[[चरकसंहिता Source: EB]]
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[TABLE]
प्रिन्टर :–रामचंद्र येसु शेडगे. नं. २६-२८ कौलभाट लेन,
पब्लिशर :–पांडुरंग जावजी. निर्णयसागर प्रेस, मुंबई.
चरकसंहितान्तर्गतविषयाणामनुक्रमणिका।
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| विषयः | विषयः |
| **१ सूत्रस्थानम् | ** |
| **१ दीर्घञ्जीवितीयोऽध्यायः | ** |
| आयुर्वेदाध्ययनार्थं भरद्वाजस्येन्द्रसकाशे गमनम् | त्रिविधः शारीरदोषसंग्रहः |
| इन्द्रेण भरद्वाजाय आयुर्वेदस्य प्रवचनम् | द्विविधो मानसदोषसंग्रहः |
| आयुर्वेदस्य भूतले प्रवर्तनम् | दोषाणां प्रशमनोपायाः |
| आयुर्वेदस्य लक्षणम् | वायोर्गुणास्तत्प्रशमनानि च |
| आयुषो लक्षणं पर्यायाश्च | पित्तस्य गुणास्तत्प्रशमनानि च |
| अन्यवेदेभ्य आयुर्वेदस्य प्रकर्षः | श्लेष्मणो गुणास्तत्प्रशमनानि च |
| सामान्यस्य लक्षणम् | विकाराणां विनिवर्तने उपायाः |
| विशेषस्य ,, | रसस्य लक्षणं, द्रव्यं, विशेष प्रत्ययाश्च |
| आयुर्वेदस्याधिकरणम् | रसानां संग्रहः |
| द्रव्यसंग्रहः | दोषाणां प्रशमनाःप्रकोपकाश्च रसाः |
| चेतनाचेतनभेदेन द्रव्यस्य द्वैविध्यम् | प्रभावभेदेन द्रव्यभेदः |
| गुणाः कर्माणि च | उत्पत्तिभेदेन ,, |
| समवायस्य लक्षणम् | जाङ्गमद्रव्यसंग्रहः |
| द्रव्यस्य ,, | पार्थिवद्रव्यसंग्रहः |
| कर्मणो गुणस्य च लक्षणम् | चतुर्विधमौद्भिदद्रव्यम् |
| आयुर्वेदस्य कार्यं (प्रयोजनं) | औद्भिदद्रव्यसंग्रहः |
| व्याधीनां त्रिविधो हेतुसंग्रहः | जाङ्गमादिषु प्रशस्तानां द्रव्याणां सङ्ग्रहः |
| व्याधीनां द्विविध आश्रयः |
| विषयः | विषयः |
| षोडशमूलिनीनां नामकर्मणी | पञ्चकर्मार्हाः |
| एकोनविंशतिफलिनीनां ,, | पञ्चकर्मतः प्राक्कर्तव्यम् |
| चतुर्विधमहास्नेहानां ,, | युक्तिज्ञानस्य गुणाः |
| पञ्चविधलवणानां ,, | अष्टाविंशतिर्यवाग्वः |
| अष्टविधमूत्राणां ,, | अध्यायार्थसंग्रहः |
| अष्टविधक्षीराणां | **३ आरग्वधीयोऽध्यायः |
| क्षीराश्रयास्त्रयो वृक्षास्तेषां कर्म च | पञ्चदश कुष्ठहराः प्रदेहा |
| त्वगाश्रयस्त्रयो वृक्षास्तेषां कर्म च | बातहराः पञ्च ,, |
| औषधानां नामरूपयोगज्ञाने गुणाः | वातरक्तहरास्त्रयः ,, |
| औषधानां नामरूपयोगाज्ञाने दोषाः | शिरोरुजाहरौ द्वौ प्रदेहौ |
| भिषग्बुभूषोः कर्तव्यम् | पार्श्वरुजाहर एकः प्रदेहः |
| युक्तस्य भैषज्यस्य लक्षणम् | निर्वापणौ द्वौ प्रदेहौ |
| भिषक्तमस्य लक्षणम् | शीतहर एकः प्रदेहः |
| अध्यायार्थसंग्रहः | एको विषहरः ,, |
| **२ अपामार्गतण्डुलीयोऽध्यायः | ** |
| शिरोविरेचनद्रव्याणि | शरीरदौर्गन्ध्यहरः ,, |
| वमनद्रव्याणि | अध्यायार्थसंग्रहः |
| विरेचनद्रव्याणि | **४ षड्विरेचनशतीयोऽध्यायः |
| आस्थापनद्रव्याणि | षड्विरेचनशतादीनां संग्रहेण कथनम् |
| अनुवासनद्रव्याणामास्थापनद्रव्येष्वतिदेशः | षड् विरेचनशतानि |
| षड् विरेचनाश्रयाः |
| विषयः | विषयः |
| पञ्च कषाययोनयः | शुक्रजननो दशको महाकषायः |
| पञ्चविधं कषायकल्पनम् | शुक्रशोधनो,, ,, |
| स्वरसादीनां लक्षणानि | स्नेहोपगो,, ,, |
| स्वरसादीनां बलतारतम्यम् | स्वेदोपगो,, ,, |
| पञ्चशान्महाकषायाणां संग्रहेण विवरणम् | वमनोपगो,, ,, |
| पञ्चकषायशतानां विवरणम् | विरेचनोपगो,, ,, |
| जीवनीयो दशको महाकषायः | आस्थापनोपगो,, ,, |
| बृहणीयो ,, ,, | अनुवासनोपगो,, ,, |
| लेखनीयो ,, ,, | शिरोविरेचनोपगो,, ,, |
| भेदनीयो,, ,, | छर्दिनिग्रहणो,, ,, |
| सन्धानीयो ,, ,, | तृष्णानिग्रहणो,, ,, |
| दीपनीयो ,, ,, | हिक्कानिग्रहणो,, ,, |
| बल्यो,, ,, | पुरीषसंग्रहणीयो,, ,, |
| वर्ण्यो,, ,, | मूत्रसंग्रहणीयो,, ,, |
| कण्ट्यो,, ,, | मूत्रविरजनीयो,, ,, |
| हृद्यो,, ,, | मूत्रविरेचनीयो,, ,, |
| तृप्तिघ्नो,, ,, | कासहरो,, ,, |
| अर्शोघ्नो,, ,, | श्वासहरो,, ,, |
| कुष्ठघ्नो,, ,, | शोथहरो,, ,, |
| कण्डूघ्नो,, ,, | ज्वरहरो,, ,, |
| कृमिघ्नो,, ,, | श्रमहरो,, ,, |
| विषघ्नो,, ,, | दाहप्रशमनो,, ,, |
| स्तन्यजननो,, ,, | शीतप्रशमनो,, ,, |
| स्तन्यशोधनो,, ,, | उदर्दप्रशमनो,, ,, |
| विषयः | विषयः |
| अङ्गमर्दप्रशमनो दशको महा. | गुरुलघुमेदेन आहारस्य मात्रा |
| शूलप्रशमनो ,, ,, | मात्रावदाहारस्य गुणाः |
| शोणितास्थापनो ,, ,, | पिष्टमयादिगुरुद्रव्याणां भोजने मात्रा |
| वेदनास्थापनो ,, ,, | कीदृशानाहारान्नाभ्यसेत् |
| संज्ञास्थापनो ,, ,, | कीदृशानाहारानभ्यसेत् |
| प्रजास्थापनो ,, ,, | अञ्जनविधिः |
| वयःस्थापनो,, ,, | प्रायोगिकधूमवर्तिद्रव्याणि |
| भेषजानामसंख्येयत्वे नातिसंक्षेपविस्तरे युक्तिः | धूमवर्तेर्निर्माणविधिः |
| केषाञ्चिदङ्गानामेकाधिकेषु कषायान्तरेषु संप्लवनेऽपिपञ्चशतीत्वपूरणे युक्तिः | स्नैहिकधूमवर्तिद्रव्याणि |
| अध्यायार्थसंग्रहः | मूर्धविरेचनघूमवर्तिद्रव्याणि |
| इति भेषजचतुष्कः | |
| **५ मात्राशितीयोऽध्यायः | ** |
| मात्राशनं कर्तव्यम् | सम्यक्पीतस्य धूमस्य लक्षणम् |
| आहारमात्राया अग्निबलापेक्षित्वम् | अविधिपीतस्य धूमस्य दोषाः |
| आहारस्य मात्राप्रमाणम् | तत्र प्रतिकारः |
| प्रकृतिलघूनि प्रकृतिगुरूणि च द्रव्याणि मात्रयैवोपयोज्यानि | धूमपानानर्हाः |
| मात्राविचारे गौरवलाघवयोरौपयोगिकत्वम् | धूमपानविधिः |
| धूमनेत्रनिर्माणविधिः | |
| सुपीतस्य धूमस्य लक्षणम् | |
| अपीतस्य ,, ,, | |
| अतिपीतस्य ,, ,, | |
| अणुतैलस्य प्रयोगकालः | |
| अणुतैलसेवने गुणाः | |
| अणुतैलनिर्माणविधिः |
| विषयः | विषयः |
| अणुतैलस्य प्रयोगविधिः | **६ तस्याशितीयोऽध्यायः |
| दन्तधावनविधिर्गुणाश्च | ऋतुसात्म्ये विदिते फलम् |
| दन्तपवने योग्या द्रुमाः | ऋत्वादिविभागेन संवत्सरविभागः |
| जिह्वानिर्लेखनानि | अयनयोः स्वरूपम् |
| जिह्वानिर्लेखनस्य गुणाः | आदाने नृणां दौर्बल्ये हेतुः |
| आस्येन धार्याणि द्रव्याणि | विसर्गे नृणां बलोपचये हेतुः |
| तैलगण्डूषधारणस्य गुणाः | आदानविसर्गयोबेलस्य ह्रासवृद्धिक्रमः |
| शिरसि तैलनिषेवणस्य ,, | हेमन्तचर्या |
| कर्णपूरणस्य ,, | शिशिरचर्या |
| अभ्यङ्गस्य ,, | वसन्तचर्या |
| पादाभ्यङ्गस्य ,, | ग्रीष्मचर्या |
| शरीरपरिमार्जनस्य ,, | वर्षाचर्या |
| स्नानस्य ,, | शरच्चर्या |
| निर्मलाम्बरधारणस्य ,, | सात्म्यस्य लक्षणम् |
| गन्धमाल्यनिषेवणस्य ,, | अध्यायार्थसंग्रहः |
| रत्नाभरणधारणस्य ,, | **७ नवेगान्धारणीयोऽध्यायः |
| पादादिशौचाधानस्य ,, | येषां वेगान्न धारयेत् |
| केशादिकल्पनस्य ,, | मूत्रनिग्रहे दोषास्तच्चिकित्सा च |
| पादत्रधारणस्य ,, | पुरीषवेगविधारणे |
| छत्रधारणस्य ,, | शुक्रे प्रतिहते |
| दण्डधारणस्य ,, | वातनिग्रहे |
| स्वस्थविधाववाहितेन भवितव्यम् | |
| स्वस्थस्यान्यत्कर्तव्यम् | |
| अध्यायार्थसंग्रहः |
| विषयः | विषयः |
| छर्दिनिग्रहे दोषास्तच्चिकित्सा च | मलानां क्षयवृद्ध्योर्लक्षणम् |
| क्षवथुवेगविधारणे ,, | तज्जानां व्याधीनां क्रियाक्रमः |
| उद्गारनिग्रहे ,, | स्वस्थवृत्तसेवने हेतुः |
| जृम्भानिग्रहे,, | निजविकाराणामनुत्पत्तौ विधिः |
| क्षुद्वेगनिग्रहे,, | आगन्तुरोगाणामुत्पत्तौ कारणम् |
| पिपासानिग्रहे,, | आगन्तुविकाराणामनुत्पत्तौ विधिः |
| बाष्पनिग्रहे,, | रोगाणामनुत्पत्तौ उत्पन्नानां च शान्तये कारणम् |
| निद्राविधारणे,, | के नरा वर्ज्याः |
| श्रमनिःश्वासधारणे | के नराः सेव्याः |
| येषां वेगाः सर्वथा धारणीयाः | हितसेवने प्रयतितव्यं |
| साहसादीनां वेगधारणे गुणाः | दधिसेवने नियमाः |
| व्यायामस्य लक्षणम् | दधिसेवनविधीनामपालने दोषाः |
| व्यायामस्य गुणाः | अध्यायार्थसंग्रहः |
| अतिव्यायामे दोषाः | **८ इन्द्रियोपक्रमणीयोऽध्यायः |
| अन्यानपि यानतिमात्रं न सेवेत | पञ्चेन्द्रियादीनां परिगणनम् |
| तेषामतिमात्रसेवने दोषाः | मनसो लक्षणम् |
| व्यायामानर्हाः | एकस्मिन् पुरुषे मनसोऽनेकवद्राभासे कारणम् |
| हिताहितसेवनवर्जनक्रमः | |
| सदा आतुरा अनातुराश्च मानवाः | |
| देहप्रकृतेर्लक्षणम् | |
| स्वस्थस्य समसर्वरसं सात्म्यं प्रशस्तं | |
| मलायनानि |
| विषयः | विषयः |
| पुरुषस्य सात्त्विकादिव्यपदेशे हेतुः | **९ खुड्डाकचतुष्पादोऽध्यायः |
| मनःपुरःसराणामिन्द्रियाणामर्थग्रहणे सामर्थ्यम् | चिकित्सायाः पादचतुष्टयम् |
| पञ्चेन्द्रियाणि | रोगारोग्ययोर्लक्षणम् |
| पञ्चेन्द्रियद्रव्याणि | चिकित्साया लक्षणम् |
| पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानानि | वैद्यस्य गुणाः |
| पञ्चेन्द्रियार्थाः | द्रव्याणां ,, |
| पञ्चेन्द्रियबुद्धयः | परिचारकस्य ,, |
| अध्यात्मद्रव्यगुणानां संग्रहः | आतुरस्य ,, |
| पाञ्चभौतिकानामपि चक्षुरादीनां तैजसत्वादिव्यपदेशे हेतुः | पादचतुष्टये वैद्यस्य प्रधानत्वे हेतुः |
| समनस्कानामिन्द्रियाणां प्रकृतिविकृतिहेतवः | अज्ञचिकित्सकस्य दोषाः |
| मनसो ग्राह्यविषयाः | प्राज्ञचिकित्सकस्य गुणाः |
| समनस्कानामिन्द्रियाणां प्रकृतिभावे स्थापने उपायाः | सद्वैद्यस्य लक्षणम् |
| सद्वृत्तानुष्ठाने हेतुर्लाभश्च | वैद्यस्य कर्तव्यम् |
| अनुष्ठेयानि सद्वृत्तानि | भूतेषु चतुर्विधा वैद्यवृत्तिः |
| अननुष्ठेयान्यसद्वृत्तानि | अध्यायार्थसंग्रहः |
| आत्मनः शुभाशंसनप्रकारः | **१० महाचतुष्पादोऽध्यायः |
| अध्यायाधंसंग्रहः | चतुष्पादं भेषजमलमारोग्यायेत्यात्रेयकृता स्थापना |
| **इति स्वस्थवृत्तचतुष्कः | ** |
| तत्र समाधानमात्रेयकृतम् | |
| चिकित्सासूत्रम् |
| विषयः | विषयः |
| चिकित्सायां यशोलामे कारणम् | प्रत्यक्षस्य लक्षणम् |
| असाध्यरोगचिकित्सायां हानिः | अनुमानस्य ,, |
| रोगाणां साध्यासाध्यत्वेऽपि पुनर्विभागः | युक्तेर्लक्षणम् |
| सुखसाध्यस्य रोगस्य लक्षणम् | आप्तवाक्यद्वारा पुनर्भवस्य प्रतिपादनम् |
| कृच्छ्रसाध्यस्य ,, ,, | प्रत्यक्षेण ,, ,, |
| याप्यस्य,, ,, | अनुमानेन ,, ,, |
| प्रत्याख्येयस्य ,, ,, | युक्त्या ,, ,, |
| रोगस्य साध्यासाध्यज्ञानप्रयोजनं | सिद्धे पुनर्भवे धर्माचरणमवश्यं कर्तव्यं |
| अध्यायार्थसंग्रहः | त्रय उपस्तम्भाः |
| **११ तिस्रैषणीयोऽध्यायः | ** |
| तिस्र एषणाः | त्रीण्यायतनानि रोगस्य |
| प्रथमा प्राणैषणा | असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगविव |
| द्वितीया धनैषणा | अयोगातियोगमिथ्यायोगयुक्तस्य कर्मणो लक्षणम् |
| तृतीया परलोकैषणा | ,,कालस्य लक्षणम् |
| परलोकास्तित्वप्रतिपादनं | सर्वेषामेव वस्तूनां भावाभावौ योगाद्यपेक्षिणौ |
| नास्तिकतापरित्यागे युक्तिः | त्रयो रोगाः |
| परीक्षायाश्चातुर्विध्यम् | मानसव्याधेः प्रतिकारः |
| आप्तस्य लक्षणम् | त्रयो रोगमार्गाः |
| आप्तवाक्यस्य सत्यतायांयुक्तिः | शाखानुसारिणो रोगाः |
| मध्यममार्गानुसारिणो रोगाः | |
| कोष्ठानुसारिणो रोगाः |
| विषयः | विषयः |
| त्रिविधा भिषजः | शरीरान्तर्गतस्य कुपिताकुपितस्य श्लेष्मणः शुभाशुभकरत्वम् |
| त्रिविधमौषधम् | सर्वेषामेव वातपित्तश्लेष्मणां प्रभुत्वमिति आत्रेयकृतं समाधानम् |
| त्रिविधा चिकित्सा | अध्यायार्थसंग्रहः |
| प्राज्ञाज्ञरोगिणोः लक्षणम् | **इति निर्देशचतुष्कः |
| अध्यायार्थसंग्रहः | **१३ स्त्रेहाध्यायः |
| **१२ वातकलाकलीयोऽध्यायः | ** |
| वायुमधिकृत्य महर्षीणां प्रश्नोत्तराणि | पुनर्वसोरुत्तरम् |
| वायोर्गुणाः | स्नेहस्य द्विविधा योनिः |
| वायोः प्रकोपणानि | स्थावरस्नेहस्याशयाः |
| वायोः प्रशमनानि | जाङ्गमस्नेहस्याशयाः |
| प्रकोपणप्रशमनानि कथं वायुंप्रकोपयन्ति प्रशमयन्ति च | तिलतैलस्य गुणाः |
| शरीरचरस्याकुपितस्य वायोः कर्माणि | एरण्डतैलस्य ,, |
| शरीरचरस्य कुपितवायोः कर्माणि | सर्पिषः सर्वस्नेहोत्तमत्वं |
| प्रकृतिभूतस्य लोकेषु चरतो वायोः कर्माणि | घृतस्य गुणाः |
| लोकेषु चरतः कुपितवायोः कर्माणि | तैलस्य ,, |
| वायोः प्रभावः | वसायाः,, |
| शरीरान्तर्गतस्य कुपिताकुपितस्य पित्तस्य शुभाशुभकरत्वम् | मज्जायाः,, |
| ऋतुभेदे स्नेहपाने भेदः | |
| स्नेहपाने कालभेदोऽधिकारिभेदश्च |
| विषयः | विषयः |
| तन्नियमापालने दोषाः | स्नेहभ्रमजा दोषाः |
| स्नेहस्यानुपानम् | स्नेहव्यापत्तौ चिकित्सा |
| स्नेहस्य चतुर्विंशतिः प्रविचारणाः | स्नेहव्यापत्तौ हेतवः |
| स्नेहस्य त्रिविधा मात्राः | संशोधने स्नेहे वृत्तिः |
| उत्तमस्नेहमात्रार्हाः पुरुषाः | संशमने स्नेहे वृत्तिः |
| उत्तमस्नेहमात्राया गुणाः | स्नेहविचारणाया विषयाः |
| मध्यमस्नेहमात्रार्हाः पुरुषाः | स्नेहानां प्रविचारणाविधिः |
| मध्यमस्नेहमात्राया गुणाः | कुष्ठयादीनां स्नेहने वर्जनीयद्रव्याणि |
| ह्रस्वस्नेहमात्रार्हाः पुरुषाः | कुष्ठयादीनां स्नेहनप्रकारः |
| ह्रस्वस्नेहमात्राया गुणाः | अतिमात्रया त्वरया च स्नेहसेवने दोषाः |
| घृतपानार्हाः | स्नेहस्वेदादीनां क्रमः |
| तैलपानार्हाः | अध्यायार्थसंग्रहः |
| वसापानार्हाः | **१४ स्वेदाध्यायः |
| मज्जपानार्हाः | स्वेदगुणाः |
| स्नेहनस्य प्रकर्षः | स्वेदो यथा कार्यकरः |
| के स्नेह्याः | स्वेदस्य मात्रा |
| के न स्नेह्याः | दोषापेक्षिणी स्वेदकल्पना |
| अस्निग्धस्य लक्षणम् | अवयवापेक्षिणी ,, |
| स्त्रिग्धस्य ,, | हृदयवंक्षणादीनां स्वेदे रक्षणविधिः |
| अतिस्निग्धस्य ,, | सम्यस्विन्नस्य लक्षणम् |
| स्नेहपाने पूर्वकर्म | अतिस्विन्नस्य ,, |
| स्नेहपीते हिताहितम् | |
| मृदुक्रूरकोष्ठयोर्लक्षणम् | |
| स्नेहपाने तृष्णोपद्रवचिकित्सा | |
| स्नेहाजीर्णे कर्तव्यम् |
| विषयः | विषयः |
| अतिस्विन्नस्य चिकित्सा | प्रकारान्तरेण षड्विधः स्वेदः |
| अस्वेद्याः | स्विन्नेन यत् कार्यं |
| स्वेदसाध्या विकाराः | स्विन्नेन वर्जनीयाः |
| पिण्डस्वेदस्य द्रव्याणि | अध्यायार्थसंग्रहः |
| प्रस्तरस्वेदस्य ,, | **१५ उपकल्पनीयोऽध्यायः |
| नाडीस्वेदस्य,, | वमनादिकर्मणः प्राक्संभारोपकल्पनस्य प्रयोजनम् |
| अवगाहपरिषेकस्वेदयोः ,, | उपकल्पनीयाः संभाराः |
| उपनाहस्वेदस्य ,, | वमनस्य पूर्वकर्म |
| उपनाहस्वेदे बन्धनद्रव्याणि ,, | वमनविधिः |
| बन्धमोक्षविधिः | संशोधन(वमन)स्य मात्रा |
| त्रयोदश स्वेदाः | पीते वमनौषधे कर्तव्यं |
| संकरस्वेदस्य कल्पना | वमनस्यायोगलक्षणानि |
| प्रस्तरस्वेदस्य,, | वमनसम्यग्योगलक्षणानि |
| नाडीस्वेदस्य,, | वमनातियोगलक्षणानि |
| परिषेकस्वेदस्य,, | वमनायोगातियोगजा उपद्रवाः |
| अवगाहस्वेदस्य,, | वमनस्य योगे पश्चात्कर्तव्यम् |
| जेन्ताकस्वेदस्य ,, | विरेचनविधिः |
| अश्मघनस्वेदस्य ,, | संभारोपकल्पनासमर्थानां संशोधनप्रकारः |
| कर्षूस्वेदस्य,, | |
| कुटीस्वेदस्य,, | |
| भूस्वेदस्य ,, | |
| कुम्भिकास्वेदस्य,, | |
| कूपस्वेदस्य,, | |
| होलाकस्वेदस्य,, | |
| निरग्निस्वेदो दशविधः |
| विषयः | विषयः |
| संशोधनकरणे गुणाः | चिकित्साप्राभृतस्य फलम् |
| अध्यायार्थसंग्रहः | अध्यायार्थसंग्रहः |
| **१६ चिकित्साप्राभृतीयोऽध्यायः | ** |
| विज्ञभिषक्प्रयुक्ते विरेचने गुणाः | **१७ कियन्तःशिरसीयोऽध्यायः |
| अज्ञप्रयुक्ते विरेचने दोषाः | शिरोरोगादिविषये अग्निवेशस्य प्रश्नाः |
| विरेचनस्य सम्यग्योगलक्षणम् | आत्रेयस्य उत्तरम् |
| विरेचनस्यायोगलक्षणम् | शिरोरोगाणां निदानं संप्राप्तिश्च |
| वमनस्यातियोगलक्षणानि | अङ्गेषु शिरसः प्राधान्यम् |
| संशोधनयोग्याः पुरुषाः | शिरोरोगाणां नामानि |
| संशोधनस्य गुणाः | वातजशिरोरोगस्य निदानं लक्षणं च |
| संशमनापेक्षया संशोधनस्य ज्यायस्त्वे युक्तिः | पित्तजशिरोरोगस्य निदानं लक्षणं च |
| संशोधनानन्तरं पथ्यम् | कफजशिरोरोगस्य ,, ,, |
| संशोधनस्यातियोगे प्रतिकारः | त्रिदोषजशिरोरो ,, ,, |
| स्नेहादिकर्मस्वविधिना विहितेषु साधनम् | क्रिमिजशिरोरोगस्य ,, ,, |
| धातूनां वैषम्ये साम्ये च हेतुः | वातजहृद्रोगस्य ,, ,, |
| चिकित्सायाः प्रयोजनविषये अग्निवेशस्य प्रश्नाः | पित्तजहृद्रोगस्य ,, ,, |
| आत्रेयकृतं तत्समाधानं | कफजहृद्रोगस्य ,, ,, |
| चिकित्साया लक्षणम् | संनिपातजहृद्रोगस्य ,, ,, |
| चिकित्सायाः प्रयोजनं | क्रिमिजहृद्रोगस्य ,, ,, |
| दोषमानविकल्पजा रोगाः ,, ,, |
| विषयः | विषयः |
| व्याधीनां द्विषष्टिः | कच्छपिकाया लक्षणं |
| दोषाणां वृद्धिक्षये लक्षणानि | जालिन्या ,, |
| अष्टादशक्षयाणां गणना | सर्षप्या ,, |
| रसक्षयस्य लक्षणम् | अलज्या ,, |
| रक्तक्षयस्य ,, | विनताया ,, |
| मांसक्षयस्य ,, | विद्रध्या ,, |
| मेदःक्षयस्य ,, | बाह्याभ्यन्तरभेदेन विद्रधी द्विविधा |
| अस्थिक्षयस्य ,, | अन्तर्विद्रध्या निदानम् |
| मज्जक्षयस्य ,, | विद्रध्याः संप्राप्तः |
| शुक्रक्षयस्य ,, | विद्रध्याः स्थानानि |
| पुरीषक्षयस्य ,, | विद्रध्या निरुक्तिः |
| मूत्रक्षयस्य ,, | वातजादिभेदेनान्तर्विद्रधिलक्षणानि |
| सामान्येन मलक्षयलक्षणम् | विदाहं प्राप्ताया विद्रध्या लक्षणं |
| ओजः क्षयलक्षणम् | विद्रधीनां स्रावलक्षणम् |
| ओजसो लक्षणम् | अन्तर्विद्रधीनां स्थानविशेषकृतं लक्षणम् |
| सामान्येन क्षयाणां हेतवः | अन्तर्विद्रधीनां साध्यत्वासाध्यत्वनिर्देशः |
| मधुमेहस्य निदानं संप्राप्तिश्च | विद्रधीषु क्रियाक्रमः |
| मधुमेहस्य लक्षणम् | प्रमेहं विनाऽपि पिडकानां संभवः |
| मधुमेहस्य उपेक्षणे पिडकानां समुद्भवः | |
| सप्तपिडकानां नामानि | |
| शराविकाया लक्षणम् |
| विषयः | विषयः |
| कस्य दोषस्य प्रकोपे का पिडका जायते | शोथानां पृथक् पृथक् प्रकारेण भेदाः |
| पिडकानां साध्यत्वासाध्यत्वनिर्देशः | वातजादीनां शोथलक्षणानां श्लोकेन पुनरभिधानम् |
| उक्ताभ्योऽन्याः पिडकाः | शोथानां स्थानविशेषकृतमसाध्यत्वम् |
| पिडकानामुपद्रवाः | शोथस्योपद्रवाः |
| दोषाणां त्रिविधा गतिः | उपजिह्विकायाःसंप्राप्तिः लक्षणं च |
| विधिभेदेन दोषाणां चयप्रकोपप्रशमकालाः | गलशुण्डिकायाः ,, ,, |
| दोषाणां प्राकृती वैकृती च गतिः | गलगण्डस्य ,, ,, |
| अध्यायार्थसंग्रहः | गलग्रहस्य,, ,, |
| **१८ त्रिशोथीयोऽध्यायः | ** |
| शोथानां भेदाः | पिडकायाः,, ,, |
| आगन्तोः शोथस्य निदानम् | तिलकादीनां,, ,, |
| आगन्तुशोथस्य प्रतिकारः | शङ्खकस्य,, ,, |
| निजस्य शोथस्य सामान्यनिदानम् | कर्णमूलशोथस्य,, ,, |
| वातजशोथस्य निदानं लक्षणं च | प्लीहाभिवृद्धेः ,, ,, |
| पित्तजशोधस्य ,, ,, | गुल्मस्य,, ,, |
| कफजशोथस्य ,, ,, | वृद्धेः,, ,, |
| द्वन्द्वजसंनिपातजशोधानां निदानं लक्षणं च | उदरस्य,, ,, |
| आनाहस्य ,, ,, | |
| अधिमांसार्बुदादीनामपि शोथेऽन्तर्भावः |
| विषयः | विषयः |
| रोहिण्याः संप्राप्तिः | अष्टौ रेतोदोषाः |
| रोहिण्याः साध्यत्वासाध्यत्वनिर्देशः | सप्तकुष्ठानि |
| रोगाणां साध्यासाध्यभेदेन द्वैविध्यम् | ,, पिडकाः |
| साध्यस्य लक्षणं | ,, वीसर्पाः |
| असाध्यस्य द्वैविध्यम् | षडतीसाराः |
| कुपितस्यैकस्यैव दोषस्य विविधरोगकरत्वे रोगाणामपरिसंख्येयत्वे च तेषां चिकित्सिते सामान्योपदेशः | षडदावर्ताः |
| एतदुपदेशपालने फलम् | पञ्च मुल्माः |
| प्रकृतिस्थस्य वातस्य कर्म | ,, कासाः |
| प्रकृतिस्थस्य पित्तस्य ,, | ,, श्वासाः |
| प्रकृतिस्थस्य कफस्य ,, | ,, हिक्काः |
| वातादीनां क्षयलक्षणम् | ,, तृष्णाः |
| वातादीनां वृद्धिलक्षणम् | ,, छर्दयः |
| अध्यायार्थसंग्रहः | ,, भक्तस्यानशनस्थानानि (अरुचयः) |
| **१९ अष्टोदरीयोऽध्यायः | ** |
| उदरादिरोगाणां संख्यानां निर्देशः | ,, हृद्रोगाः |
| अष्टौ उदराणि | ,, पाण्डुरोगाः |
| ,,मूत्राघाताः | ,, उन्मादाः |
| ,, क्षीरदोषाः | चत्वारोऽपस्माराः |
| चत्वारोऽक्षिरोगाः | |
| चत्वारः कर्णरोगाः | |
| ,, प्रतिश्यायाः | |
| ,, मुखरोगाः | |
| ,, ग्रहणीदोषाः | |
| ,, मदाः |
| विषयः | विषयः |
| चत्वारः मूर्च्छायाः | **२० महारोगाध्यायः |
| ,, शोषाः | चत्वारो रोगाः |
| चत्वारि क्लैव्यानि | रुक्सामान्यात्तेषामेकत्वम् |
| त्रयः शोथाः | आगन्तुनिजविभागाद्वैविध्यम् |
| त्रीणि किलासानि | द्विविधं रोगाणामधिष्ठानम् |
| त्रिविधं रक्तपित्तम् | रोगाणामपरिसंख्येयत्वम् |
| द्विविधो ज्वरः | आगन्तुविकारस्य कारणानि |
| ,, व्रणः | निजविकारस्य ,, |
| ,, आयामः | सर्वेषामपि विकाराणां प्रेरणम् (प्रयोजकनिमित्तम्) |
| द्विविधा गृध्रसी | सर्वे रोगाः परस्परमनुबन्धिनः |
| ,, कामला | आगन्तुनिजयोर्लक्षणतो भेदः |
| द्विविधमामम् | शरीरे दोषाणां स्थानविभागः |
| द्विविधं वातरक्तम् | वातपित्तश्लेष्मणां प्रकृतिभूतानां विकृतानां च कर्म |
| द्विविध अर्शोरोगः | सामान्यजा नानात्मजाश्च विकाराः |
| एक ऊरुस्तम्भः | अशीतेर्वातविकाराणां गणना |
| ,, संन्यासः | वायोरात्मरूपस्वलक्षणकर्माणि |
| ,, महागदः | |
| विंशतिः क्रिमिजातयः | |
| ,, प्रमेहाः … ,, | |
| विंशतिर्योनिव्यापदः | |
| सर्वेषामेव विकाराणां वातादिजत्वनिर्देशः | |
| निजागन्त्वोः परस्परानुबन्धित्वं | |
| अध्यायार्थसंग्रहः |
| विषयः | विषयः |
| कुपितस्य वायोरुपक्रमः | अतिस्थूलातिकृशयोश्चिकित्साक्रमः |
| चत्वारिंशतः पित्तविकाराणां गणना | स्थूलकृशयोः कृशस्य प्राधान्ये युक्तिः |
| पित्तस्यात्मरूपस्वलक्षणकर्माणि | सममांसप्रमाणस्य प्रशस्तता |
| कुपितस्य पित्तस्योपक्रमः विंशतेः श्लेष्मविकाराणां गणना | स्थूलकृशयोः कर्शनबृंहणे यथा कार्ये |
| श्लेष्मण आत्मरूपस्वलक्षणकर्माणि | अतिस्थौल्यस्योपक्रमः |
| कुपितस्य श्लेष्मण उपक्रमः | अतिकार्ये प्रतिकारः |
| चिकित्सायां रोगभेषजादिज्ञानस्योपयोगिता | संक्षेपेण स्थौल्यकरा भावाः |
| अध्यायार्थसंग्रहः | निद्रायाः कारणम् |
| **इति रोगचतुष्कः | ** |
| **२१ अष्टौनिन्दितीयोऽध्यायः | ** |
| अष्टौ निन्दिताः पुरुषाः | येषां दिवानिद्रा हिता |
| अतिस्थूलस्य दोषाः | ग्रीष्मेतरेष्वृतुषु दिवानिद्रायाः प्रतिषेधः |
| तेषामेव पुनराख्यानं श्लोकेन | केषां दिवानिद्रा सर्वदा अहिता |
| अतिस्थूलस्य लक्षणम् | अहितदिवानिद्राया दोषाः |
| अतिकार्श्यस्य निदानम् | रात्रिजागरणदिवास्वप्नासीनप्रचलायितानां गुणाः |
| अतिकृशस्य दोषाः | निद्रानाशे प्रतिकारः |
| अतिकृशस्य लक्षणम् | अतिनिद्रायां प्रतिकारः |
| विषयः | विषयः |
| निद्रानाशस्य हेतुः | भिन्नप्रकारस्य लङ्घनस्याधिकारिणः |
| निद्राया मेदाः | बृंहणं मांसम् |
| अध्यायार्थसंग्रहः | बृंहणीयाः पुरुषाः बृंहणीयानि च |
| **२२ लङ्घनबृंहणीयोऽध्यायः | ** |
| लङ्घनबृंहणादयः षडुपक्रमाः | स्नेहाः स्नेहनीयाश्च |
| लङ्घनादीन्यधिकृत्य अग्निवेशस्य प्रश्नाः | स्वेदाः स्वेदनीयाश्च |
| आत्रेयस्योत्तरम् | स्तम्भनस्य लक्षणम् |
| लङ्घनस्य लक्षणम् | स्तम्भनद्रव्याणि |
| बृंहणस्य ,, | स्तम्भनीयाः पुरुषाः |
| रूक्षणस्य,, | लङ्घनस्य कृतातिकृतलक्षणम् |
| स्नेहनस्य,, | बृंहणस्य ,, |
| स्वेदनस्य,, | रूक्षणस्य ,, |
| स्तम्भनस्य,, | स्तम्भनस्य ,, |
| लङ्घनद्रव्याणि | लङ्घनादीनां षण्णामकृतानां लक्षणस्य समासेनोपदेशः |
| बृंहणद्रव्याणि | असंख्येयत्वेऽप्युपक्रमाणां षट्त्वे युक्तिः |
| रूक्षणद्रव्याणि | अध्यायार्थसंग्रहः |
| स्नेहनद्रव्याणि | **२३ संतर्पणीयोऽध्यायः |
| स्वेदनद्रव्याणि | संतर्पणनिमित्तानि |
| स्तम्भनद्रव्याणि | संतर्पणजा रोगाः |
| लङ्घनस्य प्रकारभेदाः | |
| लङ्घनीयाःपुरुषाः |
| विषयः | विषयः |
| तत्र प्रतिकारः | मदमूर्च्छायसंन्यासानांसंप्राप्तिः |
| अपतर्पणजा रोगाः | वातजादिभेदेन मन्दस्यलक्षणम् |
| तत्र प्रतिकारः | शोणितमद्यविषजानामपि मदानां वातादिजेष्वन्तर्भावः |
| सद्यः क्षीणस्य चिकित्साक्रमः | वातजादिभेदेन मूर्च्छायस्य लक्षणम् |
| चिरदुर्बलस्य चिकित्साक्रमः | संन्यासान्मदमूर्च्छाययोर्भेदः |
| केचित्तर्पणयोगाः | संन्यासस्य संप्राप्तिः |
| अध्यायार्थसंग्रहः | संन्यासस्य लक्षणम् |
| **२४ विधिशोणितीयोऽध्यायः | ** |
| विधिना जातं शोणितं शुद्धं भवति | मदमूर्च्छाययोरुपक्रमः |
| शुद्धस्य शोणितस्य फलम् | अध्यायार्थसंग्रहः |
| शोणितदुष्टिनिदानम् | **इति योजनाचतुष्कः |
| शोणितजानां रोगाणां निर्देशः | **२५ यज्जःपुरुषीयोऽध्यायः |
| अनुक्तानां शोणितजानां रोगाणां संग्रहः | पुरुषमामयं चाधिकृत्य समेतानां महर्षीणां कथा |
| शोणितरोगेषु क्रियाक्रमः | तत्र पुनर्वसुकृतं समाधानम् |
| वातादिदुष्टशोणितस्य लक्षणम् | हिताहिताहारजातस्य अनपवाद लक्षणम् |
| विशुद्धस्य शोणितस्य लक्षणम् | |
| स्रुतरक्तस्यान्नपानविधिः | |
| विशुद्धरक्तस्य पुरुषस्य लक्षणम् |
| विषयः | विषयः |
| आहारविधिविशेषाणां लक्षणतोऽवयवतश्च व्याख्यानम् | **२६ आत्रेयभद्रकाप्यीयोऽध्यायः |
| प्रकृत्यैव हिततमानामाहारद्रव्याणां निर्देशः | महर्षीणां समितौ रसाहारविनिश्चये कथा |
| प्रकृत्यैवाहिततमानामाहारद्रव्याणां निर्देशः | षडेव रसा इति आत्रेयस्य समाधानम् |
| अग्र्याणां संग्रहः | सर्वद्रव्यं पाञ्चभौतिकं |
| तेषां चिकित्सायामुपयोगः | तच्चेतनावदचेतनं चेति द्विविधम् |
| पथ्यापथ्ययोर्लक्षणम् | द्रव्याणां गुणाः |
| द्रव्याणां मात्रादिज्ञानस्य प्रयोजनम् | द्रव्याणां वमनादि पञ्चविधं कर्म |
| धान्यादयो नव आसवयोनयः | पार्थिवादिभेदेन द्रव्याणां लक्षणं गुणाश्च |
| पथ्यतमानामासवानां चतुरशीतिनिर्देशः | सर्वेषामेव द्रव्याणामौषधत्वे युक्तिः |
| आसवशब्दस्य निरुक्तिः | द्रव्यकर्मवीर्याधिकरणकालोपायफलानां लक्षणम् |
| आसवानां बहुविधो विकल्पः संस्कारश्च | द्रव्याणां रसद्वारेण त्रिषष्टिविधो भेदः |
| यथास्वं संयोगसंस्कारसंस्कृतानामासवानां स्वकर्मकरत्वम् | रसानुरसकल्पनया द्रव्याणां भेदोऽसंख्येयः |
| आसवानां साधारणगुणाः | रसविकल्पयोगे युक्तिः |
| अध्यायार्थसंग्रहः | रसविकल्पज्ञानस्य प्रयोजनम् |
| विषयः | विषयः |
| रसानुरसयोर्लक्षणम् | रसानां विपाकनिर्देशः |
| परादीनां गुणानां निर्देशः | मधुरादीनां विपाकानां कार्यम् |
| परादिगुणानां लक्षणम् | द्रव्यगुणवैशेष्याद्विपाकस्याल्पमध्यभूयस्त्वप्रदर्शनं |
| द्रव्यगुणानां रसेषूपचारः | वीर्यस्याष्टविधत्वम् |
| रसानां पञ्चभूतप्रभवत्वम् | सर्वक्रियाणां वीर्यकृतत्वम् |
| यद्यद्भूतगुणातिरेकाद्यस्य रसस्य निष्पत्तिस्तन्निर्देशः | रसवीर्यविपाकानामेकस्मिन्द्रव्ये सह वसतां भेदेन ज्ञानलक्षणम् |
| रसानां सामान्यतो गुणकर्मनिर्देशः | प्रभावस्य लक्षणम् |
| तत्र मधुररसस्य गुणकर्माणितस्यातियोगे दोषाश्च | रसवीर्यविपाकादिषु प्रभावस्य प्राधान्यम् |
| अम्लरसस्य ,, ,, ,, | षण्णां रसानां विज्ञानम् |
| लवणरसस्य ,, ,, ,, | वैरोधिकानामाहारविकाराणां संक्षेपेण लक्षणं |
| कटुरसस्य ,, ,, ,, | केषांचिद्वैरोधिकानामाहारविकाराणामुपदेशः सयुक्तिकः |
| तिक्तरसस्य ,, ,, ,, | अहितस्याहारस्य लक्ष. |
| कषायरसस्य ,, ,, ,, | विरुद्धाहारनिमित्तानां व्याधीनां निर्देशः |
| रसानां मात्रामात्राभ्यामुपयुज्यमानानां गुणदोषौ | कदाचिद्विरुद्धस्य वितथत्वे कारणम् |
| रसवीर्यविपाकप्रभावद्वारेण द्रव्याणां गुणकर्मनिर्देशः | |
| रसोपदेशेनैव सर्वद्रव्यगुणोपदेशस्यायौक्तिकत्वम् | |
| रसानां वीर्येणाल्पमध्यवरत्वप्रदर्शनम् |
| विषयः | विषयः |
| वैरोधिकनिमित्तानां व्याधीनां प्रतिघातकरा भावाः | यवस्य गुणाः |
| अध्यायाधंसंग्रहः | वेणुयवस्य ,, |
| **२७ अन्नपानविध्यध्यायः | ** |
| विधिविहितस्यान्नपानस्य प्राणिनां प्राणत्वम् | नान्दीमुखीमधुल्योर्गुणाः |
| तत्रोदकादीनां केषांचिद्द्रव्याणां स्वाभाविकगुणकीर्तनम् | **इति शूकधान्यवर्गः |
| रसानां स्वाभाविकगुणानां सव्यभिचारं निर्देशः | २ शमीधान्यवर्गः |
| वर्गसंग्रहेण द्रव्याणां तद्भुणानां चोपदेशे प्रतिज्ञा वर्गाणां संक्षेपेण निर्देशः | मुद्गस्य गुणाः |
| **१ शुकधान्यवर्गः | ** |
| शालीनां सामान्यगुणाः | राजमाषस्य,, |
| रक्तशाल्यादीनां विशेषगुणाः | कुलत्थस्य,, |
| वरकोद्दालकचीनशारदोज्ज्वलदर्दुरगन्धलकुरुविन्दानां गुणाः | मकुष्टकस्य,, |
| व्रीहेर्गुणाः | चणकमसूरखण्डिकाहरेणूनां साधारणगुणाः |
| पाटलस्य गुणाः | तत्र मसूरकलायतिलानां विशेषगुणाः |
| श्यामाकादितृणधान्यानां गुणाः | शिम्बिजातीनां गुणाः |
| शिम्बागुणाः | |
| आढक्या गुणाः | |
| अवल्गुजैडगजनिष्पावानां ,, | |
| काकाण्डोलात्मगुप्तयोः ,, | |
| **इति शमीधान्यवर्गः | |
| **३ मांसवर्गः | |
| प्रसहानां निर्देशः | |
| भूमिशयानां ,, | |
| आनूपानां ,, |
| विषयः | विषयः |
| वारिशयानां निर्देशः | शशमांसस्य गुणाः |
| वारिचारिणां ,, | चटकमांसस्य,, |
| जाङ्गलानां ,, | एणमांसस्य,, |
| विष्किराणां ,, | गोधामांसस्य,, |
| विष्किरेषु द्विविधो भेदः | शल्लकमांसस्य,, |
| प्रतुदानां निर्देशः | मत्स्यमांसस्य साधारणगुणाः |
| प्रसहादिसंज्ञानां निरुक्तिः | रोहिषमांसस्य गुणाः |
| प्रसहभूशयानूपवारिजवारिचराणां साधारणगुणाः | वराहमांसस्य,, |
| प्रसहानां विशेषगुणाः | कूर्ममांसस्य,, |
| लावादिविष्किर-प्रतुद-जाङ्गलानां साधारणगुणाः ,, | गोमांसस्य,, |
| वर्तकादिविष्किराणां ,, | माहिषमांसस्य,, |
| आजमांसस्यगुणाः | खड्गिमांसस्य ,, |
| आविकमांसस्य ,, | हंसादीनामण्डानां ,, |
| अजाव्योर्व्यामिश्रगोचरत्वम् | शरीरबृंहणे मांसस्यप्राधान्यम् |
| बर्हिमांसस्य गुणाः | **इति मांसवर्गः |
| हंसमांसस्य ,, | **४ शाकवर्गः |
| कुक्कुटमांसस्य,, | पाठाशुषशटीवास्तुकसुनिषण्णकानां गुणाः |
| तित्तिरिमांसस्य,, | काकमाच्या,, |
| कपिञ्जलमांसस्य,, | राजक्षवकस्य,, |
| लावमांसस्य,, | कालशाकस्य,, |
| गृहकपोतमांसस्य ,, | कलायशाकस्य,, |
| वनकपोतमांसस्य,, | अम्लचाङ्गेर्या,, |
| शुकमांसस्य,, |
| विषयः | विषयः |
| उपोदिकाया गुणाः | शण-शाल्मली-कोविदार-कर्बुदाराणां पुष्पशाकानां गुणाः |
| तण्डुलीयकस्य ,, | न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षपद्मादिपल्लवानां गुणाः |
| मण्डूकपर्णी-वेत्राग्र-कुचेला-वनतिक्तक-कर्कोटकाव-ल्गुज-पटोल-शकुलादनी-वृषपुष्प-शार्ङ्गेष्टा-केम्बूक-कठिल्लक-नाडी-कलायगोजिह्वा-वार्ताकी-तिलपर्णिका-कुलक-कर्कशनिम्ब-पर्पटक-शाकानां गुणाः | वत्सादनीगुणाः |
| सूप्यशाक-फञ्जी-चिल्ली-कुतुम्बकालुक-कठिञ्जर-शणशाल्मलीपुष्प-कर्बुदार-सुवर्चला-निष्पाव-कोविदार-पत्तूर चुञ्जुपर्णिका-कुमारजी-वलोट्टाक-पालङ्क्या-मारीष-कलम्बी-नालिकाऽऽ-सुरी- कुसुम्भ-वृकधूमक-लक्ष्मणा- प्रपुन्नाड-नलिनी-कुठेरक-लोणिका-यवशाक-कूष्माण्डावल्गुज-जातुक-शालकल्याणी-त्रिपर्णी-पीलुपर्णिका-शाकानां गुणाः | गण्डीर-चित्रकयोर्गुणाः |
| श्रेयसी-बिल्वपर्णी-बिल्वपत्राणां गुणाः | |
| भण्डी-शतावरी-बला-जीवन्ती-पर्वणी-पर्वपुष्पीणां गुणाः | |
| लाङ्गलिक्युरुबूकयोर्गुणाः | |
| तिलवेतसपञ्चाङ्गुलशाकानां गुणाः | |
| कौसुम्भशाकस्य गुणाः | |
| त्रपुषैर्वारुकयोर्गुणाः | |
| अलाबुगुणाः | |
| चिर्भटैर्वारुकयोर्गुणाः | |
| कूष्माण्डस्य गुणाः | |
| केलुटकदम्बनदीमाषकैन्दुकानां गुणाः | |
| कानां गुणाः | |
| उत्पलस्य गुणाः | |
| तालप्रलम्बस्य,, | |
| खर्जूरतालशस्ययूर्गुणाः |
| विषयः | विषयः |
| तरूटबिसशालूकक्रौञ्चादनकसेरुकशृङ्गाटकाङ्कलोड्यानां गुणाः | पारावतस्य,, |
| सपुष्पफलकुमुदोत्पलनालानां गुणाः | काश्मर्यफलस्य,, |
| पुष्करबीजस्य गुणाः | तूदस्य,, |
| मुञ्जातकस्य ,, | टङ्कस्य |
| विदारीकन्दस्य गुणाः | कपित्थस्य,, |
| अम्लीकाकन्दस्य ,, | बिल्वस्य,, |
| सार्षपशाकस्य ,, | आम्रस्य,, |
| पिण्डालुकस्य ,, | जम्बोः,, |
| छत्रकजातीनां गुणाः | बदरस्य,, |
| **इति शाकवर्गः | ** |
| **५ फलवर्गः | ** |
| मृद्वीकाया गुणाः | संपक्वपनस-मोच-राजादनफलानां |
| खर्जूरय ,, | लवलीफलस्य ,, |
| फल्गोः ,, | नीप-भार्गक-पीलु-तृणशून्यविकङ्कत-प्राचीनामलकानां गुणाः |
| परूषकमधूकयोः ,, | इङ्गुदीफलस्य ,, |
| आम्रातकस्य ,, | तिन्दुकस्य ,, |
| पक्वतालशस्यस्य गुणाः | आमलकस्य ,, |
| नारिकेलफलस्य ,, | बिभीतकस्य ,, |
| भव्यस्य ,, | दाडिमस्य ,, |
| अम्लपरूषक-द्राक्षा-बदरारुक-कर्कन्धु-लकुचानां गुणाः |
| विषयः | विषयः |
| वृक्षाम्लस्य गुणाः | मूलकस्य गुणाः |
| अम्लीकाफलस्य ,, | सुरसस्य,, |
| अम्लवेतसफलस्य,, | यवान्यर्जकशिग्रुशालेयभृष्टकानां गुणाः |
| मातुलुङ्गस्य,, | गण्डीरजलपिप्पलीतुम्बरुशृङ्गवेरिकाणां गुणाः |
| कर्चूरस्य ,, | भूस्तृणस्य,, |
| नागरङ्गफलस्य,, | खराह्वाया,, |
| वातामाभिषुकाक्षोडमुकुलनिकोचोरुमाणानां गुणाः | धान्यकाजगन्धासुमुखानां गुणाः |
| प्रियालस्य,, | गृञ्जनस्य ,, |
| श्लेष्मातकस्य,, | पलाण्डोः,, |
| अङ्कोटस्य,, | लशुनस्य,, |
| शमीफलस्य,, | **इति हरितवर्गः |
| करञ्जफलस्य,, | **७ मद्यवर्गः |
| आम्रातक-दन्तशठ-करमर्दैरावतकानां गुणाः | मद्यानां सामान्यगुणाः |
| वार्ताकफलस्य ,, | सुरायाः गुणाः |
| पर्कटकीफलस्य,, | मदिरायाः,, |
| आक्षिकीफलस्य,, | जगलस्य,, |
| अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षन्यग्रोधफलानां गुणाः | अरिष्टस्य,, |
| भल्लातकस्य ,, | शीधोः,, |
| **इति फलवर्गः | ** |
| **६ हरितकवर्गः | ** |
| आर्द्रकस्य गुणाः | मैरेयस्य,, |
| जम्बीरस्य,, | घातकीपुष्ककृतासवस् ,, |
| विषयः | विषयः |
| मृद्वीकेक्षुरसासवस्य गुणाः | शारदजलस्य प्रशंसा |
| मधुनो ,, | विभिन्नपर्वतप्रभवाणां नदीनां जलगुणाः |
| यवकृतसुरायाः,, | पश्चिमाभिमुखानां ,, ,, |
| मधूलिकासुरायाः,, | पूर्वसमुद्रगानां ,, ,, |
| सौवीरकतुषोदकयोः,, | पारियात्रविन्ध्यसह्यप्रभवाणां नदीनां जल्दोषाः |
| अम्लकाञ्चिकस्य,, | वर्षाजलवहानां नदीनां जलगुणाः |
| अभिनवमद्यस्य,, | वापीकूपतडागादीनां जलस्य गुणदोषाः |
| जीर्णमद्यस्य,, | सामुद्रजलस्य गुणाः |
| विधिना पीतस्य मद्यस्य गुणाः | **इति जलवर्गः |
| इति मद्यवर्गः | **९ दुग्धवर्गः |
| **८ जलवर्गः | ** |
| जलस्यैकविधत्वेऽपि गुणभेदे हेतुः | माहिषदुग्धस्य,, |
| दिव्यजलस्य गुणाः | औष्ट्रदुग्धस्य,, |
| पात्रभेदे जलस्य गुणभेदः | ऐकशफदुग्धस्य,, |
| ऐन्द्रस्य जलस्य गुणाः | छागदुग्धस्य,, |
| दिव्योदकालाभे उपादेयस्य जलस्य लक्षणम् | आविकदुग्धस्य,, |
| वार्षिकजलस्य गुणाः | हस्तिनीदुग्धस्य,, |
| शारदजलस्य,, | मानुषदुग्धस्य,, |
| हैमन्तिकजलस्य,, | दघ्नः साधारणगुणाः |
| शैशिरजलस्य,, | रोगभेदे दघ्नः प्रशस्तता |
| वासन्तिकजलस्य,, | |
| ग्रैष्मिकजलस्य,, | |
| अकालवृष्टजलस्य निन्दा |
| विषयः | विषयः |
| ऋतुभेदे रोगभेदे च दघ्नो हिताहितत्वादि | मधुशर्करायाः ,, |
| मन्दकस्यगुणाः | शर्करायाः साधारणगुणाः |
| दधिसरस्य ,, | मधुनो जातिभेदाः |
| दधिमस्तुनः,, | मधुनः साधारणगुणाः |
| तक्रस्य,, | उष्णेन सार्धं मधुनो विरोधकथनम् |
| घृतस्य,, | मध्वामस्य कष्टतमत्वे हेतुः |
| सघोनवनीतस्य,, | मधुनो योगवाहित्वम् |
| घृतस्य सर्वस्नेहोत्तमत्वम् | **इतीक्षुवर्गः |
| जीर्णघृतस्य,, | **११ कृतान्नवर्गः |
| अजावीमहिषीघृतस्य ,, | पेयायागुणाः |
| पीयूषमोरटकिलाटानां,, | विलेप्याः,, |
| तक्रपिण्डकानां,, | मण्डस्य,, |
| **इति दुग्धवर्गः | ** |
| **१० इक्षुवर्गः | ** |
| भक्षितस्येक्षोर्गुणाः | मांसादिविशिष्टद्रव्यसंयोगसाधितानामोदनानां गुणाः |
| यान्त्रिकस्येक्षुरसस्य गुणाः | कुल्माषगुणाः,, |
| वंशकात् पौण्ड्रकस्येक्षोः श्रेष्ठत्वे हेतुः | यूषरससूपानां यथोत्तरं गौरवम्,, |
| गुडानां गुणाः | यवसक्तुगुणाः,, |
| मत्स्यण्डिकायाः खण्डस्य शर्करायाश्च गुणाः | शालिसक्तगुणाः,, |
| गुडशर्कराया गुणाः | लाजसक्तुगुणाः,, |
| यासशर्कराया,, | यवापूपयावकवाट्यानां गुणाः |
| धानानां गुणाः |
| विषयः | विषयः |
| विरूढधानाशष्कुलीमधुक्रोड-पिण्डक-पूप-पूपलिकानां गुणाः | उक्तानुक्तलेहानां द्रव्यमानापेक्षिणो गुणाः |
| फलमांसादिभिः संस्कृतानां भक्ष्याणां गुणाः | शुक्तस्य,, |
| वेसवारस्य ,, | शुक्तसंघितकन्दानां |
| क्षीरेक्षुरसपूपानां गुणाः | कालाम्लस्य शिण्डकीप्रभृतेर्गुणाः |
| भक्ष्याणां गुडादिभिःसंस्काराद्गुरुत्वं | **इति कृतान्नवर्गः |
| गौधूमिकभक्ष्याणां गुणाः | **१२ आहारयोगिवर्गः |
| गौधूमपैष्टिकानां ,, | तैलस्य सामान्यगुणाः |
| पृथुकानां,, | एरण्डतैलस्य,, |
| यावचिपिटकानां,, | सर्षपतैलस्य गुणाः,, |
| सूप्यान्नविकृतानां भक्ष्याणां गुणाः | अतसीतैलस्य,, |
| उक्तानुक्तभक्ष्याणां गुणसंग्रहः | कुसुम्भतैलस्य,, |
| विमर्दकस्य गुणाः | प्रियालतैलस्य,, |
| रसालायाः,, | अनुक्ततैलगुणसंग्रहः |
| सगुडस्य दध्नः,, | मज्जवसयोर्गुंणाः |
| पानकस्य,, | विश्वभेषजस्य गुणाः. |
| परूषकादीनां पानकस्य पृथक् पृथग् गुणाः | आर्द्रपिप्पल्या,, |
| रागषाडवानां गुणाः … ,, | शुष्कपिप्पल्या,, |
| आम्रामलकलेहस्य ,, | मरिचस्य,, |
| हिङ्गुगुणाः | |
| सैन्धवस्य गुणाः | |
| सौवर्चलस्य,, | |
| विडस्य,, | |
| औद्भिदलवणस्य,, |
| विषयः | विषयः |
| काललवणस्य गुणाः | स्थूलदेहानां मधूदकमनुपानम् |
| सामुद्रलवणस्य ,, | मद्यानुपानस्याधिकारिणः |
| पांशुजलवणस्य ,, | अनुपानस्य कर्मगुणाः |
| लवणानां सामान्यगुणाः | येषां जल्मनुपानं प्रतिषिद्धम् |
| यवक्षारगुणाः | द्रव्याणां कानत्स्नर्ये नामनिर्देशस्याशक्यत्वादेकदेशेन कथनम् |
| संर्जिक्षारस्य गुणाः,, | अनुक्तानां द्रव्याणां गुणकर्मादीनां ज्ञाने उपायाः |
| कारवी-कुचिकाजाजी-यवा-नी-धान्य- तुम्बुरूणां गुणाः ,, | प्राणिनां भक्ष्य विशेषेण गुरुलाघवम् |
| **इत्याहारयोगिवर्गः | ** |
| द्वादशवर्गेषूक्तानां हेयोपादेयतानिर्देशः | स्वभावाद्गुरुलाघवम् |
| मांसरसस्य गुणाः | धातूनां गुरुलाघवम् |
| वर्जनीयशाकानां निर्देशः | स्त्रीपुंसभेदेन गुरुलाघवम् |
| वर्जनीयफलानां ,, | संस्कारापेक्षं गुरुलाघवं |
| वर्जनीयहरितानां ,, | गुरुलाघवे मात्रायाः प्रभुत्वम् |
| वर्जनीयमद्याम्बुगोरसादीनां निर्देशः | मात्रायाश्च अग्निबलापेक्षित्वम् |
| कीदृशमन्नानुपानं युक्तं | गुरुलाघवचिन्ता यैः कार्या यैश्च न कार्या |
| वातादिप्रकोपेषु युक्तमनुपानम् | हितान्नपानसेवायाः फलम् |
| क्षये मांसरसस्यानुपानत्वम् | अध्यायार्थसंग्रहः |
| उपवासादिषु पयसोऽनुपानत्वम् | |
| कुशानां सुराऽनुपानम् |
| विषयः | विषयः |
| **२८ विविधाशितपीतीयोऽध्यायः | ** |
| अशितपीतादीनां फलम् | मज्जप्रदोषजा ,, |
| धातव एव धातूनामाहारः | शुक्रदोषज़ा,, |
| आहारस्य परिणामः | इन्द्रियगतमलजा,, |
| किट्टस्य कार्यम् | स्नाय्वादिगतमलजा |
| आहाररसस्य कार्यम् | मलाश्रितदोषजा ,, |
| रसमलयोः कार्यम् | हिताशितादीनां गुणाः |
| शरीरस्य व्याधीनां च | रसजविकाराणां चिकित्सा |
| अशितलीढादिप्रभवत्वम् | रक्तजविकाराणां,, |
| अहिताहारोपयोगादन्याः रोगप्रकृतयः | मांसजविकाराणां,, |
| हिताहारोपयोगिनोऽपि व्याधिमत्त्वे हेतुः | मेदोजविकाराणां,, |
| अहिताहारोपयोगिनोऽपि आरोग्यदर्शने हेतुः | अस्थिजानां व्याधीनां ,, |
| अव्याधिसहशरीरस्य लक्षणम् | मज्जशुक्रसमुत्थानां ,, |
| व्याधिसहशरीस्य ,, | इन्द्रियजानां,, |
| व्याधीनां मृदुदारुणत्वादौ हेतुः | स्नाय्वादिजानां,, |
| रसप्रदोषजा रोगाः | मलजानां,, |
| रक्तदोषजा ,, | कोष्ठाश्रयाणां मलानां शाखागमने हेतुः |
| मांसप्रदोषजा ,, | शाखाश्रयाणां मलानां कोष्ठगमने हेतुः |
| मेदःरांश्रया ,, | स्वस्थातुरहितो विधिः |
| प्राज्ञाज्ञयोर्विशेषः | |
| अपथ्यपरिहारे फलम् | |
| अध्यायार्थसंग्रहः | |
| **इत्यन्नपान चतुष्कः |
| विषयः | विषयः |
| **२९ दशप्राणायतनीयोऽध्यायः | ** |
| दश प्राणायतनानि | आयुरादीन्यधिकृत्य प्रश्नाः |
| द्विविधा भिषजः | आयुर्वेदस्याथर्ववेदेऽन्तर्भावः |
| प्राणाभिसरभिषजांलक्षणम् | आयुःशब्दस्य पर्यायाः |
| रोगाभिसरभिषजां ,, | आयुर्वेदस्य निरुक्तिः |
| रोगाभिसरभिषजां वर्जने हेतुः | सुखस्यायुषो लक्षणम् |
| कीदृशो भिषक् प्रशस्तः | असुखतस्यायुषो,, |
| अध्यायार्थसंग्रहः | हितस्यायुषो ,, |
| **३० अर्थेदशमहामूलीयोऽध्यायः | ** |
| हृदयपर्यायाः | आयुषोऽप्रमाणम् |
| हृदयस्य महत्त्वे अर्थत्वे च हेतुः | आयुर्वेदस्य प्रयोजनम् |
| दश महामूला धमन्यः | आयुर्वेदस्य शाश्वतत्वे प्रमाणम् |
| ओजसः कर्माणि | आयुर्वेदस्याष्टौ अङ्गानि |
| सिराधमनीस्रोतसां निरुक्तिः | आयुर्वेदाध्ययनेऽधिकारिणः |
| महदादीनि परिरक्षता यत् परिहार्यं यच्च सेव्यं तस्योपदेशः | आयुर्वेदस्य त्रिविधपुरुषार्थसाधनत्वम् |
| प्राणवर्धनादीनामेकैकस्य उत्कृष्टतमत्वं | तत्रादीन्यघिकृत्य प्रश्नाः |
| आयुर्वेदविदो लक्षणम् | तन्त्रस्य पर्यायाः |
| तन्त्रस्यष्टौ स्थानानि | |
| प्रतिस्थानमध्यायानां संख्या | |
| सूत्रस्थानस्याध्यायसंग्रहः |
| विषयः | विषयः |
| निदानस्थानस्याध्यायसंग्रहः | संप्राप्तेः पञ्च भेदाः |
| विमानस्थानस्याध्यायसंग्रहः | तेषां पृथग्लक्षणानि |
| शारीरस्थानस्याध्यायसंग्रहः | निदानपञ्चकवर्णनोपसंहारः |
| इन्द्रियस्थानस्याध्यायसंग्रहः | अस्मिन्स्थाने वक्तव्या व्याधयः |
| चिकित्सास्थानस्याध्यायसंग्रहः | आदौ ज्वर निर्देशे कारणम् |
| कल्पस्थानस्याध्यायसंग्रहः | तस्याष्टौ कारणानि |
| सिद्धिस्थानस्याध्यायसंग्रहः | वातज्वरस्य हेतुः, संप्राप्तिः,लक्षणानि च |
| तन्त्रादीनां निरुक्तिः | पित्तज्वरस्य हेतुसंप्राप्तिलक्षणानि |
| परावरवैद्यपरीक्षा | श्लेष्मज्वरस्य हेतुसंप्राप्तिलक्षणानि |
| शास्त्रस्य ज्ञानाज्ञाने गुणदोषौ | त्रिदोषज्वरस्य हेतुसंप्राप्तिलक्षणानि |
| अध्यायार्थसंग्रहः | आगन्तुज्वरस चातुर्विध्यम् |
| **इति सूत्रस्थानस्य विषयानुक्रमणिका | ** |
| **२ निदानस्थानम् | ** |
| **१ ज्वरनिदानम् | ** |
| निदानपदपर्यायाः | ज्वरस्य पूर्वरूपाणि |
| निदानत्रैविध्यं | ज्वरस्याद्युत्पत्तिः |
| व्याघेर्भेदाः | ज्वरपदस्य निरुक्तिः |
| व्याधेः पर्यायाः | सर्वरोगेषु ज्वरस्य दुश्चिकित्स्यतमत्वम् |
| रोगाणामुपलब्धिसाधनानि | सर्वप्राणिनां ज्वरपूर्वकमेव जननमरणम् |
| निदानस्य लक्षणम् | |
| पूर्वरूपस्य ,, | |
| रूपस्य पर्यायाः लक्षणं च | |
| उपशयस्य लक्षणम् | |
| संप्राप्तेः ,, |
| विषयः | विषयः |
| अवस्थाविशेषेण चिकित्सा विधानं | वातगुल्मस्य कारणानि |
| गद्योक्तविषयस्य पद्यैः पुनः कथने न द्विरुक्तिः | ,, संप्राप्तिः |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, लक्षणानि |
| २ रक्तपित्तनिदानम् | वायुना सह पित्तप्रकोपे हेतुः |
| रक्तपित्तस्य निदानपूर्विका संप्राप्तिः | पित्तगुल्मस्य संप्राप्तिः |
| यस्मात् पित्तस्य रक्तपित्तमिति संज्ञालाभः | ,, लक्षणानि |
| रक्तपित्तस्य पूर्वरूपाणि | मारुतेन सह श्लेष्मप्रकोपे हेतुः |
| ,, उपद्रवाः | श्लेष्मिकगुल्मस्य संप्राप्तिः |
| दोषभेदेन रक्तपित्तस्य मार्गभेदः | ,, लक्षणानि |
| रक्तपित्तस्य साध्यासाध्यविनिश्चयः | सान्निपातिकगुल्मस्य निदानादि, असाध्यत्वं च |
| रक्तपित्तस्य प्रागुत्पत्तिः | शोणितगुल्मस्य स्त्रिया एव संभवे हेतुः |
| ,, चिकित्सासूत्रं | रक्तगुल्मस्य निदानम् |
| पूर्वं गद्योक्तार्थस्य पुनः पद्येन कथनं | ,, संप्राप्तिः |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | रक्तगुल्मस्य लक्षणानि |
| **३ गुल्मनिदानम् | ** |
| गुल्मसंख्या | सर्वेषु गुल्मेषु वातस्यावश्यम्भावित्वम् |
| निदानादिविशेषेभ्यो गुल्मस्यान्येषां च रोगाणां विशेषविज्ञानं | गुल्मस्य चिकित्सासूत्रं |
| अध्यायाधंसंग्रहः | |
| **४ प्रमेहनिदानम् | |
| प्रमेहसंख्या | |
| निदान-दोष-दूष्यविशेषेभ्यो विकारविघातभावाभावप्रतिविशेषाः |
| विषयः | विषयः |
| कफप्रमेहस्य निदानम् | कुष्ठानां बहुत्वेऽपि सप्तसेवान्तर्भावं कृत्वोपदेशः |
| ,, दूष्याः | दोषाधिक्यविशेषेणसप्तविधः कुष्ठविशेषः |
| कफप्रमेहस्य संप्राप्तिः | समासेन सर्वकुष्ठनिदानम् |
| कफजन्यदशप्रमेहनामानि | कुष्ठानां पूर्वरूपाणि |
| तेषां साध्यत्वे उपपत्तिः | कपालकुष्ठस्य लक्षणम् |
| दशविधश्लेष्मप्रमेहाणां लक्षणानि | उदुम्बरकुष्ठस्य ,, |
| पित्तप्रमेहस्य निदानम् | मण्डलकुष्ठस्य ,, |
| ,, संप्राप्तिः | ऋष्यजिह्वस्य,, |
| पित्तप्रमेहनामानि | पुण्डरीककुष्ठस्य,, |
| तेषां याप्यत्वे हेतुः | सिधमकुष्ठस्य,, |
| पित्तप्रमेहाणां लक्षणानि | काकणककुष्ठस्य ,, |
| वातमेहानां निदानं संप्राप्तिश्च | तेषां साध्यासाध्यत्वम् |
| वातमेहानामसाध्यत्वे हेतुः | साध्यकुष्ठेष्वप्युपेक्षमाणेषु कृमिसंभवः |
| वातमेहनामानि | कृमिकर्तृककुष्ठोपद्रवाः |
| तेषां लक्षणानि | रोगाणां तरुणावस्थायां सुखसाध्यत्वम् |
| प्रमेहाणां पूर्वरूपाणि | तेषामेवातिप्रवृद्धानामसाध्यतागमनम् |
| ,, उपद्रवाः | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| प्रमेहचिकित्सासूत्रं | **६ शोषनिदानम् |
| केषां प्रमेहः सहसा भवति | चत्वारि शोषस्यायतनानि |
| केषां प्रमेहो न भवति | साहसाद्यथा शोषः संभवति तद्वर्णनं |
| अध्यायोक्तविषयाः | |
| **५ कुष्ठनिदानम् | ** |
| कुष्ठानां दोषदूष्यसंग्रहः | |
| समानप्रवृतीनामपि कुष्ठानां दोषांशविकल्पादिभिर्वेदनादिविशेषाः |
| विषयः | विषयः |
| साहसकर्मत्यागोपदेशः | साध्यानां चिकित्सितम् |
| वेगसंधारणाद्यथा शोषः संभवति तद्वर्णनं | आगन्तून्मादनिदानं |
| धातुक्षयाद्यथा शोषः संभवति तद्वर्णनं | आगन्तून्मादस्य पूर्वरूपाणि |
| विषमाशनाद्यथा शोषः संजायते तद्वर्णनं | उन्मादकराणां भूतानामुन्मादयिष्यतामारम्भविशेषः |
| शोषस्य राजयक्ष्मेति संज्ञायां हेतुः | भूतोन्मादस्य रूपाणि |
| शोषस्य पूर्वरूपाणि | आगन्तून्मादस्याघातकालाः |
| ,, एकादशरूपाणि | उन्मादकराणां भूतानामुन्मादने त्रिविधं प्रयोजनम् |
| ,, साध्यासाध्यलक्षणानि | आगन्तुकोन्मादानां साध्यासाध्यविभागः |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | आगन्तुकोन्मादस्य चिकित्सासूत्रं |
| **७ उन्मादनिदानम् | ** |
| उन्मादसंख्या | तयोर्हेतुसंसर्गांत्संसृष्टपूर्वरूपलिङ्गानि |
| उन्मादस्य निदानपूर्विकासंप्राप्तिः | भूतोन्मादे देवपितृराक्षसादीन्नाभिशंसेत् |
| ,, प्रत्यात्मलक्षणम् | आत्मानमेव सुखदुःखयोः कर्तारं मत्वा श्रेयस्करं मार्गं प्रपद्येत |
| ,, पूर्वरूपाणि | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| वातोन्मादस्य लक्षणम् | |
| पितोन्मादस्य ,, | |
| श्लेष्मोन्मादस्य ,, | |
| सान्निपातिकोन्मादस्य ,, | |
| सान्निपातिकस्यासाध्यत्वम् ,, |
| विषयः | विषयः |
| **८ अपस्मारनिदानम् | ** |
| अपस्मांराणां संख्या | व्याधीनां सुखसाध्यत्वादिविवरणं |
| अपस्मारस्य निदानपूर्विका संप्राप्तिः | व्याध्यवस्थाविशेषज्ञानफलम् |
| अपस्मारस्य प्रत्यात्मिकं लक्षणम् | व्याधिलिङ्गयोर्विशेषः |
| ,, पूर्वरूपाणि | विकारप्रकृत्योः स्वहेतुवशगत्वम् |
| वातापस्मारलक्षणम् | निदानस्थानोक्तार्थसंग्रहः |
| पित्तापस्मारस्य लक्षणम् | **इति निदानस्थानानुक्रमणिका |
| श्लेष्मापस्मारस्य ,, | **३ विमानस्थानम् |
| सन्निपातापरमारस्य ,, | **१ रसविमानम् |
| अपस्मारेष्वागन्त्वनुबन्धनिर्देशः | रसादिमानज्ञानार्थं विमानस्थानोपदेशः |
| तस्य विशेषविज्ञानम् | सम्यगुपयुज्यमानानां षण्णां रसानां शरीरयापकत्वं |
| अपस्मारस्य चिकित्सासूत्रं | तेषामेव मिथ्योपयुज्यमानानां दोषप्रकोपकत्वं |
| निदानस्थानोक्ताष्टरोगाणां प्रागुत्पत्तिः | प्रकृतिभूतानां दोषाणां शरीरोपकारकत्वं |
| अपस्मारस्य चिकित्सासूत्रं | विकृतिमापन्नानां तेषां शरीरोपघातकत्वं |
| रोगो रोगान्तराणां निदानार्धकरो भवति | त्रयस्त्रयो रसा दोषमेकैकं जनयन्ति त्रयस्त्रयश्चोपशमयन्ति तेषां विवरणम् |
| अत्रोदाहरणानि | |
| अशुद्धाशुद्धचिकित्साप्रयोगलक्षणम् | |
| व्याधीनां हेतुसांकर्यनिर्देशः | |
| व्याधीनां लिङ्गसांकर्यनिर्देशः |
| विषयः | विषयः |
| रसदोषसन्निपाते व्यवस्था | सात्म्यभेदाः, तेषां प्रवरत्वादिनिरूपणं च |
| अनेकरसेषु द्रव्येष्वनेक दोषात्मकविकारेषु च द्रव्यविकारप्रभावतत्त्वं कथं व्यवस्येदिति कथनन् | अष्टावाहारविधिविशेषायतनानि |
| तैलस्य वातशमकत्वं सोपपत्तिकं | प्रकृतेः विवरणं |
| सर्पिषः पित्तशमकत्वं ,, | करणस्य ,, |
| मधुनः श्लेष्मशमकत्वं ,, | संयोगस्य ,, |
| वातादिभ्यो गुणतो विपरीतं ताञ्जयति | राशेः |
| पिप्पलीक्षारलवणानामतिमात्रसेवननिषेधः | देशस्य |
| पिप्पल्या गुणाः, तस्या अतिमात्रसेवने दोषाश्च | कालस्य |
| क्षारस्य गुणाः, तस्यातिमात्रसेवने दोषाश्च | उपयोगसंस्थायाः ,, |
| लवणस्य गुणाः ,, ,, | उपयोक्तुः ,, |
| तत्साम्यतः क्रमेणापगमनं श्रेयः | आहारविधिविशेषायतनज्ञानफलं ,, |
| सात्म्यस्यापि क्रमेण त्यागे युक्तिः | हिततमाहारविधिविधाननिरूपणम् |
| सात्म्यस्य लक्षणम् | उष्णभोजनगुणाः |
| स्निग्धभोजनगुणाः | |
| मात्रावतो भोजनस्य गुणाः | |
| जीर्णे भुक्तवतो गुणाः | |
| वीर्याविरुद्धं ,, | |
| इष्टे देशे,, | |
| नातिद्रुतं,, | |
| नातिविलम्बितं ,, |
| विषयः | विषयः |
| अजल्पतोऽहसतस्तन्मनसश्च भुक्तवतो गुणाः | **३ जनपदोद्ध्वंसनीयविमानम् |
| आत्मानमभिसमीक्ष्य ,, | प्रागेव जनपदोद्ध्वंसनाद्भेषजोद्धरणोपदेशः |
| रसादिज्ञातुभिंषजः प्रशंसा | असमानप्रकृत्यादीनां जनानां कथं युगपदेकेन व्याधिनोद्ध्वंसनमित्यग्निवेशस्य प्रश्नः |
| अध्यायार्थसंग्रहः | तत्रात्रेयकृतं समाधानं |
| **२ त्रिविधकुक्षीयविमानम् | ** |
| कुक्षौ त्रिविधावकाशांशविभागः | अनारोग्यकरस्य वातस्य लक्षणम् |
| आहारराशिमधिकृत्य मात्राऽमात्रावत्त्वविचारः | ,, उदकस्य ,, |
| मात्रावतो भोजनस्य गुणाः | ,, देशस्य,, |
| हीनमात्रस्य ,, दोषाः | ,, कालस्य,, |
| अतिमात्रस्य ,, ,, | तत्र सामान्यप्रतीकारः |
| अतिमात्रभोजनादन्येऽप्यामप्रकोपस्य हेतवः | वैगुण्यमापन्नानां देशादीनामुत्तरोत्तरं गरीयस्त्वं |
| विसूचिकायाः लक्षणं | जनपदोद्ध्वंसे साधारणीचिकित्सा |
| अलसकस्य ,, | वाय्वादीनां वैगुण्योत्पत्तौ हेतुः |
| आमविषस्य ,, | शस्त्रप्रभवस्य जनपदोद्ध्वंसस्याधर्म एव हेतुः |
| अलसकस्य चिकित्सासूत्रं | अभिशापप्रभवस्याप्यधर्म एव हेतुः |
| विसूचिकायाः ,, | कृतत्रेताद्वापरकलिषु क्रमेण |
| आमदोषेषु चिकित्साक्रमः | |
| भोजनपरिपाकस्थानं | |
| अध्यायार्थसंग्रहः |
| विषयः | विषयः |
| धर्मस्य मनुष्याणामायुषश्च हासः | आप्तोपदेशाज्ज्ञानं प्रत्यक्षानुमानाभ्यां तत्परीक्षा |
| आयुषो नियतत्वे अनियतत्वे च युक्तिः | आप्तोपदेशात् ज्ञातव्या विषयाः |
| आयुषोऽनियतत्वसाधनं | प्रत्यक्षतो पञ्चेन्द्रियैः ,, |
| कालमृत्योः अकालमृत्योश्च विवरणम् | अनुमानज्ञेया विषयाः |
| ज्वरितेभ्य उष्णपानीयदाने हेतुः | आप्तोपदेशादिभिः सर्वैरध्यवसानममोहकरं भवति |
| सर्वेषां व्याधीनां निदानविपरीतमौषधं कार्यं | अध्यायोक्तविषयाः |
| अपतर्पणमेदाः, तेषां प्रयोगावस्था च | **५ स्रोतोविमानम् |
| स्वभावतः प्रतिकारानर्हाः | स्रोतसां सामान्यवर्णनं |
| अध्यायोक्तविषयाः | स्रोतसां भेदाः |
| **४ त्रिविधरोगविशेषविज्ञानीयंविमानम् | ** |
| त्रिविधं रोगविशेषविज्ञानम् | उदकवहस्रोतसां,, ,, |
| आप्तोपदेशस्य लक्षणम् | अन्नवहस्रोतसां,, ,, |
| प्रत्यक्षस्य ,, | रसशोणितमांसभेदोऽस्थिमज्ज शुक्रवहस्रोतसां मूलं तद्दुष्टिलक्षणं च |
| अनुमानस्य,, | मूत्रवहस्रोतसां मूलं तद्दुष्टिलक्षणं च |
| आप्तोपदेशादिभिः सर्वै रोगं परीक्ष्य निर्णयो विधेयः | पुरीषवहस्रोतसां ,, ,, |
| स्वेदवहस्रोतसां,, ,, | |
| स्रोतसः पर्यायाः | |
| प्रदुष्टस्रोतसां धातुदूषकत्वम् |
| विषयः | विषयः |
| सर्वेषां प्रदुष्टा वातपित्तश्लेष्माणो दूषयितारः | अनुबन्ध्यानुबन्धभेदकृतो दोषभेदः |
| प्राणादिवहस्रोतसां दुष्टिहेतवः | बलभेदेन जाठराग्नेश्चतुर्विधो भेदः |
| सर्वस्रोतसां साधारण प्रकोपकारणम् | प्रकृतिभेदेन ,, ,, |
| स्रोतसां सामान्यं दुष्टि लक्षणं | वातादिप्रकृतिसंज्ञाविचारः |
| स्रोतसां स्वरूपं | वातादिप्रकृतीनां चत्वार्यनु(न्न)प्रणिधानानि |
| प्रदुष्टस्रोतसां चिकित्सासूत्रं | वातलादीनामातुरत्वम् |
| अध्यायोक्तविषयाः | वातलस्य वातप्रकोपे कारणं तस्यावजयनं च |
| **६ रोगानीकं विमानम् | ** |
| प्रभावादिभेदेन रोगानीक भेदाः | श्लेष्मलस्य श्लेष्मप्रकोपे कारणंतस्यावजयनं च |
| रोगानीकस्य संख्येयत्वे असंख्येयत्वे च युक्तिः | राजार्हवैद्यलक्षणम् |
| रोगशब्दस्य दोषव्याध्युभयवाचकत्वं | अध्यायोक्तविषयाः |
| व्याधीनामपरिसंख्येयत्वं दोषाणां परिसंख्येयत्वं च | **७ व्याधितरूपीयं विमानम् |
| मानसदोषौ तज्जा विकाराश्च | द्वौ व्याधितरूपौ |
| शारीरदोषास्तज्जा ,, | व्याघेर्गुरुलाघवज्ञाने विप्रतिपन्नाश्चिकित्सायामपि विप्रतिपद्यन्ते |
| द्वयानां त्रिविधं प्रकोपकारणं | पुरुषसंश्रयकृमिविषयेऽग्निवेशस्य प्रश्नः |
| रोगाणां परस्परानुबन्धकत्वं |
| विषयः | विषयः |
| कृमीणां भेदाः | विगृह्य संभाषायां परीक्षाविधिः |
| मलजानां कृमीणां समुत्थानादि | जल्पकस्य गुणा दोषाश्च |
| शोणितजानां ,, ,, | परस्य त्रिविधस्वं |
| श्लेष्मजानां ,, ,, | परिषद्भेदाः |
| पुरीषजानां ,, ,, | परिषद्विशेषे वादविधिः |
| कृमिजरोगाणां संक्षेपेण चिकित्सा | प्रत्यवराणामाशुनिग्रहे उपायाः |
| कृमीणामपकर्षणं | विगृह्यजल्पे उपदेशः |
| कृमीणां प्रकृतिविघातः | वादात्प्राक्कर्तव्यं |
| निदानवर्जनम् | वादमर्यादालक्षणं |
| कृमिघ्नो भेषजविधिः | वादमार्गज्ञानार्थमधिगम्यानि पदानि |
| अध्यायोक्तविषयाः | वादस्य लक्षणम् |
| **८ रोगमिषग्जितीयं विमानम् | ** |
| ग्रन्थपरीक्षा | वितण्डाया ,, |
| आचार्यपरीक्षा | द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेविशेषसमवायानां लक्षणातिदेशः |
| शास्त्रज्ञानोपायाः | प्रतिज्ञायाः लक्षणम् |
| अध्ययनविधिः | स्थापनायाः |
| शिष्यपरीक्षा | प्रतिष्ठापनायाः ,, |
| शिष्योपनयनविधिः | हेतोः ,, |
| शिष्यं प्रत्याचार्यस्योपदेशः | दृष्टान्तस्य ,, |
| तद्विद्यसंभाषायाः प्रशंसा | उपनयनिगमनयोः ,, |
| ,, भेदाः | उत्तरस्य ,, |
| सिध्दान्तस्य लक्षणम् |
| विषयः | विषयः |
| शब्दस्य ,, | हेत्वन्तरस्य लक्षणम् |
| प्रत्यक्षस्य ,, | अर्थान्तरस्य,, |
| अनुमानस्य,, | निग्रहस्थानस्य,, |
| ऐतिह्यस्य ,, | भिषजाऽऽयुर्वेद एव वादः कर्तव्यः |
| औपम्यस्य,, | वादे कथं वक्तव्यम् |
| संशयस्य,, | भिषजा ज्ञातव्यानि कानिचित्प्रकरणानि |
| प्रयोजनस्य,, | कारणस्यलक्षणम् |
| सव्यभिचारस्य,, | करणस्य,, |
| जिज्ञासायाः,, | कार्ययोनेः ,, |
| व्यवसावस्य,, | कार्यस्य,, |
| अर्थप्राप्तेः,, | कार्यफलस्य,, |
| संभवस्य,, | अनुबन्धस्य,, |
| अनुयोज्यस्य,, | देशस्य,, |
| अननुयोज्यस्य,, | कालस्य,, |
| अनुयोगस्य,, | प्रवृत्तेः,, |
| प्रत्यनुयोगस्य,, | उपायस्य,, |
| वाक्यदोषाणां,, | भिषजैतत्सर्व परीक्ष्य कार्यारम्भः कर्तव्यः |
| वाक्यप्रशंसायाः,, | परीक्षाया विषये भिषजां प्रश्नाः |
| छलस्य,, | तेषामुत्तरम् |
| अहेतोः,, | द्विविधा परीक्षा |
| अतीतकालस्य,, | दशविधं परीक्ष्यं |
| उपालम्भस्य,, | |
| परिहारस्य,, | |
| प्रतिज्ञाहाने,, | |
| अभ्यनुज्ञायाः,, |
| विषयः | विषयः |
| कारणस्य परीक्षा | ऋतुभेदेन कालविभागः |
| करणस्य (भेषजस्य) परीक्षा | केषु ऋतुषु वमनादीनां प्रवृत्तिः केषु च निवृत्तिः |
| कार्ययोनेः ,, ,, | आतुरावस्थास्वपि कालाकालनिर्देशः |
| कार्यस्य ,, ,, | प्रवृत्तेः विवरणं ,, |
| कार्यफलस्य,, ,, | उपायस्य,, |
| अनुबन्धस्य,, ,, | परीक्षायाः प्रयोजनं |
| देशस्य (भूमेः) ,, | वमनद्रव्याणां निर्देशः |
| बलदोषप्रमाणज्ञानहेतोरातुरपरीक्षा | विरेचनद्रव्याणां ,, |
| प्रकृतितः आतुरपरीक्षा | असंख्येयत्वाद्द्रव्याणां रसत एवास्थापनद्रव्योपदेशः |
| श्लेष्मप्रकृतेः लक्षणम् | आस्थापनोपयुक्तः मधुरस्कन्धः |
| पित्तप्रकृतेः ,, | ,, अम्लस्कन्धः |
| वातप्रकृतेः ,, | ,, लवणस्कन्धः |
| संसर्गजप्रकृतेः ,, | ,, कटुकस्कन्धः |
| विकृतितः देहपरीक्षा | ,, तिक्तरकन्धः |
| सारतः ,, | ,, कषायस्कन्धः |
| संहननतः ,, | अत्रोक्तषड्वर्गाणां सर्वयौगिकत्वम् |
| प्रमाणतः ,, | ऊहापोहसमर्थेन भिषजाऽत्रोक्तस्कन्धेष्वपकर्षप्रक्षेपावपि कार्यै |
| सात्म्यतः ,, | |
| सत्त्वतः ,, | |
| आहारशक्तितः ,, | |
| व्यायामशक्तितः ,, | |
| वयस्तः ,, | |
| बलविशेषं दृष्ट्वा भैषज्यमवचार्य |
| विषयः | विषयः |
| अनुवासनद्रव्याणि | व्यक्ताव्यक्तयोर्निर्देशः |
| शिरोविरेचनद्रव्याणि | अष्टप्रकृतयः |
| अध्यायोक्तविषयाः | षोडशविकाराः |
| **इति विमानस्थानस्य विषयानुक्रमणिका | ** |
| **४ शारीरस्थानम् | ** |
| **१ कतिधापुरुषीयं शारीरम् | ** |
| पुरुषमधिकृत्याग्निवेशय कतिपये प्रश्नाः | परमात्मनो लिङ्गानि |
| धातुमेदेन पुरुषस्य भेदः | निष्क्रियस्य पुरुषस्य क्रियानिर्देशः |
| मनसो लक्षणं | स्वतन्त्रस्यापि पुरुषस्यानिष्टयोनिषु जन्मग्रहणे हेतुः |
| ,, द्वौ गुणौ | वशिनोऽपि पुरुषस्यासुखैर्भावैराक्रमणे कारणम् |
| ,, अर्थः | सर्वगतस्यापि पुरुषस्य सर्ववेदनाज्ञानाभावे हेतुः |
| बुद्धेर्लक्षणं | विभोरप्यात्मनः शैलादितिरस्कृतस्याज्ञाने हेतुः |
| दशेन्द्रियाणि | आत्मनो विभुत्वसाधनम् |
| पञ्चमहाभूतानि तेषां गुणाश्च | क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः किंपूर्वमिति प्रश्नस्योत्तरं |
| भूतानामसाधारणं लक्षणं | आत्मनः साक्षीभूतत्वसाधनम् |
| बुद्धेर्विवरणं | राशिपुरुषस्यैव वेदनाविशेष इति निरूपणम् |
| चतुर्विंशतितत्त्वात्मकस्यराशिपुरुषस्य लक्षणम् | कथं भिषक् त्रिकालां वेदनां चिकित्सति |
| पुरुषस्य कारणत्वम् | |
| पुरुषस्य प्रभवः | |
| ,, ज्ञत्वाज्ञत्वविचारः | |
| ,, नित्यत्वानित्यत्वविचारः |
| विषयः | विषयः |
| नैष्ठिकी चिकित्सा | यो गर्भः संपूर्णदेहः, समये, सुखं च जायते तस्य कारणं |
| दुःखहेतवः | अवन्ध्याया अपि चिराद्गर्भग्रहणे हेतुः |
| बुद्धिविभ्रंशस्य वर्णनं | जातस्य गर्भस्य विनाशे हेतुः |
| धृतिविभ्रंशस्य ,, | कन्या-पुत्र-यम-बहुसंतानोत्पत्तौ कारणम् |
| स्मृतिविभ्रंशस्य ,, | सुचिराद्गर्भप्रसवे हेतुः |
| प्रज्ञापराधस्य संक्षेपेण वर्णनं | यमे एकस्याभिवृद्धौ कारणं |
| ,, विस्तरेण | क्लीबभेदाः, तेषामुत्पत्तौ हेतुश्च |
| व्याधिहेतोः कालस्य वर्णनं | सद्योगृहीतगर्भाया लिङ्गं |
| असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगस्य वर्णनं | पुंगर्भायाः स्त्रीगर्भाया नपुंसकगर्भायाश्च लक्षणानि |
| चतुर्विघयोगस्यैव सुदुखःखहेतुत्वं | गर्भस्य पित्रोः सदृशत्वे कारणम् |
| वेदनानामधिष्ठानम् | गर्भस्य संस्थानवर्णेन्द्रियवैकृतानां हेतुः |
| वेदनानां सर्वथानिवृत्तेरुपायः | आत्मा कथं देहाद्देहान्तरं यातीति निरूपणम् |
| योगस्य लक्षणम् | आत्मनोऽनुबन्धाः |
| योगिनामष्टविधमैश्वर्यं | रोगाणां हेतुः शमनं च |
| मोक्षस्य लक्षणं | हर्षस्य शोकस्य च निमित्तं |
| ,, उपायाः | |
| तत्त्वस्मृतेर्हेतवः | |
| तत्त्वस्मृतेर्मोक्षसाधनत्वम् | |
| मुक्तात्मनो लक्षणम् | |
| अध्यायोक्तविषयाः | |
| **२ अतुल्यगोत्रीय शारीरम् | ** |
| गर्मस्य कारणम् (प्रभवः) |
| विषयः | विषयः |
| प्रशान्तानां विकाराणामपुनरागमनोपायः | गर्भस्य सात्म्यजत्वप्रतिपादनं सात्म्यजा भावाश्च |
| ऋतुजा विकाराः कथं न भवन्ति | गर्भस्य रसजत्वप्रतिपादनं रसजा भावाश्च |
| नरः कथमरोगो भवति | सत्त्वस्य (मनस) उपपादुकत्वप्रतिपादनम् |
| अध्यायोक्तविषयाः | गर्भस्य सत्त्वजा भावाः |
| **३ खुड्डिकागर्भावक्रान्तिशारीरम् | ** |
| गर्भस्याभिनिर्वृत्तेः, अभिवृद्धेः,सुखप्रसवस्य च कारणं | आत्रेयकृते सिद्धान्ते भरद्वाजस्य दोषारोपः |
| गर्भो हि मातृजः पितृज आत्मजो रसजः सात्म्यजश्च, परलोकादेत्य सत्त्वं गर्भमवक्रामतीति आत्रेयकृता प्रतिज्ञा | आत्रेयकृतं तत्खण्डनं |
| भरद्वाजकृतं तत्र दूषणं | अध्यायोक्तविषयाः |
| आत्रेयेण कृतं तत्समाधानं | **४ महतीगर्भावक्रान्तिशारीरम् |
| गर्भस्य मातृजत्वप्रतिपादनं मातृजा भावाश्च | अस्मिन्नध्याये व्याख्यास्यमाना विषयाः |
| गर्भस्य पितृजत्वप्रतिपादनं पितृजा भावाश्च | शुक्रशोणितजीवसंयोगस्य गर्भसंज्ञत्त्वं |
| गर्भस्यात्मजत्वप्रतिपादनं आत्मजा भावाश्च | गर्भे भूतग्रहणक्रमः |
| गर्भस्य पञ्चभूतविकारचेतनाधिष्ठानभूतत्वसाधनम् | |
| कुक्षौ गर्भोत्पत्तिप्रकारः | |
| प्रथमे मासि गर्भस्य स्वरूपं | |
| द्वितीये ,, ,, ,, |
| विषयः | विषयः |
| तृतीये मासि गर्भस्य स्वरूपं | पञ्चमे मासि ,, |
| गर्भस्य महाभूतप्रभवा भावाः | षष्ठे मासि ,, |
| लोकपुरुषयोस्तुल्यत्वदर्शनं | सप्तमे मासि ,, |
| गर्भस्येन्द्रियाण्यङ्गावयवाश्चयौगपद्येनोत्पद्यन्ते | अष्टमे मातृगर्भयोः परस्परमोजोग्रहणं |
| जातस्योत्तरकालजा भावाः | प्रसवकालः |
| स्त्रीपुंनपुंसकानां वैशेषिकाः भावाः | कुक्षौ गर्भस्य वृद्धेर्हेतुः |
| इन्द्रियोत्पत्तिसमकालमेव गर्भस्य चेतसि वेदनानिबन्धः | गर्भस्याजन्मनि हेतुः |
| तृतीये मासि गर्भे द्वैहृदय्योत्पत्तिः | गर्भस्य व्यापत्तेर्हेतुः |
| तद्विमानने दोषाः | गर्भस्य बीजदोषादिप्रभवाविकृतयः |
| गर्भिण्या लिङ्गानि | आत्मनो निर्विकारत्वनिर्देशः |
| गर्भोपघातकरान् विहाय गर्भिणी यदिच्छेत्तत्तस्यै दद्यात् | शारीरा मानसाश्च दोषाः |
| गर्भोपधातकरा भावाः | शरीरभेदाः |
| गर्भिण्यास्तीव्रप्रार्थनायामहितमपि हितोपसंहितं दद्यात् | सत्त्वभेदाः |
| प्रार्थनासंधारणे दोषाः | ब्राह्मसत्त्वस्य लक्षणम् |
| चतुर्थे मासि गर्भस्य स्वरूपं | आर्षसत्त्वस्य ,, |
| ऐन्द्रसत्त्वस्य,, | |
| याभ्यसत्त्वस्य,, | |
| कौबेरसत्त्वस्य,, | |
| वारुणसत्त्वस्य लक्षणम् | |
| गान्धर्वसत्त्वस्य,, | |
| शुद्धसत्त्वानां मध्ये ब्राह्मस्यात्यन्तशुद्धत्वं | |
| आसुरसत्त्वस्य लक्षणम् |
| विषयः | विषयः |
| राक्षससत्त्वस्य लक्षणम् | मुक्तेः पर्यायाः |
| पैशाचसत्त्वस्य ,, | अध्यायोक्तविषयाः |
| सार्पसत्त्वस्य,, | **६ शरीरविचयशारीरम् |
| प्रैतसत्त्वस्य,, | शरीरविचयप्रयोजनं |
| शाकुनसत्त्वस्य,, | शरीरलक्षणम् |
| एषां षड्विधानां राजसत्त्वं | शरीरधातूनां वैषम्यस्य फलं लक्षणं च |
| पाशवसत्त्वस्य लक्षणम् | धातूनां साम्यार्थ कर्तव्यम् |
| मात्स्यसत्त्वस्य,, | धातूनां वृद्धिहासयोर्हेतुः |
| वानस्पत्यसत्त्वस्य,, | शरीरधातवो हि समानैर्वर्धन्ते |
| एषां त्रिविधानां तामसत्वं | कार्त्स्न्येन शरीरवृद्धिकराभावाः |
| सत्त्वभेदोपसंहारः | बलवृध्दिकरा भावाः |
| अध्यायोक्तविषयाः | आहारपरिणामकरा भावाः |
| **५ पुरुषविचयशारीरम् | ** |
| पुरुषस्य लोकसंमितत्वं | मलप्रसादयोः कार्यं |
| उक्तस्यार्थस्य विस्तरेण व्याख्यानम् | वातपित्तकफा एव सर्वधातुदूषकाः |
| लोकपुरुषयोः सामान्योपदेशस्य प्रयोजनम् | वातादयः प्रकृतिभूता आरोग्यकराः |
| प्रवृत्तेर्मूलम् | शरीरज्ञानफलम् |
| निवृत्तेः स्वरूपं | |
| मोक्षोपायाः | |
| शुद्धमत्त्वस्य लक्षणम् | |
| शुद्धायाः बुद्धेः फलम् | |
| मुक्तस्य लक्षणम् |
| विषयः | विषयः |
| गर्भस्याङ्गाभिनिर्वृत्यादिविषये अग्निवेशस्य कतिपये प्रश्नाः | पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानानि |
| किमङ्गं गर्भस्य कुक्षौ प्रथममुत्पद्यते इत्यत्र महर्षीणां मतानि | पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि |
| कुक्षौ यथा गर्भस्तिष्ठति | ,, कर्मेन्द्रियाणि |
| ,, ,, गर्भोऽभिवर्धते | एकं हृदयं |
| गर्भः कथं प्रसूयते | दश प्राणायतनानि |
| ,, ,, सद्यो हन्यते | पञ्चदश कोष्ठाङ्गानि |
| गर्भस्य देवादिप्रकोपनिमित्तविकारोपलब्धौ प्रमाणं | षट्पञ्चाशत् प्रत्यङ्गानि |
| कालाकालमृत्य्वोर्निर्णयः | नवद्वाराणि |
| अस्मिन् काले आयुषः प्रमाणम् | स्नायु-सिरा-धमनी-पेशी मर्म-सन्धि-केश-श्मश्रु- लोम्नांसंख्याकथनं |
| संपूर्णायुषो निमित्तं | शरीरे अञ्जल्या परिमेयानि द्रव्याणि |
| अध्यायोक्तविषयाः | पार्थिवादिभेदेन शरीराङ्गविभागः |
| **७ शरीरसंख्याशारीरम् | ** |
| शरीरावयवसंख्याविषयेऽग्निवेशस्य प्रश्नः | शरीरावयवसंख्याज्ञानफलं |
| आत्रेयस्योत्तरम् | **८ जातिसूत्रीयं शारीरम् |
| षण्णां त्वचां विवरणम् | स्त्रीपुरुषयोरभीष्टप्रजानिर्वृत्तिकरकर्मोपदेशः |
| शरीरस्याङ्गविभागः | ऋतुकाले स्त्रियाः कर्तव्यं |
| अस्श्नां विवरणं | युग्मेषु दिनेषु पुत्रकामौ अयुग्मेषु दुहितृकामौ संवसेताम् |
| विषयः | विषयः |
| न्युब्ज-पार्श्वगतस्त्रीसेवन निषेधः | गर्भस्यावृद्धौ हेतुः |
| गर्भग्रहणविधिः | उपविष्टकनागोदरयोर्लक्षणं |
| मैथुने अयोग्या स्त्री पुरुषश्च | तयोश्चिकित्सितम् |
| कथंभूतौ स्त्रीपुरुषौ मैथुनमुपेयाताम् | गर्भास्पन्दने चिकित्सा |
| तत्र मन्त्रः | गर्भिण्या उदावर्तविबन्धे सति तच्चिकित्सा |
| यादृशस्य पुत्रस्येच्छा तादृशः पुत्रीयो विधिः | कुक्षौ गर्भमरणे हेतुः |
| शरीरस्य शुक्लादिवर्णवैशेष्येहेत्वन्तरं | मृतगर्भाया लक्षणानि |
| सत्त्वविशेषोत्पत्तौ हेतुः | मृतगर्भाहरणविधिः |
| यथोक्तविधिनोपचरतोरवश्यं गर्भोत्पत्तिः | व्यपगतगर्भशल्यायाः स्त्रियाउपचारः |
| गर्भस्य स्त्रीपुरुषत्वे हेतुः | निर्विकारमाप्यायमानस्य गर्भस्य मासे मासे कर्म |
| वेदोक्तः पुंसवनो विधिः | सूतिकागारनिर्माणविधिः |
| गर्भास्थापनानि | तत्रोपहरणीयाः संभाराः |
| गर्भोपघातकरा भावाः | गर्भिण्याः सूतिकागारप्रवेशविधिः |
| गर्भिण्याः समासेनोपचारविधिः | आसन्नप्रसवाया लिङ्गानि |
| द्वितीयतृतीयमासयोः पुष्पदर्शने गर्भस्रावसंभवः | आवीप्रादुर्भावे कर्तव्यो विधिः |
| चतुष्प्रभृतिषु पुष्पदर्शने चिकित्सा | प्रजाताया अपराऽपतने उपचाराः |
| विषयः | विषयः |
| जातमात्रस्य कुमारस्य कार्याणि कर्माणि | कुमारस्य क्रीडनकानि |
| बालस्य नाडीकल्पनविधिः | ,, वित्रासनं न कार्यं |
| नाड्या असम्यक्छेदे दोषास्तच्चिकित्सा च | ,, रोगप्रादुर्भावे उपचाराः |
| कुमारस्य जातकर्मविधिः | अध्यायोक्तविषयोपसंहारः |
| ,, रक्षाविधिः | शारीरस्थाननिरुक्तिः |
| सूतिकाया दशदिवसावध्युपचारः | **इति शारीरस्थानस्य विषयानुक्रमणिका |
| कुमारस्य नामकरणसंस्कारः | **५ इन्द्रियस्थानम् |
| आयुष्मतां कुमाराणां लक्षणानि | **१ वर्णस्वरीयमिन्द्रियम् |
| धात्रीपरीक्षा | आयुषः प्रमाणविशेषज्ञानार्थं परीक्ष्या आतुरगतावर्णस्वरादयो भावाः |
| धात्र्याः स्तनसंपत् | परीक्ष्याणां द्विविधो भेदः,तयोः परीक्षणोपायश्च |
| ,, स्तन्यसंपत् | प्रकृतेर्भेदाः |
| व्यापन्नस्तन्यस्य लिङ्गानि | विकृतेर्भेदाः |
| ,, चिकित्सा | तेषां स्वरूपम् |
| क्षीरजननानि | शरीरस्य प्राकृता वैकृताश्च वर्णाः |
| स्तनपानविधिः | रिष्टरूपा वर्णविकृतयः |
| कुमारागारविधिः | प्राकृताः स्वराः |
| कुमारस्य शयनादीनि कीदृशानि स्युः | वैकृताः स्वराः |
| कुमारस्य धारणीया मणिमन्त्रौषधयः | रिष्टरूपाः स्वरविकृतयः |
| रिष्टरूपवर्णस्वरविकृतीनां श्लोकैः पुनः कथनम् |
| विषयः | विषयः |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | अङ्गुल्याश्रितं |
| **२ पुष्पितकमिन्द्रियम् | ** |
| यथा फलात्पूर्वं पुष्पोत्पत्तिः,एवं मरणात्प्रागरिष्टोत्पत्तिः | **४ इन्द्रियानीकमिन्द्रियम् |
| प्रज्ञापराधादुत्पन्नस्याप्यरिष्टस्याज्ञानम् | इन्द्रियाणां परीक्षणोपायः |
| अरिष्टभूतं गन्धविज्ञानं | आतुरस्यानिमित्त इन्द्रियज्ञानविपर्यासो मरणलक्षणम् |
| ,, रसविज्ञानं | अरिष्टभूताः दर्शनेन्द्रियविकृतयः |
| आतुरशरीरगतरसस्यानुमानेनज्ञानम् | ,, श्रोत्रेन्द्रियविकृतयः |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, घ्राणेन्द्रियविकृतयः |
| **३ परिमर्शनीयमिन्द्रियम् | ** |
| परिमर्शनविधिः | ,, स्पर्शनेन्द्रियविकृतयः |
| स्पर्शविज्ञेया आतुरशरीरगता विकृतयः | ,, सर्वेन्द्रियविकृतयः |
| तासां विस्तरेण व्याख्यानं | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| उच्छ्वासाश्रितं रिष्टं | **५ पूर्वरूपीयमिन्द्रियम् |
| मन्याश्रितं | ज्वराणामन्येषां च व्याधीनामरिष्टभूतपूर्वरूपाणि |
| दन्तगतं | राजयक्ष्मणः अरिष्टभूतानिपूर्वरूपाणि |
| पक्ष्माश्रितं | ज्वरस्य ,, ,, |
| चक्षुर्गतं | रक्तपित्तस्य ,, ,, |
| केशलोमाश्रितं | गुल्मस्य ,, ,, |
| उदराश्रितं | कुष्ठस्य ,, ,, |
| नखाश्रितं |
| विषयः | विषयः |
| प्रमेहस्यरिष्टभूतानि पूर्वरूपाणि | **८ अवाक्शिरसीयमिन्द्रियम् |
| उन्मादस्य ,, ,, | प्रतिच्छायाश्रयमपरमरिष्टं |
| अपस्मारस्य ,,,, | पक्ष्मवर्त्माश्रयमरिष्टं |
| बहिरायामस्य ,,,, | केशाश्रयमरिष्टं |
| छर्देः ,, ,, | नासिकाश्रयमरिष्टं |
| अरिष्टभूताः स्वप्नाः | ओष्ठाश्रयमरिष्टं |
| सप्तविधाः स्वप्नाः | दन्ताश्रयमरिष्टं |
| अल्पफला महाफलाश्च स्वप्नाः | जिह्वाश्रयमरिष्टं |
| अध्यायोक्तविषयाः | श्वासाश्रयमरिष्टं |
| **६ कतमानिशरीरीयमिन्द्रियम् | ** |
| यानि व्याधिमन्ति शरीराणि बैद्यैरसाध्यत्वात् परिहर्तव्यानि | पूर्वोत्कलिङ्गज्ञानफलं |
| **७ पन्नरूपीयमिन्द्रियम् | ** |
| अरिष्टभूताः प्रतिच्छायाः | कतिपयान्यरिष्टानि |
| संस्थान-प्रमाणच्छायानां स्वरूपं | राजयक्ष्मिणोऽरिष्टानि |
| खादीनां पञ्चभूतानां विविधलक्षणाश्छायाः | बलमांसक्षये येऽचिकित्स्याः |
| छायाप्रभयोर्विशेषः | आनाहिनोऽरिष्टं |
| मुमूर्षूणां कानिचिल्लक्षणानि | यः पेयं पातुं न शक्नोति स म्रियते |
| पूर्वोक्तान्यरिष्टलिङ्गानि जानन् आयुर्वेदविदित्याख्यां लभते | अपराण्यरिष्टलक्षणानि |
| यस्य निष्ठ्यूतपुरीषरेतांसि अम्भसि मज्जन्ति स न जीवति |
| विषयः | विषयः |
| शङ्खकशिरोरोगस्त्रिरात्राद्धन्ति | मुमूर्षतामातुराणां गृहावस्था |
| अपराण्यरिष्टानि | द्वादशाध्यायोक्तानामरिष्टलक्षणानां संक्षेपतः पर्यायेण कथनं |
| अध्यायोक्तविषयाः | जानताऽपि वैद्येनातुरस्य मरणं कुत्र न वक्तव्यं |
| **१० सद्योमरणीयमिन्द्रियम् | ** |
| सद्योमुमूर्षूणां लक्षणानि | प्रशस्तानि शकुनानि |
| **११ अणुज्योतीयमिन्द्रियम् | ** |
| संवत्सरेण मरिष्यतो लिङ्गानि | ,, आतुरस्वप्नाः |
| षड्भिर्मासैः ,, ,, | आरोग्यलक्षणं |
| मासांत् ,, ,, | अध्यायोक्तविषयाः |
| कंतिपयान्यरिष्टानि | **इतीन्द्रियस्थानस्य विषयानुक्रमणिका |
| गतायुषो गुणवच्चतुष्पादेऽपि न गुणोदयः | **६ चिकित्सास्थानम् |
| आयुःपरीक्षायाः प्रशंसा | **प्रथमो रसायनाध्यायः |
| अरिष्टस्य लक्षणम् | **१ रसायनपादः |
| **१२ गोमय चूर्णीय मिन्द्रियम् | ** |
| मासात् मरिष्यतो लिङ्गानि | भेषजभेदाः |
| अर्धमासात् ,, ,, | अभेषजभेदाः |
| कतिपयान्यसाध्यलक्षणानि | द्विविधभेषजलक्षणं |
| मुमूर्षतामातुराणां दूताः | रसायनसेवनगुणाः |
| आतुरगृहं गच्छतो वैद्यस्य यात्रायामशुभशुभानि निमित्तानि | रसायनलक्षणं |
| वाजीकरणस्य लक्षणं गुणाश्च | |
| चिकित्सितार्थः |
| विषयः | विषयः |
| अभेषजलक्षणं | विडङ्गावलेहः |
| द्विविधो रसायनप्रयोगः | अपर आमलकावलेहः |
| कुटीप्रावेशिकस्य विधिः | नागबलारसायनं |
| रसायनप्रयोगात् पूर्वं कोष्ठशोधनविधिः | भल्लातकक्षीरं |
| हरीतकीगुणाः | भल्लातकक्षौद्रं |
| हरीतकीसेवनानर्हाः | भल्लातकतैलं |
| आमलकगुणाः | भल्लातकविधानं |
| भेषजग्रहणविधिः | भल्लातकगुणाः |
| ब्राह्मरसायनं प्रथमं | द्वितीयरसायनपादोक्तविषयाः |
| ,, द्वितीयं | **३ करप्रचितीयो रसायनपादः |
| च्यवनप्राशः | आमलकायसरसायनं |
| आमलकरसायनं | केवलामलकरसायनं |
| हरीतकीयोगः | लोहरसायनं |
| ,, अपरः | ऐन्द्ररसायनं |
| रसायनसेवनगुणाः | मेध्यरसायनानि |
| प्रथमरसायनपादोक्तविषयाः | पिप्पलीरसायनं |
| **२ प्राणकामीयो रसायनपादः | ** |
| रसायनविधानस्य फलं | त्रिफलारसायनं प्रथमं |
| शरीरदोषनिमित्तानि | ,, द्वितीयं |
| तानि परिहरन्रसायनमुपयुञ्जीत | ,, तृतीयं |
| आमलकघृतं | ,, चतुर्थं |
| आमलकावलेहः | शिलाजतुरसायनं |
| आमलकचूर्णं | तृतीयरसायनपादोक्तविषयाः |
| विषयः | विषयः |
| **४ आयुर्वेदसमुस्थानीयो रसायनपादः | ** |
| रसायनज्ञानार्थमृषीणामिन्द्रसमीपे गमनं | **द्वितीयो वाजीकरणाऽध्यायः |
| तान् प्रतीन्द्रस्योपदेशः | **१ संप्रयोगशरमूलीयो वाजीकरणपादः |
| इन्द्रोक्तं रसायनं | वाजीकरणस्यावश्यकर्तव्यता |
| द्रोणीप्रावेशिकरसायनं | वाजीकरणेषु स्त्रियाः श्रेष्ठत्वं, तत्र हेतुश्च |
| अपरमिन्द्रोक्तरसायनं | गमनार्हा स्त्री |
| केषां कुटीप्रावेशिकः केषां च वातातपिको विधिर्हितः | निरपत्यस्य निन्दा |
| रसायनविधिभ्रंशे कर्तव्यं | बहुप्रजस्य प्रशंसा |
| आचाररसायनं | बृंहणी गुटिका |
| मनःशरीरशुद्धानामेव रसायनसिद्धिर्भवति | वाजीकरणं घृतं |
| मर्त्यैर्भिषजोऽवश्यं पूजनीयाः | वाजीकरणः पिण्डरसः |
| प्राणाचार्यप्रशंसा | वृष्यो माहिषरसः |
| भिषजं प्रत्यातुरस्य कर्तव्यम् | वृष्यरसाः |
| वैद्यः स्वसुतानिवातुरान्चिकित्सेत् | वृष्यो मांसयोगः |
| आयुर्वेदोपदेशो महर्षिणां धर्मार्थमेव | ,, माषयोगः |
| जीवितदातुर्भिषजः प्रशंसा | वृष्यं भृष्टमांसं |
| वृष्या अण्डरसाः | |
| पूर्वं संशोधिते एव शरीरे वृष्ययोगा उपयोक्तव्याः | |
| प्रथमपादोक्तविषयाः |
| विषयः | विषयः |
| **२ आसक्तक्षीरीयो वाजीकरणपादः | ** |
| अपत्यकरा षष्टिकादिगुटिका | स्त्रीषु विषये न सर्वेऽपि समबलाः,अतः सर्वोपयोगिनां वाजीकरणयोगानामुपदेश आवश्यकः |
| वृष्या भक्ष्ययोगाः | वृष्या बस्तयः |
| अपत्यकरो रसः | वृष्या मांसगुडिका |
| वृष्यं क्षीरं | वृष्यो माहिषरसः |
| वृष्यघृतं | वृष्यो मत्स्ययोगः |
| वृष्यो दधिरसयोगः | ,, रोहितमत्स्ययोगः |
| वृष्यः षष्टिकौदनयोगः | वृष्यौ पूपलिकायोगौ |
| वृष्याः पूपलिकाः | वृष्याः पूपलिकाः |
| पूर्वोक्ताष्टयोगानां फलं | वृष्ययोगः |
| द्वितीयपादोक्तविषयाः | अपत्यकरं घृतं |
| **३ माषपर्णभृतीयो वाजीकरणपादः | ** |
| गोक्षीररसायनं | वृष्योत्कारिका |
| क्षीरयोगः प्रथमः | अनुक्तवृष्यसंग्रहः |
| ,, द्वितीयः | शुक्रविकाशे दृष्टान्तः |
| ,, तृतीयः | अतिबालवृद्धयोर्मैथुननिषेधः |
| वृष्यः पायसयोगः | शुक्रक्षयहेतवः |
| वृष्याः पूपलिकाः | स्त्रीसंप्रयोगे शुक्रं कथं प्रवतेते |
| वृष्यं शतावरीघृतं | |
| वृष्यो मधुकयोगः | |
| वाजीकराः केचन भावाः | |
| तृतीयपादोक्तविषयाः |
| विषयः | विषयः |
| विशुद्धशुक्रलक्षणं | चतुर्थकविपर्ययलक्षणं |
| वाजीकरणनिरुक्तिः | रसादिसप्तधातुगतज्वराणां लक्षणानि |
| चतुर्थपादोक्तविषयाः | वातपित्तज्वरलक्षणं |
| **३ ज्वरचिकित्सितम् | ** |
| पुनर्वसुसमीपेऽग्निवेशस्य ज्वरविषये प्रश्नाः | श्लेष्मपित्तज्वरलक्षणं |
| आत्रेयस्योत्तरं | त्रयोदशविधसंनिपातज्वराणां लक्षणं |
| ज्वरपर्यायाः | सन्निपातज्वरस्य सामान्यलक्षणं |
| ज्वरस्य प्रकृतिः | ,, साध्यासाध्यलक्षणं |
| ,, प्रवृत्तिः (आद्युत्पत्तिः) | आगन्तुज्वरभेदाः |
| ,, प्रभावः | अभिघातज्वरलक्षणं |
| ,, पूर्वरूपं | अभिषङ्गज्वरलक्षणं |
| ज्वरस्य अधिष्ठानं | अभिचाराभिशापजयोर्लक्षणं |
| ,, प्रत्यात्मिकं लक्षणं | कामज्वरलक्षणं |
| ,, भेदाः | भयज्वरलक्षणं |
| मनोदेहसंतापलक्षणं | क्रोधज्वरलक्षणं |
| अन्तर्वेगंज्वरलक्षणं | विषज्वरलक्षणं |
| बहिर्वेगज्वरलक्षणं | आगन्तुज्वरलक्षणानामन्येष्वागन्तुरोगेष्वतिदेशः |
| प्राकृतवैकृतज्वरयोर्लक्षणं | आगन्तुज्वरेषु दोषादि विचारः |
| ज्वरस्य साध्यासाध्यलक्षणं | |
| संततज्वरलक्षणं | |
| सततकज्वरलक्षणं | |
| अन्येद्युष्कज्वरस्य लक्षणं | |
| तृतीयकचतुर्थकज्वरयोः |
| विषयः | विषयः |
| ज्वरसंप्राप्तिः | ज्वरे कषायविधानं |
| ज्वरे स्वेदाप्रवृत्तिहेतुः | ,, कषायरसनिषेधः |
| आमज्वरलक्षणं | ,, यूषविधानं |
| पच्यमानज्वरलक्षणं | ,, सपिंर्विधानं |
| निरामज्वरलक्षणं | ,, मांसरसप्रयोगः |
| नवज्वरे निषिद्धानि | ,, पयःप्रयोगः |
| ज्वरे लङ्घनविचारः | ,, विरेचनं |
| अविपक्वानां दोषाणां तरुणज्वरे पाचनानि | ,, निरूहबस्तिप्रयोगः |
| कस्मिन् ज्वरे उष्णं जलं देयं | ,, अनुवासनप्रयोगः |
| ,, ,, शृतशीतं ,, ,, | ,, शिरोविरेचनप्रयोगः |
| पिपासाज्वरशान्तये मुस्तकादिजलं | जीर्णज्वरेऽभ्यङ्गादिविधानं |
| ज्वरे वमनं कदा देयं | ज्वरितानां यवाग्वाद्यर्थे |
| अनुपस्थितदोषाणां वमनदाने दोषाः | प्रशस्तानि धान्यानि |
| ज्वरे यवागूप्रयोगः | ज्वरे यवागूयोगाः |
| यवागूगुणाः | ज्वरितानां यूषार्थे हितान्यन्नानि |
| येषां यवागूर्न हिता | ज्वरितानां हितानि शाकानि |
| तर्पणार्हा नराः | ,, ,, मांसानि |
| जीर्णतर्पणस्य ज्वरितस्य भोजनविधानं | ,, अहितानि ,, |
| अन्नकाले ज्वरिताय दन्तधावनविधानं | ज्वरे हितं पानं |
| नवज्वरे अपथ्यानि | |
| ज्वरघ्नाः कषायाः | |
| पञ्चसु विषमज्वरेषु हिताः पञ्चकषायाः |
| विषयः | विषयः |
| ज्वरे वत्सकादिकषायः | ज्वरस्थाष्टमेऽपनि निरामये हेतुः |
| ,, मधूकादिहिमः | ज्वरे गुरुभोजनस्य निषेधः |
| सन्निपातज्वरे बृहत्यादियोगः | वातजेज्वरे अशदयः |
| ज्वरे अनुलोमनाः कषाययोगाः | सप्ताहनापि ज्वरे चिकित्सा |
| सन्निपातज्वरे शट्यादिगणः | कर्णमूल्यचिकित्स |
| ,, बृह्त्यादिगणः | विमपोभियानकोट |
| जीर्णज्वरे घृतप्रयोगे युक्तिः | तृतीयकचतुर्वक |
| ,, कतिपयघृतयोगाः | विषमज्यो पिक सल |
| ज्वरे संशोधनयोग्याऽवस्था | विषमज्वरना योगाः |
| ,, वमनयोगाः | ज्वरे देवव्याययं को. |
| ,, विरेचनयोगाः | रमाविधायुगविक्रमा |
| ,, क्षीरयोगाः | अभिवतः |
| ,, निरूहानुवासनयोगाः | कामकोय मभरनको |
| शिरोविरेचनाभ्यङ्गयोगातिदेशः | |
| ,,चन्द्रनाद्यं तैलं | |
| दाहप्रशमना उपचाराः | |
| अगुर्वादितैलं | |
| ज्वरे शीतप्रशमना उपचाराः | |
| येषां ज्वरे लङ्घनं न हितं | |
| ज्वरे लङ्घनादिक्रमकरणेयुक्तिः |
| विषयः | विषयः |
| ज्वरसंप्राप्तिः | ज्वरे कषायविधानं |
| ज्वरे स्वेदाप्रवृत्तिहेतुः | ,, कषायरसनिषेधः |
| आमज्वरलक्षणं | ,, यूषविधानं |
| पच्यमानज्वरलक्षणं | ,, सर्पिविधानं |
| निरामज्वरलक्षणं | ,, मांसरसप्रयोगः |
| नवज्वरे निषिद्धानि | ,, पयःप्रयोगः |
| ज्वरे लङ्घनविचारः | ,, विरेचनं |
| अविपक्वानां दोषाणां तरुणज्वरे पाचनानि | ,, निरूहबस्तिप्रयोगः |
| कस्मिन् ज्वरे उष्णं जलं देयं | ,, अनुवासनप्रयोगः |
| ,, ,, श्रुतशीतं ,, ,, | ,, शिरोविरेचनप्रयोगः |
| पिपासाज्वरशान्तये मुस्तकादिजलं | जीर्णज्वरेऽभ्यङ्गादिविधानं |
| ज्वरे वमनं कदा देयं | ज्वरितानां यवाग्वाद्यर्थे |
| अनुपस्थितदोषाणां वमनदाने दोषाः | प्रशस्तानि धान्यानि |
| ज्वरे यवागूप्रयोगः | ज्वरे यवागूयोगाः |
| यवागूगुणाः | ज्वरितानां यूषार्थे हितान्यन्नानि |
| येषां यवागूर्न हिता | ज्वरितानां हितानि शाकानि |
| तर्पणार्हा नराः | ,, ,, मांसानि |
| जीर्णतर्पणस्य ज्वरितस्य भोजनविधानं | ,, अहितानि ,, |
| अन्नकाले ज्वरिताय दन्तधावनविधानं | ज्वरे हितं पानं |
| नवज्वरे अपथ्यानि | |
| ज्वरघ्नाः कषायाः | |
| पञ्चसु विषमज्वरेषु हिताः पञ्चकषायाः |
| विषयः | विषयः |
| ज्वरे वत्सकादिकषायः | ज्वरस्याष्टमेऽहनि निरामत्वे हेतुः |
| ,, मधूकादिहिमः | ज्वरे गुरुभोजनस्य निषेधः |
| सन्निपातज्वरे बृहत्यादियोगः | वातजे ज्वरे आदावप्यभ्यङ्गादयः कार्याः |
| ज्वरे अनुलोमनाः कषाययोगाः | सप्ताहेनापि परिपाकमप्राप्ते ज्वरे चिकित्सा |
| सन्निपातज्वरे शट्यादिगणः | ज्वरेषु दोषापेक्षिणि चिकित्सा |
| ,, बृहत्यादिगणः | कर्णमूलशोथचिकित्सा |
| जीर्णज्वरे घृतप्रयोगे युक्तिः | विसर्पाभिघातविस्फोटकज्वराणां चिकित्सा |
| ,, कतिपयघृतयोगाः | जीर्णज्वरे चिकित्साविशेषः |
| ज्वरे संशोधनयोग्याऽवस्था | तृतीयकचतुर्थकयोः ,, |
| ,, वमनयोगाः | विषमज्वरे चिकित्साक्रमः |
| ,, विरेचनयोगाः | विषमज्वरनाशना योगाः |
| ,, क्षीरयोगाः | ज्वरे दैवव्यपाश्रयं कर्म |
| ,, निरूहानुवासनयोगाः | रसादिधातुगतज्वराणांचिकित्सा |
| ,, शिरोविरेचनाभ्यङ्गयोगातिदेशः | अभिघातज्वरचिकित्सा |
| ,, चन्दनाद्यं तैलं | कामक्रोधशोकभयज्वराणांचिकित्सा |
| ,, दाहप्रशमना उपचाराः | ज्वरप्रमोक्षे लिङ्गानि |
| अगुर्वादितैलं | मुक्तज्वरलक्षणानि |
| ज्वरे शीतप्रशमना उपचाराः | |
| येषां ज्वरे लङ्घनं न हितं | |
| ज्वरे लङ्घनादिक्रमकरणे युक्तिः |
| विषयः | विषयः |
| ज्वरे वर्जनीयानि | रक्तपित्ते आदौ स्तम्भननिषेधः |
| ज्वरमुक्तेनासेव्यानि | ,, मार्गादीनवेक्ष्य लङ्घनंतर्पणं वा विधेयं |
| ज्वरस्य पुनरावर्तने हेतुः | ,, पिपासायां ह्रीबेरादिजलं |
| ज्वरितस्य दुर्निर्हृता दोषा ज्वरमकुर्वन्तोऽप्यपकारं कुर्वन्ति | ,, तर्पणपेयायोग्याऽवस्था |
| पुनरावृत्ते ज्वरे चिकित्सा | ,, तर्पणयोगाः |
| भिषक् ज्वरप्रशमने विशेषतो यतेत | ,, हितान्यन्नानि |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, हितं शाकं |
| **४ रक्तपित्तचिकित्सितम् | ** |
| रक्तपित्तविषयेऽग्निवेशस्य प्रश्नः | ,, यवागूयोगाः |
| रक्तपित्तस्य शीघ्रप्रतिकार्यत्वं | ,, मांसरसयोगाः |
| ,, हेतुः | ,, हितं पानं |
| ,, संप्राप्तिः | ,, संशोधनं |
| ,, दोषाधिक्यवशाल्लक्षणानि | ,, संशमनी चिकित्सा |
| ,, साध्यासाध्यलक्षणानि | रक्तपित्तहराः कतिपययोगाः |
| ,, द्विविधा गतिः | मूत्रमार्गप्रबृस्य रक्तपित्तस्य चिकित्सा |
| ,, असाध्यलक्षणानि | विट्पथप्रवृत्तस्य ,, ,, |
| साध्यरक्तपित्तलक्षणानि | रक्तपित्ते घृतयोगाः |
| रक्तपित्ते दोषाधिक्यवशान्मार्गानुबन्धविशेषः | पित्तज्वरचिकित्साया रक्तपित्तेऽतिदेशः |
| ग्रथिते रक्तपित्ते चिकित्सा | |
| रक्तपित्ते शतावर्यादिघृतं |
| विषयः | विषयः |
| घाणप्रवृत्ते रक्तपित्ते चिकित्सा | पूर्वोक्तघृतयोगेभ्य एव चूर्णानि गुटिकाश्च कल्पनीयाः |
| ,, प्रलेपयोगाः | वातगुल्मे हिङग्वादिचूर्णं |
| रक्तपित्ते शीतोपचाराः | शट्यादिचूर्णं |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | ,, कतिपययोगाः |
| **५ गुल्मचिकित्सितम् | ** |
| गुल्मस्य निदानं संप्राप्तिश्च | ,, शिलाजतुप्रयोगः |
| ,, सामान्यलक्षणं | ,, स्वेदनं |
| गुल्मस्य स्थानानि | ,, बस्तिविधिः |
| वातगुल्मस्य निदानं लक्षणं च | ,, नीलिन्याद्यं घृतं |
| पित्तगुल्मस्य ,, ,, | ,, भोजनं |
| कफगुल्मस्य ,, ,, | पित्तगुल्मे रोहिण्याद्यं घृतं |
| सन्निपातगुल्मस्य ,, ,, | ,, त्रायमाणाद्यं ,, |
| रक्तगुल्मस्य ,, ,, | ,, आमलकाद्यं ,, |
| वातगुल्मे चिकित्साक्रमः | ,, द्राक्षाद्यं ,, |
| पित्तगुल्मे ,, | ,, वासाघृतं |
| गुल्मस्यामपच्यमानपक्वलक्षणानि | ,, विरेचनयोगाः |
| पक्वगुल्मचिकित्सा | ,, बस्तयः |
| कफगुल्मे चिकित्साक्रमः | ,, अन्नपानानि |
| वातगुल्मे त्र्यूषणादिघृतं | गुल्मेऽग्निसंधुक्षणविधानं |
| ,, हिङ्ग्वादिघृतं | कफगुल्मे वमनम् |
| ,, हपुषाधं घृतं | ,, भेदनविधिः |
| ,, पिप्पल्याद्यं घृतं | ,, दशमूलीघृतं |
| ,, भल्लातकाद्यं धृतं | |
| ,, पञ्चकोलघृतं |
| विषयः | विषयः |
| कफगुल्मे मिश्रकस्नेहः | लोध्रासवः |
| ,, विरेचनयोगाः | प्रमेहिणामनुपानानि |
| ,, दन्तीहरीतकी | संतर्पणोत्थप्रमेहचिकित्सा |
| ,, आतिदेशिकी चिकित्सा | प्रमेहनिदानसेवननिषेधः |
| ,, अन्नपानं | प्रमेहरक्तपित्तयोर्विशेषनिर्णयः |
| गुल्मस्यासाध्यलक्षणं | प्रमेहाणां साध्यासाध्यविचारः |
| रक्तगुल्मे चिकित्साक्रमः | कुलजप्रमेहस्यासाध्यत्वं |
| अध्यायोक्तविषयाः | प्रमेहपिडकाचिकित्सा |
| ६ प्रमेहचिकित्सितं | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| प्रमेहस्य निदानं | **७ कुष्ठचिकित्सितम् |
| ,, संप्राप्तिः | कुष्ठानां निदानं |
| प्रमेहाणां दोषदूष्यसंग्रहः | ,, दोषदूष्यसंग्रहः |
| कफप्रमेहाणां लक्षणानि | ,, पूर्वरूपं |
| पित्तप्रमेहाणां | अष्टादशकुष्ठनामानि |
| वातप्रमेहाणां | कपालकुष्ठस्य लक्षणं |
| प्रमेहाणां पूर्वरूपाणि | उदुम्बरस्य,, |
| ,, चिकित्साक्रमः | मण्डलस्य,, |
| प्रमेहिणामन्नपानं | ऋष्यजिह्वस्य,, |
| कफमेहेषु कतिपययोगाः | पुण्डरीकस्य,, |
| पित्तमेहेषु ,, | सिध्मस्य,, |
| वातमेहचिकित्सा | काकणस्य,, |
| द्वन्द्वजमेहचिकित्सा | एककुष्ठस्य,, |
| सान्निपातिकमेहचिकित्सा | चर्मकुष्ठस्य ,, |
| विषयः | विषयः |
| किटिभस्य लक्षणं | कुष्ठेषु क्षारः |
| विपादिकायाः ,, | ,, विषप्रलेपः |
| अलसकस्य,, | ,, घर्षणविधानं |
| दद्रोः,, | कुष्ठहराः कतिपययोगाः |
| चर्मदलस्य,, | कुष्ठे मुस्तादिचूर्णं |
| पामायाः,, | ,, सुप्तिनुत् त्रिफलादिचूर्णं |
| विस्फोटकानां ,, | ,, गन्धक-सुवर्णमाक्षिक—पारदानां प्रयोगाः |
| शतारुषः,, | कुष्ठेमध्वासवः |
| विचर्चिकायाः,, | ,, कनकबिन्द्वरिष्टं |
| दोषाधिक्यवशात्कुष्ठविशेषोत्पत्तिः | ,, पथ्यमन्नपानं |
| दोषाधिक्यमवेक्ष्य कुष्ठचिकित्सा कार्या | ,, विविधा लेपयोगाः |
| कुष्ठेषु दोषलिङ्गानि | ,, कुष्ठादितैलं |
| कुष्ठानां साध्यासाध्यविचारः | ,, श्वेतकरवीराद्यं तैलं |
| कुष्ठेषु चिकित्साक्रमः | ,, तिक्तालाबुकादितैलं |
| ,, वमनयोगाः | ,, कनकक्षीरीतैलं |
| ,, विरेचनयोगाः | सिध्मकुष्ठे लेपयोगः |
| ,, आस्थापनं | कुष्ठेषु हितानि तैलानि |
| ,, अनुवासनं | विपादिकादौ लेपयोगः |
| ,, नस्यं | मण्डलकुष्ठे लेपौ |
| ,, धूमपानं | कुष्ठेषु कतिपयलेपोद्वर्तनस्नानयोगाः |
| ,, रक्तमोक्षः | ,,तिक्तकं घृतं |
| ,, शस्त्रलेखनं |
| विषयः | विषयः |
| कुष्ठेषु महातिक्तकं घृतं | एकादशव्याधीनां संघातो हि राजयक्ष्मा |
| ,, महाखदिरं घृतं | राजयक्ष्मणः साध्यासाध्यत्वविचारः |
| ,, कतिपययोगाः | प्रतिश्यायाद्राजयक्ष्मा कथंप्रवर्तते |
| श्वित्रचिकित्सा | राजयक्ष्मणस्त्रीणि रूपाणि |
| श्वित्रस्य नामानि मेदाश्च | राजयक्ष्मिणः स्वरभेदलक्षणं |
| ,, असाध्यलक्षणं | ,, पार्श्वशूललक्षणं |
| ,, निदानं | ,, शिरःशूललक्षणं |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | राजयक्ष्मिणः कण्ठात्सरक्तकफप्रवृत्तौ हेतुः |
| **८ राजयक्ष्मचिकित्सितम् | ** |
| राजयक्ष्मण आद्युत्पत्तिः | ,, अरुचेर्लक्षणम् |
| ,, कारणचतुष्टयं | ,, छर्देर्लक्षणम् |
| साहसप्रभवस्य राजयक्ष्मणो निदानसंप्राप्तिलक्षणानि | राजयक्ष्मणस्त्रिदोषजत्वं |
| वेगसंधारणजस्य राजयक्ष्मणो निदानसंप्राप्तिलक्षणानि | राजयक्ष्मणिआवस्थिकी चिकित्सा कार्या |
| धातुक्षयजस्य राजयक्ष्मणोनिदानसंप्राप्तिलक्षणानि | ,, ,, स्वेदविधिः |
| विषमाहारजस्य राजयक्ष्मणो निदानसंप्राप्तिलक्षणानि | ,, शिरःपार्श्वांसशूलेषु लेपाः |
| राजयक्ष्मणः पूर्वरूपाणि | ,, नस्यधूमाभ्यङ्गबस्तिकर्माणि |
| राजयक्ष्मा कथं प्रवर्तते | ,, रक्तमोक्षः |
| राजयक्ष्मिणो विड्बलं हि बलं |
| विषयः | विषयः |
| राजययक्ष्मणि प्रलेपाभ्यङ्गपरिषेकाः | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| ,, मृदु संशोधनं | **९ उन्मादचिकित्सितम् |
| ,, शिरः पार्श्वांसशूलेषुसिद्धयोगाः | उन्मादस्य सामान्यनिदानं संप्राप्तिश्च |
| ,, दुरालभादिघृतं | ,, सामान्यलक्षणम् |
| ,, जीवन्त्यादिघृतं | ,, भेदाः |
| ,, शमनीयो विधिः | वातोन्मादस्य निदानलक्षणे |
| ,, कफप्रसेकचिकित्सा | पित्तोन्मादस्य ,, |
| ,, छर्देश्चिकित्सा | कफोन्मादस्य ,, |
| ,, अतिसारचिकित्सा | त्रिदोषजोन्मादस्य ,, |
| अरोचकचिकित्सा | आगन्तून्मादस्य निदानम् |
| यवानीषाडवचूर्णं | भूतोन्मादस्य सामान्यलिङ्गं |
| राजयक्ष्मणि तालीसाद्यं चूर्णं | देवादयो यथा पुरुषस्य देहं विशन्ति |
| क्षीणमांसस्य शोषिणः प्रशस्तानि मांसानि | देवोन्मत्तस्य लक्षणम् |
| राजयक्ष्मणि प्रशस्तानि मद्यानि | पितृभिरुन्मत्तस्य ,, |
| ,, कतिपयबृंहणयोगाः | गन्धर्वोन्मत्तस्य ,, |
| ,, अवगाहनं | यक्षोन्मत्तस्य ,, |
| ,, उत्सादनं | राक्षसोन्मत्तस्य ,, |
| ,, स्नानन् | ब्रह्मराक्षसोन्मत्तस्य |
| ,, अन्नपानम् | पिशाचोन्मत्तस्य ,, |
| ,, प्रशस्तो विहारः | यादृशं यस्मिंश्च काले देवादय अभिधर्षयन्ति |
| ,, वैदिकी इष्टिः | उन्मादस्यासाध्यलक्षणानि |
| विषयः | विषयः |
| उन्मादस्य चिकित्साक्रमः | वातापस्मारस्य लक्षणम् |
| उन्मादे कल्याणं घृतम् | पित्तापस्मारस्य ,, |
| ,, महाकल्याणकं घृतं | श्लेष्मापस्मारस्य ,, |
| ,, महापैशाचिकम् | सन्निपातापस्मारस्य |
| ,, लशुनाद्यं | अपस्मारस्यासाध्यलक्षणम् |
| ,, पुराणघृतम् | अपस्मारस्य वेगकालः |
| ,, नस्याञ्जनयोगाः | अपस्मारे चिकित्साक्रमः |
| ,, धूमयोगाः | ,, पञ्चगव्यं घृतं |
| ,, दोषापेक्षिणी चिकित्सा | ,, महापञ्चगव्यं |
| ,, सिरावेधः | ,, ब्राह्मीघृतं |
| ,, त्रासनं | ,, कतिपयसिद्धघृतानि |
| कामादिजोन्मादचिकित्सा देवर्षिपितृगन्धर्वैरुन्मत्ते मृदु भैषज्यं देयं | ,, अभ्यङ्गार्थं सिद्धतैलानि |
| भूतोन्मादे दैवव्यपाश्रयं भेषजम् | अपस्मारनाशकाः प्रदेहधूपाः |
| मुक्तोन्मादलक्षणम् | अपस्मारे उत्सादनं |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | अपस्मारे नस्यानि |
| **१० अपस्मारचिकित्सितम् | ** |
| अपस्मारनिरुक्तिः | अतत्त्वाभिनिवेशस्य निदानलिङ्गे |
| अपस्मारस्य निदानम् | ,, चिकित्सा |
| ,, संप्राप्तिः | अपस्मारे रसायनयोगाः |
| ,, सामान्यरूपं | येभ्यो अपस्मारी रक्ष्यः |
| ,, भेदाः | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| **११ क्षतक्षीणचिकित्सितम् | |
| क्षतक्षीणस्य निदानं | |
| ,, लक्षणं |
| विषयः | विषयः |
| क्षतक्षीणस्य पूर्वरूपं | कफजस्य श्वयथोर्लिङ्गं |
| ,, साध्यासाध्यविचारः | श्वयथोः साध्यासाध्यलक्षणम् |
| उरःक्षते लाक्षायोगाः | ,, चिकित्साक्रमः |
| ,, एलादिगुटिका | श्वयथौ वर्जनीयानि |
| ,, रक्तातिप्रवृत्तौ कतिपययोगाः | ,, कतिपययोगाः |
| ,, अमृतप्राशघृतम् | ,, गण्डीराद्यरिष्टः |
| ,, श्वदंष्ट्रादिघृतम् | ,, अष्टशतोऽरिष्टः |
| ,, मधुकादिघृतम् | ,, पुनर्नवाद्यरिष्टः |
| ,, धात्र्यादिघृतम् | ,, फलत्रिकाद्यरिष्टः |
| ,, सर्पिगुडयोगाः | ,, कतिपययोगाः |
| क्षीणे अन्नपानम् | ,, शोथे क्षारगुटिका |
| उरःक्षते सैन्धवादिचूर्णं | ,, गुडार्द्रकप्रयोगः |
| ,, षाडवः | शिलाजतुप्रयोगः |
| ,, नागबलायोगः | ,, कंसहरीतकी |
| ,, पथ्यं | ,, पटोलमूलादिघृतं |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, चित्रकादिघृतं |
| **११ श्वयथुचिकित्सितम् | ** |
| निजस्य श्वयथोर्निदानम् | ,, शैलेयादितैलं |
| आगन्तुजस्य ,, | ,, हिता अभ्यङ्गप्रदेहादयः |
| श्वयथोः संप्राप्तिः | शालूकलक्षणं |
| ,, पूर्वरूपं | बिडालिकाया लक्षणं |
| ,, सामान्यलक्षणम् | उपजिह्विकाया ,, |
| वातजस्य श्वयथोर्लिङ्गं | अधिजिह्विकाया ,, |
| पित्तजस्य |
| विषयः | विषयः |
| उपकुशस्य लक्षणम् | उदरस्य संप्राप्तिः |
| दन्तविद्रधेः ,, | ,, निदानं |
| गलगण्डगण्डमालयोः ,, | ,, पूर्वरूपं |
| पूर्वोक्तरोगाणां सामान्यचिकित्सा | ,, सामान्यलिङ्गं |
| ग्रन्थीनां निदानं चिकित्सा च | ,, भेदाः |
| अर्बुदचिकित्सा | वातोदरस्य निदानसंप्राप्तिलक्षणानि |
| अलज्या लक्षणं | पित्तोदरस्य,, |
| अक्षतस्य ,, | कफोदरस्य,, |
| विदारिकायाः,, | सन्निपातोदरस्य,, |
| विस्फोटकानां,, | प्लीहोदरस्य,, |
| मसूरिकायाः,, | बद्धगुदोदरस्य,, |
| रोमान्तिकायाः ,, | छिद्रोदरस्य,, |
| ब्रध्नस्य ,, ,, | जलोदरस्य,, |
| भगन्दरस्य लक्षणं,, | उदराणां साध्यासाध्यविचारः |
| श्लीपदस्य लक्षणं,, | अजातोदकलक्षणम् |
| जालगर्दभस्य,, | वातोदरे चिकित्साविधिः |
| अभिघातजे विषजे च शोथे चिकित्सा | पित्तोदरे ,, |
| अध्यायोक्तविषयसंग्रहः | कफोदरे,, |
| **१३ उदरचिकित्सितम् | ** |
| उदरविषयेऽग्निवेशस्यात्रेयंप्रति प्रश्नाः | प्लीहोदरे,, |
| प्रति प्रश्नाः | ,, रोहीतकघृतं |
| ,, अन्नपानं |
| विषयः | विषयः |
| बद्धगुदोदरे चिकित्साविधिः | उदरे शाकं |
| छिद्रोदरे ,, | ,, क्षारतैलं |
| जलोदरे ,, | ,, एरण्डतैलं |
| उदरेषु अन्नपानं | ,, बस्तयः |
| ,, वर्जनीयानि | ,, विषप्रयोगविधिः |
| ,, तक्रविधानं | बद्धक्षतान्त्रयोः शस्त्रकर्म |
| ,, क्षीरविधानं | जलोदरे शस्त्रकर्म |
| ,, प्रदेहपरिषेकादि | उदरे क्षीरस्य प्रशस्तत्वं |
| ,, पञ्चकोलघृतं | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| ,, नागरघृतं | **१४ अर्शश्चिकित्सितम् |
| ,, चित्रकघृतं | अर्शोविषये आत्रेयं प्रत्यग्निवेशस्य प्रश्नाः |
| ,, यवाद्यं घृतं | अर्शसां द्विविधो भेदः |
| ,, पटोलाद्यं चूर्णं | सहजानामर्शसां निमित्तं |
| ,, नारायणचूर्णं | अर्शसामुत्पत्तिक्षेत्रं |
| ,, हवुषाद्यं चूर्णं | अर्शसामधिष्ठानभूता धातवः |
| ,, नीलिन्याद्यं चूर्णं | सहजानामर्शसां रूपाणि |
| ,, कतिपययोगाः | अर्शसां सामान्यो हेतुः |
| ,, अभयौष्ट्र-छाग-क्षीरहरीतकीशिलाजतुगुग्गुलुशृङ्गवेराणां प्रयोगाः | अर्शसाम्राकृतिः |
| वातोदरे तैलानि | वातोल्बणानामर्शसां रूपाणि |
| ,, अरिष्टयोगः | ,, हेतुः |
| श्लेष्मोदरे क्षारयोगाः | पित्तोल्बणानामर्शसां रूपाणि |
| उदरे यवागूयोगः | ,, हेतुः |
| श्लेष्मोल्वणानामर्शसां रूपाणि |
[TABLE]
| विषयः | विषयः |
| रक्तातिप्रवृत्तौ बाह्योपचाराः | विषमतीक्ष्णमन्दाग्नीनां लक्षणानि |
| रक्तार्शसि पिच्छाबस्तिः | ग्रहणीगदस्य सामान्यलक्षणं |
| ,, ह्रीबेरादिघृतं | ,, पूर्वरूपं |
| ,, सुनिषण्णकचाङ्गेरीघृतं | ग्रहण्याः स्थानं कर्म च |
| अर्शःसु सामान्यचिकित्सा | ग्रहणीरोगस्य भेदाः |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | वातग्रहणीगदस्य निदानलक्षणे |
| **१५ ग्रहणीचिकित्सिम् | ** |
| जाठराग्नेः कर्म | कफग्रहणीगदस्य ,, |
| भौतिकधात्वग्नीनां कर्म | सान्निपातिकग्रहणीगदस्य ,, |
| अन्नपरिपाकक्रमः | आमग्रहण्याश्चिकित्सा |
| रसादुत्तरोत्तरं रक्तादिधातुपोषणक्रमः | वातग्रहण्याश्चिकित्साक्रमः |
| सप्तधातूनां किट्टानि | बातग्रहण्यां दशमूलाधं घृतं |
| रक्तादिधातूत्पत्तिविषये अग्निवेशस्य कतिपये प्रश्नाः | ,, त्र्यूषणाद्यं ,, |
| तत्रात्रेयस्य समाधानं | ,, पञ्चमूलाद्यं ,, |
| रसस्य सर्वदेहव्यापित्वं | आमपक्वयोर्मलयोर्लक्षणं |
| शरीरैकदेशे रोगोत्पत्तौ हेतुः | वातग्रहण्यां चित्रकादिगुटिका |
| जाठराग्नेः श्रेष्ठत्वं, तत्पालनोपदेशश्च | ,, आमपाचनाः कतिपययोगाः |
| जाठराग्नेर्दुष्टिहेतवः | ,, पिप्पल्याद्यं चूर्णं |
| दुष्टाग्नेर्लक्षणं | ,, मरिचाद्यं ,, |
| अन्नविषस्य लिङ्गानि | ,, षाडवः |
| पित्तादिदोषसंसृष्टस्य तस्य लिङ्गानि | ,, यवागूः |
| विषयः | विषयः |
| वातग्रहण्यां तक्रविधानं | समाग्नेर्गुणाः |
| पित्तग्रहण्याश्चिकित्साक्रमः | समविषमाध्यशनानां लक्षणं |
| पित्तग्रहण्यां चन्दनाद्यं घृतं | प्रातराशेऽजीर्णेऽपि सायमाशस्य न दूषणत्वं |
| ,, नागराद्यं चूर्णं | नैशे आहारेऽजीर्णे प्रातर्भोजननिषेधः |
| ,, भूनिम्बाद्यं ,, | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| ,, किराताद्यं ,, | **१६ पाण्डुरोगचिकित्सितम् |
| श्लेष्मग्रहण्याश्चिकित्साक्रमः | पाण्डुरोगस्य मेदाः |
| कफग्रहण्यां मधूकासवः | ,, संप्राप्तिपूर्वकं सामान्यलक्षणं |
| ,, दुरालभासवः | ,, निदानपूर्विकासंप्राप्तिः |
| ,, मूलासवः | ,, पूर्वरूपं |
| ,, पिण्डासवः | वातजपाण्डुरोगस्य निदानलक्षणे |
| ,, मध्वरिष्टः | पित्तजपाण्डुरोगस्य,, |
| ,, पिप्पल्याद्यं चूर्णं | श्लेष्मजपाण्डुरोगस्य ,, |
| ,, क्षारघृतं | सान्निपातिकपाण्डुरोगस्य ,, |
| ,, कतिपयक्षारयोगाः | मृज्जपाण्डुरोगस्य ,, |
| सान्निपातिकग्रहण्याश्चिकित्साक्रमः | पाण्डुरोगस्यासाध्यलक्षणं |
| ग्रहण्यामावस्थिकी चिकित्सा | कामलाया निदानं लक्षणं च |
| हेतुविशेषान्मन्देऽग्नौ चिकित्साविशेषः | कुम्भकामलाया लक्षणं |
| अत्यग्नेर्निदानं, लिङ्गं | कामलाया असाध्यलक्षणं |
| चिकित्सा च |
| विषयः | विषयः |
| पाण्डुरोगे संशोधनं | **१७ हिक्काश्वासचिकित्सितम् |
| ,, अन्नपानं | हिक्काश्वासयोः शीघ्रं प्राणहरत्वं, तत्र हेतुश्च |
| ,, दाडिमाद्यं घृतं | ,, निदानं संप्राप्तिश्च |
| ,, सिद्धघृतयोगाः | ,, पूर्वरूपाणि |
| ,, संशोधनं | महाहिक्काया लक्षणं |
| ,, नवायसचूर्णं | गम्भीराख्यहिक्कायाः ,, |
| ,, मण्डूरवटकाः | व्यपेताख्यहिक्कायाः ,, |
| ,,योगराजः | क्षुद्राख्यहिक्कायाः ,, |
| ,, शिलाजतुवटकाः | अन्नजाहिकायाः ,, |
| ,, पुनर्नवामण्डूरं | हिक्कायाः साध्यासाध्यविचारः |
| कामलायां लोहयोगाः | श्वासानां संप्राप्तिः |
| पाण्डुरोगे धात्र्यवलेहः | महाश्वासस्य लक्षणं |
| ,,मण्डूरवटकाः | ऊर्ध्वश्वासस्य ,, |
| ,, गौडोऽरिष्टः | छिन्नश्वासस्य ,, |
| ,, बीजकारिष्टः | तमकश्वासस्य ,, |
| ,, धात्र्यरिष्टः | प्रतमकसंतमकयोः ,, |
| ,, दोषापेक्षिणी चिकित्सा | क्षुद्रश्वासस्य |
| मृज्जपाण्डुरोगस्य चिकित्सा | श्वासानां साध्यासाध्यविचारः |
| पाण्डुरोगे आवस्थिकी चिकित्सा | हिक्काश्वासयोः सामान्यश्चिकित्साक्रमः |
| हलीमकस्य लक्षणं | ,,कतिपयधूमयोगाः |
| ,, चिकित्सा | अस्वेद्या हिक्काश्वासातुराः |
| अध्यायोक्तविषयाः | हिक्काश्वासयोरावस्थिकीचिकि० |
| विषयः | विषयः |
| हिक्काश्वासयोः शोधनविचारः | वातकासे चिकित्साक्रमः |
| ,, अन्नपानं | ,, कण्टकारीघृतं |
| ,, कतिपययोगाः | ,, पिप्पल्याद्यं घृतम् |
| ,, शट्याद्यं चूर्णं | ,, त्र्यूषणाद्यं ,, |
| ,, मुक्ताद्यं ,, | ,, रास्नाघृतम् |
| ,, नस्ययोगाः | ,, कतिपययोगाः |
| ,, बाह्योपचाराः | ,, चित्रकादिलेहः |
| ,, दशमूलाद्यं घृतं | ,, अगस्त्यहरीतकीलेहः |
| ,, तेजोवत्यादिघृतं | ,, धूमपानम् |
| ,, मनःशिलादिघृतं | ,, अन्नपानम् |
| ,, चिकित्सासूत्रं | पित्तकासे चिकित्साक्रमः |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, लेहयोगाः |
| **१८ कासचिकित्सितम् | ** |
| कासस्य भेदाः | ,, कतिपययोगाः |
| ,, पूर्वरूपं | कफकासे चिकित्साक्रमः |
| ,, संप्राप्तिः | ,, कतिपययोगाः |
| वातकासस्य निदानलक्षणे | ,, दशमूलादिघृतम् |
| पित्तकासस्य ,, | ,, कण्टकारीघृतम् |
| श्लेष्मकासस्य ,, | ,, कुलत्थकादिघृतं |
| क्षतकासस्य ,, | दोषजकासेषु दोषापेक्षिणी चिकित्सा |
| क्षयकासस्य,, | क्षतकासेचिकित्साक्रमः |
| कासानां साध्यासाध्यलक्षणं | ,, धूमयोगाः |
| विषयः | विषयः |
| क्षयकासे चिकित्साक्रमः | गुदभ्रंशे चाङ्गेरीघृतम् |
| ,, द्विपञ्चमूल्यादिघृतम् | ,, चव्यादिधृतम् |
| ,, गुडूच्यादिघृतम् | वातातिसारे आवस्थिकी चिकित्सा |
| ,, कतिपयघृतयोगाः | पित्तातिसारे चिकित्साक्रमः |
| ,, हरीतकीलेहः | ,, कतिपययोगाः |
| ,, कतिपयलेहयोगाः | ,, अन्नपानम् |
| ,, अन्नपानम् | ,, अनुवासनम् |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, पिच्छाबस्तिः |
| **१९ अतिसारचिकित्सितम् | ** |
| अतिसारस्य प्रागुत्पत्तिः | रक्तातिसारचिकित्सा |
| वातातिसारस्य निदानपूर्विका संप्राप्तिः | श्लेष्मातिसारे चिकित्साक्रमः |
| वातातिसारस्य लक्षणानि | श्लेष्मातिसारघ्नाः कतिपययोगाः |
| पित्तातिसारस्य निदानसंप्राप्तिलक्षणानि | अध्यायोक्तविषयाः |
| श्लेष्मातिसारस्य ,, | **२० छर्दिचिकित्सितम् |
| सन्निपातातिसारस्य ,, | छर्देःभेदाः |
| भयशोकातिसारयोः लक्षणम् | ,, पूर्वरूपं |
| आमातिसारे संग्रहणौषधनिषेधः | वातच्छर्देः निदानसंप्राप्तिलक्षणानि |
| ,, स्तम्भनाद्दोषाः | पित्तच्छर्देः ,, |
| ,, अनुलोमनार्थं हरीतकीयोगः | कफच्छर्देः ,, |
| ,, प्रमथ्याः | सन्निपातच्छर्देः ,, |
| अतिसारे अन्नपानम् | द्विष्टार्थजायाशछर्देः ,, |
| विषयः | विषयः |
| छर्देरसाध्यलक्षणम् | उपद्रवस्य लक्षणम् |
| वातच्छर्द्यां चिकित्साक्रमः | ,, आशुप्रतिकारोपदेशः |
| पित्तच्छर्द्यां ,, | सान्निपातिकविसर्पलक्षणम् |
| पित्तच्छर्दिघ्नाः कतिपययोगाः | विसर्पाणां साध्यासाध्यविचारः |
| कफच्छर्द्यां चिकित्साक्रमः | विसर्पेषु दोषापेक्षिणी चिकित्सा |
| कफच्छार्दिघ्नाः कतिपययोगाः | विसर्पे वमनम् |
| सन्निपातच्छर्द्याश्चिकित्सा | विसर्पघ्नाः कषाययोगाः |
| मनोभिघातजच्छर्द्याश्चिकित्सा | विसर्पेविरेचनम् |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, रक्तस्रावः |
| **२१ विसर्पचिकित्सितम् | ** |
| विसर्पविषये अग्निवेशस्य प्रश्नाः | प्रलेपविषये कर्तव्याकर्तव्योपदेशः |
| विसर्पस्य निरुक्तिः | विसर्पेहितानिअन्नपानानि |
| ,, भेदाः | ,, वर्ज्यानि |
| ,, दोषदूष्यसंग्रहः | अग्निविसर्पस्य चिकित्साक्रमः |
| ,, सामान्यनिदानम् | कर्दमविसर्पस्य ,, |
| ,, संप्राप्तिः | ग्रन्थिविसर्पस्य ,, |
| ,, साध्यासाध्यलक्षणम् | ,, उपनाहपरिषेचनालेपनानि |
| वातविसर्पस्य निदानलक्षणे | ,, कतिपयप्रयोगाः |
| पित्तविसर्पस्य ,, | ,, दाहः |
| कफविसर्पस्य ,, | ,, शस्त्रेण पाटनादि |
| अग्निविसर्पस्य ,, | |
| कर्दमविसर्पस्य ,, | |
| ग्रन्थिविसर्पस्य ,, |
| विषयः | विषयः |
| गलगण्डचिकित्सा | तृष्णायाः हेत्वपेक्षिणीचिकित्सा |
| विसर्पे रक्तमोक्षणप्रशंसा | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| अध्यायोक्तविषयाः | **२३ विषचिकित्सितम् |
| **२२ तृष्णारोगचिकित्सितम् | ** |
| तृष्णानां निदानम् | वर्षासु विषस्य तीक्ष्णत्वं शरदि मन्दवीर्यत्वं च |
| ,, संप्राप्तिः | जङ्गमविषस्य भेदाः |
| ,, पूर्वरूपं | स्थावरविषस्य ,, |
| ,, सामान्यलक्षणम् | गरविषलक्षणम् |
| वाततृष्णायाः लक्षणम् | जङ्गमस्थावरोभयविषप्रभावः |
| पित्ततृष्णायाः ,, | मनुष्यशरीरे विषस्य सप्तवेगानां पृथग्लक्षणानि |
| आमजतृष्णायाः ,, | पशुशरीरे विषस्य वेगत्रयस्य लक्षणानि |
| क्षयजतृष्णायाः ,, | विषस्य दश गुणाः |
| उत्सर्गजतृष्णायाः ,, | विषं यथा त्रीन् दोषान् प्रकोपयति |
| असाध्यतृष्णायाः ,, | दोषस्थानप्रकृतीः प्राप्य विषं यत् करोति |
| गुर्वन्नजायां तृष्णायां वातपित्तयोर्हेतुत्वं | दूषीविषस्य कार्यं |
| मद्यजायां तृष्णायां पित्तानिलयोर्हेतुत्वं | विषं यथा मारयति |
| तृष्णायां शीतजलं देयं | विषमृतस्य लिङ्गानि |
| तृष्णायाः सामान्यचिकित्सा | विषस्य चतुर्विंशत्युपक्रमाः |
| वातजतृष्णायाः ,, | विषे वेणिकाबन्धः |
| पित्तजतृष्णायाः ,, | ,, निष्पीडनम् |
| कफजतृष्णायाः ,, | |
| क्षयजतृष्णायाः ,, | |
| मद्यजतृष्णायाः ,, |
| विषयः | विषयः |
| विषे उत्कर्तनम् | सविषजललक्षणं |
| ,, चूषणम् | आमाशयगे विषे वमनम् |
| ,, रक्तस्रावणम् | त्वक्स्थे ,, प्रदेहादि |
| ,, प्रघर्षणम् | सर्पभेदाः, तेषां लक्षणानि च |
| ,, लेपसेकौ | दर्वीकरकृतदंशलक्षणम् |
| ,, दाहः | मण्डलिकृतदंशलक्षणम् |
| ,, वमनविरेकौ | राजिलकृतदंशलक्षणम् |
| ,, हृदयावरणम् | सर्पाणां पुंस्त्रीनपुंसकभेदेन लक्षणानि |
| सप्तविषवेगानां चिकित्सा | गौधेर(य)कलक्षणं |
| विषहरा अगदयोगाः | सर्पदंशानामाकृतिभेदेन मृदुदारुणत्वं |
| विषे मन्त्रयोगः | सर्पाणामवस्थाभेदेन तीक्ष्णविषत्वं |
| दोषस्थानभेदेन विषचिकित्सा | सर्पविषं कस्यां दंष्ट्रायां तिष्ठति |
| विषे नस्याञ्जने | सर्पविण्मूत्रजाः कीटाः |
| ,, गन्धहस्तीनामागदः | दूषीविषकीटदष्टलक्षणम् |
| ,, महागन्धहस्तीनामाऽगदः | लूतादष्टलक्षणम् |
| ,, धूमागदः | मूषिकदष्टलक्षणम् |
| ,, क्षारोऽगदः | कृकलासकदष्टलक्षणम् |
| विषप्रदातुर्लक्षणानि | वृश्चिकदष्टलक्षणम् |
| सविषान्नलक्षणम् | कणभदष्टलक्षणम् |
| सविषस्य दन्तपवनस्य लक्षणं | उच्चिटिङ्गदष्टलक्षणम् |
| ,, शिरोभ्यङ्गस्य ,, | सविषमण्डूकदष्टलक्षणम् |
| सविषस्नानोदकोत्सादनवस्त्रालङ्कारवर्णकानां लक्षणम् | |
| सविषमाल्यलक्षणम् | |
| सविषधूमलक्षणम् |
| विषयः | विषयः |
| सविषमत्स्यदष्टलक्षणम् | विषे रसगते चिकित्सा |
| सविषजलौकोदष्टलक्षणम् | ,, रक्तगते ,, |
| गलगोडिकादष्टलक्षणम् | ,, मांसगते ,, |
| गृहगोधिकादष्टलक्षणम् | ,, कतिपयसिद्धयोगाः |
| मशकदष्टलक्षणम् | लूताविषे सार्वकार्मिकोऽगदः |
| मक्षिकादष्टलक्षणम् | ,, अन्ये सिद्धयोगाः |
| कदा दष्टा असाध्या भवन्ति | मूषिकविषे अगदः |
| सर्पाणां कालादिभेदेनतीक्ष्णमन्दविषत्वं | कुटजाद्यो ,, |
| कीटानां वातोल्बणादित्वं | वृश्चिकविषे ,, |
| वातिकविषलक्षणम् | दर्दुरविषे ,, |
| पैत्तिकविषलक्षणम् | मत्स्यविषे ,, |
| श्लैष्मिकविषलक्षणम् | जलौकोविषचिकित्सा |
| अवृश्चिकोच्चिटिङ्गेषु विषेषु शीतो विधिर्हितः | विश्वम्भरादिष्वगदः |
| वृश्चिकविषचिकित्सा | शतपदीविषे चिकित्सा |
| उच्चिटिङ्गविषचिकित्सा | गृहगोधाविषे ,, |
| सविषदंशस्य लक्षणम् | पञ्चशिरीषोऽगदः |
| निर्विषदंशस्य ,, | नखदन्तविषलक्षणं तच्चिकित्सा च |
| विषे हृद्विदाहप्रसेकयोःचिकित्सा | शङ्काविषलक्षणं ,, |
| ,, शिरोगते चिकित्सा | विषार्तानां हितान्यन्नपानानि |
| ,, कण्ठगते ,, | ,, अहितानि |
| ,, आमाशयगते | दष्टानां चतुष्पदानां विपलक्षणानि चिकित्सा च |
| ,, पक्वाशयगते | गरलक्षणं, तच्चिकित्सा |
| विषयः | विषयः |
| सर्वविषेष्वमृतं घृतम् | मद्यपाने सुखाः संहायाः |
| सर्पविषे सामान्यचिकित्सा | के चिरेण के च शीघ्रं माद्यन्ति |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | वातिकमदात्ययस्य निदानलक्षणे |
| **२४ मदात्ययचिकित्सा | ** |
| मद्यप्रशंसा | श्लैष्मिकमदात्ययस्यं ,, |
| सुरापानविधिः | सर्वस्यापि मदात्ययस्य त्रिदोषजत्वं |
| वातिकादिभ्यो हितानि मद्यानि | मदात्ययस्य सामान्यलक्षणम् |
| विधिसेवितमद्यगुणाः | मदात्ययचिकित्सासूत्रं |
| अविधिपीतमद्यदोषाः | समपीतमद्यस्य मदात्ययप्रशमकत्वं |
| मद्यस्य दशगुणाः, तेषां कर्माणि च | मदात्यये मद्यप्रयोगः |
| हृदयं हि रसादीनां स्थानम् | वातिकमदात्ययस्यचिकित्सा |
| अतिपीतेन मद्येन हृदयं विकृतिं याति | पित्तमदात्ययस्य ,, |
| मदलक्षणं | कफमदात्ययस्य ,, |
| मदस्य त्रयो भेदाः, तेषां लक्षणानि च | सन्निपातमदात्ययस्य ,, |
| अहितातिमात्राविधिपीतमद्यदोषाः | मदात्यये हितो विहारः |
| मद्यस्य स्वभावेनान्नतुल्यत्वं युक्तिपीतमद्यगुणाः | ,, क्षीरप्रयोगविधिः |
| मद्यस्य प्रकृतिदर्शकत्वं | मद्योत्थयोर्ध्वंसकविक्षयकरोगयोर्लक्षणम् |
| सात्त्विकराजसतामसानामापानकानां लक्षणानि | तयोश्चिकित्सा |
| विषयः | विषयः |
| मद्यनिवृत्तेर्गुणाः | व्रणशोथपाचना उपनाहाः |
| अध्यायोक्तविषयसंग्रहः | पक्वव्रणशोथभेदनो भेषजगणः |
| **२५ द्विव्रणीयचिकित्सितम् | ** |
| व्रणभेदाः | ,, पीडनविधिः |
| आगन्तुव्रणानां हेतुः चिकित्सा च | ,, निर्वापणविधिः |
| निजव्रणानां संप्राप्तिः | ,, सन्धानविधिः |
| वातिकव्रणस्य लक्षणं चिकित्सा च | ,, अवचूर्णनम् |
| पैत्तिकव्रणस्य ,, ,, ,, | ,, बन्धनविधिः |
| कफव्रणस्य ,, ,, ,, | ,, स्वेदनविधिः |
| व्रणानां विंशतिर्भेदाः | ,, एषणविधिः |
| ,, त्रिविधा परीक्षा | ,, शोधनविधिः |
| द्वादश व्रणदुष्टयः | ,, रोपणविधिः |
| अष्टौ अव्रणस्थानानि… ,, | ,, पत्रदानम् |
| ,, व्रणगन्धाः | ,, अहितं हितं चान्नपानम् |
| चतुर्दश व्रणस्रावाः | ,, उत्सादनविधिः |
| षोडश व्रणोपद्रवाः | ,, अवसादनविधिः |
| प्रकारान्तरेण चतुर्विंशतिर्व्रणदोषाः | ,, अग्निकर्मविधिः |
| व्रणानां साध्यासाध्यलक्षणानि | ,, क्षारकर्मविधिः |
| ,, षट्त्रिंशदुपक्रमाः | ,, धूपनविधिः |
| व्रणशोथप्रशमनी चिकित्सा | ,, प्रलेपविधिः |
| ,, तर्पणविधिः | |
| ,, अवचूर्णनम् | |
| ,, सवर्णीकरणविधिः | |
| ,, लोमसंजननम् |
| विषयः | विषयः |
| घ्रणोपद्रवचिकित्सा | रक्तजमूत्रकृच्छ्रस्य चिकित्सा |
| अध्यायोक्तविषयाः | हृद्रोगस्य निदानसंप्राप्तिलक्षणानि |
| **२६ त्रिमर्मीयचिकित्सितम् | ** |
| मर्मणां संख्या | पित्तजहृद्रोगस्य ,, |
| तत्र त्रयाणां प्राधान्यम् | कफजहृद्रोगस्य ,, |
| उदावर्तस्य निदानं संप्राप्तिश्च | त्रिदोषजहृद्रोगस्य ,, |
| ,, लक्षणम् | कृमिजहृद्रोगस्य ,, |
| ,, चिकित्सा | प्रतिश्यायस्य निदानसंप्राप्तिलक्षणानि |
| मूत्रकृच्छ्रस्य निदानं संप्राप्तिश्च | दुष्टप्रतिश्यायलक्षणानि |
| ,, वातजादिभेदेनलक्षणानि | क्षवथोः लक्षणम् |
| अश्मर्यानिदानसंप्राप्तिलक्षणानि | प्रतिनाहस्य,, |
| अश्मरीजमूत्रकृच्छ्रलक्षणम् | नासास्त्रावस्य ,, |
| रेतोभिघातजमूत्रकृच्छ्रलक्षणम् | अपीनसस्य,, |
| क्षतजमूत्रकृच्छ्रलक्षणम् | घ्राणपाकस्य,, |
| वातजमूत्रकृच्छ्रस्य चिकित्सा | नासाश्वयथोः,, |
| पित्तजमूत्रकृच्छ्रस्य ,, | नासाबुर्दस्य,, |
| कफजमूत्रकृच्छ्रस्य ,, | दीप्तस्य ,, |
| सान्निपातिकमूत्रकृच्छ्रस्य ,, | शिरोरोगस्य वातजादिभेदेन लक्षणानि |
| अश्मरीजमूत्रकृच्छ्रचिकित्सा | मुखरोगस्य ,, ,, |
| रेतोभिघातजमूत्रकृच्छ्रस्य चिकित्सा | अरोचकस्य ,, ,, |
| विषयः | विषयः |
| कर्णरोगस्य वातजादिभेदेन लक्षणानि | खालित्यपलितयोः महानीलतैलं |
| नेत्ररोगस्य ,, ,, | ,, अन्ये कतिपययोगाः |
| खालित्यस्य लक्षणम् | ,, स्वरभेदचिकित्सा |
| पीनसरोगचिकित्सा | दोषाणां स्थानसामीप्याद्धरणमुचितं |
| वातिकशिरोरोगचिकित्सा | विरुद्धगुणा अपि दोषाः परस्परं नोपघ्नन्ति |
| शिरोरोगे मायूरघृतं | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| ,, महामायूरघृतं | **२७ ऊरुस्तम्भचिकित्सितम् |
| पैत्तिकशिरोरोगस्य चिकित्सा | ऊरुस्तम्भस्य निदानं संप्रातिश्च |
| कफजशिरोरोगस्य ,, | ,, पूर्वरूपाणि |
| सन्निपातजशिरोरोगस्य ,, | ,, लक्षणानि |
| कृमिजशिरोरोगस्य ,, | ,, चिकित्सासूत्रं |
| मुखरोगस्य ,, | ऊरुस्तम्भहराः कतिपययोगाः |
| मुखरोगे खदिरादिगुटिका | ऊरुस्तम्भे अष्टकट्वरतैलम् |
| अरोचकानां चिकित्सा | ,, बाह्यचिकित्सा |
| कर्णशूलचिकित्सा | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| कर्णशूले गन्धतैलं | **२८ वातव्याधिचिकित्सितम् |
| ,, क्षारतैलं | वायोः प्रशंसा |
| नेत्ररोगे बिडालकाः | ,, पञ्चभेदाः, तेषां स्थानानि कर्म च |
| ,, आश्च्योतनानि | वातरोगाणां सामान्यनिदानं |
| ,, अञ्जनानि | ,, संप्राप्तिश्च |
| ,, सुखावती वर्तिः | कुपितस्य वायोः रूपाणि |
| ,, दृष्टिप्रदा वर्तिः | |
| ,, अन्यान्यञ्जनानि | |
| खालित्यपलितयोश्चिकित्सा |
| विषयः | विषयः |
| कोष्ठे प्रकुपितस्य वातस्य लक्षणं | रक्तादिधातुभिरावृतस्य वायोर्लक्षणानि |
| सर्वाङ्गे ,, ,, ,, | अन्नावृतस्य,, |
| गुदे ,, ,, ,, | मूत्रावृतस्य,, |
| आमाशये,, ,, ,, | पुरीषावृतस्य,, |
| पक्वाशये,, ,, ,, | वातरोगाणां साध्यासाध्यविचारः |
| श्रोत्रादीन्द्रियेषु,, ,, ,, | वातरोगेषु स्नेहविधिः |
| त्वचि,, ,, ,, | ,, स्वेदविधिः |
| मांसभेदसोः,, ,, ,, | ,, संशोधनं |
| मज्जास्न्थोः ,, ,, ,, | ,, सामान्यचिकित्सा |
| शुक्रस्थस्य वातस्य लक्षणम् | कोष्ठस्थे वाते चिकित्सा |
| स्नायुगतस्य,, ,, | गुदपक्वाशयस्थे,, ,, |
| सिरागतस्य,, ,, | आमाशयस्थे,, ,, |
| सन्धिगतस्य,, ,, | सर्वाङ्गकुपिते,, ,, |
| अर्दितस्य लक्षणम् | त्वगाश्रिते,, ,, |
| मन्यास्तम्भस्य ,, | रक्तस्थे ,, ,, |
| अन्तरायामस्य,, | मांसभेदःस्थे,, ,, |
| बहिरायामस्य,, | अस्थिमज्जगते,, ,, |
| हनुग्रहस्य,, | शुक्रस्थे ,, ,, |
| आक्षेपकस्य ,, | हृदि प्रकुपिते,, ,, |
| दण्डकस्य,, | वायुना गात्रे वेष्ट्यमाने चिकित्सा |
| एकाङ्गरोगस्य,, | ,, ,, संकुचिते ,, |
| गृध्रस्याः,, | बाहुशीर्षगते वाते चिकित्सा |
| खल्ल्याः ,, | |
| कफपित्तरक्तैरावृतस्य वायोर्लक्षणानि |
| विषयः | विषयः |
| नाभेरधोवाते प्रकुपिते चिकित्सा | **२९ वातशोणितचिकित्सितम् |
| अर्दितस्य चिकित्सा | वातरक्तस्य निदानं संप्राप्तिश्च |
| पक्षाघातस्य ,, | ,, स्थानं |
| गृध्रस्याः,, | ,, लक्षणं |
| खल्ल्याः ,, | ,, भेदाः, तेषां लक्षणानि च |
| हनुग्रहस्य,, | वाताधिकस्य वातरक्तस्य लिङ्गानि |
| वातरोगिणां यत्प्रशस्तं | पित्ताधिकस्य ,, ,, |
| वातरोगे स्वेदाः | कफाधिकस्य ,, ,, |
| वातरोगहराः स्नेहाः | वातरक्तस्य साध्यासाध्यलक्षणम् |
| वातरोगे सिद्धतैलयोगाः | वातरक्ते रक्तमोक्षणविधिः |
| ,, बलातैलं | ,, सामान्यचिकित्सा |
| ,, अमृताद्यं तैलं | वाताधिकस्य वातरक्तस्य चिकित्सा |
| अन्यतैलयोगाः | पित्तरक्ताधिकस्य ,, ,, |
| ,, तैलप्रशंसा | कफाधिकस्य,, ,, |
| पित्तावृते वाते चिकित्सा | कफवाताधिकस्य,, ,, |
| कफावृते ,, ,, | वातपित्ताधिकस्य,, ,, |
| रसादिधात्वावृते | वातरक्ते अहितानि |
| अन्नमूत्रशकृतैरावृते | ,, हितमन्नपानम् |
| पञ्चानां मारुतानामन्योन्यावरणे लिङ्गानि तेषां चिकित्सा च | ,, घृतयोगाः |
| अध्यायोक्तविषयाः | वातरक्ते जीवनीयघृतम् |
| ,, कतिपययोगाः |
| विषयः | विषयः |
| वातरक्ते संशोधनम् | कफजयोनिव्यापत्तेर्निदानं लक्षणं च |
| ,, मधुयष्ट्यादितैलम् | त्रिदोषयोनिव्यापत्तेर्लक्षणं |
| ,, सुकुमारकंतैलम् | सासृजाया योनेर्लक्षणं |
| ,, अमृताद्यं ,, | अरजस्काया,, |
| ,, महापद्मकं तैलम् | अचरणाया,, |
| ,, खुड्डाकपद्मकं ,, | अतिचरणाया,, |
| ,, मधुपर्णीतैलम् | प्राक्चरणाया,, |
| ,, बलातैलम् | उपप्लुताया,, |
| ,, पिण्डतैलम् | परिप्लुताया,, |
| ,, शूलादिचिकित्सा | उदावर्तिन्या,, |
| ,, दाहचिकित्सा | कर्णिन्या,, |
| वाताधिकवातरक्तचिकित्सा | पुत्रध्न्या ,, |
| कफाधिकवातरक्तचिकित्सा | अन्तर्मुख्या,, |
| वातकफाधिकवातरक्तचिकित्सा | सूचीमुख्या,, |
| सान्निपातिकवातरक्त चिकित्सा | वामिन्या ,, |
| वातरक्ते आवास्थिकीचिकित्सा | षण्ढ्या ,, |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | महायोनेर्लक्षणं |
| **३० योनिव्यापच्चिकित्सितम् | ** |
| योनिव्यापद्भेदाः | योनिरोगाणां चिकित्सासूत्रं |
| वातजयोनिव्यापत्तेर्निदानं लक्षणं च | वातिकयोनिरोगाणां चिकित्सा |
| पित्तजयोनिव्यापत्तेर्निदानं लक्षणं च | वातिके योनिरोगे बलाघृतं |
| ,, ,, काश्मर्यादिघृतं | |
| ,, कतिपययोगाः |
| विषयः | विषयः |
| पैत्तिकयोनिरोगाणांचिकित्सा | क्लैब्यस्य निदानं |
| पैत्तिके योनिरोगे शतावरीघृतं | ,, सामान्यलक्षणं |
| श्लैष्मिकरोगाणां चिकित्सा | बीजोपघातजक्लैब्यलक्षणं |
| असृग्दरचिकित्सा | ध्वजभङ्गकृतक्लैब्यलक्षणं |
| असृग्दरे पुष्पानुगं चूर्णं | जरासंभवक्लैब्यलक्षणं |
| असृग्दरे कतिपययोगाः | क्षयजक्लैब्यलक्षगं |
| विविधयोनिरोगाणां चिकित्सा | क्लैब्यचिकित्सा |
| योनिरोगेष्वादौ वातशमनंकार्यं | असृग्दरस्य निदानं संप्राप्तिश्च |
| पाण्डुरप्रदरचिकित्सा | वातासुग्दरस्य लक्षणं |
| योनिरोगेष्वावस्थिकी चिकित्सा | पित्तासृग्दरस्य ,, |
| शुक्रदोषविषये आत्रेयं प्रत्यग्निवेशस्य प्रश्नाः | कफासुग्दरस्य,, |
| दुष्टस्य शुक्रस्याबीजत्वं | सान्निपातिकासृग्दरस्य |
| शुक्रदुष्टेर्निदानं संप्राप्तिश्च | असृग्दरस्य साध्यासाध्यलक्षणं |
| शुक्रदोषभेदाः | शुद्धार्तवलक्षणं |
| वातदूषितशुक्रस्य लक्षणं | प्रदरचिकित्सा |
| पित्तदूषितशुक्रस्य ,, | क्षीरदोषाणां निदानं संप्राप्तिश्च |
| श्लेष्मदूषितशुक्रस्य लक्षणं | वातजादिभेदेन क्षीरदोषस्य लिङ्गानि |
| रुधिरान्वितशुक्रस्य ,, | वातादिदुष्टं क्षीरं पिबतो बालस्य यानि लिङ्गानि भवन्ति |
| अवसादिनः शुक्रस्य ,, | क्षीरदोषे धाव्याः संशोधनं |
| शुद्धस्य | ,, ,, हितमन्नपानं |
| शुक्रदोषाणां चिकित्सा ,, |
| विषयः | विषयः |
| स्तन्यशुद्धिकराः कतिपययोगाः | निवृत्तेऽपि व्याधौ दोषशेषापनुत्त्यर्थमनपायिप्रयोगस्य सेवनं विधेयं |
| बालरोगाणां चिकित्सा | व्याधौ पथ्यसेवाफलं |
| चरकप्रतिसंस्कृतस्याग्निवेशतन्त्रस्य दृढबलकृता संपूर्तिः | द्वेष्यमपि पथ्यं कल्पनाविधिभिःप्रियत्वं गमयेत् |
| उक्तानुक्तानां रोगाणां सामान्यचिकित्सा | मनोऽर्थानामानुकूल्यस्य फलं |
| तेषु तेषु शरीरावयवेष्ववस्थितानां रोगाणां चिकित्सा | अध्यायोक्तविषयाः |
| चिकित्सायां कालविचारः | **६ कल्पस्थानम् |
| भेषजग्रहणकालाः | **१ मदनकल्पः |
| ज्वरे पेयाकषायक्षीरसर्पिर्विरेचनानां कालाः | कल्पस्थानस्य विषयः |
| भेषजग्रहणयोग्यः कालः | शरीरमलविरेचनभेदाः |
| ऋत्वाद्यपेक्षः कालविचारः | वमनं विरेचनं च द्रव्यं कथं वामयति विरेचयति च |
| कस्मिन् काले कस्य दोषस्य प्रकोपः | अपरिसंख्येयसंयोगानामपि विरेचनद्रव्याणां षट्सु शतेष्वन्तर्भावं कृत्वोपदेशः |
| ,, वयसि ,, ,, ,, ,, | विरेचनद्रव्याणि कथं क्रियया समर्थतमानि भवन्ति |
| चिकित्सायां मात्राविचारः | देशभेदाः |
| ,, देशसात्म्यविचारः | जाङ्गलदेशस्य लक्षणं |
| दोषाणां कदाचिद्विरुद्धाभिमताऽपिक्रिया कार्या भवति, तां सम्यग्लक्षयेत् | अनूपदेशस्य ,, |
| दोषौषधादीनि परीक्ष्यैव चिकित्सा विधेया | साधारणदेशस्य ,, |
| विषयः | विषयः |
| कथंभूते देशे जातानि द्रव्याण्युपादेयानि | मदनफलानां विंशतिर्मोदकयो |
| औषधद्रव्याहरणविधिः | ,, षोडश शष्कुलीयोगाः |
| औषधद्रव्याणि कथं स्थाप्यानि | ,, ,,पूपयोगाः |
| वमनविरेचनद्रव्याणां भावनार्थमालोडनार्थं च द्र० | ,, दश षाडवादियोगाः |
| वमनद्रव्याणां मदनफलस्य श्रेष्ठत्वं | मदनफलपर्यायाः |
| मदनफलानां ग्रहणस्थापनविधिः | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| वमनौषधपानविधिः | **२ जीमूतककल्पः |
| वमनायोगे कर्तव्यं | जीमूतकपर्यायाः |
| सर्वेषु वमनयोगेष्वनुक्तमपि मधुसैन्धवं देयं | जीमूतकगुणाः |
| छर्दनयोगयुक्तस्य मधुन उष्णविरोधित्वं | जीमूतकानां षट् क्षीरयोगाः |
| मदनफलानामष्टौ मात्रायोगाःमदनफलानां पञ्च पयोमुखा योगाः | ,, एकः सुरामण्डयोगः |
| मदनफलानां एको घ्रेययोगः | ,, एकोनविंशतिः कषाययोगाः |
| ,, एकः फाणितयोगः | ,, अष्टौ वर्तियोगाः |
| ,, षट्वर्तियोगाः | ,, जीवकादिषु चत्वारः स्वरसयोगाः |
| ,, विंशतिर्लेहयोगाः | ,, एको घृतयोगः |
| ,, विंशतिरुत्कारिकायोगाः | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| **३ इक्ष्वाकुकल्पः | |
| इक्ष्वाकोः पर्यायाः | |
| ,, गुणाः | |
| ,, पयोमुखा अष्टौ योगाः | |
| ,, सुरामण्डे एको योगः |
| विषयः | विषयः |
| इक्ष्वाकोः मस्तौ एको योगः | धामार्गवस्य एकोऽन्नयोगः |
| ,, तक्रे ,, ,, | ,, एको घ्रेययोगः |
| ,, एको घ्रेययोगः | ,, द्वादश शद्रसयोगाः |
| ,, एकः पललयोगः | ,, दश लेहयोगाः |
| ,, ,, तैलयोगः | ,, एकः कल्कयोगः |
| ,, ,, घृतयोगः | ,, अन्ये एकादश कषाययोगाः |
| इक्ष्वाकुबीजस्यैको वर्धमानयोगः | ,, एको घृतयोगः |
| इक्ष्वाकोः कषायेषु पञ्चदशयोगाः | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| ,, अष्टौ वर्तियोगाः | **५ वत्सककल्पः |
| ,, पञ्च लेहयोगाः | वत्सकस्य पर्यायाः |
| ,, एको मन्थयोगः | ,, भेदौ |
| ,, ,, मांसरसयोगः | ,, गुणाः |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | ,, नव कषाययोगाः |
| **४ धामार्गवकल्पः | ** |
| धामार्गवपर्यायाः | ,, त्रयः सलिलयोगाः |
| धामार्गवगुणाः | ,, एकः कृशरायोगः |
| धामार्गवस्य पल्लवानां नवयोगाः | अध्यायोक्तार्थसंग्रहः |
| धामार्गवस्य चत्वारः क्षीरयोगाः | **६ कृतवेधनकल्पः |
| ,, एकः सुरासवयोगः | कृतवेधनस्य पर्यायाः |
| ,, नव कषाययोगाः | कृतवेधनस्य गुणाः |
| ,, चत्वारः क्षीरयोगाः | |
| ,, एकः सुरायोगः |
| विषयः | विषयः |
| कृतवेधनस्य द्वाविंशतिः कषा० | श्यामात्रिवृतयोः पानकादिषुपञ्चयोगाः |
| ,, दश पिच्छायोगाः | ,, प्रथमस्तर्पणयोगः |
| ,, षट्वर्तियोगाः | ,, पञ्च मोदकयोगाः |
| ,, एको घृतयोगः | ,, षट्स ऋतुषु षड्योगाः |
| ,, अष्टौ लेहयोगाः | ,, द्वौ चूर्णयोगौ |
| ,, सप्त मांसरसयोगाः | ,, ,, तर्पणयोगौ |
| ,, एक इक्षुरसयोगः | ,, ,, घृतयोगौ |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, ,, क्षीरयोगौ |
| **७ श्यामात्रिवृत्कल्पः | ** |
| विरेचने त्रिवृन्मूलस्य श्रेष्ठत्वं | ,, ,, काञ्जिकयोगौ |
| त्रिवृतायाः पर्यायाः | ,, षाडवादिभिर्दशयोगाः |
| ,, गुणाः | विरेचनयोगानां वान्तिनिरासार्धमुपायाः |
| ,, भेदाः | अध्यायोक्तविषयाः |
| येषामरुणा येषां च श्यामा हिता | **८ चतुरङ्गुलकल्पः |
| श्यामात्रिवृतयोः उद्धरणविधिः | आरग्वधस्य पर्यायाः |
| ,, अम्लादिभिर्नवकल्कयोगाः | ,, गुणाः |
| ,, सैन्धावादिभिर्द्वादश चूर्णयोगाः | ,, उपयोगविधिः |
| ,, गोमूत्रेण सहाष्टादश यो. | आरग्वधस्य द्राक्षारसेन एको योगः |
| ,, जीवकादिभिश्चतुर्दशयोगाः | ,, सुरामण्डेन,, ,, |
| ,, क्षीरादिभिः सप्तयोगाः | ,, सीधुना,, ,, |
| ,, अष्टौ लेहयोगाः | ,, दधिमण्डेन ,, ,, |
| विषयः | विषयः |
| आरग्वधस्य आमलकरसेन एको योगः | सुधायाः सर्पिषा एको योगः |
| ,, सौवीरकेण ,, ,, | ,, मांसरसेन ,, ,, |
| ,, त्रिवृत्कषायेण ,, ,, | ,, एकः पानकयोगः |
| ,, बिल्वकषायेण ,, ,, | ,, ,, घ्रेययोगः |
| ,, द्वौ लेहयोगौ | ,, ,, लेहयोगः |
| ,, एकोऽरिष्टयोगः | ,, यूषादिभिस्त्रयो योगाः |
| अध्यायोक्तविषयाः | ,, शुष्कमत्स्येन एको योगः |
| **९ तिल्वककल्पः | ** |
| तित्वकस्य पर्यायाः | ,, एकः सुरायोगः |
| ,, उपयोगविधिः | ,, द्वौ घृतयोगौ |
| ,, दध्यादिभिः पञ्च योगाः | ,, अध्यायोक्तविषयसंक्षेपः |
| ,, एकः सौवीरकयोगः | **११ सप्तलाशङ्खिनीकल्पः |
| ,, सुरायोगः | सप्तलाशङ्खिन्योः पर्यायाः |
| ,, अरिष्टयोगः | ,, गुणाः |
| ,, कम्पिल्लकेन एको योगः | ,, ग्राह्यमङ्गं |
| ,, त्रयो लेहयोगाः | ,, षोडश कल्कयोगाः |
| ,, चत्वारो घृतयोगाः | ,, षट् तैलयोगाः |
| अध्यायोक्तार्थसंग्रहः | ,, अष्टौ घृतयोगाः |
| **१० सुधाकल्पः | ** |
| सुधाप्रयोगानर्हा नराः | ,, पञ्च संधानयोगाः |
| सुधाप्रयोगार्हा नराः | ,, कम्पिल्लकेन एको योगः |
| सुधाभेदाः | अध्यायोक्तविषयाः |
| सुधायाः उपयोगविधिः | |
| ,, सौवीरकादिभिः सप्तयोगाः |
कल्पस्थानम्।
[TABLE]
[TABLE]
सिद्धिस्थानम्।
[TABLE]
| विषयः | विषयः |
| **३ बस्तिसूत्रीयासिद्धिः | ** |
| बस्ति विषयेऽग्निवेशस्य कतिपयप्रश्नाः | निरूहे प्रतिभोजनं |
| किमपेक्ष्य दत्तो बस्तिः सम्यक्सिद्धिमेति | अध्यायोक्तविषयाः |
| यैर्द्रव्यर्बस्तिनेत्रं विधेयं | ४ स्नेहव्यापादिकीसिद्धिः |
| वयोऽपेक्षि बस्तिनेत्रप्रमाणं | कतिपयेऽनुवासनाःस्नेहयोगाः |
| बस्तिनेत्राकृतिः | स्नेहबस्तः षडापदः |
| बस्तियन्त्रनिर्माणविधिः | वातादिभिरावृतः स्नेहोऽभिभवादधो न याति |
| आस्थापनविधिः | अभुक्ते प्रणीतः स्नेह ऊर्ध्वंयाति |
| निरूहकल्पना | वातावृतस्य स्नेहस्य लक्षणंचिकित्सा च |
| बस्तिप्रयोगविधिः | पित्तावृतस्नेहस्य |
| असम्यक्प्रणीते बस्तौ व्यापदः | कफावृतस्नेहस्य |
| बस्तौ द्रव्यनिक्षेपक्रमः | अत्यशनावृतस्नेहस्य |
| सव्यंशयानस्य बस्तिदाने हेतुः | विडावृतस्नेहस्य |
| प्रथमद्वितीयतृतीयबस्तीनांफलं | ऊर्ध्वं गच्छतः स्नेहस्य लक्षणं चिकित्सा च |
| प्रत्यागते बस्तौ पश्चात्कर्म | रौक्ष्यादनागतः स्नेह उपेक्ष्यः |
| निरूहानन्तरमनुवासनं देयं | अनुवासनात् पूर्वं कीदृशंभोजनं देयं |
| अनुवासनबस्तिप्रयोगविधिः | |
| निरूहबस्तेर्मात्राः | |
| बस्तिदानसमये प्रशस्तं शयनं | |
| अनुवासनानन्तरं देयं भोजनं | |
| कतिपये निरूहयोगाः |
सिद्धिस्थानम्।
[TABLE]
[TABLE]
सिद्धिस्थानम्।
[TABLE]
[TABLE]
सिद्धिस्थानम्।
[TABLE]
| विषयः | विषयः |
| +++++घुपञ्चमूलाद्यो बस्तिः | सुराद्यो बस्तिः….. ….. |
| ++++देवायो बलाद्यो | द्विपञ्चमूलाद्यो " …. |
| +++++तृतीयो | वृष्यतमाः स्नेहबस्तियो. |
| ++++लिपर्ण्याद्यो | पूर्वोक्तबस्तीनां गुणाः |
| +++++राघो | तत्र वर्ज्यानि …… |
| ++++तेर्याद्यो | अध्यायोक्तविषयाः |
| पञ्चमूलाद्यो | यापनाबस्तेरतिसेवने |
| यूराद्यो | तत्र चिकित्सा …… |
| +++धाद्यो | सिद्धिस्थाननिरुक्तिः |
| +++++र्दंष्टे | एतत्तत्रपठनफलं |
| ++++षाद्यो | प्रसिसंस्कर्तुः कर्म |
| ++++टकाद्यो | चरकदृढबलाभ्यां कृतोऽग्निवेशतन्त्रप्रतिसंस्कारः |
| ++++मूलाद्यो | षट्त्रिंशत्तन्त्रयुक्तिनिरूपणं |
| ++++++द्यो | तन्त्रयुक्तिज्ञानफलं |
| +++++यो मध्वाद्यो बस्तिः | एतच्छास्त्रज्ञानफलम् |
चरकसंहिता।
सूत्रस्थानम्।
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प्रथमोऽध्यायः।
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अथातो दीर्घञ्जीवितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
**दीर्घं जीवितमन्विच्छन्भरद्वाज उपागमत्।
इन्द्रमुग्रतपा बुद्ध्वा शरण्यममरेश्वरम्॥३॥
ब्रह्मणा हि यथाप्रोक्तमायुर्वेदं प्रजापतिः।
जग्राह निखिलेनादावश्विनौ तु पुनस्ततः॥४॥
अश्विभ्यां भगवाञ्छक्रः प्रतिपेदे हिकेवलम्।
ऋषिप्रोक्तो भरद्वाजस्तस्माच्छक्रमुपागमत्॥५॥
विघ्नभूता यदा रोगाः प्रादुर्भूताः शरीरिणाम्।
तपोपवासाध्ययनब्रह्मचर्यव्रतायुषाम्1॥६॥ **
**तदा भूतेष्वनुक्रोशं पुरस्कृत्य महर्षयः।
समेताः पुण्यकर्माणः पार्श्वे हिमवतः शुभे॥७॥
अङ्गिरा जमदग्निश्च वसिष्ठः कश्यपो भृगुः।
आत्रेयो गौतमः सांख्यः पुलस्त्यो नारदोऽसितः॥८॥
अगस्त्यो वामदेवश्च मार्कण्डेयाश्वलायनौ।
पारिक्षिर्भिक्षुरात्रेयो भरद्वाजः कपिञ्जलः2॥९॥**
विश्वामित्राश्वरथ्यौ च भार्गवश्च्यवनोऽभिजित्।
गार्ग्यःशाण्डिल्यकौण्डिन्यौ3 वार्क्षिर्देवलगालवौ॥१०
साङ्कृत्यो वैजवापिश्च कुशिको बादरायणः।
बडिशःशरलोमा च काप्यकात्यायनावुभौ॥११॥
काङ्कायनः कैकशेयो धौम्यो मारीचकाश्यपौ4।
शर्कराक्षो हिरण्याक्षो लोकाक्षः5पैङ्गिरेव च॥१२॥
शौनकः शाकुनेयश्च मैत्रेयो मैमतायनिः।
वैखानसा6 वालखिल्यास्तथा चान्ये महर्षयः॥१३॥
ब्रह्मज्ञानस्य निधयो दमस्य7 नियमस्य च।
तपसस्तेजसा दीप्ता हूयमाना इवाग्नयः॥१४॥
सुखोपविष्टास्ते तत्र पुण्यां चक्रुः कथामिमाम्।
धर्म्यार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्॥१५॥
रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च।
प्रादुर्भूतो मनुष्याणामन्तरायो महानयम्॥१६॥
कः स्यात्तेषां शमोपाय इत्युक्त्वा ध्यानमास्थिताः।
अथ ते शरणं शक्रं ददृशुर्ध्यानचक्षुषा॥१७॥
स वक्ष्यति शमोपायं यथावदमरप्रभुः।
कः सहस्राक्षभवनं गच्छेत् प्रष्टुं शचीपतिम्॥१८॥
अहमर्थे नियुज्येयमत्रेति प्रथमं वचः।
भरद्वाजोऽब्रवीत्तस्मादृषिभिः स नियोजितः॥१९॥
स शक्रभवनं गत्वा सुरर्षिगणमध्यगम्।
ददर्श बलहन्तारं8 दीप्यमानमिवानलम्॥२०॥
सोऽभिगम्य जयाशीर्भिरभिनन्द्य सुरेश्वरम्।
प्रोवाच भगवान्धीमानृषीणां वाक्यमुत्तमम्॥२१॥
व्याधयो हि समुत्पन्नाः सर्वप्राणिभयङ्कराः।
तद्ब्रूहि मे शमोपायं यथावदमरप्रभो॥२२॥
तस्मै प्रोवाच भगवानायुर्वेदं शतक्रतुः।
पदैरल्पैर्मतिं बुद्ध्वा विपुलां परमर्षये॥२३॥
हेतुलिङ्गौषधज्ञानं स्वस्थातुरपरायणम्।
त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यं बुबुधे यं पितामहः॥२४॥
सोऽनन्तपारं त्रिस्कन्धमायुर्वेदं महामतिः।
यथावदचिरात् सर्वं बुबुधे तन्मना मुनिः॥२५॥
तेनायुरमितं लेभे भरद्वाजः सुखान्वितम्।
ऋषिभ्योऽनधिकं तं चशशंसानवशेषयन्॥२६॥
ऋषयश्च भरद्वाजाज्जगृहुस्तंप्रजाहितम्।
दीर्घमायुश्चिकीर्षन्तो वेदं वर्धनमायुषः॥२७॥
महर्षयस्ते9 ददृशुर्यथावज्ज्ञानचक्षुषा।
सामान्यं च विशेषं चगुणान् द्रव्याणि कर्म च॥२८॥
समवायं च, तज्ज्ञात्वा तन्त्रोक्तं विधिमास्थिताः।
लेभिरे परमं शर्मजीवितं चाप्यनित्वरम्10॥२९॥
अथ मैत्रीपरः पुण्यमायुर्वेदं पुनर्वसुः।
शिष्येभ्यो दत्तवान् षड्भ्यः सर्वभूतानुकम्पया॥३०॥
अग्निवेशश्च भेल(ड)श्चजतूकर्णःपराशरः।
हारीतः क्षारपाणिश्च जगृहुस्तन्मुनेर्वचः॥३१॥
बुद्धेर्विशेषस्त्रत्रासीन्नोपदेशान्तरं मुनेः।
तन्त्रस्य कर्ताप्रथममग्निवेशो यतोऽभवत्॥३२॥
अथभेला(डा)दयश्चक्रुः स्वं स्वं तन्त्रं कृतानि च।
श्रावयामासुरात्रेयं सर्षिसङ्घंसुमेधसः॥३३॥
श्रुत्वा सूत्रणमर्थानामृषयः पुण्यकर्मणाम्।
यथावत्सूत्रितमिति प्रहृष्टास्तेऽनुमेनिरे॥३४॥
सर्वंएवास्तुबंस्तांश्चसर्वभूतहितैषिणः।
साधुभूतेष्वनुक्रोश11 इत्युच्चैरब्रुवन् समम्॥३५॥
तं पुण्यं शुश्रुवुः शब्दं दिवि देवर्षयः स्थिताः।
सामराः परमर्षीणां श्रुत्वा मुमुदिरे परम्॥३६॥
अहो साध्विति निर्घोषो12लोकांस्त्रीनन्ववादयत्।
नभसि स्निग्धगम्भीरो हर्षाद्भूतैरुदीरितः॥३७॥
शिवो वायुर्ववौ सर्वाभाभिरुन्मीलिता दिशः।
निपेतुः सजलाश्चैव दिव्याः कुसुमवृष्टयः॥३८॥
अथाग्निवेशप्रमुखान् विविशुर्ज्ञानदेवताः।
बुद्धिः सिद्धिः स्मृतिर्मेधा धृतिः कीर्तिः13 क्षमा दया॥३९॥
तानि चानुमतान्येषांतन्त्राणि परमर्षिभिः।
भावाय भूतसङ्घानां प्रतिष्ठां भुवि लेभिरे॥४०॥
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं चतच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥४१॥
शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगो धारि जीवितम्।
नित्यगश्चानुबन्धश्चपर्यायैरायुरुच्यते॥४२॥
तस्यायुषः पुण्यतमो वेदो वेदविदां मतः।
वक्ष्यते यन्मनुष्याणां लोकयोरुभयोर्हितम्14॥४३॥
सर्वदा15 सर्वभावानां सामान्यं वृद्धिकारणम्।
ह्रासहेतुर्विशेषश्च,प्रवृत्तिरुभयस्य तु॥४४॥
सामान्यमेकत्वकरं, विशेषस्तुपृथक्त्वक्रुत्।
तस्यार्थता हि सामान्यं, विशेषस्तु विपर्ययः॥४५॥
सत्त्वमात्मा शरीरं चत्रयमेतस्त्रिदण्डवत्।
लोकस्तिष्ठति संयोगात्तत्रसर्वंप्रतिष्ठितम्॥४६॥
स पुमांश्चेतनंतच्च तच्चाधिकरणं स्मृतम्।
वेदस्यास्य,तदर्थं हि वेदोऽयंसंप्रकाशितः॥४७॥
खादीन्यात्मा मनः कालो दिशश्चद्रव्यसंग्रहः।
सेन्द्रियं चेतनं द्रव्यं, निरिन्द्रियमचेतनम्॥४८॥
सार्थागुर्वादयो बुद्धिः प्रयत्नान्ताः परादयः।
गुणाःप्रोक्ताः, ^(१)प्रयत्नादि कर्मचेष्टितमुच्यते॥४९॥
समवायोपृथग्भावो द्रव्यादीनां गुणैर्मतः।
स नित्यो यत्र हि द्रव्यं16 न तत्रानियतोगुणः॥५०॥
यत्राश्रिताः कर्मगुणाः कारणं समवायियत्।
तद्द्रव्यंसमवायी17 तु निश्चेष्टः कारणं गुणः॥५१॥
संयोगे च विभागे च कारणं द्रव्यमाश्रितम्।
कर्त्तव्यस्यक्रिया कर्म कर्म नान्यदपेक्षते॥५२॥
इत्युक्तंकारणं, कार्यं धातुसाम्यमिहोच्यते।
धातुसाम्यक्रिया चोक्ता तन्त्रस्यास्य प्रयोजनम्॥५३॥
कालबुद्धीन्द्रियार्थानां योगो मिथ्या न चाति च।
द्वयाश्रयाणां व्याधीनांत्रिविधो हेतुसंग्रहः॥५४॥
शरीरं तत्त्वसंज्ञं च व्याधीनामाश्रयो मतः।
तथा सुखानां, योगस्तु सुखानां कारणं शमः॥५५॥
निर्विकारः परस्त्वात्मा सत्त्वभूतगुणेन्द्रियैः।
चैतन्ये^(४)कारणं नित्यो द्रष्टा पश्यति हि क्रियाः॥५६॥
वायुः पित्तं कफश्चोक्तः शारीरोदोषसंग्रहः।
मानसःपुनरुद्दिष्टो रजश्चतम एव च॥५७॥
______________________________________________________
१ ‘प्रयत्नादीति प्रयतनं प्रयत्नः, कर्मैवाद्यमात्मनः। अत्रादिशब्दः प्रकारवाची, तेनसंस्कारगुरुत्वादिजन्यकृत्स्न-क्रियावरोधः’ चक्रः। ‘प्रयत्नो नामगुणविशेषः प्रकृतिगुणमध्ये पठितः, स चात्मन इच्छाजन्या प्रवृत्तिद्वेषजन्या निवृत्तिः, स आदिःकारणं यस्य तत्कर्म’ इति गङ्गाधरः।४ ‘सत्त्वं मनः,भूतगुणाः शब्दादयः, इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि, एतैः करणभूतैश्चैतन्येकारणं भवत्यात्मा, चैतन्यं चात्मनि जायते व्यज्यते वा ; अत एव सत्त्वादीनां ज्ञानकारणानां सर्वत्रासंभवात्सर्वगतेऽप्यात्मनि न सर्वत्र ज्ञानं भवति’इति न्चक्रः।
______________________________________________________
प्रशाम्यत्यौषधैः पूर्वोद्रव्ययुक्तिव्यपाश्रयैः।
मानसोज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभिः॥५८॥
रूक्षःशीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विषदः खरः।
विपरीतगुणैर्द्रव्यैर्मारुतः संप्रशाम्यति॥५९॥
सस्रेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लंसरं कटु।
विपरीतगुणैः पित्तं द्रव्यैराशुप्रशाम्यति॥६०॥
गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः।
श्लेष्मणः प्रशमं यान्ति विपरीतगुणैर्गुणाः॥६१॥
विपरीतगुणैर्देशमात्राकालोपपादितैः।
भेषजैर्विनिवर्त्तन्ते विकाराः साध्यसंमताः॥६२॥
साधनं न त्वसाध्यानां व्याधीनामुपदिश्यते।
^(१)भूयश्चातो18 यथाद्रव्यं गुणकर्मप्रवक्ष्यते॥६३॥
^(२)रसनार्थो रसस्तस्य द्रव्यमापः क्षितिस्तथा।
निर्वृत्तौ च विशेषे च प्रत्ययाः खादयस्त्रयः॥६४॥
स्वादुरम्लोऽथ लवणो कटुकस्तिक्त एव च।
कषायश्चेति षट्कोऽयं रसानां संग्रहः स्मृतः॥६५॥
स्वाद्वम्ललवणा वायुं, कषायस्वादुतिक्तकाः।
जयन्ति पित्तं, श्लेष्माणं कषायकटुतिक्तकाः॥६६॥
कटुम्ललवणाः पित्तं स्वाद्वम्ललवणाः कफम्।
कटुतिक्तकषायाश्च कोपयन्ति समीरणम्॥६७॥
किञ्चिद्दोषप्रशमनं किञ्चिद्धातुप्रदूषणम्।
स्वस्थवृत्तौ मतं किञ्चिद्त्त्रिविधंद्रव्यमुच्यते॥६८॥
तत्पुनस्त्रिविधं ज्ञेयं जाङ्गमं भौममौद्भिदम्।19
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२. ‘रसनार्थ इति जिह्वाग्राह्यः,द्रव्यमाधारकारणं, निर्वृत्तौ अभिव्यक्तौ, विशेषे मधुरादिविशेषनिर्वृत्तौ,प्रत्ययाः निमित्तकारणं, निर्वृत्तौ चेति चकाराद्विशेषेऽपि मधुरादिलक्षणेऽप्क्षितीप्रत्ययौ, विशेषे चेति चकारादभि-व्यक्तावप्याकाशादीनां कारणत्वं दर्शयति’इति चक्रः।
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मधूनिगोरसाः पित्तं वसा मज्जासृगामिषम्॥६९॥
विण्मूत्रचर्मरेतोऽस्थिस्नायुशृङ्गनखाःखुराः।
जङ्गमेभ्यः प्रयुज्यन्ते केशा लोमानि रोचनाः॥७०॥
सुवर्णं समलाः पञ्च लोहाःससिकताः सुधा।
मनःशिलालेमणयोलवणं गैरिकाञ्जने॥७१॥
भौममौषधमुद्दिष्टमौद्भिदं तुचतुर्विधम्।
वनस्पतिस्तथावीरुद्धानस्पत्यस्तथौषधिः॥७२॥
फलैर्वनस्पतिः, पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि।
औषध्यः फलपाकान्ताः, प्रतानैर्विरुधः स्मृताः॥७३॥
मूलत्वक्सारनिर्यासनाल(ड)स्वरसपल्लवाः।
क्षाराः क्षीरं फलं पुष्पं भस्म तैलानिकण्टकाः॥७४॥
पत्राणि शुङ्गाः कन्दाश्चप्ररोहाश्चौद्भिदो गणः।
मूलिन्यःषोडशैकोनाः फलिन्यो विंशतिः स्मृताः॥७५॥
महास्नेहाश्चचत्वारः पञ्चैव लवणानि च।
अष्टौ सूत्राणि सङ्ख्यातान्यष्टावेव पयांसि च॥७६॥
शोधनार्थाश्च षड्वृक्षाःपुनर्वसुनिदर्शिताः।
य एतान् वेत्ति संयोक्तुं, विकारेषु स वेदवित्॥७७॥
हस्तिदन्ती हैमवती श्यामा त्रिवृदधोगुडा।
सप्तला श्वेतनामा च प्रत्यक्श्रेणीं गवाक्ष्यपि॥७८॥
ज्योतिष्मती च बिम्बीच शणपुष्पी विषाणिका।
अजगन्धा द्रवन्तीच क्षीरिणीचात्र षोड़शी॥७९॥
शणपुष्पीच बिम्बीच छर्दनेहैमवत्यपि।
श्वेता ज्योतिष्मतीचैव योज्या शीर्षविरेचने॥८०॥
एकादशावशिष्टायाः प्रयोज्यास्ता विरेचने।
इत्युक्ता नामकर्मभ्यां मूलिन्यः, फलिनीःशृणु॥८१॥
शङ्खिन्यथ विडङ्गानि त्रपुषं मदनानि च।
धामार्गवमथेक्ष्वाकु जीमूतं कृतवेधनम्॥८२॥
आनूपं स्थलजं चैव क्लीतकंद्विविधंस्मृतम्।
प्रकीर्याचोदकीर्याच प्रत्यक्पुष्पी तथाऽभया॥८३॥
अन्तःकोटरपुष्पीच हस्तिपर्ण्याश्च शारदम्।
कम्पिल्लकारग्वधयोः फलं यत् कुटजस्य च॥८४॥
धामार्गवमथेक्ष्वाकु जीमूतं कृतवेधनम्।
मदनं कुटजं चैव त्रपुषंहस्तिपर्णिनी॥८५॥
एतानि वमने चैव योज्यान्यास्थापनेषु च।
नस्तःप्रच्छर्दने चैव प्रत्यक्पुष्पी विधीयते॥८६॥
दशयान्यवशिष्टानि तान्युक्तानि विरेचने।
नामकर्मभिरुक्तानि फलान्येकोनविंशतिः॥८७॥
सर्पिस्तैलं वसा मज्जा स्नेहो दृ(दि)ष्टश्चतुर्विधः।
पानाभ्यञ्जनबस्त्यर्थं नस्यार्थेचैव योगतः॥८८॥
स्रेहना जीवना वर्ण्याबलोपचयवर्धनाः।
स्नेहाह्येते चविहिता वातपित्तकफापहाः॥८९॥
सौवर्चलं सैन्धवं च बिडमौद्भिदमेव च।
सामुद्रेण सहैतानि पञ्च स्युर्लवणानिच॥९०॥
स्निग्धान्युष्णानि तीक्ष्णानि दीपनीयतमानि च।
आलेपनार्थे युज्यन्तेस्नेहस्वेदविधौ तथा॥९१॥
अधोभागोर्ध्वभागेषु निरूहेष्वनुवासने।
अभ्यञ्जने भोजनार्थे शिरसश्चविरेचने॥९२॥
शस्त्रकर्मणि वस्त्यर्थमज्जनोत्सादनेषु च।
अजीर्णानाहयोर्वातेगुल्मेशूले तथोदरे॥९३॥
उक्तानि लवणान्यूर्ध्वंमूत्राण्यष्टौ निबोध मे।
मुख्यानि यानि दिष्टानि सर्वाण्यात्रेयशासने॥९४॥
अविमूत्रमजामूत्रंगोमूत्रं माहिषं तथा।
हस्तिमूत्रमथोष्ट्रस्य हयस्य च खरस्य च॥९५॥
उष्णं तीक्ष्णमथो रूक्षं20कटुकं लवणान्वितम्।
मूत्रमुत्सादने युक्तंयुक्तमालेपनेषु च॥९६॥
युक्तमास्थापने मूत्रंयुक्तं चापि विरेचने।
स्वदेष्वपि तद्युक्तमानाहेष्वगदेषु च॥९७॥
उदरेष्वथचार्शःसुगुल्मकुष्ठकिलासिषु।
तद्युक्तमुपनाहेषु परिषेके तथैव च॥९८॥
दीपनीयं विषघ्नं च क्रिमिघ्नंचोपदिश्यते।
पाण्डुरोगोपसृष्टानामुत्तमं शर्म21चोच्यते॥९९॥
श्लेष्माणं शमयेत्पीतंमारुतं चानुलोमयेत्।
कर्षेत्पित्तमधोभागमित्यस्मिन् गुणसंग्रहः॥१००॥
सामान्येन मयोक्तस्तु, पृथक्त्वेन प्रवक्ष्यते।
अविमूत्रं सतिक्तं स्यात्स्निग्धं पित्ताविरोधि च॥१०१॥
आजं कषायमधुरं पथ्यं दोषान्निहन्ति च।
गव्यं समधुरं किञ्चिद्दोषघ्नं क्रिमिकुष्ठनुत्॥१०२॥
कण्डूं चशमयेत् पीतं सम्यग्दोषोदरे हितम्।
अर्शःशोफोदरघ्नं तुसक्षारंमाहिषं सरम्॥१०३॥
हास्तिकं लवणं मूत्रं हितं तुक्रिमिकुष्ठिनाम्।
प्रशस्तं बद्धविण्मूत्रविषश्लेष्मामयार्शसाम्॥१०४॥
सतिक्तं श्वासकासघ्नमर्शोघ्नंचौष्ट्रमुच्यते।
वाजिनां तिक्तकटुकं कुष्ठव्रणविषापहम्॥१०५॥
खरमूत्रमपस्मारोन्मादग्रहविनाशनम्।
इतीहोक्तानि मूत्राणि यथासामर्थ्ययोगतः॥१०६॥
अतः क्षीराणि वक्ष्यन्तेकर्मचैषां गुणाश्चये।
अविक्षीरमजाक्षीरं गोक्षीरं माहिषं च यत्॥१०७॥
उष्ट्रीणामथ नागीनां वडवायाःस्त्रियास्तथा।
प्रायशो मधुरं स्निग्धं शीतं स्तन्यं पयो मतम्॥१०८॥
प्रीणनं बृंहणं वृष्यं मेध्यं बल्यंमनस्करम्।
जीवनीयंश्रमहरं श्वासकासनिबर्हणम्॥१०९
हन्ति शोणितपित्तं चसंधानं विहतस्य च।
सर्वप्राणभृतां सात्म्यंशमनं शोधनं तथा॥११०॥
तृष्णाघ्नंदीपनीयं च श्रेष्ठं क्षीणक्षतेषु च।
पाण्डुरोगेऽम्लपित्ते च शोषे गुल्मेतथोदरे॥१११॥
अतीसारेज्वरे दाहे श्वयथौ च विशेषतः।
योनिशुक्रप्रदोषेषु मूत्रेषुप्रदरेषु च॥११२॥
पुरीषे ग्रथिते पथ्यं वातपित्तविकारिणाम्।
नस्यालेपावगाहेषु वमनास्थापनेषु च॥११३॥
विरेचने स्नेहने च पयः सर्वत्र युज्यते।
यथाक्रमं क्षीरगुणानेकैकस्य पृथक्पृथक्॥११४॥
अन्नपानादिकेऽध्याये भूयो वक्ष्याम्यशेषतः।
अथापरे त्रयो वृक्षाः पृथग्ये फलमूलिभिः॥११५॥
स्नुह्यर्काश्मन्तकास्तेषामिदं कर्मपृथक्पृथक्।
वमनेऽश्मन्तकंविद्यात्स्नुहीक्षीरं विरेचने॥११६॥
क्षीरमर्कस्य विज्ञेयं वमने सविरेचने।
इमांस्त्रीनपरान् वृक्षानाहुर्येषां हितास्त्वचः॥११७॥
पूतीकःकृष्णगन्धा च तिल्वकश्चतथा तरुः।
विरेचने प्रयोक्तव्यः पूतीकस्तिल्वकस्तथा॥११८॥
कृष्णगन्धा परीसर्पे शोशेष्वर्शःसुचोच्यते।
दद्रुविद्रधिगण्डेषु कुष्ठेष्वप्यलजीषु च॥११९॥
षड्वृक्षाञ्छोधनानेतानपि विद्याद्विचक्षणः।
इत्युक्ताः फलमूलिन्यः स्नेहाश्च लवणानि च॥१२०॥
मूत्रं क्षीराणि वृक्षाश्चषड्ये दिष्टपयस्त्वचः22ष्टाः पयस्त्वचः इति पा०।")।
औषधीर्नामरूपाभ्यां जानते ह्यजपावने॥१२१॥
अविपाश्चैव गोपाश्च ये चान्ये वनवासिनः।
न नामज्ञानमात्रेण रूपज्ञानेन23 वा पुनः॥१२२॥
औषधीनां परां प्राप्तिं कश्चिद्वेदितुमर्हति।
योगविन्नामरूपज्ञ24स्तासां तत्त्वविदुच्यते॥१२३॥
किं पुनर्यो विजानीयादोषधीः सर्वथा भिषक्।
योगमासां तु यो विद्याद्देशकालोपपादितम्॥१२४॥
पुरुषं पुरुषं वीक्ष्य स ज्ञेयो भिषगुत्तमः।
यथा विषं यथा शस्त्रं यथाऽग्निरशनिर्यथा॥१२५॥
तथौषधमविज्ञातं विज्ञातममृतं यथा।
औषधं ह्यनभिज्ञातं नामरूपगुणैस्त्रिभिः॥१२६॥
विज्ञातं चापि दुर्युक्तमनर्थायोपपद्यते।
योगादपि विषं तीक्ष्णमुत्तमं भेषजं भवेत्॥१२७॥
भेषजं चापि दुर्युक्तं तीक्ष्णं संपद्यते विषम्।
तस्मान्न भिषजा युक्तं युक्तिबाह्येन भेषजम्॥१२८॥
धीमता किंचिदादेयं जीवितारोग्यकाङ्क्षिणा।
कुर्यान्निपतितो मूर्ध्नि सशेषं वासवाशनिः॥१२९॥
सशेषमातुरं कुर्यान्न त्वज्ञमतमौषधम्।
दुःखिताय शयानाय श्रद्दधानाय रोगिणे॥१३०॥
यो भेषजमविज्ञाय प्राज्ञमानी प्रयच्छति।
त्यक्तधर्मस्य पापस्य मृत्युभूतस्य दुर्मतेः॥१३१॥
नरो नरकपाती स्यात्तस्य संभाषणादपि।
वरमाशीविषविषं क्वथितं ताम्रमेव वा॥१३२॥
पीतमत्यग्निसंतप्ता भक्षिता वाऽप्ययोगुडाः।
न तु श्रुतवतां वेषं बिभ्रता शरणागतात्॥१३३॥
गृहीतमन्नं पानं वा वित्तं वा रोगपीडितात्।
भिषग्बुभूषुर्मतिमानतः स्वगुणसंपदि॥१३४॥
परं प्रयत्नमातिष्ठेत् प्राणदः स्याद्यथा नृणाम्।
तदेव युक्तं भैषज्यं यदारोग्याय कल्पते॥१३५॥
स चैव भिषजां श्रेष्ठो रोगेभ्यो यः प्रमोचयेत्।
सम्यक्प्रयोगं सर्वेषां सिद्धिराख्याति कर्मणाम्॥१३६॥
सिद्धिराख्याति सर्वैश्चगुणैर्युक्तं भिषक्तमम् ।
तत्र25 श्लोकाः।
आयुर्वेदागमो हेतुरागमस्य प्रवर्त्तनम्॥१३७॥
सूत्रणस्याभ्यनुज्ञानमायुर्वेदस्य निर्णयः।
सम्पूर्णं कारणं कार्यमायुर्वेदप्रयोजनम्॥१३८॥
हेतवश्चैव दोषाश्चभेषजं संग्रहेण च।
रसाःसप्रत्ययद्रव्यास्त्रिविधो द्रव्यसंग्रहः॥१३९॥
मूलिन्यश्चफलिन्यश्चस्नेहाश्चलवणानि च।
मूत्रं क्षीराणि वृक्षाश्व षड्येक्षीरत्वगाश्रयाः॥१४०॥
कर्माणि चैषां सर्वेषां योगायोगगुणागुणाः।
वैद्यापवादो यत्रस्थाः सर्वेच भिषजांगुणाः।
सर्वमेतत्समाख्यातं पूर्वाऽध्याये महर्षिणा॥१४१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने भेषजचतुष्के
दीर्घञ्जीवितीयो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
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द्वितीयोध्यायः।
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अथातोऽपामार्ग26 ‘अपामार्गबीजीय इति संज्ञायां प्राप्तायां अपामार्गतण्डुलीय इति संज्ञाकरणमपामार्गादिबीजानां निस्तुषाणामेव ग्रहणार्थम् चक्रः।")तण्डुलीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
अपामार्गस्य बीजानि पिप्पलीर्मरिचानि च।
विड़ङ्गान्यथ शिग्रूणि सर्षपांस्तुम्बुरूणि च॥३॥
अजाजीं चाजगन्धां27 चपीलून्येलां हरेणुकाम्।
पृथ्वीकां सुरसां श्वेतां कुठेरकफजिज्झकौ॥४॥
शिरीषबीजं लशुनं हरिद्रे लवणद्वयम्।
ज्योतिष्मतींनागरं चदद्याच्छीर्षविरेचने॥५॥
गौरवे शिरसः शूले पीनसेऽर्जावभेदके।
क्रिमिव्याधापस्मारेघ्राणनाशे प्रमोहके॥६॥
मदनं मधुकं निम्बं जीमूतं कृतवेधनम्।
पिप्पलीकुटजेक्ष्वाकूण्येलां घामार्गवाणि च॥७॥
उपस्थिते श्लेष्मपित्तेव्याधावामाशयाश्रये।
वमनार्थं प्रयुञ्जीत भिषग्देहमदूषयन्॥८॥
त्रिवृतां विफलां दन्तींनीलिनींसप्तलां वचाम्।
कम्पिल्वकंगवाक्षीं चक्षीरिणीमुदकीर्यकाम्॥९॥
पीलून्यारग्वधं द्राक्षांद्रवन्तीं निचुलानि च।
पक्वाशयगते दोषे विरेकार्थं प्रयोजयेत्॥१०॥
पाटलां चाग्निमन्थं चबिल्वंश्योनाकमेव च।
काश्मर्यंशालपर्णीं चपृश्निपर्णीं निदिग्धिकाम्॥११॥
बलां श्वदंष्ट्रां बृहतीमेरण्डं सपुनर्नवम्।
यवान् कुलुत्थान् कोलानि गुडूचींमदनानि च॥१२॥
पलाशं कत्तृणंचैव स्नेहांश्च लवणानि च।
उदावर्तविबन्धेषु युञ्ज्यादाख्यापनेषु च॥१३॥
अत एवौषधगतात् संकल्प्यमनुवासनम्।
मारुतघ्नमिति प्रोक्तः संग्रहः पाञ्चकर्मिकः॥१४॥
तान्युपस्थितदोषाणां28 स्नेहस्वेदोपपादनैः।
पञ्चकर्माणि कुर्वीत मात्राकालौविचारयन्॥१५॥
मात्राकालाश्रयायुक्तिः सिद्धिर्युक्तौप्रतिष्ठिता।
तिष्ठत्युपरि युक्तिज्ञोद्रव्यज्ञानवतां सदा॥१६॥
अत ऊर्ध्वंप्रवक्ष्यामि यवागूर्विविधौषधाः।
विविधानां विकाराणां तत्साध्यानां निवृत्तये॥१७॥
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः।
यवागूर्दीपनीया स्याच्छूलघ्नीचोपसाधिता॥१८॥
दधित्थबिल्वचाङ्गेरीतक्रदाडिमसाधिता।
पाचनी ग्राहणीपेया सवातेपाञ्चमूलिकी॥१९॥
सालपर्णीबलाबिल्वैःपृश्विपर्ण्याच साधिता।
दाडिमाम्लाहिता पेया पित्तश्लेष्मातिसारिणाम्॥२०॥
पयस्यर्धोदके छागे ह्रीबेरोत्पलनागरैः।
पेया रक्तातिसारघ्नी पृश्विपर्ण्याच साधिता॥२१॥
दद्यात्सातिविषां पेयां सामे साम्लां सनागराम्।
श्वदंष्ट्राकण्टकारीभ्यां मूत्रकृच्छ्रेसफाणिताम्॥२२॥
विडङ्गपिप्पलीमूलशिग्रुभिर्मरिचेन च।
तक्रसिद्धायवागूः स्यात्क्रिमिघ्नीससुवर्चिका॥२३॥
मृद्वीकासारिवालाजपिप्पलीमधुनागरैः।
पिपासाघ्नीविषघ्नीच सोमराजी्विपाचिता॥२४॥
सिद्धावराहनिर्यूहे यवागूर्बृंहणीमता।
गवेधुकानां भृष्टानां कर्षनीया समाक्षिका॥२५॥
सर्पिष्मतीबहुतिला स्नेहनी लवणान्विता।
कुशामलकनिर्यूहे श्यामाकानां विरुक्षणी॥२६॥
दशमूलीशृता कासहिक्काश्वासकफापहा।
यमके मदिरासिद्धापक्वाशयरुजापहा॥२७॥
शाकैर्मांसैस्तिलैर्माषैःसिद्धा वर्चोनिरस्यति।
जम्ब्वाम्रास्थिदधित्थाम्लबिल्वैःसांग्राहिकीमता॥२८॥
क्षारचित्रकहिङ्ग्वम्लवेतसैर्मेदिनी मता।
अभयापिप्पलीमूलविश्वैर्वातानुलोमनी॥२९॥
तक्रसिद्धायवागूः स्याद्घृतव्यापत्तिनाशिनी।
तैलव्यापदि शस्ता स्यात्तक्रपिण्याकसाधिता॥३०॥
गव्यमांसरसैःसाम्ला विषमज्वरनाशिनी।
कण्ठ्यायवानां यमके पिप्पल्यामलकैः शृता॥३१॥
ताम्रचूड़रसेसिद्धारेतोमार्गरुजापहा।
समाषविदला वृष्या घृतक्षीरोपसाधिता॥३२॥
उपोदिकादधिभ्यां तुसिद्धा मदविनाशिनी।
क्षुधंहन्यादपामार्गक्षीरगोधारसैःशृता॥३३॥
तत्रश्लोकाः।
अष्टाविंशतिरित्येता यवाग्वः परिकीर्त्तिताः।
पञ्चकर्माणि चाश्रित्य प्रोक्तो भैषज्यसंग्रहः॥३४॥
पूर्वं मलफलज्ञानहेतोरुक्तंयदौषधम्।
पञ्चकर्माश्रयज्ञानहेतोस्तत्कीर्त्तितंपुनः॥३५॥
स्मृतिमान् हेतुयुक्तिज्ञोजितात्मा प्रतिपत्तिमान्।
भिषगौषधसंयोगैश्चिकित्सां कर्त्तुमर्हति॥३६॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने भेषजचतुष्केऽ-
पामार्गतण्डुलीयो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
__________
तृतीयोऽध्यायः।
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अथात आरग्वधीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
आरग्वधः सैडगजः करञ्जोवासा गुडूची मदनंहरिद्रे।
श्र्याह्वःसुराह्वःखदिरो धवश्चनिम्बो विडङ्गं करवीरकत्वक्॥३॥
ग्रन्थिश्चभौर्जो लशुनः शिरीषःसलोमशो गुग्गुलुकृष्णगन्धे।
फणिज्झको वत्सकसप्तपर्णैौ पीलूनि कुष्ठं सुमनःप्रवालाः॥४॥
वचा हरेणुस्त्रिवृता निकुम्भो भल्लातकं गैरिकमञ्जनं च।
मनःशिलाले गृहधूम एला काशीसलोध्रार्जुनमुस्तसर्जाः॥५॥
इत्यर्धरूपैर्विहिताः षडेते गोपित्तपीताः पुनरेव पिष्टाः।
सिद्धाः परं सर्षपतैलयुक्ताश्चूर्णप्रदेहाभिषजा प्रयोज्याः॥६॥
कुष्ठानि कृच्छ्राणि नवं किलासं सुरेशलुप्तंकिटिमं सदद्रु।
भगन्दरार्शोस्यपचींसपामां हन्युः प्रयुक्तास्त्वचिरान्नराणाम्॥७॥
कुष्ठं हरिद्रे सुरसं पटोलं निम्बाश्वगन्धे सुरदारुशिग्रू।
ससर्षपं तुम्बुरुधान्यवन्यं चण्डां चचूर्णानि समानि कुर्यात्॥८॥
तैस्तक्रपिष्टैःप्रथमं शरीरं तैलाक्तमुद्वर्त्तयितुं यतेत।
तेनास्य कण्डूःपिड़काःसकोठाःकुष्ठानि शोफाश्च शमं व्रजन्ति॥९॥
कुष्ठामृतासङ्गकटङ्कटेरीकाशीसकम्पिल्लकमुस्तलोध्रम्।
सौगन्धिकं सर्जरसो विडङ्गंमनःशिलाले करवीरकत्वक्॥१०॥
तैलाक्तगात्रस्य कृतानि चूर्णान्येतानि दद्यादवचूर्णनार्थम्।
दद्रुः सकण्डूःकिटिमानि पामा विचर्चिकाचैव तथैति शान्तिम्॥११॥
मनःशिलाले मरिचानि तैलमार्कं पयःकुष्ठहरः प्रदेहः।
तुत्थंविडङ्गंमरिचानि कुष्ठंलोध्नं चतद्वत्समनःशिलंस्यात्॥१२॥
रसाञ्जनं सप्रपुनाडबीजंयुक्तंकपित्थस्य रसेन लेपः।
करञ्जबीजैडगजंसकुष्ठं गोमूत्रपिष्टं चपरः प्रदेहः॥१३॥
उभे हरिद्रेकुटजस्य बीजं करञ्जबीजं सुमनःप्रवालान्।
त्वचं समध्यांहयमारकस्यलेपं तिलक्षारयुतं विदध्यात्॥१४॥
मनःशिला त्वक्कुटजात् सकुष्ठात्सलोमशः सैडगजः करञ्जः।
ग्रन्थिश्चभौर्जः करवीरमूलं चूर्णानि साध्यानि तुषोदकेन॥१५॥
पलाशनिर्दाहरसेन29वापि कर्षोद्धृतान्याढकसंमितेन।
दर्वीप्रलेपं प्रवदन्ति लेपमेतं परंकुष्ठनिसूदनाय॥१६॥
पर्णानि पिष्ट्वाचतुरङ्गुलस्य तक्रेण पर्णान्यथकाकमाच्याः।
तैलाक्तगात्रस्य नरस्य कुष्ठान्युद्वर्तयेदश्वहनच्छदैश्च॥१७॥
कोलं कुलत्थाःसुरदारुरास्नामाषातसीतैलफलानि कुष्ठम्।
वचा शताह्वायवचूर्णमम्लमुष्णानिवातामयिनां प्रदेहः॥१८॥
आनूपमत्स्यामिषवेसवारैरुष्णैःप्रदेहः पवनापहः स्यात्।
स्नेहैश्चतुर्भिर्दशमूलमिश्रैर्गन्धौषधैश्चानिलहृत्प्रदेहः॥१९॥
तक्रेण युक्तं यवचूर्णमुष्णं सक्षारमार्त्तिं जठरे निहन्यात्।
कुष्ठं शताह्वांसवक्षांयवानां चूर्णं सतैलाम्लमुशन्ति वाते॥२०॥
उभे शताह्वेमधुकं मधूकं बलां प्रियालंकशेरुकं च।
घृतं विदारीं चसितोपलां चकुर्यात्प्रदेहं पवने सरक्ते॥२१॥
रास्नागुडूचीमधुकं बले द्वेसजीवकं सर्षभकं पयश्च।
घृतं चसिद्धंमधुशेषयुक्तं रक्तानिलार्त्तिंप्रणुदेत् प्रदेहः॥२२॥
वाते सरक्तेसघृतंप्रदेहोगोधूमचूर्णं छगलीपयश्च।
नतोत्पलं चन्दनकुष्ठयुक्तं शिरोरुजायां सघृतंप्रदेहः॥२३॥
प्रपौण्डरीकं सुरदारु कुष्ठं यष्ट्याह्वमेला कमलोत्पले च।
शिरोरुजायां सघृतःप्रदेहो, लोहैरकापद्मकचोरकैश्च॥२४॥
रास्नाहरिद्रे नलदं शताह्वेद्वेदेवदारुणि सितोपला च।
जीवन्तिमूलं सघृतंसतैलमालेपनं पार्श्वरुजासुकोष्णम्॥२५॥
शैवालपद्मोत्पलवेत्रतुङ्गप्रपौण्डरीकाण्यमृणाललोध्रम्।
प्रियङ्गुकालेयकचन्दनानि निर्वापणःस्यात्सघृतः प्रदेहः॥२६॥
सितालतावेतसपद्मकानि यष्ट्याह्वमैन्द्रीनलिनानि दूर्वा।
यवासमूलं कुशकाशयोश्चनिर्वापणः स्याज्जलमेरका च॥२७॥
शैलेयमेलागुरुणीसकुष्ठे चण्डा नतं त्वक्सुरदारुरास्ना।
शीतं निहन्यादचिरात् प्रदेहो, विषं शिरीषस्तु ससिन्धुवारः॥२८॥
शिरीषलामज्जकहेमलोध्रैस्त्वग्दोषसंस्वेदहरः प्रघर्षः।
पत्राम्बुलोध्राभयचन्दनानि शरीरदौर्गंन्ध्यहरः प्रदेहः॥२९॥
तत्र श्लोकः।
इहात्रिजः सिद्धतमानुवाच द्वात्रिंशतंसिद्धमहर्षिपूज्यः।
चूर्णप्रदेहान्विविधामयघ्नानारग्वधीये जगतो हितार्थम्॥३०॥
इत्यग्निवशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने भेषजचतुष्के
आरग्वधीयो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातः षड्विरेचन30शताश्रितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति हस्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु षड्विरेचनशतानि भवन्ति,षड्विरेचनाश्रयाः,पञ्चकषाययोनयः,पञ्चविधं कषाय-कल्पनम्,पञ्चाशन्महाकषायाः, पञ्चकषायशतानि,इति संग्रहः। षड्विरेचनशतानीति यदुक्तं तदिह संग्रहेणोदाहृत्य विस्तरेणकल्पोपनिषदि व्याख्यास्यामः॥३॥
षड्विरेचनशतानीति यदुक्तं, तदिह संग्रहेणोदाहृय विस्तरेण
कल्पोपनिषद्यनुव्याख्यास्यामः ॥४॥
(तत्र) त्रयस्त्रिंशद्योगशतं प्रणीतं फलेषु, एकोनचत्वारिंशज्जीमूतकेषु योगाः, पञ्चचत्वारिंशदिक्ष्वाकुषु, धामार्गवः षष्टिधा भवतियोगयुक्तः, कुटजस्त्वष्टादशधा योगमेति, कृतवेधनं षष्टिधा भवतियोगयुक्तं, श्यामात्रिवृद्योगशतं प्रणीतं दशापरे चात्र भवन्ति योगाः,चतुरङ्गुलो द्वादशधा योगमेति, लोध्रं विधौ षोडशयोगयुक्तं, महावृक्षो भवति विंशतियोगयुक्तः, एकोनचत्वारिंशत्सप्तलाशङ्खिन्योर्योगाः, अष्टचत्वारिंशद्दन्तीद्रवन्त्योः, इति षड्विरेचनशतानि॥५॥
षड्विरेचनाश्रया इति क्षीरमूलत्वक्पत्रपुष्पफलानीति॥६॥
पञ्च कषाययोनय इति मधुरकषायोऽम्लकषायः कटुकषायस्तिक्तकषायः कषायकषायश्चेति तन्त्रे संज्ञा॥७॥
पञ्चविधं कषायकल्पनमिति तद्यथा—स्वरसः, कल्कः, शृतः,शीतः, फाण्टः, कषाय इति॥८॥
(यंत्रनिष्पीडि31ताद्रव्याद्रसः स्वरस उच्यते।
यः पिण्डो रसपिष्टानां स कल्कः परिकीर्तितः॥९॥
वह्नौतु क्वथितं द्रव्यं शृतमाहुश्चिकित्सकाः।
द्रव्यादापोथितात्तोये तत्पुन32र्निशि संस्थितात्॥१०॥
कषायो योऽभिनिर्याति स शीतः समुदाहृतः।
क्षिप्त्वोष्णतोये मृदितंतत्फाण्टं परिकीर्त्तितम्33॥११॥)
तेषां यथापूर्वं बलाधिक्यम् ;अतः कषायकल्पनाव्याध्यातुरबलापेक्षिणी ; नत्वेवं खलु सर्वाणिसर्वतोपयोगीनि भवन्ति॥१२॥
पञ्चाशन्महाकषाया इति यदुक्तं तदनुव्याख्यास्यामः ; तद्यथा—जीवनीयो बृंहणीयो लेखनीयो भेदनीयः सन्धानीयो दीपनीयइति षट्कः कषायवर्गः ; बल्यो वर्ण्यः कण्ठ्यो हृद्य इति चतुष्कःकषायवर्गः ; तृप्तिघ्नोऽर्शोघ्नः34 कुष्ठघ्नःकण्डूघ्नःक्रिमिघ्नोविषघ्नइतिषट्कः कषायवर्गः ; स्तन्यजननः स्तन्यशोधनः शुक्रजननःशुक्रशोधन इति चतुष्कः कषायवर्गः ; स्नेहोपगः35स्वेदोपगो वमनोपगोविरेचनोपग आस्थापनोपगोऽनुवासनोपगः शिरोविरेचनोपग इतिसप्तकः कषायवर्गः ; छर्दिनिग्रहणस्तृष्णानिग्रहणो हिक्कानिग्रहण इतित्रिकः कषायवर्गः ; पुरीषसंग्रहणीयः पुरीषविरजनीयो36 मूत्रसंग्रहणीयो मूत्रविरजनीयो मूत्रविरेचनीय इति पञ्चकः कषायवर्गः ;कासहरः श्वासहरः शोथहरो ज्वरहरः श्रमहर इति पञ्चकः कषायवर्गः ; दाहप्रशमनः शीतप्रशमन उदर्दप्रशमनोऽङ्गमर्दप्रशमनः शूलप्रशमन इति पञ्चकः कषायवर्गः ; शोणितस्थापनो37 चेदनास्थापनः संज्ञास्थापनः प्रजास्थापनो वयःस्थापन इति पञ्चकःकषायवर्गः; इति पञ्चाशन्महाकषाया महतां च कषायाणां लक्षणोदाहरणार्थं व्याख्याता भवन्ति॥१३॥
तेषामेकैकस्मिन् महाकषाये दश दशावयविकान् कषायाननुव्याख्यास्यामः; तान्येव पञ्च कषायशतानि भवन्ति॥१४॥
तद्यथा—जीवकर्षभकौ मेदा महामेदा काकोली क्षीरकाकोलीमुद्गपर्णीमाषपर्ण्यौजीवन्ती मधुकमितिदशेमानि जीवनीयानिभवन्ति (१),
क्षीरिणीराजक्षवकाश्वगन्धाकाकोलीक्षीरकाकोलीवाट्यायनीभद्रौदनीभारद्वाजीपयस्यर्ष्यगन्धा इति दशेमानि बृंहणीयानिभवन्ति (२) ,
मुस्तकुष्ठहरिद्रादारुहरिद्रावचातिविषाकटुरोहिणीचित्रकचिरबिल्वहैमवत्य इति दशेमानि लेखनीयानि भवन्ति (३),
सुवहा38र्कोरुबूकाग्निमुखीचित्राचित्रकचिरबिल्वशङ्खिनीशकुलादनीस्वर्णक्षीरिण्य इति दशेमानि भेदनीयानि भवन्ति (४),
मधुकमधुपर्णीपृश्विपर्ण्यम्बष्ठकीसमङ्गामोचरसधातकीलोध्रप्रियङ्गुकट्फलानीति दशेमानि सन्धानीयानि भवन्ति (५),
पिप्पली पिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेराम्लवेतसमरिचाजमोदाभल्लातकास्थिहिङ्गु-निर्यासा इति दशेमानि दीपनीयानि भवन्ति॥६॥
इति षट्कः कषायवर्गः ॥१५॥
ऐन्द्व्यृषभ्यतिरसर्ष्यप्रोक्तापयस्याश्वगन्धास्थिरारोहिणीबलातिबलाइति दशेमानि बल्यानि भवन्ति (७),
चन्दनतुङ्गपद्मकोशीरमधुकमञ्जिष्ठासारिवापयस्यासितालता इतिदशेमानि वर्ण्यानि भवन्ति (८),
सारिवेक्षुमूलमधुकपिप्पलीद्राक्षाविदारीकैटर्यहंसपादीबृहतीकण्टकारिका इति दशेमानि कण्ठ्यानि भवन्ति (९),
आम्राम्नातकलिकुचकरमर्दवृक्षाम्लाम्लवेतसकुवलबदरदाडिममातुलुङ्गानीति दशेमानि हृद्यानि भवन्ति (१०),
इति चतुष्कः कषायवर्गः॥१६॥
नागरचव्यचित्रकविडङ्गमूर्वागुडूचीवचामुस्तपिप्पलीपटोलानीतिदशेमानि तृप्तिघ्नानि भवन्ति (११),
कुटजबिल्वचित्रकनागरातिविषाभयाधन्वयासकदारुहरिद्रावचाचव्यानीति दशेमान्यर्शोघ्नानि भवन्ति (१),
खदिराभयामलकहरिद्रारुष्करसप्तपर्णारग्वधकरवीरविडङ्गजातीप्रवाला इति दशेमानि कुष्ठघ्नानि भवन्ति (१३),
चन्दननलदकृतमालनक्तमालनिम्बकुटजसर्षपमधुकदारुहरिद्रामुस्तानीति दशेमानि कण्डूघ्नानि भवन्ति (१४),
अक्षीवमरिचगण्डीरकेबुकविडङ्गनिर्गुण्डीकिणिहीश्वदंष्ट्रावृषपर्णिकाखुपर्णिका इति दशेमानि क्रिमिघ्नानि भवन्ति (१५),
हरिद्रामञ्जिष्ठासुवहासूक्ष्मैलापालिन्दीचन्दनकतकशिरीषसिन्धुवारश्लेष्मातका इति दशेमानि विषघ्नानि भवन्ति (१६),
इति षट्कः कषायवर्गः॥१७॥
वीरणशालिषष्टिकेक्षुवालिकादर्भकुशकाशगुन्द्रेत्कटकत्तृणमूलानीति दशेमानि स्तन्यजननानि भवन्ति (१७)
पाठामहौषधसुरदारुमुस्तमूर्वागुडूचीवत्सकफलकिराततिक्तककटुरोहिणीसारिवा चेति दशेमानि स्तन्यशोधनानि भवन्ति (१८),
जीवकर्पभककाकोलीक्षीरकाकोलीमुद्गपर्णीमाषपर्णीमेदावृक्षरुहाजटिलाकुलिङ्गा इति दशेमानि शुक्रजननानि भवन्ति (१९),
कुष्ठैलवालुककट्फलसमुद्रफेनकदम्बनिर्यासेक्षुकाण्डेक्ष्विक्षुरकवसुकोशीराणीति दशेमानि शुक्रशोधनानि भवन्ति (२०),
इति चतुष्कः कषायवर्गः॥१८॥
मृद्वीकामधुकमधुपर्णीमेदाविदारीकाकोलीक्षीरकाकोलीजीवकजीवन्तीशालपर्ण्य इति दशेमानि स्नेहोपगानि भवन्ति (२१),
शोभाञ्जनकैरण्डार्कवृश्चीरपुनर्नवायवतिलकुलत्थमाषबदराणीतिदशेमानि स्वेदोपगानि भवन्ति (२२),
मधुमधुककोविदारकर्बुदारनीपविदुलबिम्बीशणपुष्पीसदापुष्पीप्रत्यक्पुष्य इति दशेमानि वमनोपगानि भवन्ति (२३),
द्राक्षाकाश्मर्यपरूषकाभयामलकबिभीतककुवलबदरकर्कन्धुपीलूनीति दशेमानि विरेचनोपगानि भवन्ति (२४),
त्रिष्टद्बिल्वपिप्पलीकुष्ठसर्षपवचावत्सकफलशतपुष्पामधुकमदनफलानीति दशेमान्यास्थापनोपगानि भवन्ति (२५),
रास्नासुरदारुबिल्वमदनशतपुष्पावृश्चीरपुनर्नवाश्वदंष्ट्राग्निमन्थश्योनाका इति दशेमान्यनुवासनोपगानि भवन्ति (२६),
ज्योतिष्मतीक्षवकमरिचपिप्पलीविडङ्गशिग्रुसर्षपापामार्गतण्डुलश्वेतामहाश्वेता इति दशेमानि शिरोविरेचनोपगानि भवन्ति (२७),
इति सप्तकः कषायवर्गः॥१९॥
जम्ब्वाम्रपल्लवमातुलुङ्गाम्लबदरदाडिमयवषष्टिकोशीरमृल्लाजाइति दशेमानि छर्दिनिग्रहणानि भवन्ति (२८),
नागरधन्वयवासकमुस्तपर्पटकचन्दनकिराततिक्तकगुडूचीह्रीवेरधान्यकपटोलानीति दशेमानि तृष्णानिग्रहणानि भवन्ति (२९) ,
शटीपुष्करमूलबदरबीजकण्टकारिकाबृहतीवृक्षरुहाभयापिप्पलीदुरालभाकुलीरशृङ्ग्यइति दशेमानि हिक्कानिग्रहणानि भवन्ति(३०)
इति त्रिकः कषायवर्गः॥२०॥
प्रियङ्ग्वनन्ताम्रास्थिकट्वङ्गलोध्रमोचरससमङ्गाधातकीपुष्पपद्मापद्मकेशराणीति दशेमानि पुरीषसंग्रहणीयानि भवन्ति (३१),
जम्बुशल्लकीत्वक्कच्छुरामधुकशाल्मलीश्रीवेष्टकभृष्टमृत्पयस्योत्पलतिलकणा इति दशेमानि पुरीषविरजनीयानि भवन्ति (३२),
जम्ब्वाम्रप्लक्षवटकपीतनोदुम्बराश्वस्थभल्लातकाश्मन्तकसोमवल्का इति दशेमानि मूत्र-संग्रहणीयानि भवन्ति (३३),
पद्मोत्पलनलिनकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रमधुकप्रियङ्गुधातकीपुष्पाणीति दशेमानि मूत्रविरजनीयानि भवन्ति (३४),
वृक्षादनीश्वदंष्ट्रावसुकवशिरपाषाणमेददर्भकुशकाशगुन्द्रेत्कटमूलानीति दशेमानि मूत्रविरेचनीयानि भवन्ति (३५),
इति पञ्चकः कषायवर्गः॥२१॥
द्राक्षाभयामलकपिप्पलीदुरालभाशृङ्गीकण्टकारिकावृश्चीरपुनर्नवातामलक्य इति दशेमानि कासहराणि भवन्ति (३६),
शटीपुष्करमूलाम्लवेतसैलाहिङ्ग्वगुरुसुरसातामलकीजीवन्तीचण्डा इति दशेमानि श्वासहराणि भवन्ति (३७),
पाटलाग्निमन्थश्योनाकबिल्वकाश्मर्यकण्टकारिकाबृहतीशालपर्णीपृश्चिपर्णीगोक्षुरका इति दशेमानि श्वयथुहराणि भवन्ति (३८),
सारिवाशर्करापाठामसिष्ठाद्राक्षापीलुपरूषकाभयामलकविभीतकानीति दशेमानि ज्वरहराणि भवन्ति (३९),
द्राक्षाखर्जूरप्रियालबदरदाडिमफल्गुपरुषकेक्षुयवषष्टिका इतिदशेमानि श्रमहराणि भवन्ति (४०),
इति पञ्चकः कषायवर्गः॥२२॥
लाजाचन्दनकाश्मर्यफलमधुकशर्करानीलोत्पलोशीरसारिवागुडूचीह्रीबेराणीति दशेमानि दाहप्रशमनानि भवन्ति (४१),
तगरागुरुधान्यकशृङ्गवेरभूतीकवचाकण्टकार्यग्निमन्थश्योनाकपिप्पल्य इति दशेमानि शीतप्रशमनानि भवन्ति (४२),
तिन्दुकप्रियालबदरखदिरकदरसप्तपर्णाश्वकर्णार्जुनासनारिमेदाइति दशेमान्युदर्दप्रशमनानि भवन्ति (४३),
विदारीगन्धापृश्चिपर्णीबृहतीकण्टकारिकैरण्डकाकोलीचन्दनोशीरैलामधुकानीति दशेमान्यङ्गमर्दप्रशमनानि भवन्ति (४४),
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरमरिचाजमोदाजगन्धाजाजीगण्डीराणीति दशेमानि शूलप्रशमनानि भवन्ति (४५),
इति पञ्चकः कषायवर्गः॥२३॥
मधुमधुकरुधिरमोचरसमृत्कपाललोध्रगैरिकप्रियङ्गुशर्करालाजाइति दशेमानि शोणितस्थापनानि भवन्ति (४६),
शालकंट्फलकदम्बपद्मकतुम्बमोचरसशिरीषवञ्जुलैलवालुकाशोका इति दशेमानि वेदनास्थापनानि भवन्ति (४७),
हिङ्गुकैटर्यारिमेदावचाचोरकवयस्थागोलोमीजटिलापलङ्कषाशोकरोहिण्य इति दशेमानि संज्ञास्थापनानि भवन्ति (४८),
ऐन्द्रीब्राह्मीशतवीर्यासहस्रवीर्याऽमोघाऽव्यथाशिवाऽरिवाट्यपुष्पीविष्वक्सेनकान्ता इति दशेमानि प्रजास्थापनानि भवन्ति (४९),
अमृताऽभयाधात्रीयुक्ताश्वेताजीवन्त्यतिरसामण्डूकपर्णीस्थिरापुनर्नवा इति दशेमानि वयःस्थापनानि भवन्ति (५०),
इति पञ्चकः कषायवर्गः॥२४॥
इति पञ्चकषायशतान्यभिसमस्य पञ्चाशन्महाकषाया महतां चकषायाणां लक्षणोदाहरणार्थं व्याख्याता भवन्ति॥२५॥
नहि विस्तरस्य प्रमाणमस्ति, न चाप्यतिसंक्षेपोऽल्पबुद्धीनां सामर्थ्यायोपकल्प्यते, तस्मादनतिसंक्षेपेणानतिविस्तरेण चोपदिष्टाः।एतावन्तो ह्यलमल्पबुद्धीनां व्यवहाराय, बुद्धिमतां च स्वालक्षण्यानुमानयुक्तिकुशलानामनुक्तार्थज्ञानायेति॥२६॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—नैतानि भगवन् !पञ्चकषायशतानि पूर्यन्ते, तानि तानि ह्येवाङ्गान्युपप्लवन्ते तेषु तेषुमहाकषायेष्विति॥२७॥
तमुवाच भगवानात्रेयः —नैतदेवं बुद्धिमता द्रष्टव्यमग्निवेश।एकोऽपि ह्यनेकां संज्ञां लभते कार्यान्तराणि कुर्वन् ; तद्यथा—पुरुषोबहूनां कर्मणां करणे समर्थो भवति स यद्यत्कर्म करोति तस्यतस्य कर्मणः39कर्तृकरणकार्यसंप्रयुक्तं तं तं गौणं नामविशेषं प्राप्नोति,तद्वदौषधद्रव्यमपि द्रष्टव्यम् \। यदि त्वेकमेव किंचिद्रव्यमासादयामस्तथागुणयुक्तं यत्सर्वकर्मणां करणे समर्थेस्यात्, कस्ततोऽन्यदिच्छेदुपधारयितुमुपदेष्टुं वा शिष्येभ्य इति॥२८॥
तत्र श्लोकाः।
यतो यावन्ति यैर्द्रव्यैर्विरेचनशतानि षट्।
उक्तानि संग्रहेणेह तथैवैषां षडाश्रयाः॥२९॥
रसा लवणवर्ज्याश्च कषाया इति संज्ञिताः।
तस्मात्40 पञ्चविधा योनिः कषायाणामुदाहृता॥३०॥
तथा कल्पनमप्येषामुक्तं पञ्चविधं पुनः।
महतां च कषायाणां पञ्चाशत् परिकीर्तिता॥३१॥
पञ्च चापि कषायाणां शतान्युक्तानि भागशः।
लक्षणार्थं प्रमाणं हि विस्तरस्य न विद्यते॥३२॥
न चालमतिसंक्षेपः सामर्थ्यायोपकल्पते।
अल्पबुद्धेरयं तस्मान्नातिसंक्षेपविस्तरः॥३३॥
मन्दानां व्यवहाराय बुधानां बुद्धिवृद्धये।
पञ्चाशत्को ह्ययं वर्गः कषायाणामुदाहृतः॥३४॥
तेषां कर्मसु बाह्येषु योगमाभ्यन्तरेषु च।
संयोगं च प्रयोगं च यो वेद स भिषग्वरः॥३५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने भेषजचतुष्के
षड्विरेचनशताश्रितीयो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
इति भेषजचतुष्कः॥१॥
_____________
पञ्चमोऽध्यायः।
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अथातो मात्राशितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
मात्राशी स्यात्। आहारमात्रा पुनरग्निबलापेक्षिणी॥३॥
** यावद्भ्यस्याशनमशितमनुपहत्य प्रकृतिं यथाकालं जरां गच्छतितावदस्य मात्राप्रमाणं वेदितव्यं भवति॥४॥**
तत्र शालिषष्टिकमुद्गलावकपिञ्जलैणशशशरभशम्बरादीन्याहारद्रव्याणि प्रकृतिलघून्यपि मात्रापेक्षीणि भवन्ति ; तथा पिष्टेक्षुक्षीरविकृतितिलमाषानूपौदकपिशितादीन्याहारद्रव्याणि प्रकृतिगुरूण्यपि मात्रामेवापेक्षन्ते॥५॥
न चैवमुक्ते द्रव्ये गुरुलाघवमकारणं मन्येत ; लघुनि हि द्रव्याणिवाय्वग्निगुणबहुलानि भवन्ति, पृथ्वीसोमगुणबहुलानीतराणि ;तस्मात् स्वगुणादपि लघून्यग्निसन्धुक्षणस्वभावान्यल्पदोषाणि चोच्यन्तेऽपि सौहित्योपयुक्तानि, गुरूणि पुनर्नाग्निसन्धुक्षणस्वभावान्यसामान्यात्, अतश्चातिमात्रं दोषवन्ति सौहित्योपयुक्तान्यन्यत्रव्यायामाग्निबलात् ; सैषा भवत्यग्निबलापेक्षिणी मात्रा॥६॥
न च नापेक्षते द्रव्यं ; द्रव्यापेक्षया च त्रिभागसाहित्यमर्धसौहित्यं वा गुरूणामुपदिश्यते, लघूनामपि च नातिसौहित्यमग्नेर्युक्त्यर्थम्॥७॥
मात्रावद्व्यशनमशितमनुपहत्य प्रकृतिं बलसुवर्णसुखायुषा योजयत्युपयोक्तारमवश्यमिति॥८॥
भवन्ति चात्र—
गुरु पिष्टमयं तस्मात्तण्डुलान् पृथुकानपि।
न जातु भुक्तवान् खादेन्मात्रां खादेद्बुभुक्षितः॥९॥
वल्लूरं शुष्कशाकानि शालूकानि बिसानि च।
नाभ्यगौरवान्मांसं कृशं नैवोपयोजयेत्॥१०॥
कूर्चिकांश्च किलाटांश्च शौकरं गव्यमाहिषे41।
मत्स्यान् दधि च माषांश्च यवकांश्च न शीलयेत्॥११॥
षष्टिकान्छालिमुद्गांश्च सैन्धवामलके यवान्।
आन्तरीक्षं पयः सर्पिर्जाङ्गलं मधु चाभ्यसेत्॥१२॥
तच्च नित्यं प्रयुञ्जीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते।
अजातानां विकाराणामनुत्पत्तिकरं च यत्॥१३॥
अत ऊर्ध्वं शरीरस्य कार्यमक्ष्यञ्जनादिकम्।
स्वस्थवृत्तिमभिप्रेत्य गुणतः संप्रवक्ष्यते॥१४॥
सौवीरमञ्जनं नित्यं हितमक्ष्णोः प्रयोजयेत्।
पञ्चरात्रेऽष्टरात्रे वा स्रावणार्थे रसाञ्जनम्॥१५॥
चक्षुस्तेजोमयं तस्य विशेषाच्छ्लेष्मतो भयम्।
ततः श्लेष्महरं कर्म हितं दृष्टेः प्रसादनम्॥१६॥
विरेकदुर्बला दृष्टिरादित्यं प्राप्य सीदति।
दिवा तन्न प्रयोक्तव्यं नेत्रयोस्तीक्ष्णमञ्जनम्॥१७॥
तस्मात् स्राव्यं42 निशायां तु ध्रुवमञ्जनमिष्यते।
यथा हि कनकादीनां मलिनां विविधात्मनाम्॥१८॥
धौतानां निर्मला शुद्धिस्तैलचेलकचादिभिः।
एवं नेत्रेषु मर्त्यानामञ्जनाश्च्योतनादिभिः॥१९॥
दृष्टिर्निराकुला भाति निर्मले नभसीन्दुवत्।
हरेणुकां प्रियङ्गुंच पृथ्वीकां केशरं नखम्॥२०॥
ह्रीवेरं चन्दनं पत्रं त्वगेलोशीरपद्मकम्।
ध्यामकं मधुकं मांसी गुग्गुल्यगुरुशर्करम्॥२१॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षलोध्रत्वचः शुभाः।
वन्यं सर्जरसं मुस्तं शैलेयं कमलोत्पले॥२२॥
श्रीवेष्टकं शल्लकीं च शुकबर्हमथापि च।
पिष्ट्वा लिम्पेच्छरेषीकां तां वर्तिं यवसन्निभाम्॥२३॥
अङ्गुष्ठसंमितां कुर्यादष्टाङ्गुलसमां भिषक्।
शुष्कां विगर्भां तां वर्तिं धूमनेत्रार्पितां नरः॥२४॥
स्नेहाक्तामग्निसंप्लुष्टां पिबेत्प्रायोगिकींसुखाम्।
वसाघृतमधूच्छिष्टैर्युक्तियुक्तैर्वरौषधैः॥२५॥
वर्तिं मधुरकैः कृत्वा स्नैहिकींधूममाचरेत्।
श्वेता ज्योतिष्मती चैव हरितालं मनःशिला॥२६॥
गन्धाश्चागुरुपत्राद्या धूमं43 मूर्धविरेचने।
गौरवं शिरसः शूलं पीनसार्धावभेदकौ॥२७॥
कर्णाक्षिशूलं कासश्च हिक्काश्वासौ गलग्रहः।
दन्तदौर्बल्यमास्नावः श्रोत्रघ्राणाक्षिदोषजः॥२८॥
पूतिर्घ्राणास्यगन्धश्च दन्तशूलमरोचकः।
हनुमन्याग्रहः कण्डूः क्रिमयः पाण्डुता मुखे॥२९॥
श्लेष्मप्रसेको वैखर्यं गलशुण्ड्युपजिह्विका।
पालित्यं44 पिञ्जरत्वं च केशानां पतनं तथा॥३०॥
क्षवथुश्वातितन्द्रा च बुद्धेर्मोहोऽतिनिद्रता।
धूमपानात् प्रशाम्यन्ति बलं भवति चाधिकम्॥३१॥
शिरोरुहकपालानामिन्द्रियाणां स्वरस्य च।
न च वातकफात्मानो बलिनोऽप्यूर्ध्वजत्रुजाः॥३२॥
धूमवक्त्रकपानस्य45 व्याधयः स्युः शिरोगताः।
प्रयोगपाने तस्याष्टौ कालाः संपरिकीर्तिताः॥३३॥
वातश्लेष्मसमुत्क्लेशः कालेष्वेषु हि लक्ष्यते।
स्नात्वा भुक्त्वा समुल्लिख्य क्षुत्वा दन्तान्निवृष्य च॥३४॥
नावनाञ्जननिद्रान्ते चात्मवान् धूमपो भवेत्।
तथा वातकफात्मानो न भवन्स्यूर्ध्वजत्रुजाः॥३५॥
रोगास्तस्य तु पेयाः स्युरापानास्त्रिस्त्रयस्त्रयः।
परं द्विकालपायी स्यादह्नःकालेषु बुद्धिमान्॥३६॥
प्रयोगे, स्नैहिके त्वेकं, वैरेच्यं त्रिचतुः पिबेत्।
हृत्कण्ठेन्द्रियसंशुद्धिर्लघुत्वं शिरसः शमः॥३७॥
यथेरितानां दोषाणां सम्यक्पीतस्य लक्षणम्।
बाघिर्यमान्ध्यं मूकत्वं रक्तपित्तं शिरोभ्रमम्॥३८॥
अकाले चातिपीतश्च धूमः कुर्यादुपद्रवान्।
तत्रेष्टं सर्पिषः पानं नावनाञ्जनतर्पणम्॥३९॥
स्नैहिकं धूमजे दोषे वायुः पित्तानुगो यदि।
शीतं तु रक्तपित्ते स्याच्छ्लेष्मपित्ते विरूक्षणम्॥४०॥
परं स्वतः प्रवक्ष्यामि धूमो येषां विगर्हितः।
न विरिक्तः पिबेद्धूमं न कृते बस्तिकर्मणि॥४१॥
न रक्ती न विषेणार्तो न शोचन्न च गर्भिणी।
न श्रमे न मदे नामे न पित्ते न प्रजागरे॥४२॥
न मूर्च्छाभ्रमतृष्णासु न क्षीणे चापि च क्षते।
न मद्यदुग्धे पीत्वा च न46 स्नेहं न च माक्षिकम्॥४३॥
धूमं न भुक्त्वा दध्नाचन47 रूक्षः क्रुद्ध एव च।
न तालुशोषे तिमिरे शिरस्यभिहते न च॥४४॥
न शङ्खके न रोहिण्यां न मेहे न मदात्यये।
एषु धूममकालेषु मोहात्पिबति यो नरः॥४५॥
रोगास्तस्य प्रजायन्ते दारुणा धूमविभ्रमात्।
धूमयोग्यः पिबेद्दोषे शिरोघ्राणाक्षिसंश्रये॥४६॥
घ्राणेनास्येन कण्ठस्थे मुखेन घ्राणपो वमेत्।
आस्थेन धूमकवलान् पिबन् घ्राणेन नोद्वमेत्॥४७॥
प्रतिलोमं गतो ह्याशु धूमो हिंस्याद्धि चक्षुषी।
ऋज्वङ्गचक्षुस्तच्चेताः सूपविष्टस्त्रिपर्ययम्॥४८॥
पिबेच्छिद्रं पिधायैकं नासया धूममात्मवान्।
चतुर्विंशतिकं नेत्रं स्वाङ्गुलीभिर्विरेचने॥४९॥
द्वात्रिंशदङ्गुलं स्नेहे प्रयोगेऽध्यर्धमिष्यते।
ऋजुत्रिकोषा फलितं48 कोलास्थ्यग्रप्रमाणितम्॥५०॥
बस्तिनेत्रसमद्रव्यं धूमनेत्रं प्रशस्यते।
दूराद्विनिर्गतः पर्वच्छिन्नो नाडीतनूकृतः॥५१॥
नेन्द्रियं बाधते धूमो मात्राकालनिषेवितः।
यदा चोरश्च कण्ठश्च शिरश्च लघुतां व्रजेत्॥५२॥
कफश्च तनुतां प्राप्तः सुपीतं धूममादिशेत्।
अविशुद्धः स्वरो यस्य कण्ठश्च सकफो भवेत्॥५३॥
स्तिमितो मस्तकश्चैवमपीतं धूममादिशेत्।
तालु मूर्धा च कण्ठश्च शुष्यते परितप्यते॥५४॥
तृप्यते मुह्यते जन्तू रक्तं च स्रवतेऽधिकम्।
शिरश्च भ्रमतेऽत्यर्थं मूर्च्छा चास्योपजायते॥५५॥
इन्द्रियाण्युपतप्यन्ते धूमेऽत्यर्थं निषेविते।
वर्षे वर्षेऽ49णुतैलं च कालेषु त्रिषु ना चरेत्॥५६॥
प्रावृट्शरद्वसन्तेषु गतमेघे नभस्तले।
नस्यकर्म यथाकालं यो यथोक्तं निषेवते॥५७॥
न तस्य चक्षुर्न घ्राणं न श्रोत्रमुपहन्यते।
न स्युः श्वेता न कपिलाः केशाःश्मश्रूणि वा पुनः॥५८॥
न च केशाःप्रमुच्यन्ते50 वर्धन्ते च विशेषतः।
मन्यास्तम्भः शिरःशूलमर्दितं हनुसंग्रहः॥५९॥
पीनसार्धावभेदौ च शिरःकम्पश्च शाम्यति॥
सिराः शिरःकपालानां सन्धयः स्नायुकण्डराः॥६०॥
नावनप्रीणिताश्चास्य लभन्तेऽभ्यधिकं बलम्।
मुखं प्रसन्नोपचितं स्वरः स्निग्धः स्थिरो महान्॥६१॥
सर्वेन्द्रियाणां वैमल्यं बलं भवति चाधिकम्।
न चास्य रोगाःसहसा प्रभवन्त्यूर्ध्वजत्रुजाः॥६२॥
जीर्यतश्चोत्तमाङ्गेषु जरा न लभते बलम्।
चन्दनागुरुणी पत्रं दार्वीस्वाधुकं बलाम्॥६३॥
प्रपौण्डरीकं सूक्ष्मैलां विडङ्गं बिल्वमुत्पलम्।
ह्रीबेरमभयं वन्यं त्वङ्मुस्तं सारिवां स्थिराम्॥६४॥
जीवन्तीं पृश्विपर्णीं च सुरदारू शतावरीम्।
हरेणुं बृहतीं व्याघ्रीं सुरभीं पद्मकेशरम्॥६५॥
विपाचयेच्छतगुणे माहेन्द्रे विमलेऽम्भसि।
तैलाद्दशगुणं शेषं कषायमवतारयेत्॥६६॥
तेन तैलं कषायेण दशकृत्वो विपाचयेत्।
अथास्य दशमे पाके समांशं छागलं पयः॥६७॥
दद्यादेषोऽणुतैलस्य नावनीयस्य संविधिः।
अस्य मात्रां प्रयुञ्जीत तैलस्यार्धपलोन्मिताम्॥६८॥
स्निग्धस्विन्नोत्तमाङ्गस्य पिचुना नावनैस्त्रिभिः।
त्र्यहान्त्र्यहाञ्चसप्ताहमेतत्कर्म समाचरेत्॥६९॥
निवातोष्णसमाचारी हिताशी नियतेन्द्रियः।
तैलमेतत्रिदोषघ्नमिन्द्रियाणां बलप्रदम्॥७०॥
प्रयुञ्जानो यथाकालं यथोक्तानद्भुते गुणान्।
आपोथिताग्रंद्वौ कालौ कषायकटुतिक्तकम्॥७१॥
भक्षयेद्दन्तपवनं दन्तमांसान्यबाधयन्।
निहन्ति गन्धं वैरस्यं जिह्वादन्तास्यजं मलम्॥७२॥
निष्कृष्य रुचिमाधत्ते सद्यो दन्तविशोधनम्।
करञ्जकरवीरार्कमालतीककुभासनाः॥७३॥
शस्यन्ते दन्तपवने ये चाप्येवंविधा द्रुमाः।
सुवर्णरूप्यताम्राणि त्रपुरीतिमयानि च॥७४॥
जिह्वानिर्लेखनानि स्युरतीक्ष्णान्यनृजूनि च।
जिह्वामूलगतं यच्च मलमुच्छ्वासरोधि च॥७५॥
दौर्गन्ध्यं भजते51 तेन तस्माज्जिह्वां विनिर्लिखेत्।
धार्याण्यास्येन वैशद्यरुचिसौगन्ध्यमिच्छता॥७६॥
जातीकटुकपूगानां लवङ्गस्य फलानि च।
कक्कोलस्य फलं पत्रं ताम्बूलस्य शुभं तथा॥
तथा कर्पूरनिर्यासः सूक्ष्मैलायाः फलानि च॥७७॥
हन्वोर्बलं स्वरबलं वदनोपचयः परः।
स्यात् परं च रसज्ञानमन्ने च रुचिरुत्तमा॥७८॥
न चास्य कण्ठशोषः स्यान्नौष्ठयोः स्फुटनाद्भयम्।
न च दन्ताः क्षयं यान्ति दृढमूला भवन्ति च॥७९॥
न शूल्यन्ते न चाम्लेन हृष्यन्ते भक्षयन्ति च।
परानपि खरान् भक्ष्यांस्तैलगण्डूषधारणात्॥८०॥
नित्यं स्नेहार्द्रशिरसः शिरःशूलं न जायते।
न खालित्यं न पालित्यं न केशाः प्रपतन्ति च॥८१॥
बलं शिरःकपालानां विशेषेणाभिवर्धते।
दृढमूलाश्चदीर्घाश्च कृष्णाः केशा भवन्ति च॥८२॥
इन्द्रियाणि प्रसीदन्ति सुत्वग्भवति चाननम्।
निद्रालाभः सुखं च स्यान्मूर्ध्नि तैलनिषेवणात्॥८३॥
न कर्णरोगा वातोत्था न मन्याहनुसंग्रहः।
नोच्चैःश्रुतिर्न बाधिर्यं स्यान्नित्यं कर्णतर्पणात्॥८४॥
स्नेहाभ्यङ्गाद्यथा कुम्भश्चर्म स्नेहविमर्दनात्।
भवत्युपाङ्गादक्षश्च दृढः क्लेशसहो यथा॥८५॥
तथा शरीरमभ्यङ्गाद्दृढं त्वक् च जायते।
प्रशान्तमारुताबाधं क्लेशव्यायामसंसहम्॥८६॥
स्पर्शनेऽभ्यधिको वायुःस्पर्शनं च त्वगाश्रितम्।
त्वच्यश्च परमभ्यङ्गस्तस्मात्तं शीलयेन्नरः॥८७॥
न चाभिघाताभिहतं गात्रमभ्यङ्गसेविनः।
विकारं भजतेऽत्यर्थं बलकर्मणि वा क्वचित्॥८८॥
सुस्पर्शोपचिताङ्गश्च बलवान् प्रियदर्शनः।
भवत्यभ्यङ्गनित्यत्वान्नरोऽल्पजर एव च॥८९॥
खरत्वं स्तब्धता52 रौक्ष्यं श्रमः सुप्तिश्च पादयोः।
सद्य एवोपशाम्यन्ति पादाभ्यङ्गनिषेवणात्॥९०॥
जायते सौकुमार्यं च बलं स्थैर्यं च पादयोः।
दृष्टिः प्रसादं लभते मारुतश्चोपशाम्यति॥९१॥
न च स्यादगृध्रसीवातः पादयोः स्फुटनं न च।
न सिरास्त्रायुसंकोचः पादाभ्यङ्गेन पादयोः॥९२॥
दौर्गन्ध्यं गौरवं तन्द्रां कण्डूमलमरोचकम्।
स्वेदबीभत्सतांहन्ति शरीरपरिमार्जनम्॥९३॥
पवित्रं वृष्यमायुष्यं श्रमस्वेदमलापहम्।
शरीरबलसंधानं स्नानमोजस्करं परम्॥९४॥
कास्यं यशस्यमायुष्यमलक्ष्मीघ्नं प्रहर्षणम्।
श्रीमत्पारिषदं शस्तं निर्मलाम्बरधारणम्॥९५॥
वृष्यं सौगन्ध्यमायुष्यं काम्यं पुष्टिबलप्रदम्।
सौमनस्यमलक्ष्मीघ्नंगन्धमाल्यनिषेवणम्॥९६॥
धन्यं मङ्गल्यमायुष्यं श्रीमद्व्यसनसूदनम्।
हर्षणं काम्यमोजस्यं रत्नाभरणधारणम्॥९७॥
मेध्यं पवित्रमायुष्यमलक्ष्मीकलिनाशनम्।
पादयोर्मलमार्गाणां शौचाधानमभीक्ष्णशः॥९८॥
पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम्।
केशश्मश्रुनखादीनां कल्पनं संप्रसाधनम्॥९९॥
चक्षुष्यं स्पर्शनहितं पादयोर्व्यसनापहम्।
बल्यं पराक्रमसुखं वृष्यं पादत्रधारणम्॥१००॥
ईतेः53 प्रशमनं बल्यं गुप्त्यावरण54शङ्करम्।
घर्मानिलरजोम्बुघ्नं छत्रधारणमुच्यते॥१०१॥
स्खलतः संप्रतिष्ठानं शत्रूणां च निसूदनम्।
अवष्टम्भनमायुष्यं भयघ्नं दण्डधारणम्॥१०२॥
नगरी नगरस्येव रथस्येव रथी सदा।
स्वशरीरस्य मेधावी कृत्येष्ववहितो भवेत्॥१०३॥
भवति चात्र—
वृत्युपायान्निषेवेत ये स्युर्धर्माविरोधिनः।
शममध्ययनं चैव सुखमेवं समश्नुते॥१०४॥
तत्र श्लोकाः—
मात्रा द्रव्याणि मात्रां च संश्रित्य गुरुलाघवम्।
द्रव्याणां गर्हितोऽभ्यासो येषां येषां च शस्यते॥१०५॥
अञ्जनं धूमवर्तिश्च त्रिविधा वर्तिकल्पना।
धूमपानगुणाः कालाः पानमानं च यस्य यत्॥१०६॥
व्यापत्तिचिह्नं भैषज्यं धूमो येषां विगर्हितः।
पेयो यथा यन्मयं च नेत्रं यस्य च यद्विधम्॥१०७॥
नस्य कर्मगुणा नस्तः कार्यं यच्च यथा यदा।
भक्षयेद्दन्तपवनं यथा यद्यद्गुणं च यत्॥१०८॥
यदर्थं यानि चास्येन धार्याणि कवलग्रहे।
तैलस्य ये गुणा दिष्टाः शिरस्तैलगुणाश्च ये॥१०९॥
कर्णतैले तथाऽभ्यङ्गे पादाभ्यङ्गेऽङ्गमार्जने।
स्नाने वाससि शुद्धे च सौगन्ध्ये रत्नधारणे॥११०॥
शौचे संहरणे लोम्नां पादत्रच्छनधारणे।
गुणा मात्राशितीयेऽस्मिंस्तथोक्ता दण्डधारणे॥१११॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने स्वस्थवृत्तचतुष्के
मात्राशितीयो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
____________
षष्ठोऽध्यायः।
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अथातस्तस्याशितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
तस्याशिताद्यादाहाराद्वलं वर्णश्च वर्धते।
यस्यर्तुसात्म्यं विदितं चेष्टाहारव्यपाश्रयम्॥३॥
** **इह खलु संवत्सरं षडङ्गमृतुविभागेन विद्यात्। तत्रादित्यस्योदगयनमादानं च त्रीनृतूञ्छिशिरादीन् ग्रीष्मान्तान् व्यवस्येत्,वर्षादीन् पुनर्हेमन्तान्तान् दक्षिणायनं विसर्गं च॥४॥
विसर्गे पुनर्वायवो नातिरुक्षाः प्रवान्ति, इतरे पुनरादाने ; सोमश्राव्याहतबलः शिशिराभिर्भाभिरापूरयञ्जगदाप्याययति शश्वत्,अतो विसर्गः सौम्यः। आदानं पुनराग्नेयं ; तावेतावर्कवायू सोमश्चकालस्वभावमार्गपरिगृहीताः कालर्तुरसदोषदेहबलनिर्वृत्तिप्रत्ययभूताः समुपदिश्यन्ते॥५॥
तत्र रविर्भाभिराददानो जगतः स्नेहं वायवस्तीव्ररूक्षाश्चोपशोषयन्तः शिशिरवसन्तग्रीष्मेषु यथाक्रमं रौक्ष्यमुत्पादयन्तो रूक्षान्रसांस्तिक्तकषायकटुकांश्चाभिवर्धयन्तो नृणां दौर्बल्यमावहन्ति॥६॥
वर्षाशरद्धेमन्तेषु तु दक्षिणाभिमुखेऽर्के कालमार्गमेघवातवर्षाभिहतप्रतापे, शशिनि चाव्याहतबले, माहेन्द्रसलिलप्रशान्तसन्तापेजगति, अरूक्षा रसाः प्रवर्धन्तेऽम्ललवणमधुरा यथाक्रमं तत्र बलमुपचीयते नृणामिति॥७॥
भवन्ति चात्र —
आदावन्ते च दौर्बल्यं विसर्गादानयोर्नृणाम्।
मध्ये मध्यं बलं त्वन्ते श्रेष्ठमग्रे च निर्दिशेत्॥८॥
शीते शीतानिलस्पर्शसंरुद्धो बलिनां बली।
पक्ता भवति हेमन्ते मात्राद्रव्यगुरुक्षमः॥९॥
स यदा नेन्धनं युक्तं लभते देहजं तदा।
रसं हिनस्त्यतो वायुः शीतः शीते प्रकुप्यति॥१०॥
तस्मात्तुषारसमये स्निग्धाम्ललवणान् रसान्।
औदकानूपमांसानां मेद्यानामुपयोजयेत्॥११॥
बिलेशयानां मांसानि प्रसहानां भृतानि च।
भक्षयेन्मदिरां शीधुंमधु चानुपिबेन्नरः॥१२॥
गोरसानिक्षुविकृतीर्वसां तैलं नवौदनम्।
हेमन्तेऽभ्यस्यतस्तोयमुष्णं चायुर्न हीयते॥१३॥
अभ्यङ्गोत्सादनं मूर्ध्नि तैलं जेन्ताकमातपम्।
भजेद्भूमिगृहं चोष्णमुष्णं गर्भगृहं तथा॥१४॥
शीतेषु55 संवृतं सेव्यं यानं शयनमासनम्।
प्रावाराजिनकौषेयप्रवेणीकुथकास्तृतम्॥१५॥
गुरूष्णवासा दिग्धाङ्गो गुरुणाऽगुरुणा सदा।
शयने प्रमदां पीनां विशालोपचितस्तनीम्॥१६॥
आलियागुरुदिग्धाङ्गींसुप्यात् समदमन्मथः।
प्रकामं च निषेवेत मैथुनं शिशिरागमे॥१७॥
वर्जयेदन्नपानानि वातलानि लघूनि च।
प्रवातं प्रमिताहारमुदमन्थं हिमागमे॥१८॥
हेमन्तशिशिरौ तुल्यौ शिशिरेऽल्पं विशेषणम्।
रौक्ष्यमादानजं शीतं मेघमारुतवर्षजम्॥१९॥
तस्माद्धैमन्तिकः सर्वः शिशिरे विधिरिष्यते।
निवातमुष्णं त्वधिकं शिशिरे गृहमाश्रयेत्॥२०॥
कटुतिक्तकषायाणि वातलानि लघूनि च।
वर्जयेदन्नपानानि शिशिरे शीतलानि च॥२१॥
वसन्ते निश्चितः श्लेष्मा दिनकृद्भाभिरीरितः।
कायाग्निंबाधते रोगांस्ततः प्रकुरुते बहून्॥२२॥
तस्माद्वसन्ते कर्माणि वमनादीनि कारयेत्।
गुर्वम्लस्निग्धमधुरं दिवास्वप्नंच वर्जयेत्॥२३॥
व्यायामोद्वर्तनं धूमं कवलग्रहमञ्जनम्।
सुखाम्बुना शौचविधिं शीलयेत्कुसुमागमे॥२४॥
चन्दनागुरुदिग्धाङ्गो यवगोधूमभोजनः।
शारभं शाशमैणेयं मांसं लावकपिञ्जलम्॥२५॥
भक्षयेन्निर्गदं सीधुं पिबेन्माध्वीकमेव वा।
वसन्तेऽनुभवेत्स्त्रीणां काननानां च यौवनम्॥२६॥
मयूखैर्जगतः स्नेहं56 ग्रीष्मे पेपीयते रविः।
स्वादु शीतं द्रवं स्निग्धमन्नपानं तदा हितम्॥२७॥
शीतं सशर्करं मन्थं जाङ्गलान्मृगपक्षिणः।
घृतं पयः सशाल्यन्नं भजन्ग्रीष्मे न सीदति॥२८॥
मद्यमल्पंन वा पेयमथवा सुबहूदकम्।
लवणाम्लकटूष्णानिव्यायामं चात्र57 वर्जयेत्॥२९॥
दिवा शीतगृहे निद्रां निशि चन्द्रांशुशीतले।
भजेच्चन्दनदिग्धाङ्गः प्रवाते हर्म्यमस्तके॥३०॥
व्यजनैः पाणिसंस्पर्शैश्चन्दनोदकशीतलैः।
सेव्यमानो भजेदास्यां मुक्तामणिविभूषितः॥३१॥
काननानि च शीतानि जलानि कुसुमानि च।
ग्रीष्मकाले निषेवेत मैथुनाद्विरतो नरः॥३२॥
आदानदुर्बले देहे पक्ता भवति दुर्बलः।
स वर्षास्वनिलादीनां दूषणैर्बाध्यते पुनः॥३३॥
भूबाष्पान्मेघनिस्यन्दात् पाकादम्लाज्जलस्य च।
वर्षास्वग्निबले क्षीणे कुप्यन्ति पवनादयः॥३४॥
तस्मात् साधारणःसर्वो विधिर्वर्षासु शस्यते।
उदमन्थं दिवास्वप्नमवश्यायं नदीजलम्॥३५॥
व्यायाममातपं चैव व्यवायं चात्र वर्जयेत्।
पानभोजनसंस्कारान् प्रायः क्षौद्रान्वितान् भजेत्॥३६॥
व्यक्ताम्ललवणस्नेहं वातवर्षाकुलेऽहनि।
विशेषशीते भोक्तव्यं वर्षास्वनिलशान्तये॥३७॥
अग्निसंरक्षणवता58 यवगोधूमशालयः।
पुराणा जाङ्गलैर्मांसैर्भोज्या यूपैश्च संस्कृतैः॥३८॥
पिबेत् क्षौद्रान्वितं चाल्पं माध्वीकारिष्टमम्बु वा।
माहेन्द्रं तप्तशीतं वा कौपं सारसमेव वा॥३९॥
प्रघर्षोद्वर्तनस्नानगन्धमाल्यपरो भवेत्।
लघुशुद्धाम्बरःस्थानं भजेदक्लेदिवार्षिकम्॥४०॥
वर्षांशीतोचिताङ्गानां सहसैवार्करश्मिभिः।
तप्तानामाचितं पित्तं प्रायः शरदि कुप्यति॥४१॥
तत्रान्नपानं मधुरं लघु शीतं सांतक्तकम्।
पित्तप्रशमनं सेव्यंमात्रया सुप्रकाङ्क्षितैः॥४२॥
लावान् कपिञ्जलानेणानुरभ्राञ्छरभाञ्छशान्।
शालीन्सयवगोधूमान् सेव्यानाहुर्घनात्यये॥४३॥
तिक्तस्य सर्पिषः पानं विरेको रक्तमोक्षणम्।
धाराधरात्यये कार्यमातपस्य च वर्जनम्॥४४॥
वसां तैलमवश्यायमौदकानूपमामिषम्।
क्षारं दधि दिवास्वप्नंप्राग्वातं चात्र वर्जयेत्॥४५॥
दिवा सूर्यांशुसंतप्तं निशि चन्द्रांशुशीतलम्।
कालेन पक्वंनिर्दोषमगस्त्येनाविषीकृतम्॥४६॥
हंसोदकमिति ख्यातं शारदं विमलं शुचि।
स्नानपानावगाहेषु शस्यते तद्यथाऽमृतम्॥४७॥
शारदानि च माल्यानि वासांसि विमलानि च।
शरत्काले प्रशस्यन्ते प्रदोषे चेन्दुरश्मयः॥४८॥
इत्युक्तमृतुसात्म्यं यच्चेष्टाहारव्यपाश्रयम्।
उपशेते यदौचित्यादोकसात्म्यं59 तदुच्यते॥४९॥
देशानामामयानां च विपरीतगुणं गुणैः।
सात्म्यमिच्छन्ति सात्म्यज्ञाश्चेष्टितं चाद्यमेव च॥५०॥
तत्र श्लोकः—
ऋतावृतौ नृभिः सेव्यमसेव्यं यच्च किंचन।
तस्याशितीये निर्दिष्टं हेतुमत्सात्म्यमेव च॥५१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने स्वस्थवृत्तचतुष्के
तस्याशितीयो नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
_____________
सप्तमोऽध्यायः।
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अथातो न वेगान्धारणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
न वेगान्धारयेद्धीमाञ्जातान् मूत्रपुरीषयोः।
न रेतसो न वातस्य न छर्द्याः60क्षवथोर्न च॥३॥
नोद्गारस्य न जृम्भाया न वेगान् क्षुत्पिपासयोः।
न बाष्पस्य न निद्राया निःश्वासस्य श्रमेण च॥४॥
एतान् धारयतो जातान्वेगान् रोगा भवन्ति ये।
पृथक् पृथक् चिकित्सार्थं तान्मे निगदतः शृणु॥५॥
बस्तिमेहनयोः शूलं मूत्रकृच्छ्रं शिरोरुजा।
विनामो वङ्क्षणानाहः स्याल्लिङ्गं मूत्रनिग्रहे॥६॥
स्वेदावगाहनाभ्यङ्गान् सर्पिषश्चावपीडकम्।
मूत्रे प्रतिहते कुर्यात्त्रिविधं बस्तिकर्म च॥७॥
पक्वाशयशिरःशूलं वातवर्चोऽ61प्रवर्तनम्।
पिण्डिकोद्वेष्टनाध्मानं पुरीषे स्याद्विधारिते॥८॥
स्वेदाभ्यङ्गावगाहाश्च वर्तयो बस्तिकर्म च।
हितं प्रतिहते वर्चस्यन्नपानं प्रमाथि62 च॥९॥
मेढ्रेवृषणयोः शूलमङ्गमर्दो हृदि व्यथा।
भवेत् प्रतिहते शुक्रे विबद्धं मूत्रमेव च॥१०॥
तत्राभ्यङ्गोऽवगाहश्च मदिरा चरणायुधः।
शालिः पयो निरूहश्च शस्तं मैथुनमेव च॥११॥
सङ्गो63 विण्मूत्रवातानामाध्मानं वेदना क्लमः।
जठरे वातजाश्चान्ये रोगाः स्युर्वातनिग्रहात्॥१२॥
स्नेहस्वेदविधिस्तत्र वर्तयो भोजनानि च।
पानानि बस्तयश्चैव शस्तं वातानुलोमनम्॥१३॥
कण्डूकोठारुचिण्यङ्गशोथपाण्ड्वामयज्वराः।
कुष्ठहृल्लासवीसर्पाश्छर्दिनिग्रहजा गदाः॥१४॥
भुक्त्वा प्रच्छर्दनं धूमो लङ्घनं रक्तमोक्षणम्।
रुक्षानपानं व्यायामो विरेकश्चात्र शस्यते॥१५॥
मन्यास्तम्भः शिरःशूलमर्दितार्धावभेदकौ।
इन्द्रियाणां च दौर्बल्यं क्षवयोः स्याद्विधारणात्॥१६॥
तत्रोर्ध्वजत्रुकेऽभ्यङ्गः स्वेदो धूमः सनावनः।
हितं वातघ्नमाद्यं64 च घृतं चौत्तरभक्तिकम्॥१७॥
हिक्का श्वासोऽरुचिः कम्पो विबन्धो हृदयोरसोः।
उद्गारनिग्रहात्तत्र हिक्कायास्तुल्यमौषधम्॥१८॥
विनामाक्षेपसङ्कोचाः सुतः कम्पः प्रवेपनम्।
जृम्भाया निग्रहात्तत्रसर्वं वातघ्नमौषधम्॥१९॥
कार्श्यदौर्बल्यवैवर्ण्यमङ्गमर्दोऽरुचिर्भ्रमः।
क्षुद्वेगनिग्रहात्तत्र स्निग्धोष्णं लघु भोजनम्॥२०॥
कण्ठास्यशोषो बाधिर्य श्रमः सादो हृदि व्यथा।
पिपासानिग्रहात्तत्र शीतं तर्पणमिष्यते॥२१॥
प्रतिश्यायोऽक्षिरोगश्च हृद्रोगश्चारुचिर्भ्रमः।
बाष्पनिग्रहणात्तत्र स्वप्नो मद्यं प्रियाः कथाः॥२२॥
जृम्भाऽङ्गमर्दस्तन्द्रा च शिरोरोगोऽक्षिगौरवम्।
निद्राविधारणात्तत्र स्वप्नः संवाहनानि च॥२३॥
गुल्महृद्रोगसंमोहाः श्रमनिःश्वासधारणात्।
जायन्ते तत्र विश्रामो वातघ्नश्चक्रिया हिताः॥२४॥
वेगनिग्रहजा रोगा य एते परिकीर्तिताः।
इच्छंस्तेषामनुत्पत्तिं वेगानेतान्न धारयेत्॥२५॥
इमांस्तु धारयेद्वेगान् हितार्थी प्रेत्य चेह च।
साहसानामशस्तानां मनोवाक्कायकर्मणाम्॥२६॥
लोभशोकभयक्रोधमानवेगान् विधारयेत्।
नैर्लज्येर्ष्यातिरागाणामभिध्यायाश्च65 बुद्धिमान्॥२७॥
परुषस्यातिमात्रस्य सूचकस्यानृतस्य च।
वाक्यस्याकालयुक्तस्य धारयेद्वेगमुत्थितम्॥२८॥
देहप्रवृत्तिर्या काचिद्विद्यते66 परपीडया।
स्त्रीभोगस्तेयहिंसाद्या तस्या वेगान्विधारयेत्॥२९॥
पुण्यशब्दो विपापत्वान्मनोवाक्कायकर्मणाम्।
धर्मार्थकामान् पुरुषः सुखी भुङ्क्तेचिनोति च॥३०॥
शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था67 बलवर्धनी।
देहव्यायामसंख्याता मात्रया तांसमाचरेत्॥३१॥
(स्वेदागमः श्वासवृद्धिर्गात्राणां लाघवं तथा।
हृदयाद्युपरोधश्च इति व्यायामलक्षणम्68॥३२॥)
लाघवं कर्मसामर्थ्यं स्थैर्यं क्लेशसहिष्णुता69।
दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते॥३३॥
श्रमः क्लमः क्षयस्तृष्णा रक्तपित्तं प्रतामकः।
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छर्दिश्च जायते॥३४॥
व्यायामहास्यभाष्याध्वग्राम्यधर्मप्रजागरान्।
नोचितानपि सेवेत बुद्धिमानतिमात्रया॥३५॥
एतानेवंविधांश्चान्यान् योऽतिमात्रं निषेवते।
गजं सिंह70 इवाकर्षन् सहसा स विनश्यति॥३६॥
(अतिव्यवायभारा68ध्वकर्मभिश्चातिकर्शिताः।
क्रोधशोकभयायासैःक्रान्ता ये चापि मानवाः॥३७॥
बालवृद्धप्रवाताश्च ये चोच्चैर्बहुभाषकाः।
ते वर्जयेयुर्व्यायामं क्षुधितास्तृषिताश्च ये॥३८॥)
उचितादहिताद्धीमान् क्रमशो विरमेन्नरः।
हितं क्रमेण सेवेत क्रमश्चात्रोपदिश्यते॥३९॥
प्रक्षेपापचये ताभ्यां क्रमः पादांशिको भवेत्।
एकान्तरं ततश्चोर्ध्वं द्य्वन्तरं त्र्यन्तरं तथा॥४०॥
क्रमेणापचिता दोषाः क्रमेणोपचिता गुणाः।
सन्तो यान्त्यपुनर्भावमप्रकम्प्या भवन्ति च॥४१॥
समपित्तानिलकफाः केचिद्गर्भादि मानवाः।
दृश्यन्ते वातलाः केचित् पित्तलाः श्लेष्मलास्तथा॥४२॥
तेषामनातुराः पूर्वे वातलाद्याः सदाऽऽतुराः।
^(१)दोषानुशयिता ह्येषां देहप्रकृतिरुच्यते॥४३॥
विपरीतगुणस्तेषां स्वस्थवृत्तेर्विधिर्हितः।
समसर्वरसं सात्म्यं समधातोः प्रशस्यते॥४४॥
द्वे अधः सप्त शिरसि खानि स्वेदमुखानि71 च।
मलायनानि बाध्यन्ते दुष्टैर्मांत्राधिकैर्मलैः॥४५॥
मलवृद्धिं गुरुतया लाघवान्मलसंक्षयम्।
मलायनानां बुध्येत सङ्गोत्सर्गादतीव च॥४६॥
तान् दोषलिङ्गैरादिश्य व्याधीन्साध्यानुपाचरेत्।
व्याधिहेतुप्रतिद्वन्द्वैर्मात्राकालौ विचारयन्॥४७॥
विषमस्वस्थवृत्तानामेते रोगास्तथाऽपरे।
जायन्तेऽनातुरस्तस्मात् स्वस्थवृत्तपरो भवेत्॥४८॥
^(३)माधवप्रथमे मासि नभस्यप्रथमे पुनः।
सहस्यप्रथमे चैव हारयेद्दोषसंचयम्॥४९॥
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१. ‘दोषस्य दुष्टेरनुशयो गर्भात्प्रभृत्यनुवृत्तिर्विद्यते यस्य स दोषानुशयी,तस्य भावो दोषानुशयिता’ गङ्गाधरः। ‘दोषानुशयिता उल्बणवातादिभाविताव्यभिचारिणीति यावत्, देहप्रकृतिर्देहस्वास्थ्यं, एतेनैतेषां वातलादीनांमुख्यं स्वास्थ्यं नास्ति, किंतर्हि उपचारस्वस्था एते इति दर्शयति’ चक्रः।
३ ‘माधवो वैशाखस्तस्य प्रथमश्चैत्रः, एवं नभस्यस्यभाद्रस्य प्रथमः श्रावणः, तथा सहस्यस्य पौषस्य प्रथमो मार्गशीर्षः। वसन्तादीनामन्तमासेषु वमनाद्यभिधानं संपूर्णप्रकोपे भूते निर्हरणोपदेशार्थं, प्रथमेषु हि मासेषु फाल्गुनाषाढकार्तिकेषु प्रकोपः प्रकर्षप्राप्तो न भवति, चितस्य ह्यसम्यक्प्रकुपितस्याविलीनस्य सम्यङ्निर्हरणं न भवति’ इति चक्रः।
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स्निग्धस्विन्नशरीराणामूर्ध्वं चाधश्च नित्यशः।
बस्तिकर्म ततः कुर्यानस्यकर्म72 च बुद्धिमान्॥५०॥
यथाक्रमं यथायोगमत73 ऊर्ध्वं प्रयोजयेत्।
रसायनानि सिद्धानि वृष्ययोगांश्च कालवित्॥५१॥
रोगास्तथा न जायन्ते प्रकृतिस्थेषु धातुषु।
धातवश्चाभिवर्धन्ते जरा मान्द्यमुपैति74 च॥५२॥
विधिरेष विकाराणामनुत्पत्तौ निदर्शितः।
निजानामितरेषां तु पृथगेवोपदेक्ष्यते॥५३॥
ये भूतविषवाय्वग्निसंप्रहारादिसंभवाः।
नृणामागन्तवो रोगाः प्रज्ञा तेष्वपराध्यति॥५४॥
ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेषादयश्च ये।
मनोविकारास्तेऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजाः॥५५॥
त्यागः प्रज्ञापराधानामिन्द्रियोपशमः स्मृतिः।
देशकालात्मविज्ञानं सद्वृत्तस्यानुवर्तनम्॥५६॥
आगन्तूनामनुत्पत्तावेष मार्गो निदर्शितः।
प्राज्ञः प्रागेव तत् कुर्याद्धितं विद्याद्यदात्मनः॥५७॥
आप्तोपदेशः प्रज्ञानं ^(४)प्रतिपत्तिश्च कारणम्।
विकाराणामनुत्पत्तावुत्पन्नानां च शान्तये॥५८॥
पापवृत्तवचःसत्त्वाःसूचकाः कलहप्रियाः।
मर्मोपहासिनो लुब्धाः परवृद्धिद्विषः शठाः॥५९॥
परापवादरतयश्चपला रिपुसेविनः75।
निर्घृणास्त्यक्तधर्माणःपरिवर्ज्या नराधमाः॥६०॥
बुद्धिविद्यावयःशीलधैर्यस्मृतिसमाधिभिः।
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४. ‘आप्तोपदेशप्रज्ञानं’ इति च.। ‘आप्तानामुपदेशस्य प्रकर्षेण ज्ञानं, प्रतिपत्तिरुपदिष्टार्थस्य सम्यगवबोधः, चक्रः। ‘आप्तोपदेशः प्रज्ञानां प्रतिपत्तिश्च’ ग.।‘प्रज्ञानां प्रमाणसिद्धानां बुद्धीनां कर्त्रीणां प्रतिपत्तिः प्रतीतिः, प्रमया बुद्ध्यायत् प्रतिपद्यते सा’ गङ्गाधरः।
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वृद्धोपसेविनो वृद्धाः स्वभावज्ञा गतव्यथाः॥६१॥
सुमुखाः सर्वभूतानां प्रशान्ताः शंसितव्रताः।
सेव्याः सन्मार्गवक्तारः पुण्यश्रवणदर्शनाः॥६२॥
आहाराचारचेष्टासु सुखार्थी प्रेत्य चेह च।
परं प्रयत्नमातिष्ठेद्बुद्धिमान् हितसेवने॥६३॥
न नक्तं दघि भुञ्जीत न चाप्यघृतशर्करम्।
नामुद्गयूषं नाक्षौद्रं नोष्णं नामलकैर्विना॥६४॥
अलक्ष्मीदोषयुक्तत्वान्नक्तं तु दधि वर्जितम्।
श्लेष्मलं स्यात् ससर्पिष्कं दधि मारुतसूदनम्॥६५॥
न च संधुक्षयेत् पित्तमाहारं च विपाचयेत्।
शर्करासंयुतं दद्यात्तृष्णादाहनिवारणम्॥६६॥
मुद्गयूषेण संयुक्तं दद्याद्रक्तानिलापहम्।
सुरसं चाल्पदोषं च क्षौद्रयुक्तं भवेद्दधि॥६७॥
उष्णं पित्तास्रकृद्दोषान् धात्रीयुक्तं तु निर्हरेत्।
ज्वरासृक्पित्तवीसर्पकुष्ठपाण्ड्वामयभ्रमान्।
प्राप्नुयात् कामलां चोग्रां विधिं हित्वा दधिप्रियः॥६८॥
तत्र श्लोकाः।
वेगा वेगसमुत्थाश्च रोगास्तेषां च भेषजम्।
येषां वेगा विधार्याश्च यदर्थं यद्धिताहितम्॥६९॥
उचिते चाहिते वर्ज्येसेव्ये चानुचिते क्रमः।
यथाप्रकृति चाहारो मलायनगदौषधम्॥७०॥
भविष्यतामनुत्पत्तौ रोगाणामौषधं च यत्।
वर्ज्याः सेव्याश्च पुरुषा धीमता76ऽऽत्मसुखार्थिना॥७१॥
विधिना दधि सेव्यं च येन यस्मात्तदत्रिजः।
नवेगान्धारणेऽध्याये सर्वमेवावदन्मुनिः॥७२॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरक प्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने स्वस्थवृत्तचतुष्के
नवेगान्धारणीयो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
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अष्टमोऽध्यायः।
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अथातइन्द्रियोपक्रमणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु पञ्चेन्द्रियाणि, पञ्चेन्द्रियद्रव्याणि, पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानानि, पञ्चेन्द्रियार्थाः, पञ्चेन्द्रियबुद्धयो भवन्तीत्युक्तमिन्द्रियाधिकारे॥३॥
