंसपदी, इनके रसमें दो दो प्रहर खरलकर आरने उपलोंकी पांच पांच पुट देवे यह (पंचामृत रस) नित्य ४ रत्ती और पीपलका चूर्ण पात्रमें डालके बहुत दिनकी व्याही और वनस्पति खानेसे उत्पन्न हुआ दूध उसके साथ सेवन करे थोडा भोजन करे तो जीर्णज्वर, तथा रोगोक्त अनुपानके साथ देनेसे सर्व रोगोंका नाश करे है॥

जीर्णज्वरांकुश।

मृतसूताभ्रनागार्कंकांतवैक्रांतमेवच ॥ हिंगुलंटंकणंगंधंविषं कुष्टसमांशकम्॥त्रिकटुत्रिफलामुस्ताभृंगनिर्गुंडिकाद्रवैः॥ भावयेत्रिदिनंचैवमापमात्रानुपानतः ॥ जीर्णज्वरेक्षयेकासेदोषेमंदानलेपुच ॥ पांडूहलीमकंगुल्ममुदरंचार्दितंजयेत् ॥ ग्रहणीं शुलरोगांश्चअरोचकमनेकधा ॥ कांतिंतेजोबलंपुष्टिंवीर्यवृद्धिंविवर्धयेत् ॥ साध्यासाध्यंनिहंत्याशुरसोजीर्णज्वरांकुशः ॥

**अर्थ–**पारेकी भस्म, अभ्रक, शीशेकी भस्म, तामेकी भस्म, कांतलौह और वैक्रांत इनकी भस्म, तथा हिंगुल, सुहागा, गंधक, विष,कूट, ये औषध समान भाग ले फिर त्रिफला, त्रिकुटा, नागरमोथा, भांगरा और निर्गुंडी, इनके काढेकीअथवा स्वरसकी तीन दिन भावना देवे और अनुपानके साथ एक उडदमात्र देवे तो जीर्णज्वर, क्षय, खांसी, मंदाग्नि, पांडुरोग, हलीमक, गोला, उदर, आर्दितरोग, संग्रहणी, शूल, सर्वप्रकारकी अरुचि ये रोग साध्य अथवा असाध्य होय तो भी नाश होवे, तथा यह जीर्णज्वरांकुश, कांति तेज, बल, पुष्टि और वीर्य इनको बढावे ॥

धातुज्वरांकुश।

लोहाभ्रकंताम्रभस्मपारदंगंधकंविषम् ॥ व्योपाफलत्रिकंकुष्टंसमभागेनमर्दयेत् ॥ भृंगनीरेणचार्द्रस्यवरानिर्गुंडिकारसैः ॥ त्रिदिनंमर्दयित्वातुमुद्गमानावटीकृता ॥ यथारोगानुपानेनसर्वच्याधिविनाशिनी ॥ अजीर्णवातंकासघ्नीदीपनीरुचिवर्धनी ॥सर्वान्धातुज्वरान्हंतिसोयंधातुज्वरांकुशः॥

**अर्थ–**लोह, अभ्रक, तथा तामा इनकी भस्म, और पारा, गंधफ, विष, सोंठ मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आमला, फूट, ये समान भाग ले खरलकर भांगरा, अदरख, और निर्गुडी इनके रसफी तीनदिन, भावना देवे, फिर मूंगक वरायर गोली बनाये एक गोली रोगोक्त अनुपानके साथ देवे तो सर्व व्याधियोफो नाश करे तथा अनी और वात कफ इनको नाश करे तया दीपन, रुचि बढानेवाला, और सघ धातुगत ज्वरनाशक है इसको धानुज्परांकुश कहते हैं॥

कल्याणघृत।

तालीसत्रिफर्लेलवालफलिनीसौम्यापृथक्पर्णिनीदंतीदाडिमचारुचंदननिशादार्वीविशालोत्पलैः॥ जातीपद्महरेणुपद्मकयुतैर्जंतुघ्नमंजिष्ठकारुकूसिंहीत्रुटिसारिवाद्वयनतैर्नागेंद्रपुष्पान्वितैः ॥ अष्टाविंशतिभिश्चतुर्गुणजलंकल्याणमेभिःशृतंहंत्येतत्रिचतुर्थकज्वरमुरःकंपंसवंध्यामयम् ॥ सापस्मारगदोदरामपवनोन्मादाःसजीर्णज्वराजायंतेनपुनः कृतेनहविषाकल्याणकेनामुना॥

**अर्थ–**तालीसपत्र, त्रिफला, इलायची, नेत्रवाला, सालपर्णी, दंती, अनारदाना, उत्तमचंदन, हलदी, दारुहलदी, इन्द्रायनकीजड, कमलकंद, जाई, कमल, पित्तपापडा, पद्माख वायविडंग, मँजीठ, कूट, कटेरी, छोटीइलायची, दोनोप्रकारकीसारिवा, तगर, बांझककोडी, और लौग, इन अट्ठाईस, औषधोंका चौगुनापानीडालके काढाकरके उस काढेमें घी डालके पचावे जब जल करके घृतमात्र शेष रहे तब उत्तार लेवे, यह कल्याणघृत, त्र्याहिक, चातुर्थिकज्वर, हृदयका कंप, वंध्यापना, मृगी, उदर, आमवात, उन्माद, जीर्णज्वर, इन व्याधियोंको फिर नहीं होने देवे ॥

चंदनादितैल।

चंदनाद्यंहितंतैलंशोषाधीकारकीर्तितम् ॥
तथानारायणंतैलंजीर्णज्वरहरंपरम् ॥

**अर्थ–**शोषाधिकारमें कहा चंदनादि तैल तथा नारायण तैल ये जीर्णज्वरको नाश करे॥

लाक्षादितैल।

लाक्षारसस्याढकमस्तुतैलप्रस्थंपचेन्मस्तुचतुर्गुणंच॥ पिष्टाशताह्वारजनीमधूकंरास्नाश्व गंधाकटुकासमूर्वा ॥ हरेणुकंचंदन मुस्तदारुकुष्टंपृथक्कर्पमितंक्षिपेत्तत् ॥ पृष्ठत्रिकांगस्फुटनंस शूलंदौर्गंध्यकंडूभ्रमवातरोगान् ॥

**अर्थ–**२५६ तोले लाखका रस, तेल सेरभर, दहीकी तोड चारसेर, शतावर हलदी, मुलहटी, रास्ना, असगंध, कुटकी, मूर्वा, पित्तपापडा, लालचंदन नागरमोथा, देवदारु, और कूट, ये प्रत्येक तोले २ भर लेय, सबकी एकत्रकर तेल सिद्ध करावे इसको (लाक्षादि तैल) कहते हैये सर्व विषमज्वर, और पीठका दर्द, त्रिकस्थानकी पीडा, शरीरका फुटना, शूल, दुर्गंध, खुजली भ्रम, और वातरोगको नाश करे ॥

दूसराचंदनादितैल।

चंदनांबुनृपंवाढ्यंयष्ठिशैलेयपद्मकम् ॥ मंजिष्ठासरलादारुसंठ्यालानागकेसरम् ॥ पत्रंतैलंसुरामांसीकंकोलंचनतांबुदम् ॥ हरिद्रेसारिवेतिक्तंलवंगागरुकुंकुमम् ॥त्वग्रेणुनलिकाचेतितैलंमस्तुचतुर्गुणम्॥लाक्षारससमंसिद्धंग्रहघ्नंबलवर्णकृत् ॥ अपस्मार- क्षयोन्मादक्षतालक्ष्मीविनाशनम् ॥ गात्रस्यस्फुटनंदाहंकंडूजीर्णज्वरापहम् ॥

**अर्थ–**चंदन, नेत्रवाला, खिरनीकावृक्ष, खरेटी, मुलहटी, शिलाजीत, पद्माख, मँजीठ, सरल ( देवदारुका भेद ) देवदारू, कचूर, इलायची, नागकेशर तमालपत्र, तेल, कांकोली, जटामांसी, कंकोल, छड, नागरमोथा, हल्दी, दारुहलदी, सारिवा, चिरायता, लौंग, अगर, केशर, दालचीनी, पित्तपापडा, गुडतजी, तेल तथा चौगुना दहीका पानी और इतनाही लाखका रस, सबको एकत्र कर तेलकी विधिसे इसको सिद्धकरे तो यह ग्रहपीडानाशफ, वल, कांति इनको करे तथा अपस्मार, क्षय, उन्माद, घाव, अलक्ष्मी, देहका फटना, दाह, खुजली जीर्णज्वर इनको नाश करे॥

हरीतकीपाक।

प्रस्थमेकंशिवानांचजलद्रोणेनिधापयेत्॥ द्विप्रस्थंदशमूलस्यसार्धप्रस्थायवाःस्मृताः ॥ ग्रंथिकंचित्रकंभांर्गीशंखपुष्पीबलासठी ॥ विश्वापामार्गमेघाश्चपुष्करंगजपिप्पली ॥ इमानितत्र- योज्यानिप्रत्येकंचपलंपलम् ॥ अष्टांशेनिसृतेचैपापथ्यापिष्ट्वापचेत्ततः॥गुडप्रस्थत्रयंयोज्यंगोघृतंपलपंचकम् ॥ जातीफलंकेसरंचचतुर्जातंचधात्रिका ॥ दीप्याक्षौजातिपत्रींचताम्रंलोहंकटुत्रिकम् ॥ चूर्णमेपांक्षिपेत्तत्रप्रत्येकंचपलार्धकम् ॥ पथ्यापाकइतिख्यातःकथितोभृगुणापुरा॥ जीर्णज्वरहरःसद्यस्तुष्टिपुष्टिवलप्रदः॥रसकोपेग्रहण्यांचक्षीणधातौचनिःसृतौ ॥ गुदामयेश्वासकासेवातरक्तेहितोमतः॥

**अर्थ–**हरड ६४ तोल, जल १०२४ तोले, दशमूल, १२८ तोले इन्द्रजौ ९६ तोले तथा पीपरामूल, चीतेकी छाल, भारंगी शंखाहुली, खरेटी, कचूर, साँठ, ओंगा, नागरमोथा, पुहकरमल,गजपीपल, ये प्रत्येक चारताले इन सबका अष्टावशेष काढा कर उसमें हरडोंको पीसके डाल देवे और इसमें गुड १९२ तोले गौका घी २० तोले, तथा जायफल, केशर, चातुर्जात, आंवले, अजमायन, बहेडा, जावित्री, ताम्रभस्म, लोहभस्म, सोंठ, कालीमिरच, पीपल, इन प्रत्येकका चूर्ण दो दो तोले डालकर पाक बनावे इसको (हरीतकीपाक) कहते हैं यह जीर्णज्वर, संग्रहणी, क्षीणता, अतिसार, बवासीर, श्वास, खांसी, वातरक्त और रसकोप इनको दूरकरे तथा तत्काल तुष्टी, पुष्टी और बल, इनको देय है ॥

कौक्कुट घृत।

कुक्कुटंतरुणंसद्यःशिरःपादांत्रवर्जितम् ॥ तस्यमांसस्यकुर्वीतशृतंपलशतंभिषक् । बृहतीकंटकारीचशृंगीकर्कटकस्यच ॥ बदराणिकुलित्थाश्चभांर्गीआमलकीतथा ॥ शठीपुष्करमूलंचपंचमूलंमहत्तथा ॥ एतत्तुलांचसंगृह्यद्विद्रोणेत्वंभसःपचेत् ॥ पादशेषपरिस्राव्यकषायंग्राहयेद्भिषक् ॥ षड्गुणंक्षीरमाहृत्यविपचेत्तुघृताढकम् ॥ तत्रकक्लीकृतंदद्यादस्वल्पंपंचमूलकम् ॥ तत्साधुसिद्धंविस्राव्यशुभेभांडेनिधापयेत् ॥ तस्यकालेपिबेन्मात्रांबलदोषमवेक्ष्यच ॥ र्जीर्णेतस्मिस्तुभुंजीतरक्तशाल्योदनंतथा ॥ जीर्णज्वरोपसृष्टानांशुष्यतांश्वासकासिनाम् ॥ प्रयोज्यंकौक्कुटंसपिर्यक्ष्मिणांविषमज्वरे ॥ लेखनंबृंहणीयंचबलवर्णाग्निवर्धनम् ॥

**अर्थ–**उत्तम तरुण मुरगेका मस्तक, पैर और आंतें निकालके उसके मांसका काढा ४०० तोले लेकर उसमें दोनों कटेरी, काकडासींगी, बेर, कुलथी, भारंगी, आमले, कचूर, पुहकरमूल और बृहत्पंचमूल मिलाय सब ४०० तोले लेवे, उसको २०४८ तोले जलमें डालके चतुर्थांशावशेष काढा करे और काढेका छः गुना दूध और १०२४ तोले घृत डालके उसमें बृहत्पंचमूलका कल्क मिलाय सबको एकत्र कर मंदाग्निसे घी शेषरहजाने पर्यंत पचाये जव सिद्ध होजाय तव उतारके उत्तम पात्र में भरके धर रक्खे, फिर दोषोंका बलावल देखके देवे इसके जीर्णहोनेके उपरांत लाल चावलोंका भात भोजन करावे तो यह(कौटुट घृत) जीर्णज्वर, श्वास, खांसी, क्षयी, विषमज्वर, इनको दूरकरे, तथा लेखन, बृंहण, और बल, वर्ण तथा अग्नि इनको बढावे ॥

वासाद्यंघृतं।

वासांगुडूचीत्रिफलांत्रायमाणांदुरालभाम् ॥ पक्त्वातेनकषायेणपयसोद्विगुणेनच ॥ पिप्पलेमुस्तमृद्वीकाचंदनोत्पलनागरैः॥ कल्कीकृतैश्चविपचेद्घृतंजीर्णज्वरापहम् ॥

अर्थ–अडूसा, गिलोय, त्रिफला त्रायमाण, और धमासा इनके काढेमें दुगना दूध और पीपल, नागरमोथा, दाख, लालचंदन, कमलगट्टा, औरसोंठ इनको डालके सबको एकत्रकर उसमें घृत सिद्धकरे तो यह जीर्णज्वरको नाश करे॥

पिप्पल्यादिघृत।

पिप्पल्यश्चंदनंमुस्तमुशीरंकटुरोहिणी ॥कलिंगकात्वामलकीसारिवातिविपंस्थिरा ॥ द्राक्षामलकबीजानित्रायमाणानिदिग्धिका ॥ सिद्धमेतत्घृतंसद्योजीर्णज्वरमपोहति ॥ क्षयंकासंशिरःशूलंपार्श्वशूलमरोचकम् ॥ अंगाभिपातमग्निंचविषमंसन्नियच्छति ॥ पिप्पल्यादित्विदंक्वापितंत्रेक्षीरेणपच्यते ॥

**अर्थ–**पीपल, लालचंदन, नागरमोथा, नेत्रवाला, कुटकी, इन्द्रजव, आमले, सारिवा, अतीस, सालपर्णी,दाख, इमलीकेचीया, त्रायमाण, कटेरी, इनके काढेमें अथवा, कल्कमें घृत सिद्धकरे तो यह जीर्णज्वरको तत्काल नाश करे, तथा क्षय, खाँसी, मस्तक पीडा, पँसवाडेका दर्द, अरुचि, अंगकी गरमी और अग्नि इनका नाश करे यह पिप्पल्यादि घृत किसीग्रंथमें दूधके साथ पचावे ऐसा कहाहै॥

क्षीरवृक्षादितैल ।

क्षीरवृक्षासनारिष्टाजंबूसप्तच्छदार्जुनैः ॥ शिरीषखदिरास्फोतामृतवल्याटरूपकैः॥ कटुकापर्पटोशीरवचातेजोवतीघनैः॥ साधितंतैलमभ्यंगादाशुजीर्णज्वरःक्षयम् ॥

**अर्थ–**पीपर, विजैसार, नीमकी छाल, सतोना, कोह, सिरस, स्वैर, सारिवा; गिलोय, अडूसा, कुटकी, पित्तपापढा, खस, वच,मालकांगनी, और नागरमोथा, इनके काढमें अथवा कल्कमेंतेल सिद्ध करे फिर इसका देहमें मालिश करे तो तत्काल जीर्णज्वरका नाश करे ॥

सेवंतीपाक।

श्वेतपुष्पसहस्राणिघृतप्रस्थेविपाचयेत् ॥ घृतेपक्वेकृतेतस्मिन्निक्षिपेद्वैतदौषधम्॥सितोपलाचतुर्भागाचातुर्जातंपलंपलम् ॥ मृद्वीकाषट्पलंचैवक्षिपेन्मधुपलाष्टकम्॥धारासत्वंचार्धपलंसर्वमेकत्रकारयेत्॥कर्षप्रमाणंतत्सेव्यंसततंचगदातुरैः ॥जीर्णज्वरेक्षयेकासेअग्निमांद्येप्रमेहके ॥ प्रदरंरक्तजान्रोगान्कुष्ठार्शांसिविनाशयेत्॥ नित्ररोगान्सुदुःसाध्यांस्तथासर्वान्सुखोत्थितान्॥

**अर्थ–**सेवतीके सफेद फूल १००० लेकर धीमें सिजवावे, फिर इसमें मिश्री चार भाग, दालचीनी, तमालपत्र, इलायची, नागकेशर, ये प्रत्येक चाररतोले लेबे, दाख २४ तोले, और शहत ३२ तोले तथा गिलोयका सत्व २ तोले इन सबको एकत्र कर पाककी विधिसे बनावे इस पाकको तोले भर नित्य प्रातःकाल लेय तो (यह सेवती पाक,) जीर्णज्वर,क्षयी, खांसी, मंदाग्नि, प्रमेह, प्रदर, रक्तविकार, कोढअर्शरोग, और दुःसाध्य नेत्ररोग, तथा मुखरोगोंको नाश करे॥

पिप्पलीपाक।

प्रस्थंपिप्पलिमादायक्षीरेणैवानुपेपयेत् ॥ अर्धाढकंघृतंगव्यंशुद्धंखंडाढकंतथा ॥पचेन्मृद्वग्निनातावद्यावत्पाकमुपागतम् ॥ शीतीभूतेक्षिपेत्तस्मिश्चातुर्जातंपलत्रयुम् ॥ योजयेन्मात्रयायक्तंदोषधात्वग्निसाम्यतः ॥ बल्यंवृष्यंतथाहृद्यंतेजोवृद्धिकरंपरम् ॥ जीर्णज्वरक्षतक्षीणमश्रांतंचैवबृंहयेत्॥छर्दितृष्णारुचिश्वासशोषजिह्वासकामलाम् ॥ हृद्रोगंपांडुरोगंचपदरंचत्रिदोषजम् ॥ वातरक्तप्रतिश्यायमामवांतंविनाशयेत् ॥ संवत्सरप्रयोगेणवलीपलितवर्जितः॥

**अर्थ–**६४ तोले पीपल लेके दूधसे पीसैंफिर १२८ तोले घीमें मंदाग्निसेकुछ भूने तथा १०२४ तोले मिश्रीकी चासनीमें पाक बनावे और दालचीनी, तमालपत्र, इलायची,नागकेशर, इनका चूर्ण १२ तोले डालके कतरी जमाय लेवे पश्चात रोगीका दोष धातुअग्निका बलावल देखके देव तो धातुको वढावे, वलकरे, हृदयको हितकारी, तथा तेजकी वृद्धिकरे, और जीर्णज्वरवालेको, तथा क्षतक्षयसे क्षीणपुरुषको पुष्टिकरे, वमन, प्यास, अरुचि, श्वास, शोप, जिव्हाके रोग, कामला, हृदयरोग, पांडु, प्रदर, त्रिदोष, वातरक्त, पीनस, और आमवात, इनका नाश करे. इस पाकको एकवर्ष सेवन करनेसे अंगकी गुजलट और सपेद वालों का नाश कर तरुणता करे है॥

ज्वरमुक्तलक्षण ।

प्रकाशोलाघवंग्लानिः स्वस्थतासुप्रसन्नता ॥
उपद्रवानिमितंचसम्यक्लङ्घितलक्षणम् ॥

**अर्थ–**इन्द्री आपने अपने विषयग्रहण करनेमें समर्थ हो, शरीरमें हलकापना, ग्लानि चित्तकीस्वस्थता, तथा प्रसन्नता और सर्व उपद्रवकी शांति ये ज्वरमुक्तके लक्षण हैं ॥

साध्यज्वरलक्षण ।

बलवत्स्वल्पदोषेतुज्वरःसाध्योनुपद्रवः ॥

**अर्थ–**जिस ज्वरमें मनुष्यकीशक्ति क्षीण न होय और वातादिक दोषोंका कोप थोडा होय तथा ज्वरके उपद्रव विशेष न होय उसज्वरको साध्य कहा है॥

असाध्यज्वरलक्षण।

हेतुभिर्बहुभिर्जातोबलिभिर्बहुलक्षणः ॥ ज्वरःप्राणांतकृद्यश्वशीघ्रमिंद्रियनाशनः ॥ ज्वरक्षीणस्यशूनस्यगंभीरोदैर्घ्यरात्रिकः॥ असाध्योबलवान्यश्चकेशसीमंतकृज्ज्वरः॥

**अर्थ–**अत्यंत और प्रबल हेतुओं करके उत्पन्न हुआ, ज्वर तथा जो उत्पन्न होतेही किसी एक इन्दियको नष्ट कर देवे, वो ज्वर प्राणांतकारी जानना। तथा जिस ज्वरमें मनुष्यके क्षीण होकर अंगोंमें सूजन आप जावे वो तथा गंभीर धातुप्रतजानेवाला और बहुत दिन तक देहमें रहने वाला तथा अंतर्वेगी, और जो ज्वर बहुत आनकर बालोंमें स्त्रियों के मांगके समान रचना करने वाला ऐसे सब ज्वर असाध्य हैं ॥

गंभीरज्वरलक्षण ।

गंभीरश्वज्वरोज्ञेयोह्यंतर्दाहेनतृष्णया ॥
आनद्धत्वेनदोषाणांश्वासकासोद्गमेनच ॥

**अर्थ–**अंतर्दाह, तृषा, दोषोंकी प्रबलता, श्वास, खांसी, ये लक्षण जिस ज्वरमै हों उसको गंभीर कहते हैं॥

असाध्यलक्षण।

आरंभाद्विषमोयस्तुयस्तुस्याद्दैर्ध्यरात्रिकः॥

क्षीणस्यचातिरूक्षस्यगंभीरोयस्यहंतितम् ॥

**अर्थ–**जो ज्वर उत्पन्न होतेही संतत सतत आदिरूप करके विषम हो जावे और बहुत रात्रिपर्यंत आवे तथा गंभीर हो ये तीनज्वर तथा क्षीण किवा रुक्ष मनुष्यका ज्वर प्राणनाशक जानना॥

दूसराप्रकार।

शंखस्वेदोतिबहुलंपिच्छिलोयातिसर्वशः॥
देहिनःशीतगात्रस्यतदामरणमादिशेत् ॥

**अर्थ–**शंख कहिये कनपटीमें बहुत पसीने आनकर सर्व देहमात्र पसीनोंसे चिकट जाय तथा रोगीका देह शीतल पडजावे वो ज्वरप्राणनाशक जानना॥

तीसराप्रकार।

विसंज्ञस्ताम्यतेयस्तुशेतेनिपतितोपिवा ॥
शीतार्दितोंतरुष्णश्चज्वरेणम्रियतेनरः ॥

**अर्थ–**जो मनुष्य ज्वरसे विह्वल हो मोहित होजावे और सोकर तथा वेठकर उठेनहीं, एवं बाहर शीत और भीतरसे दाहयुक्त हो वो पुरुष ज्वर करके मरणको प्राप्त होवे ॥

चौथाप्रकार।

शीतस्वेदोललाटेस्यश्लथसंधानबंधनः॥
मुह्मत्युत्थाप्यमानस्तुसस्थूलोऽप्यनुजीवति ॥

**अर्थ–**जिस मनुष्यके मस्तकपर शीतल पसीने आवे और सर्वोगके बंधन ढीले होजावें, तथा उठनेमें मोहको प्राप्त हो ऐसामनुष्य पृष्टभी हो तथापि नहीं बचे॥

पाँचवाप्रकार।

योहृष्टरोमारक्ताक्षोहृदिसंघातशूलवान्॥

वक्रेणचैवोच्छ्वसितितंज्वरोहंतिमानवम् ॥

**अर्थ–**ज्वरमें रोगीके रोमांच खड़े रहें, नेत्र लाल हों, हृदयमें शस्त्रप्रहार होनेकीसी पीडा और उँचे मुख करके जो श्वास लेवे, ऐसा ज्वर रोगीका प्राणहरण कर्त्ताजानना॥

दूसरेप्रकारकेअसाध्यलक्षण ।

प्रेतैःसहपिबेन्मद्यंस्वप्नेयःकृष्यतेशुना ॥ सघोरंज्वरमासाद्यनजीवेन्नचमुच्यते ॥ ज्वरः- पूर्वाह्णिकोयस्यशुष्ककासश्चदारुणः ॥ बलमांसविहीनश्चयथाप्रेतस्तथैवसः ॥ ज्वरोयस्यापराहेतु- श्लेष्माकासश्चदारुणः ॥ वलमांसविहीनश्चयथाप्रेतस्तथैवसः॥ सहसाज्वरसंतापस्तृष्णामूर्च्छाबलक्षयः ॥ विश्लेषणंचसंधीनांमूभूर्पोरुपजायते ॥ गोसर्गे- वेदनाद्यस्यस्वेदः प्रच्यवतेध्रुवम् ॥ लेपज्वरोपसृष्टस्यदुर्लभंतस्यजीवितम् ॥ स्वेदोललाटेहिमवान्नरस्यशीतार्दितस्यातिसपिच्छिलस्य॥कंठस्थितोयस्यनयातिवक्षोनूनं- यमस्यैतिगृहंसमर्त्यः ॥ यस्यस्वेदोतिबहलःपिच्छिलोयातिसर्वतः ॥ रोगिणःशीतगात्रस्य- तदामरणमादिशेत् ॥

**अर्थ–**जो स्वप्नमें प्रेतोंके साथ मद्यपान करे, तथा जिसको कुत्ते घसीटे, वो भयंकर ज्वरसे मरे, जिसको पूर्वाह्नमें घोरज्वर आवे और सूखी दारुण खांसी हो, तथा बल, मांस, जिसका नष्ट हो जावे उसको प्रेतके समान जानना, जिसको अपराह्णमे ज्वर आनकर कफ-खांसी-अत्यंत पीडा देवे, बल, मांस नष्ट होजावे उसको मुरदेके तुल्य जानना, अकस्मात् ज्वरका दाह, तृषा, मूर्च्छा, और बलक्षय तथा संधि २ ढीले होजावें, ये लक्षण आसन्न मरण वालेके होते हैं। प्रातःकाल जिसके मुखपर पसीने आवें और लेपज्वर करकेव्यास होउसका बचना कठिन है। जिसके मस्तकपर शीतल पसीने और शीत अधिक लगे अंगपसीनेसे चीकटसे होजावे और गलेका पसीना छातीपर आवे नहीं वो मनुष्य यमराजके घर जल्दी जाता है। तथा जिसके अत्यंत और चिकने पसीने चारों तरफसे आवे और अंग शीतल हो तो रोगी तत्क्षण मरे ॥

दूसराप्रकर।

हिक्काश्वासतृषायुक्तंमूढंविभ्रांतलोचनम् ॥
सततोच्छ्वासिनंक्षीणंनरंक्षपयतिज्वरः ॥

**अर्थ–**हिचकी, श्वास, तृषा, इन करके युक्त और जिसके नेत्र चलायमान हो तथा बेहोश हो और निरंतर ऊर्ध्वश्वास लेवे तथा जो क्षीण हो गया हो उसको ज्वर मारता है॥

असाध्यलक्षणज्वर।

हतप्रभेंद्रियंक्षाममरोचकनिपीडितम् ॥
गंभीरतीक्ष्णवेगार्तंज्वरितंपरिवर्जितम् ॥

**अर्थ–**जिस मनुष्यके निस्तेजता आय जावे, इंद्रियोंकी शक्ति चली जावे कृश हुआ तथा जिसको अरुचि हो तथा अंतर्गत और बाह्य वेगसे पीडित उसको वैद्य त्याग देवे अर्थात् चिकित्सा न करे ॥

ज्वरमोक्षकेपूर्वरूप।

दाहःस्वेदोभ्रमस्तृष्णाकंपोविड्भेदसंज्ञिता ॥
कूजनंचातिवैगंध्यमाकृतिज्वरमोक्षणे ॥

**अर्थ–**दाह, पसीने, भ्रम, तृषा, कंप, मलका न उतरना, मूर्च्छा, गुंजना, अंगोंमें पसीनोंकी दुर्गंधी ये जानेवाले ज्वर के पूर्वलक्षण होते हैं, परंतु ये त्रिदोष ज्वरमें होते हैं अन्यज्वरमें नहीं ॥

ज्वरमुक्तलक्षण।

देहोलघुर्व्यपगतक्लममोहतापंपाकोमुखेकरणसौष्ठवमव्यथत्वम् ॥

स्वेदःक्षवःप्रकृतियोगमनोन्नलिप्साकंडूश्चमूर्घ्निविगतज्वरलक्षणानि ॥

**अर्थ–**शरीर हलकाहो, क्लम, मोह और ताप, मुखका पाक, कर्णेन्द्रिय बहुत उत्तम शरीरकी सर्व व्यथा दूर हो जावे, पसीने आवे , प्रकृतिके तारतम्य करकेछीक आवे, अन्नपर इच्छाहोऔर मस्तकमें खुजली चले ये सब लक्षण ज्वरमुक्त मनुष्यके जानने ॥

मधुरज्वरलक्षण।

ज्वरोदाहोभ्रमोमोहोह्यतीसारवमिस्तृषा॥ अनिद्राचमुखंरक्तंतालुजिह्वाचशुष्यति ॥ ग्रीवायांपरिदृश्यंतेस्फोटकाःसर्षपोयमाः॥ क्षताशनात्स्वेदरोधान्मंथरोजायतेनृणाम् ॥

**अर्थ–**ज्वर, दाह, भ्रम, मोह, अतीसार, यांती, प्यास, निद्रानाश, मुखपर लाली, तथा तालु और जिह्वाइनका सुखना, नाडमें सरसोंके समान फुंसी उठे, ये मधुरज्वर अत्यंत घृतपान करनेसे अथवा पसीनोंके रुकनेसे होता है॥

सुरसादियोग।

सुरसागोमयरसोअजाजीमृतमक्षिका ॥ अथवाशांबरंशृंगंचंदनंजीरकंजलम् ॥ कैरातंकुटजोजाजीछिन्नेलापद्मकंफलम् ॥ घृष्ट्वापीत्वानिहंत्याशुज्वरंमधुरकाभिधम्॥

**अर्थ–**तुलसी, गोवरका रस, जीरा, मरीहुई मक्खी, साँवरसींगा, लालचंदन, कालाजीरा, नेत्रवाला चिरायता, इन्द्रजौ, गिलोय, इलायची और कमलगट्टाइन सबको जलमें घिसके४ तोले पीवेतो शीघ्र मधुरज्वर दूर हो॥

मुस्तादिकाढा।

मुस्तापर्पटकोयष्टीगोस्तनीसमभागतः ॥
अष्टावशेषितः क्वाथोनिपीतोमधुनासह ॥
पित्तभ्रमंज्वरंदाहंहंतिछर्दिसमंथराम् ॥

**अर्थ–**नागरमोथा, पित्तपापड़ा, मुलहटी और दाख, ये समान भाग ले अष्टावशेष काढा कर शहत डालके देवे तो पित्त संबंधी भ्रम, ज्वर, दाह, वान्ती और मधुर ज्वर ये नष्ट हो ॥

विण्मक्षिकाकाढा।

विण्मक्षिकोद्भवसमूलसुश्वेतभिक्षुकर्पूरिकापणदरंसुरसार्द्रशाखा ॥ न्यग्रोधपर्णक्वथनंसमभागकर्पमष्टावशेषज्वरमंथरघातिशीघ्रम् ॥

अर्थ– मक्स्रियोंकी वीट, जडसमेत संपेद ईखकी जड, कपूर, कौडी, शंख, तुलसीकी मंजरी, वडके पत्ते, प्रत्येक एक एक तोले लेवे इनका अष्टावशेष काढा करके देवे तो मधुरज्वर नाश होय ॥

चंदनादिकाढा।

चंदनोशीरधान्यंचवालकंपर्पटतथा॥
मुस्ताशुंठीसमायुक्तंमंथरज्वरनाशनम् ॥

**अर्थ–**चंदन, खस, धनिया, नेत्रबाला, पित्तपापडा, नागरमोथा और सोंठ, इनका काढा मंथर ज्वरको नष्ट करे ॥

मक्षिकादियोग।

मक्षिकागुडसंयुक्ताज्वरेमंथरकेहिता ॥

भ्रममोहातिसारांश्चनाशयत्यविलंबतः॥

**अर्थ–**मधुरज्वरमें मक्खीको गुडमें मिलायके खाय तो भ्रम, मोह और अतीसार इनको शीघ्र शमन करे॥

कृष्णमधुरालक्षण।

ज्वरंचचक्षुर्मोहंचदंतौष्टौचैवश्यामकौ॥जिह्वाकंठमुखघ्राणरक्तताचाक्षिकर्वुरम् ॥ कंठेमुक्तावलीहारः सप्ताहाद्वार्यतेनवा ॥ त्रिसप्तकदिनादर्वाक्स्फोटाः स्युः सर्षपोपमाः ॥

**अर्थ–**ज्वर, नेत्रोंका मिचना, और दाँत, होठ, जिव्हा, कंठ, मुख, और नासिका ये काले तथा नेत्र चित्रविचित्र वर्ण, ये लक्षण होते हैं और जिसके गलेमें सातदिनके भीतर मोतियोंका हार न पहनावे तो इक्कीस दिनमें सरसोंके समान फोडे उत्पन्न हो ये लक्षण कृष्णमधुरज्वरके जानने ॥

सहस्रवेधपाषाणादियोग।

सहस्रवेधिपाषाणकपालंकच्छपस्यच ॥ वृद्धैलातुलसीपत्रंनारिकलास्थिचूतजम्॥ दाणाखसखसाख्याश्चगोमयस्यरसेनच ॥ घृष्ट्वापानायदातव्यंमधुरज्वरशांतये ॥

**अर्थ–**हींगका छोटासा टुकडा, कछुएके कपालकी हड्डी, बडीइलायरी तुलसीके पत्ते, नारियलको नरेली, आमकी गुठली, खसखसके दाने, इन सबको गोवरकेरसमें पीसकेपिवावे तो मधुरज्वर शांति होय ॥

भूनिंबादिकाढा।

भूनिंबातिविषालोध्रंमुस्तकेंद्रयवामृता ॥
वालकंधान्यविल्वंचकषायोमाक्षिकान्वितः॥
विड्भेदश्वासकासांश्चरक्तपित्तज्वरंहरेत् ॥

**अर्थ–**चिरायता, अतीस, लोध, नागरमोथा, इन्द्रजव, गिलोय, नेत्रवाला, धनिया और वेलगिरि इनको काढेमें शहत मिलायके पिवावे तो अतीसार, श्वास, खाँसी और रक्तपित्तको दूर करे ॥

वासाद्यकाढा।

वासाद्राक्षाभयाक्वाथःपीतः सक्षौद्रशर्करः॥
निहंतिरक्तपित्तार्तिश्वासंकासंज्वरंतथा॥

**अर्थ–**अडूसा, दाख और छोटी हरड, इनके काढेमें शहत और मिश्रीमिलायके पावे तो रक्तपिचको पीडा, श्वास, खाँसी और ज्वर इनको नष्ट करें॥

मधुकादिकाढा ।

मधुकंवल्कलंकुष्टमुत्पलंचंदनंवचा ॥ त्रिफलादुर्लभावासाद्राक्षाशिरीषपद्मकम् ॥ मूर्वायष्टिरयंक्वाथोदाहंमूर्च्छातृपांभ्रमम् ॥ रक्तपित्तज्वरंहंतिनिपीतोमधुनासह ॥

**अर्थ–**मुलहटी, दालचीनी, कूठ, नीलाकमल, चंदन, वच, त्रिफला, अडूसा, दाख, सिरसकी छाल, पद्माख, मूर्वा और भारंगी इनके काढेमें सहत डालके पीबेतो दाह, मूर्छा, प्यास, भ्रम, रक्तपित्त और ज्वरको दूरकरे ॥

दुर्जलजनितज्वरपर पटोलादिकाढा।

पटोलमुस्तामृतवल्लियासकंसनागरंधान्यकिराततिक्तकम् ॥ कषायमेपांमधुनायुतंनरोनिवारयेद्दुर्जलदोषमुल्वणम् ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र नागरमोथा, गिलोय अडूसा, सोंठ, धनिया, चिरायता और कुटकी, इनका काढा सहत मिलायकर पीवे तो दुष्टजलका घोरदोष निवारणहोय॥

किराततिक्तादिचूर्ण।

किराततिक्तात्रिवृदंबुपिप्पलीविडंगविश्वाकटुरोहिणीरजः॥ निहंतिलीढंमधुनातिसत्त्वरंसुदुस्तरंदुर्जलदोषजंज्वरम् ॥

**अर्थ–**कडुवाचिरायता निसोथ नागरमोथा,पीपल,वायविडंग,सोंठ और कुटकी इन सबका चूर्ण सहतमें मिलायके चाटे तो दृष्टजल जनित ज्वर शीघ्र दूर होय ॥

हरीतक्यादिचूर्ण ।

हरीतकीनिंबपत्रंनागरसैंधवोऽनलः ॥
एपांचूर्णंसदाखादेद्दुर्जलज्वरशांतये ॥

**अर्थ–**हरडकी छाल, नीमकेपत्ते, सोंठ, सैंधानिमक, चीतकीछाल इन सबका चूर्ण दुर्जल जनित विकारकी शांतिके अर्थ नित्य खाना चाहिये ॥

शुंठ्यादिकल्क।

भोजनादौनरैर्भुक्तंशुंठीराज्यभयोत्थितम् ॥
कल्कंतुसहतेनित्यंनानादेशोद्भवंजलम् ॥

**अर्थ–**जो मनुष्य नित्य प्रति भोजनके आदिमें सोंठ, राई और हरड,इनका कल्क नित्य पीता है उनकी अनेक देशका जल विकार नहीं करता है ॥

आर्द्रकादिचूर्ण।

महार्द्रकयवक्षारौपीत्वाचोष्णेनवारिणा॥
नानादेशसमुद्भूतंवारिदोषमपोहति ॥

**अर्थ–**जो मनुष्य सोंठ और जवाखारको गरम जलके साथ पीताहै उसके अनेक देशोंका उत्पन्न जलविकार दूर होता है॥

दुर्जलजेतारस।

विषंभागद्वयंदग्धकपर्दःपंचभागकः ॥ मरीचंनवभागंचचूर्णंवस्त्रेणशोधयेत् ॥ आर्द्रकस्यरसेनास्यकुर्यात्मुद्गसमांवटीं ॥ वारिणावटिकायुग्मंप्रातःसायंचभक्षयेत् ॥ अयंरसोज्वरेयोज्यस्तस्मिन्दुर्जलजेपिच॥ अजीर्णाध्मानविष्टंभशूलेपुश्वासकासयोः॥

**अर्थ–**विप२ तोले, कौडीकी भस्म ५ तोले,कालीमिरच ९ तोले ले सबको कूट पीस कपड़छानकर अदरखके रसमें मूंगके समान गोली बनावे,२ गोली जलके साथ प्रातःकाल और सायंकालमें खाय, इस रसको ज्वरमें तथा जलजनित ज्वरमें देय एवं अजीर्ण,अफरा,विष्टंभ, शूल, श्वास और खाँसीमें देवे तो दूर हो॥

ज्ञानोदयरस।

कलावेदांकचंद्रांशैः सर्वाशसितयायुतैः॥ शक्रासनरजोजातीफलंशुक्लैः सुमेलितैः ॥ ज्ञानोदयोभवेदेपसाधकानंदसिद्धिदः॥ सेवितः सात्म्यतोग्राहौजलदोषापनोदकः ॥

**अर्थ–**इन्द्रजौ १५ तोले, पित्तपापडा ४ तोले, जायफल ९ तोले, सपेद अंडकीजड १ तोले लेवे, सबका चूर्ण कर बराबरकीमिश्री मिलावे तो यह (ज्ञानोदय ) तयार हो, इसके सेवन करनेवालोंको सिद्ध देवे और सात्म्य होकर जलसंबंधी दोषोंको दूर करे ॥

हरिद्रकवृक्षयोग।

सहरिद्रयवक्षारौपीत्वाचोष्णेनवारिणा ॥
नानादेशसमुद्भूतंवारिदोषमपोहति ॥

**अर्थ–**जो मनुष्य हलदी और जवाखार मिलाके गरम जलके साथ पीवे तो अनेक देशोंके दुष्ट जलविकारको दूर करे ॥

मद्योद्भवज्वर।

मद्याजीर्णंसमालोक्यवामयेच्छर्करोदकैः ॥
पित्तज्वरोपचारेणमद्यज्वरमुपाचरेत् ॥
मद्यपानज्वरस्यादौलंघनंनैवकारयेत् ॥

**अर्थ–**मद्यजीर्णवालेको शरबत पिलाकर वमन करावे तथा मद्यजनित ज्वरकायत्न पित्तज्वरके सदृश करे,परंतु मद्यजन्य ज्वरके आदिमें लंघन नहीं करानाचाहिये ।

फेरउलटकरज्वरआयाउसपरलंघन ।

अपथ्यदोषाद्यदिसंप्रवृत्तोभवेज्ज्वरश्चेदलिनश्चपुंसः॥
हितंपुनर्लंघनमादिशंतिसतोल्पदोषस्यचभेषजानि॥

**अर्थ–**यदि बलवान् पुरुषके अपथ्य करनेसे फिर ज्वर हो आवे तो दोषकी अधिकताके अनुसार लंघन करना हित है और अल्पदोषमें पाचनादि औषध देवे॥

रेचन ।

यदिनिर्व्यात्दृतमलःपुनरेवभवेज्ज्वरः ॥
मलंचनिर्हरेच्छीघ्रंततःसंपद्यतेसुखम् ॥

**अर्थ–**यदि दस्त करानेके अनंतर फिर ज्वर हो आवे तो वैद्य उसको फिर दस्त कराकेमलको निकाले तो तत्काल सुखी होवे ॥

किराततिक्तादिकाढा।

किराततिक्तकंतिक्तामुस्तापर्पटकामृता॥
निःक्वाथ्यपीतानिघ्नंतिपुनरावर्तिकज्वरम् ॥

**अर्थ–**कटुआ चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, पित्तपापडा, गिलोय, इनका काढाप्राशन करनेसे फिर लौटकर आनेवाले ज्वरको नाश करे ॥

तिक्तादिकाढा ।

तिक्तोशीरवलाधान्यपर्पटांभोधरैः कृतः॥

क्वाथः पुनः समायातंज्वरंशीघ्रंनिवारयेत् ॥

**अर्थ–**कुटकी, खस, वला, धनिया, पित्तपापडा और नागरमोथा, इनका काढा फिर लौटकर आनेवाले ज्वरको शीघ्रनष्ट करे॥

अपथ्यज्वरलक्षण।

अपथ्यजेमद्यभवेचहेतुर्हेतुर्ज्वरोपित्तमुदाहरंति॥
दाहश्चशैत्यं चशिरोव्यथाचकोठाभिवृद्धिः कटितोदकंड॥
मलातिपातस्त्व तिनद्धताचअपथ्यदोषेणभवेज्वरेच ॥

**अर्थ–**अपथ्य और मद्यजन्य ज्वरमें पित्तप्रधानहोता है, तिनमें कुपथ्य कर नेसे हुए ज्वरमें दाह, शीतल, मस्तकपीडा, उदरवृद्धि और कमरकीपीडा, खुजली, दस्त, अथवा मलबद्धता इन विकारोको करहै॥

कटुक्यादिकाढा।

कटुकीपिप्पलीमूलंमुस्ताचैवहरितकी ॥
गिरिमालसमः क्वाथः सर्वज्वरविनाशनः ॥

**अर्थ–**कूटकी, पीपलामुल नागरमोथा, हरडकी छाल और किरवारेकी गिरी, सब समान लेकर क्वाथकरे यह क्वाथसर्वज्वरोंको नाश करे ॥

आमलक्यादिचूर्ण ।

अमलंचित्रकंपथ्यासैंधवंपिप्पलीकृतम् ॥
चूर्णंसोयंगणोह्येपसर्वज्वरविनाशनः ॥
भेदीरुचिकरःश्लेष्मजेतादीपनपाचनः॥

**अर्थ–**आमला चित्रल, बडीहडकी छाल, सैंधानिमक और पीपल, इनका चूर्ण सर्वज्वर और कफको दूर करे , दस्तकर, रुचिकारी और दीपन पाचन है ॥

गुडूच्यादिकाढा।

गुडूचीधनकारिष्टपद्मकोरक्तचंदनम् ॥
गुडूच्यादिगणःक्वाथःसर्वज्वरहरःपरः ॥
दीपनोदाहहृल्लासतृष्णाछर्द्यरुचिर्जयेत् ॥

**अर्थ–**गिलोय, धनिया, नीमकीछाल, पद्माखऔर लालचंदन, यह गुडूच्यादि गण क्वाथसर्वज्वर, दाह, हृल्लास, प्यास, वमन और अरुचिको दूर करे तथा दीपन है ॥

क्षुद्रादिकाढा।

क्षुद्राकिराततिक्तंचशुंठीछिन्नाचपौष्करम् ॥
कषायएपांशमयेत्पीतश्वाष्टविधंज्वरम् ॥

**अर्थ–**कटेरी, चिरायता, सोंठ, गिलोय, अंडकीजड और पुहकरमूल इन छः औंषधोंका काढा पीनेसे आठ प्रकारके ज्वर दूर करे ॥

नागरादिपाचन ।

नागरंदेवकाष्ठंचधान्यकंबृहतीद्वयम् ॥

दद्यात्पाचनकंपूर्वंज्वरितानांज्वरापहम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, देवदारु, धनिया, दोनों कटेरी, इनका काढा कर ज्वरवालोंके ज्वर दूर करनेको यह पाचन देवे ॥

चलदलतरुसेवाहोममंत्रोत्रिनेत्रिद्विजजनगुरुपूजाविष्णुनाम्नांसहस्रम् ॥ मणिधृतिरपिदानान्याशिपस्तापसानांसकलमिदमरिष्टंस्पष्टमष्टज्वराणाम्॥

**अर्थ–**पीपरको सेवा, होम, गायत्र्यादि मंत्रोंका जप, श्रीशीव, ब्राह्मण, गरु इनका पूजन, विष्णुसहस्रनामका पाठ, मणिधारण, दान तपस्वियोंके आशीर्वाद, इन यत्नों करके अष्टविध ज्वर शांत हों ॥

समुद्रस्योत्तरेतीरेद्विरदोनामवानरः॥
तस्यस्मरणमात्रेणज्वरोयातिदिगंतरम् ॥

**अर्थ–**समुदके उत्तरतीरमें द्विरदनाम वानर रहता है उसके स्मरण करतेही ज्वर भाग जाता है, ये श्लोक मंत्ररूप है ज्वरवाला इसका स्मरण कराकरे ॥

वेलाज्वर।

शोकात्क्रोधात्तथाजीर्णात्संतापाद्वलहानितः॥
अंतकालेचमार्त्यानांजायंतेदारुणाज्वराः॥

**अर्थ–**शोक, क्रोध, अजीर्ण संताप और बलहानि, इनसे मनुष्यको अंतकालमें भयंकर ज्वर उत्पन्न होता है ॥

मूलिकाबंधनम्।

सर्वज्वरापहंनीलिमूलंरात्रिर्ज्वरापहम् ॥
दुग्धिकामूलिकाकर्णेहंतिवेलाज्वरंतथा ॥

**अर्थ–**नीलीवृक्षकीजड और हलदी, ये सर्व ज्वर नाशक हैं उसी प्रकार दुधीकी जडको कानमें रखनेसे वेलाबर दूर हो ॥

पिप्पलीचूर्णज्वरऊपर ।

मधुनापिप्पलीचूर्णंलिहेत्कासज्वरापहम् ॥
हिक्काश्वासहरंकंट्यंप्लीहघ्नंबालकोचितम् ॥

**अर्थ–**एकमासे पीपलके चूर्णको शहतसे चाटे तो इससे कासज्वर, हिचकीऔर श्वास,ये दूरहो, तथा चूर्ण कंठको हितकारी है प्लीहको दूर करे तथा बालकोंके उपयोगी है ॥

धान्यादिचूर्ण ।

धान्यंलवंगंत्रितयंचशुंठीकौष्णांबुपीतंतरुणज्वरापहम् ॥ तेभ्यःशतंवारितथाग्निमांद्यंश्वासाद्यजीर्णंविषमंचवातम् ॥

**अर्थ–**धनिया, लौग, निशोथ, और सोंठ, इनके चूर्णको गरम जलके साथ सेवन करनेसे तरुण ज्वरका नाश हो, अथवा इन औषधोंका काढा देवे तो मंदाग्नि, श्वास, अजीर्ण, विषमज्वर और वादीको नाश करे ॥

गोरोचनादिचूर्ण।

गोरोचनंचमरिचंरास्नाकुष्ठंचपिप्पली ॥
उष्णोदकेनपीतंचसर्वज्वरविनाशनम् ॥

**अर्थ–**गोरोचन, कालीमिरच, रास्ना, कूठ और पीपल, इनका चूर्ण गरम जलके साथ पीनेसे सर्व ज्वर दूर हो ॥

सितोपलादिचूर्ण ।

सितोपलाषोडशीस्यादष्टौद्वंशरोचना ॥ पिप्पलीस्याच्चतुष्कर्पाएलास्याच्चद्विकर्षिका ॥ एककर्पत्वचःकार्यश्चूर्णयेत्सर्वमेकतः ॥ सितोपलादिकंचूर्णंमधुसर्पिर्युतंलिहेत् ॥ कासश्वासक्षयहरंहस्तपादांगदाहजित् ॥ मंदाग्निंसुप्तजिह्वत्वंपार्श्वशूलमरोचकम् ॥ ज्वरमूर्ध्वगतंरक्तंपित्तमाशुव्यपोहति ॥

**अर्थ–**मिश्री १५ तोले, वंशलोचन ८ तोले, पीपर ४ तोले, छोटी इलायचीके बीज २ तोले और दालचीनी अथवा तज १ तोले,इनका चूर्ण कर शहत और घृतसे देवे तो यह सितोपलादि चूर्ण खाँसी, श्वास, क्षय, हाथपैरोंका दाह मंदाग्नि जीभकी शून्यता, पँसवाडेका शूल, अरुचि, ज्वर ऊर्ध्वगत रक्तविकार और पित्त इनका नाश होय ॥

भार्ङ्ग्यादिचूर्ण।

भांर्गीकर्कटशृंगीचचव्यंतालीसपत्रकम् ॥ मरिचंमागधीमूलंपत्येकंद्विपलंभवेत् ॥ पट्पलंशृंगवेरंचद्विपलंपिप्पलीद्वयम् ॥ चातुर्जातमुशीरंचपलमेकंपृथक्पृथक् ॥ चातुर्जातसमाशुभ्राशर्करासमयोजिता ॥ ज्वरमष्टविधंहंतिकासंश्वासंचदारुणम् ॥ शोफशूलोदराध्मानदोषत्रयहरंपरम् ॥

**अर्थ–**भारंगी, काकडासिगी, चव्य, तालीसपत्र, कालीमिरच, और पीपरामूल, ये प्रत्येक आठ २ तोले, सोंठ २४ तोले, पीपर ८ तोले, तथा गजपीपर, चातुर्जात और खस, ये ४ तोले, पृथक् २ लेवे, मिश्री ४ तोले, सबका चूर्णकरे इस भांर्ग्यादि चूर्णके सेवनसे आठप्रकारके ज्वर, खाँसी, श्वास, सूजन, उदर, पेटका फूलना और त्रिदोष इनको दूर करे ॥

अंनतादिचूर्ण।

अनंतंबालकंमुस्तानागरंकटुरोहिणी ॥
सुखांबुनाप्रागुदयात्पिबेदक्षसमंरवेः॥
एतत्सर्वज्वरान्हंतिदीपयत्याशुचानलम् ॥

**अर्थ–**जवासा,नेत्रवाला, नागरमोथा,सोंठ, कुटकी, इनका एकतोले चूर्ण कुछ गरम जलके साथ सूर्योदयसे पूर्व पीबे तो सर्व ज्वर दूर हो और जठराग्निमवलहो॥

भेडोक्तसुदर्शनचूर्ण।

तालीसंत्रिफलात्रुटीत्रिकटुकंत्वक्त्रायमाणंत्रिवृन्मूर्वाग्रंथिनि शायुगंशठिबलारुक्कंटकारीयुगम् ॥ मुस्तापर्पटनिंबपुष्करजटाभांर्गीयवानीहिमंचव्यंचित्रकपुंडरीकतगरंसेव्येविडंगंवचा ॥ यासोवत्सककुंडलींद्रयवकंदेवद्रुमंवालकंबीजंशिग्रुभवंपटोलकटुकापद्माह्वपत्रंविषा ॥ काकोलीमधुकुंकमंचसतक्षीरीलवंगंपृथपर्णाशैलजशालिपर्णसहितशामंतकीपुष्पकम् ॥ सर्वंसमंचूर्णतदर्धभागंकैरातकंश्रेष्ठतमंहिचूर्णम्॥ सुदर्शनंनाममरुद्बलासामयोद्भवान्हंति- पृथक्कृताञ्ज्वरान् ॥ संसर्गजान्सकलजान्विषमान्निहन्याद्धातूद्भवान्विपकृतानभिघातजांश्च ॥ सामान्समानसकृतानतिदाहयुक्ताञ्छीतान्तृतीयकचतुर्थविपर्ययांश्च ॥ ऐकाहिकद्व्याहिक- सन्निपातान्नानाविधान्पाक्षिकतासजातान् ॥ तृट्दाहमोहभ्रमदौन्यतंद्रासश्वासाकासारुचिपां- डुरोगान् ॥ हलीमकंकामलपार्श्वशूलंपृष्ठोद्भवंजानुभवंतथैव ॥ त्रिकग्रहंवातविकारजातं- विनाशयत्येवशिरोग्रहंच ॥ स्त्रीणांरजोदोषसमुद्भवांश्चविनाशयेदुष्णजलेनपित्तम्॥शीतांबुनापित्तभवान्विकारान्नानामुनींद्रैर्गदितंजगद्धितम् ॥ सुदर्शनंदानवनाशनं यथासुदर्शनंयोगविनाशनंतथा ॥

**अर्थ–**तालीसपत्र, त्रिफला, इलायची, त्रिकटु, तज, त्रायमाण, निसोथ मूर्वा, पीपरामूल, हलदी, दारुहलदी, कचूर, बला, कटेरीकी जड, बडीकटेरीकी जड, नागरमोथा, पित्तपापडा, नीमकीछाल, पुहकरमूल, भारंगी, अजमायन, नेत्रवाला, चव्य, चीतेकीछाल, कमलगट्टा, तगर, खस, वायविडंग, वच, जवासो, कुडाकी छाल, गिलोय, इन्द्रजौ, देवदारु, पीलीखस, सहिंजनके बीज, पटोलपत्र, कुटकी, पद्माख, पत्रज, कलियारी, काकोली, मुलहटी, केशर, तवाखीर, लौंग, पृष्ठपर्णी, पत्थरका फूल, सालपर्णी, और सूखी अंबाडा, ये सब औषध, समान ले और सब औषधोंका अर्धभाग चिरायता डाले तो यह (सुदर्शन चूर्ण ) वात कफसे प्रगट ज्वरोंको तथा पृथक २ ज्वरोंको, संसर्गज ज्वर, संनिपातजन्य, विषमज्वर, धातुगतज्वर, विषजन्यज्वर, अभिधातज्वर, सामज्वर, मानसज्वर, दाहज्वरशीतज्वर, तृतीयक, चातुर्थिक, विपर्यय, ऐकाहिक, द्व्याहिक, त्रिदोषात्मक, पक्षज्वर, मासज्वर, तृषा, दाह, मोह, भ्रम, दैन्य, तंद्रा, श्वास, खाँसी, अरुचि, पांडुरोग, हलीमक, कामला, पार्श्वशूल, पृष्ठशूल, जानुशूल, त्रिकशूल, संपूर्ण वातविकार, मस्तकशूल, अनेक देशोंके जलविकार, दूषीविष, स्त्रीके रजविकार, इन सब रोगोंको गरम जलके साथ लेनेसे दूर करे और शीतलजलसे पित्तकेविकारोंको नाशकरे, ये पहले अनेक मुनियोंने जगत्के हितार्थ कहाहै, जैसे सुदर्शन चक्र दैत्योंका नाश करे उसी प्रकार यह सुदर्शन चूर्ण रोगोंको नाश करता है।

सुदर्शनचूर्ण।

त्रिफलारजनीयुग्मंकंटकारीयुगंसठी ॥ त्रिकटुग्रंथिकंमूर्वागुडूचोधन्वयासकः ॥ कटुकापर्पटोमुस्तात्रायमाणाचबालकम् ॥ निंबुपुष्करमूलंचमधुयष्टीचवत्सकः ॥ यवानींद्रयवाभांर्गीशिग्रुबीजमुराष्टजा ॥ वचात्वक्पद्मकोशीरचंदनातिविपाबला ॥ शालिपर्णीपृष्टिपर्णीविडंगंतगरंतथा ॥ चित्रकंदेवकाष्ठंचचव्यंद्राक्षापटोलजम् ॥ जीवकर्षभकौचैवलवंगंवंशलोचना ॥ पुंडरीकंचकाकोलीपत्रजंजातिपत्रकम् ॥ तालीसपत्रंचतथासमभागानिचूर्णयेत् ॥ सर्वचूर्णस्यचार्धांशंकैरातंप्रक्षिपेत्सुधीः ॥ एतत्सुदर्शनंनामचूर्णंदोषत्रयापहं ॥ ज्वरांश्चनिखिलान्हंतिनात्रकार्याविचारणा ॥ पृथग्द्वंद्वागंतुकांश्वधातुस्थान्विषमज्वरान् ॥ सन्निपातभवांश्चापिपीनसानपिनाशयेत् ॥ शीतज्वरैकाहिकादीन्मोहंतंद्रांभ्रमंतृषाम् ॥ श्वासकासौचपांडुंचहृद्रोगं दंतिकामलाम् ॥त्रिकपृष्ठकटीजानूपार्श्वशूलनिवारणम् ॥ शीतांवुनापिबेद्धीमान्सर्वज्वरनिवृत्तये ॥ सुदर्शनंयथाचक्रंदानवानांविनाशनम् ॥ तद्वज्ज्वराणांसर्वेषामिदंचूर्णंप्रणाशनम् ॥

**अर्थ–**हरड, बहेडा, आमला, हलदी, दारुहलदी, छोटी बड़ी कटेरी, कचूर, सोंठ, मिरच, पीपल, पीपरामूल, मूर्वा, गिलोय, धमासो, कुटकी, पित्तपापडा, नागरमोथा, त्रायमाण, नेत्रवाला, नीमकी छाल, पुहकरमूल, मुलहटी, कूडाकी छाल, अजमायन, इन्द्रजौ, भारंगी, सहिंजनके बीज,फिटकरी, वच, दालचीनी, पद्माख, खस, लालचंदन, अतीस, खरेटी, सालपर्णी, पृष्ठपर्णी, वायविंडग, तगर, चीतेकी छाल, देवदार, चव्य, दाख, पटोलपत्र,जीवक, ऋषभक, लौग, वंशलोचन, कमलगट्टा, काकोली, पत्रज,जावित्रीऔर तालीसपत्र, ये समान भाग ले चूर्ण करे, और सब चूर्णसे आधा चिरायता डाले तो यह (सुदर्शन )चूर्ण संपूर्ण ज्वरोंको नाश करे, तथा वात, पित्त, कफ इनका नाशक है। इसमें विचार नहीं करना । तथा वातज्वर, पित्तज्वर, कफज्वर वातपित्तज्वर, वातकफज्वर, पित्तकफज्वर, आगंतुकज्वर, धातुगतज्वर, विषमज्वर, संन्निपातज्वर,पीनस शीतज्वर, ऐकाहिकादिज्वर, मोह, तंद्रा, भ्रम, तृषा, श्वास, खाँसी, पांडुरोग हृद्रोग, कामला, त्रिक, पीठ, कमर, घोट्ट और पार्श्वइनका शूल, इन सबको नाश करे ये चूर्ण शीतल जलके साथ पीवे तो जैसे सुदर्शन चक्र सर्व दैत्योंको नाश करे उसीप्रकार यह सुदर्शन चूर्ण रोगोंको नाशकरे है ॥

लधुसुदर्शनचूर्ण ।

गुडूचीपिप्पलीमूलंकणातिक्तांहरीतकी॥ नागरंदेवकुसुमंनिंबत्वक्चंदनंतथा ॥ सर्वचूर्णस्यचार्धांशकैरातंप्रक्षिपेत्सुधीः ॥ एतत्सुदर्शनंलघ्वंनाम्नादोषत्रयापहम् ॥ ज्वरांश्चप्यखिलान्हन्यान्नात्रकार्याविचारणा॥

**अर्थ–**गिलोय, पीपरामूल, पीपर, कुटकी, हरडकी, छाल, सोंठ लौंग, नीमकी छाल, लालचंदन, ये सब, बराबर लेवे सब चूर्णसे आधा चिरायता ले यह लघु सुदर्शन चूर्ण तीनों दोषोंको और संपूर्ण ज्वरोंको नाश करे है ॥

आमलक्यादिचूर्ण।

धात्रीशिवासैंधवचित्रकाणांकणायुतानांसमभागचूर्णम् ॥
जीर्णज्वरारोचकवह्निमांद्येविड्विग्रहशस्तमितिप्रतिज्ञा ॥

**अर्थ–**आमले, हरड; सैंधानिमक, चीतेकीछाल

और पीपल, समान भाग ले चूर्णकरे तो जीर्णज्वर, अरुचि, मंदाग्नि, वृद्धकोष्ठ को दूर करे ॥

केसरादि।

केसरंमातुलिंगस्यमधुसैंधवसंयुतम् ॥
जिह्वातालुगलक्लोमशोपेमूर्धनिदापयेत् ॥

**अर्थ–**विजारेकी केशरमें सहत और सैंधानिमक मिलाकर मस्तकपर लगावेतो जीभ, तालुआ, गला और पिपासा स्थानका सुखना दूरहोय ॥

विदार्यादिलेप।

विदारीदाडिमलोध्रंदधित्थंबीजपूरकम्॥
एभिः प्रलिप्यान्मूर्धानंतृड्दाहार्तस्यदेहिनः ॥

**अर्थ–**जो मनुष्य प्पास और दाहसे पीडित हो उसका मस्तक, विदारीकंद, अनारदाना, लोध, कमरख और विजोरेका केशर पीसकर लेप करे ॥

ज्वरघ्नीगुटिका।

भागैकःस्यार्द्रसाच्छुद्धादेलीयःपिप्पलीशिवा ॥ आकारकरभोगंधःकटुतैलेनशोधितः ॥ फलानिचेंद्रवारुण्याश्चर्तुभागमिताअमी ॥ एकत्रमर्दयेच्चूर्णमिंद्रवारुणिकारसैः॥ मापोन्मितांगुटींकृत्वादद्यात्सर्वज्वरेवुधः ॥ छिन्नारसानुपानेनज्वरघ्नीगुटिकामता ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा१ तोले, एलुआ पीपल छोटी हरड,अफरकरहा और सरसों के तेल में) शुद्धकरी गंधक, तथा इन्द्रायणका गूदा, ये छः औषध चारचारतोले लेवे चूर्णकर इन्द्रायणके गूदेके रसमें खरलकर मासे मास की गोली करें गिलोयके रससे देवे तो ज्वर दूर हो॥

बलाद्यघृत।

बलांश्वदंष्ट्रांबृहतीकलशींधावनींपुनः ॥ निंबपर्पटकंमुस्तांत्रायमाणांदुरालभाम् ॥ कृत्वाकषायंकल्कार्थंदद्यादामलकींशठीम् ॥ द्राक्षापुष्करमूलंचमेदामामलकानिच ॥ घृतंपयश्चतत्सिद्धं सर्पिर्ज्वरहरंपरम् ॥ क्षयकासप्रशमनंशिरःपार्श्वरुजापहम् ॥

**अर्थ–**खरेटी, गोखरू, कटेरी, पृष्ठपर्णी, धायके फूल, नीमकी छाल, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, त्रायमाण और धमासा इनका काढा करके उसमें भूयआमला, कचूर, दाख, पुहकर मूल, मेदा और आमले इनका कल्क तथा ६४ तोले घृत और चौसठतोले दूध डालके अग्निपर घृत सिद्ध करे। ये ज्वर, क्षय, खांसी, और शिर पँसवाडेकी पोडा इनको नाश करे ॥

मंजिष्ठाद्यघृत।

मञ्जिष्ठातिविपापथ्यावचानागररोहिणी ॥ देवदारुहरिद्राचद्रोणिन्यांपालिकांपचेत्॥ क्वाथेस्मिन्साधयेत्पिष्टैर्घृतप्रस्थांपिचून्मितैः॥ शृंगबेरकणाहिंगुद्विक्षारकटुपंचकैः ॥ तत्कफावृतसर्वैकज्वरिणाममृतोपमम् ॥ वर्ध्महिक्कारूचिश्वासपांडुरोगविकारिणि ॥ मलग्रहप्रमेहार्शप्लीहापस्मारशोपिणाम् ॥ उदावर्तपरीतानांमंदाग्निकृमिकुष्ठिनि ॥

**अर्थ–**मँजीठ, अतीस, हरड, वच, सोंठ, कुटकी, देवदारु, हलदी और गुडतजी, ये सर्व पदार्थचार २ तोले लेके काढा करे उसमें सोंठ, पीपल, हींग, जवाखार और कटुपंचक, इनका कल्फ एक तोले और ६४ तोले घी मिलायके अग्निपर सिद्ध करे ये घृत, कफज्वरवालेको अमृतके समान है तथा अंड वृद्धि, हिचकी, अरुचि, श्वास, पांडुरोग, मलबद्धता, प्रमेह, बवासीर, प्लीहा, अपस्मार, क्षय, उदावर्त, मंदाग्नि और कृमिरोग इनको नाश करे ॥

कुलित्थाद्यघृत।

कुलित्थकोलत्रिफलादशमूलयवान्पचेत् ॥ त्रिफलासलिलद्रोणेघृतेपक्त्वाक्षकान्क्षिपेत् ॥ पंचकोलकसप्ताह्वावयस्थाहिंगुतुंवरुः॥ शठीपुष्करमूलार्कमूलप्रतिविपावचा ॥ किराततिक्तकंमुस्तंकर्कटाख्यांदुरालभाम् ॥ नक्तमालमुभेपाठेकटुकाशिग्रुतेजिनी ॥ सोमवल्कश्चरजनीकटुकीकंटकारिका ॥ पटोलनिंबगोजिह्वाकसकामदनोजटा ॥ लवणानिपलांशानिक्षारानर्धंपलोन्मितान् ॥ प्रस्थंवाज्यस्यतत्सिद्धंदीपनंकफ वातनुत् ॥ गृध्रसीग्रहणीगुल्मश्वासकासार्शसांहितम् ॥ दीर्घ ज्वराभिभूतानांज्वरिणा- ममृतोपमम् ॥

**अर्थ–**कुलथी, वेर, हरड, बहेडा, आमला, दशमूल, और (इन्द्रजव) ये एवं त्रिफलाके १६३८४ तोले काढेमें, पंचकोल, सतोना, आमले, हींग, तुंबरू,कचूर, पुहकरमूल, आककीजड, अतीस, वच, चिरायता, नागरमोथा, कांकडासांगी, धमासा, कंजा, पाढल, काष्ठपाटला, कुटकी, कटेरी, पटोलपत्र, नीमकी छाल, गोभी, कसोदी, मैनफल, जटामांसी, ये सब एक एक तोले ले नीमक ४ तोले , क्षार २ तोले,और घी ६४ तोले डालके सिद्ध करे, ये कफवात गृध्रसी संग्रहणी, गोला, श्वास, खांसी और बवासीर वाले रोगियोंको हितकारी है और बहुत दिनके ज्वरवालोंको अमृत तुल्य है ॥

अमृताद्यघृत।

अमृतात्रिफलापटोलयासैःसपयस्कविधिवद्घृतविपक्वम्॥ विषमज्वरनाशनंप्रधानंक्षयगुल्मारुचिकामलापहारि॥

**अर्थ–**गिलोय, त्रिफला, पटोलपत्र और धमासा, इनका अथवा कल्क,दूध और घृत ये सब एकत्र कर घृत सिद्ध करावे तो ये विषमज्वर, क्षय, गुल्म, अरुचि और कामला इनका नाश करे ॥

गुडूच्यादिघृत।

गृडूच्यारसकल्काभ्यांत्रिफलायारसेनतु ॥
मृद्वीकावाबलायाश्चसिद्धाःस्रेहाज्वरच्छिदः ॥

**अर्थ–**गिलोयके क्ल्क और रससे तथा त्रिफलाके रससे, अथवा दाख और खरेटीके रससे सिद्ध कराहुआ घृत ज्वरकोदूर करताहै ॥

पंचतिक्तघृत।

वृषनिंबामृताव्याघ्रीपटोलानांकृतेनच ॥
कल्केनपक्वंसर्पिस्तुनिहन्याद्विषमज्वरान् ॥
पांडुंकुष्ठंविसर्पंचकृमीनर्शांसिनाशयेत् ॥

**अर्थ–**अडूसा, नीमकीछाल, गिलोय, कटेरी और पटोलपत्र इनके कल्क करके सिद्ध करा हुआ घृत विषमज्वर, पांडु, कोढ,विसर्प, कृमि और ववासीर इनको दूर करे ॥

द्वितीयअमृताद्यघृत।

अमृतात्रिफलापटोलयासैः सपयस्कंविधिवद्घृतंविपक्वम्॥ ससैंधवैश्चपलिकैर्घृतप्रस्थंविपाचयेत् ॥ क्षीरंचतुर्गणंदद्यात्तद्घृतंप्लीहनाशनम् ॥ विषमज्वरमंदाग्निहरंरुचिकरं- परम् ॥

**अर्थ–**गिलोय, त्रिफला, पटोलपत्र और जवासा, तथा दूध, तथा सैंधानिमक इनसे विधिपूर्वक घृत सिद्धकरे। इसमें सेरभर घी और चारसेर दूध डालके सिद्धकरे ये घृत प्लीह, विषमज्वर, मंदाग्नि और अरुचि इनको दूर करे॥

महापट्पलघृत।

पूतिकाग्निकपंचकोलरुचकैः साजाजियुग्मोद्भिदैः सक्षारैः सविडैः सहिंगुहबुपासिंधूद्भवैः कल्कितैः ॥ सूक्तेनार्द्रकसंभवेन चरसैनेतन्महापटपलंसर्पिः पक्वमरोचकाग्नि- सदनप्लीहज्वरश्वासजित् ॥

**अर्थ–**कंजा, चित्रक, सोंठ, मिरच, पीपल, पीपरामूल, चव्य, जीरा, काला जीरा, सज्जीखार, जवाखार, विडनोन, हींग, हाऊबेर और सैंधानिमक इनका चूर्ण काँजीमें अथवा अदरखके रसमें मिलाय और उसमें घृत मिलायके अग्निद्वारा सिद्ध कर इसको पट्पलघृत कहते है ये प्लीहा, विषमज्वर और अरुचि इनको दूर करे॥

दूसराप्रकार।

पिप्पलीपिप्पलीमूलंचव्यचित्रकनागरैः॥ ससैंधवैश्चपलिकैर्घृतप्रस्थंविपाचयेत् ॥ क्षीरंचतुर्गुणंदत्वातद्घृतंप्लीहनाशनम् ॥ विषमज्वरमंदाग्निहरंरुचिकरंपरम् ॥

**अर्थ–**पीपर, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ और सैंधानिमक ये सब औषध ४ तोलेके प्रमाण लेकर कूट पीस चौगुने पानीमें डालके काढा करे इस काढेमें घी ६४ तोले डालके औटावे इसको महाषट्पलघृत कहते हैं, ये प्लीहा,विषमज्वर, मंदाग्निऔर अरुचि इनको दूर करे ॥

लघुलाक्षादितैल।

लाक्षाहरिद्रामंजिष्ठाकल्कैस्तैलंविपाचयेत् ॥
षट्गुणेनारनालेनदाहशीतज्वरापहम् ॥

**अर्थ–**लाख, हलदी और मँजीठ, इनका कल्क और तेलसे छः गुनी कांजी मिलायके तेलको सिद्ध करे तो यह तेल दाह और शीतज्वर इनका नाश करे॥

लाक्षादितैल।

लाक्षादशाक्षाअरुणातदर्धासचंदनंलोहितचंदनंच ॥ त्वक्पत्रकंवारिमुरासमुस्ताप्रत्येकमेतानिप- लोन्मितानि ॥ किराततिक्तस्त्रिवृतासविश्वामृताकर्णापर्पटकंटकार्यः॥ विडंगविश्वामलकानि- वासारसानिशावारुणसिंधुवाराः ॥ एतानिदेयानिपृथक्पलार्धमानानिसर्वाणिचऔषधानि ॥ कल्कंह्यमीपांविदधीतगव्यदुग्धेनवैसार्धतुलोन्मितेन ॥ तैलंतिलानांतुतुलानुमानतेनैवकल्केन- शनैःपचेत्तत् ॥ हन्याज्ज्वरांस्तैलमिदंसमस्तान्कुर्याद्बलंबीर्यमतीवपुष्टम् ॥ विमर्दनादाशुपरिश्रमं- भ्रमं शमंनयेत्संजनयेद्द्युतिंतनोः॥ तथाव्यथामस्थिसमुद्भवामपिप्रहृत्यनिद्रांसमुपार्जयेत्सुखम्॥

**अर्थ–**लाख १० तोले, मँजीठ ५ तोले, चंदन, लालचंदन, दालचिनी, तमालपत्र, नेत्रवाला, एकांगीमुरा और नागरमोथा, ये प्रत्येक चार २ तोले, प्रमाण लेवे, तथा चिरायता, निसोथ, सोंठ,गिलोय, पीपर, पित्तपापडा, कटेरी वायविडंग, सोंठ, आमले, अडूसा, हलदी, वरना और निर्गुंडी, ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे, सब औषधोंका कल्ककर ६०० तोले गौकेदूधमें मिलाय उसमे ४०० तोले तिलका तैल मिलायके तैलपाक विधिसे सिद्ध करे ये तेल सर्वज्वरका नाश करे और बलवीर्य तथा पुष्टी इनको करे । इसके मर्दनसे श्रम, भ्रम,शांतिहो, शरीरमें कांति और हड्डियोंकी पीडा नष्ट कर निद्रा और सुखको उत्पन्न करे॥

मध्यमलाक्षादितैल।

तैलंप्रस्थमितंचतुर्गुणजतुक्वाथंचतुर्मुस्तरुग्यष्ठीदारुनिशब्दभूर्वकटुकामिश्यश्चकौंतीहिमैः ॥ रास्नाह्वैः पिचुसंमितैः कृतमिदंशस्तंतुजीर्णज्वरेसर्वस्मिन्विषमेपियक्ष्मिणिशिशौवृद्धेसगर्भासुच॥

**अर्थ–**तेल ६४ तोले, चौगुना लाखका काढा उसमें नागरमोथा, कूठ, मुलहटी, दारुहलदी, मोथा, मूर्वा, कुटकी, सौंफ, रेणुका, चंदन, रास्ना, ये एक २ तोले सब लेकर इनका कल्क लाखके काढ़में डालके औटायकर तेल सिद्ध करावे इस तेलके मालिससे जीर्ण ज्वर, सर्व विषमज्वर राजयक्ष्मा, गर्भिणीके रोग और प्रसूत ये दूर हो ॥

षट्तक्रतैल।

लाक्षानिशाकुष्ठशुंठीमंजिष्ठाचसुवर्चिका ॥
मूर्वाचंदनसंसिद्धेतैलंतक्रेथषड्गुणे ॥
अभ्यंगेनप्रशमयेद्दाहंशीतज्वरनृणाम् ॥

**अर्थ–**लाख, हलदी, कूठ, सोंठ, मँजीठ, सज्जीखार, मूर्वा और चंदन इनके काढेमें तेल तैलसे छःगुनी छाँछ मिलायके तेल सिद्ध करे इसके मालिस करनेसे दाहज्वर और शीतज्वर नष्ट हो ॥

स्वर्जिकाद्यतैल।

स्वर्जिकाकुष्टमंजिष्ठालाक्षामूर्वाविपौषधैः॥

सक्षीरैः साधितंतैलमभ्यंगाद्दाहशीतनुत् ॥

**अर्थ–**सज्जीखार, कूठ, मँजीठ, लाख, मूर्वा, सोंठ और अतीस इनके काढेमें दूध डाल और तेल डालके औटावे इस तेलके मालिश करनेसे दाह तथा शीतज्वर, इनको दूर करे॥

बलाद्यतैल ।

बलामधुकमंजिष्ठापद्मपद्मकचंदनः ॥ समुद्रफेनह्रीवेररजनीगैरिकोत्पलैः ॥ पिषैटेरेतैः पचेत्तैलंमस्तुक्षीरचतुर्गुणम् ॥ वातपित्तज्वराजीर्णात्तेनाभ्यक्तोविमुच्यते ॥

**अर्थ–**खरेटीकीजड, मुलहटी, मँजीठ, पद्माख, अंडकीजड, चंदन, समुद्रफेन, सोंठ, हलदी, गेरू और कमलगट्टा, इनका कल्क करके उसमें तेल और दूध तथा दहीका तोड दूधसे चौगुना डालके तेल सिद्ध करे, तो यह वलादितैल मालिश करनेसे वातपित्तज्वर और जीर्णज्वर इनका नाश करे ॥

पटोलाद्यस्नेह ।

पटोलपिचुमंदाभ्यांगुडूच्यामलकेनच ॥
मदनैश्चशतः स्नेहोज्वरघ्नमनुवासनम् ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, नीमकी छाल, गिलोय, आमले और मैनफल, इनके काढेसे सिद्धकराहुआ तैल ज्वरमें पिचकारी द्वारा गुदामें देय तो ज्वरको नाश करे॥

चंदनाद्यनुवासन।

चंदनोत्पलकाश्मर्यमधुकागरुमूलकैः॥
सिद्धंतैलंविधातव्यंवस्तौसर्वज्वरापहम् ॥

**अर्थ–**चंदन, कमलगट्टा, कंभारी, महुआके फूल, अगर, तथा मूली इनके काढेसे सिद्ध करे हुए तेलकी अनुवासन वस्ति करनेसे संपूर्ण ज्वरोंको दूर करे॥

पटोलाद्यनुवासन।

पटोलमदनारिष्टगुडूचीमधुकैः स्मृतम् ॥ श्वदंष्ट्रामदनंशृंगामधुकारिष्टवासकैः ॥ अश्वगंधेतितैलस्यकार्पिकैराढकंपचेत् ॥ अनुवासनकेतैलंसर्वज्वरविनाशनम् ॥ कृच्छ्रान्वातविकारांश्चनाशयेदपिचोत्थितान् ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, मैनफल, नीमकी छाल, गिलोय, महुआके फूल, गोखरू, स्वैर, कांकडासिंगी, मुलहटी, रीठा, अडूसा और असगंध, ये प्रत्येक तोले २ लेकर काढा करे इसमें २५६ तोले तेल डालके पचावे, इस तेलसे अनुवास वस्ति करनेसे संपूर्ण ज्वर और कष्टसाध्यवातविकारोंका नाश करे ॥

आरग्वधादिनिरूहवस्ति ।

आरग्वधमुशीरंचमदनस्यफलानिच ॥ पर्ण्यश्चतस्रोमधुकंनिरूहमनुकल्पयेत् ॥ प्रियंगुमदनंमुस्तंमधुकंचशताह्वयम् ॥ कल्कः सर्पिर्गुडक्षौद्रैर्ज्वरघ्नोवस्तिरुत्तमः॥

**अर्थ–**अमलतासका गूदा, खस, मैनफल, चारप्रकारकी पर्णी और मुलहटी इनका काढा करके निरूह बस्ती करावे अथवा फूल प्रियंगु, मैनफल, मोथा, मुलहटी और सतावर इनका कल्क, घी गुड और शहत लायके इनकी बस्ती देवे यह उत्सम ज्वरघ्न है ॥

तैलपाकविधि ।

घृततैलगुडादींस्तुएकाहान्नैवसाधयेत् ॥ उपितास्तुप्रकुर्वंतिविशेषेणगुणान्बहून् ॥ स्नेहकल्कोयदांगुल्यावर्तितोवर्तिवद्भवेत्॥ वह्नौक्षिप्तेचनोशब्दस्तदासिद्धंविनिर्दिशेत् ॥

**अर्थ–**घृत, तेल और गुड आदि औषधोंको एकदिनमें सिद्ध नकरे, बासीहोनेसे विशेष गुण करतेहैं । जिससमय तैलमें कल्क औटावे और औरत्ते२ उँगलियोंमें मसलनेसे बत्तीके समान हो जावे और तेल अग्निमें डालनेसे चरचर शब्द न करे उस समय तेल सिद्ध हुआ ऐसा जानना ॥

मंद मध्यम व तीक्ष्णस्नेहपाक ।

नस्येमृदुःखरोभ्यंगेस्नेहेकिट्टंतुमध्यमम् ॥
नातिस्थिरंपचेद्बस्तौखरमभ्यंजनेपचेत् ॥

**अर्थ–**स्नेह नस्यविषयमें मृदु रखना चाहिये, उबटने केलिये खर (तेज) पाककरे मध्यम स्नेह कल्कका किट्टहोने पर्यंत पचन करावे उसीको बस्ति विषयमें तीव्र पचावे ॥

खरपाकलक्षण ।

स्नेहपाकोत्थकल्केस्यान्मृदुरंगुलिकेपिन ॥

अगृह्णात्यंगुलिमथशीर्यमाणोखरः स्मृतः॥

**अर्थ–**पाककेसमय स्नेहपाकमें कल्क मृदुभी नहीं औंटानेमें काढाभीन होजावे उगँलियोंपर मलनेसे उंगलियोंको पकडे नहीं, फैल जावे उसे खरपाक जानना ॥

खर व मृदुपाककाफल ।

खरोभ्यंगेमृदुर्नस्येमध्यःस्याद्धस्तिपानयोः ॥
परंपाकोमृदुःकार्योद्रव्यस्यनसरोमतः॥
किंचित्तुशीर्यमादत्तेनजहातिखरः पुनः॥

**अर्थ–**खर पाक स्नेह उबटनेक विषय, और मध्यपाक बस्ति और पीनेके विषय देवे, परंतु द्रव्यपाक मृदु करावे, खरन करे खरपाक होनेसे मस्तक शूलादि विकारोंको करे है और यह छुटता नहीं है ॥

चंदनवलातैल।

चंदनंचवलामूलंलाक्षालामज्जकंतथा ॥ पृथक्पृथक्प्रस्थमात्रंद्रोणेचसलिलेपचेत् ॥ चतुर्भागावशेषेस्मिन्तैलंप्रस्थद्वयंक्षिपेत् ॥ चंदनोशीरमधुकशताह्वाकटुरोहिणी ॥ देवदारुनिशाकुष्टंमंजिष्ठागुरुवालकम् ॥ अश्वगंधाूबलादार्वीमूर्वामुस्तासमूलिका ॥एलात्वङ्नागकुसुमंरास्नालाक्षासुगंधिका ॥ चंपकंपोतसारंचसारिवारोचकद्वयम् ॥

कल्कैरतैःसमायुक्तंक्षीराढकसमन्वितम् ॥ तैलमभ्यंजनेश्रेष्ठंसप्तधातुविवर्धनम् ॥कासश्वासक्षयहरंसर्वच्छर्दिनिवारणम् ॥ असृग्दरंरक्तपित्तंहंतिपित्तंकफामयम् ॥कांतिकृद्दाहशमनंकंडूविस्फोटनाशनम् ॥ शिरोरोगंनेत्रदाहमंगदाहंचनाशयेत् ॥ वातामयहतानांचक्षीणानांक्षीणरेतसाम् ॥ वालमध्यमवृद्धानांशस्यतेशोफकामलाम् ॥ पांडुरोगविशेषेणज्वरान्सर्वान्विनाशयेत् ॥

**अर्थ–**चंदन, खरटीकी जड, लाख और नेत्रवाला, ये चार औषध पृथक्२चौसठ तोले ले १०२४ तोले जलमें औंटावे जब पानी चतुर्थांश वाकी रहे तव तेल १२८ तोले डालके फिर चंदन,नेत्रवाला, महुआके फूल, सौंफ, कुटकी, देवदार, हलदी, कूठ, मजीठ,अगर,खस, असगंध, खरेटी, दारुहलदी, मूर्वानागरमोथा, इलायची, दालचीनी,नागकेशर, रास्ना, लाख, निर्गुंडी, चंपा, सिलारस, सारिवा सैंधानिमक और संचरनोनये सब समान भाग लेके कल्ककरे पीछे यह कल्क और दूध २५६ त्तोले मिलायके औंटाव जव तेल सिद्ध होनावे तव उतारके धर रक्खे । इसे मालिश करे तो सातों धातु बढावे तथा कांति करे खांसी, श्वास, क्षय, वमन, प्रदर, रक्तपित्त,कफ, दाह, खुजली, फोडा मस्तकशूल, नेत्र,दाह अंगदाह और बादीके रोग इनफो नाश करे तथा क्षीण धातुक्षीण बालक, तरुण और वृद्ध, इनको हितकारी है, तथा सूजन, कामला, पांडुऔर ज्वर इत्यादिकोंको नाश करे ॥

अश्वगंधादितैल।

अश्वगंधाबलालाक्षाप्रस्थंप्रस्थंपृथक्पृथक् ॥ जलेद्रोणेविषक्तव्यंचतुर्भागावशेषितम् ॥ तैलंत्रिमानकंपद्याद्दधिमस्तुचतुर्गुणम् ॥ अश्वगंधाशिलादारूकौंतीकुष्ठाब्दचंदनैः ॥ निशातिक्ताशताह्वाचलाक्षामूर्वासमूलकैः ॥ सुरादारुचमंजिष्ठामधुकौशीरसारिवा ॥ समभागानिसर्वाणिकल्कीकृत्यविपाचयेत् ॥ सर्वज्वरान्हरत्याशुसर्वधातुविवर्धनम् ॥ एतदभ्यंजनेनाशुक्षयरोगंविमुंचति ॥

**अर्थ–**असगंध, खरेटी, लाख, प्रत्येक, ६४ तोले ले १०२६ तोले जलमें काढा करे, जब चतुर्थांश रहे तब १९२ तोले तेल डालके काढेसे चौगुना दहीका तोड डाले, फिर असगंध, मनसिल, दारुहलदी, रेणुका, कूठ, नागरमोथा, चंदन, हलदी, कुटकी, सौफ, लाख, मूर्वा, देवदार, मंजीठ, महुआके फूल, खस सारिवा ये सब औषध कूटके डाले और तेलको औटावे जब सिद्ध हो जाय तब उतारके धर रक्खे इसकी मालिश करनेसे सर्व प्रकारके ज्वरनाश होय, तथा ये धातु बढावे और क्षयरोगको नष्ट करे ॥

वृहल्लाक्षादितैल।

तैलंलाक्षारसंक्षीरंपृथक्प्रस्थंसमंपचेत् ॥ चतुर्गुणेरितेक्वाथेद्रव्यैरेतैःपलोन्मितैः॥ लोध्रकट्फलमंजिष्ठामुस्तकेसरपद्मकैः॥ चंदनोशीरयष्ट्याह्वैस्तैलंगंडूपधारणात् ॥ दंतरोगाःप्रणश्यन्तिलेपात्सर्वाञ्ज्वराञ्जयेत् ॥ एतल्लाक्षादिकंतैलंबलपुष्टिप्रदायकम्॥

**अर्थ–**लाखकाकाढा, दूध, ये प्रत्येक, ६४ तोले लेके चतुर्थांश काढा करे उसमें लोध, कायफल, मैजीठ, नागरमोथा, केशर, पद्माख, चंदन नेत्रवाला, और मुलटी, ये सब ओषध चार २ तोले ले, कूटके कल्ककरे इसको पूर्वोक्त कषायमें मिलायके औटावे तो यह लाक्षादि तैल वनकर तयार हो इसको देहमें मालिश करे तो “सर्वज्वर” दूर हो तथा दांतोके रोग दूरहो॥

पंचममहालाक्षादितैल ।

लाक्षाहरिद्रामंजिष्ठाफेनिलंमधुकंबला ॥ लामज्जकंचंदनंचचंपकंनीलमुत्पलम् ॥ प्रत्येकमेषांषण्मुष्टीः पक्त्वातोयैचतुर्गुणे॥ चतुर्भागावशेषेतुगर्भेचैतत्समावपेत् ॥ रेणुकापद्मकंचैववाजिगंधातथैवच ॥ वेतसंचोरकंकुष्टंदेवदारुनखंत्वचम् ॥ शतपुष्पांपुंडरीकंमांसीमधुकमेवच ॥ एभिरक्षमितैः कल्कैः कषायेणैवपेषितैः॥ मस्तुसूक्तारनालानामाढकाढकमावपेत् ॥ क्षीराढकसमायुक्तंतैलप्रस्थंविपाचयेत्॥अभ्यंगात्तैलमेतद्धिशीघ्रंदाहमपोहति ॥ व्यपोहतितथावातपित्तश्लेष्मंभवंज्वरम् ॥ सप्रलापंसतृष्णंचतालुशोषभ्रमान्वितम् ॥ ग्रहोपसृष्टायेवालारक्षःसंदूषिताश्चये ॥ तेषांकष्टंशमयतेतैलंलाक्षादिकंमहत् ॥