अती॒न्द्रियं पुनर्मनः सत्वसंज्ञकं चेत इत्याहुरेके, ^(१)तदर्थात्मसंपत्तदायत्तचेष्टं चेष्टाप्रत्यय-भूतमिन्द्रियाणाम् ॥४॥
स्वार्थेन्द्रियार्थसङ्कल्पव्यभिचरणाच्चानेकमेकस्मिन् पुरुषे सत्त्वं,रजस्तमःसत्वगुणयोगाच्च ; न चानेकत्वं, ^(२)नह्येकं ह्येककालमनेकेषुप्रवर्तते ; तस्मान्नैककाला सर्वेन्द्रियप्रवृत्तिः॥५॥
यद्गुणं चाभीक्ष्णं पुरुषमनुवर्तते सत्त्वं, तत्सत्त्वमेवोपदिशन्तिमुनयो ^(३)बाहुल्यानुशयात्॥६॥
मनःपुरःसराणीन्द्रियाण्यर्थग्रहणसमर्थानि भवन्ति॥७॥
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१. ‘तदिति मनः, तस्यार्थो मनोर्थः, स च सुखादिश्चिन्त्यविचार्यादिश्च ;आत्मा चेतनप्रतिसन्धाता ; अनयोः संपत्तदर्थात्मसंपत् ; एतदायत्ता चेष्टाव्यापारो यस्य तत्तथा। तत्रार्थसंपत् सुखादीनां सन्निकर्षश्चिन्त्यादीनामाभिमुख्यंच, आत्मसंपदर्थग्रहणे प्रयत्नशालित्वं ; मनश्चेष्टा च सुखादिज्ञानं तथा चिन्त्यचिन्तनादि तथा चक्षुरादीन्द्रियप्रेरणं च, इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां याचेष्टा स्वविषयरूपादिज्ञानलक्षणा, तत्र प्रत्ययभूतं कारणभूतं मन इतियोज्यं’ चक्रः। २ ‘नाण्वेकं’ ग. ‘न चानेकं ह्येककालं प्रवर्तते’ यो.। ३ ‘येनगुणेन सत्त्वादिना युक्तं यद्गुणं, अभीक्ष्णं पुनः पुनः सत्त्वं मनः, अनुवर्ततेअनुबध्नाति, तत्सत्त्वं सात्त्विकं राजसं तामसं वा उपदिशन्ति, बाहुल्यानुशयात्भूरिसंबन्धादित्यर्थः। एतदुक्तं भवति—सत्यपि गुणान्तरान्वये सत्त्वबाहुल्यात्सत्त्वकार्याणि सत्यशौचादीनि यस्यभवन्ति स सात्त्विक इति व्यपदिश्यते,एवमपरमपि व्याख्येयम्।’ चक्रः।
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तत्र चक्षुः श्रोत्रं घ्राणं रसनं स्पर्शनमिति पञ्चेन्द्रियाणि॥८॥
पञ्चेन्द्रियद्रव्याणि —खं वायुर्ज्योतिरापो भूरिति॥९॥
पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानानि — अक्षिणी कर्णौ नासिके जिह्वा त्वक्चेति॥१०॥
पञ्चेन्द्रियार्थाः —शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः॥११॥
पञ्चेन्द्रियबुद्धयः—चक्षुर्बुद्ध्यादिकाः; ताः पुनरिन्द्रियेन्द्रियार्थसत्त्वात्मसन्निकर्षजाः, क्षणिका, निश्चयाश्चात्मिकाश्च। इत्येतत् पञ्चपञ्चकम्॥१२॥
मनो मनोर्थो बुद्धिरात्मा चेत्यध्यात्मद्रव्यगुणसंग्रहः शुभाशुभप्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुः, द्रव्याश्रितं77 च कर्म यदुच्यते क्रियेति॥१३॥
तत्रानुमानगम्यानां पञ्चमहाभूतविकारसमुदायात्मकानामपिसतामिन्द्रियाणां तेजश्चक्षुषि, खं श्रोत्रे, घ्राणे क्षितिः, आपो रसने,स्पर्शनेऽनिलो विशेषेणोपपद्यते ; तत्र यद्यदात्मकमिन्द्रियं विशेषात्तत्तदात्मकमेवार्थमनुगृह्णाति, तत्स्वभावाद्विभुत्वाच्च॥१४॥
तदर्थातियोगायोगमिथ्यायोगात् समनस्कमिन्द्रियं विकृतिमापद्यमानं यथास्वं बुद्ध्युपघाताय संपद्यते, समयोगात्78 पुनः प्रकृतिमापद्यमानं यथास्वं बुद्धिमाप्याययति॥१५॥
मनसस्तु चिन्त्यमर्थः। तत्र मनसो मनोबुद्धेश्च त एव समानातिहीनमिथ्यायोगाः प्रकृतिविकृतिहेतवो भवन्ति॥१६॥
तत्रेन्द्रियाणां समनस्कानामनुपतप्तानामनुपतापाय प्रकृतिभावेप्रयतितव्यमेभिर्हेतुभिः ; तद्यथा—सात्म्येन्द्रियार्थसंयोगेन बुद्ध्यासम्यगवेक्ष्यावेक्ष्य कर्मणां सम्यक् प्रतिपादनेन देशकालात्मगुणविपरीतोपासनेन चेति॥१७॥
तस्मादात्महितं चिकीर्षता सर्वेण सर्वं सर्वदा स्मृतिमास्थायसद्वृत्तमनुष्ठेयम्। तद्ध्यनुतिष्ठन्79 युगपत्संपादयत्यर्थद्वयमारोग्यमिन्द्रियविजयं चेति॥१८॥तत्सद्वृत्तमखिलेनोपदेक्ष्यामः। तद्यथा—देवगोब्राह्मणगुरुवृद्धसिद्धाचार्यानर्चयेत्, अग्निमुपचरेत् ओषधीः प्रशस्ता धारयेत्,द्वौ कालावुपस्पृशेत्, मलायनेष्वभीक्ष्णं पादयोश्च वैमल्यमादध्यात्,त्रिः पक्षस्य केशमश्रुलोमनखान् संहारयेत्, नित्यमनुपहतवासाःसुमनाः सुगन्धिः स्यात् ; साधुवेशः, प्रसाधितकेशः, मूर्धश्रोत्रघ्राणपादतैलनित्यः80, धूमपः, पूर्वाभिभाषी, सुमुखः, दुर्गेष्वभ्युपपत्ता,होता, यष्टा, दाता, चतुष्पथानां नमस्कर्ता, बलीनामुपहर्ता,अतिथीनां पूजकः, पितृभ्यः पिण्डदः, काले हितमितमधुरार्थवादी,वश्यात्मा, धर्मात्मा, हेतावीर्ष्युः, फले नेर्ष्युः, निश्चिन्तः, निर्भीकः,ह्रीमान्, धीमान्, महोत्साहः, दक्षः, क्षमावान्, धार्मिकः, आस्तिकः, विनयबुद्धिविद्याभिजनवयोवृद्धसिद्धाचार्याणामुपासिता ;छत्री दण्डी मौली81 सोपानत्को युगमात्रदृग्विचरेत्82; मङ्गलाचारशीलः, कुचेलास्थिकण्टकामेध्यकेशतुषोत्करभस्मकपालस्नान- बलिभूमीनां परिहर्ता, प्राक् श्रमाद् व्यायामवर्जी च स्यात् ; सर्वप्राणिषुबन्धुभूतः स्यात्, क्रुद्धानामनुनेता, भीतानामाश्वासयिता, दीनानामभ्युपपत्ता, सत्यसंधः, सामप्रधानः83, परपरुषवचनसहिष्णुः,अमर्षघ्नः, प्रशमगुणदर्शी, रागद्वेषहेतूनां हन्ता च॥१९॥
नानृतं ब्रूयात्, नान्यस्वमाददीत, नान्यस्त्रियमभिलषेन्नान्यश्रियं,न वैरं रोचयेत्, न कुर्यात् पापं, न पापेऽपि पापी स्यात्, नान्यदोषान् ब्रूयात्, नान्यरहस्यमागमयेन्, नाधार्मिकैर्न नरेन्द्रद्विष्टैःसहासीत, नोन्मत्तैर्न पतितैर्न भ्रूणहन्तृभिर्न क्षुदैर्न दुष्टैः, न दुष्टयानान्यारोहेत्, नाजानुसमं84 कठिनमासनमध्यासीत, नानास्तीर्णमनुपहितमविशालमसमं वा शयनं प्रपद्येत, न गिरिविषममस्तकेष्वनुचरेत्, न द्रुममारोहेत्, न जलोग्रवेगमवगाहेत,न कुलच्छायामुपासीत85,नाह्युत्पातमभितश्चरेत्,नोच्चैर्हसेत्, नशब्दवन्तं मारुतं मुञ्चेत्, नानावृतमुखो जृम्भां क्षवथुं हास्यं वाप्रवर्तयेत्, न नासिकां कुष्णीयात्, न दन्तान् विघट्टयेत्, ननखान् वादयेत्, नास्थीन्यभिहन्यात्, न भूमिं विलिखेत्, न छिन्द्यात्तृणं, न लोष्टं मृद्गीयात्, न विगुणमङ्गैश्चेष्टेत, ज्योतींष्यनिष्टममेध्यमशस्तं च नाभिवीक्षेत न हुंकुर्याच्छवं86, न चैत्यध्वजगुरुपूज्याशस्तच्छायामाक्रामेत्, न क्षपास्वमरसदनचैत्यचत्वरचतुष्पथोपवनश्मशाना-घातनान्यासेवेत, नैकः शून्यगृहं न चाटवीमनुप्रविशेत्, न पापवृत्तान् स्त्रीमित्रभृत्यान् भजेत, नोत्तमैर्विरुध्येत, नावरानुपासीत, न जिह्मंरोचयेत्, नानार्यमाश्रयेत्, न भयमुत्पादयेत्,न साहसातिस्वप्नप्रजागरस्नानपानाशनान्यासेवेत, नोर्ध्वजानुश्चिरंतिष्ठेत्, न व्यालानुपसर्पेन्न दंष्ट्रिणो न विषाणिनः, पुरोवातातपवश्यायातिप्रवाताञ्जह्यात्, कलिं नारभेत, नासुनिभृतो87ऽग्निमुपासीत नोच्छिष्टो नाधः कृत्वा प्रतापयेत्, नाविगतक्लमो नानाप्लुतवदनो न नग्नउपस्पृशेत्, न स्नानशाट्या स्पृशेदुत्तमाङ्गं, न केशाग्राण्यभिहन्यात्, नोपस्पृश्य ते एव वाससी विभुयात्, नास्पृष्ट्वारत्नाज्यपूज्यमङ्गलसुमनसोऽभिनिष्कामेत्, न पूज्यमङ्गलान्यपसव्यं गच्छेन्नेतराण्यनुदक्षिणम्॥२०॥
नारत्नपाणिर्नास्नातोनोपहतवासा नाजपित्वा नाहुत्वा देवताभ्यो नानिरूप्यपितृभ्यो नादत्वागुरुभ्यो नातिथिभ्यो नोपाश्रितेभ्यो नापुण्यगन्धो नामाली नाप्रक्षालितपाणिपादवदनोनाशुद्धमुखो नोदङ्मुखो न विमना नाभक्ताशिष्टाशुचिक्षुधितपरिचरो न पात्रीष्वमेध्यासु नादेशे नाकाले नाकीर्णे नादत्त्वाऽग्रमग्नयेनाप्रोक्षितं प्रोक्षणोदकैर्न मन्त्रैरनभिमन्त्रितं न कुत्सयन्न कुत्सितं नप्रतिकूलोप-हितमन्नमाददीत, न पर्युषितमन्यत्र मांसहरितकशुष्कशाकफलभक्ष्येभ्यः, नाशेषभुक् स्यादन्यत्र दधिमधुलवणसक्तुसर्पिर्भ्यः,न नक्तं दधिभुञ्जीत, न सक्तूनेकानश्नीयान्न निशि न भुक्त्वा नबहून्न द्विर्नोदकान्तरितान्न छित्वा द्विजैर्भक्षयेत्88॥२१॥ नानृजुः क्षुयानाद्यान्न शयीत, न वेगितोऽन्यकार्यःस्यात्, न
वाय्वग्निसलिलसोमार्कद्विजगुरुप्रतिमुखं निष्ठीविका (वात) वर्चोमूत्राण्युत्सृजेत्, न पन्थानमवमूत्रयेन्न जनवति नान्नकाले, न जपहोमाध्ययनबलिमङ्गलक्रियासु श्लेष्मसिङ्घाणकं मुञ्चेत्॥२२॥
न स्त्रियमवजानीत, नातिविश्रम्भयेत्, न गुह्यमनुश्रावयेत्,नाधिकुर्यात्। न रजस्वलां नातुरां नामेध्यां नाशस्तां नानिष्टरूपाचारोपचारां नादक्षां नादक्षिणां नाकामां नान्यकामां नान्यस्त्रियंनाम्ययोनिं नायोनौ न चैत्यचत्वरचतुष्पथोपवनश्मशानाघातनसलिलौषधि-द्विजगुरुसुरालयेषु न सन्ध्ययोर्नातिथिषु89 नाशुचिर्नाजग्धभेषजो90 नाप्रणीतसङ्कल्पो नानुपस्थितप्रहर्षो नाभुक्तवान्नात्यशितो नविषमस्थो न मूत्रोच्चारपीडितो न श्रमव्यायामोपवासक्लमाभिहतोनारहसि व्यवायं गच्छेत्॥२३॥
न सतो न गुरून्परिवदेत्, नाशुचिभिरभिचारकर्मचैत्यपूज्यपूजाध्ययनमभिनिर्वर्तयेत्॥२४॥
न विद्युत्स्वनार्तवीषु नाभ्युदितासु दिक्षु नाम्निसंप्लवे न भूमिकम्पे न महोत्सवे नोल्कापाते न महाग्रहोपगमने91 न नष्टचन्द्रायां तिथौन सन्ध्ययोर्नामुखाद्गुरोर्नावपतितं92 नातिमात्रंन तान्तं93 न विस्वरंनानवस्थितपदं नातिद्रुतं न विलम्बितं नातिक्लीबं नात्युचैर्नातिनीचैः स्वरैरध्ययनमभ्यस्येत्॥२५॥
नातिसमयं94 जह्यात्, न नियमं भिन्द्यात्, न नक्तं नादेशे चरेत्,न सन्ध्यास्वभ्यवहाराध्ययनस्त्रीस्वप्नसेवी स्यात्, न बालवृद्धलुब्धमूर्खक्लिष्टक्लीबैःसह सख्यं कुर्यात्, न मद्यद्यूतवेश्याप्रसङ्गरुचिःस्यात्, न गुह्यं विवृणुयात्, न कञ्चिदवजानीयात्, नाहंमानीस्यान्नादक्षो नादक्षिणो नासूयकः, न ब्राह्मणान्95 परिवदेत्, नगवां दण्डमुद्यच्छेत्, न वृद्धान्न गुरून्न गणान्न नृपान् वाऽधिक्षिपेत् न चातिब्रूयात्, न बान्धवानुरक्तकृच्छ्र96द्वितीयगुह्यज्ञान्बहिष्कुर्यात्97॥२६॥
नाघीरो नात्युच्छ्रितसत्त्वः स्यात्, नाभृतभृत्यः, नाविश्रब्धस्वजनः, नैकः सुखी, न दुःखशीलाचारोपचारः, न सर्वविश्रम्भी, नसर्वाभिशङ्की, नसर्वकालविचारी98॥२७॥
न कार्यकालमतिपातयेत्, नापरीक्षितमभिनिविशेत्, नेन्द्रियवशगःस्यात्, न चञ्चलं मनोऽनुभ्रामयेत्, न बुद्धीन्द्रियाणामतिभारमादध्यात्, न चातिदीर्घसूत्री स्यात्, न क्रोधहर्षावनुविदध्यात्, न शोकमनुवसेत् न सिद्धावुत्सेकं99 यच्छेन्नासिद्धौ दैन्यं,प्रकृतिमभीक्ष्णं स्मरेत् हेतुप्रभावविनिश्चितः स्याद्धेत्वारम्भनित्यश्च,न कृतमित्याश्वसेत्, न वीर्यं जह्यात्, नापवादमनुस्मरेत्॥२८॥
नाशुचिरुत्तमाज्याक्षततिलकुशसर्षपैरग्निंजुहुयादा100त्मानमाशीर्भिराशासानः101, अग्निर्मेनापगच्छेच्छरीराद्वायुर्मे प्राणानादधातुविष्णुर्मेबलमादधातु इन्द्रो मे वीर्यं शिवा मां प्रविशन्त्वाप आपोहिष्ठेत्यपः स्पृशेत्, द्विः परिमृज्योष्ठौ पादौ चाभ्युक्ष्य मूर्धनि खानि102चोपस्पृशेदद्भिरात्मानं हृदयं शिरश्च॥२९॥
ब्रह्मचर्यज्ञानदानमैत्रीकारुण्यहर्षोपेक्षाप्रशमपरश्च स्यादिति॥३०॥
तत्र श्लोकाः।
पञ्चपञ्चकमुद्दिष्टं मनो हेतुचतुष्टयम्।
इन्द्रियोपक्रमेऽध्याये सद्वृत्तमखिलेन च॥३१॥
स्वस्थवृत्तं यथोद्दिष्टं यः सम्यगनुतिष्ठति।
स समाः शतमव्याधिरायुषा न वियुज्यते॥३२॥
नृलोकमापूरयते यशसा साधुसंमतः।
धर्मार्थावेति भूतानां बन्धुतामुपगच्छति॥३३॥
परान् सुकृतिनो लोकान् पुण्यकर्मा प्रपद्यते।
तस्माद्वृत्तमनुष्टेयमिदं सर्वेण सर्वदा॥३४॥
यच्चान्यदपि किंचित्स्यादनुक्तमिह पूजितम्।
वृत्तं तदपि चात्रेयः सदैवाभ्यनुमन्यते॥३५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने स्वस्थवृत्तचतुष्के
इन्द्रियोपक्रमणीयो नामाऽष्टमोऽध्यायः॥८॥
इति स्वस्थवृत्तचतुष्कः॥२॥
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नवमोऽध्यायः।
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अथातः खुड्डा103कचतुष्पादमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम्।
गुणवत् कारणं ज्ञेयं विकारव्युपशान्तये॥३॥
विकारो धातुवैषम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते।
सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दुःखमेव च॥४॥
चतुर्णां भिषगादीनां शस्तानां धातुवैकृते।
प्रवृत्तिर्घातुसाम्यार्था चिकित्सेत्यभिधीयते॥५॥
श्रुते पर्यवदातत्वं104 बहुशो दृष्टकर्मता।
दाक्ष्यं शौचमिति ज्ञेयं वैद्ये गुणचतुष्टयम्॥६॥
बहुता तत्रयोग्यत्वमनेकविधकल्पना।
संपञ्चेति चतुष्कोऽयं द्रव्याणां गुण उच्यते॥७॥
उपचारज्ञता दाक्ष्यमनुरागश्च भर्तरि।
शौचं चेति चतुष्कोऽयं गुणः परिचरे जने॥८॥
स्मृतिर्निर्देशकारित्वमभीरुत्वमथापि च।
ज्ञापकत्वं च रोगाणामातुरस्य गुणाः स्मृताः॥९॥
कारणं षोडशगुणं सिद्धौ पादचतुष्टयम्।
विज्ञाता शासिता योक्ता प्रधानं भिषगत्रतु॥१०॥
पक्तौ हि कारणं पक्तुर्यथा पात्रेन्धनानलाः।
विजेतुर्विजये भूमिश्चमूः प्रहरणानि च॥११॥
आतुराद्यास्तथा सिद्धौ पादाः कारणसंज्ञिताः।
वैद्ययातश्चिकित्सायां प्रधानं कारणं भिषक्॥१२॥
मृद्दण्डचक्रसूत्राद्याः कुम्भकारादृते यथा।
नावहन्ति गुणं वैद्याहते पादत्रयं तथा॥१३॥
गन्धर्वपुरवन्नाशं यद्विकाराः सुदारुणाः।
यान्ति यच्चेतरे वृद्धिमाशूपायप्रतीक्षिणः॥१४॥
सति पादत्रये ज्ञाज्ञौ भिषजावत्र कारणम्।
वरमात्मा हुतोऽज्ञेन105 न चिकित्सा प्रवर्तिता॥१५॥
पाणिचाराद्यथाऽचक्षुरज्ञानाद्भीतभीतवत्।
नौर्मारुतवशेवाज्ञो भिषक् चरति कर्मसु॥१६॥
यदृच्छया समापन्नमुत्तार्य नियतायुषम्।
भिषङ्मानी निहन्त्याशु शतान्यनियतायुषाम्॥१७॥
तस्माच्छास्त्रेऽर्थविज्ञाने प्रवृत्तौ कर्मदर्शने।
भिषक् चतुष्टये युक्तः प्राणाभिसर उच्यते॥१८॥
हेतौ लिङ्गे प्रशमने रोगाणामपुनर्भवे।
ज्ञानं चतुर्विधं यस्य स राजार्हो भिषक्तमः॥१९॥
शस्त्रं शास्त्राणि सलिलं गुणदोषप्रवृत्तये।
पात्रापेक्षीण्यतः प्रज्ञां चिकित्सार्थं विशोधयेत्॥२०॥
विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिस्तत्परता क्रिया।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य न साध्यमतिवर्तते॥२१॥
विद्या मतिः कर्मदृष्टिरभ्यासः सिद्धिराश्रयः।
वैद्यशब्दाभिनिष्पत्तावलमेकैकमप्यतः॥२२॥
यस्य त्वेते गुणाः सर्वे सन्ति विद्यादयः शुभाः।
स वैद्यशब्दं सद्भूतमर्हन्106 प्राणिसुखप्रदः॥२३॥
शास्त्रं ज्योतिः प्रकाशार्थं दर्शनं107 बुद्धिरात्मनः।
ताभ्यां भिषक् सुयुक्ताभ्यां चिकित्सन्नापराध्यति॥२४॥
चिकित्सिते त्रयः पादा यस्माद्वैद्यव्यपाश्रयाः।
तस्मात् प्रयत्नमातिष्ठेद्भिषक् स्वगुणसंपदि॥२५॥
मैत्री कारुण्यमार्तेषु शक्ये प्रीतिरुपेक्षणम्।
प्रकृतिस्थेषु108 भूतेषु वैद्यवृत्तिश्चतुर्विधा॥२६॥
तत्र श्लोकौ।
भिषग्जितं चतुष्पादं पादः पादश्चतुर्गुणः।
भिषक् प्रधानं पादेभ्यो यस्माद्वैद्यस्तु यद्गुणः॥२७॥
ज्ञानानि बुद्धिर्ब्राह्मी च भिषजां या चतुर्विधा।
सर्वमेतच्चतुष्पादे खुड्डाके संप्रकाशितम्॥२८॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने निर्देशचतुष्के
खुड्डाकचतुष्पादो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥
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दशमोऽध्यायः।
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अथातो महाचतुष्पादमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
चतुष्पादं षोडशकलं109 भेषजमिति भिषजो भाषन्ते, यदुक्तं पूर्वाध्याये षोडशगुणमिति, तद्भेषजं युक्तियुक्तमलमारोग्यायेति भगवान्पुनर्वसुरात्रेयः॥३॥
नेति मैत्रेयः, किं कारणं ? दृश्यन्ते ह्यातुराः केचिदुपकरणवन्तश्चपरिचारकसंपन्नाश्चात्मवन्तश्च कुशलैश्च भिषग्भिरुपक्रान्ताः110 समुत्तिष्ठमानाः, तथायुक्ताश्चापरे म्रियमाणाः, तस्माद्वेषजमकिंचित्करं भवति ;तद्यथा—श्वभ्रे111 सरसि वा प्रसिक्तमल्पमुदकं, नद्यां वा स्यन्दमानायांपांसुधाने वा पांसुमुष्टिः प्रकीर्ण इति। तथाऽपरे दृश्यन्तेऽनुपकरणाश्चापरिचारकाश्चानात्मवन्तश्चाकुशलैश्च भिषग्भिरुपक्रान्ताः110 समुत्तिष्ठमानाः, तथायुक्ता म्रियमाणाश्चापरे। यतश्च प्रतिकुर्वन् सिध्यति,प्रतिकुर्वन् म्रियते; अप्रतिकुर्वन् सिध्यति, अप्रतिकुर्वन् म्रियते;ततश्चिन्त्यते भेषजमभेषजेनाविशिष्टमिति112॥४॥
मैत्रेय113! मिथ्या चिन्त्यत इत्यात्रेयः; किं कारणं, ये ह्यातुराःषोडशगुणसमुदितेनानेन भेषजेनोपपद्यमाना म्रियन्त इत्युक्तं तदनुपपन्नं, न हि भेषजसाध्यानां व्याधीनां भेषजमकारणं भवति ; येपुनरातुराः केवलाद्भेषज्जादृते114 समुत्तिष्ठन्ते, न तेषां संपूर्णमेषजोपपादनाय समुत्थानविशेषो नास्ति115 ; यथा हि पतितं पुरुषं समर्थमुत्थानायोत्थापयन् पुरुषो बलमस्योपादध्यात्, स क्षिप्रतरमपरिक्लिष्ट एवोत्तिष्ठेत्, तद्वत् संपूर्णभेषजोपलम्भादातुराः ; ये चातुराःकेवलाद्भेषजादपि म्रियन्ते, न च सर्व एव ते भेषजोपपन्नाः समुत्तिष्ठेरन्, नहि सर्वे व्याधयो भवन्त्युपायसाध्याः, न चोपायसाध्यानां व्याधीनामनुपायेन सिद्धिरस्ति, न चासाध्यानां व्याधीनांभेषजसमुदायोऽयमस्ति न ह्यलं ज्ञानवान् भिषङ्मुमूर्षुमातुरमुस्थापयितुं, परीक्ष्यकारिणो हि कुशला भवन्ति, यथाहि योगज्ञोऽभ्यासनित्य ईष्वासो116 धनुरादायेषुमस्यन्नातिविप्रकृष्टेमहति काये नापराधवान् भवति, संपादयति चेष्टकार्यं, तथाभिषक् स्वगुणसंपन्न उपकरणवान् वीक्ष्य117कर्मारभमाणः साध्यरोगमनपराधः संपादयत्येवातुरमारोग्येण ; तस्मान्न भेषजमभेषजेनाविशिष्टं भवति॥५॥
इदं चेदं च नः प्रत्यक्षं यत् —अनातुरेण भेषजेनातुरमुपचरामः118,क्षाममक्षामेण, कृशं च दुर्बलमाध्याययामः, स्थूलं मेदस्विनमपतर्पयामः, शीतेनोष्णाभिभूतमुपचरामः, शीताभिभूतमुष्णेन, न्यूनान्धातून् पूरयामः, व्यतिरिक्तान् ह्रासयामः, व्याधीन्मूलविपर्ययेणोपचरन्तः सम्यक् प्रकृतौ स्थापयामः ; तेषां नस्तथा कुर्वतामयं भेषजसमुदायः कान्ततमो भवति॥६॥
भवन्ति चात्र।
साध्यासाध्यविभागज्ञो ज्ञानपूर्वं चिकित्सकः।
काले चारभते कर्म यत्तत् साधयति ध्रुवम्॥७॥
अर्थविद्या119यशोहानिमुपक्रोशमसंग्रहम्।
प्राप्नुयान्नियतं वैद्यो योऽसाध्यं समुपाचरेत्॥८॥
सुखसाध्यं मतं साध्यं कृच्छ्रसाध्यमथापि च।
द्विविधं चाप्यसाध्यं स्याद्याप्यं यच्चानुपक्रमम्॥९॥
साध्यानां त्रिविधश्चाल्पमध्यमोत्कृष्टतां प्रति।
विकल्पो, न त्वसाध्यानां नियतानां विकल्पना॥१०॥
हेतवः पूर्वरूपाणि रूपाण्यल्पानि यस्य च।
न च तुल्यगुणो दूष्यो न दोषः प्रकृतिर्भवेत्॥११॥
न च कालगुणस्तुल्यो न देशो120 दुरुपक्रमः।
गतिरेका नवत्वं च रोगस्योपद्रवो न च॥१२॥
दोषश्चैकः समुत्पत्तौ देहः सर्वौषधक्षमः।
चतुष्पादोपपत्तिश्च सुखसाध्यस्य लक्षणम्॥१३॥
निमित्तपूर्वरूपाणां रूपाणां मध्यमे बले।
कालप्रकृतिदूष्याणां सामान्येऽन्यतमस्य च॥१४॥
गर्भिणीवृद्धबालानां नात्युपद्रवपीडितम्।
शस्त्रक्षाराग्निकृत्यानामनवं कृच्छ्रदेशजम्॥१५॥
विद्यादेकषथंरोगं नातिपूर्णचतुष्पदम्।
द्विपथं नातिकालं वा कृच्छ्रसाध्यं द्विदोषजम्॥१६॥
शेषत्वादायुषो याप्यमसाध्यं पथ्यसेवया।
लब्धाल्पसुखमल्पेन हेतुनाऽऽशुप्रवर्तकम्॥१७॥
गम्भीरं बहुधातुस्थं मर्मसन्धिसमाश्रितम्।
नित्यानुशायिनं रोगं दीर्घकालमवस्थितम्॥१८॥
विद्याद्द्विदोषजं तद्वत् प्रत्याख्येयं त्रिदोषजम्।
क्रियापथमतिक्रान्तं सर्वमार्गानुसारिणम्॥१९॥
औत्सुक्यारतिसंमोहकरमिन्द्रियनाशनम्।
दुर्बलस्य सुसंवृद्धं व्याधिं सारिष्टमेव च॥२०॥
भिषजा प्राक्परीक्ष्यैवं विकाराणां स्वलक्षणम्।
पश्चात् कर्मसमारम्भः कार्यः साध्येषु धीमता॥२१॥
साध्यासाध्यविभागज्ञो यः सम्यक्प्रतिपत्तिमान्।
न स मैत्रेयतुल्यानां मिथ्याबुद्धिं प्रकल्पयेत्॥२२॥
तत्र श्लोकौ।
इहौषधं पादगुणाः प्रभावो भेषजाश्रयः।
आत्रेयमैत्रेयमती मतिद्वैविध्यनिश्चयः॥२३॥
चतुर्विधविकल्पाश्च व्याधयः स्वस्वलक्षणाः।
उक्ता महाचतुष्पादे येष्वायत्तं भिषग्जितम्॥२४॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने निर्देशचतुष्के
महाचतुष्पादो नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
एकादशोऽध्यायः।
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अथातस्तिस्रैषणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु पुरुषेणानुपहतसत्त्वबुद्धिपौरुषपराक्रमेण हितमिहचामुष्मिंश्च लोके समनुपश्यता तिस्र एषणाः पयेष्टव्या भवन्ति।तद्यथा—प्राणैषणा121, धनैषणा, परलोकैषणेति॥३॥
आसां तु खल्वेषणानां प्राणैषणां तावत्पूर्वतरमापद्येत। कस्मात् ?प्राणपरित्यागे हि सर्वत्यागः। तस्यानुपालनं—स्वस्थस्य स्वस्थवृत्तानुवृत्तिः, आतुरस्य विकारप्रशमनेऽप्रमादः, तदुभयमेतदुक्तं वक्ष्यते च ; तद्यथोक्तमनुवर्तमानः प्राणानुपालनाद्दीर्घमायुरवाप्नोतीति प्रथमैषणा व्याख्याता भवति॥४॥
अथ द्वितीयां धनैषणामापद्येत ; प्राणेभ्यो ह्यनन्तरं धनमेव पर्येष्टव्यं भवति,न ह्यतः122 पापात् पापीयोऽस्ति यदनुपकरणस्य123 दीर्घमायुः, तस्मादुपकरणानि पर्येष्टुं यतेत। तत्रोपकरणोपायाननुव्याख्यास्यामः ; तद्यथा—कृषिपाशुपाल्यवाणिज्यराजोपसेवादीनि, यानिचान्यान्यपि सतामविगर्हितानि कर्माणि वृत्तिपुष्टिकराणि विद्यात्तान्यारभेत कर्तुःतथा कुर्वन् दीर्घजीवितं जीवत्यनवमतः124 पुरुषोभवति;इति द्वितीया धनैषणा व्याख्याता भवति॥५॥
अथ तृतीयां परलोकैषणामापद्येत। संशयश्चात्र—कथं ? भविष्याम इतश्र्युता नवेति ;कुतः पुनः संशय इति, उच्यते—सन्तिह्येके प्रत्यक्षपराः परोक्षत्वात् पुनर्भवस्य नास्तिक्यमाश्रिताः, सन्तिचागमप्रत्ययादेव पुनर्भवमिच्छन्ति;श्रुतिभेदाच्च125—
‘मातरं पितरं चैके मन्यन्ते जन्मकारणम्।
स्वभावं परनिर्माणं यदृच्छां चापरे जनाः॥’ इति।
अतः संशयः—किं नु खल्वस्ति पुनर्भवो न वेति॥६॥
तत्र बुद्धिमावास्तिक्यवृद्धिं जह्याद्विचिकित्सां च। कस्मात् ?प्रत्यक्षं ह्यल्पम् ; अनल्पमप्रत्यक्षमस्ति, यदागमानुमानयुक्तिभिरुपलभ्यते ; यैरेव तावदिन्द्रियैः प्रत्यक्षमुपलभ्यते, तान्येव सन्ति चाप्रत्यक्षाणि॥७॥
सतां च रूपाणामतिसन्निकर्षादतिविप्रकर्षादावरणात् करणदौर्बल्यान्मनोनवस्थानात् समानाभिहारादभिभवादतिसौक्ष्म्याच्च प्रत्यक्षानुपलब्धिः ; तस्मादपरीक्षितमेतदुच्यते—प्रत्यक्षमेवास्ति नान्यदस्तीति॥८॥
श्रुतयश्चैतान कारणं, युक्तिविरोधात् ;—
आत्मा मातुः पितुर्वा यः सोऽपत्यं यदि संचरेत्।
द्विविधं संचरेदात्मा सर्वोऽवावयवेन वा॥९॥
सर्वश्चेत् संचरेन्मातुः पितुर्वा मरणं भवेत्।
निरन्तरं, नावयवः कश्चित् सूक्ष्मस्य चात्मनः॥१०॥
** बुद्धिर्मनश्च निर्णीते यथैवात्मा तथैव ते।
^(२)येषां चैषा मतिस्तेषां योनिर्नास्ति चतुर्विधा॥११॥**
विद्यात् स्वाभाविकं षण्णां धातूनां यत् स्वलक्षणम्।
संयोगे च वियोगे126 च तेषां कर्मैव कारणम्॥१२॥
_________________________________________________________
२.‘येषामेषा-माता-पितरौ जन्मकारणमित्येवंरूपा मतिस्तेषां प्राणिजन्मनि चतुर्विधा योनिर्नास्ति।जराय्वण्डस्वेदोद्भिद्भेदाच्चतुर्विधा योनिरुक्ता प्राणिनामुत्पत्तौ। जरायुजानांदेवनरादीनामण्डजानां पक्ष्यादीनां च स्तो मातापितरौ न तु स्वेदजोद्भिज्जानामित्येवं युक्तिविरोधात्’ गङ्गाधरः।
_________________________________________________________
अनादेश्चेतनाधातोर्नेष्यते परनिर्मितिः।
पर आत्मा स चेद्धेतुरिंष्टाऽस्तु परनिर्मितिः॥१३॥
न परीक्षा न परीक्ष्यं न कर्ता कारणं न च।
न देवा नर्षयः सिद्धाः कर्म कर्मफलं न च॥१४॥
नास्तिकस्यास्ति नैवात्मा यदृच्छोपहतात्मनः।
पातकेभ्यः परं चैतत् पातकं नास्तिकग्रहः॥१५॥
तस्मान्मतिं विमुच्यैताममार्गप्रसृतां बुधः।
सतां बुद्धिप्रदीपेन पश्येत् सर्वं यथातथम्॥१६॥
द्विविधमेव खलु सर्वं सञ्चासच्च ; तस्य चतुर्विधा परीक्षा—आप्तोपदेशः, प्रत्यक्षम्, अनुमानं, युक्तिश्चेति॥१७॥
आप्तास्तावत्—
रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तास्तपोज्ञानबलेन ये।
येषां त्रिकालममलं ज्ञानमव्याहतं सदा॥१८॥
आप्ताः शिष्टा विबुद्धास्ते तेषां वाक्यमसंशयम्।
सत्यं, वक्ष्यन्ति ते कस्मादसत्यं127 नीरजस्तमाः॥१९॥
आत्मेन्द्रियमनोर्थानां सन्निकर्षात् प्रवर्तते।
व्यक्ता तदात्वे या बुद्धिः प्रत्यक्षं सा निरुच्यते॥२०॥
प्रत्यक्षपूर्वं त्रिविधं त्रिकालं चानुमीयते।
वह्निर्निगूढो धूमेन मैथुनं गर्भदर्शनात्॥२१॥
एवं व्यवस्यन्त्यतीतं बीजात् फलमनागतम्।
दृष्ट्वाबीजात् फलं जातमिहैव सदृशं बुधाः॥२२॥
जलकर्षणबीजर्तुसंयोगात् सस्यसंभवः।
युक्तिः षड्धातुसंयोगाद्गर्भाणां संभवस्तथा॥२३॥
मथ्यमन्थन128(क)मन्थानसंयोगादग्निसंभवः।
युक्तियुक्ता चतुष्पादसंपद्व्याधिनिबर्हणी॥२४॥
बुद्धिः पश्यति या भावान् बहुकारणयोगजानू।
युक्तिस्त्रिकाला सा ज्ञेया त्रिवर्गः साध्यते यया॥२५॥
एषा परीक्षा नास्त्यन्या यया सर्वं परीक्ष्यते।
परीक्ष्यं सदसच्चैवं(व)तथा चास्ति पुनर्भवः॥२६॥
तत्राप्तागमस्तावद्वेदः, यश्चान्योऽपि कश्चिद्वेदार्थादविपरीतः परीक्षकैः प्रणीतः शिष्टानुमतो लोकानुग्रहप्रवृत्तः शास्त्रवादः स चाप्तागमः ; आप्तागमादुपलभ्यते—दानतपोयज्ञसत्याहिंसा-ब्रह्मचर्याण्यभ्युदयनिःश्रेयसकराणीति॥२७॥
न चानतिवृत्तसत्त्वदोषाणामदोषैरपुनर्भवो धर्मद्वारेषूपदिश्यते॥२८॥
धर्मद्वारावहितैश्च व्यपगतभयरागद्वेषलोभमोहमानैर्ब्रह्मपरैराप्तैःकर्मविद्भिरनुपहतसत्त्वबुद्धि-प्रचारैःपूर्वैः पूर्वतरैर्महर्षिभिर्दिव्यचक्षुर्भिर्दृष्ट्वोपदिष्टः पुनर्भव इति व्यवस्येदेवम्129॥२९॥
प्रत्यक्षमपि130 चोपलभ्यते—मातापित्रोर्विसदृशान्यपत्यानि, तुल्यसंभवानां वर्णस्वराकृतिसत्त्वबुद्धिभाग्यविशेषाः, प्रवरावरकुलजन्म,दास्यैश्वर्यं, सुखासुखमायुः, आयुषो वैषम्यम् इहाकृतस्यावाप्तिः,अशिक्षितानां च रुदितस्तनपानहासत्रासादीनां प्रवृत्तिः, लक्षणोत्पत्तिः, कर्मसादृश्ये फलविशेषः, मेधा क्वचित् क्वचित् कर्मण्यमेधा,जातिस्मरणम्, इहागमनमितश्च्युतानां च भूतानां, समदर्शनेप्रियाप्रियत्वम्॥३०॥
अत एवानुमीयते—यत्—स्वकृतमपरिहार्यमविनाशि पौर्वदेहिकं दैवसंज्ञकमानुबन्धिकं कर्म, तस्यैतत् फलम्, इतश्चान्यद्भविष्यतीति, फलाद्बीजमनुमीयते फलं च बीजात्॥३१॥
युक्तिश्चैषा—षड्धातुसमुदयाद्गर्भजन्म, कर्तृकरणसंयोगात् क्रिया;कृतस्य कर्मणः फलं नाकृतस्य, नाङ्कुरोत्पत्तिरबीजात् ; कर्मसदृशंफलं, नान्यस्माद्बीजादन्यस्योत्पत्तिः ;इति युक्तिः॥३२॥
एवं प्रमाणैश्चतुर्भिरुपदिष्टे पुनर्भवे धर्मद्वारेष्ववधीयेत ; तद्यथा—गुरुशुश्रूषायामध्ययने व्रतचर्यायां दारक्रियायामपत्योत्पादने भृत्यभरणेऽतिथिपूजायां दानेऽनभिध्यायां तपस्यनसूयायां देहवाङ्मानसे कर्मण्यक्लिष्टे देहेन्द्रियमनोर्थबुद्ध्यात्मपरीक्षायां मनःसमाधाविति ; यानि चान्यान्यप्येवंविधानि कर्माणि सतामविगर्हितानि स्वर्ग्याणि वृत्तिपुष्टिकराणि विद्यात्तान्यारभेत कर्तुं ; तथा कुर्वन्निह चैव यशो लभते प्रेत्य च स्वर्गम् ; इति तृतीया परलोकैषणा व्याख्याता भवति॥३३॥
अथ खलु त्रय उपस्तम्भाः, त्रिविधं बलं, त्रीण्यायतनानि, त्रयो रोगाः, त्रयो रोगमार्गाः, त्रिविधा भिषजः, त्रिविधमौषधमिति॥३४॥
त्रय उपस्तम्भा इत्याहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति, एभिस्त्रिभिर्युक्तियुक्तैरुपस्तब्धमुपस्तम्भैः शरीरं बलवर्णोपचयोपचितमनुवर्तते यावदायुःसंस्कारात्संस्कार131महितमनुपसेवमानस्य, य इहैवोपदेक्ष्यते॥३५॥
त्रिविधं बलमिति—सहजं, कालजं, युक्तिकृतं च ; सहजं यच्छरीरसत्वयोः प्राकृतं, कालकृतमृतुविभागजं वयःकृतं च युक्तिकृतं पुनस्तद्यदाहारचेष्टायोगजम्॥३६॥
त्रीण्यायतनानीति—अर्थानां कर्मणः कालस्य चातियोगायोगमिथ्यायोगाः। तत्रातिप्रभावतां दृश्यानामतिमात्रं दर्शनमतियोगः, सर्वशोऽदर्शनमयोगः, अतिश्लिष्टाति132विप्रकृष्टरौद्रभैरवाद्भुतद्विष्टबीभत्सविकृतचित्रासनादिरूपदर्शनं मिथ्यायोगः ; तथाऽतिमात्रस्तनितपटहोत्क्रुष्टादीनां शब्दानामतिमात्रं श्रवणमतियोगः, सर्वशोऽश्रवणमयोगः, परुषेष्टविनाशोपघातप्रधर्षणभीषणादिशब्दश्रवणं मिथ्यायोगः ; तथाऽतितीक्ष्णोग्रामिष्यन्दिनां गन्धानामतिमात्रं घ्राणमतियोगः, सर्वशोऽघ्राणमयोगः, प्रतिद्विष्टामेध्यक्लिन्नविषपवनकुणपगन्धादिघ्राणं मिथ्यायोगः ; तथा रसानामत्यादानमतियोगः, सर्वशोऽनादानमयोगः, मिथ्यायोगो राशिवर्ज्येष्वाहार-विधिविशेषायतनेषूपदेक्ष्यते133 ; तथाऽतिशीतोष्णानां स्पृश्यानां स्नानाभ्यङ्गोत्सादनादीनां चात्युपसेवन-मतियोगः, सर्वशोऽनुपसेवनमयोगः, स्नानादीनांशीतोष्णादीनां च स्पृश्यानामनानुपूर्व्योपसेवनं विषमस्थानाभिघाताशुचिभूतसंस्पर्शादयश्चेति मिथ्यायोगः॥३७॥
तत्रैकं स्पर्शनेन्द्रियमिन्द्रियाणामिन्द्रियव्यापकं, चेतःसमवायि,स्पर्शनण्याप्तेर्व्यापकमपि च चेतः ; तस्मात् सर्वेन्द्रियाणां व्यापकस्पर्शकृतो यो भावविशेषः सोऽयमनुपशयात् पञ्चविधस्त्रिविधविकल्पो भवत्यसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः ; सात्म्यार्थोह्युपशयार्थः॥३८॥
कर्म वाङ्मनःशरीरप्रवृत्तिः। तत्रवाङ्मनःशरीरातिप्रवृत्तिरतियोगः; सर्वशोऽप्रवृत्तिरयोगः ; वेगधारणोदीरणविषमस्खलनगमनपतनाङ्गप्रणिधानाङ्गप्रदूषणप्रहारावमर्दनप्राणोपरोध-संक्लेशनादिः शारीरो134 मिथ्यायोगः, सूचकानृताकालकलहाप्रियाबद्धानुपचारपरुषवचनादि-र्वाङ्मिथ्यायोगः ;भयशोकक्रोधलोभमोहमानेर्ष्यामिथ्यादर्शनादिर्मानसो मिथ्यायोगः; संग्रहेण चातियोगायोगवर्जं कर्मवाङ्मनःशरीरजमहितमनुपदिष्टं यत्तञ्च मिथ्यायोगं विद्यात् ; इतित्रिविधविकल्पं त्रिविधमेव कर्म प्रज्ञापराध इति व्यवस्येत्॥३९॥
शीतोष्णवर्षलक्षणाःपुनर्हेमन्तग्रीष्मवर्षाःसंवत्सरः, स कालः ;तत्रातिमात्रस्वलक्षणः कालः कालातियोगः, हीनस्वलक्षणः(कालः)कालायोगः, यथास्वलक्षणविपरीतलक्षणस्तु (कालः) कालमिथ्यायोगः। कालः पुनः परिणाम उच्यते॥४०॥इत्यसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगःप्रज्ञापराधःपरिणामश्चेति त्रयस्त्रिविधविकल्पा हेतवो विकाराणां ; समयोगयुक्तास्तु प्रकृतिहेतवोभवन्ति॥४१॥
सर्वेषामेव भावानां भावाभावौ नान्तरेण योगायोगातियोगमिथ्यायोगान् समुपलभ्येते ; यथास्व-युक्त्यपेक्षिणौ135 हि भावाभावौ॥४२॥
त्रयो रोगा इति—निजागन्तुमानसाः ;तत्र निजः शारीरदोषसमुत्थः, आगन्तुर्भूतविषवाय्वग्नि- संप्रहारादिसमुत्थः, मानसः पुनरिष्टस्यालाभाल्लाभाच्चानिष्टस्योपजायते॥४३॥
तत्र बुद्धिमता मानसव्याधिपरीतेनापि136 सता बुद्ध्या हिताहितमवेक्ष्यावेक्ष्य धर्मार्थकामानामहितानामनुपसेवने हितानां चोपसेवने प्रयतितव्यं, न ह्यन्तरेण लोके त्रयमेतन्मानसं किंचिन्निष्पद्यतेसुखं वा दुःखं वा ; तस्मादेतच्चानुष्ठेयं—तद्विद्यावृद्धानां चोपसेवनेप्रयतितव्यम्, आत्मदेशकालबलशक्तिज्ञाने यथावच्चेति॥४४॥
भवति चात्र।
मानसं प्रति भैषज्यं त्रिवर्गस्यान्ववेक्षणम्।
तद्विद्यसेवा विज्ञानमात्मादीनां च सर्वशः॥४५॥
त्रयो रोगमार्गा इति—शाखा, ^(३)मर्मास्थिसन्धयः, कोष्ठश्च। तत्रशाखा रक्तादयो धातवस्त्वक् च, स बाह्यो रोगमार्गः; मर्माणिपुनर्बस्तिहृदयमूर्धादीनि, अस्थिसन्धयोऽस्थिसंयोगास्तत्रोपनिबद्धाश्च
____________________________________________________
३.‘मर्मास्थिसन्धिभ्यामेको मार्गः।अत्र शाखेति संज्ञाकरणं व्यवहारार्थं, तथा रक्तादीनां धातूनां शाखाभिधेयानां वृक्षशाखातुल्यत्वेन बाह्यत्वज्ञापनार्थं ; त्वक् चेति त्वक्शब्देन तदाश्रयोऽपि रसो गृह्यते, साक्षात्तु रसानभिधानं हृदयस्थायिनो रसस्य शाखासंज्ञाव्यवच्छेदार्थं, तस्य हि कोष्ठग्रहणेनैव ग्रहणं, अनेन न्यायेन यकृत्प्लीहाश्रितं च शोणितं कोष्ठत्वेनैवाभिप्रेतमिति बोद्धव्यम्’ चक्रः।
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स्नायुकण्डराः137, स मध्यमो रोगमार्गः ; कोष्ठःपुनरुच्यते महास्रोतःशरीरमध्यं महानिम्नमामपक्वाशयश्चेति पर्यायशब्दैस्तन्त्रे, स रोगमार्ग आभ्यन्तरः॥४६॥
तत्र, गण्डपिडकालज्यपचीचर्मकीलाधिमांसमषककुष्ठव्यङ्गादयोविकारा बहिर्मार्गजाश्च विसर्पश्वयथुगुल्मार्शोविद्रध्यादयः शाखानुसारिणो भवन्ति रोगाः ; पक्षवधग्रहापतान-कार्दितशोषराजयक्ष्मास्थिसन्धिशूलगुदभ्रंशादयः शिरोहृद्वस्तिरोगादयश्च मध्यममार्गानुसारिणो भवन्ति रोगाः ; ज्वरातीसार-च्छर्द्यलसकविसूचिकाकासश्वासहिक्कानाहोदरप्लीहादयोऽ-न्तर्मार्गजाश्च विसर्पश्वयथुगुल्मार्शोविद्रध्यादयः कोष्ठानुसारिणो भवन्ति रोगाः॥४७॥
त्रिविधा भिषज इति—
भिषक्छद्मचराः सन्ति सन्त्येके सिद्धसाधिताः।
सन्ति वैद्यगुणैर्युक्तास्त्रिविधा भिषजोभुवि॥४८॥
वैद्यभाण्डौषधैः पुस्तैः पल्लवैरवलोकनैः।
लभन्ते ये भिषक्शब्दमज्ञास्ते प्रतिरूपकाः॥४९॥
श्रीयशोज्ञानसिद्धानां व्यपदेशादतद्विधाः।
वैद्यशब्दं लभन्ते ये ज्ञेयास्ते सिद्धसाधिताः॥५०॥
प्रयोगज्ञानविज्ञानसिद्धिसिद्धाः सुखप्रदाः।
जीविताभिसरास्ते स्युर्वेद्यत्वं तेष्ववस्थितम्॥५१॥
त्रिविधमौषधमिति—दैवव्यपाश्रयं, युक्तिव्यपाश्रयं, सत्त्वावजयश्च। तत्र देवव्यपाश्रयं—मन्त्रौषधि-मणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनादि, युक्तिव्यपाश्रयं— पुनराहारविहारौषधद्रव्याणां योजना, सत्वावजयः—पुनरहितेभ्योऽर्थेभ्यो मनोनिग्रहः॥५२॥
शरीरदोषप्रकोपे खलु शरीरमेवाश्रित्य प्रायशस्त्रिविधमौषधमिच्छन्ति—अन्तःपरिमार्जनं, बहिः- परिमार्जनं, शस्त्रप्रणिधानं चेति।तत्रान्तःपरिमार्जनं पदन्तःशरीरमनुप्रविश्यौषधमाहारजातव्याधीन्प्रमार्ष्टि, यत्पुनर्बहिः-स्पर्शमाश्रित्याभ्यङ्गस्वेदप्रदेहपरिषेकोन्मर्दनाद्यैरामयान् प्रमार्ष्टितद्बहिःपरिमार्जनं, शस्त्रप्रणिधानं पुनश्छेदनभेदनव्यधनदारणलेखनोत्पाटनप्रच्छनसीवनैषणक्षाराग्निजलौकसश्चेति ५३
भवन्ति चात्र।
प्राज्ञो रोगे समुत्पन्ने बाह्येनाभ्यन्तरेण वा।
कर्मणा लभते शर्म शस्त्रोपक्रमणेन वा॥५४॥
बालस्तु खलु मोहाद्वा प्रमादाद्वा न बुध्यते।
उत्पद्यमानं प्रथमं रोगं शत्रुमिवाबुधः॥५५॥
अणुर्हि प्रथमं भूत्वा रोगः पश्चाद्विवर्धते।
स जातमूलो मुष्णाति बलमायुश्च दुर्मतेः॥५६॥
न मूढो लभते संज्ञां तावद्यावन्न पीड्यते।
पीडितस्तु मतिं पश्चात् कुरुते व्याधिनिग्रहे॥५७॥
अथ पुत्रांश्च दारांश्च ज्ञातींश्चाहूय भाषते।
सर्वस्वेनापि मे कश्चिद्भिषगानीयतामिति॥५८॥
तथाविधं च कः शक्तो दुर्बलं व्याधिपीडितम् \।
कृशं क्षीणेन्द्रियं दीनं परित्रातुं गतायुषम्॥५९॥
स त्रातारमनासाद्य बालस्त्यजति जीवितम्।
गोधा लाङ्गूलबद्धेवाकृष्यमाणा बलीयसा॥६०॥
तस्मात् प्रागेव रोगेभ्यो रोगेषु तरुणेषु वा।
भेषजैः प्रतिकुर्वीत य इच्छेत् सुखमात्मनः॥६१॥
तत्र श्लोकौ ।
एषणाः समुपस्तम्भा बलं कारणमामयाः।
तिस्त्रैषणीये मार्गाश्च भिषजो भेषजानि च॥६२॥
त्रित्वेनाष्टौ समुद्दिष्टाः कृष्णात्रेयेण धीमता।
भावा भावेष्वसक्तेन येषु सर्वं प्रतिष्ठितम्॥६३॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने निर्देशचतुष्के
तिस्त्रैषणीयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
द्वादशोऽध्यायः।
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अथातो वातकलाकलीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
वातकला138कलाज्ञानमधिकृत्य परस्परमतानि जिज्ञासमानाः समुपविश्य महर्षयः पप्रच्छुरन्योन्यं —किंगुणो वायुः, किमस्य प्रकोपणम्, उपशमनानि वाऽस्य कानि, कथं चैनमसंङ्घातमनवस्थितमनासाद्य प्रकोपणप्रशमनानि प्रकोपयन्ति प्रशमयन्ति वा, कानिचास्य कुपिताकुपितस्य शरीराशरीरचरस्थ शरीरेषु चरतः कर्माणिबहिः शरीरेभ्यो वेति॥३॥
अत्रावाच कुशः साङ्कृत्यायनः—रूक्षलघुशीतदारुणखरविशदाःषडिमे वातगुणा भवन्ति॥४॥
तच्छ्रुत्वा वाक्यं कुमारशिरा भरद्वाज उवाच—एवमेतद्यथा भगवानाह, एत एव वातगुणा भवन्ति ; स त्वेवंगुणैर्द्रव्यैरेवंप्रभावैश्चकर्मभिरभ्यस्यमानैर्वायुः प्रकोपमापद्यते, समानगुणाभ्यासो हिधातूनां वृद्धिकारणमिति॥५॥
तच्छ्रुत्वा वाक्यं काङ्कायनो बाह्लीकभिषगुवाच—एवमेतद्यथाभगवानाह, एतान्येव वातप्रकोपणानि भवन्ति, अतो विपरीतानिवातस्य प्रशमनानि भवन्ति, प्रकोपणविपर्ययो हि धातूनां प्रशमकारणमिति॥६॥
तच्छ्रुत्वा वाक्यं बडिशो धामार्गव उवाच—एवमेतद्यथा भगवानाह, एतान्येव वातप्रकोपणप्रशमनानि भवन्ति। यथा ह्येनमसङ्घामनवस्थितमनासाद्य प्रकोपणप्रशमनानि प्रकोपयन्ति प्रशमयन्ति वा, तथाऽनुव्याख्यास्यामः—वातप्रकोपणानि खलु रूक्षलघुशीतदारुणखरविशदशुषिरकराणि शरीराणां, तथाविधेषु शरीरेषुवायुराश्रयं गत्वाऽऽप्याययमानः प्रकोपमापद्यते ; वातप्रशमनानि पुनःस्निग्धगुरूष्णश्लक्ष्णमृदुपिच्छिलघनकराणि शरीराणां, तथाविधेषुशरीरेषु वायुरसज्यमान139श्चरन् प्रशान्तिमापद्यते॥७॥
तच्छ्रुत्वा बडिशवचनमवितथमृषिगणैरनुमतमुवाच वार्योविदोराजर्षिः—एवमेतत् सर्वमनपवादं यथा भगवानाह।यानि तु खलुवायोः कुपिताकुपितस्य शरीराशरीरचरस्य शरीरेषु चरतः कर्माणिबहिः शरीरेभ्यो वा भवन्ति. तेषामवयान् प्रत्यक्षानुमानोपदेशैःसाधयित्वा नमस्कृत्य वायवे यथाशक्ति प्रवक्ष्यामः—वायुस्तन्त्रयन्त्रधरः, प्राणोदानसमानव्यानापानात्मा, प्रवर्तकश्चेष्टानामुच्चावचानां, नियन्ता प्रणेता च मनसः, सर्वेन्द्रियाणामुद्योजकः, सर्वेन्द्रियार्थानामभिवोढा, सर्वशरीरधातुव्यूहकरः, सन्धानकरः शरीरस्य,प्रवर्तको वाचः, प्रकृतिः स्पर्शशब्दयोः, श्रोत्रस्पर्शनयोर्मूलं,हर्षोत्साहयोर्योनिः, समीरणोऽग्नेः, संशोषणो दोषाणां, क्षेप्ता बहिर्मलानां, स्थूलाणुस्रोतसां भेत्ता, कर्ता गर्भाकृतीनां, आयुषोऽनुवृत्तिप्रत्ययभूतो भवत्यकुपितः। कुपितस्तु खलु शरीरे शरीरं नानाविधैर्विकारैरुपतपति बलवर्णसुखायुषामुपघाताय140, मनो व्याहर्षयति, सर्वेन्द्रियाण्युपहन्ति, विनिहन्ति गर्भान् विकृतिमापादयत्यतिकालं वा धारयति, भयशोकमोहदैन्यातिप्रलापाञ्जनयति, प्राणांश्चोपरुणद्धि। प्रकृतिभूतस्य खल्वस्य लोके चरतः कर्माणीमानिभवन्ति ; तद्यथा—धरणीधारणं, ज्वलनोज्वालनम्, आदित्यचन्द्रनक्षत्रग्रहगणानां सन्तानगति141विधानं, सृष्टिश्च मेघानाम्, अपांविसर्गः, प्रवर्तनं स्रोतसां, पुष्पफलानां चाभिनिर्वर्तनम्, उद्भेदनंचौद्भिदानाम्, ऋतूनां प्रविभागः, विभागो धातूनां, धातुमान142।")संस्थानव्यक्तिः, बीजाभिसंस्कारः, शस्याभिवर्धनमविक्लेदोपशोषणे143,अवैकारिकविकाराश्चेति। प्रकुपितस्य खल्वस्य लोकेषु चरतः कर्माणीमानि भवन्ति; तद्यथा—शिखरिशिखरावमथनम्, उन्मथनमनोकहानाम्, उत्पीडनं सागराणाम्, उद्वर्तनं सरसां, प्रतिसरणमापगानाम्, आकम्पनं च भूमेः, आधमनमम्बुदानां, नीहारनिर्हादपांशुसिकतामत्स्यभेकोरगक्षाररुधिराश्मशनिविसर्गः, व्यापादनं चषण्णामृतूनां, शस्यानामसङ्घातः, भूतानां चोपसर्गः, भावानामभावकरणं, चतुर्युगान्तकराणां मेघसूर्यानलानिलानां च विसर्गः ;स हि भगवान् प्रभवश्चाव्ययश्च, भूतानां भावाभावकरः, सुखासुखयोर्विधाता, मृत्युः, यमः, नियन्ता, प्रजापतिः, अदितिः, विश्वकर्मा, विश्वरूपः, सर्वगः, सर्वतन्त्राणां विधाता, भावानामणुः,विभुः, विष्णुः, कान्ता लोकानां, वायुरेव भगवानिति॥८॥
तच्छ्रुत्वा वार्योविदवचो मरीचिरुवाच—यद्यप्येवमेतत् किमर्थस्यास्य वचने विज्ञाने वा सामर्थ्यमस्ति भिषग्विद्यायां ; भिषग्विद्यामधिकृत्येयं कथा प्रवृत्तेति144॥९॥
वार्योविद उवाच—भिषक् पवनमतिबलमतिपरुषमतिशीघ्रकारिणमात्ययिकं चेन्नानुनिशम्येत्, सहसा प्रकुपितमतिप्रयतः कथमग्रेऽभिरक्षितुमभिधास्यति प्रागेवैनमत्ययभयात् ; वायोर्यथार्था स्तुतिरपि भवत्यारोग्याय बलवर्णविवृद्धये वर्चस्वित्वायोपचयाय ज्ञानोपपत्तये परमायुःप्रकर्षाय चेति॥१०॥
मरीचिरुवाच—अग्निरेव शरीरे पित्तान्तर्गतः कुपिताकुपितःशुभाशुभानि करोति ; तद्यथा–पक्तिमपक्तिं दर्शनमदर्शनं मात्रामात्रत्वमूष्मणः प्रकृतिविकृतिवर्णौशौर्यं भयं क्रोधं हर्षं मोहं प्रसादमित्येवमादीनि चापराणि द्वन्द्वानीति॥११॥
तच्छ्रुत्वा मरीचिवचःकाप्य उवाच—सोम एव शरीरे श्लेष्मान्तर्गतःकुपिताकुपितः शुभाशुभानि करोति ; तद्यथा—दार्ढ्यं शैथिल्यमुपचयं कार्यमुत्साहमालस्यं वृषतां क्लीबतां ज्ञानमज्ञानं बुद्धिं मोहमित्येवमादीनि चापराणि द्वन्द्वानीति॥१२॥
तच्छ्रुत्वा काप्यवचो भगवान् पुनर्वसुरात्रेय उवाच—सर्व एवभवन्तः सम्यगाहुरन्यत्रैकान्तिकवचनात् ; सर्व एव खलु वातपित्तश्लेष्माणःप्रकृतिभूताः पुरुषमव्यापन्नेन्द्रियं बलवर्णसुखोपपन्नमायुषा महतोपपादयन्ति सम्यगिवाचरिता धर्मार्थकामा निःश्रेयसेन महता पुरुषमिह चामुष्मिंश्च लोके ; विकृतास्त्वेनं महता विपर्ययेणोपपादयन्ति ऋतवस्त्रय इव विकृतिमापन्ना लोकमशुभेनोपघातकाल इति॥१३॥
तदृषयः145 सर्व एवानुमेनिरे वचनमात्रेयस्य भगवतः, अभिननन्दुश्चेति॥१४॥
भवति चात्र।
तदात्रेयवचः श्रुत्वा सर्व एवानुमेनिरे।
ऋषयोऽभिननन्दुश्च यथेन्द्रवचनं सुराः॥१५॥
तत्र श्लोकौ।
गुणाः षड् द्विविधो हेतुर्विविधं कर्म यत् पुनः।
वायोश्चतुर्विधं कर्म पृथक् च कफपित्तयोः॥१६॥
महर्षीणां मतिर्या या पुनर्वसुमतिश्च या।
कलाकलीये वातस्य तत् सर्वं संप्रकाशितम्॥१७॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने निर्देशचतुष्के
वातकलाकलीयो नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
इति निर्देशचतुष्कस्तृतीयः॥३॥
_____________
त्रयोदशोऽध्यायः।
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अथातः स्नेहाध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सांख्यैः146 संख्यातसंख्येयैः सहासीनं पुनर्वसुम्।
जगद्धितार्थं पप्रच्छ वह्निवेशः स्वसंशयम्॥३॥
किंयोनयः कति स्नेहाः के च स्नेहगुणाः पृथक्।
कालानुपाने के कस्य कति काश्च विचारणाः॥४॥
कति मात्राः कथंमानाः का च केषूपदिश्यते।
कश्च केभ्यो हितः स्नेहः प्रकर्षः स्नेहने च कः॥५॥
स्नेह्याःके के न च स्निग्धास्निग्धातिस्निग्धलक्षणम्।
किं पानात् प्रथमं पीते जीर्णे किं च हिताहितम्॥६॥
के मृदुक्रूरकोष्ठाः का व्यापदः सिद्धयश्च काः।
अच्छे संशोधने चैव स्नेहे का वृत्तिरिष्यते॥७॥
विचारणाःकेषु योज्या विधिना केन तत् प्रभो ! ।
स्नेहस्यामितविज्ञान ज्ञानमिच्छामि वेदितुम्॥८॥
अथ तस्संशयच्छेत्ता प्रत्युवाच पुनर्वसुः।
स्नेहानां द्विविधा सौम्य147 योनिः स्थावरजङ्गमा॥९॥
तिलः प्रियालाभिषुकौ बिभीतकश्चिन्नाभयैरण्डमधूकसर्षपाः।
कुसुम्भबिल्वारुकमूलकातसीनिकोठकाक्षोडकरञ्जशिग्रुकाः॥१०॥
स्नेहाशयाः स्थावरसंज्ञितास्तथा स्युर्जङ्गमा मत्स्यमृगाः सपक्षिणः।
तेषां दधिक्षीरघृतामिषं वसा स्त्रेहेषु मज्जा च तथोपदिश्यते॥११॥
सर्वेषां तैलजातानां तिलतैलं विशिष्यते।
बलार्थेस्नेहने चाग्र्यमैरण्डं तु विरेचने॥१२॥
(कटूष्णं148 तैलमैरण्डं वातश्लेष्महरं गुरु
कषायस्वादुतिक्तैश्च योजितं पित्तहन्त्रपि॥१३॥)
सर्पिस्तैलं वसा मज्जा सर्वस्नेहोत्तमा मताः।
एषु चैवोत्तमं सर्पिः संस्कारस्यानुवर्तनात्॥१४॥
घृतं पित्तानिलहरं रसशुक्रौजसां हितम्।
निर्वापणं मृदुकरं स्वरवर्णप्रसादनम्॥१५॥
मारुतघ्नं न च श्लेष्मवर्धनं बलवर्धनम्।
त्वच्यमुष्णं स्थिरकरं तैलं योनिविशोधनम्॥१६॥
विद्धभग्नाहतभ्रष्टयोनिकर्णशिरोरुजि।
पौरुषोपचये स्नेहे व्यायामे चेष्यते वसा॥१७॥
बलशुक्ररसलेष्ममेदोमज्जविवर्धनः।
मज्जा विशेषतोऽस्थ्नांच बलकृत् स्रेहने हितः॥१८॥
सर्पिः शरदि पातव्यं, वसा मज्जा च माधवे।
तैलं प्रावृषि, नात्युष्णशीते स्नेहं पिबेन्नरः॥१९॥
वातपित्ताधिको रात्रावुष्णे चापि पिबेन्नरः।
श्लेष्माधिको दिवा शीते पिबेच्चामलभास्करे॥२०॥
अत्युष्णे वा दिवा पीतो वातपित्ताधिकेन वा।
मूर्च्छा पिपासान्मुमादं कामलां वा समीरयेत्॥२१॥
शीते रात्रौ पिबन्स्नेहं नरः श्लेष्माधिकोऽपि वा।
आनाहमरुचिं शूलं पाण्डुतां वा समृच्छति॥२२॥
जलमुष्णं घृते पेयं यूषस्तैलेऽनु शस्यते।
वसामज्ज्ञोस्तु मण्डः स्यात् सर्वेषूष्णमथाम्बु वा॥२३॥
ओदनश्च विलेपी च रसो मांसं पयो दधि।
यवागूः सूपशाकौ च यूषः काम्बलिकः खडः॥२४॥
सक्तवस्तिलपिष्टं च मद्यं लेहास्तथैव च।
भक्ष्यमभ्यञ्जनं बस्तिस्तथा चोत्तरबस्तयः॥२५॥
गण्डूषः कर्णतैलं च नस्तःकर्माक्षितर्पणम्।
चतुर्विंशतिरित्येताः स्नेहस्य प्रविचारणाः^(१)॥२६॥
अच्छपेयस्तु यः स्नेहो न तामाहुर्विचारणाम्।
स्नेहस्य स भिषग्दिष्टः कल्पः प्राथमकल्पिकः॥२७॥
रसैश्चोपहितः स्नेहः समासव्यासयोगिभिः।
षड्भिस्त्रिषष्टिधा संख्यां प्राप्नोत्येकश्च केवलः॥२८॥
एवमेताश्चतुःषष्टिः स्नेहानां प्रविचारणाः।
ओकर्तुव्याधिपुरुषान् प्रयोज्या जानता भवेत्॥२९॥
अहोरात्रमहः कृत्स्नमर्धाहं च प्रतीक्षते।
प्रधाना मध्यमा ह्रस्वा स्नेहमात्रा जरां प्रति॥३०॥
इति तिस्रः समुद्दिष्टा मात्राःस्नेहस्य मानतः।
तासां प्रयोगान् वक्ष्यामि पुरुषं पुरुषं प्रति॥३१॥
प्रभूतस्नेहनित्या ये क्षुत्पिपासासहा नराः।
पावकश्चोत्तमबलो येषां ये चोत्तमा बले॥३२॥
गुल्मिनः सर्पदष्टाश्च विसर्पोपहताश्च ये।
उन्मत्ताः कृच्छ्रमूत्राश्च गाढवर्चस एव च॥३३॥
पिबेयुरुत्तमां मात्रां तस्याः पाने गुणाञ्छृणु \।
विकाराञ्छमयत्येषा शीघ्रं सम्यक् प्रयोजिता॥३४॥
दोषानुकर्षिणी मात्रा सर्वमार्गानुसारिणी \।
बल्या पुनर्नवकरी शरीरेन्द्रियचेतसाम्॥३५॥
अरुष्कस्फोटपिडकाकण्डूपामाभिरर्दिताः।
कुष्ठिनश्च प्रमीढाश्च149 वातशोणितिकाश्च ये॥३६॥
________________________________________________________
१. ’प्रविचारणा प्रकर्षेण विशेषाच्चर्यते भक्षणपानलेहाभ्यञ्जनादिरूपेण उपसेव्यते यत्तत्प्रविचारणा’ गङ्गाधरः। ‘प्रविचार्यतेऽवचार्यतेऽनुकल्पेनोपयुज्यतेऽनयेति प्रविचारणा ओदनादयः, ओदनादयश्च स्नेहविचारणायां स्नेहयुक्ताएव बोद्धव्याः, अभ्यञ्जनादयस्तु यद्यपि शुद्धस्नेहसंपाद्यास्तथाऽपि जठराग्निसंधन्धे न व्याप्रियन्त इति विचारणाशब्देनोच्यन्ते’ चक्रः।
________________________________________________________
नातिबह्वाशिनश्चैव मृदुकोष्ठास्तथैव च।
पिबेयुर्मध्यमां मात्रां मध्यमाश्चापि ये बले॥३७॥
मात्रैषा मन्दविभ्रंशा न चातिबलहारिणी।
सुखेन च स्नेहयति शोधनार्थे च युज्यते॥३८॥
ये तु वृद्धाश्च बालाश्च सुकुमाराःसुखोचिताः।
रिक्तकोष्ठत्वमहितं येषां मन्दाग्नयश्च ये॥३९॥
ज्वरातीसारकासाश्च येषां चिरसमुत्थिताः \।
स्नेहमात्रां पिबेयुस्ते ह्रस्वांये चावरा बले॥४०॥
परिहारे सुखा चैषा मात्रा स्नेहनबृंहणी \।
वृष्या बल्या निराबाधा चिरं चाप्यनुवर्तते॥४१॥
वातपित्तप्रकृतयो वातपित्तविकारिणः।
चक्षुःकामाः क्षताः क्षीणा150 वृद्धा बालास्तथाऽबलाः॥४२॥
आयुःप्रकर्षकामाश्च बलवर्णस्वरार्थिनः \।
पुष्टिकामाः प्रजाकामाः सौकुमार्यार्थिनश्च ये॥४३॥
दीह्योजःस्मृतिमेधाग्निबुद्धीन्द्रियबलार्थिनः।
पिबेयुः सर्पिरार्ताश्च दाहशस्त्रविषाग्निभिः॥४४॥
प्रवृद्ध151श्लेष्ममेदस्काश्चलस्थूलगलोदराः।
वातव्याधिभिराविष्टा वातप्रकृतयश्च ये॥४५॥
बलं तनुत्वं लघुतां दृढतां स्थिरगात्रताम् \।
स्निग्धलक्षणतनुत्वक्तां ये च काङ्क्षन्ति देहिनः॥४६॥
कृमिकोष्ठाःक्रूरकोष्ठास्तथा नाडीभिरर्दिताः।
पिबेयुः शीतले काले तैलं तैलोचिताश्च ये॥४७॥
वातातपसहा ये च रूक्षा भाराध्वकर्शिताः।
संशुष्करेतोरुधिरा निष्पीतकफमेदसः॥४८॥
अस्थिसन्धिसिरास्नायुमर्मकोष्ठ महारुजः।
बलवान्मारुतो येषां खानि चावृत्य तिष्ठति॥४९॥
________________________________
च. ३
________________________________
महच्चाग्निबलं येषां वसासात्म्याश्च ये नराः।
तेषां स्नेहयितव्यानां वसापानं विधीयते॥५०॥
दीप्ताग्नयः क्लेशसहा घस्मराः स्नेहसेविनः।
वातार्ताःक्रूरकोष्ठाश्च स्नेह्या मज्जानमाप्नुयुः॥५१॥
येभ्यो येभ्यो हितो यो यः स्नेहः स परिकीर्तितः।
स्नेहनस्य प्रकर्षो तु सप्तरात्रत्रिरात्रकौ॥५२॥
स्वेद्याःशोधयिव्याश्च रूक्षा वातविकारिणः।
व्यायाममद्यस्त्रीनित्याः स्नेह्याः स्युर्ये च चिन्तकाः॥५३॥
संशोधनादृते येषां रूक्षणं संप्रवक्ष्यते।
न तेषां स्नेहनं शस्तमुत्सन्नकफमेदसाम्॥५४॥
अभिष्यण्णाननगुदा नित्यं मन्दाग्नयश्च ये।
तृष्णामूर्च्छापरीताश्च गर्भिण्यस्तालुशोषिणः॥५५॥
अन्नविषच्छर्दयन्तो जठरामगरार्दिताः।
दुर्बलाश्च प्रतान्ताश्च152 स्नेहग्लाना मदातुराः॥५६॥
न स्नेह्या वर्तमानेषु न नस्तोबस्तिकर्मसु।
स्नेहपानात् प्रजायन्ते तेषां रोगाः सुदारुणाः॥५७॥
पुरीषं प्रथितं रूक्षं वायुरप्रगुणो मृदुः।
पक्ता खरत्वं रौक्ष्यं च गात्रस्यास्निग्धलक्षणम्॥५८॥
वातानुलोम्यं दीप्तोऽग्निर्वर्चः स्निग्धमसंहतम्।
मार्दवं स्निग्धता चाङ्गे स्निग्धानामुपजायते॥५९॥
पाण्डुता गौरवं जाड्यं पुरीषस्याविपक्वता।
तन्द्रीररुचिरुत्क्लेशः स्यादतिस्निग्धलक्षणम्॥६०॥
द्रवोष्णमनभिष्यन्दि भोज्यमन्नं प्रमाणतः।
नातिस्निग्धमसंकीर्णंं श्वः स्नेहं पातुमिच्छता॥६१॥
पिबेत् संशमनं स्नेहमन्नकाले प्रकांक्षितः।
शुद्ध्यर्थं पुनराहारे नैशे जीर्णे पिबेन्नरः॥६२॥
स्नेहं पीत्वा नरः स्नेहं प्रतिभुञ्जान एव च।
उष्णोदकोपचारी स्याद्ब्रह्मचारी क्षपाशयः॥६३॥
शकृन्मूत्रानिलोद्वारानुदीर्णांश्च न धारयेत्।
व्यायाममुच्चैर्वचनं क्रोधशोकौ हिमातपौ॥६४॥
वर्जयेदप्रवातं च सेवेत शयनासनम्।
स्नेहमिथ्योपचाराद्धि जायन्ते दारुणा गदाः॥६५॥
मृदुकोष्ठस्त्रिरात्रेण स्निह्यत्यच्छोपसेवया।
स्निह्यति क्रूरकोष्ठस्तु सप्तरात्रेण मानवः॥६६॥
गुडमिक्षुरसं मस्तु क्षीरमुल्लोडितं दधि।
पायसं कृशरां सर्पिः काश्मर्यत्रिफलारसम्॥६७॥
द्राक्षारसं पीलुरसं जलमुष्णमथापि वा।
मद्यं वा तरुणं पीत्वा मृदुकोष्ठो विरिच्यते॥६८॥
विरेचयन्ति नैतानि क्रूरकोष्ठंकदाचन।
भवति क्रूरकोष्ठस्य ग्रहण्यत्युल्बणानिला॥६९॥
उदीर्णपित्ताऽल्पकफा ग्रहणी मन्दमारुता।
मृदुकोष्ठस्य तस्मात् स सुविरेच्यो नरः स्मृतः॥७०॥
उदीर्णपित्ता ग्रहणी यस्य चाग्निबलं महत्।
भस्मीभवति तस्याशु स्नेहः पीतोऽग्नितेजसा॥७१॥
स जग्ध्वा स्नेहमात्रां तामोजः प्रक्षारयन् बली।
स्नेहाग्निरुत्तमां तृष्णां सोपसर्गामुदीरयेत्॥७२॥
नालं स्नेहसमृद्धस्य शमायान्नंसुगुर्वपि।
स चेत् सुशीतं सलिलं नासादयति दह्यते॥७३॥
यथैवाशीविषः कक्षमध्यगः स्वविषाग्निना।
अजीर्णे यदि तु स्रेहे तृष्णा स्याच्छर्दयेद्भिषक्॥७४॥
शीतोदकं पुनः पीत्वा भुक्त्वा रूक्षान्नमुल्लिखेत्।
न सर्पिः केवलं153 पित्ते पेयं सामे विशेषतः॥७५॥
सर्वं ह्यनुरजेद्देहं154 हत्वा संज्ञां च मारयेत्।
तन्द्रा155 सोत्क्लेश आनाहो ज्वरः स्तम्भो विसंज्ञता॥७६॥
कुष्ठानि कण्डूः पाण्डुत्वं शोफार्शास्य रुचिस्तृषा।
जठरं ग्रहणीदोषः स्तैमित्यं वाक्यनिग्रहः॥७७॥
शूलमामप्रदोषाश्च जायन्ते156 स्नेहविभ्रमात्।
तत्राप्युल्लेखनं शस्तं स्वेदः कालप्रतीक्षणम्॥७८॥
प्रति प्रति व्याधिबलं बुद्ध्वास्रंसनमेव च।
तक्रारिष्टप्रयोगश्च रूक्षपानान्नसेवनम्॥७९॥
मूत्राणां त्रिफलायाश्च स्नेहव्यापत्तिभेषजम्।
अकाले चाहितश्चैव मात्रया न च योजितः॥८०॥
स्नेहो मिथ्योपचाराच्चव्यापद्येतातिसेवितः।
स्नेहात् प्रस्कन्दनं157 जन्तुस्त्रिरात्रोपरतः पिबेत्॥८१॥
स्नेहवद्द्र158वमुष्णं च त्र्यहं भुक्त्वा रसौदनम्।
एकाहोपरतस्तद्वद्भुक्त्वा प्रच्छर्दनं पिबेत्॥४२॥
स्यात्त्वसंशोधनार्थीये159 वृत्तिः स्रेहे विरिक्तवत्।
स्नेहद्विषः स्नेहनित्या मृदुकोष्ठाश्च ये नराः॥८३॥
क्लेशासहा मद्यनित्यास्तेषामिष्टा विचारणाः।
लावतैत्तिरमायूरहांसवाराहकौक्कुटाः॥८४॥
गव्याजौरभ्रमात्स्याश्च रसाः स्युः स्रेहने हिताः।
यवकोलकुलत्थाश्च स्नेहाःसगुडशर्कराः॥८५॥
दाडिमं दधि सव्योषं रससंयोगसंग्रहः।
स्नेहयन्ति तिलाःपूर्वं जग्धाः सस्नेहफाणिताः॥८६॥
कृशराश्च बहुस्नेहास्तिलकाम्बलिकास्तथा।
फाणितं शृङ्गवेरं च तैलं च सुरया सह॥८७॥
पिबेद्रूक्षो भृतैर्मांसैर्जीर्णेऽश्नीयाच्च भोजनम्।
तैलंसुराया मण्डेन वसां मज्जानमेव वा॥८८॥
पिबन् सफाणितं क्षीरं नरः स्निह्यति वातिकः।
धारोष्णं स्नेहसंयुक्तं पीत्वा सशर्करं पयः॥८९॥
नरः स्निह्यति पीत्वा वा सरं दुध्नःसफाणितम्।
पाञ्चप्रसृतिकी पेया पायसो माषमिश्रकः॥९०॥
क्षीरसिद्धो बहुस्नेहः स्नेहयेदचिरान्नरम्।
सर्पिस्तैलवसामज्जातण्डुलप्रसृतैः शृता160॥९१॥
पाञ्चप्रसृतिकी पेया पेया स्नेहनमिच्छता।
(शौकरोवा रसः स्निग्धः सर्पिलवणसंयुतः।
पीतो द्विर्वासरे यत्नात् स्नेहयेदचिरान्नरम्॥)
ग्राम्यानूपौदकं मांसं गुडं दधि पयस्तिलान्॥१२॥
कुष्ठी शोथी प्रमेही च स्नेहने न प्रयोजयेत्।
स्नेहैर्यथास्वं तान् सिद्धैः स्नेहयेदविकारिभिः॥९३॥
पिप्पलीभिर्हरीतक्या सिद्धैस्त्रिफलयाऽपि वा।
द्राक्षामलकयूषाभ्यां दध्नाचाम्लेन साधयेत्॥१४॥
व्योषगर्भं161 भिषक्स्नेहं पीत्वा स्निह्यतितं नरः।
यवकोलकुलत्थानां रसाः क्षारः162सुरा दधि॥१५॥
क्षीरं सर्पिश्च163 तत्सिद्धं स्नेहनीयं घृतोत्तमम्।
तैलमज्जवसासर्पिर्बदरत्रिफलारसैः॥९६॥
योनिशुक्रप्रदोषेषु साधयित्वा प्रयोजयेत्।
गृह्णात्यम्बु यथा वस्त्रं प्रस्रवत्यधिकं यथा॥१७॥
यथाग्नि जीर्यति स्नेहस्तथा स्रवति चाधिकः164।
यथा चाक्लेद्य165मृत्पिण्डमासिक्तं त्वरया जलम्॥१८॥
स्रवति स्रंसते स्नेहस्तथा त्वरितसेवितः।
लवणोपहिताः स्नेहाःस्नेहयन्त्यचिरान्नरम्॥९९॥
तद्ध्यभिष्यन्द्यरूक्षं च सूक्ष्ममुष्णं व्यवायिच।
स्नेहमग्रेप्रयुञ्जीत ततः स्वेदमनन्तरम्।
स्नेहस्वेदोपपन्नस्य संशोधनमथेतरत्166॥१००॥
तत्र्श्लोकः।
स्नेहाः स्नेहविधिः कृत्स्नो व्यापत् सिद्धिः सभेषजा।
यथाप्रश्नंभगवता व्याहृतं चान्द्रभागिना॥१०१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने कल्पनाचतुष्के
स्नेहाध्यायो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
____________
चतुर्दशोऽध्यायः।
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अथातः स्वेदाध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
अतः स्वेदाः प्रवक्ष्यन्ते यैर्यथावत्प्रयोजितैः।
स्वेदसाध्याः प्रशाम्यन्ति गदा वातकफात्मकाः॥३॥
स्नेहपूर्वं प्रयुक्तेन स्वेदेनावजितेऽनिले।
पुरीषमूत्ररेतांसि न सज्जन्ति कथंचन॥४॥
शुष्काण्यपि हि काष्ठानि स्नेहस्वेदोपपादनैः।
नमयन्ति यथान्यायं किं पुनर्जीवतो नरान्॥५॥
रोगर्तुव्याधितापेक्षो नात्युष्णोऽतिमृदुर्न च।
द्रव्यवान् कल्पितो देशे स्वेदः कार्यकरो मतः॥६॥
व्याधौ शीते शरीरे च महान् स्वेदो महाबले।
दुर्बले दुर्बलःस्वेदो मध्यमे मध्यमो हितः॥७॥
वात श्लेष्मणि वाते वा कफे वा स्वेद इष्यते।
स्निग्धरूक्षस्तथा स्निग्धो रूक्षश्चाप्युपकल्पितः॥८॥
आमाशयगते वाते कफे पक्वाशयाश्रिते।
रूक्षपूर्वो हितः स्वेदः स्नेहपूर्वस्तथैव च॥९॥
वृषणौ हृदयं दृष्टी स्वेदयेन्मृदु नैव167वा।
मध्यमं वङ्क्षणौ शेषमङ्गावयवमिष्टतः॥१०॥
सुशुद्धैर्ल(र्न) क्तकैः पिण्ड्या गोधूमानामथापि वा।
पद्मोत्पलपलाशैर्वा स्वेद्यः संवृत्य चक्षुषी॥११॥
मुक्तावलीभिः शीताभिः शीतलैर्भाजनैरपि।
जलार्द्रैर्जलजैर्हस्तैः स्विद्यतो हृदयं स्पृशेत्॥१२॥
शीतशूलव्युपरमे स्तम्भगौरवनिग्रहे।
संजाते मार्दवे स्वेदे स्वेदनाद्विरतिर्मता॥१३॥
पित्तप्रकोपो मूर्च्छा च शरीरसदनं तृषा।
दाहः स्वेदाङ्गदौर्बल्यम168तिस्विन्नस्य लक्षणम्॥१४॥
उक्तस्तस्याशितीये यो ग्रैष्मिकः सर्वशो विधिः।
सोऽतिस्विन्नस्य कर्तव्यो मधुरः स्निग्धशीतलः॥१५॥
कषायमद्यनित्यानां गर्भिण्या रक्तपित्तिनाम्।
पित्तिनां सातिसाराणां रूक्षाणां मधुमेहिनाम्॥१६॥
विदग्धभ्रष्ट169बध्नानां विषमद्यविकारिणाम्।
श्रान्तानां नष्टसंज्ञानां स्थूलानां पित्तमेहिनाम्॥१७॥
तृष्यतां क्षुधितानां च क्रुद्धानां शोचतामपि।
कामल्युदरिणां चैव क्षतानामाढ्यरोगिणाम्170॥१८॥
दुर्बलातिविशुष्काणामु171पक्षीणौजसां तथा।
भिषक् तैमिरिकाणां च न स्वेदमवतारयेत्॥१९॥
प्रतिश्याये च कासे च हिक्काश्वासेष्वलाघवे।
कर्णमन्याशिरःशूले स्वरभेदे गलग्रहे॥२०॥
अर्दितैकाङ्गसर्वाङ्गपक्षाघाते विनामके।
कोष्ठानाहविबन्धेषु शुक्राघाते विजृम्भके॥२१॥
पार्श्वपृष्ठकटीकुक्षिसंग्रहे गृध्रसीषु च।
मूत्रकृच्छ्रे महत्वे च मुष्कयोरङ्गमर्दके॥२०॥
पादोरुजानुजङ्घार्तिसंग्रहे श्वयथावपि।
खल्लीष्वामेषु शीते च वेपथौ वातकण्टके॥२३॥
संकोचायामशूलेषु स्तम्भगौरवसुप्तिषु।
सर्वांङ्गेषु172 विकारेषु स्वेदनं हितमुच्यते॥२४॥
तिलमाषकुलत्थाम्लघृततैलामिषौदनैः।
पायसैः कृशरैर्मासैः पिण्डस्वेदं प्रयोजयेत्॥२५॥
गोखरोष्ट्रवराहाश्वशकृद्भिः सतुषैर्यवैः।
सिकतापांशुपाषाणकरीषायसपूटकैः॥२६॥
श्लैष्मिकान् स्वेदयेत् पूर्वैर्वातिकान्173 समुपाचरेत्।
द्रव्याण्येतानि शस्यन्ते यथास्वं प्रस्तरेष्वपि॥२७॥
भूगृहेषु च जेन्ताकेषूष्णगर्भगृहेषु च।
विधूमाङ्गारतप्तेष्वभ्यक्तः स्विद्यति ना सुखम्174॥२८॥
ग्राम्यानुपौदकं मांसं पयो बस्तशिरस्तथा।
वराहमध्य175पित्तासृक् स्नेहवत्तिल176तण्डुलाः॥२९॥
इत्येतानि समुत्क्वाथ्य नाडीस्वेदं प्रयोजयेत्।
देशकालविभागज्ञो युक्त्यपेक्षो भिषक्तमः॥३०॥
वरुणामृतकैरण्डशिशुमूलकसर्षपैः।
वासावंशकरञ्जार्कपत्रैरश्मन्तकस्यच॥३१॥
शोभाञ्जनकशैरेय177मालतीसुरसार्जकैः।
पत्रैरुत्क्वाथ्य सलिलं नाडीस्वेदं प्रयोजयेत्॥३२॥
भूतीकपञ्चमूलाभ्यां सुरया दधिमस्तुना।
मूत्रैरम्लैश्च सस्नेह्रैर्नाडीस्वेदं प्रयोजयेत्॥३३॥
एत एव च निर्यूहाः प्रयोज्या जलकोष्ठके।
स्वेदनार्थं घृतक्षीरतैलकोष्ठांश्च कारयेत्॥३४॥
गोधूमशकलैश्चूर्णैर्यवानामम्लसंयुतैः।
सस्नेहकिण्वलवणैरुपनाहः प्रशस्यते॥३५॥
गन्धैः सुरायाः किण्वेन जीवन्त्या शतपुष्पया।
उभया कुष्ठतैलाभ्यां युक्तया चोपनाहयेत्॥३६॥
चर्मभिश्चोपनद्धव्यः सलोमभिरपूतिभिः।
उष्णवीर्यैरलाभे तु कौशेयाविकशाटकैः॥३७॥
रात्रौ बद्धं दिवा मुञ्चेन्मुञ्चेदात्रौ दिवाकृतम्।
विदाहपरिहारार्थं, स्यात् प्रकर्षस्तु शीतले॥३८॥
संकरः प्रस्तरो नाडी परिषेकोऽवगाहनम्।
जेन्ताकोऽश्मघनः कर्षूःकुटी भूः कुम्भिकैव च॥३९॥
कूपो होलाक इत्येते स्वेदयन्ति त्रयोदश।
तान् यथावत् प्रवक्ष्यामि सर्वानेवानुपूर्वशः॥४०॥
** **तत्र वस्त्रान्तरितैरवस्त्रान्तरितैर्वा पिण्डैर्यथोक्तैरुपस्वेदनं संकरस्वेद इति विद्यात्॥४१॥
शुकशमीधान्यपुलाकानां वेसवारायसकृशरोत्कारिकादीनां वा प्रस्तरे कौशेयाविकोत्तरप्रच्छदे पञ्चाङ्गुलोरुबूकार्कपत्रप्रच्छदे वा स्वभ्यक्तसर्वगात्रस्य शयानस्योपरि स्वेदनं प्रस्तरस्वेद इति विद्यात्॥४२॥
स्वेदनद्रव्याणां पुनर्मूलफलपत्रशुङ्गादीनां178 मृगशकुनिपिशितशिरस्पदादीनामुष्णस्वभावानां वा यथार्हमम्ललवणस्नेहोपसंहितानांमूत्रक्षीरादीनां वा कुम्भ्यां बाष्पमनुद्वमन्त्यामुत्क्वथितानां नाड्याशरेषीकावंशदलकरञ्जार्कपत्रान्यतमकृतया गजाग्रहस्तसंस्थानयाव्यामदीर्घया व्यामार्धदीर्घया179 वा व्यामचतुर्भागाष्टभागमूलाग्रपरिणाहस्रोतसा सर्वतो वातहरपत्रसंवृतच्छिद्रया द्विस्त्रिर्वा विनामितयावातहरसिद्धस्नेहाभ्यक्तगात्रो बाष्पमुपहरेत् ; बाष्पो ह्यनूर्ध्व180गामीविहतचण्डवेगस्त्वचमविदहन् सुखं स्वेदयतीति नाडीस्वेदः॥४३॥
वातिकोत्तर181वातिकानां पुनर्मूलादीनामुस्क्वाथैः सुखोष्णैः कुम्भीर्वर्षणिकाःप्रनाडीर्वा पूरयित्वा यथार्हसिद्धस्नेहाभ्यक्तगात्रं वस्त्रावच्छन्नं परिषेचयेदिति परिषेकः॥४४॥
वातहरोत्क्वाथक्षीरतैलघृतपिशितरसोष्णसलिलकोष्ठकावगाहस्तुयथोक्त एवावगाहः॥४५॥
अथ जेन्ताकं चिकीर्षुर्भूमिं परीक्षेत—तत्रपूर्वस्यां दिश्युत्तरस्यांवा गुणवति प्रशस्ते भूमिभागे कृष्णमधुरमृत्तिके सुवर्णवर्णमृत्तिकेवा परीवाप182पुष्करिण्यादीनां जलाशयानामन्यतमस्य कूले दक्षिणेपश्चिमे वा सूपतीर्थे समसुविभक्तभूमिभागे, सप्ताष्टौ वाऽरत्नीःसूपक्रम्योदकात् प्राङ्मुखमुदङ्मुखं वाऽभिमुखतीर्थं कूटागारं183 कारयेदुत्सेधविस्तारतः परमरत्नीःषोडश समन्तात्सुवृत्तं मृत्कर्मसंपन्नमनेकवातायनम् अस्य कूटागारस्यान्तः समन्ततो भित्तिमरत्निविस्तरोत्सेधां पिण्डिकां कारयेदाकपाटात् मध्ये चास्य कूटागारस्यचतुष्किष्कु184मात्रं पुरुषप्रमाणं मृन्मयं कन्दुसंस्थानं185 बहुसूक्ष्मच्छिद्रमङ्गरकोष्ठक186स्तम्भं सपिधानं कारयेत्, तं च खादिराणामाश्वकर्णादीनां वा काष्ठानां पूरयित्वा प्रदीपयेत् ; स यदा जानीयात् साधुदग्धानि काष्ठानि विगतधूमान्यवतप्तं च केवलमग्निना तदग्निगृहंस्वेदयोग्येन चोष्मणा युक्तमिति, तत्रैनं पुरुषं वातहराभ्यक्तगात्रंवस्त्रावच्छन्नं प्रवेशयेत्, प्रवेशयंश्चैनमनुशिष्यात्—सौम्य ! प्रविशकल्याणायारोग्याय चेति, प्रविश्य चैनां पिण्डिकामधिरुह्य पार्श्वापरपार्श्वाभ्यां यथासुखं शयीथाः, न च त्वया स्वेदमूर्च्छापरीतेनापि सता पिण्डिकैषा विमोक्तव्याऽऽप्राणोच्छ्वासात्, भ्रश्यमानोह्यतः पिण्डिकाव-काशाद्दूरमनधिगच्छन् स्वेदमूर्च्छापरीततया सद्यःप्राणान् जह्याः, तस्मात् पिण्डिकामेनां न कथंचन मुञ्जेथाः, त्वं187 यदाजानीया विगताभिष्यन्दमात्मानं सम्यक् प्रस्रुतस्वेदपिच्छं सर्वस्रोतोविमुक्तं लघुभूतमपगतविबन्धस्तम्भसुप्तिवेदनागौरवमिति,ततस्तां पिण्डिकामनुसरन् द्वारं प्रपद्येथाः, निष्क्रम्य च न सहसाचक्षुषोः परिपालनार्थं शीतोदकमुपस्पृशेथाः, अपगतसंताप188क्लमस्तुमुहूर्तात् सुखोष्णेन वारिणा यथान्यायं परिषिक्तोऽश्नीयाः ; इतिजेन्ताकस्वेदः॥४६॥
शयानस्य प्रमाणेन घनामश्ममयीं शिलाम्।
तापयित्वा मारुतघ्नैर्दारुभिः संप्रदीपितैः॥४७॥
व्यपोज्ङ्यसर्वांनङ्गारान् प्रोक्ष्य चैवोष्णवारिणा।
तां शिलामथ कुर्वीत कौशेयाविकसंस्तराम्॥४८॥
तस्यां स्वभ्यक्तसर्वाङ्गः स्वपन्189 स्विद्यति ना सुखम्।
कौरवाजिन190कौशेयप्रावाराद्यैः सुसंवृतः191॥४९॥
इत्युक्तोऽश्मघनस्वेदः, कर्षूस्वेदः प्रवक्ष्यते।
खानयेच्छयनस्याधः कर्षूं192स्थानविभागवित्॥५०॥
दीप्तैरधूमैरङ्गारस्तां कर्षूंपूरयेत्ततः।
तस्यामुपरि शय्यायां स्वपन्स्विद्यति ना सुखम्॥५१॥
अनत्युत्सेधविस्तारां वृत्ताकारामलोचनाम्।
घनभित्तिं कुटीं कृत्वा कुष्ठाद्यैः संप्रलेपयेत्॥५२॥
कुटीमध्ये भिषक् शय्यां स्वास्तीर्णामुपकल्पयेत्।
प्रावाराजिनकौशेयकुत्थकम्बलगोलकैः193॥५३॥
हसन्तिका194भिरङ्गारपूर्णाभिस्तां च सर्वशः।
परिवर्यान्त195रारोहेदभ्यक्तः स्विद्यते सुखम्॥५४॥
य एवाश्मघनस्वेदविधिर्भूमौ स एव तु।
प्रशस्तायां निवातायां समायामुपदिश्यते॥५५॥
कुम्भींवातहरक्वाथपूर्णां भूमौ निखानयेत्।
अर्धभागं त्रिभागं वा शयनं तत्रचोपरि॥५६॥
स्थापयेदासनं वाऽपि नातिसान्द्रपरिच्छदम्।
अथ कुम्भ्यां सुसंतप्तान् प्रक्षिपेदयसो गुडान्॥५७॥
पाषाणान् वोष्मणा तेन तत्स्थः स्विद्यति ना सुखम्।
सुसंवृताङ्गः स्वभ्यक्तः स्नेहैरनिलनाशनैः॥५८॥
कूपं शयनविस्तारं द्विगुणं चापि वेधतः196।
देशे निवाते शस्ते च कुर्यादन्तः सुमार्जितम्॥५९॥
हस्त्यश्वगोखरोष्ट्राणां करीषैर्दग्धपूरिते।
स्ववच्छन्नः सुसंस्तीर्णेऽभ्यक्तः स्विद्यति ना सुखम्॥६०॥
धीतिकां197तु करीषाणां यथोक्तानां प्रदीपयेत्।
शयनान्तःप्रमाणेन शय्यामुपरि तत्र च॥६१॥
सुदग्धायां विधूमायां यथोक्तामुपकल्पयेत्।
स्ववच्छन्नः स्वपंस्तत्राभ्यक्तः स्विद्यति ना सुखम्॥६२॥
होलाकस्वेद इत्येष सुखः प्रोक्तो महर्षिणा।
इति त्रयोदशविधः स्वेदोऽग्निगुणसंश्रयः॥६३॥
व्यायाम ^(५)उष्णसदनं गुरुप्रावरणं क्षुधा।
बहुपानं भयक्रोधावुपनाहाहवातपाः॥६४॥
________________________________________________________
५. उष्णसदनमिति अग्निसंतापव्यतिरेकेण निर्जालकतया घनभित्तितया च यद्गृहं स्वेदयति तद्बोद्धव्यम्। उपनाहो द्विविधःसाग्निरनग्निश्च, तत्र यः साग्निरुपनाहः स संकर एव बोद्धव्यः ; यस्त्वनग्निबलत्वेन शरीरोष्मरोधं कृत्वा स्वेदयति स इह बोद्धव्यः’ इति चक्रः।
________________________________________________________
स्वेदयन्ति दशैतानि नरमग्निगुणादृते198।
इत्युक्तो द्विविधः स्वेदः संयुक्तोऽग्निगुणैर्न च॥६५॥
एकाङ्गसर्वाङ्गगतः स्निग्धो रूक्षस्तथैव च।
इत्येतत्त्रिविधं द्वन्द्वं199 स्वेदमुद्दिश्य कीर्तितम्॥६६॥
स्निग्धः स्वेदैरुपक्रम्यः स्विन्नः पथ्याशनो भवेत्।
तदहःस्विन्नगात्रस्तु व्यायामं वर्जयेन्नरः॥६७॥
तत्र श्लोकाः।
स्वेदो यथा कार्यकरो हितो येभ्यश्च यद्विधः।
यत्र देशे यथा योग्यो देशो रक्ष्यश्च यो यथा॥६८॥
स्विन्नातिस्विन्नरूपाणि तथाऽतिस्विन्नभेषजम्।
अस्वेद्याःस्वेदयोग्याश्च स्वेदद्रव्याणि कल्पना॥६९॥
त्रयोदशविधः स्वेदो विना दशविधोऽग्निना।
संग्रहेण च षट् स्वेदाः स्वेदाध्याये निदर्शिताः॥७०॥
स्वेदाधिकारे यद्वाच्यमुक्तमेतन्महर्षिणा।
शिष्यैस्तु प्रतिपत्तव्यमुपदेष्टा पुनर्वसुः॥७१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने कल्पनाचतुष्के
स्वेदाध्यायो नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
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पञ्चदशोऽध्यायः।
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अथात उपकल्पनीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु राजानं राजमात्रमन्यं वा विपुलद्रव्यं संभृतसंभारंवमनं विरेचनं वा पाययितुकामेन भिषजा प्रागेवौषधपानात् संभाराउपकल्पनीया भवन्ति, सम्यक्चैवहि गच्छत्यौषधे प्रतिभोगार्थाः, व्यापन्नेचौषधे व्यापदः परिसंख्याय200 प्रतीकारार्थाः;न हि सन्निकृष्टे काले प्रादुर्भूतायामापदि सत्यपि क्रयाक्रये201 सुकरमाशु संभरणमौषधानांंयथावदिति॥३॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—ननु भगवन्नादावेवज्ञानवता तथा प्रतिविधातव्यं यथा प्रतिविहिते सिध्येदेवौषधमेकान्तेन। सम्यक्प्रयोगनिमित्ता हि सर्वकर्मणां सिद्धिरिष्टाव्यापच्चासम्यक् प्रयोगनिमित्ता;अथसम्यगसम्यक् च समारब्धंकर्मसिध्यति व्यापद्यते वाऽनियमेन,तुल्यं भवति ज्ञानमज्ञानेनेति॥४॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—शक्यं तथा प्रतिविधातुमस्माभिरस्माद्विधैर्वाप्यग्निवेश!यथा प्रतिविहिते सिध्येदेवौषधमेकान्तेन तच्च प्रयोगसौष्ठवमुपदेष्टुंयथावत्202;न हि कश्चिदस्ति य एतदेवमुपदिष्टमुपधारयितुमुत्सहेत,उपधार्यवा तथा प्रतिपत्तुं प्रयोक्तुं वा;सूक्ष्माणि हि दोषभेषजदेशकालबलशरीराहारसात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणि, यान्यनुचिन्त्यमानानि विमलविपुलबुद्धेरपि बुद्धिमाकुलीकुर्युःकिं पुनरल्पबुद्धेः। तस्मादुभयमेतद्यथावदुपदेक्ष्यामः—सम्यक् प्रयोगं चौषधानां व्यापन्नानां चव्यापत्साधनानि सिद्धिषूत्तरकालम्॥५॥
इदानीं तावत्संभारान्विविधानपि समासेनोपदेक्ष्यामः तद्यथादृढ़ं निवातं प्रवातैकदेशं सुखप्रविचारमनुपत्यकं203 धूमातपजलरसामनभिगमनीयमनिष्टानां चशब्दस्पर्शरसरूपगन्धानां सोदपानो204लूखलमुसवर्चःस्थानस्नानभूमिमहानसं वास्तुविद्याकुशलः प्रशस्तं गृहमेव तावत् पूर्वमुपकल्पयेत्॥ ६ ॥
ततः शीलशौचाचारानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्नानुपचारकुशलान् सर्वकर्मसु पर्यवदातान् सूपौदनपाचकस्नापकसंवाहकोत्थापकसंवेशकौषधपेषकांश्च परिचारकान् सर्वकर्मस्वप्रतिकूलान्, तथा गीतवादित्रोल्लापक205श्लोकगाथा206ख्यायिकेतिहासपुराणकुशला-नभिप्रायज्ञाननुमतांश्च देशकालविदः परिषद्यांश्च, तथा लावकपिञ्जलशशहरिणैणकाल-पुच्छकमृगमातृकोरभ्रान्, गां दोग्ध्रीं शीलवतीमनातुरां जीवद्वत्सां सुप्रतिविहिततृण-शरण207पानीयां, पात्र्याचमनीयोदकोष्ठमणिकघटपिठरपर्योग208कुम्भीकुम्भकुण्ड शरावदर्वीकटो-देञ्चनपरिपचन209मन्थानचर्मचेलसूत्रकार्पासोर्णादीनि च, शयनासनादीनि चोपन्यस्तभृङ्गार-प्रतिग्रहाणि210 सुप्रयुक्तास्तरणोत्तर प्रच्छदोपधानानि स्वापाश्रयाणि211 संवेशनोपवेशनस्नेह-स्वेदाभ्यङ्गप्रदेह परिषेकानुलेपनवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनमूत्रोच्चारकर्मणा-मुपचारसुखानि,सुप्रक्षालितोपधानाश्च212 सुश्लक्ष्णखर मध्यमा इषदः, शस्त्राणि चोपकरणार्थानि, धूमनेत्रं च, बस्तिनेत्रं च, उत्तरबस्तिकं च, कुशहस्तकं213 च, तुलां च, मानभाण्डं च, घृततैलवसामज्जक्षौद्रफाणितलवणेन्धनोदकमधुसीधुसुरासौवीरक तुषोदकमैरेयमेदकदधि-मण्डोदश्विद्धान्याम्लमूत्राणि च, तथा शालिषष्टिकमुद्गमाषयवतिलकुलत्थबदर मृद्वीकाकाश्मर्यपरूषकाभयामलक बिभीतकानि, नानाविधानि च स्नेहस्वेदोपकरणानि द्रव्याणि, तथैवोर्ध्वहरानुलोमिकोभयभागिक214संग्रहणीयदीपनीयपाचनीयोपशमनीयवातहराणि समाख्यातानिचौषधानि; यच्चान्यदपि किंचिद्व्यापदः परिसंख्याय प्रतीकारार्थमुपकरणं विद्यात्, यच्च प्रतिभोगार्थं, तत्तदुपकल्पयेत्॥ ७ ॥
ततस्तं पुरुषं यथोक्ताभ्यां स्नेहस्वेदाभ्यां यथार्हमुपपादयेत्। तं चेदस्मिन्नन्तरे215 मानसः शारीरो वा व्याधिः कश्चित्तीव्रतरः सहसाभ्यागच्छेत्तमेव तावदस्योपावर्तयितुं यतेत। ततस्तमुपावर्त्यतावन्तमेवैनं कालं तथाविधेनैव कर्मणोपाचरेत्॥ ८॥
ततस्तं पुरुषं स्नेहस्वेदोपपन्नमनुपहतमनसमभिसमीक्ष्य सुखोषितं प्रजीर्णभक्तं शिरःस्नातमनुलिप्त गात्रं स्रग्विणमनुपहतवस्त्रसंवीतं देवताग्निद्विजगुरुवृद्धवैद्यानर्चितवन्तं, इष्टे नक्षत्रतिथिकरणमुहूर्ते216 कारयित्वा ब्राह्मणान् स्वस्तिवाचनप्रयुक्ताभिराशीर्भिरभिमन्त्रितां मधुमधुकसैन्धवफाणितोपहितां मदनफलकषायमात्रां पाययेत्॥ ९ ॥
मदनफलकषायमात्राप्रमाणं तु खलु सर्वसंशोधनमात्राप्रमाणानि च प्रतिपुरुषमपेक्षितव्यानि भवन्ति; यावद्धि यस्य संशोधनं पीतं वैकारिकदोषहरणायोपपद्यते न चातियोगायोगाय, तावदस्य मात्राप्रमाणं वेदितव्यं भवति॥ १० ॥
पीतवन्तं तु खल्वेनं मुहूर्तमनुकाङ्क्षेत्।तस्य यदा जानीयात्स्वेदप्रादुर्भावेण दोषं प्रविलयन- मापद्यमानं, लोमहर्षेण च स्थानेभ्यः प्रचलितं, कुक्षिसमाध्मापनेन च कुक्षिमनुगतं217, हृल्लासास्यस्रवणाभ्यामपि चोतोर्ध्वमुखीभूतं, अथास्मै जानुसममसंबाधं सुप्रयुक्तास्तरणोत्तरप्रच्छदोपधानं सोपाश्रय218मासनमुपवेष्टुं प्रयच्छेत्॥ ११ ॥
प्रतिग्रहांश्चो219पचारयेत्—ललाटप्रतिग्रहे पार्श्वोपग्रहणे नाभिप्रपीडने पृष्ठोन्मर्दने चानपत्रपणीयाः सुहृदोऽनुमता220श्च प्रयतेरन्॥ १२ ॥
अथैनमनुशिष्यात्—विवृतौष्ठतालुकण्ठो नातिमहता व्यायामेनवेगानुदीर्णानुदीरयन् किंचिदवनम्य ग्रीवामूर्ध्वशरीरं चोपवेगमप्रवृत्तान् प्रवर्तयन् सुपरिलिखित221नखाभ्यामङ्गुलीभ्यामुत्पलकुमुदसौगन्धिकनालैर्वा कण्ठमनभिस्पृशन्222 सुखं प्रवर्तयस्वेति स तथा कुर्यात्॥१३॥ ततोऽस्य वेगान् प्रतिग्रहगतानवेक्षेत वैद्यः; वेगविशेषदर्शनाद्धिकुशलो योगायोगातियोगविशेषा नुपलभते, वेगविशेषदर्शी पुनः कृत्यं यथार्हमवबुध्येत लक्षणेन; तस्माद्वेगानवेक्षेतावहितः॥१४॥
तत्रामून्ययोगयोगातियोगविशेषज्ञानानि भवन्ति; तद्यथा—अप्रवृत्तिः कुतश्चित्223, केवलस्य वाऽप्यौषधस्य विभ्रंशो, विबन्धो वा वेगानामयोगलक्षणानि भवन्ति; काले प्रवृत्तिरनतिमहती व्यथा यथाक्रमं224 दोषहरणं स्वयं चावस्थानमिति योगलक्षणानि भवन्ति, योगेन तु दोषप्रमाणविशेषेण तीक्ष्णमृदुमध्यविभागो ज्ञेयः; योगाधिक्येन तु फेनिलरक्तचन्द्रिकोपगमन225मित्यतियोगलक्षणानि भवन्ति।
तत्रातियोगायोगनिमित्तानिमानुपद्रवान् विद्यात्—आध्मानं परिकर्तिका परिस्नावो हृदयोपसरणमङ्गग्रहो जीवादानं विभ्रंशः स्तम्भः क्लम उपद्रवा इति॥१५॥
योगेन तु खल्वेनं छर्दितवन्तमभिसमीक्ष्य सुप्रक्षालितपाणिपादास्यंमुहूर्तमाश्वास्य, स्नैहिकवैरेचनिकोपशमनीयानां धूमानामन्यतमं सामर्थ्यतः226 पाययित्वा, पुनरेवोदकमुपस्पर्शयेत्।उपस्पृष्टोदकं चैनं निवातमागारमनुप्रवेश्य संवेश्य चानुशिष्यात्—सौम्य ! उच्चैर्भाष्यमत्यासनमतिस्थानमतिचङ्क्रमणं क्रोध शोकहिमातपावश्यायातिप्रवातान् यानयानं ग्राम्यधर्ममस्वपनं निशिदिवा स्वप्नं विरुद्धाजीर्णासात्म्याकालप्रमितातिहीनगुरुविषमभोजनं227 वेगसंधारणोदीरणमिति भावानेतान् मनसाऽप्यसेवमानः सर्वमहो228 गमयस्वेति। स तथा कुर्यात्॥ १६ ॥
अथैनं सायाह्ने परे वाऽह्नि सुखोदकपरिषिक्तं पुराणानां लोहितशालितण्डुलानां स्ववक्लिन्नानां मण्डपूर्वा सुखोष्णां यवागूं पाययेदग्निबलमभिसमीक्ष्य, एवं द्वितीये तृतीये चान्नकाले; चतुर्थे त्वन्नकाले तथाविधानामेव शालितण्डुलानामुत्स्विन्नां विलेपीमुष्णोदकद्वितीयामस्नेहलवणामल्पस्नेहलवणां वा भोजयेत्, एवं पञ्चमे षष्ठे चान्नकाले;सप्तमे त्वन्नकाले तथाविधानामेव शालीनां द्विप्रसृतं सुस्विन्नमोदनमुष्णोदकानुपानं तनुना तनुस्नेहलवणोपपन्नेन मुद्गयूषेण भोजयेत्, एवमष्टमे नवमे चान्नकाले; दशमे त्वन्नकाले लावक पिञ्जलादीनामन्यतमस्य मांसरसेनौदकलावणिकेन नातिसारवता भोजयेदुष्णोदकानुपानं, एवमेकादशे द्वादशे चान्नकाले; अत ऊर्ध्वमन्नगुणान् क्रमेणोपभुञ्जानः सप्तरात्रेण प्रकृतिभोजनमागच्छेत्॥ १७ ॥
अथैनं पुनरेव स्नेहस्वेदाभ्यामुपपाद्यानुपहतमनसमभिसमीक्ष्य सुखोषितं सुप्रजीर्णभक्तं कृतहोमबलिमङ्गलजपप्रायश्चित्तमिष्टे तिथिनक्षत्रकरणमुहूर्ते ब्राह्मणान् स्वस्ति वाचयित्वा त्रिवृत्कल्कमक्षमात्रं यथार्हालोडनप्रतिविनीतं229 पाययेत् प्रसमीक्ष्य दोषभेषजदेशकालबलशरीराहारा सात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणि विकारांश्च। सम्यग्विरिक्तं चैनं वमनान्तरोक्तेन230 धूमवर्जेन विधिनोपपादयेदाबलवर्णप्रतिलाभात्। बलवर्णोपपन्नंचैनमनुपहतमनसमभिसमीक्ष्य सुखोषितं सुप्रजीर्णभक्तं शिरःस्नातमनुलिप्तगात्रं स्रग्विणमनुपहतवस्त्रसंवीतमनुरूपालङ्कारालङ्कृतं सुहृदां दर्शयित्वा ज्ञातीनां दर्शयेत् अथैनं कामेष्ववसृजेत्॥ १८ ॥
भवन्ति चात्र।
अनेन विधिना राजा राजमात्रोऽथवा पुनः।
यस्य वा विपुलं द्रव्यं स संशोधनमर्हति॥ १९ ॥
दरिद्रस्त्वापदं प्राप्य प्राप्तकालं विरेचनम्231।
पिबेत् काममसंभृत्य संभारानपि दुर्लभान्॥ २० ॥
न हि सर्वमनुष्याणां सन्ति सर्वे परिच्छदाः।
न च रोगा न बाधन्ते दरिद्वानपि दारुणाः॥ २१ ॥
यद्यच्छक्यं मनुष्येण कर्तुमौषधमापदि।
तत्तत् सेव्यं यथाशक्ति वसनान्यशनानि च॥ २२ ॥
मलापहं रोगहरं बलवर्णप्रसादनम्।
पीत्वा संशोधनं सम्यगायुषा युज्यते चिरम्॥ २३ ॥
तत्र श्लोकाः।
ईश्वराणां वसुमतां वमनं सविरेचनम्।
संभारा ये यदर्थं च समानीय प्रयोजयेत्॥ २४ ॥
यथा प्रयोज्या या मात्रा यदयोगस्य लक्षणम्।
योगातियोगयोर्यच्च दोषा ये चाप्युपद्रवाः॥ २५ ॥
यदसेव्यं विशुद्धेन यश्च संसर्जनक्रमः।
तत् सर्वं कल्पनाध्याये व्याजहार पुनर्वसुः॥ २६ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने कल्पनाचतुष्के
उपकल्पनीयो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
षोडशोऽध्यायः।
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अथातश्चिकित्साप्राभृतीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥ २ ॥
चिकित्साप्राभृतो232 धीमाञ्छास्त्रवान् कर्मतत्परः।
नरं विरेचयति यं स योगात् सुखमश्नुते॥ ३ ॥
यं वैद्यमानी त्वबुधो विरेचयति मानवम्।
सोऽतियोगादयोगाद्वा मानवो दुःखमश्नुते॥ ४ ॥
दौर्बल्यं लाघवं ग्लानिर्व्याधीनामणु (ल्प) ता रुचिः।
हृद्वर्णशुद्धिः क्षुत्तृष्णा काले वेगप्रवर्तनम्॥ ५ ॥
बुद्धीन्द्रियमनःशुद्धिर्मारुतस्यानुलोमता।
सम्यग्विरिक्तलिङ्गानि कायाग्नेश्चानुवर्तनम्233॥ ६॥
ष्ठीवनं हृदयाशुद्धिरुत्क्लेशः श्लेष्मपित्तयोः।
आध्मानमरुचिश्छार्दिरदौर्बल्यमलाघवम्॥७॥
जङ्घोरुसदनं तन्द्रा स्तैमित्यं पीनसागमः।
लक्षणान्यविरिक्तानां मारुतस्य च निग्रहः॥ ८ ॥
विट्पित्तश्लेष्मवातानामागतानां यथाक्रमम्।
परं स्रवति यद्रक्तं मेदोमांसोदकोपमम्॥ ९ ॥
निःश्लेष्मपित्तमुदकं शोणितं कृष्णमेव वा।
तृष्यतो मारुतार्तस्य सोऽतियोगः प्रमुह्यतः॥ १० ॥
वमनेऽतिकृते लिङ्गान्येतान्येव भवन्ति हि।
ऊर्ध्वगा वातरोगाश्च वाग्ग्रहश्चाधिको भवेत्॥ ११ ॥
चिकित्साप्राभृतं तस्मादुपेयाच्छरणं नरः।
युञ्ज्याद्य एनमत्यन्तमायुषा च सुखेन च॥ १२ ॥
अविपाकोऽरुचिः स्थौल्यं पाण्डुता गौरवं क्लमः।
पिडकाकोठकण्डूनां संभवोऽरतिरेव च॥ १३ ॥
आलस्य श्रमदौर्बल्यं दौर्गन्ध्यमवसादकः।
श्लेष्मपित्तसमुत्क्लेशो निद्रानाशोऽतिनिद्रता॥ १४ ॥
तन्द्रा क्लैब्यमबुद्धित्वमशस्तस्वप्नदर्शनम्।
बलवर्णप्रणाशश्च तृप्यतो बृंहणैरपि॥ १५ ॥
बहुदोषस्य लिङ्गानि, तस्मै संशोधनं हितम्।
ऊर्ध्वं चैवानुलोम्यं234 च यथादोषं यथाबलम्॥ १६ ॥
एवं विशुद्धकोष्ठस्य कायाग्निरभिवर्धते।
व्याधयश्चोपशाम्यन्ति प्रकृतिश्चानुवर्तते॥ १७ ॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिर्वर्णश्चास्य प्रसीदति।
बलं पुष्टिरपत्यं च वृषता चास्य जायते॥ १८ ॥
जरां कृच्छ्रेण लभते चिरं जीवत्यनामयः।
तस्मात् संशोधनं काले युक्तियुक्तं पिबेन्नरः॥ १९ ॥
दोषाः कदाचित् कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः।
जिताः संशोधनैर्ये तु न तेषां पुनरुद्भवः॥ २० ॥
दोषाणां च द्रुमाणां च मूलेऽनुपहते सति।
रोगाणां प्रसवानां235 च गतानामागतिर्ध्रुवा॥ २१ ॥
भेषजक्षपिते236 पथ्यमाहारैरेव बृंहणम्।
घृतमांसरसक्षीरहृद्ययूषोपसंहितैः॥ २२ ॥
अभ्यङ्गोत्सादनैः स्नानैर्निरूहै : सानुवासनैः।
तथा स लभते शर्म युज्यते चायुषा चिरम्॥ २३ ॥
अतियोगानुबद्धानां सर्पिःपानं प्रशस्यते।
तैलं मधुरकैः237 सिद्धमथवाऽप्यनुवासनम्॥ २४ ॥
यस्य त्वयोगस्तं स्निग्धं पुनः संशोधयेन्नरम्।
मात्राकालबलापेक्षी स्मरन् पूर्वमनुक्रमम्238॥ २५ ॥
स्नेहने स्वेदने शुद्धौ रोगाः संसर्जने च ये।
जायन्तेऽमार्गविहिते तेषां सिद्धिषु साधनम्॥ २६ ॥
जायन्ते239 हेतुवैषम्याद्विषमा देहधातवः।
हेतुसाम्यात् समास्तेषां स्वभावोपरमः सदा॥२७॥
प्रवृत्तिहेतुर्भावानां न निरोधेऽस्ति कारणम्।
केचित्तत्रापि मन्यन्ते हेतुं हेतोरवर्तनम्॥२८॥
एवमुक्तार्थमाचार्यमग्निवेशोऽभ्यभाषत।
स्वभावोपरमे कर्म चिकित्साप्राभृतस्य किम्॥२९॥
भेषजैर्विषमान् धातून् कान्समीकुरुते240 भिषक्।
का वा चिकित्सा भगवन् किमर्थं वा प्रयुज्यते॥३०॥
तच्छिष्यवचनं श्रुत्वा व्याजहार पुनर्वसुः।
श्रूयतामत्र या सौम्य युक्तिर्दृष्टा महर्षिभिः॥३१॥
न241नाशकारणाभावाद्भावानांनाशकारणम्।
ज्ञायते नित्यगस्येव कालस्यात्ययकारणम्॥३२॥
हेतुवैषम्यात्तेषामुत्पत्तौ स्थितौ च हेतूनां वैषम्याद्वृद्धिहान्यन्यतरस्माद्विषमाजायन्ते, तथा देहधातूनां ये हेतवस्तेषां साम्याद्वृद्धिहासव्यतिरेकावस्थायामवस्थानात्ते देहधातवः समा जायन्ते, तयोर्देहधातुसाम्य वैषम्ययोः सदैवाविरतं स्वभावोपरमः स्वभावस्य स्वस्य धर्मस्य रूपस्य चोपरमो नाशो भवति। तत्र भावानां स्वस्वधर्माणां स्वस्वरूपाणां च सदैवाविरतप्रवृत्तौ हेतुरस्ति, सदैवाविरतनिरोधे विनाशे कारणं नास्तीत्यकरणं प्रतिक्षणं भङ्गः स्यादिति। तत्र केचिन्महर्षयो भावानां स्वभावोपरमेऽविरत निरोधेहेतोरवर्तनं हेतुर्नास्तीति यदेव हेतोरभावस्तमेव भावानां सदा स्वभावो परमे हेतुं मन्यन्ते’ गङ्गाधरः। ‘तेषामितिविषमाणां धातूनां समानां च, सदेत्यविलम्बेन, तेनोत्पन्न एव विनश्यतीत्यर्थः। प्रवृत्तिहेतुरुत्पत्तिहेतुर्भावानामस्ति, विनाशे हेतुर्भावानां कारणं नास्ति, यस्मात्सर्व एव भावाः प्रदीपार्चिर्वदुत्पत्तौ कारणापेक्षिणः, विनाशे तु द्वितीयक्षणाविद्यमानत्वलक्षणे सहजसिद्धे न हेत्वन्तरमपेक्षन्ते’ चक्रः।
शीघ्रगत्वाद्यथाभूतस्तथा भावो विपद्यते।
निरोधे कारणं तस्य नास्ति नैवान्यथाक्रिया॥३३॥
याभिः क्रियाभिर्जायन्ते शरीरे धातवः समाः।
सा चिकित्सा विकाराणां कर्म तद्भिषजां स्मृतम्॥३४॥
कथं शरीरे धातूनां वैषम्यं न भवेदिति।
समानां चानुबन्धः स्यादित्यर्थंक्रियते क्रिया॥३५॥
त्यागाद्विषमहेतूनां समानां चोपसेवनात्।
विषमा नानुबध्नन्ति जायन्ते धातवः समाः॥३६॥
समैस्तु हेतुभिर्यस्माद्धातून् संजनयेत् समान्।
चिकित्साप्राभृतस्तस्माद्दाता देहसुखायुषाम्॥३७॥
धर्मस्यार्थस्य कामस्य नृलोकस्योभयस्य च।
दाता संपद्यते वैद्यो दानाद्देहसुखायुषाम्॥३८॥
————————————————————————————————————-
भ्यते, कस्मात्? नाशकारणाभावात्। यथा नित्यगस्य कालस्य सदाऽत्ययोऽनवरतमतीतत्वं ज्ञायते तस्यात्ययस्य कारणं न ज्ञायते शीघ्रगत्वात्, यथा कालस्वभावो हि चक्रवद्भ्रमणात्मकत्वाच्छीघ्रगस्तथा भावानां स्वभावोऽपि शीघ्रगः; नाशकारणाभावो न नाशकारणं, तर्हिकथं भावानां स्वभावोपरमः स्यादित्यत आह-शीघ्रेत्यादि। यो भावो यदा यथाभूतोवर्तते तथात्वेनोत्तरावस्थामारभ्य पूर्वावस्थातो विपद्यते, तत्र पूर्वावस्थाया निरोधे कारणं नास्ति न चतन्निरोधेऽन्यथाक्रिया पूर्वभावादन्यथा क्रियोत्तरास्ववस्थास्वस्ति। यथाहेतुवैषम्याद्धातवो वातादयो विषमा भवन्ति विषमा एवोत्तरावस्थां तत्पूर्वावस्थिकविषमरूपेणैवारभ्यपूर्वावस्थविषमस्वभावनाशमुपयान्ति,नतु विषमस्वभावनाशं प्राप्योत्तरावस्थां साम्यस्वभावेनारभन्ते,तस्मात्प्रवृत्तौ खलु भावानां हेतुरस्ति न निरोधे’ गङ्गाधरः। ‘एवं मन्यते यद्यपि धातुवैषम्यं विनश्वरं, तथाऽपि विनश्यदपि तद्धातुवैषम्यं स्वकार्ये विषममेव धातुमारभते, एवं सोऽप्यपरं विषममिति न धातुवैषम्यसन्ताननिवृत्तिः धातुसाम्यजनकहेतुं विना, यदा तु धातुसाम्यहेतुरुपयुक्तो भवति, तदा तेन सहितं वैषम्यसन्ततिरहितमपि कारणं सममेव धातुसन्तानमारभते’ चक्रः।
—————————————————————————————————————————
चिकित्साप्राभृतगुणो दोषो यश्चेतराश्रयः।
योगायोगातियोगानां लक्षणं शुद्धिसंश्रयम्॥३९॥
बहुदोषस्य लिङ्गानि संशोधनगुणाश्च ये।
चिकित्सासूत्रमात्रं च सिद्धिव्यापत्तिसंश्रयम्॥४०॥
या च युक्तिश्चिकित्सायां यं चार्थंकुरुते भिषक्।
चिकित्साप्रभृतेऽध्याये तत् सर्वमवदन्मुनिः॥४१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने कल्पनाचतुष्के
चिकित्साप्राभृतीयो नाम षोडशोऽध्यायः समाप्तः॥१६॥
इति कल्पनाचतुष्कश्चतुर्थः॥४॥
सप्तदशोऽध्यायः।
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अथातः कियन्तःशिरसीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
कियन्तः शिरसि प्रोक्ता रोगा हृदि च देहिनाम्॥३॥
कति चाप्यनिलादीनां242 रोगा मानविकल्पजाः।243
क्षयाः कति समाख्याताः पिडकाः कति चानघ244॥४॥
गतिः कतिविधा चोक्ता दोषाणां दोषसूदन।
हुताशवेशस्य वचस्तच्छ्रुत्वा गुरुरब्रवीत्॥५॥
पृष्टवानसि यत् सौम्य तन्मे शृणु सुविस्तरम्।
दिष्टाः245पञ्च शिरोरोगाः पञ्चैव हृदयामयाः॥६॥
व्याधीनां व्द्यधिका षष्टिर्दोषमानविकल्पजाः।
दशाष्टौ च क्षयाः सप्त पिडका माधुमेहिकाः॥७॥
दोषाणां त्रिविधा चोक्ता गतिर्विस्तरतः246 शृणु।
संधारणाद्दिवास्वप्नाद्रात्रौजागरणान्मदात्॥८॥
उच्चैर्भाष्यदवश्यायात् प्राग्वातादतिमैथुनात्।
गन्धादसात्म्यादाघाता247द्रजोधूमहिमातपात्॥९॥
गुर्वम्लहरितादानादतिशीताम्बुसेवनात्।
शिरोभितापाद्दुष्टामाद्रोदनाद्वाष्पनिग्रहात्॥१०॥
मेघागमान्मनस्तापाद्देशकालविपर्ययात्।
वातादयः प्रकुप्यन्ति शिरस्यत्रं च दुष्यति॥११॥
ततः शिरसि जायन्ते रोगा विविधलक्षणाः।
प्राणाः प्राणभृतां यत्र श्रिताः सर्वेन्द्रियाणि च॥१२॥
यदुत्तमाङ्गमङ्गानां शिरस्तदभिधीयते।
अर्धावभेदको वा स्यात् सर्वं वा रुज्यते शिरः॥१३॥
प्रतिश्यामुखनासाक्षिकर्णरोगशिरोभ्रमाः।
अर्दितं शिरसः कम्पो गलमन्याहनुग्रहः॥१४॥
विविधाश्चापरे रोगा वातादिक्रिमिसंभवाः।
पृथग्दिष्टास्तु248 ये पञ्च संग्रहे परमर्षिभिः॥१५॥
शिरोगदांस्ताञ्छृणु मे यथास्वैर्हेतुलक्षणैः।
उच्चैर्भाष्यातिभाष्याभ्यां तीक्ष्णपानात्249 प्रजागरात्॥१६॥
शीतमारुतसंस्पर्शाव्द्यावाया250द्वेगनिग्रहात्।
उपवासादभीघाताद्विरेकाद्वमनादति॥१७॥
बाष्पशोकभयत्रासाद्भारमार्गातिकर्शनात्।
शिरोगताः सिरा251वृद्धो वायुराविश्य कुप्यति॥१८॥
ततः शूलं महत्तस्य वातात् समुपजायते।
निस्तुद्येते भृशं शङ्खौघाटा252 संभिद्यते तथा॥१९॥
संभ्रूमध्यं253ललाटं च तपतीवातिवेदनम्।
वध्येते254 स्वनतः श्रोत्रे निष्कृष्येते इवाक्षिणी॥ २० ॥
घूर्णतीवशिरः सर्वं संधिभ्यइव मुच्यते।
स्फुरत्यतिसिराजालं स्तभ्यते च शिरोधरा॥ २१ ॥
स्निग्धोष्णमुपशेते च शिरोरोगेऽनिलात्मके।
कट्वम्ललवणक्षारमद्यक्रोधातपानलैः॥ २२ ॥
पित्तं शिरसि संदुष्टं शिरोरोगाय कल्पते।
दह्यते रुज्यते तेन शिरः शीतं255 सुषूयते॥ २३ ॥
दह्येते चक्षुषी तृष्णा भ्रमः स्वेदश्च जायते।
आस्यासुखैः स्वप्नसुखैर्गुरुस्निग्धातिभोजनैः॥ २४ ॥
श्लेष्मा शिरसि संदुष्टः शिरोरोगाय कल्पते।
शिरो मन्दरुजं तेन सुप्तस्तिमितभारिकम्॥ २५ ॥
भवत्युत्पद्यते तन्द्रा तथाऽऽलस्यमरोचकः।
वाताच्छूलं भ्रमः कम्पः पित्ताद्दाहो मदस्तृषा॥ २६ ॥
कफाद्गुरुत्वं तन्द्रा च शिरोरोगे त्रिदोषजे।
तिलक्षीरगुडाजीर्णपूतिसंकीर्णभोजनात्॥ २७ ॥
क्लेदोऽसृक्कफमांसानां दोषलस्योपजायते।
ततः शिरसि संक्लेदात् क्रिमयः पापकर्मणः॥ २८ ॥
जनयन्ति शिरोरोगं जाता बीभत्सलक्षणम्।
व्यधच्छेदरुजाकण्डूशोफदौर्गन्ध्यदुःखितम्256॥ २९ ॥
क्रिमिरोगातुरं विद्यात् क्रिमीणां लक्षणेन257च।
शोकोपवासव्यायामशुष्करूक्षाल्पभोजनैः258॥ ३० ॥
वायुराविश्य हृदयं जनयत्युत्तमां रुजम्।
वेपथुर्वेष्टनं स्तम्भः प्रमोहः शून्यता दरः259॥ ३१ ॥
हृदि वातातुरे रूपं जीर्णे चात्यर्थवेदना।उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनैः॥३२॥
मद्यक्रोधातपैश्चाशु हृदि पित्तं प्रकुष्यति।
हृद्दाहस्तितक्तता वक्रे तिक्ताम्लोद्गिरणं260 क्लमः॥३३॥
तृष्णा मूर्च्छा भ्रमः स्वेदः पित्तहृद्रोगलक्षणम्।
अत्यादानं गुरु स्निग्धमचिन्तनमचेष्टनम्॥३४॥
निद्रासुखं चाप्यधिकं कफहृद्रोगकारणम्।
हृदयं कफहृद्रोगे सुप्तं स्तिमितभारिकम्॥३५॥
तन्द्रारुचिपरीतस्य भवत्यश्मावृतं यथा।
हेतुलक्षणसंसर्गादुच्यते सान्निपातिकः॥३६॥
हृद्रोगः261 कष्टदः कष्टसाध्य उक्तो महर्षिभिः।
त्रिदोषजे तु हृद्रोगे यो दुरात्मा निषेवते॥३७॥
तिलक्षीरगुडादीनि ग्रन्थिस्तस्योपजायते।
मर्मैकदेशे संक्लेदं रसश्चास्योपगच्छति॥३८॥
संक्लेदात् क्रिमयश्चास्य भवन्त्युपहतात्मनः।
मर्मैकदेशे संजाताः262 सर्पन्तो भक्षयन्ति च॥३९॥
तुद्यमानं स हृदयंं सूचीभिरिव मन्यते।
छिद्यमानं यथा शस्त्रैर्जातकण्डूं महारुजम्॥४०॥
हृद्रोगं क्रिमिजं त्वेतैर्लिङ्गैर्बुद्ध्वासुदारुणम्।
त्वरेत जेतुं तं विद्वान् विकारं शीघ्रकारिणम्॥४१॥
व्द्युल्बणैकोल्बणैः षट् स्युर्हीनमध्याधिकैश्च षट्।
समैश्चैको विकारास्ते सन्निपातास्त्रयोदश॥४२॥
संसर्गे नव षट्263 तेभ्य एकवृद्ध्या समैस्त्रयः264।
पृथक् त्रयश्च तैर्वृद्धैर्व्याधयः पञ्चविंशतिः॥४३॥
यथा वृद्धैस्तथा क्षीणैर्दोषैः स्युः पञ्चविंशतिः।
वृद्धिक्षयकृतश्चान्यो विकल्प उपदेक्ष्यते265॥४४॥
वृद्धिरेकस्यसमता चैकस्यैकस्य संक्षयः।
द्वन्द्ववृद्धिः क्षयश्चैकस्यैकवृद्धिर्द्वयोः क्षयः॥४॥
प्रकृतिस्थं यदा पित्तं मारुतः श्लेष्मणः क्षये।
स्थानादादाय गात्रेषु यत्र यत्र विसर्पति॥४६॥
तदा भेदश्च दाहश्च तत्र तत्रानवस्थितः।
गात्रदेशे भवत्यस्य266 श्रमो दौर्बल्यमेव च॥४७॥
साम्ये267 स्थितं कफंवायुः क्षीणे पित्ते यदा बली।
कर्षेत् कुर्यात्तदा शूलं सशैत्यस्तम्भगौरवम्268॥४८॥
यदाऽनिलं269 प्रकृतिगं पित्तं कफपरिक्षये।
संरुणद्धि तदा दाहः शूलं चास्योपजायते॥४९॥
श्लेष्माणं हि समं270 पित्तं यदा वातपरिक्षये।
निपीडयेत्तदा271 कुर्यात् सतन्द्रागौरवं ज्वरम्॥५०॥
प्रवृद्धो हि यदा श्लेष्मा पित्ते क्षीणे समीरणम्272।
रुन्ध्यत्तदा प्रकुर्वीत273 शीतकं गौरवं रुजम्274॥५१॥
समीरणे परिक्षीणे कफः पित्तं समत्वगम्275।
कुर्वीत संनिरुन्धानो273 मृदुग्नित्वं शिरोग्रहम्॥५२॥
निद्रां तन्द्रां प्रलापं च हृद्रोगं गात्रगौरवम्।
नखादीनां च पीतत्वं ष्टीवनं कफपित्तयोः॥५३॥
हीनवातस्य तु श्लेष्मा पित्तेन सहितश्चरन्।
करोत्यरोचकापाकौसदनं276 गौरवं तथा॥५४॥
हृल्लासमास्यस्णवणं दूयनं277 पाण्डुतां मदम्।
विरेकस्य च वैषम्यं वैषम्यमनलस्य च॥५५॥
क्षीणपित्तस्य278 तु श्लेष्मा मारुतेनोपसंहितः।
स्तम्भं शैत्यं च तोदं च जनयत्यनवस्थितम्॥५६॥
गौरवं मृदुतामग्नेर्भक्ताश्रद्धां च वेपनम्।
नखादीनां च शुक्लत्वं गात्रपारुष्यमेव च॥५७॥
मारुतस्तु कफे हीने पित्तं च कुपितं द्वयम्।
करोति यानि लिङ्गानि शृणु तानि समासतः॥५८॥
भ्रममुद्वेष्टनं तोदं दाहं स्फुटनवेपने279।
अङ्गमर्दे परीशोषं दूयनं धूपनं तथा॥५९॥
वातपित्तक्षये श्लेष्मा स्रोतांस्यपिदधद्भृशम्।
चेष्टाप्रणाशं मूर्च्छां च वाक्सङ्गं च करोति हि॥६०॥
वातश्लेष्मक्षये पित्तं देहौजः स्रंसयेच्चरत्।
ग्लानिमिन्द्रियदौर्बल्यं तृष्णां मूर्च्छां क्रियाक्षयम्॥६१॥
पित्तश्लेष्मक्षये वायुर्मर्माण्यभिनिपीडयन्।
प्रणाशयति संज्ञां च वेपयत्यथवा नरम्280॥६२॥
दोषाः प्रवृद्धाः स्वं लिङ्गं दर्शयन्ति यथाबलम्।
क्षीणा जहति लिङ्गं स्वं, समाः स्वं कर्म कुर्वते॥६३॥
वातादीनां रसादीनां मलानामोजसस्तथा।
क्षयास्तन्नानिलादीनामुक्तं संक्षीणलक्षणम्॥६४॥
घट्टते सहते शब्दं नोच्चैर्द्रवति दूयते।281
हृदयं ताम्यति स्वल्पचेष्टस्यापि रसक्षये॥६५॥
परुषा स्फुटिता म्लाना त्वग्रूक्षा रक्तसंक्षये।
मांसक्षये विशेषेण स्फिग्ग्रीवोदरशुष्कता॥६६॥
संधीनां स्फुटनं ग्लानिरक्ष्णोरायास एव च।
लक्षणं मेदसि क्षीणे तनुत्वं चोदरस्य च ॥६७॥
केशलोमनस्वश्मश्रुद्विजप्रपतनं श्रमः।
ज्ञेयमस्थिक्षये रूपं संधिशैथिल्यमेव च॥६८॥
शीर्यन्त इव चास्थीनि दुर्बलानि लघूनि च।
प्रततं वातरोगीणि क्षीणे मज्जनिदेहिनाम्॥६९॥
‘हृदये’ ग.।
दौर्बल्यं सुखशोषश्च पाण्डुत्वं सदनं श्रमंः282।
क्लैब्यंशुक्राविसर्गश्च क्षीणशुक्रस्य लक्षणम्॥७०॥
क्षीणे शकृति चास्त्राणि पीडयन्निव मारुतः।
रूक्षस्योन्नमयन् कुक्षिं तिर्यगूर्ध्वं च गच्छति॥७१॥
मूत्रक्षये मूत्रकृच्छ्रं मूत्रवैवर्ण्यमेव च।
पिपासा बाधते चास्य मुखं च परिशुष्यति॥७२॥
मलायनानि चान्यानि शून्यानि च लघूनि च।
विशुष्काणि च लक्ष्यन्ते यथास्त्रं मलसंक्षये॥७३॥
बिभेति दुर्बलोऽभीक्ष्णं ध्यायति व्यथितेन्द्रियः।
दुश्छायो दुर्मना रूक्षः क्षामश्चैवौजसः क्षये॥७४॥
हृदि तिष्ठति यच्छुद्धं283 रक्तमीषत्सपीतकम्।
ओजः शरीरे संख्यातं तन्नाशान्ना विनश्यति॥७५॥
(प्रथमे जायते ह्योजः शरीरेऽस्मिञ्छरीरिणाम्।
सर्पिर्वर्णं मधुरसं लाजगन्धि प्रजायते284॥१॥
भ्रमरैः फलपुष्पेभ्यो यथा संभ्रियते मधु।
एवमोजः स्वकर्मभ्यो गुणैः संम्रियते नृणाम्148॥२॥)
व्यायामोऽनशनं चिन्ता रूक्षाल्पप्रमिताशनम्।
वातातपौ भयं शोको रूक्षपानं प्रजागरः॥७६॥
कफशोणितशुक्राणां मलानां285 चातिवर्तनम्।
कालो भूतोपघातश्च ज्ञातव्याः क्षयहेतवः॥७७॥
गुरुस्निग्धाम्ललवणं286 भजतामतिमात्रशः।
नवमन्नं च पानं च निद्रामास्यासुखानि च॥७८॥
त्यक्तव्यायामचिन्तानां संशोधनमकुर्वताम्।
श्लेष्मा पित्तं च मेदश्व मांसं चातिप्रवर्धते॥७९॥
तैरावृतगतिर्वायुरोज आदाय गच्छति287।
यदा बस्तिंतदा कृच्छ्रो मधुमेहः प्रवर्तते॥८०॥
समारुतस्य पित्तस्य कफस्य च मुहुर्मुहुः।
दर्शयत्याकृतिं गत्वा क्षयमाप्यय्यते पुनः॥८१॥
उपेक्षयाऽस्य जायन्ते288 पिडकाः सप्त दारुणाः।
मांसलेष्ववकाशेषु मर्मस्वपि च संधिषु॥८२॥
शराविका कच्छपिका जालिनी सर्षपी तथा।
अलजी विनताख्या च विद्रधी चेति सप्तमी॥८३॥
अन्तोन्नता मध्यनिम्ना श्यावा क्लेदरुगन्विता।
शराविका स्यात् पिडका शरावाकृतिसंस्थिता॥८४॥
अवगाढार्तिनिस्तोदा महावास्तुपरिग्रहा।
श्लक्ष्णा कच्छपपृष्ठाभा पिडका कच्छपी मता॥८५॥
स्तब्धा सिराजालवती स्निग्धस्रावा महाशया।
रुजानिस्तोदबहुला सूक्ष्मच्छिद्रा च जालिनी॥८६॥
पिडका नातिमहता क्षिप्रपाका महारुजा।
सर्षपी सर्षपाभाभिः पिडकाभिश्चिता भवेत्॥८७॥
दहति त्वचमुत्थाने तृष्णामोहज्वरप्रदा।
विसर्पत्यनिशं दुःखाद्दहत्य289ग्निरिवालजी॥८८॥
अवगाढरुजाक्लदापृष्ठे वाऽप्युदरेऽपि वा।
महती विनता नीला पिडका विनता मता॥८९॥
विद्रधिं द्विविधामाहुर्बाह्यामाभ्यन्तरीं तथा।
बाह्या त्वक्स्नायुमांसोत्था कण्डराभा290 महारुजा॥९०॥
शीतकान्नविदाह्युष्णरूक्षशुष्कातिभोजनात।
विरुद्धाजीर्णसंक्लिष्टविषमा291सात्म्यभोजनात्॥९१॥
व्यापन्नबहुमद्यत्वाद्वेगसंधारणाच्छ्रमात्।
जिह्मव्यायामशयनादतिभाराध्वमैथुनात्॥९२॥
अन्तःशरीरे मांसासृग् प्रविशन्ति यदा मलाः।
तदा संजायते ग्रन्थिर्गम्भीरस्थः सुदारुणः॥९३॥
हृदये क्लोम्नियकृति प्लीह्नि कुक्षौ च वृक्कयोः।
नाभ्यां बङ्क्षणयोर्वाऽपि बस्तौ वा तीव्रवेदनः॥९४॥
दुष्टरक्तातिमात्रत्वात् स वै शीघ्रं विदह्यते।
ततः शीघ्रविदाहित्वाद्विद्रधीत्यभिधीयते॥१५॥
व्यधच्छेदभ्रमानाहशब्दस्फुरणसर्पणैः।
वातिकीं, पैत्तिकीं तृष्णादाहमोहमदज्वरैः॥१६॥
जृम्भोत्क्लेशारुचिस्तम्भशीतकैः श्लैष्मिकीं विदुः।
सर्वांस्वासु महच्छूलं विद्रधीषूपजायते॥९७॥
शस्त्रास्त्रैर्भिद्यत इव चोल्मुकैरिव292 दह्यते।
विद्रधी व्यम्लतां293 याता वृश्चिकैरिव दश्यते॥१८॥
तनु रूक्षारुणं श्यावं294 फेनिलं वातविद्रधी।
तिलमाषकुलत्थोदसंनिभं पित्तविद्रधी॥१९॥
श्लैष्मिकी स्रवति श्वेतं बहलं पिच्छिलं बहु।
लक्षणं सर्वमेवैतद्भजते सान्निपातिकी॥१००॥
** अथासां विद्रधीनां साध्यासाध्यत्वविशेषज्ञानार्येस्थानकृतं ‘लिङ्गविशेषमुपदेक्ष्यामः—तत्र प्रधानमर्मजायां295 विद्रध्यां हृद्धट्टनतमकप्रमोहकासाः, क्लोमजायां पिपासामुखशोषगलग्रहाः, यकृज्जायां श्वासः, प्लीहजायामुच्छ्वासोपरोधः, कुक्षिजायां कुक्षिपार्श्वान्तरांसशूलं, वृक्कजायां पार्श्वपृष्ठकटिग्रहः, नाभिजायां हिक्का, बङ्क्षणजायां सक्थिसादः, बस्तिजायां कृच्छ्रपूतिमूत्रवर्चस्त्वं296 चेति॥१०१॥
पक्कप्रभिन्नासूर्ध्वजासु मुखात् स्रावः स्रवति, अधोजासु गुदात्, उभयतस्तु नाभिजासु॥१०२॥ **
** आसां हृन्नाभिबस्तिजाः परिपक्वाः सान्निपातिकी चमरणाय, शेषाः पुनः कुशलमाशु प्रतिकारिणं चिकित्सकमासाद्योपशाम्यन्ति;**
तस्मादचिरोत्थितां विद्रधिं शस्त्रसर्पविद्युग्नितुल्यंस्नेहस्वेदविरेचनै राश्वोवोपक्रमेत सर्वशो गुल्मवच्चेति॥१०३॥
भवन्ति चात्र।
विना प्रमेहमप्येता जायन्ते दुष्टमेदसः।
तावच्चैता न लक्ष्यन्ते यावद्वास्तुपरिग्रहः॥१०४॥
शराविका कच्छपिका जालिनी चेति दुःसहाः।
जायन्ते ता ह्यतिबलाः प्रभूतश्लेष्ममेदसाम्297॥१०५॥
सर्षपी चालजी चैव विनता विद्रधी च याः।
साध्याः पित्तोल्बणास्ता हि संभवन्त्यल्पमेदसाम्298॥१०६॥
मर्मस्वंसे गुदे पाण्योः स्तने299 संधिषु पादयोः।
जायन्ते यस्य पिडकाःस प्रमेही न जीवति॥१०७॥
तथाऽन्याः पिडकाः सन्ति रक्तपीतासितारुणाः।
पाण्डुराः पाण्डुवर्णाश्च भस्माभा मेचकप्रभाः॥१०८॥
मृब्द्यश्च कठिनाश्चान्याः स्थूलाः सूक्ष्मास्तथाऽपराः।
मन्दवेगा महावेगाःस्वल्पशूला महारुजाः॥१०९॥
ता बुद्ध्वामारुतादीनां यथास्वैर्हेतुलक्षणैः300।
ब्रूयादुपाचरेच्चाशु प्रागुपद्रवदर्शनात्॥११०॥
तृट्श्वासमांससंकोथ301मोहहिक्कामदज्वराः।
वीसर्पमर्मसंरोधाः पिडकानामुपद्रवाः॥१११॥
क्षयः स्थानं302 च वृद्धिश्च दोषाणां त्रिविधा गतिः303।
ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यक् च विज्ञेया त्रिविधाऽपरा॥११२॥
त्रिविधा चापरा कोष्ठशाखामर्मास्थिसंधिषु।
इत्युक्ता विधिभेदेन दोषाणां त्रिविधा गतिः॥११३॥
चयप्रकोपप्रशमाः पित्तादीनां यथाक्रमम्।
भवन्त्येकैकशः षट्सु कालेष्वभ्रागमादिषु॥११४॥
गतिः कालकृता चैषा चयाद्या पुनरुच्यते।
गतिश्च द्विविधा दृष्टा प्राकृती वैकृती च या॥११५॥
पित्तादेवोष्मणः304 पक्तिर्नराणामुपजायते।
तच्चपित्तं305 प्रकुपितं विकारान् कुरुते बहून्॥११६॥
प्राकृतस्तु बलं श्लेष्मा विकृतो मल उच्यते।
स चैवौजः स्मृतः काये स च पाप्मोपदिश्यते306॥११७॥
सर्वा हि चेष्टा वातेन स प्राणः प्राणिनां स्मृतः।
तेनैव रोगा जायन्ते तेन चैवोपरुध्यते307॥११८॥
नित्यं संनिहितामित्रं समीक्ष्यात्मानमात्मवान्।
नित्यं युक्तः परिचरेदिच्छन्नायुरनित्वरम्॥११९॥
तत्र श्लोकौ।
शिरोरोगाः सहृद्रोगा रोगा मानविकल्पजाः।
क्षयाः सपिडकाश्चोक्ता दोषाणां गतिरेव च॥१२०॥
कियन्तःशिरसीयेऽस्मिन्नध्याये तत्त्वदर्शिना।
ज्ञानार्थं भिषजां चैव प्रजानां च हितैषिणा॥१२१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने रोगचतुष्के
कियन्तः शिरसीयो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥
——————-
अष्टादशोऽध्यायः।
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अथातस्त्रिशोथीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥ २ ॥
** **त्रयः शोथा भवन्ति वातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः; ते पुनर्द्विविधानिजागन्तुभेदेन॥३॥
तत्रागन्तवश्छेदनभेदनक्षणनभञ्जनपिच्छनोत्पेषणवेष्टनप्रहारवधबन्धनव्यधनपीडनादिभिर्वा, भल्लातकपुष्पफलरसात्मगुप्ताशुकक्रिमिशुकाहितपत्रलतागुल्मसंस्पर्शनैर्वा, स्वेदनपरिसर्पणावमूत्रणैर्वा विषिणां, सविषाविषप्राणिदंष्ट्रादन्तविषाणनखनिपातैर्वा, सागरविषवातहिमदहन संस्पर्शनैर्वा, शोथाः समुपजायन्ते। ते पुनर्यथास्वं हेतुजैर्व्यञ्जनैरादावुपलभ्यन्ते निजव्यञ्जनैकदेशविपरीतैः; बन्धमन्त्रागद प्रलेपप्रतापनिर्वापणादिभिश्चोपक्रमैरुपक्रम्यमाणाः प्रशान्तिमापद्यन्ते ॥४॥
निजाः पुनः स्नेहस्वेदनवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानामयथावत्प्रयोगान्मिथ्या संसर्जनाद्वा छर्द्यलसकविसूचिकाश्वासकासातीसारशोषपाण्डुरोगोदरज्वरप्रदरभगन्दरार्शोविकारातिशनैर्वा कुष्ठकण्डू पिडकादिभिर्वा छर्दिक्षवथूद्गारशुक्रवातमूत्रपुरीषवेगविधारणैर्वा कर्मरोगोपवासातिकर्शितस्य308 वा सहसाऽतिगुर्वम्ललवणपिष्टाफलशाकरागदधिहरीतकमद्यमन्दकविरूढनवशुकशमीधान्यनूपौदकपिशितोपयोगान्मृत्पङ्कलोष्ट्रभक्षणाल्लवणातिभक्षणाद्गर्भसंपीडनादामगर्भप्रपतनात् प्रजातानां च मिथ्योपचारादुदीर्ण- दोषत्वाच्च शोथाःप्रादुर्भवन्ति; इत्युक्तः सामान्यो हेतुः ॥५॥
अयं त्वत्र विशेषः—शीतरूक्षलघुविशदश्रमोपवासा309तिकर्शनक्षपणादिभिर्वायुः प्रकुपितस्त्वङ्मांस शोणितादीन्यभिभूय शोथं जनयति। स क्षिप्रोत्थापनप्रशमो भवति, तथा श्यावारुणवर्णः प्रकृतिवर्णो वा, चलःस्पन्दनः खरपरुषभिन्नत्वग्लोमा310 छिद्यत इव भिद्यत इव पीड्यत इव सूचिभिरिव तुद्यते पिपीलिका- भिरिव संसृप्यते सर्षपकल्कावलिप्तइव चिमिचिमायते संकुच्यत आयम्यत इति यातशोथः॥६॥
उष्णतीक्ष्णकटुकक्षारलवणाम्लाजीर्णभोजनैरग्न्यातपप्रतापैश्च पित्तं प्रकुपितं त्वङ्मांसशोणितान्यभिभूय311 शोथं जनयति । स क्षिप्रोस्थानप्रशमो भवति, कृष्णपीतनीलताम्रावभास उष्णो मृदुः कपिलताम्रलोमा, स उच्यते दूयते (दह्यते ) धूप्यते ऊष्मायते स्विद्यति क्लिद्यते, न च स्पर्शमुष्णं वा सुषूयत312 इति पित्तशोथः॥७॥
गुरुमधुरशीतस्निग्धोपयोगैरतिस्वप्नाव्यायामादिभिश्च श्लेष्मा प्रकुपितस्त्वङ्मांसशोणितादीन्यभिभूय शोथं जनयति। स कृच्छ्रोस्थानप्रशमो भवति, पाण्डुश्वेतावभासो गुरुः स्निग्धः श्लक्ष्णः स्थिरः स्त्यानः शुक्लाग्रामरोमा स्पर्शोष्णसहश्चेति श्लेष्मशोथः॥८॥
यथास्वकारणाकृतिसंसर्गाद्द्विदोषजास्त्रयः शोथा भवन्ति॥९॥
यथास्वकारणाकृतिसन्निपातात् सान्निपातिक एकः313॥१०॥
एवं314 भेदप्रकृतिभिस्ताभिस्ताभिर्भिद्यमानो द्विविधस्त्रिविधश्चतुर्विधः सप्तविधश्च शोथ उपलभ्यते, पुनश्चैक एव, उत्सेधसामान्यादित् ॥११॥
भवन्ति चात्र \।—
शूयन्ते315 यस्यगात्राणि स्वपन्तीव रुजन्ति च।
पीडितान्युन्नमन्त्याशु वातशोथं तमादिशेत्॥१२॥
यश्चाप्यरुणवर्णाभः शोथो नक्तं प्रणश्यति।
स्नेहोष्णमर्दनाभ्यां च प्रणश्येत् स च वातिकः॥१३॥
यः पिपासाज्वरार्तस्य दूयतेऽथ विदह्यते।
स्विद्यते क्लिद्यति गन्धी स पैत्तः श्वयथुः स्मृतः॥१४॥
यः पीतनेत्रेवक्त्रत्वक्316 पूर्वं मध्यात् प्रशूयते317।
तनुत्वक् चातिसारी च पित्तशोथी(थः) स उच्यते॥१५॥
यः शीतलः सक्तगतिः कण्डूमान् पाण्डुरेव318 च।
निपीडितो नोन्नमति श्वयथुः स कफात्मकः॥१६॥
यस्य शस्त्रकुशच्छेदाच्छोणितं न प्रवर्तते I
कृच्छ्रेण पिच्छा319 स्रवति स चापि कफसंभवः॥१७॥
निदानाकृतिसंसर्गाच्छ्वयथुः स्याद्द्विदोषजः।
सर्वाकृतिः सन्निपाताच्छोथो व्यामिश्रहेतुजः॥१८॥
यस्तु पादाभिनिर्वृत्तः320 शोथः321सर्वाङ्गगो भवेत्।
जन्तोः स च सुकष्टः स्यात् प्रसृतः स्त्रीमुखाच्च यः॥१९॥
यश्चापि गुह्यप्रभवः स्त्रियो वा पुरुषस्य वा।
स च कष्टतमो ज्ञेयो यस्य च स्युरुपद्रवाः॥२०॥
छर्दिः श्वासोऽरुचिस्तृष्णा ज्वरोऽतीसार एव च।
सप्तकोऽयं सदौर्बल्यः शोथोपद्रवसंग्रहः॥२१॥
यस्य श्लेष्मा प्रकुपितो जिह्वामूलेऽवतिष्ठते।
आशु संजनयेच्छोथं322 जायतेऽस्योपजिह्विका॥२२॥
यस्य श्लेष्मा प्रकुपितः काकले व्यवतिष्ठते।
आशु संजनयेच्छोफं322 करोति गलशुण्डिकाम्॥२३॥
यस्य श्लेष्मा प्रकुपितो गलबाह्येऽवतिष्ठते।
शनैः संजनयेच्छोथं322 गलगण्डोऽस्य जायते॥२४॥
यस्यश्लेष्मा प्रकुपितस्तिष्ठत्यन्तर्गले स्थितः।
आशु संजनयेच्छोथं322 जायतेऽस्य गलग्रहः॥२५॥
यस्य पित्तं प्रकुपितं सरक्तं त्वचि सर्पति।
शोथं सरागं जनयेद्वि323सर्पस्तस्य जायते॥२६॥
यस्य पित्तं प्रकुपितं त्वचि रक्तेऽवतिष्ठते324।
शोथं सरागं जनयेत्323 पिडका तस्य जायते॥२७॥
यस्य पित्तं325 प्रकुपितं शोणितं प्राप्य शुष्यति।
तिलका विप्लवो व्यङ्गो नीलिका चास्य जायते॥२८॥
यस्य पित्तं प्रकुपितं शङ्खयोरवतिष्ठते।
श्वयथुः शङ्खको नाम दारुणस्तस्य जायते॥२९॥
यस्य पित्तं प्रकुपितं कर्णमूलेऽवतिष्ठते।
ज्वरान्ते दुर्जयोऽन्ताय शोथस्तस्योपजायते॥३०॥
वातः प्लीहानमुद्धूय कुपितो यस्य तिष्ठति।
शनैः परितुदन्पार्श्व प्लीहा तस्याभिवर्धते॥३१॥
यस्य वायुः प्रकुपितो गुल्मस्थाने326ऽवतिष्ठते।
शोथं सशुलं जनयन् गुल्मस्तस्योपजायते॥३२॥
यस्य वायुः प्रकुपितः शोथशूलकरश्चरन्।
वंक्षणाद्वृषणौ याति वृद्धिस्तस्योपजायते॥३३॥
यस्य वातः प्रकुपितस्त्वङ्मांसान्तरमाश्रितः।
शोथं संजनयेत् कुक्षावुदरं तस्य जायते॥३४॥
यस्य वातः प्रकुपितः कुक्षिमाश्रित्य327 तिष्ठति।
नाधोव्रजति नाप्यूर्ध्वमानाहस्तस्य जायते॥३५॥
रोगाश्चोत्सेधसामान्यादधिमांसार्बुदादयः।
विशिष्टा नामरूपाभ्यां निर्देश्याः शोथसंग्रहे॥३६॥
वातपित्तकफा यस्य युगपत्कुपितास्त्रयः।
जिह्वामूलेऽवतिष्ठन्ते विदहन्तः समुच्छ्रिताः॥३७॥
जनयन्ति भृशं शोथं वेदनाश्च पृथग्विधाः।
तं शीघ्रकारिणं रोगं रोहिणीति विनिर्दिशेत्॥३८॥
त्रिरात्रं परमं तस्य जन्तोर्भवति जीवितम्।
कुशलेन त्वनुक्रान्तः328 क्षिप्रं संपद्यते सुखी॥३९॥
सन्ति ह्येवंविधा रोगाः साध्या दारुणसंमताः।
ये हन्युरनुपक्रान्ता मिथ्यारम्भेण329 वा पुनः॥४०॥
साध्याश्चाप्यपरे सन्ति व्याधयो मृदुसंमताः।
यत्नायत्नकृतं येषु कर्म सिध्यत्यसंशयम्॥४१॥
असाध्याश्चापरे सन्ति व्याधयो याप्यसंज्ञिताः।
सुसाध्वपि कृतं येषु कर्म यात्राकरं330 भवेत्॥४२॥
सन्ति चाप्यपरे रोगाः कर्म येषु न सिध्यति।
अपि यत्नकृतं बालैर्न331 तान् विद्वानुपाचरेत्॥४३॥
साध्याश्चैवाप्यसाध्याश्च व्याधयो द्विविधाः स्मृताः।
मृदुदारुणभेदेन ते भवन्ति चतुर्विधाः॥४४॥
त एवापरिसंख्येया भिद्यमाना भवन्ति हि।
निदानवेदनावर्णस्थानसंस्थान332नामभिः॥४५॥
व्यवस्थाकरणं333 तेषां यथास्थूलेषु संग्रहः।
तथा प्रकृतिसामान्यं विकारेषूपदिश्यते॥४६॥
विकारनामाकुशलो न जिह्रीयात् कदाचन।
न हि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः॥४७॥
स एव कुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः।
स्थानान्तरगतश्चैव जनयत्यामयान्334 बहून्॥४८॥
तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्ठानान्तराणि335 च।
समुत्थानविशेषांश्च बुद्ध्वा कर्म समाचरेत्॥४९॥
यो ह्येतत्रिविधं ज्ञात्वा कर्माण्यारभते भिषक्।
ज्ञानपूर्वं यथान्यायं स कर्मसु न मुह्यति॥५०॥
नित्याः प्राणभृतां देहे वातपित्तकफास्त्रयः।
विकृताः प्रकृतिस्था वा तान् बुभुत्सेत पण्डितः॥५१॥
उत्साहोच्छ्वासनिःश्वासचेष्टा धातुगतिः समा।
समो मोक्षो गतिमतां336 वायोः कर्माविकारजम्॥५२॥
दर्शनंपक्तिरूष्मा च क्षुत्तृष्णा देहमार्दवम्।
प्रभा प्रसादो मेधा च पित्तकर्माविकारजम्॥५३॥
स्नेहो बन्धः337 स्थिरत्वं च गौरवं वृषता बलम्।
क्षमा धृतिरलोभश्च कफकर्माविकारजम्॥५४॥
कर्मणः प्राकृताद्धानिर्वृद्धिर्वाऽपि विरोधिनाम्।
वाते पित्ते कफे चैव338क्षीणे लक्षणमुच्यते॥५५॥
दोष339प्रकृतिवैशेष्यं नियतं वृद्धिलक्षणम्।
दोषाणां प्रकृतिर्हानिर्वृद्धिश्चैवं परीक्ष्यते॥५६॥
तत्र श्लोकाः ।
संख्यां निमित्तं रूपाणि शोथानां साध्यतां न च।
तेषां तेषां विकाराणां शोफांस्तांस्तांश्च पूर्वजान्॥५७॥
विधिभेदं विकाराणां त्रिविधं बोध्यसंग्रहम्।
प्राकृतं कर्म दोषाणां लक्षणं हानिवृद्धिषु॥५८॥
वीतरागरजोदोष340लोभमानमदस्पृहः।
व्याख्यातवांस्त्रिशोफीये रोगाध्याये पुनर्वसुः॥५९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने रोगचतुष्के
त्रिशोफीयो नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
ऊनविंशोऽध्यायः।
**
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अथातोऽष्टोदरीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥२॥
इह खल्वष्टावुदराणि, अष्टौ मूत्राघाताः, अष्टौ क्षीरदोषाः, अष्टौ रेतोदोषाः; सप्त कुष्ठानि341, सप्त पिडकाः, सप्त वीसर्पाः; षडतीसाराः, षडुदावर्ताः; पञ्च गुल्माः पञ्च प्लीहदोषाः, पञ्च कासाः, पञ्च श्वासाः, पञ्च हिक्काः, पञ्च तृष्णाः, पञ्च छर्दयः, पञ्च भक्तस्यानशनस्थानानि342, पञ्च शिरोरोगाः, पञ्च हृद्रोगाः, पञ्च पाण्डुरोगाः, पञ्चोन्मादाः; चत्वारोऽपस्माराः, चत्वारोऽक्षिरोगाः, चत्वारः कर्णरोगाः, चत्वारः प्रतिश्यायाः, चत्वारो मुखरोगाः, चत्वारो ग्रहणीदोषाः, चत्वारो मदाः, चत्वारो मूर्च्छायाः, चत्वारः शोषाः, चत्वारि क्लैब्यानि; त्रयः शोथाः, त्रीणि किलासानि, त्रिविधं लोहितपित्तं; द्वौ ज्वरौ, द्वौ व्रणौ, द्वावायामौ, द्वे गृध्रस्यौ, द्वे कामले, द्विविधमामं, द्विविधं वातरक्तं, द्विविधान्यर्शांसि; एक ऊरुस्तम्भः, एकःसंन्यासः, एको महागदः; विंशतिः क्रिमिजातयः, विंशतिः प्रमेहाः, विंशतिर्योनिव्यापदः; इत्यष्टचत्वारिंशद्रोगाधिकरणान्यस्मिन् संग्रहे समुद्दिष्टानि॥ ३ ॥
एतानि यथोद्देशमभिनिर्देक्ष्यामः—अष्टावुदराणीति वातपित्तकफसन्निपातप्लीहबद्धच्छिद्रोदकोदराणि, अष्टौ मूत्राघाता इति वातपित्तकफसन्निपाताश्मरीशर्कराशुऋशोणितजाः, अष्टौ क्षीरदोषा इति वैवर्ण्यं वैगन्ध्यं वैरस्यं पैच्छिल्यं फेनसङ्घातो रौक्ष्यं गौरवमतिस्नेहश्च, अष्टौ रेतोदोषा इति तनु शुष्कं फेनिलमश्वेतं पूत्यतिपिच्छिलमन्यधातूपहितमवसादि च (१)।
सप्त कुष्टानीति कपालोदुम्बरमण्डलर्ष्यजिह्वपुण्डरीकसिध्मकाकणकानि, सप्त पिडका इति शराविका कच्छपिका जालिनी सर्षप्यलजी विनता विद्रधिश्च सप्त वीसर्पा इति वातपित्तकफाग्निकर्दमग्रन्थिसन्निपाताख्याः (२)।
षडतीसारा इति वातपित्तकफसन्निपातभयशोकजाः, षडुदावर्ता इति वातमूत्रपुरीषशुक्रच्छर्दिक्षवथुजाः(३)।
पञ्च गुल्मा इति वातपित्तकफसन्निपातरक्तजाः, पञ्च प्लीहदोषा इति गुल्मैर्व्याख्याताः, पञ्च कासा इति वातपित्तकफक्षतक्षयजाः, पञ्च श्वासा इति महोर्ध्वच्छिन्नतमकक्षुद्राः पञ्च हिक्का इति महती गम्भीरा व्यपेता क्षुद्राऽन्नजा च, पञ्च तृष्णा इति वातपित्तामक्षयोपसर्गात्मिकाः, पञ्च छर्दय इति द्विष्टार्थसंयोगजा वातपित्त कफसन्निपातोद्रेकोत्थश्च, पञ्च भक्तस्यानशनस्थानानीति वातपित्तकफसन्निपातद्वेषाः343, पञ्च शिरोरोगा इति पूर्वोद्देशमभिसमस्य344वातपित्तकफसन्निपातक्रिमिजाः, पञ्च हृद्रोगा इति शिरोरोगैर्व्याख्याताः, पञ्च पाण्डुरोगा इति वातपित्तकफसन्निपातमृद्भक्षणजाः, पञ्चोन्मादा इति वातपित्तकफसन्निपातागन्तु निमत्ताः(४)।
चत्वारोऽपस्मारा इति वातपित्तकफसन्निपातनिमित्तजाः; चत्वारोऽक्षिरोगाः, चत्वारः कर्णरोगाः, चत्वारः प्रतिश्यायाः, चत्वारो मुखरोगाः, चत्वारो ग्रहणीदोषाः, चत्वारो मदाः, चत्वारो मूर्च्छाया इत्यपस्मारैर्व्याख्याताः; चत्वारः शोषा इति साहससंधारणक्षयविषमाशनजाः, चत्वारि क्लैब्यानीति बीजोपघाताद्ध्वजभङ्गाज्जरायाः शुक्रक्षयाच्च (५)।
त्रयः शोथा इति वातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः, त्रीणि किलासानीति रक्तताम्रशुक्लानि, त्रिविधं लोहितपित्त मित्यूर्ध्वभागमधोभागमुभयभागं च (६)।
द्वौ ज्वराविति उष्णाभिप्रायः शीतसमुत्थश्च शीताभिप्रायश्चोष्णसमुत्थः, द्वौ व्रणाविति निजश्चागन्तुजश्च द्वावायामाविति बाह्यश्चाभ्यन्तरश्च, द्वे गृध्रस्याविति वाताद्वातकफाच्च, द्वे कामले इति कोष्ठाश्रया शाखाश्रया च, द्विविधमाममित्यलसको विसूचिका च, द्विविधंवातरक्तमिति गम्भीरमुत्तानं च, द्विविधान्यर्शासीति शुष्काण्यार्द्राणि च (७)।
एक ऊरुस्तम्भ इति आमत्रिदोषसमुत्थानः एकः संन्यास इति त्रिदोषात्मको मनःशरीराधिष्ठानः, एको महागद इति अतत्त्वामिनिवेशेः345 (८)।
विंशतिः क्रिमिजातय इति यूकाः पिपीलिकाश्चेति द्विविधा बहिर्मलजाः, केशादा लोमादा लोमद्वीपाःसौरसा औदुम्बरा जन्तुमातरश्चेति षट् शोणितजाः, अन्नादा उदरादा हृदयादाश्चुरवो दर्भपुष्पाः सौगन्धिका महागुदाश्चेति सप्त कफजाः, ककेरुका मकेरुका लेलिहाःसशूलकाः सौसुरादाश्चेति पञ्च पुरीषजाःविंशतिः प्रमेहा इति उदकमेहश्चेक्षुवालिकारसमेहश्च सान्द्रमेहश्च सान्द्रप्रसादमेहश्च शुक्लमेहश्च शुक्रमेहश्च शीतमेहश्च शनैर्मेहश्च सिकतामेहश्च लालामेहश्चेति दश श्लेष्मनिमित्ताः, क्षारमेहश्च कालमेहश्च नीलमेहश्च लोहितमेहश्च मञ्जिष्ठामेहश्च हरिद्रामेहश्चेति षट् पित्तनिमित्ताः, वसामेहश्च मज्जमेहश्च हस्तिमेहश्च मधुमेहश्चेति चत्वारो वातनिमित्ताः; विंशतिर्योनिव्यापद इति वातिकी पैत्तिकी श्लैष्मिकी सान्निपातिकी चेति चतस्रो दोषजाः, दोषदूष्यसंसर्गप्रकृतिनिर्देशैरवशिष्टाः षोडश निर्दिश्यन्ते, तद्यथा- रक्तयोनिश्चरजस्का चाचरणा चातिचरणा च प्राक्चरणा चोपप्लुता चोदावर्तिनी च कर्णिनी च पुत्रघ्नी चान्तर्मुखी च सूचीमुखी च शुष्का च वामिनी च षण्डयोनिश्च महायोनिश्चेति (९)।
केवलश्चायमुद्देशो यथोद्देशमभिनिर्दिष्टो भवति ॥४॥
सर्व एव विकारा निजा नान्यत्रवातपित्तकफेभ्यो निर्वर्तन्ते; यथा हि शकुनिः सर्वा दिशोऽपि346 परिपतन् स्वां छायां नातिवर्तते, तथा स्वधातुवैषम्यनिमित्ताः सर्वे विकारा वातपित्तकफान्नातिवर्तन्ते;वातपित्तश्लेष्मणां पुनः स्थानसंस्थानप्रकृतिविशेषानभिसमीक्ष्य347तदात्मकानपि च सर्वविकारांस्तानेवोपदिशन्ति बुद्धिमन्तइति॥५॥
भवतश्चान्त्र।
स्वधातुवैषम्यनिमित्तजा ये
विकारसङ्घा बहवः शरीरे।
न ते पृथक् पित्तकफानिलेभ्य
आगन्तवस्त्वेव ततो विशिष्टाः॥६॥
आगन्तुरन्वेति निजं विकारं निजस्तथाऽऽगन्तुमपि प्रवृद्धः348।
तत्रानुबन्धं प्रकृतिं च सम्यक् ज्ञात्वा ततः कर्म समारभेत॥७॥
तत्र श्लोकौ।
विंशकाश्चैककाश्चैव त्रिकाश्चोक्तास्त्रयस्त्रयः।
द्विकाश्चाष्टौ चतुष्काश्च दश, द्वादश पञ्चकाः॥८॥
चत्वारचश्वाष्टका वर्गाः, षट्को द्वौ, सप्तकास्त्रयः ।
अष्टोदरीये रोगाणामध्याये संप्रकाशिताः॥९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने रोगचतुष्के
अष्टोदरीयो नामैकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
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विंशोऽध्यायः।
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अथातो महारोगाध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
चत्वारो रोगा भवन्ति—आगन्तुवातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः। तेषां चतुर्णामपि रोगाणां रोगत्वमेकविधं भवति, रुक्सामान्यात्। द्विविधा पुनः प्रकृतिरेषां, आगन्तुनिजविभागात्। द्विविधं चैषामधिष्ठानं, मनःशरीरविशेषात्। विकाराः पुनरेषामपरिसंख्येयाः प्रकृत्यधिष्ठानलिङ्गायतनविकल्पविशेषाणामपरिसंख्येयत्वात्349॥३॥
मुखानि350 तु खल्वागन्तोर्नखदशनपतनाभिघाताभिचाराभिशापाभिषङ्गवधव्यधबन्धनपीडनरज्जुदहन मन्त्राशनिभूतोपसर्गादीनि; निजस्य तु मुखं वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यम्॥४॥
द्वयोस्तु खल्वागन्तुनिजयोः प्रेरणम351सात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः, प्रज्ञपराधः, परिणामश्चेति॥५॥
सर्वेऽपि खल्वेतेऽभिप्रवृद्धाश्चत्वारो रोगाः परस्परमनुबध्नन्ति, नचान्योन्यसंदेह352मापद्यन्ते॥६॥
आगन्तुर्हि व्यथापूर्वसमुत्पन्नो जधन्यं353 वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यमापादयति; निजे तु वातपित्तश्लेष्माणः पूर्वं वैषम्यमापद्यन्ते, जघन्यं व्यथामभिनिर्वर्तयन्ति॥७॥
तेषां त्रयाणामपि दोषाणां शरीरे स्थानविभाग354 उपदेक्ष्यते, तद्यथा - बस्तिः पुरीषाधानं355 कटिःसक्थिनी पादावस्थीनि पक्वाशयश्च वातस्थानानि, तत्रापि पक्वाशयो विशेषेण वातस्थानं; स्वेदो रसो लसीका356 रुधिरमामाशयश्च पित्तस्थानानि, तत्राप्यामाशयो विशेषेण पित्तस्थानं; उरः शिरो ग्रीवा पर्वाण्यामाशयो357 मेदश्च श्लेष्मणः स्थानानि, तत्राप्युरो विशेषेण श्लेष्मस्थानम्॥८॥
सर्वशरीरचरास्तु वातपित्तश्लेष्माणः सर्वस्मिञ्छरीरे कुपिताकुपिताः शुभाशुभानि कुर्वन्ति—प्रकृतिभूताः शुभान्युपचयबलवर्णप्रसादादीनि अशुभानि पुनर्विकृतिमापन्ना विकारसंज्ञकानि॥९॥
तत्र विकाराः—सामान्यजा, नानात्मजाश्च।358 तत्र सामान्यजाःपूर्वमष्टोदरीये व्याख्याताः, नानात्मजांस्त्विहाध्यायेऽनुव्याख्यास्यामः; तद्यथा—अशीतिर्वातविकाराः चत्वारिंशत्पित्तविकाराः, विंशतिः श्लेष्मविकाराः॥१०॥
तत्रादौ359 वातविकाराननुव्याख्यास्यामः; तद्यथा—नखभेदश्च १, विपादिका च २, पादशूलं च ३, पादभ्रंशश्च ४, पादसुप्तता च ५, वातखुड्डता च ६, गुल्फग्रहश्च ७, पिण्डिकोद्वेष्टनं च ८, गृध्रसी च ९, जानुभेदश्च १०, जानुविश्लेषश्च ११, ऊरुस्तम्भश्च१२, ऊरुसादश्व १३, पाङ्गुल्यं च १४, गुदभ्रशश्च १५, गुदार्तिश्च १६, वृषणोत्क्षेपश्च360 १७, शेफःस्तम्भश्च १८, वङ्क्षणानाहश्च १९, श्रोणिभेदश्च २०, विड्भेदश्च २१, उदावर्तश्च २२, खञ्जत्वं च २३, \ [कुब्जत्वं च361 ] वामनत्वं च २४, त्रिकग्रहश्च पृष्ठग्रहश्च २५, पार्श्वावमर्दश्च २६, उदरावेष्टश्व २७, हृन्मोहश्च362 २८, हृद्रवश्च २९, वक्षउद्धर्षश्च ३०, वक्षउपरोधश्च ३१, वक्षस्तोदश्च ३२, बाहुशोषश्च ३३, ग्रीवास्तम्भश्च ३४, मन्यास्तम्भश्च ३५, कण्ठोद्ध्वंसश्च ३६, हनुस्तम्भश्च363 ३७, ओष्ठभेदश्च ३८, अक्षिभेदश्च364 ३९, दन्तभेदश्च ४०, दन्तशैथिल्यं च ४१, मूकत्वं च ४२, गद्गदत्वं च ४३, वाक्सङ्गश्च ४४, कषायास्यता च ४५, मुखशोषश्च ४६, अरसज्ञता च ४७, घ्राणनाशश्च ४८, कर्णशूलं च ४९, अशब्दश्रवणं च ५०, उच्चैःश्रुतिश्च ५१, बाधिर्यं च ५२, वर्त्मस्तम्भश्च ५३, वर्त्मसंकोचश्च ५४, तिमिरं च ५५, अक्षिशूलं च ५६, अक्षिव्युदासश्च ५७, भ्रूव्युदासश्च ५८, शङ्खभेदश्च ५९, ललाटभेदश्च ६०, शिरोरुक् च ६१, केशभूमिस्फुटनं च ६२, अर्दितं च ६३, एकाङ्गरोगश्च ६४, सर्वाङ्गरोगश्च ६५, \ पक्ष[वधश्च365] आक्षेपकश्च ६६, दण्डकश्च ६७, श्रमश्च366६८, भ्रमश्च ६९, वेपथुश्च ७०, जृम्भा च ७१, विषादश्च ७२, हिक्का च ७३, अतिप्रलापश्च ७४, ग्लानिश्च ७५, रौक्ष्यं च ७६, पारुष्यं च ७७, श्यावारुणावभासता च ७८, अस्वप्नश्च ७९, अनवस्थितत्वं च ८०, इत्यशीतिर्वातविकारा वातविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्कृततमा व्याख्याता367भवन्ति॥११॥
सर्वेष्वपि खल्वेतेषु वातविकारेषूक्तेष्वन्येषु चानुक्तेषु वायोरिदमात्मरूपमपरिणामि कर्मणश्च368 स्वलक्षणं, यदुपलभ्य तदवयवं वा विमुक्तसंदेहा वातविकारमेवाध्यवस्यन्ति कुशलाः; तद्यथा—रौक्ष्यं लाघवं वैशद्यं शैत्यं गतिरमूर्तत्वं चेति वायोरात्मरूपाणि, एवंविधत्वाच्चवायोः कर्मणः स्वलक्षणमिदमस्य भवति तं तं शरीरावयवमाविशतः; तद्यथा—स्रंसभ्रंश369व्यास370भेदसादहर्षतर्षवर्तकम्पावमर्दचालतोदव्यथाचेष्टादीनि, तथा खरपरुषविशदसुषिरारुणकषायविरसमुखत्वशोषशूलसुप्तिसंकोचनस्तम्भनखञ्जतादीनि च वायोः कर्माणि, तैरन्वितं वातविकारमेवाध्यवस्येत्॥१२॥
तं मधुराम्ललवणस्निग्धोष्णैरुपक्रमरुपक्रमेत स्नेहास्वेदास्थापनानुवासननस्तः कर्मभोजनाभ्यङ्गोत्सादन परिषेकादिभिर्वातहरैर्मात्रां कालं च प्रमाणीकृत्य; आस्थापनानुवासनं तु खलु सर्वोपक्रमेभ्यो वाते प्रधानतमं मन्यन्ते भिषजः, तद्ध्यादिता एव पक्वाशयमनुप्रविश्य केवलं वैकारिकं371 वातमूलं छिनत्ति, तत्रावजिते वातेऽपि शरीरान्तर्गता वातविकाराः प्रशान्तिमापद्यन्ते, यथा वनस्पतेर्मूले छिन्ने स्कन्धशाखाप्ररोहकुसुमफलपलाशादीनां नियतो विनाशस्तद्वत्॥१३॥
पित्तविकारांश्चत्वारिंशतम ऊर्ध्वमनुव्याख्यास्यामः; तद्यथा—ओषश्च १, प्लोषश्च२, दाहश्च ३, दवथुश्च ४, धूमकश्च ५, अम्लकश्च ६, विदाहश्च ७, अन्तर्दाहश्च ८, अंसदाहश्च९, ऊष्माधिक्यं च १०, अतिस्वेदश्च ११, [अङ्गस्वेदश्च372] अङ्गगन्धश्च १२, अङ्गावदरणं च १३, शोणितक्लेदश्च १४, मांसक्लेदश्च १५, त्वग्दाहश्च १६, (मांसदाहश्च373) त्वगवदरणं च १७, चर्मावदरणं च374 १८, रक्तकोठाश्च १९, रक्तविस्फोटाश्च २०, रक्तपित्तं च २१, रक्तमण्डलानि च २२, हरितत्वं च २३, हारिद्रत्वं च २४, नीलिका च २५, कक्षा च २६, कामला च २७, तिक्तास्यता च २८, लोहितगन्धास्यता च २९, पूतिमुखता च ३०, तृष्णाधिक्यं च ३१, अतृप्तिश्च ३२, आस्वपाकश्च ३३, गलपाकश्च ३४, अक्षिपाकश्च ३५, गुदपाकश्च ३६,मेढ्रपाकश्च ३७, जीवादानं च ३८, तमःप्रवेशश्च ३९, हरितहारिद्रमूत्रनेत्रवर्चस्त्वं च ४०, इति चत्वारिंश त्पित्तविकाराः375पित्तविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्कृततमा व्याख्याता भवन्ति॥१४॥
सर्वेष्वपि खल्वेतेषु पित्तविकारेषूक्तेष्वन्येषु चानुक्तेषु पित्तस्येदमात्मरूपमपरिणामि कर्मणश्च स्वलक्षणं, यदुपलभ्य तदवयवं वा विमुक्तसंदेहाः पित्तविकारमेवाध्यवस्यन्ति कुशलाः; तद्यथा—औष्ण्यंतैक्ष्ण्यं सरत्वं द्रवत्वमनतिस्नेहो376 वर्णश्च शुक्लारुणवर्जो गन्धश्च विस्रोरसौ च कट्वम्लौ पित्तस्यात्मरूपाणि, एवंविधत्वाच्च पित्तस्य कर्मणः स्वलक्षणमिदमस्य भवति तं तं शरीरावयवमाविशतः, तद्यथादाहौष्ण्यपाकस्वेदक्लेदकोथस्नावरागा यथास्वं गन्धवर्णरसाभिनिर्वर्तनं च पित्तस्य कर्माणि, तैरन्वितं पित्तविकार मेवाध्यवस्येत् ॥१५॥
तं मधुरतिक्तकषायशीतैरुपक्रमैरुपक्रमेत स्नेहविरेचनप्रदेहपरिषेकाभ्यङ्गावगाहादिभिः पित्तहरैर्मात्रां कालं च प्रमाणीकृत्य; विरेचनं तु सर्वोपक्रमेभ्यः पित्ते प्रधानतमं मन्यन्ते भिषजः, तद्ध्यादित एवामाशय मनुप्रविश्य केवलं वैकारिकं पित्तमूलमपकर्षति, तत्रावजिते पित्तेऽपि शरीरान्तर्गताः पित्तविकाराः प्रशान्तिमापद्यन्ते, यथाग्नौ व्यन्पोढे377केवलमग्निगृहं शीतीभवति तद्वत्॥१६॥
श्लेष्मविकारांश्च विंशतिमत ऊर्ध्वं व्याख्यास्यामः; तद्यथा तृप्तिश्च378 १, तन्द्रा च २, निद्राधिक्यं च ३, स्तैमित्यं च ४, गुरुगात्रता च ५, आलस्यं च ६, मुखमाधुर्यंच ७, मुखस्रावश्च ८, श्लेष्मोद्गिरणं च ९, मलस्याधिक्यं च379 १०, कण्ठोपलेपश्च ११, बलासकश्च १२, हृदयोपलेपश्च १३, धमनीप्रतिचयश्च १४, गलगण्डश्च १५, अतिस्थौल्यं च १६, शीताग्निता च १७, उदर्दश्व १८, श्वेतावभासता च १९, श्वेतमूत्रनेत्रवर्चस्त्वं च २०, इति विंशतिः श्लेष्मविकाराणामपरिसंख्येयानामाविष्कृततमा व्याख्याता भवन्ति॥१७॥
सर्वेष्वपि खल्वेतेषु श्लेष्मविकारेषूक्तेष्वन्येषु चानुक्तेषु श्लेष्मण इदमात्मरूपमपरिणामि कर्मणश्च स्वलक्षणं, यदुपलभ्य तदवयवं वा विमुक्तसंदेहाः श्लेष्मविकारमेवाध्यवस्यन्ति कुशलाः; तद्यथा श्वैत्यशैत्यस्नेहगौरवमाधुर्यस्थैर्यपैच्छिल्यमात्खर्यानि380 श्लेष्मण आत्मरूपाणि, एवंविधत्वाञ्चश्लेष्मणः कर्मणः स्वलक्षणमिदमस्य भवति तं तं शरीरावयवमाविशतः, तद्यथा-श्वैत्यशैत्यकण्डूस्थैर्यगौरव स्नेहस्तम्भसुप्तिक्लेदोपदेहबन्धमाधुर्यचिरकारित्वानि श्लेष्मणः कर्माणि, तैरन्वितं लेष्मविकारमेवाध्यवस्येत्॥१८॥
तं कटुकतिक्तकषायतीक्ष्णोष्णरुक्षैरुपक्रमैरुपक्रमेत स्वेदनवमनशिरोविरेचनव्यायामादिभिः श्लेष्महरैर्मात्रां कालं च प्रमाणीकृत्य; वमनं तु सर्वोपक्रमेभ्यः श्लेष्मणि प्रधानतमं मन्यन्ते भिषजः, तद्ध्यादित एवामाशयमनुप्रविश्य केवलं वैकारिकं श्लेष्ममूलमूर्ध्वमुत्थिते, तत्रावजिते श्लेष्मण्यपि शरीरान्तर्गताः श्लेष्मविकाराः प्रशान्तिमापद्यन्ते, यथा-भिन्ने केदारसेतौ शालियवषष्टिकादीन्यभिष्यन्द मानान्यम्भसा प्रशोषमापद्यन्ते तद्वदिति॥१९॥
भवन्ति चात्र।
रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौषधम्।
ततः कर्म भिषक् पश्चाज्ज्ञानपूर्वं समाचरेत्॥२०॥
यस्तु रोगमविज्ञाय कर्माण्यारभते भिषक्।
अप्यौषधविधानज्ञस्तस्य सिद्धिर्यदृच्छया॥२१॥
यस्तु रोगविशेषज्ञः सर्वभैषज्यकोविदः।
देशकालप्रमाणज्ञस्तस्य सिद्धिरसंशयम्॥२२॥
तत्र श्लोकाः।
संग्रहः प्रकृतिर्देशो विकारमुखमीरर्णम्381।
असंदेहोऽनुबन्धश्च रोगाणां संप्रकाशितः॥२३॥
दोषस्थानानि रोगाणां गणा नानात्मजाश्च ये।
रूपं पृथक् च दोषाणां कर्म चापरिणामि यत्॥२४॥
पृथक्त्वेन च दोषाणां निर्दिष्टाः समुपक्रमाः।
सम्यङ्महति रोगाणामध्याये तत्त्वदर्शिना॥२५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने रोगचतुष्के
महारोगाध्यायो नाम विंशोऽध्यायः ॥२०॥
एकविंशोऽध्यायः।
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अथातोऽष्टौनिन्दितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
** ** इह खलु शरीरमधिकृत्याष्टौ पुरुषा निन्दिता भवन्ति; तद्यथा अतिदीर्घश्चातिह्रस्वश्चातिलोमा चालोमा चातिकृष्णश्चाति382 गौरश्चातिस्थूलश्चातिकृशश्चेति॥३॥
तत्रातिस्थूलकृशयोर्भूय एवापरे निन्दितविशेषा भवन्ति; अतिस्थूलस्य तावदायुषो ह्रासो जवोपरोधः383 कृच्छ्रव्यवायता दौर्बल्यं दौर्गन्ध्यं स्वेदाबाधः क्षुदतिमात्रं पिपासातियोगश्चेति भवन्त्यष्टौ दोषाः। तदति स्थौल्यमतिसंपूरणा384द्गुरुमधुरशीतस्निग्धोपयोगादव्यायामादव्यवायाद्दिवास्वप्नाद्धर्षनित्यत्वादचिन्तनाद्वीजस्व-भावा385च्चोपजायते। तस्यातिमात्रं मेदस्विनो मेद एवोपचीयते न तथेतरेधातवः, तस्मादस्यायुषो ह्रासः; शैथिल्यात् सौकुमार्याद्गुरुत्वाच्च मेदसो जवोपरोधः386, शुक्राल्पत्वान्मेदसा ऽऽवृतमार्गत्वाच्चकृच्छ्रव्यवायता, दौर्बल्यमसमत्वाद्धातूनां, दौर्गन्ध्यं मेदोदोषान्मेदसः स्वभावात् स्वेदल(न)त्वाच्च, मेदसः श्लेष्मसंसर्गाद्विष्यन्दित्वाद्बहुत्वाद्व्ययामासहत्वाच्चस्वेदाबाधः, तीक्ष्णाग्नित्वात् प्रभूतकोष्ठवायुत्वाच्च क्षुदतिमात्रं पिपासातियोगश्चेति॥४॥
भवन्ति चात्र ।
मेदसाऽऽवृतमार्गत्वाद्वायुः कोष्ठे विशेषतः।
चरन् संधुक्षयत्यग्निमाहारं शोषयत्यपि॥५॥
तस्मात् स शीघ्रं जरयत्याहारं चातिकाङ्क्षति।
विकारांश्चाश्नुते घोरान्कांश्चित् कालव्यतिक्रमात्॥६॥
एतावुपद्रवकरौ विशेषादग्निमारुतौ।
एतौ हि दहतः स्थूलं वनदावो वनं यथा॥७॥
मेदस्यतीव संवृद्धे सहसैवानिलादयः।
विकारान् दारुणान् कृत्वा नाशयन्त्याशु जीवितम्॥८॥
मेदोमांसातिवृद्धत्वाच्चलस्फिगुदरस्तनः।
अयथोपचयोत्साहो नरोऽतिस्थूल उच्यते॥९॥
इति मेदस्विनो दोषा हेतवो रूपमेव च।
निर्दिष्टं, वक्ष्यते वाच्यमतिकार्श्येत्वतः परम्॥१०॥
सेवा रूक्षान्नपानानां लङ्घनं प्रमिताशनम्।
क्रियातियोगः387 शोकश्च निद्रावेगविनिग्रहः॥११॥
रुक्षस्योद्वर्तन388स्नानस्याभ्यासः प्रकृतिर्जरा389।
विकारानुशयः390 क्रोधः कुर्वन्त्यतिकृशं नरम्॥१२॥
व्यायाममतिसौहित्यं क्षुत्पिपासामयौषधम्391।
कृशो न सहते तद्वदतिशीतोष्णमैथुनम्॥१३॥
प्लीहा कासः क्षयः श्वासो गुल्मोऽर्शांस्युदराणि च।
कृशं प्रायोऽभिधावन्ति392 रोगाश्च ग्रहणीगताः॥१४॥
शुष्कस्फिगुदरग्रीवो धमनीजालसंततः393।
त्वगस्थिशेषोऽतिकृशः स्थूलपर्वा नरो मतः॥१५॥
सततं व्याधितावेतावतिस्थूलकृशौ नरौ।
सततं चोपचयर्यौहि कर्शनैबृंहणैरपि॥१६॥
स्थौल्यकार्श्येवरं कार्श्यंंसमोपकरणौ हि तौ।
यद्युभौ व्याधिरागच्छेत् स्थूलमेवातिपीडयेत्॥१७॥
सममांसप्रमाणस्तु समसंहननो394 नरः।
हढेन्द्रियात्वाव्द्याधीनां395 न बलेनाभिभूयते॥१८॥
क्षुत्पिपासातपसहः शीतव्यायामसंसहः।
समपक्तासमजरः सममांसचयो मतः॥१९॥
गुरु चातर्पणं396 चेष्टं स्थूलानां कर्शनं प्रति।
कृशानां बृंहणार्थं तु लघु संतर्पणं च यत्॥२०॥
वातघ्नान्यन्नपानानि श्लेष्ममेदोहराणि च।
रूक्षोष्णा बस्तयस्तीक्ष्णा रूक्षाण्युद्वर्तनानि च॥२१॥
गुडूचीभद्रमुस्तानां प्रयोगस्त्रैफलस्तथा ।
तक्रारिष्टप्रयोगस्तु प्रयोगो माक्षिकस्य च॥२२॥
विडङ्गं नागरं क्षारः काललोहरजो मधु।
यवामलकचूर्णंच प्रयोगः श्रेष्ठ उच्यते॥२३॥
बिल्वादिपञ्चमूलस्य प्रयोगः क्षौद्रसंयुतः।
शिलाजतुप्रयोगस्तु साग्निमन्थरसः परः॥२४॥
प्रशातिका प्रियङ्गुश्च श्यामाका यवका युवाः।
जूर्णांह्वाःकोद्रवा मुद्गाःकुलत्थाश्चक्रमर्द397काः॥२५॥
आढकीनां च बीजानि पटोलामलकैः सह।
भोजनार्थेप्रयोज्यानि पानं चानु मधूदकम्॥२६॥
अरिष्टांश्चानुपानार्थे मेदोमांसकफापहान्।
अतिस्थौल्यविनाशाय संविभज्य प्रयोजयेत्॥२७॥
प्रजागरं व्यवायं च व्यायामं चिन्तनानि च।
स्थौल्यमिच्छन् परित्यक्तुं क्रमेणाभि(ति)प्रवर्धयेत्॥२८॥
स्वप्नो हर्षः सुखा शय्या मनसो निर्वृतिः शमः।
चिन्ताव्यवायव्यायामविरामःप्रियदर्शनम्॥२९॥
नवान्नानि नवं मद्यं ग्राम्यानूपौदका रसाः।
संस्कृतानि च मांसानि दधि सर्पिः पयांसि च॥३०॥
इक्षवः शालयो माषा गोधूमा गुडवैकृतम्।
बस्तयः स्निग्धमधुरास्तैलाभ्यङ्गश्च सर्वदा॥३१॥
स्निग्धमुद्वर्तनं स्नानं गन्धमाल्यनिषेवणम्।
शुक्लं वासो यथाकालं दोषाणामवसेचनम्॥३२॥
रसायनानां वृष्याणां योगानां चोपसेवनम्।
हत्वाऽतिकार्श्यमाधत्ते नृणामुपचयं परम्॥३३॥
अचिन्तनाच्चकार्याणां ध्रुवं संतर्पणेन च।
स्वप्नप्रसङ्गाच्च नरो वराह इव पुष्यति॥३४॥
यदा तु मनसि क्लान्ते कर्मात्मानः क्लमान्विताः398।
विषयेभ्यो निवर्तन्ते तदा स्वपिति मानवः399॥३५॥
निद्रायत्तं सुखं दुःखं पुष्टिः कार्श्यं बलाबलम्।
वृषता क्लीबता ज्ञानमज्ञानं जीवितं न च॥३६॥
अकालेऽतिप्रसङ्गाच्चन च निद्रा निषेविता।
सुखायुषी पराकुर्यात् कालरात्रिरिवापरा॥३७॥
सैव युक्ता पुनर्युङ्क्तेनिद्रा देहं सुखायुषा।
पुरुषं योगिनं सिद्ध्या सत्या बुद्धिरिवागता॥३८॥
गीताध्ययनमद्यस्त्रीकर्मभाराध्वकर्षिताः।
अजीर्णिनः क्षताः क्षीणा वृद्धा बालास्तथाऽबलाः॥३९॥
तृष्णातीसारशूलार्ताःश्वासिनो हिक्किनः कृशाः।
पतिताभिहतोन्मत्ताः क्लान्ता यानप्रजागरैः॥४०॥
क्रोधशोकभयक्लान्ता दिवास्वप्नोचिताश्च ये।
सर्व एते दिवास्वप्नं सेवेरन् सार्वकालिकम्॥४१॥
धातुसाम्यं तथा ह्येषां बलं चाप्युपजायते।
श्लेष्मा पुष्णाति चाङ्गानि स्थैर्यं भवति चायुषः॥४२॥
ग्रीष्मे चादानरूक्षाणां वर्धमाने च मारुते।
रात्रीणां चातिसङ्क्षेपाद्दिवास्वप्नः प्रशस्यते॥४३॥
ग्रीष्मवर्येषु कालेषु दिवास्वप्नात् प्रकुप्यतः।
श्लेष्मपित्ते, दिवास्वप्नस्तस्मात्तेषु न शस्यते॥४४॥
मेदस्विनः स्नेहनित्याः श्लेष्मलाः श्लेष्मरोगिणः।
दूषीविषार्ताश्च दिवा न शयीरन् कदाचन॥४५॥
हलीमकः शिरःशूलं स्तैमियं गुरुगात्रता।
अङ्गमर्दोऽग्निनाशश्च प्रलेपो हृदयस्य च॥४६॥
शोथारोचकहृल्लासपीनसार्धावभेदकाः।
कोठोऽरुःपिडकाः400 कण्डूस्तन्द्रा कासो गलामयाः॥४७॥
स्मृतिबुद्धिप्रमोहश्च संरोधः स्रोतसां ज्वरः।
इन्द्रियाणामसामर्थ्यं विषवेगप्रवर्तनम्॥४८॥
भवेन्नृणां दिवास्वप्नस्याहितस्य निषेवणात्।
तस्माद्धिताहितं स्वप्नंबुद्धःस्वप्यात् सुखं बुधः॥४९॥
रात्रौ जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा।
अरूक्षमनभिष्यन्दि त्वासीनप्रचलायितम्401॥५०॥
देहवृत्तौ यथाऽऽहारस्तथा स्वप्नः सुखो मतः।
स्वप्नाहारसमुत्थे च स्थौल्यकाइये विशेषतः॥५१॥
अभ्यङ्गोत्सादनं स्नानं ग्राम्यानुपौदका रसाः।
शाल्यनं सद्धि क्षीरं स्नेहो मद्यं मनःसुखम्॥५२॥
मनसोऽनुगुणा गन्धाः शब्दाः संवाहनानि च।
चक्षुषस्तर्पणं लेपः शिरसो बदनस्य च॥५३॥
स्वास्तीर्ण शयनं वेश्म सुखं कालस्तथोचितः।
आनयन्त्यचिरान्निद्रां प्रनष्टा या निमित्ततः॥५४॥
कायस्थ शिरसश्चैव विरेकश्छर्दनं भयम्।
चिन्ता क्रोधस्तथा धूमो व्यायामो रक्तमोक्षणम्॥५५॥
उपवासोऽसुखा शय्या सत्त्वौदार्य तमोजयः।
निद्राप्रसङ्गमहितं वारयन्ति समुत्थितम् ॥५६॥
एत एव च विज्ञेया निद्रानाशस्य हेतवः।
कार्यं कालो विकारश्च प्रकृतिर्वायुरेव च॥५७॥
तमोभवा लेष्मसमुद्भवा च मनःशरीरश्रमसंभवा च।
आगन्तुकी व्याध्यनुवर्तिनी च रात्रिस्वभावप्रभवा च निद्रा402॥५८॥
रात्रिस्वभावप्रभवा मता या तां भूतधात्रीं प्रवदन्ति निद्राम्।
तमोभवामाहुरघस्य मूलं, शेषाः पुनर्व्याधिषु निर्दिशन्ति403॥५९॥
निन्दिताः पुरुषास्तेषां यौ विशेषेण निन्दितौ।
निन्दिते कारणं दोषास्तयोर्निन्दितभेषजम्॥६०॥
येभ्यो यदा हिता निद्रां येभ्यश्चाप्यहिता यदा।
अतिनिद्रानिद्रयोश्च404 भेषजं यद्भवा च सा॥६१॥
या या यथाप्रभावा405 च निद्रा तत् सर्वमत्रिजः।
अष्टौनिन्दितसंख्याते व्याजहार पुनर्वसुः॥६२॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने योजनाचतुष्के
अष्टौनिन्दितीयो नामैकविंशतितमोऽध्यायः॥२१॥
द्वाविंशतितमोऽध्यायः।
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अथातो लङ्घनबृंहणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
तपःस्वाध्यायनिरतानात्रेयः शिष्यसत्तमान्।
षडग्निवेशप्रमुखानुक्तवान् परिचोदयन्॥३॥
लङ्घनं बृंहणं काले रूक्षणं स्नेहनं तथा।
स्वेदनं स्तम्भनं चैव जानीते यः स वै भिषक्406॥४॥
तमुक्तवन्त407मात्रेयमग्निवेश उवाच ह।
भगवंल्लङ्घनं किं408स्विल्लङ्घनीयाश्च कीदृशाः॥५॥
बृंहणं बृंहणीयाश्च रूक्षणीयाश्च रूक्षणम्।
स्नेहनं409 स्नेहनीयाश्च स्वेदाः स्वेद्याश्च के मताः॥६॥
स्तम्भनं स्तम्भनीयाश्च वक्तुमर्हसि तद्गुरो।
लङ्घनप्रभृतीनां च षण्णामेषां समासतः॥७॥
कृताकृतातिरिक्तानां410 लक्षणं वक्तुमर्हसि।
वच411स्तदग्निवेशस्य निशम्य गुरुरब्रवीत्॥८॥
यत्किंचिल्लाघवकरं देहे तल्लङ्घनं स्मृतम्।
बृहत्त्वं यच्छरीरस्य जनयेत्तच्च बृंहणम्॥९॥
रौक्ष्यं खरत्वं वैशद्यं यत् कुर्यात्तद्धि रूक्षणम्।
स्नेहनं स्नेहविष्यन्द412मार्दवक्लेदकारकम्॥१०॥
स्तम्भगौरवशीतघ्नं स्वेदनं स्वेदकारकम्।
स्तम्भनं स्तम्भयति यद्गतिमन्तं चलं द्रवम्॥११॥
लघुष्णं तीक्ष्णविशदं रूक्षं सूक्ष्मं खरं सरम्।
कठिनं चैव यद्द्रव्यं प्रायस्तल्लङ्घनं स्मृतम्॥१२॥
गुरु शीतं मृदु स्निग्धं बहलं स्थूलपिच्छिलम्।
प्रायो मन्दं स्थिरं श्लक्ष्णं द्रव्यं बृंहणमुच्यते॥१३॥
रूक्षं लघु खरं तीक्ष्णमुष्णं स्थिरमपिच्छिलम्।
प्रायशः कठिनं चैव यद्रव्यं तद्धि रूक्षणम्॥१४॥
द्रवं सूक्ष्मं413 सरं स्निग्धं पिच्छिलं गुरु शीतलम्।
प्रायो मन्दं मृदु च यद्द्रव्यं तत् स्नेहनं मतम् ॥१५॥
उष्णं तीक्ष्णं सरं स्निग्धं रूक्षं सूक्ष्मं द्रवं स्थिरम्।
द्रव्यं गुरु च यत् प्रायस्तद्धि स्वेदनमुच्यते॥१६॥
शीतं मन्दं मृदु श्लक्ष्णं सूक्ष्मं रूक्षं द्रवं स्थिरम्।
यद्द्रव्यं लघु चोद्दिष्टं प्रायस्तत् स्तम्भनं स्मृतम्॥१७॥
चतुष्प्रकारा संशुद्धिः414 पिपासा415 मारुतातपौ।
पाचनान्युपवासश्च व्यायामश्चेति लङ्घनम्॥१८॥
प्रभूतश्लेष्मपित्तास्नमलाः संसृष्टमारुताः।
बृहच्छरीरा बलिनो लङ्घनीया विशुद्धिभिः॥१९॥
येषां मध्यबला रोगाः कफपित्तसमुत्थिताः।
वम्यतीसारहृद्रोगविसूच्यंलसकज्वराः॥२०॥
विबन्धगौरवोद्गारहृल्लासारोचकादयः।
पाचनैस्तान् भिषक् प्राज्ञः प्रायेणादावुपाचरेत्॥२१॥
एत एव यथोद्दिष्टा येषामल्पबला गदाः।
पिपासानिग्रहैस्तेषामुपवासैश्च ताञ्जयेत्॥२२॥
रोगाञ्ज416येन्मध्यबलान् व्यायामातपमारुतैः।
बलिनां किं पुनर्येषां रोगाणामवरं417 बलम् ॥२३॥
त्वग्दोषिणां प्रमूढानां418 स्निग्धाभिष्यन्दिबृंहिणाम्।
शिशिरे लङ्घनं शस्तमपि वातविकारिणाम्॥२४॥
अदिग्धविद्ध419मक्लिष्टं420 वयःस्थं सात्म्यचारिणाम्।421
मृगमत्स्यविहङ्गानां मांसं बृंहणमुच्यते॥२५॥
क्षीणाः क्षताः कृशा वृद्धा दुर्बला नित्यमध्वगाः।
स्त्रीमद्यनित्या ग्रीष्मे च बृंहणीया नराः स्मृताः॥२६॥
शोषार्शोग्रहणीदोषैर्व्याधिभिः कर्शिताश्च ये।
तेषां क्रव्यादमांसानां बृंहणा लघवो रसाः॥२७॥
स्नानमुत्सादनं स्वप्नोमधुराः स्नेहबस्तयः।
शर्कराक्षीरसर्पीषि सर्वेषां विद्धि बृंहणम्॥२८॥
कटुतिक्तकषायाणां सेवनं स्त्रीष्वसंयमः।
खलि422पिण्याकतक्राणां मध्वादीनां च रूक्षणम्॥२९॥
अभिष्यन्दा महादोषा मर्मस्था व्याधयश्च ये।
ऊरुस्तम्भप्रभृतयो रूक्षणीया निदर्शिताः॥३०॥
स्नेहाः स्नेहयितव्याश्च स्वेदाः स्वेद्याश्च ये नराः।
स्नेहाध्याये मयोक्तास्ते स्वेदाख्ये च सविस्तरम्॥३१॥
द्रवं तन्वसरं यावच्छीतीकरणमौषधम्।
स्वादु तिक्तं कषायं च स्तम्भनं सर्वमेव तत्॥३२॥
पित्तक्षाराग्निदग्धा ये वम्यतीसारपीडिताः।
विषस्वेदातियोगार्ताः स्तम्भनीयास्तथाविधाः423॥३३॥
वातमूत्रपुरीषाणां विसर्गे गात्रलाघवे।
हृदयोद्गारकण्ठस्यशुद्धौ तन्द्राक्लमे गते॥३४॥
स्वेदे जाते रुचौ चापि क्षुत्पिपासासहोदये।
कृतं लङ्घनमादेश्यं निर्व्यथे चान्तरात्मनि॥३५॥
पर्वभेदोऽङ्गमर्दश्च कासः शोषो मुखस्य च।
क्षुत्प्रणाशोऽरुचिस्तृष्णा दौर्बल्यं श्रोत्रनेत्रयोः॥३६॥
मनसः संभ्रमोऽभीक्ष्णमूर्ध्ववातस्तमो हृदि।
देहाग्निबलनाशश्च लङ्घनेऽतिकृते भवेत्॥३७॥
बलं पुष्ट्युपलम्भश्च कार्श्यदोषविवर्जनम्424।
लक्षणं बृंहिते, स्थौल्यमति चात्यर्थबृंहिते॥३८॥
कृताकृतस्य लिङ्गं425 यल्लङ्घिते तद्धि रूक्षिते।
स्तम्भितः स्याद्बले लब्धे यथोक्तैश्चामयैर्जितैः॥३९॥
श्यावता स्तब्धगात्रत्वमुद्वेगो हनुसंग्रहः।
हृद्वर्चोनिग्रहश्च स्यादतिस्तम्भितलक्षणम्॥४०॥
लक्षणं चाकृतानां स्यात् षण्णामेषां समासतः।
तदोषधानां426 व्याधीनामशमो वृद्धिरेव च॥४१॥
इति षट् सर्वरोगाणां प्रोक्ताः सम्यगुपक्रमाः।
साध्यानां साधने सिद्धा मात्राकालानुरोधिनः॥४२॥
भवति चात्र।
दोषाणां बहुसंसर्गात् संकीर्यन्तेऽप्युपक्रमाः।427
षट्त्वं तु नातिवर्तन्ते न्नित्यंवातादयो यथा॥४३॥
तत्र श्लोकः।
इत्यस्मिंल्लङ्घनाध्याये व्याख्याताः षडुपक्रमाः।
यथाप्रश्नं भगवता चिकित्सा यैः प्रवर्तते॥४४॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने योजनाचतुष्के
लङ्घनबृंहणीयो नाम द्वाविंशतितमोऽध्यायः॥२२॥
त्रयोविंशतितमोऽध्यायः।
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अथातः संतर्पणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥२॥
संतर्पयति यः स्निग्धैर्मधुरैर्गुरुपिच्छिलैः।
नवान्नैर्नवमद्यैश्च मांसैश्चानूपवारिजैः॥३॥
गोरसैर्गौडिकैश्चान्नैः428 पैष्टिकैश्चातिमात्रशः।
चेष्टाद्वेषी दिवास्वप्नशय्यासनसुखे रतः॥४॥
रोगास्तस्योपजायन्ते संतर्पणनिमित्तजाः।
प्रमेहकण्डूपिडकाः कोठपाण्ड्वामयज्वराः429॥५॥
कुष्ठान्यामप्रदोषाश्च मूत्रकृच्छ्रमरोचकः।
तन्द्रा क्लैब्यमतिस्थौल्यमालस्यं गुरुगात्रता॥६॥
इन्द्रियस्रोतसां लेपो बुद्धेर्मोहः प्रमीलकः430।
शोफाश्चैवंविधाश्चान्ये शीघ्रमप्रतिकुर्वतः॥७॥
शस्तमुल्लेखनं तत्र विरेको रक्तमोक्षणम्।
व्यायामश्चोपवासश्च धूमाश्च स्वेदनानि च॥८॥
सक्षौद्रश्चाभयाप्राशः प्रायो रूक्षान्नसेवनम्।
चूर्णप्रदेहा ये चोक्ताः कण्डूकोठविनाशनाः॥९॥
त्रिफलारग्वधं पाठां सप्तपर्णं सवत्सकम्।
मुस्तं निम्बं समदनं जलेनोत्क्कथितं पिबेत्॥१०॥
तेन मेहादयो यान्ति नाशमभ्यस्यतो ध्रुवम्।
मात्राकालप्रयुक्तेन संतर्पणसमुत्थिताः॥११॥
मुस्तमारग्वधः पाठा त्रिफला देवदारु च।
श्वदंष्ट्रा खदिरो निम्बो हरिद्रेत्वक्च वत्सकात्॥१२॥
रसमेषां यथादोषं प्रातः प्रातः पिबेन्नरः।
संतर्पणकृतैः सर्वैर्व्याधिभिः संप्रमुच्यते॥१३॥
एभिश्चोद्वर्तनोद्धर्ष431स्नानयोगोपयोजितैः।
त्वग्दोषाः प्रशमं यान्ति तथा स्नेहोपसंहितैः॥१४॥
कुष्ठं गोमेदको हिङ्गु क्रौञ्चास्थि त्र्यूषणं वचा।
वृषकैले श्वदंष्ट्राच खराह्वा चाश्मभेदकः॥१५॥
तक्रेण दधिमण्डेन बदराम्लरसेन वा।
मूत्रकृच्छ्रं प्रमेहं च पीतमेतद्व्यपोहति॥१६॥
तक्राभयाप्रयोगैश्च त्रिफलायास्तथैव च।
अरिष्टानां प्रयोगैश्च यान्ति मेहादयः शमम्432॥१७॥
व्यूषणं त्रिफला क्षौद्रं क्रिमिघ्नं साजमोदकः।
मन्थोऽयं सक्तवः सर्पिर्हितो लोहोदकाप्लुतैः433॥१८॥
व्योषं विडङ्गं शिग्रूणि त्रिफलां कटुरोहिणीम्।
बृहत्यौ द्वे हरिद्रेद्वे पाठां सातिविषां स्थिराम्॥१९॥
हिङ्गुकेबूकमूलानि यवानीधान्यचित्रकान्।
सौवर्चलमजाजीं च हपुषां चेति चूर्णयेत्॥२०॥
चूर्णतैलघृतक्षौद्रभागाः स्युर्मानतः समाः।
सक्तूनां षोडशगुणो भागः संतर्पणं434 पिबेत्॥२१॥
प्रयोगादस्य शाम्यन्ति रोगाः संतर्पणोत्थिताः।
प्रमेहा मूढवाताश्च कुष्ठान्यर्शांसि कामलाः॥२२॥
प्लीहा पाण्ड्वामयः शोफो मूत्रकृच्छ्रमरोचकः।
हृद्रोगो राजयक्ष्मा च कासः श्वासो गलग्रहः॥२३॥
क्रिमयो ग्रहणीदोषाः श्वैत्र्यं स्थौल्यमतीव च।
नराणां दीप्यते चाग्निः स्मृतिर्बुद्धिश्च वर्धते॥२४॥
व्यायामनित्यो जीर्णांशी यवगोधूमभोजनः।
संतर्पणकृतैर्दोषैः स्थौल्यं435 मुक्त्वा विमुच्यते॥२५॥
उक्तं संतर्पणोत्थानामपतर्पणमौषधम्।
वक्ष्यन्ते सौषधाश्चोर्ध्वमपतर्पणजा गदाः॥२६॥
देहाग्निबलवर्णौजःशुक्रमांसबलक्षयः।
ज्वरः कासानुबन्धश्च पार्श्वशूलमरोचकः॥२७॥
श्रोत्रदौर्बल्यमुन्मादः प्रलापो हृदयव्यथा।
विण्मूत्रसंग्रहः शूलं जङ्घोरुत्रिकसंश्रयम्॥२८॥
पर्वास्थिसंधिभेदश्च ये चान्ये वातजा गदाः।
ऊर्ध्ववाता436दयः सर्वे जायन्ते तेऽपतर्पणात्॥२९॥
तेषां संतर्पणं तज्ज्ञैः पुनराख्यातमौषधम्।
यत्तदात्वे437समर्थं स्यादभ्यासे वा तदिष्यते॥३०॥
सद्यः क्षीणो हि सद्यो वै तर्पणेनोपचीयते।
नर्ते संतर्पणाभ्यासाच्चिरक्षीणस्तु पुष्यति॥३१॥
देहाग्निदोषभैषज्यमात्राकालानुवर्तिना।
कार्यमत्वरमाणेन भेषजं चिरदुर्बले॥३२॥
हिता मांसरसास्तस्मै पयांसि च घृतानि च।
स्नानानि बस्तयोऽभ्यङ्गास्तर्पणास्तर्पणाश्च438 ये॥३३॥
ज्वरकासप्रसक्तानां कृशानां मूत्रकृच्छ्रिणाम्।
तृष्यतामूर्ध्ववातानां वक्ष्यन्ते तर्पणा हिताः॥३४॥
शर्करापिप्पलीमूल439घृतक्षौद्रैः समांशकैः।
सक्तुद्विगुणितो वृष्यस्तेषां मन्थः प्रशस्यते॥३५॥
सक्तवो मदिरा क्षौद्रं शर्करा चेति तर्पणम्।
पिबेन्मारुतविण्मूत्रकफपित्तानुलोमनम्॥३६॥
फाणितं सक्तवः सर्पिर्दधिमण्डोऽम्लकाञ्जिकम्।
तर्पणं मूत्रकृच्छ्रघ्नमुदावर्तहरं पिबेत्॥३७॥
मन्थः खर्जूरमृद्वीकावृक्षाम्लाम्लीकदाडिमैः।
परूषकैः सामलकैर्युक्तो मद्यविकारनुत्॥३८॥
स्वादुरम्लो जलकृतः सस्नेहो रूक्ष एव वा।
सद्यः संतर्पणो मन्थः स्थैर्यवर्णबलप्रदः॥३९॥
तत्र श्लोकः।
संतर्पणोत्था ये रोगा रोगा ये चापतर्पणात्।
संतर्पणीये तेऽध्याये सौषधाः परिकीर्तिताः॥४०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने योजनाचतुष्के
संतर्पणीयो नाम त्रयोविंशतितमोऽध्यायः॥२३॥
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चतुर्विंशतितमोऽध्यायः।
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अथातो विधिशोणितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
विधिना440 शोणितं जातं शुद्धं भवति देहिनाम्।
देशकालौकसात्म्यानां विधिर्यः संप्रेकाशितः441॥३॥
तद्विशुद्धं हि रुधिरं बलवर्णसुखायुषा।
युनक्ति प्राणिनां प्राणः शोणितं ह्यनुवर्तते॥४॥
प्रदुष्टबहुतीक्ष्णोष्णैर्मद्यैरन्यैश्च तद्विधैः।
तथाऽतिलवणक्षारैरम्लैः कटुभिरेव च॥५॥
कुलत्थमाषनिष्पावतिलतैलनिषेवणैः।
पिण्डालुमूलकादीनां हरितानां च सर्वशः॥६॥
जलजानूपबैलानां प्रसहानां च सेवनात्।
दध्यम्लमस्तुसक्तूनां सुरासौवीरकस्य च॥७॥
विरुद्धानामुपक्लिन्नपूतीनां भक्षणेन च।
भुक्त्वा दिवा प्रस्वपतां द्रवस्निग्धगुरूणि च॥८॥
अत्यादानं442 तथा क्रोधं भजतां चातपानलौ।
छर्दिवेगप्रतीघातात् काले चानवसेचनात्॥९॥
श्रमाभिघातसंतापैरजीर्णाध्यशनैस्तथा।
शरत्कालस्वभावाच्च शोणितं संप्रदुष्यति॥१०॥
ततः शोणितजा रोगाः प्रजायन्ते पृथग्विधाः।
मुखपाकोऽक्षिरांगश्च443 पूतिघ्राणास्यगन्धता॥११॥
गुल्मोपकुशवी सर्परक्तपित्तप्रमीलकाः।
वीद्रधी रक्तमेहश्च प्रदरो वातशोणितम्॥१२॥
वैर्वर्ण्य444मग्निसादश्च पिपासा गुरुगात्रता।
संतापश्चातिदौर्बल्यमरुचिः शिरसश्च रुक्॥१३॥
विदाहश्चानपानस्य तिक्ताम्लोद्गिरणं क्लमः।
क्रोधप्रचुरता बुद्धेः संमोहो लवणास्यता॥१४॥
स्वेदः शरीरदौर्गन्ध्यं मदः कम्पः स्वरक्षयः।
तन्द्रा निद्रातियोगश्च तमसश्चातिदर्शनम्॥१५॥
कण्ड्वरुः कोठपिडकाकुष्ठचर्मदलादयः।
विकाराः सर्व एवैते विज्ञेयाः शोणिताश्रयाः॥१६॥
शीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षाद्यैरुपकान्ताश्च ये गदाः।
सम्यक् साध्या न सिध्यन्ति रक्तजांस्तान्विभावयेत्॥१७॥
कुर्याच्छोणितरोगेषु रक्तपित्तहरींक्रियाम्।
विरेकमुपवासं445 वा स्रावकं शोणितस्य वा॥१८॥
बलदोषप्रमाणाद्वाविशद्ध्या रुधिरस्य वा।
रुधिरं स्रावयेज्जन्तोराश(म)यं प्रममीक्ष्यवा॥१९॥
अरुणाभं भवेद्वातातद्विशदंफेनिलं तनु।
पित्तात्पीतासितं रक्तं स्त्यायत्यौष्णयाच्चिरेण च॥२०॥
ईषत्पाण्डु कफाद्दुष्टं पिच्छिलं तन्तुमद्धनम्।
द्विदोषलिङ्गं संसर्गात्त्रिलिङ्गं सान्निपातिकम्॥२१॥
तपनीयेन्द्रगोपाभं पद्मालक्तकसंनिभम्।
गुञ्जाफलसवर्णंविशुद्धं विधि शोणितम्॥२२॥
नात्युष्णशीतं लघु दीपनीयं रक्तेऽपनीते हितमन्नपानम्।
तदा शरीरं ह्यनवस्थितासृगग्निर्विशेषेण च रक्षितव्यः॥२३॥
प्रसन्नवर्णेन्द्रियमिन्द्रियार्थानिच्छन्तमव्याहतपक्तृवेगम्।
सुखान्वितं मुष्टिबलोपपन्नंविशुद्धरक्तं पुरुषं वदन्ति॥२४॥
यदा तु रक्तवाहीनि रससंज्ञावहानि446च।
पृथक् पृथक् समस्ता वा स्रोतांसि कुपिता मलाः॥२५॥
मलिनाहारशीलस्य रजोमोहावृतात्मनः।
प्रतिहत्यावतिष्ठन्तेजायन्ते व्याधयस्तदा॥२६॥
महमूर्च्छायसन्यासास्तेषां विद्याद्विचक्षणः।
यथोत्तरं बलाधिक्यं हेतुलिङ्गोपशान्तिषु॥२७॥
दुर्बलं चेतसः स्थानं यदा वायुः प्रपद्यते।
मनो विक्षोभयन् जन्तोः संज्ञां संमोहयेत्तदा॥२८॥
पित्तमेवं कफश्चैवं मनोविक्षोभयन्नृणाम्।
संज्ञां नयत्याकुलतांविशेषश्चात्रवक्ष्यते ॥२९॥
सक्तानल्पद्रुताभाषं चलस्खलितचेष्टितम्।
विद्याद्वातमदाविष्टं रूक्षश्यावारुणाकृतिम् ॥३०॥
सक्रोधं परुषाभाषं447 संप्रहारकलिप्रियम्।
विद्यात्पित्तमाविष्टं रक्तपीतसिताकृतिम्॥३१॥
स्वल्पसम्बन्धवचनं तन्द्रा448लस्यसमन्वितम्।
विद्यात्कफमदाविष्टं पाण्डुं प्रध्यानतत्परम्॥३२॥
सर्वाण्येतानि रूपाणि सन्निपातकृते मदे।
जायन्ते शाम्यति त्वाशु मदो मद्यमदाकृतिः॥३३॥
यश्च मद्यमदः प्रोक्तो विषजो रोधिरश्च यः।
सर्व एते मदा नर्तेवातपित्तकफत्रयात्449॥३४॥
नीलं वा यदि वा कृष्णमाकाशमथवाऽरुणम्।
पश्यंस्तमः प्रविशति शीघ्रं च प्रबुद्धते॥३५॥
वेपथुश्चाङ्गमर्दश्चप्रपीडा हृदयस्य च।
कार्श्यंश्यावाऽरुणा छाया मूर्च्छाये वातसंंभवे॥३६॥
रक्तं हरितवर्णं वा वियत्पीतमथापि वा।
पश्यंस्तमः प्रविशति सस्वेदश्च प्रबुध्यते॥३७॥
सपिपासः ससंन्तापो रक्तपित्ताकुलेक्षणः।
संभिन्नवर्चाः पीतामो मूर्च्छायेपित्तसम्भवे॥३८॥
मेघसंकाशमाकाशभावृतं वा तमोघणैः450।
पश्यंस्तमः प्रविशति चिराच्चप्रतिबुध्यते॥३९॥
गुरुभिः प्रावृतैरङ्गर्यथैवेर्न्द्रेण चर्मणा।
सप्रसेकः सहृल्लासो मुर्च्छायेकफसंभवे॥४०॥
सर्वाकृतिः सन्निपातादपस्मार इवागतः।
स अन्तुं पातयत्याशु विना बीभत्सचैष्टितैः451॥४१॥
दोषेषु मदमूर्च्छायाः कृतवेगेषु452 देहिनाम्।
स्वयमेवोपशाम्यन्तिसंन्यासो नौषधैर्विना॥४२॥
वाग्देहमनसां चेष्टामाक्षिप्यातिबला मलाः।
संन्यस्यन्त्वबलं जन्तुं प्राणायतनसंश्रिताः453॥४३॥
स ना संन्याससंन्त्यस्तः काष्ठभृतो मृतोपमः।
प्राणैर्वियुज्यते शीघ्रंमुक्ता454सद्यः फलां क्रियाम्॥४४॥
दुर्गेऽम्भसियथा मज्जद्भाजनं त्वरया बुधः।
गृह्णीवात्तलवप्राप्तंतथा सन्यासपीडितम्॥४५॥
अञ्जनान्यवपीडाश्च धूमः प्रधमनानि च।
सूचीभिस्तोदनंशस्तंदाहः पीडा नखान्तरे॥४६॥
लुञ्चनं केशलोम्नांच दन्तैर्दशनमेव च।
आत्मगुप्तावघर्षाश्चहितास्तस्यावबोधने॥४७॥
संमूर्च्छितानि तीक्ष्णानि मद्यानि विविधानि च।
प्रभुतकटुयुक्तानि तस्यास्ये गालयेन्मुहुः455॥४८॥
मातुलुङ्गरसंतद्वन्महौषधसमायुतम्।
तद्वत्सौवर्चलंदद्यादयुक्तं मद्याम्लकाञ्चिकैः॥४९॥
हिङ्गूषणसमायुक्तंयावत् संज्ञाप्रबोधनात्।
प्रबुद्ध संज्ञमन्नैश्चलघुभिस्तमुपादिशेत्॥५०॥
विस्मापनैः स्मारणैश्चप्रियश्रुतिभिरेव च।
पटुभिर्गीतवादित्रशब्दैश्चित्रैश्चदर्शनैः॥५१॥
स्रंसनोल्लेखनैर्धूमैरञ्जनैः कवलग्रहैः।
शोणितस्यावसेकैश्च व्यायामोद्धर्षणैस्तथा॥५२॥
प्रबुद्धसंज्ञं मतिमाननुबद्धमुपक्रमेत्।
तस्य456 संरक्षितव्यं हि मनः प्रलयहेतुतः॥५३॥
स्नेहस्वेदोपपन्नस्य यथादोषं यथाबलम्।
पञ्च कर्म्माणि कुर्वीत मूर्च्छायेषु मदेषु च॥५४॥
अष्टाविंशत्यौषधस्य457 तथा तिक्तस्य सर्पिषः।
प्रयोगः शस्यते तद्वन्महतः षट्पलस्य वा॥५५॥
त्रिफलायाः प्रयोगो वा सघृतक्षौद्रशर्करः।
शिलाजतुप्रयोगो वा प्रयोगः पयसोऽपि वा॥५६॥
पिप्पलीनां प्रयोगो वा प्रयोगःचित्रकस्य वा।
रसायनांकौम्भस्य458 सर्पिषो वा प्रशस्यते॥५७॥
रक्तावसेकाच्छास्त्राणां सतां सत्त्ववतामपि।
सेवनान्मदमूर्च्छायाः प्रशाम्यन्ति शरीरिणाम्॥५८॥
तत्र श्लोकौ।
विशुद्धं चाविशुद्धं च शोणितं तस्य हेतवः।
रक्तप्रदोषजा रोगास्तेषु रोगेषु चौषधम्॥५९॥
मदमूर्च्छायसंन्यासहेतुलक्षणभेषजम्।
विधिशोणितकेऽध्याये सर्वमेतत् प्रकाशितम्॥६०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने योजनाचतुष्के
विधिशोणितीयो नाम चतुर्विंशतितमोऽध्यायः॥२४॥
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पञ्चविंशतितमोऽध्यायः।
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अथातो यज्जः पुरुषीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
पुरा प्रत्यक्षधर्माणं459 भगवन्तं पुनर्वसुम्।
समेतानां460 महर्षीणां प्रादुरासीदियं कथा॥३॥
आत्मेन्द्रियमनोर्थानां योऽयं पुरुषसंज्ञकः।
राशिरस्यामयानां च प्रागुत्पत्तिविनिश्चये॥४॥
अथ461 काशिपतिर्वाक्यं वामकोऽर्थवदन्तरा।
व्याजहारर्षिसमितिमभिसृत्या462भिवाद्य च॥५॥
किं नु स्यात्463पुरुषो यज्जस्तज्जास्तस्यामयाः464 स्मृताः।
न वेत्युक्ते नरेन्द्रेण प्रोवाचर्षीन् पुनर्वसुः॥६॥
सर्व एवामितज्ञानविज्ञानच्छिन्नसंशयाः।
भवन्तश्छेत्तुमर्हन्ति काशिराजस्य संशयम्॥७॥
पारीक्षिस्तत् परीक्ष्याग्रे मौद्गल्यो वाक्यमब्रवीत्।
आत्मजः पुरुषो रोगाश्चात्मजाः कारणं हि सः॥८॥
स चिनोत्युपभुङ्क्तेच कर्म कर्मफलानि च।
नह्यृते चेतनाधातोः465 प्रवृत्तिः सुखदुःखयोः466॥९॥
शरलोमा तु नेत्याह न ह्यात्माऽऽत्मानमात्मना।
योजयेव्द्याधिभिर्दुःखैर्दुःखद्वेषी कदाचन॥१०॥
रजस्तमोभ्यां तु मनः परीतं सत्त्वसंज्ञकम्।
शरीरस्य समुत्पत्तौ विकाराणां च कारणम्॥११॥
वार्योविदस्तु नेत्याह न ह्येकं कारणं मनः467।
नर्ते शरीरं शारीरा रोगा न468मनसः स्थितिः॥१२॥
रसजानि तु भूतानि व्याधयश्च पृथग्विधाः।
आपो हि रसवत्यस्ताः स्मृता निर्वृत्तिहेतवः469॥१३॥
हिरण्याक्षस्तु नेत्याह न ह्यात्मा रसजः स्मृतः।
नातीन्द्रियं470मनः सन्ति रोगाः शब्दादिजास्तथा॥१४॥
षटधातुजस्तु471 पुरुषो रोगाः षट्धातुजास्तथा।
राशिःषट्धातुजो ह्येष सांख्यैराद्यैः प्रकीर्तितः472॥१५॥
तथा ब्रुवाणं कुशिकमाह तन्नेति शौनकः473।
कस्मान्मातापितृभ्यां474 हि विना षड्धातुजो भवेत्॥१६॥
पुरुषः पुरुषाद्गौर्गौरश्वादश्वःप्रजायते475।
पैत्र्यामेहादयश्चोक्ता476रोगास्तावत्र कारणम्॥१७॥
भद्रकाप्यस्तु नेत्याह नाह्यन्धात् प्रजायते।
मातापित्रोरपि च ते प्रागुत्पत्तिर्न युज्यते477॥१८॥
कर्मजस्तु मतो जन्तुः कर्मजास्तस्य चामयाः।
नह्यृतेकर्मणो जन्म रोगाणां पुरुषस्य वा॥१९॥
भरद्वाजस्तु नेत्याह कर्ता पूर्वंहि कर्मणः।
दृष्टं न चाकृतं कर्म यस्य स्यात् पुरुषः फलम्478॥२०॥
भावहेतुः479 स्वभावस्तु व्याधीनां पुरुषस्य च।
खरद्रवचलोष्णत्वं तेजोन्तानां यथैव हि॥२१॥
काङ्कायनस्तु नेत्याह नह्यारम्भफलं भवेत्480।
भवेत् स्वभावाद्भावानामसिद्धिः सिद्धिरेव वा॥२२॥
स्रष्टा त्वमितसंकल्पो ब्रह्मापत्यं प्रजापतिः।
चेतनाचेतनस्यास्य जगतः481सुखदुःखयोः॥२३॥
तन्नेति भिक्षुरात्रेयो नह्यपत्यं प्रजापतिः।
प्रजाहितैषी सततं दुःखैर्युञ्ज्यादसाधुवत्॥२४॥
कालजस्त्वेव पुरुषः कालजास्तस्य चामयाः।
जगत् कालवशं सर्वं कालः सर्वत्र कारणम्॥२५॥
तथर्षीणां विवदतामुवाचेदं पुनर्वसुः।
मैवं वोचत तत्त्वं हि दुष्प्रापं पक्षसंश्रेयात्482॥२६॥
वादान् सप्रतिवादान् हि वदन्तो निश्चितानिव।
पक्षान्तं नैव गच्छन्ति तिलपीडकवद्गतौ483॥२७॥
मुक्त्वैवं वादसंघट्टमध्यात्ममनुचिन्त्यताम्।
नाविधूते तमः स्कन्धे484 ज्ञेये ज्ञानं प्रवर्तते॥२८॥
येषामेव485 हि भावानां संपत् संजनयेन्नरम्।
तेषामेव विपद्व्याधीन् विविधान् समुदीरयेत्॥२९॥
अथात्रेयस्य भगवतो वचनमनुनिशम्य पुनरेव वामकः काशिपतिरुवाच भगवन्तमात्रेयं—भगवन्! संपन्निमित्तजस्य पुरुषस्य विपन्निमित्तानां च रोगाणां किमभिवृद्धिकारणं भवतीति॥३०॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—हिताहारोपयोग एक एव पुरुषस्याभिवृद्धिकरो भवति, अहिताहारोपयोगः पुनर्व्याधीनामिति॥३१॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—कथमिह भगवन्! हिताहितानामाहारजातानां लक्षणमनपवादमभिजानीमहे, हितसमाख्यातानामाहारजातानामहितसमाख्यातानां च मात्राकालक्रियाभूमिदेहदोषपुरुषावस्थान्तरेषु विपरीतकारित्वमुपलभामहे इति॥३२॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—यदाहारजातमग्निवेश! समांश्चैव शरीरधातून् प्रकृतौ स्थापयति विषमांश्च समीकरोतीत्येतद्धितं विद्धि, विपरीतमहितमिति; एतद्धिताहितलक्षणमनपवादं भवति॥३३॥
एवंवादिनं च भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—भगवन्! नत्वेतदेवमुपदिष्टं भूयिष्ठकल्पाः486सर्वमिषजो विज्ञास्यन्ति॥३४॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—येषां हि विदितमाहारतत्त्वमग्निवेश! गुणतो द्रव्यतः कर्मतः सर्वावयवतश्च मात्रादयो भावाः, त एतदेवमुपदिष्टं विज्ञातुमुत्सहेरन्। यथा तु खल्वेतदुपदिष्टं भूयिष्ठकल्पाः सर्वभिषजो विज्ञास्यन्ति, तथैतदुपदेक्ष्यामो मात्रादीन् भावाननुदाहरन्तः487; तेषां हि बहुविधविकल्पा भवन्ति; आहारविधिविशेषांस्तु खलु लक्षणतश्चावयवतश्चानुव्याख्यास्यामः॥३५॥
तद्यथा—आहारत्वमाहारस्यैकविधम्, अर्थाभेदात्; स पुनर्द्वियोनिः,स्थावरजङ्गमात्मकत्वात्; द्विविधप्रभावः, हिताहितोदर्क488विशेषांत्; चतुर्विधोपयोगः, पानाशनभक्ष्यलेह्योपयोगात्; षडास्त्रादः, रसभेदतः षङ्विधत्वात् ; विंशतिगुणः, गुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्ष मन्दतीक्ष्णस्थिरसमृदुकठिनविंशदपिच्छिलश्लक्ष्णखरसूक्ष्मस्थूलसान्द्रद्रवानुगमनात; अपरिसंख्येयविकल्पः, द्रव्यसंयोगकरण489बाहुल्यात्॥३६॥
तस्य तु खलु ये ये विकारावयवा भूयिष्ठमुपयुञ्ज्यन्ते, भूयिष्ठकल्पानां490 च मनुष्याणां प्रकृत्यैव हिततमाश्चाहिततमाश्च, तांस्तान् यथावदुपदेक्ष्यामः(॥१॥)
तद्यथा—लोहितशालयः शूकधान्यानां पथ्यतमत्वेन श्रेष्ठतमा भवन्ति, मुद्राः शमीधान्यानां, आन्तरीक्षमुदुकानां, सैन्धवं लवणानां, जीवन्तीशाकं शाकानां, ऐणेयं मृगमांसानां, लावः पक्षिणां, गोधा बिलेशयानां, रोहितो मत्स्यानां, गव्यं सर्पिः सर्पिषां, गोक्षीरं क्षीराणां, तिलतैलं स्थावरजातानां स्नेहानां, वराहवसा अनूपमृगवसानां, चुलुकीवसा मत्स्यवसानां, पाकहंसवसा जलचरविहङ्गवसानां, कुक्कुटवसा विष्किरशकुनिवसानां, अजमेदः शाखादमेदसां, शृङ्गवेरं कन्दानां, मृद्धीका फलानां, शर्करा इक्षुविकाराणामिति प्रकृत्यैव हिततमानामाहारविकाराणां प्राधान्यतो द्रव्याणि व्याख्यातानि भवन्ति॥(२)॥
अत ऊर्ध्वमहितानप्युपदेक्ष्यामः—यवकाः शुकधान्यानामपथ्यत्वेन प्रकृष्टतमा भवन्ति, माषाःशमीधान्यानां, वर्षानादेयमुदकानां, औषरं लवणानां, सर्षपशाकं शाकानां, गोमांसं मृगमांसानां, काणकपोतः पक्षिणां, भेको बिलेशयानां, चिलिचिमो मत्स्यानां, आविकं सर्पिः सर्पिषां, अविक्षीरं क्षीराणां, कुसुम्भस्नेहःस्थावरस्नेहानां,महिषवसा आनूपमृगवसानां, कुम्भीरवसा मत्स्यवसानां, काकमद्गुवसा जलचरविहङ्गवसानां चटकवसा विष्किरशकुनिवसानां, हस्तिमेदः शाखादमेदसां, लिकुचं फलानां, आलुकं491 कन्दानां, फाणितमिक्षुविकाराणाम्; इति प्रकृत्यैवाहिततमानामाहारविकाराणां प्रकृष्टतमानि द्रव्याणि व्याख्यातानि भवन्ति। इति हिताहितावयवो व्याख्यात आहारविकाराणाम्॥३७॥
अतो भूयः कर्मौषधानां च492प्राधान्यतः सानुबन्धानि च द्रव्याण्य493नुव्याख्यास्यामः। तद्यथा—अन्नं वृत्तिकराणां श्रेष्ठ494, उदकमांश्वासकराणां495, सुरा श्रमहराणां क्षीरं जीवनीयानां, मांस बृंहणीयानां, रसस्तर्पणीयानां, लवणमन्नद्रव्यरुचिकराणां, अम्लं हृद्यानां496, कुक्कुटो बाल्यानां, नक्ररेतो वृष्याणां, मधु श्लेष्मपित्तप्रशमनानां, सर्पिर्वातपित्तप्रशमनानां, तैलं वातश्लेष्मप्रशमनानां, वमनं श्लेष्महराणां, विरेचनं पित्तहराणां, बस्तिर्वातहराणां, स्वेदो मार्दवकराणां, व्यायामः स्थैर्यकराणां, क्षारः पुंस्त्वोपघातिनां, तिन्दुकमनन्नद्रव्यरुचिकराणां, आमं कपित्थमकण्ठ्यानां, आविकं सर्पिरहृद्यानाम्, अजाक्षीरं शोषघ्नस्तन्यसात्म्यसांग्राहिकरक्तपित्तप्रशमनानाम्, अविक्षीरं श्लेष्मपित्तजननानां, महिषीक्षीरं स्वप्नजननानां, मन्दकं497दध्यभिष्यन्दकराणां, गवेधुकान्नं कर्शनीयानाम्, उद्दालकान्नं विरूक्षणीयानाम्, इक्षुर्मूत्रजननानां, यवाः पुरीषजननानां, जाम्बवं वातजननानां, शष्कुल्यः श्लेष्मपित्तजननानां, कुलस्था अम्लपित्तजननानां, माषाःश्लेष्मपित्तजननानां, मदनफलं वमनास्थापनानुवासनोपयोगिनां त्रिवृत् सुखविरेचनानां, चतुरङ्गुलो मृदुविरेचनानां, स्नुक्पयस्तीक्ष्णविरेचनानां, प्रत्यकूपुष्पा शिरोविरेचनानां, विडङ्गं क्रिमिघ्नानां, शिरीषो विषघ्नानां, खदिरः कुष्ठघ्नानां, रास्नावातहराणां, आमलकं वयःस्थापनानां, हरीतकी पथ्यानाम्, एरण्डमूलं वृष्यवातहराणां, पिप्पलीमूलं दीपनीयपाचनीयानाहप्रशमनानां, चित्रकमूलं दीपनीयपाचनीयगुदशूलशोथार्शोहराणां, पुष्करमूलं हिक्काश्वासकासपार्श्वशूलहराणां, मुस्तं सांग्राहिकदीपनीयपाचनीयानां, उदीच्यं निर्वापणीयदीपनीयपाचनीयच्छर्द्यतीसारहराणां, कट्वङ्गं संग्राहकदीपनीयपाचनीयानां, अनन्ता सांग्राहिकदीपनीयरक्तपित्तप्रशमनानां, अमृता सांग्राहिकवातहरदीपनीयश्लेष्मशोणितविबन्धप्रशमनानां, बिल्वं सांग्राहिकदीपनीयवातकफप्रशमनानां, अतिविषा दीपनीयपाचनीयसांप्राहिकसर्वदोषहराणां, उत्पलकुमुदपद्मकिञ्जल्कं सांग्राहिकरक्तपित्तप्रशमनानां, दुरालभा पित्तश्लेष्मप्रशमनानां, गन्धप्रियङ्गुः शोणितपित्तातियोगप्रशमनानां, कुटजत्वक्श्लेष्मपित्तरक्तसांग्राहिकोपशोषणानां, काश्मर्यफलं रक्तसांग्राहिकरक्तपित्तप्रशमनानां, पृश्निपर्णी सांग्राहिकवातहरदीपनीयवृष्याणां विदारिगन्धा वृष्यसर्वदोषहराणां, बला सांग्राहिकबल्यवातहराणां, गोक्षुरको बल्यमूत्रकृच्छ्रानिलहराणां, हिङ्गुनिर्यासइछेदनीयदीपनीयभेदनीयानुलोमिकवातकफप्रशमनानाम्,अम्लवेतसो भेदनीयदीपनीयानुलोमिकवातश्लेष्महराणां, यावशूकः स्रंसनीयपाचनीयार्शोघ्नानां, तक्राभ्यासो ग्रहणीदोषशोफार्शोघृतव्यापत्प्रशमनानां, क्रव्यादमांसरसाभ्यासो ग्रहणीदोषशोषार्शोघ्नानां क्षीरघृताभ्यासो रसायनानां समघृतशक्तुमाशाभ्यासो वृष्योदावर्तहराणां, तैलगण्डूषाभ्यासो दन्तबलरुचिकराणां, चन्दनो498डुम्बरे दाहनिर्वापणालेपनानां, रास्त्रागुरुणी शीतापनयनप्रलेपनानां, लामज्जकोशीरे दाहत्वग्दोषस्वेदापनयनप्रलेपनानां, कुष्ठं वातहराभ्यङ्गोपनाहयोगिनां, मधुकं चक्षुष्यवृष्यकेश्यकण्ठ्यवर्ण्यबल्यविरजनीयरोपणीयानां, वायुः प्राणसंज्ञाप्रदानहेतूनाम्, अग्निरामस्तम्भशीतशूलोद्वेपनप्रशमनानां, जलं स्तम्भनीयानां, मृद्भृष्टलोष्टनिर्वापितमुदकं499 तृष्णाच्छर्द्यतियोगप्रशमनानाम्, अतिमात्राशनमामप्रदोषहेतूनां, यथायग्न्यभ्यवहारोऽग्निसंधुक्षणानां, यथासात्म्यं चेष्टाभ्यवहारौ उपसेव्यानां, कालभोजनमारोग्यकराणां, तृतिराहारगुणानां, वेगसंधारणमनारोग्यकराणां, मद्यं सौमनस्यजननानां,मद्याक्षेपो धीधृतिस्मृतिहराणां, गुरुभोजनं दुर्विपाककराणां, एककालभोजनं सुखपरिणामकराणां, स्त्रीष्वतिप्रसङ्गः शोषकराणां, शुक्रवेगनिग्रहः षाण्ड्यकराणां, पराघातनमन्नाश्रद्धाजननानां500, अनशनमायुषो501 ह्रासकराणां, प्रमिताशनं कर्शनीयानां, अजीर्णाध्यशनं ग्रहणीदूषणानां, विषमाशनमग्निवैषम्यकराणां, विरुद्धवीर्याशनं निन्दितव्याधिकराणां, प्रशमः पथ्यानां, आयासः सर्वापथ्यानां, मिथ्यायोगो व्याधिमुखानां502, रजस्वलाभिगमनमलक्ष्मीमुखानां, ब्रह्मचर्यमायुष्याणां, परदारागमनमनायुष्याणां, संकल्पो503 वृष्याणां, दौर्मनस्यमवृष्याणां, अयथाबलमारम्भः प्राणोपरोधिनां, विषादो रोगवर्धनानां, स्नानं श्रमहराणां, हर्षः प्रीणनानां, शोकः शोषणानां, निवृत्तिः पुष्टिकराणां, पु(तु)ष्टिः स्वप्नकराणां, अतिस्वप्नस्तन्द्राकराणां, सर्वरसाभ्यासो बलकराणां, एकरसाभ्यासो दौर्बल्यकराणां, गर्भशल्यमाहार्याणां, अजीर्णमुद्धार्याणां, बालो मृदुभेषजीयानां, वृद्धो याप्यानां, गर्भिणी तीक्ष्णौषधव्यवायव्यायामवर्जनीयानां, सौमनस्यं गर्भधारणानां, संनिपातो दुश्चिकित्स्यानाम्, आमो विषमचिकित्स्यानां, ज्वरो रोगाणां, कुष्ठं दीर्घरोगाणां, राजयक्ष्मा रोगसमूहानां, प्रमेहोऽनुषङ्गिणां, जलौकसोऽनुशस्त्राणां, बस्तिस्तन्त्राणां504, हिमवानौषधिभूमीनां, सोम ओषधीनां, मरुभूरारोग्यदेशानाम्, अनूपोऽहितदेशानां, निर्देशकारित्वमातुरगुणानां, भिषक् चिकित्साङ्गानां, नास्तिको505 वर्ज्यानां, लौल्यं क्लेशकराणां, अनिर्देशकारित्वमरिष्टानां, अनिर्वेदो वार्तलक्षणानां506, वैद्यसमूहो निःसंशयकराणां, योगो वैद्यगुणानां, विज्ञानमौषधानां, शास्त्रसहितस्तर्कः साधनानां, संप्र507तिपत्तिः कालज्ञानप्रयोजनानाम् अव्यवसायकालातिपत्तिहेतून508, दृष्टकर्मता निःसंशयकराणां, असमर्थता भयकराणां, तद्विद्यसंभाषा बुद्धिवर्धनानाम्, आचार्यः शास्त्राधिगमहेतूनां, आयुर्वेदोऽमृतानां509 न हेतूनां चक्रः।"), सद्वचनमनुष्ठेयानाम्, असंबद्धवचममसंग्रहणसर्वाहितानां, सर्वसंन्यासः सुखकराणामिति॥३८॥
भवन्ति चात्र।
अग्र्याणां शतमुद्दिष्टं यद्द्विपञ्चाशदुत्तरम्।
अलमे510तद्विकाराणां विघातायोपदिश्यते॥३९॥
समानकारिणो येऽर्थास्तेषां श्रेष्ठस्य लक्षणम्।
ज्यायस्त्वं कार्यकारित्वे वरत्वं511 चाप्युदाहृतम्॥१०॥
वातपित्तकफानां च यद्यत् प्रशमने हितम्।
प्राधान्यतश्च निर्दिष्टं यव्याधिहरमुत्तमम्॥४१॥
एतन्निशम्य निपुणश्चिकित्सां संप्रयोजयेत्।
एवं कुर्वन् सदा वैद्यो धर्मकामौ समश्नुते॥४२॥
पथ्यं पथोऽनपेतं यद्यच्चोक्तं मनसः प्रियम्512।
यच्चाप्रियमपथ्यं च नियतं513 तन्न लक्ष्यते॥४३॥
मात्राकालक्रियाभूमिदेहदोषगुणान्तरम्।
प्राप्य तत्तद्धि दृश्यन्ते ते ते भावास्तथा तथा॥१४॥
तस्मात् स्वभावो निर्दिष्टस्तथा मात्रादिराश्रयः।
तदपेक्ष्योभयं कर्म प्रयोज्यं सिद्धिमिच्छता॥४५॥
तदान्त्रेयस्य भगवतो वचनं निशम्य पुनरपि भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—यथोद्देशमभिनिर्दिष्टः केवलोऽयमर्थो भगवता श्रुतश्चास्माभिः। आसवद्रव्याणामिदानीमनपवादं लक्षणमनतिसंक्षेपेणोपदिश्यमानं शुश्रूषामह इति॥४६॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—धान्यफलमूलसारपुष्पकाण्डपत्रत्वचो भवन्त्यासवयोनयोऽग्निवेश संग्रहेणाष्टौ शर्करानवमीकाः। तास्त्रेव द्रव्यसंयोगकरणतोऽपरिसंख्येयासु514 यथापथ्यतमानामासवानां चतुरशीतिं निबोध; तद्यथा—सुरासौवीरतुषोदकमैरेयमेदकधान्याम्लाः षड् धान्यासवा भवन्ति, मृद्वीकाखर्जूरकाश्मर्यधन्वनराजादनतृणशून्यपरूषकाभयामलकमृगलिण्डिकाजाम्बवकपित्थकुवलबदरकर्कन्धुपीलुप्रियालपनसन्यग्रोधाश्वत्थलक्षकपीतनोदुम्बराजमोदशृङ्गाटकशङ्खिनीफलासवाः षड्विंशतिर्भवन्ति, विदारिगन्धाश्वगन्धाकृष्णगन्धाशतावरीश्यामात्रिवृद्दन्तीद्रवन्तीबिल्वोरुबूकचित्रकमूलैरेकादश मूलांसवा भवन्ति, शालप्रियकाश्वकर्णचन्दनस्यन्दनखदिरकदरसप्तपर्णार्जुनासना रिमेदतिन्दुककिणिहीशमीशुक्तिपत्रशिंशपाशिरीषवञ्जुलधन्वनमधूकैः सारासवा विंशतिर्भवन्ति, पद्मोत्पलनलिनकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रमधूकप्रियङ्कुधातकीपुष्पैर्दश पुष्पासवा भवन्ति, इक्षुकाण्डेक्ष्विक्षुबालिकापुण्डूकचतुर्थाःकाण्डासवा भवति, पटोलताडकत्रासवौद्वौ भवतः, तिल्व515कलोध्रैलवालुकक्रमुकचतुर्थास्वगासवा भवन्ति, शर्करासव एक एवेति; एवमेषामासवानां चतुरशीतिः परस्परेणासंसृष्टानामासवद्रव्याणामुपदिष्टा भवति। एषामासवानामासुतत्वादा516सवसंज्ञा। द्रव्यसंयोगविभागविस्तरस्त्वेषां बहुविधविकल्पः संस्कारश्च; यथास्वं संयोगसंस्कारसंस्कृता ह्यासवाः स्वं स्वं कर्म कुर्वन्ति; संयोगंसंस्कारदेशकालमात्रादयश्च517 भावास्तेषां तेषामासवानां ते ते समुपदिश्यन्ते तत्तत्कार्यमभिसमीक्ष्येति॥४७॥
भवति चात्र।
मनःशरीराग्निबलप्रदानामस्वप्नशोकारुचिनाशनानाम्518।
संघर्षणानां प्रवरासवानामशीतिरुक्ता चतुरुत्तरैषा॥४८॥
तत्र श्लोकः।
शरीररोगप्रकृतौ मतानि519 तत्त्वेन चाहारविनिश्चयं520च।
उवाच यज्जःपुरुषादिकेऽस्मिन्मुनिस्तथाऽग्र्याणि वरासवांश्च॥४९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने अन्नपानचतुष्के यज्जःपुरुषीयोऽध्यायः पञ्चविंशतितमः॥२५॥
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षड्विंशोऽध्यायः।
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अथात आत्रेयभद्रकाप्यीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
आत्रेयो भद्रकाप्यश्च शाकुन्तेयस्तथैव च।
पूर्णाक्षश्चैव मौद्गल्यो हिरण्याक्षश्च कौशिकः॥३॥
यः कुमारशिरा नाम भरद्वाजः स चानधः।
श्रीमान् वार्योविदश्चैव राजा मतिमतां वरः॥४॥
निमिश्च राजा वैदेहो वडिशश्च महामतिः521।
काङ्कायनश्च बाह्लीको बाह्लीकभिषजां वरः॥५॥
एते श्रुतवयोवृद्धा जितात्मानो महर्षयः।
वने चैत्ररथे रम्ये समीयुर्विजिहीर्षवः॥६॥
तेषां तत्रोपविष्टानामियमर्थवती कथा।
बभूवार्थविदां सम्यग्रसाहारविनिश्चये॥७॥
एक एव रस इत्युवाच भद्रकाप्यो यं पञ्चानामिन्द्रियार्थानामन्यतमं जिह्वावैषयिकं522 भावमाचक्षते कुशलाः स पुनरुदकादनन्य इति; द्वौ रसाविति शाकुन्तेयो ब्राह्मणश्छेदनीय उपशमनीयश्चेति; त्रयो रसा इति पूर्णांक्षो मौद्गल्यश्छेदनीयोपशमनीयसाधारणा523इति; चत्वारो रसा इति हिरण्याक्षः कौशिकः स्वादुर्हितश्च524स्वादुरहितश्चास्वादुर्हितश्चास्वादुरहितश्चेति, पञ्च रसा इति कुमारशिरा भरद्वाजो भौमौद काग्नेयवायव्यान्तरिक्षाः; षड्रसा इति वार्थोविदो राजर्षिःगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाः; सप्त रसा इति निमिर्वैदेहो मधुराम्ललवणकटुकतिक्तकषायक्षाराः; अष्टौ रसा इति बडिशो धामार्गवो मधुराम्ललवणकटुतिक्तकषायक्षाराव्यक्ताः; अपरिसंख्येया रसा इति काङ्कायनो बाह्लीकभिषगाश्रयगुणकर्मसंस्वादविशेषाणामपरिमेयत्वात्525॥८॥
षडेव रसा इत्युवाच भगवानात्रेयः पुनर्वसुः मधुराम्ललवणकटुतिक्तकषायाः। तेषां षण्णां रसानां योनिरुदकं526, छेदनोपशमने द्वे कर्मणी, तयोर्मिश्रीभावात् साधारणत्वं, स्वाद्वस्वादुता भक्तिद्वेषौ527, हिताहितौ च प्रभावौ, पञ्चमहाभूतविकारास्त्वाश्रयाः प्रकृतिविकृतिविचारदेशकालवशाः528, तेष्वाश्रयेषु529 द्रव्यसंज्ञकेषु गुणा गुरुलघुशीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षाद्याः; क्षरणात्क्षारो530नासौ रसः, द्रव्यं हि तदनेकरससमुत्पन्नमनेकरसं कटुकलवणभूयिष्ठमनेकेन्द्रियार्थसमन्वितं करणाभिनिर्वृत्तं; अव्यक्तीभावस्तु531 खलु रसानां प्रकृतौ532भवस्यनुरसेऽनुरसमन्विते533 वा द्रव्ये; अपरिसंख्येयत्वं534 पुनस्तेषामा535श्रयादीनां भावानां विशेषापरिसंख्येयत्वान्न536युक्तं, एकैकोऽपि ह्येषामाश्रयादीनां भावानां विशेषानाश्रयते537, न च तस्मादन्यत्वमुपपद्यते; परस्परसंसृष्टभूयिष्ठत्वान्न538 चैषामभिनिर्वृत्तेर्गुणप्रकृतीनामपरिसंख्येयत्वं539 भवति, तस्मान्न संसृष्टानां रसानां कर्मोपदिशन्ति बुद्धिमन्तः। तच्चैव कारणमवेक्षमाणाः षण्णां रसानां परस्परेणासंसृष्टानां लक्षणपृथक्त्वमुपदेक्ष्यामः॥९॥
अग्रे तु तावद्द्रव्यभेदमभिप्रेत्य किंचिदभिधास्यामः। सर्वं द्रव्यं पाञ्चभौतिकमस्मिन्नर्थे540। तच्चेतनावदचेतनं च। तस्य गुणाःशब्दादयो गुर्वादयश्च द्रवान्ताः, कर्म पञ्चविधमुक्तं वमनादि।तत्र द्रव्याणि गुरुखरकठिणमन्दस्थिरविशदसान्द्रस्थूलगन्धगुणबहुलानि पार्थिवानि, तान्युपचयसंघात541गौरवस्थैर्यकराणि; द्रवस्त्रिग्धशीतमन्दसरसान्द्रमृदुपिच्छिलरसगुणबहुलान्याप्यानि, ताम्युपक्केदस्नेहब्रन्धविष्यन्दमार्दवप्रह्लादकराणि542उष्णतीक्ष्णसूक्ष्म543लघुरूक्षविशदरूपगुणबहुलान्यानेयानि तानि दाहपाकप्रभाप्रकाशवर्णकराणि544; लघुशीतरूक्षखरविशदसूक्ष्मस्पर्शगुणबहुलानिवायव्यानि, तानि रौक्ष्यग्लानिविचार545वैशद्यलाघवकराणि; मृदुलघुसूक्ष्मलक्ष्णशब्दगुणबहुलान्याकाशात्मकानि तानि मार्दवसौषिर्यलाघवकराणि॥१०॥
अनेनोपदेशेन546 नानौषधभूतं जगति किंचिद्द्रव्यमुपलभ्यते तां तां युक्तिमर्थं च तं तमभिप्रेत्य; न च खलु केवलं गुणप्रभावादेव द्रव्याणि कार्मुकाणि भवन्ति; द्रव्याणि हि द्रव्यप्रभावाद्गुणप्रभावाद्द्रव्यगुणप्रभावाच्च तस्मिंस्तस्मिन् काले तत्तदधिकरणमासाद्य तां547तां च युक्तिमर्थं च तं तमभिप्रेत्य यत् कुर्वन्ति तत् कर्म, येन कुर्वन्ति तद्द्वीर्यं, यन्त्र कुर्वन्ति तदधिकरणं, यदा कुर्वन्ति स कालः, यथा कुर्वन्ति स उपायः, यत् साधयन्ति तत् फलम्॥११॥
भेदश्चैषां त्रिषष्टिविधविकल्पो548द्रव्यदेशकालप्रभावाद्भवति, तमुपदेक्ष्यामः॥१२॥
स्वादुरम्लादिभिर्योगं शेषैरग्लादयः पृथक्।
यान्ति पञ्चदशैतानि द्रव्याणि द्विरसानि हि॥१३॥
पृथगम्लादियुक्तस्य योगः शेषैः पृथग्भवेत्।
मधुरस्य तथाऽम्लस्य लवणस्य कटोस्तथा॥१४॥
त्रिरसानि यथासंख्यं द्रव्याण्युतानि विंशतिः।
वक्ष्यन्ते तु चतुष्केण दुव्याणि दश पञ्च च॥१५॥
स्वाद्वम्लौ सहितौ युक्तौ लवणाद्यैः पृथग्गतैः।
योगं शेषैः पृथग्यातश्चतुष्करससंख्यया॥१६॥
सहितौ स्वादुलवणौ तद्वत् कट्वादिभिः पृथक्।
युक्तौ शेषैः पृथग्योगं यातः स्वादूषणौ तथा॥१७॥
कट्वाद्यैरम्ललवणौ संयुक्तौ सहितौ पृथक्।
यातः शेषैः पृथग्योगं शेषैरम्लकटू तथा॥१८॥
युज्येते तु कषायेण सतितौ लवणोषणौ।
षट् तु पञ्चरसान्याहुरेकैकस्यापवर्जनात्॥१९॥
षट्चैवैकरसानि स्युरेकं षड्रसमेव तु।
इति त्रिषष्टिर्द्रव्याणां निर्दिष्टा रससंख्यया॥२०॥
त्रिषष्टिः स्यादसंख्येया रसानुरसकल्पनात्।
रसास्तरतमाभ्यां549तां संख्यामतिपतन्ति हि॥२१॥
संयोगाः सप्तपञ्चाशत् कल्पना तु त्रिषष्टिधा।
रसानां तत्र550 योग्यत्वात् कल्पिता रसचिन्तकैः॥२२॥
क्वचिदेको रसः कल्प्यः संयुक्ताश्च रसाः क्वचित्।
दोषौषधादीन् संचिन्त्य भिषजा सिद्धिमिच्छता॥२३॥
द्रव्याणि द्विरसादीनि संयुक्तांश्च रसान् बुधाः।
रसानेकैकशो वाऽपि कल्पयन्ति गदान् प्रति॥२४॥
यः स्याद्रसविकल्पज्ञः स्याच्च दोषविकल्पवित्।
न स मुह्येद्विकाराणां हेतुलिङ्गोपशान्तिषु॥२५॥
व्यक्तः शुष्कस्य551 चादौ च रसो द्रव्यस्य लक्ष्यते।
विपर्ययेणानुरसो रसो नास्तीह सप्तमः॥२६॥
परापरत्वे युक्तिश्च संख्या संयोग एव च।
विभागश्च पृथक्त्वं च परिमाणमथापि च॥२७॥
संस्कारोऽभ्यास इत्येते गुणा ज्ञेयाः परादयः।
सिद्ध्युपायाश्चकित्साया लक्षणैस्तान् प्रचक्ष्महे॥२८॥
देशकालवयोमानपाकवीर्यरसादिषु।
परापरत्वे, युक्तिस्तु योजना या च युज्यते॥२९॥
संख्या स्याद्गणितं, योगः552सह संयोग उच्यते।
द्रव्याणां द्वन्द्वसर्वौककर्मजोऽनित्य एव च553॥३०॥
विभागस्तु विभक्तिः स्याद्वियोगो भागशो ग्रहः।
पृथक्त्वं स्यादसंयोगो वैलक्षण्यमनेकता॥३१॥
परिमाणं पुनर्मानं, संस्कारः करणं मतम्।
भावाभ्यसनमभ्यासः शीलनं सततक्रिया॥३२॥
इति स्वलक्षणैरुक्ता गुणाः सर्वे परादयः।
चिकित्सा यैरविदितैर्न यथावत् प्रवर्तते॥३३॥
गुणा गुणाश्रया नोक्तास्तस्माद्रसगुणान् भिषक्।
विद्याद्द्रव्यगुणान् कर्तुरभिप्रायाः554 पृथग्विधाः॥३४॥
चकारादार्द्रस्य च, आदौ चेति चकारादन्ते च; तेन शुष्कस्य वा आर्द्रस्य वा प्रथमजिह्वासंबन्धे आदावास्वादान्ते वा यो व्यक्तत्वेन मधुरोऽयमम्लोऽयमित्यादिना विकल्पेन गृह्यते स व्यक्तः; यस्तूतावस्थाचतुष्टयेऽपि व्यक्तो नोपलभ्यते, किं तर्हि अव्यपदेश्यतया छायामात्रेण कार्यमात्रेण वा मीयते सोऽनुरस इति वाक्यार्थः’ चक्रः।
अतश्च प्रकृतं555बुद्धादेशकालान्तराणि च।
तन्त्रकर्तुरभिप्रायानुपायांश्चार्थमादिशेत्556॥३५॥
षड् विभक्तीः557प्रवक्ष्यामि रसानामत उत्तरम्।
षट् पञ्चभूतप्रभवाः संख्याताश्च यथा रसाः॥३६॥
सौम्याः खल्वापोऽन्तरिक्षप्रभवाः प्रकृतिशीता लब्ध्यश्चाव्यक्तरसाश्च तास्त्वन्तरिक्षाद्भ्रश्यमाना558भ्रष्टाश्च पञ्चमहाभूतविकारगुणसमन्विता जङ्गमस्थावराणां भूतानां मूर्तीरभिप्रीणयन्ति, तासु मूर्तिषु षडभिमूर्च्छन्ति559 रसाः॥३७॥
तेषां षण्ण रसानां सोमगुणातिरेकान्मधुरो560 रसः, भूम्यग्निगुणभूयिष्ठत्वादम्लः, सलिलाग्निगुणभूयिष्ठत्वाल्लवणः, वाय्वग्निगुणभूयिष्टत्वात्कटुकः,वाय्वाकाशगुणातिरेकात्तिक्तः, पवनपृथ्वीगुणातिरेकात्कषाय इति। एवमेषां रसानां षत्वमुत्पन्नं न्यूनातिरेकविशेषान्महाभूतानां भूतानामिव स्थावरजङ्गमानां नानावर्णाकृतिविशेषाः; षडृतुकत्वाञ्च कालस्योपपन्नो महाभूतानां न्यूनातिरेक विशेषः॥३८॥
तत्राग्निमारुतात्मका रसाः प्रायेणोर्ध्वभाजः, लाघवादुत्प्लवनत्वाच्च561वायोरूर्ध्वज्वलनत्वाच्च वह्नेः; सलिलपृथिव्यात्मकास्तु प्रायेणाधोभागभाजः पृथिव्या गुरुत्वान्निम्नगत्वाचोदकस्य; व्यामिश्रात्मकाः पुनरुभयतोभागभाजः॥३९॥
तेषां षण्णां रसानामेकैकस्य यथाद्रव्यं562गुणकर्माण्यनुव्याख्यासामः।—
तत्र मधुरो रसः शरीरसात्म्याद्रसरुधिरमांसभेदोस्थिमज्जौजः शुक्राभिवर्धन आयुष्यः षडिन्द्रियप्रसादनो बलवर्णकरः पित्तविषमारुतघ्नस्तृष्णाप्रशमनस्त्वच्यः केश्यः कण्ठ्यो बल्यः प्रीणनो जीवनस्तर्पणो बृंहणः स्थैर्यकरः क्षीणक्षतसंधानकरो घ्राणमुखकण्ठौष्टजिह्वाप्रह्लादनोदाहमूर्च्छाप्रशमनः षट्पदपिपीलिकानामिष्टतमः स्निग्धः शीतो गुरुश्च; स एवंगुणोऽप्येक एवात्यर्थमुपयुज्यमानः स्थौल्यं मार्दवमालस्यमतिस्वप्नं गौरवमनन्नाभिलाषमग्निदौर्बल्यमास्यकण्ठयोर्मासाभिवृद्धिं तथा श्वासकासप्रतिश्यायालसकविसूचिकाशीतज्वरानाहास्यमाधुर्यवमथुसंज्ञास्वरप्रणाशगलगण्डगण्डमालाश्लीपदगलशोफबस्तिधमनीगलोपलेपाक्ष्यामयानभिष्यन्दानित्येवंप्रभृतीन् कफजान्व्याधीनापादयति॥(१)॥
अम्लो रसो भक्तं रोचयति, अग्निं दीपयति, देहं बृंहयति, ऊर्जयति, मनो बोधयति, इन्द्रियाणि दृढीकरोति, बलं वर्धयति, वातमनुलोमयति, हृदयं तर्पयति, आस्यमास्रावयति, भुक्तमपकर्षयति क्लेदयति जरयति, प्रीणयति, लघुरुष्णः स्निग्धश्च; स एवंगुणोऽप्येक एवात्यर्थमुपयुज्यमानो दन्तान् हर्षयति तर्षयति, संमीलयत्यक्षिणी, संवेजयति लोमानि, कफं विलाययति563, पित्तमभिवर्धयति, रक्तं दूषयति, मांसं विदहति, कायंशिथिलीकरोति, क्षीणक्षतकृशदुर्बलानां श्वयथुमापादयति, अपि च क्षताभिहतदष्टदग्धभग्नशूनप्रच्युतावमूत्रितपरिसर्पितच्छिन्नभिन्नविश्लिष्टविद्धोत्पिष्टादीन्564पाचयत्याग्नेयस्वभावात् परिदहति कण्ठमुरो हृदयं च॥(२)॥
लवणो रसः पाचनः क्लेदनो दीपनश्च्यावनश्छेदनो भेदनस्तीक्ष्णः सरो विकास्यधःस्रंस्य565वकाशकरो वातहरः स्तम्भबन्धसंघातविधमनः सर्वरसप्रत्यनीकभूतः, आस्यमास्रावयति, कफंविष्यन्दयति, मार्गान् विशोधयति, सर्वशरीरावयवान्मृदु करोति, रोचयत्याहारमाहारयोगी, नात्यर्थ गुरुः स्निग्ध उष्णश्च; स एवंगुणोऽप्येक एवात्यर्थमुपयुज्यमानः पित्तं कोपयति, रक्तं दूषयति566, तर्षयति, मूर्च्छयति, मोहयति, तापयति, दारयति, कुष्णाति मांसानि, प्रगालयति कुष्ठानि, विषं वर्धयति, शोफान् स्फोटयति, दन्तांश्र्यावयति, पुंस्त्वमुपहन्ति, इन्द्रियाण्युपरुणद्धि, वलीपलितखालित्यमापादयति, अपि च लोहितपित्ताम्लपित्तवी सर्पवातरक्तविचर्चिकेन्द्रलुप्तप्रभृतीन्विकारानुपजनयति॥(३ )॥
कटुको रसो वक्रं शोधयति, अग्निं दीपयति, भुक्तं शोषयति, घ्राणमास्रावयति, चक्षुर्विरेचयति स्फुटीकरोतीन्द्रियाणि, अलसकश्वयथूपचयोदर्दाभिष्यन्दस्नेहस्वेदक्लेदमलानुपहन्ति, रोचयत्यशनं, कण्डूर्विनाशयति567, व्रणानवसादयति, क्रिमीन्हिनस्ति, मांसंविलिखति, शोणितसंघातं भिनत्ति, बन्धांछिनत्ति, मार्गान्विवृणोति, श्लेष्माणं शमयति, लघुरुष्णो रूक्षश्च; स एवंगुणोऽप्येक एवात्यर्थमुपयुज्यमानो विपाकप्रभावात् पुंस्त्वमुपहन्ति, रसवीर्यप्रभावान्मोहयति, ग्लपयति, सादयति, कर्षयति, मूर्च्छयति, नमयति, तमयति, भ्रमयति, कण्ठं परिदहति, शरीरतापमुपजनयति, बलं क्षिणोति, तृष्णां चोपजनयति, अपिच वाय्वग्निगुण बाहुल्याममददवथु568कम्पतोदभेदैश्चरणभुजपीलुपार्श्व569पृष्ठप्रभृतिषु मारुतजान्विकारानुपजनयति॥(४)॥
तिक्तो रसः स्वयमरोचिष्णुरप्यरोचकघ्नो विषघ्नः कृमिघ्नो मूर्च्छादाहकण्डूकुष्ठतृष्णाप्रशमनस्त्वङ्मांसयोः स्थिरीकरणो ज्वरघ्नो दीपनः पाचनः स्तन्यशोधनो लेखनःक्लेदमेदोवसामज्जलसीकापूयस्वेदमूत्रपुरीषपित्तश्लेष्मोपशोषणो रूक्षः शीतो लघुश्च; स एवं गुणोऽप्येक एवात्यर्थमुपयुज्यमानो रौक्ष्यात् खरविशदस्वभावाच्चरसरुधिरमांसमेदोस्थिमज्जशुक्राण्युपशोषयति, स्रोतसां खरत्वमुपपादयति, बलमादत्ते, कर्शयति, ग्लपयति, मोहयति, भ्रमयति, वदनमुपशोषयति, अपरांश्च वातविकारानुपजनयति॥(५)॥
कषायो रसः संशमनः संग्राही संधानकरः570पीडनो571रोपणःशोषणःस्तम्भनः श्लेष्मपित्तरक्तप्रशमनः, शरीरक्लेदस्योपयोक्ता572, रूक्षः शीतो गुरुश्च; स एवंगुणोऽप्येक एवात्यर्थमुपयुज्यमान आस्यं शोषयति, हृदयं पीडयति, उदरमाध्मापयति, वाचं निगृह्णाति, स्रोतांस्यवबध्नाति, श्यावत्वमापादयति, पुंस्त्वमुपहन्ति, विष्ठभ्य जरां गच्छति573, वातमूत्ररेतः पुरीषाण्यवगृह्णाति, कर्शयति, ग्लापयति, तर्षयति, स्तम्भयति, खरविशदरूक्षत्वात् पक्षवधग्रहापतानकार्दितप्रभृतींश्च वातविकारानुपजनयतीति।(६)॥४०॥
एवमेते षड्रसाःपृथक्त्वेनैकत्वेन वा मात्रशः सम्यगुपयुज्यमाना उपकारकरा574 भवन्त्यध्यात्मलोकस्य575, अपकारकराः पुनरतोऽन्यथा भवन्त्युपयुज्यमानाः, तान् विद्वानुपकारार्थमेव मात्रशः सम्यगुपयोजयेदिति॥४१॥
भवन्ति चात्र।
शीतं वीर्येण यद्द्रव्यं मधुरं रसपाकयोः।
तयोरम्लं यदुष्णं च यच्चोष्णं576 कटुकं तयोः॥४२॥
तेषां रसोपदेशेन निर्देश्यो गुणसंग्रहः।
वीर्यतोऽविपरीतानां577 पाकतश्चोपदेक्ष्यते॥४३॥
यथा पयो यथा सर्पिर्यथा वा चव्यचित्रकौ।
एवमादीनि चान्यानि निर्दिशेद्रसतो भिषक्॥४४॥
मधुरं किंचिदुष्णं स्यात् कषायं तिक्तमेव च।
यथा महत्पञ्चमूलं यथाऽजानूपमामिषम्578॥४५॥
लवणं सैन्धवं नोष्णमम्लमामलकं तथा।
अर्कागुरुगुडूचीनां तिक्तानामुष्णमुच्यते579॥४६॥
किंचिदम्लं हि संग्राहि किंचिदम्लं भिनत्ति च।
यथा कपित्थं संग्राहि भेदि चामलकं यथा॥४७॥
पिप्पली नागरं वृष्यं कटु चावृष्यमुच्यते।
कषायः स्तम्भनः शीतः सोऽभयायामतोन्यथा॥४८॥
तस्माद्रसोपदेशेन न सर्वं द्रव्यमादिशेत्।
दृष्टं तुल्यरसेऽप्येवं द्रव्ये द्रव्ये गुणान्तरम्॥४९॥
रौक्ष्यात् कषायो रूक्षाणामुत्तमो मध्यमः कटुः।
तिक्तोऽवरस्तथोष्णानामुष्णत्वाल्लवणः परः॥५०॥
मध्योऽम्लः कटुकश्चान्त्यः, स्निग्धानां मधुरः परः।
मध्योऽम्लो लवणश्चान्त्यो रसः स्नेहान्निरुच्यते॥५१॥
मध्योत्कृष्टावराः शैत्यात् कषायस्वादुतिक्तकाः580।
स्वादुर्गुरुत्वादधिकः कषायाल्लवणोऽवरः॥५२॥
अम्लात् कटुस्ततस्तितो लघुत्वादुत्तमो मतः।
केचिल्लघूनामवरमिच्छन्ति लवणं रसम्॥५३॥
गौरवे लाघवे चैव सोऽवरस्तूभयोरपि581।
परं चातो विपाकानां लक्षणं संप्रवक्ष्यते॥५४॥
कटुतिक्तकषायाणां विपाकः प्रायशः कटुः।
अग्लोऽम्लं पच्यते, स्वादुर्मधुरं लवणस्तथा582॥५५॥
मधुरो लवणाम्लौ च स्निग्धभावान्त्रयो रसाः।
वातमूत्रपुरीषाणां प्रायो मोक्षे सुखा मताः॥५६॥
कटुतिक्तकषायास्तु रूक्षभावान्त्रयो रसाः।
दुःखायं मोक्षे दृश्यन्ते वातविण्मूत्ररेतसाम्॥५७॥
शुक्रहा बद्धविण्मूत्रो विपाको वातलः कटुः।
मधुरः सृष्टविण्मूत्रो विपाकः कफशुक्रलः॥५८॥
पित्तकृत् सृष्टविण्मूत्रः पाकोऽम्लः शुक्रनाशनः।
तेषां गुरुः स्यान्मधुरः कटुकाम्लावतोऽन्यथा ॥५९ ॥
विपाकलक्षणस्याल्पमध्यभूयिष्ठतां583प्रति।
द्रव्याणां गुणवैशेष्यात्तत्र तत्रोपलक्षयेत्॥६०॥
तीक्ष्णं रूक्षं मृदु स्निग्धं लघूष्णं गुरु शीतलम्584।
वीर्यमष्टविधं585केचित् केचिद्विविधमास्थिताः॥६१॥
शीतोष्णमिति, वीर्यं तु586क्रियते येन या क्रिया।
नावीर्यं कुरुते किंचित् सर्वा587वीर्यकृताः क्रियाः॥६२॥
रसो निपाते द्रव्याणां, विपाकः कर्मनिष्ठया।
वीर्यं यावदधीवासान्निपाताच्चोपलभ्यते588॥६३॥
रसवीर्यविपाकानां सामान्यं यत्र लक्ष्यते।
विशेषः कर्मणां चैव प्रभावस्तस्य स स्मृतः॥६४॥
कटुकः कटुकः पाके वीर्योष्णश्चित्रको मतः।
तद्वद्दन्ती प्रभावात्तु विरेचयति मानवम्589॥६५॥
विषं विषघ्नमुक्तं यत् प्रभावस्तत्र कारणम्।
ऊर्ध्वानुलोमिकं यच्च तत् प्रभावप्रभावितम्॥६६॥
मणीनां धारणीयानां कर्म यद्विविधात्मकम्।
तत् प्रभावकृतं तेषां, प्रभावोऽचिन्त्य उच्यते॥६७॥
किंचिद्रसेन कुरुते कर्म वीर्येण चापरम्।
द्रव्यं गुणेन पाकेन प्रभावेण च किंचन॥६८॥
रसं विपाकस्तौ वीर्यं प्रभावस्तान्यपोहति।
बलसाम्ये590 रसादीनामिति नैसर्गिकं बलम्॥६९॥
सम्यग्विपाकवीर्याणि प्रभावश्चाप्युदाहृतः।
षण्णां रसानां विज्ञानमुपदेक्ष्याम्यतः परम्॥७०॥
स्नेहनप्रीणनाह्लादमार्दवैरुपलभ्यते।
मुखस्थो मधुरश्चास्यं व्याप्नुवंल्लिम्पतीव च॥७१॥
दन्तहर्षान्मुखस्रावात्स्वेदनान्मुखबोधनात्।
प्राश्यैवाम्लं रसं विद्याद् विदाहाच्चास्यकण्ठयोः॥७२॥
प्रलीयन्591 क्लेदविष्यन्दमार्दवं कुरुते मुखे।
यः शीघ्रं लवणो ज्ञेयः स विदाहान्मुखस्य च॥७३॥
संवेजयेद्यो रसनां निपाते तुदतीव च।
विदहन्मुखनासाक्षिसंस्रावी स कटुः स्मृतः ॥७४॥
प्रतिहन्ति निपाते यो रसनं स्वदते न च।
स तिक्तोमुखवैशद्यशोषप्रह्लादकारकः॥७५॥
वैशद्यस्तम्भजाड्यैर्यो रसनं योजयेद्रसः।
बध्नातीव च यः कण्ठं कषायः स विकास्य(श्य)पि॥७६॥
एवंवादिनं592 भगवन्तमात्रेयं पुनरग्निवेश उवाच—भगवन्! श्रुतमेतदवितथमर्थसंपद्युक्तं भगवतो यथावद्द्रव्यगुणकर्माधिकारे वचः, परं त्वाहारविकाराणां वैरोधिकानां लक्षणमनतिसंक्षेपेणोपदिश्यमानं शुश्रूषामह इति॥७७॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—देहधातुप्रत्यनीकभूतानि द्रव्याणि देहधातुभिर्विरोधमापद्यन्ते593परस्परगुणविरुद्धानि कानिचित्, कानिचित् संयोगात्, संस्कारादपराणि, देशकालमात्रादिभिश्चापराणि, तथा स्वभावादपराणि॥७८॥
तत्र यानि द्रव्याण्याहारमधिकृत्य भूयिष्ठमुपयुज्यन्ते तेषामेकदेशं वैरोधिकमधिकृत्योपदेक्ष्यामः—न मत्स्यान् पयसा सहाभ्यवहरेत्, उभयं ह्येतन्मधुरं मधुरविपाकं महाभिष्यन्दि594 शीतोष्णत्वाद्विरुद्धवीर्यं विरुद्धवीर्यत्वाच्छोणितप्रदूषणाय महाभिष्यन्दित्वान्मार्गोपरोधाय चेति॥७९॥
तदात्रेयवचनमनुनिशम्य भद्रकाप्योऽभिवेशमुवाच—सर्वानेव मत्स्यान् पयसा सहाभ्यवहरेदन्यत्रैकस्माच्चिलिचिमात्; स पुनः शकली लोहितनयनः सर्वतो लोहितराजी रोहिताकारः प्रायो भूमौ चरति, तं चेत् पयसा सहाभ्यवहरेन्निःसंशयं शोणितजानां विबन्धजानां595च व्याधीनामन्यतममथवा मरणमवाप्नुयादिति॥८०॥
नेति भगवानात्रेयः। सर्वानेव मत्स्यान्न पयसा सहाभ्यवहरेद्विशेषतस्तु चिलिचिमं, स हि महाभिष्यन्दित्वात् स्थूललक्षणतमानेसान्596व्याधीनुपजनयत्यामविषमुदीरयति च। ग्राम्यानूपौदकपिशितानि मधुगुडतिलपयोमाष597मूलकबिसर्विढधान्यैर्वा नैकध्यमद्यात्, तन्मूलं हि बाधिर्यान्ध्यवेपथुजाड्यवैकल्यमूकता598मैन्मिण्यमथवा मरणमवाप्नोति; न पौष्करं रोहिणीशाकं कपोतान् वा सार्षपतैलभृष्टान्मधुपयोभ्यां सहाभ्यवहरेत्,तन्मूलं हि शोणिताभिष्यन्दधमनीप्रविचयापस्मारशङ्खकगलंगण्डरोहिणीनामन्यतमं प्राप्नोत्यथवामरणं; न मूलकलशुनकृष्णगन्धार्जकसुमुखसुरसादीनि भक्षयित्वा पयः सेव्यं, कुष्ठाबाधभयात्; न जातुकशाकं न च लकुचं पक्वंमधुपयोभ्यां सहोपयोज्यं, एतद्धि मरणायाथवा बलवर्णतेजोवीर्योपरोधायालघुव्याधये षाण्ड्याय चेति; तदेव लकुचं पक्वंन माषसूपगुडसर्पािर्भिः सहोपयोज्यं, वैरोधिकत्वात्; तथाऽऽम्राम्रातकमातुलुङ्गलकुचकरमर्दमोचदन्तशठबदरकोशाम्रभव्यजाम्बवकपित्थतिन्तिडीकपारावताक्षोटपनसनारिकेलदाडिमामलकान्येवंप्रकाराणि चान्यानि द्रव्याणि सर्वं चाम्लं द्रवमद्रवं च पयसा सह विरुद्धं तथा कङ्गुवरकमकुष्ठककुलत्थमाषनिष्पावाः पयसा सह विरुद्धाः, प्रद्मोत्तरिकाशाकं शार्करो मैरेयो मधु च सहोपयुक्त विरुद्धं वातं चातिकोपयति; हारिद्रकः सर्षपतैलभृष्टो विरुद्धः पित्तं चातिकोपयति; पायसो मन्थानुपानो विरुद्धः श्लेष्माणं चातिकोपयति; उपोदिका तिलकल्कसिद्धा हेतुरतीसारस्य; बलाका वारुण्या सह कुल्माषैरपि विरुद्धा, सैव सूकरवसापरिभृष्टा सद्यो व्यापादयति; मयूरमांसमेरण्डसीसकावसक्तमेरण्डाग्निप्लुष्टमेरण्डतैलयुक्तं599 सद्यो व्यापादयति; हारीतकमांसं हारिद्रसीसकावसक्तं हारिद्राग्निप्लष्टंसद्यो व्यापादयति; तदेव भस्मपांसुपरिध्वस्तं सक्षौद्रंसद्यो मरणाय; मत्स्यनिस्तलनसिद्धाः पिप्पल्यस्तथा काकमाची मधु च मरणाय; मधु चोष्णमुष्णार्तस्य च मधु मरणाय; मधुसर्पिषी समधृते, मधु वारि चान्तरिक्षं समधृतं, मधुपुष्करबीजं, मधु पीत्वोष्णोदकं, भल्लातकोष्णोदकं, तक्रसिद्धः कम्पिल्लकः, पर्युषिता काकमाची, अङ्गारशूल्योभासश्चेति विरुद्धानि। इत्येतद्यथाप्रश्नमभिनिर्दिष्टं भवति॥ ८१
भवन्ति चात्र।
यत् किञ्चिद्दोषमुत्क्लेेश्य600 न निर्हरति कायतः।
आहारजातं तत् सर्वमहितायोपपद्यते॥८२॥
यच्चापि देशकालाग्निमात्रासात्म्यानिलादिभिः।
संस्कारतो वीर्यतश्च कोष्ठावस्थाक्रमैरपि॥८३॥
परिहारोपचाराभ्यां पाकात् संयोगतोऽपि च।
विरुद्धं तच्च न हितं हृत्संपद्विधिभिश्च यत्॥८४॥
विरुद्धं देशतस्तावद्रूक्षतीक्ष्णादि धन्वनि।
आनूपे स्निग्धशीतादि भेषजं यन्निषेव्यते॥८५॥
कालतोऽपि विरुद्धं यच्छीतरुक्षादिसेवनम्।
शीते काले, तथोष्णे च कटुकोष्णादिसेवनम्॥८६॥
विरुद्धमनले तदून्नानुरूपं चतुर्विधे।
मंधुसर्पिः समघृतं मात्रया तद्विरुध्यते॥८७॥
कटुकोष्णादिसात्म्यस्य स्वादुशीतादिसेवनम्।
यत्तत् सात्म्यविरुद्धं तु, विरुद्धं त्वनिलादिभिः॥८८॥
या समानगुणाभ्यासविरुद्धान्नौषधक्रिया।
संस्कारतो विरुद्धं तद्यद्भोज्यं विषवद्द्रजेत्॥८९॥
ऐरण्डसीसकासक्तं शिखिमांसं यथैव हि।
विरुद्धं वीर्यतो ज्ञेयं वीर्यतः शीतलात्मकम्॥९०॥
तत् संयोज्योष्णवीर्येण द्रव्येण सह सेव्यते।
क्रूरकोष्ठस्य चात्यल्पं मन्दवीर्यमभेदनम्॥९१॥
मृदुकोष्ठस्य गुरु च भेदनीयं तथा बहु।
एतत् कोष्ठविरुद्धं तु, विरुद्धं स्यादवस्थया॥९२॥
श्रमव्यवायव्यायामसक्तस्यानिलकोपनम्।
निद्रालसस्यालसस्य भोजनं श्लेष्मकोपनम्॥९३॥
यच्चानुत्सृज्य विषमूत्रं भुंक्तेयश्चाबुभुक्षितः।
तच्च क्रमविरुद्धं स्याद्यच्चातिक्षुद्वशानुगः॥१४॥
परिहारविरुद्धं तु वराहादीन्निषेव्य यत्।
सेवेतोष्णं घृतादींश्च पीत्वा शीतं निषेवते॥१५॥
विरुद्धं पाकतश्चापि दुष्टदुर्दारुसाधितम्।
अपक्वतण्डुलात्यर्थपक्वदग्धं च यद्भवेत्॥१६॥
संयोगतो विरुद्धं तद्यथाऽम्लं पयसा सह।
अमनोरुचितं यच्च हृद्विरुद्धं तदुच्यते॥९७॥
संपविरुद्धं तद्विद्यादसंजातरसं तु यत्।
अतिक्रान्तरसं वाऽपि विपन्नरसमेव वा॥९८॥
ज्ञेयं विधिविरुद्धं तु भुज्यते निभृते न यत्।
तदेषंविधमन्नं स्याद्विरुद्धमुपयोजितम्॥९९॥
षाण्ड्यान्ध्यवीसर्पदुकोदराणां विस्फोटकोन्मादभगन्दराणाम्।
मूर्च्छामदाध्मानगलामयानां601 पाण्ड्वामयस्यामविषस्य चैव॥१००॥
किलासकुष्ठग्रहणीगदानां शोफास्रपित्त602ज्वरपीनसानाम्।
संतानदोषस्य603 तथैव मृत्योर्विरुद्धमन्नं प्रवदन्ति हेतुम्॥१०१॥
एषां खल्वपरेषां च वैरोधिकनिमित्तानां व्याधीनामिमे भावाः प्रतीकारा604भवन्ति। तद्यथा—वमनं, विरेचनं, तद्विरोधिनां605 च द्रव्याणां संशमनार्थमुपयोगः, तथाविधैश्च द्रव्यैः पूर्वमभिसंस्कारः606शरीरस्येति॥१०२॥
भवतश्चात्र।
विरुद्धाशनजान्रोगान् प्रतिहन्ति विरेचनम्।
वमनं शमनं चैव पूर्वं वा हितसेवनम्॥१०३॥
सात्म्यतोऽल्पतया वाऽपि दीप्ताग्नेस्तरुणस्य च।
स्नेहव्यायामबलिनां विरुद्धं वितथं भवेत्॥१०४॥
तत्र श्लोकाः।
मतिरासीन्महर्षीणां या या रसविनिश्चये।
द्रव्याणि गुणकर्मभ्यां द्रव्यसंख्या रसाश्रया॥१०५॥
करणं रससंख्याया रसानुरसलक्षणम्।
परादीनां गुणानां च लक्षणानि पृथक् पृथक्॥१०६॥
पञ्चात्मकानां षट्त्वंच रसानां येन हेतुना।
ऊर्ध्वानुलोमभाजश्च यद्गुणातिशयाद्रसाः॥१०७॥
षण्णां रसानां षट्त्वे च सातिभुक्ता विभक्तयः।
उद्देशश्चापवादश्च द्रव्याणां गुणकर्मणि॥१०८॥
प्रवरावरमध्यत्वं रसानां गौरवादिषु।
पाकप्रभावयोर्लिङ्गं वीर्यं संख्याविनिश्चयः॥१०९॥
षण्णामास्वाद्यमानानां रसानां यत् स्वलक्षणम्।
यद्यद्विरुध्यते यस्माद्येन यत्कारि चैव यत्॥११०॥
वैरोधिकनिमित्तानां व्याधीनामौषधं च यत्।
आत्रेयभद्रकाप्यीये तत् सर्वमवदन्मुनिः॥१११॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थानेऽन्नपानचतुष्के आत्रेयभद्रकाप्यीयो नाम षड्विंशतितमोऽध्यायः ॥२६॥
____________
सप्तविंशोऽध्यायः।
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अथातोऽन्नपानविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इष्टवर्णगन्धरसस्पर्शंविधिविहितमन्नपानं प्राणिनां प्राणिसंज्ञकानां607प्राणमाचक्षते कुशलाः, प्रत्यक्षफलदर्शनात्; तदिन्धना ह्यन्तरग्नेः स्थितः; तत् सत्त्वमूर्जयति, तच्छरीरधातुब्यूहबलवर्णेन्द्रियप्रसादकरंयथोक्तमुपसेव्यमानं, विपरीतमहिताय संपद्यते; तस्माद्धिताहिताचबोधनार्थमन्नपानविधिम खिलेनोपदेक्ष्यामोऽग्निवेश॥३॥
तत्स्वभावादुदकं608 क्लेदयति, लवणं विष्यन्दयति, क्षार; पाचयति, मधु संदधाति609, सर्पिः स्नेहयति, क्षीरं जीवयति, मांस बृहयति, रसः610प्रीणयति, सुरा जर्जरीकरोति611, सीधुरवधमयति612, द्राक्षासवो दीपयति, फाणितमाचिनोति613, दधि शोफं जनयति, पिण्याकशाकं ग्लपयति, प्रभूतान्तर्मलो माषसूपः, दृष्टिशुक्रघ्नः क्षारः, प्रायः पित्तलमम्लमन्यत्र दाडिमामलकात्, प्रायो मधुरं श्लेष्मलमन्यत्र मधुनः पुराणाच्चशालिषष्टिकयवगोधूमात्, प्रायस्तिक्तं वातलमवृष्यं चान्यत्र वेत्राग्रामृतापटोलपत्रात्, प्रायः कटुकं वातलमवृष्यं चान्यन्त्र पिप्पलीविश्वभेषजात्, प्रायः कषायं वातलमवृष्यं स्तम्भनं शीतं चान्यत्र हरीतक्याः, प्रायो लवणं श्लेष्मलमवृष्यं चान्यत्र सैन्धवात्॥४॥
परमतो वर्गसंग्रहेणाहारगारद्रव्याण्यनुव्याख्यास्यामः॥५॥
शुकधान्यशमीधान्यमांसशाकफलाश्रयान्।
वर्गान् हरितमद्याम्बुगोरसेक्षुविकारिकान्॥६॥
दश द्वौ चापरौ वर्गोकृतान्नाहारयोगिनाम्।
रसवीर्यविपाकैश्च प्रभावैश्च प्रचक्ष्महे॥७॥
अथ शूकधान्यवर्गः।
रक्तशालिर्महाशालिः कलमः शकुनाहृतः।
चूर्णको दीर्घशूकश्च गौरः पाण्डुकलाङ्गुलौ॥८॥
सुगन्धको614 लोहवालः शारिवाख्यः प्रमोदकः।
पतङ्गस्तपनीयश्च ये चान्ये शालयः शुभाः॥९॥
शीता रसे विपाके च मधुराः स्वल्पमारुताः।
बद्धाल्पवर्चसः स्निग्धा बृंहणाः शुक्रमूत्रलाः॥१०॥
रक्तशालिर्वरस्तेषां तृष्णाघ्नस्त्रिमलापहः।
महांस्तस्यानु कलमस्तस्याप्यनु ततः परे॥११॥
यवका हायनाः पांशुवाप्या615नैषधकादयः।
शालीनां शालयः कुर्वन्त्यनुकारं गुणागुणैः616॥१२॥
शीतः स्निग्धोऽगुरुः617स्वादुस्त्रिदोषघ्नः स्थिरात्मकः।
षष्टिकः प्रवरो गौरः कृष्णगौरस्ततोऽनु च॥१३॥
वरकोद्दालकौ चीनशारदोज्ज्वलदर्दुराः।
गन्धलाः कुरुविन्दाश्च षष्टिकाल्पान्तरा गुणैः॥१४॥
मधुरश्चाम्लपाकश्च ब्रीहिः पित्तकरो गुरुः।
बहुमूत्रपुरीषोष्मा त्रिदोषस्त्वेव पाटलः॥१५॥
सकोरदूषः श्यामाकः कषायमधुरो लघुः।
वातलः कफपित्तन्नः शीतः संग्राहिशोषणः॥१६
हस्तिश्यामाकनीवारतोयपर्णीगवेधुकाः।
प्रशान्तिकाम्भःश्यामाकलोहिताणुप्रियङ्गवः618॥१७॥
मुकुन्दझिण्टिगर्मूटीचारुका वरकास्तथा619।
शिविरोत्कटजूर्णाह्वाः श्यामाकसदृशा गुणैः॥१८॥
रूक्षः शीतोऽगुरुः स्वादुर्बहुवातशकुद्यवः।
स्थैर्यकृत् सकषायस्तु बल्यः श्लेष्मविकारनुत्॥१९॥
रूक्षः कषायानुरसो मधुरः कफपित्तहा।
मेदः क्रिमि विषघ्नश्च बल्यो वेणुयवो मतः॥२०॥
सन्धानकृद्वातहरो गोधूमः स्वादुशीतलः।
जीवनो बृंहणो वृष्यः स्निग्धः स्थैर्यकरो गुरुः॥२१॥
न (ना)न्दीमुखी मधूली च मधुरस्निग्धशीतले।
इत्ययं620 शुकधान्यानां पूर्वो वर्गः समाप्यते॥२२॥
इति शुकधान्यवर्गः प्रथमः।
______________
अथ शमीधान्यवर्गः।
कषाय मधुरो रूक्षः शीतः पाके कटुर्लघुः।
विशदेः श्लेष्मपित्तघ्नो621 मुद्गःसूप्योत्तमो मतः॥२३॥
वृष्यः परं वातहरः स्रिग्धोष्णो मधुरो गुरुः।
बल्यो बहुमलः पुंस्त्वं माषः शीघ्रं ददाति च॥२४॥
राजमाषः622 सरो रुच्यः कफशुक्राम्लपित्तनुत्623।
तत्स्वादुर्वातलो रूक्षः कषायो विशदो गुरुः॥२५॥
उष्णाः कषायाः पाकेऽम्लाः कफशुक्रानिलापहाः।
कुलत्था ग्राहिणः कासहिक्काश्वासार्शसां हिताः॥२६॥
मधुरा मधुराः पाके ग्राहिणो रूक्षशीतलाः।
मकुष्ठकाः प्रशस्यन्ते रक्तपित्तज्वरादिषु॥२७॥
चणकाश्च मसूराश्च खण्डिकाः सहरेणवः।
लघवः शीतमधुराः सकषाया विरुक्षणाः॥२८॥
पित्तश्लेष्मणि शस्यन्ते सूपेष्वालेपनेषु च।
तेषां मसूरः संग्राही कलायो वातलः परम्॥२९॥
स्निग्धोष्णमधुरस्तितः कषायः कटुकस्तिलः।
त्वच्यः केश्यश्च बल्यश्च वातघ्नः कफपित्तकृत्॥३०॥
शीतला मधुरा गुर्ब्योबलघ्न्यो रूक्षणात्मिकाः।
सस्नेहा बलिभिर्भोज्या विविधाः शिम्बिजातयः॥३१॥
शिम्बी रूक्षा कषाया च कोष्ठवातप्रकोपिणी।
न च वृष्या न चक्षुष्या विष्टभ्य च विपच्यते॥३२॥
आढकी कफपित्तघ्नीवातला, कफवातनुत्।
अवल्गुजःसैडगजो, निष्पावा वातपित्तलाः॥३३
काकाण्डोलात्मगुप्तानांमाषवत् फलमादिशेत्।
द्वितीयोऽयं शमीधान्यवर्गः प्रोक्तो महर्षिणा॥३४॥
इति शमीधान्यवर्गो द्वितीयः।
____________
अथ मांसवर्गः।
गोखराश्वतरोष्ट्राश्वद्वीपिसिंहर्क्षवानराः।
वृको व्याघ्रस्तरक्षुश्च बभ्रुमार्जारमूषिकाः॥३५॥
लोपाको जम्बुकःश्येनो वान्तादश्वाषवायसौ।
शशघ्नीमधुहाभासगृध्रोलूककुलिङ्गकाः॥३६॥
धूमीका624 कुररश्चेति प्रसहामृगपक्षिणः।
श्वेतः श्यामश्चित्रपृष्ठः कालकः625काकुलीमृगः॥३७॥
कूर्चिका चिल्लटो भेको गोधा शल्लकगण्डकौ।
कदली नकुलः श्वाविदिति भूमिशयाः स्मृताः॥३८॥
सृमरश्चमरः खड्गो महिषो गवयो गजः।
न्यङ्कुर्वराहश्चानूपा मृगाः सर्वे रुरुस्तथा॥३९॥
कूर्मः कर्कटको मत्स्यः शिशुमारस्तिमिङ्गिलः।
शुक्तिशङ्खोद्रकुम्भीरचुलुकीमकरादयः॥४०॥
इति वारिशयाः प्रोक्ता, वक्ष्यन्ते वारिचारिणः।
हंसः क्रौञ्चो बलाका च बकः कारण्डवः प्लवः॥४१॥
शरारी पुष्कराह्वश्व626 केशरी मणितुण्डकः627।
मृणालकण्ठो मद्गुश्च कादम्बः काकतुण्डकः॥४२॥
उत्क्रोशःपुण्डरीकाक्षो मेघरावोऽम्बुकुक्कुटी।
आरा नन्दीमुखी वाटी सुमुखाः सहचारिणः॥४३॥
रोहिणी कामकाली628 च सारसो रक्तशीर्षकः।
चक्रवाकस्तथाऽन्ये च खगाः सन्त्यम्बुचारिणः॥४४॥
पृषतः शरभो रामः श्वदंष्ट्रो मृगमातृका।
शशोरणौ कुरङ्गश्च गोकर्णःकोट्टकारकः॥४५॥
चारुष्कों हरिणैणौ च शम्बरः कालपुच्छकः।
ऋष्यश्च वरपोतश्च विज्ञेया जाङ्गला मृगाः॥४६॥
लावो वर्तीरकश्चैव वार्तीकः सकपिञ्चलः।
चकोरश्वोपचक्रश्च कुक्कुभो रक्तवर्ण(र्त)कः॥४७॥
लावाद्या विष्किरास्त्वेते वक्ष्यन्ते वर्तकादयः।
वर्तको वर्तिका चैव बर्ही तित्तिरिकुक्कुटौ॥४८॥
कङ्कसारपदेन्द्राभगोनर्दगिरिवर्तकाः।
क्रकरोऽवकरश्चैव वारट(ड)श्चेति विष्किराः॥४९॥
शतपत्रो भृङ्गराजः कोयष्टिर्जीवजीवकः।
कैरातः कोकिलोऽत्यूहो गोपपुत्रः प्रियात्मजः॥५०॥
लट्वालट्टूषको बभ्रुर्वटहा डिण्डिमानकः।
जटी दुन्दुभिवा629 (पा)क्कारलोहपृष्ठकुलिङ्गकाः॥५१
कपोतशुकसारङ्गाश्चिरिटीकङ्कुयष्टिकाः।
शारिका कलविङ्कश्चचटकोऽङ्गारचूटकः॥५२॥
पारावतःपान(ण्ड)विक इत्युक्ताः प्रतुदा द्विजाः।
प्रसह्य भक्षयन्तीति प्रसहास्तेन संज्ञिताः॥५३॥
भूशया बिलशायित्वादानूपाऽनूपसंश्रयात्630।
जले निवासाज्जलजा जलेचर्याज्जलेचराः॥५४॥
स्थलजा जाङ्गलाः प्रोक्ता मृगा जाङ्गलचारिणः।
विकीर्य विष्किराश्चैव प्रतुद्य प्रतुदाः स्मृताः॥५५॥
योनिरष्टविधा त्वेषा631मांसानां परिकीर्तिता।
प्रसहा भूशयानूपवारिजा वारिचारिणः॥५६॥
गुरुष्णस्त्रिग्धमधुरा बलोपचयवर्धनाः।
वृष्याः परं वातहराः कफपित्तविवर्धनाः॥५७॥
हिता व्यायामनित्येभ्यो नरा दीप्ताग्नयश्च ये।
प्रसहानां विशेषेण मांसं मांसाशिनां भिषक्॥५८॥
जीर्णार्शोग्रहणीदोषशोषार्तानां प्रयोजयेत्।
लावाद्यो वैष्किरोवर्गः प्रतुदा जाङ्गला मृगाः॥५९॥
लघवः शीतमधुराः सकषाया हिता नृणाम्।
पित्तोत्तरे वातमध्ये सन्निपाते कफानुगे॥६०॥
विष्किरा वर्तकाद्यास्तु प्रसहाल्पान्तरा गुणैः।
नातिशीतगुरुस्निग्धं मांसमाजमदोषलम्॥६१॥
शरीरधातुसामान्यादनभिष्यन्दि बृंहणम्।
मांसं मधुरशीतत्वाद्गुरु बृंहणमाविकम्॥६२॥
योनावजाविके632 मिश्रगोचरत्वादनिश्चिते।
सामान्येनोपदिष्टानां मांसानां स्वगुणैः पृथक्॥६३॥
केषांचिद्गुणवैशेष्याद्विशेष उपदेक्ष्यते।
दर्शनश्रोत्रमेधाग्निवयोवर्णस्वरायुषाम्॥६४॥
बर्ही हिततमो बल्यो वातघ्नो मांसशुक्रलः।
गुरुष्णस्निग्धमथुराः स्वरवर्णबलप्रदाः॥६५॥
बृंहणाः शुक्रलाश्चोक्ताहंसा मारुतनाशनाः।
स्निग्धाश्चोष्णाश्च वृष्याश्च बृंहणाः स्वरबोधनाः॥६६॥
बल्याः परं वातहराः स्वेदनाश्चरणायुधाः।
गुरूष्णो मधुरो नातिधन्वानूपनिषेवणात्॥६७॥.