**अर्थ–**लाख, हलदी, मंजीठ, वेर, मुलहटी, खरेटी, चंदन, चंपाकेपुष्प नीलकमल, ये प्रत्येक २४ तोले लेय और इन सब औषधोंके चौगुना जल डालके औंटावे जब चतुर्थांश रहे तब इसमें रेणुका, पद्माख, असगंध, वैत,गठोना, कूट, देवदारु, नख, दालचीनी, सौंफ,कमल, जटामांसी, मुलहटी, ये प्रत्येक औषध तोले २ भरले कूट पीस पूर्वोक्त काढेमें डाल देवे फिर दहीका पानी कांजी, सिरका, दूध, ये प्रत्येक ५५६ तोले ले सबको मिलाय इसमें ६४ तोले तेल तथा २५६ तोले दूध डालके पकवेजब तेल मात्र आय रहे तब जानेकी सिद्ध होगया इसके मालिश करनेसे दाह, बादी, कफ, सर्वज्वर इनको नाशकरे तथा ग्रह, राक्षस, इनकी पीडासे पीडित बालककीपीडा शांत करेहै॥

निरूहवास्तिद्रव्यमान ।

एकादशाष्टौषट्कंचकशायस्यपलंमतं ॥ कफपित्तानिलोत्थेपुविकरिपुयथाक्रमम्॥स्नेहस्यत्रिचतुःषष्ट्यश्चत्वारोमधुनस्तथा ॥ तथाद्वयंतुकल्कस्यकर्पःस्यात्सैंधवस्यच॥ रसक्षीराम्लमत्स्यानामेकैकंप्रक्षिपेत्पलम् ॥ निरूहकल्पनामात्राकथितैपामहर्षिणा॥

**अर्थ–**निरुहबस्तीमै काढा लेना होय तो कफमें ११ तोले पित्तमें ८ तोले वातमें ६ तोले इसप्रकार लेवे और सहत तया स्नेह लेना होय ती कफ, वात,और पित्त इनमें क्रमसे ४-६- ओर ४ पल लेवेतथा कल्क दो पल सैंधानिमक १ तोला और मांसरस, दूध, खटाई, मछली,डालना होय तो चार चार तोले डालना, ये निरुहवस्तीमें द्रव्य डालनेका मान महर्षियोंने कहाहै ॥

चतुर्थलाक्षादितैल।

लाक्षारससमंतैलंतैलान्मस्तुचतुर्गुणम् ॥ अश्वगंधानिशादारूकौंतीकुष्टाब्दचंदनैः ॥ समूर्वारोहिणीरास्नाशताह्वामधुकैः समैः ॥ सिद्धंलाक्षादिकंनामतैलमभ्यंजनादिना ॥ सर्वज्वरक्षयोन्मादश्वासापस्मारवातनुत् ॥ यक्षराक्षसभूतघ्नंगर्भिणीनां चशस्यते ॥

**अर्थ–**लाखका काढा, तथा काढेके तुल्य तिलका तेल और तेलसे चौगुना दहीकाजल और असगंध, हलदी, देवदारु, रेणुका, कूट, नागरमोथा, चंदन मूर्वा, कुटकी, रास्ना, शतावर और मुलहटी ये औषध समानभाग डालके तेल सिद्धकरे यह लाक्षादितैल, मालिश अथवा पीनेसे सर्वज्वर, क्षय, उन्माद श्वास, मृगी, बादीके रोग, यक्ष और राक्षसकी बाधा, तथा भूतबाधा, इनको दूर करे और गर्भिणीको हितकारी है ॥

औषधिकितनेदिनउपयोगपडतीहै।

पक्वेतैलोद्भवेवीर्यंहीनमब्दार्धतःपरं॥घृताच्चाब्दात्पुरावृद्ध्यागुडादेस्त्वब्दतः परं ॥गुणहीनंभवेद्वर्षादूर्ध्वतोन्यूनमौषधं॥ मासद्वयात्तथाचूर्णंहीनवीर्यंप्रजायते ॥ हीनत्वंगुटिकालेहाद्व्यब्दात्तेवत्सरात्परं॥ हीनाःस्युर्घृततैलाद्याश्चातुर्मासाधिकास्तथा ॥

**अर्थ–**सिद्धहुआ तेल १ वर्षके पश्चात् हीनवीर्य होता है, उसीप्रकार घृत एक वर्ष पर्यंत उत्तमगुणकरताहै और गुड आदि वर्षदिनके उपरांत गुणकारी होते हैं सामान्यकाष्ठौषधी एकवर्ष व्यतीत होनेपर हीनवीर्य होजाती है,चूर्ण दोमहिने में हीन वीर्य होता है,तथा गुटका और अवलेह दोवर्षमें होनवीर्य होते है और घृत तेल आदिद्रव्य चार महीनेके अनंतर हीनवार्य हो जाते हैं ॥

दूसरामहाज्वरांकुश।

शुद्धसूतोविषंगंधःप्रत्येकंशाणसंमिताः ॥ धूर्तबीजंत्रिशाणंस्यात्सर्वेभ्योद्विगुणाभवेत् ॥ हेमाह्वाकारयेदेपांसूक्ष्मचूर्णंप्रयत्नतः ॥ देयंजंबीरमज्जाभिश्चूर्णंगुंजाद्वयोन्मितम्॥आर्द्रकस्वरसैर्वापिज्वरंहंतित्रिदोषजम् ॥ ऐकाहिकंवाद्व्याहिकंवात्र्याहिकंचचतुर्थकं॥ विषमंचज्वरंहन्याद्विख्यातोयंज्वरांकुशः॥

**अर्थ–**शुद्धपारा ३ मासे, शुद्धविष ३ मासे,गंधक ३ मासे, धतूरेकेबीज ९ मासे चूक सबसे दुगना इन सबका चूर्ण कर जंभीराकेरससे खरल कर दोरत्तीकी गोली बनावे १ गोली अदरखके रससे खाय तो त्रिदोषज ज्वर, एकाहिक, द्व्याहिक,त्र्याहिक,चातुर्थिक विषम तथा दिनरात्रिमें आनेवालाज्वरदूर हो, इसको (महाज्वरांकुश)कहते है, यदि जंभीरीका रस न मिले तो अदरखके रसमें ही घोट कर गोली बनावे ॥

ज्वरघ्नीवटिका।

एकोभागोरसाच्छुद्धाच्छैलेयः पिप्पलीशिवा ॥ आकारकरभोगंधः कटुतैलेनशोधितः ॥ फलानिचेंद्रवारुण्याश्चतुर्भागमिताअपि ॥ एकत्रमर्दयेच्चूमिंद्रवारुणिकारसैः ॥ माषोन्मितांवटींकृत्वादद्यात्सद्योज्वरेवुधः ॥ छिन्नारसानुपानेनज्वरघ्नीवटिकामता॥

**अर्थ–**शुद्धपारा १ भाग, एलआ शुद्ध, पीपल, हरड, अकरकरहा,कटुए तेलमें शुद्ध करी गंधक और इन्द्रायणके फल ये प्रत्येक चार २ भागलेवे सबको इन्द्रायण के फलके रसमें खरलकर १ मासेको गोली बनावे १ गोली गिलोयकेरसके साथ ज्वरमें देवे तो यह (ज्वरघ्नीगुटिका) तत्काल ज्वरोंको दूर करे ॥

दूसराज्वरमुरारि।

त्रिःसप्तजंभजलभावितखर्परस्यचूर्णंनिशोत्यनवनीतविमर्दितंस्यात्॥ वल्लद्वयंहरतिशर्करयानुपानंसद्योज्वरंज्वरमुरारिरसश्चपुंसाम्॥

**अर्थ–**खपरियाके चूर्णमें नींबूके रसकी २१ भावना देय फिर ताजे मक्खनमें खरल करे इसकी मात्रा ४ रत्ती मिश्रीके साथ देवे तो यह सद्यज्वरको नाश करे इसे (ज्वरमुरारि ) रस कहते है॥

स्वर्णमालिनीवसंत ।

स्वर्णंमुक्तादरदमरिचंभागवृद्ध्याप्रदेयंखर्पर्यष्टौप्रथमनवनीतेननिंब्वंबुनाच ॥ यावत्स्नेहोव्रजतिविलयंमर्दयेद्दीयतेसौगुञ्जाद्वंद्वंदमधुचपलयासर्वरोगेवसंतः ॥

**अर्थ–**सुवर्ण १ तोला, मोती २ तोले, कालीमिरच ३ तोले और खपरिया ८ तोले इनका चूर्णकर मक्खनमें घोटे, फिर नींबूके रसमें जयतक घोटे कि, चिकनाई न रहे इसको २ रत्ती शहत, पीपल के साथ देवे ये सर्वरोगोंपर चलती है इसे (स्वर्णमालिनी ) कहते हैं ॥

लघुमालिनीवसंत।

रसकयुगलभागंवल्लिजंभागमेकंद्वितयमथमुखल्वेमर्दयेन्मसृणेन ॥ भवतिघृतविमु- क्तोनिंबुनीरेणयावज्ज्वरहरमधुकुल्योमालिनीप्राग्वसंतः ॥ जीर्णज्वरेधातुगतेऽतिसा- रेरक्तान्वित्तेरक्तभवेविकारे ॥ घोरव्यथेपित्तभवेचदोषेवल्लद्वयंदुग्धयुतंचपथ्यम्॥प्रदरंनाशयत्याशुतथादुर्नामशोणितम् ॥ विषमंनेत्ररोगंचगजेंद्रमिवकेसरी ॥ वसंतोमालिनीपूर्वः- सर्वरोगहरः शिशोः॥ गर्भिण्यैतच्चदेयंचजयंत्यापुष्पकैर्युतम्॥ सर्वज्वरहरंश्रेष्ठंगर्भपालनमुत्तमम् ॥

**अर्थ–**खपरिया २ तोले, कालीमिरच १ तोले, दोनोंको एकत्रकर मक्खनमें घोटे फिर नींबूके रसमें चिकनाई दूर होने पर्यंत घोटे, इसमेंसे ४ रत्ती शहत और पीपलके चूर्ण केसाथ देवे इमे(मालिनीवसंत ) रस कहते है। यह जीर्णज्वर, धातुगतज्वर, अतिसार, रत्तातिसार, रुधिरसे उठे विकार, घोर पित्तविकार, प्रदर अर्शसंबंधी रुधिर,विषमज्वर और नेत्ररोग इनमें देवे यह हाथीको सिंहके समान सर्वरोग नाशक है तथा जयंतीके पुष्पके साथ गर्भिणीकोदेय तो सर्वज्वरोंको नाश करके गर्भकोउत्तमरीतिसे पालन करे इसपर दूध भातकी पथ्य देवे॥

दार्व्यादिवटिका।

दारूनिशाशिखिग्रीवारसकंचपृथक्पृथक् ॥ टंकंवयानुमानेनगृहीत्वाकनकद्रवैः ॥ मर्द्दयेत्त्रिदिनंकार्यावटीचणकमात्रया॥ मरीचैरेकविंशत्यासप्तभिस्तुलसीदलैः ॥ खादेद्वटीद्वयंपथ्यदुग्धभक्तंसशर्करम् ॥ तरुणंविषमंजीर्णंहन्यात्सर्वज्वरंध्रुवम् ॥

**अर्थ–**दारुहलदी ३ तोले, लीलाथोथा ३ तोले, खपरिया ३ तोले, इस प्रकार लेकर धतूरेके रसमें ३ दिन खरलकरे, चनेकेप्रमाण गोली वनावे उसको पच्चीस कालीमिरच और ७ पत्ते तुलसीके साथ दो गोली देवे और दूध भात मिश्री ये पथ्यमें देय तो तरुणज्वर, विषमज्वर और जीर्णज्वर, इत्यादि सर्वज्वरोंका नाश करे इसे दार्व्यादिवटी कहते हैं॥

हुताशनरस।

नागरंकर्षमात्रस्यात्कर्षमात्रंचटंकणम् ॥ मरिचंसार्धकर्पंस्यात्तावद्दग्धवराटकम् ॥ विपंकर्पचतुर्थाशंसर्वमेकत्रचूर्णयेत् ॥ रसोहुताशनोनाम्नाखाद्योगुंजामितोज्वरे ॥

**अर्थ–**सोंठ १ तोले, सुहागा १ तोले, कालीमिरच १ तोले, कौडीकीभस्म १ तोले, विष पाव तोले इन सबका चूर्ण कर लेवे इसे ( हुताशनरस ) कहते हैं १ रत्ती पानके साथ देनेसे ज्वरोको दूर करे ॥

दूसरालधुमालिनीवसंत।

खर्परंमानुषेमूत्रेस्थितंघस्रेत्रिसप्तकम् ॥ निस्त्वक्तदर्धमरिचंनवनीतेनमर्दयेत् ॥ शतधाभावयेन्निंबुरसैः स्याद्रसकेश्वरः ॥ पिप्पलीमधुयुग्दत्तःससितोवास्यभेषजम्॥ज्वरंधातुगतपित्तंभ्रमपित्तास्रजान्गदान् ॥ रक्तातिसारग्रहणीदुर्नामास्त्रंनिवारयेत् ॥ अनम्लंदधिवादुग्धंपथ्यंचास्मिन्प्रयोजयेत् ॥

**अर्थ–**खपरियाको २१ दिन मनुष्यके मूत्रमें भिगोवे फिर वाईंसवें दिन निकाल चूर्ण कर इस्से आधी धुलीहुई काली मिरच डालके चूर्ण करे, फिर मक्खनमें घोटके नींबुके रसकी १०० भावना देवे , तो यह रस तैयार हो, यह ( रसकेश्वर) पीपल और शहत तथा मिश्री इनके साथ देवे तो धातुगत ज्वर पित्तभ्रम, रक्तपित्त, रक्तातिसार, संग्रहणी, अर्शविकार, इनको नाश करे इसपर मीठा दही अथवा दूध पथ्यमें देवे ॥

अपूर्वमालिनीवसंत।

वैक्रांतमभ्रंरविताप्यरौप्यंवंगंप्रवालंरसभस्मलोहम् ॥ सुटंकणंकंबुकभस्मसर्वसमांशकंपाच्य- वरीहरिद्रः॥ द्रव्यैर्विभाव्यंमुनिसंख्ययाचमृगांकजाशीतकरेणपश्चात् ॥ वल्लप्रमाणोमधुपिप्पली- भिर्जीर्णज्वरेधातुगतेनियोज्यः ॥ गुडूचिकासत्वसितायुतश्वसर्वप्रमेहेपुनियोजनीयः॥ कृच्छ्राश्मरींनिहंत्याशुमातलं ग्यंध्रिजैद्रवैः॥ रसोवसंतनामायमपूर्वोमालिनीपदः ॥

**अर्थ–**वैक्रांत मणि, अभ्रक, ताम्र, सुवर्ण, माक्षिक, रूपा, वंग, मूंगा, पारा, लोह,इनकी भस्म और मुहागा तथा शंखभस्म, ये समान भाग लेफे शतावरी और हलदी, इनकी सात २ भावना देवे और चाँदनीमें धर देवे फिर टिकडी बनायले इसमेंसे २ रत्ती रस शहत पीपलके साथ देय तो जीर्णज्वर धातुगत ज्वर दूरहो और गिलोय सत्वके और मिश्रीके साथ देय तो सर्व प्रमेह दूर हो विजौरेके पत्तेके रससे देय तो पथरी नष्ट हो इस रसको ( अपूर्वमालिनी वसंतरस ) कहते हैं॥

दूसरालधुमालिनीवसंत ।

नरांबुमध्येरसकस्यचूर्णंदिनानिसप्तत्रिगुणानिपूर्वम् ॥ धृत्वातपेशोपितमेतदेवनृवारिजीर्णं- भवतीतियावत् ॥ पलप्रमाणंमरिचंचनिस्तुपंपलद्वयंस्याद्रसकस्यतस्या॥ एकत्रसंचूर्णकृतं- तदेवपलार्धकंगोनवनीतकंच ॥ निंबूत्थतोयेनविमर्दनीयंशतैकमानंभिषजावरिष्ठम् ॥ वल्लद्वयं चास्यकणामधुभ्यांप्रदापयेद्व्याविगजस्यकेसरी ॥ नाम्नाप्रसिद्धोरसराजएषः सद्योग्रहण्या- मतिसारकेच ॥ ज्वरेक्षयेस्स्सुतथैवतापेशुलेग्निमांद्येनिलजेविकारे ॥ प्रदरंनाशयत्याशुतथादुर्नाम- शोणितम् ॥ विषमंनेत्ररोगंचगजेंद्र- मिवकेसरी॥

**अर्थ–**घोडेके मूत्रमें खपरियाको भिगोय२१ दिनतक धरा रहेने दे फिर धूपमें सूखाय उसका चूर्ण८ तोले लेवे और४ तोले मिरचका चूर्ण तथा हिंगुल ८ तोले सबको एकत्रकर दो तोले गौक मक्खनमें खरलकरे फिर १०० नींबूके रसमें खरल करे तो रस बनके तैयारहो इसकी ४ रत्ती मात्रा शहत पीपलके साथ देवे तो यह (व्याधिगजकेशरी रस) संग्रहणी, अतिसार, ज्वर, क्षय, बवासीर, ताप,शूल,मंदाग्नि,बादीका विकार और प्रदर इनको नाश करे तथा अर्श संबंधी रुधिर, विषमज्वर, नेत्ररोग इनमें देवे, यह रोगरूप हाथियोंके मारनेमें सिंहके समान है ॥

लघुसूचिकाभरणरससन्निपातपर ।

विपंपलमितंसूतः शाणिकंचूर्णयद्द्वयम् ॥ तच्चूर्णंसंपुटेक्षिप्त्वाकाचलिप्तशरावयोः॥ मुद्रांदत्वाचसंशोष्यततश्चल्यांनिवेशयेत् ॥ वह्निं शनैः शनैः कुर्यात्प्रहरद्वयसंख्यया ॥ ततरुद्वाटयेन्मुद्रामुपरिस्थांशरावकात् ॥ संलग्नोयोभवेत्सूतस्तंगृह्णीयाच्छनैशनैः ॥ वायुस्पर्शोयथानस्यात्तथाकुप्यांनिवेशयेत् ॥ यावत्सूच्यामुखेलग्नःकुप्यानिर्यातिभेषजम्॥ तावन्मात्रोरसोदेयोमूर्च्छितेसन्निपातिनि ॥ क्षौरेणप्रस्थितेमूर्ध्नितत्रांगुल्याचघर्षयेत् ॥ रक्तभेषजसंपर्कान्मूर्च्छितोपिहिजीवति॥ तथैवसर्पदष्टस्तुमृतावस्थोपिजीवति ॥ यदातापोभवेत्तस्यमधुरंतत्रदीयते ॥

**अर्थ–**विष ४ तोले, शुद्धपारा ३ मासे, दोनोंको खरलकर चूर्ण करे फिर मिट्टीके प्यालेमें काँचको पीस लेप कर सिद्ध करलेंवे इसप्रकार सिद्धकरे कांचकेवडे २ दो प्याले लेवे एकमें पूर्वोक्त घुटे पारेको डालके दूसरेसे संपुट बंदकर कपर मिट्टी करके सुखायले फिर चूल्हेपर धरके मंद मंद अग्नि दोप्रहर तकदेवे फिर नीचे उतार मद्राको दूरकर ऊपरके पारेमें लगी हुई भस्मको धीरे२ हवासे बचायके युक्तिसे निकाल शीशीमें भरके घर देवे, फिर उस शीशीमें सूईडाले सुई के अग्रभागमें जितनी भस्म लगे इतनी निकाल सन्निपातवाले मनुष्यके मस्तकके बाल दूर कर और किचिन्मात्र चीर देके उसमें भरदेवे और जवतक रुधिर में ये औषधी न मिले तबतक धीरे२ उँगलीसे घिसता रहे इसके रुधिरस मिलाप होतेही तत्काल संनिपातकी मूर्च्छा दूर होय उसीप्रकार सर्पका काटा हुआ जो विषसे मूर्च्छित हो वोभी इस उपायके करनेसे वचजावे, यदि इस उपायके करनेसे मनुष्यके देहमें दाह होवे तो गुलकंद, विलायती अनार, दाख, अंगूर, ईखकीगँडेरी, इत्यादि मधुर पदार्थ खवावे तो उस रोगीका दाह शांत होय ॥

जलचूडामणिरस।

भस्मसूतसमंगंधगंधात्पादंमनःशिला ॥ माक्षिकंपिप्पलीव्योपंप्रत्येकंशिलयासमम्॥चूर्णयेद्भावयेत्पित्तैर्मत्स्यमायूरसंभवैः ॥ सप्तधाभावयेच्छुष्कंदेयंगुंजाद्वयोहितम् ॥ तालपर्णीरसश्चानुपंचकोलशृतेनवा ॥ जलचूडोरसोनामसन्निपातंनियच्छति ॥ जलयोगश्चकर्तव्यस्तेनवीर्यंभवेद्रसे॥

**अर्थ–**पारेकीभस्म १ तोले, गंधक १ तोले, मैनसिल ३ मासे,सोनामक्खी कीभस्म, पीपल, सोंठ, कालीमिरच, सब तीन तीन मासे लेवे सबका चूर्णकर इसको माछलीके पित्तकी सात भावना देवे, उसीप्रकार सात पुट मोरके पित्तेंकी देवे फिर दो रत्तीकी गोली वनावे,१ गोली मूसलीके रससे अथवा पंचकोलके काढेसे देवे तो यह (जलचूडामणिरस) संनिपातको दूर करे, इस गोलीको देकर फिर उस रोगी मनुष्यके मस्तकपर शीतल जलका तरडा देवे कि जिससैरसमें वीर्य आनकर संनिपातको दूर करे ॥

कनकसुंदररससन्निपातादिकोंपर ।

कनकस्याष्टशाणाःस्युःसूतोद्वादशभिर्मतः ॥ गंधोपिद्वादशप्रोक्तस्ताम्रशाणद्वयोन्मितम् ॥ अभ्रकस्यचतुःशाणमाक्षिकंचद्विशाणकम् ॥ वंगोद्विशाणःसौवीरंत्रिशाणंलोहमष्टकम्॥ विषंत्रिशाणिकंकुर्याल्लांगलीपलसंमिता ॥ मर्दयेद्दिनमेकंचरसैरम्लफलोद्भवैः ॥ दद्यान्मृदुपुटेवन्हौततःसूक्ष्मंविचूर्णयेत् ॥ मापमात्रोरसोदेयःसन्निपातेसुदारुणे॥ आर्द्रकस्वरसेनैवरसोनस्यरसेनवा ॥ किलासंसर्वकुष्ठानिविसर्पंचभगंदरम् ॥ज्वरंगरम- जीर्णंचजयेद्रोगहरोरसः॥

**अर्थ–**धतूरेके बीज ८ टंक, पारा १२ टंक, गंधक१२ टंक, ताम्रभस्म २ टंक, अभ्रकभस्म ४ टंक, सोनामक्खीकी भस्म २ टंक, वंगभस्म२ टंक, शुद्धपारा सुरमा ३ टंक, लोहभस्म ८ टंक, शुद्धविष३ टंकऔर कटेरीकीजड ४ तोले सवको एकत्रकर नींबुके रससे एकदिन खरल करे फिर मिट्टीकेसरावमें संपुट करके आरने उपलोंमें धरके मंद पुट देवे जव शीतल हो जावे तव सरावमेंसे निकालके चूर्ण कर डाले १ मास रस संनिपात वाले रोगीको अदरखके रसके साथ देवे और लहसनके रससे देय तो किलास तथा सर्वप्रकार के कुष्ठ, पिसर्प भगंदर, ज्वर, विषरोग और अजीर्ण इन सब रोगोंको यह (कनकसुंदररस दूर करे है ॥

सन्निपातभैरवरस।

रसोगंधस्त्रिास्त्रिकर्पौकुर्यात्कजलिकाद्वयोः ॥ ताराभताम्रवंगाहिसाराश्चैकैककार्षिकाः॥ शिग्रुज्वालामुखीशुंठीबिल्वेभ्यस्तंदुलीयकान् ॥ प्रत्येकंस्वरसैःकुर्याद्यामैकैकंविमर्दयेत् ॥ कृत्वागोलंवृतंवस्त्रेलवणापूरितेन्यसेत् ॥ काचभांडेततःस्थाल्यांकाचकूपींनिवेशयन् ॥ वालुकाभिःप्रपूर्याथवन्हिर्यामद्वयंभवेत् ॥ ततउद्धृत्यतंगोलंचूर्णयित्वाविमिश्रयेत् ॥ प्रवालचूर्णंकर्पेणशाणमात्रविषेणच॥ कृष्णसर्पस्यगरलेदिवसंभावयेत्तथा ॥ तगरंसुसलीमांसीहेमाव्हावेतसःकणा ॥ नालनीपत्रकंचैलाचित्रकश्चकुठेरकः ॥ शितपुष्पादेवदालीधत्तूरागस्त्यमुंडिका ॥ मधूकजातिमदनरसैरेषांविमर्दयेत् ॥ प्रत्येकमेकवेल्लंचततःसंशोष्यधारयेत् ॥ बीजपूरार्द्रकद्रावैर्मरिचैःषोडशोन्मितैः॥ रसोद्विगुंजाप्रमितःसन्निपातस्यदीयते ॥ प्रसिद्धोयंरसोनाम्नासन्निपातस्यभैरवः ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा ३ ताले और गंधक३ तोले, दोनोंको खरलकर कजली करे फिर चाँदीकी भस्म, अभ्रकभस्म, ताम्रभस्म, वंगभस्म, नागभस्म और लोहभस्म, ये प्रत्येक तोले२ भर लेवे सवको पारेगंधककी कजलीमें मिलाय देवे फिर सहिंजनके रससे १ प्रहर खरल करे, ज्वालामुखीके रससे, सोंठफे काठेसे, वेल फलके रससे और चौलाईके रस इन प्रत्येकमें पृथक् २ एक एक प्रहर खरल करे, फिर इसको गोलाकर कांचके पात्रमे रखके दूसरेसे मुख बंधकर उस पर कपरमिट्टी करके मिट्टीके मटकेको आधा निमकसे भरके वीचमें उस पूर्वोक्त कांचके पात्रको रखके बाकी सबको निमकसे भर देवे. फिर उस मिट्टीके संपुटको चूल्हेपर चढाय दो प्रहरकी अग्नि देवे जब स्वांग शीतल हो जावे तब उस गोलेमेंसे रसको निकाल चूर्ण कर डाले, और उसमें १ तोले मूँगेका चूर्ण, १ टंक ले शद्धविष डालके उसमें काले सर्पका जहर मिलायके एक दिन खरलकरे, फिर इस रसको कांचकी शीशीमें भरके वालुका यंत्रमें दो प्रहरकी अग्नि देवे जब शीतल हो जाय तब शीशीमेंसे औषध निकाल खरलमें डालके आगे लिखी औषधोंकी भावना देवे, तगर, मूसली, जटामांसी, चोक, वेत, पीपल, नीलपुष्पी, पत्रज, इलायची चीता, वनतुलसी, सौंफ, देवदाली (घघरवेल) धतूरा, अगस्तिया, मुंडी,महुआ जाई और मैनफल, इन १९ औषधोंके स्वरस न्यारे२ निकालके एक एकके रसमें पृथक् २भावना देवैं, इस प्रकार सव औषधोंकी भावना देवे जिस औषधका रस न निकले उसके काढेमें घोटे,जब घुटकर तयारहो जावे तव इसको दो रत्तीकी गोली बनायके धररक्खे इसमेंसे १ गोली विजोरेके रस और अदरखके रसमें १६ कालीमिरचका चूरा मिलायके जो संनिपातसे बेहोश होय उसको देवे तो उसका संनिपात दूर हो ये संनिपातभैरव रस नामसे प्रसिद्ध है ॥

रसपर्पटी।

जयापत्ररसेनापिवर्धमानरसेनच ॥ भृंगराजरसेनापिकाकमाच्यारसेनच ॥ रसंसंशोध्ययत्नेनतत्समंशोधयेद्बलिम् ॥ भृंगराजरसैःपिष्ट्वाशोषयेदर्करश्मिभिः ॥ सप्तधावात्रिधावापिपश्वाच्चूर्णंचकारयेत् ॥ चूर्णयित्वासमंतेनरसेनसेनसहमर्दयेत् ॥ नष्टसूतंयदाचूर्णंभवेत्कज्जलसन्निभम् ॥ निर्धूतेवदरांगारेद्रवीकुर्यात्प्रयत्नतः ॥ तत्रतन्महिषीविष्ठास्थापितेकदलीदले ॥ निक्षिप्यतदुपर्यन्यत्पत्रंदत्वाप्रपीडयेत् ॥ शीतलत्वंगतेपत्रात्समृद्धृत्यविचूर्णयेत् ॥ एवंसिद्धाभवेद्व्याधिघातिनीरसपर्पटी ॥ ज्वरादिव्याधिभिर्व्याप्तंविश्वदृष्ट्वापुराहरः ॥ चकारकृपयायुक्तःसुधावद्रसपर्पटीम् ॥ रक्तिकासंमितांतावद्भ्रष्टजीरकसंयुताम्॥ गुंजार्धभ्रष्टहिंग्वाव्याढ्यांभक्षयेद्रसपर्पटीम्॥ रोगानुरूपभेषज्यैरपितांभक्षयेद्वुधः ॥ पिबेत्तदनुपानीयंशीतलंचुलकत्रयम् ॥ प्रत्यहंवर्धयेत्तस्यएकैकांरक्तिकांभिषक् ॥ नाधिकांदशगुंजातोभक्षयेत्तांकदाचन ॥ एकादशदिनारंभात्तांतथैवापकर्षयेत् ॥ एवमेतांसमश्नीयान्नरोविंशतिवासरान् ॥ शिवंगुरुंतथाविप्रान्पूजयित्वाप्रणम्यच ॥ श्रद्धयाभक्षयेदेतांक्षीरमांसरसाशनः॥ ज्वरंचग्रहणींचापितथातीसारमेवच ॥ कामलांपांडुरोगंचशूलप्लीहजलोदरम् ॥ एवमादीन्गदान्हत्वाहृष्टःपुष्टश्चवीर्यवान् ॥ जीवेद्वर्षशतंसाग्रंवलपिलितवर्जितः ॥

अर्थ– अरनीकेपत्ते, अंडकेपत्ते, भांगरा और मकोय, इनकेरसमें पारेको शोधे उसी प्रकार गंधककोभांगरेके रसमें घुटायके धूपमें सुखायदेवे इसप्रकार सातवारशुद्धकरे अथवा तीनवारकरे फिर इस पारा और गंधक दोनोंको मिलाय कजली करे उस कजलीको लोहके कडछलेमें धरके वेरकी लकडीके कोलेन्पर गरमकरे जब कजली पतली होजावे तव गोवरसे लिपी हुई पृथ्वीपर केलेका पत्ता विछायके उसपर उस कजलीकी चासनीको ढाल दे और तत्काल दूसरे पत्तेसे ठककेगोवरसे दावदेवे, जब शीतल होजावे तव निकाल लेय,यह (रस पर्पटी ) प्रथम शिवने ज्वर व्याप्त जगके देख कृपा करके निर्माण करी, यह पर्पटी १ रत्ती भुनेजीरे और अधभुनी हींगकेसाथ देवे अथवा रोगोक्त अनुपानके साथ देय और इसके ऊपर तीन चुल्लू शीतल पानीके पिये इस प्रकार नित्य एक २ रत्ती चढावे जब दस रत्ती होजावे तब एक एक रत्ती घटाय देवे इस प्रकार वीस दिन भक्षण करे इसको अपने इष्टदेवको नमस्कार करके श्रद्धा पूर्वक भक्षण करके दूध और मांस ये पथ्यमें देवे तो ज्वर, संग्रहणी, अतीसार, कामला, पांडुरोग, शूल, प्लीह, जलोदर, इत्यादि रोगका नाश करे और पुरुषको हृष्ट पुष्ट, वीर्यवान् करे इसके सेवन करनेसे वृद्धावस्था रहित सौ वर्ष जीवे ॥

रविसुंदररस।

द्विभागतालेनहतंचताम्रंरसंचगंधंचसमानमाहुः ॥ विषंसमंचद्विगुणंचताम्रंत्रिसप्तरात्रेणदिवाकरांशौ ॥ विमर्द्यरिष्टस्वरसेनचूर्णगुंजैकदत्तंसितयासमेतम् ॥ ज्वरांकुशोयंरविसुंदराख्योज्वरान्निहंत्यष्टविधान्समग्रान्

**अर्थ–**दोभाग हरताल लेकर उससे एकभाग ताम्रकी भस्म करे, इस प्रकार करी तामेकी भस्म २ तोले, पारा १ तोले, गंधक १ तोले और शुद्धविष १ भाग इस प्रकार लेके इक्कीस दिन नींबके रसमें खरल करे, फिर १ रत्तीके प्रमाण मिश्रीसे खाय तो यह रविसुंदरज्वरांकुश रस आठ प्रकारके ज्वरोको दूर करे॥

कज्जलीगुण।

शुद्धसूतंतथागंधंखल्वेतावद्विमर्दयेत् ॥ सूतोनदृश्यतेयावत्किंतुकज्जलवद्भवेत् ॥ एषाकज्जलिकाख्याताबृंहणीवीर्यवर्धिनी ॥ नानानुपानयोगेनसर्वव्याधिविनाशिनी ॥

**अर्थ–**शुद्धगंधक, पारा, दोनोंको जबतक खरल करे कि जहां तक पारा न दीखे इसे कज्जली कहते हैं ये बृंहण है, वीर्यवर्धक और नानाप्रकारके अनुपानसे सर्वरोगनाश करने वाली है ॥

गदमुरारिरस।

रसबलिफणिलोहव्योमताम्रेणतुल्यान्यथरसदलभागोवत्सनागः प्रदिष्टः ॥ भवतिगदमुरारिश्चास्यगुंजार्द्रवाराक्षपयतिदिवसेनप्रौढमामज्वराख्यम् ॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, शीशेकी भस्म, लोहभस्म, अभ्रक और ताम्रये समान भाग लें और पारेसे आधा शुद्ध विष डाले सबको खरल कर १ रत्तीकीगोली बनावे १ गोली अदरखके रससे देय तो तरुणन्वरको एक दिनमें नष्ट करे इसे गदमुरारिरस कहते हैं॥

वालार्करस।

रंगाहिंगुलजेपालवृद्ध्यादंत्यंवुमर्दयेत्॥
दिनार्धेनज्वरंहंतितमः सूर्योदयोयथा ॥

अर्थ– पारा, गंधक, हींगलू और जमालगोटा, इन सबको दंतीके रससे खरलकर रत्तीकी गोली बनाय ले १ गोली भक्षण करे तो जैसे सूर्य अंधकारका नाश करहै इस प्रकार यह एकदिनमेंज्वरको नाश करे इसे बालार्करस कहते है॥

ज्वरांकुश।

शुद्धसूतंविषंगंधंधूर्तबीजंत्रिभिःसमम् ॥ चतुर्णांद्विगुणंव्योपंचूर्णंगुंजाद्वयंहितम् ॥ पक्वजंबीरकद्रावैर्युक्तार्द्रस्यद्रवैर्युतम् ॥महाज्वरांकुशोनामज्वराणामंतकोभवेत् ॥ ऐकाहिकंद्व्याहिकंवा त्र्याहिकंवाचतुर्थकम् ॥ विषमंवात्रिदोषोत्थंनाशयेद्याममात्रतः॥

**अर्थ–**पारा, गंधक और विष प्रत्येक समान लेवे और इन तीनोंकी बराबर धतूरेके बीज ले, तथा सबसे दूनीसोंठ , मिरच और पीपल लेवे सबका चूर्ण कर पकी जँभीरी तथा अदरख इनके रससे खरल करे फिर दो रत्तीकी गोली बनावे एक गोली खाय तो एक प्रहरमें एकाहिक, द्व्याहिक, त्र्याहिक, चातुर्थिक, विषम और संनिपात ज्वर इनको नष्ट करे इसको महाज्वरांकुश कहते हैं यह सर्वज्वरोंका नाश करनेवाला कालके समान है ॥

विश्वतापहरण।

सूतशुल्बत्रिवृतावलितिक्तादंतिबीजचपलाविपतिंदुः ॥ पथ्ययासहविचूर्ण्यसमांशंहेमवारिसहितं दिनमेकम्॥ वल्लयुग्मगुटिकार्द्रकवारानाशयेदभिनवज्वरमाशु ॥ विश्वतापहरणोऽत्रचपथ्यंमुद्गयूपसहितंदिनमेकम् ॥

**अर्थ–**पारा, ताम्रभस्म, निशोथ, गंधक, कुटकी, जमालगोटा, पीपर, विष, कुचला और हरड, सब समान ले चर्णकर धतूरेकेरससे १ दिन खरलकरे फिर ४ रत्तीकी गोलियां बनावे १ गोली अदरखके रससे खाय तोनवीन ज्वरकानाश करे इसको (विश्वतापहरण) रस कहते हैं इसपर मूंगकी दाल और भात पथ्य देवे ॥

सन्निपातभैरवरस।

सूतंगधंलोहकिट्टंविमर्द्यसर्वैस्तुल्यंवत्सनागनियुंज्यात् ॥ आर्द्रंभृंगंबीजपूरंजयंतीनिर्गुंडीकाभृंगराजद्रवैश्च ॥ युक्त्यावैद्योभावंयित्वाविधेयाशाणार्धार्धंसन्निपातस्यनूनम् ॥ शीतंवातंनिर्मलंस्नानपानंपथ्यंदुग्धंशर्कराभिर्युतंच॥

अर्थ–पारा, गंधक और मंडूरकी भस्म ये समान भाग ले और तीनोंकी वरावर शुद्धविष, अदरख, भांगरा, विजोरा, भांग और निर्गुंडी ये लेकर भाँगरेके रससे खरलकरे, तथा १ मासेकी गोली बनावे १ गोली भक्षण करे तो सन्निपातका नाश करे शीतल जलसे स्नान करे, पवनमें बैठे, शीतल जल तथा दूध भात और चीनी पथ्यमें देवे ॥

त्रिभुवनकीर्तिरस।

हिंगुलंचविषंव्योपंटंकणंमागधीशिफा ॥ संचूर्ण्यभावयेत्त्रेधासुरसार्द्रकहेमीभः॥ रसोभुवनकीर्तिःसगुंजैकाद्रवेणवै ॥ सर्वज्वरविनाशंचसन्निपातांस्त्रयोदश ॥

**अर्थ–**हींगलू, विष, सोंठ, मिरच, पीपल ,सुहागा और पीपरामूला इन सब औषधोंको बारीक पीस, तुलसी, अदरख, धतूरा, इन प्रत्येकके रसमें पृथक्२ खरल करे इसको ( त्रिभुवनकीर्तिरस ) कहते हैं यह १ रत्ती अदरखके रससे खाय तो सर्वज्वर और तेरह प्रकारके सन्निपातोंको नाश करे ॥

मृतप्राणदायीरस।

रसंगंधकंटंकणंवत्सनाभंसुसंमर्दयेद्धूर्तबीजेनयामम् ॥ ततोवत्सनागेनहैमैश्चवीबीजैरसैर्भावये- च्चत्रिवारंत्रिवारम् ॥ कटुत्र्यादिनापंचवारंततःस्यादयंसूतराजोमृतप्राणदायी ॥ ज्वरेसन्निपातेज्वरेनूतनेवामहाश्लेष्मरोगेचगुंजाप्रमाणम् ॥ पयःपायसंदाधिकंतक्रभक्तं- सितावानवीनज्वरेचार्द्रनीरैः ॥ ज्वरेचातिसारेघनद्रावयुक्तेग्रहण्यर्शसांक्षौद्रसंसीतयावा ॥ ज्वरेवायुनात्रिकट्वग्निपीतंप्रकंपेचबाहूकफेकांगवाते ॥ अपस्मारमुन्मादवातंनिहंतिप्रयुक्तो- सितापंचभिर्धूर्तवीजैः॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, सुहागा, विष और धतूरेके बीज ये सब समान भाग लेके धतूरेकेबीजोंकेऔर वच्छनाग विष इनके काढेमें तीन२ भावना देवे फिर सोंठ, मिरच और पीपल, इसके काढेकी पांच भावना देवे तो यह सूतराज मृतप्राणदायी रस तयार हो यह सन्निपातज्वर, नवीन ज्वर घोर कफका रोग इनमें एक रत्ती अदरखके रससे देवे, इसपर पथ्य दूध भात, खीर, दहीभात, छाँछभात, देवेतो यह रस ज्वरातिसार संग्रहणी, मूलव्याधि, इनमें शहत और मिश्रीके साथ देवे तथा वातज्वर, प्रकंपवायु,बाहुकंप, एकांगवायु, इनमें सोंठ, मिरच, पीपल और चित्रक इनके साथ देय, एवं मृगी, उन्माद, इनमें मिश्री और पांच धतूरे के बीज इनके साथ देवे ॥

ज्वरोपद्रव ।

श्वासोमूर्च्छारुचिश्छार्दिस्तृष्णातीसारविड्ग्रहः ॥
हिक्काकासांगभेदश्चज्वरस्योपद्रवादश ॥

**अर्थ–**श्वास, मुर्च्छा, अरुचि, वमन, तृषा, अतिसार, मलबद्धता, हिचकी खांसी अंगोंका टूटना ये ज्वरके दश उपद्रव हैं ॥

ज्वरोपद्रवकीचिकित्सा ।

संजातोपद्रवोव्याधिस्त्याज्योनस्याच्चिकित्सकैः ॥ व्याधौशांतेप्रणश्यंतिसद्यःसर्वेप्युपद्रवाः॥ अतोव्याधिंजयेद्यत्नात्पूर्वंपश्चादुपद्रवम् ॥ भिषग्यःकुशलःसोत्रजयेत्पूर्वमुपद्रवम्॥ तेष्वपिप्रचुरेपुप्राङ्नाशयेदाशुकारिणम् ॥ मूलव्याधिंजयेत्पूर्वंजेयोयोवाभवेद्वली ॥ अविरोधेनवाकुर्यादुभयोरपिचक्रियाम् ॥

**अर्थ–**वैद्यको उपद्रवयुक्त व्याधिकीअपेक्षा नहीं करनी चाहिये, व्याधिके शांत होतेही संपूर्ण उपद्रव तत्काल शांत हो जाते हैं, अतएव यत्नपूर्वक प्रथम व्याधिको जीते फिर उपद्रवोंकीचिकित्सा करे । अथवा कुशल वैद्य प्रथम उपद्रवोंको जीते उनमें भी जो शीघ्र बढनेवाला है उसको प्रथम चिकित्सा करे पश्चात् अन्यान्यको जीते ॥

अथवा कुशल वैद्य प्रथम मूलव्याधिको जीते अथवा उसमें जो बलवान् उपद्रवहोयउसको जीते किंवा व्याधि और उपद्रव दोनोंकीअविरोधीचिकित्सा करें ।

सिंह्यादिकषाय।

सिंहीव्याघ्रीताम्रमूलीपटोलीशृंगीभांर्गीपुष्कररोहिणीच ॥
साकंशट्याशैलमल्याश्चबीजंश्वासंहन्यात्सन्निपातेदशांगः॥

**अर्थ–**कटेरी, वडी कटेरी, धमासा, पटोलपत्र, काकडासींगी, भारंगी, पुहकरमूल, कुटकी, कचूर, कुरैया इन दश औषधोंका काढासन्निपातोत्पन्नश्वायासका नाश करे॥

द्वात्रिंशांगकाढा ।

भांर्गीर्निवधनाभयामृतलताभूनिंबवासाविपात्रायंतीकटुकावचात्रिकटुकस्योनाकशक्रद्रुमैः॥ रास्नायासपटोलपाटलिशठीदार्वोविशालात्रिवृत्ब्राहीपुष्करसिंहिकाद्वयनिशाधात्र्याक्षदेवद्रुमैः॥ क्वाथोयंखलुसन्निपातनिवहान्द्वात्रिंशतात्पानतोदुर्धार्षान्निजतेजसाविजयतेसर्पानगरत्मन्निव ॥ किंचश्वासबलासकासगदहृद्रोगांश्चहिक्कामरुन्मन्यास्तंभगलामयार्दितमलावष्टंभवर्ध्मानपि॥

**अर्थ–**भारंगी, नीमकी छाल, नागरमोथा छोटीहरड, गिलोय, चिरायता अडूसा, अतीस, त्रायमाण, कुटकी, वच, सोंठ, मिरच, पीपल, टेंटू, कुड़ाकी छाल, रास्ना, धमासा, पटोलपत्र, पाढ, कचूर, दारुहलदी, इन्द्रायणकी जड़, निशोथ, ब्राह्मी, पुहकरमूल, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, हलदी, बहेडा, आंवला और देवदारु ये सब औषध समान भाग लेकर काढा करे तो यह (दात्रिंशांगकाढा) अपने पराक्रमसे श्वास, खाँसी, कफ, हृदयके रोग हिचकी, बादी, मन्यानाडीका जिकड़ना, गलेके रोग, अर्दित वायु, मलावष्टंभ, बदरोग इन सबको नाशकरे जैसे गरुड़ अपने तेजसे सर्पोको जीतता है॥

मध्वाधकाढा।

मधुनाकृष्णाकट्फलकर्कटशृंगीभवंचूर्णम् ॥
श्वासामयेमहोग्रेलीढ्वालोकः सुखीभवति ॥

**अर्थ–**पीपल, कायफल और काकडासींगी, इनका चूर्ण शहतसे चाटे तो घोर उग्रश्वासको दूर करे ॥

श्वासपरदाग।

वन्योपलाग्नितापितदात्रस्याग्रेणपंजरेदाहः ॥
अपहरतिश्वासामयमसंशयंभाषितंमुनिभिः॥

**अर्थ–**आरने उपलोंकी अग्निमें दरातको तपायके उसके अग्रभागसे हड्डियोंके पंजरमें दाग देवे तो श्वासको अवश्य दूर करे ॥

आर्द्रकादिनस्य।

आर्द्रकस्यरसैर्नस्यंमूर्च्छायामाचरेन्नरः॥
अंजनंचप्रयुंजीतमधुसिंधुशिलोपणैः॥

**अर्थ–**यदि ज्वरमें मूर्च्छा आय जावे तो अदरखके रसकी नस्य देवे और शहत सैंधानिमक, मनशिल और कालीमिरच इनका अंजन करे तो मूर्च्छादूर हो॥

शीतांभसादियोग।

शीतांभसाक्षिसेकःसुरभिर्धूप सुगंधिपुष्पंच॥
मृदुतालवंतवातःकोमलकदलीदलस्पर्शः॥

**अर्थ–**मूर्च्छामें शीतलजल नेत्रोंपर छिड़के,सुगंधित धूनीदे, अथवा सुगंधित फूल सुँघावे, ताडके पंखेसे धीरे २ पवन करे तथा केलेके कोमल पत्ते देहपर रखने चाहिये ॥

अरुचिचिकित्सा।

अरुचौतुशृंगवेरजरसकैः सहसिंधुजैः कवलः ॥
सिंधूत्थमातुलुंगीफलकेसरधारणवक्रे ॥

**अर्थ–**यदि ज्वरमें अरुचि होय तो अदरखके रसमें सैंधानिमक मिलाय उसको मुखमें रक्खे अथवा विजोरेकी केशरमें सैंधानिमक मिलायके मुखमें रक्खेतो अरुचिं दूर हो ॥

मातुलिंगकवल।

अरुचौमातुलुंगस्यकेसरंसाज्यसैंधवम् ॥
धात्रीद्राक्षासितानांवाकल्कमास्येतुधारयेत् ॥

**अर्थ–**अरुचि होनेसे विजोरेकी केशरमें सैंधानिमक और घी मिलायके मुखमें रक्खे ॥

सैंधवादियोग।

नीरेणसिंधूत्थरजोतिसूक्ष्मंनस्येतिनूनंविनिहंतिहिक्काम्॥ शुंठीहठाद्वासितयासमेताधूपोथवाहिंगुसमुद्भवश्च ॥

**अर्थ–**ज्वरमें हिचकी होनेसे सैंधानिमक वारीक पीस जलमें मिलायके नस्यदेवे अथवा सोंठ, मिश्री और तीक्ष्ण प्रदार्थ इनके सेवन करनेसे अथवा हींगकी धूनी देनेसे हिचकी बंद होवे ॥

अश्वत्थक्षार।

अश्वत्थंबल्कलंशुष्कंदग्धंनिर्वापितंजले ॥
तज्जलंपानमात्रेणहिक्कांछर्दिचनानाशयेत् ॥

**अर्थ–**पीपलकी सूखी छालको भस्म करके जलमें भिगोय देवेफिर उसको नितारके पानी निकाल लेवे इसे पीनेसे हिचकी और वमन ये नाश होवे ॥

शुष्कअश्वपुरीषयोग।

शुष्कस्याश्वपुरीषस्यधूपोहिक्कांनिवारयेत् ॥

अपिसर्वात्मिकांचैवयोगराडयमीरितः॥

**अर्थ–**सूखी हुई घोडेकीलीदकी धूनी संनिपातकी हिचकीको नाश करे ॥

यावकादिनस्य।

यावकस्यरसेनापिनस्यतोहंतिहिक्किकाम्॥

**अर्थ–**सीजे हुए जौके रसकी नस्य देवे तो हिचकी दूर हो ।

ज्वरकीखाँसीपरकणाद्यलेह ।

कासेकणाकणामूलंकलिद्रुमफलंरजः॥
सविश्वभेषजंलिह्यान्मधुनावावृपारसम् ॥

**अर्थ–**ज्वरमें खाँसी होनेसे पीपल, पीपरामूल, बहेडा, पित्तपापडा और सोंठ, इनके चूर्णका अवलेह अडूसेके रससे अथवा शहतके साथ देवे तो दूर होय॥

पुष्करादिचटनी।

पुष्करमूलकटुत्रिकशृंगी कट्फलयासककारविकाभिः॥
मधुलुलिताभिरयंखलुलेहः कासारिपुःकफरोगहरश्च ॥

**अर्थ–**पुहकरमूल, त्रिकटु, काकडासांगी, कायफल, धमासा और अजवायन इनका चूर्ण शहतसे चाटे तो खाँसी और कफ इनका नाश होय ॥

विभीतकयोग।

विभीतकंघृताभ्यक्तंगोशकृत्परिवेष्टितम् ॥
स्विन्नमग्नोहरेत्कासंध्रुवमास्यविधारितम् ॥

**अर्थ–**वहेडेको घीसे लपेट उसपर गोबर लपेटके पुटपाक करे इसकी छालको मुखमें रखने से खाँसीको दूर करे॥

लवंगादिवटी।

विभीतकत्वक्मरिचलवंगंसर्वैःसमानंखदिरस्यसारम् ॥
बब्वूलजर्क्वाथकृतावटीयंमुखस्थिताकासहरीक्षणेन ॥

**अर्थ–**बहेडेकी छाल, कालीमिरच और लौंग सब समान लेवे और सबकी बराबर खैरसार लेवे सबको बबूलक काढेमें खरलकर गोली बनावे इस गोलीको मुखमें रक्खे तो यह तत्काल खाँसीको दूर करे ॥

ज्वरदाहचिकित्सा।

दाहाधिकारलिखितंदाहेकुर्याच्चिकित्सितम् ॥
परंज्वराविरुद्धंयन्मुख्योनाश्योज्वरोयतः॥

**अर्थ–**ज्वरमें दाह होनेसे दाहाधिकारमें जो दाहकी चिकित्सा लिखी है वो करनी चाहिये, परंतु ज्वरदाहमें ज्वर मुख्य है अतएव उसमें ज्वरके विरुद्ध चिकित्सा न करे॥

गुडूच्यादिकाढा।

क्वाथोगुडूच्याःसमधुःसुशीतःपीतःप्रशांतिर्वमनस्यकुर्यात् ॥
विण्मक्षिकाणांमधुनावलीढासचंदनाशर्करयान्वितावा ॥

**अर्थ–**गिलोयका काढा शीतल होनेपर उसमें शहत मिलायके पीवे तो ज्वरमें वमन होना शांति होय ! अथवा मक्खीकी विष्ठा शहतसे चंदनका चूरा मिलायके देवे अथवा मिश्रीऔर चंदन मिलायके देवे तो ज्वरमें रद होना वंदहोवे ॥

दंतशठादिकाढा।

दंतशठबीजपूरकदाडिमवदरैःसचुक्रकैर्वदने ॥
लेपोजयतिपिपासामथरजतगुटीमुखांतस्था ॥

**अर्थ–**जंभीरी, विजोरा, अनार, बेर और अमलवेत इनका कल्क तलुएमें, जीभमें और गालोंकेभीतर लेप करे तो प्यास शमन करे । अथवा चांदीकी गोली मुखमे रखनेसे प्यासदूर होवे॥

जलादियोग।

शीतंपयःक्षौद्रयुतंनिपीतमाकंठमाश्वेवतदुद्वमेच्च ॥
तर्षप्रप्रकर्षप्रप्रशमायवक्रेदध्याद्गदक्षौद्रवटाग्रलाजान् ॥

**अर्थ–**ज्वरमें तृषाके रोकनेको शीतल जलमें शहत मिलायके कंठपर्यंत पीवे और तत्काल वमन द्वारा कुरलाकर देवे, अथवा कूट, वडकी कोपल और खील इनके अवलेहमें शहत मिलायके मुखमें राखे तो तृषा शांति होय॥

ज्वरातिसारचिकित्सा।

लंघनमेकंमुक्तानचान्यदस्तीहभेषजंबलिनः ॥
समुदीर्णदोषंनिचयंशमयतितत्पाचयत्यपिच ॥

**अर्थ–**ज्वरमें दस्त होनेसे यदि रोगी बलिष्ठ होयतोउसको लंघनही करना औषधी कहींहै है, वो हुए लंघन वढे दोष समूहका नाश करे हैं और उनको पचावे भी है ॥

वत्सादन्यादिकाढा।

वत्सादनीवत्सकवारिवाहविश्वंभरानिंबविषाःसविश्वाः॥
ज्वरोतिसारंवारितंजयंतीविश्वामृतावत्सकवारिवाहाः ॥

**अर्थ–**गिलोय, कुडेकीछाल, नागरमोथा, चिरायता, नीमकी छाल, अतीस और सोंठ, इनका अथवा सोंठ, गिलोय, कुडेकीछाल और नागरमोथा, इनका काढ़ा पीवे तो ज्वरमें होनेवाले अतीसारका नाश करे ॥

पाठादिकाढा।

पाठामृतापर्पटमस्तुविश्वाकिराततिक्तेंद्रयवान्विपाच्य ॥पिबन्हरत्येवहठेनसर्वज्वरातिसारानपिदुर्निवारान् ॥

**अर्थ–**पाढ, गिलोय,पित्तपापडा,नागरमोथा, सौंठ, चिरायता और इन्द्रजौ इनके काढेको पीनेसे निश्चय दुर्निवार अतीसारको दूर करे॥

ज्वरमेंदस्तकेअवरोधकीचिकित्सा।

विड्ग्रहेवातजित्कर्मकुर्यादत्रानुलोमनम् ॥
मलंप्रवर्तयेदाशुतीक्ष्णाभिःफलवर्त्तिभिः ॥

**अर्थ–**ज्वरमें यदि दस्त न उतरता होय तो वातनाशक ऐसे अनुलोमन देवे अथवा प्रथम तीक्ष्णफलवर्ती आदि करके मलको निकालना चाहिये ॥

पथ्यादिकाढा।

पथ्यारग्वधतिक्तात्रिवृदामलकैः शृतंतोयम् ॥
जीर्णज्वरेविबंधेदद्यादाश्वेवविड्ग्रहः शाम्येत् ॥

**अर्थ–**छोटीहरड, अमलतासका गुदा, कुटकी, निसोथ और आमले इनका काढा जीर्णज्वर, उसीप्रकार मलबद्धताको नाश करे॥

ज्वरपरपथ्य।

वमनंलंघनंकालयवागुःस्वेदनानिच ॥ कटुतिक्तोरसश्चेतिपाचनंतरुणज्वरे ॥ संनिपातेत्तिदंसर्वंकुर्यादामेकफापहम् ॥ अवलेहोंजनंनस्यंगंडूपश्चरसक्रियाः ॥ पादयोर्हस्तयोर्मूलेकंठकूपेचगंडयोः ॥ स्वेदेभ्रष्टकुलित्थानांचूर्णघर्षणमेवच ॥

**अर्थ–**वमन और लंघन करना, प्रातःकाल यवागू देवे, पसीने काढने तथा चरपरे, कडुए ये रस और पाचन ये उपचार तरुण ज्वरमें करे और संनिपात में सब कर्म करावे । तथा आमज्वरमें कफनाशक क्रियाकरे,अवलेह, और अंजन, नस्य,कुरले करना,पसीने काढनाऔर हाथ पैर इनकी जडमें तथा कंठके गड्डे एवं कपोलकी जडमें पसीने आनेसे कुलथीको भून और पीसके इसके चूर्णको मालिश करे ॥

तरुणज्वरपरअपथ्य।

स्नानंविरेकःसुरतंकषायंव्यायाममभ्यंजनमन्हिनिद्रा ॥
दुग्धंघृतंवैदलमामिषंचतक्रंसुरास्वादुगुरुद्रवंच ॥
अन्नंप्रवातंभ्रमणंचक्रोधंत्यजेत्प्रयत्नात्तरुणज्वरार्तः॥

**अर्थ–**स्नान, दस्त, मैथुन, काढा, दंड, कसरत, दिनकी निद्रा, दूध, घी, दोदलका अन्न ( दालआदि) मांस, छाँछ, मद्य, भारीपदार्थ, स्वादुपदार्थ, पतली वस्तु, अन्न, हवाखाना, डोलना, क्रोध और बहुत बोलना ये सर्व वस्तु तरुण ज्वर वालेको त्याज्य हैं ॥

मध्यमज्वरमेंपथ्य।

पुरातनाः षष्टिकशालयश्चवार्ताकसौभांजनकारवेल्लं॥ वेत्राग्रमाषाढफलंतथैवर्कोटिकंमूलकपोतिकांच ॥
मुद्गैर्मसूरैश्चणकैः कुलित्थैर्मकुष्टकैर्वाभिहितश्चयूपः ॥
पाठांमृतावास्तुकतंदुलीयजीवंतिशाकानिचकाकमाची ॥ द्राक्षाकपित्थानिचदाडिमातिवैक्तंकतान्येवयचेलिमानि ॥ लघुनिसात्म्यानिचभेषजानिपथ्यानिमध्यज्वरिणाममूनि ॥

**अर्थ–**पुराने सांठी चावल, शालीचावल, बैंगन, सँहजाना, करेले, बाँसकी कोपल, उडद,अरहर, आषाढमहीनेके फल, ककडी, मूली, पोई, मूंग, मसूर, चना, कुलथी, सोंठ, इनका यूप, पाढ, गिलोय, बथुआ, चौंलाई, जीवंती (डोडी) और मकोय इनका शाक, दाख, कैथ, अनार, विकंकत, पचेलिम, तथा हलके और हितकारी ऐसी ओषध, ये ज्वरवाले मनुष्यको हितकारी कही है ॥

सर्वज्वरमेंपथ्य।

तंदुलीयकवास्तुकवालमूलकपर्पटान् ॥ पटोलतिक्तशाकंचगुडूचीपल्लवान्यपि ॥ कालशाकंनिंबपुष्पंमारिपंदार्विकादलम् ॥ जीवंतीचापिचांगेरीसुनिपण्णाकमाविकैः ॥ पत्रशाकप्रियाणांतुज्वरितानांप्रदापयेत् ॥ मुद्गान्मसूराञ्चणकान्कुलित्थांश्चमकुष्टकान्॥यूपार्थंयूपसात्म्यानांज्वरितानांप्रदापयेत् ॥ लावान्कपिंजलानेणान्पृपतान्शरभान्शशान् ॥ कालपुच्छान्कुरंगांश्चतथैवमृगमात्रकान् ॥ मांसार्थंमाससात्म्यानांज्वरितानांप्रदापयेत् ॥ सारसक्रौंचशिखिनस्तथात्तित्तिरकुक्कुटाः॥ज्वरितानांनशस्यंतेइति केचिद्व्यवस्थिता ॥ वृंताकंपीलुकर्कोटपटोलककठिल्लकम् ॥ फलशाककृतेदेयंसर्वंनिस्नेहमेवच ॥ वत्सरोपितधान्यस्यतंदुलाद्यंज्वरेहितम् ॥ रोटिकार्थंप्रदातव्यंद्विवर्पोपितमल्पशः ॥ गोधूमादियथासात्म्यमन्यदप्यल्यमर्पयेत्॥

**अर्थ–**चौलाई, बथुआ, छोटी नवीन मूली, पित्तपापडा, पडवल, वरना, गिलोय, पालक, कालशाक (नाडीकाशाक,) नीमके फूल, मारिषशाक (मरसेकासाग (डोडीकाशाक, चूकाकाशाक, चौपतियाका, बकरीके दूधके पदार्थ, अथवा पत्रका शाक,और मूंग, मसुर चना, कुलथी, मोठ,मटर इनका यूप जिनको हित होवे उनको देय । तथा दुंवाकामांस ,लवा, सपेदतीतर मृग, चित्तलमृग,शरभ और सर्वप्रकारकेमृगोंका मांस, मांसभक्षण करनेवालोंको देवे, सारस, कौंच, मोर,तीतर, मुरगा, इन पक्षियोंका मांस ज्वरवालेको नदेवे ऐसे कई आचार्य कहते हैं, तथा बैंगन, पीलू, ककोडा पडवल, करेले, ये फल शाकोंमें देवे, परंतु चिकनाई युक्तं पदार्थ नदेवे, यदि भात देवे तो एक वर्षके पुराने चावलोंका देय यदि रोटी देय तो एक वर्षके चावलोंकी देवे और गेंहू आदि नित्यही खाते हैं इससे दे वाकी अन्यवस्तु थोडी २ देवे ॥

जीर्णज्वरपथ्य।

विरेचनंछर्दनमंजनंचनस्यंचधूमोप्यनुवासनंच ॥ संशोधनंसंशमनंव्यवायोभ्यंगोवगाहः शिशिरोपचारः ॥ एणः कुलिंगोहरिणोमयूरोलावःशशस्तित्तिरिकुक्कुटौच॥ क्रौंचः कुरंगः पृषतश्चकोरःकपिञ्जलोवार्तिककालपुच्छो ॥ गब्वामजायाश्चपयोघृतंचहरीतकीपर्वतनिर्झरांभः ॥ एरंडतैलंसितचंदनंचद्रव्याणिसर्वाणि पुरेरितानि ॥ ज्योत्स्नाप्रियालिंगनमप्यथस्याद्वर्गः पुराणज्वरिणांसुखाय ॥

**अर्थ–**रेचन, वमन, अंजन, नस्य, धूप, अनुवासन बस्ति, पसीने काढना, स्त्रीसंभोग, उबटना, पानीमेंघसकरस्नान, शीतलउपचार, हरिण, घरकाचिडा, एण, मोर, लवा, ससा, तीतर, मुरगा, क्रौंच, कुरंग, चित्तलहिरण, चकोर, सपेदतीतर, बतक और कालपुच्छ इंनका मांस और गौ, बकरीका दूध और घी, हरड, पर्वतके झरनेका पानी, अंडोका तेल, संपेद चंदन और पूर्वोक्त कही हुई संपूर्ण द्रव्य, चांदनी, स्त्रीका आलिंगन, ये जीर्णज्वरवाले रोगीको सुखकारक पथ्य वर्ग कहा है॥

आगंतुकज्वरपथ्य।

आगंतुजेज्वरेनैवनरः कुर्वीतलंघनम् ॥ अभिघातसमुत्थानेपानाभ्यंगेचसर्पिषः ॥ रक्तावसकैर्मद्यैश्चतथामांसरसोदनैः॥ क्षतजेव्रणजेवापिक्षतव्रणचिकित्सितम् ॥ इत्यागंतुज्वरेपूर्वंभिषग्भिःपथ्यमीरितम् ॥ क्रोधजेपित्तजित्कार्याक्रियासद्वाक्यमेवच ॥औषधीगंधजेकुर्यात्कर्मपित्तप्रसादनम् ॥ अभिचाराभिशापोत्थेजपहोमादिभेषजम् ॥ उत्पातग्रहपीडोत्थेदानंस्वस्त्ययनादयः ॥ क्रोधोत्थितेपित्तहरंकामक्रोधमेवच ॥ कामशोकभयोद्भुतेसर्वावातहरीक्रिया ॥ आश्वासनंचेष्टलाभोहर्षदायीनियानिच ॥ हर्षेणचसमायांतिकामशोकभयज्वराः ॥ विशेषतःपुनःश्वात्रकामक्रोधसमुत्थिते ॥ भयशोकसमुद्भूतेकामक्रोधकरौषधम् ॥ भूताभिषंगजेभूतबाधावेशनताडनम् ॥ अध्वश्रांतेपुचाभ्यंगादिवानिद्राचकारयेत् ॥ मनः क्षोभेसमुत्पन्नेमनसःसांत्वनानिच ॥ इत्यागंतुज्वरेपूर्वैभिषग्भिः पथ्यमिष्यते ॥

**अर्थ–**आगंतुक ज्वरमें लंघन न करावे, अभिघातज्वरमें घृतका पीना और गलिशरुधिरका निकालना, मद्यपान, मांसरस और भात ये पथ्यहें और क्षतजनित अथवा व्रणजनितज्वरमें क्षत (घाव) और व्रण (फोडे) के ऊपर जो चिकित्सा लिखी है वो करनी चाहिये, ये आगंतुक ज्वरपर प्रथम पथ्य है। क्रोधज्वरपर पित्त शमन कर्त्ताक्रिया करे और अच्छी२ वात करे। औषधीगंवज्वरपर चित्तको प्रसन्न कारक चिकित्सा करे । और अभिचारज्वर तथा अभिशापज्वरोंमें जप, होम इत्यादि किया करे । उत्पात और ग्रहपीडा इनसे उठे हुए ज्वरपर दान देना, पुण्याहवाचन इत्यादि करे। और क्रोधज्वरमें पित्तहरणकर्त्ताकिया तथा कामज्वरमें क्रोधज्वरकी चिकित्सा करे । और क्रोधज्वरमें कामज्वरोक्त चिकित्सा करे । एवं काम, शोक और भय इनसे उत्पन्न हुए ज्वरपर सर्व वातनाशक क्रिया तथा उस रोगीको आश्वासन (दिलासादेना) इष्टलाभ तथा हर्षदायक पदार्थ ये देवे । तथा कामक्रोध इनसे उत्पन्न ज्वरमें क्रमसे क्रोध और कामोत्पादककरता क्रिया करे । भूताभिषंग जनितज्वरमें भूतका देहमें बुलाना, ताडन करना इत्यादि कर्म करे । मार्गश्रम करके आये हुए ज्वरपर अभ्यंग, दिनमें सोना इत्यादि करे, तथा मनके क्षोभसे उत्पन्न ज्वरपर मनकी शांति करना इसप्रकार आगंतुक ज्वरपर वैद्योंने पथ्य कहा है ॥

विषमऊपर।

विषमेप्रतिकुर्वीतभिषग्वमनरेचनैः ॥ विष्णोर्नामसहस्रस्यपठनंश्रवणंश्रुतेः॥देवानांब्राह्मणांनांचगुरूणामपिपूजनम्॥ ब्रह्मचर्यतपोहोमःप्रदानंनियमोजपः ॥ साधूनांदर्शनंनित्यरत्नौषध विधारणम् ॥ मंगलाचरणंचैववर्गःसर्वज्वरापहः॥

**अर्थ–**विषमज्वरमें वमन और विरेचन देवे विष्णुसहस्रनामका पाठ, वेदोंका श्रवण, गुरु ब्राह्मणोंकापूजन, ब्रह्मचर्य, तप, होम, दान, नियम जप, साधुमहात्माओंके दर्शन , रत्न और औषध इनका धारम करणा , तथामंगल कर्म ये पथ्य वर्ग हैं ॥

सर्वज्वरऊपरअपथ्य।

वमिवगंदंतकाष्ठमसात्म्यमपिभोजनम् ॥ विरुद्धान्यन्नपानानिविदाहीनिगुरूणिच ॥ दुष्टांवृक्षारमम्लानिपत्रशाकंविरूढकम्॥ ललदंबुचतांबूलंकलिंगंलकुचंफलम्॥तोडिमत्स्यंचपिण्याकंन्नंवानपिष्टवैकृतम् ॥ अभिष्यंदोनिचैतानिज्वरितःपरिवर्जयेत् ॥ व्यायामंचव्यवायंचस्नानंचंक्रमणानिच ॥ ज्वरमुक्तोनसेवेतयावन्नोबलवान्भवेत् ॥

**अर्थ–**वमनकरना, दँतून करना, आपको अहित ऐसा भोजन, विरुद्ध भोजन, दाहकारी, और भारी पदार्थ, दूषित जलपान, खार, खटाई पत्तेकाशाक अंकुर आएहुए धान्य, पोखरका पानी, तांबूल, तरबूज, वडहर, तथा तोडिजातिकी मछली, खल, नवीनधान्य, पिष्टपदार्थ और पौष्टिक ये पदार्थ ज्वरवाले रोगीको छोडदेने उसीप्रकार मेहनत, स्त्रीसंग, स्नान, डोलना, फिरना इत्यादि कर्म जबतक ज्वरमुक्त रोगीके देहमें बल न आवे तबतक न करे॥

मंत्र।

वज्रहस्तोमहाकायोवज्रतुंडोमहेश्वरः ॥
हतोसिवज्रतुंडेनभूम्यांगच्छमहाज्वर ॥
ठःशः शंतः॥
तालपत्रेलिखित्वातुकंठेवाहौचबंधयेत् ॥

**अर्थ–**ऊपर कहा हुआ मंत्र ताडके पत्तेपर लिख गलेमें अथवा भुजामें वांधे तो ज्वर दूर हो ॥

पेय।

आम्रातकसहस्रेणदलेनसुकृतीपिबेत् ॥
पेयांघृतप्लुतांजंतुश्चातुर्थिकहरींत्र्यहे ॥

**अर्थ–**जो भीतर घृत मिली पेयाको तीनदिनपर्यंत महुआके हजार पत्तोंसे पीवे तो उसका चातुर्थिक ज्वर दूर होवे॥

ज्वरनाशकपत्रम् ।

स्वस्तिश्रीलंकातः कौणषाधिपतिर्विभीषणोयथास्थानेवास्तव्यस्यामुकस्यमहाविषमज्वरं- समाज्ञापतिरेरेपापिष्ठदुरात्मन्ज्वरममपार्श्वशीघ्रमागन्तव्यंनोचेदन्यथाकरिष्यसितदाचंद्रहासख- ड्गेनत्वच्छिरः कर्त्तयिष्यामिमाभणिष्यसितन्नाख्यातमितिह्रांह्रींह्रुंह्रः॥

विभीषणेनप्रहितांपत्रिकांलिख्यबुद्धिमान् ।
विषमज्वरनाशायभुजायांरोगिणोन्यसेत् ॥

**अर्थ–**इस मंत्रको शुभदिनमें अष्टगंधसे लिख और गुग्गुलकी धूनी देकर विषमज्वर दूर करनेको रोगीकी भूजामें बांधे तो ज्वर अवश्य दूर हो ॥

लंकेश्वररस।

तालकंमाक्षिकंतुत्थंहरबीजंसगंधकम् ॥ कर्कोटीपत्रतोयेनमर्दयेदिनसप्तकम् ॥चुल्यांपाच्यंचतुर्यामंसशर्करज्वरापहः ॥ अयंलंकेश्वरोनामशीतमातंगकेसरी ॥

**अर्थ–**हरताल, सुवर्णमाक्षिक, नीलाथोथा, पारा और गंधक, ये सब समान भाग ले सबको ककोडिके पत्तोंके रससे सातदिन खरलकर चूल्हेपर चढाय ४ प्रहरकी अग्नि देवे, फिर इसमेंसे बलाबल विचारके रसकीमात्रा मिश्रीकेसाथदेवे तो यह (लंकेश्वर ) रस शीतज्वर हाथीके नाश करनेमें सिंहरूप है ॥

दुग्धफेनगुणाः।

गोदुग्धप्रभवंकिंवाछागीदुग्धमथापिवा ॥ भवेत्फेनंत्रिदोषघ्नंरोचनंबलवर्द्धनम् ॥ वह्निवृद्धिकरंपथ्यंसद्यस्तृप्तिकरंलघु ॥ अतिसारेग्निमांद्येचज्वरेजीर्णेप्रशस्यते ॥

**अर्थ–**गोके दूधके अथवा बकरीके दूधको मथकर झाग प्रकट करे ये झाग त्रिदोष नाशक, रुचिकारी, बलवर्द्धक, जठराग्निवर्द्धक, पथ्य,तत्काल तृप्तिकरता और हलके है इनको अतिसार रोग, मंदाग्निऔर जीर्णज्वरपर देना हितकारी होता है॥

लाक्षारसविधि।

दशांशंलोध्रमादायतद्दशांशंचस्वर्जिकाम् ॥
किंचिच्चवदरीपत्रं वारिषोडशधामतम् ॥
वस्त्रपूतोरसोग्राह्यःलाक्षायाः पादशेषितः॥

**अर्थ–**बहुतसे वैद्योंको लाक्षादितैल बनाते देखा परंतु इसमें मुख्य लाखकारस निकाला जाता है उसकी विधि बहुत वैद्य नहीं जाने फिर लाक्षादि तैलका बनाना वो क्या जाने, उनकेवास्ते लाखका रस निकालनेकी विधि कहते हैं जैसे कि-प्रथम जितनी लाखहो उसका दशवाँ भाग लोध लेवे और लोधका दशावाँभाग सज्जी डाले और उसमें थोडीसी वेरकी पत्ती डाले और लाखसे पानी १६ सोलह गुना डालके औटावे जव चौथाई जल रहे तब उतारकेवारीक कपडेमें इस लाखके रसको छान लेवे, फिर इसकोलाक्षादि तैलमें मिलाना चाहिये ॥

रोगमुक्तस्त्रानम्।

चरेविलग्नेरविभौमवारेरिक्तातिथौचंद्रबलेचहीने ॥
केन्द्रत्रिकोणार्थगतैश्चपापैःस्नानंहितंरोगविमुक्तकानाम् ॥

**अर्थ–**मेष, कर्क, तुला औ मकर, ये लग्न-रविवार और भौमवारमें तथा रिक्तातिथी (४।९।१४ ) में और चंद्रमा बलकरके हीन हो, तथा पापग्रह (सूर्य, मंगल, शनि, और इनका साथी बुध) ये केन्द्र (प्रथम,चतुर्थ,सप्तम और दशम) स्थानमें तथा त्रिकोण (पंचम और नवम ) स्थानमें बैठे होवे ऐसे समयमें रोगीको रोगमुक्त होनेपर प्रथम स्नान कराना उत्तम कहा है ॥

चरलग्नस्नानमें लेनेका यह कारण है कि चरलग्न चलायमान होती है इस वास्ते इसमें स्नानरोगी करे तो उसका रोग फिर आगे चला जावे रोगीके पास नहीं आवे । इसी प्रकार दुष्टवार भी अमंगली है इस कारण अमंगल वारमें स्नान करनेसे रोगभी अमंगल से डरता है, इसी प्रकार रिक्ता तिथी और हीनबली चंद्रमाका फल जान लेना चाहिये ॥

यह मत ज्योतिषीयोंका है मेरा नहीं है न वैद्यशास्त्रका है वैद्योंकामत सात्म्यके आधीन होता है ॥

ज्वरमुक्तिलक्षण।

संक्षोभणाच्चधातूनांदोषसंचालनादपि ॥ भूयोभवतिवेगस्तुमोक्षकालेज्वरस्यतु ॥ त्रिदोषजेज्वरेह्येतदंतर्वेगेचधातुगे ॥ लक्षणंमोक्षकालेस्यादन्यस्मिन्स्वेददर्शनम् ॥

**अर्थ–**ज्वरके जानेके समय धातुओंके क्षोभसे अथवा दोषोंके चलायमान होनेसे ज्वरका अत्यंत वेग होता है, त्रिदोषज्वर,अंतर्वेगज्वर,और धातुगतज्वर इनमें ये लक्षण होते है शेषज्वरोंमें केवल पसीने मात्र आते हैं ॥

इति श्रीमाथुरकृष्णलालतनय दत्तराम निर्मिते आयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघंटुरत्नाकरे सर्वज्वरनिदानचिकित्सापथ्यापथ्यपूर्णतामगात् ॥

समाप्तमिदंज्वरप्रकरणम् ।
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॥श्रीः॥
अतिसारकाकर्मविपाक।
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स्मार्ताग्निंशमयेद्यस्तुसोतीसारयुतोभवेत् ॥ अग्निरश्मीत्यृचं जप्त्वादशांशंजुहुयात्तिलान् ॥ सर्पिषाचाप्लुतान्दद्याद्धिरण्यं ब्राह्मणायवै ॥ अगिरश्मीतीयमृक्चतारतम्येनवाजपेत् ॥

**अर्थ–**जो प्राणी स्मार्ताग्निको शमन (शांति) करता है वो अतीसार रोगसे पीडित होता है, इसके दूर करनेको (अग्निरश्मि) इस ऋचाका जप और दशांश तिलोका हवन करे तथा घृत मिले तिल और सुवर्णका दान करे, अथवा अग्निरश्मि इस ऋचाका जप और हवनादि करे ॥

दूसराप्रकार।

अतीसारीसभवतियस्त्रेताग्निविनाशकः ॥ सुवर्णेनाथताम्रेणकुर्यात्प्रतिकृतिंवुधः ॥वह्नेःशक्त्यनुसारेणपलेनार्धेनवापुनः॥ तथाज्वालाकुलांरक्तचंदनेनविलेपिताम् ॥ रक्तवस्त्रेणसंवीतां मेषस्योपरिसंस्थिताम् ॥ रक्तमाल्यैश्वसंछन्नांमुक्तादामपरिष्कृताम्॥ कनकाचलवर्णाभांद्वादशार्कनिभांशुभाम् ॥ ब्रह्मचर्यान्वितेविप्रेकनिष्ठेचाग्निहोत्रिणि ॥ अंगुलीयकवस्त्राद्यैर्भूपितेतांनिवेदयेत् ॥ मंत्रेणानेनविधिवदाग्निप्रीत्यर्थमादृतः॥

**अर्थ–**जो मनुष्य अग्नित्रयोकी शांति करे वह अतिसार (दस्त) रोगवाला होता है। उसको सुवर्णकी अथवा तामेकी अपनी शक्तिके अनुसार अग्निकी प्रतिमा बनायकर दानकरे परंतु दो तोलेसे न्यून न करें उस अग्निका ध्यान कहते हैं, ज्वालासे व्याप्तलालचंदन लगाइआ, लालवस्त्र पहने, मेंढाके ऊपर, सवार, लाल मालाओंको और मोतियोके हारको पहने, सुवर्णके पर्वतकेसमान वारह सूर्यकी कांतिके समान ऐसी प्रतिमा करके ब्रह्मचारी अथवा अग्निहोत्री इनका वस्त्रालंकार आदिसे पूजन कर आगे कहे हुए मंत्रकरके दान करे ॥

दानकामंत्र ।

त्रेतारूपोग्निरीड्यस्त्वमंततश्चासिवैनृणाम् ॥ त्वंवेत्थप्राक्तनंपापमतिसारंविनाशय ॥
एवंकृत्वानरः सम्यगतिसारंव्यपोहति ॥ निरुजंससुखीनित्यंदीर्घमायुश्चविंदति ॥

**अर्थ–**हे अग्नितू अग्नित्रयरूपी तथा पूज्य; मनुष्योंके मरण पर्यंत रहने वाली तथा मेरे जन्मान्तरकेपापोंको जानने वाला ऐसा है अतएव इस मेरे अतिसार रोगको शांति कर इस प्रकार कहकर दान करे इस विधि दान करनेसे अतिसार रोगको नाश करे है, रोगरहित नित्य सुखी और दीर्घ आयुको प्राप्त होवे॥

तीसरेप्रकारकाकर्मविपाक ।

स्त्रींहंताचातिसारीस्यादश्वत्थानोपयेद्दश ॥
दद्याच्चशर्कराधेनुंभोजयेच्चशतंद्विजान् ॥

**अर्थ–**स्त्रीके मारनेवाला अतिसारीहोता है वह दशपीपलके वृक्ष लगावे और शर्कराधेनुका दान करे, तथा १०० ब्राह्मणोंको भोजन करावे, शर्करा धेनुका दान आगे यक्ष्माप्रकर्णमें कहेंगे ॥

रक्तातिसारकाकर्मविपाक।

दावाग्निदायकश्चैवरक्तातीसारवान्भवेत् ॥
तेनोदपानंकर्तव्यंरोपणीयस्तथावटः॥

**अर्थ–**वनमें आग लगानेवाला प्राणी रक्तातिसारी होता है उसको प्याऊ इत्यादि जलदान करना चाहिये । तथा १० वडके वृक्ष लगावे इस प्रकार करनेसे रक्तातिसार दूर होवे ॥

अतिसारनिदान।

गुर्वतिस्रिग्धतीक्ष्णोष्णद्रवस्थूलातिशीतलैः॥ विरुद्धाध्यशनाजीर्णैर्विषमैश्चातिभोजनैः ॥ स्नेहाद्यैरतियुक्तैश्चमिथ्यायुक्तैर्विषैर्भयैः ॥ शोकदुष्टांवुमद्यातिपानैः सात्म्यर्तुपर्ययैः ॥ जलाभिरमणैर्वेगविघातैः कृमिदोषतः ॥ नृणांभवत्यतीसारोलक्षणंतस्यवक्ष्यते ॥

**अर्थ–**भारी, अत्यंत चिकना, चरपरा, गरम, पतला, मोटा, अत्यंत शीतलइनके सेवन और देश, काल,तथा संयोग इनसे विरुद्ध (जैसे मध्यदेशवालोंको चाहपानी आदि खाना विरुद्ध, वसंतऋतुमें कफकारी और नदी मादिका जलपीना यह कालविरुद्ध है, दूध मछली मिलाय कर खाना संयोग विरुद्ध ) तथा भोजनके ऊपर फिर भोजन करना, अजीर्ण भोजनका काल छोड फिर गरमागरम अधिक खाना, स्रेहादिक द्रव्यका अत्यंत पान, विरुद्ध फल देनेवाले हीनाधिक योग, विष भक्षण, भय, शोक, इन करके तथा दूषितपानी और मद्य इनका अत्यन्त पान करनेसे । मातु विपरीत पदार्थोंके भक्षणसे, जलमें गोता मारना, मलमूत्रका वेग रोकनेसे, तथा पेटमें कीडे पडजाना इन कारणों से इसप्राणीके अतिसार रोग होता है उसके लक्षण कहते हैं॥

संप्राप्ति।

संशाम्यापांधातुरग्निंप्रवृद्धोवर्चोमिश्रोवायुनाधःप्रणुन्नः ॥
सरत्यतीवातिसारंतमाहुर्व्याधिघोरंपड्विधंतंवदंति ॥

**अर्थ–**शरीरमें जल द्रव रूप धातु (कफ, रस, मूत्र, स्वेद, मेद, पित्त, और रुधिर आदि) अति बढेहुए जठराग्निको शमन (मंद) करके स्वयंवायु करके निकाले हुये मल संयुक्त वर्च (मल) या झाडे को गुदाकेद्वारा अत्यंत वारंवार निकाले है अतएव वैद्य इसको अतिसार ऐसा कहते हैं यह घोर व्याधि छः प्रकारकी है॥

षट्प्रकार।

एकैकशःसर्वशश्चापिदोषैःशोकेनान्यःषष्टआमेनयुक्तः॥
केचिच्चाहुर्नैकरूपप्रकाराइत्येवंतंकाशिराजोह्यवादीत् ॥

**अर्थ–**वातातिसार, पित्तातिसार, कफातिसार,संनिपातातिसार, शोकातिसार और आमातिसार, ऐसे अतिसार रोग छः प्रकारके हैं, तथा सातवाँ द्वंद्वज अतिसार विद्धानोंने माना है उक्त श्लोकमें यह द्वंद्वज अतिसार अधिक कहा है तथा अन्य ग्रंथोंमें इस द्वंद्वज अतिसारकी चिकित्सा लिखी है तथा काशीराजकाभी यह मत है किअनेक अतिसार हैं॥

पूर्वरूप।

हृन्नाभिपायूदरकुक्षितोदगात्रावसादानिलसन्निरोधाः॥ विट्संगआध्मानतथाविपाकोभविप्यस्तस्यपुरःसराणि ॥

**अर्थ–**हृदय, नाभि, गुदा, पेट और कूख, इनमें शूल होव, अंग रहजावे, अधोवायु रुकजावे, मल उतरे नहीं, पेट फूले, तथा, अपक्व अन्न पेटमें रहा आवे ये अतिसार होनवाले मनुष्यके लक्षण होते हैं॥

अतिसारकेपूर्वरूपकीचिकित्सा ।

हितलंघनमेवादौपूर्ववत्तेनपाचनम् ॥ षडंगयूषंकृत्वावापिपासादिपुयोजयेत् ॥ मुद्गयूपंरसंतक्रंधान्यजीरकसंयुतम् ॥ षडंगयूषमित्याहुः सैंधवेनसमन्वितम् ॥अग्निसंदीपनंप्रोक्तंग्रहणीदोषनाशनम् ॥ अरोचकेज्वरेचैवश्रेष्ठमेतत्प्रवाहिके॥

**अर्थ–**अतिसार रोगवालेको प्रथम लंघन करना हितकारी है, कारण लंघन पाचन करे है, फिर प्यास आदि उपद्रव होवे तो षडंगयूष देवे, मूंगका यूष,रस छाँछ, धनिया, जीरा ,सैंधानिमक, इनको षडंग यूष कहते हैं यह अग्निको संदीपन करे, संग्रहणीका नाश करे, तथा अरुचि, ज्वर और प्रवाहिका इनपर हितकारी है।

बिल्वादिषडंगयूष ।

बिल्वंचधान्यंचसजीरकंचपाठाचशुंठीतिलसंयुताच ॥

पिष्ट्वाषडंगः सहितोनराणांयूपस्त्वतीसारहरः प्रदिष्टः॥

**अर्थ–**वेलगिरी, धनिया, जीरा, पाढ, सोंठ और तिल, इनके चूर्णका यूष करे इस षडंग यूषके पीनेसे, अतींसार नाश होवे ॥

यवागू।

तृष्णापनयनीलघ्वीदीपनीवस्तिशोधिनी ॥
विरेकेचातिसारेचयवागूः सर्वदाहिता ॥

**अर्थ–**यवागू तृष्णानाशक, हलकी, दीपनी, बस्त्याशयको शोधन करता, रेचक और अतिसार, इन पर सदैव हितकारी है ॥

औषधीदेनावर्ज्य।

नस्तंभयेदतीसारमपक्वंवृद्धिमागतम् ॥
विनाक्षीणस्यवृद्धस्यगर्भिण्याबालकस्यच ॥

**अर्थ–**क्षीण, बालक, वृद्ध और गर्भिणी इनके हुए अतिसारको त्याग कर अपक्व और वढे हुये अतिसारको वंद न करे ॥

अतिसारपरलंघन।

तस्यादौलंघनप्रोक्तंज्ञात्वादेहबलाबलम् ॥ पाचनंचविधातव्यं त्र्यूपणाद्यंभिषग्वरैः ॥ नपित्तेनविनासोपिजायतेशृणुपुत्रक॥ तस्यनोलंघनंप्रोक्तंज्वरजेचातिसारके ॥ तस्यादौलंघनंचैवमन्येवानैबलंघनम् ॥ तस्माद्देयंकषायंतुपाचनंभोजनेनच ॥

**अर्थ–**देहशक्तिके अनुसार अतिसार रोगमें प्रथम लंघन करना चाहिये, फिर त्र्यूपणादि द्वारा पाचन देवे, कोई वैद्य अपने पुत्रसे कहता है कि हे पुत्र ! अतिसार रोग विनापित्तके नहीं होता, अतएव पित्ताधिक अतिसार पर लंघन नहीं कराना उसीप्रकार ज्वरातिसारपर भी लंघन न करावे इन दोनोंको पाचन काढा भोजनके साथ देवे ॥

यवान्यादिदीपन ।

यवानीनागरोशीरधानिकाबिल्वमुस्तकम् ॥
द्विपर्णिकापचेच्चैतद्दीपनंपाचनंस्मृतम् ॥

**अर्थ–**अजमायन, सोंठ, खस, धनियाँ, वेलगिरी, नागरमोथा, सालपर्णी और पृष्ठपर्णी इनका काढा दीपन पाचन है॥

अतिसारप्रक्रिया।

अतिसारेज्वरेचैवरक्तपित्तेदृगामये॥
आदौनप्रतिकुर्वीतव्याधिवेगोहिदुस्तरः॥

**अर्थ–**अतिसार, ज्वर, रक्तपित्त, नेत्ररोग इतने रोगोंमें रोग उत्पन्न होतेही चिकित्सा न करे कारण यह है कि, इन रोगोंका वेग कठिन है, अतएव जब इनका वेग घटे तव इलाज करना चाहिये ॥