तित्तिरिः संजयेच्छीघ्रं त्रीन्दोषाननिलोल्बणान्।
पित्तश्लेष्मविकारेषु सरक्तेषु कपिञ्जलाः॥६८॥
मन्दवातेषु शस्यन्ते शैत्यमाधुर्यलाघवात्।
लावाः कषायमधुरा लघवोऽग्निविवर्धनाः॥६९॥
सन्निपातप्रशमनाः कटुकाश्च विपाकतः।
कषायमधुराः633 शीता रक्तपित्तनिबर्हणाः॥७०॥
विपाके मधुराश्चैव कपोता गृहवासिनः।
तेभ्यो लघुतराः किंचित् कपोता वनवासिनः॥७१॥
शीताःसंग्राहिणश्चैव स्वल्पमूत्रकराश्च634 ते।
शुक्रमांसं कषायाम्लं विपाके कटु शीतलम्635॥७२॥
शोषकासक्षयहितं संग्राहि लघु दीपनम्।
कषायो विशदो रूक्षः शीतः पाके कटुर्लघुः॥७३॥
शशः स्वादुः प्रशस्तश्च संनिपातेऽनिलावरे।
चटका मधुराः स्निग्धा बलशुक्रविवर्धनाः636॥७४॥
सन्निपातप्रशमनाः शमना मारुतस्य च।
मधुरा मधुराः पाके त्रिदोषशमनाः शिवाः॥७५॥
लघवो बद्धविण्मूत्राः शीताश्चैणाः प्रकीर्तिताः।
गोधा विपाके मधुरा कषायकटुका रसे॥७६॥
वातपित्तप्रशमनी बृंहणी बलवर्धनी।
शल्लको मधुराग्लश्च विपाके कटुकः स्मृतः॥७७॥
वातपित्तकफघ्नश्च कासश्वासहरस्तथा।
गुरुष्णा मधुरा बल्या बृंहणाः पवनापहाः॥७८॥
मत्स्याः स्निग्धाश्च वृष्याश्च बहुदोषाः प्रकीर्तिताः।
शैवलाहारभोजित्वात् स्वप्नस्य च विवर्जनात्॥७९॥
रोहितो दीपनीयश्च लघुपाको महाबलः।
स्नेहनं बृंहणं वृष्यं श्रमघ्नमनिलापहम्॥८०॥
वराहपिशितं बल्यं रोचनं स्वेदनं गुरु।
बल्यो637 वातहरो वृष्यश्चक्षुष्यो बलवर्धनः॥८१॥
मेधास्मृतिकरः पथ्यः शोषघ्नः कूर्म उच्यते।
गव्यं केवलवातेषु पीनसे विषमज्वरे॥८२॥
शुष्ककासश्रमात्यग्निमांसक्षयहितं च तत् ।
स्त्रिग्धोष्णं मधुरं वृष्यं माहिषं गुरु तर्पणम्॥८३॥
दार्ढ्यं बृहत्त्वमुत्साहं स्वप्नंच जनयत्यपि।
खङ्गिमांसमभिष्यन्दि बलकृन्मधुरं स्मृतम्॥८४॥
स्नेहनं बृंहणं वर्ण्यं श्रमघ्नमनिलापहम्।
धार्तराष्ट्रचकोराणां दक्षाणां शिखिनामपि॥८५॥
चटकानां च यानि स्युरण्डानि च हितानि च।
क्षीणरेतःसु कासेषु हृद्रोगेषु क्षतेषु च॥८६॥
मधुराण्यविदाहीनि सद्योबलकराणि च।
शरीरबृंहणे नान्यदाद्यं मांसाद्विशिष्यते।
इति वर्गस्तृतीयोऽयं मांसानां परिकीर्तितः॥८७॥
इति मांसवर्गस्तृतीयः।
_______________
अथ शाकवर्गः।
पाठाशुषाशटीशाकं वास्तुकं सुनिषण्णकम्।
विद्याद्ग्राहि त्रिदोषघ्नं भिन्नवर्चस्638तुवास्तुकम्॥८८॥
त्रिदोषशमनी वृष्या काकमाची रसायनी।
नात्युष्णशीतवीर्या च भेदिनी कुष्टनाशनी॥८९॥
राजक्षवकशाकं तु त्रिदोषशमनं लघु।
ग्राहि शस्तं विशेषेण ग्रहण्यर्शोविकारिणाम्॥१०॥
कालशाकं तु कटुकं दीपनं गरशोफजित्।
लघूष्णं वातलं रूक्षं कालाख्यं639 शाकमुच्यते॥९१॥
दीपनी चोष्णवीर्या च ग्राहिणी कफमारुते।
प्रशस्यतेऽम्लचाङ्गेरी ग्रहण्यर्शोहिता च सा॥९२॥
मधुरा मधुरा पाके भेदिनी श्लेष्मवर्धनी।
वृष्या स्त्रिग्धा च शीता च मदघ्नी चाप्युपोदिका॥९३॥
रूक्षो मदविषघ्नश्च प्रशस्तो रक्तपित्तिनाम्।
मधुरो मधुरः पाके शीतलस्तण्डुलीयकः॥९४॥
मण्डूकपर्णी वेत्राग्रंकुचेला वनतिक्तकम् ।
कर्कोटकावल्गुजकौ पटोलं शकुलादनी॥९५॥
वृषपुष्पाणि शार्ङ्गेष्टा केबू(म्बु)कं सकठिल्लकम्।
नाडी कलायं गोजिह्वा वार्ताकं (की) तिलपर्णिका॥९६॥
कौलकं कार्कश नैम्बं शाकं पार्पटकं च यत्।
कफपित्तहरं तिक्तं शीतं कटु विपच्यते॥९७॥
सर्वाणि सूप्यकाशानि फञ्जी चिल्ली कुतुम्बकः।
आलुकानि च सर्वाणि सपत्राणि कठिञ्जरः॥९८॥
शणशाल्मलिपुष्पाणि कर्बुदारः सुवर्चला।
निष्पावः कोविदारश्च पत्तूरश्चुञ्चु(च्चु)पर्णिका॥९९॥
कुमारजीवो लोट्टाकः पालङ्क्यामारिषस्तथा।
कलम्बीनालिकासूर्यः कुसुम्भवृकधूमकौ ॥१००॥
लक्ष्मणा प्रपुनाडश्व नलिनीका कुठेरकः।
लोणिका यवशाकं च कूष्माण्डकमवल्गुजः॥१०१॥
जा(या)तुकः शालकल्याणी त्रिपर्णी पीलुपर्णिका।
शाकं गुरु च रूक्षं च प्रायो विष्टभ्य जीर्यति॥१०२॥
मधुरं शीतवीर्य च पुरीषस्य च भेदनम्।
स्विनं निष्पीडितरसं स्नेहाढ्यं तत् प्रशस्यते ॥ १०३ ॥
शणस्य कोविदारस्य कर्बुदारस्य शाल्मलेः।
पुष्पं ग्राहि प्रशस्तं च रक्तपित्ते विशेषतः॥१०४॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थलक्षपद्मादिपल्लवाः।
कषायाः स्तम्भनाः शीता हिताः पित्तातिसारिणाम्॥१०५॥
वायुं वत्सादनी हन्यात् कर्फ गण्डीरचित्रकौ।
श्रेयसी बिल्वपर्णी च बिल्वपत्रं च वातनुत्॥१०६॥
भण्डी शतावरीशाकं बला जीवन्तिकं च यत्।
पर्वण्याः पर्वपुष्याश्च वातपित्तहरं स्मृतम्॥१०७॥
लघु भिन्नशकृत्तिक्तं लाङ्गलक्युरुबूकयोः।
तिलवेतसशांकं च शाकं पञ्चाङ्गुलस्य च ॥१०८॥
वातलं कंटुतिक्ताम्लमधोमार्गप्रवर्तनम्।
रूक्षाम्लमुष्णं कौसुम्भं कफनं पित्तवर्धनम्॥१०९॥
त्रपुसैर्वारुके स्वादुगुरुविष्टम्भिशीतले।
मुखप्रियं च रूक्षं च मूत्रलं नपुसं त्वति॥११०॥
एर्वारुकं च संपक्वंदाहतृष्णाक्लमार्तिनुत्।
वर्चोभेदीन्यलाबूनि रूक्षशीतगुरूणि च॥१११॥
चिर्भेटेर्वारुके तद्वद्वचभेदहिते तु ते।
सक्षारं पक्वकूष्माण्डं मधुराम्लं तथा लघु॥११२॥
सृष्टमूत्रपुरीषं च सर्वदोषनिबर्हणम्।
केलूटं च कदम्बं च नदीमाषकमैन्दुकम्॥११३॥
विशदं गुरु शीतं च समभिष्यन्दि चोच्यते।
उत्पलानि कषायाणि पित्तरक्तहराणि च॥११४॥
तथा तालप्रलम्बं स्यादुरःक्षतरुजापहम्।
खर्जूरं तालशस्यं च रक्तपित्तक्षयापहम्॥११५॥
तरूटबिसशालूकक्रौञ्चादनकसेरुकम्।
शृङ्गाटमङ्कलोड्यं च गुरु विष्टम्भि शीतलम्॥११६॥
कुमुदोत्पलनालास्तु सपुष्पाः सफलाः स्मृताः।
शीताः स्वादुकषायाश्च कफमारुतकोपनाः॥११७॥
कषायमीषद्विष्टम्भि रक्तपित्तहरं स्मृतम् ।
पौष्करं तु भवेद्बीजं मधुरं रसपाकयोः॥११८॥
बल्यः शीतो गुरुः स्निग्धस्तर्पणो बृंहणात्मकः।
वातपित्तहरः स्वादुर्वृष्यो मुञ्जातकः परम्॥११९॥
जीवनो बृंहणो वृष्यः कण्ठ्यः शस्तो रसायने।
विदारिकन्दो बल्यश्च मूत्रलः स्वादुशीतलः॥१२०॥
अम्लीकायाः स्मृतः कन्दो ग्रहण्यर्शोहितो लघुः।
नात्युष्णः कफवातघ्नो ग्राही शस्तो मदात्यये॥१२१॥
त्रिदोषं बद्धविण्मूत्रं सार्षपं शाकमुच्यते।
तद्वत् स्याद्रक्तनालस्य रूक्षमम्लं विशेषतः॥१२२॥
तद्वत्पिण्डालुकं विद्यात् कन्दुत्वाच्च मुखप्रियम् ।
सर्पच्छन्नकवर्ज्यास्तु बह्व्योऽन्याश्छत्रजातयः॥१२३॥
शीताः पीनसकर्त्र्यश्च मधुरा गुर्व्य एव च।
चतुर्थः शाकवर्गोऽयं पत्रकन्दुफलाश्रयः॥१२४॥
इति शाकवर्गश्चतुर्थः।
__________
अथ फलवर्गः।
तृष्णादाहज्वरश्वासरक्तपित्तक्षतक्षयान्।
वातपित्तमुदावर्तं स्वरभेदं मदात्ययम्॥१२५॥
तिक्तास्यतामास्यशोषं कासं चाशु व्यपोहति।
मृद्वीका बृंहणी वृष्या मधुरा स्निग्धशीतला ॥१२६॥
मधुरं बृंहणं वृष्यं खर्जूरं गुरु शीतलम्।
क्षयेऽभिघाते दाहे च वातपित्ते च तद्धितम्॥१२७॥
तर्पणं बृंहणं फल्गु गुरु विष्टम्भि शीतलम्।
परूषकं मधूकं च वातपित्ते च शस्यते॥१२८॥
मधुरं बृंहणं बल्यमात्रातं तर्पणं गुरु।
सस्नेहं श्लेष्मलं शीतं वृष्यं विष्टभ्य जीर्यति॥१२९॥
तालशस्यानि सिद्धानि नारिकेलफलानि च।
बृंहणस्निग्धशीतानि बल्यानि मधुराणि च॥१३०॥
मधुराम्लकषायं च विष्टम्भि गुरु शीतलम्।
पित्तश्लेष्मकरं भव्यं ग्राहि वक्रविशोधनम्॥१३१॥
अम्लं परूषकं द्राक्षा बदराण्यारुकाणि च।
पित्तश्लेष्मप्रकोपीणि कर्कन्धुलकुचान्यपि॥१३२॥
नात्युष्णं गुरु संपक्कं640स्वादुप्रायं मुखप्रियम्।
बृंहणं जीर्यति क्षिप्रं641 नातिदोषलमारुकम्॥१३३॥
द्विविधं शीतमुष्णं च मधुरं चाम्लमेव च।
गुरु पारावतं ज्ञेयमरुच्यत्यग्निनाशनम्॥१३४॥
भव्यादल्पान्तरगुणं काश्मर्यफलमुच्यते ।
तथैवाल्पान्तरगुणं तूदमम्लं परूषकात्॥१३५॥
कषायमधुरं टङ्कं वातलं गुरु शीतलम्।
कपित्थमामं कण्ठघ्नं विषघ्नं ग्राहि शीतलम्॥१३६॥
मधुराम्लकषायत्वात् सौगन्ध्याच्च रुचिप्रदम्।
तदेव पक्वं642दोषघ्नं विषघ्नं ग्राहि गुर्वपि॥१३७॥
बिल्वं तु दुर्जरं पक्वंदोषलं पूतिमारुतम्।
स्निग्धोष्णतीक्ष्णं तद्बालं दीपनं कफवातजित्॥१३८॥
वातपित्तकरं643 बालमापूर्णं पित्तवर्धनम्।
पक्वमाम्रांजयेद्वायुं मांसशुक्रबलप्रदम्॥१३९॥
कषायमधुरप्रायं गुरु विष्टम्भि शीतलम्।
जाम्बवं कफपित्तघ्नं ग्राहि वातकरं परम्॥१४०॥
मधुरं बदरं स्निग्धं भेदनं वातपित्तजित्।
तच्छुष्कं कफवातघ्नं न च पित्ते विरुध्यते॥१४१॥
कषायमधुरं शीतं ग्राहि सिञ्चि (म्बि)तिकाफलम्।
गाङ्गेरुकं करोरं च बिम्बीतोदनधन्वनम्॥१४२॥
मधुरं सकषायं च शीतं पित्तकफापहम्।
संपक्वंपनसं मोचं राजादनफलानि च॥१४३॥
स्वादूति सकषायाणि स्निग्धशीतगुरूणि च।
कषायविशदत्वाच्च सौगन्ध्याच्च रुचिप्रदम्॥१४४॥
अवदंशक्षमं रूक्षं644 वातलं लवलीफलम्।
नीपं सभार्गकं645 पीलु तृणशून्यं विकङ्कतम्॥१४५॥
प्राचीनामलकं चैव दोषघ्नं गरहारि च।
ऐङ्गुदं तिक्तमधुरं स्निग्धोष्णं कफवातजित्॥१४६॥
तिन्दुकं कफपित्तघ्नं कषायमधुरं लघु।
विद्यादामलके सर्वान् रसांल्लवणवर्जितान्॥१४७॥
स्वेदमेदः कफोत्क्लेदपित्तरोगविनाशनम्।
रूक्षं स्वादु कषायाम्लं कफपित्तहरं परम्॥१४८॥
रसासृङ्मांसमेदोजान्दोषान् हन्ति बिभीतकम्।
अम्लं कषायमधुरं वातघ्नं ग्राहि दीपनम्॥१४९॥
स्निग्धोष्णं दाडिमं हृद्यं कफपित्ताविरोधि च।
रूक्षाम्लं दाडिमं यत्तु तत् पित्तानिलकोपनम्॥१५०॥
मधुरं पित्तनुत्तेषां तद्धि दाडिममुत्तमम्।
वृक्षाम्लं ग्राहि रूक्षोष्णं वातश्लेष्मणि शस्यते॥१५१॥
अम्लिकायाः फलं पक्वंतस्मादल्पान्तरं गुणैः।
गुणैस्तैरेव संयुक्तं भेदनं त्वम्लवेतसम्॥१५२॥
शूलेऽरुचौ विबन्धे च मन्देऽग्नौ मद्यविक्लवे646।
हिक्काकासे च श्वासे च वम्यां वर्चोगदेषु च॥१५३॥
वातश्लेष्मसमुत्थेषु सर्वेष्वेवोपदिश्यते।
केशरं मातुलुङ्गस्य लघु शेषमतोऽन्यथा॥१५४॥
गुर्वी त्वगस्य कटुका मारुतस्य च नाशिनी।
रोचनो दीपनो हृद्यः सुगन्धिस्त्वग्विवर्जितः॥१५५॥
कचूरः कफवातघ्नः श्वासहिक्काशंसां हितः।
मधुरं किंचिदम्लं च हृद्यं भक्तप्ररोचनम्647॥१५६॥
दुर्जरं वातशमनं नागरङ्गफलं गुरु।
वातामामिषुकाक्षोटमुकूलकनिकोचकाः॥१५७॥
गुरुष्णस्निग्धमधुराः सोरुमाणा बलप्रदाः।
वातना बृंहणा वृष्याः कफपित्ताभिवर्धनाः॥१५८॥
प्रियालमेषां सदृशं विद्यादौष्ण्यं विना गुणैः।
श्लेष्मलं मधुरं शीतं श्लेष्मातकफलं गुरु॥१५९॥
श्लेष्मलं गुरु विष्टम्भि चाङ्कोटफलमग्निजित्।
गुरूष्णं मधुरं रूक्षं केशघ्नं च शमीफलम्॥१६०॥
विष्टम्भयति कारञ्जं पित्तश्लेष्माविरोधि च।
आम्रातकं दन्तशठमम्लं सकरमर्दकम्॥१६१॥
रक्तपित्तकरं विद्यादैरावतकमेव च।
वातघ्नं दीपनं चैव वार्ताकं कटु तिक्तकम्॥१६२॥
वातलं कफपित्तघ्नं विद्यात् पर्पटकीफलम्।
पित्तश्लेष्मघ्नमम्लं च वातलं चाक्षिकीफलम्॥१६३॥
मधुराण्यनुपाकीनि648 वातपित्तहराणि च।
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षन्यग्रोधानां फलानि च॥१६४॥
कषायमधुराम्लानि वातलानि गुरूणि च।
भल्लातकास्थ्यग्निसमं तन्मांसं649 स्वादु शीतलम्।
पञ्चमः फलवर्गोऽयमुक्तः प्रायोपयोगिकः॥१६५॥
इति फलवर्गः॥५॥
____________
अथ हरितवर्गः।
रोचनं दीपनं वृष्यमार्द्रकं विश्वभेषजम्।
वातश्लेष्मविबन्धेषु रसस्तस्योपदिश्यते॥१६६॥
रोचनो दीपनस्तीक्ष्णः सुगन्धिर्मुखबोधनः650।
जम्बीरः कफवातघ्नः कृमिघ्नो भुक्तपाचनः॥१६७॥
बालं दोषहरं, वृद्धं त्रिदोषं, मारुतापहम्।
स्त्रिग्धसिद्धं, विशुष्कं तु मूलकं कफवातजित्॥१६८॥
हिक्काकासविषश्वासपार्श्वशुलविनाशनः।
पित्तकृत् कफवातघ्नः सुरसः पूतिगन्धहा॥१६९॥
यवानी चार्जकश्चैव शिशु शालेयभृ(मृ)ष्टकम्।
हृद्यान्यास्वादनीयानि पित्तमुत्केशयन्ति च॥१७०॥
गण्डीरो जलपिप्पल्यस्तुम्बुरुः शृङ्गवेरिका651।
तीक्ष्णोष्णकटुरुक्षाणि कफवातहराणि च॥१७१॥
पुंस्त्वघ्नः कटुरूक्षोष्णो भूस्तृणो652वक्रशोधनः।
स्वराश्वा653 कफवातघ्नी बस्तिरोगरुजापहा॥१७२॥
धान्यकं चाजगन्धा च सुमुखाश्चेति रोचनाः।
सुगन्धा नातिकटुका दोषानुत्क्लेशयन्ति च॥१७३॥
ग्राही गृञ्जनकस्तीक्ष्णो वातश्लेष्मार्शसां हितः।
स्वेदनेऽभ्यवहार्ये च योजयेत्तमपित्तिनाम्॥१७४॥
श्लेष्मलो मारुतघ्नश्च पलाण्डुर्न च पित्तनुत्654।
आहारयोगी बल्यश्च गुरुर्वृष्योऽथ रोचनः॥१७५॥
कृमिकुष्ठकिलासघ्नो वातघ्नो गुल्मनाशनः।
स्निग्धश्चोष्णश्च वृष्यश्च लशुनः कटुको गुरुः॥१७६॥
शुष्काणि कफवातघ्नान्येतान्येषां फलानि च।
हरितानामयं चैष षष्ठो वर्गः समाप्यते॥१७७॥
इति हरितवर्गः॥६॥
___________
अथ मद्यवर्गः।
प्रकृत्या मद्यमम्लोष्णमग्लं चोक्तं विपाकतः।
सर्वं सामान्यतस्तस्य विशेष उपदेक्ष्यते॥१७८॥
कृशानां सक्तमूत्राणां ग्रहण्यर्शोविकारिणाम्।
सुरा प्रशस्ता वातघ्नी स्तन्यरक्तक्षयेषु च॥१७९॥
हिक्काश्वासप्रतिश्यायकासवर्चोग्रहारुचौ।
छर्द्यानाहविबन्धेषु वातघ्नी मदिरा हिता॥१८०॥
शूलप्रवाहिकाटोपकफवातार्शसां हितः।
जगलो ग्राहिरूक्षोष्णः शोषघ्नो655भक्तपाचनः॥१८१॥
शोफार्शोग्रहणीदोषपाण्डुरोगारुचिज्वरान्।
हन्त्यरिष्टः कफकृतान् रोगान् रोचनदीपनः656॥१८२॥
मुखप्रियः सुखमदः सुगन्धिर्बस्तिरोगनुत्।
जरणीयः परिणतो हृद्यो वर्ण्यश्च शार्करः॥१८३॥
रोचनो दीपनो हृद्यः शोषशोफार्शसां हितः।
स्नेहश्लेष्मविकारघ्नो वर्ण्यः पक्वरसो मतः॥१८४॥
जरणीयो विबन्धनः स्वरवर्णविशोधनः ।
कर्शनः657 शीतरसिको हितः शोफोदरार्शसाम्॥१८५॥
सृष्टभिन्नशकद्वातो गौडस्तर्पणदीपनः।
पाण्डुरोगव्रणहिता दीपनी चाक्षिकी658 मता॥१८६॥
सुरासवस्तीव्रमदो वातघ्नो वदनप्रियः।
छेदी मध्वासवस्तीक्ष्णो मैरेयो मधुरो गुरुः॥१८७॥
धातक्यभिषुतो हृद्यो रूक्षो रोचनदीपनः।
माध्वीकवन्न चात्युष्णो मृद्वीकेक्षुरसासवः॥१८८॥
रोचनं दीपनं हृद्यं बल्यं पित्ता विरोधि च।
विबन्धघ्नं कफघ्नं च मधु659 लध्वल्पमारुतम्॥१८९॥
सुरा समण्डा रूक्षोष्णा यवानां वातपित्तला।
गुर्वी जीर्यति विष्टभ्य श्लेष्मला तु मधूलिका॥१९०॥
दीपनं जरणीयं च हृत्पाण्डुकृमिरोगनुत्।
ग्रहण्यर्शोहितं भेदि सौवीरकतुषोदकम्॥१९१॥
दाहज्वरापहं स्पर्शात् पानाद्वातकफापहम्।
विबन्धघ्नमवस्रंसि दीपनं चाम्लकाञ्जिकम्॥१९२॥
प्रायशोऽभिनवं मद्यं गुरु दोषसमीरणम्।
स्रोतसां शोधनं जीर्णं दीपनं लघु रोचनम्॥१९३॥
हर्षणं प्रीणनं बल्यं भयशोकश्रमापहम्।
प्रागल्भ्यवीर्यप्रतिभातुष्टिपुष्टिबलप्रदम्॥१९४॥
सात्त्विकैर्विधिवद्युक्त्या पीतं स्याद्मृतं यथा।
वर्गोऽयं सप्तमो मद्यमधिकृत्य प्रकीर्तितः॥१९५॥
इति मद्यवर्गः॥७॥
_____________
अथ जलवर्गः।
जलमेकविधं सर्वं पतत्यैन्द्रं नभस्तलात्।
तत् पतत् पतितं चैव देशकालावपेक्षते॥१९६॥
खात् पतत् सोमवाय्वर्कैः स्पृष्टं कालानुवर्तिभिः।
शीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षाद्यैर्यथासन्नं महीगुणैः॥१९७॥
शीतं शुचि शिवं मृष्टं विमलं लघु षड्गुणम्।
प्रकृत्या दिव्यमुदकं, भ्रष्टं पात्रमपेक्षते॥१९८॥
श्वेते कषायं भवति पाण्डुरे चैव तिक्तकम्।
कपिले क्षारसंसृष्टभूषरे लवणान्वितम्।
कटु पर्वतविस्रावे मधुरं कृष्णमृत्तिके॥१९९॥
एतत् षाड्गुण्यमाख्यातं महीस्थस्य जलस्य हि।
तथाऽव्यक्तरसं विद्यादैन्द्रं कारं हिमं च यत्॥२००॥
यदन्तरीक्षात् पततीन्द्रसृष्टं चोक्तैश्च पात्रैः परिगृह्यतेऽम्भः।
तदैन्द्रमित्येव वदन्ति धीरा नरेन्द्रपेयं सलिलं प्रधानम्॥२०१॥
ईषत्कषायमधुरं सुसूक्ष्मं विशदं लघु।
अरूक्षमनभिष्यन्दि सर्वं पानीयमुत्तमम्॥२०२॥
गुर्वभिष्यन्दि पानीयं वार्षिकं मधुरं नवम्।
तनु लध्वनभिष्यन्दि प्रायः शरदि वर्षति॥२०३॥
तत्तु ये सुकुमाराः स्युः स्निग्धभूयिष्ठभोजनाः।
तेषां भक्ष्ये च भोज्ये च लेह्ये पेये च शस्यते॥२०४॥
हेमन्ते660सलिलं स्निग्धं वृष्यं बलहितं गुरु।
किंचित्ततो लघुतरं शिशिरे कफवातजित्॥२०५॥
कषायमधुरं रूक्षं विद्याद्वासन्तिकं जलम्।
ग्रैष्मिकं त्वनभिष्यन्दि जलमित्येव निश्चयः॥२०६॥
ऋतावृताविहाख्याताः सर्व एवाम्भसो गुणाः।
विभ्रान्तेषु तु कालेषु यत्प्रयच्छन्ति तोयदाः॥२०७॥
सलिलं तत्तुदोषाय युज्यते नात्र संशयः।
राजभी राजमात्रैश्च सुकुमारैश्च मानवैः॥२०८॥
सुगृहीताः शरद्यापः प्रयोक्तव्या विशेषतः।
नद्यः पाषाणविच्छिन्नविक्षुब्धविहतोदकाः॥२०९॥
हिमवत्प्रभवाः पथ्याः पुण्या देवर्षिसेविताः।
नद्यः पाषाणसिकतावाहिन्यो विमलोदकाः॥२१०॥
मलयप्रभवा याश्च जलं तास्वमृतोपमम्।
पश्चिमाभिमुखा याश्च पथ्यास्ता निर्मलोदकाः॥२११॥
प्रायो मृदुवहा गुर्व्योयाश्च पूर्वसमुद्रगाः।
पारियात्रभवा याश्च विन्ध्यसयभवाश्च याः॥२१२॥
शिरोहृद्रोगकुष्ठानां ता हेतुः श्लीपदस्य च।
वसुधाकीटसर्पाखुमलसंदूषितोदकाः॥२१३॥
वर्षाजलवहा नद्यः सर्वदोषसमीरणाः ।
वापीकूपतडागोत्ससरःप्रस्रवणादिषु॥२१४॥
आनूपशैलधन्वानां661 गुणदोषैर्विभावयेत्।
पिच्छिलं कृमिलं क्लिन्नं पर्णशैवालकर्दमैः॥२१५॥
विवर्णंविरसं सान्द्रं दुर्गन्धं न हितं जलम्।
विस्त्रं त्रिदोषं लवणमम्बु यद्वरुणालयम्॥
इत्यम्बुवर्गः प्रोक्तोऽयमष्टमः सुविनिश्चितः॥२१६॥
इति जलवर्गः॥८॥
___________
अथ दुग्धवर्गः ।
स्वादु शीतं मृदु स्त्रिग्धं बहलं श्लक्ष्णपिच्छिलम्।
गुरु मन्दं प्रसन्नं च गव्यं दशगुणं पयः॥२१७॥
तदेवंगुणमेवौजः सामान्यादभिवर्धयेत्।
प्रवरं जीवनीयानां क्षीरमुक्तं रसायनम्॥२१८॥
महिषीणां गुरुतरं गव्याच्छीततरं पयः।
स्नेहान्यूनमनिद्राय हितमत्यग्नये च तत्॥२१९॥
रूक्षोष्णं क्षीरमुष्ट्रीणामीषत्सलवणं लघु।
शस्तं वातकफानाहकृमिशोफोदरार्शसाम्॥२२०॥
बल्यं स्थैर्यकरं सर्वमुष्णं चैकशफं पयः।
साम्लं सलवणं रूक्षं शाखावातहरं लघु॥२२१॥
छागं कषायमधुरं शीतं ग्राहि पयो लघु।
रक्तपित्तातिसारघ्नं क्षयकासज्वरापहम्॥२२२॥
हिक्काश्वासकरं तूष्णं पित्तश्लेष्मलमाविकम्।
हस्तिनीनां पयो बल्यं गुरु स्थैर्यकरं परम्॥२२३॥
जीवनं बृंहणं सात्म्यं स्नेहनं मानुषं पयः।
भावनं रक्तपित्ते च तर्पणं चाक्षिशूलिनाम्॥२२४॥
रोचनं दीपनं वृष्यं स्नेहनं बलवर्धनम्।
पाकेऽम्लमुष्णं वातघ्नं मङ्गल्यं बृंहणं दधि॥२२५॥
पीनसे चातिसारे च शीतके विषमज्वरे।
अरुचौ मूत्रकृच्छ्रे च कार्श्येच दधि शस्यते॥२२६॥
शरद्ग्रीष्मवसन्तेषु प्रायशो दधि गर्हितम्।
रक्तपित्तकफोत्थेषु विकारेष्वहितं च तत्॥२२७॥
त्रिदोषं मन्दकं, जातं वातघ्नं दधि, शुक्रलः662।
सरः, श्लेष्मानिलघ्नस्तु मण्डः स्त्रोतोविशोधनः॥२२८॥
शोफार्शोग्रहणीदोषमूत्रकृच्छ्रोदरारुचौ।
स्नेहव्यापदि पाण्डुत्वे तक्रं दद्याद्गरेषु च॥२२९॥
संग्राहि दीपनं हृद्यं नवनीतं नवोद्धृतम्।
ग्रहण्यर्शोविकारघ्नमर्दितारुचिनाशनम्॥२३०॥
स्मृतिबुद्ध्यग्निशुक्रौजः कफमेदोविवर्धनम्।
वातपित्तविषोन्मादशोषालक्ष्मीविषापहम्663॥२३१॥
सर्वस्नेहोत्तमं शीतं मधुरं रसपाकयोः।
सहस्रवीर्यं विधिविद्धृतं कर्मसहस्रकृत्॥२३२॥
मदापस्मारमूर्च्छायशोषोन्मादगरज्वरान्।
योनिकर्णशिरःशूलं घृतं जीर्णमपोहति॥२३३॥
सर्पीष्यजाविमहिषीक्षीरवत् स्वानि664निर्दिशेत्।
पीयूषो(षं) मोरटं चैव किलाटाविविधाश्च ये॥२३४॥
दीप्ताग्नीनामनिद्राणां सर्व एव सुखप्रदाः।
गुरवस्तर्पणा वृष्या बृंहणाः पवनापहाः॥२३५॥
विशदा गुरवो रूक्षा ग्राहिणस्तक्रपिण्डकाः।
गोरसानामयं वर्गो नवमः परिकीर्तितः॥२३६॥
इति गोरसवर्गः॥९॥
__________
अथेक्षुवर्गः।
वृष्यः शीतः सरः स्निग्धो बृंहणो मधुरो रसः।
श्लेष्मलो भक्षितस्येक्षोर्यान्त्रिकस्तु विदह्यते॥२३७॥
शैत्यात् प्रसादान्माधुर्यात् पौण्ड्काद्वंशकोऽवरः।
प्रभूतकृमिमज्जासृङ्मोदोमांसकरो गुडः॥२३८॥
क्षुद्रो गुडश्चतुर्भागत्रिमागार्धावशेषितः।
रसो665 गुरुर्यथापूर्वं धौतस्स्वल्पमलो गुडः॥२३९॥
ततो मत्स्याण्डिकाखण्डशर्करा विमलाः परम्।
यथा यथैषां वैमल्यं भवेच्छैत्यं तथा तथा॥२४०॥
वृष्या क्षीणक्षतहिता सस्नेहा गुडशर्करा।
कषायमधुरा शीता सतिक्ता यासशर्करा॥२४१॥
रूक्षा वम्यतिसारघ्नी च्छेदनी मधुशर्करा।
तृष्णासृक्पित्तदाहेषु प्रशस्ताः सर्वशर्कराः॥२४२॥
माक्षिकं भ्रामरं क्षौद्रं पौत्तिकं मधुजातयः।
माक्षिकं प्रवरं तेषां विशेषाद्भ्रामरं गुरु॥२४३॥
माक्षिकं तैलवर्णं स्याद्धृतवर्णं तु पौत्तिकम्।
क्षौद्रं कपिलवर्णं स्याच्छ्वेतंभ्रामरमुच्यते॥२४४॥
वातलं गुरु शीतं च रक्तपित्तकफापहम्।
संधान666 छेदनं रूक्षं कषायं मधुरं मधु॥२४५॥
हन्यान्मधूष्णमुष्णार्तमथवा सविषान्वयात्।
गुरुरूक्षकषायत्वाच्छैत्याच्चाल्पं हितं मधु॥२४६॥
नातः कष्टतमं किंचिन्मध्वामात्तद्धि मानवम्।
उपक्रमविरोधित्वात् सद्यो हन्याद्यथा विषम्॥२४७॥
(आमे सोष्णा क्रिया कार्या सा मध्वामे विरुध्यते।
मध्वामं दारुणं तस्मात् सद्यो हन्याद्यथा विषम्॥२४८॥)
नानाद्रव्यात्मकत्वाच्च योगवाहि परं मधु।
इतीविकृतिप्रायो वर्गोऽयं दशमो मतः॥२४९॥
इतीक्षुवर्गः॥१०॥
____________
अथ कृतान्नवर्गः।
क्षुत्तृष्णाग्लानि दौर्बल्यकुक्षिरोगज्वरापहा।
स्वेदाग्निजननी पेया वातवर्चोनुलोमनी॥२५०॥
तर्पणी ग्राहिणी लघ्वी हृद्या चापि विलेपिका।
मण्डःसंदीपयत्यग्निं वातं चाप्यनुलोमयेत्॥२५१॥
मृदूकरोति स्रोतांसि स्वेदं संजनयत्यपि।
लङ्घितानां विरिक्तानां जीर्णे स्रेहे च तृष्यताम्॥२५२॥
दीपनत्वाल्लघुत्वाच्च मण्डः स्यात् प्राणधारणः।
लाजपेया श्रमघ्नी तु क्षामकण्ठस्य देहिनः॥२५३॥
तृष्णातीसारशमनो धातुसाम्यकरः शिवः।
लाजमण्डोऽग्निजननो दाहमूर्च्छानिवारणः॥२५४॥
मन्दाग्निविषमाग्नीनां बालस्थविरयोषिताम्।
देयश्च सुकुमाराणां लाजमण्डः सुसंस्कृतः॥२५५॥
क्षुत्पिपासापहः पथ्यः शुद्धानां तु मलापहः।
शुतः पिप्पलिशुण्ठीभ्यां लाजमण्डोऽम्लदाडिमैः॥२५६॥
सुधौतः प्रस्रुतः स्त्रिन्नः संतप्तश्चौदनो लघुः।
भृष्टतण्डुलमिच्छन्ति गरे श्लेष्मामयेष्वपि॥२५७॥
अधौतोऽप्रस्रुतोऽस्विन्नः शीतश्चाप्योदनो गुरुः।
मांसशाकवसातैलघृतमजफलौदनाः॥२५८॥
बल्याः संतर्पणा हृद्या गुरवो बृंहयन्ति च।
तद्वन्माषतिलक्षीरमुद्रसंयोगसाधिताः॥२५९॥
कुल्माषा गुरवो रूक्षा वातला भिन्नवर्चसः।
स्विन्नभक्ष्यास्तु ये केचित् सौप्यगौधूमयावकाः॥२६०॥
भिषक् तेषां यथाद्रव्यमादिशेद्गुरुलाघवम्।
अकृतं कृतथूषं च तनुं सांस्कारिकं रसम्॥२६१॥
सूपमम्लमनम्लं च गुरुं विद्याद्यथोत्तरम्।
शक्तवो वातला रूक्षा बहुवर्चोऽनुलोमिनः॥२६२॥
तर्पयन्ति नरं शीघ्रं पीता सद्योबलाश्च667ते।
मधुरा लघवः शीताः सक्रवः शालिसंभवाः॥२६३॥
ग्राहिणो रक्तपित्तघ्नास्तृषाच्छर्दिज्वरापहाः।
कषायमधुराः शीता लघवो लाजसक्तवः।
हन्याव्द्याधीन्यवापूपो यावको वाट्य एव च॥२६४॥
उदावर्तप्रतिश्यायकासमेहगलग्रहान्।
धानासंज्ञास्तु ये भक्ष्याः प्रायस्ते लेखनात्मकाः॥२६५॥
शुष्कत्वात्तर्षणाश्चैव668विष्टम्भित्वाच्च दुर्जराः।
विरूढधानाः शष्कुल्यो मधुक्रोडाः सपिण्डकाः॥२६६॥
पूपाः पूपलिकाद्याश्च गुरवः पैष्टिकाः669 परम्।
फलमांसवसाशाकपललक्षौद्रसंस्कृताः॥२६७॥
भक्ष्या वृष्याश्च670बल्याश्च गुरवो बृंहणात्मकाः।
वेशवारो गुरुः स्निग्धो बलोपचयवर्धनः॥२६८॥
गुरवस्तर्पणा वृष्याः क्षीरेक्षुरसपूपकाः।
सगुडाःसतिलाश्चैव सक्षीरक्षौद्रशर्कराः॥२६९॥
भक्ष्या वृष्याश्च बल्याश्च परं तु गुरवः स्मृताः।
सस्नेहाःस्नेहसिद्धाश्च भक्ष्या विविधलक्षणाः॥२७०॥
गुरवस्तर्पणा वृष्या हृद्या गौधूमिका मताः।
संस्काराल्लघवः सन्ति भक्ष्या गौधूमपैष्टिकाः॥२७१॥
धानापर्पटपूपाद्यास्तान् बुद्ध्वानिर्दिशेत्तथा।
पृथुका गुरवो भृष्टान्671भक्षयेदल्पशस्तु तान्॥२७२॥
यावा विष्टभ्य जीर्यन्ति सरसा भिन्नवर्चसः।
सूप्यान्नविकृता भक्ष्या वातला रूक्षशीतलाः॥२७३॥
सकटुस्नेहलवणान् भक्षयेदल्पशस्तु तान्।
मृदुपाकाश्च ये भक्ष्याः स्थूलाश्च कठिनाश्च ये॥२७४॥
गुरवस्ते व्यतिक्रान्तपाकाः672 पुष्टिबलप्रदाः।
द्रव्यसंयोगसंस्कारं द्रव्यमानं पृथक् तथा॥२७५॥
भक्ष्याणामादिशेद्बुद्ध्वायथास्वं गुरुलाघवम्।
नानाद्रव्यैः समायुक्तः पक्त्वा673वह्निषु भर्जितः॥२७६॥
विमर्दको गुरुर्हृद्योवृष्यो बलवतां हितः।
रसाला बृंहणी वृष्या स्निग्धा बल्या रुचिप्रदा॥२७७॥
स्नेहनं तर्पणं हृद्यं वातघ्नं सगुडं दधि।
द्राक्षाखर्जूरकोलानां गुरु विष्टम्भि पानकम्॥२७८॥
परूषकाणां क्षौद्रस्य यच्चेक्षुविकृतिं प्रति।
तेषां कट्वम्लसंयोगान् पानकानां पृथक् पृथक्॥२७९॥
द्रव्यं मानं च विज्ञाय गुणकर्माणि निर्दिशेत्।
कट्वम्लस्वादुलवणा लघवो रागषाडवाः॥२८०॥
मुखप्रियाश्च हृद्याश्च दीपना भक्तरोचनाः।
आम्रामलकलेहाश्च बृंहणा बलवर्धनाः॥२८१॥
रोचनास्तर्पणाश्चोक्ताः स्नेहमाधुर्यगौरवात्।
बुद्ध्वासंयोगसंस्कारं द्रव्यमानं च तच्छ्रितम्॥२८२॥
गुणकर्माणि लेहानां तेषां तेषां तथा वदेत्।
रक्तपित्तकफोत्क्लेदि शुक्तं वातानुलोमनम्॥२८३॥
कन्दमूलफलाद्यं च तद्वद्विद्यात्तदासुतम्।
शिण्डाकी चासुतं चान्यत् कालाम्लं674 रोचनं लघु।
विद्याद्वर्गं कृतान्नानामेकादशमिमं भिषक्॥२८४॥
इति कृतान्नवर्गः॥११॥
___________
अथाहारयोगिवर्गः।
कषायानुरसं स्वादु सूक्ष्ममुष्णं व्यवायि च।
पित्तलं बद्धविण्मूत्रं न च श्लेष्माभिवर्धनम्॥२८५॥
वातघ्नेषूत्तमं बल्यं स्वच्यं मेधाग्निवर्धनम्।
तैलं संयोगसंस्कारात् सर्वरोगापहं मतम्॥२८६॥
तैलप्रयोगादजरा निर्विकारा जितश्रमाः।
आसन्नतिबलाः संख्ये दैत्याधिपतयः पुरा॥२८७॥
एरण्डतैलं मधुरं गुरु श्लेष्माभिवर्धनम्।
वातासृग्गुल्महृद्रोगजीर्णज्वरहरं परम्॥२८८॥
कटूष्णं सार्षपं तैलं रक्तपित्तप्रदूषणम्।
कफशुक्रानिलहरं कण्डूकोठविनाशनम्॥२८९॥
प्रियालतैलं मधुरं गुरु श्लेष्माभिवर्धनम्।
हितमिच्छन्ति नात्यौष्ण्यात् संयोगे वातपित्तयोः॥२९०॥
आतस्यं मधुराम्लं तु विपाके कटुकं तथा।
उष्णवीर्यं हितं वाते रक्तपित्तप्रकोपणम्॥२९१॥
कुसुम्भतैलमुष्णं च विपाके कटुकं गुरु।
विदाहि च विशेषेण सर्वदोषप्रकोपणम्॥२९२॥
फलानां यानि चान्यानि तैलान्याहारसंविधौ।
युज्यन्ते गुणकर्मभ्यां तानि ब्रूयाद्यथाफलम्॥२९३॥
मधुरो बृंहणो वृष्यो बल्यो मज्जा तथा वसा।
यथासत्वं तु शैत्यौष्ण्ये वसामज्योर्विनिर्दिशेत्॥२९४॥
सस्नेहं दीपनं वृष्यमुष्णं वातकफापहम्।
विपाके मधुरं हृद्यं रोचनं विश्वभेषजम्॥२९५॥
श्लेष्मला मधुरा चार्द्रा गुर्वी स्निग्धा च पिप्पली।
सा शुष्का कफवातघ्नी कटूष्णा वृष्यसंमता॥२९६॥
नात्यर्थमुष्णं मरिचमवृष्यं लघु रोचनम्।
छेदित्वाच्छोषणस्वाच्च दीपनं कफवातजित्॥२९७॥
वातश्लेष्मविबन्धघ्नं कटूष्णं दीपनं लघु।
हिङ्गुशूलप्रशमनं विद्यात् पाचनरोचनम्॥२९८॥
रोचनं दीपनं वृष्यं चक्षुष्यमविदाहि च।
त्रिदोषघ्नं समधुरं सैन्धवं लवणोत्तमम्॥२९९॥
सौक्ष्म्यादौष्ण्याल्लघुत्वाच्च सौगन्ध्याच्च रुचिप्रदम्।
सौवर्चलं विबन्धघ्नं हृयमुद्गारशोधि च॥३००॥
तैक्ष्ण्यादौष्ण्याद्व्यवायित्वाद्दीपनं शूलनाशनम्।
ऊर्ध्वं चाधश्च वातानामानुलोम्यकरं विडम्॥३०१॥
सतिक्तकटु सक्षारं तीक्ष्णमुत्क्लेदि चौद्भिदम्।
न काललवणे गन्धः सौवर्चलगुणाश्च ते॥३०२॥
सामुद्रकं समधुरं, सतितं कटु पांशुजम्।
रोचनं लवणं सर्वं पाकि स्रंस्यनिलापहम्॥३०३॥
हृत्पाण्डुग्रहणीरोगप्लीहानाहगलग्रहान्।
कासं कफजमर्शंसि यावशूको व्यपोहति॥३०४॥
तीक्ष्णोष्णो लघुरूक्षश्च क्लेदी पक्ता विदारणः।
दहनो दीपनश्छेत्ता स्वर्जीक्षारो675ऽग्निसंनिभः॥३०५॥
कारवी कुञ्चिकाऽजाजी यवानी धान्यतुम्बुरु।
रोचनं दीपनं वातकफदौर्गन्ध्यनाशनम्॥३०६॥
आहारयोगिनां भक्तिनिश्चयो न तु विद्यते।
पूर्यते द्वादशश्चायं वर्ग आहारयोगिनाम्॥३०७॥
इत्याहारयोगिवर्गः॥१२॥
_____________
शूकधान्यं शमीधान्यं समातीतं प्रशस्यते।
पुराणं प्रायशो रूक्षं प्रायेणाभिनवं गुरु॥३०८॥
यद्यदागच्छति676 क्षिप्रं तत्तल्लघुतरं स्मृतम्।
निस्तुषं युक्तिभृष्टं च सूप्यं लघु विपच्यते॥३०९॥
मृतं कृशातिमेद्यं677 च वृद्धं बालं विषैर्हतम्।
अगोचरभृतं678 व्यालसूदितं मांसमुत्सृजेत्॥३१०॥
अतोऽन्यथा हितं मांसं बृंहणं बलवर्धनम्।
प्रीणनः सर्वधातूनां हृद्यो मांसरसः परम्॥३११॥
शुष्यतां व्याधियु(मु)क्तानां कृशानां क्षीणरेतसाम्।
बलवर्णार्थिनां चैव रसं विद्यथाऽमृतम्॥३१२॥
सर्वरोगप्रशमनं यथास्वंविहितं रसम्।
विद्यात् स्वर्यं बलकरं वयोबुद्धीन्द्रियायुषाम्॥३१३॥
व्यायाम नित्याः स्त्रीनित्या मद्यनित्याश्च ये नराः ।
नित्यं मांसरसाहारा नातुराः स्युर्न दुर्बलाः॥३१४॥
कृमिवातातपहतं शुष्कं जीर्णमनार्तवम्।
शाकं निःस्नेहसिद्धं च वर्ज्यं यच्चापरिस्रुतम्॥३१५॥
पुराणमामं संक्लिष्टं कृमिव्यालहिमातपैः।
अदेशकालजं क्लिन्नं यत् स्यात् फलमसाधु तत्॥३१६॥
हरितानां679 यथाशाकं निर्देशःसाधनादृते।
मद्याम्बुगोरसादीनां स्वे स्त्रे वर्गे विनिश्चयः॥३१७॥
यदाहारगुणैः680 पानं विपरीतं तदिष्यते।
अन्नानुपानं धातूनां दृष्टं यन्न विरोधि च॥३१८॥
आसवानां समुद्दिष्टामशीतिं चतुरुत्तराम्।
जलं पेयमपेयं च परीक्ष्यानुपिबेद्धितम्॥३१९॥
स्निग्धोष्णं मारुते शस्तं, पित्ते मधुरशीतलम्।
कफेऽनुपानं रूक्षोष्णं, क्षये मांसरसः परम्॥३२०॥
उपवासाध्वभाष्यस्त्रीमारुतातपकर्मभिः।
क्लान्तानामनुपानार्थं पयः पथ्यं यथाऽमृतम्॥२२१॥
सुरा कृशानां पुष्ट्यर्थमनुपानं प्रशस्यते।
कार्श्यर्थं स्थूलदेहानामनुशस्तं मधूदकम्॥३२२॥
अल्पाग्नीनामनिद्राणां तन्द्राशोकभयक्लमैः।
मद्यमांसोचितानां च मद्यमेवानुशस्यते॥३२३॥
अथानुपानकर्मगुणान् प्रवक्ष्यामः—अनुपानं तर्पयति, प्रीणयति, ऊर्जयति, बृंहयति, पर्याप्तिमभिनिर्वर्तयति, भुक्तमवसादयति681, अन्नसङ्घातं भिनत्ति, मार्दवमापादयति, क्लेदयति, जरयति, सुखपरिणामितामाशुव्यवायितां चाहारस्योपजनयतीति॥३२४॥
भवन्ति चात्र।
अनुपानं हितं युक्तं तर्पयत्याशु मानवम्।
सुखं पचति चाहारमायुषे च बलाय च॥३२५॥
नोर्ध्वाङ्गमारुताविष्टा न हिक्काश्वासकासिनः।
न गीतभाष्याध्ययनप्रसक्ता नोरसि क्षताः॥३२६॥
पिबेयुरुदकं भुक्त्वा तद्धि कण्ठोरसि स्थितम्।
स्नेहमाहारजं हत्वा682 भूयो दोषाय कल्पते॥३२७॥
अन्नपानैकदेशोऽय683मुक्तः प्रायोपयोगिकः।
द्रव्यं तु न हि निर्देष्टुं शक्यं कात्स्न्नर्येन नामभिः॥३२८॥
यथा नानौषधं684 किंचिद्देशजानां वचो यथा।
द्रव्यं तत्तत्तथा वाच्यमनुक्तमिह यद्भवेत्॥३२९॥
चरः शरीरावयवाः स्वभावो धातवः क्रिया।
लिङ्गं प्रमाणं संस्कारो मात्रा चास्मिन् परीक्ष्यते॥३३०॥
चरोऽनूपजलाकाशधन्वाद्यो भक्ष्यसंविधिः685")।
जलजानूपजाश्चैव जलानूपचराश्च ये॥३३१॥
गुरुभक्ष्याश्च ये सत्त्वाः सर्वे ते गुरवः स्मृताः।
लघुभक्ष्यास्तु लघवो धन्वजा धन्वचारिणः॥३३२॥
शरीरावयवाः सक्थिशिरः स्कन्धादयस्तथा।
सक्थिमांसाद्गुरुः स्कन्धस्ततः686 म् ग.।") क्रोडस्ततः शिरः॥३३३॥
वृषणौ चर्म मेढ्रंच श्रोणी वृक्कौ यकृद्गुदम्।
मांसाद्गुरुतरं विद्याद्यथास्वं मध्यमस्थि च॥३३४॥
स्वभावाल्लघवो मुद्गास्तथा लावकपिञ्जलाः।
स्वभावाद्गुरवो भाषा वराहमहिषास्तथा॥३३५॥
धातूनां शोणितादीनां गुरुं विद्याद्यथोत्तरम्।
अलसेभ्यो विशिष्यन्ते प्राणिनो ये बहुक्रियाः॥३३६॥
गौरवं लिङ्गसामान्ये पुंसां, स्त्रीणां च लाघवम्।
महाप्रमाणा गुरवः स्वजातौ लघवोऽन्यथा॥३३७॥
गुरूणां लाघवं विद्यात् संस्कारात् सविपर्ययम्687।
ब्रीहेर्लाजा यथा च स्युः सक्तूनां सिद्धपिण्डिकाः॥३३८॥
अल्पादाने गुरूणां च लघूनां चातिसेवने।
मात्रा कारणमुद्दिष्टं द्रव्याणां गुरुलाघवे॥३३९॥
गुरूणामल्पमादेयं लघूनां तृप्तिरिष्यते।
मात्रां द्रव्या688ण्यपेक्षन्ते मात्रा चाग्निमपेक्षते॥३४०॥
बलमारोग्यमायुश्च प्राणाश्चाग्नौ प्रतिष्ठिताः।
अन्नपानेन्धनैश्चाग्निर्दीप्यते शाम्यतेऽन्यथा॥३४१॥
गुरुलाघवचिन्तेयं प्रायेणाल्पबलान् प्रति।
मन्दकर्मानलारोग्यान् सुकुमारान् सुखोचितान्॥३४२॥
दीसाग्नयः खराहाराः कर्मनित्या महोदराः।
ये नराः प्रति तांश्चिन्त्यं नावश्यं गुरुलाघवम्॥३४३॥
हिताभिर्जुहुयान्नित्यमन्तरग्निं समाहितः।
अन्नपानसमिद्भिर्ना मात्राकालौ विचारयन्॥३४४॥
आाहिताग्निः सदा पथ्यान्यन्क्षरग्नौ जुहोति यः।
दिवसे दिवसे ब्रह्म जपत्यथ ददाति च॥३४५॥
नरं निःश्रेयसे युक्तं सात्म्यज्ञं पानभोजने।
भजन्ते नामयाः केचिद्भाविनोऽप्यन्तरादृते689॥३४६॥
षट्त्रिंशतं सहस्राणि रात्रीणां हितभोजनः।
जीवत्यनासुरो जन्तुर्जितात्मा संमतः सताम्॥३४७॥
भवतश्चात्र—
प्राणाः प्राणभृतामन्नमन्नं लोकोऽभिधावति।
वर्णप्रसादः सौस्वर्यं जीवितं प्रतिभा सुखम्॥३४८॥
तुष्टिः पुष्टिर्बलं मेधा सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्।
लौकिकं कर्म यद्वृत्तौ स्वर्गतौ यच्च वैदिकम्॥३४९॥
कर्मापवर्गे यच्चोक्तं तच्चाप्यन्ने प्रतिष्ठितम्।
तत्र श्लोकः।
अन्नपानगुणाःसाग्र्यावर्गा द्वादश निश्चिताः॥३५०॥
सगुणान्यनुपानानि गुरुलाघवसंग्रहः।
अन्नपानविधायुक्तं तत् परीक्ष्य(क्ष्यं) विशेषतः॥३५१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थानेऽन्नपानचतुष्के-
ऽन्नपानविधिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥
____________
अष्टाविंशोऽध्यायः।
अथातो विविधाशितपीतीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
विविधमशितं पीतं लीढं खादितं जन्तोर्हितमन्तरग्निसन्धुक्षितबलेन यथास्वेनोष्मणा690सम्यग्विपच्यमानं कालवदनवस्थितसर्वधातुपाकमनुपहतसर्वधातूष्ममारुतस्रोतः691 केवलं शरीमुपचयबलवर्णसुखायुषा योजयति शरीरधातूनूर्जयति च; धातवो हि धात्वाहाराः प्रकृतिमनुवर्तन्ते॥३॥
तत्राहारप्रसादाख्यो रसः किट्टं च मलाख्यमभिनिर्वर्तते692। किट्टात् स्वेदमूत्रपुरीषवातपित्तश्लेष्माणः कर्णाक्षिनासिकास्यलोमकूपप्रजननमलाःकेशश्मश्रुलोमनखादयश्चावयवाः पुष्यन्ति, पुष्यन्ति त्वाहाररसाद्रसरुधिरमांसदोस्थिमज्जशुक्रौजांसि पञ्चेन्द्रियद्रव्याणि धातुप्रसादसंज्ञकानि शरीरसन्धिबन्धनपिच्छादयश्चावयवाः। ते सर्वएव धातवो मलाख्याः प्रसादाख्याश्च रसमलाभ्यां पुष्यन्तः स्वं मानमनुवर्तन्ते यथावयः शरीरम्। एवं रसमलौ स्वप्रमाणावस्थिताचाश्रयस्य समधातोर्धातुसाम्यमनुवर्तयतः। निमित्ततस्तु693 क्षीणद्धानां प्रसादाख्यानां धातूनां वृद्धिक्षयाभ्यामाहारमूलाभ्यां रसः साम्यमुत्पादयत्यारोग्याय, किट्टं च मलानामेवमेव।स्वमानातिरिक्ताः पुनरुत्सर्गिणः694 शीतोष्णपर्ययगुणै695श्चोपचर्यमाणा मलाः शरीरधातुसाम्यकराः समुपलभ्यन्ते। तेषां तु मलप्रसादाख्यानां धातूनां स्रोतांस्ययनमुखानि696; तानि यथाविभागेन यथास्वं धातूनापूरयन्ति697। एवमिदं शरीरमशितपीतलीढखादितप्रभवम्, अशितपीतलीढखादितप्रभवाश्चास्मिञ्छरीरे व्याधयो भवन्ति; हिताहितोपयोगविशेषास्त्वत्र शुभाशुभविशेषकरा भवन्तीति॥४॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—दृश्यन्ते हि भगवन्।हितसमाख्यातमप्याहारमुपयुञ्जाना व्याधिमन्तश्चागदाश्च, तथैवाहितसमाख्यातम्; एवं दृष्टे कथं हिताहितोपयोगविशेषात्मकं शुभाशुभविशेषमुपलभामह इति॥५॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—न हिताहारोपयोगिनामग्निवेश।तन्निमित्ता व्याधयो हि जायन्ते, न च केवलं हिताहारोपयोगादेव सर्वं व्याधिभयमतिक्रान्तं भवति; सन्ति द्व्यृतेऽप्यहिताहारोपयोगादन्यारोगप्रकृतयः; तद्यथा—कालविपर्ययः, प्रज्ञापराधः, शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाश्चासात्म्या इति; (ए)ताश्च रोगप्रकृतयो रसान् सम्यगुपयुञ्जानमपि पुरुषमशुभेन व्याधिनोपपादयन्ति, तस्माद्धिताहारोपयोगिनोऽपि दृश्यन्ते व्याधिमन्तः। अहिताहारोपयोगिनां पुनः कारणविशेषतो698 न सद्यो दोषवान् भवत्यपचारः, न हि सर्वाण्यपथ्यानि तुल्यदोषाणि, न च सर्वे दोषास्तुल्यबलाः, न च सर्वाणि शरीराणि व्याधिक्षमत्वे समर्थानि भवन्ति; तदेव ह्यपथ्यं देशकालसंयोगवीर्यप्रमाणातियोगाद्भूयस्तरमपथ्यं संपद्यते, स एव दोषः संसृष्टयोनिर्विरुद्धोपक्रमो गम्भीरानुगतश्चिरस्थितः प्राणायतनसमुत्थो मर्मोपघाती कष्टतमः क्षिप्रकारितमश्च संपद्यते; शरीराणि चातिस्थूलान्यतिकृशान्यनिविष्टमांसशोणितास्थीनि दुर्बलान्यसात्म्याहारोपचितान्यल्पाहाराण्यल्पसत्त्वानि वा भवन्त्यव्याधिसहानि, विपरीतानि पुनर्व्याधिसहानि; एभ्यश्चैवापथ्याहारदोषशरीरविशेषेभ्यो699व्याधयो मृदवो दारुणाः क्षिप्रसमुत्याश्चिरकारिणश्च भवन्ति। त एव वातपित्तश्लेष्माणः स्थानविशेषे प्रकुपिता व्याधिविशेषानभिनिर्वतैयन्त्यग्निवेश!॥६॥
तत्र रसादिषु स्थानेषु प्रकुपितानां दोषाणां यस्मिन् यस्मिन् स्थाने ये ये व्याधयः संभवन्ति तांस्तान् यथावदनुष्याख्यास्यामः॥७॥
अश्रद्धा चारुचिश्चास्यवैरस्यमरसज्ञता।
हृल्लासो700 गौरवं तन्द्रा साङ्गमर्दो ज्वरस्तमः॥८॥
पाण्डुत्वं स्रोतसां रोधः क्लैब्यं सादः कृशाङ्गता।
नाशोऽग्नेरयथाकालं वलयः पलितानि च॥९॥
रसप्रदोषजा रोगा, वक्ष्यन्ते रक्तदोषजाः।
कुष्ठवीसर्पपिडका रक्तपित्तमसृग्दरः॥१०॥
गुढमेढ्रास्यपाकश्च प्लीहा गुल्मोऽथ विद्वधी।
नीलिका कामला व्यङ्गः विप्लवस्तिलकालकाः॥११॥
दद्रुश्चर्मदलं श्वित्रं पामा कोठास्रमण्डलम्।
रक्तप्रदोषाज्जायन्ते, शृणु मांसप्रदोषजान्॥१२॥
अधिमांसार्बुदं कीलगलशालूकशुण्डिकाः।
पूतिमांसालजीगण्डगण्डमालोपजिह्विकाः॥१३॥
विद्यान्मांसाश्रयान्, मेदःसंश्रयांस्तु प्रचक्ष्महे ।
निन्दितानि प्रमेहाणां पूर्वरूपाणि यानि च॥१४॥
अध्यस्थिदन्तौ दन्तास्थिभेदशुलं विवर्णता।
केशलोमनखश्मश्रुदोषाश्चास्थिप्रकोपजाः॥१५॥
रुक्पर्वणां भ्रमो मूर्च्छा दर्शनं तमसस्तथा।
अरुषां स्थूलमूलानां पर्वजानां च दर्शनम्॥१६॥
मज्जप्रदोषाच्छुक्रस्य दोषात् क्लैब्यमहर्षणम्।
रोगि वा क्लीबमल्पायुर्विरूपं वा प्रजायते॥१७॥
न701वा संजायते गर्भः पतति प्रस्रवत्यपि।
शुक्रं हि दुष्टं सापत्यं सदारं बाधते नरम्॥१८॥
इन्द्रियाणि समाश्रित्य प्रकुष्यन्ति यदा मलाः।
उपतापोपघाताभ्यां योजयन्तीन्द्रियाणि ते॥१९॥
स्नायौ702 सिराकण्डरयोर्दुष्टाः क्लिश्नन्ति मानवम्।
स्तम्भसङ्कोचखल्लीमिर्ग्रन्थिस्फुरणसुप्तिभिः॥२०॥
मलानाश्रित्य कुपिता भेदशोषप्रदूषणम्।
दोषा मलानां कुर्वन्ति सङ्गोत्सर्गावतीव च॥२१॥
विविधादशितात् पीतादहिताल्लीढखादितात्।
भवन्त्येते मनुष्याणां विकारा य उदाहृताः॥२२॥
तेषामिच्छन्ननुत्पत्तिं सेवेत मतिमान् सदा।
हितान्येवाशितादीनि न स्युस्तज्जास्तथाऽऽमयाः॥२३॥
रसजानां विकाराणां सर्वंलङ्घनमौषधम्।
विधिशोणितिकेऽध्याये रक्तजानां भिषग्जितम्॥२४॥
मांसजानां तु संशुद्धिः शस्त्रक्षाराग्निकर्म च।
अष्टौनिन्दितसंख्याते मेदोजानां चिकित्सितम्॥२५॥
अस्थ्याश्रयाणां व्याधीनां पञ्चकर्माणि भेषजम्।
बस्तयः क्षीरसर्पीषि तिक्तकोपहितानि च॥२६॥
मज्जशुक्रसमुत्थानामौषधं स्वादुतिक्तकम्।
अन्नं व्यवायव्यायामौ शुद्धिः काले च मात्रया॥२७॥
शान्तिरिन्द्रियजानां तु त्रिमर्मीये प्रवक्ष्यते।
स्नाय्वादिजानां प्रशमो वक्ष्यते वातरोगिके॥२८॥
नवेगान्धारणेऽध्याये चिकित्सासंग्रहः कृतः।
मलजानां विकाराणां सिद्धिश्चोक्ता क्वचित्क्वचित्॥२९॥
व्यायामादूष्मणस्तैक्ष्ण्याद्धितस्यानवचारणात्।
कोष्ठाच्छाखा मला यान्ति द्रुतत्वान्मारुतस्य च॥३०॥
तत्रस्थाश्च विलम्बन्ते कदाचिन्न समीरिताः।
नादेशकाले कुप्यन्ति भूयो हेतुप्रतीक्षिणः॥३१॥
वृद्ध्या विष्यन्दनात् पाकात् स्रोतोमुखविशोधनात्।
शाखा703 मुक्त्वा मलाः कोष्ठं यान्ति वायोश्च निग्रहात्॥३२॥
अजातानामनुत्पत्तौ जातानां विनिवृत्तये।
रोगाणां यो विधिर्दृष्टः सुखार्थी तं समाचरेत्॥३३॥
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
ज्ञानाज्ञानविशेषत्तु मार्गामार्गप्रवृत्तयः॥३४॥
हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः।
रजोमोहावृतात्मानः प्रियमेव तु लौकिकाः॥३५॥
श्रुतं बुद्धिः स्मृतिर्दाक्ष्यं धृतिर्हितनिषेवणम्।
वाग्विशुद्धिः शमो धैर्यमाश्रयन्ति परीक्षकम्॥३६॥
लौकिकं नव्श्रयन्त्येते गुणा मोहरजः श्रितम्।
तन्मूला बहवो704 यन्ति रोगाःशारीरमानसाः॥३७॥
प्रज्ञापराधाद्व्यहितानर्थान् पञ्च निषेवते।
संधारयति वेगांश्च सेवते साहसानि च॥३८॥
तदात्वसुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते।
रज्यते न तु विज्ञाता विज्ञाने ह्यमलीकृते॥३९॥
न रागान्नाप्यविज्ञानादाहारमुपयोजयेत्।
परीक्ष्य हितमश्नीयाद्देहो ह्याहारसंभवः॥४०॥
आहारस्य विधावष्टौ विशेषा हेतुसंज्ञकाः।
शुभाशुभसमुत्पत्तौ तान् परीक्ष्य प्रयोक्षयेत्॥४१॥
परिहार्याण्यपथ्यानि सदा परिहरन्नरः।
भवत्यनृणतां705 प्राप्तः साधूनामिह पण्डितः॥४२॥
यत्तु रोगसमुत्थानमशक्यमिह केनचित्।
परिहर्तुं न तत् प्राप्य शोचितव्यं मनीषिणा॥४३॥
तत्र श्लोकाः।
आहारसंभवं वस्तु रोगाश्चाहारसंभवाः।
हिताहितविशेषाश्च विशेषः सुखदुःखयोः॥४४॥
सहत्वे चासहस्वे च दुःखानां देहसत्त्वयोः।
विशेषो रोगसङ्घाश्च धातुजा ये पृथक् पृथक्॥४५॥
तेषां चैव प्रशमनं कोष्ठाच्छाखा उपेत्य च।
दोषा यथा प्रकुप्यन्ति शाखाभ्यः कोष्टमेत्य च॥४६॥
प्राज्ञाज्ञयोर्विशेषश्च स्वस्थातुरहितं च यत्।
विविधाशितपीतीये तत् सर्वं संप्रकाशितम्॥४७॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने विविधाशितपीतीयो नामाष्टाविंशोऽध्यायः समाप्तः॥२८॥
समाप्तोऽयं सप्तमोऽन्नपानचतुष्कः॥७॥
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एकोनत्रिंशोऽध्यायः।
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अथातो दशप्राणायतनीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
दशैवायतनान्याहुः प्राणा येषु प्रतिष्ठिताः।
शङ्खौ मर्मत्रयं कण्ठो रक्तं शुक्रौजसी गुदम्॥३॥
तानीन्द्रियाणि विज्ञानं चेतनाहेतुमामयान्।
जानीते यः स वै विद्वान् प्राणाभिसर उच्यते॥४॥
द्विविधास्तु खलु भिषजो भवन्त्यग्निवेश! प्राणानामेकेऽभिसरा हन्तारो रोगाणां, रोगाणामेकेऽभिसरा हन्तारः प्राणानामिति॥५॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—भगवन्! ते कथमस्माभिर्वेदितव्या भवेयुरिति॥६॥
भगवानुवाच—य इमे कुलीनाः पर्यवदातश्रुताः परिदृष्टकर्माणो दक्षाः शुचयो जितहस्ता जितात्मानः सर्वोपकरणवन्तः सर्वेन्द्रियोपपन्नाः प्रकृतिज्ञाः प्रतिपत्तिज्ञाश्च ते ज्ञेयाः प्राणानामभिसरा हन्तारो रोगाणां; तथाविधा हि केवले शरीरज्ञाने शरीराभिनिर्वृत्तिज्ञाने प्रकृतिविकृतिज्ञाने च निःसंशयाः, सुखसाध्यकृच्छ्रसाध्ययाप्यप्रत्याख्येयानां च रोगाणां समुत्थानपूर्वरूपलिङ्गवेदनोपशयविशेषविज्ञाने व्यपगतसन्देहाः, त्रिविधस्यायुर्वेदसूत्रस्य ससंग्रहव्याकरणस्य706सत्रिविधौषधग्रामस्य प्रवक्तारः पञ्चत्रिंशतश्च मूलफलानां चतुर्णां च महास्नेहानां पञ्चानां च लवणानामष्टानां च मूत्राणामष्टाशनां च क्षीराणां क्षीरत्वग्वृक्षाणां च षण्णां शिरोविरोचनादेश्व पञ्चकर्माश्रयस्यौषधगणस्याष्टाविंशतेश्च यवागूनां द्वात्रिंशतश्च चूर्णप्रदेहानां षण्णां च विरेचनशतानां पञ्चानां च कषायशतानां प्रयोक्तारः; स्वस्थवृत्तावपि707च भोजनपाननियमस्थानचङ्कमणशयनासनमात्राद्रव्याञ्जनधूमपाननावनाभ्यञ्जनपरिमार्जनवेगाविधारणव्यायामसात्म्येन्द्रियपरीक्षोपक्रमसद्वृत्तकुशलाः चतुष्पादोपगृहीते चभेषजे षोडशकले सविनिश्चये सन्त्रिपर्येषणे सवातकलाकलाज्ञाने व्यपगतसंदेहाः; चतुर्विधस्य च स्नेहस्य चतुर्विंशत्युपनय708स्योपकल्पनीयस्य709 चतुःषष्टिपर्यन्तस्य च व्यवस्थापयितारः, बहुविधविधानयुक्तानां च स्नेह्यस्वेद्यवम्यविरेच्यौषधोपचाराणां च कुशलाः; शिरोरोगादेर्दोषांशविकल्पजस्य च व्याधिसंग्रहस्य सक्षयपिडकाविद्रधेस्त्रयाणां च शोफानां बहुविधशोफानुबन्धानामष्टाचत्वारिंशतश्च रोगाधिकरणानां चत्वारिंशदुत्तरस्य च नानात्मजस्य व्याधिशतस्य तथा विगर्हितातिस्थूलातिकृशानां च सहेतुलक्षणोपक्रमाणां स्वप्नस्य च हिताहितस्यास्वप्मातिस्वप्नस्य च सहेतूपक्रमस्य षण्णां च लङ्घनादीनामुपक्रमाणां सन्तर्पणापतर्पणजानां च रोगाणां सरूपप्रशमनानां शोणितजानां च व्याधीनां मदमूर्च्छायसंन्यासानां च सकारणरूपौषधोपचाराणां कुशलाः; कुशलाश्चाहारविधिविनिश्चयस्य प्रकृत्या च हिताहितानामाहारविकाराणा710मग्र्यसंग्रहस्यासवानां च चतुरशीतेर्द्रव्यगुणविनिश्चयस्य रसानुरससंश्रयस्य सविकल्पकवैरोधिकस्य द्वादशवर्गाश्रयस्य चान्नपानस्य सगुणप्रभावस्य सानुपानगुणस्य नवविधस्यार्थसंग्रहस्याहारगतेश्च711 हिताहितोपयोगविशेषात्मकस्य च शुभाशुभविशेषस्य धात्वाश्रयाणां च रोगाणां सौषधसंग्रहाणां; दशानां च प्राणायतनानां यं च वक्ष्यामोऽर्थेदशमहामूलीयं त्रिंशत्तमाध्यायं, तत्र च कृत्स्त्रस्य तन्त्रस्य तन्त्रोद्देशलक्षणस्य श्रवणग्रहणधारणविज्ञानप्रयोगकर्मकार्यकालकर्तृकरणकुशलाः712; कुशलाश्च स्मृतिमतिशास्त्रयुक्तिज्ञानस्य, आत्मनः शीलगुणैरविसंवादनेन संपादनेन सर्वप्राणिषु चेतसो मैत्रस्य मातापितृभ्रातृबन्धुवच्च; एवंयुक्ता भवन्त्यग्निवेश! प्राणानामभिसरा हन्तारो रोगाणामिति॥७॥
अतो विपरीता713रोगाणामभिसरा हन्तारः प्राणानां भिषक्छद्मसुप्रतिच्छन्नाः कण्टकभूता लोकस्य प्रतिरूपकसधर्माणो राज्ञां प्रमादाच्चरन्ति राष्ट्राणि। तेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति—अत्यर्थं वैद्यवेषेण श्लाघमाना विशिखान्तरमनुचरन्ति कर्मलोभात, श्रुत्वा च कस्यचिदातुर्यमभितः परिपतन्ति, संश्रवणे चास्यात्मनो वैद्यगुणांनुच्चैर्वदन्ति, यश्चास्य वैद्यः प्रतिकर्म करोति तस्य च दोषान् मुहुर्मुहुरुदाहरन्ति, आतुरमित्राणि च प्रहर्षणोपजापोपसेवादिभिरिच्छन्त्यास्मीकर्तु, स्वल्पेच्छुतां चात्मनः ख्यापयन्ति, कर्म चासाद्य मुहुर्मुहुरवलोकयन्ति दाक्ष्येणाज्ञानमात्मनः प्रच्छादयितुकामाः, व्याधिं चापवर्तयितुमशक्नुवन्तोव्याधितमेवानुपकरणमपरिचारकमना714त्मवन्तमुपदिशन्ति, अन्तंगतं चैनमभिसमीक्ष्यान्यमाश्रयन्ति देशमपदेशमात्मनः715कृत्वा, प्राकृतजनसन्निपाते चात्मनः कौशलमकुशलवद्वर्णयन्ति, अधीरवच्च716 धैर्यमपवदन्ति धीराणां, विद्वज्जनसन्निपातं प्रतिभयमिव कान्तारमध्वगाः परिहरन्ति दूरात्, यश्चैषां कश्चित् सूत्रावयवो भवत्युपयुक्तसमप्रकृते प्रकृतान्तरे वा सततमुदाहरन्ति, न चानुयोगमिच्छलनुयोक्तुं717 वा, मृत्योरिव चानुयोगादुद्विजन्ते, न चैषामाचार्यः शिष्यः सब्रह्मचारी वैवादिको वा कश्चित् प्रज्ञायत इति॥८॥
भिषक्छद्म प्रविश्यैवं व्याधितांस्तर्कयन्ति ते।
वीतसमिव718संश्रित्य वने शाकुनिका द्विजान्॥९॥
श्रुतदृष्टक्रियाकालमात्राज्ञानबहिष्कृताः।
वर्जनीया हि ते मृत्योश्चरन्त्यनुचरा भुवि॥१०॥
वृत्तिहेतोर्भिषड्यानपूर्णान् मूर्खविशारदान्719।
वर्जयेदातुरो विद्वान् सर्पास्ते पीतमारुताः॥११॥
ये तु शास्त्रविदो दक्षाः शुचयः कर्मकोविदाः।
जितहस्ता जितात्मानस्तेभ्यो नित्यं कृतं नमः॥१२॥
तत्र श्लोकः।
दशप्राणायतनिके श्लोकस्थानार्थसंग्रहः।
द्विविधा भिषजश्चोक्ताः प्राणस्यायतनानि च॥१३॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने दशप्राणायतनीयो नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
_______________
त्रिंशत्तमोऽध्यायः।
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अथातोऽर्थेदशमहामूलीयमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
अर्थ दश महामूलाः सिराः720 सक्ता महाफलाः।
महञ्चार्थश्च हृदयं पर्यायैरुज्यते बुधैः॥३॥
षडङ्गमङ्गं विज्ञानमिन्द्रियाण्यर्थपञ्चकम्।
आत्मा च सगुणश्चेतश्चिन्त्यं च हृदि संश्रितम्॥४॥
प्रतिष्ठार्थ हि भावानामेषां हृदयमिष्यते।
गोपानसीनामागारकर्णिकेवार्थचिन्तकैः721॥५॥
तस्योपघातामूर्च्छायं भेदान्मरणमृच्छति।
यद्धि722 तत् स्पर्शविज्ञानं धारि तत्तत्र संश्चितम्॥६॥
तत् परस्यौजसः स्थानं तन्त्र चैतन्यसंग्रहः।
हृदयं महदर्थश्च तस्मादुक्तं चिकिसिते723॥७॥
तेन मूलेन महता महामूला मता दश।
ओजोवहाः शरीरेऽस्मिन् विधम्यन्ते समन्ततः॥८॥
येनौजसा वर्तयन्ति प्रीणिताः सर्वजन्तवः।
यदृते सर्वभूतानां जीवितं नावतिष्ठते॥९॥
यत् सारमादौ गर्भस्य724 यत्तद्गर्भरसादसः।
संवर्तमानं725 हृदयं समाविशति यत् पुरा726॥१०॥
यस्य नाशात्तु नाशोऽस्ति727धारि यद्धृदयाश्रितम्।
यच्छरीररसस्नेहः प्राणा यत्र प्रतिष्ठिताः॥११॥
तत्फला बहुधा वा ताः फलन्तीति महाफलाः।
ध्मानाद्धमन्यः स्रवणात् स्रोतांसि सरणात् सिराः॥१२॥
तन्महत् ता महामूलास्तच्चौजः परिरक्षता।
परिहार्या विशेषेण मनसो दुःखहेतवः॥१३॥
हृद्यं यत् स्याद्यदौजस्यं स्रोतसां यत् प्रसादनम्।
तत्तत् सेव्यं प्रयत्नेन प्रशमो ज्ञानमेव च॥१४॥
अथ खल्वेकं प्राणवर्धनानामुत्कृष्टतममेकं बलवर्धनानामेकं बृंहणानामेकं नन्दनानामेकं हर्षणानामेकमयनानामिति। तत्राहिंसा प्राणिनां प्राणवर्धनानामुत्कृष्टतमा, वीर्यं बलवर्धनानां, विद्या बृंहणामाम्, इन्द्रियजयो नन्दनानां, तत्त्वावबोधो हर्षणानां, ब्रह्मचर्यमयनानामित्यायुर्वेदविदो मन्यन्ते॥१५॥
तत्रायुर्वेदविदस्तत्रस्थानाध्यायप्रश्नानां पृथक्त्वेन वाक्यशो वाक्यार्थशोऽर्थावयवशश्च प्रवक्तारो मन्तव्याः॥१६॥
तत्राह—कथं तन्त्रादीनि वाक्यशो वाक्यार्थशोऽर्थावयवशश्चोक्तानि भवन्तीति; अत्रोच्यते—तन्त्रमार्षं कार्त्स्येनयथाम्नायमुच्यमानं वाक्यशो भवस्युक्तं, बुद्ध्या सम्यगनुप्रविश्यार्थतत्वं वाग्भिर्व्याससमासप्रतिप्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनयुक्ताभिस्त्रिविधशिष्यबुद्धिगम्याभिरुच्यमानं वाक्यार्थशो भवत्युक्तं, तन्त्रनियतानामर्थदुर्गाणां728 पुनर्विभावनैरुक्तमर्थावयवशो भवत्युक्तम्॥१७॥
तत्र चेत् प्रष्टारः स्युः—चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानां कं वेदमुपदिशन्त्यायुर्वेदविदः, किमायुः, कस्मादायुर्वेदः, किमर्थमायुर्वेदः, किं चायमायुर्वेदः शाश्वतोऽशाश्वतो वा, कति कानि चास्याङ्गानि, कैश्वायमध्येतव्यः, किमर्थं चेति॥१८॥
तत्र भिषजा पृष्टेनैवं चतुर्णामुक्सामयजुरथर्ववेदानामात्मनोऽथर्ववेदे भक्तिरादेश्या729; वेदो ह्याथर्वणो दानस्वस्त्ययनबलिमङ्गलहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासमन्त्रादिपरिग्रहाच्चिकित्सां प्राह, चिकित्सा चायुषो हितायोपदिश्यते॥१९॥
वेदं चोपदिश्यायुर्वाच्यं; तन्नायुश्चेतनानुवृत्तिर्जीवितमनुबन्धो धारि चेत्येकोऽर्थः॥२०॥
तदायुर्वेदयतीत्यायुर्वेदः, कथमितिचेत्? उच्यते—स्वलक्षणतः सुखासुखतो हिताहिततः प्रमाणाप्रमाणतश्च; यतश्चायुष्यानायुध्याणि च द्रव्यगुणकर्माणि दयत्यतोऽप्यायुर्वेदः। तन्नायुष्याण्यनायुष्याणि च द्रव्यगुणकर्माणि केवलेनोपदेक्ष्यन्ते तन्त्रेण॥२१॥
तत्रायुरुक्तं स्वलक्षणतो यथावदिहैव730 पूर्वाध्याये च। तत्र731शारीरमानसाभ्यां रोगाभ्यामनभिद्रुतस्य विशेषेण यौवनवतः समन्वागतबल732वीर्ययशः पौरुषपराक्रमस्य ज्ञानविज्ञानेन्द्रियेन्द्रियार्थबलस733मुदये वर्तमानस्य परमर्धिरुचिरविविधोपभोगस्य समृद्धसर्वारम्भस्ययथेष्टविचारिणः सुखमायुरुच्यते, असुखमतो विपर्ययेण; हितैषिणः पुनर्भूतानां परस्वादुपरतस्य सत्यवादिनः शमपरस्य734परीक्ष्यकारिणोऽप्रमत्तस्य त्रिवर्गं परस्परेणानुपहतमुपसेवमानस्य पूजार्हसंपूजकस्य
ज्ञानविज्ञानोपशमशीलस्य735 वृद्धोपसेविनः सुनियतरागरोषेर्ष्यामदमानवेगस्य सततं विविधप्रदानपरस्य तपोज्ञानप्रशमनित्यस्याध्यात्मविदुस्तापरस्य736लोकमिमं चामुं चावेक्षमाणस्य स्मृतिमतिमतो हितमायुरुच्यते, अहितमतो विपर्ययेण॥२२॥
प्रमाणमायुषस्त्वर्थेन्द्रियमनोबुद्धिचेष्टादीनां विकृतिलक्षणैरुपलभ्यतेऽनिमित्तैः, अयमस्मात् क्षणान्मुहूर्ताद्दिवसान्त्रिपञ्चसप्तदशद्वादशाहात् पक्षान्मासात् षण्मासात्संवत्सराद्वा स्वभावमापत्स्यत इति। तत्र स्वभावः, प्रवृत्तेरुपरमो, मरणम्, अनित्यता, निरोध इत्येकोऽर्थः। इत्यायुषः प्रमाणम्, अतो विपरीतमप्रमाणम्। अरिष्टाधिकारे देहप्रकृतिलक्षणमधिकृत्य चोपदिष्टमायुषः प्रमाणमायुर्वेदे॥२३॥
प्रयोजनं चास्य—स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च॥२४॥
सोऽयमायुर्वेदः शाश्वतो निर्दिश्यते, अनादित्वात् स्वभावसंसिद्धलक्षणत्वाद्भावस्वभावनित्यत्त्वाच्च। न737हि नाभूत्कदाचिदायुषः सन्तानो बुद्धिसन्तानो वा, शाश्वतश्चायुषो वेदिता, अनादि च सुखदुःखं738 सद्रव्यहेतुलक्षणमपरापरयोगात्। एष चार्थसंग्रहो739 विभाव्यतेआयुर्वेदलक्षणमिति। यत् पुनर्गुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षादीनां740 द्वन्द्वानां741 सामान्यविशेषाभ्यां वृद्धिहासौ, यथोक्तं—‘गुरुभिरभ्यस्यमानैर्गुरूणामुपचयो भवत्यपचयो लघूनामेवमेवेतरेषाम्’ इति; एष भावस्वभावो नित्यः, स्वस्वलक्षणं742च द्रव्याणां पृथिव्यादीनां; सन्ति तु द्रव्याणि गुणाश्च नित्यानित्याः। न ह्यायुर्वेदस्याभूत्वोत्प त्तिरुपलभ्यते, अन्यत्रावबोधोपदेशाभ्याम्; एतद्वै द्वयमधिकृत्योत्पत्तिमुपदिशन्त्येके। स्वाभाविकं चास्य लक्षणमकृतकं, यदुक्तमिहाद्येऽध्याये च, यथा—अग्नेरौष्ण्यमपां द्रवत्वं; भावस्वभावनित्यत्वमपि चास्य, यथोक्तं—गुरुभिरभ्यस्यमानैर्गुरूणामुपचयो भवत्यपचयो लघूनामित्येवमादि॥२५॥
तस्यायुर्वेदस्याङ्गान्यष्टौ; तद्यथा— कायचिकित्सा शालाक्यं, शल्यापहर्तृकं, विषगरवैरोधिकप्रशमनं, भूतविद्या, कौमारभृत्वकं, रसायनानि, वाजीकरणमिति॥२६॥
स चाध्येतव्योब्राह्मणराजन्यवैश्यैः। तत्रानुग्रहार्थं प्राणिनां743ब्राह्मणैः, आत्मरक्षार्थं744 राजन्यैः, वृत्त्यर्थं वैश्यैः; सामान्यतो वा धर्मार्थकामपरिग्रहार्थं सर्वैः। तत्र च यदध्यात्मविदां धर्मपथस्थानां धर्मप्रकाशकानां वा मातृपितृभ्रातृबन्धुगुरुजनस्य वा विकारप्रशमने प्रयत्नवान् भवति यच्चायुर्वेदोक्तमध्यात्ममनुध्यायति वेदयत्यनुविधीयते वा सोऽस्य परो धर्मः; या पुनरीश्वराणां वसुमतां वा सकाशात् सुखोपहारनिमित्ता भवत्यर्थावाप्तिरा(त्म) रक्षणं च या च स्वपरिगृहीतानां प्राणिनामातुर्यादारक्षा सोऽस्यार्थ; यत्पुनरस्य विद्वद्ग्रहणं यशः शरण्यत्वं च, या च संमानशुश्रूषा, यच्चेष्टानां विषयाणामारोग्यमाधत्ते सोऽस्य कामः; इति यथाप्रश्नमुक्तमशेषेण॥२७॥
अथ भिषगादित एव भिषजा प्रष्टव्योऽष्टविधं भवति; तद्यथा—तन्त्रं, तन्त्रार्थान्, स्थानानि, स्थानार्थान्, अध्यायान्, अध्यायार्थान्, प्रश्नान्, प्रश्नार्थाश्चेति। पृष्टेन चैतद्वक्तव्यमशेषेण वाक्यशो वाक्यार्थशोऽर्थावयवशश्चेति॥२८॥
तत्रायुर्वेदःशाखा विद्या सूत्रं ज्ञानं शास्त्रं लक्षणं तन्त्रमित्यनर्थान्तरम्॥२९॥
तन्त्रार्थः पुनः स्वलक्षणेनोपदिष्टः, स चार्थः प्रकरणैर्विभाव्यमानो भूय एव शरीरवृत्तिहेतुव्याधिकर्मकार्यकालकर्तृकरणविधिविनिश्चयाद्दशप्रकरणः, तानि च प्रकरणानि केवलेनोपदेक्ष्यन्ते तन्त्रेण॥३०॥
तन्त्रस्यास्याष्टौ स्थानानि। तद्यथा—श्लोकनिदानविमानशारीरेन्द्रियचिकित्सितकल्पसिद्धिस्थानानि। तत्र त्रिंशदध्यायकं श्लोकस्थानम्, अष्टाष्टाध्यायकानि निदानविमानशारीरस्थानानि, द्वादशकमिन्द्रियाणां, त्रिंशकं चिकित्सितानां, द्वादशके कल्पसिद्धिस्थाने भवतः॥३१॥
भवति चात्र।
द्वे त्रिंशके द्वादशकत्रयं च त्रीण्यष्टकान्येषु समाप्तिरुक्ता।
श्लोकौषधारिष्टविकल्पसिद्धिनिदानमानाश्रयसंज्ञकेषु॥३२॥
स्वे स्वे स्थाने यथास्वं च स्थानार्थ उपदेक्ष्यते।
सविंशमध्यायशतं शृणु नामक्रमागतम्॥३३॥
दीर्घञ्जीवोऽप्यपामार्गतण्डुलारग्वधादिकौ।
षड्विरेकशतश्चेति745 चतुष्को भेषजाश्रयः॥३४॥
मात्रातस्याशितीयौ च नवेगान्धारणं तथा।
इन्द्रियोपक्रमश्चेति चत्वारः स्वास्थ्यवृत्तिकाः॥३५॥
खुड्डाकश्च चतुष्पादो महांस्तिस्त्रैषणस्तथा।
सह वातकलाख्येन विद्यान्नैर्देशिकान् बुधः॥३६॥
स्नेहनस्वेदनाध्यायावुभौ यश्चोपकल्पनः।
चिकित्साप्राभूतश्चैव सर्व एव प्रकल्पनाः॥३७॥
कियन्तःशिरसीयश्च त्रिशोफाष्टोदरादिकौ।
रोगाध्यायो महांश्चैव रोगाध्यायचतुष्टयम्॥३८॥
अष्टौनिन्दितसंख्यातस्तथा लङ्घनतर्पणे(णौ)।
विधिशोणितिकश्चेति व्याख्यातास्तत्र योजनाः॥३९॥
यज्जः पुरुषसंख्यातो भद्रकाप्यान्नपानिकौ।
विविधाशितपीतीयश्चत्वारोऽन्नविनिश्चयाः॥४०॥
दशप्राणायतनिकस्तथाऽर्थेदशमूलिकः।
द्वावेतौ प्राणदेहार्थौप्रोक्तौ वैद्यगुणाश्रयौ॥४१॥
औषधस्वस्थनिर्देशकल्पनारोगयोजनाः।
चतुष्काः षट् क्रमेणोक्ताः सप्तमश्चान्नपानिकः॥४२॥
द्वौ चान्त्यौ संग्रहाध्यायाविति त्रिंशकमर्थवत्746।
लोकस्थानं समुद्दिष्टं तन्त्रस्यास्य शिरः शुभम्॥४३॥
चतुष्काणां महार्थानां स्थानेऽस्मिन् संग्रहः कृतः।
श्लोकार्थः संग्रहार्थश्च श्लोकस्थानमतः स्मृतम्॥४४॥
ज्वराणां रक्तपित्तस्य गुल्मानां मेहकुष्टयोः।
शोषोन्मादनिदाने च स्यादपस्मारिणां च यत्॥४५॥
इत्यध्यायाष्टकमिदं निदानस्थानमुच्यते।
रसेषु त्रिविधे कुक्षौ ध्वंसे जनपदस्य च॥४६॥
त्रिविधे रोगविज्ञाने स्रोतःस्वपि च वर्तने।
रोगानीके व्याधिरूपे रोगाणां च भिषग्जिते॥४७॥
अष्टौ विमानान्युक्तानि मानार्थानि महर्षिणा।
कतिधापुरुषीयं च गोत्रेणातुल्यभेव च॥४८॥
खुड्डिका महती चैव गर्भावक्रान्तिरुच्यते ।
पुरुषस्य शरीरस्य विचयौ द्वौ विनिश्चितौ॥४९॥
शरीरसंख्या सूत्रं च जातेरष्टम उच्यते।
इत्युद्दिष्टानि मुनिना शारीराण्यत्रिसूनुना॥५०॥
वर्णस्वरीयः पुष्पाख्यस्तृतीयः परिमर्षणः।
तथैव747 चेन्द्रियानीकः पूर्वरूपिक एव च॥५१॥
कतमानिशरीरीयः पन्नरूपोऽप्यवाक्शिराः।
यस्य श्यावनिमित्तश्च सद्योमरण एव च॥५२॥
अणुज्योतिरितिख्यातस्तथा गोमयचूर्णवान्।
द्वादशाध्यायकं स्थानमिन्द्रियाणां प्रकीर्तितम्॥५३॥
अभयामलकीयं च प्राणकामीयमेव च।
करप्रचितिकं वेदसमुत्थानं रसायनम्॥५४॥
संयोगशरमूलीयमासिक्तक्षीरकं तथा।
माषपर्णभृतीयं च पुमाञ्जातबलादिकम्॥५५॥
चतुष्कद्वयमप्येतदध्यायद्वयमुच्यते।
रसायनमिति ज्ञेयं वाजीकरणमेव च॥५६॥
ज्वराणां रक्तपित्तस्य गुल्मानां मेहकुष्ठयोः।
शोषोन्मादेऽप्यपस्मारे क्षते शोफोदरार्शसाम्॥५७॥
ग्रहणीपाण्डुरोगाणां श्वासकासातिसारिणाम्।
छर्दिवीसर्पतृष्णानां विषमद्यविकारयोः॥५८॥
द्विव्रणीयं त्रिमर्मीयमूरुस्तम्भिकमेव च।
वातरोगे वातरक्ते योनिव्यापत्सु चैव यत्॥५९॥
त्रिंशच्चिकित्सितान्युक्तान्यतः कल्पान् प्रचक्ष्महे748।
फलजीमूतकेक्ष्वाकुकल्पो धामार्गवस्य च॥६०॥
पञ्चमो वत्सकस्योक्तः षष्ठश्च कृतवेधने।
श्यामात्रिवृतयोः कल्पस्तथैव चतुरङ्गुले॥६१॥
तिल्वकस्य सुधायाश्च सप्तलाशङ्खिनीषु च।
दन्तीद्रवन्त्योः कल्पश्च द्वादशोऽयं समाप्यते॥६२॥
कल्पना पञ्चकर्माख्या बस्तिसूत्री तथैव च।
स्नेहव्यापादिकी सिद्धिर्नेत्रव्यापादिकी तथा॥६३॥
सिद्धिःशोधनयोश्चैव बस्तिसिद्धिस्तथैव च।
प्रासृती मर्मसंख्याता सिद्धिर्बस्त्याश्रया च या॥६४॥
फलमात्रा तथा सिद्धिः सिद्धिश्नोत्तरसंज्ञिता।
सिद्धयो द्वादशैवैतास्तन्त्रं चासु समाप्यते॥६५॥
स्वे स्वे स्थाने तथाऽध्याये चाध्यायार्थः749 प्रवक्ष्यते।
तं750ब्रूयात् सर्वतः सर्वं यथास्वं751 ह्यर्थसंग्रहात्॥६६॥
पृच्छा752तन्त्राद्यथाम्नायं विधिना प्रश्न उच्यते।
प्रश्नार्थो युक्तिमांस्तस्य तन्त्रेणैवार्थनिश्चयः॥६७॥
निरुक्तं753 तन्त्रणात्तन्त्रं स्थानमर्थप्रतिष्ठया754।
अधिकृत्यार्थमध्यायनामसंज्ञा755 प्रतिष्ठिता॥६८॥
इति सर्वं यथाप्रश्नमष्टकं संप्रकाशितम्।
कार्त्स्न्येनचोक्तस्तन्त्रस्य संग्रहः756 सुविनिश्चितः॥६९॥
सन्ति पाल्लविकोत्पाताः757 संक्षोभं जनयन्ति ये।
वर्तकानामिवोत्पाताः सहसैवाविभाविताः॥७०॥
तस्मात्तान् पूर्वसंजल्पे758 सर्वत्राष्टकमादिशेत्।
परावरपरीक्षार्थमतत्रशास्त्रवि759दांबलम्॥७१॥
शब्दमात्रेण तन्त्रस्य केवलस्यैकदेशिकाः760।
भ्रमन्त्यल्पबलास्तन्त्रे ज्याशब्देनेव वर्तकाः॥७२॥
पशुः पशूनां दौर्बल्यात् कश्चिन्मध्ये वृकायते।
स सत्यं वृकमासाद्य प्रकृतिं761 भजते पशुः॥७३॥
तद्वदज्ञोऽज्ञमध्यस्थः कश्चिन्मौखर्यसाधनः।
स्थापयत्याप्तमात्मानमाप्तं त्वासाद्य भिद्यते॥७४॥
बभ्रुर्मूढ762इवोर्णाभिरबुद्धिबहुश्रुतः।
किं वै वक्ष्यति संजल्पे कुण्डभेदी763 जडो यथा॥७५॥
सद्वृत्तैर्न विगृह्णीयाद्भिषगल्पश्रुतैरपि।
हन्यात् प्रश्नाष्टकेनादावितरांस्त्वाप्तमानिनः॥७६॥
दम्भिनो मुखरा ह्यज्ञाः प्रभूताबद्धभाषिणः।
प्रायः, प्रायेण सुमुखाः सन्तो युक्ताल्पभाषिणः॥७७॥
तत्त्वज्ञानप्रकाशार्थमहङ्कारमनाश्रितः।
स्वल्पाधाराज्ञमुखरान्मर्षयेन्न764 विवादिनः॥७८॥
परो भूतेष्वनुक्रोशस्तत्त्वज्ञाने765पूरा दया।
येषां तेषामसद्वादनिग्रहे निर766तां मतिः॥७९॥
असत्पक्षाक्षणित्वार्तिदम्भपारुष्यसाधनाः767।
भवन्त्यनाप्ताः स्वेतन्त्रे प्रायः परविकत्थकाः॥८०॥
तान् कालपाशसदृशान् वर्जयेच्छास्त्रदूषकान्।
प्रशमज्ञानविज्ञानपूर्णाः सेव्या भिषक्तमाः॥८१॥
समग्रं768 दुःखमायत्तमविज्ञाने द्वयाश्रयम्।
सुखं समग्रं विज्ञाने विमले च प्रतिष्ठितम्॥८२॥
इदमेवमुदारार्थमज्ञानां न प्रकाशकम्।
शास्त्रं दृष्टिप्रनष्टानां यथैवादित्यमण्डलम्॥८३॥
तत्र श्लोकाः।
अर्थे दश महामूलाः संज्ञा चासां यथा कृता।
अयनान्ताः षडग्र्याश्च रूपं वेदविदां च यत्॥८४॥
सप्तकश्चाष्टकश्चैव परिप्रश्नः सनिर्णयः।
यथा वाच्यं यदर्थं च यद्विधाश्चैकदेशिकाः॥८५॥
अर्थ दशमहामूले सर्वमेतत् प्रकाशितम्।
संग्रहश्चायमध्यायस्तन्त्रस्यास्यैव केवलः॥८६॥
यथा सुमनसां सूत्रं संग्रहार्थं विधीयते।
संग्रहार्थ तथाऽर्थानासृषिणा संग्रहः कृतः॥८७॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते सूत्रस्थाने अर्थेमहादशमूलीयो नाम त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३०॥
अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रति संस्कृते।
इयताऽवधिना सर्वं सूत्रस्थानं समाप्यते॥
इति सूत्रस्थानं समाप्तम्।
निदानस्थानम्।
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प्रथमोऽध्यायः।
अथातो ज्वरनिदानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानत्रेयः॥२॥
इह खलु हेतुर्निमित्तमायतनं कर्तां कारणं प्रत्ययः समुत्थानं निदानमित्यनर्थान्तरम्769। तत्रिविधम्—असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः, प्रज्ञापराधः, परिणामश्चेति। अतस्त्रिविधविकल्पा770व्याधयः प्रादुर्भवन्त्याग्नेयसौम्यवायव्याः771; द्विविधाश्चापरे राजसास्तामसाश्च॥३॥
तत्र व्याधिरामयो गद आतङ्को यक्ष्मा ज्वरो विकारो रोग इत्यनर्थान्तरम्772॥४॥
तस्योपलब्धिर्निदानपूर्वरूपलिङ्गोपशयसंप्राप्तितः॥५॥
तत्र, निदानं कारणमित्युक्तमग्रे; पूर्वरूपं प्रागुत्पत्तिलक्षणव्याधेः773; प्रादुर्भूतलक्षणं पुनर्लिङ्गं, तत्र लिङ्गमाकृतिर्लक्षणं चिह्नं संस्थानं व्यञ्जनं रूपमित्यनर्थान्तरमस्मिन्नर्थे; उपशयःपुनर्हेतुव्याधिविपरीतानां विपरीतार्थकारिणां774चौषधाहारविहाराणामुपयोगः सुखानुबन्धः; संप्राप्तिर्जातिरागतिरित्यनर्थान्तरं व्याधेः, सा संख्याप्राधान्यविधिविकल्पबलकालविशेषैर्भिद्यते; संख्या तावदष्टौ ज्वराः, पञ्च गुल्माः, सप्त कुष्ठान्येवमादिः; प्राधान्यं पुनर्दोषाणां तरतमाभ्यां775 योगेनोपलभ्यते, तत्र द्वयोस्तरस्त्रिषु तमः; विधिर्नाम776 द्विविधा व्याधयो निजागन्तुभेदेन, त्रिविधास्त्रिदोषभेदेन, चतुर्विधाःसाध्यासाध्यमृदुदारुणभेदेन पृथक्777समवेतानां च पुनर्दोषाणामंशांशबलविकल्पो विकल्पोऽस्मिन्नर्थे778; बलकालविशेषः पुनर्व्याधीनामृत्वहोरात्राहारकालविधिविनियतो779भवति। तस्माद्व्याधीन्भिषगनुपहतसत्त्वबुद्धिर्हेत्वादिभिर्भावैर्यथावदनुबुध्येत॥६॥
इत्यर्थसंग्रहो निदानस्थानस्योद्दिष्टो भवति, तं विस्तरेण780भूयस्तरमतोऽनुव्याख्यास्यामः॥७॥
तत्र प्रथमत एव तावदाद्याल्ँलोभाभिद्रोहकोपप्रभवानष्टौ व्याधीन्निदानपूर्वेण क्रमेणानुव्याख्यास्यामः, तथा सूत्रसंग्रहमात्रं चिकित्सायाः; चिकित्सितेषु चोत्तरकालं यथोपचितविकाराननुव्याख्यास्यामः781॥८॥
इह खलु ज्वर एवादौ विकाराणामुपदिश्यते, तत्प्रथमत्वाच्छारीराणाम्।
अथ खल्वष्टाभ्यः कारणेभ्यो ज्वरः संजायते मनुष्याणाम्। तद्यथा—वातात्, पित्तात्, कफात्, वातपित्ताभ्यां वातकफाभ्यां, पित्तकफाभ्यां वातपित्तश्लेष्मभ्यः, आगन्तोरष्टमात् कारणात्। तस्य निदानपूर्वरूपलिङ्गोपशयसंप्राप्तिविशेषानुपदेक्ष्यामः॥९॥
(तद्यथा)रूक्षलघुशीतव्यायामवमनविरेचनास्थापनशिरोविरेचनातियोगवेगसंधारणानशनाभिघातव्यवायोद्वेगशोकशोणितातिषेकजागरणविषमशरीरन्यासेभ्योऽतिसेवितेभ्यो वायुः प्रकोपमापद्यते। स यदा प्रकुपितः प्रविश्यामाशयमूष्मणः782 स्थानमूष्मणा सह मिश्रीभूयाद्यमाहारपरिणामधातुं रसनामानमन्ववेत्य783 रसस्वेदवहानि च स्नोतांसि पिधायाग्निमुपहत्य पक्तिस्थानादूष्माणं बहिर्निरस्य केवलं शरीरमनुप्रपद्यते, तदा ज्वरमभिनिर्वर्तयति। तस्येमानि लिङ्गानि भवन्ति; तद्यथा—विषमारम्भविसर्गित्वम्, ऊष्मणो वैषम्यं, तीव्रतनुभावानवस्थानानि ज्वरस्य, जरणान्ते दिवसान्ते निशान्ते घर्मान्ते वा ज्वरस्याभ्यागमनमभिवृद्धिर्वा विशेषेण, परुषारुणवर्णत्वं नखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्यर्थं क्लृप्तीभावश्च784;अनेकविधोपमाश्चलाचलाश्च वेदनास्तेषां तेषामङ्गावयवानां, तद्यथा—पादयोः सुप्तता, पिण्डिकयोरुद्वेष्टनं, जानुनोः केवलानां च सन्धीनां विश्लेषणम्, ऊर्वोःसादः, कटीपार्श्वपृष्ठस्कन्धबाह्वसोरसां च भुग्नरुग्णमृदितमथितचटितावपीडितावनुन्नत्वमिव785, हन्वोश्चाप्रसिद्धिः, स्वनश्च कर्णयोः, शङ्खयोर्निस्तोदः, कषायास्यताऽस्यवैरस्यं वा, मुखतालुकण्ठशोषः, पिपासा, हृदयग्रहः, शुष्कच्छर्दिः, शुष्ककासः, क्षवथूद्गारविनिग्रहः, अन्नरसखेदः786, प्रसेकारोचकाविपाकाः, विषादजृम्भाविनामवेपथुश्रमभ्रमप्रलापप्रजागररोमहर्षदन्तहर्षोः, उष्णाभिप्रायता, निदानोक्तानुपशयो विपरीतोपशयश्चेति (वातज्वरलिङ्गानि स्युः787)॥१०॥
उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनेभ्योऽतिसेवितेभ्यस्तथाऽतितीक्ष्णातपाग्नि संतापश्रमक्रोधविषमाहारेभ्यश्च पित्तं प्रकोपमापद्यते। तद्यदा प्रकुपितमामाशयादेवोष्माणमुपसंसृज्याद्यमाहारपरिणाम788धातुं रसनामानमन्ववेत्य रसस्वेदवहानि स्रोतांसि पिधाय द्रवत्वादग्निमुपहत्य पक्तिस्थानादूष्माणं बहिर्निरस्य789प्रपीडयत् केवलं शरीरमनुप्रपद्यते तदा ज्वरमभिनिर्वर्तयति। तस्येमानि लिङ्गानि भवन्ति; तद्यथा—युगपदेव केवले शरीरे ज्वरस्याभ्यागमनमभिवृद्धिर्वां, भुक्तस्य विदाहकाले मध्यन्दिनेऽर्धरात्रे शरदि वा विशेषेण, कटुकास्यता, घ्राणमुखकण्ठौष्ठतालुपाकः, तृष्णा, भ्रमो, मदो, मूर्च्छा, पित्तच्छर्दनम्, अतीसारः, अन्नद्वेषः, सदनं, स्वेदः, प्रलापो, रक्तकोठाभिनिर्वृत्तिः शरीरे, हरितहारिद्रत्वं नखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचाम्, अत्यर्थमूष्मणस्तीव्रभावः, अतिमात्रं दाहः, शीताभिप्रायता, निदानोक्तानामनुपशयो, विपरीतोपशयश्चेति (पित्तज्वरलिङ्गानि भवन्ति)॥११॥
स्निग्धगुरुमधुरपिच्छिलशीताम्ललवणदिवास्वप्नहर्षाव्यायामेभ्योऽतिसेवितेभ्यः श्लेष्मा प्रकोपमापद्यते। स यदा प्रकुपितः प्रविश्यामाशयमूष्मणा सह मिश्रीभूयाद्यमाहारपरिणामधातुं रसनामानमन्ववेत्य रसस्वेदवहानि स्रोतांसि पिधायाग्निमुपहत्य पत्तिस्थाजादूष्माणं बहिर्निरस्य प्रपीडयन् केवलं शरीरमनुप्रपद्यते, तदा ज्वरमभिनिर्वर्तयति। तस्येमानि लिङ्गानि भवन्ति; तद्यथा—युगपदेव केवले शरीरे ज्वरस्याभ्यागमनमभिवृद्धिर्वा, भुक्तमात्रे पूर्वाह्णेपूर्वरात्रे वसन्तकाले वा विशेषेण, गुरुगात्रत्वम्, अनन्नाभिलाषः, श्लेष्मप्रसेको, मुखमाधुर्यं, हल्लासो, हृदयोपलेपः, स्तिमितत्वं, छर्दिः, मृद्वग्निता, निद्राधिक्यं, स्तम्भः, तन्द्रा, श्वासः, कासः, प्रतिश्यायः, शैत्यं, श्वैत्यं च नखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचाम्, अत्यर्थं शीतपिडकाश्चभृशमङ्गेभ्य790 उत्तिष्ठन्ति, उष्णाभिप्रायता, निदानोक्तानामनुपशयो विपरीतोपशयश्चेति (श्लेष्मज्वरलिङ्गानि भवन्ति)॥१२॥
विषमाशनादनशनादन्नपरिवर्ताहतुव्यापत्तेरसात्म्यगन्धोपघ्राणाद्विषोपहतस्य चोदकस्योपयोगाद्गरेभ्यो गिरीणां चोपश्लेषात् स्नेहस्वेदवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानामयथात्प्रयोगान्मिथ्यासंसर्जनाद्वा स्त्रीणां च विषमप्रजननात् प्रजातानां च मिथ्योपचाराद्यथोक्तानां च हेतूनां मिश्रीभावाद्यथानिदानं द्वन्द्वानामन्यतमः सर्वे वा त्रयो दोषा युगपत् प्रकोपमापद्यन्ते। ते प्रकुपितास्तयैवानुपूर्व्या ज्वरमभिनिर्वर्तयन्ति। तत्र यथोक्तानां ज्वरलिङ्गानां मिश्रीभावविशेषदर्शनाद्द्वान्द्विकमन्यतमं ज्वरं सान्निपातिकं वा विद्यात्॥१३॥
अभिघाताभिषङ्गाभिचाराभिशापेम्य आगन्तुर्हि व्यथापूर्वो ज्वरोऽष्टमो भवति। स किंचित्कालमागन्तुः केवलो भूत्वा पश्चाद्दोषैरनुबध्यते। तत्राभिघातजो वायुना दुष्टशोणिताधिष्ठानेन, अभिषङ्गजः पुनर्वातपित्ताभ्याम्, अभिचाराभिशापजौ तु सन्निपातेनानुबध्येते; स सप्तविधाज्ज्वराद्विशिष्टलिङ्गोपक्रमसमुत्थानत्वाद्विशिष्टोवेदितव्यः, कर्मणा साधारणेन चोपक्रम्यः। इत्यष्टविधा ज्वरप्रकृतिरुका॥१४॥
ज्वरस्त्वेक एव संतापलक्षणः, तमेवाभिप्रायविशेषाद्विविधमाचक्षते, निजागन्तुविशेषाच्च; तत्र निजं द्विविधं त्रिविधं चतुर्विधं पञ्चविधं सप्तविधं चाहुर्भिषजो791 वातादिविकल्पात्॥१५॥
तस्येमानि पूर्वरूपाणि भवन्ति। तद्यथा—मुखवैरस्यं गुरुगात्रत्वमनन्नाभिलाषश्चक्षुषोराकुलत्वमस्रागमनं निद्राधिक्यमरतिर्जृम्भा विनामो वेपथुः श्रमभ्रमप्रलापजागरणलोमहर्षदन्तहर्षाः शब्दशीतवातातपासहत्वमरोचकाविपाकौ दौर्बल्यमङ्गमर्दः सदनमल्पप्राणता दीर्घसूत्रताऽऽलस्यमुचितस्य कर्मणो हानिः प्रतीपता स्वकार्येषु गुरूणां वाक्येष्वभ्यसूया बालेभ्यः प्रद्वेषः स्वधर्मेष्वचिन्ता माल्यानुलेपनभोजनपरिक्लेशनं मधुरेभ्यश्च भक्ष्येभ्यः प्रद्वेषोऽम्ललवणकटुकप्रियता792 चेति (ज्वरपूर्वरूपाणि भवन्ति) प्राक्संतापात्, अपि चैनं संतापार्तमनुबध्नन्ति॥१६॥
इत्येतान्येकैकशो ज्वरलिङ्गानि व्याख्यातानि भवन्ति विस्तरसमासाभ्याम् ।
ज्वरस्तु खलु महेश्वरकोपप्रभवः सर्वप्राणिनां प्राणहरः, देहेन्द्रियमनसां तापकरः, प्रज्ञाबलवर्णहर्षोत्साहसादनः793, श्रमक्लममोहाहारोपरोधसंजननः, ‘ज्वरयति शरीराणि’ इति ज्वरः, नान्ये व्याधयस्तथा दारुणा बहूपद्रवां दुश्चिकित्स्याश्च यथाऽयं, स सर्वरोगाधिपतिः, नानातिर्यग्योनिषु बहुविधैः शब्दैरभिधीयते, सर्वप्राणभृतः सज्वरा एव जायन्ते सज्वरा एव म्रियन्ते च स महामोहः, तेनाभिभूता देहिनः प्राग्दैहिकं कर्म किंचिदपि न स्मरन्ति, सर्वप्राणभृतां च ज्वर एवान्ते प्राणानादत्ते॥१७॥
तत्र पूर्वरूपदर्शने ज्वरादौ वा हितं लब्धशनमतर्पणं वा, ज्वरस्यामाशयसमुत्थत्वात्; ततः कषायपानाभ्यङ्गस्रेहस्वेदप्रदेहपरिषेकानुलेपनवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनोपशमननस्तःकर्मधूपधूमपानाञ्जनक्षीरभोजनविधानं च यथास्वं युक्त्या प्रयोज्यं; जीर्णज्वरेषु तु सर्वेष्वेव सर्पिषः पानं प्रशस्यते यथास्वौष धसिद्धस्य; सर्पिर्हि स्नेहाद्वातं शमयति, संस्कारात् कफं, शैत्यात् पित्तमूष्माणं च; तस्माज्जीर्णज्वरेषु सर्वेष्वेव सर्पिर्हितमुदकमिवाग्निप्लष्टेषु द्रव्येष्विति॥१८॥
भवन्ति चात्र।
यथा प्रज्वलितं वेश्म परिषिञ्चन्ति वारिणा।
नराः शान्तिमभिप्रेत्य तथा जीर्णज्वरे घृतम्॥१९॥
स्नेहाद्वातं शमयति, शैत्यात् पित्तं नियच्छति।
घृतं तुल्यगुणं दोषं संस्कारात्तु जयेत् कफम्॥२०॥
नान्यः स्नेहस्तथा कश्चित् संस्कारमनुवर्तते।
यथा सर्पिरतः सर्पिः सर्वस्त्रेहोत्तमं मतम्॥२१॥
गद्योक्तो यः पुनः श्लोकैरर्थः समनुगीयते।
तव्द्यक्तिव्यवसायार्थं द्विरुक्तं तन्न गर्ह्यते॥२२॥
तत्र श्लोकाः।
त्रिविधं नामपर्यायैर्हेतुं पञ्चविधं गदम्।
गदलक्षणपर्यायान् व्याधेः पञ्चविधं ग्रहम्॥२३॥
ज्वरमष्टविधं तस्य प्रकृष्टासन्नकारणम्।
पूर्वरूपं च रूपं च भेषजं संग्रहेण च॥२४॥
व्याजहार ज्वरस्याग्रे निदाने विगतज्वरः।
भगवानग्निवेशाय प्रणताय पुनर्वसुः॥२५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते निदानस्थाने ज्वरनिदानं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
द्वितीयऽध्यायः
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अथातो रक्तपित्तनिदानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
पित्तं यथाभूतं लोहितपित्तमिति संज्ञां लभते तथाऽनुव्याख्यास्यामः। यदा जन्तुर्यवकोद्दालक कोरदूषकप्रायाण्यन्नानि भुङ्क्ते, भृशोष्णतीक्ष्णमपि चान्यदन्नजातं, निष्पावमाषकुलत्थसूपक्षारोपहितं, दधिदुधिमण्डोदश्वित्कट्वराम्लकाञ्जिकोपसेकं, वाराहमाहिषाविकमात्स्यगव्यपिशितपिण्याकपिण्डालुकशुष्कशाकोपहितं, मूलकसर्षपलशुनकरञ्जशिग्रुमधुशिग्रुभूस्तृणसुमुखसुरसकुठेरगण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफणिज्झकोपदंश, सुरासौवीरकतुषोदकमैरेयमेदकमधूलककुवलबदराम्लप्रायानुपानं वा पिष्टान्नोत्तरभूयिष्ठम्; उष्णाभितप्तो वाऽतिमात्रमतिवेलं वाऽऽमं794 पयः पिबति, पयसा वा समश्नाति रोहिणीशाकं, काणकपोतं वा सर्षपतैलक्षारसिद्धं, कुलस्थपिण्याकजाम्बवलकुचपक्वैःशौक्तिकैर्वा सह क्षीरं795 पिबत्युष्णाभितप्तः; तस्यैवमाचरतः पित्तं प्रकोपमापद्यते, लोहितं च796स्वप्रमाणमतिवर्तते; तस्मिन् प्रमाणातिप्रवृत्ते पित्तं प्रकुपितं शरीरमनुसर्पद्यदैव यकृत्प्लीहप्रभवाणां लोहितवहानां स्रोतसां लोहिताभिष्यन्दगुरूणि मुखान्यासाद्य प्रतिपद्यते797 तदैव लोहितं दूषयति॥३॥
तल्लोहितसंसर्गाल्लोहितप्रदूषणाल्लोहितगन्धवर्णानुविधानाच्चपित्तं लोहितपित्तमित्याचक्षते॥४॥
तस्येमानि पूर्वरूपाणि भवन्ति; तद्यथा—अनन्नाभिलाषो, भुक्तस्य विदाहः, शुक्ताम्लगन्धरस उद्गारः, छर्देरभीक्ष्णागमनं, छर्दितस्य बीभत्सता, स्वरभेदो, गात्राणां सदनं, परिदाहो, मुखाद्धूमागम इव, लोहलोहितमत्स्यामगन्धित्वमपि798चास्यस्य, रक्तहरितहारिद्रत्वमङ्गावयवशकृन्मूत्रस्वेदलालासिङ्घाणकास्यकर्णमलपिडकोलिकापिडकानाम्799, अङ्गवेदना, लोहितनीलपीतश्यावानामर्चिष्मतां दुष्टानां च रूपाणां स्वप्नेदर्शनमभीक्ष्णमिति (लोहितपित्त पूर्वरूपाणि भवन्ति)॥५॥
उपद्रवास्तु खलु—दौर्बल्यारोचकाविपाकश्वासकासज्वरातीसारशोफशोषपाण्डुरोगाःस्वरभेदश्च॥६॥
मार्गौ पुनरस्य द्वौ—ऊर्ध्वं चाधश्च; तद्बहुश्लेष्मणि शरीरे श्लेष्मसंसर्गादूर्ध्वं प्रतिपद्यमानं कर्णनासिकानेत्रास्येभ्यः प्रच्यवते, बहुवाते तु शरीरे वातसंसर्गादधः प्रतिपद्यमानं मूत्रपुरीषमार्गाभ्यां प्रच्यवते, बहुश्लेष्मवाते तु शरीरे श्लेष्मवातसंसर्गाद्द्वावपि मार्गौं प्रतिपद्यते, द्वौ मार्गौं प्रतिपद्यमानं सर्वेभ्य एव यथोक्तेभ्यः स्वेभ्यः प्रच्यवते शरीरस्य॥७॥
तत्र यदूर्ध्वभागं तत् साध्यं, विरेचनोपक्रमणीयत्वाद्बह्वौषधत्वाच्च; यदधोभागं800 तद्याप्यं, वमनोपक्रमणीयत्वादल्पौषधत्वाच्च; यदुभयभागं801तदसाध्यं, वमनविरेचनायोगित्वादनौषधत्वाच्च॥८॥
रक्तपित्तप्रकोपस्तु खलु पुरा दक्षयज्ञोद्ध्वंसेरुद्रकोपामर्षाग्निना802प्राणिनां परिगतशरीरप्राणानामभूज्ज्वरमनु॥९॥
तस्याशुकारिणो दावाग्नेरिवापतितस्यात्ययिकस्याशु प्रशान्तौ यतितव्यं मात्रां देशं कालं चाभिसमीक्ष्य संतर्पणेनापतर्पणेन वा, मृदुमधुरशिशिरतिक्तकषायैरभ्यवहार्यैः, प्रदेहपरिषेकावगाहसंस्पर्शनैर्वमनाद्यैर्वा तत्रावहितेनेति॥१०॥
भवन्ति चात्र।
साध्यं लोहितपित्तं तद्यदूर्ध्वं प्रतिपद्यते।
विरेचनस्य योगित्वाद्बहुत्वाद्भेषजस्य च॥११॥
विरेचनं हि पित्तस्य जयार्थे परमौषधम्।
यश्च तत्रान्वयः803 श्लेष्मा तस्य चानधमं स्मृतम्॥१२॥
भवेद्योगावहं तत्र मधुरं804 चैव भेषजम्।
तस्मात् साध्यं मतं805 रक्तं यदूर्ध्वं प्रतिपद्यते॥१३॥
रक्तं तु यदधोभागं तद्याप्यमिति निश्चयः।
वमनस्याल्पयोगित्वादल्यत्वाद्भेषजस्य च॥१४॥
वमनं हि न पित्तस्य हरणे806 श्रेष्ठमुच्यते।
यश्च तत्रानुगो807 वायुस्तच्छान्तौ चावरं मतम्॥१५॥
तच्चायोगावहं808 तत्र कषायं तिक्तकानि च।
तस्माद्याप्यं समाख्यातं यद्भक्तमनुलोमगम्॥१६॥
रक्तपित्तं तु यन्मार्गो द्वावपि प्रतिपद्यते।
असाध्यमिति तज्ज्ञेयं पूर्वोक्तादेव809कारणात्॥१७॥
न हि संशोधनं किंचिदस्त्यस्य प्रतिमार्गगम्।
प्रतिमार्गं च हरणं रक्तपित्ते विधीयते॥१८॥
एवमेवोपशमनं सर्वशो नास्य विद्यते।
संसृष्टेषु च दोषेषु सर्वजिच्छमनं मतम्॥१९॥
इत्युक्तं त्रिविधोदर्कं810रक्तं मार्गविशेषतः।
एभ्यस्तु खलु हेतुभ्यः किंचित साध्यं न सिध्यति॥२०॥
प्रेष्योपकरणाभावाद्दौरात्म्याद्वैद्यदोषतः।
अकर्मतश्च साध्यस्वं कश्चिद्रोगोऽतिवर्तते॥२१॥
तत्रासाध्यत्वमेकं स्यात् साध्ययाप्यपरिक्रमात्।
रक्तपित्तस्य विज्ञानमिदं तस्योपदेक्ष्यते॥२२॥
यत् कृष्णमथवा नीलं यद्वा शक्रधनुष्प्रभम्।
रक्तपित्तमसाध्यं तद्वाससो रञ्जनं811च यत्॥२३॥
भृशं पूत्यतिमात्रं च सर्वोपद्रववच्च यत्।
बलमांसक्षये यच्च तच्च रक्तमसिद्धिमत्॥२४॥
येन चोपहतो रक्तं रक्तपित्तेन मानवः।
पश्येद्दृश्यं वियच्चापि तच्चासाध्यमसंशयम्॥२५॥
तत्रासाध्यं परित्याज्यं याप्यं यत्नेन यापयेत्।
साध्यं चावहितः सिद्धैर्भेषजैः साधयेद्भिषक्॥२६॥
तत्र श्लोक।
कारणं नामनिर्वृत्तिंपूर्वरूपाण्युपद्रवान्।
मार्गौदोषानुबन्धं च साध्यत्वं न च हेतुमत्॥२७॥
निदाने रक्तपित्तस्य व्याजहार पुनर्वसुः।
वीतमोहरजोदोषलोभमानमदस्पृहः॥२८॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते निदानस्थाने रक्तपित्त-
निदानं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
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तृतीयोऽध्यायः।
अथातो गुल्मनिदानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु पञ्च गुल्मा भवन्ति; तद्यथा—वातगुल्मः, पित्तगुल्मः, श्लेष्मगुल्मो, निचयगुल्मः, शोणितगुल्मश्चेति॥३॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—कथमिह भगवन्! पञ्चानां गुल्मानां विशेषमभिजानीमहे, न ह्यविशेषविद्रोगाणामौषधविदपि भिषक् प्रशमनसमर्थो भवतीति॥४॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—समुत्थानपूर्वरूपलिङ्गवेदनोपशयविशेषेभ्यो विशेषविज्ञानं गुल्मानां भवत्यन्येषां च रोगाणामग्निवेश! तत्तु खलु812 गुल्मेषूच्यमानं निबोध॥५॥
यदा पुरुषो वातलो विशेषेण ज्वरवमनविरेचनातीसाराणामन्यतमेन कर्शनेन कार्शितो वातलमाहारमाहरति, शीतं वा विशेषेण, अतिमात्रमस्नेहपूर्वे वा वमनविरेचने पिबति, अनुदीर्णां वा छर्दिदीरयति, उदीर्णान् वात मूत्रपुरीषवेगान्निरुणद्धि, अत्यशितो वा पिबति नवोदकमतिमात्रम्, अतिमात्रसंक्षोभिणा वा यानेन याति, अतिव्यवायव्यायाममद्यशोकरुचिर्वाऽभिघातमृच्छति, विषमाशनशयनासनस्थानचङ्क्रमणसेवी वा भवति, अन्यद्वा किंचिदेवंविधं विषममतिमात्रं व्यायामजातमारभते, तस्यापचाराद्वायुः प्रकोपमापद्यते॥६॥
स प्रकुपितो महास्रोतोऽनुप्रविश्य रौक्ष्यात् कठिनीभूतमाप्लुत्य813पिण्डितोऽवस्थानं करोति हृदि बस्तौ पार्श्वयोर्नाभ्यां वा; स शूलमुपजनयति ग्रन्थींश्चानेकविधान् पिण्डितश्चावतिष्ठेते814, स पिण्डितत्वाद्गुल्म इत्यभिधीयते॥७॥
स मुहुराधमति, मुहुरल्पत्वमापद्यते815, अनियतविपुलाणुवेदनश्च भवति चलत्वाद्वायोः, मुहुर्मुहुः पिपीलिकासंप्रचार इवाङ्गेषु, तोदभेदस्फुरणायामसंकोचसुप्तिहर्षप्रलयोदयबहुलः, तदातुरश्च सूच्येव शङ्कुनेव चाभिविद्धमात्मानं मन्यते, अपि च दिवसान्ते ज्वर्यते, शुष्यति चास्यास्यम्, उच्छ्वासश्चोपरुध्यते, हृष्यन्ति चास्य रोमाणि वेदनायाः प्रादुर्भावे, प्लीहाटोपात्रकूजनाविपाकोदावर्ताङ्गमर्दमन्याशिरःशङ्खशूलब्रध्नरोगाश्चैनमुपद्रवन्ति, कृष्णारुणपरुषत्वङ्गखनयनवदनमूत्रपुरीषश्च भवति, निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते, विपरीतानि चोपशेरत इति वातगुल्मः॥८॥
तैरेव तु कर्शनैः कर्शितस्याम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णशुक्तव्यपन्नमद्यहरितकफलाम्लानां विदाहिनां च शाकमांसादीनामुपयोगादजीर्णाध्यशनाद्रौक्ष्यानुगते चामाशये वमनविरेचनमतिवेलं संधारणं वातातपौ चातिसेवमानस्य पित्तं सह मारुतेन प्रकोपमापद्यते॥९॥
तत् प्रकुपितं मारुत आमाशयैकदेशे संवर्त्य तानेव वेदनाप्रकारानुपजनयति य उक्ता वातगुल्मे; पित्तं त्वेनं विदहति कुक्षौ हृद्युरसि कण्ठे च, स विदह्यमानः सधूममिवोद्गारमुद्गिरत्यम्लान्वितं, गुल्मावकाशश्चास्य दह्यते दूयते धूप्यते ऊष्मायते स्विद्यति क्लिद्यति शिथिल816इव चास्पर्शासहोऽल्परोमा817च भवति, ज्वरभ्रमदवथुपिपासागलतालुवदनशोषप्रमोहविङ्भेदाश्चैनमुपद्रवन्ति, हरितहारिद्रत्वङ्गखनयनवदनमूत्रपुरीषश्च भवति, निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते, विपरीतानि चोपशेरत इति पित्तगुल्मः॥१०॥
तैरेव तु कर्शनैः कर्शितस्यात्यशनादतिस्निग्धगुरुमधुरशीताशनात् पिष्टेक्षुक्षीरमाषतिलविकृतिसेवनान्मन्दकमद्यातिपानाद्धरितकातिप्रणयनादानूपौदकग्राम्यमांसातिभक्षणात् संधारणादतिसुहितस्य चातिप्रगाढमुदकपानात् संक्षोभणाद्वा शरीरस्य श्लेष्मा संह मारुतेन प्रकोपमापद्यते॥११॥
तं प्रकुपितं मारुत आमाशयैकदेशे संवर्त्य तानेव वेदनाप्रकारानुपजनयति, य उक्ता वातगुल्मे; श्लेष्मा त्वस्य शीतज्वरारोचकाविपाकाङ्गमर्दहर्षहृद्रोगच्छर्दिनिद्रालस्यस्तैमित्यगौरव शिरोभितापानुपजनयति, अपि च गुल्मस्य स्थैर्यगौरवकाठिन्यावगाढसुप्तताः, तथा कासश्वासप्रतिश्यायान् राजयक्ष्माणं चातिप्रवृद्धः, श्वैत्यं च त्वङ्गखनयनवदनमूत्रपुरीषेषूपजनयति, निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते, विपरीतानि चोपशेरत इति श्लेष्मगुल्मः॥१२॥
त्रिदोषहेतु लिङ्गसन्निपातात्तु सान्निपातिकं गुल्ममुपदिशन्ति कुशलाः। स विप्रतिषिद्धोपक्रमत्वादसाध्यो818 निचयगुल्मः॥१३॥
शोणितगुल्मस्तु खलु स्त्रिया एव भवति न पुरुषस्य, गर्भकोष्ठार्तवागमनवैशेष्यात्। पारतत्र्यादवैशारद्यात् सततमुपचारानुरोधाद्वा वेगानुदीर्णानुपरुन्धन्त्या आमगर्भे वाऽप्यचिरपतितेऽथवाऽप्यचिरप्रजाताया ऋतौ वा वातप्रकोपणान्यासेवमानायाः क्षिप्रंवातः प्रकोपमापद्यते। स प्रकुपितो योनिमुखमनुप्रविश्यातवमुपरुणद्धि, मासि मासि तदार्तवमुपरुध्यमानं कुक्षिमभिवर्धयति; तस्याः शूलकासातीसारच्छर्द्यरोचकाविपाकाङ्गमर्दनिद्रालस्यस्तैमित्यकफप्रसेकाः समुपजायन्ते, स्तनयोश्च स्तन्यम्, ओष्ठयोः स्तनमण्डलयोश्च कार्ष्ण्यम्, अत्यर्थं ग्लानिश्चक्षुषोः, मूर्च्छा, हृल्लासो, दोहदः, श्वयथुः पादयोः, ईषच्चोद्गमो रोमराज्याः, योन्याश्चाटालत्वम्, अपि च योन्या दौर्गन्ध्यमानास्रावश्लोपजायते, केवलश्चास्या गुल्मः पिण्डित एव स्पन्दते, तामगर्भां गर्भिणीमित्याहुर्मूढाः॥१४॥
एषां तु खलु पञ्चानां गुल्मानां प्रागभिनिर्वृत्तेरिमानि पूर्वरूपाणि भवन्ति; तद्यथा—अनन्नाभिलषणम्, अरोचकाविपाकौ, अग्निवैषम्यं, विदाहो भुक्तस्य, पाककाले चायुक्या छर्द्युद्गारौ, वातमूत्रपुरीषवेगाणामप्रादुर्भावःप्रादुर्भूतानां चाप्रवृत्तिरीषदागमनं वा, शूलाटोपात्रकूजनपरिहर्षणातिवृत्तपुरीषताः, अबुभुक्षा, दौर्बल्यं, सौहित्यस्य चासहत्वमिति (गुल्मपूर्वरूपाणि भवन्ति)॥१५॥
सर्वेष्वपि च खल्वेतेषु गुल्मेषु न कश्चिद्वातादृते संभवति गुल्मः॥१६॥
तेषां सन्निपातजमसाध्यं ज्ञात्वा नोपक्रमेत एकदोषजे तु यथास्वमारम्भं प्रणयेत्, संसृष्टांस्तु साधारणेन कर्मणोपचरेत्; यच्चान्यदप्यविरुद्धं मन्येत तदवचारयेद्विभज्य गुरुलाघवमुपद्रवाणां,
गुरूनुपद्रवांस्त्वरमाणश्चिकित्सेज्जघन्यमितरान्, त्वरमाणस्तु विशेषमनुपलभमानो गुल्मेष्वात्ययिके कर्मणि वातचिकित्सितं प्रणयेत्, स्नेहस्वेदौ वातहरौ, स्नेहोपसंहितं च मृदुविरेचनं बस्तींश्च, अम्ललवणमधुरांश्च रसान् युक्तितोऽवचारयेत्, मारुते ह्युपशान्ते स्वल्पेनापि प्रयत्नेन शक्योऽन्योऽपि दोषो नियन्तुं गुल्मेष्विति॥१७॥
भवति चात्र।
गुल्मिनामनिलशान्तिरूपायैः सर्वशो विधिवदाचरितव्या।
मारुते ह्यवजितेऽन्यमुदीर्णं दोषमल्पमपि कर्म निहन्यात्॥१८॥
तत्र श्लोकः।
संख्या निमित्तं रूपाणि पूर्वरूपमथापि च।
दिष्टं निदाने गुल्मानामेकदेशश्च कर्मणाम्॥१९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते निदानस्थाने गुल्मनिदानं नाम तृतीयोऽध्यायः समाप्तः॥३॥
___________
चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातः प्रमेहनिदानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
त्रिदोषकोपनिमित्ता विंशतिः प्रमेहा भवन्ति, विकाराश्चापरेऽपरिसंख्येयाः। तत्र यथा त्रिदोषप्रकोपः प्रमेहानभिर्वर्तयति तथाऽनुव्याख्यास्यामः॥३॥
इह खलु निदानदोषदूष्यविशेषेभ्यो विकारविघातभावाभावप्रतिविशेषा819 भवन्ति॥४॥
यदा ह्येते त्रयो निदानादिविशेषाः परस्परं नानुबध्नन्ति820, अथवा कालप्रकर्षात् अबलीयांसो वाऽनुबध्नन्ति; न तदा विकाराभिर्वृत्तिः, चिराद्वाऽप्यभिनिर्वर्तन्ते, तनवो वा भवन्ति, अयथोक्तसर्वलिङ्गा वा; विपर्यये विपरीताः; इति सर्वविकारविघातभावाभावप्रतिविशेषाभिनिर्वृत्तिहेतुर्भवत्युक्तः821॥५॥
तत्रेमेत्रयो निदानादिविशेषाः श्लेष्मनिमित्तानां प्रमेहाणामाश्वभिनिर्वृत्तिकरा भवन्ति; तद्यथा—हायनकयवकचीनकोद्दालकनैषधेत्कटमुकुन्दकमहाव्रीहिप्रमोदकसुगन्धकानां नवानामतिवेलमतिप्रमाणेन चोपयोगः, तथा सर्पिष्मतां नवहरेणुमाषसूपा(प्या) नां, ग्राम्यानूपौदकानां च मांसानां, शाकतिलपललपिष्टान्नपायसकृशरविलेपीक्षुविकाराणां, क्षीरमन्दकदधिद्रवमधुरतरुणप्रायाणामुपयोगः; मृजाव्यायामवर्जनं, स्वप्नशयनासनप्रसङ्गः, यश्च कश्चिद्विधिरन्योऽपि श्लेष्ममेदोमूत्रसंजननः, स सर्वो निदानविशेषः॥६॥
बहुद्रवः822श्लेष्मा दोषविशेषः॥७॥
बह्वबद्धं823 मेदो मांसं शरीरजक्लेदः शुक्रं शोणितं वसा मज्जा लसीका रसश्रौजःसंख्य824 इति दूष्यविशेषः॥८॥
त्रयाणामेषां निदानादिविशेषाणां सन्निपाते क्षिप्रं श्लेष्माप्रकोपमापद्यते प्रागतिभूयस्त्वात् स प्रकुपितः क्षिप्रमेव शरीरे विसृप्तिं लभते, शरीरशैथिल्यात्; स विसर्पच्छरीरे मेवासैवादितो मिश्रीभावं गच्छति, मेदसश्चैव बह्वबद्धत्वान्मेदसश्च825 गुणैः समानगुणभूयिष्ठत्वात्; स मेदसा मिश्रीभावं गच्छन्826दूषयत्येनत्827, विकृतत्वात्; स विकृतो दुष्टेन मेदसोपहितः828शरीरक्लेदमांसाभ्यां गच्छति, क्लेदमांसयोरतिप्रमाणाभिवृद्धत्वात्; स मांसे
मांसप्रदोषात् पूतिमांसपिडकाःशराविकाकच्छपिकाद्याः संजनयत्यप्रकृतिभूतत्वात्; शरीरक्लेदं पुनर्दूषयन्मूत्रत्वेन परिणमयति; मूत्रवहानां च स्त्रोतसां वङ्क्षणबस्तिप्रभवाणां829मेदः क्लेदोपहितानि गुरूणि मुखान्यासाद्य प्रतिरुध्यते; ततश्च प्रमेहांस्तेषां स्थैर्यमसाध्यतां वा जनयति, प्रकृतिविकृतिर्भूतत्वात्830॥९॥
शरीरक्लेदस्तु श्लेष्ममेदोमिश्रः प्रविशन्मूत्राशयं मूत्रत्वमापद्यमानः श्लैष्मिकैरेभिर्दशभिर्गुणैरुपसृज्यते वैषम्ययुक्तैः831; तद्यथा—श्वेतशीतमूर्तपिच्छिलाच्छस्निग्धगुरुमधुरसान्द्रप्रसादमन्दैः; यत्र येन गुणेनैकेनानेकेन वा भूयस्तरामुपसृज्यते832, तत्समाख्यं गौणं नामविशेषं प्राप्नोति॥१०॥
ते तु खल्विमै दश प्रमेहा नामविशेषेण भवन्ति। तद्यथा—उदकमेहश्च, इक्षुवालिकारसमेहश्च, सान्द्रमेहश्च, सान्द्रप्रसादमेहश्च, शुक्लमेहश्च, शुक्रमेहश्च, शीतमेहश्च, सिकतामेहश्च, शनैर्मेहश्व, आलालमेहश्चेति॥११॥
ते दश प्रमेहाः साध्याः, समानगुणमेदःस्थानत्वात् कफस्य प्राधान्यात् समक्रियत्वाच्च॥१२॥
तत्र श्लोकाः श्लेष्मप्रमेहविशेषविज्ञानार्था भवन्ति—
अच्छं बहु सितं शीतं निर्गन्धमुदकोपमम्।
श्लेष्मकोपान्नरो मूत्रमुदमेही प्रमेहति॥१३॥
अत्यर्थमधुरं शीतमीषत्पिच्छिलमाविलम्।
काण्डेक्षुरससंकाशं श्लेष्मकोपात् प्रमेहति॥१४॥
यस्य पर्युषितं मूत्रं सान्द्रीभवति भाजने।
पुरुषं कफकोपेन तमाहुः सान्द्रमेहिनम्॥१५॥
यस्य संहन्यते मूत्रं किंचित् किंचित् प्रसीदति।
सान्द्रप्रसादमेहीति तमाहुः श्लेष्मकोपतः॥१६॥
शुक्लं पिष्टनिभं मूत्रमभीक्ष्णं यः प्रमेहति।
पुरुषं कफकोपेन तमाहुः शुक्लमेहिनम्॥१७॥
शुक्राभं शुक्रमिश्रं वा मुहुर्मेहति यो नरः।
शुक्रमेहिनमाहुस्तं पुरुषं श्लेष्मकोपतः॥१८॥
अत्यर्थशीतमधुरं मूत्रं मेहति यो भृशम्।
शीतमेहिनमाहुस्तं पुरुष श्लेष्मकोपतः॥१९॥
मूर्तान्मूत्रगता833न्दोषानणून्मेहति यो नरः।
सिकतामेहिनं विद्यात्तं नरं श्लेष्मकोपतः॥२०॥
मन्दं मन्दमवेगं तु कृच्छ्रं यो मूत्रयेच्छनैः।
शनैर्मेहितमाहुस्तं पुरुषं श्लेष्मकोपतः॥२१॥
तन्तुबद्धमिवालालं834 पिच्छिलं यः प्रमेहति।
आलालमेहिनं विद्यात्तं नरं श्लेष्मकोपतः॥२२॥
इत्येते दश प्रमेहाः श्लेष्मप्रकोपनिमित्ता व्याख्याता भवन्ति॥उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनोपसेविनस्तथाऽतितीक्ष्णातपाग्निसंतापश्रमक्रोधविषमाहारोपसेविनश्च तथात्मकशरीरस्यैव835पित्तमाशु प्रकोपमापद्यते॥२३॥
तत् प्रकुपितं तथैवानुपूर्व्या प्रमेहानिमान् षट् क्षिप्रमभिनितवर्तयति॥२४॥
तेषामपि तु खलु पित्तगुणविशेषेणैव836नामविशेषा भवन्ति; तद्यथा—क्षारमेहश्च, कालमेहश्च, नीलमेहश्च, लोहितमेहश्च, माञ्जिष्ठमेहश्च, हारिद्रमेहश्चेति। ते षट्भिरेतैः क्षाराम्ललवणकटुविस्रोष्णैः पित्तगुणैः पूर्ववत् समन्विता भवन्ति। सर्व एव च ते याप्याः, संसृष्टदोषमेदः837स्थानत्वाद्विरुद्धोपक्रमत्वाच्चेति॥२५॥
तत्र श्लोकाः पित्तप्रमेहविशेषविज्ञानार्था भवन्ति—
गन्धवर्णरसस्पर्शैर्यथा क्षारस्तथात्मकम्838।
पित्तकोपान्नरो मूत्रं क्षारमेही प्रमेहति॥२६॥
मषीवर्णमजस्नंयो मूत्रमुष्णं प्रमेहति।
पित्तस्य परिकोपेण तं विद्यात् कालमेहिनम्॥२७॥
चाषपक्षनिभं मूत्रमम्लं मेहति यो नरः।
पित्तस्य परिकोपेण तं विद्यान्नीलमेहिनम्॥२८॥
विस्रंलवणमुष्णं च रक्तं मेहति यो नरः।
पित्तस्य परिकोपेण तं विद्याद्रक्तमेहिनम्॥२९॥
मञ्जिष्ठोदकसंकाशं भृशं विस्रं प्रमेहति।
पित्तस्य परिकोपात्तं विद्यान्माञ्जिष्ठमेहिनम्॥३०॥
हरिद्रोदकसंकाशं कटुकं यः प्रमेहति।
पित्तस्य परिकोपात्तं विद्याद्धारिद्रमेहिनम्॥३१॥
इत्येते षट् प्रमेहाः पित्तप्रकोपनिमित्ता व्याख्याता भवन्ति॥३२॥
कषायकटुतिक्तरूक्षलघुशीतव्यवायव्यायामवमनविरेचनास्थापनशिरोविरेचनातियोगवेगसंधारणानशनाभिघातातपोद्वेगशोकशोणितातिषेकजागरणविषमशरीरन्यासानुपसेवमानस्य तथात्मकेशरीरस्यैव839 क्षिप्रं वायुः प्रकोपमापद्यते। स प्रकुपितस्तथात्मके840शरीरे विसर्पन् यदा वसामादाय मूत्रवह्नाणि स्त्रोतांसि प्रतिपद्यते, तदा वसामेहमभिनिर्वर्तयति; यदा पुनर्मज्जानं मूत्रबस्तावाकर्षति, तदा मज्जमेहमभिनिर्वर्तयति; यदा तु लसीकां मूत्राशयेऽभिवहम्मूत्रमनुबन्धं च्योतयति841 लसीकातिबहुत्वाद्विक्षेपणाच्च वायोः खल्वस्यातिमूत्रप्रवृत्तिसङ्गं842करोति, तदा स मत्त इव गजः क्षरत्यजस्रं मूत्रमवेगं, तं हस्तिमेहिनमाचक्षते; ओजः पुनर्मधुरस्वभावं, तद्रौक्ष्याद्वायुः कषायत्वेनाभिसंसृज्य मूत्राशयेऽभिवहन् मधुमेहं करोति॥३३॥
इमांश्चतुरः प्रमेहान् वातजानसाध्यानाचक्षते भिषजः, महात्ययिकत्वाविरुद्धोपक्रमत्वाच्च843।
तेषामपि च वातगुणविशेषेण844नामविशेषा भवन्ति; तद्यथा—वसामेहश्व, मज्जमेहश्च, हस्तिमेहश्च, मधुमेहश्चेति॥३४॥
तत्र श्लोका वातप्रमेहविशेषविज्ञानार्था भवन्ति॥
मज्जानं सह मूत्रेण मुहुर्मेहति यो नरः।
मज्जमेहिनमाहुस्तमसाध्यं वातकोपतः॥३५॥
वसामिश्रं वसाभं च मुहुर्मेहति यो नरः।
वसामेहिनमाहुस्तमसाध्यं वातकोपतः॥३६॥
हस्ती मत्त इवाजस्रं मूत्रं क्षरति यो भृशम्।
हस्तिमेहिनमाहुस्तमसाध्यं वातकोपतः॥३७॥
कषायमधुरं पाण्डुं रूक्षं मेहति यो नरः।
वातकोपादसाध्यं तं प्रतीयान्मधुमेहिनम्॥३८॥
इत्येते चत्वारः प्रमेहा वातप्रकोपनिमित्ता भवन्ति ॥ ३९ ॥
एवं त्रिदोषप्रकोपनिमित्ता विंशतिः प्रमेहा व्याख्याता भवन्ति॥४०॥
त्रयस्तु खलु दोषाःप्रकुपिताः प्रमेहानभिनिवर्तयिष्यन्त इमानि पूर्वरूपाणि दर्शयन्ति; तद्यथा—जटिलीभावं केशेषु, माधुर्यमास्ये, करपादयोः सुप्ततादाहौ, मुखतालुकण्ठशोषं, पिपासाम्, आलस्यं, मलं च काये, कायच्छिद्रेषूपदेहं, परिदाहं सुप्ततां चाङ्गेषु, षट्पदपिपीलिकाभिश्च शरीरमूत्राभिसरणं, मूत्रे च मूत्रदोषान्, विस्रं शरीरगन्धं, निद्रां तन्द्रां च सर्वकालमिति॥४१॥
उपद्रवास्तु खलु प्रमेहिणां—तृष्णाज्वरातीसारदाहदौर्बल्यारोचकाविपाकाःपूतिमांसपिडकालजीविद्रध्यादयश्च तत्प्रसंगाद्भवन्ति॥४२॥
तत्र सांध्यान् प्रमेहान् संशोधनोपशमनैर्यथार्हमुपपादयंश्चिकित्सेत्॥४३॥
भवन्ति चात्र।
गृध्नुमभ्यवहार्येषु स्नानचङ्क्रमणद्विषम्।
प्रमेहः क्षिप्रमभ्येति नीडेद्रुममिवाण्डजः845॥४४॥
मन्दोत्साहमतिस्थूलमतिस्निग्धं महाशनम्।
मृत्युः प्रमेहरूपेण क्षिप्रमादाय गच्छति॥४५॥
यस्त्वाहारं शरीरस्य धातुसाम्यकरं नरः।
सेवते विविधाश्चान्याश्चेष्टाः स सुखमश्नुते॥४६॥
तत्र श्लोकाः।
हेतुर्व्याधिविशेषाणां प्रमेहाणां च कारणम्।
दोषधातुसमायोगो रूपं विविधमेव च॥४७॥
दश श्लेष्मकृता यस्मात् प्रमेहाः षट् च पित्तजाः।
यथा करोति वायुश्च प्रमेहांश्चतुरो बली846॥४८॥
साध्यासाध्यविशेषाश्च पूर्वरूपाण्युपद्रवाः।
प्रमेहाणां निदानेऽस्मिन् क्रियासूत्रं च भाषितम्॥४९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते निदानस्थाने प्रमेह-
निदानं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
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पञ्चमोऽध्यायः।
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अथातःकुष्ठनिदानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सप्त द्रव्याणि कुष्ठानां प्रकृतिमापन्नानि847भवन्ति। तद्यथा—त्रयो दोषा वातपित्तश्लेष्माणः प्रकोपणविकृताः, दूष्याश्च शरीरधातवस्त्वङ्मांसशोणितलसीकाश्चतुर्धा848 दोषोपघातविकृता इति। एतत् सप्तानां सप्तधातुकमेवंगतमाजननं कुष्ठानाम्। अतः प्रभवादभिनिर्वर्तमानानि849 केवलं शरीरमुपतपन्ति॥३॥
न च किंचिदस्ति कुष्ठमेकदोषप्रकोपनिमित्तम् अस्ति तु खलु समानप्रकृतीनामपि कुष्ठानां दोषांशांशविकल्पानुबन्धस्थानविभागेन वेदनावर्णसंस्थानप्रभावनामचिकित्सितविशेषः॥४॥
स सप्तविधोऽष्टादशविधोऽपरिसंख्येयविधो वा भवति; दोषा हि विकल्पनैर्विकल्प्यमाना विकल्पयन्ति विकारान्, अन्यत्रासाध्यभावात्; तेषां विकल्पविकारसंख्यानेऽतिप्रसंगमभिसमीक्ष्य सप्तविधमेव कुष्ठविशेषमुपदेक्ष्यामः॥५॥
इह वातादिषु त्रिषु प्रकुपितेषु त्वगादींश्चतुरः प्रदूषयत्सु वातेऽधिकतरे कपालकुष्ठमभिनिर्वर्तते, पित्ते त्वौदुम्बरं, श्लेष्मणि मण्डलकुष्ठं, वातपित्तयोर्ऋष्यजिह्वं, पित्तश्लेष्मणोः पुण्डरीकं, श्लेष्ममारुतयोः सिध्मकुष्ठं, सर्वदोषाति (भि) वृद्धौ काकणकमभिनिर्वर्तते;एवमेष सप्तविधः कुष्ठविशेषो भवति॥६॥
स चैष850 भूयस्तरमतः851 प्रकृतौ विकल्प्यमानायां भूयसीं विकारविकल्प संख्यामापद्यते॥७॥
तत्रेदं सर्वकुष्ठनिदानं समासेनोपदेक्ष्यामः-शीतोष्णन्यत्यासमनानुपूर्व्योप सेवमानस्य तथा संतर्पणापतर्पणाभ्यवहार्यव्यत्यासं च, मधुफाणित मत्स्यलकुचमूलककाकमाचीः सततमतिमात्रमजीर्णेसमश्नुतः, चिलिचिमं च पयसा, हायनकयवकचीनको द्दालककोरदूषप्रायाणि चान्नानि क्षीरदधितक्रकोलकुलत्थमाषातसीकुसुम्भपरूषस्नेहवन्ति, एतैरेवातिमात्रं सुहितस्य च व्यवायव्यायामसंतापानत्युपसेवमानस्य, भयश्रमसंतापोपहतस्य च सहसा शीतोदकमवतरतः, विदग्धं चाहारजातमनुल्लिख्य विदाहीन्यभ्यवहरतः,छर्दि च प्रतिघ्नतः, स्नेहांश्चातिचरतस्त्रयो दोषा युगपत् प्रकोपमापद्यन्ते, त्वगादयश्चत्वारः शैथिल्यमापद्यन्ते, तेषु शिथिलेषु दोषाःप्रकुपिताः स्थानमधिगम्य संतिष्ठमानास्तानेव त्वगादीन् दूषयन्तः कुष्ठान्यभिनिर्वर्तयन्ति॥८॥
तेषां कुष्ठानामिमानि खलु पूर्वरूपाणि भवन्ति; तद्यथाअस्वेदनमतिस्वेदनं पारुष्यमतिश्लक्ष्णता वैवर्ण्य कण्डूर्निस्तोदःसुप्तता परिदाहः परिहर्षो लोमहर्षः खरत्वमुष्मायणं गौरवंश्वयथुर्विसर्पागमनमभीक्ष्णं कायच्छिद्रेषूपदेहः पक्वदग्धदष्टक्षतोपस्खलितेष्वतिमात्रं वेदनां स्वल्पानामपि च व्रणानां दुष्टिरसंरोहणंचेति (कुष्ठपूर्वरूपाणि भवन्ति)॥९॥
तेभ्योऽनन्तरं कुष्ठान्यभिनिर्वर्तन्ते; तेषामिदं वेदनावर्णसंस्थाननामप्रभावविशेषविज्ञानं भवति; तद्यथा- रूक्षारुणपरुषाणि विषमविसृतानिखरपर्यन्तानितनून्युद्वृत्त852बहिस्तनूनिसुप्तसुप्तानि853हृषितलोमाचितानिनिस्तोदबहुलान्यल्पकण्डूदाहपूयलसीकान्याशुगतिसमुत्थानान्याशुभेदीनिजन्तुमन्तिकृष्णारुणकपालवर्णानि चकपालकुष्ठानीति विद्यात्॥१०॥
ताम्राणिताम्ररोमराजिभिरवनद्धानिबहलानिबहुबहलरक्तपूयलसीकानिकण्डूक्लेदकोथदाहपाकवन्त्याशुगतिसमुत्थान भेदीनि ससंतापकृमीणि पक्कोदुम्बरफलवर्णान्युदुम्बरकुष्ठानीति विद्यात्॥११॥
स्निग्धानि गुरुण्युत्सेधवन्ति श्लक्ष्णस्थिरपीन (त) पर्यन्तानि शुक्लरक्तावभासानि शुक्लराजीसंततानि854 बहुलबहलशुक्लपिच्छिलस्रावीणि855बहुक्लेदकण्डूकृमीणि सक्तगतिसमुत्थानभेदीनि परिमण्डलानिमण्डलकुष्ठानीति विद्यात्॥१२॥
परुषाण्यरुणवर्णानिबहिरन्तःश्यावानिनीलपीतताम्रावभासान्याशुगतिसमुत्थानान्यल्पकण्डूक्लेदकृमीणि दाहभेदनिस्तोदबहुलानि856 शूकोपहतोपमवेदनान्युत्सन्नमध्यानि तनुपर्यन्तानि कर्केशपिडकाचितानि दीर्घपरिमण्डलानि ऋष्यजिह्वाकृतीनि857 ऋष्यजिह्वानीति विद्यात्॥१३॥
शुक्लरक्तावभासानि रक्तपर्यन्तानि रक्तराजीसिरासंततान्युत्सेधवन्ति858 बहुबहलरक्तपूयलसीकानि कण्डूकृमिदाहपाकवन्त्याशुगतिसमुत्थानभेदीनि पुण्डरीकपलाशसंकाशानि859 पुण्डरीकाणीति विद्यात्॥१४॥
परुषारुणविशीर्णानिबहिस्तनून्यन्तःस्निग्धानिशुक्लरक्तावभासानिबहून्यल्पवेदनान्यल्पकण्डूदाहपूयलसीकानि लघुसमुत्थानान्यल्पभेदकृमीण्यलाबुपुष्पसंकाशानि सिध्मकुष्ठानीति विद्यात्॥१५॥
काकणन्तिकावर्णान्यादौ पश्चात्तुसर्वकुष्ठलिङ्गसमन्वितानि पापीयसां860 सर्वकुष्ठलिङ्गसंभवत्वेनानेकवर्णानि काकणकानीतिविद्यात् ;तान्यसाध्यानि साध्यानि पुनरितराणि॥१६॥
तत्र यदसाध्यं तदसाध्यतां नातिवर्तते; साध्यं पुनः किंचित्साध्यतामतिवर्तते कदाचिदपचारात्; साध्यानीह षट् काकणकवर्ज्यान्यचिकित्स्यमानान्यपचारतो वा दोषैरभिष्यन्दुमानान्यसाध्यतामुपयान्ति॥१७॥
साध्यानामपि ह्युपेक्ष्यमाणानामेषां त्वङ्मांसशोणितलसीकाकोथक्लेदसंस्वेदजाः कृमयोऽभिमूर्च्छन्ति; ते भक्षयन्तस्त्वगादीन् दोषान्861पुनर्दूषयन्त इमानुपद्रवान् पृथक् पृथगुत्पादयन्ति। तत्र वातःश्यावारुणवर्णं परुषतामपि च रौक्ष्यशूलशोषतोदवेपथुहर्षसंकोचायास (म) स्तम्भसुप्तिभेदभङ्गान्, पित्तं पुनर्दाहस्वेदक्लेदकोथस्रावपाकरागान्, श्लेष्मा तु श्वैत्यशैत्यस्थैर्यकण्डूगौरवोत्सेधस्नेहोपलेपान्,कृमयस्त्वगादींश्चतुरः सिराः स्नायूंश्चास्थीन्यपि च तरुणानिखादन्ति862॥१८॥
अस्यां चैवावस्थायामुपद्रवाः कुष्ठिनं स्पृशन्ति।तद्यथा—प्रस्रवणमङ्गभेदः पतनान्यङ्गावयवानां तृष्णाज्वरातीसारदाह दौर्बल्यारोचकाविपाकाश्च, तथाविधमसाध्यं विद्यादिति॥१९॥
भवन्ति चात्र।
साध्योऽयमिति यः पूर्व नरो रोगमुपेक्षते।
स किंचित्कालमासाद्य मृत एवावबुध्यते॥२०॥
यस्तु प्रागेव रोगेभ्यो रोगेषु तरुणेषु च।
भेषजं कुरुते सम्यक् स चिरं सुखमश्नुते॥२१॥
यथा स्वल्पेन यत्नेन छिद्यते तरुणस्तरुः।
स एवातिप्रवृद्धस्तु छिद्यतेऽतिप्रयत्नतः863॥२२॥
एवमेव विकारोऽपि तरुणः साध्यते सुखम्।
विवृद्धः साध्यते कृच्छ्रादसाध्यो वाऽपि जायते॥२३॥
तत्र श्लोकः।
संख्या द्रव्याणि दोषाश्च हेतवः पूर्वलक्षणम्।
रूपाण्युपद्रवाश्चोक्ताः कुष्ठानां कौष्ठिके पृथक्॥२४॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते निदानस्थाने कुष्ठनिदानंनाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
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षष्ठोऽध्यायः।
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अथातः शोषनिदानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु चत्वारि शोषस्यायतनानि; तद्यथा—साहसं, संधारणं, क्षयो, विषमाशनमिति॥३॥
तत्र साहसं शोषस्यायतनमिति यदुक्तं तदनुन्याख्यास्यामः—यदा पुरुषो दुर्बलो हि सन् बलवता सह विगृह्णाति, अतिमहतावा धनुषा व्यायच्छति, जल्पति वाऽप्यतिमात्रम्, अतिमात्रं वाभारमुद्रहति, अप्सु वा प्लवते चातिदूरम्, उत्सादनपदाघातने864वाऽतिप्रगाढमासेवते, अतिविप्रकृष्टं वाऽध्वानं द्रुतमभिपतति, अभिहन्यते वा, अन्यद्वा किंचिदेवंविधं विषममतिमात्रं वा व्यायामजातमारभते, तस्यातिमात्रेण कर्मणा उरः क्षण्यते; तस्योरःक्षतमुपप्लवतेवायुः, स तत्रावस्थितः श्लेष्माणमुरःस्थमुपसंसृज्य865शोषयन् विहरत्यूर्ध्वमधस्तिर्यक्व; तस्य योंऽशः शरीरसंघीनाविशति,तेनास्य जृम्भाऽङ्गमर्दो ज्वरश्नोपजायते; यस्त्वामाशयमुपैति, तेनास्यवर्चो भिद्यते; यस्तु हृदयमाविशति, तेन रोगा भवन्त्युरस्याः; योरसनां, तेनास्यारोचकः; यः कण्ठमभिप्रपद्यते, कण्ठस्तेनोद्ध्वंसते866स्वरश्वावसीदति; यः प्राणवहानि स्रोतांस्यन्वेति, तेन श्वासः प्रतिश्यायश्चोपजायते; यः शिरस्यवतिष्ठत्ते, शिरस्तेनोपहन्यते; ततःक्षणनाच्चैवोरसो विषमगतित्वाच्च वायोः कण्ठस्य चो*ध्द्वं866*सनात् कासःसततमस्य संजायते, सकासप्रसंगादुरसि क्षते शोणितं ष्ठीवति,शोणितगमनाच्चास्य दौर्बल्यभुपजायते867; एवमेते साहसुप्रभवाः साहसिकमुपद्रवाः स्पृशन्ति; ततः सोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैःशनैरुपशुष्यति।तस्मात् पुरुषो मतिमान् बलमात्मनः समीक्ष्यतदनुरूपाणि कर्माण्यारभेत कर्तुं, बलसमाधानं हि शरीरं, शरीरमूलश्च पुरुष इति॥४॥
भवति चात्र।
साहसं वर्जयेत् कर्म रक्षञ्जीवितमात्मनः।
जीवन् हि पुरुषस्त्विष्टं कर्मणः फलमश्नुते॥५॥
अथ संधारणं शोषस्यायतनमिति यदुक्तं तदनुव्याख्यास्यामः-यदा पुरुषो राजसमीपे भर्तृसमीपे वा गुरोर्वा पादमूले द्यूतसभमन्यं सतां समाजं स्त्रीमध्यं वाऽनुप्रविश्य यानैर्वाऽप्युच्चावचैर्गच्छन् भयात् प्रसंगाद्ध्रीमत्त्वाद्धृणित्वाद्वा निरुणध्द्यागतानिवातमूत्रपुरीषाणि, तदा तस्य संधारणाद्वायुः प्रकोपमापद्यते; सप्रकुपितः पित्तश्लेष्माणौ समुदीर्योर्ध्वमधस्तिर्यक्च विहरति; ततश्चांशविशेषेण पूर्ववच्छरीरावयवविशेषं प्रविश्य शूलं जनयति,भिनत्ति पुरीषमुच्छोषयति वा, पार्श्वे चातिरुजति, अंसाववमृद्गाति,कण्ठमुरश्चावधमति, शिरश्चोपहन्ति, कासं श्वासं ज्वरं स्वरभेदंप्रतिश्यायं चोपजनयति; ततः सोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवैरुपद्रुतःशनैः शनैरुपशुष्यति । तस्मात् पुरुषो मतिमानात्मनः शरीरेष्वेवयोगक्षेमकरेषु प्रयतेत विशेषेण; शरीरं ह्यस्य मूलं, शरीरमूलश्चपुरुषो भवतीति॥६॥
भवति चात्र।
सर्वमन्यत् परित्यज्य शरीरमनुपालयेत्।
तदभावे हि भावानां सर्वाभावः शरीरिणाम्॥७॥
क्षयः शोषस्यायतनमिति यदुक्तं तदनुव्याख्यास्यामः – यदापुरुषोऽतिमात्रं शोकचिन्तापरीतहृदयो भवति, ईर्षोत्कण्ठाभयत्क्रोधादिभिर्वा समाविश्यते, कृशो वा सन् रूक्षान्नपानसेवी भवति,दुर्बलप्रकृतिरनाहारोऽल्पाहारो वा भवति, तदा तस्य हृदयस्थायीरसः क्षयमुपैति, स तस्योपक्षयाच्छोषं प्राप्नोति, अप्रतीकाराच्चानुबध्यते यक्ष्मणा यथोपदेक्ष्यमाणरूपेण॥८॥
यदा वा पुरुषोऽतिप्रहर्षादतिप्रसक्तभावः स्त्रीष्वतिप्रसङ्गमारभते868,तस्यातिप्रसङ्गाद्रेतः क्षयमुपैति; क्षयमपि चोपगच्छति रेतसियदि मनः स्त्रीभ्यो नैवास्य निवर्तते, अतिप्रवर्तत एव तस्यचातिप्रणीतसंकल्पस्य मैथुनमापद्यमानस्य शुक्रं न प्रवर्तते अतिमात्रोपक्षीणत्वात्869; अथास्य वायुर्व्यायच्छमानस्यैव धमनीरनुप्रविश्यशोणितवांहिनीस्ताभ्यः शोणितं प्रच्यावयति तच्छुक्रक्षायादस्य पुनःशुक्रमार्गेण शोणितं प्रवर्तते वातानुसृतलिङ्गं; अथास्य शुक्रक्षयाच्छोणितप्रवर्तनाच्चसंधयः शिथिलीभवन्ति, रौक्ष्यमुपजायते, भूयःशरीरं दौर्बल्यमाविशति, वायुः प्रकोपमापद्यते; स प्रकुपितो वशिकं870शरीरमनुसर्पन्नुदीर्यश्लेष्मपित्ते परिशोषयति मांसशोणिते, प्रच्यावयति श्लेष्मपित्ते, संरुजति पार्श्वे, अवगृह्णात्यंसौ, कण्ठमुद्ध्वंसयति,शिरः श्लेष्माणमुत्क्लेश्यपरिपूरयति श्लेष्मणा, संधींश्च प्रपीडयन्करोत्यङ्गमर्दमरोचकाविपाकौ च, पित्तश्लेष्मोत्क्लेशात् प्रतिलोमगत्वाच्च वायुर्ज्वरं कासं श्वासं स्वरभेदं प्रतिश्यायं चोपजनयति871; ततःसोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैः शनैरुपशुष्यति।तस्मात्पुरुषो मतिमानात्मनः शरीरमनुरक्षञ् शुक्रमनुरक्षेत्; परा ह्येषा फलनिर्वृत्तिराहारस्य॥९॥
भवति चात्र।
आहारस्य परं धाम शुक्रं तद्रक्ष्यमात्मनः।
क्षयो872 ह्यस्य बहून् रोगान्मरणं वा नियच्छति॥१०॥
विषमाशनं शोषस्यायतनमिति यदुक्तं तदनुव्याख्यास्यामः यदा पुरुषः पानाशनभक्ष्यलेह्योपयोगान्प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपशयविषमानासेवते, तदा तस्य वातपित्तश्लेष्माणो वैषम्यमापद्यन्ते; ते विषमाः शरीरमनुसृत्य यदास्त्रोतसामयनमुखानि873 प्रतिवार्यावतिष्ठन्ते तदा जन्तुर्यद्यदाहारजातमाहरति तत्तदस्य मूत्रपुरीषमेवोपजायते भूयिष्ठं नान्यस्तथाशरीरधातुः, स पुरीषोपष्टम्भाद्वर्तयति, तस्माच्छुष्यतो विशेषेणपुरीषमनुरक्ष्यं तथा सर्वेषामत्यर्थकृशदुर्बलानां; तस्यानाप्याय्यमानस्य विषमाशनोपचिता दोषाः पृथक् पृथगुपद्वैर्युञ्जन्तो भूयःशरीरमुपशोषयन्ति।तत्र वातः शूलमङ्गमर्द874 कण्ठोद्ध्वसनं पार्श्वसंरु (रो) जनमंसावमर्दनं स्वरभेदं प्रतिश्यायं चोपजनयति, पित्तं पुनर्ज्वरमतीसारमन्तर्दाहं च, श्लेष्मा तु प्रतिश्यायं शिरसो गुरुत्वमरोचकं कासं च; स कासप्रसङ्गादुरसि क्षेते शोणितं ष्ठीवति,शोणितगमनाच्चास्य दौर्बल्यमुपजायते; एवमेते विषमाशनोपचिता दोषा राजयक्ष्माणमभिनिर्वर्तयन्ति;स तैरुपशोषणैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैः शनैरुपशुष्यति; तस्मात् पुरुषो मतिमान् प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपशयादविषममाहारमाहरेत्॥११॥
भवति चात्र।
** हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः।
पश्यन् रोगान् बहून् कष्टान् बुद्धिमान्विषमाशनात्॥१२॥**
एवमेतैश्चतुर्भिः शोषस्यायतनैरभ्युपसेवितैर्वात पित्तश्लेष्माणःप्रकोपमापद्यन्ते,ते प्रकुपिता नानाविधैरुपद्रवैः शरीरमुपशोषयन्ति; तं सर्वरोगाणां कष्टतमत्वाद्राजयक्ष्माणमाचक्षते भिषजः, यस्माद्वापूर्वमासीद्भगवतः सोमस्योडुराजस्य तस्माद्राजयक्ष्मेति॥१३॥
तस्येमानि पूर्वरूपाणि भवन्ति; तद्यथा —प्रतिश्यायः, क्षवथुरंभीक्ष्णं, श्लेष्मप्रसेको, मुखमाधुर्यम्, अनन्नाभिलाषः, अन्नकालेचायासो, दोषदर्शनमदोषेष्वल्पदोषेषु वा भावेषु पात्रोदकान्नसूपोपदंशपरिवेशकेषु, भुक्तवतो हृल्लासः, तथोल्लेखनमाहारस्यान्तराऽन्तरा, मुखस्य पादयोश्च शोषः, पाण्योश्चावेक्षणमत्यर्थम्, अक्ष्णोःश्वेतावभासता चातिमात्रं, बाह्वोः प्रमाणजिज्ञासा, स्त्रीकामता, निर्घृणित्वं, बीभत्सदर्शनता चास्य काये; स्वप्ने चाभीक्ष्णं दर्शनमनुदकानामुदकस्थानानां, शून्यानां च ग्रामनगरनिगमजनपदानां, शुष्कदुग्धभग्नानां च वनानां, कृकलासमयूरवानरशुकसर्पकाकोलूकादिभिः संस्पर्शनम्, अधिरोहणं यानं वा श्वोष्ट्रखरवराहैः875, केशास्थिभस्मतुषाङ्गारराशीनां चाधिरोहणमिति (शोषपूर्वरूपाणि भवन्ति)॥१४॥
अत ऊर्ध्वमेकादश रूपाणि तस्य भवन्ति; तद्यथा-शिरसःप्रतिपूरणं, कासः, श्वासः, स्वरभेदः, श्लेष्मणश्छर्दनं, शोणितष्ठीवनं,पार्श्वसंरु(रो)जनम्, अंसावमर्दो, ज्वरः, अतीसारः, अरोचकश्चेति॥१५॥
तत्रापरिक्षीणमांसशोणितो बलवानजातारिष्टः सर्वैरपि शोषलिङ्गैरुपद्रुतः साध्यो ज्ञेयः, बलवर्णोपचितो876 हि सहत्वाव्द्याध्यौषधबलस्य कामं बहुलिङ्गोऽध्यल्पलिङ्ग एव मन्तव्यः; दुर्बलं त्वतिक्षीणमांसशोणिमल्पलिङ्गमप्यजातारिष्टमपि बहुलिङ्गं जातारिष्टं चविद्यात्, असहत्वाव्द्याध्यौषधबलस्य तं परिवर्जयेत् ; क्षणेन हिप्रादुर्भवन्त्यरिष्टानि, अनिमित्ततश्चारिष्टप्रादुर्भाव इति॥१६॥
तत्र श्लोकः।
समुत्थानं च लिङ्गं च यः शोषस्यावबुध्यते ।
पूर्वरूपं च तत्वेन स राज्ञः कर्तुमर्हति॥१७॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते निदानस्थाने
शोषनिदानं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
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सप्तमोऽध्यायः।
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अथात उन्मादनिदानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु पञ्चोन्मादा भवन्ति; तद्यथा — वातपित्तकफसन्निपातागन्तुनिमित्ताः॥३॥
तत्र दोषनिमित्ताश्चत्वारःपुरुषाणामेवंविधानां क्षिप्रमभिनिर्वर्तन्ते; तद्यथा —भीरूणामुपक्लिष्टसत्त्वानामुत्सन्नदोषाणां समलविकृतोपहितान्यनुचितान्याहारजातानि वैषम्ययुक्तेनोपयोगविधिनोपयुञ्जानानां तन्त्रप्रयोगं877 वा विषममाचरतामन्या वा शरीरचेष्टाविषमाः समाचरतामत्युपक्षीणदेहानां व्याधिवेगसमुद्भ्रामितोपहतमनसां वा कामक्रोधलोभहर्षभयमोहायासशोकचिन्तोद्वेगादिभिर्भूयोऽभिघाताभ्याहतानां वा मनस्युपहते बुद्धौ च प्रचलितायामभ्युदीर्णां878 दोषाः प्रकुपिता हृदयमुपसृत्य मनोवहानि स्रोतांस्यावृत्यजनयन्त्युन्मादम्॥४॥
उन्मादं पुनर्मनोबुद्धिसंज्ञाज्ञानस्मृतिभक्तिशीलचेष्टाचारविभ्रमं879विद्यात्॥५॥
तत्र — शिरसः शून्यता चक्षुषोराकुलता880स्वनश्च कर्णयोरुच्छ्वासस्याधिक्यमास्यसंस्रवणमनन्नाभिलाषोऽरोचकाविपाकौहृद्ग्रहोध्यानायाससंमोहोद्वेगाश्चास्थानेसततंलोमहर्षोज्वरश्चाभीक्ष्णमभीक्ष्णमुन्मत्तचित्तत्वमुदर्दितत्वमर्दिताकृतिकरणं881च व्याधेः स्वप्ने चाभीक्ष्णं दर्शनं भ्रान्तचलितावनवस्थितानां रूपाणामप्रशस्तानांतिलपीडकचक्राधिरोहणं वातकुण्डलिकाभिश्चोन्मथनं निमज्जनं चकलुषाणामम्भसामावर्तेषु चक्षुषोश्चापस(त)र्पणमिति दोषनिमित्तानामुन्मादानां पूर्वरूपाणि भवन्ति॥६॥
** **ततोऽनन्तरमुन्मादाभिनिर्वृत्तिरेव तत्रेदमुन्मादविशेषविज्ञानंभवति; तद्यथा —परिसरणमजस्रमक्षिभ्रुवौष्ठांसहन्वग्रहस्तपादाङ्गविक्षेपणमकस्मात्, सततमनियतानां च गिरामुत्सर्गः, फेनागमनमास्यात्, अभीक्ष्णं स्मितहसितनृत्यगीतवादित्रादिप्रयोगाश्चास्थाने, वीणावंशशङ्खशम्या882तालशब्दानुकरणमसम्ना, यानमयानैः, अलङ्करणमनलकारिकैर्द्रव्यैः, लोभोऽभ्यवहार्येष्वलब्धेषु, लब्धेषु चावमानस्तीव्रं883 मात्सर्यं, कार्श्ये, पारुष्यं, उत्पिण्डतारुणाक्षता, वातोपशयविपर्यासादनुपशयता चेति वातोन्मादलिङ्गानि भवन्ति॥७॥
अमर्षंक्रोधसंरम्भाश्चास्थाने, शस्त्रलोष्टकशाकाष्ठमुष्टिभिरभिहननंस्वेषां परेषां वा, अभिद्रवणं, प्रच्छायशीतोदकान्नाभिलाषः, संतापोऽतिवेलं, ताम्रहरितहारिद्रसंरब्धाक्षता884, पित्तोपशयविपर्यासादनुपशयता चेति पित्तोन्मादलिङ्गानि भवन्ति॥८॥
स्थानमेकदेशे, तूष्णींभावः, अल्पशश्चङ्क्रमणं, लालासिङ्घाणकप्रस्नवणम्, अनन्नाभिलाषो, रहःकामता, बीभत्सत्वं, शौचद्वेषः, स्वप्ननित्यता, श्वयथुरानने, शुक्लस्तिमितमलोपदिग्धाक्षता, श्लेष्मोपशयविपर्यासादनुपशयता चेति श्लेष्मोन्मादलिङ्गानि भवन्ति॥९॥
त्रिदोषलिङ्गसन्निपाते तु सान्निपातिकं विद्यात्, तमसाध्यमाचक्षते कुशलाः॥१०॥
साध्यानां तु त्रयाणां साधनानि —स्नेहस्वेदवमनविरेचनास्थापनानुवासनोपशमननस्तःकर्मधूपधूमपानाञ्जनावपीडप्रधमनाभ्यङ्गप्रदेहपरिषेकानुलेपनवधबन्धनावरोधनवित्रासनविस्मापनविस्मारणापतर्पणसिराव्यधनानिभोजनविधानं च यथास्वं युक्त्या, यच्चान्यदपि किंचिन्निदानविपरीतमौषधं कार्यं तत् स्यादिति॥११॥
भवति चात्र ।
उन्मादान्दोषजान् साध्यान् साधयेद्भिषगुत्तमः।
अनेन विधियुक्तेन कर्मणा यत् प्रकीर्तितम्॥१२॥
यस्तु दोषनिमित्तेभ्य उन्मादेभ्यः समुत्थानपूर्वरूपलिङ्गवेदनोपशयविशेषसमन्वितो भवत्युन्मादस्तमागन्तुमाचक्षते; केचित् पुनःपूर्वकृतं कर्माप्रशस्तमिच्छन्ति तस्य निमित्तं; तत्र च हेतुः प्रज्ञापराधएवेति भगवान् पुनर्वसुरात्रेयः, प्रज्ञापराधाच्ययं देवर्षिपितृगन्धर्वयक्षराक्षसपिशाचगुरुवृद्धसिद्धाचार्यपूज्यानवमत्याहितान्याचरति, अन्यद्वाकिंचिदेवंविधं कर्माप्रशस्तमारभते, तमात्मनोपहतमुपघ्नन्तोदेवादयः कुर्वन्युन्मत्तम्॥१३॥
तत्र देवादिप्रकोपनिमित्तेनागन्तुकोन्मादेन पुरस्कृतस्येमानि पूर्वरूपाणि भवन्ति; तद्यथा—देवगोब्राह्मणतपस्विनां हिंसारुचित्वं,कोपनत्वं, नृशंसाभिप्रायता, अरतिः, ओजोवर्णच्छायाबलवपुषासुपतप्तिः, स्वप्ने चदेवादिभिरभिभर्त्सनं प्रवर्तनं चेति885।ततोऽनन्तरमुन्मादादिभिनिर्वृत्तिः॥१४॥
तत्रायमुन्मादकराणां भूतानामुन्मादयिष्यतामरम्भविशेषो भवति; तद्यथा – अवलोकयन्तो देवा जनयन्त्युन्मादं, गुरुवृद्धसिद्धर्षयोऽभिशपन्तः, पितरो धर्षयन्तः, स्पृशन्तो गन्धर्वाः, समाविशन्तो यक्षाः, राक्षसास्वात्मगन्धमाघ्रापयन्तः, पिशाचाः पुनरधिरुह्य वाहयन्तः॥१५॥
तस्येमानि रूपाणि भवन्ति; तद्यथा —अमर्त्यबलवीर्यपौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणज्ञानवचनविज्ञानानि886, अनियतश्चोन्मादकालः॥१६॥
उन्मादयिष्यतामपि तु खलु देवर्षिपितृगन्धर्वयक्षराक्षसपिशाचानां गुरुवृद्धसिद्धानां वा एष्वन्तरेष्वभिगमनीयाः पुरुषा भवन्ति; तद्यथा — पापस्य कर्मणः समारम्भे, पूर्वकृतस्य वा कर्मणःपरिणामकाले, एकस्य वा शून्यगृहवासे, चतुष्पथाधिष्ठाने,सन्ध्यावेलायामप्रयतभावे वा पर्वसंधिषु वा मिथुनीभावे, रजस्वलाभिगमने वा, विगुणे वाऽध्ययनबलिमङ्गलहोमप्रयोगे, नियमव्रतब्रह्मचर्यभङ्गे वा, महाहवे वा, देशकुलपुरविनाशे वा, महाग्रहोपगमने वा, स्त्रिया वा प्रजननकाले, विविधभूताशुभाशुचिसंस्पर्शनेवा, वमनविरेचनरुधिरस्त्रावे601 वा, अशुचेरप्रयतस्य वा चैत्यदेवायतनाभिगमने, मांसमधुतिलगुडमद्योच्छिष्टे वा, दिग्वाससि वा, निशिनगरनिगमचतुष्पथोपवनश्मशानाघातनाभिगमने वा, द्विजगुरुसुरपूज्याभिघर्षणे वा, धर्माख्यानव्यतिक्रमे वा, अन्यस्य वा कर्मणोऽप्रशस्तस्यारम्भे; इत्यभिघातकाला व्याख्याता भवन्ति॥१७॥
त्रिविधं तु खलून्मादकराणां भूतानामुन्मादने प्रयोजनं भवति।तद्यथा—हिंसा, रतिः, अभ्यर्चनं चेति। तेषां तं प्रयोजनविशेषमुन्मत्ताचारविशेषलक्षणैर्विद्यात्।
तत्र हिंसार्थमुन्माद्यमानोऽग्निं887 प्रविशति, अप्सु वा निमज्जाति,स्थलाच्छ्वभ्रेवा निपतति, शस्त्रकशाकाष्ठलोष्टमुष्टिभिर्हन्त्यात्मानम्,अन्यच्च प्राणवधार्थमारभते किंचित्, तमसाध्यं विद्यात्; साध्यौपुनर्द्वावितरौ॥१८॥
तयोः साधनानि-मन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमव्रतप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमादीनीति।
एवमेते पञ्चोन्मादा व्याख्याता भवन्ति॥१९॥
ते तु खलु निजागन्तुविशेषेण साध्यासाध्यविशेषेण च विभज्यमानाः पञ्च सन्तो द्वावेव भवतः। तौ परस्परमनुबध्नीतः कदाचिद्यथोक्तहेतुसंसर्गात् । तयोः संसृष्टमेव पूर्वरूपं भवति, संसृष्टमेव लिङ्गं च। तत्रासाध्यसंयोगं साध्यासाध्यसंयोगं चासाध्यंविद्यात् ; साध्यं तु साध्यसंयोगम्। तस्य साधनं साधनसंयोगमेव विद्यादिति॥२०॥
भवन्ति चात्र ।
नैव देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
न चान्ये स्वयमक्लिष्टमुपक्लिश्नन्ति मानवम्॥२१॥
ये त्वेनमनुवर्तन्ते क्लिश्यमानं स्वकर्मणा।
न तन्निमित्तः क्लेशोऽसौ न888ह्यस्ति कृतकृत्यता॥२२॥
प्रज्ञापराधात् संभूते व्याधौ कर्मज आत्मनः।
नाभिशंसेधो देवान्नपितॄन्नापि राक्षसान्॥२३॥
आत्मानमेव मन्येत कर्तारं सुखदुःखयोः।
तस्माच्छ्रेयस्करं मार्गं प्रतिपद्येत नो त्रसेत्॥२४॥
देवादीनामपचितिर्हितानां चोपसेवनम्।
यश्च तेभ्यो विरोधश्च889 सर्वमायत्तमात्मनि॥२५॥
तत्र श्लोकाः।
संख्या निमित्तं प्राग्रूपं890 लक्षणं साध्यता न च।
उन्मादानां निदानेऽस्मिन् क्रियासूत्रं च भाषितम्॥२६॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रति संस्कृते निदानस्थाने
उन्मादनिदानं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
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अष्टमोऽध्यायः।
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अथातोऽपस्मारनिदानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु चत्वारोऽपस्मारा भवन्ति वातपित्तकफसन्निपातनिमित्ताः॥३॥
त एवंविधानां प्राणभृतां क्षिप्रमभिनिर्वर्तन्ते; तद्यथा — रजस्तमोभ्यामुपहतचेतसामुद्भ्रान्तविषमबहुदोषाणां समलविकृतोपहितान्यशुचीन्यभ्यवहारजातानि वैषम्ययुक्तेनोपयोगविधिनोपयुञ्जानानां तन्त्रप्रयोगमपि च विषममाचरतामन्याश्च शरीरचेष्टाविषमाः समाचरतामत्युपक्षीणदेहानां वा दोषाः प्रकुपिता रजस्तमोभ्यामुपहतचेतसामन्तरात्मनः श्रेष्ठतममायतनं हृदयमुपसृत्य(ज्य)पर्यवतिष्ठन्ते891 तथेन्द्रियायतनानि च; तत्रं चावस्थिताः सन्तो यदाहृदयमिन्द्रियायतनानि चेरिताः कामक्रोधभयलोभमोहहर्षशोकचिन्तोद्वेगादिभिः सहसाऽभिपूरयन्ति, तदा जन्तुरपस्मरति॥४॥
अपस्मारं पुनः स्मृतिबुद्धिसत्त्वसंप्लवाद्वीभत्सचेष्टमावस्थिकं तमःप्रवेशमाचक्षते॥५॥
तस्येमानि पूर्वरूपाणि भवन्ति; तद्यथा — भ्रूव्युदासः, सततमक्ष्णोर्वैकृतम्, अशब्दश्रवणं, लालासिङ्घाणकप्रस्रवणम्, अनन्नाभिलषणम्, अरोचकाविपाकौ, हृदयग्रहः, कुक्षेराटोपो, दौर्बल्यम्,अस्थिभेदः, अङ्गमर्दो, मोहः, तमसो दर्शनं, मूर्च्छा भ्रमश्चाभीक्ष्णं, स्वप्ने च मदनर्तनवेपनव्यथनव्यधनपतनादीनि; ततोऽनन्तरमपस्माराभिनिर्वृत्तिरेव॥६॥
तत्रेदमपस्मारविशेषविज्ञानं भवति;तद्यथा — अभीक्ष्णमपस्मरन्तं क्षणे क्षणे संज्ञां प्रतिलभमानमुत्पिण्डिताक्षमसाम्ना विलपन्तमुद्वमन्तं फेनमतीवाध्मातग्रीवमाविद्धशिरस्कं विषमविनताङ्गुलिकमनवस्थितसक्थिपाणिपादमरुणपरुषश्यावनखनयनवदनत्वर्चमनवस्थितचपलपरुषरूक्षरूपदर्शिनं वातलानुपशयं विपरीतोपशयं वातेनापस्मारितं892 विद्यात्॥७॥
अभीक्ष्णमपस्मरन्तं क्षणे क्षणे च संज्ञां प्रतिलभमानमवकूजन्तमास्फालयन्तं भूमिं हरितहारिद्रताम्रनखनयनवदनत्वचं रुधिरोक्षितोग्रभैरवप्रदीप्तरुषितरूपदर्शिनं पित्तलानुपशयं विपरीतोपशयंच पित्तेनापस्मारितं893 विद्यात्॥८॥
चिरादपस्मरन्तं चिराच्च संज्ञां प्रतिलभमानं पतन्तमनतिविकृतचेष्टं लालामुद्वमन्तं शुक्लनखनयनवदनत्वचं शुक्लगुरुस्निग्धरूपदर्शिनं श्लेष्मलानुपशयं विपरीतोपशयं श्लेष्मणाऽपस्मारितं894 विद्यात्॥
समवेतसर्वलिङ्गमपस्मारं सान्निपातिकं विद्यात्, तमसाध्यमाचक्षते; इति चत्वारोऽपस्मारा व्याख्याताः॥१०॥
तेषामागन्तुरनुबन्धो भवत्येव कदाचित्, तमुत्तरकालमुपदेक्ष्यामः। तस्य विशेषविज्ञानं – यथोक्तैर्लिङ्गैर्लिङ्गाधिक्यमदोषलिङ्गानुरूपं895 च किंचित्॥११॥
हितान्यपस्मारिभ्यस्तीक्ष्णानि संशोधनान्युपशमनानि च यथास्वं,मन्त्रादीनि चागन्तुसंयोगे॥१२॥
तस्मिन् हि दक्षाध्वरोद्ध्वंसे देहिनां नानादिक्षु विद्रवतामभिद्रवणतरणप्लवनधावनलङ्घनाद्यैर्देहविक्षोभणैः896पुरा गुल्मोत्पत्तिरभूत्,हविष्प्राशात् प्रमेहकुष्ठानां, भयत्रासशोकैरुन्मादानां, नानाविधभूताशुचिसंस्पर्शादपस्माराणां; ज्वरस्तु खलु महेश्वरललाटादभवत्, तत्संतापाद्रक्तपित्तम्, अतिव्यवायात् पुनर्नक्षत्रराजस्यराजयक्ष्मेति॥१३॥
भवन्ति चात्र ।
अपस्मरति वातेन पित्तेन च कफेन च।
चतुर्थः सन्निपातेन प्रत्याख्येयस्तथाविधः॥१४॥
साध्यांस्तु भिषजः प्राज्ञाः साधयन्ति समाहिताः।
तीक्ष्णैः संशोधनैश्चैव यथास्वं शमनैरपि॥१५॥
यदा दोषनिमित्तस्य भवत्यागन्तुरन्वयः।
तदा साधारणं कर्म प्रवदन्ति भिषग्वराः॥१६॥
सर्वरोगविशेषज्ञः सर्वौषधविशारदः897।
भिषक् सर्वामयान् हन्ति न च मोहं समृच्छति॥१७॥
इत्येतदखिलेनोक्तं निदानस्थानमुत्तमम्।
निदानार्थकरो रोगो रोगस्याप्युपलभ्यते॥१८॥
तद्यथा-ज्वरसंतापाद्रक्तपित्तमुदीर्यते।
रक्तपित्ताज्ज्वरस्ताभ्यां शोषश्चाप्युपजायते॥१९॥
प्लीहाभिवृद्ध्या जठरं जठराच्छोफ एव च।
अर्शोभ्यो जठरं दुःखं गुल्मश्चाप्युपजायते॥२०॥
प्रतिश्यायाद्भवेत् कासः कासात् संजायते क्षयः।
क्षयो रोगस्य हेतुत्वे शोषस्याप्युपजांयते॥२१॥
ते पूर्वं केवला रोगाः पश्चाद्धेत्वर्थकारिणः।
उभयार्थकरा दृष्टास्तथैवैकार्थकारिणः॥२२॥
कश्चिद्धि रोगो रोगस्य हेतुर्भूत्वा प्रशाम्यति।
न प्रशाम्यति चाप्यन्यो हेत्वर्थं898 कुरुतेऽपि च॥२३॥
एवं कृच्छ्रतमा नॄणां दृश्यन्ते व्याधिसंकराः।
प्रयोगापरिशुद्धत्वात्तथा चान्योन्यसंभवात्॥२४॥
प्रयोगः शमयेदूयाधिं योऽन्यमन्यमुदीरयेत्।
नासौ विशुद्धः, शुद्धस्तु शमयेद्यो न कोपयेत्॥२५॥
एको हेतुरनेकस्य तथैकस्यैक एव हि।
व्याधेरेकस्य चानेको बहूनां बहवोऽपि च॥२६॥
ज्वरभ्रमप्रलापाद्या दृश्यन्ते रूक्षहेतुजाः।
रूक्षेणैकेन चाप्येको ज्वर एवोपजायते॥२७॥
हेतुभिर्बहुभिश्चैको ज्वरो रूक्षादिभिर्भवेत्।
रुक्षादिभिर्ज्वराद्याश्च व्याधयः संभवन्ति हि॥२८॥
लिङ्गं चैकमनेकस्य तथैवैकस्य899 लक्ष्यते।
बहून्येकस्य च व्याधेर्बहूनां स्युर्बहूनि च॥२९॥
विषमारम्भमूलानां लिङ्गमेकं ज्वरो मतः।
ज्वरस्यैकस्य चाप्येकः संतापो लिङ्गमुच्यते॥३०॥
विषमारम्भमूलैश्च ज्वर एको निरुच्यते।
लिङ्गैरेतैर्ज्वरश्वासहिक्काद्याः सन्ति चामयाः ॥३१॥
एका शान्तिरनेकस्य तथैवैकस्य900 लक्ष्यते।
व्याधेरेकस्य चानेका बहूनां बह्वय एव च॥३२॥
शान्तिरामाशयोत्थानां व्याधीनां लङ्घनक्रिया।
ज्वरस्यैकस्य चाप्येका शान्तिर्लङ्घनमुच्यते ॥३३॥
तथा लध्वशनाद्याश्च ज्वरस्यैकस्य शान्तयः।
एताश्चैव ज्वरश्वासहिक्कादीनां प्रशान्तयः॥३४॥
सुखसाध्यः सुखोपायः कालेनाल्पेन साध्यते।
साध्यते कृच्छ्रसाध्यस्तु यत्नेन महता चिरात् ॥ ३५ ॥
याति नाशेषतां व्याधिरसाध्यो याप्यसंज्ञितः।
परोऽसाध्यः क्रियाः सर्वाः प्रत्याख्येयोऽतिवर्तते॥३६॥
नासाध्यः साध्यतां याति, साध्यो याति त्वसाध्यताम्।
पादापचाराद्दैवाद्वा यान्ति भावान्तरं गदाः॥३७॥
बृद्धिस्थानक्षयावस्थां दोषाणामुपलक्षयेत्901।
सुसूक्ष्मामपि च प्राज्ञो देहाग्निबलचेतसाम्॥३८॥
व्याध्यवस्थाविशेषान् हि ज्ञात्वा ज्ञात्वा विचक्षणः।
तस्यां तस्यामवस्थायां तत्तैच्छ्रेयः902 प्रपद्यते॥३९॥
प्रायस्तिर्यग्गता दोषाः क्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम्।
तेषु903 न त्वरया कुर्याद्देहाभिबलवित् क्रियाम्॥४०॥
प्रयोगैः क्षपयेद्वा तान् सुखं वा कोष्ठमानयेत्।
ज्ञात्वा कोष्ठप्रपन्नांस्तान् यथासन्नं हरेद्बुधः904॥४१॥
ज्ञानार्थं905 यानि चोक्तानि व्याधिलिङ्गानि संग्रहे।
ब्याधयस्ते तदात्वे तु लिङ्गानीष्टानि नामयाः॥४२॥
विकाराः प्रकृतिश्चैव द्वयं सर्वं समासतः।
तद्धेतुवशगं हेतोरभावान्न906 प्रवर्तते॥४३॥
तत्र श्लोकाः।
हेतवः पूर्वरूपाणि रूपाण्युपशयस्तथा।
संप्राप्तिः पूर्वमुत्पत्तिः सूत्रमात्रं चिकित्सितात्॥४४॥
ज्वरादीनां विकाराणामष्टानां साध्यता न च।
पृथगेकैकशश्चोक्ता हेतुलिङ्गोपशान्तयः॥४५॥
हेतुपर्यायनामानि व्याघीनां लक्षणस्य च।
निदानस्थानमेतावत् संग्रहेणोपदिश्यते॥४६॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते निदानस्थानेऽ
पस्मारनिदानं नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
इति श्रीचरकसंहितायां निदानस्थानं संपूर्णम्।
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विमानस्थानम् ।
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प्रथमोऽध्यायः ।
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अथातो रसविमानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
इह खलु व्याधीनां निमित्तपूर्वरूपरूपोपशयसंख्याप्राधान्यविधिविकल्पबलकालविशेषाननुप्रविश्या907नन्तरं रसद्रव्यदोषविकारभेषजदेश908कालबलशरीरसाराहारसात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसां मानमवहितमनसा यथावज्ज्ञेयं भवति भिषजा, रसादिमानज्ञानायत्तत्वात्909क्रियायाः; न ह्यमानज्ञो रसादीनां910 भिषग् व्याधिनिग्रहसमर्थोभवति; तस्माद्रसादिमानज्ञानार्थं911 विमानस्थानमुपदेयामोऽग्निवेश !॥३॥
तत्रादौ रसद्रव्यदोषविकारप्रभावान् वक्ष्यामः॥४॥
रसास्तावत् षट् — मधुराग्ललवणकटुतिक्तकषायाः; ते सम्यगुपयुज्यमानाः शरीरं यापयन्ति, मिथ्योपयुज्यमानास्तु खलु दोषप्रकोपणायोपकल्पन्ते॥५॥
दोषाः पुनस्त्रयो — वातपित्तश्लेष्माणः; ते प्रकृतिभूताः शरीरोपकारका912 भवन्ति, विकृतिमापन्नाः खलु नानाविधैर्विकारैः शरीरमुपतापयन्ति॥६॥
तत्र दोषमेकैकं त्रयस्त्रयोरसा जनयन्ति, त्रयस्त्रयश्चोपशमयन्ति; तद्यथा — कटुतिक्तकषाया वातं जनयन्ति, मधुराम्ललवणास्त्वेनं शमयन्ति; कटुकाम्ललवणाः पित्तं जनयन्ति, मधुरतिक्तकषायाः पुनरेनच्छमयन्तिः मधुराम्ललवणाः श्लेष्माणं जनयन्ति,कटुतिक्तकषायास्त्वेनं शमयन्ति॥७॥
रसदोषसन्निपाते तु ये रसा यैर्दोषैः समानगुणाः समानगुणभूयिष्ठा वा भवन्ति ते तानभिवर्धयन्ति, विपरीतगुणा विपरीतगुणभूयिष्ठा वा शमयन्त्यभ्यस्यमानाः; इत्येतद्व्यवस्थाहेतोः षट्त्वमुपदिश्यते रसानां परस्परेणासंसृष्टानां, त्रित्वं च दोषाणां;संसर्गविकल्पविस्तरो ह्येषामपरिसंख्येयो भवति, विकल्पभेदापरिसंख्येयत्वात्॥८॥
तत्र खल्वनेकरसेषु द्रव्येष्वनेकदोषात्मकेषु च विकारेषु रसदोषप्रभावमेकैकश्येनाभिसमीक्ष्य ततो द्रव्यविकारयोः प्रभावतत्वंव्यवस्येत् ; नत्वेवं खलु सर्वत्र; न हि विकृतिविषमसमवेतानां नानात्मकानां परस्परेण चोपहतानामन्यैश्च913 विकल्पनैर्विकल्पितानामवयवप्रभावानुमानेन समुदायप्रभावतत्त्वमध्यवसातुं शक्यं, तथायुक्ते हि समुदाये समुदायप्रभावतत्त्वमेवोपलभ्य ततो द्रव्यविकारप्रभावतत्त्वं व्यवस्येत्। तस्माद्रसप्रभावतश्च द्रव्यप्रभावतश्च दोषप्रभावतश्च विकारप्रभावतश्च तत्त्वमुपदेक्ष्यामः।तत्रैष रसप्रभावउपदिष्टो भवति॥९॥
द्रव्यप्रभावं पुनरुपदेक्ष्यामः— तैलसर्पिर्मधूनि वातपित्तश्लेष्मप्रशमनानि द्रव्याणि भवन्ति। तत्र, तैलं स्नेहौष्ण्यगौरवोपपन्नत्वाद्वातं जयति सततमभ्यस्यमानं; वातो हि रौक्ष्यशैत्यलाघवोपपन्नोविरुद्धगुणो भवति, विरुद्धगुणसन्निपाते हि भूयसाऽल्पमवजीयते,तस्मात्तैलं वातं जयति सततमभ्यस्यमानम्।सर्पिः खल्वेवमेवपित्तं जयति, माधुर्याच्छैत्यान्मन्दवीर्यत्वाच्च; पित्तं ह्यमधुरमुष्णंतीक्ष्णं च।मधु च श्लेष्माणं जयति, रौक्ष्यात्तैक्ष्ण्यात् कषायत्वाच्च;श्लेष्मा हि स्निग्धो मन्दो मधुरश्चेति विपरीतगुणः। यच्चान्यदपिकिंचिद्द्रव्यमेवं वातपित्तकफेभ्यो गुणतो विपरीतं स्यात्तच्चैताञ्जयत्यभ्यस्यमानम्॥१०॥
** **अथ खलु त्रीणि द्रव्याणि नात्युपयुञ्जीताधिकमन्येभ्यो द्ररुयेभ्यः । तद्यथा- पिप्पलीः, क्षारं, लवणमिति॥११॥
पिप्पल्यो हि कटुकाः सत्यो मधुरविपाका गुर्व्योनास्यर्थंस्निग्धोषणाः प्रक्लेदिन्यो भेषजामिमताश्च, ताः सद्यः शुभाशुभकारिष्योभवन्ति, आपातभद्राः प्रयोगसमसाद्गुण्यात्,914 दोषसंचयानुबन्धासततमुपयुज्यमाना हि गुरुप्रक्लेदित्वाच्छ्लेष्माणमुत्क्लेशयन्ति, औषण्यात् पित्तं, नच वातप्रशमनायोपकल्पन्तेऽल्पस्नेहोष्णभावात्,योगवाहिन्यस्तु खलु भवन्ति; तस्मात्पिप्पलीर्नात्युपयुञ्जीत॥१२॥
क्षारः पुनरौष्ण्यतैक्ष्ण्यलाघवोपपन्नः क्लेदयत्यादौ पश्चाद्विशोषयति (दुहति, पचति, भिनत्ति संघातं), स पचनदहनभेदनार्थंप्रयुज्यते; सोऽतिप्रयुज्यमानः केशाक्षिहृदयपुंस्त्वोपघातकरः संपद्यते,ये ह्येनं ग्रामनगरनिगमजनपदाः915 सततमुपयुञ्जते ते ह्यान्ध्यषाण्ड्यखालित्यपालित्यभाजो हृदयापकर्तिनश्च भवन्ति; तद्यथा-प्राच्याश्चीनाश्च; तस्मात् क्षारं नात्युपयुञ्जीत॥१३॥
लवणं पुनरौष्ण्यतैक्ष्ण्योपपन्नमनतिगुर्वनतिस्निग्धमुपक्लेदि विस्रंसनसमर्थमन्नद्रव्यरुचिकरम्,आपातभद्रंप्रयोगसमसाद्गुण्यात्,दोषसंचयानुबन्धं,तद्रोचनपाचनोपक्लेदनविस्रंसनार्थं प्रयुज्यते ।तदत्यर्थमुपयुज्यमानं ग्लानिशैथिल्यदौर्बल्याभिनिर्वृत्तिकरं शरीरस्यभवति; ये ह्येनद्ग्रामनगरनिगमजनपदाः सततमुपयुञ्जते, ते भूयिष्ठंग्लास्नवः शिथिलमांसशोणिता अपरिक्लेशसहाश्च भवन्ति, तद्यथा—बाह्लीकसौराष्ट्रिकसैन्धवसौवीरकाः,ते हि पयसाऽपि सदालवणमश्नन्ति; येऽपीह भूमेरत्यूषरा देशास्तेष्वौषधिवीरुद्वनस्पतिवानस्पत्या न जायन्तेऽल्पतेजसो वा भवन्ति लवणोपहतत्वात्;तस्माल्लवणं नात्युपयुञ्जीत; ये ह्यतिलवणसात्म्याः पुरुषास्तेषामपिखालित्येन्द्रलुप्तपालित्यानि वलयश्चाकाले भवन्ति॥१४॥
तस्मात्तेषां तत्सात्म्यतः क्रमेणापगमनं श्रेयः; सात्म्यमपि हिक्रमेणोपनिवर्त्यमानमदोषमल्पदोषं वा भवति॥१५॥
सात्म्यं नाम तत्—यदात्मन्युपशेते; सात्म्यार्थो ह्युपशयार्थः। तत्त्रिविधं— प्रवरावरमध्यविभागेन; सप्तविधं च—रसैकैकत्वेन,सर्वरसोपयोगाच्च॥१६॥
तत्र सर्वरसं प्रवरम्, अवरमेकरसं, मध्यमं तु प्रवरावरमध्यस्थम्। तत्रावरमध्याभ्यां सात्म्याभ्यां क्रमेण916प्रवरमुपपादयेत्सात्म्यम्।सर्वरसमपि च द्रव्यं सात्म्यमुपपन्नं प्रकृत्याद्युपयोक्रष्टमानि सर्वाण्याहारविधिविशेषायतनान्यभिसमीक्ष्य हितमेवानुरुध्येत॥१७॥
तत्र खल्विमान्यष्टावाहारविधिविशेषायतनानि भवन्ति; तद्यथा—प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोग संस्थोपयोक्रष्टमानिभवन्ति॥१८॥
तत्र प्रकृतिरुच्यते—स्वभावो यः स पुनराहारौषधद्रव्याणांस्वाभाविको गुर्वादिगुणयोगः; तद्यथा—माषमुद्गयोः, शूकरैणयोश्च॥१९॥
करणं पुनः—स्वाभाविकानां द्रव्याणामभिसंस्कारः, संस्कारो हिगुणान्तराधानमुच्यते917। ते गुणाश्च तोयाग्निसंनिकर्षशौचमन्थनदेशकालवासनभावनादिभिः918 कालप्रकर्षभाजनादिभिश्चाधीयन्ते॥२०॥
संयोगस्तु—द्वयोर्बहूनां चा द्रव्याणां संहतीभावः स विशेषमारभते यं पुनर्नैकैकशोद्रव्याण्यारभन्ते; तद्यथा—मधुसर्पिषोः,मधुमत्स्यपयसां च संयोगः॥२१॥
राशिस्तु—सर्वग्रहपरिग्रहौमात्रामात्राफलविनिश्चयार्थः प्रकृतः; तत्र सर्वस्याहारस्य प्रमाणग्रहणमेकपिण्डेन सर्वग्रहः परिग्रहःपुनः प्रमाणग्रहणमेकैकत्वेनाहारद्रव्याणां; सर्वस्य हि ग्रहः सर्वग्रहः, सर्वतश्च ग्रहः परिग्रह उच्यते॥२२॥
देशः पुनः—स्थानं, स द्रव्याणामुत्पत्तिप्रचारौ देशसात्म्यं चाघष्टे॥२३॥
कालो ह—नित्यगश्चावस्थिकश्च तत्रावस्थिको विकारमपेक्षते, नित्यगस्तु खल्वृतुसात्म्यापेक्षः॥२४॥
उपयोगसंस्था तु—उपयोगनियमः, स जीर्णलक्षणापेक्षः॥२५॥
उपयोक्ता पुनः–यस्तमाहारमुपयुंक्ते, यदायत्तमोकसात्म्यम्॥२६॥
इत्यष्टावाहारविधिविशेषायतनानि व्याख्यातानि भवन्ति।एषांविशेषाः शुभाशुभफलाः परस्परोपकारका भवन्ति; तान् बुभुत्सेत,बुद्ध्वाच हितेप्सुरेव स्यात्, न च मोहात् प्रमादाद्वा प्रियमहितमसुखोदर्कमुपसेव्यमाहारजातमन्यद्वा किञ्चित्॥२७॥
तत्रेदमाहारविधिविधानमरोगाणामातुराणां च केषांचित कालेप्रकृत्यैव हिततमं भुञ्जानानां भवति—उष्णं स्निग्धं मात्रावज्जीर्णेवीर्याविरुद्धमिष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं नातिद्रुतं नातिविलम्बितमजल्पन्नहसंस्तन्मना भुञ्जीतात्मानमभिसमीक्ष्य सम्यक्॥२८॥
तस्य साद्गुण्यमुपदेक्ष्यामः–उष्णमश्नीयात्; उष्णं हि भुज्यमानंस्वदते, भुक्तं चाग्निमौदर्यमुदीरयति919, क्षिप्रं च जरां गच्छति, वातंचानुलोमयति, श्लेष्माणं च परिशोषयति, तस्मादुष्णमश्नीयात्॥२९॥
स्निग्धमश्नीयात्—स्निग्धं हि भुज्यमानं स्वदते, भुक्तमौदर्यम920ग्निमुदीरयति, क्षिप्रं जरां गच्छति, वातमनुलोमयति, दृढीकरोतीन्द्रियाणि, शरीरमुपचिनोति, बलाभिवृद्धिं चाभिजनयति, वर्णप्रसादमपि चाभिनिर्वर्तयति, तस्मात् स्निग्धमश्नीयात्॥३०॥
मात्रावदश्नीयात्—मात्रावद्धि भुक्तं वातपित्तकफानप्रपीडयदायुरेव विवर्धयति केवलं, सुखं गुदमनुपर्येति, न चोष्माणमुपहन्ति,अव्यथं च परिपाकमेति,तस्मान्मात्रावदश्नीयात्॥३१॥
जीर्णेऽश्नीयात्—अजीर्णे हि भुञ्जानस्याभ्यवहृतमाहारजातंपूर्वस्याहारस्य रसमपरिणतमुत्तरेणाहाररसेनोपसृजत् सर्वान् दोषान्प्रकोपयत्याशु, जीर्णे तु भुञ्जानस्य स्वस्थानस्थेषु दोषेष्वग्नौ चोदीर्णेजातायां च बुभुक्षायां विवृतेषु च स्रोतसां मुखेषूद्गारे विशुद्धे विशुद्धे च हृदये विशुद्धे वातानुलोम्ये विसृष्टेषु च वातमूत्रपुरीषवेगेष्वभ्यवहृतमाहारजातंसर्वशरीरधातूनप्रदूषयदायुरेवाभिवर्धयतिकेवलं, तस्माज्जीर्णेऽश्नीयात्॥३२॥
वीर्याविरुद्धमश्नीयात्—अविरुद्धवीर्यमश्नन् हि न विरुद्धवीर्याहारजैर्विकारैरयमुपसृज्यते, तस्माद्वीर्याविरुद्धमश्नीयात्॥३३॥
इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात्—इष्टे हि देशे भुञ्जानो नानिष्टदेशजैर्मनोविघातकरैर्भावैर्मनोविघातं प्राप्नोति, तथेष्टैः सर्वोपकरणैः, तस्मादिष्टे देशे तथेष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात्॥३४॥
नातिद्रुतमश्नीयात्—अतिद्रुतं हि भुञ्जनस्योत्स्नेहनम्, अवसादनं, भोजनस्याप्रतिष्ठानं921,भोज्यदोषसाद्गुण्योपलब्धिश्च न नियता,तस्मान्नातिद्रुतमश्नीयात्॥३५॥
नातिविलम्बितमश्नीयात्—अतिविलम्बितं हि भुञ्जानो नतृप्तिमधिगच्छति, बहु भुंक्ते, शीतीभवत्याहारजातं, विषमपाकंच भवति, तस्मान्नातिविलम्बितमश्नीयात्॥३६॥
अजल्पन्नहसंस्तन्मना भुञ्जीत—जल्पतो हसतोऽन्यमनसो वाभुञ्जानस्य त एव हि दोषा भवन्ति य एवातिद्रुतमश्नतः, तस्मादजल्पन्नहसंस्तन्मना भुञ्जीत॥३७॥
आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत सम्यक्—इदं ममोपशेते, इदंनोपशेत इत्येवं विदितं ह्यस्य आत्मन आत्मसात्म्यं भवति, तस्मादात्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत सम्यगिति॥३८॥
भवति चात्र ।
रसान् द्रव्याणि दोषांश्च विकारांश्च प्रभावतः।
वेद यो देशकालौ च शरीरं च स नो922 भिषक्॥३९॥
तत्र श्लोकौ।
विमानार्थो रसद्रव्यदोपरोगाः प्रभावतः।
द्रव्याणि नातिसेव्यानि त्रिविधं सात्म्यमेव च॥४०॥
आहारायतनान्यष्टौ भोज्यसाद्गुण्यमेव च।
विमाने रससंख्याते सर्वमेतत् प्रकाशितम्॥४१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते तृतीये विमानस्थानेरसविमानं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
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द्वितीयोऽध्यायः।
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अथातस्त्रिविधकुक्षीयं विमानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
त्रिविधं कुक्षौ स्थापयेदवकाशांशमाहारस्याहारमुपयुञ्जानः;तद्यथा—एकमवकाशांशं मूर्तानामाहारविकाराणाम् एकं द्रवाणाम् एकं पुनर्वातपित्तश्लेष्मणाम्।एतावतीं ह्याहारमात्रामुपयुञ्जानो नामात्राहारजं किंचिदशुभं प्राप्नोति॥३॥
न च केवलं मात्रावत्त्वादेवाहारस्य कृत्स्नमाहार फलसौष्ठवमवाप्तुं शक्यं, प्रकृत्यादीनामष्टानामा हारविधिविशेषायतनानां प्रविभक्तफलत्वात्॥४॥
तत्रायं तावदाहारराशिमधिकृत्य मात्रामात्राफलविनिश्चयार्थःप्रकृतः; एतावानेव ह्याहारराशिविधिविकल्पो यावन्मात्रावत्त्वममात्रावत्त्वं च॥५॥
तत्र मात्रावत्त्वं पूर्वमुद्दिष्टं कुक्ष्यंशविभागेन, तद्भूयो विस्तरेणानुव्याख्यास्यामः; तद्यथा — कुक्षैरप्रपीडनमाहारेण, हृदयस्थानवरोधः, पार्श्वयोरविपाटनम्, अनतिगौरवमुदरस्य, प्रीणनमिन्द्रियाणां, क्षुत्पिपासोपरमः, स्थानासनशयनगमनप्रश्वासोच्छ्वासहास्यसंकथासु च सुखानुवृत्तिः, सायं प्रातश्च सुखेन परिणमनं923, बलवर्णोपचयकरत्वं चेति मात्रावतो लक्षणमाहारस्य भवति ॥६॥
अमात्रावत्त्वं पुनर्द्विविधमाचक्षते—हीनमधिकं चेति; तत्र हीनमात्रमाहारराशिं बलवर्णोपचयक्षयकरमतृप्तिकरमुदावर्तकरमवृष्यमनायुष्यमनौजस्यं शरीरमनोबुद्धीन्द्रियोपघातकरं सारविधमनमलक्ष्म्यावहमशीतेश्च वातविकाराणामायतनमाचक्षते॥७॥
अतिमात्रं पुनः सर्वदोषप्रकोपणमिच्छन्ति कुशलाः–यो हिमूर्तानामाहारजातानां सौहित्यं गत्वा पश्चाद्द्रवैस्तृप्तिमापद्यते भूयः, तस्यामाशयगता वातपित्तश्लेष्माणोऽभ्यवहारेणातिमात्रेणातिप्रपीड्यमानाः सर्वे युगपत् प्रकोपमापद्यन्ते, ते प्रकुपितास्तमेवाहारराशिमपरिणतमाविश्य कुक्ष्येकदेशमाश्रिता विष्टम्भयन्तःसहसा वाऽप्युत्तराधराभ्यां मार्गाभ्यां प्रच्यावयन्तः पृथक् पृथगिमान् विकारानभिनिर्वर्तयन्त्यतिमात्रभोक्तुः।तत्र, वातः शूलानाहाङ्गमर्दमुखशोषमूर्च्छाभ्रमाग्निवैषम्यपार्श्वपृष्ठकटिग्रहसिराकुञ्चनसंस्तम्भनानि करोति; पित्तं पुनर्ज्वरातीसारान्तर्दाहतृष्णामदभ्रमप्रलपनानि; श्लेष्मा तु छर्ध्यरोचकाविपाकशीतज्वरालस्यगात्रगौरवाभिनिर्वृत्तिकरः संपद्यते॥८॥
न च खलु केवलमतिमात्रमेवाहारराशिमामप्रदोषकरमिच्छन्ति924,अपि तु खलु गुरुरूक्षशीतशुष्कद्विष्टविष्टम्भिविदाह्यशुचिविरुद्धानामकाले चान्नपानानामुपसेवनं, कामक्रोधलोभमोहेर्ष्याह्रीशोकमानोद्वेगभयोपतप्तमनसा वा यदन्नपानमुपयुज्यते तदप्याममेवप्रदूषयति॥९॥
भवति चात्र ।
मात्रयाऽप्यभ्यवहृतं पथ्यं चान्नं न जीर्यति।
चिन्ताशोकभयक्रोधदुःखशय्याप्रजागरैः॥१०॥
तं द्विविधमामप्रदोषमाचक्षते भिषजः–विसूचिकामलसकं च॥११॥
तत्र विसूचिकामूर्ध्वं चाघश्च प्रवृत्तामंदोषां यथोक्तरूपां विद्यात्॥१२॥
अलसकमुपदेक्ष्यामः—दुर्बलस्याल्पाग्नेर्बहुश्लेष्मणो वातमूत्रपुरीषवेगविधारिणः स्थिरगुरुबहुरूक्षशीतशुष्कान्नसेविनस्तदन्नपानमनिलप्रपीडितं श्लेष्मणा च विबद्धमार्गमतिमात्रप्रलीनमलसत्वान्नबहिर्मुखी भवति,
ततश्छर्द्यतीसारवर्ज्यान्यामप्रदोषलिङ्गान्यभिदर्शयत्यतिमात्राणि;925 अतिमात्रप्रदुष्टाश्च दोषाः प्रदुष्टामबद्धमार्गास्तिर्यग्गच्छन्तः कदाचित् केवलमेवास्य शरीरं दण्डवत् स्तम्भयन्ति, ततस्तं
दण्डालसकमसाध्यं926 ब्रुवते॥१३॥
विरुद्धाध्यशनाजीर्णाशनशीलिनः पुनरामदोषमामविषमित्याचक्षते927 भिषजः, विषसदृशलिङ्गत्वात्; तत् परमसाध्यम्, आशुकारिस्वाद्विरुद्धोपक्रमत्वाच्चेति॥१४॥
तत्र साध्यमामं प्रदुष्टमलसीभूतमुल्लेखयेदादौ पाययित्वा सलवणमुष्णं वारि; ततः स्वेदैनवर्तिप्रणिधानाभ्यामुपाचरेदुपवासयेच्चैनम्928॥१५॥
विसूचिकायां तु लङ्घनमेवाग्रे विरिक्तवच्चानुपूर्वी॥१६॥
आमप्रदोषेषुत्वन्नकालेजीर्णाहारंपुनर्दोषावलिप्तामाशयंस्तिमितगुरुकोष्ठमनन्नाभिलाषिणमभिसमीक्ष्य पाययेद्दोषशेषपाचनार्थमौषधमग्निसंधुक्षणार्थं च, न त्वेवाजीर्णाशनम् ; आमप्रदोषदुबेलो ह्यग्निर्युगपदोषमौषधमाहारजातं चाशक्तः पक्तुम्, अपि चामप्रदोषाहारौषधविभ्रमोऽतिबलवत्त्वादुपरतकायाग्निं929 सहसैवातुरमबलमतिपातयेत्॥१७॥
आमप्रदोषजानां पुनर्विकाराणामपतर्पणेनैवोपरमो भवति।सति त्वनुबन्धे कृतापतर्पणानां व्याधीनां निग्रहे निमित्तविपरीतमपास्यौषधमातङ्कविपरीतमेवावचारयेद्यथास्वं; सर्वविकाराणामपिच निग्रहे हेतुव्याधिविपरीतमौषधमिच्छन्ति कुशलाः, तदर्थकारि वा॥१८॥
विमुक्तामप्रदोषस्य930 पुनः परिपक्वदोषस्यं दीप्ते चाग्नावभ्यङ्गास्थापनानुवासनं विधिवत् स्नेहपानं च युक्त्या प्रयोज्यं प्रसमीक्ष्य दोषभेषजदेशकालबलशरीराहारसात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणिविकारांश्च सम्यगिति॥१९॥
भवन्ति चात्र।
आहारविध्यायतनानि चाष्टौ
सम्यक्परीक्ष्यात्महितं विदध्यात्।
अन्यश्च यः कश्चिदिहास्ति मार्गो
हितोपयोगेषु भजेत तं च॥२०॥
अशितं खादितं पीतं लीढं च क्व विपच्यते।
एतत्त्वां धीर ! पृच्छामस्तन्न आचक्ष्व बुद्धिमन् !॥२१॥
इत्यग्निवेशप्रमुखैः शिष्यैः पृष्टः पुनर्वसुः।
आचचक्षे ततस्तेभ्यो यत्राहारो विपच्यते॥२२॥
नाभिस्तनातरं जन्तोरामाशय इति स्मृतः।
अशितं खादितं पीतं लीढं चात्र विपच्यते॥२३॥
आमाशयगतः पाकमाहारः प्राप्य केवलम् ।
पक्वः सर्वाश्रयं931 पश्चाद्धमनीभिः प्रपद्यते॥२४॥
तत्र श्लोकः।
तस्य मात्रावतो लिङ्गं फलं चोक्तं यथायथम्।
अमात्रस्य तथा लिङ्गं फलं चोक्तं विभागशः॥२५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते तृतीये विमानस्थाने त्रिविधकुक्षीयं विमानं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
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तृतीयोऽध्यायः।
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अथातो जनपदोद्ध्वंसनीयं विमानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
जनपदमण्डले पञ्चालक्षेत्रे द्विजातिवराध्युषितायां932 काम्पिल्यराजधान्यां भगवान् पुनर्वसुरात्रेयोऽन्तेवासिगणपरिवृतः पश्चिमे धर्ममासे गङ्गातीरे वनविचारमनुविचर933ञ्छिष्यमग्निवेशमब्रवीत्- ॥३॥
दृश्यन्ते हि खलु सौम्य ! नक्षत्रग्रहचन्द्रसूर्यानिलानलानां दिशांचाप्रकृतिभूतानामृ934तुवैकारिका भावाः, अचिरादितो भूरपि च नयथावद्रसवीर्यविपाकप्रभावमोषधीनां प्रतिविधास्यति, तद्वियोगाच्चातङ्कप्रायतां नियता; तस्मात्प्रागुद्ध्वंसात् प्राक् च भूमेर्विरसीभावादुद्धरध्वं935 सौम्य! भैषज्यानि यावन्नोपहतरसवीर्यविपाकप्रभावाणि भवन्ति; वयं चैषां रसवीर्यविपाकप्रभावानुपयोक्ष्यामहे, ये चास्माननुकाङ्क्षन्ति, यांश्च वयमनुकाङ्क्षामः; नहि सम्यगुद्धृतेषुभैषज्येषु सम्यग्विहितेषु सम्यक्936 चावचारितेषु जनपदोद्ध्वंसकराणांविकाराणां किंचित् प्रतीकारगौरवं भवति॥४॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—उद्धृतानि खलुभगवन्! भैषज्यानि सम्यग्विहितानि च सम्यगवचारितानि937 च;अपि तु खलु जनपदोद्ध्वंसनमेकेनैव व्याधिना युगपदसमानप्रकृत्याहारदेहबलसात्म्यसत्त्ववयसां मनुष्याणां कस्माद्भवतीति॥५॥
तमुवाच भगवानात्रेयः– एवमसामान्यानामेभि938रप्यग्निवेश !प्रकृत्यादिभिर्भावैर्मनुष्याणां येऽन्ये भावाः सामान्यास्तद्वैगुण्यात्समानकालाः समानलिङ्गाश्च व्याधयोऽभिनिर्वर्तमाना जनपदमुध्द्वसयन्ति; ते तु खल्विमे भावाः सामान्या जनपदेषु भवन्ति; तद्यथा-वायुरुदकं देशः काल इति॥६॥
तत्र वातमेवंविधमनारोग्यकरं विद्यात्; तद्यथा—यथर्तुविषममतिस्तिमितमतिचलमतिपरुषमतिशीतमत्युष्णमतिरूक्षमत्यभिष्यन्दिनमतिभैरवारावमतिप्रतिहतपरस्परगतिमतिकुण्डलिनमसात्म्यगन्धबाष्पसिकतापांशुधूमोपहतमिति॥७॥
उदकं तु खलु अत्यर्थविकृतगन्धवर्णरसस्पर्शं क्ले दबहुलमपक्रान्तजलचरविहङ्गमुपक्षीणजलेशय939मप्रीतिकरमपगतगुणं विद्यात्॥८॥
देशं पुनः—विकृत940वर्णगन्धरसस्पर्शे क्लेदबहुलमुपसृष्टं सरीसृपव्यालमशकशलभमक्षिकामूषकोलूकश्माशानिकशकुनिजम्बुकादिभिस्तृणोलूपोपवनवन्तं941लताप्रतानादिबहुलमपूर्ववदचपतितशुष्कनष्टशस्यं धूम्रपवनं प्रध्मातपतन्त्रिगणमुकृष्टश्वगणमुद्भ्रान्तव्यथितविविधमृगपक्षिसङ्घमुत्सृष्टनष्टधर्मसत्यलज्जाचारशीलगुणजनपदं शश्वत्क्षुभितोदीर्णसलिलाशयं प्रततोल्कापातनिर्घातभूमिकम्पमतिभयारावरूपं942रूक्षताम्रारुणसिताभ्रजालसंवृतार्कचन्द्रतारकमभीक्ष्णं ससंभ्रमोद्वेगमिव सत्रासरुदितमिव सतमस्कमिव गुह्यकाचरितमिवाक्रन्दितशब्दबहुलं चाहितं विद्यात्॥९॥
कालं तु खलु यथर्तुलिङ्गाद्विपरीतलिङ्गमतिलिङ्गं हीनलिङ्गंचाहितं व्यवस्येत्॥१०॥
इमानेवंदोषयुक्तांश्चतुरो भावान् जनपदोध्द्वंसकरान् वदन्तिकुशलाः; अतोऽन्यथाभूतांस्तु हितानाचक्षते॥११॥
विगुणेष्वपि तु खल्वेतेषु जनपदोध्द्वंसनकरेषु भावेषु भेषजेनोपपाद्यमानानामभयं भवति रोगेभ्य इति॥१२॥
भवन्ति चात्र।
वैगुण्यमुपपन्नानां देशकालानिलाम्भसाम्।
गरीयस्त्वं विशेषेण हेतुमत् संप्रवक्ष्यते॥१३॥
वाताज्जलं, जलाद्देशं, देशात् कालं, स्वभावतः।
विद्यादुष्परिहार्यत्वाद्गरीय943स्तरमर्थवित्॥१४॥
वाय्वादिषु यथोक्तानां दोषाणां तु विशेषवित्।
प्रतीकारस्य सौकर्ये विद्याल्लाघवलक्षणम्॥१५॥
चतुर्ष्वपि तु दुष्टेषु कालान्तेषु यदा नराः।
भेषजेनोपपाद्यन्ते न भवन्त्यातुरास्तदा॥१६॥
येषां न मृत्युसामान्यं सामान्यं न च कर्मणाम् ।
कर्म पञ्चविधं944 तेषां भेषजं परमुच्यते॥१७॥
रसायनानां विधिवच्चोपयोगः प्रशस्यते।
शस्यते देहवृत्तिश्च भेषजैः पूर्वमुद्धृतैः॥१८॥
सत्यं भूते दया दानं बलयो देवतार्चनम्।
सद्वृत्तस्यानुवृत्तिश्च प्रशमो गुप्तिरात्मनः॥१९॥
हितं जनपदानां च शिवानामुपसेवनम्।
सेवनं ब्रह्मचर्यस्य तथैव ब्रह्मचारिणाम्॥२०॥
संकथा945 धर्मशास्त्राणां महर्षीणां जितात्मनाम्।
धार्मिकैः सात्त्विकैर्नित्यं सहास्या वृद्धसंमतैः॥२१॥
इत्येतभ्देषजं प्रोक्तमायुषः परिपालनम्।
येषामनियतो मृत्युस्तस्मिन् काले सुदारुणे ॥ २२ ॥
इति श्रुत्वा जनपदोध्द्वंसने कारणानि पुनरपि भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—अथ खलु भगवन् ! कुतो मूलमेषां वाय्वादीनांवैगुण्यमुत्पद्यते, येनोपपन्ना जनपदमुद्ध्वंसयन्तीति॥२३॥
तमुवाच भगवानात्रेयः–सर्वेषामप्यग्निवेश ! वाय्वादीनां यद्वैगुण्यमुत्पद्यते तस्य मूलमधर्मः, तन्मूलं वा(चा)ऽसत्कर्म पूर्वकृतं; तयोर्योनिः प्रज्ञापराध एव। तद्यथा—यदा वै देशनगरनिगमजनपदप्रधानाधर्ममुत्क्रम्याधर्मेण प्रजां प्रवर्तयन्ति, तदाश्रितोपाश्रिताःपौरजनपदा व्यवहारोपजीविनश्च तमधर्ममभिवर्धयन्ति, ततःसोऽधर्मः प्रसभं धर्ममन्तर्धत्ते, ततस्तेऽन्तर्हितधर्माणो देवताभिरपि त्यज्यन्ते, तेषां तथाऽन्तर्हितधर्माणामधर्मप्रधा946नानामपक्रान्तदेवतानामृतवो व्यापद्यन्ते; तेन नापो यथाकालं देवो वर्षतिन वा वर्षति विकृतं वा वर्षति, वाता न सम्यगभिवान्ति, क्षितिर्व्यापद्यते, सलिलान्युपशुष्यन्ति, ओषधयः स्वभावं परिहायापद्यन्तेविकृतिं, तत उद्ध्वंसन्ते जनपदाः स्पर्शाभ्यवहार्यदोषात्947॥२४॥
तथा शस्त्रप्रभवस्यापि जनपदोद्ध्वंसस्याधर्म एव हेतुर्भवति।येऽतिप्रवृद्धलोभरोषमोहमानास्ते दुर्बलानवमत्यात्मस्वजनपरोपघाताय शस्त्रेण परस्परमभिक्रामन्ति, परान् वाऽभिक्रामन्ति, परैर्वाऽभिक्राम्यन्ते॥२५॥
रक्षोगणादिभिर्वाविविधैर्भूतसङ्घैस्तमधर्ममन्यद्वाऽप्यपचारान्तरमुपलभ्याभिहन्यन्ते॥२६॥
तथाऽभिशापप्रभवस्याप्यधर्म एव हेतुर्भवन्ति; ये लुप्तधर्माणोधर्मादपेतास्ते गुरुवृद्धसिद्धर्षिपूज्यानवमत्याहितान्याचरन्ति, ततस्ताःप्रजा गुर्वादिभिरभिशप्ता भस्मतामुपयान्ति प्रांगेवानेकपुरुषकुलविनाशाय948; नियतप्रत्ययोपलम्भादनियताश्चापरे949॥२७॥
प्रागपि चाधर्मादृते नाशुभोत्पत्तिरन्यतोऽभूत्।आदिकाले ह्यदितिसुतसमौजसोऽतिविमलविपुलप्रभावाः950 प्रत्यक्षदेवदेवर्षिधर्मयज्ञविधिविधानाः951 शैलसारसंहतस्थिरशरीराः प्रसन्नवर्णेन्द्रियाः पवनसमबलजवपराक्रमाश्चारुस्फिचोऽभिरूपप्रमाणाकृतिप्रसादोपचयवन्तःसत्यार्जवानृशंस्यदानदमनियमतपउपवासब्रह्मचर्यव्रतपराव्यपगतभयरागद्वेषमोहलोभक्रोधशोकमानरोगनिद्रातन्द्राश्रमक्लमालस्यपरिग्रहाश्च पुरुषा बभूवुरमितायुषः; तेषामुदारसत्त्वगुणकर्मणामचिन्त्य952रसवीर्यविपाकप्रभावगुणसमुदितानि प्रादुर्बभूवुः शस्यानि सर्वगुणसमुदितत्वात् पृथिव्यादीनां कृतयुगस्यादौ। भ्रश्यतितु कृतयुगे केषांचिदत्यादानात् सांपन्निकानां शरीरगौरवमासीत्,शरीरगौरवाच्छ्रमः953, श्रमादालस्यम्, आलस्यात् संचयः, संचयात् परिग्रहः, परिग्रहाल्लोभः प्रादुरासीत्॥२८॥
ततस्त्रेतायां लोभादभिद्रोहः, अभिद्रोहादनृतवचनम्, अनृतवचनात् कामक्रोधमानद्वेषपारुष्याभिघातभयतापशोकचिन्तोद्वेगादयः प्रवृत्ताः; ततस्त्रेतायां धर्मपादोऽन्तर्धानमगमत् तस्यान्तर्धानाद् युगवर्षप्रमाणस्य पादहासः पृथिव्यादीनां च गुणपादप्रणाशोऽभूत्, तत्प्रणाशकृतश्च स(श)स्यानां स्नेहवैमल्यरसवीर्यविपाकप्रभावगुणपादभ्रंशः; ततस्तानि प्रजाशरीराणि हीनगुणेपादैर्हीयमानगुणै954श्चाहारविहारै रयथापूर्वमुपष्टभ्यमानान्यग्निमारुतपरीतानिप्राग्व्याधिभिर्ज्वरादिभिराक्रान्तानि, अतः प्राणिनो ह्रासमवापुरायुषःक्रमश इति ॥२९॥
भवतश्चात्र ।
युगे युगे धर्मपादः क्रमेणानेन हीयते।
गुणपादश्च भूतानामेवं लोकः प्रलीयते॥३०॥
संवत्सरशते955 पूर्णे याति संवत्सरः क्षयम्।
देहिनामायुषः काले यत्र यन्मानमिष्यते॥३१॥
इति विकाराणां प्रागुत्पत्तिहेतुरुक्तो भवति॥३२॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच — किं नु खलु भगवन् ! नियतकालप्रमाणमायुः सवें न वेति॥३३॥
भगवानुवाच —
इहाग्निवेश ! भूतानामायुर्युक्तिमपेक्षते॥३४॥
दैवे पुरुषकारे च स्थितं ह्यस्य बलाबलम्।
दैवमात्मकृतं विद्यात् कर्म यत् पौर्वदेहिकम्॥३५॥
स्मृतः पुरुषकारस्तु क्रियते यदिहापरम्।
बलाबलविशेषोऽस्ति तयोरपि च कर्मणोः॥३६॥
दृष्टं हि त्रिविधं कर्म हीनं मध्यममुत्तमम्।
तयोरुदारयोर्युक्तिर्दीर्घस्य च सुखस्य च॥३७॥
नियतस्यायुषो हेतुर्विपरीतस्य चेतरा।
मध्यमा मध्यमस्येष्टा, कारणं शृणु चापरम्॥३८॥
दैवं पुरुषकारेण दुर्बलं ह्युपहन्यते।
दैवेन चेतरत् कर्म विशिष्टेनोपहन्यते॥३९॥
दृष्ट्वा956 यदेके मन्यन्ते नियतं मानमायुषः।
कर्म किंचित् क्वचित्काले विपाके नियतं महत्।
किंचित्त्वकालनियतं प्रत्ययैः957 प्रतिबोध्यते॥४०॥
तस्मादुभयदृष्टत्वा देकान्तग्रहणमसाधु; निदर्शनमपि चात्रोदाहरिष्यामः– यदि हि नियतकालप्रमाणमायुः सर्वं स्यात्, तदाऽऽयुष्कामाणां न मन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहार होमनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनाद्याः क्रिया इंष्टयश्च प्रयुज्येरन्; नोद्भ्रान्तचण्डचपलगोगजोष्ट्रखरतुरगमहिषादयः पवनादयश्च दुष्टाःपरिहार्याः स्युः, न प्रपातगिरिविषमदुर्गाम्बुवेगाः, तथा न प्रमत्तोन्मत्तोद्भ्रान्तचण्डचपलमोहलोभाकुलमतयः, नारयः, न प्रवृद्धोऽग्निः, न च विविधविषाश्रयाः सरीसृपोरगादयः, न साहसं,नादेशकालचर्या, न नरेन्द्रप्रकोपः; इत्येवमादयो भावा नाभावकराः स्युः, आयुषः सर्वस्य नियतकालप्रमाणत्वात्। न चानभ्यस्ताकालमरणभयनिवारकाणामकालमरणभयमागच्छेत् प्राणिनां,व्यर्थाश्चारम्भकथाप्रयोगबुद्धयः स्युर्महर्षीणां रसायनाधिकारे, नापीन्द्रो नियतायुषं शत्रुं वज्रेणाभिहन्यात्, नाश्विनावार्तेभेषजेनोपपादयेतां958, न चर्षयो यथेष्टमायुस्तपसा प्राप्नुयुः, नच विदितवेदितव्या महर्षयः ससुरेशा (रसायनादीनि) सम्यक् पश्येयुरुपदिशेयुराचरेयुर्वा; अपि च सर्वचक्षुषामेतत् परं यदैन्द्रं959 चक्षुः, इदंचास्माकं(तेन) प्रत्यक्षं, यथा—पुरुषसहस्राणामुत्थायोत्थायाहवं960कुर्वतामकुर्वतां चातुल्यायुष्ट्वं, तथा जातमात्राणामप्रतीकारात् प्रतीकाराच्च, अविषविषप्राशिनां चाप्यतुल्यायुष्ट्वमेव, न च तुल्यो योगक्षेम उदपानघटानां चित्रघटानां चोत्सीदतां, तस्माद्धितोपचारमूलंजीवितमतो विपर्ययान्मृत्युः।अपि च देशकालात्मगुणविपरीतानांकर्मणामाहारविकाराणां च क्रियोपयोगं961 सम्यक् सर्वातियोगसंधारणमसंधारणमुदीर्णानां च गतिमतां साहसानां च वर्जनमारोग्यानुवृत्तौ हेतुमुपलभामहे उपदिशामः सम्यक् पश्यामश्चेति॥४१॥
अतः परमग्निवेश उवाच—एवं सत्यनियतकालप्रमाणायुषांभगवन् ! कथं कालमृत्युरकालमृत्युर्वा भवतीति॥४२॥
तमुवाच भगवानात्रेयः–श्रूयतामग्नि वेश ! यथा—यानसमा-युक्तोऽक्षः प्रकृत्यैवाक्षगुणैरुपेतः स च सर्वगुणोपपन्नो वाह्यमानोयथाकालं स्वप्रमाणक्षयादेवावसानं गच्छेत् तथाऽऽयुः शरीरोपगतं बलवत्प्रकृत्या यथावदुपचर्यमाणं स्वप्रमाणक्षया देवावसानंगच्छति, स मृत्युः काले; यथा च सएवाक्षोऽतिभाराधिष्ठितत्वाद्विषमपथादपथादक्षचक्रभङ्गाद्वाह्यवाहकदोषादणिमोक्षात् पर्यसना962दनुपाङ्गाच्चान्तराऽवसानमापद्यते963तथाऽऽयुरप्ययथाबलमारभ्भादयथाइयभ्यवहरणाद्विषमाभ्यवहरणाद्विषमशरीरन्यासादतिमैथुनादसत्संश्रयादुदीर्णवेगविनिग्रहाद्विधार्यवेगाविधारणाद्भूतविषवाय्वग्न्युपतापादभिघातादाहारप्रतीकारविवर्जनाच्चान्तराऽवसानमापद्यते,963 स मृत्युरकाले; तथा ज्वरादीनप्यातङ्कान्मिथ्योपचरितानकालमृत्यून् पश्याम इति॥४३॥
अथाग्निवेशः पप्रच्छ—किं नु खलु भगवन् ! ज्वरितेभ्यः पानीयमुष्णं भूयिष्ठं प्रयच्छन्ति भिषजो न तथा शीतम् अस्ति च शीतसाध्योऽपि धातुर्ज्वरकर इति॥४४॥
समुवाच भगवानात्रेयः,—उवरितस्य कायसमुत्थानदेशकालामभिसमीक्ष्य पाचनार्थं पानीयमुष्णं प्रयच्छन्ति भिषजः; ज्वरो ह्यामाशयसमुत्थः, प्रायो भेषजानि चामाशयसमुत्थानां विकाराणां पाचनवमनापतर्पणसमर्थानि964 भवन्ति, पाचनार्थं च पानीयमुष्णं,तस्मादेतज्ज्वरितेभ्यः प्रयच्छन्ति भिषजो भूयिष्ठं; तद्धि तेषां पीतंवातमनुलोमयति, अग्निं965 चोदर्यमुदीरयति, क्षिप्रं च जरां गच्छति,श्लेष्माणं च परिशोषयति, स्वल्पमपि च पीतं तृष्णाप्रशमनायोपपद्यते; तथायुक्तमपि चैतन्नात्यर्थोत्सन्नपित्ते ज्वरे सदाहभ्रमप्रलापातिसारे वा प्रदेयम्, उष्णेन हि दाहभ्रमप्रलापातिसारा भूयोऽभिवर्धन्ते, शीतेन चोपशाम्यन्तीति॥४५॥
भवति चात्र ।
शीतेनोष्णकृतान् रोगाञ्छमयन्ति भिषग्विदः।
ये तु शीतकृता रोगास्तेषामुष्णं भिषग्जितम्॥४६॥
एवमितरेषामपि व्याधीनां निदानविपरीतं भेषजं भवति कार्यं;यथा—अपतर्पणनिमित्तानां व्याधीनां नान्तरेण पूरणमस्ति शान्तिः,तथा पूरणनिमित्तानां नान्तरेणापतर्पणमिति॥४७॥
अपतर्पणमपि च त्रिविधं—लङ्घनं, लङ्घनपाचनं, दोषावसेचनंचेति॥४८॥
तत्रलङ्घनमल्पबलदोषाणां, लङ्घनेन ह्यग्निमारुतवृद्ध्या वातातपपरीतमिवाल्पमुदकमल्पो दोषः प्रशोषमापद्यते॥४९॥
लङ्घनपाचने (नं) तु मध्यबलदोषाणां, लङ्घनपाचनाभ्यां हि सूर्यसंतापमारुताभ्यां पांशुभस्मावकिरणैरिवचानतिबहूदकं मध्यबलो दोषः प्रशोषमापद्यते।बहुदोषाणां पुनर्दोषावसेचनमेवकार्यं, न ह्यभिन्ने केदारसेतौ पल्वलाप्रसेकोऽस्ति, तद्वद्दोषावसेचनम् ॥ ५१ ॥
दोषावसेचनं तु खल्वन्यद्वा भेषजं प्राप्तकालमण्यातुरस्य नैवंविधस्य कुर्यात्; तद्यथा-अनपवा966दप्रतीकारस्याधनस्यापरिचार967कस्य वैद्यमानिनश्चण्डस्यासूयकस्य तीव्राधर्मरुचेरतिक्षीणबलमांसशोणितस्यासाध्यरोगोपहतस्य मुमूर्षुलिङ्गान्वितस्य चेति।एवंविधंह्यातुरमुपचरन् भिषक् पापीयसाऽयशसा योगमृच्छतीति॥५२॥
भवति चात्र ।
(अल्पोंदकद्रुमो यस्तु प्रवातः प्रचुरातपः।
ज्ञेयः स जाङ्गलो देशः स्वल्परोगतमोऽपि च॥५३॥
प्रचुरोदकवृक्षो यो निवातो दुर्लभातपः।
अनूपोऽबहुदोषश्च, समः साधारणो मतः॥५४॥)
तदात्वे चानुबन्धे वा यस्य स्यदशुभं फलम्।
कर्मणस्तन्न कर्तव्यमेतद्बुद्धिमतां मतम्॥ ५५ ॥
तत्र श्लोकाः।
पूर्वरूपाणि सामान्या हेतवः स्वस्वलक्षणाः।
देशोद्ध्वंसस्य भैषज्यं हेतूनां मूलमेव च ॥५६॥
प्राग्विकारसमुत्पत्तिरायुषश्च क्षयक्रमः।
मरणं प्रति भूतानां कालाकालविनिश्चयः॥५७॥
यथा चाकालमरणं यथायुक्तं च भेषजम्।
सिद्धिं यात्यौषधं येषां न कुर्याद्येन हेतुना॥५८॥
तदात्रेयोऽग्निवेशाय निखिलं सर्वमुक्तवान्।
देशोद्ध्वंसनिमित्तीये विमाने मुनिसत्तमः॥५९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते तृतीये विमानस्थाने जनपदोद्ध्वंसनीयं विमानं नाम तृतीयोऽध्यायः॥ ३ ॥
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चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातस्त्रिविधरोगविशेषविज्ञानीयं विमानंव्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
त्रिविधं खलु रोगविशेषविज्ञानं भवति । तद्यथा—आप्तोपदेशःप्रत्यक्षमनुमानं चेति॥३॥
तत्राप्तोपदेशो नाम—आप्तवचनम् ; आप्ता ह्यवितर्कस्मृतिविभागविदो निष्प्रीत्युपतापदर्शिनश्च; तेषामेवंगुणयोगाद्यद्वचनं तत् प्रमाणं,अप्रमाणं पुनर्मत्तोन्मत्तमूर्खवक्तृदृष्टादृष्टवचनमिति968॥४॥
प्रत्यक्षं तु तत्—यत् स्वयमिन्द्रियैर्मनसा969 चोपलभ्यते॥५॥
अनुमानं खलु—तर्को युक्त्यपेक्षः॥६॥
त्रिविधेन खल्वनेन ज्ञानसमुदयेन पूर्वं परीक्ष्य रोगं सर्वथासर्व970मेवोत्तरकालमध्यवसानमदोषं भवतिः नहि ज्ञानावयवेन कृत्स्रेज्ञेये ज्ञानमुत्पद्यते॥७॥
त्रिविधे त्वस्मिन् ज्ञानसमुदाये पूर्वमाप्तोपदेशाज्ज्ञानं, ततःप्रत्यक्षानुमानाभ्यां परीक्षोपपद्यते; किं ह्यनुपदिष्टं पूर्वं यत्तत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां परीक्षमाणो विद्यात्; तस्माद् द्विविधा परीक्षा ज्ञानवतां प्रत्यक्षमनुमानं च, त्रिविधा वा सहोपदेशेने971 ॥ ८ ॥
(तत्रेदमुपदिश972न्तिबुद्धिमन्तः–) रोगमेकैकमेवंप्रकोपणमेवंयोनिमेवमात्मानमेवमधिष्ठानमेवंवेदनमेवंसंस्थानमेवंशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमेवमुपद्रवमेवंवृद्धिस्थानक्षयसमन्वितमेवमुदर्कमेवंनामानं973विद्यात्; तस्मिन्नियं प्रतीकारार्था प्रवृत्तिरथवा निवृत्तिरित्युपदेशाज्ज्ञायते ॥ ९ ॥
प्रत्यक्षतस्तु खलु रोगतत्त्वं बुभुत्सुः सर्वैरिन्द्रियैः सर्वानिन्द्रियार्थानातुरशरीरगतान् परीक्षेतान्यत्र रसज्ञानात्; तद्यथा,—अन्त्र्कूजनं संधिस्फुटनमङ्गुलीपर्वणां स्वरविशेषांश्च ये चान्येऽपि केचिच्छरीरोपगताः शब्दाः स्युस्ताञ्श्रोत्रेण परीक्षेत; वर्णसंस्थानप्रमाणच्छायाः शरीरप्रकृतिविकारौ चक्षुर्वैषयिकाणि यानि चान्यान्यनुक्तानितानि चक्षुषा परीक्षेत; रसं तु खल्वातुरशरीरगतमिन्द्रियवैषयिकमप्यनुमानादवगच्छेत्, न ह्यस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणमुपपद्यते, तस्मादातुरपरिप्रश्नेनैवातुरमुखरसं विद्यात्, यूकापसर्पणेन त्वस्य शरीरवैरस्यं, मक्षिकोपसर्पणेन शरीरमाधुर्यं, लोहितपित्तसंदेहे तु किं धारिलोहितं लोहितपित्तं वेति श्वकाकभक्षणाद्धारिलोहितमभक्षणाल्लोहितपित्तमित्यनुमातव्यम्,एवमन्यानप्यातुरशरीरगतान् रसाननुमिमीत; गन्धांस्तु खलु सर्वशरीरगतानातुरस्य प्रकृतिवैकारिकान् घ्राणेन परीक्षेत; स्पर्शं च पाणिना प्रकृतिविकृतियुक्तम्; इतिप्रत्यक्षतोऽनुमानैक974देशतश्च परीक्षणमुक्तम्॥१०॥
इमे तु खल्व975न्येऽप्येवमेव भूयोऽनुमानज्ञेया भवन्ति भावाःतद्यथा,—अग्निं जरणशक्त्या परीक्षेत बलं व्यायामशक्त्या, श्रोत्रादीनि शब्दाद्यर्थग्रहणेन, मनोऽर्थाव्यभिचरणेन, विज्ञानं व्यवसायेन,रजः सङ्गेन, मोहमविज्ञानेन, क्रोधमभिद्रोहेण, शोकं दैन्येन,हर्षमामोदेन, प्रीतिं तोषेण, भयं विषादेन, धैर्यमविषादेन, वीर्यमुत्साहेन976, अवस्थान977मविभ्रमेण श्रद्धामभिप्रायेण, मेधां ग्रहणेन,संज्ञां नामग्रहणेन, स्मृतिं स्मरणेन, ह्रियमपत्रपणेन, शीलमनुशीलनेन, द्वेषं प्रतिषेधेन, उपधिमनुबन्धेन,978 धृतिमलौल्येन,वश्यतां विधेयतया, वयोभक्तिसात्म्यव्याधिसमुत्थानानिकालदेशोपशयवेदनाविशेषेण,गूढलिङ्गंव्याधिमुपशयानुपशयाभ्यां,दोषप्रमाणविशेषमपचारविशेषेण, आयुषः क्षयमरिष्टैः उपस्थितश्रेयस्त्वं कल्याणाभिनिवेशेन, अमलं सत्त्वमविकारेण, ग्रहण्यास्तुमृदुदारुणत्वं स्वप्नदर्शनमभिप्रायं द्विष्टेष्टसुखदुःखानि979 चातुरपरिप्रश्नेनैव विद्यादिति॥११॥
,
भवन्ति चात्र।
आप्ततश्चोपदेशेन प्रत्यक्षकरणेन च।
अनुमानेन च व्याधीन् सम्यग्विद्याद्विचक्षणः॥१२॥
सर्वथा सर्वमालोच्य यथासंभवमर्थवित्।
अथाध्यवस्थेत्तत्त्वे च कार्ये च तदनन्तरम्॥१३॥
कार्यतत्वविशेषज्ञः प्रतिपत्तौ न मुह्यति।
अमूढः फलमाप्नोति यदमोहनिमित्तजम्॥१४॥
ज्ञानबुद्धिप्रदीपेन यो नाविशति तत्ववित्980।
आतुरस्यान्तरात्मानं न स रोगांश्चिकित्सति॥१५॥
तत्र श्लोकौ।
सर्वरोगविशेषाणां त्रिविधं ज्ञानसंग्रहम्।
यथा चोपदिशन्त्याप्ताः प्रत्यक्षं गृह्यते यथा॥१६॥
ये यथा चानुमानेन ज्ञेयास्तांश्चाप्युदारधीः।
भावांस्त्रिरोगविज्ञाने विमाने मुनिरुक्तवान्॥१७॥
** इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते तृतीये विमानस्थाने**
** त्रिविधरोगविशेषविज्ञानीयविमानंनाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥**
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पञ्चमोऽध्यायः।
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अथातः स्रोतोविमानं981 व्याख्यास्यामः॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥ २ ॥
यावन्तः पुरुषे मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्त एवास्मिन्स्त्रोतसां प्रकारविशेषाः, सर्वे हि भावाः पुरुषे नान्तरेण स्त्रोतांस्यभिनिर्वर्तन्ते क्षयं वाऽप्यधिगच्छन्ति; स्रोतांसि खलु परिणाममापद्यमानानां धातूनामभिवाहीनि भवन्त्ययनार्थेन॥३॥
अपि चैके स्रोतसामेव समुदयं पुरुषमिच्छन्ति, सर्वगतत्वात् सर्वसरत्वाच्च दोषप्रकोपणप्रशमनानां; नत्वेतदेवं, यस्य हिस्त्रोतांसि यच्च वहन्ति यच्चा982वहन्ति यत्र चावस्थितानि983 सर्वं तदन्यत्तेभ्यः॥४॥
अतिबहुत्वात्तुखलु केचिदपरिसंख्येयान्याचक्षते स्रोतांसि,परिसंख्येयानि पुनरन्ये॥५॥
तेषां तु खलु स्रोतसां यथास्थूलं कतिचित्प्रकारान्मूलतश्च प्रकोपविज्ञानतश्चानुव्याख्यास्यामः, ये भविष्यन्त्यलमनुक्तार्थज्ञानायज्ञानवतां विज्ञानाय चाज्ञानवतां; तद्यथा— प्राणोदकान्नरसरुधिरमांसमे दोस्थिमज्जशुक्रमूत्रपुरीषस्वेदवहानि,वातपित्तश्लेष्मणां पुनःसर्वशरीरचराणां सर्वस्त्रोतांस्ययनभूतानि तद्वदतीन्द्रियाणां पुनःसत्त्वादीनां केवलं चेतनावच्छरीरमयनभूतमधिष्ठानभूतं च; तदेतत्स्रोतसां प्रकृतिभूतत्वान्न विकारैरुपसृज्यते शरीरम्॥६॥
तत्र,प्राणवहानां स्रोतसां हृदयं मूलं महास्रोतश्च; प्रदुष्टानां तुखल्वेषामिदं विशेषज्ञानं भवति; तद्यथा—अतिसृष्टमतिबद्धं कुपितमल्पाल्पमभीक्ष्णं वा सशब्दशूलमुच्छ्वसत्तंदृष्ट्वा प्राणवहान्यस्यस्रोतांसि प्रदुष्टानीति विद्यात्॥७॥
उदकवहानां स्रोतसां तालु मूलं क्लोम च; प्रदुष्टानां तु खल्वेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति; तद्यथा—जिह्वाताल्वोष्ठकण्ठक्लोमशोषं पिपासां चातिप्रवृद्धां दृष्ट्वोदकवहान्यस्य स्रोतांसि प्रदुष्टानीतिविद्यात्॥८॥
अन्नवहानां स्रोतसामामाशयो मूलं वामं च पार्श्व; प्रदुष्टानां तुखल्वेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति; तद्यथा—अनन्नाभिलषणमरोचकाविपाकौ छार्दें च दृष्ट्वाऽन्नवहान्यस्य स्त्रोतांसि प्रदुष्टानीतिविद्यात्॥९॥
रसवहानां स्रोतसां हृदयं मूलं दश च धमन्यः, शोणितवहानांस्रोतसां यकृन्मूलं प्लीहा च, मांसवहानां स्रोतसां स्रायुर्मूलंत्वक् च, मेदोवहानां स्रोतसां वृक्कौ मूलं वपावहनं च, अस्थिवहानांस्रोतसां मेदो मूलं जघनं च, मज्जवहानां स्रोतसामस्थीनि मूलंसंधयश्च शुक्रवहानां स्रोतसां वृषणौ मूलं शेफश्च, प्रदुष्टानां तुखल्वेषां रसादिस्रोतसां विज्ञानान्युक्तानि विविधाशितपीतीयेऽध्याये।यान्येव हि धातूनां प्रदोषविज्ञानानि तान्येव यथास्वंदुष्टानां धातुस्रोतसाम्॥१०॥
मूत्रवहानां स्रोतसां बस्तिर्मूलं वङ्क्षणौ च, प्रदुष्टानां तु खल्वेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति; तद्यथा—अतिसृष्टमतिबद्धं वा प्रकुपितमल्पाल्पमभीक्ष्णं वा बहलं सशूलं मूत्रयन्तं दृष्ट्वा मूत्रवहान्यस्यस्रोतांसि प्रदुष्टानीति विद्यात्॥११॥
पुरीषवहानां स्त्रोतसां पक्काशयो मूलं स्थूलगुदं984 च, प्रदुष्टानां तुखल्वेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति; तद्यथा—कृच्छ्रेणाल्पाल्पं सशूल985मतिद्रवमतिग्रथितमतिबहु चोपविशन्तं दृष्ट्वा पुरीषवहान्यस्यस्रोतांसि प्रदुष्टानीति विद्यात्॥१२॥
स्वेदवहानां स्रोतसां मेदो मूलं रोमकूपाश्च, प्रदुष्टानां तु खल्वेषामिदं विशेषविज्ञानं भवति; तद्यथा—अस्वेदनमतिस्वेदनं पारुष्यमतिश्लक्ष्णतामङ्गस्य परिदाहं लोमहर्षं च दृष्ट्वा स्वेदवहान्यस्यस्रोतांसि प्रदुष्टानीति विद्यात्॥१३॥
स्रोतांसि सिरा धमन्यो रसायन्यो रसवाहिन्यों नाड्यः पन्थानोमार्गाः शरीरच्छिद्राणि संवृतासंवृतानि स्थानान्याशयाः क्षयानिकेताश्चेति शरीरधात्ववकाशानां लक्ष्यालक्ष्याणां नामानिभवन्ति॥१४॥
तेषां प्रकोपात् स्थानस्था मार्गगाश्चैव शरीरधातवः प्रकोपमापद्यन्ते; इतरेषां प्रकोपादितराणि च; स्रोतांसि स्त्रोतांस्येव धातवश्चधातूनेव प्रदूषयन्ति प्रदुष्टाः; तेषां सर्वेषामेव वातपित्तश्लेष्माणोदूषयितारो भवन्ति, दोषस्वभावादिति॥१५॥
भवन्ति चात्र।
क्षयात् संधारणाद्रौक्ष्याव्द्यायामात् क्षुधितस्य च।
प्राणवाहीनि दुष्यन्ति स्रोतांस्यन्यैश्च दारुणैः॥१६॥
औष्ण्यादामाद्भयात् पानादतिशुष्कान्नसेवनात्।
अम्बुवाहीनि दुष्यन्ति तृष्णायाश्चातिपीडनात्॥१७॥
अतिमात्रस्य चाकाले चाहितस्य च भोजनात्।
अन्नवाहीनि दुष्यन्ति वैगुण्यात् पावकस्य च॥१८॥
गुरुशीतमतिस्निग्धमतिमात्रं समश्नताम्।
रसवाहिनी दुष्यन्ति चिन्त्यानां चातिचिन्तनात्॥१९॥
विदाहीन्यन्नपानानि स्निग्धोष्णानि द्रवाणि च।
रक्तवाहीनि दुष्यन्ति भजतां चातपानलौ॥२०॥
अभिष्यन्दीनि भोज्यानि स्थूलानि च गुरूणि च।
मांसवाहीनि दुष्यन्ति भुक्त्वा च स्वपतां दिवा॥२१॥
अव्यायामाद्दिवास्वप्नान्मेद्यानां चातिभक्षणात्।
मेदोवाहीनि दुष्यन्ति वारुण्याश्चातिसेवनात्॥२२॥
व्यायामादतिसंक्षोभादस्थ्नामतिविघट्टनात्।
अस्थिवाहीनि दुष्यन्ति वातलानां च सेवनात्॥२३॥
उत्पेषादत्यभिष्यन्दादभिघातात् प्रपीडनात्।
मज्जवाहीनि दुष्यन्ति विरुद्धानां च सेवनात्॥२४॥
अकालायोनिगमनान्निग्रहादतिमैथुनात्।
शुक्रवाहीनि दुष्यन्ति शस्त्रक्षाराग्निभिस्तथा॥२५॥
मूत्रितोदकभक्ष्यस्त्रीसेवनान्मूत्रनिग्रहात्986।
मूत्रवाहीनि दुष्यन्ति क्षीणस्यातिकृशस्य च॥२६॥
संधारणादत्यशनादजीर्णाध्यशनान्तथा।
वर्चोवाहीनि दुष्यन्ति दुर्बलाग्नेः कृशस्य च॥२७॥
व्यायामादतिसंतापाच्छीतोष्णाक्रमसेवनात्।
स्वेदवाहीनि दुष्यन्ति क्रोधशोकभयैस्तथा॥२८॥
आहारश्च विहारश्च यः स्याद्दोषगुणैः समः।
धातुभिर्विगुणश्चापि स्त्रोतसां स प्रदूषकः॥२९॥
अतिप्रवृत्तिः सङ्गो वा सिराणां ग्रन्थयोऽपि वा।
विमार्गगमनं चापि स्रोतसां दुष्टिलक्षणम्॥३०॥
स्वधातुसमवर्णानि वृत्तस्थूलान्यणूनि च।
स्रोतांसि दीर्घाण्याकृत्या प्रतानसदृशानि च॥३१॥
प्राणोदकान्नवाहानां दुष्टानां श्वासिकी क्रिया।
कार्या तृष्णोपशमनी तथैवामप्रदोषिकी॥३२॥
विविधाशितपीतीये रसादीनां यदौषधम्।
रसादिस्रोतसां कुर्यात्तद्यथास्वमुपक्रमम्॥३३॥
मूत्रविट्स्वेदवाहानां चिकित्सा मौत्रकृच्छ्रिकी।
तथाऽतिसारिकी कार्या तथा ज्वरचिकित्सिकी॥३४॥
तत्र श्लोकाः।
त्रयोदशानां मूलानि स्रोतसां दुष्टिलक्षणम्।
सामान्यं नामपर्यायाः कोपनानि परस्परम्॥३५॥
दोषहेतुः पृथक्त्वेन भेषजोद्देश एव च।
स्रोतोविमाने निर्दिष्टस्तथा चादौ विनिश्चयः॥३६॥
केवलं विदितं यस्य शरीरं सर्वभावतः।
शारीराः सर्वरोगाश्च स कर्मसु न मुह्यति॥३७॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते तृतीये विमानस्थानेस्रोतोविमानं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
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षष्ठोऽध्यायः।
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अथातो रोगानीकं विमानं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
** ** द्वे रोगानीके भवतः प्रभावभेदेन—साध्यमसाध्यं च, द्वे रोगानीके बलभेदेन—मृदु दारुणं च, द्वे रोगानीकेऽधिष्ठानभेदेन—मनोधिष्ठानं शरीराधिष्ठानं च, रोगानीके द्वे निमित्तभेदेन—स्वधातुवैषम्यनिमित्तमागन्तुनिमित्तं च, द्वे रोगानीके आशयभेदेन—आमाशयसमुत्थं पक्वाशयसमुत्थं च; एवमेतत् प्रभाववलाधिष्ठाननिमित्ताशयभेदाद्वैधं सद्भेदप्रकृत्यन्तरेण987 भिद्यमानमथवाऽपि संधीयमानं स्यादेकत्वं या बहुत्वं वा । एकत्वं तावदेकमेव रोगानीकंदुःखसामान्यात्988, बहुत्वं तु दश रोगानीकानि प्रभावभेदादिनाभवन्ति, बहुत्वमपि संख्येयं स्यादसंख्येयं वा; तत्र संख्येयं तावद्यथोक्तमष्टोदरीये, अपरिसंख्येयं पुनर्यथा—महारोगाध्याये रुग्वर्णसमुत्थानादीनासंमपरिख्येयत्वात्॥३॥
नच989 संख्येयाग्रेषु भेदप्रकृत्यन्तरीयेषु विगीतिरित्यतो दोषवतीस्यादन्न काचित् प्रतिज्ञा, न चाविगीतिरित्यतः स्याददोषवती; भेत्ताहि भेद्यमन्यथा भिनत्ति, अन्यथा पुरस्ताद्भिन्नं भेदप्रकृत्यन्तरेण भिन्दन् भेदसंख्याविशेषमापादयत्यनेकधा, नच पूर्वं भेदाग्रमुपहन्ति; समानायामपि खलु भेदप्रकृतौ प्रकृतानुप्रयोगान्तरमपेक्ष्यं990;सन्ति ह्यर्थान्तराणि समानशब्दाभिहितानि सन्ति चानर्थान्तराणि पर्यायशब्दाभिहितानि; समानो हि रोगशब्दो दोषेषु च व्याधिषुच, दोषा ह्यपि रोगशब्दमातङ्कशब्दं यक्ष्मशब्दं दोषप्रकृतिशब्दंविकारशब्दं च लभन्ते, व्याधयश्च रोगशब्दमातङ्कशब्दं यक्ष्मशब्दं दोषप्रकृतिशब्दं विकारशब्दं च लभन्ते; तत्र दोषेषु च व्याधिषु चरोगशब्दः समानः, शेषेषु तु विशेषवान्॥४॥
तत्र व्याधयोऽपरिसंख्येया भवन्ति, अतिबहुत्वात् ; दोषास्तुखलु परिसंख्येयाः, अनतिबहुत्वात्; तस्माद्य991थाचित्रं विकारानुदाहरणार्थमनवशेषेण च दोषान् यथावदनुव्याख्यास्यामः।रजस्तमश्च मानसौ दोषौ, तयोर्विकाराः कामक्रोधलोभमोहेर्ष्यामानमदशोकचिन्तोद्वेगभयहर्षादयः।वातपित्तश्लेष्माणस्तु खलु शारीरादोषाः, तेषामपि च विकारा-ज्वरातीसारशोथशोषश्वासमेहकुष्ठादयः।इति दोषा केवला व्याख्याताः, विकारैकदेशश्च॥५॥
तत्र तु खल्वेषां द्वयानामपि दोषाणां त्रिविधं प्रकोपणं; तद्यथाअसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः, प्रज्ञापराधः, परिणामश्चेति।प्रकुपितास्तुखलु ते प्रकोपणविशेषाद्दूष्यविशेषाच्चविकारविशेषानभिनिर्वर्तयन्त्यपरिसंख्येयान्।ते च विकाराः परस्परमनुवर्तमानाः कदाचिदनुबध्नन्ति कामादयो ज्वरादयश्च; नियतस्त्वनुबन्धो रजस्तमसोःपरस्परं, न ह्यरजस्कं तमः ( प्रवर्तते )॥६॥
प्रायः शरीरदोषाणामेकाधिष्ठानीयानां संनिपातः संसर्गो वासमानगुणत्वात् ; दोषा हि दूषणैः समानाः॥७॥
तत्रानुबन्ध्यानुबन्धकृतो विशेषः–स्वतन्त्रो व्यक्तलिङ्गो यथोक्तसमुत्थानप्रशमो भवत्यनुबन्ध्यः, तद्विपरीतलक्षणस्त्वनुबन्धः।अनुबन्ध्यानुबन्धलक्षणसमन्वितास्तत्र यदि दोषा भवन्ति, तन्त्रिकं संनिपातमाचक्षते, द्वयं च संसर्गम्।अनुबन्ध्या992नुबन्धविशेषकृतस्तुबहुविधो दोषभेदः। एवमेष संज्ञाप्रकृतो भिषजादोषेषु व्याधिषुच नानाप्रकृतिविशेषव्यूहः993॥८॥
अग्निषु तु शारीरेषु चतुर्विधो विशेषो बलभेदेन भवति; तद्यथा—तीक्ष्णो मन्दः समो विषमश्चेति।तत्र तीक्ष्णोऽग्निः सर्वापचारसहः, तद्विपरीतलक्षणस्तु मन्दः, समस्तु खल्वपचारतो विकृतिमापद्यतेऽनपचारतस्तु प्रकृताववतिष्ठते, समलक्षणविपरीतलक्षणस्तु विषम इति॥९॥
एते चतुर्विधा भवन्त्यग्नयश्चतुर्विधानामेव पुरुषाणाम्।तत्र,समवातपित्तश्लेष्मणां प्रकृतिस्थानां समा भवन्त्यग्नयः, वातलानांतु वाताभिभूतेऽग्नयधिष्ठाने विषमा भवन्त्यग्नयः, पित्तलानां तुपित्ताभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने तीक्ष्णा भवन्त्यग्नयः, श्लेष्मलानां तु श्लेष्माभिभूते ह्यग्न्यधिष्ठाने मन्दा भवन्त्यग्नयः॥१०॥
तत्र केचिदाहुः–न समवातपित्तश्लेष्माणो जन्तवः सन्ति, विषमाहारोपयोगित्वान्मनुष्याणां; तस्माच्चवातप्रकृतयः केचित् केचित्पित्तप्रकृतयः केचित्पुनः श्लेष्मप्रकृतयो भवन्तीति।तच्चानुपपन्नं;कस्मात् कारणात्? समवातपित्तश्लेष्माणं ह्यरोगमिच्छन्ति भिषजः;यतः प्रकृतिश्चारोग्यम्, आरोग्यार्था च भेषजप्रवृत्तिः, सा चेष्टरूपा,तस्मात् सन्ति समवातपित्तश्लेष्माणः994, न तु खलु सन्ति वातप्रकृतयः पित्तप्रकृतयः श्लेष्मप्रकृतयो वा; तस्य तस्य किल दोषस्याधिकभावात् सा सा दोषप्रकृतिरुच्यते मनुष्याणां; न च विकृतेषुदोषेषु प्रकृतिस्थत्वमुपपद्यते, तस्मान्नैताः प्रकृतयः सन्तिः सन्ति तुखलु वातलाः पित्तलाः श्लेष्मलाश्च; अप्रकृतिस्थास्तु ते ज्ञेयाः॥११॥
तेषां तु खलु चतुर्विधानां पुरुषाणां चत्वार्यनुप्रणिधानानि995 श्रेयस्कराणि भवन्ति; तत्र समसर्वधातूनां सर्वाकारसमम्, अधिकदोषाणां996 तु त्रयाणां यथास्वं दोषाधिक्यमभिसमीक्ष्य दोषप्रतिकूलयोगीनि त्रीण्यनुप्रणिधानानि श्रेयस्कराणि भवन्ति यावदग्नेःसमीभावात्, समे तु सममेव तु कार्यम्; एवं चेष्टा भेषजप्रयोगाश्चापरे।ता997न्विस्तरेणानुव्याख्यास्यामः॥१२॥
त्रयस्तु पुरुषा भवन्त्यातुराः, ते त्वनातुरास्तन्त्रान्तरीयाणां भिषजां;तद्यथा-वातलः पित्तलः श्लेष्मलश्चेति।तेषां विशेषविज्ञानं-वातलस्य वातनिमित्ताः, पित्तलस्य पित्तनिमित्ताः, श्लेष्मलस्य श्लेष्मनिमित्ता व्याधयः प्रायेण भवन्ति998 बलवन्तश्च॥१३॥
तत्र वातलस्य वातप्रकोप999णान्यासेवमानस्य क्षिप्रं वातः प्रकोपमापद्यते, न तथेतरौ दोषौ; स तस्य प्रकोपमापन्नो यथोक्तैर्विकारैःशरीरभुपतपति बलवर्णसुखायुषामुपघातायः तस्यावजयनं—स्नेहस्वेदौ विधियुक्तौ, मृदूनि च संशोधनानिस्नेहोष्णमधुराम्ललवणयुक्तानि,तद्वदभ्यवहार्याण्यभ्यज्यान्युपनाहोपवेष्टनोन्मर्दनपरिषेकावगाहनसंवाहनावपीडनानिवित्रासनविस्मापनविस्मारणानि चसुरासवविधानं, स्नेहाश्चानेकयोनयो दीपनीयपाचनीयवातहरविरेचनीयोपहितास्तथा शतपाकाः सहस्रपाकाः, सर्वशश्च प्रयोगार्थाबस्तयः, बस्तिनियमः, सुखशीलता चेति॥१४॥
पित्तलस्यापि1000 पित्तप्रकोपणान्यासेवमानस्य क्षिप्रं पित्तं प्रकोपमापद्यते, तथा नेतरौ दोषौ; तदस्य प्रकोपमापन्नं यथोक्तैर्विकारैःशरीर भुपतपति बलवर्णसुखायुषामुपघातायः तस्यावजयनं-सर्पिष्पानं, सर्पिषा च स्नेहनम्, अधश्च दोषहरणं, मधुरतिक्तकषायशीतानां चौषधाभ्यवहार्याणामुपयोगः, मृदुमधुरसुरभिशीतहृद्यानांगन्धानां चोपसेवा, मुक्तामणिहारावलीनां च परमशिशिरवारिसंस्थितानां धारणमुरसा, क्षणे क्षणेऽग्र्य चन्दनप्रियङ्गु कालीयमृणालशीतवातवारिभिरुत्पलकुमुदकोकनदसौगन्धिकपद्मानुगतैश्च वारिभिरभिप्रोक्षणं, श्रुतिसुखमृदुमधुरमनोनुगानां च गीतवादित्राणांश्रवणं, श्रवणं चाभ्युदयानां, सुहृद्भिश्च संयोगः, संयोगश्चेष्टाभिःस्त्रीभिः शीतोपहितांशुकस्र ग्दामहारधारिणीभिः, निशाकरांशुशीतलप्रवातहर्म्यवासः,शैलान्तरपुलिनशिशिरसदनवसनब्यजनपवनसेवा, रम्याणां चोपवनानां सुखशिशिरसुरभिमारुतोपहितानामुपसेवनं, सेवनं च नलिनोत्पलपद्मकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रहस्ता1001नां; सौम्यानां च सर्वभावांनामिति॥१५॥
श्लेष्मलस्यापि श्लेष्मप्रकोपणा1002न्यासेवमानस्य क्षिप्रं श्लेष्मा प्रकोपमापद्यते, न तथेतरौ दोषौ ; स तस्य प्रकोपमापन्नो यथोक्तैर्विकारैः शरीरमुपतपति बलवर्णसुखायुषामुपघाताय; तस्यावजयनं-विधियुक्तानि तीक्ष्णोष्णानि संशोधनानि, रूक्षप्रायाणि चाभ्यवहार्याणि कटुतिक्तकषायोपहितानि,तथैवधावनलङ्घनप्लवनपरिसरणजागरणनियुद्धव्यवायव्यायामोन्मर्दनस्नानोत्सादनानि,विशेषतस्तीक्षणानां दीर्घकालस्थितानां मद्यानामुपयोगः सधूमपानः, सर्वशश्चोपवासः, तथोष्णं वासः, सुखप्रतिषेधश्च सुखार्थमेवेति॥१६॥
भवति चात्र।
सर्वरोगविशेषज्ञःसर्वकार्यविशेषवित्।
सर्वभेषजतत्त्वज्ञो राज्ञः प्राणपतिर्भवेत्॥१७॥
तत्र श्लोकाः।
प्रकृत्यन्तरभेदेन रोगानीकविकल्पनम्।
परस्पराविरोधश्च सामान्यं रोगदोषयोः॥१८॥
दोषसंख्या विकाराणामेकदेशः प्रकोपणम्।
जरणं प्रति चिन्ता च कायाग्ने्र्धुक्षणानि1003 च॥१९॥
नराणां वातलादीनां प्रकृतिस्थापनानि च।
रोगानीके विमानेऽस्मिन् व्याहृतानि महर्षिणा॥२०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते तृतीये विमानस्थानेरोगानीकविमानं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
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सप्तमोऽध्यायः ।
—————
अथातो व्याधितरूपीयं विमानं व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २॥
इह खलु द्वौ पुरुषौ व्याधितरूपौ भवतः—गुरुव्याधितो लघुव्याधितश्च। तत्र गुख्याधित एकः सत्वबलशरीर- संपदुपेतत्वाल्लघुव्याधित इव दृश्यते, लघुव्याधितोऽपरः सरवादीनामधमत्वा गुरुच्याधित इवदृश्यते; तयोरकुशलाः केवलं चक्षुषैव रूपं दृष्ट्वाऽध्यवस्यन्तो व्याधिगुरुलाघवे विप्रतिपद्यन्ते। न हि ज्ञानावयवेन कृत्स्त्रे ज्ञेये ज्ञानमुत्पद्यते। विप्रतिपन्नास्तु खलु रोगज्ञाने, उपक्रमयुक्तिज्ञानेचापि विप्रतिपद्यन्ते। ते यदा गुरुख्याधितं लघुव्याधितरूपमासादयन्ति, तदातमलपदोषं मत्वा संशोधनकालेऽस्मै मृदु संशोधनंप्रयच्छन्तो भूय एवास्य दोषानुदीरयन्ति; यदा तु लघुव्याधितंगुरुव्याधितरूपमासादयन्ति, तं महादोषं मत्वा संशोधनकालेऽस्मैतीक्ष्णं संशोधनं प्रयच्छन्तो दोषानतिनिर्हत्यैव शरीरमस्य क्षिण्वन्ति। एवमवयवेन ज्ञानस्य कृत्स्त्रे शेये ज्ञानमभिमन्यमानाः परिस्खलन्ति, विदितवेदितव्यास्तु भिषजः सर्वे सर्वथा यथासंभवं परीक्ष्यं परीक्ष्याध्यवस्थन्तो न क्वचिदपि विप्रतिपद्यन्ते, यथेष्टमर्थमभिनिवर्तयन्ति च ॥ ३॥
भवन्ति चात्र।
सत्त्वादीनां विकल्पेन व्यांधीनां1004 रूपमातुरे।
दृष्ट्वा विप्रतिपद्यन्ते बाला व्याधिबलाबले ॥ ४॥
ते भेषजमयोगेन कुर्वन्त्यज्ञानमोहिताः ।
व्याधितानां विनाशाय क्लेशाय महतेऽपि वा ॥ ५॥
प्राज्ञास्तु सर्वमाज्ञाय परीक्ष्यमिह सर्वथा ।
न स्खलन्ति प्रयोगेषु भेषजानां कदाचन ॥ ६॥
इति व्याधितरूपाधिकारे व्याधितरूपसंख्याग्रंसंभवं1005 व्याधित रूपहेतुविप्रतिपत्तौ कारणं सापवाद संप्रतिपत्तिकारणं चानपवादं निशम्य भगवन्तमात्रेयमनिवेशोऽतः परं सर्वकृमीणां पुरुषसंश्रयाणां समुत्थान स्थान संस्थानवर्णनामप्रभाव चिकित्सितविशेषान् पप्रच्छोपसंगृह्य पादौ ॥७॥
अथास्मै प्रोवाच भगवानात्रेयः—इह खल्वनिवेश! विंशतिविधाः कृमयः पूर्वमुद्दिष्टा नानाविधेन प्रविभागेनान्यत्र सहजेभ्यः, ते पुनः प्रकृतिभिर्भिद्यमानाश्चतुर्विधा भवन्ति; तद्यथा—परीषजाः, श्लेष्मजाः, शोणितजा, मलजाश्चेति ॥८॥
तत्र मलो बाह्यश्चाभ्यन्तरश्च। तत्र बाझे मले जातान्मलजान् संचक्ष्महे।तेषां समुत्थानं—मृजावर्जनं, स्थानंकेशश्मनुलोम—पक्ष्मवासांसि संस्थानम्—अणवस्तिलाकृतयो बहुपादाश्च, वर्णः कृष्णः शुलश्च, नामानि यूकाः पिपीलिकाश्च, प्रभावः कण्डूजननं कोठपिडकाभिनिर्वर्तनं चिकित्सितं त्वेषाम्—अपकर्षणं मलोपधातो मलकराणां च भावानामनुपसेवनमिति ॥ ९ ॥
शोणितजानां तु खलु कुष्ठैः समानं समुत्थानं; स्थानं—रक्तवाहिन्यो धमन्यः; संस्थानम्—अणवो वृत्ताश्चापादाश्च, सूक्ष्मत्वाञ्चैके भवन्त्यदृश्याःवर्णः - ताम्रः; नामानि—केशादा, लोमादा, लोमट्टीपाः, सौरसा, औदुम्बरा,जन्तुमारश्चेति; प्रभावः—केशमञ्जुनखलोमप—क्षमापध्वंसो,व्रणगतानांचहर्षकण्डूतोदसंसर्पणानि, अतिवृद्धानां च त्वक्सिरास्त्रायुमसतरुणास्थिभक्षणमितिचिकित्सितमध्येषां कुष्ठैः समानं, तदुत्तरकालमुपदेक्ष्यामः ॥ १० ॥
श्लेष्मजाःक्षीरगुडतिलमत्स्यानूपमांसपिष्टान्नपरमान्नकुसुम्भस्त्रेहाजीर्णपूतिक्किन्नसंकीर्णविरुद्धासात्म्य- भोजनसमुत्थानाः; तेषामामाशयः स्थानं; प्रभावस्तु—ते प्रवर्धमानास्तूर्ध्वमधो वा विसर्पन्त्युभयतो वा; संस्थानवर्ण विशेषास्तु—श्वेताः पृथुब्रघ्नसंस्थानाःके–
विमानस्थानम् ।
चित्, केचिद्वृत्तपरिणाहा गण्डूपदाकृतयः श्वेतास्ताम्रावभासाः, केचिदणवो दीर्घास्तन्त्वाकृतयः श्वेताः; तेषां त्रिविधानां श्लेष्मनिमित्तानां कृमीणां नामानि—अन्नादाः, उदरादाः, हृदयादाः, चुरवः, दर्भपुष्पाः, सौगन्धिकाः, महागुदाश्चेति; प्रभावो-हृल्लास आस्यसंखवणमरोचकाविपाको ज्वरो मूर्च्छा जृम्भा क्षवथुरानाहोऽङ्गमदेश्छर्दिः कार्श्यंपारुष्यमिति ॥११॥
पुरीषजास्तुल्यसमुत्थानाः श्रेष्मजैः; तेषां स्थानं—पक्वाशयः, ते प्रवर्धमानास्त्वधो विसर्पन्ति, यस्य पुनरामाशयोन्मुखाः स्युस्तस्योद्गारनिश्वासाः पुरीषगन्धिनः स्युः; संस्थानवर्णविशेषास्तु सूक्ष्मवृत्तपरीणाहाः श्वेता दीर्घा ऊर्णाशुकसंकाशाः केचित् केचित्पुनः स्थूलवृत्तपरीणाहाः श्यावनीलहरितपीताः; तेषां नामानि ककेरुका, मकेरुका, लेलिहाः, सशूलकाः, सौसुरादाश्चेतिः प्रभावः—पुरीषभेदः कार्श्यंपारुष्यं लोमहर्षाभिनिर्वर्तनं च, त एव चास्य गुदमुखं परितुदन्तः कण्डूं चोपजनयन्तो गुदमुखं पर्यासते, त एव जातहर्षा गुदनिष्क्रमणमतिवेलं कुर्वन्ति; इत्येवमेष लेष्मजानां पुरीषजानां च कृमीणां समुत्थानादिविशेषः ॥१२॥
चिकित्सितं तु खल्वेषां समासेनोपदिश्य पश्चाद्विस्तरेणोपदेक्ष्यामः। तत्र सर्वकृमीणामपकर्षणमेवादितः कार्यं, ततः प्रकृतिविघातः, अनन्तरं निदानोक्तानां भावानामनुपसेवन मिति ॥१३॥
तत्रापकर्षणं—हस्तेनाभिगृह्य विमृश्योपकरणवताऽपनयनमनुपकरणेन वा, स्थानगतानां तु कृमीणां भेषजेनापकर्षणं न्यायतः1006। तच्चतुर्विधं; तद्यथा—शिरोविरेचनं वमनं विरेचनमास्थापनमित्यपकर्षणविधिः॥ १४॥
प्रकृतिविघातस्त्वेषां,कटुतिक्तकषायक्षारोष्णानांतत्रापकर्षणंद्रव्याणामुपयोगः, यच्चान्यदपिकिंचिच्छ्लेष्मपुरीष-प्रत्यनीकभूतं तत्स्यात्; इति प्रकृतिविघातः॥१५॥
अनन्तरं निदानोकानां भावानामनुपसेवनं यदुक्तं निदान विधौं तस्य वर्जनं, तथाप्रायाणां चापरेषां द्रव्याणाम् इति लक्षणतश्चि किस्स तमनुव्याख्यातम्, एतदेव पुनर्विस्तरेणोपदेक्ष्यते ॥ १६ ॥
अथैनं कृमिकोष्ठमातुरमग्रे षडानं सप्तरानं वा स्नेहस्वेदाभ्यामुपपाद्य श्वोभूत एनं संशोधनं पाययिताऽस्मीति क्षीरदधिगुडतिलमतस्या नूपमांसपिष्टान्न परमान्नकुसुम्भ स्नेहसं प्रयुक्तैर्भोज्यैः सायं प्रातश्रोपपादयेत् समुदीरणार्थं चैव कृमीणां कोष्ठाभिसरणार्थं च भिषक्, अथ व्युष्टायां रात्रौ सुखोषितं सुप्रजीर्णभुक्तं च विज्ञायास्थापनवमनविरेचनैस्तदहरेवोपपादयेदुपपादनीयश्चेत् स्यात् सर्वान् परीक्ष्य विशेषान् परीक्ष्य सम्यक् ॥ १७ ॥
अथाहरेति यात्मूलकसर्पपलशुनकर क्षशिशुमधुशिखरपु प्पाभूस्तृणसुमुखसुरसकुठेर कगण्डीर ककाल मालकपर्णा सक्षवकफणिज्झकानि सर्वाण्यथवा यथालाभं तान्याहृतान्यभिसमीक्ष्य खण्डशइछेदयित्वा प्रक्षाल्य पानीयेन सुप्रक्षालितायां स्थाल्यां समा वाप्य गोमूत्रेणार्थोदकेनाभ्यासिच्य साधयेत् सततमवघयन्दर्ज्या, उपयुक्तभूयिष्ठेऽम्भसि1007 गतर सेष्वौषधेषु स्थालीमवतार्य, सुपरिपूतं कषायं सुखोष्णं मदनफलपिप्पली विडङ्गकल्क तैलोपहितं, स्वर्जिका लवणितमभ्यासिन्य बस्तौ विधिवदास्थापयेदेनं; तथाऽर्कालर्ककुटजाढ की कुष्ठकैडर्यकषायेण वा, तथा शिग्रुपीलुकुस्तुम्बुरुकटुकासर्षपकषायेण, तथाऽऽमलकाङ्गचेर दारुहरि द्रापिचुमर्दकषायेण मदनफलादयोग संयोजितेन त्रिरात्रं सप्तरानं वाऽऽस्थापयेत् ॥ १८ ॥
प्रत्यागते च पश्चिमे1008 बस्तौ प्रत्याश्वस्तं तदहरेवोभयतोभागहरंसंशोधनं पाययेयुक्त्या; तस्य विधिरुपदेक्ष्यते - मदनफलपिप्पलीकपायस्यार्धाञ्जलिमात्रेण त्रिवृत्कलकाक्षमात्रमालोढ्य पातुमस्मै प्रयच्छेत् तदस्य दोषमुभयतो निर्हरति साधु; एवमेव कल्पोक्तानि वमनविरेचनालि प्रतिसंसृज्य पाययेदेनं बुद्ध्या सर्वविशेषानवेक्षमाणो भिषक् ॥ १९ ॥
अथैनं सम्यग्विरिक्तं विज्ञायापराह्णेशैखरिककषायेण सुखोष्णेन परिषेचयेत्, तेनैव च कषायेण बाह्याभ्यन्तरान् सर्वोदकार्थान् कारयेच्छश्वत; तदभावे वा कटुतिक्तकषायाणामौषधानां क्वाथैर्मूत्रक्षा—रैर्वा परिषेचयेत्। परिषिक्तं चैनं निवातमागारमनुप्रवेश्य पिप्पलीपिप्पली मूलचव्यचित्रकटङ्गवेरसिद्धेन यवाग्वादिना क्रमेणोपा—चरेत्। विलेप्याः क्रमागतं चैनमनुवासयेद्विडङ्गतैले नैकान्तरं द्विस्रिर्वा ॥२०॥
यदि पुनरस्यातिप्रवृद्धान्शीर्षादीन् कृमीन्मन्येत शिरस्येवाभिसर्पतः कांश्चित्, ततः स्नेहस्वेदाभ्यामस्य शिर उपपाद्य विरेचयेदपामार्गतण्डुलादिना शिरोविरेचनेन ॥ २१ ॥
यस्त्वभ्याहार्यविधिः प्रकृतिविघातायोक्तः कृमीणां, तमनुव्याख्यास्यामः — मूषिकपर्णौ1009समूलाग्रप्रतानामाहत्य खण्डशछेदयित्वोलूखले क्षोदयित्वा पाणिभ्यां पीडयित्वा रसं गृह्णीयात् तेन रसेन लोहितशालितण्डुलपिष्टं समालोड्य पूपलिकां कृत्वा विधूमेष्वङ्गारेषु विपाच्य1010 विडङ्गतैललवणोपहितां कृमिकोष्ठाय भक्षयितुं प्रयच्छेत्; अनन्तरं चाम्लकाञ्जिकमुदश्विद्वा पिप्पल्यादिपञ्चवर्गसं—सृष्टं सलवणमनुपाययेत् ॥ २२ ॥
अनेन कल्पेन मार्कवार्कसहचरनीपनिर्गुण्डीसुमुखसुरसकुठेरकगण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफणिज्झकबकुल कुटजसुवर्णक्षीरी स्वर—सानामन्यतमस्मिन् कारयेत् पूपलिकाः, तथा कि णिही किराततिक्तक—सुवहामलकहरी तकीबिभीतकस्वरसेषु कारयेत् पूपलिकाः। स्वर—सांश्चैतेषामेकैकशो द्वन्द्वशः सर्वशो वा मधुविलुलितान् प्रातरनन्नाय पातुं प्रयच्छेत् ॥ २३ ॥
अथाश्वशकृदाहृत्य महति किलिञ्जके1011 प्रस्तीर्यातपे शोषयित्वोदूखले क्षोदयित्वा दृषदि पुनः सूक्ष्माणि1012 चूर्णानि कारयित्वा विडङ्गकषायेण त्रिफलाकषायेण वाऽष्टकृत्वो दशकृत्वो वाऽऽतपे सुपरिभावितानि भावयित्वा दृषदि पुनः सूक्ष्माणि चूर्णांनि कारयित्वा नवे कलशे समावाण्यानुगुप्तं निधापयेत्; तेषां तु खलु चूर्णानां पाणितलं चूर्ण यावद्वा साधु मन्येत, तत् क्षौद्रेण संसृज्य कृमिकोष्टीय लेढुं यच्छेत् ॥ २४ ॥
तथा भल्लातकास्थीन्याहृत्य कलशप्रमाणेन संपोथ्य स्नेहभाविते दृढे कलशे सूक्ष्मानेकच्छिद्रबध्ने शरीरमुपवेष्ट्ये मृदावलिप्ते समावाप्योडुपेनै पिधाय भूमावाकण्ठं निखातस्य स्नेहभावितस्यैवान्यस्य दृढ़स्य कुम्भस्योपरि समारोप्य समन्तागोमयैरुपचित्य दाहयेत्; स यदा जानीयात् साधु दग्धानि गोमयानि गलितस्त्रेरानि च भल्लातकास्थीनि, ततस्तं कुम्भमुद्धरेत्;अथ तस्माहितीतू कुम्भात्तं स्नेहमादाय विडङ्गतण्डुलचूर्णैः स्नेहार्धमात्रैः प्रतिसंसयात सर्वमहः स्थापयित्वा ततोऽस्मै मात्रां प्रयच्छेत् पानाय,
तेन साधु विरिष्यते, विरिक्तस्य चानुपूर्वी यथोक्ता ॥ २५ ॥
एवमेव भद्रदारुसरलकाष्ठस्नेहानुपकल्प्य पातुं प्रयच्छेत्, अनुवासये चैनें मनुवासनकाले ॥ २६ ॥
अथाहरेति ब्रूयात् - शारदानवांस्तिलान् संपदुपेतान्; तानाहत्य निष्पूय शोधयित्वा विडङ्गकषाये सुखोष्णे प्रक्षिप्य निर्वापयेदाशेषगमनात्, गतदोषानभिसमीक्ष्य सुप्रलूनान् प्रलूच्य पुनरेव सुनेष्यूँताञ् शोधयित्वा विडङ्गकषायेण त्रिः सप्तकृत्वः सुपरिभावितातपे शोषयित्वोदूखले संक्षुद्य दृषदि पुनः लक्ष्णपिष्टान् घरयित्वा द्रोण्यामभ्यवधाय विडङ्गकषायेण मुहुर्मुहुरवसिनू पाणिमर्दमेव मर्दयेत्; तस्मिन् खलु प्रपीड्यमाने यत्तैलमुदि-
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१ ‘क्रिमिकोष्ठिने’ ग. । २ चक्रसंमतोऽयं पाठः । ३ ‘उडुपेन शरावाद्या- ‘छादनेन’ गङ्गाधरः । ४ ’ चैनमत एवानुवासनकाले’ इति पा० । ५ ‘सुनि पूतान् निष्पूय सुशुद्धान् शोधयित्वा’ च । निष्पूयेति मृत्तिकाद्यवकरान्नि- चैत्य, शोधयित्वा प्रक्षाल्य ’ चक्रः । ६ ‘सुप्रशूनान्’ ग. \। ‘सुप्रशूनान् स्फीतान्, प्रलूच्य निस्तुषीकृत्य गङ्गाधरः \। ७ ’ सुनिष्पूतान्निष्पूय सुशुद्धा- शोधयित्वा’ च । ८ ‘सुपरिभावितान् भावयित्वा’ च ।यात्तत् पाणिभ्यां पर्यादाय शुचौ दृढे कलशे न्यस्यानुगुप्तं निधापयेत्। अथाहरेति ब्रूयात्तिलवकोहालकयोडौं बिल्वमात्रौ पिण्डौ लक्षणपिष्टौ विडङ्गकषायेण, ततोऽर्धमात्रौ श्यामात्रि वृतयोस्तदर्धमात्रौदन्ती द्रवन्त्योरतोऽर्धमात्रौ चव्यचित्रकयोरिति; एतं संभारं विडङ्गकषायस्यार्धाढ कमात्रेण प्रतिसंसृज्य तंतस्तैलप्रस्थमावाप्य सर्वमालोख्य महति पर्योगे समासिच्यानावधिश्रित्य महत्यासने सुखो पविष्टः सर्वतः स्नेहमवलोकयन्नजस्रं मृद्वग्निना साधयेद्दर्व्या सतत मवघट्टयन्; स यदा जानीयाद्विरमति शब्दः, प्रशाम्यति च फेनः, प्रसादमापद्यते स्नेहो, यथास्वं गन्धवर्णरसोत्पत्तिः, संवर्तते च भेषजमङ्गुलिंभ्यां मृद्यमानमतिमृद्वनति दारुणमनङ्गुलिग्राहि चेति, स कालस्तस्यावतारणाय; ततस्तमवैतीर्ण शीतीभूतमहतेन वाससापरिपूय शुचौ दृढे कलशे समासिच्य पिधानेन पिधाय शुक्लेन वस्त्र पट्टे नावच्छाद्य सूत्रेण सुबद्धं सुनिगुप्तं निधापयेत्। ततोऽस्मै मात्रां प्रयच्छेत् पानाय, तेन साधु विरिच्यते, सम्यगपहृत दोषस्यचानुपूर्वीयथोक्ता; ततश्चैनमनुवासयेदनुवासनकाले; एतेनैव च पाकविधिना सर्षपातसीकरञ्जकोशात की स्त्रेहानुपकल्प्य पाययेत् सर्वविशेषानवेक्षमाणः; तेनागदो भवतीति ॥ २७ ॥
एवं द्वयानां श्लेष्मपुरीषसंभवानां कृमीणां समुत्थानस्थान संस्थानवर्णनामप्रभावचिकित्सितविशेषा व्याख्याताः सामान्यतः ॥२८॥
विशेषतस्त्वल्पमात्रमास्थापनानुवासनानुलोमहरणभूयिष्ठं तेष्वौषधेषु पुरीषजानां कृमीणां चिकित्सितं कार्य, मात्राधिकं पुनः शिरोविरेचनव मनोपशमनभूयिष्ठं तेष्वौषधेषु श्लेष्मजानां कृमीणां चिकित्सितं कार्यम् ॥२९॥
इत्येष कृमिघ्नो भेषज विधिरनुव्याख्यातो भवति। तमनुतिष्ठता यथास्वं हेतुवर्जने प्रयतितव्यम् ॥३०॥
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१ ‘तत्तैलप्रस्थं समावाप्य’ ग. \। २ ‘ततस्तमवहृत्य’ ग. । ३ ‘क्रिमीणां पुरीषसंभवानां’ ग. ।
यथोदेशमेवमिदंकृमिकोष्ठचिकित्सितं यथावदनुव्याख्यातंभवति ॥ ३१ ॥
भवन्ति चात्र \।
अपकर्षणमेवादौ कृमीणां भेषजं स्मृतम् ।
ततो विघातः प्रकृतेर्निदानस्य च वर्जनम् ॥ ३२॥
अयमेव विकाराणां सर्वेषामपि निग्रहे ।
विधिदृष्टस्त्रिधा योऽयं कृमीनुद्दिश्य कीर्तितः ॥ ३६ ॥
संशोधनं संशमनं निदानस्य च वर्जनम् ।
एतावद्भिषजा कार्य रोगे रोगे यथाविधि ॥ ३४ ॥
तत्र लोकौ ।
व्याधितौ पुरुषौ ज्ञाज्ञौ भिषजौ सप्रयोजनौ ।
‘विंशतिः कृमयस्तेषां हेत्वादिः सप्तको गणः ॥ ३५ ॥
उक्तो व्याधितरूपीये विमाने परमर्षिणा ।
शिष्यसंबोधनार्थाय व्याधिप्रशमनाय च ॥ ३६ ॥
**इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते तृतीये विमानस्थाने व्याधित
रूपीयं विमानं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥**
अष्टमोऽध्यायः ।
अथातो रोगभिषग्जितीयं विमानं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
बुद्धिमानात्मनः कार्यगुरुलाघवं कर्मफलमनुबन्धं देशकालौ च विदित्वा युक्तिदर्शनाद्धिषम्बुभूषुः शास्त्र मेवादितः परीक्षेत\। विविधानि हि शास्त्राणि भिषजां प्रचरन्ति लोके; तत्र यन्मन्येतसुमहद्यश स्विधीर पुरुषासेवितमर्थबहुलमासजन पूजितं त्रिविधशिव्यबुद्धिहितमपगतपुनरुक्तदोषमार्ष सुप्रणीत सूत्र भाष्यसंग्रहक्रमं**———————————————————————————————————————————————**
१ ‘कार्यगुरुलाघवे’ ग. ।
स्वाधारमनवपतितशब्दमकष्टशब्दं पुष्कलाभिधानं क्रमागतार्थमर्थतत्त्वविनिश्चयप्रधानं संगतार्थ मसंकुल प्रकरणमाशुप्रबोधकं लक्षणवचोदाहरणवच्च, तदभिप्रपद्येत शास्त्रम् । शास्त्रं ह्येवं विधममल हवादित्यस्तमो विधूय प्रकाशयति सर्वम् ॥३॥
ततोऽनन्तरमाचार्य परीक्षेत। तद्यथा—पर्यवदातश्रुतं परिदृष्टकर्माणं दक्षं दक्षिणं शुचिं जितहस्तमुपकरणवन्तं सर्वेन्द्रियोपपक्षंप्रकृतिज्ञं प्रतिपत्तिज्ञमुपस्कृतविद्यमनहङ्कृतमनसूयक्रमकोपनं क्लेशक्षमं शिष्यवत्स लमध्यापकं ज्ञापनसमर्थ चेति; एवंगुणो ह्याचार्यः सुक्षेत्रमावो मेघ इव शस्यगुणैः सुशिष्यमाशु वैद्यगुणैः संपादयति ॥४॥
तमुपसृत्यारिराधयिषुरुपचरेदभिवञ्च देववच्च राजवञ्च पितृवञ्चभर्तृवच्चाप्रमत्तः; ततस्तत्प्रसादात् कृत्स्नं शास्त्र मधिगम्य, शास्त्रस्यदृढतायामभिधानस्य सौष्ठवेऽर्थस्य विज्ञाने वचनशक्तौ च भूयोभूयः प्रयतेत सम्यक् ॥५॥
तंत्रोपाया व्याख्यास्यन्ते—अध्ययनमध्यापनं तद्विद्यसंभाषाचेत्युपायाः ॥६॥
तन्त्रायमध्ययनविधिः-कल्यःकृतक्षणः प्रातरुत्थायोपयूष वाकृत्वाऽऽवश्यकमुपस्पृश्योदकं देव र्षिगोब्रा ह्मणगुरुवृद्धसिद्धाचार्येभ्यो नमस्कृत्य समें शुचौ देशे सुखोपविष्टो मनःपुरःसराभिर्वाग्भिः सूत्रमनुपरिक्रामनू पुनः पुनरावर्तयेहुंच्या सम्यगनुप्रविश्यार्थतत्त्वं स्वदोषपरिहारार्थं परदोषप्रमाणार्थ च; एवं मध्यन्दिनेऽपराह्णे रात्रौ चशश्वदपरिहापयन्नध्ययनमभ्यस्येत् इत्यध्ययनविधिः ॥ ७ ॥
अथाध्यापनविधिः—अध्यापने कृतबुद्धिराचार्यः शिष्यमेवादितः परीक्षेत । तद्यथा—प्रशान्तमार्य प्रकृतिमक्षुद्रकर्माणमृजुचक्षु-
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http://१ ‘स्वाधारं शोभनाभिधेयं, अनवपतितमग्राम्यशब्द’ चक्रः \। २ ‘अनु पस्कृतविद्यं’ च । ३ ‘तत्रोपायाननुव्याख्यास्यामः’ ग. । ४ ‘उपव्यूषं किञ्चिच्छेषायां रात्रौ’ चक्रः । ५ ‘बुद्धा’ च । ६ ‘परदोषप्रमाणार्थी परकी- याध्ययनदोषज्ञानार्थम्’ चक्रः ।
मुखनासावंश तनुरक्तविशद जिह्वम विकृतदन्तौष्ठम मिणिमणं धृतिमन्तमनहङ्कृतं मेधाविनं वितर्कस्मृति संपन्न मुदारसत्वं तद्विद्यकुलजमथवा तद्विद्यवृत्तं तत्वाभिनिवेशिनमव्यङ्गमव्यापनेन्द्रियं निभृतमनु॒द्धत वेशमब्यसनिनमर्थतत्त्वभावकमकोपनं शीलशौचाचारानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्न मध्ययना
भिकाम मर्थविज्ञाने कर्मदर्शनेचानन्यकार्यमलुब्धमनसंसर्वभूतहितैषिणमाचार्यसर्वानुशिष्टिमंतिपत्तिकरमनु
रक्तम्, एवंगुणसमुदितमध्याप्यमाहुः ॥८॥
एवंविधमध्ययनार्थमुपस्थितमारिराधयिषुमाचार्योऽनुभाषेतउदगयने शुक्लपक्षे प्रशस्तेऽहनि तिष्यहस्त श्श्रवणाश्वयुजामन्यतमेननक्षत्रेण योगमुपगते भगवति शशिनि कल्याणे कल्याणे च करणे मैत्रे मुहूर्ते मुण्डः कृतोपवासः स्त्रातः का(क) षायव स्वसंवीतः सगन्धहस्तः समिधोऽग्निमाज्यमुपलेपनमुदकुम्भान् माल्यदामदीपहिरण्य मैरजतमणिमुक्ताविद्रुमक्षौमपरिधीन् कुशलाजसर्षपाक्षतांश्च शुक्कानि च सुमनांसि ग्रथिताग्रथितानि मेध्यांश्च भक्ष्यान्गन्धांश्च घृष्टानादायोपतिष्ठस्त्रेति। सँ तथा कुर्यात् ॥९॥
तमुपस्थितमाज्ञाय समे शुचौ देशे प्राक्प्रवणे उदक्प्रवणे वाचतुष्किष्कुमात्रं चतुरस्रं स्थण्डिलं गोमयो दके नोपलिप्तं कुशास्तीर्णसुपरिहितं परिधिभिश्चतुर्दिशं यथोक्तचन्दनोदककुम्भक्षौमहे महिरयरज तमणिमुक्ता विद्रुमालतं मेध्यभक्ष्यगन्धशुकृपुष्पलाजसर्पपाक्षतोपशोभितं कृत्वा, तन्त्रपालाशीभिरैडदीभिरौदुम्बरीभिर्मा धूकी भिर्वा समिद्भिरभिमुपसमाधाय प्राङ्मुखः शुचिरध्ययन विधिमनुविधाय मधुसर्पियो त्रिस्त्रिर्जुहु याद भिमाशीः संप्रयुक्तैर्म त्रैर्ब्रह्माण-
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१ ‘अलकतं’ ग. । २ ‘अनुद्धतं’ यो । ३ " प्रतिकर" च । ‘अनुशिष्टि- · प्रतिकरमाशाकरम्’ चक्र’ \। ४ ‘हिरण्यशब्देनाघटितं हेम गृह्यते, हेमशब्देन च घटितम्’ चक्रः । ५ ‘परिधयो होमकुण्ड चतुःपार्श्वे स्थाप्याः पलाशादि- दण्डा उच्यन्ते’ चक्रः । ६ ‘अथ सोऽपि तथा’ इति पा० । ७ ‘सूप. विहितं’ ग. \।
मझिं धन्वन्तरिं प्रजापतिमश्विनाविन्द्रमृषश्च सूत्रकारानभिमश्रयमाणः पूर्व स्वाहेति, शिष्यश्चैनमन्वालभेत। हुत्वा च प्रदक्षिणमझिमनुपरिक्रामेत्; ततोऽनुपरिक्रम्य ब्राह्मणान् स्वस्ति वाचयेत्, भिषजश्चाभिपूजयेत् ॥ १० ॥
अथैनमनिसकाशे ब्राह्मणसकाशे भिषक्सकाशे चानुशिष्यात्ब्रह्मचारिणा इमथुधारिणा सत्यवादिनाऽमांसादेन मेध्यसेविना निर्मत्सरेण शस्त्रधारिणा च भवितव्यं, नच ते मद्वचनात् किंचिद कार्य स्यादन्यत्र राजद्विष्टात् प्राणहराद्विपुलादधर्म्यादनर्थसंप्रयुक्ताद्वाऽप्यर्थात्, मदर्पणेन मध्प्रधानेन मदधीनेन मत्प्रियहितानुवर्तिना च शश्वद्भवितव्यं,पुत्रवहासवदर्थिवञ्चोपचरताऽनुसर्तव्योऽहम्,अनुत्सुकेनावहितेनानन्यमनसाविनीतेनावेक्ष्यकारिणाऽनसूयकेनाभ्यनुज्ञातेन प्रविचरितव्यं, अनुज्ञातेन प्रविचरता पूर्व गुर्वर्थोपान्वाहरणे यथाशक्ति प्रयतितव्यं, कर्मसिद्धिमर्थसिद्धिं यशोलाभं प्रेत्य च स्वर्गमिच्छता त्वया गोब्राह्मणमादौ कृत्वा सर्वप्राणभृतां शर्माशासितव्यमहरहरुत्तिष्ठता चोपविशता च, सर्वात्मना चातुराणामारोग्ये प्रयतितव्यं, जीवितहेतोरपि चातुरेभ्यो नाभिद्रो ग्धव्यं, मनसाऽपि च परस्त्रियो नाभिगमनीयास्तथा सर्वमेव परस्वं, निभृतवेशपरिच्छदेन भवितव्य मशौण्डेना पापेनापापसहायेन लक्ष्णशुक्लधर्म्य धन्य सत्यशर्म्य हितमितवचसा देशकालविचारिणा स्मृतिमता ज्ञानोत्थानोपकरणसंपत्सु नित्यं यत्नवता च, नच कदाचिद्वाज द्विष्टानां राजद्वेषिणां वा महाजनद्विष्टानां महाजनद्वेषिणांवाऽयौषधमनुविधातव्यंतथासर्वेषामत्यर्थविकृतदुष्टदुःखशीलाचारोपचाराणामनैपवादप्रतीकाराणां मुमूर्षूणां च तथैवासंनिहितेश्वराणां स्त्री णामनध्यक्षाणां वा, नच कदाचित् स्त्रीदत्तमामिषमादातव्यमननुज्ञातं भर्त्राऽथवाऽध्यक्षेण, आतुरकुलं चानुप्रविशता त्वया विदि-
————————————————————————————————————————————————http://१ ‘अनुवस्तव्यं’ ह. \। २ ‘न चानभ्यनुज्ञातेन’ ह. \। ३ “मल्पवाद- प्रतीकाराणां’ ग. ।
परीक्षमाणस्तु खलु परावरान्तरमिमाअल्पकगुणाञ् श्रेयस्करान् दोघवतश्च परीक्षेत सम्यक् \। तद्यथा—श्रुतं विज्ञानं धारणं प्रतिभानं वचनशक्तिरि (मि) ति; एतान् गुणाञ् श्रेयस्करानाहुः, इमानू पुनर्दोषवतः; तद्यथाकोपनत्वमवैशारद्यं भीरुत्वमधारणत्वमनवहितत्वमिति । एतान् ट्र्यानपि गुणान् गुरुलाघवतः परस्य चैवात्मनश्च तोलेयेत् ॥ १७॥
तत्र त्रिविधः परः संपद्यते—प्रवरः प्रत्यवरः समो वा गुणविनि क्षेपतः, नत्वेव कार्येन ॥ १८ ॥
परिषत्तु खलु द्विविधा—ज्ञानवती, मूढा च; सैव द्विविधा सती त्रिविधा पुनरनेन कारणविभागेन—सुहृत्परिषत्, उदासीनपरिषत्, प्रतिनिविष्टपरिषञ्चेति ॥ १९ ॥
तत्र प्रतिनिविष्टायां परिषदि ज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनशक्तिसंपन्नायामपि मूढायाँ वा न कथंचित् केनचित्सहजल्पोविधीयते; मूढायां तु सुहृत्परिषद्युदासीनायां वा ज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनशक्तिमन्तरेणा प्यदी सयशसा महाजन द्विष्टेन सह जल्पो विधीयते। तद्विधेर्ने च सह कथयता त्वाविद्धदीर्घसूत्रसंकुलैर्वाक्यदण्डकैः कथयितव्यम्; अतिहृष्टं मुहुर्मुहुरूपहसता परं, निरूपयता च परिषद्माकारैः, ब्रुवतश्चास्य वाक्यावकाशो न देयः; कष्टशब्दं च ब्रुवता वक्तव्यो ‘नोच्यते’ इति अथवा पुनः ‘हीना ते प्रतिज्ञा’ इति ; पुनश्चाहू (६) यमानः प्रतिवक्तव्यः - परिसंवत्सरो भवापि शिक्षस्व तावन त्वया गुरुरूपासितो नूनम्, अथवा पर्याप्त मेतावत्ते; सकृदपि हि परिक्षेपिकं निहतं निहतमाहुरिति नायै योगः कर्तव्यः
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http://१ ‘तुलयेत्’ ग. \। २ ‘प्रतिनिविष्टा स्वसौहार्दाभावेन निविष्टाः सभ्या यत्र सा’ गङ्गाधरः \। ३ ‘संपन्नायां मूढायां वा’ ग.। ४ ‘तथाविधेन’ ग.। ५ ’ परिसंवत्सरो भवान् शिक्षस्व तावगुरुमुपासितो नूनं, अथवा पर्याप्तमेतावन्ते’ म. । ‘पर्याप्तमेतावत्ते इति ‘पक्षावसादाय’ इति शेषः’ इति चक्रः । ६ ‘न्यास• योगः कर्तव्यः कथंचित् ; एवं श्रेयसा’ ग. \।
कथंचित् ; अप्येवं श्रेयसा सह विगृह्य वक्तव्यमित्याहुरेके, न त्वेवं ज्यायसा सह विग्रहं प्रशंसन्ति कुशलाः ॥ २० ॥
प्रत्यवरेण तु सह समानाभिमतेन वा विगृह्य जल्पता सुहृत्परिषदि कथयितव्यम्, अथवाऽप्युदासीन पर्ष द्यव धान श्रवणज्ञानविज्ञानोपधारणवचनप्रतिवचनशक्तिसंपन्नायां कथयता चावहितेन परस्ये सागुण्य दोषब लमवे क्षितव्यं; समवेक्ष्य च यत्रैनं श्रेष्ठं मन्येत नायतन्त्र जल्पं योजयेदनाविष्कृतमयोगं कुर्वन्; यन्त्र त्वेनमवरं मन्येत,तत्रैवैनमाशु निगृह्णीयात्। तल खल्विमे प्रत्यवराणामाशु निग्रहे भवन्त्युपायाः; तद्यथाभुत हीनं महता सूत्रपाठे नाभिभवेत्, विज्ञानहीनं पुनः कष्टशब्देन वाक्येन, वाक्यधारणाही नमाविद्ध दीर्घसूत्रसंकुलै र्वाक्य दण्डकैः,प्रति भाहीनं पुनर्वचनेनैक विधेनानेकार्थ वाचिना, वचनशक्तिहीनमर्धोक्तस्य वाक्यस्याक्षेपेण, अवि शारदमपत्र पणेन, कोपनमायासनेन, भीरुं विवासनेन, अनवहितं नियमनेन; इत्येवमेतैरुपायैः परमव रम भिभवेत् ॥ २१ ॥
तन्त्र लोकौ ।
विगृह्य कथयेधुक्या युक्तं च न निवारयेत् ।
विगृह्यभाषा तीव्र हि केषांचिद्रोहमावहेत् ॥ २२ ॥
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यमपि विद्यते ।
कुशला नाभिनन्दन्ति कलहं समितौ सताम् ॥ २३ ॥
एवं प्रवृत्ते वादे कुर्यात् ॥ २४ ॥
प्रागेव तावदिदं कर्तुं यतेत संधाय परिषदाऽयनभूतमात्मनः प्रकरणमादेशयितव्यं, यद्वा परस्य भृशदुर्गं स्यात्, पक्षमथवापरस्य भृशं विमुखमानयेत्, परिषदि चोपसंहितायामशक्यमस्मा
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http://१ ‘परस्परसाद्गुण्य ’ ग. \। २ ‘वाक्यस्य क्षेपणेन’ ग. \। ३ ‘अविशारदमित्य- दृष्टसभं’ चक्रः । ४ ‘एवमिति तद्यथा श्रुतहीनमित्यादिग्रन्थोक्तं, वादे प्रवृत्ते सति कुर्यादित्यर्थः’ चक्रः। ५ ’ एवं प्रवृत्ते वादे प्रागेव तावदिदं कर्तुं यतेत’ यो ।
भिर्वक्तुम् एषैव ते परिषद्यथेष्टं यथायोग्यं यथाभिप्रायं वादं वादमर्यादां च स्थापयिष्यतीत्युक्त्वा तूष्णीमासीत ॥२५॥
तन्त्रेदं वादमर्यादालक्षणं भवति—इदं वाच्यमिदमवाच्यमेवंजति पराजितो भवतीति ॥२६॥
इमानि खलु पदानि वादमार्गज्ञानार्थमधिगम्यानि भवन्ति; प्रद्यथा—वादो, द्रव्यं, गुणाः, कर्म, सामान्यं,विशेषः, समवायः,प्रतिज्ञा, स्थापना, प्रतिष्ठापना हेतुः, दृष्टान्तः, उपनयः, निगमतमू, उत्तरं, सिद्धान्तः शब्दः, प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, ऐतियम्, प्रौपम्यं, संशयः, प्रयोजनं, सव्यभिचारं, जिज्ञासा, व्यवसायः, प्रर्थप्राप्तिः, संभवः, अनुयो ज्यम्, अननुयोज्यम्, अनुयोगः, प्रत्ययोगः, वाक्यदोषः, वाक्यप्रशंसा, छलम्, अहेतुः, अतीतकाहम्, उपाल म्भः, परिहारः, प्रतिज्ञाहानिः, अभ्यनुज्ञा हेत्वन्तम्, अर्थान्तरं, निग्रहस्थानमिति ॥ २७ ॥
तत्र वादो नाम—सं यत् परः परेण सह शास्त्रपूर्वकं विगृह्यकथयति । स च द्विविधः संग्रहेण—जल्पो वितण्डा च । तत्र क्षाश्रितयोर्वचनं जल्पः, जल्पविपर्ययो वितण्डा \। यथा—एकस्य क्षः पुनर्भवोऽस्तीति, नास्तीत्यपरस्य; तौ स्वस्वहेतुभिः स्वस्वपक्षं व्यापयतः परपक्षमुद्भावयतः एष जल्पः; जल्पविपर्ययो वितण्डा, त्रेतण्डा नाम परपक्षे दोषवचनमान्त्रमेव ॥ २८ ॥
द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाः स्वलक्षणैः लोकस्थाने पूर्वमुक्ताः ॥ २९ ॥
अथ प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा नाम साध्यवचनं; इति ॥ ३० ॥
अथ स्थापनास्थापना नाम तस्या एवप्रतिज्ञाया हेतुदृष्टातोपनयनिगमैः स्थापना, पूर्व हि प्रतिज्ञा, पश्चात् स्थापना, किंप्रतिज्ञातं स्थापयिष्यति; यथा- नित्यः पुरुष इति प्रतिज्ञा,
——————————————————————————————————————http://१ ‘उद्भावयतः प्रतिषेधयतः’ गङ्गाधरः \। २ ‘पूर्वे हि लोके प्रतिज्ञा’ ग. \।
हेतुः—अकृतकत्वादिति, दृष्टान्तः -—यथाऽऽकार्शमिति, उपनयोयथा चाकृतकमाकाशं तथा पुरुष इति निगमनं तस्मान्नित्य इति ॥ ३१ ॥
अथ प्रतिष्ठापना—प्रतिष्ठापना नाम या तस्या एव परप्रतिज्ञायाः प्रति विपरीतार्थस्थापना, यथा अनित्यः पुरुष इति ( विपरीतार्थ ) प्रतिज्ञा, हेतुः ऐन्द्रियकत्वादिति, दृष्टान्तः यथा घटइति, उपनयो यथा घट ऐन्द्रियकः (स चानित्यः ) तथा चायमिति, निगमनं तस्मादनित्य इति ॥ ३२ ॥
अथ हेतुः—हेतुर्नामोपलब्धिकारणं, तत् प्रत्यक्षमनुमान मैतिमौपम्यमिति; एभिर्हेतुभिर्यदुपलभ्यते तत् तत्त्वम् ॥ ३३॥
अथ दृष्टान्तः—दृष्टान्तो नाम यन्त्र मूर्खविदुषां बुद्धिसाम्यं, यो वर्ण्य वर्णयति, यथा अनिरुष्णः, द्रवमुदकं, स्थिरा पृथिवी, आदित्यः प्रकाशक इति, यथा वाऽऽदित्यः प्रकाशकस्तथा सांख्यवचनं प्रकाशकमित॥३४॥
उपनयो निगमनं चोक्तं स्थापनाप्रतिष्ठापनाव्याख्यायाम् ॥३५॥
अथोत्तरम्—उत्तरं नाम साधर्म्यापदिष्टे वा हेतौ वैधर्म्यवचनं, वैधयिपदिष्टे वा हेतौ साधर्म्यवचनं; यथा हेतु सधर्माणो विकाराः, शीतकस्य हि व्याघेर्हेतुसाधर्म्यवचनं- हिमशिशिरवातसंस्पर्शा इति बुवतः परो ब्रूयात् हेतुविधर्माणो विकाराः, यथा शरीरावयवानां दाहौष्ण्यकोथप्रपचने हेतुवैधयै हिमशिशिरवातसंस्पर्शा इति; एतत् सविपर्ययमुत्तरम् ॥ ३६॥
अथ सिद्धान्तः सिद्धान्तो नाम स यः परीक्षकैर्बहुविधं परीक्ष्य हेतुभिश्च साधयित्वा स्थाप्यते निर्णयः । स चतुर्विधः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः, प्रतित प्रसिद्धान्तः अधिकरण सिद्धान्तः, अभ्युपगमसिद्धान्त
——————————————————————————————————————
http://१ ‘अकृतकमाकाशं, तच्च नित्यं’ ह. \। २ ‘उपनयो - यथा चाकृतकमाकाशं तच नित्यं तथा पुरुष इति’ ग. \। ३ ‘दृष्टान्तो घट ऐन्द्रियकः, स चानित्यः; उपनयो यथा घटस्तथा पुरुषः ’ ह. \। ४ ‘तेनैव यद्वर्ण्य’ ग. । ५ ‘सांख्यं ज्ञानं’ ग. \।
इति । तत्र सर्वतप्रसिद्धान्तो नामसंर्वतत्रेषु यत्प्रसिद्धंसन्ति निदानानि, सन्ति व्याधयः, सन्ति सिद्धयुपायाः साध्यानां व्याधी नामिति ; प्रतितन्त्र सिद्धान्तो नाम तस्मिंस्तस्मिंस्तत्रे तत्तत् प्रसिद्धं, यथा अन्यत्राष्टौ रसाः षडन, पञ्चेन्द्रियाण्यत्र षडिन्द्रियाय न्यन्न तन्त्रे, वातादिकृताः सर्वविकारा यथाऽन्यन्त्र अत्र वातादिकृता भूतकृताश्च प्रसिद्धाः; अधिकरणसिद्धान्तो नाम यस्मिन्नधिकरणे प्रस्तूयमाने सिद्धान्यन्यान्यष्यधिकरणानि भवन्ति, यथा न मुक्तः कर्मानुबन्धिकं कुरुते निस्पृहत्वादिति प्रस्तुते सिद्धाः कर्मफलमोक्षपु रुषप्रेत्यभावा भवन्ति; अभ्युपगमसिद्धान्तो नामयमर्थमसिद्ध मपरीक्षितमनुपदिष्टम हेतुकं वा वादकालेऽभ्युपगच्छन्ति भिषजः, तद्यथाद्रव्यं न प्रधानमिति कृत्वा वक्ष्यामः, गुणाः प्रधाना इति कृत्वा वक्ष्यामः, कॅर्म प्रधानमिति कृत्वा वक्ष्याम इत्येवमादिः। इति चतुर्विधः सिद्धान्तः ॥ ३७ ॥
अथ शब्दःशब्दो नाम वर्णसमाम्नायः; स चतुर्विधः दृष्टा र्थश्चादृष्टार्थश्च सत्यश्चानृतश्चेति । तत्र दृष्टार्थो नाम त्रिभि र्हेतुभिर्दोषाः अकुप्यन्ति षड्भरूपक्रमैश्च प्रशाम्यन्ति, सति श्रोत्रादिसद्भावे शब्दादिग्रहणमिति; अदृष्टार्थः पुनः अस्ति प्रेत्यभावोऽस्ति मोक्ष इति; सत्यो नाम यथार्थभूतः सन्त्यायुर्वेदोपदेशाः, सन्त्युपायांः साध्यानां व्याधीनां, सन्त्यारम्भ फलानीतिः सत्यविपर्ययश्चानृतः अथ प्रत्यक्षं—प्रत्यक्षं नाम तद्यदात्मना चेन्द्रियैश्च स्वयमुपलभ्यते; तन्त्रात्मप्रत्यक्षाः सुखदुःखेच्छा द्वेषादयः, शब्दादयस्त्विन्द्रिथप्रत्यक्षाः ॥ ३९ ॥
अथानुमानम्—अनुमानं नाम त युक्तयपेक्षः। यथोक्तम्अभि जरणशक्त्या, बलं व्यायामशक्त्या, श्रोन्नादीनि शब्दादिग्रहणेनेत्येवमादि ॥ ४० ॥
अथैतिहाम्—ऐतिह्यं नामाप्तोपदेशो वेदादिः ॥ ४१ ॥
——————————————————————————————————————http://१ ‘तस्मिंस्तस्मिन् सर्वस्मिंस्तत्रे तत्तत् प्रसिद्धं’ यो । २ ‘तस्मिंस्तस्मिन्नेकै कस्मिंस्तन्त्रे’ यो । ३ ‘वीर्य’ इति पा० ।
अथौपम्यम्औषम्यं नाम यदन्येनान्यस्य सादृश्यमधिकृत्य प्रकाशनं; यथा दण्डेन दण्डकस्य, धनुषा धनुःस्तम्भस्य, इष्वासेनारोग्यदस्येति ॥ ४२॥
अथ संशयः संशयो नाम संदेहलक्षणानुसंदिग्धेष्वर्थेष्वनिश्चयः । यथा - दृष्टा ह्यायुष्मल्लक्षणैरुपेताश्चानुपेताश्च तथा सक्रियाश्चाक्रियाश्च पुरुषाः शीघ्रभङ्गाश्चिरजीविनश्च, एतदुभयदृष्टत्वात् संशयःकिन्नु खल्वस्त्यकालमृत्युक्त नास्तीति ॥ ४३॥
अथ प्रयोजनं - प्रयोजनं नाम यदर्थमारभ्यन्त आरम्भाः; यथा यद्यकालमृत्युरस्ति ततोऽहमात्मा नमायु ष्यै रुप चरिष्याम्यनायुष्याणि च परिहरिष्यामि, कथं मामकालमृत्युः प्रसहेतेति ॥४४॥
अथ सव्यभिचारं-सव्यभिचारं नाम यव्यभिचरणं; यथाभवेदिदमौषधमस्मिन् व्याधौ यौगिकमथवा नेति ॥४५ ॥
अथ जिज्ञासा जिज्ञासा नाम परीक्षा; यथा भेषजपरीक्षोत्तरकालमुपदेक्ष्यते ॥ ४६ ॥
अथ व्यवसायः व्यवसायो नाम निश्चयः; यथा वातिक एवायं व्याधिः, इदमेवास्य भेषजमिति ॥ ४७ ॥
अथार्थप्राप्तिः अर्थप्राप्तिर्नाम यत्रैकेनार्थेनोक्तेनापरस्यार्थस्यानु कस्यापि सिद्धि; यथा नायं संतर्पणसाध्यो व्याधिरित्युक्ते भवत्यर्थप्राप्तिः अपतर्पणसाध्योऽयमिति, नानेन दिवा भोक्तव्यमित्युक्तेभवत्यर्थप्राप्तिः— निशि भोक्तव्यमिति ॥ ४८ ॥
अथ संभवः संभवो नाम यो यतः संभवति स तस्य संभवः; यथा षड्धातवो गर्भस्य, व्याधेरहितं, हितमारो ग्यस्येति ॥ ४९ ॥
अथानुयोज्यं अनुयोज्यं नाम यद्वाक्यं वाक्यदोषयुक्तं तत्, सामान्यतो व्याहृतेष्वर्थेषु वा विशेषग्रहणार्थं यद्वाक्यं तदप्यनुयोज्यं; यथासंशोधनसाध्योऽयं व्याधिरित्युक्ते किं वमनसाध्योऽयं ? किं वा विरेचनसाध्यः ? इत्यनुयुज्यते ॥ ५०॥
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http://१ ‘संदिग्धेष्वर्थेष्वनिश्चयः ग. । २ ‘इदमेवात्र’ यो । ३ ‘सामान्योदा हृतेष्वर्येषु’ इति पा० ।
अथाननुयोज्यं—अननुयोज्यं नामातो विपर्ययेण; यथा अयमसाध्यः॥५१॥
अथानुयोगः—अनुयोगो नाम स यत्तद्विद्यानां तद्विद्यैरेव सार्धं तन्त्रे तत्रैकदेशे वा प्रश्नः प्रश्नैकदेशो वा ज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनपरीक्षार्थमादिश्यते; यथा नित्यः पुरुष इति प्रतिज्ञाते, यत् परः कोहेतुरित्याह, सोऽनुयोगः॥५२॥
अथ प्रत्यनुयोगः—प्रत्यनुयोगो नामानुयोगस्यानुयोगः; यथाप्रस्यानुयोगस्य पुनः को हेतुरिति॥५३॥
अथ वाक्यदोषः—वाक्यदोषो नाम यथा खल्वस्मिन्नर्थे न्यूनमधिकमनर्थकमपार्थकं विरुद्धं चेति। एतानि ह्यन्तरेण न प्रकृतोऽर्थः प्रणश्येत्।तन्नन्यूनं–प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानामन्यतमेपि न्यूनं न्यूनं भवति, यद्वा बहूपदिष्टहेतुकमेकेन हेतुना साध्यते तच्च न्यूनम्। अथाधिकम्—अधिकं नाम यन्न्यूनविपरीतं, यद्वाऽऽयुर्वदेभाष्यमाणे बार्हस्पत्य मौशनसमन्यद्वा यत्किंचिदप्रतिसंबद्धार्थमुच्यते यद्वासंबद्धार्थमपि द्विरभिधीयते तत् पुनरुक्तत्वादधिकं; तच्च पुनरुक्तं द्विविधम्—अर्थपुनरुक्तं शब्दपुनरुक्तं च; तत्रार्थपुनरुक्तं यथा भेषजमौषधं साधन मिति, शब्दपुनरुक्तं पुनर्भेषजं भेषजमेति। अथानर्थकम्–अनर्थकं नाम यद्वचनमक्षरग्राममात्रमेव स्यात् पञ्चवर्गवन्न चार्थतो गृह्यते। अथापार्थकम्—अपार्थकं नाम यदर्थवञ्चपस्परेणासंयुज्यमानार्थकं, यथा—चक्रनक्रवंशवज्रनिशाकरा इति। अथ विरुद्धं—विरुद्धं नाम यद्दृष्टान्तसिद्धान्तसमयर्विरुद्धं; तत्र पूर्वं दृष्टान्तसिद्धान्तावुक्तौ;समयः पुनस्त्रिधा भवति, यथा—आयुर्वेदिकसमयो याज्ञिकसमयो मोक्षशास्त्रिकसमयश्चेति; तत्रायुर्वेदिकसमयचतुष्पादं भेषजमिति, याज्ञिकसमय आलभ्याः पशव इति, मोक्षशास्त्रिकसमयः सर्वभूतेष्वहिंसेति; तन्त्र स्वसमयविपरीतमुच्यमानं विरुद्धं भवति। इति वाक्यदोषाः॥५४॥
अथ वाक्यप्रशंसा—वाक्यप्रशंसा नाम यथा खल्वस्मिन्नर्थत्वम्यून मनधिकमर्थवदनपार्थ कमविरुद्धमधिगतपदार्थ चेति यत्तद्वाक्यमननुयोज्यमिति प्रशस्यते ॥ ५५ ॥
अथ छलं छलं नाम परिशठमर्थाभासमनर्थकं वाग्वस्तुमात्रमेव । तद्विविधं वाक्छलं, सामान्यच्छलं च । तत्र वाक्छलं नाम यथा कश्चिद्भूयात् नवतन्त्रोऽयं भिषगिति, भिषग्यात्नाहं नवतन्त्र एकतन्नोऽहमिति, परो ब्रूयात् नाहं ब्रवीमि नवतन्त्राणि तवेति, अपि तु नवाभ्यस्तं हि ते तन्त्रमिति, भिषग्ब्रूयात्-न मया नवाभ्यस्तंतन्त्रमने कधाऽभ्यस्तं मया तत्रमिति, एतद्वाक्छलं; सामान्यच्छ नाम यथा व्याधिप्रशमनायौषधमित्युक्ते परो ब्रूयात् सत् सत्प्रशमनायेति किंतु भवानाह; सन् हि रोगः, सदौषधं, यदि च सत् सत्प्रशमनाय भवति, तत्र सन् हि कासः, सत् क्षयः, सत्सामान्यात् कासस्ते क्षयप्रशमनाय भविष्यतीतिः एतत् सामान्यच्छलम् ॥५६॥
अथाहेतुः अहेतुर्नाम प्रकरणसमः संशयसमो वर्ण्यसमश्चेति । तत्र प्रकरणसमो नामाहेतुर्यथा अन्यः शरीरादात्मा नित्य इति (पक्षे )परो ब्रूयात् यस्मादन्यः शरीरादात्मा तस्मान्नित्यः, शरीरं ह्यनित्यम तो विधर्मिणा चात्मना भवितव्यमित्येष चाहेतुः, न हि य एव पक्षः स एव हेतुरिति; संशयसमो नामाहेतुर्य एव संशयहेतुः स एव संशयच्छेद हेतुः, यथा अयमायुर्वेदैकदेशमाह किंन्वयं चिकित्सकः स्यान्नवेति संशये परो ब्रूयात् यस्मादयमायुर्वेदैकदेश माह तस्माच्चिकित्सकोऽयमिति, न च संशयच्छेदहेतुं विशेषयति, एषचाहेतुः, न हि य एव संशयहेतुः स एव संशयच्छेदहेतुर्भवति; वर्ण्यसमो नामाहेतुर्यो हेतुर्वर्ण्याविशिष्टः, यथा कश्चियात्-अस्पर्शत्वाहुद्धिरनित्या शब्दवदिति, अन्न वर्ण्यः शब्दो बुद्धिरपि वर्ष्या,तदुभय वर्ण्या विशिष्टत्वा द्वर्ण्य समोऽप्यहेतुः ॥ ५७ ॥
अथातीतकालम् अतीतकालं नाम यत् पूर्व वाच्यं तत् पश्चादुच्यते, तत् कालातीतत्वादग्राह्यं भवति, पूर्व वा निग्रहप्राप्त मनिगृह्य
——————————————————————————————————————http://१ ‘विधर्मिणाऽनेन’ ग. \। २ ‘परं’ ग. \।
रिगृह्य पक्षान्तरितं पश्चान्निगृहीते तत्तस्यातीतकालस्वान्निप्रवचनसमर्थ भवतीति ॥ ५८ ॥
अथोपालम्भः उपालम्भो नाम हेतोर्दोषवचनं; यथा पूर्वमहेवो हेत्वाभासा व्याख्याताः ॥ ५९ ॥
अथ परिहारः परिहारो नाम तस्यैव दोषवचनस्य परिहरणं; था नित्यमात्मनि शरीरस्थे जीवलिङ्गान्यु पलभ्यन्ते, तस्य चापगनोपलभ्यते, तस्मादन्यः शरीरादात्मा नित्यश्चेति ॥ ६० ॥
अथ प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञाहानिर्नाम सा पूर्वपरिगृहीतां तिज्ञां पर्यंनुयुक्तो यत् परित्यजति । यथा प्राक् प्रतिज्ञां कृत्वा नेत्यः पुरुष’ इति, पर्यनुयुक्तस्त्वाह अनित्य इति ॥ ६१ ॥
अथाभ्यनुज्ञा अभ्यनुज्ञा नाम सा य इष्टानिष्टाभ्युपगमः ॥६२॥
अथ हेत्वम्तरं हेत्वन्तरं नाम प्रकृतहेतौ वाच्ये यद्विकृतहेतुहि ॥ ६३ ॥
अथार्थान्तरम् अर्थान्तरं नामैकस्मिन वक्तव्येऽपरं यदाह; था—ज्वरलक्षणे वाच्ये प्रमेहलक्षणमाह
अथ निग्रहस्थानं निग्रहस्थानं नाम पराजयप्राप्तिः; तच्च त्रिरहितस्य वाक्यस्याविज्ञान परिषदविज्ञानवत्यां, यद्वा अननुयोज्य योगोऽनुयोज्यस्य चाननुयोगः, प्रतिज्ञाहानिरभ्यनुज्ञा कालातीवचनमहेतुर्म्यून मतिरिक्तं व्यर्थमनर्थकं पुनरुक्तं विरुद्धं हेत्वन्तरमन्तरं च निग्रहस्थानम् ॥ ६५ ॥
इति वादमार्गपदानि यथोद्देशमभिनिर्दिष्टानि भवन्ति ॥६६॥
वादस्तु खलु भिषजां प्रवर्तमानः प्रवर्तेतायुर्वेद एव, नवन्यन्त्र॥६७॥
तत्र हि वाक्यप्रतिवाक्यविस्तराः केवलाश्चोपपत्तयश्च सर्वाधि करणेषु; ताः सर्वाः सम्यगवेक्ष्यावेक्ष्य सर्व वाक्यं ब्रूयात्, नाप्रकृ’कमशास्त्रमपरीक्षितमसाधकमाकुलमज्ञापकं वा, सर्व च हेतुमडूरात्, हेतुमन्तो ह्यकलुषाः सर्व एव वादविग्रहाश्चिकित्सिते कार-
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http://१ ‘व्यर्थमपार्थकं’ च. ।
णभूताः प्रशस्तबुद्धिवर्धकत्वात्, सर्वारम्भसिद्धिं द्यावहत्यनुपहता बुद्धिः ॥ ६८ ॥
इमानि खलु तावदिह कानिचित् प्रकरणानि भिषजां ज्ञानार्थ-मुपदेक्ष्यामः, ज्ञानपूर्वकं हि कर्मणां समारम्भं प्रशंसन्ति कुशलाः । ज्ञात्वा हि कारणकरण कार्य योनि कार्यकार्य फालानुबन्धदेशकाल प्रवृत्युपायान् सम्यग मिनिर्वर्तमानः कार्याभिनिर्वृत्ताविष्ट फलानुबन्धं कार्यममिनिर्वर्तयत्यनतिमहता प्रयत्नेन कर्ता ॥ ६९ ॥
तन्त्र कारणं नाम तद् यः करोति, स एव हेतुः, स कर्ता ॥ ७० ॥
करणं पुनस्तद् यदुपकरणायोपकल्पते कर्तुः कार्याभिनिर्वृत्तौ प्रयतमानस्य ॥ ७१ ॥
कार्ययोनिस्तु सा या विक्रियमाणा कार्यत्वमापद्यते ॥ ७२ ॥
कार्य तु तद् यस्याभिनिर्वृत्तिमभिसंधाय प्रवर्तते कर्ता ॥ ७३ ॥
कार्यफलं पुनस्तद् यत्प्रयोजना कार्याभिनिर्वृत्तिरिष्यते ॥ ७४ ॥
अनुबन्धस्तु खलु स यः कर्तारमवश्यमनुबध्नाति कार्यादुत्तरकालं कार्यनिमित्तः शुभो वाऽप्यशुभो वा भावः ॥ ७५ ॥
देशस्त्वधिष्ठानम् ॥ ७६ ॥
कालः पुनः परिणामः ॥ ७७ ॥
प्रवृत्तिस्तु खलु चेष्टा कार्यार्था, सैव क्रिया कर्म यतः कार्यसमारम्भश्व ॥ ७८ ॥
उपायः पुनस्त्रयाणां कारणादीनां सौष्ठवमभिविधानं च सम्यक्, कार्यकार्य फलानुबन्धवर्ज्यानां तेषां तद्धि कार्याणामभिनिर्वर्तकमिति, अतस्तूपायः; कृते नोपायार्थोऽस्ति, न च विद्यते तदात्वे, कृताञ्चोत्तरकालं फलं, फलाच्चानुबन्ध इति ॥ ७९ ॥
एतद्दशविधमग्रे परीक्ष्यं, ततोऽनन्तरं कार्यार्था प्रवृत्तिरिष्टा; तस्माद्भिषक् कार्य चिकीर्षुः प्राक्कार्यसमारम्भात् परीक्षया केवलं परीक्ष्यं परीक्ष्य कर्म समारभेत कर्तुम् ॥ ८० ॥
——————————————————————————————————————http://१ ‘अभिसंधानं ’ ग. । २ “वर्ज्यानां, कार्याणामभिनिवर्तक इत्यतस्तूपायः’ च. \। ३ ‘कार्यमिति शेषः’ चक्रः ।
तत्र चेद्भिषगभिषग्वा भिषजं कश्चिदेवं पृच्छेद् वमनविरेचनास्थापनानुवासन शिरोविरेचनानि प्रयोक्तुकामेन भिषजा कतिविधया परीक्षया कतिविधमेब परीक्ष्यं, कश्चात्र परीक्ष्यविशेषः कथं च परीक्षितव्यः, किंप्रयोजना च परीक्षा, क्व च वमनादीनां प्रवृत्तिः, क्व च निवृत्तिः, प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणसंयोगे च किं नैष्टिकं, कानि च वमनादीनां भेषजद्रव्याण्युपयोगं गच्छन्तीति ॥ ८१ ॥
स एवं पृष्टो यदि मोहयितुमिच्छेत् ब्रूयादेनं बहु विधा हि परीक्षा तथा परीक्ष्यविधिभेदः, कतमेन विधिभेदप्रकृत्यन्तरेण भिन्नया परीक्षया केन वा विधिभेदप्रकृत्यन्तरेण परीक्ष्यस्य भिन्नस्य भेदाग्रं भवान् पृच्छत्याख्यायमानं, नेदानीं भवतोऽन्येन विधिभेदप्रकृत्यन्तरेण भिन्नया परीक्षयाऽन्येन वा विधि भेद प्रकृत्यन्तरेण परीक्ष्यस्य भिन्नस्याभिलषितमर्थं श्रोतुमहमन्येन परीक्षा विधिभेदेनान्येन वाविधिभेदप्रकृत्यन्तरेण परीक्ष्यं भिवाऽन्यथाऽऽचक्षाण इच्छां प्रपूरयेयमिति ॥ ८२ ॥
स यदुत्तरं ब्रूयात्तत् परीक्ष्योत्तरं वाच्यं स्वाद्यथोक्तं च प्रतिवचनविश्चिमवेक्ष्यै; सम्यग्यदि तु ब्रूयात्, न चैनं मोहयितुमिच्छेत्, प्राप्तं तु वचनकालं मन्येत, काममस्मै ब्रूयादाप्तमेव निखिलेन ॥ ८३ ॥
द्विविधा तु खलु परीक्षा ज्ञानवतां प्रत्यक्षमनुमानं च एतद्धि. द्वयमुपदेशश्च परीक्षा स्यात् ; एवमेषा द्विविधा परीक्षा, त्रिविधा वा सहोपदेशेन ॥ ८४ ॥
दशविधं तु परीक्ष्यं कारणादि यदुक्तमप्रे, तदिह भिषगादिषु संसार्य संदर्शयिष्यामःइह कार्यप्राप्तेः कारणं भिषक, करणं पुनर्भेषजं, कार्ययोनिर्धातुवैषम्यं, कार्य धातुसाम्यं, कार्यफलं सुखावाप्तिः, अनुबन्धस्तु खल्वायुः, देशो भूमिरातुरश्च, कालः पुनः संवत्सरश्चातुरावस्था च, प्रवृत्तिः प्रतिकर्मसमारम्भः, उपायस्तु
——————————————————————————————————————http://१ ‘वेदानीं’ ग. \। २ ‘भित्वाऽर्थमाचक्षाणः’ ग. \। ३ ‘अवेक्ष्य सम्यक् \। यदि तु न चैनं मोहयितुमिच्छेत्’ ग. \। ४ ‘कार्यप्राप्तौ’ ग. ।
भिषगादीनां सौष्ठवमभिविधानं च सम्यक् विषयः पूर्वेणैवोपायविशेषेण व्याख्यातः; इति कारणादीनि दश दशसु भिषगादिपु संसायं संदर्शितानि, तथैवानुपूज्यैत द्दश परीक्ष्यमुक्तम् ॥ ८५ ॥
तस्य यो यो विशेषो यथा यथा च परीक्षितव्यः स तथा तथा व्याख्यास्यते ॥ ८६ ॥
कारणं भिषगित्युक्तमग्रे, तस्य परीक्षा भिषङ्गाम स यो भेषति, यः सूत्रार्थप्रयोगकुशलः, यस्य चायुः सर्वथा विदितं यथावत् । सच सर्वधातुसाम्यं चिकीर्षन्नात्मानमेवादितः परीक्षेत गुणिषु गुणतः कार्याभिनिर्वृत्तिं पश्यन् कञ्चिदहमस्य कार्यस्याभिनिर्वर्तने समर्थोऽस्मिन वेति; तत्रेमे भिषग्गुणा यैरुपपन्नो भिषग्धातुसाम्याभिनि र्व र्तने समर्थो भवति; तद्यथा, पर्यवदातश्रुतता, परिदृष्टकर्मता, दाक्ष्यं, शौचं, जितहस्तता, उपकरण वत्ता, सर्वे न्द्रियोपपन्नता, प्रकृतिज्ञता, प्रतिपत्तिज्ञता चेति ॥ ८७ ॥
करणं पुनर्भेषजं; भेषजं नाम तद्यदुपकरणयोपकल्प्यते भिषजो धातुसाम्याभिनिर्वृत्तौ प्रयतमानस्य विशेषतश्चोपायान्तेभ्यः। तद्विविधं व्यपाश्रयभेदात् दैवव्यपाश्रयं, युक्तिव्यपाश्रयं चेति । तत्र दैवव्यपाश्रयं मन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनादि,युक्तिव्यपाश्रयंसंशोधनोपशमने चेष्टाश्च दृष्टफलाः। एतच्चैव भेषजमङ्गभेदादपि द्विविधंद्रव्यभूतमद्रव्यभूतं चेति । तत्र यदद्रव्यभूतं तदुपायाभिम् \। उपायो नाम भयदर्शन विस्मापनविस्मारणक्षोभणहर्षण भर्त्सन वधबन्धस्वप्नसंवाहनादिर मूर्ती भावविशेषो यथोक्ताः सिद्ध्युपायाश्चो पायाभिभुता इति । यत्तु द्रव्यभूतं तद्वमनादिषु योगमुपैति । तस्यापीयं परीक्षा इद प्रकृत्येवंगुणमेवं प्रभावमस्मिन् देशे जातमस्मिन्नृतावेवं गृहीतमेवंनिहित मेवमुपस्कृतमनया मात्रया युक्तमस्मिन् व्याध्या वेवंविधस्य
——————————————————————————————————————http://१ ‘अभिसंधानं’ यो । २ ‘यो यः परीक्ष्यविशेषः’ ग. । ३ ‘अद्रव्यभूतं तद् यदुपायाभिप्लुतं’ ग. \। ४ गङ्गाधरस्तु उपायाभिष्ठताः’ इति न पठति ।
पुरुषस्यैतावन्तं दोषमपकर्षयत्युपशमयति वा, यदन्यदपि चैवंविधं भेषजं भवेत्तच्चानेन चान्येन वा विशेषणेन युक्तमिति ॥ ८८ ॥
कार्ययोनितुवैषम्यं; तस्य लक्षणं-विकारागमः; परीक्षा स्वस्य विकारप्रकृतेश्चैवोनातिरिक्तलिङ्ग विशेषावेक्षणं, विकारस्य च साध्यासाध्यमृदुदारुण लिङ्ग विशेषावेक्षणमिति ॥ ८९॥
कार्य धातुसायं; तस्य लक्षणं विकारोपशमः, परीक्षा त्वस्य रुगुपशमनं, स्वरवर्णयोगः, शरीरोपचयः, बलवृद्धिः, अभ्यवहार्याभिलाषो, रुचिराहारकाले, अभ्यवहृतस्य चाहारस्य काले सम्यग्जरणं, निद्रालाभो यथाकालं, वैकारिकाणां च स्वप्नानामदर्शनं, सुखेन च प्रबोधनं, वातमूत्रपुरीषरेतसां मुक्तिः, सर्वाकारै र्मनो बुद्धीन्द्रियाणां चाव्यापत्तिरिति ॥९०॥
कार्यफलं सुखावाप्तिः, तस्य लक्षणं मनोबुद्धीन्द्रियशरीरतुष्टिःअनुबन्धस्तु खल्वायुः; तस्य लक्षणं प्राणैः सह संयोगः ॥१२॥
देशस्तु भूमिरातुरश्च । तन्त्र भूमिपरीक्षा आतुरपरिज्ञानहेतोर्वा दौषध परिज्ञान हे तोर्वा । तत्र तावदिय मातु रपरिज्ञान हेतोः; त यथा अयं कस्मिन् भूमिदेशे जातः संवृद्धो व्याधितो वेति; तस्मिंश्च भूमिदेशे मनुष्याणा मिदमाहारजातमिदं विहारजातमेतावद्वलमेवंवेधं सत्वमेवंविधं सात्म्यमेवंविधो दोषो भक्तिरियमिमे व्याधयोहितमिदम हितमिदमिति प्रायोग्रहणेन; औषधपरिज्ञान हेतोस्तु कल्पेषु भूमिपरीक्षा वक्ष्यते ॥ ९३ ॥
आतुरस्तु खलु कार्यदेशः; तस्य परीक्षा आयुषः प्रमाणज्ञानहेतोर्वा स्याद्वलदोषप्रमाणज्ञान हेतोर्वा । तत्र ताव दियं बलदोषप्रमाणज्ञानहेतोः— दोषप्रमाणानुरूपो हि भेषजप्रमाणैविशेषो बलप्रमाणविशेषापेक्षो भवति; सहसा ह्यतिबलमौषधमपरीक्षकप्रयुक्त मल्पबलमातुरमतिपातयेत्, न ह्यतिबलान्याग्नेय सौम्य वायवीयान्यौष-
——————————————————————————————————————http://१ गङ्गाधरस्तु ‘प्रायोग्रहणेन’ इति न पठति । २ ‘भेषजप्रमाणविकल्पः इति पा० ।
धान्यनिक्षारशेचकर्माणि वा शक्यन्तेऽल्पबलैः सोढुम्, असह्यातितीक्ष्णवेगत्वाद्धि तानि सद्यः प्राणहराणि स्युः; एतञ्चैव कारणमपेक्षमाणा ही नबलमातुरमविषादक रैमृदु सुकुमारप्रायैरुत्तरोत्तरगुरुभिरविभ्रमैर नात्य यिकै श्चोषचरन्त्यौषधैः, विशेषतश्च नारीः; ता ह्यनवस्थितमृदु वृत्तविक्कुवहृदयाः प्रायः सुकुमार्योऽबलाः पर संस्त भ्याश्च । तथा बलवति बलवड्याधिपरिगते स्वल्पबलमौषधमपरीक्षकप्रयुक्तमसाधकं भवति ।तस्मादातुरंपरी त प्रकृतितश्च विकृतितश्च सारतश्च संहननतश्च प्रमाणतश्च सात्म्यतश्च सत्वतश्चाहारशक्तितश्च व्यायामशक्ति तश्च वयस्तश्चेति बलप्रमाणविशेषग्रहण हेतोः ॥ १४ ॥
तत्रेमे प्रकृत्यादयो भावाः । तद्यथा - शुक्रशोणितप्रकृतिं कालगर्भाशयप्रकृतिं मातुराहारविहारप्रकृतिं महाभूतविकारप्रकृतिं च गर्भशरीरमपेक्षते । एता हि येन येन दोषेणाधिकेनैकेनानेकेन वा समनुबध्यन्ते तेन तेन दोषेण गर्भोऽनुबध्यते, ततः सा सा दोषप्रकृतिरुच्यते मनुष्याणां गर्भादिप्रवृत्ता \। तस्माच्छ्रेष्मलाः प्रकृत्या
केचित्, पित्तलाः केचित्, वातलाः केचित् संसृष्टाः केचित्, समधातवः प्रकृत्या केचिद्भवन्ति ॥ १५ ॥
तेषां लक्षणाति व्याख्यास्यामः लेष्मा हि स्निग्धलक्ष्णमृदुमधुरसारसान्द्र मन्दस्तिमितगुरुशीतपिच्छिलाच्छः; तस्य स्नेहाच्छेष्मलाः स्निग्धाङ्गाः, लक्ष्णस्वाच्छुक्ष्णाङ्गाः, मृदुत्वाद्दृष्टिसुखसुकुमाराव दातगात्राः, माधुर्यात् प्रभूतशुक्रव्यवायापत्याः, सारत्वात् सारसंहतस्थिरशरीराः,सान्द्रत्वादुपचित परिपूर्ण सर्वाङ्गाः मन्दत्वान्मन्दचेष्टा हारव्याहाराः, स्तैमित्याद्शीघ्रारम्भक्षोभविकाराः, गुरुवात् साराधिष्ठितावस्थितगतयः, शैत्यादस्पक्षुत्तृष्णासंतापस्वेददोषाः, पिच्छिलत्वात् सुश्लिष्टसारसन्धिबन्धनाः, तथाऽच्छत्वात् प्रसन्नदर्शना
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http://१ ‘मृदुवृत्तमगम्भीरं’ चक्रः । “मृदुववृत०’ यो । २ ‘परमसंस्तभ्याश्च’ यो । ३ ‘तत्र प्रकृत्यादीन् भावाननुव्याख्यास्यामः’ च । ४ ‘दोषेण एकेनाधिकेन समेन वाऽनुबध्यन्ते’ ग. । ५ “ विज्जलाच्छः" च । ६ ‘सारा- धिष्ठितगतयः’ यो । ७ ‘विज्जलत्वात् ’ च ।
ननाः प्रसन्नस्निग्धवर्णस्वराश्च भवन्तिः त एवंगुणयोगाच्छ्रेष्मला बलवन्तो वसुमन्तो विद्यावन्त ओजस्विनः शान्ता आयुष्मन्तश्च भवन्ति ॥ ९६ ॥
पित्तमुष्णं तीक्ष्णं द्रवं विनमम्लं कटुकं च । तस्यौष्ण्यात् पित्तला भवन्त्युष्णासहाः, उष्णमुखाः, सुकुमाराव दातगात्राः, प्रभूतपिलव्यङ्गतिलकपिडकाः, क्षुत्पिपासावन्तः, क्षिप्रवलीपलिल खालित्यदोषाः, प्रायो मृद्रल्प कपिल मनुलोमकेशाः; तैक्ष्ण्यात्तीक्ष्णपराक्रमाः, तीक्ष्णाग्नयः, प्रभूताशनपानाः, क्लेशासहिष्णवो, दन्दशुकाः;
द्रवस्वाच्छिथिलमृदुसन्धिबन्धमांसाः, प्रभूतसृष्टस्वेदमूत्रपुरीषाश्च; विनत्वात् प्रभूतपूतिकक्षास्य शिरः शरीर गन्धाः; कटुम्लस्वादल्पशुऋव्यवायापत्याः; त एवंगुणयोगात् पित्तला मध्यबला मध्यायुषोमध्यज्ञान विज्ञान वित्तोपकरणवन्तश्च भवन्ति ॥ ९७ ॥
वातस्तु रूक्षलघुचलब हुशीघ्रशीतपरुषविशदः । तस्य रौक्ष्याद्वातला रूक्षापचिताल्पशरीराः, प्रततरूक्ष क्षाम भिन्न मन्दसक्त (न) जर्जरस्वराः जागरूकाश्च; लघुत्वाल्लघुचपलगतिचेष्टाहाराः; चलत्वाद नवस्थित सन्ध्यस्थि भ्रूहन्वोष्ठ जिह्वा शिरः स्कन्धपाणिपादाः; बहुत्वाद्वहुमलापकण्डरासिरामतानाः; शीघ्रस्वाच्छीघ्र समार म्भक्षोभ विकाराः शीघ्रोत्रासरागविरागाः, श्रुतिग्राहिणोऽल्पस्मृतयश्च; शैत्याच्छीतासहिष्णवः, प्रततशीत कोद्वेपक स्त म्भाः ; पारुण्यात् परुषकेशरमथुरोमनखदशनवदनपाणिपादाङ्गाः; वैशद्यात् स्फुटिताङ्गावयवाः, सतत संधि शब्द गामिनश्च भवन्ति; त एवंगुणयोगाद्वातलाः प्रायेणाल्पबलाश्चाल्पायुषश्चाल्पापल्याश्चाल्पसाधनाश्चाधनाश्च भवन्ति ॥ १८ ॥
संसर्गात् संसृष्टलक्षणाः; सर्वगुणसमुदितास्तु समधातव इति । एवं प्रकृतितः परीक्षेत ॥ ९९ ॥
विकृतितश्चेति—विकृतिरुच्यते विकारः । तत्र विकारं हेतुदोषद्ष्यप्रकृतिदेशकालबलविशेषैर्लिङ्गतश्च परीक्षेत न ह्यन्तरेण हेत्वादीनां बलविशेषं व्याधिबलविशेषोपलब्धिः । यस्य हि व्याधेर्दोषद्-
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http://१ ‘० व्याहाराः’ च । २ ‘भीमारम्भ’ ह. \।
ध्यप्रकृतिदेशकालसाम्यं भवति महत्व हेतुलिङ्गबलं स व्याधिर्बलवान् भवति, तद्विपर्ययाच्चाल्पबलः, मध्यब लस्तु दोषदूष्यादीना मन्यतमसामान्याद्धेतु लिङ्गमध्य बलत्वाञ्चोपलभ्यते ॥ १०० ॥
सारतश्चेति साराण्यष्टौ पुरुषाणां बलमानविशेषज्ञानार्थमुपदिइयन्ते; तद्यथा- त्वमक्तमांस मे दोस्थिमज्ज शुक्रसत्त्वानीति ॥ १०१ ॥
तत्र स्निग्धलक्ष्णमृदुप्रसन्नसूक्ष्माल्पगम्भीरसुकुमारलोमा सप्रभेव च त्वक् त्वक्साराणां; सा सारता सुखसौभाग्यैश्वर्योपभोगडुद्धिविद्यारोग्यप्रहर्षणान्यायुश्चानित्वरमाचष्टे ॥ १०२ ॥
कर्णाक्षिमुखजिह्वाना सौष्ठपाणिपादतलन खललाटमेहनं स्निग्धरक्तवर्ण श्रीमद् आजिष्णु रक्तसाराणां; सा सारता सुखमुतां मेधां मनस्वित्वं सौकुमार्यमन तिबलमक्लेशसहिष्णुत्वमुष्णासहिष्णुत्वंचाचष्टे ॥ १०३ ॥
शङ्खललाट कृका टिका क्षिगण्डहनुग्रीवास्कन्धोदर कक्षवक्षः पाणिपादसंघयः स्थिरमांसोपचिता मांससाराणां; सा सारता क्षर्मा धृतिमलौल्यं वित्तं विद्यां सुखमार्जवमारोग्यं बलमायुश्च दीर्घमाचष्टे ॥ १०४ ॥
वर्णस्वरनेन्नकेशलोमनखदन्तौष्ठमूत्रपुरीषेषु विशेषतः स्नेहो मेदः साराणां; सा सारता वित्तैश्वर्य सुखो पभो ग प्रदा नान्यार्जवं सुकुमारोपचारतां चाचष्टे ॥ १०५ ॥
पाणिगुल्फजान्वरलिजत्रुचिबुकशिरः पर्व स्थूलाः स्थूलास्थिनखदताश्वास्थिसाराः; ते महोत्साहाः क्रियावन्तः क्लेशसहाः सारस्थिरशरीरा भवन्त्यायुष्मन्तश्च ॥ १०६ ॥
तन्वङ्गा बलवन्तः स्निग्धवर्णस्वराः स्थूलदीर्घवृत्तसंधयश्च मज्जसाराः; ते दीर्घायुषो बलवन्तः श्रुतविज्ञान वित्तापत्य संमानभाजश्व भवन्ति ॥ १०७ ॥
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http://१ ‘सुखमुद्धता’ ग. । २ ‘स्थिरगुरुशुभमांसोपन्त्रिता’ ह. \। ३’ ० दैन्यानि ग. । ४ ‘मृङ्गा’ ग. \।
सौम्याः सौम्यप्रेक्षिणः क्षीरपूर्णलोचना इव प्रहर्षबहुलाः स्निग्धवृत्तसारसमसंहत शिखरि (र) दशनाः प्रसन्न स्निग्धवर्णस्वरा भ्राजिष्णवो महास्फिचश्च शुक्रसारा; ते स्त्रीप्रियाः प्रियोपभोगा बलचन्तः सुखैश्वर्यारोग्यवि त्तसंमानापत्यभाजश्च भवन्ति ॥ १०८ ॥
स्मृतिमन्तो भक्तिमन्तः कृतज्ञाः प्राज्ञाः शुचयो महोत्साहा दक्षा धीराः समरविक्रान्तयोधिनस्त्यक्तविषादाः स्ववस्थितगतिगेम्भीरबुद्धिचेष्टाः कल्याणाभिनिवेशिनश्च सत्वसाराः; तेषां स्वलक्षगैरेव गुणा व्याख्याताः१०९॥
तत्र सर्वैः सारैरुपेताः पुरुषा भवन्त्यतिबलाः परमगौरैवयुक्ताः क्लेशसहाः सर्वारम्भेष्वात्मनि जातप्रत्ययाः कल्याणाभिनिवेशिनःस्थिरसमाहितशरीराःसुसमाहितगतयःसानुनादस्निग्धगम्भीरमहास्वराःसुखैश्वर्यवि त्तोप भोगसंमानभाजो मन्दजरसो मन्दविकाराः प्रायस्तुल्यगुणविस्तीर्णांपत्याश्चिरजीविनश्च भवन्ति ॥ ११० ॥
अतो विपरीतास्त्वसाराः ॥ १११ ॥
मध्यानां मध्यैः सारविशेषैर्गुणविशेषा व्याख्याता भवन्तिइति साराण्यष्टौ पुरुषाणां बलप्रमाणविशेषज्ञानार्थान्युपदिष्टानि भवन्ति ॥ ११३ ॥
कथं नु शरीरमान्नदर्शनादेव भिषमुह्येदयमुपचितत्वाद्बलवान्, अयमल्पबलः कृशत्वात्, महाबलोऽयं महाशरीरत्वात्, अयमल्पशरीरत्वा दल्पबल इति; दृश्यन्ते ह्यल्पशरीराः कृशाश्चैके बलवन्तः, तत्र पिपीलिका भारहरणवसिद्धि; अतश्च सारतः परीक्षेतेदयुक्तकम् ॥ ११४ ॥
संहननतश्चेतिसंहननं, संघातः, संयोजनमित्येकोऽर्थः। तत्र समसुविभक्तास्थि सुबद्धसंधि सुनिविष्ट मांस शोणितं सुसंहतं शरीरमित्युच्यते । तत्र सुसंहतशरीराः पुरुषा बलवन्तः, विपर्यये णाल्पबलाः, प्रवरावर मध्य त्वात् संहननस्य मध्यबला भवन्ति ॥११५॥
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http://१ ‘स्त्रीप्रियोपभोगाः ’ च । २ ‘सुव्यवस्थितगति०’ यो । ३ ‘परम• सुखयुक्ताः’ ग.। ४ ‘पिपीलिकाभारवहनवत्’ यो. । ५. ‘संहतिः’ ग. ।
प्रमाणतश्चेति शरीरप्रमाणं पुनर्यथास्चेनाङ्गुलिप्रमाणेनोपदिश्यते उत्सेधविस्ताराया मैर्यथाक्रमम् । तत्र पादौ चत्वारि षट् चतुदेश चाङ्गुलानि, जङ्गे स्वष्टादशाङ्गुले षोडशाङ्गुलिपैरिक्षेपे, जानुनी चतुरङ्गुले षोडशा ङ्गुलिपरिक्षेपे, त्रिंशदङ्गुलपरिक्षेपावष्टादशाङ्गुलावूरू, षडङ्गुलदीघौं वृषणावष्टाङ्गुलपरिणाहौ, शेफैः ष डङ्गुलदीर्घ पञ्चाङ्गुलपरिणाहं, द्वादशाङ्गुलपरिणाहो भगः, षोडशाङ्गुल विस्तारा कटी, दशाङ्गुलं बस्तिशिरः, दशाङ्गुलविस्तारं द्वादशाङ्गुलमुदरं, दशाङ्गुलविस्तीर्णे द्वादशाङ्गुलायामे पार्श्वे, द्वाद शा ङ्गु लं स्तनान्तरं, ब्यङ्गुलं स्तनपर्यन्तं चतुर्विंशयङ्गुल विशालं द्वादशाङ्गुलोत्सेधमुरः, लं हृदयम्, अष्टा ङ्गुलौ स्कन्धौ, षडङ्गुलावंसौ, षोडशाङ्गुलौ प्रबाहूँ, पञ्चदशाङ्गुलौ प्रपाणी, हस्तौ दशाङ्गुलौ, कक्षा वष्टाङ्गुलौ, न्त्रिकं द्वादशाङ्गुलोत्सेधम्, अष्टादशाङ्गुलोत्सेधं पृष्ठं, चतुरङ्गुलोत्सेधा द्वाविंशत्य ङ्गुल परि णाहा शिरोधरा, द्वादशाङ्गुलोत्सेधं चतुर्विंशत्यङ्गुलपरिणाहमाननं, पञ्चाङ्गुलमास्यं, चिबुकौष्ठ कर्णाक्षिम ध्यनासिकाललाटं चतुरङ्गुलं, षोडशाङ्गुलोत्सेधं द्वात्रिंशदङ्गुलपरिणाहं शिरः; इति पृथक्त्वेनाङ्गावयवानां मानमुक्तं; केवलं पुनः शरीरमङ्गुलिपर्वाणि चतुरशीतिः । तदायामविस्तारसमं समुच्यते। तन्त्रायुर्बल मोजः सुखमैश्वर्यं वित्तमिष्टाश्चापरे भावा भवन्त्यायत्ताः प्रमाणवति शरीरे, विपर्ययस्त्वतो हीनेऽधिके वा ॥११६ ॥
सात्म्यतश्चेति – साम्यं नाम तद्यत् सातत्येनोपयुज्यमानमुप शेते । तत्र ये घृतक्षीरतैलमांसरससात्म्याः सर्वरससात्म्याश्च ते बलवन्तः क्लेशसहाचिरजीविनश्च भवन्ति; रूक्षसात्म्याः पुनरेकर ससात्म्याश्च ये ते प्रायेणाल्पबलाश्चाक्लेशसहा अल्पायुषोऽल्पसाधनाश्च भवन्ति; व्यामिश्रसात्म्यास्तु ये ते मध्यबलाः सात्म्यनिमि त तो भवन्ति ॥ ११७ ॥
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http://१ ‘पादौ चतुर्दशाङ्गुलौ’ ग. \। २ ‘परिक्षेपः परिणाहः’ चक्रः \। ३ ‘अष्टा- ङ्गुलपरिणाहं शेफः ’ ह. । ४ ‘व्यङ्गुलं हृदयं’ यो । ५ ‘प्रबाहुरंसदर्वाक् कफोणिपर्यन्तः, प्रपाणिः कफोण्यधस्तात्’ चक्रः ।
सत्वतश्चेति सत्त्वमुच्यते मनः; तच्छरीरस्य तन्त्रकमात्मसंयोगात् । तत्रिविधं बलभेदेन-प्रवरं मध्यमवरं चेति; अतश्च प्रवरमध्यावरसच्चाः पुरुषा भवन्ति । तन्त्र प्रवरसत्वाः सत्वसाराः, ते सारेषूपदिष्टाः; स्वल्पशरीरा ह्यपि ते निजागन्तु निमित्तासु महतीष्वपि पीडास्वव्यग्री दृश्यन्ते, सत्वगुणवैशेष्यात्; मध्यसत्वास्त्वपराना मन्युपनि धाय संस्तम्भयन्त्यात्मनाऽऽत्मानं परैर्वाऽपि संस्तभ्यन्ते; हीनसवास्तु नात्मना न च परैः सत्वबलं प्रति शक्यन्त उपस्तम्भयितुं, महाशरीरा ह्यपि ते स्वल्पानामपि वेदनानामसहा दृश्यते, संनिहितभयशोकलोभमोहमाना रौद्र भैरवद्विष्टबी भासविकृतकयास्वपि च पशुपुरुषमांसशोणितानि चावेक्ष्य विषादवैवर्ण्यमूर्च्छामाद भ्रम प्र पत नानामन्यतममामुवन्त्यथवा मरणमिति ॥ ११८ ॥
आहारशक्तितश्चेति आहारशक्तिरभ्यवहरणशक्त्या जरणशक्त्या व परीक्ष्या, बलायुषी ह्याहारायत्ते ॥ ११९ ॥
व्यायामशक्तितश्चेति व्यायामशक्तिरपि कर्मशक्त्या परीक्ष्या; कर्मशक्त्या ह्यनुमीयते बलत्रैविध्यम् ॥ १२ ॥
वयस्तश्चेति कालप्रमाणविशेषापेक्षिणी हि शरीरावस्था वयो मिधीयते । तद्वयो यथास्थूलभेदेन त्रिविधं बालं, मध्यं, जीर्णमेति । तत्र बालमपरिपक्वधातुमजातव्यञ्जनं सुकुमारमक्लेशसहमसंपूर्णबलं लेष्मधातु प्राय माषो डशवर्ष, विवर्धमानधातुगुणं पुनः॥येणानव स्थित सत्त्व मात्रिंशद्वर्षमुपदिष्टं; मध्यं पुनः समत्वागत बह वीर्यपौरु षपराक्रम ग्रहणधारण स्मरणवचनविज्ञानसर्वधातुगुणं बलस्थतमवस्थि तसत्त्वम विशीर्य माण धातु गुणं पित्तधातु प्रायमाषष्टिवर्षमुपदिष्टम्; अतः परं परिहीयमानधात्विन्द्रियबलवीर्यपौरुषपरा कमग्रहणधारण स्मरणव चन विज्ञानं अश्यमानधातुगुणं वातधातुप्रायं क्रमेण जीर्णमुच्यते आवर्षशतम् । वर्षशतं खल्वायुषः प्रमाणमस्मिन् काले; सन्ति पुनरधिकोनवर्षशतजीविनो मनुष्याः ।
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http://१ ‘अन्यथा’ ग. \। २ ‘यथावस्थानभेदेन’ ग. ।
तेषां विकृतिवर्यैः प्रकृत्यादिबलविशेषैरायुषो लक्षणतश्च प्रमाणभुपलभ्य वयसस्त्रित्वं विभजेत् ॥ १२१ ॥
एवं प्रकृत्यादीनां विकृतिवर्ज्यानां भावानां प्रवरमध्यावरविभागेन बलविशेषं विभजेत्। विकृतिबलत्रैविध्येन तु दोषबलं त्रिविधमनुमीयते। ततो भैषज्यस्य तीक्ष्णमृदुमध्यविभागेन त्रित्वं विभज्य यथादोषं भैषज्यमवचारयेदिति ॥१२२॥
आयुषः प्रमाणज्ञानहेतोः पुनरिन्द्रियेषु1013 जातिसूत्रीये च लक्षणान्युपदेक्ष्यन्ते ॥ १२३ ॥
कालः पुनः संवत्सरश्चातुरावस्था च। तत्र संवत्सरो द्विधा त्रिधा षोढा द्वादशधा भूयश्चाप्यतः प्रविभज्यते तत्तत्कार्यमभिसमीक्ष्य; तं तु1014 खलु तावत् षोढा प्रविभज्य कार्यमुपदेक्ष्यते। हेमन्तो ग्रीष्मो वर्षाश्चेति शीतो ष्णवर्षलक्षणास्त्रय ऋतवो भवन्ति, तेषामन्तरेष्वि तरे साधारणलक्षणास्त्रय ऋतवः प्रावृदशरद्वसन्ता इति; प्रावृडिति प्रथमः प्रवृष्टेः1015 कालः, तस्यानुबन्धो हि वर्षाः। एवमेते संशोधनमधिकृत्य षड् विभज्यन्ते ऋतवः ॥१२४॥
तत्र साधारणलक्षणेष्वृतुषु वमनादीनां प्रवृत्तिर्विधीयते, निवृ त्तिरितरेषु । साधारणलक्षणा हि मन्दशीतो ष्णव र्षत्वात सुखतमाश्च भवन्त्यविकल्पकाश्च शरीरौषधानाम्, इतरे पुनरत्यर्थशीतोष्णवर्षवाहुःखतमाश्च भवन्ति विकल्पकाश्च शरीरौषधानाम् ॥ १२५ ॥
तत्र हेमन्ते ह्यतिमात्रशीतोपहतत्वाच्छरीरमसुखोपपनं भवत्य तिशीतवाताध्मातमतिदारुणीभूतमाबद्धदोषं1016 च, भेषजं पुनः संशोधनार्थमुष्णस्वभावं शीतोपहतत्वान्मन्दवीर्यत्वमापद्यते, तस्मात्तयोः संयोगे संशोधन मयोगा योपपद्यते, शरीरमपि च वातोपनवाय।ग्रीष्मे पुनर्भृशोष्णोपहतत्वाच्छरी रमसुखोपपन्नं भवत्युष्णवातात पा ध्मात मतिशिथिलमत्यर्थप्रविलीनदोषं, भेषजं पुनः संशोधअर्थमुष्णस्वभावमत्युष्णानुगमनात्तीक्ष्णतरत्वमापद्यते, संयोगे संशोधनमतियोगायोपपद्यते, शरीरमपि पिपासोपद्रवाय । वर्षासु तु मेघजालावतते गूढार्कचन्द्रतारे धाराकुले वियति भूमौ पङ्कजलपटलसंवृतायामत्यर्थोपक्लिन्नशरीरेषु भूतेषु विहतस्वभावेषु। केवलेष्वौषधग्रामेषु तोयतोयदानुगतमारुत1017संसर्गाद्गुरुप्रवृत्तीनिमनादीनि भवन्ति, गुरुसमुस्थानानि च शरीराणि। तस्माद्वमनानां निवृत्तिर्विधीयते वर्षान्तेष्वृतुषु न चेदात्ययिकं कर्म; आत्ययिके नः कर्मणि काममृतुं विकल्प्य कृत्रिमगुणोपधानेन यथर्तुगुणविपतेन भैषज्यं संयोगसंस्कारप्रमाणविकल्पेनोपपाद्य प्रमाणवीर्यसमं त्वा ततः प्रयोजयेदुत्तमेन यत्नेनावहितः ॥ १२६ ॥
आतुरावस्थास्वपि तु कार्याकार्यं प्रति कालाकालसंज्ञा। तद्यथास्यामवस्थायामस्य भेषजस्य कालः, अकालः पुनरस्येति; एतदपि! भवत्यवस्थाविशेषेण, तस्मादातुरावस्थास्वपि हि कालाकालतस्य परीक्षा मुहुर्मुहु रातु रस्य सर्वावस्थाविशेषावेक्षणं आवद्वेषजप्रयोगार्थं, न ह्यतिपतितकालमप्राप्तकालं वा भेषजपयुज्यमानं यौ गिकं भवति; कालो भैषज्य प्रयोगपर्याप्तिमभिविर्तयति ॥ १२७ ॥
प्रवृत्तिस्तु प्रतिकर्मसमारम्भः; तस्य लक्षणं- भिषगा तुरौषधपरिरका क्रियासमायोगः ॥ १२८ ॥
उपायःपुनर्भिषगादीनां सौष्ठवमभिविधानं1018 व सम्यक्।तस्य क्षणं भिषगादीनां यथोक्तगुणसंपद्भिर्देश कालप्रमाणसात्म्य क्रियाभिव सिद्धिकारणैः सम्यगुपपादितस्यौषधस्यावचारणमिति एवमेते दश परीक्ष्य विशेषाः पृथक् पृथक् परीक्षितव्या भवन्ति ॥ परीक्षायास्तु खलु प्रयोजनं प्रतिपत्तिज्ञानं; प्रतिपत्तिर्नाम - यो वेकारो यथा प्रतिपन्तव्यस्तस्य तथाऽनुष्ठानज्ञानम् ॥ १३१ ॥
यत्र तु खलु वमनादीनां प्रवृत्तिर्यन्त्र च निवृत्तिस्तव्यासतः सिद्विषूत्तरकालमुपदेक्ष्यामः। प्रवृत्तिनिवृत्ति लक्ष ण संयोगे तु खलुगुरुलाघवं संप्रधार्य सम्यगध्यवस्थेदन्यतरनिष्ठायाम्।सन्ति हि व्याधयः शास्त्रेषूत्सर्गापवादैरुपक्रमं प्रति निर्दिष्टाः; तस्माद्दुरुलाघवं संप्रधार्य सम्यगध्यवस्येदित्युक्तम् ॥ १३२ ॥
यानि तु खलु वमनादिषु भेषजद्रव्याण्युपयोगं गच्छन्ति तान्यनुष्याख्यास्यामः; तद्यथा-फलजीमूतकेक्ष्वाकु धामार्गवकुटजकृतवेधनफलानि, फलजीमूत केक्ष्वाकुधामार्गवपत्रपुष्पाणि; आरग्वधवृक्षकमदुनस्वादु कण्टकपाठापाटलाशार्केष्टामूर्वासप्तपर्णनक्तमाल पिचुमर्दपटोलसुषवीगुडूचीसोमवल्कचित्रकद्वीपिशिग्रु1019मूलकषायैश्च, मधुकमधूककोविदारकर्बुदारनीपनिचु1020लबिम्बीशणपुष्पीसदापुष्पीप्रत्यक्षुयङ्गुपृथ्वी काकुस्तुम्बुरुतगरनलद-हीबेरतालीशगोपीकषायैश्च, एलाहरेणुप्रियङ्गुपृथ्वीकाकुस्ततुम्बुरुतगरनलदद्रीबेरता1021लीशगोपी-कषायैश्च,इक्षुकाण्डेक्ष्विक्षुवालिकादर्भपोटगलकालङ्कृतकषायैश्च, सुमनासौमनस्यानी हरिद्वादारुहरिद्रावृश्वीर पुनर्नवामहासहाक्षुद्रसहा कषायैश्च शाल्मलिशाल्मलिक भद्रपर्येलापर्युपोदिकोद्दालकधन्वनराजादनोपचित्रागोपीशृङ्गाटिकाकपायैश्च, पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्य चित्रकशृङ्गवेरसर्षपफाणितक्षीरक्षारलवणोदकैश्च यथालाभं यथेष्टं वाऽप्युपसंस्कृत्य वर्तिक्रिया चूर्णावलेह स्नेहकषायमांसरसयवागूयूषकाम्बलिकक्षी रोपधेयान्मोदकानन्यांश्च योगान्1022 विविधान नुविधाय यथार्हं वमनाय दद्याद्विधिवद्वमनम् । इति कल्पसंग्रहो वमनद्रव्याणां; कल्पस्त्वेषां विस्तरेणोत्तर कालमुपदेक्ष्यते ॥१३३॥
विरेचनद्रव्याणि तु श्यामानिवृच्चतुरङ्गुलतिल्वकमहावृक्षससलाशङ्खिनीदन्तीद्रवन्तीनां क्षीरमूलत्व- क्पत्रपुष्पफलानि यथायोगं तैस्तैः क्षीरमूलत्वक्पत्रपुष्पफलैविल्पि1023प्ताविक्किप्तैर जगन्धाश्वगन्धाजशृङ्गीक्षीरिणीनी लिनीक्की तककषायैश्च, प्रकीर्योदकी र्यामसूर विदलाकम्पिल्लकविडङ्गगवाक्षीकषायैश्च, पीलुप्रियालमृद्दीकाकाइमर्यप रूषकबदरदाडिमामलकहरीतकी बिभीत कवृश्चीर पुनर्नवाविदा रिगन्धादिकषायैश्च, शीधुसुरासौ वीरकतुपोदकमै रेयमे दकमदिरामधुमधूलकधान्याम्लकुवलबदरखर्जूरकर्कन्धुभिश्च, दधिदधिमण्डोदश्विद्भिश्च, गोमहिष्यजावीनां च क्षीरमूत्रैर्यथालाभं यथेष्टं वाऽ प्युपसंस्कृत्य चर्तिक्रियाचूर्णासवलेहस्नेहकषायमांसरसयूषकाम्बलिकयवागूक्षीरोपधेयान्मोदकान न्यांश्च भक्ष्यप्रकारान् विविधांश्च योगाननुविधाय यथार्ह विरेचनाय दद्याद्विरेचनम् । इति कल्पसंग्रह विरेचनद्रव्याणां; कैल्पस्त्वेषां विस्तरेण यथावदुत्तरकालमुपदेक्ष्यते ॥ १३४ ॥
आस्थापनेषु तु भूयिष्ठकल्पानि द्रव्याणि यानि योगमुपयान्तितेषु तेष्ववस्थान्तरेष्वातुराणां तानि द्रव्याणि नामतो विस्तरेणोपदिश्यमानान्यपरिसंख्येयानि भवन्त्यतिबहुत्वात्, इष्टश्चानतिसंक्षेपविस्तरोपदेशस्तत्रे, इष्टं च केवलं ज्ञानं, तस्माद्सत एव तान्यत्र व्याख्यास्यामः ॥ १३५ ॥
रसंसर्ग विकल्पविस्तरो ह्येषामपरिसङ्ख्येयः, समवेतानां रसानामंशांशबलविकल्पाति बहुत्वात् । तस्मा द्रव्याणां चैकदेशमुदाहरणार्थंरसेष्वनुविभज्य रसैकैकैश्येन च नामलक्षणार्थ षडास्थापनस्कन्धाःरसतो ऽ नुविभज्य व्याख्यास्यन्ते । यत्तु षड्विधमा स्थापन मेकरसमित्याचक्षते भिषजस्तदुर्लभतमं, संसृष्टरसभू यिष्ठत्वाद्रव्याणाम् \।
तस्मान्मधुराणि च मधुरप्रायाणि च मधुरविपाकानि च मधुरप्रभावा णि च मधुरस्कन्धे मधुराण्येव कृत्वोपदेक्ष्यन्ते, तथेतराणि द्रव्याण्यपि । तद्यथा जीवकर्षभको जीवन्ती वीरा तामलकी काकोली क्षीरकाकोल्य भी रुर्मुद्रपर्णी माषपर्णी शालपर्णी पृश्चिपर्ण्यसनपर्णीमेदा महामेदा कर्कटशृङ्गी शृङ्गाटिका च्छिन्नरुहा च्छन्त्राऽतिच्छना ‘श्रावणी महाश्रावण्यलम्बुषा सहदेवा विश्वदेवा शुक्ला क्षीरशुक्लाबलाऽ तिबला विदारी क्षीरविदारी क्षुद्रसहा महासहर्ष्यगन्धाऽश्वगया वृश्वीरः पुनर्नवा बृहती कण्टकारिकैरण्डो मोरटः वदंष्ट्रा
संहर्षा शतावरी शतपुष्पा मधूकपुष्पी यष्टिमधु मधूलिका मृगीका खर्जूरं परूषकमात्मगुप्ता पुष्करबीजं कशेरुकं राजकशेरुक राजादनं कतर्क काइमर्य शीतपाक्योदनपाकी तालखर्जूरमस्तक मिक्ष्विक्षु
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http://१ ‘कल्पमेषां विस्तरेणोपदेक्ष्याम उत्तरकालम्’ यो । २ ‘रससमवायवि कल्पविस्तरः’ यो । ३ ‘रसैकैकत्वेन’ ग.; ‘रसकैवल्येन’ च. \।
वालिका दर्भः कुशः काशः शालिर्गुन्द्रेत्कटः शरमूलं राजक्षवकः ऋर्ण्यप्रोक्ता द्वारदा भारद्वाजी वनत्रपुष्य भीरुपत्री हंसपदी काकनासा कुलिङ्गा क्षीरवल्ली कपोतवल्ली गोपवली मधुवली सोमवल्ली चेति; एषामेवं विधानामन्येषां च मधुरवर्गपरिसंख्यातानामौषधद्रव्याणां छेद्यानि खण्डश छेदयित्वा भेद्यानि चाणुशो भेद यित्वा प्रक्षाल्य पानीयेन सुप्रक्षालितायां स्थाल्यां समवाप्य पयसाऽर्धोदकेनाभ्यासिच्य साधये हर्ज्या सतत मवघट्टयन्, तदुपयुक्तभूयिष्ठेऽम्भसि गतरसेष्वौषधेषु पयसि चानुपदग्धे स्थालीमुपहृत्य सुपरिपूतंपयः सुखो ष्णं घृततैलवसामज्जलवणफाणितोपहितं बस्ति वातविकारिणे विधिज्ञो विधिवद्द्द्यात्, शीतं तु मधुसर्पि र्थ्या मुपसंसृज्य पित्तविकारिणे दद्यात् । इति मधुरस्कन्धः ॥ १३६ ॥
आम्राम्रातकलकुचकरमर्दवृक्षाम्लाम्लवेतसकुवलबदरदाडिममा’तुलुङ्गगण्डीरामलकनन्दी तकति न्ति डी कदन्त शठैरावतककोषात्रधन्व नानां फलानि, पत्राणि चाम्रातकाइमन्तकचाङ्गेरीणां चतुर्विधानां चाम्लि का नां द्वयोः कोलयोश्चामशुष्कयोर्द्वयोश्च शुष्काम्लिकयोभ्यारण्ययोः, आसवद्रव्याणि च सुरासौ वीरतु षोदकमैरेय मेदकमदिरामधुशीधुशु तदधिदधिमण्डोदश्विद्धान्याम्लादीनि च; एषामेवंविधानां चान्येषा मग्लवर्गपरि संख्या ताना मौषधद्रव्याणां छेद्यानि खण्डशइछेदयित्वा भेद्यानि चाणुशो भेदयित्वा द्रवैः स्थिराण्यभ्यासियसाधयित्वो पसंस्कृत्य यथावत्तैलव सामज्जलवणफाणितोपहितं सुखोष्णं बस्ति वातविकारिणे विधिज्ञो विधिवद्दद्यात् । इत्यम्लस्कन्धः ॥ १३७ ॥
सैन्धवसौवर्चलकालविङ्पाक्याभूपकूप्यवालुकै लमौलक सामुद्ररोमौद्भिदौषरपाटेयकपांशुजानीति, एतान्ये वंप्रकाराणिलवणवर्गपरिसंख्यातानि, एतान्यम्लोपहितान्युष्णोदको पहितानि वा स्नेहवन्ति सुखोष्णं बस्ति वातविकारिणे विधिज्ञो विधिवद्द्द्यात् \। इति लवणस्कन्धः ॥ १३८ ॥
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http://१ ‘परितं तं’ यो । २ ‘स्थाल्यां’ ग. \।
पिप्पली पिप्पली मूलहस्तिपिप्पलीचव्य चित्रकशृङ्ग चेरमरिचाजमोदार्द्वकविडङ्गकुस्तुम्बुरु पीलुतेजोवत्ये लाकुष्टभल्लातकास्थिहिङ्गु किलिममूलकसर्षपलशुनकरअशिग्रुमधुशिग्रुखरपुष्पाभूस्तृणसुमुखसुरसकुठे
रकार्जकगण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफणिज्झकक्षारमूत्रपित्तानीति, एषामेवंविधानां चान्येषां कटुकवर्गप रिसंख्यातानामौषधद्रव्याणां छेद्यानि खण्डशश्छेदयित्वा भेद्यानि चाणुशो भेदयित्वा गोमूत्रेणसह साधयि त्वोपसंस्कृत्य यथावन्मधुतैललवणोपहितं सुखोष्णं बस्ति श्लेष्मविकारिणे विधिज्ञो विधिवद्यात् । इति कटुकस्कन्धः ॥१३९॥
चन्दननलदकृत मालनक्तमालनिम्बतुम्बुरुकुटजहरिद्वा दारुहरिद्वामुस्तमूर्वीकि राततिक्तककटुरोहिणी त्राय माणा कारवेल्लिकाकरवीरकेबु ककठिल्लकवृषमण्डूकपर्णीकर्कोटकवार्ताकुकर्कशकाकमाची काकोदुम्बरिकासुषव्यतिविषापटोलकुलकपाठागुडूचीवेत्राग्रवेतसविकङ्कतबकुलसोमवल्कसप्तपर्ण सुमना र्कावल्गुज वचातगरागुरुवालकोशी राणीति, एषामेवंविधानां चान्येषां तिक्तवर्ग परिसंख्यातानामौषधद्रव्याणांछेद्यानि ख ण्ड शश्छेदयित्वा भेद्यानि चाणुशो भेदयित्वा प्रक्षाल्य पानीयेनाभ्यासिच्य साधयित्वोपसंस्कृत्य यथावन्म धुतै ल लवणोपहितं सुखोष्णं बस्ति श्लेष्मविकारिणे विधिज्ञो विधिवद्दद्यात् ; शीतं तु मधुसर्पियमुपसंस्कृत्यपित्तवि कारिणे दद्यात् । इति तिक्तस्कन्धः ॥ १४० ॥
प्रियङ्ग्वनन्ताम्रास्थ्यम्बष्ठकी कमङ्गलोध्रमोचरससमङ्गाधातकीपुष्पपद्म पद्मकेशरजम्ब्वाम्रलक्षवटकपीतनो दुम्बराश्वत्थभल्लातकाइमन्तकशिरीषशिंशपासोमवल्कतिन्दुक प्रियालबदरख दिरसप्तपर्णाश्वकर्णस्य न्द नार्जु नासनारिमे दैलवालुकपरिपेलवकदम्बशल्लकी जिङ्गिनीकाशकशेरुका राजकशेरु काकट्फ लवं शपद्मकाशोकशालघवसर्जभूर्जशणपुष्पशमीमाचीकबरकतुङ्गाजकर्णाश्वकर्ण स्फूर्जकबि भी तक कुम्भी
कपुष्कर बीजबिसमृणालतालखर्जूरैतरुण्य इति, एषामेवंविधानां चान्येषां कषायवर्गपरिसंख्याताना मौष धद्रव्याणां छेद्यानि खण्डराइछेदयित्वा भेद्यानि चाणुशो भेदयित्वा प्रक्षाल्य पानीयेनाभ्यासिच्य
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http://१ ‘खर्जूरतरुणानीति’ च ।
साधयित्वोपसंस्कृत्य यथावन्मधुतैललवणोपहितं सुखोष्णं बस्ति श्लेष्मविकारारिणे विधिज्ञो विधिवद्दद्यात्; शीतं तु मधुसर्पिसुपसंसृज्य पित्तविकारिणे दद्यात् । इति कषायस्कन्धः ॥ १४१ ॥
तत्र श्लोकाः ।
षड्वर्गाः परिसंख्याता य एते रसभेदतः ।
आस्थापनमभिप्रेत्य तानू विद्यात् सार्वयौगिकान् ॥ १४२ ॥
सर्वशो हि प्रणिहिताः सर्वरोगेषु जानता ।
सर्वान् रोगान्नियच्छन्ति येभ्य आस्थापनं हितम् ॥ १४३ ॥
येषां येषां प्रशान्त्यर्थं ये ये न परिकीर्तिताः ।
द्रव्यवर्गा विकाराणां तेषां ते परिकोपकाः ॥ १४४ ॥
इत्येते षडास्थापनस्कन्धा रसतोऽनुविभज्य व्याख्याताः । तेभ्योभिषबुद्धिमान् परिसंख्यातमपि यद्यद्रव्य मयौगिकं मन्येत तत्तदपकर्षयेत्, यद्यच्चानुक्तमपि यौगिकं मन्येत तत्तद्दद्यात्, वर्गमपि वर्गेणोप संसृजे देकमे के नानेकेन वा युक्ति प्रमाणीकृत्य \। मंचरणमिव भिक्षुकस्य बीजमिव कर्षकस्य सूत्रं बुद्धिमतामल पमप्य नरूपज्ञानाय भवति; तस्माहुद्धिमतामूहापोहवितर्कांः, मन्दबुद्धेस्तु यथोक्तानुगमनमेव श्रेयः; यथोक्तं हि मार्गमनुगच्छन् भिषक् संसाधयति कार्यमनतिमहत्त्वादन तिहस्वत्वाञ्चोदाहरणस्येति ॥ १४५ ॥
अतः परमनुवासनद्रव्याण्यनुव्याख्यास्यामः अनुवासनं तु स्नेह एव \।
स्नेहस्तु द्विविधः स्थावरो जङ्गमात्मकश्च । तत्र स्थाव रात्मकः स्नेहस्तैल मतैलं च । तहूयं तैलमेव कृत्वोपदिश्यते, सर्वतस्तैलप्राधान्यात् । जङ्गमा श्म कस्तु - वसा, मज्जा, सर्पिरिति । तेषां तु तैलवसामज्जसर्पिषां यथापूर्वं श्रेष्ठं वातश्लेष्मविकारेष्वनुवासनी
येषु, यथोत्तरं पित्तविकारेषु, सर्व एव वा सर्वेष्वपि च विकारेषु योगमायान्ति संस्कारविशेषादिति ॥ १४६ ॥
शिरोविरेचनद्रव्याणि पुनरपामार्गपिप्पली मरिच विडङ्गशिशिरीषकुस्तुम्बुरुपिल्वजाज्यजमोदावार्ता की पृथ्वी कैला हरेणुका फलानि च;सुमुखसुरस कुठेरकगण्डी रककालमालकपर्णा सक्षवक फणिज्झकहरिद्राशृङ्गवेरमूलकलशुनतर्कारीसर्षपपत्राणि च, अर्काल न्तीवचाभार्गीश्वेताज्योति ष्मतीगंवाक्षी गण्डीर पुष्य वाक्पुष्पीवृश्चिकाली वयस्थातिविषामूलानि च, हरिद्राश्शृङ्गवेरमूलकलशुनकन्दाश्च, लोध्रमदनसप्तपर्ण निम्बा र्कपुष्पाणि च देवदार्वगुरुसरलशल्लकीजिङ्गिन्यसनहिङ्गुनिर्यासाश्च, तेजोवती वराङ्गेङ्गुदी शोभाञ्जन बृह तीकण्टकारिकात्वच इति। शिरोविरेचनं सप्तविधं फलपत्रमूलकन्दपुष्पनिर्यासत्वगाश्रयभेदात्; लवणकटु तिक्तकषायाणि चेन्द्रियोपशयानि तथाऽपराण्यनुक्कान्यपि द्रव्याणि यथायोगविहितानि शिरोविरेचना र्थमु पदिश्यन्त इति ॥ १४७ ॥
तत्र श्लोकाः ।
लक्षणाचार्यशिष्यार्णा परीक्षा कारणं च यत् ।
अध्येयाध्यापनविधी संभाषाविधिरेव च ॥ १४८ ॥
षडभिर्न्यूनानि पञ्चाशद्वादमार्गपदानि च ।
पदानि दश चान्यानि कारणादीनि तत्वतः ॥ १४९ ॥
संप्रश्नश्च परीक्षादेर्नवको वमनादिषु \।
भिषग्जितीये रोगाणां विमाने संप्रदर्शितः ॥ १५० ॥
बहुविध मिदमुक्तमर्थजातं बहुविधवाक्यविचित्रमर्थकान्तम् ।
बहुविधशुभशब्दसंधियुक्तं बहुविधवादनिसूदनं परेषाम् ॥ १५१ ॥
इमां मतिं बहुविध हेतु संश्रयां विजज्ञिवान् परमतवादसूदनीम् ।
निलीयेते परवचनावमर्दने न शक्यते परवचनैश्च मर्दितुम् ॥ १५२ ॥
दोषादीनां तु भावानां सर्वेषामेव हेतुमत् ।
मानात् सम्यग्विमानानि निरुक्तानि विभागशः ॥ १५३ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरक प्रतिसंस्कृते विमानस्थाने रोगभिषग्जितीयविमानं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
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http://१ लक्षणं शास्त्रम् \। २ निलीयते शक्तो भवति । ‘न सज्जते परवचनाव- मर्दनैः’ इति पा० ।
प्रथमोऽध्यायः ।
————
अथातः कतिधापुरुषीयं शारीरं व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह माह भगवानात्रेयः ॥ २॥
कतिधा पुरुषो धीमन् धातुभेदेन भिद्यते ।
पुरुषः कारणं कस्मात्, प्रभवः पुरुषस्य कः ॥३॥
किमज्ञो ज्ञः स नित्यः किं किमनित्यो निदर्शितः ।
प्रकृतिः का विकाराः के किं लिङ्गं पुरुषस्य च ॥ ४ ॥
निष्क्रियं च स्वतन्त्रं च वशिनं सर्वगं विभुम् ।
वदन्त्यात्मानमात्मज्ञाः क्षेत्रज्ञं साक्षिणं तथा ॥ ५ ॥
निष्क्रियस्य क्रिया तस्य भगवन् ! विद्यते कथम् ।
स्वतन्त्र श्वेदनिष्टासु कथं योनिषु जायते ॥ ६ ॥
वशी यद्यसुखैः कस्माद्भावैराक्रम्यते बलात् ।
सर्वाः सर्वगतत्वाच्च वेदनाः किं न वेत्ति सः ॥ ७ ॥
न पश्यति विभुः कस्माच्छँलकुड्यतिरस्कृतम् ।
क्षेत्रज्ञः क्षेत्रमथवा किं पूर्वमिति संशयः ॥ ८ ॥
ज्ञेयं क्षेत्रं विना पूर्व क्षेत्रज्ञो हि न युज्यते ।
क्षेत्रं च यदि पूर्व स्यात् क्षेत्रज्ञः स्यादशाश्वतः ॥ ९ ॥
साक्षिभूतश्च कस्यायं कर्ता ह्यन्यो न विद्यते ।
स्यात् कथं चा (वा) विकारस्य विशेषो वेदनाकृतः ॥ १० ॥
अथ चार्तस्य भगवंस्तिसृणां कां चिकित्सति ।
अतीतां वेदनां वैद्यो वर्तमानां भविष्यतीम् ॥ ११ ॥
भविष्यन्त्या असंप्राप्तिरतीताया अनागमः ।
सांप्रतिक्या अपि स्थानं नास्त्यर्तेः संशयो ह्यतः ॥ १२ ॥
कारणं वेदनानां किं किमधिष्ठानमुच्यते ।
व चैता वेदनाः सर्वा निवृत्तिं यान्त्यशेषतः ॥ १३ ॥
सर्ववित् सर्वसंन्यासी सर्वसंयोगनिःसृतः ।
एकः प्रशान्तो भूतात्मा कैलिरुपलभ्यते ॥ १४ ॥
इत्यनिवेशस्य वचः श्रुत्वा मतिमतां वरः \।
सर्व यथावत् प्रोवाच प्रशान्तात्मा पुनर्वसुः ॥ १५ ॥
खादयश्चेतनाषष्ठा धातवः पुरुषः स्मृतः ।
चेतना धातुरप्येकः स्मृतः पुरुषसंज्ञकः ॥ १६ ॥
पुनश्च धातुभेदेन चतुर्विंशतिकः स्मृतः ।
मनो दशेन्द्रियाण्यर्थाः प्रकृतिश्चाष्टधातुकी ॥ १७ ॥
लक्षणं मनसो ज्ञानस्याभावो भाव एव च ।
सति ह्यात्मेन्द्रियार्थानां संनिकर्षे न वर्तते ॥ १८ ॥
वैवृत्यान्मनसो ज्ञानं सांनिध्यात्तच्च वर्तते ।
अणुत्वमथ चैकत्वं द्वौ गुणौ मनसः स्मृतौ ॥ १९ ॥
चिन्त्यं विचार्यमूह्यं च ध्येयं संकल्प्यमेव च ।
यत् किंचिन्मनसो ज्ञेयं तत् सर्वं ह्यर्थसंज्ञकम् ॥ २० ॥
इन्द्रियाभिग्रहः कर्म मनसः स्वस्य निग्रहः ।
ऊहो विचारश्च ततः परं बुद्धिः प्रवर्तते ॥ २१ ॥
इन्द्रियेणेन्द्रियार्थो हि समनस्केन गृह्यते ।
कल्प्यते मनसा तूर्ध्वं गुणतो दोषतोऽथवा ॥ २२ ॥
जायते विषये तन्त्र या बुद्धिर्निश्चयात्मिका \।
व्यवस्यति तया वक्तुं कर्तु वा बुद्धिपूर्वकम् ॥ २३ ॥
एकैकाधिकयुक्तानि खादीनामिन्द्रियाणि तु ।
पञ्च कर्मानुमेयानि येभ्यो बुद्धिः प्रवर्तते ॥ २४ ॥
हस्तौ पादौ गुदोपस्थं जिह्वेन्द्रियमथापि च ।
कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैव, पादौ गमनकर्मणि ॥ २५ ॥
——————————————————————————————————————http://१ ‘वचस्तदनिवेशस्य’ यो । २ ‘चेतनाधातुषष्ठास्तु’ ग. । ३ ‘वैवृत्या- न्मनस इति इन्द्रियेणासंयोगात्, सान्निध्यादिति इन्द्रियेण मनसः संबन्धात्’ चक्रः ‘वैधृत्यात्’ ग..। ४ ‘हस्तपादं’ ग. । ५ ‘वागिन्द्रियमथापि च’ हृ.।
पायूपस्थं विसर्गार्थे हस्तौ ग्रहणधारणे ।
जिह्वा वागिन्द्रियं वाक्क सत्या ज्योतिस्तमोऽनृता ॥ २६ ॥
महाभूतानि खं वायुरनिरापः क्षितिस्तथा ।
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः ॥ २७ ॥
तेषामेकगुणः पूर्वो, गुणवृद्धि परे परे ।
पूर्वः पूर्वगुणश्चैव क्रमशो गुणिषु स्मृतः ॥ २८ ॥
खरद्रवचलोष्णत्वं भूजलानिलतेजसाम् ।
आकाशस्याप्रतीघातो दृष्टं लिङ्गं यथाक्रमम् ॥ २९ ॥
लक्षणं सर्वमेवैतत् स्पर्शनेन्द्रियगोचरम् ।
स्पर्शनेन्द्रिय विज्ञेयः स्पर्शो हि सविपर्ययः ॥ ३० ॥
गुणाः शरीरे गुणिनां निर्दिष्टाश्चिह्नमेव च ।
अर्थाः शब्दादयो ज्ञेया गोचरा विषया गुणाः ॥ ३१ ॥
या यदिन्द्रियमाश्रित्य जन्तोर्बुद्धिः प्रवर्तते ।
याति सा तेन निर्देशं मनसा च मनोभवा ॥ ३२ ॥
भेदात् कार्येन्द्रियार्थानां बड्यो वै बुद्धयः स्मृताः ।
आत्मेन्द्रिय मनोर्थाना मेकैका संनिकर्षजा ॥ ३३ ॥
अङ्गुल्यङ्गुष्ठतलजस्तन्त्री वीणानखोद्भवः ।
दृष्टः शब्दो यथा बुद्धिष्टा संयोगजा तथा ॥ ३४ ॥
बुद्धीन्द्रिय मनोर्थानां विद्याद्योगधरं परम् ।
चतुर्विंशतिको ह्येष राशिः पुरुषसंज्ञकः ॥ ३५ ॥
रजस्तमोभ्यां युक्तस्य संयोगोऽयमनन्तवान् ।
ताभ्यां निराकृताभ्यां तु सत्ववृद्ध्या निवर्तते ॥ ३६॥
अत्र कर्म फलं चात्र ज्ञानं चात्र प्रतिष्ठितम् ।
अत्र मोहः सुखं दुःखं जीवितं मरणं स्वता ॥ ३७॥
एवं यो वेद तत्वेन स वेद प्रलयोदयौ ।
पारम्पर्य चिकित्सां च ज्ञातव्यं यच्च किंचन ॥ ३८ ॥
——————————————————————————————————————http://२ ‘पूर्वो गुणश्चैव’ यो । ३ ‘एकैकसन्निकर्षजाः’ ५ स्वता ममताज्ञानम्’ चक्रः । ६ ‘एतद्यो यो । १ ‘एकगुणं पूर्वं’ यो । ग. । ४ ‘सत्त्वबुच्या’ ग. \। वेद यो । ७ ‘वेद्यं यच्चात्र’
भास्तमः सत्यमनृतं वेदाः कर्म शुभाशुभम् ।
न स्युः कर्ता वेदिता च पुरुषो न भवेद्यदि ॥ ३९ ॥
नाश्रयो न सुखं नार्तिर्न गतिर्नागतिर्न वाक् ।
न विज्ञानं न शास्त्राणि न जन्म मरणं न च ॥ ४० ॥
न बन्धो न च मोक्षः स्यात् पुरुषो न भवेद्यदि ।
कारणं पुरुषस्तस्मात् कारणज्ञैरुदाहृतः ॥ ४१ ॥
न चेत् कारणमात्मा स्याद्भादेयः स्युरहेतुकाः \।
न चैषु संभवेज्ज्ञानं न च तैः स्यात् प्रयोजनम् ॥ ४२ ॥
कृतं मृद्दण्डचक्रैश्च कुम्भकाराहते घटम् ।
कृतं मृत्तृणकाष्ठैश्च गृहकाराद्विचा गृहम् ॥ ४३ ॥
यो वदेत् स वदेद्देहं संभूय करणैः कृतम् ।
विना कर्तारमज्ञानाधुक्त्यागमबहिष्कृतः ॥ ४४ ॥
कारणं पुरुषः सर्वैः प्रमाणैरुपलभ्यते ।
येभ्यः प्रमेयं सर्वेभ्य आगमेभ्यः प्रमीयते ॥ ४५ ॥
न ते तत्सदृशास्त्वन्ये पारम्पर्यसमुत्थिताः ।
सारूप्याद्ये त एवेति निर्दिश्यन्ते नवा नवाः ॥ ४६ ॥
भावास्तेषां समुदयो निरीशः सत्वसंज्ञकः \।
कर्ता भोक्ता न स पुमानिति केचिद्व्यवस्थिताः ॥ ४७ ॥
तेषामन्यैः कृतस्यान्ये भावा भावैर्नवाः फलम् \।
भुञ्जते सदृशाः प्राप्तं यैरात्मा नोपदिश्यते ॥ ४८ ॥
करणान्यान्यता दृष्टा कैर्तुः कर्ता स एव तु ।
कर्ता हि करणैर्युक्तः कारणं सर्वकर्मणाम् ॥ ४९ ॥
निमेषकालाद्भावानां कालः शीघ्रतरोऽत्यये ।
भन्नानां नै पुनर्भावः कृतं नान्यमुपैति च ॥ ५० ॥
——————————————————————————————————————http://१ ‘च भोक्ता च’ इ. \। २ ‘खादयः’ ग. \। ३ ‘मृद्दण्डचक्रैश्च कृतं’ ग. \। ४ ‘नरान्नराः’ ग. \। ५ ‘भावैर्भावा नवा : ’ यो. ‘भावैर्भावा नराः’ ग.। ६ कारणान्यान्यता दृष्टा ‘कर्ता भोक्ता स एव तु ’ ग. । ७’ च पुनर्भावे’ ग. ।
मतं तत्त्व विदामेतद्यस्मात्तस्मात् स कारणम् ।
क्रियोपभोगे भूतानां नित्यः पुरुषसंज्ञकः ॥ ५१ ॥
अहङ्कारः फलं कर्म देहान्तरगतिः स्मृतिः ।
विद्यते सति भूतानां कारणे देहमन्तरा ॥ ५२ ॥
प्रभवो न ह्यनादित्वाद्विद्यते परमात्मनः ।
पुरुषो राशिसंज्ञस्तु मोहेच्छाद्वेषकर्मजः ॥ ५३ ॥
आत्मा ज्ञः करणैर्योगाज्ज्ञानं तस्य प्रवर्तते ।
‘करणानामवै मल्यादयोगाद्वा न वर्तते ॥ ५४ ॥
पश्यतोऽपि यथाऽऽदर्शे संक्लिष्टे नास्ति दर्शनम् ।
यंद्वज्जले वा कलुषे चेतस्युपहते तथा ॥ ५५ ॥
करणानि मनोबुद्धिर्बुद्धिकर्मेन्द्रियाणि च ।
कर्तुः संयोगजं कर्म वेदना बुद्धिरेव च ॥ ५६ ॥
नैकः प्रवर्तते कर्तुं भूतात्मा नाश्नुते फलम् ।
संयोगाद्वर्तते सर्व तमृते नास्ति किंचन ॥ ५७ ॥
न होको वर्तते भावो वर्तते नाप्यहेतुकः ।
शीघ्रगत्वात् स्वभावावभावो न व्यतिवर्तते ॥ ५८ ॥
अनादिः पुरुषो नित्यो विपरीतस्तु हेतुजः ।
सदकारणवन्नित्यं दृष्टं हेतुजमन्यथा ॥ ५९॥
तदेव भावादग्राह्यं नित्यैत्वं न कुतश्चन \।
भावाज्ज्ञेयं तदव्यक्तम चिन्त्यं व्यक्तमन्यथा ॥ ६० ॥
अव्यक्तमात्मा क्षेत्रज्ञः शाश्वतो विभुरव्ययः ।
तस्माद्यदन्यत्तव्यक्तं वक्ष्यते चापरं द्वयम् ॥ ६१ ॥
व्यक्तं चैन्द्रियकं चैव गृह्यते तद्यदिन्द्रियैः \।
अतोऽन्यत् पुनरव्यक्तं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम् ॥ ६२ ॥
खादीनि बुद्धिरव्यक्तमहङ्कारस्तथाऽष्टमः \।
भूतप्रकृतिरुद्दिष्टा विकाराश्चैव षोडश ॥ ६३ ॥
———————————————————————————————————————————————http://१ ‘तत्त्वं जले’ च. \। २ ‘स्वभावात्त भावो’ ग. । ३ ‘नित्यत्वाच’ ग. \।
बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैव पञ्च कर्मेन्द्रियाणि च ।
समनस्काश्च पञ्चार्था विकारा इति संज्ञिताः ॥ ६४ ॥
इति क्षेत्रं समुद्दिष्टं सर्वमव्यक्तवर्जितम् ।
अव्यक्तमस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रज्ञमृषयो विदुः ॥ ६५ ॥
जायते बुद्धिरण्यक्ताहुयाऽहमिति मन्यते ।
परं खादीन्यहङ्कारादुत्पद्यन्ते यथाक्रमम् ॥ ६६ ॥
ततः संपूर्णसर्वाङ्गो जातोऽभ्युदित उच्यते ।
पुरुषः प्रलये चेष्टैः पुनर्भावैर्वियुज्यते ॥ ६७ ॥
अव्यक्ताव्यक्ततां याति व्यक्तादव्यक्ततां पुनः ।
रजस्तमोभ्यामाविष्टश्चक्रवत् परिवर्तते ॥ ६८ ॥
येषां द्वन्द्वे पराऽऽसक्तिरहङ्कारपराश्च ये ।
उदयप्रलयौ तेषां न तेषां ये त्वतोऽन्यथा ॥ ६९ ॥
प्राणापानौ निमेषाद्या जीवनं मनसो गतिः ।
इन्द्रियान्तरसंचारः प्रेरणं धारणं च यत् ॥ ७० ॥
देशान्तरगतिः स्वप्ने पञ्चत्वग्रहणं तथा ।
दृष्टस्य दक्षिणेनाक्ष्णा सव्येनावगमस्तथा ॥ ७१ ॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं प्रयत्नश्चेतना वृतिः \।
बुद्धिः स्मृतिरहङ्कारो लिङ्गानि परमात्मनः ॥ ७२ ॥
यस्मात् समुपलभ्यन्ते लिङ्गान्येतानि जीवतः ।
न मृतस्यात्मलिङ्गानि तस्मादाहुर्महर्षयः ॥ ७३ ॥
शरीरं हि गते तस्मिन्शून्यागारमचेतनम् ।
पञ्चभूतावशेषत्वात् पञ्चत्वं गतमुच्यते ॥ ७४ ॥
अचेतनं क्रियावञ्च मनश्चेतयिता परः ।
युक्तस्य मनसा तस्य निर्दिश्यन्ते विभोः क्रियाः ॥ ७५ ॥
——————————————————————————————————————http://१ ‘अहङ्कार उपादत्ते’ ग. ।
यथा स्वेनात्मनाऽऽत्मानं सर्वः सर्वासु योनिषु \।
प्राणैस्तत्रयते प्राणी न ह्यन्योऽस्त्यस्यै तत्रकः ॥ ७७ ॥
वशी तत् कुरुते कर्म यत् कृत्वा फलमश्नुते ।
वशी चेतः समाधत्ते वशी सर्व निरस्यति ॥ ७८ ॥
देही सर्वगतो ह्यात्मा स्वे स्वे संस्पर्शनेन्द्रिये ।
सर्वाः सर्वाश्रयस्थास्तु नात्माऽतो चेत्ति वेदनाः ॥ ७९ ॥
विभुत्वमत एवास्य यस्मात् सर्वगतो महान् ।
मनसश्च संभाधानात् पश्यत्यात्मा तिरस्कृतम् ॥ ८० ॥
नित्यानुबन्धं मनसा देहकर्मानुपातिना \।
सर्वयोनिगतं विद्यादेकयोनावपि स्थितम् ॥ ८१ ॥
आदिर्नास्त्यात्मनः क्षेत्रपारम्पर्य मनादिकम् ।
अंतस्तयोर नादित्वात् किं पूर्वमिति नोच्यते ॥ ८२ ॥
शंः साक्षीत्युच्यते नाज्ञः साक्षी ह्यात्मा ह्यतः स्मृतः ।
सर्वे भावा हि सर्वेषां भूतानामात्मसाक्षिकाः ॥ ८३ ॥
नैकः कदाचिद्भूतात्मा लक्षणैरुपलभ्यते ।
विशेषोऽनुपलभ्यस्य तस्य नैक्स्य विद्यते ॥ ८४ ॥
संयोगपुरुषस्येष्टो विशेषो वेदनाकृतः ।
वेदना यत्र नियता विशेषस्तत्र तत्कृतः ॥ ४५ ॥
चिकित्सतिं भिषक् सर्वास्त्रिकाला वेदना इति ।
यया युक्त्या वदन्त्येके सा युक्तिरुपधार्यताम् ॥ ८६ ॥
पुनस्तच्छिरसः शूलं ज्वरः स पुनरागतः ।
पुनः स कासो बलवांइछर्दिः सा पुनरागता ॥ ८७ ॥
एभिः प्रसिद्धवचनैरतीतागमनं मतम् ।
कालश्चायमतीतानामर्तीनां पुनरागतः ॥ ८८ ॥
तमर्तिकालमुद्दिश्य भेषजं यत् प्रयुज्यते ।
अतीतानां प्रशमनं वेदनानां तदुच्यते ॥ ८९ ॥
——————————————————————————————————————http://१ ‘नयति सर्वयोनिषु’ इति पा० । २ ‘नान्यो ह्यस्य तत्रकः’ यो ।
आपस्ताः पुनरागुर्मा याभिः शस्वं पुरा हतम् ।
यथा प्रक्रियते सेतुः प्रतिकर्म तथाऽऽश्रये ॥ १० ॥
पूर्वरूपं विकाराणां दृष्ट्वा प्रादुर्भविष्यताम् ।
या क्रिया क्रियते सा च वेदनां हन्त्यनागताम् ॥ ९१ ॥
पारम्पर्यानुबन्धस्तु दुःखानां विनिवर्तते ।
सुखहेतूपचारेण सुखं चापि प्रवर्तते ॥ १२ ॥
न समा यान्ति वैषम्यं विषमाः समतां न च ।
हेतुभिः सदृशा नित्यं जायन्ते देहधातवः ॥ ९३ ॥
युक्तिमेतां पुरस्कृत्य त्रिकालां वेदनां भिषक् ।
हन्तीत्युक्तं, चिकित्सा सा नैष्ठिकी या विनोपधम् ॥ १४ ॥
उपधा हि परो हेतुर्दुःखदुःखाश्रयप्रदः ।
त्यागः सर्वोपधानां च सर्वदुःखव्यपोहकः ॥ ९५ ॥
कोषकारो यथा शूनुपादत्ते वधप्रदान् ।
उपादत्ते तथाऽर्थेभ्यस्तृष्णामज्ञः सदातुरः ॥ ९६ ॥
यस्त्वग्निकल्पानर्थान् ज्ञो ज्ञात्वा तेभ्यो निवर्तते ।
अनारम्भादसंयोगात्तं दुःखं नोपतिष्ठते ॥ ९७ ॥
धीष्टतिस्मृतिविभ्रंशः संप्राप्तिः कालकर्मणाम् ।
असात्म्यार्थागमश्चेति ज्ञातव्या दुःखहेतवः ॥ ९८ ॥
विषमाभिनिवेशो यो नित्यानित्ये हिताहिते ।
ज्ञेयः स बुद्धिविभ्रंशः समं बुद्धि पश्यति ॥ ९९ ॥
विषयप्रवणं चित्तं धृतिभ्रंशान्न शक्यते ।
नियन्तुमहितार्था तिर्हि नियमात्मिका ॥ १०० ॥
तत्त्वज्ञानात् स्मृतिर्यस्य रजोमोहावृतात्मनः ।
भ्रश्यते सं स्मृतिभ्रंशः स्मर्तव्यं हि स्मृतौ स्थितम् ॥ १०१ ॥
घीष्टतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत् कुरुतेऽशुभम् \।
प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोषप्रकोपणम् ॥ १०२ ॥
——————————————————————————————————————http://१ ‘उपधा भोगतृष्णा’ चक्रः । [अ० १ २ ‘सत्त्वं’ च. ।
उदीरणं गतिमतामुदीर्णानां च निग्रहः ।
सेवनं साहसानां च नारीणां चातिसेवनम् ॥ १०३ ॥
कर्मकालातिपातश्च मिथ्यारम्भश्च कर्मणाम् \।
विनया चारलोपश्च पूज्यानां चाभिघर्षणम् ॥ १०४ ॥
ज्ञातानां स्वयमर्थानामहितानां निषेवणम् \।
परमौन्मादिकानां च प्रत्ययानां निषेवणम् ॥ १०५ ॥
अकालादेशसंचारो मैत्री संक्लिष्टकर्मभिः ।
इन्द्रियोपक्रमोक्तस्य सद्वृत्तस्य च वर्जनम् ॥ १०६॥
ईर्ष्यामानभयक्रोधलोभमोहमदनमाः ।
तजं वा कर्म यत्कृिष्टं किष्टं यद्देहकर्म च ॥ १०७ ॥
यच्चान्यदीदृशं कर्म रजोमोहसमुत्थितम् ।
प्रज्ञापराधं तं शिष्टा ब्रुवते व्याधिकारणम् ॥ १०८ ॥
बुद्ध्या विषमविज्ञानं विषमं च प्रवर्तनम् ।
प्रज्ञापराधं जानीयान्मनसो गोचरं हि तत् ॥ १०९ ॥
निर्दिष्टा कालसंप्राप्तिधीनां हेतुसंग्रहे ।
चयप्रकोपप्रशमाः पित्तादीनां यथा पुरा ॥ ११० ॥
मिथ्यातिहीनलिङ्गाश्च वर्षान्ता रोगहेतवः \।
भुंक्तजीर्णप्रजीर्णान्नकालाः कालस्थितिश्च या ॥ १११ ॥
पूर्वमध्यापराह्राश्च राज्या यामास्त्रयश्च ये ।
तेषु कालेषु नियता ये रोगास्ते च कालजाः ॥ ११२ ॥
अन्येषको ग्राही तृतीयकचतुर्थकौ ।
स्वे स्वे काले प्रवर्तन्ते काले ह्येषां बलागमः ॥ ११३ ॥
एते चान्ये च ये केचित् कालजा विविधा गदाः ।
अनागते चिकित्स्यास्ते बलकालौ विजानता ॥ ११४ ॥
कालस्य परिणामेन जरामृत्युं निमित्तजाः ।
रोगाः स्वाभाविका दृष्टाः स्वभावो निष्प्रतिक्रियः ॥ ११५ ॥
———————————————————————————————————————————————http://१ ‘व्याधिसंग्रहे’ च । २ ‘जीर्णभुक्तप्रजीर्णा न्नकालाकालस्थितिश्च या’ च. \। ३ ‘द्रयहग्राही चतुर्थ कविपर्ययो विषमज्वरविशेषः चक्रः । ४ ‘जरा मृत्य्वनिमित्तजाः’ ग. \।
निर्दिष्टं दैवशब्देन कर्म यत् पौर्वदेहिकम् ।
हेतुस्तदपि कालेन रोगाणामुपलभ्यते ॥ ११६ ॥
न हि कर्म महत् किंचित् फलं यस्य नं भुज्यते ।
क्रियानाः कर्मजा रोगाः प्रशमं यान्ति तत्क्षयात् ॥ ११७ ॥
अत्युग्रशब्द श्रवणाच्छ्रवणात् सर्वशो न च ।
शब्दानां चातिहीनानां भवन्ति श्रवणाजडाः ॥ ११८ ॥
परुषोगीषणाशस्ताप्रियव्यसनसूचकैः ।
शब्दैः श्रवणसंयोगो मिथ्यायोगः स उच्यते ॥ ११९ ॥
असंस्पर्शोऽतिसंस्पर्शो हीनसंस्पर्श एव च ।
स्पृश्यानां संग्रहेणोक्तः स्पर्शनेन्द्रियबाधकः ॥ १२० ॥
यो भूतविषवातानामकालेनागतश्च यः ।
स्रेहशीतोष्णसंस्पर्शो मिथ्यायोगः स उच्यते ॥ १२१ ॥
रूपाणां भास्वतां दृष्टिर्विनश्यति हि दर्शनात् ।
दर्शनाच्चांतिसूक्ष्माणां सर्वशश्चाप्यदर्शनात् ॥ १२२ ॥
द्विष्टभैरवबीभत्सद्रातिश्लिष्टदर्शनात् ।
तामसानां च रूपाणां मिथ्यासंयोग उच्यते ॥ १२३ ॥
अत्यादानमनादानमोकसात्म्यादिभिश्च यत् ।
रसानां विषमादान मल्पादानं च दूषणम् ॥ १२४ ॥
अतिमृद्वतितीक्ष्णानां गन्धानामुपसेवनम् ।
असेवनं सर्वशश्च घ्राणेन्द्रियविनाशनम् ॥ १२५ ॥
पूतिभूतविषद्विष्टा गन्धा ये चाप्यनार्तवाः \।
तैर्गन्धैर्घाणसंयोगो मिथ्यायोगः स उच्यते ॥ १२६ ॥
इत्यसात्म्यार्थसंयोगस्त्रिविधो दोषकोपनः ।
असात्म्यमिति तद्विद्याद्यन्न याति सहात्मताम् ॥ १२७ ॥
मिथ्यातिहीनयोगेभ्यो यो व्याधिरुपजायते ।
शब्दादीनां स विज्ञेयो व्याथिरैन्द्रियको बुधैः ॥ १२८ ॥
——————————————————————————————————————————————http://१ ‘भूताः सविषक्रिमिपिशाचादयः’ चक्रः \। २. “तिक्लिष्टदर्शनात् ’ यो ।
चंदनानार्मसात्म्याना मित्येते हेतवः स्मृताः ।
सुखहेतुर्मतस्त्वेकः समयोगः सुदुर्लभैः ॥ १२९ ॥
नेन्द्रियाणि न चैवार्थाः सुखदुःखस्य हेतवः \।
हेतुरंतु सुखदुःखस्य योगो दृष्टश्चतुर्विधः ॥ १३० ॥
सन्तीन्द्रियाणि सन्त्यर्था योगो न च न चास्ति रुक् ।
न सुखं, कारणं तस्माद्योग एव चतुर्विधः ॥ १३१ ॥
नात्मेन्द्रियं मनो बुद्धि गोचरं कर्म वा विना ।
सुखदुःखं, यथा यच बोद्धव्यं तत्तथोच्यते ॥ १३२ ॥
स्पर्शनेन्द्रिय संस्पर्शः स्पर्शो मानस एव च ।
द्विविधः सुखदुःखानां वेदनानां प्रवर्तकः ॥ १३३ ॥
इच्छाद्वेषात्मिका तृष्णा सुखदुःखात् प्रवर्तते ।
तृष्णा च सुखदुःखानां कारणं पुनरुच्यते ॥ १३४ ॥
उपादत्ते हि सा भावान् वेदनाश्रयसंज्ञकान् ।
स्पृश्यते नानुपादाने नास्पृष्टो वेत्ति वेदनाः ॥ १३५ ॥
वेदनानामधिष्ठानं मनो देहश्च सेन्द्रियः ।
केशलोमनखाग्रान्नमलद्रवगुणैर्विना ॥ १३६ ॥
योगे मोक्षे च सर्वासां वेदनानामवर्तनम् \।
मोक्षे निवृत्तिर्निःशेषा योगो मोक्षप्रवर्तकः ॥ १३७ ॥
आत्मेन्द्रिय मनोर्थानां सन्निकर्षात् प्रवर्तते ।
सुखदुःखमनारम्भादात्मस्थे मनसि स्थिरे ॥ १३८
निवर्तते तदुभयं वशित्वं चोपजायते ।
सशरीरस्य योगज्ञास्तं योगमृषयो विदुः ॥ १३९ ॥
आवेशश्चेतसो ज्ञानमर्थानां छन्दतः क्रिया \।
दृष्टिः श्रोत्रं स्मृतिः कान्तिरिष्टतश्चाप्य दर्शनम् ॥ १४० ॥
इत्यष्टविधमाख्यातं योगिनां बलमैश्वरम् ।
शुद्धसत्व समाधानात्तत् सर्वमुपजायते ॥ १४१ ॥
———————————————————————————————————————————————http://१ ‘वेदनानामशान्तानां’ ग. । २ ‘स दुर्लभः’ यो । ३ ‘नात्मेन्द्रियमनो- बुद्धिगोचरं’ ग. \। ४ ‘नानुपादान’ ग. \।
मोक्षो रजस्तमोऽभावाद्वलवत्कर्मसंक्षयात् ।
वियोगः कर्मसंयोगैर पुनर्भव उच्यते ॥ १४२ ॥
सतामुपासनं सम्यगसतां परिवर्जनम् ।
व्रतचर्योपवासश्च नियमाश्च पृथग्विधाः ॥ १४३ ॥
धारणं धर्मशास्त्राणां विज्ञानं विजने रतिः ।
विषयेष्वरतिर्मोक्षे व्यवसायः परा धृतिः ॥ १४४ ॥
कर्मणामसमारम्भः कृतानां च परिक्षयः ।
नैष्कम्यमनहङ्कारः संयोगे भयदर्शनम् ॥ १४५ ॥
मनोबुद्धिसमाधानमर्थतत्त्व परीक्षणम् ।
तत्त्वस्मृतेरुपस्थानात् सर्वमेतत् प्रवर्तते ॥ १४६ ॥
स्मृतिः सत्सेवनाद्यैश्च धृत्यन्तैरुपलभ्यते ।
स्मृत्या स्वभावं भावानां स्मरन् दुःखात् प्रमुच्यते ॥ १४७ ॥
वक्ष्यन्ते कारणान्यष्टौ स्मृतिरुपजायते ।
निमित्तरूपग्रहणात् साहइयात् सविपर्ययात् ॥ १४८ ॥
सत्त्वानुबन्धादभ्यासाज्ज्ञानयोगात् पुनः श्रुतात् ।
दृष्टश्रुतानुभूतानां स्मरणात् स्मृतिरुच्यते ॥ १४९ ॥
एतत्तदेकमयनं मुक्तैर्मोक्षस्य दर्शितम् ।
तत्त्वस्मृतिबलं येन गता न पुनरागताः ॥ १५० ॥
अयनं पुनराख्यातमेतद्योगस्य योगिभिः \।
संख्यातधर्मैः सांख्यैश्च मुक्कैर्मोक्षस्य चायनम् ॥ १५१ ॥
सर्व कारणवद्दुःखमस्वं चानित्यमेव च ।
र्न चात्मकृतकं तद्धि तत्र चोत्पद्यते स्वता ॥ १५२ ॥
यावनोत्पद्यते सत्या बुद्धिदहं यया \।
नैतन्ममेति विज्ञाय ज्ञः सर्वमतिवर्तते ॥ १५३ ॥
———————————————————————————————————————————————http://१ ‘सर्वसंयोगैः’ च. । २ ‘शश्वदसतां’ यो । ३ ‘ब्रह्मचर्योपवासौ च’ यो । ४ ’ नैष्क्रम्यं संसारनिःसरणेच्छा’ चक्रः । ‘नैष्कर्म्यमनहङ्कारः’ यो । ५ ‘तत्त्वं स्मृतेरुपस्थानात्’ ग. । ६ ‘न चात्मा कृतकं’ ग. ।
तस्मिंश्चरमसंन्यासे समूलाः सर्ववेदनाः।
असंज्ञाज्ञानविज्ञाना1024 निवृत्तिं यान्त्यशेषतः॥१५४॥
अतः परं ब्रह्मभूतो भूतात्मा नोपलभ्यते।
निःसृतः सर्वभावेभ्यश्चिह्नं यस्य न विद्यते॥१५५॥
गतिर्ब्रह्मविदां ब्रह्म तच्चाक्षरमलक्षणम्।
ज्ञानं1025 ब्रह्मविदां चात्र नाज्ञस्तज्ज्ञातुमर्हति ॥१५६॥
तत्र श्लोकः।
प्रश्नाः पुरुषमाश्रित्य त्रयोविंशतिरुत्तमाः।
कतिधापुरुषीयेऽस्मिन्निर्णीतास्तत्त्वदर्शिना॥१५७॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते शारीरस्थाने कतिधा-
पुरुषीयं शारीरं नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
_______________
द्वितीयोऽध्यायः।
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अथातोऽतुल्यगोत्रीयं शारीरं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
अतुल्यगोत्रस्य रजःक्षयान्ते रहो विसृष्टं मिथुनीकृतस्य।
किं स्याच्चतुष्पात्प्रभवं च षड्भ्यो यत्स्त्रीषु गर्भत्वमुपैति पुंसः॥३॥
शुक्रं तदस्य प्रवदन्ति धीरा यद्धीयते गर्भसमुद्भवाय।
वाय्वग्निभूम्यबूगुणपादवत्तत् षड्भ्यो रसेभ्यः प्रभवश्च तस्य॥
संपूर्णदेहः समये सुखं च गर्भः कथं केन च जायते स्त्री।
गर्भं चिराद्विन्दति सप्रजाऽपि1026 भूत्वाऽथवा नश्यति केन गर्भः॥५॥
**शुक्रासृगात्माशयकालसंपद्यस्योपचाराश्च हितैस्तथाऽर्थैः1027।
गर्भश्च काले च सुखी सुखं च संजायते संपरिपूर्णदेहः॥६॥ **
योनिप्रदोषान्मनसोऽभितापाच्छुक्रासृगाहारविहारदोषात्।
अकालयोगाद्वलसंक्षयाच्च गर्भ चिराद्विन्दति सप्रजाऽपि॥७॥
असृङ् निरुद्धं पवनेन नार्या गर्भं व्यवस्यन्त्यबुधाः कदाचित्।
गर्भस्य रूपं हि करोति तस्यास्तदस्रमस्त्रावि1028 विवर्धमानम्॥८॥
तदग्निसूर्यश्रमशोकरोषैरुष्णान्नपानैरथवा प्रवृत्तम्।
दृष्ट्वासृगेकं न च गर्भमज्ञाः1029 केचिन्नरा भूतहृतं वदन्ति॥९॥
ओजोशनानां रजनीचराणामाहारहेतोर्न शरीरमिष्टम्।
गर्भं हरेयुर्यदि ते न मातुर्लब्धावकाशा न हरेयुरोजः॥१०॥
कन्यां सुतं वा सहितौ पृथग्वा सुतौ सुते वा तनयान् बहून् वा।
कस्मात्प्रसूते सुचिरेण गर्भमेकोऽभिवृद्धिं च यमेऽभ्युपैति॥११॥
रक्तेन कन्यामधिकेन पुत्रं शुक्रेण, तेन द्विविधीकृतेन।
बीजेन कन्यां च सुतं च सूते यथा स्वबीजांन्यतराधिकेन॥१२॥
शुक्राधिकं द्वैधमुपैति बीजं यस्याः सुतौ सा सहितौ प्रसूते।
रक्ताधिकं वा यदि भेदमेति द्विधा सुते सा सहिते प्रसूते॥१३॥
भिनत्ति यावद्बहुधाप्रपन्नः शुक्रार्तवं वायुरतिप्रवृद्धः।
तावन्त्यपत्यानि यथाविभागं कर्मात्मकान्यस्ववशात् प्रसूते॥१४॥
आहारमाप्नोतियदा न गर्भः शोषं समाप्नोति परिस्रुतिं1030 वा।
तं स्त्री प्रसूते सुचिरेण गर्भे पुष्टो यदा वर्षगणैरपि स्यात्॥१५॥
कर्मात्मकत्वाद्विषमांशभेदाच्छुक्रासृजं वृद्धिमुपैति कुक्षौ।
एकोऽधिको न्यूनतरो द्वितीयो यमेऽधिकेऽप्येष भवेद्विशेषः॥१६॥
कस्माद्विरेताः पवनेन्द्रियो वा संस्कारवाही नरनारिषण्डौ।
वक्री तथेर्ष्याभिरतिः कथं वा संजायते वातिकषण्डको वा॥१७॥
बीजात् समांशादुपतप्तबीजात् स्त्रीपुं^(१)सलिङ्गी भवति द्विरेताः।
शुक्राशयं गर्भगतस्य हत्वा करोति वायुः ^(२)पवनेन्द्रियत्वम्॥१८॥
शुक्राशयद्वारविघट्टनेन संस्का^(३)रवाहं कुरुतेऽनिलश्च।
मन्दाल्पबीजावबलावहर्षौ क्लीबौच हे^(४)तुर्विकृतिद्वयस्य॥१९॥
मातुर्व्य^(५)वायप्रतिधेन वक्री स्याद्बीजदौर्बल्यतया पितुश्च।
ईर्ष्याभिभूतावपि मन्दहर्षावी^(६)र्ष्यारतेरेव वदन्ति हेतुम्॥२०॥
वाय्वग्निदोषाद्वृषणौ तु यस्य नाशं गतौ वातिकषण्डकः सः।
इत्येवमटौ विकृतिप्रकाराः कर्मात्मकानामुपलक्षणीयाः॥२१॥
गर्भस्य सद्योऽनुगतस्य कुक्षौ स्त्रीपुंनपुंसामुदरस्थितानाम्।
किं लक्षणं कारणमिष्यते किं सरूपतां येन च यात्यपत्यम्॥२२॥
निष्ठीविका गौरवमङ्गसादस्तन्द्राप्रहर्षौहृदयव्यथा च।
तृप्तिश्च बीजग्रहणं च योन्या गर्भस्य सद्योऽनुगतस्य लिङ्गम्॥२३॥
सव्याङ्गचेष्टा पुरुषार्थिनी स्त्री स्त्रीस्वप्नपानाशनशीलचेष्टा।
सव्यात्तगर्भा1031 न च वृत्तगर्भा सव्यप्रदुग्धा स्त्रियमेव सूते॥२४॥
१’स्त्रीपुंसलिङ्गीतिस्त्रीपुरुषसाधारणनासिकाचक्षुरादिलिङ्गयुक्तः,यानितुस्त्रीपुंसोरसाधारणानि उपस्थध्वजस्तनश्मश्रुप्रभृतीनि तानि चास्य न भवन्तीति;किंवा स्त्रीपुंसोर्यल्लिङ्गमुपस्थध्वजरूपं तद्युक्ताएव स्त्रीपुंसलिङ्गी, उत्तरकालभाविन्यस्य स्तनश्मश्रुप्रभृतीनि न भवन्ति’ चक्रः।
२ ‘पवनेन्द्रियत्वं पवनशुक्रत्वं,शुक्रहीनपवनस्य चेदं शुक्रत्वं यद्यवायकाले शुक्रसदृशरूपतया प्रवर्तनं, तद्वायुरेव परं व्यवायकाले याति’ चक्रः।
३ ‘संस्कारेण वाजीकरणादिना परंयस्य शुक्रमदुष्टद्वारं सत्प्रवर्तते स संस्कारवाहः, अत्रचसंस्कारवाहेनसुश्रुतोक्ता
आसेक्यसौगन्धिककुम्भीकाअन्तर्भावनीयाः,यतएतेऽपिसंस्कारेणैवशुक्रं त्यजन्ति’ चक्रः; ‘संस्कारवाहं हि करोति वायुः’ ग.।
४ ‘क्लीबावितिदुष्टबीजौ; हेतुर्विकृतिद्वयस्येति अत्र यथोक्तगुणा स्त्री स्त्रीषण्डस्य, यथोक्तगुणःपुरुषस्तु पुरुषषण्डस्येति ज्ञेयं’ चक्रः।
५ ‘व्यवायप्रतिधेनेति व्यवायकाले मातुर्व्यवायानिच्छा विषमाङ्गव्यासो वा व्यवायप्रतिघः, तेन प्रतिष्ठितं यस्यशुक्रं गर्भाशयं नियमान्नोपैतिसवक्रीत्युच्यते’ इति चक्रः।
६ ‘परव्यवायंदृष्ट्वा प्राप्तध्वजोच्छ्रायो व्यवायासक्तो भवति स ईर्ष्यारतिः’ इति चक्रः।
पुत्रं त्वतो लिङ्गविपर्ययेण, व्यामिश्रलिङ्गाप्रकृतिं तृतीयाम्।
गर्भोपपत्तौतु मनः स्त्रियायं जन्तुं व्रजेत्तत्सदृशंप्रसूते॥२५॥
गर्भस्यचत्वारि चतुर्विधानि भूतानि मातापितृसंभवानि।
आहारजान्यात्मकृतानि चैव सर्वस्यसर्वाणि भवन्ति देहे॥२६॥
तेषां विशेषाद्बलवन्ति यानि भवन्ति मातापितृकर्मजानि।
तानि व्यवस्येत्सद्धशत्वहेतुं1032सत्त्वं यथाऽनूकमपि1033 व्यवस्येत्॥२७॥
कस्मात्प्रजां स्रविकृतां प्रसूते हीनाधिकाङ्गीं विकलेन्द्रियां च।
देहात्कथंदेहमुपैति चान्यमात्मा सदा कैरनुबध्यते च॥२८॥
बीजात्मकर्माशयकालदोषैर्मातुस्तथाऽऽहारविहारदोषैः।
कुर्वन्ति दोषा विविधानि दुष्टाः संस्थानवर्णेन्द्रियवैकृतानि॥२९॥
वर्षासुकाष्ठाश्मघनाम्बुवेगास्तरोः सरित्स्रोतसिसंस्थितस्य।
यथैव कुर्युर्विकृतिं तथैव गर्भस्य कुक्षौ नियतस्य दोषाः॥६०॥
भूतैश्चतुर्भिःसहितः सुसूक्ष्मै1034र्मनोजवो देहमुपैति देहात्।
कर्मात्मकत्वान्न तु तस्य दृश्यंदिव्यं विना दर्शनमस्ति रूपम्॥३१॥
स सर्वगः सर्वशरीरभृच्चस विश्वकर्मा स च विश्वरूपः।
स चेतनाधातुरतीन्द्रियश्च स नित्ययुक् सानुशयः1035स एव॥३२॥
रसात्ममातापितृसंभवानि भूतानि विद्याद्दश षट्च देहे।
चत्वारि तत्रात्मनि संश्रितानि स्थितस्तथाऽऽत्मा च चतुर्षु तेषु॥३३॥
भूतानि मातापितृसंभवानि रजश्च शुक्रं चवदन्ति गर्भे।
आप्याय्यते शुक्रमसृक्चभूतैर्यैस्तानि भूतानि रसोद्भवानि॥३४॥
भूतानि चत्वारि तु कर्मजानि यान्यात्मलीनानि विशन्ति गर्भम्।
स बीजधर्मा ह्यपरापराणिदेहान्तराण्यात्मनि याति याति॥३५॥
रूपाद्धि रूपप्रभवः प्रसिद्धः कर्मात्मकानां मनसो मनस्तः।
भवन्ति ये त्वाकृतिबुद्धिभेदा रजस्तमः कर्म च तत्र हेतुः॥३६॥
अतीन्द्रियैस्तैरतिसूक्ष्मरूपैरात्मा कदाचिन्न वियुक्तरूपः।
न कर्मणा नैव मनोमतिभ्यां न चाप्यहङ्कारविकारदोषैः॥३७॥
रजस्तमोभ्यां तु मनोऽनुबद्धं ज्ञानं1036 विना तत्र हि सर्वदोषाः।
गतिप्रवृत्त्योस्तु निमित्तमुक्तं मनः सदोषं बलवच्च कर्म॥३८॥
रोगाः कुतः संशमनं किमेषां हर्षस्य शोकस्य च किं निमित्तम्।
शरीरसत्त्वप्रभवा विकाराः कथं न शान्ताः पुनरापतेयुः॥३९॥
प्रज्ञापराधो विषमास्तथाऽर्था1037 हेतुस्तृतीयः परिणामकालः।
सर्वामयानां त्रिविधा च शान्तिर्ज्ञानार्थकालाः समयोगयुक्ताः॥४०॥
धर्म्याः क्रिया हर्षनिमित्तमुक्तास्ततोऽन्यथा शोकवशं नयन्ति।
शरीरसत्त्वप्रभवास्तु दोषास्तयोरवृत्या न भवन्ति भूयः॥४१॥
रूपस्य1038 सत्वस्य च संततिर्या नोक्तस्तदादिर्न हि सोऽस्ति कश्चित्।
तयोरवृत्तिः क्रियते पराभ्यां धृतिस्मृतिभ्यां परया धिया च॥४२॥
सत्याश्रये वा द्विविधे यथोक्ते पूर्वं गदेभ्यः प्रतिकर्म नित्यम्।
जितेन्द्रियं नानुपतन्ति रोगास्तत्काललयुक्तं यदि नास्ति दैवम्॥४३॥
दैवं पुरा यत्कृतमुच्यते तत्, तत् पौरुषं यत्विह कर्म दृष्टम्।
प्रवृत्तिहेतुर्विषमः स दृष्टो निवृत्तिहेतुस्तु समः स एव॥४४॥
हैमन्तिकं दोषचयं वसन्ते प्रवाहयन् ग्रैष्मिकमभ्रकाले।
घनात्यये वार्षिकमाशु सम्यक्प्राप्नोति रोगानृतु जान्न जातु॥४५॥
नरो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।
दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः॥४६॥
मतिर्वचःकर्म सुखानुबन्धं (न्धि) सत्त्वं विधेयं विशदा च बुद्धिः1039।
ज्ञानं तपस्तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुपतन्ति रोगाः॥४७॥
तत्र श्लोकः।
इहाग्निवेशस्य महार्थयुक्तं षड्त्रिंशकं प्रश्नगणं महर्षिः।
अतुल्यगोत्रे भगवान् यथावन्निर्णीतवाञ्न्ज्ञानविवर्धनार्थम्॥४८॥
इत्यग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते चतुर्थे शारीरस्थानेअतु-
ल्यगोत्रीयशारीरं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
—————
तृतीयोऽध्यायः।
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अथातः खुड्डीकां गर्भावक्रान्तिं शारीरं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
पुरुषस्यानुपहतरेतसः स्त्रियाश्चप्रदुष्टयोनिशोणितगर्भाशयायायदा भवति संसर्गः ऋतुकाले, यदा चानयोःतथाविधयो1040स्तथैव युक्तेसंसर्गेशुक्रशोणितसंसर्गमन्तर्गर्भाशयगतं जीवोऽवक्रामति सत्त्वसंप्रयोगात्तदा गर्भोऽभिनिर्वर्तते।1041 ससात्म्यरसोपयोगादरोगोऽभिवर्धते सम्यगुपचारैश्चोपचर्यमाणः। ततः प्राप्तकालः सर्वेन्द्रियोपपन्नः परिपूर्णशरीरो बलवर्णसत्त्वसंहननसंपदुपेतः सुखेन जायतेसमुदायादेषां भावानाम्। मातृजश्चायं गर्भः पितृजश्चात्मजश्चसात्म्यजश्चरसजश्चास्ति चसत्त्वमौपपादुकमिति1042 होवाच भगवानात्रेयः॥३॥
नेति भरद्वाजः।किं कारणं ? न हि माता न पिता नात्मा नसात्म्यं न पानाशनभक्ष्यलेह्योपयोगा गर्भ जनयन्ति, न च परलोकादेत्य सत्त्वं गर्भमंवक्रामति॥४॥
यदि हि मातापितरौ गर्भ जनयेतां तदा भूयस्यः स्त्रियः पुमांसश्चभूयांसः पुत्रकामाः, ते सर्वे पुत्रजन्माभिसंधाय मैथुनमापद्यमानाःपुत्रानेव जनयेयुर्दुहितॄर्वा दुहितृकामाः, न च काश्चित् स्त्रियःकेचिद्वा पुरुषा निरपत्याः स्युः, नचापत्यकामाः परिदेवेरन्॥५॥
न चात्माऽऽत्मानं जनयति।यदि ह्यात्माऽऽत्मानं जनयेत्जातो वाजनयेदात्मानमजातो वा; तच्चोभयथाऽप्ययुक्तं;1043 नहिजातो जनयति, सत्त्वात्; न चाजातो जनयति, असत्त्वात्त्; तस्मादुभयथाऽप्यनुपपत्तिः। तिष्ठतु तावदेतत् ; यद्ययमात्मानं शक्तो जनयितुं स्यात्, न त्वेनमिष्टास्वेव कथं योनिषु जनयेद्वशिनमप्रतिहृतगतिंकामरूपिणंतेजोबलजववर्णसत्त्वसंहननसमुदितमजरमरुजममरम्;एवंविधं ह्यात्माऽऽत्मानमिच्छत्यतो वा भूयः॥६॥
असात्म्यजश्चायं गर्भः। यदि हि सात्म्यजः स्यात्, तर्हि सात्म्यसेविनामेवैकान्तेन प्रजा स्यात्, असात्म्यसेविनश्च निखिलेनानपत्याः स्युः; तच्चोभयमुभयत्रैव दृश्यते॥ ७॥
अरसजश्चायं गर्भः;यदि हि रसजः स्यात्, न केचित् स्त्रीपुरुषेष्वनपत्याः स्युः, न हि कश्चिदस्त्येषां यो रसान्नोपयुङ्क्ते;श्रेष्ठरसोपयोगिनां चेद्गर्भा जायन्ते इत्यभिप्रेतम्, एवं सत्याजौरभ्रमार्गमायूररसगोक्षीरदधिघृतमधुतैलसन्धवेक्षुरसमुद्गशालिभृतानामेवैकान्तेन प्रजा स्यात्, श्यामाकवरकोद्दालककोरदूषककन्दमूलफलभक्ष्याश्च1044 निखिलेनानपत्याः स्युः; तच्चोभयमुभयत्रैवदृश्यते ॥८॥
न खल्वपि परलोकादेत्य सत्त्वंगर्भमवक्रामति। यदि ह्येनमवक्रामेत्1045, नास्य किंचिदेव पौर्वदेहिकं स्यादविदितमश्रुतमदृष्टं वा,स च तच्च किंचिदपि न स्मरति॥९॥
तस्मादेतह्ब्रूमहे1046— अमातृजश्चायं गर्भोऽपितृजश्चानात्मजश्चासात्म्यजश्चरसजश्च, न चास्ति सत्त्वमौपपादिकमिति होवाच भरद्वाजः॥१०॥
नेति भगवानात्रेयः; सर्वेभ्य एभ्यो भावेभ्यः समुदितेभ्योऽभिनिर्वर्तते गर्भः॥११॥
मातृजश्चायं गर्भः। न हि मातुर्विना गर्भोत्पत्तिः स्यात्, न च जन्म जरायुजानां; यानि तु खल्वस्य गर्भस्य मातृजानि, यानि चास्य मातृतः संभवतः संभवन्ति, तान्यनुव्याख्यास्यामः; तद्यथा—त्वक् च लोहितं च मांसं च मेदश्च नाभिश्च हृदयं च क्लोम च यकृञ्च प्लीहा च वृक्कौ च बस्तिश्च पुरीषाधानं चामाशयश्च पक्वाशयश्चोत्तरगुदं चाधरगुदं च क्षुद्रात्रं च स्थूलात्रं च वपा च वपावहनं चेति (मातृजानि)॥१२॥
पितृजश्चायं गर्भः। न हि पितुर्ऋते गर्भोटपत्तिः स्यात्, न च जन्म जरायुजानां; यानि तु खल्वस्य गर्भस्य पितृजानि, यानि चास्य पितृतः संभवतः संभवन्ति, तान्यनुव्याख्यास्यामः; तद्यथा—केशश्मश्रुनखलोमदन्तास्थिसिरास्त्रायुधमन्यः शुक्रं चेति (पितृजानि)॥ १३॥
आत्मजश्चार्य गर्भः। गर्भात्मा ह्यन्तरात्मा यः, तं जीव इत्याचक्षते शाश्वतमरुजमजरममरमक्षयमभेद्यमच्छेद्यमलोड्यं विश्वरूपं विश्वकर्माणमव्यक्तमनादिमनिधनमक्षरमपि; स गर्भाशयमनुप्रविश्य शुक्रशोणिताभ्यां संयोगमेत्य गर्भत्वेन जनयत्यात्मनाऽऽत्मानम्, आत्मसंज्ञा हि गर्भे। तस्य पुनरात्मनो जन्मानादित्वान्नोपपद्यते,तस्मादजात1047 एवायमजातं गर्भं जनयति, जातोऽप्यजातं च गर्भं जनयति; स चैव गर्भः कालान्तरेण बालयुवस्थविरभावानवाप्नोति, स यस्यां यस्यामवस्थायां वर्तते तस्यां तस्यां जातो भवति, या स्वस्य पुरस्कृता तस्यां जनिष्यमाणश्च; तस्मात् स एव जातश्चाजातश्च युगपद्भवति, तस्मिंश्चैतदुभयं युगपत् संभवति जातत्वं जनिष्यमाणत्वं च; स च जातो जन्यते, स चैवानागतेष्ववस्थान्तरेष्वजातो जनयत्यात्मनाऽऽत्मानं; सतो ह्यवस्थान्तरगमनमात्रमेव हिजन्म चोच्यते तत्र तत्र वयसि तस्यां तस्यामवस्थायां; यथा - सतामेव शुक्रशोणितजीवानां प्राक् संयोगाद्गर्भत्वं न भवति, तच्च संयोगाद्भवति; यथा सतस्तस्यैव च पुरुषस्य प्रागपत्यात् पितृत्वं न भवति,तच्चापत्याद्भवति; तथा सतस्तस्यैव गर्भस्य तस्यां तस्यामवस्थायांजातत्वमजातत्वंचोच्यते ॥१४॥
न तु खलु गर्भस्य न मातुर्न पितुर्नात्मनः सर्वभावेषु यथेष्टकारित्वमस्ति। ते किंचित् स्ववशात् कुर्वन्ति किंचित् कर्मवशात्, क्वचिचैषां करणशक्तेर्भवति क्वचिन्न भवति। यत्र सत्त्वादिकरणसंपत्तत्रयथाबलमेव यथेष्टकारित्वमतोऽन्यथा विपर्ययः। न च करणदोषादकारणमात्मा संभवति गर्भजनने, दृष्टं चेष्टा योनिरैश्वर्ये मोक्षश्चात्मविद्भिरात्मायत्तं, न ह्यन्यः सुखदुःखयोः कर्ता; न चान्यतोगर्भो जायते जायमानः, न चाङ्कुरोत्पत्तिरबीजात्॥१५॥
यानि तु खल्वस्य गर्भस्यात्मजानि, यानि चास्यात्मतः संभवतःसंभवन्ति, तान्यनुव्याख्यास्यामः; तद्यथा — तासु तासु योनिषूत्पत्तिरायुरात्मज्ञानं मन इन्द्रियाणि प्राणापानौ प्रेरणं धारणमाकृतिस्वरवर्णविशेषाः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ चेतना धृतिर्बुद्धिः स्मृतिरहङ्कारः प्रयत्नश्चेति (आत्मजानि)॥१६॥
सात्म्यजश्चायं गर्भः। न ह्यसात्म्यसेवित्वमन्तरेण स्त्री पुरुषयोर्वन्ध्यत्वमस्ति गर्भे वाऽप्यनिष्टो भावः; यावत् खल्वसात्म्यसेविनांस्त्रीपुरुषाणां त्रयो दोषाः प्रकुपिताः शरीरमुपसर्पन्तो न शुक्रशोणितगर्भाशयोपघातायोपपद्यन्ते तावत् समर्था गर्भजननायभवन्ति; सात्म्यसेविनां पुनः स्त्रीपुरुषाणामनुपहतशुक्रशोणितगर्भाशयानामृतुकाले संनिपतितानांजीवस्थान-वक्रमणादुर्भा न प्रादुर्भवन्ति; न हि केवलं साम्यज एवायं गर्भः, समुदायोऽत्र कारणमुच्यते। यानि तु खल्वस्य गर्भस्य सात्म्यजानि, यानि चास्य सात्म्यतःसंभवतः संभवन्ति, तान्यनुव्याख्यास्यामः;तद्यथा-आरोग्यमनालस्यमलोलुपत्वमिन्द्रियप्रसादः स्वरवर्णबीजसंपत्प्रहर्षभूयस्त्वंन्चेति (सात्म्यजानि)॥१७॥
रसजश्चायं गर्भः। न हि रसादृते मातुः प्राणयात्राऽपि स्यात् किं पुनर्गर्भजन्म, न चैवास्या अमसम्यगुपयुज्यमाना रसा गर्भमभिनिर्वर्तयन्ति, न च केवलं सम्यगुपयोगादेव रसानां गर्भाभिनिर्वृत्तिर्भवति, समुदायोऽप्यत्र कारणमुच्यते। यानि तु खल्वस्य गर्भस्य रसजानि, यानि चास्य रसतः संभवतः संभवन्ति, तान्यनुष्याख्यास्यामः; तद्यथा—शरीरस्याभिनिर्वृत्तिरभिवृद्धिः प्राणानुबन्धस्तृप्तिः पुष्टिरुत्साहश्चेति (रसजानि)॥१८॥
अस्ति खल्वपि सत्त्वमुपपादुकं1048, यज्जीवस्पृक् शरीरेणाभिसंबध्नाति। यस्मिन्नपगमनपुरस्कृते शीलमस्य व्यावर्तते, भक्तिर्विपर्यस्यते, सर्वेन्द्रियाण्युपतप्यन्ते, बलं हीयते, व्याधय आप्यायन्ते, यस्माद्धीनःप्राणाञ्जहाति, यदिन्द्रियाणामभिग्राहकं मन इत्यभिधीयते। तत्रिविधमाख्यायते—शुद्धं राजसं तामसं चेति। येनास्य मनो भूयिष्ठं, तेन द्वितीयायां1049 जातौ संप्रयोगो भवति; यदा तु, तेनैव शुद्धेन संयुज्यते तदा जातेरतिक्रान्ताया1050 अपि स्मरति; स्मार्तं हि ज्ञानमात्मनस्तस्यैव मनसोऽनुबन्धादनुवर्तते, यस्यानुवृत्तिं पुरस्कृत्य पुरुषो जातिस्मर इत्युच्यते। यानि खल्वस्य गर्भस्य सत्त्वजानि, यानि चास्य सत्वतः संभवतः संभवन्ति, तान्यनुव्याख्यास्यामः; तद्यथा—भक्तिः शीलं शौचं द्वेषः स्मृतिर्मोहस्त्यागो मात्सर्यं शौर्यं भयं क्रोधस्तन्द्रोत्साहस्तैक्ष्ण्यं मार्दवं गाम्भीर्यमनवस्थितत्वमित्येवमादयश्चान्ये, ते सत्त्वजा विकाराः; ता (या)नुत्तरकालं सत्वभेदमधिकृत्य उपदेक्ष्यामः (इति सत्त्वजानि)। नानाविधानि खलु सत्त्वानि; तानि सर्वाण्येकपुरुषे भवन्ति, न च भवन्त्येककालम् एकं तु प्रायोऽनुवृत्त्याऽऽह1051॥१९॥
एवमयं नानाविधानामेषां गर्भकराणां भावानां समुदायादभिनिर्वर्तते गर्भः, यथा कूटागारं नानाद्रव्यसमुदायात्, यथा वा रथो नानारथाङ्गसमुदायात्; तस्मादेतदवोचाममातृजश्चायं गर्भः पितृजश्चात्मजश्च सात्म्यजश्च रसजश्व, अस्ति च सत्त्वमुपपादुकमिति होवाच भगवानात्रेयः॥२०॥
भरद्वाज उवाच—यद्यथमेषां नानाविधानां गर्भकराणां भावानां समुदायादभिनिर्वर्तते गर्भः कथमयं संधीयते, यदि चापि संधींयते कस्मात् समुदायप्रभवः सन् गर्भो मनुष्यविग्रहेण जायते, मनुष्यश्च मनुष्यप्रभव उच्यते। तत्र चेदिष्टमेतद्यस्मान्मनुष्यो मनुष्यप्रभवस्तस्मादेव मनुष्यविग्रहेण जायते, यथा—गौर्गोप्रभवः, यथा चाश्वोऽश्वप्रभव इति, एवं सति यदुक्तमग्रे समुदायात्मक इति तदयुक्तम्। यदि च मनुष्यो मनुष्यप्रभवः कस्माज्जडान्धकुब्जमूकघामनमिन्मि-नव्यङ्गोन्मत्तकुष्ठकिलासिभ्यो जाताःपितृसदृशरूपा न भवन्ति। अथात्रापि बुद्धिरेवं स्यात्—स्वेनैवायमात्मा चक्षुषा रूपाणि वेत्ति, श्रोत्रेण शब्दान्, घ्राणेन गन्धान्, रसनेन रसान्, स्पर्शनेन स्पर्शान्, बुद्ध्या बोद्धव्यमितिः अनेन हेतुना न जडादिभ्यो जाताः पितृसध्या भवन्ति। अत्रापि प्रतिज्ञाहानिदोषः1052 स्यात्; एवमुक्ते ह्यात्मा सत्स्विन्द्रियेषु ज्ञः स्यादसत्स्वज्ञः, यत्र चैतदुभयं संभवति ज्ञत्वमज्ञत्वं च स विकारप्रकृतिकश्चात्मा निर्विकारश्च1053। यदि च दर्शनादिभिरात्मा विषयान् वेत्ति, निरिन्द्रियो दर्शनादिविरहादज्ञः स्यात्, अज्ञत्वादकारणम्, अकारणत्वाच्च नात्मेति वाग्वस्तु मात्रमेतद्वचनमनर्थकं स्यादिति॥२१॥
आत्रेय उवाच—पुरस्तादेतत् प्रतिज्ञातं—सत्त्वं जीवस्पृक् शरीरेणाभिसंबनातीति;यस्मात्तु समुदायप्रभवः सन् गर्भो मनुष्यविग्रहेण जायते, मनुष्यो मनुष्यप्रभव इत्युच्यते, तद्वक्ष्यामः—भूतानां चतुर्विधा योनिर्भवति—जराय्वण्डस्वेदोद्भिदः। तासां खलु चतसृणामपि योनीनामेकैका योनिरपरिसंख्येयभेदा भवति, भूतानामाकृतिविशेषपरिसंख्येयत्वात्। तत्र जरायुजानामण्डजानां च प्राणिनामेते गर्भकरा भावा यां यां योनिमापद्यन्ते तस्यां तस्यां योनौ तथातथारूपा भवन्ति; तद्यथा- कनकरजतताम्रत्र पुसीसकान्यासिच्यमानानि तेषु तेषु मधूच्छिष्टविम्बेषु1054, तानि यदा मनुष्यबिम्बमापद्यन्ते तदा मनुष्यविग्रहेण जायन्ते; तस्मात् समुदायात्मक1055ःसन् गर्भो मनुष्यविग्रहेण जायते, मनुष्यो मनुष्यप्रभव इत्युच्यते तद्योनित्वात्॥२२॥
यच्चोक्तं – यदि च मनुष्यो मनुष्यप्रभवः कस्मान्न जडादिभ्यो जाताःपितृसदृशरूपा भवन्तीति, तत्रोच्यते—यस्य यस्य ह्यङ्गावयवस्यबीजे बीजभाग उपतप्तो भवति तस्य तस्याङ्गावयवस्य विकृतिरुपजायते,नोपजायते चानुपतापात् तस्मादुभयोपपत्तिरप्यत्र; सर्वस्यचात्मजानीन्द्रियाणि, तेषां भावाभावहेतुर्दैवं, तस्मान्नैकान्ततोजडादिभ्यो जाताः पितृसदृशरूपा भवन्ति॥२३॥
न चात्मा सत्विन्द्रियेषु ज्ञः, असत्सु वा भवत्यज्ञः न ह्यसवः कदाचिदात्मा, सच्चविशेषाञ्चोपलभ्यते ज्ञानविशेष इति॥२४॥
भवन्ति चात्र।
न कर्तुरिन्द्रियाभावात् कार्यज्ञानं प्रवर्तते।
यैः क्रिया1056 वर्तते या तु सा विना तैर्न वर्तते॥२५॥
जानन्नपि मृदोऽभावात् कुम्भकृन्न प्रवर्तते।
श्रूयतां चे (वे)दमध्यात्ममात्मज्ञानबलं महत्॥२६॥
इन्द्रियाणि च संक्षिप्य मनः संगृह्य1057 चञ्चलम्।
प्रविश्याध्यात्ममात्मज्ञः स्त्रे ज्ञाने पर्यवस्थितः॥२७॥
सर्वत्र विहितज्ञानः1058 सर्वभावान् परीक्षते।
गृह्णीष्व चे(वे)दमपरं भरद्वाज विनिर्णयम्॥२८॥
निवृत्तेन्द्रियवाक्चेष्टः सुप्तः स्वप्नगतान्1059 यदा।
विषयान् सुखदुःखे च वेत्ति नाज्ञोऽप्यतः स्मृतः॥२९॥
नात्मज्ञानाहते चैकं1060 ज्ञानं किंचित् प्रवर्तते।
न ह्येको वर्तते भावो वर्तते नाप्यहेतुकः॥३०॥
तस्माज्ज्ञः प्रकृतिश्चात्मा द्रष्टा कारणमेव च।
सर्वमेतद्भरद्वाज निर्णीतं जहि संशयम्॥३१॥
तत्र श्लोकौ।
हेतुगर्भस्य निर्वृत्तौ वृद्धौ जन्मनि चैव यः।
पुनर्वसुमतिर्या च भरद्वाजमतिश्च या॥३२॥
प्रतिज्ञाप्रतिषेधश्च विशदश्वात्मनिर्णयः।
गर्भावक्रान्तिमुद्दिश्य खुड्डीकां तत् प्रकाशितम्॥३३॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चतुर्थे शारीरस्थाने खुड्डीका-
गर्भावकान्तिशारीरं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
——————
चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातो महतीं गर्भावक्रान्तिं शारीरं व्याख्यास्यामः ॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
यतश्च गर्भः संभवति, यस्मिंश्च गर्भसंज्ञा, यद्विकारश्च गर्भो,यया चानुपूर्व्याऽभिनिर्वर्तते कुक्षौ, यश्चास्य वृद्धिहेतुः, यतश्चास्याजन्म भवति, यतश्च जायमानः कुक्षौ विनाशं प्राप्नोति, यतश्च कार्त्स्न्येनाविनश्यन् विकृतिमापद्यते, तदनुव्याख्यास्यामः॥३॥
मातृतः पितृत आत्मतः सात्म्यतो रसतः सत्वत इत्येतेभ्यो भावेभ्यः समुदितेभ्यो गर्भः संभवति। तस्य ये येऽवयवा यतो
यतः संभवतः संभवन्ति तान् विभज्य मातृजादीनवयवान् पृथक् पृथगुक्तमग्रे॥४॥
शुक्रशोणितजीवसंयोगे तु खलु कुक्षिगते गर्भसंज्ञा भवति॥५॥
गर्भस्तु खल्वन्तरीक्षवाय्वग्नितोयभूमिविकारश्चेतनाधिष्ठानभूतः; एवमनया युक्त्या पञ्चमहाभूतविकारसमुदायात्मको गर्भश्चेतनाधिष्ठानभूतः, स ह्यस्य षष्ठो धातुरुक्तः॥६॥
यया चानुपूर्व्याऽभिनिर्वर्तते कुक्षौ तामनुष्याख्यास्यामः—गते पुराणे रजसि नवे चावस्थिते शुद्धस्त्रातां स्त्रियमव्यापन्नयोनिशोणितगर्भाशयामृतुमतीमाचक्ष्महे, तया सह तथाभूतया यदा पुमानव्यापन्नबीजो मिश्रीभावं गच्छति तस्य हर्षोदीरितः परः शरीरधात्वात्मा शुक्रभूतोऽङ्गादङ्गात् संभवति, स तथा हर्षभूतेनात्मनोदी रितश्चाधिष्ठितबीजधातुः पुरुषशरीरादभिनिष्पत्योचितेन1061 पथा गर्भाशयमनुप्रविश्यातवेनाभिसंसर्गमेति॥७॥
तत्र पूर्वं चेतनाधातुः सत्त्वकरणो1062 गुणग्रहणाय प्रवर्तते। स हि हेतुः कारणं निमित्तमक्षरं कर्ता मन्ता वेदिता1063 बोद्धा द्रष्टा धाता ब्रह्मा विश्वकर्मा विश्वरूपः पुरुषः प्रभवोऽव्ययो नित्यो गुणी ग्रहणं प्रधानमव्यक्तं जीवो ज्ञः पुद्गलश्चेतनावान् वि(प्र)भुर्भूतात्मा चेन्द्रियात्मा चान्तरात्मा चेति॥८॥
स गुणोपादानकालेऽन्तरीक्षं पूर्वतरमन्येभ्यो गुणेभ्य उपादत्ते,यथा प्रलयात्यये सिसृक्षुर्भूतान्यक्षरभूतः सत्त्वोपादानःपूर्वतरमाकाशं सृजति, ततः क्रमेण व्यक्ततरगुणान् धातून्वाय्वादींश्चतुरः; तथा देहग्रहणेऽपि प्रवर्तमानः पूर्वतरमाकाशमेवोपादत्ते, ततः क्रमेण व्यक्ततरगुणान् धातून्वाय्वादींश्चतुरः; सर्वमपि तु खल्वेतद्गुणोपादानमणुना कालेन भवति॥९॥
स सर्वगुणवान् गर्भत्वमापन्नःप्रथमे मासि संमूर्च्छितः सर्वधातुकललीकृतः1064 खेटभूतो भवत्यव्यक्तविग्रहः सदसद्भूताङ्गावयवः॥१०॥
द्वितीये मासि घनः संपद्यते—पिण्डः पेश्यर्बुदं वा; तत्र1065 पिण्डः पुरुषः, स्त्री पेशी, अर्बुदं नपुंसकम्॥११॥
तृतीये मासि सर्वेन्द्रियाणि सर्वाङ्गावयवाश्च यौगपद्येनाभिनिर्वर्तन्ते॥१२॥
तत्रास्य केचिदङ्गावयवा मातृजादीनवयवान् विभज्य पूर्वमुक्ता यथावत्, महाभूतविकारप्रविभागेन त्विदानीमस्य तांश्चैवाङ्गावयवान् कांश्चित् पर्यायान्तरेणापरांश्चानुव्याख्यास्यामः; मातृजादयोऽप्यस्य महाभूतविकारा एव। तन्त्रास्याकाशात्मकं—शब्दः श्रोत्रं लाघवं सौक्ष्म्यं विवेकश्च;वाय्वात्मकं—स्पर्शः स्पर्शनं रौक्ष्यं प्रेरणं धातुव्हनं चेष्टाश्च शारीर्यः; अग्न्यात्मकं—रूपं दर्शनं प्रकाशः पक्तिरौष्ण्यं च; अबात्मकं रसो रसनं शैत्यं मार्दवः स्नेहः क्लेदश्च; पृथिव्यात्मकं गन्धो घ्राणं गौरवं स्थैर्यं मूर्तिश्च॥१३॥
एवमयं लोकसंमितः पुरुषः। यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषाः, तावन्तः पुरुषे; यावन्तः पुरुषे, तावन्तो लोके इति; बुधास्त्वेवं द्रष्टुमिच्छन्ति॥१४॥
एवमस्येन्द्रियाण्यङ्गावयवाश्च यौगपद्येनाभिनिर्वर्तन्ते, अन्यत्र तेभ्यो भावेभ्यो येऽस्य जातस्योत्तरकालं जायन्ते; तद्यथा—दन्ता व्यञ्जनानि व्यक्तीभावः, तथायुक्तानि चापराणि, एषा प्रकृतिः; विकृतिः पुनरतोऽन्यथा । सन्ति खल्वस्मिन् गर्भे केचिञ्च नित्या भावाः, सन्ति चानित्याः केचित्॥१५॥
तस्य य एवाङ्गावयवाः संतिष्ठन्ते, त एव स्त्रीलिङ्गं पुरुषलिङ्गं नपुंसकलिङ्गं वा बिभ्रति। तत्र स्त्रीपुरुषयोर्ये वैशेषिका भावाः प्रधानसंश्रया गुणसंश्रयाश्च तेषां यतो भूयस्त्वं ततोऽन्यतरभावः। तद्यथा—क्लैब्यं भीरुत्वमवैशारद्यं मोहोऽनवस्थानमधोगुरुत्वमसंहननं शैथिल्यं मार्दवं गर्भाशयबीजभागस्तथायुक्तानि चापराणि स्त्रीकराणि, अतो विपरीतानि पुरुषकराणि, उभयभागभावानि1066 नपुंसकराणि॥१६॥
तस्य यत्कालमेवेन्द्रियाणि संतिष्ठन्ते तत्कालमेवास्य चेतसि वेदना निर्बन्धं प्राप्नोति, तस्मात्तदा प्रभृति गर्भः स्पन्दते प्रार्थयते च जन्मान्तरानुभूतं च यत् किञ्चित् तद् द्वैहृदय्यमाचक्षते वृद्धाः। मातृजं चास्य हृदयं मातृहृदयेनाभिसंबद्धं भवति रसवाहिनीभिः संवाहिनीभिः; तस्मात्तयोस्ताभिर्भक्तिः संपद्यते। तच्चैव कारणमवेक्षमाणान1067 द्वैहृदय्यस्य विमानितं गर्भमिच्छन्ति कर्तुं, विमानने ह्यास्य दृश्यतेविनाशो विकृतिर्वा, समानयोगक्षेमा हि तदा भवति गर्भेण केषुचिदर्थेषु माता; तस्मात् प्रियहिताभ्यां गर्भिणीं विशेषेणोपचरन्ति कुशलाः॥१७॥
तस्या गर्भापत्तेहृदय्यस्य च विज्ञानार्थं लिङ्गानि समासेनोपदेक्ष्यामः।उपचारसाधनं1068 ह्यस्य ज्ञाने, ज्ञानं च लिङ्गतः; तस्मादिष्टोलिङ्गोपदेशः। तद्यथा—आर्तवादर्शनमास्यसंस्त्रवणमनन्नाभिलापश्छर्दिररोचकोऽम्लकामता च विशेषेण श्रद्धाप्रणयनं चोच्चावचेषुभावेषु गुरुगात्रत्वं चक्षुषोर्ग्लानिरलास्यं स्तनयोः स्तन्यमोष्ठयोः1069स्तनमण्डलयोश्च कार्ष्ण्यमत्यर्थंश्वयथुश्च पादयोरीषद्रोमराज्युद्गमो योन्याश्चाटालत्वमितिगर्भे पर्यागते रूपाणि भवन्ति॥१८॥
सा यद्यदिच्छेत्तत्तदस्यैदद्यादन्यत्रगर्भोपघातकरेभ्यो भावेभ्यः। गर्भोपघातकरास्त्विमे भावाः। तद्यथा—सर्वमतिगुरूष्णतीक्ष्णं दारुणाश्च चेष्टाः, इमांश्चान्यानुपदिशन्ति वृद्धाः—देवतारक्षोऽनुचरपरिरक्षणार्थं न रक्तानि वासांसि बिभृयान्न मदकराणि मद्यान्यभ्यवहरेन्न यानमधिरोहेन्न मांसमश्नीयात् सर्वेन्द्रियप्रतिकूलांश्च भावान् दूरतः परिवर्जयेद्यच्चान्यदपि किंचित् स्त्रियो विद्युः॥१९॥
तीव्रायां तु खलु प्रार्थनायां काममहितमप्यस्यै हितेनोपहितं दद्यात् प्रार्थनाविनयनार्थं; प्रार्थनासंधारणाद्धि वायुः कुपितोऽन्तः शरीरमनुचरन् गर्भस्यापद्यमानस्य विनाशं वैरूप्यं वा कुर्यात्॥२०॥
चतुर्थे मासि स्थिरत्वमापद्यते गर्भः; तस्मात्तदा गर्भिणी गुरुगात्रत्वमापद्यते विशेषेण॥२१॥
पञ्चमे मासि गर्भस्य मांसशोणितोपचयो भवत्यधिकमन्येभ्यो मासेभ्यः; तस्मात्तदा गर्भिणी कार्यमापद्यते विशेषेण॥२२॥
षष्ठे मासि गर्भस्य बलवर्णोपचयो भवत्यधिकमन्येभ्यो मासेभ्यः; तस्मात्तदा गर्भिणी बलवर्णहानिमापद्यते विशेषेण॥२३॥
सप्तमे मासि गर्भः सर्वभावैराप्याय्यते, तस्मात्तदा गर्भिणी सर्वाकारैः क्लान्ततमा1070 भवति॥२४॥
अष्टमे मासि गर्भश्च मातृतो गर्भतश्च माता रसवाहिनीभिः संवाहिनीभिर्मुहुर्मुहुरोजः परस्परत आददाते गर्भस्य1071 संपूर्णत्वात्, तस्मात्तदा गर्भिणी मुहुर्मुहुर्मुदा युक्ता भवति मुहुर्मुहुश्च ग्लाना, तथा गर्भः; तस्मात्तदा गर्भस्य जन्म व्यापत्तिमद्भवत्योजसोऽनवस्थितत्वात्; तं चैवार्थमभिसमीक्ष्याष्टमं मासमंगण्यमित्याचक्षते1072 कुशलाः॥२५॥
तस्मिन्नेकदिवसातिक्रान्तेऽपि नवमं मासमुपादाय प्रसवकालमित्याहुराद्वादशान्मासात्, एतावान् प्रसवकालः; वैकारिकमतः परं कुक्षाववस्थानं गर्भस्य॥२६॥
एवमनयाऽऽनुपूर्व्याऽभिनिर्वर्तते कुक्षौ॥२७॥
मात्रादीनां तु खलु गर्भकराणां भावानां संपदस्तथा वृत्तस्य सौष्ठवान्मातृतश्चैवोपस्नेहोपस्त्रेदाभ्यां कालपरिणामात् स्वभावसंसिद्धेश्च कुक्षौ वृद्धिं प्राप्नोति॥२८॥
मात्रादीनां तु खलु गर्भकराणां भावानां व्यापत्तिनिमित्तमस्याजन्म भवति॥२९॥
ये ह्यस्य कुक्षौ वृद्धिहेतुसमाख्याता भावास्तेषां विपर्ययादुदरे विनाशमापद्यतेऽथवाऽप्यचिरजातःस्यात्॥३०॥
यतस्तु कात्म्यैनाविश्यन् विकृतिमापद्यते तदनुव्याख्यास्यामः— यदा स्त्रिया दोषप्रकोपणोक्तान्यासेवमानाया1073 दोषाः प्रकुपिताः शरीरमुपसर्पन्तः शोणितगर्भाशयोपघातायोपपद्यन्ते न तु कार्त्स्न्येन शोणितगर्भाशयौ दूषयन्ति तदेयं गर्भं लभते स्त्री, तदा तस्य गर्भस्य मातृजानामवयवानामन्यतमोऽवयवो विकृतिमापद्यते एकोऽथवानेके, यस्य यस्य ह्यवयवस्य बीजे बीजभागे वा दोषाः प्रको- पमापद्यन्ते तं तमवयवं विकृतिराविशति; यदा ह्यस्याः शोणितगर्भाशयबीजभागः प्रदोषमापद्यते तदा वन्ध्यां जनयति, यदा पुनरस्याः शोणितगर्भाशयबीजभागावयवः प्रदोषमापद्यते तदा पूतिप्रजां जनयति, यदा स्वस्याः शोणितगर्भाशयबीजभागावयवःस्त्रीकराणां च शैरीरबीजभागानामेकदेशः1074 प्रदोषमापद्यते तदा यस्य रुयाकृतिभूयिष्ठामस्त्रियं वार्तो1075 नाम जनयति; तां स्त्रीव्यापदमाचक्षते॥३०॥
एवमेव1076 पुरुषस्य बीजदोषे पितृजावयवविकृतिं विद्यात्। यदा ह्यस्य बीजे बीजभागः प्रदोषमापद्यते तदा वन्ध्यं जनयति, यदा पुनरस्य बीजे बीजभागावयवः प्रदोषमापद्यते तदा पूतिप्रजं जनयति, यदा स्वस्य बीजे बीजभागावयवः पुरुषकराणां च शरीरबीजभागानामेकदेशः1077 प्रदोषमापद्यते तदा पुरुषाकृतिभूयिष्ठमपुरुषंतृर्णेपूलिकं1078 नाम जनयति, तां पुरुषव्यापदमाचक्षते॥३१॥
एतेन (मातृजानां पितृजानां चावयवानां विकृतिव्याख्यानेन) सात्म्यजानां रसजानां सत्त्वजानां चावयवानां विकृतिरपि व्याख्याता भवति॥३२॥
निर्विकारः परस्त्वात्मा सर्वभूतानां निर्विशेषः, सत्त्वशरीरयोस्तु विशेषाद्विशेषोपलब्धिः॥३३॥
तत्र त्रयः श(शा)रीरदोषाः - वातपित्तश्लेष्माणः, ते शरीरं दूषयन्ति; द्वौ पुनः सत्वदोषौ—रजस्तमश्च, तौ सत्त्वंदूषयतः; ताभ्यां च सत्वशरीराभ्यां दुष्टाभ्यां विकृतिरुपजायते, नोपजायते चाप्रदुष्टाभ्याम्॥३४॥
तत्र शरीरं योनिविशेषाञ्चतुर्विधमुक्तमग्रे॥३५॥
त्रिविधं खलु सत्वं — शुद्धं, राजसं, तामसमिति। तत्र शुद्धमदोषमाख्यातं कल्याणांशत्वात्, राजसं सदोषमाख्यातं रोषांशत्वात्, तथा तामसमपि सदोषमाख्यातं मोहांशत्वात्॥३६॥
तेषां तु त्रयाणामपि सत्त्वानामेकैकस्य भेदाग्रमपरिसंख्येयं तरतमयोगात्, शरीरयोनिविशेषेभ्यः, अन्योन्यानुविधानत्वाच्च । शरीरं सत्त्वमनुविधीयते, सत्त्वं च शरीरं; तस्मात् कतिचित् सत्त्वभेदार्ननूकाभिनिर्देशेन1079 निदर्शनार्थमनुव्याख्यास्यामः॥३७॥
तद्यथा—शुचिं सत्याभिसंधं जितात्मानं संविभागिनं ज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनशक्तिसंपन्नं स्मृतिमन्तं कामक्रोधलोभमानमोहेर्ष्याहर्षापेतं समं सर्वभूतेषु ब्राह्मं विद्यात्॥३८॥
इज्याध्ययनव्रतहोमब्रह्मचर्यपरमतिथिव्र॒त1080मुपशान्तमदमानरागद्वेषमोहलोभरोषं प्रतिभावचनविज्ञानोपधारण-शक्तिसंपन्नमार्षं विद्यात्॥३९॥
ऐश्वर्यवन्तमादेयवाक्यं यज्वानं शूरमोजस्विनं तेजसोपेतमक्लिष्टकर्माणं दीर्घदर्शिनं धर्मार्थकामाभिरतमैन्द्रं विद्यात्॥४०॥
लेखास्थवृत्तं1081 प्राप्तकारिणमसंग्रहार्यमुत्थानवन्तं स्मृतिमन्तमैश्वर्यालम्बिनं1082 व्यपगतरागेर्ष्याद्वेषमोहं याम्यं विद्यात्॥४१॥
शूरं घीरं शुचिमशुचिद्वेषिणं यज्वानमम्भोविहाररतिमक्लिष्टकर्माणं स्थानकोपप्रसादं वारुणं विद्यात्॥४२॥
स्थानमानोपभोगपरिवारसंपन्नं सुखविहारं धर्मार्थकामनित्यं शुचिं व्यक्तकोपप्रसादं कौबेरं विद्यात्॥४३॥
प्रियनृत्यगीतवादित्रोल्लापकं श्लोकाख्यायिकेतिहासपुराणेषु कुशलं गन्धमाल्यानुलेपनवसनस्त्री विहारकामनित्यमनसूयकं गान्धर्वे विद्यात्॥४४॥
इत्येवं शुद्धस्य सत्त्वस्य सप्तविधं भेदांशं विद्यात् कल्याणांशत्वात्, तत्संयोगात्तु ब्राह्ममत्यन्तशुद्धं व्यवस्येत्॥४५॥
शूरं चण्डमसूयकमैश्वर्यवन्तमौपधिकं1083 रौद्रमननुक्रोशकमात्मपूजकमासुरं विद्यात्॥४६॥
अमर्षिणमनुबन्धकोपं छिद्रप्रहारिणं क्रूरमाहारातिमात्ररुचिमामिषप्रियतमं स्वप्नायासबहुलमीर्ष्ष्युंयुं राक्षसं विद्यात्॥४७॥
महालसं स्त्रैणं स्त्रीरहस्काममशुचिं शुचिद्वेषिणं भीरुं भीषयितारंविकृंतविहाराहारशीलं1084 पैशाचं विद्यात्॥४८॥
क्रुद्धशूरमक्रुद्धभीरुं तीक्ष्णमायासबहुलं संत्रस्तगोचर1085माहारविहारपरं सार्पं विद्यात्॥४९॥
आहारकाममतिदुःखशीलाचारोपचारमसूयकमसंविभागिनमतिलोलुपमकर्मशीलं प्रैतं विद्यात्॥५०॥
अनुषक्तकाममजत्रमाहारविहारपरमनवस्थितममर्पिणमसंचयं शाकुनं विद्यात्॥५१॥
इत्येवं खलु राजसस्य सत्त्वस्य षड्विधं भेदांशं विद्यात्, रोषांशस्वात्॥५२॥
निराकरिष्णुमधमवेशं1086 जुगुप्सिताचाराहारविहारं मैथुनपरं स्वप्नशीलं पाशवं विद्यात्॥५३॥
भीरुमबुधमाहारलुब्धमनवस्थितमनुषक्तकामक्रोधं सरणशीलं तोयकामं मात्स्यं विद्यात्॥५४॥
अलसं केवलमभिनिविष्टमाहारे सर्वबुद्ध्या1087 हीनं वानस्पत्यं विद्यात्॥५५॥
इत्येवं खलु तामसस्य सत्त्वस्य त्रिविधं भेदांशं विद्यात्, मोहांशत्वात्॥५६॥
इत्यपरिसंख्येयभेदानां खलु त्रयाणामपि सत्त्वानां भेदैकदेशो व्याख्यातः, शुद्धस्य सत्त्वस्य सप्तविधो ब्रह्मर्षिशक्रयमवरुणकुबेरगन्धर्वसत्त्वानुकारेण, राजसस्य षड्विधो दैत्यराक्षसपिशाच सर्पप्रेतशकुनिसत्त्वानुकारेण, तामसस्य त्रिविधः पशुमत्स्यवनस्पतिसत्त्वानुकारेण, कथं च यथासत्त्वमुपचारः स्यादिति। केवलश्चायमुद्देशो यथोद्देशमभिनिर्दिथे भवति गर्भावक्रान्तिसंप्रयुक्तः1088 तस्यार्थस्य विज्ञाने सामर्थ्यं––गर्भकराणां च भावानामनुसमाधिर्विघातश्च विघातकराणां भावानामिति॥५७॥
तत्र श्लोकाः।
निमित्तमात्मा प्रकृतिर्वृद्धिः कुक्षौ क्रमेण च।
वृद्धिहेतुश्च गर्भस्य पञ्चार्थाः शुभसंज्ञिताः॥५८॥
अजन्मनि च यो हेतुर्विनाशे विकृतावपि।
इमांस्त्रीनशुभानू भावाना हुर्गर्भविघातकान्॥५९॥
शुभाशुभसमाख्यातानष्टौ भावानिमान् भिषक्।
सर्वथा वेद यः सर्वान् स राज्ञः कर्तुमर्हति॥६०॥
अवायुपायान् गर्भस्य स एवं ज्ञातुमर्हति।
ये च गर्भविघातोक्ता भावास्तांश्चाप्युदारधीः॥६१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चतुर्थे शारीरस्थाने महती-
गर्भावक्रान्तिशारीरं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
———————
पञ्चमोऽध्यायः।
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अथातः पुरुषविचयं शारीरं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
पुरुषोऽयं लोकसंमित इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुरात्रेयः; यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे तावन्तो लोके इति॥३॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—नैतावता वाक्येनोक्तं चाक्यार्थमवगाहामहे, भगवता बुद्ध्या भूयस्तरमतोऽनुव्याख्यायमानं शुश्रूषामह इति॥४॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—अपरिसंख्येया लोकावयवविशेषाः, पुरुषावयवविशेषा अप्यपरिसंख्येयाः; तेषां यथास्थूलं भावान् सामान्यमभिप्रेत्योदाहरिष्यामः, तानेकमना निबोध सम्यगुपवर्ण्यमानानग्निवेश। षड्धातवः समुदिता ‘लोक1089’ इति शब्दं लभन्ते;तद्यथा— पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं ब्रह्म चाव्यक्तमिति; एत एव च षड्धातवः समुदिताः ‘पुरुष’ इति शब्दं लभन्ते । तस्य पुरुषस्य पृथिवी मूर्तिः, आपः क्लेदः, तेजोऽभिसंतापो, वायुः प्राणो, वियच्छिद्राणि, ब्रह्म अन्तरात्मा; यथा खलु ब्राह्मी विभूतिर्लोके तथा पुरुषेऽप्यान्तरात्मिकी विभूतिः, ब्रह्मणो विभूतिर्लोके प्रजापतिरन्तरात्मनो विभूतिः पुरुषे सत्त्वं, यस्त्विन्द्रो लोके स पुरुषेऽहङ्कारः, आदित्यास्त्वादानं, रुद्रो रोषः, सोमः प्रसादः, वसवः सुखम्, अश्विनौ कान्तिः, मरुदुत्साहः, विश्वेदेवाः सर्वेन्द्रियाणि सर्वेन्द्रियार्थाश्च, तमो मोहः, ज्योतिर्ज्ञानं, यथा लोकस्य सर्गादिस्तथा पुरुषस्य गर्भाधानं, यथा कृतयुगमेवं बाल्यं, यथा त्रेता तथा यौवनं, यथा द्वापरस्तथा स्थाविर्य, यथा कलिरेवमातुर्यं, यथा युगान्तस्तथा मरणमिति; एवमेतेनानुमानेनानुक्तानामपि लोकपुरुषयोरवयवविशेषाणामनिवेश सामान्यं विद्यादिति॥५॥
एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—एवमेतत् सर्वमनपवादं यथोक्तं भगवता लोकपुरुषयोः सामान्यं; किं न्वस्य सामान्योपदेशस्य प्रयोजनमिति॥६॥
भगवानुवाच - शृण्वग्निवेश ! सर्वलोकमात्मन्यात्मानं च सर्वलोके समनुपश्यतः सत्या1090 बुद्धिरुपद्यते। सर्वलोकं ह्यात्मनि पश्यतो भवत्यात्मैव सुखदुःखयोः कर्ता नान्य इति, कर्मात्मकत्वाञ्च हेत्वादिमिर्युक्तः1091 सर्वलोकोऽहमिति विदित्वा ज्ञानं पूर्वमुत्थाप्यतेऽपवर्गाय। तत्र संयोगापेक्षी लोकशब्दः, षड्धातुसमुदायो हि सामान्यतः सर्वलोकः। तस्य हेतुरुत्पत्तिर्वृद्धिरूपलवो वियोगश्च। तत्र हेतुरुत्पत्तिकारणम्, उत्पत्तिर्जन्म, वृद्धिराप्यायनं, उपप्लवो दुःखागमः;षड्धातुविभागो वियोगः, स जीवापगमः, स प्राणनिरोधः, स भङ्गः, स लोकस्वभावश्च; तस्य मूलं सर्वोपप्लवानां च प्रवृत्तिः, निवृत्तिरुपरमः; प्रवृत्तिर्दुःखं निवृत्तिः सुखमिति यज्ज्ञानमुत्पद्यते तत्सत्यं, तस्य हेतुः सर्वलोकसामान्यज्ञानम् ; एतत् प्रयोजनं सामान्योपदेशस्येति॥७॥
अथाग्निवेश उवाच—किंमूला भगवन् प्रवृत्तिः, निवृत्तौ च क उपाय इति॥८॥
भगवानुवाच—मोहेच्छाद्वेषकर्ममूला प्रवृत्तिः। तज्जा ह्यहङ्कारसङ्गसंशयाभिसंप्लवाभ्यवपातविप्रत्ययाविशेषानु-पायास्तरुणमिव द्रुममतिविपुलशाखास्तरवोऽभिभूय पुरुषमवतत्यैवोत्तिष्ठन्ते, यैरभिभूतो न सत्तामतिवर्तते। तत्रैवंजातिरूपवित्तवृत्तबुद्धिशीलविद्याभिजनवयोवीर्यप्रभावसंपन्नोऽहमित्यहङ्कारः,यद्यन्मनोवाक्कायकर्म नापवर्गाय स सङ्गः, कर्मफलमोक्षपुरुषप्रेत्यभावादयः सन्ति वा नेति संशयः, सर्वास्ववस्थास्वनन्योऽहमहं स्रष्टा स्वभावसंसिद्धोऽहमहं शरीरेन्द्रिय बुद्धिस्मृतिविशेषराशिरिति ग्रहणमभिसंप्लवः, मम मातृपितृभ्रातृदारापत्यबन्धुमित्रभृत्यगणो गणस्य चाहमित्यभ्यवपातः, कार्याकार्य हिताहितशुभाशुभेषु विपरीताभिनिवेशो विप्रत्ययः, ज्ञाज्ञयोः प्रकृतिविकारयोः प्रवृत्तिनिवृत्त्योश्च सामान्यदर्शनमविशेषः, प्रोक्षणानशनाग्निहोत्रत्रिषवणाभ्युक्षणावाहनयजनयाजनयाचनसलिलहुता-शनप्रवेशादयः समारम्भाः प्रोच्यन्ते ह्यनुपायाः। एवमयमधीधृतिस्मृतिरहङ्काराभि निविष्टः सक्तः ससंशयोऽभिसंप्लुत-बुद्धिरभ्यवपतितोऽन्यथादृष्टिरविशेषग्राही विमार्गगतिर्निवासवृक्षः सत्त्वशरीरदोषमूलानां मूलं सर्वदुःखानां भवति। एवमहङ्कारादिभिर्दोषैर्भ्राम्यमाणो नातिवर्तते प्रवृत्तिं सा च मूलमधस्य; निवृत्तिरपवर्गः, तत् परं प्रशान्तं तदक्षरं, तद्ब्रह्म, स मोक्षः॥९॥
तत्र मुमुक्षूणामुदयनानि सर्वाणि व्याख्यास्यामः—तत्र (लोकदोषदर्शिनो) मुमुक्षोरादित एवाचार्याभिगमनं, तस्योपदेशानुष्ठानं, अग्नेरेवोपचर्या, धर्मशास्त्रानुगमनं, तदर्थावबोधः, तेनावष्टम्भः, तत्र यथोक्ताः क्रियाः, सतामुपासनम्, असतां परिवर्जनम्, असङ्गतिर्दुर्जनेन, सत्यं सर्वभूतहितमपरुषमनति काले परीक्ष्य वचनं, सर्वप्राणिष्वात्मनीवावेक्षा, सर्वासामस्मरणमसंकल्पनमप्रार्थनमनभिभाषणं च स्त्रीणां, सर्वपरिग्रहत्यागः, कौपीनं प्रच्छादनार्थं, धातुरागनिवसनं, कन्थासीवन हेतोः सूचीपिप्पलकं, शौचाधानहेतोर्जलकुण्डिका, दण्डधारणं, भैक्षचर्यार्थ पात्रं, प्राणधारणार्थ मेककालमग्राम्यो यथोपपन्न एवाभ्यवहारः, श्रमापनयनार्थं शीर्णशुष्कपर्ण तृणास्तरणोपधानं, ध्यानहेतोः कायनिबन्धनं, वनेष्वनिकेतवासः, तन्द्रानिद्रालस्यादिकर्मवर्जनं, सर्वेष्विन्द्रियार्थेष्वनुरागोपतापनिग्रहः, सुप्तस्थितगतप्रेक्षिताहारविहार-प्रत्यङ्ग चेष्टा दिकेष्वारम्भेषु स्मृतिपूर्विका प्रवृत्तिः, सत्कारस्तुतिगर्हावमानक्षम(मि)त्वं, क्षुत्पिपासायासश्रम- शीतोष्णवातवर्षासुखदुःखसंस्पर्शसहत्वं, शोकदैन्योद्वेगद्वेषमदमानलोभरागेर्ष्या-भयक्रोधादिभिरसंचलनम्1092, अहङ्कारादिषूपसर्गसंज्ञा1093, लोकपुरुषयोः सर्गादिसामान्यावेक्षणं, कार्यकालाययभयं, योगारम्भे सततमनिर्वेदः, सत्त्वोत्साहः, अपवर्गाय धीधृतिस्मृतिबलाधानं, नियमनमिन्द्रियाणां चेतसि चेतस आत्मन्यात्मनश्च, धातुभेदेन शरीरावयवसंख्यानमभीक्ष्णं, सर्वं कारणवद्दुःखमस्वमनिनित्यमित्यभ्युपगमः, सर्वप्रवृत्तिषु दुःखसंज्ञा1094, सर्वसंन्यासे सुखमित्यभिनिवेशः, एष मार्गोऽपवर्गाय; अतोऽन्यथा बध्यते। इत्युदयनानि व्याख्यातानि॥१०॥
भवन्ति चात्र।
एतैरविमलं सत्त्वं शुद्ध्युपायैर्विशुध्यति।
मृज्यमान इवादर्शस्तैलचेलकचादिभिः॥११॥
ग्रहाम्बुदरजोधूमनीहारैरसमावृतम्।
यथाऽर्कमण्डलं भाति भाति सत्त्वं तथाऽमलम्॥१२॥
ज्वलत्यात्मनि संरुद्धं तत् सत्त्वं संवृतायने।
शुद्धः स्थिरः प्रसन्नार्चिर्दीपो दीपाशये यथा॥१३॥
शुद्धसत्त्वस्य या शुद्धा सत्या बुद्धिः प्रवर्तते।
यया भिनत्त्यतिबलं महामोहमयं तमः॥१४॥
सर्वभावस्वभावज्ञो यया भवति निःस्पृहः।
योगं यया साधयते सांख्यः संपद्यते यया॥१५॥
यया नोपैत्यहङ्कारं नोपास्ते कारणं यया।
यथा नालम्बते किंचित् सर्वं संन्यस्यते यया॥१६॥
याति ब्रह्म यया नित्यमजरः शान्तमक्षरम्1095।
विद्या सिद्धिर्मतिर्मेधा प्रज्ञा ज्ञानं च सा मता॥१७॥
लोके विततमात्मानं लोकं चात्मनि पश्यतः।
परावरदृशः शान्तिर्ज्ञान मूला न नश्यति॥१८॥
पश्यतः सर्वभूतानि1096 सर्वावस्थासु सर्वदा।
ब्रह्मभूतस्य संयोगो न शुद्धस्योपपद्यते॥१९॥
नात्मनः करणाभावाल्लिङ्गमप्युपलभ्यते।
स सर्वकारणत्यागान्मुक्त इत्यभिधीयते॥२०॥
विपापं विरजः शान्तं परमक्षरमव्ययम्।
अमृतं ब्रह्म निर्वाणं पर्यायैः शान्तिरुच्यते॥२१॥
एतत्तत् सौम्य विज्ञानं यज्ज्ञात्वा मुक्तसंशयाः।
मुनयः प्रशमं जग्मुर्वीतमोहरजःस्पृहाः॥२२॥
तत्र श्लोकौ।
सप्रयोजनमुद्दिष्टं लोकस्य पुरुषस्य च।
सामान्यं मूलमुत्पत्तौ निवृत्तौ मार्ग एव च॥२३॥
शुद्धसत्वसमाधानं सत्या बुद्धिश्च नैष्ठिकी।
विचये पुरुषस्योक्ता निष्ठा च परमर्षिणा॥२४॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते शारीरस्थाने पुरुष-
विचयशारीरं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
——————
षष्ठोऽध्यायः।
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अथातः शरीरविचयं1097 शारीरं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह माह भगवानात्रेयः॥२॥
शरीरविचयः शरीरोपकारार्थमिष्यते। ज्ञात्वा हि शरीरतत्वं शरीरोपकारकरेषु भावेषु ज्ञानमुत्पद्यते; तस्माच्छरीर-विचयं प्रशंसन्ति कुशलाः॥३॥
तत्र शरीरं नाम चेतनाधिष्ठानभूतं पञ्चभूतविकारसमुदायास्मकं संमयोगवाहि1098; यदा ह्यस्मिन् शरीरे धातवो वैषम्यमापद्यन्ते तदेदं क्लेशं विनाशं वा प्राप्नोति। वैषम्यगमनं हि पुनर्धातूनां वृद्धिह्रासगमनमकार्त्स्न्येन1099 र्येन प्रकृत्या च॥४॥
यौगपद्येन1100 विरोधिनां धातूनां वृद्धिहासौ भवतः, यद्धि यस्य धातोर्वृद्धिकरं तत्ततो विपरीतगुणस्य धातोः प्रत्यवायकरं संपद्यते। तदेव तस्माद्भेषजं सम्यगवचार्यमाणं युगपन्न्यूनातिरिक्तानां धातूनां1101साम्यकरं भवति; अधिकमपकर्षति न्यूनमाप्याययति॥५॥
एतावदेव हि भैषज्यप्रयोगे फलमिष्टं स्वस्थवृत्तानुष्ठाने च यावद्धातूनां साम्यं स्यात्। स्वस्था ह्यपि धातूनां साम्यानुग्रहार्थमेव कुशला रसगुणानाहारविकारांश्च पर्यायेणेच्छन्त्युपयोक्तुं1102, सात्म्यसमाज्ञातान् एकप्रकारभूयिष्ठांश्चोपयुञ्जानास्तद्विपरीतकरसमाज्ञातया1103 चेष्टया सममिच्छन्ति कर्तुम्॥६॥
देशकालात्मगुणविपरीतानां हि कर्मणामाहारविकाराणां च क्रियोपयोगः सम्यक्, सर्वातियोगसंधारणम्1104, असंधारणमुदीर्णानां च गतिमतां, साहसानां व वर्जनं, स्वस्थवृत्तम् एतावद्धातूनां साम्यानुग्रहार्थमुपदिश्यते॥७॥
धातवः पुनः शारीराः समानगुणैः समानगुणभूयिष्ठैर्वाऽप्याहारविकारैर1105भ्यस्यमानैर्वृद्धिं प्राप्नुवन्ति, ह्रासं तु विपरीतगुणैर्विपरीतगुणभूयिष्ठैर्वाऽभ्यस्यमानैः1106॥८॥
तत्रेमे शरीरधातुगुणाः संख्यासामर्थ्यकराः; तद्यथा—गुरुलघुशीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षमन्दतीक्ष्णस्थिरसरमृदु-कठिनविशदपिच्छिलश्लक्ष्णखरसूक्ष्मस्थूलसान्द्रद्रवाः। तेषु ये गुरवस्ते गुरुभिराहारविकारगुणैरभ्यस्यमानैराप्याय्यन्ते लघवश्च हसन्ति, लघवस्तु लघुभिराप्याय्यन्ते गुरवश्च ह्रसन्ति; एवमेव सर्वधातुगुणानां सामान्ययोगाद्वृ1107द्धिर्विपर्याद्ध्रसः तस्मान्मांसमाप्याय्यते मांसेन भूयस्तरमन्येभ्यः1108शरीरधातुभ्यः, तथा लोहितं लोहितेन, मेदो मेदसा, वसा वसया, अस्थि तरुणास्था,मज्जा मज्ज्ञा, शुक्रं शुक्रेण, गर्भस्त्वामगर्भेण॥९॥
यत्र त्वेवंलक्षणेन सामान्येन सामान्यवतामाहारविकाराणामसांनिध्यं स्यात् संनिहितानां वाऽप्ययुक्तत्वान्नोपयोगो घृणित्वादन्यस्माद्वा कारणातू, स च धातुरभिवर्धयितव्यः स्यात् तस्य ये प्रमानगुणाः स्युराहारविकारा असेव्याश्च तत्र समानगुणभूयिष्ठानामन्य प्रकृतीनामप्याहारविकाराणामुपयोगः स्यात्; तद्यथा—शुकक्षये क्षीरसर्पिषोरुपयोगो मधुरस्निग्धसमाख्यातानां चापरेषां दव्याणां, मूत्रक्षये पुनरिक्षुरसवारुणीमण्डद्रवमधुराम्ललवणोपदिनां, पुरीषक्षये कुल्लमाषमाषकुष्कुँण्डाजमध्ययवशाकधान्या1109म्लानां, वातक्षये कटुतिक्तकषायरूक्षलघुशीतानां, पित्तक्षयेऽम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णानां, श्लेष्मक्षये स्निग्धगुरुमधुरसान्द्रपिच्छिलानां द्रव्याणां; कर्मापि च यद्यद्यस्य धातोर्वृद्धिकरं तत्तदासेव्यं; एवमन्येषामपि शरीरधातूनां सामान्य विपर्ययाभ्यां वृद्धिहासौ यथाकालं कार्यों; इति सर्वधातूनामेकैकशोऽतिदेशतश्च वृद्धिह्रासकराणि व्याख्यातानि भवन्ति॥१०॥
कात्सुर्येनशरीरवृद्धिकरास्त्विमे भावा भवन्ति; तद्यथा—कालयोगः स्वभावसंसिद्धिराहारसौष्ठवमविघातश्चेति। बलवृद्धिकरास्त्विमे भावा भवन्ति; तद्यथा—बलवत्पुरुषे देशे जन्म बलवत्पुरुषे च काले, सुखश्च कालयोगो, बीजक्षेत्रगुणसंपञ्च, आहारसंपच्च, शरीरसंपञ्च, सात्म्यसंपञ्च, सत्त्वसंपञ्च, स्वभावसंसिद्धिश्च यौवनं च, कर्म च, संहर्षश्चेति॥११॥
आहारपरिणामकरास्त्विमे भावा भवन्ति; तद्यथा—ऊष्मा वायुःक्लेदः स्नेहः कालः समयोगश्चेति1110। तत्र तु खल्वेषामूष्मादीनामाहारपरिणामकराणां भावानामिमे कर्मविशेषा भवन्ति; तद्यथा—ऊष्मा पचति, वायुरपकर्षति, क्लेदः शैथिल्यमापादयति, स्नेहो मार्दवं जनयति, कालः पर्याप्तिमभिनिर्वर्तयति, समयोगे1111स्त्वेषां परिणामधातुसाम्यकरःसंपद्यते॥१२॥
परिणामतस्त्वाहारस्य गुणाः शरीरगुणभावमापद्यन्ते यथास्वमविरुद्वाः, विरुद्धाश्च विहन्युर्विहताश्च विरोधिभिः शरीरम्॥१३॥
शरीरधातवः पुनर्द्विविधाः1112 संग्रहेण—मलभूताः, प्रसादभूताश्च। तत्र मलभूतास्ते ये शरीरस्य आबाधकराः स्युः तद्यथा—शरीरच्छिद्वेषूपदेहाः पृथग्जन्मानो बहिर्मुखाः परिपक्काश्च धातवः, प्रकुपिताश्च वातपित्तश्लेष्माणः, ये चान्येऽपि केचिच्छरीरे तिष्ठन्तो भावाः शरीरस्योपघातायोपपद्यन्ते, सर्वोस्तान्मलान्1113 संप्रचक्ष्महे; इतरांस्तु प्रसादाख्यान्1114; गुवदींश्च द्रवान्तान् गुणभेदेन, रसादींश्च शुक्रान्तान् द्रव्यभेदेन॥१४॥
तेषां सर्वेषामेव वातपित्तश्लेष्माणो दुष्टा दूषयितारो भवन्ति दोषत्वात्। वातादीनां पुनर्धात्वन्तरे कालान्तरे प्रदुष्टानां विविधाशितपीतीयेऽध्याये विज्ञानान्युक्तानि। एतावत्येव दुष्टदोषगतिर्यावत्संस्पर्शनाच्छरीरधातूनाम्। प्रकृतिभूतानां खलु वातादीनां फलमारोग्यं, तस्मादेषां प्रकृतिभावे प्रयतितव्यं बुद्धिमद्भिः॥१५॥
भवति चात्र।
सर्वदा था सर्वंशरीरं वेद यो भिषक्।
आयुर्वेदं स कार्त्सन्येन वेद लोकसुखप्रदम्॥१६॥
तमेवमुक्तवन्तं1115 भगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच—श्रुतमेतद्यदुक्तं भगवता शरीराधिकारे वचः; किं नु खलु गर्भस्याङ्गं पूर्वमभिनिर्वर्तते कुक्षौ, कुतोमुखः कथं चान्तर्गतस्तिष्ठति, किमाहारश्च वर्तयति, कथंभूतश्च निष्कामति, कैश्चायमाहारोपचारैर्जातश्चाव्याधिरभिवर्धते, नद्यो हन्यते कैः, किं चास्य1116 देवादिप्रकोपनिमित्ता विकाराः संभवन्ति1117राहोस्विन्न, किंचास्य कालाकालमृत्यवोर्भावाभावयोर्भगवानध्यस्यति, किं चास्य परमायुः, कानि चास्य परमायुषो निमित्तामेति॥१७॥
तमेवमुक्तवन्तमग्निवेशं भगवान् पुनर्वसुरात्रेय उवाच—पूर्वक्तमेतद्गर्भावक्रान्तौ यथाऽयमभिनिर्वर्तते कुक्षौ, यच्चास्य यदा तिष्ठतेऽङ्गजातं; विप्रतिपत्तिवादास्त्वत्र बहुविधाःसूत्रकृतामृराणां सन्ति सर्वेषां; तानपि निबोधोच्यमानान्—शिरः पूर्वमवनिवर्तते कुक्षाविति कुमारशिरा भरद्वाजः पश्यति, सर्वेन्द्रियाणां तदधिष्ठानमिति कृत्वा; हृदयमिति काङ्कायनो बाह्लीकभिक्, चेतनाधिष्ठानत्वात्; नाभिरिति भद्रकाप्यः, आहारागमति कृत्वा; पक्काशयगुदमिति भद्रशौनकः, मारुताधिष्ठानत्वात्; स्तपादमिति बडिशः, तत्करणत्वात् पुरुषस्य; इन्द्रियाणीति जनकोवैदेहः, तान्यस्य बुद्ध्यधिष्ठानानीति कृत्वा; परोक्षत्वादचिन्त्यमिति मारीचिः कश्यपः; सर्वाङ्गनिर्वृत्तिर्युगपदिति1118 धन्वन्तरिः, तदुपपक्षं सर्वाङ्गानां तुल्यकालाभिनिर्वृत्तत्वात्1119। सर्वाङ्गानां ह्यस्य हृदयं मूलमधिष्ठानं च केषांचिद्भावानां, न च तस्मात् पूर्वाभिनिर्वृत्तिरेषां; तस्माद्धृदयपूर्वाणां सर्वाङ्गानां तुल्यकालाभिनिर्वृत्तिः, सर्वभावा ह्यन्योन्यप्रतिबद्धाः; तस्माद्यथाभूतदर्शनं साधु॥१८॥
गर्भस्तु खलु मातुः पृष्ठाभिमुख ऊर्ध्वशिराः संकुच्याङ्गान्यास्तेजरायुवृतः1120 कुक्षौ॥१९॥
व्यपगतपिपासाबुभुक्षैस्तु1121 खलु गर्भः परतन्त्रवृत्तिर्मातरमाश्रित्य वर्तयत्युपस्नेहोपस्वेदाभ्यां गर्भाशये सदसद्भूताङ्गावयवः। तदनन्तरं ह्यस्य कश्चिल्लोमकूपायनैरुपस्नेहः कश्चिन्नाभिनाढ्ययनैः; नाभ्यां ह्यस्य नाडी प्रसक्ता, नाड्यां चामेरा, अमरा1122 चास्य मातुः प्रसक्ता हृदये, मातृहृदयं ह्यस्य ताममरामभिसंप्लवते सिराभिः स्यन्दमानाभिः; स तस्य रसो बलवर्णकरः संपद्यते स च सर्वरसवानाहारः। स्त्रिया ह्यापन्नगर्भायास्त्रिधा रसः प्रतिपद्यते—स्वशरीरपुष्टये, स्तन्याय, गर्भवृद्धये च; स तेनाहारेणोपष्टब्धः (परतन्त्रवृत्तिर्मातरमाश्रित्य1123) वर्तयत्यन्तर्गतः॥२०॥
स चोपस्थितकाले जन्मनि प्रसूतिमारुतयोगात् परिवृत्त्यावाक्1124शिरा निष्कामयपत्यपथेन। एषा प्रकृतिः, विकृतिः पुनरतोऽन्यथा। परं त्वतः स्वतन्त्रवृत्तिर्भवति॥२१॥
तस्याहारोपचारौ जातिसूत्रीयोपदिष्टावविकारकरौ चाभिवृद्धिकरौ भवतः। ताभ्यामेव च (सेविताभ्यां) विषमाभ्यां जातः सद्य उपहन्यते तरुरिवाचिरव्यपरोपितो वातातपाभ्यामप्रतिष्ठितमूलः॥२२॥
आप्तोपदेशादद्भुतरूपदर्शनात् समुत्थानलिङ्गचिकित्सितविशेषाच्चास्यादोषप्रकोपानुरूपा देवादिप्रकोपनिमित्ता विकाराःसमुपलभ्यन्ते॥२३॥
कालाकालमृत्य्वोस्तु भावाभावयोरिदमध्यवसितं नः—यः कश्चिन्म्रियतेसत्त्वः स काल एव म्रियते, न हि कालस्य च्छिद्रमस्तीत्येके भाषन्ते। तच्चासम्यक्; न ह्यच्छिद्रता सच्छिद्रता वा कालस्योपपद्यते, कालस्वलक्षणस्वभावात्।1125 तत्राहुरपरे1126 — यो यदा म्रियते स तस्य नियतो मृत्युकालः; स सर्वभूतानां सत्यः, समक्रियत्वादिति।एतदपि चान्यथाऽर्थग्रहणं; न हि कश्चिन्न म्रियत इति समक्रियः,कालो ह्यायुषः1127 प्रमाणमधिकृत्योच्यते। यस्य चेष्टं यो यदा म्रियतेतस्य स नियतो मृत्युकाल इति तस्य सर्वे भावा यथास्वं नियतकाला भविष्यन्ति; तच्च नोपपद्यते, प्रत्यक्षं ह्यकालाहारवचनकर्मणांफलमनिष्टं, विपर्यये चेष्टं; प्रत्यक्षतश्चोपलभ्यते खलु कालाकालयुक्ति1128स्तासु तास्ववस्थासु तं तमर्थमभिसमीक्ष्य; तद्यथा— कालोऽयमस्यव्याधराहारस्यौषधस्य प्रतिकर्मणो विसर्गस्य, अकालो वेति; लोके-ऽप्येतद्भवति—काले देवो वर्षत्यकाले वर्षति, काले शीतमकालेशीतं, काले तपत्यकाले तपति, काले पुष्पफलमकाले च पुष्पफलमिति; तस्मादुभयमस्ति काले मृत्युरकाले च, नैकान्तिकमन्त्र। यदिह्यकाले मृत्युर्न स्यान्नियतकालप्रमाणमायुः सर्वं स्यात्, एवं गते हिताहितज्ञानमकारणं स्यात्, प्रत्यक्षानुमानोपदेशाश्चाप्रमाणानि स्युर्येप्रमाणंभूताः सर्वतत्रेषु, यैरायुष्याण्यनायुष्याणि चोपलभ्यन्ते; वाग्वस्तुमात्रमेतेदृषयो1129 मन्यन्ते यदुच्यते – नाकाले मृत्युरस्तीति॥२५॥
वर्षशतं खल्वायुषः प्रमाणमस्मिन् काले।तस्य निमित्तं प्रकृतिगुणात्मसंपत् सात्म्योपसेवनं चेति॥२६॥
तत्र श्लोकाः।
शरीरं यद्यथा तच्च वर्तते क्लिष्टमामयैः।
यथा क्लेशं विनाशं च याति ये चास्य धातवः॥२७॥
वृद्धिह्रासौ यथा तेषां1130क्षीणानामौषधं च यत्।
देहवृद्धिकरा भावा बलवृद्धिकराश्च ये॥२८॥
परिणामकरा भावा या च तेषां पृथक्क्रिया।
मलाख्याः संप्रसादाख्या धातवः प्रश्न एव च॥२९॥
नवको निर्णयश्चास्य विधिवत् संप्रकाशितः \।
तथ्यः शरीरविचये शारीरे परमर्षिणा॥३०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते शारीरस्थाने शरीरविचय-
शारीरं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
——————
सप्तमोऽध्यायः।
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अथातः शरीरसंख्याशारीरं1131 व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह माह भगवानात्रेयः॥२॥
शरीरसंख्यामवयवशः (कृत्स्नं1132) शरीरं प्रविभज्य सर्वशरीरसंख्याप्रमाणज्ञानहेतोर्भगवन्तमात्रेयमग्निवेशः पप्रच्छ॥३॥
तमुवाच भगवानात्रेयः—शृणु मत्तोऽग्निवेश ! सर्वं शरीरमभिचक्षाणाद्यथाप्रश्नमेकमना1133 यथावत्॥४॥
शरीरे षट् त्वचः; तद्यथा—उदकधरा त्वग्बाह्या, द्वितीया त्वगसृग्धरा, तृतीया सिध्मकिलाससंभवाधिष्ठाना, चतुर्थी कुंष्ठसंभ1134वाधिष्ठाना, पञ्चमी त्वलजीविद्वधीसंभवाधिष्ठाना, षष्ठी तु सा यस्यां छिन्नायां ताम्यत्यन्ध इव च तमः प्रविशति यां चाप्यधिष्ठायारूंषि जायन्ते पर्वसु कृष्णरक्तानि स्थूलमूलानि दुश्चिकित्स्यतमानि चेति षट् त्वचः; एताः षडङ्गं शरीरमवतत्य तिष्ठन्ति॥५॥
तत्रायं शरीरस्याङ्गविभागः। तद्यथा—द्वौ बाहू, द्वे सक्थिनी, शिरोग्रीवम्, अन्तराधिः, इति षडङ्गमङ्गम्॥६॥
त्रीणि सषष्टीनि शतान्यस्थांसह ^(१)दन्तोलूखलनखेन; तद्यथाद्वात्रिंशद्दन्ताः, द्वात्रिंशद्दन्तोलूखलानि, विंशतिर्नखाः, षष्टिः पाणिपादाङ्गुल्यस्थीनि, विंशतिः पाणिपादशलाकाः, चत्वारि पाणिपादशलाकाधिष्ठानानि, द्वे पायरस्थिनी, चत्वारः पादयोर्गुल्फाः, द्वौ मणिकौ हस्तयोः, चत्वार्य रखयोरस्थीनि, चत्वारि जङ्घयोः, द्वे जानुकपालिके, द्वावूरुनलको द्वौ बाहुनलकौ द्वावंसौ, द्वे असफलके, द्वाक्षको, एकं जत्रु, द्वे तालुनी1135, द्वे श्रोणिफलके, एकं भगास्थि,
१ ‘दन्तनखेन’ हृ.। ‘द्वात्रिंशद्दन्तोलूखलानि, द्वात्रिंशद्दन्ताः, विंशतिर्नखाः, विंशतिः पाणिपादशलाकाः, षष्टिरङ्गुल्यस्थीनि, द्वे पार्ष्ण्योः, द्वे कूर्चाधः, चत्वारः पाण्योर्मणिकाः, चत्वारः पादयोर्गुल्फाः, चत्वार्यरत्न्योरस्थीनि, चत्वारि जङ्घयोः, द्वे जानुनोः, द्वे कूर्परयोः, द्वे ऊर्वोः, द्वे बाह्वोः सांसयोः, द्वावक्षकौः, द्वे तालुनी, द्वे श्रोणिफलके, एकं भगास्थि, पुंसां मेद्रास्थि, एकं त्रिकसंश्रितं, एकं गुदास्थि, पृष्ठगतानि पञ्चत्रिंशत्, पञ्चदशास्थीनि ग्रीवायां, द्वे जत्रुणि, एकं
इन्वस्थि,द्वे हनुमूलबन्धने, द्वे ललाटे, द्वे अक्ष्णोः, द्वेगण्डयोः, नासिकायां त्रीणि त्रोणाख्यानि, द्वयोः पार्श्वयोश्चतुर्विंशतिः, चतुर्विंशतिः पञ्जरास्थीनि पार्श्वकानि, तावन्ति चैव स्थालकान्यर्बुदाकाराणि तानि द्विसप्ततिः, द्वौ शङ्खकौ, चत्वारि शेरःकपालानि, वक्षसि सप्तदश, इति त्रीणि षष्टयधिकानि शतान्यस्थ्नाम्’ इति शृङ्गाधरसंमतः पाठः। ‘द्वात्रिंशद्दन्ताः, द्वात्रिंशद्दन्तोदूखलानि, विंशतिर्नखाः, षष्टिः पाणिपादाङ्गुल्यस्थीनि, विंशतिः पाणिपादशलाकाः, चत्वार्यधिष्ठानान्यासां, पाणिपादपृष्ठान्यष्टौ, द्वे पाण्यरस्थिनी, द्वे कूर्चयोः, चत्वारः पाण्योमेणिकाः, चत्वारः पादयोर्गुल्फाः, चत्वार्यरत्न्योः, चत्वारि जङ्घयोः, द्वे जानुनोः क़पालिके, द्वे कूर्परयोः, द्वावरुनलकौ द्वौ बाहुनलकौ, द्वावक्ष कौ, द्वे अंसास्थिनी, द्वे अंसफलके, एकं जवस्थि, द्वे श्रोणिफलके, एकं भगास्थि स्त्रियाः, पुंसस्तु मेढास्थि, एकं त्रिकसंश्रितं, त्रिंशत्पृष्ठगतान्यस्थीनि, अष्टावुरसि, प्रीवायां त्रयोदश, कण्ठनाड्यां चत्वारि, एकं तालुनि, द्वयोः पार्श्वयोश्चतुर्विंशतिः, तावन्ति स्थालकानि, तावन्ति च स्थालकार्बुदानि, द्वे हनुमूलबन्धने, गण्डयो, कर्णयो, त्रीणि नासिकायां, द्वौ श, षट् शिरःकपालानि, इति योगीन्द्रनाथसेन संमतः पाठः।पञ्चचत्वारिंशत्पृष्ठगतान्यस्थीनि, पञ्चदश ग्रीवायां, चतुर्दशोरसि, द्वयोः पार्श्वयोश्चतुर्विंशतिः पर्शुकाः, पार्श्वयोस्तावन्ति चैव स्थालकानि, तावन्ति चैव स्थालकार्बुदानि, एकं हन्वस्थि, द्वे हनुमूलबन्धने, एकास्थि नासिकागण्डकूटललाटं, द्वौ शङ्खौ, चत्वारि शिरः- कपालानि, इति त्रीणि सषष्टीनि शतान्यस्थ्नामिति॥७॥
पञ्चेन्द्रियाधिष्ठानानि; तद्यथा—त्वग्, जिह्वा, नासिका, अक्षिणी, कर्णौ च॥८॥
पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि; तद्यथा—स्पर्शनं, रसनं, घ्राणं, दर्शनं, श्रोत्रमिति॥९॥
पञ्च कर्मेन्द्रियाणि; तद्यथा—हस्तौ, पादौ, पायुः, उपस्थो, जिह्वा चेति॥१०॥
हृदयं चेतनाधिष्ठान भेकम्॥११॥
दश प्राणायतनानि; तद्यथा— मूर्धा, कण्ठो, हृदयं, नाभिः, गुदं, बस्तिः, ओजः, शुक्रं, शोणितं, मांसमिति। तेषु षट् पूर्वाणि मर्मसंख्यातानि॥१२॥
पञ्चदश कोष्ठाङ्गानि; तद्यथा—नाभिश्च, हृदयं च, क्लोम च, यकृच्च, प्लीहा च, वृकौ च, बस्तिश्च पुरीषाधारश्च आमाशयश्च, पक्चाशयश्च, उत्तरगुदं च, अधरगुदं च, क्षुद्रात्रं च, स्थूलात्रं च, वपावहनं चेति॥१३॥
षट्पञ्चाशत् प्रत्यङ्गानि षट्स्वङ्गेषूपनिबद्धानि, यान्यपरिसंख्यातानि पूर्वमङ्गेषु परिसंख्यायमानेषु; तान्यन्यैः पर्यायैरिह1136 प्रकाश्य व्याख्यातानि भवन्ति; तद्यथा—द्वेजङ्घापिण्डिके, द्वे ऊरुपिण्डिके, द्वौ स्फिचौ, द्वौ वृषणौ, एकं शेफः, द्वे उखे, द्वौ वङ्क्षणौद्वौ कुकुन्दरौ, एकं बस्तिशीर्षम्, एकमुदरं, द्वौ स्तनौ, द्वौ भुजौ1137, द्वे बाहुपिण्डिके, चिबुकमेकं, द्वावोष्ठौ, द्वे सक्कण्यौ, दौ दन्तवेष्टकौ, एकं तालु, एका गलशुण्डिका, द्वे उपजिविके, एकागोजिह्विका, द्वौ गण्डौ, द्वे कर्णशष्कुलिके, द्वौ कर्णपुत्रको द्वे अक्षिकूटे, चत्वार्यक्षिवर्मानि, द्वे अक्षिकनीनिके, द्वे भ्रुवौ, एकोऽबटुः, चत्वारि पाणिपादहृदयानि॥ १४॥
नव महान्ति छिद्राणि—सप्त शिरसि, द्वे चाधः॥१५॥ एतावद्दृश्यं शक्यमपि निर्देष्टुम्, अनिर्देश्यमतः परं तर्क्यमेव। उद्यथा—नव स्नायुशतानि, सप्त सिराशतानि, द्वे धमनीशते,चत्वारि1138 पेशीशतानि, सप्तोत्तरं मर्मशतं, द्वे संधिसहस्त्रे,1139 एकोनत्रिंशत्सहस्राणि नव च शतानि षट्पञ्चाशत्कानि सिराधमनीनामणुशः प्रविभज्यमानानां मुखाम्रपरिमाणं, तावन्ति चैव केशश्मनुलोमानीति। एतद्यथावद्यत्संख्यातं त्वक्प्रभृति दृश्यम्, अतः1140परं तर्क्यम्; एके तदुभयमपि न विकल्पयन्ति प्रकृतिभावाच्छरीरस्य॥ १६॥
यवञ्जलिसंख्येयं तदुपदेक्ष्यामः, तत् परं प्रमाणमभिज्ञेयं, तच्च वृद्धिह्र्सयोगि, तर्क्यमेव। तद्यथा—दशोदकस्याञ्जलयः शरीरे वेनाञ्जलिप्रमाणेन, यत्तु प्रच्यवमानं पुरीषमनुबघ्नात्यतियोगेन तथा मूत्रं रुधिरमन्यांश्च शरीरधातून्, यत्तु सर्वशरीरचरं ग्राह्या त्वग्बिर्ति, यत्तु त्वगन्तरे व्रणगतं लसीकाशब्दं लभते, पच्चोष्मणाऽनुबद्धं लोमकूपेभ्यो निष्पतत् स्वेदशब्दमवाप्नोति, तदु एकं दशाञ्जलिप्रमाणं; नवाञ्जलयः पूर्वस्याहारपरिणामधातोर्थं समित्याचक्षते, अष्टौ शोणितस्य, सप्त पुरीषस्य, षट् श्लेष्मणः, च पित्तस्य, चत्वारो मूत्रस्य, त्रयो वसायाः, द्वौ मेदसः, एको मज्ज्ञः, मस्तिष्कस्यार्धाञ्जलिः, शुक्रस्य तावदेव प्रमाणं, तावदेवलेष्मणश्चौजसः1141;इत्येतच्छरीरतत्त्वमुक्तम्॥१७॥
तत्र यद्विशेषतः स्थूलं स्थिरं मूर्तिमद्गुरुखरकठिनमङ्गं नखास्थिदन्तमांसचर्मवर्चःकेशश्मश्रुनखलोमकण्डरादि तत् पार्थिवं गन्धो घ्राणं च यद्रवसरमन्दस्त्रिग्धमृदुपिच्छिलं रसरुधिरवसाकफपित्तसमूत्रस्वेदादि तदाप्यं रसो रसनं च, यत् पित्तमूष्मा यो या च भाःशरीरे तत् सर्वमाग्नेयंरूपं दर्शनं च, यदुच्छ्वासप्रश्वासोन्भेषनिमेषाकुञ्चनप्रसारणगमनप्रेरणधारणादि तद्वायवीयं स्पर्शःस्पर्शनं च, यद्विविक्तमुच्यते महान्ति चाणूनिच स्रोतांसि तदान्तरीक्षं शब्दश्रोत्रं च; यत् प्रयोकृ तत् प्रधानं बुद्धिर्मनश्च; इति शरीरावयवः संख्या यथास्थूलभेदेनावयवानां निर्दिष्टा॥१८॥
शरीरावयवास्तु परमाणुभेदेनापरिसंख्येया भवन्त्यतिबहुत्वादतिसौक्ष्म्यादतीन्द्रियत्वाच्च; तेषां संयोगविभागे परमाणूनां कारणं वायुः कर्म स्वभावश्च॥१९॥
तदेतच्छरीरं संख्यातमनेकावयवं दृष्टम्, एकत्वेन सङ्गः संख्यातं, पृथक्त्वेनापवर्गः। तत्र प्रधानमसक्तं सर्वसत्तानिवृत्तौ निवर्तत इति॥२०॥
तत्रश्लो कौ।
शरीरसंख्यां यो वेद सर्वावयवशो भिषक्।
तदज्ञाननिमित्तेन स मोहेन न युज्यते॥२१॥
अमूढो मोहमूलैश्च न दोषैरभिभूयते।
निर्दोषो निःस्पृहः शान्तः प्रशाम्यत्यपुनर्भवः॥ २२॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रति संस्कृते शारीरस्थाने शरीरसंख्या-
शारीरं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
———————
अष्टमोऽध्यायः।
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अथातो जातिसूत्रीयं शारीरं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
स्त्रीपुरुषयोरव्यापन्नशुक्रशोणितगर्भाशययोः श्रेयसीं प्रजामिच्छतोस्तदर्थाभिनिर्वृत्तिकरं कर्मोपदेक्ष्यामः॥३॥
अथाप्येतौ स्त्रीपुरुषौ स्नेहस्वेदाभ्यामुपपाद्य, वमनविरेचनाभ्यां संशोध्य, क्रमेण प्रकृतिमापादयेत्, संशुद्धौ चास्थापनानुवासनाभ्यामुपचरेत्, उपचरेच्च मधुरौषधसंस्कृताभ्यां घृतक्षीराभ्यां पुरुषं, स्त्रियं तु तैलमाषाभ्याम्॥४॥
ततः पुष्पात् प्रभृति त्रिरात्रमासीत ब्रह्मचारिण्यधः शायिनी पाणिभ्यामन्नमजर्जरपान्ने1142 भुञ्जाना, न च कांचिन्मृजामापद्येत। ततश्चतुर्थेऽहन्येनामुत्साद्य सशिरस्कं स्त्रापयित्वा शुक्लानि वासांस्याच्छादयेत्,1143 पुरुषं च। ततः शुक्कुवाससौ स्रग्विणौ सुमनसावन्योन्यमभिकामौ संवसेतां1144 स्नानात्प्रभृति युग्मेष्वहःसु पुत्रकामौ, अयुग्मेषु दुहितृकामौ॥५॥
न च न्युजां पार्श्वगतां वा संसेवेत, न्युज्जाया वातो बलवान् स योनिं पीडयति; पार्श्वगताया दक्षिणे पार्श्वे श्लेष्मा, स च्युतः पिदधाति1145 गर्भाशयं; वामे पार्श्वे पित्तं, तदस्याः पीडितं विदहति रक्तं शुक्रं च; तस्मादुत्ताना सती बीजं गृह्णीयात्। तथा हि यथास्थानभवतिष्ठन्ते दोषाः। पर्याप्ते चैनां शीतोदकेन परिषिञ्चेत्। तत्रात्यशिता क्षुधिता पिपासिता भीता विमनाः शोकार्ता क्रुद्धाऽत्त्यं च पुमांसमिच्छन्ती मैथुने चातिकामा वा नारी गर्भं न धत्ते, विगुणां वा प्रजां जनयति। अतिबालामतिवृद्धां1146 दीर्घरोगिणीमन्येन वा विकारेणोपसृष्टां वर्जयेत् पुरुषेऽप्येत एव दोषाः। अतः सर्वदोषवर्जितौ स्त्रीपुरुषौ संसृज्येयाताम्। संजातहर्षौ मैथुने चानुकूलाविष्टगन्धं स्वास्तीर्णं सुखं शयनमुपकल्प्य मनोज्ञं हितमशनमशित्वा1147 नात्यशितौ दक्षिणपादेन पुमानारोहेत्, वामपादेन स्त्री। तत्र मन्त्रं प्रयुञ्जीत —“अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठाऽसि धातात्वा1145दधातु विधाता त्वा दधातु ब्रह्मवर्चसा भवेति।
ब्रह्मा बृहस्पतिर्विष्णुः सोमः सूर्यस्तथाऽश्विनौ।
भगोऽथ मित्रावरुणौ पुत्रं वीरं दधातु मे॥"
इत्युक्त्वा संवसेताम्॥६॥
सा चेदेवमाशासीत बृहन्तमवदातं हर्यक्षमोजस्विनं शुचिं सत्त्वसंपन्नं पुत्रमिच्छेयमिति, शुद्धस्नानात् प्रभृत्यस्यै मन्थमवदातयवानां1148मधुसर्पिर्भ्यांसंसृज्य श्वेताया गोः सरूपवत्सायाः पयसाऽऽलोड्य राजते कांस्ये वा पात्रे काले काले सप्ताहं सततं प्रयच्छेत् पानाय; प्रातश्च शालियवान्नविकारान् दधिमधुसपिर्भिः पयोभिर्वा संसृज्य भुञ्जीत, तथा सायम्। अवदातशरणशयनासनपानवसनभूषणवेशाचस्यात्। सायं प्रातश्च शश्वच्छ्वेतं महान्तमृषभमाजानेयं वा हरिचन्दनाङ्गदं पश्येत्, सौम्याभिश्चैनां कथाभिर्मनोऽनुकूलाभिरुपासीत सौम्याकृतिवचनोपचारचेष्टांश्च स्त्रीपुरुषानितरानपि चेन्द्रियार्थानवदातान् पश्येत्, सहचर्यश्चैनां प्रियहिताभ्यां सततमुपचरेयुः, तथा भर्ता, न च मिश्रीभावमापद्येयातामिति। अनेन विधिना सप्तरात्रं स्थित्वाऽष्टमेऽहन्यायाद्भिः सशिरस्कं सह भर्त्राचाहतानि वस्त्राण्याच्छादयेदवदातान्यवदाताश्च स्रजो भूषणानि च बिभृयात्। ततःऋत्विक्प्रागुत्तरस्यां दिश्यंगारस्य प्राक्प्रवणमुदक्प्रवणं वा प्रदेशमभिसमीक्ष्य, गोमयोदकाभ्यां स्थण्डिलमुपलिप्य, प्रोक्ष्य चोदकेन, वेदिमस्मिन् स्थापयेत् ; तां पश्चिमेनानाहतवस्त्रसंचये श्वेतार्षभे वाऽप्यजिन उपविशेद्ब्राह्मणप्रयुक्तः, राजन्यप्रयुक्तस्तु वैयाघ्रे चर्मण्यानडुहे वा, वैश्यप्रयुक्तस्तु रौरवे बास्ते वा। तत्रोपविष्टः पालाशीभिरैमुदीभिरौदुम्बरीभिर्माधूकीभिर्वा समिद्भिरग्निमुपसमाधाय, कुशैः परिस्तीर्य, परिधिभिश्च1149 परिधाय, लाजैः शुक्लाभिश्च गन्धवतीभिः सुमनोभिरुपकिरेत् ; तत्र प्रणीयोदपात्रं पवित्रंपूतमुपसंस्कृत्य सर्पिराज्यार्थं1150 यथोक्तवर्णानाजानेयादीन् समन्ततः स्थापयेत्। ततः पुत्रकामा पश्चिमतोऽग्निं दक्षिणतो ब्राह्मणमुपवि(वे)श्यान्वालभेत सह भर्त्रा यथेष्टं पुत्रमाशासाना। ततस्तस्या आशासानाया ऋत्विक् प्रजापतिमभिनिर्दिश्य योनौ तस्याः कामपरेपूरणार्थं काम्यामिष्टिं निर्वपेत् ‘विष्णुर्योनिं कल्पयतु’ इत्यनपर्चा, ततश्चैवाज्येन स्थालीपाकमभिघार्य1151 त्रिर्जुहुयाद्यथाम्नायं, मन्त्रोपमन्त्रितमुदकपात्रं तस्यै दद्यात् सर्वोदकार्थान् कुरुष्वेति। ततः समाप्ते कर्मणि पूर्वं दक्षिणपादमभिहरन्ती प्रदक्षिणमग्निमनुपरिकामेत् सह भर्त्रा; ततो ब्राह्मणान् स्वस्ति वाचयित्वाऽऽज्यशेषं प्राश्नीयात् पूर्व पुमान् पश्चात् स्त्री; न चोच्छिष्टमवशेषयेत्। ततस्तौ सह संवसेतामष्टरानं, तथाविधपरिच्छदावेव च स्यातां, तथेष्टपुत्रं जनयेताम्॥७॥
या तु स्त्री श्यामं लोहिताक्षं व्यूढोरस्कंमहाबाहुं च पुत्रमाशासीत, या वा कृष्णं कृष्णमृदुदीर्घकेशं शुक्लाक्षं शुक्कदन्तं तेजस्विनमात्मवन्तम्, एष एवानयोरपि होमविधिः, किंतु परिबर्हो वर्णवर्जं स्यात्, पुत्रवर्णानुरूपस्तु यथाशीरेवतयोः परिबर्होऽन्यः1152 कार्यः स्यात्॥८॥
शूद्रातु नमस्कारमेव कुर्याद्देवाग्निद्विजगुरुतपस्विसिद्धेभ्यः॥९॥
या या च यथाविधं पुत्रमाशासीत तस्यास्तस्यास्तां तां पुत्राशिषमनुनिशम्य तांस्ताञ्जनपदान् मनसाऽनुपरिकामयेत्; ताननुपरिकम्य या या1153 येषां जनपदानां मनुष्याणामनुरूपं पुत्रमाशासीत सासा तेषां तेषां जनपदानामाहारविहारोपचारपरिच्छदाननुविधत्स्वेति वाच्या स्यात्; इत्येतत् सर्वं पुत्राशिषां समृद्धिकरं कर्म व्याख्यातं भवति॥१०॥
न खलु केवलमेतदेव कर्म वर्णवैशेष्यकरं भवति, अपि तु खलु तेजोधातुरप्युदकान्तरीक्षधातुप्रायोऽवदातवर्णकरो भवति, पृथिवीवायुधातुप्रायः कृष्णवर्णकरः, समसर्वधातुप्रायः श्यामवर्णकरः॥११॥
सत्त्ववैशेष्यकराणि पुनस्तेषां तेषां प्राणिनां मातापितृसत्त्वान्यन्तर्वत्र्याःश्रुतयश्चाभीक्ष्णं स्वोचितं च कर्म सत्वविशेषाभ्यासश्चेति॥१२॥
यथोक्तेन विधिनोपसंस्कृतशरीरयोः स्त्रीपुरुषयोर्मिश्रीभावमापन्नयोः शुक्रं शोणितेन सह समेत्याव्यापन्नमव्यापन्नेन योनावनुपहतायामप्रदुष्टे गर्भाशये गर्भमभिनिर्वर्तयत्येकान्तेन, यथा निर्मले वाससि सुपरिकल्पिते रञ्जनं समुदितगुणमुपनिपातादेव रागमभिनिर्वर्तयति, तद्वत् ; यथा वा क्षीरं दध्नऽभिषुतमभिषत्रणाद्विहाय स्वभावमापद्यते दधिभावं, शुक्रं तद्वत्॥१३॥
एवमभिनिवर्तमानस्य गर्भस्य स्त्रीपुरुषत्वे हेतुः पूर्वमुक्तः॥१४॥
यथा हि बीजमनुफ्तप्तमुप्तं स्वां स्वां प्रकृतिमनुविधीयते व्रीहिर्वा व्रीहित्वं यवो वा यवत्वं, तथा स्त्रीपुरुषावपि यथोक्तं हेतुविभागमनुविधीयेते॥१५॥
तयोः कर्मणा वेदोक्तेन विवर्तनमुपदिश्यते प्राग्व्यक्तीभावात् प्रयुक्तेन सम्यक्; कर्मणां हि देशकालसंपदुपेतानां नियतमिष्टफलत्वं, तथेतरेषामितरत्वम् । तस्मादापन्नगर्भां स्त्रियमभिसमीक्ष्य प्राग्व्यक्तीभावाद्गर्भस्य पुंसवनमौषधमस्यै दद्यात्। गोष्ठे जातस्य न्यग्रोधस्य प्रागुत्तराभ्यां शाखाभ्यां शुङ्गे अनुपहते आदाय द्वाभ्यां धान्यमाषाभ्यां संपदुपेताभ्यां गौरसर्पपाभ्यां वा सह दध्निप्रक्षिप्य पुष्येण पिबेत्, तथैवापराञ्जीवकर्षभकापामार्गसहचरकल्कांश्च युगपदेकैकशोयथेष्टं वाऽप्युपसंस्कृत्य पयसा, कुड्यकीटकं मत्स्यकं चोदकाञ्जलौ प्रक्षिप्य पुष्येण पिबेत्, तथा कनकमयान् राजतानायसांश्च
पुरुषकानग्निवर्णानणुप्रमाणान् दध्निपयस्युदकाञ्जलौ वा प्रक्षिप्य पिबेदनवशेषतः पुष्येण, पुष्येणैव च शालिपिष्टस्य पच्यमानस्योष्मागमुपाघ्राय तस्यैव च पिष्टस्योदकसंसृष्टस्य रसं देहलीमुंपनिधाय1154दक्षिणे नासापुटे स्वयमासिञ्चेत् पिचुना, यच्चान्यदपि ब्राह्मणा ब्रूयुराप्ता वा स्त्रियः पुंसवनमिष्टं, तच्चानुष्ठेयम्। इति पुंसवनानि॥१६॥
अत ऊर्ध्वं गर्भास्थापनानि व्याख्यास्यामः—ऐन्द्री ब्राह्मी शतवीर्या सहस्रवीर्याऽमोघाऽव्यथा शिवा बलाऽरिष्टा वाट्यपुष्पी विष्वक्सेनकान्ता च; आसामोषधीनां शिरसा दक्षिणेन वा पाणिना धारणम्, एताभिश्चैव सिद्धस्य पयसः सर्पिषों वा पानम्, एताभिश्चैव पुष्ये पुष्ये स्त्रानं, सदा1155 समालभेत च ताः, तथा सर्वासां जीवनीयोक्तानामोषधीनां सदोपयोगस्तैस्तैरुपयोगविधिभिः। इति गर्भास्थापनानि व्याख्यातानि भवन्ति॥१७॥
गर्भोपघातकरास्त्विमे भावा भवन्ति; तद्यथा—उत्कटुकविषमकठिनासनसेविन्या1156 वातमूत्रपुरीषवेगानुपरुन्धत्या दारुणानुचितव्यायामसेविन्यास्तीक्ष्णोष्णातिमात्रसेविन्याः प्रमिताशनसेविन्याश्च गर्भो म्रियतेऽन्तः कुक्षेः, अकाले वा स्रंसते, शोषी वा भवति; तथाऽभिघातप्रपीडनैः श्वभ्रकूपप्रपातदेशावलोकनैर्वाऽभीक्ष्णं मातुः प्रपतत्यकाले गर्भः, तथाऽतिमात्रसंक्षोभिभिर्यानैर्यानेन, अप्रियातिमात्र श्रवणैर्वा ; प्रततोत्तानशायिन्याः पुनर्गर्भस्य नाभ्याश्रया नाडी कण्ठमनुवेष्टयति; विवृतशायिनी नक्तंचारिणी चोन्मत्तं जनयति, अपस्मारिणं पुनः कलिकलहशीला, व्यवायशीला दुर्वपुषमह्रीकं स्त्रैणं वा, शोकनित्या भीतमपचितमल्पायुषं1157 वा, अभिध्यायिनी1158 परोपतापिनमीर्ष्युं स्त्रैणं वा, स्तेना त्वायांसबहुलमतिद्रोहिणमकर्मशीलं वा, अमर्षिणी चण्डमौपधिकमसूयकं वा, स्वप्ननित्या तन्द्रालुमबुधमल्पाग्निं वा, मद्यनित्या पिपासालुमल्पस्मृतिमनवस्थितचित्तं वा, गोधामांसप्रिया शार्करिणमश्मरिणं शनैर्मेहिनं वा, वराहमांसप्रिया रक्ताक्षं क्रथनमनतिपरुषरोमाणं वा, मत्स्यमांसनित्या चिरनिमेषंस्तब्धाक्षं वा, मधुरनित्या प्रमेहिणं मूकमतिस्थूलं वा, अम्लनित्या रक्तपित्तिनं त्वगक्षिरोगिणं वा, लवणनित्या शीघ्रवलीपलितं खालित्यरोगिणं वा, कटुकनित्या दुर्बलमल्पशुक्रमनपत्यं वा, तिक्तनित्या शोषिणमबलमनुपचितं वा, कषायनित्या श्यावमानाहिनमुदावर्तिनं वा, यद्यच्च यस्य यस्य व्याधेर्निदानमुक्तं तत्तदासेवमानाऽन्तर्वत्रीतद्विकारबहुलमपत्यं जनयति, पितृजास्तु शुक्रदोषा मातृजैरपचारैर्व्याख्याताः। इति गर्भोपघातकरा भावा व्याख्याताः॥१८॥
तस्मादहितानाहारविहारान् प्रजासंपदमिच्छन्ती स्त्री विशेषेण वर्जयेत्; साध्वाचारा चात्मानमुपचरेद्धताभ्यामाहारविहाराभ्याम्॥१९॥
व्याधींश्चास्या मृदुमधुरशिशिरसुखसुकुमारप्रायैरौषधाहारोपचारैरुपचरेत्। न चास्या वमनविरेचन शिरोविरेचनानि प्रयोजयेत्, न रक्तमवसेचयेत्, सर्वकालं च नास्थापनमनुवासनं वा कुर्यादन्यत्रात्ययिकाद्व्याधेः, अष्टमं मासमुपादाय वमनादिसाध्येपु पुनर्विकारेष्वात्ययिकेषु मृदुभिर्वमनादिभिस्तदैर्थकारिभिर्वोपचारः1159 स्यात्; पूर्णमिव तैलपात्रमसंक्षोभयताऽन्तर्वत्नी1160 भवत्युपचर्या॥२०॥
सा चेदपचाराद्द्वयोस्त्रिषु वा मासेषु पुष्पं पश्येन्नास्या गर्भः स्थास्यतीति विद्यात्; अजातसारो हि तस्मिन् काले भवति गर्भः॥२१॥
सा चेच्चतुष्प्रभृतिषु मासेपु क्रोधशोकासूयेर्ष्याभयत्रासव्यवायव्यायामसंक्षोभसंधारणविषमाशनशयन-स्थानक्षुत्पिपासाद्यनियोगात् कदाहाराद्वा पुष्पं पश्येत्तस्या गर्भस्थापनविधिमुपदेक्ष्यामः। पुष्पदर्शनादेवैनां ब्रूयात्—शयनं तावन्मृदु सुखशिशिराम्तरणसंस्नीर्णमीषदवनतशिरस्कं प्रतिपद्यस्वेति, ततो यष्टिमधुकसर्पिभ्यां परमशिशिरवारिणि संस्थिताभ्यां पिचुमाप्लाव्योपस्थसमीपे स्थापयेत्तस्याः, तथा शतधौतसहस्रधौताभ्यां सर्पिर्भ्यामधो नाभेः सर्वतः प्रदिह्यात्, गव्येन चनां पयसा सुशीतेन मधुकाम्बुना वा न्यग्रोधादिकषायेण वा परिषेचयेदधो नाभेः, उदकं वा सुशीतमवगाहयेत्, क्षीरिणां कषायद्रुमाणां च स्वरसपरिपीतानि चैलानि ग्राहयेत्, न्यग्रोधादिशुङ्गासिद्धयोर्वा क्षीरसर्पिषोः पिचुं ग्राहयेत्, अतश्चैवाक्षमात्रं प्राशयेत्, प्राशयेद्वा केवलं च क्षीरसर्पिः, पद्मोत्पलकुमुदकिअल्कांश्चास्यै समधुशर्करान् वा लेहार्थं दद्यात्, शृङ्गाटकपुष्करबीजकशेरुकानू भक्षणार्थं, गन्धप्रियङ्ग्ग्वसितोत्पलशालूकोदुम्बरशलाटुन्यग्रोधशुङ्गानि वा पाययेदेनामाजेन पयसा, पयसा चैनां बलातिबलाशालिषष्टिकेक्षुमूलकाकोली शृतेन समधुशर्करं रक्तशालीनामोदनं मृदुसुरंभिशीतं1161 भोजयेत्, लावकपिञ्जलकुरङ्गशम्बरशशहरिणैणकालपुच्छकरसेन वा घृतसुसंस्कृतेन1162 सुखशिशिरोपवातदेशस्थां भोजयेत्, तथा क्रोधशोकायासव्यवायव्यायामतश्चाभिरक्षेत्, सौम्याभिश्चैनां कथाभिर्मनोऽनुकूलाभिरुपासीत तथाऽस्या गर्भस्तिष्ठति॥२२॥
यस्याः पुनरामान्वयात् पुष्पदर्शनं स्यात्, प्रायस्तत्तस्यास्तद्गर्भोपघातकरं भवति, विरुद्वोपक्रमत्वात्तयोः॥२३॥
यस्याः पुनरुष्णतीक्ष्णोपयोगाद्गर्भिण्या महति संजातसारे गर्भे पुष्पदर्शनं स्यादन्यो वा योनिप्रस्रावः तस्या गर्भो वृद्धिं न प्राप्नोति निःस्रुतत्वात्; स कालान्तरमवतिष्ठतेऽतिमात्रं, तमुपविष्टकमित्याचक्षते केचित्; उपवासव्रतकर्मपरायाः पुनः कदाहारायाः स्त्रेहद्वेषिण्या वातप्रकोपणान्यासेवमानाया गर्भो न वृद्धिं प्राप्नोति परिशुष्कत्वात् स चापि कालान्तरमवतिष्ठतेऽतिमात्रम्, अस्पन्दनश्च भवति, तं तु नागोदरमित्याचक्षते। नार्योस्तयोरुभयोरपि चिकित्सितविशेषमुपदेक्ष्यामः—भौतिकजीवनीयबृंहणीयमधुरवातहरसिद्धानां सर्पिषां1163 पयसामामगर्भाणां चोपयोगो गर्भवृद्धिकरः, संभोजनमेतैरेव सिद्धैश्च घृतादिभिः सुभिक्षायाः1164, अभीक्ष्णं यानवाहनाचमार्जनावजृम्भणैरुपपादनमिति॥२४॥
यस्याः पुनर्गर्भः1165 प्रसुप्तो न स्पन्दते तां श्येनमत्स्यगवयतित्तिरताम्रचूडशिखिनामन्यतमस्य सर्पिष्मता रसेन माषयूषेण वा प्रभूतसर्पिषा मूलकयूषेण वा रक्तशालीनामोदनं मृदुमधुरशीतं भोजयेत्, तैलाभ्यङ्गेन चास्या अभीक्ष्णमुदरबस्तिवंक्षणोरुकटीपार्श्वपृष्ठप्रदेशानीषदुष्णेनोपाचरेत्॥२५॥
यस्याः पुनरुदावर्तविबन्धः स्यादष्टमे मासे न चानुवासनसाध्यं मन्येत, ततोऽस्यास्तद्विकारप्रशमनमुपकल्पयेन्निरूहं, उदावर्तो ह्युपेक्षितः सहसा संगर्भां1166 गर्भिणीं गर्भमथवाऽतिपातयेत्। तत्र वीरणशालिषष्टिककुश काशेक्षुबालिकावेतसपरिव्याधमूलानां भूतीकानन्ताकाश्मर्यपरूषकमधुकमृद्धीकानां च पयसाऽर्धोदकेनोद्गमय्य1167 रसं प्रियालबिभीतकमज्जतिलकल्कसंप्रयुक्तमीषल्लवणमनत्युष्णं निरुहं दद्यात्। व्यपगतविबन्धां चैनां सुखसलिलपरिषिक्ताङ्गींस्थैर्यकरमविदाहिनमाहारं भुक्तवर्ती सायं मधुरकसिद्धेन तैलेनानुवासयेत्; न्युज्जां त्वेनामास्थापनानुवासनाभ्यामुपचरेत्॥२६॥
यस्याः पुनरतिमात्रदोषोपचयात्तीक्ष्णोष्णातिमात्रसेवनाद्वा वातमूत्रपुरीषवेगधारणैर्वा विषमाशनशयनस्थानसंपीडनाभिघातैर्वा क्रोधशोकेर्ष्यासूयाभयत्रासादिभिर्वा साहसैर्वाऽपरैः कर्मभिरन्तःकुक्षेर्गर्भो म्रियते तस्याः स्तिमितं स्तब्धमुदरमाततं शीतमश्मान्तर्गतमिव भवति, अस्पन्दनो गर्भः, शूलमधिकमुपजायते, न चाव्यः
प्रादुर्भवन्ति, योनिर्न प्रस्रवति, अक्षिणी चास्याः स्रस्ते भवतः; ताम्यति व्यथते भ्रमते श्वसित्यरतिबहुला च भवति, न चास्या वेगप्रादुर्भावो यथावदुपलभ्यते, इत्येवंलक्षणां स्त्रियं मृतगर्भेयमिति विद्यात्॥२७॥
तस्य गर्भशल्यस्य जरायुप्रपातनं कर्म संशमनमित्याहुरेके, मन्त्रादिकमथर्ववेदविहितमित्येके, परिदृष्टकर्मणा शल्यहऽऽहरणमित्येके॥२८॥
व्यपगतगर्भशल्यां तुस्त्रियमामगर्भां सुराशीध्वरिष्टमधुमदिरासवानामन्यतममग्रेसामर्थ्यतः पाययेद्गर्भकोष्ठविशुद्ध्यर्थमर्तिविस्मरणार्थं प्रहर्षणार्थं च। अतः परं बृंहणैर्बलानुरक्षिभिरस्नेहसंप्रयुक्तैर्यवाग्वादिभिर्वा तत्कालयोगिभिराहारैरुपाचरेहोषधातुक्लेदविशोषण1168मात्रं कालम्। अतः परं स्नेहपानैर्बस्तिभिराहार विधिभिश्च दीपनीयजीवनीयबृंहणीय मधुरवातहरसमाख्यातैरुपचरेत्; परिपक्कगर्भश-
ल्यायाः पुनर्विमुक्तगर्भशल्यायास्तदहरेव स्नेहोपचारः स्यात् ॥२९॥
परमतो निर्विकारमाध्याथ्यमानस्य गर्भस्य मासे मासे कर्मोपदेक्ष्यामः—प्रथमे मासे शङ्कितां1169 चेद्गर्भमापन्ना क्षीरमनुपस्कृतं मात्रावच्छीतं काले काले पिवेत्, सात्म्यं च भोजनं सायं प्रातश्च भुञ्जीत; द्वितीये मासे क्षीरमेव च मधुरौषधसिद्धं; तृतीये मासे क्षीरं मधुसर्पिर्भ्यामुपसंसृज्य; चतुर्थे मासे तु क्षीरनवनीतमक्षमात्रमश्नीयात्; पञ्चमे मासे क्षीरसर्पिः, षष्ठे मासे क्षीरसर्पिर्मधुरौषधसिद्धं; तदेव सप्तमे मासे। तत्र गर्भस्य केशा जायमाना मातुर्विदाहं जनयन्तीति
स्त्रियो भाषन्ते; तन्नेति भगवानात्रेयः, किंतु गर्भोत्पीडनाद्वातपित्तश्लेष्माण उरः प्राप्य विदाहं1170 जनयन्ति, ततः कण्डूरुपजायते, कण्डूमूला च किक्किशावाप्तिर्भवति। तत्र कोलोदकेन नवनीतस्य मधुरौषधसिद्धस्य पाणितलमात्रं कालेऽस्यै पानार्थं1171 दद्यात्, चन्दनमृणालकस्कैश्चस्याः स्तनोदरं विमृद्गीयात् ; शिरीषघातकीसर्षपमधुकचूर्णैर्वा, कुटजार्जकबीजमुस्तहरिद्राकल्कैर्वा, निम्बकोलसुरसमञ्जिष्टाकल्कैर्वा, पृषतहरिणशशरुधिरयुतया त्रिफलया वा, करवीरपत्रसिद्धेन तैलेनाभ्यङ्गः; परिषेकः पुनर्मालतीमधुकसिद्धेनाम्भसा; जातकण्डूश्च कण्डूयनं वर्जयेत्त्वग्भेदवैरूप्यपरिहारार्थम्, अशक्यायां तु कण्ड्यामुन्मर्दनोद्धर्षणाभ्यां परिहारः स्यात्, मधुरमाहारजातं वातहरमल्पमल्पस्नेहलवणमल्पोदकानुपानं च भुञ्जीत। अष्टमे तु मासे क्षीरयवागूं सर्पि-ऽमतींकाले काले पिबेत्; तन्नेति भद्रकाप्यः, पैङ्गल्याबाधो ह्यस्या गर्भमागच्छेदिति; अस्त्वत्र पैङ्गल्याबाध इत्याह भगवान् पुनर्वसुरात्रेयः, नह्येतदकार्यम्, एवं कुर्वती ह्यरोगमरोगा1172 बलवर्णस्वरसंहननसंपदुपेतं ज्ञातीनां श्रेष्ठमपत्यं जनयति। नवमे तु खल्वेनां मासे मधुरौषधसिद्धेन तैलेनानुवासयेत्, अतश्चैवास्यास्तैलात् पिचुं योनौ प्रणयेद्गर्भस्थानमार्गस्त्रेहनार्थम्। यदिदं कर्म प्रथमं मासमुपादायोपदिष्टमानवमान्मासात्, तेन गर्भिण्या गर्भसमये गर्भधारणे कुक्षिकटीपार्श्वपृष्ठं मृदूभवति, वातश्चानुलोमः संपद्यते, मूत्रपरीषे च प्रकृतिभूते सुखेन मार्गमनुपद्येते, चर्मनखानि च मार्दवमुपयान्ति, बलवर्णौ चोपचीयेते, पुत्रं चेष्टं संपदुपेतं सुखिनं सुखेनैषा काले प्रजायत इति ॥३०॥
प्राक् चैवास्या नवमान्मासात् सूतिकागारं कारयेदपहृतास्थिशर्कराकपाले देशे प्रशस्तरूपरसगन्धायां भूमौ प्रारद्वारमुदग्द्वारं वा बैलवानां काष्ठानां तैन्दुकानामैङ्गुदकानां भाल्लातकानां वारुणानां खादिराणां वा, यानि चान्यान्यपि ब्राह्मणाः शंसेयुरथर्ववेदविदस्तेषां च; वसनालेपनाच्छादनापिधानसंपदुपेतं वास्तुविद्या-हृदययोगाग्नि-
सलिलो-लूखलवर्चःस्थान-स्त्रानभूमिमहानसमृतुसुखं1173 च॥३१॥
तत्र सर्पिस्तैल मधुसैन्धवसौवर्चलकाललवणविडङ्गगुडकुष्ठकिलिमनागरपिप्पलीपिप्पली-मूलहस्तिपिप्पली- मण्डूकपर्येलालाङ्गलीवचाचव्यचित्रकचिरबिल्वहिङ्गुसर्षपलशुनकतककणकणिकानीपातसी-बल्वज-भूर्जकुलत्थमैरेय-सुरासवाः सन्निहिताः स्युः, तथाऽश्मानौ द्वौ, द्वे चण्डमुसले, द्वे उदूखले, खरो वृषभश्च, द्वौ च तीक्ष्णौ सूचीपिप्पलको सौवर्णराजतौ, शस्त्राणि च तीक्ष्णायसानि, द्वौ च बिल्वमयौ पर्यङ्कौ, तैन्दुकैङ्गुदानिच काष्ठान्यग्निसंधुक्षणानि, स्त्रियश्च बह्वयोबहुशः प्रजाताः सौहार्दयुक्ताः सततमनुरक्ताः प्रदक्षिणाचाराःप्रतिपत्तिकुशलाः प्रकृतिवत्सलास्त्यक्तविषादाः क्लेशसहिष्णवोऽभिमताः, ब्राह्मणाश्चाथर्ववेदविदः, यच्चान्यदपि तत्र समर्थमन्येत, यच्चान्यच्च ब्राह्मणा ब्रूयुः स्त्रियश्च वृद्धास्त कार्यम्॥३२॥
ततः प्रवृत्ते नवमे मासे पुण्येऽहनि प्रशस्तनक्षत्रयोगमुपगते भगवति शशिनि कल्याणे कल्याणे च करणे मैत्रे मुहूर्ते शान्तिंकृत्वा1174 गोब्राह्मणमग्निमुदकं चादौ प्रवेश्य गोभ्यस्तृणोदकं मधु लाजांश्च प्रदाय ब्राह्मणेभ्योऽक्षतान् सुमनसो नान्दीमुखानि च फलानीष्टानि दत्त्वा, उदकपूर्वमासनस्थेभ्योऽभिवाद्य, पुनराचम्य, स्वस्ति वाचयेत्। ततः पुण्याहशब्देन गोब्राह्मणमनुवर्तमाना1175 प्रदक्षिणं प्रविशेत् सूतिकागारम् । तत्रस्था च प्रसवकालं प्रतीक्षेत॥३३॥
तस्यास्तु खल्विमानि लिङ्गानि प्रजननकालमभितो भवन्ति; तद्यथा—क्लुमो गात्राणां, ग्लानिराननस्य, अक्षणोः शैथिल्यं, विमुक्तबन्धनत्वमिव वक्षसः, कुक्षेरवस्रंसनम्, अधो गुरुत्वं, वंक्षणबस्तिकटीकुक्षिपार्श्वपृष्ठनिस्तोदः, योनेःप्रस्रवणम्, अनन्नाभिलाषश्चेति; ततोऽनन्तरमावीनां प्रादुर्भावः, प्रसेकश्च गर्भोदकस्य॥३४॥
आवीप्रादुर्भावे तु भूमौ शयनं विदध्यान्मृद्वास्तरणोपपन्नं, तदध्यासीनां तां तत1176ःसमन्ततः परिवार्य यथोक्तगुणाः स्त्रियः पर्युपासीरवाश्वासयन्त्यो वाग्भिर्ग्राहिणीयाभिः सान्त्वनीयाभिः1177॥३५॥
सा चेदावीभिः संक्लिश्यमाना न प्रजायेत, अथैनां ब्रूयात्— उत्तिष्ठ मुसलमन्यतरं गृह्णीष्व, अनेनैतदुदूखलं धान्यपूर्णं मुहुर्मुहुरभिजहि, मुहुर्मुहुरवजृम्भस्त्र, चङ्क्रमस्व चान्तराऽन्तरेति; एवमुपदिशन्त्येके॥३६॥
तन्नेत्याह भगवानात्रेयः—दारुणव्यायामवर्जनं हि गर्भिण्याः सततमुपदिश्यते, विशेषतश्च प्रजननकाले; प्रचलितसर्वधातुदोषायाःसुकुमार्या नार्या मुसलव्यायामसमीरितो वायुरन्तरं लब्ध्वा प्राणान् हिंस्यात्, दुष्प्रतीकारा हि तस्मिन् काले विशेषेण भवति गर्भिणी, तस्मान्मुसलग्रहणं परिहार्यमृषयो मन्यन्ते, जृम्भणं चङ्गमणं च पुनरनुष्ठेयमिति॥३७॥
अथास्यै दद्यात् कुष्ठैलालाङ्गलिकीवचाचित्रकचिरबिल्वचूर्णमुपाघ्रातुं, सा तन्मुहुर्मुहुरुपजिघ्रेत्; तथा भूर्जपत्रधूमं शिशपासारधूमं वा, तस्याश्चान्तराऽन्तरा कटीपार्श्वपृष्ठसक्थिदेशानीषदुष्णेन तैलेनाभ्यज्यानुसुखमवमृद्गीयात्। इत्यनेन तु कर्मणा गर्भोऽवाक्प्रतिपद्यते ॥३८॥
स यदा जानीयाद्विमुच्य हृदयमुदरमस्यास्त्वाविशति, बस्तिशिरोऽवगृह्णाति, स्वरयन्त्येनामाव्यः, परिवर्तते अधो1178 गर्भ इति; अस्यामवस्थायां पर्यङ्कमेनामारोग्य प्रवाहितुमुपकामयेते1179, कर्णे चास्या मन्त्रमिममनुकूला स्त्री जपेत्॥३९॥
‘क्षितिर्जलं वियत्तेजो वायुर्विष्णुः1180 प्रजापतिः।
सगर्भां त्वां सदा पान्तु वैशल्यं च दिशन्तु ते॥४०॥
प्रसूष्व त्वमविक्लिष्टमविकिष्टा शुभानने ।
कार्तिकेयद्युतिं पुत्रं कार्तिकेयाभिरक्षितम्’ इति॥४१॥
ताश्चैनांयथोक्तगुणाः स्त्रियोऽनुशिष्युः—अनागतावीर्मा प्रवाहिष्टाः, या ह्यनागतावीः प्रवाहयते व्यर्थमेवास्यास्तत् कर्म भवति, प्रजा चास्या विकृता विकृतिमापन्ना श्वासकासशोषप्लीहप्रसक्ता वा भवति; यथा हि क्षवथूद्गारवातमूत्रपुरीषवेगान् प्रयतमानोऽप्यप्राप्तकालान्न लभते कृच्छ्रेण वाऽप्यवाप्नोति1181, तथाऽनागतकालं गर्भमपि प्रवाहमाणा; यथा चैषामेव क्षवथ्वादीनां संधारणमुपघातायोपंपद्यते तथा प्राप्तकालस्य गर्भस्याप्रवाहणं; सा यथानिर्देश कुरुष्वेति वक्तव्या स्यात्। तथा च कुर्वती शनैः शनैः पूर्वं प्रवाहेत, ततोऽनन्तरं बलवत्तरं, तस्यां च प्रवाहमाणायां स्त्रियः शब्दं कुर्युः’प्रजाता प्रजाता धन्यं धन्यं पुत्रं’ इति, तथाऽस्या हर्पेणाप्याय्यन्ते प्राणाः॥४२॥
यदा च प्रजाता स्यात्तदैनामवेक्षेत काचिदस्या अपरा प्रपन्ना न वेति। तस्याश्चेदपरा न प्रपन्ना स्यादथैनामन्यतमा स्त्री दक्षिणेन पाणिना नाभेरुपरिष्टाद्वलवन्निपीड्य सव्येन पाणिना पृष्ठत उपसंगृह्य सुनिर्घृतं निर्धूनुयात्, अथास्याः पादपार्ष्या श्रोणीमाकोटथेत्, तस्याः स्फिचावुपसंगृह्य सुपीडितं पीडयेत्, अथास्या बालवेण्या कण्ठतालु परिमृशेत्, भूर्जपत्रकाचमणिसर्प निर्मोकैश्चास्या योनिं धूपयेत् कुष्ठतालीशकल्कं बलवंजयूषे1182 मैरेयसुरामण्डे तीक्ष्णे कौलत्थे वा यूपे मण्डूकपर्णीपिप्पलीक्वथे1183 वा संप्लाव्य पाययेदेनां, तथा सूक्ष्मैला किलिमकुष्ठनागरविडङ्गकाला1184गुरुचव्यपिप्पली-चित्रकोपकुञ्चिकाकल्क खरस्य1185 वृभषस्य वा जीवतो1186 दक्षिणं कर्णमुत्कृत्य दृषदि जर्जरीकृत्य बल्वजयूषादीनामन्यतममस्मिन्1187 प्रक्षिप्य मुहूर्तस्थितमुद्धृत्य तदाप्लावनं पाययेदेनां, शतपुष्पाकुष्ठमदनहिङ्गु - सिद्धस्य चैनां तैलस्य पिचुं ग्राहयेत्, अतश्चैवानुवासयेत्, एतैरेव चालावनैः फलजीमूत केक्ष्वाकुधामार्गवकुटजकृतवेधनहस्ति पर्युपहितैरास्थापयेत् तदास्थापनमस्याः सह वातमूत्रपुरीषैर्निर्हरत्यपरामासक्तां वायोरनुलोमगमनात्।1188 अपरां हि वातमूत्रपुरीपाण्यन्यानिचान्तर्बहिर्मुखानि1189 सज्जन्ति॥४३॥
तस्यास्तु खल्वपरायाः प्रपतनार्थे कर्मणि क्रियमाणे जातमात्रस्यैव कुमारस्य कार्याण्येतानि कर्माणि भवन्ति। तद्यथा—अश्मनोः संघट्टनं कर्णयोर्मूले, शीतोदकेनोष्णोदकेन वा मुर्खपरिषेकः1190, तथा स क्लेशविहतान् प्राणान् पुनर्लभेत; कृष्णकपालिकाशूर्पेण चैनमभिनिष्पुणीयुर्यद्यचेष्टः1191 स्याद्यावत्प्राणानां प्रत्यागमनं, ततः प्रत्यागतप्राणं प्रकृतिभूतमभिसमीक्ष्य स्नानोदकग्रहणाभ्यामुपपादयेत्, तथास्य ताल्वोष्ठकण्ठ जिह्वाप्रमार्जनमारभेताङ्गुल्या सुपरिलिखितनखया सुप्रक्षालितोपधानया कार्पासपिचुमत्या, प्रथमं प्रमार्जितायास्य शिरस्ता कार्पासपिचुना स्नेहगर्भेण प्रतिच्छादयेत्, ततोऽस्यानन्तरं कार्य सैन्धवोपहितेन सर्पिषा प्रच्छर्दनम्॥४४॥
ततः कल्पनं नाड्याः; तस्याः कल्पनविधिमुपदेक्ष्यामः—नाभिबन्धनात् प्रभृति हित्वा1192ऽष्टाङ्गुलमभिज्ञानं कृत्वा छेदनावकाशस्य द्वयोरन्तरयोः शनैर्गृहीत्वा तीक्ष्णेन रौक्मराजतायसानां छेदनानामन्यतमेनोर्ध्वधारेण1193 छेदयेत्, तामग्रे सूत्रेणोपनिबध्य कण्ठेऽस्य शिथिलमवसृजेत्; तस्य चेन्नाभिः पच्येत तां लोध्रमधुकप्रियङ्गुदा रुहरिद्वाकल्कसिद्धेन तैलेनाभ्यज्यात्, एषामेव तैलौषधानां चूर्णेनावचूर्णयेत्, एष नाडीकल्पनविधिरुक्तः सम्यक्॥ ४५ ॥
असम्यक्कल्पने हि नाड्या आयामव्यायामोत्तुण्डिता पिण्डलिकाविनामिकाविजृम्भिकाबाधेभ्यो भयं; तत्राविदाहिभिर्वातपित्तप्रशमनैरभ्यङ्गोत्सादनपरिषेकैः सर्पिर्भिश्चोपक्रमेत गुरुलाघवमभिसमीक्ष्य1194॥ ४६ ॥
ततोऽनन्तरं कुमारस्य जातकर्म कार्ये; तद्यथा—मधुसर्पिषी मन्त्रोपमन्त्रिते यथाम्नायं प्रथमं प्राशितुमस्मै दद्यात्, स्तनमत ऊर्ध्वमनेनैव विधिना दक्षिणं पातुं पुरस्तात् प्रयच्छेत्, अथातः शीर्षतः स्थापयेदुदकुम्भं मन्त्रोपमन्त्रितम्॥ ४७ ॥
अथास्य रक्षां विदध्यात्—आदाली (री) खदिरकर्कन्धुपीलुपरूपकशाखाभिरस्य गृहं भिषक् समन्ततः परिवारयेत् सर्वतश्च सूतिकागारस्य सर्षपातसीतण्डुलकणकणिकाः प्रकिरेत् तथा तण्डुलबलिमङ्गलहोमः सततमुभयकालं क्रियेतानामकर्मणः,1195 द्वारे च मुसलं देहलीमनु तिरश्चीनं न्यसेत्, वचाकुष्ठक्षौमकहिङ्गुसर्षपातसीलशुनकणकणिकानां रक्षोघ्नसमाख्यातानां चौषधीनां पोट्टलिकां बुद्ध्वासूतिकागारस्योत्तरदेहल्यामवसृजेत्तथा सूतिकायाः कण्ठे सपुत्रायाः स्थाल्युदककुम्भपर्यङ्केष्वपि तथैव द्वयोर्द्वार्पक्षयोः, कणकॉ1196म्लकेन्धनाग्निस्तिन्दुककाष्ठेन्धनाग्निश्च सूतिकागारस्याभ्यन्तरतो नित्यं स्यात् स्त्रियश्चैनां यथोक्तगुणाः सुहृदश्चानुजागृयुर्दशाहं द्वादशाहं वा, अनु,परतप्रदानमङ्गलाशीः स्तुतिगीतवादित्रमन्नपानविशदमनुरक्तप्रहृष्टजनसंपूर्णंच तद्वेश्म कार्यं, ब्राह्मणश्चाथर्ववेदवित् सततमुभयतः1197कालं शान्तिं जुहुयात् स्वस्त्ययनार्थं कुमारस्य तथा सूतिकायाःइत्येतद्रक्षाविधानमुक्तम् ॥ ४८ ॥
सूतिकां तु खलु बुभुक्षितां विदित्वा स्नेहं पाययेत प्रथमं परमया शक्तया सर्पिस्तैलं वसां मज्जानं बा सात्म्यीभावमभिसमीक्ष्य पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकशृङ्गवेरचूर्णसहितं; स्नेहं पीतवत्याश्च सर्पिस्तैलाभ्यामभ्यज्य वेष्टयेदुदरं महता वाससा, तथा तस्या न वायुरुदरे विकृतिमुत्पादयत्यनवकाशत्वात् ; जीर्णे तु स्नेहे पिप्पल्यादिभिरेव सिद्धां यवागूं सुस्निग्धां द्रवां मात्रशः1198 पाययेतोभयकालम्, अच्छेन चोष्णोदकेन परिषेचयेत् प्राकू स्नेहयवागूपानाभ्याम् ।एवं पञ्चरात्रं सप्तरात्रं वाऽनुपाल्य क्रमेणाप्याययेत्; स्वस्थवृत्तमेतावत् सूतिकायाः ॥ ४९ ॥
तस्यास्तु खलु सूतिकाया यो व्याधिरुत्पद्यते स कृच्छ्रसाध्यो भवत्यसाध्यो वा, गर्भवृद्धिक्षयितशिथिलसर्वशरीरधातुत्वात् प्रवाहणवेदनाक्लेदरक्तनिःस्रुतिविशेषशून्यशरीरत्वाच्च; तस्मात्तां यथोक्तेनविधिनोपचरेत्; भौतिकजीवनीयबृंहणीयमधुरवातहरसिद्धैरभ्यङ्गोत्सादनपरिषेकावगाहनान्नपानविधिभिर्विशेषतश्चोपचरेत्; विशेषतो हिशून्यशरीराः स्त्रियः प्रजाता भवन्ति ॥ ५० ॥
दशमे त्वहनिसपुत्रा स्त्री सर्वगन्धौषधैर्गौरसर्षपलोध्रैश्च स्नाता लघ्वहतशुचिवस्त्रं1198 परिधाय पवित्रेष्टल1199घुविचित्रभूषणवती च संस्पृश्य अङ्गलान्युचितामर्चयित्वा च देवतां शिखिनः शुक्लवाससोऽव्यङ्गांश्च ब्राह्मणान् स्वस्ति वाचयित्वा, कुमारमहतेन शुचिना वाससाऽऽच्छादयेत्, प्राकूशिरसमुदक्शिरसं वा संवेश्य, देवतापूर्वं द्विजातिभ्यः नणमतीत्युक्त्वा, कुमारस्य पिता द्वे नामनी कारयेन्नाक्षत्रिकं नामाभिप्रायिकं च; तत्राभिप्रायिकं नाम घोषवदाद्यन्तस्थान्तमूष्मान्तंवाऽवृद्धं त्रिपुरु1200षानूकमनवप्रतिष्ठितं, नाक्षत्रिकं तु नक्षत्र1201देवतासमानाख्यं द्व्यक्षरंचतुरक्षरं वा ॥ ५१ ॥
कृते1202 च नामकर्मणि कुमारं परीक्षितुमुपक्रामेतायुषः प्रमाणज्ञानहेतोः; तन्नेमान्यायुष्मतां कुमाराणां लक्षणानि भवन्ति; तद्यथा—एकैकजा मृदवोऽल्पाः स्निग्धाः सुबद्धमूलाः कृष्णाःकेशाः प्रशस्यन्ते,स्थिरा बहला त्वक्,प्रकृत्याकृतिसंपन्नमीषत्प्रमाणातिवृत्तमनुरूपमातपत्रोपमं शिरः, व्यूढं दृढं समं सुलिष्टशङ्खसन्ध्यूर्ध्वव्यञ्जनसंपन्नमुपचितं बलिनमर्धचन्द्राकृति ललाटं, बहलौविपुलसमपीठौ समौ नीचैर्वृद्धौ पृष्ठतोऽवनतौ सुश्लिष्टकर्णपुत्रकौ महाच्छिद्रौ कर्णौ,ईषत्प्रलम्बिन्यावसङ्गते समे संहते महत्यौ भ्रुवौ,समे समाहितदर्शने व्यक्तभागविभागे बलवती तेजसोपपन्नेस्वङ्गापाङ्गे चक्षुषी,ऋज्वी महोच्छ्वासा वंशसंपन्नेषदवनताग्रा नासिका, महदृजु सुनिविष्टदन्तमास्यम्, आयामविस्तारोपपन्ना श्लक्ष्णा तन्वी प्रकृति1203वर्णयुक्ता जिह्वा, श्लक्ष्णं युक्तोपचयमूष्मोपपन्नं रक्तं तालु, महानदीनः स्निग्धोऽनुनादी गम्भीरसमुत्थो धीरः स्वरः, नातिस्थूलौ नातिकृशौ विस्तारोपपन्नावास्यप्रच्छादनौ रक्तावोष्ठौ, महत्यौ हनू, वृत्ता नातिमहती ग्रीवा, व्यूढमुपचितमुरः, गूढं जत्रु पृष्ठवंशश्च विप्रकृष्टान्तरौ स्तनौ,अंसपातिनी स्थिरे पार्श्वे, वृत्तपरिपूर्णायतौ बाहू सक्थिनी अङ्गुलयश्च, महदुपचितं पाणिपादं, स्थिरा वृत्ताः स्निग्धास्ताम्रास्तुङ्गाः कूर्माकाराःकरजाः, प्रदक्षिणावर्ता सोत्सङ्गा च नाभिः, उरस्त्रिभागहीना समा समुपचितमांसा कटी, वृत्तौ स्थिरोपचितमांसौनात्युन्नतौ नात्यवनतौ स्फिचौ, अनुपूर्ववृत्तावुपचययुक्तावूरू, नात्युपचिते नात्यपचिते एणीपदे प्रगूढसिरास्थिसन्धी जङ्घे, नात्युपचितौनात्यपचितौ गुल्फौ, पूर्वोपदिष्टगुणौ पादौ कूर्माकारौ, प्रकृतियुक्तानि वातमूत्रपुरीषाणि तथा स्वप्नजागरणायासस्मितरुदितस्तनग्रहणानि;यच्च किंचिदन्यदप्यनुक्तमस्ति तदपि सर्वं प्रकृतियुक्तमिष्टं, विपरीतं पुनरनिष्टम्; इति दीर्घायुर्लक्षणानि ॥ ५२ ॥
अतो धात्रीपरीक्षामुपदेक्ष्यामः—अथ ब्रूयात्—धात्रीमानय समानवर्णी यौवनस्थां निभृतामनातुरामव्यङ्गामव्यसनामविरूपामजुगुप्सितां देशजातीयामक्षुद्रामक्षुद्रकर्मणींकुले जातां वत्सलाम रोगजीवद्वत्सां पुंवत्सां दोग्धीमप्रमत्तामशायिनीमनुच्चारशायिनीमनन्त्यावशायिनीं कुशलोपचारां शुचिमशुचिद्वेषिणीं स्तनस्तन्यसंपदुपेतामिति ॥ ५३ ॥
तत्रेयं स्तनसंपत्—नात्यूर्ध्वौनातिलम्बाबनतिकृशावनतिपीनौ युक्तपिप्पलको सुखप्रपानौ चेति ( स्तनसंपत्) ॥५४॥
स्तन्यसंपत्तु—प्रकृतिवर्णगन्धरसस्पर्शम्, उदपात्रे दुह्यमानमुदकं ध्येति प्रकृतिभूतत्वात् तत् पुष्टिकरमारोग्यकरं चेति ( स्तन्यसंपत् ) ॥ ५५ ॥
अतोऽन्यथा व्यापनं ज्ञेयं; तस्य विशेषाः—श्यावारुणवर्ण कषायानुरसं विशदमनालक्ष्यगन्धं रूक्षं द्रवं फेनिलं लघ्वतृप्तिकरं कर्शनं वातविकाराणां कर्तृ च वातोपसृष्टं क्षीरमंभिज्ञेयं1204; कृष्णनीलपीतताप्रावभासं तिक्ताम्लकटुकानुरसं कुणपरुधिरगन्धि भृशोष्णं पित्तविकाराणां कर्तृ च पित्तोपसृष्टं क्षीरमभिज्ञेयम्,तेषां अत्यर्थशुक्कुमतिमाधुर्योपपणांलवणानुरसं घृततैलवसामजगन्धि पिच्छिलं तन्तुमदुदपात्रेऽवसीदच्छ्रेष्मविकाराणां कर्तृ च श्लेष्मोपसृष्टं क्षीरमभिज्ञेयम् ॥५६॥
तेषां त्रयाणामपि क्षीरदोषाणां प्रतिविशेषमभिसमीक्ष्य यथास्वं यथादोषं च वमनविरेचनास्थापनानुवासनानि विभज्य कृतानि प्रशमनाय भवन्ति । पानाशनविधिस्तु दुष्टक्षीराया यवगोधूमशालिषष्टिकमुद्गहरेणुककुलत्थसुरासौवीरकतुषादकमैरेयमेदकलशुनकरञ्जप्रायः स्यात् । क्षीर दोष विशेषांश्चावेक्ष्यावेक्ष्य तत्तद्विधानं कार्यस्यात् ।पाठामहौषधसुरदारुमुस्तमूर्या गुडूची वत्सक फल किराततिक्तकटुकरोहिणीसारिवाकषायाणां च पानं प्रशस्यते; तथाऽन्येषातिक्तकषायकटुकमधुराणां1205 द्रव्याणामुपयोगः क्षीरविकारविशेषानभिसमीक्ष्य मात्रां कालं च । इति क्षीरविशोधनानि ॥ ५७ ॥
क्षीरजननानि तु मद्यानि सीधुवर्ज्यानि ग्राम्यानूपौदकानि च शाकधान्यमांसानि द्रवमधुराम्लभूयिष्ठाश्चाहाराः क्षीरिण्यश्चौषधयः क्षीरपानमनायासश्चेति, वीरणशालिषष्टिकेक्षुवालिकादर्भकुशकाशगुन्द्रेत्कटमूलकषायाणां च पानमिति (क्षीरजननान्युक्तानि) ॥५८ ॥
धात्री तु यदा स्वादुबहुलशुद्धदुग्धा स्यात्तदा स्त्रातानुलिप्ता शुक्लवस्त्रं परिधायैन्द्रीं ब्राह्मीं शतवीर्या सहस्रवीर्याममोघामव्यथां शिवामरिष्टां वाट्यपुष्पींविष्वक्सेनकान्तां वा बिभ्रत्योषधिं कुमारं प्राङ्मुखं प्रथमं दक्षिणं स्तनं पाययेत् । इति धात्रीकर्म ॥ ५९ ॥
अतोऽनन्तरं कुमारागारविधिमनुव्याख्यास्यामः—वास्तुविद्याकुशलः प्रशस्तं रम्यमतमस्कं निवातं प्रवातैकदेशं दृढमपगतश्वापदपशुदंष्ट्रिमूषिकपतङ्गं सुविभक्तसलिलोदूखलमूत्रवर्चःस्थानस्नानभूमिमहानसमृतुसुखं यथर्तुशयनासनास्तरणसंपन्नं कुर्यात्तथा सुविहितरक्षाविधानबलिमङ्गलहोमप्रायश्चित्तं शुचिवृद्धवैद्यानुरक्तजनसंपूर्णम् । इति कुमारागारविधिः ॥ ६० ॥
शयनासनास्तरणप्रावरणानि कुमारस्य मृदुलघुशुचिसुगन्धीनिस्युः; स्वेदमलजन्तुमन्ति मूत्रपुरीषोपसृष्टानि च वर्ज्यानि स्युः,असति संभवेऽन्येषां तान्येव च सुप्रक्षालितोपधूपितानि1206 सुशुद्धशुष्काण्युपयोगं गच्छेयुः ॥ ६१ ॥
धूपनानि पुनर्वाससां शयनास्तरणप्रावरणानां च यवसर्षपातसीहिङ्गुग्गुलुवचाचोरकवयःस्थागोलोमीजटिलापलङ्कषाशोकरोहिणीसर्पनिर्मोकाणि घृतयुक्तानि स्युः ॥ ६२ ॥
मणयश्च धारणीयाः कुमारस्य खड्गरुरुगवयवृषभाणां जीवतामेव दक्षिणेभ्यो विषाणेभ्योऽग्राणि गृहीतानि स्युः; ऐन्द्रयाद्याश्चौषधयो जीवकर्षभकौ च यानि चान्यान्यपि ब्राह्मणाः प्रशंसेयुरथर्ववेदविदुः ॥ ६३ ॥
क्रीडनकानि खल्वस्य विचित्राणि घोषवन्त्यभिरामाण्यगुरूण्यतीक्ष्णाग्राण्यनास्यप्रवेशीन्यप्राणहराण्यविवासनानि च स्युः ॥६४॥
न ह्यस्य वित्रासनं साधु, तस्मात्तस्मिन् रुदत्यभुञ्जाने वाऽन्यत्र विधेयतामगच्छति राक्षसपिशाचपूतनाद्यानां नामान्याह्वयता कुमारस्य वित्रासनार्थं नामग्रहणं न कार्यं स्यात् ॥ ६५ ॥
यदि त्वातुर्यं किंचित् कुमारमागच्छेत्तत् प्रकृतिनिमित्तपूर्वरूपलिङ्गोपशयविशेषैस्तत्वतोऽनुबुध्य सर्वविशेषानातुरौषध- देशकालाश्रयानवेक्षमाणश्चिकित्सितुमारभेतैनं मधुरमृदुलघुसुरभिशीतशङ्करं1207 कर्म प्रवर्तयन्, एवंसात्म्या हि कुमारा भवन्ति, तथा ते शर्म लभन्वेऽचिराय ॥ ६६ ॥
अरोगेष्वरोगवृत्तमातिष्ठेद्देशकालात्मगुणविपर्ययेण वर्तमानः क्रमेणासात्म्यानि परिवर्त्योपयुञ्जानः सर्वाण्यहितानि वर्जयेत्।तथा बलवर्णशरीरायुषां संपदमवाप्नोतीति ॥६७॥
एवमेनं कुमारमायौवनप्राप्तेर्धर्मार्थकौशलागमनाच्चानुपालयेत् । ॥ ६८ ॥
इति पुत्राशिषां समृद्धिकरं कर्म व्याख्यातम् । तदाचरन् यथोक्तैर्विधिभिः पूजां यथेष्टं लभतेऽनसूयक इति ॥ ६९ ॥
तत्र श्लोकौ ।
पुत्राशिषां कर्म समृद्धिकारकं यदुक्तमेतन्महदर्थसंहितम् ।
तदाचरन् ज्ञो विधिभिर्यथातथं पूजां यथेष्टं लभतेऽनसूयकः॥ ७० ॥
शरीरं चिन्त्यते सर्वं दैवमानुषसंपदा ।
सर्वभावैर्यतस्तस्माच्छारीरं स्थानमुच्यते ॥ ७१ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते शारीरस्थाने
जातिसूत्रीयशारीरं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
चरकसंहितायां शारीरस्थानं समाप्तम् ।
———————————
इन्द्रियस्थानम् ।
प्रथमोऽध्यायः ।
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अथातो वर्णस्वरीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
इह खलु वर्णश्च स्वरश्च गन्धश्च रसश्च स्पर्शश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च घ्राणं च रसनं च स्पर्शनं च सत्त्वंच भक्तिश्चशौचं च शीलं चाचारश्च स्मृतिश्चाकृतिश्च प्रकृतिश्च विकृतिश्च बलं च ग्लानिश्च मेधा च हर्षश्च रौक्ष्यं च स्नेहश्च तन्द्रा चारम्भश्चगौरवं च लाघवं च गुणाश्चाहारश्च विहारश्चाहारपरिणामश्चोपायश्चापायश्च व्याधिश्च पूर्वरूपं च वेदनाश्चोपद्रवाश्च च्छाया च प्रतिच्छाया च स्वप्नदर्शनं च दूताधिकारश्च पथि चौत्पातिकं चातुरकुले भावावस्थान्तराणि च भेष1208जसंवृत्तिश्च भेषजविकारयुक्तिश्चेति परीक्ष्याणि प्रत्यक्षानुमानोपदेशैरायुषः प्रमाणविशेषं जिज्ञासमानेन भिषजा ॥ ३ ॥
तत्र खल्वेषां परीक्ष्याणां कानिचित् पुरुषमनाश्रितानि कानिचिञ्चपुरुषसंश्रयाणि ; तत्र यानि पुरुषमनाश्रितानि तान्युपदेशतो युक्तितश्च परीक्षेत पुरुषसंश्रयाणि पुनः प्रकृतितश्च विकृतितश्च ॥ ४ ॥
तत्र प्रकृतिर्जातिप्रसक्ता च कुलप्रसक्ता च देशानुपातिनी1209 च कालानुपातिनी च वयोऽनुपातिनी च प्रत्यात्मनियता चेति ।जातिकुलदेशकालवयःप्रत्यात्मनियता हि तेषां तेषां पुरुषाणां ते ते भावविशेषा भवन्ति ॥ ५ ॥
विकृतिः पुनर्लक्षणनिमित्ता च लक्ष्यनिमित्ता च1210 निमित्तानुरूपा। तत्र लक्षणनिमित्ता नाम सा यस्याः शरीरे लक्षणान्येवहेतुभूतानि1211 भवन्ति दैवात्, लक्षणानि हि कानिचिच्छरीरोपनिबद्धानि भवन्ति, यानि हि तस्मिंस्तस्मिन् काले तत्राधिष्ठानमासाद्यतां तां विकृतिमुत्पादयन्ति । लक्ष्यनिमित्ता तु सा, यस्या उपलभ्यते निमित्तं यथोक्तं1212 निदानेषु; निमित्तानुरूपा तु निमित्तार्थकारिणी या, तामनिमित्तां निमित्तमायुषः प्रमाणज्ञानस्येच्छन्ति भिषजो भूयश्चायुषः क्षयनिमित्तां प्रेतलिङ्गानुरूपां, यामायुषोऽन्तर्गतस्य ज्ञानार्थमुपदिशन्ति धीराः, र्या चाधिकृत्य पुरुषसंश्रयाणि मुमूर्षतां लक्षणान्युपदेक्ष्यामः । इत्युद्देशः । तं विस्तरेणा1213नुव्याख्यास्यामः ॥६॥
तत्रादित एव वर्णाधिकारः तद्यथा—कृष्णः श्याम1214ःश्यामावदातोऽवदातश्चेति प्रकृतिवर्णाः शरीरस्य, यांश्चापरानुपेक्षमाणो1215 विद्यादनुकतोऽन्यथा वाऽपि निर्दिश्यमानांस्तज्ज्ञैः । नीलश्याम (व) ताम्ररितारिद्रशुक्लाश्च वर्णाः शरीरस्य वैकारिकाः, यांचापरानुपेक्षमाणो1216 विद्यात् प्राग्विकृतानभूत्वोत्पन्नान् । इति प्रकृतिविकृतिवर्णा भवन्युक्ताः शरीरस्य ॥ ७ ॥