दूसराप्रकार।

आमपक्वक्रिक्रियाहित्वानातिसारेक्रियाहिता ॥
अतः सर्वातिसारेपुज्ञेयंपक्वामलक्षणम् ॥

**अर्थ–**आमपक्व करनेकी क्रियाको छोडकर दूसरी क्रिया अतिसारमें हितकारी नहीं है अतएव संपूर्णअतिसारोमें आमपक्व हुई है या नहीं हुई ये जानना चाहिये॥

तीसराप्रकार।

आमेविलंघनंशस्तमादौपाचनमेवच ॥
कार्यंवानशनस्यांतेसद्रवंलघुभोजनम् ॥

**अर्थ–**आमातिसारमें प्रथम लंघन और पाचन उत्तम है अथया लंघनके अनंतर पतला और हलका भोजन देवे ॥

धान्यपंचकपाचन ।

धान्यबालकबिल्लाद्वानागरैः साधितंजलम् ॥
आमशूलहरंग्राहिभेदिदीपनपाचनम् ॥
पित्तेधान्यचतुष्कंतुशुंठीत्यागाद्वदंतिहि॥

**अर्थ–**धनिया, नेत्रवाला, वेलगिरी, नागरमोथा और सोंठ इनका काढा, आमशूल नाशक, ग्राहि, रेचक, दीपन और पाचन है, तथा पित्तमे शुंठीके विना धान्यपंचक देवे ॥

धातक्यादिमोदक।

धातकीविश्वपाषाणमालूरमजमोदकम् ॥
मुस्तंमोचरसंचुक्रंसर्वातीसारशांतये ॥

**अर्थ–**धायके फूल, सोंठ, पाषाणभेद, बेलगिरी, अजमोद, नागरमोथा, मोचरस और चूका इनके लड्डु सर्व प्रकारके अतिसारोको शमन करे ॥

कुटजाष्टककाढा ।

कुटजवालविषाधनधातकीकुसुमदाडिमलोध्रमथोवृकी ॥ क्वथनमेभिरिदंमधुनायुतंविमलमोचरसेनसमाहितम्॥
पीयमानंमहातीनव्रमतिसारंसदाहकम्॥
रक्तशूलामरोगंचनिहंतिकुटजाष्टकम्॥

**अर्थ–**कूडाकी छाल, नेत्रवाला, अतीस, नागरमोथा, धायकेफूल अनारकेछोतरा, लोध और पाढ इनके काढेमें सहत और मोचरस मिलायके पीवे तोदाहयुक्त अतिसार, रक्तशूल, आमका रोग इन सबको यह कुटजाष्टक नष्ट करे ॥

वातातिसारनिदान ।

अरुणंफेनिलंरूक्षमल्पमल्पंमुहुर्मुहुः॥
शकृदामंसरुक्शब्दंमारुतेनातिसार्यते॥

**अर्थ–**वादीके योगसे अतिसारके दस्तोंका रंग लाल झागयुक्त, रुक्षऔर कच्चाा, तथा वारंवार गुडगुडा हटके साथ गुदाके द्वार थोडा २ गिरता है, उसको वातातिसार जानना ॥

पूतिकादिकाढा।

पूतिकंमागधीशुंठीवलाधान्यंहरीतकी ॥
पक्त्वांवुनापिबेत्सायंवातातीसारशांतये॥

**अर्थ–**कंजा, पीपल, सोंठ, खरेंटी, धनिया, हरड, इनका काढा सायंकालके समय लेनमे आम और वातातिसार शमन होवे ॥

पथ्यादिकाढा।

पथ्यादारुवचाशुंठीमुस्ताचातिविषामृता॥
क्वाथएपांहरेत्पीतोवातातीसारमुल्बणम् ॥

**अर्थ–**हरड, देवदारु, वच, सोंठ, मोथा, अतीस और गिलोय , इनका काढाघोर वातातिसारको नाश करे ॥

वचादिकाढा।

वचाचातिविषामुस्तंबीजानिकुटजस्यच ॥
श्रेष्ठःकषायएतेषांवातातीसारशांतये॥

**अर्थ–**वच, अतीस, मोथा, इन्द्रजौ इनका काढा वातातिसारको नाश करे ॥

सुवर्चलादिकाढा।

सुवर्चलंवचाहिंगुहैमज्योतिविपासमम् ॥
वातातीसारहृत्प्रोक्तंसकुटुत्रयमंभसा॥

**अर्थ–**कालानिमक, वच, हींग, विरायता, चीतेकी छाल, अतीस, सोंठ, कालीमिरच और पीपल इनका काढा वातातिसारनाशक है ॥

कपित्थाष्टकचूर्ण।

अष्टौभागाःकपित्थस्यषड्भागाशर्करामता॥ दाडिमंतिंतिडीकंचश्रीफलंघातकीतथा ॥ अजमोदाचपिप्यल्यः प्रत्येकंस्यु स्त्रिभागिकाः ॥ मरीचंजीरकंधान्यंग्रथिकंबालकंतथा ॥ सौवर्चलंयवानीचचातुर्जातंसचित्रकम् ॥ नागरंचैकभागाःस्युःप्रत्येकंसूक्ष्मचूर्णिताः ॥ कपित्थाष्टकसंज्ञस्याच्चूर्णमेतज्जलामयान्॥ निहंतिग्रहणीरोगानतिसारंव्यपोहति ॥

**अर्थ–**कैथका गूदा ८ तोले–मिश्री ६ तोले, अनारदाना, इमली, वेलगिरी, धायके फूल, अजमोद और पीपल ये प्रत्येक तीन तोले लेवेतथा कालीमिरच, जीरा, धनिया, पीपरामूल, नेत्रवाला, कालानिमक, अजवायन, दालचीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर, चीत्तेकी छाल और सोंठ,ये प्रत्येक एक एक तोले लेवे सवका चूर्ण करे इसको (कपित्थाष्टक) चूर्ण कहते है यह संपूर्णजल, संबंधी रोग, संग्रहणी और अतिसार इनको नाश करे ॥

भेदिदीपनपाचनम् ॥पित्तेधान्यचतुष्कंतुशुंठीत्यागाद्वदंतिहि ॥

**अर्थ–**धनिया, नेत्रवाला, वेलगिरी, नागरमोथा और सोंठ इनका काढा, आमशूल नाराक, ग्रहि, रेवक, दीपन और पाचन है, तथा पित्तमें शुंठोके विना धान्यपंचक देवे ॥

धातक्यादिमोदक।

धातकीविश्वपाषाणमालूरमजमोदकम् ॥
मुस्तंमोचरसंचुक्रसर्वातीसारशांतये ॥

**अर्थ–**धायके फूल, सोंठ, पाषाणभेद, वेलगिरी, अजमोद, नागरमोथा, मोचरस और चूका इनके लड्डू सर्व प्रकारके अतिसारोंको शमन करे ॥

कुटजाष्टककाढा ।

कुटजवालविपाधनधातकीकुसुमदाडिमलोध्रमथोवृकी ॥ क्वथनमेभिरिदंमधुनायुतंविमलमोचरसेनसमाहितम् ॥ पीयमानं महातीब्रमतिसारंसदाहकम्॥ रिक्तशूलामरोगंचनिहंति- कुटजाष्टकम् ॥

**अर्थ–**कूडाकी छाल, नेत्रवाला, अतीस, नागरमोथा, धायकेफुल अनारकेछोतरा, लोध और पाढ इनके काढेमें सहत और मोचरस मिलायके पीबे तो दाहयुक्त अतिसार, रक्तशूल, आमका रोग इन सबको यह कुटजाष्टक नष्ट करें ॥

वातातिसारनिदान।

अरुणंफेनिलंरूक्षमल्पमल्पंमुहुर्मुहुः॥
शकृदामंसरुक्शब्दंमारुतेनातिसार्यते॥

**अर्थ–**वादीके योगसे अतिसारके दस्तोंका रंग लाल झागयुक्त, रूक्ष और कच्चातथा वारंवार गुढगुडा हटके साथ गुदाके द्वार थोडा २ गिरता है, उसको वातातिसार जानना ॥

पूतिकादिकाढा।

पूतिकंमागधीशुंठीवलाधान्यंहरीतकी ॥
पक्त्वांबुनापिबेत्सायंवातातीसारशांतये ॥

**अर्थ–**कंजा , पीपल, सोंठ,खरेंटी, धनिया, हरड, इनका काढा सायंकालके समय लेनेसे आम और बातातिसार शमन होवे ॥

पथ्यादिकाढा।

पथ्यादारुवचाशुंठीमुस्ताचातिविपामृता॥
क्वाथएषांहरेत्पीतोवातातीसारमुल्बणम् ॥

**अर्थ–**हरड, देवदारु, वच, सोंठ, मोथा, अतीस और गिलोय,इनका काढाघोर वातातिसारको नाश करे ॥

वचादिकाढा।

वचाचातिविपामुस्तंबीजानिकुटजस्यच॥
श्रेष्ठःकषायएतेषांवातातीसारशांतये॥

**अर्थ–**वच, अतीस, मोथा, इन्द्रजौइनका काढा वातातिसारको नाश करे ॥

सुवर्चलादिकाढा।

सुवर्चलंवचाहिंगुहैमज्योतिविपासमम् ॥
वातातीसारहृत्प्रोक्तंसकुटुत्रयमंभसा ॥

**अर्थ–**कालानिमक, वच, हींग, चिरायता, चीतेकी छाल, अतीस, सोंठ, कालीमिरच और पीपल इनका काढा बातातिसार नाशक है ॥

कपित्थाष्टकचूर्ण।

अष्टौभागाः कपित्थस्यषड्भागाशर्करामता ॥ दाडिमंतिंतिडीकंचश्रीफलंधातकीतथा ॥ अजमोदाचपिप्यल्यः प्रत्येकंस्युस्त्रिभागिकाः॥ मरीचंजीरकंधान्यंग्रांथिकंबालकंतथा ॥ सौवर्चलंयवानीचचातुर्जातंसचित्रकम् ॥ नागरंचैकभागाःस्युःप्रत्येकंसूक्ष्मचूर्णिताः ॥ कपित्थाष्टकसंज्ञस्याच्चूर्णमेतज्जलामयान् ॥ निहंतिग्रहणीरोगानतिसारंव्यपोहति ॥

**अर्थ–**कैथकागूदा ८ तोले मिश्री ६ तोले, अनारदाना, इमली, वेलगिरी, धायके फूल, अजमोद और पीपल ये प्रत्येक तीन २ तोल लेवे तथा कालीमिरच, जीरा, धनियां, पीपरामूल, नेत्रवाला, कालानिमक, अजवायन, दालचीनी, पत्रज, इलायची, नागकेशर , चीतेकी छाल और सोंठ, ये प्रत्येक एक एक तोले लेवे सबका चूर्ण करे इसको (कपित्थाष्टक) चूर्ण कहते है यह संपूर्ण जल संबंधी रोग, संग्रहणी और अतिसार इनको नाश करे ॥

लाईचूर्ण।

चित्रकंत्रिफलाव्योपंविडंगंजीरकद्वयम् ॥ भल्लातकंयवानीचहिंगुर्लवणपंचकम्॥गृहधूमंवचाकुष्ठंधनमभ्रंचगंधकम् ॥ क्षारत्रयंचाजमोदापारदंगजपिप्पल्ली ॥ एतेषांचूर्णितंयावत्तावच्छक्राशनस्यच ॥ अभ्यर्च्यलाइकांप्रातर्योगिनींकामरूपिणीम्॥बिडालपदमात्रंतुभक्षयेदस्यगुंडकम् ॥ मंदाग्निकासदुर्नामप्लीहपांडुचिरज्वरान् ॥ प्रमेहशोथविष्टंभसंग्रहग्रहणीहरः ॥ सर्वातिसारशमनःसर्वशूलनिवारणः ॥ आमवातगजोच्छेदीसूतिकातंकनाशनः ॥नैतस्मिन्व्याधयःसंतिवातपित्तकफोद्भवाः॥ काष्ठमप्युदरेतस्यभक्षणाद्यातिजीर्णताम् ॥ वार्यंनचव्यवायंचस्नानं पिशितभोजनम् ॥ कांजिकाम्लंसदापथ्यंदग्धमीनंतथादधि ॥ तस्मादसौसदासेव्योगुंडकोलाइकाकृतिः ॥

**अर्थ–**चीतकी छाल, त्रिफला, त्रिकुटा, वायविडंग, जीरा, कालाजीरा,भिलाये, अजमायन, हींग, पाचोनिमक, घरकाधूंआ, वच, कूठ, नागरमोथा, अभ्रक, गंधक, सज्जीखार, जवाखार, सुहागा, अजमोद, पारा, गजपीपर इन सबके चूर्णके बराबर भांग,अथवा( इन्दजव ) मिलायके प्रातःकाल कामरूपीणी,लाइ योगनीका पूजन कर दो तोले नित्यलेवे तो मंदाग्नि,खांसी बवासीर, प्लीहा, पांडु, अरुचि, ज्वर, प्रमेह, सूजन, विष्टंभ संग्रहणी, सर्वातिसार, शूल, आमवात, प्रसूतका रोग, त्रिदोषजन्य व्याधी ये सब नाशको प्राप्त हो इस चूर्णके खानेवालेने यदि काष्ठ भक्षण कराहोय तो वोभी पचजावे इसपर पथ्यनहीं है, मैथुन स्नान, मांस ये वस्तु वर्जित नहीं है, खट्टीकांजी, भुनी मछली और दही ये पथ्य है और लाई के आकृतिवाले गोला सेवन करने चाहिये॥

कुटजचूर्ण।

इंद्रजमेघमदाकुसुमंश्रीलोधमहौषधमोचरसानाम् ॥

चूर्णमिदंगुडतक्रनिपीतंहंत्यचिरादतिसारमुदारम् ॥

**अर्थ–**इन्दजौ, नागरमोथा, धायके फूल, वेलगिरी,लोध,सोंठ और मोचरस इनके चूर्णको गुड और छाँछ के साथ लेवे तो घोर अतिसारको नष्ट करे ॥

शुंठीचूर्ण।

कल्याणिकांचनलताललितांगयष्टेतांबूलशालिवदनेललनेशृणुष्व शुंठीमदाकुसुममोचरसाजमोदातक्रान्विताः प्रशमयंत्यतिसारमुग्रम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, धायके फूल, मोचरस और अजमोदा इनका चूर्ण छाँछके साथ पीवे तो घोर अतिसार नष्ट होवे यह लोलिबराजमें लिखा है॥

बृहल्लवंगादिचूर्ण।

लवंगमेलातजपत्रजोत्पलमुसीरमासीतगरंसबालकम्॥ कंकोलकृष्णागरुनागकेसरंजातीफलंचंदनजातिपत्रिका ॥ द्व्यजाजिसत्र्यूपणपुष्करंशठींफलत्रिकंकुष्टविडंगचित्रकम् ॥तालीसपत्रंसुरदारुधान्यकंयवानियष्टीखदिराम्लवेतसम् ॥ तुंगाजमोदाघनसारमभ्रकंशृंगीविपाग्रंथिकमग्निमंथकम्॥प्रियंगुमुस्तातिविपाशतावरीसत्वंगुडूच्यास्त्रिवृतादुरालभा ॥ समानिसर्वैश्चसमासिताभवेद्वृहल्लवंगाद्यमिदंनिगद्यते ॥ सायंप्रगेखादतिकर्पसंमितंभवंतिदेहेवलवीर्यपुष्टयः ॥ प्रमेहकासारुचियक्ष्मणीतथाक्षयास्रदाहंग्रहणीत्रिदोषनुत् ॥ हिक्कातिसारप्रदरंगलग्रहंनिहंतिपांडुस्वरभंगमश्मरीम्॥

**अर्थ–**लोंग, इलायची, तज, पत्रज, कमलगट्टा, खस, जटामांसी, तगर, नेत्रबाला, कंकोल, काली अगर, नागकेशर, जायफल, सपेचंदन, जावित्री, कालाजीरा, सपेजीरा, सोंठ, मिरच, पीपल, कचूर, हरड, बहेढा, आमला, कूठ, वायविडंग, चीतकीछाल, तालीसपत्र, देवदारु, धनिया, अजवायन मुलहटी, खेरसार, अमलवेत, वंशलोचन, अजमोद, कपूर, अभ्रक, काकडासिंगी,अतीस, पीपरामूल, अरनी, फूलप्रियंगु, मोथा, संपेद अतिविष,सतावर, गिलोयसत्व, निसोध और घमासा ये सब समान भाग ले सब चूर्णके समान मिश्री मिलावे इस चूर्णको वृहल्लवंगादि चूर्ण कहते है, इसमेंसै१तोले सायंकाल, और प्रातःकाल देवे तो देहमें बल, वीर्य और पुष्टिकरे तथा प्रमेह, खाँसीअरुचि, राजयक्ष्मा, पीनस , क्षई, रक्तदाह संग्रहणी, सन्निपात, हिचकी, अतिसार, प्रदर, गलग्रह, पांडुरोग, स्वरभंग और पथरी इन सबको नाश करे ॥

विजयायोग।

मधुनाविजयाभवंरजोनिशिलीढंमधुनासुभर्जितम् ॥
अतिसारमनिद्रतांहरेद्गृहणीवैदहनस्यमंदताम् ॥

**अर्थ–**रात्रिमें भाँगका भुना हुआ चूर्ण शहतके साथ देवे तो अतिसार निद्रानाश, संग्रहणी और मंदाग्नि इनका नाश करे ॥

कुटजावलेह ।

क्षुण्णंकुटजमूलस्यचूर्णतोयार्मणेपचेत् ॥ क्वाथेपादावशेषेस्मिन्लेहेपूतेपुनः पचेत् ॥ सौवर्चलयवक्षारविडसैंधवपैप्पलम् ॥ पाठाचेंद्रयवाजाजीचूर्णंदत्वापलद्वयम् ॥ लिह्याद्वदरमात्रंतुतच्छीतंमधुसंयुतम्॥ पक्वापक्वमतीसारंनानावर्णंसवेदनम्॥ दुर्वारंग्रहणीरोगंजयेच्चैतत्प्रवाहिकम् ॥

**अर्थ–**कुडाकी जड़की छालको बारीक कूट १०२४ तोले जलमें काढाकरे जब चतुर्थांश रहे तब उतारके छानलेवे और इसमें संचर निमक, जवाखार, विडनोन, सैंधानिमक, पीपल, पाढ, इन्द्रजौ और जीराइनका चूर्ण दो २ पल मिलायशीतल करे, इस कुटजावलेहको वेरके समान शहतके साथ देवे तो पक्व, अपक्वअनेकवर्णवाला, पीडायुक्त ऐसा अतिसार तथा दुर्निवार संग्रहणी रोग और प्रवाहिका इनका नाश करे ॥

दूसराकुटजावलेह ।

क्वाथोवत्सकजोनितांतविमलैःपादावशेषःस्थितोमुस्ताक्षीरविडंगबीजरुचकंसिंधूद्भवंधातकी॥ कृष्णाचेतिविचूर्णितंसममिदंसंपाचयेत्पावकेयावत्तद्धनतांप्रयात्यतितरांशीतेमधुक्षेपणम्॥ कृत्वावत्सकलेहएषशमयेत्कृच्छ्रातिसारंरुजंदुर्नामग्रहणीभगंदरगदान्श्वासप्रमेहानपि॥

**अर्थ–**कूडेकी छालका चतुर्थांश काढा कर उसमें नागरमोथा, दूध, वायविडंग, पँगानिमक, सेैंधानिमक, धायकेफूल और पीपल इनका चूर्ण समान भाग ले अग्निपर रखके जबतक गाढा न होवे तबतक पचावे फिर कुछ पतले रहनेपर उतारके शीतल करे उसमें शहत मिलाय अनुपानके साथ देवे तो यह कुटजावलेह, अतिसार, बवासीर, संग्रहणी, भगंदर, श्वास और प्रमेह इनका नाश करे॥

कुटजपुटपाक।

तत्कालंकृष्णकुटजत्वचंतंडुलवारिणा ॥ पिष्ट्वाचतुःपलमितांजंबुपल्लववेष्टिताम् ॥ सूत्रेणबद्धांगोधूमपिष्टेनपरिवेष्टिताम् ॥ लिप्त्वाचघनपंकेनगोमयैर्वह्निनादहेत् ॥ अंगारवर्णांचमृदंदृष्ट्वावह्नेः समुद्धरेत् ॥ ततोरसंगृहीत्वाचशीतंक्षौद्रयुतंपिबेत् ॥ जयेत्सर्वानतीसारान्दुस्तरान्सुचिरोत्थितान् ॥

**अर्थ–**कालेकूडाकी गीली छाल १६ तोले को चांवलोंके धुले हुए पानीमें पीस गोला बनावे उसके चारोंतरफ जामुनके पत्ते लपेटकर मूतसे लपेट देवे उसके ऊपर गेहूंके चूनको सानके गाढा गाढा लेप करे फिर उसपर गाढी गाढीकीचका लेपकरे उसको आरने उपलोंकी अग्निमें धरके फूंक देवे जब गोला अंगारेके वर्ण होजावे तब निकाल ऊपरका लेप दूरकरे उसका रस निचोड शहत मिलायके शीतल पीवे तो बहूत दिनका घोर अतिसार दूर होवे ॥

तंडुलजल ।

कंडितंतंडुलपलंजलेष्टगुणितेक्षिपेत्॥
भावयित्वाजलंग्राह्यंदेयंसर्वत्रकर्मसु ॥

**अर्थ–**उत्तम बिने हुए चावल ३५ तोले लेकर अठगुने पानीसे धोवे उस पानीको सर्वत्र योगमें देना चाहिये॥

मृतसंजीवनरस।

शुद्धसूतंसमंगंधंसूतपादंविपंक्षिपेत् ॥ सर्वतुल्यंमृतंचाभ्रंमर्द्यधत्तूरजैर्द्रवैः॥सर्पाक्ष्याश्चदरवैर्यामंकपायेणाथभावयेत् ॥ धातक्यतिविपामुस्ताशुंठीबालकजीरकम् ॥ यवानीधातकीबिल्वं पाठापथ्याकणान्विता ॥ कुटजस्यत्वचंबीजंकपित्थंदाडिमीबला॥ प्रत्येकंकर्षमात्रंस्यात्कल्कितंक्वथितंजलैः ॥ कल्काच्चतुर्गुणंतोयंक्वाथंपादावशेषितम्॥ अनेनत्रिदिनंभाव्यंपूर्वोक्तंमर्दितं रसम् ॥ रुध्वातद्वालुकायंत्रेक्षणंमृद्वग्निनापचेत्॥ मृतसंजीवनोनामरसोगुंजाचतुष्टयम् ॥ दातव्यमनुपानेनअसाध्यमपिसाधयेत् ॥ नागरातिविषामुस्तादेवदारुवचाकणा॥ यवानीधान्यनकंबालकुटजस्यत्वचाभया ॥ धातकींद्रयवापाठाबिल्वमोचरसंसमम् ॥ चूर्णितमधुनालेह्यमनुपानंसुखावहम् ॥

अर्थ– शुद्धपारा और गंधक, समान भाग तथा सिंगियाविष पारेकी चतुर्थांश लेवे और सबकी बरावर अभ्रक भस्म ये सब एकत्रकर धतूरेके रसमें खरल करे फिर सरफोंकाके रसकी अथवा काढेकी एकप्रहर भावना देवे और धायके फूल, अतीस, नागरमोथा, सोंठ, नेत्रवाला, जीरा, अजवायन, जव, वेलगिरी, पाढ, हरड, पीपल, कुडेकी छाल, इन्द्रजौ, कैथ, अनारदाना और खरेटी ये प्रत्येक एक एक तोले लेकर सबका कल्क करे अथवा जब गाढ़ा होजावे तब कल्कका चौगुना पानी मिलाय उसका चतुर्थांश काढा करे उसको पूर्वोक्त औषधोंकी तीन दिन भावना देकर सुखाय शीशीमें भर कपडमिट्टी कर वालुकायंत्रमें रखके इसको थोड़ी देर मंद आँचसे पचावे इसकी मृतसंजीवन रस कहते हैं यह रस सोंठ, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, वच , पीपल, अजमायन, , धनिया, नेत्रवाला, कुडाकी छाल, हरड, धायके फूल, इन्द्रजौ, पाढ, वेलगिरी, और मोचरस इनके चूर्ण और सहत इनसे देवे यह अनुपान सुखकारी है, इस्से सर्वप्रकारके अतिसार अवश्य दूर हो ॥

कारुण्यसागररस।

रसभस्मद्विधागंधंतस्माद्विघ्नंमृताभ्रकम् ॥ दिनंसऋतुतैलेनपिष्ट्वायामंविपाचयेत् ॥ रसंमार्कवमूलोत्थेनिर्यासेसंविमर्द्यच॥ त्रिक्षारपंचलवणंविपंव्योपाग्निजीरके ॥ सचित्रकैः समानांशैर्युक्तः कारुण्यसागरः ॥ मापद्वयंप्रयुंजीतरसः स्यादतिसारके॥ सज्वरेविज्वरेवाथसशूलेशोणितोद्भवे ॥ निरामेशोथयुक्तेवाग्रहण्यांसानुपानकः ॥ अनुपानंविना ह्येपकार्यसिद्धिंकरिष्यति॥

अर्थ–चंद्रोदय १) गंधक २) अभ्रकभस्म ४) सबको एकत्रकर अंडीके तेलसे १ दिन खरल कर १ प्रहर अग्निपर पचावे फिर भांगरेके रससे, खरल. करे और जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, निमक, सैंधा, विडलवण, संचर, सिंगियाविष, सोंठ, मिरच, पीपर, केशर, जीरा, चीतेकी छाल इनका समान भाग चूर्ण मिलावे इसको करुणासागर रस कहते है यह आतिसार पर दो मासे देवे तो यह ज्वरसहित किंवा ज्वररहित और शूलसहित रक्तातिसार किंवा सूजनयुक्त अतिसार, संग्रहणी इनपर अनुपानके साथ देवे अथवा यह विना अनुपानकेही सर्वकार्य करता है॥

कुंकुमवटी।

कीटनिष्ठीवनेघृष्टंनागफेनंसकुंकुमम् ॥ तंदुलप्रमितंदत्तअतिसारनिषूदनम् ॥ इदंमयागुरोर्लब्धंनतुशास्त्राद्भिषग्वराः ॥ भवतामुपकरायगुरोस्तत्वंप्रकाशितम् ॥

**अर्थ–**मोम, अफीम और केशर ये समान भागले एकत्र खरल कर इसमेंसे चावलके अनुमान देवे तो अतिसारको नाश करे यह प्रयोग मैने गुरुसे लेकर आप लोगोंके उपकारके वास्ते इस जगे प्रकाश करदीना, शास्त्रमें नहीं है, यह वैद्यामृत ग्रंथमें लिखाहै ॥

कपित्थादिपेया।

कपित्थबिल्वचांगेरीतक्रदाडिमसाधिता ॥
ग्राहिणीपाचनीपेयावातेवापंचमूलिका ॥

**अर्थ–**कैथका गूदा, वेलगिरी, चूका छाछ, और अनारदाना इनसे बनी हुई पेया ग्राहिणी और पाचनी है, किंवा वाताधिक अतिसारपर पंचमूलसे बनी हुई पेया देवे ॥

पंचमूलबलादिपेया।

पंचमूलीबलाविश्वाधान्यकोत्पलबिल्वजा॥
वातातिसारिणोदेयासूक्तेनान्यतमेनच ॥

**अर्थ–**पंचमूल, खटेरी, सौंठ, धनिया, कमलगट्टा और वेलगिरी इन औषधोंसे बनी पेया वातातिसारको नष्ट करे, अथवा इसको सिर्काके साथ किंवा दूसरे योगोंके साथ देवे ॥

मसूराद्यघृत।

मसुराणांपलशतंजलद्रोणेविपाचयेत् ॥ पादशेषंशृतंनीत्वादत्वाविल्बपलाष्टकम्॥ घृतप्रस्थंपचेत्तेनसर्वातीसारनाशनम् ॥ ग्रहणीभिन्नविट्कंचनाशयेच्चप्रवाहिकाम् ॥

**अर्थ–**४०० तोले मसूर लेकर १०५४ तोले पानीमें औटावे जब चतुर्थांश रहे तव उतार लेवे,फिर वेलगिरीका चूर्ण ३२ तोले, और घी ६४ तोले मिलायके पचावे जब घी मात्र शेष रहे तब उतारले इसके सेवन करनेसे सर्व प्रकारके अतिसार, संग्रहणी, मलकाटूटना और प्रवाहिका इनका नाश करे॥

लोकनाथरस।

रसभस्मभागमेकंचत्वारः शुद्धगंधकम्॥ पिष्ट्वावराटिकामूलंटंकणेननिरुध्यच ॥ भांडेरुध्वापुटेपाच्यंस्वांगशीतंविचूर्णयेत् ॥ लोकनाथोरसोनाम्नाक्षौद्रेगुंजाचतुष्टयम् ॥ नागरातिविपामुस्तादेवदारुवचान्वितम् ॥ कषायमनुपानंस्याद्वातातीसारनाशनम् ॥ क्षीरिण्यावाकपायेणयोगवाहंनियोजयेत् ॥

**अर्थ–**चंद्रोदय, शुद्ध गंधक ४ दोनोंको एकत्र खरल कर कजली करे इसको कौडियोंमें भरके दूधसे पिसे हुए सुहागेसे कौडियोंका मुख बंद कर देवे फिर शरावमें धरके कपड मिट्टी कर गजपुटमें फूंकदे जब स्वांग शीतल होय तवनिकालके खरल करे शीशीमें भरके धर रक्खे इसको (लोकनाथ रस) कहते है ४ रत्ती इस रसको सहतके साथ देवे अथवा सोंठ, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, बच, इनके काढेसे अथवा खिरनीके काढेसे किंवा योगवाहक अनुपानोंके साथ देवे तो वातातिसार दूर होवे ॥

महारस।

भस्मसूतस्यतीक्ष्णस्यमरिचाज्यंसमंसमम् ॥ स्रुक्क्षीरकाकमाचीभ्यांमर्दयेद्याममात्रकम् ॥ निरुध्यभूधरेपाच्यंदिनैकेनमहारसम्॥ निष्कार्धंभावयेच्चानुपाययेद्दधिसंयुतम्॥ सर्पाक्षिकर्पमात्रंतुपीत्वावातातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**चंद्रोदय, खेरीलोहकीभस्म, कालीमिरच, और घी ये पदार्थ समान भाग ले इनको थूहरका दूध, मकोय इनके रससे खरल करे फिर सरावसंपुटमें रखके कपडमिट्टी कर १ दिन भूधर यंत्रमें पचावे तो यह (महारस) सिद्ध होये इसमेंसे१॥ मासे अनुपानकेसाथ देवे और इसके ऊपर दही और सरफोका मिलाय १० मासे पिवावे तो बातासितारका नाश होवे ॥

द्वितीयमहारस।

शुद्धसूतंसमंगंधंमरिचंटंकणकणा ॥ स्वर्णबीजंसमंमर्द्यंभृंगिद्रावैर्दिनार्धकम् ॥ सूततुल्योरसोयोज्योरसः कनकसुंदरः ॥ योज्योगुंजाद्वयंहंतिवातातीसारमद्भुतम् ॥दध्यन्नंदापयेत्पथ्यमाज्यंवाथगवांदधि॥

**अर्थ–**शुद्धापारा १) गंधक १ ) कालीमिरच, सुहागा, पीपल और धतूरेके बीज प्रत्येक दोदो तोले लेवेसबको भाँगरेके रससे दो प्रहर खरलकर फिर परेकी बराबर इसमें कनकसुंदर रस मिलावे सबको खरलकर इसमेंसे२ रत्ती सेवन करें तो यह महारस वातातिसारको दूर करे ऊपर दहीभातका पथ्य देवे अथवा गौका घी और दही देवे॥

वातातिसारपरशाक।

फंजीशाल्मलिरक्ताक्षीकपित्थंदाडिमान्यथ ॥ श्लेष्माटोबदरीवाथक्षीरिणीवाकुचीशिवा ॥ तर्कारिवावलीचैषांबालपत्राणिवापुनः ॥ पक्वानिव्यंजनार्थाययोजयेदतिसारिणाम् ॥

**अर्थ–**सेमर, गूगल, कैथ, अनार, निसोरे, बेर, खिरनी, वावची, अरनी वयूर इनके कोमलपत्ते अथवा पुराने पत्रोंका शाक यथायोग बनाकर देवे तो अतिसारमें हितकारी जानना ॥

पित्तातिसारनिदान ।

पित्तात्पीतंनीलमालोहितंवातृष्णामूर्च्छादाहपाकोपपन्नम् ॥

**अर्थ–**पित्तकेकोपमे पीला, नीला, अथवा

कुछ हीलिये दस्त होता है और प्यास मूर्च्छादाह और गुदाका पकना ये लक्षण होते हैं॥

पित्तातिसारचिकित्साक्रम व पेया।

अमान्वितमतीसारंपैत्तिकंलंवनैर्जयेत् ॥ लंवितस्ययथासात्म्यंयवागूमंडतर्पणैः ॥शृतंचंदनमुस्ताभ्यांपटोलादीप्यनागरैः॥ पेयामम्लामतक्रांवापाचनींग्राहिणींपिबेत् ॥

**अर्थ–**आमयुक्त पित्तातिसारको लंघनद्वारा जीते अथवा लंघन करनेके उपरांत यथासात्म्य यवागू, मंड, तृप्तिकारी पदार्थ और चंदन, मोथा पटोलपत्र, जीरा और सोंठ इनका काढा देवे ॥

पित्तातिसारपर पानी वा अन्न ।

धान्योदीच्यशृतंतोयंतृष्णादाहातिसारवान् ॥
ताभ्यामेवसपाठाभ्यांसिद्धमाहारमाचरेत् ॥

**अर्थ–**धनिया और नेत्रवाला इनका काढा प्यास, दाह और अतिसार इनके निवारणार्थ जलके पलटेमें देवे और धनिया, नेत्रवाला और पाठ, इनके काढेमें सिद्ध करा अन्न देवे ॥

मधुकादियोग।

मधुकंकट्फलंलोध्रदाडिमस्यफलत्वचौ ॥
पित्तातिसारेमध्वक्तंपाययेत्तंदुलाबुना ॥

**अर्थ–**मुलहटी, कायफल, लोध, अनारदाना और अनारकीछाल, इनका चूर्ण और कल्क चावलके धोवनमें शहत डालके देवे तो पित्तातिसारको दूर करे॥

शुंठ्यादिकाढा।

शुंठीसुवर्चलाहिंगुरभयेंद्रयवामताः॥
पित्तातीसारहृत्क्वाथोनिपीतोमधुनासह ॥

**अर्थ–**सोंठ, ब्राह्मी, हींग, हरड और इन्द्रजौ इनके काढेमें शहत डालके देवे तो पित्तातिसारको दूर करे ॥

बिल्वादिकाढा।

बिल्वशक्रयवांभोदबालकातिविपाकृतः॥
कषायोहंत्यतीसारंसामंपित्तसमुद्भवम् ॥

**अर्थ–**वेलगिरी, इन्द्रजौ, नागरमोथा, नेत्रवाला और अतीस, इनका काढा आमसहित पित्तातीसारको दूर करे ॥

कट्फलादिकाढा।

कट्फलातिविपांभोदवत्सकंनागरान्वितम् ॥
शृंतंपित्तातिसारघ्नंदातव्यंमधुसंयुतम् ॥

**अर्थ–**कायफल, अतीस, नागरमोथा, कूडाकी छाल और सोंठ इनका काढा सहत युक्त देवे तो पित्तातीसार दूर होवे ॥

मधुयष्ट्यादिकाढा।

मधुयष्टिः सितालोध्रमुत्पलंसमभागतः ॥
मधुक्षीरयुतंपीतंरक्तपित्तातिसारजित् ॥

**अर्थ–**मुलहटी, मिश्री, लोध, कमलगट्टा इनका काढा सहत और दूध डालके देवे तो रक्तातिसारको नाश करे॥

समंगादिचूर्ण।

समंगाधातकीपुष्पंबिल्वंसौवर्चलंबिडम् ॥
सक्षौद्रंदाडिमंचैवपीतंतंदुलवारिणा ॥
चूर्णंपित्तातिसारघ्नंशूलंचाशुनियच्छति ॥

**अर्थ–**खरेटी, धायकेफूल, बेलगिरी, संचरनोन, और विडनोन इनके चूर्णमें सहत और अनारदाना मिलाय चावल धोवनके साथ पीवेतो शूलयुक्त पित्तातिसार तत्काल दूर हो ॥

अतिविषादियोग।

सक्षौद्रातिविपापिष्टावत्सकस्यफलंत्वचम् ॥
तंदुलोदकसंयुक्तंपेयंपित्तातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**अतीस, कूडाकीछाल,और इन्द्रजौइनके चूर्णको चावलके धोवनके साथ शहत डालके पीवे तो पित्तातिसार और शूल इनका नाश करे ॥

जंब्बादिचूर्ण।

जंबूचूतफलस्यास्थिद्राक्षापथ्याचपिप्पली ॥ खर्जूरंशाल्मलीछल्लीउदुंबरसवल्कलम् ॥ एतच्चूर्णंसमंश्लक्ष्णंमधुनासहभक्षितम् ॥ रक्तपित्तोद्भवंशीघ्रंहंत्यतीसारमुल्बणम् ॥

**अर्थ–**जामुन और आमकी गुठली, दाख, हरड, पीपल, खजूर, सेमरकी छाल और गूलर लोध इनका समान भाग चूर्ण कर शहतके साथ देवे तो रक्त और पित्त इनसे उत्पन्न हुए अतिसारका शीघ्र नाश करे ॥

लोकेश्वररस।

रसस्यभस्मनाहेमपादांशंमारितंक्षिपेत् ॥ उभयोर्द्विगुणंगंधंमर्दयेच्चित्रकांबुना ॥ पूर्य्यावराटिकातेनटंकणेननिरोधयेत् ॥ मृत्तिकाचूर्णलिप्तेतुभांडेक्षिप्त्वानिरुध्यच ॥ शुष्कंगजपुटेपक्वंरात्रौग्राह्यंसुशीतलम् ॥ रसोलोकेश्वरोनामचूर्णगुंजाचतुष्टयम्॥मधुनासहदातव्यंसर्वातीसारनाशनम् ॥ बालबिल्वंगुडंतैलंपिप्पलीनागरंसमम्॥लेहयेन्मधुनासार्धमनुपानंसुखावहम्॥

**अर्थ–**चंदोदय, स्वर्णभस्म ३ मासे और गंधक २॥ तोले ले, सबको चीतेकी छालके रससे खरलकर कौडियोंमें भरके सुहागेसे मुख बंद करदे फिर मिट्टी और चूनेसे ल्हेस किसीपात्रमे भर मुख बंदकर गजपुटमें फूंक देवे जवशीतल हो जावे तब निकाल लेवे यह लोकेश्वररस ४ रत्ती सहतके साथ देवे तो सर्वप्रकारके अतीसारोंको नष्ट करे इसके ऊपर कच्चीवेलगिरी,गुड,तेल, पीपल और सोंठइनका चूर्ण सहतके साथ चाटे यह अनुपान है॥

दूसराप्रकार।

लोकनाथोरसोप्यत्रक्षौद्रैर्गुंजाचतुष्टयम् ॥
दातव्यश्चपिबेच्चानुपेषितंतंडुलोदकम् ॥

**अर्थ–**इस अतिसार रोगमें लोकनाथरस ४ रत्ती सहतके साथ देव और ऊपर पीसे चावलोंका जल पीवे तो अतिसार रोग दूर हो ॥

वत्सकादिघृत।

पलंवत्सकसंसिद्धंचतुर्गुणजलेघृतम् ॥
पित्तातिसारेभिषजादेयंदीपनपाचनम् ॥

**अर्थ–**४ तोले कूडाकीछालके काढेमें घृत सिद्धकर देवे तो पित्तातिसार दूर हो और दीपन तथा पाचन है ॥

कफातिसारनिदान।

शुक्लंसांद्रंसकफंश्लेष्मयुक्तंविस्रंशीतंहृष्टरोमामनुष्यः ॥

**अर्थ–**जिसका दस्त सपेद रंगका गाढा, कफ मिला, आमगंधी और शीतल हो और उसके रोमांच खडे रहे उसके कफातिसार जानना॥

कफातिसारचिकित्साक्रम।

श्लेष्मातिसारप्रथमंहितंलंघनपाचनम् ॥
योज्यश्चामातिसारघ्नोयथोक्तोदीपनोगणः ॥

**अर्थ–**कफातिसारमें प्रथम लंघन और पाचन देना हित है तथा आमातिसार हरणकर्ता यथा विधिपूर्वक दीपनीय गण देना चाहिये ॥

नतुसंग्रहणंदद्यात्पूर्वमामातिसारिणाम् ॥
दोपोह्यादौवर्धमानोजनत्यामयान्बहून् ॥

**अर्थ–**आमातिसारवालेको संग्राही अर्थात् दस्त रोकनेवाली औषधी न देवे क्योंकि दस्त रोकने से दोषबढकर अनेक प्रकाके राोगोंका प्ररकट करें है अतएव दस्तोंका रोकना अहित है ॥

डिंभजःस्थाविरोवापिवातपित्तात्मकश्चयः ॥
क्षीणधातुबलार्तस्यबहुदोषोतिविश्रुतः ॥
आमोपिस्तंभनीयः स्यात्पाच नान्मरणंभवेत् ॥

**अर्थ–**छोटेबालकके और वृद्धके तथा धातुक्षीणबालेके यदि आम अधिक वढगई होवे तो इसे पित्तयुक्त जाननी इसलिये उसको रोकनी चाहिये यदि उसका पाचन करे तो वो मरण करे ॥

पाथ्यादिकाढा।

पथ्याग्निकटुकापाठावचामुस्तकवत्सकैः॥
सनागरैर्जयेत्क्वाथः कल्कोवाश्लैष्मिकांस्रुतिम् ॥

**अर्थ–**हरड, चीता, कुटकी, पाढ, वच, नागरमोथा, कूडाकी छाल और सोंठ इनका काढा अथवा कल्ककफके दस्तहोनेको दूर करे ॥

कृमिशत्र्वादिकाढा।

कृमिशत्रुवचाबिल्वपेशीधान्याककट्फलम् ॥
एषांक्वाथंभिषग्दद्यादतीसारेवलासजे ॥

**अर्थ–**वायविडंग, वच, वेलगिरी, धनिया, कायफल इनफा काढा कफजन्य अतिसार रोगमें वैद्य देवे ॥

पूतिकादिकल्क।

पूतिकव्योपबिल्वाग्निपाठादाडिमहिंगुभिः॥
योजयेत्सत्कृतैः पेष्यैः श्लेष्मातीसारपीडितम् ॥

**अर्थ–**कंजा, सोंठ, मिरच, पीपल, वेलगिरी, चीतेकी छाल, पाढ, अनारदाना, और हींग इनका काढा कफातिसार पीडावाला पीवे ॥

गोकंटकादिकाढा।

गोकंटकंगुहोव्याघ्रीकषायंसुशृतंपिबेत् ॥
आमश्लेष्मातिसारघ्नंदीपनंपाचनंपरम् ॥

**अर्थ–**गोखरू, कांगनी और कटेरी इनका काढा आमश्लेष्मातिसारनाशक और दीपन तथा पाचन है ॥

चव्यादिचूर्ण।

चव्यंसातिविपाकुष्टंबालबिल्वंसनागरम् ॥
वत्सकत्वक्फलंपथ्याछर्दिःश्लेष्मातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**चव्य,अतीस, कूट, वेलगिरी, सोंठ, कूडाकी छाल, इन्द्रजौऔर हरड इनका काढा वमनयुक्त कफातिसारको दूर करे ॥

कणादिचूर्ण।

पाठावचात्रिकटुकंकुष्टंकटुकरोहिणी ॥
उष्णांबुनाविनिघ्नंतिश्लेष्मातीसारमुल्बणम् ॥

**अर्थ–**पाठा, वचः सोंठ, मिरच, पीपल, कूठ, कुटकी इनका चूर्ण गरम जलके साथ पीवे तो कफातिसार दूर होवे॥

हिंग्वादिचूर्ण।

हिंगुसौवर्चलंव्योपमभयातिविपावचा ॥
पोतमुष्णांबुनाचूर्णमेतच्छ्लेष्मातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**हींग, संचरनोन, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, अतीस और वच, इनका चूर्ण गरम जलके साथ पीवे तो कफातिसार दूर करे ॥

बब्वुलादियोग।

बब्वूलपत्रंसंपिष्टंरात्रौजीरद्वयंहितम् ॥
कर्पमात्रभवेद्भक्ष्यंकफातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**रात्रिमें बबूलके पत्तोंको दोनों जीरके साथ पीस १ तोले भक्षण करे तो कफातिसार नाश होवे॥

पथ्यादिचूर्ण।

पथ्यापाठावचाकुष्टंचित्रकः कटुरोहिणी ॥
चूर्णमुष्णांभसापीतंश्लेष्मातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**हरड, पाढ, वच, कूठ, चीता और कुटकी इनके चूर्णको गरमजलके साथ पीवे तो कफातिसार दूर होवे ॥

अभयादिचूर्ण।

अभयातिविपाहिंगुसौवर्चलकटुत्रयम् ॥
एतच्चूर्णंसुतप्तांभः पीतंश्लेष्मातिसारजित्॥

**अर्थ–**हरड, अतीस, हींग, संचरनोन, सोंठ, मिरच, पीपल, इनके चूर्णको गरम जलके साथ पीवे तो कफातिसार दूर होवे ॥

पथ्यादिचूर्ण ।

पथ्यासौवर्चलंहिंगुसैंधवातिविपावचा ॥
आमातिसारंसकफंपीतमुष्णांवुनाजयेत् ॥

**अर्थ–**हरड, संचरनिमक, हींग, सैंधानिमक, अतीस और वच इनके चूर्णको गरम जलके साथ पीवे तो कफयुक्त आमातिसार दूर हो ॥

शुंठीपुटपाक।

महौषधंसूक्ष्मचूर्णंकृत्वातोयेनपेपयेत् ॥ ततस्तुगोलकंकृत्वालेपयेत्तदनंतरम् ॥वातारिशुलकल्केनश्रीपत्रैर्वेष्टयेत्तथा ॥ सूत्रवद्धंमृदालिप्तंमृदुवह्नौविपाचयेत् ॥ सुस्निग्धंगोलकंतंतुस्फोटयित्वासमुद्धरेत् ॥ शीतीभूतंमधुयुतंखादेन्माषद्वयोन्मितम् ॥ अथतक्रेणगव्येनसहदेयंपलेनच ॥ योगोयंकफवातोत्थदुष्टातीसारनाशनः ॥ शोफकासहरःकांतिकृष्णवर्त्मविवर्धनः ॥

**अर्थ–**सोंठका बारीक चूर्ण कर जलसे पीस फिर उसका गोला बनाय उसपर अंडके कल्कका लेपकर बेलके पत्तोंसे लपेट सूतसे कस देवे, फिर ऊपर मिट्टी चढायके मंद अग्निमें पचावे फिर उसको कोडके सोंठके गोलेको निकाल लेवेशीतल होनेपर २ मासेके अनुमान सहतके साथ भक्षण करे अथवा४ तोलेगौकी छॉछके साथ देवे तो यह योग कफ और वायुके दुष्ट होनेसे उत्पन्न दुष्ट अतिसारको नाश करे तथा सूजन खांसीको हरण करे और कांति तथा अग्निको बढावे ॥

त्रिदोषातिसारनिदान।

वराहस्रेहमांसांबुसदृशंसर्वरूपिणम् ॥
कृछ्रसाध्यमतीसारंविद्यादोषत्रयोद्भवम् ॥

**अर्थ–**जिस रोगीके दस्त सूअरके वसाके समान मांस धोवन जलके समान, तथा वातादि सर्व अतिसारोंके लक्षण करके युक्त होवे उसको त्रिदोषका अतिसार जानना यह कष्टसाध्य है ॥

कुटजावलेह ।

कुटजस्यत्वचःक्वाथोवस्त्रपूतोघनीकृतः॥ सलीढोतिविपायुक्तः स्यात्त्रिदोषातिसारनुत् ॥ इच्छंत्यत्राष्टमांशेनक्वाथादतिविपारजः ॥ प्रक्षिपदाचतुर्थांशमितिकेचिद्वदंतिहि ॥

**अर्थ–**कूडाकी छालके काढेको कपडेमें छान उसमें अतीसका चूर्ण मिलायके फिर पचावे जब गाढा होजावे तब उतारके उसे चाटे तो त्रिदोषका अतिसार दूर हो इसमें अष्टमांश अतीस डाले ऐसे कोई आचार्य कहते हैं तथा चतुर्थांश डाले ऐसे किसी आचार्यका मतहै इसमें वैद्य अपनी बुद्धिसे दोषोंकी अनुसार कल्पना करे॥

समंगादिकाढा।

समंगातिविषामुस्ताविश्वह्रीबेरधातकी॥
कुटजत्वक्फलंविल्वंक्वाथः सर्वातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**खरेटी, अतीस, नागरमोथा, सोंठ, हाऊबेर, धायके फूल, कूड़ाकी छाल इन्द्रजौऔर वेलगिरीइनका काढा सर्व प्रकारके अतिसारोंका नाश करे ॥

पंचमूलीबलादिकाढा।

पंचमूलीबलाबिल्वगुडूचीमुस्तनागरैः ॥ पाठाभूनिंबवर्हिष्टकुटजत्वक्पलैःशृतम् ॥ सर्वजंहंत्यतीसारंज्वरंचापितथावमिम् ॥ सशूलोपद्रवंश्वासंकासंवापिसुदुस्तरम् ॥

**अर्थ–**पंचमूल, खरेटी, वेलगिरी, गिलोय ,नागरमोथा,सोंठ, पाढ, चिरायता, नेत्रवाला, कूडाकी छाल, इन्द्रजौइनका काढा त्रिदोषातिसार, ज्वर, वातशूल, श्वास और खँसीको नाश करे ॥

पंचमूलयोजना।

पंचमूल्यत्रसामान्यापित्तेयोज्याकनीयसी॥
वातेपुनर्बलासेचसायोज्यामहतीमता ॥

**अर्थ–**पित्तमें लघुपंचमूल देवे और बादी तथा कफमें बृहत्पंचमूल देना चाहिये ॥

कुटजपुटपाक।

अवेदनंसुसंपक्वंदीप्ताग्नेः सुचिरोत्थितम् ॥ नानावर्णमतीसारंपुटपाकैरुपाचरेत्॥ स्निग्धंघनंकुटजवल्कलजंत्वजग्धमादायतत्क्षणमतीवचपेपयित्वा ॥ जंबूपलाशदलतंदुलतोयसिक्तं बद्धंकुशेनचबहिर्घनपंकलिप्तम् ॥ सुस्विन्नपिष्टमपिपीड्यरसंगृहीत्वाक्षौद्रेणयुक्तमतिसारवतेप्रदद्यात् ॥ कृष्णात्रिपुत्रमतपूजितएषयोगः सर्वातिसारहरणेस्वयमेवराजा॥

**अर्थ–**शूलरहित पक्वदीप्ताग्निवालेका, अनेक वर्ण संयुक्त और पुराने अतिसारको पुटपाक देवे, कूडाकी गीली छाल लाकर तत्काल पीस और चावलके धोवनको मिलाय गोला करे फिर जामुनके पत्तोंसे लपेट ऊपर मूतसे लपेट देवे फिर उसके ऊपर गाढी२ कीचका लेपकर मंदाग्निमें पचन करावे फिर उसको निकाल उसकी मट्टी और पत्ते दूर कर रस निकाल ले उसमें सहत मिलायके आतिसार रोगवालेको देवे तो यह योग सर्वातिसारको नष्ट करे यह कृष्णात्रेय ऋषिका कहा सर्व प्रयोगोंका राजा है ॥

सूतादिवटी।

मृतंसूतंमृतंस्वर्णंमृतताम्रंसमंसमम् ॥ तुल्यंचखादिरंसारंतथामोचरसंक्षिपेत् ॥ द्रवैःशाल्मलिमूलोत्थैर्मर्दयेत्प्रहरद्वयम् ॥ चणमांत्रांवटींकृत्वाखादेज्जीरकसंयुताम् ॥ त्रिदोषाढ्यमतीसारंसज्वरंनाशयेध्रुवम् ॥

**अर्थ–**चंद्रोदय, सुवर्णभस्म, तामेको भस्म, प्रत्येक बराबर लेवे सबकी बराबर खैरसार और मोचरस लेकर सेमरकी जड़के रससे २ प्रहर खरल कर चणेकी बराबर गोली बनावे इसको जीरेके साथ खाय तो त्रिदोषका अतिसार ज्वरयुक्त निश्चय दूर होवे॥

चतुःसमागुटी।

अभयानागरंमुस्तंगुडेनसहयोजितम् ॥ चतुःसमेयंगुटिकात्रिदोषघ्नीप्रकीर्तिता॥आमातिसारमानाहसविबंधंविपूचिकाम् ॥ कृमीनरोचकंहन्याद्दीपयत्याशुचानलम् ॥

**अर्थ–**हरड, सोंठ, नागरमोथा और गुड ये समानभाग ले गोली बनावे इसे खायतो त्रिदोष, आमातिसार, अफरा, विबंध, विपूचिका, कृमिरोग और अरुचि इनको दूर करे और अग्निकोदीपन करे ॥

तृप्तिसागररस।

रसभस्मचभागैकंरसाद्द्विगुणगंधकम् ॥ गंधकाद्द्विगुणंचाभ्रंनिश्चंद्रंमर्दयेत्ततः ॥ दिनैकंकटुतैलेनरुध्वाचुल्यांविपाचयेत् ॥ यामैकंवालुकायंत्रेसमुद्धृत्यविमर्दयेत् ॥ हयमारकमूलोत्थरसैर्यामंनिरुध्यच ॥ पूर्ववत्पाचयेच्चुल्यांसमादायविमिश्रयेत् ॥ त्रिक्षारंपंचलवणंनिष्काग्निद्वयजीरकैः ॥ विडंगेनचतत्तुल्यंयुक्तोयंतृप्तिसागरः ॥ भक्षयेन्माषमात्रंचसन्निपातातिसारजित् ॥ सज्वरांग्रहणींहंतिह्यनुपानंविनारसः॥

**अर्थ–**चंद्रोदय १ तोला गंधक २ तोले, अभ्रक ४ तोले, ये संपूर्ण पदार्थ एकत्र कर एक प्रहर खरल करे फिर उसको सरसोंके तेलमें१ दिन खरल करे फिर शीशीमें भरके मुख बंदकर १ प्रहर वालुकायंत्रमें पचावेफिर कनेरकी जडके रससे १ प्रहर खरलकर पूर्वविधिसे चूल्हेपर चढाय वालुकायत्रमें पचावे फिर निकालकर तीनों क्षार पाँचोंनिमक, चीतेकी छाल, जीरा, कालाजिरा,वायविडंग इनका चूर्ण तीन २मासे लेकर मिलावे इनको तृप्तिसागररस कहते हैं,१ मासे सेवन करे तो संनिपातातिसार ज्वरयुक्त संग्रहणी इसको विना अनुपानके नष्ट करे॥

आनंदभैरवी।

मूलंकटुकरोहिण्याबिल्वमज्जागुडूचिका ॥
दध्नापिष्ट्वापिवेच्चानुवटीचानंदभैरवी ॥
सन्निपातातिसारघ्नीपथ्यमूलाचपूर्ववत् ॥

**अर्थ–**कुटकी, वेलगिरी, गिलोय इनके चूर्णको दहीसे पीसके देव तो संनिपातातिसार नष्ट हो इसको आनंदभैरवी कहते हैं इसपर पथ्य पूर्ववत् देवे ॥

शोकभयातिसारनिदान ।

तैस्तैर्भावैः शोचतोल्पाशनस्यबाष्पोष्मावैवह्निमाविश्यजं तोः॥
कोष्ठंगत्वाक्षोभयेत्तस्यरक्तंतच्चाधस्तात्काकणंतीमकाशम् ॥निर्गच्छेद्वैविड्विमिश्रंह्यविडूवानिर्गधंवार्गंधवद्वातिसारः॥ शोकोत्पन्नोदुश्चिकित्स्योतिमात्रंरोगोवेद्यैःकष्टएषप्रदिष्टः ॥

**अर्थ–**जिसके धन बंधु इत्यादि नाश होनेसे अत्यंत भयभीतहो इसी कारण उसका अन्न थक जावे, उसके नेत्रोंसे उदकादि तथा देहसे कांत्यादिक तेज ये भीतर प्रवेश होकर कोठेमें जायकर जठराग्निको व्याकुल कर रुधिरको क्षोभित करे फिर वह रुधिर अपान (गूदा) द्वारा निकलने लगे उसका रंग गुंजा (घूंघची) के समान हो तथा वह रुधिर कभी २ मलमिश्रित किंवा केवल गंधरहित किंवा सगंध ऐसा होय उसको शोकातिसार कहते हैं यह कष्टसाध्य है वैद्योंकरके दुश्चिकित्स्य है, क्योंकि विना शोकनष्ट हुए यह इसका दूर होना असंभव है ॥

चिकित्सा।

भयशोकसमुद्भूतौज्ञेयौवातातिसारवत् ॥
तयोर्वातहरीकार्याहर्षणाश्वासनैः क्रिया ॥

**अर्थ–**भय और शौकसे उत्पन्न हुए अतिसारोंकी चिकित्सा वातातिसारके सदृश जानना ॥ तथा उसको हर्षकारक पदार्थ अथवा धीरज वढावना और वातहरणकर्त्ताक्रिया करावे ॥

पृश्निपर्ण्यादिकाढा।

पृश्निपर्णीबलाबिल्वधान्यकोत्पलनागरैः॥
विडंगातिविषामुस्तादारुपाठाकलिंगकैः॥
मरिचेनसमायुक्तंशोकातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**पृश्निपर्णी, खरेटी,वेलगिरी, धनिया, कूठ, सोंठ, वायविडंग, अतीस, नागरमोथा, दारुहलदी पाठमूल और कूडाकी छाल इनका काढा कालीमिरचका चूर्ण मिलायके पीवेतो शोकातीसार नष्ट होवे ॥

आमातिसारनिदान।

अन्नाजीर्णात्पद्रुताःक्षोभयंतः कोष्ठंदोषाधातुसंघान्मलांश्च ॥

नानावर्णंनैकशः सारयंतिशूलोपेतंषष्ठमेनंवदंति ॥

**अर्थ–**अन्नके अजीर्णसे वातादिक दोष अपने स्थानसे उठकर सब उदरको दूषित करते हुए संपूर्ण पेटमें फिरने लगते हैं, फिर रसादि सप्तधातु और पुरीषादि मल इनसे अनेक वर्णका और अनेक प्रकारका अपान द्वारा शूलयुक्त थोडा २ मल बाहर निकले उसे आमातिमार कहते हैं उसको छठा अतिसार जानना ॥

आमातिसारचिकित्साक्रम ।

आमपक्वक्रमंहित्वानातिसारेक्रियाहिता ॥
अतोतिसारेसर्वस्मिन्नामंपक्वंचलक्षयेत् ॥

**अर्थ–**आम पचन होनेके विना अतिसारपर औषध हितकारी नहीं होती अतएव सर्व अतिसारमें आम पचन हुई या नहीं हुई ये देखना चाहिये ॥

आमेपिलंघनंशस्तमादौषाचनमेवच ॥
कार्यंवानशनस्यांतेसद्रवंलघुभोजनम् ॥

**अर्थ–**आमातिसारमें लंघन और पाचन करावे अथवा लंघनके अंतमें हलके भोजन करे ॥

लंघनमेकंमुक्त्वानान्यच्चास्तीहभेषजंवलिनाम् ॥
समुदीर्णदोषनिचयंशमयतितत्पाचयत्येव ॥

**अर्थ–**आमातिसारमें लंघन और पाचन करावे किंवा लंघनके अंतमें द्रवरूप हलके भोजन करावे ॥

नतुसंग्रहणंदद्यात्पूर्वमामातिसारिणाम् ॥ दोषोह्यादौवर्धमानोजनयत्यामयान्बहून् ॥ शोफपांड्वामयप्लीहकुष्ठगुल्मोदराज्वरान् ॥ दंडकालसकाध्मानग्रहण्यर्शोगदांस्तथा॥ डिंभस्थःस्थविरस्थश्चवातपित्तात्मकश्चयः ॥ क्षीणधातुबलस्यापिबहुदोषोतिविश्रुतः ॥ आमोनस्तंभनीयःस्यात्पाचनान्मरणंभवेत् ॥ अतीसारेज्वरेचैवयस्तुपित्तेहगामये ॥ आदौनप्रतिकुर्याद्वाव्याधिवेगोहिदुस्तरः ॥

**अर्थ–**आमातिसारी रोगीको मथमही मल बांधनेवाली औषध न देवे, वर्धमान आमरूप दोष सूजन, पांडु, प्लीहा, कुष्ठ, गुल्म, उदर, ज्वर, दडक, अलसक, अफरा, संग्रहणी, बवासीर इत्यादि अनेक रोग करे है, और बालक, तथा वृद्ध इनका तथा वातपित्तात्मक और धातुक्षीण, बलक्षीण इनका अनेक दोषयुक्त आमका स्तंभन न करे, स्तंभन करनेसे रोगी मरजावे और आतिसार, ज्वर, पित्त, नेत्ररोग, और कफ, इनपर प्रथमही चिकित्सा न करे क्यों कि व्याधिका वेग दुःसह है अतएव तीन चार दिन व्यतीत होनेपर चिकित्सा करनी चाहिये ॥

धान्यकादिकाढापाचनवादीपन ।

धान्यनागरजःक्वाथ पाचनोदीपनस्तथा ॥
एरंडमूलयुक्तश्चजयेदामानिलव्यथाम्॥

**अर्थ–**धनिया और सोंठ इन दो औषधोंका काढा पीवे यह दीपन और पाचन करे है, तथा इन काढेमे अंडकी जड डालके लेवे तो आमवातको नाश करे॥

अभयाविरेचन।

स्तोकंस्तोकंविवृद्धंवासशूलंयोतिसार्यते ॥
अभयापिप्पलीकल्कैः सुखोष्णैस्तंविरेचयेत् ॥

**अर्थ–**थोडा २ किंवा बहुत शूल युक्त अतिसार होय तो उसको हरड ओर पीपल इनके कल्कका रेचन देवे ॥

विडंगादिरेचन।

दीप्ताग्निर्बहुदोषोयोविवद्धमतिसार्यते ॥
विडंगत्रिफलाकृष्णाकषायैस्तंविरेचयेत् ॥

**अर्थ–**दीप्ताग्निपुरुषको बहुत दोषयुक्त, तथा गांठदार मल उतरता है उसको वायविडंग, त्रिफला और पीपल इनके काढे करके रेचन करावै ॥

क्षुधितकाअतिसार।

क्षुत्क्षामस्यविरेकेतुपेयांयुज्याद्विचक्षणः ॥
भेषजैर्मारुतघ्नैश्चदीपनीयैश्चकल्पिताम् ॥

**अर्थ–**भूंकसे पीडित होनेसे जिसके दस्त होते हो उसकी वातनाशक दीपन ऐसी औषधोसे सिद्ध करी पेया पिलानी चाहिये ॥

देवदारुजलपान।

योतिबद्धंप्रभूतंचपुरीषमतिसार्यते ॥ तस्यादौवमनंयोज्यंपश्चाल्लंघनमेवच ॥ देवदारुवचाकुष्टंनागरातिविषाभया ॥ सर्वावजीर्णप्रशमनंपेयमेतैः शृतंपयः ॥

**अर्थ–**जिस रोगीका अति कठोर और बहुत मल उतरता हो उसको प्रथम वमन फिर लंघन फिर देवदारु, वच, कूठ, सोंठ, अतीस और हरड इनसे दूधको ओंटायकर देवे तो अजीर्णको नाश करे॥

चित्रकादिकाढा।

चित्रकंपिप्पलीमूलंवचाकटुकरोहिणी ॥ पाठावत्सकबीजानिहरीतक्योमहौषधम् ॥ एतदामसमुत्थानमतिसारंसवेदनम् ॥ कफात्मकंसपित्तंचसवातंहंतिवैध्रुवम् ॥

**अर्थ–**चीतेकी छाल, पीपरामूल, वच,कुटकी, पाढ, इन्द्रजौ, हरड, और सोंठ इनका काढा आमातिसार, कफातिसार, पित्तातिसार और वातातिसारको नाश करे ॥

विश्वादियोग।

विश्वाभयाघनवचातिविपासुराह्वाक्वाथोथविश्वजलदातिविपाशतोवा ॥

आमातिसारंशमनः क्वथितःकषायःशुंठीघनाप्रतिविपामृतवल्लिजोवा ॥

**अर्थ–**सोंठ, हरड, नागरमोथा,अतीस और देवदारु इनका । अथवा सोंठ, नागरमोथा और अतीस इनका । अथवा सोंठ, नागरमोथा, अतीस और गिलोय इनका काढा आमातिसारनाशक है ॥

पाथ्यदिकाढा।

पथ्यादारुवचामुस्तैर्नागरातिविपान्वितैः ॥
आमातिसारशूलघ्नंदीपनंपाचनंपरम् ॥

**अर्थ–**हरड, देवदारु, हलदी, वच, नागरमोथा, सोंठ और अतीस इनका काढा देवे तो आमातिसार नाश करे ॥

एरंडादिरस ।

एरंडरससंपिष्टंपक्वमामंचनागरम् ॥
आमातिसारशूलघ्नंदीपनंपाचनंपरम् ॥

**अर्थ–**अंडके रसमें भुनी हुई और कच्ची सोंठको पीसके देवे तो आमातिसार और शूलको नाश करेयह दीपन और पाचन है॥

शुंठ्यादिचूर्ण।

शुंठीप्रतिविपाहिंगुमुस्ताकुटजचित्रकैः ॥
चूर्णमुष्णांबुनापीतमामातीसारनाशनम्॥

**अर्थ–**सोंठ, अतीस, भुनी हींग, नागरमोथा, इन्द्रजौऔर चीतेकी छाल इनका चूर्णकर चौगुने गरम पानीमें पीवे तो आमातिसार नाश होवे ॥

दूसराहरीतक्यादिचूर्ण ।

हरीतकीप्रतिविषासिंधुसौवर्चलंवचा ॥
हिंगुचेतिकृतंचूर्णंपिवेदुष्णेनवारिणा ॥
आमातिसारशमनंग्राहिचातिप्रबोधनम् ॥

**अर्थ–**छोटीहरड, अतीस, सैंधानिमक, संचर निमक, वच और भुनी हींग इन छः औषधोंका चूर्ण गरम जलके साथ पीवे तो आमातिसार दूर होवे तथा मलका अवष्टंभ होकर अग्नि प्रदीप्त होवे ॥

शुंठीपुटपाक ।

चूर्णंकिंचित्घृताभ्यक्तंशुंठ्याएरंडजैर्दलैः ॥ वेष्टितंपुटपाकेनविपचेन्मंदवह्निना ॥ ततउद्धृत्यतच्चूर्णंग्राह्यंप्रातः सितासमम् ॥ तेनयातिशमंपीडाह्यामातीसारसंभवा ॥कुक्षिशूलामशूलघ्नंविबंधाष्मानसारजित् ॥

**अर्थ–**सोंठके चूर्णको थोडेसे घीसे चुपड अंडके पत्तोंसे लपेट फिर ऊपर गोबर मिट्टीका लेपकर मंदाग्निसे पचावे, फिर बराबरकी खांड मिलाय प्रातः कालमें खायतो आमातिसार दूर होवे, तथा आमातिसार संबंधी सर्व पीडा नाश हो और कूखका शूल, आमशूल, मलबद्धता, पेटकाफूलना तथा अतिसारको नाश करे॥

दूसराशुंठ्यादिचूर्ण।

शुंठीजीरंसैंधवंहिंगुजातिबीजतद्वत्साहकारंप्रशस्तम् ॥ ज्ञेयंसद्भिः सावरूढंसबिल्वंमार्कंड्यावाशोधितंसूक्ष्मचूर्णम् ॥ दध्नाचवटिकांकुर्यात्तेनैवसहलेहयेत् ॥ आमातिसारंमांद्यंचअरुचिंहंतितत्क्षणात्॥

**अर्थ–**सोंठ, जीरा, सैंधानिमक, हींग, जायफल, आमकी गुठली, वेलगिरी, खाखसेके पत्र इनको बारीक कपडछान चूर्ण कर उसको दहीॆसे गोली बनावे और दहींसे खाय तो तत्क्षण आमातिसार, मंदाग्नि और अरुचि दूर होवे ॥

तीसराशुंठ्यादिचूर्ण ।

सत्वाशुंठ्योपणंभृंगीसमांशंसूक्ष्मचूर्णकम् ॥ यथासात्म्यंसेवनीयंशीततोयानुपानतः॥ सशूलममदोषंचनाशमायातिसत्त्वरम् ॥ दध्योदनंपथ्यमात्रमुचितंरोगशांतये॥

**अर्थ–**सोंठका सत्व, कालीमिरच, भांग, ए समान भाग ले चूर्ण करे। इसको शीतल जलके साथ सेवन करे तो शूल, आमातिसार, इनको शीघ्र दूरकरे इसपर दहीभात पथ्य कहाहै ॥

साखरुंडचूर्ण।

जयाखंडंसाखरुंडंजीरकंदधिमिश्रितम् ॥
आमातिसारंरक्तंचहंतिवेगेनकौतुकम् ॥

**अर्थ–**भांग, मिश्री, साखरुंड, जीरा और दही, ये एकत्र करके पीवे तो आमातिसार और रक्तातिसारका बहुत जल्दी नाश करे यह कौतुक है ॥

यवान्यादिकाढा।

यवानीनागरोशीरधनिकातिविपाधनैः॥
बालबिल्वद्विपर्णीभिर्दीपनंपाचनंभवेत् ॥

**अर्थ–**अजवायन, सोंठ, खस, धनिया, अतीस, नागरमोथा, वेलगिरी सालपर्णी और पृष्ठपर्णी, इनका काढा दीपन और पाचन है ॥

कलिंगादिकाढा।

कलिंगातिविपाहिंगुपथ्यासौवर्चलंवचा ॥
शूलस्तंभविबंधघ्नंपेयंदीपनपाचनम् ॥

**अर्थ–**इन्द्रजौ, अतीस हींग, हरड, कालानिमक और वच, इनका काढा शूल, स्तंभता, मलका रुकना,इनको दूर करे यह दीपन और पाचन है ॥

त्रिकंटादियवकांजी।

त्रिकंटकैरंडबिल्वैः साधितंयावकांजिकम् ॥
आमातिसारशूलानिजयेत्क्षौद्रान्विताशिवा ॥

**अर्थ–**गोखरू,अंडकीजड, वेलगिरी, ए वस्तु डालके जवोंकी कांजी बनावे यह आमातिसार, शूल, इनका नाश करे अथवा शहत और हरड देवे तो आमातिसार दूर हो ॥

शोपपरह्रीवेरादिकाढा।

ह्रीवेरशृंगवेराभ्यांमुस्तापर्पटकेनच ॥
मुस्तोदीच्यशृतंतोयंदेयंवापिपिपासिते ॥

**अर्थ–**नेत्रवाला, अदरख, नागरमोथा, भद्रमोथा, खस इनका काढा प्यासवालेको देवे ॥

त्र्यूपणादिचूर्ण।

त्र्यूपणातिविपाहिंगुवचासौवर्चलाभया ॥
पीतोष्णेनांभसादद्यादामातीसारमुत्तमम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, मिरच, पीपल, अतीस, हींग, वच, कालानिमक और हरड इनका चूर्ण गरम जलके साथ देवे तो घोर आमातिसारको नष्ट करे॥

पाठादिचूर्ण।

पाठाहिंग्वाजमोदोग्रापंचकोलाब्दजंरजः॥
उष्णांबुपीतंसरुजंजयत्यामंससैंधवम् ॥

**अर्थ–**पाठ, हींग, अजमोद, वच, पीपल, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ और नागरमोथा इनके चूर्णमें सैंधानिमक मिलाय गरम जलसे देवे तो पीडायुक्त आमरोगको नाश करे ॥

पयमुस्तायोग।

पयसिक्वाथ्यमुस्तानांविंशतिस्त्रिगुणांभसि ॥
क्षीरावशेषंतत्पीतंहंत्यामंशूलमेवच ॥

**अर्थ–**दूध १ भाग, जल ३ भाग और नागरमोथेका काढा २० भाग, सबको एकत्रकर औटावे जब केवल दूध मात्र शेष रहे तव प्यावे यह आम और शूल इनका नाश करे ॥

आमपक्वातिसारलक्षण।

संसृष्टमेभिर्दोषैस्तुन्यस्तमप्स्ववसीदति ॥ पुरीषंभृशदुर्गंधिपिच्छिलंचामसंज्ञितम् ॥ एतान्येवंतुलिंगानिविपरीतानियस्यवै॥ लाववंचविशेषेणतस्यपक्वंविनिर्दिशेत् ॥

**अर्थ–**पूर्वोक्त कहे हुए वातादिक अतिसारोंके लक्षणों करके युक्त ऐसा मल जलमें गेरनेसे आम भारी है अतएव डुवजावे, तथा उसमें अत्यंत दुर्गंध आवे, और चिकना होवे उसकी आमसंज्ञा है । इससे विपरीत लक्षणवाला और शरीरमें अत्यंत हलकापन होवे उस मनुष्यका मल पक्वजानना इस प्रकार वैद्यको आम और पक्वमलकी परीक्षा करना चाहिये ॥

असाध्यलक्षण ।

पक्कजांबवसंकाशंयकृत्पिंडनिभंतनु ॥ धृततैलवसामज्जावेसवारपयोदधि ॥ मांसधावनतोयाभंकृष्णंनीलारुणप्रभम् ॥ मेचकंकर्वुरंस्निग्धंचंद्रिकोपगतंधनम् ॥ कुणपंमस्तुलिंगाभंदुर्गंधंकुथितंबहु ॥ तृष्णादाहारुचिश्वासहिक्काापार्श्वास्थिशूलिनम् ॥ संमूर्च्छारतिसंमोहयुक्तपक्ववलीगुदम् ॥ प्रलापयुक्तंचभिषग्वर्जयेदतिसारिणम् ॥

**अर्थ–**जिस रोगीका मल-पकीहुई जामुनके सदृश हो, कलेजेके रंग समान तथा घी, तेल, वसा, मज्जाइनके समान, वेसवार ( मसाले) के पानीके समान, दूध, दही, मांस धोनेके जल समान, काजलके समान काला नीला, ललोही लिये, मृदंगकी स्याहीके समान, अनेक प्रकारके रंगका, चकचकाहट लिये, मोरपंखके ऊपर जैसे अनेक प्रकारके रंग हो ऐसा दस्तका रंग हो, गाढा मुर्दे कीसी दुर्गधवाला, मस्तक्से मेदनिकले एसा हा, दुर्गंधयुक्त, बहुत ऐसा मल गिरे और रोगीको प्यास, दाह, अन्नद्वेष, श्वास,हिचकी, पसवाडेके हाडोंका दुखना मनको मोह, वेकली ये लक्षण है वे और गुदाकी वली (आंटें) पफजावे तथा वकबाद करे ऐसा अतिसार रोगी वैद्यको त्याज्य है॥

दूसराअसाध्यलक्षण।

असंवृत्तगुदंक्षीणंदुराध्मानमुपद्रुतम्4
गुदेपक्वेगतोष्माणमतिसारिणमुत्सृजेत् ॥

**अर्थ–**जिस रोगीकीगुदा दस्त होनेके पश्चात् मूँदे नहीं, ऐसा क्षीणहुआ अत्यंत अफरा करके और सूजन इत्यादि उपद्रवों करके युक्त तथा गुदाके ऊपर छोटी २ फूंसी हो कर पके तथा जिसके देहमें गरमी न रहे अथवा जठराग्नि शांत हो जावे ऐसे अतिसाररोगीको वैद्य त्याग देवे ॥

अतिसारकेउपद्रव ।

शोथंशूलंज्वरंतृष्णांश्वासंकासमरोचकम् ॥
छर्दिंमूर्च्छांचहिक्कांचदृष्ट्वातीसारिणंत्यजेत् ॥

**अर्थ–**सूजन, शूल, ज्वर, प्यास, श्वास, खाँसी, अरुचि, वमन, मूर्च्छाऔर हिचकी इनको देखकर वैद्य अतिसारवाले रोगीको त्याग देवे ॥

असाध्यलक्षण।

श्वासशूलपिपासार्तंक्षीणंज्वरनिपीडितम्॥
विशेषेणनरंवृद्धमतिसारोविनाशयेत् ॥

**अर्थ–**श्वास, शूल, प्यास, कृश और ज्वरसे पीडित ऐसे उपद्रवों करके युक्त बढाहुआ अतिसार रोग रोगीका नाश करे है ॥

लोध्रादिचूर्ण।

सलोध्रंधातकीबिल्बंमुस्ताम्रास्थिकलिंगकम् ॥
पिबेन्माहिपतक्रेणपक्वातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**लोधपठानी, धायके फूल, वेलगिरी, नागरमोथा, आमकी गुठली, इन्द्रजौइनके चूर्णको भैसकी छाँछके साथ पीचे तो पक्वातिसार दूर हो ॥

पद्मादिचूर्ण।

पद्मंसमंगामधुकंबिल्बजंतुशलाटुच ॥
पिबेत्तंडुलतोयेनसक्षौद्रमगदंकरम् ॥

**अर्थ–**पद्माख, मुलहटी, महुआ, वेलगिरी, हरे और कोमल गूलर इन सबके चूर्णको चावलोंके चूर्णके जलमें सहत डालके पीबे तो पक्वातिसार दूर होवे ॥

कुटजादिचूर्ण।

कुटजातिविषाचूर्णंमधुनासहलेहितम् ॥

चिरोत्थितमतीसारपक्वंपित्तास्रजंजयेत् ॥

**अर्थ–**कूडाकी छाल, अतिस इनके चूर्णमें सहत मिलायके चाटे तो बहुत दिनका अतिसार, पक्वातिसार और रक्तपित्त इन सबको दूर करे ॥

अंबष्ठादिगण।

अबंष्ठाधातकीलोध्रसमंगापद्मकेसरम् ॥
मधुकारतुबिल्बंचपक्वातीसारहागणः॥

**अर्थ–**पाढ, धायकेफूल, लोध, मँजीठ, कमलकी केशर, मुलहटी, टेंटूऔर वेलगिरी इनका चूर्ण अथवा काढा पक्वातिसारको नाश करे ॥

समंगादिचत्वारिचूर्ण।

समंगाधातकीपुष्पंमंजिष्ठालोध्रएवच ॥ शाल्मलीवेष्टकोलोध्रदाडिमद्रुफलत्वचौ ॥ आम्रास्थिमध्यंलोध्रंचबिल्बमध्यंप्रियंगुच ॥ मधुकंशृंगबेरंचदीर्घवृंतत्वगेवच ॥ चत्वारएतेयोगाश्चपक्वातीसारनाशनाः॥ तेयोगाउपयोज्यावैसुक्षौद्रास्तंडुलांबुना ॥

**अर्थ–**लजालू, धायकेफूल,मँजीठ और लोध, अथवा मोचरस, लोध,अनारदाना, अनारकी छाल, अथवा आमकी गुठली, लोध, वेलगिरी और फूलप्रियंगु, अथवा मुलहटी, अदरख, अरलू और दालचीनी ये चार योग इनमेंसे कीसीएक योगको चावलोंको धोवनमें सहत मिलाय उसके साथ पीबेतो पक्वातिसार नष्ट होवे॥

कंचटादिचूर्ण।

कंचटजंबूदाडिमशृंगाटकपत्रबिल्वबर्हिष्ठम् ॥ जलधरनागरसहितंगंगामपिबेगवाहिनीरुंध्यात्॥

**अर्थ–**गजपीपल, जामुनकेपत्ते, अनारकी छाल , सिंघाडेके पत्ते , वेलगिरी, नेत्रवाला, नागरमोथा और सोंठ इनको समान भाग ले चूर्ण करके पोवे तो गंगाके प्रवाह समान भी दस्तोंको रोकै ॥

अंकोटकल्क ।

अंकोटमूलकल्कस्तंडुलपयसासमाक्षिकःपीतः॥
सेतुरिववारिवेगंझटितिनिरुंध्यादतीसारम् ॥

**अर्थ–**अंकोलकी जडकेकल्ककी चावलोंके धोवनमें सहत मिलायकेपीबे तो जैसे नदीके वेगको सेतु ( मैड) रोक देता है उसी प्रकार अतिसारको यह रोग बंदकर देता है ॥

मोचरसादिचूर्ण।

मोचरसमुस्तानागरपाटारलुधातुकींकुसुमैः ॥
चूर्णंमाथितसमेतंरुणद्धिगंगाप्रवाहमपि ॥

**अर्थ–**मोचरस, नागरमोथा, सोंठ, पाढ, अरलू और धायके फूल, इनको समान भागले चूर्ण करे फिर इसमेंसे१ तोले गौकी छाँछके साथ पीबे तो यह गंगाके वेगसमान अतिसार रोगको दूर करे ॥

मुस्तादिचूर्ण ।

मुस्तमोचरसलोध्रधातुकिपुष्पबिल्बगिरिकोटजैःफलैः॥
चूर्णितंसगुडतक्रसेवितंनिम्नगाजलरयोपिरुध्यते ॥

**अर्थ–**नागरमोथा, मोचरस,लोध, धायके फूल, वेलगिरी इन्दजौ इनके चूर्णको छाँछ और उसमें गुड मिलायके पीवे तो नदीकेवेगको भी बंद करें फिर दस्तोंका बंद करना क्या बडी बात है ॥

विश्वादिवटी।

विश्वजीरकसिंधुत्थहिंगुजातिफलानिच ॥ साम्रास्थिशंखंखंडंचदध्नाम्लेनप्रपेषयेत् ॥ ईषदंगारकैर्भ्रष्टावटिकाकर्पसंमिता ॥ पक्वापक्वमतीसारंसशूलंग्रहणीगदम् ॥ चिरोत्थमचिरोत्थंचनाशयेन्नात्रसंशयः॥

**अर्थ–**सोंठ, जीरा, सैंधानिमक, हींग, जायफल, आमकी भीतरकी गुठली शंखका टुकडा इन सबको खट्टे दहीस घोटे फिर अंगारोंपर कुछ थोडी भून लेबे फिर एक २ तोलेकी मोलियाँ बनावे १ गोली नित्य सेवन करे तो पक्वातिसार शूल, संग्रहणी ये रोग बहुत दिनके अथवा नए हो सबका नाश होवे ॥

वटप्ररोहयोग।

वटप्ररोहंसंपिष्ट्वाश्लक्ष्णंतंडुलवारिणा ॥
तंपिबेत्तक्रसंयुक्तमतिसारप्रशांतये ॥

**अर्थ–**चावलके धोवनके जलमेंवडके नवीन अंकुरोंको पीस छाँछ मिलायके अतिसार नाशके अर्थ देवे ॥

कुटजावलेह।

कुटजत्वक्तुलामार्दांद्रोणाद्भिश्चपचेद्भिषक् ॥ पादशेषंशृतंनीत्त्वावस्त्रपूतंपुनः पचेत् ॥ लज्जालुर्धातुकीबिल्वंपाठामोचरसस्तथा ॥ मुस्तंप्रतिविपाचैवचूर्णमेषांपलंपलम् ॥ निक्षिप्यप्रपचेत्तावद्यावद्दर्वीप्रलेपनम्॥ जलेनछागदुग्धेनपीतोमंडेनवाजयेत् ॥ घोरान्सर्वानतीसारान्नानावर्णान्सवेदनान् ॥ असृग्दरंसमस्तंचतथार्शासिप्रवाहिकाम् ॥

**अर्थ–**गीलीकुडाकी छाल ४०० चारसो तोले, जल १०२४ तोले लेकर काढा करे।जब चतुर्थांश वाकी रहे तब उतारके छान लेवे, उसमें लजालूका कंद, धायके फूल, वैलगिरी, पाढ, सेमकागोंद, नागरमोथा, और अतीस प्रत्येक चार चार तोले लेकर चूर्ण करके उस काढेके जलमें मिलाय देव, फिर उसको अग्निपर चढायके औटावे जब कलछीसे लिपटने लगे तब इसको उतारके किसीपात्रमें भरके धर देवे, उसको जलसे अथवा वकरीके दूधसे, अथवा भंडसे देय तो घोर और अनेक वर्णके सर्व अतिसार, शूल, रक्तप्रदर, अर्श और प्रवाहिका इनको नाश करे ॥

रालयोग।

चिरोत्थितमतीसारंरालोहन्यात्सितायुतः॥

**अर्थ–**रालकेचूर्णको मिश्रीसे मिलायके फंकी लेवे तो बहुतदिनके अतिसार रोगको नाश करे ॥

नाभौक्षेपणीय।

कृत्वालवालंसुदृढंपिष्टैरामलकैर्भिषक् ॥ आर्द्रकस्वरसेनाशुपूरयेन्नाभिमंडलम् ॥ नदीवेगोपमंघोरंप्रवृद्धंदुर्जरंनृणाम् ॥ वृद्धातिसारमजयंनाशयत्येषयोगराट्॥

**अर्थ–**रोगीके नाभिके चारों तरफ आमकै चूर्णसे थामलासा बनायके उसमें अदरखका रस भर देवे और रोगीको उसी तरहसे ४ घडी पर्यंतलेटारहनेदे तौनदीके वेग समान घोर बढा हुआ दुर्जय अतिसारको यह योगराज नाश कर दे ॥

पाठादियोग।

पाठापिष्टाचगोदध्नातथामध्यत्वगाम्रजा ॥

अतिसारंव्यथादाहयुक्तंहंत्युदरेधृता॥

**अर्थ–**पाढकी जडको अथवा आमके भीतरकीछालकोदहीसे पीसके पेटपर रखनेसे दाहयुक्त अतिसारकी पीडाको नाश करे ॥

जातीफलादियोग ।

जातीफलंनागरसर्जकेनौखर्जूफलंभिन्नमिदंचनित्यम् ॥ योज्यंद्विनिष्कंचकरीपजातादरण्यजाद्भस्मसमंचसर्वैः ॥ निष्कार्धमात्रंभिषजाप्रयोज्यंद्विवारमेतच्छुभतंदुलोदकैः ॥
जीर्णातिसारेरुधिरामयुक्तेहितः सशूलेबहुवेगयुक्तम् ॥

**अर्थ–**जायफल, सोंठ, राल, केनावृक्षकी छाल और छुहारा ये प्रत्येक छः छः मासे लेवे सबका चूर्ण करे सब चूर्णके बराबर आरने उपलोंकी राख लेवे सबको एकत्र कर १॥ डेढ मासे चावलोंके धोवनके साथ दिनमें दोबार देवे तो जीर्णातिसार, रक्तातिसार, आमातिसार, और शूल इन रोगोंपर यह चूर्ण हितकारी है ॥

रक्तातिसारनिदान।

पित्तकृंतियदात्यर्थंद्रव्याण्यश्नातिपैत्तिके॥
तदोषजायतेभीक्ष्णंरक्तातीसारउल्बणः ॥

**अर्थ–**पित्तातिसार होनेस अथवा होनेवाला हो,उस समय यदि पित्तकारी पदार्थ बहुत और निरंतर भोजन करे तो बडाभारी घोर रक्तातिसार उत्पन्नहोवे उसके लाल और काले रंग आदिसे वातादि दोष जानने कोई आचार्य इसप्रकार कहते हेैं कि , तक्तजभी अतिसार हैं परन्तु यदि सातवा मानोंगे तो षट्संख्यामें विरोध आताहै इसवास्ते पैत्तिकका एक अवस्थाभेद है ऐसा मान लियाहै ॥

यष्ट्यादिकाढा।

यष्टीमधुसितालोध्रंमधुकंनीलमुत्पलम् ॥
अजाक्षीरेणक्वथितंरक्तातीसारशांतये ॥

**अर्थ–**मुलहटी, मिश्री, लोध, महुआ और नीलकमल, इनका बकरीके दूधमें काढा करके देवे तो रक्तातिसार शांत होवे ॥

कुटजादिकाढा।

कुटजातिविपामुस्ताबालकंलोध्रचंदनम् ॥ धातकीदाडिमंपाठाक्वाथंक्षौद्रयुतंपिबेत् ॥ दाहेरक्तेचशूलेचआमरोगेचदुस्तरे ॥ कुटजाष्टमिदंख्यातंसर्वातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**कुडाकीछाल, अतीस, नागरमोथा, नेत्रवाला, पठानी लोध, रक्तचं दन, धायक फूल और पाठ, इनके काढेमें सहत मिलायके पीवे तो दाह, रक्तशूल, आम और सर्वातिसार इनको नष्ट करे इसको कुटजाष्टक कहतेहैं॥

वत्सकादिकाढा ।

सवत्सकः सातिविषः सबिल्वः सोदीच्यमुस्तश्च कृतः कषायः ॥ सामेसशूलेचसशोणितेचचिरप्रवृत्तेपिहितोतिसारे ॥

**अर्थ–**कूडाकी छाल, अतीस, वेलगिरी, नेत्रवाला और नागरमोथा इनका काढा आमसंबंधी शूल,रक्तातिसारऔर बहुतदिनका अतिसार इनपर हितकारीहै॥

तंदुलजलयोग।

लघुचेतकिजीरकेसमेमृदुभृष्टेसुचूर्णितेपीते ॥
सहतंदुलवारिणामतोतिसृतिघ्नइतिप्रसिद्धयोगः ॥

**अर्थ–**जंगीहरड और जीरे दोनो समान भाग लेवे दोनोंको कुछ२ भून लेवे फिर चूर्णकर चावलके जलसे पीबे तो अतिसारका नाश करे यह सिद्धयोग अर्थात् सिद्धपुरुषोंका कहा हुआ है ॥

दाडिमादिकाढा।

अयिकंदुकतिंदुकस्तनिप्रमदारूपमदापहारिणि ॥

रुधिरातिसृतौकषायकः समधुदाडिमवत्सकत्वचः॥

अर्थ– हे कंदुकतिंदुकस्तति ! हे, प्रमदारूपसदाप्रहारिणि ! अनारकी छाल और कूडाकी छाल इनके काढेमें सहत मिलायके दवे तो रक्तातिसारका नाश होवे॥

चंदनादियोग।

चंदनंविमलतंदुलांबुनासंयुतंमधुयुतंसितायुतम् ॥
तृड्विखंडनमसृग्विखंडनंखंडनंप्रचुरदाहमोहयोः ॥

**अर्थ–**चावलोंके धोवनमें चंदनको मिलायके उसमें सहत और मिश्री मिलायके देवे तो तृषा, रक्तातिसार, दाह और मोह इनको नाश करे॥

ह्रीवेरादिकाढा।

ह्रीवेरातिविपामुस्ताबिल्वधान्यकवत्सकम् ॥ समंगाधातकीलोघ्रंविश्वंदीपनपाचनम् ॥ हंत्यरोचकपिच्छामविबंधंचातिवेदनम् ॥ सशोणितमतीसारंसज्वरंवाथविज्वरम् ॥

**अर्थ–**नेत्रवाला, अतीस, नागरमोथा, वेलगिरी, धनिया, कूडाकी छाल, मँजीठ, धायकेफूल, लौंग और सोंठ, इनका काढा देवे तो यह दीपन और पाचन है, तथा अरुचि, आम, बद्धकोष्ठ, शूल, रत्तातिसार, सज्वर, अथवा गतज्वर, अतिसार इनको नाश करे ॥

बिल्वादियोग।

बिल्वंछागपयःसिद्धंसितामोचरसान्वितम् ॥
कलिंगचूर्णसंयुक्तंरक्तातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**बेलगिरीको भेडके दूधमें औटावे, फिर इसमें मिश्री और मोचरस तथा इन्द्रजौके,चूर्णको मिलायके पीबे तो रत्तातिसार नाश होवे ॥

कलिंगयवषट्क ।

सहरीतकीप्रतिविपारुचकंसहिंगुसकलिंगयुतम् ॥
इतितत्कलिंगयवपटूकमिदंरुधिरातिसारगदशूलहरम् ॥

**अर्थ–**हरड, अतीस, संचरनिमक, हींग, कुडाकी छाल और इन्द्रजौ इनका काढा अथवा चूर्ण रक्तातिसार, शूल,इनका नाश करे इसको कलिंगयवषट्ककहते हैं ॥

कुटजक्षीर।

निःक्वाथ्यमूलममलंगिरिमल्लिकायाःसम्यक्पलंद्वितयमंबुचतुः शरावे ॥ तत्पादशेषसलिलंखलुशोपणीयंक्षीरेपलद्वयमितेकुशलैरजायाः ॥
प्रक्षिप्यमापकानष्टौमधुनस्तत्रशीतले ॥
रक्तातिसातित्पीत्वानैरुजत्वमवाप्नुयात् ॥

**अर्थ–**कूडाकी जड़की छाल ८ तोलेको लेकर, १०० सौ तोले जलमें औटाय कर काढा करे चतुर्थांश रहने पर उतार लेबे, और छान ले फिर दूसरे पात्रमें भर चूल्हेपर चढाबे और इसमें ८ आठतोले बकरीका दूध डालके औटावे जब खूब औटा जावे तब उतारके शीतल कर लेवे फिर इसमें आठमासे शहत मिलायके पीवेतो रक्तातिसारोइसको पीकर शीघ्र निरोगी होवे ॥

रसांजनादिचूर्ण।

रसांजनंसातिविषंकुटजस्यफलत्वचम् ॥
धातकीशृंगबेरंचपिबेत्तंदुलवारिणा ॥
क्षौद्रेणयुक्तंनुदंतिरक्तातीसारमुल्बणम्॥

**अर्थ–**रसोत, अतीस, कूडाकी छाल,धायके कूल और सोंठ इनके चूर्णको शहत मिले चावलोंको धोवनके साथ मिलायके पीवे तो रक्तातिसार दूरहोवे॥

कुटजावलेह।

कुटजस्यपलंग्राह्यमष्टभागजलेभृतम् ॥ तथैवाद्भिःपचेद्भूयोदाडिमोदकसंयुतम् ॥ कुटजक्वाथतुल्योत्रदाडिमस्यरसोमतः॥ यावच्चरसिकाभासंमृतंतमुपकल्पयेत् ॥ तस्यार्धंकर्पतक्रेणपिबेद्रक्तातिसारवान् ॥ अवश्यंमरणीयोपिनमृत्युर्यातिगोचरम्॥

**अर्थ–**कूडाकी छाल १ पल लेकर ८ पल जलमें अष्टावशेष काढा करे फिर जितना कूडाका काढ़ा होवे उतनाही अनारका रस लेवे दोनोंको मिलायके फिर औटावे जब गाढा हो जावे तब उतार लेवे, शीतल होनेपर इसमें छःमासे छाँछके साथ रक्तातिसारीको देवे तो अवश्य मरनेवाला रोगीभी वचजावे ॥

सल्लक्यादिस्वरस।

सल्लकीबदरीजंबूप्रियाल्वाम्रार्जुनत्वचः॥
पीताःक्षीरेणमध्वाढ्याः पृथक्शोणितनाशनाः ॥

**अर्थ–**हरफारेवडी, बैर, जामुन, चिरोंजी, आम और कोह इनके वृक्षोंमेंसे किसी एफ वृक्षकीछालको दूधमें पीसके और शहत मिलायके पीबे तो रक्तातिसार नाशक होवे॥

जंब्वादिअंगरस ।

जंब्वाम्रमलकीनांचपल्लवोत्थोरसोजयेत् ॥
मध्वाज्यक्षीरसंयुक्तोरक्तातीसारमुल्बणम् ॥

**अर्थ–**जामुन, आम, और आनले इनमेंसे किसीएककेपत्तोंकारस शहतघीऔर दूधके साथ पीबे तो घोर रत्तातिसार दूर होवे ॥

गुडबिल्वयोग।

गुडेनखादयेद्विल्वंरक्तातीसारनाशनम् ॥

आमशूलविबंधघ्नंकुक्षिरोगविनाशनम् ॥

**अर्थ–**वेलगिरीको गुडके साथ मिलायके खाय तो रक्तातिसार, आमका शूल, विबंध और कूखके रोग इन सबको दूर करे ॥

शतावरीकल्क ।

पीत्वाशतावरीकल्कंपयसाक्षीरभुग्जयेत् ॥
रक्तातिसारंपीत्वावातथासिद्धंघृतंनरः॥

**अर्थ–**शतावरीके कल्कको दूधके साथ पीकर ऊपर दूधकाही पथ्य करे अथवा शतावर करके सिद्ध घृतकोही पीबे तो अतिसार दूर होवे ॥

तिलादिकल्क।

कल्कस्तिलानांकृष्णानां शर्कराढ्यश्चभागिकः॥
आजेनपयसापीतः सद्योरक्तंनियच्छति ॥

**अर्थ–**काले तिलोंके कल्कमें एकभाग मिश्री मिलाय बकरीके दूधसे पीबे तो तत्काल रुधिरका गिरना बंद होवे ॥

नवनीतावलेह ।

गोदुग्धंनवनीतंतुमधुनासितयासह ॥
लीढंरक्तातिसारेपुग्राहिकंपरमंमतम् ॥

**अर्थ–**गौका दूध, और गौका मक्खन इनको सहत और मिश्रीके साथ मिलायके पीबेतो रक्तातिसारको दूर करे ॥

शाल्मलिपुष्पयोग।

शाल्मलेरार्द्रपुष्पाणिपुटपाककृतानिच ॥ संकुट्योलुखलेत्तस्यगृह्णीयात्पयसिश्रिते ॥ गृहीत्वाचपलंतस्यत्रिफलंघृततैलयोः॥ युक्तंमधुककल्केनमाक्षिकत्रिफलेनच ॥युक्तस्तुवपुषोदद्याद्वस्तोप्रत्यागतेरसे ॥ भोजयेत्ययसावापिपित्तातीसारपीडितम् ॥

**अर्थ–**सेमरके गीले फूल लेकर पुटपाकविधि पचायके फिर उनको खरलकर कूट गरम दूधमें १ पल रस मिलायके पीबे तथा उसमें घृत और तेल १२ तोले तथा मुलहटीका कल्क१२ तोले, सहत बारह तोले, ये सर्व मिलायके देव जव यह रसबस्तीमें आन पहुँचे तव दूधभात भोजन करावे ॥

गुदपाक।

विरेकैर्बहुभिर्यस्यगुदंपित्तेनदह्यते ॥
पच्यतेवातयोः कार्यंसेकप्रक्षालनादिकम् ॥

**अर्थ–**जिसकी गुदा बहुत दस्तोंके होनेसे पित्त करके जलने लगे अर्थात् चिनचिनावे लगे अथवा पकजावे उसको सेचन अथवा शीतल जलसे धुलानी चाहिये॥

पटोलादिकाढागुदक्षालनार्थ ।

पटोलयष्टिमधुकक्वाथेनाशिशिरेणहि ॥
गुदप्रक्षालनंकार्यंतेनैवगुदसेचनम् ॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, मुलहटी और महुआकी छाल इनका शीतल काढा कर के उससे गुदापर तरडा देवे अथवा इस काढेसे धोवे तो गुदका पाक और पीडा होना शांति होवे ॥

गुदक्षालनार्थजल।

दाहेपाकेहितंछागीदुग्धंसक्षौद्रशर्करम् ॥
गुदस्यक्षालनेसेकेयुक्तंपानेचभोजने ॥

**अर्थ–**गुदामें दाह अथवा गुदापाक होनेसे वकरीके दूधमें सहत और चीनी मिलायके गुदाका प्रक्षालनकरे अर्थात् धोवेसेचन पान (पीवे ) और भोजन करे तो गुदाका बिकार दूर हो॥

चांगेरीघृत ।

गुदनिःसरणेशस्तंचांगेरीघृतमुत्तमम् ॥
अतिप्रवृत्त्यामहतीभवेद्यदिगुदव्यथा॥
स्विन्नमूषकमसिनतथासंस्वेदयेद्गुदम् ॥

**अर्थ–**गुदभ्रंश अर्यात् कांछ निकल आई होवे तो इसपर चांगेरीघृतसेबन उत्तम है यदि कांछ अधिक वाहर निकलनेसे अत्यंत पीडा होती होवे तो मूसे (चूह ) के मांसको अग्निपर सेककर गुदाको सेके तो गुदाको पीडा शांति हो ॥

मूषकमांसस्वेद।

स्वेदोथमूषिकामांसैस्तद्वत्सामृक्षणंतथा ॥ शंबूकमांसंसुस्विन्नंसतैललवणान्वितम् ॥ ईषद्धस्तेनचाभ्यक्तंस्वदयेत्तेनयत्नतः ॥ गुदभ्रंशमशेषेणनाशयेत्क्षिप्रमेवच ॥

**अर्थ–**गुदभ्रंश अर्थात् कांछ निकलनेसे मूसके मांसका बफारा देवे, अथवा उस मांसको गुदाके ऊपर बांधे, उसीप्रकार छोटे शंखका मांस सिजायके उसमें तेल और निमक मिलाय गुदापर तेल लगायके उसमांससे सेक करावे तो निःशेष पीडा तत्काल दूर होवे ॥

गोधूमचूर्णस्वेद।

अथगोधूमचूर्णस्यस्विन्नितस्यतुवारिण
साज्यस्यगोलकंकृत्वामृदुसंस्वेदयेद्गुदम् ॥

**अर्थ–**गेहूंके भीतरके रवाको जलमें भिगोय देवे, जब भीगजावे तव घी मिलाय गीला करके उसको भूनलेवे, फिर उस गोलेको निकालके उस्से सुहाता २सेक करे तो गुदाकी पीडा शांति होवे ॥

गुदांतप्रवेशन।

गुदभ्रंशेगुदंस्नेहैरभ्यज्यातः प्रवेशयेत् ॥
प्रविष्टंस्वेदयेन्मंदंमूषकस्यामिपेणहि ॥
गुदभ्रंशाभिधोव्याधिःप्रणश्यतिनसंशयः॥

**अर्थ–**कांछ निकलआई होवे तो उसपर तेल चुपडके धीरे २ भीतरी घुसेडे फिर मूसेके मांससे धीरे २ सेंकेतो गुदभ्रंश (कांछका निकलना ) दूर होवे इसमें संशय नहीं है ॥

चांगेरीघृत।

चांगेरीकोलदध्यम्लक्षारनागरसंयुतम् ॥
घृतंविपक्वंपातव्यंप्रणश्यतिनसंशयः॥

**अर्थ–**चूका, बेर दही, नींबू, जवाखार और सोंठ, इनके काढेमें घी डालके घृतपाककी विधिसे पचावे जब सिद्ध हो जावे तब उतारके धर रक्से फिर इसमेंसे सेवन करे तो गुदभ्रंश रोगका नाश होय इसमें संदेह नहीं है ॥

कमलपत्रभक्षण।

कोमलंपद्मिनीनीपत्रंयः खादेच्छर्कराविन्वतम् ॥

एतन्निश्चित्यनिर्दिष्टंनतस्यगुदनिर्ग

**अर्थ–**कोमल कमलके पत्तोंको खांडमें मिलायके सेवन करे तो उसकी गुदा कदाचित् बाहर नहीं निकले यह निश्चय करके कहा है ॥

ज्वरातिसारचिकित्साक्रम।

ज्वरातिसारयोरुक्तंभेषजंत्पृथक्पृथक् ॥
नतन्मीलितयोः कार्यमन्योन्यंवर्धयेद्यतः ॥

अतस्तौप्रतिकुर्वीतविशेषोक्तचिकित्सितैः॥

**अर्थ–**ज्वर और अतिसार इनपर जो पृथक् २ औषधी कही है उनको मिलायके ज्वरातिसारपर उपचार कदाचित् नकरे यदि अज्ञानसे मिलायके देवे तो वो औषध ज्वर और अतिसार दोनोंको परस्पर बढाती है इसीसे ज्वरातिसारपर विशेष क्रिया जो कही है वही करना चाहिये ॥

उत्पलपष्टिक।

लंघनमुभयोरुक्तंमीलितकार्योविशेषतस्तदतु ॥
उत्पलपष्टिकसिद्धंलाजकमंडादिकंपेयम् ॥

**अर्थ–**ज्वर और अतिसार इन दोनोंपर लंघन कहाहै सो लंघन ज्वरातिसार पर कराना चाहिये फिर कमलकंद (भसीडा) और सांठीचावल इनकी खीलोंका मंड करके देवे ॥

दाडिमावलेह ।

दाडिमादिरसप्रस्थंचतुः प्रस्थेजलेपचेत् ॥ चतुर्भागकषायेस्मिञ्छर्कराप्रस्थमेवच ॥ नागरंपिप्पलीमूलंकणाधान्यकदीप्यकम् ॥ जातीपत्रमरीभंजीजीरकंकरकंतुगा ॥ विजयानिंबपत्रंचसमंगावत्सशाल्मली ॥ अरलातिविपापाठालवंगंचपृथक्पलम् ॥ घृतस्यमधुनःप्रस्थंसर्वलेहविपाचयेत् ॥ दाडिंबलेहकंनामज्वरातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**अनारकारस १ सेर, जल ५ सेर दोनोंको चुल्हेपर चढायकेचतुर्थांश शेषकाढा करके उसमें १ सेर खाँड और सोंठ, पीपलामूल, पीपर, धनिया, अजवायन, जावित्री, कसोंदी, जीरा, वंशलोचन, भाँग, नीमकेपत्ते लजालूका कंद, कूडाकीछाल, सेमर, ठेंटू, अतीस पाढकीजड और लोंग ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे घी, सहत, केशर, इन सबकोएकत्र करके अवलेह सिद्धकरे इसको कुटजावलेह कहते है यह ज्वरातिसारको नाश करे ॥

कणादिकाढा।

कणाकरेणुजलदक्वाथोमधुसितायुतः॥
पीतोज्वरातिसारस्यतृष्णावम्योश्चनाशनः ॥

**अर्थ–**पीपल, गजपीपल और नागरमोथा, इनके काढेमें सहत और मिश्री मिलाय पीवे तो अतिसार, प्यास और वाँति, इनको नाश करे ॥

पाठादिकाढा।

पाठेंद्रयवभूनिंबमुस्तापर्पटकःशृतः॥
जयत्याममतीसारंज्वरंचसमहौषधम् ॥

**अर्थ–**पाढकी जड, इन्द्रजौ, चिरायता, नागरमोथा,पित्तपापडा और सोंठइनका काढा आमातिसार और ज्वर इनका नाश करे ॥

नागरादिकाढा।

नागरातिविपामुस्ताभूनिंबामृतवत्सकैः ॥
सर्वज्वरहरः क्वाथःसर्वातीसारनाशनः ॥

**अर्थ–**सोंठ, अतीस, नागरमोथा, चिरायता, गिलोय और कूडाकी छाल, इनका काढा संपूर्ण ज्वर और संपूर्ण अतिसार इनका नाश करे ॥

कलिंगादिकाढा।

कलिंगातिविपाशुंठीकिरातांबुयवासकम्॥
ज्वरातिसारसंतापंनाशयेदविकल्पतः॥

**अर्थ–**कूडाकी छाल, अतीस, सोंठ,चिरायता,नेत्रवाला और जवासा इनका काढा ज्वरातिसार संबंधी संताप इनको निःसंशय नाश करे है ॥

गुडूच्यादिकाढा।

गुडूच्यतिविपाधान्यशुंठीबिल्वाब्दबालकैः ॥ पाठाकुटजभूनिंबचंदनोशीरपर्पटैः ॥ पिबेत्कषायंसक्षौद्रंज्वरारातीसारशांतये ॥ त्दृल्लासारोचकच्छर्दिपिपासादाहनाशनम् ॥

**अर्थ–**गिलोय, अतीस, धनिया सोंठ, वेलगिरी, नागरमोथा, नेत्रवाला,पाढ, कूडाकीछाल, चिरायता, लालचंदन, खस और पित्तपापड़ा, इनका काढा, शहत डालके पीवे तो ज्वरातिसार त्दृल्लास, अरुचि, वमन तृषाऔर दाह इनको नाश करे ॥

वत्सकादिदोकाढे।

वत्सकंस्यफलंदारुरोहिणीगजपिप्पली ॥ श्वदंष्ट्रापिप्पलीधान्यबिल्वपाठायवानिका ॥ द्वावप्येताविमौयोगौश्लोकार्धेनावभाषितौ ॥ ज्वरातिसारशमनौविशेपादाहनाशनौ ॥

**अर्थ–**इन्दजौ, देवदार, कुटकी, गजपीपल,इनका अथवा गोखरू, पीपल, धनिया, वेलगिरी, पाढऔर अजवायन इनका काढा ज्वरातिसार और विशेष करके दाह इनको शमन करे ॥

उशीरादिकाढा ।

उशीरंबालकंमुस्तंधान्यकंबिल्वमेवच ॥ समंगाधातकीलोध्रंविश्वंदीपनपाचनम् ॥ हंत्यरोचकपिच्छामंविबंधमतिवेदनम् ॥ सशोणितमतीसारंसज्वरंवाथविज्वरम् ॥

**अर्थ–**नेत्रवाला, खस, नागरमोथा, धनिया, वेलगिरी, मँजीठ, धायकेफूल, लोध और सोंठ, इनका काढा दीपन और पाचन है तथा अरुचि आमातिसार, मलबंध, शूल, रक्तातिसार और ज्वर, इनका नाश करे यह काढा ज्वर रहित अतिसारहीपर चलता है ॥

बिल्वादिकाढा।

बिल्वबालकभूनिंबगुडूचोधान्यनागरैः॥
कुटजद्वामृताक्वाथोज्वरातीसारशूलनुत् ॥

**अर्थ–**वेलगिरी, नेत्रवाला, चिरायता, गिलोय, धनिया, सोंठ, कूडाकी छाल, नागरमोथा और आमले इनका काढा, ज्वरातिसार और शूल इनका नाशक है॥

पंचमूलादिकाढा।

पंचांघ्रिवृक्यब्दबलेंद्रबीजत्वक्सेव्यतिक्तामृतविश्वबिल्वैः॥ ज्वरातिसारान्सवमीन्सकासान्सश्वासशूलाञ्च्छमयेत्कषायः॥

**अर्थ–**पंचमूल, कटेरी, नागरमोथा, खिरेटी, कूडाकीछाल इन्द्रजौ, नेत्रवाला, कुटकी,गिलोय सोंठ वेलगिरी इनका काढा ज्वरातिसार, वमन, खांसी, श्वास और शूल इनको शमन करे है ॥

अरल्वादिकाढा।

अरल्वातिविपामुस्ताशुंठीबिल्वंसदाडिमम् ॥
सर्वज्वरहरः क्वाथःसर्वातीसारनाशनः ॥

**अर्थ–**टेंटू, अतीस, नागरमोथा, सोंठ, वेलगिरी और अनारदाना इनका काढा संपूर्ण ज्वर और संपूर्ण अतिसारोंका नाश करे ॥

उत्पलादिचूर्ण।

उत्पलंदाडिमत्वचंसंचूर्ण्यपद्मकेसरम् ॥
पिबेत्तंदुलतोयेनज्वरातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**कुलिंजन,अनारकीछाल और कमलकी केशर इनको पीस चावलोंके धोवनके साथ पीबे तो ज्वरातिसार नाश होय ॥

व्योपादिचूर्ण ।

व्योपवत्सकबीजानिनिंबभूनिंबमार्कवम् ॥ चित्रकंरोहिणीपाठादार्वीह्यतिविपासमम् ॥ श्लक्ष्णचूर्णीकृतानेतान्तत्तुल्यांवत्सकत्वचम् ॥ सर्वमेकत्रसंयोज्यपिबेत्तंदुलवारिणा ॥ सक्षौद्रंवालिहेदेवंपाचनंग्राहिभेषजम् ॥ तृष्णारुचिप्रशमनंज्वरातीसारनाशनम् ॥ कामलाग्रहणीरोगान्गुल्मंप्लीहानमेवच ॥ श्वयथुंपांडुरोगंचप्रमहंचविनाशयेत् ॥

**अर्थ–**सोंठ, मिरच, पीपल, इन्द्रजौ, नीमकीछाल, चिरायता, भांगरा, चीतेकी छाल, कुटकी, पाढेकी जड, दारुहलदी, अतीस इनकी समान भाग मात्रा लेकर चूर्ण करे, तथा सब चूर्णकी बराबर कूडेकीछालका चूर्ण लेवे सवको एकत्र कर चावलके धोवनसे अथवा शहतसे देव यह पाचन तथा ग्राहकहै तथा तृषा, अरुचि, ज्वरातिसार, कामला, संग्रहणी, गोला,प्लीहा, सुजन, पांडुरोग और प्रमेह इनका नाश करे॥

इसबगोलयोग ।

इसबगोलइतिप्रथितोजनेहरतितज्ज्वरभाजमतिसृतिम् ॥
अनुभवाल्लिखितंनतुशास्त्रतोभवतुतद्भिषजामुपयोगिकम् ॥

**अर्थ–**जिसको मनुष्य इसबगोल कहते हैं वह ज्वरातिसार नाशक है यह मैं अपने अनुभवसे लिखता हूं यह शास्त्रसे नहीं लिखा परंतु यह वैद्योंके उपकारार्थ होओ॥

लाजमंड।

उत्पलपष्टिकसिद्धंलाजकमंडादिकंपेयम् ।

**अर्थ–**सांठी चावलकी खीलोंके मंडमें कमलकंदका चूर्ण मिलाय देवे तो ज्वरातिसारको शांति करे ॥

पृश्निपर्ण्यादिपेया।

पृश्निपर्णीबलाबिल्वानागरोत्पलधान्यकैः॥
ज्वरातिसारीपेयांवापिबेत्साम्लांशृतांनरः ॥

**अर्थ–**पिथवन, खिरेटी, वेलगिरी, सोंठ, कमल और धनिया इनकी खट्टी पकाई हुई पेया ज्वरातिसारवाले रोगीको पीनी चाहिये ॥

धातक्यादिपेया।

धातकीक्वाथसंसिद्धाविश्वभेषजकल्पिता ॥
दाडिमाम्लयुतापेयाज्वरातीसारशूलिनाम् ॥

**अर्थ–**धायकेफूलोंका काढा, सोंठका कल्क और अनारदाने का रस इनकरके तैयार करी हुई पेया ज्वरातिसारमें शूलपर हितकारी है ॥

विजयायोग।

परंडबिल्वयवगोक्षुरकारनालैः स्विन्नांलिहंतिविजयामधुनान्वितांये ॥ तेषांप्रणाशमुपयांत्युदरामयास्तुसर्वेसशूलविषमज्वरकासहिक्काः॥

**अर्थ–**अंडकीजड, वेलगिरी, इन्द्रजौ, गोखरु, इनकें पेयामें भांग अथवा मोचरस शहत मिलायके सेवन करनेसे संपूर्ण उदररोग, संपूर्ण शूल, विषमज्वर, खांसी और हिचकी ये संपूर्ण उपद्रव नाश होवें ॥

पंचामृतपर्पटीरस।

सूतायसीचताम्राभ्रसमंद्विगुणगंधकम् ॥ लोहपात्रेवादराग्नौमृदुपाकोभवेद्रसः ॥लेपयेत्कदलीपत्रेकर्तव्यारसपर्पटी ॥ पंचामृतापर्पटीचरसोवह्निप्रदीपनः ॥ ज्वरातिसारकासघ्नीकामलापांडुमेहजित् ॥ अनुपानंमलेबद्धज्वरेजीर्णेचमूत्रकम् ॥ पलंपथ्यंतुतैलाम्लवर्ज्यमन्यच्चयुक्तितः॥

**अर्थ–**पारा,लोहकीभस्म, तामेकीभस्म और अभ्रककी भस्म, ये समान भाग लेवे, गंधक दो भाग ले, सबकी बारीक कजली करके लोहेके कडछलेमें रखके वेरकी लकडीकी धीमी २ अग्निसे तपायके एक जीव करें, फिर पृथ्वीमें केलेका पत्र बिछायके ऊपरसे इस कजलीके रसको अथवा पंचामृत पर्पटीको तायके ढालदेवे, यह पर्पटी अग्निदीपक है और ज्वरातिसार, खांसी, कामला,पांडुरोग और प्रमेह इनका नाश करे। यह मलावष्टंभ होनेसे अथवा जीर्णज्वर होनेसे बकरीके चार तोले मूत्रसे देवे इसपर पथ्यमें तेल और खटाई वर्जित है बाकीके युक्तिसे जानने चाहिये ॥

दरदादिपुटपाक ।

दरदश्चैकभागोहिसार्धभागोहिफेनकः ॥ अर्धभागोभवेट्टंकःपिष्टिकांचप्रलेपयेत् ॥जातीफलंचविन्यस्यसर्वंचपुटपाचितम् ॥ मुद्गमात्रंपिबेन्नित्यंपयसाचगवांहितम् ॥ ज्वरातिसारेमांद्येचनिद्रानाशेरुचौतथा ॥ योजयेद्भिषजानित्यंबलपुष्टिकरंपरम् ॥

**अर्थ–**हींगुलू ४ तोले, अफीम ६ तोले, सुहागा २ तोले और जायफल २ तोले इन सबको एकत्र कर पुटपाक करे, फिर मूंगके समान गोली बनावे १ गोलो गौके दूधसे देवे तो ज्वरातिसार, मंदअमि, निद्रानाश, अरुचि, इनको नष्ट करे तथा यह औषध बल और पुष्टता करती है ॥

दुग्धयोग।

विबद्धवातोविटशूलपरीतःसप्रवाहिकः ॥ सरक्तपित्तश्चपयः पिबेत्तृष्णासमन्वितः ॥ यथामृतंतथाशीरमतीसारेपुपूजितम् ॥ सरक्तोत्थेपुतप्तोऽयमपांभागेपुसंस्कृतम् ॥

**अर्थ–**आधा जल जौर आधा दूध मिलायके दूध मात्र रहने पर्यंत औटावे इसको पेटकी वादी और शूल, प्रवाहिका, रक्तपित्त और प्यास, इनपर देनाचाहिये जैसे अमृत होता है ऐसा यह दूध है इसको संपूर्ण रक्तविकारोंपर देना चाहिये॥

कट्फलादिचूर्ण।

कट्फलंमधुकंलोध्रस्त्वग्दाडिमफलस्यच ॥
सतंदुलजलंचूर्णंवातपित्तातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**कायफल, मुलहटी, लोध और अनारकी छाल इनका चूर्ण चावलोंके धोवनके जलसे पीबेतो वातपित्तातिसार नष्ट हो॥

पित्तकफातिसारनिदान।

द्विदोषलक्षणैर्विद्यादतीसारंद्विदोषजम् ॥
तेषांचिकित्साप्रोक्तैवविशिष्टाचनिगद्यते ॥

**अर्थ–**दो दोषकेलक्षणोंसे द्विदोषज अतिसार रोग जानना,उस द्विदोषजोंकी चिकित्सा कह आए हैं परंतु इसजगे कुछ विशेष चिकित्साको कहतेहैं ॥

मुस्तादिकाढा।

मुस्तासातिविषामूर्वावचाचकुटजःसमः ॥
एषांकषायः सक्षौद्रःपित्तश्लेष्मातिसारहृत् ॥

**अर्थ–**नागरमोथा, अतीस, मूर्वा, वच, और कूडाकी छाल इनका काढा कर सहत मिलायके सेवन करे तो पित्तकफातिसारका नाश करे ॥

समंगादिकाढा।

समंगाधातकीबिल्वमाम्रास्थ्यंभोजकेसरम् ॥ बिल्वंमोचरसंलोध्रंकुटजस्यफलत्वचौ॥ पिबेत्तंदुलतोयनकषायंकल्कमेवच ॥ श्लेष्मपित्तातिसारघ्नंरक्तंवाथनियच्छति ॥

**अर्थ–**खिरेटीकी जड, धायके फूल, वेलगिरी, आमकी गुठली, कमलकेशर, बेलकी छाल,मोचरस, लोध, कुडाकी छाल और इन्द्रजव इनका काढा अथवा चूर्ण चावलके धुले हुए पानीसे पीबेतो कफपित्तातिसार और रक्तातिसार इनका नाश करे ॥

वातकफातिसारनिदान ।

रसैःस्वादुकटुप्रायैरुभौवातकफौनृणाम् ॥ कुरुतस्तावतीसारंरौद्रौवह्निंनिहत्यच ॥ द्रवंसफेनपुरिपंतत्वतोह्यामगांधिकम् ॥ सशब्दंवेदनावच्चतत्रसंपरिपच्यते ॥ नित्यंगुडगुडायंतंतंद्रामूर्छाभ्रमक्लमैः ॥प्रसक्तंसक्थिकक्ष्यूरुजानुपृष्ठास्थिलिनः॥

**अर्थ–**मिष्ट और तीखे रसोंके अत्यंत सेवनसे वातकफ दोनों कुपित होते है और अग्निको शांत करके अतिसाररोगको प्रगट करे हैं वह पतला, झागदार, कच्ची दुर्गंधयुक्त, शब्दयुत और शूल, आम, गुडगुडाहटशब्दयुक्त होवे तथा तन्द्रा, मूर्च्छा, भ्रम, ग्लानि और कमर, जंघा, पिंडरी, पीठकी हड्डी इनमें पीडा इन लक्षणोंकरके युक्त हो उसको वातकफातिसार जानना ॥

वातकफातिसारिअन्न।

धान्यपंचकसंसिद्धोधान्यविश्वकृतोथवा ॥
आहारोभिषजायोज्योवातश्लेष्मातिसारिणे ॥

**अर्थ–**वातकफातिसारी रोगीको धान्यपंचकके काढेमें अथवा धनिया और सोंठ इनके काढेमें सिद्ध करेहुए भोजनके पदार्थ वैद्य खानेको देवे ॥

चित्रकादिकाढा।

चित्रकातिविपामुस्तंबलाबिल्वंसनागरम् ॥
वत्सकत्वक्फलंपथ्यावातश्लेष्मातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**चीतेकी छाल, अतीस, नागरमोथा, खरेटी, वेलगिरी, सोंठ, कूडाकी छाल, इंद्रजौऔर हरड इनका काढा वातकफातिसारको दूर करे ॥

उपचारक्रम ।

वातातिसारेयच्चोक्तंपाचनंग्राहिभेषजम् ॥
तदत्रापिचयुंजीतसपित्तकफमारुते ॥

**अर्थ–**जो वातातिसारमें औषधी कही हैं अथवा पाचन और ग्राही औषधी कहीं हैं वो इस पित्तयुक्त वातकफातिसारमें भी देनी चाहिये ॥

बिल्वादिकाढा।

बिल्वचूतास्थिनिर्यूहुः पीतःसक्षौद्रशर्करः ॥
निहन्याच्छर्द्यतीसारंवैश्वानरइवाहुतिम् ॥

**अर्थ–**वेलगिरी, आमफी गुठलीका रस, मिश्री और सहत इन सबकोमिलायके सेवन करे तो वांति और अतिसार इनका नाश करे जैसे अग्निसबका नाश करे है ॥

प्रियंग्वादिकाढा।

प्रियंग्वंजनमुस्ताख्यंपाययेत्तुयथाबलम् ॥
तृष्णातिसारछर्दिघ्नंसक्षोद्रंतंदुलांबुना ॥

**अर्थ–**फूलप्रियंगु, सुरमा और नागरमोथा, इनका चूर्ण अथवा कल्कको चावलोंके धोवनके साथ सहत मिलायके वलावल देखकर देवे तो तृषा, अतिसार और वाँति इनका नाश करे ॥

आम्रादि काढा ।

आम्रास्थिमध्यंमालूरफलक्वाथः समाक्षिकः ॥
शर्करासहितोहन्याच्छर्द्यतीसारमुल्बणम् ॥

**अर्थ–**आमके भीतरकी गुठली और वेलगिरी इनका काढा सहत और मिश्री मिलायके देवे तो वमन, अतिसार, तृषा , दाह, ज्वर और भ्रम इनका नाश होय ॥

मुद्गकषाय।

कषायोभृष्टमुद्गानांसलाजमधुशर्करः ॥
निहन्याच्छर्द्यतीसारंतृष्णांदाहंज्वरंभ्रमम् ॥

**अर्थ–**भुनीहुई मूंगका काढा, खील,सहत और मिश्री मिलायके देवे तो छर्दि, अतिसार, तृषा, दाह, ज्वर और भ्रम इनका नाश करे ॥

पटोलादि काढा।

पटोलयवधान्याकक्वाथः पीतःसुशीतलः॥
शर्करामधुसंयुक्तश्छर्द्यतीसारनाशनः॥

**अर्थ–**पटोलपत्र, इन्द्रजौ और धनिया इनका काढा शीतल करके सहत और मिश्री डालके पोवे तो छर्द्यतिसारनाशक होय ॥

जंब्वादि काढा।

जंब्वांम्रपल्लवोशीरंवटशृंगावरोहकम् ॥ रसः क्वाथोथवाचूर्णंक्षौद्रेणसहयोजितम् ॥छर्दिज्वरमतीसारंमूर्छांतृष्णांचदुर्जयाम् ॥ नियच्छत्यचिराद्धंतिस्रुतिंवानेकहेतुकाम्॥

**अर्थ–**जामुन और आम इन दोनोंके कोमल पत्ते, नेत्रवाला, वडकीफली, और सिंघाडे इनका काढा अथवा चूर्ण अथवा रस सहतसे सेवन करे तो ओकरियोंका आना, ज्वर, अतिसार, मूर्च्छाऔर प्यास ये यदि दुर्जयभी होवे तथापि इनका नाशक है और अनेक प्रकारका अतिसारकाभी नाशक है ॥

पुरीपातिसारऊपर।

दीप्ताग्निभिःपुरीपंयत्सार्यतेफेनिलंशकृत् ॥
सपिबेत्फाणितंशुंठीदधितैलंपयोघृतम् ॥

**अर्थ–**दीप्ताग्नि पुरुषको झागयुक्त और मलमिला दस्त होवे वह राव, सोंठ, दही, तेल, दूध, घी ये पदार्थभोजन करे ॥

पुरीपक्षयऊपर।

बलाविश्वशृतंक्षीरंगुडतैलानुयोजितम् ॥
दीप्ताग्निंपाययेत्प्रातःसुखदंवर्चसःक्षये॥

**अर्थ–**दीताग्निवाले पुरुषके मलक्षय होनेसे उसको खिरेटी, सोंठ इनके योगसे तपाहुआ दूध, तेल,और गुड डालके प्रातःकाल पिलावे, तो सुखकारक होय॥

दूसराप्रकार।

रंभाखंडंरुचिकरंसघृतंदधिमिश्रितम् ॥

खादेत्सेवेच्चमृद्वन्नंतद्धितंशकृतःक्षये ॥

**अर्थ–**केलाकी गहरका टूक , घी और दही इनमें मिलायके भक्षण करे तथामृदु अन्न भोजन करे तो पुरीपक्षयपर अत्यंत हितकारी होय ॥

शोफातिसारपरदेवदार्व्यादिकाढा ।

सदेवदारुःसाविपःसपाठःसजतुशत्रुःसघनःसतीक्ष्णः ॥
सवत्सकः क्वाथउदाहृतोसौशोफातिसारांबुधिकुंभजन्मा॥

**अर्थ–**देवदारु, अतीस, पाढ, वायविडंग, नागरमोथा, कालीमिरच, कूडाकी छाल, इनका काढाशोफातिसाररुप समुद्रको अगस्त्य ऋषिकेसमान है ॥

विडंगादिकाढा।

विडंगातिविपामुस्तादारुपाठाकलिंगकम् ॥

मरीचेनसमायुक्तंशोथातीसारनानशम् ॥

**अर्थ–**वायविडंग, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, पाढ, कूडाकी छाल और कालीमिरच इनका काढा शोथातिसार नाशक है ॥

किरातादिकाढा।

किराताब्दामृताविश्वचंदनोशीरवत्सकैः ॥
शोथातीसारशमनंविशेपाज्ज्वरनाशनम् ॥

**अर्थ–**चिरायता, नागरमोथा, गिलोय, सोंठ, चंदन, खस और कूडाकी छाल इनका काढा शोथातिसार और विशेषकरके ज्वरका नाश करे है ॥

पाठादिकाढा।

पाठाविपावत्सकमेघदारुविडंगकामोचरसैःकषायम् ॥
कृतंप्रभातेप्रपिबेद्गदार्तिशोफातिसारार्णववाडवाग्निः॥

**अर्थ–**पाढ,अतीस, कूडाकी छाल, नागरमोथा दारुहलदी,वायविडंग और मोचरस इनका काढा प्रातःकाल पीबे तो शोफातिसारसमुद्रके सोखनेको वाडवाग्निरूप है ॥

शोथघ्नादिकाढा।

शोथघ्नींद्रयवापाठाविडंगातिविपाघनाः ॥
क्वथित्वासोषणाःपीताःशोथातीसारनाशनाः॥

**अर्थ–**पुनर्नवा, इन्द्रजव, पाढ, वायविडंग, अतीस और नागरमोथा इनका काढा सोठ, मिरंच और पीपलकाचूर्ण मिलाकर पीवे तो शोथातिसार नाश होव॥

भस्त्रातिसारनिदान ।

कोष्ठाग्निःशीतपवनेनपच्यतेनवारितृषार्तःसमयेनपिबतिजंतुः ॥ शैथिल्यस्निग्धसदृशंद्रवमामयुक्तंभस्रातिसारकगदः खलुएषदिष्टः॥

**अर्थ–**शीतवायुके योग करके कोष्ठाग्नि आहारकोउत्तम रीतिसे पचावे नहीं तथा तृषा लगे उस समय पानी पीबे नहीं उसके शिथिल, चिकना, पतला, और आमयुक्त ऐसा भस्ना शौचका होता है उसको भस्रातिसार कहा है ॥

शाल्मलिचूर्ण।

शाल्मलीशुष्कनिर्यासयवानीधातकीशिफा ॥
तिलासर्जरसःसर्पिलोघ्रंसमविचित्रितम् ॥
तद्भक्षणमतीसारंनिहंतिभसरापहम् ॥

**अर्थ–**मोचरस, अजवायन, धायके फूल, तिल, राल और लोध इनका चूर्ण घृतके साथ सेवन करे तो यह भस्त्रातिसारको नाश करे ॥

हिंग्वादिजलयोग।

हिंगुशुंठीविडंगंचसौवर्चलसमन्वितम् ॥
कर्पयुग्ममितंतोयंभक्षितंभसरापहम् ॥

**अर्थ–**हींग, सोंठ, वायविडंग और संचलनिमक इनका चूर्ण दो तोले जलसे दे तो भस्त्रातिसारका नाश होय ॥

रोहिण्यादिपाचन।

रोहिण्यतिविपापाठावचाकुष्टसमुद्भवः ॥
क्वाथःपीतोनिहंत्येवसर्वातीसारजांरुजम् ॥

**अर्थ–**कुटकी, अतीस, पाढ, वच और कूठ इनका काढा पीबे तो यह संपूर्ण अतिसारको नाश करे ॥

ह्रीबेरादिकाढा।

ह्रीबेरधातकीलोध्रपाठालज्जालुवत्सकैः ॥ धान्यकातिविपामुस्तगुडूचीबिल्वनागरैः ॥

कृतःकषाय शमयेदतीसारंचिरोत्थितम् ॥ अरोचकामशूलास्त्रज्वरघ्नःपाचनःस्मृतः॥

**अर्थ–**नेत्रवाला, धायकेफूल, लोध, पाढ, लजालू, कूडेकी छाल, धनिया, अतीस, नागरमोथा, गिलोय, कोमलबेलफल और सोंठ इन बारह औषधोंका काढा पीनेसे बहुत दिनका अतिसार, अरुचि, आमशूल और ज्वर इनको दूर करे [ उसीप्रकार वेलकी छाल तथा वडे आमकी छाल इनका काढा करके उसमें शहत और मिश्री डालके पीवे तो सर्व अतिसार नष्ट हो ऐसे ग्रंथांतरमें लिखा है ]॥

धातक्यादिकाढावालकोंकेसर्वातिसारऊपर ।

धातकीबिल्वलोध्राणिबालकंजगपिप्पली ॥
एभिःकृतंशृतंशी तंशिशुभ्यःक्षौद्रसंयुतम्॥
प्रदद्यादवलेहंवासर्वातीसारशांतये॥

**अर्थ–**धायके फूल,वेलगिरी, लोध, नेत्रवाला और गजपीपल इन पाँचऔषधोंका काढा करे फिर शीतल होनेपर उसमें शहत डालके पिवावे अथवा चटनी वनायके देवे तो बालकोंके सर्व अतिसार दूर होवे ॥

आनंदभैरवरस।

दरदंवत्सनाभंचमरिचंटंकणंकणा॥ चूर्णयेत्समभागेनरसोह्यानंदभैरवः॥ गुंजैकावाद्विगुंजंवाबलंज्ञात्वाप्रयोजयेत् ॥ मधुनालेहयेच्चानुकुटजस्यफलंत्वचम् ॥ चूर्णितंकर्पमात्रंतुत्रिदोषोस्थातिसारनुत् ॥ दध्यन्नंदापयेत्पथ्यंगवाज्यंतक्रमेवच ॥ पिपासायांजलंशीतविजयाचहितानिशि ॥

**अर्थ–**शुद्धकरा सिंगरफ, शुद्धकरा वच्छनागविष, कालीमिरच, सुहागा, और पीपल ये पाँच औषध समान भाग लेकर सबको एकत्र खरल कर वारीक चूर्ण कर इसको (आनंदभैरवरस) कहते है यह आनंदभैरव इन्द्रजौऔर कूडाकी छाल दोनों१तोले लेकर चूर्णकरके इसके साथ रोगीका बलाबल विचारके १ रत्तीके अनुमान देवे, अथवा दो रत्ती प्रमाण शहतसे देवे तो त्रिदोषसे हुआ अतिसारको नष्ट करे इसपर पथ्यमें गौका दही, भात, अथवा घी भात अथवा छाँछ भात देव और जब २ प्यास लगे तब र शीतल जल पीनेको देय तथा रात्रिमें थोडी भाँग शुद्ध कर घोंट छानके पोबे तो यह भाँग आतिसारवालेको हितकारी होती है ॥

आनंदरस।

जातीफलंसैंधवहिंगुलंचवराटशुंठीविपहेमबीजम् ॥ सपिप्पलीकंवटिकांचकुर्याद्गुंजाप्रमाणांजठरामयघ्नीम् ॥
निहंतिवातंकफ शूलमात्रमामातिसारंग्रहणीविकारम् ॥ निहंतिशुष्कंसितयासमेतंरसोयमानंदइतिप्रदिष्टः॥

**अर्थ–**जायफल, सैंधानिमक, हींगलू, कौडीकी भस्म, सों, बच्छनागविष, धतूरेके बीज, पीपल ये सब एकत्र करके खरल करे फिर १ रत्तीकी गोली बनावे १ गोली मिश्रीके साथ देवे तो पेटका रोग, वादी, कफ, शूल, आमातिसार,संग्रहणी और योनिरोग इनका नाश करे इसको आनंदरस ऐसे कहतेहै।

दाडिमाष्टक।

कर्पोन्मितातुगोक्षीरीचातुर्जातंत्रिकर्षिकम् ॥ यवानीधान्यकाजाजीग्रंथीव्योपपलांशकम् ॥ पलानिदाडिमान्यष्टौसितायाश्चैकतःकृतम् ॥ गुणैःकपित्थाष्टकवच्चूर्णंतद्दाडिमाष्टकम् ॥

**अर्थ–**वंशलोचन १ तोला दालचीनी, पत्रज, इलाइचीके दाने, नागकेशर, सबको मिलायके ३ तोले लेवे, अजवायन, धनिया, जीरा, पीपरमूल, सोंठ, कालीमिरच, पीपर सब मिलाकर चार तोले लेवे,अनारदाना बत्तीसतोले,मिश्री ३२ बत्तीस तोले सवको एकत्र करके चूर्ण करे इसको (दाडिमाष्टक) चूर्ण कहते हैं यह गुणोंमें कपित्थाष्टकके समान है ॥

लघुगंगाधरचूर्ण।

मुस्तमिंद्रयवंबिल्वंलोध्रंमोचरसंतथा ॥ धातकींचूर्णयेत्तक्रगुडाभ्यांपाययेत्सुधीः ॥ सर्वातिसारशमनंनिरुणद्धिप्रवाहिकाम् ॥ लघुगंगाधरंनामचूर्णंग्राहकरंपरम् ॥

**अर्थ–**नागरमोथा, इन्द्रजव, बेलगिरी, लोध, मोचरस और धायके फूल इन छः औषधोंका चूर्णकरके छाँछमें गुड मिलायके उसमें इस चूर्णको मिलायके पीबे तो संपूर्ण अतिसारोंको दूरकरे तथा प्रवाहिकाको बंद करे इस चूर्णको (लघुगंगाधर ) कहते है तथा यह चूर्ण मलको अवष्टंभ करता उत्तम है ऐसा जानना ॥

वृद्धगंगाधरचूर्ण ।

मुस्तारलुकशुंठीभिर्धातकीलोध्रबालकैः ॥ बिल्वमोचरसाभ्यांचपाठेंद्रयवयुत्सकैः ॥ आम्रबीजंप्रतिविपालज्जालूरितिचूर्णितम् ॥ क्षौद्रतंदुलपानीयैःपीतैर्यातिप्रवाहिका ॥ सर्वाति सारग्रहणीप्रशमंयातिवेगतः॥ वृद्धगंगाधरंचूर्णंसरिद्वेगविबंधकम्॥

**अर्थ–**नागरमोथा, टैटू, सोंठ, धायके फूल, लोध, नेत्रवाला, वेलगिरी, वरस, पाढ, इन्द्रजव, कूडाकी छाल, आमकीगुठली, अतीस और लजालू चौदह औषधोंका चूर्ण चाँवलकेधोवनमें सहत मिलायके इस पानीके पीवेतोप्रवाहिकाऔर सर्वप्रकारके अतिसार तथा संग्रहणी तत्काल दूर होवे इस चूर्णको (वृद्धगंगाधर ) कहते है यह चूर्ण नदीसमान वेगवाले अतिसारकोभी स्तंभन करे है॥

अजमोदादिचूर्ण।

अजमोदामोचरसंसशृंगवेरंसधातकीकुसुमम्॥

गोदधिमंथितयुक्तं गंगामपिबाहिनींरुंध्यात् ॥

**अर्थ–**अजमोदा, मोचरस, अदरख और धायके फूल इन चार औषधोंक चूर्णको विना पानीके मथीहुई गौकी छाँछमें मिलायके पीबे तो गंगाके समान वेगवालाभी अतिसारको स्तंभन करताहै अर्थात् अत्यंत प्रबल अतिसारभी थम जावे ॥

बृहद्दाडिमाष्टक।

दाडिमस्यफलान्यष्टौशर्करायाः पलाष्टकम् ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलंयवानीमरिचंतथा ॥ धान्यकुंजीरकंशुंठीप्रत्येकंपलसंमितम् ॥ कर्षमात्रातु गोक्षीरीत्वक्पत्रैलाश्चकेसरम् ॥ प्रत्येकं कोलमात्राः स्युस्तच्चूर्णंदाडिमाष्टकम् ॥अतीसारंक्षयंगुल्मंग्रहणींचगलग्रहम् ॥ मंदाग्निंपीनसंकासंचूर्णमेतद्व्यपोहति ॥

**अर्थ–**अनारदाना ८ पल, मिश्री ८ पल, पीपल, पीपरामूल, अजमोदा कालीमिरच, जीरा और सोंठ ये सात औषध एक २ पल लेवे तथा वंशलोंचन १ तोले, दालचिनी, पत्रज, इलायची और नागकेशर ये चार औषध एफ एक कोल लेवे सब औषधोंको कूट पीस चूर्ण करे, इसको (बडा दाडिमाष्टक चूर्ण) कहते है यह सेवन करनेसे अतिसार, क्षय, गोला, संग्रहणी, कंठरोग, मंदाग्नि, पीनस और खाँसी इनको नष्ट करे ॥

धातक्यादिचूर्ण ।

श्रीधातकीमोचरसाब्दलोध्रकलिंगविश्वौषधचूर्णमेतत्॥ पेयंगुणाढ्यंगुडतक्रयुक्तंगाढंत्वतीसारकनाशकंच ॥

**अर्थ–**वेलगिरी, धायके फूल, मोरच, नागरमोथा, लोध, कूडाकीछाल और सोंठ इनका चूर्ण गुड और छाछ इनसे पीबेतो अतिसार नाश होवे ॥

भल्लातादिचूर्ण ।

भल्लातानांद्विखंडानांद्वेपलेभर्जितेक्षिपेत् ॥ शुंठ्याःपलंतुचेतक्याःपलार्धंसुमनापलम् ॥ कर्पंमेथिवेल्लजीराः सर्षपाःकोलमात्रतः॥ ततोयवान्यर्धपलंपिप्पलीरामठोपणम् ॥ विडसैंधवजीरंचकिर्माणिसंज्ञिकंतथा ॥ कर्षप्रमाणंविज्ञेयंवैद्यविद्याविशारदैः ॥ सर्वमेकत्रसंचूर्ण्ययथासात्म्यंतुभक्षयेत् ॥ दध्नासहतथा खादेत्सर्वातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**भिलाये दोटूक करके भुनेहुए ८ तोले, सोंठ ४ तोले, हरड २ तोले, मेथी, कालीमिरच और जीरा ये एक तोले सरसों २ मासे, अजवायन २ तोले,और पीपल हींग, चीता विडनोन,सैंधा,जीरा, तथा किरमानी अजवायन ये प्रत्येक एक एक तोले लेय, इस प्रमाण सब औषध एकत्रकर चूर्ण करलेवे, इसमेंसे प्रकृतिके अनुसार दहीके साथ देवे तो यह सर्व अतिसारोंका नाश करे ॥

लघुलाईचूर्ण।

सूतंगंधंत्रिकटुकंदीप्यकंजीरकद्वयम्॥ सौवर्चलंसैंधवंचरामठंविडमेवच ॥ शक्राह्वस्यचचूर्णंतुचूर्णतुल्यंप्रदापयेत् ॥ संग्रहं शूलमानाहंहन्यान्नानातिसारकम् ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा, शुद्धगंधक, सोंठ, मिरच, पीपल, अजवायन, जीरा, काला जीरा, संचलनिमक, सैंधा, हींग और विडनोन ये सब समान भाग लेवे और सब चूर्णके बराबर कूडाकी छालका चूर्णले,सबको एकत्रकरे इसको(लघुलाई ) चूर्ण कहते हैं यह संग्रहणी, शूल, अफरा और नानाप्रकारके अतिसार इनका नाश करे ॥

यवान्यादिचूर्ण।

यवानीपिप्पलीमूलचतुर्जातकनागरैः ॥ मरीच्याग्निजलाजाजीधान्यसौवर्चलेः समैः ॥ वृक्षाम्लधातुकीकृष्णाबिल्वदाडिमदीप्यकैः॥ त्रिगुणैःषड्गुणासीतैःकपित्थाष्टगुणीकृतैः ॥ चूर्णोतिसारग्रहणीक्षयगुल्मानलामयान् ॥ कासश्वासारुचिर्हिक्कांकपित्थाष्टमिदंजयेत् ॥

**अर्थ–**अजवायन, पीपरामूल, दालचीनी पत्रज, इलायचीके दाने और नागकेशर, सोंठ, मिरच, चीतेकी छाल, नेत्रवाला, जीरा, धनिया और संचल निमक ये सब समान भाग लेवे और तंतडीक, धायके फूल, पीपर, वेलगिरी, अनारदाना और पीलाजीरा ये तिगुने लेबे, खाँड छःगुनी, और कैथकागूदा आठगुना, इनका चूर्ण एकत्र करे इसको(कपित्थाष्टक) चूर्ण कहते हैं वहअतिसार, संग्रहणी, क्षय, गोला, गलेकारोग खाँसी, श्वास, अरुचि और हिचकी इनका नाश करे॥

वत्सकादिघृत।

वत्सकस्यचबीजानिदार्व्यश्चैवत्वयुत्तमा ॥
पिप्पलीश्रृंगवेरंचलाक्षाकटुकरोहिणी ॥
षड्भिरैतैर्घृतंसिद्धंपेयंमंडविमिश्रितम् ॥

**अर्थ–**इन्द्रजव, दारुहलदी, पीपल, सोंठ, लाखऔर कुटकी इन छः औषधोंसे घीको सिद्धकर मंडके साथ पीबे तो अतिसार शमन होवे ॥

बिल्वतैल ।

तुलांसंकुट्याबिल्वस्यपचेत्पादावशेषितम् ॥ सक्षीरंसाधयेत्तैलं श्लक्ष्णपिष्टैरिमैः समैः ॥ बिल्वंसधातकीकुष्टंशुंठीरास्नापुनर्नवा ॥ देवदारुवचामुस्तालोध्रमोचरसान्वितम् ॥ एतन्मृद्वग्निनापक्वंग्रहण्यर्शोविकारनुत् ॥ बिल्वतैलमितिख्यातमत्रिपुत्रेणभाषितम् ॥ ग्रहण्यर्शोविकारेयेस्नेहाः समुपदर्शिताः ॥ प्रयोज्यास्तेतिसारेपित्रयाणांतुल्यहेतुता ॥

**अर्थ–**वेलगिरी ४०० चारसौंतोलेको कूटकर उसका चतुर्थांश काढाकरे उसमें दूध और तैल ये मिलायके फिर वेलगिरी, धायके फूल, कूठ, सोंठ, रास्ना, पुनर्नवा, देवदारु, वच, नागरमोथा, लोध और सेमरका गोंद इनका कल्क मिलावे, फिर अग्निपर धरके ओंटावे जब तेलमात्र शेष रहे तब उतारले यह (बिल्वतेल,)अत्रिपुत्रने कहा है यह संग्रहणी, बवासीर और अतिसार इन पर योजनाकरे तथा संग्रहणी और अर्शरोगपर कहे हुए तैलादि उपचार वो तीनोंपरही सदृश हेतुहै अतएव उनको संपूर्ण अतिसारोंपर योजना करनेचाहिये॥

शंखोदररस।

सूतभस्मबलीलोहंविषंत्रिकटुकंसमम् ॥ पिष्ट्वानिंबुजतोयेनशङ्खेसर्वचतुर्गुणे ॥ क्षिप्त्वामृदंशुकैर्लिप्त्वाभांडेगजपुटेपचेत् ॥ शीतेचप्राग्विषंक्षित्वावल्लमात्रंप्रयोजयेत् ॥ जातीफलंचविजयामधुनातिसृतौददेत्॥ ग्रहण्यांचित्रकार्दांबुविजयाविश्वभेषजम् ॥ पृथक्देयंसमधुनामरिचैश्चघृतान्वितम् ॥ वह्निमांद्यक्षयेतद्वदुदरार्त्यनिलामये ॥ पथ्यंदध्नाचतक्रेणक्षीरशाकैश्च संयुतम् ॥

**अर्थ–**पारेकीभस्म, गंधक, सिंगियाविष, सौंठ, मिरच और पीपल ये समान भाग ले नींबूके रसमें खरलकर सबसे चौगुने शंखमें भर उसपर सात कपडमिट्टी करके किसीपात्रमें रखके गजपुटमें रखके फूंक देवे जब स्वांगशीतल होजाये तब उसमें एक भाग सिंगिया विष मिलायके सबका चूर्ण कर किसी शीशी आदिपात्रमें भरके धर देवे फिर २ रत्ती यह रसको जायफल, भाँग, और शहत इनसे अतिसार और संग्रहणी इनपर देव तथा चीतेकी छाल, अदरख, नेत्रवाला, भाँग और सौंठ, मिरच इनका चूर्ण, घी और शहत इनके साथ मंदाग्नि, क्षय, उदर और वायु इनपर देवे, तथा पथ्यमें दही, छाँछ, दूध और शाग, ये पदार्थ देवे॥

मूलिकाबंध।

रक्तसूत्रैः कटौबध्वासर्पाक्षीवाट्यमूलकैः॥
स्नुह्यावासहदेव्यावामूलंस्यादतिसारजित् ॥

**अर्थ–**लालसूत करकेगिलोयको, खिरेटी, थूहर, अथवा सहदेई इनकी जडको बाँधे तो अतिसारका नाश करें [ इस जगे सर्पाक्षी करके गिलोयकाही ग्रहण है॥

दाडिमीवटी।

शुंठीजातीफलंचाहिफेनकंद्विगुणंभवेत् ॥ अपक्वंदाडिमीबीजंसर्वतुल्यंप्रदापयेत्॥ अपक्वदाडिमीबीजंकोशेक्षिप्त्वामृदालिपेत् ॥ पुटपाकविधानेनपक्त्वाकोशसमन्वितम् ॥ पिष्ट्वाकल्कं विधायाथगुटिकाःसंप्रकल्पयेत् ॥ बादरास्थिप्रमाणेनतक्रेण सहदापयेत् ॥ पक्वातिसारशमनीदाडिमीवटिकामता ॥

**अर्थ–**सोंठ और जायफल, इनकी दुगनी अफीम और इनके समान हरे अनारके दाने कच्चे अनारमें डालके कपडमिट्टी करके पुटपाककी विधिसे पाक करके पीसके कल्क कर वेरके समान गोली बनावे १ गोली छाँछके साथ देय तो अतिसारका नाश करे ॥

बब्बूल्यादिस्वरस।

स्थूलबब्बूलिकापत्ररसःपानाद्व्यपोहति ॥
सर्वातिसाराञ्छ्योनाककुटजत्वग्रसोथवा ॥

**अर्थ–**कांटेरहित बड़े बबूलके पत्तोंका स्वरस पीनेसे संपूर्ण अतिसार दूर होते हैं अथवा टैंटुकी छालकास्वरस अथवा गुडाकी छालका स्वरस इनमेसे कोईसा स्वरस पीनेसे संपूर्ण अतिसार दूर होवे ॥

न्यग्रोधादिपुटपाक।

न्यग्रोधादेश्चकल्केनपूरयेद्गौरतित्तिरैः ॥
निरंत्रमुदरंसम्यक्पुटपाकेनतत्पचेत् ॥
तत्कल्कःस्वरसक्षौद्रयुक्तः सर्वातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**वड, गूलर, पीपल, पाखर और जलवेत इनको छालका चूर्ण करके पानीमें पीस कल्क करे फिर इस क्ल्कको आँते रहित सपेद तीतरके पेटमें भरके पूर्वोक्त पुटपाककी विधिसे अग्नि देकर पुटपाक करे, जब सिद्ध होजावे तव उस गोलेको बाहर निकाल मट्टो पत्तेआदिको दूर कर उस तीतरके पेटमेंसे कल्क निकाल लेवे, उस रसमें शहत मिलायके पीबे तो संपूर्ण अतिसारके रोग दूर होते है ।

अहिफेनयोग।

अहिफेनंसुसंभृष्टंखर्परेमृदुबह्निना ॥

पक्वातिसारशमनंभेषजंनास्त्यतः परम् ॥

**अर्थ–**खिपडेमें अफीम डालके मंदी २ अग्निसे भूने फिर बलाबल विचारक देवे इसके समान पक्वातिसार शमनकर्त्तादूसरी औषध नहीं है ॥

मुक्ताभस्मयोग।

मुक्ताभस्मेतिनामेदंदोषंदृष्ट्वाप्रदापयेत् ॥
गुंजार्धमेकगुंजंवाकर्पूरेणसुवासितम्॥
जातीफलादिसंयुक्तंरहस्यंपरमंमतम् ॥

**अर्थ–**मोतीकी भस्म, दोषोका बलाबल विचारके एक रत्ती अथवा आध रत्ती अथवा डेढ रत्ती कपूर और जायफल आदिके साथ देवे यह अतिसार रोगपर परम रहस्य प्रयोग कहा है॥

जातीफलादिवटी।

जातीफलंचखर्जुरमहिफेनंतथैवच ॥ समभागानिसर्वाणिनागवल्लीरसेनच ॥ वल्लमात्रावटीकार्यादेयातक्रातुपानतः ॥ अतिसारंजयेद्वोरंवैश्वानरइबाहुतिम् ॥

**अर्थ–**जायफल, छुहारा और अफीम, ये पदार्थ समान भाग लेकर नागवेलपानके रसमें२ रत्ती गोली बनायके छाँछके साथ देवे तो घोररूपअतिसारका नाश करे जैसे अग्नि आहुतिका नाश करे है ॥

मरीचादिवटी।

मरीचंखर्परंनागफेनंतंदुलतज्जलैः ॥ मर्द्यंतंदुलतोयेनगुटीसर्वातिसारजित् ॥ जीरकंविजयाबिल्वंनागफेनंसमांशकम् ॥ दधिनीरेणसाकार्यागुटीसर्वातिसारजित् ॥

**अर्थ–**मिरच, खपरिया और अफीम इन तीनों औषधोंको चावलके धोवनेसे घोटके गोली बनावे इसके सेवन करनेसे सर्वप्रकारके अतिसारोंका नाश करे । अथवा जीरा भाँग वेलगिरी और अफीम, ये पदार्थ समान ले दहीके जलमें घोटके गोली बनावे यह गोली सर्वप्रकारके अतिसारोंका नाश करे है॥

अंकोलकल्क।

अंकोलमूलकल्कश्चसक्षौद्रस्तंदुलांवुना ॥
अतिसारहरःप्रोक्तस्तथाविषहरःस्मृतः॥

**अर्थ–**अंकोल वृक्षकी जड़को पीसके कल्क करे उसमें शहत मिलाय चावलोंके धोवनके साथ पीबेतो अतिसार दूर होय, तथा बच्छनागादिक विषतथा सर्पादिकका विषदूर होय ॥

कपित्थकल्क ।

मध्यंलीढ्वाकपित्थस्यसव्योपक्षौद्रशर्करम् ॥
कट्फलंमधुयुक्तंवामुच्यतेजठरामयात् ॥

**अर्थ–**कैथका गूदा, सोंठ, मिरच, पीपल और शहत, मिश्री, ये एकत्र करके भक्षण करे अथवा कायफलके चूर्णको शहतके साथ चाटे ता पेटका रोग नष्ट होय॥

आर्द्रकुटजावलेह ।

कुटजत्वक्तुलामार्द्रांद्रोणनीरेविपाचयेत् ॥ पादशेषंशृतंनीत्वाचूर्णान्येतानिदापयेत् ॥ लज्जालुधातकीबिल्वंपाठामोचरसस्तथा ॥ मुस्तंप्रतिविपाचैवप्रत्येकंस्यात्पलंपलम्॥ततस्तुविपचेद्भूयोयाबद्दर्वीप्रलेपनम् ॥ जलेनछागदुग्धेनपीतोमंडेनवाजयेत् ॥ सर्वातिसारान्घोरांस्तुनानावर्णान्सवेदनान् ॥ असृग्दरंसमस्तंचसर्वार्शांसिप्रवाहिकाम् ॥

**अर्थ–**कूडाकी गीलोछाल १ तुला ले जव कुट करके उसमें १ द्रोण पानी डालके काढा करे जब चतुर्थांश शेष रहे तब उतारके कपडेमें छान लेवै फिर लजालू, धायके फूल, वेलगिरी, पाढ, मोचरस, नागरमोथा और अतीस ये सात औषध एक २ पल प्रमाण लेके चूर्ण कर उस काढेमें डाल देवे फिर इस काढेको कड़ाहीमें चढायके फिर औटावे जब गाढा होकर कलछीसे लिपटने लगे तब उतार लेवे. इस अवलेहको पानी के साथ अथवा बकरीके दूधकेसाथ अथवा मंडके साथ पीवे तो पीडा युक्त तथा नीलपीतादिक अनेक प्रकार के वर्णवाला अतिसार. तथा घोररूप संपूर्ण अतिसार दूर होवे । तथा स्त्रियोंके संपूर्ण प्रकारके रक्तप्रदर तथा संपूर्ण बवासीर और प्रवाहिका जो अतिसारका भेद है ये सब रोग दूर होवे ॥

दाडिमपुटपाक।

पुटपाकेनविपचेत्सपक्वंदाडिमीफलम् ॥
तद्रसोमधुसंयुक्तःसर्वातीसारनाशनः ॥

**अर्थ–**पके हुए अनारको पूर्वोक्त पुटपाककी विधिसे पुटपाक करके फिर उसके पत्ते और मिट्टी आदिको दूर करके अनारको निकाल लेवे फिर उसको दावकर उसका रस निकाल लेवे इसको पीबे तो संपूर्ण अतिसार दूर होवे ॥

जातीफलादिपुटपाक।

जातीफलंसपफेनंटकंगंधकजीरके ॥ एतानिसमभागानिबालदाडिमबीजकैः ॥ पेपयेत्तेनकल्केनपूरयेद्दाडिमीफलम् ॥ अंगारेतच्चगोधूमचूर्णेनालेपितंपचेत् ॥ अतीसारस्तंभनंस्यात्परंदीपनपाचनम् ॥

**अर्थ–**जायफल, अफीम, सुहागा, गंधक और जीरा ये समान भाग लेवे और इनकी बराबर ताजा अनारदाना लेवे सबको एकत्र खरल करे फिर इस घुटी हुई पिट्टीको अनारके भीतर भरके बाहर चून लगायके अंगारोंपर भूने तो यह अतिसारको स्तंभन करे दीपन और पाचन होवे रोगीका बलाबल विचारके २ रत्ती या चार रत्ती देवे ॥

मोचरसादिपुटपाक।

समोचसारंसहनागफेनंसतीनसस्यंपुटपाकयोगात्॥ निहंतिमालूरफलंनराणांसर्वातिसारेह्यनुभूतमेतत् ॥

**अर्थ–**मोचरस, अफीम, जायफल और वेलगिरी, इन सबको एकत्र कूट पीस विजोरमें ( नींबूका भेद है ) भरके पुटपाककी विधिसे पुटपाक करे यह सर्वातिसार नाशक अजमाया हुआ प्रयोग है ॥

लघ्वीमाईचूर्ण।

लघ्वीमाईमोचरससाम्रबीजाश्मभेदकम् ॥ धातकीपुष्पकंचैवतथातिविषकंस्मृतम् ॥ १ ॥ सर्वाणिशाणमानानिपृथग्ग्राह्याणिपंडितैः ॥ अहिफेनंद्विशाणंस्याद्गैरिकंचद्विशाणकम्॥२॥ सूक्ष्मचूर्णंविधायाथमापमानंतुदापयेत्॥ तंदुलानांजलेनैवह्यामशूलातिसारके ॥३॥ रक्तजेपिविशेषेणदेयंसर्वातिसारके ॥ प्रेमाख्यपंडितेनैवह्यनुभूतंपुनःपुनः॥४॥

**अर्थ–**छोटीमाई, मोचरस, आमके भीतरकी गुठली, पाखानभेद, धायके फूल, अतीस, ये प्रत्येक चार २ मासे ले, और अफीम ८ मासे, गेरू ८ मासे सबका बारीक चूर्ण करे फिर इसमेंसे१ मासे चावलोंके धोवनके साथ देवे तो आमका शूल, और आमातिसार, रक्तातिसार एवं संपूर्ण अतिसारोंमें देवे यह प्रेम पंडितका वारंवार अनुभव करा हुआ चूर्ण है॥

दूसरीदाडिमीवटी।

विश्वाचशतपुष्पाचयष्ट्याह्वंचाहिफेनकम् ॥ खर्जूरस्यफलंबिल्वंतथामोचरसंस्मृतम् ॥ १॥ समभागानिसर्वाणिसूक्ष्मचूर्णानिकारयेत् ॥अपक्वदाडिमीबीजंसर्वतुल्यंप्रदापयेत् ॥२॥ अपक्वदाडिमीबीजकोशेक्षिप्त्वाखिलंहितत् ॥ पुटपाकविधानेनपक्त्वाकोशसमन्वितम् ॥३॥ पिष्ट्वाकल्कंविधायाथगुटिकाः संप्रकल्पयेत् ॥ कर्कंधूवत्प्रमाणेनतक्रेणसहदापयेत् ॥ ४॥ पक्वातीसारशमनीदाडिमीवटिकास्मृता ॥

**अर्थ–**सोंठ, सौफमुलहटी, अफीम, खजूर कैकल, अर्थात् छुहारे, कच्चावेल फल और मोचरस ये सब बराबर ले सबका बारीक चूर्ण करे फिर इसमें सबकी बराबर कच्चे अनारके बीज मिलावे सबको कूट पीस कच्चेअनारके फल खाली करके भर देवे ऊपर उसके कपडमिट्टी देकर पुटपाककी विधिसे परिपक्वकरे जव पुटपाक होजावे तब आगसे निकालके उस अनारको कपडमिट्टी दूर करके खरलमें डालके उस अनारको पीस कल्ककर वेरके बराबर गोली वनावे एक गोलीको छाँछके साथ देवे यह पक्वातिसारके शमनकरनेवाली दाडिमी गुटिका कही है॥

शतपुष्पादिचूर्ण।

शतपुष्पाचविश्वाचश्वेताजाजीहरीतकी ॥ खाखसस्यफलंचैवपलार्धंतुपृथग्पृथक् ॥१॥ सूक्ष्मचूर्णंविधायाथघृतभृष्टंतुकारयेत् ॥ सर्वार्द्धातुसितादेयापलार्द्धंददधिसंयुतम् ॥ २॥
प्रातः कालेभक्षयेत्तुसर्वातीसारनाशनम् ॥ पथ्यंकुर्याद्विशेषेणशालिभक्तंसतक्रकम् ॥३॥

**अर्थ–**सौंफ, सोंठ,सपेदजीरा, हरड, पोस्त के डोडा, ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे सबका बारीक चूर्ण करके घीमें भूनलेवे और सब चूर्णसे आधी सपेद कच्ची खांड मिलावे इस चूर्णको २ तोले लेके दहीके साथ प्रातःकाल खाय तो सर्वप्रकारकेअतीसार दूर होवे तथा इसके ऊपर दहीभातका पथ्य देना चाहिये॥

लीलावतीवटी।

मस्तंगीतीक्ष्णलोध्रोदककुटजमदाश्चाम्रमज्जामधूकं साभापुष्पंसजातीफलमथकलिकामुद्रितासारजाता ॥ वांसीपित्साथमाजूफलमपिलघुरंवष्टिकाशाणमेषा प्रत्येकंखादिरंत्रिस्त्वथपिचुयुगलंसोमकाबीजमज्जः ॥ १ ॥ एकीकृत्वाप्रमर्द्यंसकलमिदमथोयामयुग्मंनवीनैर्नीरैः
पोस्तप्रभूतैर्लघुबदरमितासंविधेयावटीसा॥
सर्वातीसारहंत्रिवलजठरशिखीप्रोद्यदौजःप्रकर्त्रीतक्रश्यामाकलाजाकरकदधिहितंपष्टिकाकोद्रवाश्च ॥२॥

**अर्थ–**रूमीमस्तगी, राई, कालीमिरच, लोध, नेत्रवाला, कुडाकीछाल, आमकी गुठली, महुआ, साभपुष्प जायफल, सेमरकी मुँहमुदीकली, वंशलोचन, माजूफल छोटीमाई,ये प्रत्येक चार २ मासे लेवे खैरसार तीनतोले कोहफलके बीज इन सबको एकत्र कर पीस ले फिर नएपोस्तके डोकान्के जलसे दो प्रहर खरल करके छोटे वेरके समान गोली बनावे यह संपूर्ण अतिसारको नष्ट करे बल वढावे उदरकी जठराग्निको प्रवल कर इसके ऊपर पथ्यमें छाँछ सामखिया खील अनार दही सांठी चावल और कोदो ये देवे ॥

नृसिंहपोटलीरस।

रसश्चगंधपाषाणः प्रत्येकः कर्पमात्रकः ॥ श्लक्ष्णचूर्णंद्वयोः सम्यक्कुर्याद्वैद्येननिश्चितम् ॥ तच्चूर्णंपीतवर्णाभाकपर्दाभ्यंतरेकृतम् ॥ शरावपुटकेन्यस्यलिप्त्वासंभृतगोमयैः॥ सुदुह्याग्नौपचेत्तावद्यावद्गच्छतिभस्मताम् ॥ समुद्धृत्याश्मनासंर्वचूर्णितंसकपर्दकम् ॥ गव्येनसर्पिपानित्यंभक्षयेद्रक्तिकाद्वयम् ॥ ज्वरातिसारकंसर्वंहन्यात्तूर्णंचदुर्जयम् ॥४॥ अतीसारंसमग्रंचग्रहणींसर्वजांतथा॥ चिरज्वरंचमंदाग्निक्षीणज्वरहरंचतत् ॥ ६॥ रसएषसिंहस्यमतापोटलिकाहिता ॥ हितासर्वज्वरीणांतुसार्वातीसारिणांशुभा ॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, प्रत्येक एक२तोले, दोनोंका बारीक चूर्ण करे इस चूर्ण को पीली कौडियोंके भीतर भरे, फिर उन कौडियोंका शरावसंपुटमें रख कपडमिट्टी करके आरनेउपलोंमें रखके फूंकदेवे,जब भस्म होजावे तब सरावमेंसे उन कौडियोंको निकाल खरलमें डालके पीस डाले, इस भस्ममेंसे २ रत्ती ले गौके घीसे नित्य भक्षण करे तो यह ज्वरातिसार दुर्जयको भी शीघ्र दूर करे तथा सर्व प्रकारके अतिसार सर्वदोषोंकी संग्रहणी, प्राचीनज्वर, मंदाग्नि, क्षीणज्वर इन सर्व रोगोंको यह नृसिंहपोटलीरस दूर करें है। यह सर्वप्रकारके ज्वरोंमें तथा सर्वप्रकारके अतिसारोंमें हितकारी है॥

गंगाधररस।

मुस्तामोचरसंलोध्रंकुटजत्वक्तथैवच ॥ विल्बास्थिधातकीपुष्पमहिफेनंचगंधकम् ॥ १॥ शुद्धंहिपारदंचैवसर्वमेकत्रमर्दयत् ॥ रसोगंगाधरोनाम्नामापमात्रंप्रयोजयेत् ॥२॥वल्लमात्रमिदंखादेद्गुडतक्रसमन्वितम् ॥ सर्वातिसारग्रहणीप्रशमंयातिवेगतः॥३॥ पथ्यंतक्रौदनंदेयंसात्म्यंज्ञात्वाभिषग्वरः ॥

**अर्थ–**नागरमोथा, मोचरसा लोध, कूडाकीछाल, बेलगिरी,धायकेफुल,अफीम, गंधक और शुद्धपारा प्रत्येक समान भाग लेकर खरल करेतो यह गंगाधररस सिद्ध होय इसमेंसे १ महिनेपर्यंत ३ रत्ती गुड और छाँछके साथ खायतो सर्वप्रकारके अतिसार दूर होवे । और संग्रहणी दूर हो इसके ऊपर छाँछ भात खानेको वैद्य देवे परंतु उस रोगीका सात्म्यभी जानना जरूर है अर्थात् इस रोगीको क्या २ वस्तु पचती है॥

अतिसारमेंलवणनिषेध।

सर्वेषुमलभेदेपुलवणंनप्रयोजयेत् ॥

तद्धितैक्ष्ण्यात्सरत्वाच्चदोषक्षोभायकल्पते ॥

**अर्थ–**संपूर्ण मलभेदोंमें अर्थात् दस्तकी विमारीमें निमक खानेको नहींदेना चाहिये, क्योंकि निमक तीक्ष्ण है और दस्तावर है इसवास्ते इसके सेवन करनेसे दोष क्षुभित होते हैं ॥

प्रवाहिकासंप्राप्ति।

वायुःप्रवृद्धोनिचितंवलासंनुदत्यधस्तादहिताशनस्य ॥
प्रवाहतोल्पंबहुशोमलाक्तंप्रवाहिकांतांप्रवदंतितज्ज्ञाः ॥

**अर्थ–**अपथ्य सेवन करनेवाले पुरुषकेकुपित हुई जो वात से संचित हुए कफको मलसंयुक्त करके वारंवार गुदाके मार्गसे बाहर निकाले और मरोढाके साथ थोडा थोडा मल निकाले इसको प्रवाहिका कहते हैं। प्रवाहिका और अतिसार इन दोनोंका एकसा धर्म है इसीसे अतिसाररोगमें प्रवाहिका कही है। परंतु अतिसारमें अनेक प्रकारके द्रव्यधातु निकले हैं और प्रवाहिकामें केवलकफ निकले है । इतना भेद है इसमें (निचितंबलासं ) ये जो पद कहा अर्थात् कफसे मिलकर सो ये केवल कफका तो उपलक्षण है अर्थात् कफके कहनेसे पित्त और रुधिरभी जानना । भोजने इस रोगका नाम विक्सी कहा है, पराशरऋषिने इसको अन्तरग्रंथी कहा है, हारीतऋषिने निश्चारक कहा है, कोई आचार्य निर्वाहिका कहते हैं ॥

प्रवाहिकावातकृतासशूलापित्तात्सदाहासकफाकफाच्च ॥
सशोणिताशोणितसंभवाचताःस्नेहरूक्षप्रभवामतास्तु ॥

**अर्थ–**वातकी प्रवाहिकामें शूल होताहै,पित्तको दाहयुक्त, कफकी कफयुक्त और रक्तसे रक्तयुक्त होतीहै, यह चिकने और रूखे पदार्थ भोजन करनेसे होय है अर्थात् चिकने पदार्थसे कफकी, रूखे पदार्थसे वातकी, तुशब्दकरके तीक्ष्ण और खट्टे पदार्थसे क्रमसे पित्तकी और रुधिरकी होतीहै ऐसे जानना ॥

प्रवाहिकालक्षणादि।

तासामतीसारवदादिशेच्चलिंगंक्रमंचामविपक्वतांच॥

**अर्थ–**इस प्रवाहिकाके लक्षण क्रम आम और पक्वावस्था ये अतिसार निदानके सदृश जानना ॥

अतिसारनिवृत्तिलक्षण।

यस्योच्चारंविनामूत्रंसम्यग्वायुश्चगच्छति ॥
दीप्ताग्नेलघुकोष्ठस्यस्थितस्तस्योदरामयः ॥

**अर्थ–**जिस मनुष्यको मूत्र करतेसमय दस्त न होय और अपानवायु जिसकी शुद्ध निकले और अग्नि देदीप्यमान होवे, कोठा हलका होवे, उस मनुष्यका अतिसार गया जानिये ॥

बालबिल्वकल्क।

कल्कःस्याद्बालबिल्वानांतिलकल्कश्चतत्समः॥
दध्नःसारोम्लस्नेहाढ्योहन्याद्वैतत्प्रवाहिकाम् ॥

**अर्थ–**कोमल बेलफलोंको कूटकर कल्क तथा कल्कके समान तिलकल्क दहीकी मलाई तथा स्नेहयुक्त खटाई ये सव एकत्र करके भक्षण करे तो प्रवाहिका का नाश करे॥

मुद्गयूषादि।

मुद्गयूषपरसंतक्रंधान्यजीरकसंयुतम् ॥ तत्पड्गुणमितिप्रोक्तंसैंधवेनसमन्वितम् ॥ अग्निसंदीपनंप्रोक्तंग्रहणीदोषनाशनम् ॥ अरोचकंज्वरंचैवश्रेष्ठमेतत्प्रवाहिके ॥

**अर्थ–**मूंगकायूष, रस, छाँछ, धनिया, जीरा और सैधानिमक, इनके यूष, को षड्गुण यूषकहते है यह अग्निदीपन करता है, संग्रहणी, अरुचि ज्वर और प्रवाहिका, इनपर उत्तम है ॥

बालबिल्वादियोग।

बालबिल्वंगुडंतैलंपीतवामरिचोद्भवम् ॥
त्र्यहात्प्रवाहिकांहन्याच्चिरकालानुवंधिनीम् ॥

**अर्थ–**कच्चाबेलपत्रऔर कालीमिरच, इसका काढा गुड और तेल डालके सेवन करे तो तीन दिनमें बहुत दिनकीभी प्रवाहिकाका नाश करे ॥

बिल्वपेश्यादिकाढा।

बिल्वपेशीगुडंलोध्रंतैलंमरिचसंयुतम् ॥
लिह्यात्प्रवाहिकाक्रांतःसत्वरंसुखमाप्नुयात् ॥

**अर्थ–**वेलगिरी, गुड, लोध, तेल और कालीमिरच, ये पदार्थ समान भाग ले चूर्ण करके चाटे तो प्रवाहिकावाले रोगीको सुख होय ॥

धातक्यादियोग।

धातकीबदरिपत्रंकपित्थरसमाक्षिकम् ॥
सलोध्रमेकतोदध्नापिबेन्निर्वाहिकार्दितः॥

**अर्थ–**धायकेफूल, वेरकीपत्ती, अथवा कैथका रस, शहत और लोध, इनको दहीमें मिलायके प्रवाहिका रोगवाले प्राणीको पीवावे तो प्रवाहिकाका दुःख दूर हो ॥

मुस्तावत्सकादियोग।

मुस्तावत्सकबीजंमोचरसोबिल्वधातकीलोध्रम् ॥
भृगुमथितसंप्रयुक्तंगंगामपिप्रवाहिकांरुंध्यात्॥

**अर्थ–**नागरमोथा, इन्द्रजव, मोचरस, वेलगिरी, धायके फूल और लोध ये पदार्थ एकत्र करके इनमें दही डाल रईसे थोडा मथकर उस दहीको पीबे तो गंगाके समान प्रवाहवाले प्रवाहिकाको नष्ट करे ॥

तैलादियोग।

तैलंसर्पिर्दधिक्षौद्रंविपाविश्वंसफाणितम् ॥
सर्वमालोड्यपातव्यंसद्योनिर्वाहिकांहरेत् ॥

**अर्थ–**तेल, घी, दही, शहत, अतीस, सोंठ और गुडकी राव, ये सब एकत्र कर पीबे तो प्रवाहिकाको जीते ॥

त्र्यूपणादिघृत।

त्र्यूपणात्रिफलाचैवचित्रकोगजपिप्पली ॥ बिल्वकर्कटिकाहिंस्राविडंगंसानिदिग्धिकम् ॥ घृतप्रस्थंपचेदेभिर्गवांमूत्रेचतुर्गुणे ॥ तत्प्रयोगंपिबेत्कोलंहन्यात्तेनप्रवाहिकाम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आँवला चीतेकीछाल, गजपीपल, वेलगिरी, काकडासाींगी, जटामांसी, वायविडंग और कटेरी, इनका काढा एक भाग तथा गोमूत्र चार भाग, गौका घी ६४ तोले डाले मधुरी अग्निपर रखके घीको सिद्ध करे फिर इसमेसे छः मासे सेवन करे तो प्रवाहिका नष्ट होवे ॥

मुस्तादिगुटी।

मुस्तंमोचरसंलोध्रंधातुकीबिल्वकौटजम् ॥ अहिफेनंरसंगंधंसूक्ष्मचूर्णानिकारयेत् ॥ वल्लमात्रमिदंखादेद्गुडतक्रसमन्वितम्॥ अतिसारेप्रवाहेचग्रहण्यांचविशेषतः॥

**अर्थ–**नागरमोथा, मोचरस, लोध, धायकेफूल, विलगिरी, इन्द्रजौ, अफीम पारा और गंधक ये एकत्र कर चूर्ण करे इसमेंसे ३ रत्तीकी गोली गुड तथा छाँछ, इनसे अतिसार और प्रवाहिका इनपर विशेष करके देवे, तथा संग्रहणी परभी देवे तो उत्तरोग निश्चय दूर होवे ॥

पथ्य।

वमनंलंघनंनिद्रापुराणाःशालिपष्टिकाः ॥ विलेपीलाजमंडश्चमसूरस्तुवरीरसः ॥ शशोवैलावहरिणकपिंजलभवारसाः ॥ सर्वक्षुद्रझपाशृंगीडिंडिशौमधुरालिका ॥ तैलच्छागघृतंक्षीरंदधितक्रंगवामपि ॥ दधिजंवापयोजंवानवनीतंगवांजयेत् ॥ नवंरंभाफलंपुष्पंक्षौद्रंजंबुफलानिच ॥ भव्यंसहार्द्रकंविश्वंशालूकंचविकंकतम् ॥ कपित्थंवदरंबिल्वंतिंदुकंदाडिमद्वयम् ॥ तालंबटफलंवापिचांगेरीविजयाकणा ॥ जातीफलमफेनंचजीरकंगिरिमल्लिका ॥ कुस्तुंवुरुमहानिंबकषायःसकलोरसः ॥ अन्नपानानिसर्वाणिदीपनानिलघूनिच ॥ नाभेर्द्व्यंगुलतोधस्ताच्छस्त्रेणार्धेन्दुवद्दहेत् ॥ तथावंशास्थिमूलेपिपथ्यवर्गोतिसारिणाम् ॥

**अर्थ–**उलटीकरना, लंघनकरना, निद्रा, पुराने सांठी चावल और शालिचावल खीलोंका मंड, मसूर, अरहर इनका रस, तथा ससा, लवा, हिरण,सपेदतीतर इनका मांस, सर्वप्रकारकी छोटीमछली, तथा शृंगिजातिकी मछली देडसका पल शहत, राल, तेल, बकरीका और गौका घी, दूध, दही, छाँछ, तथा गौकेदहीसी एवं दूधकी लोनी, नवीनकेलाकी गहर, मद्य, जामुन, करोंदा, अदरख, सोंठ, कमलकद, विकंकत, कैथ, वेर, बेलकाफल, तेंदू, खट्टा अनारऔर मीठा अनार, तालके फल, वडके फल, चुका, भांग, पीपल, जायफल, अफीम, जीरा, कुडा और धनिया, बकायन, संपूर्ण कसेले पदार्थ तथा दीपन, हलके ऐसे अन्न और पान तथा नाभिके नीचे और ऊपर दो दो अंगुलपर अर्धचद्राकार तथा वंशास्थिके नीचे अर्धचंद्राकार लोहकी सलाईसे दाग देना यह अतिसार रोगीको पथ्यवर्ग कहा है ॥

जल।

दशांशंषोडशांशंवाशतांशंवाशृतंजलम् ॥ सुशीतंपाचनंग्राहिदीपनंदोषनाशनम् ॥ यथायथाशृतंतोयंज्वरातीसारिणो भवेत् ॥ दीपनंपाचनंग्राहिआरोग्यंचतथातथा ॥