तत्र प्रकृतिवर्णमर्धशरीरे1217 विकृतिवर्णमर्धशरीरे द्वावपि वर्णोंमर्यादाविभक्तौ दृष्ट्वा यद्येवं सव्यदक्षिणविभागेन यद्येवं पूर्वपश्चिमविभागेन यद्येवमुत्तराधरविभागेन यद्येवमन्तर्बहिर्विभागेनातुरस्यरिष्टमिति विद्यात्; एवमेव वर्णभेदो मुखेऽप्यन्यतो1218 वर्तमानो मरणाय भवति ॥ ८ ॥
बर्णमेदेन ग्लानिहर्षरौक्ष्यस्नेहा व्याख्याताः ॥ ९ ॥
तथा पिलुव्यङ्गतिलकालकपिडकानामन्यतमस्थानने जन्मातुरस्यैवमेवाप्रशस्तं विद्यात् ॥ १० ॥
लखनयनबदनमूत्रपुरीषहस्तपादौष्ठादिष्वपि च वैकारिकोक्तानां गर्णानामन्यतमस्य प्रादुर्भावो हीनबलवर्णेन्द्रियेषु लक्षणमायुषः क्षयस्य भवति ॥ ११ ॥
यच्चान्यदपि किंचिद्वर्णवैकृतमभूतपूर्व सहसैवोत्पद्येतानिमित्तमेवहीयमानस्यातुरस्य शश्वत्, तच्चारिष्टमिति विद्यात्। इति वर्णाधिकारः ॥ १२ ॥
स्वराधिकारस्तु—हंसक्रौञ्चनेमिदुन्दुभिकलविङ्ककाककपोतझर्शरानूकाः प्रकृतिस्वरा भवन्ति; यांश्चापरानुपेक्षमाणो1219ऽपि विद्यादनूकतोऽन्यथा वाऽपि निर्दिश्यमानांस्तज्ज्ञैः ॥ १३ ॥
एडककलग्रस्ताव्यक्तगद्गदक्षामदीनानुकीर्णांस्त्वातुराणां स्वरा वैकारिका भवन्ति, यांश्चापरानुपेक्षैमाणोऽपि1220 विद्यात् प्राग्विकृतान(द)भूत्वोत्पन्नान्1221। इति प्रकृतिविकृतिस्वरा व्याख्याता भवन्ति १४
तत्र प्रकृतिवैकारिकाणां स्वराणामाश्वभिनिर्वृत्तिः, स्वराणामेकत्वमेकस्य1222 चानेकत्वमप्रशस्तम्। इति स्वराधिकारः ॥ १५ ॥
इतिवर्णस्राधिकारौयथावदुक्तौ मुमूर्षतां लक्षणज्ञानार्थमिति ॥ १६ ॥
भवन्ति चात्र।
यस्य वैकारिको वर्णः शरीर उपपद्यते।
अर्धे वा यदि वा कृत्स्त्रे निमित्तं न च नास्ति सः ॥ १७ ॥
नीलं वा यदि वा श्यावं ताम्रं वा यदि वाऽरुणम्।
मुखार्धमन्यथा वर्णो मुखार्धेऽरिष्टमुच्यते ॥ १८ ॥
स्नेहो मुखार्धे सुव्यक्तो रौक्ष्यमर्धमुखे1223 भृशम्।
ग्लानिरर्धे तथा हर्षो मुखार्धे प्रेतलक्षणम् ॥ १९ ॥
तिलकाः पिप्लवो व्यङ्गा राजयश्च पृथग्विधाः।
आतुरस्याशु जायन्ते मुखे प्राणान्मुमुक्षतः ॥ २० ॥
पुष्पाणि नखदन्तेषु पको वा दन्तसंश्रितः।
चूर्णको वाऽपि दन्तेषु लक्षणं मरणस्य तत् ॥ २१ ॥
ओष्ठयोः पादयोः पाण्योरक्ष्णोर्मूत्रपुरीषयोः।
नखेष्वपि च वैवर्ण्यमेतत् क्षीणबलेऽन्तकृत् ॥ २२ ॥
यस्य नीलावुभावोष्ठौ पक्वजाम्बवसन्निभौ।
मुमूर्षुरिति तं विद्यारं धीरो गतायुषम् ॥ २३ ॥
एको वा यदि वाऽनेको यस्य वैकारिकः स्वरः।
सहसोत्पद्यते जन्तोर्होयमानस्य नास्ति सः ॥ २४ ॥
यच्चान्यदपि किंचित् स्याद्वैकृतं स्वरवर्णयोः।
बलमांसविहीनस्य तत् सर्व मरणायहि1224 ॥ २५ ॥
तत्र श्लोकः।
‘इति वर्णस्वरावुक्तौ लक्षणार्थं मुमूर्षताम्।
यस्तु1225 सम्यग्विजानामि नायुर्ज्ञाने स मुह्यति ॥ २६ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने
वर्णस्वरीयमिन्द्रियं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
–––––––––––––––
द्वितीयोऽध्यायः।
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अथातः पुष्पितकमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
पुष्पं यथा पूर्वरूपं फलस्येह भविष्यतः।
तथा लिङ्गमरिष्टाख्यं पूर्वरूपं मरिष्यतः ॥ ३ ॥
अप्येवं तु भवेत् पुष्पं फलेनाननुबन्धि यत्।
फलं चापि भवेत् किंचिद्यस्य पुष्पं न पूर्वजम् ॥ ४ ॥
न त्वरिष्टस्य जातस्य नाशोऽस्ति मरणाहते।
मरणं चापि तन्नास्ति यन्नारिष्टपुरःसरम् ॥ ५ ॥
मिथ्यादृष्टमरिष्टाभमनरिष्टमजानता।
अरिष्टं वाऽप्यसंबुद्धमेतत् प्रज्ञापराधजम् ॥ ६ ॥
ज्ञानसंबोधनार्थं1226 तु लिङ्गैर्मरणपूर्वजैः।
पुष्पितानुपदेक्ष्यामो नरान् बहुविधैर्बहून्1227 ॥ ७ ॥
नानापुष्पोपमो गन्धो यस्य वाति1228 दिवानिशम्।
पुष्पितस्य वनस्येव नानाद्रुमलता वतः ॥ ८ ॥
तमाहुः पुष्पितं धीरा नरं मरणलक्षणैः।
स ना संवत्सराद्देहं जहातीति विनिश्चयः ॥ ९ ॥
एवमेकैकशः पुष्पैर्यस्य गन्धः समो भवेत्।
इटैर्वा यदि वाऽनिष्टैः स च पुष्पित उच्यते ॥ १० ॥
समासेनाशुभान् गन्धानेकत्वेनाथवा पुनः।
आजिघ्रेद्यस्य गात्रेषु तं विद्यात् पुष्पितं भिषक् ॥ ११ ॥
आप्लुतानाप्लुते1229काये यस्य गन्धाः शुभाशुभाः।
व्यत्यासेनानिमित्ताः स्युः स च पुष्पित उच्यते ॥ १२ ॥
तद्यथा चन्दनं कुष्ठं तगरागुरुणी मधु।
माल्यं मूत्रपुरीषे वा मृतानि1230 कुणपानि च ॥ १३ ॥
ये चान्ये विविधात्मानो गन्धा विविधयोनयः।
तेऽप्यनेनानुमानेन विज्ञेया विकृतिं गताः ॥ १४ ॥
इदं चाप्यतिदेशार्थं लक्षणं गन्धसंश्रयम्।
वक्ष्यामो यदभिज्ञाय भिषङ्मरणमादिशेत् ॥ १५ ॥
वियोनिर्विदुरो1231 गन्धो यस्य गात्रेषु दृश्यते।1232
इष्टो वा यदि वाऽनिष्टो न स जीवति तां समाम् ॥ १६ ॥
एतावद्गन्धविज्ञानं, रसज्ञानमतः परम्।
आतुराणां शरीरेषु वक्ष्यामो विधिपूर्वकम् ॥ १७ ॥
यो रसः प्रकृतिस्थानां नराणां देहसंभवः।
स एषां चरमे काले विकारं भजते द्वयम् ॥ १८ ॥
कश्चिदेवास्य वैरस्यमत्यर्थमुपपद्यते।
स्वादुत्वमपरश्चापि विपुलं भजते रसः ॥ १९ ॥
तमनेनानुमानेन विद्याद्विकृतिमागतम्।
मनुष्यो हि मनुष्यस्य कथं रसमवाप्नुयात् ॥ २० ॥
मक्षिकाश्चैव यूकाश्च दंशाश्च मशकैः सह।
विरसादपसर्पन्ति जन्तोः कायान्मुमूर्षतः ॥ २१ ॥
अत्यर्थरसिकं कायं कालपक्वस्य मक्षिकाः ।
अपि स्नातानुलिप्तस्य भृशमायान्ति सर्वशः ॥ २२ ॥
** तत्र श्लोकः ।**
यान्येतानि1233मयोक्तानि लिङ्गानि रसगन्धयोः ।
पुष्पितस्य नरस्यैतत् फलं मरणमादिशेत् ॥ २३ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने पुष्पितकमिन्द्रियं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
––––––––––––
तृतीयोऽध्यायः ।
––––––––––––
अथातः परिमर्शनीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
वर्णे स्वरे च गन्धे च रसे चोक्तं पृथक् पृथक् ।
लिङ्गं मुमूर्षतां सम्यक् स्पर्शेष्वपि निबोधत ॥ ३ ॥
स्पर्शप्राधान्येनैवातुरस्यायुषः1234 प्रमाणविशेषं1235 जिज्ञासुः प्रकृतिस्थेन पाणिना केवलमस्य शरीरं स्पृशेत् परिमर्शयेद्वाऽन्येन ॥ ४ ॥
परिमृशता तु खल्वातुरशरीरमिमे भावास्तत्र तत्रावबोद्धव्या भवन्ति;तद्यथा—सततं स्पन्दनानां शरीरदेशानामस्पन्दनं,1236 नित्योष्मणां शीतीभावः, मृदूनां दारुणत्वं, श्लक्ष्णानां खरत्वं; सतामसद्भावः, सन्धीनां स्रंसभ्रंशच्यवनानि1237,मांसशोणितयोर्वीतीभावः, दारुणत्वं, स्वेदानुबन्धः स्तम्भो वा, यच्चान्यदपि किंचिदीदृशं भृशविकृतमनिमित्तं स्यात् ; इति लक्षणं स्पृश्यानां भावानामुक्तं समासेन ॥५॥
तद्व्यासतोऽनुव्याख्यास्यामः—तस्य चेत् परिमृश्यमानं पृथक्स्वेन पादजङ्घोरुस्फिगुदरपार्श्वपृष्ठेषिकापाणिग्रीवाताल्वोष्ठललाटं स्विन्नंशीतं प्रस्तब्धं1238 दारुणं वीतमांसशोणितं वा स्यात् परासुरयं पुरुषो न1239 चिरात्कालं मरिष्यतीति विद्यात् ॥ ६॥
तस्य चेत् परिमृश्यमानानि पृथक्त्वेन गुल्फजानुवंक्षणगुदवृषणभेदूनाभ्यंसस्तनमणि- कहनुपर्शुकानासिकाकर्णाक्षिभ्रूशङ्खादीनि स्रस्तानि व्यस्तानि च्युतानि स्थानेभ्यः स्कन्नानि1240 वा स्युः परासुरयं पुरुषो न चिरात्कालं मरिष्यतीति विद्यात् ॥ ७ ॥
तथाऽस्योच्छ्रासमन्यादन्तपक्ष्मचक्षुःकेशलोमोदरनखाडुलीश्च लक्षयेत् । तस्य चेदुच्छ्वासोऽतिदीर्घोऽतिहस्त्रो वा स्यात्, परासुरिति विद्यात्; तस्य चेन्मन्ये परिभृश्यमाने न स्पन्देयातां, परासुरिति विद्यात्; तस्य चेद्दन्ताः परिकीर्णाः1241 श्वेता जातशर्कराः स्युः, परासुरिति विद्यात्; तस्य चेत् पक्ष्माणि जटाबद्धानि स्युः, परासुरिति विद्यात् ; तस्य चेच्चक्षुषी प्रकृतिहीने विकृतियुक्तेऽत्युत्पिण्डितेऽतिप्रविष्टेऽतिजिह्मेऽतिविषमेऽति्प्रस्रुतेऽतिविमुक्तबन्धने सततोन्मेषिते सततनिमेषिते निमेषोन्मेषातिप्रवृत्ते विभ्रान्तदृष्टिके विपरीतदृष्टिके हीनदृष्टिके व्यस्तदृष्टिके नकुलान्धे कपोतान्धेऽलातवर्णे कृष्णनीलपीतश्यावताम्रहरितहारिद्रशुक्लवैकारिकाणां वर्णानामन्यतमेनातिसंप्लुते वा स्यातां, परासुरिति विद्यात्; अथास्य केशलोमान्यायच्छेत् तस्य चेत् केशलोमान्यायम्यमानानि प्रलुच्येरन्न चेद्वेदयेयुः, परासुरिति विद्यात्; तस्य चेदुदरे सिराः प्रदृश्येरन्1242 श्यावताम्रनीलहारिद्रशुक्ला वा स्युः, परासुरिति विद्यात्; तस्य चेन्नखा वीतमांसशोणिताः पक्कजाम्बववर्णाः स्युः, परासुरिति विद्यात्; अथास्याङ्गुलीरायच्छेत् तस्य चेदङ्गुलय आयम्यमाना न चेत् स्फुटेयुः, परासुरिति विद्यात् ॥ ८ ॥
भवति चात्र ।
एतान् स्पृश्यान् बहून् भावान् यः स्पृशन्नवबुध्यते ।
आतुरे न स संमोहमायुर्ज्ञानस्य गच्छति ॥ ९ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने परिमर्शनीयमिन्द्रियं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
––––––––––––––
चतुर्थोऽध्यायः।
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अथात इन्द्रियानीकमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
इन्द्रियाणि यथा जन्तोः परीक्षेत विशेषवित्।
ज्ञातुमिच्छन्1243 भिषङ्मानमायुषस्तन्निबोध मे ॥ ३ ॥
अनुमानैः परीक्षेत दर्शनादीनि तत्त्वतः।
अद्धा हि विदितं1244 ज्ञानमिन्द्रियाणामतीन्द्रियम् ॥ ४ ॥
स्वस्थेभ्यो विकृतं यस्य ज्ञानमिन्द्रियसंभवम्।
आलक्ष्येतानिमित्तेन लक्षणं मरणस्य तत् ॥ ५५ ॥
इत्युक्तं लक्षणं सम्यगिन्द्रियेष्वशुभोदयम्।
तदेव तु पुनर्भूयो विस्तरेण निबोधत ॥ ६ ॥
घनीभूतमिवाकाशमाकाशमिव मेदिनीम्।
विगीतमुभयं ह्येतत् पश्यन्मरणमृच्छति ॥ ७ ॥
यस्य दर्शनमायाति मारुतोऽम्बरगोचरः।
अग्निर्नायाति चा(वा) दीप्तस्तस्यायुःक्षयमादिशेत् ॥ ८ ॥
जले सुविमले जालमजालावतते नरः।
स्थिरे गच्छति वा दृष्ट्वा जीवितात् परिमुच्यते ॥ ९ ॥
जाग्रत् पश्यति यः प्रेतान् रक्षांसि विविधानि च।
अन्यद्वाऽप्यद्भुतं किंचिज्जीवितात्1245 स विमुच्यते ॥ १० ॥
योऽग्निंप्रकृतिवर्णस्थं नीलं पश्यति निष्प्रभम्।
कृष्णं वा यदि वा शुक्लं निशां व्रजति सप्तमीम् ॥ ११ ॥
मरीचीनसतो मेघान्मेघान् वाऽप्यसतोऽम्बरे।
विद्युतो वा विना मेघैः पश्यन्मरणमृच्छति1246 ॥ १२ ॥
मृन्मयीमिव यः पात्रीं कृष्णाम्बरसमावृताम्।
आदित्यमीक्षते शुद्धं चन्द्रं वा न स जीवति ॥ १३ ॥
अपर्वणि यदा पश्येत् सूर्याचन्द्रमसोर्ग्रहम्।
अव्याधितो व्याधितो वा तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ १४ ॥
नक्तं सूर्यमहश्चन्द्रमनग्नौधूममुत्थितम्।
अग्निं वा निष्प्रभं रात्रौ दृष्ट्वा मरणमृच्छति ॥ १५ ॥
प्रभावतः प्रभाहीनान्निष्प्रभान् वा प्रभावतः।
नरा विलिङ्गान् पश्यन्ति भावान् प्राणाञ्जिहासवः1247 ॥ १६॥
व्याकृतीनि विवर्णानि विसंख्योपगतानि च।
विनिमित्तानि पश्यन्ति रूपाण्यायुःक्षये नराः ॥ १७ ॥
यश्च पश्यत्यदृश्यान् वै दृश्यान् यश्च न पश्यति।
तावुभौ पश्यतः क्षिप्रं यमालयमसंशयम्1248 ॥ १८ ॥
अशब्दस्य च यः श्रोता शब्दान् यश्च न बुध्यते।
द्वावप्येतौ यथा प्रेतौ तथा ज्ञेयौ विजानता ॥ १९ ॥
संवृत्त्याङ्गुलिभिः कर्णौ ज्वालाशब्दं य आतुरः।
न शृणोति गतासुं तं बुद्धिमान् परिवर्जयेत् ॥ २० ॥
विपर्ययेण यो विद्याद्गन्धानां साध्वसाधुताम्।
न वा तान्1249 सर्वशो विद्यात्तं विद्याद्विगतायुषम् ॥ २१ ॥
यो रसान्न विजानाति न वा जानाति तत्त्वतः।
मुखपाकादृते पक्वंतमाहुः कुशला नरम् ॥ २२ ॥
उष्णाञ्छीतान् खरान् श्लक्ष्णान्मृदूनपि च दारुणान्।
स्पृश्यान् स्पृष्ट्वा ततोऽन्यत्वं मुमूर्षुस्तेषु मन्यते ॥ २३ ॥
अन्तरेण तपस्तीव्रं योगं वा विधिपूर्वकम्।
इन्द्रियैरधिकं1250 पश्यन् पञ्चत्वमधिगच्छति ॥ २४ ॥
इन्द्रियाणामृते दृष्टेरिन्द्रियार्थान्नपश्यति।
विपर्ययेण यो विद्यात्तं विद्याद्विगतायुषम् ॥ २५ ॥
स्वस्थाः प्रज्ञाविपर्यासैरिन्द्रियार्थेषु वैकृतम्।
पश्यन्ति ये सुबहुशस्तेषां1251 मरणमादिशेत् ॥ २६ ॥
तत्र श्लोकः।
एतदिन्द्रियविज्ञानं यः पश्यति यथातथम् \।
मरणं जीवितं चैव स भिषग्ज्ञातुमर्हति ॥ २७ ॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने इन्द्रियानी
कमिन्द्रियं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥ ४ ॥
पञ्चमोऽध्यायः।
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अथातः पूर्वरूपीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
पूर्वरूपाण्यसाध्यानां विकाराणां पृथक् पृथक्।
भिन्नाभिन्नानि वक्ष्यामो भिषजां ज्ञानवृद्धये ॥ ३ ॥
पूर्वरूपाणि सर्वाणि ज्वरोक्तान्यतिमात्रया।
यं विशन्ति विशत्येनं मृत्युर्ज्वरपुरःसरः ॥ ४॥
अन्यस्यापि च रोगस्य पूर्वरूपाणि यं नरम्।
विशन्त्यनेन कल्पेन तस्यापि मरणं ध्रुवम् ॥ ५ ॥
पूर्वरूपैकदेशांस्तु वक्ष्यामोऽन्यान् सुदारुणान्।
ये रोगाननुबध्नन्ति मृत्युर्यैरनुबध्यते1252 ॥ ६ ॥
बलं च हीयते यस्य प्रतिश्यायश्च वर्धते।
तस्य नारीप्रसक्तस्य शोषोऽन्तायोपजायते ॥ ७ ॥
श्वभिरुष्ट्रैः खरैर्वाऽपि याति यो दक्षिणां दिशम्।
स्वप्ने यक्ष्माणमासाद्य जीवितं स विमुञ्चति ॥ ८ ॥
प्रेतैः सह पिब ( बे) मद्यं स्वप्ने यः कृप्यते शुना।
सुघोरं ज्वरमासाद्य ‘जीवितं1253 स विमुञ्चति ॥ ९ ॥
लाक्षारक्ताम्बराभं यः पश्यत्यम्बरमन्तिकात्।
स रक्तपित्तमासाद्य तेनैवान्ताय नीयते ॥ १० ॥
रक्तसमक्तसर्वाङ्गो रक्तवासा मुहुर्हसन्।
यः स्वप्नेहियते1254 नार्या स रक्तं प्राप्य सीदति ॥ ११ ॥
शूलाटोपात्रकूजाश्च दौर्बल्यं चातिमात्रया \।
नखादिषु च वैवर्ण्य गुल्मेनान्तकरो
ग्रहः॥ १२ ॥
लता कण्टकिनी यस्य दारुणा हृदि जायते।
स्वप्ने गुल्मस्तमन्ताय क्रूरो विशति मानवम् ॥ १३ ॥
कायेऽल्पमपि संस्पृष्टं सुभृशं यस्य दीर्यते।
क्षतानि च न रोहन्ति कुष्ठैर्मृत्युर्हिनस्ति तम् ॥ १४ ॥
नग्नस्याज्यावसिक्तस्य जुह्वतोऽग्निमनर्चिषम्।
पद्मान्युरसि जायन्ते स्वप्ने कुष्ठैर्मरिष्यतः ॥ १५ ॥
स्नातानुलिप्तगात्रेऽपि यस्मिन् गृघ्नन्ति मक्षिकाः।
स प्रमेहेण संस्पर्श प्राप्य तेनैव हन्यते ॥ १६ ॥
स्नेहं बहुविधं स्वप्ने चण्डालैः सह यः पिबेत्।
बध्यते स प्रमेहेण स्पृश्यतेऽन्ताय मानवः ॥ १७ ॥
भ्यानायासौ तथोद्वेगो मोहश्चास्थानसंभवः।
अरतिर्बलहानिश्च मृत्युरुन्मादपूर्वकः ॥ १८ ॥
आहारद्वेषिणं पश्यल्ँलुप्तचित्तमुदर्दितम्।
विधाद्धीरो मुमूर्षु तमुन्मादेनातिपातिना ॥ १९ ॥
क्रोधनं त्रासबहुलं सकृत्प्रहसिताननम्।
मूर्च्छापिपासाबहुलं हन्त्युन्मादः शरीरिणम् ॥ २० ॥
नृत्यन् रक्षोगणैः साकं यः स्वप्नेऽम्भसि सीदति।1255
स प्राप्य भृशमुन्मादं याति लोकमतः परम् ॥ २१ ॥
असत्तमः पश्यति यो यः शृणोत्यसतः स्वनान्।
बहून् बहुविधाञ्जाग्रत् सोऽपस्मारेण वध्यते ॥ २२ ॥
मत्तं नृत्यन्तमाविध्य प्रेतो हरति यं नरम्।
स्वप्ने हरति तं मृत्युरपस्मारपुरःसरः ॥ २३ ॥
स्तभ्येते प्रतिबुद्धस्य हनू मन्ये तथाऽक्षिणी।
यस्य तं बहिरायामो गृहीत्वा हन्त्यसंशयम् ॥ २४ ॥
शकुलीर्वाऽप्यपूपान् वा स्वप्ने खादति यो नरः।
स चेत् प्रच्छर्दयेत्तादृक् प्रतिबुद्धो न जीवति ॥ २५ ॥
एतानि पूर्वरूपाणि यः सम्यगवबुध्यते।
स एषामनुबन्धं च फलं च ज्ञातुमर्हति ॥ २६ ॥
य इमांश्चापरान् स्वप्नान् दारुणानुपलक्षयेत्।
आतुराणां विनाशाय क्लेशाय महतेऽपि वा ॥ २७ ॥
यस्योत्तमाङ्गे जायन्ते वंशगुल्मलतादयः।
वयांसि च विलीयन्ते स्वप्ने मौण्ड्यमियाच्चयः ॥ २८ ॥
गृध्रोलृकश्वकाकाद्यैः स्वप्ने यः परिवार्यते।
रक्षःप्रेतपिशाचस्त्रीचण्डालद्रवितान्धकैः1256 ॥ २९ ॥
वंशवेत्रलतापाशतृणकण्टकसंकटे।
प्रमुह्यति1257 हि यः स्वप्ने यो गच्छन् प्रपतत्यपि1258॥ ३० ॥
भूमौ पांशूपधानायां वल्मीके वाऽथ भस्मनि।
श्मशानायतनेश्वभ्रेस्वप्ने यः प्रविशत्यपि1259 ॥ ३१ ॥
कलुषेऽम्भसि पङ्के च कूपे वा तमसाऽऽवृते।
स्वप्ने मज्जति शीघ्रेण स्रोतसा ह्रियते1260 च यः ॥ ३२ ॥
स्नेहपानं तथाऽभ्यङ्गः प्रच्छर्दनविरेचने।
हिरण्यलाभः कलहः स्वप्ने बन्धपराजयौ ॥ ३३ ॥
उपानद्युगनाशश्च प्रपातः पांशुचर्मणोः1261।
हर्षः स्वप्ने प्रकुपितैः पितृभिश्चापि भर्त्सनम् ॥ ३४ ॥
चन्द्रतारार्कनक्षत्र1262देवतादीपचक्षुषाम्।
पतनं वा विनाशो वा स्वप्ने भेदो नगस्य वा ॥ ३५ ॥
रक्तपुष्पं वनं भूमिं पापकर्मालयं चिताम्।
गुहान्धकारसंबाधं स्वप्ने यः प्रविश्यत्यपि ॥ ३६॥
रक्तमाली हसनुच्चैर्दिग्वासा दक्षिणां दिशम् \।
दारुणामटवीं स्वप्ने कपियुक्तेन1263 याति वा ॥ ३७ ॥
का(क)षायिणामसौम्यानां नग्नानां दण्डधारिणाम्।
कृष्णानां रक्तनेत्राणां स्वप्ने नेच्छन्ति दर्शनम् ॥ ३८ ॥
कृष्णा पापा1264 निराचारा दीर्घकेशनखस्तनी \।
विरागमाल्यवसना स्वप्ने कालनिशा मता ॥ ३९ ॥
इत्येते दारुणाः स्वप्ना रोगी यैर्याति पञ्चताम्।
अरोगः संशयं गत्वाकश्चिदेव विमुच्यते ॥ ४० ॥
मनोवहानां पूर्णत्वाद्दोषैरतिबलैस्त्रिभिः।
स्रोतसां दारुणान् स्वप्नान् काले पश्यति दारुणे ॥ ४१ ॥
नातिप्रसुप्तःपुरुषः सफलानफलानपि।
इन्द्रियेशेन मनसा स्वप्नान् पश्यत्यनेकधा ॥ ४२ ॥
दृष्टं1265 श्रुतानुभूतं च प्रार्थितं कल्पितं तथा।
भाविकं दोषजं चैव स्वप्नं सप्तविधं विदुः ॥ ४३ ॥
तत्र पञ्चविधं पूर्वमफलं भिषगादिशेत्।
दिवास्वप्नमतिह्रस्वमतिदीर्घं तथैव1266 च ॥ ४४ ॥
दृष्टः प्रथमरात्रे यः स्वप्नः सोऽल्पफ( ब )लो भवेत्।
न स्वपेद्यः पुनर्दृष्ट्वास सद्यः स्यान्महाफलः ॥ ४५ ॥
अकल्याणमपि स्वप्नं दृष्ट्वा तत्रैव यः पुनः।
पश्येत् सौम्यं शुभाकारं तस्य विद्याच्छुभं फलम् ॥ ४६॥
तत्रश्लोकः।
पूर्वरूपाण्यथ स्वप्नान् य इमान् वेत्ति दारुणान्।
न स मोहादसाध्येषु कर्माण्यारभते भिषक् ॥ ४७ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने
पूर्वरूपीयमिन्द्रियं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
षष्ठोऽध्यायः।
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अथातः कतमानिशरीरीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
कतमानि शरीराणि व्याधिमन्ति महामुने।
यानि वैद्यः परिहरेद्येषु कर्म न सिध्यति ॥ ३ ॥
इत्यात्रेयोऽग्निवेशेन प्रश्नं पृष्टः पुनर्वसुः1267।
आचचक्षे यथा तस्मै भगवांस्तन्निबोधत ॥ ४ ॥
यस्य वै भाषमाणस्य रुजत्यूर्ध्वमुरो भृशम् \।
अन्नं च च्यवतेऽपक्वं1268स्थितं चापि न जीर्यति ॥ ५ ॥
बलं च हीयते यस्य1269 तृष्णा चातिप्रवर्धते।
जायते हृदि शूलं च तं भिषक् परिवर्जयेत् ॥ ६ ॥
हिक्का गम्भीरजा यस्य शोणितं चातिसार्यते।
न तस्मै भेषजं दद्यात् स्मरन्नात्रेयशासनम् ॥ ७ ॥
आनाहश्चातिसारश्च यमेतौ दुर्बलं नरम्।
व्याधितं विशतो रोगौ दुर्बलं तस्य जीवितम् ॥ ८ ॥
आनाहश्चातितृष्णा च कर्शितं यमुभौ भृशम्।
विशतो विजहत्येनं प्राणा नातिचिरान्नरम् ॥ ९ ॥
ज्वरः पौर्वाह्णिको यस्य शुष्ककासश्च दारुणः।
बलमांसविहीनस्य यथा प्रेतस्तथैव सः ॥ १० ॥
ज्वरो यस्यापराह्णेतु श्लेष्मकासश्च दारुणः।
बलमांसविहीनस्य यथा प्रेतस्तथैव सः ॥ ११ ॥
यस्य मूत्रं पुरीषं च ग्रथितं संप्रवर्तते।
निरुष्मणो जठरिणः श्वसतो न स जीवति ॥ १२ ॥
श्वयथुर्यस्य कुक्षिस्थो हस्तपादं विसर्पति।
ज्ञातिसंघं स संक्लेश्य तेन रोगेण हन्यते ॥१३॥
श्वयथुर्यस्य पादस्थस्तथा स्रस्ते च पिण्डिके।
सीदतश्चाप्युभे जङ्घे1270 तं भिषक् परिवर्जयेत् ॥ १४ ॥
शूनहस्तं शूनपादं शूनगुह्योदरं नरम्।
हीनवर्णबलाहारमौषधैर्नोपपादयेत् ॥ १५ ॥
उरोयुक्तो1271बहुः श्लेष्मा नीलः पीतः सलोहितः।
सततं च्यवते यस्य दूरात्तं परिवर्जयेत् ॥ १६ ॥
हृष्टरोमा सान्द्रमूत्रः शूनः1272कासज्वरार्दितः।
क्षीणमांसो नरो दूराद्वर्ज्योवैद्येन जानता ॥ १७ ॥
त्रयः प्रकुपिता यस्य दोषाः कोष्ठेऽभिलक्षिताः1273।
कृशस्य बलहीनस्य नास्ति तस्य चिकित्सितम् ॥ १८ ॥
ज्वरातिसारौ शोफान्ते श्वयथुर्वा तयोः क्षये ।
दुर्बलस्य विशेषेण नरस्यान्ताय जायते ॥ १९ ॥
पाण्डुरश्च कृशोऽत्यर्थं तृष्णयाऽतिपरिप्लुतः।
डम्बरी1274 कुपितोच्छ्वासः प्रत्याख्येयो विजानता ॥ २० ॥
हनुमन्याग्रहस्तृष्णा बलह्रासोऽतिमात्रया।
प्राणाश्चोरसि वर्तन्ते यस्य तं परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥
ताम्यत्यायच्छते1275 शर्म न किंचिदपि विन्दति।
क्षीणमांसबलाहारो मुमूर्षुरचिरान्नरः ॥ २२ ॥
विरुद्धयोनयो यस्य विरुद्धोपक्रमा भृशम्।
वर्धन्ते1276 दारुणा रोगाः शीघ्रं शीघ्रं स हन्यते ॥ २३ ॥
बलं विज्ञानमारोग्यं ग्रहणी मांसशोणितम्।
एतानि यस्य श्रीयन्ते1277 क्षिप्रं क्षिप्रं स हन्यते1278 ॥ २४ ॥
विकारा यस्य वर्धन्ते प्रकृतिः परिहीयते।
सहसा सहसा तस्य मृत्युर्हरति जीवितम् ॥ २५ ॥
तत्र श्लोकः।
इत्येतानि शरीराणि व्याधिमन्ति विवर्जयेत्।
न ह्येषु धीराः पश्यन्ति सिद्धिं कांचिदुपक्रमात् ॥ २६ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने कतमानिशरीरीयमिन्द्रियं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
–––––––––––––––
सप्तमोऽध्यायः।
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अथातः पन्नरूपीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
दृष्ट्यां1279 यस्य विजानीयात् पन्नरूपां कुमारिकाम् \।
प्रतिच्छायामयीमक्ष्णोनमिच्छेच्चिकित्सितुम् ॥ ३ ॥
ज्योत्स्नायामातपे दीपे सशिलादर्शयोरपि।
अङ्गेषु विकृता यस्य च्छाया प्रेतस्तथैव1280सः ॥ ४ ॥
छिन्ना भिन्नाऽऽकुला1281 छाया हीना वाऽप्यधिकाऽपि वा।नष्टा तन्वी द्विधा छिन्ना विशिरा1280 विकृता च या ॥ ५ ॥
एताश्चान्याश्च याः काश्चित् प्रतिच्छाया विगर्हिताः।
सर्वा मुमूर्षतां ज्ञेया न चेल्लक्ष्यनिमित्तजाः ॥ ६ ॥
संस्थानेन प्रमाणेन वर्णेन प्रभया तथा।
छाया विवर्तते यस्य स्वस्थोऽपि प्रेत एव सः ॥ ७ ॥
संस्थानमाकृतिर्ज्ञेया सुषमा विषमा च या1282।
मध्यमल्पं महच्चोक्तं प्रमाणं त्रिविधं नृणाम् ॥ ८ ॥
प्रतिप्रमाणसंस्थाना जलादर्शातपादिषु।
छाया या सा प्रतिच्छाया च्छाया1283 वर्णप्रभाश्रया ॥ ९ ॥
खादीनां पञ्च पञ्चानां छाया विविधलक्षणाः।
नाभसी निर्मला नीला सस्नेहा सप्रभेव च ॥ १० ॥
रूक्षा श्यावाऽरुणा या तु वायवी सा हतप्रभा।
विशुद्धरक्ता त्वाग्नेयी दीप्ताभा दर्शनप्रिया ॥ ११ ॥
शुद्धवैदूर्यविमला सुस्निग्धा चाम्भसी मता1284।
स्थिरा स्निग्धा घना1285 श्लक्ष्णा श्यामा श्वेता च पार्थिवी ॥१२॥
वायवी गर्हिता त्वासां चतस्रः स्युः शुभोदयाः।
वायवी तु विनाशाय क्लेशाय महतेऽपि वा ॥ १३ ॥
स्यात्तैजसी प्रभा सर्वा सा तु सप्तविधा स्मृता।
रक्ता पीता सिता श्यावा हरिता पाण्डुराऽसिता ॥ १४ ॥
तासां याः स्युर्विकासिन्यः स्निग्धाश्च विमलाश्च1286 याः।
ताः शुभा रूक्षमलिनाःसंक्लिष्टाश्चाशुभोदयाः1287॥ १५ ॥
वर्णमाक्रामति च्छाया प्रभा1288 वर्णप्रकाशिनी।
आसन्ना लक्ष्यते छाया विकृष्टा भाः1289प्रकाशते ॥ १६ ॥
नाच्छायो नाप्रभः कश्चिद्विशेषाश्चिह्नयन्ति तु।
नॄणां शुभाशुभोत्पत्तिं काले छायाप्रभाश्रयः1290 ॥ १७ ॥
कामलाऽक्ष्णोर्मुखं पूर्णं शङ्खयोर्मुक्तमांसता।
संत्रासश्रोष्णता गात्रे यस्य तं परिवर्जयेत् ॥ १८ ॥
उत्थाप्यमानः शयनात् प्रमोहं याति यो नरः।
मुहुर्मुहुर्न सप्ताहं स जीवति कथंचन1291॥ १९ ॥
संसृष्टा व्याधयो यस्य प्रतिलोमानुलोमगाः।
व्यापन्नाग्रहणी प्रायः सोऽर्धमासं न जीवति ॥ २० ॥
उपरुद्धस्य रोगेण कर्शितस्याल्पमश्नतः।
बहु मूत्रपुरीषं स्याद्यस्य तं परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥
दुर्बलो बहु भुङ्तेयः प्राग्भुक्तादन्नमातुरः \।1292
अल्पमूत्रपुरीषश्च यथा प्रेतस्तथैव सः ॥ २२ ॥
वर्धिष्णु1293गुणसंपन्नमन्नमश्नाति यो नरः।
शश्वच्चबलवर्णाभ्यां हीयते न स जीवति ॥ २३ ॥
प्रकूजति प्रश्वसिति शिथिलं चातिसार्यते।
बलहीनः पिपासार्तःशुष्कास्यो न स जीवति ॥ २४ ॥
ह्रस्वंच यः प्रश्वसिति व्याविद्धं स्पन्दते च यः।
मृतमेव तमात्रेयो व्याचचक्षे पुनर्वसुः ॥ २५ ॥
ऊर्ध्वं च यः प्रश्वसिति श्लेष्मणा चाभिभूयते।
हीनवर्णबलाहारो नरो वै न स जीवति ॥ २६ ॥
ऊर्ध्वाग्रे नयने यस्य मन्ये1294 चानतकम्पने।
बलहीनः पिपासार्तःशुष्कास्यो न स जीवति ॥ २७ ॥
यस्य गण्डावुपचितौ ज्वरकासौ च दारुणौ।
शूली प्रद्वेष्टि चाप्यन्नं तस्मिन् कर्म न सिध्यति ॥ २८ ॥
व्यावृत्तमुखजिह्वस्य भ्रुवौ यस्य च विच्युते।
कण्टकैश्चाचिता जिह्वा यथा प्रेतस्तथैव सः ॥ २९ ॥
शेफश्चात्यर्थमुत्सिक्तं निःसृतौ वृषणौ भृशम् \।
अतश्चैव विपर्यासो विकृत्या प्रेतलक्षणम् ॥ ३० ॥
निचितं यस्य मांसं स्यात्त्वर्गस्थिष्वेव1295 दृश्यते।
क्षीणस्यानैश्चतस्तस्य1296 मासमायुः परं भवेत् ॥ ३१ ॥
तत्र श्लोकः।
इदंलिङ्गमरिष्टाख्यमनेकमभिजज्ञिवान्।
आयुर्वेद विदित्याख्यां लभते कुशलो जनः ॥ ३२ ॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने पनरूपीयमिन्द्रियं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
–––––––––––––
अष्टमोऽध्यायः।
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अथातोऽवाक्शिरसीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
अवाक्शिरा वा जिह्वा वा यस्य वा विशिरा भवेत्।
जन्तो रूपप्रतिच्छाया नैनमिच्छेच्चिकित्सितुम् ॥ ३ ॥
जटीभूतानि पक्ष्माणि दृष्टिश्चापि न1297गृह्यते।
यस्य जन्तोर्न तं धीरो भेषजेनोपपादयेत् ॥ ४ ॥
यस्य शूनानि वर्ष्मानि न समायान्ति शुष्यतः।
चक्षुषी चोपदह्येते यथा प्रेतस्तथैव सः ॥ ५ ॥
भ्रुवोर्वा यदि वा मूर्ध्नि सीमन्तावर्तकान् बहून्।
अपूर्वानकृतान् व्यक्तान् दृष्ट्वा मरणमादिशेत् ॥ ६ ॥
त्र्यहमेतेन जीवन्ति लक्षणेनातुरा नराः।
अरोगाणां पुनस्त्वेतत् षड्रानं परमुच्यते ॥ ७ ॥
आयम्योत्पाटितान् केशान् यो नरो नावबुध्यते।
अनातुरो वा रोगी वा षड्रा नातिवर्तते ॥ ८ ॥
यस्य केशा निरभ्यङ्गा दृश्यन्तेऽभ्यक्तसंनिभाः।
उपरुद्धायुषं ज्ञात्वा तं धीरः परिवर्जयेत् ॥ ९॥
ग्लायतो1298 नासिकावंशः पृथुत्वं यस्य गच्छति।
असूनः शूनसंकाशः प्रत्याख्येयः स जानता ॥ १० ॥
अत्यर्थविवृता यस्य यस्य चात्यर्थसंवृता।
जिह्मा वा परिशुष्का वा नासिका न स जीवति ॥ ११ ॥
मुखशब्दश्रवावोष्ठौ शुक्लश्यावातिलोहितौ।
विकृत्या1299 यस्य वा नीलौ न स रोगाद्विमुच्यते ॥ १२ ॥
अस्थिश्वेता द्विजा यस्य पुष्पिताः पङ्कसंवृताः।
विकृत्या न स रोगं तं विहायारोग्यमश्नुते ॥ १३ ॥
स्तब्धा निश्चेतना गुर्वी कण्टकोपचिता भृशम्।
श्यावा शुष्काऽथवा शूना प्रेतजिह्वा विसर्पिणी ॥ १४ ॥
दीर्घमुच्छ्रस्य यो ह्रस्वं नरो निश्वस्य ताम्यति।
उपरुद्धायुषं ज्ञात्वा तं धीरः परिवर्जयेत् ॥ १५ ॥
हस्तौ पादौ च मन्ये च तालु चैवातिशीतलम्।
भवत्यायुःक्षये क्रूरमथवाऽति भवेन्मृदु ॥ १६ ॥
घट्टयञ्जनुना जानु पादावुद्यम्य पातयन्।
योऽपास्यति मुहुर्वक्रमातुरो न स जीवति ॥ १७ ॥
दन्तैश्छिन्दन्नखाग्राणि नखैश्लिन्दञ्छिरोरुहान्।
काष्ठेन भूमिं विलिखन्न रोगात् परिमुच्यते ॥ १८ ॥
दन्तान्खादति यो जाग्रदसाम्ना विरुदन् हसन्।
विजानाति न चेहुःखं न स रोगाद्विमुच्यते ॥ १९ ॥
मुहुर्हसन्मुहुः क्ष्वेडन्छय्यां पादेन हन्ति यः।
मुहुश्छिद्राणि1300 विमृशन्नातुरो न स जीवति ॥ २० ॥
यैर्विन्दति पुरा भावैः समेतैः परमां रतिम्।
तैरेवारममाणस्य ग्लास्त्रोर्मरणमादिशेत् ॥ २१ ॥
न बिभर्ति शिरो1301 ग्रीवा पृष्टं वा भारमात्मना।
न हनू पिण्डमास्यस्थमातुरस्य मुमूर्षतः ॥ २२ ॥
सहसा ज्वरसंतापस्तृष्णा मूर्च्छा बलक्षयः।
विश्लेषणं च संधीनां मुमूर्षोरुपजायते ॥ २३ ॥
गोसर्गे वदनाद्यस्य स्वेदः प्रच्यवते भृशम्।
लेपज्वरोपततस्य दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ २४ ॥
नोपैति कण्ठमाहारो जिह्वा कण्ठमुपैति च।
आयुष्यन्तं गते जन्तोर्बलं च परिहीयते ॥ २५ ॥
शिरो विक्षिपते कृच्छ्रान्मुञ्चयित्वा प्रपाणिकौ।
ललाट प्रसुतस्वेदो मुमूर्षुच्युतैबन्धनः1302 ॥ २६ ॥
तत्र श्लोकः।
इमानि लिङ्गानि नरेषु बुद्धिमान् विभावयेतावहितो मुहुर्मुहुः।
क्षणेन भूत्वा ह्युपयान्ति कानिचिन्न चाफलं लिङ्गमिहास्ति किंचन २७
इत्यभिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने अवाक्शिरीय मिन्द्रियं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
————————
नवमोऽध्यायः।
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अथातो यस्यश्यावनिमित्तीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
यस्य इयावे परिध्वस्ते हरिते चापि दर्शने।
आपन्नो व्याधिरन्ताय ज्ञेयस्तस्य विजानता ॥ ३ ॥
निःसंज्ञः परिशुष्कास्यः संविद्धो1303व्याधिभिश्च यः।
उपरुद्धायुषं ज्ञात्वा तं धीरः परिवर्जयेत् ॥ ४ ॥
हरिताश्च1304 सिरा यस्य लोमकूपाश्च संवृताः।
सोऽम्लाभिलाषी पुरुषः पित्तान्मरणमृच्छति॥५॥
शरीरान्ताश्च शोभन्ते शरीरं चोपशुष्यति।
बलं च हीयते यस्य राजयक्ष्मा हिनस्ति तम्॥६॥
अंसाभितापो हिक्का च छर्दनं शोणितस्य च।
आनाहः पार्श्वशूलं च भवत्यन्ताय शोषिणः॥७॥
वातव्याधिरपस्मारी कुष्ठी शोफी1305 तथोदरी।
गुल्मी च मधुमेही च राजयक्ष्मी च यो नरः॥८॥
अचिकित्स्या भवन्त्येते बलमांसक्षये सति।
अल्पेष्वपि1306 विकारेषु तान् भिषक् परिवर्जयेत्॥९॥
विरेचनहृतानाहो यस्तृष्णानुगतो नरः।
विरिक्तः पुनराध्माति यथा प्रेतस्तथैव सः॥१०॥
पेयं पातुं न शक्नोति कण्ठस्य च मुखस्य च1307।
उरसश्च विशुष्कत्वाद्यो नरो न स जीवति॥११॥
स्वरस्य दुर्बलीभावं हानिं च बलवर्णयोः।
रोगवृद्धिमयुक्त्या च दृष्ट्वा मरणमादिशेत्॥१२॥
ऊर्ध्वश्वासं गतोष्माणं शूलोपहतवङ्क्षणम्।
शर्म चानधिगच्छन्तं बुद्धिमान् परिवर्जयेत्॥१३॥
अपस्वरं भाषमाणं प्राप्तं मरणमात्मनः।
श्रोतारं चाप्यशब्दस्य दूरतः परिवर्जयेत्॥१४॥
यं नरं सहसा रोगो दुर्बलं परिमुञ्चति।
संशयप्राप्तमात्रेयो जीवितं तस्य मन्यते॥१५॥
अथ चेज्ज्ञातयस्तस्य याचेरन् प्रणिपाततः।
रसेनाद्यादिति ब्रूयान्नास्मै दद्याद्विशोधनम्1308॥१६॥
मासेन चेन्न दृश्येत विशेषस्तस्य शोभनः।
रसैश्चान्यैर्बहुविधैर्दुर्लभं तस्य जीवितम्॥१७॥
निष्ठ्यतं च पुरीषं च रेतश्चाम्भसि मजति।
यस्य तस्यायुषः प्राप्तमन्तमा हुर्मनीषिणः ॥ १८ ॥
निष्ठ्युते यस्य दृश्यन्ते वर्णा बहुविधाः पृथक्।
तच्च सीदंत्यपः1309 प्राप्य न
स1310 जीवितुमर्हति ॥ १९ ॥
पित्तमूष्मानुगं यस्य शङ्खौ प्राप्य विमूर्च्छति।
स रोगः शङ्खको नाम्ना (म) त्रिरात्राद्धन्ति जीवितम् ॥ २० ॥
सफेनं रुधिरं यस्य मुहुरास्यात् प्रसिच्यते।
शूलैश्च तुद्यते कुक्षिः प्रत्याख्येयः स तादृशः ॥ २१ ॥
बलमांसक्षयस्तीव्रो रोगवृद्धिररोचकः।
यस्यातुरस्य दृश्यन्ते त्रीनू पक्षान्न स जीवति ॥ २२ ॥
तत्र श्लोकौ।
विज्ञानानि मनुष्याणां मरणे प्रत्युपस्थिते।
भवन्त्येतानि संपश्येदन्यान्येवंविधानि च ॥ २३ ॥
तानि सर्वाणि लक्ष्यन्ते न तु सर्वाणि मानवम्।
विशन्ति विनशिष्यन्तं तस्माद्बोध्यानि सर्वतः ॥ २४ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने यस्यश्यावनिमित्तीयमिन्द्रियं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
————————
दशमोऽध्यायः।
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अथातः सद्योमरणीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
सद्यस्तितिक्षतः प्राणांल्लक्षणानि पृथक् पृथक्।
अग्निवेश प्रवक्ष्यामि संस्पृष्टो यैर्न जीवति ॥ ३ ॥
वाताष्ठीला सुसंवृद्धा1311 तिष्ठन्ती दारुणा हृदि।
तृष्णयाऽभिपरीतस्य सद्यो मुग्णाति जीवितम् ॥ ४ ॥
पिण्डिके शिथिलीकृत्य जिह्मीकृत्य च नासिकाम्।
वायुः शरीरे विचरन् सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ ५ ॥
भ्रुवौयस् च्युते स्थानान्तर्दाहश्च दारुणः।
तस्य हिक्काकरो रोगः सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ ६ ॥
क्षीणशोणितमांसस्य वायुरूर्ध्वगतिश्चरन्।
उभे मन्ये समे यस्य सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ ७ ॥
अन्तरेण गुदं गच्छन्नाभिं च1312सहसाऽनिलः।
कृशस्य वंक्षणौ गृह्णन् सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ ८ ॥
वितत्य पर्शुकाप्राणि गृहीत्वोरश्च मारुतः।
स्तिमितस्यायताक्षस्य सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ ९ ॥
हृदयं च गुदं चोभे गृहीत्वा मारुतो बली।
दुर्बलस्य विशेषेण सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ १० ॥
वंक्षणं च गुदं चोभे गृहीत्वा मारुतो बली।
श्वासं संजनयञ्जन्तोः सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ ११ ॥
नाभिं1313 मूत्रं बस्तिशीर्ष पुरीषं चापि मारुतः।
विबध्य जनयन्लं सद्यो मुष्णाति जीवितम् ॥ १२ ॥
भिद्येते वंक्षणौ यस्य वातशूलैः समन्ततः।
भिन्नं पुरीषं तृष्णा च सद्यः प्राणाञ्जहाति सः ॥ १३ ॥
आप्लुतंमारुतेनेह शरीरं यस्य केवलम्।
भिन्नं पुरीषं तृष्णा च सद्यः प्राणाञ्जहाति सः ॥ १४ ॥
शरीरं शोफितं यस्य वातशोफेन देहिनः।
भिन्नं पुरीषं तृष्णा च सद्यो जह्यात् स जीवितम् ॥ १५ ॥
आमाशयसमुत्थाना यस्य स्यात् परिकर्तिका।
भिन्नं पुरीषं तृष्णा च सद्यः प्राणाञ्जहाति सः ॥ १६ ॥
पक्काशयसमुत्थाना यस्य स्यात् परिकर्तिका।
तृष्णा गुदग्रहश्श्रोग्रः सद्यो जह्यात् स जीवितम् ॥ १७ ॥
आमाशयमविष्ठाय हत्वा संज्ञां च मारुतः।
कण्ठे घुघुरकं कृत्वा सद्यो हरति जीवितम् ॥ १८ ॥
पक्काशयमधिष्ठाय हत्वा संज्ञां च मारुतः।
कण्ठे घुर्घुरकं कृत्वा सद्यो हरति जीवितम् ॥ १९ ॥
दन्ताः कर्दमदिग्धाभा मुखं चूर्णकसंनिभम्।
सिप्रायन्ते च गात्राणि लिङ्गं सद्यो मरिष्यतः ॥ २० ॥
तृष्णाश्वासशिरोरोगमोहदौर्बल्यकूजनैः।
स्पृष्टः प्राणाञ्जहात्याशु शकद्भेदेन चातुरः ॥ २१ ॥
तत्र श्लोकः।
एतानि खलु लिङ्गानि यः सम्यगवबुध्यते।
स जीवितं च मर्यानां मरणं चावबुध्यते1314 ॥ २२ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने सद्योमरणीयमिन्द्रियं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
————————
एकादशोऽध्यायः।
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अथातोऽणुज्योतीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
अणुज्योतिरनेकाग्रो दुश्छायो दुर्मनाः सदा।
रतिं न लभते यांति1315 परलोकं समान्तरे ॥ ३ ॥
बलिं बलिभुजो यस्य प्रणीतं नोपभुञ्जते।
लोकान्तरगतः पिण्डं भुते संवत्सरेण सः ॥ ४ ॥
सप्तपणां समीपस्थां यो न पश्यत्यरुन्धतीम्।
संवत्सरान्ते जन्तुः स संपश्यति महत्तमः ॥ ५ ॥
विकृत्या विनिमित्तं यः शोभामुपचयं धनम्।
प्रामोत्यतो वा विभ्रंशं समां1316तां न स जीवति ॥ ६ ॥
भक्तिः शीलं स्मृतिस्त्यागो बुद्धिमहेतुकम् \।
पडेतानि निवर्तन्ते पनि मरिष्यतः ॥ ७ ॥
धमनीनामपूर्वाणां जालमत्यर्थशोभनम्।
ललाटे दृश्यते यस्य षण्मासान्न स जीवति ॥ ८ ॥
लेखाभिश्चन्द्रवत्राभिर्ललाटमुपचीयते।
यस्य तस्यायुषः षड्भिर्मासैरन्तं समादिशेत् ॥ ९ ॥
शरीरकम्पः संमोहो गतिर्वचनमेव च।
मत्तस्येवोपलक्ष्यन्ते यस्य मासं न जीवति ॥ १० ॥
रेतोमूत्रपुरीषाणि यस्य मज्जन्ति चाम्भसि।
स मासात् स्वजनद्वेष्टा मृत्युवारिणि मज्जति ॥ ११ ॥
हस्तपादं मुखं चोभे विशेषाद्यस्य शुष्यतः।
झूयेते वा विना देहात् सं1317 च मासं न जीवति ॥ १२ ॥
ललाटे मूर्ध्नि1318 बस्तौ वा नीला यस्य प्रकाशते।
राजी बालेन्दुकुटिला न स जीवितुमर्हति ॥ १३ ॥
प्रवालगुटिकाभासा यस्य गात्रे मसूरिकाः।
उत्पद्याशु विनश्यन्ति1319 नचिरात् स विनश्यति ॥ १४ ॥
ग्रीवावमर्दो बलवाजिह्वाश्वयथुरेव च।
ब्रघ्नास्यगलपाकश्च यस्य पक्कं तमादिशेत् ॥ १५ ॥
संम्रमोऽतिप्रलापोऽतिभेदोऽस्लामतिदारुणः1320।
कालपाशपरीतस्य त्रयमेतत् प्रवर्तते ॥ १६ ॥
प्रमुख लुञ्जयेत् केशानू परिगृह्णात्यतीव1321 च।
नरः स्वस्थवदाहारमर्बलः1322 कालचोदितः ॥ १७ ॥
समीपे चक्षुषोः कृत्वा मृगयेताङ्गुलीकरम्।
स्मयतेऽपि च कालान्ध ऊर्ध्वाक्षोऽनिमिषेक्षणः ॥ १८ ॥
शयनादासनादङ्गात् काष्ठात् कुड्यादथापि वा।
असन्मृगयते किंचित् स मुह्यन् कालचोदितः ॥ १९ ॥
अहास्यासी1323 संमुझन् प्रलेढ दशनच्छदौ।
शीतपादकरोच्छ्रासो यो नरो न स जीवति ॥ २० ॥
आह्वयन्तं समीपस्थं स्वजनं जनमेव वा।
महामोहावृतमनाः पश्यन्नपि न पश्यति ॥ २१ ॥
अयोगमतियोगं वा शरीरे मतिमान् भिषक्।
खादीनां युगपद्दृष्ट्वा भेषजं नावचारयेत् ॥ २२ ॥
अतिप्रवृया रोगाणां मनसश्च बलक्षयात्।
बासमुत्सृजति क्षिप्रं शरीरी देहसंज्ञकम् ॥ २३ ॥
वर्णस्वरावग्निबलं वागिन्द्रिय मनोबलम्।
हीयतेऽसुक्षये निद्रा नित्या भवति वा न वा ॥ २४ ॥
भिषग्भेषजपानान्नगुरुमित्रद्विषश्च ये।
वशगाः सर्व एवैते बोद्धव्याः समवर्तिनः ॥ २५ ॥
एतेषु रोगः क्रमते भेषजं प्रतिहन्यते।
नैषामन्नानि भुञ्जीत न चोदकमपि स्पृशेत् ॥ २६ ॥
पादाः समेताश्चत्वारः संपन्नाः साधकैर्गुणैः।
व्यर्था गतायुषो द्रव्यं1324 विना नास्ति गुणोदयः ॥ २७ ॥
परीक्ष्यमायुर्भिषजा नीरुजस्यातुरस्य च।
आयुर्वेदफलं कृत्स्नमायुर्जे ह्यनुवर्तते ॥ २८ ॥
तत्र श्लोकः।
क्रियापथमतिक्रान्ताः केवलं देहमालुताः।
चिह्नं कुर्वन्ति यद्दोपा1324स्तदुरिष्टं निरुच्यते ॥ २९ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थानेऽणुज्योतीयमिन्द्रियं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
––––––––––
द्वादशोऽध्यायः।
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अथातो गोमयचूर्णीयमिन्द्रियं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
यस्य गोमयचूर्णाभं चूर्ण मूर्धनि जायते।
सस्नेहं1325 भ्रश्यते चैव मासान्तं तस्य जीवितम् ॥ ३ ॥
निकषन्निव1326यः पादौ च्युतांसः परिधावति।
विकृत्या न स लोकेऽस्मिंश्चिरं वसति मानवः ॥ ४ ॥
यस्य स्नातानुलिप्तस्य पूर्वं शुष्यत्युरो भृशम्।
आर्द्रेषुसर्वगात्रेषु सोऽर्धमासं न जीवति ॥ ५॥
यमुद्दिश्यातुरं वैद्यः संवैर्तयितुमौषधम्1327।
यतमानो न शक्नोति दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ ६॥
विज्ञातं बहुशः सिद्धं विधिवच्चावचारितम्।
न सिध्यत्यौषधं यस्य नास्ति तस्य चिकित्सितम् ॥ ७ ॥
आहारमुपयुञ्जानो1328 भिषजा सूपकल्पितम्।
यः फलं तस्य नाप्नोति दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ ८ ॥
दूताधिकारे वक्ष्यन्ते लक्षणानि मुमूर्षताम्।
यानि दृष्ट्वा भिषक् प्राज्ञः प्रत्याख्यायादसंशयम् ॥ ९ ॥
मुक्तकेशेऽथवा नग्ने रुदत्यप्रयतेऽथवा।
भिषगभ्यागतं दृष्ट्वा दूतं मरणमादिशेत् ॥ १० ॥
सुप्से भिषजि ये दूताश्छिन्दत्यपि च भिन्दति।
आगच्छन्ति भिषक् तेषां न भर्तारमनुव्रजेत् ॥ ११ ॥
जुह्वत्यग्निंतथा पिण्डान् पितृभ्यो निर्वपत्यपि।
वैद्येदूता य आयान्ति ते घ्नन्ति प्रजिघांसवः ॥ १२ ॥
कथयत्यप्रशस्तानि चिन्तयत्यथवा पुनः।
वैद्ये दूता मनुष्याणामागच्छन्ति मुमूर्षताम् ॥ १३ ॥
मृतदग्धविनष्टानि भजति व्याहरत्यपि।
अप्रशस्तानि चान्यानि वैद्ये दूता मुमूर्षताम् ॥ १४ ॥
विकारसामान्यगुणे देशे कालेऽथवा भिषक्।
दूतमभ्यागतं दृष्ट्वा नातुरं तमुपाचरेत् ॥ १५ ॥
दीनभीतद्रुतत्रस्तमलिनामसर्ती स्त्रियम्।
त्रीन् व्याकृतींश्च षण्डांश्च दूतान् विद्यान्मुमूर्षताम् ॥ १६ ॥
अङ्गव्यसनिनं दूतं लिङ्गिनं व्याघितं तथा।
संप्रेक्ष्य चोग्रकर्माणं न वैद्यो गन्तुमर्हति ॥ १७ ॥
आतुरार्थमनुप्राप्तं खरोष्ट्ररथवाहनम्।
दूतं दृष्ट्वा भिषग्विद्यादातुरस्य पराभवम् ॥ १८ ॥
पलालबुसमांसास्थिकेशलोमनखद्विजान्।
मार्जनीं1329 मुसलं सूर्पमुपानञ्चर्म विच्युतम् ॥ १९ ॥
तृणकाष्ठतुषाङ्गारं स्पृशन्तो लोष्टमइम च।
तत्पूर्वदर्शने दूता व्याहरन्ति मुमूर्पताम् ॥ २० ॥
यस्मिंश्च दूते ब्रुवति वाक्यमातुरसंश्रयम्।
पश्येन्निमित्तमशुभं तं च नानुव्रजेन्द्भिषक् ॥ २५ ॥
तथा व्यसनिनं प्रेतं प्रेतालङ्कारमेव वा।
भिन्नं दग्धं विनष्टं वा तद्वादीनि वचांसि वा ॥ २२ ॥
रसो वा कटुस्तीव्रो गन्धो वा कोणपो महान्।
स्पर्शो वा विपुलः क्रूरो यद्वाऽन्यदशुभं भवेत् ॥ २३ ॥
तत्पूर्वमभितो वाक्यं वाक्यकालेऽथवा पुनः।
दूतानां व्याहृतं श्रुत्वा धीरो मरणमादिशेत् ॥ २४ ॥
इति दूताधिकारोऽयमुक्तः कृत्स्त्रो मुमूर्पताम्।
पथ्यातुरकुलानां च वक्ष्याम्योत्पातिकं पुनः ॥ २५ ॥
अवक्षुतमथोत्क्रुष्टं स्खलनं पतनं तथा।
आक्रोशः संप्रहारो वा प्रतिषेधो विगर्हणम् ॥ २६ ॥
वस्त्रोष्णीषोत्तरासङ्गइछन्रोपानद्युगाश्रयम्।
व्यंसनं1330 दर्शनं चापि मृतव्यसनिनां तथा ॥ २७ ॥
चैत्यध्वजपताकानां पूर्णानां पतनानि च।
हतानिष्टप्रवादाश्च दूषणं भस्पांसुभिः ॥ २८ ॥
पथश्छेदो बिडालेन शुना सर्पेण वा पुनः।
मृगद्विजानां क्रूराणां गिरो दीप्तां दिशं प्रति ॥ २९ ॥
शयनासनयानानामुत्तानानां1331 च दर्शनम्।
इत्येतान्यप्रशस्तानि सर्वाण्याहुर्मनीषिणः ॥ ३० ॥
एतानि पथि वैद्येन पश्यैताऽऽतुरवेश्मनि1332।
शृण्वता च न गन्तव्यं तद्गारं विपश्चिता ॥ ३१ ॥
इत्यौत्पातिकमाख्यातं पथि वैद्यविगर्हितम्।
इमामपि च बुध्येत गृहावस्थां मुमूर्षताम् ॥ ३२ ॥
प्रवेशे पूर्णकुम्भाग्निमृद्धीजफलसर्पिषाम्।
वृषब्राह्मणरत्वान्नदेवतानां1333 विनिर्गतिम् ॥ ३३ ॥
अग्निपूर्णानि पात्राणि भिन्नानि विशिखानि च।
भिषम्युमूर्षतां वेश्म प्रविशन्नेव पश्यति ॥ ३४॥
छिन्नभिन्नानि दुग्धानि भन्नानि मृदितानि च।
दुर्बलानि च सेवन्ते मुमूर्षोर्वैश्मिका जनाः ॥ ३५॥
शयनं वसनं यानं गमनं भोजनं रुतम्।
श्रूयतेऽमङ्गलं यस्य नास्ति तस्य चिकित्सितम् ॥ ३६॥
शयनं वसनं यानमन्यद्वाऽपि परिच्छदम्।
प्रेतवद्यस्य कुर्वन्ति सुहृदः प्रेत एव सः ॥ ३७ ॥
अन्नं व्यापद्यतेऽत्यर्थ ज्योतिश्चैवोपशाम्यति।
निवाते सेन्धनं यस्य तस्य नास्ति चिकित्सितम् ॥ ३८ ॥
आतुरस्य गृहे यस्य भिद्यन्ते वा पतन्ति वा।
अतिमान्त्रममन्त्राणि दुर्लभं तस्य जीवितम् ॥ ३९ ॥
भवन्ति चात्र।
यद्द्वादशभिरध्यायैर्व्यासतः परिकीर्तितम्।
मुमूर्षतां मनुष्याणां लक्षणं जीवितान्तकृत् ॥ ४० ॥
तत् समासेन वक्ष्यामः पर्यायान्तरमाश्रितम्।
पर्यायवचनं ह्यर्थविज्ञानायोपपद्यते ॥ ४१ ॥
इत्यर्थं1334 पुनरेवेयं विवक्षा नो विधीयते।1335
तस्मिन्नेवाधिकरणे1336 यत् पूर्वमभिदर्शितम् ॥ ४२ ॥
वसतां चरमे1337 काले शरीरेषु शरीरिणाम्।
अभ्यग्राणां विनाशाय देहेभ्यः प्रविवत्सताम् ॥ ४३ ॥
इष्टांस्तितिक्षतां प्राणान् कान्तं वासं जिहासताम्।
तत्रयन्त्रेषु भिन्नेषु तमोऽन्त्यं प्रविविक्षताम् ॥ ४४ ॥
विनाशायेह रूपाणि यान्यवस्थान्तराणि च।
भवन्ति तानि वक्ष्यामि यथोद्देशं यथागमम् ॥ ४५ ॥
प्राणाः समुपतप्यन्ते1338 विज्ञानमुपरुध्यते।
वमन्ति बलमङ्गानि चेष्टा व्युपरमन्ति च ॥ ४६ ॥
इन्द्रियाणि विनश्यन्ति खिलीभवति चेतना1339।
औत्सुक्यं भजते सत्वं चेतो भीराविशत्यपि ॥ ४७ ॥
स्मृतिस्त्यजति मेधा च ह्रीश्रियौ चापसर्पतः।
उपलवन्ते पाप्मान ओजस्तेजश्च1340 नश्यति ॥ ४८ ॥
शीलं व्यावर्ततेऽत्यर्थं भक्तिश्च1341 परिवर्तते।
विक्रियन्ते प्रतिच्छृायाश्छायाश्च विकृतिं1342 गताः ॥ ४९ ॥
शुक्रं प्रच्यवते स्थानादुन्मार्ग भजतेऽनिलः।
क्षयं मांसानि गच्छन्ति गच्छत्यसपक्षयम्1343 ॥ ५० ॥
ऊष्माणः प्रलयं यान्ति विश्लेषं यान्ति संधयः।
गन्धा विकृतिमायान्ति भेदं वर्णस्वरौ तथा ॥ ५१ ॥
वैवर्ण्यंभजते कायः कायच्छिद्रं विशुष्यति।
धूमः संजायते मूर्ध्नि दारुणाख्यश्च चूर्णकः ॥ ५२ ॥
सततस्पन्दना देशाः शरीरे येऽभिलक्षिताः।
ते स्तम्भानुगताः सर्वे न चलन्ति कथंचन ॥ ५३ ॥
गुणाः शरीरदेशानां शीतोष्णमृदुदारुणाः।
विपर्यासेन वर्तन्ते स्थानेष्वन्येषु तद्विधाः ॥ ५४ ॥
नखेषु जायते पुष्पं पङ्को दन्तेषु जायते।
जटाः पक्ष्मसु जायन्ते सीमन्ताश्चापि मूर्धनि ॥ ५५ ॥
भेषजानि न संवृत्तिं प्राप्नुवन्ति यथारूचि1344।
यानि चाप्युपपद्यन्ते तेषां वीर्य न1345सिध्यति ॥ ५६ ॥
नानाप्रकृतयः क्रूरा विकारा विविधौषधाः।
क्षिप्रं समभिवर्तन्ते प्रतिहत्य बलौजसी ॥ ५७ ॥
शब्दः स्पर्शो रसो रूपं गन्धश्चेष्टा विचिन्तितम्1346।
उत्पद्यन्तेऽशुभान्येव प्रतिकर्मप्रवृत्तिषु ॥ ५८ ॥
दृश्यन्ते दारुणाः स्वप्ना दौरात्म्यमुपजायते।
प्रेष्याः प्रतीपतां यान्ति प्रेताकृतिरुदीर्यते ॥ ५९ ॥
प्रकृतिर्हीयतेऽत्यर्थं विकृतिश्चाभिवर्धते।
कृत्स्त्रमौत्पातिकं घोरमरिष्ट॑मुपलक्ष्यते1346 ॥ ६० ॥
इत्येतानि मनुष्याणां भवन्ति विनशिष्यताम्।
लक्षणानि यथोद्देशं यान्युक्तानि यथागमम् ॥ ६१ ॥
मरणायेह रूपाणि पश्यताऽपि भिषग्विदा।
अपृष्टेन न वक्तव्यं मरणं प्रत्युपस्थितम् ॥ ६२ ॥
पृष्टेनापि न वक्तव्यं तत्र यत्रोपघातकम्।
आतुरस्य भवे हुःखमथवाऽन्यस्य कस्यचित् ॥ ६३ ॥
अब्रुवन् मरणं तस्य नैनमिच्छेञ्चिकित्सितुम्।
यस्य पश्येद्विनाशाय लिङ्गानि कुशलो भिषक् ॥ ६४ ॥
लिङ्गेभ्यो मरणाख्येभ्यो विपरीतानि पश्यता।
लिङ्गान्यारोग्यमागन्तु वक्तव्यं भिषजा ध्रुवम् ॥ ३५ ॥
दूतैरौत्पातिकैर्भावैः पथ्यातुरकुलाश्रयैः।
आतुराचारशीलेष्टद्रव्यसंपत्तिलक्षणैः ॥ ६६ ॥
स्वाचारं हृष्टमव्यङ्गं यशस्यं शुक्लवाससम्।
अर्मुण्डमजटं1347 दूतं जातिवेशक्रियासमम् ॥ ६७ ॥
अनुष्ट्रखरयानस्थमसन्ध्यास्वप्रहेषु च।
अंदारुणेषु नक्षत्रेष्वनुप्रेषु ध्रुवेषु च ॥ ६८ ॥
विना चतुर्थी नवमीं विना रिक्तां चतुर्दशीम्।
मध्याह्नमर्धरात्रं च भूकम्पं राहुदर्शनम् ॥ ६९ ॥
विना देशमशस्तं चाशस्तौत्पातिकलक्षणम्।
दूतं प्रशस्तमव्यग्रं निर्दिशेदागतं भिषक् ॥ ७० ॥
दध्यक्षतद्विजातीनां वृषभाणां नृपस्य च।
रत्नानां पूर्णकुम्भानां सितस्य तुरगस्य च ॥ ७१ ॥
सुरध्वजपताकानां फलानां यावकस्य1348च।
कन्यापुंवर्धमानानां1349 बद्धस्यैकपशोस्तथा ॥ ७२ ॥
पृथिव्या उद्धृतायाश्च वह्नेःप्रज्वलितस्य च।
मोदकानां सुमनसां शुक्लानां चन्दनस्य च ॥ ७३ ॥
मनोज्ञस्यान्नपानस्य पूर्णस्य शकटस्य च।
नृभिर्धेन्वाः सवत्साया वडवायाः स्त्रियास्तथा ॥ ७४ ॥
जीवञ्जीवकसिद्धार्थसारसप्रियवादिनाम्।
हंसानां शतपत्राणां चाषाणां शिखिनां तथा ॥ ७५ ॥
मत्स्याज (ज) द्विजशङ्खानां प्रियङ्गूनां1350 घृतस्य च।
रुचकादेर्शसिद्धार्थरोचनानां1351 च दर्शनम् ॥ ७६ ॥
गन्धः सुरभिर्वर्णश्च1352 सुशुक्लोमधुरो रसः।
मृगपक्षिमनुष्याणां प्रशस्ताश्च गिरः शुभाः ॥ ७७ ॥
छत्रध्वजपताकाना मुरक्षेपणमभिष्टुतिः1353।
भेरीमृदङ्गशङ्खानां शब्दाः पुण्याहनिस्वनाः ॥ ७८ ॥
वेदाध्ययनशब्दाश्च सुखो वायुः प्रदक्षिणः।
पथि वेइमप्रवेशे च विद्यादारोग्यलक्षणम् ॥ ७९ ॥
मङ्गलाचारसंपन्नः सातुरो वैश्मिको जनः।
श्रद्दधानोऽनुकूलश्च प्रभूतद्रव्यसंग्रहः ॥ ८० ॥
धनैश्वर्यसुखावाप्तिरिष्टलाभः सुखेन च।
द्रष्याणां तत्र योग्यानां योजना सिद्धिरेव च ॥ ८१ ॥
गृहप्रासादशैलानां नागानां वृषभस्य च।
हयानां पुरुषाणां च स्वप्ने समधिरोहणम् ॥ ८२ ॥
अर्णवानां प्रतरणं वृद्धिः संबाधनिस्तृतिः।
स्वप्ने देवैः सपितृभिः प्रसन्नैश्चाभिभाषणम् ॥ ८३ ॥
सोमार्काग्निद्विजातीनां गवां नृणां यशस्विनाम्।
दर्शनं शुक्लवस्त्राणां हृदस्य विमलस्य च ॥ ८४ ॥
मांसमस्स्य विषामेध्यच्छन्त्रादर्शपरिग्रहः।
स्वप्ने सुमनसां चैव शुक्लानां दर्शनं शुभम् ॥ ८५ ॥
अश्वगोरथयानं च यानं पूर्वोत्तरेण च।
रोदनं पतितोस्थानं द्विषतां चावमर्दनम् ॥ ८६ ॥
सरवलक्षणसंयोगो भक्तिर्वैद्ये द्विजातिषु।
साध्यत्वं न च निर्वेदस्तदारोग्यस्य लक्षणम् ॥ ८७ ॥
आरोग्याद्वलमायुश्च सुखं च लभते महत्।
इष्टांश्चाप्यपरान् भावान् पुरुषः शुभलक्षणः ॥ ८८ ॥
तत्र लोका।
उक्तं गोमयचूर्णीये मरणारोग्यलक्षणम्।
दूतस्वप्नातुरोत्पातयुक्तिसिद्धिज्यपाश्रयम् ॥ ८९ ॥
इतीदेमुक्तं प्रकृतं यथातथं
तदन्ववेक्ष्यं सततं भिषग्विदा।
तथा हि सिद्धिं च यशश्च शाश्वतं
स सिद्धकर्मा लभते धनानि च ॥ १० ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते इन्द्रियस्थाने गोमयचूर्णीयमिन्द्रियं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इन्द्रियस्थानं संपूर्णम्।
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चिकित्सास्थानम्।
प्रथमोऽध्यायः।
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अथातोऽभयामलकीयं रसायनपादं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
चिकित्सितं व्याधिहरं पथ्यं साधनमौषधम्।
प्रायश्चित्तं प्रशमनं प्रकृतिस्थापनं हितम् ॥ ३॥
विद्याद्वेषजनामानि, भेषजं द्विविधं च तत्।
स्वस्थस्यजस्करं किंचित् किंचिदार्तस्य रोगनुत् ॥ ४ ॥
अभेषजं च द्विविधं बाधनं सानुबाधनम्।1354
स्वस्थस्यौजस्करं यत्तु तद्वृष्यं तद्रसायनम् ॥ ५ ॥
प्रायः, प्रायेण रोगाणां द्वितीयं प्रशमे मतम्।
प्रायःशब्दो विशेषार्थो ह्युभयं ह्युभयार्थकृत् ॥ ६ ॥
दीर्घमायुः स्मृतिं मेधामारोग्यं तरुणं वयः।
प्रभावर्णस्वरौदार्यं देहेन्द्रियबलं परम् ॥ ७ ॥
वाक्सिद्धिं वृषेतां1355 कान्तिं लभते ना रसायनात्।
लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम् ॥ ८ ॥
अपत्यसन्तानकरं यत् सद्यः संप्रहर्षणम्।
वाजीवातिबलो येन यायप्रतिहतः स्त्रियः ॥ ९ ॥
भवत्यतिप्रियः स्त्रीणां येन येनोपचीयते।
जीर्यतोऽप्यक्षयं शुक्रं फलवद्येन दृश्यते ॥ १० ॥
प्रभूतशाखः शाखीव येन चैत्यो यथा महान्।
भवत्यसौ1356 बहुमतः प्रजानां सुबहुप्रजः ॥ ११ ॥
सन्तानमूलं येनेह प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते।
यशः श्रियं बलं पुष्टिं वाजीकरणमेव तत् ॥ १२ ॥
स्वस्थस्यौजस्करं स्वेतद्विविधं प्रोक्तमौषधम्।
यह्माधिवनिर्घातकरं वक्ष्यते तञ्चिकित्सिते ॥ १३ ॥
चिकित्सितार्थ एतावान् विकाराणां यदौषधम्।
रसायनविधिश्वाग्रे वाजीकरणमेव च ॥ १४ ॥
अभेषजमिति ज्ञेयं विपरीतं यदौषधात्।
तदसेव्यं, निषेव्यं तु प्रवक्ष्यामि यदौषधम् ॥ १५ ॥
रसायनानां द्विविधं प्रयोगमृषयो विदुः।
कुटीप्रावेशिकं चैव वातातपिकमेव च ॥ १६ ॥
कुटीमावेशिकत्यादौ विधिः समुपदेक्ष्यते।
नृपवैद्यद्विजातीनां साधूनां पुण्यकर्मणाम् ॥ १७ ॥
निवासे निर्भये शस्ते प्राप्योपकरणे पुरे।
दिशि पूर्वोत्तरस्यां च सुभूमौ कारयेत् कुटीम् ॥ १८ ॥
विस्तारोत्सेधसंपन्नां त्रिगर्भों सूक्ष्मलोचनाम्।
घनभित्तिमृतुसुखां सुस्पष्टां मनसः प्रियाम् ॥ १९ ॥
शब्दादीनामशस्तानामगम्यां स्त्रीविवर्जिताम्।
इष्टोपकरणोपेतां सज्जवैद्यौषधद्विजाम् ॥ २० ॥
अथोद्गयने शुक्ले तिथिनक्षत्रपूजिते।
मुहूर्तकरणोपेते प्रशस्ते कृतवापनः ॥ २१ ॥
धृतिस्मृतिबलं कृत्वा श्रद्धानः समाहितः।
विधूय मानसान्दोषान्मैत्रीं भूतेषु चिन्तयन् ॥ २२ ॥
देवताः पूजयित्वाऽग्रे द्विजातींश्च प्रदक्षिणम्।
देवगोब्राह्मणान् कृत्वा ततस्तां प्रविशेत् कुटीम् ॥ २३ ॥
तस्यां संशोधनैः शुद्धः सुखी जातबलः पुनः।
रसायनं प्रयुञ्जीत तत्1357 प्रवक्ष्यामि शोधनम् ॥ २४ ॥
हरीतकीनां चूर्णानि सैन्धवामलके गुडम्।
वचांविडङ्गं रजनीं पिप्पलीं विश्वभेषजम्।
पिबेदुष्णाम्बुना जन्तुः स्नेहस्वेदोपपादितः ॥ २५ ॥
तेन शुद्धशरीराय कृतसंसर्जनाय च।
त्रिरात्रं यावकं1358 दद्यात् पञ्चाहं वाऽपि सर्पिषा।
सप्ताहं वा पुराणस्य यावच्छुद्धेस्तु वर्चसः ॥ २६ ॥
शुद्धकोष्ठं तु तं ज्ञात्वा रसायनमुपाचरेत्।
वयः प्रकृतिसात्म्यज्ञो यौगिकं यस्य यद्भवेत् ॥ २७ ॥
हरीतकीं पञ्चरसामुष्णामलवणां शिवाम्।
दोषानुलोमनीं लध्वीं विद्याद्दीपनपाचनीम् ॥ २८ ॥
आयुष्यां पौष्टिकींधन्यां वयसः स्थापनीं पराम्।
सर्वरोगप्रशमनीं बुद्धीन्द्रियबलप्रदाम् ॥ २९ ॥
कुष्ठं गुरुममुदावर्त शोषं पाण्ड्डामयं मदम्।
अर्शीसिग्रहणीदोषं पुराणं विषमज्वरम् ॥ ३० ॥
हृद्रोगं सशिरोरोगमतीसारमरोचकम्।
कासं प्रमेहमानाहं प्लीहानमुदरं नवम् ॥ ३१ ॥
कफप्रसेकं वैस्वयं वैवर्ण्य कामलां कृमीन्।
श्वयथुं तमकं छार्दे क्लैब्यमङ्गावसादनम् ॥ ३२ ॥
स्रोतोविबन्धान् विविधान् प्रलेपं हृदयोरसोः।
स्मृतिबुद्धिप्रमोहं च जयेच्छीघ्रं हरीतकी ॥ ३३ ॥
( अंजीर्णिनो1359 रूक्षभुजः स्त्रीमद्यविषकर्षिताः।
सेवेरन्नाभयामेते क्षुत्तृष्णोष्णार्दिताश्च ये ॥ ३४ ॥ )
तान् गुणांस्तानि कर्माणि विद्यादामलकेष्वपि।
यान्युक्तानि हरीतक्या वीर्यस्य तु विपर्ययः ॥ ३५ ॥
अतश्चामृतकल्पानि विद्यात् कर्मभिरीदृशैः।
हरीतकीनां शैयानि भिषगामलकस्य च ॥ ३६॥
ओषधीनां परा भूमिर्हिमवाञ्छैलसत्तमः।
तस्मात् फलानि तज्जानि ग्राहयेत् कालजानि तु॥३७॥
आपूर्णरसवीर्याणि काले काले यथाविधि।
आदित्यसलिलच्छायापवनप्रीणितानि च॥३८॥
यान्यद(ज)ग्धान्यपूतीनि निर्व्रणान्यगदानि च।
तेषां प्रयोगं वक्ष्यामि फलानां कर्म चोत्तमम्॥३९॥
पञ्चानां पञ्चमूलानां भागान् दशपलोन्मितान्।
हरीतकी सहस्रं च त्रिगुणामलकं नवम्॥४०॥
विदारिगन्धां बृहतीं पृश्निपर्णीं निदिग्धिकाम्।
विद्याद्विदारिगन्धाद्यं श्वदंष्ट्रापञ्चमं गणम्॥४१॥
बिल्वाग्निमन्थस्योनाकं काश्मर्यमथ पाटलाम्।
पुनर्नवां शूर्पपर्ण्यौबलामेरण्डमेव च॥४२॥
जीवकर्षभकौमेदां जीवन्तीं सशतावरीम्।
शरेक्षुदर्भकाशानां शालीनां मूलमेव च॥४३॥
इत्येषां पञ्चमूलानां पञ्चानामुपकल्पयेत्।
भागान् यथोक्तस्तत् सर्वं साध्यं दशगुणेऽम्भसि॥४४॥
दशभागावशेषं तु पूतं तं ग्राहयेद्गसम्।
हरीतकीश्च ताः सर्वाः सर्वाण्यामलकानि च॥४५॥
तानि सर्वाण्यनस्थीनि फलान्यापोथ्य कूर्चनैः।
विनीय तस्मिन्निर्यूहे चूर्णानीमानि दापयेत्॥४६॥
मण्डूकपर्ण्याःपिप्पल्याः शङ्खपुष्प्याःशवस्य च।
मुस्तानां सविडङ्गानां चन्दनागुरुणोस्तथा॥४७॥
मधुकस्य हरिद्राया वचायाः कनकस्य च।
भागांश्चतुष्पलान् कृत्वा सूक्ष्मैलायास्वचस्तथा॥४८॥
सितोपला सहस्रं च चूर्णितं तुलयाऽधिकम्।
तैलस्य याढकं तत्र दद्यात्रीणि च सर्पिषः॥४९॥
साध्यमौदुम्बरे पात्रे तत् सर्व मृदुनाऽग्निना।
ज्ञात्वा लेहमदग्धं च शीतं क्षौद्रेण संसृजेत् ॥ ५० ॥
क्षौद्रप्रमाणं स्नेहार्धंतत् सर्वं घृतभाजने।
तिष्ठेत् समूच्छितं तस्य मात्राकाले प्रयोजयेत् ॥ ५१ ॥
या नोपरुन्ध्यादाहारमेवं मात्रा जरां प्रति।
षष्टिकःपयसा चात्र जीर्णे भोजनमिष्यते ॥ ५२ ॥
वैखानसा वालखिल्यास्तथा चान्ये तपोधनाः।
रसायनमिदं प्राश्यबभूवुरमितायुषः ॥ ५३ ॥
मुक्त्वा जीर्ण वपुश्चाध्यमवापुस्तरुणं वयः।
वीततन्द्राकुमश्वासा निरातङ्काः समाहिताः ॥ ५४ ॥
मेधास्मृतिबलोपेताविररात्रं तपोधनाः।
ब्राह्मं तपो ब्रह्मचर्य चेरुश्चात्यन्तनिष्ठया ॥ ५५ ॥
रसायनमिदं ब्राह्ममायुष्कामः प्रयोजयेत्।
दीर्घमायुर्वयश्चाग्र्यं कामांश्चेष्टान् समश्नुते ॥ ५६ ॥
इति ब्राह्मरसायनम्।
यथोक्तगुणानामामलकानां सहस्रं पिष्टस्वेदनविधिना पयसपणा सुखिन्नमनातपशुष्कमनस्थि चूर्णयेत्। तदामलकसहस्रसपरिपीतं स्थिरापुनर्नवाजीवन्तीनागबला ब्रह्मसुवर्चलामण्डूक’शतावरीशङ्खपुष्पीपिप्पलीवचाविडङ्गस्वयङ्गुप्तामृताचन्दनागुरुकमधूकपुष्पोत्पलपद्ममालतीयुवतीयूथिकाचूर्णाष्टभागसंयुक्तं र्नागबलासहस्रपलस्वरसपरिपीतमनातपशुष्कं द्विगुणितसर्पिषा इसर्पिषा वा क्षुद्रगुडाकृतिं कृत्वा शुचौ दृढे घृतभाविते कुम्भे नराशेरधः स्थापये दन्तर्भूमेः पक्षं कृतरक्षाविधानमथर्ववेदविदा, त्यये चोद्धत्यकनकरजतताम्रप्रवालकालायसचूर्णाष्टभागसंयुक्तकर्षवृद्ध्या यथोक्तेन विधिना प्रातः प्रातः प्रयुञ्जनोऽग्निबलसमीक्ष्य जी च षष्टिकं पयंसा ससर्पिष्कमुपसेवमानो यथो न्गुणान् समश्नुत इति ॥ ५७ ॥
भवन्ति चात्र।
इदं रसायनं ब्राह्मं महर्षिगणसेवितम्।
भवत्यरोगो दीर्घायुः प्रयुञ्जानो महाबलः ॥ ५८ ॥
कान्तः प्रजानां सिद्धार्थश्चन्द्रादित्यसमद्युतिः।
श्रुतं धारयते सच्चमार्ष चास्य प्रवर्तते ॥ ५९ ॥
धरणीधरसारश्च वायुना समविक्रमः।
स भवत्यविषं चास्य गात्रे संपद्यते विषम् ॥ ६० ॥
इति ब्राह्मरसायनद्वितीययोगः।
बिल्वाभिमन्थौ स्योनाकः काश्मरी पाटलिर्बला।
पर्ण्यश्चतस्त्रः पिप्पल्यः वदंष्ट्रा बृहतीद्वयम् ॥ ६१ ॥
शङ्गी तामलकी द्राक्षा जीवन्ती पुष्करागुरु।
अभया चामृता चर्धिर्जीवकर्षभको शटी ॥ ६२ ॥
मुस्तं पुनर्नवा मेदा सैला चन्दनमुत्पलम्।
विदारी वृषमूलानि काकोली काकनासिका ॥६३ ॥
एषां पलोन्मितान् भागाव्शतान्यामलकस्य च।
पञ्च दद्यात्तदैकध्यंजलद्रोणे विपाचयेत् ॥ ६४ ॥
ज्ञात्वा गतरसान्येतान्यौषधान्यथ तं रसम्।
तच्चामलकमुद्धृत्य निष्कुलं तैलसर्पिषोः ॥ ६५ ॥
पलद्वादशके भृष्ट्वा दत्वा चार्धतुलां भिषक्।
मत्स्यण्डिकायाः पूताया लेहवत् साधु साधयेत् ॥ ६६ ॥
षट्पलं मधुनश्चात्र सिद्धशीते समावपेत्।
चतुष्पलं तुगाक्षीर्याः पिप्पलीद्विपलं तथा ॥ ६७ ॥
पलमेकं निदध्याच्च त्वगेलापत्रकेशरात्।
इत्ययं च्यवनप्राशः1360 परमुक्तो रसायनः ॥ ६८ ॥
कासश्वासहरश्चैष विशेषेणोपदिश्यते।
क्षीणक्षतानां वृद्धानां बालानां चाङ्गवर्धनः ॥ ६९ ॥
स्वरक्षयमुरोरोगं हृद्रोगं वातशोणितम्।
पिपासां मूत्रशुक्रस्थान् दोषांश्चाप्यपकर्षति ॥ ७० ॥
अस्य मात्रां प्रयुञ्जीत योपरुन्ध्यान भोजनम्।
अस्य प्रयोगाच्यवनः सुवृद्धोऽभूत् पुनर्युवा ॥ ७१ ॥
मेधां स्मृतिंकान्तिमनामयत्वमायुःप्रकर्ष बलमिन्द्रियाणाम्।
स्त्रीषु महर्ष परमभिवृद्धिं वर्णप्रसादं पवनानुलोम्यम् ॥ ७२ ॥
रसायनस्यास्य नरः प्रयोगाल्लभेत जीर्णोऽपि कुटीप्रवेशात्।
जराकृतं रूपमपास्य सर्वे बिभर्ति रूपं नवयौवनस्य ॥ ७३ ॥
इति च्यवनप्राशः।
अथामलकहरीतकीनामामलकबिभीतकानां हरीतकीबिभीतकामामलकहरीतकी बिभीतकानां वा पलाशत्वगवनद्धानां मृदाऽवतानांकुकूलस्विन्नानामकुलकानां1361 पलसहस्रमुखले संपोथ्यघेवृतमधुपललतैलशर्करासंप्रयुक्तंभक्षयेदनन्नभुग्यथोक्तेन विना, तस्यान्ते यवाग्वादिभिः प्रकृत्यवस्थापनम्,1362 अभ्यङ्गोत्सादनं पैषा यवचूर्णैश्च, अयं1363 च रसायनप्रयोगप्रकर्षो द्विस्तावदग्निवलभसमीक्ष्य, प्रतिभोजनं यूषेण पयसा वा षष्टिकः ससर्पिष्कः,तः परं यथासुखविहारः कामभक्ष्यः स्यात्; अनेन प्रयोगेणर्षयः आर्युवस्वमवापुः बभूवुश्चानेकवर्षशतजीविनो निर्विकाराः परं बुद्धीन्द्रियबलसमुदिताः, चेरुश्चात्यन्तनिष्ठया तपः ॥ ७४ ॥
इति चतुर्थामलकरसायनम्।
हरीतक्यामलकबिभीतकपञ्चपञ्चमूलनिर्यूहेर्णे1364 पिप्पलीयष्टिमधुचूककाकोली क्षीरकाकोल्यात्मगुप्ताजीवकर्षभकक्षीरशुक्लाकल्कसंप्रकेन विदारीस्वरसेन क्षीराष्टगुणसंप्रयुक्तेन च सर्पिषःकुम्भं साधयित्वा प्रयुञ्जीताऽनिंबलं1365 समवेक्ष्य, जीर्णे च क्षीरसर्पिशालिषष्टिकमुष्णोदकानुपावमश्नन्, जराव्याधिपापाभिचारव्यपगतभयः शरीरबुद्धीन्द्रियबलमतुलमुपलभ्याप्रतिहतसर्वारम्भः परमाथुरवामुयात् ॥ ७५ ॥
इति पञ्चमो हरीतकीयोगः1366।
हरीतक्यामलकबिभीतकहरिद्वास्थिरावचाविडङ्गामृतवल्लीविश्वभेषजमधुकपिप्पलीसोमवल्कसिद्धेन क्षीरसर्पिषा मधुशर्कराभ्यामपि च सन्नीयामलकस्वरसशतपरिपीतमाम लकचूर्णमयश्चूर्णचतुर्भागसंप्रयुक्तं पाणितलमात्रं प्रातः प्रातः प्राश्ययथोक्तेन विधिनासायंमुद्गयूषेणपयसा वा ससर्पिष्कं शालिषष्टिकमश्रीयात्; त्रिवर्षप्रयोगादस्य वर्षशतमजरं वयस्तिष्ठति,श्रुतमवतिष्ठते,सर्वामयाः प्रशाम्यन्ति, विषमविषं भवति गात्रे, गात्रमश्मवत्स्थिरीभवति,अधृष्यो भूतानां भवतीति ॥७६ ॥
इति षष्ठो हरीत1367कीयोगः।
भवन्ति चात्र।
यथाऽमराणाममृतं यथा भोगवतां सुधा।
तथाऽभवन्महर्षीणां रसायनविधिः पुरा ॥ ७७ ॥
न जरां न च दौर्बल्यं नातुर्ये निधनं न च।
जग्मुर्वर्षसहस्राणि रसायनपराः पुरा ॥ ७८ ॥
न केवलं दीर्घमिहायुरश्रुते
रसायनं यो विधिवन्निषेवते।
गतिं स देवर्षिनिषेवितां शुभां
प्रपद्यते ब्रह्म तथैति चाक्षरम् ॥ ७९ ॥
तत्र श्लोकः।
अभयामलकीयेऽस्मिन् षड्योगाः परिकीर्तिताः।
रसायनानां सिद्धानामाथुर्यैरनुवर्तते ॥ ८० ॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने-
भयामलकीयो नाम रसायनपादः प्रथमः।
———————
थातः प्राणकामीयं रसायनपादं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
प्राणकामाः शुश्रूषध्वमिदमुच्यमानममृतमिवापरमदितिसुतहितमचिन्त्याद्भुतप्रभावमायुष्यमारोग्यकरं वयसः स्थापनं निद्रात\श्रमक्कुमालस्यदौर्बल्यापहरमनिलपित्तकफसाम्यकरं स्थैर्यकरमेवमांसहरमन्तरग्निसंधुक्षणं प्रभावर्णस्वरोत्तम करं रसायनविधानम्।तेन च्यवनादयो महर्षयः पुनर्युवत्वमापुर्नारीणां चेष्टतमा बभूवुः, घरसमसुबिभक्तमांसाः, सुसंहतस्थिरवारीराः सुप्रसन्नबलवर्णे-द्रयाः, सर्वनाप्रतिहतपराक्रमाः, सर्वक्केशसहाश्च ॥ ३ ॥
सर्वे शरीरदोषा भवन्ति ग्राम्याहारादम्ललवणकटुकक्षारशुष्काकमाषतिलपललपिष्टान्नभोजिनां विरूढनवशूकशमी धान्यविरुम्याराभिष्यन्दिभोजिनां क्लिन्नगुरुपूतिपर्युषितभोजिनां [षमा1368शनाध्यशनप्रियाणां दिवास्वमस्त्रीमद्यनित्यानां विषमातिमाव्यायामसंक्षोभितशरीराणां भयक्रोधशोकलोभमोहायासबहुलाम्। अतो निमित्ताद्धि शिथिलीभवन्ति मांसानि, विमुच्यन्तेन्धयो, विदह्यतेरक्तं,विष्यन्दते चानल्पं मेदो, न सन्धीयतेऽथषु मज्जा, शुक्रं न प्रवर्तते, क्षयमुपैयोजः; स एवंभूतो ग्लायति,दिति, निद्वातन्द्रालस्यसमन्वितो निरुत्साहः श्वसिति, असमर्थष्टानां शारीरमानसीनां, नष्टस्मृतिबुद्धिच्छायो रोगाणामधिष्ठानतो न सर्वमारवाप्नोति, तस्मादेतान् दोषानवेक्षमाणः सर्वान्
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१‘अवबद्धमनिबिडं मांसं हरति घनत्वापादनेन यत्तत् ’ इति योगीन्द्रनापेनः।
यथोक्तानहितानपास्याहारविहारान् रसायनानि प्रयोक्तुमर्हतीत्युक्त्वा भगवान् पुनर्वसुरात्रेय उवाच— आमलकानां सुभूमिजानां कालजानामनुपहतगन्धवर्णरसानामापूर्णरसप्रमाणवीर्याणां स्वरसेन पुनर्नवाकल्कपादसंप्रयुक्तेन सर्पिषः साधयेदाढकम्, अतः परं विदारीस्वरसेन जीवन्तीकल्कसंप्रयुक्तेन, अतः परं चतुर्गुणेन पयसा बलातिबलाकषायेण शतावरीकल्कसंप्रयुक्तेन; अनेन क्रमेणैकैकं शतपाकं सहस्रपाकं वा शर्कराक्षौद्रचतुर्भागसंयुक्तं सौवर्णे राजते मार्तिके वा शुचौ दृढे घृतभाविते कुम्भे स्थापयेत्; तद्यथोक्तेन विधिना यथाझि प्रातः प्रातः प्रयोजयेत्, जीर्णे च क्षीरसर्पिर्भ्याशालिषष्टिकमश्रीयात्; अस्य त्रिवर्षप्रयोगाद्वर्षशतं वयोऽजरं तिष्ठति, श्रुतमवतिष्ठते,सर्वामयाः प्रशाम्यन्ति, अप्रतिहतगतिः स्त्रीषु, अपत्यवान् भवति ४
भवतश्चात्र।
बृहच्छरीरं गिरिसारसारं स्थिरेन्द्रियं चातिबलेन्द्रियं च ।
अधृष्यमन्यैरतिकान्तरूपं प्रशस्तपूजासुखचित्तभाक्च ॥ ५ ॥
बलं महद्वर्णविशुद्धिरम्या स्वरो धनौघस्तनितानुकारी ।
भवत्यपत्यं विपुलं स्थिरं च समश्रुतो योगमिमं नरस्य ॥ ६ ॥
इत्यामलकघृतम् ।
आमलकसहस्रं पिप्पलीसहस्त्रसंप्रयुक्तं पलाशतरुभस्मनः1369क्षारोदकोत्तरं तिष्ठेत् तदनुगतक्षारोदक1370 मनातपशुष्कमनस्थि चूर्णीकृतं चतुर्गुणाभ्यां मधुसर्पियि संनीय शर्कराचूर्णचतुर्भागसंप्रयुक्तं घृतभाजनस्थं षण्मासान् स्थापयेदन्तर्भूमेः तस्योत्तरकालमग्निबलसमां मात्रां खादेत्, पौर्वाहिकः प्रयोगः, नापरांह्निकः; सात्म्यै1371पथ्यश्चाहारविधिः, अस्य प्रयोगाद्वर्षशतमजरं वयस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥ ७ ॥
इत्यामलकावलेहः।
आमलकचूर्णाढकमेकविंशतिरात्र मामलक(सहस्र1372) स्वर सपरिपीतंमधुघृताढकाभ्यां द्वाभ्यामेकीकृतमष्टभागपिप्पलीकं शर्कराचूर्णचतुर्भागसंप्रयुक्तं घृतभाजनस्थं प्रावृषि भस्मराशौ निदध्यात्, तद्वर्षान्ते सात्म्यैप1373थ्याशी प्रयोजयेत् अस्य प्रयोगाद्वर्षशतमजरमायुस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥ ८ ॥
इत्यामलकचूर्ण।1374
विडङ्गतण्डुलचूर्णानामाढकमाढकं पिप्पलीतण्डुलानामध्यर्धाढकं सितोपलायाः सर्पिस्तैलमध्वाढकैः षड्भिरेकीकृतं घृतभाजनस्थं प्रावृषि भस्मराशाविति सर्व समानं पूर्वेण ( यावदाशीः ) ॥ ९ ॥
इति विडङ्गावलेहः ।
यथोक्तगुणानामामलकानां सहस्रमार्द्रपलाशद्रोण्यां सपिधानायां बाष्पमनुद्वमन्त्यामारण्यगोमयानिभिरुपस्वेदयेत्, तानि मुस्विन्नशीतायुदधतकुलकाम्यापोथ्याढकेन पिप्पलीचूर्णानामाढकेन व विडङ्गतण्डुलचूर्णानामध्यर्धेन चाढकेन शर्करा1375चूर्णानां द्वाभ्यां हाभ्यामाढकाभ्यां तैलस्य मधुनः सर्पिषश्च संयोज्य शुचौ दृढे [तभाविते कुम्भे स्थायेदेकविंशतिरात्रम्, अत ऊर्ध्वं प्रयोगः अस्यप्रयोगाद्वर्षशतमजरं वयस्तिष्ठतीति समं पूर्वेण ॥ १० ॥
इत्यामलकावलेहोऽपर।
धन्वनि कुशास्तीर्णे स्निग्धकृष्णमधुरमृत्तिके सुवर्णवर्णमृत्तिके व्यपगतविषश्वापदपवनसलिलामिदोषे कर्षणवल्मीकश्मशानत्योषरावसथवर्जिते देशे यथर्तुसुखपवन सलिलादित्यसेविते जाती1376 मनुपहतान्यनध्यारूढान्यबालान्यजीर्णान्यधि(वि) गतवीर्याणि शीतान्यपर्णानि1377 तपसि तपस्ये वा मासे शुचिः यतः कृतदेवार्चनः स्वस्ति वाचयित्वा द्विजातीन सुमुहूर्ते नागलामूलान्युद्धरेत् ,तेषां सुप्रक्षालितानां त्वपिण्डमाभ्रमात्रमक्षमान्नंवा लक्ष्णपिष्टमालोड्य पयसा प्रातः प्रयोजयेत्, चूर्णीकृतानि वा पिबेत् पयसा, मधुसर्पिय वा संयोज्य भक्षयेत्; जीर्णे च पयसा1378 ससर्पिष्कं शालिषष्टिकमनीयात्; संवत्सरप्रयोगादस्य वर्षशतमजरं वयस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥ ११ ॥
इति नागबलारसायनम्।
बलातिबलाचन्दनागुरुधवतिनिशखदिरशिंशपासनस्वरसाः, पुनर्नवान्तावौषधयो दश नागबलया1379व्याख्याताः; स्वरसानामलाभे त्वयं स्वरसविधिः—चूर्णानामाढकमाढकमुदकस्याहोरात्रस्थितं मृदितपूर्त स्वरसवत् प्रयोज्यम् ॥ १२ ॥
भल्लातकान्यनुपहतान्यनामयान्यापूर्णरसप्रमाणवीर्याणि पक्वजाम्बवप्रकाशानि शुचौ शुक्रे वा मासे संगृह्य यवपल्वे माषपल्वे वा निधापयेत्, तानि चतुर्मासस्थितानि सहसि सहस्ये वा मासे प्रयोक्तुमारभेत शीतस्निग्धमधुरोपस्कृतशरीरः । पूर्व दश भल्लातकान्यापोथ्याष्टगुणेनाम्भसा साधु साधयेत् तेषां रसमष्टभागावशिष्टं पूतं सपयस्कं पिबेत् सर्पिषाऽन्तर्मुखमभ्यज्य, तान्येकैक भलातकोत्कर्षापकर्षेण दश भल्लातकान्यात्रिंशतः प्रयोज्यानि, नातः परमुत्कर्षः;प्रयोगविधानेन सहस्रपैर1380 एव भल्लातकप्रयोगः; जीर्णे च सर्पिषापयसा शालिषष्टिकाशनमुपचारः, प्रयोगान्ते च द्विस्तावत् पयसैवोपचारः; तत्प्रयोगाद्वर्षशतमजरं वयस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥१३॥
इति भल्लातकक्षीरम् ।
भल्लातकानां जर्जरीकृतानां पिष्टस्वेदनं पूरयित्वा भूमावाकण्ठं निखातस्य स्नेहभावितस्य दृढस्योपरि कुम्भस्यारोप्योडुपेन पिधाय कृष्णमृत्तिकावलिप्तं गोमयानिभिरुपस्वेदयेत् तेषां यः स्वरसः कुम्भं प्रपद्येत तमष्टभागमधुसंप्रयुक्तं द्विगुणघृतमद्यत्; तत्प्रयोगाद्वर्षशतमजरं वयस्तिष्ठतीति समानं पूर्वेण ॥ १४ ॥
इति भल्लातकक्षौद्रम् ।
भल्लातकतैलपात्र सपयस्कं मधुकेन कल्केनाक्षमात्रेण शतपाकंकुर्यादिति समानं पूर्वेण ॥ १५ ॥
इति भल्लातकतैलम्।
एवं गुडभल्लातकं भल्लातकयूषो भल्लातकसर्पिर्भल्लातकपललं भल्लातकशक्तवो भल्लातकलवणं भल्लातकतर्पणमिति भल्लातकविधानमुक्तंम्॥ १६ ॥
इति भल्लातकविधिः।
भवन्ति चात्र।
भल्लातकानि तीक्ष्णानि पाकीन्यझिसमानि च।
भवन्त्यमृतकल्पानि प्रयुक्तानि यथाविधि ॥ १७ ॥
एते दशविधास्त्वेषां प्रयोगाः परिकीर्तिताः।
रोगप्रकृतिसात्म्यज्ञस्तान् प्रयोगान् प्रकल्पयेत् ॥ १८ ॥
कफजो न स रोगोऽस्ति न विबन्धोऽस्ति कश्चन ।
यं न भल्लातकं हन्याच्छीघ्रं मेधाग्निवर्धनम् ॥ १९ ॥
इति भल्लातकविधिः।
प्राणकामाः पुरा जीर्णाश्रयवनाद्या महर्षयः।
रसायनैः शिवैरेतैर्बभूवुरमितायुषः ॥ २० ॥
ज्ञानं1381 तपो ब्रह्मचर्यमध्यात्म्यं ध्यानमेव च।
दीर्घायुषो यथाकामं संभृत्य त्रिदिवं गताः ॥ २१ ॥
तस्मादायुःप्रकर्षार्थेप्राणकामैः सुखार्थिभिः।
रसायनविधिः सेव्यो विधिवत् सुसमाहितैः ॥ २२ ॥
तत्र श्लोकः।
रसायनानां संयोगाः सिद्धा भूतहितैषिणा।
निर्दिष्टाः प्राणकामीये सप्त1382चैव दशर्षिणा ॥ २३ ॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने प्राणकामीयो नाम रसायनपादो द्वितीयः।
———————
अथातः करप्रचितीयं रसायनपादं व्याख्यास्यामः॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
करप्रचितानां यथोक्तगुणानामामलकानामुद्धृतास्थ्नां शुष्कचूर्णितानां माघे फाल्गुने वा मासे त्रिःसप्तकृत्वः स्वरसपरिपीतानां पुनः शुष्कचूर्णीकृतानामाढकमेकं ग्राहयेत्;अथ जीवनीयानां बृंहणीयानां स्तन्यजनानां शुक्रवर्धनानां वयःस्थापनानां षड्1383विरेचनशतीयोक्तानामौषधगणानां चन्द्रनागुरुधवतिनिसखदिरशिशपासनसाराणां च खण्डशः कृत्तीना1384मभयाबिभीतकपिप्पली वचाचव्यचित्रकविडङ्गानां च समस्तानामाढकमेकंदशगुणेनाम्भसासाधयेत् तस्मिन्नाढकावशेषे रसे सुपूते तान्यामलकचूर्णानिदवा गोमयाग्निभिवंशविदलशरतेजनानिभिवाँ साधयेद्यावदपनयाद्रसस्य,तमनुपदग्धमुपहत्यायसीषु पात्रीष्वास्तीर्य शोषयेत्,सुशुष्कं कृष्णाजिनस्योपरि दृषदि लक्ष्णपिष्टमयः स्थाल्यां निधापयेत् सम्यक् तचूर्णमय चूणष्टभागसंप्रयुक्तं मधुसर्पियमग्निबलमभिसमीक्ष्य प्रयोजयेदिति॥३॥
भवन्ति चात्र।
एतद्रसायनं पूर्व वसिष्ठः कश्यपोऽङ्गिराः।
जमदग्निर्भरद्वाजो भृगुरम्ये च तद्विधाः ॥ ४ ॥
प्रयुज्य प्रयता मुक्ताः श्रमव्याधिजराभयात्।
यावच्छंस्त पस्ते पुस्तष्प्रभावान्महाबलाः ॥ ५ ॥
तपसा ब्रह्मचर्येण ध्यानेन प्रशमेन च।
रसायनविधानेन कालयुक्तेन चायुषा ॥ ६ ॥
स्थिता महर्षयः पूर्व, न हि किंचिद्रसायनम्।
ग्राम्याणामन्यकार्याणां सिध्यत्यप्रयतात्मनाम् ॥ ७ ॥
इदं रसायनं चक्रे ब्रह्मा वार्षसहस्त्रिकम्।
भल्लातकतैलपात्रं सपयस्कं मधुकेन कल्केनाक्षमात्रेण शतपाकं कुर्यादिति समानं पूर्वेण ॥ १५ ॥
इति भल्लातकतैलम्।
एवं गुडभल्लातकं भल्लातकयूषो भल्लातकसर्पिर्भल्लातकपललं पल्लातकशक्तवो भल्लातकलवणं भल्लातकतर्पणमिति भल्लातकविधामुकम् ॥ १६ ॥
इति भल्लातकविधिः।
भवन्ति चात्र।
भल्लातकानि तीक्ष्णानि पाकीन्यनिसमानि च।
भवन्त्यमृतकल्पानि प्रयुक्तानि यथाविधि ॥ १७ ॥
एते दशविधास्त्वेषां प्रयोगाः परिकीर्तिताः।
रोगप्रकृतिसात्म्यज्ञस्तानू प्रयोगान् प्रकल्पयेत् ॥ १८ ॥
कफजो न स रोगोऽस्ति न विबन्धोऽस्ति कश्चन।
यं न भल्लातकं हन्याच्छीघ्रं मेधान्निवर्धनम् ॥ १९ ॥
इति भल्लातकविधिः।
प्राणकामाः पुरा जीर्णाश्रयवनाद्या महर्षयः ।
रसायनैः शिवैरेतैर्बभूवुरमितायुषः ॥ २० ॥
ज्ञानं1385 तपो ब्रह्मचर्यमध्यात्म्यं ध्यानमेव च।
दीर्घायुषो यथाकामं संभृत्य त्रिदिवं गताः ॥ २१ ॥
तस्मादायुः प्रकर्षार्थेप्राणकामैः सुखार्थिभिः।
रसायनविधिः सेव्यो विधिवत् सुसमाहितैः ॥ २२ ॥
तत्र श्लोकः।
रसायनानां संयोगाः सिद्धा भूतहितैषिणा ।
निर्दिष्टाः प्राणकामीये सप्तं चैव दशर्षिणा ॥ २३ ॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने प्राणका-
मीयो नाम रसायनपादो द्वितीयः।
——————
अथातः करप्रचितीयं रसायनपादं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
करप्रचितानां यथोक्तगुणानामामलकानामुद्धृतास्थ्नां शुष्कचूर्णितानां माघे फाल्गुने वा मासे त्रिःससकृत्वः स्वरसपरिपीतानां पुनः शुष्कचूर्णीकृतानामाढकमेकं ग्राहयेत्; अथ जीवनीयानां बृंहणीयानां स्तन्यजनानां शुक्रवर्धनानां वयःस्थापनानां षड1386विरेचनशतीयोक्तानामौषधगणानां चन्दनागुरुधवति निसखदिरशिंशपासनसाराणां च खण्डशः कृत्ता1387नामभयाबिभीतकपिप्पलीवचाचव्यचित्रकविडङ्गानां च समस्तानामाढकमेकं दशगुणेनाम्भसा साधयेत्, तस्मिन्नाढकावशेषे रसे सुपूते तान्यामलकचूर्णानि दत्वा गोमयानिभिवंशविदलशरतेजनानिभिर्वा साधयेद्यावदपन याद्रसस्य, तमनुपदग्धमुपहृत्यायसीषु पात्रीष्वास्तीर्य शोषयेत्,सुशुष्कं कृष्णाजिनस्योपरि इषदि लक्ष्णपिष्टमयः स्थाल्यां निधापयेत् सम्यक्, तच्चूर्णमयचूर्णाष्टभागसंप्रयुक्तं मधुसर्पिमझिबलमभिसमीक्ष्य प्रयोजयेदिति ॥ ३ ॥
भवन्ति चात्र।
एतद्रसायनं पूर्व वसिष्ठः कश्यपोऽङ्गिराः।
जमदग्निर्भरद्वाजो भृगुरन्ये च तद्विधाः ॥ ४ ॥
प्रयुज्य प्रयता मुक्ताः श्रमव्याधिजराभयात्।
यावच्छंस्तपस्तेपुस्ताप्रभावान्महाबलाः ॥ ५ ॥
तपसा ब्रह्मचर्येण ध्यानेन प्रशमेन च।
रसायनविधानेन कालयुक्तेन चायुषा ॥ ६ ॥
स्थिता महर्षयः पूर्व, न हि किंचिद्रसायनम्।
ग्राम्याणामन्यकार्याणां सिध्यत्यप्रयतात्मनाम् ॥ ७ ॥
इदं रसायनं चक्रे ब्रह्मा वार्षसहस्त्रिकम्।
जराव्याधिप्रशमनं बुद्धीन्द्रियबलप्रदम् ॥ ८ ॥
इत्यामलकायसं ब्राह्मरसायनम्।
संवत्सरं पयोवृत्तिर्गवां मध्ये वसेत् सदा।
सावित्रीं मनसा ध्यायन् ब्रह्मचारी जि (य) तेन्द्रियः ॥ ९ ॥
संवत्सरान्ते पौेषींवा माघीं वा फाल्गुन तिथिम्।
ज्यहोपवासी शुद्धश्च1388 प्रविश्यामलकीवनम् ॥ १० ॥
बृहत्फलाढ्यमारुह्य द्रुमं शाखागतं फलम्।
गृहीत्वा पाणिना तिष्ठेज्जपन् ब्रह्मामृतागमात् ॥ ११ ॥
तदा ह्यवश्यममृतं वसत्यामलके क्षणम्।
शर्करामधुकल्पानि स्नेहवन्ति मृदूनि च ॥ १२ ॥
भवन्त्यमृत संयोगात्तानि यावन्ति भक्षयेत्।
जीवे वर्षसहस्राणि तावन्त्यागतयौवनः ॥ १३ ॥
सौहित्यमेषां गत्वा तु भवत्यमरसन्निभः ।
स्वयं चास्योपतिष्ठन्ते श्रीर्वेदा वाक् च रूपिणी ॥ १४ ॥
इति केवलामलकरसायनम्।
त्रिफलाया रसे मूत्रे गवां क्षारे च लावणे ।
क्रमेण चेङ्गुदीक्षारे किंशुकक्षार एव च ॥ १५ ॥
तीक्ष्णायसस्य पत्राणि वह्निवर्णानि वापयेत्।
चतुरङ्गुलदीर्घाणि तिलोत्सेधसमानि1389 च ॥ १६ ॥
ज्ञात्वा तान्यञ्जनाभानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्।
तानि चूर्णानि मधुना रसेनामलकस्य च ॥ १७ ॥
युक्तानि लेहवत् कुम्भे स्थितानि घृतभाविते।
संवत्सरं निधेयानि यवपल्ले तदेवं1390 च ॥ १८ ॥
दद्यादालोडनं मासे सर्वनालोडयन बुधः ।
संवत्सरात्यये तस्य प्रयोगो मधुसर्पिषा ॥ १९ ॥
प्रातः प्रातर्बलापेक्षी सात्म्यं जीर्णे च भोजनम्।
एष एव च लोहानां प्रयोगः संप्रकीर्तितः ॥ २० ॥
( अनेनैव विधानेन हेनश्च रजतस्य च। )
आयुःप्रकर्षकृत् सिद्धः प्रयोगः सर्वरोगनुत् ॥ २१ ॥
नाभिघातैर्न चातकैर्जरया न च मृत्युना।
स धृष्यः स्याद्दुजप्राणः सदा चातिबलेन्द्रियः ॥ २२ ॥
धीेमान् यशस्वी वाक्सिद्धः श्रुतधारी महाबल1391।
भवेत् समां प्रयुञ्जानो नरो लोहरसायनम् ॥ २३ ॥
इति लोहरसायनम्।
ऐन्द्री मत्स्याक्षको ब्राह्मी वचा ब्रह्मसुवर्चला।
पिप्पल्यो लवणं हेम शङ्खपुष्पी विषं घृतम् ॥ २४ ॥
एषां त्रियवकान् भागान् हेमसर्पिर्विषैर्विना।
द्वौ यवौ तत्र हेम्नस्तु तिलं दद्याद्विषस्य च ॥ २५ ॥
सर्पिषश्च पलं दद्यात्तदैकध्यं प्रयोजयेत्।
घृतप्रभूतं सक्षौद्रं जीर्णे चानं प्रशस्यते ॥ २६ ॥
जराव्याधिप्रशमनं स्मृतिमेधाकरं परम् ।
आयुष्यं पौष्टिकं बल्यं स्वरवर्णप्रसादनम् ॥ २७ ॥
परमोजस्करं चैतत्सिद्धमैन्द्रं रसायनम्।
नैनत् प्रसहते कृत्या नालक्ष्मीर्न विषं न रुक् ॥ २८ ॥
श्वित्रं सकुष्ठं जठराणि गुल्माः प्लीहा पुराणो विषमज्वरश्च।
मेधास्मृतिज्ञानहराश्च रोगाः शाम्यम्त्यनेनातिबलाश्च वाताः ॥२९॥
इत्यैन्द्रं रसायनम् ।
मण्डूकपर्ण्याः स्वरसः प्रयोज्यः क्षीरेण यष्टीमधुकस्य चूर्णम्।
रसो गुडूच्यास्तु समूलपुष्प्याः कल्कः प्रयोज्यः खलु शङ्खपुष्याः ३०
आयुः प्रदान्या मयनाशनानि बलाभिवर्णस्वरवर्धनानि।
मेध्यानि चैतानि रसायनानि मेध्या विशेषेण च शङ्खपुष्पी ॥ ३१ ॥
इति मेध्यरसायनानि1392।
पञ्चाष्टौ सप्त दश1393 वा पिप्पलीमधुसर्पिषा।
रसायनगुणान्वेषी समामेकां प्रयोजयेत् ॥ ३२ ॥
तिस्त्रस्तिस्वस्तु पूर्वाह्ने भुक्त्वाऽग्रे भोजनस्य च।
पिप्पल्यः किंशुकक्षारभाविता घृतभर्जिताः ॥ ३३ ॥
प्रयोज्या मधुसर्पियो1394 रसायनगुणैषिणा ।
जेतुं कासं क्षयं शोषं श्वासं हिक्कां गलामयान् ॥ ३४ ॥
अर्शांसिग्रहणीदोषं पाण्डुतां विषमज्वरम्।
वैस्वर्य पीनसं शोफं गुल्मं वातबलासकम् ॥ ३५ ॥
इति पिप्पलीरसायनद्वयम्।
क्रमवृद्ध्या दशाहानि दशपैप्पलि1395कं दिनम्।
वर्धयेत् पयसा सार्धं तथा चापनयेत् पुनः ॥ ३६ ॥
जीर्णे जीर्णे च भुञ्जीत षष्टिकं क्षीरसर्पिषा ।
पिप्पलीनां सहस्रस्य प्रयोगोऽयं रसायनम् ॥ ३७ ॥
पिष्टास्ता बलिभिः सेव्याः शृता मध्यबलैर्नरैः।
शीती1396कृताहस्वबलैर्योज्या दोषामयान् प्रति ॥ ३८ ॥
दशपैप्पलिकः श्रेष्ठो मध्यसः षट् प्रकीर्तितः।
प्रयोगो यस्त्रिपर्यन्तः स कनीयान् स चाबलैः ॥ ३९ ॥
बृंहणं स्वर्यमायुष्यं प्लीहोदरविनाशनम्।
वयसः स्थापनं मेध्यं पिप्पलीनां रसायनम् ॥ ४० ॥
इति वर्धमानं पिप्पलीरसायनम्।
जरणान्तेऽभयामेकां प्राग्भुक्ताद्1397 द्वे बिभीतके ।
भुक्त्वा तु सधुसर्पियि चत्वार्यामलकानि च ॥ ४१ ॥
प्रयोजयन् समामेकां त्रिफलाया रसायनम्।
जीवेद्वर्षशतं पूर्णमजरोऽव्याधिरेव च ॥ ४२ ॥
इति त्रिफलारसायनम्।
त्रैफलेनायसीं पात्रीं कल्केनालेपयेन्नवाम्।
तमाहोरात्रिकं लेपं पिबेत् क्षौद्रोदकाम् ॥ ४३ ॥
प्रभूतस्त्रेहमशनं जीर्णे तन्त्र प्रशस्यते।
अजरोऽरुक् समाभ्यासाजीवेञ्चैव समाः शतम् ॥ ४४ ॥
इति त्रिफलारसायनमपरम्।1398
मधुकेन तुगाक्षीर्या पिप्पल्या क्षौद्रसर्पिषा।
त्रिफला सितया चापि युक्ता सिद्धं रसायनम् ॥ ४५ ॥
इति त्रिफलारसायनमपरम्1398।
सर्वलोहैः सुवर्णेन वचया मधुसर्पिषा।
विडङ्गपिप्पलीभ्यां च त्रिफला लवणेन च ॥ ४६ ॥
संवत्सरप्रयोगेण मेधास्मृतिबलप्रदा।
भवत्यायुष्प्रदा धन्या जरारोगनिबर्हणी ॥ ४७ ॥
इति त्रिफलारसायनमपरम्1399।
अनम्लं च कषायं च कटु पाके शिलाजतु।
नात्युष्णशीतं धातुभ्यश्चतुर्भ्यस्तस्य संभवः ॥ ४८ ॥
हेन्नश्च रजतात्तात्राहरं1400 कृष्णायसादपि।
रसायनं तद्विधिभिस्तद्वृष्यं तच्च रोगनुत् ॥ ४९ ॥
वातपित्तकफघ्नैस्तुनिर्यूहैतत् सुभावितम्।
वीर्योत्कर्षंपरं याति सर्वेरेकैकशोऽपि वा ॥ ५० ॥
प्रक्षिप्यो1401द्धृतमप्येनत् पुनस्तत् प्रक्षिपेनसे।
कोष्णे सप्ताहमेतेन विधिना तस्य भावना ॥ ५१ ॥
पूर्वोक्तेन विधानेन लोहैश्वर्णीकृतैः सह।
तत् पीतं पयसा दद्याद्दीर्घमायुः सुखान्वितम् ॥ ५२ ॥
जराव्याधिप्रशमनं देहदायंकरं परम्।
मेधास्मृतिकरं बल्यं1402 क्षीराशी तत् प्रयोजयेत् ॥ ५३ ॥
प्रयोगः सप्तसप्ताहास्त्रयश्चैकश्च सप्तकः।
निर्दिष्टविविधस्तस्य परो मध्योऽवरस्तथा ॥ ५४ ॥
पलमर्धपलं कर्षो मात्रा तस्य त्रिधा मता।
जातेर्विशेषं सविधिं तस्य वक्ष्याम्यतः परम् ॥ ५५ ॥
हेमाद्याः1403 सूर्यसन्तप्ताः स्रवन्ति गिरिधातवः ।
जत्वाभं मृदु मृत्स्त्राच्छं यन्मलं तच्छिलाजतु ॥ ५६ ॥
मधुरश्च सतिक्तश्च जपापुष्पनिभश्च यः।
कटुर्विपाके शीतश्च स सुवर्णस्य निःस्नवः ॥ ५७ ॥
रूप्यस्य कटुकः श्वेतः शीतः स्वादु विपच्यते।
ताम्रस्य बर्हिकण्ठाभस्तितोष्णः कटु पच्यते ॥ ५८ ॥
यस्तु गुग्गुलुकाभासस्तिक्तको लवणान्वितः।
कटुर्विपाके शीतश्च सर्वश्रेष्ठः स चायसः ॥ ५९ ॥
गोमूत्रगन्धयः सर्वे सर्वकर्मसु यौगिकाः।
रसायनप्रयोगेषु पश्चिमस्तु विशिष्यते ॥ ६० ॥
यथाक्रमं वातपित्ते श्लेष्मपित्ते कफे त्रिषु।
विशेषतः प्रशस्यन्ते मला हेमादिधातुजाः ॥ ६१ ॥
शिलाजतुप्रयोगेषु विदाहीनि गुरूणि च।
वर्जयेत् सर्वकालं तु कुलत्थान्1404 परिवर्जयेत् ॥ ६२ ॥
ते ह्यत्यन्तविरुद्धत्वादश्मनो भेदनाः परम्।
लोके दृष्टास्ततस्तेषां प्रयोगः प्रतिषिध्यते ॥ ६३ ॥
यांसि शुक्तानि1405रसाः सयूषास्तोयं समूत्रं विविधाः कषायाः।
आलोडनार्थ गिरिजस्य शस्तास्ते ते प्रयोज्याः प्रसमीक्ष्य कार्यम् ॥
न सोऽस्ति रोगो भुवि साध्यरूपः शिलाह्वयं यं न जयेत् प्रसह्य।
तस्कालयोगैर्विधिभिः प्रयुक्तं स्वस्थस्य चोर्जी विपुलां ददाति ॥६५॥
इति शिलाजतुरसायनम् ।
तत्र श्लोकः।
करप्रचितिके पादेदश षट् च महर्षिणा \।
रसायनानां सिद्धानां संयोगाः समुदाहृताः ॥ ६६ ॥
इत्यभिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रति संस्कृते चिकित्सास्थाने करप्रचितीयो नाम रसायनपादस्तृतीयः ।
———————
अथात आयुर्वेदसमुत्थानीयं रसायनपादं व्याख्यास्यामः १
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
ऋषयः खलु कदाचिच्छालीना यायावराश्च1406 प्राम्यौषध्याहाराः सन्तः सांपनिका मन्दचेष्टा नातिकल्याणाश्च प्रायेण बभूवुः; ते सर्वासामितिकर्तव्यता नामसमर्थाः सन्तो ग्राम्यवासकृतमात्मदोषं मत्वापूर्वनिवासमपगतग्राम्यदोषं शिवं पुण्यमुदारं मेध्यमगम्यमसुकृतिभिर्गङ्गाप्रभवममरगन्धर्व यक्षकिन्नरानुचरितमनेकरत्न निचयमचिन्त्याद्भुतप्रभावं ब्रह्मर्षिसिद्धचारणानुचरितं दिव्यतीर्थोषश्चिप्र भवमतिशरण्यं हिमवन्तममराधिपाभिगुप्तं जग्मुर्भृग्वङ्गिरोत्रिव शिष्ठकश्यपागस्त्य पुलस्त्यवामदेवासितगौतमप्रभृतयो महर्षयः ॥ ३ ॥
तानिन्द्रः सहस्रदृगमरगुरुरब्रवीत्—स्वागतं ब्रह्मविदां ज्ञानतपोधनानां ब्रह्मर्षीणाम्; अस्ति ननु वो ग्लानिरप्रभावत्वं वैस्वर्य वैवर्ण्य च ग्राम्यवासकृतमसुखमसुखानुबन्धं च, ग्राम्यो हि वासो मूलमशस्तानां तत्कृतः पुण्यकृद्भिरनुग्रहः प्रजानां स्वशरीरमरक्षिभिः1407, कालश्चायमायुर्वेदोपदेशस्य ब्रह्मर्षीणाम्; आत्मनः प्रजानांनुग्रहार्थमायुर्वेदमश्विनौ मह्यं प्रायच्छतां, प्रजापतिरश्विभ्यां,जापतये ब्रह्मा, प्रजानामल्पमायुर्जराव्याधिबहुलमसुखमसुखानुन्धमरूपत्वादल्पतपोदमनियमदानाध्ययनसंचयं मत्वा पुण्यतम॥युःप्रकर्षकरं जराव्याधिप्रशमनमूर्जस्करममृतं शिवं शरण्यमुदारं तः श्रोतुमर्हथोपधारयितुं प्रकाशयितुं च प्रजानुग्रहार्थमार्ष ब्रह्म।प्रति मैत्रीं कारुण्यमात्मनश्चानुत्तमं पुण्यमुदारं ब्राह्ममक्षयंमेति ॥ ४ ॥
तच्छ्रुत्वा विबुधपतिवचनमृषयः सर्व एवामरवरमृग्भिस्तुष्टुवुः हृष्टाश्च तद्वचनमभिननन्दुश्चेति ॥ ५॥
अथेन्द्र स्तदायुर्वेदमृतमृषिभ्यः संक्रम्योवाच—एतत् सर्वमनुष्ठे अयं च शिवः कालो रसायनानां, दिव्याश्चौषधयो हिमवतः भवाः प्राप्तवीर्याः; तद्यथा—ऐन्द्री ब्राह्मी पयस्या क्षीरपुष्पी श्रावणी हाश्रावणी शतावरी विदारी जीवन्ती पुनर्नवा नागबला स्थिरा वा छन्त्राऽतिच्छन्ना मेदा महामेदा जीवनीयाश्चान्याः पयसा होपयुक्ताः षण्मासात् परं परमायुर्वयश्च तरुणमनामयत्वं स्वरव संपदमुपचयं मेधां स्मृतिमुत्तमबलमिष्टांश्चापरानू भावानावहन्तिद्धाः॥६॥
इतीन्द्रोक्तं रसायनम् ।
ब्रह्मसुवर्चलानामौषधिर्या हिरण्यक्षीरा पुष्करसदृशपत्रा, आदिपर्णी नामौषधिर्या सूर्यकान्तेति विज्ञायते सुवर्णवर्णक्षीरा सूर्ण्डलाकारपुष्पा च, नारी नामौषधिरश्वबलेति विज्ञायते या वजसदृशपत्रा, काष्ठगोधा नामौषधिर्गोधाकारा, सर्पा नामौघेः सर्पाकारा, सोमो नामौषधिराजः पञ्चदशपर्णः1408 स सोम इव यते वर्धते च, पद्मा नामौषधिः पद्माकारा पद्मरक्ता पद्मगन्धा, अजा नामौषधिरजशृङ्गीति विज्ञायते, नीला नामौषधिस्तु\।लक्षीरा नीलपुष्पा लताप्रतानबहुलेति; आसामष्टानामौषधीनां
______________________________________________________________________
१ ‘प्रभावात् ’ यो । २ पुनरजसदृशपत्रा’ यो ।
यां यामेवोपलभेत तस्यास्तस्याः स्वरसस्य सौहित्यं गत्वा स्नेहभावितायामार्द्रपलाशगोण्यां सपिधानायां दिग्वासाः1409 शयीत, तत्र प्रलीयते, षण्मासेन पुनः संभवति, तस्याजं पयः प्रत्यवस्थापनं1410,घण्मासेन देवतानुकारी भवति वयोवर्णस्वराकृतिबलप्रभाभिः, स्वयं चास्य सर्ववाचोगतानि प्रादुर्भवन्ति, दिव्यं चास्य चक्षुः श्रोत्रं च भवति, गतिर्योजनसहस्रं, दशवर्षसहस्राण्यायुरनुपद्रवं चेति ॥७॥
इति द्रोणीप्रावेशिकरसायनम्।
भवन्ति चात्र।
दिव्यानामौषधीनां यः प्रभावः स भवद्विधैः।
शक्यः सोढुमशक्यस्तु स्यात् सोढुमकृतात्मभिः ॥ ८ ॥
ओषधीनां प्रभावेण तिष्ठतां स्वे च कर्मणि।
भवतां निखिलं श्रेयः सर्वमेवोपपत्स्यते ॥ ९॥
वानप्रस्थैर्गृहस्थैश्च प्रयतैर्नियतात्मभिः।
शक्या ओषधयो ह्येताः सेवितुं विषयाभिजाः1411 ॥ १० ॥
यास्तु क्षेत्रगुणैस्तेषां मध्यमेन च कर्मणा।
मृदुवीर्यंतरास्तासां विधिज्ञेयः स एव तु ॥ ११ ॥
पर्येष्टुं ताः प्रयोक्तुं वा येऽसमर्थाः सुखार्थिनः।
रसायनविधिस्तेषामयमन्यः प्रशस्यते ॥ १२ ॥
बल्यानां जीवनीयानां बृंहणीयाश्च या दश।
वयसः स्थापनानां च खदिरस्यासनस्य च ॥ १३ ॥
खर्जूराणां मधूकानां मुस्तानामुत्पलस्य च।
मृट्ठीकानां विडङ्गानां वचायश्चित्रकस्य च ॥ १४ ॥
शतावर्याः पयस्यायाः पिप्पल्या जोङ्गकस्य च।
ऋच्या नागबलायाश्च हरिद्वाया धवस्य च ॥ १५ ॥
त्रिफलाकण्टकार्योश्च विदार्याश्चन्दनस्य च।
इक्षूणां शरमूलानां श्रीपस्तिनिशस्य च ॥ १६ ॥
रसाः पृथक् पृथग्ग्राह्याः पलाशक्षार एव च।
एषां पलोन्मितान् भागान् पयो गव्यं चतुर्गुणम् ॥ १७ ॥
द्वे पात्रे तिलतैलस्य द्वे च गव्यस्य सर्पिषः।
तत् साध्यं सर्वमेकत्र सुसिद्धं स्नेहमुद्धरेत् ॥ १८ ॥
तन्नामलकचूर्णानामाढकं शतभावितम्।
स्वरसेनैव दातव्यं क्षौद्रस्याभिनवस्य च ॥ १९ ॥
शर्कराचूर्णपात्रं च प्रस्थमेकं प्रदापयेत्।
तुगाक्षीर्याः सपिप्पल्याः स्थाप्यं संमूर्च्छितं च तत् ॥ २० ॥
सुचौक्षे मार्तिके कुम्भे मासाधं घृतभाविते।
मात्रामभिसमां तस्य तत ऊर्ध्वं प्रयोजयेत् ॥ २१ ॥
हेमताम्रप्रवालानामयसः स्फटिकस्य च।
मुक्तावैदूर्यशङ्खानां चूर्णानां रजतस्य च ॥ २२ ॥
प्रक्षिप्य षोडशीं मात्रां विहायायासमैथुनम्।
जीर्णे जीर्णे च भुञ्जीत षष्टिकं क्षीरसर्पिषा ॥ २३ ॥
सर्वरोगप्रशमनं वृष्यमायुष्यमुत्तमम्।
सत्वस्मृतिशरीराभिबुद्धीन्द्रियबलप्रदम् ॥ २४ ॥
परमूर्जस्करं चैव वर्णस्वरकरं तथा।
विषालक्ष्मीप्रशमनं सर्ववांचोगतप्रदम् ॥ २५ ॥
सिद्धार्थतां चाभिनवं वयश्च प्रजाप्रियत्वं च यशश्च लोके।
प्रयोज्यमिच्छद्भिरिदं यथावदसायनं ब्राह्ममुदारवीर्यम् २६
इतीन्द्रोक्तरसायनमपरम्।
समर्थानामरोगाणां धीमतां नियतात्मनाम् ।
कुढीप्रवेशः क्षमिणां परिच्छदवतां हितः ॥ २७ ॥
अतोऽन्यथा तु ये तेषां सौर्यमारुतिको विधिः।
तयोः श्रेष्ठतरः पूर्वो विधिः स तु सुदुष्करः ॥ २८ ॥
रसायनविधिभ्रंशाजायेरन् व्याधयो यदि।
यथास्त्रमौषधं तेषां कार्य मुक्त्वा रसायनम् ॥ २९ ॥
सत्यवादिनमक्रोधं निवृत्तं मयमैथुनात्।
अहिंसकमनायासंप्रशान्तं प्रियवादिनम् ॥ ३०॥
जपशौचपरं धीरं दाननित्यं तपस्विनम्।
देवगोब्राह्मणाचार्यगुरुवृद्धार्चने रतम् ॥ ३१ ॥
आनृशंस्यपरं नित्यं नित्यं करुणवे1412दिनम्।
समजागरणस्वप्नं नित्यं क्षीरघृताशिनम् ॥ ३२ ॥
देशकालप्रमाणज्ञं युक्तिज्ञमनहङ्कृतम्।
शस्ताचारमसंकीर्णमध्यात्मप्रवणेन्द्रियम् ॥ ३३ ॥
उपासितारं वृद्धानामास्तिकानां जितात्मनाम्।
धर्मशास्त्रपरं विद्यान्नरं नित्यरसायनम् ॥ ३४ ॥
गुणैरेतैः समुदितैः प्रयुङ्क्तेयो रसायनम्।
रसायनगुणान् सर्वान् यथोक्तान् स समश्नुते॥ ३५ ॥
इत्याचाररसायनम्।
यथास्थूलमनिर्वाह्य दोषान्शारीरमानसान्।
रसायनगुणैर्जन्तुर्युज्यते न कदाचन ॥ ३६ ॥
योगा ह्यायुःप्रकर्षार्था जरारोगनिबर्हणाः।
मनःशरीरशुद्धानां सिध्यन्ति प्रयतात्मनाम् ॥ ३७ ॥
तदेतन्नभवेद्वाच्यं सर्वमेव हृतात्मसु।
अरजोभ्योऽद्विजातिभ्यः शुश्रूषा येषु नास्ति च1413 ॥ ३८ ॥
ये रसायनसंयोगा वृष्ययोगाश्च ये मताः।
यच्चौषधं विकाराणां सर्वं तद्वैद्यसंश्रयम् ॥ ३९ ॥
प्राणाचार्य बुधस्तस्माद्धीमतं वेदपारगम्।
अश्विनाविव देवेन्द्रः पूजयेदतिशतितः ॥ ४० ॥
अश्विनौ देवभिषजौ यज्ञवाहाविति स्मृतौ।
यज्ञस्य हि शिरश्छिन्नं पुनस्ताभ्यां समाहितम् ॥ ४१ ॥
प्रशीर्णा दशनाः पूष्णो नेत्रे नष्टे भगस्य च।
वज्रिणश्च भुजस्तम्भस्ताभ्यामेव चिकित्सितः ॥ ४२ ॥
चिकित्सितस्तु शीतांशुगृहीतो राजयक्ष्मणा।
सोमाभिपतितश्चन्द्रः कृतस्ताभ्यां पुनः सुखी ॥ ४३ ॥
भार्गवश्व्यवनः कामी वृद्धः सन् विकृतिं गतः।
वीतवर्णस्वरोपेतः कृतस्ताभ्यां पुनर्युवा ॥ ४४ ॥
एतैश्चान्यैश्च बहुभिः कर्मभिर्भिषगुत्तमौ।
बभूवतुर्भृशं पूज्याविन्द्रादीनां महात्मनाम् ॥ ४५ ॥
ग्रहाः1414 स्तोत्राणि मन्त्राश्च तथाऽन्यानि1415 हवींषि च।
धूमाञ्च पशवस्ताभ्यां प्रकल्प्यन्ते द्विजातिभिः ॥ ४६ ॥
प्रातश्च सवने सोमं शक्रोऽश्विभ्यां सहाश्नुते।
सौत्रामण्यां च भगवानश्विभ्यां सह मोदते ॥ ४७ ॥
इन्द्रानी चाश्विनौ चैव स्तूयन्ते प्रायशो द्विजैः।
स्तूयन्ते वेदवाक्येषु न तथाऽन्या हि देवताः ॥ ४८ ॥
अमरैरजरैस्तावद्विबुधैः साधिपैर्भुवः।
पूज्येते प्रयतैरेवमश्विनौ भिषजाविति ॥ ४९ ॥
मृत्युव्याधिजरावइयैर्दुःखप्रायैः सुखार्थिभिः।
किं पुनर्भिषजो मर्त्यैपूज्याः स्युर्नातिशक्तितः ॥ ५० ॥
शीलवान्मतिमान् युक्तस्त्रिजातिः1416 शास्त्रपारगः।
प्राणिभिर्गुरुवत् पूज्यः प्राणाचार्यः स हि स्मृतः ॥ ५१ ॥
विद्यासमाप्तौ भिषजस्तृतीया1417जातिरुच्यते।
अश्नुते वैद्यशब्दं हि न वैद्यः पूर्वजन्मना ॥ ५२ ॥
विद्यासमाप्तौ ब्राह्मं वा सत्त्वमार्षमथापि वा।
ध्रुवमाविशति ज्ञानात्तस्माद्वैद्यस्त्रिजैः1418 स्मृतः ॥ ५३ ॥
नाभिध्यायेन्नचाक्रोशेदहितं न समाचरेत्।
प्राणाचार्यं बुधः कश्चिदिच्छन्नायुरनित्वरम् ॥ ५४ ॥
चिकित्सितस्तु संश्रुत्य यो वाऽसंश्रुत्य मानवः।
नोपाकरोति वैद्याय नास्ति तस्येह निष्कृतिः ॥ ५५ ॥
भिषगण्यातुरान् सर्वान् स्वसुतानिव यत्नवान्।
आबाधेभ्यो हि संरक्षेदिच्छन् धर्ममनुत्तमम् ॥ ५६ ॥
धर्मार्थं चार्थ1419कामार्थमायुर्वेदो महर्षिभिः।
प्रकाशितो धर्मपरैरिच्छद्भिः स्थानमक्षरम् ॥ ५७ ॥
नाथर्थे नापि कामार्थमथ भूतदयां प्रति।
वर्तते यश्चिकित्सायां स सर्वमतिवर्तते ॥ ५८ ॥
कुर्वते ये तु वृत्त्यर्थं चिकित्सापण्यविक्रयम्।
ते हित्वा काञ्चनं राशिं पांशुराशिमुपासते ॥ ५९ ॥
दारुणैः कृष्यमाणानां गदैर्वैवस्वतक्षयम्।
छित्त्वा वैवस्वतान् पाशाञ्जीवितं यः प्रयच्छति ॥ ६० ॥
धर्मार्थदाता1420 सहशस्तस्य नेहोपलभ्यते।
न हि जीवितदानादि दानमन्यद्विशिष्यते ॥ ६१ ॥
परो भूतदया धर्म इति मत्वा चिकित्सया।
वर्तते यः स सिद्धार्थः सुखमत्यन्तमश्नुते ॥ ६२ ॥
तत्र श्लोको।
आयुर्वेदसमुत्थानं दिव्यौषधि विधिः शुभः।
अमृताल्पान्तरगुणं सिद्धं रखरसायनम् ॥ ६३ ॥
सिद्धेभ्यो ब्रह्मचारिभ्यो यदुवाचामरेश्वरः।
आयुर्वेदसमुत्थाने तत् सर्वं संप्रकाशितम् ॥ ६४ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने आयुर्वे-
दसमुत्थानीयो नाम रसायनपादश्चतुर्थः ॥ ४ ॥
समाप्तश्चायं प्रथमो रसायनाध्यायः ॥ १ ॥
——————
द्वितीयोऽध्यायः।
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प्रथमः पादः।
अथातः संप्रयोगशरमूलीयं वाजीकरणपादं
व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
वाजीकरणमन्विच्छेत् पुरुषो नित्यमात्मवान्।
तदायत्तौधर्मार्थोप्रीतिश्च यश एव च ॥ ३ ॥
पुत्रस्यायतनं ह्येतद्गुणाश्चैते सुताश्रयाः।
वाजीकरणमत्र्यं च क्षेत्र स्त्री या प्रहर्षिणी ॥ ४ ॥
इष्टा ह्येकैकशोऽप्यर्थाः परं प्रीतिकराः स्मृताः।
किं पुनः स्त्रीशरीरे ये सङ्घातेन व्यवस्थितः1421 ॥ ५ ॥
सङ्घातो हीन्द्रियार्थानां स्त्रीषु नान्यत्र विद्यते।
रूयाश्चयो हीन्द्रियार्थो यः स प्रीतिजननोऽधिकम् ॥ ६ ॥
स्त्रीषु प्रीतिर्विशेषेण स्त्रीष्वपत्यं प्रतिष्ठितम् ।
धर्मार्थौस्त्रीषु लक्ष्मीश्च स्त्रीषु लोकाः प्रतिष्ठिताः ॥ ७ ॥
सुरूपा यौवनस्था या लक्षणैर्या विभूषिता।
या वश्या शिक्षिता या च सा स्त्री वृष्यतमा मता ॥ ८ ॥
नानाभत्त्या तु लोकस्य दैवयोगाञ्च योषिताम्।
तं तं प्राप्य विवर्धन्ते1422 नरं रूपादयो गुणाः ॥ ९ ॥
वयोरूपवैचोहावैर्या601 यस्य परमाऽङ्गना।
प्रविशत्याशु हृदयं दैवाद्वा कर्मणोऽपि वा ॥ १० ॥
हृदयोत्सवभूता या या समानमनःशया।
समानसत्त्वा या वश्या या यस्य प्रीयते प्रियैः ॥ ११ ॥
या पाशभूता सर्वेषामिन्द्रियाणां परैर्गुणैः।
यया वियुक्तो निस्त्रीकमरतिर्मन्यते जगत् ॥ १२ ॥
यस्या ऋते शरीरं ना धत्ते शून्यमिवेन्द्रियैः।
शोकोद्वेगारतिभयैर्यंदृष्ट्वा नाभिभूयते ॥ १३ ॥
याति यां प्राप्य विस्त्रम्भं दृष्ट्वा हृष्यत्यतीव याम्।
अपूर्वामिव यां याति नित्यं हर्षातिवेगतः ॥ १४ ॥
गत्वा गत्वाऽपि बहुशो यां तृप्तिं नैव गच्छति।
सा स्त्री वृष्यतमा तस्य नानाभावा हि मानवाः ॥ १५ ॥
अतुल्यगोत्रां वृष्यां च प्रहृष्टां निरुपद्रवाम्।
शुद्धतां व्रजेन्नारीमपत्यार्थी निरामयः ॥ १६ ॥
अच्छायश्चैकशाखश्च निष्फलश्च यथा द्रुमः।
अनिष्टगन्धश्चैकश्च निरपत्यस्तथा नरः ॥ १७ ॥
चित्रदीपः सरः शुष्कमधातुर्धातुसन्निभः।
निष्प्रजस्तृणपूलीति ज्ञातव्यः1423 पुरुषाकृतिः ॥ १८ ॥
अप्रतिष्ठश्च नग्नश्च शून्यश्चैकेन्द्रियश्च ना।
मन्तव्यो निष्क्रियश्चैव यस्यापत्यं न विद्यते ॥ १९ ॥
बहुमूर्तिर्बहुमुखो बहुव्यूहो बहुक्रियः।
बहुचक्षुर्बहुज्ञानो बह्वात्मा च बहुप्रजः ॥ २० ॥
मङ्गल्योऽयं प्रशेस्तोऽयं1424 धन्योऽयं वीर्यवानयम्।
बहुशाखोऽयमिति च स्तूयते ना बहुप्रजः ॥ २१ ॥
प्रीतिर्बलं सुखं वृत्तिर्विस्तारो विपुलं1425 कुलम्।
यशो लोकाः सुखोदर्कास्तुष्टिश्चापत्यसंश्रित1426ा ॥ २२ ॥
तस्मादपत्यमन्विच्छन् गुणांश्चापत्यसंश्रितान्।
वाजीकरणनित्यः स्यादिच्छन् कामसुखानि च ॥ २३ ॥
उपभोगसुखान् सिद्धान् वीर्यापत्यविवर्धनान्।
वाजीकरणसंयोगान् प्रवक्ष्याम्यत उत्तरम् ॥ २४ ॥
शरमूले क्षुमूलानि काण्डेक्षुः सेक्षुबालिका।
शतावरी पयस्या च विदारी कण्टकारिका ॥ २५ ॥
जीवन्ती जीवको मेदा वीरा चर्षभको बला।
ऋद्धिर्गोक्षुरको रास्ना सात्मगुप्ता पुनर्नवा ॥ २६ ॥
एषांत्रिपलिकान् भागान् माषाणामाढकं नवम्।
विपाचयेज्जलद्रोणे चतुर्भागं च शेषयेत् ॥ २७ ॥
तत्र पेष्याणि मधुकं द्राक्षा फल्गुनि पिप्पली।
आत्मगुप्ता मधूकानि खर्जूरं च शतावरी ॥ २८ ॥
विदार्यामलकेक्षूणां रसस्य च पृथक् पृथक्।
सर्पिषश्चाढकं दद्यात् क्षीरद्रोणं च तद्भिषक् ॥ २९ ॥
साधयेद्धृतशेषं च सुपूतं योजयेत् पुनः।
शर्करायास्तुगाक्षीर्याचूर्णैः प्रस्थोन्मितैः पृथक् ॥ ३० ॥
पलैश्चतुर्भिर्मागध्याः पलेन मरिचस्य च।
स्वगेलाकेशराणां च चूर्णैरर्धपलोन्मितैः ॥ ३१ ॥
मधुनः कुडवाभ्यां च द्वाभ्यां तत् कारयेद्भिषक्।
पलिका गुडिकास्त्यानास्ता1427 यथाग्नि प्रयोजयेत् ॥ ३२ ॥
एष वृष्यः परं योगो बृंहणो बलवर्धनः।
अनेनाश्वइवोदीर्णो लिङ्गमर्पयते स्त्रियाम् ॥ ३३ ॥
इति बृंहणीगुडिका।
माषाणामात्मगुप्ताया बीजानामाढकं नवम्।
जीवकर्षभकौ वीरां मेदामृद्धिं शतावरीम् ॥ ३४ ॥
मधुकं चाश्वगन्धां च साधयेत् कुडवोन्मितम्।
रसे तस्मिन् घृतप्रस्थं गव्यं दशगुणं पयः ॥ ३५ ॥
विदारीणां रसप्रस्थं प्रस्थमिक्षुरसस्य च।
दत्त्वा मृद्रग्झिना साध्यं सिद्धं सर्पिर्निधापयेत् ॥ ३६ ॥
शर्करायास्तुगाक्षीर्याः क्षौद्रस्य च पृथक् पृथक्।
भागांश्चतुष्पलांस्तत्र पिप्पल्याश्चावपेत् पलम् ॥ ३७ ॥
पलं पूर्वमतो लीढ्वा ततोऽन्नमुपयोजयेत्।
य इच्छेदक्षयं शुक्रं शेफसश्चोत्तमं बलम् ॥ ३८ ॥
इति वाजीकरणघृतम्।
शर्करा माषविदलास्तुगाक्षीरी पयो घृतम्।
गोधूमचूर्णषष्ठानि सर्पिष्युत्कारिकां पचेत् ॥ ३९ ॥
तां नांतिपक्कां मृदितां कौक्कुटे मधुरे रसे।
सुगन्धे प्रक्षिपेदुष्णे यथा सान्द्रीभवेद्रसः ॥ ४० ॥
एष पिण्डरसो वृष्यः पौष्टिको बलवर्धनः।
अनेनाश्व ईवोदीर्णो बली लिङ्गं समर्पयेत् ॥ ४१ ॥
शिखितित्तिरिहंसानामेवं पिण्डरसो मतः।
बलवर्णस्वरकरः पुमांस्तेन वृषायते ॥ ४२ ॥
इति वाजीकरणपिण्डरसाः।
घृतं भाषान् सबस्ताण्डान् साधयेन्माहिषे रसे।
भर्जयेतं रसं पूतं फलाम्लं नवसर्पिषि ॥ ४३ ॥
ईषत् सलवणं युक्तं धान्यजीरकनागरैः।
एष वृष्यश्च बल्यश्च बृंहणश्च रसोत्तमः ॥ ४४ ॥
इति वृष्यमाहिषरसः।
चटकांस्तित्तिरिरसे तित्तिरीन् कौक्कुटे रसे।
कुक्कुटान् बार्हिणरसे हांसे बर्हिणमेव च ॥ ४५ ॥
नवसर्पिषि संतप्तान् फलाम्लान् कारयेद्रसान्।
मधुरान् वा यथासात्म्यं गन्धाढ्यान् बलवर्धनान् ॥ ४६ ॥
इति वृष्यरसाः।
तृप्तिं चटकमांसानां गत्वा योऽनुपिबेत् पयः।
न तस्य लिङ्गशैथिल्यं स्यान्न शुक्रक्षयो निशि ॥ ४७ ॥
इति वृष्यमांसम्।
माषयूषेण यो भुक्त्वा घृताढ्यं पष्टिकौदनम्।
पयः पिबति रात्रिं स कृत्स्त्रां जागर्ति वेगवान् ॥ ४८ ॥
इति वृष्यमापयोगः।
न ना स्वपिति रात्रीषु निस्तब्धेन च शेफंसा।
तृप्तः कुक्कुटमांसानां भृष्टानां नक्ररेतसि ॥ ४९ ॥
इति वृष्यशुक्ररसः।
निःस्राव्य मत्स्याण्डरसं भृष्टं सर्पिषि भक्षयेत्।
हंसबर्हिणदक्षाणां चैवमण्डानि भक्षयेत् ॥ ५० ॥
इति वृष्या अण्डरसाः।
भवतश्चात्र।
तःसु शुद्धेष्वमले शरीरे वृष्यं यदा ना1428 मितमत्ति काले।
यते तेन परं मनुष्यस्तदृंहणं चैव बलप्रदं च ॥ ५१ ॥
नात् पुरा शोधनमेव कार्य बलानुरूपं न हि वृष्ययोगाः।
द्ध्य्न्ति देहे मलिने प्रयुक्ताः क्लिष्टे1429यथा वाससि रागयोगाः ५२
तत्र लोकौ।
वाजीकरणसामर्थ्य क्षेत्रं स्त्री यस्य चैव या।
ये दोषा निरपत्यानां गुणाः पुत्रवतां च ये ॥ ५३ ॥
दश पञ्च च संयोगा वीर्यापत्यविवर्धनाः।
उक्तास्ते शरमूलीये पादे पुष्टिबलप्रदाः ॥ ५४ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने संप्रयोग शरमूलीयो नाम वाजीकरणपादः प्रथमः।
––––––––––––
गत आसिक्तक्षीरीयं1430 वाजीकरणपादं व्याख्यास्यामः१
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
आसिक्तक्षीरमापूर्णमशुष्कं शुद्धषष्टिकम्।
उदूखले समापोथ्य पीडयेत्क्षीरमैर्दितम्1431 ॥ ३ ॥
गृहीत्वा तं रसं पूतं गव्येन पयसा सह ॥ ४ ॥
बीजानामात्मगुप्ताया धान्यमापरसेन च।
बलायाः सूर्पपर्ण्योश्च जीवन्त्या जीवकस्य च ॥ ५ ॥
ऋष्यर्षभककाकोलीश्वदंष्ट्रामधुकस्य च।
शतावर्या विदार्याश्च द्राक्षाखर्जूरयोरपि ॥ ६ ॥
संयुक्तं मात्रया वैद्यः साधयेत्तन्त्र चावपेत्।
तुगाक्षीर्याः समाषाणां शालीनां षष्टिकस्य च ॥ ७ ॥
गोधूमानां च चूर्णानि यैः स सान्द्रीभवेद्रसः।
सान्द्रीभूतं च तं कुर्यात् प्रभूतमधुशर्करम् ॥ ८ ॥
गुडिका बदरैस्तुल्यास्ताश्च सर्पिषि भर्जयेत्।
ता यथाभि प्रयुञ्जानः क्षीरमांसरसाशनः।
पश्यत्यपत्यं विपुलं वृद्धोऽप्यात्मजमक्षयम् ॥ ९ ॥
इत्यपत्यकरी षष्टिकादिगुडिका।
चटकानां सहंसानांदक्षाणां शिखिनां तथा।
शिशुमारस्य नक्रस्यभिषक् शुक्राणि संहरेत् ॥ १० ॥
गम्यंसर्पिर्वराहस्य कुलिङ्गस्य वसामपि।
षष्टिकानां च चूर्णानि चूर्ण गोधूर्मकस्य1432 च ॥ ११ ॥
एभिः पूपलिकाः कार्याः शकुल्यो वर्तिकास्तथा।
पूपा धानाश्च विविधा भक्ष्याश्चान्ये पृथग्विधः1433 ॥ १२ ॥
एषां प्रयोगाद्भक्ष्यांणां स्तब्धेनापूर्णरेतसा।
शेफसा वाजिवद्याति यावदिच्छं स्त्रियो नरः ॥ १३ ॥
इति वृष्यभक्ष्याः1434।
आत्मगुप्ताफलं माषान् खर्जूराणि शतावरीम्।
शुङ्गाटकानि मृद्धीकां साधयेत् प्रसृतोन्मिताम् ॥ १४ ॥
क्षीरप्रस्थं जलप्रस्थमेतत् प्रस्थावशेषितम्।
शुद्धेन वाससा पूतं योजयेत् प्रसृतैस्विभिः ॥ १५ ॥
शर्करायास्तुगाक्षीर्याः सर्पिषोऽभिनवस्य च।
तत् पाययेत सक्षौद्रं षष्टिकानं च भोजयेत् ॥ १६ ॥
जरापरीतोऽप्यबलो योगेनानेन विन्दति।
नरोऽपत्यं सुविपुलं युवेव च स हृष्यति ॥ १७ ॥
इत्यपत्यकरः स्वरसः।
खर्जूरीमस्तकं भाषान् पयस्यां सशतावरीम्।
खर्जूराणि मधूकानि मृद्धीकामजडाफलम् ॥ १८ ॥
पलोन्मितानि मतिमान् साधयेत् सलिलाढके।
तेन पादावशेषेण क्षीरप्रस्थं विपाचयेत् ॥ १९ ॥
क्षीरशेषेण तेनाद्याद्धृताढ्यं षष्टिकौदनम्।
सशर्करेण संयोग एष वृष्यः परं मतः ॥ २० ॥
इति वृष्यक्षीरम्।
जीवकर्षभकौ मेदां जीवन्तीं श्रावणीद्वयम्।
खर्जूरं मधुकं द्राक्षां पिप्पलीं विश्वभेषजम् ॥ २१ ॥
शृङ्गाटकं विदारी च नवं सर्पिः पयो जलम्।
सिद्धं घृतावशेषं तच्छर्कराक्षौद्रपादिकम् ॥ २२ ॥
षष्टिकान्नेन संयुक्तमुपयोज्यं यथाबलम्।
वृष्यं बल्यं च वर्ण्य च कण्ठ्यं बृंहणमुत्तमम् ॥ २३ ॥
इति वृष्यवृतम्।
दध्नः सरं शरच्चन्द्रसन्निभं दोषवर्जितम्।
शर्कराक्षौद्रमरिचैस्तुगाक्षीर्या च बुद्धिमान् ॥ २४ ॥
युक्त्या युक्तं ससूक्ष्मैलं नवे कुम्भे शुचौ पटे।
मार्जितं प्रक्षिपेच्छीते घृताढ्ये षष्टिकौदने ॥ २५ ॥
पिबेन्मात्रां1435 रसालायास्तं भुक्त्वा षष्टिकौदनम्।
वर्णस्वरबलोपेतः पुमांस्तेन वृषायते ॥ २६ ॥
इति वृष्यो1436 दघिसरप्रयोगः।
चन्द्रांशुकल्पं पयसा घृताढ्यं षष्टिकौदनम्।
शर्करामधुसंयुक्तं प्रयुञ्जानो वृषायते ॥ २७ ॥
इति वृष्यषष्टिकौदनप्रयोगः।
तप्ते सर्पिषि नक्राण्डं ताम्रचूडाण्डमिश्रितम्।
युक्तं षष्टिकचूर्णेन सर्पिषाऽभिनवेन च ॥ २८ ॥
पक्त्वा पूपलिकाः खादेद्वारुणीमण्डपो नरः।
य इच्छेदश्ववद्गन्तुं प्रसेक्तुं गजवच्च यः ॥ २९ ॥
इति वृष्यपूपलिकाः1437।
भवतश्चात्र।
एतैः प्रयोगैर्विविधैर्वपुष्मान् स्नेहोपपन्नो बलवर्णयुक्तः।
हर्षान्वितो वाजिवदष्टवर्षो भवेत् समर्थश्च वराङ्गनासु ॥ ३० ॥
यद्यञ्च किंचिन्मनसः प्रियं स्याद्रग्या वनान्ताः पुलिनानि शैलाः।
इष्टाः स्त्रियो भूषणगन्धमाल्यं प्रिया वयस्याश्च तदत्र योज्यम् ॥ ३१॥
तत्र श्लोकः।
आसिक्तक्षीरिके पादे ये योगाः परिकीर्तिताः।
अष्टावपत्यकामैस्ते प्रयोज्याः पौरुषार्थिभिः ॥ ३२ ॥
इत्यभिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने आसिकक्षीरीयो नाम वाजीकरणपादो द्वितीयः।
–––––––––––––
अथातो भाषपर्णभृतीयं वाजीकरणपादं व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
भाषपर्णभृतां धेनुं गृष्टिं पुष्टां चतुःस्तनीम्।
समानवर्णवत्सां च जीवद्वत्सां च बुद्धिमान् ॥ ३ ॥
रोहिणीमथवा कृष्णामूर्ध्वशृङ्गीमदारुणाम्।
इक्ष्वादामर्जुनादां वा सान्द्रक्षीरां च धारयेत् ॥ ४ ॥
केवलं तु पयस्तस्याः श्रुतं वाऽश्वतमेव वा।
शर्कराक्षौद्रसर्पिभिर्युक्तं तदृष्यमुत्तमम् ॥ ५ ॥
शुक्रलैर्जीवनीयैश्च बृंहणैर्बलवर्धनैः।
क्षीरे1438संजननैश्चैव पयः सिद्धं पृथक् पृथक् ॥ ६ ॥
युक्तं गोधूमचूर्णेन सघृतक्षौद्रशर्करम्।
र्यायेण प्रयोक्तव्यमिच्छता शुक्रमक्षयम् ॥ ७ ॥
इति वृष्यक्षीरप्रयोगः।
वेदां पयस्यां जीवन्तीं विदारी कण्टकारिकाम्।
वदंष्ट्रां क्षीरिकां माषानू गोधूमान्छालिषष्टिकान्॥ ८ ॥
यस्यर्धोदके पक्वा कार्षिकानाढकोन्मिते।
वेवर्जयेत् पयःशेषं तत् पूतं क्षौद्रसर्पिषा ॥ ९ ॥
युक्तं सशर्करं पीत्वा वृद्धः सततिकोऽपि वा।
वेपुलं लभतेऽपत्यं युवेव च स हृष्यति ॥ १० ॥
इत्यपत्यकरक्षीरयोगः।
मण्डलैर्जातरूपस्य तस्या एव पयः शृतम्।
अपत्यजननं सिद्धं समृतक्षौद्धशर्करम् ॥ ११ ॥
इत्यपत्यजननक्षीरयोगः।
त्रिंशत्सुपिष्टाः पिप्पल्यः प्रकुञ्चेतैलसर्पिषोः।
वृष्ट्वा सशर्कराक्षौद्राः क्षीरधारावदोहिताः ॥ १२ ॥
रीत्वा यथाबलं चोर्ध्वं षष्टिकं क्षीरसर्पिषा।
मुक्त्वा न रात्रिमस्तब्धं लिङ्गं पश्यति ना क्षरत् ॥ १३ ॥
इति वृष्यक्षीरयोगः।
श्वदंष्ट्राया विदार्याश्च रसे क्षीरचतुर्गुणे \।
वृताढ्यः साधितो वृष्यो माषषष्टिकपायसः ॥ १४ ॥
इति वृष्यपायसप्रयोगः।
फलानां जीवनीयानां स्निग्धानां रुचिकारिणाम्।
कुडवश्चूर्णितानां स्यात् स्वयंगुप्ताफलस्य च ॥ १५ ॥
कुडवश्चैव माषाणां द्वौ द्वौ च तिलमुद्गयोः।
गोधूमशालिचूर्णानां कुडवः कुडवो भवेत् ॥ १६ ॥
सर्पिषः1439 कुडवश्चैकस्तत्सर्वं क्षीरमर्दितम्।
पक्त्वा पूपलिकाः खादेद्बह्वयः स्युर्यस्य योषितः ॥ १७ ॥
इति वृष्यपूपलिकाः।
घृतं शतावरीगर्भ क्षीरे दशगुणे पचेत्।
शर्करापिप्पलीक्षौद्रयुक्तं तद्वृष्यमुत्तमम् ॥ १८ ॥
इति वृष्यं शतावरीघृतम्।
कर्ष मधुक चूर्णस्य घृतक्षौद्रसमांशिकम्।
पयोऽनुपानं लियायो नित्यवेगः स ना भवेत् ॥ १९ ॥
इति वृष्यमधुकयोगः।
घृतक्षीराशनो निभर्निव्र्व्याधिर्नित्यगो युवा।
सङ्कल्पप्रवणो1440 नित्यं नरः स्त्रीषु वृषायते ॥ २० ॥
कृतैककृत्याः सिद्धार्था ये चान्योन्यानुवर्तिनः।
कलासु कुशलास्तुल्याः सच्वेन वयसा च ये ॥ २१ ॥
कुलमाहात्म्यदाक्षिण्यशीलशौचसमन्विताः।
ये कामनित्या ये हृष्टा ये विशोका गतव्यथाः ॥ २२ ॥
ये तुल्यशीला ये भक्का ये प्रिया ये प्रियंवदाः।
तैर्नरः सह विश्रब्धः सुवयस्यैर्वृषायते ॥ २३ ॥
अभ्यङ्गोत्सादन स्नानगन्धमाल्यविभूषणैः।
गृहशय्यासन सुखैर्वासोभिरहतैः प्रियैः ॥ २४ ॥
विहङ्गानां रुतैरिटैः स्त्रीणां चाभरणस्वनैः।
संवाहनैर्बरस्त्रीणामिष्टानां च वृषायते ॥ २५ ॥
मसद्विरेफाचरिताः सपद्माः सलिलाशयाः।
जात्युत्पलसुगन्धीति शीतगर्भगृहाणि च ॥ २६ ॥
नद्यः फेनोत्तरीयाश्च गिरयो नीलसानवः।
उन्नतिर्नीलमेघानां रम्यचन्द्रोदया निशाः ॥ २७ ॥
बायवः सुखसंस्पर्शाः कुमुदाकरगन्धिनः।
रतिभोगक्षमा नोर्यः1441 संकोचागुरुवल्लभाः ॥ २८ ॥
**सुखाः सहायाः परपुष्टघुष्टाः फुल्ला वनान्ता विशदानपानाः।
गान्धवंशब्दाच सुगन्धयोगाः सत्वं विशालं निरुपद्रवं च ॥ २९ ॥
सिद्धार्थता चाभिनवश्च कामः स्त्री चायुधं सर्वमिहात्मजस्य।**
वयो नवं जातमदश्व कालो हर्षस्य योनिः परमा नराणाम् ॥ ३० ॥
तत्र श्लोकः।
प्रहर्षयोनयो योगा व्याख्याता दश पञ्च च।
माषपर्णभृतीयेऽस्मिन् पादे शुक्रबलप्रदाः ॥ ३१ ॥
इत्यभिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने माषपर्णमृतीयो नाम वाजीकरणपादस्तृतीयः ॥ ३ ॥
––––––––––
अथातः पुमाखातबलादिकं चतुर्थे वाजीकरणपादं
व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
पुमान् यथा जातबलो यावदिच्छं स्त्रियो व्रजेत्।
यथा चापत्यवान् सद्यो भवेत्तदुपदेक्ष्यते ॥ ३ ॥
न हि जातबलाः सर्वे नराश्चापत्यभागिनः।
बृहच्छरीरा बलिनः सन्ति नारीषु दुर्बलाः ॥ ४ ॥
सन्ति चाल्पबलाः स्त्रीषु बलवन्तो बहुप्रजाः।
प्रकृत्या चाबलाः सन्ति सन्ति चामयदुर्बलाः ॥ ५ ॥
नराश्चटकवत् केचिह्नजन्ति बहुशः स्त्रियम्।
गजवञ्च प्रसिञ्चन्ति केचिन्न बहुगामिनः ॥ ६॥
कालयोगबलाः केचित् केचिदभ्यसनध्रुवाः।
केचित् प्रयत्नैर्वांह्यन्ते वृषाः केचित् स्वभावतः ॥ ७ ॥
तस्मात् प्रयोगान् वक्ष्यामो दुर्बलानां बलप्रदान्।
सुखोपभोगान् बलिनां भूयश्च बलवर्धनान् ॥ ८ ॥
पूर्वे शुद्धशरीराणां निरूहान् सानुवासनान्।
बलापेक्षी प्रयुञ्जीत शुक्रापत्यविवर्धनान् ॥ ९ ॥
घृततैलरसक्षीरशर्करामधुसंयुताः।
बस्तयः संविधातव्याः क्षीरमांसरसाशिनाम् ॥ १० ॥
इति वृष्या बस्तयः।
पि…….
कोलवद्गुडिकाः कृत्वा तप्ते सर्पिषि1442 भर्जयेत् ॥ ११ ॥
भर्जन1443स्तम्भितास्ताश्च प्रक्षेप्याः कौक्कुटे रसे।
घृताढ्ये गन्धपिशुने दघिदाडिमसौरिके1444 ॥ १२ ॥
यथा न भिन्द्याद्गुडिकास्तथा तं साधयेद्रसम्।
तं पिबन् भक्षयंस्ताश्च लभते शुक्रमक्षयम् ॥ १३ ॥
मांसानामेवमन्येषां मेद्यानां कारयेद्भिषक्।
गुडिकाः सरसास्तासां प्रयोगः शुक्रवर्धनः ॥ १४ ॥
इति वृष्या मांसगुडिकाः।
भाषान्ङ्कुरितान्शुद्धान्निस्तुषान् साजडाफलान्।
घृताढ्ये माहिषरसे दधिदाडिमसारिके ॥ १५ ॥
प्रक्षिपेन्मात्रया युक्तो धान्यजीरकनागरैः।
भुक्तः पीत1445श्चस रसः कुरुते शुक्रमक्षयम् ॥ १६ ॥
इति वृष्यो माहिषरसः।
आर्द्राणि मत्स्यमांसानि शफरीर्वा सुभर्जिताः।
तप्ते सर्पिषि यः खादेत् स गच्छेत् स्त्रीषु न क्षयम् ॥ १७ ॥
इति वृष्यघृतभृष्टमत्स्यमांसानि1445।
घृतभृष्टान् रसे च्छागे रोहितानू फलसारिके।
अनुपीतरसान् सिद्धानपत्यार्थी प्रयोजयेत् ॥ १८ ॥
इति गर्भाधानकरो योगः।
कुट्टकं मत्स्यमांसानां हिङ्गुसैन्धवधान्यकैः।
युक्तं गोधूमचूर्णेन घृते पूपलिकाः पचेत् ॥ १९ ॥
माहिषे च रसे मत्स्यान्स्निग्धाम्ललवणान् पचेत्।
रसे चानुगते मांसं पोथयेत्तत्रचावपेत् ॥ २० ॥
मरिचं जीरकं धान्यमल्पं हिङ्गु नवं घृतम्।
माषपूपलिकानां तद्गर्भार्थमुपकल्पयेत् ॥ २१ ॥
एतौ पुपलिकायोगौ बृंहणौ बलवर्धनौ।
हर्षसौभाग्यदौ पुग्यौ परं शुक्राभिवर्धनौ ॥ २२ ॥
इति वृष्यौ पुपलिकायोगौ।
भाषात्मगुप्तागोभूमशालिपष्टिकपैष्टिकम्।
शर्कराया विदार्याश्च चूर्णमिक्षुरकस्य च ॥ २३ ॥
संयोज्य मसणे क्षीरे घृते धूपलिकाः पचेत्।
पयोनुपानास्ताः शीघ्रं कुर्वन्ति वृषतां पराम् ॥ २४ ॥
इति वृष्या माषादिपूपलिकाः।
शर्करायास्तुलैका स्यादेका गव्यस्य सर्पिषः।
प्रस्थो विदार्याश्वर्णस्य पिप्पल्याः प्रस्थ एव च ॥ २५ ॥
अर्धाढकं तुगाशीर्याः क्षौद्रस्याभिनवस्य च।
तत्सर्व मूर्च्छितं तिष्ठेम्मार्तिके घृतभाजने ॥ २६ ॥
मात्रामझिसमां तस्य प्रातः प्रातः प्रयोजयेत्।
एष वृष्यः परं योगो बल्यो1446 बृंहण एव च ॥ २७ ॥
इति वृष्ययोगः।
शतावर्या विदार्याश्च तथा माषात्मगुसयोः।
श्वदंड्रायाश्च निष्काथान् जलेषु च पृथक् पृथक् ॥ २८ ॥
साधयित्वा घृतप्रस्थं पयस्यष्टगुणे पुनः।
शर्करामधुयुक्तं तदपत्यार्थी प्रयोजयेत् ॥ २९ ॥
इत्यपत्यकरं घृतम्।
घृतपात्रंशतगुणे विदारीस्वरसे पचेत्।
सिद्धं पुनः शतगुणे गये पयसि साधयेत् ॥ ३० ॥
शर्करायास्तुगाक्षीर्याः क्षौद्रस्येक्षुरक (स )स्य च।
पिपल्याः साजडायाश्च भागैः पादांशिकैर्युतम् ॥ ३१ ॥
गुडिकाः कारयेद्वैद्यो यथा स्थूलमुदुम्बरम्।
तासां प्रयोगात् पुरुषः कुलिङ्ग इव हृष्यति ॥ ३२ ॥
इति वृष्यगुटिकाः।
सितोपलापलशतं तदर्थ नवसर्पिषः।
क्षौद्रपादेन संयुक्तं साधयेजलपादिकम् ॥ २ ३३ ॥
सान्द्रं गोधूमचूर्णानां पादं स्तीर्णे शिलातले।
शुचौ लक्षणे समुत्कीर्य मर्दनेनोपपादयेत् ॥ ३४ ॥
शुद्धा उत्कारिकाः कार्याश्चन्द्रमण्डलसन्निभाः।
तासां प्रयोगाद्वजवन्नारीः संतपेयेन्नरः ॥ ३५ ॥
इति वृष्योत्कारिका1447।
यत् किञ्चिन्मधुरं स्निग्धं जीवनं बृंहणं गुरु।
हर्षणं मनसश्चैव सर्वं तद्दृष्यमुच्यते ॥ ३६ ॥
द्रव्यैरेवंविधैस्तस्माद्भावितः प्रमदां व्रजेत्।
आत्मवेगेन चोदीर्णः स्त्रीगुणैश्च प्रहर्षितः ॥ ३७ ॥
गत्वा स्नात्वा पयः पीत्वा रसं चानु शयीत ना।
तथाऽस्याप्यायते भूयः शुक्रं च बलमेव च ॥ ३८ ॥
यथा मुकुलपुष्पस्य सुगन्धो नोपलभ्यते।
लभ्यते तद्विकाशात्तु तथा शुक्रं हि देहिनाम् ॥ ३९ ॥
मर्ते वै षोडशाद्वर्षात् सप्तत्याः परतो न च।
आयुष्कामो नरः स्त्रीभिः संयोगं कर्तुमर्हति ॥ ४० ॥
अतिबालो झसंपूर्णसर्वधातुः स्त्रियं ब्रजन्।
उपशुष्येत सहसा तडागमिव काजलम् ॥ ४१ ॥
शुष्करूक्षं यथा काष्ठं जन्तुजग्धं विजर्जरम्।
स्पृष्टमाशु विशीर्येत तथा वृद्धः स्त्रियो व्रजन् ॥ ४२ ॥
जरया चिन्तया शुक्रं व्याधिभिः कर्मकर्षणात्।
क्षयं गच्छत्यनशनात् स्त्रीणां चातिनिषेवणात् ॥ ४३ ॥
क्षयाद्भयादविश्रम्भाच्छोकात् स्त्रीदोषदर्शनात्।
नारीणामरसज्ञत्वादभिचारादसेवनात् ॥ ४४ ॥
तृप्तस्यापि स्त्रियो गन्तुं न शक्तिरुपजायते।
देहसत्त्वबलापेक्षी हर्षः शक्तिश्च हर्षजा ॥ ४५ ॥
रस इक्षौ यथा दनि सर्पिस्तैलं तिले यथा।
सर्वत्रानुगतं देहे शुक्रं संस्पर्शने1448 तथा ॥ ४६ ॥
तत् स्त्रीपुरुषसंयोगे चेष्टासंकल्पपीडनात्।
शुक्रं प्रच्यवते स्थानाज्जलमात् पटादिव ॥ ४७ ॥
हर्षात्तर्षात् सरत्वाच पैच्छियागौरवादपि।
अणुप्रवणभावाञ्च1449द्रुतत्वान्मारुतस्य च ॥ ४८ ॥
अष्टाभ्य एभ्यो हेतुभ्यः शुक्रं देहात् प्रसिच्यते।
चरतो विश्वरूपस्य रूपद्रव्यं यदुच्यते ॥ ४९ ॥
बहलं मधुरं स्निग्धमविस्रं गुरु पिच्छिलम्।
शुक्लं बहु च यच्छुक्रं फलवत्तदुसंशयम् ॥ ५० ॥
येन नारीषु सामर्थ्य वाजीवल्लभ1450ते नरः।
व्रजेञ्चभ्यधिकं येन वाजीकरणमेव तत् ॥ ५१ ॥
तत्र श्लोकौ।
हेतुर्योगोपदेशस्य योगा द्वादश चोत्तमाः।
यत् पूर्वं मैथुनात् सेव्यं सेव्यं यन्मैथुनादनु ॥ ५२ ॥
यदा न सेव्याः प्रमदाः कृत्स्नः शुक्रविनिश्चयः।
निरुक्तं चेह निर्दिष्टं पुमाञ्जातबलादिके ॥ ५३ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने पुमा-
जातबलादिको नाम वाजीकरणपादश्चतुर्थः ॥ ४ ॥
समाप्तवायं द्वितीयो वाजीकरणाध्यायः ॥ २ ॥
–––––––––––
तृतीयोऽध्यायः।
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अथातो ज्वरचिकित्सितं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
विज्वरं ज्वरसंदेहं पर्यपृच्छत् पुनर्वसुम्।
विविक्ते शान्तमासीनमनिवेशः कृताञ्जलिः ॥ ३ ॥
देहेन्द्रियमनस्तापी सर्वरोगाग्रजो बली।
ज्वरः प्रधानो रोगाणामुक्तो भगवता पुरा ॥ ४॥
तस्य प्राणिसपत्नस्य ध्रुवस्य प्रलयोदये।
प्रकृतिं च प्रवृत्तिं च प्रभावं कारणानि च ॥ ५ ॥
पूर्वरूपमधिष्ठानं बलकालास्मलक्षणम्।
व्यासतो विधिभेदं1451च पृथग्भिन्नस्य चाकृतिम् ॥ ६ ॥
लिङ्गमामस्य जीर्णस्य सौषधं1452 च क्रियाक्रमम्।
विमुञ्चतः प्रशान्तस्य चिह्नं यच्च पृथक् पृथक् ॥ ७ ॥
ज्वरावसृष्टो रक्ष्यश्च यावत्कालं यतो यतः।
प्रशान्तः कारणैर्यैश्च पुनरावर्तते ज्वरः ॥ ८ ॥
याश्चापि पुनरावृत्तं क्रियाः प्रशमयन्ति तम्।
जगद्धितार्थ तत् सर्व भगवन् ! वक्तुमर्हसि ॥ ९ ॥
तदग्निवेशस्य वचो निशम्य गुरुरब्रवीत्।
ज्वराधिकारे यद्वाच्यं तत् सौम्य ! निखिलं शृणु ॥ १० ॥
ज्वरो विकारो रोगश्च व्याधिरातङ्क एव च।
एकोऽर्थो1453 नामपर्यायैर्विविधैरभिधीयते ॥ ११ ॥
तस्य प्रकृतिरुद्दिष्टा दोषाः शारीरमानसाः।
देहिनं नहि निर्दोषं ज्वरः समुपसेवते ॥ १२ ॥
क्षयस्तमो ज्वरः पाप्मा मृत्युश्चोक्ता यमात्मकाः1454।
पञ्चश्वत्वप्रत्ययातॄणां क्लिश्यैतां1455 स्वेन कर्मणा ॥ १३ ॥
इत्यस्य प्रकृतिः1456 प्रोक्ता, प्रवृत्तिस्तु परिग्रहात्।
निदाने पूर्वमुद्दिष्टा1457 रुद्रकोपाञ्च दारुणात् ॥ १४ ॥
द्वितीये हि युगे शर्वमक्रोधव्रतमास्थितम्।
दिव्यं सहस्रं वर्षाणामसुरा अभिदुद्रुवुः ॥ १५ ॥
तपोविघ्नं शमीकर्तुं तपोविघ्नं महात्मनः1458।
पश्यन् समर्थश्रोपेक्षां चक्रेदक्षः1459प्रजापतिः ॥ १६ ॥
पुनर्माहेश्वरं भागं ध्रुवंदक्षः प्रजापतिः।
यज्ञे न करूपयामास प्रोच्यमानः सुरैरपि ॥ १७ ॥
पशुपत्य1460 ऋचो याश्च शैव्य आहुतयश्च याः।
यज्ञसिद्धिप्रदास्ताभिर्हीनं चैव स इष्टवान् ॥ १८ ॥
अथोत्तीर्णव्रतो देवो बुद्ध्वादक्षव्यतिक्रमम्।
रुद्धो रौद्रं पुरस्कृत्य भावमात्मविदात्मनः ॥ १९ ॥
सृष्ट्वा1461 ललाटे नयनं दुग्ध्वा तानसुरान्प्रभुः।
बाणं1462 क्रोधाग्निसंतप्तमसृजत् सत्रनाशनम्1463 ॥ २० ॥
ततो यज्ञः स विध्वस्तो व्यथिताश्च दिवौकसः।
दाहग्यथापरीताश्च भ्रान्ता भूतगणा दिशः ॥ २१ ॥
अथेश्वरं देवगणाः सह सप्तर्षिभिर्विभुम्।
तमृग्भिरस्तुवन् यावच्छैवे भावे शिवः स्थितः ॥ २२ ॥
शिवं शिवाय भूतानां स्थितं ज्ञात्वा कृताञ्जलिः।
(भिया भस्मप्रहरणस्त्रिशिरा नवलोचनः ॥ २३ ॥
ज्वालामालाकुलो रौद्रो ह्रस्वजङ्कोदरः क्रमात्।)
क्रोधाग्निरुक्तवान् देवमहं किं करवाणि ते ॥ २४ ॥
तमुवाचेश्वरः क्रोधं ज्वरो लोके भविष्यसि।
जन्मादौ निधने च त्वमपचारान्तरेषु1464 च ॥ २५ ॥
सन्तापः सारुविस्तृष्णा चाङ्गमंर्दोहृदि व्यथा।
ज्ववरप्रभावो1465 जन्मादौ निधने च महत्तमः ॥ २६ ॥
प्रकृतिश्च प्रवृत्तिश्च प्रभावश्च प्रदर्शितः।
निदाने कारणान्यष्टौ पूर्वोक्तानि1466 विभागशः ॥ २७ ॥
आलस्यं नयने सास्नेजृम्भणं गौरवं क्लमः।
ज्वलनातपवाथ्खम्बुभक्तिद्वेषावनिश्चितौ ॥ २८ ॥
अविपाकास्यवैरस्ये हानिश्च बलवर्णयोः।
शीलवैकृतमल्पं च ज्वरलक्षणमग्रजम् ॥ २९ ॥
केवलं समनस्कं च ज्वराधिष्ठानमुच्यते।
शरीरं, बलकालस्तु निदाने संप्रदर्शितः ॥ ३० ॥
ज्वरप्रत्यात्मिकं लिङ्गं संतापो देहमानसः।
ज्वरेणाविशता भूतं न हि किंचिन तप्यते ॥ ३१ ॥
द्विविधो विधिभेदेन ज्वरः शारीरमानसः।
पुनश्च द्विविधो दृष्टः सौम्यश्चामेय एव च ॥ ३२ ॥
अन्तर्वेगो बहिर्वेगो द्विविधः पुनरुच्यते।
प्राकृतो वैकृतश्चैव साध्यश्वासाध्य एव च ॥ ३३ ॥
पुनः पञ्चविधो दृष्टो दोषकालबलाबलात्।
संततः सततोऽन्ये धुस्तृतीयकचतुर्थकौ ॥ ३४ ॥
पुनराश्रयभेदेन धातूनां सप्तधा मंतः।
भिन्नः कारणभेदेन पुनरष्टविधो ज्वरः ॥ ३५ ॥
शारीरो जायते पूर्व देहे मनसि मानसः।
वैचित्यमरतिग्लनिर्मनसस्तापलक्षणम् ॥ ३६॥
इन्द्रियाणां च वैकृत्यं ज्ञेयं1467 सन्तापलक्षणम्।
वातपित्तात्मकः शीतमुष्णं वातकफात्मजः ॥ ३७॥
इच्छत्युभयमेतत्तु ज्वरो व्यामिश्रलक्षणः।
योगवाहः परं वायुः संयोगादुभयार्थकृत् ॥ ३८ ॥
दाहकृत्तेजसा युक्तः शीतकृत् सोमसंश्रयात्।
अन्तर्दाहोऽधिकस्तृष्णा प्रलापः श्वसनं भ्रमः ॥ ३९ ॥
सन्ध्यस्थिशूलमस्वेदो दोषवर्चोविनिग्रहः।
अन्तर्वेगस्य लिङ्गानि ज्वरस्यैतानि लक्षयेत् ॥ ४० ॥
सन्तापोऽभ्यघिको बाह्यस्तृष्णादीनां च मार्दवम्।
बहिर्वेगस्य लिङ्गानि सुखसाध्यत्वमेव च ॥ ४१ ॥
प्राकृतः सुखसाध्यस्तु वसन्तशरदुद्भवः।
कालप्रकृतिमुद्दिश्य प्रोच्यते प्राकृतो ज्वरः ॥ ४२ ॥
उष्णमुष्णेन संवृद्धं पित्तं शरदि कुप्यति।
चितः शीते कफश्चैवं वसन्ते समुदीर्यते ॥ ४३ ॥
वर्षास्वम्ल विपाकाभिरद्भिरोषधिभि1467स्तथा।
संचितं पित्तमुद्रिक्तं शरद्यादित्यतेजसा ॥ ४४ ॥
ज्वरं संजनयत्याशु तस्य चानुबलः कफः।
तत्प्रकृत्या विसर्गाच्च तत्र नानशनाद्भयम् ॥ ४५ ॥
अद्भिरोषधिभिश्चैव मधुराभिश्चितः कफः।
हेमन्ते सूर्यसंतप्तः स वसन्ते प्रकुष्यति ॥ ४६ ॥
वसन्ते श्लेष्मणा तस्माजवरः समुपजायते।
आदानमध्ये तस्यापि वातपित्तं भवेदनु ॥ १७ ॥
आदावन्ते च मध्ये च बुद्धा दोषबलाबलम्।
शरद्वसन्तयोर्विद्वाञ्जवरस्य प्रतिकारयेत् ॥ ४८ ॥
प्रायेणानिलजो दुःखः कालेष्वन्येषु वैकृतः।
हेतवो विविधास्तस्य निदाने संप्रदर्शिताः ॥ ४९ ॥
बलवत्स्वल्पदोषेषु ज्वरः साध्योऽनुपद्रवः।
हेतुभिर्बहुभिर्जातो बलिभिर्बहुलक्षणः ॥ ५० ॥
ज्वरः प्राणान्तकृद्यश्च शीघ्रमिन्द्रियनाशनः।
सप्ताहाद्वा दशाहाद्वा द्वादशाहात्तथैव च ॥ ५१ ॥
सप्रलापभ्रमश्वासस्तीक्ष्णो हन्याज्वरो नरम्।
ज्वरः क्षीणस्य शूनस्य गम्भीरो दैर्घरात्रिकः ॥ ५२ ॥
असाध्यो बलवान् यश्च केशसीमन्तकृज्वरः।
स्रोतोभिर्विसृता दोषा गुरवो1468 रसवाहिभिः ॥ ५३ ॥
सर्वगात्रानुगाः स्तब्धा ज्वरं कुर्वन्ति सन्ततम्।
दशाहं द्वादशाहं वा सप्ताहं वा सुदुःसहः ॥ ५४ ॥
स शीघ्रं शीघ्रकारित्वात् प्रशमं याति हन्ति वा।
कालदूष्यप्रकृतिभिर्दोषस्तुल्यो हि सन्ततम् ॥ ५५ ॥
निष्प्रत्यनीकः कुरुते तस्माज्ज्ञेयः सुदुःसहः।
यथा धातूंस्तथा मूत्रं पुरीषं चानिलादयः ॥ ५६ ॥
युगपञ्चानुपद्यन्ते नियमात् सन्तते ज्वरे1469।
स शुच्या वाऽप्यशुद्ध्या वा रसादीनामशेषतः ॥ ५७ ॥
सप्ताहादिषु कालेषु प्रशमं याति हन्ति वा।
यदा तु नातिशुध्यन्ति न वा शुध्यन्ति सर्वशः ॥ ५८ ॥
द्वादशैते समुद्दिष्टाः सन्ततस्याश्रयास्तदा।
विसर्गेद्वादशे कृत्वा दिवसेऽव्यक्तलक्षणैः1470 ॥ ५९ ॥
दुर्लभोपशमः कालं दीर्घमप्यनुवर्तते।
इति बुद्ध्वा ज्वरं वैद्यः1471 संततं समुपाचरेत् ॥ ६० ॥
क्रियाक्रमविधौ युक्तः प्रायः प्रागपतर्पणैः।
रक्तधात्वाश्रयः प्रायो दोषः सततकं ज्वरम् ॥ ६१ ॥
संप्रत्यनीकः1472 कुरुते कालवृद्धिक्षयात्मकम्।
अहोरात्रे सततको द्वौ कालावनुवर्तते ॥ ६२ ॥
कालप्रकृतिदूष्याणां प्राप्यैवान्यतमाद्वलम्।
दोषो1473 मेदोवहा रुद्ध्वानाडीरन्येधुकं ज्वरम् ॥ ६३ ॥
सप्रत्यनीकः कुरुते ककालमहर्निशि।
दोषोऽस्थिमज्जगः कुर्यात्तृतीयकचतुर्थंकौ ॥ ३४ ॥
गतिर्येकान्तरान्येद्युर्क्षेषस्योक्ताऽन्यथा परैः।
रक्तमेवाभिसंसृज्य कुर्यादन्येद्युकं ज्वरम् ॥ ६५ ॥
मांसस्नोतांस्यनुसृतो जनयेत्तु तृतीयकम्।
ज्वरं दोषः संसृतो हि मेदोमार्गे चतुर्थकम् ॥ ६६ ॥
अन्येद्युष्कः प्रतिदिनं दिनं हित्वा1474तृतीयकः।
दिनद्वयं यो विश्राम्य प्रत्येति स चतुर्थकः ॥ ६७ ॥
अधिशेते यथा भूमिं बीजं काले व रोहति।
अधिशेते तथा धातुं दोषः काले च कुप्यति ॥ ६८ ॥
स वृद्धिं बलकालं च प्राप्य दोषस्तृतीयकम्।
चतुर्थकं च कुरुते प्रत्यनीकबलक्षयात्1475 ॥ ६९ ॥
कृत्वा वेगं गतबलाः स्वेस्वे स्थाने व्यवस्थिताः।
पुनर्विवृद्धाः स्वेकाले ज्वरयन्ति नरं मलाः ॥ ७० ॥
कफपित्ताशिकग्राहीपृष्ठाद्वातकफात्मकः।
वातपित्ताच्छिरोग्राही त्रिविधः स्यात्तृतीयकः ॥ ७१ ॥
चतुर्थको दर्शयति प्रभावं द्विविधं ज्वरः।
जङ्घाभ्यां लैष्मिकः पूर्व शिरस्तोऽनिलसंभवः ॥ ७२ ॥
विषमज्वर एवान्यश्चतुर्थकविपर्ययः।
त्रिविधो धातुरेकैको1476 द्विधातुस्थः करोति यम् ॥ ७३ ॥
प्रायशः संनिपातेन दृष्टः पञ्चविधो ज्वरः।
सग्निपाते तु यो भूयान् स दोषः परिकीर्तितः ॥ ७४ ॥
ऋत्वहोरात्रदोषाणां मनसश्च बलाबलात्।
कालमर्थवशाश्चैव ज्वरस्तं तं प्रपद्यते ॥ ७५ ॥
गुरुत्वं दैन्यमुद्वेगः सदनं छर्द्यरोचकौ।
रसस्थिते बहिस्तापः साङ्गमर्दो विजृम्भणम् ॥ ७६ ॥
रक्तोष्णाः पिडकास्तृष्णा सरक्कं ष्ठीचनं मुहुः।
दाहरागभ्रमदाःप्रलापो रक्तसंस्थिते ॥ ७७ ॥
अन्तर्दाहोऽधिकस्तृष्णा1477 ग्लानिः संसृष्टविट्कता।
दौर्गन्ध्यं गात्रविक्षेपो ज्वरे मांसस्थिते भवेत् ॥ ७८ ॥
स्वेदस्तीव्रा पिपासा च प्रलापो वम्यभीक्ष्णशः।
स्वगन्धस्यासहत्वं च मेदःस्थे ग्लान्यरोचकौ ॥ ७९ ॥
विरेकवमने चोभे सास्थिभेदं प्रकूजनम्।
विक्षेपणं च गात्राणां श्वासश्वास्थिगते ज्वरे ॥ ८० ॥
हिक्का श्वासस्तथा कासस्तमसश्चातिदर्शनम्।
मर्मच्छेदो बहिः शैत्यं दाहोऽन्तश्चैव मज्जगे ॥ ८१ ॥
शुक्रस्थानगतः शुक्रमोक्षं कृत्वा विनाश्य च।
प्राणं वाय्वमिसोमैश्च सार्धं गच्छत्यसौ विभुः1477 ॥ ८२ ॥
रसरक्ताश्रितः साध्यो मेदोमांसगतश्च यः।
अस्थिमजगतः कृच्छ्रः शुक्रस्थो नैव सिध्यति ॥ ८३ ॥
हेतुमिर्लक्षणैश्चोक्तः पूर्वमष्टविधो ज्वरः।
समासेनोपदिष्टस्य व्यासतः शृणु लक्षणम् ॥ ८४ ॥
शिरोरुक्पर्वणां भेदो दाहो रोग्णां प्रहर्षणम्1478।
कण्ठास्यशोषो वमथुस्तृष्णा मूर्च्छा भ्रमोऽरतिः ॥ ८५ ॥
स्वप्ननाशोऽतिवाग्जृम्भा वातपित्तज्वराकृतिः।
शीतको गौरवं तन्द्रा स्तैमित्यं पर्वणां च रुकू ॥ ८६ ॥
शिरोग्रहः प्रतिश्यायः कासः स्वेदाप्रवर्तनम्।
संतापो मध्यवेगश्च वातश्लेष्मज्वराकृतिः ॥ ८७ ॥
मुहुर्दाहो मुहुः शीतं स्वेद॒स्तम्भो1479 मुहुर्मुहुः।
मोहः कासोऽरुचिस्तृष्णा श्लेष्मपित्तप्रवर्तनम् ॥ ८८ ॥
लिप्ततिक्कास्यता तन्द्रा श्लेष्मपित्तज्वराकृतिः।
( इत्येते द्वन्द्वजाः प्रोक्ताः सन्निपातज उच्यते ॥ ८९ ॥ )
सन्निपातज्वरस्योर्ध्वं त्रयोदशविधस्य हि।
प्रक्सूत्रितस्य वक्ष्यामि लक्षणं वै पृथक् पृथक् ॥ ९० ॥
भ्रमः पिपासा दाहश्च गौरवं शिरसोऽतिरुक्।
वातपित्तोल्बणे विद्याल्लिङ्गं मन्दकफे ज्वरे ॥ ९१ ॥
शैत्यं कासोऽरुचिस्तन्द्रा पिपासा दाहरुग्व्यथाः।
वातश्लेष्मोल्बणे व्याधौ लिङ्गं पित्तावरे विदुः ॥ ९२ ॥
छर्दिः शैत्यं मुहुर्दाहस्तृष्णा मोहोऽस्थिवेदना।
मन्दवाते व्यवस्यन्ति लिङ्गं पित्तकफोल्बणे ॥ ९३ ॥
सन्ध्यस्थिशिरसः शूलं प्रलापो गौरवं भ्रमः।
वातोल्बणे स्याद् द्व्यनुगे तृष्णा काशुष्कता ॥ १४ ॥
रक्तविण्मूत्रता दाहः स्वेदस्तृड्बलसंक्षयः।
मूर्च्छा चेति त्रिदोषे स्याल्लिङ्गं पित्ते गरीयसि ॥ ९५ ॥
आलस्यारुचिहृल्लासदाहवम्यरतिभ्रमैः।
कफोल्बणं सन्निपातं तन्द्राकासेन चादिशेत् ॥ ९६ ॥
प्रतिश्या छर्दिरालस्यं तन्द्राऽरुच्य निमार्दवम्।
हीनवाते पित्तमध्ये चिह्नं श्लेष्माधिके मतम् ॥ १७ ॥
हारिद्रमूत्रनेत्रत्वं दाहस्तृष्णा भ्रमोऽरुचिः।
हीनवाते मध्यकफे लिङ्गं पित्ताधिके मतम् ॥ १८ ॥
शिरोरुग्वेपथुः श्वासः प्रलापश्छद्यैरोचकौ।
हीनपित्ते मध्यकफे लिङ्गं वाताधिके1480 मतम् ॥ ९९ ॥
शीतको गौरवं तन्द्रा प्रलापोऽस्थिशिरोतिरुक्।
हीनपित्ते वातमध्ये लिङ्गं श्लेष्माधिके विदुः ॥ १०० ॥
श्वासः कासः प्रतिश्यायो मुखशोषोऽतिपार्श्वरुक्।
कफहीने पित्तमध्ये लिङ्गं वाताधिके मतम् ॥ १०१ ॥
पर्वभेदोऽग्निमान्द्यं1481 च तृष्णा दाहोऽरुचिर्भ्रमः।
कफहीने वातमध्ये लिङ्गं पित्ताधिके विदुः ॥ १०२ ॥
( सन्निपातज्वरस्योर्ध्वमतो वक्ष्यामि लक्षणम्। )
क्षणे दाहः क्षणे शीतमस्थिसन्धिशिरोरुजः ॥ १०३ ॥
सास्रावे कलुषे रक्ते निर्भुने चापि दर्शने1482।
सस्वनौ सरुजौ कर्णौ कण्ठः शूकैरिवावृतः ॥ १०४ ॥
तन्द्रा मोहः प्रलापश्च कासः श्वासोऽरुचिर्भ्रमः।
परिदग्धा खरस्पर्शा जिह्वा खस्ताङ्गता परम् ॥ १०५ ॥
ष्टीवनं रक्तपित्तस्य कफेनोन्मिश्रितस्य च।
शिरसो लोठनं तृष्णा निद्रानाशो हृदि व्यथा ॥ १०६ ॥
स्वेदमूत्रपुरीषाणां चिराद्दर्शनमल्पशः।
कृशत्वं नातिगात्राणां प्रततं कण्ठकूजनम् ॥ १०७ ॥
कोठानां श्यावरतानां मण्डलानां च दर्शनम्।
मूकत्वं स्रोतसां पाको गुरुत्वमुदरस्य च ॥ १०८ ॥
चिरात् पाकश्च दोषाणां सन्निपातज्वराकृतिः।
दोषे विबद्धे1483 नष्टेऽसौ सर्वसंपूर्णलक्षणः ॥ १०९ ॥
सन्निरोऽसाध्यः कृच्छ्रसाध्यस्त्वतोऽन्यथा।
निदाने त्रिविधा प्रोक्ताया पृथक्ज्जज्वराकृतिः ॥ ११० ॥
संसर्गसन्निपातानां तथा चोक्तं स्वलक्षणम्।
अगन्तुमो यस्तु स निर्दिष्टश्चतुर्विधः ॥ १११ ॥
अभिघाताभिषङ्गाभ्यामभिचासभिशापतः।
लष्टकझाकाष्ठमुष्ट्यरतितलद्विजैः ॥ १.१२ ॥
तद्विधैश्च हतेगान्नेज्वरः स्यादभिघातजः।
तत्रषातजे वायुः प्रायो रकं प्रदूषयन् ॥ ११३ ॥
सम्यथाशोफवैवर्ण्येकरोति सरुजं ज्वरम्।
कामशोकभयक्रोधैरभिषक्तस्ययो ज्वरः ॥ ११४ ॥
सोऽभिषङ्गज्वरो ज्ञेयो यश्च भूताभिषङ्गजः।
कामशोकभयाद्वायुः क्रोधात् पित्तं त्रयो मलाः ॥ ११५ ॥
भूतामिषङ्गात् कुप्यन्ति भूतसामान्यलक्षणाः।
भूताधिकारे व्याख्यातं तदुष्टविधलक्षणम् ॥ ११६ ॥
विषटःानिकस्पर्शात्तथाऽन्यैर्विषसंभवैः।
अभिषक्तस्य चाप्याहुर्ज्वरमेकेऽभिषङ्गजम् ॥ ११७ ॥
चिकित्सया विषयैव प्रशमं लभते नरः।
अभिचाराभिशापाभ्यां सिद्धानां यः प्रवर्तते ॥ ११८ ॥
सन्निपातज्वरो घोरः स विज्ञेयः सुदुःसहः।
सन्निपातज्वरस्योक्तं लिङ्गं यत्तस्य तत् स्मृतम् ॥ ११९ ॥
चित्तेन्द्रियशरीराणामर्तयोऽन्याश्च नैकशः।
प्रयोगं त्वभिचारस्यद्द्ष्टाशापस्य चैव हि ॥ १२० ॥
स्वयं श्रुत्वाऽनुमानेन लक्ष्यते प्रशमेन वा (च)।
वैविध्यादभिचारस्य शापस्य च तदात्मके ॥ १२१ ॥
यथाकर्मप्रयोगेण लक्षणं स्यात् पृथग्विधम्।
ध्याननिःश्वासबहुलं लिङ्गं कामज्वरे स्मृतम् ॥ १२२ ॥
शोकजे बाष्पबहुलं त्रासप्रायं भयज्वरे।
क्रोधजे बहुसंरम्भं भूतावेशे त्वमानुषम् ॥ १२३ ॥
मूर्च्छामोहमदग्लानिभूयिष्ठं विषसंभवे।
केषांचिदेषांलिङ्गानां संतापो जायते पुरः ॥ १२४ ॥
पश्चातुल्यं तु केषांचिदेषु कामज्वरादिषु।
कामादिजानामुद्दिष्टं ज्वराणां यद्विशेषणम् ॥ १२५ ॥
कामादिजानां रोगाणामन्येषामपि तत् स्मृतम्।
मनस्यभिहते पूर्व कामाद्यैर्न तथा बलम् ॥ १२६ ॥
ज्वरः प्राप्नोति वाताद्यैर्देहो यावन्न दुष्यति।
देहे चाभिद्रुते पूर्व वाताद्यैर्न तथा बलम् ॥ १२७ ॥
ज्वरःप्राप्नोति कामाद्यैर्मनो यावत्र दुष्यति।
ते पूर्व केवलाः पश्चानिजैर्व्यामिश्रलक्षणाः ॥ १२८ ॥
हेत्वौषधविशिष्टाश्च भवन्त्यागन्तवो ज्वराः।
संसृष्टाः सन्निपतिताः पृथग्वा कुपिता मलाः ॥ १२९ ॥
रसाख्यं धातुमन्वेत्य पक्तिं1484 स्थानान्निरस्य च।
स्वेने1485 तेनोमणा चैव कृत्वा देहोष्मणो बलम् ॥ १३० ॥
स्रोतांसि रुद्ध्वा1486संप्राप्ताः केवलं1487 देहमुल्बणाः।
संतापमधिकं देहे जनयन्ति नरस्तदा ॥ १३१ ॥
भवत्यत्युष्णसर्वाङ्गो ज्वरितस्तेन चोच्यते।
स्रोतसां संनिरुद्धत्वात्1488 स्वेदं ना नाधिगच्छति ॥ १३२ ॥
स्वस्थानात् प्रच्युते चाग्नौ प्रायशस्तरुणे ज्वरे।
अरुचिश्चाविपाकश्च गुरुत्वमुदरस्य च ॥ १३३ ॥
हृदयस्याविशुद्धिश्च तन्द्रा चालस्यमेव च।
ज्वरोऽविसर्गी बलवानू दोषाणामप्रवर्तनम् ॥ १३४ ॥
लालाप्रसेको हल्लासो क्षुनाशो विरसं1489 मुखम्।
स्तब्धसुप्तगुरुत्वं च गात्राणां बहुमूत्रता ॥ १३५ ॥
न विड्जीर्णा न च ग्लानिर्ज्वरस्यामस्य लक्षणम्।
ज्वरवेगोऽधिकस्तृष्णा प्रलापः श्वसनं भ्रमः ॥ १३६ ॥
मलप्रवृत्तिरुत्केशः पच्यमानस्य लक्षणम्।
क्षुत् क्षामता लघुत्वं च गात्राणां ज्वरमार्दवम् ॥ १३७ ॥
दोषप्रवृत्तिरष्टाहो निरामज्वरलक्षणम्।
नवज्वरे दिवास्वतस्त्रानाभ्यङ्गान्नमैथुनम्1490 ॥ १३८ ॥
क्रोधप्रवातव्यायामकषायांश्च विवर्जयेत्।
ज्वरे लङ्घनमेवादावुपदिष्टमृते ज्वरात् ॥ १३९ ॥
क्षयानिलभयक्रोधकामशोकश्रमोद्भवात्।
लङ्घनेन क्षयं नीते दोषे संधुक्षितेऽनले ॥ १४० ॥
विज्वरत्वं लघुत्वं च क्षुच्चैवास्योपजायते।
प्रा1491णाविरोधिना1491 चैनं लङ्घनेनोपपादयेत् ॥ १४१ ॥
बलाधिष्ठानमारोग्यं यदर्थोऽयं क्रियाक्रमः।
लङ्घनं स्वेदनं कालो1492 यवाग्वस्तिक्तको रसः ॥ १४२ ॥
पाचनान्यविपक्कानां दोषाणां तरुणे ज्वरे।
तृष्यते सलिलं चोष्णं दद्याद्वातकफज्वरे ॥ १४३ ॥
मद्योत्थे पैत्तिके चाऽथ शीतलं तिक्तकैः श्रुतम्।
दीपनं पाचनं चैव ज्वरनमुभयं हि तत् ॥ १४४ ॥
स्त्रोतसां शोधनं बल्यं रुचिस्वेदकरं शिवम्।
मुस्तपर्पटकोशीरचन्दनोदीच्यनागरैः ॥ १४५ ॥
शृतशीतं जलं दद्यात् पिपासाज्वरशान्तये।
कफप्रधानानुत्कृिष्टान् दोषानामाशयस्थितान् ॥ १४६ ॥
बुद्ध्वाज्वरकरान् काले वम्यानां वमनैर्हरेत्।
अनुपस्थितदोषाणां वमनं तरुणे ज्वरे ॥ १४७ ॥
हृद्रोगं श्वासमानाहं मोहं च जनयेद्भृशम्।
सर्वदेहानुगाः सामा धातुस्था दुःखनिर्हराः॥1493 १४८ ॥
दोषाः फलेभ्य आमेभ्यः स्वरसा इव सात्ययाः।
वमितं लङ्कितं काले यवागूभिरुपाचरेत् ॥ १४९ ॥
यथास्वौषधसिद्धाभिर्मण्डपूर्वाभिरादितः।
यावज्वरमृदुभावात् षडहं वा विचक्षणः ॥ १५० ॥
तस्यानिर्दीप्यते ताभिः समिद्भिरिव पावकः।
ताश्च भेषजसंयोगाल्लघुत्वाचाग्निदीपनाः ॥ १५१ ॥
वामूतत्रपुरीषाणां दोषाणां चानुलोमनाः।
स्वेदनाय द्रवोष्णत्वाद्रवत्वान्तप्रशान्तये॥ १५२ ॥
आहारभावात् प्राणाय सरत्वाल्लाघवाय च।
ज्वरयो ज्वरसात्म्यत्वात्तस्मात् पेयाभिरादितः ॥ १५३ ॥
ज्वरानुपचरेद्धीमानृते मद्यसमुत्थितात्।
मदात्यये मद्यनित्ये ग्रीष्मे पित्तकफाधिके ॥ १५४ ॥
ऊर्ध्वगे रक्तपित्ते च यवागूर्न हिता ज्वरे।
तत्र तर्पणमेवाग्रे1494 प्रयोज्यं1495 लाजशक्तुभिः ॥ १५५ ॥
ज्वरापहैः फलरसैर्युक्तं समधुशर्करम्।
द्राक्षादाडिमखर्जूरप्रियालैः सपरूषकैः ॥ १५६ ॥
तर्पणार्हेषु कर्तव्यं तर्पणं ज्वरशान्तये।
ततः सात्म्यबलापेक्षी भोजयेज्जीर्णतर्पणम् ॥ १५७ ॥
तनुना मुद्द्यूषेण जाङ्गलानां रसेन वा।
अन्नकालेषु चाप्यस्मै विधेयं दन्तधावनम् ॥ १५८ ॥
योऽस्य वक्ररसस्तस्माद्विपरीतं प्रियं च यत्।
तदस्यमुखवैशद्यं प्रकाङ्क्षां चान्नपानयोः ॥ १५९ ॥
धत्ते रसविशेषाणामभिज्ञत्वं करोति यत्।
विशोध्य द्रुमशाखाभैरास्यं प्रक्षाल्य चासकृत् ॥ १६० ॥
मस्त्विक्षुरसमद्याद्यैर्यथाहारमवाप्नुयात्।
पाचनं शमनीयं वा कषायं पाययेत्तु1496तम् ॥ १६१ ॥
ज्वरितं पडहेऽतीते लध्वन्नप्रतिभोजितम्।
स्तभ्यन्ते न1496विपच्यन्ते कुर्वन्ति विषमज्वरम् ॥ १६२ ॥
दोषा बद्धाः कषायेण1497 स्तम्भित्वात्तरुणे ज्वरे।
न1498 तु कल्पनमुद्दिश्य कषायः प्रतिषिध्यते ॥ १६३ ॥
यः कषायः1499 कषायः स्यात् स वर्ज्यस्तरुणज्वरे।
यूषैरम्लैरनम्तैर्वा जाङ्गलैव रसैर्हितैः ॥ १६४ ॥
दशाहं यावदीयाल्लुम्वग्नं ज्वरशान्तये।
अत ऊर्ध्व कफे मन्दे वातपित्तोत्तरे ज्वरे ॥ १६५ ॥
परिपक्केषु दोषेषु सर्पिष्पानं यथाऽमृतम्।
निर्दशाहमपि ज्ञात्वाकफोत्तरमलङ्घितम् ॥ १६६ ॥
न सर्पिः पाययेत् प्राज्ञः कषायैस्तमुपाचरेत्।
यावल्लधुत्वादशनं दद्यान्मांसरसेन च ॥ १६७ ॥
बलं ह्यलं दोषहरं परं तच्च बलप्रदम्1500।
दाहतृष्णापरीतस्य वातपित्तोत्तरं ज्वरम् ॥ १६८ ॥
बद्धप्रच्युतदोषं वा निरामं पयसा जयेत्।
क्रियाभिराभिः प्रशमं न प्रयाति यदाज्वरः ॥ १६९ ॥
अक्षीणबलमांसस्य शमयेत्तं विरेचनैः।
ज्वरक्षीणस्य न हितं वमनं न विरेचनम् ॥ १७० ॥
कामं तु पयसा तस्य निरूहैर्वा हरेन्मलान्।
निरूहो बलमग्निंच विज्वरत्वं मुदं रुचिम् ॥ १७१ ॥
परिपक्केषु दोषेषु प्रयुक्तः शीघ्रमावहेत्।
पित्तं वा कफपित्तं वा पित्ताशयगतं हरेत् ॥ १७२ ॥
स्रंसनं, त्रीन्मलान् बस्तिर्हरेत्पक्राशयस्थितान्।
ज्वरे पुराणे संक्षीणे कफपित्ते दृढाग्नये ॥ १७३ ॥
रूक्षबद्धपुरीषाय प्रदद्यानुवासनम्।
गौरवे शिरसः शूले विबद्धेष्विन्द्रियेषु च ॥ १७४ ॥
जीर्णज्वरे रुचिकरं कुर्यान्मूर्धविरेचनम्1501।
अभ्यङ्गांश्चप्रदेहांश्चपरिषेकावगार्हने1502 ॥ १७५ ॥
विभज्य शीतोष्णतया कुर्याज्जीर्णज्वरे भिषक्।
तैराशु प्रशमं याति बहिर्मार्गगतो ज्वरः ॥ १७६ ॥
लभ्यन्तेः सुखमङ्गानि बलं वर्णश्च वर्धते।
धूपनाञ्जनयोगैश्च यान्ति जीर्णज्वराः शमम् ॥ १७७ ॥
स्वङ्मानशेषा येषां च भवत्यागन्तुरन्वयः।
इति क्रियाक्रमः सिद्धो ज्वरघ्नः संप्रकाशितः ॥ १७८ ॥
येषां त्वेष क्रमस्तानि द्रव्याण्यूर्ध्वमतः शृणु।
रक्तशाल्यादयः शस्ताः पुराणाः षष्टिकैः सह ॥ १७९ ॥
यवाग्वोदनलाजार्थे ज्वरितानां ज्वरापहाः ॥
लाजपेयां सुखजरां पिप्पलीनागरैः श्रुताम् ॥ ११८ ॥
पिबेज्वरी ज्वरहरां क्षुद्वानल्पानिरादितः।
अम्लाभिलाषी तामेव दाडिमाम्लां सनागराम् ॥ १८१ ॥
सृष्टविट् पैत्तिको वाऽथ शीतां मधुयुतां पिबेत्।
पेयां वा रक्तशालीनां पार्श्वबस्तिशिरोरुजि ॥ १८२ ॥
श्वदंष्ट्राकण्टकारीभ्यां सिद्धां ज्वरहरां पिबेत् ॥
ज्वरातिसारी पेयां वा पिबेत् साम्लां ऋतां नरः ॥ १८३ ॥
पृश्निप1502र्णीबलाबिल्वनागरोत्पलधान्यकैः।
श्रृतांविदारीगन्धाद्यैपनीं स्वेदनीं नरः ॥ १८४ ॥
कासी श्वासी च हिक्की च यवागूं ज्वरितः पिबेत्।
विबद्धवर्चाः सयवां पिप्पल्यामलकैः श्रुताम् ॥ १८५ ॥
सर्पिष्मतीं पिबेत् पेयां ज्वरी दोषानुलोमनीम्।
कोष्ठे विबद्धे सरुजि पिबेत् पेयां श्रुतां ज्वरी ॥ १८६ ॥
मृद्वीकापिप्पलीमूलचण्यामलकनागरैः।
पिबेत् सबिल्वां पेयां वा ज्वरे सपरिकर्तिके ॥ १८७ ॥
बलावृक्षाम्लकोलाम्लकलशीधावनीटताम्।
अस्वेदनिद्रस्तृष्णार्तः पिबेत् पेयां सशर्कराम् ॥ १८८ ॥
नागरामलकैः सिद्धां घृतभृष्टां ज्वरापहाम्।
मुद्रान्मसूरांश्चणकान् कुलत्थान् समकुष्ठकान् ॥ १८९ ॥
यूषार्थं यूषसात्म्यानां ज्वरितानां प्रकल्पयेत्।
पटोलपत्रं सफलं कुलकं पापचेलिका (क) म् ॥ १९० ॥
कर्कोटकं कठिल्लं च विद्याच्छाकं ज्वरे हितम्।
लावान् कपिञ्जलानेणांश्चकोरानुपचक्रकान् ॥ १९१ ॥
कुरङ्गान् कालपुच्छांश्च हरिणान् पृषताशशान्।
प्रदद्यान्मांससात्म्याय ज्वरिताय ज्वरापहान् ॥ १९२ ॥
ईषदम्लाननम्लान् वा रसान्काले विचक्षणः।
कुक्कुटांश्च मयूरांश्च तित्तिरिक्रौञ्चवर्तकान् ॥ १९३ ॥
गुरूष्णत्वान्न शंसन्ति ज्वरे केचिञ्चिकित्सकाः।
लङ्घनेनानिलबलं ज्वरे यद्यधिकं भवेत् ॥ १९४ ॥
भिषयात्राविकल्पज्ञो दद्यात्तानपि कालवित्।
धर्माम्बु चानुपानार्थं तृषिताय प्रदापयेत् ॥ १९५ ॥
मद्यं वा मद्यसात्म्याय यथादोषं यथाबलम्।
गुरुष्णस्निग्धमधुरकषायांश्च नवज्वरे ॥ १९६ ॥
आहारान् दोषपत्त्यर्थं प्रायशः परिवर्जयेत्।
अन्नपानक्रमः सिद्धो ज्वरघ्नःसंप्रकाशितः ॥ १९७ ॥
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यन्ते कषाया ज्वरनाशनाः।
पाक्यं शीतकषायं वा मुस्तपर्पटकं पिबेत् ॥ १९८ ॥
सनागरं पर्पटकं पिबेद्वा सदुरालभम्।
किराततितकं मुस्तं गुडूचीं विश्वभेषजम् ॥ १९९ ॥
पाठामुशीरं सोदीच्यं पिबेद्वा ज्वरशान्तये।
ज्वरघ्नादीपनाश्चैतेकषाया दोषपाचनाः ॥ २०० ॥
तृष्णारुचिप्रशमना मुखवैरस्यनाशनाः।
कलिङ्गकाः पटोलस्य पत्रं कटुकरोहिणी ॥ २०१ ॥
पटोलः सारिवा मुस्तं पाठा कटुकरोहिणी।
निम्बः पटोलस्त्रिफला मृद्दीकामुस्तवत्सकाः ॥ २०२ ॥
किराततिक्तममृता चन्दनं विश्वभेषजम्।
गुडूच्यामलकं मुस्तमर्धश्लोकसमापनाः॥२०३॥
कषायाः शमयन्त्याशु पञ्च पञ्चविधाज्वरान्।
सन्ततं सततान्येद्युस्तृतीयकचतुर्थकान्॥२०४॥
वत्सकारग्वधौ पाठा षड्ग्रन्था कटुरोहिणी।
मूर्वासातिविषा निम्बः पटोलो धन्वयासकः॥ २०५॥
वचा मुस्तमुशीराणि मधुकं त्रिफला बला।
पाक्यं शीतकषायं वा पिबेज्ज्वरहरं नरः॥२०६॥
मधूकमुस्तमृद्वीकाकाश्मर्याणि परूषकम्।
त्रायमाणामुशीरं च त्रिफलां कटुरोहिणीम्॥२०७॥
पीत्वा निशिस्थितं जन्तुर्ज्वराच्छीघ्रं विमुच्यते।
जात्यामलकमुस्तानि1503 तद्वद्धन्वयवासकम्॥२०८॥
विबद्धदोषो ज्वरितः कषायं सगुडं पिबेत्।
त्रिफलां त्रायमाणां च मृद्वीकां कटुरोहिणीम्॥२०९॥
पित्तश्लेष्महरस्त्वेष कषायो ह्यानुलोमिकः।
त्रिवृताशर्करायुक्तः पित्तश्लेष्मज्वरापहः॥२१०॥
बृहत्यौ वत्सकं मुस्तं देवदारु महौषधम्।
कोलवल्ली च योगोऽयं संनिपातज्वरापहः॥२११॥
शटी पुष्करमूलं च व्याघ्री शृङ्गी दुरालभा।
गुडूची नागरं पाठा किरातं कटुरोहिणीम्॥२१२॥
एष शट्यादिको वर्गः संनिपातज्वरापहः।
कासहृद्ग्रहपार्श्वार्तिश्वासतन्द्रासु शस्यते॥२१३॥
बृहत्यौ पुष्करं भार्ङ्गीशटी शृङ्गी दुरालभा।
वत्सकस्य च बीजानि पटोलं कटुरोहिणी॥२१४॥
बृहत्यादिर्गणः प्रोक्तः संनिपातज्वरापहः।
कासादिषु च सर्वेषु दद्यात् सोपद्रवेषु च॥२१५॥
कषायाश्च यवाग्वश्च पिपासाज्वरनाशनाः।
निर्दिष्टा भेषजाध्याये भिषक्तानपि योजयेत्॥२१६॥
ज्वराः कषायैर्वमनैर्लङ्घनैर्लघुभोजनैः।
रूक्षस्य ये न शाम्यन्तिसर्पिस्तेषां भिषग्जितम्॥२१७॥
रूक्षं तेजो ज्वरकरं तेजसा रूक्षितस्य च।
यः स्यादनुबलो धातुः स्नेहसाध्यः1504 स चानिलः ॥२१८॥
कषायाः सर्व एवैते सर्पिषा सह योजिताः।
प्रयोज्या ज्वरशान्त्यर्थमभिसंचुक्षणाः शिवाः॥२१९॥
पिप्पल्यश्चन्दनं मुस्तमुशीरं कटुरोहिणी।
कलि कास्तामलकी सारिवाऽतिविषा स्थिरा॥२२०॥
द्राक्षामलकबिल्वानि त्रायमाणा निदिग्धिका।
सिद्धमेभिर्घृतं सद्यो ज्वरं जीर्णमपोहति॥२२१॥
क्षयं कासं शिरःशूलं पार्श्वशूलं हलीमकम्।
अंतरवेलपति च विषमं संनियच्छति॥२२२॥
इति पिप्पल्याद्यं घृतम् ।
वासां गुडूचींत्रिफलां त्रायमाणां यवासकम्।
पक्त्वा तेन कषायेण पयसा द्विगुणेन च॥२२३॥
पिप्पली मुस्तमृद्वीकाचन्दनोत्पलनागरैः।
कल्कीकृतैश्च विपचेद्घृतं जीर्णज्वरापहम्॥२२४॥
इति वासाद्यं घृतम्।
बलां श्वदंष्ट्रां बृहतीं कलसीं धावनीं स्थिराम्।
निम्बं पर्पटकं मुस्तं त्रायमाणां दुरालभाम्॥२२५॥
कृत्वा कषायं पेष्यार्थे दद्यात्तामलकीं शटीम्।
द्राक्षां पुष्करमूलं च मेदामामलकानि च॥२२६॥
घृतं पयश्च तत्सिद्धं सर्पिज्वरहरं परम्।
क्षयकासशिरःशूलपार्श्वशुलांसतापनुत्॥२२७॥
इति बलाद्यं घृतम्।
ज्वरिभ्यो बहुदोषेभ्य ऊर्ध्वं चाधश्च बुद्धिमान्।
दद्यात् संशोधनं काले कल्पे यदुपदेक्ष्यते॥२२८॥
मदनं पिप्पलीभिर्वा कलिङ्गैर्मधुकेन वा।
१ ‘सूत्रस्थाने षड्विरेचनशताश्रितीयेऽध्याये’ चक्रः।
युक्तमुष्णाम्बुमा पेयं वमनं ज्वरशान्तये॥२२९॥
क्षौद्राम्बुना रसेनेक्षोरथवा लवणाम्बुना।
ज्वरे प्रच्छर्दनं शस्तं मद्यैर्वा तर्पणेन वा॥२३०॥
मृद्वीकामलकानां वा रसं प्रस्कन्दनं पिबेत्।
रसमामलकानां वा घृतभृष्टं ज्वरापहम्॥२३१॥
लिह्याद्वा त्रैवृतं चूर्ण संयुक्तं मधुसर्पिषा।
पिबेद्वा क्षौद्रमावाप्य सघृतं त्रिफलारसम्॥२३२॥
आरग्वधं वा पयसा मृद्वीकानां रसेन वा।
त्रिवृतां1505त्रायमाणां वा पयसा ज्वरितः पिबेत्॥२३३॥
ज्वराद्विमुच्यते पीत्वा मृद्वीकाभिः सहाभयाम्।
पयोऽनुपानमुष्णं वा पीत्वा द्राक्षारसं नरः॥२३४॥
कासाच्छ्रासाच्छिरःशूलात्पार्श्वशूलाच्चिरज्वरात्।
मुच्यते ज्वरितः पीत्वा पञ्चमूलीशृतं पयः॥२३५॥
एरण्डमूलोत्क्वथितं ज्वरात् सपरिकर्तिकात्।
पयो विमुच्यते पीत्वा तद्वद्बिल्वशलाटुभिः॥२३६॥
त्रिकण्टकबलाव्याघ्रीगुडनागरसाधितम्।
वर्चोमूत्रविबन्धघ्नं शोफज्वरहरं पयः॥२३७॥
सनागरं समृद्वीकं सघृतक्षौद्रशर्करम्।
शृतं पयः सखर्जूरं पिपासाज्वरनाशनम्॥२३८॥
चतुर्गुणेनाम्भसा वा शृतं ज्वरहरं पयः।
धारोष्णं वा पयः सद्यो वातपित्तज्वरं जयेत्॥२३९॥
जीर्णज्वराणां सर्वेषां पयः प्रशमनं परम्।
पेयं तदुष्णं शीतं वा यथास्वं भेषजैः शृतम्॥२४०॥
प्रयोजयेज्ज्वरहरान्निरूहान् सानुवासनान्।
पक्काशयगते दोषे वक्ष्यन्ते ये च सिद्धिषु॥२४१॥
पटोलारिष्टपत्राणि सोशीरश्चतुरङ्गुलः।
ह्रीबेरं रोहिणी तिक्ता श्वदंष्ट्रा मदनानि च॥२४२॥
स्थिरा बला च तत् सर्वेपयस्यर्धोदके शृतम्।
क्षीरावशेषं निर्यूहं संयुक्तं मधुसर्पिषा॥२४३॥
कल्कैर्मदनमुस्तानां पिप्पल्या मधुकस्य च।
वत्सकस्य च संयुक्तं बस्तिं दद्याज्ज्वरापहम्॥२४४॥
शुद्धे मार्गे हृते दोषे विप्रसन्नेषु धातुषु।
गताङ्गशूलो लघ्वङ्गः सद्यो भवति विज्वरः॥२४५॥
आरग्वधमुशीरं च मदनस्य1506 फलानि च।
चतस्रः1507पर्णिनीश्चैव निर्यूहमुपकल्पयेत्॥२४६॥
प्रियङ्गुर्मदनं मुस्तं शताह्वामधुयष्टिका।
कल्कः सर्पिर्गुडः क्षौद्रं ज्वरघ्नो बस्तिरुत्तमः॥२४७॥
गुडूचीं त्रायमाणां च चन्दनं मधुकं वृषम्।
स्थिरां बलां पृश्निपर्णीं मदनं चेति साधयेत्॥२४८॥
रसं जाङ्गलमांसस्य रसेन सहितं भिषक्।
पिप्पलीफलमुस्तानां कल्केन मधुकस्य च॥२४९॥
ईषत्सलवणं युक्त्या निरूहं मधुसर्पिषा।
ज्वरप्रशमनं दद्याद्बलस्वेदरुचिप्रदम्॥२५०॥
जीवन्तीं मधुकं मेदां पिप्पलीं मदनं वचाम्।
ऋद्धिं रास्नांबलां बिल्वं शतपुष्पां शतावरीम्॥२५१॥
पिष्ट्वाक्षीरं जलं सर्पिस्तैलं च विपचेद्भिषक्।
आनुवासनिकं स्नेहमेतद्विद्याज्ज्वरापहम्॥२५२॥
पटोलपिचुमर्दाभ्यां गुडूच्या मधुकेन च।
मदनैश्च शृतः स्नेहो ज्वरघ्नमनुवासनम्॥२५३॥
चन्दनागुरुकाश्मर्यपटोलमधुकोत्पलैः।
सिद्धः स्नेहोज्वरहरः स्नेहबस्तिः प्रशस्यते॥२५४॥
यदुक्तं भेषजाध्याये1508 विमाने रोगभेषजे।
शिरोविरेचनं कुर्याद्युक्तिज्ञस्तज्वरापहम्॥२५५॥
यच्च नावनिकं1509 तैलं याश्चप्राग्धूमवर्तयः।
मात्राशितीये निर्दिष्टाः प्रयोज्यास्ता ज्वरेष्वपि॥२५६॥
अभ्यङ्गांश्च प्रदेहांश्च परिषेकांश्च कारयेत्।
यथाभिलाष शीतोष्णं विभज्य द्विविधं ज्वरम्॥२५७॥
सहस्रधौतं1510 सर्पिर्वा तैलं वा चन्दनादिकम्।
दाहज्वरप्रशमनं दद्यादभ्यञ्जनं भिषक्॥२५८॥
अथ चन्दनाद्यं तैलमुपदेक्ष्यामः—चन्दनभद्रश्रीकालानुसार्यकालीयकपद्मापद्मकोशीरसारिवामधुक प्रपौण्डरीकनागपुष्पोदीच्यवन्यपद्मोत्पलनलिनकुमुदसौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रबिसमृणालशालूकशैवालकशेरुकानन्ताकुशकाशेक्षुदर्भशरनलशालिमूलजम्बुवेत्रवेतसवानीरगुन्द्राककुभाशनाश्वकर्णस्यन्दनवातपोथशालतालधवतिनिशखदिरकदरकदम्बकाश्मर्यफलसर्जप्लक्षकपीतनोदुम्बराश्वत्थन्यग्रोधघातकीदूर्वेत्कटकशृङ्गाटकमञ्जिष्ठाज्योतिष्मतीपुष्करबीजक्रौञ्चादनबदरकोविदारकदलीसंवर्तकारिष्टशतपर्वाश्वेतकुम्भिकाशतावरीश्रीपर्णीश्रावणीमहाश्रावणीरोहिणीशीतपाक्योदनपाकीकालाबलापयस्याविदारीजीवकर्षभकक्षुद्रसहामेदामहामेदामधुरसर्ष्यप्रोक्तातृणशून्यमोचरसाटरूषकबकुलकुटजपटोलनिम्बशाल्मल नारिकेलखर्जूरमृद्वीकाप्रियालप्रियङ्गुधन्वनात्मगुप्तामधूकानामन्येषां च शीतवीर्याणां यथालाभमौषधानां कषायं कारयेत्; तेन कषायेण द्विगुणितपयसा तेषामेव च कल्केन कषायार्धमात्रं मृद्वग्निना साधयेत्तैलम्, एतत्तैलमभ्यङ्गादेव सद्यो दाहज्वरमपनयति; एतैरेव चौषधैः सुलक्ष्णपिष्टैः सुशीतैः प्रदेहं कारयेत्, एतैरेव च शृतशीतं सलिलमवगाहपरिषेकार्थं प्रयुञ्जीत॥२५९॥
मद्यारनालक्षीरसौवीरदधिघृतसलिलसेकावगाहाश्च सद्यो दाहज्वरमपनयन्ति शीतस्पर्शत्वात्। इति चन्दनादितैलम्॥२६०॥
भवन्ति चात्र।
पौष्करेषु सुशीतेषु पद्मोत्पलदलेषु च।
कदलीनां1511 च पत्रेषु क्षौमेषु विमलेषु च॥२६१॥
चन्दनोदकशीतेषु सुप्याद्दाहार्दितः सुखम्।
हिमाम्बुसिक्ते सदने शीते धारागृहेऽपि वा॥२६२॥
हेमशङ्खप्रवालानां मणीनां मौक्तिकस्य च।
चन्दमोदकशीतानां संस्पर्शानुरसान्1512 स्पृशेत्॥२६३॥
स्रग्भिर्नीलोत्पलैः पद्मैर्व्यजनैर्विविधैरपि।
शीतवाता1513वहैर्व्यज्येच्चन्दनोदकवर्षिभिः॥२६४॥
नद्यस्तडागाः पद्मिन्यो ह्रदाश्च विमलोदकाः।
अवगाहे हिता दाहतृष्णाग्लानिज्वरापहाः॥२६५॥
प्रियाः प्रदक्षिणाचाराः प्रमदाश्चन्दनोक्षिताः।
सान्त्वयेयुःपरैः कामैर्मणिमौक्तिकभूषणाः॥२६६॥
शीतानि चान्नपानानि शीतान्युपवनानि च।
वायवश्चन्द्वपादाश्च शीता दाहज्वरापहाः॥२६७॥
अथोष्णाभिप्रायिणां ज्वरितानामभ्यङ्गादीनुपक्रमानुपदेक्ष्यामः—अगुरुकुष्ठतगरपत्रनलदशैलेयकध्यामकहरेणुकास्थौणेयकक्षेमकैलावराङ्गदलपुरतमालपत्रभूतीकरोहिषसरलशल्लकीदेवदार्वग्निमन्थबिल्बस्योनाककाश्मर्यपाटलापुनर्नवावृश्चीरकण्टकारिकाबृहतीशालपर्णीपृश्निपर्णीमाषपर्णीमुद्गपर्णीगोक्षुरकैरण्डशोभाञ्जनकवरुणार्कचिरिबिल्बतिल्वकशटीपुष्करमूलगण्डीरोरुबूकपत्तूराक्षीवाश्मान्तकशिग्रुमातुलुङ्गमूलकमूलपर्णीपीलुपर्णीतिलपर्णीमोरटमेषशृङ्गीहिंस्नादन्तशठैरावतकभल्लातकास्फोतकाण्डीरात्मजाकाकाण्डैकैषीकाकरञ्जधान्यकाजमोदपृथ्वीकासुमुखसुरसकुठेरककालमालकपर्णासक्षवफणिज्झकभूस्तृणशृङ्गवेरपिप्पलीसर्षपाश्वगन्धारास्नारुहावरोहावचाबलातिबलागुडूचीशतपुष्पाशीतवल्ली नाकुलीगन्धनाकुलीश्वेताज्योतिष्मतीचित्रकाध्यण्डाम्लचाङ्गेरीतिलबदर कुलत्थ माषाणामेवंविधानामन्येषांचोष्णवीर्याणां यथालाभमौषधानां कषायं कारयेत्, तेन कषायेण तेषामेव च कल्केन सुरासौवीरकतुषोदकमैरेयमेदकदधिमण्डारनालकट्वरप्रतिविनीतेन तैलपात्रं विपाचयेत्,तेन सुखोष्णेन तैलेनोष्णाभिप्रायिणं ज्वरितमभ्यञ्ज्यात् तथा तस्य शीतज्वरः प्रशाम्यति; एतैरेव चौषधैः श्लक्ष्णपिष्टैः सुखोष्णैः प्रदेहं कारयेत्, एतैरेव च शृतं सुखोष्णं सलिलमवगाहार्थं परिषेकार्थं च प्रयुञ्जीत शीतज्वरप्रशमार्थम्॥२६८॥
इति शीतज्वरे ऽगुर्वादि तैलम्।
भवन्ति चात्र।
त्रयोदशविधः स्वेदः स्वेदाध्याये निदर्शितः।
मात्राकालविदा युक्तः स च शीतज्वरापहः॥२६९॥
सा कुटी तच्च शयनं तच्चावच्छादनं1514 ज्वरम्।
शीतं प्रशमयन्त्याशु धूपाश्चागुरुजा1515 घनाः॥२७०॥
चारूपचितगात्र्यश्चतरुण्यो यौवनोष्मणा।
आश्लेषाच्छमयन्त्याशु प्रमदाः शिशिरज्वरम्॥२७१॥
स्वेदनान्यन्नपानानि वातश्लेष्महराणि च।
शीतज्वरं जयन्त्याशु संसर्गबलयोजनात्1516॥२७२॥
वातजे श्रमजे चैव पुराणे क्षतजे ज्वरे।
लङ्घनं न हितं विद्याच्छमनैस्तानुपाचरेत्॥२७३॥
विक्षिण्यामाशयोष्माणं यस्माद्गत्वारसं नृणाम्।
ज्वरं कुर्वन्ति दोषास्तु हीयतेऽग्निबलं ततः॥२७४॥
यथा प्रज्वलितो वह्निः स्थाल्यामिन्धनवानपि।
न पचत्योदनं सम्यगनिलप्रेरितो बहिः॥२७५॥
पक्तिस्थानात्तथा दोषैरूष्मा क्षिप्तो बहिर्नृणाम्।
न पचत्यभ्यवहृतं कृच्छ्रात् पचति वा लघु॥२७६॥
अतोऽग्निबलरक्षार्थं लङ्घनादिक्रमो हितः।
सप्ताहेन हि पच्यन्ते सर्व (प्त) धातुगता मलाः॥२७७॥
निरामश्चाप्यतः प्रोक्तो ज्वरः प्रायोऽष्टमेऽहनि।
उदीर्णदोषस्त्वल्पाग्निरश्नन् गुरु विशेषतः॥२७८॥
मुच्यते सहसा प्राणैश्चिरं क्लिश्यति वा नरः।
एतस्मात्कारणाद्विद्वान् वातिकेऽप्यादितो ज्वरे॥२७९॥
नाति गुर्वति वा स्निग्धं भोजयेत् सहसा नरम्।
ज्वरे मारुतजे त्वादावनपेक्ष्यापि हि क्रमम्॥२८०॥
कुर्यान्निरनुबन्धानामभ्यङ्गादीनुपक्रमान्।
पाययित्वा कषायं च भोजयेद्रसभोजनम्॥२८१॥
जीर्णज्वरहरं कुर्यात् सर्वशश्चाप्युपक्रमम्।
श्लेष्मलानामवातानां ज्वरोऽनुष्णे कफाधिकः॥२८२॥
परिपाकं न सप्ताहेनापि याति मृदूष्मणाम्।
तं क्रमेण यथोक्तेन लङ्घनाल्पाशनादिना॥२८३॥
आदशाहमुपक्रम्य कषायाद्यैरुपाचरेत्।
सामा ये ये च कफजाः कफपित्तज्वराश्च ये॥२८४॥
लङ्घनं लङ्घनीयोक्तं तेषु कार्यं प्रति प्रति।
वमनैश्च विरेकैश्च बस्तिभिश्च यथाक्रमम्॥२८५॥
ज्वरानुपचरेद्धीमान् कफपित्तानिलोद्भवान्।
संसृष्टान् सन्निपतितान् बुद्ध्वातरतमैः समैः॥२८६॥
ज्वरान् दोषक्रमापेक्षी यथोक्तैरौषधैर्जयेत्।
वर्धनेनैकदोषस्य क्षपणेनोच्छ्रितस्य वा1517॥२८७॥
कफस्थानानुपूर्व्या1518 वा संनिपातज्वरं जयेत्।
संनिपातज्वरस्यान्ते कर्णमूले सुदारुणः॥२८८॥
शोथः संजायते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते।
रक्तावसेचनैः शीघ्रं सर्पिष्पाणैश्च तं जयेत्॥२८९॥
प्रदेहैः कफपित्तघ्नैर्नावनैः कवलग्रहैः।
शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैर्ज्वरो यस्य न शाम्यति॥२९०॥
शाखानुसारी रक्तस्य1519 सोऽवसेकात् प्रशाम्यति।
विसर्पेणाभिघातेन यश्च विस्फोटकैर्ज्वरः॥२९१॥
तत्रादौ सर्पिषः पानं कफपित्तोत्तरोन चेत्।
दौर्बल्याद्देहधातूनां ज्वरो जीर्णोऽनुवर्तते॥२९२॥
बल्यैः संबृंहणैस्तस्मादाहारैस्तमुपाचरेत्।
कर्म साधारणं जह्यात्तृतीयकचतुर्थकौ1520॥२९३॥
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विकारा नाधिकं ज्वरं कर्तुं समर्थाः, शेषेषु त्रयोदशसु त्रिदोषहरद्रव्यस्याभावादभ्यर्हितदोषापेक्षया द्वयोश्चिकित्सोच्यते, गत्यन्तराभावात्; तत्र, वर्धनेनैकदोषस्येत्यनेन एकदोषस्य वर्धनेनापीत्यर्थः; एकशब्देन च वृद्धो दोष एवापेक्षितः, न वृद्धतरो नापि वृद्धतमः; तयोर्हि सतोर्वृद्धयोर्वर्धनेनातिवृद्ध्याऽहितमेव स्यात्; वर्धनेनैकदोषस्येति वृद्धतरवृद्धतमदोषक्षयेणैकदोषवर्धनेन, यथा-वृद्धे कफे वृद्धतरयोश्च वातपित्तयोर्मधुरं, तद्धि वृद्धतरवातपित्तक्षपकतया कफंक्षीणं वर्धयदपि ज्वरं बलवद्दोषहन्तृतया हरति; तथा वृद्धे कफे वृद्धतरे च वाते वृद्धतरे च पित्ते मधुरयोगो ज्ञेयः; एवमुदाहरणान्तराणि ज्ञेयानि; अतस्त्वत्र वर्धनेनैकदोषस्येत्यनेन द्वयुल्बणानां त्रयाणां तथा हीनमध्याधिकदोषाणां सन्निपातानां त्विकित्सोक्ता; क्षपणेनैकदोषस्येत्यनेन च क्षीणद्वयसंवर्धकमपि यन्महात्ययवृद्धतरवृद्धतमदोषक्षपकं भवति, तद्भेषजं कर्तव्यं; वृद्धतमो ह्यतिवृद्धः सद्यो हन्ति, तत्प्रक्रियायां च क्षीणयोर्वृद्धिरत्यल्पायासक्रमेण प्रतिकर्तव्येति भावः’ चक्रः।
आगन्तुरनुबन्धो हि प्रायशो विषमज्वरे।
वातप्रधानं सर्पिभिर्बस्तिभिः सानुवासनैः॥२९४॥
स्निग्धोष्णैरन्नपानैश्च शमयेद्विषमज्वरम्।
विरेचनेन पयसा सर्पिषा संस्कृतेन च॥२९५॥
विषमं तिक्तशीतैश्च ज्वरं पित्तोत्तरं जयेत्।
क्मनं पाचनं रूक्षमन्नपानं विलङ्घनम्॥२९६॥
कषायोष्णं च विषमे ज्वरे शस्तं कफोत्तरे।
योगाः परं1521 प्रवक्ष्यन्ते विषमज्वरनाशनाः॥२९७॥
प्रयोक्तव्या मतिमता दोषादीन् प्रविभज्य ये।
सुरां समण्डां पानार्थे भक्ष्यार्थे चरणायुधान्॥२९८॥
तित्तिरींश्च मयूरांश्च प्रयुञ्ज्याद्विषमज्वरे।
पिबेद्वा षट्पलं सर्पिरभयां वा प्रयोजयेत्॥२९९॥
त्रिफलायाः कषायं वा गुडूच्या रसमेव वा।
नीलिनीमजगन्धां च त्रिवृतां कटुरोहिणीम्॥३००॥
पिबेज्ज्वरागमे युक्त्त्या स्नेहस्वेदोपपादितः।
सर्पिषो महतीं मात्रां पीत्वा वा छर्दयेत् पुनः॥३०१॥
उपयुज्यानपानं वा प्रभूतं पुनरुल्लिखेत्।
सान्नं मद्यं प्रभूतं वा पीत्वा स्वप्याज्वरागमे॥३०२॥
आस्थापनं यापनं वा कारयेद्विषमज्वरे।
पयसा वृषदंशस्य शकृद्वा1522 तदहः पिबेत्॥३०३॥
वृषस्य दुघिमण्डेन सुरया वा ससैन्धवम्।
पिप्पल्यास्त्रिफलायाश्च दध्नस्तक्रस्यसर्पिषः॥३०४॥
पञ्चगव्यस्य पयसः प्रयोगो विषमज्वरे।
लशुनस्य सतैलस्य प्राग्भक्तमुपसेवनम्॥३०५॥
मेद्यानामुष्णवीर्याणामामिषाणां च भक्षणम्।
हिङ्गुतुल्या तु वैयाघ्री वसा नस्यं ससैन्धवा॥३०६॥
पुराणसर्पिः सिंहस्य वसा तद्वत् ससैन्धवा।
सैन्धवं पिप्पलीनां च तण्डुलाः समनःशिलाः॥३०७॥
नेत्राञ्जनं तैलपिष्टं शस्यते विषमज्वरे।
पलङ्कषा निम्बपत्रं वचा कुष्ठं हरीतकी॥३०८॥
सर्षपाःसयवाः सर्पिर्धूपनं ज्वरनाशनम्।
ये धूमा धूपनं यच्च नावनं चाञ्जनं च यत्॥३०९॥
मनोविकारे1523 निर्दिष्टं कार्यं तद्विषमज्वरे।
मणीनामोषधीनां च मङ्गल्यानां विषस्यच॥३१०॥
धारणादगदानां च सेवनान्न भवेज्ज्वरः।
सोमं सानुचरं देवं समातृगणमीश्वरम्॥३११॥
पूजयन् प्रयतः शीघ्रं मुच्यते विषमज्वरात्।
विष्णुं सहस्रमूर्धानं चराचरपतिं विभुम्॥३१२॥
स्तुवन्नामसहस्रेण ज्वरान् सर्वानपोहति।
ब्रह्माणमश्विनाविन्द्रं हुतभक्षं हिमाचलम्॥३१३॥
गङ्गां मरुद्रणांश्चेष्ट्या1524 पूजयञ्जयति ज्वरान्।
भक्त्या मातापितॄणां च गुरूणां पूजनेन च॥३१४॥
ब्रह्मचर्येण तपसा सत्येन नियमेन च।
जपहोमप्रदानेन वेदानां श्रवणेन च॥३१५॥
ज्वराद्विमुच्यते शीघ्रं साधूनां दर्शनेन च।
ज्वरे रसस्थे वमनमुपवासं च कारयेत्॥३१६॥
सेकप्रदेहौ रक्तस्थे तथा संशमनानि च।
विरेचेनं सोपवासं मांसमेदःस्थिते हितम्॥३१७॥
अस्थिमज्जगते देया निरूहाः सानुवासनाः।
शापाभिचाराद्भूतानामभिषङ्गाच्चयो ज्वरः॥३१८॥
दैवव्यपाश्रयं तत्र सर्वमौषधमिष्यते।
अभिघातज्वरो नश्येत् पानाभ्यङ्गेन सर्पिषः॥३१९॥
रक्तावसेकैर्मद्यैश्च सात्म्यैर्मांसरसौदनैः।
सानाहो मद्यसात्म्यानां मदिरारसभोजनैः॥३२०॥
क्षतानां1525 व्रणितानां च क्षतव्रणचिकित्सया।
आश्वासेनेष्टलाभेन वायोः प्रशमनेन च॥३२१॥
हर्षणैश्च शमं यान्ति कामशोकभयज्वराः।
काम्यैरर्थैर्मनोज्ञैश्च पित्तघ्नैश्चाप्युपक्रमैः॥३२२॥
सद्वाक्यैश्च शमं याति ज्वरः क्रोधसमुत्थितः।
कामत्क्रोधज्वरो नाशं क्रोधात्कामसमुद्भवः॥३२३॥
याति ताभ्यामुभाभ्यां च भयशोकसमुत्थितः।
ज्वरकालं च वेगं च चिन्तयञ्ज्वर्यते तु यः॥३२४॥
तस्येष्ठैस्तु विचित्रैश्च विषयैर्नाशयेत् स्मृतिम्।
ज्वरप्रमोक्षे पुरुषः कूजन् वमति चेष्टते॥३२५॥
श्वसन् विवर्णः स्विन्नाङ्गो वेपते लीयते मुहुः।
प्रलपत्युष्णसर्वाङ्गः ‘शीताङ्गश्च भवत्यपि॥३२६॥
विसंज्ञो ज्वरवेगार्तःसक्रोध इव वीक्ष्यते।
सदोषशब्दं च शकृद्द्रवं स्रवति वेगवत्॥३२७॥
लिङ्गान्येतानि जानीयाज्ज्वरमोक्षे विचक्षणः।
बहुदोषस्य बलिनः प्रायेणाभिनवो ज्वरः॥३२८॥
सक्रियादोषपक्त्त्या चेद्विमुञ्चति स दारुणम्।
कृत्वा दोषवशाद्वेगं क्रमादुपरमन्ति ये॥३२९॥
तेषामदारुणो मोक्षो ज्वराणां चिरकारिणाम्।
विगतक्लमसंतापमव्यथं विमलेन्द्रियम्॥३३०॥
युक्तं प्रकृतिसत्त्वेन विद्यात् पुरुषमज्वरम्।
सज्वरो ज्वरमुक्तश्च विदाहीनि गुरूणि च॥३३१॥
असात्म्यान्यन्नपानानि विरुद्धानि विवर्जयेत्।
व्यवायमतिचेष्टाश्च स्नानमत्यशनानि च॥३३२॥
तथा ज्वरः शमं याति प्रशान्तो न च जायते।
व्यायामं च व्यवायं च स्नानं चङ्क्रमणानि च॥३३३॥
ज्वरमुक्तो न सेवेत यावन्न बलवान् भवेत्।
असंजातबलो यस्तु ज्वरमुक्तो निषेवते॥३३४॥
वर्ज्यमेतन्नरस्तस्य पुनरावर्तते ज्वरः।
दुर्हृतेषु च दोषेषु यस्य वा विनिवर्तते॥३३५॥
स्वल्पेनाप्यपचारेण तस्य व्यावर्तते पुनः।
चिरकालपरिक्लिष्टंदुर्बलं दीनचेतसम्1526॥३३६॥
अचिरेणैव कालेन स हन्ति पुनरागतः।
अथवाऽपि परीपाकं धातुष्वेव क्रमान्मलाः॥३३७॥
यान्ति ज्वरमकुर्वन्तस्ते तथाऽप्यपकुर्वते।
दीनतां श्वयथुं ग्लानिं पाण्डुतां नान्नकामताम्॥३३८॥
कण्डूरुत्कोठपिडकाः1527 कुर्वन्त्यग्निंच ते मृदुम्।
एवमन्येऽपि च गदा व्यावर्तन्ते पुनर्गताः॥३३९॥
अनिर्घातेन दोषाणामल्पैरप्यहितैर्नृणाम्।
निवृत्तेऽपि ज्वरे तस्माद्यथावस्थं यथाबलम्॥३४०॥
यथाप्राणं हरेद्दोषं प्रयोगैर्वा शमं नयेत्।
मृदुभिः शोधनैः शुद्धिर्यापना बस्तयो हिताः॥३४१॥
हिताश्च लघवो यूषा जाङ्गलामिषजा रसाः।
अभ्यङ्गोद्वर्तनस्नानधूपनाभ्यञ्जनानि च॥३४२॥
हितानि पुनरावृत्ते ज्वरे तिक्तघृतानि च।
गुर्व्यभिष्यन्द्यसात्म्यानां भोजनात् पुनरागते॥३४३॥
लङ्घनोष्णोपचारादिः क्रमः कार्यश्च पूर्ववत्।
किराततिक्तकं तिक्ता मुस्तं पर्पटकोऽमृता॥३४४॥
घ्नन्ति पीतानि चाभ्यासात् पुनरावर्तकं ज्वरम्।
तस्यां तस्यामवस्थायां ज्वरितानां विचक्षणः॥३४५॥
ज्वरक्रियाक्रमापेक्षी कुर्यात्तत्र1528चिकित्सितम्।
रोगराट्सर्वभूतानामन्तकृद्दारुणो ज्वरः॥३४६॥
तस्माद्विशेषतस्तस्य यतेत प्रशमे भिषक्।
तत्र श्लोकः।
यथाक्रमं यथाप्रश्नमुक्तं ज्वरचिकित्सितम्॥३४७॥
अत्रिजेनाग्निवेशाय भूतानां हितमिच्छता।
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सितस्थाने ज्वरचिकित्सितं नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
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चतुर्थोऽध्यायः।
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अथातो रक्तपित्तचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह माह भगवानात्रेयः॥२॥
बिहरन्तं जितात्मानं पञ्चगङ्गे पुनर्वसुम्।
प्रणम्योवाच निर्मोहमग्निवेशोऽग्निवर्चसम्॥३॥
भगवन् रक्तपित्तस्य हेतुरुक्तः सलक्षणः।
वक्तव्यं यत् परं तस्य वक्तुमर्हसि तद्गुरो॥४॥
गुरुरुवाच।
महागदं महावेगमभिवच्छीघ्रकारि च।
हेतुलक्षणविच्छीघ्रं रक्तपित्तमुपाचरेत्॥५॥
तस्योष्णं तीक्ष्णमम्लं च कटूनि लवणानि च।
धर्मश्चान्नविदाहश्च हेतुः पूर्वं निदर्शितः॥६॥
तैर्हेतुभिः समुत्क्लिष्टं पित्तं रक्तं प्रपद्यते।
तद्योनित्वात् प्रपन्नं च वर्धते तत् प्रदूषयत्॥७॥
तस्योष्मणा द्रवो धातुर्धातोर्धातोः प्रसिच्यते।
स्विद्यतस्तेन संवृद्धिं भूयस्तदधिगच्छति1529॥८॥
संयोगाद्दूषणात्तत्तु1530 सामान्याद्गन्धवर्णयोः।
रक्तस्य पित्तमाख्यातं रक्तपित्तं मनीषिभिः॥९॥
प्लीहानं च यकृच्चैव तदधिष्ठाय वर्तते।
स्रोतांसि रक्तवाहीनि तन्मूलानि हि देहिनाम्॥१०॥
सान्द्रं सपाण्डु सस्नेहं पिच्छिलं च कफान्वितम्।
श्यावारुणं सफेनं च तनु रूक्षं च वातिकम्॥११॥
रक्तपित्तं कषायाभं कृष्णं गोमूत्रसंनिभम्।
मेचकागारधूमाभमञ्जनाभं च पैत्तिकम्॥१२॥
संसृष्टलिङ्गं संसर्गात्त्रिलिङ्गं सान्निपातिकम्।
एकदोषानुगं साध्यं द्विदोषं याप्यमुच्यते॥१३॥
यत्त्रिदोषमसाध्यं तन्मन्दाग्नेरतिवेगवत्।
व्याधिभिः क्षीणदेहस्य वृद्धस्यानश्नतश्च यत्॥१४॥
गतिरूर्ध्वमधश्चैव रक्तपित्तस्य दर्शिता।
ऊर्ध्वा सप्तविधद्वारा द्विद्वारा त्वधरा गतिः॥१५॥
सप्तच्छिद्राणि1531 शिरसि, द्वे चाधः, साध्यमूर्धगम्।
याप्यं त्वधोगं, मार्गौ तु द्वावसाध्यं प्रपद्यते॥१६॥
यदा तु सर्वच्छिद्रेभ्यो1532 रोमकूपेभ्य एव च।
वर्तते तामसङ्ख्येयां गतिं तस्याहुरान्तिकीम्॥१७॥
यच्चोभयाभ्यां मार्गाभ्यामतिमात्रं प्रवर्तते।
तुल्यं कुणपगन्धेन रक्तं कृष्णमतीव च॥१८॥
संसृष्टं कफवाताभ्यां कण्ठे सज्जति चापि यत्।
यच्चाप्युपद्रवैः सर्वैर्यथोक्तैः समभिद्रुतम्॥१९॥
हारिद्रनीलहरितताम्रैर्वर्णैरुपद्रुतम्।
क्षीणस्य कासमानस्य यच्च1533तच्च न सिध्यति॥२०॥
यद्द्विदोषानुगं यद्वा शान्तं शान्तं1534 प्रकुप्यति।
मार्गान्मार्गं चरेद्यद्वा याप्यं पित्तमसृक् च तत्॥२१॥
एकमार्गं बलवतो नातिवेगं नवोत्थितम्।
रक्तपित्तं सुखे1535 काले साध्यं स्यान्निरुपद्रवम्॥२२॥
स्निग्धोष्णमुष्णरूक्षं च रक्तपित्तस्य कारणम्।
अधोगस्योत्तरं प्रायः पूर्वं स्यादूर्ध्वगस्य तु॥२३॥
ऊर्ध्वगं कफसंसृष्टमधोगं मारुतानुगम्।
द्विमार्गं कफवाताभ्यामुभाभ्यामनुबध्यते1536॥२४॥
अक्षीणबलमांसस्य रक्तपित्तं यदश्नतः।
तद्दोषदुष्टमुत्कृिष्टं नादौ स्तम्भनमर्हति॥२५॥
गलग्रहं पूतिनस्यं मूर्च्छायमरुचिं ज्वरम्।
गुल्मं प्लीहानमानाहं किलासं कृच्छ्रमूत्रताम्1537॥२६॥
कुष्ठान्यर्शांसि वीसर्पं वर्णनाशं भगन्दरम्।
बुद्धीन्द्रियोपरोधं च कुर्यात् स्तम्भितमादितः॥२७॥
तस्मादुपेक्ष्यं बलिनो1538 बलदोष1539विचारिणा।
रक्तपित्तं प्रथमतः प्रवृत्तं सिद्धिमिच्छता॥२८॥
प्रायेण हि समुत्क्लिष्टमामदोषाच्छरीरिणाम्।
वृद्धिं प्रयाति पित्तासृक् तस्मात्तल्लङ्घ्यमादितः॥२९॥
मार्गौ1540दोषानुबन्धं च निदानं प्रसमीक्ष्य च।
लङ्घनं रक्तपित्तादौ तर्पणं वा प्रयोजयेत्॥३०॥
हीबेरचन्दनोशीरमुस्तापर्पटकैः शृतम्।
केवलं भृतशीतं वा दद्यात्तोयं पिपासवे॥३१॥
ऊर्ध्वगे तर्पणं पूर्वं पेयां पूर्वमधोगते।
कालसात्म्यानुबन्धज्ञो दद्यात् प्रकृतिकल्पवित्॥३२॥
जलं खर्जूरमृद्वीकामधूकैः1541 सपरूषकैः।
शृतशीतं प्रयोक्तव्यं तर्पणार्थे सशर्करम्॥३३॥
तर्पणं सघृतक्षौद्रं लाजचूर्णैः प्रयोजयेत्1542।
ऊर्ध्वगं रक्तपित्तं तत् पीतं काले व्यपोहति॥३४॥
मन्दाग्नयेऽम्लसात्म्याय तत् साम्लमपि कल्पयेत्।
दाडिमामलके विद्वानम्लार्थं चानुदापयेत्॥३५॥
शालिषष्टिकनीवारकोरदूषप्रशान्तिकाः।
श्यामाकश्च प्रियङ्गुश्च भोजनं रक्तपित्तिनाम्॥३६॥
मुद्गामसूराश्चणकाः समकुष्ठाढकीफलाः।
प्रशस्ताः सूपयूषार्थे कल्पिता रक्तपित्तिनाम्॥३७॥
पटोलनिम्बवेत्राग्रप्लक्षवेतसपल्लवाः।
किराततिक्तकं शाकं गण्डीरं सकठिल्लकम्॥३८॥
कोविदारस्य पुष्पाणि काश्मर्याश्चाथ शाल्मलेः।
अन्नपानविधौ शाकं यच्चान्यद्रक्तपित्तनुत्॥३९॥
शाकार्थं शाकंसात्म्यानां तच्छस्तं रक्तपित्तिनाम्।
स्विन्नं वा सर्पिषा भृष्टं यूषवद्वा विपाचितम्॥४०॥
पारावतान् कपोतांश्च लावान् रक्ताक्षवर्तकान्।
शशान् कपिञ्जलानेणान् हरिणान् कालपुच्छकान्॥४१॥
रक्तपित्ते हितान् विद्याद्रसांस्तेषां प्रयोजयेत्।
ईषदम्लाननम्लान् वा घृतभृष्टान् सशर्करान्॥४२॥
कफानुगे यूषशाकं दद्याद्वातानुगे रसम्।
रक्तपित्ते, यवागूनामतः कल्पः प्रवक्ष्यते॥४३॥
पद्मोत्पलानां किञ्जल्कःपृश्चिपर्णी प्रियङ्गुका।
जले साध्या रसे तस्मिन् पेया स्याद्रक्तपित्तिनाम्॥४४॥
चन्दनोशीरलोध्राणां रसे तद्वत् सनागरे।
किराततिक्तकोशीरमुस्तानां तद्वदेव च॥४५॥
धातकीधन्वयासाम्बुबिल्वानां वा रसे शृता।
मसूरपृश्निपर्ण्योर्वा स्थिरामुद्गरसेऽथवा॥४६॥
रसे हरेणुकानां वा सघृते सबलारसे।
सिद्धाः पारावतादीनां रसे वा स्युः पृथक्पृथक्॥४७॥
इत्युक्ता रक्तपित्तघ्न्यः शीताः समधुशर्कराः।
यवाग्वः, कल्पना चैषा कार्या मांसरसेष्वपि॥४८॥
शशः सवास्तुकः शस्तो विबन्धे रक्तपित्तिनाम्।
वातोल्बणे तित्तिरिः स्यादुदुम्बररसे भृतः॥४९॥
मयूरः प्लक्षनिर्यूहे न्यग्रोधस्य च कुक्कुटः।
रसे बिल्वोत्पलादीनां1543 वर्तकक्रकरौ हितौ॥५०॥
तृष्यते तिक्तकैः सिद्धं1544 तृष्णाघ्नं वा फलोदकम्।
सिद्धं विदारिगन्धाद्यैः ऋतशीतमथापि वा॥५१॥
ज्ञात्वा दोषावनुबलौ बलमाहारमेव च।
जलं पिपासवे दद्याद्विसर्गादल्पशोऽपि1545 वा॥५२॥
निदानं रक्तपित्तस्य यत्किंचित् संप्रकाशितम्।
जीवितारोग्यकामैस्तन्न सेव्यं रक्तपित्तिभिः॥५३॥
इत्यन्नपानं निर्दिष्टं क्रमशो रक्तपित्तनुत्।
वक्ष्यते बहुदोषाणां कार्यं बलवतां च यत्॥५४॥
अक्षीणबलमांसस्य यस्य संतर्पणोत्थितम्।
बहुदोषं बलवतो1546 रक्तपित्तं शरीरिणः॥५५॥
काले संशोधनार्हस्य तद्धरेन्निरुपद्रवम्।
विरेचनेनोर्ध्वभागमधोगं वमनेन च॥५६॥
त्रिवृतामभयां प्राज्ञः फलान्यारग्वधस्य वा।
त्रायमाणां गवाक्ष्या वा मूलमामलकानि वा॥५७॥
विरेचनं प्रयुञ्जीत प्रभूतमधुशर्करम्।
रसः प्रशस्यते तेषां रक्तपित्ते विशेषतः॥५८॥
वमनं मदनोन्मिश्रो मन्थः सक्षौद्गशर्करः।
सशर्करं वा सलिलमिक्षूणां रस एव वा॥५९॥
वत्सकस्य फलं मुस्तं मदनं मधुकं मधु।
अधोगे रक्तपित्ते तु वमनं परमुच्यते॥६०॥
ऊर्ध्वगे शुद्धकोष्ठस्य तर्पणादिः क्रमो हितः।
अधोवहे1547 यवाग्वादिर्न चेत् स्यान्मारुतो बली॥६१॥
बलमांसपरिक्षीणं शोकभाराध्वकर्शितम्।
ज्वलनादित्यसंतप्तमन्यैर्वा क्षीणमामयैः॥६२॥
गर्भिणीं स्थविरं बालं रूक्षाल्पप्रमिताश (शि)नम्।
अवम्यमविरेच्यं वा यं पश्येद्रक्तपित्तिनम्॥६३॥
शोषेण सानुबन्धं वा तस्य संशमनी क्रिया।
शस्यते रक्तपित्तस्य परं चातः1548प्रवक्ष्यते॥६४॥
अटरूषकमृद्वीकापथ्याक्वाथः सशर्करः।
मधुमिश्रः श्वासकासरक्तपित्तनिबर्हणः॥६५॥
अटरूषकनिर्यूहे प्रियङ्गु मृत्तिकाञ्जने।
विनीय लोध्रंक्षौद्रं च रक्तपित्तहरं पिबेत्॥६६॥
पद्मकं पद्मकिञ्जल्कं दूर्वां वास्तूकमुत्पलम्।
नागपुष्पं च लोध्रं च तेनैव विधिना पिबेत्॥६७॥
प्रपौण्डरीकं मधुकं मधु चाश्वशकृद्रसे।
यवासभृङ्गरजसोर्मूलं वा गोशकृद्रसे॥६८॥
विनीय रक्तपित्तघ्नं पेयं स्यात्तण्डुलाम्बुना।
युक्तं वा मधुसर्पिर्भ्यांलिह्याद्गोश्वशकृद्रसम्॥६९॥
खदिरस्य प्रियङ्गूणांकोविदारस्य शाल्मलेः।
पुष्पचूर्णानि मधुना लिह्यान्ना रक्तपित्तिकः॥७०॥
शृङ्गाटकानां लाजानां मुस्तखर्जूरयोरपि।
लिह्याच्चूर्णानि मधुना पद्मानां केशरस्य च॥७१॥
धन्वजानामसृग्लिह्यान्मधुना मृगपक्षिणाम्।
सक्षौद्रं ग्रथिते रक्ते लिह्यात् पारावतं शकृत्॥७२॥
उशीरकालीयकलोध्रपद्मकप्रियङ्गुकाकट्फलशङ्खगैरिकाः।
पृथक्पृथक्1549 चन्दनतुल्यभागिकाः सशर्करास्तण्डुलधावनाप्लुताः॥७३॥
रक्तंसपित्तं तमकं पिपासां दाहं च पीताः शमयन्ति सद्यः।
किराततिक्तंक्रमुकं समुस्तं प्रपौण्डरीकं कमलोत्पले च॥७४॥
ह्रीबेरमूलानि पटोलपत्रंदुरालभा पर्पटको मृणालम्।
धनञ्जयोदुम्बरवेतस1550त्वङ्न्यग्रोधशालेययवासकत्वक्॥७५॥
तुगालतावेतसतण्डुलीयं1551 ससारिवं मोचरसः समङ्गा।
पृथक् पृथक् चन्दनयोजितानि तेनैव कल्पेन हितानि तत्र॥७६॥
निशि स्थिता वा स्वरसीकृता वा कल्कीकृता1552 वा मृदिताः श्रृता वा।
एते समस्ता गणशः पृथग्वा रक्तं सपित्तं शमयन्ति1553 योगाः॥७७॥
मुद्गाः सलाजाः सयवाः सकृष्णाः सोशीरमुस्ताः सह चन्दनेन।
बलाजले1554 पर्युषितः कषायो रक्तं सपित्तं शमयत्युदीर्णम्॥७८॥
बैदूर्यमुक्ता1555मणिगैरिकाणां मृच्छङ्खहेमामलकोदकानाम्।
मधूदकस्येक्षुरसस्य चैव पानाच्छमं गच्छति रक्तपित्तम्॥७९॥
उशीरपद्मोत्पलचन्दनानां पक्वस्य लोष्टस्य च यः प्रसादः।
सशर्करः क्षौद्रयुतः सुशीतो रक्तातियोगप्रशमाय देयः॥८०॥
प्रियङ्गुकाचन्दनलोध्रसारिवामधूकमुस्ता भयधातकी जलम्।
समृत्प्रसादं सह षष्टिकाम्बुना1556 सशर्करं रक्तनिबर्हणं परम्॥८१॥
कषाययोगैर्विविधैर्यथोक्तैर्दीप्तेऽनले श्लेष्मणि निर्जिते च।
यद्वक्तपित्तं प्रशमं न याति तत्रानिलः स्यादनु तन्नकार्यम्॥८२॥
छागं पयः स्यात् प्रथमं प्रयोगे गव्यं शृतं पञ्चगुणे जले वा।
सशर्करं माक्षिकसंप्रयुक्तं विदारिगन्धादिगणैः शृतं वा॥८३॥
द्राक्षाशृतं नागरकैः शृतं वा बलाशृतं गोक्षुरकैः शृतं वा।
सजीवकं सर्षभकं ससर्पिः पयः प्रयोज्यं सितया शृतं वा॥८४॥
शतावरीगोक्षुरकैः शृतं वा शृतं पयो वाऽप्यथ पर्णिनीभिः।
रक्तं हिनस्त्याशु विशेषतस्तु यन्मूत्रमार्गात् सरुजं प्रयाति॥८५॥
विशेषतो विट्पथसंप्रवृत्ते पयो हितं मोचरसेन सिद्धम्।
वटावरोहैर्वटशुङ्गकैर्वा ह्रीबेरनीलोत्पलनागरैर्वा॥८६॥
कषाययोगान् पयसा पुरा वा पीत्वा तु चाद्यात्पयसैव शालीन्।
कषाययोगैरथवा विपक्वमेतैः पिबेत् सर्पिरतिस्रुते च॥८७॥
वासां सशाखां सपलाशमूलां1557 कृत्वा कषायं कुसुमानि चास्य।
प्रदाय कल्कं विपचेद्धृतं तत्सक्षौद्रमाश्वेव निहन्ति रक्तम्॥८८॥
इति वासाघृतम्।
पलाशवृन्तस्वरसेन सिद्धं तस्यैव कल्केन मधुद्रव1558 हि।
लिह्याद्घृतं वत्सककल्कसिद्धं तद्वत्समङ्गोत्पललोधसिद्धम्॥८९॥
स्यात्त्रायमाणाविधिरेष एव सोदुम्बरे चैव पटोलपत्रे।
सर्पींषि पित्तज्वरनाशनानि सर्वाणि शस्तानि च रक्तपित्ते॥१०॥
अभ्यङ्गयोगाः परिषेचनानि सेकावगाहाः शयनानि वेश्म।
शीतो विधिर्बस्तिविधानमग्र्यंपित्तज्वरे यत् प्रशमाय दिष्टम्॥९१॥
तद्रक्तपित्ते निखिलेन कार्यं कालं च मात्रां च पुरा समीक्ष्य।
सर्पिर्गुडा ये च हिताः क्षतेभ्यस्ते रक्तपित्तं शमयन्ति सद्यः॥९२॥
कफानुबन्धे रुधिरे सपित्ते कण्ठागते स्याद्ग्रथिते प्रयोगः।
युक्तस्य युक्त्या1559 मधुसर्पिषोश्च क्षारस्य चैवोत्पलनालजस्य1560॥१३॥
मृणालपोत्पलकेशराणां तथा पलाशस्य तथा प्रियङ्गोः।
तथा मधूकस्य तथाऽसनस्य क्षाराः प्रयोज्या विधिनैव तेन॥१४॥
शतावरी दाडिमतिन्तिडीकं काकोलिमेदे मधुकं विदारीम्।
पिष्ट्वाच मूलं फलपूरकस्य घृतं पचेत् क्षीरचतुर्गुणं ज्ञः॥१५॥
कासज्वरानाहविबन्धशूलं तद्रक्तपित्तं च घृतं निहन्यात्।
यत् पञ्चमूलैरथ पञ्चभिर्वा सिद्धं घृतं तच्च तदर्थकारि॥९६॥
इति शतमूल्यादिघृतं पञ्चमूलघृतं च।
कषाययोगा य इहोपदिष्टास्ते चावपीडे भिषजा प्रयोज्याः।
घ्राणात्प्रवृत्तं रुधिरं सपित्तं यदा भवेन्निःस्नुतदुष्टदोषम्॥९७॥
रक्ते प्रदुष्टे ह्यवपीडबन्धे (द्धे) दुष्टप्रतिश्यायशिरोविकाराः।
रक्तंसपूयं कुणपश्च1561 गन्धः स्याद्धाणनाशः कृमयश्च दुष्टाः॥९८॥
नीलोत्पलं गैरिकशङ्खयुक्तं सचन्दनं स्यात्तु सिताजलेन।
नस्यं तथाऽऽम्रास्थिरसः समङ्गा सघातकीमोचरसः सलोधः॥१९॥
द्राक्षारसस्येक्षुरसस्य नस्यं क्षीरस्य दूर्वास्वरसस्य चैव।
यवासमूलानि पलाण्डुमूलं नस्यं तथा दाडिमपुष्पतोयम्॥१००॥
प्रियालतैलं मधुकं पयश्च सिद्धं घृतं माहिषमाजकं वा।
आम्रास्थिपूर्वैः पयसा च नस्यं ससारिवैः स्यात्कमलोत्पलैश्च॥१०१॥
भद्रश्रियं लोहितचन्दनं च प्रपौण्डरीकं कमलोत्पले च।
उशीरवानीरजलं मृणालं सहस्रवीर्या मधुकं पयस्या॥१०२॥
शालीक्षुमूलानि यवासगुन्द्रामूलं नलानां कुशकाशयोश्च।
कुचन्दनं शैवलमप्यनन्ता कालानुसार्या तृणमूलमृद्धिः॥१०३॥
मूलानि पुष्पाणि च वारिजानां प्रलेपनं पुष्करिणीमृदश्च।
उदुम्बराश्वत्थमधूकलोध्राः कषायवृक्षाः शिशिराश्च सर्वे॥
प्रदेहकल्पे परिषेचने च तथाऽवगाहे घृततैलसिद्धौ।
रक्तस्य पित्तस्य च शान्तिमिच्छन् भद्रश्रियादीनि भिषक्प्रयुञ्ज्यात्॥१०५॥
धारागृहं1562 भूमिगृहं सुशीतं वनं च रम्यं जलवातशीतम्।
वैदूर्यमुक्तामणिभाजनानां स्पर्शाश्च दाहे शिशिराम्बुशीताः॥१०६॥
पत्राणि पुष्पाणि च वारिजानां क्षौमं च शीतं कदलीदलं च।
प्रच्छादनार्थं शयनासनानां पद्मोत्पलानां च दलाः प्रशस्ताः॥१०७॥
प्रियङ्गुकाचन्दनरूषितानां स्पर्शाःप्रियाणां च वराङ्गनानाम्।
दाहे प्रशस्ताः सजलाः सुशीताः पद्मोत्पलानां च कलापवाताः1563॥१०८॥
सरिद्ध्रदानां हिमवद्दरीणां चन्द्रोदयानां कमलाकराणाम्।
मनोऽनुकूलाः शिशिराश्च सर्वाः कथाः सरक्तं शमयन्ति पित्तम्॥१०९॥
तत्र श्लोकौ।
हेतुं वृद्धिं संज्ञां स्थानं लिङ्गं पृथक् प्रदुष्टस्य।
मार्गौ साध्यमसाध्यं याप्यं कार्यक्रमं चैव॥११०॥
पानान्नमिष्टमेव च वर्ज्यं संशोधनं च शमनं च।
गुरुरुक्तवान् यथावञ्चिकित्सिते रक्तपित्तस्य॥१११॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने रक्तपित्तचिकित्सितं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
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पञ्चमोऽध्यायः।
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अथातो गुल्मचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सर्वप्रजानां पितृवच्छरण्यः पुनर्वसुर्भूतभविष्यदीशः।
चिकित्सितं गुल्मनिबर्हणार्थं प्रोवाच सिद्धं1564 वदतां वरिष्ठः॥३॥
विट्श्लेष्मपित्तातिपरिस्रवाद्वा तैरेव वृद्धैरतिपीडनाद्वा।
बेगैरुदीर्णैर्विहतैरघो वा बाह्याभिघातैरतिपीडनैर्वा॥४॥
रूक्षान्नपानैरतिसेवितैर्वा शोकेन मिथ्याप्रतिकर्मणा वा।
विचेष्टितैर्वा विषमातिमात्रैः कोष्ठे प्रकोपं समुपैति वायुः॥५॥
कफं च पित्तं च स दूषयित्वा1565 प्रोद्धूय मार्गान्विनिबध्य ताभ्याम्।
हृन्नामिपार्श्वोदरबस्तिशूलं करोत्यधो याति1566 न बद्धमार्गः॥६॥
पक्वाशये पित्तकफाशये वा स्थितः स्वतन्त्रः परसंश्रयो वा।
स्पर्शोपलभ्यः परिपिण्डितत्वाद्गुल्मो यथादोषमुपैति नाम॥७॥
बस्तौ च नाभ्यां हृदि पार्श्वयोर्वा स्थानानि गुल्मस्य भवन्ति पञ्च।
पञ्चात्मकस्य प्रभवं तु तस्य वक्ष्यामि लिङ्गानि चिकित्सितं च॥८॥
रूक्षान्नपानं विषमातिमात्रं विचेष्टितं वेगविनिग्रहश्च।
शोकोऽभिघातोऽतिमलक्षयश्च निरन्नता चानिलगुल्महेतुः॥९॥
यः स्थानसंस्थानरुजां विकल्पं विज्ञातसङ्गं गलवक्रशोषम्।
श्यावारुणत्वं शिशिरज्वरं च हृत्कुक्षिपार्श्वांसशिरोरुजं च॥१०॥
करोति जीर्णेऽभ्यधिकं प्रकोपं भुक्ते मृदुत्वं समुपैति यश्च।
बातात् स गुल्मो न च तत्र रूक्षं कषायतिक्तं कटु चोपशेते॥११॥
कटुम्लतीक्ष्णोष्णविदाहिरूक्षक्रोधातिमद्यार्कहुताशसेवा।
आमाभिघातो1567 रुधिरं1568 च दुष्टं पैत्तस्य गुल्मस्य निदानमुक्तम्॥१२॥
ज्वरः पिपासा वदनाङ्गरागः शूलं महज्जीर्यति भोजने च।
स्वेदो विदाहो व्रणवच्चगुल्मः स्पर्शासहः पैत्तिकगुल्मरूपम्॥१३॥
शीतं गुरु स्निग्धमचेष्टनं च संपूरणं प्रस्वपनं दिवा च।
गुल्मस्य हेतुः कफसंभवस्य, सर्वस्तु दुष्टो निचयात्मकस्य॥१४॥
स्तैमित्यशीतज्वरगात्रसादहृल्लासकासारुचिगौरवाणि।
शैत्यं रुगल्पाकठिनोन्नतत्वं गुल्मस्य रूपाणि कफात्मकस्य॥१५॥
निमित्तलिङ्गान्युपलभ्य गुल्मे द्विदोषजे दोषबलाबलं च।
ध्यामिश्रमिङ्गानपरांस्तु गुल्मांस्त्रीनादिशेदौषधकल्पनार्थम्॥१६॥
महारुजं दाहपरीतमश्मवद्धनोन्नतं शीघ्रविदाहि दारुणम्।
मनःशरीराग्निबलापहारिणं त्रिदोषजं गुल्ममसाध्यमादिशेत्॥१७॥
ऋतावनाहारतया भयेन विरुक्षणैर्वेगविनिग्रहैश्च।
संस्तम्भनोल्लेखनयोनिदोषैर्गुल्मः स्त्रियं1569 रक्तभवोऽभ्युपैति॥१८॥
यः स्पन्दते पिण्डित एव नाङ्गैश्चिरात् सशूलःसमगर्भलिङ्गः।
स रौधिरः स्त्रीभव एव गुल्मो मासे व्यतीते दशमे चिकित्स्यः॥१९॥
क्रियाक्रममतः सिद्धं गुल्मिनां गुल्मनाशनम्।
प्रवक्ष्याम्यत1570 ऊर्ध्वं च योगान् गुल्मनिबर्हणान्॥२०॥
रूक्षव्यायामजं गुल्मं वातिकं तीव्रवेदनम्।
बद्धविण्मारुतं स्नेहैरादितः समुपाचरेत्॥२१॥
भोजनाभ्यञ्जनैः पानैर्निरूहैः सानुवासनैः।
स्निग्धस्य भिषजा स्वेदः कर्तव्यो गुल्मशान्तये॥२२॥
स्रोतसां मार्दवं कृत्वा जित्वा मारुतमुल्बणम्।
भित्त्वाविबन्धं स्निग्धस्य स्वेदो गुल्ममपोहति॥२३॥
स्नेहपानं हितं गुल्मे विशेषेणोर्ध्वनाभिजे।
पक्वाशयगते बस्तिरुभयं जठराश्रये॥२४॥
दीप्तेऽग्नौवातिके गुल्मे विबन्धेऽनिलवर्चसोः।
बृंहणान्यन्नपानानि स्निग्धोष्णानि प्रयोजयेत्॥२५॥
पुनः पुनः स्नेहपानं निरूहाः सानुवासनाः।
प्रयोज्या वातगुल्मेषु कफपित्तानुरक्षिणा॥२६॥
कफो वाते जितप्राये पित्तं शोणितमेव वा।
यदि कुप्यति वातस्य क्रियमाणे चिकित्सिते॥२७॥
यथोल्बणस्य दोषस्य तत्र कार्यंभिषग्जितम्।
आदावन्ते च मध्ये च मारुतं परिरक्षता॥२८॥
वातगुल्मे कफो वृद्धो हत्वाऽग्निमरुचिं यदि।
हृल्लासं गौरवं तन्द्रां जनयेदुल्लिखेत्तु तम्॥२९॥
शूलानाहविबन्धेषु गुल्मे वातकफोल्बणे।
वर्तयो गुटिकाश्चूर्णंकफवातहरं हितम्॥३०॥
पित्तं वा यदि संवृद्धं संतापं वातगुल्मिनः।
कुर्याद्विरेच्यः स भवेत् सस्नेहैरानुलोमकैः॥३१॥
गुल्मो यद्यनिलादीनां कृते सम्यग्भिषग्जिते।
न प्रशाम्यति रक्तस्य1571 सोऽवसेकात् प्रशाम्यति॥३२॥
स्निग्धोष्णेनोदिते गुल्मे पैत्तिके स्रंसनं हितम्।
रूक्षोष्णेन तु संभूते सर्पिः प्रशमनं परम्॥३३॥
पित्तं वा पित्तगुल्मं वा ज्ञात्वा पक्वाशयस्थितम्।
कालविन्निर्हरेत् सद्यः सतिक्तैः क्षीरबस्तिभिः॥३४॥
पयसा वा सुखोष्णेन सतिक्तेन विरेचयेत्।
भिषगग्निबलापेक्षी सर्पिषा तैल्वकेन वा॥३५॥
तृष्णाज्वरपरीदाहशूलस्वेदाग्निमार्दवे।
गुल्मिनामरुचौ चापि रक्तमेवावसेचयेत्॥३६॥
छिन्नमूला विदह्यन्ते न गुल्मा यान्ति च क्षयम्।
रक्तं हि व्यम्लतां याति तच्च नास्ति न चास्ति रुक्॥३७॥
हृतदोषं परिम्लानं जाङ्गलैस्तर्पितं रसैः।
समाश्वस्तं सशेषार्तिं सर्पिरभ्यासयेत् पुनः॥३८॥
रक्तपित्तातिवृद्धत्वात् क्रियामनुपलभ्य च।
यदि गुल्मो विदह्येत शस्त्रं तत्र भिषग्जितम्॥३९॥
गुरुः कठिनसंस्थानो गूढमांसोऽन्तराश्रयः।
अविवर्णः स्थिरः स्निग्धो ह्यपक्वोगुल्म उच्यते॥४०॥
दाहशूलार्तिसंक्षोभस्वप्ननाशारतिज्वरैः।1572
विदह्यमानं जानीयादुल्मं तमुपनाहयेत्॥४१॥
विदाहलक्षणे गुल्मे बहिस्तुङ्गे1573 समुन्नते।
श्यावे सरक्तपर्यन्ते संस्पर्शे बस्तिसंनिभे॥४२॥
निपीडितोन्नते स्तब्धे सुप्ते तत्पार्श्वपीडनात्।
तत्रैव पिण्डिते शूले संपक्वंगुल्ममादिशेत्॥४३॥
तत्र धान्वन्तरीयाणामधिकारः क्रियाविधौ।
वैद्यानां कृतयोग्यानां व्यधशोधनरोपणे॥४४॥
अन्तर्भागस्य चाप्येतत् पच्यमानस्य लक्षणम्।
हृत्क्रोडशूनता1574ऽन्तःस्थे बहिःस्थे पार्श्वनिर्गतिः॥४५॥
पक्वःस्रोतांसि संक्लिद्य व्रजत्यूर्ध्वमधोऽपि वा।
स्वयं प्रवृत्तं तं दोषमुपेक्षेत हिताशनैः॥४६॥
दशाहं द्वादशाहं वा रक्षन् भिषगुपद्रवान्।
अत ऊर्ध्वं हितं पानं सर्पिषः सविशोधनम्॥४७॥
शुद्धस्य तिक्तं सक्षौद्रं प्रयोगे सर्पिरिष्यते।
अन्तर्विद्रधिवच्चास्य कार्ये शोधनरोपणे॥४८॥
शीतलैर्गुरुभिः स्निग्धैर्गुल्मे जाते कफात्मके।
अवम्यस्याल्पकायाग्नेः कुर्याल्लङ्घनमादितः॥४९॥
मन्दोऽग्निर्वेदना मन्दा गुरुस्तिमितकोष्ठता।
सोत्क्लेशा चारुचिर्यस्य स गुल्मी वमनोपगः॥५०॥
उष्णैरेवोपचर्यश्च कृते वमनलङ्घने।
योज्यश्चाहारसंसर्गो भेषजैः कटुतिक्तकैः॥५१॥
सानाहं सविबन्धं च गुल्मं कठिनमुन्नतम्।
दृष्ट्वाऽऽदौ स्वेदयेद्युक्त्या स्विन्नं च विलयेद्भिषक्॥५२॥
लङ्घनोल्लेखने स्वेदे कृतेऽग्नौसंप्रधुक्षिते।
कफगुल्मी पिबेत् काले सक्षारकटुकं घृतम्॥५३॥
स्थानादपसृतं ज्ञात्वा कफगुल्मं विरेचनैः।
सस्नेहैर्बस्तिभिर्वाऽपि शोधयेद्दाशमूलिकैः॥५४॥
वृद्धेऽग्नावनिलेऽमूढे ज्ञात्वा सस्नेहमाशयम्।
गुटिकाचूर्णनिर्यूहाः प्रयोज्याः कफगुल्मिनाम्॥५५॥
कृतमूलं महावास्तुं कठिनं स्तिमितं गुरुम्।
जयेत् कफकृतं गुल्मं क्षारारिष्टाग्निकर्मभिः॥५६॥
दोषप्रकृतिगुल्मर्तुयोगं बुद्ध्वाकफोल्बणे।
बलदोषप्रमाणज्ञः क्षारं गुल्मे प्रयोजयेत्॥५७॥
एकान्तरं द्व्यन्तरं वा त्र्यहं विश्रम्य वा पुनः।
शरीरबलदोषाणां वृद्धिक्षपणकोविदः॥५८॥
श्लेष्माणं मधुरं स्निग्धं मांसक्षीरघृताशिनः।
छित्वा च्छित्वाऽऽशयात् क्षारः क्षरत्वात् क्षारयत्यधः॥५९॥
मन्देऽग्नावरुचौ सात्म्ये मद्ये सस्नेहमश्नताम्।
प्रयोज्या मार्गशुद्ध्यर्थमरिष्टाः कफगुल्मिनाम्॥६०॥
लङ्घनोल्लेखनैः स्वेदैः सर्पिष्पानैर्विरेचनैः।
बस्तिभिर्गुडिकाचूर्णक्षारारिष्टगणैरपि॥६१॥
श्लैष्मिकः कृतमूलत्वाद्यस्य गुल्मो न शाम्यति।
तस्य दाहो हृते रक्ते शरलोहादिभिर्हितः॥६२॥
औष्ण्यात्तैक्ष्ण्याच्च शमयेदग्निर्गुल्मे कफानिलौ।
तयोः शमाच्च संघातो गुल्मस्य विनिवर्तते॥६३॥
दाहे धन्वन्तरीयाणामत्रापि भिषजां बलम्।
क्षारप्रयोगे भिषजां क्षारतन्त्रविदां1575 बलम्॥६४॥
व्यामिश्रदोषे व्यामिश्र एष एवक्रियाक्रमः।
सिद्धानतः1576 प्रवक्ष्यामि योगान् गुल्मनिबर्हणान्॥६५॥
त्र्यूषणत्रिफलाधान्यविडङ्गचव्यचित्रकैः।
कल्कीकृतघृतं सिद्धं सक्षीरं वातगुल्मनुत्॥३६॥
इति त्र्यूषणादिघृतम्।
एत एव च कल्काः स्युः कषायः पाञ्चमूलिकः।
द्विपञ्चमूलिको वाऽपि तद्घृतंगुल्मनुत् परम्॥६७॥
( षट्पलं वा पिबेत् सर्पिर्यदुक्तं राजयक्ष्मणि।)
प्रसन्नया वा क्षीरार्थः सुरया दाडिमेन वा॥६८॥
दध्नः सरेण वा कार्यं घृतं मारुतगुल्मनुत्।
इति त्र्यूषणादिघृतमपरम्।
हिङ्गुसौवर्चलाजाजीबिडदाडिमदीप्यकैः॥६९॥
पुष्करव्योषधन्या1577कवेतसक्षारचित्रकैः।
शटीवचाजगन्धैलासुरसैश्च विपाचितम्॥७०॥
शूलानाहहरं सर्पिर्दध्नाचानिलगुल्मिनाम्।
इति हिङ्गुसौवर्चलाद्यं घृतम्।
हपुषाव्योषपृथ्वीकाचव्यचित्रक1578सैन्धवैः॥७१॥
साजाजीपिप्पलीमूलदीप्यकैर्विपचेद्घृतम्।
सकोलमूलकरसं सक्षीरदधिदाडिमम्॥७२॥
तत् परं वातगुल्मघ्नं शूलानाहविमोक्षणम्।
योन्यर्शोग्रहणीदोषश्वासकासारुचिज्वरान्॥७३॥
बस्तिहृत्पार्श्वशूलं च घृतमेतद्व्यपोहति।
इति हपुषाद्यं घृतम्।
पिप्पल्याः पिचुरध्यर्धो दाडिमाद्द्विपलं पलम्॥७४॥
धान्यात् पञ्च घृताच्छुण्ठ्याः कर्षः क्षीरं चतुर्गुणम्।
सिद्धमेतैर्घृतं सद्यो वातगुल्मं चिकित्सति1579॥७५॥
योनिशूलं शिरःशूलमर्शांसि विषमज्वरम्।
इति पिप्पल्याद्यंघृतम्।
घृतानामौषधगणा य एते परिकीर्तिकाः॥७६॥
ते चूर्ण योगा वर्त्यस्ताः कषायास्ते च गुल्मिनाम्।
कोलदाडिमघर्माम्बुसुरामण्डाम्लकाञ्जिकैः॥७७॥
शूलानाहनुदः1580 पेया बीजपूररसेन वा।
चूर्णानि मातुलुङ्गस्य भावितानि रसेन वा॥७८॥
कुर्याद्वर्तीःसगुडिका गुल्मानाहार्तिशान्तये।
हिङ्गुं त्रिकटुकं पाठां हपुषामभयां शटीम्॥७९॥
अजमोदाजगन्धे च तिन्तिडीकाम्लवेतसौ।
दाडिमं पुष्करं धान्यमजाजीं चित्रकं वचाम्॥८०॥
द्वौ क्षारौ लवणे द्वे च चव्यं चैकत्र चूर्णयेत्।
चूर्णमेतत् प्रयोक्तव्यमन्नपानेष्वनत्ययम्॥८१॥
प्राग्भक्तमथवा पेयं मद्येनोष्णोदकेन वा।
पार्श्वहद्बस्तिशूलेषु गुल्मे वातकफात्मके॥८२॥
आनाहे मूत्रकृच्छ्रे च शूले1581 च गुदयोनिजे।
ग्रहण्यर्शोविकारेषु प्लीह्नि पाण्ड्वामयेऽरुचौ॥८३॥
उरोविबन्धे हिक्कायां कासे श्वासे गलग्रहे।
भावितं मातुलुङ्गस्य चूर्णमेतद्रसेन वा॥८४॥
बहुशो गुडिकाः कार्याःकार्मुकाः स्युस्ततोऽधिकम्।
इति हिङ्ग्वादिचूर्णं गुडिका च।
मातुलुङ्गरसो हिङ्गु दाडिमं बिडसैन्धवे॥८५॥
सुरामण्डेन पातव्यं वातगुल्मरुजापहम्।
शटीपुष्करहिङ्ग्वम्लवेतसक्षारचित्रकान्॥८६॥
धान्यकं च यवानीं च विडङ्गं सैन्धवं वचाम्।
सचव्यपिप्पलीमूलामजगन्धां सदाडिमाम्॥८७॥
अजाजीं चाजमोदां च चूर्णं कृत्वा प्रयोजयेत्।
भावितं गुडिकां कृत्वा सुपिष्टां कोलसंमिताम्॥८८॥
गुल्मं प्लीहानमानाहं श्वासं कासमरोचकम्।
रसेन मातुलुङ्गस्य मधुशुक्तेन वा पुनः॥८९॥
हिक्कां हृद्रोगमर्शांसि विविधां शिरसो रुजम्।
पाण्ड्वामयं कफोत्क्लेशं सर्वजां च प्रवाहिकाम्॥१०॥
पार्श्वहृद्बस्तिशूलं च गुटिकैषा व्यपोहति।
नागरार्धपलं पिष्ट्वाद्वे पले लुञ्चितस्य च॥११॥
तिलस्यैकं गुडपलं क्षीरेणोष्णेन ना पिबेत्।
वातगुल्ममुदावर्तं योनिशूलं च नाशयेत्॥१२॥
पिबेदेरण्डतैलं वा वारुणीमण्डमिश्रितम्।
तदेव तैलं पयसा वातगुल्मी पिबेन्नरः॥९३॥
श्लेष्मण्यनुबले पूर्वं हितं पित्तानुगे परम्।
साधयेच्छुद्धशुष्कस्य1582 लशुनस्य चतुष्पलम्॥१४॥
क्षीरे जलाष्टगुणिते क्षीरशेषं1583 च ना पिबेत्।
वातगुल्ममुदावर्तं गृध्रसीं विषमज्वरम्॥१५॥
हृद्रोगं विद्रधींशोथं साधयत्याशु तत् पयः।
इति लशुनक्षीरम्।
तैलं प्रसन्ना गोमूत्रमारनालं यवाग्रजम्1584॥९६॥
गुल्मं जठरमानाहं पीतमेकत्रसाधयेत्।
इति तैलपञ्चकम्।
पञ्चमूलीकषायेण सक्षीरेण शिलाजतु॥९७॥
पिबेत्तस्य प्रयोगेण वातगुल्मात् प्रमुच्यते।
इति शिलाजतुप्रयोगः।
वाट्यं1585 यूषेण पिप्पल्या मूलकानां रसेन वा॥९८॥
भुक्त्वा स्निग्धमुदावर्ताद्वातगुल्माद्विमुच्यते।
शूलानाहविबन्धार्तंस्वेदयेद्वातगुल्मिनम्॥९९॥
स्वेदैः स्वेदविधावुक्तैर्नाडीप्रस्तरसङ्करैः।
बस्तिकर्म परं विद्याद्गुल्मघ्नं तद्धि मारुतम्॥१००॥
स्वे स्थाने प्रथमं जित्वा सद्यो गुल्ममपोहति।
तस्मादमीक्ष्णशो गुल्मा निरूहैः सानुवासनैः॥१०१॥
प्रयुज्यमानैः शाम्यन्ति वातपित्तकफात्मकाः।
गुल्मघ्नाविविधा दिष्टाः सिद्धाः सिद्धिषु बस्तयः॥१०२॥
गुल्मघ्नानि च तैलानि वक्ष्यन्ते वातरोगिके।
तानि मारुतजे गुल्मे पानाभ्यङ्गानुवासनैः॥१०३॥
प्रयुक्तान्याशु सिध्यन्ति तैलं ह्यनिलजित् परम्।
नीलिनीचूर्णसंयुक्तं पूर्वोक्तं घृतमेव वा॥१०४॥
समलाय प्रदेयं स्याच्छोधनं वातगुल्मिने।
नीलिनीत्रिवृतादन्तीपथ्याकम्पिल्लकैः सह॥१०५॥
शोधनार्थं घृतं देयं सबिडक्षारनागरम्।
नीलिनीं त्रिफलां रास्नांबलां कटुकरोहिणीम्॥१०६॥
पचेद्विडङ्गं व्याघ्रीं च पलिकानि जलाढके।
तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥१०७॥
दध्नःप्रस्थेन संयोज्य सुधाक्षीरपलेन च।
ततो घृतपलं दद्याद्यवागूमण्डमिश्रितम्॥१०८॥
जीर्णे सम्यग्विरिक्तं च भोजयेद्रसभोजनम्।
गुल्मकुष्ठोदरव्यङ्गशोफपाण्ड्वामयज्वरान्॥१०९॥
श्वित्रं प्लीहानमुन्मादं घृतमेतद्व्यपोहति।
इति नीलिन्याद्यं घृतम्।
कुक्कुटाश्च मयूराश्च तित्तिरिक्रौञ्चवर्तकाः॥११०॥
शालयो मदिरा सर्पिर्वातगुल्मभिषग्जितम्।
हितमुष्णं द्रवं स्निग्धं भोजनं वातगुल्मिनाम्॥१११॥
समण्डवारुणीपानं पक्वंवा धान्यकैर्जलम्।
मन्देऽग्नौवर्धते गुल्मो दीप्ते चाग्नौ प्रशाम्यति॥११२॥
तस्मान्ना नातिसौहित्यं कुर्यान्नातिविलङ्घनम्।
सर्वत्र गुल्मे प्रथमं स्नेहस्वेदोपपादिते॥११३॥
या क्रिया क्रियते सिद्धि सा याति न विरूक्षिते ।
भिषगात्ययिकं बुद्ध्वापित्तगुल्ममुपाचरेत्॥११४॥
वैरेचनिकसिद्धेन पयसा1586 सर्पिषाऽपि वा।
रोहिणीकटुकानिम्बमधुकं त्रिफलात्वचः॥११५॥
काषिकास्त्रायमाणा1587 च पटोलत्रिवृतोः पले।
द्विपलं च मसूराणां साध्यमष्टगुणेऽम्भसि॥११६॥
शृताच्छेषं घृतसमं सर्पिषश्च चतुष्पलम्।
पिबेत् संमूर्च्छितं तेन गुल्मः शाम्यति पैत्तिकः॥११७॥
ज्वरस्तृष्णा च शूलं च भ्रमो मूर्च्छाऽरुचिस्तथा।
इति रोहिण्याद्यं घृतम्
जले दशगुणे साध्यं त्रायमाणाचतुष्पलम्॥११८॥
पञ्चभागस्थितं पूतं कल्कैः संयोज्य कार्षिकैः।
रोहिणी कटुका मुस्ता त्रायमाणा दुरालभा॥११९॥
कल्कैस्तामलकीवीराजीवन्ती चन्दनोत्पलैः।
रसस्यामलकानां च क्षीरस्य च घृतस्य च॥१२०॥
पलानि पृथगष्टाष्टौ दत्त्वा सम्यग्विपाचयेत्।
पित्तरक्तभवं गुल्मं वीसर्पंपैत्तिकं ज्वरम्॥१२१॥
हृद्रोगं कामलां कुष्ठं हन्यादेतद्धृतोत्तमम्।
इति त्रायमाणाद्यं घृतम्।
रसेनामलकेक्षूणां घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥१२२॥
पथ्यापादं पिबेत् सर्पिस्तत् सिद्धं पित्तगुल्मनुत्।
इत्यामलकाद्यं घृतम्।
द्राक्षां मधूकं खर्जूरं विदारीं सशतावरीम्॥ १२३॥
परूषकाणि त्रिफलां साधयेत् पलसंमिताम्।
जलाढके पादशेषं रसमामलकस्य च॥१२४॥
घृतमिक्षुरसं क्षीरमभयाकल्कपादिकम्।
साधयेत्तद्घृतं सिद्धं शर्कराक्षौद्रपादिकम्॥१२५॥
प्रयोगात् पित्तगुल्मघ्नं सर्वपित्तविकारनुत्।
इति द्राक्षाद्यं घृतम्।
वृषं समूलमापोथ्य पचेदष्टगुणे जले॥१२६॥
शेषेऽष्ठभागे तस्यैव पुष्पकल्कं प्रदापयेत्।
तेन सिद्धं घृतं शीतं सक्षौद्रं पित्तगुल्मनुत्॥१२७॥
रक्तपित्तज्वरश्वासकासहृद्रोगनाशनम्।
इति वासाघृतम् ।
द्विपलं त्रायमाणाया जलद्विप्रस्थसाधितम्॥१२८॥
अष्टभागस्थितं पूतं कोष्णं क्षीरसमं पिबेत्।
पिबेदुपरि तस्योष्णं क्षीरमेव यथाबलम्॥१२९॥
तेन निर्हृतदोषस्य गुल्मः शाम्यति पैत्तिकः।
द्राक्षाभयारसं गुल्मे पैत्तिके सगुडं पिबेत्॥१३०॥
लिह्यात् कम्पिल्लकं वाऽपि विरेकार्थं मधुद्रवम्।
दाहप्रशमनोऽभ्यङ्गः सर्पिषा पित्तगुल्मिनाम्॥१३१॥
चन्दनाद्येन तैलेन तैलेन मधुकस्य वा।
ये च पित्तज्वरार्तानां सतिकाः क्षीरबस्तयः॥१३२॥
हितास्ते पित्तगुल्मिभ्यो वक्ष्यन्ते ये च सिद्धिषु।
शालयो जाङ्गलं मांसं गंव्याजे पयसी घृतम्॥१३३॥
खर्जूरामलकं द्राक्षां दाडिमं सपरूषकम्।
आहारार्थं प्रयोक्तव्यं पानार्थं सलिलं श्रुतम्॥१३४॥
बलाविदारिगन्धाद्यैः पित्तगुल्मचिकित्सितम्।
आमान्वये पित्तगुल्मे सामे वा कफवातिके॥१३५॥
यवागूभिः खडैर्यूषैः संधुक्ष्योऽग्निर्विलङ्गिते।
शमप्रकोपौ दोषाणां सर्वेषामग्निसंश्रितौ॥१३६॥
तस्मादग्निं सदा रक्षेन्निदानानि च वर्जयेत्।
वमनार्हाय वमनं प्रदद्यात् कफगुल्मिने॥१३७॥
स्निग्धस्विन्नशरीराय गुल्मे शैथिल्यमागते।
परिवेष्ट्य प्रदीप्तांस्तु बल्वजानथवा कुशान्॥१३८॥
भिषक्कुम्भे समावाप्य गुल्मं घटमुखे क्षिपेत्1588।
संगृहीतो1589 यदा गुल्मस्तदा घटमथोद्धरेत्॥१३९॥
वस्त्रान्तरं ततः कृत्वा भिन्द्याद्गुल्मंप्रमाणवित्।
विमार्गजपदादशैर्यथालाभं प्रपीडयेत्॥१४०॥
मृद्गीयाद्गुल्ममेवैकं1590 न त्वत्रहृदयं स्पृशेत्।
तिलैरण्डातसीबीजसर्षपैः परिलिप्य च॥१४१॥
श्लेष्मगुल्ममयःपात्रैः सुखोष्णैः स्वेदयेद्भिषक्।
सव्योषक्षारलवणं दशमूलीशृतं घृतम्॥१४२॥
कफगुल्मं जयत्याशु सहिङ्गुबिडदाडिमम्।
इति दशमूलीघृतम् \।
भल्लातकानां द्विपलं पञ्चमूलं पलोन्मितम्॥१४३॥
साध्यं विदारिगन्धाद्यमापोथ्य सलिलाढके।
पादशेषे रसे तस्मिन् पिप्पलीं नागरं वचाम्॥१४४॥
विडङ्गं सैन्धवं हिङ्गु यावशूकं बिडं शटीम्।
चित्रकं मधुकं रास्नांपिष्ट्वा कर्षसमं भिषक्॥१४५॥
प्रस्थं च पयसो दत्त्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
एतद्भल्लातकघृतं कफगुल्महरं परम्॥१४६॥
प्लीहपाण्ड्वामयश्वासग्रहणीरोगकासनुत्।
इति भल्लातकाद्यं घृतम्।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः॥१४७॥
पलिकैः सयवक्षारैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
क्षीरप्रस्थेन तत् सर्पिर्हन्ति गुल्मं कफात्मकम्॥१४८॥
ग्रहणीपाण्डुरोगघ्नं प्लीहकासज्वरापहम्।
इति पञ्चकोलघृतम्।
त्रिवृतां त्रिफलां दन्तीं दशमूलं पलोन्मितम्॥१४९॥
जले चतुर्गुणे पक्त्वा चतुर्भागस्थितं रसम्।
सर्पिरेरण्डजं तैलं क्षीरं चैकत्र साधयेत्॥१५०॥
स सिद्धो मिश्रकस्नेहः सक्षौद्रः कफगुल्मनुत्।
कफवातविबन्धेषु कुष्ठप्लीहोदरेषु च॥१५१॥