**अर्थ–**दशांश, षोडशांश, अथवा शतांश, औटायके शीतल करा हुआ जल ग्राहक दीपन और सर्व दोषनाशक होताहै,एवं जैसे२पानीको अधिक औटाया जावे उसी २ प्रकार अधिक गुणकारी होताहै तथा आरोग्य देनेवाला है॥

अतीसारपरअपथ्य।

स्नानागाहमभ्यंगगुरुस्निग्धान्नभोजनम् ॥ व्यायाममग्निसंतापमतिसारीविवर्जयेत् ॥
नवान्नोष्णंगुरुस्निग्धंभोजनंनहितंनवम् ॥ व्यायामंमैथुनंचिंतामतिसारीविवर्जयेत् ॥ स्वेदोंजनंरुधिरमोक्षणमंबुपानंस्नानंव्यवायमपिजागरधूमनस्यम् ॥
अभ्यं जनंपललवेगविधारणंचरूक्षण्यसात्म्यशयनंचविरुद्धमन्नम् ॥ कूष्मांडतुंविवदरंगुरुचान्नपानंतांबूलमिक्षुगुडमद्यमुपोदिकां च ॥
द्राक्षाम्लवेतसफलंलशुनंचधात्रीदुष्टांबुमस्तुगृहवारिचनारिकेलम् ॥
संस्नेहनंमृगमदाखिलपत्रशाकाक्षारंरसानिसकलानिपुनर्नवाच ॥ उर्वारुकंलवणमम्लमविप्रकोपंवर्ज्योतिसारगदपीडितमानवेपु॥

**अर्थ–**स्नान, अवगाहन उवटना, भारी और चिक्ना एसा भोजन, दंड कसरत, अत्यंत अग्निकासंताप, नवीन अन्न, उष्ण, भारी, स्निग्ध, अपथ्य पदार्थ, व्यायाम,मैथुन करना,चिंता,पसीने काढना, अंजन, रधिर निकालना जल पीना, सान, स्रीगमन, जागरण, धूमपान,नस्य, अभ्यंजन, मांस, मलमृगादि वेगका धारण, तथा रुक्ष और असात्म्य ऐसा भोजन, विरुद्ध भोजन, गेहूँ उढद, बथुआ, मकोय, चौरा, शहत,सहजना, आंब, पूडी, पूरन पोली, पेठा, सेपदंतुबा, वेर, भारी अन्न अथवा भारी पदार्थका भोजन और भारी जलका पीना, बीडा, ईख, गुड, मद्य, पोईका साग, दाख, अमलवेत, ल्हसन, आंवले, दूषितजल, छाँछ, घरका पानी, नरियल, स्नेहन, कस्तूरी, सर्वप्रकारके पत्तोंका साग, खार, संपूर्ण रस, सुपपदार्थ, पुनर्नवा, ( सांठ, ) कांकडी, खीरा, निमक, खट्टेपदार्थ और क्रोधका करना यह अतिसार रोगवालेको वर्जित करना चाहिये ॥

ज्योतिःशास्त्राभिप्रायेणअतिसाररोगस्यकारणमाह ।

जलराशौयदालग्नेजलर्क्षेलग्ननायकः ॥

गुदेशेसूर्यसंयुक्तेसभवेदतिसारवान् ॥ १ ॥

**अर्थ–**यदि जलराशि (कुम्भ मीन आदि) लग्नमें होय और लग्नका पति जलराशिमें होवे, एवं गदास्थानका पति सूर्य करके युक्त होय तो वो प्राणी अतीसारवाला होवे ॥

एवंक्षितिजसंयोगेरक्तातीसारकारकः॥

**अर्थ–**यदि पूर्वोक्त ग्रह मंगलके साथ बैठे होय तो उस प्राणीके रक्तातिसार अर्थात् रुधिरका दस्त होनेवाला होवे॥

मृत्युयोग।

मारकेणयुतेविद्धेऽतीसारेणमृतिर्वदेत् ॥२॥

**अर्थ–**यदि पूर्वोक्तग्रह मारके शकरके युक्त अथवा विद्ध होवे तो उस प्राणीकीअतिसाररोग करके मृत्यु कहनी चाहिये ॥

लग्नेशेकफराशिस्थेकफग्रहसमन्विते ॥
षष्टेशेजलराशिस्थेछर्द्यतीसारकारकः ॥३॥

**अर्थ–**लग्नेश कफराशिस्थहोकर कफकर्त्ताग्रहोंकरके युक्त होवे तथा षष्ठेश (रोगश ) ग्रह जलराशिमें स्थित होय तो वमन और अतिसारकारक जानना॥

मृतीशेस्वल्पराशिस्थेजलराशिगतेथवा ॥
लग्नेशेनतथायुक्तेऽतीसारेणमृतिर्वदेत् ॥४॥

**अर्थ–**यदि अष्टमेश उन राशिमें हो अथवा जलराशिमें होय और वह लग्नेशशकरकेयुक्त होय तो उसको अतिसाररोग करके मृत्यु जाननी ॥

लग्नेशरिपुभावेशशत्रुदृष्ट्याविशेषतः॥
लग्नेमंदयुतेदृष्टेज्वरातीसारकारकः॥५॥

**अर्थ–**लग्नेश और रिपुभावेश आपसमें शत्रु दृष्टि करके देखते हो और लग्नशनि करके युक्त हो अथवा दृष्ट होय तो वो ज्वरातिसारकारक जानना ॥

इति बृहन्निघंटुरत्नाकरे अतिसारप्रवाहिकाचिकित्सासमाप्ता।
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संग्रहणी।

ज्योतिःशास्त्राभिप्रायसेसंग्रहणीरोगकानिदान
तहां सप्तधातुओंकेस्वामी

स्नाय्वस्थ्यमुक्त्वगथशुक्रवसाचमज्जा-
मंदार्कचंद्रबुधशुक्रसुरेज्यभौमाः॥१॥

**अर्थ–**स्नायु, हड्डी, रुधिर, त्वचा, शुक्र, वसा,मज्जा, इन सात धातुओंके स्वामी क्रमसे शनि, सूर्य, चंद्र, बुध, शुक्र, बृहस्पती और भौम कहिये मंगलहै॥

अथग्रहणीकर्त्तायोग।

शनिशुक्रौसप्तमस्थौनिर्वलौलग्नपुत्रपौ॥
विड्बंधग्रहणीचित्तवैकल्याद्यतिकष्टदौ ॥२॥

**अर्थ–**शनि और शुक्र पे दोनोंग्रह सप्तममें स्थितहों तथा लग्नेश और पंच मेश निर्बल होवें तो विड्बंध (मलका न उतरना) संग्रहणी, चित्तमें वकली और अतिकष्ट होय ॥

गदेशेगदराशिस्थेगदभावनिरीक्षिते ॥
क्षीणचंद्रोभवेत्तस्यग्रहणीदुःखकारिणी ॥३॥

**अर्थ–**रोगेश (छठेघरकास्वामी) छठेघरमें अर्थात् रोगघरमें बैठा होवेअथवास्थानमें बैठके रोगघरको देखता होय और चंद्रमा जिसका क्षीण होय तो उसके दुःखकर्ता संग्रहणी रोगहोय॥

लग्नस्थेक्षीणशीतांशुशनिभौमतमैर्युते ॥
ग्रहणीरोगवान्जातअथवाकटिशूलवान् ॥ ४॥

**अर्थ–**क्षीणचंद्रमा जन्मलग्नमें बैठा होय और शनि भौम तथा राहूकरके युक्त होय तो उस प्राणीको संग्रहणीका रोगहोय अथवा कमरमें पीडा होय ॥

रोगाधीशोमृत्युभाबेरोगसद्मेश्वरस्तनौ ॥
ग्रहणीगदतोमृत्युर्जायतेनात्रसंशयः ॥५॥

**अर्थ–**रोगका मालिक अष्टमघरमें बैठाहोय और छठेघरका मालिक लग्नमें बैठा होय तो उस मनुष्यकी संग्रहणी रोगसे मृत्यु होय इसमें संदेह नहीं है ॥

एवंरविसमायोगेग्रहणीपित्तसंभवा
गुरुणाकफकोपेनजायतेनात्रसंशयः ॥६॥

**अर्थ–**इसी प्रकारके योगमें यदि सूर्यका समागम होय तो पित्तजन्य संग्रणीका रोग होय और बृहस्पतिका संयोग होवे तो कफजन्य संग्रहणी होय इसमें संदेह नहीं है ॥

रोगसद्मेश्वरोमंदभूपुत्राभ्यांसमन्वितः॥
वातामयोत्थाग्रहणीजायतेनात्रसंशयः॥७॥

**अर्थ–**रोगघरका मालिक शनैश्वर और मंगलकरके युक्तहोवे तो उस प्राणीको वादीकी संग्रहणीहोती है इसमें संदेह नहीं है ॥

ग्रहणीरोगकाकर्मविपाक।

साध्वींभार्यांचयोमर्त्यःपरित्यजतिकामतः॥
ग्रहणीरोगसंयुक्तः सदाभवतिमानवः ॥८॥

**अर्थ–**जो प्राणी विनाकारण अपनी सुशीलास्त्रीका परित्याग करताहै यह प्राणी सदैव संग्रहणी रोगकरके पीडित होताहै॥

अनन्यगतिकांभर्यामदुष्टांकारणंविना ॥
परित्यजतियःसोऽपिग्रहणीरोगवान्भवेत् ॥९॥

**अर्थ–**जो दुष्टपुरुषअनन्यगतिक ( जिसको दूसरेका आसरा न हो) और पवित्र ऐसी सुशीला अपनी स्त्रीको कारणके विना त्याग देवे इस अपराधसे इस प्राणीको संग्रहणी रोग होता है॥

संग्रहणीरोगकीशांति ।

शिवसंकल्पसूक्तस्यजपःस्यात्तत्रशांतये ॥ अष्टोत्तरसहस्रंहिहिरण्यंचतथामधु ॥ दद्याद्वित्तानुसारेणसौरमंत्रजपस्तथा ॥ धेनुंसलक्षणांदद्याद्वस्त्राभरणसंयुताम्॥ पयस्विनींगुणोपेतांब्रांह्मणायकुटुंबिने॥ वत्साभरणसंयुक्तांवस्त्रेणाभरणेनच ॥

**अर्थ–**उस पापकी शांति करनेको शिवसंकल्प सूक्तको १००८ एकहजार आठ पाठ करावे और ब्राह्मणको सुवर्ण और शहत अपने वित्तानुसार देवे, तथा सौर मंत्रका जप करावे, तथा सुन्दर लक्षण युक्त और वस्त्राभरण करके युक्त ऐसी गौका दान कुटुंबवाले विद्वान् ब्राह्मणको देवे तथा उस गौके बछडेको भी वस्त्र आभरणोंसे भूषित करना चाहिये॥

पद्मपुराणेगौतमः ।

धेनुंपयस्विनींदद्याद्घंटाभरणभूषिताम् ॥ हेमशृंगीरौप्यखुरांवासोभिर्वेष्टितांनरः ॥ नवधान्यैःसमायुक्तामेकैकंद्रोणपंचकम् ॥ सहिरण्यांतुगांदद्याद्ब्राह्मणायकुटुंबिने ॥
अलोलुपायशां तायधर्मज्ञायविशेषतः ॥१॥

**अर्थ–**पद्मपुराणमे गौतम ऋषिका वाक्यहै कि संग्रहणी रोगवाला प्राणी घंटा और भूषणेंसे भूषित सुवर्णके सींग चांदीके खुर और वस्त्रोंसे आच्छादित और टूधके देनेवाली गौका दानकरे तथा नवधान्य पांच५द्रोण उसके साथ तथा सुवर्ण सहित कुटुंबी ब्राह्मण जो लोलुप न हो तथा शांतस्वभाववाला और धर्मज्ञ ऐसको दान देवे ॥

होमंचपूर्ववत्कुर्यात्समिदाज्यचरूत्कटैः॥
तस्मैहुतवतेदद्यात्पूजितायांगुलीयकैः॥
गांकृष्णांकृष्णरूपायमंत्रेणानेनरोगवान् ॥

**अर्थ–**संग्रहणीरोगवाला ढाककी समिधा, घृत, चरू इनसे पूर्वोक्त क्रमसे हवनकरे, फिर हवनकरानेवाले ब्राह्मणका पूजनकर उसको सुवर्णकी अंगूठी और काले रंगकीगौ, कृष्णस्वरूपी ब्राह्मणो नीच लिखे मंत्रको पढकर देवे ॥

मंत्र।

देवकीपुत्रचाणूरकंसारिष्टविनाशन ॥

नाशयग्रहणींकृष्णगोपीजनमनोहर ॥

अर्थ– है देवकीपुत्र ! हे कंसअरिष्टासुरके नाशक ! हे कृष्ण ! हे गोपीजनमनोहर! मेरे इस संग्रहणी रोगको नष्टकरो॥

मंत्रेणानेनदानेनग्रहणीशांतिमृच्छति ॥
तस्मादेतच्चकर्त्तव्यंग्रहणीरोगिणांसदा ॥

**अर्थ–**इस मंत्रकरके करे हुए दानसे संग्रहणीरोग शांति होताहै इसीवास्ते यह गोदान संग्रहणी रोगवालेको अवश्य कर्त्तव्य है ॥

ग्रहण्याः स्वरूपमाह।

ग्रहण्यग्निधराकला।

**अर्थ–**जठराग्निके धारण करनेवाली कलाको ग्रहणी इसप्रकार कहते हैं ॥

यदाहचरकः।

अग्न्यधिष्ठानमन्नस्यग्रहणाद्ग्रहणीमता॥
अपक्वंधारयत्यन्नंपक्वंत्यजतिचाप्यधः ॥

**अर्थ–**जैसे चरफमें लिखाहैकि अन्नका अग्नि अधिष्ठान है और उस अन्नके ग्रहण करनेसे उसको ग्रहणी कही है, यह ग्रहणीअपक्व (कच्चे) अन्नको धारण करती है और पके अन्नको नीचे गेर देतीहै ॥

ग्रहण्यावलमग्निर्हिसचापिग्रहणींश्रितः ॥ तस्मादग्नौप्रदुष्टेतुग्रहण्यपिविदुष्यति ॥
तस्मात्कार्यःपरोहारोह्य^(१)तीसारेविरक्तवत् ॥ विरक्तेनेव विरक्तवत्

**अर्थ–**और भी लिखाहै ग्रहणीका बल अग्निहै वह ग्रहणीस्थानके आश्रयीभूत है, इसीकारण अग्निके दूषित होनेसे ग्रहणीभी दूषित होतीहै इसीवास्ते अतिसारमें विरक्त (वैराग्यवान् ) पुरुषके समान पथ्याचरण करना चाहिये ॥

अन्यच्च।

पक्वामाशयमध्येपित्तधरानामयाकलाकथिता ॥
साग्रहगीत्युपदिष्टादुष्टाग्रहणीगदंकुरुते॥

**अर्थ–**तथा अन्पवाग्भटादिप्रंर्थोर्मेलिखाहै कि पक्वाशय और आमाशयके बीचमें जो पित्तधरा नामक कलाहै उसीको ग्रहणी ऐसा कहा है वह दुष्ट होकर संग्रहणी रोगको करती है॥

अतिसाररोग संग्रहणीरोगहें इतनाही भेद है कि अतिसारमें द्रवधातु निकलेहै और संग्रहणीमें बंधा हुआ भी मल निकले है ॥

ग्रहणीकास्थान।

षष्ठीपित्तधरानामयाकलापरिकीर्तिता ॥
पक्वामाशयमध्यस्थाग्रहणीसाप्रकीर्त्तिता॥

**अर्थ–**छठी पित्तधरा नामक जो कला पक्वाशय और आमाशयके बीचमें है उसीको संग्रहणी वैद्योंने कहाहै ॥

संग्रहणीनिदान।

अतीसारेनिवृत्तेपिमन्दाग्नेरहिताशिनः॥
भूयःसंदूषितोवह्निर्ग्रहणमिभिदूषयेत् ॥

**अर्थ–**पहले मनुष्यके अतिसाररोग होकर जातारहा होय, फिर उस मनुःष्यके कुपथ्य करनेसे मन्द हुई जो अग्नि सो पुरुषके उदरमें रहनेवाली जो पित्तधरानामफ छठी कला जिसको ग्रहणी कहते हैं, उसको बिगाड़ अपिशब्द करके अतिसार न भया होय तो भी अपने कारणकरके पूर्वोक्त ग्रहणीको बिगाडकर संग्रहणीरोगको प्रगट करे यह सूचना करी । कोई आचार्य ऐसे कहते हैं, कि अतिसार न गया होय बीचमेंहीं ग्रहणीरोग होताहै (मन्दाग्नेः) इसपद करके ये सूचना करी किि जिस पुरुषकी अग्नितीक्ष्ण है वो कुपथ्यभी करे तथापि कुछ औगुन नहीं होय, अन्नको ग्रहण करे है इसीसे इसको ग्रहणी कहे हैं । अतएव ग्रहणीकेविगडनेसे अन्नका परिपाक अच्छे प्रकार नहीं होय अर्थात् वारंवार आममिश्रित मल गुदाके मार्गसे गिरता है॥

ग्रहणीकीसंप्राप्तिवालक्षण ।

एकैकशःसर्वशश्चदोषैरत्यर्थमूर्छितैः॥ सादुष्टाबहुशोभुक्तमाममेवविमुंचति ॥ पक्वंवासरुजपूतिमुहुर्बद्धंमुहुर्द्रवम् ॥ ग्रहणीरोगमाहुस्तमायुर्वेदविदोजनाः॥

**अर्थ–**अत्यंत कुपित हुएपृथफ् पृथक् दोष ( वात पित्त फफ) और सर्वदोष मिलकर ग्रहणीको दुष्ट करे, सो ग्रहणी दुष्ट होकर कच्चे अथवा पक्के अन्नोको गुदाके मार्ग होकर निकाले और पीडा होय तथा उस मलमें दुर्गधि आवे ,वादीसे पतला मल और पित्तसे गाढा दस्त वारंवार होवे और कभी फफसे पानी सरीखा अधोवायु युक्त निकले इसको आयुर्वेदके जाननेवाले वैद्य संग्रहणी रोग कहते हैं॥

अन्यच्च।

सामंसान्नमजीर्णेन्नेजीर्णेपक्वंतुनैववा ॥
अकस्माद्वामुहुर्बद्धमकस्माच्चोपवेशयेत्॥
साचतुर्द्धापृथग्दोषैःसन्निपाताच्चजायते ॥

**अर्थ–**अजीर्ण अन्नमें आमसहित और कच्चे अन्नसहित दस्त हो और वही भोजन कराहुआ अन्न जीर्ण होजावे तथा पक्वहोजावे तब न गिरे तथा अकस्मात् वारंवार दस्त बँधा हुआ होय और अकस्मात् पतला तथा अकस्मात् दस्तबंद होजावे ऐसा संग्रहणीरोग चारप्रकारका है जैसे १ वातका २पित्तका३ कफका और चतुर्थ संनिपातका ॥

संग्रहणीकेपूर्वरूप।

प्राग्रूपंतस्यसदनंचिरात्पवनमम्लकः ॥ प्रसेकोवक्रवैरस्यमरुचिस्तृट्क्लमोभ्रमः॥ आनद्धोदरताछर्दिःकर्णच्छेदोंत्रकूजनम् ॥ सामान्यंलक्षणंकार्श्यंधूमकस्तमकोज्वरः ॥ मूर्च्छाशिरोरुग्विष्टंभःश्वयथुःकरपादयोः॥

**अर्थ–**अब उस ग्रहणणरोगका पूर्वरूप कहतेहैं जैसे देहका थकासा हो जाना और बहुत देरमें खट्टी डकार आवे, मुखसे, लार हे मुखमें सवाद नरहै, अरुचि, प्यास, क्लम ल, भ्रम, पेटकातनासाहोना, वमन, कानमें घाव, आतोंका बोलना, देहकृश, धूंएका मुखसे निकलना, तमक, श्वास, ज्वर, मूर्च्छा, मस्तकमें पीडा, अफरा, हाथ पैरोंमें सूजन, ये ग्रहणीरोगके सामान्य लक्षण हैं॥

पूर्वरूपंतुतस्येदंतृष्णालस्यंवलक्षयः॥

विदाहोन्नस्यपाकश्चचिरात्कायस्यगौरवम् ॥

**अर्थ–**प्यास, आलस, वलनाश, अन्नका दाह, ( पाकके समय अग्निसीजले) और अत्रका पाक देरमें होय, देह भारी होय, यह ग्रहणीरोगका पूर्वरूपहै ॥

पक्षाद्वापिदशाहाद्वाविंशतेर्वादिनात्परम् ।

मासाद्वापिभवेत्कोपोग्रहणीरुजमानवे॥

**अर्थ–**इस प्राणीके पंद्रह दिनमें दश दिनमें वीस दिनमें अधवा एक महीनेमें ग्रहणीरोग कुपित होताहै ॥

वातिकग्रहणीकेकारण।

कटुतिक्तकषायातिरूक्षसंदुष्टभोजनैः ॥
प्रमितानशनात्यध्ववेगनिग्रहमैथुनैः॥
मारुतःकुपितोवह्निंसंछाद्यकुरुतेगदान् ॥

**अर्थ–**वरपरा, बडुआ, कसैला, अतिरूखा और संयोगविरुद्ध ऐसे भोजनसे तथा थोडे भोजनसे, उपवाससे, बहुत चलनेसे, मलमूत्रादि वेगों के रोकनेसे, अत्यंत मैथुनसे, कुपित हुई जो वात सो अग्निको दूषित कर रोगोंको प्रगट करे है ॥

वातिकग्रहणीकेरूप।

तस्यान्नंपच्यतेदुःखंशुक्तपकंखरांगता ॥ कंठास्यशोपः क्षुत्तृष्णातिमिरंकर्णयोःस्वनः ॥ पार्श्वोरुवंक्षणग्रीवारुगभीक्ष्णंविपूचिका ॥ हृत्पीडाकार्श्यदौर्बल्यंवैरस्यंपरिकर्तिका ॥ गृद्धिःसर्वरसानांचमनसःस्पंदनंतथा ॥ जीर्णेजीर्यतिचाध्मानंभुंक्तेस्वास्थ्यमुपैतिच ॥ सवातगुल्महृद्रोगप्लीहाशंकीचमानवः ॥ चिरादुःखंद्रवंशुष्कंतन्वामंशब्दफेनवत् ॥
पुनःपुनःयृजेद्वर्चः कासश्वासार्दितोऽनिलात् ॥

**अर्थ–**उस वातग्रहणीवालेके अन्नदुःखसे पचे, अन्नका पाक खट्टा होय, अंगमें कर्कशता (यह वायुको त्वचाके चिकनापन शोखनेसे होताहै ) कंठ, मुखका सुखना, भूख, प्यास लगे, मन्द दीखे, कानोंमें शब्द हो, पँसवाड़े जांघ पेडू और कंधेमें पीड़ा होवे, विपूचिका हो ( अर्थात् दोनों द्वारसे कच्चे अन्नकी प्रवृत्ति होवे) हदय दूखे, देह दुबला होजाय,जीभका स्वाद जाता रहे, गुदामें कतरनी कीसी पीडा हो, मीठेसे आदि ले सर्व रसोंके खानेकी इच्छा,मनमें ग्लानि, अन्न पचने उपरांत पेटका फूलना, भोजन करनेसे स्वस्थता, पेटमें गोला, हृद्रोग, तापतिल्लोकीसी शंका, वातके योगसे खांसी, श्वाससे पीडित बहुत देरमे वडेकष्टसे कभी पतला कभी गाढा थोडा शब्द और झागमिला वारंवार दस्त जाय ॥

वातसंग्रहणीकाचिकित्साक्रमग्रहणीरोगमेंपाचन।

धान्यबिल्ववलाशुंठीशालपर्णीशृतंजलम् ॥
स्याद्वातग्रहणीदोषेसानाहेसपरिग्रहे ॥

**अर्थ–**धनिया, वेलगिरी, खिरेटी, सौंठ, और सालवन इनके काढेको वातकी संग्रहणीमें अफरामें और मलको दुष्टतामें पीबे तो ये दूर हो ॥

दारुनागरनिशासुवासकंकुंडलीमगधयाशठीधनम्॥
रास्नाभांर्ग्यशरलाभपौष्करंपाचनंभवतिवातकेग्रहे ॥

**अर्थ–**देवदारु, सोंठ, हलदी, अडूसा, गिलोय, पीपल, कचूर नागरमोथा, रास्ना,भारंगी,शरल,पुहकरमूल,यह क्वाथ वादीकी संग्रहणी में पाचन कहा है ॥

यवान्यादिचूर्ण।

यवानीव्योपसिंधूत्थंजीरकेद्वेचहिंगुकम् ॥
आद्यग्रासाशितंसाज्यंचूर्णंवातनुदग्निकृत् ॥

**अर्थ–**अजवायन, सोंठ, मिरच,पीपल, सैंधानिमक, सपेदजीरा,कालाजीरा और हींग इनका चूर्ण करके भोजनके प्रथम ग्रासमें घी मिलायके खाय तो अग्निको प्रबल करे यह यवानीचूर्ण है परंतु वास्तवमें हिंगाष्टक चूर्ण है॥

ग्रंथिकाचाभयाकृष्णाविडंगाक्तेघटेस्थितम् ॥
मासंतक्रंग्रहण्यार्शकासगुल्मकृमीहरम् ॥

**अर्थ–**पीपरामूल, जंगीहरड, पीपल, वायविडंग, इनको पीसके एक कोरे घडेमें लपेट देवे; फिर इसमें छाँछको भरदेवे इस छाँछको १ महीने पर्यंत पीबेतो संग्रहणी, बवासीर, खाँसी, गोला और कृमिरोग, इनको हरण करे ॥

रामठादिचूर्ण।

रामठातिविपापथ्यावचेन्द्रयवचूर्णकम्॥
वारिपीतंनिंहंत्येवग्रहणींवातसंभवाम् ॥

**अर्थ–**हींग, अतीस, हरड, वच और इन्द्रजौ इनका चूर्णकर जलके साथ पीवे तो वातकी संग्रहणीको नष्ट करे ॥

चूर्णंहिंग्वादिकंचापिवातिकेपट्घृतान्वितम् ॥

स्नेहाम्ललवणैयुक्तंबहुवातस्यशस्यते ॥

**अर्थ–**हिंगाष्टक चूर्णको थोडेसे घीमें मिलाय, स्नेह, खटाई और निमकके साथ जिस संग्रहणीवालेके अधिक बादी होवे उसको सेवन करना चाहिये॥

शुंठीघृत।

घृतनागरकल्केनसिद्धंवातानुलोमनम् ॥
ग्रहणीपांडुरोगघ्नंप्लीहकासज्वरापहम् ॥

**अर्थ–**सोंठके कल्कमें घी डाल अग्निपर सिद्धकर,यह घृत बादीको अनुलोमन करे तथा संग्रहणी, पांडुरोग, प्लीहा, खांसी और ज्वर इसको नष्ट करे॥

पंचमूलघृत।

पंचमूलाभयाव्योपपिप्पलीमूलसैंधवैः ॥ रास्नाक्षारद्वयाजाजीविडंगशठिभिर्घृतम् ॥ पक्वेनमातुलुंगस्यस्वरसेनार्द्रकस्यच ॥ शुष्कमूलककोलांबुचुक्रिकादाडिमस्यच ॥ तक्रमस्तुसुरामंडसौवीरकतुपोदकैः॥ कांजिकेनचतत्पक्त्वापीतमग्निकरंपरम् ॥ शूलगुल्मोदरानाहकार्श्यानिलगदापहम् ॥

**अर्थ–**पंचमूल, जंगीहरद, सोंठ, मिरच, पीपल, पीपरामूल, सैंधानिमक, रास्ना, सज्जीखार, जवाखार, जीरा, वायविडंग और कचूर इन सब औषधोंके कल्कमें घी सिद्ध करे फिर रस घीको पके हुए विजोरेके रसमें अदरखके रसमें, सूखीहुई मूलीके काढेमें सूखे हुऐ वेरके काढेमें चूकके रसमें अनारके रसमें छाँछ, दहीका तोर, सुरा, जवकी पेया, तुपोंके काढा और कांजी इन प्रत्येकमें पचाय २ के सिद्धकरे तो यह अग्निकारक, शूल,गोला उदर अफरा, देहकी कृशता और वादीके रोग इन सबको नाशकरे ॥

संग्रहणीकाचिकित्साक्रम।

ग्रहणीमाश्रितंदोषमजीर्णवदुपाचरेत् ॥ लंघनैर्दीपनीयैश्चसदातीसारभेषजैः ॥ दोषंसामंनिरामंचविद्यावातिसारवत् ॥ अतिसारोक्तविधिनातस्यचामंविपाचयेत् ॥ पेयादिपटुलघ्वन्नंपंचकोलादिभिर्युतम्॥दीपनानिचतक्रंचग्रहण्यांयोजयद्भिषक्॥

**अर्थ–**संग्रहणीके रोगमें अजीर्णकेसमान औषध करेअर्थात् जो औषधी अजीर्णपर कही है वही इस संग्रहणीपरभी करे [तथा लंघन,दीपन और अतिसारपर कही हुईऔषधोंको देवे ]अतिसारके समानही दोषआम सहित किंवा आम रहित है यह प्रथमही देख लेवे और अतिसारपर उक्तविधिके अनुसार आमका पाचन करे, पेया इत्यादि क्षार, पंचकोलादिक करके युक्त ऐसे हलके अन्न सेवन करे, दीपन पदार्थ तथा तक्र ( छांछ ) देना चाहिये ॥

ज्ञात्वातुपरिपक्वंचवातजंग्रहणीगदम् ॥
दीपनैर्भेषजैःपक्वैःसर्पिभिःसमुपाचरेत् ॥

**अर्थ–**परिपक्ववातसंग्रहणीकी परीक्षा करके उसको दीपन और घृत इन करके उपचार करे ॥

शालिपर्ण्यादिकाढा।

शालिपर्णीबलाबिल्वंधान्यशुंठीकृतःशृतः॥
आध्मानशूलसहितांवातजांग्रहणींजयेत् ॥

**अर्थ–**शालपर्णी, खिरेटीको जड, वेलगिरी,धनिया और सोंठ, इन पांच औषधोंकाकाढा करके पीबे तो पेटका फूलना और शूलयुक्त वातसंग्रहणीको दूर करे॥

मधुपक्वहरीतकी।

हरीतकीनांचशतंदोलायंत्रेशनैःपचेत् ॥ सुस्विन्नंगोमयेनीरेसंसृष्टंवापुनस्ततः ॥ पश्चात्क्षुद्रशलाकाभिश्छिद्रितंतत्समंततः ॥ शतंपलानांमधुनोवस्त्रपूतंविनिःक्षिपेत् ॥ स्निग्धभांडेविनिःक्षिप्यक्षौद्रंदेयंतथातथा ॥ यथायथाहिमधुनोजलत्वंयातिनिश्चितम् ॥ पुनर्देयंमधुतथायावन्नायातिविक्रियाम् ॥ तिष्ठत्येवंतथापथ्याकषायगुणवर्जिता ॥ पिप्पलीमरिचंशुंठीलवंगवंशलोचनम्॥ प्रत्येकंकर्पमात्रंहिचूर्णितंततनिःक्षिपेत् ॥ मधुपक्वभिधापथ्याबलवर्णाग्निदीपनी ॥ एकैकांभक्षयेत्प्रातःसर्वरोगनिवारिणीम् ॥ दुष्टवातंसंग्रहंचतथामंदुष्टशोणितम् ॥ जीर्णज्वरंप्रतिश्यायंव्रणंविस्फोटकंतथा ॥ वातशूलंसंग्रहणींसरुजांनाशयत्यपि ॥

**अर्थ–**वडी २ सो हरडोंको लेकर गौके गोबरके पानीमें दोलायंत्रकी विधिसे नरम होनेपर्यंत औटावे जव नम्र होजावें तव उतारके उनमें सलाईसे छिद्र करके युक्तिसे उनकी गुठली निकासले, फिर ४०० तोले शहत घीके चीकने वासनमें भरके उसमें उन हरडोंको गेर देवे, फिर वह शहत जैसे२ जलरूप होता जाय उसीप्रकार उसमें और नवीन शहत डालता जावे इसप्रकार जवतक शहत जैसाका तैसा बना रहे तबतक डाले, इस क्रियाकेकरनेसे हरडोंका कपेलापना नहीं रहे, फिर सोंठ, मिरच, पीपल, लौंग वंशलोचन, ये प्रत्येक तोले २ ले चूर्ण करके उसमें गेर देवे इसे ( मधुपक्वहरीतकी ) कहते हैं यह हरड वल वर्ण करे है और अग्निको दीपन करे है । नित्यप्रति प्रातःकाल एक एक भक्षण करे तो दुष्टवात, संग्रहणी,आमांश, दुष्टरक्त, जीर्णज्वर, सरेकमा, व्रण (घाव) विस्फोटक, बादीका शूल और सशूल संग्रहणी इत्यादि सर्वरोगोंका नाश करे॥

मुद्गयूष।

मुद्गयूषंरसंतक्रंधान्यजीरकसंयुतम् ॥
सैंधवेनान्वितंदद्यात्पड्यूपमितिकीर्तितम् ॥

**अर्थ–**मुंगकायूष, मूंगकारस, छाँछ, धनिया और जीरा, इनके यूषमें सैैंधानिमक मिलाये, इसे पड्यूष कहते हैं यह संग्रहणी नष्ट करे है ॥

कपित्थादियवागू ।

कपित्थबिल्वचांगेरीतक्रदाडिमसाधिता ॥
यवागूःपाचयत्यामंशकृत्संवर्तयत्यपि ॥

**अर्थ–**कैथ, बेला चूका, छाँछ, और अनार इनके शाकमें यवागू सिद्ध करे यह आमको पचावे और मलको सारण करे अर्थात् निकाले ॥

पित्तसंग्रहणीनिदान ।

कटुजीर्णविदाह्यम्लक्षाराद्यैःपित्तमुल्बणम् ॥ आप्लावयद्धंत्यनलंजलंतप्तमिवानलम् ॥ सोजीर्णंनीलपीताभंपीताभंसार्यतेन्द्रवम् ॥ सधूमोद्गारहृत्कंठदाहारुचितृडर्दितः॥

**अर्थ–**जो पुरुष कटु, अजीर्ण, मिरच आदि तीखी, दाहकारक (वंश-करी-लकी कोपल आदि) सट्टीखारी (ऑगा आदिका खार) आदिशब्दसे नोनफा गरम पदार्थ, भक्षण करे इनकारणसे कुपित हुआ जो पित सो जठराग्निको बुझायदे, जैसे तत्ता जल अग्निकोशांति करदे ओ कच्चाही नीले पीले रंगके पतले मलको निकाले, तथा धूमयुक्त डकार आवे, हिये और कंठमें दाह होवे अरुचि और प्यासकरके पीडित होवे यह पित्तकी संग्रहणीके लक्षण है ॥

पित्तसंग्रहणीकीचिकित्सा ।

वन्हेः प्रदूषकंपित्तमेकेनवमनेनवा ॥

कृत्वाभोज्येलर्घुग्राहिदीपनैरविदाहिभिः॥
तिक्तकैर्वृंहयेद्वह्निचूर्णैःस्नेहैश्चतिक्तकैः ॥

**अर्थ–**जठराग्निके दूषित करनेवाले पित्तको जुलाब करके तथा वमन करके निकाल देवे फिर हलके, ग्राही, दीपनकर्ता और जो दाह न करे ऐसा भोजन करावे तथा तिक्तचूर्ण और तिक्त स्नेहोंसे जठाराग्निकोवढावे ॥

नलवेणुकुशानांचकाशेक्षूणांचमूलकम्॥
क्वाथपानंहितंचात्रपाचनंपैत्तिकेग्रहे॥

**अर्थ–**सरपते, बांस, कुशा, कास और ईख इनकी जडोंका काढा करके इस पित्तकी संग्रहणीमें देवे तो इसका पाचन करे तथा हितकारी है॥

द्राक्षादिक्षीरम् ।

द्राक्षाक्षीरेणसंपाच्ययावद्दार्व्यपलेपनम् ॥ पश्चाद्दद्याद्भिषक्प्रज्ञोऔषधानिपृथक्पृथक् ॥ पर्पटातिविपामूर्वापटोलंघनवालकम् ॥ तथाभयानांचूर्णंतुसमंशर्करयायुतम् ॥
तेनक्षीरेणसंयोज्यविदार्याःकन्दमेवच ॥ घनेननवनीतेनपिंडंकृत्वातुभक्षयेत् ॥ ग्रहणींपित्तजांपांडुंकामलार्तितृपापहम् ॥ भ्रमंमूर्च्छांतथाहिक्कांतथोन्मादमपस्मृतिम् ॥ महत्पित्तंचकुष्ठंचनाशयत्याशुनिश्चितम् ॥

**अर्थ–**दाखोंको दूधमें औटावे जब औटते २ कलछीसे लिपटनेलगे तब आगैलिखी हुई औषध पृथक्२मिलावे। पित्तपापडा, अतीस,मूर्वा, पटोलपत्र, नागरमोथा,नेत्रवाला, और जंगीहरड इनको समान भाग ले चूर्ण करके मिलायदेवे । तथासव चूर्णकी बराबर खाँड डाले। एवं विदारीकंदका चूर्ण एक औषध के बराबर उसदूधमें मिलावे फिर मक्खन मिलायके गोली बनाय लेवे इस गोलीके भक्षणकरनेसे पित्तकीसंग्रहणी, पांडुरोग, कामला, प्यास, भ्रम, मूर्च्छा , हिचकी, उन्माद, मृगी, घोरपित्त, और कोढ, इनको तत्काल नाश करे ॥

तंडुलोदकम् ।

जलमष्टगुणंदत्वापलकंडिततंदुलान् ॥
भावयित्वाततोदेयंतंदुलोदककर्मणि ॥

**अर्थ–**१ पल विने चुने चावलोंमें आठ पल जल मिलावे और उनको थोड़ी देर भीगनेंदे फिर हाथोंसे मसलेके जलको छानले, यह तंदुलोदक जहाँ २ इसका प्रयोजन पडे उस जगे सर्वत्र देवे ॥

भूनिंबाद्यंचूर्णम् ।

भूनिंबकटुकाव्योपमुस्तकेन्द्रयवान्समान् ॥ द्वौचित्रकाद्वत्सकत्वक्भागान्षोडशचूर्णयेत् ॥ गुडःशीतांबुनापीतोग्रहणीदोषगुल्मनुत् ॥ कामलाज्वरपांडुत्वमेहारुच्यतिसारनुत् ॥

**अर्थ–**चिरायता, कुटकी, सोंठ, मिरच, पीपल, नागरमोथा, और इन्द्रजौ ये प्रत्येक समान भागले, चीतेकी छालके दो भाग और कुडाकी छाल सोलह भाग ले, सबका चूर्ण करे फिर इसमें गुड मिलायके सीतल जलसे पीबे तो संग्रहणी गोला,कामला,ज्वर, पांडुरोग प्रमेह अरुचि और अतिसार इनको दूर करे॥

द्वितीय भूनिम्बाद्यंचूर्णम् ।

एकैकंभागमादायभूनिम्बव्योपमुस्तकम् ॥ कटुकेंद्रयवोपेतंद्वौभागौचित्रकास्यच॥ कुटजस्यत्वचोभागान्षोडशात्रविनिक्षिपेत् ॥ सर्वमेकीकृतंचूर्णंशीताम्बुगुडसंयुतं ॥ पिबेत्संग्रहणीपांडुज्वरातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**चिरायता, कुटकी, सोंठ, मिरच,पीपल नागरमोथा, कडुएइन्द्रजौ, ये प्रत्येक एक २ भाग ले, चित्रककी छाल दो भाग, कुडाकी छाल सोलह भाग, सबको एकत्र कर गुड और शीतलजलके साथ पीवे तो संग्रहणी, पांडूरोग, ज्वर, और अतिसार रोग इनको नाश करे इन दोनों भूनिंबादि चूर्नोमें पाठोतरहै औषधी दोनोंमें एकही हैं॥

पाठाद्यंचूर्णम् ।

पाठाबिल्वानलव्योपंजंबुदाडिमधातकी ॥ कटकातिविपामुस्तदार्वीभूनिंबवत्सकैः॥ सर्वैरेतेःसमंचूर्णंकोटजंतंडुलांबुना ॥ सक्षौद्रेणपिवेच्छर्दिज्वरातीसारशूलवान् ॥
हृद्दाहग्रहणीदोषारोचकानलसादजित् ॥

**अर्थ–**पाढ, छोटावेलफल, चीतेकीछाल, सोंठ, मिरच, पीपल, जामुन अनारदाना, धायकेफूल, कुटकी, अतीस, नागरमोथा, दारुहलदी, चिरायता, और कुडाकीछाल, ये समान भागले और सबको बराबर इन्द्रजव मिलावे इसको चावलके धोवनके साय शहत मिलायके पीवे तो वमन, ज्वर, अतिसार, शूल, हृद्रोग, दाह, संग्रहणी, अरुचि और मंदाग्निको नाश करे ॥

कटुकेन्द्रयवापाठाकुटजत्वग्रसांजनम् ॥ धातक्यतिविपाशुंठीमुस्तापिष्ट्वाचवारिणा॥ विष्टंभमरुचिरक्तंदाहंचगुदवेदनाम् ॥ पित्तोत्थांग्रहणींहन्तिमधुनासहभक्षितः ॥

**अर्थ–**कुटकी, इन्द्रजव, पाढ, कुडाकीछाल, रसोत; धायकेफूल, अतीस, सोंठ नागरमोथा, इन सबको जलमें पीसके पीवे तो अफरा, अरुचि, रक्तका दाह, गुदाकीपीडा, पित्तजन्य संग्रहणीका विकार, इनको दूर करे परंतु इसमें शहतऔर मिलाय लेना चाहिये ॥

चंदनादिघृत।

चंदनंपद्मकोशीरपाठामूर्वाकटुत्रयम् ॥ षड्ग्रंथासारिवास्फीतासप्तपर्णीपरूपकम् ॥ पटोलोदुंबराश्वत्थवटप्लक्षकपित्थकम् ॥ कटुकारोहिणीमुस्तानिंबंचद्विपलांशकम् ॥ द्रोणेंभसिक्षिपेत्यादशेपेप्रस्थंघृतंपचेत् ॥ किराततिक्तेंद्रयवावीरामागधिकोत्पलैः॥
कल्कैरक्षसमैः पेयंतत्पित्तग्रहणीगदे॥

**अर्थ–**चंदन, पद्माख, खस, पाढ, मूर्वा, सोंठ, मिरच, पीपल, वच, सरिवन, उपलसिरी, सातवन, फालसे, पटोलपत्र, गूलर,पीपल,वड, पाखर कैथ, कुटकी, हरड, नागरमोथा और नीमकी छाल ये प्रत्येक औषध आठ ८ तोले लेय सब १०२४ तोले जलमें डालके काढा करे जब चतुर्थांश शेष रहे तब उतारके छान ले फिर इसमें ६४ तोले घी डालके फिर चुल्हेपर चढाय उसमें चिरायता इन्द्रजौ, काकोली, पीपल, कमल, इनका एक २ तोला कल्क डालके घृत सिद्ध करे, इस घृतको बलाबल विचारके१तोले देवे तो पित्तकी संग्रहणीका नाश होय॥

तिक्तादिकाढा ।

तिक्तामहैषधरसांजनधातुकीभिः पथ्येंद्रबीजघनकौटजभंगुराभिः ॥
क्वाथोहरेद्बहुविधंग्रहणीविकारंपित्तोद्भवंसगुदशूलमतिप्रवृद्धम् ॥

**अर्थ–**कुटकी, सोंठ, रसोत, धायके फूल, हरड, इन्द्रजव, नागरमोथा, कुडाकी छाल और सपेद अतीस इनका काढा अनेक प्रकारकीसंग्रहणी, गुदाकी पीडा और पित्तसंग्रहणी इन सब रोगोंको नाश करे ॥

श्रीफलादिकल्क।

श्रीफलशलाटुकल्कोनागरचूर्णेनमिश्रितःसगुडः ॥
ग्रहणीगदमत्युग्रंतक्रभुजाशीलितोजयति॥

**अर्थ–**कच्चे बेलगिरीके कल्कमें सोंठका चूर्ण और गुड डालके देवे तथा छांछ भात पथ्यमें देवे तो संग्रहणीका नाश करे॥

नागरादिचूर्ण।

नागरातिविषामुस्ताधातकीसरसांजनम् ॥ वत्सकत्वक्फलंबिल्वंपाठातिक्तकरोहिणी ॥ पिबेत्समांशकंचूर्णंसक्षौद्रंतंदुलांबुना ॥ पित्तजेग्रहणीदोषेरक्तंयश्चोपवेश्यते ॥अर्शांसिहृद्गुह्यशूलंजयच्चैवप्रवहिकाम् ॥ नागराद्यमिदंचूर्णंकृष्णात्रेयेणभाषितम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, अतीस, नागरमोथा, धायके फूल, रसोत, कुडाकी छाल,इन्द्रजौ, वेलगिरी, पाढ, चिरायता और कुटकी, ये समान भाग लेवे सबको कूट पीस चूर्ण कर चावलके धोवनमें शहत मिलायके इसका सेवन करे तो पित्तकी संग्रहणी, रक्तसंग्रहणी बवासीर, हृद्रोग, गुदाके रोग, शूल और प्रवाहिका इनको नष्ट करे यह नागरादिचूर्ण कृष्णात्रेयने कहा है ॥

यवान्यादिचूर्ण।

यवानीपिप्पलीमूलंचातुर्जातकनागरैः॥ धातुकीतिंतिणीकृष्णाबालकश्चैकभागिकः ॥ सितापड्भागसंयुक्तंसर्वंचूर्णप्रकल्पयेत् ॥ कर्पैकंभक्षयेन्नित्यमजाक्षीरंपिबेदनु ॥ नाशयेद्ग्रहणीरोगंपित्तोत्थंसप्रवाहिकम् ॥

**अर्थ–**अजमायन, पीपरामूल, चातुर्जात, सोंठ, धायके फूल, इमली पीपर और नेत्रवाला ये प्रत्येक तोले२भरलेवे तथा मिश्री छः तोले डाले इन सबका चूर्ण कर नित्य१ तोले खाय, इसके उपर वकरीका दूध पीवे तो पित्त संग्रहणी और प्रवाहिफा इनके नाश करे ॥

चंदनादिकाढा।

चंदनंपद्मकोशीरपाठामूर्वाकुटंनटम् ॥ सौराष्ट्र्यतिविपापत्रत्वगेलादेवदारुच ॥ मरिचंचूर्णयेत्तुल्यंमधुनालेहयेदनु ॥ अजाक्षीरंजलार्धेनक्वाथ्यदुग्धावशेषकम् ॥ पिबेत्पित्तहरंरात्रौक्षीरिणीशाकमाचरेत् ॥ ध्यन्नंदापयेत्पथ्यंदुग्धैर्वालाजमंडकम् ॥

**अर्थ–**चंदन, पद्माख, खस, पाढ, मूर्वा, टेंटू, फिटकरी, अतीस, पत्रज, दालचीनी, इलायची, देवदारु और कालीमिरच, सब समान भाग लेय । सबका चूर्ण कर शहतसे सेवन करे और इसके ऊपर बकरीके दुधमें आधा पानी डालके औटावे जब दूध मात्र शेष रहे तब उतारके इस पित्तहरण करनेबालेको रात्रिमें पीबे, खिरनीका साग पथ्यमें देवे, तथा दही भात अथवा खीलोंका मंड पथ्यमें देना चाहिये॥

रसांजनादिचूर्ण।

रसांजनंप्रतिविपावत्सकस्यफलत्वचौ ॥
नागरंधातकींचैतसक्षौद्रंतंदुलांबुना ॥
पित्तग्रहणिदोषार्शरक्तपित्तातिसारनुत् ॥

**अर्थ–**रसोत, अतीस, इन्द्रजौ, कुडाकी छाल, सोंठ और धायके फूल ए समान भाग लेवे सबका चूर्णकर चावलंके पानीमें शहत मिलायके इसके साथ सेवन करे तो पित्तसंग्रहणीके दोषऔर बवासीर, रक्तपित्त और पित्तातिसार इनको नाश करें ॥

भूनिंबादिपुटपाक।

भूनिंबरोहिणीपथ्यापटोलंनिंबपर्पटम् ॥ तुल्यंमहिपिमूत्रेणमर्द्यमतःपुटेदहेत् ॥ कर्पैकंलेहयेदाज्यैर्वन्हिदीपनमुत्तमम् ॥ दीपनंबहुपित्तस्यतिक्तंमधुरसंयुतम् ॥

**अर्थ–**चिरायता, कुटको, हरड, पोलपत्र,नीमकीछाल और पित्तपापडा ए समान भाग ले सबको भैसके मूत्रमें पीस पुटपाक विधिसे भूनके इसको १ तोले घीकेसाथ सेवन करे तो यह अग्निका दीपन करे पदि पित्तरोगपर लेना होवे तो कुटकी और शहत इनके साथ लेंवे॥

आम्रादियोग।

आम्रास्थिविश्वागोशृंगवत्सश्चाम्ररसेनतु ॥ मर्दयेत्त्रिदिनसम्यक्सितयासहयोजयेत् ॥तस्यपित्तोद्भवांहंतिग्रहणीरोगकारिणीं ॥ज्वरातिसारंतीव्रंचरक्तस्रावंसशूलनुत् ॥

**अर्थ–**आमकीगुठली, सोंठ, बबूर और कुडाकी छाल, ये सब पदार्थोंको आमके रससे तीनदिन खरलकर इसमें मिश्री मिलायके सेवन करे तो पित्तकीसंग्रहणी, ज्वरातिसार, रक्तस्राव और शूल इनका नाश करे ॥

आम्रादिपेया।

आम्रमाम्रातकंजंबूत्वक्कपायेपचेद्भिषक् ॥
यवागूशालिभिर्युक्तांभुक्त्वातांग्रहणीजयेत् ॥

**अर्थ–**आम, अंबाडा और जामुन इनकी छालका काढा करके उस काढेमें शाली चावलोंकी यवागू सिद्धकरे, चावल सहित सेवन करें तो पित्तकी संग्रहणी नष्टहावे ॥

कफसंग्रहणीकी उत्पत्ति ।

गुर्वतिस्निग्धशीतादिभोजनादतिभोजनात् ॥ भुक्तमात्रस्य च स्वप्नाद्धंत्यग्निकुपितः कफः ॥ तस्यान्नंपच्यतेदुःखंहृल्लासच्छरद्यरोचकाः ॥आस्योपदेहमाधुर्यकासष्ठीवनपीनसाः ॥ हृदयेमन्यतेस्त्यानमुदरंस्तिमितंगुरु ॥ दुष्टोमधुरमुद्गारः सदनस्त्रीष्वहर्षणम् ॥ भिन्नामश्लेष्मसंसृष्टगुरुवर्चःप्रवर्तनम् ॥अकृशस्यापिदौर्वल्यमालस्यंचकफात्मके ॥

**अर्थ–**भारी, अत्यंत चिक्ना, शीतल आदि पदार्थके खानेसे अति भोजनसे तथा भोजन करके सोनेसे, इनकारणोंसे कुपित हुआ कफजठराग्निको शांत करै तब इसके खाया अन्न कष्टसे पचे, हृदयमें पीडा होय, वमन, अरुचि, मुखका कफमे लिपासा, तथा मुखका मीठा रहना, खांसिकफ थूके सरेकमा होय हृदय पानीसे भरा सदृश होय, पेट भारी और जड हो, दुष्ट और मीठी डकार आवैं, अग्निशांति हो, स्त्रीरमणमें अरुचि, पतला आम कफ मिला और भारी ऐसा मल निकले, वल विना शरीर पुष्ट दीखे, आलस्य बहुत आवै यह कफकी संग्रहणीकेलक्षण है॥

पंचकोलाभयाधान्यपाठागंधपलांशकैः ॥
बीजपूरप्रवालैश्चसिद्धैः पेयादिकल्पयेत् ॥
ग्रहण्यांश्लेष्मदुष्टायांवमितस्थयथाविधि ॥

**अर्थ–**पीपर, पीपरामूल, चव्य, चीतेकी छाल, सोंठ, हरड, धनिया, पाढऔर गंधक ये प्रत्येक एक २ पल लेवे; फिर विजोरेके पत्तों करके सहित पेया बनावे, इस पेयाके पीनेसे कफकी दुष्ट संग्रहणी और वमनका रोग ये दूर होवे ॥

ग्रहण्यांकफदूष्टायांतीक्ष्णैःप्रच्छर्दनेकते॥
कट्वम्ललवणक्षारैस्तिक्तैश्चाग्निंविवर्द्धयेत् ॥

**अर्थ–**कफके दूषित होनेसे जो संग्रहणी हुई हो उसको तीक्ष्ण वमनकी औषधी करके कटु, अल्म, निमक, क्षार और तिक्त (कडुए ) रसों करके इस रोगीकीअग्निको वैद्य वढावे ॥

चित्रग्रंथिकंपथ्याकुष्टंप्रतिविपांवचाम् ॥
शुंठीमुस्तविडंगंचसुरातक्रोष्णवारिभिः ॥
श्लैष्मिकेग्रहणीदोषेपीतंचाग्निविवर्द्धनम् ॥

**अर्थ–**चीतेकी छाल, पीपरामूल, हरड, कूट, अतीस, वच, सोंठनागरमोथा, वायविडंग, इनका चूर्णकरके दारु, छाँछ, गरमजल इनके साथ कफके संग्रहणी में पीवेतो संग्रहणी दूर होय और जठराग्नि वढे॥

हिंगुक्षारौसमौपथ्याशुंठीपिप्पलिचित्रकाः॥
द्व्यंशास्तत्पूर्ववत्पीतश्लेष्मग्रहणिदोषनुत् ॥

**अर्थ–**हींग, जवाखार, दोनों समान ले, हरड, सोंठ, तथा पीपर, और चित्रककी छाल, ये दोदो भागलकैंचूर्णकरें और दारू, छाँछ, अथवा गरम जलके साथ पीवेतो कफकीसंग्रहणीका विकार नष्ट होय ॥

अभयातिविपाशुंठीवचामुस्ताकणाशिफा ॥ विडादिलवणंवह्निकुष्टंदारुसमांशतः॥ सुश्लक्ष्णचूर्णमेतेषांभक्षितंतप्तवारिणा ॥ श्लेष्मजांग्रहणींहंतिरक्तमाभ्यांसहाचिरात् ॥

**अर्थ–**जंगीहरड,अतीस,सोंठ,वच,नागरमोथा, पीपरामूल, विडादिपंचनिमक चीतेकी छाल,कूट,देवदारु ये प्रत्येक समान भागलेवे सवका चूर्णकर गरम जल के साथ भक्षण करे तो कफजन्य संग्रहणी, तथा रक्त और आमयुक्त संग्रहणीभी शीघ्रदूर होवे ॥

पलाशंचित्रकंचव्यमातुलुंगंहरीतकी ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलंपाठाधान्यकनागरम्॥ कार्षिकान्युदकप्रस्थेपक्त्वापादावशेपितम् ॥ पानीयार्थेप्रयुंजीतयवागूंतैश्चसाधिताम् ॥

**अर्थ–**ढाकके बीज, चीतेकीछाल, चव्य, विजोरा, हरड, पीपल, पीपरामूल, पाढ, धनिया और सोंठ ये प्रत्येक एक २ तोले लेवे, सबको जवट करके १ सेर जल डालके औटावें, जब चतुर्थांश शेष रहे तब उतारके छानलेवे, इस क्वाथमें यवागूसिद्धकरेइस यवागूके सेवन करनेसे कफजन्य संग्रहणी नष्ट होवे॥

पथ्याशुंठीकणावह्निंचूर्णमेषांसमासतः॥
तक्रपीतंध्रुवंहंतिग्रहणींश्लेष्मसंभवाम् ॥

**अर्थ–**हरड, सोंठ, पीपल,चीतेकी छाल इनका चूर्णकरके छाँछके साथ पीवे तो कफकी संग्रहणी दूर होय ॥

समूलांपिप्पलीक्षारौद्रौपंचलवणानिच ॥ मातुलुंगाभयारास्नासठीमरिचनागरैः ॥ कृत्वासमांशंतच्चूर्णंपिबेत्प्रातः सुखांबुना ॥ श्लैष्मिकेग्रहणीदोषेबलमांसाग्निवर्द्धनम् ॥
एतैरेवौषधैः सिद्धंसर्पिः पेयंसमारुते ॥

**अर्थ–**पीपर, पीपरामूल, सज्जीखार, जवाखार, पांचोनिमक, विजोरा, हरड, रास्ना; कचूर, कालीमिरच, सोंठ इनका समानभाग चूर्ण करके प्रातःकाल सुखोष्ण जलके साथ पीवे तो कफकी संग्रहणीको नष्ट करे तथा बल और मांसको वढावे यदि वादीकी संग्रहणी होयतो इन्हीं पूर्वोक्तऔषधोंसे घी सिद्धकरके पीवे॥

सठ्यादिचूर्ण।

सठीव्योपाभयाक्षारौग्रंथिकंबीजपूरकम् ॥
लवणाम्लांबुनापेयंश्लैष्मिकेग्रहणीगदे ॥

**अर्थ–**कचूर, सोंठ, कालीमिरच, पीपर, हरड, जवाखार, सज्जीखार, पीपरामूल और बिजोरा इनका चूर्ण सैंधानिमक और निंबुका रस इनके साथपीवे तो यह कफसंग्रहणी नाश करे॥

रास्नादिचूर्ण।

रास्नापथ्यासठीव्योपंद्वौक्षारौलवणानिच ॥
ग्रंथिकंमातुलंगंचसममेकत्रचूर्णयेत् ॥
पिबेदुष्णेनतोयेनोश्लैष्मिकेग्रहणीगदे ॥

**अर्थ–**रास्ना, हरड, कचूर, सोंठ, मिरच, पीपल, सज्जीखार, जवाखार, सैंधानिमक, संचर, बिडनोन, पीपरामूल और विजोरेकी केशर, इनका चूर्ण गरम जलके साथ पीबे तो कफकी संग्रहणीको नाश करे ॥

पथ्यादितक्रयोग।

पथ्याकणानागरवह्निचूर्णंतक्रेणपीतंग्रहणीगदघ्नम् ॥
तक्रेणहन्यात्किलकेवलंवाशुंठीकणाभ्यांग्रहणींसशूलाम् ॥

**अर्थ–**हरड, पीपल, सोंठ और चीतेकी छाल, इनका चूर्ण छाँछसे पीबे तो शूलयुक्त संग्रहणी और कफसंग्रहणी इनका नाश करे । अथवा केवल सोंठ और पीपलका चूर्ण छाँछसे पीबे तो कफकी संग्रहणीको नाश करे ॥

चतुर्भद्रादिकाढा।

गुडूच्यातिविपाशुंठीमुस्तैःक्वाथः कृतोजयेत् ॥
आमानुपक्तांग्रहणींग्राहीदीपनपाचनः॥

**अर्थ–**गिलोय, अतीस, सोंठ और नागरमोथा इनका काढा सेवन करनेसे आम संग्रहणीका नाश करे तथा ग्राहक अग्निदीपक और पाचन है॥

कठिनमलकीचिकित्सा ।

कृछ्रेणकठिनत्वेनयःपुरीषंविमुंचति ॥
सघृतंलवणंतस्यपाययेत्क्लेशशांतये ॥

**अर्थ–**जिस प्राणीका कष्टसे और कठोर ऐसा मल उतरे उसको घीमें निमक मिलायके पिवावे तो उसका कष्टयुक्त कठोर दस्त होना दूर होवे ॥

विडंगादियोग।

विडंयवानीविष्टंभेपिबेदुष्णेनवारिणा ॥

**अर्थ–**वायविडंग और अजवायन इनके चूर्णको गरम जलसे पीबे तो विष्टंभ ( कष्टसे मलका उतरना) नाश होय ॥

वातश्लेष्मसंग्रहणी।

वातश्लेष्माधिकेयोज्याकुटजाद्यवलेहिका ॥ पर्पटीरसगुंजाष्टौलिहेन्मध्वाज्यकेनया ॥ सहिंगुजीरकंव्योपंनिष्कार्धंभक्षयेदनु ॥ ग्रहणींकफवातोत्थांशमयेत्तक्रभोजने ॥

**अर्थ–**वातकफाधिक्य संग्रहणीपर कुटजावलेह देनी चाहिये अथवा पर्पटीरस रत्ती ८ लेकर शहत और घीसे देवे । और इसके ऊपर हींग, जीरा, सोंठ मिरच और पीपल इनका चूर्ण २ मासे देवे तथा छाँछ भातका उसको भोजन करावे तो कफवातजन्य संग्रहणीका नाश होय ॥

कर्चूरादिचूर्ण ।

कर्चूरोलवणंपंचरास्नाात्र्यूपंहरीतकी ॥ सर्जिक्षारंयवक्षारंमातुलुंगंसमंसमम् ॥ चूर्णमुष्णांबुनापेयंबलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ श्लेष्मिकंग्रहणीदोषंसवातंचविनाशयेत् ॥

**अर्थ–**कचूर, पांचोंनिमक, रास्ना, सोंठ, कालीमिरच, पीपल, हरड, सज्जीखार जवाखार और विजोरेका जीरा ये समान भाग लेवे इनका चूर्ण गरम जलसे पीबेतो बल तथा अग्नि इनको बढावे और कफवातजन्य संग्रहणीका नाश करे॥

तालीसादिवटी।

तालीसपत्रचविकामरिचानांपलंपलम् ॥ कृष्णातन्मूलयोर्द्वेद्वेपलेशुंठीपलत्रयम् ॥चातुर्जातमुशीरंचकर्पाशंसूक्ष्मचूर्णितम् ॥ चूर्णस्यत्रिगुणेनैवगुडेनवटिकाकृता।भक्षयेत्तुपलार्धंचवातश्लेष्मोत्थितेगदे ॥ उत्कटांग्रहणींछर्दिकासंश्वासंवरारुची ॥ शोफगुल्मोदरंपांडुंतालीसाद्येननाशयेत् ॥

**अर्थ–**तालीसपत्र, चव्य, कालीमिरच, ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे, पीपल और पीपरामूल ये आठ२ तोले लेवे, सोंठ बारह तोले चातुर्जात तथा नेत्रवाला ये एक एक तोले लेकर सबका चूर्ण करे और चूर्णसे तिगुना गुड मिलाय दो२तोलेकी गोली बनावे । इसके भक्षण करनेसे कष्टतर संग्रहणी, वमन, खांसी, श्वास, ज्वर, अरुचि, सूजन, गोला, उदग्का रोग, तथा पांडु (पीलियाका) रोग इनको नाश करे इसको ( तालीसादि वटी ) कहते हैं ॥

कफपित्तसंग्रहणीऊपररसादिवटिका ।

शुद्धंसूतंत्रिधागंधंजंबीरैर्मर्दयेद्दिनम् ॥
सर्वांशंजीवशंबूकमरीचिमधुसंयुतम् ॥
निष्ककेननिहंत्याशुग्रहणींकफपित्तजाम् ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा १ तोले और शुद्धगंधक३ तोले, इन दोनोंकी कजली करके इसमें सबकी बराबर जीवसहित छोटा शंख डालके जंभीरीके रससे एकदिन खरल करे और भिरचकेचूर्ण तथा शहतसे चारमासेकी मात्रा देवे तो कफपित्तजन्य संग्रहणीको नष्टकरे ॥

मुसल्यादियोग।

मुसलींपेपयेत्तक्रेअथवातंडुलोदकैः ॥
कर्पैकंयोजयेच्चानुपथ्यंतक्रौदनंहितम् ॥

**अर्थ–**मूसलीके चूर्णको छाँछमें अथवा चावलके धोवनमें पीसके एक तोले देवे तथा पथ्यमें छाँछ और भात देय तो यह संग्रहणीको नाश करे॥

वातपित्तसंग्रहणीऊपरमुंड्यादिगुटिका।

मुंडीशतावरीमुस्तावानरीदुग्धिकामृता ॥ यष्टीकंसैंधवंतुल्यंसूक्ष्मचूर्णंप्रकल्पयेत् ॥ चूर्णस्यद्विगुणंयोज्याविजयामृदुभर्जिता ॥ वृतस्निग्धेपचेद्भांडेदुग्धंदशगुणंगवाम् ॥ यावत्पिंडत्वमापन्नातावन्मृद्वग्निनापचेत् ॥ पिंडतुल्यंतुसत्क्षौद्रंमिश्रीनिष्कत्रयंत्रयम्
भक्षयेद्विजयेदेवद्वंद्वजग्रहणीगदम् ॥ पित्तवातेश्लेष्मपित्तेसम्यक्पित्तेचयोजयेत् ॥

**अर्थ–**गोरखमुंडी, शतावर, नागरमोथा, कौचके बीज, दूधी, गिलोय और सैंधानिमक इनका बारीक चूर्ण कर चूर्णसे दुगनी भुनी हुई भांग मिलायके घीके बासनमें गौके दसगुने दूधमें मंदाग्निसे पक्ककरे जब गोला बँधने लगे तबउतारके इसमें गोलेके समान शहत मिलाय देवे फिर इसमेंसे १ तोले को तीन तोले मिश्रीके साथ भक्षण करे तो द्वंद्वजसंग्रहणी, पित्तवात,श्लेष्मपित्त और पित्त इनका नाश करे, यह मुंड्यादिगुटिका कहाताहै ॥

सन्निपातग्रहणीनिदानलक्षण ।

पृथग्वातादिनिर्दिष्टहेतुलिंगसमन्विते ॥
त्रिदोषंनिर्दिशेदेनंतस्यवक्ष्यामिलक्षणम् ॥

**अर्थ–**वातादि तीनों दोषोंके जो लक्षण कह आयेहैंये सब जिसमें मिलते होय उसको त्रिदोषकीसंग्रहणी जानिये ( तेषां वक्ष्यामि भेषजम् ?) ये पद केवल पादपूरणार्थ लिखा है ॥

आमंबहुसपैच्छिल्यंसशब्दंमंदवेदनम् ॥
पक्षान्मासाद्दशाहाद्वानित्यंचापिविमुंचति ॥

**अर्थ–**त्रिदोषसंग्रहणी रोग अपक्क, बहुत ल्हसदार, मंदपीडा और शब्द इन करके युक्त ऐसे मलको १५ पंद्रह दिनमें किंवा १ महीनेमें अथवा दशदिनमें तथा नित्य प्रति गुदाद्वारा त्याग करे ॥

असाध्यलक्षण ।

दिवाप्रकोपोभवतिरात्रौशांतिव्रजत्यपि ॥
दुर्विज्ञेयादुर्निवाराचिरकालानुबंधिनी ॥

**अर्थ–**जो संग्रहणी दिनमें कुपित हो और रात्रिमें यत्किंचित् शांति हो जावे वह अत्यंत दुर्ज्ञेय (जो जाननेमें न आवे) और दुर्निवार (जो दूर न हो सके) तथा बहुत काल पर्यंत रहनेवाली जाननी ॥

घटीयंत्रग्रहणीलक्षण।

प्रसुप्तिःपार्श्वयोः शूलंतथाजलघटीध्वनिः॥
तंवदंतिघटीयंत्रमसाध्यंग्रहणीगदम् ॥

**अर्थ–**जिस संग्रहणीमें अंगमें नोचनेसे मालूम न हो, ऐसा शून्यता होवे तथा दोनों कूखोंमें शूल होवे पेटमें गुडगुडाहटशब्द हो उस व्याधिको घटीयंत्रसंग्रहणी कहते हैं [घटीनाम घडेका है उस भरे घडेको रीता करनेके समान शब्द होनेसे वैद्योने इसका घटीयंत्रनाम रक्खाहै ] यह असाध्य है ऐसा जानना ॥

लिंगैरसाध्योग्रहणीविकारोयैस्तैरतीसारगदोनिषिध्येत् ॥ वृद्धस्यनूनंग्रहणीविकारोहत्त्वातनुनोविनिवर्ततेच ॥

**अर्थ–**जिन लक्षणों करके अतिसार रोग असाध्य कहा है यदि वो लक्षण संग्रहणीमें मिले तो यह संग्रहणीरोग असाध्य जानना । तथा वृद्धमनुष्यके संग्रहणीका रोग हुआ होय तो विना प्राणहरण करे नहीं छोडे यह निश्चय है॥

अतीसारस्यरिष्टानिग्रहण्यामपिलक्षयेत् ॥

**अर्थ–**अतिसाररोगमें जो उपद्रव होतहैं वोही प्रायः संग्रहणीमें होते हैं ऐसा वैद्यको जानना चाहिये ॥

अथ तस्याश्चिकित्सामाह ।

सर्वजायांग्रहण्यांतुसामान्योविधिरिष्यते ॥
दीपनान्यन्नपानानिचूर्णारिष्टघृतानिच ॥
प्रविभज्ययथावस्थंसर्ववस्तिकर्मच ॥

**अर्थ–**अब संपूर्ण दोषोंसे होनेवाली संग्रहणीकी सामान्य विधि कही जाती है यावन्मात्र दीपनकर्ता अन्न, पान, चूर्ण, अरिष्ट घृत है उनको यथायोग अवस्था विचारके देवे तथा सन्निपातजन्य संग्रहणीमें बस्तिकर्म करना चाहिये॥

शतावरीघृत।

शतावरीचंदनचोत्पलंचप्रियंगुपाठामगधास्थिराभिः ॥
बिल्वाजमोदातिविपासभंगाजीवंतिवह्नीन्द्रयवैः सुपिष्टैः॥ घृतंकपायेतुकलिंगकानांपक्वंनिहन्याद्ग्रहणीत्रिदोषाम् ॥
पित्तातिसारंरुधिरप्रवाहंतथार्शसांदोषसमुद्भवंच ॥

**अर्थ–**शतावर, चंदन, कमल फूल,प्रियंगु,पाढ, पीपर, सालपर्णी,वेलगिरी, अजमोद, अतीस, मँजीठ, जीवंती, चीतेकी छाल,इन्द्रजौइन सबको समान, भाग लेके काढा करे इस काढेसे घृत बनावे यह घी त्रिदोषको संग्रहणीको, पित्तातिसारको, रुधिरके प्रवाहको, तथा बवासीर इन सबको नष्ट करे॥

अरुष्करघृतम्।

अरुष्करं हिंगुकणा सयष्टी भूतीक शुंठी मरिचं शताव्हा ॥अजाजिचच्यारुचकंसवन्हिंविडंविडंगं सहदीप्यकंच ॥ सक्षारहिंगुत्रिकटूग्रगंधापलार्धभागैर्विपचेद्विधिज्ञः ॥
अजाधान्यकचांगेरीदशमूलीशृतैःपृथक् ॥हविः प्रस्थंनिहंत्याग्रहणींसर्वजां नृणाम् ॥
विष्टंभमामजान्रोगान्कृमिजान्कुक्षिजांस्तथा ॥मंदानलभवान्सर्वान्निभस्वानिबवारिदम् ॥

**अर्थ–**भिलाये, हींग, पीपल, मुलहटी, रोहिपतृण, सोंठ, मिरच और शतावर, सपेदजीरा, चव्य, संचरनिमक चीतेकी छाल विडनिमक, वायविडंग,अजवायन, जवाखार, हींग,त्रिकटु, वच, ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे इनको बकरीका मूत्र, धनिया, चूका और दशमूल इनके कांढेमें पृथक्२पचाय१ प्रस्थघृत सिद्ध करे यह घीसर्वदोषजन्य संग्रहणीको दूर करे, तया अफरा आमवातके रोग, कृमिजन्यरोग,कूखकेरोग, मंदाग्निसे होनेवाले रोग इन सबको जैसे पवन बद्दलोंको नष्टकरे इसप्रकार यह नष्ट करे कोई आचार्य अरुष्कर करके अमलतासका ग्रहण करते हैं॥

सामस्तथानिरामो दोषोग्रहणीमुपाश्रितोद्विविधः ॥

प्रोक्तोऽतिसारिणांच विज्ञेयोपाचरेद्वैद्यः ॥

**अर्थ–**संग्रहणी दो प्रकारकी है एक साम दूसरी निराम यह भेद आतिसार रोगमे कह आयेहै उसके अनुसार सामनिरामके लक्षण विचारकेवैद्य चिकत्साकरे॥

अतिसारिणोऽतिसारे यदभिहितं पाचनादि तदभिज्ञैः॥
अत्राप्यनुसंधेयंकिन्तुविशेषःक्वचित्तंत्रे॥

**अर्थ–**अतिसारबालेको अतिसाररोगमें जो विद्वान् वैद्योने पाचनादि कहे है वो सब इस संग्रहणीरोगमेभी देना चाहिये तथा किसी २ तत्रमे जो विशेष औषध कही है वो देवे ॥

तक्रसेवन।

दुःसाध्योग्रहणीरोगोभेषजैर्नैवशाम्यति ॥
सहस्रशोपिविहितैर्विनातक्रस्यसेवनात्॥
दोषधातुबलापेक्षोग्रहण्यांतक्रमापिबेत् ॥

**अर्थ–**संग्रहणी रोग दुःसाध्य है वह हजारों औषधोके सेवन करने परभी शात नहीं होता अतएव दोष,धातू और बल इनके सामर्थ्यके अनुसार छाँछका सेवन करे क्योकि विना तक्र(छॉछ) सेवन करनेके ग्रहणीरोग शांत नहीं होवे ॥

तक्रसेवन ।

ग्रहणीरोगिणांतक्रंसंग्राहिलघुदीपनम् ॥ सेवनीयंसदागव्यंत्रिदोषशमनंहितम् ॥ तक्रंचमधुरंशुंठीचूर्णयुक्तंपिबेत्सदा ॥ शनैःशनैर्हरेदन्नंतक्रंतुपरिवर्धयेत् ॥ तक्रमेवयथाहारोभवेदन्नविवर्जितः ॥ तक्रसात्म्यंयथाकुर्यान्नैवान्नंतत्रभक्षयेत् ॥ बुभुक्षायांपिपासायांपिबेत्तक्रंसनागरम् ॥ मौनंचकुर्याद्बहुशोनकुर्याद्बहुभाषणम्॥ नकुर्यान्मैथुनंतक्रपानेक्रोधविवर्जयेत् ॥ एवंयः सेवतेतक्रंगहणीतस्यनश्यति ॥
शीघ्रमेवनसंदेहःश्रीर्यथानृतकारिणः ॥

**अर्थ–**संग्रहणीवाले रोगीको छाँछ पीना लघु ओर दीपन है । गौकी छाँछ त्रिदोषनाशक, तथा हितकारी है, इसमें सोंठका चूर्ण मिलाकर पीवे और धीरे २ क्रमसे अन्नको घटाता जाय और छाँछकोबढाता जावे, इस प्रकार करते २ केवल छाँछ मात्र रह जावे अन्न सर्वथाछूट जाय वहाँ तक करे ।इसपर अन्न न खाय,जब २ भूक और प्यास लगे तभी२ सोंठका चूर्ण डालके छाँछ पिलानी चाहिये, और जहांतक होसके मौन रहे, बहुत बोलना इसपर निषेध है तथा छाँछ पीने वालेको मैथुन करना तथा क्रोध करना वर्जित है, इस प्रकार छाँछ पीनेसे शीघ्र संग्रहणी रोग नाश होवे॥

दूसराप्रकार।

वातेम्लंसैंधवोपेतंपित्तेस्वादुसर्शकरम् ॥ पिबेत्तक्रंफेचापिक्षारत्रिकटुसंयुतम् ॥ हिंगुजीरयुतंघोलंसैंधवेनावधूलितम् ॥ ग्रहण्यर्शोतिसारघ्नंभवेद्वातहरंपरम् ॥

**अर्थ–**वातसंग्रहणीपर खट्टी छाँछमें सैंधानिमक डालके देवे । पित्तको संग्रहणीपर मिष्ट छाँछमें सपेद बूरा वा सपेद खांड मिलायके पीबे । कफको संग्रहणीमें क्षार, तथा त्रिकटुडालके देवे, और हींग, जीरा, तथा सैंधानिमक मिलायकेदहीकी मथी हुई छाँछ देवे तो यह संग्रहणी, बवासीर, अतिसार और वायु इनको नाश करे ॥

तक्रयोग्यगौ।

चारयेद्विपिनेदोग्ध्रींलताशाद्वलसंकुले ॥ पीतांभसंगतायासांकामगांतांगृहंनयेत् ॥ दुग्ध्वादुग्धमुपादद्यात्ततस्तक्रेकृतेकृती ॥ अशृतंतद्धितंवाते पित्तेकिंचिच्छृतंस्मृतम्॥ सन्निपातरुजिश्लेष्मण्यपिपादोनसंसृते ॥

**अर्थ–**जिस गौका तक्र ( छाँछ) बनाना हो उसको जिस वनमें अनेकप्रकारकी लतापता (वनस्पति) हो उसमें चरावे फिर सायंकालके समय जल पीके और परिश्रम दूर होगया हो उसको उसकी इच्छा पूर्वक धीरे २ घरमें लावे,फिर उसका दूध दुहकेछाँछ बनानेकी विधिसे तक्र (छाँछ) बनावे । वादीकेरोगमें कच्चे दूधको जमायके छाँछ बनावे, पित्तके रोगमें कुच थोडासा औटायके छाँछ बनावे, और सन्निपातके रोगमे तथा कफर्क विकारमें एक हिस्सा दूध जल जावे तब छाँछ बनावे ॥

पक्वऔर अपक्व तक्रकेगुण ।

तक्रमामंकफंकोष्ठे हन्तिकंठेकरोतिच ॥

पीनसश्वासकासादौपक्वमेवावशिष्यते ॥

**अर्थ–**कच्ची छाँछ कोंठके कफको नष्ट करे और कंठमें कफको करे है,तथा पीनस, श्वास, खांसी, इनमें पक्व (पकी) छाँछ देनी चाहिये॥

ज्वालालिंगरस ।

शुद्धंसूतंमृतस्वर्णमरिचंतुत्थकंसमम् ॥ ज्वालामुख्याग्निजैर्द्रावैर्जलंमंदंविपाचयेत्॥ दिनैकंमर्दयेत्खल्वेगुंजामात्रंचभक्षयेत् ॥ ज्वालालिंगरसोनामत्रिदोषेयोजयेत्सदा ॥
कर्पैपकंवन्हिमृलंतु तक्रेपिष्ट्वापिबेदनु ॥तक्रारिष्ट्युतंपथ्यंशाल्यन्नंभक्षयेत्सदा ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा, सुवर्णकी भस्म, कालीमिरच, और नीला थोथा,ये समान भाग लेवे सबको खरलकर ज्वालामुखी, और चीतेकी रससे मंदाग्नि पचन करे फिर एक दिन खरल करे ( इसमेसे एकरत्ती त्रिदोषपर देवे ऊपरसे चीतेकी जडको छाँछमें पीसकेवह१ तोले छाँछ पीनेको देवे तथा पथ्यमे छाँछ और भात और मद्य देय तो यह त्रिदोषजन्य संग्रहणीको नष्ट करे ॥

ग्रहणीकपाटरस।

तारमौक्तिकहेमानिसाराश्चैकैकभागिकाः ॥ द्विभागोगंधकःसूतस्त्रिभागोमर्दयेद्भिषक् ॥ कपित्थस्वरसैर्गाढंमृगशृंगेतुतत्क्षिपेत् ॥ पुटेन्मध्यपुटेनैवततउत्धृत्यमर्दयेत् ॥ बलारसैःसप्तवेलमपामार्गरसैस्त्रिधा ॥ मापमात्रंरसोदेयोमधुनामरिचैस्तथा ॥ हन्यात्सर्वानतीसारान्ग्रहणींसर्वजामपि ॥कपाटोग्रहणीरोगेरसोयंवह्निदीपनः॥

**अर्थ–**रुपेकी भस्म, मोतीकी भस्म, सुवर्णभस्म कांतलोहकी भस्म, ये प्रत्येक एकएक तोले लेप तथा गंधक२ तोले लेय और पारा ३ तोले, इन सवको एकत्र कर कैथके रससे खरलकर हीरण के सींगमें भरके मध्यम पुटमें धरकेफुंक देवे,जव स्यांग शीतल होजावे तब निकालके खरेटीके रसकीसात भावना देवे तथा ओंगाके रसकी तीन भावना देय तो यह (ग्रहणी कपाटरस) तयार हो, इसमेसे१ मासे रस शहत तथा कालीमिरचीका चूर्ण इनके साथ देवे तो संपूर्ण अतिसार और सन्निपातात्मफ संग्रहणी इनका नाश करे तथा अग्निकी दीपन करे॥

दूसराप्रकार।

रसेनगंधातिविपाभयाभ्रंदशत्रयंमोचरसंवचात् ॥ जयाचजंबीररसेनपिष्टःपिंडीकृतःस्याद्ग्रहणीकपाटः ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा, शुद्धगंधक, अतीस, हरड और अभ्रकभस्म ये प्रत्येक दश २ तोले लेवेऔर मोचरस, वच और भांग ये प्रत्येक तीन२तोले लेय सबको एकत्र कर खरलमें डाल नींबूके रसमें घोटके गोली बनावे इसको (ग्रहणीकपाटरस) कहते हैं, यह संग्रहणीरूप दरवाजोंके बंदकरनेको किवाड रूप है ॥

तीसराप्रकार।

शुद्धैःकर्कवराटकैर्गणनयाभल्लातकातत्समान्स्रोतान्बब्बुलकंटकैर्लघुपुटैस्तस्यांघ्रभागस्यच॥
लेलीतेनसमंविचूर्ण्यजययासप्तानुभाव्यंशिवप्रोक्तोयंग्रहणीकपाटकरसस्त्रैवल्लकः स्वौषधैः॥

**अर्थ–**उत्तम सपेद बडी २ कौडी लेवे, जितनी कौडी होवे उन्हीके समान भिलाये लेय, उनको बबूलके कांटोंसे छेदकर लघुपुटमें उनका तेल निकास लेवे इसप्रकार भिलाएका निकालाहुआ तेल चतुर्थांश ले, तथा गंधक कौडीयोंकी बराबर लेवे इन सबको एकत्र खरल करे और इसमें सात पुट भांगकी देवे तो यह ( ग्रहणीकपाट) शिवका कहा दुआ अनुमानसे तीन बल्ल देवे तो संग्रहणीको दूर करे ॥

वज्रकपाटरस।

मृतसूताभ्रकंगंधंयवक्षारंसटंकणम् ॥ अग्निमंथंवचांकुर्यात्सूततुल्यानिमान्सुधीः ॥ ततोजयंतीजंबीरमृगद्रावैर्विमर्दयेत् ॥ त्रिवासरंततोगोलंकृत्वासंशोप्यसाधयेत् ॥ लोहपात्रेशरावेचदत्वोपरिचमुद्रयेत् ॥ अधोवह्निंशनैःकुर्याद्यामार्धंततउद्धरेत् ॥ रसतुल्यांप्रतिविषांदद्यान्मोचरसस्तथा ॥ कपित्थबिजयाद्रावैर्भावयेत्सप्तधापृथक् ॥ धातकींद्रयवामुस्तालोध्रबिल्वगुडूचिका ॥ एतैर्द्रवैर्भावयित्वापल्लैकैकंतुशोषयेत् ॥
रसंवज्रकपाटाख्यंमापैकंमधुनालिहेत् ॥ बह्निंशुंठीविडंबिल्वंलवणंचूर्णयेत्समम् ॥ पिबेदुष्णांबुनाचानुसर्वजांग्रहणींहरेत् ॥

**अर्थ–**पारेकी भस्म, अभ्रक भस्म, गंधक, जवाखार, सुहागा, अरनी और वच ये प्रत्येक समान भाग लेवे चूर्ण करे उसमें भांग, नींबू और भांगरा इनकेरसमें तीन दिन खरल करे । फिर इसका गोला करके धूपमें सुखाय ले फिर इसको लोहके पात्रमें अथवा शरावसंपुटमें रखके मुद्रा करे फिर इसको अग्निपर चढायके चार घडी पचन करावे फिर उतारके संपुटमेंसे औषधोंको निकाल समान भाग अतीसका चूर्ण और मोचरस मिलायके कैथ और भांगके रसकी सात २ भावना देवे पश्चात् धायके फूल, इन्द्रजौ, नागरमोथा, लोध, वेलगिरी और गिलोय इनके काढेमें अथवा इनके रसमें एक एक भावना देवे फिर २ अथवा ३ रत्तीकी गोलियां बनावे तो यह ( वज्रकपाटरस) तयार होवे, यह एक मासे रस शहतसे देय और इसके ऊपर चीता, सोंठ, वायविडंग, वेलगिरी और निमक इनका चूर्ण कर गरम जलसे पीवे तो सर्व प्रकारकी संग्रहणीको नष्ट करे॥

ग्रहणिकामदवारणसिंह ।

सुरभिपारदहिंगुलचित्रकान्गगनभृष्टसुटंकणजातिकान् ॥
कनकबीजमथोतिविपाकटुत्रयहरीतकिभस्मसुदीप्यकान् ॥ गरलबिल्वकलिंगकपित्थकान्नलदमोचकदाडिमधातकी ॥

जलदशाल्मलिपिच्छ्युतान्समान्कनकसाम्यमफेनमिदंदृढम् ॥

कनकपत्ररसैः परिमर्दयेन्मरिचमानवटीमधुसंयुता॥

विनिहरेद्ग्रहणीगदमुत्कटंज्वरयुतामसतींचविपूचिकाम् ॥
अग्निमांद्यमथशूलविवंधंगुल्मशूलमथपांडुममंदम् ॥
सरुधिराममतीवसमुत्कटंग्रहणिकाम- दवारणसिंहः ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा, शुद्ध हिंगुल, चीता, अभ्रकभस्म, भुना सुहागा शुद्ध धतूरेके बीज, अतीस, सोंठ, मिरच, पीपल, जंगीहरड, आरनेउपलोंकी राख, अजवायन,सिंगिया विष, बेलगिरी, इन्द्रजौकैथ, नेत्रवाला, मोचरस, अनारकी छाल, धायके फूल, नागरमोथा, सेमरकेफूल, धतूरा और अफीम ये समान भाग लेवे सबको धतूरेके पत्तोंके रससे खरल करे कालीमिरचक समान गोली वनावे१ गोली शहतसे देवे तो ज्वरयुक्त संग्रहणी, दुष्टविपूचिका, मंदाग्नि शूल, अनेक प्रकारके गोला, तीव्र पांडुरोग और रक्तस्त्रावी आमका रोग इन सबको नाश करे अतएव इसको (ग्रहणिका मदवारणसिंह ) कहते हैं॥

पारदादिवटी।

पारदगंधकंतारममृतंचानुशुल्वकम् ॥ त्रिफलात्रिसुगंधीचचित्रकोशीररेणुकाः ॥ रजनीद्वयसंयुक्तंसंपिष्यवटकीकृतम् ॥ ग्रहण्यष्टविधंशूलंशोथातीसारनाशनम् ॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, रूपेकी भस्म, विष, तामेकीभस्म, त्रिफला, त्रिसुगंध, चीता, नेत्रवाला, पित्तपापडा, हलदी और दारुहलदी ये सब एकत्र करके घोटे फिर गाढा होनेपर गोली बनाय लेय तो यह संग्रहणी, आठ प्रकारका शूल रोग, सूजन और अतिसार इनका नाश करे ॥

सज्जीक्षारादियोग।

सर्ज्जिकायवशूकंवाविजयातिविषासमम् ॥ दीप्यकंपारदंगंधंनिंबुनीरेणभावयेत् ॥माषार्धंमधुनादेयंसितयावाघृतान्वितम् ॥ अनुदद्याद्ग्रहण्यार्तिज्वरातीसारशांतये ॥
सशूलशोथसहितां ग्रहण्यार्तिंप्रणाशयेत् ॥

**अर्थ–**सज्जीखार, जवाखार, भांग, अतीस, अजमायन, पारा और गंधक ये सब औषध समान भाग लेवे सबका एकत्र चूर्ण करके नींबूके रसकी भावना देवे, इसमेंसे ४ रत्ती रस शहतमें मिलायके देवे और ऊपरसे खांड और घी, मिलायके भक्षण करे तो यह योग संग्रहणी और ज्वर, अतिसार, शूल और सूजन इन करके युक्तसंग्रहणीको नाश करे॥

पारदादिवटी।

दग्ध्वावराटकान्पीतान्त्र्यूपणंटंकणंविषम् ॥ गंधकंशुद्धसूतं चसमंजंबीरजैर्द्रवैः ॥ मर्दयेद्भक्षयेन्माषंमरीचाज्यंलिहेदनु ॥ निहंतिग्रहणीरोगान्पंथ्यंतक्रौदनंहितम्॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, रूपेकीभस्म, सिंगियाविष,ताम्रभस्म, त्रिफला,त्रिसुगंध, चीतेकी छाल, पीलेरंगकी कौडी लेकर अग्निमें राख कर ले, उस कौडीकी राखके समान, सोंठ, मिरच, पीपल, सुहागा, विष, गंधक और पारा ये समान भाग लेवे इनको नींबूके रसमे खरल कर इसमेसे १ मास रस काली मिरच और घीके साथ देखे पथ्यमें छाँछ भात देय तो संग्रहणीका नाश करे, तथा ज्वरप्रकरणमें व्याधिगजकेसरी रस कहा है उसको भी देवे ॥