प्रयोज्यो मिश्रकः स्नेहो योनिशूलेषु चाधिकम्।
इति मिश्रकः स्नेहः।
यदुक्तं वातगुल्मघ्नं स्रंसनं नीलिनीघृतम्॥१५२॥
द्विगुणं तद्विरेकार्थं प्रयोज्यं कफगुल्मिनाम्।
सुधाक्षीरद्रवे चूर्णं त्रिवृतायाः सुभावितम्॥१५३॥
कार्षिकं मधुसर्पिर्भ्यांलीढ्वासाधु विरिच्यते।
जलद्रोणे विपक्तव्या विंशतिः पञ्च चाभयाः॥१५४॥
दन्त्याः पलानि तावन्ति चित्रकस्य तथैव च।
अष्टभागावशेषं तु रसं पूतमधिक्षिपेत्॥१५५॥
दन्तीसमं गुडं पूतं क्षिपेत्तत्राभयाश्च ताः।
तैलार्धकुडवं चैव त्रिवृतायाश्चतुष्पलम्॥१५६॥
चूर्णितं पलमेकं च1591 पिप्पलीविश्वभेषजम्।
तत् साध्यं लेहवच्छीते तस्मिंस्तैलसमं मधु॥१५७॥
क्षिपेच्चूर्ण1592पलं चैकं त्वगेलापत्रकेशरात्।
ततो लेहपलं लीढ्वाजग्ध्वा चैकां हरीतकीम्॥१५८॥
सुखं विरिच्यते स्निग्धो दोषप्रस्थमनामयः1593।
गुल्मं श्वयथुमर्शांसि पाण्डुरोगमरोचकम्॥१५९॥
हृद्रोगं ग्रहणीदोषं कामलां विषमज्वरम्।
कुष्ठं प्लीहानमानाहमेषा हन्त्युपयोजिता॥१६०॥
निरत्ययः क्रमश्चास्या द्रवो मांसरसौदनः।
इति दन्तीहरीतकी।
सिद्धाः सिद्धिषु वक्ष्यन्ते निरूहाः कफगुल्मिनाम्॥१६१॥
अरिष्टयोगाः सिद्धाश्च ग्रहण्यर्शश्चिकित्सिते।
यच्चूर्णं गुटिका याश्च विहिता वातगुल्मिनाम्॥१६२॥
द्विगुणक्षारहिङ्ग्वम्लवेतसास्ताः कफे मताः।
य एव ग्रहणीदोषे क्षारास्ते कफगुल्मिनाम्॥१६३॥
सिद्धा निरत्ययाः शस्ता दाहस्त्वन्ते प्रशस्यते।
प्रपुराणानि धान्यानि जाङ्गला मृगपक्षिणः॥१६४॥
कौलत्थो मुद्गयूषश्च पिप्पल्या नागरस्य च।
शुष्कमूलकयूषश्च बिल्वस्य तरुणस्य च॥१६५॥
चिरबिल्वाङ्कुराणां च यवान्याश्चित्रकस्य च।
बीजपूरकहिङ्ग्ग्वम्लवेतसक्षारदाडिमैः॥१६६॥
तक्रेण तैलसर्पिर्भ्यांव्यञ्जनान्युपकल्पयेत्।
पञ्चमूलीशृतं तोयं पुराणं वारुणीरसम्॥१६७॥
कफगुल्मी पिबेत् काले जीर्णं माध्वीकमेव वा।
यवानीचूर्णितं तक्रं विडेन लवणीकृतम्॥१६८॥
पिबेत् संदीपनं वातमूत्रवर्चोनुलोमनम्।
संचितः क्रमशो गुल्मो महावास्तुपरिग्रहः॥१६९॥
कृतमूलः सिरानद्धोयदा कूर्म इवोन्नतः।
दौर्बल्यारुचिहृल्लासकासवम्यरतिज्वरैः॥१७०॥
तृष्णातन्द्राप्रतिश्यायैर्युज्यते न स सिध्यति।
गृहीत्वा सज्वरश्वासं वम्यतीसारपीडितम्॥१७१॥
हृन्नाभिहस्तपादेषु शोफः कर्षति गुल्मिनम्।
रौधिरस्य तु गुल्मस्य गर्भकालव्यतिक्रमे॥१७२॥
स्निग्धस्विनशरीरायै दद्यात् स्नेहविरेचनम्।
पलाशक्षारपात्रे द्वे द्वे पात्रे तैलसर्पिषोः॥१७३॥
गुल्मशैथिल्यजननीं पक्त्वा मात्रां प्रयोजयेत्।
प्रभिद्यते न यद्येवं दद्यायोनिविशोधनम्1594॥१७४॥
क्षारेण युक्तं पललं सुधाक्षीरेण वा पुनः।
ताभ्यां वा भावितान्दद्याद्योनौ कटुकमत्स्यकान्॥१७५॥
वराहमत्स्य पित्ताभ्यां लक्तकान् वा सुभावितान्।
अधोहरैश्चोर्ध्वहरैभवितान् वा समाक्षिकान्॥१७६॥
किण्वं वा सगुडक्षारं दद्याद्योनिविशोधनम्1595।
रक्तपित्तहरं क्षारं लेहयेन्मधुसर्पिषा॥१७७॥
लशुनं मदिरां तीक्ष्णां मत्स्यांश्चास्यै प्रदापयेत्।
बस्तिंसक्षीरगोमूत्रं सक्षारं दाशमूलिकम्॥१७८॥
अदृश्यमाने रुधिरे दद्याद्गुल्मप्रभेदनम्।
प्रवर्तमाने रुधिरे दद्यान्मांसरसौदनम्॥१७९॥
घृततैलेन चाभ्यङ्गं पानार्थं तरुणीं सुराम्।
रुधिरेऽतिप्रवृत्ते तु रक्तपित्तहरीः क्रियाः॥१८०॥
कार्या वातरुगार्तायाः सर्वा वातहरीः पुनः।
घृततैलावसेकांश्च तित्तिरींश्चरणायुधान्॥१८१॥
सुरां समण्डां पूर्वं च पानमम्लस्य सर्पिषः।
प्रयोजयेदुत्तरं वा जीवनीयेन सर्पिषा।
अतिप्रवृत्ते रुधिरे सतिक्तेनानुवासनम्॥१८२॥
तत्र श्लोकाः।
स्नेहः स्वेदः सर्पिर्बस्तिश्चूर्णानि बृंहणं गुडिकाः।
वमनविरेको मोक्षः क्षतजस्य च वातगुल्मवताम्1596॥१८३॥
सर्पिः सतिक्तसिद्धं क्षीरं प्रस्रंसनं निरूहाश्च।
रक्तस्य चावसेचनमाश्वासनसंशमनयोगाः॥१८४॥
उपनाहनं सशस्त्रं पक्वस्याभ्यन्तरप्रभिन्नस्य।
संशोधनसंशमने पित्तप्रभवस्य गुल्मस्य॥१८५॥
स्नेहः स्वेदो मेदो लङ्घनमुल्लेखनं विरेकश्च।
सर्पिर्बस्तिर्गुडिकाश्चूर्णमरिष्टाश्च सक्षाराः॥१८६॥
गुल्मस्यान्ते दाहः कफजस्याग्रेऽपनीतरक्तस्य।
गुल्मस्य रौधिरस्य क्रियाक्रमः स्त्रीभवस्योक्तः॥१८७॥
पथ्यान्नपानसेवा हेतूनां वर्जनं यथास्वं च।
नित्यं चाग्निसमाधिः स्निग्धस्य च सर्वकर्माणि॥१८८॥
हेतुर्लिङ्गं सिद्धिः क्रियाक्रमः साध्यता न योगाश्च।
गुल्मचिकित्सितसंग्रह एतावान् व्याहृतोऽग्निवेशस्य1597॥१८९॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने
गुल्मचिकित्सितं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
—————————
षष्ठोऽध्यायः।
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अथातः प्रमेहचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह माह भगवानात्रेयः॥२॥
निर्मोहमानानुशयो निराशः पुनर्वसुर्ज्ञानतपोविशालः।
कालेऽग्निवेशाय सहेतुलिङ्गानुवाच मेहान्छमनं च तेषाम्॥३॥
आस्यासुखं स्वप्नसुखं दधीनि ग्राम्यौदकानूपरसाः पयांसि।
नवान्नपानं गुडवैकृतं च प्रमेहहेतुः कफकृच्च सर्वम्॥४॥
मेदश्च मांसं च शरीरजं च क्लेदं कफो बस्तिगतं प्रदूष्य।
करोति मेहान् समुदीर्णमुष्णैस्तानेव पित्तं परिदूष्य चापि॥५॥
क्षीणेषु दोषेष्ववकृष्य बस्तौ धातून् प्रमेहाननिलः1598 करोति।
दोषो हि बस्तिं समुपेत्य मूत्रं संदूष्य मेहाञ्जनयेद्यथास्वम्॥६॥
साध्याः कफोत्था दश, पित्तजाः षड् याप्या, न साध्यः पवनाच्चतुष्कः।
समक्रियत्वाद्विषमक्रियत्वान्महात्ययत्वाच्च यथाक्रमं ते॥७॥
कफः सपित्तः पवनश्च दोषा मेदोऽस्रशुक्राम्बुवसालसीकाः।
मज्जा रसौजः पिशितं च दूष्याः प्रमेहिणां विंशतिरेवमेहाः॥८॥
जलोपमं चेक्षुरसोपमं वा घनं घनं चोपरि विप्रसन्नम्।
शुक्लं सशुक्रं शिशिरं शनैर्वा लालेव वा वालुकया युतं वा॥९॥
विद्यात्प्रमेहान्कफजान्दशैतान् क्षारोपमं कालमथापि नीलम्।
हारिद्रमाञ्जिष्ठमथापि रक्तमेतान्प्रमेहान्षडुशन्ति पैत्तान्॥१०॥
मज्जौजसा वा वसयाऽन्वितं वा लसीकया वा सततं विबद्धम्।
चतुर्विधं मूत्रयतीह1599 वाताच्छेषेषु धातुष्वपकर्शितेषु॥११॥
वर्णंरसं स्पर्शमथापि गन्धं यथास्वदोषं भजते प्रमेहः।
श्यावारुणो वातकृतः सशूलो मज्जादिसाद्गुण्यमुपैत्यसाध्यः॥१२॥
स्वेदोऽङ्गगन्धः शिथिलाङ्गता तु शय्यासनस्वप्नसुखे रतिश्च।
हृन्नेत्रजिह्वाश्रवणोपदेहो घनाङ्गता केशनखातिवृद्धिः॥१३॥
शीतप्रियत्वं गलतालुशोषो माधुर्यमास्ये करपाददाहः।
भविष्यतो मेहगदस्य रूपं मूत्रेऽभिधावन्ति पिपीलिकाश्च॥१४॥
स्थूलः प्रमेही बलवानिहैकः कृशस्तथैकः परिदुर्बलश्च।
संबृंहणं तत्र कृशस्य कार्यं संशोधनं दोषबलाधिकस्य॥१५॥
स्निग्धस्य योगा विविधाः प्रयोज्याः कल्पोपदिष्टा मलशोधनाय।
ऊर्ध्वं तथाऽधश्च मलेऽपनीते मेहेषु सन्तर्पणमेव कार्यम्॥१६॥
गुल्मः क्षयो मेहनबस्तिशूलं मूत्रग्रहश्चाप्यपतर्पणेन।
प्रमेहिणः स्युः परिबृंहणानि1600 कार्याणि तस्य प्रसमीक्ष्य वह्निम्॥१७॥
संशोधनं नार्हति यः प्रमेही तस्य क्रिया संशमनी प्रयोज्या।
मन्थाः कषाया यवचूर्णलेहाः प्रमेहशान्त्यै लघवश्च भक्ष्याः॥१८॥
ये विष्किरा ये प्रतुदा विहङ्गास्तेषां रसैर्जाङ्गलजैर्मनोज्ञैः।
यवौदनं रूक्षमथापि वाट्यमद्यात्ससक्तूनपि चाप्यपूपान्॥१९॥
मुद्गादियूषैरथ तिक्तशाकैः पुराणशाल्योदनमाददीत।
दन्तीङ्गुदीतैलयुतं प्रमेही तथाऽतसीसर्षपतैलयुक्तम्॥२०॥
सषष्टिकं स्यात्तृणधान्यमन्नंयवप्रधानस्तु भवेत् प्रमेही।
यवस्य भक्ष्यान्विविधांस्तथाऽद्यात्कफप्रमेही मधुसंप्रयुक्तान्॥२१॥
निशिस्थितानां त्रिफलाकषाये स्युस्तर्पणाः क्षौद्रयुता यवानाम्।
तान्सीधुयुक्तान्प्रपिबेत्प्रमेही प्रायोगिकान्मेहवधार्थमेव॥२२॥
ये श्लेष्ममेहे विहिताः कषायास्तैर्भावितानां च पृथग्यवानाम्।
सक्तूनपूपान्सगुडान्सधानान्भक्ष्यांस्तथाऽन्यान्विविधांश्च खादेत्॥२३॥
खराश्वगोहंसपृषद्भृतानां तथा यवानां विविधाश्च भक्ष्याः।
देयास्तथा वेणुयवा यवानां कल्पेन गोधूममयाश्च भक्ष्याः॥२४॥
संशोधनोल्लेखनलङ्घनानि काले प्रयुक्तानि कफप्रमेहान्।
जयन्ति पित्तप्रभवान्विरेकरःसंतर्पणः संशमनो विधिश्च॥२५॥
दार्वींसुराह्वां त्रिफलां समुस्तां कषायमुत्क्वाथ्य पिबेत्प्रमेही।
क्षौद्रेण युक्तामथवा हरिद्रांपिबेद्रसेनामलकीफलानाम्॥२६॥
हरीतकीकट्फलमुस्तलोध्रंपाठाविडङ्गार्जुनधन्वनाश्च।
उभे हरिद्रेतगरं विडङ्गं कदम्बशालार्जुनदीप्यकाश्च॥२७॥
दार्वी विडङ्गं खदिरो धवश्व सुराह्वकुष्ठागुरुचन्दनानि।
दार्व्यग्निमन्थौ त्रिफला सपाठा पाठा च मूर्वा च तथा श्वदंष्ट्रा॥२८॥
यवान्युशीराण्यभया गुडूची चव्याभयाचित्रकसप्तपर्णाः।
पादैः कषायाः कफमेहिनां ते दशोपदिष्टा मधुसंप्रयुक्ताः॥२९॥
उशीरलोध्रार्जुनचन्दनानामुशीरमुस्तामलकाभयानाम्।
पटोलनिम्बामलकामृतानां मुस्ताभयापद्मकवृक्षकाणाम्॥३०॥
लोध्राम्बुकालीयकधातकीनां निम्बार्जुनाम्रातनिशोत्पलानाम्।
शिरीषसर्जार्जुनकेशराणां प्रियङ्गुपद्मोत्पलकिंशुकानाम्॥३१॥
अश्वत्थपाठासनवेतसानां कटङ्कटेर्युत्पलमुस्तकानाम्।
पैत्तेषु मेहेषु दश प्रदिष्टाः पादैः कषाया मधुसंप्रयुक्ताः॥३२॥
सर्वेषु मेहेषु मतौ तु पूर्वौकषाययोगौ विहितास्तु सर्वे।
मन्थस्य पाने यवभावनायां स्युर्भोजने पानविधौ पृथक्च॥३३॥
सिद्धानि तैलानि घृतानि चैव देयानि1601 मेहेष्वनिलात्मकेषु।
मेदः कफश्चैव कषाययोगैः स्नेहैश्च वायुः शममेति तेषाम्॥३४॥
कम्पिल्लसप्तच्छदशालजानि बैभीतरौहीतककौटजानि।
कपित्थपुष्पाणि च चूर्णितानि क्षौद्रेण लिह्यात्कफपित्तमेही॥३५॥
पिबेद्रसेनामलकस्य वाऽपि कल्कीकृतान्यक्षसमानि काले।
जीर्णे च भुञ्जीत पुराणमन्नं मेही रसैर्जाङ्गलजैर्मनोज्ञैः॥३६॥
दृष्ट्वाऽनुबन्धं पवनात्1602 कफस्य पित्तस्य वा स्नेहविधिर्विकल्प्यः।
तैलं कफे स्यात्स्वकषायसिद्धं पित्ते घृतं पित्तहरैः कषायैः॥३७॥
त्रिकण्टकाश्मन्तकसोमवल्कैर्भल्लातकैः सातिविषैः सलोध्रैः।
चापटोलार्जुननिम्बमुस्तैर्हरिद्रया पद्मकदीप्यकैश्च॥३८॥
मञ्जिष्ठया चागुरुचन्दनैश्च सर्वैः समस्तैः कफवातजेषु।
मेहेषु तैलं, विपचेद्घृतं तु पैत्तेषु, मिश्रं त्रिषु लक्षणेषु॥३९॥
फलत्रिकं दारूनिशां विशालां मुस्तां च निःक्वाथ्य निशां सकल्काम्।
पिबेत् कषायं मधुसंप्रयुक्तं सर्वप्रमेहेषु समुद्धतेषु॥४०॥
लोध्रंशटींपुष्करमूलमेलां मूर्वांविडङ्गं त्रिफलां यवानीम्।
चव्यं प्रियङ्गुंक्रमुकं विशालां किराततिक्तंकटुरोहिणीं च॥४१॥
भार्ङ्गीनतंचित्रकपिप्पलीनां मूलं सकुष्ठातिविषं सपाठम्।
कलिङ्गकान्केशरमिन्द्रसाह्वां नखंसपत्रं मरिचं प्लवं च॥४२॥
द्रोणेऽम्भसः कर्षसमानि पक्त्वा पूते चतुर्भागजलावशेषे।
रसेऽर्धभागं मधुनः प्रदाय पक्षं निधेयो घृतभाजनस्थः॥१३॥
लोध्रासवोऽयं कफपित्तमेहान् क्षिप्रं निहन्याद्विपलप्रयोगात्।
पाण्ड्वामयार्शांस्यरुचिं ग्रहण्या दोषं किलासं विविधं च कुष्ठम्॥४४॥
इति लोध्रासवः।
क्वाथः स एवाष्टपलं च दन्त्या भल्लातकानां च चतुष्पलं स्यात्।
सितोपला त्वष्टपला विशेषः क्षौद्रं च तावत्पृथगासवौ तौ॥४५॥
सारोदकं वाऽथ कुशोदकं वा मधूदकं वा त्रिफलारसं वा।
सीधुं पिबेद्वा निगदं प्रमेही माध्वीकमग्र्यं चिरसंस्थितं वा॥४६॥
मांसानि शूल्यानि मृगद्विजानां खादेद्यवानां विविधांश्च भक्ष्यान्।
संशोधनारिष्टकषायलेहैःसंतपणोत्था1603न्छमयेत् प्रमेहान्॥४७॥
भृष्टान् यवान् भक्षयतः प्रयोगाच्छुकांश्च1604 सक्तून्न भवन्ति मेहाः।
श्वित्रं च कृच्छ्रं कफजं च कुष्ठं तथैव मुद्रामलकप्रयोगान्॥४८॥
संतर्पणोत्थेषु गदेषु योगा मेदस्विनां ये च मयोपदिष्टाः।
विरूक्षणार्थं कफपित्तजेषु सिद्धाः प्रमेहेष्वपि ते प्रयोज्याः॥४९॥
व्यायामयोगैर्विविधैः प्रगाढैरुद्वर्तनैः स्नानजलावसेकैः।
सेव्यत्वगेलागुरुचन्दनाद्यैर्विलेपनैश्चाशु1605 न सन्ति मेहाः॥ ५० ॥
क्लेदश्च मेदश्च कफश्च वृद्धः प्रमेहहेतुः प्रसमीक्ष्य तस्मात्।
वैद्येन पूर्वं कफपित्तजेषु मेहेषु कार्याण्यपतर्पणानि॥५१॥
या वातमेहान्प्रति पूर्वमुक्तावातोल्बणानां विहिता क्रिया सा।
वायुर्हि मेहेष्वतिकर्शितानां कुष्यत्यसाध्यान्प्रति नास्ति चिन्ता॥५२॥
यैर्हेतुभिर्ये प्रभवन्ति मेहास्तेषु प्रमेहेषु न ते निषेव्याः।
हेतोरसेवा विहिता यथैव जातस्य रोगस्य भवेच्चिकित्सा॥५३॥
हारिद्रवर्णं रुधिरं च मूत्रं विना प्रमेहस्य हि पूर्वरूपैः।
यो मूत्रयेत्तं न वदेत्प्रमेहं रक्तस्य पित्तस्य हि स प्रकोपः॥५४॥
दृष्ट्वा प्रमेहं मधुरं सपिच्छंमधूपमं स्थाद्द्विविधो विचारः।
क्षीणेषु दोषेष्वनिलात्मकः स्यात् संतर्पणाद्वा कफसंभवः स्यात्॥५५॥
सपूर्वरूपाः कफपित्तमेहाः क्रमेण ये वातकृताश्च मेहाः।
साध्या न ते पित्तकृतास्तु याप्याः साध्यास्तु मेदो यदि न प्रदुष्टम्॥५६॥
जातः प्रमेही मधुमेहिनो वा न साध्य उक्तः स हि बीजदोषात्।
ये चापि केचित्कुलजा विकारा भवन्ति तांश्च प्रवदन्त्यसाध्यान्॥५७॥
प्रमेहिणां याः पिडका मयोक्ता रोगाधिकारे पृथगेव सप्त।
ताः शल्यविद्भिः कुशलैश्चिकित्स्याः शस्त्रेण संशोधनरोपणैश्च॥५८॥
तत्र श्लोकाः।
हेतुर्दोषो दूष्यं मेहानां साध्यता न रूपं1606 च।
मेही द्विविधो द्विविधं1607 भिषग्जितमतिक्षपणदोषः॥५९॥
आद्या यवान्नविकृतिर्मन्था मेहापहाः कषायाश्च।
तैलघृतलेहयोगा भक्ष्याः प्रवरासवाः सिद्धाः॥६०॥
व्यायामविधिर्विविधः स्नानान्युद्वर्तनानि गन्धाश्च।
मेहानां प्रशमार्थं चिकित्सिते दृष्टमेतावत्॥६१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने प्रमेहचिकित्सितं नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
सप्तमोऽध्यायः।
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अथातः कुष्ठचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
हेतुं लिङ्गं द्रव्यं कुष्ठानामाश्रयं प्रशमनं च।
शृण्वग्निवेश सम्यग्विशेषतः स्पर्शनघ्नानाम्॥३॥
विरोधीन्यन्नपानानि द्रवस्निग्धगुरूणि च।
भजतामागतां छर्दिंवेगांश्चान्यान् प्रतिघ्नताम्॥४॥
व्यायाममतिसंतापमतिभुक्त्वा निषेविणाम्।
शीतोष्णलङ्गनाहारान् क्रमं मुक्त्वा निषेविणाम्॥५॥
घर्मश्रमभयार्तानां द्रुतं शीताम्बुसेविनाम्।
अजीर्णाध्यशिनां चैव पञ्चकर्मापचारिणाम्॥६॥
नवान्नदधिमत्स्यातिलवणाम्लनिषेविणाम्।
माषमूलकपिष्टान्नगुडक्षीरतिलाशिनाम्॥७॥
व्यवायं चाप्यजीर्णेऽन्ने1608 निद्रां च भजतां दिवा।
विप्रान् गुरून् धर्षयतां पापं कर्म च कुर्वताम्॥८॥
वातादयस्त्रयो दुष्टास्त्वग्रक्तं मांसमम्बु च।
दूषयन्ति स कुष्ठानां सप्तको द्रव्यसंग्रहः॥९॥
ततः कुष्ठानि जायन्ते सप्त चैकादशैव च।
न चैकदोषजं किञ्चित् कुष्ठं समुपलभ्यते॥१०॥
स्पर्शाज्ञत्वमतिस्वेदो न वा वैवर्ण्यमुन्नतिः।
कोठानां लोमहर्षश्च कण्डूस्तोदः श्रमः क्लमः॥११॥
व्रणानामधिकं शूलं शीघ्रोत्पत्तिश्चिरस्थितिः1609।
दाहः सुप्ताङ्गता1610 चेति कुष्ठलक्षणमग्रजम्॥१२॥
अत ऊर्ध्वमष्टादशानां कुष्ठानां कपालोदुम्बरमण्डलर्ष्यजिह्वपुण्डरीकसिध्मकाकणकैककुष्ठचर्माख्यकिटिभविपादिकालसकद्द्रुचर्म लपामाविस्फोटकशतारुर्विचर्चिकानां लक्षणान्युपदेक्ष्यामः॥१३॥
कृष्णारुणकपालाभं यद्रूक्षं परुषं तनु।
कपालं तोदबहुलं तत् कुष्ठं विषमं स्मृतम्॥१४॥
कण्डूदाहरुजारागपरीतं लोमपिञ्जरम्।
उदुम्बरफलाभासं कुष्ठमौदुम्बरं वदेत्॥१५॥
श्वेतं रक्तं स्थिरं स्त्यानं स्निग्धमुत्सन्नमण्डलम्।
कृच्छ्रमन्योन्यसंसक्तं कुष्ठं मण्डलमुच्यते॥१६॥
कर्कशं रक्तपर्यन्तमन्तःश्यावं सवेदनम्।
यदृश्यजिह्वासंस्थानमृष्यजिह्वं तदुच्यते॥१७॥
सश्वेतं रक्तपर्यन्तं पुण्डरीकदलोपमम्।
सोत्सेधं च सरागं च पुण्डरीकं प्रचक्षते॥१८॥
श्वेतं ताम्रं तनु च यद्रजो1611 घृष्टं विमुञ्चति।
अलाबूपुष्पवर्णं तत् सिध्मं प्रायेण चोरसे॥१९॥
यत् काकणन्तिकावर्णमपाकं तीव्रवेदनम्।
त्रिदोषलिङ्गं तत् कुष्ठं काकणं नैव सिध्यति॥२०॥
इति सप्त महाकुष्ठानि।
अस्वेदनं महावास्तु यन्मत्स्यशकलोपमम्।
तदेककुष्ठं, चर्माख्यं बहलं हस्तिचर्मवत्॥२१॥
श्यावं किणखरस्पर्शं परुषं किटिमं स्मृतम्।
वैपादिकं पाणिपादस्फुटनं तीव्रवेदनम्॥२२॥
कण्डूमद्भिः सरागैश्च गण्डरलसकं चितम्।
सकण्डूरागपिडकं दद्रुमण्डलमुद्गतम्॥२३॥
रक्तं1612 सकण्डु सस्फोटं सरुग्दलात चापि यत्।
तच्चर्मदलमाख्यातं संस्पर्शासहमुच्यते॥२४॥
पामाः श्वेतारुणश्यावाः पिडका कण्डुला भृशम्।
स्फोटाः श्वेतारुणाभासा विस्फोटाः स्युस्तनुत्वचः॥२५॥
रक्तं श्यावं सदाहार्ति शतारुः स्याद्बहुव्रणम्।
सकण्डूपिडका श्यावा बहुस्रावा विचर्चिका॥२६॥
इत्येकादश क्षुद्रकुष्ठानि।
वातेऽधिकतरे कुष्ठं कापालं मण्डलं कफे।
पित्ते त्वौदुम्बरं विद्यात् काकणं तु त्रिदोषजम्॥२७॥
वातपित्ते श्लेष्मपित्ते वातश्लेष्मणि चाधिके।
ऋष्यजिह्नं पुण्डरीकं सिध्मकुष्ठं च जायते॥२८॥
चर्माख्यमेककुष्टं च किटिमं सविपादिकम्।
कुष्ठं चालसकं ज्ञेयं प्रायो वातकफाधिकम्॥२९॥
पामा शतारुर्विस्फोटा दद्रुश्चर्मदलं तथा।
पित्तश्लेष्माधिकं प्रायः कफप्राया विचर्चिका॥३०॥
सर्वं त्रिदोषजं कुष्ठं दोषाणां तु बलाबलम्।
यथास्वैर्लक्षणैर्बुद्ध्वाकुष्ठानां क्रियते क्रिया॥३१॥
दोषस्य यस्य पश्येत् कुष्ठेषु विशेषलिङ्गमुद्रिकम्।
तस्यैव शमं कुर्यात्ततः परं चानुबन्धस्य॥३२॥
कुष्ठविशेषैर्दोषा दोषविशेषैः पुनश्च कुष्ठानि।
ज्ञायन्ते, ते हेतुं हेतुस्तांश्च प्रकाशयति॥३३॥
रौक्ष्यं शोषस्तोदः शूलं संकोचनं तथाऽऽयासः।
पारुष्यं खरभावो हर्षः श्यावारुणत्वं च॥३४॥
कुष्ठेषु वातलिङ्गं, दाहो रागः परिस्रवः पाकः।
विस्रोगन्धः क्लेदस्तथाऽङ्गपतनं च पित्तकृतम्॥३५॥
श्वैत्यं शैत्यं कण्डूः स्थैर्यं चोत्सेधगौरवस्नेहाः।
कुष्ठेषु तु कफलिङ्गं जन्तुभिरभिभक्षणं क्लेदः॥३६॥
सर्वैरेतैर्लिङ्गैर्युक्तं मतिमान् विवर्जयेदबलम्।
तृष्णादाहपरीतं शान्ताग्निं जन्तुभिर्जग्धम्॥३७॥
वातकफप्रबलं यद्यदेकदोषोल्बणं न तत् कृच्छ्रम्।
कफपित्तवातपित्तप्रबलानि तु कृच्छ्रसाध्यानि॥३८॥
वातोत्तरेषु सर्पिर्वमनं श्लेष्मोत्तरेषु कुष्टेषु।
पित्तोत्तरेषु मोक्षो रक्तस्य विरेचनं चाग्रे॥३९॥
वमनविरेचनयोगाः कल्पोक्ताः कुष्टिनां प्रयोक्तव्याः।
प्रच्छनमल्पे कुष्ठे महति च शस्तं सिराव्यधनम्॥४०॥
बहुदोषः संशोध्यःकुष्ठी बहुशोऽनुरक्षता प्राणान्।
दोषे ह्यतिमात्रहृते वायुर्हन्यादबलमाशु॥४१॥
स्नेहस्य पानमिष्टं शुद्धे कोष्ठे प्रवाहिते रुधिरे।
वायुर्हि शुद्धकोष्टं कुष्ठिनमबलं विशति शीघ्रम्॥४२॥
दोषोत्क्लिष्टे हृदये वाम्यः कुष्टेषु चोर्ध्वभागेषु।
कुटजफलमदनमधुकैः सपटोलैर्निम्बरसयुक्तैः॥४३॥
शीतरसः पक्वरसो मधूनि मधुकं च वमनानि।
कुष्ठे त्रिवृता दन्ती त्रिफला च विरेचने शस्ता॥४४॥
सौवीरकतुषोदकमालोडनमासवांश्च सीधूनि।
शंसन्त्यधोहराणां यथाविरेकं क्रमश्चेष्टः॥४५॥
दार्वीबृहतीसेव्यैः पटोलपिचुमर्दमदनकृतमालैः।
सस्नेहैरास्थाप्यः कुष्टी सकलिङ्गयवमुस्तैः॥४६॥
वातोल्बणं विरिक्तं निरूढमनुवासनार्हमालक्ष्य।
फलमधुकनिम्बकुटजैः सपटोलैः साधयेत् स्नेहम्॥४७॥
सैन्धवदन्तीमधुकं फणिज्झकं पिप्पली करञ्जफलम्।
नस्यं स्यात् सविडङ्गं क्रिमिकुष्ठकफप्रकोपनम्॥४८॥
वैरेचनिकैर्धूमैः श्लोकस्थानेरितैः प्रशाम्यन्ति।
कृमयः कुष्ठकिलासाः प्रयोजितैरुत्तमाङ्गस्थाः॥४९॥
स्थिरकठिनमण्डलानां स्विन्नानां प्रस्तरप्रणाडीभिः।
कूर्यैर्विघट्टितानां रक्तोत्क्लेशोऽपनेतव्यः॥५०॥
आनूपचारिजानां मांसानां पोट्टलैःसुखोष्णैश्च।
स्विन्नोत्सन्नं विलिखेत् कुष्ठं तीक्ष्णेन शस्त्रेण॥५१॥
रुधिरागमार्थमथवा शृङ्गालाबूनि योजयेत् कुष्ठे।मत्स्यण्डिका मधुसमा तन्मासं जातमायसे भाण्डे।
मध्वासवमाचरतः कुष्टकिलासे शमं यातः॥७५॥
इति मध्वासवः।
खदिरकषायद्रोणं कुम्भे घृतभाविते समावाप्य।
द्रव्याणि चूर्णितानि च षट्पलिकान्यत्र1613 देयानि॥७६॥
त्रिफलाव्योषविडङ्गं रजनीमुस्ताटरूषकेन्द्रयवाः।
सौवर्णी1614 च तथा त्वक् छिन्नरुहा चेति तन्मासम्॥७७॥
निदधीत धान्यमध्ये प्रातः प्रातः पिबेत्ततो युक्त्या।
मासेन महाकुष्ठं हन्त्येवाल्पं तु पक्षेण॥७८॥
अर्शःश्वासभगन्दरकासकिलासप्रमेहशोषांश्च।
ना भवति कनकवर्णः पीत्वाऽरिष्टं कनकबिन्दुम्॥७९॥
इति कनकबिन्दुरिष्टम्।
कुष्ठेष्वनिलक1615फकृतेष्वेवं पेयस्तथा च पैत्तेषु।
कृतमालक्वाथश्चाप्येष विशेषात् कफकृतेषु॥८०॥
त्रिफलासवश्च गौडः सचित्रकः श्वित्ररोगकुष्ठघ्नः1616।
क्रमुकदशमूलदन्तीवराङ्गमधुयोगसंयुक्तः॥८१॥
लघुनि चान्नानि हितानि विद्यात् कुष्ठेषु शाकानि च तिक्तकानि।
भल्लातकैः सत्रिफलैः सनिम्बैर्युक्तानि चान्नानि घृतानि चैव॥८२॥
पुराणधान्यान्यथ जाङ्गलानि मांसानि मुद्गाश्च पटोलयुक्ताः।
शस्ता न गुर्वम्लपयोदधीनि नानूपमत्स्या न गुडस्तिलाश्च॥८३॥
एला कुष्टं दार्वी शतपुष्पा चित्रकं विडङ्गश्च।
कुष्ठालेपनमिष्टं रसाञ्जनं चाभया चैव॥८४॥
चित्रकमेलां बिम्बीं वृषकं त्रिवृदर्कनागरकम्1617।
चूर्णीकृतमष्टाहं भावयितव्यं पलाशस्य॥८५॥
क्षारेण गवां मूत्रस्नुतेन तेनास्य मण्डलान्याशु।
भिद्यन्ते विलयन्ति1618 च लिप्तान्यर्काभितप्तानि॥८६॥
मांसी मरिचं लवणं रजनी तगरं सुधा गृहाद्धूमः।
मूत्रं पित्तं क्षारः पालाशः कुष्ठहा लेपः॥८७॥
त्रपुसीसमयश्चूर्णं मण्डलनुत् फल्गुचित्रकौ बृहती।
गोधारसःसलवणो दारु च मूत्रं च मण्डलनुत्1619॥८८॥
कदलीपलाशपाटलिनिचुलक्षाराम्भसा प्रसन्नेन।
मांसेषु1620 तोयकार्यं कार्यं पिष्टे च क्लिन्ने च॥८९॥
तैर्मेदकः सुजातः किण्वैर्जनितं प्रलेपनं शस्तम्।
मण्डलकुष्ठविनाशनमातपसंस्थं कृमिघ्नं च॥९०॥
मुस्तं मदनं त्रिफला करञ्जआरग्वधः कलिङ्गयवाः।
दार्वी ससप्तपर्णा स्त्रानं सिद्धार्थकं नाम॥९१॥
एष कषायो वमनं विरेचनं वर्णकस्तथोद्धर्षः।
स्वग्दोषकुष्ठशोफप्रबाधनः पाण्डुरोगघ्नः॥९२॥
कुष्ठं करञ्जबीजान्येडगजः कुष्ठसूदनो लेपः।
प्रपुन्नाडबीजसैन्धवरसाञ्जनकपित्थलोध्राश्च॥९३॥
श्वेतकरवीरमूलं कुटजकरञ्जयोः फलं त्वचो दार्व्याः।
सुमनःप्रवालयुक्तो लेपः कुष्ठापहः सिद्धः॥९४॥
लोध्रस्य धातकीनां वत्सकबीजस्य नक्तमालस्य।
कल्कश्च मालतीनां कुष्ठेषूद्वर्तनालेपौ॥१५॥
शैरीषी त्वक् पुष्पं कार्पास्या राजवृक्षपत्राणि।
पिष्टा च काकमाची चतुर्विधः1621 कुष्ठनुल्लेपः॥९६॥
दार्व्यारसाञ्जनस्य च निम्बपटोलस्य खदिरसारस्य।
आरग्वधवृक्षकयोस्त्रिफलायाः सप्तपर्णस्य॥९७॥
इति षट् कषाययोगाः कुष्ठघ्नाःसप्तमश्च तिनिशस्य।
स्नानेपाने च हितास्तथाऽष्टमश्चाश्वमारस्य॥९८॥
आलेपनं प्रघर्षणमवचूर्णनमेत एव च कषायाः।
तैलघृतपाकयोगे चेष्यन्ते कुष्ठशान्त्यर्थम्॥९९॥
त्रिफलानिम्बपटोलं मञ्जिष्ठा रोहिणी वचा रजनी।
एष कषायोऽभ्यस्तो निहन्ति कफपित्तजं कुष्ठम्॥१००॥
एतैरेव च सर्पिः सिद्धं वातोल्बणं जयति कुष्ठम्।
एष च कल्पो दृ(दि)ष्टःखदिरासनदारुनिम्बानाम्॥१०१॥
कुष्ठार्कतुत्थकट्फलमूलकबीजानि रोहिणी कटुका।
कुटजफलोत्पलमुस्तं बृहतीकरवीरकासीशम्॥१०२॥
एडगजनिम्बपाठा दुरालभा चित्रको विडङ्गश्च।
तिक्तालाबुकबीजं कम्पिल्लकसर्षपौ वचा दार्वी॥१०३॥
एतैस्तैलं सिद्धं कुष्ठघ्नं1622 योग एष चालेपः।
उद्वर्तनं प्रघर्षणमवचूर्णनमेष एवेष्टः॥१०४॥
श्वेतकरवीरकरसो गोमूत्रं चित्रको विडङ्गश्च।
कुष्ठेषु तैलयोगः सिद्धोऽयं संमतो भिषजाम्॥१०५॥
इति श्वेतकरवीराद्यं तैलम्।
श्वेतकरवीरपल्लवमूलत्वग्वत्सको विडङ्गश्च।
कुष्ठार्कमूलसर्षपशिग्रुत्वग्रोहिणी कटुका॥१०६॥
एतैस्तैलं साध्यं1623 कल्कैः पादांशिकैर्गवां मूत्रम्।
दत्त्वा तैलचतुर्गुणमभ्यङ्गात् कुष्ठकण्डूघ्नम्॥१०७॥
इति श्वेतकरवीराद्यं तैलम्।
तिक्तालाबुकबीजं द्वेतुत्थे रोचना हरिद्रेद्वे।
बृहतीफलमेरण्डः सविशालश्चित्रको मूर्वा॥१०८॥
कासीशहिङ्गुशिग्रुत्र्यूषणसुरदारुतुम्बुरुविडङ्गम्।
लाङ्गलकी कुटजत्वक् कटुकाख्या रोहिणी चैव॥१०९॥
सर्षपतैलं कल्कैरेतैर्मूत्रे चतुर्गुणे साध्यम्।
कण्डूकुष्ठविनाशनमभ्यङ्गाद्वातकफहन्तृ1624॥११०॥
इति तिक्तालाबुकादितैलम्।
कैनकक्षीरी1625 शैला1626 भार्ङ्गीदन्त्याः फलानि मूलं च।
जातीप्रवालसर्षपलशुनविडङ्गं करञ्जत्वक्॥१११॥
सप्तच्छदार्कपल्लवमूलत्वङ्गिम्बचित्रकास्फोताः।
गुञ्जैरण्डं बृहतीमूलकसुरसार्जकफलानि॥११२॥
कुष्ठं1627 पाठा मुस्तं तुम्बुरुमूर्वावचाः सषड्ग्रन्थाः।
एडगजकुटजशिग्रुत्र्यूषणभल्लातकक्षवकाः॥११३॥
हरितालमवापुष्पी तुत्थं कम्पिल्लकोऽमृतासङ्गः।
सौराष्ट्री कासीशं दार्वीत्वक् सर्जिका लवणम्॥११४॥
कल्कैरेतैस्तैलं करवीरकमूलपल्लवकषाये।
सार्षपमथवा तैलं गोमूत्रचतुर्गुणं साध्यम्॥११५॥
कटुकालाब्वां स्थाप्यं1628 तत् सिद्धं तेन मण्डलान्याशु।
भिन्द्याद्भिषगभ्यङ्गात् कृमींश्च कण्डूं च विनिहन्यात्॥११६॥
इति कनकक्षीरीतैलम्।
कुष्ठं तमालपत्रं मरिचं समनःशिलं सकासीशम्।
तैलेन युक्तमुषितं सप्ताहं भाजने ताम्रे॥११७॥
तेनालिप्तंसिध्मंसप्ताहाद्व्येति1629 तिष्ठतो घर्मे।
मासान्नवं किलासं स्रानं कृत्वा1630 विशुद्धतनोः॥११८॥
इति सिध्मलेपः।
सर्षपकरञ्जकोषातकीनां तैलान्यथेङ्गुदीनां च।
कुष्ठेषु हितान्याहुस्तैलं यच्चापि खदिरसारस्य॥११९॥
जीवन्ती मञ्जिष्ठा दार्वी कम्पिल्लकस्तथा1631म् ग") तुत्थम्।
एष घृततैलपाकः सिद्धः सिद्धे च सर्जरसः॥१२०॥
द्गेयःसमधूच्छिष्टो विपादिका तेन शाम्यति1632 स्वक्ता।
चर्मैककुष्ठकिटिभं कुष्ठं शाम्यत्यलसकं च॥१२१॥
इति विपादिकाहरघृततैले।
किण्वं वराहरुधिरं1633 पृथ्वीका सैन्धवं च लेपः स्यात्।
लेपो योज्यः1634कुस्तुम्बुरूणि कुष्ठं च मण्डलनुत्॥१२२॥
पूतिकदारू जटिला पक्वसुरा क्षौद्रमुद्गपण्यौच।
लेपः सकाकनासो मण्डलकुष्ठापहः सिद्धः॥१२३॥
चित्रकशोभाञ्जनकौ गुडूच्यपामार्गदेवदारूणि।
खदिरो धवश्च लेपः श्यामा दन्ती द्रवन्ती च॥१२४॥
लाक्षारसाञ्जनैलाः पुनर्नवा चेति कुष्ठिनां लेपः।
दधिमण्डयुताः सर्वे देयाः षण्मारुतकफघ्नाः॥१२५॥
एडगजकुष्ठसैन्धवसौवीरकसर्षपैः क्रिमिघ्नैश्च।
कृमिकुष्ठसिध्ममण्डलदद्रुकुष्ठं शममुपैति॥१२६॥
एडगजः सर्जरसो मूलकबीजं च सिध्मकुष्ठानाम्।
काञ्जिकयुक्तं तु1635 पृथङ्मतमिदमुद्वर्तनं लेपः॥१२७॥
वासा त्रिफला पाने स्नाने चोद्वर्तने1636प्रलेपे च।
बृहतीसेव्यपटोलाः ससारिवा रोहिणी चैव॥१२८॥
खदिरावघातककुभा रोहितकरोध्रकुटजधवनिम्बाः।
सप्तच्छदकरवीराः शस्यन्ते स्नानपानेषु॥१२९॥
जलवाप्य1637लोहकेशरपत्रप्लवचन्दनं मृणालानि।
भागोत्तराणि सिद्धं प्रलेपनं पित्तकफकुष्ठे॥१३०॥
यष्ट्याह्वलोध्रपद्मकपटोलपिचुमर्दचन्दनरसाश्च।
स्नेना पाने च हिताः सुशीतलाः पित्तकुष्टिभ्यः॥१३१॥
आलेपनं प्रियङ्गुर्हरेणुका वत्सकस्य च फलानि।
सातिविषा च ससेव्या सचन्दना रोहिणी कटुका॥१३२॥
तिक्तघृतैर्धौतघृतैरभ्यङ्गो दह्यमानकुष्ठेषु।
लैश्चन्दनमधुकप्रपौण्डरीकोत्पलयुतैश्च॥१३३॥
क्लेदेप्रपतति चाङ्गे दाहे विस्फोटके सचर्मदले।
शीताः प्रदेहसेका व्यधो1638 विरेको घृतं तिक्तम्॥१३४॥
खदिरघृतं निम्बघृतं दार्वीघृतमुत्तमं पटोलघृतम्।
कुष्ठेषु कफपित्तप्रबलेषु भिषग्जितं सिद्धम्॥१३५॥
त्रिफलात्वचोऽर्धपलिकाः पटोलपत्रंच कार्षिकाः शेषाः।
कटुरोहिणी सनिम्बा यष्ट्याह्वंत्रायमाणा च॥१३६॥
एष कषायः साध्यो दत्त्वाद्विपलं मसूरविदलानाम्।
सलिलाढकेऽष्टभागे शेषे पूतो रसो ग्राह्यः॥१३७॥
तत्र कषायेऽष्टपले चतुष्पलं सर्पिषश्च पक्तव्यम्।
यावत्स्यादष्टपलं शेषं पेयं ततः कोष्णम्॥१३८॥
तद्वातपित्तकुष्ठं वीसर्पं वातशोणितं प्रबलम्।
ज्वरदाहगुल्मविद्रधिविभ्रमविस्फोटकान् हन्ति॥१३९॥
निम्बपटोलं दार्वींदुरालभां तिक्तरोहिणीं त्रिफलाम्।
कुर्यादर्धपलांशां पर्पटकं त्रायमाणां च॥१४०॥
सलिलाढकसिद्धानां रसेऽष्टभागस्थिते क्षिपेत् पूते।
चन्दनकिराततिक्तकमागधिकास्त्रायमाणां च॥१४१॥
मुस्तं वत्सकबीजं कल्कीकृत्यार्धकार्षिकान्भागान्।
नवसर्पिषश्चषट्पलमेतत्सिद्धं घृतं पेयम्॥१४२॥
कुष्ठज्वरगुल्मार्शोग्रहणीपाण्ड्वामयश्वयथुहारि।
पामाविसर्पपिडकाकण्डूमदगण्डनुत्तिक्तम्॥१४३॥
इति तिक्तषट्पलकं घृतम्।
सप्तच्छदं प्रतिविषां शम्पाकं तिक्तरोहिणीं पाठाम्।
मुस्तमुशीरं त्रिफलां पटोलपिचुमर्दपर्पटकम्॥१४४॥
धन्वयवासं चन्दनमुपकुल्यां पद्मकं रजन्यौ1639 च।
षड्ग्रन्थां सविशालां शतावरी सारिवे चोभे॥१४५॥
वत्सकबीजं वासां मूर्वामभृतां किराततिक्तं च।
कल्कान्कु1640र्यान्मतिमान्यष्ट्याह्वं त्रायमाणां च॥१४६॥
कल्कश्च1641तुर्थभागो जलमष्टगुणं रसोऽमृतफलानाम्।
द्विगुणो घृतात् प्रदेयस्तत्सर्पिः पाययेत्सिद्धम्॥१४७॥
कुष्ठानि रक्तपित्तप्रबलान्यर्शांसि रक्तवाहीनि।
वीसर्परक्तपित्तं वातासृक्पाण्डुरोगं च॥१४८॥
विस्फोटकान् सपामानुन्मादं कामलां ज्वरं कण्डूम्।
हृद्रोगगुल्मपिडका असृग्दरं गण्डमालां च॥१४९॥
इन्यादेतत् सर्पिः पीतं काले यथाबलं सद्यः।
योगशतैरप्यजितान्महाविकारान्महातिक्तम्॥१५०॥
इति महातिक्तकं घृतम्।
दोषे हृतेऽपनीते रक्ते बाह्यान्तरे कृते शयने।
स्नेहे च कालयुक्तेन कुष्ठमनुवर्तते1642 साध्यम्॥१५१॥
खदिरस्य तुलाः पञ्च शिंशपाशनयोस्तुले।
तुलार्धाः सर्व एवैते करञ्जारिष्टवेतसाः॥१५२॥
पर्पटःकुटजश्चैव वृषः कृमिहरस्तथा।
हरिद्रे कृतमालश्चगुडूची त्रिफला त्रिवृत्॥१५३॥
सप्तपर्णश्च संक्षुण्णा दशद्रोणेषु वारिणः।
अष्टभागावशेषं तु कषायमवतारयेत्॥१५४॥
धात्रीरसं च तुल्यांशं सर्पिषश्चाढकं पचेत्।
महातिक्तककल्कैस्तु यथोक्तैः पलसंमितैः॥१५५॥
निहन्ति सर्वकुष्ठानि पानाभ्यङ्गनिषेवणात्।
महाखदिरमित्येतत् परं कुष्ठविकारनुत्॥१५६॥
इति महाखदिरं घृतम्।
प्रपतत्सु लसीकाप्रस्रुतेषु गात्रेषु जन्तुजग्धेषु।
मूत्रं निम्बविडङ्गे स्नानं पानं प्रदेहश्च1643॥१५७॥
वृषकुटजससपर्णाःकरवीरकरञ्जनिम्बखदिराश्च।
स्नाने पाने लेपे क्रिमिकुष्ठनुदः सगोमूत्राः॥१५८॥
पानाहारविधाने प्रसेचने धूपने प्रदेहे च।
कृमिनाशनं विडङ्गं विशिष्यते कुष्ठहा खदिरः॥१५९॥
एडगजः सविडङ्गो मूलान्यारग्वधस्य कुष्ठानाम्।
उद्दालनं श्वदन्ता गोश्ववराहोदन्ताश्च॥१६०॥
एड़गजः सविडङ्गो द्वे च निशे राजवृक्षमूलं च।
कुष्ठोद्दालनमग्र्यंसपिप्पलीपाकलं योज्यम्॥१६१॥
श्वित्राणां प्रशमार्थं योक्तव्यं सर्वतो विशुद्धानाम्।
श्वित्रे स्रंसनमग्र्यंमलपूरस इष्यते सगुडः॥१६२॥
तं पीत्वा सुस्निग्धो यथाबलं सूर्यपादसंतापम्।
संसेवेत विरिक्तस्त्र्यहं पिपासुः पिबेत् पेयाम्॥१६३॥
श्वित्रेऽङ्गे ये स्फोटा जायन्ते कण्टकेन तानू भिन्द्यात्।
स्फोटेषु विस्रुतेषु1644 प्रातः प्रातः पिबेत् पक्षम्॥१६४॥
मलयुमसनं प्रियङ्गुंशतपुष्पां चाम्भसा समुत्क्वाथ्य।
पालाशं वा क्षारं यथाबलं फाणितोपेतम्॥१६५॥
यच्चान्यत् कुष्ठघ्नं श्वित्राणां सर्वमेव तच्छस्तम्।
खदिरोदकसंयुक्तं खदिरोदकपानमत्र्यं वा॥१६६॥
समनःशिलं विडङ्गं कासीशं रोचनां कनकपुष्पीम्।
श्वित्राणां प्रशमार्थं ससैन्धवं लेपनं दद्यात्॥१६७॥
कदलीक्षारयुतं वा खरास्थि दग्धं गवां रुधिरयुक्तम्।
हस्तिमदाध्युषितं वा मालत्याः कोरकक्षारम्॥१६८॥
नीलोत्पलं सकुष्ठं ससैन्धवं हस्तिमूत्रपिष्टं वा।
मूलकबीजावल्गुजलेपः पिष्टो गवां मूत्रे॥१६९॥
काकोदुम्बरिका वा सावल्गुजचित्रका गवां मूत्रे।
पिष्टा मनःशिला वा संयुक्ता बर्हिपित्तेन॥१७०॥
इति श्वित्रे लेपाः।
लेपः किलासहन्ता बीजान्यावल्गुजानि लाक्षा च।
गोपित्तमञ्जने द्वे पिप्पल्यः काललोहरजः॥१७१॥
शुद्ध्या शोणितमोक्षैर्विरूक्षणैर्भक्षणैश्च सक्तूनाम्।
श्वित्रं कस्यचिदेव प्रशाम्यति क्षीणपापस्य॥१७२॥
दारुणं चारुणं श्वित्रं किलासं नामभिस्त्रिभिः।
यदुच्यते तत्त्रिविधं त्रिदोषं प्रायशश्च तत्॥१७३॥
दोषे रक्ताश्रिते रक्तं ताम्रं मांससमाश्रिते।
श्वेतं मेदःश्रिते श्वित्रंगुरु तच्चोत्तरोत्तरम्॥१७४॥
अरक्तलोम तनु यत् पाण्डु नातिचिरोत्थितम्।
मध्यावकाशे चोच्छूनं श्वित्रं तत् साध्यमुच्यते॥१७५॥
यत् परस्परतोऽभिन्नं बहु यद्रक्तलोमवत्।
यच्च वर्षगणोत्पन्नं तच्छ्वित्रं नैव सिध्यति॥१७६॥
वांस्यतथ्यानि कृतघ्नभावो निन्दा सुराणां1645 गुरुधर्षणं च।
पापक्रिया पूर्वकृतं च कर्म हेतुः किलासस्य विरोधि चान्नम्॥१७७॥
तत्र श्लोकाः।
हेतुर्द्रव्यं लिङ्गं विविधं ये येषु चाधिका दोषाः।
कुष्ठेषु दोषलिङ्गं समासतो दोषनिर्देशात्1646॥१७८॥
साध्यमसाध्यं कृच्छ्रं तथैव कुष्ठापहाश्च ये योगाः।
सिद्धाः किलासहेतुर्लिङ्गं गुरुलाघवं तथा शान्तिः॥१७९॥
इति संग्रहः प्रणीतो महर्षिणा कुष्ठनाशनेऽध्याये।
स्मृतिबुद्धिवर्धनार्थं शिष्याय हुताशवेशाय॥१८०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने
कुष्ठचिकित्सितं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
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अष्टमोऽध्यायः।
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अथातो राजयक्ष्मचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह माह भगवानात्रेयः॥२॥
दिवौकसां कथयतामृषिभिर्वै श्रुता कथा।
कामव्यसनसंयुक्ता पौराणी शशिनं प्रति॥३॥
रोहिण्यामतिसक्तस्य शरीरं नानुरक्षतः।
आजगामाल्पतामिन्दोर्देहः स्नेहपरिक्षयात्॥४॥
दुहितॄणामसंभोगाच्छेषाणां च प्रजापतेः।
क्रोधो निःश्वासरूपेण मूर्तिमान् निःसृतो मुखात्॥५॥
प्रजापतेर्हि दुहितॄरष्टाविंशतिमंशुमान्।
भार्यार्थं प्रतिजग्राह न च सर्वास्ववर्तत॥६॥
गुरुणा तमवध्यातं भार्यास्वसमवर्तिनम्।
रजःपरीतमबलं1647 यक्ष्मा शशिनमाविशत्॥७॥
सोऽभिभूतोऽतिमहता1648 गुरुक्रोधेन निष्प्रभः।
देवदेवर्षिसहितो जगाम शरणं गुरुम्॥८॥
अथ चन्द्रमसः शुद्धां मतिं बुद्ध्वाप्रजापतिः।
प्रसादं कृतवान् सोमस्ततोऽश्विभ्यां चिकित्सितः॥९॥
स विमुक्तग्रहश्चन्द्रो विरराज विशेषतः।
ओजसा1649 वर्धितोऽश्विभ्यां शुद्धं सत्वमवाप च॥१०॥
क्रोधो यक्ष्मा ज्वरो रोग एकोऽर्थो1650 दुःखसंज्ञितः।
यस्मात् स राज्ञः प्रागासीद्राजयक्ष्मा ततो मतः॥११॥
स यक्ष्मा हुङ्कृतोऽश्विभ्यां मानुषं लोकमागतः।
लब्ध्वा चतुर्विधं हेतुं समाविशति मानवान्॥१२॥
अयथाबलमारम्भं वेगसंधारणं क्षयम्।
यक्ष्मणः कारणं विद्याच्चतुर्थं विषमाशनम्॥१३॥
युद्धाध्ययनभाराध्वलङ्घनप्लवनादिभिः।
पतनैरभिघातैर्वा साहसैर्वा तथाऽपरः॥१४॥
अयथाबलमारम्भैर्जन्तोरुरसि विक्षते।
वायुः प्रकुपितो दोषावुदीर्योभौ प्र (वि) धावति॥१५॥
स शिरःस्थः शिरःशूलं करोति गलमाश्रितः।
कण्ठोद्ध्वंसंच कासं च स्वरभेदमरोचकम्॥१६॥
पार्श्वशूलं च पार्श्वस्थो वर्चोभेदं गुदे स्थितः।
जृम्भां ज्वरं च सन्धिस्थ उरस्थश्चोरसो रुजम्॥१७॥
क्षणनाच्चोरसो1651 रक्तं कासमानः कफानुगम्।
जर्जरेणोरसा कृच्छ्रमुरःशूली निरस्यति॥१८॥
इति साहसिको यक्ष्मा रूपैरेतैः प्रपद्यते।
एकादशभिरात्मज्ञः सेवेतातो न सहसम्॥१९॥
ह्रीमत्त्वाद्वा घृणित्वाद्वा भयाद्वा वेगमागतम्।
वातमूत्रपुरीषाणां निगृह्णाति यदा नरः॥२०॥
तदा वेगप्रतीघातात् कफपित्ते समीरयन्।
ऊर्ध्वं तिर्यगधश्चैव विकारान् कुरुतेऽनिलः॥२१॥
प्रतिश्यायं च कासं च स्वरभेदमरोचकम्।
पार्श्वशूलं शिरःशूलं ज्वरमंसावमर्दनम्॥२२॥
अङ्गमर्द मुहुश्छार्देंवर्चोभेदं त्रिलक्षणम्।
रूपाण्येकादशैतानि यक्ष्मा यैरुच्यते महान्॥२३॥
ईर्ष्योत्कण्ठाभयत्रासक्रोधशोकातिकर्षणात्।
व्यवायानशनाभ्यां1652 च शुक्रमोजश्च हीयते॥२४॥
ततः स्नेहक्षयाद्वायुर्वृद्धो दोषावुदीरयन्।
प्रतिश्यायं ज्वरं कासमङ्गमर्दं शिरोरुजम्॥२५॥
श्वासं विड्भेदमरुचिं पार्श्वशुलं स्वरक्षयम्।
करोति चांससन्तापमेकादश1653 गदानिमान्॥२६॥
लिङ्गान्यावेदयन्त्येतान्येकादश महागदम्।
संप्राप्तं राजयक्ष्माणं क्षयात् प्राणक्षयप्रदम्॥२७॥
विविधान्यन्नपानानि वैषम्येण समश्नतः।
जनयन्त्यामयान् घोरान् विषमान्मारुतादयः॥२८॥
स्रोतांसि रुधिरादीनां वैषम्याद्विषमं गताः।
रुद्ध्वारोगाय कल्पन्ते पुष्यन्ति न च धातवः॥२९॥
प्रतिश्यायं प्रसेकं च कासं छर्दिमरोचकम्।
ज्वरमंसाभितापं च छर्दनं रुधिरस्य च॥३०॥
पार्श्वशुलं शिरःशूलं स्वरभेदमथापि च।
कफपित्तानिलकृतं लिङ्गं विद्याद्यथाक्रमम्॥३१॥
इति व्याधिसमूहस्य रोगराजस्य1654 हेतुजम्।
रूपमेकादशविधं हेतुश्चोकश्चतुर्विधः॥३२॥
पूर्वरूपं प्रतिश्यायो दौर्बल्यं दोषदर्शनम्।
अदोषेष्वपि भावेषु काये बीभत्सदर्शनम्॥३३॥
घृणित्वमश्नतश्चापि बलमांसपरिक्षयः।
स्त्रीमद्यमांसप्रियता प्रियता चावगुण्ठने॥३४॥
मक्षिकाघूणकेशानां तृणानां पतनानि च।
प्रायोऽन्नपाने, केशानां नखानां चाभिवर्धनम्॥३५॥
पतत्त्रिभिः पतङ्गैश्च श्वापदैश्चाभिधर्षणम्।
स्वप्ने केशास्थिराशीनां भस्मनश्चाधिरोहणम्॥३६॥
जलाशयानां शैलानां वनानां ज्योतिषामपि।
शुष्यतां क्षीयमाणानां पततां यच्च दर्शनम्॥३७॥
प्राग्रूपं बहुरूपस्य तज्ज्ञेयं राजयक्ष्मणः।
रूपं त्वस्य यथोद्देशं परं शृणु सभेषजम्॥३८॥
यथास्वेनोष्मणा पाकं शारीरा यान्ति धातवः।
स्रोतसा च यथा स्वेन धातुः पुष्यति धातुना1655॥३९॥
स्रोतसां संनिरोधाच्च रक्तादीनां च संक्षयात्।
धातूष्मणां चापचयाद्राजयक्ष्मा प्रवर्तते॥४०॥
तस्मिन् काले पचत्यनिर्यदन्नंकोष्ठमाश्रितम्।
मलीभवति तत् प्रायः कल्पते किंचिदोजसे॥४१॥
तस्मात् पुरीषं संरक्ष्यं विशेषाद्राजयक्ष्मिणः।
सर्वधातुक्षयार्तस्य बलं तस्य हि विड्बलम्॥४२॥
रसः स्रोतःसु रुद्धेषु स्वस्थानस्थो विवर्धते।
स ऊर्ध्वं कासवेगेन बहुरूपः प्रवर्तते॥४३॥
जायन्ते व्याधयश्चातः षडेकादश वा पुनः।
येषां संघातयोगेन राजयक्ष्मेति कथ्यते॥४४॥
कासोंऽसतापो वैस्वर्यं ज्वरः पार्श्वशिरोरुजा।
शोणितश्लेष्मणोश्छर्दिः श्वासः कोष्ठामयोऽरुचिः1656॥४५॥
रूपाण्येकादशैतानि यक्ष्मणः षडिमानि वा।
कासो ज्वरः पार्श्वशूलं स्वरवर्चोगदोऽरुचिः॥४६॥
सर्वैरर्धैस्त्रिभिर्वाऽपि लिङ्गैर्मांसबलक्षये।
युक्तो वर्ज्यश्चिकित्स्यस्तु सर्वरूपोऽप्यतोऽन्यथा॥४७॥
घ्राणमूले स्थितः श्लेष्मा रुधिरं पित्तमेव वा।
मारुताध्मातशिरसो मारुतं श्यायते प्रति॥४८॥
प्रतिश्यायस्ततोघोरो जायते देहकर्शनः।
तस्य रूपं शिरःशूलं गौरवं घ्राणविप्लवः॥४९॥
ज्वरः कासः कफोत्क्लेशः स्वरभेदोऽरुचिः क्लमः।
इन्द्रियाणामसामर्थ्यं यक्ष्मा चातः1657 प्रवर्तते॥५०॥
पिच्छिलं बहलं विस्रं हरितं श्वेतपीतकम्।
कासमानो1658 रसं यक्ष्मी निष्ठीवति कफानुगम्॥५१॥
अंसपार्श्वाभितापश्च तापः पादकरस्य1659 च।
ज्वरः सर्वाङ्गगश्चेति लक्षणं राजयक्ष्मणः॥५२॥
वातात् पित्तात् कफाद्रकात् कासवेगात्सपीनसात्।
स्वरभेदो भवेद्वाताद्रूक्षः क्षामश्चलः स्वरः॥५३॥
तालुकण्ठपरीदाहः1660 पित्ताद्वक्तुमसूयते।
कफान्मन्दो विबद्धश्च स्वरः खुरुखुरायते1661॥५४॥
सन्नो1662 रक्तविबन्ध (ब्ध) त्वात् स्वरः कृच्छ्रात् प्रवर्तते।
कासातिवेगात् करुणः पीनसात् कफवातिकः॥५५॥
पार्श्वशूलं त्वनियतं संकोचायामलक्षणम्।
शिरःशूलं ससंतापं यक्ष्मिणः स्यात् सगौरवम्॥५६॥
अतिखिन्ने शरीरे तु1663 यक्ष्मिणो विषमाशनात्।
कण्ठात् प्रवर्तते रक्तं श्लेष्मा चोत्क्लिष्टसंचितः॥५७॥
रक्तंविबद्धमार्गत्वान्मांसादीन्नप्रपद्यते1664।
आमाशयस्थमुत्क्लिष्टं बहुत्वात् कण्ठमेति वा॥५८॥
वातश्लेष्मविबन्धत्वादुरसः श्वासमृच्छति।
दोषैरुपहते चाग्नौसपिच्छमतिसार्यते॥५९॥
पृथग्दोषैः समस्तैर्वा जिह्वाहृदयसंश्रितैः।
जायतेऽरुचिराहारे द्विष्टैरर्थैश्च मानसैः॥६०॥
कषायतिक्तमधुरैर्विद्यान्मुखरसैः क्रमात्।
वाताद्यैररुचिं जातां मानसीं दोषदर्शनात्॥६१॥
अरोचकात् कासवेगाद्दोषोत्क्लेशाद्भयादपि।
छार्दिर्या सा विकाराणामन्येषामप्युपद्रवः॥६२॥
सर्वस्त्रिदोषजो यक्ष्मा दोषाणां तु बलाबलम्।
परीक्ष्यावस्थिकं वैद्यः शोषिणं समुपाचरेत्॥६३॥
प्रतिश्याये शिरःशूले कासे श्वासे स्वरक्षये।
पार्श्वशूले च विविधाः क्रियाःसाधारणीःशृणु॥६४॥
पीनसे स्वेदमभ्यङ्गं धूममालेपनानि च।
परिषेकावगाहांश्च यावकं वाट्यमेव च॥६५॥
लवणाम्लकटूष्णांश्च रसान् स्नेहोपबृंहितान्।
लावतित्तिरिदक्षाणां वर्तकानां च कल्पयेत्॥६६॥
सपिप्पलीकं सयवं सकुलत्थं सनागरम्।
दाडिमामलकोपेतं स्निग्धमाजं रसं पिबेत्॥६७॥
तेन षड्विनिवर्तन्ते विकाराः पीनसादयः।
मूलकानां कुलस्थानां यूषैर्वा सूपकल्पितैः॥६८॥
यवगोधूमशाल्यन्नैर्यथासात्म्यमुपाचरेत्।
पिबेत् प्रसादं वारुण्या जलं वा पाञ्चमूलिकम्॥६९॥
धान्यनागरसिद्धं वा तामलक्याऽथवा शृतम्।
पर्णिनीभिश्चतसृभिस्तेन चान्नानि कल्पयेत्॥७०॥
कृशरोत्कारिकामाषकुलत्थयवपायसैः।
संकरस्वेदविधिना कण्ठं पार्श्वमुरः शिरः॥७१॥
स्वेदयेत् पत्रभङ्गेण शिरश्च परिषेचयेत्।
बलागुडूचीमधुकशृतैर्वा वारिभिः सुखैः॥७२॥
बस्तमत्स्यशिरोभिर्वा नाडीस्वेदं प्रयोजयेत्।
कण्ठे शिरसि पार्श्वे च पयोभिर्वा सवातिकैः॥७३॥
औदकानूपमांसानि सलिलं पाञ्चमूलिकम्।
सस्नेहमारनालं वा नाडीस्वेदं प्रयोजयेत्॥७४॥
जीवन्त्याः शतपुष्पाया बलाया मधुकस्य च।
बचाया वेशवारस्य विदार्या मूलकस्य च॥७५॥
औदकानूपमांसानासुपनाहाश्च संस्कृताः।
शस्यन्ते सचतुःस्नेहाः शिरः पार्श्वांसशूलिनाम्॥७६॥
शतपुष्पा समधुकं कुष्ठं तगरचन्दने।
आलेपनं स्यात् सघृतं शिरः पार्श्वांसशूलनुत्॥७७॥
बला रास्नातिलाः सर्पिर्मधुकं नीलमुत्पलम्।
पलङ्कषा देवदारु चन्दनं केशरं घृतम्॥७८॥
वीरा बला विदारी च कृष्णगन्धा पुनर्नवा।
शतावरी पयस्या च कत्तृणं मधुकं घृतम्॥७९॥
चत्वार एते श्लोकार्धैःप्रदेहाः परिकीर्तिताः।
शस्ताः संसृष्टदोषाणां शिरः पार्श्वांसशूलिनाम्॥८०॥
नावनं धूमपानानि स्नेहाश्चोत्तरभक्तिकाः।
तैलान्यभ्यङ्गयोगीनि बस्तिकर्म तथा परम्॥८१॥
जलौकालाबुशृङ्गैर्वा प्रदुष्टं व्यधनेन वा।
शिरःपार्श्वांसशूलेषु रुधिरं तस्य निर्हरेत्॥८२॥
प्रदेहः सघृतश्चेष्टः पद्मकोशीरचन्दनैः।
दूर्वामधुकमञ्जिष्ठाकेशरैर्वा घृताः॥८३॥
प्रपौण्डरीक1665निर्गुण्डीपद्मकेशरमुत्पलम्।
कशेरुकाः पयस्या च ससर्पिष्कं प्रलेपनम्॥८४॥
चन्दनाद्येन तैलेन शतधौतेन सर्पिषा।
अभ्यङ्गः पयसा सेकः शस्तश्च मधुकाम्बुना॥८५॥
माहेन्द्रेण सुशीतेन चन्दनादिशृतेन वा।
परिषेकः प्रयोक्तव्य इति संशमनी क्रिया॥८६॥
दोषाधिकानां वमनं शस्यते सविरेचनम्।
स्नेहस्वेदोपपन्नानां सस्नेहं यन्न कर्शनम्॥८७॥
शोषी मुञ्चति गात्राणि पुरीषस्रंसनादपि।
अबलापेक्षिणीं मात्रां किं पुनर्यो विरिच्यते॥८८॥
योगान् संशुद्धकोष्ठानां कासे श्वासे स्वरक्षये।
शिरःपार्श्वांसशूलेषु सिद्धानेतान् प्रयोजयेत्॥८९॥
बलाविदारिगन्धाभ्यां विदार्या मधुकेन वा।
सिद्धं सलवणं सर्पिर्नस्यं स्यात् स्वर्यमुत्तमम्॥९०॥
प्रपौण्डरीकं मधुकं पिप्पली बृहती बला।
क्षीरं सर्पिश्च1666 तत् सिद्धं स्वर्यंस्यान्नावनं परम्॥९१॥
शिरःपार्श्वांसशूलघ्नं कासश्वासनिबर्हणम्।
प्रयुज्यमानं बहुशो घृतमौत्तरभक्तिकम्॥९२॥
दशमूलेन पयसा सिद्धं मांसरसेन च।
बलागर्भं घृतं सद्यो रोगानेतान् प्रबाधते॥९३॥
भक्तस्योपरि मध्ये वा यथाग्न्यभ्यवहारितम्।1667
रास्नाघृतं वा सक्षीरं सक्षीरं वा बलाघृतम्॥९४॥
लेहान् कासापहान् स्वर्याञ्श्वासहिक्कानिबर्हणान्।
शिरः पार्श्वांसशूलघ्नान्स्नेहांश्चातः परं शृणु॥९५॥
घृतं खर्जूरमृद्वीकाशर्कराक्षौद्रसंयुतम्।
सपिप्पलीकं वैस्वर्यकासश्वासज्वरापहम्॥९६॥
दशमूलशृतात् क्षीरात् सर्पिर्यदुदियान्नवम्।
सपिप्पलीकं सक्षौद्रं तत् परं स्वरबोधनम्॥९७॥
शिरः पार्श्वांसशूलघ्नं कासश्वासज्वरापहम्।
पञ्चभिः पञ्चमूलैर्वा शृताद्यदुदियाद्धृतम्॥९८॥
पञ्चानां पञ्चमूलानां रसे क्षीरचतुर्गुणे।
सिद्धं सर्पिर्जयत्येतद्यक्ष्मणः सप्तकं बलम्॥९९॥
खर्जूरं पिप्पली द्राक्षा पथ्या शृङ्गी दुरालभा।
त्रिफला पिप्पली मुस्तं शृङ्गाटगुडशर्कराः॥१००॥
वीरा शटी पुष्कराख्यं सुरसः शर्करा गुडः।
नागरं चित्रको लाजाः पिप्पल्यामलकं गुडः॥१०१॥
श्लोकार्धविहितानेतांल्लिह्यान्ना मधुसर्पिषा।
कासश्वासापहान् स्वर्यान् पार्श्वशूलापहांस्तथा॥१०२॥
सितोपलां तुगाक्षीरीं पिप्पलीं बहुलां त्वचम्।
अन्त्यादूर्ध्वं द्विगुणितं लेहयेन्मधुसर्पिषा॥१०३॥
चूर्णितं प्राशयेद्वा1668 तच्छ्वासकासकफातुरम्।
सुप्तजिह्वारोचकिनमल्पाग्निंपार्श्वशूलिनम्॥१०४॥
हस्तपादाङ्गदाहेषु ज्वरे रक्ते तथोर्ध्वगे।
वासासर्पिः शतावर्या सिद्धं वा परमं हितम्॥१०५॥
दुरालभां श्वदंष्ट्रां च चतस्रः पर्णिनीर्बलाम्।
भागान् पलोन्मितान् कृत्वा पलं पर्पटकस्य च॥१०६॥
पचेद्दहशगुणे तोये दशभागावशेषिते।
रसे सुपूते द्रव्याणामेषां कल्कान् समावपेत्॥१०७॥
शट्याःपुष्करमूलस्य पिप्पलीत्रायमाणयोः।
तामलक्याः किरातानां तिक्तस्य कुटजस्य च॥१०८॥
फलानां सारिवायाश्च सुपिष्टान् कर्षसंमितान्।
ततस्तेन घृतप्रस्थं क्षीरद्विगुणितं पचेत्॥१०९॥
ज्वरं दाहं भ्रमं कासमंसपार्श्वशिरोरुजम्।
तृष्णां छर्दिमतीसारमेतत्सर्पिरपोहति॥११०॥
इति दुरालभाद्यं घृतम्।
जीवन्तीं मधुकं द्राक्षां फलानि कुटजस्य च।
शडींपुष्करमूलं च व्याघ्रीं गोक्षुरकं बलाम्॥१११॥
नीलोत्पलं तामलकीं त्रायमाणां दुरालभाम्।
पिप्पलीं च समं पिष्ट्वा घृतंवैद्यो विपाचयेत्॥११२॥
एतद्व्याधिसमूहस्य रोगेशस्य समुत्थितम्।
रूपमेकादशविधं सर्पिरग्र्यंव्यपोहति॥११३॥
इति जीवन्त्यादिघृतम्।
बलां स्थिरां पृश्निपर्णीं बृहतीं सनिदिग्धिकाम्।
साधयित्वा रसे तस्मिन् पयो गव्यं सनागरम्॥११४॥
द्राक्षाखर्जूरसर्पिर्भिः पिप्पल्या च शतं सह।
सक्षौद्रं ज्वरकासघ्नंस्वर्यं चैतत् प्रयोजयेत्॥११५॥
आजस्य पयसश्चैव प्रयोगो जाङ्गला रसाः।
यूषार्थंचणका मुद्गामकुष्ठाश्चोपकल्पिताः॥११६॥
ज्वराणां शमनीयो यः पूर्वमुक्तः क्रियाविधिः।
यक्ष्मिणां ज्वरदाहेषु ससर्पिष्कः स शस्यते॥११७॥
कफप्रसेके बलवाञ् श्लैष्मिकश्छर्दयेन्नरः।
पयसा फलयुक्तेन मधुरेण रसेन वा॥११८॥
सर्पिष्मत्या यवाग्वा वा वमनीयोपसिद्धया।
वान्तोऽन्नकाले लघ्वन्नमाददीत सदीपनम्॥११९॥
यवगोधूममाध्वीकसीध्वरिष्टसुरासवान्।
जाङ्गलानि च शूल्यानि सेवमानः कफंजयेत्॥१२०॥
श्लेष्मणोऽतिप्रसेकेन वायुः श्लेष्माणमस्यति।
कफप्रसेकं तं विद्वान् स्निग्धोष्णेनैव निर्जयेत्॥१२१॥
क्रिया कफप्रसेके या वम्यां सैव प्रशस्यते।
हृद्यानि चान्नपानानि वातघ्नानि लघूनि च ॥१२२॥
प्रायेणोपहताग्नित्वात् सपिच्छमतिसार्यते।
प्राप्नोति चास्यवैरस्यं न चान्नमभिनन्दति॥१२३॥
तस्याग्निदीपनान्योगानतीसारनिबर्हणान्।
वक्रशुद्धिकरान्कुर्यादरुचिप्रतिबाधकान्॥१२४॥
सनागरानिन्द्रयवान् पिबेद्वा तण्डुलाम्बुना।
सिद्धां यवागूं जीर्णे च1669चाङ्गेरीतक्रदाडिमैः॥१२५॥
पाठां बिल्वं यमानीं च पातव्यं1670 तक्रसंयुतम्।
दुरालभां शृङ्गवेरं पाठां च सुरया सह॥१२६॥
जम्ब्वाम्रमध्यं बिल्वं च सकपित्थं सनागरम्।
पेथामण्डेन1671 पातव्यमतीसारनिवृत्तये॥१२७॥
एतानेव च योगांस्त्रीन् पाठादीन् कारयेत् खडान्।
ससूपधान्यान्सस्नेहान्साम्लान्संग्रहणान् परम्॥१२८॥
वेतसार्जुनजम्बूनां मृणालीकृष्णगन्धयोः।
श्रीपर्ण्या मदयन्त्याश्च यूथिकायाश्च पल्लवान्॥१२९॥
मातुलुङ्गस्य धातक्या दाडिमस्य च कारयेत्।
स्नेहाम्ललवणोपेतान् खडान् सांग्राहिकान् परम्॥१३०॥
चाङ्गेर्याश्चुक्रिकायाश्च दुग्धिकायाश्च कारयेत्।
खडान् दधिसरोपेतान् ससर्पिष्कान् सदाडिमान्॥१३१॥
मांसानां लघुपाकानां रसाः सांग्राहिकैर्युताः।
व्यञ्जनार्थं प्रशस्यन्ते भोज्यार्थं रक्तशालयः॥१३२॥
स्थिरादिपञ्चमूलेन पाने शस्तं शृतं जलम्।
तक्रं सुरा सचुक्रीका दाडिमस्याथवा रसः॥१३३॥
दीपनं1672 ग्राहि निर्दिष्टं भेषजं भिन्नवर्चसे।
परं मुखस्य वैरस्यनाशनं रोचनं शृणु॥१३४॥
द्वौ कालौ दन्तपवनं भक्षयेन्मुखधावनम्।
तद्वत्प्रक्षालयेदास्यं धारयेत् कवलप्रहान्॥१३५॥
पिबेद्धूमं ततो मृष्टमद्याद्दीपनपाचनम्।
भेषजं पानमन्नंच हितमिष्टोपकल्पितम्॥१३६॥
त्वङ्मुस्तमेला धान्यानि मुस्तमामलकं त्वचम्।
दार्वीत्वचो यमानी च तेजोह्वा पिप्पली तथा॥१३७॥
यमानी तिन्तिडीकं च पञ्चैते मुखधावनाः।
श्लोकपादेष्वभिहिता रोचना मुखशोधनाः॥१३८॥
गुलिकां धारयेदास्ये चूर्णैर्वा शोधयेन्मुखम्।
एषामाकोडितानां वा धारयेत् कवलग्रहान्॥१३९॥
सुरामाध्वीकसीधूनां तैलस्य मधुसर्पिषोः।
कवलान् धारयेदिष्टान्क्षीरस्येक्षुरसस्य च॥१४०॥
यमानीं तिन्तिडीकं च नागरं साम्लवेतसम्।
दाडिमं बदरं चाम्लं कार्षिकं चोपकल्पयेत्॥१४१॥
धान्यसौवर्चलाजाजीवराङ्गं चार्धकार्षिकम्।
पिप्पलीनां शतं चैकं द्वे शते मरीचस्य च॥१४२॥
शर्करायाश्च चत्वारि पलान्येकत्र चूर्णयेत्।
जिह्वाविशोधनं हृद्यं तच्चूर्णं भक्तरोचनम्॥१४३॥
हृत्प्लीहपार्श्वशूलघ्नं विबन्धानाहनाशनम्।
कासश्वासहरं ग्राहि ग्रहण्यर्शोविकारनुत्॥१४४॥
इति यमानीषाडवम्।
तालीशपत्रं मरिचं नागरं पिप्पली शुभा।
यथोत्तरं भागवृद्ध्या त्वगेले चार्धभागिके॥१४५॥
पिप्पल्यष्टगुणा चात्र प्रदेया सितशर्करा।
कासश्वासारुचिहरं तच्चूर्णं दीपनं परम्॥१४६॥
हृत्पाण्डुग्रहणीदोषशोषप्लीहज्वरापहम्।
वम्यतीसारशूलघ्नमूर्ध्ववातानुलोमनम्॥१४७॥
कल्पयेद्गुटिकां चैतच्चूर्णं पक्त्वासितोपलाम्।
गुटिका ह्यग्निसंयोगाच्चूर्णाल्लप्तुतराः स्मृताः॥१४८॥
इति तालीसाद्यं चूर्णं गुटिकाश्च।
शुष्यते क्षीणमांसाय कल्पितानि विधानवित्।
दद्यान्मांसादमांसानि बृंहणानि विशेषतः॥१४९॥
शोषिणे बार्हिणं दद्याद्बर्हिशब्देन चापरान्।
गृध्रानुलूकांश्चाषांश्च विधिवत् सूपकल्पितान्॥१५०॥
काकांस्तित्तिरिशब्देन वर्मिशब्देन चोरगान्।
भृष्टान्मत्स्यान्त्रशब्देन दद्याद्गण्डूपदानपि॥१५१॥
लोपाकान् स्थूलनकुलान् बिडालांश्चोपकल्पितान्।
शृगालशावांश्च भिषक् शशशब्देन दापयेत्॥१५२॥
सिंहानृक्षांस्तरक्षूंश्च व्याघ्रानेवंविधांस्तथा।
मांसादान् मृगशब्देन दद्यान्मांसाभिवृद्धये॥१५३॥
गजखङ्गितुरङ्गाणां वेशवारीकृतं भिषक्।
दद्यान्महिषशब्देन मांसं मांसाभिवृद्धये॥१५४॥
मांसेनोपचिताङ्गानां मांसं मांसकरं परम्।
तीक्ष्णोष्णलाघवाच्छस्तं विशेषान्मृगपक्षिणाम्॥१५५॥
मांसानि यान्यनभ्यासादनिष्टानि प्रयोजयेत्।
तेषूपधा सुखं भोक्तुं तथा शक्यानि तानि हि॥१५६॥
जानञ्जुगुप्सन्नैवाद्याजग्धं वा पुनरुल्लिखेत्।
तस्माच्छद्मोपसिद्धानि मांसान्येतानि दापयेत्॥१५७॥
बर्हितित्तिरिदक्षाणां हंसानां शूकरोष्ट्रयोः।
खरगोमहिषाणां च मांसं मांसकरं परम्॥१५८॥
योनिरष्टविधा चोक्ता मांसानामन्नपानिके।
तां परीक्ष्य भिषग्विद्वान् दद्यान्मांसानि शोषिणे॥१५९॥
प्रसहा भूशयानूपवारिजा वारिचारिणः।
आहारार्थं प्रदातव्या1673 मात्रया वातशोषिणे॥१६०॥
प्रतुदा विष्किराश्चैव धन्वजाश्च मृगद्विजाः।
कफपित्तपरीतानां प्रयोज्याः शोषरोगिणाम्॥१६१॥
विधिवत् सुपसिद्धानि मनोज्ञानि मृदूनि च।
रसवन्ति सुगन्धीनि मांसान्येतानि भंक्षयेत्॥१६२॥
मांसमेवाश्नतः शोषो माध्वीकं पिबतोऽनु च।
नियतानल्पचित्तस्य1674 चिरं काये न तिष्ठति॥१६३॥
वारुणीमण्डनित्यस्य बहिर्मार्जनसेविनः।
अविधारितवेगस्य यक्ष्मा न लभते1675ऽन्तरम्॥१६४॥
प्रसन्नां वारुणीं सीधुमरिष्टानासवान्मधु।
यथार्हमनुपानार्थं पिबेन्मांसानि भक्षयन्॥१६५॥
मद्यं तैक्ष्ण्यौष्ण्यवैशद्यसूक्ष्मत्वात् स्त्रोतसां मुखम्।
प्रमथ्य विवृणोत्याशु तन्मोक्षात् सप्त धातवः॥१६६॥
पुष्यन्ति धातुपोषाच्चशीघ्रं शोषः प्रशाम्यति।
मांसादमांसस्वरसे सिद्धं सर्पिः प्रयोजयेत्॥१६७॥
सक्षौद्रं पयसा सिद्धं सर्पिर्दशगुणेन वा।
सिद्धं मधुरकैर्द्रव्यैदेशमूलकषायकैः॥१६८॥
क्षीरमांसरसोपेतैर्घृतं शोषहरं परम्।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः॥१६९॥
सयावशूकैः सक्षीरैः स्रोतसां शोधनं घृतम्।
रास्नाबलागोक्षुरकस्थिरावर्षाभुसाधितम्॥१७०॥
जीवन्तीपिप्पलीगर्भं सक्षीरं शोषनुद्धृतम्।
यवाग्वा वा पिबेन्मात्रां लिह्याद्वा मधुना सह॥१७१॥
सिद्धानां सर्पिषामेषामद्यादन्नेन वा सह।
शुष्यतामेष निर्दिष्टो विधिराभ्यवहारिकः॥१७२॥
बहिःस्पर्शनमाश्रित्य वक्ष्यतेऽतः परं विधिः।
स्नेहक्षीराम्बुकोष्ठेषु स्वभ्यक्तमवगाहयेत्॥१७३॥
स्रोतोविबन्धमोक्षार्थं बलपुष्ट्यर्थमेव च।
उत्तीर्णं मिश्रकैः स्नेहैः पुनराक्तं सुखैः करैः॥१७४॥
मृद्गीयात् सुखमासीनं सुखं चोत्सादयेन्नरम्।
जीवन्तीं शतवीर्यांच विकसां सपुनर्नवाम्॥१७५॥
अश्वगन्धामपामार्गं तर्कारीं मधुकं बलाम्।
विदारीं सर्षपं कुष्टं तण्डुलानतसीफलम्॥१७६॥
माषांस्तिलांश्च बिल्वं1676 च सर्वमेकत्रचूर्णयेत्।
यवचूर्णत्रिगुणितं दध्ना युक्तं समाक्षिकम्॥१७७॥
एतदुत्सादनं कार्यं पुष्टिवर्णबलप्रदम्।
गौरसर्षपकल्केन कल्कैश्चापि सुगन्धिभिः॥१७८॥
स्नायादृतुसुखैस्तोयैर्जीवनीयौषधैः श्वतैः।
गन्धैः समाल्यैर्वासोभिर्भूषणैश्च विभूषितः॥१७९॥
स्पृश्यान् संस्पृश्य संपूज्य देवताः सभिषद्विजाः।
इष्टवर्णरसस्पर्शगन्धवत् पानभोजनम्॥१८०॥
इष्टमिष्टैरुपहितं हितमद्यात् सुखप्रदम्।
समातीतानि धान्यानि कल्पनीयानि शुष्यताम्॥१८१॥
लघून्यहीनवीर्याणि स्वादूनि गन्धवन्ति च।
यानि प्रहर्षकारीणि तानि पथ्यतमानि हि॥१८२॥
यच्चोपदेक्ष्यते पथ्यं1677 क्षतक्षीणचिकित्सिते।
यक्ष्मिणस्तत् प्रयोक्तव्यं बलमांसाभिवृद्धये॥१८३॥
इष्टैर्मद्यैर्मनोज्ञानां गन्धानामुपसेवनैः।
अभ्यङ्गोत्सादनैश्चैव वासोभिरहतैः प्रियैः॥१८४॥
यथर्तुविहितैः स्नानैरवगाहैर्विमार्जनैः।
बस्तिभिः क्षीरसर्पिर्भिर्मांसैर्मासरसौदनैः॥१८५॥
सुहृदां रमणीयानां प्रमदानां च दर्शनैः।
गीतवादित्रशब्दैश्च प्रियश्रुतिभिरेव च॥१८६॥
हर्षणाश्वासनैर्नित्यं गुरूणां समुपासनैः।
ब्रह्मचर्येण दानेन तपसा देवतार्चनैः॥१८७॥
सत्येनाचारयोगेन मङ्गलैरप्यहिंसया।
वैद्यविप्रार्चनाच्चैव रोगराजो निवर्तते॥१८८॥
यया प्रयुक्तया चेष्ट्याराजयक्ष्मा पुरा जितः।
तां वेदविहितामिष्टिमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्॥१८९॥
तत्र श्लोकौ।
प्रागुत्पत्ति निमित्तानि प्राग्रूपं रूपसंग्रहः।
समासाद्व्यासतश्चोक्तं भेषजं राजयक्ष्मणः॥१९०॥
नामहेतुरसाध्यत्वं साध्यत्वं कृच्छ्रसाध्यता।
इत्युक्तः संग्रहः कृत्स्नोराजयक्ष्मचिकित्सिते॥१९१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते राजयक्ष्मचिकित्सितं नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
नवमोऽध्यायः।
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अथात उन्माचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
बुद्धिस्मृतिज्ञानतपोनिवासः पुनर्वसुः प्राणभृतां शरण्यः।
उन्मादहेत्वाकृतिभेषजानि कालेऽग्निवेशाय शशंस पृष्टः॥३॥
विरुद्धदुष्टाशुचिभोजनानि प्रधर्षणं देवगुरुद्विजानाम्।
उन्मादहेतुर्भयहर्षपूर्वोमनोऽभिघातो विषमाश्च चेष्टाः॥४॥
तैरल्पसत्त्वस्य मलाः प्रदुष्टा बुद्धेर्निवासं हृदयं प्रदूष्य।
स्रोतांस्यधिष्ठाय मनोवहानि विमोहयन्त्याशु नरस्य चेतः॥५॥
धीविभ्रमः सत्त्वपरिप्लवश्चपर्याकुला दृष्टिरधीरता च।
अबद्धवाक्त्वंहृदयं च शून्यं सामान्यमुन्मादगदस्य लिङ्गम्॥६॥
स मूढचेता न सुखं न दुःखं नाचारधर्मौकुत एव शान्तिम्।
विन्दत्यपास्तस्मृतिबुद्धिसंज्ञो भ्रमत्ययं चेत इतस्ततश्च॥७॥
समुद्भ्रमं1678 बुद्धिमनः स्मृतीनामुन्मादमागन्तुनिजोत्थमाहुः।
तस्योद्भवं पञ्चविधं पृथक् तु वक्ष्यामि लिङ्गानि चिकित्सितं च॥८॥
रुक्षाल्पशीतान्नविरेक1679धातुक्षयोपवासैरनिलोऽतिवृद्धः।
चिन्तादिजुष्टं1680 हृदयं प्रदूष्य बुद्धिं स्मृतिं चाप्युपहन्ति शीघ्रम्॥९॥
अस्थानहासस्मितनृत्यगीतवागङ्गविक्षेपणरोदनानि।
पारुष्यकार्श्यारुणवर्णताश्च1681 जीर्णे बलं चानिलजस्य रूपम्॥१०॥
अजीर्णकट्वम्लविदाह्यशीतैर्भोज्यैश्चितं पित्तमुदीर्णवेगम्।
उन्मादमत्युग्रमनात्मकस्य हृदि श्रितं पूर्ववदाशु कुर्यात्॥११॥
अमर्षसंरम्भविनग्नभावाः सन्तर्जनाभिद्रवणौष्ण्यरोषाः।
प्रच्छायशीतान्नजलाभिलाषाः पीता च भाः पित्तकृतस्य लिङ्गम्॥१२॥
संपूरणैर्मन्दविचेष्टितस्य सोष्मा कफो मर्मणि संप्रवृद्धः।
बुद्धिं स्मृतिं चाप्युपहत्य चित्तं प्रमोहयन्संजनयेद्विकारम्॥१३॥
वाक्चेष्टितं मन्दमरोचकश्च नारीविविक्तप्रियता च निद्रा।
छर्दिश्च लाला च बलं च भुक्ते नखादिशौक्ल्यं च कफात्मके स्यात्॥१४॥
यः सन्निपातप्रभवोऽतिघोरः सर्वैः समस्तैः स तु हेतुभिः स्यात्।
सर्वाणि रूपाणि बिभर्ति तादृग्विरुद्ध भैषज्यविधिर्विवर्ज्यः॥१५॥
देवर्षिगन्धर्वपिशाचयक्षरक्षः पितॄणामभिधर्षणानि।
भागन्तुहेतुर्नियमव्रतादि मिथ्याकृतं कर्म च पूर्वदेहे॥१६॥
अमर्त्यवाग्विक्रमवीर्यचेष्टो ज्ञानादिविज्ञानबलादिभिर्यः।
उन्मादकालोऽनियतश्च यस्य भूतोत्थमुन्मादमुदाहरेत्तम्॥१७॥
अदूषयन्तः पुरुषस्य देहं देवादयः स्वैस्तु गुणप्रभावैः।
विशन्त्यदृश्यास्तरसा यथैव च्छायातपौ दर्पणसूर्यकान्तौ॥१८॥
आघातकालास्तु सपूर्वरूपाः प्रोक्ता निदानेऽथ1682 सुरादिभिश्च।
उन्मादरूपाणि पृथङ्गिबोध कालं च गम्यान्पुरुषांश्च तेषाम्॥१९॥
तद्यथा, -सौम्यदृष्टिं गम्भीरमधृष्टमको पनमस्वप्नमभोजनाभिलाषिणमल्पस्वेदमूत्रपुरीषवातं शुभगन्धं फुल्लपद्मवदनमिति देवोन्मतं विद्यात्॥२०॥
गुरुवृद्धसिद्धर्षीणामभिशापाभिचाराभिध्यानानुरूपाहारचेष्टाब्याहारं तैरुन्मत्तं विद्यात्॥२१॥
अप्रसन्नदृष्टिमपश्यन्तं निद्रालुं प्रतिहतवाचमनन्नाभिलाषिणमरोचकाविपाकपरीतं च पितृभिरुन्मत्तं विद्यात्॥२२॥
मुखवाद्यनृत्यगीतान्नपानस्नानमाल्यधूपगन्धरतिं रक्तवस्त्रबलिकर्महास्यकथानुयोगप्रियं शुभगन्धं च गन्धर्वोन्मत्तं विद्यात्॥२३॥
असकृत्स्वप्नरोदनहास्यं नृत्यगीतवाद्यपाठकथान्नपानस्नानमाल्यधूपगन्धरतिं रक्तविताक्षं द्विजातिवैद्यपरिवादिनं रहस्यभाषिणं च यक्षोन्मत्तं विद्यात्॥२४॥
नष्टनिद्रमन्नपानद्वेषिणमनाहारमप्यतिबलं शस्त्रशोणितमांसरक्तमाल्याभिलाषिणं संतर्जकं च राक्षसोन्मत्तं विद्यात्॥२५॥
प्रहास1683नृत्यप्रधानं देवविप्रवैद्यद्वेषावज्ञाभिः स्तुतिवेदमन्त्रशास्त्रोदाहरणैः काष्ठादिभिरात्मपीडनेन च ब्रह्मराक्षसोन्मत्तं विद्यात्॥२६॥
अस्वस्थचित्तं स्थानमलभमानं नृत्यगीतहासिनं बद्धाबद्धप्रलापिनं संकरकूटमलिनरथ्याचेलतृणाश्मकाष्ठाधिरोहणरतिं संभिन्नरूक्षवर्णस्वरं नग्नंविधावन्तं नैकत्र तिष्ठन्तं दुःखान्यावेदयन्तं नष्टस्मृतिं च पिशाचोन्मत्तं विद्यात्॥२७॥
तत्र चौक्षाचारं तपःस्वाध्यायकोविदं नरं प्रायः शुक्लप्रतिपदि त्रयोदश्यां च छिद्रमवेक्ष्याभिधर्षयन्ति देवाः, स्नानशुचिविविक्तसेविनं धर्मशास्त्रश्रुतिवाक्यकुशलं1684 प्रायः षष्ठ्यां नवम्यां चर्षयः, मातापितृगुरुवृद्धसिद्धाचार्योपसेविनं प्रायो दशम्याममावस्यायां च पितरः, गन्धर्वाः स्तुतिगीतवादिन्ररतिं परदारगन्धमाल्यप्रियं चौक्षाचारं द्वादश्यां चतुर्दश्यां च, सत्त्वबलरूपगर्वशौर्ययुक्तं माल्यानुलेपनहास्यप्रियमतिवाक्प्रवणं1685 प्रायः शुक्लैकादश्यां सप्तम्यां च स्वाध्यायतपोनियमोपवासव्रतचर्यादेवयतिगुरुपूजारतिं (भ्रष्टशौचं ब्राह्मणवादिनं1686 शूरमानिनं देवागारसलिलक्रीडनरतिं प्रायः1687) शुक्लपञ्चम्यां पूर्णचन्द्रदर्शने च ब्रह्मराक्षसाः, रक्षःपिशाचास्तु हीनसत्त्वंपिशुनं स्त्रैणं1688 लुब्धं प्रायो द्वितीयातृतीयाष्टमीषु (पुरुषं छिद्रमवेक्ष्याभिधर्षयन्ति), इत्यपरिसंख्येयानां ग्रहाणामाविष्कृततमा ह्यष्टावेते1689 व्याख्याताः॥२८॥
सर्वेष्वपि तु खल्वेतेषु यो हस्तावुद्यम्य रोषसंरम्भान्निःशङ्कम1690न्येष्वात्मनि वा निपातयेत् स ह्यसाध्यो ज्ञेयः; तथा यः साश्रुनेत्रो मेढ्रप्रवृत्तरक्तः क्षतजिह्वः प्रस्नुतनासिकश्छिद्यमानमर्मा1691 प्रतिहन्यमानपाणिः सततं विकूजन् दुर्वर्णस्तृषार्तः पूतिगन्धश्च हिंसार्थिनोन्मत्तो ज्ञेयः, तं परिवर्जयेत्॥२९॥
रत्यर्चनाकामोन्मादिनौ तु भिषगभिचाराभिशापाभ्यां बुद्ध्वा तदङ्गोपहारबलिमिश्रेण मन्त्रभैषज्यविधिनोपक्रमेत्॥३०॥
तत्र द्वयोरपि निजागन्तुनिमित्तयोरुन्मादयोः समासविस्तराभ्यां भेषजविधिमनु व्याख्यास्यामः॥३१॥
उन्मादे वातजे पूर्वं स्नेहपानं विशेषवित्।
कुर्यादावृतमार्गे तु सस्नेहं मृदु शोधनम्॥३२॥
कफपित्तोद्भवेऽप्यादौ वमनं सविरेचनम्।
स्निग्धस्विन्नस्य कर्तव्यं शुद्धे संसर्जनक्रमः॥३३॥
निरूहान् स्नेहबस्तींश्च शिरसश्च विरेचनम्।
ततः कुर्याद्यथादोषं तेषां भूयस्त्वमाचरेत्॥३४॥
हृदिन्द्रिय1692शिरःकोष्ठे संशुद्धे वमनादिभिः।
मनःप्रसादमाप्नोति स्मृतिं संज्ञां च विन्दति॥३५॥
शुद्धस्याचारविभ्रंशे तीक्ष्णं नावनमञ्जनम्।
ताडनं च मनोबुद्धदेहसंतर्जनं1693 हितम्॥३६॥
यः शक्तो विनये पट्टैः संयम्य सुदृढैः सुखैः।
अपेतलोष्ठकाष्ठाद्ये संरोध्यश्च तमोगृहे॥३७॥
तर्जनं त्रासनं दानं सान्त्वनं हर्षणं भयम्।
विस्मयो विस्मृतेर्हेतोर्नयन्ति प्रकृतिं मनः॥३८॥
प्रदेहोत्सादनाभ्यङ्गधूमाः पानं च सर्पिषः।
प्रयोक्तव्यं मनोबुद्धिस्मृतिसंज्ञाप्रबोधनम्॥३९॥
सर्पिःपानादिरागन्तोर्मन्त्रादिश्चेष्यते विधिः।
अतः सिद्धतमान् योगान्छृणून्मादविनाशनान्॥४०॥
हिङ्गुसौवर्चलव्योषैर्द्विपलांशैर्घृताढकम्।
चतुर्गुणे गवां मूत्रे सिद्धमुन्मादनाशनम्॥४१॥
विशाला त्रिफला कौन्ती1694 देवदार्वेलवालुकम्।
स्थिरा1695ऽनन्ता रजन्यौ द्वे सारिवे द्वे प्रियङ्गुका॥४२॥
नीलोत्पलैलामञ्जिष्ठादन्तीदाडिमकेशरम्।
तालीशपत्रं बृहती मालत्याः कुसुमं नवम्॥४३॥
विडङ्गं पृश्निपर्णी च कुष्ठं चन्दनपद्मकौ।
अष्टाविंशतिभिः कल्कैरेतैः कर्षसमन्वितैः॥४४॥
चतुर्गुणे जले सम्यक् घृतप्रस्थं विपाचयेत्।
अपस्मारे ज्वरे कासे श्वासे मन्देऽनले क्षये॥४५॥
वातरक्तेप्रतिश्याये तृतीयकचतुर्थके।
छर्द्यर्शोमूत्रकृच्छ्रेषु विसर्पोपहतेषु च॥४६॥
कण्डूपाण्ड्वामयोन्मादविषमेहगदे (रे) षु च।
भूतोपहतचित्तानां गद्गदानामरेतसाम्॥४७॥
शस्तं स्त्रीणां च वन्ध्यानां धन्यमायुर्बलप्रदम्।
अलक्ष्मीपापरक्षोघ्नं सर्वग्रहविनाशनम्॥४८॥
कल्याणकमिदं सर्पिः श्रेष्ठं पुंसवनेषु च।
इति कल्याणकं घृतम्।
एभ्य एव स्थिरादीनि जले पक्त्वैकविंशतिम्॥४९॥
रसे तस्मिन् पचेत्सर्पिगृष्टिक्षीरे चतुर्गुणे।
वीराद्विमाषकाकोलीस्वयङ्गुप्तर्षभर्धिभिः॥५०॥
मेदया च समैः कल्कैस्तत् स्यात् कल्याणकं महत्।
बृंहणीयं विशेषेण सन्निपातहरं परम्॥५१॥
इति महाकल्याणकं घृतम्।
जटिलां पूतनां केशीं चारटीं मर्कटीं वचाम्।
त्रायमाणां जयां वीरां चोरकं कटुरोहिणीम्॥५२॥
कायस्थां शूकरीं छत्रामतिच्छत्रांपलङ्कषाम्।
महापुरुषदन्तां च वयःस्थां नाकुलीद्वयम्॥५३॥
कटम्भरां वृश्चिकालीं स्थिरां चाहृत्य तैर्घृतम्।
सिद्धंचातुर्थकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम्॥५४॥
महापैशाचिकं नाम घृतमेतद्यथाऽमृतम्।
मेधाबुद्धिस्मृतिकरं बालानां चाङ्गवर्धनम्॥५५॥
इति महापैशाचिकं घृतम्।
लशुनानां शतं त्रिंशदभया त्र्यूषणात् पलम्।
गवां चर्ममसीप्रस्थं व्याढकं क्षीरमूत्रयोः॥५६॥
पुराणसर्पिषः प्रस्थमेभिः सिद्धं प्रयोजयेत्।
हिङ्गुचूर्णपलं शीते दत्त्वा च मधुमाणिकाम्॥५७॥
तद्दोषागन्तुसंभूतानुन्मादान् विषमज्वरान्।
अपस्मारांश्च हन्त्याशु पानाभ्यञ्जननावनैः॥५८॥
इति लशुनाद्यं घृतम्।
लशुनस्याविनष्टस्य तुलार्धं निस्तुषीकृतम्।
तदर्धं दशमूल्यास्तु द्व्याढकेऽपां विपाचयेत्॥५९॥
पादशेषे घृतप्रस्थं लशुनस्य रसं तथा।
कोलमूलकवृक्षाम्लमातुलुङ्गार्द्रकैरसैः॥६०॥
दाडिमाम्लसुरामस्तुकाञ्जिकाम्लैस्तदर्धिकैः।
साधयेत्त्रिफलादारुलवणव्योषदीप्यकैः॥६१॥
यमानीचव्यहिङ्ग्वम्लवेतसैश्च पलार्धिकैः।
सिद्धमेतत् पिबेच्छूलगुल्मार्शोजठरापहम्॥६२॥
ब्रध्नपाण्ड्वामयप्लीहयोनिदोषज्वरकृमीन्।
वातश्लेष्मामयान् सर्वानुन्मादं चापकर्षति॥६३॥
इति द्वितीयं लशुनाद्यंघृतम्।
हिङ्गुना हिङ्गुपर्ण्याच सकायस्थावयःस्थया।
सिद्धं सर्पिर्हितं तद्वद्वयःस्थाहिङ्गुचोरकैः॥६४॥
केवलं सिद्धमेभिर्वा पुराणं पाययेद्घृतम्।
पाययित्वोत्तमां मात्रां श्वभ्रेरुन्ध्याद्गृहेऽपि वा॥६५॥
विशेषतः पुराणं च घृतं तं पाययेद्भिषक्।
त्रिदोषघ्नं पवित्रत्वाद्विशेषाद्ग्रहमोक्षणम्॥६६॥
गुणकर्माधिकं स्थानादास्वादात् कटुतिक्तकम्।
उग्रगन्धं पुराणं स्याद्दशवर्षस्थितं घृतम्॥६७॥
लाक्षारसनिभं शीतं तद्धि1696 सर्वग्रहापहम्।
मेध्यं विरेचनेष्वग्र्यंप्रपुराणमतः परम्॥६८॥
नासाध्यं नाम तस्यास्ति यत् स्याद्वर्षशतस्थितम्।
दृष्टं स्पृष्टमथाघ्रातं तद्विसर्पग्रहापहम्।
अपस्मारविषोन्मादवतां शस्तं विशेषतः॥६९॥
एतैरौषधवर्गैर्वा विधेयत्वं स गच्छति1697।
अञ्जनोत्सादनालेपनावनादिषु योजयेत्॥७०॥
शिरीषं मधुकं हिङ्गु लशुनं तगरं वचाम्।
कुष्ठं च बस्तमूत्रेण पिष्टं स्यान्नावनाञ्जनम्॥७१॥
तद्वद्व्योषं हरिद्रेद्वे मञ्जिष्ठाहिङ्गुसर्षपाः।
शिरीषबीजं चोन्मादग्रहापस्मारनाशनम्॥७२॥
पिष्ट्वा तुल्यमपामार्गहिङ्गुनी हिङ्गुपत्रिकाम्।
वर्तिः स्यान्मारिचार्धांशा पित्ताभ्यां गोशृगालयोः॥७३॥
तयाऽञ्जयेदपस्मारभूतोन्मादज्वरार्दितान्।
भूतार्तानमरार्तांश्च नरांश्चैव दृगामये॥७४॥
मरिचं चातपे मासं सपित्तं स्थितमञ्जनम्।
वैकृतं पश्यतः कार्यंदोषभूतहतस्मृतेः॥७५॥
सिद्धार्थको वचा हिङ्गु करञ्जो देवदारु च।
मञ्जिष्ठा त्रिफला श्वेता कटभीत्वक् कटुत्रिकम्॥७६॥
समांशानि प्रियङ्गुश्च शिरीषो रजनीद्वयम्।
बस्तमूत्रेण पिष्टोऽयमगदः पानमञ्जनम्॥७७॥
नस्यमालेपनं चैव स्नानमुद्वर्तनं तथा।
अपस्मारविषोन्मादकृत्यालक्ष्मीज्वरापहः॥७८॥
भूतेभ्यश्च भयं हन्ति राजद्वारे च शस्यते।
सर्पिरेतेन सिद्धं वा सगोमूत्रं तदर्थकृत्॥७९॥
प्रसेके पीनसे गन्धैर्धूमवर्ति कृतां पिबेत्।
वैरेचनिकधूमोक्तैः श्वेताद्यैर्वा सहिङ्गुभिः॥८०॥
शल्लकोलूकमार्जारजम्बूकवृकबस्तजैः।
मूत्रपित्तशकृल्लोमनखैश्चर्मभिरेव च॥८१॥
सेकाञ्जनं प्रधमनं नस्यं धूमं च कारयेत्।
वातश्लेष्मात्मके प्रायः, पैत्तिके च प्रशस्यते॥८२॥
तिक्तकं जीवनीयं च सर्पिः स्नेहश्च मिश्रकः।
शीतानि चान्नपानानि मधुराणि मृदूनि1698 च॥८३॥
शङ्खकेशान्तसन्धौ वा मोक्षयेज्ज्ञो भिषक् सिराम्।
उन्मादे विषमे चैव ज्वरेऽपस्मार एव च॥८४॥
घृतमांसवितृप्तं वा निवाते स्थापयेत् सुखम्।
त्यक्त्वा मतिस्मृतिभ्रंशं संज्ञां लब्ध्वा प्रमुच्यते1699॥८५॥
आश्वासयेत् सुहृद्वा तं वाक्यैर्धर्मार्थसंहितैः।
ब्रूयादिष्टविनाशं वा दर्शयेदद्भुतानि वा॥८६॥
बद्धं(द्ध्वा) सर्षपतैलाक्तं न्यसेद्वोत्तनमातपे।
कपिकच्छ्वाऽथवा1700 तप्तैर्लौहतैलजलैः स्पृशेत्॥८७॥
कशाभिस्ताडयित्वा वा सुबद्धं विजने गृहे।
रुन्ध्याच्चेतोहि विभ्रान्तं व्रजत्यस्य तथा शमम्॥८८॥
सर्पेणोद्धृतदंष्ट्रेण दान्तैः सिंहैर्गजैश्च तम्।
त्रासयेच्छस्त्रहस्तैर्वातस्करैः शत्रुभिस्तथा॥८९॥
अथवा राजपुरुषा बहिर्नीत्वा सुसंयतम्।
त्रासयेयुर्वधेनैनं तर्जयन्तो नृपाज्ञया॥९०॥
देहदुःखभयेभ्यो हि परं प्राणभयं स्मृतम्।
तेन याति शमं तस्य सर्वतो विप्लुतं मनः॥९१॥
इष्टद्रव्यविनाशात्तु मनो यस्योपहन्यते।
तस्य तत्सदृशप्राप्तिशान्त्याश्वासैः शमं नयेत्॥९२॥
कामशोकभयक्रोधहर्षेर्ष्यालोभसंभवान्।
परस्परप्रतिद्वन्द्वैरेभिरेव शमं नयेत्॥९३॥
बुद्ध्वादेशं वयः सात्म्यं दोषं कालं बलाबले।
चिकित्सितमिदं कुर्यादुन्मादे दोषंभूतजे॥९४॥
देवर्षिपितृगन्धर्वैरुन्मत्तस्य तु बुद्धिमान्।
वर्जयेदञ्जनादीनि तीक्ष्णानि क्रूरकर्म च॥९५॥
सर्पिष्पाणादि तस्येह मृदु भैषज्यमाचरेत्।
पूजां बल्युपहारांश्च मन्त्राञ्जनविधींस्तथा॥९६॥
शान्तिकर्मेष्टिहोमांश्च जपस्वस्त्ययनानि च।
वेदोक्तान्नियमांश्चापि प्रायश्चित्तानि चाचरेत्॥९७॥
भूतानामधिपं देवमीश्वरं जगतः प्रभुम्।
पूजयन् प्रयतो नित्यं जयत्युन्मादजं भयम्॥९८॥
रुद्रस्य प्रमथा नाम गणा लोके चरन्ति ये।
तेषां पूजां च कुर्वाण उन्मादेभ्यो विमुच्यते॥१९॥
बलिभिर्मङ्गलैर्होमैरोषध्यगदधारणैः।
सत्याचारतपोज्ञानप्रदाननियमव्रतैः॥१००॥
देवगोब्राह्मणानां च गुरूणां पूजनेन च।
आगन्तुः प्रशमं याति सिद्धैर्मन्त्रौषधैस्तथा॥१०१॥
यच्चोपदेक्ष्यते किंचिदपस्मारचिकित्सिते।
उन्मादे तच्च कर्तव्यं सामान्याद्धेतुदूष्ययोः॥१०२॥
निवृत्तामिषमद्योयो हिताशी प्रयतः शुचिः।
निजागन्तुभिरुन्मादैः सत्त्ववान्न स युज्यते॥१०३॥
प्रसादश्चेन्द्रियार्थानां बुद्ध्यात्ममनसां तथा।
धातूनां प्रकृतिस्थत्वं विगतोन्मादलक्षणम्॥१०४॥
तत्र श्लोकः।
उन्मादानां समुत्थानं लक्षणं सचिकित्सितम्।
निजागन्तुनिमित्तानामुक्तवान् भिषगुत्तमः॥१०५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने उन्मादचिकित्सितं नाम नवमोऽध्यायः॥९॥
दशमोऽध्यायः।
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अथातोऽपस्मारचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
स्मृतेरपगमं प्राहुरपसारं भिषग्विदः।
तमःप्रवेशं बीभत्सचेष्टं धीसत्वसंप्लवात्॥३॥
विभ्रान्तबहुदोषाणामहिताशुचिभोजिनाम्।
रजस्तमोभ्यां विहते सत्त्वे दोषावृते हृदि॥४॥
चिन्ताकामभयक्रोधशोकोद्वेगादिभिस्तथा।
मनस्यभिहते नॄणामपस्मारः प्रवर्तते॥५॥
धमनीभिश्चिता दोषा हृदयं पीडयन्ति हि।
स पीड्यमानो व्यथते मूढो भ्रान्तेन चेतसा॥६॥
पश्यत्यसन्ति रूपाणि पतति प्रस्फुरत्यपि।
जिह्याक्षिभ्रूः स्रवल्लालो हस्तौ पादौ च विक्षिपन्॥७॥
दोषवेगे च विगते सुप्तवत् प्रतिबुद्ध्यते।
पृथग्दोषैः समस्तैश्च वक्ष्यते स चतुर्विधः॥८॥
कम्पते प्रदशेद्दन्तान् फेनोद्वामी श्वसित्यपि।
परुषारुणकृष्णानि पश्येद्रूपाणि चानिलात्॥९॥
पीतफेनाङ्गवक्त्राक्षः पीतासृग्रूपदर्शनः।
सतृष्णोष्णानलव्याप्तलोकदर्शी च पैत्तिकः॥१०॥
शुक्लफेनाङ्गवक्त्राक्षः शीतो हृष्टाङ्गजो गुरुः।
पश्यञ्छुक्लानिरूपाणि श्लैष्मिको मुच्यते चिरात्॥११॥
सर्वैरेतैः समस्तैस्तु लिङ्गैर्ज्ञेयस्त्रिदोषजः।
अपस्मारः स चासाध्यो यः क्षीणस्यानवश्च यः॥१२॥
पक्षाद्वा द्वादशाहाद्वा मासाद्वा कुपिता मलाः।
अपस्माराय कुर्वन्ति वेगं किंचिदथान्तरम्॥१३॥
तैरावृतानां हृत्स्रोतोमनसां संप्रबोधनम्।
तीक्ष्णैरादौ भिषक् कुर्यात् कर्मभिर्वमनादिभिः॥१४॥
वातिकं बस्तिभूयिष्ठैः पैत्तं प्रायो विरेचनैः।
श्लैष्मिकं वमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत्॥१५॥
सर्वतः सुविशुद्धस सम्यगाश्वासितस्य च।
अपस्मारविमोक्षार्थं योगान् संशमनान्छृणु॥१६॥
गोशकृद्रसदभ्यम्लक्षीरमूत्रैः समैर्घृतम्।
सिद्धं पिबेदपस्मारकामलाज्वरनाशनम्॥१७॥
इति पञ्चगव्यं घृतम्।
द्वे पञ्चमूल्यौ त्रिफलां रजन्यौ कुटजत्वचम्।
सप्तपर्णमपामार्गं नीलिनीं कटुरोहिणीम्॥१८॥
शम्पाकं फल्गुमूलं च पौष्करं सदुरालभम्।
द्विपलानि जलद्रोणे पक्त्वा पादावशेषिते॥१९॥
भार्ङ्गीं पाठां त्रिकटुकं त्रिवृतां निचुलानि च।
श्रेयसीमाढकीं मूर्वा दन्तीं भूनिम्बचित्रकौ॥२०॥
द्वे सारिवे रोहिषं च भूतीकं मदयन्तिकाम्।
क्षिपेत् पिष्ट्वाऽक्षमात्राणि तैः प्रस्थं सर्पिषः पचेत्॥२१॥
गोशकृद्रसदध्यम्लक्षीरमूत्रैश्च तत्समैः।
पञ्चगव्यमिति ख्यातं महत्तदमृतोपमम्॥२२॥
अपस्मारे तथोन्मादे श्वयथावुदरेषु च।
गुल्मार्शः पाण्डुरोगेषु कामलायां भगन्दरे1701।
अलक्ष्मीग्रहरक्षोघ्नं चातुर्थिकविनाशनम्॥२३॥
इति महापञ्चगव्यं घृतम्।
ब्राह्मीरसवचाकुष्ठशङ्खपुष्पीभिरेव च।
पुराणं घृतमुन्मादालक्ष्म्यपस्मारपापनुत्॥२४॥
घृतं सैन्धवहिङ्गुभ्यां वार्षे बास्ते चतुर्गुणे।
मूत्रे सिद्धमपस्मारहृद्गृहामयनाशनम्॥२५॥
वचाशम्पाककैडर्यवयःस्थाहिब्रुचोरकैः।
सिद्धं पलङ्कषायुक्तैर्वातश्लेष्मात्मके घृतम्॥२६॥
तैलप्रस्थं घृतप्रस्थं जीवनीयैः पलोन्मितैः।
क्षीरद्रोणे पचेत् सिद्धमपस्मारविनाशनम्॥२७॥
कंसे क्षीरेक्षुरसयोः काश्मर्येऽष्टगुणे रसे।
कार्षिकैर्जीवनीयैश्च घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥२८॥
वातपित्तोद्भवं क्षिप्रमपस्मारं नियच्छति।
तद्वत् काशविदारीक्षुकुशक्वाथशृतं घृतम्॥२९॥
मधुकद्विपले1702 कल्के होणे चामलकीरसात्।
तद्वत्सिद्धो घृतप्रस्थः पित्तापस्मारभेषजम्॥३०॥
अभ्यङ्गः सार्षपं तैलं बस्तमूत्रे चतुर्गुणे।
सिद्धं स्याद्गोशकृन्मूत्रैः स्नानोत्सादनमेव च॥३१॥
कटभीनिम्बकट्वङ्गमधुशिग्रुत्वचां रसे।
सिद्धं मूत्रसमं तैलमभ्यङ्गार्थे प्रशस्यते॥३२॥
पलङ्कषावचापथ्यावृश्चिकाल्यर्कसर्षपैः॥
जटिलापूतनाकेशीनाकुलीहिङ्गुचोरकैः॥३३॥
लशुनातिरसाचित्राकुष्ठैर्विड्भिश्च पक्षिणाम्।
मांसाशिनां यथालाभं बस्तमूत्रे चतुर्गुणे॥३४॥
सिद्धमभ्यञ्जनं तैलमपस्मारविनाशनम्।
एतैरेवौषधैः कार्यं धूपनं संप्रलेपनम्॥३५॥
पिप्पलीं लवणंशिग्रुंहिङ्गु हिङ्गुशिवाटिकाम्।
काकोलीं सर्षपान्काकनासां कैडर्यचन्दने॥३६॥
शुनःस्कन्धास्थिनखरान्1703 पर्शुकांश्चेति पेषयेत्।
बस्तमूत्रेण पुष्यर्क्षे प्रदेहः स्यात् सधूपनः॥३७॥
अपेतराक्षसीकुष्ठपूतनाकेशिचोरकैः।
उत्सादनं मूत्रपिष्टैर्मूत्रैरेवावसेचनम्॥३८॥
जलौकः शकृता1704तद्वद्दग्धैर्वा बस्तलोमभिः।
खरास्थिभिर्हस्तिनखैस्तथा गोपुच्छलोमभिः॥३९॥
कपिलानां गवां मूत्रं1705 नावनं परमं हितम्।
श्वशृगालबिडालानां सिंहादीनां च शस्यते॥४०॥
भार्ङ्गीवचा नागदन्ती श्वेतश्वेता1706 तविषाणिका ह") विषाणिका।
ज्योतिष्मती नागदन्ती पादोक्ता मूत्रपेषिताः॥४१॥
योगास्त्रयोऽतः षड्बिन्दून् पञ्च वा नावयेद्भिषक्।
त्रिफलाव्योषपीतद्रुयवक्षारफणिज्झकैः॥४२॥
श्यामापामार्गकारञ्जफलैर्मूत्रैश्च बस्तजैः।
साधितं नावनं तैलमपस्मारविनाशनम्॥४३॥
पिप्पली वृश्चिकाली च कुष्ठं च लवणानि च।
भार्ङ्गीच चूर्णितं नस्तः कार्य प्रधमनं परम्॥४४॥
कायस्थां शारदान्मुद्गान्मुस्तोशीरयवांस्तथा।
सव्योषान् बस्तमूत्रेण पिष्ट्वावर्तीः प्रकल्पयेत्॥४५॥
अपस्मारे तथोन्मादे सर्पदष्टे गरार्दिते।
विषपीते जलमृते चैताः स्युरमृतोपमाः॥४६॥
मुस्तं वयःस्थां त्रिफलां कायस्थां हिङ्गु शाद्वलम्।
व्योषं माषान् यवान्मूत्रैर्बास्तमैषार्षभैस्त्रिभिः॥४७॥
पिष्ट्वाकृत्वा च तां वर्तिमपस्मारे प्रयोजयेत्।
किलासे च तथोन्मादे ज्वरेषु विषमेषु च॥४८॥
पुष्योद्धृतं शुनः पित्तमपस्मारघ्नमञ्जनम्।
तदेव सर्पिषा युक्तं धूपनं परमं मतम्॥४९॥
नकुलोलूकमार्जारगृध्रकीटाहिकाकजैः।
तुण्डैः पक्षैः पुरीषैश्च धूपनं कारयेद्भिषक्॥५०॥
आभिः क्रियाभिः सिद्धाभिर्हृदयं संप्रबुध्यते।
स्रोतांसि चापि शुध्यन्ति स्मृतिं संज्ञां च विन्दति॥५१॥
यस्यानुबन्धस्त्वागन्तुर्दोषलिङ्गाधिकाकृतिः।
पश्येत्तस्य1707 भिषक्कुर्यादागन्तून्मादभेषजम्॥५२॥
अनन्तरमुवाचेदमग्निवेशः कृताञ्जलिः।
भगवन् प्राक् समुद्दिष्टः श्लोकस्थाने महागदः॥५३॥
अतत्त्वाभिनिवेशो यस्तद्धेत्वाकृतिभेषजम्।
तत्रनोक्तमतः श्रोतुमिच्छामि तदिहोच्यताम्1708॥५४॥
शुश्रूषवे वचः श्रुत्वा शिष्यायाह पुनर्वसुः।
महागदं सौम्य शृणु सहेत्वाकृतिभेषजम्॥५५॥
मलिनाहारशीलस्य वेगान् प्राप्तान्निगृह्णतः।
शीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षाद्यैर्हेतुभिश्चातिसेवितैः॥५६॥
हृदयं समुपाश्रित्य मनोबुद्धिवहाःसिराः।
दोषाः संदूष्य तिष्ठन्ति रजोमोहावृतात्मनः॥५७॥
रजस्तमोभ्यां वृद्धाभ्यां बुद्धौ1709मनसि चावृते।
हृदये व्याकुले दोषैरथ मूढाल्पचेतनः॥५८॥
विषमां कुरुते बुद्धिं नित्यानित्ये हिताहिते।
अतत्त्वाभिनिवेशं तमाहुराप्ता महागदम्॥५५॥
स्नेहस्वेदोपपन्नंतं संशोध्य वमनादिभिः।
कृतसंसर्जन मेध्यैरन्नपानैरुपाचरेत्॥६०॥
ब्राह्मीस्वरसयुक्तं यत् पञ्चगव्यमुदाहृतम्।
तत् सेव्यं शङ्खपुष्पी च यच्च मेध्यं रसायनम्॥६१॥
सुहृद1710श्चानुकूलास्तं स्वाप्ता धर्मार्थवादिनः।
संयोजयेयुर्विज्ञान1711धैर्यस्मृतिसमाधिभिः॥६२॥
प्रयुञ्जयात्तैललशुनं पयसा वा शतावरीम्।
ब्राह्मीरसं कुष्ठरसं वचांवामधुसंयुताम्॥६३॥
दुश्चिकित्स्यो ह्यपस्मारश्चिरकारी कृतास्पदः1712।
तस्माद्रसायनैरेनं प्रायशः समुपाचरेत्॥६४॥
जलाग्निद्रुमशैलेभ्यो विषमेभ्यश्च तं सदा।
रक्षेदुन्मादिनं चैव सद्यः प्राणहरा हि ते॥६५॥
तत्र श्लोकौ।
हेतुं कुर्वन्त्यपस्मारं दोषाः प्रकुपिता यथा।
सामान्यतः पृथक्त्वाच्च लिङ्गं तेषां च भेषजम्॥६६॥
महागदसमुत्थानं लिङ्गं चोवाच सौषधम्।
मुनिर्व्यास1713समासाभ्यामपस्मारचिकित्सिते॥६७॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थानेऽपस्मारचिकित्सितं नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
एकादशोऽध्यायः।
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अथातः क्षतक्षीणचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
उदारकीर्तिर्ब्रह्मर्षिरात्रेयः परमार्थवित्।
क्षतक्षीणचिकित्सार्थमिदमाह चिकित्सितम्॥३॥
धनुषाऽऽयस्यतोऽत्यर्थं भारमुद्वहतो गुरुम्।
पततो विषमोच्चेभ्यो युध्यमान1714स्यचाधिकैः॥४॥
वृषं हयं वा धावन्तं दम्यं वाऽन्यं निगृह्णतः।
शिलाकाष्ठाश्मनिर्घातान् क्षिपतो निघ्नतः परान्॥५॥
अधीयानस्य वाऽत्युच्चैर्दूरं वा व्रजतो द्रुतम्।
महानदीर्वातरतो हयैर्वा सह धावतः॥६॥
सहसोत्पततो दूरं तूर्णं चातिप्रनृत्यतः1715।
तथाऽन्यैः कर्मभिः क्रूरैर्भृशमभ्याहतस्य वा॥७॥
विक्षते वक्षसि व्याधिर्बलवान् समुदीर्यते।
स्त्रीषु चातिप्रसक्तस्य रूक्षाल्पप्रमिताशिनः॥८॥
उरो विरुज्यते तस्य1716 भिद्यतेऽथ विदह्यते1717।
प्रपीड्येते ततः पार्श्वे शुष्यत्यङ्गं प्रवेपते॥९॥
क्रमाद्वीर्यंबलं वर्णो रुचिरग्निश्च हीयते।
ज्वरो व्यथा मनोदैन्यं विड्भेदोऽग्निवधस्तथा1718॥१०॥
दुष्टः श्यावः सुदुर्गन्धः पीतो विग्रथितो बहुः।
कासमानस्य चाभीक्ष्णं कफः सास्रः प्रवर्तते॥११॥
स क्षतः क्षीयतेऽत्यर्थं तथा शुक्रौजसोः क्षयात्।
अव्यक्तं लक्षणं तस्य पूर्वरूपमिति स्मृतम्॥१२॥
उरोरुक् शोणितच्छर्दिःकासो वैशेषिकः क्षते।
क्षीणे सरक्तमूत्रत्वं पार्श्वपृष्ठकटिग्रहः॥१३॥
अल्पलिङ्गस्य दीपाग्नेःसाध्यो बलवतो नवः।
परिसंवत्सरो याप्यः सर्वलिंङ्गं तु वर्जयेत्॥१४॥
उरो मत्वा क्षतं लाक्षां पयसा मधुसंयुताम्।
सद्य एव पिबेज्जीर्णे पयसाऽद्यात् सशर्करम्॥१५॥
पार्श्वबस्तिरुजी1719 चाल्पपित्ताग्निस्तां सुरायुताम्।
भिन्नविट्कः समुस्तातिविषापाठां सवत्सकाम्॥१६॥
लाक्षां सर्पिर्मधूच्छिष्टं जीवनीयगणं सिताम्।
त्वक्क्षीरीं1720 समितां क्षीरे पक्त्वा दीप्तानलः पिबेत्॥१७॥
इक्ष्वालिकाबिसग्रन्थिपद्मकेशरचन्दनैः।
शृतं पयो मधुयुतं सन्धानार्थं पिबेत् क्षती॥१८॥
यवानां चूर्णमादाय1721 क्षीरसिद्धं घृतप्लुतम्।
ज्वरे दाहे सिताक्षौद्रसक्तून् वा पयसा पिबेत्॥१९॥
मधूकमधुकद्राक्षात्वक्क्षीरीपिप्पलीबलाः।
कासी पर्वास्थिशूली च लिह्यात् सघृतमाक्षिकाः॥२०॥
एकापत्रत्वचोऽर्धाक्षाः पिप्पल्यर्धपलं तथा।
सितामधुकखर्जूरमृद्वीकाश्च पलोन्मिताः॥२१॥
संचूर्ण्य मधुना युक्ता गुलिकाः संप्रकल्पयेत्।
अक्षमात्रांततश्चैकां भक्षयेन्ना दिने दिने॥२२॥
कासं श्वासं ज्वरं हिक्कां छार्दिं मूर्च्छां मदं भ्रमम्।
रक्तनिष्ठीवनं तृष्णां पार्श्वशूलमरोचकम्॥२३॥
शोषप्लीहाढ्यवातांश्च स्वरभेदं क्षतं क्षयम्।
गुटिका तर्पणी1722 वृष्या रक्तपित्तं च नाशयेत्॥२४॥
इत्येलादिगुटिका।
रक्तेऽतिवृत्ते दक्षाण्डं यूषैस्तोयेन वा पिबेत्।
चटकाण्डरसं वाऽपि रक्तं वा च्छागजाङ्गलम्॥२५॥
चूर्णं पौनर्नवं रक्तशालितण्डुलशर्करम्।
रक्तष्टीवी पिबेत् सिद्धं द्राक्षांरसपयोघृतैः॥२६॥
मधूकमधुकक्षीरसिद्धं वा तण्डुलीयकम्।
मूढवातस्त्वजामेदः सुराभृष्टं ससैन्धवम्॥२७॥
क्षामः क्षीणः क्षतोरस्कस्त्वनिद्रः सबलेऽनिले।
शृतक्षीरसरेणाद्यात् सक्षौद्रघृतशर्करम्॥२८॥
शर्करां यवगोधूमौ जीवकर्षभकौमधु।
शृतक्षीरानुपानं वा लिह्यात् क्षीणः क्षती कृशः॥२९॥
क्रव्यादमांसनिर्यूहं घृतभृष्टं पिबेच्चसः।
पिप्पलीक्षौद्रसंयुक्तं मांसशोणितवर्धनम्॥३०॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षशालप्रियङ्गुभिः।
तालमस्तकजम्बूत्वक् प्रियालैश्च सपद्मकैः॥३१॥
साश्वकर्णैः शतात् क्षीरादद्याज्जातेन सर्पिषा।
शाल्योदनं क्षतोरस्कः क्षीणशुक्रश्च मानवः॥३२॥
यष्ट्याह्वनागबलयोः क्वाथे क्षीरसमं घृतम्।
पयस्यापिप्पलीवांशी कल्कसिद्धं क्षते शुभम्1723॥३३॥
कोललाक्षारसे तद्वत् क्षीराष्टगुणसाधितम्।
कल्कैः कट्वङ्गदार्वीत्वग्वत्सकत्वक्फलैर्घृतम्॥३४॥
जीवकर्षभकौवीरां जीवन्तीं नागरं शटीम्।
चतस्त्रः पर्णिनीर्मेदे काकोल्यौ द्वे निदिग्धिके॥३५॥
पुनर्नवे द्वे मधुकमात्मगुप्तां शतावरीम्।
ऋद्धिं परुषकं भार्ङ्गीं मृद्वीकां बृहतीं तथा॥३६॥
शृङ्गाटकं तामलकीं पयस्यां पिप्पलीं बलाम्।
बदराक्षोटखर्जूरवातामाभिषुकाण्यपि॥३७॥
फलानि चैवमादीनि कल्कान् कुर्वीत कार्षिकान्।
धात्रीरसविदारीक्षुच्छागंमांसरसं पयः॥३८॥
एषां1724 प्रस्थोन्मितान् भागान् घृतप्रस्थे विपाचयेत्।
प्रस्थार्धंमधुनः शीते शर्करार्धतुलां तथा॥३९॥
द्विकार्षिकाणि1725 पत्रैलाहेमत्वङ्मरिचानि च।
चूर्णितानि विनीयास्माल्लिह्यान्मात्रां सदा नरः॥४०॥
अमृतप्राशमित्येतन्नराणाममृतं घृतम्।
सुधामृतरसं प्राश्यं क्षीरमांसरसाशिना॥४१॥
नष्टशुक्रक्षतक्षीणदुर्बलव्याधिकर्षितान्।
स्त्रीप्रसक्तान् कृशान् वर्णस्वरहीनांश्च बृंहयेत्॥४२॥
कासहिक्काज्वरश्वासदाहतृष्णास्रपित्तनुत्।
पुत्रदं वमिमूर्च्छाहृद्योनिमूत्रामयापहम्॥४३॥
इत्यमृतप्राशघृतम्।
श्वदंष्ट्रोशीरमञ्जिष्ठाबलाकाश्मर्यकत्तृणम्।
दर्भमूलं पृथक्पर्णी पलाशर्षभकौ स्थिराम्॥४४॥
पलिकान्साधयेत्तेषां रसे क्षीरचतुर्गुणे।
कल्कैः स्वगुप्ताजीवन्तीमेदकर्षभजीवकैः॥४५॥
शतावर्यृद्धिमृद्वीकाशर्कराश्रावणीबिसैः।
प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातपित्तहृद्द्रवशूलनुत्1726॥४६॥
मूत्रकृच्छ्रप्रमेहार्शः कासशोषक्षयापहः।
धनुः स्त्रीमद्यभाराध्वखिन्नानांबलमांसदः॥४७॥
इति श्वदंष्ट्रादिघृतम्।
मधुकाष्टपलद्राक्षाप्रस्थक्वाथे घृतं पचेत्।
पिप्पल्यष्टपले कल्के प्रस्थं सिद्धे च शीतले॥४८॥
पृथगष्टपलं क्षौद्रशर्कराभ्यां विमिश्रयेत्।
समशक्तुक्षतक्षीणे रक्तगुल्मे च तद्धितम्॥४९॥
धात्रीफल विदारीक्षुजीवनीयरसाद्धृतात्।
अजागोपयसोश्चैव सप्त प्रस्थान् पचेद्भिषग्॥५०॥
सिद्धशीते सिताक्षौद्रं द्विप्रस्थं विनयेच्च तत्।
यक्ष्मापस्मारपित्तासृक्कासमेहक्षयापहम्॥५१॥
वयःस्थापनमायुष्यं मांसशुक्रबलप्रदम्।
घृतं तु पित्तेऽभ्यधिके लिह्याद्वातेऽधिके पिबेत्॥५२॥
लीढं निर्वापयेत्पित्तमल्पत्वाद्धन्ति नानलम्।
आक्रामत्यनिलं पीतमूष्माणं निरुणद्धि च॥५३॥
क्षामक्षीणकृशाङ्गानामेतान्येव घृतानि च।
त्वक्क्षीरीशर्करालाजचूर्णैः1727 स्त्यानानि योजयेत्॥५४॥
सर्पिर्गुडान् समध्वंशाञ्जग्ध्वा चानु पयः पिबेत्।
रेतो वीर्यं बलं पुष्टिं तैराशुतरमाप्नुयात्॥५५॥
इति सर्पिर्गुडाः।
बला विदारी ह्रस्वा च पञ्चमूली पुनर्नवा।
पञ्चानां क्षीरिवृक्षाणां शुङ्गा मुष्ट्यंशका अपि॥५६॥
एषां कषाये द्विक्षीरे विदार्याजरसांशिके।
जीवनीयैः पचेत् कलकैरक्षमात्रैघृताढकम्॥५७॥
सितापलानि पूतेऽस्मिन् शीते द्वात्रिंशदावपेत्।
गोधूमपिप्पलीवांशीचूर्णं शृङ्गाटकस्य च॥५८॥
सक्षौद्रं1728 कुडवांशेन तत् सर्वं खजमूर्च्छितम्।
स्त्यानं सर्पिर्गुडान् कृत्वा भूर्जपत्रेण वेष्टयेत्॥५९॥
ताञ्जग्ध्वा पलिकान् क्षीरं मद्यं चानुपिबेत् कफे।
शोषे कासे क्षते क्षीणे श्रमस्त्रीभारकर्शिते॥६०॥
रक्तनिष्ठीवने तापे पीनसे चोरसि स्थिते।
शस्ताः पार्श्वशिरःशूले भेदे च स्वरवर्णयोः॥६१॥
इति द्वितीयाः सर्पिर्गुडाः।
त्वक्क्षीरीश्रावणीद्राक्षामूर्वर्षभकजीवकैः।
वीरर्धिक्षीरकाकोलीबृहतीकपिकच्छुभिः॥६२॥
खर्जूरफलमेदाभिः क्षीरपिष्टैः पलोन्मितैः।
धात्रीविदारीक्षुरसप्रस्थैः प्रस्थं घृतात् पचेत्॥६३॥
शर्करार्धतुलां शीते क्षौद्रार्धप्रस्थमेव च।
क्षिप्त्वा सर्पिर्गुडान् कुर्यात्कासहिक्काज्वरापहान्॥६४॥
यक्ष्माणं तमकं श्वासं रक्तपित्तं हलीमकम्।
शुक्रनिद्राक्षयं तृष्णां हन्युः कार्श्यंसकामलम्॥६५॥
इति तृतीयाः सर्पिर्गुडाः।
नवमामलकं द्राक्षामात्मगुसां पुनर्नवाम्।
शतावरीं विदारीं च समङ्गांपिप्पलीं तथा॥६६॥
पृथग्दशपलान् भागान्पलान्यष्टौ च नागरात्।
यष्ट्याह्वसौवर्चलयोर्द्विपलं मरिचस्य च॥६७॥
क्षीरतैलवृतानां च त्र्याढके शर्कराशते1729।
क्वथितेतानि चूर्णानि दत्त्वा बिल्वसमान् गुडान्॥६८॥
कुर्यात्तान्भक्षयेत् क्षीणः क्षतः शुष्कश्च मानवः।
तेन सद्यो रसादीनां वृद्ध्या पुष्टिं स विन्दति॥६९॥
इति चतुर्थसर्पिर्गुडकाः।
गोक्षीरार्धाढकं सर्पिः प्रस्थमिक्षुरसाढकम्।
विदार्याः स्वरसात् प्रस्थं रसात् प्रस्थं च तैत्तिरात्॥७०॥
दद्यात् सिध्यति तस्मिंस्तु पिष्टानिक्षुरसैरिमान्।
मधूकपुष्पकुडवं प्रियालकुडवं तथा॥७१॥
कुडवार्धं तुगाक्षीर्याः खर्जूराणि1730 च विंशतिम्।
पृथग्बिभीतकानां च पिप्पल्याश्च चतुर्थिकाम्॥७२॥
त्रिंशत्पलानि खण्डाच्च मधुकात् कर्षमेव च।
तथाऽर्धपलिकान्यत्र जीवनीयानि दापयेत्॥७३॥
सिद्धेऽस्मिन् कुडवं क्षौद्राच्छीते क्षिप्त्वाऽथ मोदकान्।
कारयेन्मरिचाजाजीपलचूर्णावचूर्णितान्॥७४॥
वातासृक्पित्तरोगेषु क्षतकासक्षयेषु च।
शुष्यतां क्षीणशुक्राणां रक्ते चोरसि संस्थिते॥७५॥
कृशदुर्बलवृद्धानां पुष्टिवर्णबलार्थिनाम्।
योनिदोषकृत1731स्रावहतानां चापि योषिताम्॥७६॥
गर्भार्थिनीनां गर्भश्च स्रवेद्यासां म्रियेत वा।
धन्या बल्या हितास्ताभ्यः शुक्रशोणितवर्धनाः॥७७॥
इति सर्पिर्मोदकाः।
बस्तिदेशे विकुर्वाणे स्त्रीप्रसक्तस्य मारुते।
वातघ्नान् बृंहणान् बल्यान् वृष्यान् योगान् प्रयोजयेत्॥७८॥
शर्करापिप्पलीचूर्णैः सर्पिषा माक्षिकेण च।
संयुक्तं वा शृतं क्षीरं पिबेत् कासज्वरापहम्॥७९॥
फलाम्लं सर्पिषा भृष्टं विदारीक्षुरसे शृतम्।
स्त्रीषु क्षीणः पिबेद्यूषं जीवनं बृंहणं परम्॥८०॥
शक्तूनां वस्त्रपूतानां मन्थं क्षौद्रघृतान्वितम्।
यवान्नसात्म्यो दिप्ताग्निःक्षतक्षीणः पिबेन्नरः॥८१॥
जीवनीयोपसिद्धं वा घृतभृष्टं1732 तु जाङ्गलम्।
रसं प्रयोजयेत् क्षीणे व्यञ्जनार्थे सशर्करम्॥८२॥
गोमहिष्यश्वनागाजैः क्षीरैमांसरसैस्तथा।
यथाग्नि1733 भोजयेद्यूषैः फलाम्लैर्वा घृताप्लुतैः॥८३॥
दीप्तेऽग्नौविधिरेषः स्यान्मन्दे दीपनपाचनः।
यक्ष्मिणां विहितो ग्राही भिन्ने शकृति चेष्यते॥८४॥
पलिकं सैन्धवं शुण्ठी द्वे च सौवर्चलात् पले।
कुडवांशानि वृक्षाम्लं दाडिमं पत्रमर्जकात्॥८५॥
एकैकं मरिचाजाज्योर्धान्यकाद्द्वेचतुर्थिके।
शर्करायाः पलान्यत्रदश द्वे च प्रदापयेत्॥८६॥
कृत्वा चूर्णमतो मात्रामन्नपाने प्रयोजयेत्।
रोचनं दीपनं बल्यं पार्श्वाीर्तिश्वासकासनुत्॥८७॥
इति सैन्धवादिचूर्णम्।
एका षोडशिका धान्याद्द्वेद्वेऽजाज्यजमोदयोः।
ताभ्यां दाडिमवृक्षाम्लं द्विर्द्विः सौवर्चलात् पलम्॥८८॥
शुण्ठ्याः कर्षे दधित्थस्य मध्यात् पञ्च पलानि च।
तच्चूर्णं षोडशपले शर्कराया विमिश्रयेत्॥८९॥
षाडवोऽयं प्रदेयः स्यादन्नपानेषु पूर्ववत्।
मन्दानले शकृद्भेदे यक्ष्मिणामग्निवर्धनः॥९०॥
इति षाडवः।
पिबेन्नागबलामूलमर्धकर्षविवर्धनम्1734।
पलं क्षीरयुतं मासं क्षीरवृत्तिरनन्नभुक्॥९१॥
एष प्रयोगः पुष्ट्यायुर्बलारोग्यकरः परः।
मण्डूकपर्ण्याः कल्पोऽयं शुण्ठीमधुकयोस्तथा॥९२॥
यद्यत् संतर्पणं शीतमविदाहि हितं लघु।
अन्नपानं निषेव्यं तत् क्षतक्षीणैः सुखार्थिभिः॥९३॥
यच्चोक्तं यक्ष्मिणां पथ्यं कासिनां रक्तपित्तिनाम्।
तच्च कुर्यादवेक्ष्याग्निंव्याधिं सात्म्यं बलं तथा॥९४॥
उपेक्षिते भवेत्तस्मिन्ननुबन्धो हि यक्ष्मणः।
प्रागेवागमनात्तस्य तस्मात्तं त्वरया जयेत्॥९५॥
तत्रश्लोकौ।
क्षतक्षयसमुत्थानं सामान्यपृथगाकृतिम्।
असाध्ययाप्यसाध्यत्वं साध्यानां सिद्धिमेव च॥९६॥
उक्तवाञ्ज्येष्ठशिष्याय क्षतक्षीणचिकित्सिते।
तत्त्वार्थविद्वीतरजस्तमोमोहः पुनर्वसुः॥९७॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने क्षतक्षीणचिकित्सितं नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
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द्वादशोऽध्यायः।
अथातः श्वयथुचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
भिषग्वरिष्ठं सुरसिद्धजुष्टं मुनीन्द्रमत्र्यात्मजमग्निवेशः।
महागदस्य श्वयथोर्यथावत् प्रकोपरूपप्रशमानपृच्छत्॥३॥
तस्मै जगादागदवेदसिन्धुप्रवर्तनाद्रिप्रवरोऽत्रिजस्तान्।
वातादिभेदात्त्रिविधस्य सम्यङ्गिजानिजैकाङ्गजसर्वजस्य॥४॥
शुद्ध्यामयाभुक्तकृशाबलानां क्षाराम्लतीक्ष्णोष्णगुरूपसेवा।
दध्याममृच्छाकविरोधिदुष्टगरोपसृष्टान्ननिषेवणं च॥५॥
अर्शांस्यचेष्टा न च देहशुद्धिर्मर्मोपघातो1735 विषमा प्रसूतिः।
मिथ्योपचारः प्रतिकर्मणां च निजस्य हेतुः श्वयथोः प्रदिष्टः॥६॥
बाह्यत्वचो दूषयिताऽभिघातः काष्ठाश्मशस्त्राग्न्यशनीविषाद्यैः1736।
आगन्तुहेतुस्विविधो निजश्च सर्वार्धगात्रावयवाश्रितत्वात्॥७॥
बाह्याः सिराःप्राप्य1737 यदा कफासृक्पित्तानि संदूषयतीह वायुः।
तैबंद्धमार्गः स तदा विसर्पन्नुत्सेधलिङ्गं श्वयथुं करोति॥८॥
उरःस्थितैरूर्ध्वमधश्च1738 वायोः स्थानस्थितैर्मध्यगतैश्च मध्ये।
सर्वाङ्गगः सर्वगतैः क्वचित्स्थैर्दोषैः क्वचित्स्याच्छ्वयथुस्तदाख्यः॥९॥
ऊष्मा तथा स्याद्दवथुः सिराणामायाम इत्येव च पूर्वरूपम्।
सर्वस्त्रिदोषोऽधिकदोषलिङ्गैस्तच्छब्दमाप्नोति1739 भिषग्जितं च॥१०॥
सगौरवं स्यादनवस्थितत्वं सोत्सेधमुष्माऽथ सिरातनुत्वम्।
सलोमहर्षाऽङ्गविवर्णता च सामान्यलिङ्गं श्वयथोः प्रदिष्टम्॥११॥
चलस्तनुत्वक्परुषोऽरुणोऽसितः प्रसुप्तिहर्षार्तियुतोऽनिमित्ततः।
प्रशाम्यति प्रोन्नमति प्रपीडितो दिवाबली च श्वयथुः समीरणात्॥१२॥
मृदुः सगन्धोऽसितपीतरागवान् भ्रमज्वरस्वेदतृषामदान्वितः।
य उष्यते स्पर्शरुगक्षिरागकृत्स1740पित्तशोथो भृशदाहपाकवान्॥१३॥
गुरुः स्थिरः पाण्डुररोचकान्वितः प्रसेकनिद्राव मिवह्निमान्द्यकृत्।
स कृच्छ्रजन्मप्रशमो निपीडितो न चोन्नमेद्रात्रिबली कफात्मकः॥१४॥
कृशस्य रोगैरबलस्य यो भवेदुपद्रवैर्वा वमिपूर्वकैर्युतः।
स हन्ति मर्मानुगतोऽथ राजिमान्परिस्रवेद्धीनबलस्य1741सर्वगः॥१५॥
अहीनमांसस्य य एकदोषजो1735 नवो बलस्थस्य सुखः स साधने।
निदानदोषर्तुविपर्ययक्रमैरुपाचरेत्तं बलदोषकालवित्॥१६॥
अथामजं लङ्घनपाचनक्रमैर्विशोधनैरुल्बणदोषमादितः।
शिरोगतंशीर्षविरेचनैरधो विरेचनैरुर्ध्वहरैस्तथोर्ध्वगम्॥१७॥
उपाचरेत् स्नेहभवं विरूक्षणैः प्रकल्पयेत् स्नेहविधिं च रूक्षजे।
विबद्धविट्केऽनिलजे निरूहणं घृतं तु पित्तानिकजे सतिक्तकम्॥१८॥
पयश्च मूर्छारतिदाहतर्षिते विशोधनीये तु समूत्रमिष्यते।
कफोत्थितं क्षारकटूष्णसंयुतैः समूत्रतक्रासवयुक्तिभिर्जयेत्॥१९॥
ग्राम्याजानूपं पिशितलवणं1742 शुष्कशाकं नवान्नं
गौडं पिष्टान्नं दधि तिलकृतं1743 विज्जलं मद्यमम्लम्।
धाना वल्लूरं समशनमथो गुर्वसात्म्यं विदाहि
स्वप्नं चारात्रौ श्वयथुगदवान् वर्जयेन्मैथुनं च॥२०॥
व्योषं त्रिवृत्तिक्तकरोहिणी च सायोरजस्कास्त्रिफलारसेन।
पीता कफोत्थं शमयेत्तु शोफं मूत्रेण गव्येन हरीतकी वा॥२१॥
हरीतकीनागरदेवदारु सुखाम्बुयुक्तं सपुनर्नवं वा।
सर्वं पिबेत्त्रिष्वपि मूत्रयुक्तं स्नातश्च जीर्णे पयसाऽन्नमद्यात्॥२२॥
पुनर्नवानागरमुस्तकल्कान्प्रस्थेन धीरः पयसोऽक्षमात्रान्।
मयूरकं मागधिकां समूलां सनागरां वा प्रपिबेत्सवाते॥२३॥
दन्तीत्रिवृत्त्र्यूषणचित्रकैर्वा पयः शृतं दोषहरं पिबेन्ना।
द्विप्रस्थमात्रं तु पलार्धिकैस्तैरवशिष्टं पवने सपित्ते॥२४॥
सशुण्ठिपीतद्रुरसं प्रयोज्यं श्यामोरुबूकोषणसाधितं वा।
स्नुग्दारु1744वर्षाभुमहौषधैर्वा गुडूचिका1745नागरदन्तिभिर्वा॥२५॥
सप्ताहमौष्ट्रं त्वथवाऽपि मासं पयः पिबेद्धोजनवारिवर्जी।
गव्यंसमूत्रं महिषीपयो वा क्षीराशनो मूत्रमथो गवां वा॥२६॥
तक्रं पिबेद्वा गुरुभिन्नवर्चाः सव्योषसौवर्चलमाक्षिकं वा।
गुडाभयां वा गुडनागरं वा सदोषभिन्नामविबद्धवर्चाः॥२७॥
विड्वातसङ्गे पयसा रसैर्वा प्राग्भक्तमद्यादुरुबूकतैलम्।
स्रोतोविबन्धेऽग्निरुचिप्रणाशे मद्यान्यरिष्टांश्च पिबेत्सुजातान्॥२८॥
गण्डीरभल्लातकचित्रकांश्च व्योषं विडङ्गं बृहतीद्वयं च।
द्विप्रस्थिकं गोमयपावकेन द्रोणे पचेत् कूर्चिकमस्तुनस्तु1746॥२९॥
त्रिभागशेषं तु सुपूतशीतं द्रोणेन तत् प्राकृतमस्तुनस्तु।
सितोपलायाश्च शतेन युक्तं लिप्ते घटे चित्रकपिप्पलीभ्याम्॥३०॥
वैहायसे स्थापितमादशाहात् प्रयोजयंस्तद्विनिहन्ति शोफान्।
भगन्दरार्शःक्रिमिकुष्ठहेमान् वैवर्ण्यकार्श्यानिलहिक्कनं च॥३१॥
इति गण्डीराद्यरिष्टः।
काश्मर्थधात्रीमरिचाभयाक्षद्राक्षाफलानां1747 च सपिप्पलीनाम्।
शतं शतं क्षौद्रगुडात्1748 पुराणात्तुलां तु कुम्भे मधुना प्रलिप्ते॥३२॥
सप्ताहमुष्णे द्विगुणं तु शीते स्थितं जलद्रोणयुतं पिबेन्ना।
शोफान्विबन्धान्कफवातजांश्च निहन्त्यरिष्टोऽष्टशतोऽग्निकृच्च॥३३॥
इत्यष्टशतोऽरिष्टः।
पुनर्नवे द्वे च बले सपाठे दन्तीं गुडूचीमथ चित्रकं1749 च।
निदिग्धिकां च त्रिपलानि पक्त्वा द्रोणावशेषे सलिले ततस्तम्॥३४॥
पूत्वा रसं द्वे च गुडात् पुराणात्तुले मधुप्रस्थयुतं सुशीतम्।
मासं निदध्याद्धृतभाजनस्थं पल्ले यवानां परतस्तु मासात्॥३५॥
चूर्णीकृतैरर्धपलांशिकैस्तं पत्रत्वगेलामरिचाम्बुलोहैः1750।
गन्धान्वितं क्षौद्रघृतप्रदिग्धे जीर्णे पिबेद्व्याधिबलं समीक्ष्य॥३६॥
हृत्पाण्डुरोगं श्वयथुं प्रवृद्धं प्लीहभ्रमारोचक1751मेहगुल्मान्।
भगन्दरं षड्जठराणि कासं श्वासं ग्रहण्यामकुष्ठकण्डूः॥३७॥
शाखानिलं बद्धपुरीषतां च हिक्कां किलासं च हलीमकं च।
क्षिप्रं जयेद्वर्णबलायुरोजस्तेजोन्वितो मांसरसान्नभोजी॥३८॥
इति पुनर्नवाद्यारिष्टः।
फलत्रिकं दीप्यकचित्रकौ च सपिप्पलीलोहरजो विडङ्गम्।
चूर्णीकृतं कौडविकं द्विरंशं क्षौद्रं पुराणस्य तुलां गुडस्य।
मासं निदध्याद्धृतभाजनस्थं यवेषु तानेव निहन्ति रोगान्॥३९॥
इति फलत्रिकाद्यरिष्टः।
ये चार्शसांपाण्डुविकारिणां च प्रोक्ता हिताः शोफिषु तेऽप्यरिष्टाः।
कृष्णा सपाठा गजपिप्पली च निदिग्धिका चित्रकनागरे च॥४०॥
सपिप्पलीमूलरजन्यजाजीमुस्तंच चूर्णं सुखतोयपीतम्।
हन्यात्त्रिदोषं चिरजं च शोफं कल्कश्च भूनिम्बमहौषधयस्य॥४१॥
अयोरजस्त्र्यूषणयावशूकं चूर्णं च पीतं त्रिफलारसेन।
क्षारद्वयं स्याल्लवणानि चत्वार्ययोरजो व्योषफलत्रिके च॥४२॥
सपिप्पलीमूलविडङ्गसारं मुस्ताजमोदामरदारुबिल्वम्।
कलिङ्गकाश्चित्रकमूलपाठे यष्ट्याह्वयं सातिविषं पलांशम्॥४३॥
सहिङ्गुकर्षं तु सुसूक्ष्मचूर्णं1752 द्रोणं तथा मूलकशुण्ठकानाम्।
स्याद्भस्मनस्तत् सलिलेन साध्यमालोड्य यावद्धनमप्रदग्धम्॥४४॥
स्त्यानं ततः कोलसमां तु मात्रां कृत्वा सुशुष्कां विधिनोपयुञ्ज्यात्।
प्लीहोदरश्वित्रहलीमकार्शःपाण्ड्वामयारोचकशोषशोफान्।
विसूचिकागुल्मगराश्मरीश्च सश्वासकासाः प्रणुदेत् सकुष्ठाः॥४५॥
इति क्षारगुडिका।
प्रयोजयेदार्द्रकनागरं वा तुल्यं गुडेनार्धपलाभिवृद्ध्या।
मात्रा परं पञ्चपलानि मासं जीर्णे पयोयूषरसान्नभोक्ता1753॥४६॥
गुल्मोदरार्शःश्वयथुप्रमेहाञ्छ्वासप्रतिश्यालसकाविपाकान्।
सकामलाशोषमनोविकारान् कासं1754 कफं चैष जयेत्प्रयोगः॥४७॥
इति गुडार्द्रकप्रयोगः।
रसस्तथैवार्द्रकनागरस्य पेयोऽथ जीर्णे पयसाऽन्नमद्यात्।
शिलाह्वयं च त्रिफलारसेन हन्यात्त्रिदोषं श्वयथुं प्रसह्य॥४८॥
इति शिलाजतुप्रयोगः।
द्विपञ्चमूल्यास्तु पचेत् कषाये कंसेऽभयानां च शतं गुडस्य।
लेहे सुसिद्धे च विनीय चूर्णं व्योषं त्रिसौगन्ध्यमुपस्थिते च॥४९॥
प्रस्थार्धमात्रं मथुनः सुशीते किंचिच्चचूर्णादपि यावशूकात्।
एकाभयां प्राश्य ततश्च लेहाच्छुक्तिं निहन्ति श्वयथुं प्रवृद्धम्॥५०॥
श्वासज्वरारोचकमेहगुल्मप्लीहत्रिदोषोदरपाण्डुरोगान्।
कार्श्यामवातावसृगम्लपित्तं वैवर्ण्यमूत्रानिलशुक्रदोषान्॥५१॥
इति कंसहरीतकी।
पटोलमूलामरदारुदन्तीत्रायन्तिपिप्पल्यभयाविशालाः।
यष्ट्याह्वयं तिक्तकरोहिणी च सचन्दना स्यान्निचुलानि दार्वी॥५२॥
कर्षोन्मितैस्तैः क्वथितः कषायो घृतेन पेयः कुडवेन युक्तः।
वीसर्पदाहज्वरसन्निपातांस्तृष्णां विषाणि श्वयथुं च हन्ति॥५३॥
इति पटोलादिघृतम्।
सचित्रकं धान्ययवान्यजाजीसौवर्चलं त्र्यूषणवेतसाम्लम्।
बिल्वात्फलं दाडिमयावशूकौ सपिप्पलीमूलमथापि चव्यम्॥५४॥
पिष्ट्वाऽक्षमात्राणि जलाढकेन पक्त्वा घृतप्रस्थमथ प्रयुञ्जयात्1755।
अर्शांसिगुल्मं श्वयथुं च कृच्छ्रं निहन्ति वह्निं च करोति दीप्तम्॥५५॥
इति चित्रकादिघृतम्।
पिबेद्घृतं वाऽष्टगुणाम्बुसिद्धं सचित्रकक्षास्मुदारवीर्यम्।
कल्याणकं वाऽपि सपञ्चगव्यं तिक्तंमहद्वाऽप्यथ तिक्तकं वा॥५६॥
इति चित्रकादिघृतम्।
क्षीरं घटे चित्रककल्कलिप्ते दध्यागतं साधु विमथ्य तेन।
तजं घृतं चित्रकमूलगर्भं तक्रेण सिद्धं श्वयथुघ्नमग्र्यम्॥५७॥
अर्शंसि सामानिलगुल्ममेहांश्चैतन्निहन्त्यग्निबलप्रदं1756 च।
तक्रेण वाऽद्यात्सघृतेन तेन भोज्यानि सिद्धामथवा यवागूम्॥५४॥
इति चित्रकघृतम्।
जीवन्त्यजाजीशटिपुष्कराहैः सकारवीचित्रकबिल्वमध्यैः।
सयावशूकैर्बदरप्रमाणैर्वृक्षाम्लयुक्ता घृततैलभृष्टा॥५९॥
अर्शोतिसारानिलगुल्मशोफहृद्रोगमन्दाग्निहिता यवागूः।
या पञ्चकोलै1757र्विधिनैव तेन सिद्धा भवेत् सा च समा तयैव॥६०॥
कुलत्थयूषश्च सपिप्पलीको मौद्गश्च सत्र्यूषणयावशूकः।
रसस्तथा विष्किरजाङ्गलानां सकूर्मगोधाशिखिशल्लकानाम्॥६१॥
सुवर्चिका1758 गृञ्जनकं पटोलं सवायसीमूलकवेत्रनिम्बम्।
शाकार्थिनां शाकमिति प्रशस्तं भोज्ये पुराणश्च यवः सशालिः॥६२॥
आभ्यन्तरं भेषजमुक्तमेतद्बहिर्हितं यच्छृणु तद्यथावत्।
स्नेहान्प्रदेहान्परिषेचनानि स्वेदांश्च वातप्रबलस्य कुर्यात्॥६३॥
शैलेयकुष्ठागुरुदारुकौन्तीत्वक्पद्मकैलाम्बुपलाशमुस्तैः।
प्रियङ्कुथौणेयकहेममांसीतालीशपत्रप्लवपत्रधान्यैः॥६४॥
श्रीवेष्टकध्यामकपिप्पलीभिः स्पृक्कानखैश्चैव यथोपलाभम्।
वातान्वितेऽभ्यङ्गमुशन्ति तैलं सिद्धं सुपिष्टैरपि च प्रदेहम्॥६५॥
इति शैलेयादितैलप्रदेहौ
जलैश्च वासार्ककरञ्जशिग्रु1759काश्मर्यपत्रार्जकजैश्च सिद्धैः।
स्विन्नः कवोष्णै रवितप्ततोयैः स्नातश्च गन्धैरनुलेपनीयः॥६६॥
सवेतसाः क्षीरवतां द्रुमाणां त्वचः समाञ्जिष्ठलतामृणालाः।
सचन्दनाः पद्मकवालकौ च पैत्ते प्रदेहस्तु सतैलपाकः॥६७॥
अक्तस्य तेनाम्बु रविप्रतप्तं सचन्दनं साभयपद्मकं च।
स्नाने हितं क्षीरवतां कषायः क्षीरोदकं चन्दनलेपनं च॥६८॥
कफे तु कृष्णासिकतापुराणपिण्याकशिग्रुत्वगुमाप्रलेपः।
कुलत्थशुण्ठीजलमूत्रसेकश्चण्डागुरुभ्यामनुलेपनं च॥६९॥
बिभीतकानां फलमध्यलेपः सर्वेषु दाहार्तिहरः प्रलेपः।
यष्ट्याह्वमुस्तैः सकपित्थपत्रैः सचन्दनैस्तत्पिडकासु लेपः॥७०॥
रास्नावृषार्कत्रिफलाविडङ्गं शिग्रुत्वचो मूषिककर्णिका च।
निम्बार्जको व्याघ्रनखः समूर्वा1760 सुवर्चला तिक्तकरोहिणी च॥७१॥
सकाकमाची बृहती सकुष्ठा पुनर्नवा चित्रकनागरे च।
उन्मर्दनं शोफिषु मूत्रपिष्टं शस्तस्तथा मूलकतोयसेकः॥७२॥
शोफास्तु गात्रावयवाश्रिता ये ते स्थानदूष्याकृतिनामभेदात्।
अनेकसंख्याः कतिचिच्च तेषां निदर्शनार्थं शृणु चोच्यमानान्1761॥७३॥
दोषास्त्रयः स्वैः कुपिता निदानैः कुर्वन्ति शोफं शिरसः सुघोरम्।
अन्तर्गले घुर्घुरकान्वितं च शालूकमुच्छ्वासनिरोधकारि॥७४॥
गलस्य सन्धौ चिबुके गले वा सदाहरागः श्वसनासु1762 चोग्रः।
शोफो भृशार्तिस्तु बिडालिका स्याद्धन्याद्गले चेद्वलयीकृता सा॥७५॥
स्यात्तालुविद्रध्यपि1763 दाहपाकरागान्वितस्तालुनि स त्रिदोषात्।
जिह्वोपरिष्टादुपजिह्विका स्यात् कफादधस्तादधिजिह्निका च॥७६॥
यो दन्तमांसेषु तु रक्तपित्तात् पाको भवेत् सोपकुशः प्रदिष्टः।
स्याइन्तविद्रध्यपि दन्तमांसे शोफः कफाच्छोणितसंचयोत्थः॥७७॥
गलस्य पार्श्वे गलगण्ड एकः स्याद्गण्डमाला बहुभिस्तु गण्डैः।
साध्याः स्मृताः, पीनसपार्श्वशूलकासज्वरच्छर्दियुतास्त्वसाध्याः॥७८॥
तेषां सिराकायशिरोविरेका धूमः पुराणस्य घृतस्य पानम् ।
सलङ्घनं1764 वक्त्रभवेषु चापि प्रघर्षणं स्यात् कवलग्रहश्च॥७९॥
अङ्गैकदेशेष्वनिलादिभिः स्यात् स्वरूपधारी स्फुरणं सिराभिः।
ग्रन्थिर्महान्मांसभवस्त्वनर्तिमैदोभवः स्निग्धतमश्चलश्च॥८०॥
संशोधितं स्वेदितमश्मकाष्ठैः साङ्गुष्ठदण्डैर्विलयेदपक्वम्।
विपाठ्य चोध्दृत्य भिषक् सकोषं शस्त्रेण दग्ध्वा व्रणवच्चिकित्सेत्॥८१॥
अदग्ध ईषत् परिशेषितश्च प्रयाति भूयोऽपि शनैर्विवृद्धिम्।
तस्मादशेषः कुशलैः समन्ताच्छेद्यो भवेद्वीक्ष्य शरीरदेशान्॥४२॥
शेषे कृते पाकवशेन शीर्येत्ततः क्षतोत्थः प्रसरेद्विसर्पः।
उपद्रवं तं प्रतिवारयेज्ज्ञः स्वैर्भेषजैः1765 पूर्वतरैर्यथोक्तैः॥८३॥
ततः क्रमेणास्य यथाविधानं व्रणं व्रणज्ञस्त्वरया चिकित्सेत्।
विवर्जयेत्कुक्ष्युदराश्रितं च तथा गले मर्मणि संश्रितं च॥८४॥
स्थूलः स्वरश्चापि भवेद्विवर्ज्यो यश्चापि बालस्थविराबलानाम्।
ग्रन्थ्युर्बुदानां च यतोऽविशेषः प्रदेशहेत्वाकृतिदोषदूष्यैः॥८५॥
ततच्चिकित्सेद्भिषगर्बुदानि विधानविद्रन्थिचिकित्सितेन।
ताम्रा सझूला पिडकाभवेद्या सा चालजी नाम परिस्त्रुताग्रा ॥८६॥
रोगोऽक्षतश्चर्मनखान्तरे1766 स्यान्मांसास्नदूषी भृशशीघ्रपाकः।
ज्वरान्विता वङ्क्ष्णकक्षजा या वर्तिर्निरर्तिःकठिनाऽऽयता च॥८७॥
विदारिका सा कफमारुताभ्यां तेषां यथादोषमुपक्रमः स्यात् ।
विस्त्रावणं पिण्डिकयोपनाहःपक्वेषु चैव व्रणवच्चिकित्सा॥८८॥
विस्फोटकाः सर्वशरीरगास्तु स्फोटाः सड़ाहा ज्वरतर्षयुक्ताः।
यज्ञोपवीतप्रतिमाः प्रभूताः पित्तानिलाभ्यां जनितास्तु कक्षाः॥८९॥
याश्चापराः स्युः पिडकाः प्रकीर्णाः स्थूलाणुमध्या अपि पित्तजास्ताः।
याः सर्वगात्रेषु मसूरमात्रा मसूरिकाः पित्तकफात् प्रदिष्टाः॥९०॥
क्षुद्रप्रमाणाः पिडकाः शरीरे सर्वाङ्गगाः सज्वरदाहतृष्णाः।
कण्डूयुताः सारुचिसप्रसेका रोमान्तिकाः पित्तकफात् प्रदिष्टाः॥९१॥
विसर्पशान्त्यै विहिता क्रिया या तां तासु कुष्ठे च हितां विदध्यात्।
ब्रघ्नो1767ऽनिलाद्यैर्वृषणे स्वलिङ्गैरन्त्रं निरेति प्रविशेन्मुहुश्च॥९२॥
मूत्रेण पूर्ण मृदु मेदसा तु1768 स्निग्धं च विद्यात्कठिनं च शोथम्।
(रक्तेन वै शोणितजं समानं तं चापि पित्तप्रभवस्य विद्यात्।)॥९३॥
विरेचनाभ्यङ्गनिरूहलेपाः पक्वेषु चैव व्रणवच्चिकित्सा\।
स्यान्मूत्रमेदःकफजं विपाव्य विशोध्य सीव्येद्व्रणवच्च पक्वम्॥९४॥
क्रिमेस्तृणादिक्षणनव्य1769वायप्रवाहणात्युत्कटकाश्वपृष्ठैः।
गुदस्य पार्श्व पिडका भृशार्तिः पक्वप्रभिन्ना1770 तु भगन्दरः स्यात्॥९५॥
विरेचनं चैषणपाटनं च विशुद्धमार्गस्य च तैलदाहः।
स्यात्क्षारसूत्रेण सुपायितेन भि(च्छि)न्नस्य चास्य व्रणवच्चिकित्सा॥९६॥
जङ्घासु पिण्डीप्रपदोपरिष्टात् स्याच्छ्लीपदं मांसकफास्रदोषात्।
सिराकफघ्नश्च विधिः समग्रस्तत्रेष्यते सर्षपलेपनं च॥९७॥
मन्दास्तु पित्तप्रबलाः प्रदुष्टा दोषाः सुतीव्रं तनुरक्तपाकम्।
कुर्वन्ति शोथं ज्वरतर्षयुक्तं विसर्पिणं जालकगर्दभाख्यम्॥१८॥
विलङ्घनं रक्तविमोक्षणं च विरूक्षणं कायविशोधनं च ।
धात्रीप्रयोगांश्छिशिरान् प्रदेहान्कुर्यात्सदा जालकगर्दभस्य॥९९॥
एवंविधांश्चाप्यपरान् परीक्ष्य शोथप्रकाराननिलादिलिङ्गैः।
शान्तिं नयेद्दोषहरैर्यथास्वमालेपनच्छेदनभेददाहैः॥१००॥
प्रायोऽभिघातादनिलः सरक्तः शोथं सरागं प्रकरोति तत्र।
विसर्पनुन्मारुतरक्तनुच्च कार्य विषनं विषजे च कर्म॥१०१॥
भवति चात्र।
त्रिविधस्य दोषभेदात् सर्वार्धावयवगात्रभेदाच्च।
श्वयथोर्विविधस्य तथा लिङ्गानि चिकित्सितं चोक्तम्॥१०२॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने
श्वयथुचिकित्सितं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२ ॥
____________
त्रयोदशोऽध्यायः।
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अथात उदरचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सिद्धविद्याधराकीर्णे कैलासे नन्दनोपमे।
तप्यमानं तपस्तीव्रं साक्षाद्धर्ममिव स्थितम्॥३॥
आयुर्वेदविदां श्रेष्ठं भिषग्विद्याप्रवर्तकम्।
पुनर्वसुं जितात्मानमग्निवेशोऽब्रवीद्वचः॥४॥
भगवन्नुदरैर्दुःखैर्दृश्यन्ते ह्यर्दिता नराः।
शुष्कवक्त्राः कृशैर्गात्रैराध्मातोदरकुक्षयः॥५॥
प्रनष्टाग्निबलाहाराः सर्वचेष्टास्वनीश्वराः।
दीनाः प्रतिक्रियाभावाज्जाहतोऽसूननाथवत्॥६॥
तेषामायतनं संख्यां प्राग्रूपाकृतिभेषजम्।
यथावज्ज्ञातुमिच्छामि1771 गुरुणा सम्यगीरितम्॥७॥
सर्वभूतहितायर्षिः शिष्येणैवं प्रचोदितः।
सर्वभूतहितं वाक्यं व्याहर्तुमुपचक्रमे॥८॥
अग्निदोषान्मनुष्याणां रोगसङ्घाः पृथग्विधाः।
मलवृद्ध्या प्रवर्तन्ते विशेषेणोदराणि तु॥९॥
मन्देऽग्नौ मलिनैर्भुक्तैरपाकाद्दोषसंचयः।
प्राणाग्न्यपानान् संदूष्य मार्गान् रुध्द्वाऽधरोत्तरान्॥१०॥
त्वङ्मांसान्तरमागत्य कुक्षिमाध्मापयन् भृशम्।
जनयत्युदरं, तस्य हेतुं शृणु सलक्षणम्॥११॥
अत्युष्णलवणक्षारविदाह्यम्लगराशनात्।
मिथ्यासंसर्जनाद्रूक्षाविरुद्धाशुचिभोजनात्॥१२॥
प्लीहार्शोग्रहणीदोषकर्षणात् कर्मविभ्रमात्।किष्टानामप्रतीकाराद्रौक्ष्याद्वेगविधारणात्॥१३॥
स्रोतसां दूषणादामात् संक्षोभादतिपूरणात्।
अर्शोबालशकृद्रोधादन्त्रस्फुटनभेदनात्॥१४॥
अतिसंचितदोषाणां पापं कर्म च कुर्वताम्।
उदराण्युपजायन्ते मन्दाग्नीनां विशेषतः॥१५॥
क्षुन्नाशः स्वाद्वतिस्निग्धगुर्वन्नं पच्यते चिरात्।
भुक्तं विदह्यते सर्व जीर्णाजीर्ण न वेत्ति च॥१६॥
सहते नातिसौहित्यमीषच्छोफश्च पादयोः।
शश्वद्वलक्षयोऽल्पेऽपि व्यायामे श्वासमृच्छति॥१७॥
वृद्धिः1772 पुरीषनिचयो रूक्षोदावर्तहेतुकी1773।
स्तिसन्धौ रुगाध्मानं वर्धते पाठ्यतेऽपि च॥१८॥
आतन्यते च जठरं लध्वल्पभोजनैरपि।
राजीजन्म वलीनाश इति लिङ्गं भविष्यताम्॥१९॥
रुध्द्वा स्वेदाम्बुवाहीनि दोषाः स्त्रोतांसि संचिताः।
प्राणाग्न्यपानान् संदूष्य जनयन्त्युदरं नृणाम्॥२०॥
कुक्षेराध्मानमाटोपः शोफः पादकरस्य च।
मन्दोऽग्निः श्लक्ष्णगण्डत्वं कार्श्यं चोदरलक्षणम्॥२१॥
पृथग्दोषैः समस्तैश्च प्लीहबद्धक्षतोदकैः।
संभवन्त्युदराण्यष्टौ तेषां लिङ्गं पृथक् शृणु॥२२॥
**रूक्षाल्पभोजनायासवेगोदावर्तकर्शनैः।
वायुः प्रकुपितः कुक्षिहृद्बस्तिगुदमार्गगः॥२३॥ **
हत्वाऽग्निं कफमुद्धूय तेन रुद्धगतिस्ततः।
आचिनोत्युदरं जन्तोस्त्वङ्मांसान्तरमाश्रितः॥२४॥
तस्य रूपाणि—कुक्षिपाणिपादवृषणश्वयथुरुदरविपाटनमनियतौ च वृद्धिह्रासौ कुक्षिपार्श्वशूलोदावर्ताङ्गमर्दपर्वभेद-शुष्ककासकाश्र्यदौर्बल्यारोचकाविपाका अधोगुरुत्वं वातवर्चोमूत्रसङ्गः श्यावारुणत्वं च नखनयनवदनत्वङ्मूत्रवर्चसामपि चोदरं तन्वसितराजीसिरा सन्ततमाह्रुतमाध्मातह्रतिशब्दवद्भवति, वायुश्चोर्ध्वमधस्तिर्यक् च सशूलशब्दश्चरति; एतद्द्वातोदर विद्यात्॥२५॥
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णाग्नयातपसेवनैः।
विदाह्यध्यशनाजीर्णैश्चाशु पित्तं समाचितम्॥२६॥
प्राप्यानिलकफौ रुद्ध्वामार्गमुन्मार्गमास्थितम्।
निहत्यामाशये1774 वह्निं जनयत्युदरं ततः॥२७॥
तस्य रूपाणि—दाहज्वरतृष्णामूर्च्छातीसारभ्रमाः कटुकास्यत्वं हरितहारिद्रत्वं च नखनयनवदनत्वङ्मूत्रवर्चसामपि चोदरं नीलपीतहारिद्रहरितताम्रराजीसिरावनद्धं दह्यते दूयते धूप्यते ऊष्मायते स्विद्यते क्लिद्यते मृदुस्पर्शं क्षिप्रपाकं च भवति; एतत् पित्तोदरं विद्यात्॥२८॥
अव्यायामदिवास्वप्नस्वाद्वतिस्निग्धपिच्छिलैः।
दधिदुग्धौदकानूपमांसैचाप्यतिसेवितैः॥२९॥
क्रुद्धेन श्लेश्मणा स्त्रोतःस्वावृतेष्वावृतोऽनिलः।
तमेव पीडयन् कुर्यादुदरं बहिरन्त्रगः॥३०॥
तस्य रूपाणि—गौरवारोचकाविपाकाङ्गमर्दाः सुप्तिः पाणिपादमुष्कोरुशोफ उत्क्लेशनिद्राकासश्वासाः शुक्लत्वं च नखनयमवदनत्वङ्मूत्रवर्चसामपि चोदरं शुक्लराजीसिरासन्ततं गुरु स्तिमितं स्थिरं कठिनं च भवति; एतच्छ्लेष्मोदरं विद्यात्॥३१॥
दुर्बलाग्नेरपथ्यामविरोधिगुरुभोजनात्।
स्त्रीदत्तैश्च1775 रजोरोमविण्मूत्रास्थिनखादिभिः॥३२॥
विषैश्च मन्दैर्वाताद्याः कुपिताः संचयं त्रयः।
शनैः कोष्ठे प्रकुर्वन्तो जनयन्त्युदरं नृणाम्॥३३॥
तस्य रूपाणि—सर्वेषामेव दोषाणां समस्तानि लिङ्गान्युपलभ्यन्ते वर्णाश्च सर्वे नखादिषु, उदरमपि च नानावर्णराजीसिरासन्ततं भवति; एतत्सन्निपातोदरं विद्यात्॥३४॥
अशितस्यातिसंक्षोभाद्या1776नयानातिचेष्टितैः।
अतिव्यवायभाराध्ववमनव्याधिकर्शनैः॥३५॥
वामपार्श्वाश्रितः प्लीहा च्युतः स्थानात् प्रवर्धते।
शोणितं वा रसादिभ्यो विवृद्धं तं विवर्धयेत्॥३६॥
तस्य प्लीहा कठिनोऽष्ठीलेवादौ वर्धमानः कच्छपसंस्थान उपलभ्यते, स चोपेक्षितः क्रमेण कुक्षिं जठरमग्न्यधिष्ठानं च परिक्षिपन्नुदरमभिनिर्वर्तयति॥३७॥
तस्य रूपाणि—दौर्बल्यारोचकाविपाकवर्चोमूत्रग्रहतमः प्रवेशपिपासाङ्गमर्दच्छर्दिमूर्च्छाङ्गसादकासश्वासमृदुज्वरा-नाहाग्निनाशकार्श्यास्यवैरस्यपर्वभेदाः कोष्ठे वातशूलमपि चोदरमरुणवर्णं विवर्णं वा नीलहरितहारिद्राराजिमद्भवति; एवमेव यकृदपि दक्षिणपार्श्वस्थंकुर्यात् तुल्यहेतुलिङ्गौषधत्वात्तस्य प्लीहजठर एवावरोध इति; एतत्प्लीहोदरं विद्यात्॥३८॥
पक्ष्मवालैः सहान्नेन भुक्तैर्बद्धायने गुदे।
उदावर्तैस्तथाऽर्शोभिरन्त्रसंमूर्च्छनेन वा॥३९॥
अपानो मार्गसंरोधाद्धत्वाऽग्निं कुपितोऽनिलः।
चर्चः पित्तकफान् रुध्द्वा जनयत्युदरं ततः॥४०॥
तस्य रूपाणि—तृष्णादाहज्वरमुखतालुशोषोरुसादकासश्वासदौर्बल्यारोचकाविपाकवर्चोमूत्रसङ्गाध्मानच्छर्दिक्षवथु-शिरोहृन्नाभिगुदशूलान्यपि चोदरं मूढवातं स्थिरमरुणनीलराजिसिरावनद्धमराजिकं वा प्रायो नाभ्युपरि गोपुच्छवदभिनिर्वर्तत इति; एतद्धद्धगुदोदरं विद्यात्॥४१॥
शर्करातॄणकाष्ठास्थिकण्टकैरन्नसंयुतैः।
भिद्येतान्त्रं यदा भुक्तैर्जुम्भयाऽत्यशितस्य वा॥४२॥
गच्छेत् पाकं रसस्तेभ्यश्छिद्रेभ्यः प्रस्रवेद्बहिः।
पूरयन् गुदमन्त्रं च जनयत्युदरं ततः॥४३॥
तस्य रूपाणि—तदधो नाभेः प्रायोऽमिनिर्षर्तमानमुदकोदरस्य यथाबलं च दोषाणां रूपाणि दर्शयत्यपि चातुरः सलोहितनीलपीतपिच्छिलकुणपगन्ध्यामवर्च उपवेशते, हिक्काश्वासकासतृष्णाप्रमे(मो)हारोचकाविपाकदौर्बल्यपरीतश्च भवति; एतच्छिद्रोदरं विद्यात्॥४४॥
स्नेहपीतस्य मन्दाग्नेः क्षीणस्यातिकृशस्य वा।
अत्यम्बुपानान्नष्टेऽग्नौ मारुतः क्लोम्नि संस्थितः॥४५॥
स्रोतःसु रुद्धमार्गेषु कफश्चोदकमूर्च्छितः।
वर्धयेतां तदेवाम्बु स्वस्थानादुदराय तौ॥४६॥
तस्य रूपाणि—अनन्नकाङ्क्षापिपासागुदस्रावशूलश्वासकासदौर्बल्यान्यपि चोदरं नानावर्णराजिसिरासन्तत मुदकपूर्णहृतिक्षोभसंस्पर्शं भवति; एतदुदकोदरं1777 विद्यात्॥४७॥
तत्र, अचिरोत्पन्नमनुपद्रवमनुदकप्राप्तमुदरं1778 स्वरमाणश्चिकित्सेत्। उपेक्षितानां ह्येषां दोषाः स्वस्थानादपावृत्ता परिपाकाद्रवीभूताः सम्धीन् स्रोतांसि चोपक्लेदयन्ति, स्वेदश्च बाह्येषु स्रोतःसु प्रतिहृतगतिस्तिर्यगवतिष्ठमानस्तदेवोदकमाप्याययति। तत्र पिच्छोत्पत्तौ मण्डलमुदरं गुरु स्तिमितमाकोठितमशब्दं मृदुस्पर्शमपगतराजीकमाक्रातं नाभ्यामेवोपसर्पतीति, ततोऽनन्तरमुदकप्रादुर्भावः; तस्य रूपाणि— कुक्षेरतिमात्रवृद्धिः सिरान्तर्धानगमनमुदकपूर्णहृतिसंक्षोभस्पर्शत्वं च तदातुरमुपद्रवाः स्पृशन्ति—छर्ध्यतीसारतमकतृष्णाश्वासकासहिक्कादौर्बल्यपार्श्वशूलारुचिस्वरभेदमूत्रसङ्गादयः, तथा विधमचिकित्स्यं विद्यादिति॥४८॥
भवन्ति चात्र।
वातात् पित्तात् कफात प्लीह्नः सन्निपातात्तथोदकात्।
परं परं कृच्छ्रतरमुदरं भिषगादिशेत्॥४९॥
पक्षाद्वद्धगुदं तूर्ध्वं सर्वंजातोदकं तथा।
प्रायो भवत्यभावाय छिद्रान्त्रं चोदरं नृणाम्॥५०॥
शूनाक्षं कुटिलोपस्थमुपक्लिन्नतनुत्वचम्।
बलशोणितमांसाग्निपरिक्षीणं च संत्यजेत्॥५१॥
श्वयथुः सर्वमर्मोत्थः श्वासो हिक्काऽरुचिः सतृट्।
मूर्च्छा छर्द्यतिसारौ च निघ्नन्त्युदरिणं नरम्॥५२॥
जन्मनैवोदरं सर्वं प्रायः कृच्छ्रतमं मतम्।
बलिनस्तदुजाताम्बु यत्नसाध्यं नवोत्थितम्॥५३॥
अशोथमरुणा1779भासं सशब्दं नातिभारिकम्।
सदा गुडगुडायन्तं1780 सिराजालगवाक्षितम्॥५४॥
माम विष्टभ्य वायस्तु1781 वेगं कृत्वा प्रणश्यति।
हृन्नाभिवङ्क्षणकटीगुदप्रत्येकशूलिनः॥५५॥
कर्कशं सृजतो वातं नातिमन्दे च पावके।
लोलस्याविरसे1782 चास्ये मूत्रेऽल्पे संहते विषि॥५६॥
भजातोदकमित्येतैर्लिङ्गैर्विज्ञाय तत्त्वतः।
उपक्रामेद्भिषग्दोषबलकालविशेषवित्॥५७॥
वातोदरं बलवतः पूर्वं स्नेहैरुपाचरेत्।
स्निग्धाय स्वेदिताङ्गाय दद्यात् स्नेहविरेचनम्॥५८॥
हृते दोषे परिम्लानं वेष्टयेद्वाससोदरम्।
तथाऽस्यानवकाशत्वाद्वायुर्नाध्मापयेत् पुनः॥५९॥
दोषातिमात्रोपचयात् स्त्रोतसां1783 सन्निरोधनात्।
संभवन्त्युदरा1784ण्येवमतो नित्यं विशोधयेत्॥६०॥
शुद्धं संसृज्य च क्षीरं बलार्थ पाययेत्तु तम्।
प्रागुत्क्लेशान्निवर्त्य च बले लब्धे क्रमात् पयः॥६१॥
यूषै रसैर्वा मन्दाम्ललवणैरेधितानलम्।
सोदावर्तं पुनः स्निग्धं स्विन्नमास्थापयेन्नरम्॥६२॥
स्फुरणाक्षेपसन्ध्यस्थिपार्श्वपृष्ठत्रिकार्तिषु।
दीप्ताग्निं बद्धविड्वातं रूक्षमप्यनुवासयेत्॥६३॥
तीक्ष्णाधोभागयुक्तः सान्निरूहो1785 दाशमूलिकः।
वातघ्नाम्लशृतैरण्डतिलतैलानुवासनम्॥६४॥
अविरेच्यं तु यं विद्याद्दुर्बलं स्थविरं शिशुम्।
सुकुमारं प्रकृत्याऽल्पदोषं वाऽथोल्बणानिलम्॥६५॥
तं भिषक् शमनैः सर्पिर्यूषमांसरसौदनैः।
बस्त्यभ्यङ्गानुवासैश्च क्षीरैचोपचरेद्बुधः॥६६॥
पित्तोदरे तु बलिनं पूर्वमेव विरेचयेत्।
दुर्बलं त्वनुवास्यादौ शोधयेत् क्षीरबस्तिना॥६७॥
संजातबलकायाग्निं पुनः स्निग्धं विरेचयेत्।
पयसा सत्रिवृत्कल्केनोरुबूकश्रृतेन वा॥६८॥
सातलात्रायमाणाभ्यां श्रृतेनारग्वधस्य वा।
सकफे वा समूत्रेण सवाते तिक्तसर्पिषा॥६९॥
पुनः क्षीरप्रयोगं च बस्तिकर्म विरेचनम्।
क्रमेण ध्रुवमातिष्ठन् यतः1786 पित्तोदरं जयेत्॥७०॥
स्निग्धं स्विन्नं विशुद्धं तु कफोदरिणमातुरम्।
संसर्जयेत् कटुक्षारयुक्तैरन्नैः कफापहैः॥७१॥
गोमूत्रारिष्टपानैश्च चूर्णायस्कृतिभिस्तथा।
सक्षारैस्तैलपानैश्च शमयेत्तु कफोदरम्॥७२॥
सन्निपातोदरे सर्वा यथोक्ताः कारयेत् क्रियाः।
सोपद्रवं तु निर्वृत्तं प्रत्याख्येयं विजानता॥७३॥
उदावर्तरुजानाहैर्दाहमोहतृषाज्वरैः।
गौरवारुचिकाठिन्यैश्चानिलादीन् यथाक्रमम्॥७४॥
लिङ्गैः प्लिह्न्याघिकान् दृष्ट्वा रक्तं1787 चैव स्वलक्षणैः।
चिकित्सां संप्रकुर्वीत यथादोषं यथाबलम्॥७५॥
स्नेहं स्वेदं विरेकं च निरूहमनुवासनम्।
समीक्ष्य कारयेद्वाहौ वामे वा व्यधयेत् सिराम्॥७६॥
षट्पलं पाययेत् सर्पिः पिप्पलीर्वा प्रयोजयेत्।
सगुडामभयां वाऽपि क्षारारिष्टगणांस्तथा॥७७॥
(एष क्रियाक्रमः प्रोक्तो योगान् संशमनाञ्छृणु।)
पिप्पली नागरं दन्ती चित्रकं द्विगुणाभयम्।
विडङ्गांशयुतं1788 चूर्णमेतदुष्णाम्बुना पिबेत्॥७८॥
विडङ्गं चित्रकं शुण्ठी1789 सघृतां सैन्धवं वचाम्।
दग्ध्वा कपाले पयसा गुल्मप्लीहापहं पिबेत्॥७९॥
रोहीतकलतानां तु काण्डकानभयाजले।
मूत्रे वाऽऽसुनुयात्तच्च सप्तरात्रस्थितं पिबेत्॥८०॥
कामलागुल्ममेहार्शः प्लीहसर्वोदरक्रिमीन्।
तध्दन्याज्जाङ्गलरसैर्जीर्णे स्याच्चात्र भोजनम्॥८१॥
रोहीतकत्वचः कृत्वा पलानां पञ्चविंशतिम्।
कोलद्विप्रस्थसंयुक्तं कषायमुपकल्पयेत्॥८२॥
पलिकैः पञ्चकोलैस्तु तैः सर्वैश्चापि तुल्यया।
रोहीतकत्वचा पिष्टैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥८३॥
प्लीहाभिवृद्धिं शमयत्येतदाशु प्रयोजितम्।
तथा गुल्मोदरश्वासक्रिमिपाण्डुत्वकामलाः॥८४॥
अग्निकर्म च कुर्वीत भिषग्वातकफोल्बणे।
पैत्तिके जीवनीयानि सर्पौषि क्षीरबस्तयः॥८५॥
रक्तावसेकः संशुद्धिः क्षीरपानं च शस्यते।
यूषैर्मांसरसैश्चापि दीपनीयसमायुतैः॥८६॥
लघून्यन्नानि संसृज्य भजेत्प्लीहोदरी1790 नरः।
यकृति प्लीहवत् सर्वं तुल्यत्वाद्भेषजं मतम्॥
स्विन्नाय बद्धोदरिणे मूत्रतीक्ष्णौषधान्वितम्॥८७॥
सतैललवणं दद्यान्निरूहं सानुवासनम्।
परिस्नंसीनि चान्नानि तीक्ष्णं चैव विरेचनम्॥८८॥
उदावर्तहरं कर्म कार्यं वातघ्नमेव च।
छिद्रोदरमृते स्वेदाच्छ्लेष्मोदरवदाचरेत्॥८९॥
जातं जातं जलं स्नाव्यमेवं तद्यापयेद्भिषक्।
तृष्णाकासज्वरार्तं तु क्षीणमांसाग्निभोजनम्॥९०॥
वर्जयेच्छ्वासिनं तद्वच्छूलिनं दुर्बलेन्द्रियम्।
अपां दोषहराण्यादौ प्रदद्यादुदकोदरे॥९१॥
मूत्रयुक्तानि तीक्ष्णानि विविधक्षारवन्ति च।
दीपनीयैः कफघ्नैश्च तमाहारैरुपाचरेत्॥१२॥
द्रवेभ्यश्चोदकादिभ्यो नियच्छेदनुपूर्वशः।
सर्वमेवोदरं प्रायो दोषसङ्घातजं मतम्॥१३॥
तस्मान्त्रिदोषशमनीं1791 क्रियां सर्वेषु कारयेत्।
दोषैः कुक्षौ हि संपूर्णौ वह्निर्मन्दत्वमृच्छति॥१४॥
तस्माद्भोज्यानि योज्यानि दीपनानि लघूनि च।
रक्तशालीन् यवान्मुद्गाञ्जाङ्गलांश्च मृगद्विजान्॥१५॥
पयोमूत्रासवारिष्टान्मधु सीधु तथा सुराम्।
यवागूमोदनं वाऽपि यूषैरद्याद्रसैरपि॥९६॥
मन्दाम्लस्नेहकटुभिः पञ्चमूलोपसाधितैः।
औदकानूपजं मांसं शाकं पिष्टकृतांस्तिलान्॥९७॥
व्यायामाध्वदिवास्वप्नं यानयानं च वर्जयेत्।
तथोष्णलवणाम्लानि विदाहीनि गुरूणि च॥९८॥
नाद्यादन्नानि जठरी तोयपानं च वर्जयेत्।
नातिसान्द्रं म(हि)तं पाने स्वादु तक्रमपेलवम्॥९९॥
त्र्यूषणक्षारलवणैर्युक्तं तु निचयोदरी।
वातोदरी पिबेत्तक्रं पिप्पलीलवणान्वितम्॥१००॥
शर्करामधुकोपेतं स्वादु पित्तोदरी पिबेत्।
यमानीसैन्धवाजाजीव्योषयुक्तं कफोदरी॥१०१॥
पिबेन्मधुयुतं तेक्रं व्यक्ताम्लं नातिपेलवम्।
मधुतैलवचाशुण्ठीशताह्वाकुष्ठसैन्धवैः॥१०२॥
युक्तं प्लीहोदरी जातं सव्योषं तूदकोदरी।
यवानी1792हपुषाजाजीसैन्धवैर्गथितोदरी॥१०३॥
पिबेच्छिद्रोदरी तक्रं पिप्पलीक्षौद्रसंयुतम्।
गौरवारोचकार्तानां समन्दाग्न्यतिसारिणाम्॥१०४॥
तक्रं वातकफार्तानाममृतत्वाय कल्पते।
शोफानाहार्तितृण्मूर्च्छापीडिते कारभं पयः॥१०५॥
शुद्धानां क्षामदेहानां गव्यं छागं समाहिषम्।
देवदारुपलाशार्कहस्तिपिप्पलिशिग्नुकैः॥१०६॥
साश्वगन्धैः1793 सगोमूत्रैः प्रदिह्यादुदरं समैः।
वृश्चिकालीं वचां कुष्ठं पञ्चमूलीं पुनर्नवाम्॥१०७॥
भूतीकं1794 नागरं धान्यं जले पक्त्वाऽवसेचयेत्।
पलाशं कत्तृणं रास्नां तद्वत् पक्त्वाऽवसेचयेत्॥१०८॥
मूत्राण्यष्टावुदरिणां सेके पाने च योजयेत्।
रुक्षाणां बहुवातानां तथा संशोधनार्थिनाम्॥१०९॥
दीपनीयानि सर्पोंषि जठरघ्नानि चक्ष्महे।
पिप्पली पिप्पलीमूलचव्यचिन्नकनागरैः॥११०॥
सक्षारैरर्धपलिकैद्धिप्रस्थं सर्पिषः पचेत्।
कल्कैद्विपञ्चमूलस्य तुलार्धस्वरसेन च॥१११॥
दधिमण्डाढकोपेतं तत् सर्पिर्जठरापहम्।
श्वयथुं वातविष्टम्भं गुल्मार्शांसि च नाशयेत्॥११२॥
** इति पञ्चकोलघृतम्।**
नागरत्रिफलाप्रस्थं घृतं तैलं तथाऽऽढकम्।
मस्तुनः साधयित्वैतत् पिबेत् सर्वोदरापहम्॥११३॥
कफमारुतसंभूते गुल्मे चैतत्प्रशस्यते ।
** इति नागरघृतम्।**
चतुर्गुणे जले मूत्रे द्विगुणे चित्रकात् पले॥११४॥
कल्के सिद्धं घृतप्रस्थं सक्षारं जठरी पिबेत्।
** इति चित्रकघृतम्।**
यवकोलकुलस्थानां पञ्चमूलरसेन च (वा)॥११५॥
रासौवीरकाभ्यां च सिद्धं वाऽपि पिबेद्धृतम्।
** इति यवाद्यं धृतम्।**
एभिः स्निग्धाय संजाते बले शान्ते च मारुते॥११६॥
स्नस्ते दोषाशये दद्यात् कल्पदृ(दि)ष्टं विरेचनम्।
पटोलमूलं रजनीं विडङ्गं त्रिफलात्वचम्॥११७॥
कम्पिल्लकं नीलिनीं च त्रिवृतां चेति चूर्णयेत्।
षडाद्यान् कार्षिकानन्त्यांस्त्रींश्च द्वित्रिचतुर्गुणान्॥११८॥
कृत्वा चूर्णमतो मुष्टिं गवां मूत्रेण ना पिबेत्\।
विरिक्तो मृदु भुञ्जीत भोजनं जाङ्गलै रसैः॥११९॥
मण्डं पेयां च पीत्वा वा सव्योषं षडहं पयः।
शुतं पिबेत्ततश्चूर्ण पिबेदेवं पुनः पुनः॥१२०॥
हन्ति सर्वोदराण्येतच्चूर्णं जातोदकान्यपि।
कामलां पाण्डुरोगं च श्वयथुं चापकर्षति॥१२१॥
पटोलाद्यमिदं चूर्णमुदरेषु प्रपूजितम्।
** इति पटोलाद्यं घृतम्।**
गवाक्षीं शङ्खिनीं दन्तीं तिल्वकस्य त्वचं वचाम्॥१२२॥
पिबेद्द्राक्षाम्बुगोमूत्रकोलकर्कन्धुशीधुभिः।
ममानी हनुषा धान्यं त्रिफला चोपकुञ्चिका॥१२३॥
कारवी पिप्पलीमूलमजगन्धा शटी वचा\।
शताह्वा जीरकं व्योषं स्वर्णक्षीरी सचित्रका॥१२४॥
द्वौ क्षारौ पौष्करं मूलं कुष्ठं लवणपञ्चकम्।
विडङ्गं च समांशानि दन्त्या भागत्रयं तथा॥१२५॥
त्रिवृद्विशालयर्द्वौ1795 सातला स्याच्चतुर्गुणा।
एतन्नारायणं नाम चूर्णं रोगगणापहम्॥१२६॥
नैनत् प्राप्यातिवर्तन्ते रोगा विष्णुमिवासुराः।
सक्रेणोदरिभिः पेयं गुल्मिभिर्बदराम्बुनां॥१२७॥
आनगद्धावाते सुरया वातरोगे प्रसन्नया।
दधिमण्डेन विट्सङ्गे दाडिमाम्बुभिरर्शसैः॥१२४॥
परिकर्ते सवृक्षाम्लमुष्णाम्बुभिरजीर्णके।
भगन्दरे पाण्डुरोगे श्वासे कांसे गलग्रहे॥१२९॥
हृद्रोगे ग्रहणीदोषे कुष्ठे मन्देऽनले ज्वरे।
दंष्ट्राविषे मूलविषे सगरे कृत्रिमे विषे॥१३०॥
यथार्हं स्निग्धकोष्ठेन पेयमेतद्विरेचनम्।
इति नारायणचूर्णम्।
हपुषां काञ्चनक्षीरीं त्रिफलांकटुरोहिणीम्॥१३१॥
नीलिनीं त्रायमाणां च सातलां त्रिवृतां वचाम्।
सैन्धवं काललवणं पिप्पलीं चेति चूर्णयेत्॥१३२॥
दाडिमन्त्रिफलामांसरसमूत्रसुखोदकैः।
पेयोऽयं सर्वगुल्मेषु प्लीह्नि सर्वोदरेषु च॥१३३॥
कुष्ठे श्वित्रे सरुजके सवाते विषमाग्निषु।
शोथार्शेःपाण्डुरोगेषु कामलायां हलीमके॥१३४॥
वातं पित्तं कर्फ चाशु1796 विरेकात् संप्रसाधयेत्।
इति हपुषाचं चूर्णम् ।
नीलिनीं निचुलं व्योषं द्वौ क्षारौ लवणानि च॥१३५॥
चित्रकं च पिबेच्चूर्णं सर्पिषोदरगुल्मनुत्।
इति नीलिन्याद्यं चूर्णम्।
क्षीरद्रोणं सुधाक्षीरप्रस्थार्धसहितं दधि॥१३६॥
जातं विमथ्य तद्युक्त्या निवृत्सिद्धं पिबेद्धृतम्।
तथा सिद्धं घृतप्रस्थं पयस्यष्टगुणे पिबेत्॥१३७॥
स्नुक्क्षीरपलकल्केन त्रिवृताषट्पलेन च।
गुल्मानां गरदोषाणामुदराणां च शान्तये॥१३८॥
दधिमण्डाढके सिद्धात् स्नुकूक्षीरपलकल्कितात।
घृतप्रस्थात् पिबेन्मात्रां तद्वज्जठरशान्तये॥१३९॥
एषां चानुपिबेत् पेयां पयो वा स्वादु वा रसम्।
मृते जीर्णे विरिक्तस्तु कोष्णं1797 नागरकैः श्रुतम्॥१४०॥
पिबेदम्बु ततः पेयां यूषं क्लौंलत्थकं ततः।
पिषेद्रूक्षस्न्यहं त्वेवं पयोऽन्नं1798 प्रतिभोजितः॥१४१॥
पुनः पुनः पिबेत् सर्पिरानुपूर्व्या तथैव च।
घृतान्येतानि सिद्धानि विद्ध्यात् कुशलो भिषक्॥१४२॥
गुल्मानां गरदोषाणामुदराणां च शान्तये।
पीलुकल्कोपसिद्धं वा घृतमानाहभेदनम्॥१४३ ॥
गुल्मघ्नं नीलिनीसर्पिः स्नेहं वा मिश्रकं पिबेत्।
क्रमान्निर्हृतदोषाणां जाङ्गलप्रतिभोजिनाम्॥१४४॥
दोषशेषनिवृत्त्यर्थं योगान् वक्ष्याम्यतः परम्।
चित्रकामरदारुभ्यां कल्कं क्षीरेण ना पिबेत्॥१४५॥
मासं युक्तस्तथा हस्तिपिप्पली विश्वभेषजम्1799।
चिडङ्गं चित्रको दन्ती चव्यं व्योषं च तैः पयः॥१४६॥
कल्कैः कोलसमैः पीत्वा प्रवृद्धमुद्रं जयेत्।
पिवेत् कषायं त्रिफलादन्तीरोहीतकैः शृतम्॥१४७॥
व्योषक्षारयुतं जीर्णे रसैरद्यात्तु जाङ्गलेः।
मांसं वा भोजनं योज्यं सुधाक्षीरघृतान्वितम्॥१४८॥
क्षीरानुपानं, गोमूत्रेणाभयां वा प्रयोजयेत्।
सप्ताहं माहिषं मूत्रं क्षीरं चानन्नभुक् पिवेत्॥१४९॥
मासमौष्ट् रंपयश्छागं त्रीन्मासान् व्योषसंयुतम्।
हरीतकीसहस्रं वा क्षीराशी वा शिलाजतु॥१५०॥
शिलाजतुविधानेन गुग्गुलुं वा प्रयोजयेत्।
शृङ्गवेरार्द्रकरसः पाने क्षीरसमो मतः॥१५१॥
तैलं रसेन तेनैव सिद्धं दशगुणेन वा।
दन्तीद्रवन्तीफलजं तैलं दूष्योदरे हितम्॥१५२॥
शूलानांहविबन्धेषु मस्तुयूषरसादिभिः।
सरलामरशिग्रूणां बीजेभ्यो मूलकस्य च॥१५३॥
तैलान्यभ्यङ्गपानार्थं शूलघ्नान्यनिलोदरे।
स्तैमित्यारुचिहृल्लासेष्वल्पाग्नौ1800 मद्यपाय च॥१५४॥
अरिष्टान् दापयेत् क्षारान् कफस्त्यानस्थिरोदरे।
श्लेष्मणो विलयार्थं तु दोषं वीक्ष्य भिषग्वरः॥१५५॥
पिप्पलीं तिल्वकं हिङ्गु नागरं हस्तिपिप्पलीम्।
भल्लातकं शिग्रुफलं त्रिफलां कटुरोहिणीम्॥१५६॥
देवदारु हरिद्वे द्वे सरलातिविषे वचाम्1801।
कुष्ठं मुस्तं तथा पञ्च लवणानि प्रकल्प्य च॥१५७॥
दुधिसर्पिर्वसातैलमज्जयुक्तानि दाहयेत्।
अनादूर्ध्वमतः1802 क्षाराद्विडालकपदं पिबेत्॥१५८॥
मदिरादधिमण्डोष्णजलारिष्टसुरासवैः।
हृद्रोगं श्वयथुं गुल्मं प्लीहार्शोजठराणि च॥१५९॥
विसूचिकामुदावर्तं वाताष्ठीलां च नाशयेत्।
क्षारं चाजकरीषाणां स्रुतं मूत्रैर्विपाचयेत्॥१६०॥
कार्षिकं पिप्पलीमूलं पञ्चैव लवणानि च।
पिप्पलीं चित्रकं शुण्ठीं त्रिफलां त्रिवृतां वचाम्॥१६१॥
द्वौ क्षारौ सातलां दन्तीं स्वर्णक्षीरीं विषाणिकाम्।
कोलप्रमाणां वटिकां पिबेत्1803 सौवीरसंयुताम्॥१६२॥
श्वयथावविपाके च प्रवृद्धे चोदकोदरे\।
भावितानां गवां मूत्रे षष्टिकानां तु तण्डुलैः॥१६३॥
यवागूं पयसा सिद्धां प्रकामं भोजयेन्नरम्।
पिबेदिक्षुरसं चानु जठराणां निवृत्तये॥१६४॥
स्वं स्वं स्थानं व्रजन्त्येषां1804 तथा पित्तकफानिलाः।
शङ्खिनीस्रुक्त्रिवृद्दन्तीचिरिबिल्वादिपल्लवैः॥१६५॥
शोकं1805 गाढपुरीषाय प्राग्भक्तं दापयेद्भिषक्।
ततोऽस्मै शिथिलीभूतवर्चोदोषाय शास्त्रवित॥१६६॥
दध्यान्मूत्रयुतं क्षीरं1806 दोषशेषहरं शिवम्1807।
पार्श्वशूलमुपस्तम्भं1808 हृद्भहं चापि मारुतः॥१६७॥
जनयेद्यस्य तैलं तं बिल्वक्षारेण पाययेत्।
तथाऽग्निमन्थस्योनाकपलाशतिलनालजैः॥१६८॥
बलाकदल्यपामार्गक्षारैः प्रत्येकशः स्रुतैः।
तैलं पक्त्वा भिषग्दद्यादुदराणां प्रशान्तये॥१६९॥
निवर्तते चोदरिणां हृद्ग्रहश्चानिलोद्भवः।
कफे वातेन पित्तेन ताभ्यां वाऽप्यावृतेऽनिले॥१७०॥
बलिनः स्वौषधयुतं तैलमेरण्डजं हितम्।
सुविरिक्तो नरो यस्तु पुनराध्मायते तु तम्॥१७१॥
सुस्निग्धैरम्ललवणैर्निरूहैः समुपाचरेत्।
सोपस्तम्भोऽपि वा वायुराध्मापयति यं नरम्॥१७२॥
तीक्ष्णैः सक्षारगोमूत्रैर्बस्तिभिस्तमुपाचरेत्।
क्रियातिवृत्ते जठरे त्रिदोषे चाप्रशाम्यति॥१७३॥
ज्ञातीन् ससुहृदो दारान् ब्राह्मणान्नृपतीन् गुरुन्।
अनुज्ञाप्य भिषक्कर्म विदध्यात् संशयं ब्रुवन्॥१७४॥
अक्रियायां ध्रुवो मृत्युः क्रियायां संशयो भवेत्।
एवमाख्याय तस्येदमनुज्ञातः सुहृद्गणैः॥ १७५॥
पानभोजनसंयुक्तं विषमस्मै प्रदापयेत्1809।
यस्मिन् वा कुपितः सर्पो विसृजेद्धि फले विषम्॥१७६॥
भोजयेत्तदुदरिणं प्रविचार्य भिषग्वरः।
तेनास्य दोषसङ्घातः स्थिरो लीनो विमार्गगः॥१७७॥
विषेणाशु प्रमाथित्वादाशु भिन्नः प्रवर्तते।
विषेण हृतदोषं तं शीताम्बुपरिषेचितम्॥१७८॥
पाययेत भिषग्दुग्धं यवागूं वा यथाबलम्।
त्रिवृन्मण्डूकपर्योश्च शाकं सयववास्तुकम्॥१७९॥
भक्षयेत् कालशाकं वा स्वरसोदकसाधितम्।
निरम्ललवणस्नेहं स्विन्नास्विन्न मनन्नभुक्॥१८०॥
मासमेकं ततश्चैव तृषितः स्वरसं पिवेत्।
एवं विनिर्हृते दोषे शाकैर्मासात् परं ततः॥१८१॥
दुर्बलाय प्रयुञ्जीत प्राणभृत्कारभं पयः।
इदं तु शल्यहर्तॄणां कर्म स्यादृष्टकर्मणाम्॥१४२॥
वामं कुक्षिं मापयित्वा नाभ्यधश्चतुरङ्गुलम्।
मात्रायुक्तेन शस्त्रेण पाटयेन्मतिमान् भिषक्॥१८३॥
विपाट्यान्त्रं ततः पश्चाद्वीक्ष्य बद्धक्षतान्त्रयोः।
सर्पिषाऽभ्यज्य केशादीनवमृज्य विमोक्षयेत्॥१८४॥
मूर्छनाद्यच्च संमूढमन्त्रं तच्चावमोक्षयेत्।
छिद्राण्यन्त्रस्य तु स्थूलैर्दंशयित्वा पिपीलिकैः॥१८५॥
बहुशः संगृहीतानि ज्ञात्वा छित्वा पिपीलिकान्।
प्रतियोगैः प्रवेश्यान्त्रंप् प्रेयैः सीव्येद्व्रणं ततः॥१८६॥
तथा जातोदकं सर्वमुदरं व्यधयेद्भिषक्।
वामपापार्श्वै1810त्वधो नाभेर्नाडीं दत्वा च गालयेत्॥१८७॥
निःस्राव्य च विमृज्यैतद्वेष्टयेद्वाससोदरम्।
तथा बस्तिविरेकार्द्यैर्म्लानं सर्वं च वेष्ठयेत्॥१८८॥
निःस्रुते लङ्घितः पेयामस्नेहलवणां पिबेत् ।
अतः परं च षण्मासान् क्षीरवृत्तिर्भवेन्नरः॥१८९॥
त्रीन् मासान् पयसा पेयां पिबेन्त्रींश्चापि भोजयेत्।
श्यामाकं कोरदूषं वा पयसाऽलवणं लघु॥१९०॥
नरः संवत्सरेणैवं जयेत् प्राप्तं जलोदरम्।
प्रयोगाणां च सर्वेषामनु क्षीरं प्रयोजयेत्॥१९१॥
दोषानुबन्धरक्षार्थं बलस्थैर्यार्थमेव च।
प्रयोगापचिताङ्गानां हितं ह्युदरिणां पयः।
सर्वधातुक्षयार्तानां देवानाममृतं यथा॥१९२॥
तत्र श्लोकौ।
हेतुं प्राग्रूपमष्टानां लिङ्गं व्याससमासतः।
उपद्रवान् गरीयस्त्वं साध्यासाध्यत्वमेव च॥१९३॥
जाताजाताम्बुलिङ्गानि चिकित्सां चोक्तवानृषिः।
समासव्यासनिर्देशैरुदराणां चिकित्सिते॥१९४॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रति संस्कृते उदरचिकित्सितं
नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
__________
चतुर्दशोऽध्यायः।
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अथातोऽर्शसां चिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सुखमासीनमव्यग्रं कृतजाप्यं कृतक्षणम्।
पृष्टवानर्शसां मुक्तिमग्निवेशः पुनर्वसुम्॥३॥
प्रकोपहेतुसंस्थानं स्थानं लिङ्गचिकित्सितम्।
साध्यासाध्यविभागं च तस्मै तन्मुनिरब्रवीत्॥४॥
** इह खल्वग्निवेश! द्विविधान्यर्शांसि सहजानि कानिचित्, कानिचिजातस्योत्तरकालजानि। तत्र बीजं गुदवलिबीजोपतप्तमायतनमर्शसां सहजानाम्। तत्र द्विविधो बीजोपतसौ हेतुर्मातापित्रोर**पचारः पूर्वकृतं च कर्म; तथाऽन्येषामपि सहजानां विकाराणाम्। तत्र सहजानि सह जाता नि शरीरेण, अर्शांसीत्यधिमांसविकाराः॥५॥
सर्वेषां चार्शासां क्षेत्रं—गुदस्यार्धपञ्चमा(ञ्चा)ङ्गुलावकाशे त्रिभागान्तरास्तिस्त्रो गुदवलयः, क्षेत्रमिति देशः; केचित्तु भूयांसमेव देशमुपदिशन्त्यर्शसां—शिश्नमपत्यपथं गलतालुमुखनासिकाकर्णाक्षिवर्त्मानि त्वक् च। तंदस्त्यधिमांसदेशतया1811, गुदवलिजानां त्वर्शांसीति संज्ञा तन्त्रेऽस्मिन्। सर्वेषां चार्शसामधिष्ठानं मेदो मांसं स्वक् च॥६॥
तत्र सहजान्यर्शांसि कानिचिदणूनि कानिचिन्महान्ति कानिचिद्दीर्घाणि कानिचिभ्ह्रस्वानि कानिचिद्वृत्तानि कानिचिद्विषमविसूतानि कानिचिदन्तःकुटिलानि कानिचिद्बहिःकुटिलानि कानिचिज्जटिलानि कानिचिदन्तर्मुखानि यथास्वं दोषानुबन्धवर्णानि॥७॥
तैरुपहतो जन्मप्रभृति भवत्यतिकृशो विवर्णः क्षामो दीनः प्रचुरविबद्धवातमूत्रपुरीषः शार्करी1812 चाश्मरी वा तथाऽनियतविबद्धमुक्तपक्वामशुष्कमिन्नवर्चा अन्तरान्तरा श्वेतपाण्डुहरितपीतरक्तारुणतनुसान्द्रपिच्छिलकुणपगन्धाम-पुरीषोपवेशी नाभिबस्तिवंक्षणोद्देशे प्रचुरपरिकर्तिकान्वितः सशूलगुदप्रवाहिकाध्मानपरिहर्षप्रमेहप्रसक्तविष्टम्भाटोपान्त्रकूजोदावर्तहृदयेन्द्रियोपलेपः प्रचुरविबद्धतिक्ताम्लोद्गारः सुदुर्बलः सुदुर्बलाग्निरल्पशुक्रः क्रोधनो दुःखोपचारशीलः कासश्वासतमकतृष्णाहृल्लासच्छर्ध्यरोचकाविपाकपीनसक्षवथुपरीतस्तैमिरिकः शिरःशूली क्षामभिन्नसन्नसक्तजर्जरस्वरः कर्णरोगी सशूलपाणिपादवदनाक्षिकूटः सज्वरः साङ्गमर्दः सर्वपर्वास्थिशूली चान्तरान्तरा पार्श्वकुक्षिबस्तिहृदयपृष्ठत्रिकग्रहोपतप्तः प्रध्यानपरः परमालसश्चेति; जम्मप्रभृत्यस्य गुदुजैरावृतो1813 मार्गोपरोधाद्वायुरपानः प्रत्यारोहन् समानव्यानप्राणोदानानू पित्तश्लेष्माणौ च प्रकोपयति, ते सर्व एवप्रकुपिताः पञ्च वायवः पित्तश्लेष्माणौ चार्शसमभिद्रवन्त एतान् विकारानुपजनयन्ति। इत्युक्तानि सहजान्यर्शांसि॥८॥
अत ऊर्ध्वं जातस्योत्तरकालजान्यर्शांसि व्याख्यास्यामः—गुरुमधुरशीतामिष्यन्दिविदाहिविरुद्धाजीर्णप्रमिताशनासा-त्म्यभोजनाद्गव्यमात्स्यकौक्कुटवाराहमाहिषाजाविकपिशितभक्षणात् कृशशुष्कपूतिमांसपैष्टिकपरमान्नक्षीरदधिमन्दक-तिलगुडविकृतिसेवनाच्चमाषयूषेक्षुरसपिण्याकपिण्डालुकशुष्कशाकशुक्तलशुनकिलाटतक्रपिण्डकबिसमृणालशालू-कक्रौञ्चादनकशेरुकशुङ्गाटकतरुटविरूढनवशूकशमीधान्याममूलकोपयोगाद्गुरुफलशाकरागहरितकमर्दकवसाशिरस्पदपर्युषितपूतिशीतसंकीर्णान्नाभ्यवहरणान्मन्दकातिक्रान्तमद्यपानाड्यापन्नगुरुसलिलपानादतिस्नेहपानादसंशोधना-द्वस्तिकर्मविभ्रमाव्यवायाद्दिवास्वप्नात् सुखशयनासनोपसेवनाच्चोपहताग्नेर्मलोपचयो भवत्यतिमात्रं, तथोत्कटुकविषम-कठिनासनसेवनादुभ्रान्तयानोष्ट्रयानादतिव्यवायाद्वस्तिनेत्रासम्यक्प्रणिधानाद्गुदक्षणनादभीक्षणंशीताम्बुसंस्पर्शाच्चेल-लोष्टतृणादिघर्षणात् प्रततातिनिर्वाहणाद्वातमूत्रपुरीषवेगोदीरणात् समुदीर्णवेगविनिग्रहात् स्त्रीणां चामगर्भभ्रंशाद्गर्भोत्पी-डनाद्बहुविषमप्रसूतिभिश्च प्रकुपितो वायुरपानस्तं मलमुपचितमधोगमासाद्य गुदवलिष्वाधत्ते, ततस्तास्वर्शांसि प्रादुर्भवन्ति॥९॥
सर्षपमसूरमाषमुद्गमकुष्ठकयवकलायपिण्डिटिप्टिकेरकेब्रुकतिन्दुकस्वर्जूरकर्कन्धुकाकणन्तिकाबिम्बीबदरकरीरो-दुम्बरजाम्बवगोस्तनाङ्गुष्ठकशेरुकशृङ्गाटकदक्षशिखिशुकतुण्डजिह्वापद्ममुकुलकर्णिकासंस्थानानि सामान्याद्वातपित्त-कफप्रबलानि॥१०॥
तेषामयं विशेषः—शुष्कम्लानकठिनपरुषरूक्षश्यावानि तीक्ष्णाग्राणि वक्राणि स्फुटितमुखानि विषमविस्तृतानि शूलाक्षेपतोदभेदस्फुरणचिमिचिमासंहर्षपरीतानि स्त्रिग्घोष्णोपशयानि प्रवाहिकाध्मानशिश्नवृषणबस्तिवङ्क्षणहृद्न्रहाङ्ग-मर्दहृदयद्रवप्रबलानि प्रततविबद्धवातमूत्रवर्चांसि कठिनवर्चांस्यूरुकटीपृष्ठत्रिकपार्श्वकुक्षिबस्तिशूलशिरोऽभितापक्षवथू-द्गारप्रतिश्यायकासोदावर्तायामशोषशोथमूर्च्छारोचकमुखवैरस्यतैमिर्थकण्डूनासाकर्णशङ्खशूलस्वरोपघातकराणि श्यावारुणपरुषनखनयनवदनत्वङ्मूत्रपुरीषस्य वातो-ल्बणान्यर्शांसीति विधात्॥११॥
भवतश्चात्र।
कषायकटुतिक्तानि रूक्षशीतलघूनि च।
प्रतिमाल्पाशनं तीक्ष्णमद्यमैथुनसेवनम्॥१२॥
लङ्घनं देशकालौ च शीतौ व्यायामकर्म च।
शोको वातातपस्पर्शो हेतुर्वातार्शसां मतः॥१३॥
मृदुशिथिलसुकुमाराण्यस्पर्शासहानि रक्तपीतनीलकृष्णानि स्वेदोपक्लेदबहुलानि विस्नगन्धीनि तनुपीतरक्तस्त्रावीणि रुधिरवाहीनि दाहकण्डूशूलनिस्तोदपाकवन्ति शिशिरोपशयानि संभिन्नपीतहरितवर्चांसि पीतविस्रगन्धप्रचुरविण्मूत्राणि पिपासाज्वरतमकसंमोहभोजनद्वेषकराणि पीतनखनयनत्वङ्मूपुरीषस्य पित्तोलबणान्यर्शांसीति विद्यात्॥१४॥
भवतश्चात्र।
कट्वम्ललवणक्षारव्यायामाग्न्यातपप्रभाः।
देशकालावशिशिरौ क्रोधो मद्यमसूयनम्॥१५॥
विदाहि तीक्ष्णमुष्णं च सर्वं पानान्नभेषजम्।
पित्तोल्बणानां विज्ञेयः प्रकोपे हेतुरर्शसाम्॥१६॥
तन्नयानि प्रमाणवन्त्युपचितानि श्लक्ष्णानि स्पर्शसहानि स्निग्धश्वेतपाण्डुपिच्छिलानि स्तब्धानि गुरूणि स्तिमितानि सुप्तसुप्तानि स्थिरश्वयथूनि कण्डूबहुलानि बहुप्रततपिञ्जरश्वेतरक्तपिच्छास्त्रावीणि गुरुपिच्छिलश्वेतमूत्रपुरीषाणि रूक्षोष्णोपशयानि प्रवाहिकातिमात्रोत्थानवङ्क्षणानाहवन्ति परिकर्तिकाहृल्लासनिष्ठीविकाकासारोचकप्रतिश्यायगौरव-च्छर्दिमूत्रकृच्छ्रशोषशोथपाण्डुरोगशीतज्वरमरीशर्कराहृदयेन्द्रियास्योपलेपास्यमाधुर्यप्रमेहकराणि दीर्घकालानुबन्धीन्य-तिमात्रमग्निमार्दवक्लैब्यकराण्यामविकारप्रबलानि शुक्लनखनयनवदनत्वङ्मूत्रपुरीषस्य श्लेष्मोल्बणान्यर्शांसीति विद्यात्॥१७॥
भवन्ति चात्र।
मधुरस्निग्धशीतानि लवणाम्लगुरूणि च।
अव्यायामो दिवास्वप्नः शय्यासनसुखे रतिः॥१८॥
प्राग्वातसेवा शीतौ च देशकालावचिन्तनम्।
श्लेष्मिकाणां समुद्दिष्टमेतत् कारणमर्शसाम्॥१९॥
हेतुलक्षणसंसर्गाद्विद्याहून्द्वोल्बणानि च।
सर्वो हेतुस्रत्रिदोषाणां सहजैर्लक्षणं समम्॥२०॥
विष्टम्भोऽन्नस्य दौर्बल्यं कुक्षेराटोप एव च।
कार्श्यंमुद्गारबाहुल्यं सक्थिसादोऽल्पविट्कता॥२१॥
ग्रहणीदोषपाण्ड्चर्तेराशङ्का चोदरस्य च।
पूर्वरूपाणि निर्दिष्टान्यर्शसामभिवृद्धये॥२२॥
अर्शांसि खलु जायन्ते नासन्निपतितैस्निभि ।
दोषैर्दोषविशेषात्तु विशेषः कल्प्यतेऽर्शसाम्॥२३ ॥
पञ्चात्मा मारुतः पित्तं कफो गुदवलित्रयम्।
सर्व एव प्रकुप्यन्ति गुदजानां समुद्भवे॥२४॥
तस्मादर्शांसि दुःखानि बहुव्याधिकराणि च।
सर्वदेहोपतापीनि प्रायः कृच्छ्रतमानि च॥२५॥
हस्ते पादे मुखे नाभ्यां गुदे वृषणयोस्तथा।
शोथो हृत्पार्श्वशूलं च यस्यासाध्योऽर्शसो हि सः॥२६॥
हृत्पार्श्वशूलं संमोहश्छर्दिरङ्गस्य रुग्ज्वरः।
तृष्णा गुदस्य पाकश्च निहन्युर्गुदजातुरम्॥२७॥
सहजानि त्रिदोषाणि यानि चाभ्यन्तरां वलिम्।
जायन्तेऽर्शांसि संश्रित्य तान्यसाध्यानि निर्दिशेत्॥२८॥
शेषत्वादायुषस्तानि चतुष्पादसमन्विते।
याभ्यन्ते दीप्तकायाप्नेः प्रत्याख्येयान्यतोऽन्यथा॥२९॥
द्वन्द्वजानि द्वितीयायां चलौ यान्याश्रितानि च।
कृच्छ्रसाध्यानि तान्याहुः परिसंवत्सराणि च॥३०॥
बाह्यायां तु वलौ जातान्येकदोषोल्बणानि च।
अर्शांसि सुखसाध्यानि न चिरोत्पतितानि च॥३१॥
तेषां प्रशमने यत्नमाशु कुर्याद्विचक्षणः।
तान्याशु हि गुदं बद्ध्वाकुर्युर्बद्धगुदोदरम्॥३२॥
तत्राहुरेके शस्त्रेण कर्तनं हितमर्शसाम्।
दाहं क्षारेण चाप्येके दाहमेके तथाऽग्निना॥३३॥
अस्त्येतद्भरितन्त्रेण धीमता दृष्टकर्मणा।
क्रियते त्रिविधं कर्म भ्रंशस्तस्य1814 सुदारुणः॥३४॥
पुंस्त्वोपघातः श्वयथुर्गुदे वेगविनिग्रहः।
आध्मानं दारुणं शूलं व्यथा रक्तातिवर्तनम्॥३५॥
पुनर्विरोहो रूढानां क्लेदो भ्रंशो गुदस्य वा।
मरणं वा भवेच्छीघ्रं शस्त्रक्षाराग्निविभ्रमात्॥३६॥
यत्तु कर्म सुखोपायमल्पभ्रंशमदारुणम्।
तदर्शसां प्रवक्ष्यामि समूलानां निवृत्तये॥३७॥
वातश्लेष्मोल्बणान्याहुः शुष्काण्यर्शांसि तद्विदः।
प्रस्त्रावीणि तथाऽऽद्राणि रक्तपित्तोल्बणानि च॥३८॥
तत्र शुष्काशंसां पूर्वं प्रवक्ष्यामि चिकित्सितम्।
स्तब्धानि स्वेदयेत् पूर्वं शोफशूलान्वितानि च॥३९॥
चित्रकक्षारबिल्वानां तैलेनाभ्यज्य स्वेदयेत्।
यवमाषपुलाकानां1815 कुलत्थानां च पोट्टलैः॥४०॥
गोखराश्वशकृत्पिण्डैस्तिलकल्कैस्तुषैस्तथा।
वचाशताह्वापिण्डैर्वा सुखोष्णैः स्नेहसंयुतैः॥४१॥
शक्तूनां पिण्डिकाभिर्वा स्रिग्धानां तैलसर्पिषा।
शुष्क मूलकपिण्डैर्वा पिण्डैर्वा कार्ष्णगन्धिकैः॥४२॥
रास्नापिण्डैः सुखोष्णैर्वा सस्नेहैर्हापुषैरपि।
इष्टकस्य खराह्वायाः शाकैर्गृञ्जनकस्य वा॥४३॥
अभ्यज्य कुष्ठतैलेन स्वेदयेत् पोट्टलीकृतैः।
वृषार्कैरण्डबिल्वानां पत्रोत्क्वाथैश्च सेचयेत्॥४४॥
मूलकत्रिफलार्काणां वेणूनां वरुणस्य च।
अग्निमन्थस्य शिग्रोश्च पन्नाण्यश्मन्तकस्य च॥४५॥
जलेनोत्क्वाथ्य शूलार्तं स्वभ्यक्तमवगाहयेत्।
कोलोस्क्वाथेऽथवा कोष्णे सौवीरकतुषोदके॥४६॥
बिल्वोत्क्काथेऽथवा तक्रे दधिमण्डाम्लकाञ्जिके।
गोमूत्रे वा सुखोष्णे तं शूलार्तमुपवेशयेत्1816॥४७॥
कृष्णसर्पवराहोष्ट्रजतुकावृषदंशजाम्।
वसामभ्यञ्जने दयाध्दूपनं चार्शसां हितम्॥४८॥
नृकेशाः सर्पनिर्मोको वृषदंशस्य चर्म च।
अर्कमूलं शमीपत्रमर्शोभ्यो धूपनं हितम्॥४९॥
तुम्बुरूणि विडङ्गानि देवदार्वक्षता घृतम्।
बृहती चाश्वगन्धा च पिप्पल्यः सुरसा घृतम्॥५०॥
वराहवृषविट् चैव धूपर्न सक्तवो घृतम्।
कुञ्जरस्य पुरीषं च घृतं सर्जरसस्तथा॥५१॥
हरिद्राचूर्णसंयुक्तं सुधाक्षीरं प्रलेपनम्।
गोपित्तपिष्टाः पिप्पल्यः सहरिद्राः प्रलेपनम्॥५२॥
शिरीषबीजं कुष्ठं च पिप्पल्यः सैन्धवं गुडः।
अर्कक्षीरं सुधाक्षीरं त्रिफला च प्रलेपनम्॥५३॥
पिप्पल्यश्चित्रकः श्यामा किण्वं मदनतण्डुलाः।
प्रलेपः कुक्कुटशकृद्धरिद्रागुडसंयुतः॥५४॥
दन्तीश्यामाऽमृतासङ्गः पारावतशकृद्गुडः।
प्रलेपः स्याद्ग जास्थीनि निम्बो भल्लातकानि च॥५५॥
प्रलेपः स्यादलं कोष्णं वासन्तकवसायुतम्।
शूलश्वयथुहृद्युक्तं चुलूकीवसयाऽथवा॥५६॥
आर्कं पयः1817 सुधाकाण्डं कटुकालाबुपल्लवाः।
करञ्जो बस्तमूत्रं च लेपनं श्रेष्ठमर्शसाम्॥५७॥
अभ्यङ्गाद्याः प्रदेहान्ता य एते परिकीर्तिताः।
स्तम्भश्वयथुकण्ड्वर्तिशमनास्तेऽर्शसां मताः॥५८॥
प्रदेहान्तैरुपक्रान्तान्यर्शांसि प्रस्नवन्ति हि।
संचितं दुष्टरुधिरं ततः संपद्यते सुखम्1818॥५९॥
शीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षैर्हि न व्याधिरुपशाम्यति।
रक्के दुष्टे भिषक् तस्माद्रक्तमेवावसेचयेत्॥६०॥
जलौकाभिस्तथा शस्त्रैः सूचीभिर्वा पुनः पुनः।
अवर्तमानं रुधिरं रक्तार्शोभ्यः प्रवाहयेत्॥६१॥
गुदश्वयथुशूलार्तं मन्दानिं पाययेत्तु तम्।
त्र्यूषणं पिप्पलीमूलं पाठां हिङ्गु सचित्रकम्॥६२॥
सौवर्चलं पुष्कराख्यमजाजीं बिल्वपेशिकाम्।
बिडं यवानीं हपुषां विडङ्गं सैन्धवं वचाम्॥६३॥
तिन्तिडीकं च मण्डेन मद्येनोष्णोदकेन च।
तथाऽर्शोग्रहणीदोषशूलानाहाद्विमुच्यते॥६४॥
पाचनं पाययेद्वा तं यद्वक्ष्याम्यतिसारिणे।
सगुडामभयां वाऽथ प्राशयेत् पौर्वभक्तिकीम्॥६५॥
पाययेद्वा त्रिवृच्चूर्ण त्रिफलारससंयुतम्।
हृते गुदाश्रये दोषे गच्छन्त्यर्शांसि संक्षयम्॥६६॥
गोमूत्राध्युषितां दद्यात् सगुडां वा हरीतकीम्।
हरीतकीं तक्रयुतां त्रिफलां वा प्रयोजयेत्॥६७॥
सनागरं चित्रकं वा सीधुयुक्तं प्रयोजयेत्।
दापयेच्चव्ययुक्तं वा सीधुं साजाजीचित्रकम्॥६८॥
सुरां सहपुषापाठां दद्यात् सौवर्चलान्विताम्।
दधित्थं विल्वसंयुक्तं युक्तं वा चव्यचित्रकम्1819॥६९॥
भल्लातकयुतं वाऽथ प्रदद्यात्तक्रतर्पणम्।
बिल्वनागरयुक्तं वा यवान्या चित्रकेण च॥७०॥
चित्रकं हपुषां हिङ्गुं दद्याद्वा तक्रसंयुतम्।
पञ्चकोलयुतं वाऽपि तक्रमस्मै प्रदापयेत्॥७१॥
हपुषा कुचिका धान्यमजाजी कारवी शटी।
पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली॥७२॥
यमानी चाजमोदा च तच्चूर्णं तक्रसंयुतम्।
मन्दाम्लकटुकं विद्वान् स्थापयेद्धृतभाजने॥७३॥
व्यक्ताम्लकटुकं जातं तक्रारिष्टं मुखप्रियम्।
प्रपिबेन्मात्रया कालेष्वन्नस्य तृषितस्त्रिषु॥७४॥
दीपनं रोचनं वर्ण्यं कफवातानुलोमनम्।
गुदश्वयधुकण्ड्वर्तिनाशनं बलवर्धनम्॥७५॥
** इति तक्रारिष्टः**
त्वचं चित्रकमूलस्य पिष्ट्वा कुम्भं प्रलेपयेत्।
तक्रं वा दुधि वा तत्र जातमर्शोहरं पिबेत्॥७६॥
वात श्लेष्मार्शसां तक्रात् परं नास्तीह भेषजम्।
तत् प्रयोज्यं यथादोषं सस्नेहं रूक्षमेव वा॥७७॥
सप्ताहं वा दशाहं वा पक्षं मासमथापि वा।
बलकालविशेषज्ञो भिषक् तक्रं प्रयोजयेत्॥७८॥
अत्यर्थमृदुकायाग्नेस्तक्रमेवावचारयेत्।
सायं वा लाजशक्तूनां दद्यात्तक्रावलेहिकाम्॥
जीर्णे तक्रे प्रदद्याद्वा तक्रपेयां ससैन्धवाम्॥७९॥
तक्रानुपानं सस्नेहं तक्रौदनमतः परम्।
यूषैर्मांसरसैर्वाऽपि भोजयेत्तक्रसंयुतैः॥८०॥
कालक्रमज्ञः सहसा न च तक्रं निवर्तयेत्।
तक्रप्रयोगो मासान्तः क्रमेणोपरमो हितः॥८१॥
अपकर्षो यथोत्कर्षो न त्वन्नादपकृष्यते।
शक्त्यागमनरक्षार्थं दार्ढ्यार्थमनलस्य च॥४२॥
बलोपचयवर्णार्थमेष निर्दिश्यते क्रमः।
रूक्षमर्धोद्धृतस्नेहं यतश्चानुद्धृतं घृतम्॥८३॥
तक्रं दोषाग्निबलविस्त्रिविधं तत् प्रयोजयेत्।
हतानि1820 न विरोहन्ति तक्रेण गुदजानि तु॥८४॥
भूमावपि निषिक्तं तद्वहेत्तक्रं तृणोलुपम्।
किं पुनर्दीप्तकायाग्नेः शुष्काण्यर्शांसि देहिनः॥८५॥
स्रोतःसु तक्रशुद्धेषु रसः सम्यगुपैति यः।
तेन पुष्टिर्बलं वर्णः प्रहर्षश्योपजायते॥८६॥
वातश्लेष्म विकाराणां शतं चापि निवर्तते।
नास्ति तक्रात् परं किंचिदौषधं कफवातजे॥८७॥
पिप्पलीं पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्पलीम्।
शृङ्गवेरमजाजीं च कारवीं धान्यतुम्बुरु॥८८॥
बिल्वं कर्कटकं पाठां पिष्ट्वा पेयां विपाचयेत्।
फलाम्लां यमकैर्भृष्टां तां दद्याद्रुदजापहाम्॥८९॥
एतैरेव खडान् कुर्यादेतैश्च विपचेज्जलम्।
एतैश्चैव घृतं साध्यमर्शसां विनिवृत्तये॥९०॥
शटीपलाशसिद्धां वा पिप्पल्या नागरेण का।
दद्याद्यवागूं तक्राम्लां मरिचैरवचूर्णिताम्॥९१॥
शुष्कमूलकयूषं वा यूषं कौलत्थमेव वा।
दधित्थ बिल्वयूषं वा सकुलत्थमकुष्ठकम्॥९२॥
छागलं वा रसं दद्याध्द्यूषैरेतैर्विमिश्रितम्।1821
लावादीनां फलाम्लं वा सतक्रं ग्राहिभिर्युतम्॥९३॥
रक्तशालिर्महाशालिः कलमो लाङ्गुलः सितः।
शारदः षष्टिकश्चैव स्यादन्नविधिरर्शसाम्॥९४॥
इत्युक्तो भिन्नशकृतामर्शसां च क्रियाक्रमः।
येऽत्यर्थं गाढशकृतस्तेषां वक्ष्यामि भेषजम्॥९५॥
सस्नेहैः शक्तुभिर्युक्तां प्रसन्नां लवणीकृताम्।
दद्यान्मत्स्यण्डिकां पूर्वं भक्षयित्वा सनागराम्॥९६॥
गुडं सनागरं पाठां फलाम्लं पाययेच्च तम्।
गुडं घृतं यवक्षारं युक्तं वाऽपि प्रयोजयेत्॥९७॥
यवानीं नागरं पाठां दाढिमस्य रसं गुडम्।
सतक्रलवणं दद्याद्वातवर्चोऽनुलोमनम्॥९८॥
दुःस्पर्शकेन बिल्वेन यवान्या नागरेण च।
एकैकेनापि संयुक्ता पाठा हन्त्यर्शसां रुजम्॥९९॥
प्रागुक्तान् यमके भ्रष्टान् सक्तुभिश्चावचूर्णितान्।
करञ्जपल्लवान् दद्याद्वातवर्चोऽनुलोमनान्॥१००॥
मदिरां वा सलवणां सीधुं सौवीरकं तथा।
गुडनागरसंयुक्तं पिबेद्वा पौर्वभक्तिकम्1822॥१०१॥
पिप्पलीनागरक्षारकारवीधान्यजीरकैः।
फाणितेन च संयोज्य फलाम्लं दापयेद्धृतम् ॥१०२॥
पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली।
शृङ्गवेरं यवक्षारं तैः सिद्धं पाययेद्धृतम्॥१०३॥
चव्यचित्रकसिद्धं वा गुडक्षारसमन्वितम्।
पिप्पलीमूलसिद्धं वा सगुडक्षारनागरम्1823॥१०४॥
पिप्पली पिप्पली मूलदधिदाडिमधान्यकैः1824।
सिद्धं सर्पिर्विधातव्यं वातवर्चोविबन्धनुत्॥१०५॥
चव्यं त्रिकटुकं पाठां क्षारं कुस्तुम्बुरूणि च।
यवानीं पिप्पलीमूलमुभे च विडसैन्धवे॥१०६॥
चित्रकं बिल्वमभयां पिष्ट्वा सर्पिर्विपाचयेत्।
शकृद्वातानुलोम्यार्थं जाते दध्नि चतुर्गुणे॥१०७॥
प्रवाहिकां गुदभ्रंशं मूत्रकृच्छं परिस्रवम्।
गुदवङ्क्षणशूलं च घृतमेतध्व्यपोहति॥१०८॥
नागरं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली।
श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका॥१०९॥
चाङ्गेरीस्वरसे सर्पिः कल्कैरेतैर्विपाचयेत्।
चतुर्गुणेन दध्ना च तध्दृतं कफवातनुत्॥११०॥
अर्शांसि ग्रहणीदोषं मूत्रकृच्छ्रं प्रवाहिकाम्।
गुदभ्रंशार्तिमानाहं घृतमेतद्व्यपोहति॥१११॥
इति नागरादिघृतम्।
पिप्पलीं नागरं पाठां श्वदंष्ट्रां च पृथक् पृथक्।
भागांस्त्रिपलिकान् कृत्वा कषायमुपकल्पयेत्॥११२॥
गण्डीरं पिप्पलीमूलं व्योषं चव्यं च चित्रकम्।
पिष्ट्वा कषाये विनयेत् पूते द्विपलिकं1825 पृथक्॥११३॥
पलानि सर्पिषस्तस्मिंश्चत्वारिंशत् प्रदापयेत्।
चाङ्गेरीस्वरसं तुल्यं सर्पिषा दधि षड्गुणम्॥११४॥
मृद्वग्निना ततः1826 साध्यं सिद्धं सर्पिर्निधापयेत्।
तदाहारे विधातव्यं1827 पाने प्रायोगिके विधौ॥११५॥
ग्रहण्यर्शोविकारघ्नं गुल्महृद्रोगनाशनम्।
शोथप्लीहोदरानाहमूत्रकृच्छ्रज्वरापहम्॥११६॥
कासहिक्कारुचिश्वाससूदनं पार्श्वशूलनुत्।
बलपुष्टिकरं वर्ण्यमग्निसंदीपनं परम्॥११७॥
इति पिप्पल्याद्यं घृतम्।
सगुडां पिप्पलीयुक्तां घृतभृष्टां हरीतकीम्।
त्रिवृद्दन्तीयुतां वाऽपि भक्षयेदानुलोमिनीम्॥११८॥
विड्वातकफपित्तानामानुलोम्येऽथ1828 निर्वृते।
गुदेऽर्शांसि प्रशाम्यन्ति पावकश्चाभिवर्धते॥११९॥
बर्हितित्तिरिलावानां रसानम्लान् सुसंस्कृतान्।
दक्षाणां वर्तकानां च दद्याद्विड्वातसंग्रहे॥१२०॥
त्रिवृद्दन्तीपलाशानां चाङ्गेर्याश्चित्रकस्य च।
सुभृष्टं1829 यमके दुद्याच्छाकं दधिसमन्वितम्॥१२१॥
उपोदिकां तण्डुलीयं1830 वीरां वास्तुकपल्लवान्।
सुवर्चलां सलोणीकां यवशाकमवल्गुजम्॥१२२॥
काकमार्चीं1831 रुहापत्रं महापत्रीं तथाऽम्लिकाम्।
जीवन्तीं शटिशाकं च शाकं गृञ्जनकस्य च॥१२३॥
दधिदाडिमसिद्धानि यमके भर्जितानि च।
धान्यनागरयुक्तानि शाकान्येतानि दापयेत्॥१२४॥
गोधालोपाकमार्जारश्वाविदुष्ट्रगवामपि।
कूर्मशल्लकयोश्चैव साधयेच्छाकवद्रसानू॥१२५॥
रक्तशाल्योदनं दद्याद्रसैस्तैर्वातशान्तये।
ज्ञात्वा वातोल्बणं रूक्षं मन्दाग्निं गुदजातुरम्॥१२६॥
मदिरां शार्करं जातं1832 शीधुं तक्रं तुषोदकम्।
अरिष्टं दधिमण्डं वा शृतं वा शिशिरं जलम्॥१२७॥
कण्टकार्या शृतं वाऽपि शृतं नागरधान्यकैः।
अनुपानं भिषग्दद्याद्वातवर्चोऽनुलोमनम्॥१२८॥
उदावर्तपरीता ये ये चात्यर्थं विरूक्षिताः।
विलोमवाताः शूलार्तास्तेष्विष्टमनुवासनम्॥१२९॥
पिप्पलीं मदनं बिल्वं शताह्वां मधुकं वचाम्।
कुष्टं शटीं पुष्कराख्यं चित्रकं देवदारु च॥१३०॥
पिष्ट्वा तैलं विपक्तव्यं पयसा द्विगुणेन च ।
अर्शसां मूढवातानां तच्छ्रेष्ठमनुवासनम्॥१३१॥
गुदनिःसरणं शूलं मूत्रकृच्छ्रं प्रवाहिकाम् \।
कट्यूरुपृष्ठदौर्बल्यमानाहं वङ्क्षणाश्रयम्॥१३२॥
पिच्छास्रावं गुदे शोफं वातवर्चोविनिग्रहम् \।
उत्थानं बहुशो यच्च जयेत्तच्चानुवासनात्॥१३३॥
आनुवासनिकैः पिष्टैः सुखोष्णैः स्नेहसंयुतैः।
दर्व्या1833 तैरौषधैर्देह्याः स्तब्धाः शूना गुदेरुहाः॥१३४॥
दिग्धास्तैः प्रस्रवन्त्याशु श्लेष्मपिच्छां सशोणिताम्।
कण्डूः स्तम्भः सरुक् शोफः स्रुतानां विनिवर्तते॥१३५॥
निरूहं वा प्रयुञ्जीत सक्षीरं दाशमूलिकम्।
समूत्रस्नेहलवणं1834 कल्कैर्युक्तं फलादिभिः॥१३६॥
हरीतकीनां प्रस्थार्धं प्रस्थमामलकस्य च।
स्यात् कपित्थाद्दशपलं ततोऽर्धा1835 चेन्द्रवारुणी॥१३७॥
विडङ्गं पिप्पली लोध्रं मरिचं सैलवालुकम्।
द्विपलांशं जलस्यैतच्चतुर्द्रोणे विपाचयेत्॥१३८॥
द्रोणशेषे रसे तस्मिन् पूते शीते समावपेत्।
गुडस्य द्विशतं तिष्ठेत्तत् पक्षं घृतभाजने॥१३९॥
पक्षादूर्ध्वं भवेत् पेया ततो मात्रा यथाबलम्।
भस्याभ्यासादरिष्टस्य नश्यन्ति1836 गुदजा द्रुतम्॥१४०॥
ग्रहणीपाण्डुहृद्रोगप्लीहगुल्मोदरापहः।
कुष्ठशोफारुचिहरो बलवर्णाग्निवर्धनः॥१४१॥
सिद्धोऽयमभयारिष्टः कामलाश्वित्रनाशनः।
कृमिग्रन्थ्यर्बुदव्यङ्गराजयक्ष्मज्वरान्तकृत्॥१४२॥
इत्यभयारिष्टः।
दन्तीचित्रकमूलानामुभयोः पञ्चमूलयोः।
भागान् पलांशानापोथ्य जलद्रोणे विपाचयेत्॥१४३॥
त्रिपलं त्रिफलायाश्च दलानां तन्त्र दापयेत्।
रसे चतुर्थशेषे तु पूते शीते समावपेत्॥१४४॥
तुलां गुडस्य तत्तिष्ठेन्मासार्धं घृतभाजने।
तन्मात्रया पिबेन्नित्यमर्शोभ्यो विप्रमुच्यते॥१४५॥
ग्रहणीपाण्डुरोगघ्नं वातवर्चोनुलोमनम्।
दीपनं चारुचिघ्नं च दन्त्यरिष्टमिमं विदुः॥१४६॥
इति दन्त्यरिष्टः।
हरीतकीफलप्रस्थं1837 प्रस्थमामलकस्य च।
विशालाया दघित्थस्य पाठाचित्रकमूलयोः॥१४७॥
द्वे द्वे पले समापोथ्य द्विद्रोणे साधयेदपाम्।
पादावशेषे पूते च रसे तस्मिन् प्रदापयेत्॥१४८॥
गुडस्यैकां तुलां वैद्यस्तत् स्थाप्यं घृतभाजने।
पक्षस्थितं पिबेदेनं1838 ग्रहण्यर्शोविकारवान्॥१४९॥
हृत्पाण्डुरोगं प्लीहानं कामलां विषमज्वरम्।
वर्चोमूत्रानिलकृतान् विबन्धानग्निमार्दवम्॥१५०॥
कासं गुल्ममुदावर्तं फलारिष्टो व्यपोहति।
अग्निसंदीपनो ह्येष कृष्णात्रेयेण भाषितः॥१५१॥
इति फलारिष्टः।
दुरालभायाः प्रस्थः स्याचित्रकस्य वृषस्य च।
पथ्यामलकयोश्चैव पाठाया नागरस्य च॥१५२॥
दन्त्याश्च द्विपलान् भागाञ्जलद्रोणे विपाचयेत्।
पादावशेषे पूते च सुशीते1839 शर्कराशतम्॥१५३॥
दत्त्वा कुम्भे दृढे स्थाप्यं मासार्धं घृतभाविते।
प्रलिप्ते पिप्पलीचव्यप्रियङ्गुक्षौद्रसर्पिषा॥१५४॥
तस्य मात्रां पिबेत् काले शार्करस्य यथाबलम्।
अर्शांसि ग्रहणीदोषमुदावर्तमरोचकम्॥१५५॥
शकृन्मूत्रानिलोद्गारविबन्धानग्निमार्दवम्।
हृद्रोगं पाण्डुरोगं च सर्वमेतेन साधयेत्॥१५६॥
इति शर्करासवः।
नवस्यामलकस्यैकां कुर्याज्जर्जरितां तुलाम्।
कुडवांशाश्च पिप्पल्यो विडङ्गं मरिचं तथा॥१५७॥
पाठां1840 च पिप्पलीमूलं क्रमुकं चव्यचित्रकौ।
मञ्जिष्ठा वालुकं1841 लोध्रं पलिकानुपकल्पयेत्॥१५८॥
कुष्ठं दारुहरिद्रां च सुराह्वं सारिवाद्वयम्।
इन्द्राह्वं भद्रमुस्तं च कुर्यादर्धपलोन्मितम्॥१५९॥
चत्वारि नागपुष्पस्य पलान्यभिनवस्य च।
द्रोणाभ्यामम्भसो द्वाभ्यां साधयित्वाऽवतारयेत्॥१६०॥
द्रोणावशेषे1842 पूते च शीते तस्मिन् समावपेत्।
मृद्वीकाव्ध्याढकरसं शीतं निर्यूहसंमितम्॥१६१॥
शर्करायाश्च भिन्नाया दद्याद्विगुणितां तुलाम्।
कुसुमस्य रसस्यैकमर्धप्रस्थं नवस्य च॥१६२॥
त्वगेलाप्लवपत्राम्बुसेव्यक्रमुककेशरान्।
चूर्णयित्वा तु मतिमान् कार्षिकानत्र दापयेत्॥१६३॥
तत् सर्वं स्थापयेत् पक्षं सुचौक्षे घृतभाजने।
प्रलिप्ते सर्पिषा किंचिच्छर्करागुरुधूपिते॥१६४॥
पक्षादूर्ध्वमरिष्टोऽयं कनको नाम विश्रुतः।
पेयः स्वादुरसो हृद्यः प्रयोगाद्भक्तरोचनः॥१६५॥
अर्शांसि ग्रहणीदोषमानाहमुदरं ज्वरम्।
हृद्रोगं पाण्डुतां शोषं गुल्मं वर्चोविनिग्रहम्॥१६६॥
कासं श्लेष्मामयांश्चोग्रान् सर्वांनेवापकर्षति।
वलीपलितखालित्यं दोषजं च व्यपोहति॥१६७॥
इति कनकारिष्टः।
पत्रभङ्गोदकैः शौचं कुर्यादुष्णेन चाम्भसा।
इति शुष्कार्शसां सिद्धमुक्तमेतच्चिकित्सितम्॥१६८॥
चिकित्सितमतः सिद्धं स्राविणां संप्रचक्ष्महे।
तत्रानुबन्धो द्विविधः श्लेष्मणो मारुतस्य च॥१६९॥
विट् श्यावं कठिनं रूक्षं चाधो वायुर्न वर्तते।
तनु चारुणवर्णं च फेनिलं चासृगर्शसाम्॥१७०॥
कठ्यूरुगुदशूलं च दौर्बल्यं यदि चाधिकम्।
तत्रानुबन्धो वातस्य हेतुर्यदि च रूक्षणम्॥१७१॥
शिथिलं श्वेतपीतं च विट् स्निग्धं गुरु शीतलम्।
यद्यर्शसां घनं चासृक् तन्तुमत् पाण्डु पिच्छिलम्॥१७२॥
गुदं सपिच्छं स्तिमितं गुरु स्निग्धं च कारणम्।
श्लेष्मानुबन्धो विज्ञेयस्तत्र रक्तार्शसां बुधैः॥१७३॥
स्निग्धशीतं हितं वाते रूक्षशीतं कफानुगे।
चिकित्सितमिदं तस्मात् संप्रधार्य प्रयोजयेत्॥१७४॥
पित्तश्लेष्माधिकं मत्वा शोधनेनोपपादयेत्।
स्रवणं चाप्युपेक्षेत लङ्घनैर्वा समाचरेत्॥१७५॥
प्रवृत्तमादावर्शोभ्यो यो निगृह्णात्यबुद्धिमान्।
शोणितं दोषमलिनं तद्रोगाञ्जनयेद्वहून्॥१७६॥
रक्तपित्तं ज्वरं तृष्णामग्निनाशमरोचकम्।
कामलां श्वयथुं शूलं गुदवङ्क्षणसंश्रयम्॥१७७॥
कण्ड्वरुःकोठपिडकाः कुष्ठं पाण्ड्वामयं मदम्।
वातमूत्रपुरीषाणां विबन्धं शिरसो रुजम्॥१७८॥
स्तैमित्यं गुरुगात्रत्वं तथाऽन्यान् रक्तजान् गदान्।
तस्मात् स्रुते दुष्टरक्ते रक्तसंग्रहणं मतम्॥१७९॥
हेतुलक्षणकालज्ञो बलशोणितवर्णवित्।
कालं तावदुपेक्षेत यावन्नात्ययमाप्नुयात्॥१८०॥
अग्निसंदीपनार्थं च रक्तसंग्रहणाय च।
दोषाणां पाचनार्थं च परं तिक्तैरुपाचरेत्॥१८१॥
यत्तु प्रक्षीणदोषस्य रक्तं वातोल्बणस्य च।
वर्तते स्नेहसाध्यं तत् पानाभ्यङ्गानुवासनैः॥१८२॥
यत्तु पित्तोल्बणं रक्तं घर्मकाले प्रवर्तते।
स्तम्भनीयं तदेकान्तान्न चेद्वातकफानुगम्॥१८३॥
कुटजत्वङ निर्यूहः सनागरः स्त्रिग्धरक्तसंग्रहणः।
त्वग्दाडिमस्य तद्वत् सनागरश्चन्दनस्य रसः॥१८४॥
चन्दनकिराततिक्तकधन्वयवासाः सनागराः क्वथिताः।
रक्तार्शांसां प्रशमना दार्वीत्वगुशीरनिम्बाश्च॥१८५॥
सातिविषा कुटजत्वक् फलं च सरसाञ्जनं मधुयुतानि।
रक्तापहानि दद्यात् पिपासवे तण्डुलजलेन॥१८६॥
कुटजत्वचो विपाच्यं पलशतमार्द्रं महेन्द्रसलिलेन।
यावत्1843 स्याद्गतरसं तद्रव्यं पूतो रसस्ततो ग्राह्यः॥१८७॥
मोचरसः ससमङ्गः फलिनी च पलांश्निकैस्त्रिभिस्तैश्च।
वत्सकबीजं तुल्यं चूर्णीकृतमत्र दातव्यम्॥ १८८॥
पूतोत्क्काथितः सान्द्रः स रसो दुर्वीप्रलेपनो ग्राह्यः।
मात्राकालोपहिता रसक्रियैषा जयव्यसृग्स्रावम्॥१८९॥
छागलिपयसा युक्ता पेयामण्डेन वा यथाग्निबलम्।
जीर्जौषधश्च शालीन् पयसा छागेन भुञ्जीत॥१९०॥
रक्कार्शोस्थतिसारं रक्तं सासुग्रुजो निहन्त्याशु।
बलवच्च रक्तपित्तं रसक्रियैषा जयत्युभयभागम्1844॥१९१॥
इति कुटजादिरसक्रिया।
नीलोत्पलं समङ्गा मोचरसश्चन्दनं तिला लोध्रम्।
पीत्वा छागलिपयसा भोज्यं पयसैव शाल्यन्नम्॥१९२॥
छागलिपयः प्रयुक्तं निहन्ति रक्तं सवास्तुकरसं च।
धन्वविहङ्गमृगाणां रसो निरम्लः कदम्लो वा॥१९३॥
पाठा वत्सकबीजं रसाञ्जनं नागरं यवान्यश्च।
बिल्वमिति चार्शसैश्चूर्णितानि पेयानि शूलेषु॥१९४॥
दार्वी किराततिक्तं मुस्तं दुःस्पर्शकश्च रुधिरनम्।
रक्तेऽतिवर्तमाने झूले च घृतं विधातव्यम्॥१९५॥
कुटजफलवल्ककेशरनीलोत्पललोध्रधातकीकल्कैः।
सिद्धं घृतं विधेयं शूले रक्तार्शं सां भिषजा॥१९६॥
सर्पिः सदाडिमरसं सथावशूकं जयत्याशु।
रक्तं सशूलमथवा निदिग्धिकाधिकासिद्धम्॥१९७॥
लाजापेया पीता सचुक्रिकाकेशरोत्पलैः सिद्धा।
हन्त्याश्वस्त्रक्स्रावं तथा बलापृश्निपर्णीभ्याम्॥१९८॥
ह्रीवेरबिल्वनागरनिर्यूहे साधितां सनवनीताम्।
वृक्षाम्लदाडिमाम्लामम्लीकाम्लां सकोलाम्लाम्॥१९९॥
गृञ्ज नकसुरासिद्धां भृष्टां1845 यमकेन वा पिबेत् पेयाम्।
रक्तातिसारशूलप्रवाहिकाशोथनिग्रहणीम्॥२००॥
काश्मर्यामलकानां सकर्बुदारान् फलाम्लांश्च।
गृञ्जनकशाल्मलीनां क्षीरिण्याश्चुक्रिकायाश्च॥२०१॥
न्यग्रोधशुङ्गकानां खडांस्तथा कोविदारपुष्पाणाम्।
दध्नः सरेण सिद्धान् दद्याद्रक्ते प्रवृत्तेऽति॥२०२॥
सिद्धं पलाण्डुशाकं तक्रेणोपोदिकां सबदराम्लाम्।
रुघिरस्रुतौ प्रदद्यान्मसूरयूषं1846 च तक्राम्लम्॥२०३॥
पयसा श्रृतेन यूषैर्मसूरमुद्गाढकीमकुष्ठानाम्1847।
भोजनमद्यादम्लैः शालिश्यामाककोद्रवजम्॥२०४॥
शशहरिणलावमांसैः कपिञ्जलैणेयकैः सुसिद्धैश्च।
भोजनमद्यादम्लैर्मधुरैरीषत्समरिचैर्वा॥२०५॥
दक्षशिखितित्तिरिरसैर्द्विककुदलोपाकजैश्च मधुराम्लैः।
अद्याद्रसैरतिवहेष्वर्शःस्वनिलोल्बणशरीरः॥२०६॥
रसखडयूषयवागू1848संयोगतः केवलोऽथवा जयति।
रक्तमतिवर्तमानं वातं च पलाण्डुरुपयुक्तः॥२०७॥
छागान्तराधि तरुणं सरुधिरमुपसाधितं बहुपलाण्डु।
व्यत्यासान्मधुराम्लं विट्शोणितसंक्षये देयम्॥२०८॥
नवनीततिलाभ्यासात् केशरनवनीत शर्कराभ्यासात्।
दधिसरमथिताभ्यासादर्शांस्यपयान्ति1849 रक्तानि॥२०९॥
नवनीतघृतं छागं मांसं च सषष्टिकः शालिः।
तरुणश्च सुरामण्डस्तरुणी च सुरा निहन्त्यस्त्रम्॥२१०॥
प्रायेण वातबहुलान्यर्शांसि भवन्त्यतिस्नुते रक्ते।
दुष्टेऽपि च कफपित्ते तस्मादनिलोऽधिको ज्ञेयः॥२११॥
दृष्ट्वा तु रक्तपित्तं प्रबलं कफवातलिङ्गमल्पं च।
शीताः क्रियाः प्रयोज्या यथेरिता वक्ष्यते चान्या॥२१२॥
मधुकं सपञ्चवल्कं बदरीत्वगुदुम्बरं धवपटोलम्।
परिषेचने विदेध्या1850द्वृषककुभयवासनिम्बांश्च॥२१३॥
रक्तेऽतिवर्तमाने दाहे क्लेदेऽवगाह1851येच्चापि।
मधुकमृणालपद्मकचन्दनकुशकाशनिःक्काथे॥२१४॥
इक्षुरसमधुकवेतसनिर्यूहे शीतले पयसि वा तम्।
अवगाहयेत् प्रदिग्धं पूर्वं1852 शिशिरेण तैलेन॥२१५॥
दत्त्वा घृतं सशर्करमुपस्थदेशे गुदे त्रिकदेशे1853 च ।
शिशिरजलस्पर्शसुखा धारा प्रस्तम्भनी योज्या॥२१६॥
कदलीदलैरभिनवैः पुष्करपत्रैश्च शीतजलसिक्तैः।
प्रच्छादनं मुहुर्मुहुरिष्टं पद्मोत्पलदलैश्च॥२१७॥
दूर्वाघृतं प्रदेहः शतधौतसहस्रधौतमपि सर्पिः।
व्यजनपवनः सुशीतो रक्तस्त्रावं जयत्याशु॥२१८॥
समङ्गामधुकाभ्यां तिलमधुकाभ्यां रसाञ्जनघृताभ्याम्।
सर्जरसघृताभ्यां वा निम्बघृताभ्यां मधुघृताभ्यां च॥२१९॥
दार्वीत्वक्सर्पिर्भ्यां सचन्दनाभ्यामथोत्पलघृताभ्याम्।
दाहे क्लेदे च गुदभ्रंशे गुदजाः प्रतिसारणीयाश्च॥२२०॥
अभिः क्रियाभिरथवा शीताभिर्यस्य न तिष्ठति रक्तम्।
तं काले स्निग्धोष्णैर्मांसरसैस्तर्पयेमतिमान्॥२२१॥
अवपीडकसर्पिर्भिः कोष्णैर्घृततैलिकैस्तथाऽभ्यङ्गैः।
क्षीरघुतसैलसेकैः कोष्णैः समुपाचरेदाशु॥२२२॥
कोष्णेन वातप्रबलेघृतमण्डेनानुवासयेच्छीघ्रम्।
पिच्छाषर्स्ति दद्याद्वर्स्ति काले तस्याथवा सिद्धम्॥२२३॥
यवासकुशकाशानां मूलं पुष्पं च शाल्मलम्।
न्यग्रोधोदुम्बराश्वस् शुङ्गाश्च द्विपलोन्मिताः॥२२४॥
त्रिप्रस्थं सलिलस्यैतत् क्षीरप्रस्थं च साधयेत्।
क्षीरशेषं कषायं च पूतं कल्कैर्विमिश्रयेत्॥२२५॥
कल्काः शाल्मलिनिर्याससमङ्गाचन्दनोत्पलम्।
वत्सकस्य च बीजानि प्रियङ्गुः पद्मकेशरम्॥२२६॥
पिच्छाबस्तिरयं सिद्धः सघृतक्षौद्रशर्करः।
प्रवाहिका गुदभ्रंशरक्तस्त्रावज्वरापहः॥२२७॥
इति पिच्छाबस्तिः।
प्रपौण्डरीकं मधुकं पेष्यान् बस्तौ यथेरितान्।
पिष्ट्वाऽनुवासनं स्नेहं क्षीर द्विगुणितं पचेत्॥२२८॥
ह्रीवेरमुत्पलं लोध्रं समङ्गाचव्यचन्दनम्।
पाठा सातिविषा बिल्वं धातकी देवदारु च॥२२९॥
दार्वीत्वङ् नागरं मांसी मुखं क्षारो यवाग्रजः।
चित्रकश्चेति पेष्याणि चाङ्गेरीस्वरसे घृतम्॥२३०॥
ऐकध्यं साधयेत् सर्वं तत् सर्पिः परमौषधम्।
अर्शोतिसारग्रहणीपाण्डुरोगे ज्वरेऽरुचौ॥२३१॥
मूत्रकृच्छ्रे गुदभ्रंशे बस्त्याध्माने प्रवाहणे।
पिच्छास्त्रावेऽर्शसां शूले योज्यमेतन्त्रिदोषनुत्॥२३२॥
इति हीरादिघृतम् ।
अवाक्पुष्पी बला दार्वी पृश्निपर्णी त्रिकण्टकः।
म्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थशुङ्गाश्च द्विपलोन्मिताः॥२३३॥
कषाय एषां पेष्यास्तु जीवन्ती कटुरोहिणी।
पिप्पली पिप्पलीमूलं नागरं1854 सुरदारु च॥२३४॥
कलिङ्गाः शाल्मलं पुष्पं वीरा चन्दनमुत्पलम्1855।
कट्फलं चित्रको मुस्तं प्रियङ्ग्वतिविषास्थिराः॥२३५॥
पद्मोत्पलानां किञ्जल्कः समङ्गा सनिदिग्धिका।
बिल्वं मोचरसः पाठा भागाः कर्षसमन्विताः॥२३६॥
चतुःप्रस्थे शृतं प्रस्थं कषायमवतारयेत्।
त्रिंशत्पलानि प्रस्थोऽत्र विज्ञेयो द्विपलाधिकः ॥ २३७ ॥
सुनिषण्णकचार्याः प्रस्थौऽत्र द्वौ स्वरसस्य च।
सर्वैरेतैर्यथोद्दिष्टैर्घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥२३८॥
एतदर्शःस्वतीसारे रक्तस्रावे त्रिदोषजे।
प्रवाहणे गुदभ्रंशे पिच्छासु विविधासु च॥२३९॥
उत्थाने चातिबहुशः शोथशूले गुदाश्रवे।
मूत्रग्रहे मूढवाते मन्देऽग्नावरुचावपि॥२४०॥
प्रयोज्यं विधिवत् सर्पिर्बलवर्णाग्निवर्धनम्।
विविधेष्वन्नपानेषु केवलं वा निरत्ययम्॥२४१॥
इति सुनिषण्णकचाङ्गेरीघृतम्।
भवन्ति चात्र।
व्यत्यासान्मधुराम्लनि शीतोष्णानि च योजयेत्।
नित्यमग्निबलापेक्षी जयत्यर्शःकृतान् गदान्॥२४२॥
त्रयो विकाराः प्रायेण ये परस्परहेतवः।
अर्शांसि चातिसारश्च ग्रहृणीदोष एव च॥२४३॥
एषामग्निबले हीने वृद्धिवृद्धे परिक्षयः।
तस्मादग्निबलं रक्ष्यमेषु त्रिषु विशेषतः॥२४४॥
भृष्टैः शाकैर्यवागूभियूषैर्मासरसैः खडैः।
क्षीरतक्रप्रयोगैश्च विविधैर्गुदजाञ्जयेत्॥२४५॥
यद्वायोरानुलोम्याय यदग्निबलवृद्धये।
अन्नपानौषधद्रव्यं तत् सेव्यं नित्यमर्शसैः॥२४६॥
यदतो विपरीतं स्यान्निदाने यत् प्रदर्शितम्।
गुदजाभिपरीतेन न तत् सेव्यं कदाचन॥२४७॥
तत्र श्लोकाः।
अर्शसां द्विविधं जन्म पृथगायतनानि च।
स्थानसंस्थानलिङ्गानि साध्यासाध्यत्वनिश्चयः॥२४॥
अभ्यङ्गाः स्वेदनं धूमाः सावगाहाः प्रलेपनाः।
शोणितस्यावसेकश्च योगा दीपनपाचनाः॥२४९॥
पानान्नविधिरग्न्यश्च वातवर्चोऽनुलोमनः।
योगाः संशमनीयाश्च सर्पींषि विविधानि च॥२५०॥
बस्तयस्तक्रयोगाश्च वरारिष्टाः सशर्कराः।
शुष्काणामर्शसां शस्ताः स्राविणां लक्षणानि च॥२५१॥
द्विविधं सानुबन्धानां तेषां चेष्टं यदौषधम्।
रक्तसंग्रहणाः क्काथा पेष्याश्च विविधात्मकाः॥२५२॥
स्नेहाहारविधिश्चाग्न्यो योगाश्च प्रतिसारणाः।
प्रक्षालनावगाहाश्च प्रदेहाः सेचनानि च॥२५३॥
अतिवृत्तस्य रक्तस्य विधातव्यं यदौषधम्।
तत् सर्वमिह निर्दिष्टं गुदजानां चिकित्सिते॥२५४॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते
चिकित्सास्थानेऽर्शश्चिकित्सितं नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
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पञ्चदशोऽध्यायः।
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अथातो ग्रहणीचिकित्सितं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
आयुर्वर्णो बलं स्वास्थ्यमुत्साहोपचयौ प्रभा।
ओजस्तेजोऽग्नयः प्राणाश्चोक्ता देहाग्निहेतुकाः॥३॥
शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरं जीवत्यनामयः।
रोगी स्याद्विकृतेर्मूलमग्निस्तस्मान्निरुच्यते॥४॥
यदन्नं देहधात्वोजोबलवर्णादिपोषकम्।
तत्राग्निर्हेतुराहारान्न ह्यपक्वाद्रसादयः॥५॥
अन्नमादानकर्मा तु प्राणः कोष्ठं प्रकर्षति।
तद्द्र्वैर्भिन्नसंघातं स्नेहेन मृदुतां गतम्॥६॥
समानेनावधूतोऽग्निरुदर्यः पवनेन तु।
काले भुक्तं समं सम्यक् पचत्यायुर्विवृद्धये॥७॥
एवं1856 रसमलायान्नमाशयस्थमधः स्थितः।
पंचत्यग्निर्यथा स्थाल्यामोदनायाम्बुतण्डुलम्॥८॥
अन्नस्य भुक्तमात्रस्य षड्सस्य प्रपाकतः।
मधुरात् प्राकू कफो भावात् फेनीभूत1857 उदीर्यते॥९॥
परं तु पच्यमानस्य विदग्धस्याम्लभावतः।
आशयाञ्व्यवमानस्य पित्तमच्छमुदीर्यते॥१०॥
पक्वाशयं तु प्राप्तस्य शोष्यमाणस्य वह्निना।
परिपिण्डितपक्वस्य वायुः स्यात् कटुभावतः॥११॥
अन्नमिष्टं ह्युपकृतमिष्टैर्गन्धादिभिः पृथक्।
देहे प्रीणाति गन्धादीन् प्राणादीनिन्द्रियाणि च॥१२॥
भौमाप्याग्नेयवायव्याः पञ्चोष्माणः सनाभसाः।
पञ्चाहारगुणान् स्वान् स्वान् पार्थिवादीन् पचन्ति हि॥१३॥
यथास्वं स्वं च पुष्यन्ति देहे द्रव्यगुणाः पृथक्।
पार्थिवाः पार्थिवानेव शेषाः शेषांश्च कृत्स्नशः॥१४॥
सप्तभिर्देहधातारो धातवो द्विविधं पुनः।
यथास्वमग्निभिः पाकं यान्ति किट्टप्रसादवत्1858॥१५॥
रसाद्रक्तं ततो माँसं मांसाम्मेदस्ततोऽस्थि च।
अस्थ्नो मज्जा ततः शुक्रं शुक्राद्गर्भः प्रसादजः1859॥१६॥
रसात् स्तन्यं स्त्रिया1860 रक्तमसृजः कण्डराः सिराः।
मांसाद्वसा त्वचः षट् च मेदसः स्नायुसंधयः॥१७॥
किट्टमन्नस्य विण्मूत्रं रसस्य तु कफोऽसृजः।
पित्तं मांसस्य खमला मलः स्वेदस्तु मेदसः॥१८॥
स्यात् किट्टं केशलोमास्थ्नो मज्ज्ञः स्नेहोऽक्षिविट् त्वचाम्।
प्रसादकिट्टे धातूनां पाकादेवं द्विधर्च्छतः॥१९॥
परस्परोपसंस्तम्भा1861 धातुस्नेहपरम्परा।
वृष्यादीनां प्रभावस्तु पुष्णाति बलमाशु हि॥२०॥
षड्भिः केचिदहोरात्रैरिच्छन्ति परिवर्तनम्।
संतत्या भोज्यधातूनां परिवृत्तिस्तु1862 चक्रवत्॥२१॥
इत्युक्तवन्तमाचार्यं शिष्यस्त्विदमचोदयत्।
रसाद्रक्तं विसदृशात् कथं देहेऽभिजायते॥२२॥
रसस्य च न रागोऽस्ति स कथं याति रक्तताम्।
द्रवाद्रक्तात्1863 स्थिरं मांसं कथं तज्जायते नृणाम्॥२३॥
रसाद्रक्तात्तथा मांसान्मेदसः श्वेतता कथम्।
श्लक्ष्णाभ्यां मांसमेदोभ्यां खरत्वं कथमस्थिषु॥२४॥
खरेष्वस्थिषु मज्जा च केन स्निग्धो मृदुस्तथा।
मज्ज्ञश्च परिणामेन यदि शुक्रं प्रवर्तते॥२५॥
सर्वदेहगतं शुक्रं प्रवदन्ति मनीषिणः।
अथापि मध्ये मज्ज्ञश्च शुक्रं भवति देहिनाम्॥२६॥
छिद्रं न दृश्यतेऽस्थनां च तन्निःसरति नुः1864 कथम्।
एवमुक्तस्तु शिष्येण गुरुः प्राहेदमुत्तरम्॥२७॥
तेजो रसानां सर्वेषां मनुजानां यदुच्यते।
पित्तोष्मणः स रागेण रसो रक्तत्वमृच्छति॥२८॥
(शोणितं स्वाग्निना पक्वं वायुना च घनीकृतम्।
तदेव मांसं जानीयात् स्थिरं भवति देहिनाम्॥)
वाय्ववम्बुतेजसा रक्तमूष्मणा चाभिसंयुतम्।
स्थिरतां प्राप्य मांसं स्यात् स्वोष्मणा पक्वमेच तत्॥२९॥
स्वतेजोऽम्बुगुणस्निग्धोद्रिक्तं मेदोऽभिजायते।
पृथिव्यग्न्यनिलादीनां संघातः श्लेष्मणा वृतः॥३०॥
खरत्वं प्रकरोत्यस्य जायतेऽस्थि ततो नृणाम् ।
करोति तत्र सौषिर्यमस्थ्नां मध्ये समीरणः॥३१॥
मेदसस्तानि पूर्यन्ते स्नेहो मज्जा ततः स्मृतः।
तस्मान्मज्ज्ञस्तु यः स्नेहः शुक्रं संजायते ततः॥३२॥
वाय्वाकाशादिभिर्भावैः सौषिर्यम जायतेऽस्थिषु।
तेन1865 स्त्रवति तच्छुक्रं नवात् कुम्भादिवोदकम्॥३३॥
स्रोतोभिः स्यन्दते देहात् समन्ताच्छुक्रवाहिभिः।
हर्षेणोदीरितं वेगात् सङ्कल्पाञ्च मनोभवात्॥३४॥
(विलीनं घृतवब्ध्यायामोष्मणा स्थानविच्युतम्।)
बस्तौ संभृत्य निर्याति स्थलान्निम्नमिवोदकम्1866॥३५॥
व्यानेन रसधातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा।
युगपत् सर्वतोऽजस्रं देहे विक्षिप्यते सदा॥३६॥
क्षिप्यमाणः ख(स्व)वैगुण्याद्रसः सज्जति यन्न सः।
तस्मिन् विकारान् कुरुते विवर्षमिव तोयदः1867॥३७॥
दोषाणामपि चैवं स्यादेकदेशप्रकोपणम्।
इति भौतिकधात्वचपक्तॄणां कर्म भाषितम्॥३८॥
अन्नस्य पक्ता सर्वेषां पक्तॄणामधिको मतः।
तन्मूलास्ते हि तद्वृद्धिक्षयवृद्धिक्षयात्मकाः॥३९॥
तस्मात्तं विधिवध्युक्तैरन्नपानेन्धनैर्हितैः।
पालयेत् प्रयतस्तस्य स्थितौ ह्यायुर्बलस्थितिः॥४०॥
यो हि भुङ्क्ते विधिं मुक्त्वा ग्रहणीदोषजानू गदान्।
स लौल्याल्लभते शीघ्रं वक्ष्यन्तेऽतः परं तु ये ॥४१॥
अभोजनादजीर्णातिभोजनाद्विषमाशनात्।
असात्म्यगुरुशीतातिरूक्षसंदुष्टभोजनात्॥४२॥
विरेकवमनस्त्रेहविभ्रमाव्ध्याधिकर्षणात्।
देशकालर्तुवैषम्याद्वेगानां च विधारणात्॥४३॥
दुष्यत्यग्निः स दुष्टोऽन्नं न तत् पचति लध्वपि।
अपच्यमानं शुक्तत्वं यात्यन्नं विषतां च तत्॥४४॥
तस्य लिङ्गमजीर्णस्य विष्टम्भः सदनं तथा।
शिरसो रुक् च मूर्च्छा च भ्रमः पृष्ठकटिग्रहः॥४५॥
जृम्भाऽङ्गमर्दस्तृष्णा च ज्वरश्छर्दिः प्रवाहणम्।
अरोचकोऽविपाकश्च घोरमन्नविषं च तत्॥४६॥
संसृज्यमानं पित्तेन1868 दाहं तृष्णां मुखामयान्।
जनयत्यम्लपित्तं च पित्तजांश्चापरान् गदानू॥४७॥
यक्ष्मपीनसमेहादीन् कफजान् कफसङ्गतम्।
करोति वातसंसृष्टं वातजांश्चापरानू गदान्॥४८॥
मूत्ररोगांश्च मूत्रस्थं कुक्षिरोगान् शकृद्गतम्।
रसादिभिश्च संसृष्टं कुर्याद्रोगान् रसादिजान्॥४९॥
विषमो धातुवैषम्यं करोति विषमं पचन्।
तीक्ष्णो मन्देन्धनो धातून् विशोषयति पावकः॥५०॥
युक्तं भुक्तवतो युक्तो1869 धातुसाम्यं समं पचन्।
दुर्बलो विदहत्यन्नं तध्यात्यूर्ध्वमधोऽपि वा॥५१॥
अधस्तु पक्वमामं वा प्रवृत्तं ग्रहणीगदः।
उच्यते सर्वमेवान्नं प्रायो ह्यस्य विदह्यते॥५२॥
अतिसृष्टं विबद्धं वा द्रवं तदुपवेश्यते।
तृष्णारोचकवैरस्यप्रसेकतमकान्वितः॥५३॥
शूनपादकरः सास्थिपर्वरुक् छर्दनं ज्वरः।
लोहामगन्धिस्तिक्ताम्ल उद्गारश्चास्य जायते॥५४॥
पूर्वरूपं तु तस्येदं तृष्णाऽऽलस्यं बलक्षयः।
विदाहोऽन्नस्य पाकश्च चिरात् कायस्य गौरवम्॥५५॥
अग्न्याधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणाद्ग्रहणी मता।
नाभेरुपरि1870 सा ह्यग्निबलोपस्तम्भबृंहिता॥५६॥
अपक्वं धारयत्यन्नं पक्वंसृजति पार्श्वतः।
दुर्बलाग्निबलाद्दुष्टा त्वाममेव विमुञ्चति॥५७॥
वातात् पित्तात् कफाच्च स्यात्तद्गोगस्त्रिभ्य एव च।
हेतुं लिङ्गं चिकित्सां च शृणु तस्य पृथक् पृथक्॥५८॥
कटुतिक्तकषायातिरूक्षशीताल्पभोजनैः।
प्रमितानशनात्यध्ववेगनिग्रहमैथुनैः॥५९॥
मारुतः कुपितो वह्निं संछाद्य कुरुते गदानू।
तस्यान्नं पच्यते दुःखं शुक्तपाकं खराङ्गता॥६०॥
कण्ठायशोषः क्षुत्तृष्णा तिमिरं कर्णयोः स्वनः।
पार्श्वोरुवङ्क्षणग्रीवारुजोऽभीक्ष्णं विसूचिका॥६१॥
हृत्पीडा कार्श्यदौर्बल्यं वैरस्यं परिकर्तिका।
गृद्धिः सर्वरसानां च मनसः सदनं तथा॥६२॥
जीर्णे जीर्यति चाध्मानं भुक्ते स्वास्थ्यमुपैति च।
स वातगुल्महृद्रोगप्लीहाशङ्की च मानवः॥६३॥
चिराद्दुःखं द्रवं शुष्कं तन्वामं शब्दफेनवत्।
पुनः पुनः सृजेद्वर्चः कासश्वासार्दितोऽनिलात्॥६४॥
कट्वजीर्ण विदाह्यम्लक्षाराध्यैः पित्तमुल्बणम्।
अग्निमाप्लाय1871वद्धन्ति जलं तप्तमिवानलम्॥६५॥
सोऽजीर्णं नीलपीताभं पीताभः सार्यते द्रवम्।
पूत्यग्लोद्गारहृत्कण्ठदाहारुचितृडर्दितः॥६६॥
गुर्वतिस्निग्धशीतादिभोजनादतिभोजनात्।
भुक्तमान्नस्य च स्वप्नाध्दन्त्याग्निं कुपितः कफः॥६७॥
तस्यान्नं पच्यते दुःखं हृल्लासच्छर्द्यरोचकाः।
आस्योपदेहमाधुर्यकासष्ठीवनपीनसाः॥६८॥
हृदयं मन्यते स्त्यानमुदरं स्तिमितं गुरु।
दुष्टो मधुर उद्गारः सदनं स्त्रीष्वहर्षणम्॥६९॥
भिन्नामश्लेष्मसंसृष्टगुरुवर्चःप्रवर्तनम्।
अकृशस्यापि दौर्बल्यमालस्यं च कफात्मके॥७०॥
यश्चाग्निः पूर्वमुद्दिष्टो रोगानीके चतुर्विधः।
तं चापि ग्रहणीदोषं समवर्जं प्रचक्ष्महे॥७१॥
पृथग्वातादिनिर्दिष्टहेतुलिङ्गसमागमे।
त्रिदोषं निर्दिशेत्तेषां1872 भेषजं शृण्वतः परम्॥७२॥
ग्रहणीमाश्रितं दोषं विदग्धाहारमूर्छितम्।
सविष्टम्भप्रसेकार्तिविदाहारुचिगौरवैः॥७३॥
आमलिङ्गान्वितं ज्ञात्वा सुखोष्णेनाम्बुनोद्धरेत्।
फलानां वा कषायेण पिप्पलीसर्षपैस्तथा॥७४॥
लीनं पक्वाशयस्थं वाऽप्यामं स्त्राव्यं सदीपनैः।
शरीरानुगते सामे रसे लङ्घनपाचनम्॥७५॥
विशुद्धामाशयायास्मै पञ्चकोलादिभिः शृतम्।
दद्यात् पेयादि लध्वन्नं पुनर्योगांश्च दीपनान्॥७६॥
ज्ञात्वा तु परिपक्वामं मारुतग्रहणीगदम्।
दीपनीययुतं सर्पिः पाययेताल्पशो भिषक्॥७७॥
किंचित्सन्धुक्षिते त्वग्नौ सक्तविण्मूत्रमारुतम्।
द्व्यहं ज्यहं वा संस्नेह्य स्विन्नाभ्यक्तं1873 निरूहयेत्॥७८॥
तत ऐरण्डतैलेन सर्पिषा तैल्वकेन वा।
सक्षारेणानिले शान्ते स्रस्तदोषं विरेचयेत्॥७९॥
शुद्धं रूक्षाशयं बद्धवर्चसं1874 चानुवासयेत्।
दीपनीयाम्लवातघ्नसिद्धतैलेन मात्रया॥४०॥
निरूढं च विरिक्तं च सम्यक् चैवानुवासितम् ।
लध्वन्त्रप्रतिसंभुक्तं सर्पिरभ्यासयेत् पुनः॥८१॥
द्वे पञ्चमूल्यौ सरलं देवदारु सनागरम्।
पिप्पलीं पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्पलीम्॥८२॥
शणबीजं यवान् कोलान् कुलस्थान् सुषवीं तथा।
पाचयेदारनालेन दध्ना सौवीरकेण वा॥८३॥
चतुर्भागावशेषेण पचेत्तेन घृताढकम्।
स्वर्जिकायावशूकाख्यौ क्षारौ दत्त्वा च युक्तितः॥८४॥
सैन्धवौद्भिदसामुद्रबिडानां रोमकस्य च।
ससौवर्चलपाक्यानां भागान् द्विपलिकान् पृथक्॥४५॥
**विनीय चूर्णितानू तस्मात् पाययेत् प्रसृतं बुधः।
करोत्याग्निं बलं वर्णं वातघ्नं भुक्तपाचनम्॥८६॥ **
इति दशमूलाचं घृतम् \।
व्यूषणत्रिफलाकल्के बिल्वमात्रे गुडात् पले।
सर्पिषोऽष्टपलं पक्त्वा मात्रां मन्दानलः पिबेत्॥८७॥
इति ज्यूषणाधं घृतम् ।
पञ्चमूलाभयाजाजि1875पिप्पलीमूलसैन्धवैः।
विडङ्गत्र्यूषणशटिरास्नाक्षारद्वयैर्घृतम्1876॥८८॥
शुक्तेन मातुलुङ्गस्य स्वरसेनार्द्रकस्य च।
शुष्कमूलककोलाम्बुचुक्रिकादाडिमस्य च॥८९॥
तक्रमस्तुसुरांमण्डसौवीरकतुषोदकैः।
काञ्जिकेन च तत् पक्वमग्निदीप्तिकरं1877 परम्॥९०॥
शूलगुल्मोदरश्वासकासानिलकफापहम्।
सबीजपूरकरसं सिद्धं वा पापयेद्धृतम्॥९१॥
सिद्धमभ्यञ्जनार्थं च तैलमेतैः प्रयोजयेत्।
एतेषामौषधानां वा पिबेच्चूर्णं सुखाम्बुना॥९२॥
वाते श्लेष्मावृते सामे कफे वा वायुनोद्धते।
इति पञ्चमूलाध्यं घृतं चूर्ण च।
मज्जत्यामा गुरुत्वाद्विट् पक्वा तूत्प्लवते जले॥९३॥
विनाऽतिद्रवसङ्घातशैत्यश्लेष्मप्रदूषणात्।
परीक्ष्यैवं पुरा सामं निरामं चामदोषिणम्॥९४॥
विधिनोपाचरेत् सम्यक् पाचनेनेतरेण वा।
चित्रकं पिप्पलीमूलं द्वौ क्षारौ लवणानि च॥९५॥
व्योषं हिङ्ग्वजमोदां च चव्यं चैकत्र चूर्णयेत्।
गुडिका मातुलुङ्गस्य दाडिमस्य रसेन वा॥९६॥
कृता विपाचयत्यामं दीपयत्याशु चानलम्।
इति चित्रकाद्या गुडिका।
नागरातिविषामुस्तक्वाथः स्यादामपाचनः॥९७॥
मुस्तान्तकल्कः पथ्या वा नागरं चोष्णवारिणा।
देवदारुवचामुस्तनागरातिविषाभयाः॥९८॥
वारुण्यामासुतास्तोये कोष्णे वाऽलवणाः पिबेत्।
वर्चस्यामे सशूले च पिबेद्वा दाडिमाम्बुना॥९९॥
बिडेन लवणं पिष्टं बिल्वं चित्रकनागरम्।
सामे वा सकफे वाते कोष्ठशूलकरे पिबेत्॥१००॥
कलिङ्गहिङ्ग्वतिविषावचासौवर्चलाभयाः।
छर्द्यर्शोग्रन्थिशूलेषु1878 पिबेदुष्णेन वारिणा॥१०१॥
पथ्यासौवर्चलाजाजिचूर्णं मरिचसंयुतम्।
अभयां पिप्पलीमूलं वचांकटुकरोहिणीम्॥१०२॥
पाठां वत्सकबीजानि चित्रकं विश्वभेषजम्।
पिबेन्निष्काथ्य चूर्णानि कृत्वा कोष्णेन वारिणा॥१०३॥
पित्तश्लेष्माभिभूतायां ग्रहण्यां शूलनुद्धितम्।
सामे सातिविषं व्योषं लवणक्षारहिङ्गुवत्1879॥१०४॥
पिप्पलीं नागरं पाठां सारिवां बृहतीद्वयम्।
चित्रकं कौटजं बीजं लवणान्यथ पञ्च च॥१०५॥
तच्चूर्णं सयवक्षारं दध्युष्णाम्बुसुरादिभिः।
पिबेदग्निविवृद्ध्यर्थं कोष्ठवातहरं नरः॥१०६॥
इति पिप्पल्याचं चूर्णम्।
मरिचं कुञ्चिकाम्बष्ठावृक्षाम्लाः1880 कुडवाः पृथक्।
पलानि दश चाम्लस्य वेतसस्य पलांशिकाः॥१०७॥
सौवर्चलं बिडं पाक्यं यवक्षारः ससैन्धवः।
शटीपुष्करमूलानि हिङ्गु हिङ्गुशिवाटिका॥१०८॥
तत् सर्वमेकतः सूक्ष्मं चूर्णं कृत्वा प्रयोजयेत्।
हितं वाताभिभूतायां ग्रहण्यामरुचौ तथा॥१०९॥
इति मरिचाद्यं चूर्णम्।
चतुर्णां प्रस्थमम्लानां त्र्यूषणस्य पलत्रयम्।
लवणानां च चत्वारि शर्करायाः पलाष्टकम्॥११०॥
संचूर्ण्य1881 शाकसूपान्नरागादिष्ववचारयेत्।
कासाजीर्णारुचिश्वासहृत्पाण्ड्वामयशूलनुत्॥ १११॥
चव्यत्वक्पिप्पलीमूलधातकीव्योषचित्रकान्।
कपित्थं1882 बिल्वमम्बष्ठां शाल्मलं हस्तिपिप्पलीम्॥ ११२॥
शिलोद्भेदं तथाऽजाजीं पिष्ट्वाबदरसंमितान्।
परिभर्ज्य1883घृते दध्नायवागूं साधयेद्भिषक्॥ ११३॥
रसैः कपित्थचुक्रीकावृक्षाम्लैर्दाडिमस्य च।
सर्वातिसारग्रहणीगुल्मार्शःप्लीहनाशिनी॥ ११४
इति पञ्चमकारयवागूः।
पञ्चकोलकयूषश्च मूलकानां च सोषणः।
स्निग्धो दाडिमतक्राम्लो जाङ्गलः संस्कृतो रसः॥ ११५॥
ऋव्यादस्वरसः शस्तो भोजनार्थे सदीपनः।
तक्रारनाल1884मधानि पानार्थेऽरिष्ट एव च॥ ११६॥
तक्रं तु ग्रहणीदोषे1885 दीपनग्राहिलाघवात्।
श्रेष्ठं1886 मधुरपाकित्वान्नच पित्तंप्रकोपयेत्॥ ११७॥
कषायोष्णविकासित्वाद्वैक्ष्याच्चैव कफे म(हि)तम्।
चाते स्वादुम्लसान्द्रत्वात् सद्यस्कमविदाहि तत्॥ ११८॥
तस्मात् तऋप्रयोगा ये जठराणां तथाऽर्शसाम्।
विहिता ग्रहणीदोषे सर्वशस्तान् प्रयोजयेत्॥ ११९॥
यवान्यामलके पथ्या मरिचं त्रिपलांशिकम्।
लवणानि पलांशानि पञ्च चैकत्रचूर्णयेत्॥ १२०॥
तक्रे तदासुतं जातं तक्रारिष्टं पिबेन्नरः1887।
दीपनं शोथगुल्मार्शः क्रिमिमेहोदरापहम्॥ १२१॥
इति तक्रारिष्टः।
स्वस्थानगतमुत्क्लिष्टमग्निनिर्वापकं भिषक्।
पित्तं ज्ञात्वा विरेकेण निर्हरेद्वमनेन वा॥१२२॥
अविदाहिभिरन्नैश्च लघुभिस्तिक्तसंयुतैः।
जाङ्गलानां रसैर्यूषैर्मुद्गादीनां खडैरपि॥१२३॥
दाडिमाम्लैः ससर्पिष्कैर्दीपनग्राहिसंयुतैः।
तस्याग्निं दीपयेच्चूर्णैः सर्षिर्भिर्वा1888 सतिक्तकैः॥१२४॥
चन्दनं पद्मकोशीरं पाठां मूर्वा कुटन्नटम्।
षड्ग्रन्थासारिवास्फोतासप्तपर्णाटरूषकान्॥१२५॥
पटोलोदुम्बराश्वस्थवटप्लक्षकपीतनान्।
कटुकां रोहिणीं मुस्तं निम्बं च द्विपलांशिकम्॥१२६॥
द्रोणेऽपां साधयेत् पादशेषे प्रस्थं घृतात् पचेत्।
किराततिक्तेन्द्रयववीरामागधिकोत्पलैः॥१२७॥
कल्कैरक्षसमैः पेयं तत् पित्तग्रहणीगदे।
तिक्तकं यद्धृतं चोक्तं कौष्ठिके तच्च दापयेत्॥१२८॥
इति चन्दनाथं घृतम्।
नागरातिविषे मुस्तं धातकीं सरसाञ्जनम्।
वत्सकत्वक्फलं बिल्वं पाठां कटुकरोहिणीम्॥१२९॥
पिबेत् समांशं तच्चूर्णं सक्षौद्रं तण्डुलाम्बुना।
पैत्तिके ग्रहणीदोषे रक्तं यच्चोपवेश्यते॥१३०॥
अर्शासि च गुदे शूलं जयेच्चैव प्रवाहिकाम्।
नागराद्यमिदं चूर्णं कृष्णात्रेयेण पूजितम्॥१३१॥
इति नागराद्यंचूर्णम्।
भूनिम्बं कटुकं व्योषं मुस्तमिन्द्रयवान् समान्।
द्वौ चित्रकाद्वत्सकत्वग्भागान् षोडश चूर्णयेत्॥१३२॥
गुडशीताम्बुना पीतं ग्रहणीदोषगुल्मनुत्।
कामलाज्वरपाण्डुत्व मेहारुच्यतिसारनुत्॥१३३॥
इति भूनिम्बाचं चूर्णम्।
वचामतिविषां पाठां सप्तपर्णंरसाञ्जनम्।
श्योनाकोदीच्यकट्वङ्गवत्सकत्वग्दुरालभाः॥१३४॥
दार्वीं पर्पटकं पाठां यवानीं मधुशिग्रुकम्।
पटोलपत्रं सिद्धार्थान यूथिकां जातिपल्लवान्॥१३५॥
जम्ब्वाम्रबिल्वमध्यानि निम्बशाकफलानि च।
तद्रोगशममन्विच्छन् भूनिम्बाद्येन योजयेत्॥१३६॥
किराततिक्तं षड्ग्रन्था त्रायमाणा कटुत्रिकम्।
चन्दनं पद्मकोशीरंदार्वीत्वक् कटुरोहिणी॥१३७॥
कुटजत्वकू फलं मुस्तं यमानी देवदारु च।
पटोलनिम्बपत्रैलासौराष्त्र्यतिविषात्वचः॥१३८॥
मधुशिग्रोश्च बीजानि मूर्वापर्पटकं तथा।
तच्चूर्ण मधुना लेह्यं पेयं मद्यैर्जलेन वा॥१३९॥
हृत्पाण्डुग्रहणीरोगगुल्मशूलारुचिज्वरान्।
कामलां पाण्डुरोगं1889 च मुखरोगांश्च नाशयेत्॥१४०॥
इति किराताद्यं चूर्णम्।
ग्रहण्यां श्लेष्मदुष्टायां वमितस्य यथाविधि।
कट्वम्ललवणक्षारैस्तिक्तैश्चाग्निंविवर्धयेत्॥१४१॥
पलाशं चित्रकं चव्यं मातुलुङ्गं हरीतकीम्।
पिप्पलीं पिप्पलीमूलं पाठां नागरधान्यकम्॥१४२॥
कार्षिकाण्युदकप्रस्थे पक्त्वा पादावशेषितम्।
पानीयार्थं प्रयुञ्जीत यवागूं तैश्च साधयेत्॥१४३॥
शुष्कमूलकयूषेण कौलत्थेनाथवा पुनः।
कट्वम्लक्षारपटुना लघून्यन्नानि भोजयेत्॥१४४॥
अम्लं चानुपिबेत्तक्रं तक्रारिष्टमथापि वा।
मदिरा मध्वरिष्टं वा निगदंसीधुमेव वा॥ १४५॥
द्रोणं मधूकपुष्पाणां विडङ्गानां ततोऽर्धतः।
चित्रकस्य ततोऽर्धस्यात्तथा भल्लातकाढकम्॥ १४६॥
मञ्जिष्ठाष्टपलं चैव त्रिद्रोणेऽपां विपाचयेत्।
द्रोणशेषं तु तच्छीतं मध्वर्धाढकसंयुतम्॥ १४७॥
एलामृणालागुरुभिश्चन्दनेन च रूषिते।
कुम्भे मासस्थितं जातमासवं तं प्रयोजयेत्॥ १४८॥
ग्रहर्णीदीपयत्येष बृंहणः कफपित्तजित्1890।
शोथं कुष्ठं किलासं च प्रमेहांश्च प्रणाशयेत्॥ १४९॥
इति मधूकासवः।
मधूकपुष्पस्वरसं शृतमर्धक्षयीकृतम्।
क्षौद्रपादयुतं शीतं पूर्ववत् सन्निधापयेत्॥ १५०॥
तं पिबन् ग्रहणीदोषान् जयेत् सर्वान् हिताशनः।
तद्वद्राक्षेक्षुखर्जूरस्वरसानासुतान् पिबेत्॥ १५१॥
प्रस्थौ1891 दुरालभाया द्वौ प्रस्थमामलकस्य च।
मुष्टी चित्रकदन्त्योर्द्वेप्रत्यग्रं चाभयाशतम्॥ १५२॥
चतुर्द्रोणेऽम्भसः पक्त्वा शीतं द्रोणावशेषितम्।
सगुडद्विशतं पूतं मधुनः कुडवायुतम्॥ १५३॥
तद्वत् प्रियङ्गोः पिप्पल्या विडङ्गानां च चूर्णितैः।
कुडवैर्घृतकुम्भस्थं पक्षाज्जातं1892 ततः पिबेत्॥ १५४॥
ग्रहणी पाण्डुरोगार्शः कुष्ठवीसर्पमेहनुत्।
स्वरवर्णकरश्चैष रक्तपित्तकफापहः॥ १५५॥
इति दुरालभासवः।
हरिद्रा1893 पञ्चमूले द्वे वीरर्षभकजीवकम्।
एषां1894 पञ्च पलान् भागांश्चतुर्द्रोणेऽम्भसः पचेत्॥१५६॥
द्रोणशेषे रसे पूते गुडस्य द्विशतं भिषक्।
चूर्णितान् कुढवार्धाशान् प्रक्षिपेच्चसमाक्षिकान्॥१५७॥
प्रियङ्गुमुस्तमञ्जिष्ठाविडङ्गमधुकल्पवान्।
लोध्रंशाबरकं चैव मासार्धस्थं पिबेत्तु तम्॥१५८॥
एष मूलासवः सिद्धो दीपनो रक्तपित्तजित्।
आनाहकफहृद्रोगपाण्डुरोगाङ्गसादनुत्॥१५९॥
इति मूलासवः।
प्रास्थिकींपिप्पलींपिष्ट्वागुडं मध्यं बिभीतकात्।
उदकप्रस्थसंयुक्तं यवपल्ले निधापयेत्॥१६०॥
तस्मात् पलं सुजातात्तु सलिलाञ्जलिसंयुतम्।
पिबेत् पिण्डासवो ह्येष रोगानीकविनाशनः॥१६१॥
स्वस्थोऽप्येनं पिबेन्मासं नरः सिद्धं1895 रसायनम्।
इच्छंस्तेषामनुत्पत्तिं रोगाणां ये प्रकीर्तिताः॥१६२॥
इति पिण्डासवः।
नवे पिप्पलिमध्वाक्तेकलसेऽगुरुधूपिते।
मध्वाढकं जलसमं चूर्णानीमानि दापयेत्1896॥१६३॥
कुडवार्ध विडङ्गानां पिप्पल्याः कुडवं तथा।
चतुर्थिकांशां त्वक्क्षीरीं केशरं मरिचानि च॥१६४॥
त्वगेलापत्रकशटीक्रमुकातिविषाधनम्।
हरेण्वेल्वालुतेजोह्वापिप्पलीमूलचित्रकान्॥१६५॥
कार्षिकांस्तत् स्थितं मासमत ऊर्ध्वं प्रयोजयेत्।
मन्दं संदीपयत्यग्निंकरोति विषमं समम्॥१६६॥
हृत्पाण्डुग्रहणीरोगकुष्ठार्शःश्वयथुज्वरान्।
वातश्लेष्मामयांश्चान्यान्मध्वरिष्टो व्यपोहति॥१६७॥
इति मध्वरिष्टः।
समूलां पिप्पलीं क्षारौ द्वौ पञ्च लवणानि च।
मातुलुङ्गाभयारास्राशटीमरिचनागरम्॥१६८॥
कृत्वा समांशं तच्चूर्णं पिबेत् प्रातः सुखाम्बुना।
श्लैष्मिके ग्रहणीदोषे बलवर्णाग्निवर्धनम्॥१६९॥
एतैरेवौषधैः सिद्धं सर्पिः पेयं समारुते।
गौल्मिके षट्पलं प्रोक्तं भल्लातकघृतं च यत्॥१७०॥
बिडं कालोत्थलवणं सर्जिकायवशूकजम्।
सप्तलां कण्टकारीं च चित्रकं चेति दाहयेत्॥१७१॥
सप्तकृत्वः स्रुतस्यास्य क्षारस्य व्द्याढकेन तु।
आढकं सर्पिषः पक्त्वा पिबेदग्निविवर्धनम्॥१७२॥
इति क्षारघृतम्।
समूलां पिप्पलीं पाठां चव्येन्द्रयवनागरम्।
चित्रकातिविषे हिङ्गुश्वदष्ट्रांकटुरोहिणीम्॥१७३॥
वचां च कार्षिकान् पञ्चलवणानां पलानि च।
दध्नःप्रस्थद्वये तैलसर्पिषोः कुडवद्वये॥१७४॥
चूर्णीकृतानि निष्क्काथ्य शनैरन्तर्गते रसे।
अन्तर्धूमं ततो दग्ध्वा चूर्णं कृत्वा घृताप्लुतम्॥१७५॥
पिबेत्1897 पाणितलं तस्मिञ्जीर्णे स्यान्मधुराशनः।
वातश्लेष्मामयान् सर्वान् हन्याद्विषगरांश्च सः॥१७६॥
भल्लातकं त्रिकटुकं त्रिफलां लवणत्रयम्।
अन्तर्धूमं द्विपलिकं गोपुरीषाग्निना दहेत्॥१७७॥
स क्षारः सर्पिषा पीतो भोज्ये वाऽप्यवचारितः।
हृत्पाण्डुग्रहणीदोषगुल्मोदावर्तशूलनुत्॥१७८॥
दुरालभां करञ्जौद्वौसप्तपर्णं सवत्सकम्।
षड्ग्रन्थांमदनं मूर्वांपाठामारग्वधं तथा॥१७९॥
गोमूत्रेण समांशानि कृत्वा चूर्णानि दाहयेत्।
दग्ध्वा च तं पिबेत् क्षारं ग्रहणीबलवर्धनम्॥१८०॥
भूनिम्बं रोहिणीं तिक्तां पटोलं निम्बपर्पटम्।
दहेन्माहिषमूत्रेण क्षार एषोऽग्निवर्धनः॥१८१॥
द्वे हरिद्रेवचा कुष्ठं चित्रकः कटुरोहिणी।
मुस्तं च बस्तमूत्रेण सिद्धः क्षारोऽग्निवर्धनः॥१८२॥
चतुष्पलं सुधाकाण्डात् त्रिपलं लवणत्रयात्।
वार्ताकीकुडवं चार्कादष्टौ द्वे चित्रकात् पले॥१८३॥
दग्धानि वार्ताकुरसे गुलिका भोजनोत्तराः।
भु(भ)क्तं भुक्तं पचन्त्याशु कासश्वासार्शसां हिताः॥१८४॥
विसूचिकाप्रतिश्यायहृद्रोगशमनाश्च ताः।
इत्येषा क्षारगुटिका कृष्णात्रेयेण कीर्तिता॥१८५॥
इति क्षारगुटिका।
वत्सकातिविषे पाठां दुःस्पर्श हिङ्गु चित्रकम्।
चूर्णीकृत्य पलाशाग्रक्षारे मूत्रस्रुते पचेत्॥१८६॥
आयसे भाजने सान्द्वात्तस्मात् कोलं सुखाम्बुना।
मद्यैर्वा ग्रहणीदोषे शोथार्शः पाण्डुमान् पिबेत्॥१८७॥
त्रिफलां कटभीं चव्यं बिल्वमध्यमयोरजः।
रोहिणीं कटुकां मुस्तं कुष्ठं पाठां च हिङ्गु च॥१८८॥
मधुकं मुष्ककयवक्षारौ त्रिकटुकं वचाम्।
विडङ्गं पिप्पलीमूलं स्वर्जिकां निम्बचित्रकौ॥१८९॥
मूर्वाजमोदेन्द्रयवान् गुडूचीं देवदारु च।
कार्षिकं लवणानां च पञ्चानां पलिकान् पृथक्॥१९०॥
भागानू दध्नित्रिकुडवे घृततैलेन मूर्च्छितान्।
अन्तर्धूमं शनैर्दग्ध्वा तस्मात् पाणितलं पिबेत्॥१९१॥
सर्पिषा कफवातार्शोग्रहणीपाण्डुरोगवान्।
प्लीहमूत्रग्रहश्वासहिक्काकासक्रिमिज्वरान्॥१९२॥
शोषातिसारौ श्वयथुं प्रमेहानाहहृद्ग्रहान्।
हन्यात्1898 सर्वविषं चैव क्षारोऽग्निजननो वरः॥१९३॥
जीर्णे रसैर्वा मधुरैरश्नीयात् पयसाऽपि वा।
त्रिदोषे विधिविद्वैद्यः पञ्च कर्माणि कारयेत्॥१९४॥
घृतक्षारासवारिष्टान् दद्याच्चाग्निविवर्धनान्।
क्रिया या चानिलादीनां निर्दिष्टा ग्रहणीं प्रति॥१९५॥
व्यत्यासात्तां समस्तां च कुर्याद्दोषविशेषवित्।
स्नेहनं स्वेदनं शुद्धिर्लङ्घनं दीपनं च यत्॥१९६॥
चूर्णानि लवणक्षारमध्वरिष्टसुरासवाः।
विविधास्तक्रयोगाश्च दीपनानां च सर्पिषाम्॥१९७॥
ग्रहणीरोगिभिः सेव्याः क्रियां चावस्थिकीं शृणु।
ष्ठीवनं श्लैष्मिके रूक्षं दीपनं तिक्तसंयुतम्॥१९८॥
सकृद्रूक्षं सकृत्स्निग्धं कृशे बहुकफे हितम्।
परीक्ष्यामं शरीरस्य दीपनं स्नेहसंयुतम्॥१९९॥
दीपनं बहुपित्तस्य तिक्तं मधुरसंयुतम्।
बहुवातस्य तु स्नेहलवणाम्लयुतं हितम्॥२००॥
संधुक्षति यथा वह्निरेषां विधिवदिन्धनैः।
स्नेहमेव परं विद्याद्दुर्बलानलदीपनम्॥२०१॥
नालं स्नेहसमिद्धस्य शमायान्नं सुगुर्वपि।
मन्दाग्निरविपक्वं1899तु पुरीषं योऽतिसार्यते॥२०२॥
दीपनीयौषधैर्युक्तां घृतमात्रां पिबेत्तु सः।
तया समानः पवनः प्रसन्नो मार्गमाश्रितः॥२०३॥
अग्नेः समीपचारित्वादाशु प्रकुरुते बलम्।
काठिन्याद्यः पुरीषं तु कृच्छ्रान्मुञ्चति मानवः॥२०४॥
सघृतं लवणैर्युक्तं नरोऽन्नावग्रहं पिबेत्।
रौक्ष्यान्मन्दे पिबेत् सर्पिस्तैलं वा दीपनैर्युतम्॥२०५॥
अतिस्नेहात्तु मन्देऽग्नौ चूर्णारिष्टासवा हिताः।
भिन्ने गुदोपलेपात्तु मले तैलसुरासवाः॥२०६॥
उदावर्तात्तु मन्देऽग्नौनिरूहाः स्नेहबस्तयः।
दोषवृध्द्यातु मन्देऽग्नौ शुद्धो दोषविधिं चरेत्॥२०७॥
व्याधियुक्तस्य मन्दे तु सर्पिरेवाग्निदीपनम्।
उपवासाच्च मन्देऽग्नौ यवागूभिः पिबेद्धृतम्॥२०८॥
अन्नावपीडितं1900 बल्यं दीपनं बृंहणं च तत्।
दीर्घकालप्रसङ्गात्तु क्षामक्षीणकृशान्नरान्॥२०९॥
प्रसहानां रसैः साम्लैर्भोजयेत् पिशिताशिनाम्।
लघुतीक्ष्णोष्णशोधित्वाद्दीपयन्त्याशु तेऽनलम्॥२१०॥
मांसोपचितमांसत्वात्तथाऽऽशुतरबृंहणाः।
नाभोजनेन कायाग्निर्दीप्यते नातिभोजनात्॥२११॥
यथा निरिन्धनो वह्निरल्पो वाऽतीन्धनावृतः।
स्नेहान्नपानैर्विविधैश्चूर्णारिष्टसुरासवैः॥२१२॥
सम्यक् प्रयुक्तैर्भिषजा बलमनेः प्रवर्धते।
यथा हि सारदार्वग्निः स्थिरः संतिष्ठते चिरम्॥२१३॥
स्नेहान्नविधिभिस्तद्वदन्तरग्निर्भवेत् स्थिरः।
हितं जीर्णे मितं चाश्नंश्चिरमारोग्यमश्नुते॥२१४॥
अवैषम्येण धातूनामग्निवृद्धौ यतेत ना।
समैर्दोषैः समो मध्ये देहस्योष्माऽग्निसंज्ञितः॥२१५॥
पचत्यन्नं तदारोग्यपुष्ट्यायुर्बलवृद्धये
दोषैर्मन्दोऽतिवृद्धो वा विषमैर्जनयेद्गदान्॥२१६॥
वाच्यं मन्दस्य तत्रोक्तमतिवृद्धस्यवक्ष्यते।
नरेक्षीणकफे पित्तं कुपितं मारुतानुगम्॥२१७॥
स्वोष्मणा पावकस्थाने1901 बलमग्नेः प्रयच्छति।
तथा लब्धबलो देहे विरूक्षेसानिलोऽनलः॥२१८॥
अभिभूय पचत्यन्नं तैक्ष्ण्यादाशु मुहुर्महुः।
पक्त्वाऽन्नं स ततो घातून्छोणितादीन् पचत्यपि॥२१९॥
ततो दौर्बल्यमातङ्कान्मृत्युं चोपनयेन्नरम्।
भुक्तेऽन्ने लभते शान्तिं जीर्णमात्रे प्रताम्यति॥२२०॥
तृद्श्वासदाहमूर्च्छाद्या व्याधयोऽत्यग्निसंभवाः।
तमत्यग्निंगुरुस्निग्धशीतैर्मधुरविज्जलैः1902॥२२१॥
अन्नपानैर्नयेच्छान्तिं दीप्तमग्निमिवाम्बुभिः।
मुहुर्मुहुरजीर्णेऽपि भोज्यान्यस्योपहारयेत्॥२२२॥
निरिन्धनोऽन्तरं लब्ध्वा यथैनं न विपादयेत्।
पायसं कुशरां स्निग्धं पैष्टिकं गुडवैकृतम्॥२२३॥
अद्यात्तथौदकानूपपिशितानि भृतानि च।
मस्स्यान् विशेषतः श्लक्ष्णान् स्थिरतोयचरांस्तथा॥२२४॥
आविकं च भृतं मांसमद्यादत्यग्निनाशनम्।
यवागूं समधूच्छिष्टां घृतं वा क्षुधितः पिबेत्॥२२५॥
गोधूमचूर्णमन्थं वा व्यधयित्वा सिरां पिबेत्।
पयो वा शर्करासर्पिर्जीवनीयौषधैः श्रुतम्॥२२६॥
फलानां तैलयोनीनामुत्कुञ्चाश्च सशर्कराः।
मार्दवं जनयन्त्यग्नेः स्निग्धा मांसरसास्तथा॥२२७॥
पिबेच्छीताम्बुना सर्पिर्मधूच्छिष्टेन वा युतम्।
गोधूमचूर्णं पयसा ससर्पिष्कं पिबेन्नरः॥२२८॥
आनूपरससिद्धान् वा त्रीन्स्नेहांस्तैलवर्जितान्।
पयसा समितां चापि घनां त्रिस्नेहसंयुताम्॥२२९॥
नारीस्तन्येन संयुक्तां पिबेदौदुम्बरीं त्वचम्।
आभ्यां वा पायसं सिद्धमद्यादयग्निशान्तये॥२३०॥
श्यामात्रिवृद्धिपक्कं वा पयो दद्याद्विरेचनम्।
असकृत् पित्तशान्त्यर्थं पायसप्रतिभोजनम्॥२३१॥
प्रसमीक्ष्य भिषक् प्राज्ञस्तस्मै दद्याद्विधानवित्।
यत् किञ्चिन्मधुरं मेद्यं श्लेष्मलं गुरुभोजनम्॥२३२॥
सर्वं तदत्यग्निहितं भुक्त्वा प्रस्वपनं दिवा।
मद्यान्यन्नानि योऽत्यग्नावप्रशान्तः समश्नुते॥२३३॥
न तन्निमित्तं व्यसनं लभते पुष्टिमेव च।
कफे वृद्धे जिते पित्ते मारुते चानलः समः॥२३४॥
समधातोः पचत्यन्नं पुष्ट्यायुर्बलवृद्धये।
भवन्ति चात्र।
पथ्यापथ्यमिहैकन्न भुक्तं समशनं मतम्॥२३५॥
विषमं बहु वाऽल्पं वाऽप्यप्राप्तातीतकालयोः।
भुक्तं पूर्वान्नशेषे तु पुनरध्यशनं मतम्॥२३६॥
त्रीण्यप्येतानि मृत्युं वा घोरान् व्याधीन् सृजन्ति वा।
प्रातराशे त्वजीर्णेऽपि सायमाशो न दुष्यति॥२३७॥
दिवा प्रबुध्यतेऽर्केण हृदयं पुण्डरीकवत्।
तस्मिन् विबुद्धे स्रोतांसि स्फुटत्वं यान्ति सर्वशः॥२३८॥
व्यायामाच्च विचाराच विक्षिप्तत्वाच्च चेतसः।
न क्लेदमुपगच्छन्ति दिवा तेनास्य धातवः॥२३९॥
अक्लिन्नेष्वन्नमासिक्तमन्यत्तेषु न दुष्यति।
अविदग्ध इव क्षीरे क्षीरमन्यद्विमिश्रितम्॥२४०॥
नैव दूष्यति तेनैव समं संपद्यते यथा।
रात्रौ तु हृदये म्लाने संवृतेष्वयनेषु च॥२४१॥
कोष्ठे यान्ति परिक्लेदं संवृते देहधातवः।
क्लिन्नेष्वन्यदपक्केषु तेष्वासितं प्रदुष्यति॥२४२॥
विदग्धेषु पयःस्वन्यत् पयस्तप्तमिवार्पितम्।
नैशेष्वाहारजातेषु नाविपक्केषु बुद्धिमान्।
तस्मादन्यत् समश्नीयात् पालयिष्यन् बलायुषी॥ २४३॥
तत्र श्लोकाः।
अन्तरग्निगुणा देहं यथा धारयते च सः।
यथाऽन्नं पच्यते यांश्च यथाऽऽहारः करोत्यपि॥ २४४॥
येऽग्नयो यांश्च पुष्यन्ति यावन्तो ये पचन्ति यान्।
रसादीनां क्रमोत्पत्तिर्मलानां तेभ्य एव च॥ २४५॥
वृष्याणामाशुकृद्धेतुर्धातुकालोद्भवक्रमः।
रोगैकदेशकृद्धेतुरन्तरग्निर्यथाऽधिकः॥ २४६॥
संदुष्यति यथा दुष्टो यान् रोगाञ्जनयत्यपि।
ग्रहणी या यथा यच्च ग्रहणीदोषलक्षणम्॥ २४७॥
पूर्वरूपं पृथक् चैव व्यञ्जनं सचिकित्सितम्।
चतुर्विधस्य निर्दिष्टं तथैवावस्थिकी क्रिया॥ २४८॥
जायते च यथाऽत्यग्निर्यच्चतस्य चिकित्सितम्।
उक्तवानिह तत् सर्वं ग्रहणीदोषके मुनिः॥ २४९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
ग्रहणीरोगचिकित्सितं नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५॥
______
षोडशोऽध्यायः।
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अथातः पाण्डुरोगचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥ १॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥ २॥
पाण्डुरोगाः स्मृताः पञ्च वातपित्तकफैस्त्रयः।
चतुर्थः सन्निपातेन पञ्चमो भक्षणान्मृदः॥ ३॥
दोषाः पित्तप्रधानास्तु यस्य कुप्यन्ति धातुषु।
शैथिल्यं तस्य धातूनां गौरवं चोपजायते॥ ४॥
ततो वर्णबलस्नेहा ये चान्येऽप्योजसो गुणाः।
व्रजन्ति क्षयमत्यर्थं दोषदूष्यप्रदूषणात्॥५॥
सोऽल्परक्तोऽल्पमेदस्को निःसारः शिथिलेन्द्रियः।
वैवर्ण्यं भजते तस्य हेतुं शृणु सलक्षणम्॥६॥
क्षाराम्ललवणात्युष्णविरुद्धासात्म्यभोजनात्।
निष्पावमाषपिण्याकतिलतैलनिषेवणात्॥७॥
विदग्धेऽन्ने दिवास्वप्नाद्व्यायामान्मैथुनात्तथा।
प्रतिकर्मर्तुवैषम्याद्वेगानां च विधारणात्॥८॥
कामचिन्ताभयक्रोधशोकोपहतचेतसः।
समुदीर्ण यदा1903 पित्तं हृदये समवस्थितम्॥९॥
वायुना बलिना क्षिप्तं संप्राप्य धमनीर्दश1904।
प्रपन्नं केवलं1905 देहं त्वङ्मांसान्तरमाश्रितम्॥१०॥
प्रदूष्य कफवातासृक्त्वासानि करोति तत्।
वर्णान्1906हरितहारिद्रपाण्डून् बहुविधांस्त्वचि॥११॥
स पाण्डुरोग इत्युक्तस्तस्य लिङ्गं भविष्यतः।
हृदयस्पन्दनं रौक्ष्यं स्वेदाभावः श्रमस्तथा॥१२॥
संभूतेऽस्मिन् भवेत् सर्वः कर्णक्ष्वेडी हतानलः।
दुर्बलः सदनोऽन्नविट् श्रमभ्रमनिपीडितः॥१३॥
गात्रशूलज्वरश्वास गौरवारुचिमान्नरः।
मृदितैरिव गात्रैश्च पीडितोन्मथितैरिव॥१४॥
शूनाक्षिकूटो हरितः शीर्णलोमा हतप्रभः।
कोपनः शिशिरद्वेषी निद्रालुः ष्ठीवनोऽल्पवाक्॥१५॥
पिण्डिकोद्वेष्टकट्यूरुपादरुक्सदनानि च।
स्फुरणारोहणायासैर्विशेषश्चास्य वक्ष्यते॥१६॥
आहारैरुपचारैश्च नातलैः कुपितोऽनिलः।
जनयेत् कृष्णपाण्डुत्वं तथा रूक्षारुणाङ्गताम्॥१७॥
अङ्गमर्दं रुजं तोदं कम्पं पार्श्वशिरोरुजम्।
वर्चःशोषास्यवैरस्यशोफानाहबलक्षयान्॥१८॥
पित्तलस्याचितं पित्तं यथोक्तैः स्वैः प्रकोपणैः।
दूषयित्वा तु रक्तादीन् पाण्डुरोगाय कल्पते॥१९॥
स पीतो हरिताभो वा ज्वरदाहसमन्वितः।
तृष्णामूर्च्छापरीतस्तु पीतमूत्रशकुन्नरः॥२०॥
स्वेदनः शीतकामश्च न चान्नमभिनन्दति।
कटुकास्यो न चास्योष्णमुपशेतेऽम्लमेव च॥२१॥
उद्गारोऽम्लो विदाहश्च विदग्धेऽन्नेऽस्य जायते।
दौर्गन्ध्यं भिन्नवर्चस्त्वं1907 दौर्बल्यं तम एव च॥२२॥
विवृद्धः शैष्मलैः श्लेष्मा पाण्डुरोगं स पूर्ववत्।
करोति गौरवं तन्द्रां छर्दिं श्वेतावभासताम्॥२३॥
प्रसेकं लोमहर्षं च सादं मूर्च्छां भ्रमं कृमम्।
श्वासं कासं तथाऽलस्यमरुचिं वाक्स्वरग्रहम्॥२४॥
शुक्ल1908मूत्राक्षिवर्चस्त्वं कटुरूक्षोष्णकामताम्।
श्वयथुं मधु1909रास्यत्वमिति पाण्ड्वामयः कफात्॥२५॥
सर्वान्नसेविनः सर्वे दुष्टा दोषास्त्रिदोषजम्।
त्रिदोषलिङ्गं कुर्वन्ति पाण्डुरोगं सुदुःसहम्॥२६॥
मृत्तिकादनशीलस्य कुप्यत्यन्यतमो मलः।
कषाया मारुतं, पित्तमूषरा, मधुरा कफम्॥२७॥
कोपयेन्मृद्रसादींश्च, रौक्ष्या1910द्भुक्तं विरुक्षयेत्।
पूरयत्यविपक्वैव स्रोतांसि निरुणद्ध्यपि॥२८॥
इन्द्रियाणां बलं1911तेज ओजो वीर्यं निहत्य च।
पाण्डुरोगं करोत्याशु बलवर्णाग्निनाशनम्॥२९॥
शूनगण्डाक्षिकूटभ्रूः शूनपान्नाभिमेहनः।
कृमिकोष्ठोऽतिसार्येत मलं सासृक् कफान्वितम्॥३०॥
पाण्डुरोगश्चिरोत्पन्नः खरीभूतो न सिध्यति।
कालप्रकर्षाच्छूनाङ्गो यश्च पीतानि पश्यति॥३१॥
बद्धाल्पविट्कं सकफं हरितं योऽतिसार्यते।
दीनः श्वेतातिदिग्धाङ्गश्छर्दिमूर्च्छातृषार्दितः॥३२॥
स नास्त्यसृकुक्षयाद्यश्च पाण्डुः श्वेतत्वमाप्नुयात्।
इति पञ्चविधस्योक्तं पाण्डुरोगस्य लक्षणम्॥३३॥
पाण्डुरोगी तु योऽत्यर्थं पित्तलानि निषेवते।
तस्य पित्तमसृड्यांसं दुग्ध्वा रोगाय कल्पते॥३४॥
हारिद्रनेत्रः स भृशं हारिद्रत्वनखाननः।
रक्तपीतशकृन्मूत्रो भेकवर्णो हतेन्द्रियः॥३५॥
दाहाविपाकदौर्बल्यसदनारुचिकर्षितः।
कामला बहुपित्तैषा कोष्ठशाखाश्रया मता॥३६॥
कालान्तरातू खरीभूता कृच्छ्रा स्यात् कुम्भकामला।
कृष्णपीतशकृन्मूत्रो भृशं शूनश्च मानवः॥३७॥
सरक्ताक्षिमुखच्छर्दिर्विमूत्रो यश्च तास्यति।
दाहारुचितृषानाहतन्द्रामोहसमन्वितः॥३८॥
नष्टाग्निसंज्ञः क्षिप्रं हि कामलावान् विपद्यते।
साध्यानामितरेषां तु भेषजं1912 संप्रवक्ष्यते॥३९॥
तत्र पाण्ड्वामयी स्निग्धस्तीक्ष्णैरूर्ध्वानुलोमिकैः।
संशोध्यो मृदुभिस्तिक्तैः कामली1913 तु विरेचनैः॥४०॥
ताभ्यां संशुद्धकोष्ठाभ्यां पथ्यान्यन्नानि दापयेत्।
शालीन् सयवगोधूमान् पुराणान् यूषसंस्कृतान्1914॥४१॥
मुद्गाढकीमसूराद्यैर्जाङ्गलैश्च रसैर्हितैः।
यथादोषं विशिष्टं च1915 तयोभैंषज्यषज्यमाचरेत्॥४२
पञ्चगव्यं महातिक्तिंकल्याणकमथापि वा।
स्नेहनार्थं घृतं दद्यात् कामलापाण्डुरोगिणे॥४३॥
दाडिमात् कुडवो धान्यात् कुडवार्धं पलं पलम्।
चित्रकाच्छृङ्गवेराच्च पिप्पल्यष्टमिका तथा॥४४॥
तैर्विंशतिपलं कल्कैर्घृतस्य सलिलाढके।
सिद्धं हृत्पाण्डुगुल्मार्शः प्लीहवातकफार्तिनुत्॥४५॥
दीपनं श्वासकासघ्नं मूढवाते च शस्यते।
दुःखप्रसविनीनां च वन्ध्यानां चैव1916गर्भदम्॥४६॥
इति दाडिमाद्यं घृतम्।
कटुका रोहिणी मुस्तं हरिद्रे वत्सकात् फलम्।
पटोलश्चन्दनं मूर्वा त्रायमाणा दुरालभा॥४७॥
कृष्णा1917 पर्पटको निम्बो भूनिम्बो देवदारु च।
तैः कार्षिकैर्धृतप्रस्थः सिद्धः क्षीरचतुर्गुणः॥४८॥
रक्तपित्तं ज्वरं दाहं श्वयथुं सभगन्दरम्।
अर्शांस्यसृग्दरं चैव हन्ति विस्फोटकांस्तथा॥४९॥
इति कटुकाद्यं घृतम्।
पथ्याशतरसे पथ्यावृन्तार्धशतकल्कवान्।
प्रस्थः सिद्धो घृतात् पेयः स पाण्ड्वामयगुल्मनुत्॥५०॥
इति पथ्याघृतम्।
दन्त्यातुः1918पलरसे पिष्टैर्दन्तीशलाटुभिः।
तद्वत् प्रस्थो घृतात् सिद्धः प्लीहपाण्डुर्तिशोफजित्॥५१॥
इति दन्तीघृतम्।
पुराणसर्पिषः प्रस्थो द्राक्षार्धप्रस्थसाधितः।
कामलागुल्मपाण्ड्वर्तिज्वरमेहोदरापहः॥५२॥
इति द्राक्षाघृतम्।
हरिद्रात्रिफलानिम्बबलामधुकसाधितम्।
सक्षीरं माहिषं सर्पिः कामलाहरमुत्तमम्॥५३॥
इति हरिद्वादिघृतम्।
गोमूत्रद्विगुणो दार्वीकल्काक्षद्वयसाधितः।
दार्व्याःपञ्चपलक्वाथे कल्के कालीयके परः॥५४॥
माहिषात्1919 सर्पिषः प्रस्थः पूर्वः पूर्वे परे परः।
स्नेहैरेभिरुपक्रम्य स्निग्धं मत्वा विरेचयेत्॥५५॥
पयसा मूत्रयुक्तेन बहुशः केवलेन वा।
दन्तीफलरसे कोष्णे काश्मर्याञ्जलिना शृतम्॥५६॥
द्राक्षाञ्जलिं मृदित्वा वा दद्यात् पाण्ड्वामयापहम्।
द्विशर्करं त्रिवृच्चूर्णं पलार्धं पैत्तिकः पिबेत्॥५७॥
कफपाण्डुस्तु गोमूत्रयुक्तां1920 क्लिन्नां हरीतकीम्।
आरग्वधं रसेनेक्षोर्विदार्यामलकस्य च॥५८॥
सत्र्यूषणं बिल्वपत्रं पिबेन्ना कामलापहम्।
दन्त्यर्धपलकल्कं वा द्विगुडं शीतवारिणा॥५९॥
कामली त्रिवृतां वाऽपि त्रिफलाया रसैः पिबेत्1921।
विशालात्रिफलामुस्तकुष्ठदारुकलिङ्गान्॥६०॥
कार्षिकानर्धकर्षांशां1922 कुर्यादतिविषां तथा।
कर्षौं मधुरसाया द्वौ सर्वं चूर्णं सुखाम्बुना॥६१॥
मृदितं तं रसं पूतं पीत्वा लिह्याच्च1923मध्वनु।
कासं श्वासं ज्वरं दाहं पाण्डुरोगमरोचकम्॥६२॥
गुल्मानाहामवातांश्च रक्तपित्तं च नाशयेत्।
त्रिफलाया गुडूच्या वा दार्व्यानिम्बस्य वा रसम्॥६३॥
शीतं मधुयुतं प्रातः1924 कामलार्तः पिबेन्नरः।
क्षीरमूत्रं पिबेत् पक्षं1925 गव्यं माहिषमेव वा॥६४॥
पाण्डुर्गोमूत्रयुक्तं वा सप्ताहं त्रिफलारसम्।
तरुजान् ज्वलितान्मूत्रे निर्वाप्यामृद्यचाङ्कुरान्॥६५॥
मातुलुङ्गस्य तत् पूतं पाण्डुशोथहरं पिबेत्।
स्वर्णक्षीरी त्रिवृच्छ्यामे भद्रदारु समागरम्॥६६॥
गोमूत्राञ्जलिना पिष्टं1926 मूत्रे वा क्वथितं पिबेत्।
क्षीरमेभिः शृतं वाऽपि पिबेद्दोषानुलोमनम्॥६७॥
हरीतकींप्रयोगेण1927 गोमूत्रेणाथवा पिबेत्।
जीर्णे क्षीरेण भुञ्जीत रसेन मधुरेण वा॥६८॥
सप्तरात्रंगवांमूत्रे भावितं वाऽप्ययोरजः।
पाण्डुरोगप्रशान्त्यर्थं पयसा पाययेद्भिषक्॥६९॥
त्र्यूषणत्रिफलामुस्तविडङ्गचित्रकाः समाः।
नवायोरजसो भागास्तच्चूर्णं क्षौद्रसर्पिषा॥७०॥
भक्षयेत् पाण्डुहृद्रोगकुष्ठार्शःकामलापहम्।
नवायसमिदं चूर्णं कृष्णात्रेयेण भाषितम्॥७१॥
इति नवायसचूर्णम्।
गुडनागरमण्डूरतिलांशान्मानतः समान्।
पिप्पलीद्विगुणां कुर्याद्गुटिकां पाण्डुरोगिणे॥७२॥
त्रिफला त्र्यूषणं मुस्तं विडङ्गं चव्यचित्रकौ।
दार्वीत्वङ्माक्षिको धातुर्ग्रन्थिकं देवदारु च॥७३॥
एतान् द्विपलिकान् भागांश्चूर्णं कुर्यात् पृथक् पृथक्।
मण्डूरं द्विगुणं चूर्णाच्छुद्धमञ्जनसन्निभम्॥७४॥
गोमूत्रेऽष्टगुणे पक्त्वा तस्मिंस्तत् प्रक्षिपेत्ततः।
उदुम्बरसमान् कृत्वा वटकांस्तान यथाग्निना॥७५॥
उपयुञ्जीत तक्रेण जीर्णे सात्म्यं च भोजनम्।
मण्डूरवटका ह्येते प्राणदाः पाण्डुरोगिणाम्॥७६॥
कुष्ठान्यजीर्णकं1928 शोथमूरुस्तम्भं कफामयान्।
अर्शांसि कामलां मेहं प्लीहानं शमयन्ति च॥७७॥
इति मण्डूरवटकाः।
ताप्याद्रिजतुरूप्यायोमलाः पञ्चपलाः पृथक्।
चित्रकत्रिफलाव्योषविडङ्गैः पलिकैः सह॥७८॥
शर्कराष्टपलोन्मिश्राश्चूर्णिता मधुनाऽऽप्लुताः।
अभ्यस्यास्त्वक्षमात्रा हि जीर्णे नियमिताशिना॥७९॥
कुलत्थकाकमाच्यादिकपोतपरिहारिणा।
त्रिफलायास्त्रयो भागास्त्रयस्त्रिकटुकस्य च॥८०॥
भागाश्चित्रकमूलस्य विडङ्गानां तथैव च।
पञ्चाश्मजतुनो भागास्तथा रूप्यमलस्य च॥८१॥
माक्षिकस्य च शुद्धस्य लौहस्य रजसस्तथा1929।
अष्टौ भागाः सितायाश्च तत् सर्वं सूक्ष्मचूर्णितम्॥८२॥
माक्षिकेणाप्लुतं स्थाप्यमायसे भाजने शुभे।
उदुम्व्ररसमां मात्रां ततः खादेद्ययाग्नि ना॥८३॥
दिने दिने प्रयुञ्जीत जीर्णे भोज्यं यथेप्सितम्।
वर्जयित्वा कुलत्थानि काकमाचीं कपोतकम्॥८४॥
योगराज इति ख्यातो योगोऽयममृतोपमः।
रसायनमिदं श्रेष्ठं सर्वरोगहरं शिवम्॥८५॥
पाण्डुरोगं विषं कासं यक्ष्माणं विषमज्वरम्।
कुष्ठान्यजरकं मेहं शोषं श्वासमरोचकम्॥८६॥
विशेषाद्धन्त्यपस्मारं कामलां गुदजानि च।
इति योगराजः।
कौटजत्रिफलानिम्व्रपटोलघननागरैः॥८७॥
भावितानि दशाहानि रसैर्द्वित्रिगुणानि वा।शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा॥८८॥
त्वक्क्षीरी पिप्पली धात्री कर्कटाख्या पलोन्मिता।
निदिग्ध्याः फलमूलाभ्यां पलं युक्त्या त्रिगन्धकम्॥८९॥
चूर्णितं1930 मधुनः कुर्यान्त्रिपलेनाक्षिकान् गुडान्।
दाडिमाम्बुपयःपक्षिरसतोयसुरासवान्॥९०॥
तानू भक्षयित्वाऽनु पिबेन्निरन्नो भुक्त एव वा।
पाण्डुकुष्ठज्वरलीहतमकार्शोभगन्दरान्॥९१॥
हृद्रोगशुक्रमूत्राग्निदोषशोथगरोदरान्।
कासासुग्दरपित्तासृक्शोषगुल्मगरामयान्1931॥१२॥
ते च सर्वव्रणान्1932 हन्युः सर्वरोगहराः शिवाः।
इति शिलाजतुवटकाः।
पुनर्नवा त्रिवृव्द्योषविडङ्गं दारु चित्रकम्॥१३॥
कुष्ठं हरिद्रे त्रिफला दन्ती चव्यं कलिङ्गकाः।
कटुका पिप्पलीमूलं मुस्तं चेति पलोन्मितम्॥१४॥
मण्डूरं द्विगुणं चूर्णाद्गोमूत्रे व्द्याढके पचेत्।
कोलवद्गुडिकाः कृत्वा तक्रेणालोड्य ना पिबेत्॥१५॥
ताः पाण्डुरोगान् प्लीहानमर्शांसि विषमज्वरम्।
श्वयथुं ग्रहणीदोषं हन्युः कुष्ठं क्रिमींस्तथा॥९६॥
इति पुनर्नवामण्डूरम्।
दार्वीत्वक् त्रिफला व्योषं विडङ्गमयसो रजः।
मधुसर्पिर्युतं लिह्यात् कामलापाण्डुरोगवान्॥९७॥
तुल्या अयोरजः पथ्याहरिद्राः क्षौद्रसर्पिषा।
चूर्णिताः कामली लिह्याद्गुडक्षौद्रेण वाऽभयाः॥९८॥
त्रिफला द्वे हरिद्रे च कटुरोहिण्ययोरजः।
चूर्णितं क्षौद्रसर्पिर्भ्यांस1933लेहः कामलापहः॥९९॥
द्विपलांशां तुगाक्षीरी नागरं मधुयष्टिकाम्।
प्रास्थिकीं पिप्पलीं द्राक्षां शर्करार्धतुलां तथा॥१००॥
धात्रीफलरसद्रोणे चूर्णितं लेहवत् पचेत्।
शीतं मधुप्रस्थयुतं लिह्यात् पाणितलं ततः॥१०१॥
हन्त्येष1934 कामलां पित्तं पाण्डुं कासं हलीमकम्।
इति धात्र्यवलेहः।
त्र्युषणं त्रिफला चव्यंचिनको देवदारु च॥१०२॥
विडङ्गान्यभया मुस्तं वत्सकं चेति चूर्णयेत्।
मण्डूरतुल्यं तच्चूर्णं गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत्॥१०३॥
शनैः सिद्धास्तथा शीताः कार्याः कर्षसमा गुडाः।
यथाग्नि भक्षणीयास्ते प्लीहपाण्ड्वामयापहाः॥१०४॥
ग्रह्रण्यर्शोनुदश्चैव तक्रवाट्याशिनः स्मृताः।
इति मण्डूरवटकाः।
मञ्जिष्ठा रजनी द्राक्षा1935 बलामूलान्ययोरजः॥१०५॥
लोध्रं चैतेषु गौडः स्यादरिष्टः पाण्डुरोगिणाम्।
इति गौडोऽरिष्टः।
बीजकात् षोडशपलं, त्रिफलायाश्च विंशतिः॥१०६॥
द्राक्षायाः पञ्च, लाक्षायाः सप्त, द्रोणे जलस्य तत्।
साध्यं पादावशेषे तुपूतशीते समावपेत्॥१०७॥
शर्करायास्तुलां, प्रस्थं माक्षिकस्य च, कार्षिकम्।
व्योषं व्याघ्रनखोशीरं क्रमुकं सैलवालुकम्॥१०८॥
मधुकं कुष्ठमित्येतच्चूर्णितं घृतभाजने।
यवेषु दशरात्रस्थं ग्रीष्मे, द्विःशिशिरे स्थितम्॥१०९॥
पिबेत्तह्रहणीपाण्डुरोगार्शःशोथगुल्मनुत्।
मूत्रकृच्छ्राश्मरीमेहकामलासन्निपातजित्॥११०॥
बीजकारिष्ट इत्येष आत्रेयेण प्रकीर्तितः।
इति बीजकारिष्टः।
धात्रीफलसहस्रे द्वे पीडयित्वा रसं1936भिषक्॥१११॥
क्षौद्राष्टांशेन1937 संयुक्तं कृष्णार्धकुडवेन च।
शर्करार्धतुलोन्मिश्रं पक्षं स्निग्धघटे स्थितम्॥११२॥
प्रपिबेन्मात्रया प्रातर्जीर्णे मितहिताशनः।
कामलापाण्डुहृद्रोगवातासृग्विषमज्वरान्॥११३॥
कासहिक्कारुचिश्वासांश्चैषोऽरिष्टः प्रणाशयेत्।
इति धात्र्यरिष्टः।
स्थिरादिभिः शृतं तोयं पानाहारे प्रशस्यते॥११४॥
पाण्डूनां कामलार्तानां मृद्वीकामलकीरसः।
पाण्डुरोगप्रशान्त्यर्थमिति प्रोक्तं महर्षिणा॥११५॥
विकल्प्यमेतद्भिषजा पृथग्दोषबलं प्रति।
वातिके स्नेहभूयिष्ठं पैत्तिके तिक्तशीतलम्॥११६॥
श्लेष्मिके कटुतिक्तोष्णं1938 विमिश्रं सान्निपातिके।
निपातयेच्छरीरातु मृत्तिकां भक्षितां भिषक्॥११७॥
युक्तिज्ञःशोधनैस्तीक्ष्णैः प्रसमीक्ष्य बलाबलम्।
शुद्धकायस्य सर्पींषि बलाधानानि योजयेत्॥११८॥
व्योषं बिल्वं हरिद्रेद्वे त्रिफला द्वे पुनर्नवे।
मुस्तान्ययोरजः पाठा विडङ्गं देवदारु च॥११९॥
वृश्चिकाली च भार्ङ्गीच सक्षारैस्तैः1939 समैर्धृतम्।
साधयित्वा पिबेधुक्त्या नरो मृद्दोषपीडितः॥१२०॥
तद्वत् केशरयष्ट्याह्वपिप्पलीक्षारशाद्वलैः1940।
मृद्भक्षणादातुरस्य लौल्यादविनिवर्तिनः॥१२१॥
द्वेषा(ष्या)र्थंभावितां कामं दद्यात्तद्दोषनाशनैः।
विडङ्गैलातिविषया निम्बपत्रेण पाठया1941॥१२२॥
वार्ताकैः कटुरोहिण्या कौटजैर्मू1942र्वयाऽपि वा।
यथादोषं प्रकुर्वीत भैषज्यं पाण्डुरोगिणाम्॥१२३॥
क्रियाविशेष एषोऽस्य मतो हेतुविशेषतः।
तिलपिष्टनिभं यस्तु वर्चः1943 सृजति कामली॥१२४॥
श्लेष्मणा रुद्धमार्गेतं कफपित्तहरैर्जयेत्।
रूक्षशीतगुरुस्वादुव्यायामैर्वेगनिग्रहैः॥१२५॥
कफसंमूर्च्छितो वायुः स्थानात् पित्तं क्षिपेद्वली।
हारिङ्गनेत्रमूत्रत्वक् श्वेतवर्चास्तदा नरः ॥१२६॥
भवेत् साटोपविष्टम्भो गुरुणा हृदयेन च।
दौर्बल्याल्पाग्निपार्श्वार्तिहिक्काश्वासारुचिज्वरैः॥१२७॥
क्रमेणाल्पेऽनुसज्येत1944 पित्ते शाखासमाश्रिते।
बर्हितित्तिरिदक्षाणां रूक्षाम्लकटुकै रसैः॥१२८॥
शुष्कमूलककौलत्थैर्यूषैश्चान्नानि भोजयेत्।
मातुलुङ्गरसं क्षौद्रपिप्पलीमरिचान्वितम्॥१२९॥
सनागरं पिबेत् पित्तं तथाऽस्यैति स्वमाशयम्।
कटुतीक्ष्णोष्णलवणैर्भृशाम्लैश्चाप्युपक्रमः॥१३०॥
आपित्तरागाच्छकृतो वायोश्चाप्रशमाद्भवेत्।
स्वस्थानमागते पित्ते पुरीषे1945 पित्तरञ्जिते॥१३१॥
निवृत्तोपद्रवस्यास्य पूर्णः1946 कामलिको विधिः।
यदा तु पाण्डोर्वर्णः स्याद्धरितश्यावपीतकः॥१३२॥
बलोत्साहक्षयस्तन्द्रा मन्दाग्नित्वं मृदुज्वरः।
स्त्रीष्वहर्षोऽङ्गमर्दश्च श्वासस्तृष्णाऽरुचिर्भ्रमः॥१३३॥
हलीमकं तदा तस्य विद्यादनिलपित्ततः।
गुडूचीस्वरसक्षीरसाधितं माहिषं घृतम्॥१३४॥
स पिबेन्त्रिवृतां स्निग्धो रसेनामलकस्य तु।
विरिक्तोमधुरप्रायं भजेत् पित्तानिलापहम्॥१३५॥
द्राक्षालेहं च पूर्वोक्तं सर्पींषि मधुराणि च।
यापनानू क्षीरबस्तींश्च शीलयेत् सानुवासनान्॥१३६॥
मार्द्वीकारिष्टयोगांश्च पिबेद्युत्त्याऽग्निवृद्धये।
कासिकं चाभयालेहं पिप्पलीं मधुकं बलाम्।
पयसा च प्रयुञ्जीत यथादोषं यथाबलम्॥१३७॥
तत्र श्लोकौ।
पाण्डोः पञ्चविधस्योक्तं हेतुलक्षणभेषजम्।
कामला द्विविधा तेषां साध्यासाध्यत्वमेव च॥१३८॥
तेषां विकल्पो यश्चान्यो महाव्याधिर्हलीमकः।
तस्य चोक्तं समासेन व्यञ्जनं1947 सचिकित्सितम्॥१३९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
पाण्डुरोगचिकित्सितं नाम षोडशोऽध्यायः॥१६॥
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सप्तदशोऽध्यायः।
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अथातो हिक्काश्वासचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
वेदलोकार्थतत्वज्ञमात्रेयमृषिमुत्तमम्।
अपृच्छत् संशयं धीमानग्निवेशः कृताञ्जलिः॥३॥
य इमे द्विविधाः प्रोक्तास्त्रिदोषास्त्रिप्रकोपणाः।
रोगा नानात्मकास्तेषां कस्को भवति दुर्जयः॥४॥
अग्निवेशस्य तद्वाक्यं1948 श्रुत्वा मतिमतां वरः।
उवाच परमप्रीतः परमार्थविनिश्चयम्॥५॥
कामं प्राणहरा रोगा बहवो न तु ते तथा।
यथा श्वासश्च हिक्का च प्राणानाशु निकृन्ततः॥६॥
अन्यैरप्युपसृष्टस्य रोगैर्जन्तोः पृथग्विधैः।
अन्ते संजायते हिक्का श्वासो वा तीव्रवेदनः॥७॥
कफवातात्मकावेतौ पित्तस्थानसमुद्भवौ।
हृदयस्य रसादीनां धातूनां चोपशोषणौ॥८॥
तस्मात् साधारणावेतौ मतौ मम1949 सुदुर्जयौ।
मिथ्योपचरितौ क्रुद्धौ हत आशीविषाविव॥९॥
पृथक् पञ्चविधावेतौ निर्दिष्टौ रोगसंग्रहे।
तयोः शृणु समुत्थानं लिङ्गं च सभिषग्जितम्॥१०॥
रजसा धूमवाताभ्यां शीतस्थानाम्बुसेवनात्।
व्यायामाद्गाम्यधर्माध्वरूक्षान्नविषमाशनात्॥११॥
आमप्रदोषादानाहाद्रौक्ष्यादत्यपतर्पणात्।
दौर्बल्यान्मर्मणो घाताद्द्वन्द्वाच्छुद्ध्यतियोगतः॥१२॥
अतीसारज्वरच्छर्दिप्रतिश्यायक्षतक्षयात्।
रक्तपित्तादुदावर्ताद्विसूच्यलसकादपि॥१३॥
पाण्डुरोगाद्विषाच्चैव प्रवर्तेते1950 गदाविमौ।
निष्पावमापपिण्याकतिलतैलनिषेवणात्॥१४॥
पिष्टशालूकविष्ठम्भिविदाहिगुरुभोजनात्।
जलजानूपपिशितदध्यामक्षीरसेवनात्॥१५॥
अभिष्यन्द्युपचाराच्चश्लेष्मलानां च सेवनात्।
कण्ठोरसः प्रतीघाताद्विबन्धैश्च पृथग्विधैः॥१६॥
मारुतः प्राणवाहीनि स्रोतांस्याविश्य कुप्यति।
उरःस्थः कफमुद्धूय हिक्काश्वासान् करोति सः॥१७॥
घोरान्प्राणोपरोधाय प्राणिनां पञ्च पञ्च च।
उभयोः पूर्वरूपाणि शृणु वक्ष्याम्यतः परम्॥१८॥
कण्ठोरसोर्गुरुत्वं च वदनस्य कषायता।
हिक्कानां पूर्वरूपाणि कुक्षेराठोप एव च॥१९॥
आनाहः पार्श्वशूलं च पीडनं हृदयस्य च।
प्राणस्य च विलोमत्वं श्वासानां पूर्वलक्षणम्॥२०॥
प्राणोदकान्नवाहीनि स्रोतांसि सकफोऽनिलः।
हिक्काः करोति संरुध्य तासां लिङ्गं पृथक् शृणु॥२१॥
क्षीणमांसबलप्राणतेजसः सकफोऽनिलः।
गृहीत्वा सहसा कण्ठमुच्चैर्घोषवतीं भृशम्॥२२॥
करोति सततं हिक्कामेकद्वित्रिगुणां तथा।
प्राणः स्रोतांसि मर्माणि संरुध्योष्माणमेव च॥२३॥
संज्ञां मुष्णाति गात्राणां स्तम्भं संजनयत्यपि।
मार्गचैवान्नपानानां रुणद्यपहतस्मृतेः॥२४॥
साश्रुविप्लुतनेत्रस्य स्तब्धशङ्खच्युतभ्रुवः।
सक्तजल्पप्रलापस्य निर्वृतिं नाधिगच्छतः॥२५॥
महामूला महावेगा महाशब्दा महाबला।
महाहिक्केति सा नॄणां सद्यः प्राणहरा मता॥२६॥
इति महाहिक्का।
हिक्कते यः प्रवृद्धस्तु कृशो दीनमना नरः।
जर्जरेणोरसा कृच्छ्रं गम्भीरमनुनादयन्॥२७॥
संजृम्भन् संक्षिपंश्चैव तथाऽङ्गानि प्रसारयन्।
पार्श्वेचोभे समायम्य कूजन् स्तम्भरुगर्दितः॥२८॥
नाभेः पक्वाशयाद्वाऽपि हिक्का चास्योपजायते।
क्षोभयन्ती भृशं देहं नामयन्तीव ताम्यतः॥२९॥
रुणद्युच्छ्वासमार्गं तु प्रनष्टबलचेतसः।
गम्भीरा नाम सा तस्य हिक्का प्राणान्तिकी मता॥३०॥
इति गम्भीरा हिक्का।
व्यपेता जायते हिक्का याऽन्नपाने चतुर्विधे।
आहारपरिणामान्ते भूयश्च लभते बलम्॥३१॥
प्रलापवम्यतीसारतृष्णार्तस्य विचेतसः।
जृम्मिणो1951 विप्लुताक्षस्य शुष्कास्यस्य विनामिनः॥३२॥
पर्याध्मातस्य हिक्का या जत्रुमूलादसन्तता।
सा व्यपेतेति विज्ञेया हिक्का प्राणोपरोधिनी॥३३॥
इति व्यपेता हिक्का।
क्षुद्रवातो यदा कोष्ठाव्द्यायामपरिघट्टितः।
कण्ठे प्रपद्यते हिक्कां तदा क्षुद्रां1952करोति सः॥३४॥
अतिदुःखा न सा नोरः शिरोमर्मप्रबाधिनी।
न चोच्छ्वासान्नपानानां मार्गमावृत्य तिष्ठति॥३५॥
वृद्धिमायस्यतो याति भुक्तमात्रे च मार्दवम्।
यतः प्रवर्तते पूर्वं तत एव निवर्तते॥३६॥
हृदयं क्लोम कण्ठं च तालुकं च समाश्रिता।
मृद्वीसा क्षुद्रहिक्केति नृणां साध्या प्रकीर्तिता॥३७॥
इति क्षुद्रहिक्का।
सहसा1953ऽत्यभ्यवहृतैः पानान्नैः पीडितोऽनिलः।
ऊर्ध्वं प्रपद्यते कोष्ठान्मद्यैर्वाऽतिमदप्रदैः॥३८॥
तथाऽतिरोषभाष्याध्वहास्यभारतिवर्तनैः
वायुः कोष्ठगतो धावन् पानभोज्यप्रपीडितः॥३९॥
उरः1954स्रोतः समाविश्य कुर्याद्धिक्कां ततोऽन्नजाम्।
तथा शनैरसंबद्धं क्षुवंश्चापि स हिक्कते॥४०॥
न मर्मबाधाजननी नेन्द्रियाणां प्रबाधिनी।
हिक्का पीते तथा भुक्ते शमं या याति साऽन्नजा॥४१॥
इति अन्नजा हिक्का।
अतिसंचितदोषस्य1955 भक्तच्छेदकृशस्य च।
व्याधिभिः क्षीणदेहस्य वृद्धस्यातिव्यवायिनः॥४२॥
आसां या सा समुत्पन्ना हिक्का हन्त्याशु जीवितम्।
यमिका च प्रलापार्तितृष्णामोहसमन्विता॥४३॥
अक्षीणश्चाप्यदीनश्च स्थिरधात्विन्द्रियश्च यः।
तस्य साधयितुं शक्या यमिका हन्त्यतोऽन्यथा॥४४॥
यदा स्त्रोतांसि संरुध्य मारुतः कफपूर्वकः।
विष्वग्व्रजति संरुद्धस्तदा श्वासान् करोति सः॥४५॥
उद्धूयमानवातो यः शब्दवदुःखितो नरः।
उचैः श्वसिति संरुद्धो मत्तर्षभ इवानिशम्॥४६॥
प्रनष्टज्ञानविज्ञानस्तथा विभ्रान्तलोचनः।
विकृताक्ष्याननो1956 बद्धमूत्रवर्चा विशीर्णवाक्॥४७॥
दीनः प्रश्वसितं चास्य दूराद्विज्ञायते भृशम्।
महाश्वासोपसृष्टः स क्षिप्रमेव विपद्यते॥४८॥
इति महाश्वासः।
दीर्घं श्वसिति यस्तूर्ध्वं1957 न च प्रत्याहरत्यधः।
श्लेष्मावृतमुखस्त्रोताः क्रुद्धगन्धवहार्दितः॥४९॥
ऊर्ध्वदृष्टिर्विपश्यंश्च विभ्रान्ताक्ष इतस्ततः।
प्रमुह्यन् वेदनार्तश्च शुष्कास्योऽरतिपीडितः॥५०॥
ऊर्ध्वश्वासे प्रकुपिते ह्यधःश्वासो निरुध्यते।
मुह्यतस्ताम्यतश्चोर्ध्वं श्वासस्तस्यैव हत्यसून्॥५१॥
इत्यूर्ध्वश्वासः।
यस्तु श्वसिति विच्छिन्नं सर्वप्राणेन पीडितः।
न वा श्वसिति दुःखार्तो मर्मच्छेदरुगर्दितः॥५२॥
आनाहस्वेदमूर्च्छार्तो दह्यमानेन बस्तिना।
विप्लुताक्षः परिक्षीणः श्वसन् रक्तैकलोचनः॥५३॥
विचेताः परिशुष्कायो विवर्णः प्रलपनू नरः।
छिन्नश्वासेन विच्छिन्नः स शीघ्रं विजहात्यसून्॥५४॥
इति छिन्नश्वासः।
प्रतिलोमं यदा वायुः स्रोतांसि प्रतिपद्यते।
ग्रीवां शिरश्च संगृह्य श्लेष्माणं समुदीर्य च॥५५॥
करोति पीनसं तेन रुद्धो घुर्घुरकं तथा।
अतीव तीव्रवेगं च श्वासं प्राणप्रपीडकम्॥५६॥
प्रताम्यत्यतिवेगाच्च1958 कासते सन्निरुध्यते।
प्रमोहं कासमानश्च स गच्छति मुहुर्मुहुः॥५७॥
श्लेष्मण्यमुच्यमाने च भृशं भवति दुःखितः।
तस्यैव च विमोक्षान्ते मुहूर्तं लभते सुखम्॥५८॥
तथाऽस्योद्ध्वंसते कण्ठः कृच्छ्राच्छक्नोति भाषितुम्।
न चापि लभते निद्रां शयानः श्वासपीडितः॥५९॥
पार्श्वे तस्यावगृह्णाति शयानस्य समीरणः।
आसीनो लभते सौख्यमुष्णं चैवाभिनन्दति॥३०॥
उच्छ्रिताक्षो ललाटेन स्विद्यता भृशमर्तिमान्।
विशुष्कास्यो मुहुः श्वासो मुहुश्चैवावधम्यते॥६१॥
मेघाम्बुशीतप्राग्वातैः श्लेष्मलैश्चाभिवर्धते1959।
स याप्यस्तमकः श्वासः साध्यो वा स्यान्नवोत्थितः॥६२॥
इति तमकश्वासः।
ज्वरमूर्च्छापरीतस्य विद्यात् प्रतमकं तु तम्।
उदावर्तरजोऽजीर्णक्लिन्नकायनिरोधजः॥६३॥
तमसा वर्धतेऽत्यर्थं शीतैश्चाशु प्रशाम्यति।
मज्जतस्तमसीवाऽस्य विद्यात् संतमकं तु तम्॥६४॥
इति प्रतमकसंतमकश्वासौ।
रूक्षायासोद्भवः कोष्ठे क्षुद्रो वात उदीरयन्।
क्षुद्रश्वासो न सोऽत्यर्थं दुःखेनाङ्गप्रबाधकः॥६५॥
हिनस्ति न स गात्राणि न च दुःखो यथेतरे।
न च भोजनपानानां निरुणध्द्युचितां गतिम्॥६६॥
नेद्रियाणां व्वथां नापि कांचिदापादयेद्रुजम्।
स साध्य उक्तो बलिनः सर्वे चाब्यक्तलक्षणाः॥६७॥
इति क्षुद्रश्वासः।
इति श्वासाः समुद्दिष्टा हिक्काश्चैव स्वलक्षणैः।
एषां प्राणहरा वर्ज्या घोरास्ते ह्याशुकारिणः॥६८॥
भेषजैः साध्ययाप्यांस्तु क्षिप्रं भिषगुपाचरेत्।
उपेक्षिता दहेयुर्हि शुष्कं कक्षमिवानलः॥६९॥
कारणस्थानमूलैक्यादेकमेव चिकित्सितम्।
द्वयोरपि यथादृष्टभृषिभिस्तन्निबोधत॥७०॥
हिक्काश्वासार्दितं स्निग्धैरादौ स्वेदैरुपाचरेत्।
आक्तं लवणतैलेन नाडीप्रस्तरसंकरैः॥७१॥
तैरस्य ग्रथितः श्लेष्मा स्रोतः स्वभिविलीयते।
खानि मार्दवमायान्ति ततो1960 वातानुलोमता॥७२॥
यथाऽद्रिकुञ्जेष्वर्कांशुतप्तं विष्यन्दते हिमम्।
श्लेष्मा तप्तः स्थिरो देहे स्वेदैर्विष्यन्दते तथा॥७३॥
स्विन्नं ज्ञात्वा ततस्तूर्णंभोजयेत् स्निग्धमोदनम्।
मत्स्यानां शूकराणां वा रसैर्दध्युत्तरेण वा॥७४॥
ततः श्लेष्मणि संवृद्धे वमनं पाययेत्तु तम्।
पिप्पलीसैन्धवक्षौद्रैर्युक्तं वाताविरोधि यत्॥७५॥
निर्हृते सुखमाप्नोति स कफे दुष्टविग्रहे।
स्रोतःसु च विशुद्धेषु चरत्यविहतोऽनिलः॥७६॥
लीनश्चेद्दोषशेषः स्याद्धूमैस्तं निर्हरेद्बुधः।
हरिद्रां पत्रमैरण्डमूलं लाक्षां मनःशिलाम्॥७७॥
मांसींसदेवदार्वेलां पिष्ट्वावार्तैप्रकल्पयेत्।
तां घृतातां पिबेद्धूमं यवैर्वा घृतसंयुतैः॥७८॥
मधूच्छिष्टं सर्जरसं घृतं मल्लकसंपुटे।
कृत्वा धूमं पिबेच्छृङ्गं बालं वा स्नायु वा गवाम्॥७९॥
श्योनाकवर्धमानानां नाडीं शुष्कां कुशस्य वा।
पद्मकं गुग्गुलं लोध्रंशल्लकीं वा घृताप्लुताम्॥८०॥
क्षतक्षीणातिसारासृविपत्तदाहानुबन्धजान्।
मधुरस्निग्धशीताद्यैर्हिक्काश्वासानुपाचरेत्॥८१॥
न स्वेद्याः पित्तदाहार्ता रक्तस्वेदातिवर्तिनः।
क्षीणधातुबला रूक्षा गर्भिण्यश्चापि पित्तलाः॥८२॥
कोष्णैः काममुरः कण्ठं स्नेहसेकैः सशर्करैः।
उत्कारिकोपनाहैश्च स्वेदयेन्मृदुभिः1961 क्षणम्॥८३॥
तिलोमामाघगोधूमचूर्णैर्वातहरैः सह।
स्नेहैश्चोत्कारिका सालैः सक्षीरैर्वा कृता हिता॥८४॥
नवज्वरामदोषेषु रूक्षस्वेदं विलङ्घनम्।
समीक्ष्योल्लेखनं वाऽपि कारयेल्लवणाम्बुना॥८५॥
अतियोगोतं तं दृष्ट्वा वातहरैर्भिंषक्।
रसाद्यैर्नातिशीतोष्णैरभ्यङ्गैश्च शमं नयेत्॥८६॥
उदावर्ते तथाऽऽध्माने मातुलुङ्गाम्लवेतसैः।
हिङ्गुपीलुबिडैश्वान्नं युक्तं स्यादनुलोमनम्॥८७॥
हिक्काश्वासामयी ह्येको बलवान् दुर्बलोऽपरः।
कफाधिकस्तथैवैको रूक्षो बह्वनिलोऽपरः॥८८॥
कफाधिके बलस्थे च वमनं सविरेचनम्।
कुर्यात् पथ्याशिने धूमलेहादिशमनं ततः॥८९॥
वातिकान् दुर्बलान् बालान् वृद्धांश्चानिलसूदनैः।
तर्पयेदेव शमनैः स्नेहयूषरसादिभिः॥९०॥
अनुत्क्लिष्टकफास्वीन्नदुर्बलानां विशोधनात्।
वायुर्लब्धास्पदो मर्म संशोष्याशु हरेदसून्॥९१॥
दृढान् बहुकफांस्तस्माद्रसैरानूपवारिजैः।
तृप्तान् विशोधयेत् स्विन्नान् बृंहयेदितरान् भिषक्॥९२॥
बर्हितित्तिरिदक्षाश्च जाङ्गलाश्च मृगद्विजाः।
दशमूलीरसे सिद्धाः कौलत्थे वा रसे हिताः॥९३॥
निदिग्धिकां बिल्वमध्यं कर्कटाख्यां दुरालभाम्।
त्रिकण्टकं गुडूचीं च कुलस्थांश्च सचित्रकान्॥९४॥
जले पक्त्वा रसः पूतः पिप्पलीघृतभर्जितः।
सनागरः सलवणः स्याद्यूषो भोजने हितः॥९५॥
रास्त्रां बलांपञ्चमूलं ह्रस्वं मुद्गान् सचित्रकान्।
पक्त्वाऽम्भसि रसे तस्मिन् यूषः साध्यश्च पूर्ववत्॥९६॥
पल्लवान्मातुलुङ्गस्य निम्बस्य कुलकस्य च।
पक्त्वा मुद्रांश्च सव्योषान् क्षारयूषं विपाचयेत्॥९७॥
दत्त्वा सलवणं क्षारं शिग्रूणि मरिचानि च।
युक्त्या संसाधितो यूषो हिक्काश्वासविकारनुत्॥९८॥
कासमर्दकपत्राणां यूषः शोभाञ्जनस्य च।
शुष्कमूलकयूषश्च हिक्काश्वासनिवारणः॥९९॥
सदधिव्योषसर्पिष्को यूषो वार्ताकजो हितः।
शालिषष्टिकगोधूमयवान्नान्यनवानि च॥१००॥
हिङ्गुसौवर्चलाजाजीबिडपौष्करचित्रकैः।
सिद्धा कर्कटशृङ्ग्याच यवागूः श्वासहिक्किनाम्॥१०१॥
दशमूलीशटीरास्त्रापिप्पलीबिल्वपौष्करैः।
शृङ्गीतामलकीभार्गीगुडूचीनागरर्धिभिः॥१०२॥
यवागूं विधिना सिद्धां कषायं वा पिबेन्नरः।
कासहृद्ग्रहपार्श्वार्तिहिक्काश्वासप्रशान्तये॥१०३॥
पुष्कराह्वशटीव्योषमातुलुङ्गाम्लवेतसैः।
योजयेदन्नपानानि ससर्पिर्बिडहिङ्गुभिः॥१०४॥
दशमूलस्य वा क्वाथमथवा देवदारुणः।
तृषितो मदिरां वाऽपि हिक्काश्वासी पिबेन्नरः॥१०५॥
पाठां मधुरसां रास्त्रां सरलं देवदारु च।
प्रक्षाल्य जर्जरीकृत्य सुरामण्डे निधापयेत्॥१०६॥
तं मन्दलवणं कृत्वा भिषक् प्रसृतसंमितम्।
पाययेत्तु ततो हिक्का श्वासश्चैवोपशाम्यति॥१०७॥
हिङ्गु सौवर्चलं कोलं समङ्गां पिप्पलीं बलाम्।
मातुलुङ्गरसे पिष्टमारनालेन वा पिबेत्॥१०८॥
सौवर्चलं नागरं च भार्गीद्विशर्करायुतम्।
उष्णाम्बुना पिबेदेतद्धिक्काश्वासविकारनुत्॥१०९॥
भार्गीनागरयोः कल्कं मरिचक्षारयोस्तथा।
पीतद्रुचित्रकास्फोतामूर्वाणां चाम्बुना पिबेत्॥११०॥
मधूलिका तुगाक्षीरी नागरं पिप्पली तथा।
उत्कारिका घृते सिद्धा श्वासे पित्तानुबन्धजे॥१११॥
श्वाविधं शशमांसं च शल्लकस्य च शोणितम्।
पिप्पलीघृतसिद्धानि श्वासे वातानुबन्धजे॥११२॥
सुवर्चलारसो दुग्धं घृतं त्रिकटुकान्वितम्।
शाल्योदनस्यानुपानं वातपित्तानुगे हितम्॥११३॥
शिरीषपुष्पस्वरसः सप्तपर्णस्य वा पुनः।
पिप्पलीमधुसंयुक्तः कफपित्तानुगे मतः॥११४॥
मधुकं पिप्पलीमूलं गुडो गोश्वशकृद्रसः1962।
घृतं क्षौद्रं श्वासकासहिक्काभिष्यन्दिनां शुभम्॥११५॥
खराश्वोष्ट्रवराहाणां मेषस्य च गजस्य च।
शकुद्रसं बहुकफे1963 चैकैकं मधुना पिबेत्॥११६॥
क्षारं चाप्यश्वगन्धाया लिह्यान्ना क्षौद्रसर्पिषा।
मयूरपादनालं वा शकलं शल्लकस्य वा॥११७॥
श्वाविद्रोहकचाषाणां1964 रोमाणि कुररस्य वा।
एकद्विशफशृङ्गाणि चर्मास्थीनि खुरांस्तथा॥११८॥
सर्वाण्येकैकशो वाऽपि दग्ध्वा क्षौद्रघृतान्वितम्।
चूर्णं लिहन् जयेत् कासं हिक्कां श्वासं च दारुणम्॥११९॥
एते हि कफ संरुद्धगतिप्राणप्रकोपजाः1965।
तस्मात्तन्मार्गशुद्ध्यर्थं देया लेहा न निष्कफे॥१२०॥
का(श्वा)सिने छर्दनं दद्यात् स्वरभङ्गे च बुद्धिमान्।
वातश्लेष्महरैर्युक्तं तमके तु विरेचनम्॥१२१॥
उदीर्यते भृशतरं मार्गरोधाद्वहज्जलम्।
यथा तथाऽनिलस्तस्य मार्गं नित्यं विशोधयेत्॥१२२॥
शटीचोरकजीवन्तीत्वङ्मुस्तं पुष्कराह्वयम्।
सुरसं तामलक्येला पिप्पल्यगुरु नागरम्॥१२३॥
वालकं च समं चूर्णं कृत्वाऽष्टगुणशर्करम्।
सर्वथा तमके श्वासे हिक्कायां च प्रयोजयेत्॥१२४॥
इति शव्यादिचूर्णम्।
मुक्ताप्रवालवैडूर्यशङ्खस्फटिकमञ्जनम्।
ससारगन्धकाचार्क1966काचानि’ इति च पा०।")सूक्ष्मैलालवणद्वयम्॥१२५॥
ताम्रायोरजसी रूप्यं सौगन्धिककशेरुकम्।
ज्योतीरसः शणाद्बीजमपामार्गस्य तण्डुलाः॥१२६॥
एषां पाणितलं चूर्णं तुल्यानां क्षौद्रसर्पिषा।
हिक्कां श्वासं च कासं च लीढमाशु नियच्छति॥१२७॥
अञ्जनात्तिमिरं काचं नीलिकां पुष्पकं तमः।
पिल्लं कण्डुमभिष्यन्दमर्म चैव प्रणाशयेत्॥१२८॥
इति मुक्ताद्यं चूर्णम्।
शटीपुष्करमूलानां चूर्णमामलकस्य च।
मधुना संयुतं लेह्यं चूर्णं वा काललोहजम्॥१२९॥
सशर्करां तामलकी द्राक्षां गोऽश्वशकृद्रसम्।
तुल्यं गुडं नागरं च प्राशयेन्नावयेत्तथा॥१३०॥
लशुनस्य पलाण्डोर्वा मूलं गृञ्जनकस्य वा।
नावयेच्चन्दनं वाऽपि नारीक्षीरेण संयुतम्॥१३१॥
सुखोष्णं घृतमण्डं वा सैन्धवेनावचूर्णितम्।
नावयेन्मक्षिका विष्ठामलक्तकरसेन वा॥१३२॥
नारीक्षीरेण सिद्धं वा सर्पिर्मधुरकैरपि।
पीतं नस्तो निषिक्तं वा सद्यो हिक्कां नियच्छति॥१३३॥
सकृदुष्णं सकृच्छीतं व्यत्यासाद्धिक्किनां पयः।
पाने नस्तः क्रियायां च शर्करामधुसंयुतम्॥१३४॥
अधोभागैघृतं सिद्धं सद्यो हिक्कां नियच्छति।
पिप्पलीमधुयुक्तौ वा रसौ धात्रीकपित्थयोः॥१३५॥
लाजालाक्षामधुद्राक्षापिप्पल्यश्वशकृद्रसानू।
लिह्यात कोलमधुद्राक्षापिप्पलीनागराणि वा॥१३६॥
शीताम्बुसेकः सहसा त्रासो विस्मापनं भयम्।
क्रोधहर्षप्रियोदेगा हिक्काप्रच्यावना मताः॥१३७॥
हिक्काश्वासविकाराणां निदानं यत् प्रकीर्तितम्।
वर्ज्यमारोग्यकामैस्तद्धिक्काश्वासविकारिभिः॥१३८॥
हिक्काश्वासानुबन्धा1967 ये शुष्कोरः कण्ठतालुकाः।
प्रकृत्या रूक्षदेहा ये सर्पिर्भिस्तानुपाचरेत्॥१३९॥
दशमूलरसे सर्पिर्दधिमण्डेन साधयेत्।
कृष्णासौवर्चलक्षारवयःस्थाहिङ्गुचोरकैः॥१४०॥
कायस्थया च तत् पानाद्धिक्काश्वासौ प्रणाशयेत्1968।
इति दशमूलाद्यंघृतम्।
तेजोवत्यभया कुष्ठं पिप्पली कटुरोहिणी॥१४१॥
भूतीकं पौष्करं मूलं पलाशश्चित्रकः शटी।
सौवर्चलं तामलकी सैन्धवं बिल्वपेशिका॥१४२॥
तालीशपत्रं जीवन्ती वचा तैरक्षसंमितैः।
हिङ्गुपादैर्घृतप्रस्थं पचेत्तोये चतुर्गुणे॥१४३॥
एतद्यथाबलं पीत्वा हिक्काश्वासौ जयेन्नरः।
शोधानिलार्शोग्रहणी1969हृत्पार्श्वरुज एव च॥१४४॥
इति तेजोवत्यादिघृतम्।
मनः शिलासर्जरसलाक्षारजनिपद्मकैः।
मञ्जिष्ठैलैश्च कर्षांशैः प्रस्थः सिद्धो घृताद्धितः॥१४५॥
इति मनःशिलादिघृतम्।
जीवनीयोपसिद्धं वा सक्षौद्रंलेहयेद्धृतम्।
त्र्यूषणं1970 दाधिकं वाऽपि पिबेवासाघृतं तथा॥१४६॥
यत्किंचित् कफवातगघ्नमुष्णं वातानुलोमनम्।
भेषजं पानमन्नं वा तद्धितं1971 श्वासहिक्किने॥१४७॥
वातकृद्वा कफहरं कफकृद्वाऽनिलापहम्।
कार्यं नैकान्तिकं ताभ्यां प्रायः श्रेयोऽनिलापहम्॥१४८॥
सर्वेषां बृंहणो ह्यल्पः1972 शक्यश्च प्रायशो भवेत्।
नावश्यं शमनोपायो भृशोऽशक्यश्च कर्शने॥१४९॥
तस्माच्छुद्धानशुद्धांश्च शमनैर्बृंहणैरपि।
हिक्काश्वासार्दिताञ्जन्तून् प्रायशः समुपाचरेत्॥१५०॥
तत्र श्लोकः।
दुर्जयत्वे समुत्पत्तौ क्रियैकत्वे च कारणम्।
लिङ्गं पथ्यं च हिक्कानां श्वासानां चेह दर्शितम्॥१५१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने हिक्काश्वासचिकित्सितं नाम
सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
अष्टादशोऽध्यायः।
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अथातः कासचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
तपसा तेजसा धृत्या धिया च परयाऽन्वितः।
आत्रेयः कासशान्त्यर्थं प्राह सिद्धं चिकित्सितम्॥३॥
वातादिजास्त्रयो ये च क्षतजः क्षयजस्तथा।
पञ्चैते स्युर्नृणां कासा वर्धमानाः क्षयप्रदाः॥४॥
पूर्वरूपं भवेत्तेषां शूकपूर्णगलास्यता।
कण्ठे कण्डूश्च भोज्यानामवरोधश्च जायते॥५॥
अधः प्रतिहतो वायुरूर्ध्वस्रोतः समाश्रितः।
उदानभावमापन्नः कण्ठे सक्तस्तथोरसि॥६॥
आविश्य सिरसः खानि सर्वाणि प्रतिपूरयन्।
आभञ्जन्नाक्षिपन् देहं हनुमन्ये तथाऽक्षिणी॥७॥
नेत्रे पृष्ठमुरः पार्श्वे निर्भुज्य स्तम्भयंस्ततः।
शुष्को वा सकफो वाऽपि कसनात् कास उच्यते॥८॥
प्रतिघातविशेषेण तस्य वायोः सरंहसः।
वेदनाशब्दवैषम्यं1973 कासानामुपजायते॥९॥
रूक्षशीतकषायाल्पप्रमितानशनं स्त्रियः।
वेगधारणमायासो वातकासप्रवर्तकाः॥१०॥
हृत्पार्श्वोरः शिरःशूलस्वरभेदकरो भृशम्।
शुष्कोरः कण्ठवऋस्य हृष्टलोम्नः प्रताम्यतः॥११॥
निर्घोषदैन्यस्तननदौर्बल्यक्षोभमोहकृत्।
शुष्ककासः कफंशुष्कं कृच्छ्रान्मुक्त्वाऽल्पतां व्रजेत्॥१२॥
स्निग्धाम्ललवणोष्णैश्च भुक्तपीतैः प्रशाम्यति।
ऊर्ध्ववातस्य जीर्णेऽन्ने वेगवान्मारुतो भवेत्॥१३॥
कटुकोष्णविदाह्यम्लक्षाराणामति सेवनम्।
पित्तकासकरं क्रोधः संतापश्चाग्निसूर्यजः॥१४॥
पीतनिष्ठीवनाक्षित्वं तिक्तास्यत्वं स्वरामयः।
उरोधूमायनं तृष्णा दाहो मोहोऽरुचिर्भ्रमः॥१५॥
प्रततं कासमानश्च ज्योतींषीव च पश्यति।
श्लेष्माणं पित्तसंसृष्टं निष्ठीवति च पैत्तिके॥१६॥
गुर्वभिष्यन्दिमधुरस्निग्धस्वप्नाविचेष्टनैः।
वृद्धः श्लेष्माऽनिलं रुद्ध्वाकफकासं1974 करोति हि॥१७॥
मन्दाग्नित्वारुचिच्छर्दिपीनसोत्क्लेशगौरवैः।
लोमहर्षास्य माधुर्यक्लेदसंसदनैर्युतम्॥१८॥
बहुलं मधुरं स्निग्धं निष्ठीवति धनं कफम्।
कासमानो ह्यरुग्वक्षः संपूर्णमिव मन्यते॥१९॥
अतिव्यवायभाराध्वयुद्धाश्वगजविग्रहैः।
रूक्षस्योरः क्षतं वायुर्गृहीत्वा कासमावहेत्॥२०॥
स पूर्वं कासते शुष्कं ततः ष्ठीवेत् सशोणितम्।
रुज्यमानेन1975 कण्ठेन विरुग्णेनैव चोरसा॥२१॥
सूचीभिरिव तीक्ष्णाभिस्तुद्यमानेन शूलिना।
दुःखस्पर्शेन शूलेन भेदपीडाभितापिना॥२२॥
पर्वभेदज्वरश्वासतृष्णावैस्वर्यपीडितः।
पारावत इवाकूजन् कासवेगात् क्षतोद्भवात्॥२३॥
विषमासात्म्यभोज्यातिव्यवायाद्वेगनिग्रहात्।
घृणिनां शोचतां नॄणां व्यापन्नेऽग्नौत्रयो मलाः॥२४॥
कुपिताः क्षयजं कासं कुर्युर्देहक्षयप्रदम्।
दुर्गन्धं हरितं रक्तं ष्ठीवेत् पूयोपमं कफम्॥२५॥
कासमानश्च1976 हृदयं स्थानभृष्टं स मन्यते।
अकस्मादुष्णशीतार्तो बहाशी दुर्बलः कृशः॥२६॥
स्निग्धाच्छमुखवर्ण1977त्वक् श्रीमद्दशनलोचनः।
पाणिपादतलैः श्लक्ष्णैः सततासूयको1978 घृणी॥२७॥।
ज्वरो मिश्राकृतिस्तस्य पार्श्वरुक् पीनसोऽरुचिः।
भिन्नसंघात1979वर्चस्त्वं स्वरभेदोऽनिमित्ततः1980॥२८॥
इत्येष क्षयजः कासः क्षीणानां देहनाशनः।
साध्यो बलवतां वा स्याद्याप्यस्त्वेवं क्षतोत्थितः॥२९॥
नवौ कदाचित् सिध्येतामेतौ पादगुणान्वितौ।
स्थविराणां जराकासः सर्वो याप्यः प्रकीर्तितः॥३०॥
त्रीन् साध्यान् साधयेत् पूर्वान् पथ्यैर्याप्यांश्च यापयेत्।
चिकित्सामत ऊर्ध्वं तु शृणु कासनिबर्हिणीम्॥३१॥
रूक्षस्थानिलजं कासमादौ स्नेहैरुपाचरेत्।
सर्पिर्भिर्बस्तिभिः पेयायूषक्षीररसादिभिः॥३२॥
वातघ्नसिद्धैः स्नेहाद्यैर्धूमैर्लेहैश्च युक्तितः।
अभ्यङ्गैः परिषेकैश्च स्निग्धैः स्वेदेश्व बुद्धिमान्॥३३॥
बस्तिभिर्बद्धविड्वातं शुष्कोर्ध्वं चोर्ध्वभक्तिकैः।
घृतैः सपित्तं सकफं जयेत् स्नेहविरेचनैः॥३४॥
कण्टकारीगुडूचीभ्यां पृथक् त्रिंशत्पलाद्वसे।
प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातकासनुद्वह्निदीपनः॥३५॥
इति कण्टकारीघृतम्।
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः।
धान्यपाठावचारास्नायष्ट्याह्वक्षारहिङ्गुभिः॥३६॥
कोलमात्रैर्घृतप्रस्थाद्दशमूलीरसाढके।
सिद्धाच्चतुर्थिकां पीत्वा पेयामण्डं पिबेदनु॥३७॥
तच्छ्वासकासहृत्पार्श्वग्रहणीदोषगुल्मनुत्।
(पिप्पल्याद्यं घृतं चैतदात्रेयेण प्रकीर्तितम्1981॥३८॥)
इति पिप्पल्यादिघृतम्।
त्र्यूषणं त्रिफलां द्राक्षां काश्मर्याणि परूषकम्।
द्वे पाठे देवदावृद्धिं स्वगुप्तां चित्रकं शटीम्॥३९॥
व्याघ्रीं तामलकींमेदां काकनासां शतावरीम्।
त्रिकण्टकं विदारीं च पिष्ट्वाकर्षसमं घृतात्॥४०॥
प्रस्थं चतुर्गुणक्षीरे सिद्धं कासहरं पिबेत्।
ज्वरगुलमारुचिप्लीहशिरोहृत्पार्श्वशूलनुत्॥४१॥
कामलार्शोऽनिलाष्ठीलाक्षतशोषक्षयापहम्।
त्र्यूषणं नाम विख्यातमेतद्धृतमनुत्तमम्॥४२॥
इति त्र्यूषणं घृतम्।
द्रोणेऽपां साधयेद्रास्नांदशमूलीं शतावरीम्।
पलिकां माणिकांशांश्च कुलस्थान् बदरानू यवान्॥४३॥
तुलार्धं चाजमांसस्य पादशेषेण तेन च।
घृताढकं समक्षीरं जीवनीयैः पलोन्मितैः॥४४॥
सिद्धं तद्दशभिः कल्कैर्नस्यपानानुवासनैः।
समीक्ष्य वातरोगेषु यथावस्थं प्रयोजयेत्॥४५॥
पञ्च कासान् शिरःकम्पं शूलं चङ्क्षणयोनिजम्।
सर्वाङ्गैकाङ्गरोगांश्च सप्लीहोर्ध्वानिलाञ्जयेत्॥४६॥
इति रास्नाघृतम्।
विडङ्गं नागरं रास्ना पिप्पली हिङ्गु सैन्धवम्।
भार्गीक्षारश्च तच्चूर्णं पिबेद्वा घृतमात्रया॥४७॥
सकफेऽनिलजे कासे श्वासहिक्काहताग्निषु।
द्वौ क्षारौ पञ्चकोलानि पञ्चैव लवणानि च॥४८॥
शटीनागरकोदीच्यकल्कं वा वस्त्रगालितम्।
पाययेत घृतोन्मिश्रं वातकासनिबर्हणम्॥४९॥
दुरालभां शटीं द्राक्षां शृङ्गवेरं सितोपलाम्।
लिह्यात् कर्कटशृङ्गीं च कासे तैलेन वातजे॥५०॥
दुःस्पर्शां पिप्पलीं मुस्तं भार्गींकर्कटकींशटीम्।
पुराणगुडतैलाभ्यां चूर्णितं वाऽपि लेहयेत्॥५१॥
विडङ्गं सैन्धवं कुष्ठं व्योषं हिङ्गु मनःशिलाम्।
मधुसर्पिर्युतं1982 कासहिक्काश्वासं जयेल्लिहन्॥५२॥
चित्रकं पिप्पलीमूलं व्योषं हिङ्गु दुरालभाम्।
शटींपुष्करमूलं च श्रेयसीं सुरसां वचाम्॥५३॥
भार्गींछिन्नरुहां रास्नांशुङ्गीद्राक्षां च कार्षिकान्।
कल्कान् निदिग्ध्यर्धतुलां निःक्वाथ्य1983पलविंशतिम्॥५४॥
दत्त्वामत्स्याण्डिकायाश्च घृताच्च1984कुडवं पचेत्।
सिद्धं शीतं पृथक् क्षौद्रपिप्पलीकुडवान्वितम्॥५५॥
चतुष्पलं तुगक्षीर्याश्चूर्णितं तत्र दापयेत्।
लेहयेत् कासहृद्रोगश्वासगुहमनिवारणम्॥५६॥
इति चित्रकादिलेहः।
दशमूलीं स्वयङ्गुप्तां शङ्खपुष्पींशटींबलाम्।
हस्तिपिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकान्॥५७॥
भार्गीं पुष्करमूलं च द्विपलांशं यवाढकम्।
हरीतकीशतं चैकं जले पञ्चाढके पचेत्॥५८॥
यवे1985 स्विन्ने कषायं तं पूतं तच्चाभयाशतम्।
पचेद्गुडतुलां दत्वा कुडवं च पृथक् वृतात्॥५९॥
तैलात् सपिप्पलीचूर्णात् सिद्धशीते च माक्षिकात्।
लिह्याद्वे चाभये नित्यमतः खादेद्रसायनात्॥६०॥
तद्वलीपलितं हन्ति वर्णायुर्बलवर्धनम्।
पञ्च कासान् क्षयं श्वासं हिक्कां च विषमज्वरम्॥६१॥
हन्यात्तथाऽर्शोग्रहणीहृद्रोगारुचिपीनसान्।
अगस्त्यविहितं श्रेष्ठं रसायनमिदं शुभम्॥६२॥
इत्यगस्त्यहरीतकी।
सैधवं पिप्पलीं भाग शुङ्गबेरं दुरालभाम्।
दाडिमाम्लेन कोष्णेन भार्गीनागरमम्बुना॥६३॥
पिबेत् खदिरसारं1986 वा मदिरादधिमस्तुभिः।
अथवा पिप्पलीकल्कं घृतभृष्टं ससैन्धवम्॥ ६४॥
शिरसः सदने1987स्रावे नासाया हृदि ताम्यति।
कासप्रतिश्यायवतां धूमं वैद्यः प्रयोजयेत्॥ ६५॥
दशाङ्गुलोन्मितां नाडीमथवाऽष्टाङ्गुलोन्मिताम्।
शरावसंपुटेच्छिद्रे कृत्वा जिह्मां विचक्षणः॥ ६६॥
वैरेचनं मुखेनैव1988 कासवान् धूममापिबेत्।
तमुरः केवलं प्राप्तं मुखेनैवोद्वमेत् पुनः॥ ६७॥
स ह्यस्य तैक्ष्ण्याद्विच्छिद्य श्लेष्माणमुरसि स्थितम्।
निष्कृष्य शमयेत् कासं वातश्लेष्मसमुद्भवम्॥ ६८॥
मनःशिलालमधुकमांसीमुस्तेङ्गुदैः पिबेत्।
धूमं तस्यानु च क्षीरं सुखोष्णं सगुडं पिबेत्॥ ६९॥
एष कासान् पृथग्दोषसन्निपातसमुद्भवान्।
धूमो हन्यादसंसिद्धानन्यैर्योगशतैरपि॥ ७०॥
प्रपौण्डरीकं मधुकं शार्ङ्गेष्टां समनःशिलाम्।
मरिचं पिप्पलीं द्राक्षामेलां सुरसमञ्जरीम्॥ ७१॥
कृत्वा वर्तिं पिबेद्धूमं क्षौमचेलानुवर्तिताम्।
घृताक्तामनु च क्षीरं गुडोदकमथापि वा॥ ७२॥
मनः शिलैलामरिचक्षाराञ्जनकुटन्नटैः।
वंशलेखनसेव्याल1989क्षौमलक्तकरोहिषैः॥ ७३॥
पूर्वकल्पेन धूमोऽयं सानुपानो विधीयते।
मनःशिलाले तद्वच्च पिप्पलीनागरैः सह॥ ७४॥
त्वगैङ्गुदी बृहत्यौ द्वे तालमूली मनःशिला।
कार्पासास्थ्यश्वगन्धा च धूमः कासविनाशनः॥ ७५॥
ग्राम्यानूपोदकैः शालियनगोधूमषष्टिकान्।
रसैर्माषात्मगुप्तानां यूषैर्वा भोजयेद्धितान्॥ ७६॥
यवानीपिप्पलीबिल्व1990शटिचित्रकपौष्करैः।
रास्त्राजाजीपृथक्पर्णीपलाशविश्वभेषजैः1991॥७७॥
स्निग्धाम्ललवणां सिद्धां पेयामनिलजे पिबेत्।
कटीहृत्पार्श्वकोष्ठार्तिश्वासहिक्काप्रणाशिनीम्॥७८॥
दशमूलीरसे तद्वत् पञ्चकोलगुडान्विताम्।
सिद्धां1992 समतिलां दद्यात् क्षीरे वाऽपि ससैन्धवाम्॥७९॥
मास्त्यकौक्कुटवाराहैरामिषैर्वा घृतान्विताम्।
सिद्धां ससैन्धवां पेयां वातकासी पिबेन्नरः1993॥८०॥
वास्तुको वायसीशाकं मूलकं सुनिषण्णकम्।
नेहास्तैलादयो भक्ष्याः क्षीरेक्षुरसगौडिकाः॥८१॥
दध्यारनालाम्लफलप्रसन्नापानमेव च।
शस्यते वातकासे तु स्वादुम्ललवणानि च॥४२॥
पैत्तिके सकफे कासे1994 वमनं सर्पिषा हितम्।
तथा मदनकाश्मर्थमधुकक्वथितैर्जलैः॥८३॥
यष्ट्याह्वफलकल्कैर्वा विदारीक्षुरसायुतैः।
हृतदोषस्ततः शीतं मधुरं च क्रमं भजेत्॥८४॥
पैत्ते तनुकफे कासे त्रिवृतां मधुरैर्युताम्।
दद्याद्धनकफे तिक्तैर्विरेकार्थे युतां भिषक्॥८५॥
स्निग्धशीतस्तनुकफे रूक्षशीतः कफे घने।
क्रमः कार्यः परं भोज्यैः स्नेहैर्लेहैश्चशस्यते॥८६॥
शृङ्गाटकं पद्मबीजं नीली साराणि पिप्पली।
पिप्पलीमुस्तयष्ट्याह्वद्राक्षामूर्वामहौषधम्॥८७॥
लाजाऽमृतफला(लं)द्राक्षा त्वक्क्षीरी पिप्पली सिता।
पिप्पली पद्मकं द्राक्षा बृहत्याश्च फलाद्वसः॥८८॥
खर्जूरं पिप्पली वांशी श्वदंष्ट्रा चेति पञ्च ते।
घृतक्षौद्रयुता लेहाः श्लोकार्धैः पित्तकासिनाम्॥८९॥
शर्कराचन्दनद्राक्षामधुधात्रीफलोत्पलैः।
पैत्ते समुस्तमरिचः सकफे सघृतोऽनिले॥९०॥
मृद्वीकार्धशतं त्रिंशत्पिप्पलीः शर्करापलम्।
लेहयेन्मधुना गोर्वा क्षीरपश्च1995शकुद्रसम्॥९१॥
त्वगेलाव्योषमृद्वीकापिप्पलीमूलपौष्करैः।
लाजामुस्तशटीरास्नाधात्रीफलबिभीतकैः॥१२॥
शर्कराक्षौद्रसर्पिर्भिर्लेहः कासविनाशनः।
श्वासं हिक्कां क्षयं चैव हृद्रोगं च प्रणाशयेत्॥९३॥
पिप्पल्यामलकं द्राक्षां लाक्षां लाजां सितोपलाम्।
क्षीरे पक्त्वाघनं शीतं लिह्यात् क्षौद्राष्टभागिकम्॥९४ ॥
विदारीक्षुमृणालानां रसान् क्षीरं सितोपलाम्।
पिबेद्बामधुसंयुक्तं पित्तकासहरं परम्॥९५॥
मधुरैर्जाङ्गलरसैः श्यामाकयुवकोद्रवाः।
मुद्रादियूषैः शाकैश्च तिक्तकैर्मान्त्रया हिताः॥९६॥
घनश्लेष्मणि लेहास्तु तिक्तका मधुसंयुताः।
शालयः स्युस्तनुकफे षष्टिकाश्च रसादिभिः॥१७॥
शर्कराम्भोऽनुपानार्थं द्राक्षेक्षूणां रसाः पयः।
सर्वं च मधुरं शीतमविदाहि प्रशस्यते॥१८॥
काकोलीबृहतीमेदायुग्मैः सवृषनागरैः।
पित्तकासे रसक्षीरयूषांश्चाप्युपकल्पयेत्॥९९॥
शरादिपञ्चमूलस्य पिप्पलीद्राक्षयोस्तथा।
कषायेण शृतं क्षीरं पिबेत् समधुशर्करम्॥१००॥
स्थिरासितापृश्निपर्णीश्रावणीबृहतीयुगैः।
जीवकर्षभकाकोलीतामलक्यृद्धिजीवकैः॥१०१॥
शृतं पयः पिबेत् कासी ज्वरी दाही क्षतक्षयी।
तज्जं वा साधयेत् सर्पिः सक्षीरेक्षुरसं भिषक्॥१०२॥
जीवकाद्यैर्मधुरकैः फलैश्चाभिषुकादिभिः।
कल्कैस्त्रिकार्षिकैः सिद्धे पूतशीते प्रदापयेत्॥१०३॥
शर्करा पिप्पलीचूर्णं त्वक्क्षीर्या मरिचस्य च।
शृङ्गाटकस्य चावाप्य क्षौद्रगर्भान् पलोन्मितान्॥१०४॥
गुडान् गोधूमचूर्णेन कृत्वा खादेद्धिताशनः।
शुक्रासृग्दोषशोषेषु कासे क्षीणक्षतेषु च॥१०५॥
शर्करा नागरोदीच्यं कण्टकारीं शर्टीं समाम्।
पिष्ट्वारसं पिबेत् पूतं वस्त्रेण घृतमूर्च्छितम्॥१०६॥
महिष्यजाविगोक्षीरधात्रीफलरसैः समैः।
सर्पिः सिद्धं पिबेद्युक्त्या पित्तकासनिबर्हणम्॥१०७॥
इति पित्तकासचिकित्सा।
बलिनं वमनैरादौ शोधितं कफकासिनम्।
यवान्नैः कटुरूक्षोष्णैः कफघ्नैश्चाप्युपाचरेत्॥१०८॥
पिप्पलीक्षारिकैर्यूषैःकौलत्थैर्मूलकस्य च।
लघून्यन्नानि भुञ्जीत रसैर्वा कटुकान्वितैः॥१०९॥
धान्वबैलरसैः स्नेहैस्तिलसर्षपबिल्वजैः।
मध्वम्लोष्णाम्बुतक्रंवा मद्यं वा निगदं पिबेत्॥११०॥
पौष्करारग्वधं मूलं पटोलं तैर्निशास्थितम्।
जलं मधुयुतं पेयं कालेष्वन्नस्य वा त्रिषु॥१११॥
कट्फलं कत्तृणं भार्गींमुस्तं धान्यं वचाभये।
शुण्ठीं पर्पटकं शृङ्गींसुराह्वंच जले शृतम्॥११२॥
मधुहिङ्गुयुतं पेयं कासे वातकफात्मके।
कण्ठरोगे मुखे शूने श्वासहिक्काज्वरेषु च॥११३॥
पाठां शुण्ठीं शटीं मूर्वां गवाक्षीं मुस्तपिप्पलीम्।
पिष्ट्वाघर्माम्बुना हिङ्गुसैन्धवाभ्यां युतां पिबेत्॥११४॥
नागरातिविषा मुस्तं शृङ्गी कर्कटकस्य च।
हरीतकीं शटींचैव तेनैव विधिना पिबेत्॥११५॥
तैले भृष्टं च पिप्पल्याः कल्काक्षं ससितोपलम्।
पिबेद्वा श्लेष्मकासघ्नं कुलत्थरससंयुतम्॥११६॥
कासमर्दाश्वविट्भृङ्गराजवार्ताकजो रसः।
सक्षौद्रः कफकासघ्नः सुरसस्यासितस्य च॥११७॥
देवदारु शटी रास्नाकर्कटाख्या दुरालभा।
पिप्पली नागरं मुस्तं पथ्याधात्रीसितोपलाः॥११८॥
मधुतैलयुतावेतौ लेहौ वातानुगे कफे।
पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली॥११९॥
पथ्या तामलकी धात्री भद्रमुस्ताच पिप्पली।
देवदार्वभया मुस्तं पिप्पली विश्वभेषजम्॥१२०॥
विशाला पिप्पली मुस्तं त्रिवृता चेति लेहयेत्।
चतुरो मधुना लेहान् कफकासहरान् भिषक्॥१२१॥
सौवर्चलाभयाधात्रीपिप्पलीक्षारनागरम्।
चूर्णितं सर्पिषा वातकफकासहरं पिबेत्॥१२२॥
दशमूलाढके प्रस्थं घृतस्याक्षसमैः पचेत्।
पुष्कराह्वराटीबिल्वसुरसव्योषहिङ्गुभिः॥१२३॥
पेयानुपानं तत् पेयं कासे वातकफात्मके।
श्वासरोगेषु सर्वेषु कफवातात्मकेषु च॥१२४॥
इति दशमूलादिघृतम्।
समूलफलपत्रायाः कण्टकार्या रसाढके।
घृतप्रस्थं बलाव्योषविडङ्गशटिचित्रकैः॥१२५॥
सौवर्चलयवक्षारपिप्पलीमूलपौष्करैः।
वृश्वीरबृहतीपथ्यायवानीदाडिमर्धिभिः॥१२६॥
द्राक्षापुनर्नवाचव्यदुरालम्भाम्लवेतसैः।
शृङ्गीतामलकीभागरास्त्रागोक्षुरकैः पचेत्॥१२७॥
कल्कैस्तत् सर्वकासेषु हिक्काश्वासेषु शस्यते।
कण्टकारीघृतं ह्येतत् कफव्याधिनिसूदनम्॥१२८॥
इति कण्टकारीघृतम्।
कुलत्थरसयुक्तं वा पञ्चकोलशृतं घृतम्।
पाययेत् कफजे कासे हिक्काश्वासे च शस्यते॥१२९॥
इति कुलस्थादिघृतम्।
धूमांस्तानेव दद्याच्च ये प्रोक्ता वातकासिनाम्।
कोशातकीफलान्मध्यं पिबेद्वा समनःशिलम्॥१३०॥
तमकः कफकासे तु स्याच्चेत् पित्तानुबन्धजः।
पित्तकासक्रियांतत्र यथावस्थं प्रयोजयेत्॥१३१॥
वाते कफानुबन्धे तु कुर्यात् कफहीं क्रियाम्।
पित्तानुबन्धयोर्वातकफयोः पित्तनाशिनीम्॥१३२॥
आर्द्रे विरूक्षणं शुष्के स्निग्धं वातकफात्मके।
कासेऽन्नपानं कफजे सपित्ते तिक्तसंयुतम्॥१३३॥
इति कफजकासचिकित्सा।
कासमात्ययिकं मत्वा क्षतजं त्वरया जयेत्।
मधुरैर्जीवनीयैश्च बलमांसविवर्धनैः॥१३४॥
पिप्पली मधुकं पिष्टं कार्षिकं ससितोपलम्।
प्रास्थिकं गव्यमाजं च क्षीरमिक्षुरसस्तथा॥१३५॥
यवगोधूममृवीकाचूर्णमामलकाद्रसः।
तैलं च प्रसृतांशानि तत् सर्वं मृदुनाऽग्निना॥१३६॥
पचेल्लेहं घृतक्षौद्रयुक्तः स क्षतकासहा।
श्वासहृद्रोगकार्श्येषु हितो वृद्धेऽल्परेतसि॥१३७॥
क्षतकासाभिभूतानां वृत्तिः स्यात् पित्तकासिकी।
क्षीरसर्पिर्मधुप्राया संसर्गे तु विशेषणम्॥१३८॥
वातपित्तार्दितेऽभ्यङ्गो गात्रभेदे घृतैर्हितः।
तैलैर्मास्तरोगघ्नैः पीड्यमाने च वायुना॥१३९॥
हृत्पार्श्वार्तिषु पानं स्याज्जीवनीयस्य सर्पिषः।
सदाहं कासिनो रक्तं ष्ठीवतः सबलेऽनले॥ १४०॥
मांसोचितेभ्यः क्षामेभ्यो लावादीनां रसा हिताः।
तृष्णार्तानां पयश्छागं शरमूलादिभिः शृतम्॥ १४१॥
रक्ते स्रोतोभ्य आस्याद्बाऽप्यागते क्षीरजं घृतम्।
नस्यं पानं यवागूर्वा श्रान्ते क्षामे हतानले॥ १४२॥
स्तम्भायामेषु महतीं मात्रां वा सर्पिषः पिबेत्।
कुर्याद्वा वातरोगघ्नं पित्तरक्ताविरोधि यत्॥ १४३॥
निवृत्ते क्षतदोषे तु कफे वृद्ध उरः शिरः।
दाल्यते1996 कासिनो यस्य स धूमान्ना पिबेदिमान्॥ १४४॥
द्वे मेदे मधुकंद्वे च बले तैः क्षौमलक्तकैः।
वर्तितैर्धूममापीय जीवनीयघृतं पिबेत्॥ १४५॥
मनः शिलापलाशाजगन्धात्वक्क्षीरिनागरैः।
भावयित्वा पिवेत् क्षौममनु चेक्षुगुडोदकम्॥ १४६॥
पिष्ट्वा मनःशिलां तुल्यामार्द्रया वटशुङ्गया।
ससर्पिष्कं पिबेद्धूमं तित्तिरिप्रतिभोजनम्॥ १४७॥
भावितं जीवनीयैर्वाकुलिङ्गाण्डरसायुतैः।
क्षौमं धूमं पिबेत् क्षीरं शृतं चायोगुडैरनु॥ १४८॥
इति क्षतजकासचिकित्सा।
संपूर्णरूपं क्षयजं दुर्बलस्य विवर्जयेत्।
नवोत्थितं बलवतः प्रत्याख्यायाचरेत् क्रियाम्॥ १४९॥
तस्मै बृंहणमेवादौ कुर्यादग्नेश्च दीपनम्।
बहुदोषाय सस्नेहं मृदु दद्याद्विरेचनम्॥ १५०॥
शम्पाकेन त्रिवृतया मृद्वीकारसयुक्तया।
तिल्वकस्य कषायेण विदारीस्वरसेन च॥ १५१॥
सर्पिः सिद्धं पिबेद्युक्त्याक्षीणदेहो विशोधनम्।
पित्ते कफे च संक्षीणे परिक्षीणेषु धातुषु॥ १५२॥
घृतं कर्कटकीक्षीरद्विबलासाधितं पिबेत्।
विदारीभिः कदम्बैर्वा तालशस्यैस्तथा शृतम्॥१५३॥
घृतं पयश्च मूत्रस्य वैवर्ण्येकृच्छ्रनिर्गमे।
शूने सवेदने मेढ्रेपायौ सश्रोणिवंक्षणे॥१५४॥
घृतमण्डेन लघुनाऽनुवास्यो मिश्रकेण वा।
जाङ्गलैः प्रतिभुक्तस्य वर्तकाद्या बिलेशयाः॥१५५॥
क्रमशः प्रसहाश्चैव प्रयोज्याः पिशिताशिनः।
औष्ण्यात् प्रमाथिभावाच्चस्रोतोभ्यश्च्यावयन्ति ते॥१५६॥
कफं शुद्धस्य1997 तैःपुष्टिं कुर्यात् सम्यग्वहन् रसः।
द्विपञ्चमूली1998 त्रिफलाचविकाभार्गिचित्रकैः॥१५७॥
कुलत्थपिप्पलीमूलपाठाकोलयवैर्जले।
शृतैर्नागरदुःस्पर्शापिप्पलीशटिपौष्करैः॥१५८॥
कल्कैः कर्कटशृङ्ग्याच समैः सर्पिर्विपाचयेत्।
सिद्धेऽस्मिंश्चूर्णितौक्षारौ द्वौ पञ्च लवणानि च॥१५९॥
दवा युक्त्या पिबेन्मात्रां क्षयकासनिपीडितः।
इति द्विपञ्चमूल्यादिघृतम्।
गुडूचीं पिप्पलीं मूर्वां हरिद्वां श्रेयसीं वचाम्॥१६०॥
निदिग्धिकां कासमर्दं पाठां चित्रकनागरम्।
जले चतुर्गुणे पक्त्वा पादशेषेण तत्समम्॥१६१॥
सिद्धं सर्पिः पिबेद्गुल्मश्वासार्तिक्षयकासनुत्।
इति गुडूच्यादिघृतम्।
कासमर्दाभयामुस्तपाठाकट्फलनागरैः॥१६२॥
पिप्पलीकटुकाद्राक्षाकाश्मर्यसुरसैस्तथा।
अक्षमात्रैर्घृतप्रस्थं क्षीरद्राक्षारसाढके॥१६३॥
पचेच्छोषज्वरप्लीहसर्वकासहरं शिवम्।
धात्रीफलैः क्षीरसिद्धैः सर्पिर्वाऽप्यवचूर्णितम्॥१६४॥
द्विगुणे दाडिमरसे विपक्वं1999व्योषसंयुतम्।
पिबेदुपरि भक्तस्य यवक्षारघृतं नरः॥१६५॥
पिप्पलीगुडसिद्धं वा छागक्षीरयुतं घृतम्।
एतान्यग्निविवृद्ध्यर्थं सर्पोंषि क्षयकासिनाम्॥१६६॥
स्युर्दोषबद्धकोष्ठोरःस्रोतसां च विशुद्धये।
हरीतकीर्यवक्वाथव्द्याढके विंशतिं पचेत्॥१६७॥
स्विन्ना मृदित्वा तास्तस्मिन् पुराणगुडषट्पलम्।
दद्यान्मनःशिलाकर्ष कर्षार्धं च रसाञ्जनम्॥१६८॥
कुडवार्धंच पिप्पल्याः स लेहः श्वासकासनुत्।
इति हरीतकीलेहः।
श्वाविधः सूचयो दग्धाः सघृतक्षौद्रशर्कराः॥१६९॥
श्वासकासहरा बर्हिपादौ वा क्षौद्रसर्पिषा2000।
एरण्डपत्रक्षारं वा व्योषतैलगुडान्वितम्॥१७०॥
लिह्यादेतेन विधिना सुरसैरण्डपत्रजम्।
द्राक्षापद्मकवार्ताकपिप्पलीः क्षौद्रसर्पिषा2001॥१७१॥
लिह्याड्यूषणचूर्णं वा पुराणगुडसर्पिषा।
चित्रकं त्रिफलाजाजी कर्कटाख्या कटुत्रिकम्॥१७२॥
द्राक्षां च क्षौद्रसर्पिर्भ्यांलिह्यादद्याद्गुडेन वा।
पद्मकं त्रिफलां व्योषं विडङ्गं सुरदारु च॥१७३॥
ब2002लां2003 रास्नांच तुल्यानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्।
सर्वैरेभिः समं चूर्णैः पृथक् क्षौद्रंघृतं सिताम्॥१७४॥
विमथ्य लेहयेल्लेहं सर्वकासहरं शिवम्।
इति पद्मकादिलेहः।
जीवन्तीं मधुकं पाठां त्वक्क्षीरीं त्रिफलां शटीम्॥१७५॥
मुस्तैले पद्मकं2004 द्राक्षां द्वे बृहत्यौ वितुन्नकम्।
सारिवां पौष्करं मूलं कर्कटाख्यं रसाञ्जनम्॥१७६॥
पुनर्नवां लोहरजस्त्रायमाणां यवानिकाम्।
भार्गींतामलकीमृद्धिं विडङ्गं धन्वयासकम्॥१७७॥
क्षारचित्रकचव्याम्लवेतसव्योषदारु च।
चूर्णीकृत्य समांशानि लेहयेत् क्षौद्रसर्पिषा॥१७८॥
चूर्णात् पाणितलं पञ्च कासानेतद् व्यपोहति।
लिह्यान्मरिचचूर्णं वा सघृतक्षौद्रशर्करम्॥१७९॥
बदरीपत्रकल्कं वा घृतभृष्टं ससैन्धवम्।
स्वरभेदे च2005 कासे च लेहमेतं प्रयोजयेत्॥१८०॥
पत्रकल्कं घृतैर्भृष्टं तिल्वकस्य सशर्करम्।
पेया चोत्कारिका छर्दितृट्कासामातिसारनुत्॥१८१॥
गौरसर्षपगण्डीरविडङ्गव्योषचित्रकान्।
साभयान् साधयेत्तोये यवागूं तेन चाम्भसा॥१८२॥
ससर्पिर्लवणां कासे हिक्काश्वासे सपीनसे।
पाण्ड्वाये क्षये शोषे कर्णशूले च शस्यते॥१८३॥
कण्टकारीरसे सिद्धो मुद्द्रयूषः सुसंस्कृतः।
सगौरामलकः साम्लः सर्वकासभिषग्जितम्॥१८४॥
वातघ्नौषधनिष्क्वाथं क्षीरं यूषान् रसानपि।
विष्किरान् प्रतुदान् बैलान् दापयेत् क्षयकासिने॥१८५॥
क्षयकासे च ये धूमाः सानुपाना निदर्शिताः।
क्षतकासेऽपि तानेव यथावस्थं प्रयोजयेत्॥१८६॥
दीपनं बृंहणं चैव स्रोतसां च विशोधनम्।
व्यत्यासात् क्षयकासिभ्यो बल्यं सर्वं हितं भवेत्॥१८७॥
सन्निपातभवोऽप्येष क्षयकासः सुदारुणः।
सन्निपातहितं तस्मात् सदा कार्यं भिषग्जितम्॥१८८॥
दोषानुबलयोगाच्च हरेद्रोगबलाबलम्।
कासेष्वेषु गरीयांसं जानीयादुत्तरोत्तरम्॥१८९॥
तत्र श्लोकौ।
भोज्यं पानानि सर्पोंषि लेहाश्च सहपानकैः।
क्षीरं सर्पिर्गुडा धूमाः कासभैषज्यसंग्रहः॥१९०॥
संख्या निमित्तं रूपाणि साध्यासाध्यत्वमेव च।
कासानां भेषजं प्रोक्तं गरीयस्त्वं च कासिनः॥१९१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरक प्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सितस्थाने
कासचिकित्सितं नामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
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ऊनविंशोऽध्यायः।
अथातोऽतीसारचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
भगवन्तं खल्वात्रेयं कृताह्निकं हुताग्निहोत्रमासीनमृषिगणपरिवृतं हिमवतः पार्श्वे विनयादुपेत्याभिवाद्य चाग्निवेश उवाच—भगवन्नतीसारस्य प्रागुत्पत्तिनिमित्तलक्षणोपशमनानि तु प्रजानुग्रहार्थमाख्यातुमर्हसीति॥३॥
अथ भगवान् पुनर्वसुरात्रेयस्तदग्निवेशवचनमनुनिशम्योवाच—श्रूयतामग्निवेश सर्वमेतदखिलेन व्याख्यायमानम्—आदिकाले खलु यज्ञेषु पशवः समालभनीया बुभूवुर्नालम्भाय2006प्रक्रियन्ते स्म, ततो दक्षयज्ञप्रत्यवरकालं मनोः पुत्राणां नरिष्यन्नाभागेक्ष्वाकुनृगशर्यात्यादीनां च क्रतुषु पशूनामेवाभ्यनुज्ञानात् पशवः प्रोक्षणमवापुः2007, अतश्च प्रत्यवरकालं पृषध्रेण दीर्घसत्रेण यजता पशूनामलाभाद्गवामालम्भः प्रवर्तितः, तं दृष्ट्वा प्रव्यथिता भूतगणाः, तेषां चोपयोगादुपकृतानां गवां गौरवादौष्ण्यादसात्म्यम्वादशस्तोपयोगाच्चोपहताग्नीनामुपहतमनसां चातीसारः पूर्वमुत्पन्नः पृषभ्रयज्ञे ४
अथावरकालं वातलस्य वातातपव्यायामातिमात्रनिषेविणोरूक्षाल्पप्रमिताशिनस्तीक्ष्णमद्यव्यवायनित्यस्योदावर्तयंश्च वेगाद्वायुः प्रकोपमापद्यते, पक्ता चोपहन्यते; स वायुः कुपितोऽग्नावुपहते मूत्रस्वेदौ पुरीषाशयमुपहृत्य, ताभ्यां पुरीषं द्रवीकृत्य, अतीसाराय प्रकल्पते॥५॥
तस्य रूपाणि—विज्जलमामं विप्लुतमवसादि रूक्षं द्रवं सशूलमामगन्धमीषच्छब्दमशब्दं वा विबद्धमूत्रवातमतिसार्यते पुरीषं, वायुश्चान्तःकोष्ठे सशब्दशूलस्तिर्यक् चरति विबद्ध इत्यामातिसारो वातात्, पक्वंवा विबद्धमल्पाल्पं सशब्दं सशूलफेनपिच्छापरिकर्तिकं हृष्टरोमा विनिश्वसन् शुष्कमुखः कट्यूरुत्रिकजानुपृष्ठपार्श्वशूली भ्रष्टगुदो मुहुर्मुहुर्विग्रथितमुपवेश्यते पुरीषं वातात्; तमाहुरनुग्रथितमित्येके, वातानुग्रथितवर्चस्त्वात्॥६॥
पित्तलस्य पुनरम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णातिमात्र निषेविणः प्रतताग्निसूर्यसंतापोष्णमारुतोपहतगात्रस्य क्रोधेर्ष्याबहुलस्य पित्तं प्रकोपमापद्यते, तत् प्रकुपितं द्रवत्वादूष्माणमुपहत्य पुरीषाशयाश्रित2008मौष्ण्याद् द्रवत्वात् सरत्वाच्च भित्त्वापुरीषमतिसाराय कल्पते॥७॥
तस्य रूपाणि—हारिद्रं हरितं नीलं कृष्णं रक्तपित्तोपगत2009मतिदुर्गन्धमतिसार्यते पुरीषं, तृष्णादाहस्वेदमूर्च्छाशूलब्रघ्नसंतापपाकपरीत इति पित्तातिसारः॥८॥
श्लेष्मलस्य तु गुरुमधुरशीतस्निग्धोपसेविनः संपूरकस्याचिन्तयतो दिवास्वग्नपरस्यालसस्य श्लेष्मा प्रकोपमापद्यते, स स्वभावाद् गुरुमधुरशीतस्निग्धः स्रस्तोऽग्निमुपहत्य सौम्यस्वभावात् पुरीषाशय2010मुपगत्योपक्लेद्य पुरीषमतिसाराय कल्पते॥९॥
तस्य रूपाणि—स्निग्धं श्वेतं2011 पिच्छिलं तन्तुमदामं गुरु दुर्गन्धं श्लेष्मोपहितमनुबद्धशूलमल्पाल्पमभीक्ष्णमतिसार्यते सप्रवाहिकं,गुरूदरगुदबस्तिवंक्षणदेशः, कृतेऽप्यकृतसङ्गः सलोमहर्षः सोत्क्लेशो निद्रालस्यपरीतः सदनोऽन्नद्वेषी चेति श्लेष्मातिसारः॥१०॥
अतिशीतस्निग्धरूक्षोष्णगुरुखरकठिनविषमविरुद्धासात्म्यभोजनादभोजनात् कालातीतभोजनाद् यत्किंचिदभ्यवहरणात् प्रदुष्टमद्यपानीयपानादतिमद्यपानीयपानादसंशोधनात् प्रतिकर्मणां विषमगमनादनुपचाराज्ज्वल-नादित्यपवनसलिलातिसेवनादस्वप्नादतिस्वप्नाद्वेगविधारणाहतुविपर्ययाद थाबलमारम्भाद्भयशोकचिन्तोद्वेगातियोगात् कृमिशोषज्वरार्शोविकारातिकर्षणाद्वा व्यापन्नाग्रेस्त्रयो दोषाः प्रकुपिता भूय एवाग्निमुपहत्य पक्वाशयमनुप्रविश्यातीसारं सर्वदोषलिङ्गं जनयन्ति; अपि च शोणितादीन् धातूनतिप्रदुष्टान् दूषयन्तो धातुदोषस्वभावकृतानतीसारवर्णानुप-दर्शयन्ति। तत्र शोणितादिषु धातुष्वतिप्रदुष्टेषु हारिद्रहरितनीलमाञ्जिष्ठमांसधावनसंकाशं रक्तं कृष्णं श्वेतं वा वराहमेदःसदृशमनुबद्धवेदनमवेदनं वा समासव्यत्यासादुपवेश्यतेऽसकृद् ग्रथितमामं शकृदपि चापक्वमनतिक्षीणमांसशोणितबलो मन्दाग्निर्विहतमुखरसश्च, तादृशमातुरं कृच्छ्रसाध्यं विद्यात्। एभिर्वर्णैरतिसार्यमाणं सोपद्रवमातुरमसाध्योऽयमिति प्रत्याचक्षीत; तद्यथा—पक्वशोणिताभं यकृत्पिण्डोपमं मेदोमांसोदकसन्निकाशं दधिघृतमज्जतैलवसाक्षीरवेशवाराभमतिनीलमतिरक्तमतिकृष्णमुदकमिवाच्छं पुनर्मेचकाभमतिस्निग्धं हरितनीलकषा-यवर्णं कर्बुरमाविलं पिच्छिलं तन्तुमदामं चन्द्रकोपगतमतिकुणपपूतिपूयगन्ध्यामाममत्स्यगन्धि मक्षिकाक्रान्तं कुथितबहुधातुस्रावमल्पपुरीषमपुरीषं वाऽतिसार्यमाणं तृष्णादाहज्वरभ्रमतमकहिक्काश्वासानुबन्धमतिवेदनमवेदनं वा स्रस्तपक्वगुदं पतितगुदवलिं मुक्तनालमतिक्षीणबलमांसशोणितं सर्वपर्वास्थिशूलिनमरोचकारतिप्रलापसंमोहपरीतं सहसोपरतविकारमतिसारिणमचिकित्स्यं विद्यात्; इति सन्निपातातिसारः॥११॥
तमसाध्यतामसंप्राप्तं चिकित्सेद् यथाप्रधानोपक्रमेण हेतूपशयदोषविशेषपरीक्षया चेति॥१२॥
आगन्तु द्वावतीसारौ मानसौ भयशोकजौ।
तत्तयोर्लक्षणं वायोर्यदतीसारलक्षणम्॥१३॥
मारुतो भयशोकाभ्यां शीघ्रं हि परिकुप्यति।
तयोः क्रिया वातहरी हर्षणाश्वासनानि च॥१४॥
इत्युक्ताः षडतीसाराः, साध्यानां साधनं त्वतः।
प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वेण यथावत्तन्निबोधत॥१५॥
दोषाः सन्निचिता यस्य विदग्धाहारमूर्च्छिताः।
अतीसाराय कल्पन्ते भूयस्तान् संप्रवर्तयेत्2012॥१६॥
न तु संग्रहणं देयं पूर्वमामातिसारिणे।
विबध्यमानाः प्राग्दोषा जनयन्त्यामयान् बहून्॥१७॥
शोथपाण्ड्वामयप्लीहकुष्ठगुल्मोदरज्वरान्।
दण्डकालसकाध्मानग्रहण्यर्शोगदांस्तथा॥१८॥
तस्मादुपेक्षेतोत्कृिष्टान् वर्तमानान् स्वयं मलान्।
कृच्छ्रं वा वहतान्2013 दद्यादभयां संप्रवर्तिनीम्॥१९॥
तया प्रवाहिते दोषे प्रशाम्यत्युदरामयः।
जायते देहलघुता जठराग्निश्च वर्धते॥२०॥
प्रमथ्यां मध्यदोषेभ्यो दद्याद्दीपनपाचनीम्।
लङ्घनं चाल्पदोषाणां प्रशस्तमतिसारिणाम्॥२१॥
पिप्पली नागरं धान्यं भूतीकमभया वचा।
ह्रीबेरं भद्रमुस्तानि बिल्वं नागरधान्यकम्॥२२॥
पृश्निपर्णी श्वदंष्ट्रा च समङ्गाकण्टकारिका।
तिस्नः प्रमथ्या विहिताः श्लोकार्धैरतिसारिणाम्॥२३॥
वचाप्रतिविषाभ्यां वा मुस्तपर्पटकेन वा।
ह्रीबेरशृङ्गवेराभ्यां पक्वंवा पाययेजलम्2014॥२४॥
युक्तेऽन्नकाले क्षुत्क्षामं लघून्यन्नानि भोजयेत्।
तथा स शीघ्रमाप्नोति रुचिमग्निबलं बलम्॥२५॥
तक्रेणावन्तिसोमेन यवाग्वा तर्पणेन वा।
सुरया मधुना चादौ यथासात्म्यमुपाचरेत्॥२६॥
यवागूभिर्विलेपीभिः खडैर्यूषै रसौदनैः।
दीपनग्राहिसंयुक्तैः क्रमश्च स्यादतः परम्॥२७॥
शालपर्णीं पृश्निपर्णीं बृहतीं कण्टकारिकाम्।
बलां श्वदंष्ट्रां बिल्वानि पाठां नागरधान्यकम्॥२८॥
शटिंपलाशं हपुषां वचांजीरकपिप्पलीम्2015।
यवानीं पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्पलीम्॥२९॥
वृक्षाम्लं दाडिमं चाम्लं सहिङ्गुबिडसैन्धवम्।
प्रयोजयेदन्नपाने विधिना सूपकल्पितम्॥३०॥
वातश्लेष्महरो ह्येष गणो दीपनपाचनः।
ग्राही बल्यो रोचनश्च तस्माच्छस्तोऽतिसारिणाम्॥३१॥
आमे परिणते यस्तु विबद्धमतिसर्यते।
सशुलपिच्छमल्पाल्पं बहुशः सप्रवाहिकम्॥३२॥
यूषेण मूलकानां तं बदराणामथापि वा।
उपोदिकायाः क्षीरिण्या यवान्या वास्तुकस्य वा॥३३॥
सुवर्चलायाश्चञ्चोर्वाशाकेनावल्गुजस्य वा।
शठ्याः कर्कारुकाणां वा जीवन्त्याश्चिर्भटस्य वा॥३४॥
लोणिकायाः सपाठायाः शुष्कशाकेन वा पुनः।
दधिदाडिमसिद्धेन बहुस्नेहेन भोजयेत्॥३५॥
कल्कः स्याद्वालबिल्वानां तिलकल्कश्च तत्समः।
दध्नः सरोऽम्लस्नेहाढ्यः2016 खडो हन्यात् प्रवाहिकाम्॥३६॥
यवानां मुद्रमाषाणां शालीनां च तिलस्य च।
कोलानां बालबिल्वानां धान्ययूषं प्रकल्पयेत्॥३७॥
ऐकध्यं यमके भृष्टं दधिदाडिमसारिकम्।
वर्चःक्षये शुष्कमुखं शाल्यन्नं तेन भोजयेत्॥३८॥
दध्नः सरं वा यमके भृष्टं सगुडनागरम्।
सुरां वा यमके भृष्टां व्यञ्जनार्थे प्रदापयेत्॥३९॥
फलाम्लं यमके भृष्टं यूषं गृञ्जनकस्य वा।
लोपाकरसमलं वा स्निग्धालं कच्छपस्य वा॥४०॥
बर्हितित्तिरिदक्षाणां वर्तकानां तथा रसाः।
स्निग्धाम्लाः शालयश्चाग्र्यावर्चःक्षयरुजापहाः॥४१॥
अन्तराधिरसं पूत्वा रक्तं मेषस्य चोभयम्।
पचेद्दाडिमसाराम्लं सधान्यस्नेहनागरम्॥४२॥
ओदनं2017 रक्तशालीनां तेनाद्यात् प्रपिबेच्च तम्।
तथा वर्चःक्षयकृतैर्व्याधिभिर्विप्रमुच्यते॥४३॥
गुदनिःसरणे शूले पानमम्लस्य सर्पिषः।
प्रशस्यते निरामाणामथवाऽप्यनुवासनम्॥४४॥
चाङ्गेरीकोलदध्यम्लनागरक्षारसंयुतम्।
घृतमुत्क्वथितं पेयं गुदभ्रंशरुजापहम्॥४५॥
इति चाङ्गेरीघृतम्।
सचव्यपिप्पलीमूलं सव्योषबिडदाडिमम्।
पेयमम्लं घृतं युक्त्या सधान्याजाजिचित्रकम्॥४६॥
इति गुदभ्रंशे चव्यादिघृतम्।
दशमूलोपसिद्धं वा सबिल्वमनुवासनम्।
शताह्वाशटिबिल्वैर्वा2018 वचया चित्रकेण वा।
स्तब्धभ्रष्टगुदे पूर्वं स्नेहस्वेदौ प्रयोजयेत्॥४७॥
सुस्विन्नं च मृदूभूतं पिचुना संप्रवेशयेत्।
विबद्धवातवर्चास्तु बहुशूलप्रवाहिकः॥४८॥
सरक्तपिच्छस्तृष्णार्तः क्षीरसौहित्यमर्हति।
यमकस्योपरि क्षीरं धारोष्णं वा पिबेन्नरः॥४९॥
शतमेरण्डमूलेन बालबिल्वेन वा पुनः।
एवं क्षीरप्रयोगेण रक्तं पिच्छा च शाम्यति।
शूलं प्रवाहिका चैव विबन्धश्चोपशाम्यति॥५०॥
पित्तातिसारं पुनर्निदानोपशयाकृतिभिरामान्वयमुपलभ्य यथाबलं लङ्घनपाचनाभ्यामुपाचरेत्, तृष्यतस्तु मुस्तपर्पटकोशीरसारिवाचन्दनकिराततिक्तकोदीच्यवारिभिरुपचारः, लङ्घितस्य चाहारकाले बलातिबलासूर्पपर्णीपृश्निपर्णीशालपर्णीबृहतीकण्टकारिकाश्वदंष्ट्रानिर्यूहसंयुक्तेन यथासात्म्यं यवागूमण्डादिना तर्पणादिना वा क्रमेणोपचारः, मुद्गमसूरहरेणुमकुष्ठकाढकीयूषैर्वा लावकपिञ्जलशशहरिणैणकालपुच्छकरसैरीषदम्लैरनम्लैर्वा क्रमशोऽग्निं सन्धुक्षयेत्, अनुबन्धे त्वस्य दीपनीयपाचनीयोपशमनीयसंग्रहणीयान् योगान् संप्रयोजयेदिति॥५१॥
भवन्ति चात्र।
सक्षौद्रातिविषं पिष्ट्वावत्सकस्य फलत्वचम्।
पिबेत् पित्तातिसारघ्नं तण्डुलोदकसंयुतम्॥५२॥
किराततिक्तको मुस्तं वत्सकः सरसाञ्जनः।
बिल्वं दारुहरिद्रा च ह्रीबेरं सदुरालभम्॥५३॥
चन्दनं च मृणालं च नागरं लोध्रमुत्पलम्।
तिला मोचरसो लोध्रंसमङ्गा कमलोत्पलम्॥५४॥
उत्पलं2019 धातकीपुष्पं दाडिमत्वड्महौषधम्।
कट्फलं नागरं पाठा जम्ब्वाम्रास्थिदुरालभाः॥५५॥
योगाः षडेते सक्षौद्रास्तण्डुलोदकसंयुताः।
पेयाः पित्तातिसारघ्नाः श्लोकार्धेन2020निदर्शिताः॥५६॥
जीर्णौषधानां शस्यन्ते यथायोगं प्रकल्पितैः।
रसैः सांग्राहिकैर्युक्ताः पुराणा रक्तशालयः॥५७॥
पित्तातिसारो दीप्ताग्नेःक्षिप्रं समुपशाम्यति।
अजाक्षीरप्रयोगेण बलं वर्णश्च वर्धते॥५८॥
बहुदोषस्य दीप्ताग्नेः सप्राणस्य न तिष्ठति।
पैत्तिको यद्यतीसारः पयसा तं विरेचयेत्॥५९॥
पलाशफलनिर्यूहं पयसा पाययेत2021 तम्।
ततोऽनुपाययेत् कोष्णं क्षीरमेव यथाबलम्॥६०॥
प्रवाहिते तेन मले प्रशाम्यत्युदरामयः।
पलाशवत् प्रयोज्या वा त्रायमाणा विशोधिनी॥६१॥
सांसर्ग्यांक्रियमाणायां शूलं यद्यनुवर्तते।
स्रुतदोषस्य तं शीघ्रं यथावदनुवासयेत्॥६२॥
शतपुष्पावरीभ्यां च पयसा मधुकेन च।
तैलपादं घृतं सिद्धं सबिल्वमनुवासनम्॥६३॥
कृतानुवासनस्यास्य कृतसंसर्जनस्य च।
वर्तते यद्यतीसारः पिच्छाबस्तिरतः परम्॥६४॥
परिवेष्ट्य कुशैरार्द्रैरार्द्रवृन्तानि शाल्मलेः।
कृष्णमृत्तिकयाऽऽलिप्य स्वेदयेद्गोमयाग्निना॥६५॥
सुशुष्कां मृत्तिकां ज्ञात्वा तानि वृन्तानि शाल्मलेः।
शृते पयसि मृद्गीयादापोथ्योलूखले ततः॥६६॥
पिण्डं मुष्टिसमं प्रस्थे तत् पूतं तैलसर्पिषोः।
योजितं मात्रया युक्तं कल्केन मधुकस्य च॥६७॥
बस्तिमभ्यक्तगात्राय दद्यात् प्रत्यागते ततः।
स्नात्वा भुञ्जीत पयसा जाङ्गलानां रसेन वा॥६८॥
पित्तातिसारज्वरशोथगुल्मजीर्णातिसारग्रहणीप्रदोषान्।
जयत्ययं शीघ्रमतिप्रवृद्धान् विरेचनास्थापनयोश्च वृत्तिः2022॥६९॥
इति पिच्छाबस्तिः।
पित्तातिसारी यस्त्वेतां क्रियां मुक्त्वा निषेवते।
पित्तलान्यन्नपानानि तस्य पित्तं महाबलम्॥७०॥
रक्तातिसारं कुरुते रक्तमाशु प्रदूषयत्।
तृष्णां शूलं विदाहं च गुदपाकं च दारुणम्॥७१॥
तत्र छागं पयः शस्तं शीतं समधुशर्करम्।
पानार्थं भोजनार्थं2023 च गुदप्रक्षालने तथा॥७२॥
भोजनं रक्तशालीनां पयसा तेन भोजयेत्।
रसैः पारावतादीनां घृतभृष्टैः सशर्करैः॥७३॥
शशपक्षिमृगाणां च शीतानां धन्वचारिणाम्।
रसैरनम्लैः सघृतैर्भोजयेत्तं सशर्करैः॥७४॥
रुधिरं मार्गमाजं वा घृतभृष्टं प्रशस्यते।
काश्मर्यफलयूषो वा किंचिदम्लः सशर्करः॥७५॥
नीलोत्पलं मोचरसं समङ्गांपद्मकेशरम्।
अजाक्षीरयुतं दद्याज्जीर्णे च पयसौदनम्॥७६॥
दुर्बलं पाययित्वा वा तस्यैवोपरि भोजयेत्।
प्राग्भक्तं नवनीतं वा दद्यात् समधुशर्करम्॥७७॥
प्राश्य क्षीरोत्थितं सर्पिः कपिञ्जलरसाशनः।
व्यहादारोग्यमाप्नोति पयसा क्षीरभुक्तथा॥७८॥
पीत्वा शतावरीकल्कं पयसा क्षीरभुक् जयेत्।
रक्तातिसारं पीत्वा वा तया सिद्धं घृतं नरः॥७९॥
घृतं2024 यवागूमण्डेन कुटजस्य फलैः शृतम्।
पेयं, तस्यानु पातव्या पेया रक्तोपशान्तये॥८०॥
त्वक् च दारुहरिद्रायाः कुटजस्य फलानि च।
पिप्पली शृङ्गबेरं च द्राक्षा कटुकरोहिणी॥८१॥
षड्भिरेतैर्घृतं सिद्धं पेयामण्डावचा रितम्।
अतिसारं जयेच्छीघ्रं त्रिदोषमपि दारुणम्॥८२॥
कृष्णमृन्मधुकं शङ्खं रुधिरं तण्डुलोदकम्।
पीतमेकत्र सक्षौद्रं रक्तसंग्रहणं परम्॥८३॥
पीतः प्रियङ्गुकाकल्कः सक्षौद्रस्तण्डुलाम्भसा।
रक्तस्रावं जयेच्छीघ्रं धन्वमांसरसाशिनः॥८४॥
कल्कस्तिलानां कृष्णानां शर्करापञ्चभागिकः।
आजेन पयसा पीतः सद्यो रक्तं नियच्छति॥८५॥
पलं वत्सकबीजस्य श्रपयित्वा रसं पिबेत्।
यो रसाशी जयेच्छीघ्रं स पैत्तं जठरामयम्॥८६॥
पीत्वा सशर्कराक्षौद्रं चन्दनं तण्डुलाम्भसा।
दाहतृष्णाप्रमेहेभ्यो रक्तस्रावाच्च मुच्यते॥८७॥
गुदो बहुभिरुत्थानैर्यस्य पित्तेन पच्यते।
सेचयेत्तं सुशीतेन पटोलमधुकाम्बुना॥८८॥
पञ्चवल्कमधूकानां रसैरिक्षुरसैर्घृतैः।
छागैर्गव्यैः पयोभिर्वा शर्कराक्षौद्रसंयुतैः॥८९॥
प्रक्षालनानां कल्कैर्वा ससर्पिष्कैः प्रलेपयेत्।
एषां वा सुकृतैश्चूर्णैस्तं गुदं प्रतिसारयेत्॥१०॥
(पक्वता प्रशमं याति वेदना चोपशाम्यति।)
धातकीलोध्रचूर्णैर्वा समांशैः प्रतिसारयेत्।
तथा न रक्तं स्रवति गुदं तैः प्रतिसारितम्॥११॥
यथोक्तैः सेचनैः शीतैः शोणितेऽतिस्रवत्यपि।
गुदवङ्क्षणकट्यूरु सेचयेद्धृतभावितम्॥९२॥
चन्दनाद्येन तैलेन शतधौतेन सर्पिषा।
कार्पाससंगृहीतेन भावयेद्गुदवङ्क्षणौ2025॥९३॥
अल्पाल्पं बहुशो रक्तं सशूलमुपवेश्यते।
यदा वायुर्विबद्धश्च कृच्छ्रं चरति2026 वा न वा॥१४॥
पिच्छाबस्तिं तदा तस्य यथोक्तमुपकल्पयेत्।
प्रपौण्डरीकसिद्धेन सर्पिषा चानुवासयेत्॥९५॥
प्रायशो दुर्बलगुदाश्चिरकालातिसारिणः।
तस्मादभीक्ष्णशस्तेषां गुदे स्नेहं प्रयोजयेत्॥९६॥
पवनोऽतिप्रवृत्तो हि स्वे स्थाने लभतेऽधिकम्।
बलं तस्य सपित्तस्य जयार्येबस्तिरुत्तमः॥९७॥
रक्कं विट्सहितं पूर्वं पश्चाद्वा योऽतिसार्यते।
शतावरीघृतं तस्य लेहार्थमुपकल्पयेत्॥९८॥
शर्करार्धांशिकं लीढं नवनीतं नवोद्धृतम्।
क्षौद्रपादं जयेच्छीघ्रं तं विकारं हिताशिनः॥९९॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थशुङ्गानापोथ्य वासयेत्।
अहोरात्रं जले तप्तेघृतं तेनाम्भसा पचेत्॥१००॥
तदर्धशर्करायुक्तं लिह्यात्2027 सक्षौद्रपादिकम्।
अधो वा यदि वाऽप्यूर्ध्वं यस्य रक्तं प्रवर्तते॥१०१॥
यस्त्वेवं दुर्बलो मोहात् पित्तलान्येव सेवते।
दारुणं स वलीपाकं प्राप्य शीघ्रं विपद्यते॥१०२॥
श्लेष्मातिसारे प्रथमं हितं लङ्घनपाचनम्।
योज्यश्चामातिसारघ्नो यथोक्तो दीपनो गणः॥१०३॥
लङ्घितस्यानुपूर्व्यां च कृतायां न निवर्तते।
कफजो यद्यतीसारः कफघ्नैस्तमुपाचरेत्॥१०४॥
बिल्वं कर्कटिका मुस्तमभया विश्वभेषजम्।
वचा विडङ्गं भूतीकं धान्यकं देवदारु च॥१०५॥
कुष्ठं सातिविषा पाठा चव्यं कटुकरोहिणी।
पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली॥१०६॥
योगाञ्श्लोकार्धविहितांश्चतुरस्तान् प्रयोजयेत्।
शृताञ्छ्लेष्मातिसारेषु कायाग्निबलवर्धनान्॥१०७॥
अजाजीं ससितां पाठां नागरं मरिचानि च।
धातकीद्विगुणं दद्यान्मातुलुङ्गरसाप्लुतम्॥१०८॥
रसाञ्जनं सातिविषं कुटजस्य फलानि2028 च।
धातकीद्विगुणं दद्यात् पातुं सक्षौद्रनागरम्॥२०९॥
धातकी नागरं बिल्वं लोध्रंपद्मस्य केशरम्।
जम्बूत्वाङ्गांगरं धान्यं पाठा मोचरसो बला॥११०॥
समङ्गाधातकी बिल्वमध्यं जम्ब्वाम्रयोस्त्वचः।
कपिस्थानि विडङ्गानि नागरं मरिचानि च॥१११॥
चाङ्गेरीकोलतक्राग्लांश्चतुरस्तान् कफोत्तरे।
श्लोकार्धविहितान् दद्यात् सस्नेहलवणान् खडान्॥११२॥
कपित्थमध्यं लीढ्वातु सव्योषक्षौद्रशर्करम्।
कट्फलं मधुयुक्तं वा मुच्यते जठरामयात्॥११३॥
कणां मधुयुतां पीत्वा तक्रं पीत्वा सचित्रकम्।
जग्ध्वा वा बालबिल्वानि मुच्यते जठरामयात्॥११४॥
बालबिल्वं गुडं तैलं पिप्पलीं विश्वभेषजम्।
लिह्याद्वाते प्रतिहते सशुलः सप्रवाहिकः॥११५॥
भोज्यं मूलकयूषेण वातघ्नैश्चोपसेचनैः।
वातातिसारविहितैर्यूषैर्मांसरसैः खडैः॥११६॥
पूर्वोत्त्कमम्लसर्पिर्वां षट्पलं वा यथाबलम्।
पुराणं वा घृतं दद्याद्यवागूमण्डमिश्रितम्॥११७॥
वातश्लेष्मविबन्धे वा कफे वाऽतिस्रवत्यपि।
शूले प्रवाहिकायां वा पिच्छाबस्तिं प्रयोजयेत्॥११८॥
पिप्पलीबिल्वकुष्ठानां शताह्वावचयोरपि।
कल्कैः सलवणैर्युक्तं पूर्वोक्तं सन्निधापयेत्॥११९॥
प्रत्यागते सुखं स्नातं कृताहारं दिनात्यये।
बिल्वतैलेन मतिमान् सुखोष्णेनानुवासयेत्॥१२॥
वचान्तैरथवा कल्कैस्तैलं पक्त्वाऽनुवासयेत्।
बहुशः कफवातार्तस्तथा स लभते सुखम्॥१२१॥
स्वे स्थाने मारुतोऽवश्यं वर्धते कफसंक्षये2029।
स वृद्धः सहसा हन्यात्तस्मात्तं त्वरया जयेत्॥१२२॥
वातस्यानु जयेत् पित्तं पित्तस्यानुजयेत् कफम्।
त्रयाणां वा जयेत् पूर्वं यो भवेद्बलवत्तमः॥१२३॥
तत्र श्लोकः।
प्रागुत्पत्तिनिमित्तानि लक्षणं साध्यता न च।
क्रिया चावस्थिकी सिद्धा निर्दिष्टा ह्यतिसारिणाम्2030॥१२४॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थानेऽतीसारचिकित्सितं नामोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
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विंशोऽध्यायः।
अथातश्छर्दिचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह माह भगवानात्रेयः॥२॥
यशस्विनं ब्रह्मतपोद्युतिभ्यां ज्वलन्तमग्न्यर्कसमप्रभावम्।
पुनर्वसुं भूतहिते निविष्टं पप्रच्छ शिष्योऽत्रिजमग्निवेशः॥३॥
याश्छर्दयः पञ्च पुरा त्वयोक्का रोगाधिकारे भिषजां वरिष्ठ!।
तासां चिकित्सां सनिदानलिङ्गां यथावदाचक्ष्व नृणां हितार्थम्॥४॥
तदग्निवेशस्य वचो निशम्य प्रीतो भिषक्श्रेष्ठ इदं जगाद।
याश्छर्दयः पञ्च पुरा मयोक्तास्ता विस्तरेण ब्रुवतो निबोध॥५॥
दोषैः पृथक् त्रिप्रभवा चतुर्थी2031 द्विष्टार्थयोगादपि पञ्चमी स्यात्।
तासां हृदुत्क्लेशकफप्रसेकौ द्वेषोऽशने चैव हि पूर्वरूपम्॥६॥
व्यायामतीक्ष्णौषधशोकरोगभयोपवासाद्यतिकर्षितस्य।
कुद्धो महास्रोतसि मातरिश्वा दोषान् समुस्किइय तदूर्ध्वमस्यन्2032॥७॥
आमाशयोत्क्लेशकृतश्च2033 मर्म प्रपीडयत् छर्दिमुदीरयेत्तु।
हृत्पार्श्वपीडामुखशोषमूर्धनाभ्यर्तिकासस्वरभेदतो दैः॥८॥
उद्गारशब्दप्रबलं सफेनं विच्छिन्नकृष्णं तनुकं कषायम्।
कृच्छ्रेण चाल्पं महता च वेगेनार्तोऽनिलाच्छर्दयतीह दुःखम्॥९॥
अजीर्णकट्वम्लविदाह्यशीतैरामाशये पित्तमुदीर्णवेगम्।
रसायनीभिर्विसृतं प्रपीड्य मर्मोर्ध्वमागम्य वमिं करोति॥१०॥
मूर्च्छापिपासामुखशोषमूर्धताल्वक्षिसंतापतमोभ्रमार्तः।
पीतं भृशोष्णं हरितं सतिक्तं धूम्रं च पित्तेन वमेत्सदाहम्॥११॥
स्निग्धातिगुर्वामविदाहिभोज्यैः स्वप्नादिभिश्चैव कफोऽतिवृद्धः।
उरः शिरो मर्म रसायनीश्च सर्वाः समावृत्य वमिं करोति॥१२॥
तन्द्रास्यमार्यधुकफप्रसेकसंतोषनिन्द्रारुचिगौरवार्तः।
स्निग्धं घनं स्वादु कफंविशुद्धं सलोमहर्षोल्परुजं वमेत्तु॥१३॥
समश्नतः सर्वरसान् प्रसक्तमामप्रदोषर्तुविपर्ययैश्च।
सर्वे प्रकोपं युगपत्प्रपन्नाश्छर्दिंत्रिदोषां जनयन्ति दोषाः॥१४॥
शूलाविपाकारुचिदाहतृष्णाश्वासप्रमोहप्रबला प्रसक्तम्।
छर्दिस्त्रिदोषाल्लवणाम्लनीलसान्द्रोष्णरक्तं वमतां नृणां स्यात्॥१५॥
विट्स्वेदमूत्राम्बुवहानि वायुः स्रोतांसि संरुध्य यदोर्ध्वमेति।
डत्सन्नदोषस्य समाचितं तं दोषं समुद्धूय2034नरस्य कोष्ठात्॥१६॥
विण्मूत्रयोस्तत्समवर्णगन्धं तृट्श्वासहिक्कार्तियुतः प्रसक्तम्।
प्रच्छर्दयेहुष्टमिहातिवेगात्तयाऽर्दितश्चाशु विनाशमेति॥१७॥
द्विष्टप्रतीपाशुचिपूत्यमेध्यबी भत्सगन्धाशनदर्शनैश्च।
यश्छर्दयेत्तप्तमना मनोघ्नैर्द्विष्टार्थसंयोगभवा मता सा॥१८॥
क्षीणस्य या छर्दिरतिप्रसक्ता सोपद्रवा शोणितपूययुक्ता।
सचन्द्रिकां तां प्रवदन्त्यसाध्यां साध्यां चिकित्सेदनुपद्रवां च॥१९॥
आमाशयोत्क्लेशभवा हि सर्वाश्छर्द्योमता लङ्घनमेव तस्मात्।
प्राक्कारयेन्मारुतजां विमुच्य संशोधनं वा कफपित्तहारि॥२०॥
चूर्णानि लिह्यान्मधुनाऽभयानां हृद्यानि वा यानि विरेचनानि।
मद्यैःपयोभिश्च युतानि युक्त्या नयन्त्यधो दोषमुदीर्णमूर्ध्वम्॥२१॥
वल्लीफलाद्यैर्वमनं पिबेद्वा यो दुर्बलस्तं शमनैश्चिकित्सेत्।
रसैर्मनोज्ञैर्लघुभिर्विशुष्कैर्भक्ष्यैः सभोज्यैर्विविधैश्च पानैः॥२२॥
सुसंस्कृतास्तित्तिरिबर्हिलावरसा व्यपोहन्त्यनिलप्रवृत्ताम्।
छर्दिंतथा कोलकुलत्थधान्यबिल्वादिमूलाग्लयवैश्च यूषः॥२३॥
वातात्मिकायां हृदयद्रवार्तो2035नरः पिबेत्सैन्धववद्धृतं तु।
सिद्धं तथा धान्यकनागराभ्यां दघ्ना च तोयेन च दाडिमस्य॥२४॥
व्योषेण युक्तां लवणैस्त्रिभिश्च घृतस्य मात्रामथवा विदध्यात्।
स्निग्धानि हृद्यानि च भोजनानि रसैःसयूषैर्दधिदाडिमाम्लैः॥२५॥
पित्तात्मिकायामनुलोमनार्थं द्राक्षाविदारीक्षुरसैस्त्रिवृत् स्यात्।
कफाशयस्थं त्वतिमात्रवृद्धं पित्तं हरेत् स्वादुभिरूर्ध्वमेव॥२६॥
शुद्धाय काले मधुशर्कराभ्यां लाजैश्च मन्थं यदि वाऽपि पेयाम्।
प्रदापयेन्मुद्गरसेन वाऽपि शाल्योदनं जाङ्गलजै रसैर्वा॥२७॥
सितोपलामाक्षिकपिप्पलीभिः कुल्माषलाजायवसक्तुगृञ्जान्।
खर्जूरमांसान्यथ नारिकेलं द्राक्षामथो वा बदराणि लिह्यात्॥२८॥
स्रोतोजलाजोत्पलकोलमज्जचूर्णानि लिह्यान्मधुनाऽभयां वा।
कोलास्थिमज्जाञ्जनमक्षिकाविड्लाजासितामागधिकाकणान्वा॥२९॥
द्राक्षारसं वाऽपि पिबेत् सुशीतं मृद्भृष्टलोटप्रभवं जलं वा।
जम्ब्वाम्रयोः पल्लवजं कषायं पिबेत् सुशीतं मधुसंयुतं वा॥३०॥
निशि स्थितं वारि समुद्गकृष्णं सोशीरधान्यं चणकोदकं वा।
गवेधुकामूलजलं गुडूच्या जलं पिबेदिक्षुरसं पयो वा॥३१॥
सेव्यं पिबेत् काञ्चनगैरिकं वा सवालकं तण्डुलधावनेन।
धात्रीरसेनोत्तमचन्दनं वा तृष्णावमिघ्नानि समाक्षिकाणि॥३२॥
कल्कं तथा चन्दनसेव्यमांसीद्राक्षोत्तमाबालकगैरिकाणाम्।
शीताम्बुना गैरिकशालिचूर्णं मूर्वां तथा तण्डुलधावनेन॥३३॥
कफात्मिकायां वमनं प्रशस्तं सपिप्पलीसर्षपनिम्बतोयैः।
पिण्डीत कैः सैन्धवसंप्रयुक्तैर्वभ्यां कफामाशयशोधनार्थम्॥३४॥
गोधूमशालीन्सयवान् पुराणान् यूषैःपटोलामृतचित्रकाणाम्।
व्योषस्य निम्बस्य च तक्रसिद्धैर्यूषैः फलाम्लैः कटुभिस्तथाऽद्यात्॥३५॥
रसांश्च शूल्यानि च जाङ्गलानां मांसानि जीर्णान्मधुशीध्वरिष्टान्।
रागांस्तथा षाडवपानकानि द्राक्षाकपित्थैः फलपूरकैश्च॥३६॥
मुद्गान्मसूरांश्चणकान्कलायान्भृष्टान् युतान्नागरमाक्षिकाभ्याम्।
लिह्यात्तथैव त्रिफलाविडङ्गचूर्णं विडङ्गप्लवयोरथो वा॥३७॥
सजाम्बवं वा बदराम्लचूर्णं मुस्तायुतां कर्कटकस्य शृङ्गीम्।
दुरालभां वा मधुसंप्रयुक्तांलिह्यात्कफच्छर्दिविनिग्रहार्थम्॥३८॥
मनःशिलायाः फलपूरकस्य रसैः कपित्थस्य च पिप्पलीनाम्।
क्षौद्रेण चूर्णं मरिचैश्च युक्तं लिहञ्जयेच्छार्दिमुदीर्णवेगाम्॥३९॥
यैषा पृथक्त्वेन मया क्रियोक्ता तां सन्निपातेऽपि समीक्ष्य बुद्ध्या।
दोषर्तुरोगाग्निबलान्यवेक्ष्य प्रयोजयेच्छास्त्रविदप्रमत्तः॥४०॥
मनोऽभिघाते तु मनोऽनुकूला वाचः समाश्वासनहर्षणानि।
लोकप्रसिद्धाः श्रुतयो वयस्याः शृङ्गारयुक्ताश्च2036 हिता विहाराः॥४१॥
गन्धा विचित्रा मनसोऽनुकूला मृत्पुष्पशुक्ताम्लफलादिकानाम्।
शाकानि भोज्यान्यथ पानकानि सुसंस्कृताः षाडवरागलेहाः॥४२॥
यूषा रसाः काम्बलिका खडाश्च मांसानि धाना विविधाश्च भक्ष्याः।
फलानि मूलानि च गन्धवर्णरसैरुपेतानि वमिं जयन्ति॥४३॥
गन्धं रसं स्पर्शमथापि शब्दं रूपं च यद्यत्2037 प्रियमप्यसात्म्यम्।
तदेव दद्यात्प्रशमाय तस्यास्तज्जो हि रोगः सुखमेव जेतुम्॥४४॥
छर्द्युत्थितानां च चिकित्सितात्स्वाच्चिकित्सितं कार्यमुपद्रवाणाम्।
अतिप्रवृत्तासु विरेचनस्य कर्मातियोगे विहितं विधेयम्॥४५॥
वमिप्रसङ्गात्पवनोऽप्यवश्यं धातुक्षयाद्वृद्धिमुपैति तस्मात्।
चिरप्रवृत्तास्वनिलापहानि कार्याण्युपस्तम्भनबृंहणानि॥४६॥
सर्पिर्गुडाः क्षीरविधिर्घृतानि कल्याणकत्र्युषणजीवनानि।
वृष्यास्तथा मांसरसाः सलेहाश्चिरप्रसक्तां2038 च वमिं जयन्ति॥४७॥
तत्रश्लोकः।
संख्यां हेतुं लक्षणमुपद्रवान् साध्यतां न योगांश्च।
छर्दीनां प्रशमार्थं चिकित्सितं प्राह मुनिवर्यः॥४८॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
छर्दिचिकित्सितं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥
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एकविंशोऽध्यायः।
अथातो विसर्पचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
कैलासे किन्नराकीर्णे बहुप्रस्रवणौषधे।
पादपैर्विविधैः स्निग्धैर्नित्यं कुसुमसंपदैः॥३॥
वमद्भिर्मधुरान् गन्धान् सर्वतः स्वभ्यलङ्कृते।
विहरन्तं जितात्मानमात्रेयमृषिवन्दितम्॥४॥
महर्षिभिः परिवृतं सर्वभूतहिते रतम्।
अग्निवेशो गुरुं काले विनयादिदमुक्तवान्॥५॥
भगवन् दारुणं रोगमाशीविषविषोपमम्।
विसर्पन्तं शरीरेषु देहिनामुपलक्षये॥६॥
सहसैव नरास्तेन परीताः शीघ्रकारिणा।
विनश्यन्त्यनुपक्रान्तास्तत्र नः संशयो महान्॥७॥
स नाम्ना केन विज्ञेयः संज्ञितः केन हेतुना।
कतिभेदः कियद्धातुः किन्निदानः किमाश्रयः॥८॥
सुखसाध्यः कृच्छ्रसाध्यो ज्ञेयो यश्चानुपक्रमः।
कथं कैर्लक्षणैः किं च भगवन् तस्य भेषजम्॥९॥
तदात्रेयोऽग्निवेशस्य वचः श्रुत्वा पुनर्वसुः।
यथावदखिलं सर्वं प्रोवाच मुनिसत्तमः॥१०॥
विविधं सर्पति यतो विसर्पस्तेन स स्मृतः।
परिसर्पोऽथवा नाम्ना सर्वतः परिसर्पणात्॥११॥
स च सप्तविधो दोषैर्विज्ञेयः सप्तधातुकः।
पृथक् त्रयस्त्रिभिश्चैको विसर्पो द्वन्द्वजास्त्रयः॥१२॥
वातिकः पैत्तिकश्चैव कफजः सान्निपातिकः।
चत्वार एते विसर्पा वक्ष्यन्ते द्वन्द्वजास्त्रयः॥१३॥
आग्नेयो वातपित्ताभ्यां ग्रन्थ्याख्यः कफवातजः।
यस्तु कर्दमको घोरः स2039 पित्तकफसंभवः॥१४॥
रक्तं लसीका त्वङ्मांसं दूष्यं दोषास्त्रयो मलाः।
विसर्पाणां समुत्पत्तौ विज्ञेयाः सप्त धातवः॥१५॥
लवणाम्लकटूष्णानां रसानामतिसेवनात्।
दध्यम्लमस्तुयुक्तानां सुरासौवीरकस्य च॥१६॥
व्यापन्नबहुमद्योष्णरागषाडवसेवनात्।
शाकानां हरितानां च सेवनाच्च विदाहिनाम्॥१७॥
कूर्चिकानां किलाटानां सेवनान्मन्दकस्य च।
दध्नः शाण्डाकिपूर्वाणामासुतानां च सेवनात्॥१८॥
तिलमाषकुलत्थानां तैलानां पैष्टिकस्य च।
ग्राम्यानूपौदकानां च मांसानां लशुनस्य च॥१९॥
प्रक्लिन्नानामसात्म्यानां विरुद्धानां च सेवनात्।
अत्यादानाद्दिवास्वप्नादजीर्णाध्यशनात् क्षतात्॥२०॥
क्षतबन्धप्रपतना2040द्धर्मकर्मातिसेवनात्।
विषवाताग्निदोषाच्च विसर्पाणां समुद्भवः॥२१॥
एतैर्निदानैर्व्यामिश्रैः कुपिता मारुतादयः।
दुष्यान् संदूष्य रक्तादीन् विसर्पन्त्यहिताशिनाम्॥२२॥
बहिः श्रितः श्रितश्चान्तस्तथा चोभयसंश्रितः।
विसर्पो बलमेषां तु ज्ञेयं गुरु यथोत्तरम्॥२३॥
बहिर्मार्गाश्रितं, साध्यमसाध्यमुभयाश्रितम्।
विसर्पं दारुणं विद्यात् सुकृच्छ्रं त्वन्तराश्रितम्॥२४॥
अन्तःप्रकुपिता दोषा विसर्पन्त्यन्तराश्रये।
बहिर्बहिःप्रकुपिताः सर्वत्रोभयसंश्रिताः॥२५॥
मर्मोपघातात् संमोहादयनानां विघट्टनात्।
तृष्णातियोगाद्वेगानां विषमं च प्रवर्तनात्॥२६॥
विद्याद्विसर्पमन्तर्जमाशु चाग्निबलक्षयात्।
अतो विपर्ययाद्बाह्यमन्यैर्विद्यात् स्वलक्षणैः॥२७॥
यस्य लिङ्गानि2041 सर्वाणि बलवद्यस्य कारणम्।
यस्य चोपद्रवाः कष्टा मर्मगो यश्च हन्ति सः॥२८॥
रूक्षोष्णैः केवलो वायुः पूरणैर्वा समावृतः।
प्रदुष्टो दूषयन् दूष्यान् विसर्पति यथाबलम्॥२९॥
तस्य रूपाणि-भ्रमदवथुपिपासानिस्तोदशूलाङ्गमर्दोद्वेष्टनश्लेषज्वरतमककासास्थिसन्धिभेदविश्लेष- वेपनारोचकाविपाकाश्चक्षुषोराकुलत्वमस्त्रागमनं पिपीलिकासंचार इव चाङ्गेषु, यस्मिंश्चावकाशे विसर्पोऽनुविसर्पति सोऽवकाशः श्यावारुणावभासः श्वयथुमान् निस्तोदभेदशूलायामसंकोचहर्षस्फुरणैरतिमात्रं प्रपीड्यते, अनुपक्रान्तश्चोपचीयते शीघ्रभेदैः स्फोटकैस्तनुभिररुणाभैः श्यावैर्वा तनुविशदारुणाल्पास्रावैर्विबद्धवातमूत्रपुरीषश्च भवति, निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते विपरीतानि चोपशेरत इति वातविसर्पः॥३०॥
पित्तमुष्णोपचारेण2042 विदाह्यम्लाशनैश्चितम्।
दूष्यान् संदूष्य धमनीः2043 पूरयन् वै विसर्पति॥३१॥
तस्य रूपाणि—ज्वरस्तृष्णा मूर्च्छा मोहश्छर्दिररोचकोऽङ्गभेदः स्वेदोऽतिमात्रमन्तर्दाहः प्रलापः शिरोरुक् चक्षुषोराकुलत्वमस्वप्नरतिर्भ्रमः शीतवातवारितर्षोऽतिमात्रं हरितहारिद्रमूत्रवर्चस्त्वंहरितहारिद्ररूपदर्शनं यस्मिंश्चावकाशे विसर्पोऽनुसर्पति सोऽवकाशस्तात्रहरितारिद्रनीलकृष्णरक्तानां वर्णानामन्यतमं पुष्यति, सोस्सेधैश्वातिमात्रं दाहसंभेदनपरीतैः2044 स्फोटकैरुपचीयते तुल्यवर्णास्नावैरचिरपाकैश्च, निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते विपरीतानि चोपशेरत इति पित्तविसर्पः॥३२॥
स्त्राद्वम्ललवणस्निग्धगुर्वन्नस्वप्नसंचितः।
कफः संदूषयन् दूष्यं कृच्छ्रमङ्गे विसर्पति॥३३॥
तस्य रूपाणि—शीतकः शीतज्वरो गौरवं निद्रा तन्द्राऽरोचको मधुरास्यत्वमास्योपलेपो निष्ठीविका2045 छर्दिरालस्यं स्तैमित्यमग्निनाशो दौर्बल्यं च, यस्मिंश्चावकाशे विसर्पोऽनुसर्पति सोऽवकाशः श्वयथुमान् पाण्डुर्नातिरक्तः स्नेहसुप्तिस्तम्भगौरवैरन्वितोऽल्पवेदनः कृच्छ्रपाकैश्विरकारिभिर्बहुलत्वगुपलेपैः स्फोटः श्वेतपाण्डुभिरनुबध्यते, प्रभिन्नस्तु श्वेतं पिच्छिलं तन्तुमद्धनमनुबद्धं स्निग्धमास्रावं स्रवति, ऊर्ध्वं च गुरुभिः स्थिरैर्जालावततैः सिग्धैर्बहलत्वगुपलेपैर्व्रणैरनुबध्यतेऽनुषङ्गी च भवति, श्वेतनखन यनवदनत्व ङ्मूत्रवर्चस्त्वं, निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते विपरीतानि चोपशेरत इति श्लेष्मविसर्पः॥३४॥
वातपित्तं प्रकुपितमतिमात्रं स्वहेतुभिः।
परस्परं लब्धबलं दहद्गात्रं विसर्पति॥३५॥
तदुपतापादातुरः सर्वशरीरमङ्गारैरिवाकीर्यमाणं मन्यते, छर्द्यतीसारमूर्च्छादाहमोहज्वरतमकारोचकास्थिसन्धिभेद-तृष्णाविपाकाङ्गभेदादिभिश्चाभिभूयते, यं यं चावकाशं विसर्पोऽनुसर्पति सोऽवकाशः शान्ताङ्गारप्रकाशोऽतिरक्तो वा भवति, अग्निदग्धप्रकारैश्च स्फोटै रुपचीयते, स शीघ्रगत्वादाश्वेव मर्मानुसारी भवति, मर्मणि चोपतप्ते पवनोऽतिबलो भिनत्त्यङ्गान्यतिमात्रं प्रमोहयति संज्ञां हिक्वाश्वासौ जनयति नाशयति निद्रां, स नष्टनिद्रः प्रमूढसंज्ञो व्यथितचेता न क्वचन सुखमुपलभते, अरतिपरीतः स्थानादासनाच्छय्यां क्रान्तुमिच्छति,क्लिष्टभूयिष्ठश्चाशु निद्रां लभते, दुर्बलो दुःखप्रबोधश्च भवति, तमेवंविधम2046ग्निविसर्पपरीतमचिकित्स्यं विद्यात्॥३६॥
कफपित्तं प्रकुपितं बलवत् स्वेन हेतुना।
विसर्पत्येकदेशे तु प्रक्लेदयति चाधिकम्2047॥३७॥
तद्विकाराः—शीतज्वरः शिरोमुरुत्वं2048 दाहः स्तैमित्यम् अङ्गावसदनं निद्रा तन्द्रा प्रमोहो ऽन्नद्वेषः प्रलापो ऽग्निनाशो2049 दौर्बल्यम् अस्थिभेदो मूर्च्छा पिपासा स्रोतसां प्रलेपो जाड्यमिन्द्रियाणां प्रायोपवेशनमङ्गविक्षेपोऽङ्गमर्दो2050ऽरतिरौत्सुक्यं चोपजायते, प्रायशश्चामाशये विसर्पत्यलसक एकदेशग्राही च; यस्मिंश्चावकाशे विसर्पो विसर्पति सोऽवकाशो रक्तपीतपाण्डुपिडकावकीर्ण इव मेचकाभः कालो मलिनः स्निग्धो बहूष्मा गुरुः स्तिमितवेदनः श्वयथुमान् गम्भीरपाको निरास्रावः शीघ्रक्लेदः स्विन्नक्लिन्नपूतिमांसत्वक् क्रमेणाल्परुक् परामृष्टोऽवदीर्यते कर्दम इवावपीडितोऽन्तरं प्रयच्छत्युपक्किन्नपूतिमांसत्यागी सिरास्त्रायुसंदर्शी कुणपगन्धी संज्ञास्मृतिहन्ता च भवति, तं कर्दमविसर्पपरीतमचिकित्स्यं विद्यात्॥३८॥
स्थिरगुरुमधुरशीतस्निग्धान्नपानाभिष्यन्दिसेविनामव्यायामसेविनामप्रतिकर्मशीलानां च श्लेष्मा वायुश्च प्रकोपमापद्यते, तावुभौ दुष्टप्रवृद्धावतिबलौ प्रदूष्य दूष्यान् विसर्पाय कल्पेते; तत्र वायुः श्लेष्मणा विबद्धमार्गस्तमेव श्लेष्माणमनेकधा भिन्दन्क्रमेण2051 ग्रन्थिमालां कृच्छ्रपाकसाध्यां कफाशये संजनयति, उत्सन्नरक्तस्य वा प्रदूष्य रक्तं सिरास्नायुमांसत्वगाश्रितानां2052 ग्रन्थीनां मालांकुरुते तीव्ररुजानां स्थूलानामणूनां दीर्घवृत्तरक्तानां तदुपतापाज्ज्वरातीसारकासहिक्काश्वासशोषप्रमोहवैवर्ण्यारोचका-विपाकप्रसेकच्छार्दिमूर्च्छाङ्गभङ्गनिद्वारतिसदनाद्याः प्रादुर्भवन्त्युपद्रवाः, स एतैरुपद्रुतः सर्वकर्मणां विषयमतिपतितो विवर्जनीयो भवतीति ग्रन्थिविसर्पः॥३९॥
उपद्रवस्तु खलु रोगोत्तरकालजो2053 रोगाश्रयो रोग एव स्थूलोऽणुर्वा रोगात् पश्चाज्जायत इति उपद्रवसंज्ञः। तत्र प्रधानो व्याधिः, व्याघेर्गुणभूत उपद्रवः; तस्य प्रायः प्रधानप्रशमे प्रशमो भवति। स तु पीडाकरतरो भवति पश्चादुत्पद्यमानो व्याधिपरिक्लिष्टशरीरत्वात् तस्मादुपद्रवं त्वरमाणोऽभिबाधेत॥४०॥
सर्वायतनसमुत्थं सर्वलिङ्गव्यापिनं सर्वधात्वनुसारिणमाशुकारिणंमहात्ययिकमिति सन्निपातविसर्पमचिकित्स्यं विद्यात्॥४१॥
तत्र वातपित्तश्लेष्मनिमित्ता विसर्पास्त्रयः साध्या भवन्ति अग्निकर्दमाख्यौ पुनरनुपसृष्टे मर्मण्यनुपगते वा सिरास्नायुमांसक्लेदे साधारणक्रियाभिरुभावेवाभ्यस्यमानौ प्रशान्तिमापद्येयाताम्; अनादरोपक्रान्तः पुनस्तयोरन्यतरो हन्याद्देह2054माश्वेवाशीविषवत्; तथा ग्रन्थिविसर्पमजातोपद्रवमारभेत चिकित्सितुम्, उपद्रवोपद्रुतं त्वेनं परिहरेत्; सन्निपातजं तु सर्वधात्वनुसारित्वादाशुकारित्वाद्विरुद्धोपक्रमत्वाच्चासाध्यं विद्यात्॥४२॥
तत्र साध्यानां साधनमनुष्याख्यास्यामः—
लङ्घनोल्लेखने शस्ते तिक्तकानां च सेवनम्।
कफस्थानगते सामे रूक्षशीतैः प्रलेपनम्॥४३॥
पित्तस्थानगतेऽप्येतत् सामे कुर्याच्चिकित्सितम्।
शोणितस्यावसेकं च विरेकं च विशेषतः॥४४॥
मारुताशयसंभूतेऽप्यादितः स्याद्विरुक्षणम्।
रक्तपित्तान्वयेऽप्यादौ स्नेहनं न हितं मतम्॥४५॥
वातोल्बणे तिक्तधृतं पैत्तिके च प्रशस्यते।
लघुदोषे महादोषे पैत्तिके स्याद्विरेचनम्॥४६॥
न घृतं बहुदोषाय देयं यन्न2055 विरेचयेत्।
तेन दोषो ह्युपष्टब्धस्त्वङ्मांसरुधिरं पचेत्॥४७॥
तस्माद्विरेकमेवादौ शस्तं विद्याद्विसर्पिणः।
रुधिरस्यावसेकं च तद्भ्यस्याश्रयसंज्ञितम्॥४८॥
इति वीसर्पिणामुक्तं समासेन चिकित्सितम्।
एतदेव पुनः सर्वं व्यासतः संप्रवक्ष्यते॥४९॥
मदनं मधुकं निम्बं वत्सकस्य फलानि च।
वमनं संप्रदातव्यं विसर्पे कफपित्तजे॥५०॥
पटोलपिचुमर्दाभ्यां पिप्पल्या मदनेन च।
विसर्पे वमनं शस्तं तथा चेन्द्रयवैः सह॥५१॥
यांश्च योगान् प्रवक्ष्यामि कल्पेषु कफपित्तिनाम्।
विसर्पिणां तु योज्यास्ते दोषनिर्हरणाः शिवाः॥५२॥
मुस्तनिम्बपटोलानां चन्दनोत्पलयोरपि।
सारिवामलकोशीरमुस्तानां वा विचक्षणः॥५३॥
कषायान् पाययेद्वैद्यः सिद्धान् वीसर्पनाशनान्।
किराततिक्तकं लोध्रं चन्दनं सदुरालभम्॥५४॥
नागरं पद्मकिञ्जल्कमुत्पलं सबिभीतकम्।
मधुकं नागपुष्पं च दद्याद्वीसर्पशान्तये॥५५॥
प्रपौण्डरीकं मधुकं पद्मकिञ्जल्कमुत्पलम्।
नागपुष्पं च लोध्रंच तेनैव विधिना पिबेत्॥५६॥
द्राक्षां2056 पर्पटकं शुण्ठीं गुडूचीं धन्वयासकम्।
निशापर्युषितं दुद्यात्तृष्णाविसर्पशान्तये॥५७॥
पटोलं पिचुमर्दं च दार्वींकटुकरोहिणीम्।
यष्ट्याह्वां त्रायमाणां च दद्याद्विसर्पशान्तये॥५८॥
पटोलादिकषायं वाऽप्येतन्त्रिफलया सह।
मसूरविदलायुक्तं घृतमिश्रं प्रदापयेत्॥५९॥
पटोलपत्रमुद्गानां रसमामलकस्य च।
पाययेत घृतोन्मिश्रं नरं विसर्पपीडितम्॥६०॥
यच्च सर्पिर्महातिक्तंपित्तकुष्ठनिबर्हणम्।
निर्दिष्टं तदपि प्राज्ञो दद्याद्विसर्पशान्तये॥६१॥।
त्रायमाणाघृतं सिद्धं गौल्मिके यदुदाहृतम्।
विसर्पाणां प्रशान्त्यर्थं दद्यात्तदपि बुद्धिमान्॥६२॥
त्रिवृच्चूर्णं समालोड्य सर्पिषा पयसाऽपि वा।
धर्माम्बुना वा संयोज्य मृद्वीकानां रसेन वा॥६३॥
विरेकार्थं प्रयोक्तव्यं सिद्धं विसर्पनाशनम्।
त्रायमाणाशृतं वाऽपि पयो दद्याद्विरेचनम्॥६४॥
त्रिफलारससंयुक्तं सर्पिस्त्रिवृतया सह।
प्रयोक्तव्यं विरेकार्थं विसर्पज्वरशान्तये॥६५॥
रसमामलकानां वा घृतमिश्रं प्रदापयेत्।
स एव गुरुकोष्ठाय त्रिवृच्चूर्णयुतो हितः॥६६॥
दोषे कोष्ठगते भूय एतत् कुर्याच्चिकित्सितम्।
शाखादुष्टे तु रुधिरे रक्तमेवादितो हरेत्॥६७॥
भिषग्वातान्वितं रक्तं विषांणेन विनिर्हरेत्।
पित्तान्वितं जलौकोभिः कफान्वितमलाबुभिः॥६८॥
यथासन्नं विकांरस्य व्यधयेदाशु वा सिराम्।
त्वङ्मांसस्नायुसंक्लेदोरक्तक्लेदाद्धि जायते॥६९॥
एवं निर्हृतदोषाणां2057 दोषे त्वङ्मांससंश्रिते।
आदितो वाऽल्पदोषाणां क्रिया बाह्या प्रवक्ष्यते॥७०॥
उदुम्बरत्वङ्माधुकं पद्मकिञ्जल्कमुत्पलम्।
नागपुष्पं प्रियङ्गुश्च प्रदेहः सघृतो हितः॥७१॥
न्यग्रोधपादास्तरुणाः कदलीगर्भसंयुताः।
बिसग्रन्थिश्च लेपः स्याच्छतधौतघृताप्लुतः॥७२॥
कालीयं मधुकं हेम वन्यं चन्दनपद्मकौ।
पत्रं2058 मृणालं फलिनी प्रलेपः स्याद्धृताप्लुतः॥७३॥
शालूकं च मृणालं च शङ्खं चन्दनमुत्पलम्।
वेतसस्य च मूलानि प्रदेहः स्यात् सतण्डुलः॥७४॥
सारिवा पद्मकिञ्जल्कमुशीरं नीलमुत्पलम्।
मञ्जिष्ठा चन्दनं लोध्रमभया च प्रलेपनम्॥७५॥
नलदं च हरेणुश्च लोध्रं मधुकमुत्पलम्।
दूर्वा सर्जरसश्चैव सघृतं स्यात् प्रलेपनम्॥७६॥
यावकाः सक्तवश्चैव सर्पिषा सह योजिताः।
प्रदेहा मधुकं वीरा सघृता यवसक्तवः॥७७॥
बलामुत्पलशालूकं वीरामगुरुचन्दनम्।
दद्यादालेपनं वैद्यो मृणालं च बिसान्वितम्॥७८॥
यवचूर्णं समधुकं सघृतं च प्रलेपनम्।
हरेणवो मसूराश्च समुद्गाःश्वेतशालयः।
पृथक् पृथक् प्रदेहाः स्युः सर्वे वा सर्पिषा सह॥७९॥
पद्मिनीकर्दमः शीतो मौक्तिकं पिष्टमेव वा।
शङ्खः प्रवालाः शुक्तिर्वा गैरिकं वा घृताप्लुतम्॥८०॥
प्रपौण्डरीकं मधुकं बला शालूकमुत्पलम्।
(पृथगेते2059 प्रदेहाश्च हिता ज्ञेया विसर्पिणाम्।)
न्यग्रोधपत्रं दुग्धीका सघृतं स्यात् प्रलेपनम्॥८१॥
बिसानि च मृणालं च सघृताश्च कशेरुकाः।
शतावर्या विदार्याश्च कन्दौ धौतघृताप्लुतौ॥८२॥
शैवालं नलमूलानि गोजिह्वा वृषपर्णिका।
इन्द्राणिशाकं सघृतं देयं वा दाहशान्तये॥८३॥
न्यग्रोधोदुम्बरप्लक्षवेतसाश्वत्थजाम्बवैः।
त्वक्कल्कैर्बहुसर्पिष्कैः शीतैरालेपनं हितम्॥८४॥
प्रदेहाः सर्व एवैते रक्तपित्तोल्बणे2060 शुभाः।
सकफे तु प्रवक्ष्यामि प्रदेहानपरान् हितान्॥८५॥
त्रिफलां पद्मकोशीरं समङ्गां करवीरकम्।
नलमूलान्यनन्तां च प्रदेहमुपकल्पयेत्॥८६॥
खदिरं सप्तपर्णं च मुस्तमारग्वधं धवम्2061।
कुरण्टकं देवदारु दद्यादालेपनं भिषक्॥८७॥
आरग्वधस्य पत्राणि त्वचं श्लेष्मातकस्य च।
इन्द्राणिशाकं काकाह्वांशिरीषकुसुमानि च॥८८॥
शैवालं नलमूलानि वीरां गन्धप्रियङ्गुकाम्।
त्रिफलां मधुकं वीरां शिरीषकुसुमानि च॥८९॥
प्रपौण्डरीकं ह्रीबेरं दार्वीत्वङ्मधुकं2062 बलाम्।
पृथगालेपनं कुर्याद्द्वन्द्वशः सर्वशोऽपि वा॥९०॥
प्रदेहाः सर्व एवैते देयाः स्वल्पघृताप्लुताः।
वातपित्तोल्बणे ये तु प्रदेहास्ते घृताधिकाः॥९१॥
प्रदेहाः सर्व एवैते कर्तव्याः संप्रसादनाः।
क्षणे क्षणे युज्यमानाः पूर्वमुद्धृत्य लेपनम्॥९२॥
घृतेन शतधौतेन प्रदिह्यात् केवलेन च।
घृतमण्डेन शीतेन पयसा मधुकाम्बुना॥९३॥
पञ्चवल्ककषायेण सेचयेच्छीतलेन वा।
वातासृक्पित्तबहुलं विसर्पं बहुशो भिषक्॥९४॥
सेचनास्ते प्रदेहा ये त एव घृतसाधनाः।
ते चूर्णयोगा विसर्पव्रणानामवचूर्णनाः॥९५॥
दूर्वास्वरससिद्धं वा घृतं स्याह्रणरोपणम्।
दार्वीत्वङ्मधुकं2062 लोधं केशरं चावचूर्णितम्॥९६॥
पटोलः पिचुमर्दस्तु त्रिफला मधुकोत्पले।
एतत् प्रक्षालनं सर्पिर्व्रणचूर्णं प्रलेपनम्॥९७॥
प्रदेहाः सर्व एवैते कर्तव्याः संप्रसादनाः।
क्षणे क्षणे प्रयोक्तव्याः पूर्वमुद्धृत्य लेपनम्॥९८॥
अधावनोद्धृते पूर्वेप्रदेहा बहुशोऽघनाः।
देयाः प्रदेहाः कफजे पर्याधानोद्धृते घनाः॥९९॥
त्रिभागाङ्गुष्ठमात्रः स्यात् प्रलेपः कल्कपेषितः।
नातिस्निग्धो न रूक्षश्च न पिण्डो न द्रवः समः॥१००॥
न च पर्युषितं लेपं कदाचिदवचारयेत्।
न च तेनैव लेपेन पुनर्जातु प्रलेपयेत्॥१०१॥
क्लेदविसर्पशूलानि सोष्णभावात्2063 प्रवर्तयेत्।
लेपो ह्युपरि पट्टस्य कृतः स्वेदयति व्रणम्॥१०२॥
स्वेदजाः पिडकास्तस्य कण्डूश्चैवोपजायते।
उपर्युपरि लेपस्य लेपो यद्यवचार्यते॥१०३॥
तानेव दोषाञ्जनयेत् पट्टस्योपरि यान्2064कृतः।
अतिस्निग्धोऽतिद्रवश्च लेपो यद्यवचार्यते॥१०४॥
त्वचि न श्लिष्यते सम्यङ्ग दोषं शमयत्यपि।
तन्वालिप्तं न कुर्वीत संशुष्को ह्यापुटायते॥१०५॥
न चौषधिरसो व्याधिं प्राप्नोत्यपि च शुष्यति।
तन्वालिप्तेन ये दोषास्तानेव जनयेद्भृशम्॥१०६॥
संशुष्कः पीडयेव्द्याधिं निःस्नेहो ह्यवचारितः।
अन्नपानानि वक्ष्यामि विसर्पाणां निवृत्तये॥१०७॥
लङ्कितेभ्यो हितो मन्थो रूक्षः सक्षौद्रशर्करः।
मधुरः किञ्चिदम्लो वा दाडिमामलकान्वितः॥१०८॥
सपरूषकमृद्वीकः सखर्जूरः शृताम्बुना।
तर्पणैर्यवशालीनां सस्नेहा चावलेहिका॥१०९॥
जीर्णे पुराणशालीनां यूपैर्भुञ्जीत2065 भोजनम्।
मुद्गान् मसूरांश्चणकान् यूषार्थमुपकल्पयेत्॥११०॥
अनम्लान् दाडिमाम्लान् वा पटोलामलकैः सह।
जाङ्गलानां च मांसानां रसांस्तस्योपकल्पयेत्॥१११॥
(रुक्षान् परूषकद्राक्षादाडिमामलकान्वितान्।
रक्ताः श्वेता महाह्वाश्च शालयः षष्टिकैः सह॥११२॥
भोजनार्थेप्रशस्यन्ते पुराणाः सुपरिस्रुताः।
यवगोधूमशालीनां सात्म्यान्येच प्रदापयेत्2066॥११३॥)
येषां नात्युचितः शालिर्नरा ये च कफाधिकाः।
विदाहीन्यन्नपानानि विरुद्धं स्वपनं दिवा॥११४॥
क्रोधव्यायामसूर्याग्निप्रवातांश्च विवर्जयेत्।
कुर्याच्चिकित्सितादस्माच्छीतप्रायाणि पैत्तिके॥११५॥
रूक्षप्रायाणि कफजे स्नैहिकान्यनिलात्मके।
वातपित्तप्रशमनमग्निवीसर्पिणे हितम्॥११६॥
कफपित्तप्रशमनं प्रायः कर्दमसंज्ञिते।
रक्तपित्तोत्तरं दृष्ट्वा2067 ग्रन्थिवीसर्पमादितः॥११७॥
रूक्षणैर्लङ्घनैः सेकैः प्रदेहैः पाञ्चवल्कलैः।
सिरामोक्षैर्जलौकोभिर्वमनैः सविरेचनैः॥११८॥
शृतैः कषायतिक्तैश्च कालज्ञः समुपाचरेत्।
ऊर्ध्वं चाधश्च शुद्धाय रक्ते चाप्यवसेचिते॥११९॥
वातश्लेष्महरं कर्म ग्रन्थिवीसर्पिणे हितम्।
उत्कारिकाभिरुष्णाभिरुपनाहः प्रशस्यते॥१२०॥
स्निग्धाभिर्वेशवारैर्वा ग्रन्थिवीसर्पशूलिनः।
दशमूलोपसिद्धेन तैलेनोष्णेन सेचयेत्॥१२१॥
कुष्ठतैलेन चोष्णेन यवक्षारयुतेन2068च।
गोमूत्रैः पत्रनिर्युहैरुणैर्वा परिषेचयेत्॥१२२॥
सुखोष्णया प्रदिह्याद्वा पिष्टया कृष्णगन्धया।
शुष्कमूलककल्केन नक्तमालत्वचाऽपि वा॥१२३॥
बिभीतकस्य वा ग्रन्थिं कल्केनोष्णेन लेपयेत्।
बलां नागबलां पथ्यां भूर्जग्रन्थिं बिभीतकम्॥१२४॥
वंशपत्राण्यग्निमन्थं कुर्याद्ग्रन्थिप्रलेपनम्।
दन्ती चित्रकमूलत्वक् सुधार्कपयसी गुडः॥१२५॥
भल्लातकास्थि कासीसं लेपो भिन्द्याच्छिलामपि।
बहिर्मार्गाश्रितं ग्रन्थिं किं पुनः कफसंभवम्॥१२६॥
दीर्घकालस्थितं ग्रन्थिं भिन्द्याद्वा भेषजैरिमैः2069।
मूलकानां कुलत्थानां यूषैः सक्षारदाडिमैः॥१२७॥
गोधूमान्नैर्यवान्नैर्वा ससीधुमधुशर्करैः।
सक्षौद्रैर्वारुणीमण्डैर्मातुलुङ्गरसान्वितैः॥१२८॥
त्रिफलायाः प्रयोगैश्च पिप्पलीक्षौद्रसंयुतैः।
मुस्तभल्लातसक्तूनां प्रयोगैर्माक्षिकस्य च॥१२९॥
देवदारुगुडूच्योश्च प्रयोगैगिरिजस्य च।
धूमैर्विरेकैः शिरसः पूर्वोक्तैर्गुल्मभेदनैः॥१३०॥
अयोलवणपाषाणहेमताम्रप्रपीडनैः।
आभिः क्रियाभिः सिद्धाभिर्विविधाभिर्बली स्थिरः॥१३१॥
ग्रन्थिः पाषाणकठिनो यदा नैवोपशाम्यति।
अथास्य दाहः क्षारेण शरैर्लोहेन वा हितः॥१३२॥
पाकिभिः पाचयित्वा वा पाटयित्वा समुद्धरेत्।
मोक्षयेद्बहुशश्चास्य रक्तमुत्क्लेशमागतम्॥१३३॥
पुनश्चास्य हृते रक्ते वातश्लेष्मजिदौषधम्।
धूमो विरेकः शिरसः स्वेदनं परिमर्दनम्॥१३४॥
अप्रशाम्यति दोषे च पाचनं2070 वा प्रशस्यते।
प्रक्लिन्नं दाहपाकाभ्यां भिषक् शोधनरोपणैः॥१३५॥
बाह्यैश्चाभ्यन्तरैश्चैव व्रणवत् समुपाचरेत्।
कम्पिल्लकं विडङ्गानि दार्वी कारञ्जकं फलम्।
पिष्ट्वातैलं विपक्तव्यं ग्रन्थिव्रणचिकित्सितम्॥१३६॥
द्विव्रणीयोपदिष्टेन कर्मणा चाप्युपाचरेत्।
देशकालविभागज्ञो2071 व्रणान् वीसर्पजान् बुधः॥१३७॥
इति ग्रन्थिविसर्पसर्पचिकित्सा।
य एव विधिरुद्दिष्टो ग्रन्थीनां विनिवृत्तये।
स एव गलगण्डानां कफजानां निवृत्तये॥१३८॥
गलगण्डास्तु वातोत्था ये कफानुबला नृणाम्।
घृतक्षीरकषायाणामभ्यासान्न भवन्ति ते॥१३९॥
यानीहोक्तानि कर्माणि विसर्पाणां निवृत्तये।
एकतस्तानि सर्वाणि रक्तमोक्षणमेकतः॥१४०॥
विसर्पो न ह्यसंसृष्टो रक्तपित्तेन जायते2072।
तस्मात् साधारणं सर्वमुक्तमेतच्चित्सितम्॥१४१॥
विशेषो दोषवैषम्यान्न च नोक्तः समासतः।
समासव्यासनिर्दिष्टां2073 क्रियां विद्वानुपाचरेत्॥१४२॥
तत्र श्लोकाः।
निरुक्तिर्नामभेदाश्च दोषा दूष्याणि हेतवः।
आश्रयो मार्गतश्चैव विसर्पगुरुलाघवम्॥१४३॥
लिङ्गान्युपद्रवा ये च यल्लक्षण उपद्रवः।
साध्यत्वं न च, साध्यानां साधनं च यथाक्रमम्॥१४४॥
इति पिप्रक्षवे सिद्धमग्निवेशाय घीमते।
पुनर्वसुरुवाचेदं विसर्पाणां चिकित्सितम्॥१४५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
विसर्पचिकित्सितं नामैकविंशोऽध्यायः॥२१॥
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द्वाविंशोऽध्यायः।
अथातस्तृष्णाचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
ज्ञानप्रशमतपोभिः ख्यातोऽत्रिसुतो जगद्धितेऽभिरतः।
तृष्णानां प्रशमार्थं चिकित्सितं प्राह पञ्चानाम्॥३॥
क्षोभाद्भयाच्छ्रमादपि शोकात् क्रोधाद्विलङ्घनान्मद्यात्।
क्षाराम्ललवणकटुकोष्णरूक्षशुष्कान्नसेवाभिः॥४॥
धातुक्षयगदकर्षण(र्शन)वमनाद्यतियोगसूर्यसंतापैः।
पित्तानिलौ प्रवृद्धौ सौम्यान् धातूंश्च शोषयतः॥५॥
रसवाहिनीश्च धमनी2074र्जिह्वामूलगलतालुकक्लोम्नः।
संशोष्यनृणां देहे कुरुतस्तृष्णां महाबलावेतौ॥६॥
पीतं पीतं हि जलं शोषयतस्तावतो न याति शमम्।
घोरव्याधिकृशानां प्रभवत्युपसर्गभूता सा॥७॥
प्राग्रूपं मुखशोषः स्वलक्षणं सर्वदाऽम्बुकामित्वम्2075।
तृष्णानां सर्वासां लिङ्गानां लाघवमपायः॥८॥
मुखशोषस्वरभेदभ्रमसंतापप्रलापसंस्तम्भान्।
ताल्वोष्ठकण्ठजिह्वाकर्कशतां चित्तनाशं च॥९॥
जिह्वानिर्गममरुचिं बाधिर्यं मर्मयनं2076 सादम्।
तृष्णोद्भुता कुरुते, पञ्चविधां लिङ्गतः शृणु ताम्॥१०॥
अब्धातुं देहस्थं2077 कुपितः पवनो यदा विशोषयति।
तस्मिञ्छुष्के शुष्यत्यबलस्तृष्यत्यथ विशुष्यन्॥११॥
निद्रानाशः शिरसो भ्रमस्तथा शुष्कविरसमुखता च।
स्रोतोऽवरोध2078 इति च स्याल्लिङ्गं वाततृष्णायाः॥१२॥
पित्तं मतमाग्नेयं कुपितं चेत्तापयत्यपां धातुम्।
संतप्तः स हि जनयेत्तृष्णां दाहोल्बणां नॄणाम्॥१३॥
तिक्तास्यत्वं शिरसो दाहः शीतामिनन्दि(न्द)ता मूर्च्छा।
पीताक्षिमूत्रवर्चस्त्वमाकृतिः पित्ततृष्णायाः॥१४॥
तृष्णा याऽऽमप्रभवा साऽप्याग्नेयाऽऽमपित्तजनितत्वात्।
लिङ्गं तस्याश्चारुचिराध्मानकफप्रसेकौ च॥१५॥
देहो रसजोऽम्बुभवो रसश्च तस्य क्षयाच्च तृष्येत्तु।
दीनस्वरः प्रताम्यन् दीनः संशुष्कगलतालुः॥१६॥
भवति खलु योपसर्गात्तृष्णा सा शोषिणी कष्टा।
ज्वरमेहक्षयशोषश्वासाद्युपसृष्टदेहानाम्॥१७॥
सर्वास्त्वतिप्रसक्ता रोगकृशानां वमिप्रसक्तानाम्।
घोरोपद्रवयुक्तास्तृष्णा मरणाय विज्ञेयाः॥१८॥
नाग्निंविना हि तर्षः पवनाद्वा तौ हि शोषणे हेतू।
अब्धातोरतिवृद्धावपां क्षये तृष्यते2079 नरो हि॥१९॥
गुर्वन्नपयःस्रेहैः संमूर्च्छद्भिर्विदाहकाले च।
यस्तृष्येद्वृतमार्गे तत्राप्यनिलानलौ हेतू॥२०॥
तीक्ष्णोष्णरूक्षभावान्मद्यं पित्तानिलौ प्रकोपयति।
शोषयतोऽपांधातुं तावेव2080 हि मद्यशीलानाम्॥२१॥
तप्तास्विव सिकतासु हि तोयमाशु शुष्यति क्षिप्तम्2081।
तेषां संतप्तानां हिमजलपानाद्भवति शर्म॥२२॥
शिशिरस्नातस्योष्मा रुद्धः कोष्ठं प्रपद्य तर्षयति।
तस्मान्नोष्णक्लान्तो2082 भजेत सहसा जलं शीतम्॥२३॥
लिङ्गं सर्वास्वेतास्वनिलक्षयात् पित्तजं भवत्यथ तु।
पृथगागमाच्चिकित्सितमतः प्रवक्ष्यामि तृष्णानाम्॥२४॥
अपां क्षयाद्धि2083 तृष्णा संशोध्य नरं प्रणाशयेदाशु।
तस्मादैन्द्रं तोयं समधु पिबेत्तद्गुणं वाऽन्यत्॥२५॥
किञ्चित्तुवरानुरसं तनु लघु शीतं सुगन्धि सुरसं च।
अनभिष्यन्दि च यत्तत् क्षितिगतमप्यैन्द्रवज्ज्ञेयम्॥२६॥
शृतशीतं ससितोपलमथवा शरपूर्वपञ्चमूलेन।
लाजानां2084 सक्तूनां समधुसितं मन्थमैन्द्रेण॥२७॥
वाट्यं वाऽऽमयवानां शीतं मधुशर्करायुतं दद्यात्।
पेयां वा शालीनां दद्याद्वा कोरदूषाणाम्॥२८॥
पयसा शृतेन भोजनमथवा मधुशर्करायुतं योज्यम्।
पारावतादिकरसैर्घृतभृष्टैर्वाऽप्यलवणाम्लैः॥२९॥
तृणपञ्चमूलमुञ्जातकैः प्रियालैश्च जाङ्गलाः सुकृताः।
रास्ता रसाः पयो वा तैः सिद्धं शर्करामधुमत्॥३०॥
शतधौतघृतेनाक्तः पयः पीबेच्छीततोयमवगाह्य।
मुद्गमसूरचणकजा रसाश्च घृतभर्जिता2085 देयाः॥३१॥
मधुरैः सजीवनीयैः शीतैश्च सतिक्तकैः शृतं क्षीरम्।
पानव्यञ्जनसेकेष्विष्टं मधुशर्करायुक्तम्॥३२॥
तज्जं वा घृतमिष्टं पानाभ्यङ्गेषु नस्यमपि च स्यात्।
नारीपयः सशर्करमुष्ट्र्याअपि नस्यमिक्षुरसः॥३३॥
क्षीरेक्षुरसगुडोदकसितोपलाक्षौद्रशीधुमाध्वीकैः।
वृक्षाम्लमातुलुङ्गैर्गण्डूषास्तालुशोषघ्नाः॥३४॥
जम्ब्वाम्नातकबदरीनलवेतसपञ्चवल्कपञ्चाम्लैः।हृन्मुखशिरः प्रलेपाः सघृता मूर्च्छाभ्रमतृष्णाघ्नाः स्युः॥३५॥
दाडिमदुधिस्थलोध्रैःसविदारीबीजपुरकैः शिरसः।
लेपो गौरामलकैर्घृतारनालयुतैश्च हितः॥३६॥
शैवलपङ्का2086म्बुरुहैः साम्लैः सघृतैश्च शक्तुभिर्लेपः।
मस्स्वारनालकमलार्द्रवसनमणिहारसंस्पर्शाः॥३७॥
शिशिराम्बुचन्दनार्द्रस्तनतटपाणितलगात्रसंस्पर्शाः।
क्षौमार्द्रनिवसनानां वराङ्गनानां प्रियाणां च॥३८॥
हिमवद्दरीवनसरित्सरोऽम्बुजपवनेन्दुपादशिशिराणाम्।
रम्योदकशिशिराणां स्मरणं कथाश्च तृष्णाघ्नाः॥३९॥
वातघ्नमन्नपानं मृदु लघु शीतं च वाततृष्णायाः।
क्षयकासनुच्छृतक्षीरघृतमूर्ध्ववातक्षयतृष्णाघ्नम्॥४०॥
स्याज्जीवनीयसिद्धं क्षीरघृतं वातपित्तजे तर्षे।
पैत्ते द्राक्षाचन्दनखर्जूरोशीरमधुयुतं तोयम्॥४१॥
लोहितशालितण्डुलखर्जूरपरूषकोत्पलद्राक्षाः।
मधुपक्वलोष्टमेव च जले स्थितं शीतलं पेयम्॥४२॥
लोहितशालितण्डुलप्रस्थः सलोध्रमधुकाञ्जनोत्पलः।
पक्वामलोष्टमधुजलसमायुतो मृन्मये पेयः॥४३॥
वटमातुलुङ्गवेतसपल्लवकुशकाशमूलयष्ट्याह्वैः।
सिद्धेऽम्भस्यग्निनिभां कृष्णमृदं कृष्णसिकतां वा॥४४॥
तप्लानि नवकपालान्यथवा निर्वाप्य पाययेताच्छम्।
सपाकशर्करं2087 वाऽमृतवल्लयुदकं तृषं हन्ति॥४५॥
क्षीरवतां मधुराणां शीतानां शर्करामधुविमिश्राः।
शीतकषाया मृद्भृष्टसंयुताः पित्ततृष्णाघ्नाः॥४६॥
व्योषवचाभल्लातकतिक्तकषायास्तथाऽऽमतृष्णाघ्नाः।
यच्चोक्तंकफजायां वम्यांतच्चैव कार्यं स्यात्॥४७॥
स्तम्भारुच्यविपाकालस्यच्छर्दिषु कफानुगां तृष्णाम्।
ज्ञात्वा दधिमधुतर्पणलवणोष्णजलैर्वमनमिष्टम्॥४८॥
दाडिममम्लफलं वाऽप्यन्यत् सकषायमथ लेहम्2088।
पेयमथवा2089 हरिद्राम्बुशर्कराक्षौद्रसंयुक्तम्॥४९॥
क्षयकासेन तु तुल्या क्षयतृष्णा या गरीयसी नॄणाम्।
क्षीणक्षतशोषहितैस्तस्मात्तां भेषजैः शमयेत्॥५०॥
पानतृष्णार्तः पानं त्वर्धोदकमम्ललवणगन्धाढ्यम्।
शिशिरस्नातः पानं मद्याम्बु गुडाम्बु वा तृषितः॥५१॥
भक्तोपरोधतृषितः स्नेहतृषार्तोऽथवा तनुयवागूम्।
प्रपिबेद्गुरुणा तृषितो भुक्तेन तदुद्धरैद्भुक्तम्॥५२॥
मद्याम्बु वाऽम्बु कोष्णं बलवांस्तृषितः समुल्लिखेत् पीत्वा।
मागधिकाविशदमुखः सशर्करं वा पिबेन्मन्थम्॥५३॥
बलवांस्तु तालुशोषे पिबेद्धृतं तृष्यमन्नमद्याच्च।
सर्पिर्भृष्टं क्षीरं मांसरसांश्चाबलः स्निग्धान्॥५४॥
अतिरूक्षदुर्बलानां तर्षं शमयेन्नृणामिहाशु पयः।
छागो वा घृतभृष्टः शीतो मधुरो रसो हृद्यः॥५५॥
स्निग्धेऽन्ने भुक्ते या तृष्णा स्यात्तां गुडाम्बुना शमयेत्।
तर्षं मूर्च्छाभिहतस्य रक्तपित्तापहैर्हन्यात्॥५६॥
तृदछर्दिदाहमूर्च्छाभ्रमक्कममदात्ययास्रविषपित्ते।
शस्तं स्वभावशीतं शृतशीतं सन्निपातेऽम्भः॥५७॥
हिक्काश्वासनवज्वरपीनसघृतपीतपार्श्वगलरोगे।
कफवातकृते स्त्याने सद्यःशुद्धे च हितमुष्णम्॥५८॥
पाण्डूदरपीनसमेहगुल्ममन्दानलातिसारेषु।
प्लीह्नि च तोयं न हितं काममसह्ये पिबेदल्पम्॥५९॥
पूर्वामयातुरः सन् दीनस्तृष्णार्दितो जलं काङ्क्षन्।
न लभेत च चेनू मरणमाश्वेवाप्नुयाद्दीर्घरोगं वा॥६०॥
तस्माद्धान्याम्बु पिबेत्तृष्यन् रोगी सशर्कराक्षौद्रम्।
यद्वा तस्यान्यत् स्यात् सात्म्यं रोगस्य तच्चेष्टम्॥६१॥
तस्यां विनिवृत्तायां तज्जन्योपद्रवः सुखं जेतुम्।
तस्मात्तृष्णां पूर्वं जयेद्बहुभ्योऽपि रोगेभ्यः॥६२॥
तत्र श्लोकः।
हेतू यथाऽग्निपवनौ कुरुतः सोपद्रवां च पञ्चानाम्।
तृष्णानां पृथगाकृतिरसाध्यता साधनं चोक्तम्॥६३॥
इत्य निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते
तृष्णारोगचिकित्सितं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥
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त्रयोविंशोऽध्यायः।
अथातो विषचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
प्रागुत्पत्तिं गुणान् योनिं वेगान् लिङ्गान्युपक्रमान्।
विषस्य ब्रुवतः सम्यगग्निवेश2090 निबोध मे॥३॥
अमृतार्थं2091 समुद्रे तु मथ्यमाने सुरासुरैः।
जज्ञे प्रागमृतोत्पत्तेः पुरुषो घोरदर्शनः॥४॥
दीप्ततेजाश्चतुर्दंष्ट्रोहरिकेशोऽनलेक्षणः।
जगद्विषण्णं तं दृष्ट्वा तेनासौ2092 विषसंज्ञितः॥५॥
जङ्गमस्थावरायां तद्योनौ ब्रह्मा न्ययोजयत्।
तदम्बुसंभवं तस्माद्द्विविधं पावकोपमम्॥६॥
अष्टवेगं दशगुणं चतुर्विंशत्युपक्रमम्।
तद्वर्षास्वम्बुयोनित्वात् संक्लेदं गुडवद्गतम्॥७॥
सर्पत्यम्बुधरापाये तद्गस्त्यो हिनस्ति च।
प्रयाति मन्दवीर्यत्वं विषं तस्माद्धनात्यये॥८॥
सर्पाःकीटोन्दुरा लूता वृश्चिका गृहगोधिकाः2093।
जलौकामत्स्यमण्डूकाः कणभाः सकृकण्टकाः॥९॥
श्वसिंहव्याघ्रगोमायुतरक्षुनकुलादयः।
दंष्ट्रिणो ये विषं तेषां दंष्ट्रोत्थं जङ्गमं मतम्॥१०॥
मुस्तकं पौष्करं क्रौञ्चं वत्सनाभं बलाहकम्।
कर्कटं कालकूटं च करवीरकसक्तुम्॥११॥
पालकेन्द्रायुधं2094 तैलं मेचकं कुशपुष्पकम्।
रोहिषं पुण्डरीकं च लाङ्गलक्यञ्जनाभकम्॥१२॥
सङ्कोचं मर्कटं शृङ्गीविषं हालाहलं तथा।
एवमादीनि चान्यानि मूलजानि स्थिराणि च॥१३॥
परं संयोगजं चान्यद्गरसंज्ञं गदप्रदम्।
कालान्तरविपाकित्वान्न तदाशु हरत्यसून्॥१४॥
निद्रां तन्द्रां क्लमं दाहं सपाकं लोमहर्षणम्।
शोकं चैवातिसारं च जनयेज्जङ्गमं विषम्॥१५॥
स्थावरं तु ज्वरं हिक्कां दन्तहर्षं गलग्रहम्।
फेनवम्यरुचिश्वासमूर्च्छाश्च जनयेद्भृशम्॥१६॥
जङ्गमं स्यादधोभागमूर्ध्वभागं तु मूलजम्।
तस्माद्दंष्ट्रि(ष्ट्रा) विषं मौलं हन्ति मौलं च दंष्ट्रजम्॥१७॥
तृण्मोह2095दन्तहर्षप्रसेकवमथुक्लमा भवन्त्याद्ये।
वेगे रसप्रदोषादसृक्प्रदोषाद्द्वितीये च॥१८॥
वैवर्ण्यभ्रमवेपथुमूर्च्छाजृम्भाङ्गचिमिचिमातङ्काः2096।
दुष्टपिशितात्तृतीये मण्डलकण्डूश्वयथुकोठाः॥१९॥
वातादिजाश्चतुर्थे दाहच्छर्द्यङ्गशूलमूर्च्छाद्याः।
नीलादीनां तमसश्च दर्शनं पञ्चमवेगे च॥२०॥
षष्ठे हिक्का भङ्गः स्कन्धस्य तु सप्तमेऽष्टमे मरणम्।
नॄणां, चतुष्पदां स्याच्चतुर्विधः, पक्षिणां त्रिविधः॥२१॥
सीदत्याद्ये भ्रमति च चतुष्पदो वेपते ततः शूनः।
मन्दाहारो2097 म्रियते श्वासेन चतुर्थवेगे तु॥२२॥
ध्यायति विहगः प्रथमे वेगे प्रभ्राम्यति द्वितीये तु2098।
सस्ताङ्गश्च तृतीये विषवेगे याति पञ्चत्वम्॥२३॥
लघु रूक्षमाशु विशदं व्यवायितीक्ष्णं विकासि सूक्ष्मं च।
उष्णमनिर्देश्यरसं दशगुणमुक्तं विषं तज्ज्ञैः॥२४॥
रौक्ष्याद्वातमशैत्यात् पित्तं सौक्ष्म्यादसृक् प्रकोपयति।
कफमव्यक्तरसत्वादन्नरसांश्चानुवर्तते शीघ्रम्॥२५॥
शीघ्रव्यवायिभावादाशु व्याप्नोति केवलं देहम्।
तीक्ष्णत्वान्मर्मघ्नं प्राणघ्नं तद्विकासित्वात्॥२६॥
दुरुपक्रमं लघुत्वाद्वैशद्यात् स्यादसक्तगतिदोषम्।
दोषस्थानप्रकृतीः प्राप्यान्यतमं ह्युदीरयति॥२७॥
स्याद्वातिकस्य वातस्थाने कफपित्तलिङ्गमीषत्तु।
हन्मोहारुचिमूर्च्छागलग्रहच्छर्दिफेनादि॥२८॥
पित्ताशयस्थितं पैत्तिकस्य कफवातयोर्विषं तद्वत्।
तृट्कासज्वर2099वमथुक्लमदाहतमोतिसारादि॥२९॥
कफदेशगतं कफस्य दर्शयेद्वातपित्तयोश्चेषत्।
लिङ्गं श्वासगलग्रहकण्डूलालावमथ्वादि॥३०॥
दूषीविषं तु शोणितदुष्ट्याऽरुःकिटिभकोठलिङ्गं च।
विषमेकैकं दोषं संदूष्य हरत्यसूनेवम्॥३१॥
क्षरति विषतेजसाऽसृक् तत्खानि2100 निरुध्य मारयति जन्तुम्।
पीतं मृतस्य हृदि तिष्ठति दष्टविद्धयोर्दंशदेशे स्यात्॥३२॥
नीलौष्ठदन्तशैथिल्यकेशपतनाङ्गभङ्गविक्षेपाः।
शिशिरैर्न लोमहर्षो नाभिहते दण्डराजी च॥३३॥
क्षतजं क्षताच्च नायात्येतानि भवन्ति मरणलिङ्गानि।
एभ्योऽन्यथा चिकित्स्यास्तेषां चोपक्रमाञ्छृणु मे॥३४॥
मन्त्रारिष्टोत्कर्तननिष्पीडनचूषणाग्निपरिषेकाः।
अवगाहरक्तमोक्षणवमनविरेकोपधानानि2101॥३५॥
हृदयावरणाञ्जननस्यधूमलेहौषधप्रशमनानि2102।
प्रतिसारणं प्रतिविषं संज्ञासंस्थापनं लेपः॥३६॥
मृतसञ्जीवनमेव च विंशतिरेते चतुर्भिरभ्यधिकाः।
स्युरुपक्रमा यथा ये यत्रच योज्याः शृणु तथा तान्॥३७॥
दंशात्तु विषं दष्टस्य विसृतं वेणिकां भिषग् बद्ध्वा।
निष्पीडयेद्भृशं2103 दंशमुद्धरेन्मर्मवर्जं वा॥३८॥
तं दंशं वा चूषेन्मुखेन यवचूर्णपांशुपूर्णेन।
प्रच्छनवेधजलौकःशृङ्गैः स्राव्यं ततो रक्तम्॥३९॥
रक्ते विषप्रदुष्टे दुष्येत् प्रकृतिस्ततस्त्यजेत् प्राणान्।
तस्मात् प्रघर्षणैरसृगवर्तमानं प्रवर्त्यं स्यात्॥४०॥
त्रिकटुगृहधूमरजनीपञ्चलवणरोचनाः2104 सवार्ताकाः।
घर्षणमतिप्रवृत्ते वटादिभिः शीतलैर्लेपः॥४१॥
रक्तं हि विषाधानं2105 वायुरिवाग्नेःप्रदेहसेकैस्तत्।
शीतैः स्कन्दति तस्मिन् स्कन्ने व्यपयाति विषवेगः॥४२॥
विषवेगान्मदमूर्च्छाविषादहृदयद्रवाः प्रवर्तन्ते।
शीतैर्निवर्तयेत्तान् न व्यज्यश्च लोमहर्षः स्यात्॥४३॥
तरुवरिव मूलच्छेदाद्दंशच्छेदान्न वृद्धिमेति विषम्।
आचूषणमानयनं जलस्य सेतुर्यथा तथाऽरिष्टाः॥४४॥
त्वङ्मांसगतो दाहो दहति विषं स्रावणं हरति रक्तात्।
पीतं वमनैः सद्यो हरेद्विरेकैर्द्वितीये तु॥४५॥
आदौ हृदयं रक्ष्यं तस्यावरणं पिबेद्यथालाभम्।
मधुसर्पिर्मज्जपयोगैरिकमथ गोमयरसं वा॥४६॥
दक्षं सपक्षमथवा2106 काकं निष्पीड्य तद्रसंवरणम्।
छागादीनां वाऽसृग्भस्ममृदं वा पिबेदाशु॥४७॥
क्षारागदस्तृतीये शोफहरै2107र्लेखनं समध्वम्बु।
गोमयरसश्चतुर्थे वेगे सकपित्थमधुसर्पिः॥४८॥
काकाण्डशिरीषाभ्यां स्वरसेनाश्योतनाञ्जने नस्यम्।
स्यात् पञ्चमेऽथ षष्ठे संज्ञायाः स्थापनं कार्यम्॥४९॥
गोपित्तयुता रजनी मञ्जिष्ठामरिचपिप्पलीपानम्।
विषपानं दृष्टानां विषपीते दंशनं चान्ते॥५०॥
शिखिपित्तार्धयुतं स्यात् पलाशबीजमगदो(ऽ)मृतेषु वरः।
वार्ताकुफाणितागारधूमागोपित्तनिम्बं वा॥५१॥
गोपित्तयुत्तैर्गुलिकाः सुरसाग्रन्थिद्विरजनीमधुककुष्ठैः।
शस्ताऽमृतेन तुल्या शिरीषपुष्पकाकाण्डकरसैर्वा॥५२॥
काकाण्डसुरसगवाक्षीपुनर्नवावायसीशिरीषफलैः।
उद्बन्धविषजलमृते लेपाञ्जननस्यपानानि॥५३॥
स्पृक्काप्लवस्थौणेयकाकाक्षीशैलेयरोचनातगरम्।
ध्यामककुङ्कुममांसीसुरसाग्रैलालकुष्ठघ्नम्॥५४॥
बृहती शिरीषपुष्पं श्रीवेष्टकपद्मचारटिविशालाः।
सुरदारुपद्मकेशरसावरकमनः शिलाकौन्त्यः॥५५॥
जात्यर्कपुष्परसरजनीद्वयहिङ्गुपिप्पलीलाक्षाः।
जलमुद्गपर्णिचन्दनमधुकमदनसिन्धुवाराश्च॥५६॥
शम्पाकलोध्रमयूरगन्धफलानाकुलीविडङ्गाश्च।
पुष्ये संहृत्य समं पिष्ट्वागुलिका विधेयाः स्युः॥५७॥
सर्वविषघ्नो जयकृद्विषमृतसंजीवनो ज्वरनिहन्ता।
ध्रेयविलेपनधारणधूमश्रवणैर्गृहस्थश्च॥५८॥
भूतविषजन्त्वलक्ष्मी कार्मणमन्त्राग्न्यशन्यरीन हन्यात्।
दुःस्वप्नस्त्रीदोषानकालमरणाम्बुचौरभयम्॥५९॥
धनधान्यकार्यसिद्धिः श्रीपुष्ट्यायुर्विवर्धनो धन्यः।
मृतसंजीवन एष प्रागमृताद्ब्रह्मणा विहितः॥६०॥
इति मृतसंजीवनोऽगदः।
मन्त्रैर्धमनीबन्धो2108ऽवमार्जनं कार्यमात्मरक्षा च।
दोषस्य विषं यस्य स्थाने स्यात्तं जयेत् पूर्वम्॥६१॥
वातस्थाने स्वेदो दध्नानतकुष्ठकल्कपानं च।
घृतमधुपयोऽम्बुपानावगाहसेकाश्च पित्तस्थे॥६२॥
क्षारागदःकफस्थानगते स्वेदस्तथा सिराव्यधनम्2109।
दूषीविषेऽथ रक्तस्थिते सिरा कर्म पञ्चविधम्॥६३॥
भेषजमेवं कल्प्यं भिषग्विदाऽऽलक्ष्य सर्वदा सर्वम्।
स्थानं जयेद्धि पूर्वं स्थानस्थस्याविरुद्धं च॥६४॥
विषदूषितकफमार्गः स्रोतःसंरोधरुद्धवायुस्तु2110।
मृत इव चेन्मर्त्यः स्यादसाध्यलिङ्गैर्विहीनश्च॥६५॥
चर्मकषायाः कल्कं विल्वसमं मूर्ध्नि काकपदमस्य।
कृत्वा कुर्यात् कटभीकटुककट्फलप्रधमनं2111 च॥६६॥
(छागं2112 गव्यं माहिषं वा मांसं कौक्कुटमेव वा।
दद्यात् काकपदे तस्मिंस्ततः संक्रमते विषम्)॥६७॥
नासाक्षिकर्णजिह्वाकण्ठनिरोधेषु कर्म नस्तः स्यात्।
वार्ताकुबीजपूरज्योतिष्मत्यादिभिः पिष्टैः॥६८॥
अञ्जनमक्ष्युपरोधेकर्तव्यं बस्तमूत्रपिष्टैस्तु।
दारुव्योषहरिद्राकरवीरकरञ्जसुरसैस्तु॥६९॥
श्वेता वचा2113ऽश्वगन्धा हिङ्ग्वमृता कुष्ठसैन्धवे लशुनम्।
सर्षपकपित्थमध्यंटुण्टुककरञ्जबीजानि2114॥७०॥
व्योषं2115 शिरीषपुष्पं द्विरजन्यौ वंशलोचनं2116 च समम्।
पिष्ट्वाऽथ बस्तमूत्रेण गोश्च पित्तेन सप्ताहम्॥७१॥
व्यत्यासभावितोऽयं निहन्ति शिरसि स्थितं विषं क्षिप्रम्।
सर्वज्वरभूतग्रहविसूचिकाजीर्णमूर्धार्तीः॥७२॥
उन्मादापस्मारौ काचपटलनीलिकासिरादोषान्।
शुष्काक्षिपाकपिल्लार्बुदार्मकण्डूतमोदोषान्॥७३॥
क्षयदौर्बल्यमदात्ययपाण्डुगदांश्चाञ्जनात्तथा मोहान्।
लेपाद्विषदिग्धक्षतलीढदष्टविद्धपीतविषघाती2117॥७४॥
अर्शः स्वानद्धेषु च गुदलेपो योनिलेपनं स्त्रीणाम्।
मूढे गर्भे, दुष्टे ललाटलेपः प्रतिश्याये॥७५॥
वृद्धौ2118 किटिमे कुष्ठे श्वित्रविचर्चिकादिषु लेपः।
गज इव तरून् विषगदान्निहन्त्यगदगन्धहस्त्येषः॥७६॥
इति गन्धहस्तीनामाऽगदः।
पत्रागुरुमुस्तैला निर्यासाः पञ्च चन्दनं स्पृक्का।
त्वङ्गलदोत्पलबालकहरेणुकोशीरवन्यनखाः॥७७॥
सुरदारुकनककुङ्कुमध्यामककुष्ठप्रियङ्गवस्तगरम्।
पञ्चाङ्गानि शिरीषायोषालमनःशिलाजाज्यः॥७८॥
श्वेता कटभी करजो रक्षोघ्नी सिन्धुवारिका रजनी।
सुरसरसाञ्जनगैरिकमञ्जिष्ठानिम्बनिर्यासाः॥७९॥
वंशत्वगश्वगन्धाहिङ्गुदधित्थाम्लवेतसं लाक्षा।
मधुमधुकसोमराजीवचारुहारोचनातगरम्2119॥८०॥
अगदोऽयं वैश्रवणायाख्यातस्त्र्यम्बकेण षष्ट्यङ्गः।
अप्रतिहतप्रभावः ख्यातो महागन्धहस्तीति॥८१॥
पित्तेन गवां पेष्यो गुलिकाः कार्यास्तु पुष्ययोगेन।
पानाञ्जनप्रलेपैः प्रसाधयेत् सर्वकर्माणि॥८२॥
पिल्लं कण्डूं तिमिरं रात्र्यन्ध्यं काचमर्बुदं पटलम्।
हन्ति सततप्रयोगाद्धितमितपथ्याशिनां पुंसाम्॥८३॥
विषमज्वरानजीर्णान् दद्रूंकण्डूं विसूचिकां पामाम्।
कुष्ठं किटिभं श्वित्रं विचर्चिकां चोपहन्ति नृणाम्॥८४॥
विषमूषिकलूतानां सर्वेषां पन्नगानां च।
आशु विषं नाशयति मूलजमथ कन्दजंसर्वम्॥८५॥
एतेन लिप्तगात्रः सर्पान् गृह्णाति2120 भक्षयेच्च विषम्।
कालपरीतोऽपि2121 नरो जीवति किंचिन्निरातङ्कः2122॥८६॥
आनद्धे गुदलेपो योनौ लेपश्च मूढगर्भाणाम्।
मूर्च्छार्तिषु च ललाटे लेपनमाहुः प्रधानतमम्॥८७॥
भेरीमृदङ्गपटहान् छत्राण्यमुना तथा ध्वजपताकाः।
लिप्तानि विषनिरस्त्यै प्रध्वनयेद्दर्शयेन्मतिमान्॥८८॥
यत्र च सन्निहितोऽयं न तत्रबालग्रहा न रक्षांसि।
न च कार्मणवेताला भजन्ति2123 नाथर्वणा मन्त्राः॥८९॥
सर्वग्रहा न तत्रप्रभवन्ति न चाग्निशस्त्रनृपचौराः।
लक्ष्मीश्च तत्र भजते यत्र महागन्धहस्त्यस्ति॥९०॥
संपिष्यमाणे2124 चात्रेमं सिद्धं मन्त्रमुदीरयेत्।
‘मम माता जया नाम जयो2125 नामेति मे पिता॥९१॥
सोऽहं जय(यो)जयापुत्रो विजयोऽथ जयामि च।
नमः पुरुषसिंहाय विष्णवे विश्वकर्मणे॥९२॥
सनातनाय कृष्णाय भवाय विभवाय च।
तेजो वृषाकपेः साक्षात्तेजो ब्रह्मेन्द्रयोर्यमे॥९३॥
यथाऽहं नाभिजानामि वासुदेवपराजयम्।
मातुश्च पाणिग्रहणं समुद्रस्य च शोषणम्॥९४॥
अनेन सत्यवाक्येन सिध्यतामगदो ह्ययम्।
हिलिहिलि2126 मिलि मिलि संसृष्टे रक्ष रक्ष सर्वभेषजोत्तमे स्वाहा’
इति महागन्धहस्ती नामाऽगदः।
ऋषभकजीवकभार्गीमधुकोत्पलधान्यकेशराजाज्यः।
ससितगिरिकोलमध्याः पेयाः श्वासज्वरादिहराः॥९६॥
हिङ्गु च कृष्णायुक्तं कपित्थरसयुक्तमग्र्यलवणं च।
समधुसिते पातव्ये ज्वरहिक्काश्वासकासघ्ने॥९७॥
लेहः कोलास्थ्यञ्जनलाजोत्पलमधुघृतैर्हितो वम्याम्।
बृहतीद्वयाढकीपत्रधूमवर्तिस्तु हिक्काघ्नी॥९८॥
शिखिबर्हबलाकास्थीनि सर्षपाश्चन्दनं च घृतयुक्तम्।
धूमो गृहशयनासनवस्त्रादिषु शस्यते विषनुत्2127॥९९॥
घृतयुक्ते नतकुष्ठे भुजगपतिशिरः2128 शिरीषपुष्पं च।
धूमागदः स्मृतोऽयं सर्वविषघ्नः श्वयथुहृच्च॥१००॥
जतुसेव्यपत्रगुग्गुलुभल्लातककुभपुष्पसर्जरसाः।
श्वेता च धूप उरगाखुकीटवस्त्रक्रिमिनुदग्र्यः॥१०१॥
तरुणपलाशक्षारं स्रुतं पचेच्चूर्णितैःसह समांशैः।
लोहितमृद्रजनीद्वयशुक्लसुरसमञ्जरीमधुकैः॥१०२॥
लाक्षासैन्धवमांसीहरेणुहिङ्गुद्विसारिवाकुष्ठैः।
सव्योषैर्बाह्लीकैर्दर्विविलेपनाद्धहयेद्यावत्॥१०३॥
सर्वविषशोथगुल्मत्वग्दोषार्शोभगन्दरप्लीह्नः।
शोषापस्मारक्रिमिभूतस्वरभेदपाण्डुगदान्॥१०४॥
मन्दाग्नित्वं कासं सोन्मादं नाशयेयुरथ पुंसाम्।
गुलिकाश्छायाशुष्काः कोलसमास्ताः समुपयुक्ताः॥१०५॥
इति क्षारोऽगदः।
विषपीतदष्टविद्धेष्वेतद्धिग्धे च वाच्यमुद्दिष्टम्।
सामान्यतः पृथक्त्वान्निर्देशमतः शृणु यथावत्॥१०६॥
रिपुयुक्तेभ्यो नृभ्यः स्वाभ्यः स्त्रीभ्योऽथवा भयं नृपतेः।
आहारविहारगतं तस्मान् प्रेष्यान् परीक्षेत॥१०७॥
अत्यर्थशङ्कितः स्याद्बहुवागथवाऽल्पवाग्विगतलक्ष्मीः।
प्राप्तः प्रकृतिविकारं2129 विषप्रदाता नरो ज्ञेयः॥१०८॥
दृष्ट्वैवं न तु सहसा भोज्यं, कुर्यात् सदाऽग्रमग्नौ2130 तु।
सविषं हि प्राप्यान्नं बहून् विकारान् भजत्यग्निः॥१०९॥
शिखिबर्हविचित्रार्चिस्तीक्ष्णाक्षमकुणपगन्धिश्च2131।
स्फुटति च सशब्दमशब्दमेकावर्तो विहतार्चिरपि स्यात्॥११०॥
पात्रस्थं च विवर्णं भोज्यं स्यान्मक्षिकाश्च मारयति।
क्षामस्वरांश्च काकान् कुर्याद्विरजेच्चकोराक्षि॥१११॥
पाने नीला राजी वैवर्ण्यं स्वां च नेक्षते छायाम्।
विकृतामथवा2132 पश्येल्लवणाक्तेफेनमाला स्यात्॥११२॥
पानान्नयोः सविषयोर्गन्धेन शिरोरुग्वृदि च मूर्च्छा च।
स्पर्शेन पाणिशोथः सुप्त्यङ्गुलिदाहतोदनखभेदाः॥११३॥
मुखगे त्वोष्ठचिमिचिमा जिह्वा शूना जडा विवर्णा च।
द्विजहर्षहनुस्तम्भास्यदाहलालागलविकाराः॥११४॥
आमाशयं प्रविष्टे वैवर्ण्यं स्वेदसदनमुत्क्लेशः।
दृष्टिहृयोपरोधो बिन्दुशतैश्चीयते चाङ्गम्॥११५॥
पक्वाशयं तु याते मूर्च्छामदमोहदाहबलनाशाः।
तन्द्रा कार्श्यंच विषे पाण्डुत्वं चोदरस्थे स्यात्॥११६॥
दन्तपवनस्य कूर्चो2133विशीर्यते दन्तौष्ठमांसशोफश्च।
केशच्युतिः शिरोग्रन्थयश्च सविषे शिरोभ्यङ्गे॥११७॥
दुष्टेऽञ्जनेऽक्षिदाहस्रावात्युपदेहशोथरागाश्च।
आद्यैरादौ कोष्ठः स्पृश्यैस्त्वग्दूष्यते दुष्टैः॥११८॥
स्नानाभ्यङ्गोत्सादनवस्त्रालङ्कारवर्णकैर्दुष्टैः2134।
कण्ड्वर्तिलोमहर्षाः कोठपिडकाचिमिचिमाशोथाः॥११९॥
एते करचरणदाहतोदक्लमा विपाकाश्च2135।
भूपादुकाश्वगजवर्मकेतुशयनासनैर्दुष्टैः॥१२०॥
माल्यमगन्धं म्लायति शिरोरुजालोमहर्षकरम्2136।
स्तम्भयति खानि नासामुपहन्ति च दर्शनं धूमः॥१२१॥
कूपतडागादिजलं दुर्गन्धं सकलुषं विवर्णं च।
पीतं श्वयथुं कोठान् पिडकाश्च करोति मरणं च॥१२२॥
आदावामाशयगे वमनं त्वक्स्थे प्रदेहसेकादि।
कुर्याद्भिषक् चिकित्सां दोषबलं चैव हि समीक्ष्य॥१२३॥
इति मूलविषविशेषाः प्रोक्ताः शृणु जङ्गमस्यातः।
(सविशेषचिकित्सित1981मेवादौ तत्रोच्यते तु सर्पाणाम्)१२४॥
दर्वीकरा2137 मण्डलिनो राजिमन्तस्तथैव च।
सर्पा यथाक्रमं वातपित्तश्लेष्मप्रकोपणाः॥१२५॥
दर्वीकरः फणी ज्ञेयो मण्डली मण्डलाफणः।
बिन्दुलेखो विचित्राङ्गः पन्नगः स्यात्तु राजिमान्॥१२६॥
विशेषाद्रूक्षकटुकमम्लोष्णं स्वादु शीतलम्।
विषं यथाक्रमं तेषां तस्माद्वातादिकोपनम्॥१२७॥
दर्वीकरकृतो दंशः सूक्ष्मदंष्ट्रापदोऽसितः।
निरुद्धरक्तः कूर्माभो वातव्याधिकरो मतः॥१२८॥
पृथ्वर्पितः सशोथश्च दंशो मण्डलिना कृतः।
पीताभः पीतरक्तश्च सर्वपित्तविकारकृत्2138॥१२९॥
कृतो राजिमता दंशः पिच्छिलः स्थिरशोफकृत्।
स्निग्धः पाण्डुश्च सान्द्रासृक् श्लेष्मव्याधिसमीरणः॥१३०॥
वृत्तभोगो महाकायः श्वसन्नूर्ध्वेक्षणः पुमान्।
स्थूलमूर्धा समाङ्गश्च2139 स्त्री त्वतः स्याद्विपर्ययात्॥१३१॥
क्लीबस्त्रसत्यधोदृष्टिः स्वरहीनः प्रकम्पते।
स्त्रिया दष्टो विपर्यस्तैरेतैः पुंसा नरो मतः॥१३२॥
व्यामिश्रलिङ्गैरेतैस्तु क्लीबदष्टं नरं वदेत्।
इत्येतदुक्तं सर्पाणां स्त्रीपुंक्लीबनिदर्शनम्॥१३३॥
पाण्डुवक्त्रस्तु गर्भिण्या शूनौष्ठोऽप्यसितेक्षणः।
जृम्भाक्रोधोपजिह्वार्तः सूतया रक्तमूत्रवान्॥१३४॥
सर्पो गौधेयको2140 नाम गोधायां स्याच्चतुष्पदः।
कृष्णसर्पेण तुल्यः स्यान्नाना स्युर्मिश्रजातयः॥१३५॥
गूढसंपादि2141तोद्वृत्तं पीडितं लम्बितार्पितम्।
सर्पितं च भृशाबाधं दंशा येऽन्ये न ते भृशाः॥१३६॥
तरुणाः कृष्णसर्पास्तु गोनसाः स्थविरास्तथा।
राजिमन्तो वयोमध्ये भवन्त्याशीविषोपमाः॥१३७॥
सर्पदंष्ट्राश्चतस्रस्तु तासां वामाधरा सिता।
पीता वामोत्तरा दंष्ट्रा रक्तश्यावेऽर्ध2142रोत्तरे2143॥१३८॥
यन्मात्रःपतते बिन्दुर्गोबालात्2144 सलिलोद्धृतात्।
वामाधरायां दंष्ट्रायां तन्मात्रं स्यादहेर्विषम्॥ १३९॥
एक2145 द्वित्रिचतुर्वृद्धिर्विषभागोत्तरोत्तरा।
सवर्णास्तत्कृता दंशा बहूत्तरविषा भृशाः॥ १४०॥
सर्पाणामेव विमूत्रात् कीटाः स्युः किट्टजा इति।
दूषीविषाः प्राणहरा इति संक्षेपतो मताः॥ १४१॥
गात्रं रक्तं सितं कृष्णं श्यावं वा पिडकाचितम्।
सकण्डूदाहवीसर्पपाकि2146 स्यात् कुथितं तथा॥ १४२॥
कीटैर्दूषीविषैर्दष्टे लिङ्गं प्राणहरं2147 शृणु।
सर्पदष्टे यथा शोथे2148 वर्धते सोग्रगन्ध्यसृक्2145॥ १४३॥
दंशेऽक्षिगौरवं मूर्च्छा सरुगातः श्वसित्यपि।
(तृष्णारूचिपरीतश्च1981 भवेद्दूषीविषार्दितः॥ १४४॥)
दंशस्य मध्ये यत् कृष्णं श्यावं वा जालकान्वि(वृ)तम्।
दग्धाकृति2149 भृशं2150 पाकि क्लेदशोथज्वरान्वितम्॥ १४५॥
दूषीविषाभिर्लूताभिस्तं दृष्टमिति निर्दिशेत्।
(सर्वासामेव2151 तासां च दंशे लक्षणमुच्यते2152॥ १४६॥)
शोथः श्वेतासिता रक्ताः पीता वा पिडका ज्वरः।
प्राणान्तिको भवेद्दाहो2153 श्वासहिक्काशिरोग्रहाः2154॥ १४७॥
आदंशाच्छोणितं पाण्डु मण्डलानि ज्वरोऽरुचिः।
लोमहर्षश्च दा(मो)हश्चाप्याखुदूषीविषार्दिते॥ १४८॥
मूर्च्छाङ्गशोथवैवर्ण्यक्लेदशब्दाश्रुतिज्वराः।
शिरोगुरुत्वं लालासृक्छर्दिश्चासाध्यमूषिकैः॥ १४९॥
श्यावत्वमथ कार्ष्ण्यंवा नानावर्णत्वमेव वा।
मोहः पुरीषभेदो वा दष्टे स्यात्2155 कृकलासकैः॥१५०॥
दहत्यग्निरिवादौ तु भिनत्तीवोर्ध्वमाशु च।
वृश्चिकस्य विषं याति दंशे पश्चात्तु तिष्ठति॥१५१॥
दष्टोऽसाध्यस्तु हृद्घ्राणरसनोपहतो नरः।
मांसैः पतद्भिरत्यर्थं वेदनार्तो जहात्यसून्॥१५२॥
विसर्पः श्वयथुः शूलं ज्वरश्छर्दिरथापि च।
लक्षणं कणभैर्दष्टे दंशश्चैव विशीर्यते॥१५३॥
हृष्टरोमोच्चिटिङ्गेन स्तब्धलिङ्गो भृशार्तिमान्।
दष्टः शीतोदकेनेव सिक्तान्यङ्गानि मन्यते॥१५४॥
एकदंष्ट्रार्दितः2156 शूनः सरुजः पीतकः2157 सतृट्।
छर्दिर्निद्रा च सविषैर्मण्डूकैर्दष्टलक्षणम्॥१५५॥
मत्स्यास्तु सविषाः कुर्युर्दाहशोफरुजस्तथा।
कण्डूं शोथं ज्वरं मूर्च्छां सविषास्तु जलौकसः॥१५६॥
विदाहं श्वयथुं तोदं स्वेदं तु गृहगोधिका2158।
दंशे स्वेदं रुजं दाहं कुर्याच्छतपदीविषम्॥१५७॥
कण्डूमान्मशकैरीषच्छोथः स्यान्मन्दवेदनः।
असाध्यकीटसदृशमसाध्यमशकक्षतम्॥१५८॥
सद्यःप्रस्राविणी श्यावा दाहमूर्च्छाज्वरान्विता।
पीडका मक्षिकादंशे तासां तु स्थगिका2159ऽसुहृत्॥१५९॥
श्मशानचैत्यवल्मीकयज्ञाश्रमसुरालये।
पक्षसन्धिषु मध्याह्ने2160 सार्धरात्रेऽष्टमीषु च॥१६०॥
न सिद्ध्यन्ति नरा दष्टाः पाषण्डायतनेषु च।
दृष्टिश्वासमनःस्पर्शविषैराशीविषैस्तथा॥१६१॥
विनश्यन्त्याशु संप्राप्ता दृष्टाः सर्वे च मर्मसु।
भीतमत्ताबलोष्णक्षुत्तृषार्ते वर्धते भृशम्॥१६२॥
विषं प्रकृतिकालौ च तुल्यौ प्राण्याल्पमन्यथा।
वारिविप्रहताः क्षीणा भीता नकुलनिर्जिताः॥१६३॥
वृद्धा2161 बालास्त्वचो मुक्ताः सर्पा मन्दविषाः स्मृताः।
सर्वदेहाश्रितं क्रोधाद्विषं सर्पों विमुञ्चति॥१६४॥
तदेवाहारहेतोर्वा भयाद्वा न प्रमुञ्चति।
वातोल्बणविषाः प्राय उच्चिटिङ्गाः2162 सवृश्चिकाः॥१६५॥
वातपित्तोल्बणाः कीटाः श्लैष्मिकाः कणभाखवः।
यस्य यस्य हि दोषस्य लिङ्गाधिक्यं प्रतर्कयेत्॥१६६॥
तस्य तस्यौषधैः कुर्याद्विपरीतगुणैः क्रियाम्।
हृत्पीडोर्ध्वानिलः स्तम्भः सिरायामोऽस्थिपर्वरुक्॥१६७॥
घूर्णनोद्वेष्टनं गात्रश्यावता वातिके विषे।
संज्ञानाशोष्णनिश्वासौ हृद्दाहः कटुकास्यता॥१६८॥
मांसावदरणं शोथो रक्तपीतश्च पैत्तिके।
वम्यरोचकहृल्लासप्रसेकोत्क्लेशगौरवैः2163॥१६९॥
सशैत्यमुखमाधुर्यैर्विद्याच्छ्रेष्माधिकं विषम्।
खण्डेन2164 च व्रणालेपस्तैलाभ्यङ्गश्च वातिके॥१७०॥
स्वेदो नाडीपुलाकाद्यैर्बृहणश्च विधिर्हितः।
सुशीतैः स्तम्भयेत् सेकैः प्रदेहैश्चापि पैत्तिकम्॥१७१॥
लेखनच्छेदनस्वेदवमनैः श्लैष्मिकं जयेत्।
विषेष्वपि च सर्वेषु सर्वस्थानगतेषु च॥१७२॥
अवृश्चिकोच्चिटिङ्गेषु प्रायः शीतो विधिर्हितः।
बृश्चिके स्वेदमभ्यङ्गं घृतेन लवणेन च॥१७३॥
सेकांश्चोष्णान् प्रयुञ्जीत भोज्यं पानं च सर्पिषः।
एतदेवोच्चिटिङ्गेऽपि प्रतिलोमं च पांशुभिः॥१७४॥
उद्वर्तनं सुखाम्बूष्णैस्तथाऽवच्छादनं घनैः।
स्यात्रिदोषप्रकोपात्तु तथा धातुविपर्ययात्॥१७५॥
शिरोभितापी लालास्राव्यधोवक्रस्तथा भवेत्।
अन्येप्येवंविधा व्यालाः कफवातप्रकोपणाः॥१७६॥
हृच्छिरोरुग्ज्वरस्तम्भतृषामूर्च्छाकरा मताः।
कण्डूनिस्तोदवैवर्ण्यसुप्तिक्लेदोपशोषणम्॥१७७॥
विदाहरागरुक्पाकाः शोफो ग्रन्थिनिकुञ्चनम्2165।
दंशावदरणं स्फोटाः कर्णिका मण्डलानि च॥१७८॥
ज्वरश्च सविषे लिङ्गं विपरीतं तु निर्विषे।
तत्र सर्वे यथावस्थं2166 प्रयोज्याः स्युरुपक्रमाः॥१७९॥
पूर्वोक्ता विधिमन्यं च यथावह्वुवतः शृणु।
हृद्विदाहे प्रसेके वा विरेकवमनं भृशम्॥१८०॥
यथावस्थं प्रयोक्तव्यं शुद्धे संसर्जनक्रमः।
शिरोगते विषे नस्तः कुर्यान्मूलानि बुद्धिमान्॥१८१॥
बन्धुजीवस्य भार्ग्याश्च सुरसस्यासितस्य च।
दक्षकाकमयूराणां मांसासृड्यस्तके क्षते॥१८२॥
उपधेयमधोदष्टस्योर्ध्वदृष्टस्य पादयोः।
पिप्पलीमरिचक्षारवचासैन्धवशिग्रुकाः॥१८३॥
पिष्टा रोहितपित्तेन घ्नन्त्यक्षिगतमञ्जनात्।
कपित्थमामं2167 ससिताक्षौद्रं कण्ठगते विषे॥१८४॥
लिह्यादामाशयगते ताभ्यां चूर्णपलं नतात्।
विषे पक्काशयप्राप्ते पिप्पलीं रजनीद्वयम्॥१८५॥
मञ्जिष्ठां च समं पिष्ट्वा गोपित्तेन नरः पिबेत्।
रक्तं मांसं च गोधायाः शुष्कं चूर्णीकृतं हितम्॥१८६॥
विषे रसगते पानं कपित्थरससंयुतम्।
शेलोर्मूलत्वगग्राणि बादरौदुम्बराणि च॥१८७॥
कटभ्याश्च पिबेङ्गक्तगते, मांसगते पिबेत्2168।
सक्षौद्रं खदिरारिष्टं कौटजं मूलमम्भसा॥१८८॥
सर्वेषु च बले द्वे तु मधूकं मधुकं नतम्।
पिप्पलीं नागरं क्षारं नवनीतेन मूर्च्छितम्॥१८९॥
कफे2169 भिषगुदीर्णे तु विदध्यात् प्रतिसारणम्।
मांसीकुङ्कुमपत्रत्वग्रजनीनतचन्दनैः॥१९०॥
मनःशिलाव्याघ्रनखसुरसैरम्बुपेषितैः2170।
पाननस्याञ्जनालेपाः सर्वशोथविषापहाः॥१९१॥
चन्दनं तगरं कुष्टं हरिद्रे द्वे त्वगेव च।
मनःशिला तमालश्च रसः कैशर एव च॥१९२॥
शार्दूलस्य नखश्चैव सुपिष्टं तण्डुलाम्बुना।
हन्ति सर्वविषाण्येव वज्रिवज्रमिवासुरान्॥१९३॥
रसे शिरीषपुष्पस्य2171 सप्ताहं मरिचं सितम्।
भावितं सर्पदष्टानां नस्यपानाञ्जने हितम्॥१९४॥
द्विपलं नतकुष्ठाभ्यां घृतक्षौद्रचतुष्पलम्।
अपि तक्षकदष्टानां पानमेतत् सुखप्रदम्॥१९५॥
सिन्धुवारस्य मूलं च श्वेता च गिरिकर्णिका।
पानं दर्वीकरैर्दष्टे नस्यं समधुपाकलम्॥१९६॥
मञ्जिष्ठा मधुयष्टी च जीवकर्षभकौ सिता।
काश्मर्यं वटशुङ्गानि पानं मण्डलिनां विषे॥१९७॥
व्योषं सातिविषं कुष्ठं गृहधूमो हरेणुका।
तगरं कटुका क्षौद्रं हन्ति राजीमतां विषम्॥१९८॥
गृहधूमं हरिद्रे द्वे समूलं तण्डुलीयकम्।
अपि वासुकिना दष्टः पिबेन्मधुघृताप्लुतम्॥१९९॥
क्षीरिवृक्षत्वगालेपः शुद्धे कीटविषापहः।
मुक्तालेपो वरः शोथदाहतोदज्वरापहः॥२००॥
चन्दनं पद्मकोशीरं शिरीषः सिन्धुवारिका।
क्षीरशुक्ला नतं कुष्ठं सारिवोदीच्यपाटलाः॥२०१॥
शेलुस्वरसपिष्टोऽयं लूतानां सार्वकार्मिकः।
यथायोगं प्रयोक्तव्यः समीक्ष्यालेपनादिषु॥२०२॥
मधूकं मधुकं कुष्ठं शिरीषोदीच्यपाटलाः।
सनिम्बसारिवाक्षौद्राः पानं लूताविषापहम्॥२०३॥
कुसुम्भपुष्पं गोदन्तः स्वर्णक्षीरी कपोतविद्।
दन्ती त्रिवृत् सैन्धवं च कर्णिकापातनं तयोः॥२०४॥
कटभ्यर्जुनशैरीषशेलक्षीरीद्रुमत्वचः।
कषायचूर्णकल्काः स्युः कीटलूतव्रणापहाः॥२०५॥
त्वचं च नागरं चैव समांशं श्लक्ष्णपेषितम्।
पेयमुष्णाम्बुना सर्वं मूषिकाणां विषापहम्॥२०६॥
कुटजस्य फलं पिष्टं तगरं जालमालिनी।
तिक्तेक्ष्वाकुश्च योगोऽयं2172 पानप्रधमनादिभिः॥२०७॥
वृश्चिकोन्दुरुलूतानां सर्पाणां च विषं हरेत्।
समानो ह्यमृतेनायं गराजीर्णं च नाशयेत्॥२०८॥
सर्वेऽगदा यथादोषं प्रयोज्याः स्युः कृकण्टके।
कपोतविट्2173 मातुलुङ्गं शिरीषकुसुमाद्रसः॥२०९॥
शङ्खिन्यार्कं पयः शुण्ठी करञ्जो मधु वार्श्विके।
शिरीषस्य2174 फलं पिष्टं स्नुहीक्षीरेण दादुरे॥२१०॥
त्रिकटु श्वेतभण्टाकीमूलं2175 सर्पिश्च मत्स्यजे।
कीटदष्टक्रियाः सर्वाः समानाः स्युर्जलौकसाम्॥२११॥
वातपित्तहरी चापि क्रिया प्रायः प्रशस्यते। वृश्चिकस्योच्चिटिङ्गस्य कणभस्यौन्दुरोऽगदः॥२१२॥
वचां वंशत्वचं पाठां नतं सुरसमञ्जरीम्।
द्वे बले नाकुलीं कुष्ठं शिरीषं रजनीद्वयम्॥२१३॥
गुहामतिगुहां श्वेतामजगन्धां शिलाजतु।
कत्तृणं कटभीं क्षारं गृहधूमं मनःशिलाम्॥२१४॥
रोहीतकस्य पित्तेन पिष्ट्वा तु परमोऽगदः।
नस्या2176ञ्जनादिलेपेषु हितो विश्वम्भरादिषु॥२१५॥
स्वर्जिकाऽजशकृत्क्षारः सुरसाऽथाक्षिपीडकः।
मदिरामण्डसंयुक्तो हितः शतपदीविषे।
कपित्थमक्षिपीडोऽर्कबीजं त्रिकटुकं तथा॥२१६॥
करञ्जो द्वे हरिद्रे च गृहगोधाविषं2177 जयेत्।
काकाण्डयुक्तः सर्वेषां विषाणां तण्डुलीयकः॥२१७॥
प्रधानो2178 बर्हिपित्तेन तद्वद्वायसपीलुकः।
शिरीषफलमूलत्वक्पुष्पपत्रैः समैर्धृतैः॥२१८॥
**श्रेष्ठः पञ्चशिरीषोऽयं विषाणां प्रवरो वधे। **
**इति पञ्चशिरीषोऽगदः। **
**चतुष्पद्भिर्द्भिपद्भिर्वा नखदन्तक्षतं तु यत्॥२१९॥
शूयते पच्यते वाऽपि स्रवति ज्वरयत्यपि। **
**सोमवल्कोऽश्वकर्णश्च गोजिह्वा हंसपद्यपि॥२२०॥
रजन्यौ गैरिकं लेपो नखदन्तविषापहः। **
दुरन्धकारे विद्धस्य केनचिद्विषशङ्कया॥२२१॥
विषोद्वेगाज्जवरश्छर्दिर्मूर्च्छा दाहोऽपि वा भवेत्।
ग्लानिर्मोहोऽतिसारश्चाप्येतच्छङ्काविषं मतम्॥२२२॥
चिकित्सितमिदं तस्य कुर्यादाश्वासयन्2179 बुधः।
सितां विगन्धिकां2180 द्राक्षां पयस्यां मधुकं मधु॥२२३॥
पानं समन्त्रपूताम्बु प्रोक्षणं सान्त्वहर्षणम्।
शालयः षष्टिकाश्चैव कोरदूषाः प्रियङ्गवः॥२२४॥
भोजनाय प्रशस्यन्ते लवणार्थे च सैन्धवम्।
तण्डुलीयकजीवन्तीवार्ताकुसुनिषण्णकाः॥२२५॥
चुञ्चूर्मण्डूकपर्णी च शाकं च कुलकं हितम्।
धात्रीदाडिममम्लार्थे यूषा मुद्गहरेणुभिः॥२२६॥
रसाश्चैणशिखिश्वाविल्लावतैत्तिरपार्षताः।
विषध्नौषधसंयुक्ता रसा यूषाश्च संस्कृताः॥२२७॥
अविदाहीनि चान्नानि विषार्तानां भिषग्जितम्।
विरुद्धाभ्यशनक्रोधक्षुद्भयायासमैथुनम्॥२२८॥
वर्जयेद्विषमुक्तोऽपि दिवास्वप्नं विशेषतः।
मुहुर्मुहुः शिरोन्यासः शोथः स्रस्तौष्ठकर्णता2181॥२२९॥
ज्वरः स्तब्धाक्षिगात्रत्वं हनुकम्पोऽङ्गमर्दम्।
रोमापगमनं ग्लानिररतिर्वेपथुर्भ्रमः॥२३०॥
चतुष्पदां भवत्येतद्दष्टानामिह लक्षणम्।
देवदारु हरिद्रे द्वे सरलं2182 चन्दनागुरु॥२३१॥
रास्ना गोरोचनाऽजाजी गुग्गुल्विक्षुरकौ नतम्।
चूर्णं ससैन्धवानन्तं गोपित्तमधुसंयुतम्॥२३२॥
**चतुष्पदां दृष्टानामगदः सार्वकार्मिकः।
सौभाग्यार्थं स्त्रियः स्वेदरजोनानाङ्गजान्मलान्॥२३३ **
शत्रुप्रयुक्ता(क्तां)श्च गरान् प्रयच्छन्त्यन्नमिश्रितान्।
तैः स्यात् पाण्डुः कृशोऽल्पाग्निर्ज्वरश्वास्योपजायते2183॥२३४॥
मर्मप्रधमनाध्मानं2184 श्वयथुर्हस्तपादयोः।
जठरं ग्रहणीदोषं यक्ष्माणं श्वयथुं2185 ज्वरम्॥२३५॥
एवंविधस्य चान्यस्य व्याधेर्लिङ्गानि दर्शयेत्।
स्वप्ने मार्जारगोमायुव्यालान् सनकुलान् कपीन्॥२३६॥
प्रायः पर्यति नद्यादीञ्छुष्कांश्च सवनस्पतीन्।
कालश्च गौरमात्मानं स्वप्ने गौरश्च कालकम्॥२३७॥
विकर्णनासिकं चापि प्रपश्येद्विहतेन्द्रियः।
तमवेक्ष्य2186 भिषक् प्राज्ञः पृच्छेत्किं कैः कदा सह॥२३८॥
जग्धमित्यवगम्याशु प्रदद्याद्वमनं भिषक्।
सूक्ष्मं ताम्ररजस्तस्मै सक्षौद्रं हृद्विशोधनम्॥२३९॥
शुद्धे हृदि ततः शाणं हेमचूर्णस्य दापयेत्।
हेम सर्वविषाण्याशु गरांश्च विनियच्छति॥२४०॥
न सज्जते हेमपाङ्गे विषं पद्मदलेऽम्बुवत्।
नागदन्तीत्रिवृद्दन्तीद्रवन्तीस्नुकूपयः फलैः॥२४१॥
साधितं माहिषं सर्पिः सगोमूत्राढकं हितम्।
सर्पकीटविषार्तानां गरातीनां च शान्तये॥२४२॥
शिरीषत्वक् त्रिकटुकं त्रिफलां चन्दनोत्पलम्।
द्वे बले सारिवास्फोतासुरभीनिम्बपाटलाः॥२४३॥
बन्धुजीवाढकीमूर्वावासासुरसवत्सकान्।
पाठाङ्कोलाश्वगन्धार्कमूलयष्ट्याह्नपद्मकान्॥२४४॥
विशालां बृहतीं लाक्षां कोविदारं शतावरीम्।
कटभीदन्त्यपामार्गान् पृश्निपर्णी रसाञ्जनम्॥२४५॥
श्वेतभण्टाश्वखुरकौ कुष्ठदारुप्रियङ्कुकान्।
विदारी मधुकात्2187 सारं करञ्जस्य फलं वचाम्2188॥२४६॥
रजन्यौ लोध्रमक्षांशं पिष्ट्वा साध्यं घृताढकम्।
तुल्यांम्बुच्छागगोमूत्रत्र्याढके तद्विषापहम्॥२४७॥
अपस्मारक्षयोन्मादभूतग्रहगरोदरम्।
पाण्डुरोगान् क्रिमीनू गुल्मान् प्लीहोरुस्तम्भकामलाः॥२४८॥
हनुस्कन्धग्रहादींश्च पानाभ्यञ्जननावनैः।
हन्यात् संजीवयेच्चापि विषोद्वेगमृतान्नरान्2189।
नाम्नेदममृतं सर्वविषाणां स्याध्दृतोत्तमम्॥२४९॥
**इत्यमृतधृतम्। **
**भवन्ति चात्र। **
छत्री झर्झरपाणिश्च चरेद्रात्रौ तथा दिवा।
तच्छायाशब्दवित्रस्ताः प्रणश्यन्त्याशु पन्नगाः॥२५०॥
दष्टमात्रो दशेदाशु तं सर्पं लोष्टमेव वा।
उपर्यरिष्टां बघ्नीयाद्दंशं छिन्द्याद्दहेत्तथा॥२५१॥
वज्रं मरकतं सारं पिचुकीं विषमूषिकाम्।
कर्केतनं सर्पमणिं वैदूर्यं गजमैातिकम्॥२५२॥
धार्यं गरमणिर्याश्च वरौषध्यो विषापहाः।
खगाश्च शारिकाक्रौञ्चशिखिहंसशुकादयः॥ २५३॥
**तत्र श्लोकः। **
**इतीदमुक्तं द्विविधस्य विस्तरैर्बहुप्रकारं विषरोगभेषजम्।
अधीत्य विज्ञाय तथा प्रयोजयन् व्रजेद्विषाणामविषह्यतां बुधः2190॥२५४॥ **
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
विषचिकित्सितं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥
_________
चतुर्विंशोऽध्यायः।
अथातो मदात्ययचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सुरैः सुरेशसहितैर्या पुरा परिपूजिता।
सौत्रामण्यां हूयते या कर्मभिर्या प्रतिष्ठिता॥३॥
यज्ञौही या यया शक्रः सोमातिपतितो2191 भृशम्।
निरोजस्तमसाविष्टस्तस्माद्दुर्गात् समुद्धृतः॥४॥
विधिभिर्वेदविहितैर्या यजद्भिर्महात्मभिः।
दृश्या स्पृश्या प्रकल्प्या च यज्ञीया यज्ञसिद्धये॥५॥
योनिसंस्कारनामाद्यैर्विशेषैर्बहुधा च या।
भूत्वा भवत्येकविधा सामान्यान्मदलक्षणात्॥६॥
या देवानमृतं भूत्वा स्वधा भूत्वा पितॄंश्च या।
सोमो भूत्वा द्विजातीन् या युङ्क्ते श्रेयोभिरुत्तमैः॥७॥
आश्विनं या महत्तेजो वीर्यं सारस्वतं च या।
बलमैन्द्रं2192 च या सिद्धा सोमे सौन्त्रामणौ च या2193॥८॥
शोकारतिभयोद्वेगनाशिनी या महाबला।
या प्रीतिर्या रतिर्या वाग्या पुष्टिर्या च निर्वृतिः॥९॥
या सुरा सुरगन्धर्वयक्षराक्षसमानुषैः।
रतिः सुरेत्यभिहिता तां सुरां विधिना पिबेत्॥१०॥
शरीरकृतसंस्कारः शुचिरुत्तमगन्धवान्।
प्रावृतो निर्मलैर्वस्त्रैर्यथर्तूद्दमगन्धिभिः॥११॥
विचित्रविविधस्त्रग्वी रत्नाभरणभूषितः।
देवद्विजातीन् संपूज्य स्पृष्ट्वा मङ्गलमुत्तमम्॥१२॥
देशे यथर्तुके शस्ते कुसुमप्रकरीकृते2194।
संवाससंमते मुख्ये धूपसंमोदबोधिते॥१३॥
सोपधाने सुसंस्तीर्णे विहिते शयनासने।
उपविष्टोऽथवा तिर्यक् स्वशरीरसुखे स्थितः॥१४॥
सौवर्णै राजतैर्वाऽपि तथा मणिमयैरपि।
भाजनैर्विविधैश्चित्रैः सुकृतैश्च पिबेत् सदा॥१५॥
रूपयौवनमत्ताभिः शिक्षिताभिर्विशेषतः।
वस्त्राभरणमाल्यैश्च भूषिताभिर्यथर्तुकैः॥१६॥
शौचानुरागयुक्ताभिः प्रमदाभिरितस्ततः।
संवाह्यमान2195 इष्टाभिः पिबेन्मद्यमनुत्तमम्॥१७॥
मद्यानुकूलैर्विविधैः फलैर्हरितकैः शुभैः।
लवणैर्गन्धपिशुनैरवदंशैर्यथर्तुकैः॥१८॥
भृष्टैर्मांसैर्बहुविधैर्भूजलाम्बरचारिणाम्।
पौरोगवैश्च2196 विहितैर्भक्ष्यैश्च विविधात्मकैः॥१९॥
पिबेत् संपूज्य विबुधानाशिषः संप्रयुज्य2197 च।
प्रदाय सजलं मद्य2198मादितो वसुधातले॥२०॥
अभ्यङ्गोत्सादनस्नानवासोधूपानुलेपनैः।
स्निग्धोष्णैर्भावित2199श्चान्नैर्वातिको मद्यमाचरेत्॥२१॥
शीतोपचारैर्विविधैर्मधुरस्त्रिग्धशीतलैः।
पैत्तिको भावितश्चान्नैः2200 पिबन्मद्यं न सीदति॥२२॥
उपचारैरशिशिरैर्यवगोधूमभुक् पिबेत्।
श्लैष्मिको धन्वजैर्मांसैर्मद्यं मरिचकैः सह॥२३॥
विधिर्वसुमतामेष भविष्यद्विभवाश्च2201 ये।
यथोपपत्ति तैर्मद्यं पातव्यं मात्रया हितम्॥२४॥
वातिकेभ्यो हितं मद्यं प्रायो गौडिकपैष्टिकम्।
कफपित्ताधिकेभ्यस्तु फालमाधवशार्करम्2202कं माधवं च यत् ग.")॥२५॥
बहुद्रव्यं बहुगुणं बहुकर्मप्रदात्मकम्2203।
गुणैर्दोषैश्च तन्मद्यमुभयैरुपदेक्ष्यते॥२६॥
विधिना मात्रया काले हितैरन्नैर्यथाबलम्।
प्रहृष्टो यः पिबेन्मद्यं तस्य स्वादमृतं यथा॥२७॥
यथोपेतं पुनर्मद्यं प्रसङ्गाद्येन पीयते।
रूक्षव्यायामनित्येन विषवद्याति तस्य तत्॥२८॥
मद्यं हृदयमाविश्य स्वगुणैरोजसो गुणान्॥
दशभिर्दश संक्षोभ्य चेतो नयति विक्रियाम्॥२९॥
लघूष्णतीक्ष्णसूक्ष्माम्लव्यवाय्याशुगमेव च।
रूक्षं विकाशि विशदं मद्यं दशगुणं स्मृतम्॥३०॥
गुरु शीतं मृदु स्निग्धं बहलं मधुरं स्थिरम्।
प्रसन्नं पिच्छिलं श्लक्ष्णमोजो दशगुणं स्मृतम्॥३१॥
गुरुत्वं2204 लाघवाच्छैत्यमौष्ण्यादम्लस्वभावतः।
माधुर्यं मार्दवं तैक्ष्ण्यात् प्रसादं चाशुभावनात्॥३२॥
रौक्ष्यात् स्नेहं व्यवायित्वात् स्थिरत्वं श्लक्ष्णतामपि।
विकासिभावात् पैच्छिल्यं वैशद्यात् सान्द्रतां तथा॥३३॥
सौक्ष्म्यान्मद्यं निहन्त्येवमोजसः स्वगुणैर्गुणान्।
सत्वं तदाश्रयं चाशु संक्षोभ्य जनयेन्मदम्2205॥३४॥
रसवतादिमार्गाणां2206 सत्त्वबुद्धीन्द्रियात्मनाम्।
प्रधानस्यौजसश्चैव हृदयं स्थानमुच्यते॥३५॥
अतिपीतेन मद्येन विहतेनौजसा च तत्।
हृदयं याति विकृतिं तत्रस्था ये च धातवः॥३६॥
ओजस्यविहते पूर्वो हृदि च प्रतिबोधिते।
मध्यमो विहतेऽल्पे च विहते तूत्तमो मदः॥३७॥
नैवं विघातं जनये2207न्मद्यं पैष्टिकमोजसः।
विकाशिरूक्षविशदा गुणास्तत्र हि नोल्बणाः॥३८॥
हृदि मद्यगुणाविष्टे हर्षस्तर्षो रतिः सुखम्।
विकाराश्च यथासत्त्वं चित्रा राजसतामसाः॥३९॥
जायन्ते मोहनिद्रान्ता मद्यस्यातिनिषेवणात्।
स मद्यविभ्रमो नाम्ना मद इत्यभिधीयते॥४०॥
पीयमानस्य मद्यस्य विज्ञातव्यास्त्रयो मदाः।
प्रथमो मध्यमोऽन्त्यश्च लक्षणैस्तान् प्रचक्ष्महे॥४१॥
प्रहर्षणः प्रीतिकरः पानान्नगुणदर्शकः ।
वाद्यगीतप्र2208हासानां कथानां च प्रवर्तकः॥४२॥
न च बुद्धिस्मृतिहरो विषयेषु न चाक्षमः।
सुखनिद्राप्रबोधश्च प्रथमः सुखदो मदः॥४३॥
मुहुः स्मृतिर्मुहुर्मोहो (ऽ)व्यक्ता सज्जति वाङ्नुहुः।
युक्तायुक्तप्रलापश्च प्रपलायनमेव2209 च॥४४॥
स्थानपानान्नसांकथ्ययोजनाः सविपर्ययाः।
लिङ्गान्येतानि जानीयादाविष्टे मध्यमे मदे॥४५॥
मध्यमं मदमुत्क्रम्य मदमाप्राप्य चोत्तमम्।
न किंचिन्नाशुभं कुर्युर्नरा राजसतामसाः॥४६॥
को मदं तादृशं विद्वानुन्मादमिव दारुणम्।
गच्छेदध्वानमस्वन्तं बहुदोषमिवाध्वगः॥४७॥
तृतीयं तु मदं प्राप्य भग्नदार्विव निष्क्रियः।
मदमोहावृतमना जीवन्नपि मृतैः समः॥४८॥
रमणीयान् स विषयान्न वेत्ति न सुहृज्जनम्।
यदर्थं पीयते मद्यं रतिं तां च न विन्दति॥४९॥
कार्याकार्यं सुखं दुःखं लोके यच्च हिताहितम्।
यदवस्थो न जानाति कोऽवस्थां तां व्रजेद्बुधः॥५०॥
स दूष्यः2210 सर्वभूतानां निन्द्यश्चाग्राह्य एव च।
व्यसनित्वादुदर्के च स दुःखं व्याधिमश्नुते॥५१॥
प्रेत्य चेह च यच्छ्रेयः श्रेयो मोक्षे च यत् परम्।
मनःसमाधौ तत् सर्वमायत्तं सर्वदेहिनाम्॥५२॥
मद्येन मनसश्चास्य संक्षोभः क्रियते महान्।
महामारुतवेगेन तटस्थस्येव शाखिनः॥५३॥
मद्यप्रसङ्गं तं ज्ञात्वा2211 महादोषं महागदम्।
सुखमित्यधिगच्छन्ति रजोमोहपराजिताः2212॥५४॥
मद्योपहतविज्ञाना वियुक्ताः सात्त्विकैर्गुणैः।
श्रेयोभिर्विप्रयुज्यन्ते मदान्धा मद्य(द)लालसाः॥५५॥
मद्ये मोहो भयं शोकः क्रोधो मृत्युश्च संश्रितः।
सोन्मादमदमूर्च्छायाः सापस्मारापतानकाः॥५६॥
यत्रैकः स्मृतिविभ्रंशस्तत्र सर्वमसाधुवत्2213।
इत्येवं मद्यदोषज्ञा मद्यं गर्हन्ति2214 तत्वतः॥५७॥
सत्यमेते महादोषा मद्यस्योक्ता न संशयः।
अहितस्यातिमात्रस्य पीतस्य विधिवर्जितम्॥५८॥
किंतु मद्यं स्वभावेन यथैवान्नं तथा स्मृतम्।
भयुक्तियुक्तं रोगाय युक्तियुक्तं यथाऽमृतम्॥५९॥
प्राणाः प्राणभृतामन्नं तदयुत्तया निहन्त्यसून्।
विषं प्राणहरं तच्च युक्तियुक्तं रसायनम्॥६०॥
हर्षमूर्जे मदं पुष्टिमारोग्यं पौरुषं बलम्2215।
युक्त्या पीतं करोत्याशु मद्यं मदसुखावहम्॥६१॥
रोचनं दीपनं हृद्यं स्वरवर्णप्रसादनम्।
प्रीणनं बृंहणं बल्यं भयशोकश्रमापहम्॥६२॥
स्वापनं नष्टनिद्राणां मूकानां वाग्विबोधनम्2216।
बोधनं चातिनिद्राणां विबद्धानां विबन्धनुत्॥६३॥
वधबन्धपरिक्लेशदुःखानां चाप्यबोधनम्।
मद्योत्थानां च रोगाणां मद्यमेव प्रबाधकम्2217॥६४॥
रतिर्विषयसंयोगे प्रीतिसंयोगवर्धनम्2218।
अपि प्रवयसां मद्यमुत्सवामोदकारकम्॥६५॥
पञ्चस्वर्थेषु काम्येषु2219 या रतिः प्रथमे मदे।
यूनां वा स्थविराणां वा तस्य नास्त्युपमा भुवि॥६६॥
बहुदुःखहतस्यास्य शोकेनोपहतस्य च।
विश्रामो जीवलोकस्य मद्यं युक्त्या निषेवितम्॥६७॥
अन्नपानवयोव्याधिबलकालनिकाणि षट्।
त्रीन् दोषांस्त्रिविधं सत्वं ज्ञात्वा मद्यं पिबेत् सदा॥६८॥
तेषां त्रिकाणामष्टानां योजना युक्तिरुच्यते ।
यया2220 युक्त्या पिबन्मद्यं मद्यदोषैर्न युज्यते॥६९॥
मद्यस्य च गुणान् सर्वान् यथोक्तान् स समश्नुते।
धर्मार्थयोरपीडायै नरः सत्त्वगुणोच्छ्रितः॥७०॥
सध्वानि तु प्रबुध्यन्ते प्रायशः प्रथमे मदे।
द्वितीये व्यक्ततां यान्ति मध्ये2221 चोत्तममध्ययोः॥७१॥
सस्यसंबोधकं वर्षं हेमप्रकृतिदर्शकः।
हुताशः सर्वसत्त्वानां मद्यं तूभयकारकम्॥७२॥
प्रधानावरमध्यानां रुक्माणां व्यक्तिदर्शकः।
यथाऽग्निरेवं सत्त्वानां मद्यं प्रकृतिदर्शकम्॥७३॥
सुगन्धिमाल्यगन्धर्वं सुप्रणीतमनाकुलम्।
मिष्टान्नपानविशदं सदा मधुरसंकथम्2222॥७४॥
सुखप्रमाणं2223 सुमदं हर्षप्रीतिविवर्धनम्।
स्वन्तं2224 सात्त्विकमापानं न चोत्तममदप्रदम्॥७५॥
वैगुण्यं सहसा यान्ति मद्यदोषैर्न2225 सात्त्विकाः।
सहसा2226 सहसा न तु इति पा० । “) नावगृह्णाति मद्यं सत्त्वबलाधिकम्॥७६॥
सौम्यासौम्यकथाप्रायं विशदाविशदं क्षणात्2227।
चित्रं राजसमापानं प्रायेणास्वन्तमाकुलम्॥७७॥
हर्षप्रीतिकथापेतमतुष्टं पानभोजने।
संमोहक्रोधनिद्रान्तमापानं तामसं स्मृतम्॥७८॥
आपाने सात्त्विकान् बुद्ध्वा तथा राजसतामसान्।
जह्यात् सहायान् यैः पीत्वा सह दोषानुश्रुते॥७९॥
सुखशीलाः सुसंभाषाः सुमुखाः संभताः सताम्।
कलास्वबाह्या विशदा विषयप्रवणाश्च ये॥८०॥
परस्परविधेया ये येषामैक्यं सुहृत्तया।
प्रहर्षप्रीतिमाधुर्यैंरापानं वर्धयन्ति ये॥८२॥
उत्सवादुस्सवतरं येषामन्योन्यदर्शनम्।
ते सहायाः सुखाः पाने तैः पिबन् सह मोदते॥४२॥
रूपगन्धरसस्पर्शैः शब्दैश्चापि मनोरमैः।
पिबन्ति सुसहाया ये ते वै सुकृतिभिः समाः॥८३॥
पञ्चभिर्विषयैरिटैरुपेतै2228र्मनसः प्रियैः।
देशे काले पिबेन्मद्यं प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥८४॥
स्थिरसत्त्वशरीरा ये पूर्वान्ना मद्यपान्वयाः।
बहुमद्योचिता ये च माद्यन्ति सहसा न ते॥४५॥
क्षुत्पिपासापरीता2229श्च दुर्बला वातपैत्तिकाः।
रूक्षाल्पप्रमिताहारा विश्रब्धा : सत्त्वदुर्बलाः॥८६॥
क्रोधिनोऽनुचिताः क्षीणाः परिश्रान्ता मदक्षताः।
वल्पेनापि मदं शीघ्रं यान्ति मद्येन मानवाः॥८७॥
ऊर्ध्वे मदात्ययस्यातः संभवं स्वस्वलक्षणम्।
अग्निवेश चिकित्सां च प्रवक्ष्यामि यथाक्रमम्॥८८॥
स्त्रीशोकभयभाराध्वकर्मभिर्योऽतिकर्शितः।
रूक्षाल्पप्रमिताशी वा यः पिबत्यतिमात्रया॥८९॥
रूक्ष परिणतं मद्यं निशि निद्रां विहत्य च।
करोति तस्य तच्छीघ्रं वातप्रायं मदात्ययम्॥९०॥
हिक्काश्वासशिरःकम्पपार्श्वशूलप्रजागरैः।
विद्याद्वहुप्रलापस्य वातप्रायं मदात्ययम्॥११॥
तीक्ष्णोष्णं मद्यमम्लं च योऽतिमात्रं निषेवते।
अम्लोष्णतीक्ष्णभोजी च क्रोधनोऽग्यातपप्रियः॥९२॥
तस्योपजायते पित्ताद्विशेषेण मदात्ययः।
लक्षणानि2230 भवन्त्यस्य यानि तानि निबोध मे॥९३॥
तृष्णादाहज्वरस्वेदमूर्च्छातीसारविभ्रमैः।
विद्याध्दरितवर्णस्य पित्तप्रायं मदात्ययम्॥१४॥
तरुणं मधुरप्रायं गौडं पैष्टिकमेव वा।
मधुरस्निग्धगुर्वाशी यः पिबत्यतिमात्रया॥१५॥
अव्यायामदिवास्वप्नशय्यासनसुखे रतः।
मदात्ययं कफप्रायं स शीघ्रमधिगच्छति॥९६॥
छर्द्यरोचकहृल्लासतन्द्रास्तैमित्यगौरवैः।
विद्याच्छीतपरीतस्य कफप्रायं मदात्ययम्॥९७॥
विषस्य ये गुणा दृष्टाः सन्निपातप्रकोपणाः।
त एव मद्ये दृश्यन्ते विषे तु बलवत्तराः॥९८॥
हन्त्याशु हि विषं किंचित् किंचिद्रोगाय कल्पते।
यथा विषं तथैवान्त्यो ज्ञेयो मद्यकृतो मदः॥१९॥
तस्मात् त्रिदोषजं लिङ्गं सर्वत्रापि मदात्यये।
दृश्यते रूपवैशेष्यात् पृथक्त्वं चास्य लक्ष्यते॥१००॥
शरीरदुःखं बलवत् संमोहो2231 हृदयव्यथा।
अरुचिः सततं तृष्णा ज्वरः शीतोष्णलक्षणः॥१०१॥
शिरःपार्श्वास्थिसन्धीनां विद्युत्तुल्या च वेदना।
जायते2232ऽतिबला जृम्भा स्फुरणं वेपनं श्रमः॥१०२॥
उरोविबन्धः कासश्च हिक्का श्वासः प्रजागरः।
शरीरकम्पः कर्णाक्षिमुखरोगस्त्रिकग्रहः॥१०३॥
छर्द्यतीसारहृल्लासा2233 वातपित्तकफात्मकाः।
भ्रमः प्रलापो रूपाणामसतां चैव दर्शनम्॥१०४॥
तृणभस्मलतापर्णपांशुभिश्चावपूरणम्2234।
प्रधर्षणं विहङ्गेश्च भ्रान्तचेताः स मन्यते॥१०५॥
व्याकुलानामशस्तानां स्वप्नानां दर्शनानि च।
मदात्ययस्य रूपाणि सर्वाण्येतानि लक्षयेत्॥१०६॥
सर्वं मदात्ययं विद्यात्रिदोषमधिकं तु यम्।
दोषं मदात्यये पश्येत् तस्यादौ प्रतिकारयेत्॥१०७॥
कफस्थानानुपूर्व्या वा क्रिया कार्या मदात्यये।
पित्तमारुतपर्यन्तः प्रायेण हि मदात्ययः॥१०८॥
मिथ्यातिहीनपीतेन यो व्याधिरुपजायते।
समपीतेन तेनैव स मद्येनोपशाम्यति॥१०९॥
जीर्णाममद्यदोषाय मद्यमेव प्रदापयेत्।
प्रकाङ्क्षालाघवे जाते यद्यदस्मै हितं भवेत्॥११०॥
सौवर्चलानुसंविद्धं शीतं सबिडसैन्धवम्।
मातुलुङ्गार्द्रकोपेतं जलयुक्तं प्रमाणवत्2235॥१११॥
तीक्ष्णोष्णेनातिमात्रेण पीतेनाम्लविदाहिना।
मद्येनान्नरसोत्क्लेदो विदग्धः क्षारतां गतः॥११२॥
अन्तर्दाहं ज्वरं तृष्णां प्रमोहं विभ्रमं मदम्।
जनयत्याशु तच्छान्त्यै मद्यमेव प्रदापयेत्॥११३॥
क्षारो हि याति माधुर्यं शीघ्रमम्लोपसंहितः।
श्रेष्ठमम्लेषु मद्यं च यैर्गुणैस्तान् परं शृणु॥११४॥
मद्यस्याम्लस्वभावस्य चत्वारोऽनुरसाः स्मृताः।
मधुरश्च कषायश्च तिक्तः कटुक एव च॥११५॥
गुणाश्च दश पूर्वोक्तास्तैश्चतुर्दशभिर्गुणैः।
सर्वेषां मद्यमम्लानामुपर्युपरि तिष्ठति॥११६॥
मद्योत्क्लिष्टेन दोषेण क्रुद्धः स्रोतःसु मारुतः।
करोति वेदनां तीव्रां शिरस्यस्थिषु सन्धिषु॥११७॥
दोषविष्यन्दनार्थे हि तस्मै2236 मद्यं विशेषतः।
व्यवायितीक्ष्णोष्णतया देयमम्लेषु सत्स्वपि॥११८॥
स्रोतोविबन्धमुन्मद्यं मारुतस्यानुलोमनम्।
रोचनं दीपनं चाग्नेरभ्यासात् सात्म्यमेव च॥११९॥
रुजः स्रोतःस्वरुद्धेषु मारुते चानुलोमिते।
निवर्तन्ते विकाराश्च शाम्यन्त्यस्य मदोदयाः॥१२०॥
बीजपूरकवृक्षाम्लकोलदाडिमसंयुतम्।
यमानीहपुषाजाजीशृङ्गवेरावचूर्णितम्॥१२१॥
सस्नेहैः शक्तुभिर्युक्तमवदंशैर्विरोचितम्।
दद्यात् सलवणं मद्यं पैष्टिकं वातशान्तये॥१२२॥
दृष्ट्वा वातोल्बणं लिङ्गं रसैश्चैनमुपाचरेत्।
लावतित्तिरदक्षाणां स्निग्धाम्लै : शिखिनामपि॥१२३॥
पक्षिणां मृगमत्स्यानामानूपानां च संस्कृतैः।
भूशयप्रसहानां च रसैः शाल्योदनेन च॥१२४॥
स्निग्धोष्णलवणाम्लैश्च वेशवारैर्मुखप्रियैः।
स्निग्धै2237र्गौधूमिकैश्चान्नैर्वारुणीमण्डसंयुतैः॥१२५॥
पिशितार्द्रकगर्भाभिः स्निग्धाभिर्पूपवर्तिभिः।
माषपूपलिकाभिश्च वातिकं समुपाचरेत्॥१२६॥
नातिस्निग्धं न चाम्लेन युक्तं समरिचार्द्रकम्।
मेद्यं प्रागुदितं मांसं दाडिमस्वरसेन वा॥१२७॥
पृथक् त्रिजातकोपेतं सधान्यमरिचार्द्रकम्।
रसप्रलेहयूषै2238श्च सुखोष्णैः संप्रदापयेत्॥१२८॥
भुक्ते तु वारुणीमण्डं दद्यात् पातुं पिपासवे।
दाडिमस्य रसं वाऽपि जलं वा पाञ्चमूलिकम्॥१२९॥
धान्यनागरतोयं वा दधिमण्डमथापि वा।
अम्लकाञ्जिकमण्डं वा शुक्तोदकमथापि वा॥१३०॥
कर्मणाऽनेन सिद्धेन विकार उपशाम्यति।
मात्राकालप्रयुक्तेन बलं वर्णश्च वर्धते॥१३१॥
रागषाडवसंयोगैर्विविधैर्भक्तरोचनैः।
पिशितैः शाकपिष्टान्नैर्यवगोधूमशालिभिः॥१३२॥
अभ्यङ्गोत्सादनैः स्नानैरुष्णैः प्रावरणैर्धनैः।
घनैरगुरुपङ्कैश्चधूपैश्चागुरुजैर्धनैः॥१३३॥
नारीणां यौवनोष्णानां निर्देयैरुपगूहनैः।
श्रोण्यूरुकुचभारैश्च संरोधोष्णसुखावहैः॥१३४॥
शयनाच्छादनैरुष्णैरुष्णैश्चान्तर्गृहैः सुखैः।
मारुतप्रबलः शीघ्रं प्रशाम्यति मदात्ययः॥१३५॥
भव्यखर्जूरमृद्धीकापरूषकरसैर्युतम्।
‘सदाडिमरसं शीतं सक्तुभिः स्ववचूर्णितम्॥१३६॥
सशर्करं शार्करं वा माध्वीकमथवाऽपरम्।
दद्याद्बहूदकं काले पातुं पित्तमदात्यये॥१३७॥
शशान् कपिञ्जलानेणान् लावानसितपुच्छकान्।
मधुराम्लान् प्रयुञ्जीत भोजने शालिषष्टिकान्॥१३८॥
पटोलयूषमिश्रं वा छागलं कल्पयेद्रसम्।
सतीनमुद्गमिश्रं वा दाडिमामलकान्वितम्॥१३९॥
द्राक्षामलकखर्जूरपरूषकरसेन वा।
कल्पयेत्तर्पणान् यूषान् रसांश्च विविधात्मकान्॥१४०॥
आमाशयस्थमुत्क्लिष्टं कफपित्तं मदात्यये।
विज्ञाय बहुदोषस्य तृड्विदाहान्वितस्य2239 च॥१४१॥
मद्यं द्राक्षारसं तोयं दत्त्वा तर्पणमेव वा।
निःशेष वामयेच्छीघ्रमेवं रोगाद्विमुच्यते॥१४२॥
काले पुनस्तर्पणाद्यं क्रमं कुर्यात् प्रकाङ्क्षिते।
तेनाग्निर्दीप्यते तस्य दोषशेषान्नपाचकः॥१४३॥
कासे सरक्तनिष्ठीवे पार्श्वस्तनरुजासु च।
तृष्यते सविदाहे च सोत्क्लेशे हृदयोरसि॥१४४॥
गुडूचीभद्रमुस्तानां पटोलस्याथवा भिषक्।
रसं सनागरं दद्यात्तित्तिरिं(रि) प्रतिभोजनम्॥१४५॥
तृष्यते चातिबलवद्वातपित्ते समुद्धते।
दद्याद्राक्षारसं पातुं शीतं दोषानुलोमनम्॥१४६॥
जीर्णे समधुराग्लेन छागमांसरसेन तम्।
भोजनं भोजयेन्मद्यमनुतर्षं च पाययेत्॥१४७॥
अनुतर्षस्य मात्रा सा यथा नो हन्यते2240 मनः।
तृष्यते मद्यमल्पाल्पं प्रदेयं स्याद्वहूदकम्॥१४८॥
तृष्णा येन च संशाम्येन्मदं येन च नाप्नुयात्।
परूषकाणां पीलूनां रसं शीतमथाम्बु2241 वा॥१४९॥
पर्णिनीनां चतसृणां पिबेद्वा शिशिरं जलम्।
मुस्तदाडिमलाजानां2242 तृष्णाघ्नं वा पिबेद्रसम्॥१५०॥
कोलदाडिमवृक्षाग्लचुक्रीकाचुक्रिकारसः।
पञ्चाम्लको मुखालेपः सद्यस्तृष्णां नियच्छति॥१५१॥
शीतलान्यन्नपानानि शीतशय्यासनानि2243 च।
शीतवातजलस्पर्शाः शीतान्युपवनानि च॥१५२॥
क्षौमपद्मोत्पलानां च मणीनां मौक्तिकस्य च।
चन्दनोदकशीतानां स्पर्शाश्चन्द्रांशुशीतलाः॥१५३॥
हेमराजतकांस्यानां पात्राणां शीतवारिभिः।
पूर्णानां हिमपूर्णानां दृतीनां पवनाहताः॥१५४॥
संस्पर्शाश्चन्दनार्द्राणां नारीणां च समारुताः।
चन्दनानां च मुख्यानां शस्ताः पित्तमदात्यये॥१५५॥
(शीतवीर्यं2244 यदन्यच्च तत् सर्वं विनियोजयेत्।)
कुमुदोत्पलपत्राणां सिक्तानां चन्दनाम्बुना॥१५६॥
हिताः स्पर्शा मनोज्ञानां दाहे मद्यसमुत्थिते।
कथाश्च विविधाः शस्ताः2245 शब्दाश्च शिखिनां शिवाः॥१५७॥
तोयदानां च शब्दा हि शमयन्ति मदात्ययम्।
जलयन्त्राभिवर्षीणि वातयन्त्रवहानि च॥१५८॥
कल्पनीयानि भिषजा दाहे धारागृहाणि च।
फलिनी सेव्यलोध्राम्बु हेमपत्रं कुटन्नटम्॥१५९॥
कालीयकरसोपेतं दाहे शस्तं प्रलेपनम्।
बदरीपल्लवोत्थश्च तथैवारिष्टकोद्भवः॥१६०॥
फेनिलायाश्च यः फेनस्तैर्दाहे लेपनं शुभम्।
सुरा समण्डा दध्यम्लं मातुलुङ्गरसो मधु॥१६१॥
सेके प्रदेहे शस्यन्ते दाहघ्नाः साम्लकाञ्जिकाः।
परिषेकावगाहेषु व्यञ्जनानां च सेव(च)ने॥१६२॥
शस्यते शिशिरं तोयं दाहतृष्णाप्रशान्तये।
मात्राकाल2246प्रयुक्तेन कर्मणाऽनेन शाम्यति॥१६३॥
धीमतो वैद्यवश्यस्य शीघ्रं पित्तमदात्ययः।
उल्लेखनोपवासाभ्यां जयेत् कफमदात्ययम्॥१६४॥
तृप्यते सलिलं चास्मै दद्याद्रीवेरसाधितम्।
बलया पुश्रिपर्ण्या वा कण्टकार्याऽथवा शृतम्॥१६५॥
सनागराभिः सर्वाभिर्जलं वा शृतशीतलम्।
दुःस्पर्शेन समुस्तेन मुस्तपर्पटकेन वा॥१६६॥
जलं मुस्तैः शृतं वाऽपि दद्याद्दोषविपाचनम्।
एतदेव च पानीयं सर्वत्रापि मदात्यये॥१६७॥
निरत्ययं पीयमानं पिपासाज्वरनाशनम्।
निरामं काङ्क्षितं काले पाययेद्वहुमाक्षिकम्॥१६८॥
शार्करं मधु वा जीर्णमरिष्टं शीधुमेव वा।
रूक्षं तर्पणसंयुक्तं यमानीनागरान्वितम्॥१६९॥
यावगौधूमिकं चान्नं रूक्षयूषेण भोजयेत्।
कुलस्थानां सुशुष्काणां मूलकानां रसेन वा॥१७०॥
तनुनाऽल्पेन लघुना कट्टुम्लेनाल्पसर्पिषा।
पटोलयूषमम्लं वा यूषमामलकस्य वा॥१७१॥
प्रभूतकटुसंयुक्तं सयवान्नं प्रदापयेत्।
व्योषयूषमथाम्लं वा सिद्धं वा साम्लवेतसम्॥१७२॥
छागमांसरसं रूक्षमम्लं वा जाङ्गलं रसम्।
स्थाल्यां वाऽथ कपाले वा भृष्टं निर्द्रववर्तितम्2247॥१७३॥
कट्टुम्ललवणं मांस भक्षयन् वृणुयान्मधु।
व्यक्तमारीचकं मांसं मातुलुङ्गरसान्वितम्॥१७४॥
प्रभूतकटुसंयुक्तं यमानीनागरान्वितम्।
भृष्टं दाडिमसाराम्लमुष्णपूपोपवेष्टितम्॥१७५॥
यथाग्नि भक्षयेत् काले प्रभूतार्द्रकपेशिकम्।
पिबेच्च निगदं मद्यं कफप्राये मदात्यये॥१७६॥
सौवर्चलमजाजी च वृक्षाम्लं साम्लवेतसम्।
त्वगेलामरिचार्धांशं शर्कराभागयोजितम्॥१७७॥
एतल्लवणमष्टाङ्गमग्निसंदीपनं परम्।
मदात्यये कफप्राये दद्यात् स्रोतोविशोधनम्॥१७८॥
एतदेव पुनर्युक्त्या मधुराम्लैर्द्रवीकृतम्।
गोधूमान्नयवान्नानां मांसानां चातिरोचनम्॥१७९॥
पेषयेत् कटुकैर्युक्तां श्वेतां बीजविवर्जिताम्।
मृद्धीकां मातुलुङ्गस्य दाडिमस्य रसेन वा॥१८०॥
**सौवर्चलैलामरिचैरजाजीभृङ्गदीप्यकैः।
स रागः क्षौद्रसंयुक्तः श्रेष्ठो रोचनदीपनः॥१८१॥ **
मृद्वीकाया विधानेन कारयेत् कारवीमपि।
शुक्तमत्स्यण्डिकोपेतं रागं दीपनपाचनम्2248॥१८२॥
आन्नामलकपेशीनां रागान् कुर्यात् पृथक् पृथक्।
धान्यसौवर्चलाजाजीकारवीमरिचान्वितान्॥१८३॥
गुडेन मधुयुक्तेन व्यक्ताम्ललवणीकृतान्2249।
तैरन्नं रोचते दिग्धं सम्यग्भुक्तं च जीर्यति॥१८४॥
रूक्षोष्णेनान्न2250पानेन स्त्रानेनाशिशिरेण च।
व्यायामलङ्घनाभ्यां च युक्ताभ्यां जागरेण च॥१८५॥
कालयुक्तेन रूक्षेण स्नानेनोद्वर्तनेन च।
प्राणवर्णकराणां च2251 प्रघर्षाणां च सेवया॥१८६॥
सेवया वसनानां च गुरूणामगुरोरपि।
सकामोष्णसुखाङ्गीनामङ्गनानां च सेवया॥१८७॥
सुखशिक्षितहस्तानां स्त्रीणां संवाहनेन च।
मद्रात्ययः कफप्रायः शीघ्रमेवोपशाम्यति॥१८८॥
यदिदं कर्म निर्दिष्टं पृथग्दोषबलं प्रति।
सन्निपाते दुशविधे तद्विकल्प्यं भिषग्विदा॥१८९॥
यस्तु दोषविकल्पज्ञो यश्वौषधिविकल्पवित्।
स साध्यान् साधयेव्द्यधीन् साध्यासाध्यविभागवित्॥१९०॥
वनानि रमणीयानि सपद्माः सलिलाशयाः।
विशदान्यन्नपानानि सहायाश्च प्रहर्षणाः॥१९१॥
माल्यानि गन्धयोगाश्च वासांसि विमलानि च।
गान्धर्वशब्दाः कान्ताश्च गोष्ट्यश्च हृदयप्रियाः॥१९२॥
संकथाहास्यगीतानां विशदाश्चैव योजनाः।
प्रियाश्चानुग(म)ता नार्यो नाशयन्ति मदात्ययम्॥१९३॥
नाक्षोभ्य हि मनो मद्यं शरीरमविहत्य च।
कुर्यान्मदात्ययं तस्मादेष्टव्या हर्षणी क्रिया॥१९४॥
आभिः क्रियाभिः सिद्धाभिः शमं याति मदात्ययः।
न चेन्मद्यविधिं हित्वा क्षीरमस्य प्रयोजयेत्॥१९५॥
लङ्घनैः पाचनैर्दोषशोधनैः शमनैरपि।
विमद्यस्य कफे क्षीणे जाते दौर्बल्यलाघवे॥१९६॥
तस्य मद्यविदग्धस्य वातपित्ताधिकस्य च।
ग्रीष्मोपतप्तस्य तरोर्यथा वर्ष तथा पयः॥१९७॥
पयसाऽभिहृते रोगे बले जाते निवर्तयेत्।
क्षीरप्रयोगं मद्यं च क्रमेणाल्पाल्पमाचरेत्॥१९८॥
विच्छिन्नमद्यः सहसा योऽतिमद्यं निषेवते।
ध्वंसको विक्षयश्चैव रोगस्तस्योपजायते॥१९९॥
व्याध्युपक्षीणदेहस्य दुश्चिकित्स्यतमौ मतौ I
तयोर्लिङ्गं चिकित्सा च यथावदुपदेक्ष्यते॥२००॥
श्लेष्मप्रसेकः कण्ठास्यशोषः शब्दासहिष्णुता।
तन्द्रानिद्रातियोगश्च ज्ञेयं ध्वंसकलक्षणम्॥२०१॥
हृत्कण्ठरोगः संमोहश्छार्दिरङ्गरुजा ज्वरः।
तृष्णा कासः शिरःशूलमेतद्विक्षयलक्षणम्॥२०२॥
तयोः कर्म तदेवेष्टं वातिके यन्मदात्यये।
तौ हि प्रक्षीणदेहस्य जायते दुर्बलस्य वै॥२०३॥
बस्तयः सर्पिषः पानं प्रयोगः क्षीरसर्पिषोः।
अभ्यङ्गोद्वर्तनस्त्रानान्यन्नपानं च वातनुत्॥२०४॥
विक्षयो ध्वंसकश्चैव कर्मणाऽनेन शाम्यति।
युक्तमद्यस्य मद्योत्थो न व्याधिरुपजायते॥२०५॥
निवृत्तः सर्वमद्येभ्यो नरो यश्च जितेन्द्रियः।
शारीरमानसैर्धीमान् विकारैर्न स युज्यते॥२०६॥
तत्र श्लोकाः।
यत्प्रभावा भगवती सुरा पेया यथा च सा।
यद्द्रव्या यस्य या चेष्टा योगं चापेक्षते यथा॥२०७॥
यथा मदयते यैश्च गुणैर्युक्ता महागुणा।
यो मदो मदभेदाश्च ये त्रयः स्वस्वलक्षणाः॥२०८॥
ये च मद्यकृता दोषा गुणा ये च मदात्मकाः।
यच्च त्रिविधमापानं यथासत्त्वं च लक्षणम्॥२०९॥
ये सहायाः सुखाः पाने चिरक्षिप्रमदा नराः।
मदात्ययस्य यो हेतुर्लक्षणं यद्यथा च यत्॥२१०॥
मद्यं मद्योत्थितान् रोगान् हन्ति यश्च क्रियाक्रमः।
सर्वं तदुक्तमखिलं मदात्ययचिकित्सिते॥२११॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
मदात्ययचिकित्सितं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥
___________________
पञ्चविंशोऽध्यायः।
अथातो द्विव्रणीयचिकित्सितमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
**इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥ **
परावरज्ञमात्रेयं गतमानमदव्यथम्।
अग्निवेशो गुरुं काले विनयादिदमब्रवीत्॥३॥
भगवन् पूर्वमुद्दिष्टौ द्वौ व्रणौ रोगसंग्रहे।
तयोर्लिङ्गं चिकित्सां च वक्तुमर्हसि शर्मद॥४॥
इत्यग्निवेशस्य वचो निशस्य2252 गुरुरब्रवीत्।
यौ व्रणौ पूर्वमुद्दिष्टौ निजश्चागन्तुरेव च॥५॥
श्रूयतां विधिवत् सौम्य तयोर्लिङ्गं च2253 भेषजम्।
निजः शरीरदोषोत्थ आगन्तुर्बाह्यहेतुजः॥६॥
वधबन्धप्रपतनाद्दंष्ट्रादन्तनखक्षतात्।
आगन्तवो व्रणास्तद्वद्विषस्पर्शाग्निशस्त्रजाः॥७॥
मन्त्रागदमप्रलेपाद्यैर्भेषजैर्हेतु भिश्च ते।
लिङ्गैकदेशैर्निर्दिष्टा विपरीता निजैर्व्रणाः2254॥८॥
व्रणानां निजहेतूनामागन्तूनामशाम्यताम्।
कुर्याद्दोषबलापेक्षी निजानामौषधं त(य)था॥९॥
यथास्वैर्हेतुभिर्दुष्टा वातपित्तकफा नृणाम्।
बहिर्मार्गं समाश्रित्य जनयन्ति निजान् व्रणान्॥१०॥
स्तब्धः कठिनसंस्पर्शो मन्दस्रावोऽतितीव्ररुक्2255।
तुद्यते स्फुरति श्यावो व्रणो मारुतसंभवः॥११॥
संपूरणैः स्नेहपानैः स्निग्धैः स्वेदोपनाहनैः।
प्रदेहैः परिषेकैश्च वातव्रणमुपाचरेत्॥१२॥
तृष्णामोहज्वरक्लेददाहदुष्ट्यवदारणैः।
व्रणं पित्तकृतं विद्याद्गन्धैः स्रावैश्च पूतिकैः॥१३॥
शीतलैर्मधुरैस्तिक्तेः2256 प्रदेहपरिषेचनैः।
सर्पिःपानैर्विरेकैश्च पैत्तिकं शमयेद्रणम्॥१४॥
बहुपिच्छो गुरुः स्निग्धः स्तिमितो मन्दवेदनः।
पाण्डुवर्णोऽल्पसंक्लेदश्चिरकारी कफव्रणः॥१५॥
कषायकटुरूक्षोष्णैः प्रदेहपरिषेचनैः
कफवणं प्रशमयेत्तथा लङ्गनपाचनैः2257॥१६॥
तौ द्वौ नानात्वभेदेन निरुक्ता2258 विंशतिर्व्रणाः।
तेषां परीक्षा त्रिविधा प्रदुष्टा द्वादश स्मृताः॥१७॥
स्थानान्यष्टौ तथा गन्धाः परित्रावाश्चतुर्दश।
षोडशोपद्रवा दोषाश्चत्वारो विंशतिस्तथा॥१८॥
तथा चोपक्रमाः सिद्धाः षट्त्रिंशसमुदाहृताः।
विभज्यमानाञ्2259 शृणु मे सर्वानेतान् यथेरिसान्॥१९॥
कृत्योस्कृत्यस्तथा दुष्टोऽदुष्टो मर्मस्थितो न च।
संवृतो दारुणः स्नावी सविषो विषमस्थितः॥२०॥
उत्सङ्गयुत्सन्न एतेषां व्रणान् विद्याद्विपर्ययात्।
इति नानात्वभेदेन निरुता विंशतिर्व्रणाः॥२१॥
दर्शनप्रश्नसंस्पर्शैः परीक्षा त्रिविधा स्मृता।
वयोवर्णशरीराणामिन्द्रियाणां च दर्शनात्॥२२॥
हेत्वर्तिसात्म्याग्निबलं परीक्ष्यं वचनाडुधैः।
स्पर्शान्मार्दवशैत्ये च परीक्ष्ये सविपर्यये॥२३॥
श्वेतोऽवसन्नवर्त्माऽतिस्थूलवर्त्माऽति पिञ्जरः।
नीलः श्यावोऽतिपिडको रक्तः कृष्णोऽतिपूतिकः॥२४॥
रोप्यः कुम्भीमुखश्चेति प्रदुष्टा द्वादश र्व्रणाः।
कल्पेनान्येन2260 दोषाणां चतुर्विंशतिरुच्यते2261॥२५॥
त्वक्सिरामांस मेदोऽस्थिस्नायुमर्मान्तराश्रयाः।
व्रणस्थानानि निर्दिष्टान्यष्टावेतानि संग्रहे॥२६॥
सर्पिस्तैलवसापूरक्तश्यावाम्लपूतिकाः।
व्रणानां व्रणगन्धज्ञैरष्टौ गन्धाः प्रकीर्तिताः॥२७॥
लसीकाजलपूयासुग्घरिद्वारुणपिञ्जराः।
कषायनीलहरितस्त्रिग्धरूक्षसितासिताः॥२८॥
इति रूपैः समुद्दिष्टा व्रणस्त्रावाश्चतुर्दश।
विसर्पः पक्षघातश्च सिरास्तम्भोऽपतानकः॥२९॥
मोहोन्मादव्रणरुजो ज्वरस्तृष्णा हनुग्रहः।
कासश्छर्दिरतीसारो हिक्का श्वासः सवेपथुः॥३०॥
षोडशोपद्रवाः प्रोक्ता व्रणानां व्रणचिन्तकैः।
स्नायुक्लेदात् सिराक्कलेदाद्गाम्भीर्यात् कृमिभक्षणात्॥३१॥
अस्थिभेदात् सशल्यत्वात् सविषत्वाच्च सर्पणात्।
नखकाष्ठप्रभेदाच्च2262 चर्मलोमाभिघट्टनात्॥३२॥
मिथ्याबन्धादतिस्नेहादतिभैषज्यकर्षणात्।
अजीर्णादतिभुक्ताच्च विरुद्धासात्म्यभोजनात्॥३३॥
शोकात् क्रोधाद्दिवास्वस्वप्नाद्व्यायामान्मैथुनात्तथा2263।
व्रणा न प्रशमं यान्ति निष्क्रियत्वाच्च देहिनाम्॥३४॥
परिस्रावाश्च गन्धाश्च2264 दोषाश्योपद्रवैः सह।
व्रणानां बहुदोषाणां कृच्छ्रत्वं चोपजायते॥३५॥
त्वङ्मांसजः सुखे देशे तरुणस्यानुपद्रवः।
घीमतोऽभिनवः काले सुखसाध्यः सुखं व्रणः॥३६॥
गुणैरन्यतमैर्हीनस्ततः कृच्छ्रो व्रणः स्मृतः।
सर्वैर्विहीनो विज्ञेयस्त्वसाध्यो भूर्युपद्रवः2265॥३७॥
व्रणानामादितः कार्यं यथासन्नं विशोधनम्।
ऊर्ध्वभागैरधोभागैः शस्त्रैर्बस्तिभिरेव॥३८॥
सद्यः शुद्धशरीराणां प्रशमं यान्ति हि व्रणाः।
यथाक्रममतश्चोर्ध्वं शृणु सर्वानुपक्रमान्॥३९॥
शोफघ्नं षड्विधं चैव शस्त्रकर्मावपीडनम्।
निर्वापणं ससन्धानं स्वेदः शमनमेषणम्॥४०॥
शोधनौ रोपणीयौ च कषायौ सप्रलेपनौ।
द्वे तैले च घृते2266 पत्रं छादने द्वे च बन्धने॥४१॥
भोज्यमुत्सादनं दाहो द्विविधः सावसादनः।
काठिन्यमार्दवकरे धूपनालेपने शुभे॥४२॥
व्रणावचूर्णनं वर्ण्यं लेपनं लोमरोहणम्।
इति षत्रिंशदुद्दिष्टा व्रणानां समुपक्रमाः॥४३॥
पूर्वरूपं भिषाग्बुध्द्वा व्रणानां शोफमादितः।
रक्तावसेचनं कुर्यादजातव्रणशान्तये॥४४॥
शोधयेद्वहुदोषांस्तु स्वल्पदोषान् विलङ्घयेत् ।
पूर्वं कषायैः सर्पिर्भिर्जयेद्वा मारुतोत्तरान्॥४५॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षवेतसवल्कलैः
ससर्पिष्कैः प्रलेपः स्याच्छोफनिर्वापणः परम्॥४६॥
विजया मधुकं वीरा बिसग्रन्थिः शतावरी।
नीलोत्पलं नागपुष्पं प्रदेहः स्यात् सचन्दनः॥४७॥
सक्तवो मधुकं सर्पिः प्रदेहः स्यात् सशर्करः।
अविदाहीनि चान्नानि शोफे भेषजमुत्तमम्॥४८॥
स चेदेवमुपक्रान्तः शोफो न प्रशमं व्रजेत्।
तस्योपनाहैः पक्कस्य पाटनं हितमुच्यते॥४९॥
तैलेन सर्पिषा वाऽपि ताभ्यां वा सक्तुपिण्डिका।
सुखोष्णा शोथपाकार्थमुपनाहः प्रशस्यते॥५०॥
सतिला सातसीबीजदध्यम्ला सक्तुपिण्डिका।
सकिण्वकुष्ठलवणा शस्ता स्यादुपनाहने॥५१॥
रुग्दाहरागतोदैश्च विदग्धं शोफमादिशेत्।
जलबस्तिसमस्पर्श संपकं पीडितोन्नतम्2267॥५२॥
उमाऽथो गुग्गुलुः सौधं पयो दक्षकपोतयोः।
विट्पलाशभवः क्षारो हेमक्षीरी मकूलकः॥५३॥
इत्युक्तो भेषजगणः पक्कशोधनभेदनः।
सुकुमारस्य2268 कृच्छ्रस्य शस्त्रं तु परमुच्यते॥५४॥
पाटनं व्यधनं चैव छेदनं लेखनं तथा।
प्रच्छन्नं सीवनं चैव षड्डिधं शस्त्रकर्म तत्॥५५॥
नाडीव्रणाः पक्कशोथास्तथा क्षतगुदोदरम्।
अन्तःशल्याश्च ये देशाः पाढ्यास्ते तद्विधाश्च ये॥५६॥
दकोदराणि संपक्का गुल्मा ये ये च रक्तजाः2269।
व्यध्याः शोणितरोगाश्च विसर्पपिडकादयः॥५७॥
अर्शःप्रभृत्यधीमांसं छेदनेनोपपादयेत्।
उद्वृत्तान् स्थूलपर्यन्तानुत्सन्नान् कठिनान् व्रणान्॥५८॥
किलासानि सकुष्ठानि लिखेल्लेख्यानि बुद्धिमान्।
वातासृग्ग्रन्थिपिडकाः सकोठा रक्तमण्डलम्॥५९॥
कुष्ठान्यभिहतं चाङ्गं शोथांश्च प्रच्छयेद्भिषक्।
सीव्यं कुक्ष्युदराद्यं तु गम्भीरं यद्विपाटितम्॥६०॥
इति षड्विधमुद्दिष्टं शस्त्रकर्म मनीषिभिः।
सूक्ष्माननाः कोषवन्तो ये व्रणास्तान् प्रपीडयेत्॥६१॥
कलायाश्च मसूराश्च गोधूमाः सहरेणवः।
कल्कीकृताः प्रशस्यन्ते निस्नेहा व्रणपीडने॥६२॥
शाल्मलीत्वग्बलामूलं तथा न्यग्रोधपल्लवाः।
न्यग्रोधादिकमुद्दिष्टं बलादिकमथापि वा॥६३॥
आलेपनं निर्वपणं तद्विद्यात्तैश्च सेचनम्।
सर्पिषा शतधौतेन पयसा मधुकाम्बुना॥६४॥
निर्वापयेत् सुशीतेन रक्तपित्तोत्तरान् व्रणान्।
लम्बानि व्रणमांसानि प्रलिप्य मधुसर्पिषा॥६५॥
संदधीत समं वैद्यो बन्धनैश्चोपपादयेत्।
तान् समान् सुस्थिताञ्जात्वा2270 फलिनीलोध्रकट्फलैः॥६६॥
समङ्गाघातकीयुक्तैश्चूर्णितैरवचूर्णयेत्।
पञ्चवकलचूर्णैर्वा शुक्तिचूर्णसमायुतैः॥६७॥
धातकीलोध्रचूर्णैर्वा तथा रोहन्ति ते व्रणाः।
अस्थिभग्नं च्युतं सन्धि सन्दधीत समं पुनः॥६८॥
समेन सममङ्गेन कृत्वाऽन्येन विचक्षणः2271।
स्थिरैः कवलिकाबन्धैः कुशिकाभिश्च संस्थितम्॥६९॥
पटैः प्रभूतसर्पिष्कैर्बघ्नीयादचलं सुखम्।
अविदाहिभिरन्नैश्च पैष्टिकैस्तमुपाचरेत्2272॥७०॥
ग्लानिर्हि न हिता तस्य सन्धिविश्लेषकारिका।
विच्युताभिहताङ्गानां विसर्पादीनुपद्रवान्॥७१॥
उपक्रमेद्य2273थाकालं कालज्ञः स्वाच्चिकित्सितात्।
शुष्का महारुजः स्तब्धा ये व्रणा मारुतोत्तराः॥७२॥
स्वेद्याः सङ्करकल्पेन ते स्युः कृशरपायसैः।
प्राम्यबैलाम्बुजानूपवेशवरैश्च संस्कृतैः॥७३॥
उत्कारिकाभिश्चोष्णाभिः सुखी स्याह्रणितस्तथा।
सदाहा वेदनावन्तो ये व्रणा मारुतोत्तराः॥७४॥
तेषानुमां तिलांश्चैव भृष्टान् पयसि निर्वृतान्।
तेनैव पयसा पिष्ट्व कुर्यादालेपनं भिषक्॥७५॥
**बला गुडूची मधुकं पृश्निपर्णी शतावरी। **
जीवन्ती शर्करा क्षीरं तैलं मत्स्यवसा घृतम्।
सुसिद्धा समधूच्छिष्टा शूलघ्नी स्नेहशर्करा2274॥७६॥
द्विपञ्चमूली क्वथितेनाम्भसा पयसाऽथवा।
सर्पिषा वा सतैलेन कोष्णेन परिषेचयेत्॥७७॥
यवचूर्णं समधुकं सतिलं2275 सह सर्पिषा।
दद्यादालेपनं कोष्णं दाहशूलोपशान्तये॥७८॥
**उपनाहश्च कर्तव्यः सतिलो मुद्गपायसः। **
रुग्दाहयोः प्रशमनो व्रणेष्वेष विधिः स्मृतः॥७९॥
सूक्ष्मानना बहुस्रावाः कोषवन्तश्च ये व्रणाः।
न च मर्माश्रितास्तेषामेषणं हितमुच्यते॥८०॥
द्विविधामेषणीं विद्यान्मृद्वीं च कठिनामपि।
औद्भिदैर्मृदुभिर्नालैर्लोहानां वा शलाकया॥८१॥
गम्भीरे मांसले देशे पाठ्यं2276 लौहशलाकया।
एष्यं विद्याह्रणं नालैर्विपरीतमतो भिषक्॥८२॥
पूतिगन्धान् विवर्णाश्च बहुस्रावान्महारुजः।
व्रणानशुद्धान् विज्ञाय शोधनैः समुपाचरेत्2277॥८३॥
त्रिफला खदिरो दार्वी न्यग्रोधोऽतिबला2278 कुशः।
निम्बकोलकपत्राणि कषायाः शोधना मताः॥८४॥
तिलकल्कः सलवणो द्वे हरिद्रे त्रिवृद्धृतम्।
मधुकं निम्बपत्राणि प्रलेपो व्रणशोधनः॥८५॥
नातिरक्तो नातिपाण्डुर्नातिश्यावो न चातिरुक्।
न चोरसन्नो न चोत्सङ्गी शुद्धो रोग्यः परं व्रणः॥८६॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थकदम्बप्लक्षवेतसाः।
करवीरार्ककुटजाः कषाया व्रणरोपणाः॥८७॥
चन्दनं पद्मकिञ्जल्कं दार्वीत्वङ्नीलमुत्पलम्।
भेदा मूर्वा समङ्गा च यष्ट्याह्वा व्रणरोपणम्॥८८॥
प्रपौण्डरीकं जीवन्तीं गोजिह्वां धातकीं बलाम्।
रोपणं सतिलं दद्यात् प्रलेपं सघृतं व्रणे॥८९॥
कम्पिल्लकं विडङ्गानि वत्सकं त्रिफलां बलाम्।
पटोलं पिचुमर्दं च लोघ्रं मुस्तं प्रियङ्गुकम्॥९०॥
**खदिरं धातकीं सर्जमेलामगुरुचन्दने। **
पिष्ट्वा साध्यं भवेत्तैलं तत् परं व्रणरोपणम्॥९१॥
प्रपौण्डरीकं मधुकं काकोल्यौ द्वे च चन्दने।
सिद्धमेतैः समैस्तैलं परं स्याद्रणरोपणम्॥९२॥
दुर्वास्वरससिद्धं वा तैलं कम्पिल्लकेन वा।
दार्वीत्वचश्च कल्केन प्रधानं व्रणरोपणम्॥९३॥
येनैव विधिना तैलं घृतं तेनैव साधयेत्।
रक्तपित्तोत्तरं दृष्ट्वा रोपणीयं व्रणं2279 भिषक्॥९४॥
कदम्बार्जुननिम्बानां पाटल्याः पिप्पलस्य च।
व्रणमच्छादने विद्वान् पत्राण्यर्कस्य चादिशेत्॥९५॥
वार्थोऽथवाऽजिनः क्षौमः पट्टो व्रणहितः स्मृतः।
बन्धश्च द्विविधः शस्तो व्रणानां सव्यदक्षिणः॥९६॥
लवणाम्लकटूष्णानि विदाहीनि गुरूणि च।
वर्जयेदन्नपानानि व्रणी मैथुनमेव च॥९७॥
नातिशीतगुरुस्निग्धमविदाहि यथाव्रणम्।
अन्नपानं व्रणहितं हितं चास्वपनं दिवा॥९८॥
स्तन्यानि जीवनीयानि बृंहणीयानि यानि च।
उत्सादनार्थं निम्नानां व्रणानां तानि कल्पयेत्॥९९॥
भूर्जग्रन्थ्यश्मकासीसमधोभागानि गुग्गुलुः।
व्रणावसादनं तद्वत् कलविङ्ककपोतविट्॥१००॥
रुधिरेऽतिप्रवृत्ते तु छिन्ने2280 छेद्येऽधिमांसके।
कफग्रन्थिषु गण्डेषु वातस्तम्भानिलार्तिषु॥१०१॥
गूढपूयलसीकेषु गम्भीरेषु स्थिरेषु च।
क्लिन्नेषु2281 चाङ्गदेशेषु कर्माग्नेः संप्रशस्यते॥१०२॥
मधूच्छिष्टेन तैलेन मज्जक्षौद्रवसाघृतैः।
तप्तैर्वा विविधैर्लोहेर्दहेद्दाहविशेषवित्॥१०३॥
रूक्षाणां सुकुमाराणां गम्भीरान्मारुतोत्तरान्।
दहेत् स्नेहमधूच्छिष्टैलौहैः क्षौद्रैस्ततोऽन्यथा॥१०४॥
बालदुर्बलवृद्धानां गर्भिण्या रक्तपित्तिनाम्।
तृष्णाज्वरपरीतानामबलानां विषादिनाम्॥१०५॥
नाग्निकर्मोपदेष्टव्यं स्नायुमर्मव्रणेषु च।
सविषेषु सशल्येषु नेत्रकुष्ठवणेषु च॥१०६॥
रोगदोषबलापेक्षी मात्राकालाग्निकोविदः।
शस्त्रकर्माग्निकृत्येषु क्षारमप्यवचारयेत्॥१०७॥
कठिनत्वं व्रणा यान्ति गन्धसारै2282श्च धूपिताः।
सर्पिमज्जवसाधूपैः शैथिल्यं यान्ति हि व्रणाः॥१०८॥
रुजः स्नावाश्च गन्धाश्च क्रिमयश्च व्रणाश्रिताः।
शैथिल्यं मार्दवं वाऽपि धूपनेनोपशाम्यति॥१०९॥
लोध्रन्यग्रोधशुङ्गाश्च खदिरस्त्रिफला घृतम्।
प्रलेपो व्रणशैथिल्यसौकुमार्यप्रसाधकः2283॥११०॥
सरुजः कठिनाः स्तब्धा निरास्त्रावाश्च ये व्रणाः।
यवचूर्णैः ससर्पिष्कैर्बहुशस्तान् प्रलेपयेत्॥१११॥
मुद्गषष्टिकशालीनां पायसैर्वा यथाक्रमम्।
सघृतैर्जीवनीयैर्वा तर्पयेत्तानभीक्ष्णशः॥११२॥
**ककुभोदुम्बराश्वत्थलोध्रजाम्बवकट्फलैः।
त्वचमाश्वेव2284 गृह्णन्ति त्वक्कूर्णैश्चूर्णिता व्रणाः **
मनःशिलैला2285 मञ्जिष्ठा लाक्षा च रजनीद्वयम्।
प्रलेपः सघृतक्षौद्रस्त्वग्विशुद्धिकरः परः॥११४॥
अयोरजः सकासीसं त्रिफला कुसुमानि च।
प्रलेपः कुरुते कार्ष्ण्यं सद्य एव नवत्वचि॥११५॥
कालीयकनताम्रास्थिहेमकालायसोत्तमाः।
लेपः सगोमयरसः सवर्णीकरणः परः॥११६॥
ध्यामकाश्वत्थनिचुलमूलं2286 लाक्षा सगैरिका।
सहेमश्चामृतासङ्गः कासीसं चेति वर्णकृत्॥११७॥
चतुष्पदानां त्वग्रोमखुरशृङ्गास्थिभस्मना।
तैलाक्ता चूर्णिता भूमिर्भवेल्लोमवती पुनः॥११८॥
षोडशोपद्रवा ये च व्रणानां परिकीर्तिताः।
तेषां चिकित्सा निर्दिष्टा यथास्वं स्वे चिकित्सिते॥११९॥
तत्र श्लोकौ।
द्वौ व्रणौ व्रणभेदाश्च परीक्षा दुष्टिरेव च।
स्थानानि गन्धाः स्त्रावाश्च सोपसर्गाः क्रियाश्च याः॥१२०॥
व्रणाधिकारे संप्रश्नमेतन्नवकमुक्तवान्।
मुनिर्व्याससमासाभ्याग्निवेशाय धीमते॥१२१॥
इत्यनिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते
द्वित्रणीयचिकित्सितं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥
____________________
षड्विंशोऽध्यायः।
अथातस्त्रिमर्मीयचिकित्सितमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सप्तोत्तरं मर्मशतं यदुक्तं शरीरसंख्यामधिकृत्य तेभ्यः2287।
मर्माणि बस्तिं हृदयं शिरश्च प्रधानभूतानि2288 वदन्ति तज्ज्ञाः॥३॥
प्राणाशयांस्तान्परिपीडयन्तो2289 वातादयोऽसूनपि पीडयन्ति।
तत्संश्रिताना2290मनुपालनार्थं महागदानां2291 शृणु सौम्य रक्षाम्॥४॥
कषायतिक्तोषणरूक्षभोज्यैः संधारणोदीरणमैथुनैश्च2292।
पक्वाशये2293 कुप्यति चेदपानः स्रोतांस्यधोगानि बली सं रुद्ध्वा॥५॥
करोति विण्मारुतमूत्रसङ्गं क्रमादुदावर्तमतः सुघोरम्।
रुग्बस्तिहृत्कुक्ष्युदरेष्वभीक्ष्णं सपृष्ठपार्श्वेष्वतिदारुणा स्यात्॥६॥
आध्मानहृल्लासविकर्तिकाश्च तोदो2294 विपाकश्च सबस्तिशोथः।
वर्चोऽप्रवृत्तिर्जठरे च गण्डानुर्ध्वं च वायुर्विहतो गुदे स्यात्॥७॥
कृच्छ्रेण शुष्कस्य चिरात्प्रवृत्तिः स्याद्वा तनुः स्यात्खररूक्षशीता।
ततश्च रोगा ज्वरमूत्रकृच्छ्रप्रवाहिकाहृह्रहणीप्रदोषाः॥८॥
छर्द्यान्ध्यबाधिर्यशिरोऽभितापा वातोदराष्ठीलमनोविकाराः।
तृष्णास्त्र पित्तारुचिगुल्मकासश्वासप्रतिश्यार्दितपार्श्वरोगाः॥९॥
**अन्ये च रोगा बहवोऽनिलोत्था भवन्त्युदावर्तकृताः सुघोराः।
(चिकित्सितं2295 चास्य यथावदूर्ध्वं प्रवक्ष्यते तच्छृणु चाग्निवेश॥१०॥) **
तं तैलशीतज्वरनाशनाक्तं स्वेदैर्यथोक्तैः प्रविलीनदोषम्।
उपाचरेद्वर्तिनिरूहबस्तिस्नेहैर्विरेकैरनुलोमनान्नैः॥११॥
श्यामात्रिवृन्मागधिकां सदन्तीं गोमूत्रपिष्टां दशभागमाषाम्।
सनीलिकां द्विलवणां गुडेन वर्ति कराङ्गुष्ठनिभां विदध्यात्॥१२॥
पिण्याकसौवर्चलहिड्डुभिर्वा ससर्षपत्र्यूषणयावशूकैः।
क्रिमिघ्नकम्पिल्लकशङ्खिनीभिः सुधार्कजक्षीरगुडाद्युताभिः॥१३॥
स्यात्पिप्पलीसर्षपराढवेश्मधूमैः2296 सगोमूत्रगुडैश्च वर्तिः।
श्यामाफलालाबुकपिप्पलीनां नाड्याऽथवा2297 तत्प्रधमेत्तु चूर्णम्॥१४॥
रक्षोघ्नतुम्बीकरहाटकृष्णाचूर्णं सजीमूतकसैन्धवं वा।
स्निग्धे गुदे तान्यनुलोमयन्ति नरस्य वर्चोऽनिलमूत्रसङ्गम्॥१५॥
तेषां विघाते तु भिषग्विदध्यात् स्वभ्यक्तसुस्विन्नतनोर्निरूहम्।
ऊर्ध्वानुलोमौषधमूत्रतैलक्षाराम्लवातघ्नयुतं सुतीक्ष्णम्॥१६॥
वातेऽधिकेऽम्लं लवणं सतैलं, क्षीरेण पित्ते तु, कफे समूत्रम्।
स मूत्रवर्चोनिलसङ्गमाशु गुदं सिराश्च प्रगुणीकरोति॥१७॥
त्रिवृत्सुधापत्रतिलादिशाकग्राम्यौदकानूपरसैर्यवान्नम्।
अन्यैश्च सृष्टानिलमूत्रविड्भरद्यात् प्रसन्नागुडशीधुपायी।
भूयोऽनुबन्धे2298 तु भवेद्विरेच्यो मूत्रप्रसन्नादधिमण्डयुक्तैः॥१८॥
गुल्मोदरबन्नार्शः प्लीहोदावर्तयोनिशुक्रगदे।
भेदःकफसंसृष्टे मारुतरक्तेऽवगाढे च॥१९॥
गृध्रसिपक्षवधादिषु विरेचनार्हेषु वातरोगेषु।
वाते विबद्धमार्गे भेदःकफपित्तरक्तेन॥२०॥
पयसा मांसरसैर्वा त्रिफलारसयूषमूत्रमदिराभिः।
दोषानुबन्धयोगात् प्रशस्तमेरण्डजं तैलम्॥२१॥
तद्वातनुत् स्वभावात् संयोगवशाद्विरेचनाच्च जयेत्।
भेदोसृक्पित्तकफान्मिश्रानिलरोगजित्तस्मात्॥२२॥
बलकोष्ठण्याधिवशादापञ्चपला भवेन्मात्रा।
मृदुकोष्ठाल्पबलानां सहभोज्यं तत् प्रयोज्यं स्यात्॥२३॥
स्वस्थं तु पश्चादनुवासयेत्तं रौक्ष्याद्धि सङ्गोऽनिलवर्चसोश्चेत्2299।
द्विरुत्तरं हिङ्गुबचाग्निकुष्ठं सुवर्चिका चैव विडङ्गचूर्णम्॥२४॥
सुखाम्बुनाऽऽनाहविसूचि2300कार्तिहृद्रोगगुल्मोर्ध्वसमीरणघ्नम्।
वचाभयाचित्रकयावशूकान् सपिप्पलीकातिविषान् सकुष्ठान्॥२५॥
उष्णाम्बुनाऽऽनाहविमूढवातान्पीत्वा जयेदाशु रसौदनाशी।
हिङ्गूप्रगन्धाविडशुण्ठ्यजाजीहरीतकीपुष्करमूलकुष्ठम्॥२६॥
यथोत्तरं भागविवृद्धमेतत् प्लीहोदराजीर्णविसूचिकासु।
स्थिरादिवर्गस्य पुनर्नवायाः शम्पाकपूतीककरञ्जयोश्च॥२७॥
सिद्धः कषायो द्विपलांशिकानां प्रस्थो घृतात्स्यात्प्रतिरुद्धवाते।
फलं च मूलं च विरेचनोक्तं हिड्वर्कमूलं2301 दशमूलमय्यम्॥२८॥
स्नुक्चित्रकौ चैव पुनर्नवा च तुल्यानि सर्वैलवणानि पञ्च।
स्नेहैः समूत्रैः सह जर्जराणि शरावसन्धौ विपचेत् सुलिप्ते॥२९॥
**पक्कं सुपिष्टं लवणं तदन्नैः पानैस्तथाऽऽनाहरुजाघ्नमद्यात्2302। **
हृत्स्तम्भमूर्धामयगौरवार्तं सोद्वारसङ्गेन सपीनसेन॥३०॥
**आनाहमामप्रभवं जयेत्तु प्रच्छर्दनैर्लङ्घनपाचनैश्च। **
**इत्युदावर्तचिकित्सा। **
व्यायामतीक्ष्णौषधरूक्षमद्यप्रसङ्गनित्यद्रुतपृष्ठयानात्॥३१॥
आनूपमत्स्याध्यशनादजीर्णात्स्युर्मूत्रकृच्छ्राणि नृणामिहाष्टौ।
पृथङ्यालाः स्वैः कुपिता निदानैः सर्वेऽथवा कोपमुपेत्य बस्तौ॥३२॥
मूत्रस्य मार्गं परिपीडयन्ति यदा तदा मूत्रयतीह कृच्छ्रात्।
तीव्रा रुजो वङ्क्षणबस्तिमेढ्रे स्वल्पं मुहुर्मूत्रयतीह वातात्॥३३॥
पीतं सरक्तं सरुजं सदाहं कृच्छ्रान्मुहुर्मूत्रयतीह पित्तात्।