सुवर्णरसपर्पटी।

शुद्धसूतंपलमितंतुर्यांशंस्वर्णसंयुतम् ॥ मर्दयेन्निंबुनीरेणयावदेकत्वमाप्नुयात् ॥ प्रक्षाल्योष्णांबुनापश्चात्पलमात्रेसुगंधके ॥ द्रुतेलोहमयेपात्रेबादरानलयोगतः ॥ प्रक्षिप्यचालयेल्लौह्यामंदंमंदंविलोक्यच ॥ ततः पाकंविदित्वातुरंभाषत्रेविनिःक्षिपेत् ॥ गोमयस्थेतदुपरिरंभाषत्रेणयंत्रयेत् ॥ शीतंतच्चूर्णितंगुंजाक्रमवृद्ध्यानिपेवयेत् ॥ मापमात्रंभवेद्यावत्ततोमात्रांनवर्धयेत् ॥ सक्षौद्रेणोपणेनैवलेहयेद्भिषगुत्तमः॥ ग्रहणींहंतिशोषंचसुवर्णरसपर्पटी ॥ सद्योबलकरीशुक्रवर्धनीवह्निदीपनी ॥ क्षयकासश्वासमोहशूलातीसारपांडुनुत् ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा ४ तोले और सुवर्णके वर्क १ तोले एकत्र करके नींबूके रससे खरल करे, जब मिलके एकरूप होजावे तब इसको गरम जलसे धोयकर इसमेंसे चार तोले शद्ध गंधक डालके लोहेके पात्र में बेरकी अग्निपर रखके पतली करे उसमें शुद्ध सुवर्ण के पत्र और पारा मिलायके लोहेकी कलछीसे धीरे २ चलाकर जब परिपक्वहोजावे तब गोबरमें केलाका पत्ता बिछाय उसपर उसको ढाल देवे और तत्काल दूसरे पत्तेसे ढककर गोवरकी पोटलीसे दाव देवे, जव शीतल होजावे तब निकास लेवे यह पपडीके माफिक होजावेगी, इसमेंसे १ रत्तीसे लेकर छः रत्ती पर्यंत वलावल देखकर वैद्य रोगीको देय तथा शहत और त्रिकुटाके चूर्णमें मिलायके लेवे तो संग्रहणी, शोष, क्षय, खांसी, श्वास, प्रमेह, शूल, अतिसार और पांडुरोग इनको नाश करे तथा यह सुवर्णपर्पटी रस तत्काल बल, शुक्र और अग्निको बढावे है॥

पर्पटी।

शुद्धपारदगंधाभ्यांकृतापर्पटिकानृणाम् ॥
निहंतिग्रहणींक्षौद्रयुक्तांपथ्यभुजांभृशम् ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा और गंधक इन दोनोंकी कजली कर पर्पटी करके शहतके साथ भक्षण करे तो यह संग्रहणीका नाश करे इस पर्पटीके सेवन करनेवालेको पथ्य करना चाहिये॥

ग्रहणीगजकेसरीरस।

गंधंपारदमभ्रकंचदरदंलोहंचजातीफलंबिल्वंमोचरसंविषंप्रतिविषंव्योपंतथाधातकी ॥ भ्रष्टामप्यभयांकपित्थजलदौदीप्यानलौदाडिमंटंकाद्भस्मकलिंगकात्कनकजंबीजंचयक्षेक्षणम् ॥ एतत्तुर्यमफेनमेतदखिलंसंमर्द्यसंचूर्णयेद्धत्तूरच्छदजैरसैः सुमतिमान्कुर्यान्मरीचाकृतिम् ॥ दत्तासाग्रहणीगदंसरुधिरंसामंसशूलंचिरातीसारंविनिहंतिजूर्तिसहितांतीव्रांविपूचीमपि ॥
साध्यासाध्यमपिस्वयंपरिहरेदुक्तानुपानैरपिनाम्नातुग्रहणीमतंगजमदध्वंस्येषकंठीरवः॥

**अर्थ–**गंधक, पारा, अभ्रकभस्म, हिंगुल, लोहभस्म, जायफल, वेलगिरी, मोचरस, सिंगियाविष, अतीस, सोंठ,कालीमिरच, पीपल, धायके फूल, भुनीहुई हरड, कैथ, नागरमोथा अजमायन, चीतेकी छाल, अनारदाना, कुडाकी छालकी राख १ तोले, धतूरेके बीज तथा लताकरंज ये समान भाग लेवे और अफीम चार भाग ले सबको एकत्र खरल कर धतूरके रससे मिरचके समान गोली बनावे इसके देनेसे संग्रहणी, रक्त, आम, शूल, बहुत दिनोंका अतिसार ज्वर, विपूचिका (हैजा) तथा साध्यासाध्य संग्रहणी इन सबका नाश करे इस रसको (ग्रहणीगजकेसरी) रस कहते है॥

अग्निसुतरस।

भागोदग्धकपर्दकस्यचतथाशंखस्यभागद्वयंभागोगंधकसूतयोर्मिलितयोःपिष्टामरीचापि ॥ भागस्यत्रितयंनियोज्यसकलंनिंबूरसेचूर्णितंनाम्नावह्निसुतोरसोयमचिरान्मांद्यंजयेद्दारुणम्॥ घृतेनखंडैःसहभक्षितोसौक्षीणान्नरानाशुसमीकरोति ॥
समागधीचूर्णघृतेनलीढोनरः प्रमुंचेद्ग्रहणीविकारात् ॥ शोपज्वरारोचकशूलगुल्मान्पांडूदरार्शोग्रहणीविकारान् ॥ तक्रानुपानोजयतिप्रमेहान्युक्त्याप्रयुक्तोग्निसुतोरसेंद्रः॥

**अर्थ–**कौडीकीभस्म १ भाग, शंखभस्म २ भाग, गंधक और पारा दोनों मिलाकर१ भाग, कालीमिरचका चूर्ण३ भाग ले सबका एकत्रित चूर्ण कर नींबूके रसमें खरल करे,यह अग्निसुत रस युक्तिके साथ घी और मिश्रीके संग सेवन करनेसे बहुत दिनोंकी मंदाग्नि, क्षीणता इनका नाश करे तथा पीपलके चूर्ण और घी इनके साथ सेवन करनेसे संग्रहणीविकार तथा छाँछके साथ शोष, ज्वर,अरुचि, शूल,गोला,पांडुरोग,उदर,बवासीर, संग्रहणी विकार इनका नाश करे इसको प्रमेहपर भी वैद्य अपनी युक्तिसे देखें तो प्रमेहको दूर करे ॥

ग्रहणीकपाटरस।

पारदाद् द्विगुणोगंधस्ताभ्यांतुल्यंकटुत्रयम् ॥ अजाजीटंकणं धान्यंहिंगुजीरयवानिकाः ॥ प्रत्येकंद्विगुणंसूताद्रुचकंचचतुर्गुणम्॥ सर्वेषांचसमाज्ञेयादग्धासुज्ञैर्वराटिका ॥सर्वमेकीकृतंचूर्णं माषद्वयमितंततः ॥ तक्रेणालोड्यमतिमान्भक्षयेत्सततंनरः ॥ ग्रहणीकपाटोह्येपहितःस्याद्ग्रहणीगदे ॥

**अर्थ–**पारा १ तोले, गंधक २ तोले, त्रिकुटा ३ तोले, जीरा, सुहागा, धनिया, हींग, कालाजिरा और अजमायन ये प्रत्येक दो दो तोले लेवे और पांगा निमक ४ तोले तथा इन सबके चूर्ण समान कौडीकी भस्म लेके ये संपूर्ण एकत्र खरलकरे तो यह ग्रहणीकपाटरस तैयार हो, इसमेंसे दो मासै रस छाँछके साथ पीवेतो यह संग्रहणीरोगका नाश करे ॥

सूतादिगुटी।

सूतकंगंधकलोहंविषंचित्रकपत्रकम् ॥ विडंगंरेणुकामुस्तमेलाग्रंथिककेसरम् ॥ फलत्रिकंत्रिकटुकंशुल्बभस्मतथैवच ॥ एतानिसमभागानिदीयतेद्विगुणोगुडः॥ कासेश्वासेक्षयेगुल्मप्रमेहेविषमज्वरे ॥ लूतायांग्रहणीमांद्येशूलेपार्श्वामयेतथा ॥ हस्तपादादिरोगेपुगुटिकेयंप्रशस्यते ॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, लोहभस्म, सिंगियाविष, चीतेकी छाल, पत्रज, वायविडंग, पित्तपापडा, नागरमोथा, इलायची, पीपरामूल, नागकेशर, त्रिफला, त्रिकुटा और ताम्रभस्म ये समान भाग लेवे और गुड इसमें दो भाग मिलावे सबको कूट पीस गोली बनावे यह खांसी, श्वास, क्षय, गोला, प्रमेह, विषमज्वर, लूता, संग्रहणी, मंदाग्नि, शूल कूखका रोग और हाथ पैरोंका रोग इनपर देवे यह परमोत्तम है ॥

कणादिलेह।

कणानागरपाठाभिस्त्रिवर्गद्वितयेनच ॥ बिल्वचंदनह्रीबेरैःसवांतीसारनुन्मतः ॥ सर्वोषद्रवसंयुक्तामपिहंतिप्रवाहिकाम् ॥ नानेनसदृशोलेहोविद्यतेग्रहणीहरः॥

**अर्थ–**पीपर, सोंठ, पाढ, त्रिफला, त्रिकुटा, वेलगिरी,चंदन, और नेत्रवाला,इनका अवलेह बनायके सेवन करे तो संपूर्ण उपद्रवयुक्त, संग्रहणी और प्रवाहिकाइनको नाश करे इससे बढिया दूसरा प्रयोग संग्रहणीरोगपर नहीं है॥

अभ्रकादिवटी।

रसंगं,विपंव्योपटंकणलोहभस्मकम् ॥ अजमोदाहिफेनंचसर्व तुल्यंमृताभ्रकम् ॥ चित्रकत्वरूपायेणमर्दयेद्याममात्रकम् ॥ मरीचाभांवटींकृत्वाखादेदेकांजयेदसौ ॥
चतुर्विधांचग्रहणीं रहस्यंतदिदंस्मृतम् ॥

अर्थ–शुद्धपारा, शुद्धगंधक, सिगियाविष, सोंठ, मिरच, पीपल, सुहागा, लोहकी भस्म, अजमोद और अफीम ये समान भागले सबकी बराबरकी अभ्रक भस्म लेवें, सबको एकत्र कर चीता, दालचीनी इनके काढेमें एक प्रहर खरल करे फिर काली मिरचके समान गोली बनावे १ गोली नित्य खाय तो चार प्रकारकी संग्रहणीका नाश करे यह गुप्त प्रयोग कहा है ॥

सूतराज।

रसगंधाभ्रकाणांचभागानेकद्विकाष्टकान् ॥ संचूर्ण्यसर्वरोगेषु युंज्याद्वल्लचतुष्टयम्॥ग्रहणीक्षयगुल्मार्शोमेहधातुगतज्वरान् ॥ निहंतिसूतराजोयंमंडलस्यचसेवनात् ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा १ तोले, शुद्धगंधक ३ तोले, अभ्रक भस्म ८ तोले, इस प्रमाणसे लेकर सबकी कजली करे फिर इसमेंसे ४ वल्ल अर्थात् ८ रत्ती एक मंडल पर्यत सेवन करे तो यह सूतराज संग्रहणी, क्षय, गोला, अर्श (बवासीर) प्रमेह और धातुगतज्वर इन सबको नाश करे ॥

पूर्णचंद्ररसेंद्र।

सूतंगंधंचाश्वगंधागुडूचीयष्टीतोयैर्मर्दयेदेकवस्रम् ॥ क्षुद्रंशंखंमौ क्तिकंलोहकिट्टंभस्मीभूतंसूततुल्यंतुदद्यात् ॥ भूकूष्मांडैर्वासरंसंविमर्द्यगोलंकृत्वाभूधरेतंपुटेच्च ॥ चूर्णंकृत्वानागवल्लीर सेनदद्यादेतंमर्दयित्वैकयामम् ॥ मध्वाज्याभ्यांपूर्णंचंद्रोरसेंद्रः पुष्टिवीर्यंदीपनंचैवकुर्यात् ॥ प्रायोयोज्यःपित्तरोगेग्रहण्यामक्षीरोगेपित्तजेघोलयुक्तम् ॥ स्त्रीणांतापेशाल्मलीनीरयुक्तंयोज्यंचाज्यंवाशताह्वाविपक्वम् ॥

**अर्थ–**पारा, गंधक, इन दोनोंको असगंध, गिलोय और मुलहटी, इनके काढेमें एक दिन खरल करे, फिर छोटे शंख, मोती, और मंडूर, इनकी भस्म पारेके समान मिलायके विदारी कंदके रसमें एक दिन खरल कर उसका गोला बनायके भूधर यंत्रमें रखके फूंक देवे, जब शीतल होजावे तब उसको निकाल बारीक पीस नागर वेलपानके रसमें १ प्रहर खरल करे तो यह पूर्णचंद्ररसबनके तयार हो, इसको घी और शहतसे सेवन करे तो पुष्टता वीर्यको और जठाराग्नि को प्रवल करे इसको पित्तरोग में संग्रहणी और नेत्र रोगमें घोलके साथ देवे स्त्रियों के ज्वर में सेमरके रस से वा शतावरके रस से सिद्ध करे घृतके साथ सेवन करे॥

दंभ ।

नाभौद्व्यंगुलकादधोर्धशशिवद्वंशास्थिमूलेतथा ॥

दाहः प्रज्वलितायसस्यकथितोदंभोग्रहण्यातुरे॥

**अर्थ–**संग्रहणी रोगवालेके नाभि (ठूडीके ) ऊपर दो अंगुलपर तथा नाभि के नीचे अंगुलपर अर्धचंद्राकार और उसीप्रकार वंशास्थि मूलके विषे लोहके टुकडेको अग्निमें तपायकर दाग देवे ॥

दूसराप्रकार।

दंभंताम्रशलाकयाग्रहणिकांलोहस्यवास्वर्णयोर्देयंनाभिरधस्थद्व्यंगुलमितंबस्तिद्वयोर्मध्यगम्॥ पूयस्त्रावमपथ्यमेवविहितंपेयं जलंशीतलंवातोत्थामपिपित्तजामपिचिराद्धन्याद्वलासादिकम् ॥

**अर्थ–**संग्रहणीपर ताम्र, लोह, अथवा सुवर्ण इनकी शलाईसे नाभिके नीचे दोअंगुलपर तथा नाभिके ऊपर दो अंगुलपर, नाभि और वस्ति इनमें दाग देवे और पूयस्राव होवे ऐसा पथ्य करे और शीतल जल पीवे तो वातपित्त कफात्मक बहुत दिनोंकी संग्रहणी नाश होवे ॥

सिंहनपुरीचूर्ण।

एकः प्रदेयोरुचकस्यभागोह्यर्धोजमोदस्यचसैंधवस्य॥ शुंठ्यास्त्रयोद्वौमरिचस्यभागौचूर्णंचतुर्थं- सितजीरकस्य ॥ तक्रेणपानात्कफवातरागांस्तद्भोजनांतेखलुदीपनाय ॥ सिंहेनराज्ञाकथितंचचूर्णंप्लीहोदराजीर्णविपूचिकासु ॥

**अर्थ–**संचरनिमक १ तोले, अजमोद ६ मासे, सैंधानिमक ६ मासे, सोंठ घाडकी ३ तोले, कालीमिरच २ तोले, सपेदजीरा४ तोले सबका चूर्ण करके छाँछके साथ सेवन करे तो कफवातके रोग नष्ट होवे, यदि भोजनके पश्चात् इसका सेवन करे तो अग्निको दीपन करेहै; सिंहन राजाने यह चूर्ण कहाहै यह तापतिल्ली, उदररोग, अजीर्ण और विपूचिका इन रोगों में देवेतो सबको नष्टकरे॥

द्वितीयसिंहनपुरीचूर्ण ।

रुचकसैंधवहिंगुयवानिकासमघृताद्विगुणोपणवेतसाः ॥
जरणनागरसागरसंयुतः पिबतितक्रयुतं

तिचतुर्गुणम् ॥
हरतिमंदहविर्भुजमंजसागुदगदान्ग्रहणीमतिदुर्जयाम् ॥
विषमशूलरुजामरुचिं तथाविविधवारिकृतानखिलामयान् ॥
विरचितंखलुसिंहनभूभुजारुचि- रचूर्णमिदंकृपयानृणाम् ॥

**अर्थ–**संचरनिमक, सैंधानिमक,हींग, अजवायन, ये सब समान भाग लेवे, और कालीमिरच एक औषधसे दूनी लेवे, तथा मिरचोंके बराबर अमलवेत लेवे तथा जीरा और सोंठ ये चार २ भाग लेवे, सबको कूट पीस चूर्ण बनावे, इस को चौगुनी छाँछके साथ पीवे तो मंदाग्नि, गुदाके रोग, दुर्जय संग्रहणी, विषम शूल का रोग, अरुचि, तथा अनेक प्रकार के संपूर्ण जल विकार इन सब रोगोंके यह दूर करे, यह चूर्ण सिंहनराजाधिराजने प्राणियों की कृपा विचार निर्माण करा है, इसीसे यह सिंह पुरी चूर्ण विख्यात है ॥

तृतीयसिंहनपुरीचूर्ण ।

एकांशोरुचकादुभौमरिचतः ॥ शुंठ्यांस्त्रयोजीरतश्चत्वारोर्द्धयुतः समुद्रलवणोभागस्तथासैंधवः ॥ चूर्णंसिंहनभूभुजाहिकथि तंतक्रेणसंसेवितंगुल्मानाहविपूचिकागुदरुजः श्वासानिलान्नाशयेत् ॥

**अर्थ–**संचरनिमक १ पल, कालीमिरच २ पल, सोंठघाडकी ३ पल, सपेदजीरा४ पल, समुद्रलवण २ तोले, सैंधानिमक २ तोले ले सबको कूट पीस चूर्ण बनावे यह सिंहन महाराजने कहा है इसीसे इसको (सिंहनपुरी) वर्ण कहते हैं इसको छाँछके साथ सेवन करे तो गोला, अफरा, विपूचिका( हैजा) बवासीर, श्वास (दमा) और वादी इन सब रोगोंका नाश करे ॥

लाईचूर्ण।

सूतंगंधंत्रिकटुकंदीप्यकंजीरकद्वयम् ॥ सौवर्चलंसैंधवंतुरामठंबिडमेवच ॥ शक्राशनस्यचूर्णंतुसर्वतुल्यंप्रदापयेत् ॥संग्रहं शूलमानाहंहन्यान्नानातिसारजित् ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा, शुद्धगंधफ, त्रिकटु ( सोंठ, मिरच, पीपल,) अजवायन, सपेद जीरा,कालाजीरा, संचरनिमक, सैंधानिमक,हींग, विडनिमक, ये सब औषधी बराबर भागलेवे और सब औषधोंकी बराबर भांगलेवे सबको कूट पीसकर सेवनकरे तो मलके संग्रहको शूल अफरा और अनेक प्रकारके अतिसारोंको दूर करे॥

ज्वालामुखचूर्ण ।

शक्राशनंसप्तपलंसितायाः पलत्रयंछिन्नरुहाशताह्वा। तथैवमूलंगिरिकर्णिकायाः पलंपलंवैकथितंत्रयाणाम् ॥ सर्वंतुचूर्णंवरभृंगराजद्रवेणचालोड्यपुनःपुनस्तु ॥ घर्मेपुसंशोप्यचसप्तवारंनित्यं- लिहेत्कर्षप्रमाणकंतत् ॥ वितुल्यसर्पिर्मधुभिःसमेतंस्निग्धाम्लमुद्गहितभोजनंच ॥
करोतिवह्निंग्रहणींचहन्यात्सामातिसारानसृजोविकारान् ॥ कुष्ठामवातंपिटकान्विसर्पंज्वालामुखंनामहितंनराणाम्॥ व्याधीन्समस्तानपिहंतिशीघ्रंयानंत्रभूताञ्जठरोद्भवांश्च ॥

**अर्थ–**भांग ७ पल, खाँड,३ पल, गिलोय, सतावर अपराजिता,ये प्रत्येक एकएक पल, लेवेसबका चूर्णकरके भांगरे के रसकी सात भावना देवे और प्रत्येकभावना दे देकर धूपमें सुखायले फिर इस चूर्णमेंसे १ तोले प्रमाणनित्य घी और शहत विषम भाग लेकर इसमें चूर्ण मिलाय केसेवन करे इसके ऊपर

चिरानगह,मूंगके पदार्थइत्यादि हित भोजन करेतो यहजठराग्निकोवढाय संग्रहणी, आमातिसार, रुधिर केशिकार,कुष्ठरोग, आमवात, पिंडका, विसर्प रोग तथाआंवडेके और उदर रोगों को यह ज्वालामुखचूर्ण शमिदूर करे॥

नारायणचूर्ण।

गुडूचींवृद्धदारुंचकुटजस्यफलंतथा॥ बिल्वंचातिविषंचैवभृंगराजंचनागरम् ॥ शकाशनस्यचूर्णंचसर्वमेकत्रमेलयेत॥ चूर्णंमेनत्मम

ग्रायंकुटजस्यत्वचोऽपिच ॥

गुडेनमधुनावापिलेहयेद्रिद्विमा ॥

शोथरक्तमतीमाचिरजंदुर्जयंतथा ॥

ज्वरंतृ
॥ मंदानलंप्रमेहंचशूलंचापित्रिदोषजम् ॥ अरुचिंगुदजंचैवहन्यादेवनसंशयः॥ एतन्नारायणंचूर्णंश्रीनारायणभाषितम् ॥

**अर्थ–**गिलोय, विधायरो, इन्द्रजौ, वेलगिरी,अतीस,भांगरा, सोंठ घाडकी, और भांग ये सब समान भाग ले और सब चूर्ण की बराबर कूडाकी छाल लेवे,सबका चूर्ण करे इस चूर्ण को गुडमें मिलायके सेवन करे अथवा सहतके साथ चूर्ण करे तो सूजन, रुधिरातिसार, घोर और दुर्जय अतिसार, ज्वर, तृष्णा, खांसी, पांडुरोग, हलीमक, मंदाग्नि, प्रमेह, त्रिदोषजन्य शूल, अरुचि, गुदाके रोग, इन सब को यह दूर करे यह नारयण चूर्ण श्रीनारायण का कहा हुआ है ॥

चित्रांबररस।

शुद्धंसूतंमृतंचाभ्रंगंधकंमर्दयेत्समम् ॥ लोहपात्रेघृताभ्यक्तेक्षणं मृद्वग्निनापचेत् ॥चालयेल्लोहदण्डेनअवतार्यविभावयेत् ॥ त्रिदिनंजीरकक्काथैर्मा पैकंभक्षयेत्सदा ॥ ग्रहणीशांतिमायातिसर्वोपद्रवसंयुता ॥ रसश्चित्रांवरोनामग्रहणीग्रहहृन्मतः ॥ शमयेदनुपानेनआमशुलंप्रवाहिकाम् ॥

**अर्थ–**शुद्धपारा और गंधक दोनोंकी कजली तथा अभ्रकभस्म ये सब पदार्थ लोहके पात्रमे अग्निपर रखमंद २ अग्निसे पचावे, तथा लोहे के मूसलेसे घोटता जावे, फिर इस को उतार के तीनदिन जीरे के काढे का भावना देवे तो यह( चित्रांबररस ) बनके तयार हो। यह अनुपान के साथ एक मासे खाय तो संपूर्ण उपद्रव सहित संग्रहणी को आमशूल और प्रवाहिका को नाश करे ॥

अगस्तिसुतराजरसः।

रसबलिसमभागंतुल्यहिंगूलयुक्तंद्विगुणकनकबीजनागफेनेन तुल्यम् ॥ सकलविहितचूर्णंभावयेद्भृंगनीरैर्ग्रहणिजलधिशोपेसूतराजोह्यगस्तिः ॥ त्रिकटुकमधुयुक्तोसर्ववांतिचशूलंकफपवनविकारंवह्निमांद्यंचनिद्राम् ॥
घृतमरिचयुतोऽयंगुजमात्रः प्रवाहीहरतिपडतिसाराञ्जोरजाजीफलेन ॥

**अर्थ–**पारा, गंधक और हींगलू ये तोले२लेवे,धतूरे के बीज और अफीम ये दो दो तोले ले,सबको एकत्र कर के भांगरे के रस की भावना देवे, यह(अगस्ति मृतराज) सोंठ, मिरच, पीपल और सहत इन के अनुपान से १ रत्तीदेय तोवांति, शूल, कफ, वात संबंधी विकार, मंदाग्नि और निद्राइनको दूरकरे तथा छःप्रकार के अतिसारपर जीरा और जायफलके साथ देना चाहिये ॥

कनकसुंदररस ।

हिंगुलंमरिचंगंधंपिप्पलीटंकणंविषम्॥ कनकस्यचबीजानिसमांशंविजयाद्रवैः ॥ मर्दयेद्याममात्रंतुचणमात्रावटीकृता॥भक्षणाद्ग्रहणींहंतिरसः कनकसुंदरः ॥अग्निमांद्यंज्वरंतीव्रमतीसारंचनाशयेत् ॥दध्यन्नंदापयेत्पथ्यंतथातक्रौदनंचरेत् ॥

**अर्थ–**हींगलू, कालीमिरच, गंधक, पीपल, सुहागा, सिंगियाविष और धतूरेके बीज सबको समान भाग लेकर भाँगके काढेमें १ प्रहर खरलकर चनेके बराबर गोली बनावे तो यह संग्रहणी, मंदाग्नि, ज्वर और अतिसार इनको नाश करे । इसपर दही भात, अथवा छँछ भात ये पथ्य है॥

क्षारताम्ररस।

शंखक्षारार्कभूतिंचवराटंलोहभस्मकम् ॥ अयोमलंयवक्षारंटकणंक्षारमेवच ॥
त्रिकटुं सैंधवंतुल्यंभृंगतोयेनमर्दयेत् ॥ आटरूपरसैर्मर्द्यमार्द्रकस्वरसेनच ॥चणमात्रांवटींकृत्वारसोऽयंक्षारताम्रकः ॥ श्वासेकासेप्रतिश्यायेपुराणज्वरपोडिते । मंदाग्नौग्रहणीदोषेत्वनुपानंयथोचितम् ॥ सेवयेत्सप्तरात्रेणनाशयेन्नात्रसंशयः ॥ चिरकालानुबंधेचसेवयेन्मंडलावधि ॥ तत्तद्व्याधिहरंपथ्यं नियमेनसमाचरेत् ॥

**अर्थ–**शंखकी भस्म, जवाखार, तामेकीभस्म, कौडीकीभस्म, लोहभस्म, मडूर,जवाखार, सुहागा, सोंठ, मिरच, पीपल, सैंधानिमक, ये सब समान भाग लेवे सबको भाँगरेके रससे, अडूसेके रससे और अदरखके रससे पृथक २ खरल करके चनेक बरावर गोली बनावे यह (क्षारताम्ररस ] श्वास, खाँसी, पीनस, जीर्णज्वर, मंदाग्नि और संग्रहणीका दोष, इनपर रोगानुरूप अनुपानके साथ देव तो सातदिन गुण दिखावे यह बहुत काल की व्याधिपर १ मंडल पर्यंत देवे तथा जिस २ व्याधिपर दे उसपर जो जो वस्तु पथ्य कही है वो करनी चाहिये ॥

चित्रकादिगुटी।

चित्रकंपिप्पलीमूलंद्वौक्षारौलवणानिच ॥ व्योपंहिंग्वजमोदाचचव्यमेकत्रचूर्णयेत् ॥ गुटिकामातुलुंगस्यदाडिमस्यरसेनवा ॥ कृताविपाचयत्वामंदीपयत्याशुचानलम् ॥

**अर्थ–**चीतेकीछाल, पीपरामूल, सज्जीखार, जवाखार, निमक, सोंठ, मिरच, पीपल, हींग, अजमोद, चव्य, इन सबको एकत्र कर कूट पीस विजोरेके रससे अथवा अनारदानेके रससे घोंटकर गोली बनावे, इसको बलाबल विचारके देवे तो यह आमका पाचन करे और मंदाग्निको दीपन करे है ॥

शंबूकयोग ।

दग्धशंबूकसिंधूत्थंतुल्यंक्षौद्रेणलेहयेत् ॥
निष्कैकैकंनिहंत्याशुग्रहणीरोगमुत्कटम् ॥

**अर्थ–**शंखकीभस्म और सैंधानिमक दोनों समान भाग लेवे चूर्णकर तीन मासे शहतके साथ चाटे तो घोर संग्रहणी रोग दूर करे ॥

कांकायनगुटी।

पथ्यापंचपलान्येकमजाज्यामरिचस्यच ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलं चव्यचित्रकनागरैः॥पलाभिवृद्धैःक्रमशोयवक्षारंपलद्वयम्॥भल्लातकपलान्यष्टौसूरणोद्विगुणोमतः ॥ द्विगुणेनगुडेनैपावटिकाचाक्षसंमिता ॥ एकैकांभक्षयेत्प्रातस्तक्रमम्लंपिबेदनु ॥
वह्निं तंदीपयत्याशुग्रहणीपांडुरोगजित् ॥ कांकायनेनशिष्येभ्यः शस्त्रक्षाराग्निभिर्विना॥ कथितागुटिकाचैपागुदजानांविनाशिका ॥

**अर्थ–**बडीहरड २० तोले, तथा जीरा, मिरच, पीपल, पीपरामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, ये प्रत्येक चार २ तोले बढतीके क्रमसे लेवे, तथा जवाखार ८तोले, भिलाये ३२ तोले, जमीकंद ६४तोले और गुड सब चूर्णसे दूना लेवे सवको कूट पीस एक तोले कीगोली बनावे इसको प्रातःकाल एक एक देवे ऊपरसे खट्टी छाँछ पिवावे तो अग्निको दीपन करे तथासंग्रहणी और पांडुरोग इनका नाश करे यह कांकायन ऋषिने अपने शिष्यों को शस्त्रकर्म और क्षार कर्म के विना बवासीर और गुदा रोग नाश करने को कहीं है॥

महाकल्याणगुड।

पिप्पलीपिप्पलीमूलंचित्रकंगजपिप्पली ॥ धान्यकंचविडंगानि यवानीमरिचानिच॥त्रिफलाचाजयोदाचनलिनीजीरकस्तथा॥ सैंधवंरोमकंचापिसामुद्रंरुचकंतथा॥ आरग्वधश्चत्वक्पत्रसूक्ष्मैलाचोपकुंचिका ॥ शुंठीशक्रयवाश्चैवप्रत्येकंकर्षसंमितम् ॥मृद्वीकायापलान्यत्रचत्वारिकथितानिहि ॥ त्रिवृतायाः पलान्यष्टौगुडस्यार्धपलंतथा॥ तिलतैलंपलान्यष्टौचामलक्यारसस्यतु ॥ प्रस्थत्रयमिदंसर्वंशनैर्मृद्वग्निनापचेत् ॥उदुंबरंचामलकंवादरंवा यथाफलम् ॥ तावन्मात्रमिदंखादेद्भक्षयेद्वायथाबलम्॥निखिलान्ग्रहणीरोगान्प्रमेहांश्चैकविशतिम्॥ उरोघातंप्रतिश्यायंदौर्वल्यंवह्निसंक्षयम्॥ ज्वरानपिहरेत्सर्वान्कुर्यात्कांतिमतिस्वरम्॥ यथाबलंवर्द्धितासारक्तपित्तंचविड्ग्रहम् ॥ धातुक्षीणोवयःक्षीणस्त्रीपुक्षीणः क्षयीचयः ॥ तेभ्योहितश्चवंध्यायैमहाकल्याणकोगुडः ॥

**अर्थ–**पीपर, पीपरामूल, चीता, गजपीपर, धनियाँ, वायविडंग,अजवायन कालीमिरच, हरड, बहेडा, आमला अजमोद, कमलगट्टा, जीरा, सैंधानिमक, साँझरनिमक, समुद्रनिमक, संचरनिमक, बिडनिमक,अमलतासका गूदा दालचीनी, पत्रज, छोटीइलायची, बडीइलायची, सोंठ, इन्द्रजव, ये प्रत्येक औषध एक एक तोले लेवे तथा कालीदाख १६ तोले ले निसोथ ३२ तोले गुड २०० तोले, तिलोंका तेल ३२ तोले और आमले का रस ६४ तोले इन सबको एकत्र करके मधुरी २ आँचपर पचावे, फिर इसमेंसे गूलर, आवला, अथवा वेर इतनी बडी बलाबल विचार गोली बनायके रोगीको देवे तो संपूर्ण संग्रहणी के रोग वीस प्रकारके प्रमेह, उरोघात (छातीकी चोट) पीनस, दुर्बलता, मंदाग्नि, संपूर्णज्वर, इनको नष्ट कर इसको थोडी २ शक्तीकेअनुसार बढावे तो रक्तपित्त, विड्बंध, धातुकी क्षीणता, अवस्था की क्षीणता, स्त्री क्षीण और क्षय इनपर हितकारी है तथा महाकल्याण गुड बंध्याको हितकारी है ॥

कूष्मांडगुड।

कूष्मांडानांसुपक्वानांस्विन्नानांनिष्फलत्वचाम् ॥ सर्पिःप्रस्थेपलशतंताम्रपात्रेशनैःपचेत्॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलंचित्रकंगजपिप्पली ॥ धान्यकानिविडंगानिनागरंमरिचानिच ॥ त्रिफलाचाजमोदाचकलिंगाजातिसैंधवम् ॥ एकैकस्यपलंचैकंत्रिवृतोष्टौपलानिच ॥ तैलस्यचपलान्यष्टौगुडात्पंचदशैवतु ॥ आमलक्यारसंचात्रप्रस्थत्रयमुदीरितम् ॥ तावत्पाकंप्रकुर्वीतमृदुनावन्हिनाभिषक् ॥ यावद्दर्वीप्रलेपःस्यात्तदैनमवतारयेत् ॥ औदुंबरंचामलकंबदरंवायथाबलम् ॥ तावन्मात्रमिदंखादेद्भक्षयेद्वायथाबलम् ॥ अनेनैवविधानेनप्रयुक्तस्यदिनेदिने निहंतिग्रहणीरोगान्कुष्ठमर्शोभगंदरम् ॥ ज्वरमानाहहृद्रोगगुल्मोदरविपूचिकाः ॥ कामलांपांडुरोगंचप्रमेहांश्चैकविंशतिम् ॥ वातशोणितवीसर्पद्रुयक्ष्महलीमकान् ॥ वातपित्तकफान्सर्वान्कुष्ठान्सर्वान्समाहरेत् ॥व्याधिक्षीणावयःक्षीणास्त्रीपुक्षीणाश्चयेनराः॥ तेभ्योहितोगुडोयंस्याद्वंध्यानामपिपुत्रदः ॥ वृष्योबल्योबृंहणश्चवयःसंस्थापनः परः॥

**अर्थ–**उत्तम पकाहुआ तथा छिला और सीजाहुआ पेठेके टुकड़े ४०० तोले लेवे इन को चौसठ तोले उत्तम धीमें डाल तामेके पात्रमें मंद २ अग्निसे पचावे फिर पीपल, पीपरामूल, चीतेकीछाल, गजपीपल, धनिया, वायविडंग सोंठ मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आवला, अजमोद, कूड़ाकी छाल, जीरा और सैंधानिमक ये प्रत्येक चार२तोले ले और निसोथ३२ तोले, और तेल ३२ तोले गुड ६०तोले और आवले का रस १९२ तोले सबको एकत्र कर मंदाग्नि पर रखके जबतक कलछीसे लिपटें तबतक पचाये, फिर उतार शीतल करके किसी उत्तम पात्रमें भरके रखदेवे, इसमें से गूलर,आवला अथवा वेर की बराबर बलावल विचार के देय इसी प्रकार नित्य प्रति देनेसे संग्रहणीरोग, कोढ, बवासीर, भगंदर, ज्वर, अफरा हृदय के रोग,गोला उदर ,विपूचिका, कामला, पांडुरोग इक्कीस प्रकार की प्रमेह वातरक्त, विसर्प,दाद, खई, हलीमक, वादीके रोग,पित्तके रोग संपूर्ण कफके रोग, संपूर्ण कोढ, इन सव रोगोंको नष्टकरे, तथा जोरोगोंस क्षीण हुएहैं, अवस्था करकेक्षीण स्त्रीसंभोग करके जो क्षीण है उनको यह प्रयोग परम हितकारी है, तथा वंध्या स्त्रियोंको पुत्रका देनेवाला है वृष्य, बलकारी, पौष्टिक, और वयस्थापक ( अर्थात बुढापेको समीप नहीं आनेदेवे ) ऐसा है ॥

कल्याणगुड।

पाठाधान्ययवान्यजाजिहवुपाचव्याग्निसिंधूद्भवैःसश्रेयस्यजमोदकीटरिपुभिःकृत्वाजटासंयुतैः॥


१ यद्यपि प्रमेह रोग यीस प्रकारकेहैं परंतु भेदादि ग्रंथोंके अनुसार इकीस प्रकारके हैं। और किसी के मतसे छब्वीस प्रकार के है॥

सव्योपैः सफलत्रिकैः सत्रुटिभिस्त्वक्पत्ररोषधैः प्रत्येकंपलिकैः सुतैलकुडवैः सार्द्धत्रिवृन्मुष्टिभिः ॥ सर्वैरामलकीरसस्यतुलयासार्धंतुलार्धंगुडः संपाच्योभिषजावलेहवदयंप्राग्भोजनाद्भक्ष्यते ॥ येकेचिद्ग्रहणीगदाः सगुदजाः कासाः सशोपामयाः सश्वासश्वयथुश्चिरोदररुजः कल्याणकस्ताञ्जयेत् ॥

**अर्थ–**आमलेकारस ४०० तोले, और गुड २०० तोले, इन दोनों का पाक करके इस पाक में पाढ, धनिया, अजवायन, जीरा,हाऊवेर, चव्य, चित्रक, सैंधानिमक, गजपीपल, अजमोद, वायविडंग,पीपरामूल, सोंठ, कालीमिरच, पीपल, हरड़, बहेड़ा, आवला, इलायची, दालचीनी, पत्रज, ये औषध चार २ तोले ले,फिर १६ तोले तेल और चार तोले निसोथ डालके सबको एकत्र करके पचावे जव अवलेह के समान हो जाये तब उतार के चिकन वासन में भरके धर रक्खे इसको भोजनके पूर्व एक तोले नित्य भक्षण करे इसको कल्याणगुड कहते हैं, यह संग्रहणी, बवासीर श्वास, खाँसी, शोष, सूजन और उदर इन सबको नाश करे ॥

भूनिंम्बादिचूर्ण।

भूनिंबकौटजकटुत्रिकमुस्ततिक्ताः कर्पांशकाः सशिखिमूलपिचुद्वयाश्च ॥ त्वक्कोटजींपलचतुष्कमितांगुडांभः पीतंनृणामिहहरेद्ग्रहणीविकारान् ॥

**अर्थ–**चिरायता, इन्द्रजौ, सोंठ,कालीमिरच,पीपर,नागरमोथा और कुटकी ये औषध प्रत्येक एक २ तोले लेवे, चीतेकीमछाल दो तोले और कुडाकी छाल, १६ तोले इनका चूर्ण एकत्र करके गुडके जलसे भक्षण करे तो संग्रहणी जनित विकार संपूर्ण नाश होवे ॥

अतिविषादिकाढा।

अतिविषाघनबालकधातकीकुटजदाडिमलोध्रमथोदकी ॥ विहितमेभिरिदंसलिलंपिबेदग्रहणिकाविजितः प्रसभंनरः ॥
सर्वज्वरहरंज्ञेयंग्रहणीवेगनाशनम् ॥
अरोचमांद्यदलनंधातुवर्धनकारकम् ॥

**अर्थ–**अतीस, नागरमोथा, नेत्रवाला, धायके फूल, कूडाकी छाल, लोध और पाढइनका काढा करके पीबे तो संग्रहणी, सर्वज्वर, अरुचि और मंदाग्नि इनको नाश करे तथा धातुकी वृद्धि करे है ॥

नागरादिकाढा।

नागरोशीरधनिकायवान्यतिविपाधना॥
श्रीपर्ण्यौचशृतंचैषांदीपनंपाचनस्मृतम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, खस, धनिया, अजवायन, अतीस, नागरमोथा, सालपर्णी, पृष्ठपर्णी, इनका काढा दीपन और पाचन है॥

पुनर्नवादिकाढा।

पुनर्नवावल्लिजबाणपुंखाविश्वाग्निपथ्याचिरिबिल्बबिल्वैः॥

कृतः कषायः शमयेदशेषान्दुर्नामगुल्मग्रहणीविकारान् ॥

**अर्थ–**साँठकीजड, कालीमिरच, सरफोंका, सोंठ, चीतेकी छाल, जंगीहरड, कंजेकीछाल, वेलगिरी इनका काढा करके पीबोतो बवासीर और गोला, तथा संग्रहणी इन सबका नाश करे ॥

शुंठ्यादिकाढा।

शुंठींसमुस्तातिविपांगुडूचीपिबेज्जलेनक्वथितांसमांशाम् ॥ मंदानलत्वेसततामवातेसामानुबंधेग्रहणीगदेच ॥

**अर्थ–**सोंठ, नागरमोथा, अतीस और गिलोय, इनका काढा मंदाग्नि, आमवात और आमसहित संग्रहणी इनका नाशक है ॥

तालीसादिचूर्ण ।

तालीसोग्रनिशापडूपणनिशाबिल्बाजमोदाशठीचातुर्जातलवंगधातकिविपाजातीफलंदीप्यकम् ॥ पाठामोचंरसाम्लपंचलवणाजातीद्वयंवेल्लकंवृक्षाम्लाम्लवरापलाशतरुजंमांस्यर्बुदंवा लकम् ॥ऐंद्रीब्रह्मसुवर्चलादृढपदाकुष्ठंसमस्तैः समंबल्ल्यासर्वसमाजयाखिलसमामत्स्यंडिकावासिता ॥ चूर्णोयंग्रहणीक्षयादिकसनश्वासारुचिप्लीहहृहुर्नामातिसृतिज्वरार्तिपवनस्थौल्यप्रमेहप्रणुत् ॥ तीव्रापस्मृतिपांडुगुल्मजठरश्लेष्मोत्थपित्तोद्भवोन्मादाध्मानविपूंचिहंतिसकलंमासार्धसंसेवनात् ॥ एवंतालिसयुक्तमेवविहितंचूर्णंसुसिद्धंभुविबालानांचविशेषतोहितकरंसंस्पर्शवाणिप्रदम् ॥ मांद्यध्वंसविधायकंविजयतेसर्वामयध्वंसकंपुष्ट्यायुर्वलकांतिधीस्मृतिमहामेधाविलासप्रदम् ॥

**अर्थ–**तालीसपत्र, वच, हलदी, सोंठ, कालीमिरच, पीपल, पीपरामूल, चीतेकीछाल, चव्य, आमियाहलदी, वेलगिरी,अजमोद,कचूर, चातुर्जात,लौंग धायकेफूल, अतीस,जायफल, अजवायन, पाढ, मोचरस, तंतडकि, पॉचोंनिमक जीरा, कालाजीरा, वायविडंग, अमलवेत, इमली, त्रिफला, पलाशपापडा, जटामांसी, खाखसा, नेत्रवाला, इलायची, ब्राह्मी, इन्दजव, भूय आवला और कूठ, ये सब औषध, समान भाग लेवे तथा सबकी बराबर खिरेटीकी छाल तथा इसको भी मिलायके सबके समान हरड का वक्कल लेवे और सब चूर्णके समान मिश्री लेनी चाहिये इन सबको चूर्णकर बलाबल विचारके १५ दिनपर्यंत सेवन करे तो संग्रहणी, क्षय, खांसी, श्वास, अरुचि, प्लीहा, बवासीर, पित्तव्याधि, उन्माद, पेटका फूलना और विपूचिका, इनको नष्टकरे । इस प्रकार यह तालीसादिचूर्ण इस पृथ्वीमें सिद्ध औषध है तथा बालकों को यह परमोपयोगी होता है यह वाणीका देनेवाला है तथा मंदाग्नि और संपूर्ण रोग इनका नाश करे तथा पुष्टि,आयुष्य, बल,कांति, बुद्धि और स्मरण तथा धारण शक्तिको देय है॥

व्योषादिचूर्ण॥

व्योषंदीप्याजमोदाकृमिरिपुदहनंरामठंचाश्वगंधंसिंधूत्थंजीरकेद्वेरुचककलयुतंधान्यकंतुल्यभागम्॥ भृंगीचूर्णंलवंगंघृतमधुसहितंशाणमात्रंचदद्याद्दीप्तिंपुष्टिंचकांतिंबलमपिकुरुतेनाशयेत्सं ग्रहाख्यम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, मिरच, पीपल,अजवायन, अजमोद, वायविडंग, चीतेकी छाल, हींग, असगंध, सैंधानिमक, जीरा, कालाजीरा, कालानोन, वेरकीछाल धनियाँ इन सबकी बराबर भँगका चूर्ण लेवे तथा लौंगका चूर्ण मिलायके एकत्र करे इसमें से तीन मासे घी और सहत इनके साथ देवे तो अग्निको दीप्ति करे, पुष्टि, कांति और बल करे तथा संग्रहणी का नाश करे ॥

बिल्बादिदुग्ध।

बिल्बाब्दशक्रयवबालकमोचसिद्धमाजंपयः पिबतियोदिवसत्रयंच ॥ सोतिप्रवृद्धचिरकृद्ग्रहणीविकारंमासंसशोणितमसाध्यमपिक्षिणोति ॥

**अर्थ–**वेलगिरी, नागरमोथा, इन्दजव, नेत्रवाला, और मोचरस ये औषध मिलायके औटाया हुआ बकरीका दूध तीनदिन पीबे तो उसके संग्रहणी संबधी विकार नाश होवे यदि १ महीने पर्यंत सेवन करे तो असाध्य दुष्ट रुधिर को नष्ट करे ॥

दशमूलादिकाढा।

विश्वौषधस्यगर्भेणदशमूलजलंशृतम् ॥
निहन्यात्तेनश्वयर्थंग्रहणींसाममामयम् ॥

**अर्थ–**दशमूल और सौंठ इनका काढा करके पीवे तो सृजन और आम संग्रहणी इनको नष्ट करे है ॥

मसूरादियोग।

मसूरायाः कषायेणबिल्बगर्भंविपाचयेत् ॥
हंतिकुक्ष्यामयान्सर्वान्ग्रहणीपांडुकामलान् ॥

**अर्थ–**मसूरके काढेमें वेलगिरी को डालके औटावे जव वेलगिरी सीज जाय तब उतारके कपडेसे छानके पीवे तो संपूर्ण कूखके रोग, संग्रहणी, पांडुरोग और कामला इनका नाश करे ॥

कुटजावलेह।

कुटजस्यतुलांदत्त्वाचतुर्द्रोणांभसापचेत् ॥ द्रोणशेषेरसेतस्मिन्पूतेगुडतुलार्धकम् ॥ घृतंचटंकवत्तत्राक्षिप्त्वामृद्वग्निनापचेत् ॥ समंगाबिल्वकशिलाबिल्वार्धंचपुनर्नवा ॥ मुस्ताभल्लातकंचापिधातकीगजपिप्पली ॥ अंबष्ठाबालकंचैवद्वेबृहत्यौसचित्रकम्॥ सद्भांगपिप्पलीमूलंविडंगानिहरीतकी ॥ नागकेसरयष्टीकारलुकापत्रकंतथा ॥
विश्वाचेंद्रयवाः पाठसूक्ष्मैलाजीरकद्वयम् ॥ जातिपत्रीजातिफलंलवंगंतगरंतथा॥स्रुतोद्विपालिकैर्भागैर्लेहोयंसाधयेत्ततः ॥ तकेणवसुतक्रंवापथ्यंदेयंविचक्षणैः॥ अनेनग्रहणीरोगानतिसारान्सुदारुणान् ॥ रोगानीकविघातायकुटजोलेहउच्यते ॥

**अर्थ–**चारसों तोले कूडेकी छालको १६३८४ सोलह हजार तीनसोचौरासी तोले जलमें डालके औंटावे जव चतुर्थांश शेष रहे तब उतारके छानलेय और इसमें गुड २०० तोले घी१ टांक डालके मंदाग्निसे पचन करावे और इसमें खिरेटी, वेलगिरी और शिलाजीत ये औषध दो दो तोले लेय,तथा सोंठ, नागरमोथा, भिलाये, धायकेफूल, गजपीपर, चूका, नेत्रवाला, कटेरी, बडीकटेरी, चीतेकीछाल, भारंगी, पीपरामूल, वायविडंग, जंगीहरड, नागकेशर, मुलहटी सह्यालू, पत्रज सोंठ, इंद्रजौ, पाढ, छोटीइलायची,जीरा, कालाजीरा, जावित्री, जायफल, लवंग, और तगर, इन सब औषधोंका चूर्ण प्रत्येक आठ २ तोले लेके अवलेह बनावे इस अवलेहको छाँछसे देय और पथ्यमें छाँछ पिवावे तो संग्रहणी, घोर अतिसारके रोग और अनेक प्रकारके अन्य रोगोंको दूर करे इसको कुटजावलेह कहते हैं ॥

द्राक्षासव।

मृद्वीकायाः पलशतंचतुर्दोणांभसापचेत् ॥ द्रोणशेषेतुशीतेचयुतेतस्मिन्प्रदापयेत् ॥ द्विशतेक्षौद्रखंडाभ्यांधातक्याः प्रस्थमेवच ॥ कंकोलंचलवंगंचफलंजात्यास्तथैवच ॥ पलांशकानिमरिचंत्वगेलापद्मकेसरम् ॥ पिप्पलीचित्रकंचव्यंपिप्पलीमूलरेणुकम् ॥ घृतभांडस्थितमिदंचंदनागुरुधूषितम् ॥ कर्पूरवासितोह्येपग्रहणीदीपनः परः ॥
अर्शसांनाशनः श्रेष्ठउदावर्तास्त्रगुल्मनुत् ॥ जठरंकृमिकुष्ठानिव्रणांश्वविविधांस्तथा ॥ अक्षिरोगशिरोरोगगलरोगविनाशनः ॥ ज्वरमामंमहाव्याधिंपांडुरोगसकामलम् ॥ नाम्नाद्राक्षासवोह्येपवृंहणोबलवर्णकृत् ॥

**अर्थ–**४०० तोले मुनक्कादाखमें ८१९२ तोले जल डालके काढा करे जब चतुर्थांशशेषरहे तो उतारके छान लेय जब शीतल होजावे तब इसमें शहत १०० तोले, मिश्री १०० तोले और धायके फूल ६० तोले तथा कंकोल लैंग, जायफल, कालीमिरच, दालचीनी, इलायची, पत्रज, नागकेशर, पीपल, चव्य, चित्रक, पीपरामूल, पित्तपापडा, ये प्रत्येक औषध चार २ तोले मिलायके इसको घीके चिकने पात्रमें भरके उसको चंदन और अगर, इनकी धूनी देवे तथा भीमसेनी कपूर इसके भीतर डालके वासित करे यह द्राक्षासव सेवन करनेसे दीपनकरे है, और संग्रहणी, बवासीर, उदावर्त्त, गोला, उदर, कृमिरोग, कुष्ठ, व्रण, नेत्र रोग, शिरोरोग, गलेके रोग, ज्वर, आम, घोरव्याधि, पांडुरोग और कामला इनका नाश करने में श्रेष्ठ है ॥

बिल्वाग्निघृत ।

बिल्वामिचव्यार्द्रकशृंगबेरक्वाथेनकल्केनचसिद्धमाज्यम् ॥ सच्छागदुग्धंग्रहणीगदोत्थंशोफाग्निसादारुचिनुद्वरंतत् ॥

**अर्थ–**वेलगिरी, चीतेकी छाल, चव्य, अदरख और सोंठ, इनका काढाऔर कल्क तथा बकरीका दूध इनसे सिद्ध करा हुआ घृत, संग्रहणीरोग, सूजन, मंदाग्नि और अरुचि इनका नाश करनेमें उत्तम है ॥

चित्रकघृत।

चित्रकक्वाथकल्काभ्यांग्रहणीघ्नंशृतंहविः॥
गुल्मशोथोदरप्लीहाशूलार्शोघ्नंप्रदीपनम् ॥

**अर्थ–**चीतेकी छालका काढा और कल्कसे सिद्ध करा हुआ घीसेवन करनेसे गोला,सूजन, उदररोग,प्लीहा, शूल और बवासीर, इनको नष्ट करे तथा दीपन है॥

चाङ्गेरीघृत।

पाठागोक्षुरकंशुंठीपिप्पलीचूर्णयेत्समम् ॥ सर्वेषांषोडशगुणैस्तोयैः क्वाथंप्रकारयेत् ॥ पादशेषंवस्त्रपूतमादायैतत्समंघृतम् ॥ घृतांशंचांगेरिद्रावंत्रयाणांत्रिगुणंदधि ॥ गंडारीपिप्पलीमूलंत्र्यूपणंचव्यचित्रकम् ॥ प्रत्येकंद्विफलंचूर्णक्षिप्त्वासर्वंविचूर्णयेत् ॥ मृद्वग्निनाघृतंयावत्तत्तप्तमवतारयेत् ॥ योजजयेद्भोजनेपानेग्रहण्यामतिसारके ॥ अग्निसंदीपनंरुच्यंचांगेरीघृतमुत्तमम् ॥

**अर्थ–**पाढ, गोखरू, सोंठ, और पीपल, इनका समान भाग चूर्णकर इसकोसोलह गुने पानीमें चढायके काढा करे जब चतुर्थांश शेष रहेतब उतार छान लेवेफिर इस काढेमें समान भाग घी मिलावे और जितना घी होय उतनाही चूकाका रस तथा इन तीनोंसे तिगुना दही तथा रक्तकांचन, पीपरामूल,सोंठ, कालीमिरच, पीपर, चव्य, चित्रककी छाल, प्रत्येक आठ २ तोले कल्क करके मिलावे सबको एकत्र करके मंदाग्निपर रखके पचन करावे,जब घृत मात्र शेष रहे तब उतार लेवे इसको भोजन में अथवा इसको पीबे तो यह उत्तम चांगेरीघृत संग्रहणी और अतिसार, इनका नाश करे और अग्नि दीपन तथा रुचिकारक है ॥

दाडिमाष्टक।

पलद्वयंदाडिमस्यव्योपस्यचपलद्वयम् ॥ त्रिगंधस्यपलंचैकंखंडस्याष्टपलानिच ॥ सर्वमेकीकृतंचूर्णंप्रशस्तंदाडिमाष्टकम् ॥ दीपनंरुचिदंकंठ्यंसंग्राह्यंग्रहणीहरम् ॥

**अर्थ–**अनारदाना, सोंठ, कालीमिरच, पीपल, ये प्रत्येक आठ २ तोले ले, त्रिजातक४ तोले, तथा मिश्री ३२ तोले इन सबका चूर्ण करे इसको दाडिष्टक कहते है यह दीपन, रुचकारी, कंठको हितकारी तथा ग्राहक है और संग्रहणीका नाश करे ॥

दूसरापाठ।

दाडिमस्यपलान्यष्टौपलंसौगंधिकस्यच ॥ अजाजीनांपलंचार्धंपलार्धंधान्यकस्यच ॥ पृथक्पलांशकान्भागान्त्रिकटुग्रंथिकस्यच ॥ त्वक्क्षीरीवालकंचैवदद्यात्कर्षमंभिषक् ॥ शर्करायापलान्यष्टौतदेकस्थंविचूर्णयेत् ॥ आमातिसारशमनंकासहृत्पार्श्वशूलनुत् ॥ हृद्रोगमरुचिगुल्मंग्रहणीमग्निमार्दवम् ॥

**अर्थ–**अनारदाना ३२ तोले, त्रिसुगंध ४ तोले, जीरा २ तोले, धनिया ३ तोले, त्रिकटु १२ तोले, पीपरामूल ४ तोले दालचीनी, वंशलोचन, और नेत्रवाला ये प्रत्येक एक २ तोले लेवे तथा मिश्री१२ तोले लेकर सबका एकत्र चूर्ण करे तो यह (दाडिमाष्टक) चूणे तयार हो यह आमातिसार, खाँसी और हृदय, पसवाडे इनकी पीडा और हृदय रोग, अरुचि, गोला, संग्रहणी तथा मंदाग्नि इनका नाश करे॥

लाईचूर्ण ।

कर्षंगंधकमर्धपारदमुभेकुर्याच्छुभांकज्जलीमक्षत्र्यूपणतश्चपंचलवणंसार्धंचकर्षंपृथक्॥ भृष्टंहिंगुचजीरकद्वययुतंसर्वार्धभंगायुतंखादेट्टंकमितंप्रवृत्तिगदवान्तक्रस्यबिल्वेनच ॥

**अर्थ–**गंधक१ भाग पारा अर्धभाग दोनोंकी कजली करे तथा सोंठ,मिरच, पीपल सब मिलायके १ तोले, पाँचों निमक प्रत्येक डेढ तोले और भुनीहुई हींग, जीरा, कालाजीरा, ये एक२ तोले तथा सब चूर्णसे आधा भाँगका चूर्ण लेवे सबका चूर्णकरे इसमेंसे १ तोले चूर्ण ४तोले छाँछसे पीबे तो संग्रहणी नष्ट होवे ॥

मुस्तादिचूर्ण।

मुस्तकातिविषाबिल्वकुटजंसूक्ष्मचूर्णितम्॥
मधुनाचसमालीढंग्रहणींसर्वजांहरेत् ॥

**अर्थ–**नागरमोथा, अतीस, वेलगिरी और इन्द्रजव इनकाचूर्ण करके शहतसे देवे तो यह संनिपात और संग्रहणी इनका नाश करे ॥

लवङ्गादिचूर्ण।

लवंगकंकोलमुशीरचंदनंनतांसनीलोत्पलकृष्णजीरकम् ॥ एलासकृष्णागरुभृंगकेसरंकणासविश्वानलदंसहांबुना ॥ कर्पूरजातीफलवंशरोचनासिद्धार्थभागाः सहसूक्ष्मचूर्णितम् ॥
सरोचनं- तर्पणमग्निदीपनंबलप्रदंवृष्यतमंत्रिदोषनुत् ॥ अर्शोविबंधंतमकंगलग्रहंसकासहिक्कारुचियक्ष्मपीनसम् ॥ ग्रहण्यतीसारमथासृजक्षयंप्रमेहगुल्मांश्चनिहंतिसत्वरम् ॥

**अर्थ–**लौंग, कंकोल, नेत्रवाला, चंदन, तगर, नीले कमल, कालाजीरा, इलायची, पीपर, अगर, भाँगरा, नागकेशर, पीपर, सोंठ, जटामांसी, खस, कपूर, जायफल, वंशलोचन और सपेद सरसों सब औषधी समान भाग लेवे सबका चूर्णकरे यह रोचन, तृप्तिदायक, अग्निदीपक, अरुचि, क्षय, पीनस, संग्रहणी, अतीसार, रक्तक्षय, प्रमेह और गोला इनका नाश करे ॥

पाठादिचूर्ण ।

पाठाविषाकुटजवृक्षफलत्वगब्दतिक्तामदारसजनागरबिल्वचूर्णम् ॥ सक्षौद्रतंदुलजलंग्रहणीप्रवाहिरक्तप्रवाहगुदरुग्गुदजेपुदद्यात् ॥

**अर्थ–**पाठ, अतीस, इन्द्रजव, कूडाकी छाल, नागरमोथा कुटकी, धायके फूल, रसोत, सोंठ, वेलगिरी इनका चूर्ण चावलोंके धोवनमें शहत मिलायके पीवे तो संग्रहणी, प्रवाहिका, गुदाके रोग और बवासीर इनको दूर करे ॥

तक्रसेवन ।

ग्रहणीरागिणांतक्रंदीपनंग्राहिलाघवात् ॥
पथ्यमम्लमपाकीचरक्तपित्तस्यकोपनम् ॥

**अर्थ–**संग्रहणीरोगवालेको छाँछका पीना दीपन, ग्राहक और हलका है तथा पथ्यकारकएवं खट्टी छाँछ होय तो अपाकी और रक्तपित्तको कुपित करता जाननी ॥

महालुंगादितक्रयोग ।

अरुचौमातुलिंगस्यकेसरंसार्द्रसैंधवम् ॥
दद्याद्भोजनकालेतुप्रातस्तक्रंचरोगिणे ॥

**अर्थ–**संग्रहणीरोगमें यदि अरुचि होनेसे महालुंग ( विजोरे) की केशर अदरख और सैंधानिमक ये भोजनकालमें देवे और प्रातः कालमें छाँछ पीवे ॥

चित्रकादितक्रयोग।

दहनाजमोदसैंधवनागरमरिचंपिबाम्लतक्रेण॥
सप्ताहादग्निवलंग्रहण्यतीसारशूलघ्नम् ॥

**अर्थ–**चीतेकी छाल, अजमोद, सैंधानिमक, सोंठ और कालीमिरच ये संपूर्ण वस्तु खट्टी छाँछमें पीसके पीवे तो सातही दिनमें अग्नि दीपन होकर संग्रहणी अतिसार और शूल इनका नाश होय ॥

अन्ययोग।

त्रिकांसंतक्रस्याद्विकुडवपटोः षष्टिरभयाः पचेत्प्रस्थः सार्धंघृततिलजविश्वाग्निकुडवैः ॥ समावाप्याजाजीमरिचचपला दीप्यकपलैर्लिहेन्नान्यंवह्निंदृढयतिविकारांश्चजयति ॥

**अर्थ–**७६८ तोले छाँछ, निमक ३२ तोले और हरड़, ६० तोले डालके पचन करावे, फिर उसमें घी, तिल, सोंठ और चीता ये प्रत्येक १६ तोले तथा जीरा, कालीमिरच, पीपल आर अजवायन ये प्रत्येक ४ तोल मिलायके अवलेह सिद्धकरे जब सिद्ध होजावे तब रोगीको देवे तो अग्निको बढावे और विकारोंका नाश करे ॥

शंखवटी।

चिंचाक्षारपलंपटुत्रयपलंनिंबूरसेकल्कितंतस्मिञ्छंखपलंप्रतप्तमसकृन्निर्वाप्यशीर्णावधि ॥ हिंगुव्योपपलंरसामृतवलिंनिःक्षिप्यनिष्कांशकान्दध्वाशंखवटीक्षयेग्रहणिकारुक्पंक्तिशूलादिषु ॥

**अर्थ–**इमलीका खार ४ तोले, सैंधानिमक, विडनोन, काला निमक ये प्रत्येक औषध चार चार तोले लेवे इन सबका नींबूके रसमें कल्क करके उसमें चार तोले शंसके टुकडेको तपायके वुझावे, फिर गरम करें और फिर बुझाये इस प्रकार करनेसे जब शंखकी भस्म होजावे तबतक करे फिर हींग, सोंठ,कालीमिरच, पीपल, पारा, सिंगियाविष और गंधक ये चार २ मासे लेवे सबको पीसकर गोली बनावे यह क्षय, संग्रहणी पंक्तिशूल इनका नाश करे ॥

जातीफलादितक्र।

जातीफलौषधशिवाविडहिंगुजीरगंधंद्विशामथितकल्कितराजिकाच॥ अंगारभर्जितसुहिंगुमरिष्टकंचतक्रेणकोलमितमामगदग्रहण्याम् ॥

**अर्थ–**जायफल, सोंठ, आमला, वायविडंग, हींग जीरा ये प्रत्येक समान भाग लेवे, गंधक२ भाग, तथा छँछमें पिसीहुई राई और लहसन ये सब एकत्रकरके उस छाँछमें हींग भूनके मिलावे, इस छाँछमेंसे चार मासे देय तो आम संग्रहणी दूर होवे ॥

वार्ताकवटी।

चतुःपलंसुधाकाण्डंत्रिपलंलवणत्रयम् ॥ वार्ताकाःकुडवंचार्कमूलाद्बिल्वेतथानलात् ॥ दग्ध्वाद्रवेणवार्ताकैर्गुटिकाभोजनोत्तरम् ॥ भुक्ताभुक्तंपचेच्चाशुनाशयेद्ग्रहणीगदम् ॥
कासं श्वासंतथार्शांसिविपूचींचहृदामयम् ॥

**अर्थ–**१६ तोले थूहरका टुकडा तथा सैंधानिमक, विडनिमक,कचियानि ये सब १२ तोले लेवे और बैंगन १६ तोले; आककी जड़ ८ तोले, इन सबकोएकत्र कर अग्निमें भस्म करलेवे फिर बैंगनके रसमें इसकी गोली बनाय लेवे इसमेंसे एक गोली भोजन के पश्चात् भक्षण करे तो भोजन कराहुवा अन्न तत्काल पचे ,और संग्रहणी,खांसी,श्वास,बवासीर,विपूचिका और हृदयकेरोग ये सब दूरहों॥

भल्लातकक्षार।

भल्लातकंत्रिकटुकंत्रिफलालवणत्रयम् ॥ अंतर्धूमंद्विपलकंगोपुरीपाग्निनादहेत् ॥
सक्षारः सर्पिपापीतोभोज्योवाथविचूर्णितः॥ हृद्रोगपांडुग्रहणीगुल्मोदावर्तशूलनुत् ॥

**अर्थ–**भिलाए, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला, सैंधानिमक, खारीनिमक, कालानिमक तथा घरका धूंआये प्रत्येक आठ२तोले लेवे सबको आरने उपलोंमें रखके फूंकदेवे जब जलके क्षारहो जावे, इसको घीके साथ भक्षण करे अथवा भोजनके पश्चात् तो हृदयरोग पांडुरोग, संग्रहणी, गोला, उदावर्त्त और शूल इनका नाश करे ॥

चव्यादिचूर्ण।

चूर्णंचव्यकचित्रश्रीविश्वभेषजनिर्मितम् ॥
तक्रेणसहितंहंतिग्रहणीदुःखकारिणीम् ॥

**अर्थ–**चव्य,चीतेकी छाल, वेलगिरी और सोंठ, इनका चूर्ण छाँछके साथ सेवन करे तो अत्यंत दुष्ट संग्रहणीका नाश होवे ॥

रुचकादिचूर्णम् ।

रुचकाग्निमरीचानांचूर्णंतक्रेणसेवितम् ॥
ग्रहण्युदरगुल्मार्शः क्षुन्मांद्यप्लीहनाशनम् ॥

**अर्थ–**कचियानिमक, चीतेकी छाल और कालीमिरच इनका चूर्ण करके छाँछके साथ सेवन करे तो संग्रहणी, उदर गोला, बवासीर, मंदाग्नि और प्लीह इनको नाश करे॥

कपित्थाष्टकचूर्णम् ।

अष्टौभागाः कपित्थस्यषट्भागाशर्करामता ॥ दाडिमंतिंतिडीकंच श्रीफलंधातकीतथा ॥ अजमोदाचपिप्पल्यः प्रत्येकंस्युस्त्रिभागिकाः ॥ मरिचंजीरकंधान्यंप्रथिकंवालकं तथा ॥ सौवर्चलंयवानीचचातुर्जातंसचित्रकम्॥ नागरंचैक भागाः स्युः प्रत्येकंसूक्ष्मचूर्णितम्॥कपित्थापष्टाकसंज्ञंस्याच्चूर्णमेतद्गलामयान् ॥ अतिसारंक्षयंगुल्मंग्रहणींचव्यपोहति ॥

**अर्थ–**कैथक गुदा ८ भाग खांड ८ भाग और अनारदाना, इमलीकी छाल, वेलगिरी, धायकेफूल, अजमोद और पीपल यह छःऔषध तीन तीन भाग, लेवे तथा कालीमिरच, जीरा, धनिया, पीपरामूल, नेत्रवाला, संचरनिमक, अजमोद, दालचीनी, इलायची, पत्रज, नागकेशर,चीतेकीछाल और सोंठ ये तेरह औषध एक एक भाग लेवे फिर सब औषधोंका बारीक चूर्णकरे इसको (कपित्थाष्टक चूर्ण) कहतेहैं यह कपित्थाष्टक चूर्णके सेवन करनेसे कंठके रोग तथा अतिसार, क्षय, गोला और संग्रहणी ये रोग दूर होवे ॥

दूसरालाहीचूर्ण।

त्रिजातकव्योपवरारसेंद्रगंधाजमोदाभिशिवल्लरात्र्यः॥ बिल्वानलाजाजिलवंगधान्यगजोपकुल्यामधुकंपटूनि ॥ हिंगुःकुबेराह्वयमोचसारौक्षारौजयासर्वचतुर्थभागाः ॥
इदंहिचूर्णंविनिहंति- तूर्णंप्रसूतिकासंग्रहणीविकारम् ॥ समस्तरोगांतकमग्निकारिभ्राजिष्णुताकारिसुतक्रपीतम् ॥ इमंप्रयोगंबहुधानुभूतंचकारधात्रीकिलकापिलाही ॥

**अर्थ–**दालचिनी, पत्रज, इलायची, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेड आँवला,पारा, गंधक, अजमोद, सौंफ, वायविडंग, हलदी, वेलगिरी, चीतेकी छाल, जीरा, लौंग, धनिया, गजपीपल, मुलहटी, पांचों निमक, हींग, पाढ, सेमरकागोंद, सज्जीखार, जवाखार और सबसे चौगुनी शुद्धकरी भांग लेवे सबका बारिक चूर्ण करके छाँछके साथ सेवन करे तो संग्रहणी रोग, प्रसूतके रोग, मंदाग्निइत्यादि सब रोगोंको हितकारी है यह प्रयोग किसी लाईनामक दाईने बहुतबार अनुभवकरके निर्माण कराहै इसीसे इसको लाही चूर्ण कहते हैं ॥

जातिफलादिचूर्ण।

जातीफललंवगैलापत्रत्वङ्नागकेसरैः ॥ कर्पूरचंदनतिलैस्त्वक्क्षीरीनागरामलैः ॥ तालीसपिप्पलीप्रस्थस्यूलजीरकचित्रकैः॥ शुंठीविडंगमरिचैःसमभागेनचूर्णितैः॥यावंत्येतानिसर्वाणि कुर्याद्भंगांचतावतीम् ॥ सर्वचूर्णसमादेयाशर्कराचभिषग्वरैः॥ कर्षमात्रंततःखादेन्मधुनाप्लावितंसुधीः ॥ अस्यप्रभावाद्ग्रहणी कासश्वासारुचिक्षयाः॥वातश्लेष्मप्रतिश्यायाः प्रशमंयांतिवेगतः॥

**अर्थ–**जायफल, लोंग, इलायची, पत्रज, दालचिनी, नागकेशर,भीमसेनी कपूर, सपेद चंदन, कालेतिल, वंशलोचन, तगर, आमले,तालीसपत्र, पीपल,हरड, कालाजीरा, चितेकी छाल, सोंठ, वायविडंग और कालीमिरच ये वीस औषध समान भाग लेवे तथा इन सब औषधोंके बराबर शुद्धकरी हुई भांगलेवे फिर सबका चूर्ण करके उस चूर्णके समान भाग मिश्री मिलाके फिर इसमेंसे१ कर्ष चूर्णको सहतमें मिलायके लेवे तो संग्रहणी, खांसी, श्वास, अरुचि, क्षय, वात कफके विकार और पीनस ये रोग तत्काल दूर हो॥

वेलफलादिचूर्ण।

श्रीघनबालकमोचकशक्रंचूर्णमजापयसापरिपेयम् ॥
हंतिचतद्ग्रहणीभयमाशुसामगदंरुधिरेणविमिश्रम् ॥

**अर्थ–**वेलगिरी, नागरमोथा, नेत्रवाला,मोचरस और इन्द्रजौइनके चूर्ण को बकरीके दूधसे पीवे तो संग्रहणी तथा आमरक्त इनका नाश होवे ॥

जातीफलादिचूर्णका पाठांतर॥

जातीफलाग्निहिमवेल्लतिलेंदुजीरवंशीत्रिकत्रयमनक्क्षमिभोनतंच॥ तालीसदेवकुसुमेअपिचूर्णमेपांद्विःशर्करंचसमगंजामिदंग्रहण्याम् ॥

**अर्थ–**जायफल,चीतेकी छाल, नेत्रवाला, वायविडंग, तिल, कपूर,जीरा, वंशलोचन, त्रिसुगंध, बहेडेकेविना त्रिफला, त्रिकुटा, गजपीपर,तगर, तालीसपत्र और लौंग इनका समान भाग चूर्ण तथा चूर्णसे दूगनी मिश्री मिलावे यह चूर्ण संग्रहणीका नाशक है ॥

ग्रहणीरोगमेंपथ्य।

निद्राछर्दनलंघनंचिरभवायः शालयः पष्टिकामंडोलाजकृतोमसूरतुवरीमुद्गप्रभूतारसाः ॥ निःशेषंहृतसारमेवदधिजंगोक्षीरजातंगवांछागंवानवनीतमेवविमलंतद्वत्पयःसंभवम् ॥ छागल्याजपयोदधीनितिलजंतैलंसुरामाक्षिकंशालूकंलकुचंचदाडिमयुगंनव्यानिभव्यानिच॥ रंभायाःकुसुमंफलंचतरुणंबिल्वंचशृंगाटकं चांगेरीविजयाकपित्थकुटजाजाजीकसेरूणिच ॥ न्यग्रोधस्यफलंचतक्रममलंजातीफलंजांववंधान्याकानिचतिंदुकानिचमहानिंवोरुणाफेनवत् ॥ क्रव्यालांशशैणतित्तिररसाःक्षुद्राझपाः सर्वशोडिंडीशोमधुरालिकाचखलिपाःसर्वःकषायोरसः॥

**अर्थ–**निद्रा, वमन, लंघन, पुराने सांठीचावल, खीलोंका मंड और मसूर अरहर, मूंग इनका रस तथा निःशेष मक्खन निकाली हुई छाँछ, गौका बकरीका और भेड़का दूध, मक्खन दही, तथा तिलीका तेल, मद्य, शहत, कमलकंद,(भसीडा) बडहर, खट्टे और मीठे अनार, केलेका फूल, पुरानाकेला, बेलका फल, सिंघाडे, चूका, भांग, कैथ, कुडा, जीरा, कसेरू, बड़के फल उत्तम छाँछ, जायफल, जामुन, धनिया, तेंदू, कुचला, बकायन, अरुणा (मँजीठ) अफीम, मांस, सपेद घीया, शशा, हरिण, तीतरपक्षी इनका मांसरस, संपूर्ण प्रकार की छोटी मच्छी, ढेडस, साली, कोकिल, बिलेमें रहनेवाले जीवोंका मांस और संपूर्ण कपेले पदार्थ ये संग्रहणी रोगपर पथ्य कहेहै ॥

ग्रहणीरोगमेंअपथ्य।

रक्तसृतिंजागरमंबुपानंस्नानंस्त्रियंबगविनिग्रहश्च ॥ नस्यांजनंस्वेदनधूमपानंश्रमविरुद्धांजनमातपंच ॥ गोधूमनिष्पावकलायमापयवार्द्रकंछत्रकराजमापाः ॥
उपोदकीवास्तुककाकमाचीकूष्मांडतुम्बीमधुशिग्रुकंदान् ॥ तांबूलमिक्षुंबदरंरसालउर्वारुकंपूगफलंरसानाम् ॥ धान्याम्लसौवीरतुपोदकानिदुग्धंगुडंमस्तुचनारिकेलम् ॥
पुनर्नवाबार्हतबैल्वकानिसर्वाणि- शाकानिचपत्रवंति ॥ दुष्टांगगोवारिकुरंगनाभीक्षारंसमस्तानि सराणिचापि ॥
द्राक्षामथाम्लं- लवणंरसंचगुर्वन्नपानंसकलंचपूगम् ॥ वैद्यश्चिकित्सेद्ग्रहणीविकारंविवर्जयेत्संततमप्रमत्तः ॥

**अर्थ–**रक्तस्त्राव, ( फस्तखोलना ) जागना, जल पीना, स्नान, स्त्रीसंग मलमूत्रआदिका वेग धारण, नस्य, अंजन, पसीने निकालना, धूमपान (हुक्कापीना) श्रमकरना, विरुद्ध अन्न भक्षण, अंजन, धूपमें रहना, गेहूं, चौरा, मटर, उड़द, जो, अदरख, छतोना, राजमाष, पोईकासाग, वथूआ, मकोय, पेठा, तूंबा, मीठासँहजना, जमीकंद, रतालू आदिकद, पान, ईख, बेर, आंख, ककड़ी, सुपारी, रसमें धान्याम्ल, सौवीर, तुषोदक, दूध, गुड़, दहीकी मलाई,नारियल, सोंठ, कटेरी, वेलगिरी, संपूर्ण, पत्तोंका साग, दुष्ट (रोगी ) गौका दूध, कस्तूरी, क्षार संपूर्ण दस्तकारक द्रव्य, दाख, खट्टे पदार्थ और निमकीन पदार्थ ये रस, भारीअन्न, पान, सुपारी ये पदार्थ संग्रहणी रोगवालेको वैद्य कदाचित् न देवे ॥

इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरेग्रहणीरोगकर्मविपाक
निदानचिकित्सासमाप्ता ॥
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अर्श-बवासीर।
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ज्योतिःशास्त्राभिप्रायेणअर्शरोग निदानम् ।

योगार्णवतः।

निर्बलीयदिशोतांशुःशुभेतरसमन्वितः॥
सप्तमेतुगुदांशस्थेसभवेदर्शरोगवान् ॥१॥

**अर्थ–**निर्बली चंद्रमा अशुभग्रहों के साथ सप्तम घरमें गुदांशमें स्थित होय तो उस प्राणीके अर्श (बवासीर) का रोग होय ॥

निर्बलीत्दृदयाधीशोगुदाधीशोऽपितादृशः॥
गुदांकुराभवंतीतिजातस्यनतुसंशयः॥२॥

**अर्थ–**हृदयाधीश (कर्कराशिका अधिपति ) और गुदाधीश ये जिसकी लग्नमें निर्बल होके पडेहो उस प्राणीके जन्मसे ही गुदांकुर (गुदामें मस्से) होवे इसमें संदेह नहीं है ॥

त्दृदयाधीशसंयुक्तनवमांशकनायकः॥
गुदाधीशेनेत्थशालीसवैरक्तार्शदायकः ॥३॥

**अर्थ–**नवमांशकाधिपति हृदयाधीश करके युक्तहो, अथवा गुदाधीशके साथ इत्यशाल करता होवे तो यह ग्रहरक्तार्श अर्थात् खूनीबवासीर का करनेवाला जानना॥

गुदाधीशदृकाणेशनवांशेशोयदाशनिः ॥
गुदामध्येमशककृद्वलवान्रक्तनाशकृत् ॥ ४॥

**अर्थ–**यदि शनैश्चर गुदाधीश द्रेष्काणका अधिपति और नवमांशका अधिपति होवे तो गुदामें मस्सोंको करे और वही पूर्वोक्त शनि बलवान् होवे तो खूनीबवासीरको करता है॥

वातार्शकारकोज्ञेयोगुदेशेशुष्कराशिगे॥
शुभेतरसमायोगेगुदाभ्रष्टोभवेन्नरः ॥५॥

**अर्थ–**गुदाका अधिपति यदि शुष्कराशिमें5 बैठा होवे तो वातार्श अर्थात् वादीकी बवासीर करे है और वही गुदाधीश पापग्रहोंके साथ बैठा होयतो उसकी गुदा भ्रष्ट अर्थात् कांच निकलनेका रोग होवे ॥

रुधिरेरुधिरस्थानेरुधिरांशेधरागृहे ॥
यस्ययोगेत्वियंरीतीरक्तार्शीसनरोभवेत् ॥६॥
रक्तार्शेणमृतिस्तस्यशून्यमार्गेशुभग्रहाः॥
अष्टेशेशनिवर्गेवाशस्त्रौषधकृतामृतिः॥७॥

**अर्थ–**यदि शून्य मार्गमें शुभ ग्रह बैठे होवे तो उस प्राणीकी खूनी बवासीर करके मत्यु होवे ॥

बवासीरकाकर्मविपाक।

दत्वाथवेतनंयोध्येत्यादायापिचवेतनम् ॥
ध्यापयेच्चजुहुयाद्वाजपेद्वार्शोयुतोभवेत् ॥

**अर्थ–**जो प्राणी वेतन (नौकरी, तनख्वा) देकर पढताहै अथवा तनख्वा लेकर पढाताहैकिंवा नोकरी ठहरायकर हवन अथवा जप करता है वह अर्श (बवासीर ) रोगी होताहै ॥

सामान्यबवासीरकानिदान।

पृथग्दोषैः समस्तैश्चशोणितात्सहजानिच ॥
अर्शांसिषट्प्रकाराणिविद्याद्गुदवलित्रये ॥

**अर्थ–**वादी, पित्त, कफ, सन्निपात, रक्तज और सहज, ऐसे छः प्रकारकी बवासीर रोग गुदाकी त्रिवलियोंमेंसे किसी एक वलीमें होताहै ॥

बवासीरकीसंप्राप्ति और रूप।

दोषास्त्वङ्मांसमेदांसिसंदुष्यविविधाकृतीन् ॥
मांसांकुरानपानादौकुर्वंत्यर्शांसिताञ्जगुः ॥

**अर्थ–**वातादि दोष कुपितहोत्वचा, मांस और मेद इनको दूषितकर अनेक प्रकारके मांसांकुर ( मस्से ) गुदामें उत्पन्न करते हैं उसको अर्श अर्थात्बवासीर कहते हैं॥

बवासीरकापूर्वरूप।

विष्टंभोंगस्यदौर्बल्यंकुक्षेराटोपएवच ॥ कार्श्यमुद्गारवाहुल्यंसक्थिसादोल्पविट्कता ॥ ग्रहणीदोषपांड्वर्तेराशंका चोदरस्यच ॥ पूर्वरूपाणिनिर्दिष्टान्यर्शसामभिवृद्धये ॥

**अर्थ–**मलका प्रतिबंध, शरीरकी दुर्वलता, कूखमें गुडगुडाहट शब्द कृशता अत्यंत डकारोंका आना, पैरोंकी जांघोंका रहजाना, मल होने पर भी थोडा उतरना, तथा संग्रहणी, पांडुरोग तथा उदर रोग होगया ऐसा प्रतीत होना, इत्यादि लक्षण बवासीर होनेवालेके प्रथम होते हैं॥

चिकित्साक्रम ।

अर्शोतिसारग्रहणीविकाराः प्रायेणचान्योन्यनिदानभूताः ॥
सन्नेनलेसंतिनसंतिदीप्तेरक्षेदतस्तेपुविशेषतोग्निः ॥

**अर्थ–**बवासीर, अतिसार और संग्रहणी ये विकार प्रायः अन्योन्यके आश्रयसे होते है तथा ये रोग अग्नि प्रदीप्त होनेसे नहीं होते किंतु मंदाग्नि होनेसे होतेहैं इसवास्ते इन विकारोंमें विशेषता करके जठराग्निका संरक्षण वैद्यको करना चाहिये॥

तथा दूसराक्रम।

दुर्नाम्नांसाधनोपायोचतुर्धापरिकीर्तितः॥
भैषजक्षारशस्त्राग्निसाध्यत्वंयाप्यमुच्यते॥

**अर्थ–**बवासीरका यत्न (इलाज) चार प्रकारके हैं, अर्थात् चार प्रकारसे बवासीर अच्छाहो सकताहैजैसे, औषध (जडीघूटीमादि) क्षार (जवाखारादि) शस्त्र (चीरना फाडना) और अग्नि(दागना आदि) है ॥

तथा अन्यक्रम।

अर्शसामौषधैर्भारैःशस्त्रेणचयथाग्निना ॥
चिकित्सास्याच्चंतुर्धैवंमुख्यंतत्रौषधंविधिः ॥

**अर्थ–**अर्श रोगकीऔषध, क्षार, शस्त्र और अग्नि इस प्रकार चतुर्विध चिकित्सा है परंतु इन चतुर्विधोंमें औषध मुख्यहे ॥

तथा।

शस्त्रैर्वाथजलौकाभिः प्रोच्छूनकठिनार्शसः ॥
शोणितंसंचितंदृष्ट्वाहरेत्प्राज्ञःपुनःपुनः॥

**अर्थ–**शस्त्रसे अथवा जोंखसे सूजीहुई कठोर मस्सोंका संचित रुधिरको वारंवार कढाना चाहिये ॥

वातादिजन्यअर्शोंकायत्न ।

यद्वायोरनुलोमंस्याद्यदग्निबलवृद्धये ॥
अन्नपानौषधंसर्वंतत्सेव्यंनित्यमर्शसः॥

**अर्थ–**अर्श रोग पर जो वादीको अनुलोमन करे तथा जो अग्निको बढावे ऐसे अन्न पान और औषध सेवन करे॥

स्नेहस्वेदादयोवातेपित्तेपुरेचनादयः ॥
कफेवांत्यादयोर्शस्सुमिश्रेमिश्राप्रतिक्रिया॥
पित्तवद्रक्तजेकार्यः प्रतीकारोर्शसोध्रुवम् ॥

**अर्थ–**स्नेह, तथा पसीने निकालना ये वादीको और पित्तको दस्त कराने एवं कफको वमन कराना तथा मिश्रित दोषोंपर मिश्रित चिकित्सा करे और खूनी बवासीर पर पित्तके समान यत्न करने चाहिये ॥

अर्शांसिभिन्नवर्चांसिवातातीसारवद्दिशेत् ॥
उदावर्तविधानेनगाढविट्कान्युपाचरेत् ॥

**अर्थ–**जिस बवासीरमें रेच और शौच इत्यादि होते हो, उपसर वातातिसारके समान और गाढविट्कबवासीर पर उदावर्त्तके समान औषध क्रिया करे॥

वातकीबवासीरकेलक्षण।

गुदजाञ्छोणितवहान्पित्तशोणितनाशनैः॥

योगैरुपाचरेत्तत्तुविड्बंधेतुप्रशस्यते ॥

**अर्थ–**रुधिर बहनेवाले अर्श रोगपर रक्त पित्त नाशक उपाय और विड्बंध होय तो विड्बंधका उपचार करे॥

वातार्शकेलक्षण ।

कषायकटुतिक्तानिरूक्षशीतलघूनिच ॥ प्रमिताल्पाशनंतीक्ष्णं मद्यंमैथुनसेवनम् ॥ लंघनंदेशकालौचशीतोव्यायामकर्मच ॥ शोकोवातातपस्पर्शोहेतुवातासोमतः॥

**अर्थ–**कपेले, चरपरे, कडुवे, रूखे, शीतल, हलके, अनुमानके तथा अत्यंत अल्प भोजन और तीक्ष्ण पदार्थ, मद्य, मैथुन, लंघन, शीतल, देश, तथा शीतल काल, अत्यंत दंड कसरत, शोक, हवा, धूप इनका स्पर्श इत्यादिक वातार्श होनेके कारण हैं॥

तथा।

गुदांकुराबह्वनिलाः शुष्काश्चिमिचिमान्विताः ॥ म्लानाः श्यावारुणास्तब्धविशदाः परुषाखराः ॥ मिथोविसदृशावक्रास्तीक्ष्णाविस्फुटिताननाः ॥ बिंवीकर्कंधुखर्जुरकार्पासीफलसन्निभाः॥ केचित्कदंवपुष्पाभाः केचित्सिद्धार्थकोपमाः ॥ शिरःपार्श्वंसकटयूरुवंक्षणाभ्यधिकव्यथाः ॥ क्षवथूद्गारविष्टंभहृद्ग्रहारोचकप्रदाः ॥ कासश्वासाग्निवैषम्यकर्णनादभ्रमावहाः॥तैरार्तोग्रथितंस्तोकंसशब्दंसप्रवाहिकम् ॥ रुक्फेनविच्छानुगतंविवद्धमुपवेश्यते ॥ कृष्णत्वङ्नखविण्मूत्रनेत्रवक्रंचजायते ॥ गुल्मप्लीहोदराष्ठीलासंभवस्ततएवच ॥

**अर्थ–**वातादिक गुदाके मस्से, स्रावरहित, चिनमिनानेवाले, पीडायुक्त, निर्जीव, (कुमलाहुए ) श्याम और अरुणवर्ण स्तब्ध फैलेहुए, कठोर, खरदरे विषम अथात् एफसे नहीं, टेढे, तीक्ष्ण, फटेहुए मुखके, कंदूरी, बेर, खिजूर कपास इनके फलके समान, कोई कदंब फूलके समान गोल, कोई सरसों के समान, इस बवासीरके होनेसे मस्तक, पँसवाडे, कमर, ऊरु, वंक्षण इन में अत्यंत पीडा होवे, तथा छींक, डकार, मलका अवरोध, हृदय पकडेके समान पीडा और अरुचिये होतेहैं तथाखांसी, श्वास, अन्न कभी पचे कभी न पचे, कानों में शब्द हुआकरे तथा भ्रम ये होय, ऐसे बवासीरसे पीडित मनुष्यका गांठदार, थोडा शब्द युक्त और पीडा, झाग, चिकना इन करके युक्त अल्प २ ऐसा दस्त होवे, तथा उस मनुष्यकी त्वचा, नख, मल, मूत्र, नेत्र और मुख कुछ २ काले होवे और गोला, प्लीहा, उदर, अष्ठीला, अर्थात् वातग्रंथी इनकी उत्पत्ति इस बवासीरसे होतीहै अब इसका यत्न लिखते हैं॥

अर्कक्षार ।

तरुणान्यर्कपत्राणिपंचैवलवणानिच ॥
युक्तानितैलेनाम्लेन दहेत्क्षारश्चयुक्तितः ॥
उष्णोदकेनमद्यैर्वापीतोवातार्शसांहितः॥

**अर्थ–**पुराने पकेहुए आकके पत्ते और पांचोनिमक इनको तेल और खटाईके साथ जलायके युक्तिसे खार निकाल ले, इसको गरम जलके साथ अथवा मद्यके साथ पीबे तो अर्श रोगीवालेको हितकारी होय॥

विडंगादितक्रयोग।

विडंगंत्रिफलात्र्यूपंत्रिसिताचोपकर्णिका ॥
कंपिल्लंनलिनीचूर्णं तुल्यक्षौद्रंलिहेदनु ॥
गुडेनसितयावाथवातोत्थानर्शसाञ्जयेत्॥

**अर्थ–**वायविडंग, त्रिफला, त्रिकुटा, मिश्री, मूषाकर्णी, निसोथ और नलिनी (पवारी ) इनका चूर्ण सहतसे अथवा गुडसे अथवा खांडके साथ खाय तो वादीकी बवासीर दूर होवे ॥

लवणादिचूर्ण ।

लवणोत्तमवह्निकलिंगयुजंविडबिल्वमहापिचुमंदयुत्तम् ॥ पिबसप्तदिनंमाथितंलुलितंयदिमर्दितुमिच्छसिवायुरुजम् ॥

**अर्थ–**सैंधानिमक, चीतेकीछाल, इन्द्रजव, विडनिमक, वेलगिरी और नीमकीछाल,इनकाचूर्ण मिलायसातदिन.,मट्टेको पीबेतो वातसंबंधी बवासीरकी पीडा नाश होय ॥

मरीचादिचूर्ण।

मरिचंपिप्पलीकुष्ठंसैंधवंजीरनागरम् ॥ वचाहिंगुविडंगानिपथ्यावन्यजमोदकम् ॥ एतेषांकारयेच्चूर्णंचूर्णस्यद्विगुणंगुडम् ॥ खादेत्कर्षमितंचापिपिबेदुष्णजलं ततः ॥ सर्वाण्यर्शांसिनश्यंतिवातजानिविशेषतः॥

**अर्थ–**कालीमिरच, पीपल, कूठ, सैंधानिमक, जीरा, सोंठ, वच, हींग,वायविडंग, हरड,चीतेकी छाल और अजमायन इनका चूर्ण करके दूनागुड मिलावे फिर इसमेंसे १तोले नित्य सेवन करे ऊपरसे गरम जल पीवे तो संपूर्ण बवासीर नष्ट होवे इनमें भी विशेष करके वादीकीबवासीर नष्ट करे है॥

सूरणमोदक।

शुष्कात्सूरणकंदजोयमिलितंव्योपंतथाचित्रकंश्रेष्ठाजीरकरामठंसमलवंदीप्याजमोदान्वितम् ॥ सर्वस्यांघ्रिकसिंधुजंपरिभवेन्निंबूद्रर्वासरंसिद्धःसूरणमोदकोगदहरःश्रेष्टोभवेत्प्राणिनाम् ॥ शूलंसंग्रहणीगदंत्वतिसृतिंदुष्टांप्रवाहींजयेद्दीप्ताग्निंकुरुतेबलंवितनुतेगुल्मप्रणाशंतथा ॥ अर्शांस्युद्धतमारुतामयहरोबालेचवृद्धेहितोगर्भिण्यांचनशस्यतेननिपुणैर्नोरक्तपित्तेपिच ॥

**अर्थ–**पुराने सूके हुए सूरण (जमीकंद) के रसमें कालीमिरच, पीपल, सोंठ, चीतेकी छाल उत्तम जीरा, हींग, अजमायन और अजमोद ये समान भाग लेवे तथा सवका चौथा हिस्सा सैंधानिमक मिलायके सुखाय लेवे फिर नींबूके रससे एकदिन भावना देवे, तो यह सूरणमोदक सिद्ध होवे यह प्राणियोंके व्याधि नाश करने में श्रेष्ठ है तथा शूल, संग्रहणी, अतिसार, प्रवाहिका गोला, बवासीर और वादीका प्रकोप इनको दूर करे तथा अग्नि प्रदीप्त करे, एवं बल देवे,यह सूरणमोदक निपुण वैद्य गर्भिणी और रक्त पित्तवाले रोगीको न देवे ॥

बाहुशालनामकगुड ।

इंद्रवारुणिकामुस्तंशुंठीदंतीहरीतकी ॥ त्रिवृत्सटीविडंगानिगोक्षीरश्चित्रकस्तथा ॥ तेजोह्वाचद्विकर्षाणिपृथक्द्रव्याणिकारयेत् ॥सूरणस्यपलान्यष्टौवृद्धादारुचतुष्पलम्॥चतुःपलंस्याद्रल्लातःक्वाथयेत्सर्वमेकतः ॥ जलद्रोणेचतुर्थांशंगृह्णीयात्क्वाथमुत्तमम् ॥ क्वाथद्रव्यात्रिगुणितंगुडंक्षिप्त्वापुनः पचेत् ॥ सम्यक्पक्वंचविज्ञात्वाचूर्णमेतत्प्रदापयेत् ॥ चित्रकस्त्रिवृतादंतीतेजोह्वापलिकापृथक् ॥ पृथक्त्रिपलिकाःका र्याव्योपैलामरिचत्वचः ॥ निक्षिपेन्मधुशीतेचतस्मिन्प्रस्थप्रमाणितम् ॥ एवंसिद्धंभवच्छ्रीमान्बाहुशालगुडः शुभः ॥
जयेदर्शांसिसर्वाणिगुल्मंवातोदरंतथा ॥ आमवातंप्रतिश्यायं ग्रहणीक्षयपीनसान् ॥ हलीमकंपांडुरोगंप्रमेहंजरसायनम् ॥

**अर्थ–**इन्द्रायनकागूदा, नागरमोथा, सोंठ, दंती की जड़, छोटी हरड़ निसोथ, कचूर, वायविडंग, गोखरू, चीतेकीछाला तेजबल, ये ग्यारह औषध दो२ कर्षले, सूरण ( जमीकंद) आठपल, तथा विधायरा चारपल तथा भिलावें४ पल ले सबको कूट कर उसमें दो द्रोण जल डालके औटावे जब चतुर्थांश जल रहे तब उतारके उस जलको छान लेवे पश्चात् इस जल में संपूर्ण औषधों से तिगुना गुड़ डालके औटावे जब पाक होजावे तब आगे लिखी हुई औषधें मिलावे जैसे-चीतेकी छाल, निसोथ, दंती, तेजवल ये चार औषधएक२ पल लेवे सबको कूट पीस उसपाक में मिलायके एक जीवकर देवे इसके सेवन करनेसे संपूर्ण बवासीर दूर होवे, गोलेका रोग, वातोदर आमवादीसे अंगोंका जिकड़ना, तथा सरेकमां संग्रहणी, क्षय, पीनस, हलीमक, पांडुरोग, प्रमेह ये सर्व रोग दूर होवे तथा यह बाहुशाल गुड रसायन है॥

पित्तकीबवासीरकाकारण ।

कट्वम्ललवणोष्णानिव्यायामाग्न्यातपश्रमाः॥ देशकालावशिशिरौक्रोधोमद्यमसूयनम् ॥विदाहितीक्ष्णमुष्णंचसर्वंपानान्नभोजनम् ॥ पित्तोल्बणानांविज्ञेयः प्रकोपेहेतुरर्शसाम् ॥

**अर्थ–**तीक्ष्ण, खट्टा, खारी और गरम इत्यादि पदार्थोके सेवन, व्यायाम अग्नि, तथा धूप इन का सेवन और उष्ण देश, उष्ण काल, क्रोध, मद्य, दूसरेका उत्कर्ष (बढवार) का असहन, तथा विदाही, तीक्ष्ण, गरम ऐसे अन्न पानका सेवन इत्यादि पित्तार्श होनेके कारण जानने॥

पित्तकीबवासीरकेलक्षण।

पित्तोत्तरानीलमुखारक्तपीतासितप्रभाः ॥ तन्वस्रस्राविणोविस्रास्तनवोमृदवःश्लथाः ॥ शुक्रज्विहायकृत्खंडजलौकावक्रसन्निभाः ॥ दाहपाकज्वरस्वेदतृण्मूर्च्छारुचिमो हदाः ॥ सोष्माणोद्रवनीलोष्णपीतरक्तामवर्चसः ॥ यवमध्यहरित्पीतहारिद्रत्वङ्नखादयः॥

**अर्थ–**मस्सोंका मुख नीला, लाल, पीला और सुपेदाई लिये होवेउन मस्सोमेंसे महीनधारसे रुधिर चुचाय और रुधिरकी वास आवै महीन औरकोमल तथा सिथिल हो और उनका आकार तोताकी जीभ कलेजा और जोंकके मुखके समान हो और देहमें दाह हो गुदाका पकना, ज्वर, पसीना, प्यास, मूर्च्छा, अरुचि और मोह ये होवे और हातके स्पर्श करनेसे गरम मालूम होवे और जिसके मलका द्रव नीला,पीला लाल, गरमा आमसंयुक्त होय जवके समान बीचमें मोटे हो और जिसके त्वचा, नख, नेत्रादिक हरे पीले हरतालके समान और हलदीके समान होवे ये लक्षण पित्ताधिक बवासीरके हैं॥

तिलादिचूर्ण।

चूर्णंतिलानांसितयासमेतंहैमानबीजंगजकेसरंच ॥
लिहेन्नरोयोनहितस्यदुष्टान्यर्शांसिपित्तप्रभवाणिजातु ॥

**अर्थ–**तिलोंका चूर्ण लाल रतालूके बीज और नागकेशर, इनका चूर्ण कर खांडके साथ देवे तो उसको पित्तकी बवासीर कदापि नहीं होवे ॥

तथा अन्यप्रयोग।

तिलभल्लातकक्वाथमनुपित्तार्शनाशकृत् ॥
सक्षौद्रः कुटजक्वाथो नित्यंरात्रौचपाययेत् ॥
पथ्यंमुद्गरसैर्देयंशालितंडुलसंयुतम् ॥

**अर्थ–**तिल और भिलाए इनका काढा अथवा इन्द्रजोका काढा सहत डालके पीबे और पथ्यमें मूँगकीदाल और भात देवे तो पित्तको बवासीर नष्टहोवे ॥

भल्लातामृत।

गुडूचीलांगलीशृंगीमुंडीगुंजाचकेतकी ॥ षण्णांपत्ररसैर्मर्द्यंबालभल्लातबीजकम् ॥ दिनैकंमर्दयेद्गाढंनिष्कार्धंभक्षयेत्सदा ॥ भल्लातामृतयोगोयंसर्वार्शान्पित्तजाञ्जयेत् ॥

**अर्थ–**गिलोय, कलयारी, काक्डासिंगी, मूंडी, घुँघुची और केतकी इन छःवनस्पतियाके पत्तोंके रस में हरे भिलावेंको एकदिन खूब घोटे, इसमेंसे४ मासे नित्य भक्षण करे तो यह भल्लातामृतयोग संपूर्ण पित्तजन्य बवासीरोंका नाश करे ॥

धत्तूरादिचूर्ण ।

धत्तूरस्यफलंपक्वंपिम्पलीनागराभया ॥
बालकंगुडसंयुक्तंभक्ष्यंगुंजाष्टकंनिशि ॥
सितामध्वाज्यकर्पैकंपिबेत्पित्तार्शसांजये ॥

**अर्थ–**धतूरेके पके हुए फल, पीपल, सोंठ, हरड और नेत्रवाला इनका चूर्ण रात्रिमें आठ रत्तीको तोले भर घी और खांडके साथ सेवन करे तो पित्तको बवासीर शांति होवे ॥

भल्लातकादिमोदक।

भल्लातकंतिलंपथ्याचूर्णंगुडसमन्वितम् ॥
मोदकोभक्षयेत्कर्षंमासात्पित्तार्शसांजये ॥

**अर्थ–**भिलाए, तिल और हरड इनके चूर्णकी गुड से १ तोले को गोली बनावे नित्य प्रति एक महीने पर्यंत सेवन करे तो पित्तकी बवासीर शांति होवे॥

बोलवद्धरस।

गुडूचिकासत्वसमंरसेंद्रंगंधंसमांशंनिखिलेनवर्बरः ॥
विमर्द्दये च्छाल्मलिकाभवाद्भिःस्याद्बोलबद्धोमधुयुक्त्रिमापः ॥
रक्ता र्शसांनाशकृदेषसूतपित्तार्शसांपित्तजविद्रधेश्च ॥
रक्तप्रमेहस्यखुडस्यचापिस्त्रीणांप्रवाहस्यभगंदरस्य॥

**अर्थ–**गिलोय सत्त्व, पारा और गंधक, ये समान भाग लेवे, तथा तिगुनी लाल बोल लें सबको एकत्रकर इसको सेमरकी छालके रसमें खरल करे यह बोलबद्ध रस तीन मासे सहत में मिलायके सेवन करे तो रक्तार्श, पित्तार्श, पित्तविद्रधि, रक्तप्रमेह, रक्तपित्त और स्त्रियोंके रक्तप्रदर तथा भगंदर, इनका नाश होवे ॥

लोहादिमोदक।

मृतलोहमिंद्रयवंशुंठीभल्लातचित्रकम् ॥
बिल्वमज्जाविडंगानि पथ्यातुल्यंविचूर्णयेत् ॥
सर्वतुल्योगुडोयोज्यःकर्पंभुक्त्वार्शसंजयेत् ॥

**अर्थ–**लोह भस्म, इन्द्रजौ, सोंठ, भिलाय, चीतेकी छाल, बेलगिरी, वायविडंग और जंगी हरड ये समान भाग लेकर चूर्ण करे तथा सब चूर्णकी बराबर गुड मिलावे इसमें से १० मासे बवासीर नष्ट होने के वास्ते नित्य भक्षण करे॥

तीक्ष्णमुखरस।

मृतसूताभ्रलोहार्कतीक्ष्णंमुंडंचगंधकम् ॥ मंडूरंचसमंताप्यंमर्द्यंकन्याद्रवैर्दिनम् ॥ अंधमूपागतंपाच्यंत्रिदिनंतुपवह्विना ॥चूर्णितंसितयामापंखादेत्पित्तार्शसांजये ॥ रसस्तीक्ष्णमुखोनामह्यनुयोज्यंमधुत्रयम् ॥

**अर्थ–**पारेकी मस्म अभ्रक भस्म, लोह भस्म, ताम्रभस्म कांतिलोह, मुंडलोह इनकी भस्म, गंधक, मंडूर भस्म और सुवर्ण माक्षिककी भस्मये समान भाग लेवे एकदिन घीगुवारके रसमें खरल कर सुखायके मूसमें भरे उसको तीनदिन तुषाग्निदेवे जब शीतल हो जावे तब इसमे से १ मासेभर लेके खाडके साथ देव यह ( तीक्ष्णमुख रस) सेवन करके ऊपरसे मधुत्रय सेवन करे तो पित्तकी बवासीर शांत होवे ॥

कफकीबवासीरकाकारण ।

मधुरस्निग्धशीतानिलवणाम्लगुरूणिच॥ अव्यायामोदिवास्वप्नःशय्यासनसुखेरतिः ॥७॥ प्राग्वातसेवाशीतौचदेशकालावचिंत्तनम् । श्लेष्मोल्वणानामुद्दिष्टमेतत्कारणमर्शसाम् ॥ ८॥

**अर्थ–**मीठा, चिकना, शीतल, खारी, खट्टा, भारी ऐसे भोजनसे व्यायामके न करनेसे दिनमें सोनेसे, सेज गद्दी इनके सेवन करनेसे पूर्वकी हवा खानेसे शीतल देश, शीतकाल, चिंतारहित होनेसे ये कफकीबवासीर होनेके हेतुहै॥

कफकीबवासीरकेलक्षण ।

श्लेष्मोल्वणामहामूलाघनामन्दरुजःसिताः ॥ उत्सन्नोपचिताः स्निग्धाःस्तब्धावृत्तगुरुस्थिराः ॥ पिच्छिलास्तिमिताः श्लक्ष्णाःकंड्वाढ्याःस्पर्शनप्रियाः ॥ करीरपनसास्थ्याभास्तथा- गोस्तनसन्निभाः ॥ वंक्षणानाहिनःपायुबस्तिनाभिविकर्षिकः ॥ सश्वासकासहृल्लास- प्रसेकारुचियीनसाः ॥ मेहकृच्छ्राशिरोजाड्यशिशिरज्वरकारिणः ॥ क्लैव्याग्निमार्दवच्छर्दि- रामप्रायविकारदाः ॥२२॥ वसाभाःसकफप्रायपुरीषाः सप्रवाहिकाः ॥ नस्रवंतिनभिद्यन्ते- पाण्डुस्निग्धत्वगादयः ॥२३॥

**अर्थ–**कफकी बवासीरके लक्षण ये है जैसे कि गुदाके मस्से महामूल [दूर धातुके प्रति जानऽवाले] कठिन मद पीडाके करनेवाले सफेद, लंबे, मोटे, चिकने, करडे, गोल, भारी, स्थिर, गाढे कसकेलिपटे, मणीके समान स्वच्छ खुजली बहुत होय और प्यारी लगे करील कटहर इनफ काटिके समान होय गायके थनके सदृश होय पेडूमें अफरा करनेवाल गुदा मूत्रस्यान और नाभि इनमें पीडा करनेवाल श्वास, खांसी, खाली, ओकी, लारका टपकना, अरुचि, पीनस इनको करने बाले, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, मस्तकका भारी होना, शीतज्वर, नपुंसकपना,अग्निका मन्द होना,बमन और आम जिनमें बहुत ऐसे अतिसार, संग्रहणीआदि रोगके करनेवाले, वसा ( चर्वी) और कफ मिला दस्त होवे प्रवाहिका उत्पन्न करने वाले और मस्सोंमेंसे रुधिर न निकले गाढा मल होनेसेभी मस्से न फूटे और शरीरका रंग पीला और चिकना होय ये कफकीबवासीरके लक्षण हैं॥

कफार्शकीचिकित्सा।

श्लेष्मार्शसोगुदेपार्श्वेरक्तमोक्षोजलूकया॥
कृत्वाचार्करसैर्लेपंदाहंवात्रापिशस्यते॥

**अर्थ–**कफजन्य बवासीरमें गुदका और गुदाके और पासका रुधिर जोंक लगायके निकाले तथा आकके रसमें औषधोंका लेपकरे अथवा इस जगेभी गरम सलाई से दाग देना उत्तम है ॥

सामान्यचिकित्सा।

सूरणंकासमर्दंचशिग्रुवार्ताकवालुकम् ॥ सुपक्वंयोजयेच्छाकंपथ्यंगोधूमतंडुलम्।कुसुंभमृदुपत्राणिआरनालेनपेपयेत् ॥ भक्षयेच्छाकवच्छांत्यैस्वयमग्निरसंतथा ॥ निष्कत्रयंत्रयंनित्यंगुंजंवानंदभैरवम् ॥ काकतुंडीद्रवापूरादेवदाल्याश्चबीजकम् ॥ सगुडंगुदलेपेनशूलरोगहरंपरम् ॥

**अर्थ–**जमीकंद, कसोंदि, सहँजना, बैगन और वालुक (खीरा) इनके शाकको पक्वकर सेवन करे, पथ्य में गेंहू और चावल खाय, तथा कसुमकेनरम२पत्ते काँजीमें पीस शाकके समान खाय तथा स्वयमग्निरस चार मासे अथवा एक रत्ती आनंदभैरवरस देवे और काकतुंडीके रसमें वंदालके बीज और गुडको पीसके गुदामें लेप करे तो पीडा दूर होवे ॥

बवासीरकाभेदललितरोग।

गुदद्वारात्पृष्ठदेशेजायंतेपांडुरांकुराः ॥
ललितास्तेविशुष्यंतेशूलरोगस्यलक्षणम् ॥
श्लेष्मार्शसामयंभेदोहन्याल्लेपरसायनैः ॥

**अर्थ–**गुदाद्वार के पिछाडी सपेद बवासीरके समान मस्से होतेगै उनको ललित कहतहै इनके सूखने पर शूल रोग होता है यह भेद कफकी बवासीरमेंहै इसको लेपकरके अथवारसायन द्वारा शांति करे॥

वंदाललेप।

देवदाल्याश्चबीजानिसैंधवेनसुचूर्णितम् ॥
आरनालेनलेपोयंशूलरोगनिवृत्तये ॥

**अर्थ–**वंदालके बीजोंको सैंधेनिमकके साथ कँजीमें पीस लेप करे तो शूल रोग नष्ट होवे॥

कांचनीलेप।

कंचनीकुसुमंचूर्णंशस्त्रचूर्णंमनः शिला ॥ गजपिप्पलिसंतौयैलें पोह्यर्शोनिपातकः ॥ पूर्ववन्निःक्षिपेद्गुह्येलिप्त्वानागस्यनालिकम् ॥ घृतसैंधवसंयुक्तंकटुविट्बंधनाशनम् ॥

**अर्थ–**हलदी और लौंग, इनका चूर्ण, मनसिल और गजपीपल, एकत्र जलमें पीसके लेप करे तो बवासीरके मस्से टूटके गिरपडे, अथवा पूर्व कहे प्रमाण गुदामें शीशेकी नलीसे घी और सैंघानिमक युक्त कटुपदार्थोका काढा भरतो विट्बंध अर्थात् मलका न उतरना दूरहोवे ॥

सूरणादिलेप।

सूरणंरजनीवन्हिटंकणंगुडमिश्रितम् ॥
पिष्ट्वारनालकैर्लेपोहंत्यर्शांसिमहांत्यपि ॥

**अर्थ–**जमीकंद, हलदी, चीतेकी छाल, सुहागा और गुड इनको एकत्र पीस काँजी से गुदामें लेप करे तो अर्शके बडे २ मस्सेभी नष्ट होवे ॥

कटुतुंब्यादिलेप।

आरनालेनसंपिष्टासबीजकटुतुंबिका ॥
सगुडाहंतिलेपेनअर्शांसिमूलतोध्रुवम् ॥

**अर्थ–**गीली कहुई तुंबीको काँजीमें पीसे उसमें गुड मिलाय गुदामें लेप करे तो बवासीर जडमे उखाड के निश्चय गिर पडे ॥

पीलुतैलवर्ती।

पीलुतैलेनसंलिप्तावर्तिकागुदमध्यगा ॥
पातयत्यर्शसांसिद्धंनवलीवेदनाक्वचित्॥

**अर्थ–**कपडेकी अथया रुईकी मोटी वत्ती (कँफडा) वनाय उसको अखरोटके तेलमें डबोकर गुदामें धररक्खे तो बवासीरके मस्सों को उखाड डाले और गुदाकी वलीमें कदाचित् पीडा नहीं करे ॥

दंत्यासव।

दशमूलाग्निदंतीनांप्रत्येकंचपलंपलम् ॥ जलद्रोणेततः क्वाथ्यंपादशेषंसमुद्धरेत् ॥ गुडैलातुपलैकंतुशीतभूतंविमिश्रयेत्॥घृतभांडेस्थितंपक्षंयथाशक्तिपिबेत्ततः ॥अयंदंत्यासवःख्यातःशमनेचार्शसांकिल ॥ ग्रहणींपांडुरोगंचसर्वव्याधिहरंपरम् ॥

**अर्थ–**दशमूल, चीतेकी छाल और दंतीकी जड ये चार२ तोले लेवे उनको २०४८ तोले जलमें औटावे जब चतुर्थांशकाढा होजावे तब उतारके छान लेवे जब शीतल होजावे तब गुड और इलायची चार२ तोले डालके घीके चिकने वासनमें पंद्रह दिन धर रक्खे यह दंत्यासक्को बलाबल विचारके देवे तो बवासीर, संग्रहणी, पांडुरोग और सर्व व्याधि इनका नाश करे॥

पथ्यादिगुड।

द्वात्रिंशत्पलपथ्यानांतदर्धामलकीफलम् ॥ कपित्थंस्याद्दशपलं विशालापलपंचकम् ॥ विडंगंपिप्पलीलोध्रंमरिचंसैंधवालुकम् ॥ द्विपलांशंतुप्रत्येकंजलंद्रोणचतुष्टयम् ॥ क्वाथंपादावशेषंतुशीतीभूतेक्षिपेद्गुडम् ॥ पलानांद्विशतंचैवधातकीपलपंचकम् ॥ घृतभांडेस्थितेतस्मिन्यथाशक्तिपिबेत्ततः॥ अर्शंसिग्रहणीपांडुहृद्रोगप्लीहगुल्मनुत् ॥ मंदाग्निंचोदरंशोथंकुष्ठघ्नंपरमौषधम् ॥

**अर्थ–**वडीहरड १२८ तोले, आंवले ६४ तोले, कैथ ४ तोले, इन्द्रायनकी जड २० तोले और वायविडंग, पीपल, लोध, कालीमिरच, सैधानिमक, आलु ये प्रत्येक आठ २ तोले लेवे, सबको जव कुटकर २०१८ तोले जलमें औटावे जब चतुर्थांश रहे तब उतारके छानलेय, जब शीतल होजावे तब ८०० तोले गुड और धायके फूल २० तोले डालके धर रक्खे इसको यथाशक्ति सेवन करे तो बवासीर, संग्रहणी, पांडुरोग, हृदयरोग, प्लीहा, गोला, मंदाग्नि, उदर, सूजन और कुष्ठ इन सबका नाश होवे ॥

भल्लातकहरीतकी ।

भल्लातकहरीतक्योपाठाकटुकरोहिणी ॥ यवान्यजाजिकुष्टंच चित्रकोतिविपावचा ॥ कचोरंपोष्करंमूलंहिंगुइंद्रयवंतथा ॥ शुंठीसौवर्चलंतुल्यंगवांमूत्रेणपेपयेत् ॥ छायाशुष्काचवटिकामापमात्रंचभक्षयेत् ॥ पिबेदुष्णोदकंपश्चात्कफोत्थानर्शसाञ्जयेत् ॥

**अर्थ–**भिलाये, जंगीहरड, पाढ, कुटकी, अजवायन, जीरा, कुट, चीतेकी छाल, अतीस, वच, कचूर, पुहकरमूल, हींग, इन्द्रजव, सोंठ और संचरनिमक, ये औषध सब समान भाग लेवे सबको गौ मूत्रमें पीसके छायामें सुखायले इसकी एक मासेकी गोली नित्य भक्षण करे और ऊपरसे गरम जल पीवे तो कफकी बवासीर नष्ट होवे ॥

लाङ्गल्यादिमोदक।

लांगलींद्रयवाकृष्णावन्हपामार्गतंडुलाः ॥
भूनिंबसैंधवंतुल्यं सर्वस्यद्विगुणंगुडम् ॥
भक्षयेत्कर्षमात्रंतुश्लेष्मोद्भूतार्शसांजये ॥

**अर्थ–**कलयारी, इन्द्रजव, पीपलसचीतेकी जड, ओंगाके चावल, चिरायता और सैंधानिमक ये औषध समान भाग ले और रूव चूर्णसे दूना गुड डाले इसमें से दश मासे सेवन करे तो यह लांगल्यादि मोदक कफकीबवासीरको नाशकरे॥

पथ्यादिमोदक।

पथ्याशुंठीकणावह्निप्रत्येकंचूर्णयेत्पलम् ॥
त्वगेलापत्रकंचाथप्रत्येकंकर्षमात्रकम् ॥
गुडंदशपलंयोज्यंकर्षंभुक्त्वार्शसांजये ॥

**अर्थ–**हरडकी छाल, सोंठ, पीपल और चीता ये प्रत्येक चार २ तोले लेय, तथा दालचीनी, इलायची, पत्रज, ये प्रत्येक एक २ तोले सबका चूर्णकर इसमें गुड ४० तोले डाल कूट पीस १० मासेकीगोली बनावे १ गोली नित्य सेवन करे तो बवासीर दूर होवे ॥

यवान्यादिमोदक।

यवान्यक्षभयाजाजीपिप्पलींचूर्णयेत्समम्॥
चूर्णाद्गुडंद्विधायोज्यंकर्षंभुक्त्वार्शसांजये ॥

**अर्थ–**अजवायन, बहेडा, हरड, जीरा और पीपल, इनको समान भाग ले चूर्णकरे तथा सब चूर्णसे दूना गुड मिलावे सवको एक जीवकर दश मासेकी गोली बनावे एक गोली नित्य सेवनकरे तो बवासीरको नष्ट करे॥

भल्लातकादिलेप।

भल्लातकगजास्थीनिदंतीनिंबकपोतविट्॥

गुडसौराष्ट्र्यमृतजैर्लेपः श्रेष्मार्शसांजये ॥

**अर्थ–**भिलाँवे, हाथीकी हड्डी, तथा दंती , नीम,कबूतरकी वीट,गुड, फिटकरी और सिंगियाविष, इनको जलमें पीसके लेपकरे तो कफकीबवासीर नष्ट होय॥

शृंगवेरक्वाथ ।

कफजेशृंगवेरस्यक्वाथोनित्योपयौगिकः ॥

**अर्थ–**कफकी बवासीरपर अदरखका काढा नित्य उपयोगी है ॥

रक्तार्शनिदान।

रक्तोल्वणागुदेकीलाःपित्ताकृतिसमन्विताः ॥ वटप्ररोहसदृशागुंजाविद्रुमसन्निभाः ॥ तेत्यर्थंदुष्टमुष्णंचगाढविट्कप्रपीडिताः ॥ स्रवंतिसहसारक्तंतस्यचातिप्रवृत्तितः ॥ भेकाभःपीड्यतेदुःखैः शोणितक्षयसंभवैः॥ हीनवर्णबलोत्साहोहतौजाः कलुपेंद्रियः॥ विट्श्यावंकठिनंरूक्षमधोवायुर्नगच्छति ॥

**अर्थ–**गुदाके मस्सोंका रंग चिरमिटीके रंगके समान न होवे अथवा वटके अंकुरसे हो और पित्तकी बबासीरके लक्षण जिसमें मिलते हो । मूँगाके सदृश हो और दस्त कठिन उतरनेसे मस्से दबे तब उन मस्सोमेंसे दुष्ट और गरमागरम रुधिर पडे और रुधिरके बहुत पडनेसे वर्षाऋतुके मेडकोंके समान पीला रंग होजाय रुधिरके निकलनेसे (जो प्रगट त्वचाका कठोरपना, नाडीका शिथिलपना और खट्टीवस्तु तथा शीतकी इच्छादि दुःख तिनसे पीडित होय ) हीनवर्ण, बल, उत्साह, पराक्रमका नाश होय, सम्पूर्ण इन्दियोंका व्याकुल होना, उसका काला, कठिण और रूखा ऐसा मल होय, अपानवायु सरे नहीं, यह लक्षण रुधिरकी बवासीरके जानने चाहिये॥

वातादियुक्तरक्तार्शकेलक्षण।

तनुचारुणवर्णंचफेनिलंचासृगर्शसाम् ॥ कट्यूरुगुदशूलंचदौर्बल्यंयदिचाधिकम् ॥ तत्रानुबंधोवातस्यहेतुर्यदिचरूक्षणम्॥ शिथिलंश्वेतपीतंचविटूस्निग्धंगुरुशीतलम्॥ यद्यर्शसांधनंचासृक्तंतुमत्पांडुपिच्छलम् ॥ गुदंसपिच्छंस्तिमितंगुरुस्निग्धंच कारणंम् ॥ श्लेष्मानुबंधोविज्ञेयस्तत्ररक्तार्शसांबुधैः ॥

**अर्थ–**बवासीरमेंसे रुधिर थोड़ा, अरुणवर्ण और झागसंयुक्त निकले और कमर, जांघ और गुदा इनमें दर्द होवे । यदि दुर्बलता विशेष होजावे और उसमें कोई रुक्षहेतु पहुंचा होवे तो इस रक्तार्शको वातका सम्बंध है ऐसे जानना। जिसमेंसे शिथिल, सफेद, पीला, चिकना, भारी और शीतल ऐसा दस्त होवे और जिसका रुधिर गाढा, तंतुयुक्त, पीला तथा बंबुलेयुक्त निकले और गुदा बंबूले युक्त गीली होवे और भारी चिकनी ऐसे कोई कारण होवे तो उस रक्तार्शको कफका सम्बन्ध जानना ॥ शंका-क्योंजी ! पित्तके अनुबन्धकी बवासीर क्यों नहीं कही ? उत्तर-रक्तके और पित्तके प्रायःकरके समान लक्षण होनेसे नहीं कहे, क्योंकि पहले २४ के श्लोकमें कहिआयेहँ कि (पित्ताकृतिसमन्विताः) इति ॥

सामान्यचिकित्सा।

स्वयमग्निरसोप्यत्रभक्षयेदर्शसांजये ॥
सितामध्वाज्यकर्षैकमनुपानंपिबेत्सदा ॥

**अर्थ–**रक्तार्श पर स्वयमग्निरस देवे और इसके ऊपर खाँड़, घी, शहत मिलायके एक तोले सेवन करे तो बवासीर नष्ट होवे ॥

अश्वगंधादिधूप।

अश्वगंधोथनिर्गुंडीबृहतीपिप्पलीफलम् ॥
धूपोयंस्पर्शमात्रेणह्यर्शसांशमनेह्यलम् ॥

**अर्थ–**असगंध, निर्गुंडी, कटेरी और पीपल, इनकी धूनी बवासीरकोस्पर्श होतेही हितकारी है॥

अर्कमूलादिधूप।

अर्कमूलंशमीपत्रंनृकेशाः सर्पकंचुकी॥
मार्जारचर्मचाज्यंचगुदधूपोर्शसांहितः॥

**अर्थ–**आककी जड,छीछुराके पत्ते, मनुष्यके वाल, सर्पको काँचली, विल्लीकी चमडी और घी, इन सबकी धूप गुदामें देनेसे हितकारी होतीहै॥

पिपीलिकातैल ।

पिपीलीवदनंबिल्वंवचायष्टिकचूरकम् ॥ शताह्वापुष्करंकुष्टंचित्रकंदेवदारुकम्॥ तुल्यांशंकारयेत्कल्कंकल्कात्तैलंचतुर्गुणम् ॥ तैलात्क्षीरंद्विधायोज्यंपचेत्तैलावशेषकम् ॥
अर्शसांवातयुक्तानां तच्छ्रेष्ठमनुवासनम् ॥ पिपील्याद्यमिदंख्यातंलेपनमर्दनहितम् ॥

**अर्थ–**चैटी, मैनफल, वेलगिरी,वच, मुलहटी, कचूर, शतावर, पुहकरमूल, कूट,चीतेकी छाल और देवदारु, ये सब समान भाग लेकर कल्क करे और कल्क से चौगुना तेल, तथा, तेलसे दूना दूध ये सब एकत्र करके औटावे जब तेलमात्र शेष रहे तब उतार लेप इस तेलकी अनुवासनबस्ती देना उत्तम है॥

विषमुष्टिचूर्ण।

विषमुष्टिभवंबीजंषड्वासप्ताष्टवापिच ॥
चूर्णितंससितंभक्ष्यंरक्तार्शोविनिवारणम् ॥
महाप्रमेहशमनंत्वग्दोषकृमिनाशनम् ॥

**अर्थ–**कुचलेके छः सात अथवा आठ बोजोंका चूर्णकर बलाबल विचार थोड़ा २ खांडके साथ देवे तो खूनी बवासीर, महामेह, त्वचाके दोष और कृमि इनका नाशकरे॥

नवनीतादियोग।

नवनीततिलाभ्यासात्केसरनवनीतशर्कराभ्यासात्॥
दधिरसमथिताभ्यासाद्गदजाःशाम्यंतिरक्तवाहाश्च॥

**अर्थ–**मक्खन, तिल, अथवा नागकेशर, मक्खन, खाँड, अथवा दहीकी मलाई, छाँछ इनको बराबर सेवन करे तो खूनी बवासीर शांति होवे ॥

भल्लातकामृत ।

भल्लातकचतुःपाटिपलंदुग्धंचतत्समम् ॥ दुग्धाचतुगुणंवारिपा ध्यंदुग्धावशेषकम् ॥ दुग्धतुल्यंघृतंयोज्यंघृतपादसितांक्षिपेत्॥ मधुधात्रीसितातुल्यंसितार्धमभयारजः ॥
मृतलोहंगुडूचीं चप्रत्येकमभयार्धकम् ॥ क्षिपेत्स्निग्धघटेसर्वंधान्यराशौनिवेशयेत् ॥ सप्ताहादुद्धृतंतत्तुखादेन्निष्कात्रयंत्रयम् ॥ भल्लातकामृतंनामहंतिरक्तार्शसांकिल॥ क्षारंतीक्ष्णंनभोक्तव्यंतैलाभ्यंगंचवर्जयेत्॥

**अर्थ–**भिलाए तोले २५६ और २५६ तोले दुध, तथा दूधकीअपेक्षा चौगुना जल तथा दूधकीबराबर घी डालके औटावे जब घी मात्र शेषरहे तब इसमें घीका चतुर्थांश मिश्री, शहत, आंवले और मिश्रीसे आधी हरडका चूर्ण, हरडके चूर्ण से आधी लोहभस्म, तथा गिलोय का सत्व डालके घीके चिकने बासनमें भरके धान्यकी राशिमें ७दिन गाड देवे फिर काढके इसमें से १ तोले रोगीको देवे तो यह भल्लातकामृत नामक औषध खूनी बवासीरको नाश करे इसपर खटाई, तथा तीखा पदार्थ न खाय तथा तेलकी मालिस न करे ॥

सिद्धघृत।

द्वात्रिंशत्पलकंचाज्यंछागदुग्धंतथादधि ॥ छागमांसरसश्चैवदाडिमस्यफलद्रवम् ॥ प्रत्येकंघृततुल्यांशंभांडेचूर्णमिदंक्षिपेत् ॥ आम्राडंत्र्यूषणंमुस्तंमज्जाबिल्वकपित्थयोः ॥ तिंतिणीधातकीपुष्पंरक्तचंदनचंदनम् ॥ उशीरंवालकलोध्रंप्रियंगुंपद्मकेसरम् ॥ मंजिष्ठावदरीचव्यंत्वगेलापद्मकंवला ॥ यष्टिमोचरसं चैवउत्पलंप्रतिकर्षकम् ॥ सर्वमेकीकृतंपाच्यंग्राह्यमाज्यावशेपकम्॥ योजयेदर्शसांहंतृग्रहणीकृच्छ्रपांडुपु॥ ज्वरंस्रावमतीसारंकटिशूलंचनाशयेत् ॥ इदंसिद्धघृतंनामरक्तपित्तार्शसांहितम्॥

**अर्थ–**घी १२८ तोले, बकरीका दूध, दही, बकरेके मांसका रस, और अनारका रस, सब घीके बराबर ले,अंबाडा, सोंठ, कालीमिरच,पीपल नागरमोथा, वेलगिरी, कैथका गूदा, इमली, धायके फूल लालचंदन,चंदन, नेत्रवाला, खस, लोध, फुलप्रियंगु, कमलकीकेशर, मँजीठ, वैर, चव्य, दालचीनी, इलायची, पद्माख, खिरेटी, मुलहटी मोचरस और कूठ, ये प्रत्येक एफ एक तोले लेवे सवको एकत्रकर औटावे जब घृत मात्र शेषरहे तब उतार लेवे यह घी बवासीर, संग्रहणी, मूत्रकृच्छ, पांडुरोग, ज्वर, कमरका दर्द और पित्ताशं इनका नाश करे इसका सिद्धघृत नाम है ॥

शिवरस।

मृतवैक्रांतशुल्वाभ्रंकांतभस्मसगंधकम् ॥
तुल्यांशंमर्दयच्चादौदाडिमोत्थैरसैस्तथा॥
भक्षयेन्मापमेकंतुहंत्यर्शासिशिवोरसः ॥

**अर्थ–**पारा, वैक्रान्तमणि (कांमुला) तांबा, अभ्रक, और कांतलोह इनकी भस्म तथा गंधक ये सबसमान भाग ले अनारके रसमें खरलकर एकमासेकीगोली वनावे१गोली रोगीको देवेयह शिवरस बवासीर रोगका नाश करे॥

अपामार्गबीजादिचूर्ण।

अपामार्गस्यबीजानिवह्निशुंठीहरीतकी ॥
मुस्ताभूनिंबतुल्यांशं सर्वतुल्यंगुडंभवेत् ॥
कर्पैैकंभक्षयेच्चानुजीर्णेतेतक्रभोजनम् ॥

**अर्थ–**ओंगाके बीज, चीतेकी छाल, सोंठ, हरड़, नागरमोथा और चिरायताये सब समान भाग लेके चूर्णकरे तथा सब चूर्णके समान गुड मिलावे इसमें से १ तोले रोगीको खानेकेवास्तेदेवे, इस औषधीके जीर्ण होनेपर छाँछ और भातका पथ्य देय तो सर्व प्रकारकी संग्रहणी दूर हो ॥

लोहामृतरसः।

संग्राह्यमृतंलोहस्य पलान्यष्टादशानिच ॥ त्रिकटुत्रिफलादार्वीवह्निर्मुस्तादुरालभा ॥ किराततिक्तकोनिंबपटोलकटुकामृता ॥ देवदारुविडंगानिपर्पटंप्रतिकर्षकम् ॥मध्वाज्याभ्यांलिहेत्ककर्षमर्शांसिग्रहणींजयेत् ॥ वातपित्तकफंरक्तंनाशयेद्रोगसंचयम् ॥ ख्यातोलोहामृतोनामदेहदार्ढ्यंकरःपरः॥

**अर्थ–**लोहभस्म ७२ तोले तथा त्रिकुटा ( सोंठ, मिरच, पीपल,) त्रिफला (हरड़ बहेडा, आंवला, ) दारुहलदी, चीता, नागरमोथा, धमासा, चिरायता नीमकी छाल, पटोलपत्र, कुटकी,गिलोय, देवदारु,वायविडंग और पित्तपापडा, ये प्रत्येक तोला २ लेवे सबका चूर्णकर लोहकी भस्म मिलाय देवे फिर इसमें शहत १ तोला मिलावे और घी १ तोला मिलायके खानेको देवे तो यह लोहामृतरस बवासीर रोग, बादी, पित्त, कफ, रुधिरविकार अनेक रोगोंको नाशकरे, यह रस देहको लोहेके समान दृढ करनेवालाहै ॥

बिम्बीपत्रादिलेप।

विश्वाश्वायरजैःपत्रैर्हितंलेपनमर्शसाम् ॥

**अर्थ–**सोंठ, और देवदारुके पत्तोंकोएकत्र कूट पीस बवासीरपर लेपकरे तो बवासीर नष्टहोवे॥

ज्योतिष्कबीजलेप।

ज्योजिष्कबीजकल्केनलेपोरक्तार्शसांहितः॥

**अर्थ–**मालकाँगनीके बीजोंको पीसके लेपकरे तो खूनी बवासीर नष्ट हो इसमें संदेह नहीं है ॥

गुंजाकूष्मांडलेप।

गुंजाकूष्मांडबीजंचसूरणेनचवर्तिकाम् ॥
लेपयेच्छाययाशुष्कांगुदगाह्यर्शसांजये॥

**अर्थ–**घूंघची, पेठेके बीज और जमीकंद इनको एकत्र पीसके कपड़े पर लेपदेवे फिर इसको छायामें सुखायके इसकी बत्ती वनावे इस बत्तीको गुदामें रक्खें तो बवासीर नष्ट होवे, यह प्रयोग मुख्य करके बादी बवासीरपर चलताहै॥

कनकार्णवरसः।

नवंधात्रीभवंचूर्णंपलानांशतमात्रकम्॥ विडंगंमरिचंपाठाचव्यचित्रकबालकम् ॥ मंजिष्ठापिप्पलीमूलंलोध्रंपूगफलंतथा ॥ प्रत्येकंपलमात्रंस्यात्पिप्पलीगजापिप्पली ॥ कुष्टंदारुनिशामुस्ताशताव्हासारिवाद्वयम्॥ इंद्रवारुणिकामूलंचूर्णमर्धपलोन्मितम् ॥ चत्वारिनागपुष्पस्यपलानिचूर्णयेत्ततः ॥ चूर्णादष्टगुणंतोयंक्वाथंपादावशेषकम् ॥आदायवस्त्रपूतंतुतुल्यंद्राक्षारसः कृतः ॥ सितापलशतंयोज्याक्षौद्रंचपलषोडशम् ॥घृताक्तेनिक्षिपेद्भांडेशर्करागुडधूपिते ॥ त्वगेलागंधपत्राणिउशीरंनागकेसरम् ॥ वालकंक्रमुकंचूर्णंप्रतिकर्षेचनिःक्षिपेत् ॥ मुखंरुद्धास्थितंपक्षंख्यातोयंकनकार्णवः ॥ यथेष्टंपाययेद्द्रव्यदीपकःसर्वरोगहा॥अर्शांसिग्रहणींपांडुंश्वयथुंचविनाशयेत् ॥

**अर्थ–**नवीन आंवलोंका चूर्ण ४०० तोले और वायविडंग, कालीमिरच, पाढ, चव्य चीतेकीछाल,नेत्रवाला,मँजीठ,पीपरामूल पठानी लोध और सुपारी ये प्रत्येक चार २ तोले लेवे, पीपर, गजपीपर, कूट, देवदारु, हलदी, नागरमोथा, शतावर, गौरीसर, कालीसर, इन्द्रायनकीजड ये प्रत्येक दोतोल लेवे, नागकेशर१६ तोल इन सबको एकत्र कूट पीस चूर्णकरे, चूर्णसे अठगुना पानी डालके काढा कर जव चतुर्थांश शेष रहे तब उतार छानलेवे, फिर जितना काढा होवे उतना दाखका रस मिलावे और चारसौ तोले मिश्री तथा सहत चौसठ तोलें ले फिर उत्तम चिकने वासनमें प्रथम खांड औरगुड इनकी धूनी देकर सव औषध काढेसमेत भरदेवे तथा उसमें दालचीनी छोटी इलायची, पत्रज, खस,नागकेशर, नेत्रवाला और सुपारी ये प्रत्येक तोले २ चूर्ण उसमें डालके मुख बंदकरके किसी उत्तम स्थानमें धरा रहने दे, यह कनकार्णवरस कहलाताहै इसको रोगीका बलाबल विचारके वैद्य देवे और पथ्यमें यथेष्ट भोजनकरे किसी वस्तुका परहेज नहींहै यह अग्निकोदीपन करताहै, तथा सर्वरोग, बवासीर, संग्रहणी, पांडुरोग, और सूजन इसकोनाशकरे ॥

योगराजगूगल ।

कणागजकणावन्हिविडंगेंद्रयवायवैः ॥ कटुकापिप्पलीमूलंभार्गीपाठाजमोदकम् ॥ मूर्वाशुंठीहिंगुचव्यंसमंसर्वांशगुग्गुलुः ॥ चूर्णयेन्मधुनाखादेत्कर्पांशंयोगराजकम् ॥रक्तवातार्शसोगुल्मग्रहणीपांडुजिद्भवेत् ॥

**अर्थ–**पीपल, गजपीपल, चीतेको छाल, वायविडंग, इन्द्रजौ, जवासा, कुटकी, पीपरामूल,भारंगीकीजड़, पाढकीजड, अजवायन,मूर्वा,सोंठ, घाडकी हींग और चव्य ये बराबर लेवे और सबकी बराबर शुद्धकरी गूगल डाले सबको कूट पीस १ तोलेकीगोली वनायले १ गोली शहतके साथ खाय तो खूनी बवासीर, बादी बवासीर,गोलेका रोग, संग्रहणी और पांडुरोग अर्थात् पीलिया इनको नष्ट करे इस आषधकोयोगराज कहते हैं॥

रालयोग।

रालचूर्णस्यतैलेनसार्पपेणयुतस्यच ॥
धूपदानेनयुक्त्यार्शोरक्तस्रावोनिवर्तते ॥

**अर्थ–**रार ( राल ) का चूर्ण तथा सरसों एकत्र कर धूनी देव तो बवासीर और रुधिरका स्रावबंद होवे ॥

कर्पूरधूप।

रक्तौघशांतयेदेयंगुदेकर्पूरधूपनम् ॥

**अर्थ–**यदि बवासीरवालेको गुदासे रुधिर अधिक निकलता होय तो कपूरकीधूनीदेय तो रुधिर गिरना बंद होवे ॥

पयसादियूष।

पयसाशृतेन यूपैःसतिलमुद्गाढकिमसूराणां ॥

औदनमद्यादम्लैर्मधुरैरीपत्सुगंधश्च ॥

**अर्थ–**तिल, गुड, अरहर और मसूर इनका काढा अथवा यूषमें थोडीसी खटाई डालके मधुरकर तथा सुगंधित करके उसके साथ भातको खायतो रुधिर जाना बंद होवे ॥

कालकलांतकवटी।

शुद्धसूतंमृतंवंगंतालंसिंधूत्थलांगली ॥ पलंतूरीषलैकैकंलसुनंचचतुःपलम् ॥कारवल्ल्याद्रवैर्मर्द्यंदिनैकंवटकीकृतं ॥ गुंजामात्रंसदाखादेद्गुदद्वारेचतांक्षिपेत् ॥ रक्तवातकफोत्थानामर्शसांशमयेत्द्धुवम् ॥ वटीकालकलांतेयमनुपानंचकथ्यते ॥ भल्लातत्रिफलादंतीवन्हिचूर्णंसमंसमम् ॥ सैंधवंसर्वतुल्यंस्याद्भर्जयेत्खर्परेचिरम् ॥ मृद्वग्मिनाभवेत्सिद्धंकर्पंतक्रैःपिबेदनु ॥

**अर्थ–**पाराशुद्ध, वंगकी भस्म, हरताल,सैंधानिमक कलियारी और अरहरये प्रत्येक चार चार तोले लेय तथा लहसुन १६ तोले ले सबको एकत्र कर करेलेके रससे एकदिन खरलकरे फिर इसकी एक एक रत्तीको गोली वनावे नित्य प्रति एकएक गोलो सेवनकरें तथा एक गोली गुदामें धररक्खे तो रक्तवात तथा कफसे प्रगट होनेवाली बवासीरोंका शीघ्र नाश होवे , इस कालकलांतकवटीका अनुपान कहताहूं, भिलाँए, त्रिफला, जमालगोटा, चीता और सैंधानिमक ये समान भागले इनके चूर्णको खिपडेमें डालके मंदाग्निपर भूने, फिर इसमेंसे १ तोला छाँछके साथ पिलावे ॥

अपामार्गादिकल्क।

अपामार्गस्यबीजानांकल्कस्तंदुलवारिणा ॥
पीतोरक्तार्शसांनाशंकुरुतेनास्तिसंशयः॥

**अर्थ–**ओंगाके बीजोको चावलोंके धुले हुए पानीमें पीसके कल्क करेइस कल्ककेपीनेसे खूनी बवासीर नष्ट हो इसमें संदेह नहीं है ॥

पद्मकेशरयोग ।

सपद्मकेसरक्षौद्रनवनीतंनवंलिहन् ॥
सिताकेसरसंयुक्तरक्तार्शीसुसुखीभवेत् ॥

**अर्थ–**कमलकी केशर, शहत, नवीन मक्खन (लोनी ) खांड और नागकेशर ये सब समान भाग लेकर गोलीबनावे इसके भक्षण करनेसे खूनी बवासीरवाला प्राणी आनंद युक्त होवे ॥

समंगादिदूध।

समंगोत्पलमोचाव्हतिरीटतिलचंदनैः ॥
सिद्धंछागीपयोदद्याद्गुदजेशोणितात्मके ॥

**अर्थ–**लजालू ( लज्जावंती) कमल, मोचरस, पठानी लोध, तिल और चंदन, इनको बकरीके दूधमें डालके दूध सिद्धकरे इसे पीबेतो खूनी बवासीर नष्टहोवे॥

खूनीबवासीरपरक्वाथ।

चंदनकिराततिक्तकधन्वयवासाःसनागराः क्वथिताः ॥
रक्तार्शसांप्रशमनादार्वीत्वगुशीरनिंबाश्च ॥

**अर्थ–**चंदन, चिरायता, कुटकी, जवासा सोंठ, दारुहलदी, दालचीनी खस और नीमकी छाल इनका काढा करके पीबेतो खूनी बवासीरको नष्ट करे ॥

द्राक्षादियोग।

द्राक्षाहरिद्रामधुकंमंजिष्ठानीलमुत्पलम् ॥
अजाक्षीरेणसंपीतंरक्तजार्शोविनाशनम् ॥

**अर्थ–**मुनक्कादाख, हलदी, मुलहटी, मँजीठ और नीला कमल इनका कल्क करके बकरीके दूधसे पीबे सो खूनी बवासीरका नाश करे॥

त्रिकट्वादियोग ।

त्रेकटुत्रिफलादंतीवह्निभल्लातसैंधवम् ॥ सुवर्चलंचसामुद्रंलवणंघृततैलकम् ॥ छागमज्जावसामूत्रंगोमूत्रंनरमूत्रकम् ॥ महिपीगर्दभाश्वानामेषांमूत्रैर्दिनत्रयम् ॥ भावयेच्छोपयेत्तच्चरुद्धागजपुटेपचेत् ॥ निष्कद्वयंपिवेच्चाज्यैरक्तवातार्शसांजये ॥ क्षीरैर्मांसरसैर्भोज्यंशूलगुल्मंचनाशयेत् ॥

**अर्थ–**त्रिकटु, त्रिफला, जमालगोटा, चीतेकी छाल, भिलाँए, सैंधानिमक, सोराकल्मी, समुद्रका निमक, घी,तेल और वकरेकी मज्जा चर्वी, तथा मूत्र और गो,मनुष्य,भैंस, गधा और घोडा इनके मूत्रमे उक्त औषधेंको तीनदिन धरीरहने देवे फिर सुखायके शरावसंपुट में रखकेगजपुटमें धरके फूँक देवे जव शीतल होजावे तब निकालके इसमेंसे आठ मासे औषध घीके साथ खाये तोसूनी बवासीर तथा बादी बवासीर, शांति होवे इसपर दूध, तथा मांसरस ये भोजनमें पथ्य देवे तो यह त्रिकट्वादियोग शूल और गोला इनका नाशकरे ॥

विड्वंध।

नागेननलिकांकृत्वाघृतसैंधवलेपिताम् ॥
गुदद्वारेक्षिपेन्नित्यंमलरोधप्रशांतये ॥

**अर्थ–**शीशेकी नली करके उसमें सैंधानिमक और घीका लेप करके नित्यप्रति गुदामें रक्खे तो मलरोध अर्थात् दस्तका न उतरना दूर होवे ॥

रक्तस्त्राव।

धूपनेलेपनेभ्यंगेप्रस्त्रवंतिगुदांकुराः ॥
सपित्तदुष्टंरुधिरंततःसंपद्यतेसुखम् ॥

**अर्थ–**बवासीरके मस्से धूप देनेसे लेप करनेसे अथवा अभ्यंग (मालिस) से पित्त सहवर्तमान नास लेनेसे रुधिर निकलताहै उस रुधिर निकलनेसे सुख होवे॥

प्रकारांतर।

विबंधेर्शसिचोत्सिक्तेकंडूमद्रक्तवाहिनी ॥
जलौकापातनादन्यःप्रयोगोनास्तिकश्चन ॥

**अर्थ–**विड्बंधकर्त्ता, चारों तरफसे खुजली करता तथा रुधिर बहनेवाली बवासीर पर जोंक लगाकर रुधिर निकालनेकै सिवाय दूसरा उपाय नहीं है॥

सक्तुपिंडीबंधन ।

तेनैवंसुखमाप्नोतिमुच्यतेस्वेदपिंडिका ॥
घृततैलाक्तसक्तूनांपिंडिकांबंधयेद्गुदे ॥

अर्थ–सक्तुकी पिंडी (पोटली)क.के उसपर घी अथवा तेल चुपडकर गुदाके ऊपर वांधे तो बवासीरमें से पसीने निकल जावे और तत्काल सुख होजाय॥

नासार्शचिकित्सा।

नासानाभिसमुत्थेतुतथामेढ्राक्षिकर्णयोः ॥

क्रियामर्शस्सुकुर्वीततत्रतत्रयथोदिताम् ॥

**अर्थ–**नाक, नाभि, शिश्रंन्द्री(लिंग) नेत्र और कान, इनमें बवासीर होने से उसमें उसी स्थानमें उचित क्रिया कही हुई करनी चाहिये ॥

रजनीचूर्णयोग।

भावितंरजनीचूर्णंस्नुहिक्षीरैःपुनःपुनः॥
बंधयेत्सुदृढंसूत्रंछिनत्त्यर्शोभगंदरम् ॥

**अर्थ–**हलदी और थूहरका दूध इनमें वारंवार सूतको भिगोकर सुखाय लेवे फेर इस सूतसे बवासीरके मस्से बांधे तो वो टूटके गिरजावे इसी प्रकार भगंदर रोगमें इस सूतको बांधे तोभगंदरका नाशकरे ये दोनों रोगोंपर प्रयोग अनुभूतहै,

चामखील ।

चर्मकीलंतुसंस्विद्यदह्यः क्षारेणचाग्निना ॥

**अर्थ–**चर्मकील रोगको स्वेदन करके उसका क्षारसे अथवा अग्निसेदाग देवे तो मस्से दूर हो।

दुग्धिकादिघृत।

दुग्धिकाकंटकारीभ्यांकल्कंक्षीरैश्चतुर्गुणम् ॥
कल्कतुल्यंघृतंयोज्यंघृतशेषंविपाचयेत् ॥
भोजनेलेपनेपानेजयेल्लिप्तार्शसांकिल ॥

**अर्थ–**दूधी और कटेरी इनका कल्क तथा उस कल्कका चौगना दूध और कल्कके समान उसमे घी डाले फिर इसके मट्टीपर चढायके मंदाग्निसे पचन करावे, इस घीको भोजनमे मिलायके भक्षण करनेको देवे तथा बवासीरमें लगावे तो उस बवासीरका नाश करे ॥

व्योपादिमोदक।

गुडव्योपवरावेल्लतिलारुष्कारचित्रकैः॥
अर्शासिहंतिगुटिकात्वग्विकारंचशीलिता॥

**अर्थ–**गुड, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला,काले तिल, काली,मिरच, भिलयि और चित्रक इनके चूर्णकी गुड़से गोली बनावे और देवे तो बवासीर और त्वचाके विकाराको नष्ट करे॥

गुडचतुष्क।

गुडेनशुंठीमथवोपकुल्यांपथ्यांतृतीयामथदाडिमंच ॥
आमेष्वजीर्णेपुगुदामयेपुवर्चोविबंधेषुचनित्यमद्यात् ॥

**अर्थ–**सोंठ, पीपल,हरड और अनार ये चार वस्तु क्रमसे गुडसे नित्यभक्षण करे तो आम अजीर्ण, बवासीर, और मलकी कठोरता इनको नाश करे अर्थात् निमक, धनिया, सोनामक्खी, कचूर, अतीस, सुवर्ण, सज्जीखार, जवाखार, वच,नागरमोथा, तमालपत्र, दंती और इलायची, ये सब एकएक तोले लेवे, सबका चूर्णकर शहतसे दशमासेकी गोली बनावे यह चंद्रमभावटी संपूर्ण प्रकारकीबवासीर, पांडुरोग, भगंदर, मूत्रकृच्छ्रप्रमेह, क्षय, (राजरोग) तथा खाँसी ऐसे अनेक प्रकारके रोगोंका नाश करे ॥

सूरणपुटपाक ।

सौरणंकंदमादायपुटपाकेनपाचयेत् ॥
सतैलगुडसंयुक्तोरसश्चार्शोविकारनुत् ॥

**अर्थ–**जमीकंदको पुटपाककी विधिसे पुटपाक करके सरसोंके तेल और गुड, इनके साथ खानेसे बवासीरके विकारको दूर करें॥

चित्रकादिदधि।

त्वचंचित्रकमूलंस्यात्पिष्ट्वाकुंभप्रलेपयेत् ॥
तक्रंवादधिवातत्रजातमर्शोहरंपिबेत् ॥

**अर्थ–**चीतेकी जड़कीछालको कूटकेजलसे पीस घडेके भीतर लेप करे, उसमें दही अथवा छाँछको भर देवे इसमें से बवासीरवाले रोगीको पिलावे तो बवासीर दूर होय ॥

कांचन्यादिविषयोग ।

कांचनीविषपाषाणंयवक्षारंचहिंगुलम् ॥ जलेपिष्ट्वान्यसेद्गुह्येएवंकुर्याद्दिनत्रयम्॥क्षीरस्येदंतथाकुर्यात्क्षीराहारीघृतौदनम् ॥ अर्शोरोगंनिहंत्याशुसिद्धयोगउदाहृतः॥

**अर्थ–**हलदी, संखियाविष, जवाखार, हींगलू, इनको जलमें पीसके गोली बनावे इस गोलीको गुदामें रखें और दूधकी वाफ गुदाको देवे, तथा दूध पिलावे, घी और भातका भोजन करावे इस प्रकार तीन दिन करने से बवासीरका नाश होय यह सिद्धप्रयोग कहा है॥

वृद्धदारुमोदक।

वृद्धादारुकभल्लातशुंठीचूर्णेनपेपितः ॥
मोदकःसगुडोहन्यात्प

ङ्घिधार्शःकृतारुजः ॥

**अर्थ–**विधायरा, भिलाँए और सोंठ, इन तीन औषधोंकोसमान भाग ले चूर्ण करे और सब चूर्णसे दूना गुड मिलायके गोली बनावे, इस वृद्धदारुमोदकके भक्षण करनेसे छः प्रकारकी बवासीर दूर होवे ॥

सूरणवटक।

शुष्कसूरणचूर्णस्यभागान्द्वात्रिंशदाहरेत् ॥ भागान्षोडशचित्रस्यशुंठ्याभागचतुष्टयम् ॥ द्वौभागौमरिचस्यापिसर्वाण्येकत्रकारयेत् ॥ गुडेनपिंडिकांकुर्यादर्शसांनाशिनींपराम् ॥

**अर्थ–**जमीकंदको सुखायके चूर्णकर बत्तीस तोले लेय, चित्रक१६ भाग, कालीमिरच, दो भाग लेय, सब औषधोंकाचूर्णकर उसमें गुड सब औषधोंसे दूना मिलाय गोली करे इस गोलीको नित्य प्रति सेवन करे तो छः प्रकारकीबवासीर नष्ट होवे ॥

बृहत्सूरणवटक।

सूरणोवृद्धदारुश्चभागौःषोडशभि-पृथक् ॥ मुसलीचित्रकौज्ञेयावष्टभागमितौपृथक् ॥ शिवाबिभीतकौधात्रीविडंगंनागरं कणा ॥ भल्लातःपिप्पलीमूलंतालीसंचपृथक्पृथक् ॥ चतुर्भागप्रमाणानित्वगेलामरिचंतथा ॥ द्विभागमात्राणिपृथक्ततस्त्वेकत्रचूर्णयेत् ॥ द्विगुणेनगुडेनाथवटकान्कारयेदुधः॥ प्रबलाग्निकरायेतेतथार्शोनाशनाःपराः ॥ ग्रहणींवातकफजां श्वासंकासंक्षयामयम्॥ प्लीहानंश्लीषदंशोफंहिक्कांमेहंभगंदरम् ॥ निहन्युःपलितंवृष्यास्तथामेध्यारसायनाः ॥

**अर्थ–**जमीकंद १६ भाग, विधायरा १५, मूसलीसपेद ८ भाग, चीतेकी छाल ८ भाग, हरड, बहेडा, आमला, वायविडंग, सोंठ, पीपल, भिलाँए, पीपरामूला तालीसपत्र,ये नौ औषधियो के चारचार भाग लेवे,तथा दालचीनी, इलायची और कालीमिरच ये तीन औषधदो दोभाग लेबे फिर सब औषधोंको कूट पीसके चूर्णकरे इस चूर्णसे दुगुना गुढ़ मिलावे सबको एक जीव करके गोली बनावे, इनके सेवन करने से अग्नि प्रदीप्त होवे, बवासीर, तथा वात कफसे उत्पन्न भई संग्रहणी, श्वास, खाँसी,क्षय, पेटमें दहनीतरफजो पिलहीका रोग होता है वह, श्लीषदरोग, सूजन, हिचकी, प्रमेह, भगंदर, पलितरोग (जिसमें दस प्राणीके संपूर्ण बाल सपेद हो जातेहैं ) ये संपूर्ण रोग दूरहोवे तथा इसगोलीके प्रभावसे स्त्रीगमनमें इच्छा होवे, तथा बुद्धि बढे और शरीरको वृद्धावस्था आदिको दूर करे ॥

कोशातकीघर्षण।

कोशातकीरजोघर्षान्निपतंतिगुदोद्भवाः ॥

**अर्थ–**कडवीतोरईका चूर्ण बवासीरके मस्सों पर घिसे तो बवासीरके मस्से टूटकर गिर पड़े ॥

निशादिलेप।

निशाकोशातकीचूर्णस्नुक्पयः सैंधवान्वितम् ॥
गोमुत्रेणसमायुक्तोलेपोदुर्नामनाशनः॥

**अर्थ–**हलदी और कडवीतोरई इनका चूर्ण थूहर का दूध और सैंधानिमक इन सबको एकत्र पीसके गोमूत्र में मिलायकै मस्सों के ऊपर लेप करें तो बवासीरका नाश होवे ॥

तथा निशादिऔरअर्कमूलादिलेप।

निशाकोशातकीलेपःसर्वदुर्नामनाशनः ॥
अर्कपत्रंशिग्रुमूलंलेपनंहितमर्शसाम् ॥

**अर्थ–**हलदी और कड़वीतोरई इनका अथवा आककेपत्ते तथा सहँजनेकेपत्तोंको पीसकेलेपकरे तो बवासीरको नष्ट करें ॥

निम्बादिलेप।

निंबाश्वत्थस्यपत्राणांलेपोदुर्नामनाशनः ॥
आरनालेनवाहन्यात्सगुडाकटुतुंबिका ॥

**अर्थ–**कडुये नीमके पत्ते और पीपलके पत्ते इनदोनोंको एकत्र पीसकर लेप करें । अथवा कडवीतुंबीके पत्तोंको और गुडको काँजीमें पीसके लेप करे तो बवासीर नाश होवे इसमें संदेह नहीं है, परंतु यह मस्सोंमें लगतेहैं ॥

एरण्डमूलादि।

एरंडमूलंसुरदारुरास्नायष्टीमधूकंमसृणंविचूर्ण्य॥
पिष्टंयवानांचचतुर्गुणंस्यात्साध्यंहिवह्णौपयसासमस्तम् ॥ स्वेदोषनाहौबहुतेनकुर्यादर्शोसिशूलंविलयंप्रयांति॥

**अर्थ–**अंडकीजड, देवदारु, रास्ना, मुलहटी और मक्खन इन सबको एकत्रपीस इसमें चौगुना जौंका चून मिलाप दूधमें उसनकेअग्निपर रोटी वा अंगारकरी बनावे इस गरम २ रोटीसे यदि बवासीरको सेके अथवा गरम २ बवासीर पर बांधे तो पीडायुक्त बवासीरका नाश होवे ॥

स्नुह्यादिलेप।

स्नुह्यग्निलांगलीदंतीमूलैर्लेपोर्शसांहितः॥

**अर्थ–**थूहरकादूध, चीतेकी छाल, कलियारी, दंतीकी जड इनको जलमें पीसके लेपकरे तो बवासीर नष्ट होवे ॥

कृष्णशिरीषादिलेप।

कृष्णशिरोपबीजार्कक्षीरैः सामरसैंधवैः ॥
हरिद्राऋक्षड्विगुंजागोमूत्रैःपिप्पलीयुतैः॥
एतल्लेपत्रयंयोज्यंशीघ्रमर्शोविनाशनम् ॥

**अर्थ–**जटामांसी, शिरसके बीज, आककादूध, सेमरका मूसला, सैंधानिमक हलदी, रीछकीवीठ, घूंघची, गोमूत्र और पीपल इन सबको एकत्र पीसकै तीनवार मस्सोंपर लेप करे तो बवासीर बहुत जल्दी नष्ट होवे ॥

अर्कादिलेप।

आर्कंपयःसुधाकांडंकंटकालावुपल्लवाः॥
करंजोबस्तमूत्रेणलेपनंश्रेष्ठमर्शसाम्॥

**अर्थ–**आककादूध, थुहरका टुकड़ा, कुटकी, कडुई घीयाके पत्ते और कंजाके बीज इन सबको बकरेके मूत्रमेंपीसके मस्सोंपर लेप करे यह लेप बवासीर पर उत्तम है ॥

गुञ्जासूरणलेप।

गुंजासूरणकूष्मांडबीजैर्तिस्तथागुदे ॥

**अर्थ–**घूंघची,जमीकंद, पेठेके बीज इन सबको जलमें पीसके सपेद कपडे पर लेप करे फिर उसको छायामें सुखायबत्ती बनावे इस बत्तीको गुदामें रक्खे तो बवासीरका नाश होवे ॥

गौरीपाषाणलेप।

गौरीपाषाणकर्षैकंस्नुहीकांडेविनिःक्षिपेत् ॥ पाचयेत्पुटपाकेनततउद्धृत्ययत्नतः ॥ रेवाचिनीचकुष्टंचकल्कीकृत्यत्रयंसमम् ॥ लेपयेत्तेनअर्शांसिनिवार्यंतेनसंशयः॥

**अर्थ–**सोमल (संखिया) को थुहरकीगोली लकडीमें भरे फिर उसको पुट पाककी विधिसे पक्वकरे पश्चात् रेवतचीनी और कूट ये समान भाग ले सवको पीसके बवासीरपर लेपकरे तो निःसंदेह बवासीर दूर होवे ॥

न्यग्रोधपत्रलेप।

दग्ध्वान्यग्रोधपत्राणितैलेनसहलेपयेत्॥

**अर्थ–**वडके पत्तोंकी भस्मकर उस राखको तेलमें सानकेबवासीरपर लेप करे तो बवासीर नष्ट होवे ॥

कटुतुंव्यादिलेप।

कटुतुंव्यास्तथादंत्याः शकृच्चकुक्कुटस्यच ॥ मुसल्याश्चाश्वगंधायाश्चित्रकस्यचयत्नतः ॥
मूलैस्तुल्यैः कृतंचूर्णमर्कक्षीरेण भावयेत् ॥ स्नुहीक्षीरेणमतिमान्वारिणापरिपेषयेत् ॥ वस्त्रवार्त्यागुदंतेनसमालिप्यसमंततः ॥ गुदेविनिक्षिपेद्यत्नात्प्रातः सायंचबुद्धिमान् ॥ वेदनाचभवेत्तीव्रावह्निनास्वेदयेद्गुदम्॥ नोपश्याम्येद्यदातेनतदाचैवोष्णवारिणा ॥ विनिवेश्यगुदंतिष्ठेद्वेदनाशमकारणात् ॥ अद्यादृष्यमथान्नंचशिशिरंजलमापिबेत् ॥ गुदजानांविनाशार्थंसप्ताहंतुसमाहितः॥ विधिमेनंप्रकुर्वीतगतशंकस्तुमानवः॥

**अर्थ–**कडवी तूंबीके पत्ते,दंतीकी जड़, मुरगेकी विष्ठा,सपेदमुसली,असगंध और चीता ये समान भाग लेवे सबका चूर्ण करके आकके दूधमें और थूहरके दूधकी भावना देवे फिर जलसे पीसके कपडेपर लेपकर उसको मुखायके बत्ती बनावे, फिर इसी बत्तीसे प्रथम पूर्वोक्त औषधोंका लेपकरे फिर बत्तीको गुदामें रखदेवे इस प्रकार सायंकाल और प्रातःकाल दोनों वख्त बत्तीको धरे, इसके धरनेसे गुदामें घोर पीडा होती है उसके शांति करनेको गुदामें स्वेदनविधि करे, यदि स्वेदन करनेसे भी पीडाशांति न होवे तो गरमजलमें बैठजावे, तथा वृष्य (पुष्टकर्त्ता) अन्नका सेवन करे अर्थात् मधुर, चिकने और मनको प्रसन्नकारी पदार्थ सेवन करे, शीतल जल पीवे इस प्रकार सात दिन करनेसे बवासीरका नाश होय यह यन्न प्राणीको शंकारहित होकर करना चाहिये॥

देवदालीबीजलेप।

सिंधूत्थदेवदाल्याश्चबीजंकांजिकपेपितम् ॥

गुदांकुरप्रलेपेनपाटयेत्पर्वतानपि ॥

**अर्थ–**सैंधानिमक, और वंदाल (घरवेल ) के बीजइन दोनोंको कांजिमें पीसके बवासीरके मस्सोंके मुखपर लेपकरे तो मस्से गलकर गिरपडे, इस लेपसे पर्वतभी टूट पडते है॥

चव्यादिघृत।

चव्यंत्रिकटुकंपाठाक्षाराःकुस्तुंवरूणिच॥ यवानीपिप्पलीमूलमुभेचबिडसैंधवे ॥ चित्रकंबिल्वमभयापिष्ट्वासर्पिविपाचयेत् ॥ सकृद्वातानुलोमार्थंजातेदधिचतुर्गुणम् ॥ प्रवाहिकांगुदभ्रंशंमूत्रकृच्छ्रंपरिस्रवम् ॥ गुदवंक्षणशूलंचघृतमेतद्व्यपोहति ॥

**अर्थ–**चव्य, सोंठ, मिरच, पीपल, पाढ, सर्वप्रकारके क्षार, धनिया, अजवायन, पीपरामूल, विडनिमक, सैंधानिमक, चीतेकी छाल, बेलकाफल और हरड इन सबको एकत्र पीसके कल्क करे इस कल्कसे घी सिद्ध करे, यह घी बादीको अनुलोमनकरेहें और चौगुणा दही डालके इस घीको सिद्धकरें वह प्रवाहिका, गुदभ्रष्ट, मूत्रकृच्छ्र, गुदस्राव और गुदा, पेडु इनका दर्द इनका नाश करे॥

शुंठीघृत।

त्रिंशत्पलानिशुंठीनांजलद्रोणेविपाचयेत् ॥ तेनपादावशेषेण कल्केनान्यंपचेद्घृतम् ॥ दुर्नामश्वासकासघ्नंप्लीहपांड्वामयापहम् ॥ विषमज्वरशांत्यर्थंतृष्णारोचकनाशनम् ॥ शुंठीघृतमितिख्यातंकृष्णात्रेयेणपूजितम् ॥ नागरेणजलेपक्वंबस्तिकुक्षिगदापहम् ॥

**अर्थ–**सोंठ एक सौ बीस तोलेको एक सौ बीसतोले जलमें काढा करे जब चतुर्थांश शेष रहे तब उतारके छानलेवे, फिर इसमें सोंठका कल्कमिलायके घृत पचनकरे, वह बवासीर, श्वास, खाँसी, प्लीहा, पांडुरोग, विषमज्वर, प्यास और अरुचि इनका नाशकरे यह कृष्णात्रेय करके मान्य ऐसा शुंठीघृतहै, यही अदरखके रसमें सिद्ध करा हुआ घृत बस्ति ( मूत्रस्थान, ) और कूख इनके रोगोंकी नष्टकरे है ॥

लघुचव्यादिघृत।

चव्यातिक्ताकलिंगानिशताह्वालवणानिच ॥

सर्पिरर्शोविकारघ्नंग्रहणीदीपनंपरम् ॥

**अर्थ–**चव्य, कुटकी, इन्द्रजौ, सतावर और पांचों निमक इन औषधोंसे सिद्धकराहुआ घृत बवासीर और संग्रहणी इनको नष्टकरे तथा दीपनविषयमें उत्तम है॥

ह्रीवेरघृत।

ह्रीवेरमुत्पलंलोध्रंसमंगाचव्यचंदनम् ॥ यवासातिविपाबिल्वं धातकीदेवदारुच ॥ दार्वीत्वङ्नागरंमांसीमुस्ताक्षारोयवाग्रजः॥ चित्रकश्चेतिपेप्याणिचांगेरीस्वरसेघृतम् ॥ एकत्रसाधयेत्सर्वंतत्सर्पिःपरमौषधम्॥ अर्शोतिसारग्रहणीपांडुरोगेज्वरेरुचौ ॥ मूत्रकृच्छ्रेगुदभ्रंशेबस्त्यानाहप्रवाहिके ॥ पिच्छास्रावेर्शसांमूलेयोज्यमेतत्रिदोषहृत् ॥

**अर्थ–**नेत्रवाला, कूट, लोध, मँजीठ, चव्य,चंदन,धमासा,अतीस, बेलफल, धायकेफूल, देवदारु,दारुहलदी, दालचीनी, सोंठ, जटामांसी नागरमोथा,जवाखार तथा चीतेकीछाल ये सब वस्तुओंको चूकाके रसमें पीसके कल्ककरे फिर कल्कके समान घी लेकर घृत सिद्ध करनेकी विधिसे वनावे यह ( चांगेरीघृत) उत्तम औषधीहै यह बवासीर, अतिसार, संग्रहणी, पांडुरोग, ज्वर, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र, गुदभ्रंश, ( काँचका निकलना) बस्ति, अफरा, प्रवाहिका, रक्तस्राव बवासीरके मस्से और त्रिदोष इनपर हितकारी है तथा त्रिदोषनाशक है ॥

रोहितारिष्ट।

रोहीतकतुलामेकांचतुर्दोणेजलेपचेत् ॥ पादशेषेरसेशीतेषूतेपलशतद्वयम्॥ दद्याद्गुडस्यधातक्याःपलषोडशिकामताः॥ पंचकोलंत्रिजातंचत्रिफलांचविनिःक्षिपेत् ॥ चूर्णयित्वापलांशेनततोभांडेनिधापयेत् ॥ मासादूर्ध्वंचपिबतांगुदजायांतिसंक्षयं ॥ ग्रहणीपांडहृद्रोगप्लीहगुल्मोदराणिच ॥ कुष्ठशोफारुचिहरोरोहितारिष्टसंज्ञकः ॥

**अर्थ–**लाल रुहेडा १ तुलाको जबकूट करके उसमें चार द्रोण जल डालके काढा करे जब चतुर्थांश जल रहे तब उतारके छानलेवे जव शीतल होजावे तब उसमें २०० दोसौ पल गुड़ डालके तथा धायफे फूल६ तोले डालके, पंचकोलकी औषधी, त्रिजातककी औषधी और त्रिफला ये ग्यारह औषधोंको एक एक पल लेकर सबका चूर्णकर उस पूर्वोक्त काढेमें डालदेवे फिर सबको एक पात्रमें भरके इसके मुखपर मुद्रादेकर एक महीने पर्यंत धरा रहने देवे महीनाके पश्चात् मुद्राको दूरकर इस रसको निकासलेवे इसको (रोहितारिष्टो ) कहते हैं इसके सेवन करने से बवासीर, संग्रहणी, पांडुरोग, हृदयका रोग, पेट में दहनीतरफ पिलही होतीहै वह, गोलेकारोग, उदररोग, कोढ, सूजन और अरुचि ये रोग दूर होवे ॥

मधुपक्वहरीतकी।

कदंबनिंबचिंचानांत्वक्चूर्णंपलषोडशम् ॥ अजागोमहिपीमूत्रंत्वक्षोडशगुणोत्तरम्॥ क्वाथयेत्पादशेषंतुशुद्धंकृत्वाविनिःक्षिपेत् ॥ अभयानांशतैकंतुक्वाथयेच्चकषायकम् ॥ जीर्यतेह्यभयापश्चाद्भित्त्वाअंडंनिवारयेत् ॥ भृंगीसुवर्चलंचूर्णंतुल्यंतेन प्रपूरयेत् ॥ अभयांवेष्टयेत्सूत्रैर्मधुमध्येत्र्यहंक्षिपेत् ॥ नित्यं क्षौद्रसमंभक्ष्यात्रिदोषार्शःप्रशांतये ॥

**अर्थ–**कदम, नीम, इमली इनकी छालका चूर्ण, चौसठतोले, तथा बकरी गौ भैस इनका मूत्र एक हजार चार तोले डालके काढा करें जब चतुर्थांश शेषरहे तब उतारके काढेको छानलेवे, इसमें १०० हरड डालके औटावे जब हरड नरम होजावे तब निकालके उनके भीतरकी गुठली दूरकरे और इन हरडोंमें भांग और सज्जीखारभरके सूतसे बाँधदेवे तथा तीन दिन शहत में डालके धरी रहने देवे फिर इसमें से एक हरडको निकालके भक्षण करे तो त्रिदोष जन्य बवासीर शांत होवे ॥

गोजिह्वादिकाढा।

गोजिह्वामूलमेकंद्विगुणवर्हिशिखामूलकुस्तुंबराणामष्टांशेक्वाथतोयेमधुसिकतरजोमिश्रमंतेपिबेत्तत् ॥ तस्यार्शःपड्विधोपिहरतिगुदरुजः स्रावमामानुबंधंकीलंकंडुग्रहण्यांशुलमतिभिपजामंडलात्पथ्यसेवी॥

**अर्थ–**गोभीकी जड १ भाग, मौरशिखाकी जड २ भाग, तथा धनिया, इनका अष्टमांश लेकर काढा करे उसमें शहत और खांड डालके रोगीको देवे तो यह छः प्रकारकी बवासीर, गुदाके रोग, गुदाका स्रवना, आमांश,बवासीरके मस्से, खुजली,संग्रहणी और शूल, इनका नाश करे इसको एक मंडल सेवन करे तथा पथ्यसे रहे ॥

कल्याणलवण ।

भल्लातकानित्रिफलादंतीचित्रकमेवच ॥ समभागानिसर्वाणि सैंधवंद्विगुणंभवेत् ॥ कपालपुटसंपक्वंमृदुनागोमयांग्निना ॥ कल्याणनामलवणंश्रेष्ठमरर्शोविकांरिणाम् ॥

**अर्थ–**भिलँए, हरड, बहेडा,आमला, दंतीकी जड़ और चीतेकी छाल ये सब औषधी समान भागलेवे और सैंधानिमक एक औषध से दूनालेवे सबको एकत्रकर शरावसंपुट में रख कपडमिट्टीकर आरने उपलों की मंदाग्नि देवे जब स्वांग शीतल होजावे तब निकासलेवे यह ( कल्याण नामक) लवण बवासीर पर हितकारी है ॥

तक्रादियोग।

सतक्रंलवणंदद्याद्वातवर्णोनुलोमनम् ॥ नप्ररोहंतिगुदजाःपुनस्तक्रसमाहताः ॥ तक्राभ्यासोर्शसैःकार्योबलवर्णाग्निवृद्धये ॥ स्रोतस्सुतक्रशुद्धेपुसम्यक्फलतितद्रसः ॥ तनुपुष्टिस्तथातुष्टिर्बलंवर्णश्चजायते ॥ वातश्लेष्मविकाराणांशतंचविनिवर्तयेत् ॥

**अर्थ–**छाँछमें निमक डालके देवे वह वायु और मल इनका अनुलोमन करे, तथा तक्रके प्रयोगसे नाश हुए (गुदाके मस्से) फिर उत्पन्न नहीं होते, बल वर्ण और अग्नि इनकी वृद्धि होय,इसी कारण बवासीररोगवालेको छाँछ पीनेका अभ्यास करना चाहिये छाँछ से नाडियोंके मार्ग शुद्धहोने से शरीरका पालन करनेवाले रसका उन नाडियोंमें उत्तम प्रकारसे संचार होताहै कि जिस्से शरीरकी वृद्धि, संतोष, बल और कांति ये उत्पन्न होवे तथा अनेक वात कफके विकारोंका नाश होवे ॥

प्रकारांतर।

विड्विबंधेहितंतक्रंयवानीविश्वसंयुतम् ॥ नप्ररोहंतिगुदजाःप्रायस्तक्रसमन्विताः ॥ यज्जातंगोरसक्षीराद्वह्निमूलावचूर्णितात् ॥ पिबंस्तदेवतेनैवतर्क्रभुज्यांकुराअपि॥पिबेदहरहस्तक्रंनिरन्नोवासकामतः ॥ सप्ताहंवादशाहंवामासार्धंमासमेवच॥ बलकालविकारज्ञौभिषक्पंचप्रयोजयेत् ॥ हरीतकींतक्रयुतां त्रिफलांवाप्रयोजयेत् ॥ चित्रकंहवुपाहिंगुदद्याद्वातसंयुतम् ॥ पंचकोलकयुक्तंवातक्रेणैवप्रदापयेत् ॥
त्वचंचित्रकमूलस्य पिष्ट्वाकुंभंप्रलेपयेत् ॥ तक्रंवादधिवातत्रजातमर्शोहरंपिबेत्॥ तक्रेणार्शंसिनिघ्नंतिमुसलीकटुकान्विता ॥

**अर्थ–**विड्विबंध अर्थात् मलकी कब्जियत् पर, अजवायन और सोंठ, मिलायके छाँछ पीबेतो छाँछसे नाश हुए गुदांकुर (गुदाके मस्से) फिर उत्पन्न नहीं होते, जो गौके दूधसे बनी छाँछ तथा उसमें चित्रककी छालका चूर्ण डाला ऐसी केवल छाँछसे ही गुदाके मस्से नष्टहोतेहै इसकारण विना अनके नित्यमति वारंवार छाँछ पीबे सो इसप्रकार कि सात, दश, किवा पंद्रह दिन अथवा एक महीने पर्यंत बल, काल, विकार जानने में कुशल वैद्य रोगीको छाँछ देवे और छाँछमें हरड किवा त्रिफला देवे अथवा चित्रक, हाऊवेर और हींग ये छाँछमें डालके देवे अथवा पंचकोलका चूर्ण डालके छाँछ देवे, अथवा चित्रककी छालके कल्कको उत्तम मिट्टीके पात्रके भीतर लेपकरके दूध जमावे यह दही अथवा छँछ अर्शनाशकहै अथवा मूसली, और कुटकी चूर्ण मिलायके छाँछ पीवे तो बवासीर नष्ट होवे ॥

अरलुत्वक् ।

अरलुत्वग्वह्निसुरेंद्रयवान्चिरबिल्वसुसैंधवशुठियुतान् ॥ मथितेनपिबेद्यदिसप्तदिनमर्शांसिपतंतिसमूलानिबलात् ॥

**अर्थ–**टेटूकी छाल, चीतेको छाल, इन्द्रजौ, कंजा, सैंधानिमक और सोंठ इनका पूर्णछाँछमें डालके सातदिन पीबे तो जलसे मस्से उखडके गिर जावे॥

शर्करासव।

दुरालभायाः प्रस्थस्यचित्रकस्यवृपस्यच ॥ पथ्यामलकयोश्चैवपाठायानागरस्यच ॥ दद्याद्द्विपलिकान्भागाञ्जलद्रोणेविपाचयेत्॥ पादशेषेरसेपूतंसुशीतंशर्कराशतम् ॥
दत्वाकुं भेदृढेस्थाप्यंमासार्धंघृतभाजनम्॥प्रलिप्यपिप्पलीचव्यप्रियंगुमधुसर्षिपा॥ तस्यमात्रांपिबेत्कालेशार्करस्ययथाबलम् ॥ अर्शांसिग्रहणीरोगमुदावर्तमरोचकम्॥ शकुन्मूत्रानिलोद्गारविबंधानलमार्दवम् ॥ हृद्रोगंपांडुरोगंचसर्वरोगान्प्रणाशयेत् ॥

**अर्थ–**धमासा१सेर, तथा चित्रक, अडूसा, हरड, आंवले, पाढ, सोंठ, ये प्रत्येक आठ २ तोले इन सबको २०४ तोले जलमें पीसके काढा करे जब चतुर्थांश शेष रहे तब उतारके शीतल करे फिर ४०० तोले खाँड डाले फिर घीके चिकने दृढपात्रमेंभरके मुख वंदकर १५ दिन उसी प्रकार ढका हुआ धरा रहने देवे, तथा उस पात्रमें, पीपल, चव्य, फूलप्रियंगु, शहत और घी ये भीतर चुपड़ देवे, फिर इस आसवमेंसे, प्रातःकाल बलाबल विचारके देवे तो बवासीर संग्रहणी, उदावर्त्त, अरुचि, इनको नाश करे तथा मल, मूत्र, अधोवायु, डकार, मंदाग्नि, हृदयरोग, पांडुरोग, तथा सर्वरोग इनको नाशकरे ॥

द्राक्षासव।

द्राक्षापलशतंदत्वाचतुर्द्रोणांभसापचेत् ॥ द्रोणशेषेरसेतस्मिन्पूतशेषंप्रदापयेत् ॥ शर्करायास्तुलांदत्वातत्तुल्यंमधुनस्तथा ॥ पलानिसप्तधातक्यःस्थापयेदाज्यभाजने ॥ जातीलवंगकंकोलंलवलीफलचंदनैः ॥ कृष्णात्रितंचवैयुक्त्याभौगरर्धपलांशकैः॥ त्रिःसप्ताहाद्भवत्येवंतत्रमात्रांयथाबलम् ॥ नाम्नाद्राक्षासवोह्येपनाशयेदुदकीलकान्॥ शोपारोचकहृत्पांडुरक्तपित्तभगंदरान् ॥ गुल्मोदरकृमिग्रंथिक्षतशोषज्वरांतकृत् ॥
वातपित्तप्रशमनं शस्तंचबलवर्णकृत् ॥

अर्थ– दाख४०० तोले लेकर ८१७२ तोले जलमें चतुर्थांश शेष काढा करेफिर इसको छानके इसमें खांड १०० तोल तथा शहत ४०० तोले डाले,और धायके फूल, ५८ तेले डालके घीके चिकने वासनमें भरके धरदेवे और इतनी वस्तु और डाले, जायफल, लौंग, कंकोल, हर्पारेवडीके फल और चंदन ये प्रत्येक दोदो तोले लेवे सबको कूटके उसी पात्र में डालके मुखको बंदकर इक्कीस दिन उसी प्रकार धरा रहनेदे, पश्चात् बलाबल विचारके इसकी मात्रा देवे यह द्राक्षासव, बवासीरके मस्सोंको नाश करे तथा शोष, अरुचि हृदयरोग, रक्तपित्त, भगंदर, गोला, उदररोग, कृमि, गांठ, क्षतक्षय, ज्वर और वातपित्तइनका नाश होय तथा वल और कांति इनको करे॥

सन्निपातार्शधूप।

गोधूमपिष्टंपलमेकहिंगुशाणार्धभल्लातकवेदयुक्तः॥

स्याद्धूपदानेगुदशूलनाशः स्यात्सन्निपातोगुदसंभवानाम् ॥

**अर्थ–**गेंहूका चुन ४ तोले, हींग २ मासे और भिलाए ४ ये सब एकत्र कूट पीस गुदामें धूनी देवे, तो गुदाकी पीडा, तथा संनिपात जन्य बवासीर नष्ट होवे ॥

हपुपादितक्रारिष्ट।

हपुपाकुंचिकाधान्यमजाजीकारवीसठी ॥ पिप्पली पिप्पली मूलंचित्रकोगजपिप्पली ॥ यवानीचाजमोदाचतच्चूर्णंतक्रसंयु तम् ॥ मंदाम्लंकटुकंविद्वान्स्थापयेद्घृतभाजने ॥
व्यक्ताम्लंकटुकंजातंतक्रारिष्टंकटुप्रियम् ॥ प्रपिवेन्मात्रयाकालेप्रातर्भोज्येतथातृपि ॥ दीपनंरोचनंवर्ण्यंकफवातानुलोमनम् ॥ गुदश्वयथुकण्ड्वर्तिनाशनंबलवर्धनम् ॥

**अर्थ–**हाऊवेर, मेथी, धनिया, जीरा, सोंफ, कचूर, पीपर, पीपरामूल, चीतेकीछाल, गजपीपल, अजमायन और अजमोद, इनका चूर्ण कुछ २ खट्टी छाँछके साथमे मिलायके घीक चिकने वासनमें भर देवे, जब यह उत्तम रीतिसे खट्टा और तीक्ष्ण होजावेतब जाने कि सिद्ध हो गया, इसको (तक्रारिष्ट)कहते हैं, यह चरपरे पदार्थ खानेवालोंको प्रियहै, इसमें से थोडा प्रातःकाल तथा भोजनके समय, तथा जिस समय प्यास लगे उस समय पीवे, यह दीपन, रुचिकारक, वर्णको उत्तम करने वाला, तथा वायुको अनुलोमन करनेवाला है, यह गुदाके रोग, सूजन और खुजली इनका नाश करे तथा वलकोबढावे ॥

भर्जितहरीतकी।

घृतसंभर्जितापथ्यापिप्पलीगुडसंयुता॥
भक्षयेद्वात्रिवृद्धंतिभक्षिताचानुलोमनी ॥

अर्थ–हरडकोघीमें भूनकेउसमें पीपलका चूर्ण और गुडमिलायके देवे अथवानिसोथ मिलायकेदेवे तो मलका अनुलोमनकरे अर्थात् दस्त साफ करे।

पाठमूलयाग।

दुःस्पर्शकेनबिल्वेनयवान्यानागरेणवा॥
एकैकेनापिसंयुक्तापाठाहंत्यर्शसोरुजम् ॥

**अर्थ–**धमासा, वेलगिरी, अजवायन और सोंठ, इनमें से एकमें पाढकी जडको मिलायके देवे, तो बवासीरकीपीडा नष्ट होय ॥

सर्वेसर्वात्मकान्याहुर्लक्षणैःसहजानिच ॥

**अर्थ–**संपूर्ण दोषोंके लक्षण जिस बवासीरमें होवे उसको संनिपात जन्य बवासीर जाननी तथा जन्म होनेके समयसे ही जो बवासीर होबे उसको सहज अर्श कहते हैं॥

सूरणचूर्ण।

शर्करायुतसुरणकंदंगुंजाकेशरमेवतथान्यत् ॥
क्षौद्रयुतंनवनीतमथोवासूदनकारणमर्शसएव ॥

**अर्थ–**खांड, जमीकंद, घूंघची और नागकेशर इनका चूर्ण, शहत अथवा मक्खन इनके साथ देवे तो बवासीरका नाश करे ॥

वैक्रांताख्यरस।

मृतसूताभ्रवैक्रांतकांतताम्रंसमंसमम् ॥ सर्वतुल्येनगंधेनमर्द्यंभल्लातकान्वितम्॥ दिनैकंतद्भवैरेववटीकार्याद्विगुंजका ॥ भक्षयेद्गुदजान्हंतिद्वंद्वजंचत्रिदोषजम् ॥
प्रत्यष्टमुशलीवन्हिभागाः कुष्टस्यषोडश ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलंक्षिपेद्भागद्वयंद्वयम् ॥ चतुष्कंतुविडंगस्तुमरिचंकटुशुंठिका ॥ ब्रह्मदंडितथैकैकंचूर्णितंद्विगुणंगुडम् ॥ कर्षांशंभक्षयेच्चानुह्यर्शोरोगप्रशांतये ॥ वैक्रांताख्योरसोनामसाध्यासाध्यार्शशांतये ॥

**अर्थ–**पारेकी भस्म, अभ्रकभस्म, वैक्रांत ( कामुले ) की भस्म, कांत लोहकीभस्म और तांमेकी भस्म ये समान भाग लेवे इन सबके बराबर गंधक और भिलाँए ये डालके एक दिन खरल करे फिर भिलाँएके तेल से दो रत्तीकी गोली वनावे इसको अनुपानके साथ देवे और मूसली और चित्रक प्रत्येक आठ भाग, कुट १६ भाग और पीपल २ भाग,पीपरामूल २ भाग, तथावायविडंग ४ भाग,और कालीमिरच, कोथमीर सोंठ और ब्रह्मदंडी ये प्रत्येक एक २ भाग लेवे, इन सबके चूर्णमें दूनागुड़ मिलाय एक २ तोलेकी गोली बनावे, इसको भोजनके प्रथम देवे तो बवासीर रोग नष्ट होवे यह (वैक्रांत रस) साध्यासाध्य बवासीरके दूर करनेमें उत्तम है।

पर्पट्यादियोजना।

गोमूत्रेणसमंपीत्वागुंजाष्टौपर्पटीरसं ॥ ताम्रपर्पटिकातद्वद्गुडशुंठीभयान्विता ॥ भक्षयेदर्शसांशांत्यैह्यनुपानंवदाम्यहम् ॥ जीवंतीपुष्करंवह्निबिल्वमज्जकचोरकम् ॥ करवीरंयवक्षारंजातिचूर्णेपलंपलं ॥ द्विपलंतिन्तिणीचूर्णंलाजाचूर्णंचतुःपलं॥
तिलतैलंघृतंचैप्रत्येकंतुपलद्वयं ॥ भ्रष्टंसर्वंप्रयोक्तव्यंकर्पैकमनुपानकम् ॥

**अर्थ–**पर्पटी रस ८ रत्ती गोमूत्रके साथ देवे, अथवा ताम्रपर्पटी रस गुड सोंठ और हरड़ इनकेचूर्ण के साथ देवे, अब इसका अनुपान कहताहूं, जीवंती, पुहकरमूल, चीतेकी छाल, बेलगिरी, कचूर, कोहवृक्षकी छाल, जवाखार, और जीरा इन प्रत्येकका चूर्ण४ तोले लेवे और इमली ८ तोले, खीलोंका चूर्ण १६ तोले तथा तिलोंका तेल और घी ये प्रत्येक ८ ताले लेकर सरको भूनकेउससे एकतोला पश्चात् भक्षण करनेको देवे, यह इसका अनुपान है ॥

कुटजावलेह ।

कुटजवत्वक्तुलांद्रोणेजलस्यविपचेत्सुधीः ॥ कपायंपादशेषं च गृण्हीयाद्वस्त्रगालितम् ॥ त्रिंशत्पलंगुडस्यात्रदत्त्वाचविपचेत्पुनः॥ सांद्रत्वमागतंज्ञात्वाचूर्णानीमानिदापयेत् ॥
रसांजनंमोचरसं त्रिकटुंत्रिफलातथा ॥ लज्जालुंचित्रकंपाठांबिल्वमिंद्रयवान्वचां ॥ भल्लातकंप्रतिविषंविडंगानिचवालकम् ॥ प्रत्येकं पलसंमानंघृतस्यकुडवंतथा ॥ सिद्धशीतेततोदद्यान्मधुनःकुडवं तथा ॥ जयदेपोवलेहस्तुसर्वाण्यर्शेसिवेगतः ॥ दुर्न्नामप्रभवान्रेगानतीसारमरोचकम्॥ ग्रहणीपांडुरोगंचरक्तपित्तंचकामलाम् ॥ अम्लपित्तंतथाशोफंकार्श्येचैवप्रवाहिकां ॥ अनुपानेप्रयोक्तव्यमाजंतक्रंपयोदधि॥
घृतंजलंबाजीर्णे च पथ्यभोजीभवेन्नरः॥

**अर्थ–**कुडाकी छाल १ तुला ले कुचलकर१ द्रोण जलमें डालके काढा करे जब जल चौथाई शेषरहे तब उतारकेकपडेमें छान लेवे फिर इसमें तीस पल गुड़ डालके अवलेह वनावे जब गाढी हो जावेतब इसमें इतनी औषधेंऔर डाले उनको कहते हैं, रसोत, मोचरस, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडे, आंमले लजालु, चीतेकीछाल, पाढ, छोटा वेलफल, इन्द्रजौ, वच, भिलाँए, अतीस वायविडंग नेत्रवाला ये अठारह औषधी एक एक पल लेवे सबका चूर्ण करके अवलेहके पाकमें डालदेवे तथा घी एक कुडव डालके शीतल करे जब खूब शीतल हो जावे तब उसमें शहत १ कुडव मिलावे फिर इस अवलेह को बकरीके दूधसे अथवा छॉछ घी जलके साथ सेवनकरे परंतु जब भोजन कराहुआ अजीर्ण हो जावेतब इसको लेय और उत्तम पथ्य करे तो इसके प्रभावसे संपूर्ण बवासीर तत्काल दूरहो तथा दुष्ट नाम है जिन्होंका ऐसे भगंदरादिक रोग, अतिसार, अरुचि, संग्रहणी, पांडुरोग, रक्तपित्त, नेत्रोंमें कामला रोग होताहै वह, अम्ल पित्त, सूजन कृशता ( देहका सूखजाना ) अतिसार रोगका भेद प्रवाहिका रोग, ये संपूर्ण रोग नष्ट होवे ॥

कूष्मांडावलेह ।

युक्ताकूष्मांडखंडानिसूरणंविपचेत्सुधीः॥
अर्शांसिगुडवातानांमंदाग्निपुप्रयुज्यते ॥

**अर्थ–**पेठेके टुकडे, जमीकंद इन दोनोंको युक्तिसे पचावे और रोगीको देवे तो बवासीर और गुडवात तथा मंदाग्निइनको नाश करे ॥

भल्लातकावलेह ।

सुपक्वभल्लातफलानिसम्यग्द्विधाकृतान्याढकसंमितानि ॥
विपाच्यतोयेन चतुर्गुणेनचतुर्थशेपेव्यपनीयतानि ॥
पुनः पचेत्क्षीरचतुर्गुणेनघृतांशयुक्तेचघनंयथास्यात् ॥
सितोपलाषोडशभिः पलैश्चतिमर्द्यसंस्थाप्यदिनानिसप्त ॥ ततःप्रयुंज्यानिबलेनमात्रांजयेद्विकारान् खिलान्गुदोत्थान् ॥ कचान्सुनीलान्घनकुंचिताग्रान्सुपर्णदृष्टिंचशशांककांतिम् ॥
जवोहयानां ब्रलमुत्तमंचस्वरंमयूरस्यहुताशदीप्तिम् ॥
स्त्रीवल्लभत्वंविविधं प्रभावंनिरोगतांद्वित्रिशतायुपंच ॥ नचान्नपानेपरिहारमस्तिनचातपेनाध्वनिमैथुने च ॥
प्रयोगकालेसकलामयानांराजाधिराजाचरसायनानाम् ॥

**अर्थ–**उत्तम पके और दो टुकडे करे हुए भिलाँये १२४ तोले लेकर ४०९६ तोले जलमें काढा करे जब जल चतुर्थांश रहे तब उतारके छान लेवे, फिर काढेसे चौगुना दूध तथा चतुर्थांश घी डालके औटावे जव अवलेहके समान गाढीहोजावे तब मिश्री ६४ तोले डालके घोट डाले और चुल्हेसे उतारके उसी प्रकार सात दिन तक धरी रहने देवे, पश्चात् अग्निऔर बलाबल विचारके रोगीको देवे तो संपूर्ण गुदाके रोगोंका नाश करे तथा वाल काले होवें गरुडके समान तीव्र दृष्टी होय,चंद्रमाके समान देहकी कांति,घोडाके समान वेग उत्तम बल, मोरके समान शब्द, अग्निके समान दीप्ति और स्त्रियोंको प्रिय निरोगी तथा सौवर्षसे भी अधिक उमर हो इसके सेवन करने वालेको किसी प्रकारके अन्न, पान, गरमी, मैथुनकी मनाही नहीं है, यह अवलेह लेनेसे संपूर्ण रोगोंका नाश करे तथा संपूर्ण रसायनों में राजाधिराज है ॥

स्नुहीक्षीरलेप।

स्नुहीक्षीरनिशालेपस्तथागोमूत्रकल्कितः ॥
योजितोगोभवक्षीरवन्हिमूलावचूर्णितम् ॥
पिबंस्तदेवतेनैवभुंजानोगुदजांकुरान् ॥

**अर्थ–**थूहरका दूध, हलदी, गोमूत्र, इनका लेपकरे, तथा गौके दूधके साथ चित्रकादि चूर्ण भक्षण करे इस पर पथ्य दूधभात भोजन करे तो बवासीर नष्ट होवे॥

कोकंवादिचूर्ण।

समूलपत्रकोकंवंपलद्वयमितंशुभम् ॥ भल्लातफलमज्जायामरिचस्यपलंपलम् ॥ एतच्चूर्णीकृतंसूक्ष्मंभक्षयेत्कर्षसंमितम्॥ अर्शांकुरान्निहत्याशुसबाह्याभ्यंतरानपि ॥

**अर्थ–**कोकंवका पंचांग अर्थात् मूल,पत्र,फल,जड, छाल सहित वृक्ष ८० मासे मिलायके फलकीमींगी४०मासे और कालीमिरच ४० मासे इनका चूर्ण एक कर्षप्रमाण अर्थात् १० मासे खाय तो बाहरके तथा भीतरकी मस्से नष्ट होवें ॥

समशर्करयोग।

शुंठीकणामरिचनागदलत्वगेलंचूर्णीकृतंक्रमविवर्धितमूर्ध्वगंस्यात् ॥ खादेदिदंसमसितंगुदजाग्निमांद्यगुल्मोदरश्चयथुपांडुगुदोद्भवेषु ॥

**अर्थ–**सोंठ घाडकी ६ भाग, पीपल ५ भाग, कालीमिरच ४ भाग, पान तिन भाग दालचीनी दो और इलायचीइनका चूर्ण करे और चूर्णके समान मिश्रीमिलावे, इनकेसेवन करनेसे बवासीर, मंदाग्नि, गोला, उदर सूजन, पांडुरोग और गुदांकर ( मस्से ) इनका नाश होवे ॥

व्योपादिचूर्ण ।

व्योपाढ्यरुष्करविडंगतिलाभयानांचूर्णंगुडेनसहितंसततंप्रयोज्यं॥ दुर्नामशोफगरकुष्ठशकृद्विबंधमग्नेर्जयत्यबलतांकृमिपांडुतांच ॥

**अर्थ–**सोंठ, मिरच, पीपल, भिलाँये, वायविडंग, तिल और हरड, इनका चूर्ण गुडके साथ भक्षण करे तो बवासीर, सूजन, विष कोढ, विट्बंध ( मलका न उतरना ) मंदाग्नि, कृमि और पांडुरोग इनका नाश होय ॥

करंजादिचूर्ण।

करंजशुंठींद्रयवारलूतासिंधूत्थवह्निप्रतिमिश्रितानाम्॥
तक्रेणचूर्णंपिबतोस्यनित्यंअर्शांसिरक्तेनपतंतिसार्धम्॥

**अर्थ–**कंजा, सोंठ, इन्द्रजव, अरलू, सैधानिमक और चीता इनका चूर्ण एकत्र करके छॉछके साथ पीवे तो बवासीर और खूनी बवासीर ये गलकर गिर पडे ॥

विजयाचूर्ण ।

त्रिकत्रयवचाहिंगुपाठाक्षारौनिशाद्वयम् ॥ चव्यतिक्ताकलिंगानिशताह्वालवणानिच॥ ग्रंथिबिल्वाजमोदाचगणोष्टाविंशतिः मतः॥ एतानिसमभागानिसूक्ष्मचूर्णानिकारयेत् ॥ चूर्णंबिडालपदकंपिबेदुष्णेनवारिणा ॥ एरंडतैलसंयुक्तंलिह्याच्चूर्णमिदंनरः ॥ हन्यादर्शांसिसर्वाणिश्वासशोषभगंदरान् ॥ हृच्छूलंपार्श्वशूलंचवातगुल्मंतथोदरम् ॥ हिक्कांश्वासंप्रमेहंचपांडुरोगंसकामलम्॥ आमवातमुदावर्तमंत्रवृद्धिंगुदकृमीन् ॥ हन्याच्चग्रहणीरोगान्भिषग्भिर्यत्प्रकीर्तितः ॥ विजयानामचूर्णोयंसर्वव्याधिहरःपरः ॥ महाज्वरोपसृष्टानांभूतोपहतचेतसाम् ॥ अप्रजानांचनारीणांहितमेतद्धिभेषजम् ॥

**अर्थ–**त्रिफला ( हरड, बहेडा, आंवला, ) त्रिकटु (सोंठ, मिरच, पीपल) त्रिजातक (इलायची,पत्रज, नागकेशर ) वच, हींग, सज्जीखार, जवाखार,हलदी, दारुहलदी, चव्य, कुटकी, इन्द्रजव, शतावर, पांचोंनिमक, पीपरामूल, वेलगिरी, और अजमोद ये अट्ठाईस औषध समान भाग लेवे सबका वारीक चूर्णकर दश मासे गरम जलके साथ पीबेअथवा अंडीके तेल से पीवे तो सर्व प्रकारकी बवासीर,श्वास, शोष, भगंदर, हृदयका शूल, पँसवाडोंका शूल वातगोला उदररोग, हिचकी, प्रमेह, पांडुरोग, कामला, आमवात, उदावर्त्त, अंत्रवृद्धि, बवासीर, कृमिरोग, और संग्रहणी इनका नाश करे (यह विजया चूर्ण )सर्व व्याधि नाशक है तथा महाज्वर, भूतबाधा, तथा वंध्या स्त्रियोंको यह हितकारी है॥

देवदाल्यादियोग।

देवदालीकपायेणशौचमाचरतांनृणाम् ॥
किवातद्धूमसेवाभिः कुतः स्युर्गुदजांकुराः॥

**अर्थ–**देवदाली (वंदाल ) के काढेसे गुदा प्रक्षालन ( धोने ) से अथवा वंदाल का हिम करके पीनेसे कदाचित् बवासीरके मस्से नहीं होवे, यह वैद्यरहस्य ग्रंथमें लिखा है ॥

मरिचादिमोदक।

मरिचमहौषधचित्रकसूरणभागायथोत्तरंद्विगुणाः॥
सर्वसमोगुडभागः सेव्योवैमोदकः प्रसिद्धफलः॥

**अर्थ–**कालीमिरच, सोंठ, चीतेकी छाल और जमीकंद ये प्रत्येक एकसे दूसरा दूना लेवे और सब चूर्णके समान गुड मिलाके गोली वांधे,यह बवासीर पर प्रसिद्ध गुणकारी है ॥

प्राणप्रदमोदक।

तालीसज्वलनोपणासचविकास्तुल्यंद्विभागाभवेत्कृष्णामूलसमन्वितात्रिपलिकाशूंठीचतुर्जातकम् ॥ स्यान्मुष्टिप्रमितंगुडत्रिगुणितैरेभिः कृतोमोदकः कासश्वासमंदाग्निमांद्यगुदजप्लीहप्रमेहापहः॥

**अर्थ–**तालीसपत्र, चीतेकीछाल, कालीमिरच, चव्य य समान भाग लेवे पीपल दो भाग और पीपलमूल तथा सोंठ ये बारह तोले ,दालचीनी, तमालपत्र, इलायची, और नागकेशर, ये चार २ तोले लेवे तथासबसे तिगुना गुड डालके लड्डु वनावे यह खाँसी,श्वास, मंदाग्निबवासीर प्लीहऔर प्रमेह इनको नाशकरे॥

कांकायनीवटी।

पथ्यापलस्यपलपंचकमेवमेकमेकंपलं च मरिचादपिजीरकस्य ॥ कृष्णातदुद्भवजटाचविकाग्निशुंठीकृष्णादिपंचकमिदंपलतः प्रवृद्धम् ॥ पलाष्टभल्लातकसंप्रयुक्तंदारूकरुष्करपलाद्विगुणंप्रकल्प्याः ॥
स्याद्यावशूककुडवार्द्धमतः समस्तोयोज्योगुडद्विगुणितोवटकीकृतश्च ॥
कांकायनेनमुनिनावटकः किलायमुक्तः प्रजाहिततमेनगुदामयघ्नः॥
क्षाराग्निशस्त्रपतनैरपियेनसिद्धः सिद्ध्यंत्यनेनवटकेनगुदामयास्ते ॥

**अर्थ–**हरडकी छाल २० तोले, कालीमिरच, जीरा, पीपल, पीपलमूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, ये प्रत्येक चार तोले लेवे और भिलाँये ३२ तोले, तेलिया देवदारु ६४ तोले, तथा जवाखार ८ तोले इन सबका दूना गुड मिलायके गोली बनावे यह कांकायनऋषिनें कहा गोली गुदा रोगोंकी नाशक है तथा जो बवासीर, क्षार, अग्नि, और शस्त्र इनसे अच्छी नहीं हो वह इस कांकायनगोलीसे अच्छी होवे ॥

सूरणमोदक।

चित्रकस्यपलंत्वेकंद्विपलंसूरणस्य च ॥ पलार्धंनागरस्यापिमरिचंकोलमात्रकम्॥ भल्लातककणामूलंविडंगंत्रिफलाकणा ॥ तालीससहितान्सर्वानक्षमात्रान्प्रयोजयेत् ॥
द्वेपलेवृद्धदारस्य तालमूलंपलंभवेत् ॥ त्वगेलामरिचांशेचसर्वानेकत्रमर्दयेत् ॥ गुडेनमर्दयित्वातुद्विगुणेनेहबुद्धिमान् ॥ मोदकःसूरणोनामअक्षमात्रप्रमाणतः॥ उपयुक्तोनिहंत्याशुगुकीलान्नसंशयः॥ अग्निवृद्धिकरः पुंसांसेव्यमानोमहागुणः॥

**अर्थ–**चीतेकी छाल ४तोले, जमीकंद ८ तोले, सोंठ२ तोले, कालीमिरच ८ मासे, और भिलाये, पीपलमुल, वायविडंग, त्रिफला, पीपर, और पत्रज, ये प्रत्येक एक एक तोले लेवे तथा विधायरा ८ तोले, मूसली एक तोले, दालचीनी और इलायची ये प्रत्येक ८ मासे इन सबका एकत्र चूर्ण करे तथा सब चूर्णसे दूना गुड डाल सबको एक जीवकर लड्डू बनावे, यह (सूरणमोदक) १ तोले देनेसे तत्काल बवासीरका नाशकरे तथा नित्य प्रतिसेवन करनेसे अग्निकी वृद्धी करे है ॥

लघुसूरणमोदक।

कणामरिचविश्वाग्निसूरणैस्तुगुडैः क्रमात् ॥
द्विगुणैर्मोदकोर्शोघ्नःपरः पाचनदीपनः॥

**अर्थ–**पीपर, कालीमिरच, सोंठ, चीतेको छाल और जमीकंद ये समान भाग लेयतथा सब औषधोंसे दूना गुड लेवे सबको मिलायके मोदक बनावेयह बवासीर नाशक और दीपन तथा पाचन है ॥

अर्शकुठाररस।

संमर्द्यप्रतिसारितौबहुरसोताभ्यांचगंधंसमंलांगल्यासितसूरणेनचपृथक्कृत्वाचतावत्पचेत् ॥ गोलंज्वालमुपैतिभांडनिहितंचुल्ह्यांमथस्त्वौषधंतत्स्यादर्शकुठारकः सपवनार्शः पूर्वकोव्याधिषु॥

**अर्थ–**पारा और लोह ये दोनों बराबर लेवे, दोनोंकी बराबर गंधक लेवे, फिर कलियारी और सपेद जमीकंदके रसमें खरलकर गोला बनाय उत्तम पात्रमें धरे, ऊपरसे संपुट बनाय नीचे अग्निजलावे,जब गंधक जारण होजावे तब उतार औषधीको निकासलेवे यह (अर्शकुठाररस ) खूनी बादी बवासीर आदिके रोगोंको नष्ट करे ॥

अभ्रकहरीतकी।

मृताभ्रकपलंविंशंमृतलोहस्यपंचकम् ॥ गंधकस्यपलंपंचत्रिभिर्द्विगुणमाक्षिकम् ॥पथ्याशतपलंयोज्यंधात्रीपलशतद्वयम्॥ सर्वमेकत्रसंचूर्ण्यजंबीरैर्भावयेद्दिनम् ॥ भृंगीपुनर्नवाद्रावैःपातालगरुडाकुलैः ॥ भल्लातवन्हिकोरांटैर्हस्तशुंडीतुलांगली ॥ क्षीरिणीजलकुंभीचप्रत्येकंप्रत्यहंद्रवैः॥ भावयेन्मर्दयेदित्थंमध्वाज्याभ्यांविलोडयेत् ॥ स्निग्धभांडेस्थितंखादेन्नित्यंनिष्कद्वयंद्वयम् ॥ सिद्धसावरयोगोत्थंत्रिदोषार्शेसिनाशयेत् ॥

**अर्थ–**अभ्रकभस्म ४०० तोले, गंधक २० तोले और लोहकीभस्म २० तोले, तथा सुवर्णमाक्षिकइन तीनोंसे दूना लेवे एवं हरड ४०० तोले आंवले ८०० तोले इन सब पदार्थोकोएकत्र करके चूर्ण करे, फिर निंबूके रसमें एक दिन घोटेतथा भांगरा, पुनर्नवा ( सोंठ) पातालगरुडी, भिलाँये, चित्रक, पियावासा, हथमुंडी, कलियारी, क्षीरकाकोली और जलकुंभी इन प्रत्येकके रसकी एक एक दिन भावना देकर खरल करे,जब तयार होजावे तब शहत और घीमें मिलाय घीके चिकने पात्रमें धर देवे इसमेंसे एक तोले नित्य खाय यह सिद्धसावर योग त्रिदोषजन्य बवासीरका नाश करे ॥

बवासीरकामंत्र।

ॐ भिभित्तिद्विॐठःनिवासिनिगरलंविषंत्वजीर्णसंभवनानार्शंनाशय २ ठंठठंफट्स्वाहाविधिः सप्तवाराभिमंत्रितंपानीयंपिवेत् ॥ अस्यश्रीअर्शोमूलमंत्रस्यवसिष्ठऋषिःरुद्रोदेवताविराट्छंदः अमुकस्य अर्शोरोगपरिहारार्थेजपेविनियोगः ॥

**अर्थ–**ऊपर लिखे मंत्रसे जलको कुशाओंसे सात वार अभिमंत्रित करके पीवे तो बवासीर नष्ट होवे ॥

दूसरामंत्र।

ॐ कालीकालीमहाकालीमातरोबहुभिर्गच्छयत्किंचिद्विहितंतत्कुरु ॥२॥ यइमामर्शोघ्नींश्रेष्ठांविद्यामधीतेनतस्यकुलेऽर्शवान् भवति ॥ योदीयमानंनगृह्णातिसअंधोभवतियदिनसिद्ध्यतितदारुद्रोब्रह्महाभवतिगुरुद्वारासिद्धिः अर्शरोगनिवृत्त्यर्थेसप्तवाराभिमंत्रितंजलंनित्यंप्रातः कालेपिबेत् ॥

**अर्थ–**इस मंत्रसे सातवार अभिमंत्रित जलको करके नित्य प्रातःकाल पीबे ॥

सूरणपुटपाक।

मृल्लिप्तंसूरणंकंदंपक्त्वाग्नौपुटपाकवत् ॥

अद्यात्सतैललवणंदुर्न्नामविनिवृत्तये ॥

**अर्थ–**जमीकंदपर कपड़ मिट्टीकर, पुटपाककी विधिसे पक्क करे तथा उसको तेल और निमक डालके खाय तो बवासीर दूर होवे॥

काशीसादितैल।

काशीसंलांगलीकुष्टंंशुंठीकृष्णाचसैंधवम् ॥ मनः शिलाश्चमरिचंविडंगंचित्रकोवृषः॥ दंतीकोशातकीबीजहेमाह्वाहरितारकः ॥ कल्कैः कर्षमितैरैतैस्तैलप्रस्थंविपाचयेत् ॥ सुधार्कपयसादद्यात्पृथक्द्विपलसंमिते ॥ चतुर्गुणंगवांमूत्रंदत्वासम्यक्प्रसाधयेत् ॥ कथितंखरनादेनतैलमर्शोविनाशनम् ॥ क्षारवत्पातयेदेतदर्शांस्यिभ्यंगतोभृशम् ॥ वलिर्नदूषयत्येतत्क्षारकर्मकरंस्मृतम् ॥

**अर्थ–**कसीस, कलयारी, कूट, सोंठ, पीपल, सैंधानिमक, मैनसिल, कनेर, वायविडंग, चित्रक, अडूसा, दंती, कडुई तोरई के बीज, चौक और हरताल, ये पंद्रह औषध एक एक कर्ष लेवे सबका कल्क करके तिलके तेल १ प्रस्थमें मिलाय देवे, तथा थूहरका दूध और आकका दूध इन दोनोंको आठ २ तोले लेकर डाले, तथा तेलसे चौगुना गौका मूत्रउसमें मिलावे, फिर उसको चूल्हेपर चढायके औटावे, जब तेल मात्र शेष रहे तब उतारके उस तेलको महीन बस्त्रमें छान लेवे, यह तेल खरनाद ऋषिने कहा है यह बवासीरके मस्सोंको सुमंगल खार आदिके लगानेसे जैसे दूर करे उसी प्रकार यह तेल मस्सोंको उखाड डालेहै इसके लगानेसे गुदाके आटेखारके लगाने समान नहीं बिगडते न कोई उपद्रव हो मस्से उखडकर स्वयं गिर पड़ते हैं॥

खूनी बवासीरका सामान्ययत्न।

रक्तार्शसामुपेक्षतरक्तमादौस्रवेद्भिषक् ॥
दुष्टास्त्रेनिगृहीतेस्युःशूलानाहामृगामयाः ॥

**अर्थ–**खूनी बवासीर का प्रथम रुधिरको बंद न करे क्योंकि उस दूषित रुधिरके रोकनेसे शूलरोग, अफरा और खूनकी बीमारी होती है॥

चंदनादिदार्व्यादिक्वाथ।

चंदनकिराततिक्तकधन्वयवासाःसनागराःकथिताः॥

रक्तार्शसांप्रशमनादार्वीत्वगुशीरनिवाश्च॥

**अर्थ–**चंदन लाल, चिरायता, कुटकी, धमासा और सोंठ इनका काढा करके पीबेतो खूनी बवासीर दूर होय,उसी प्रकार दारु हलदी, खस और नींबका काढा गुण करे है ॥

प्रयोगांतर।

सपद्मकेशरंक्षौद्रंनवनीतंनवंलिहन्॥
सिताकेशरसंयुक्तंरक्तार्शीससुखीभवेत् ॥

**अर्थ–**कमलकी केशर, शहत, मक्खन, मिश्री और नागकेशर इनको मिलायके सेवन करें तो खूनी बवासीरवाला सुखी होय ॥

महानिंबबीजप्रयोग।

महानिंबस्यबीजानिषडष्टदशसंख्यया ॥
चूर्णितंसितयासार्द्धंपिबेद्रक्तार्शसांहितम् ॥

**अर्थ–**बकायनकेछः, आठ, अथवा दश बीजोंका चूर्ण करके उसमें मिश्री मिलायके पीबेतो खूनी बवासीर दूरहो॥

पेया।

केशरोत्पलचांगेरीसिंसिद्धायाचजायते ॥
अर्शोरक्तस्रुतिंसाचलाजपेयानिवारयेत् ॥

**अर्थ–**केशर, कमलगट्टा, चूका, इनके साथ खीलकी पेया सिद्ध करके पीबेतो यह लाजपेया खूनी बवासीरको निवारण करे ॥

लाजापेया।

लाजापेयापीताचुक्रिकाकेशरोत्पलैः सिद्धा ॥
हंत्याशुरक्तरोगंतथावलापृष्टपर्णीभ्याम् ॥

**अर्थ–**चूका, नागकेशर, कमलगट्टा, इनको मिलायके खीलोंकी पेया पीवे तो बवासीरके खूनको बंद करे तथा खिरेटी और सालपर्णी, पृष्ठपर्णीकी पेया भी खूनको बंद करे॥

तद्वद्व्योपरजोयुक्तंनवनीतप्रलेपनम् ॥

**अर्थ–**मक्खनमें त्रिकुटेका चूर्ण मिलायके लेपकरे तो बवासीरके खूनको बंदकरे ॥

अपामार्गबीजयोग।

अपामार्गस्यबीजानांकल्कस्तंदुलवारिणा ॥
पीतोरक्तार्शसांनाशंकुरुतेनात्रसंशयः॥

**अर्थ–**ओंगाके बीजोंका कल्क करके चावलों के धोवन के साथ पीवे तो रक्तार्श अर्थात् खूनी बवासीर को नाशकरे ॥

कुशमूलादिपान।

कुशमूलंबलायुक्तंपानंतंदुलधावनम् ॥
रुणद्धिगुदजस्रावंप्रदरंचाशुसर्वजम् ॥

**अर्थ–**कुशकी जड, खिरेटी इनको पीस चापलोंके धोवनके साथ पीबेतो गुदासे रुधिरके स्रावको बंदकरे, तथा सन्निपात जन्य प्रदरको नष्टकरे ॥

कुटजघृत ।

कुटजफलत्वक्केशरनीलोत्पललोध्रधातकीकल्कैः॥

सिद्धंघृतंविधेयंशूलेरक्तार्शसांभिषजा ॥

**अर्थ–**कुडाके फलकी छाल, नागकेशर, नीलाकमल, लोध और धायके फूल इनको जलमें पीसके कल्क करे, इसको घृतमें मिलायकेसिद्धकरे तो यह घी वैद्योंने खूनी बवासीर पर उत्तम कहाहै ॥

कुटजादिदुग्ध ।

कुटजमूलसकेशरमुत्पलंखदिरधातकिमूलशृतंपयः ॥
पिबतमृंक्षणयोगमसृग्दरंगुदजनाशनकारियंविधिः॥

**अर्थ–**कुडाकीजड, नागकेशर, नीलाकमल, खैरसार, धायकीजड, इनको दूधमें डालके औटावे, फिर शीतल करके इसको पीबेतो असृग्दर (रक्तप्रदर ) और बवासीर इनको नाशकरे ॥

अर्शेरिमंडूर।

अतिरक्तंयदात्वर्शोनिपातयतिपीडितम् ॥ दृश्यतेतच्छरीरस्य लोहकिट्टंतदानयेत् ॥ गवांमूत्रेणतत्पक्वंबहुशश्चूर्णवत्कृतम् ॥ अतिसूक्ष्ममिदंतस्यत्रिकटुत्रिफलायुतम् ॥ किट्टस्यार्द्धेनसंमिश्र्यचूर्णंशर्करयायुतम् ॥ दीयतेत्रिदिनादूर्ध्वेरक्तंतिष्ठतिनान्यथा॥ दुग्धाच्छालिमसूरादिदीयतेपथ्यभोजनम् ॥ अर्शांसिप्रशमंयांतिकार्श्यवैयातिदूरतः॥अत्यंतबलमाप्नोतिनिरातंकोयथेच्छया ॥ महोत्साहयुतोभूत्वायावज्जीवेन्निरामयः॥ उष्णाम्लंबर्जयेन्नित्यंस्त्रीणांसेवांविशेषतः॥

**अर्थ–**यदि बवासीरमें से अत्यंत खून बहता होय और उस प्राणीको अत्यंत पीडा होय तो प्राचीन लोहे की कीट लावेउसको गौके मूत्र में अनेकवार पक्ककर २ के बुझावे, कि जिस्से चूर्णसा होजावे फिर इस कीटमें आधी मिश्री मिलावे तीनदिन धरी रहने देवे,पश्चात् रोगीको देवेतो यह गुदासे बहते हुए रुधिरको बंदकरदेवे इसमें संदेह नहींहै । इसके सेवन करनेवाले को दूधके साथ शाली चावल और मसूरकी पथ्यदेवेइससे बवासीर दूरहो और कृशतानष्टहोय अत्यंत वलकी प्राप्ति होवे,निरातंक यथेच्छा पूर्वक महोत्साही होकर जबतक जीवे तब तक रोगरहित होवे,इसका खानेवाला गरम पदार्थ और खटाई न खाय तथा स्त्रीगमन करनाभी निषेध है ॥

कुटजादिकल्क।

कुटजत्वक्फलंतार्क्ष्यमाक्षिकंघुणवल्लभम् ॥
पिवेत्तंडुलतोयेनकल्कितंबामयूरकम् ॥

**अर्थ–**कुडाकीछाल, इन्द्रजव, रसोत, शहत और अतीस इनको चावलके धोवनमें पीसके पीवे, अथवा ओंगाका कल्क करके चावलके धोवनसे पीवे ॥

यवानीचूर्ण।

यवानीन्द्रयवंपाठबिल्वंशुंठीरसांजनम् ॥
चूर्णंशूलेहितंपेयंप्रवृद्धेचातिशोणिते ॥

**अर्थ–**अजमायन, इन्द्रजौ, पाठ, बेलगिरी, सोंठ और रसौत इनके चूर्णको शूल दूर करने को तथा गुदाद्वारा अधिक रुधिर जाता होय तो पीबे॥

शिरीषादिकल्क।

शिरीषंपुष्पमूलंचशाल्मलेस्तिनिशस्य च॥ निर्यासस्तुपलाशस्यवदार्याः कुंकुमस्तथा॥ लोध्रंशालस्यनिर्यासकट्वंगस्तंदुलीयकः ॥ मधुकार्जुनपुष्पाणिधातकीरोध्रयोरपि॥ शोभांजनंशंखनाभिंकंगुकाः पीतिकास्तथा ॥ एपांकल्कंमधुयुतंपाययेत्तंदुलांबुना॥ अर्शांसिगमयत्येपरक्तपित्तात्मकानिच ॥ रक्तपित्तमतीसारं रक्तार्शासिचनाशयेत् ॥

**अर्थ–**शिरसके फूल और जड, सेमर, तिनिसवृक्ष इनकी जड और फूल, ढाकका गोंद, वेर, केशर, लोध, राल, टेंट्व, चौलाई, महुआ, केहवृक्षके फूल, धायके फूल, लोधके फूल, सहँजना, शंखकीनाभी,कंगु मीठी तोरई इन सबको पीसके शहत मिलायके चावलके धोवनसे पीबेतो रक्तपित्तात्मक बवासीरको नाश करे, तथा रक्तपित्त अतीसार, और खूनी बवासीर इनको नाशकरे ॥

उपायांतर।

मातुलुंगंविडंगंचशर्करासंयुतंपिबेत् ॥
कूष्मांडकावलेहंचरक्तजार्शोविनाशनम् ॥

**अर्थ–**विजोरा, वायविडंग, इनको घोटकर मिश्री मिलायके पीबे, अथवा कूष्मांडावलेहको पीबेतो खूनी बवासीरको नष्टकरे ॥

निंबबीजादियोग।

निंबबीजस्यमज्जाचशाणमानाजलेनतु ॥
संपिष्यगालितंपीतंचुल्लीमृत्स्रासमन्वितम्॥
रक्तार्शोनाशनंश्रेष्ठमनुभूतंपुनःपुनः॥

**अर्थ–**निंबोरीके भीतर की मज्जाको चार मासे ले पीसके जलमें छानके इसमें चुल्हेकी मिट्टी मिलायके पीबेतो खूनी बवासीरकोदूर करे यह प्रयोग वारंवार अनुभवकराहुआ है॥

रसांजनादिवटी।

रसांजनंमहानिंबफलंशक्रयवंतथा ॥ मरिचंकुटजत्वक्चतथालघ्वीहरीतकी ॥ समभागानिसर्वाणिसूक्ष्मचूर्णीकृतानिच ॥ रसेकुक्कुरभृंगाख्येमर्दयेत्तुदिनत्रयम् ॥ मापमात्रावटीकार्यातांवटींभक्षयेत्प्रगे॥ रक्तार्शसांनाशिनीस्यात्पथ्याशीयदिबैनरः॥

**अर्थ–**रसोत, बकायनके फल, इन्द्रजव, कालीमिरच, कुडाकीछाल, छोटी हरड, ए सब समान भाग लेवे, सबका चूर्ण करके कुकरभांगरेके रसमें तीन दिन खरल करके फिर एक मासेकी गोली बनावेइसको प्रातःकाल भक्षण करें यह रुधिरकी बवासीरकोनष्टकरे, इसपर पथ्यसे रहे॥

मरिचादिवटी।

मरिचंखदिरंसारंगैरिकंतार्क्ष्यजंतथा ॥ समभागानिसर्वाणिसूक्ष्मचूर्णीकृतानि च ॥ कुक्कुरमर्दकरसैस्त्रिदिनंमर्दयेदृढम् ॥ त्रिमापिकावटीकार्यारक्तजार्शोविनाशनम् ॥

**अर्थ–**मिरच, खैरसार, गेरू, रसोत, ए समान भागलेवे, सबका बारीक चूर्ण करके कुकरभांगरेके रसमें तीन दिन खरल करके तीन दोमासेकी गोली बनावे यह खूनी बवासीर को दूरकरे॥

सूरणशोधन।

सूरणंचक्रवत्कृत्वाशकलानिसुधीर्भिषक् ॥
निंबूरसेनस्फटकीचूर्णेनालिप्यचातपे॥
स्थापयेद्दिनमेकंतुतदाखादेद्यथासुखम् ॥

**अर्थ–**जमीकंदके गोल २ कतरे कतरके उनपर निंबूके रसमें फिटकरीको पीसके लेप करके धूपमें धर देवे, इस प्रकार एफदिन रक्खे फिर यथा सुख भक्षण करे तो यह मुखमें खुजली आदि उपद्रव नहीं करे ॥ प्रसंगवशजमीकंदकी चटनी कहते हैं, कच्चा जमीकंद, अदरख, समान भागले दोनोंको नींबूके रसमें पीस अनुमानका निमक मिलायके काममें लावे ॥

पूतिकंमुशलीपथ्याभूनिंबासितवत्सकम् ॥ मसूराग्निकसिंधूत्थदेवदालीसुचूर्णितम् ॥ तक्रेणपिबतस्तस्यतक्रंचैवसमश्नतः॥ मासात्पक्वफलानीवपतंत्यर्शांसिवेगतः॥

**अर्थ–**लताकरंज, मूसली, हरड, चिरायता, कुडाकी छाल, मसूर, चित्रक, सैंधानिमक, देवदाली, इन सबको पीस छाँछके साथ पीवे और छॉछका ही भोजन करे तो एक महीनेमें पके फलके समान बवासीरके मस्से वेगसे उखड कर गिरजावें ॥

किंवामरिचसंयुक्तंभक्षयेद्विषमुष्टिकम् ॥ चतुर्थांशक्रमादेववर्द्धयेच्चयथाक्रमम् ॥ यथासात्म्यंयथादेहंकिंवायावद्वयंभवेत् ॥ भक्षयित्वाचमरिचंवर्द्धयेच्चचतुर्गुणम् ॥ ध्रुवंमासद्वयाद्वर्द्धंप्रपतंतिगुदांकुराः॥

**अर्थ–**अथवा मिरचके चूर्णके साथ कुचलेका सेवन करे और चौथाई २ के क्रमसे बढावे तथा उस प्राणीका सात्म्यदेहकी व्यवस्था विचारके २ दोपर्येत ऊपरसे मिरचोंका चूर्ण खायाकरे, इसप्रकार चतुर्गुण पर्यंत बढावे इस क्रमसे १ महीनेमें अवश्य गुदाके मस्से गिरजावें ॥

वस्तौवानाभिदेशेवायदाशूलः प्रजायते ॥
तदालेपाः प्रशस्यंते फलवर्त्तिश्चशस्यते ॥

**अर्थ–**वस्ती (मूत्राशय) नाभिइनमें यदि शूल होय तो उसपर शूलनाशक लेप, और फलवर्त्तीकरनी चाहिये॥

करंजादिचूर्ण।

चिरबिल्वाग्निसिंधूत्थनागरेन्द्रयवारलून् ॥
तक्रेणपिबतोऽर्शांसिनिपतंत्यसृजासह ॥

**अर्थ–**कंजा, चित्रक, सैंधानिमक, सोंठ,इन्द्रजौ, टेंटू, इनको पीसके छाँछके साथ पीबेतो रुधिर युक्त बवासीर के मस्से टूटकर गिरजावें ॥

कुसुंभपत्रभक्षण ।

कुसुंभमृदुपत्राणिकाञ्जिकेनैवपाचयेत् ॥
शाकवद्भक्षयन्नित्यमर्शोरोगप्रशांतये ॥

**अर्थ–**कमूमके कोमल पत्रोंको कांजीके साथ पचायकै शाकके समान नित्यभक्षण करे तो अर्श रोगकी शांति होय॥

पथ्यादिचूर्ण।

पथ्यानागरकृष्णाकरंजवेल्लाग्निभिःसितातुल्यैः॥
वडवामुखइवजनयतिबहुगुर्वपिभोजनंचूर्णम् ॥

**अर्थ–**हरड, सोंठ, पीपल, कंजा, कालीमिरच, चित्रक, ए वरावर ले और सबकी बराबर मिश्री मिलायके सेवन करे तो यह बहुत भोजन करने परभी वडवामिक समान जठरामि को बढावे ॥

चतुःसमोमोदकः।

सनागरारुष्करवृद्धदारुकंगुडेनयोमोदकमत्युदारकम् ॥
अशेषदुर्नामकरोगदारकंकरोतिवृद्धंसहसैवजाठरम् ॥

**अर्थ–**सौंठ, भिलायें, विधायरा, इनको गुडके साथ मोदक बनाय लेवे, यह अशेप अर्थात् संपूर्ण बवासीरोंको नष्टकरे तथा तत्काल जठराग्निको बढावे॥

अथहरिशंकरलोहम् ।

प्रणम्यशंकरंरुद्रंदंडपाणिंमहेश्वरम् ॥ जीवितारोग्यमन्विच्छन्नारदोऽपृच्छदीश्वरम् ॥ सुखोपायेनहेनाथशस्त्रक्षाराग्निभिर्विना॥ चिकित्सामर्शसांनृृणांकारुण्याद्वक्तुमर्हसि॥ नारदस्यवचःश्रुत्वानराणांहितकाम्यया ॥ अर्शसांनाशनंश्रेष्टंभैषज्यंशंकरोवदत् ॥ पांड्यवज्रादिलोहानामादायान्यतमंशुभम् ॥ कृत्वानिर्मलमादौतुकुनट्यामाक्षिकेनच ॥ पत्तूरमूलकल्केनलिंपेद्रसयुत्तेनच ॥ वह्नौनिक्षिप्यविधिवत्सारांगारेणनिर्धमेत् ॥ ज्वालाचतस्यरोद्धव्यात्रिफलायारसेनच ॥ ततोविज्ञायगलितंशंकुनोर्ध्वं समुत्क्षिपेत् ॥ त्रिफलायारसेपूतेतदाकृष्यतुनिर्वपेत् ॥ नसम्यग्गालितंयत्तुतेनैवविधिनापुनः ॥ ध्मातंनिर्वापयेत्तस्मिंल्लोहंतत्रिफलारसे ॥ यल्लोहंनमृतंतत्रपाच्यंभूयोपिपूर्ववत् ॥ मारणान्नमृतं- यच्चतत्त्यक्तव्यमलोहवत् ॥ ततः संशोष्यविधिवच्चूर्णयेल्लोहभाजने ॥
लोहेनैव- तथावत्सहपदासूक्ष्मचूर्णितम् ॥ कृत्वा लोहमयेपात्रेमृदावालिप्तरंध्रके ॥
रसैः पंकोपमंकृत्वातंपचेद्गोमयामिना ॥पुटानिक्रमशोदद्यात्पृथगेपांविधानतः॥
त्रिफलार्द्रकभृंगानांकेशराजस्यबुद्धिमान्॥ माणकंदकभल्लातवह्णीनांसूरणस्य च ॥ हस्तिकर्णपलाशस्यकुलिशस्यतथैव च ॥ पुटेपुटेचूर्णयित्वालोहात्षोडशिकंपलम् ॥ तन्मात्रत्रिफलायाश्चपलेनाधिकमाहरेत्॥ अष्टभागावशिष्टेतुरसेतस्याः पचेद्बुधः ॥ अष्टौपलानिदत्वाचसर्पिषोलोहभाजने ॥ तामेवलोहदर्व्यातुचालयेद्विधिपूर्वकम् ॥ ततःपाकविधानज्ञः स्वच्छेचोर्ध्वेचसर्पिषि॥ मृदुमध्यादिभेदेनगृह्णीयात्पाकमादृतः ॥
आरभेतविधानज्ञःकृतकौतुकमंगलः ॥ भ्रामरंघृतसं युक्तंविलिह्याद्रक्तिकाक्रमात् ॥ वर्द्धमानानुपानंचगव्यक्षीरेणसंयुतम् ॥ गव्याभावेत्वजायाश्चस्निग्धवृष्यादिभोजनम् ॥ सद्योवह्नि- करंचैवभस्मकंचनियच्छति ॥ हंतिवातंतथापित्तंकुष्ठानिविषमज्वरम् ॥ गुल्माक्षिपांडुरोगांश्चनिद्रालस्यमरोचकम् ॥ शूलञ्चपरिणामंचप्रमेहंचापबाहुकम् ॥ श्वयथुंधुरुधिरस्रावंदुन्नमानंविशेपतः ॥ वलकृदृंहणंचैवकांतिदस्वरबोधनम् ॥
शरीरलाघवकरमारोग्यपुष्टिवर्द्धनम् ॥ आयुष्यंश्रीकरंचैवयशस्तेजस्करंशुभम् ॥ सश्रीकंपुत्रजननंवलीपलितनाशनम् ॥ दुर्नामारिरयंनाम्नादृष्टोवारसहस्रशः ॥ अनेनार्शांसिदह्यंतेयथातूलंचवह्निना ॥ सौकुमार्याल्पकायत्वान्मद्यसेवीयथानरः ॥ जीर्णमद्यादियुक्तादिभोजनैः सहदापयेत् ॥ लावतित्तिरवर्तीरमयूरशशकादयः ॥
चटकः कलविंकश्ववर्त्तकाहरितालकः ॥ श्येनकश्चबृहल्लाबोवनविष्किरकादयः ॥ पारावतमृगादीनां- मांसंजांगलकंशुभम् ॥ मद्गुरोरोहितःश्रेष्ठःशकुलश्चविशेषतः ॥ मत्स्यराजाइमेप्रोक्ता हितमत्स्यायदेहिने ॥ वृंताकस्यफलंशस्तंपटोलंबृहतीफलं ॥ फलंवाभीरुवेत्राग्रतालकस्तंदुलीय- कम् ॥ वास्तुकंधान्यशाकंचकेमुकंचक्रवर्तनम् ॥ नालिकेरंचखर्जूरंदाडिमंलवलीफलं ॥ शृंगाटकं चपक्वाम्रंद्राक्षातालफलानि च ॥ जातीकोशंलवंगंचपूगंतांबूलपत्रकम् ॥ हितान्येतानिवस्तूनिलोहमेतत्समश्नताम्॥ नाश्नीयाल्लकुचंकोलंकर्कधुबदराणि च ॥ जंबीरबीजपूरंचतिंतिडींकरमर्दकम् ॥ अनूपानिचमांसानि क्रकरंपुंड्रकानपि ॥ हंससारसदात्यूहशंकुकंकबलाकिकाः॥ मानकंदकरीराणिकतकंचकलिंगकम्॥ कूष्मांडकंचककंटिकेमुकंचविशेषतः॥ कटुकंकालशाकंचकसेरूंकर्कटीतथा॥ ककारादीनि सर्वाणिविदलानिचवर्जयेत् ॥ शंकरेणसमाख्यातश्चूर्णराजोऽनुकंपया ॥ जगतामुपकाराय- दुर्नामारिरयंध्रुवम् ॥ स्थानादपैतिमेरुश्चपृथ्वीपर्येतिवायुना ॥ पतंतिचंद्रताराश्चमिथ्याचेदहमब्रुवम् ॥ ब्रह्मघ्नाश्चकृतघ्नाश्चकूरायेऽसत्यवादिनः ॥ वर्जनीयाः सधर्मेणाभिपजागुरुनिंदकाः ॥

अर्थ–शंकर, रुद्र, दंडपाणि महेश्वर, कोप्रणामकर मनुष्योकीजीवन और आरोग्यकीकांक्षा करकेश्रीनारदजीजगदीश्वर (शिव) से पूंछते हुए ,हेनाथ शस्त्र, क्षार और अग्निकर्मके बिना सुखोपाय करके अर्श रोगकायत्न मनुष्यों कीकरुणा विचारकेआप कहियेगा । इस प्रकार नारदके वचनको सुनके मनुष्योंकीहितकीइच्छा करकेअर्श रोगकीउत्तम नाश करनेवाली औषधकोश्रीशंकर कहते हुए । पांठ्यलोह, अथवायत्नलोह इनमेंसेजोमिलेउसकोअथवा येन मिले तो इनकेसमान और कोई उत्तम लोह मिले उसको लेकर उसे तैल छाँछ आदिमें शूद्धकरे फिर मनसिल और सुवर्णमक्खी डालके और पारा मिलाय चकमके रसमें सबको घोटके उन सबका कल्क करके लोहेपर लेप करदेवे फिर पक्के कोयलेन्में इसको धमावे और इसकी जो ज्वाला निकले इसको त्रिफलेके रसके छीठे दे देकर बंदकर जब जाने कि लोहा गलगया तब लोहेके कॉटेसे उसको निकालके पवित्र त्रिफलेके काढेमें बुझाय देवे । इस प्रकार करनेसे भी जो कुछरहा सहा भागन गलाहोवे उसको फिर इसीप्रकार दूसरे वार गलायके वुझाय देवे और वारंवार के गलाने से भी जो न गले उसको दुष्टलोह जानके त्यागदेवे, फिर इसको सुखायके विधिपूर्वक लोहेके खरलमें डालके लोहेके मूसले से घोट फिर उसमें से निकाल निकालके पत्थरपर बारीक पीसलेवे, फिर इसके बारीक चूर्णको किसी लोहके पात्रमें भर और त्रिफलेके रससे कीचसा करके ढक देवे तथा मुखके छिद्रोंको बंदकरके आरने उपलों की अग्निमें रखके फूंकदेवे फिर आगे लिखी औषधोकी क्रम पूर्वक पुटदेवे, जैसे हरड, बहेडा, आंवला, अदरख भांगरिया जलभांगरा, (कुकरभांगरा) मानकंद, भिलाएँ, चित्रक, जमीकंद, हस्तिकर्ण, पलाश, थूहर इन प्रत्येक को पृथक् २ पुट देवे और पुट में बराबर पीस डालाकरे तथा लोहसे सोलह भाग त्रिफला लेके उसकी पुटदेवे, आठ भाग शेषरहे हुए उसके काढेमें फिर इस लोहको पचावे, फिर इस लोहकीभस्मको कडाहीमें चढायके अथवा तामेकी कढाईमे चढायके इसमें ३२ तोले घी डालके पचावे और लोहेकी कलछीसे बराबर चलाता रहे, इस प्रकार पाकका जानने वाला जब घी तैलके ऊपर आयजावे तबमृदु, मध्य और खर जैसा पाक करना हो उसी प्रकारका पाक करके उतार लेवे । इस प्रकार जब यह लोहकी सिद्धि होजावे तब, उत्सव और स्वस्ति वाचन, पुण्याहवाचन आदि मंगल करके शहत और घीमें मिलायके एक २ रत्तीके वृद्धि क्रमसे भक्षण करें और इसके ऊपर गौका दूधपीबेयह अनुपान है । यदि गौका दूध न मिले तो बकरीके दूधको पीबेऔर इसके ऊपर चिकना और पुष्टकारी पदार्थका भोजन करे । यह तत्काल जठराग्निको करे है तथाभस्मक रोगको दूरकरे, वात, पित्त, कुष्ठ, विषम ज्वर, गोला, नेत्ररोग, पांडुरोग, निद्रा, आलस्य, अरुचि,शूल,परिणामशूल, प्रमेह, अपबाहुक, वात, सूजन रूधिरस्राव,दुर्नाम ( बवासीर आदि ) को विशेषकरके दूर करे । यह वलकरे, बृंहण है, कांतिकरे, स्वरको स्वच्छकरे, शरीरको हलका करे, आरोग्य और पुष्टिको बढावे, आयुष्यकरे, श्रीकरे तथा शुभ यश और तेजकरे कांति युक्त पुत्रोंको प्रगटकरे वली और पलितको नाशकरे है ॥ यह दुर्नामारिलोह हजारो बार अनुभव कराहुआहै॥ इससे बवासीर इस प्रकार नष्ट होती हैं जैसेआग्निसे रुई भस्म होतीहै जो सुकुमार और अल्पकायावाले, मद्यका सेवन , करनेवाले है उनको जीर्ण मद्यादि करके युक्त भोजनमें मिलाय के देवे, लवा, तीतर, बटेर, मोर,शसा( खरगोश) आदि चिडा, घरका चिडा, बटई, हरियल, शिकरा बडा लवा और वनमें रहनेवाले विष्कर पक्षी, ( कबूतर, मृग इत्यादि) जंगली जीवोंका मांस, मछलियोंमें मद्गुर, रोहित, शकुल,ये मछलियोंके राजा है ये मत्स्य प्राणियोंको हितकारी है बैगनका शाक, परवल, कटेरीके फल, घीया, शतावर वेतकीकोपल, देवदाली और चौलाई, बथुआ, धनियां, कैमुक, चकवात ये शाक उत्तम हैं, नारियल, खजूर, अनार,निर्मली सिंघाडे,पकेआम, दाख, तालफल, जायफल, लौंग, सुपारी, पान ये सब वस्तु इस लोह सेवन करनेवालेको परम हितकारीहैं बडहर, बेर, बडा बेर (पेंवँदी) झरियाबेर, जंभीरी, विजोरा, इमली, करोंदा, मानकंद, करील, कतक, तरबूज, कूष्मांड, (पेठा ) ककोडा, केमुक, कुटकी, कालशाक, कसेरु, ककडी इत्यादि संपूर्ण ककारादिक पदार्थ और विदल अन्न इस लोह सेवन करनेवालेको वर्जित कहेहैं यह मनुष्योंकी कृपा विचार श्रीशंकरने चूर्णराज कहाहै यह दुर्नामारि निश्चय कहाहै । श्रीशिवजी कहतेहैं कि स्थानसे सुमेरु पर्वत हटजावे, वायुके वेगसे पृथ्वी लौटजावे और चंद्र तारागण आकाशसे गिरपडें यदि मै असत्य कहताहूं तो, जो ब्रह्महत्यारे, कृतघ्नी, क्रूर और असत्यवादी इत्यादि दुष्ट मनुष्योंको वैद्य इस लोहको न देवे, तथा जो गुरुनिंदकहैं उनकोभी नदेवे ॥

लोहविकारकीशांति।

मुनिरसपिष्टविडंगंमुनिरसलीढंचिरस्थितंघर्मे ॥
द्रावयतिलोहदोषान् वह्निर्नवनीतपिंडमिव ॥

**अर्थ–**अगस्तियाकेरसमें वायविडंगको पीसके अगस्तियाके रसके साथ पीबे और थोडी देर धूप में बैठ जावे तो उस प्राणीके दोष इस प्रकार वहजावें जैसे मक्खनके पिडको अग्निबहाय देतीहै ॥

लोहपरिपाककेलक्षण।

कालेमलप्रवृत्तिर्लाघवमुदरे विशुद्धिरुद्गारे ॥
अंगेपुनावसादोमनःप्रसादोऽस्यपरिपाके ॥

**अर्थ–**यथा समय अर्थात् वख्तपर मलका उतरना, पेटमें हलकापना,शुद्ध डकारका आना, अंगोंमें किसी प्रकार की तकलीफ नहो, और मन प्रसन्नता ये लोहपरिपाककेलक्षण हैं ।

लोहाजीर्णकायत्न।

कृमिरिपुचूर्णंलीढंसहितंस्वरसेनवंगसेनस्य ॥
क्षपयत्यचिरान्नियतंलोहाजीर्णोद्भवंशूलम् ॥

**अर्थ–**वायविडंगके चूर्णको अगस्तियाकेस्वरसमें मिलायके पीबेतो निश्चय लोहाजीर्णसे उत्पन्न हुई शूलको तत्काल नष्टकरे ॥

कीटकीशांति।

कुर्यात्कनकबीजेनरेचनंकिट्टशांतये ॥

**अर्थ–**धतूरेके बीजोंसे अथवा पिसोलाके बीजोंसे दस्त करावेती कीटीका विकार शांति होय ॥

लोहव्यापदकायत्न।

जीर्णेलोहेपततिचूर्णंभुंजीतसिद्धसाराख्यम्॥
लोहव्यापन्नश्यतिविवर्द्धतेजाठरोवह्निः ॥

**अर्थ–**लोहजीर्णमें सिद्धसाराख्य चूर्णका सेवन करे तो लोहकीव्याप [ उपाधि ] नष्ट होय और जठराग्निबढे ॥

सिद्धसारचूर्ण।

पथ्यासैंधवशुंठीभागाधिकानांपृथक्समोभागः ॥
त्रिवृताभागौनिंबूभाव्यंतत्सिद्धसाराख्यम् ॥

**अर्थ–**हरड, सैंधानिमक, सोंठ, पीपल इनको समान भाग ले, निसोथदो भाग ले, फिर इसमें नींबुकेरसकी भावना देवे तो सिद्धसार चूर्ण तयार हो ॥

भवेद्यद्यतिसारस्तुदुग्धंपीत्वातुतंजयेत् ॥
गुंजाद्वादशकादूर्ध्वंवृद्धिरस्यभयप्रदा ॥

**अर्थ–**यदि इस लोहकेभक्षणसे अतिसार रोग होवेतो उस प्राणीको दूध पिलाकर अतिसार दूरकरे । इस लोहकी भस्म १२ रत्तीके उपरांत भक्षण करना भयदायक है इससे वारह रत्तीसे आगे इसकोन बढावे॥

पारदभस्म।

अधःपुष्पीकुणुयुटांडचूर्णखर्परेकृत्वामध्येपारदंनिक्षिप्यतदुपरिउक्तौषधयोश्चूर्णंक्षिप्त्वाधोमृद्वग्निं-ज्वालयेच्चशनैःशनैःदर्व्याप्रचालयेच्चएवंपारदश्चभस्मीभवतितच्चभस्मरक्तिकात्रयपरिमितं- छिक्कणीसूर्यभक्ताचूर्णटंकद्वयपरिमितेनसाकंभुंजीततदासप्ताहादर्शक्षयोभवतीतिसत्यम् ॥

**अर्थ–**गोभी और मुरगेकाअंडा दोनोंका चूर्ण करके एक खिपडेमें चढावे उसमें पारा डालके इसी चूर्णसे ढकदेवे, नीचे आग जलावे मंद २ अग्निदेवे और धीरे २ कलछीसे चलाता रहे, इस प्रकार करनेसे पारेकी भस्म होजावे उस भस्मको ३ रत्ती ले तथा नकछिकनी और हुरहुरकाचूर्ण २ टंकमें मिलायके सेवन करे, तो सातही दिनमें बवासीर नष्ट होवे यह प्रयोग सत्य है ॥

बवासीरके साध्यलक्षण।

बाह्यायांतुवलौजातान्येकदोषोल्वणानि च ॥
अर्शंसिसुखसाध्यानिनचिरोत्पतितानि च ॥

**अर्थ–**जिस बवासीरके मस्से गुदाके बाहरके आटेमें हुएहों, और एक दोषोल्वण होवे, तथा जिनको उत्पन्न हुए एक वर्ष न हुआहो, ऐसे मस्से सुखसाध्य अर्थात सहजमें अच्छे होसकतहै॥

कृच्छ्रसाध्यलक्षण ।

द्वंद्वजानिद्वितीयायांवलौयान्याश्रितानिच ॥
कृच्छ्रसाध्यानितान्याहुःपरिसंवत्सराणिच ॥

**अर्थ–**दो दोषसे प्रगट भईहो और दूसरी वली (अर्थात् दूसरे आंटेमें) होय और जिसको एक वर्ष व्यतीत होगयाहो ऐसी बवासीरके मस्से कृच्छ्रसाध्य होयहै और जो बाहरकी वलीमें द्विदोषोल्वण होय और एफ दोषोल्वण दूसरी वली(दूसरे आंटे) में होवे तौयेभी कृच्छ्रसाध्य जानना॥

असाध्यलक्षण।

सहजानित्रिदोषाणियानिचाभ्यंतरावलिम् ॥
जायंतेऽर्शंसिसंश्रित्यतान्यसाध्यानिनिर्दिशेत् ॥

**अर्थ–**सहज कहिये जन्म होनेके समयसे जो होयअथवा तीन दोषाोंसे प्रगट भईहोऔर जो तीसरा (अंतका) आंटा है उसमें भईहोसो बवासीर असाध्य जाननी ॥

याप्यलक्षण ।

हस्तेपादेगुदेनाभ्यांमुखेवृषणयोस्तथा ॥
शोथोहृत्पार्श्चशूलंचतस्यासाध्योऽर्शसोहिसः॥

**अर्थ–**जिसके हाथ, पैर, गुदा, नाभि, मुख और अंडकोश इनमें सूजनहो, हृदय और पँसवाड़े दूखेंवो रोगी असाध्य जानना ॥

अन्यअसाध्यलक्षण।

हृत्पार्थर्श्वशूलंसंमोहश्च्छर्दिरंगस्यरुग्ज्वरः ॥
तृष्णागुदस्यपाकश्चनिहन्युर्गुदजातुरम् ॥

**अर्थ–**हृदय और पँसवाडेमें दर्द होय, इन्द्री और मन इन में मोह, होय वमन और अंगोंमें पीडा, ज्वर, प्यास, गुदाका पकना (अर्थात् गदाके ऊपर पीले फोडा) ये लक्षण होनेसे बवासीरवाला रोगी असाध्य जानना ॥

अन्य असाध्य लक्षण।

तृष्णारोचकशूलार्त्तमतिप्रस्त्रुतशोणितम् ॥
शोथातिसारसंयुक्तमर्शंसिक्षपयंतिहि ॥

**अर्थ–**प्यास, अरुचि, शूल इनसे पीडित, जिस के अत्यंत रुधिर बहै और सूजन, अतिसार ये होय उस रोगीका बवासीर नाशकरदेयहै॥

मेढ्रादिष्वपिवक्ष्यंतेयथास्वंनाभिजान्यपि ॥
गंडूपदास्यरूपाणिपिच्छिलानिमृदूनिच ॥

**अर्थ–**मेढ्रकहिये लिंग आदिशब्दकरके नाक कान इत्यादि स्थानों में भेदकरके बवासीर होतीहै सौ आगे कहेंगे ॥ उसी प्रकार नाभिस्थानमेंभी अर्शरोग होताहै वह केचुएक मुखके समान गाढी और नरम होयहै॥

चर्मकीलकीसंप्राप्ति।

व्यानोगृहीत्वाश्लेष्माणंकरोत्वर्शस्त्वचोबहिः॥
कीलोपमंस्थिरखरंचर्मकीलंतुतद्विदुः॥

**अर्थ–**व्यान वायुकफको लेकर त्वचामें कीलके सदृश स्थिर और खरदरी ऐसी बवासीरको करे उसको चर्मकीलककहतेहैं ( त्वचोबहिः ) इसके कहनेसे गुदा होठका त्याग कहा ॥

चर्मकीलमेंवातादिकेलक्षण।

वातेन तोदपारुप्ये पित्तादसितरक्तता ॥
श्लेष्मणास्निग्धताचास्यग्रथितत्वंसवर्णता॥

**अर्थ–**चर्मकील रोगमें वादीसे उसमें मुई चुभानेकीसी पीडाहो, पित्तसे उसका रंग काला और लाल होताहै, कफसे चिकना और गांठदार होवेहैतथा उसका वर्ण त्वचाके वर्ण समान होवेहै ॥

द्वंद्वजबवासीरकेकारण।

हेतुलक्षणसंसर्गाद्विद्याद्द्वंदोल्बणानिच ॥

**अर्थ–**दो दोषोंके कारण और लक्षण मिले तो द्वंद्वज बवासीर भई है ऐसेजाने॥

त्रिदोषकी बवासीरकेकारण।

सर्वोहेतुस्त्रिदोषाणांलक्षणंसहजैः समम् ॥

**अर्थ–**पृथक् वातादि बवासीरके जो कारण कहे हैं वो सर्व त्रिदोषकी बवासीरके कारण है और जो सहज अर्शके अर्थात् सहजबवासीरके लक्षण सो इसके लक्षण जानने ॥

याप्यलक्षण।

शेषत्वादायुपस्तानिचतुष्पादसमन्विते ॥
याप्यंतेदीप्तकालाग्नेः प्रत्याख्येयान्यतोऽन्यथा ॥

**अर्थ–**असाध्य बवासीर होवे परंतु रोगीकीआयुष्य वाकीहो और वह चतुष्पाद संपत्तियुक्त होवे अर्थात् वैद्य औषध, परिचारक और रोगी ये जैसे होने चाहिये उसी प्रकारके होवे तथा रोगीकी अग्निप्रदीप्त होवे तो याप्य कहिये शमन होजावैऔर इससे विपरीत होवे तो रोगीको असाध्य जानना॥

असाध्यलक्षण।

दोषत्रयाणिसहजानिबलौतथांतर्जातानिहंतिगुदजानि पृथूदरस्य॥
पादस्यहस्तगुदनाभ्युदरांडकोशशूनस्यपार्श्वहृदयव्यथितस्यपुंसः ॥
हृत्पार्श्वशूलवमनज्वरमोहतृष्णापाकोगुदग्नितनुतारुचिरंगभंगः॥ यस्यास्तियातियमधामगुदांकुरोंध्यंशूनोदराक्षिकरपादगुदांडकोशः ॥ तृष्णाशूलहृदिश्वासशोषातीसारपीडितम् ॥
अतिनिःसृतरक्तंचनिहन्युर्गुदजानरम् ॥

**अर्थ–**जो बवासीर त्रिदोषात्मक अथवा शरीरके साथही उत्पन्न हुईहो अर्थात् जन्मसेही होय तथा भीतर की वली (आंटे ) में तथा जिसका पेट बड़ाहोगयाहो और हाथ, पैर, गुदा, पेट और अंडकोश इनपर सूजन होवे तथा पार्श्व और हृदय इनमें शूल होय वांति, ज्वर, मोह प्यास, गुदाका पाक, मंदाग्नि, अरुचि और अंगनाश इन लक्षणों करके युक्त जो रोगी होवे वो मरजाय और जिस बवासीरमें अंधकार तथा पेट, नेत्र, पैर, हाथ, गुदा अंडकोश इनमें सूजन प्यास, हृदयमें शूल, श्वास, शोष, अतिसार और जिसके अत्यंत रुधिर गिरे उसको बवासीर रोग नष्ट करे ॥

अर्शरोगपरपथ्य ।

विरेचनंलेपनरक्तमोक्षंक्षाराग्निशस्त्राचरितंचकर्म ॥ पुरातनालोहितशालयश्चसपष्टिकाश्चापियवाः कुलित्थाः ॥ पटोलधत्तूररसेनवह्निपुनर्नवासूरणवास्तुकानि ॥
जीवंतिकादंतशठासुरावंशुंठीर्वयस्यानवनीततक्रम्॥ कंकोलधात्रीरुचकंकपित्थमौष्ट्राणिमूत्राज्यपयांसिचापि ॥
भल्लातकंसर्पषजंचतैलंगोमूत्रसौवीरतुषोदकानि ॥ गोधाखुलोमानिखरोष्ट्रलोमश्वावित्कुलंगानथधौतकीशाः॥ तरक्षवासाश्चमृगालिकाकायेत्यल्पमांसाः प्रसहाश्चतेऽपि ॥
वातापहंयच्चयदग्निकारितदन्नपानंहितमर्शसेभ्यः ॥

**अर्थ–**जुलाब, चंदनादिलेप, रुधिर निकालना क्षार और अग्निकर्म शस्त्रकर्म पुराने लाल चावल, साँठीचावल, जौ, कुलथी, पटोल ( परवल) धनूरेका रस, लहसन, चीता, पुनर्नवा, जमीकंद, बथुआ जीवंती (डोंडी) चूका, सुराव(आनंदकारी) शब्द अथवा मद्य, सोंठ,हरड,मक्खन, छाँछ, कंकोल आंवले कालानोन, कैथ, ऊँटका मूत्र,घी, दूध, मिलायें, सरसोंका तेल, गोमूत्र, कॉजी तुषोदक,गोह और मूसेके बाल, गधा ऊंट इनके बाल, श्वावियूपक्षी, कुलिंग, चांदी, वानर जरख, अडूसा, मृग, भौंरा, कौआ तथा जो अल्पमांसवाले गीधउलूक, शिकरा, वाज, चाप, भास, कुरर, तथा वातनाशक और अग्निकारीऐसे अन्न और पान ये बवासीर रोगीकोहितकारी है ॥

अर्शरोगमें अपथ्य।

अनूपमामिपंमत्स्यंपिण्याकंदधिपिष्टकम् ॥ मापान्करीरनिष्पावंतंदुलातुंब्युपोदिका ॥ पक्वाम्रशालुकंसर्वविष्टंभीनिगुरूणिच ॥ आतपंजलपानानिवमनंबस्तिकर्म च ॥
विरुद्धानिचसर्वाणिमारुतंपूर्वदिग्भवम् ॥ वेगावरोधःस्त्रीपृष्टयानमुत्कटकासनम् ॥ यथास्वंदोषलंचान्नमर्शसांपरिवर्जयेत् ॥

**अर्थ–**अनूपदेशमें रहनेवाले जीवोंका मांस, मछली, खल, दही, पिष्टान्न, उडद, करीर, चोरा, नवीन चावल,सपेदतूंवी, पोईका शाक,पक्के आम, कमलका, कंद संपूर्ण विष्टंभकारी पदार्थ भारी पदार्थ धूपमें डोलना, बहुत जल पीना, वमन बरितकर्म, संपूर्ण विरुद्ध पदार्थ, पूर्व दिशाको पवन, मलमूत्रादि वेगोंका रोकना, स्त्रीगमन,घोडे आदिकी पीठपर चढके जाना, ऊकर बैठना, दोषोंको उत्पन्न करनेबाले अन्न और पान ये बवासीर रोगीको सेवन करना वर्जित है॥

रक्तार्श और चर्मकीलपर।

यत्पथ्यंयदपथ्यंचवक्ष्यतेरक्तपित्तिनाम् ॥ रक्तार्शोरोगिणांतत्तुदेयंविद्याद्विशेषतः ॥ पानंयानंदिवास्वप्नंगुर्वन्नमतिभोजनम् ॥ व्यायामंकलहंचैवतीक्ष्णंक्षारविधिंत्येजत् ॥ यद्युक्तमर्शसामादौभेषजंपथ्यमेवच ॥ तदेवचर्मकीलानांकार्यंदोषादिभेदतः॥

**अर्थ–**जो पथ्य अथवा अपथ्य रक्तपित्त रोगवालेको कहै है वोही सूनीबवासीरबालेको विशेष करके देवे तथापान, यान, दिनमें सोना, भारीअन्न, अतिभोजन, कशरत कलह और तीक्ष्ण सारका लगाना, तथा जो अर्शरोगपर पथ्य कहाहैवो सब औषध चर्मकीलरोगपर दोषभेदसे देवे ॥

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कुछप्रयोगफारसीसे अकवरपातशाहके
अनुभवकरेहुए,

यहांपर प्रसंगवश लिखदेते हैं।

चावल और मूंगकीधोई दालकीखिचडी विना निमक की अर्थात् अलोनी जितनी खाई जावेखूवखाय इस प्रकार करनेसे सातवें दिन गुदापर पोस्तकेसे दाने प्रगट होवेंगे उनको खूबधोवे और निर्बलतासे डरेनहीं, फिर इसी प्रकार सात दिन पर्यंत केवल खिचडीही खाय तो परमात्माकी कृपासे खूनी बवासीर अवश्य जाती रहे॥

बवासीरके रुधिरको रोकै।

लालसुरमा १॥ तोले, छोटीहरड ६ तोले [ किसी किसीकी यह संमति है कि तीन तोले हरड लेवे ] दोनोंको कूट पीस चूर्णकरे इसको १५ तोले गुडमें मिलायके झड़बेरीके बराबर गोली बनावे प्रातःकाल१ गोली घीके साथ और सायंकालको १गोली जलके साथ सेवन करे इस प्रकार ५१ इक्यावनदिन पर्यंत सेवन करे तथा १४ दिनतक वातकारक और खटाई से बचे गेहूंकी रोटी और प्याज खाय तथा तीन दिनके बाद१ गोली को बंगले पानमें घिसके मस्सोंपर लगावे तथा लॅगोट खींचकर बाँधे तो यह एक सिद्ध पुरुषका बताया हुमा प्रयोगहै इससे सात दिनमें बवासीर स्वयं गिरजावे पचासदिनकी आवश्यकता नहीं रहे जो प्याज न खावे, अथवा सबको रोटी और चौलाइका शाख खूब घीडालके भोजन करावे ॥

मल्हम।

केचुआ (गिडोहों) को जैतुंके तेलमें औटवेजब परिपक्वहोजावे तब थोडा सिरका डालके मल्हम बना लेवे पश्मीने कपडेकी बत्ती बनावे और इस मल्हममें भिगोकर गुदापर रखे तो मस्से दूरहों पीडा शांतिहो॥

तथा।

स्यारकी खालको यह प्राणी अपने पास रखा करे तो बवासीर दूर होवे॥

बवासीरकाअजीर्ण।

वथुआका शाक अथवा वथुआके बीजोंको तेलमें भूनकर भोजनकरे तो बवासीरका अर्जीर्ण सर्वथा दूर हो॥

तैल।

कई एक विच्छुओंको तेलमें डालके ४० दिनतक धूपमें रखा रहनेदे पश्चात् इस तेलको बवासीरकेमस्सोंपर मले तो बवासीर दूरहोय ॥

फक्की।

नागकेशर और मिश्री दोनों दोदो मासे पीसके नित्य खायाकरे तो बवासीरसे रुधिरको जानेके चमत्कारकेसाथ रोकेहै पथ्यसे रहे ॥

पुलटिस।

रासना, भांग प्रत्येक छःछःतोलेमैदा तीन तोलेप्रथम मैदाको तिलके तेलमें भूनकर तथा और दवाइयोंको बारीक पीसकर इसमें मिलाय देवे फिर जल डाल पुलटिस बनायले जब पक्क होजावे तव सुहाती २ गुदाके मस्सोंपर बांधे और ऊपरसे लँगोट कसके बांधलेवे तो बवासीर दूर होय ॥

अन्यविधि।

सींगडी आधपावको पावसेर कागदी नींबूके रसमें भिगोवे फिर इसको जंगली कंडोमें जलाय लेवे कि उफान आकर सुखजावे तब उसको बारीक पीसफे गौके पावभर घीमें मिलावे और नीमकी लकड़ीसे दही मिलाकर घीमे औटावे कि घी लाल होवे और सुगंध आने लगे तब उसमें रुई भिगोकर गुदापर रखे और लँगोट कसके बांधै एक दिनरात बंधारक्खेइस प्रकार एक सप्ताह पर्यंत करे तो सब बढाहुआ मांस गलकर दूर होजावेगा और यदि पहले दो दिनतक सोआके बीज जलमें पकायके लगावे और पश्चात्ऊपर कहीहुई मल्हम लगावे तो बवासीरको बहुत शीघ्र अराम हो जावेगा॥

गोली।

गोले चूनेकी गोली चनाके बराबर धनायके खवावे तो बवासीर दूर हो॥

फक्की।

बडीमाई, बकायनके बीज, दोनोंको समान ले कूट पीस दूना सफेद बूरा मिलाकर हथेली भरके प्रातः कालही खाया करे तो खूनी और बादी दोनों बवासीर दूर हो॥

गुदाका पोंछना।

मल परित्याग करनेके पश्चात् गुदाको आकके पत्तोंसे पोछाकरे तो बवासीर नष्ट हो॥

निंबतैल।

नीमके बीजोंके तेलको गुदापर मलाकर बवासीरपर मलाकरे तो आराम होयअथवा सोआके बीज पीसके मले तो बवासीरको नष्ट करे॥

तैल।

काले धतूरेकेपत्तोंकारस तिलके तेलमें डालके औटावे, जब रस मात्र जल जावे तेल मात्र रहे तब उसमें रुई भिगोकर बवासीरपर रक्खे ॥

माजूम।

इन्द्रजौ, अतीस और रसोत इनको समान भाग ले कूट पीसके शहतमें मिलायके माजूम बनाय लेवे इसमेंसे १ नीले सांठी चावलोके धोवनसे खाय तो बवासीरको बहुत गुण करे ॥

सामान्य यत्न।

बवासीरमें साफन नामक नसकी फस्त खोले खरबूजा अनार आदिका खाना अधिक गुणकारी है । बवासीरमें गूगलकी गोली खाना इस रोगवालेको अधिक गुण करेहै ॥

गूगलकी गोली।

काबली हरडका बक्कल, काली हरडका बक्कल, दोनोंको समान भाग कूटकर ८\।\। तोले गंधनाके जलमें उत्तम गूगल ४ तोले और ४॥ मासे पीस हरडका चूर्ण मिलाय जंगलीबेरके समान गोली बनाय लेवे, इसकी मात्रा ३ मासेकी है इसके उर्दकी दाल, अथवा मूंगकी घीली दाल और रोटी पथ्यहै, तथा गूगलका इतफल खानाभी इस रोगवालेको गुणकरहै॥

चूर्ण।

कालो जिरी ४॥ तोले ले आधेको भूनले आधी कच्ची रखे दोनोंको मिलायकेतीन भाग करे नित्य एक भाग खाय ऊपरसे सांठी चावलोंका धोवन पीचे तो बवासीर दूर हो ॥

बफारा और सेंक।

सिरसकी छाल, तगर, मुलहटी, लालचंदन, आंवाहलदी, दारुहलदी, भांग, वकायनके बीज, प्रत्येक १॥तोले. पठानी लोध, नौ मासे सबको कूटकर दो भाग करे, १ भागको गौके आधसेर दूधमें औटाकर वफारा लेवे और दूसरे भागको गौके घीमें मिलायके गुदापर बांधके सेक करे, तो बवासीरको पीडा और सूजन दूर होजावेगी॥

बवासीरको सुखाकर गिरादेवे।

जस्महयातको छायामें सुखाकर कूट पीसकर नित्य छः तोले गुडमें मिलायके रात्रिके समय खाकर सो रहे और इसी चूर्णको प्रातःकाल जलके साथ फक्की लेवेखटाई और वादीसे परहेज रक्खेएक ही सप्ताहमें बवासीर अवश्य दूरहोजावे, जस्महयात-एक छोटासा पोदाहैपृथ्वीपर फैला हुआ होताहै और उसके नीचे सब पृथ्वी चिकनी दिखाई देतीहै यह पेड गेहूके खेतमें और नदीके किनारेपर बहुत होताहै, इसके दो भेद है, एककी छोटी पत्ती और बहुत वारीक होताहै बस यही लेना उचितहै और दूसरा वहहै कि जिसकी पत्ती मोटी होतीहै वह नहीं लेना चाहिये ।

गुदापीडाको नष्ट करे।

पानीके ऊपरकी काई गुदाके ऊपर बांधे तो बवासीरसे जो गुदामें पीडा होतीहै वह नष्ट होय ॥

अथवा।

इमलीकेबीजोंको आगमें डालकर १ मास आर बिनाजले छिलकेके ३ मासे को पीस चक्ख दंहीमें मिलायके सात दिनतक प्रातःकाल चाटा करे तथा वादी करता वस्तु और स्त्रीसंगसे परहेज करे तो गुदाकीपीडा नष्ट होय॥

बवासीरकेरुधिरकोबंदकरे।

इमलीके बीजोंके छिलकेको कूट पीस जलसे चनेके प्रमाण गोली बनावे और तीन दिनतक एक एक गोली नित्य खाय तो रुधिरके जानेको बंद कर ॥

बवासीरको नष्ट करे।

आमके पत्ते, आंवलेके पत्ते, जामनके पत्ते, मिश्री प्रत्येक तीन २ तोले गौका दूध आधासेर, पत्तोंको कूट पीसके विना पानीके रस निकाले यदि रस न निकले तो थोडासा दूध डालके रस निकाले फिर इस रसको दूधमें मिलायके पीबेअथवा केवल रसही पीबेफिर उसके ऊपर टूध पीबे, इस प्रकार सात दिन सेवन करे तो बवासीर अवश्य दूर होजायगी, खटाई और वादीपदार्थोसे वचता रहे॥यह खूनी और बादी दोनों प्रकारकीबवासीरको दूर करे ॥

धुनी।

घूसके चमडेको किसी बरतनमें जलावे, जव धुआँ निकलनेलगे तवएक कपड़ा उसके मुखपर बांधके उसका धुआ मस्सेन्को देवे और कपडेसे ऐसा बँदोबस्त करे कि अन्यत्र धुआँ न जावे, तो बवासीर नष्ट होय।

इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे अर्शरोगनिदानचिकित्सासमाप्ता ।

चतुर्थ भाग समाप्त

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विक्रयार्थ-वैद्यकग्रंथ ।

**नाम. ** की.रु.आ.
चरकसंहिता-भाषाटीका समेत १०-०
हारीतसंहिता भाषाटीकासहित ३-०
अष्टांगहृदय ( वाग्भट्ट ) भाषाटीका अत्युत्तम वैद्यकग्रंथ-भिषग्वरोंकेदेखने योग्य ८-०
भावप्रकाश भाषाटीका ८-०
रसरत्नाकर भाषाटीकासमेत ५-०
बृहन्निघंटुरत्नाकर भाषाटीकाप्रथमभाग ३-०
बृहन्निघंटुरत्नाकर भाषाटीका द्वितीयभाग ३-०
बृहन्निघंटुरत्नाकर भाषाटीका तृतीयभाग ३-८
बृहन्निघंटुरत्नाकर भाषाटीका पंचमभाग ६-०
बृहन्निघंटुरत्नाकर भाषाटीका छठवाँ भाग ५-०
बृहन्निघंटुरत्नाकर-सप्तम अष्टम भाग अर्थात् “शालग्राम निघंटुभूषण”(अनेक देशदेशांतरीय संस्कृत, हिन्दी, बंगला, महाराष्ट्री, गौर्जरी, द्राविड़ी, तैलंगी, औत्कली, इंग्लिश, लैटिन, फारसी, अरवी भाषाओंमें सर्व औषधोंके नाम और गुणोंका वर्णन औषधियोंके चित्रोंसमेत) ८-०
कामरत्न योगेश्वर नित्यनाथप्रणीत भाषाटीकासमेत १-१२
पथ्यापथ्यभाषाटीका ०-१२
शार्ङ्गधर निदानसह भाषाटीका पं० दत्तराम चौबे मथुरानिवासीका बनाया ३-०

संपूर्ण पुस्तकोंका “बडासूचीपत्र” अलग है देखना हो तो मँगालीजिये

.

पुस्तकोंके मिलनेका पता–

**
खेमराज श्रीकृष्णदास,**

“श्रीवेङ्कटेश्वर” छापाखाना-मुम्बई.

]


  1. “मुक्ताफलाकुलविशालकुचस्थलीनाम् इति मुख्यपाठः” ↩︎

  2. “वीणान्वितंगायनम् इतिमुख्यपाठः।” ↩︎

  3. “हरतिदाघमघर्मकरानने इतिमुख्यपाठः।” ↩︎

  4. “दुरात्मानमुपद्रतम इतिपाठान्तरम् ॥” ↩︎

  5. “शुष्कराशिजातकके ग्रंथोंसेविचारलेना।” ↩︎