बस्तेः सलिङ्गस्य गुरुत्वशोथौ मूत्रं सपिच्छं कफमूत्रकृच्छ्रे॥३४॥
सर्वाणि रूपाणि तु सन्निपाताद्भवन्ति तत्कृच्छ्रतमं तु कृच्छ्रम्।
**इति मूत्रकृच्छ्रनिदानम्। **
विशोषयेद्वस्तिगतं सशुक्रं मूत्रं सपित्तं पवनः कफं वा॥३५॥
यदा तदाऽश्मर्युपजायते तु क्रमेण पित्तेष्विव रोचना गोः।
कदम्बपुष्पाकृतिरश्मतुल्या श्लक्ष्णा त्रिपुढ्यप्यथवाऽपि मृद्वी॥३६॥
मूत्रस्य चेन्मार्गमुपैति रुद्ध्वा मूत्रं रुजं तस्य करोति बस्तौ।
ससीवनीमेहनबस्तिशूलं विशीर्णधारं च करोति मूत्रम्॥३७॥
मृद्गाति मेढ्रं स तु वेदनार्तो मुहुः शकुन्मुञ्चति मेहते2303 च।
क्षोभारक्षते मूत्रयतीह सासृक् तस्याः सुखं मेहति च2304 व्यपायात्॥ ३८॥
एषाऽश्मरी मारुतभिन्नमूर्तिः स्वाच्छर्करा मूत्रपथात्क्षरन्ती।
(रेतोभिघाताभिहतस्य पुंसः प्रवर्तते यस्य तु मूत्रकृच्छ्रम्॥३९॥
स्याद्वेदना बङ्क्षणबस्तिमेढ्रे तस्यातिशूलं वृषणातिवृत्ते।
शुक्रेण संरुद्धगतिप्रवाहो मूत्रं स कृच्छ्रेण विमुञ्चतीह॥४०॥
तमण्डयोः स्तब्धमिति ब्रुवन्ति रेतोऽभिघातात्प्रवदन्ति कृच्छ्रम्2305)
शुक्रं मलाश्चैव पृथक् पृथग्वा मूत्राशयस्थाः2306 प्रतिवारयन्ति॥४१॥
तब्द्याहतं मेहनबस्तिशूलं मूत्रं सशुक्रं कुरुते विबद्धम्।
स्तब्धश्च शूनो भृशवेदनश्च तुद्येत बस्तिर्वृषणौ च तस्य॥४२॥
क्षताभिघातारक्षतजं2307 क्षयाद्वा प्रकोपितं बस्तिगतं विबद्धम्।
तीव्रार्ति मूत्रेण सहाल्पमल्पमायाति तस्मिन्नतिसञ्चिते च॥४३॥
**आध्मात(न)तां विन्दति गौरवं च बस्तेर्लघुत्वं च विनिःसृतेऽस्मिन्। **
**इत्यश्मरीनिदानम्। **
अभ्यञ्जनस्नेहनिरूहबस्तिस्नेहोपनाहोत्तरबस्तिसेकान्॥४४॥
स्थिरादिभिर्वातहरैश्च सिद्धान् दद्याद्वसांश्चानिलमूत्रकृच्छ्रे।
पुनर्नवैरण्डशतावरीभिः पत्तूरवृश्चीरबलाश्मभिद्भिः॥४५॥
द्विपञ्चमूलेन कुलत्थकोलयवैश्च तोयोत्क्वथिते कषाये।
तैलं वराहर्क्षवसा घृतं च तैरेव कल्कैलवणैश्च साध्यम्॥४६॥
तन्मात्रयाऽऽशु प्रतिहन्ति पीतं शूलान्वितं मारुतमूत्रकृच्छ्रम्।
एतानि चान्यानि वरौषधानि सर्वाणि2308 शस्तान्यपि चोपनाहे॥४७॥
स्युर्लाभतस्तैलफलानि चैव स्नेहाम्लयुक्तानि सुखोष्णवन्ति।
सेकावगाहाः शिशिराः प्रदेहा ग्रैष्मो विधिर्बस्तिपयोविरेकाः॥४८॥
द्राक्षाविदारीक्षुरसैर्वृतैश्च कृच्छ्रेषु पित्तप्रभवेषु कार्याः।
शतावरीकाशकुशश्वदंष्ट्राविदारिशालीक्षुकशेरुकाणाम्॥४९॥
क्वाथं सुशीतं मधुशर्कराभ्यां युक्तं पिबेत् पैत्तिकमूत्रकृच्छ्री।
पिबेत् कषायं कमलोत्पलानां शृङ्गाटकानामथवा विदार्याः॥५०॥
दण्डोत्पलानामथवाऽपि2309 मूलं पूर्वेण कल्पेन तथा सुशीतम्।
एर्वारुबीजं त्रपुषात् कुसुम्भात् सकुङ्कुमः2310 स्याद्वृषकश्च पेयः॥५१॥
द्राक्षारसेनाश्मरिशर्करासु सर्वेषु कृच्छ्रेषु प्रशस्त एषः।
एर्वारुबीजं मधुकं सदार्वि पैत्ते पिबेत्तण्डुलधावनेन॥५२॥
दार्वी तथैवामलकीरसेन समाक्षिकां पित्तकृते तु कृच्छ्रे।
क्षारोष्णतीक्ष्णौषधमन्नपानं स्वेदो यवान्नं वमनं निरूहाः॥५३॥
तक्रं सतिक्तौषधसिद्धतैलमभ्यङ्गपानं कफमूत्रकृच्छ्रे।
व्योषं श्वदंष्टं त्रुटि सारसास्थि कोलप्रमाणं मधुमूत्रयुक्तम्॥५४॥
पिबेत्रुटिं क्षौद्रयुतां कदल्या रसेन कैटर्यरसेन वाऽपि।
तक्रेण युक्तं शितिवारकस्य बीजं पिवेत् कृच्छ्र विघातहेतोः॥५५॥
पिबेत्तथा तण्डुलधावनेन प्रवालचूर्णे कफमूत्रकृच्छ्रे।
सप्तच्छदारग्वधकेवुकैलाधवं करञ्जं कुटजं गुडूचीम्॥५६॥
पक्त्वा जले तेन पिबेद्यवागूं सिद्धं कषायं मधुसंयुतं वा।
सर्वं त्रिदोषप्रभवे तु वायोः स्थानानुपूर्व्या प्रसमीक्ष्य कार्यम्॥५७॥
**त्रिभ्योऽधिके प्राग्वमनं कफे स्यात्पित्ते विरेकः पवने तु बस्तिः।
क्रिया हिता त्वश्मरिशर्कराभ्यां कृच्छ्रे यथैवेह कफानिलाभ्याम् ५८ **
कार्याऽश्मरीभेदनपातनाय विशेषयुक्तं शृणु कर्म सिद्धम्।
पाषाणभेदं वृषकं श्वदंष्ट्रापाठाभयाव्योषशटीनिकुम्भाः॥५९॥
हिंस्राखराश्वाशितिवारकाणामेर्वारुकाणां त्रपुषस्य बीजम्।
उत्कुचिका हिङ्गु सवेतसाम्लं स्याद्वे बृहत्यौ हनुषा वचा च॥६०॥
चूर्णं पिबेदश्मरिभिद्विपक्वं2311 सर्पिश्च गोमूत्रचतुर्गुणं तैः।
यूषः कृतः शिग्रुकमूलकल्काद्विल्वप्रमाणो घृततैलभृष्टः॥६१॥
शीतोऽश्मभित्स्याद्दधिमण्डयुक्तः पेयः प्रकामं लवणेन युक्तः।
जलेन शोभाञ्जनमूलकल्कः शृतो हित2312श्चाश्मरिशर्कराभ्याम्॥६२॥
सितोपला वा समयावशूका कृच्छ्रेषु सर्वेष्वपि भेषजं स्यात्।
मूलं श्वदंष्ट्रेक्षुरकोरुबूकात् क्षीरेण पिष्टं बृहतीद्वयाच्च॥६३॥
आलोड्य दघ्ना मधुरेण पेयं दिनानि सप्ताश्मरिभेदनाय।
पुनर्नवायोरजनी2313श्वदंष्ट्राफल्गुप्रवालाश्च सदर्भपुष्पाः॥६४॥
क्षीराम्बुमद्येक्षुरसैः सुपिष्टं2314 पेयं भवेदश्मरिशर्करासु।
त्रुटिं शताह्वा लवणानि पञ्च यवाग्रजं कुन्दुरुकाश्मभेदौ॥६५॥
कम्पिल्लकं गोक्षुरकस्य बीजमेर्वारुबीजं त्रपुषस्य बीजम्।
चूर्णीकृतं चित्रकहिङ्गुमांसीयवानितुल्यं त्रिफलाद्विभागम्॥६६॥
अम्लैः सशुक्तै2315 रसमद्ययूषैः पेयं हि गुल्माश्मरिभेदनार्थम्।
पीत्वाऽनु मद्यं निगदं रथेन हयेन वा शीघ्रजवेन यायात्॥६७॥
तैः शर्करा प्रच्यवतेऽश्मरी तु शाम्येन्न चेच्छल्यविदुद्धरेत्ताम्।
रेतोभिघातप्रभवे तु कृच्छ्रे समीक्ष्य दोषं प्रतिकर्म कुर्यात्॥६८॥
कार्पासमूलं वृषकाश्मभेदौ2316 बला स्थिरादीनि गवेधुका च।
वृश्वीर ऐन्द्री च पुनर्नवा च शतावरी मध्वसनाखुपर्ण्यः॥६९॥
तत्काथसिद्धः पवने रसः स्यात् पित्तेऽधिके क्षीरमथापि सर्पिः।
कफे च यूषादिकमन्नपानं संसर्गजे सर्वहितः क्रमः स्यात्॥७०॥
एवं न चेच्छाम्यति तस्य युञ्ज्यात्सुरां पुराणां मधुकासवं2317 वा।
विहङ्गमांसानि च बृंहणाय बस्तींश्च शुक्राशयशोधनार्थम्॥७१॥
शुद्धस्य तृप्तस्य च वृष्ययोगैः प्रियानुकूलाः प्रमदा विधेयाः।
रक्तोद्भवे तूत्पलनालतालकासेक्षुबालेक्षुकशेरुकाणि2318॥७२॥
पिबेत्सिताक्षौद्रयुतानि खादेदिक्षं विदारीं त्रपुषाणि चैव।
घृतं श्वदंष्ट्रास्वरसेन सिद्धं क्षीरेण चैवाष्टगुणेन पेयम्॥७३॥
स्थिरादिकानां2319 कतकादिकानामेकैकशो वा विधिनैव तेन।
क्षीरेण बस्तिर्मधुरौषधैर्वा तैलेन वा स्वादुफलोत्थितेन॥७४॥
यन्मूत्रकृच्छ्रे विहितं तु पैत्ते कार्यं तु तच्छोणितमूत्रकृच्छ्रे।
व्यायामसंधारणशुष्करूक्षपिष्टान्नवातार्ककरव्यवायान्॥७५॥
**खर्जूरशालूककपित्थजम्बूबिसं कषायं च रसं भजेन्न। **
इति मूत्रकृच्छ्राश्मरीचिकित्सा।
व्यायामतीक्ष्णातिविरेकबस्तिचिन्ताभयत्रासमदाभिचाराः॥७६॥
छर्द्यामसंधारणकर्शनानि हृद्रोगकर्तॄणि तथाऽभिघातः।
वैवर्ण्यमूर्च्छाज्वर2320कासहिक्काश्वासास्यवैरस्यतृषाप्रमोहाः॥७७॥
छर्दिः कफोत्क्लेशरुजोऽरुचिश्च हृद्रोगजाः स्युर्विविधास्तथाऽन्ये।
रुक्शून्यभावद्रवशोषभेदस्तम्भाः समोहाः पवनाद्विशेषः॥७८॥
**पित्तात्तमोदूयनदाहमोहाः संत्रासतापज्वरपीतभावाः।
स्तब्धं गुरु स्यात्स्तिमितं च मर्म कफात् प्रसेकज्वरकासतन्द्राः ७९ **
**विद्यात्रिदोषं त्वपि सर्वलिङ्गं तीव्रार्तितोदं कृमिजं सकण्डूम्। **
**इति हृद्रोगनिदानम्। **
तैलं ससौवीरकमस्तुतक्रं वाते प्रपेयं लवणं सुखोष्णम्॥८०॥
मूत्राम्बुसिद्धं लवणैश्च तैलमानाहगुल्मार्तिहृदामयघ्नम्।
पुनर्नवा दारु सपञ्चमूलं रास्त्रां यवान् कोलकुलत्थबिल्वम्॥८१॥
पक्त्वा जले तेन विपाच्य तैलमभ्यङ्गपानेऽनिलहद्गदघ्नम्।
हरीतकीनागरपुष्कराह्रैर्वयःकयस्थालवणैश्च कल्कैः॥८२॥
सहिङ्गुभिः साधितमग्रसर्पिर्गुल्मे सहृत्पार्श्वगदेऽनिलोत्थे।
सपुष्कराह्वं फलपूरमूलं महौषधं शट्यभया च कल्काः॥८३॥
क्षाराम्बुसर्पिर्लवणैर्विमिश्राः2321 स्युर्वातहृद्रोगविकर्तिकाघ्नाः।
क्वाथः कृतः पौष्करमातुलुङ्गपलाशभू(पू)तीकशटीसुराह्नैः॥८४॥
सनागराजाजिवचायमानीक्षारः सुखोष्णो लवणेन पेयः।
पथ्याशटीपौष्करपञ्चकोलात् समातुलुङ्गाद्यमकेन कल्कः॥८५॥
गुडप्रसन्नालवणैश्च भृष्टो हृत्पार्श्वपृष्ठोदरयोनिशूले।
स्यात्रयूषणं द्वे त्रिफले2322 सपाठे निदिग्धिकागोक्षुरकौ बले द्वे॥८६॥
ऋद्धिस्रुटिस्तामलकी स्वगुप्ता मेदे मधूकं मधुकं स्थिरा च।
शतावरी जीवकपृश्निपुर्ण्यौ द्रव्यैरिमैरक्षसमैः सुपिष्टैः॥८७॥
प्रस्थं घृतस्येह पचेद्विधिज्ञः प्रस्थेन दध्ना त्वथ माहिषेण।
मात्रां पलं चार्धपलं पिचुं वा प्रयोजयेन्माक्षिकसंप्रयुक्तम्॥८८॥
श्वासे सकासे त्वथ पाण्डुरोगे हलीमके हृद्रहणीप्रदोषे।
शीताः प्रदेहाः परिषेचनानि तथा विरेको हृदि पित्तदुष्टे॥८९॥
द्राक्षासिताक्षौद्रपरूषकैः स्याच्छुद्धे तु पित्तापहमन्नपानम्।
षष्ट्याह्निकातिक्तकरोहिणीभ्यां कल्कं पिबेच्चापि सिताजलेन2323॥९०॥
क्षतेषु सर्पीषि हितानि सर्पिर्गुडाश्च ये तान् प्रसमीक्ष्य सम्यक्2324।
दद्याद्भिषग्धन्वरसान्नगव्यक्षीराशिनां पित्तहृदामयेषु॥११॥
(तैरेव सर्वे प्रशमं प्रयान्ति पित्तामयाः शोणितसंश्रया2325 ये )।
द्राक्षाबलाश्रेयसिशर्कराभिः खर्जूरवीरर्षभ्रकोत्पलैश्च॥९२॥
काकोलिमेदायुगजीवकैश्च क्षीरेण सिद्धं महिषीघृतं स्यात्।
कशेरुकाशैवल2326शृङ्गवेरप्रपौण्डरीकं मधुकं बिसस्य॥९३॥
ग्रन्थिश्च सर्पिः पयसा पचेतैः क्षौद्रान्वितं पित्तहृदामयघ्नम्।
स्थिरादिकल्कैः पयसा च सिद्धं द्राक्षारसेनेक्षुरसेन वाऽपि॥९४॥
सर्पिर्हितं स्वादुफलेक्षुजाश्चारसाः सुशीता हृदि पित्तदुष्टे।
स्विन्नस्य वान्तस्य विलङ्गितस्य क्रिया कफघ्नी कफमर्मरोगे॥९५॥
कौलस्थधान्यैश्च रसैर्यवान्नं पानानि तीक्ष्णानि सशर्कराणि।
मूत्रे श्रुताः कट्फलशृङ्गवेरपीतद्रुपथ्यातिविषाः प्रदेयाः॥९६॥
कृष्णाराटीपुष्करमूलरास्त्रावचाभयानागरचूर्णकं च।
उदुम्बराश्वत्थवटार्जुनाख्यपलाशरोहीतकखादिरे च॥९७॥
क्वाथे त्रिवृड्यूषणचूर्णसिद्धो लेहः कफघ्नोऽशिशिराम्बुयुक्तः।
शिलाह्वयं वा भिषगप्रमत्तः प्रयोजयेत् कल्पविधानदृष्टम्॥९८॥
प्राश्याऽथवाऽगस्त्यहरीतकी च रसायनं ब्राह्ममथामलक्याः।
त्रिदोषजे लङ्घनमादितः स्यादन्नं च सर्वत्र हितं विधेयम्॥९९॥
**हीनातिमध्यत्वमवेक्ष्य चैव कार्यं त्रयाणामपि कर्म शस्तम्।
भुक्तेऽधिकं जीर्यति शूलमल्पं जीर्णे स्थितं चेत् सुरदारुकुष्ठम् १०० **
**सतिल्वकं द्वे लवणे विडङ्गमुष्णाम्बुना सातिविषं पिबेत्सः।
जीर्णेऽधिके स्नेहविरेचनं स्यात्फलैर्विरेच्यो यदि जीर्यति स्यात् १०१ **
त्रिष्वेव कालेष्वधिके तु शूले तीक्ष्णं हितं मूलविरेचनं स्यात्।
प्रायोऽनिलो रुद्धगतिः प्रकुप्यत्यामाशये शोधनमेव तस्मात्॥१०२॥
**कार्यं तथा लङ्घनपाचनं च सर्वं क्रिमिघ्नं कृमिहद्गदे च। **
इति हृद्रोगचिकित्सा।
संधारणाजीर्णरजोऽतिभाष्यक्रोधर्तुवैषम्यशिरोभितापैः॥१०३॥
प्रजागरातिस्वपनाम्बुशीतैरवश्यया मैथुनबाष्पधूमैः2327।
संस्त्यानदोषे शिरसि प्रवृद्धो वायुः प्रतिश्यायमुदीरद्येत्तु॥१०४॥
घ्राणाक्षितोदौ क्षवथुर्जलाभः स्नावोऽनिलात्सस्वनमूर्धरोगः।
नासाग्रपाकज्वरवक्रशोषतृष्णोष्णपीतस्रवणानि पित्तात्॥१०५॥
**कासारुचिस्रावधनप्रसेकाः कफाद्गुरुः स्रोतसि चापि कण्डूः।
सर्वाणि रूपाणि तु सन्निपातात्स्युः पीनसे तीव्ररुजोऽतिदुःखे १०६ **
सर्वोऽतिवृद्धोऽहितभोजनात्तु दुष्टप्रतिश्याय उपेक्षितः स्यात्।
ततश्च रोगाः क्षवधुः सनासाशोषः प्रतीनाहपरिस्रवौ च॥१०७॥
घ्राणास्यपूतित्वमपीनसश्च सपाकशोथार्बुदपूयरक्ताः।
अरूंषि शीर्षश्रवणाक्षिरोगाः खालित्यहर्यर्जुनलोमभावाः॥१०८॥
तृट्श्वासकासज्वररक्तपित्तवैस्वर्यशोषाश्च ततो भवन्ति।
रोधाभिघातस्रवशोषपाकैर्घ्नाणं युतं यश्च न वेत्ति गन्धम्॥१०९॥
दुर्गन्धि चास्यं बहुशः प्रकोपि दुष्टप्रतिश्यायमुदाहरेत्तम्।
संस्पृश्य मर्माण्यनिलस्तु मूर्ध्नि विष्वक्पथस्थः क्षवथुं करोति॥११०॥
क्रुद्धः स संशोष्य कफं तु नासाशृङ्गाटकघ्राणविशोषणं च।
उच्छ्वासमार्गं तु कफः सवातो रुन्ध्यात् प्रतीनाहमुदाहरेत्तम् १११
घ्राणाद्धनः पीतसितस्तनुर्वा दोषः स्रवेत्स्रावमुदाहरेत्तम्।
यो मस्तुलुङ्गाद्धनपीतपक्वः कफः स्रवेद्गाढमपीनसः सः॥११२॥
**वैवर्ण्यदौर्गन्ध्यमुपेक्षया तु स्यात्पूतिनस्यं श्वयथुर्भ्रमश्च।
(आनाह्यते1687 यस्य विशुष्यते च प्रक्लिद्यते धूप्यति चापि नासा ११३ **
**न वेत्ति यो गन्धरसांश्च जन्तुर्जुष्टं व्यवस्येत्तमपीनसेन।
तं चानिलश्लेष्मभवं विकारं ब्रूयात् प्रतिश्यायसमानलिङ्गम्।)
सदाहरागः श्वयथुः सपाकः स्याद्वघ्राणपाकोऽपि च रक्तपित्तात् ११४ **
घ्राणाश्रितासृक्रप्रभृतीन्प्रदूष्य कुर्वन्ति नासाश्वयथुं मलाश्च।
घ्राणे तथोच्छ्वासगतिं निरुध्य मांसास्त्रदोषादपि चार्बुदानि॥११५॥
घ्राणात्स्रवेद्वा श्रवणान्मुखाद्वा पित्तात्तमस्रं त्वपि पूयरक्तम्।
कुर्यात्सपित्तः पवनस्त्वगादीन् संदूष्य चारूंषि सपाकवन्ति॥११६॥
**(नासा2328 प्रदीप्तेव नरस्य यस्य दीप्तं तु तं रोगमुदाहरन्ति।) **
**इति पीनसनासारोगनिदानम्2329। **
**भृशार्तिशूलं स्फुरतीह वातात्पित्तात्सदाहार्ति कफाद्गुरु स्यात् ११७ **
**सर्वैस्त्रिदोषं क्रिमिभिस्तु कण्डूदौर्गन्ध्यतोदार्तियुतं शिरः स्यात्। **
**इति शिरोरोगनिदानम्। **
मुखामये मारुतजे तु शोषकार्कश्यरौक्ष्याणि चला रुजश्च॥११८॥
कृष्णारुणं निष्पतनं सशीतं प्रस्रंसनस्पन्दनतोदभेदाः।
तृष्णाज्वरस्फोटकदाहपाका धूमायनं चाप्यवदीरणंता च॥११९॥
पित्तात्समूर्च्छा विविधा रुजश्च वर्णाश्च शुक्लारुणवर्णवर्ज्याः।
कण्डूगुरुत्वं सितविज्जलत्वं स्नेहोऽरुचिर्जाड्यकफप्रसेकौ॥१२०॥
**उत्क्लेशमन्दानलता च तन्द्रा रुजश्च मन्दाः कफवक्ररोगे।
सर्वाणि रूपाणि तु वक्ररोगे भवन्ति यस्मिन्स तु सर्वजः2330 स्यात् १२१ **
संस्थानदूष्याकृतिनामभेदाच्चैते चतुःषष्टिविधा भवन्ति।
शालाक्यतत्रेऽभिहितानि तेषां निमित्तरूपाकृतिभेषजानि॥१२२॥
यथाप्रदेशं तु2331 चतुर्विधस्य क्रियां2332 प्रवक्ष्यामि मुखामयस्य।
**इति मुखरोगनिदानम्। **
वातादिभिः शोकभयातिलोभक्रोधैर्मनोघ्नाशनगन्धरूपैः2333॥१२३॥
अरोचकाः स्युः2334 परिहृष्टदन्तः कषायक्रश्च मतोऽनिलेन।
कट्वम्लमुष्णं विरसं च पूति पित्तेन विद्याल्लवणं च वक्रम्॥१२४॥
माधुर्यपैच्छिल्यगुरुत्वशैत्यविबन्धसंस्तम्भयुतं कफेन।
अरोचके शोकभयातिलोभक्रोधाद्यहृद्याशनगन्धजे स्यात्॥१२५॥
**स्वाभाविकं चास्यमथोऽरुचिश्च त्रिदोषजे नैकरसं भवेत्तु। **
**इत्यरोचकनिदानम्। **
नादोऽतिरुक्कर्णमलस्य शोषः स्रावस्तनुश्वाश्रवणं च वातात्॥१२६॥
**शोफः सरागो दरणं विदाहः सपीतपूतिस्रवणं च पित्तात्।
वैश्रुत्यकण्डूस्थिरशोफशुक्लस्निग्धा स्रुतिः श्लेष्मभवेऽल्परुक् च १२७ **
**सर्वाणि रूपाणि तु सन्निपातात्त्रावश्च तत्राधिकदोषवर्णः। **
**इति कर्णरोगनिदानम्। **
अल्पानुरागानुपदेहताश्च प्रस्पन्दतोदातिरुजश्च वातात्2335॥१२८॥
पित्तात्तु दाहातिरुजोऽतिरागः पीतोपदेहः सुभृशोष्णमश्रु2336।
शुक्लोपदेहं बहुपिच्छिलाश्रु नेत्रं2337 कफात्स्याद्गुरुता सकण्डूः॥१२९॥
सर्वाणि रूपाणि तु सन्निपातान्नेत्रामयाः2338 षण्णवतिस्तु मेदात्।
तेषामभिव्यक्तिरभिप्रदिष्टा शालाक्यतन्त्रेषु चिकित्सितं च॥१३०॥
पराधिकारे तु न विस्तरोक्तिः शस्तेति तेनात्र न नः प्रयासः।
इति नेत्ररोगनिदानम्।
**तेजः सवातं खलु2339 केशभूमिं दग्ध्वाऽऽशु कुर्यात् खलतिं नरस्य १३१
किंचित्तु दग्ध्वा पलितानि कुर्याद्धरित् प्रभुत्वं च शिरोरुहाणाम्। **
**इति खालित्यनिदानम्। **
इत्यूर्ध्वजत्रूत्थगदैकदेशः प्रोक्तश्चिकित्सां2340 तु परं निबोध॥१३२॥
विस्तारतः संग्रहतश्च सम्यग्यथाक्रमं सौम्य मयोच्यमानाम्।
बातात् सकासवैस्वर्ये सक्षारं पीनसे घृतम्॥१३३॥
पिबेद्रसं पयश्चोष्णं स्नैहिकं धूममेव वा।
शताह्वात्वग्बलामूलं श्योनाकैरण्डबिल्वजम्॥१३४॥
सारग्वधं पिबेद्वाति मधूच्छिष्टवसाघृतैः।
अथवा सघृतान् सक्तून् कृत्वा मल्लकसंपुटे॥१३५॥
नवप्रतिश्यायवतां धूमं वैद्यः प्रयोजयेत्।
शङ्खमूर्धललाटार्तौ पाणिस्वेदोपनाहनम्॥१३६॥
स्वभ्यक्ते क्षवथुस्रावरोधादौ संकरादयः।
घ्रेयाश्च रोहिषाजाजीवचातर्कारिचोरकाः॥१३७॥
त्वक्पत्रमरिचैलानां चूर्णा वा सोपकुञ्चिकाः।
स्रोतःशृङ्गाटनासार्तिशोषे तैलं स(च)नावनम्॥१३८॥
प्रभाव्याजे तिलान् क्षीरे तेन पिष्टांस्तदूष्मणा।
मन्दस्विन्नान् सयष्ट्याह्नचूर्णांस्तेनैव पीडयेत्॥१३९॥
दशमूलस्य निःक्वाथे रास्नामधुककल्कवत्।
सिद्धं ससैन्धवं तैलं दशकृत्वोऽणु तत् स्मृतम्॥१४०॥
स्निग्धस्यास्थापनैर्दोषं निर्हरेद्वातपीनसे।
स्निग्धाम्लोष्णैश्च लध्वन्नं ग्राम्यादीनां रसैर्हितम्॥१४१॥
उष्णाम्बुना स्नानपाने निवातोष्णप्रतिश्रयः।
चिन्ताव्यायामवाक्चेष्टाव्यवायविरतो भवेत्॥१४२॥
( वातजे पीनसे धीमानिच्छन्नेवात्मनो हितम्।)
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३ अयमर्धश्लोको हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते।
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पैत्ते सर्पिः पिबेत्तिक्तं शृङ्गवेरशृतं पयः॥१४३॥
पाचनार्थं पिबेत् पक्वे कार्यं मूर्धविरेचनम्।
पाठाद्विरजनीमूर्वापिप्पलीजातिपल्लवैः॥१४४॥
दन्त्या च साधितं तैलं नस्यं स्यात् पक्वपीनसे।
पूयास्रे रक्तपित्तघ्नाः कषाया नावनानि च॥१४५॥
पाकदाहाद्यरुष्केषु शीता लेपाः ससेचनाः।
घ्रेयनस्योपचाराश्च कषायाः स्वादुशीतलाः॥१४६॥
मन्दपित्ते2341 दद्याद्विरेचनम् इति पा०।”) प्रतिश्याये स्निग्धैः कुर्याद्विरेचनम्।
घृतं क्षीरं यवाः शालिर्गोधूमा जाङ्गला रसाः॥१४७॥
शीताम्लास्तिक्तशाकानि2342 यूषा मुद्गादिभिर्हिताः।
गौरवारोचकेष्वादौ लङ्घनं कफपीनसे॥१४८॥
स्वेदाः सेकाश्च पाकार्थं लिप्ते शिरसि सर्पिषा2343।
लशुनं मुद्गचूर्णेन व्योषक्षारघृतैर्युतम्॥१४९॥
देयं कफघ्नं वमनमुत्कृिष्टश्लेष्मणे हितम्।
अपीनसे पूतिनस्ये घ्राणस्त्रावे2344 सकण्डुके॥१५०॥
धूमः शस्तोऽवपीडश्च कटुभिः कफपीनसे।
मनःशिला वचा व्योषं विडङ्गं हिङ्गु गुग्गुलुः॥१५१॥
चूर्णो घ्रेयः प्रधमनं कटुभिश्च फलैस्तथा।
भार्गीमदमतर्कारीसुरसादिविपाचिते॥१५२॥
मूत्रे लाक्षा वचा लम्बा2345 विडङ्गं कुष्ठपिप्पली।
कृत्वा कल्कं करञ्जं च तैलं तैः सार्षपं पचेत्॥१५३॥
पाकान्मुक्ते घने नस्यमेतन्मेदोनिभे कफे।
स्निग्धस्य व्याहते वेगे छर्दनं कफपीनसे॥१५४॥
वमनीयाशृतक्षीरतिलमाषयवागुभिः।
वार्ताककुलकव्योषकुलत्थाढकिमुद्गजाः2346॥१५५॥
यूषाः कफघ्नमन्नं च शतमुष्णाम्बुसेच(व)नम्।
सर्वजित् पीनसे दुष्टे कार्यं शोफे च शोफजित्॥१५६॥
क्षारोऽर्बुदाधिमांसेषु क्रिया शेषेष्ववेक्ष्य च।
इति पीनसरोगचिकित्सा2347।
वातिके शिरसो रोगे स्नेहान् स्वेदान् सनावनान्॥१५७॥
पानान्नमुपनाहांश्च कुर्याद्वातामयापहान्।
तैलभृष्टैरगुर्वाद्यैः सुखोष्णैरुपनाहनम्॥१५८॥
जीवनीयैश्च पुष्पैश्च2348 मत्स्यैर्मासैश्च शस्यते।
रास्नास्थिरादिभिः सिद्धं सक्षीरं नस्यमर्तिनुत्॥१५९॥
**तैलं रास्नाद्विकाकोलीशर्कराभिरथापि वा।
बलामधुकयष्ट्याह्नविदारीचन्दनोत्पलैः **
जीबकर्षभकद्राक्षाशर्कराभिश्च साधितः।
प्रस्थस्तैलस्य सक्षीरो जाङ्गलार्धतुलारसे॥१६१॥
नस्यं सर्वोर्ध्वजत्स्थवातपित्तामयापहम्।
दशमूलबलारास्त्रात्रिफलामधुकैः सह॥१६२॥
मयूरं पक्षपित्तान्त्रशकृत्तुण्डाङ्घ्रिवर्जितम्2349।
जले पक्त्वा घृतप्रस्थं तस्मिन् क्षीरसमं पचेत्॥१६३॥
मधुरैः कार्षिकैः कल्कैः शिरोरोगार्दितापहम्।
कर्णाक्षिनासिकाजिह्वाताल्बास्यगलरोगनुत्2350॥१६४॥
मायूरमिति विख्यातमूर्ध्वजत्रुगदापहम्।
इति मायूरघृतम्
एतेनैव कषायेण घृतप्रस्थं विपाचयेत्॥१६५॥
चतुर्गुणेन दुग्धेन2351 कल्कैरेभिश्च कार्षिकैः।
जीवन्तीत्रिफलामेदामृद्वीकार्धपरुषकैः॥१६६॥
समङ्गाचविकाभार्गीकाश्मरीसुरदारुभिः2352।
**आत्मगुप्तामहामेदातालखर्जूरमस्तकैः॥१६७॥ **
मृणालबिसशालूकमधूकैश्च2353 सजीवकैः।
**शतावरीविदारीक्षुबृहतीसारिवायुगैः॥१६८॥ **
मूर्वाश्वदंष्ट्रर्षभकशृङ्गाटककसेरुकैः।
**रास्नास्थिरातामलकीसूक्ष्मैलाशटिपुष्करैः॥१६९॥ **
पुनर्नवातुगाक्षीरीकाकोलीधन्वयासकैः।
**मधुकाक्षोटवाताममुञ्जाताभिषुकैरपि॥१७०॥ **
द्रव्यैरेभिर्यथालाभं पूर्वकल्पेन साधितम्।
**नस्ये पाने तथाऽभ्यङ्गे बस्तौ चैव प्रदापयेत्॥१७१॥ **
शिरोरोगेषु सर्वेषु कासे श्वासे च दारुणे।
**मन्यापृष्ठग्रहे शोषे स्वरभेदे तथाऽर्दिते॥१७२॥ . **
योन्यसृक्शुक्रदोषेषु शस्तं वन्ध्यासुतप्रदम्।
**ऋतुस्नाता तथा नारी पीत्वा पुत्रं प्रसूयते॥१७३॥ **
महामायूरमित्येतद्धृतमात्रेयपूजितम्।
इति महामायूरघृतम्।
**आखुभिः कुक्कुटैर्हंसैः शशैश्चापि हि बुद्धिमान्॥१७४॥ **
कल्पेनानेन विपचेत् सर्पिरूर्ध्वगदापहम्।
**पैत्ते घृतं पयः सेकाःशीता लेपाः सनावनाः॥१७५॥ **
जीवनीयानि सर्पींषि पानान्नं चापि पित्तनुत्।
**चन्दनोशीरयष्ट्याह्वबलाव्याघ्रनखोल्पलैः॥१७६॥ **
क्षीरपिष्टैःप्रदेहः स्याच्छृतैर्वा परिषेचनम्।
**त्वक्पत्रशर्कराकल्कः सुपिष्टस्तण्डुलाम्बुना॥१७७॥ **
कार्योऽवपीडः सर्पिश्च नस्यं तत्2354 स्यात्तु पैत्तिके।
**यष्ट्याह्वचन्दनानन्ताक्षीरसिद्धं घृतं हितम्॥१७८॥ **
नावनं शर्कराद्राक्षामधुकैर्वाऽपि पित्तजे।
कफजे स्वेदितं धूमनस्यप्रधमनादिभिः॥१७९॥
शुद्धं प्रलेपपानान्नैः कफघ्नैः समुपाचरेत्।
**पुराणसर्पिषःपानैस्तीक्ष्णैर्बस्तिभिरेव च॥१८०॥ **
कफानिलोत्थिते दाहः शेषयो रक्तमोक्षणम्।
**एरण्डनलदक्षौमगुग्गुल्वगुरुचन्दनैः॥१८१॥ **
धूमवर्तेंपिबेद्गन्धैः सकुष्ठतगरैस्तथा।
**सन्निपातभवे कार्या सन्निपातहिता क्रिया॥१८२॥ **
क्रिमिजे चैव कर्तव्यं तीक्ष्णं मूर्धविरेचनम्।
**त्वचं व्याघ्रनखं दन्तीविडङ्गनवमालिकाः॥१८३॥ **
अपामार्गफलं बीजं नक्तमालशिरीषयोः।
**क्षवकोऽश्मन्तको2355 बिल्वं हरिद्रा हिङ्गु यूथिका॥१८४॥ **
फणिज्झकश्च तैस्तैलमविमूत्रे चतुर्गुणे।
**सिद्धं स्यान्नावनं चूर्णं चैषां प्रधमनं हितम्॥१८५॥ **
फलं शिग्रुकराञ्जाभ्यां सव्योषं चाव (क्षि) पीडकः।
कषायः स्वरसः क्षारश्चूर्णःकल्कोऽवपीडकः॥१८६॥
इति शिरोरोगचिकित्सा।
शुक्ततिक्तकटुक्षौद्रकषायैः2356 कवलग्रहः।
**धूमः प्रधमनं शुद्धिरधश्छर्दनलङ्घनम्॥१८७॥ **
भोज्यं च मुखरोगेषु यथास्वं दोषनुद्धितम्।
**पिप्पल्यगुरुदार्वीत्वग्यवक्षारं2356 रसाञ्जनम्॥१८८॥ **
पाठां तेजोवतींपथ्यां समभागं विचूर्णयेत्।
**मुखरोगेषु2357 सर्वेषु सक्षौद्रं तद्विधारयेत्॥१८९॥ **
शीधुमाधवमाध्वीकैः श्रेष्ठश्च कवलग्रहः।
**तेजोह्वामभयामेलां समङ्गां कटुकां घनम्॥१९०॥ **
पाठां ज्योतिष्मतीं लोध्रं दार्वीं कुष्ठं च चूर्णयेत्।
**दन्तानां घर्षणं रक्तस्रावकण्डूरुजापहम्॥१९१॥ **
पञ्चकोलकतालीसपत्रैलामरिचत्वचः।
**पलाशमुष्ककक्षारयवक्षाराश्च चूर्णिताः॥१९२॥ **
गुडे पुराणे द्विगुणे क्वथिते गुडिकाः कृताः।
**कर्कन्धुमात्राः सप्ताहं स्थिता मुष्ककभस्मनि॥१९३॥ **
कण्ठरोगेषु सर्वेषु धार्याः स्युरमृतोपमाः।
**गृहधूमो यवक्षारः पाठा व्योषं रसाञ्जनम्॥१९४॥ **
तेजोह्वा त्रिफला लोध्रं चित्रकश्चेति चूर्णितम्।
**सक्षौद्रं धारयेदेतद्गलरोगविनाशनम्॥१९५॥ **
कालकं नाम तच्चूर्णं दन्तास्यगलरोगनुत्।
**मनःशिला यवक्षारो हरितालं ससैन्धवम्॥१९६॥ **
दार्वीत्वक् चेति तच्चूर्णंमाक्षिकेण समायुतम्।
**मूर्च्छितं घृतमण्डेन कण्ठरोगेषु धारयेत्॥१९७॥ **
मुखरोगेषु च श्रेष्ठं पीतकं नाम कीर्तितम्।
**मृद्वीका कटुका व्योषं दार्वीत्वक् त्रिफला घनम्॥१९८॥ **
(मूर्च्छितं2358 घृतमण्डेन कण्ठरोगेषु धारयेत्।)
**पाठा रसाञ्जनं मूर्वा तेजोह्वेति च चूर्णितम्॥१९९॥ **
क्षौद्रयुक्तं विधातव्यं गलरोगे भिषग्जितम्।
**योगास्त्वेते त्रयः प्रोक्ता वातपित्तकफापहाः॥२००॥ **
कटुकातिविषापाठादार्वीमुस्तकलिङ्गकाः।
**गोमूत्रक्वथिताः पेयाः कण्ठरोगविनाशनाः॥२०१॥ **
स्वरसः क्वथितो दार्व्या घनीभूतो रसक्रिया।
**सक्षौद्रा मुखरोगासृग्दोषनाडीव्रणापहा॥२०२॥ **
तालुशोषे त्वतृष्णस्य2359 सर्पिरौत्तरभक्तिकम्।
**नावनं मधुराः स्निग्धाः शीताश्चैव रसा हिताः॥२०३॥ **
मुखपाके सिराकर्म शिरःकायविरेचनम्।
**मूत्रतैलघृतक्षौद्रक्षीरैश्च कवलग्रहः॥२०४॥ **
सक्षौद्रास्त्रिफलापाठामृद्वीकाजातिपल्लवाः।
**कषायतिक्तकाः शीताः क्वाथाश्च मुखधावनाः॥२०५॥ **
तुलां खदिरसारस्य द्वितुलामरिमेदसः।
**प्रक्षाल्य जर्जरीकृत्य चतुर्द्रोणेऽम्भसः पचेत्॥२०६॥ **
द्रोणशेषं कषायं तं पूत्वा भूयः पचेच्छनैः।
**ततस्तस्मिन् घनीभूते चूर्णाीकृत्याक्षभागिकम्॥२०७॥ **
चन्दनं पद्मकोशीरं मञ्जिष्ठा धातकी घनम्।
**प्रपौण्डरीकं यष्ट्याह्वत्वगेलापद्मकेशरम्॥२०८॥ **
लाक्षा रसाञ्जनं मांसीत्रिफलालोध्रवालकान्।
**रजन्यौ फलिनीमेलां समङ्गां कट्फलं वचाम्॥२०९॥ **
यवासागुरुपत्तङ्गगैरिकाञ्जनमावपेत्।
**लवङ्गनखकक्कोलजातिकोशान् पलोन्मितान्॥२१०॥ **
कर्पूरकुडवं चात्र पुनः शीतेऽवतारिते।
**ततस्तु गुलिकाः कार्याः शुष्काश्चास्येन2360 धारयेत्॥२११॥ **
तैलं चानेन कल्केन कषायेण च साधयेत्।
**दन्तानां चालनभ्रंशसौषिर्यक्रिमिरोगनुत्॥२१२॥ **
मुखपाकास्यदौर्गन्ध्यजाड्यारोचकनाशनम्।
**स्रावोपलेपपैच्छिल्यवैस्वर्यगलशोषनुत्॥२१३॥ **
दन्तास्यगलरोगेषु सर्वेष्वेतत् परायणम्।
** इति मुखरोगचिकित्सा।**
**अरुचौ कवलग्राहा धूमाः समुखधावनाः॥२१४॥ **
**मनोज्ञमन्नपानं च हर्षणाश्वासनानि च। **
**कुष्ठसौवर्चलाजाजीशर्करामरिचं बिडम्॥२१५॥ **
धात्र्येलापद्मकोशीरपिप्पल्युत्पलचन्दनम्।
लोध्रंतेजोवती पथ्या त्र्यूषणं सयवाग्रजम्॥२१६॥
आर्द्रादाडिमनिर्यासः साजाजीशर्करायुतः।
**सतैलमाक्षिकास्त्वेते चत्वारः कवलग्रहाः॥२१७॥ **
चतुरोऽरोचकान् हन्युर्वाताद्येकजसर्वजान्।
**कारवीमरिचाजाजीद्राक्षावृक्षाम्लदाडिमम्॥२१८॥ **
सौवर्चलं गुडः क्षौद्रं सर्वारोचकनाशनम्।
**बस्तिः समीरणे, पित्ते विरेकं, वमनं कफे॥२१९॥ **
कुर्याद्धृद्यानुकूलानि हर्षणं च मनोघ्नजे।
** इत्यरोचकचिकित्सा।**
**कर्णशूले तु वातघ्नी हिता पीनसवत्क्रिया॥२२०॥ **
प्रदेहाःपूरणं नस्यं पाकस्रावे व्रणक्रियाः।
**भोज्यानि च यथादोषं कुर्यात् स्नेहांश्च पूरणान्॥२२१॥ **
हिङ्गुतुम्बुरुशुण्ठीभिस्तैलं च सार्षपं पचेत्।
**एतद्धि पूरणं श्रेष्ठं कर्णशूलनिवारणम्॥२२२॥ **
देवदारुवचाशुण्ठीशताह्वाकुष्ठसैन्धवैः।
**तैलं सिद्धं बस्तमूत्रे कर्णशूलनिवारणम्॥२२३॥ **
घराटकान्समाहृत्य दहेन्मृद्भाजने नवे।
**तद्भस्म स्रावयेत्तेन2361 गन्धतैलं2362 तैलं, किंवा गन्धद्रव्याधिवासितं तिलोद्भवं तैलम् इति चक्रः।") विपाचयेत्॥२२४॥ **
रसाञ्जनस्य शुण्ठ्याश्च कलकाभ्यां कर्णशूलनुत्।
** इति गन्धतैलम्।**
**शुष्कमूलकशुण्ठीनां2363 क्षारो हिङ्गु महौषधम्॥२२५॥ **
शतपुष्पा वचा कुष्ठं दारु शिग्रु रसाञ्जनम्।
**सौवर्चलयवक्षारस्वर्जिकोद्भिदसैन्धवम्॥२२६॥ **
भूर्जग्रन्थिर्विडं मुस्तं मधुशुक्तं चतुर्गुणम्।
**मातुलुङ्गरसश्चैव कदल्या रस एव च॥२२७॥ **
सर्वैरेतैर्यथोद्दिष्टैः क्षारतैलं विपाचयेत्2364।
**बाधिर्यं कर्णनादश्च पूयस्रावश्च दारुणः॥२२८॥ **
क्रिमयः2365 कर्णशूलं च पुरणादस्य नश्यति।
** इति क्षारतैलम्।**
**मुखकर्णाक्षिरोगेषु यथोक्तं पीनसे विधिम्॥२२९॥ **
कुर्याद्भिषक् समीक्ष्यादौ दोषकालबलाबलम्।
** इति कर्णरोगचिकित्सा।**
**उत्पन्नमात्रे तरुणे नेत्ररोगे बिडालकः॥२३०॥ **
कार्यो दाहोपदेहाश्रुशोफरागनिवारणः।
**नागरं सैन्धवं सर्पिर्मण्डेन च रसक्रिया॥२३१॥ **
निघृष्टं वातिके तद्वन्मधुसैन्धवगैरिकम्2366।
**तथा शाबरकं लोध्रं घृतभृष्टं बिडालकः॥२३२॥ **
तद्वत् कार्यो हरीतक्या घृतभृष्टो रुजापहः।
**पैत्तिके चन्दनानन्तामञ्जिष्ठाभिर्बिडालकः॥२३३॥ **
कार्यःपद्मकयष्ट्याह्वमांसीकालीयकैस्तथा।
**गैरिकं सैन्धवं मुस्तं रोचना च रसक्रिया॥२३४॥ **
कफे कार्यंतथा क्षौद्रं सप्रियङ्गुमनःशिलम्।
**सन्निपाते तु सर्वैः2367 स्याद्बहिरक्ष्णोः प्रलेपनम्॥२३५॥ **
पक्ष्माण्यस्पृशता कार्यं संपक्वे त्वञ्जनं त्र्यहात्।
**आश्च्योतनं मारुतजे क्वाथो बिल्वादिभिर्हितः॥२३६॥ **
कोष्णःसैरण्डतर्कारीबृहतीमधुशिग्रुभिः।
**मञ्जिष्ठादार्विपृथ्वीकालाक्षाद्विमधुकोत्पलैः॥२३७॥ **
क्वाथःसशर्करःशीतः पूरणं रक्तपित्तनुत्।
**नागरत्रिफलानिम्बवासालोध्ररसः कफे॥२३८॥ **
कोष्णमाश्च्योतनं मिश्रैरौषधैः सान्निपातके।
**बृहत्येरण्डमूलत्वक् शिग्रोः2368 पुष्पं ससैन्धवम्॥२३९॥ **
अजाक्षीरेण पिष्टं स्याद्वर्तिर्वाताक्षिरोगनुत्।
**सुमनःकोरकाः शङ्खस्त्रिफला मधुकं बला॥२४०॥ **
पित्तरक्तापहा वर्तिः पिष्टा दिव्येन वारिणा।
**सैन्धवं त्रिफला व्योषं शङ्खनाभिः समुद्रजः॥२४१॥ **
फेनः शैलेयकं सर्जो वर्तिः श्लेष्माक्षिरोगनुत्।
**प्रपौण्डरीकं यष्ट्याह्वं दार्वी चाष्टपलोन्मितम्॥२४२॥ **
जले पक्त्वा रसे पूते पुनः पक्वे रसे घने।
**कर्षं च शुक्लमरिचाज्जातीपुष्पान्नवात् पलम्॥२४३॥ **
चूर्णं दत्त्वा कृता वर्तिर्दोषघ्नी दृक्प्रसादनी।
**अमृताह्वा2369बिसं बिल्वं पटोलं छागलं शकृत्॥२४४॥ **
प्रपौण्डरीकं यष्ट्याह्वं2370दार्वी कालानुसारिवा।
**एषामष्टपलान् भागान् सुधौताञ्जर्जरीकृतान्॥२४५॥ **
तोये पक्त्वा रसे पूते भूयः पक्वे रसे घने।
**कर्षंच शुक्लमरिचाज्जातीपुष्पान्नवात् पलम्॥२४६॥ **
चूर्णं क्षिप्त्वाकृता वर्तिर्दोषघ्नी दृक्प्रसादनी।
**शङ्खप्रवालवैदूर्यलौहताम्रप्लास्थिभिः॥२४७॥ **
स्रोतोजश्वेतमरिचैर्वर्तिः सर्वाक्षिरोगनुत्।
**शाणार्धं मरिचाद्द्वौच पिप्पल्यर्णवफेनयोः॥२४८॥ **
शाणार्धं सैन्धवाच्छाणान्नव सौवीरकाञ्जनात्।
**पिष्टं सुसूक्ष्मं चित्रायां चूर्णाञ्जनमिदं शुभम्॥२४९॥ **
कण्डूकाचकफार्तानां मलानां च विशोधनम्।
**बस्तमूत्रे त्र्यहं स्थाप्यमेलाचूर्णंसुभावितम्॥२५०॥ **
चूर्णांजनं2371 च तैमिर्यक्रिमिपैल्लमलापहम्।
सौवीरमञ्जनं तुत्थं ताप्यो धातुर्मनःशिला॥२५१॥
चक्षुष्या मधुकं लोहा मणयः पौष्पमञ्जनम्।
**सैन्धवं शौकरी दंष्ट्रा कतकं चाञ्जनं शुभम्॥२५२॥ **
तिमिरादिषु चूर्णं वा वर्तिर्वेयमनुत्तमा।
**कतकस्य फलं शङ्खः सैन्धवं त्र्यूषणं सिता॥२५३॥ **
फेनो रसाञ्जनं क्षौद्रं विडङ्गानि मनःशिला।
कुक्कुटाण्डकपालानि वर्तिरेषा व्यपोहति।
तिमिरं पटलं काचं मलं चाशु सुखावती॥२५४॥
** इति सुखावती वर्तिः। **
त्रिफला कुक्कुटाण्डत्वक्कासीसमयसो रजः।
**नीलोत्पलं विडङ्गानि फेनंच सरितां पतेः॥२५५॥ **
आजेन पयसा पिष्ट्वा भावयेत्ताम्रभाजने।
**सप्तरात्रस्थितं भूयः पिष्ट्वा क्षीरेण वर्तयेत्॥२५६॥ **
**एषा दृष्टिप्रदा वर्तिरन्धस्याभिन्नक्षुषः। **
** इति दृष्टिप्रदा वर्तिः। **
**वदने कृष्णसर्पस्य निहितं मासमञ्जनम्॥२५७॥ **
ततस्तस्मात् समुद्धृत्य सुशुष्कं चूर्णयेहद्बुधः।
**सुमनःकोरकैः शुष्कैरर्धांशैःसैन्धवेन च॥२५८॥ **
एतन्नेत्राञ्जनं2372 कार्यं तिमिरघ्नमनुत्तमम्।
**पिप्पल्यः2373 किंशुकरसो वसा सर्पस्य सैन्धवम्॥२५९॥ **
जीर्णं घृतं च सर्वाक्षिरोगनघ्नी स्याद्रसक्रिया।
**कृष्णसर्पवसा क्षौद्रं रसो धात्र्या रसक्रिया॥२६०॥ **
शस्ता सर्वाक्षिरोगेषु2374 काचार्बुदमलेषु च।
**धात्रीरसाञ्जनक्षौद्रसर्पिर्भिस्तु रसक्रिया॥२६१॥ **
पित्तरक्ताक्षिरोगघ्नीतैमिर्यपटलापहा।
धात्रीसैन्धवपिप्पल्यस्तुल्याल्पमरिचा भवेत्॥२६२॥
क्षौद्रयुक्ता निहन्त्यान्ध्यं पटलं च रसक्रिया।
** इति नेत्ररोगचिकित्सा।**
**खालित्ये पलिते बल्यां हरिलोम्निच शोषितम्॥२६३॥ **
नस्यैस्तैलैः शिरोवक्रप्रलेपैश्चाप्युपाचरेत्।
**सिद्धं विदारीगन्धाद्यैर्जीवनीयैरथापि च॥२६४॥ **
नस्यं स्यादणुतैलं वा खालित्यपलितापहम्।
**क्षीरात्2375 सहचराद्भृङ्गरजसः सौरसाद्रसात्॥२६५॥ **
प्रस्थैस्तु कुडवस्तैलाद्यष्ट्याह्वपलकल्कितः।
**सिद्धः शैलासने भाण्डे मेषशृङ्गे2376 च संस्थितः॥२६६॥ **
नस्यं स्याद्भिषजा सम्यग्योजितं पलितापहम्।
**भिषजा2377 क्षीरपिष्टौ वा दुग्धिकाकरवीरकौ॥२६७॥ **
उत्पाठ्य पलिते देयौ तावुभौ पलितापहौ।
**मार्कवस्वरसात्2378 क्षीराद्द्विप्रस्थं मधुकात् पलम्॥२६८॥ **
तैः पचेत् कुडवं तैलात्तन्नस्यं पलितापहम्।
**आदित्यवल्ल्या2379 मूलानि कृष्णशैरेयकस्य च॥२६९॥ **
सुरसस्य च पत्राणि फलं कृष्णशणस्य च।
**मार्कवः काकमाची च मधुकं देवदारु च॥२७०॥ **
पृथग्दशपलांशानि पिप्पली त्रिफलाऽञ्जनम्।
**प्रपौण्डरीकं मञ्जिष्ठा लोध्रं कृष्णागुरूत्पलम्॥२७१॥ **
आम्रास्थि कर्दमः कृष्णो मृणालं रक्तचन्दनम्।
**नीली भल्लातकास्थीनि कासीसं मदयन्तिका॥२७२॥ **
सोमराज्यसनः शस्त्रं कृष्णौ पिण्डीतचित्रकौ।
**पुष्करार्जुनकाश्मर्याण्याम्रजम्बूफलानि च॥२७३॥ **
पृथक् पञ्चपलांशानि2380 तैः पिष्टैराढकं पचेत्।
**बैभीतकस्य तैलस्य धात्रीरसचतुर्गुणम्॥२७४॥ **
कुर्यादादित्यपाकं वा यावच्छुष्को भवेद्रसः।
**लोहपात्रे ततः पूतं संशुद्धमुपयोजयेत्॥२७५॥ **
पाने नस्तःक्रियायां च शिरोभ्यङ्गे तथैव च।
**एतच्चक्षुष्यमायुष्यं शिरसः सर्वरोगनुत्॥२७६॥ **
महानीलमिति ख्यातं पलितघ्नमनुत्तमम्।
** इति महानीलतैलम्।**
**प्रपौण्डरीकमधुकपिप्पलीचन्दनोत्पलैः॥२७७॥ **
कार्षिकैस्तैलकुडवो द्विगुणामलकीरसः।
**सिद्धः स प्रतिमर्शः स्यात् सर्वमूर्धगदापहः॥२७८॥ **
क्षीरं प्रियालयष्ट्याह्वेजीवकाद्यो गणस्तिलाः।
**कृष्णा वक्रे2381 प्रलेपः स्याद्धरिलोमनिवारणः॥२७९॥ **
यष्ट्याह्वंतिलकिञ्जल्कं क्षौद्रमामलकानि च।
**बृंहयेद्रञ्जयेच्चैतत् केशान्मूर्धप्रलेपनम्॥२८०॥ **
पचेत् सैन्धवशुक्ताम्लैरयश्चूर्णंसतण्डुलम्।
**तेनालिप्तं शिरः शुद्धमस्निग्धमुषितं निशि॥२८१॥ **
तत् प्रातस्त्रिफलाधौतं स्यात् कृष्णमृदुमूर्धजम्।
अयश्चूर्णोऽम्लपिष्टश्च रागः सत्रिफलो वरः॥२८२॥
इति खालित्यचिकित्सा।
सर्पींष्युपरिभक्तानि स्वरभेदेऽनिलात्मके।
**तैलैश्चतुष्प्रयोगैश्च2382 बलारास्नामृताह्वयैः॥२८३॥ **
बर्हितित्तिरिदक्षाणां पञ्चमूलीशृतान्रसान्।
**मायूरं क्षीरसर्पिर्वा पिबेन्त्र्यूषणमेव वा॥२८४॥ **
पैत्तिके तु विरेकः स्यात् पयश्च मधुरैः शृतम्।
सर्पिर्गुडा जीवनीयं वासासिद्धं घृतं तथा॥२८५॥
कफजे स्वरभेदे तु तीक्ष्णं मूर्धविरेचनम्।
**विरेको वमनं धूमो यवान्नकटुसेवनम्॥२८६॥ **
वचाभार्ग्यभयाव्योषक्षारमाक्षिकचित्रकान्।
**लिह्याद्वा पिप्पलीपथ्ये तीक्ष्णं मद्यं पिबेच्च सः॥२८७॥ **
रक्तजे स्वरभेदे तु संस्कृता जाङ्गला रसाः।
**द्राक्षाविदारीरसाः सघृतक्षौद्रशर्कराः॥२८८॥ **
यच्चोक्तं क्षयकासघ्नं तच्च सर्वं चिकित्सितम्।
**पित्तजस्वरभेदघ्नं सिरावेधश्च रक्तजे॥२८९॥ **
सन्निपाते हिताः सर्वाः क्रिया न तु सिराविधिः।
**इत्युक्तं स्वरभेदस्य समासेन चिकित्सितम्॥२९०॥ **
कुर्याच्छेषेषु रोगेषु क्रियां स्वां स्वाच्चिकित्सितात्।
शेषेष्वादौ च निर्दिष्टा सिद्धौ चान्या प्रवक्ष्यते॥२९१॥
** इति स्वरभेदचिकित्सा। **
** भवन्ति चात्र।**
वातपित्तकफा नॄणां बस्तिहृन्मूर्धसंश्रयाः।
**तस्मात्ते स्थानसामीप्याद्धर्तव्या वमनादिभिः॥२९२॥ **
अध्यात्मलोको वाताद्यैर्लोको वातरवीन्दुभिः।
**पीड्यते धार्यते चैव विकृताविकृतैस्तथा॥२९३॥ **
विरुद्धैरपि न त्वेते गुणैर्घ्नन्ति परस्परम्।
दोषाः सहजसात्म्यत्वाद्विषं घोरमहीनिव॥२९४॥
**
तत्र श्लोकः।**
त्रिमर्मजानां रोगाणां निदानाकृतिभेषजम्।
विस्तरेण पृथग्दिष्टं त्रिमर्मीये चिकित्सिते॥२९५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
** त्रिमर्मीयचिकित्सितं नाम षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥**
सप्तविंशोऽध्यायः।
अथात ऊरुस्तम्भचिकित्सितं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
श्रिया परमया ब्राह्मया परया च तपःश्रिया।
**अहीनं चन्द्रसूर्याभ्यां सुमेरुमिवं2383 पर्वतम्॥३॥ **
धीधृतिस्मृतिविज्ञानज्ञानकीर्तिक्षमालयम्।
**अग्निवेशोऽत्रिजं काले संशयं परिपृष्टवान्॥४॥ **
भगवन् पञ्च कर्माणि समस्तानि पृथक् तथा।
**निर्दिष्टान्यामयानां ते सर्वेषामेव भेषजम्॥५॥ **
दोषजोऽस्त्यामयः कश्चिद्यस्यैतानि भिषग्वर।
**न स्युः शक्तानि शमने साध्यस्य क्रियया सतः॥६॥ **
अस्त्यूरुस्तम्भ इत्युक्ते गुरुणा तस्य कारणम्।
**सलिङ्गभेषजं भूयः पृष्टस्तेनाब्रवीद्गुरुः॥७॥ **
स्निग्धोष्णलघुशीतानि जीर्णाजीर्णे समश्नतः।
**द्रवशुष्कदधिक्षीरग्राम्यानूपौदकामिषैः॥८॥ **
पिष्टव्यापन्नमद्यातिदिवास्वप्नप्रजागरैः।
**लङ्घनाध्यशनायासभयवेगविधारणैः॥९॥ **
स्नेहाच्चामं चितं कोष्ठे वातादीन्मेदसा सह।
**रुद्ध्वाऽऽशु गौरवादूरू यात्योधोगैः सिरादिभिः॥१०॥ **
पूरयन् सक्थिजङ्घोरु दोषो मेदोबलोत्कटः।
अविधेयपरिस्पन्दं जनयत्यल्पविक्रमम्2384॥११॥
महासरसि गम्भीरे पूर्णेऽम्बु स्तिमितं यथा।
**तिष्ठति स्थिरमक्षोभ्यं तद्वदूरुगतः कफः॥१२॥ **
गौरवायाससङ्कोचदाहरुक्सुप्तिकम्पनैः।
भेदस्फुरणतोदैश्च युक्ता देहं निहन्त्यसून्॥१३॥
ऊरू श्लेष्मा समेदस्को वातपित्तेऽभिभूय तु।
**स्तम्भयेत् स्थैर्यशैत्याभ्यामूरुस्तम्भस्ततः स्मृतः॥१४॥ **
प्राग्रूपं ध्याननिद्रातिस्तै2385मित्यारोचकज्वराः।
**लोमहर्षश्च छर्दिश्च जङ्घोर्वोः सदनं तथा॥१५॥ **
वातशङ्किभिरज्ञानात्तस्य स्यात् स्नेहनात्2386 पुनः।
**पादयोः सदनं सुप्तिः कृच्छ्रादुद्धरणं तथा॥१६॥ **
जङ्घोरुग्लानिरत्यर्थं शश्वच्चादाहवेदने।
**पदं च व्यथते2387 न्यस्तं शीतस्पर्शं न वेत्ति च॥१७॥ **
संस्थाने पीडने गत्यां चलने चाप्यनीश्वरः।
**अन्यनेयौ हि संभग्नावूरू पादौ च मन्यते॥१८॥ **
यदा दाहार्तितोदार्तो चेपनः पुरुषो भवेत्।
**ऊरुस्तम्भस्तदा हन्यात् साधयेदन्यथा2388 नवम्॥१९॥ **
तस्य न स्नेहनं कार्यं न बस्तिर्न विरेचनम्।
**न चैव वमनं यस्मात्तन्निबोधत कारणम्॥२०॥ **
वृद्धये श्लेष्मणो नित्यं स्नेहनं बस्तिकर्म च।
**तत्स्थस्योद्धरणे चैव न समर्थं विरेचनम्॥२१॥ **
कफंकफस्थानगतं2389 पित्तं च वमनात् सुखम्।
**हर्तुमामाशयस्थौ च स्रंसनात्तावुभावपि॥२२॥ **
पक्वाशयस्थाः सर्वेऽपि बस्तिभिर्मूलनिर्जयात्।
शक्या न त्वाममेदोभ्यां स्तब्धा जङ्घोरुसंस्थिताः॥२३॥
वातस्थाने हि तच्छैत्याद्वायोः2390 स्तम्भाच्च तद्गताः।
**न शक्याः सुखमुद्धर्तुं जलं निम्नादिव स्थलात्॥२४॥ **
तस्य संशमनं नित्यं क्षपणं शोषणं तथा।
**युक्त्यपेक्षी भिषक् कुर्यादधिकत्वात् कफामयोः॥२५॥ **
सदा रूक्षोपचाराय यवश्यामाककोद्रवान्।
**शाकैरलवणैर्दद्याज्जलतैलोपसाधितैः॥२६॥ **
सुनिषण्णकनिम्बार्कवेत्रारग्वधपल्लवैः।
**वायसीवास्तुकैरन्यैस्तिक्तैश्च कुलकादिभिः॥२७॥ **
क्षारारिष्टप्रयोगाश्च हरीतक्यास्तथैव च।
**मधूदकस्य पिप्पल्या ऊरुस्तम्भविनाशनाः॥२८॥ **
समङ्गां शाल्मलीं हिंस्रां मधुना सह ना पिबेत्।
**तथा श्रीवेष्टकोदीच्यदेवदारुनतानि च॥२९॥ **
चन्दनं धातकीं कुष्ठं तालीसं नलदं तथा।
**मुस्तं हरीतकीं लोध्रं पद्मकं तिक्तरोहिणीम्॥३०॥ **
देवदारु हरिद्रेद्वे वचां कटुकरोहिणीम्।
**पिप्पलीं पिप्पलीमूलं सरलं देवदारु च॥३१॥ **
चव्यं चित्रकमूलानि देवदारु हरीतकीम्।
**भल्लातकं समूलां च पिप्पलीं पञ्च तान् पिबेत्॥३२॥ **
सक्षौद्रानर्धरूपोक्तान्2391 कल्कानूरुग्रहापहान्।
**शार्ङ्गेष्टां मदनं दन्तीं वत्सकस्य2392 फलं व ( त्व) चाम्॥३३॥ **
मूर्वामारग्वधं पाठां करञ्जं कुलकं तथा।
**पिबेन्मधुयुतं तुल्यं चूर्णं वा वारिणाऽऽप्लुतम्॥३४॥ **
सक्षौद्रं दधिमण्डं वाऽप्यूरुस्तम्भविनाशनम्।
**मूर्वामतिविषां कुष्ठं चित्रकं कटुरोहिणीम्॥३५॥ **
पूर्ववद्वा पिबेत्तोये रात्रिस्थितमथापि वा।
**स्वर्णक्षीरीमतिविषां मुस्तं तेजोवतीं वचाम्॥३६॥ **
सुराह्वंचित्रक्रं कुष्ठं पाठां कटुकरोहिणीम्।
**लेहयेन्मधुना चूर्णं सक्षौद्रं वा जलान्वितम्2393॥३७॥ **
फलीं व्याघ्रनखं हेम पिबेद्वा मधुसंयुतम्।
**त्रिफलां पिप्पलीं मुस्तं चव्यं कटुकरोहिणीम्॥३८॥ **
लिह्याद्वा2394 मधुना चूर्णमुरुस्तम्भार्दितो नरः।
**अपतर्पणजश्चेत् स्याद्दोषः संतर्पयेद्धि तम्॥३९॥ **
युक्त्या च जाङ्गलैर्मांसैः पुराणैश्चैव शालिभिः।
**रूक्षणाद्वातकोपश्चेन्निद्रानाशार्तिपूर्वकः॥४०॥ **
स्नेहस्वेदक्रमस्तत्र कार्यो वातामयापहः।
**पीलुपर्णी पयस्या च रास्ना गोक्षुरको वचा॥४१॥ **
सरलागुरुपाठाश्च2395 तैलमेभिर्विपाचयेत्।
**सक्षौद्रं प्रसृतं तस्मादञ्जलिं वाऽपि ना पिबेत्॥४२॥ **
कुष्ठं श्रीवेष्टकोदीच्यं सरलं दारु केशरम्।
**अजगन्धाऽश्वगन्धा च तैलं तैः सार्षपं पचेत्॥४३॥ **
सक्षौद्रं मात्रया तच्चाप्यूरुस्तम्भार्दितः पिबेत्।
**द्वे पले सैन्धवात् पञ्च शुण्ठ्या ग्रन्थिकचित्रकात्॥४४॥ **
द्वे द्वे भल्लातकास्थीनि विंशतिर्द्वे तथाऽऽढके।
**आरनालात् पचेत् प्रस्थं तैलस्यैतैरपत्यदम्॥४५॥ **
गृध्रस्यूरुमहार्शोर्तिसर्ववातविकारनुत्।
**पलाभ्यां पिप्पलीमूलनागरादष्टकट्वरः॥४६॥ **
तैलप्रस्थः समो दध्ना गृध्रस्यूरुग्रहापहः।
** इत्यष्टकट्वरतैलम्।**
**इत्याभ्यन्तरमुद्दिष्टमूरुस्तम्भस्य भेषजम्॥४७॥ **
श्लेष्मणः क्षपणं त्वन्यद्वाह्यं शृणु चिकित्सितम्।
**वल्मीकमृत्तिका मूलं करञ्जस्य2396 फलं त्वचम्॥४८॥ **
पिष्ट्वा सर्षपमूलं तु व्युषितं स्यात् प्रलेपनम्।
**इष्टकानां ततश्चूर्णैः कुर्यादुत्सादनं भृशम्॥४९॥ **
मूलैर्वाऽप्यश्वगन्धाया मूलैरर्कस्य वा भिषक्।
**पिचुमर्दस्य वा मूलैरथवा देवदारुणः॥५०॥ **
श्रौद्रसर्षपवल्मीकमृत्तिकासंयुतैर्भिषक्।
**गाढमुत्सादनं कुर्यादुरुस्तम्मे प्रलेपनम्॥५१॥ **
दन्तीद्रवन्तीसुरसासर्षपैश्चापि बुद्धिमान्।
**तर्कारीशिग्रुसुरसबिल्ववत्सकनिग्बजैः2397॥५२॥ **
पत्रमूलफलैस्तोयं शृतमुष्णं च सेचनम्।
**वैत्सकः2398 सुरसं कुष्ठं गन्धास्तुम्बुरुशिग्रुकौ॥५३॥ **
हिङ्ग्वर्कमूलवल्मीकमृत्तिकाः सकुठेरकाः।
**दधिसैन्धवसंयुक्तं कार्यमेतैः प्रलेपनम्॥५४॥ **
श्योनाकं खदिरं बिल्वं बृहत्यौ सरलासनौ2399।
**शोभाञ्जनकतर्कारीश्वदंष्ट्रासुरसार्जकान्॥५५॥ **
अग्निमन्थकञ्जौच जलेनोत्क्वाथ्य सेचयेत्।
**प्रलेपो मूत्रपिष्टैर्वाऽप्यूरुस्तम्भनिवारणः॥५६॥ **
कफक्षयार्थं शक्येषु2400 व्यायामेष्वनुयोजयेत्।
**स्थलान्याक्रामयेत् कल्यं शर्कराः सिकतास्तथा॥५७॥ **
प्रतारयेत् प्रतिस्रोतो नदीं शीतजलां शिवाम्।
**सरश्चविमलं शीतं स्थिरतोयं पुनः पुनः॥५८॥ **
तथा विशुष्केऽस्य कफे शान्तिमूरुग्रहो व्रजेत्।
**श्लेष्मणः क्षपणं यत् स्यान्न2401 च मारुतकोपनम्॥५९॥ **
तत् सर्वं सर्वदा कार्यमूरुस्तम्भस्य भेषजम्।
शरीरं बलमग्निं च कार्यैषा रक्षता क्रिया॥६०॥
तत्र श्लोकः।
हेतुः प्राग्रूपलिङ्गानि2402 कर्मायोग्यत्वकारणम्।
द्विविधं भेषजं चोक्तमूरुस्तम्भचिकित्सिते॥६१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
** ऊरुस्तम्भचिकित्सितं नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥**
अष्टाविंशोऽध्यायः।
अथातो वातव्याधिचिकित्सितमध्यायं
**व्याख्यास्यामः॥१॥ **
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
वायुरायुर्बलं वायुर्वायुर्धाता शरीरिणाम्।
**वायुर्विश्वमिदं सर्वं प्रभुर्वायुश्च कीर्तितः॥३॥ **
अव्याहतगतिर्यस्य स्थानस्थः प्रकृतौ स्थितः।
**वायुः स्यात् सोऽधिकं जीवेद्वीतरोगः समाः शतम्॥४॥ **
प्राणोदानसमानाख्यव्यानापानैः स पञ्चधा।
**देहं तन्त्रयते सम्यक् स्थानेष्वव्याहतश्चरन्॥५॥ **
स्थानं प्राणस्य मूर्धोरःकर्णजिह्वास्यनासिकाः।
**ष्ठीवनक्षवथूद्गारश्वासाहारादि कर्म च॥६॥ **
उदानस्य पुनः स्थानं नाभ्युरः कण्ठ एव च।
**वाक्प्रवृत्तिः प्रयत्नौर्जौ बलवर्णादि कर्म च॥७॥ **
स्वेददोषाम्बुवाहीनि स्रोतांसि समधिष्ठितः।
**अन्तरग्नेश्च पार्श्वस्थः समानोऽग्निबलप्रदः॥८॥ **
देहं व्याप्नोति सर्वं तु व्यानः शीघ्रगतिर्नृणाम्।
**गतिप्रसरणाक्षेपनिमेषादिक्रियः सदा॥९॥ **
वृषणौ बस्तिमेढ्रं च श्रोण्यूरु2403 वंक्षणौ गुदम्।
**अपानस्थानमन्त्रस्थः शुक्रमूत्रशकृन्ति सः॥१०॥ **
सृजत्यार्तवगर्भैच, युक्ताः स्थानस्थिताश्च ते।
**स्वकर्म कुर्वते देहो धार्यते तैरनामयः॥११॥ **
विमार्गस्था ह्ययुक्ता वा रोगैः स्वस्थानकर्मजैः।
**शरीरं पीडयन्त्येते प्राणानाशु हरन्ति च॥१२॥ **
सङ्ख्यामप्यतिवृत्तानां तज्जानां हि प्रधानतः।
**अशीतिर्नखभेदाद्या रोगाः सूत्रे निदर्शिताः॥१३॥ **
तानुच्यमानान् पर्यायैः सहेतूपक्रमाञ्छृणु।
**केवलं वायुमुद्दिश्य स्थानभेदात्तथाऽऽवृतम्॥१४॥ **
रूक्षशीताल्पलध्वन्नव्यवायातिप्रजागरैः।
**विषमादुपचाराच्च दोषासृक्स्रवणादति॥१५॥ **
लङ्घनप्लवनात्यध्वव्यायामातिविचेष्टितैः।
**धातूनां संक्षयाच्चिन्ताशोकरोगातिकर्षणात्॥१६॥ **
दुःखशय्यासनात् क्रोधाद्दिवास्वप्नाद्भयादपि।
**वेगसंधारणादामादभिघातादभोजनात्॥१७॥ **
मर्माघाताद्गजोष्ट्राश्वशीघ्रयानापतंसनात्2404।
**देहे स्रोतांसि रिक्तानि पूरयित्वाऽनिलो बली॥१८॥ **
करोति विविधान् व्याधीन् सर्वाङ्गैकाङ्गसंश्रितान्2405।
**अव्यक्तं लक्षणं तेषां पूर्वरूपमिति स्मृतम्॥१९॥ **
आत्मरूपं तु यव्द्यक्तमपायो लघुता पुनः।
**सङ्कोचः पर्वणां स्तम्भो भेदोऽस्थ्नां पर्वणामपि॥२०॥ **
लोमहर्षः प्रलापश्च पादपृष्ठशिरोग्रहः2406।
**खाञ्ज्यपाङ्गुल्यकुब्जत्वं शोषोऽङ्गानामनिद्रता॥२१॥ **
गर्भशुक्ररजोनाशः स्पन्दनं गात्रसुप्तता।
**शिरोनासाक्षिजत्रूणां ग्रीवायाश्चापि हुण्डनम्॥२२॥ **
भेदस्तोदार्तिराक्षेपो मोहश्चायाम एव च।
**एवंविधानि रूपाणि करोति कुपितोऽनिलः॥२३॥ **
हेतुस्थानविशेषाच्चभवेद्रोगविशेषकृत्।
**तत्र कोष्ठाश्रिते दुष्टे निग्रहो मूत्रवर्चसोः॥२४॥ **
ब्रध्नहृद्रोगगुल्मार्शःपार्श्वशूलं च मारुते।
**सर्वाङ्गकुपिते वाते गात्रस्फुरणभञ्जने2407॥२५॥ **
वेदनाभिः परीतस्य स्फुटन्तीवास्य सन्धयः।
**ग्रहो विण्मूत्रवातानां शूलाध्मानाश्मशर्कराः॥२६॥ **
जङ्घोरुत्रिकपात्पृष्ठरोगशोषा गुदस्थिते।
**हृन्नाभिपार्श्वोदररुक्तृष्णोद्गारविसूचिकाः॥२७॥ **
कासः कण्ठास्यशोषश्च श्वासश्चामाशयस्थिते।
**पक्वाशयस्थोऽन्त्रकूजं शूलाटोपौ करोति च॥२८॥ **
कृच्छ्रमूत्रपुरीषत्वमानाहं त्रिकवेदनाम्।
**श्रोत्रादिष्विन्द्रियवधं कुर्याद्दुष्टसमीरणः॥२९॥ **
त्वग्रूक्षा स्फुटिता सुप्ता कृशा कृष्णा च तुद्यते।
**आतन्यते सरागा च पर्वरुक् त्वग्गतेऽनिले॥३०॥ **
रुजस्तीव्राः ससन्तापा वैवर्ण्यंकृशताऽरुचिः।
**गात्रे चारूंषि भुक्तस्य स्तम्भश्चासृग्गतेऽनिले॥३१॥ **
गुर्वङ्गं तुद्यते स्तब्धं दण्डमुष्टिहतं यथा।
**सरुक् श्रमितमत्यर्थं2408मांसभेदोगतेऽनिले॥३२॥ **
भेदोऽस्थिपर्वणां सन्धिशूलं मांसबलक्षयः।
**अस्वप्नः सन्तता रुक् च मज्जास्थिकुपितेऽनिले॥३३॥ **
क्षिप्रं मुञ्चति बध्नाति शुक्रं गर्भमथापि वा।
**विकृतिं जनयेच्चापि शुक्रस्थः कुपितोऽनिलः॥३४॥ **
बाह्याभ्यन्तरमायामं खल्लिं कुब्जत्वमेव च।
**सर्वाङ्गैकाङ्गरोगांश्च कुर्यात् स्नायुगतोऽनिलः॥३५॥ **
शरीरं2409 मन्दरुक्शोफं शुष्यति स्पन्दतेऽपि वा।
**सुप्तास्तन्व्योमहत्यो वा सिरा वाते सिरागते॥३६॥ **
वातपूर्णदृतिस्पर्शः शोथः सन्धिगतेऽनिले।
**प्रसारणाकुञ्चनयोः प्रवृत्तिश्च सवेदना॥३७॥ **
इत्युक्तं स्थानभेदेन वायोर्लक्षणमेव च।
**अतिवृद्धः शरीरार्धमेकं वायुः प्रपद्यते॥३८॥ **
यदा तदोपशोष्यासृग्बाहुं पादं च जानु च।
**तस्मिन् सङ्कोचयत्यर्धे मुखं जिह्मं करोति हि॥३९॥ **
वक्रीकरोति नासाभ्रूललाटाक्षिहनूस्तथा।
**ततो वक्रं व्रजत्यास्ये2410 भोजनं वक्रदर्शिनः॥४०॥ **
स्तब्धं नेत्रं कथयतः क्षवथुश्च निगृह्यते।
**दीना जिह्वा समुत्क्षिप्ता कला2411 सज्जति चास्य वाक्॥४१॥ **
दन्ताश्चलन्ति बाध्येते श्रवणौ भिद्यते स्वरः।
**पार्श्वहस्ताक्षिजङ्घोरुशङ्खश्रवणगण्डरुक्॥४२॥ **
अर्धे तस्मिन्मुखार्धे वा केवले स्यात्तदर्दितम्।
**मन्ये संश्रित्य वातोऽन्तर्यदा नाडीः प्रपद्यते॥४३॥ **
मन्यास्तम्भं तदा कुर्यादन्तरायामसंज्ञितम्।
**अन्तरायम्यते ग्रीवा मन्या च स्तभ्यते भृशम्॥४४॥ **
दन्तानां दशनं2412 लाला पृष्ठाक्षेपः शिरोग्रहः2413।
**जृम्भा वचनसङ्गश्चाप्यन्तरायामलक्षणम्॥४५॥ **
पृष्ठमन्याश्रिता बाह्याःशोषयित्वा सिरा बली।
**वायुः कुर्याद्धनुस्तम्भं बहिरायामसंज्ञकम्॥४६॥ **
चापवन्नाभ्यमानस्य पृष्ठतो नीयते2414 शिरः।
**उर उत्क्षिप्यते मन्या स्तब्धा ग्रीवाऽवमृद्यते॥४७॥ **
दन्तानां दशनं जृम्भा लालास्रावश्च वाग्ग्रहः।
**जातवेगो निहन्त्येष वैकल्यं वा प्रयच्छति॥४८॥ **
हनुमूले स्थितो बन्धात् स्रंसयत्यनिलो हनुम्2415।
विवृतास्यत्वमथवा कुर्यात् स्तब्धमवेदनम्॥४९॥
हनुग्रहं स संस्तभ्य हनू2416 संवृतवक्रताम्।
**मुहुराक्षिपति क्रुद्धो गात्राण्याक्षेपकोऽनिलः॥५०॥ **
पाणिपादं च संशोष्य सिराः सस्नायुकण्डराः।
**पाणिपादशिरःपृष्ठश्रोणीः स्तभ्नाति2417 मारुतः॥५१॥ **
दण्डवत् स्तब्धगात्रस्य दण्डकः सोऽनुपक्रमः।
**स्वस्थः स्यादर्दिताद्यानां मुहुर्वेगागमे2418 गते॥५२॥ **
हत्वैकं मारुतः पक्षं दक्षिणं वाममेव वा।
**कुर्याच्चेष्टानिवृत्तिं2419 हि रुजं वाक्सङ्गमेव च॥५३॥ **
गृहीत्वाऽस्य शरीरार्धं सिराः स्नायुर्विशोष्य च।
**पादं संकोचयत्येकं हस्तं वा तोदशूलकृत्॥५४॥ **
एकाङ्गरोगं तं विद्यात् सर्वाङ्गं सर्वदेहजम्।
**स्फिक्पूर्वा कटिपृष्ठोरुजानुजङ्घापदं क्रमात्॥५५॥ **
गृध्रसी स्तम्भरुक्तोदैर्गृह्णाति स्पन्दते2420 मुहुः।
**वाताद्वातकफात्तन्द्रागौरवारोचकान्विता॥५६॥ **
खल्ली तु पापजङ्घोरुकरमूलावमोटनी।
**स्थाननामानुरूपैश्च लिङ्गैः शेषान् विनिर्दिशेत्॥५७॥ **
सर्वेष्वेतेषु संसर्गंपित्ताद्यैरुपलक्षयेत्।
**वायोर्धातुक्षयात् कोपो मार्गस्थावरणेन2421 च (वा)॥५८॥ **
वातपित्तकफा देहे सर्वस्रोतोऽनुसारिणः।
प्लोषः प्रादेशिको दाहो निःस्वेदोऽरतिवार्जितः। दावो मुखौष्ठगण्डेषु दाववत् संप्रवर्तते॥ दवथुश्चक्षुरादिस्थस्तीव्रोऽयं संप्रवर्तते। अन्तर्मार्गो हि कोष्ठाख्य उक्तस्तिस्रैषणाह्वये॥ अध्याये तत्र यो दाहः सोऽन्तर्दाहः प्रकीर्तितः। खरनादे विनिर्दिष्टमिदमोषादिलक्षणम्॥ तत्र वं (सं) युक्तमोषादि प्रदेशेष्वपि षठ्य (च्य) ते। प्लोषः सर्वाङ्गकोऽप्यस्ति दावोऽप्यस्ति मुखेऽपि हि॥ दवथुश्चक्षुरादिभ्यः पृथक्त्वेऽन्यत्र पठ्यते। अर्न्तदाहस्तथा कोष्ठादन्यत्रापि हि पच्य (ठ्य) ते॥ अन्तर्वेगे ज्वरे सर्वदेहाभ्यन्तरगो हि सः। शोथादिविषये चित्राः प्रायेणोषादिवेदनाः॥ तेषु तेषु प्रदेशेषु तन्त्रेऽस्मिन्नेव कीर्तिताः। लोकाश्रयत्वाच्छब्दार्थो लोकादेवाधिगम्यते॥ इत्यागमानुसारेण भूयो लक्षणमुच्यते। ऊष्माणमुद्वमेद्या तु संगमानुगताऽपि च॥ प्रदेशे सर्वदेहे वा साऽवस्था ह्योष उच्यते। यत्र संवेद्यते गात्रं प्लुक्ष(ष्य)माणमिवाग्निना॥ ईदृशी वेदना या तु प्लोष ओषाधिकोऽधिकम्। दावस्तु दाववद्यस्य प्रसरः संप्रतार्यते॥ अग्निज्वालेव तस्याशु वेदना संप्रधावति। दवथुर्योऽर्कसंतापसमस्तापोऽनुभूयते॥ अन्तःशरीरमाश्रित्य यो दाहः संप्रवर्तते। बहिर्न लक्ष्यते तद्वत् सोऽन्तर्दाहः प्रकीर्तितः॥ स्वाभाविकाच्छरीरौष्ण्यादधिको योदरादिषु॥ ऊष्माधिक्यं तु तज्ज्ञेयं कथितार्थं स्वसंज्ञया। पाणिपादांसमूलेषु विविधेषु च यः स्थितः॥ सोपतापो नृणां दाहः स विदाह इति स्मृतः॥ धूमायनं शिरोग्रीवाकण्ठतालुषु धूमकः। सकोष्ठदाहहृच्छ्रलमम्लोद्गिरणमम्लकः॥ यस्त्वंसदाहस्त्वचि च गात्रे हरितपीतता। पूतितिक्तास्यता चैव लोहगन्धास्यता तथा॥ जीवादानमतृप्तत्वं हारिद्रत्वं नखादिषु। एषां लोकप्रसिद्ध्या च नाम्ना चोक्तं स्वलक्षणम्॥ रोम्णां तु सलिलं स्वेदो ज्ञेयो यः स्याच्छ्रमादिभिः। तैर्विना प्रबलो यः स्यात् सोऽतिस्वेदो बलापहः॥ रक्तस्वेदस्तु तत्काष्णर्यंदौर्गन्ध्यं चापि तस्य तत्। तैर्मुखे पिडकाकोठरक्तदाहज्वरप्रदाः॥ बहलं बहुदेशस्थं पृथुदाहोष्मरागवत्। रक्तत्वान्मण्डलत्वाच्च रक्तमण्डलमुच्यते॥ आसनादुत्थितो यस्तु प्रविष्टं मन्यते तमः। आत्मानं मन्यते चाशु प्रवेशस्तमसीह सः॥ नीलानां सत्त्वमङ्गानां प्रदेशेष्वपि सर्वगम्। शीते च्छाये च तत्र स्यान्नीलिकां तां विनिर्दिशेत्॥विषयेष्वप्रबलता श्रोत्रादीनां सचेतसाम्। स्तैमित्यमिति विज्ञेयं तमेवाहुः प्रमीलकम्॥ तृप्तस्येवास्पृहाऽऽहारे तृप्तिरित्यभिधीयते। क्रियानिवृत्तिरालस्यं। हृल्लेप इव हृल्लेपः सादोऽङ्गाप्रभविष्णुता। उत्कर्षेणार्दना उक्ता उद्धर्षः शीतवेपथुः॥ पित्तश्लेष्मामयास्तत्र वातजैः सह कीर्तिताः। वातरोगप्रसङ्गेन तेनास्मिन केचिदीरिताः॥” इति।
**वायुरेव हि सूक्ष्मत्वाद्द्वयोस्तत्राप्युदीरणः2422॥५९॥ **
कुपितस्तौ समुद्धूय तत्र तत्र क्षिपन् गदान्।
**करोत्यावृतमार्गत्वाद्गसादींश्चोपशोषयन्॥६०॥ **
लिङ्गं पित्तावृते दाहस्तृष्णा शूलं भ्रमस्तमः।
**कट्वम्ललवणोष्णैश्च विदाहःशीतकामि (म) ता॥६१॥ **
शीतगौरवशूलानि कट्वाद्युपशयोऽधिकम्।
**लङ्घनायासरूक्षोष्णकामि (म) ता च कफावृते॥६२॥ **
रक्तावृते सदाहार्तिस्त्वङ्मांसान्तरजो भृशम्।
**भवेत् सरागः श्वयथुर्जायन्ते मण्डलानि च॥६३॥ **
कठिनाश्च विवर्णाश्च पिडकाःश्वयथुस्तथा।
**हर्षः पिपीलिकानां च संचार इव मांसगे॥६४॥ **
चलः स्निग्धो मृदुः शीतः शोफोऽङ्गेष्वरुचिस्तथा।
**आढ्यवात इति ज्ञेयः2423 स कृच्छ्रो मेदसाऽऽवृतः॥६५॥ **
स्पर्शमस्थाऽऽवृते2424 तूष्णं पीडनं चामिनन्दति।
**संभज्यते सीदति च सूचीभिरिव तुद्यते॥६६॥ **
मज्जावृते2425 विनामः स्याज्जृम्भणं परिवेष्टनम्।
**शूलं तु पीड्यमाने च पाणिभ्यां लभते सुखम्॥६७॥ **
शुक्रावेगोऽतिवेगो वा निष्फलत्वं च शुक्रगे।
**भुक्ते कुक्षौ च रुग्जीर्णे शाम्यत्यन्नावृतेऽनिले॥६८॥ **
मूत्राप्रवृत्तिराध्मानं बस्तौ मूत्रावृतेऽनिले।
**वर्चसोऽतिविबन्धोऽधः2426 स्वे स्थाने परिकृन्तति॥६९॥ **
व्रजत्याशु जरां स्नेहो भुक्ते चानह्यते नरः।
**चिरात् पीडितमन्नेन दुःखं शुष्कं शकृत् सृजेत्॥७०॥ **
श्रोणीवंक्षणपृष्ठेषु रुग्विलोमश्चमारुतः।
**अस्वस्थं हृदयं चैव वर्चसा त्वावृतेऽनिले॥७१॥ **
सन्धिच्युतिर्हनुस्तम्भः2427 कुञ्जनं कुब्जताऽर्दितः।
**पक्षाघातोऽङ्गसंशोषःपङ्गुत्वं खुडवातता॥७२॥ **
स्तम्भनं चाढ्यवातश्च रोगा मज्जास्थिगाश्च ये।
**एते स्थानस्य गाम्भीर्याद्यत्नात् सिध्यन्ति वा न वा॥७३॥ **
नवान् बलवतस्त्वेतान् साधयेन्निरुपद्रवान्।
**क्रियामतः सिद्धतमां वातरोगापहां शृणु॥७४॥ **
केवलं निरुपष्टम्भमादौ स्नेहैरुपाचरेत्।
**वायुं सर्पिर्वसातैलमज्जपानैर्नरं ततः॥७५॥ **
स्नेहक्लान्तं समाश्वास्य पयोभिः स्नेहयेत् पुनः।
**यूषैर्ग्राम्याम्बुजानूपै रसैर्वा स्नेहसंयुतैः॥७६॥ **
पायसैः कृशरैः साम्ललवणैरनुवासनैः।
**नावनैस्तर्पणैश्चान्नैः सुस्निग्धं स्वेदयेत्ततः॥७७॥ **
स्वभ्यक्तं स्नेहसंयुक्तैर्नाडीप्रस्तरसङ्करैः।
**तथाऽन्यैर्विविधैः स्वेदैर्यथायोगमुपाचरेत्॥७८॥ **
स्नेहाक्तं2428 स्विन्नमङ्गं तु वक्रं स्तब्धमथापि वा।
**यथेष्टमानामयितुं शक्यते शुष्कदारुवत्॥७९॥ **
हर्षतोदरुगायामशोषस्तम्भग्रहादयः।
**स्विन्नस्याशु प्रशाम्यन्ति मार्दवं चोपजायते॥८०॥ **
स्नेहश्च धातून् संशुष्कान् पुष्णात्याशु प्रयोजितः।
**बलमग्निबलं पुष्टिं प्राणांश्चाप्यभिवर्धयेत्॥८१॥ **
असकृत्तं पुनः स्नेह्रैः स्वेदैश्चाप्युपपादयेत्।
**तथा स्नेहमृदौ कोष्ठे न तिष्ठन्त्यनिलामयाः॥८२॥ **
यद्यनेन सदोषत्वात् कर्मणा न प्रशाम्यति।
**मृदुभिः स्नेहसंयुक्तैरोषधैस्तं विशोधयेत्॥८३॥ **
घृतं तिल्वकसिद्धं वा सातलासिद्धमेव वा।
**पयसैरण्डतैलं वा पिबेद्दोषहरं शिवम्॥८४॥ **
स्निग्धाम्ललवणोष्णाद्यैराहारैर्हि मलश्चितः।
**स्रोतो बद्ध्वाऽनिलं रुन्ध्यात्तस्मात्तमनुलोमयेत्॥८५॥ **
दुर्बलो योऽविरेच्यः स्यात्तं निरूहैरुपाचरेत्।
**पाचनैर्दीपनीयैर्वा भोजनैस्तद्युतैर्नरम्॥८६॥ **
संशुद्धस्योत्थिते चाग्नौ स्नेहस्वेदौ पुनर्हितौ।
**स्वाद्वम्ललवणस्निग्धैराहारैः सततं पुनः॥८७॥ **
नावनैर्धूमपानैश्च सर्वानेवोपपादयेत्।
(इति सामान्यतः प्रोक्तं वातरोगचिकित्सितम्2429।)
**विशेषतस्तु कोष्ठस्थे वाते क्षारं2430 पिबेन्नरः॥८८॥ **
पाचनैर्दीपनैर्युक्तैरन्नैर्वा2431 पाचयेन्मलान्।
**गुदपक्वाशयस्थे तु कर्मोदावर्तनुद्धितम्॥८९॥ **
आमाशयस्थे शुद्धस्य यथादोषहरी क्रिया।
**सर्वाङ्गकुपितेऽभ्यङ्गो बस्तयः सानुवासनाः॥९०॥ **
स्वेदाभ्यङ्गावगाहाश्च हृद्यं चान्नं, त्वगाश्रिते।
**शीताः प्रदेहा, रक्तस्थे विरेको रक्तमोक्षणम्॥९१॥ **
विरेको मांसभेदःस्थे निरूहाः शमनानि च।
**बाह्याभ्यन्तरतः स्नेहैरस्थिमज्जगतं जयेत्॥९२॥ **
प्रहर्षोऽन्नं च शुक्रस्थे बलशुक्रकरं हितम्।
**विबद्धमार्गं दृष्ट्वा वा शुक्रं दद्याद्विरेचनम्॥९३॥ **
विरिक्तप्रतिभुक्तस्य पूर्वोक्तां कारयेत् क्रियाम्।
**गर्भे शुष्के तु वातेन बालानां चापि2432 शुष्यताम्॥९४॥ **
सिताकाश्मर्यमधुकैर्हितमुत्थापने पयः।
**हृदि प्रकुपिते सिद्धमंशुमत्या पयो हितम्॥९५॥ **
मत्स्यान्नाभिप्रदेशस्थे सिद्धान् बिल्वशलाटुभिः।
**वायुना वेष्ट्यमाने तु गात्रे स्यादुपनाहनम्॥९६॥ **
तैलं संकुचितेऽभ्यङ्गो2433 माषसैन्धवसाधितम्।
**बाहुशीर्षगते नस्यं पानं चोत्तरभक्तिकम्॥९७॥ **
बस्तिकर्म त्वधो नाभेः शस्यते चावपीडकः।
**अर्दिते नावनं मूर्ध्नि तैलं तर्पणमेव च॥९८॥ **
नाडीस्वेदोपनाहाश्चाप्यानूपपिशितैर्हिताः2434।
**स्वेदनं स्नेहसंयुक्तं पक्षाघाते विरेचनम्॥९९॥ **
अन्तरा कण्डराड्गुल्फं2435 सिरा बस्त्यग्निकर्म च।
**गृध्रसीषु प्रयुञ्जीत खल्लयां तूष्णोपनाहनम्॥१००॥ **
पायसैः कृशरर्मांसैः शस्तं तैलघृतान्वितैः।
**व्यात्तानने2436 हनुं स्विन्नामङ्गुष्ठाभ्यां प्रपीड्य च॥१०१॥ **
प्रदेशिनीभ्यां चोन्नाम्य चिबुकोन्नामनं हितम्।
**स्रस्तं स्वं गमयेत् स्थानं स्तब्धं2437 स्विनं विनामयेत्॥१०२॥ **
प्रत्येकं स्थानदूष्यादिक्रियावैशेष्यमाचरेत्।
**सर्पिस्तैलवसामज्जसेकाभ्यञ्जनबस्तयः2438॥१०३॥ **
स्निग्धाः स्वेदा निवातं च स्थानं प्रावरणानि च।
**रसाःपयांसि भोज्यानि स्वाद्वम्ललवणानि च॥१०४॥ **
बृंहणं यच्च तत् सर्वंप्रशस्तं वातरोगिणाम्।
**बलायाः पञ्चमूलस्य दशमूलस्य वा रसे॥१०५॥ **
अजशीर्षाम्बुजानूपमांसादपिशितैः पृथक्।
**साधयित्वा रसानु स्निग्धान्दध्यम्लव्योषसंस्कृतान्॥१०६॥ **
भोजयेद्वातरोगार्तंतैर्व्यक्तलवणैर्नरम्।
**एतैरेवोपनाहांश्च पिशितैः संप्रकल्पयेत्॥१०७॥ **
घृततैलयुतैः साम्लैः क्षुण्णस्विन्नैरनस्थिभिः।
**पत्रोत्क्वाथपयस्तैलद्रोण्यः स्युरवगाहने॥१०८॥ **
स्वभ्यक्तानां प्रशस्यन्ते सेकाश्चानिलरोगिणाम्।
**आनूपौदकमांसानि दशमूलं शतावरीम्॥१०९॥ **
कुलत्स्थान् बदरान्माषांस्तिलान् रास्नांयवान् बलाम्।
**वसादध्यारनालाम्लैः सह कुम्भ्यां विपाचयेत्॥११०॥ **
नाडीस्वेदं प्रयुञ्जीत पिष्टैश्चैवोपनाहनम्।
**तैश्च सिद्धं घृतं तैलमभ्यङ्गं पानमेव च॥१११॥ **
मुस्तं किण्वं तिलाः कुष्ठं सुराहं लवणं नतम्।
**दधिक्षीरचतुःस्नेहैः सिद्धं स्थादुपनाहनम्॥११२॥ **
उत्कारिकावेशवारक्षीरमाषतिलौदनैः।
**एरण्डबीजगोधूमयवकोलस्थिरादिभिः॥११३॥ **
सस्नेहैःसरुजं गात्रमालिप्य बहुलं भिषक्।
**एरण्डपत्रैर्बध्नीयाद्रात्रौ कल्यं विमोक्षयेत्॥११४॥ **
क्षीराम्बुना2439 ततः सिक्तं पुनश्चैवोपनाहितम्।
**मुञ्चेद्रात्रौ दिवाबद्धं चर्मभिश्च सलोमभिः॥११५॥ **
फलानां तैलयोनीनामम्लपिष्टानशीतलान्।
**प्रदेहानुपनाहांश्च गन्धैर्वातहरैरपि॥११६॥ **
पायसैः कृशरैश्चैव कारयेत् स्नेहसंयुतैः।
**रूक्षशुद्धानिलार्तानामतः स्नेहान् प्रचक्ष्महे॥११७॥ **
विविधान् विविधव्याधिप्रशमायामृतोपमान्।
**द्रोणेऽम्भसः पचेद्भागान् दशमूलाच्चतुष्पलान्॥११८॥ **
यवकोलकुलत्थानां भागैः प्रस्थोन्मितैः सह।
**पादशेषे रसे पिष्टैर्जीवनीयैः सशर्करैः॥११९॥ **
तथा खर्जूरकाश्मर्यद्राक्षाबदरफल्गुभिः।
**सक्षीरैः सर्पिषः प्रस्थः सिद्धः केवलवातनुत्॥१२०॥ **
निरत्ययः प्रयोक्तव्यः पानाभ्यञ्जनबस्तिषु।
**चित्रकं नागरं रास्नांपौष्करं पिप्पलीं शटीम्॥१२१॥ **
पिष्ट्वा विपाचयेत् सर्पिर्वातरोगहरं परम्।
**बलाबिल्वशृतैः क्षीरैर्घृतमण्डं विपाचयेत्॥१२२॥ **
तस्य शुक्तिः प्रकुञ्चो वा नस्यं मूर्धगतेऽनिले।
**धन्वानूपौदकानां2440 तु भिवाऽस्थीनि पचेज्जले॥१२३॥ **
तं स्नेहं दशमूलस्य कषायेण पुनः पचेत्।
**जीवकर्षभकास्फोताविदारीकपिकच्छुभिः॥१२४॥ **
वातघ्नैर्जीवनीयैश्च कल्कैर्द्विक्षीरभागिकम्।
**तत् सिद्धं नावनाभ्यङ्गात्तथा पानानुवासनात्॥१२५॥ **
सिरापर्वास्थिकोष्ठस्थं प्रणुदत्याशु मारुतम्।
**ये स्युः प्रक्षीणमज्जानः क्षीणशुक्रौजसश्च ये॥१२६॥ **
बलपुष्टिकरं तेषामेतत् स्यादमृतोपमम्।
**तद्वत्सिद्धा वसा नक्रमत्स्यकूर्मचुलूकजा॥१२७॥ **
प्रत्यग्रा विधिनाऽनेन नस्यपानेषु2441 शस्यते।
**प्रस्थःस्यान्त्रिफलायास्तु कुलत्थकुडवद्वयम्॥१२८॥ **
कृष्णगन्धात्वगाढक्योः पृथक् पञ्चपलं भवेत्।
**रास्नाचित्रकयोर्द्वे द्वे दशमूलं पलोन्मितम्॥१२९॥ **
जलद्रोणे पचेत् पादशेषे प्रस्थोन्मितं पृथक्।
**सुरारनालदध्यम्लसौवीरकतुषोदकम्॥१३०॥ **
कोलदाडिमवृक्षाम्लरसं2442 तैलं वसां घृतम्।
**मज्जानं च पयश्चैव जीवनीयपलानि षट्॥१३१॥ **
कल्कं2443 दत्त्वा महास्नेहं सम्यगेभिर्विपाचयेत्2444 विपाचयेत् इति पा०")।
सिरामज्जास्थिगे वाते सर्वाङ्गैकाङ्गरोगिषु॥१३२॥
वेपनाक्षेपशूलेषु तदभ्यङ्गे प्रयोजयेत्।
**निर्गुण्ड्या मूलपत्राभ्यां गृहीत्वा स्वरसं ततः2445॥१३३॥ **
तेन सिद्धं समं तैलं नाडीकुष्ठानिलार्तिषु2446।
**हितं पामापचीनां च पानाभ्यञ्जनपूरणम्॥१३४॥ **
कार्पासास्थिकुलत्थानां रसे सिद्धं च वातनुत्।
**मूलकस्बरसे क्षीरसमे स्थाप्यंत्र्यहं दधि॥१३५॥ **
तस्याम्लस्य त्रिभिः प्रस्यैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत्।
**यष्ट्याह्वशर्करारास्रालवणार्द्रकनागरैः॥१३६॥ **
सुपिष्टैः पलिकैः पानात्तदभ्यङ्गाच्च वातनुत्।
**पञ्चमूलीकषायेण पिण्याकं बहुवार्षिकम्॥१३७॥ **
पक्त्वाऽम्भसि रसे तस्मिंस्तैलप्रस्थं विपाचयेत्।
**पयसाऽष्टगुणेनैतत् सर्ववातविकारनुत्॥१३८॥ **
संसृष्टे श्लेष्मणा चैतद्वाते शस्तं विशेषतः।
**यवकोलकुलत्थानां श्रेयस्याः शुष्कमूलकात्॥१३९॥ **
बिल्वाच्चाञ्जलिमेकैकं द्रवैरम्लैर्विपाचयेत्।
**तेन तैलं कषायेण फलाम्लैःकटुभिस्तथा॥१४०॥ **
पिष्टैः सिद्धं महावातैरार्तःशीते प्रयोजयेत्।
**सर्ववातविकाराणां तैलान्यन्यान्यतः शृणु॥१४१॥ **
चतुष्प्रयोगाण्यायुष्यबलवर्णकराणि च।
**रजःशुक्रप्रदोषघ्नान्यपत्यजननानि च॥१४२॥ **
निरत्ययानि सिद्धानि सर्वदोषहराणि च।
**सहाचरतुलायाश्च रसे तैलाढकं पचेत्॥१४३॥ **
मूलकल्काद्दशपलं पयो दत्त्वाचतुर्गुणम्।
सिद्धेऽस्मिञ्छर्कराचूर्णादष्टादशपलं भिषक्॥१४४॥
विनीय दारुणेष्वेतद्वातव्याधिषु योजयेत्।
**श्वदंष्ट्रास्वरसप्रस्थौ2447 द्वौ समौ पयसा सह॥१४५॥ **
षट्पलं शृङ्गवेरस्य गुडस्याष्टपलं तथा।
**तैलप्रस्थं विपक्वं तैर्दद्यात् सर्वानिलार्तिषु॥१४६॥ **
जीर्णे तैले च दुग्धेन पेयाकल्पः प्रशस्यते।
**बलाशतं गुडूच्याश्च पादं रास्नाष्टभागिकम्॥१४७॥ **
जलाढकशते पक्त्वा दशभागस्थिते रसे।
**दधिमस्त्विक्षुनिर्यासाशुक्तैस्तैलाढकं समैः॥१४८॥ **
पचेत् साजपयोर्धांशौःकल्कैरेभिः पलोन्मितैः।
**शटीसरलदार्वे (र्व्ये) लामञ्जिष्ठागुरुचन्दनैः॥१४९॥ **
पद्मकातिविषामुस्तसूर्पपर्णीहरेणुभिः।
**यष्ट्याह्वसुरसव्याघ्रनखर्षभकजीवकैः॥१५०॥ **
पलाशरसकस्तूरीनलिकाजातिकोषकैः।
**स्पृक्काकुङ्कुमशैलेयजातीकटुफलाम्बुभिः॥१५१॥ **
त्वचाकुन्दुरुकर्पूरतुरुष्कश्रीनिवासकैः।
**लवङ्गनखकक्कोलकुष्ठमांसीप्रियङ्गुभिः॥१५२॥ **
स्थौणेयतगरध्यामवचादमनकप्लवैः।
**सनागकेशरैः सिद्धे क्षिपेच्चात्रावतारिते॥१५३॥ **
पत्रकल्कं ततः पूतं विधिना तत् प्रयोजयेत्।
**श्वासं कासं ज्वरं मूर्च्छां छार्देंगुल्मान् क्षतं क्षयम्॥१५४॥ **
प्लीहशोषावपस्मारमलक्ष्मीं च प्रणाशयेत्।
बलातैलमिदं श्रेष्ठं वातव्याधिविनाशनम्॥१५५॥
** इति बलातैलम्।**
तुलाः पञ्च गुडूच्यास्तु2448 द्रोणेष्वष्टस्वपां पचेत्।
पादशेषे समक्षीरं तैलस्य द्व्याढकं पचेत्॥१५६॥
चलामांसी2449नतोशीरसारिवाकुष्ठचन्दनैः।
**शतपुष्पाबलामेदामहामेदार्द्धिजीवकैः॥१५७॥ **
काकोलीक्षीरकाकोलीश्रावण्यतिबलानखैः।
**महाश्रावणिजीवन्तीविदारीकपिकच्छुभिः॥१५८॥ **
शतावरीतामलकीकर्कटाख्याहरेणुभिः।
**वचागोक्षुरकैरण्डरास्नाकालासहाचरैः॥१५९॥ **
वीराशल्लकिमुस्तत्वक्पत्रर्षभकचालकैः।
सहैलाकुङ्कुमस्पृक्कात्रिदशाह्वैश्च कार्षिकैः॥१६०॥
मञ्जिष्ठायास्त्रिकर्षेण मधुकाष्टपलेन च।
**कल्कैस्तत् क्षीणवीर्याग्निबलसंमूढचेतसः॥१६१॥ **
उन्मादारत्यपस्मारैरार्तांश्च प्रकृतिं नयेत्।
वातव्याधिहरं श्रेष्ठं तैलाग्र्यममृताह्वयम्॥१६२॥
इत्यमृताद्यं तैलम्।
रास्नासहस्रनिर्यूहे तैलद्रोणं विपाचयेत्।
गन्धैर्हैमवतैः पिष्टैरेलाद्यैश्चानिलार्तिनुत्॥१६३॥
** इति रास्नातैलम्।**
कल्पोऽयमश्वगन्धायां2450 प्रसारण्यां बलाद्वये।
क्वाथकल्कपयोभिर्वा बलादीनां पृथक् पचेत्॥१६४॥
इति बला–नागबला–प्रसारण्यश्वगन्धातैलानि।
मूलकस्वरसं क्षीरं तैलं दध्यम्लकाञ्जिकम्।
**तुल्यं विपाचयेत् कल्कैर्बलाचित्रकसैन्धवैः2451॥१६५॥ **
पिप्पल्यतिविषारास्नाचविकागुरुशिग्रुकैः2452।
भल्लातकवचाकुष्ठश्वदंष्ट्राविश्वभेषजैः॥१६६॥
पुष्कराह्वटीबिल्वशताह्वानतदारुभिः।
तत् सिद्धं पीतमत्युग्रान् हन्ति वातात्मकान् गदान्॥१६७॥
इति मूलकाद्यं तैलम्।
वृषमूलगुडूच्योश्च द्विशतस्य शतस्य च।
अश्वगन्धाचित्रकयोः2453 क्वाथे तैलाढकं पचेत्॥१६८॥
सक्षीरं वायुना भग्ने दद्याज्जर्जरिते तथा।
प्राक्तैलावापसिद्धं च भवेदेतद्गुणोत्तरम्॥१६९॥
** इति वृषमूलादि तैलम्।**
रास्नाशिरीषषष्ट्याह्वशुण्ठीसहचरामृताः।
**श्योनाकदारुशम्पाकहयगन्धात्रिकण्टकाः॥१७०॥ **
एषां दशपलान् भागान् कषायमुपकल्पयेत्।
**ततस्तेन कषायेण सर्वगन्धैश्च कार्षिकैः॥१७१॥ **
दध्यारनालमाषाम्बुमूलकेक्षुरसैः शुभैः।
**पृथक् प्रस्थोन्मितैः सार्धंतैलप्रस्थं विपाचयेत्॥१७२॥ **
प्लीहपार्श्वग्रहश्वासकासमारुतरोगनुत्।
रास्नातैलमितिख्यातं2454 वर्णायुर्बलवर्धनम्॥१७३॥
इति रास्नातैलम्।
यवकोलकुलस्थानां मत्स्यानां शिग्रुबिल्वयोः।
**रसेन मूलकानां च तैलं दधिपयोऽन्वितम्॥१७४॥ **
साधयित्वा भिषग्दद्यात् सर्ववातामयापहम्।
**लशुनस्वरसे सिद्धं तैलमेभिश्च वातनुत्॥१७५॥ **
तैलान्येतान्यृतुस्नातामङ्गनां2455 पाययेत च।
**पीत्वाऽन्यतममेषां हि वन्ध्याऽपि जनयेत् सुतम्॥१७६॥ **
यच्च शीतज्वरे तैलमगुर्वाद्यमुदाहृतम्।
अनेकशतशस्तच्च सिद्धं स्याद्वातरोगनुत्॥१७७॥
वक्ष्यन्ते यानि तैलानि वातशोणितकेऽपि च।
**तानि चानिलशान्त्यर्यंसिद्धिकामःप्रयोजयेत्॥१७८॥ **
नास्ति तैलात् परं किंचिदौषधं मारुतापहम्।
**व्यवाथ्युष्णगुरुस्नेहात् संस्काराद्बलवत्तरम्॥१७९॥ **
गणैर्वातहरैस्तस्माच्छतशोऽथ सहस्रशः।
**सिद्धं क्षिप्रतरं हन्ति सूक्ष्ममार्गस्थितान् गदान्॥१८०॥ **
क्रिया साधारणी सर्वा संसृष्टे चापि शस्यते।
**वाते पित्तादिभिः स्नोतःस्वावृतेषु विशेषतः॥१८१॥ **
पित्तावृते विशेषेण शीतामुष्णां तथा क्रियाम्।
व्यत्यासात् कारयेत् सर्पिर्जीवनीयं च2456 शस्यते॥१८२॥
धन्वमांसं यवाः शालिर्यापनाः क्षीरबस्तयः।
**बिरेकः क्षीरपानं च पञ्चमूलीबलाशृतम्॥१८३॥ **
मधुयष्टिबलातैलघृतक्षीरैश्च सेचनम्।
**पञ्चमूलीकषायेण कुर्याद्वा शीतवारिणा॥१८४॥ **
कफावृते यवान्नानि जाङ्गला मृगपक्षिणः।
**स्वेदास्तीक्ष्णा निरूहाश्च वमनं सविरेचनम्॥१८५॥ **
जीर्णं सर्पिस्तथा2457 तैलं तिलसर्षपजं शुभम्।
**संसृष्टे कफपित्ताभ्यां पित्तमादौ विनिर्जयेत्॥१८६॥ **
आमाशयगतं दृष्ट्वा2458 कफं वमनमाचरेत्।
**पक्वाशये विरेकं तु पित्ते सर्वत्रगे तथा॥१८७॥ **
स्वेदैर्विष्यन्दितः श्लेष्मा यदा पक्वाशये स्थितः।
**पित्तं वा दर्शयेल्लिङ्गं बस्तिभिस्तौ विनिर्हरेत्॥१८८॥ **
श्लेष्मणाऽनुगतं बातमुष्णैर्गोमूत्रसंयुतैः।
**निरूहैःपित्तसंसृष्टं निर्हरेत् क्षीरसंयुतैः॥१८९॥ **
मधुरौषधसिद्धैश्च तैलैस्तमनुवासयेत्।
शिरोगते तु सकफे धूमनस्यादि कारयेत्॥१९०॥
हृते पित्ते कफे यः स्यादुरःस्रोतोनुगोऽनिलः।
**सशेषःस्यात् क्रिया तत्र कार्या केवलवातिकी॥१९१॥ **
रसावृते लङ्घनं स्यात् पाचनादि च शस्यते।
**शोणितेनावृते कुर्याद्वातशोणितकीं2459 क्रियाम्॥१९२॥ **
प्रमेहवातमेदोघ्नीमाढ्यवाते प्रयोजयेत्।
**स्वेदाभ्यङ्गरसक्षीरस्नेहा मांसावृते हिताः॥१९३॥ **
महास्नेहोऽस्थिमज्जस्थे पूर्ववद्रेतसाऽऽवृते।
**अन्नावृते तु वमनं पाचनं दीपनं लघु॥१९४॥ **
मूत्रलानि2460 तु मूत्रेण स्वेदाः सोत्तरबस्तयः।
**शकृता तैलमैरण्डं बस्तिः स्नेहाश्च भेदिनः2461॥१९५॥ **
स्वस्थानस्थो बली दोषः प्राक् तं स्वैरौषधैर्जयेत्।
**वमनैर्वा विरेकैर्वा बस्तिभिः शमनेन वा॥१९६॥ **
मारुतानां हि पञ्चानामन्योन्यावरणे शृणु।
**लिङ्गं व्याससमासाभ्यामुच्यमानं मयाऽनघ॥१९७॥ **
प्राणो वृणोत्युदानादीन्2462 प्राणं वृण्वन्ति तेऽपि च।
**उदानाद्यास्तथाऽन्योन्यं सर्व एव यथाक्रमम्॥१९८॥ **
विंशत्यावरणान्येतान्युल्बणानां परस्परम्।
**मारुतानां हि पञ्चानां तानि सम्यक् प्रतर्कयेत्॥१९९॥ **
सर्वेन्द्रियाणां शून्यत्वं ज्ञात्वा स्मृतिबलक्षयम्।
**व्याने प्राणावृते लिङ्गं कर्म तत्रोर्ध्वजत्रुकम्॥२००॥ **
स्वेदोऽत्यर्थंलोमहर्षस्त्वग्दोषःसुप्तगात्रता।
**प्राणे व्यानावृते तत्र स्नेहयुक्तं विरेचनम्॥२०१॥ **
प्राणावृते समाने स्युर्जडगद्गदमूकताः।
**चतुष्प्रयोगाः शस्यन्ते स्नेहास्तत्र सयापनाः॥२०२॥ **
समानेनावृतेऽपाने ग्रहणीपार्श्वहृद्गदाः।
**शूलं चामाशये तत्र दीपनं सर्पिरिष्यते॥२०३॥ **
शिरोग्रहः प्रतिश्यायो निःश्वासोच्छ्वाससंग्रहः।
हृद्रोगो मुखशोषश्चाप्युदाने प्राणसंवृते॥२०४॥
तत्रोर्ध्वभागिकं कर्म कार्यमाश्वासनं तथा।
**कर्मैजोबलवर्णानां नाशो मृत्युरथापि वा॥२०५॥ **
उदानेनावृते प्राणे तं शनैः शीतवारिणा।
**सिञ्चेदाश्वासयेच्चैव (नं) सुखं चैवोपपादयेत्॥२०६॥ **
ऊर्ध्वगेनावृतेऽपाने2463 छर्दिश्वासादयो गदाः।
**स्युर्वाते तत्र बस्त्यादि भोज्यं चैवानुलोमनम्॥२०७॥ **
मोहोऽल्पोऽभिरतीसार2464 ऊर्ध्वगेऽपानसंवृते।
**वाते स्याद्वमनं तत्र दीपनं ग्राहि चाशनम्॥२०८॥ **
छर्द्याध्मानमुदावर्तगुल्मार्तिः परिकर्तिका।
**लिङ्गं व्यावृतेऽपाने तं स्निग्धैरनुलोमयेत्॥२०९॥ **
अपानेनावृते व्याने भवेद्विण्मूत्ररेतसाम्।
**अतिप्रवृत्तिस्तत्रापि सर्वं संग्रहणं मतम्॥२१०॥ **
मूर्च्छा तन्द्रा प्रलापोऽङ्गसादोऽग्न्योजोबलक्षयः।
**समानेनावृते व्याने व्यायामो लघुभोजनम्॥२११॥ **
स्तब्धताऽल्पाग्निताऽस्वेदश्चेष्टाहानिर्निमीलनम्।
**उदानेनावृते व्याने तत्र पथ्यं मितं लघु॥२१२॥ **
पञ्चान्योन्यावृतानेवं वातान् बुध्येत लक्षणैः।
**एषां स्वकर्मणां हानिर्वृद्धिर्वाऽऽवरणे2465 मता॥२१३॥ **
यथास्थूलं समुद्दिष्टमेतदावरणाष्टकम्2466।
सलिङ्गभेषजं सम्यग्बुधानां2467 बुद्धिवृद्धये॥२१४॥
स्थानान्यवेक्ष्य वातानां वृद्धिं हानिं च कर्मणाम्।
द्वादशावरणान्यन्यान्यभिलक्ष्यभिषग्जितम्॥२१५॥
कुर्यादभ्यञ्जनस्नेहपानबस्त्यादि2468 सर्वशः।
क्रममुष्णमनुष्णं वा व्यत्यासादवचारयेत्॥२१६॥
उदानं योजयेदूर्ध्वमपानं चानुलोमयेत्।
**समानं शमयेच्चैव त्रिधा व्यानं तु योजयेत्॥२१७॥ **
प्राणो रक्ष्यश्चतुर्भ्योऽपि स्थाने ह्यस्य स्थितिर्ध्रुवा।
**स्वस्थानं गमयेदेवं वृतानेतान् विमार्गगान्॥२१८॥ **
मूर्च्छा दाहो भ्रमः शूलं विदाहः शीतकामि (म) ता।
**छर्दनं च विदग्धस्य प्राणे पित्तसमावृते॥२१९॥ **
ष्ठीवनं क्षवथूद्गारनिःश्वासोच्छ्वाससंग्रहः।
**प्राणे कफावृते रूपाण्यरुचिश्छर्दिरेव च॥२२०॥ **
मूर्च्छाद्यानि च रूपाणि दाहो नाभ्युरसः क्लमः।
**ओजोभ्रंशश्च सादश्चाप्युदाने2469 पित्तसंवृते॥२२१॥ **
आवृते श्लेष्मणोदाने वैवर्ण्यं वाक्स्वरग्रहः।
**दौर्बल्यं गुरुगात्रत्वमरुचिश्चोपजायते॥२२२॥ **
अतिस्वेदस्तृषा दाहो मूर्च्छा चारतिरेव2470 च।
**पित्तावृते समाने स्यादुपघातस्तथोष्मणः॥२२३॥ **
अस्वदो वह्निमान्द्यं च लोमहर्षस्तथैव च।
**कफावृते समाने स्याद्गात्राणां चातिशीतता॥२२४॥ **
व्याने पित्तावृते तु स्याद्दाहः सर्वाङ्गगः क्लमः।
गात्रविक्षेपसङ्गश्च ससंतापः सवेदनः॥२२५॥
गुरुता सर्वगात्राणां पर्वसन्ध्यस्थ्यवग्रहः2471।
**व्याने कफावृते लिङ्गं गतिसङ्गस्तथाऽधिकः2472॥२२६॥ **
हारिद्रमूत्रवर्चस्त्वं तापश्च गुदमेढ्रयोः।
**लिङ्गं पित्तावृतेऽपाने रजसश्चातिवर्तनम्॥२२७॥ **
भिन्नामश्लेष्मसंसृष्टगुरुवर्चःप्रवर्तनम्।
**श्लेष्मणा संवृतेऽपाने कफमेहस्य चागमः॥२२८॥ **
लक्षणानां तु मिश्रत्वं पित्तस्य च कफस्य च।
**उपलक्ष्य भिषग्विद्वान् मिश्रमावरणं वदेत्॥२२९॥ **
यद्यस्य वायोर्निर्दिष्टं स्थानं तत्रेतरौ स्थितौ।
**दोषौ बहुविधान् व्याधीन् दर्शयेतां यथानिजान्॥२३०॥ **
आवृतं श्लेष्मपित्ताभ्यां प्राणं चोदानमेव च।
**गरीयस्त्वेन पश्यन्ति भिषजः शास्त्रचक्षुषः॥२३१॥ **
विशेषाज्जीवितं प्राणे उदाने संश्रितं2473 बलम्।
**स्यात्तयोः पीडनाद्धानिरायुषश्च बलस्य च॥२३२॥ **
सर्वेऽप्येतेऽपरिज्ञाताः परिसंवत्सरास्तथा।
**उपेक्षणादसाध्याः स्युरथवा दुरुपक्रमाः॥२३३॥ **
हृद्रोगो विद्रधिः प्लीहा गुल्मोऽतीसार एव च।
**भवन्त्युपद्रवास्तेषामावृतानामुपेक्षणात्॥२३४॥ **
तस्मादावरणं वैद्यः पवनस्योपलक्षयेत्।
**पञ्चात्मकस्य वातस्य2474 पित्तेन श्लेष्मणाऽपि वा॥२३५॥ **
भिषग्जितमतः सम्यगुपलक्ष्य समाचरेत्।
**अनभिष्यन्दिभिः स्निग्धैः स्रोतसां शुद्धिकारिभिः॥२३६॥ **
कफपित्ताविरुद्धं यद्यच्च वातानुलोमनम्।
**सर्वस्थानावृतेऽप्याशु तत् कार्यं मारुते हितम्॥२३७॥ **
यापना बस्तयः प्रायो मधुराः सानुवासनाः।
**प्रसमीक्ष्य बलाधिक्यं मृदु वा स्नंसनं हितम्॥२३८॥ **
रसायनानां सर्वेषामुपयोगः प्रशस्यते।
शैलस्य जतुनोऽत्यर्थं पयसा गुग्गुलोस्तथा॥२३९॥
लेहं वा भार्गवप्रोक्तमभ्यस्येत् क्षीरभुङ्गरः।
**अभयामलकीयोक्तमेकादशसिताशतम्॥२४०॥ **
अपानेनावृते सर्वं दीपनं ग्राहि भेषजम्।
**वातानुलोमनं यच्च पक्वाशयविशोधनम्॥२४१॥ **
इति संक्षेपतः प्रोक्तमावृतानां चिकित्सितम्।
**प्राणादीनां भिषक् कुर्याद्वितर्क्य स्वयमेव तत्॥२४२॥ **
पित्तावृते तु पित्तघ्नैर्मारुतस्यानुलोमनैः2475।
**कफावृते कफघ्नैस्तु मारुतस्यानुलोमनैः॥२४३॥ **
लोके वाय्वर्कसोमानां दुर्विज्ञेया यथा गतिः।
**तथा शरीरे वातस्य पित्तस्य च कफस्य च॥२४४॥ **
क्षयं वृद्धिं समत्वं च तथैवावरणं भिषक्।
विज्ञाय पवनादीनां न विमुह्यति2476 कर्मसु॥२४५॥
तत्र श्लोकौ।
पञ्चात्मनः स्थानवशाच्छरीरे स्थानानि कर्माणि च देहधातोः।
**प्रकोपहेतुः कुपितश्च रोगान्स्थानेषु चान्येषु वृतोऽवृतश्च॥२४६॥ **
प्राणेश्वरः प्राणभृतां करोति क्रिया च तेषामखिला निरुक्ता।
तां देशसात्म्यर्तुबलान्यवेक्ष्य प्रयोजयेच्छास्त्रमतानुसारी॥२४७॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने
** वातव्याधिचिकित्सितं नामाष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥**
**एकोनविंशोऽध्यायः। **
अथातो वातशोणितचिकित्सितं
**व्याख्यास्यामः॥१॥ **
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
हुताग्निहोत्रमासीनमृषिमध्ये पुनर्वसुम्।
पृष्टवान् गुरुमेकाग्रमनिवेशोऽग्निवर्चसम्॥३॥
अनिमारुततुल्यस्य संसर्गस्यानिलासृजोः।
हेतुलक्षणभैषज्यान्यथास्मै गुरुरब्रवीत्॥४॥
लवणाम्लकटुक्षारस्निग्धोष्णाजीर्णभोजनैः।
क्लिन्नशुष्काम्बुजानूपमांसपिण्याकमूलकैः॥५॥
कुलत्थमाषनिष्पावशाकादिपललेक्षुभिः।
**दध्यारनालसौवीरशुक्ततक्रसुरासवैः॥६॥ **
विरुद्धाध्यशनक्रोधदिवास्वप्नप्रजागरैः।
**प्रायशः सुकुमाराणां मिष्टान्नरसभोजिनाम्2477॥७॥ **
(अचङ्क्रमणशीलानां कुप्यते2478 वातशोणितम्।)
**अभिघातादशुद्ध्या च प्रदुष्टे शोणिते नृणाम्॥८॥ **
कषायकटुतिक्ताल्परूक्षाहारादभोजनात्।
**हयोष्ट्रखरयानाम्बुक्रीडाप्लवनलङ्घनात्॥९॥ **
उष्णे चात्यध्वगमनाव्द्यवायाद्वेगनिग्रहात्।
**वायुर्विवृद्धो वृद्धेन रक्तेनावारितः पथि॥१०॥ **
कृत्स्नं संदूषयेद्रक्तं तज्ज्ञेयं वातशोणितम्।
**खुड्डं(डं) वातबलासाख्यमाढ्यवातं च नामभिः॥११॥ **
तस्य स्थानं करौ पादावङ्गुल्यःसर्वसन्धयः।
**कृत्वाऽऽदौ हस्तपादे तु मूलं देहं विधावति॥१२॥ **
सौक्ष्म्यात्2479 सर्वसरत्वाच्च पवनस्यासृजस्तथा।
( तन्मार्गैः सर्वतो यातं द्रवत्वात् सरणादपि2480।
**तद्द्रवत्वात्सरत्वाच्च देहं गच्छेत् सिरायनैः2481 ॥१३॥) **
पर्वस्वभिहतं क्षुब्धं2482 वक्रत्वादवतिष्ठते।
**स्थितं पित्तादिसंसृष्टं तास्ताः सृजति वेदनाः॥१४॥ **
करोति दुःखं तेष्वेव तस्मात् प्रायेण सन्धिषु।
**( भवन्ति2483 वेदनास्तास्ता अत्यर्थं दुःसहा नृणाम्॥१५॥) **
स्वेदोऽत्यर्थं न वा कार्ष्ण्यंस्पर्शाज्ञत्वं क्षतेऽतिरुक्।
**सन्धिशैथिल्यमालस्यं सदनं पिडकोद्गमः॥१६॥ **
जानुजङ्घोरुकठ्यंसहस्तपादाङ्गसन्धिषु।
**निस्तोदः स्फुरणं भेदो गुरुत्वं सुप्तिरेव च॥१७॥ **
कण्डूःसन्धिषु रुग्भूत्वा भूत्वा नश्यति चासकृत्।
**वैवर्ण्यं मण्डलोत्पत्तिर्वातासृक्पूर्वलक्षणम्॥१८॥ **
उत्तानमथ गम्भीरं द्विविधं तत् प्रचक्षते।
**त्वङ्मांसाश्रयमुत्तानं गम्भीरं त्वन्तराश्रयम्॥१९॥ **
कण्डूदाहरुगायामतोदस्फुरणकुञ्चनैः।
**अन्विता श्यावरक्ता त्वग्बाह्ये ताम्रा तथेष्यते2484॥२०॥ **
गम्भीरे श्वयथुः स्तब्धः कठिनोऽन्तर्भृशार्तिमान्।
**श्यावस्ताम्रोऽथवा दाहतोदस्फुरणपाकवान्॥२१॥ **
रुग्विदाहान्वितोऽभीक्ष्णं वायुः सन्ध्यस्थिमज्जसु।
**छिन्दन्निव चरत्यन्तर्वक्रीकुर्वंश्च वेगवान्॥२२॥ **
करोति खञ्जं पङ्गुं वा शरीरे सर्वतश्चरन्।
**सर्वैर्लिङ्गैश्चविज्ञेयं वातासृगुभयाश्रयम्॥२३॥ **
तत्र वातेऽधिके वा स्याद्रक्ते पित्ते कफेऽपि वा।
**संसृष्टेषु समस्तेषु यच्च2485 तच्छृणु लक्षणम्॥२४॥ **
विशेषतः सिरायामशूलस्फुरणतोदनम्।
**शोथस्य कार्ष्ण्यंरौक्ष्यं च श्यावतावृद्धिहानयः॥२५॥ **
धमन्यङ्गुलिसन्धीनां सङ्कोचोऽङ्गग्रहोऽतिरुक्।
**कुञ्चनस्तम्भने शीतप्रद्वेषश्चानिलोत्तरे2486॥२६॥ **
श्वयथुर्भृशरुक् तोदस्ताम्रश्चिमिचिमायते।
**स्निग्धरूक्षैः शमं नैति कण्डूक्लेदान्वितोऽसृजि॥२७॥ **
विदाहो वेदना मूर्च्छा स्वेदस्तृष्णा मदो भ्रमः।
**रागः पाकश्च भेदश्च शोषश्चोक्तानि2487 पैत्तिके॥२८॥ **
स्तैमित्यं गौरवं स्नेहः सुप्तिर्मन्दा च रुक् कफे।
**हेतुलक्षणसंसर्गाद्विद्याद्द्वन्द्वंत्रिदोषजम्॥२९॥ **
एकदोषानुगं साध्यं नवं याप्यं द्विदोषजम्।
त्रिदोषजमसाध्यं स्याद्यस्य2488 च स्युरुपद्रवाः॥३०॥
अस्वप्नारोचकश्वासमांसकोथशिरोग्रहाः।
मूर्च्छायमदरुक्तृष्णाज्वरमोहप्रवेपकाः॥३१॥
हिक्कापाङ्गुल्य2489वीसर्पपाकतोदभ्रमक्लमाः।
**अङ्गुलीवक्रता स्फोटा दाहमर्मग्रहार्बुदाः॥३२॥ **
एतैरुपद्रवैर्वर्ज्यं मोहेनैकेन वाऽपि यत्।
**संप्रस्रावि विवर्णं च स्तब्धमर्बुदकृच्च यत्॥३३॥ **
वर्जयेद्यच्च संकोचकरमिन्द्रियतापनम्।
**अकृत्स्नोपद्रवं याप्यं साध्यं स्यान्निरुपद्रवम्॥३४॥ **
रक्तमार्गं विहत्याशु शाखासन्धिषु मारुतः।
**निवेश्यान्योन्यमावार्य वेदनाभिर्हरेदसून्॥३५॥ **
तत्र मुञ्चेदसृक् शृङ्गजलौकःसूच्यलाबुभिः।
**प्रच्छन्नैर्वा सिराभिर्वा यथादोषं यथाबलम्॥३६॥ **
रुग्दाहतोदरागार्तादसृक् स्नाव्यं जलौकला।
**शृङ्गैस्तुम्बैर्हरेत्2490 सुप्तिकण्डूचिमिचिमाहतम्॥३७॥ **
देशाद्देशं व्रजत् स्राव्यं सिराभिः प्रच्छनेन वा।
अङ्गग्लानौ2491 न स्राव्यं रूक्षे वातोत्तरे च यत्॥३८॥
गम्भीरं श्वयथुं स्तम्भं कम्पं स्नायुसिरामयान्।
ग्लानिं चापि ससङ्कोचां कुर्याद्वायुरसृक्क्षयात्॥३९॥
खाञ्ज्यादीन् वातरोगांश्च मृत्युं चात्यपसेचितम्2492।
कुर्यात्तस्मात् प्रमाणेन स्निग्धाद्रक्तं विनिर्हरेत्॥४०॥
विरेच्यःस्नेहयित्वाऽऽदौ स्नेहयुक्तैर्विरेचनैः।
रूक्षैर्वा मृदुभिः शस्तमसकृद्बस्तिकर्म च॥४१॥
सेकाभ्यङ्गप्रदेहाश्च स्नेहाःप्रायोऽविदाहिनः।
वातरक्ते प्रशस्यन्ते विशेषं तु निबोध मे॥४२॥
बाह्यमालेपनाभ्यङ्गपरिषेकोपनाहनैः।
विरेकास्थापनस्नेहपानैर्गम्भीरमाचरेत्॥४३॥
सर्पिस्तैलवसामज्जपानाभ्यञ्जनबस्तिभिः।
सुखोष्णैरुपनाहैश्च वातोत्तरमुपाचरेत्॥४४॥
विरेचनैर्घृतक्षीरपानैः सेकैःसबस्तिभिः।
शीतैर्निर्वापणैश्चापि रक्तपित्तोत्तरं जयेत्॥४५॥
वमनं मृदु नात्यर्थं स्नेहसेकौ विलङ्घनम्।
कोष्णा लेपाश्च शस्यन्ते वातरक्ते कफोत्तरे॥४६॥
कफवातोत्तरे शीतैः प्रलिप्ते वातशोणिते।
दाहशोथरुजाकण्डूविवृद्धिः स्तम्भनाद्भवेत्॥४७॥
रक्तपित्तोत्तरे चोष्णैर्दाहः क्लेदोऽवदारणम्।
भवेत्तस्माद्भिषग्दोषबलं बुद्ध्वाऽऽचरेत् क्रियाम्॥४८॥
दिवास्वप्नं ससन्तापं व्यायामं मैथुनं तथा।
कटूष्णं गुर्वभिष्यन्दि लवणाम्लं च वर्जयेत्॥४९॥
पुराणयवगोधूमनीवाराःशालिषष्टिकाः।
भोजनार्थे रसार्थे वा विष्किरप्रतुदा हिताः॥५०॥
आढक्यश्चणका मुद्गा मसूराः समकुष्ठकाः।
यूषार्थे बहुसर्पिष्काः प्रशस्ता वातशोणिते॥५१॥
सुनिषण्णकवेत्राग्रकाकमाचीशतावरी।
**वास्तुकोपोदिकाशाकं शाकं सौवर्चलं तथा॥५२॥ **
घृतमांसरसैर्भृष्टं शाकसात्माय दापयेत्।
**व्यञ्जनार्थं तथा गव्यं माहिषाजं पयो हितम्॥५३॥ **
इति संक्षेपतः प्रोक्तं वातरक्तचिकित्सितम्।
**एतदेव पुनः सर्वं2493 व्यासतः संप्रवक्ष्यते॥५४॥ **
श्रावणीक्षीरकाकोलीजीवकर्षभकैः समैः।
**सिद्धं समधुकैः सर्पिः सक्षीरं वातरक्तनुत्॥५५॥ **
बलामतिबलां मेदामात्मगुप्तां शतवरीम्।
**काकोलीं क्षीरकाकोलीं रास्नामृद्धिं च पेषयेत्॥५६॥ **
घृतं चतुर्गुणक्षीरं तैः सिद्धं वातरक्तनुत्।
**हृत्पाण्डुरोगवीसर्पकामलाज्वरनाशनम्2494॥५७॥ **
त्रायन्तिकातामलकीद्विकाकोलीशतावरी2495।
**कशेरुकाकषायेण कल्कैरेतैः पचेद्धृतम्॥५८॥ **
दत्त्वा परूषकद्राक्षाकाश्मर्येक्षुरकान् समान्।
**पृथग्विद्रार्याःस्वरसं2496 तथा क्षीरं चतुर्गुणम्॥५९॥ **
एतत् प्रायोगिकं सर्पिः पारूषकमिति स्मृतम्।
वातरक्ते क्षते क्षीणे वीसर्पे पैत्तिके ज्वरे॥६०॥
** इति पारूषकं घृतम्।**
द्वे पञ्चमूले वर्षाभूमेरण्डं सपुनर्नवम्।
**मुद्गपर्णीं महामेदां माषपर्णीं शतावरीम्॥६१॥ **
शङ्खपुष्पीमवाक्पुष्पीं2497रास्नामतिबलां बलाम्।
**पृथग्द्विपिलिकं2498 कृत्वा जलद्रोणे विपाचयेत्॥६२॥ **
पादशेषे समान् क्षीरधात्रीक्षुच्छागलान् रसान्।
**घृताढकेन संयोज्य शनैर्मृद्वग्निना पचेत्॥६३॥ **
कल्कानावाप्य मेदे द्वे काश्मर्यफलमुत्पलम्।
**त्वक्क्षीरीं पिप्पलीं द्राक्षां पद्मबीजं पुनर्नवाम्॥६४॥ **
नागरं क्षीरकाकोलीं पद्मकं बृहतीद्वयम्।
**वीरां शृङ्गाटकं भव्यमुरुमाणं निकोचकम्॥६५॥ **
खर्जूराक्षोट2499वाताममुञ्जाताभिषुकांस्तथा।
**एतैर्घृताढके सिद्धे क्षौद्रं शीते प्रदापयेत्॥६६॥ **
सम्यक् सिद्धं च विज्ञाय सुगुप्तं संनिधापयेत्।
**कृतरक्षाविधिं तच्च प्राशयेदक्षसंमितम्2500॥६७॥ **
पाण्डुरोगं ज्वरं हिक्कां स्वरभेदं भगन्दरम्।
**पार्श्वशूलं क्षयं कासं प्लीहानं वातशोणितम्॥६८॥ **
क्षतशोषमपस्मारमश्मरीं शर्करां तथा।
**सर्वाङ्गैकाङ्गरोगांश्च मूत्रसङ्गं च नाशयेत्॥६९॥ **
बलवर्णकरं धन्यं वलीपलितनाशनम्।
जीवनीयमिदं सर्पिर्वृष्यं वन्ध्यासुतप्रदम्॥७०॥
** इति जीवनीयं घृतम्।**
द्राक्षामधु (धू) कतोयाभ्यां सिद्धं वा ससितोपलम्।
**पिबेद्धृतं तथा क्षीरं गुडूचीस्वरसे शृतम्॥७१॥ **
जीवकर्षभकौ मेदामृष्यप्रोक्तां शतावरीम्।
**मधुकं मधुपर्णीं च काकोलीद्वयमेव च॥७२॥ **
मुद्गमाषाख्यपर्णिन्यौ दशमूलपुनर्नवे।
**बलाऽमृता विदारी च साश्वगन्धाऽश्मभेदकः॥७३॥ **
एषां2501 कषायकल्काभ्यां सर्पिस्तैलं च साधयेत्।
**लाभतश्च वसा मज्जा धान्वप्रातुदुवैष्किरात्॥७४॥ **
चतुर्गुणेन पयसा तत् सिद्धं वातशोणितम्।
सर्वदेहाश्रितं हन्ति व्याधीन् घोरांश्च वातजान्॥७५॥
स्थिरा श्वदंष्ट्रा बृहती सारिवा सशतावरी।
**काश्मर्याण्यात्मगुप्ता च वृश्चीरं द्वे बले तथा॥७६॥ **
एषां क्वाथे चतुःक्षीरं पृथक् तैलं पृथग् घृतम्।
**मेदाशतावरीयष्टीजीवन्तीजीवकर्षभैः॥७७॥ **
पक्त्वा मात्रा ततः क्षीरत्रिगुणा2502ऽध्यर्धशर्करा।
**खजेन मथिता पेया वातरके त्रिदोषजे॥७८॥ **
तैलं पयः शर्करां च पाययेद्वा समूर्छितम्।
**सर्पिस्तैलसिताक्षौद्रैर्मिश्रं वाऽपि पिबेत् पयः॥७९॥ **
अंशुमत्या शृतः प्रस्थः पयसः2503 ससितोपलः।
**पाने प्रशस्यते तद्वत् पिप्पलीनागरैः शृतः॥८०॥ **
बलाशतावरीरास्नादशमूलैः सपीलुभिः।
**श्यामैरण्डस्थिराभिश्च वातार्तिघ्नं शृतं पयः॥८१॥ **
धारोष्णं मूत्रयुक्तं वा क्षीरं दोषानुलोमनम्।
**पिबेद्वा सत्रिवृच्चूर्णं पित्तरक्तावृतानिलः॥८२॥ **
क्षीरेणैरण्डतैलं वा प्रयोगेण पिबेन्नरः।
**बहुदोषो विरेकार्थं जीर्णे क्षीरौदनाशनः॥८३॥ **
कषायमभयानां2504 वा घृतभृष्टं पिबेन्नरः।
**क्षीरानुपानं त्रिवृताचूर्णंद्राक्षारसेन वा॥८४॥ **
काश्मर्यं त्रिवृतां द्राक्षां त्रिफलां सपरूषकाम्।
**शृतां पिबेद्विरेकाय लवणक्षौद्रसंयुताम्॥८५॥ **
त्रिफलायाः कषायं वा पिबेत् क्षौद्रेण संयुतम्।
**धात्रीहरिद्रामुस्तानां कषायं वा कफाधिके॥८६॥ **
योगैश्च कल्पविहितैरसकृत्तं विरेचयेत्।
**मृदुभिः स्नेहसंयुक्तैर्ज्ञात्वा वातं मलावृतम्॥८७॥ **
निर्हरेद्वा मलं तस्य सघृतैः क्षीरबस्तिभिः।
न हि बस्तिसमं किंचिद्वातरक्तचिकित्सितम्॥८८॥
बस्तिवंक्षणपार्श्वोरुपर्वास्थिजठरार्तिषु।
**उदावर्ते च शस्यन्ते निरूहाः सानुवासनाः॥८९॥ **
दद्यात्तैलानि चेमानि बस्तिकर्मणि बुद्धिमान्।
**नस्याभ्यञ्जनसेकेषु दाहशूलोपशान्तये॥९०॥ **
मधुयष्ट्यास्तुलायास्तु2505 कषाये पादशेषिते।
**तैलाढकं समक्षीरं पचेत् कल्कैः पलोन्मितैः॥११॥ **
शतपुष्पावरीमूर्वापयस्यागुरुचन्दनैः।
**स्थिराहंसपदीमांसीद्विमेदामधुपर्णिभिः॥९२॥ **
काकोलीक्षीरकाकोलीतामलक्यृद्धिपद्मकैः।
जीवकर्षभजीवन्तीत्वक्पत्रनखवालकैः॥९३॥
प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठासारिवैन्द्रीवितुन्नकैः2506।
**चतुःप्रयोगात्तद्धन्ति तैलं मारुतशोणितम्॥९४॥ **
सोपद्रवं साङ्गशूलं सर्वगात्रानुगं तथा।
**वातासृक्पित्तदाहार्तिज्वरघ्नं बलवर्णकृत्॥९५॥ **
मधुकस्य शतं द्राक्षा खर्जूराणि परूषकम्।
**मधुकौदनपाक्यौ च प्रस्थं मुञ्जातकस्य च॥९६॥ **
काश्मर्याढकमित्येतच्चतुर्द्रोणे पचेदपाम्।
**शेषेऽष्टभागे पूते च तस्मिंस्तैलाढकं पचेत्॥९७॥ **
तथाऽऽमलककाश्मर्यविदारीक्षुरसैः समैः।
**चतुर्द्रोणेन पयसा कल्कं दत्त्वा पलोन्मितम्॥९८॥ **
कदम्बामलकाक्षोटपद्मबीजकशेरुकम्।
**शृङ्गाटकं शृङ्गवेरं लवणं2507पिप्पलीं सिताम्॥९९॥ **
जीवनीयैश्च तत् सिद्धं क्षौद्रप्रस्थेन संसृजेत्।
**नस्याभ्यञ्जनपानेषु बस्तौ चापि नियोजयेत्॥१००॥ **
वातव्याधिषु सर्वेषु मन्यास्तम्भे हनुग्रहे।
**सर्वाङ्गैकाङ्गवाते2508 व क्षतक्षीणे क्षतज्वरे॥१०१॥ **
सुकुमारकमित्येतद्वातास्रामयनाशनम्।
स्वरवर्णकरं तैलमारोग्यबलपुष्टिदम्॥१०२॥
** इति सुकुमारकतैलम्।**
गुडूचींमधुकं ह्रस्वं पञ्चमूलं पुनर्नवाम्।
**रास्रामेरण्डमूलं च जीवनीयानि लाभतः॥१०३॥ **
पलानां शतकैर्भागैर्बलापञ्चशतं तथा।
**कोलबिल्वयवान्माषान् कुलत्थांश्चाढकोन्मितान्॥१०४॥ **
काश्मर्याणां सुशुष्काणां द्रोणं द्रोणशतेऽम्भसि।
**साधयेज्जर्जरं धौतं चतुर्द्रोणं च शेषयेत्॥१०५॥ **
तैलद्रोणं पचेत्तेन दत्त्वापञ्चगुणं पयः।
**पिष्ट्वा त्रिपलिकं चैव चन्दनोशीरकेशरम्॥१०६॥ **
पत्रैलागुरुकुष्ठानि तगरं मधुयष्टिकाम्।
**मञ्जिष्ठाष्टपलं चैव तत् सिद्धं सार्वयौगिकम्॥१०७॥ **
वातरक्ते क्षतक्षीणे भारार्ते क्षीणरेतसि।
**वेपनाक्षेपभग्नानां सर्वाङ्गैकाङ्गरोगिणाम्॥१०८॥ **
योनिदोषमपस्मारमुन्मादं विषमज्वरम्2509।
हन्यात् पुंसवनं चैतत्तैलाग्र्यममृताह्वयम्॥१०९॥
** इत्यमृताद्यं तैलम्।**
पद्मवेतसयष्ट्याह्वफेनिलापद्मकोत्पलैः।
**पृथक्पञ्चपलैर्दर्भबलाचन्दनकिंशुकैः॥११०॥ **
जले शृतैः पचेत्तैलप्रस्थं सौवीरसंमितम्।
**लोध्रकालीयकोशीरजीवकर्षभकेशरैः॥१११॥ **
मयन्तीलतापत्रपद्मकेशरपद्मकैः।
प्रपौण्डरीककाश्मर्यमांसीमेदाप्रियङ्गुभिः॥११२॥
कुङ्कुमस्य पलार्धेन मञ्जिष्ठायाःपलेन च।
महापद्ममिदं तैलं वातासृग्ज्वरनाशनम्॥११३॥
** इति महापद्मं तैलम्।**
पद्मकोशीरयष्ट्याह्वरजनीक्वाथसाधितम्।
**स्यात् पिष्टैःसर्जमञ्जिष्ठावीराकाकोलिचन्दनैः॥११४॥ **
खुड्डाकपद्मकमिदं तैलं वातास्रदाहनुत्।
** इति खुड्डाकपद्मकतैलम्।**
**मधुयष्ट्याः पलं पिष्ट्वा तैलप्रस्थं चतुर्गुणे॥११५॥ **
क्षीरे साध्यं शतं कृत्वा तदेव मधुकाच्छृते।
**सिद्धं देयं विषोन्मादवातास्रश्वासकासनुत्2510॥११६॥ **
हृत्पाण्डुरोगवीसर्पकामलादाहनाशनम्।
** इति शतपाकं मधुपर्णीतैलम्।**
**बलाकषायकल्काभ्यां तैलं क्षीरसमं पचेत्॥११७॥ **
सहस्रशतपाकं वा वातासृग्वातरोगनुत्।
**रसायनमिदं श्रेष्ठमिन्द्रियाणां प्रसादनम्॥११८॥ **
**जीवनं बृंहणं स्वर्यं शुक्रासृग्दोषनाशनम्। **
**इति सहस्रपाकं वा शतपाकं बलातैलम्। **
**गुडूचीरसदुग्धाभ्यां तैलं द्राक्षारसेन वा॥११९॥ **
सिद्धं मधुककाश्मर्यरसैर्वा वातरक्तनुत्।
**आरनालाढके तैलं पादसर्जरसं शृतम्॥१२०॥ **
प्रभूते मथितं तोये ज्वरदाहार्तिनुत् परम्।
**समधूच्छिष्टमाञ्जिष्ठं ससर्जरससारिवम्॥१२१॥ **
पिण्डतैलं तदभ्यङ्गाद्वातरक्तरुजापहम्।
** इति पिण्डतैलम्।**
**दक्षमूलशृतं क्षीरं सद्यः शूलनिवारणम्॥१२२॥ **
परिषेकोऽनिलप्राये तद्वत् कोष्णेन सर्पिषा।
**स्नेहैर्मधुरसिद्धैर्वा चतुर्भिः परिषेचयेत्॥१२३॥ **
स्तम्भाक्षेपकशूलार्तं कोष्णैर्दाहे तु शीतलैः।
**तद्वद्गव्याविकच्छागैः क्षीरैस्तैलविमिश्रितैः॥१२४॥ **
क्वाथैर्वा जीवनीयानां पञ्चमूलस्य वा भिषक्।
**द्राक्षेक्षुरसमद्यानि दधिमस्त्वम्लकाञ्जिकम्॥१२५॥ **
सेकार्थं तण्डुलक्षौद्रशर्कराम्बु च शस्यते।
**कुमुदोत्पलपद्माद्यैर्मणिहारैः सचन्दनैः॥१२६॥ **
शीततोयानुगैर्दाहे प्रोक्षणं स्पर्शनं हितम्।
**चन्द्रपादाम्बुसंसिक्ते क्षौमपद्मदलच्छदे॥१२७॥ **
शयने पुलिनस्पर्शे शीतमारुतवीजिते।
**चन्दनार्द्रस्तनकराः प्रिया नार्यः प्रियंवदाः॥१२८॥ **
स्पर्शशीताः सुखस्पर्शा घ्नन्ति दाहं रुजं क्लमम्।
**सरागे सरुजे दाहे रक्तं विस्राव्य लेपयेत्॥१२९॥ **
मधुकाश्वत्थत्वङ्मांसीवीरोदुम्बरशाद्वलैः।
**जलजैर्यवचूर्णैर्वा सयष्ट्याह्वपयोघृतैः॥१३०॥ **
सर्पिषा जीवनीयैर्वा पिष्टैर्लेपोऽर्तिदाहनुत्।
**तिलाः प्रियालं मधुकं बिसं मूलं च वेतसात्2511॥१३१॥ **
आजेन पयसा पिष्टः प्रलेपो दाहरागनुत्।
**प्रपौण्डरीकमञ्जिष्ठादार्वीमधुकचन्दनैः॥१३२॥ **
सितोपलैरकासक्तुमसूरोशीरपद्मकैः2512।
**लेपो रुग्दाहवीसर्परागशोफनिवारणः॥१३३॥ **
पित्तरक्तोत्तरे त्वेते, लेपान्वातोत्तरे शृणु।
**वातघ्नैः साधितः स्निग्धः कृशरो मुद्गपायसः॥१३४॥ **
तिलसर्षपपिण्डाश्चाप्युपनाहा रुजापहाः।
**औदकप्रसहानूपवेशवाराः सुसंस्कृताः॥१३५॥ **
जीवनीयौषधैःस्नेहयुक्ताः स्युरुपनाहने।
**स्तम्भतोदरुगायास (म) शोथाङ्गप्रहनाशनाः॥१३६॥ **
जीवनीयौषधैः सिद्धा सपयस्का वसाऽपि वा।
**घृतं सहचरान्मूलं जीवन्ती छागलं पयः॥१३७॥ **
लेपः पिष्टास्तिलास्तद्वद्भृष्टाः पयसि निर्वृताः।
**क्षीरपिष्टमुमालेपमेरण्डस्य फलानि वा॥१३८॥ **
कुर्याच्छूलनिवृत्त्यर्थं शताह्वामधिकेऽनिले।
**समूलाग्रच्छदैरण्डक्वाथे द्विप्रस्थिकं पृथक्॥१३९॥ **
घृतं तैलं वसा मज्जा चानूपमृगपक्षिणाम्।
**कल्कार्थे जीवनीयानि गव्यं क्षीरमथाजकम्॥१४०॥ **
हरिद्रोत्पलकुष्ठैलाशताह्वाश्वहनच्छदान्2513।
**बिल्बमात्रान् पृथक् पुष्पं काकुभं चापि साधयेत्॥१४१॥ **
मधूच्छिष्टपलान्यष्टौ दद्याच्छीतेऽवतारिते2514।
**शूलेनैषोऽर्दिताङ्गानां लेपः सन्धिगतेऽनिले॥१४२॥ **
वातरक्ते च्युते भग्ने खञ्जे कुब्जे च शस्यते।
**शोफगौरवकण्डवाद्यैर्युक्ते त्वस्मिन् कफोत्तरे॥१४३॥ **
मूत्रक्षा (क्षी) रसुरापक्वघृतमभ्यञ्जने हितम्।
**पद्मकं त्वक् समधुकं सारिवा चेति तैर्घृतम्॥१४४॥ **
सिद्धं समधुशुक्तं स्यात् सेकाभ्यङ्गे कफोत्तरे।
**क्षारस्तैलं गवां मूत्रंजलं च कटुकैः शतम्॥१४५॥ **
परिषेके प्रशंसन्ति वातरक्ते कफोत्तरे।
**लेपःसर्षपनिम्बार्कहिंस्राक्षी (क्षा) रतिलैर्हितः॥१४६॥ **
श्रेष्ठः सिद्धः कपित्थत्वग्घृतक्षीरैः ससक्तुभिः।
**गृहधूमो2515 वचा कुष्ठं शताह्वा रजनीद्वयम्॥१४७॥ **
प्रलेपः शूलनुद्वातरक्ते वातकफोत्तरे।
तगरं त्वक् शताह्वैला कुष्ठं मुस्तं हरेणुका॥१४८॥
दारु व्याघ्रनखं चाम्लपिष्टं वातकफार्तिनुत्।
मधुशिर्हितं तद्वद्वीजं धान्याम्लसंयुतम्॥१४९॥
मुहूर्तं लिप्तमम्लैश्च सिञ्चेद्वातकफोत्तरम्।2516
त्रिफलाव्योषपत्रैलात्वक्क्षीरीचित्रकं वचाम्॥१५०॥
विडङ्गं पिप्पलीमूलं लोमशां वृषकत्वचम्।
ऋद्धिं तामलकीं2517 चव्यं समभागानि पेषयेत्॥१५१॥
कल्यं लिप्तमयस्पात्रे2518 मध्याह्नेभक्षयेत् ततः।
वर्जयेद्दधिशुक्तानि क्षारं वैरोधिकानि च॥१५२॥
वातास्नेसर्वदोषेऽपि हितं शूलार्दिते परम्।
बुद्ध्वा स्थानविशेषांश्च दोषाणां च बलाबलम्॥१५३॥
चिकित्सितमिदं कुर्यादूहापोहविकल्पवित्।
कुपिते मार्गसंरोधान्मेदसो वा कफस्य वा॥१५४॥
अतिवृद्ध्याऽनिले चादौ शस्तं स्नेहनबृंहणम्।
**ब्यायामशोधनारिष्टमूलपानैर्विरेचनैः॥१५५॥ **
तक्राभयाप्रयोगैश्च क्षपयेत् कफमेदसी।
बोधिवृक्षकषायं तु प्रपिबेन्मधुना सह॥१५६॥
वातरक्तं जयत्याशु त्रिदोषमपि दारुणम्।
**पुराणयवगोधूमशीध्वरिष्टसुरासवैः2519॥१५७॥ **
शिलाजतुप्रयोगैश्च गुग्गुलोर्माक्षिकस्य च।
**पश्चाद्वाते2520 क्रियां कुर्याद्वातरक्तप्रसादनीम्॥१५८॥ **
गम्भीरं रक्तमाक्रान्तं स्याच्चेद्वा2521 तद्विवर्जयेत्।
**रक्तपित्तातिवृद्ध्या तु पाकमाशु नियच्छति॥१५९॥ **
भिन्नं स्रवति वा रक्तं विदग्धं पूयमेव वा।
तयोः क्रिया विधातव्या व्यधशोधनरोपणैः॥१६०॥
**कुर्यादुपद्रवाणां च क्रियां स्वात् स्वाच्चिकित्सितात्। **
** तत्र श्लोकाः।**
हेतुः स्थानानि मूलं च यस्मात् प्रायेण2522सन्धिषु॥१६१॥
कुप्यति प्राक्च यद्रूपं द्विविधस्य च लक्षणम्।
पृथक् भिन्नस्य लिङ्गं च दोषाधिक्यमुपद्रवाः॥१६२॥
साध्यं याप्यमसाध्यं च क्रिया साध्यस्य चाखिला।
वातरक्तस्य निर्दिष्टा समासव्यासतस्तथा॥१६३॥
महर्षिणाऽग्निवेशाय तथैवावस्थिकी क्रिया।
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने वातशोणितचिकित्सितं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
___________________
त्रिंशोऽध्यायः।
अथातो योनिव्यापञ्चिचिकित्सितमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
तीर्थदिव्यौषधिमतश्चित्रधातुशिलावतः2523।
पुण्ये हिमवतः पार्श्वे सुरसिद्धर्षिसेविते॥३॥
विहरन्तं तपोयोगात्तत्त्वज्ञानार्थदर्शिनम्।
पुनर्वसुं जितात्मानमग्निवेशोऽनुपृष्टवान्॥४॥
भगवन् यदपत्यानां मूलं नार्यः परं नृणाम्।
तद्विघातो गदैश्चासां क्रियते योनिमश्रितैः॥५॥
तस्मात्तेषां समुत्पत्तिमुत्पन्नानां च लक्षणम्।
सौषधं श्रोतुमिच्छामि प्रजानुग्रहकाम्यया॥६॥
इति शिष्येण पृष्टस्तु प्रोवाच2524र्षिवरोऽत्रिजः।
विंशतिर्व्यापदो योनेर्निर्दिष्टा रोगसंग्रहे॥७॥
मिथ्याचारेण ताः स्त्रीणां प्रदुष्टेनार्तवेन च।
जायन्ते बीजदोषाच्च दैवाच्च शृणु ताः पृथक्॥८॥
वातलाहारचेष्टाया वातलायाःसमीरणः।
विवृद्धो योनिमाश्रित्य योनेस्तोदं सवेदनम्॥९॥
स्तम्भं पिपीलिकासृप्तिमिव कर्कशतां तथा।
**करोति सुप्तिमायासं2525 वातजांश्चापरान् गदान्॥१०॥ **
सा स्यात् सशब्दरुक्फेनतनुरूक्षार्तवाऽनिलात्।
व्यापत् कट्वम्ललवणक्षाराद्यैः पित्तजा भवेत्॥११॥
दाहपाकज्वरोष्णार्ता नीलपीतासितार्तवा।
**भृशोष्णकुणपस्रावा योनिः स्यात् पित्तदूषिता॥१२॥ **
कफोऽभिष्यन्दिभिर्वृद्धो योनिं चेद्दूषयेत्2526 स्त्रियाः।
स शीतां पिच्छिलां कुर्यात् कण्डूग्रस्ताल्पवेदनाम्2527॥१३॥
पाण्डुवर्णां तथा पाण्डुपिच्छिलार्तववाहिनीम्।
समश्नन्त्या रसान् सर्वान् दूषयित्वा त्रयो मलाः॥१४॥
योनिगर्भाशयस्थाः स्त्रैर्योनिं युञ्जन्ति लक्षणैः।
सा भवेद्दाहशूलार्ता श्वेतपिच्छिलवाहिनी॥१५॥
रक्तपित्तकरैर्नार्या रक्तं पित्तेन दूषितम्।
अतिप्रवर्तते योन्या लब्धे गर्भेऽपि सासृजा2528॥१६॥
यो निगर्भाशयस्थं चेत् पित्तं संदूषयेदसृक्।
सारजस्का मता कार्श्यवैवर्ण्यजननी भृशम्॥१७॥
योन्यामधावनात् कण्डूं जाताः कुर्वन्ति जन्तवः।
**सा स्वादचरणा कण्ड्वातयाऽतिनरकाङ्क्षिणी॥१८॥ **
पवनोऽतिव्यवायेन शोफसुप्तिरुजः स्त्रियाः।
**करोति कुपितो योनौ सा चातिचरणा मता॥१९॥ **
मैथुनादतिबालायाः पृष्ठकट्यूरुवङ्क्षणम्2529।
रुजन् दूषयते योनिं वायुः प्राक्चरणा हि सा॥२०॥
गर्भिण्याः श्लेष्मलाभ्यासाच्छर्दिनिश्वासनिग्रहात्।
वायुः क्रुद्धः कफं योनिमुपनीय प्रदूषयेत्॥२१॥
पाण्डुं सतोदमास्रावं श्वेतं स्रवति वा कफम्।
**कफवातामयव्याप्ता सा स्याद्योनिरुपप्लुता॥२२॥ **
पित्तलाया नृसंवासे क्षवथूद्गारधारणात्।
पित्तसंमूर्च्छितो वायुर्योनिं दूषयति स्त्रियाः॥२३॥
शूना2530 स्पर्शाक्षमा सार्तिर्नीलपीतमसृक् स्रवेत्।
श्रोणिवंक्षणपृष्ठार्तिज्वरार्तायाः परिप्लुता॥२४॥
वेगोदावर्तनाद्योनिमुदावर्तयतेऽनिलः।
सा रुगार्तारजः कृच्छ्रेणोदावृत्तं विमुञ्चति॥२५॥
आर्तवे सा विमुक्ते तु तत्क्षणं लभते सुखम्।
रजसो गमनादूर्ध्वं ज्ञेयोदावर्तिनी बुधैः॥२६॥
अकाले वाहमानाया गर्भेण पिहितोऽनिलः।
कर्णिकां जनयेद्योनौ श्लेष्मरक्तेन मूर्च्छितः॥२७॥
रक्तमार्गावरोधिन्या सा तया कर्णिनी मता।
रौक्ष्याद्वायुर्यदा गर्भं जातं जातं विनाशयेत्॥२८॥
दुष्टशोणितजं नार्याः पुत्रघ्नी नाम सा मता।
व्यवायमतितृप्ताया भजन्त्यास्त्वन्नपीडितः॥२९॥
वायुर्मिथ्यास्थिताङ्गाया योनिस्रोतसि संस्थितः।
**वक्रयत्याननं योन्याः सास्थिमांसानिलार्तिभिः॥३०॥ **
भृशार्तिर्मैथुनाशक्ता योनिरन्तर्मुखी मता।
गर्भस्थायाः स्त्रिया रौक्ष्याद्वायुर्योनिं प्रदूषयन्॥३१॥
मातृदोषादणुद्वारां कुर्यात् सूचीमुखी तु सा।
**व्यवायकाले रुन्धन्त्या वेगान्प्रकुपितोऽनिलः॥३२॥ **
कुर्याद्विण्मूत्रसङ्गार्तिं शोषं योनिमुखस्य च।
षडहात् सप्तरात्राद्वा शुक्रं गर्भाशयं गतम्॥३३॥
सरुजं नीरुजं वाऽपि या स्रवेत् सा च वामिनी।
बीजदोषात्तुगर्भस्थमारुतोपहताशया॥३४॥
नृद्वेषिण्यस्तनी चैव षण्ढी स्वादनुपक्रंमा।
**विषमं दुःखशय्यायां मैथुनात् कुपितोऽनिलः॥३५॥ **
नर्भाशयस्य योन्याश्च मुखं विष्टम्भयेत् स्त्रियाः।
असंवृतमुखी सार्तिः2531 सफेनार्तववाहिनी॥३६॥
मांसोत्सन्ना महायोनिः पर्ववंक्षणशूलिनी।
इत्येतैर्लक्षणैः प्रोक्ता विंशतिर्योनिजा गदाः॥३७॥
न शुक्रं धारयत्येभिर्दोषैर्योनिरुपद्रुता।
तस्माद्गर्भं न गृह्णाति स्त्री गच्छत्यामयान् बहून्॥३८॥
गुल्मार्शःप्रदरादींश्च वाताद्यैश्चातिपीडनम्।
**आसां षोडश यास्त्वन्त्या2532 आद्ये द्वे पित्तदोषजे॥३९॥ **
परिप्लुता वामिनी च वातपित्तात्मिके मते।
कर्णिन्युपप्लुते वातकफाच्छेषास्तु वातजाः॥४०॥
देहं वातादयस्तासां स्वैर्लिङ्गैः पीडयन्ति हि।
स्नेहनस्वेदबस्त्यादि वातलास्वनिलापहम्॥४१॥
कारयेद्रक्तपित्तघ्नं शीतं पित्तकृतासु च।
श्लेष्मलासु च रूक्षोष्णं कर्म कुर्याद्विचक्षणः॥४२॥
सन्निपाते विमिश्रं तु संसृष्टासु च कारयेत्।
**स्निग्धस्विन्नां तथा योनिं दुःस्थितां स्थापयेत् पुनः॥४३॥ **
पाणिना नामयेज्जिह्मां सवृतां2533 वर्धयेत् पुनः।
**प्रवेशयेन्निःसृतां च विवृतां परिवर्तयेत्॥४४॥ **
योनिः स्थानापवृत्ता हि शल्यभूता स्त्रिया मता।
सर्वां व्यापन्नयोनिं तु कर्मभिर्वमनादिभिः॥४५॥
मृदुभिः पञ्चभिर्नारीं स्निग्धस्विन्नामुपाचरेत्।
सर्वतः सुविशुद्धायाः शेषं कर्म विधीयते॥४६॥
वातव्याधिहरं कर्म वातार्तानां सदा हितम्।
औदकानूपजैर्मांसैः क्षीरैः सतिलतण्डुलैः॥४७॥
सवातघ्नौषधैर्नाडीकुम्भीस्वेदैरुपाचरेत्।
अक्तां लवणतैलेन साश्मप्रस्तरसङ्करैः॥४८॥
स्विन्नां कोष्णाम्बुसिक्ताङ्गीं वातघ्नैर्भोजयेद्रसैः।
**बलद्रोणद्वयक्वाथे घृततैलाढकद्वयम्2534॥४९॥ **
स्थिरापयस्यजीवन्तीवीरर्षभकजीवकैः।
श्रावणीपिप्पलीपीलुमुद्गमाषाख्यपर्णिभिः॥५०॥
शर्कराक्षीरकाकोलीकाकनासाभिरेव च।
**पिष्टैश्चतुर्गुणक्षीरसिद्धं पेयं यथाबलम्॥५१॥ **
वातपित्तकृतान् रोगान् हत्वा गर्भं दधाति तत्।
**काश्मर्यत्रिफलाद्राक्षाकासमपरूषकैः॥५२॥ **
पुनर्नवाद्विरजनीकाकनासासहाचरैः।
शतावर्या गुडूच्या च प्रस्थमक्षसमैर्घृतात्2535॥५३॥
साधितं योनिवातघ्नं गर्भदं परमं पिबेत्।
पिप्पलीकुञ्चिकाजाजी वृषकं सैन्धवं वचाम्॥५४॥
यवक्षाराजमोदे च शर्करां चित्रकं तथा।
**पिष्ट्वाप्रसन्नयाऽऽलोड्य2536 घृतभृष्टानि पाययेत्॥५५॥ **
योनिपार्श्वार्तिहृद्रोगगुल्मार्शोविनिवृत्तये।
वृषकं मातुलुङ्गस्य मूलानि मदयन्तिकाम्॥५६॥
पिबेत् सलवणैर्मद्यैः पिप्पलीकुञ्चिके2537 तथा।
रास्नाश्वदंष्ट्रावृषकैः शृतं शूले पिबेत् पयः॥५७॥
गुडूचीत्रिफलादन्तीक्वाथैश्च परिषेचयेत्।
सैन्धवं तगरं कुष्ठं बृहती देवदारु च॥५८॥
समांशैः साधितं कल्कैस्तैलं धार्यं रुजापहम्।
**गुडूचीमालतीरास्राबलामधुकचित्रकैः॥५९॥ **
निदिग्धिकादेवदारुयूथिकाभिश्च कार्षिकैः।
तैलप्रस्थं गवां मूत्रे क्षीरे च द्विगुणे पचेत्॥६०॥
वातार्तायै2538 पिचुं तस्माद्योनौ च प्रणयेत् सदा।
**हिंस्राकल्कं तु वातार्ता कोष्णमभ्यज्य धारयेत्॥६१॥ **
पञ्चवल्कस्य पित्तार्ता श्यामादीनां कफातुरा।
**पित्तलानां तु योनीनां सेकाभ्यङ्गपिचुक्रियाः॥६२॥ **
शीताः पित्तहराः कार्याः स्नेहनार्थं घृतानि च।
(पित्तघ्नौषधसिद्धानि कार्याणि भिषजा तथा2539॥६३॥
शतावरीमूलतुलाश्चतस्रः संप्रपीडयेत्।
रसेन क्षीरतुल्येन पचेत्तेन2540घृताढकम्॥६४॥
जीवनीयैः शतावर्या मृद्धीकाभिः परूषकैः।
प्रियालैश्चाक्षकैः2541 पिष्टैर्द्वियष्टिमधुकैर्भिषक्॥६५॥
सिद्धे शीते च मधुनः पिप्पल्याश्च पलाष्टकम्।
सितादशपलोन्मिश्राल्लिह्यात् पाणितलं ततः॥६६॥
योन्यसृक्शुक्रदोषघ्नं वृष्यं पुंसवनं च तत्।
क्षतं क्षयं रक्तपित्तं कासं श्वासं हलीमकम्॥६७॥
कामलां वातरक्तं च वीसर्पं हृच्छिरोग्रहम्।
**उन्मादारत्यपस्मारान्2542 वातपित्तात्मकाञ्जयेत्॥६८॥ **
** इति बृहच्छतावरीघृतम्।**
क्षीरसर्पिस्तथैवं च जीवनीयोपसाधितम्।
गर्भदं पित्तलानां च योनीनां स्याद्भिषग्जितम्॥६९॥
योन्याः श्लेष्मप्रदुष्टाया वर्तिः संशोधनी हिता।
वाराहे बहुशः पित्ते भावितैर्लक्तकैः कृता॥७०॥
भावितं पयसाऽर्कस्य यवचूर्णं2543 ससैन्धवम्।
**वर्तिः कृता मुहुर्धार्या ततः सेव्या सुखाम्बुना॥७१॥ **
पिप्पल्या मरिचैर्माषैः शताह्वाकुष्ठसैन्धवैः।
**वर्तिस्तुल्या प्रदेशिन्या धार्या योनिविशोधनी॥७२॥ **
उदुम्बरशलाटूनां द्रोणमब्द्रोणसंयुतम्।
सपञ्चवल्ककट्वङ्गमालतीनिम्बपल्लवम्॥७३॥
निशां स्थाप्य जले तस्मिंस्तैलप्रस्थं विपाचयेत्।
लाक्षाधवपलाशत्वङ्निर्यासैःशाल्मलेन च॥७४॥
पिष्टैः सिद्धं च तत्तैलपिचुं योनौ निधापयेत्।
सशर्करैःकषायैश्च शीतैः कुर्वीत सेचनम्॥७५॥
पिच्छिला विवृता कालदुष्टा योनिश्च दारुणा।
सप्ताहाच्छुध्यति क्षिप्रमपत्यं चापि विन्दति॥७६॥
उदुम्बरस्य दुग्धेन षट्कृत्वो भावितात्तिलात्।
तैलं क्वाथेन तस्यैव सिद्धं धार्यं च पूर्ववत्॥७७॥
धातक्यामलकीपत्रस्रोतोजमधुकोत्पलैः।
**जम्ब्वाम्रमध्यकासीसलोध्रकट्फलतिन्दुकैः॥७८॥ **
सौराष्ट्रिकिादाडिमत्वगुदुम्बरशलाटुभिः।
अक्षमात्रैरजामूत्रे क्षीरे च द्विगुणे पचेत्॥७९॥
तैलप्रस्थं पिचुं तस्माद्योनौ च प्रणयेत्ततः।
**कटीपृष्ठत्रिकाभ्यङ्गं स्नेहबस्तिं च दापयेत्॥८०॥ **
पिच्छिलस्राविणी योनिर्विप्लुतोपप्लुता तथा।
उत्ताना चोन्नता शूना सिध्येत् सस्फोटशूलिनी॥८१॥
करीरधवनिम्बार्कवेणुकोशाम्रजाम्बवैः।
जिङ्गिनीवृषमूलानां2544 क्वाथैर्मार्द्वीकशीधुभिः॥८२॥
संयुक्तैर्धावनं मिश्रैर्योन्यास्रवविनाशनम्।
कुर्यात् सतक्रगोमूत्रशुक्तैर्वा त्रिफलारसैः॥८३॥
पिप्पल्ययोरजःपथ्याप्रयोगा मधुना हिताः।
श्लेष्मलायां कटुप्रायाः समूत्रा बस्तयो हिताः॥८४॥
पित्ते समधुरक्षीरा वाते तैलाम्लसंयुताः।
**सन्निपातसमुत्थायाः कर्म साधारणं हितम्॥८५॥ **
रक्तयोन्यामसृग्वर्णैरनुबन्धं समीक्ष्य च।
ततः कुर्याद्यथादोषं रक्तस्थापनमौषधम्॥८६॥
तिलचूर्णं दधि घृतं फाणितं शौकरी वसा।
क्षौद्रेण संयुतं पेयं वातासृग्दरनाशनम्॥८७॥
वराहस्य रसो मेद्यः सकौलत्थोऽनिलाधिके।
**शर्कराक्षौद्रयष्ट्याह्वनागरैर्वा2545 युतं दधि॥८८॥ **
पयस्योत्पलशालूकबिसकालीयकाम्बुदम्2546।
**सपयःशर्कराक्षौद्रमेकशोऽसृग्दरे पिबेत्॥८९॥ **
पाठाजम्ब्वायोर्मध्यं शिलोद्भेदं रसाञ्जनम्।
अम्बष्ठकीं मोचरसं समङ्गां वत्सकत्वचम्2547॥९०॥
बाह्लीकातिविषे बिल्वं मुस्तं लोध्रंसगैरिकम्।
**कट्फलं मरिचं शुण्ठीं मृद्वीकां2548 रक्तचन्दनम्॥९१॥ **
कट्वङ्गवत्सकानन्ताधातकीमधुकार्जुनम्।
**पुष्येणोद्धृत्य तुल्यानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत्॥९२॥ **
तानि क्षौद्रेण संयोज्य पिवेत्तण्डुलवारिणा।
**अर्शःसु चातिसारेषु रक्तं यश्चोपवेश्यते॥९३॥ **
दोषा रक्तकृता ये च बालानां तांश्च नाशयेत्।
योनिदोषं रजोदोषं श्वेतं नीलं सपीतकम्॥९४॥
स्त्रीणां श्यावारुणं यच्च प्रसह्य विनिवर्तयेत्।
चूर्णं पुष्यानुगं नाम हितमात्रेयपूजितम्॥९५॥
** इति पुष्यानुगचूर्णम्।**
तण्डुलीयकमूलं च सक्षौद्रं तण्डुलाम्बुना।
रसाञ्जनं च लाक्षां च छागेन पयसा पिबेत्॥९६॥
पत्रकल्कौ घृते भृष्टौ राजादनकपित्थयोः।
पित्तानिलहरौ पैत्ते सर्वथैवास्नपित्तजित्2549॥९७॥
मधुकं त्रिफलां लोध्रं मुस्तं सौराष्ट्रिकां मधु।
**मद्यैर्निम्बगुडूच्यौ तु कफजेऽसृग्दरे पिबेत्॥९८॥ **
विरेचनं महातिक्तं पैत्तिकेऽसृग्दरे पिबेत्।
हितं गर्भपरिस्रावे यच्चोक्तं तच्च कारयेत्॥९९॥
काश्मर्यकुटजक्वाथे सिद्धमुत्तरबस्तिना।
**रक्तयोन्यरजस्कानां पुत्रघ्नयाश्च हितं घृतम्॥१००॥ **
मृगाजाविवराहासृग्दध्यम्लक्षौद्रसर्पिषा2550।
अरजस्का पिबेत् सिद्धं जीवनीयैः पयोऽपि वा॥१०१॥
कर्णिन्यचरणाशुष्कयोनिप्रक्चरणासु च।
**कफवाते च दातव्यं तैलमुत्तरबस्तिना॥१०२॥ **
गोपित्ते मत्स्यपित्ते वा क्षौमं त्रिःसप्तभावितम्।
मधुना किण्वचूर्णं वा दद्यादचरणापहम्॥१०३॥
स्रोतसां शोधनं कण्डूक्लेदशोफहरं च तत्।
वातघ्नैः शतपाकैस्तु तैलैः प्रागतिचारणी॥१०४॥
आस्थाप्या चानुवास्या च स्वेद्या चानिलसूदनैः।
स्नेहद्रव्यै2551स्तथाऽऽहारैरुपनाहैश्च युक्तितः॥१०५॥
शताह्वायवगोधूमकिण्वकुष्ठप्रियङ्गुभिः।
बलाखुपर्णिकाश्याह्वैःसंयावो धारणे मतः॥१०६॥
वामिन्युपप्लुतानां च स्नेहस्वेदादिकः क्रमः।
पूर्वं कार्यस्ततः स्नेहपिचुभिस्तर्पणं भवेत्॥१०७॥
शल्लकीजिङ्गिनीजम्बूधवत्वक्पञ्चवल्कलैः।
कषायैः साधितः स्नेहपिचुः स्याद्विप्लुतापहः॥१०८॥
कर्णिन्यां वर्तिका कुष्ठपिप्पल्यर्काग्रसैन्धवैः।
बस्तमूत्रकृता धार्या सर्वं च श्लेष्मनुद्धितम्॥१०९॥
त्रैवृतं स्नेहनं स्वेदो ग्राम्यानूपौदका रसाः।
दशमूलपयोबस्तिश्चोदावृत्तानिलार्तिषु॥११०॥
त्रैवृतेनानुवास्या च बस्तिश्चोत्तरसंज्ञितः।
एतदेव महायोन्यांस्नस्तायां च विधीयते॥१११॥
वराहकुक्कुटवसा2552 घृतं च मधुरैः शृतम्।
पूरयित्वा2553 महायोनिं बध्नीयात् क्षौमलक्तकैः॥११२॥
प्रस्नस्तां सर्पिषाऽभ्यज्य क्षीरस्विन्नां प्रवेश्य च।
**बध्नीयाद्वेशवारस्य पिण्डेनामूत्रकालतः॥११३॥ **
यच्च वातविकाराणां कर्मोक्तं तच्च कारयेत्।
सर्वव्यापत्सु2554 मतिमान्महायोन्यां विशेषतः॥११४॥
न हि वातादृते योनिर्नारीणां संप्रदुष्यति।
**शमयित्वा तमन्यस्य कुर्याद्दोषस्य भेषजम्॥११५॥ **
मूलकल्कं तु रोहीतात् पाण्डुरे प्रदरे पिबेत्।
जलेनामलकाद्बीजं कल्कं वा ससितामधु॥११६॥
मधुनाऽऽमलकाच्चूर्णं रसं वा लेहयेत् सिते।
न्यग्रोधत्वक्कषायेण लोध्रकल्कं तथा पिबेत्॥११७॥
आस्रावे क्षौमपट्टं वा भावितं तेन धारयेत्।
प्लक्षत्वक्चूर्णपिण्डं वा धारयेन्मधुना कृतम्॥११८॥
योन्या स्नेहाक्तया लोध्रप्रियङ्गुमधुकस्य च।
धार्या मधुयुता वर्तिः कषायाणां च सर्वशः॥११९॥
स्नाबच्छेदार्थमभ्यक्तां धूपयेद्वा घृताप्लुतैः।
सरलागुग्गुलुयवैः सतैलकटुमत्स्यकैः॥१२०॥
कासीसं त्रिफला काक्षी समङ्गाऽऽम्रास्थि धातकी।
पैच्छिल्ये क्षौद्रसंयुक्तश्चूर्णो वैशद्यकारकः॥१२१॥
पलाशसर्जजम्बुत्वक्सभङ्गामोचधातकी।
सपिच्छिलापरिक्लिन्नास्तम्भनः कल्क इष्यते॥१२२॥
स्तब्धानां कर्कशानां च कार्यं मार्दवकारकम्।
धारयेद्वेशवारं वा पायसं कृशरां तथा॥१२३॥
दुर्गन्धानां कषायः स्यात्तौवरः2555 कल्कएव वा।
चूर्णं वा सर्वगन्धानां पूतिगन्धापकर्षणम्॥१२४॥
एवं योनिषु शुद्धासु गर्भंविन्दन्ति योषितः।
अदुष्टे प्राकृते बीजे जीवोपक्रमणे सति॥१२५॥
पञ्चकर्मविशुद्धय पुरुषस्यापि चेन्द्रियम्।
परीक्ष्य वर्णैर्दोषाणां दुष्टं तद्घ्नैरुपाचरेत्॥१२६॥
** भवन्ति चात्र।**
सलिङ्गा व्यापदो योनेःसनिदानचिकित्सिताः।
उक्ता विस्तरतः सम्यङ्मुनिना तत्त्वदर्शिना॥१२७॥
पुनरेवाग्निवेशस्तु पप्रच्छ भिषजां वरम्।
आत्रेयमुपसङ्गम्य शुक्रदोषास्त्वयाऽनघ॥१२८॥
रोगाध्याये समुद्दिष्टा ह्यष्टौ पुंसामशेषतः।
तेषां हेतुं भिषक्श्रेष्ठ दुष्टादुष्टस्य चाकृतिम्॥१२९॥
चिकित्सितं च कात्स्नर्येन क्लैब्यं यच्च चतुर्विधम्।
उपद्रवेषु योनीनां प्रदरो यश्च कीर्तितः॥१३०॥
तेषां निदानं लिङ्गं च चिकित्सां चैव तत्त्वतः।
**समासव्यासयोगेन प्रब्रूहि2556 भिषजांवर॥१३१॥ **
तस्मै शुश्रूषमाणाय प्रोवाच मुनिपुङ्गवः।
बीजं यस्माद्व्यवाये तु हर्षयोनिसमुत्थितम्॥१३२॥
शुक्रं पौरुषमित्युक्तं तस्माद्वक्ष्यामि तच्छृणु।
**यथा बीजमकालाम्बुकृमिकीटाग्निदूषितम्॥१३३॥ **
न विरोहति संदुष्टं तथा शुक्रं शरीरिणाम्।
अतिव्यवायाव्द्यायामादसात्म्यानां च सेवनात्॥१३४॥
अकाले वाऽप्ययोनौ वा मैथुनं न च गच्छतः।
**रूक्षतिक्तकषायातिलवणाम्लोष्णसेवनात्॥१३५॥ **
नारीणामरसज्ञात्वासेवनाज्जरया तथा।
चिन्ताशोकादविस्नम्भाच्छस्त्रक्षाराग्निविभ्रमात्2557॥१३६॥
भयात् क्रोधादभीचाराद्व्याधिभिः कर्शितस्य च।
वेगाघातात् क्षयाच्चापि धातूनां संप्रदूषणात्॥१३७॥
दोषाः पृथक् समस्ता वा प्राप्य रेतोवहाः सिराः।
**शुक्रं संदूषयन्त्याशु तद्वक्ष्यामि विभागशः॥१३८॥ **
फेनिलं तनु रूक्षं च विवर्णंपूति पिच्छिलम्।
**अन्यधातूपसंसृष्टमवसादि तथाऽष्टमम्॥१३९॥ **
फेनिलं तनु रूक्षं च कृच्छ्रेणाल्पं तु मारुतात्।
**भवत्युपहतं शुक्रं न तद्गर्भाय कल्पते॥१४०॥ **
सनीलमथवा पीतमत्युष्णं2558 पूतिगन्धि च।
दहल्लिङ्गं विनिर्याति शुक्रं पित्तेन दूषितम्॥१४१॥
श्लेष्मणा बद्धमार्गं तु भवत्यत्यर्थपिच्छिलम्।
स्त्रीणामत्यर्थगमनादभिघातात् क्षतादपि2559॥१४२॥
शुक्रं प्रवर्तते जन्तोः प्रायेण रुधिरान्वयम्।
वेगसंधारणाच्छुक्रंवायुना विहतं पथि॥१४३॥
कृच्छ्रेण याति ग्रथितमवसादि तथाऽष्टमम्।
इति दोषाः समाख्याताः शुक्रस्याष्टौ सलक्षणाः॥१४४॥
स्निग्धं धनं पिच्छिलं च मधुरं चाविदाहि2560 च।
**रेतः शुद्धं विजानीयाच्छ्वेतं स्फटिकसन्निभम्॥१४५॥ **
वाजीकरणयोगैस्तैरुपयोगसुखैर्हितैः।
रक्तपित्तहरैर्योगैर्योनिव्यापदिकैस्तथा॥१४६॥
दुष्टं यदा भवेद्रेतस्तदा तत् समुपाचरेत्।
**घृतं च जीवनीयं यच्च्यवनप्राश एव च॥१४७॥ **
गिरिजस्य प्रयोगश्चरेतोदोषानपोहति।
वातान्विते हिताः शुक्रे निरूहाः सानुवासनाः॥१४८॥
अभयामलकीयं2561 च पैत्ते शस्तं रसायनम्।
मागध्यमृतलोहानां त्रिफलाया रसायनम्॥१४९॥
कफोत्थितं शुक्रदोषं हन्याद्भल्लातकस्य च।
यदन्यधातुसंसृष्टं शुक्रं तद्वीक्ष्य युक्तितः॥१५०॥
यथादोषं प्रयुञ्जीत दोषधातुभिषग्जितम्।
सर्पिः पयो रसाः शालिर्यवगोधूमषष्टिकाः॥१५१॥
प्रशस्ताः शुक्रदोषेषु बस्तिकर्म विशेषतः।
(इत्यष्टशुक्रदोषाणां मुनिनोक्तं चिकित्सितम्2059॥१५२॥)
रेतोदोषोद्भवं क्लैब्यं यस्माच्छुद्ध्यैव सिध्यति।
**अतो वक्ष्यामि ते सम्यगग्निवेश यथातथम्॥१५३॥ **
बीजध्वजोपघाताभ्यां जरया शुक्रसंक्षयात्।
**क्लैब्यं संपद्यते तस्य शृणु सामान्यलक्षणम्॥१५४॥ **
सङ्कल्पप्रवणो नित्यं प्रियां वश्यामपि स्त्रियाम्।
न याति लिङ्गशैथिल्यात् कदाचिद्याति वा यदि॥१५५॥
श्वासार्तःस्विन्नगात्रश्च मोघसङ्कल्पचेष्टितः।
म्लानशिश्नश्च निर्बीजः स्यादेतत् क्लैब्यलक्षणम्॥१५६॥
सामान्यलक्षणं ह्येतद्विस्तरेण प्रवक्ष्यते।
**शीतरूक्षाल्पसंक्लिष्टविरुद्धाजीर्णभोजनात्2562॥१५७॥ **
शोकचिन्ताभयत्रासात् स्त्रीणां चात्यर्थसेवनात्।
अभिचारादविस्नम्भाद्रसादीनां च संक्षयात्॥१५८॥
वातादीनामोजसश्च तथैवानशनाच्छ्रमात्2563।
**नारीणामरसज्ञत्वात् पञ्चकर्मापचारतः॥१५९॥ **
बीजोपघाताद्भवति पाण्डुवर्णः सुदुर्बलः।
अल्पप्राणोऽल्पहर्षश्च प्रमदासु भवेन्नरः॥१६०॥
हृत्पाण्डुरोगतमककामलाश्रमपीडितः।
**छर्द्यतीसारशूलार्तः कासज्वरनिपीडितः॥१६१॥ **
बीजोपघातजं क्लैव्यं, ध्वजभङ्गकृतं शृणु।
अत्यम्ललवणक्षारविरुद्धासात्म्यभोजनात्॥१६२॥
अत्यम्बुपानाद्विषमात् पिष्टान्नगुरुभोजनात्।
**दधिक्षीरानूपमांससेवनाद्व्याधिकर्षणात्॥१६३॥ **
कन्यानां चैव गमनादयोनिगमनादपि।
दीर्घरोगां2564चिरोत्सृष्टां तथैव च रजस्वलाम्॥१६४॥
दुर्गन्धां दुष्टयोनिं च तथैव च परिप्लुताम्2565।
ईदृशीं2566 प्रमदां मोहाद्यो गच्छेत् कामहर्षितः॥१६५॥
चतुष्पदाभिगमनाच्छेफसश्चाभिघाततः।
**अधावनाद्वा मेढ्रस्यशस्त्रदन्तनखक्षतात्॥१६६॥ **
काष्ठप्रहारनिष्पेषाच्छूकानां चातिसेवनात्।
**रेतसश्च प्रतीघाताद्ध्वजभङ्गः प्रवर्तते॥१६७॥ **
(भवन्ति2567 यानि रूपाणि तस्य वक्ष्याम्यतः परम्।)
**श्वयथुर्वेदना मेढ्रेरागश्चैवोपलक्ष्यते॥१६८॥ **
स्फोटाश्च तीव्रा जायन्ते लिङ्गपाको भवत्यपि।
**मांसवृद्धिर्भवेच्चास्य व्रणाः क्षिप्रं भवन्त्यपि॥१६९॥ **
पुलाकोदकसंकाशः स्नावः श्यावारुणप्रभः।
वलयीकुरुते चापि कठिनश्च2568 परिग्रहः॥१७०॥
ज्वरस्तृष्णा भ्रमो मूर्च्छा च्छर्दिश्चास्योपजायते।
रक्तं कृष्णं स्नवेच्चापि नीलमाविललोहितम्॥१७१॥
अग्निनेव च दग्धस्य तीव्रो दाहः सवेदनः।
**बस्तौ वृषणयोर्वाऽपि सीवन्यां वंक्षणेषु च॥१७२॥ **
कदाचित् पिच्छिलो वाऽपि पाण्डुस्नावश्च जायते।
श्वयथुश्च भवेन्मन्दः स्तिमितोऽल्पपरिस्नवः॥१७३॥
चिराच्च पाकं व्रजति शीघ्रं वाऽथ प्रपच्यते।
**जायन्ते क्रिमयश्चापि क्लिद्यते पूतिगन्धि च॥१७४॥ **
विशीर्यते मणिश्चास्य मेढ्रंमुष्कावथापि च।
**ध्वजभङ्गकृतं क्लैवमित्येतत् समुदाहृतम्॥१७५॥ **
एवं पञ्चविधं केचिद्ध्वजभङ्गं वदन्त्यपि।
** इति ध्वजभङ्गकृतक्लैब्यम्।**
**क्लैव्यं जरासंभवं हि प्रवक्ष्याम्यथ तच्छृणु॥१७६॥ **
जघन्यमध्यप्रवरं वयस्त्रिविधमुच्यते।
**अतिप्रवयसां शुक्रं प्रायशः क्षीयते नृणाम्॥१७७॥ **
रसादीनां2569 संक्षयाच्च तथैवावृष्यसेवनात्।
बलवीर्येन्द्रियाणां च क्रमेणैव परिक्षयात्॥१७८॥
परिक्षयादायुषश्चाप्यनाहाराच्छ्रमात् क्लमात्।
**जरासंभबजं क्लैब्यमित्येतैर्हेतुभिर्नृणाम्॥१७९॥ **
जायते तेन सोऽत्यर्थं क्षीणधातुः सुदुर्बलः।
विवर्णो विह्वलो दीनः क्षिप्रंव्याधिमथाश्नुते॥१८०॥
एतज्जरासंभवं हि,
** चतुर्थंक्षयजं शृणु।**
** इति जरासंभवक्लैब्यम्।**
अतीव2570 चिन्तनाच्चैव शोकात् क्रोधाद्भयात्तथा॥१८१॥
ईर्ष्योत्कण्ठामनःक्षोभात् सदा2571 विशति यो नरः।
कृशो वा सेवते रूक्षमन्नपानमथौषधम्॥१८२॥
दुर्बलप्रकृतिश्चैव निराहारो भवेद्यदि।
अथाल्पभोजनाच्चापि हृदये यो व्यवस्थितः॥१८३॥
रसः प्रधानधातुर्हि क्षीयेताशु नरस्ततः।
रक्तादयश्च क्षीयन्ते धातवस्तस्य देहिनः॥१८४॥
शुक्रावसानास्तेभ्यो हि शुक्रं धाम परं मतम्।
**चेतसो वाऽतिहर्षेण व्यवायं सेवते तु यः॥१८५॥ **
तस्याशु क्षीयते शुक्रं ततः प्राप्नोति स क्षयम्।
घोरं व्याधिमवाप्नोति मरणं वा स गच्छति॥१८६॥
शुक्रं तस्माद्विशेषेण रक्ष्यमारोग्यमिच्छता।
एवं निदानलिङ्गाभ्यामुक्तं क्लैब्यं चतुर्विधम्॥१८७॥
केचित् क्लैब्ये त्वसाध्ये द्वे ध्वजभङ्गक्षयोद्भवे।
वदन्ति शेफसश्छेदाद्वृषणोत्पाटनेन वा॥१८८॥
मातापित्रोर्बीजदोषादशुभैश्चाकृतात्मनः।
गर्भस्थस्य यदा दोषाः प्राप्य रेतोवहाः सिराः॥१८९॥
शोषयन्त्याशु तन्नाशाद्रेतश्चाप्युपहन्यते।
तत्र संपूर्णसर्वाङ्गः स भवत्यपुमान् पुमान्॥१९०॥
एते त्वसाध्या व्याख्याताः सन्निपातसमुच्छ्रयात्।
चिकित्सितमतस्तूर्ध्वं समासव्यासतः शृणु॥१९१॥
शुक्रदोषेषु निर्दिष्टं भेषजं यन्मयाऽनघ।
**क्लैव्योपशान्तये कुर्यात् क्षीणक्षतहितं च यत्॥१९२॥ **
बस्तयः क्षीरसर्पींषि वृष्ययोगाश्च ये मताः।
रसायनप्रयोगाश्च सर्वानेतान् प्रयोजयेत्॥१९३॥
समीक्ष्य देहदोषाग्निबलमेषजकालवित्।
व्यवायहेतुजे क्लैब्ये भेषजं धातुवर्धनम्॥१९४॥
दैवव्यपाश्रयं चैव भेषजं त्वभिचारजे।
समासेनैतदुद्दिष्टं भेषजं क्लैब्यशान्तये॥१९५॥
विस्तरेण प्रवक्ष्यामि क्लैब्यानां भेषजं पुनः।
**सुस्विन्नस्निग्धगात्रस्य स्नेहयुक्तं विरेचनम्॥१९६॥ **
प्रदद्यान्मतिमान् वैद्यस्ततस्तमनुवासयेत्।
पलाशैरण्डमुस्ताद्यैः पश्चादास्थापयेत्ततः॥१९७॥
वाजीकरणयोगाश्च पूर्वं ये समुदाहृताः।
भिषजा ते प्रयोज्याः स्युः क्लैब्ये बीजोपघातजे॥१९८॥
ध्वजभङ्गकृतं क्लैब्यं ज्ञात्वा तस्याचरेत् क्रियाम्।
प्रदेहान् परिषेकांश्च कुर्याद्वा रक्तमोक्षणम्॥१९९॥
स्नेहपानं च कुर्वीत सस्नेहं च विरेचनम्।
**अनुवासं2572 ततः कुर्यादथवाऽऽस्थापनं पुनः॥२००॥ **
व्रणवच्चक्रियाः सर्वास्तत्र कुर्याद्विचक्षणः।
जरासंभवजे क्लैब्ये क्षयजे चैव कारयेत्॥२०१॥
स्नेहस्वेदोपपन्नस्य सस्नेहं शोधनं हितम्।
क्षीरसर्पिर्वृष्ययोगा बस्तयश्चैव यापनाः॥२०२॥
रसायनप्रयोगाश्च तयोर्भेषजमुच्यते।
**विस्तरेणैतदुद्दिष्टं क्लैब्यानां भेषजं मया॥२०३॥ **
** इति क्लैब्यचिकित्सा।**
यः पूर्वमुक्तः प्रदरः शृणु हेत्वादिभिस्तु तम्।
याऽत्यर्थं सेवते नारी लवणाम्लगुरूणि च॥२०४॥
कटून्यथ विदाहीनि स्निग्धानि पिशितानि च।
ग्राम्यौदकानि मेद्यानि कृशरां पायसं दधि2573॥२०५॥
युक्तमस्तुसुरादीनि भजन्त्याः कुपितोऽनिलः।
**रक्तं2574 प्रमाणमुत्क्रम्य गर्भाशयगताः सिराः॥२०६॥ **
रजोवहाः समाश्रित्य रक्तमादाय तद्रजः।
यस्माद्विवर्धयत्याशु रसभावाद्विमार्गतः॥२०७॥
तस्मादसृग्दरं प्राहुरेतत्तन्त्रविशारदाः।
रजः प्रदीर्यते यस्मात् प्रदरस्तेन विश्रुतः॥२०८॥
सामान्यतः समुद्दिष्टं कारणं लिङ्गमेव च।
चतुर्विधं व्यासतस्तु वाताद्यैः सन्निपाततः॥२०९॥
अतः परं प्रवक्ष्यामि हेत्वाकृतिभिषग्जितम्।
रूक्षादिभिर्मारुतस्तु रक्तमादाय पूर्ववत्॥२१०॥
कुपितः प्रदरं कुर्याल्लक्षणं तस्य मे शृणु।
फेनिलं तनु रूक्षं च श्यावं चारुणमेव च॥२११॥
किंशुकोदकसङ्काशं सरुजं वाऽथ नीरुजम्।
कटीवंक्षणहृत्पार्श्वपृष्ठश्रोणिषु मारुतः॥२१२॥
कुरुते वेदनां तीव्रामेतद्वातात्मकं विदुः।
अम्लोष्णलवणक्षारैः पित्तं प्रकुपितं यदा॥२१३॥
पूर्ववत् प्रदरं कुर्यात् पैत्तिकं लिङ्गतः शृणु।
सनीलमथ वा पीतमत्युष्णमसितं तथा॥२१४॥
नितान्तरक्तं स्रवति मुहुर्मुहुरथार्तिमत्।
दाहरागतृषामोहज्वरभ्रमसमायुतम्॥२१५॥
असृग्दरं पैत्तिकं स्याच्छ्लैष्मिकं तु प्रवक्ष्यते।
**गुर्वादिभिर्हेतुभिश्च पूर्ववत् कुपितः कफः॥२१६॥ **
प्रदरं कुरुते तस्य लक्षणं तत्त्वतः शृणु।
**पिच्छिलं पाण्डुवर्णं च गुरु स्निग्धं च शीतलम्॥२१७॥ **
स्रवत्यसृक्श्लेष्मणा च घनं मन्दरुजाकरम्।
छर्द्यरोचकहृल्लासश्वासकाससमन्वितम्॥२१८॥
(वक्ष्यते2575 क्षीरदोषाणां सामान्यमिह कारणम्।
**यत्तदेव त्रिदोषस्य कारणं प्रदरस्य तु)॥२१९॥ **
त्रिलिङ्गसंयुतं विद्यान्नैकावस्थमसृग्दरम्।
नारी त्वतिपरिक्लिष्टा यदा प्रक्षीणशोणिता॥२२०॥
सर्वहेतुसमाचारादतिवृद्धस्तदाऽनिलः।
**रक्तमार्गेण सृजति प्रत्यनीकबलं2576 कफम्॥२२१॥ **
दुर्गन्धं पिच्छिलं पीतं2577 विदग्धं पित्ततेजसा।
**वसां मेदश्चयावद्धि समुपादाय वेगवान्॥२२२॥ **
सृजत्यपत्यमार्गेण सर्पिर्मज्जवसोपमम्।
शश्वत् स्नवत्यथास्रावं तृष्णादाहज्वरान्वितम्॥२२३॥
क्षीणरक्तांदुर्बलां च तामसाध्यां विवर्जयेत्।
मासान्निष्पिच्छदाहार्ति पञ्चरात्रानुबन्धि च॥२२४॥
नैवातिबहु नात्यल्पमार्तवं शुद्धमादिशेत्।
गुञ्जाफलसवर्णं च पद्मालक्तकसन्निभम्॥२२५॥
इन्द्रगोपकसङ्काशमार्तवं शुद्धमादिशेत्।
योनीनां वातलाद्यानां यदुक्तमिह भेषजम्॥२२६॥
चतुर्णां प्रदराणां च तत् सर्वं कारयेद्भिषक्।
**रक्तातिसारिणां यच्च तथा शोणितपित्तिनाम्॥२२७॥ **
रक्तार्शसां च यत् प्रोक्तं भेषजं तच्च कारयेत्।
** इति प्रदरचिकित्सा।**
धात्रीस्तनस्तन्यसंपदुक्ता विस्तरतः पुरा॥२२८॥
स्तन्यसंजननं चैव स्तन्यस्य च विशोधनम्।
वातादिदुष्टे लिङ्गं च क्षीणस्य च चिकित्सितम्॥२२९॥
तत् सर्वमुक्तं ये त्वष्टौ क्षीरदोषाः प्रकीर्तिताः।
वातादिष्वेव तान्विद्याच्छास्त्रचक्षुर्भिषग्वरः॥२३०॥
त्रिविधास्तु यतः शिष्यास्ततो वक्ष्यामि विस्तरम्।
**अजीर्णासात्म्यविषमविरुद्धात्यर्थभोजनात्॥२३१॥ **
लवणाम्लकटुक्षारप्रक्लिन्नानां च सेवनात्।
**मनःशरीरसंतापादस्वप्नान्निशि चिन्तनात्॥२३२॥ **
प्राप्तवेगप्रतिघातादप्राप्तोदीरणेन च।
परमान्नं गुडकृतं कृशरां दधिमन्दकम्॥२३३॥
अभिष्यन्दीनि मांसानि ग्राम्यानुपौदकानि च।
**भुक्त्वा भुक्त्वा दिवास्वप्नान्मद्यस्यातिनिषेवणात्॥२३४॥ **
अनायासादभीघातात्2578 क्रोधाच्चातङ्ककर्षणैः।
**दोषाः क्षीरवहाः2579 प्राप्य सिराः स्तन्यं प्रदूष्य च॥२३५॥ **
कुर्युरष्टविधं भूयो दोषतस्तन्निबोध मे।
वैरस्यं फेनसङ्घातो रौक्ष्यं चेत्यनिलात्मके॥२३६॥
पित्ताद्वैवर्ण्यदौर्गन्ध्ये स्नेहपैच्छिल्यगौरवम्।
कफाद्भवति रूक्षाद्यैरनिलः स्वैः प्रकोपणैः॥२३७॥
क्रुद्धः क्षीराशयं प्राप्य रसं स्तन्यं प्रदूषयेत्।
विरसं वातसंसृष्टं कृशीभवति तत् पिबन्॥२३८॥
न2580 चास्य स्वदते क्षीरं कृच्छ्रेण च विवर्धते।
तथैव वायुः कुपितः स्तन्यमन्तर्विलोडयन्॥२३९॥
करोति फेनसङ्घातं ततः2581 कृच्छ्रात् प्रवर्तते।
तेन क्षामस्वरो बालो बद्धविमूत्रमारुतः॥२४०॥
वातिकं शीर्षरोगं वा पीनसं वाऽधिगच्छति।
**पूर्ववत् कुपितः स्तन्ये स्नेहं शोषयतेऽनिलः॥२४१॥ **
रूक्षं तत् पिबतो रौक्ष्याद्बलह्रासः प्रजायते।
पित्तमुष्णादिभिः क्रुद्धं स्तन्याशयमभिप्लुतम्॥२४२॥
करोति स्तन्यवैवर्ण्यं नीलपीतासितादिकम्।
विवर्णगात्रःस्विन्नःस्यात्तृष्णालुर्भिन्नविट्शिशुः॥२४३॥
नित्यमुष्णशरीरश्च नाभिनन्दति तत् स्तनम्।
पूर्ववत् कुपिते पित्ते दौर्गन्ध्यं क्षीरमृच्छति॥२४४॥
पाण्ड्वामयस्तत्पिबतः कामला च भवेच्छिशोः।
क्रुद्ध गुर्वादिभिः श्लेष्मा क्षीराशयगतः स्त्रियाः॥२४५॥
स्नेहान्वितत्वात्तत् क्षीरमतिस्निग्धं करोति सः।
छर्दनः कुन्थनस्तेन लालालुर्जायते शिशुः॥२४६॥
श्वासकासपरीतश्च प्रसेकतमकान्वितः।
नित्योपदिग्धैः स्रोतोभिर्निद्राक्लमसमन्वितः2582॥२४७॥
अभिभूय कफः स्तन्यं पिच्छिलं कुरुते यदा।
लालालुः शूनवक्त्राक्षिर्जडः स्यात्तत् पिबन् शिशुः॥२४८॥
कफः क्षीराशयगतो गुरुत्वात् क्षीरगौरवम्।
**करोति2583 गुरु तत् पीत्वा बालो हृद्रोगमृच्छति॥२४९॥ **
अन्यांश्च विविधान् रोगान् कुर्यात् क्षीरसमाश्रितः।
**क्षीरे वातादिभिर्दुष्टे संभवन्ति तदात्मकाः॥२५०॥ **
तत्रादौ स्तन्यशुद्ध्यर्थं धात्रीं स्नेहोपपादिताम्।
संस्वेद्य विधिवद्वैद्योवमनेनोपपादयेत्॥२५१॥
वचाप्रियङ्गुयष्ट्याह्वफलवत्सकसर्षपैः।
कल्कैर्निम्बपटोलानां क्वाथैः सलवणैर्वमेत्॥२५२॥
सम्यग्वान्तां यथान्यायं कृतसंसर्जनां ततः2584।
**दोषकालबलापेक्षी स्नेहयित्वा विरेचयेत्॥२५३॥ **
त्रिवृतामभयां चापि त्रिफलारससंयुताम्।
पाययेन्मधुसंयुक्तामभयां वाऽपि केवलाम्॥२५४॥
अथ सम्यग्विरिक्तां च कृतसंसर्जनां पुनः।
**ततो दोषावशेषघ्नै2585रन्नपानैरुपाचरेत्॥२५५॥ **
शालयः षष्टिका वा स्युः श्यामाका भोजने हिताः।
**प्रियङ्गवः कोरदूषा यवा वेणुयवास्तथा॥२५६॥ **
वंशवेत्रकलायाश्च सस्नेहा2586 यूषसंस्कृताः।
मुद्गान् मसूरान्यूषार्थे कुलत्थांश्च प्रकल्पयेत्॥२५७॥
निम्बवेत्राग्रकुलकवार्ताकामलकैः शृतान्।
**सव्योषसैन्धवान् यूषान् दापयेत् स्तन्यशोधनान्॥२५८॥ **
शशान् कपिञ्जलानेणान् संस्कृतांश्चप्रदापयेत्।
शार्ङ्गेष्टासप्तपर्णत्वग्बस्तगन्धाशृतं जलम्॥२५९॥
पाययेताथवा स्तन्यशुद्धये रोहिणीशृतम्।2587
**अमृतासप्तपर्णत्वक्क्वाथं चैव सनांगरम्॥२६०॥ **
किराततिक्तकक्वाथं श्लोकपादेरितान् पिबेत्।
**त्रीनेतान् स्तन्यशुद्ध्यर्थमिति सामान्यभेषजम्॥२६१॥ **
कीर्तितं स्तन्यदोषाणां पृथगन्यं निबोध मे।
**पाययेद्विरसक्षीराद्राक्षामधुकसारिवाः॥२६२॥ **
श्लक्ष्णपिष्टां पयस्यां च समालोड्य सुखाम्बुना।
स्तन्यसंशोधनार्थं तु धात्रीं वै पाययेद्भिषक्॥२६३॥
पञ्चकोलकुलत्थैश्च पिष्टैरालेपयेत् स्तनौ।
**शुष्कौ प्रक्षाल्य निर्दुह्यात्तथा स्तन्यं विशुध्यति॥२६४॥ **
फेनसङ्घातवत् क्षीरं यस्यास्तां पाययेत् स्त्रियम्।
**पाठानागरशार्ङ्गेष्टामूर्वाः2588 पिष्ट्वासुखाम्बुना॥२६५॥ **
अञ्जनं तगरं दारु बिल्वमूलं प्रियङ्गवः।
**स्तनयोः घूर्ववत् कार्यं लेपनं क्षीरशोधनम्॥२६६॥ **
किराततिक्तकं शुण्ठीं सामृतां क्वाथयेद्भिषक्।
**तं क्वाथं पाययेद्धात्रीं स्तन्यदोषनिबर्हणम्॥२६७॥ **
स्तनौ चालेपयेत् पिष्टैर्यवगोधूमसर्षपैः।
**षड्विरेकाश्रितीयोक्तैरौषधैः स्तन्यशोधनैः॥२६८॥ **
रूक्षक्षीरा2589 पिबेत् क्षीरं तैर्वा सिद्धं घृतं पिबेत्।
**पूर्ववज्जीवकाद्यं च पञ्चमूलं प्रलेपनम्॥२६९॥ **
स्तनयोः संविधातव्यं सुखोष्णं स्तन्यशोधनम्।
**यष्टीमधुकमृद्वीकापयस्यासिन्धुवारिकाः॥२७०॥ **
शीताम्बुना पिबेत् कल्कं क्षीरवैवर्ण्यनाशनम्।
**द्राक्षामधुककल्केन स्तनौ चास्याः प्रलेपयेत्॥२७१॥ **
प्रक्षाल्य वारिणा चैव निर्दुह्यात्तौ2590 पुनः पुनः।
विषाणिकाजशृङ्ग्यौच त्रिफलां रजनीं वचाम्॥२७२॥
पिबेच्छीताम्बुना पिष्ट्वा क्षीरदौर्गन्ध्यनाशनम्।
लिह्याद्वाऽप्यभयाचूर्णंसव्योषं माक्षिकाप्लुतम्॥२७३॥
क्षीरदोर्गन्ध्यनाशार्थं धात्री पथ्याशिनी तथा।
सारिवोशीरमञ्जिष्ठाश्लेष्मातककुचन्दनैः॥२७४॥
पत्राम्बुचन्दनोशीरैः2591 स्तनौ चास्याःप्रलेपयेत्।
स्निग्धक्षीरा2589 दारुमुस्तपाठाःपिष्ट्वासुखाम्बुना॥२७५॥
पीत्वा ससैन्धवाः क्षिप्रं क्षीरशुद्धिमवाप्नुयात्।
**पाययेत् पिच्छिलक्षीरां शार्ङ्गेष्टामभयां वचाम्॥२७६॥ **
मुस्तनागरपाठाश्च पीताः स्तन्यविशोधनाः।
तक्रारिष्टं पिबेच्चापि तथाऽन्यान्2592 गुदजापहान्॥२७७॥
विदारीबिल्वमधुकैः स्तनौ चास्याः प्रलेपयेत्।
**त्रायमाणामृतानिम्बपटोलत्रिफलाशृतम्॥२७८॥ **
गुरुक्षीरा पिबेदाशु स्तन्यदोषविशुद्धये।
पिबेद्वा पिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरम्॥२७९॥
बलानागरशार्ङ्गेष्टामूर्वाभिर्लेपयेत्2593 स्तनौ।
**पृश्निपर्णीपयस्याभ्यां स्तनौ चास्याः प्रलेपयेत्॥२८०॥ **
अष्टावेते क्षीरदोषा हेतुलक्षणभेषजैः।
निर्दिष्टाः क्षीरदोषोत्थास्तथोक्ताः केचिदामयाः॥२८१॥
दोषदूष्यमलाश्चैव महतां व्याधयश्च2594 ये।
त2595एव सर्वे बालानां मात्रा त्वल्पतरां मता॥२८२॥
निवृत्तिर्वमनादीनां मृदुत्वं परतन्त्रताः।
वाक्चेष्टयोरसामर्थ्यं वीक्ष्य बालेषु शास्त्रवित्॥२८३॥
भेषजं स्वल्पमात्रं तु यथाव्याधि प्रयोजयेत्।
मधुराणि कषायाणि क्षीरवन्ति मृदूनि च॥२८४॥
प्रयोजयेद्भिषग्बाले मतिमानप्रमादतः।
अत्यर्थस्निग्धरूक्षोष्णमम्लं कटुविपाकि च॥२८५॥
गुरु चौषधपानान्नमेतद्बालेषु गर्हितम्।
समासात् सर्वरोगाणामेतद्बालेषु भेषजम्॥२८६॥
निर्दिष्टं शास्त्रविद्वैद्यः प्रविविच्य2596प्रयोजयेत्।
** इति स्तन्यदोषबालरोगयोश्चिकित्सा।**
(सलिङ्गा व्यापदो योनेः सनिदानचिकित्सिताः॥२८७॥
उक्ता विस्तरशः सम्यग्मुनिना तत्त्वदर्शना)।
** भवन्ति चात्र।**
**इति सर्वविकाराणामुक्तमेतच्चिकित्सितम्॥२८८॥ **
स्थानमेतद्धि तन्त्रस्य रहस्यं परमुच्यते।
अस्मिन् सप्तदशाध्यायाः कल्पाः सिद्धय एव च॥२८९॥
नासाद्यन्तेऽग्निवेशस्य तन्त्रेचरकसंस्कृते।
**तानेतान् कापिलबलिः शेषान् दृढबलोऽकरोत्॥२९०॥ **
तन्त्रस्यास्य महार्थस्य पूरणार्थं यथातथम्।
**रोगा येऽप्यत्र नोद्दिष्टा बहुत्वान्नामरूपतः॥२९१॥ **
तेषामप्येतदेव स्याद्दोषादीन्वीक्ष्य भेषजम्।
दोषदूष्यनिदानानां विपरीतं हितं ध्रुवम्॥२९२॥
उक्तानुक्तान् गदान् सर्वान् सम्यग्युक्तं नियच्छति।
**देशकालप्रमाणानां सात्म्यासात्म्यस्य चैव हि॥२९३॥ **
सम्यग्योगोऽन्यथा ह्येषां पथ्यमप्यन्यथा भवेत्।
आस्यादामाशयस्थान् हि रोगान् नस्तः शिरोगतान्॥२९४॥
गुदात्2597 पक्वाशयस्थांश्च हन्त्याशु दत्तमौषधम्।
शरीरावयवोत्थेषु वीसर्पपिडिकादिषु॥२९५॥
यथादोषं2598 प्रदेहादि शमनं स्याद्विशेषतः।
**दिनातुरौषधव्याधिजीर्णलिङ्गर्त्ववेक्षणम्॥२९६॥ **
कालं विद्याद्दिनापेक्षं पूर्वाह्णेवमनं यथा।
**रोग्यपेक्षो यथा प्रातर्निरन्नो बलवान् पिबेत्॥२९७॥ **
भेषजं लघुपथ्यान्नैर्युक्तमद्यात्तु दुर्बलः।
**भैषज्यकालो भ(मु)क्तादौ मध्ये पश्चान्मुहुर्मुहुः॥२९८॥ **
सामुद्रं भक्तसंयुक्तं ग्रासे ग्रासान्तरे निशि।
**अपाने विगुणे पूर्वंसमाने मध्यभोजनम्॥२९९॥ **
व्यानेऽन्ते प्रातराशस्य2599 द्युदाने भोजनोत्तरम्।
वायौ प्राणे प्रदुष्टे तु ग्रासे ग्रासान्तरिष्यते॥३००॥
श्वासकासपिपासासु त्ववचार्यं मुहुर्मुहुः।
सामुद्रं हिक्किने देयं लघुनाऽन्नेन संयुतम्॥३०१॥
संभोज्यं त्वौषधं भोज्यैर्विचित्रैररुचौ हितम्।
ऊर्ध्वजत्रुविकारेषु स्वप्नकाले प्रशस्यते।
**ज्वरे पेयाः कषायाश्च क्षीरं सर्पिर्विरेचनम्॥३०२॥ **
षडहे षडहे देयं कालं वीक्ष्यामयस्य तु।
**क्षुद्वेगमोक्षौ लघुता विशुद्धिर्जीर्णलक्षणम्॥३०३॥ **
तदा भेषजमादेयं स्याद्दोषवदतोऽन्यथा2600।
**चयादयश्च दोषाणां वर्ज्यं सेव्यं च यत्र यत्॥३०४॥ **
ऋतावपेक्ष्यं यत् कर्म पूर्वं सर्वमुदाहृतम्।
**(उपक्रमाणां2601 करणं प्रतिषेधे च कारणम्॥३०५॥ **
व्याख्यातमबलानां च सविकल्पानामवेक्षणे।
**मुहुर्मुहुश्च रोगाणामवस्थामातुरस्य च॥३०६॥ **
अवेक्षमाणस्तु भिषक् चिकित्सायां न मुह्यति)।
**इत्येवं षड्विधं कालमनपेक्ष्य भिषग्जितम्॥३०७॥ **
प्रयुक्तमहिताय स्यात् सत्यस्याकालवर्षवत्।
व्याधीनामृत्वहोरात्रवयसां2602 भोजनस्य तु॥३०८॥
विशेषो भिद्यते यस्तु कालापेक्षः स उच्यते।
**वसन्ते श्लेष्मजा रोगाः शरत्काले तु पित्तजाः॥३०९॥ **
वर्षासु वातिकाश्चैव प्रायः प्रादुर्भवन्ति हि।
निशान्ते दिवसान्ते च वर्षान्ते वातजा गदाः॥३१०॥
प्रातः क्षपादौ कफजास्तयोर्मध्ये तु पित्तजाः।
वयोन्तमध्यप्रथमे वातपित्तकफामयाः॥३११॥
बलवन्तो भवन्त्येव स्वभावाद्वयसो नृणाम्।
जीर्णान्ते वातजा रोगा जीर्यमाणे तु पित्तजाः॥३१२॥
श्लेष्मजा भुक्तमात्रे तु लभन्ते प्रायशो बलम्।
नाल्पं हन्त्यौषधं व्याधिं यथाऽऽपोऽल्पा महानलम्॥३१३॥
दोषवच्चातिमात्रं स्यात् सस्यस्यात्युदकं यथा।
संप्रधार्य बलं तस्मादामयस्यौषधस्य च॥३१४॥
नैवातिबहु नात्यल्पं भैषज्यमवचारयेत्।
**औचित्याद्यस्य यत् सात्म्यं देशस्य पुरुषस्य च॥३१५॥ **
अपथ्यमपि नैकान्तात्तत्त्यजल्ँलभते सुखम्।
बाह्लीका पह्लवाश्चीनाः शूलीका यवनाः शकाः॥३१६॥
मांसगोधूममाध्वीकशस्त्रवैश्वानरोचिताः।
**मत्स्यसात्म्यास्तथा2603 प्राच्याः क्षारसात्म्याश्च सैन्धवाः॥३१७॥ **
अश्मकावन्तिकानां2604 तु तैलाम्लं सात्म्यमुच्यते।
कन्दमूलफलं2605 सात्म्यंविद्यान्मलयवासिनाम्॥३१८॥
सात्म्यं दक्षिणतः पेया मन्थ2606श्चोत्तरपश्चिमे।
मध्यदेशे भवेत् सात्म्यं यवगोधूमगोरसाः॥३१९॥
तेषां तत्सात्म्ययुक्तानि भैषज्यान्यवचारयेत्।
सात्म्यं ह्याशु बलं धत्ते नातिदोषं च बह्वपि॥३२०॥
योगैरेव चिकित्सन् हि देशाद्यज्ञोऽपराध्यति2607।
वयोबलशरीरादिभेदा हि बहवो मताः॥३२१॥
तथाऽन्तःसन्धिमार्गाणां दोषाणां गूढचारिणाम्।
भवेत् कदाचित् कार्याऽपि विरुद्धाभिमता क्रिया॥३२२॥
अन्तर्गतं2608 पित्तधातुं स्वेदसेकोपनाहनैः।
**नयन्ति बहिरुष्णैर्हि तथोष्णं शमयन्तिं तम्2609॥३२३॥ **
बाह्यैश्च शीतैः सेकाद्यैरूष्माऽन्तर्याति पीडितः।
**सोऽन्तर्गूढं कफंहन्ति शीतं शीतैस्तथा जयेत्॥३२४॥ **
श्लक्ष्णपिष्टघनो लेपश्चन्दनस्यापि दाहकृत्।
त्वग्गतस्योष्मणो रोधाच्छीतकृच्चान्यथाऽगुरोः॥३२५॥
छर्दिघ्नी मक्षिकाविष्ठा मक्षिकैव तु वामयेत्।
द्रव्येषु स्विन्नज(द)ग्धेषु चैव (वं ) तेष्वेव विक्रिया॥३२६॥
तस्माद्दोषौषधादीनि परीक्ष्य दश तत्त्वतः।
कुर्याच्चिकित्सितं प्राज्ञो न योगैरेव केवलैः॥३२७॥
निवृत्तोऽपि पुनर्व्याधिः स्वल्पेनायाति हेतुना।
क्षीणे मार्गीकृते देहे2610 शेषः सूक्ष्म इवानलः॥३२८॥
तस्मात्तमनुबध्नीयात् प्रयोगेणानपायिना।
दार्ढ्यार्थं प्राक् प्रयुक्तस्य सिद्धस्याप्यौषधस्य हि॥३२९॥
काठिन्यादूनभावाद्वा दोषोऽन्तःकुपितो महान्।
पथ्यैर्मृद्वल्पतां नीतो मृदुदोषकरो भवेत्॥३३०॥
पथ्यमप्यश्नतस्तस्माद्यो व्याधिरुपजायते।
ज्ञात्वैवं वृद्धिमभ्यासमथवा तस्य कारयेत्॥३३१॥
सातत्यात् स्वाद्वभावाद्वा पथ्यं द्वेष्यत्वमागतम्।
कल्पनाविधिभिस्तैस्तैः प्रियत्वं गमयेत् पुनः॥३३२॥
मनसोऽर्थानुकूल्याद्धि2611तुष्टिरूर्जा रुचिर्बलम्।
सुखोपभोगता च स्याव्द्याधेश्चातो बलक्षयः॥३३३॥
लौल्याद्दोषक्षयाद्व्याधेर्वैधर्म्याद्वाऽपि या रुचिः।
तासु पथ्योपचारः स्याद्योगेनाद्यं वि (प्र) कल्पयेत्॥३३४॥
** तत्र श्लोकाः।**
विंशतिर्थ्यापदो योनेर्निदानं लिङ्गमेव च।
चिकित्सा चापि निर्दिष्टा शिष्याणां हितकाम्यया॥३३५॥
शुक्रदोषास्तथा चाष्टौ निदानाकृतिसाधनैः।
क्लैव्यान्युक्तानि चत्वारि चत्वारः प्रदरास्तथा॥३३६॥
तेषां निदानं लिङ्गं च भैषज्यं चैव कीर्तितम्।
क्षीरदोषास्तथा चाष्टौ हेतुलिङ्गभिषग्जितैः॥३३७॥
तेषां चिकित्सा निर्दिष्टा समासव्यासतो मया।
रेतसो रजसश्चैव कीर्तितं शुद्धिलक्षणम्॥३३८॥
उक्तानुक्तचिकित्सा च सम्यग्योगस्तथैव च।
देशादिगुणशंसा2612 च कालः षड्विध एव च॥३३९॥
देशे देशे च यत् सात्म्यं यथा वैद्योऽपराध्यति।
चिकित्सा चापि निर्दिष्टा दोषाणां गूढचारिणाम्॥३४०॥
यो हि सम्यङ्ग जानाति शास्त्रं शास्त्रार्थमेव च।
न स कुर्यात् क्रियां चित्रमचक्षुरिव चित्रकृत्॥३४१॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते चिकित्सास्थाने योनिव्यापच्चिकित्सितं नाम त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥
समाप्तं चेदं चिकित्सास्थानम्॥६॥
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प्रथमोऽध्यायः।
अथातो मदनकल्पं व्याख्यास्यामः॥१ ॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२ ॥
** **अथ खलु (वमनविरेचनार्थं2613) वमनविरेचनद्रव्याणां सुखोपभोग्य(ग)तमैः सहान्यैर्द्रैव्यैर्विविधैः कल्पनार्थं2614 त द्योगानां च क्रियाविधेः सुखोपायस्य सम्यगुपकल्पनार्थं कल्पस्थानमुपदेक्ष्यामोऽग्निवेश॥३ ॥
तत्र दोषहरणमूर्ध्वभागं वमनसंज्ञकम्, अधोभागं विरेचनसंज्ञकम्, उभयं वा शरीरमलविरेचनसंज्ञां लभते॥४ ॥
तत्रोष्णतीक्ष्णसूक्ष्मव्यवायिविकाशीन्यौषधानि स्ववीर्येण हृदयमुपेत्य धमनीरनुसृत्य स्थूलाणुस्रोतोभ्यः केवलं शरीरगत दोषसंघातमाग्नेयत्वाद्विष्यन्दयन्ति तैक्ष्ण्याद्विच्छिन्दन्ति, स विच्छिन्नः परिप्लवन्2615 स्नेहभाविते काये स्नेहाक्तभाजनस्थमिव क्षौद्रमसज्जन्नणुप्रवणभावा2616दामाशयमागम्योदानप्रणुन्नोऽग्निवाय्वात्मकत्वादूर्ध्वभागप्रभावाञ्चौषधस्योर्ध्वमुरिक्षप्यते, सलिलपृथिव्यात्मकत्वादधोभागप्रभावाच्चौषधस्याधः प्रवर्तते, उभयतश्चोभयगुणत्वात्; इति लक्षणोद्देशः॥५ ॥
तत्र फलजीमूतकेक्ष्वाकुधामार्गचकुटजकृतवेधनानां श्यामात्रिवृच्चतुरङ्गुलतिल्व- कमहावृक्षसप्तलाशङ्खिनीदन्तीद्रवन्तीनां च नानाविधदेशकालसंभवास्वादरसवीर्यविपाकप्रभावग्रहणा2617द्दे- हदोषप्रकृति-वयोबलाग्निभक्तिसात्म्यरोगावस्थादीनां2618 नानाप्रभाववत्त्वाच्च, विचित्रगन्धवर्णरसस्पर्शानामुपभो(यो)गसुखार्थमपरिसङ्ख्य्येयसंयोगानामपि च सतां द्रव्याणां विकल्पमार्गोपदर्शनार्थं षड्विरेचनयोगशतानि व्याख्यास्यामः॥६॥
तानि तु द्रव्याणि देशकालगुणभाजनसंपद्वीर्यबलाधानात् क्रियासमर्थतमानि भवन्ति॥७॥
तत्रत्रिविधः खलु देशो जाङ्गलोऽनूपः साधारणश्चेति। तत्र जाङ्गलः पर्याकाशभूयिष्ठस्तरुभिरपि कदरखदिरासनाश्वकर्णधवतिनिशशल्लकीशालसोमवल्कबदरीतिन्दुकाश्वत्थवटामलकीवनगहनोऽनेकशमीककुभशिंशपाप्रायः स्थिरशुष्कपवनबलविधूयमानप्रनृत्यत्तरुणविटपः प्रततमृगतृष्णिकोपगूढस्तनुखरपरुषसिकताशर्कराबहुलो लावतित्तिरिचकोरानुचरितभूमिभागो वातपित्तबहुलस्थिरकठिनमनुष्यप्रायो2619 ज्ञेयः; अथानूपो हिन्तालतमालनारिकेलकदलीवनगहनः सरित्समुद्रपर्यन्तप्रायः शिशिरपवनबहुलो वञ्जुलवानीरोपशोभिततीराभिः सरिद्भिरुपगतभूमिभागः क्षितिधरनिकुञ्जोपशोभितो मन्दपवनानुवीजितक्षितिरुहगहनोऽनेकवनराजीपुष्पितवनगहनभूमिभागः स्निग्धतरुप्रतानोपगूढो हंसचक्रवाकबलाकानन्दीमुखपुण्डरीककादम्बमद्गुकोयष्टिभृङ्गराजशतपत्रमत्तकोकिलानुनादिततरुविटपः सुकुमारपुरुषः पवनकफप्रायो ज्ञेयः; अनयोरेव द्वयोर्देशयोर्वीरुद्वनस्पतिवानस्पत्यशकुनिमृगगणयुतः स्थिरसुकुमारवर्णसंहननोपपन्नसाधारणगुणयुक्तपुरुषः साधारणो ज्ञेयः॥८॥
तत्र देशे साधारणे जाङ्गले वा यथाकालं शिशिरातपपवनसलिलसेविते समे शुचौ प्रदक्षिणोदके श्मशानचैत्यदेवयजनागारसभाश्वभ्रारामवल्मीकोषरविरहिते2620 कुशरोहिषास्तीर्णे स्निग्धकृष्णमधुरमृत्तिके वा मृदावफालकृष्टेऽनुपहतेऽन्यैर्बलवत्तरैर्द्रुमैरोषधानि जातानि प्रशस्यन्ते॥९॥
तत्र यानि कालजातान्यागतसंपूर्णप्रमाणरसवीर्यगन्धानि कालातपाग्निसलिलपवनजन्तुभिरनुपहतगन्धवर्णरसस्पर्शप्रभावाणि प्रत्यग्राण्युदीच्यां2621 दिशि स्थितानि; तेषां शाखापलाशमचिरमरूढं वर्षावसन्तयोर्ग्राह्यं, ग्रीष्मे मूलानि शिशिरे च शीर्णप्ररूढपर्णानां, शरदि त्वक्कन्दक्षीराणि, हेमन्ते साराणि, यथर्तुपुष्पफलमिति; मङ्गलाचारः कल्याणवृत्तः शुचिः शुक्लवासाःसंपूज्य देवतामग्निमश्विनौ गोब्राह्मणांश्च कृतोपवासः प्राङ्मुख उदङ्मुखो वा गृह्णीयात्॥१०॥
गृहीत्वा चानुरूपगुणवद्भाजने2622 संस्थाप्यागारेषु प्रागुदग्द्वारेषु निवातप्रवातैकदेशेषु नित्यपुष्पोपहारबलिकर्मवत्सु, अग्निसलिलोपस्वेदधूमरजोमूषिकचतुष्पदामनभिगमनीयानि स्ववच्छन्नानि शिक्येष्वासज्य स्थापयेत्॥११॥
तानि च यथादोषं प्रयुञ्जीत सुरासौवीरकतुषोदकमैरेयमेदकधान्याम्लफलाम्लदध्यम्लादिभिर्वाते, मृद्वीकामलकमधुमधुकपरूषकफाणितक्षीरादिभिश्च पित्ते, श्लेष्मणि तु मधुमूत्रकषायादिभिर्भावितान्यालोडितानि चेत्युद्देशः2623; तं विस्तरेण द्रव्यदेहदोषसात्म्यादीनि2624 वसन्तादींश्च प्रविभज्य व्याख्यास्यामः॥१२॥
वमनद्रव्याणां मदनफलानि श्रेष्ठतमान्याचक्षते, अनपायित्वात्2625। तानि वसन्तग्रीष्मयोरन्तरे2626 पुष्याश्वयुग्भ्यां मृगशिरसा वा गृह्णीयान्मैत्रे मुहूर्ते, यानि पक्वान्यकाणान्यहरितानि पाण्डून्यक्रिमीण्यपूतीन्यजन्तुजग्धान्यकृशान्यह्रस्वानि तानि प्रगृह्य2627 कुशपुटेबद्ध्वागोमयेनालिप्ययवतु(बु)षमाषशालिव्रीहिकुलत्थमुद्गपलानामन्यतमे2628 निदध्यादष्टरात्रम्। अत ऊर्ध्वं मृदुभूतानि मध्विष्टगन्धान्युद्धृत्य शोषयेत्, सुशुष्काणां फलपिप्पलीरुद्धरेत्2629, तासां घृतदधिमधुपललविमृदितानां पुनः शुष्काणां नवं कलशं सुप्रभृष्टवालुकमरजस्कमाकण्ठं पूरयित्वा स्ववच्छन्नं स्वनुगुप्तं शिक्येष्वासज्य2630सम्यक स्थापयेत्॥१३॥
अथ च्छर्दनीयमातुरं द्व्यहं त्र्यहं वा स्नेहस्वेदोपपन्नंश्वश्छर्दयितव्य इति ग्राम्यानुपौदकमांसरसक्षीरदधिमाषतिलशाकादिभिः समुत्क्लेशितश्लेष्माणं व्युषितं जीर्णाहारं पूर्वाह्णेकृतबलिहोममङ्गलप्रायश्चित्तं निरन्नमनतिस्निग्धं यवाग्वा घृतमात्रां पीतवन्तं, तासां फलपिप्पलीनामन्तर्नखमुष्टिं यावद्वा साधु मन्येत जर्जरीकृत्य यष्टीमधुकषायेण कोविदारकर्बुदारनीपविदुलबिम्बीशणपुष्पीसदापुष्पीप्रत्यक्पुष्पीकषायाणामन्यतमेन वा रात्रिमुषितं विमृद्य पूतंमधुसैन्धवयुक्तं सुखोष्णं कृत्वा पूर्णं शरावं मन्त्रेणानेनाभिमन्त्रयेत्-
‘ॐ ब्रह्मदक्षाश्विरुद्रेन्द्रभूचन्द्रार्कानिलानलाः।
ऋषयः सौषधिग्रामा भूतसङ्घाश्च पान्तु ते॥
रसायनमिवर्षीणां देवानाममृतं यथा।
सुधेवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते॥’
इत्येवमभिमन्त्र्योदङ्मुखं प्राङ्मुखं वाऽऽतुरं पाययेच्छ्लेष्मज्वरगुल्मशूलप्रतिश्यायार्तंविशेषेण पुनः पुनरापित्तागमनात्, तेन साधु वमति। हीनवेगं तु पिप्पल्यामलकसर्षपवचाकल्कलवणोष्णोदकैः पुनः पुनः प्रवर्तयेदापित्तदर्शनात्। इत्येष सर्वच्छर्दनयोगविधिः॥१४॥
सर्वेषु तु मधुसैन्धवं कफविलयनच्छेदार्थं वमनेषु विदध्यात्; न चोष्णविरोधो मधुनश्छर्दनयोगयुक्तस्य, अविपक्वप्रत्यागमनाद्दोषनिर्हरणच्चेति॥१५॥
फलपिप्पलीनां द्वौ भागौ कोविदारादिकषायेण त्रिःसप्तकृत्वः स्रावयेत्, तेन रसेन तृतीयं भागं पिष्ट्वामात्रां हरीतकीभिर्बिभीतकैरामलकैर्वा तुल्यां वर्तयेत्, तासामेका द्वे वा पूर्वोक्तानां कषायाणामन्यतमस्याञ्जलिमात्रेण विमृद्य बलवच्छ्लेष्मप्रसेकग्रन्थिज्वरोदरारुचिषु पाययेदिति समानं पूर्वेण॥१६॥
फलपिप्पलीक्षीरं तेन वा क्षीरयवागूमधोभागे रक्तपित्ते हृद्दाहे च, तज्जस्य2631 वा दध्न उत्तरकं2632 कफच्छर्दितमकमुखप्रसेकेषु‚ तस्य वा पयसः शीतस्य सन्तानिकाञ्जलिं पित्ते प्रकुपिते उरःकण्ठहृदये च तनुकफोपदिग्धे; इति समानं पूर्वेण॥१७॥
फलपिप्पलीनांशृतक्षीरान्नवनीतमुत्पन्नं फलादिकल्ककषायसिद्धं2633 कफाभिभूताग्निं विशुष्यद्देहं च मात्रया पाययेदिति समानं पूर्वेण १८
फलपिप्पलीनां फलादिकषायेण त्रिःसप्तकृत्वः सुपरिभावितेन पुष्परजःप्रकाशेन चूर्णेन सरसि संजातं बृहत्सरोरुहं सायाह्नेऽवचूर्णयेत्, तद्रात्रिर्व्युषितं प्रभाते पुनरवचूर्णितमुद्धृत्य हरिद्राकृशरक्षीरयवागूनामन्यतमं2634 सैन्धवगुडफाणितयुक्तमाकण्ठं पीतवन्तमाघ्रापयेत्सुकुमारमुत्क्लिष्टपित्तकफमौषधद्वेषिणमिति समानं पूर्वेण॥१९॥
फलपिप्पलीनां भल्लातकविधिपरिस्रुतं स्वरसं पक्त्वा फाणितीभूतमातन्तुलीभावाल्लेहयेत्; तदातपशुष्कं वा चूर्णीकृतं जीमूतादिकषायेण पित्ते कफस्थानगते पाययेदिति समानं पूर्वेण॥२०॥
फलपिप्पलीचूर्णानि पूर्ववत् कोविदारादीनां2635 षण्णामन्यतमकषायस्रुतानि वर्तिक्रियाःकोविदारादिकषायोपसर्जनाः2636 पेया इति समानं पूर्वेण॥२१॥
फलपिप्पलीनामारग्वधकुटजस्वादुकण्टकपाठापाटलिशार्ङ्गेष्टामूर्वासप्तपर्णनक्तमालपिचुमर्दपटोलसुषवीगुडूचीसोमवल्कद्वीपिकाप्पलीपिप्पलीमूलहस्तिपिप्पलीचित्रकशृङ्गवेराणां चान्यतमकषायेण सिद्धो लेह इति समानं पूर्वेण॥२२॥
फलपिप्पलीष्वेलाहरेणुकाशतपुष्पाकुस्तुम्बुरुतगरकुष्ठत्वक्चोरकमरुबकागुरुगुग्गुल्वेलवालुकश्रीवेष्टकपरिपेलवमांसीशैलेयकस्थौणेयकसरलपारावतपद्यशोकरोहिणीनां विंशतेरन्यतमस्य कषायेण साधितोत्कारिका उत्कारिकाकल्पेन मोदका वा मोदककल्पेन यथादोषरोगभक्तिः प्रयोज्या इति समानं पूर्वेण॥२३॥
फलपिप्पलीस्वरसकषायपरिभावितानि तिलशालितण्डुलपिष्टानि तत्कषायोपसर्जनानि शष्कुलीकल्पेन शष्कुल्यःपूपकल्पेन वा पूपा इति समानं पूर्वेण॥२४॥
एतेनैव च कल्पेन सुसुखसुरसकुठेरकगण्डीरकालमालकपर्णासकक्षवकफणिज्झकगृञ्जनकासमर्दभृङ्गराजानां पोटेक्षुबालिकाकालङ्कतकदण्डैरकाणां चान्यतमस्य कषायेण कारयेदिति समानं पूर्वेण २५
तथा बदरषाडवरागलेहमोदकोत्कारिकातर्पणपानकमांसरसयूषमद्यानां2637 मदनफलान्यतमेनोपसंसृज्य यथादोषरोगभक्ति दद्यात्, तैः साधु वमतीति॥२६॥
मदनः करहाटश्च राठः पिण्डीतकः फलम्।
श्वसनश्चेति पर्यायैरुच्यते तस्य कल्पना॥२७॥
** तत्र श्लोकाः।**
नव योगाः कषायेषु, मात्राष्वष्टौ2638 पयोधृते।
पञ्च, फाणितचूर्णे द्वौ, घ्रेये, वर्तिक्रियासु षट्॥२८॥
विंशतिर्विंशतिर्लेहमोदकोत्कारिकासु च।
शष्कुलीपूपयोश्चोक्ता योगाः षोडश षोडश॥२९॥
दशान्ये षाडवाद्येषु त्रयस्त्रिंशदिदं शतम्।
योगानां विधिवद्दृष्टं फलकल्पे महर्षिणा॥३०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते मदनफलकल्पो
नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
द्वितीयोऽध्यायः।
अथातो जीमूतककल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
** इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥**
कल्पं जीमूतकस्येमं फलपुष्पाश्रयं शृणु।
गरागरी च वेणी च तथा स्याद्देवताडकः॥३॥
जीमूतकं त्रिदोषघ्नं यथास्वैाषधकल्पितम्।
प्रयोक्तव्यं ज्वरश्वासहिक्काकोष्ठामयेषु2639 च॥४॥
यथोक्तगुणयुक्तानां देशजानां यथा।
पयः पुष्पेऽस्य, निर्वृत्ते2640 फले पेया पयस्कृता॥५॥
लोमशे क्षीरसन्तानं, दध्युत्तरमलोमशे।
शृते पयसि दध्यम्लं जातं हरितपाण्डुके॥६॥
जीर्णानां च सुशुष्काणां न्यस्तानां भाजने शुचौ।
चूर्णस्य पयसा शुक्तिं वातपित्तार्दितः पिबेत्॥७॥
आसुत्य च सुरामण्डे मृदित्वा प्रस्रुतं पिबेत्।
कफजेऽरोचके कासे पाण्डुरोगे सयक्ष्मणि॥ ८ ॥
द्वे चापोथ्याथवा त्रीणि गुडूच्या मधुकस्य2641वा।
कोविदारादिकानां वा निम्बस्य कुटजस्य वा॥ ९ ॥
कषायेष्वासुतं पूत्वा तेनैव विधिना पिबेत्।
अथवाऽऽरग्वधादीनां सप्तानां पूर्ववत् पिबेत्॥ १० ॥
एकैकस्य2642 कषायेण पित्तश्लेष्मज्वरार्दितः।
वर्तयः2643 फलवच्चाष्टौ कोलमात्रास्तु ता मताः॥ ११ ॥
( जीमूतकस्य2644 वा कल्कं चूर्णं वा शिशिराम्बुना।
ज्वरे पित्ते पिबेद्वाते कफे चोष्णोदकेन तु॥ १२ ॥ )
जीवकर्षभकेक्षूणां शतावर्या रसेन वा।
पित्तश्लेष्मज्वरे दद्याद्वातपित्तज्वरेऽथवा॥१३॥
तथा जीमूतकक्षीरात् समुत्पन्नं पचेद्धृतम्।
फलादीनां कषायेण श्रेष्ठं तद्वमनं मतम्॥१४॥
** तत्र श्लोकौ।**
षट् क्षीरे मदिरामण्डे2645 एको द्वादश चापरे।
सप्त चारग्वधादीनां कषायेऽष्टौ च वर्तिषु॥१५॥
जीवकादिषु चत्वारो घृतं चैकं प्रकीर्तितम्।
कल्पे जीमूतकानां च2646योगास्त्रिंशन्नवाधिकाः॥१६॥
इत्यभिवेशकृते तन्त्रे चरक प्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने जीमूतककल्पो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
______________
तृतीयोऽध्यायः।
अथात इक्ष्वाकुकल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सिद्धं वक्ष्याम्यथेक्ष्वाकुकल्पं येषां प्रशस्यते।
लम्बाऽथ2647 कटुकालाबूस्तुम्बी पिण्डफलं तथा॥३॥
इक्ष्वाकुः फलिनी चैव प्रोच्यते तस्य कल्पना।
कासश्वासविषच्छर्दिज्वरार्ते कफकर्शिते॥४॥
प्रताम्यति नरे चैव वमनार्थं तदिष्यते।
पुष्पस्य प्रवालानां मुष्टिं प्रादेशसंमिताम्॥५॥
क्षीरप्रस्थे शृतं दद्यात् पित्तोद्रिक्ते कफज्वरे।
पुष्पादिषु च चत्वारः क्षीरे जीमूतके यथा॥६॥
योगा हरितपाण्डूनां सुरामण्डेन पञ्चमः।
फलस्वरसभागं च त्रिगुणक्षीरसाधितम्॥७॥
उरःस्थिते कफे दद्यात् स्वरभेदे च पीनसे।
जीर्णे मध्योद्धृते क्षीरं2648 प्रक्षिपेत्तद्यदा दधि॥८॥
जातं स्यात् कफजे कासे श्वासे वम्यां च तत् पिबेत्।
**अजाक्षीरेण बीजानि भावयेत् पाययेत2649च॥९॥ **
विषगुल्मोदरग्रन्थिगण्डेषु श्लीपदेषु च।
मस्तुना वा फलान्मध्यं पाण्डुकुष्ठविषार्दितः॥१०॥
तेन तक्रं विपक्वंवा सक्षौद्रलवणं पिबेत्।
तुम्ब्याः फलरसैः शुष्कैः सपुष्पैरवचूर्णितम्॥११॥
छर्दयेन्माल्यमाघ्राय गन्धसंपत्सुखोचितः।
भक्षयेत् फलमध्यं वा गुडेन पललेन च॥१२॥
इक्ष्वाकुफलतैलं वा सिद्धं वा पूर्ववद्धृतम्।
पञ्चाशद्दशवृद्धानि फलिनीनां2650 यथोत्तरम्॥१३॥
पिबेद्विमृद्य बीजानि कषायेष्वाशतं पृथक्।
यष्ट्याह्वकोविदाराद्यैर्मुष्टिमन्तर्नखं पिबेत्॥१४॥
कषायैः कोविदाराद्यैर्मात्राश्च2651 फलवत् स्मृताः।
बिल्वमूलकषायेण तुम्बीबीजाञ्जलिं पचेत्॥१५॥
पूतस्यास्य त्रयो भागाश्चतुर्थः2652 फाणितस्य तु।
सघृतो बीजभागाश्च पिष्टानर्धांशिकांस्तथा॥१६॥
महाजालिनिजीमूत कृतवेधनवत्सकान्।
तं लेहं साधयेद्दर्व्या घट्टयन्मृदुनाऽग्निना॥१७॥
यावत् स्यात्तन्तुमत्तोये पतितं तु न शीर्यते।
तं लिह्यान्मात्रया लेहं2653 प्रमथ्यांच पिबेदनु॥१८॥
कल्प एषोऽग्निमन्थादौ चतुष्के पृथगुच्यते।
**शक्तुभिर्वा पिबेन्मन्थं तुम्बीस्वरसभावितैः॥१९॥ **
कफजेऽथ ज्वरे कासे कण्ठरोगेष्वरोचके।
गुल्मे मेहे2654 प्रसेके च कल्कं मांसरसैः पिबेत्।
नरः साधु वमत्येवं न च दौर्बल्यमश्नुते॥२०॥
तत्र श्लोकाः।
पयस्यष्टौ सुरामण्डमस्तुतक्रेषु च त्रयः।
घ्रेयं सपललं तैलं वर्धमानाः फलेषु षट्॥२१॥
घृतमेकं कषायेषु नवान्ये मधुकादिषु।
अष्टौ वर्तिक्रिया लेहाः पञ्च मन्थो2655 रसस्तथा॥२२॥
योगा इक्ष्वाकुकल्पेऽस्मिंश्चत्वारिंशञ्च पञ्च च।
उक्ता महर्षिणा सम्यक् प्रजानां हितकाम्यया॥२३॥
इत्यभिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढवलसंपूरिते कल्पस्थाने इक्ष्वाकुकल्पो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३
_______________
चतुर्थोऽध्यायः।
अथातो धामार्गवकल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
कर्कोटकी कटुफला2656 महाजालिनिरेव च।
धामार्गवस्य पर्याया राजकोशातकी तथा॥३॥
गरे गुल्मोदरे कासे वाते श्लेष्माशयस्थिते।
कफे च कण्ठवॠस्थे कफसंचयजेषु च॥४॥
रोगेष्वेषु2657 प्रयोज्यं स्यात् स्थिराश्च गुरवश्च ये।
फलं पुष्पं प्रवालं च विधिना तस्य संहरेत्॥५॥
प्रवालस्वरसं शुष्कं कृताश्च गुलिकाः पृथक्।
कोविदारादिभिः पेयाः कषायैर्मधुकस्य च॥६॥
पुष्पादिषु पयोयोगाश्चत्वारः पञ्चमी सुरा।
पूर्ववजीर्ण शुष्काणामतः कल्पः प्रवक्ष्यते॥७॥
मधुकस्य कषायेण बीजकण्ठोद्धृतं फलम्।
सगुडं व्युषितं रात्रिं कोविदारादिभिस्तथा॥८॥
दद्याद्गुल्मोदरार्तेभ्यो ये चाप्यन्ये कफामयाः।
दद्यादन्नेन वा युक्तं छर्दिहृद्रोगशान्तये॥९॥
चूर्णैर्वाऽप्युत्पलादीनि भावितानि प्रभूतशः।
रसक्षीरवाग्वादितृप्तो घ्रात्वा वमेत् सुखम्॥१०॥
चूर्णीकृतस्य वर्तिं वा कृत्वा बदरसंमिताम्।
**विनीयाञ्जलिमात्रे तु पिबेद्गोश्वशकृद्रसे2658॥११॥ **
पृषतर्ष्यकुरङ्गाश्वतरगोकर्णरासभे।
**हरिणाजश्वदंष्ट्राविसंभवे च शकुद्रसे॥१२॥ **
जीवकर्षभकौ वीरामात्मगुप्तां शतावरीम्।
काकोलीं श्रावणीं मेदां महामेदां मधूलिकाम्॥१३॥
एकैकशोऽभिसंचूर्ण्य सह धामार्गवेण तु (ते)।
**शर्करामधुसंयुक्ता लेहा हृद्दाहकासिनाम्॥१४॥ **
सुखोदकानुपानाः स्युः पित्तोष्मसहिते कफे।
धान्यतुम्बुरुयूषेण कल्कस्तस्य विषापहः॥१५॥
जात्याः सौमनसायिन्या रजन्याश्चोरकस्य वा।
**वृश्चीरस्य महाक्षुद्रसहाहैमवतस्य च॥१६॥ **
बिम्ब्याःपुनर्नवाया वा कासमर्दस्य वा पृथक्2659।
एकं धामार्गवं द्वे वा कषाये परिमृद्य तु॥१७॥
पूतं मनोविकारेषु पिबेद्वमनमुत्तमम्।
तच्छृतक्षीरजं सर्पिः साधितं वा फलादिभिः॥१८॥
** तत्र श्लोकौ।**
पल्लवे नव चत्वारः क्षीर एकः सुरासवे।
कषाये विंशतिः कल्के दश द्वौ च शकृद्रसे॥१९॥
अन्न एकस्तथा घ्रेये दश लेहास्तथा घृतम्।
कल्पे धामार्गवस्योक्ताः षष्टिर्योगा महर्षिणा॥२०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने
धामार्गवकल्पो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
पञ्चमोऽध्यायः।
अथातो वत्सककल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
** इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥**
अथ वत्सकनामानि भेदं स्त्रीपुंसयोस्तथा।
कल्पं चास्य प्रवक्ष्यामि2660 विस्तरेण यथातथम्॥३॥
वत्सकः कुटजः शक्रो वृक्षको गिरिमल्लिका।
बीजानीन्द्रयवास्तस्य तथोच्यन्ते कलिङ्गकाः॥४॥
बृहत्फलः श्वेतपुष्पः2661 स्निग्धपत्रः पुमान् भवेत्।
**श्यामा चारुणपुष्पा स्त्री फलवृन्तै2662स्तथाऽणुभिः॥५॥ **
रक्तपित्तकफघ्नस्तु सुकुमारेष्वनत्ययः।
हृद्रोगज्वरवातासृग्वीसर्पादिषु शस्यते॥६॥
काले फलानि संगृह्य तयोः शुष्काणि संक्षिपेत्2663।
तेषामन्तर्नखं मुष्टिं जर्जरीकृत्य भावयेत्॥७॥
मधुकस्य कषायेण कोविदारादिभिस्तथा।
निशि स्थितं विमृद्यैतल्लवणक्षौद्रसंयुतम्॥८॥
पिबेत्तद्वमनं श्रेष्ठं पित्तश्लेष्मनिबर्हणम्।
अष्टाहं पयसाऽऽर्केण तेषां चूर्णानि भावयेत्2664॥९॥
जीवकस्य2665 कषायेण ततः पाणितलं पिबेत्।
फलजीमूतकेक्ष्वाकुजीवन्तीनां पृथक् तथा॥१०॥
सर्षपाणां मधूकानां लवणस्याथवाऽम्बुना।
कृशरेणाथवा युक्तं विदध्याद्वमनं भिषक्॥११॥
** तत्र श्लोकः।**
कषायैर्नव चूर्णैश्च पञ्चोक्ताः सलिलैस्त्रयः।
**एकश्च2666 कृशरायां स्याद्योगास्तेऽष्टादश स्मृताः॥१२॥ **
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने
वत्सककल्पो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
षष्ठोऽध्यायः।
अथातः कृतवेधनकल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
कृतवेधननामानि कल्पं चास्य निबोधत।
क्ष्वेडः कोशातकी चोक्तं2667 मृदङ्गफलमेव च॥३॥
अत्यन्तकटुतीक्ष्णोष्णं गाढेष्विष्टं गदेषु च।
**कुष्ठपाण्ड्वामयप्लीहशोफगुल्मगरादिषु॥४॥ **
क्षीरादि कुसुमादीनां सुरा चैतेषु पूर्ववत्।
**सुशुष्काणां तु जीर्णानामेकं2668 द्वे वा यथाबलम्॥५॥ **
कषायैर्मधुकादीनां नवभिः फलवत् पिबेत्।
**क्वाथयित्वा फलं2669 तस्य पूत्वा लेहं निधापयेत्॥६॥ **
कृतवेधनकल्कांशं फलार्धार्धांशसंयुतम्2670।
पृथक् चारग्वधादीनां त्रयोदशभिरासुतम्॥७॥
शाल्मलीमूलचूर्णानां2671; श्याल्मलीमूलवृन्ताना इति पा० । “) पिच्छाभिर्दशभिस्तथा।
वर्तिक्रियाः षट् फलवत्2672 फलादीनां घृतं तथा॥८॥
कोशातकानि पञ्चाशत् कोविदाररसे पचेत्।
तं कषायं फलादीनां कल्कैर्लेहं पुनः पचेत्॥९॥
क्ष्वेडस्य तत्र भागःस्याच्छेषाण्यर्धांशिकानि तु।
कषायैः2673कोविदाराद्यैरेवं पक्त्वा पिबेत् पृथक्॥१०॥
कषायेषु फलादीनामानूपं पिशितं पृथक्।
कोशातक्या समं पक्त्वा रसं सलवणं पिबेत्॥११॥
फलादिपिप्पलीतुल्यं तद्वन्मांसरसं2674 पिबेत्।
क्ष्वेडं कासी पिबेत् सिद्धं मिश्रमिक्षुरसेन च॥१२॥
तत्र श्लोकौ।
क्षीरे द्वौ द्वौ सुरा चैका क्वाथा द्वाविंशतिस्तथा।
दश पिच्छा घृतं चैकं षट् च वर्तिक्रियाः शुभाः॥१३॥
लेहेऽष्टौ सप्त मांसे च योग इक्षुरसेऽपरः।
कृतवेधनकल्पेऽस्मिन् षष्टिर्योगाः प्रकीर्तिताः॥१४॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने कृतवेधनकल्पो नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
______________
सप्तमोऽध्यायः।
अथातः श्यामात्रिवृत्कल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
विरेचने त्रिवृन्मूलं श्रेष्ठमाहुर्मनीषिणः2675।
तस्याः संज्ञा गुणाः कर्म भेदः कल्पश्च वक्ष्यते॥३॥
त्रिभण्डी त्रिवृता श्यामा2676 सुवहा कोटरा तथा।
सर्वानुभूतिः2677 सरला शब्दैः पर्यायवाचकैः॥४॥
कषाया मधुरा रूक्षा विपाके कटुका च सा।
कफपित्तप्रशमनी रौक्ष्याच्चानिलकोपनी॥५॥
सेदानीमौषधैर्युक्ता वातपित्तकफापहैः।
कल्पे2678 वैशेष्यमासाद्य सर्वरोगहरा भवेत्॥६॥
मूलं तु द्विविधं तस्याः श्यामं चारुणमेव च।
तयो2679र्मुख्यतरं विद्धि मूलं यदरुणप्रभम्॥७॥
सुकुमारे शिशौ वृद्धे मृदुकोष्ठे च तच्छुभम्।
मोहयेदाशुकारिस्वाच्छ्यामा कण्ठं2680 क्षिणोत्यपि॥८॥
तैक्ष्ण्यात् कर्षति हृत्कण्ठमाशु दोषं हरत्यपि।
शस्यते बहुदोषाणां क्रूरकोष्ठाश्च ये नराः॥९॥
गुणवत्यां तयोर्भूमौ जातं मूलं समुद्धरेत्।
उपोष्य प्रयतः शुक्रे शुक्लवासाः समाहितः॥१०॥
गम्भीरानुगतं श्लक्ष्णमतिर्यग्विसृतं च यत्।
तद्विपाठ्योद्धरेद्गर्भं2681त्वचं शुष्कां निधापयेत्॥११॥
स्निग्धस्विन्नोविरेच्यस्तु पेयामात्रोषितः सुखम्।
अक्षमात्रं तयोः पिण्डं विनीयाम्लेन ना पिबेत्॥१२॥
गोव्यजामहिषीमूत्रसौवीरकतुषोदकैः।
प्रसन्नया त्रिफलया शृतया च पृथक् पिबेत्॥१३॥
एकैकं सैन्धवादीनां2682 द्वादशानां सनागरम्।
त्रिवृद्विगुणसंयुक्तं2683 चूर्णमुष्णाम्बुना पिबेत्॥१४॥
पिप्पली पिप्पलीमूलं मरिचं गजपिप्पली।
सरलः किलिमं हिङ्गु भार्गी तेजोवती तथा॥१५॥
मुस्तं हैमवती पथ्या चित्रको रजनी वचा।
स्वर्णक्षीर्यजमोदा च शृङ्गवेरं च तैः पृथक्॥१६॥
एकैकार्धांशसंयुक्तं पिबेद्गोमूत्रसंयुतम्।
मधुकार्धांशसंयुक्तं शर्कराम्बुयुतं पिबेत्॥१७॥
जीवकर्षभकौमेदां श्रावणीं कर्कटाह्वयाम्।
मुगमाषाख्यपर्ण्यौ च महतीं श्रावणीं तथा॥१८॥
काकोलीं क्षीरकाकोलीमिन्द्रां2684 छिन्नरुहां तथा।
क्षीरांशुक्लां पयस्यां च यष्ट्याह्वंविधिना पिबेत्॥१९॥
वातपित्तहितान्येतान्यन्यानि तु कफानिले।
क्षीरमांसेशुकाश्मर्यद्राक्षापीलुरसैः पृथक्॥२०॥
सर्पिषा वा तयोश्चूर्णमभयार्धांशिकं पिबेत्।
लिह्याद्वा मधुसर्पिर्भ्यांसंयुक्तं ससितोपलम्॥२१॥
अजगन्धा तुगाक्षीरी विदारी शर्करा त्रिवृत्।
चूर्णितं क्षौद्रसर्पिभ्यां लीढ्वा साधु विरिच्यते॥२२॥
सन्निपातज्बरस्तम्भदाहतृष्णार्दितो नरः।
श्यामात्रिवृत्कषायेण कल्केन च सशर्करम्॥२३॥
साधयेद्विधिवल्लेहं लिह्यात् पाणितलं ततः।
सक्षौद्रां शर्करां पक्त्वा कुर्यान्मृद्भाजने नवे2685॥२४॥
क्षिपेच्छीते2686 त्रिवृच्चूर्णं त्वक्पत्रमरिचैः सह।
मात्रया2687 लेहयेदेतदीश्वराणां विरेचनम्॥२५॥
कुडवांशान् रसानिक्षुद्राक्षापीलुपरूषकात्।
सितोपलापलं क्षौद्रात् कुडवार्धं च साधयेत्॥२६॥
तं लेहं योजयेच्छीतं त्रिवृच्चूर्णेन शास्त्रवित्।
एतदुत्सन्नपित्तानामीश्वराणां विरेचनम्॥२७॥
शर्करामोदकान्वर्तीर्गुलिकामांसपूपकान्।
अनेन विधिना कुर्यात् पैत्तिकानां विरेचनम्॥२८॥
पिप्पलीं नागरं क्षारं श्यामां त्रिवृतया सह।
लेहयेन्मधुना सार्धं श्लेष्मलांनां विरेचनम्॥२९॥
मातुलुङ्गाभयाधात्रीश्रीपर्णीकोलदाडिमात्।
सुभृष्टान् स्वरसांस्तैले साधयेत्तत्र चावपेत्॥३०॥
सहकारात् कपित्थाच्च मध्यमम्लं च यत् फलम्।
पूर्ववदहलीभूते त्रिवृच्चूर्णं समावपेत्॥३१॥
त्वक्पत्रकेशरैलानां चूर्णं मधु च मात्रया।
लेहोऽयं कफपूर्णानामीश्वराणां विरेचनम्॥३२॥
पानकानि रसानू यूषान् मोदकान् रागषाडवान्।
अनेन विधिना कुर्याद्विरेकार्थं कफाधिके॥३३॥
भृङ्गैलाभ्यां समा नीली तैस्त्रिवृत्तैश्च शर्करा।
चूर्णं फलरसक्षौद्रशक्तुभिस्तर्पणं पिबेत्॥३४॥
वातपित्तकफोत्थेषु रोगेष्वल्पानलेषु च।
नरेषु सुकुमारेषु निरपायं विरेचनम्॥३५॥
शर्करात्रिफलाश्यामात्रिवृत्पिप्पलिमाक्षिकैः।
मोदकः सन्निपातोर्ध्वरक्तपित्तज्वरापहः॥३६॥
त्रिवृच्छाणा मतास्तिस्रस्तिस्त्रश्च त्रिफलात्वचः।
विडङ्गपिप्पलीक्षारशाणास्तिस्रश्च चूर्णिताः॥३७॥
लिह्यात् सर्पिर्मधुभ्यां च मोदकं वा गुडेन च।
भक्षयेन्निष्परीहारमेतच्छो2688धनमुत्तमम्॥३८॥
गुल्मं प्लीहोदरं श्वासं हलीमकमरोचकम्।
कफवातकृतांश्चान्यान् व्याधीनेतद्व्यपोहति॥३९॥
विडङ्गपिप्पलीमूलत्रिफलाधान्यचित्रकान्।
मरिचेंन्द्रयवाजाजीपिप्पलीहस्तिपिप्पलीः॥४०॥
लवणान्यजमोदां च चूर्णितं कार्षिकं पृथक्।
तिलतैलन्निवृच्चूर्णभागौ चाष्टपलोन्मितौ॥४१॥
धात्रीफलरसप्रस्थांस्त्रीन् गुडार्धतुलां तथा।
पक्त्वा मृद्वग्निना खादेद्वदरोदुम्बरोपमान्॥४२॥
गुडान् कृत्वा न चात्र स्याद्विहाराहारयन्त्रणा।
मन्दाग्नित्वं ज्वरं मूर्च्छां मूत्रकृच्छ्रमरोचकम्॥४३॥
अस्वप्नंगात्रशूलं च कासं श्वासं भ्रमं क्षयम्।
कुष्ठार्शः कामलामेहगुल्मोदरभगन्दरान्॥४४॥
ग्रहणीपाण्डुरोगांश्च हन्युः पुंसवनाश्च ते।
कल्याणका इति ख्याताः सर्वेष्वृतुषु यौगिकाः॥४५॥
व्योषत्वक्पत्रमुस्तैलाबिडङ्गामलकाभयाः2689।
समभागा भिषग्दधाद्द्विगुणं च मकूलकम्॥४६॥
त्रिवृतोऽष्टगुणं भागं शर्करायाश्च षङ्गुणम्।
चूर्णितं गुडिकाः कृत्वा क्षौद्रेण पलसंमिताः॥४७॥
भक्षयेत् कल्यमुत्थाय शीतं चानु पिबेज्जलम्।
मूत्रकृच्छ्रे ज्वरे वम्यां कासे श्वासे भ्रमे क्षये॥४८॥
तापे पाण्ड्वामयेऽल्पेऽग्नौशस्ता निर्यत्रणाशिनः।
योगः सर्वविषाणां च मतः श्रेष्ठो विरेचने2690॥४९॥
मूत्रजानां च रोगाणां विधिज्ञेनावचारितः।
त्रिवृत्पलं द्विप्रसृतं पथ्या धान्योरुबूकयोः2691॥५०॥
द्राक्षाधात्र्युरुबूकानां प्रसृतौ द्वौ त्रिवृत्पलम्।
दश तान्मोदकान् कुर्यादीश्वराणां विरेचनम्॥५१॥
त्रिवृद्धैमवती श्यामा नीलिनी हस्तिपिप्पली।
समूला पिप्पली मुस्तमजमोदा दुरालभा॥५२॥
कार्षिकं नागरपलं गुडस्य पलविंशतिम्।
चूर्णितं मोदकान् कुर्यादुदुम्बरफलोपमान्॥५३॥
हिङ्गुसौवर्चलव्योषयमानीबिडजीरकैः।
वचाजगन्धात्रिफलाचव्यचित्रकधान्यकैः॥५४॥
मोदकान् वेष्टयेच्चूर्णैस्तान् सतुम्बुरुदाडिमैः।
त्रिकवंक्षणहृद्वस्तिकोष्ठार्शःप्लीहशूलिनाम्॥५५॥
हिक्काकासारुचिश्वासकफोदावर्तिनां शुभाः।
त्रिवृतां कौटजं बीजं पिप्पलीं विश्वभेषजम्॥५६॥
क्षौद्रद्रा2692क्षारसोपेतं वर्षास्वेतद्विरेचनम्।
त्रिवृद्दुरालभामुस्तशर्करोदीच्यचन्दनम्॥५७॥
द्राक्षाम्बुना सयष्ट्याह्वसातलं जलदात्यये।
त्रिवृतां चित्रकं पाठामजाजीं सरलं वचाम्॥५८॥
स्वर्णदुग्धीं च हेमन्ते पिट्वा तूष्णाम्बुना पिबेत्।
शर्करा त्रिबृता तुल्या ग्रीष्मकाले विरेचनम्॥५९॥
त्रिवृधायतन्तिहपुषाः सातलांकटुरोहिणीम्2693।
स्वर्णक्षीरीं च संचूर्ण्यंगोमूत्रे भावयेत्र्यहम्॥६०॥
एष सर्वर्तुको योगः स्निग्धानां मलदोषहृत्।
दुरालभा त्रिवृच्छ्यामा वत्सकं हस्तिपिप्पली॥६१॥
नीलिनी त्रिफला मुस्तं कटुका च सुचूर्णितम्।
सर्पिमांसरसोष्णाम्बुयुक्तंपाणितलं ततः॥६२॥
पिबेत् सुखतमं2694 ह्येतद्रूक्षाणामपि शस्यते।
त्र्यूषर्णत्रिफला हिङ्गु कार्षिकं त्रिवृतापलम्॥६३॥
सौवर्चलार्धकर्षं च पलार्धं चाम्लवेतसात्।
तच्चूर्णं शर्करातुल्यं मद्येनाम्लेन वा पिबेत्॥६४॥
गुल्मपार्श्वार्तिनुत् सिद्धं जीर्णे चाद्याद्रसौदनम्।
त्रिवृतां त्रिफलां दन्तीं सप्तलां व्योषसैन्धवम्॥६५॥
कृत्वा चूर्णं तु सप्ताहं भाव्यमामलकीरसे।
तद्योज्यं तर्पणे यूषे पिशिते रागयुक्तिषु॥६६॥
तुल्याम्लं त्रिवृताकल्कसिद्धं गुल्महरं घृतम्।
श्यामात्रिवृतयोर्मूलं पचेदामलकैः सह॥६७॥
जले तेन कषायेण पक्त्वा सर्पिः पिबेन्नरः।
श्यामात्रिवृत्कषायेण सिद्धं सर्पिः पिबेत्तथा॥६८॥
साधितं वा पयस्ताभ्यां सुखं तेन चिरिच्यते।
त्रिवृन्मुष्टींस्तु2695 सनखानष्टौ द्रोणेऽम्भसः पचेत्॥६९॥
पादशेषं कषायं तं शीतं गुडतुलायुतम्।
स्निग्धे स्थाप्यं घटे क्षौद्रपिप्पलीफलचित्रकैः॥७०॥
प्रलिप्से विधिना2696 मासं जातं तन्मात्रया पिबेत्।
ग्रहणीपाण्डुरोगघ्नं गुल्मश्वयथुनाशनम्॥७१॥
सुरां वा त्रिवृतायोगकिण्वां2697 तत्क्वाथसंयुताम्।
यवैः श्यामात्रिवृतत्क्काथस्विन्नैः कुल्माषमम्भसा॥७२॥
आसुतं षडहं पल्ले जातं सौवीरकं पिबेत्।
भृष्टान् वा सतुषान् क्षुण्णान् यवांस्तचूर्णसंयुतान्॥७३॥
आसुतानम्भसा तद्वत् पिबेज्जातं तुषोदकम्।
तथा मदनकल्पोक्तानू षाडवादीन् पृथग्दश।
त्रिच्चूर्णेन संयोज्य विरेकार्थ प्रयोजयेत्॥७४॥
त्वक्केशराभ्रातकदाडिमैलासितोपलामाक्षिकमातुलुङ्गैः।
मद्यैस्तथाऽन्यैश्च मनोनुकूलैर्युक्तानि देयानि विरेचनानि॥७५॥
शीताम्बुना पीतवतश्च तस्य सिञ्चेन्मुखं छर्दिविघातहेतोः।
हृद्यांश्च मृत्पुष्पफलप्रवालानन्यां2698श्च दद्यादुपजिघ्रणार्थम्॥७६॥
** तत्र श्लोकाः।**
एकोऽम्लादिभिरष्टौ च दश द्वौ सैन्धवादिभिः।
मूत्रेऽष्टादश यष्ट्यां द्वौ जीवकादौ चतुर्दश॥७७॥
क्षीरादौ सप्त लेहेऽष्टौ चत्वारः सितयाऽपि च।
पानकादिषु पञ्चैव षड्टतौ पञ्च मोदकाः॥७८॥
चत्वारश्च घृते क्षीरे द्वौ चूर्णे तर्पणे तथा।
द्वौमद्ये काञ्जिके द्वौ च दशान्ये षाडवादिषु॥७९॥
श्यामायास्त्रिवृतायाश्च कल्पेऽस्मिन् समुदाहृतम्।
शतं दशोत्तरं सिद्धं योगानां परमर्षिणा॥८०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने श्यामात्रिवृत्कल्पो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
अष्टमोऽध्यायः।
अथातश्चतुरङ्गुलकल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
आरग्वधो राजवृक्षः शम्पाकश्चतुरङ्गुलः।
**प्रग्रहः कृतमालश्च कर्णिकारोऽवघातकः॥३॥ **
ज्वरहृद्रोगवातासृगुदावर्तादिरोगिषु।
**राजवृक्षोऽधिकं पथ्यो मृदुर्मधुरशीतलः॥४॥ **
बाले वृद्धे क्षते क्षीणे सुकुमारे च मानवे।
**योज्यो मृद्वनपायित्वाद्विशेषाच्चतुरङ्गुलः॥५॥ **
फलकाले2699 परिणतं फलं तस्याहरेद्बुधः।
**तेषां गुणवतां जातं2700 सिकतासु निधापयेत्॥६॥ **
सप्तरात्रात् समुद्धृत्य शोषयेदातपे भिषक्।
ततो मज्जानमुद्धृत्य2701 शुचौ भाण्डे निधापयेत्॥७॥
द्राक्षारसयुतं दद्याद्दाहोदावर्तपीडिते ।
चतुर्वर्षमुखे बाले यावद्द्वादशवार्षिके॥८॥
चतुरङ्गुलमज्ज्ञस्तु प्रसृतं वाऽथवाऽञ्जलिम्।
**सुरामण्डेन संयुक्तमथवा कोलसीधुना॥९॥ **
दधिमण्डेन वा सम्यग्रसेनामलकस्य वा।
**कृत्वा शीतकषायं तं पिबेत् सौवीरकेण वा॥१०॥ **
त्रिवृतो वा कषायेण मज्ज्ञः कल्कं तथा पिबेत्2702।
तथा बिल्वकषायेण लवणक्षौद्रसंयुतम्॥११॥
कषायेणाथवा तस्य त्रिवृच्चूर्णं गुडान्वितम् ।
**साधयित्वा शनैर्लेहं लेहयेन्मात्रया नरम्॥१२॥ **
चतुरङ्गुलसिद्धाद्वा क्षीराद्यदुदियाद्धृतम्।
मज्ज्ञः कल्केन धात्रीणां रसे तत् साधितं पिबेत्॥१३॥
तदेव दशमूलस्य कुलस्थानां यवस्य च।
कषाये साधितं सर्पिः कल्कैः श्यामादिभिः पिबेत्॥१४॥
दन्तीक्वाथेऽञ्जलिं मज्ज्ञः शम्पाकस्य गुडस्य च।
दत्त्वा मासार्धमासस्थमरिष्टं पाययेत च॥१५॥
यस्य यत् पानमनं2703 च हृद्यं स्वाद्वथ वा कटु।
लवणं वा भवेत्तेन युक्तं दधाद्विरेचनम्॥१६॥
तत्र श्लोकौ।
द्राक्षारसे सुरासीध्वोर्दध्नि चामलकीरसे।
सौवीरके2704 कषाये च त्रिवृतो बिल्वकस्य च॥१७॥
लेहेऽरिष्टे वृते द्वे च योगा द्वादश कीर्तिताः।
चतुरङ्गुलकल्पेऽस्मिन् सुकुमाराः सुखोदयाः॥१८॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलप्रतिसंपूरिते कल्प स्थाने चतुरङ्गुलकल्पो नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
_____________
नवमोऽध्यायः।
अथातस्तिल्वककल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
तिल्वकस्तु मतो लोध्रो बृहत्पत्रस्तिरीटकः।
तस्य मूलस्वचं शुष्कामन्तर्वल्कलवर्जिताः॥३॥
चूर्णयेत्तु त्रिधा कृत्वा द्वौ भागौ श्रोतयेत्ततः2705।
लोध्रस्यैव कषायेण तृतीयं तेन भावयेत्॥४॥
भागं तं दशमूलस्य पुनः2706 क्वाथेन भावयेत्।
शुष्कं चूर्णं पुनः कृत्वा तत2707 ऊर्ध्वं प्रयोजयेत्॥५॥
दद्धितक्रसुरामण्डमूत्रैर्बदरसीधुना।
रसेनामलकानां वा ततः पाणितलं पिबेत्॥६॥
मेषशृङ्यभयाकृष्णाचित्रकैः सलिले शृ॒ते।
मरुजान्2708 सुनुयात्तच्च जातं सौवीरकं यदा॥७॥
भवेदञ्जलिना तस्य लोध्रकल्कं पिबेत्तदा।
सुरां लोधकषायेण जातां पक्षस्थितां पिबेत् ॥८॥
दन्ती चित्रकयोर्द्रोणे सलिलस्याढकं पृथक्।
समुत्क्काथ्य गुडस्यैकां तुलां लोध्रस्य चाञ्जलिम्॥९॥
आवमेत्तत् परं पक्षान्मद्यपानां विरेचनम्2709 ।
तिल्वकस्य कषायेण2710 दशकृत्वः सुभाविताम्॥१०॥
मात्रां कम्पिल्लकस्यैव कषायेण पुनः पिबेत्।
चतुरङ्गुलकल्पेन लेहोऽन्यः कार्य एव च॥११॥
विफलायाः कषायेण ससर्पिर्मधुफाणित।
लोध्रचूर्णयुतः सिद्धो लेहः श्रेष्ठो2711 विरेचने॥१२॥
तिल्वकस्य कषायेण कल्केन च सशर्करः।
सघृतः साधितो लेहः स च श्रेष्ठो2711 विरेचने॥१३॥
अष्टाष्टौ त्रिवृतादीनां मुष्टींश्च सनखान् पृथक्।
द्रोणेऽपां साधयेत् पादशेषे प्रस्थं घृतात् पचेत्॥१४॥
पिष्टैस्तैरेव बिल्वांशैः समूत्रलवणैर्भिषक्।
ततो मात्रां पिबेत् काले श्रेष्ठमेतद्विरेचनम्॥१५॥
लोध्रकल्केन मूत्राम्ललवणैश्च पचेद्धृतम्।
चतुरङ्गुलकल्पेन सर्पिषी द्वे च साधयेत्॥१६॥
तत्र श्लोकौ।
पञ्च दध्यादिभिस्त्वेका सुरा सौवीरकेण च।
एकोऽरिष्टस्तथा योग एकः कम्पिल्लकेन च॥१७॥
लेहास्त्रयो घृतेनापि चत्वारः संप्रकीर्तिताः।
योगास्ते लोध्रमूलानां कल्पे षोडश दर्शिताः॥१८॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने तिल्वककल्पो नाम नवमोऽध्यायः ॥९॥
________
दशमोऽध्यायः।
अथातः सुधाकल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
विरेचनानां सर्वेषां सुधा तीक्ष्णतमा मता।
सङ्घातं हि भिनत्त्याशु दोषाणां कष्टविभ्रमा॥३॥
तस्मान्नैषा मृदौ कोष्ठे प्रयोक्तव्या कदाचन।
न दोषनिचये चाल्पे सति मार्गपरिक्रमे2712॥४॥
पाण्डुरोगोदरे गुल्मे कुष्ठे दूषीविषार्दिते।
श्वयथौ मधुमेहे च दोषविभ्रान्तचेतसि॥५॥
रोगैरेवंविधैर्ग्रस्तं ज्ञात्वां सप्राणमातुरम्।
प्रयोजयेन्महावृक्षं सम्यक् स ह्यवचारितः॥६॥
सद्यो हरति2713 दोषाणां महान्तमपि संचयम्।
द्विविधः स मतोऽल्पैश्च बहुभिश्चैव कण्टकैः॥७॥
सुतीक्ष्णैः कण्टकैरल्पैः प्रवरो बहुकण्टकः।
स नाम्ना स्नुग्गुडानन्दा सुधा निस्त्रिंशपत्रकः॥८॥
तं2714 विपाट्याहरेत् क्षीरं शस्त्रेण मतिमान् भिषक्।
द्विवर्षं वा त्रिवर्षं वा शिशिरान्ते विशेषतः॥९॥
बिल्वादीनां बृहत्याश्च कण्टकार्यास्तथैकशः।
कषायेण समांशं तं कृत्वाऽङ्गारेषु शोषयेत्॥१०॥
ततः कोलसमां मात्रां पिबेत् सौवीरकेण वा।
तुषोदकेन कोलानां रसेनामलकस्य वा ११॥
सुरया दधिमण्डेन मातुलुङ्गरसेन वा।
सातलां काञ्चनक्षीरीं श्यामादीनि कटुत्रिकम्2715॥१२॥
यथोपपत्ति सप्ताहं सुधाक्षीरेण भावयेत्।
कोलमात्रां घृतेनातः पिबेन्मांसरसेन वा॥१३॥
त्र्यूषणं त्रिफलां दन्तीं चित्रकं त्रिवृतां तथा ।
स्रुक्क्षीरभावितं सम्यग्विदध्याद्गुडपानकम् ॥१४॥
त्रिवृतारग्वधं दन्तींशङ्खिनीं सप्तलां समम्।
निशि स्थितं गवां मूत्रे2716 शोषयेदातपे ततः ॥१५॥
सप्ताहं भावयित्वैवं क्षीरेणापरं पुनः।
सप्ताहं भावयेच्छुष्कं ततस्तेनापि भावितम् ॥१६॥
गन्धमाल्यं तदाघ्राय2717 प्रावृत्य पटमेव च।
सुखमाशु विरिच्यन्ते मृदुकोष्ठा नराधिपाः॥१७॥
श्यामात्रिवृत्कषायेण क्षीरघृतफाणितैः।
लेहं पक्त्वा विरेकार्थं लेहयेन्मात्रया नरम्॥१८॥
पाययेत सुधाक्षीरं यूषैर्मांसरसैर्वृतैः।
भाविताछुष्कयान्वा मांसं वा भक्षयेन्नरः॥१९॥
क्षीरणामलकैः सर्पिश्चतुरकुलवत् पचेत्।
सुरां वा कारयेत् क्षीरे घृतं वा पूर्ववत् पचेत्॥२०॥
तत्र श्लोकौ।
सौवीरकादिभिः सप्त सर्पिषा च रसेन च।
पानकं ध्रेयलेहौ च योगा यूषादिभिस्त्रयः॥२१॥
द्वौ शुष्कमत्स्यमांसाभ्यां सुरैका द्वे च सर्पिषी।
महावृक्षस्य योगास्ते विंशतिः समुदाहृताः ॥ २२ ॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने सुधाकल्पो नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
______________
एकादशोऽध्यायः।
अथातः सप्तलाशङ्खिनीकल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सप्तला चर्मसाह्वा च बहुफेनरसा च सा।
शङ्खिनी तित्त्कला2718 चैव यवतिक्ताऽक्षिपीडकः॥३॥
ते गुल्मगरहृद्रोगकुष्ठशोफोदरादिषु।
विकासितीक्ष्णरूक्षत्वाद्योज्ये श्लेष्माधिकेषु तु॥४॥
नातिशुष्कं फलं ग्राझं शङ्खिन्या निस्तुषीकृतम्।
सप्तलायाश्च मूलानि गृहीत्वा भाजने क्षिपेत्॥५॥
अक्षमात्रं तयोः पिण्डं प्रसन्नालवणायुतम्।
हृद्रोगे2719 कफवातोत्थे गुल्मे चैव प्रयोजयेत्॥६॥
प्रियालपीलुकर्कंन्धूकोलाम्रातकदाडिमैः।
द्राक्षापनसखर्जूरबदराम्लपरूषकैः॥७॥
मैरेये दधिमण्डेऽम्ले सौवीरकतुषोदके।
शीधौ चाप्येष कल्पः स्यात् सुखं शीघ्रविरेचनः॥८॥
तैलं विदारिगन्धाद्यैः पयसि क्वथिते पचेत्।
सप्तलाशङ्खिनीकल्के त्रिवृच्छ्यामार्धभागिके॥९॥
दधिमण्डेन सन्नीय2720 सिद्धं तत् पाययेत च।
शङ्खिनीचूर्णभागौ द्वौ तिलचूर्णस्य2721 चापरः॥१०॥
हरीतकीकषायेण तैलं तत्पीडितं पिबेत्।
अतंसीसर्षपैरण्डकरञ्जेष्वेष संविधिः॥११॥
शङ्खिनी सप्तलासिद्धात् क्षीराद्यदुदियाध्द्घृतम्।
कल्कभागे तयोरेव त्रिवृच्छ्यामार्धसंयुते॥१२॥
क्षीरेणालोड्य संपक्वं पिबेत्तच्च विरेचनम्।
दन्तीद्रवन्त्योः कल्पोऽयमजशृङ्ग्यजगन्धयोः॥१३॥
क्षीरिण्या नीलिकायाश्च तथैव च करञ्जयोः।
मसूरविदलायाश्च प्रत्यक्श्रेण्यास्तथैव2722 च॥१४॥
द्विवर्गार्धांशकल्केन तद्वत् सायं घृतं पुनः।
शङ्खिनीसप्तलाधात्रिकषाये चापरं2723 घृतम्॥१५॥
त्रिवृत्कल्पेन सर्पिश्च त्रयो लेहाश्च लोध्रवत्।2724
सुराकम्पिल्लयोर्योगः कार्यो लोध्रवदेव च॥१६॥
दन्तीद्रवन्त्योः कल्पेन सौवीरकतुषोदके।
अजगन्धाजशृङ्ग्योश्च तद्वत् स्यातां विरेचने॥१७॥
तत्र श्लोकौ।
कषाया दश षट् चैव षट् तैलेऽष्टौ च सर्पिषि।
पञ्च मद्ये त्रयो लेहा योगः कम्पिल्लके तथा॥१८॥
सप्तलाशङ्खिनीभ्यां ते त्रिंशदुक्ता नवाधिकाः।
योगाः सिद्धाः समस्ताभ्याभेकशोऽपि च ते हिताः॥१९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने सप्तलाशङ्खिनीकल्पो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
_____________
द्वादशोऽध्यायः।
अथातो दन्तीद्रवन्तीकल्पं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
दन्त्युदुम्बरपर्णी स्यान्निकुम्भोऽथ मुकूलकः।
द्रवन्ती नामतश्चित्रा न्यग्रोधी मूषिकाह्वया ॥३॥
तथा मूषिकपर्णी चाप्युपचित्रा च शम्बरी।
प्रत्यक्श्रेणी सुतश्रेणी दन्ती र(च)ण्डा च कीर्तिता ॥४॥
तयोर्मूलानि संगृह्य स्थिराणि बहलानि च।
हस्तिदन्तप्रकाराणि श्यावताम्राणि2725 बुद्धिमान्॥५॥
पिप्पलीमधुलिप्तानि स्वेदयेन्मृत्कुशान्तरे।
शोषयेदातपेऽरूयर्कौ2726 हतो ह्येषां विकाशिताम्॥६॥
तीक्ष्णोष्णान्याशुकारीणि विकाशीनि गुरूणि च।
विलाययन्ति दोषौ द्वौ मारुतं कोपयन्ति च॥७॥
दधितक्रसुरामण्डैः पिण्डमक्षसमं तयोः।
प्रियालकोलबदरपीलुशीधुभिरेव च॥८॥
पिबेद्गुल्मोदरी दोषैरभिखिञ्चश्च2727 यो नरः।
गोमृगाजरसैः पाण्डुः कृमिकोष्ठी भगन्दरी॥९॥
तयोः कल्के कषाये च दशमूलरसायुते।
कक्षालजीविसर्पेषु2728 दाहे च विपचेद्धृतम्॥१०॥
तैलं मेहे च गुल्मे च सोदावर्ते कफानिले।
चतुःस्नेहं शकृच्छुक्रवातसङ्गानिलार्तिषु॥११॥
रसे दन्त्यजशृङ्ग्योश्च गुडक्षौद्रघृतान्वितः।
लेहः सिद्धो विरेकार्थे दाहसन्तापमेहनुत्2729॥१२॥
वाततर्षे ज्वरे पैत्ते स्यात् स एवाजगन्धया।
मूलं दन्तीद्रवन्त्योश्च पचेदामलकीरसे॥१३॥
त्रींस्तु तस्य कषायस्य भागौ द्वौ फाणितस्य च।
तप्ते सर्पिषि तैले वा भर्जयेत्तत्र चावपेत्॥१४॥
कल्कं दन्तीद्रवन्त्योश्च श्यामादीनां च भागशः।
तत्सिद्धं प्राशयेल्लेहं सुखं तेन विरिच्यते॥१५॥
रसे च दशमूलस्य तथा बैभीतके रसे।
हरीतकीरसे चैव लेहानेवं पचेत् पृथक्॥१६॥
तयोर्बिल्वसमं चूर्णं तद्रसेनैव भावितम्।
असृष्टे विषि वातोत्थे गुल्मे चाम्लयुतं शुभम्॥१७॥
पाटयित्वेक्षुकाण्डं वा कल्केनालिप्य चान्तरा।
स्वेदयित्वा ततः खादेत् सुखं तेन विरिच्यते॥१८॥
मूलं दन्तीद्रवन्त्योश्च सह मुद्गैर्विपाचयेत्।
लाववर्तीरकाद्यैश्च ते रसाः स्युर्विरेचनाः॥१९॥
तयोर्वाऽपि कषायेण यवागूं जाङ्गलं रसम्।
माषयूषं2730 च संस्कृत्य दद्यात्तैश्च विरिच्यते॥२०॥
तत्कषायान्त्रयो भागा द्वौ सितायास्तथैव च।
एको गोधूमचूर्णानां कार्या चोत्कारिका शुभा॥२१॥
मोदको वाऽस्य कल्पेन कार्यस्तच्चविरेचनम्।
तयोश्चापि कषायेण मद्यमस्योपकल्पयेत्॥२२॥
दन्तीक्वाथेन2731 चालोड्य दन्तीतैलेन साधितान्।
गुडलावणिकान् भक्ष्यान् विविधान् भक्षयेन्नरः॥२३॥
दन्तीं द्रवन्तीं मरिचं यवानीमुपकुञ्चिकाम्।
नागरं हेमदुग्धां च चित्रकं चेति चूर्णितम्॥२४॥
सप्ताहं भावयेन्मूत्रे गवां पाणितलं ततः।
पिबेद्धृतेन जीर्णे2732 तु विरिक्तश्चापि तर्पणम्॥२५॥
सर्वरोगहरं मुख्यं सर्वेष्वृतुषु यौगिकम्।
चूर्णं तदनपायित्वाद्बालवृद्धेषु पूजितम्॥२६॥
दुर्भक्ताजीर्णपार्श्वार्तिगुल्मप्लीहोदरेषु च।
गण्डमालास्नवाते2733 च पाण्डुरोगे च शस्यते॥२७॥
पलं चित्रकदन्त्योश्च हरीतक्याश्च विंशतिः।
त्रिवृत्पिप्पलीकर्षौ द्वौ गुडस्याष्टपलेन तत्॥२८॥
विनीय मोदकान्कुर्याद्दशैकं भक्षयेत्ततः।
उष्णाम्बु च पिबेच्चानु2734 दशमे दशमेऽह्नि च॥२९॥
एते निष्परिहाराः स्युः सर्वरोगनिबर्हणाः।
ग्रहणीपाण्डुरोगार्शः कण्डूकुष्ठानिलापहाः2735॥३०॥
दन्तीद्विपलनिर्यूहो द्राक्षार्धप्रस्थसंयुतः2736।
विरेचनं पित्तकासे पाण्डुरोगे च शस्यते॥३१॥
दन्तीकल्कं समगुडं शीतवारियुतं पिबेत्।
विरेचनं मुख्यतमं कामलाहरमुत्तमम्॥३२॥
(शुण्ठीमरिचपिप्पल्यः कार्षिकाः स्युः पृथक् पृथक्।
द्विगुणे शर्करैले च शङ्खिनी त्याच्चतुर्गुणा॥३३॥
नीलिनीमष्टगुणितां द्विरष्टगुणितां तथा।
दन्तीं द्रवन्तीं, त्वक्शाणमेकं चात्र प्रदापयेत् ॥३४॥
तस्मादर्धपलं चूर्णाल्लिह्यान्माक्षिकसंयुतम्।
शीतोदकानुपानं तु निरपायं विरेचनम्2737 ॥३५॥)
श्यामादन्तीरसे गौडः पिप्पलीफलचित्रकैः।
लिप्तेऽरिष्टोऽनिलश्लेष्मप्लीहपाण्डूदरापहः॥३६॥
तथा दन्तीद्रवन्त्योश्च कषाये साजगन्धयोः।
गौडः कार्योऽजशृङ्या वा स वै सुखविरेचनः॥३७॥
तच्चूर्णक्वाथमाषाम्बुकिण्वतोयसमुद्भवा।
मदिरा कफगुल्माल्पवह्निपार्श्वकटिग्रहे॥३८॥
अजगन्धाकषायेण सौवीरकतुषोदके।
सुराकम्पिल्लके योगौ लोधवच्च तयोः स्मृतौ॥३९॥
तत्र श्लोकाः।
(दध्यादिषु त्रयः पञ्च प्रियालाद्यैस्त्रयो रसे।
स्नेहेषु वै त्रयो लेहाः षट् चूर्णे त्वेक एव च॥४०॥
इक्षावेकस्तथा मुद्गमांसानां च रसास्त्रयः।
यवाग्वादौ त्रयश्चैक उक्त उत्कारिकाविधौ॥४१॥
एकश्च मोदके मद्ये चैकस्तत्क्वाथतैलके।
चूर्णमेकं पुनश्चैको मोदकः पञ्च चासवे॥४२॥
एकः सौवीरकेऽथैको योगः स्यात्तु तुषोदके।
एका सुरा कम्पिल्लके चैकः पञ्च घृते स्मृताः2738॥४३॥)
दन्तीद्रवन्तीकल्पेऽस्मिन् प्रोक्ताः षोडशकास्त्रयः।
नानाविधानां योगानां भक्तिदोषामयान् प्रति॥४४॥
त्रिशतं पञ्चपञ्चाशद्योगानां वमने स्मृतम्।
द्वे शते नवकाः पञ्च योगानां तु विरेचने॥४५॥
ऊर्ध्वानुलोमभागानामित्युक्तानि शतानि षट्।
प्राधान्यतः समाश्रित्य द्रव्याणि दश पञ्च च॥४६॥
भवन्ति चात्र।
यद्धि येन प्रधानेन द्रव्यं समुपसृज्यते।
तत्संज्ञकः स2739 संयोगो भवतीति विनिश्चितम् ॥४७॥
फलादीनां प्रधानानां गुणभूताः सुरादयः।
ते हि तान्यनुवर्तन्ते मनुजेन्द्रमिवेतरे ॥४८॥
विरुद्धवीर्यमप्येषां प्रधानानामबाधकम्।
अधिकं तुल्यवीर्ये हि क्रियासामर्थ्यमिष्यते ॥४९॥
इष्टवर्णरसस्पर्शगन्धार्थं प्रति चामयम्।
अतो विरुद्धवीर्याणां प्रयोग इति निश्चितम् ॥५०॥
भूयश्चैषां बलाधानं कार्यं स्वरसभावनैः।
सुभावितं ह्यल्पमपि द्रव्यं स्याध्दहुकर्मकृत् ॥५१॥
स्वरसैस्तुल्यवीर्यैर्वा तस्माद्रव्याणि भावयेत्।
अल्पस्यापि महार्थत्वं प्रभूतस्याल्पकर्मताम् ॥५२॥
कुर्यात् संयोगविश्लेषकालसंस्कारयुक्तिभिः।
प्रदेशमात्रमेतावद्द्रष्टव्यमिह षट्शतम्॥५३॥
स्वबुद्धयैवं सहस्राणि कोटीर्वाऽपि प्रकल्पयेत्।
बहुद्रव्यविकल्पत्वाद्योगसंख्या न विद्यते॥५४॥
तीक्ष्णमध्यमृदूनां तु तेषां शृणुत लक्षणम्।
सुखं क्षिप्रं महावेगमसक्तं यत् प्रवर्तते ॥५५॥
नातिग्लानिकरं पायौ हृदये न च रुक्करम्।
अग्नेराशयमक्षिण्वन् कृत्स्नं दोषं निरस्यति॥५६॥
विरेचनं निरुहं (हो) वा तत्तीक्ष्णमिति निर्दिशेत्।
जलाग्निकीटैरस्पृष्टं देशकालगुणान्वितम् ॥५७॥
ईषन्मात्राधिकैर्युक्तं तुल्यवीर्यैः सुभावितम्।
स्नेहस्वेदोपपन्नस्य तीक्ष्णत्वं याति भेषजम् ॥५८॥
किञ्चिदेभिर्गुणैर्हीनं पूर्वोक्तैर्मात्रया तथा।
स्निग्धस्विन्नस्य वा सम्यङ्मध्यं भवति भेषजम् ॥५९॥
मन्दवीर्यं तु रूक्षस्य हीनमात्रं तु भेषजम्।
अतुल्यवीर्यैः संयुक्तं मृदु स्यान्मन्दवेगवत्॥६०॥
अकृत्स्त्रदोषहरणादशुद्धी ते बलीयसाम्।
मध्यावरबलानां तु प्रयोज्ये सिद्धिमिच्छता॥६१॥
तीक्ष्णो मध्यो मृदुर्व्याधिः सर्वमध्याल्पलक्षणः।
तीक्ष्णादीनि बलापेक्षी भेषजान्येषु योजयेत्॥६२॥
देयं त्वनिर्ह्रते पूर्वं पीते पश्चात् पुनः पुनः।
भेषजं वमनार्थाय2740 प्राय आपित्तदर्शनात्॥६३॥
बलत्रैविध्यमालक्ष्य2741 दोषाणामातुरस्य च।
पुनः प्रदद्याभैषज्यं सर्वशो वा विवर्जयेत्॥६४॥
निर्ह्रते वाऽपि जीर्णे वा दोषनिर्हरणे बुधः।
भेषजेऽन्यत् प्रयुञ्जीत प्रार्थयन् सिद्धिमुत्तमाम्॥६५॥
अपक्वं वमनं दोषं पच्यमानं विरेचनम्।
निर्हरेद्वमनस्यातः पाकं न प्रतिपालयेत्॥६६॥
पीते प्रस्रंसने दोषान्न निर्ह्रत्य जरां गते।
वमिते चौषधे धीरः पाययेदौषधं पुनः॥६७॥
दीप्ताग्निं बहुदोषं च दृढस्नेहगुणं नरम्।
दुःशुद्धं तदहर्भुक्तं श्वोभूते पाययेत् पुनः॥६८॥
दुर्बलो बहुदोषश्च दोषपाकेण यो नरः।
विरिच्यते शनैर्भोज्यै2742र्भूयस्तमनुसारयेत्॥६९॥
वमनैश्च विरेकैश्च विशुद्धस्याप्रमाणतः2743।
भोजनान्तरपानाभ्यां दोषशेषं शमं नयेत्॥७०॥
दुर्बलं शोधितं पूर्वमल्पदोषं च मानवम्।
अपरिज्ञातकोष्टं च पाययेतौषधं मृदु॥७१॥
श्रेयो मृद्वसकृत्पीतमल्पबाधं निरत्ययम्।
न चातितीक्ष्णं यत् क्षिप्रं जनयेत् प्राणसंशयम्॥७२॥
दुर्बलोऽपि महादोषो विरेच्यो बहुशोऽल्पशः ।
मृदुभिर्भेषजैर्दोषा हन्युर्ह्येनमनिर्हृताः॥७३॥
यस्योर्ध्वं कफसंसृष्टं पीतं यात्यानुलोमिकम्।
वमितं कवलैः शुद्धं लङ्घितं पाययेत्तु तम्॥७४॥
विबन्धेऽल्पं2744 चिराद्दोषे स्रवत्युष्णं पिबेज्जलम्।
तेनाध्मानं सतृट् छर्दिर्विबन्धश्चैव शाम्यति॥७५॥
भेषजं दोषरुद्धं चेन्नोर्ध्वं नाधः प्रवर्तते।
सोद्गारं च2745 सशूलं च स्वेदं तत्रावचारयेत्॥७६॥
सुविरिक्तस्तु2746 सोद्गारमाश्वेवौषधमुल्लिखेत्।
अतिप्रवृत्तं जीर्णे तु सुशीतैः स्तम्भयेद्भिषक्॥७७॥
कदाचिच्छ्लेष्मणा रुध्दं तिष्ठत्युरसि भेषजम्।
क्षीणे श्लेष्मणि सायाह्ने रात्रौ वा तत् प्रवर्तते॥७८॥
रुक्षानाहारयोजीर्णे2747 विष्टभ्योर्ध्वं गतेऽपि वा।
वायुना भेषजे त्वन्यत् सस्नेहलवणं पिबेत्॥७९॥
तृण्मोहभ्रममूर्च्छाद्याः स्युश्चेज्जीर्यति भेषजे।
पित्तघ्नं स्वादु शीतं च भेषजं तत्र शस्यते॥८०॥
लालाहृल्लासविष्टम्भलोमहर्षाः कफावृते।
भेषजं तत्र तीक्ष्णोष्णं कट्वादि कफनुद्धितम्॥८१॥
सुस्निग्धं क्रूरकोष्ठं च लङ्घयेदविरेचितम्।
तेनास्य स्नेहजः श्लेष्मा सङ्गश्चैवोपशाम्यति॥८२॥
रूक्षबह्वनिलक्रूरकोष्ठव्यायामशूलिनाम्।
दीप्ताग्नीनां च भैषज्यमविरिच्यैव जीर्यति॥८३॥
तेभ्यो बस्तिं पुरा दत्त्वा पश्चाद्दद्याद्विरेचनम्।
बस्तिप्रवर्तितं दोषं हरेच्छीघ्रं विरेचनम्॥८४॥
रूक्षाशनाः कर्मनित्या ये नरा दीप्तपावकाः।
तेषां दोषाः क्षयं यान्ति कर्म वातातपाग्नीभिः॥८५॥
**विरुद्धाध्यशनाजीर्णान् दोषानपि जयन्ति ते। **
स्नेह्यास्ते मारुताद्वक्ष्या नाव्याधौ तान् विशोधयेत्॥८६॥
नातिस्निग्धशरीराय दद्यात् स्नेहविरेचनम्।
स्नेहोत्क्लिष्टशरीराय रूक्षं दध्याद्विरेचनम्॥८७॥
एवं ज्ञात्वा विधिं धीरो देशकालप्रमाणवित्।
विरेचनं विरेच्येभ्यः प्रयच्छन्नापराध्यति॥८८॥
विभ्रंशो विषवद्यस्य सम्यग्योगो यथाऽमृतम्।
कालेष्ववश्यं पेयं च तस्माद्यत्नात् प्रयोजयेत्॥८९॥
भवति चात्र।
द्रुव्यप्रमाणं तु यदुक्तमस्मिन्मध्येषु तत् कोष्ठवयोबलेषु।
तन्मूलमालम्ब्य भवेद्विकल्पस्तेषां विकल्प्योऽभ्यधिकोनभावः॥९०॥
जालान्तरगतैर्भानुकरैर्वं(ध्वं)शी विलोक्यते।
षड्वं(ध्वं)श्यस्तु मरिचिः स्यात् षण्मरीच्यस्तु सर्षपः॥९१॥
अष्टौ ते सर्षपा रक्तास्तण्डुलश्चापि तद्द्वयम् ।
धान्यमाषो भवेदेको धान्यमाषद्वयं यवः॥९२॥
अण्डिकास्ते तु चत्वारस्ताश्चतस्नस्तु माषकः।
हेमश्च धान्यकश्चोक्तो भवेच्छाणस्तु ते त्रयः॥९३॥
शाणौ द्वौ द्रङ्क्षणं विद्यात् कोलं बदरमेव च।
विद्याद्द्वौ द्रङ्क्षणौ कर्षं सुवर्णं चाक्षमेव च॥९४॥
बिडालपदकं तच्च पिचुं पाणितलं तथा।
तिन्दुकं च विजानीयात् कवलग्रहमेव च॥९५॥
द्वे सुवर्णे पलार्धं स्याच्छुक्तिरष्टमिका तथा।
द्वे पलार्धे पलं मुष्टिः प्रकुञ्चोऽथ चतुर्थिका॥९६॥
बिल्वं पोडशिकं चाम्रं द्वे पले प्रसृतं विदुः।
पलं चतुर्गुणं विद्यादञ्जलिं कुडवं तथा॥९७॥
अष्टमानं तु विज्ञेयं कुडवौ द्वौ तु मानिका।
चत्वारः कुडवाः प्रस्थश्चतुःप्रस्थमथाढकम्॥९८॥
पात्रं तदेव विज्ञेयं कंसः प्रस्थाष्टकं तथा।
कंसश्चतुर्गुणो द्रोणश्चार्मणं नल्वणं च तत्॥९९॥
स एव कलशः ख्यातो घट उन्मानमेव च।
घटस्तु द्विगुणः शूर्पा विज्ञेयः कुम्भ एव च॥१००॥
गोणीं शूर्पद्वयं विद्यात् खारीं भारीं तथैव च।
द्वात्रिंशतं विजानीयाद्वाहं शूर्पाणि बुद्धिमान्॥१०१॥
तुलां शतपलं विद्यात् परिमाणविशारदः।
शुष्कद्रव्येष्विदं मानमेवमादि प्रकीर्तितम्॥१०२॥
द्विगुणं तद्द्रवेष्विष्टं तथा सद्योद्धृतेषु च।
यद्धि मानं तुला प्रोक्ता पलं वा तत् प्रयोजयेत्॥१०३॥
अनुक्ते परिमाणे तु तुल्यं मानं प्रकीर्तितम्।
द्रवकार्येऽपि चानुक्के सर्वत्र सलिलं स्मृतम्॥१०४॥
यतश्च पादनिर्देशश्चतुर्भागस्ततश्च सः।
जलस्नेहौषधानां तु प्रमाणं यत्र नेरितम्॥१०५॥
तत्र स्यादौषधात् स्नेहः स्नेहात्तोयं चतुर्गुणम्।
स्नेहपाकस्त्रिधा ज्ञेयो मृदुर्मध्यः खरस्तथा॥१०६॥
तुल्ये कल्केन निर्यासे भेषजानां मृदुः स्मृतः।
संयाव2748 इव निर्यासे मध्यो दर्वीं विमुञ्चति॥१०७॥
शीर्यमाणे तु निर्यासे वर्त्यमाने खरस्तथा।
खरोऽभ्यङ्गे मृदुर्नस्ये पाने बस्तौ च मध्यमः॥१०८॥
तत्र श्लोकौ।
कल्पार्थ : शोधने संज्ञा पृथग्धेतुः2749 प्रवर्तने।
देशादीनां फलादीनां गुणा योगशतानि षट्॥१०९॥
विकल्पहेतुर्नामानि तीक्ष्णमध्याल्पलक्षणम्।
विधिश्वावस्थको मानं स्नेहपाकश्च दर्शितम्2750॥११०॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते कल्पस्थाने दन्तीद्रवन्तीकल्पो नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
सप्तमं कल्पस्थानं समाप्तम्।
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सिद्धिस्थानम्।
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प्रथमोऽध्यायः।
अथातः कल्पनासिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
का कल्पना पञ्चसु कर्मसूक्ता क्रमश्च कः किं च कृताकृतेषु।
लिङ्गं तथैवातिकृतेषु सङ्ख्या का किंगुणः केषु च कश्च बस्तिः॥३॥
किं वर्जनीयं प्रतिकर्मकाले कृते कियान् वा परिहारकालः।
प्रणीयमानश्च न याति बस्तिः केनैति शीघ्रं सुचिराच्च केन2751॥४॥
साध्या2752गदाः स्वैः शमनैश्च केचित्कस्मात्प्रयुकैर्न शमं व्रजन्ति।
प्रचोदितः शिष्यवरेण सम्यगित्यग्निवेशेन भिषग्वरिष्ठः॥५॥
पुनर्वसुस्तन्त्र विदाह तस्मै सर्वप्रजानां हितकाम्ययेदम्।
त्र्याहावरं सप्तदिनं परं तु स्निग्धो नरः स्वेदयितव्य इष्टः॥६॥
नातः परं स्रेहनमादिशन्ति सात्म्यीभवेत् सप्तदिनात् परं तु।
स्नेहोऽनिलं हन्ति मृदुं2753 करोति देहं मलानां विनिहन्ति सङ्गम्॥७॥
स्निग्धस्य सूक्ष्मेष्वयनेषु लीनं स्वेदस्तु दोषं नयति द्रवत्वम्।
ग्राम्यौदकानूपरसैः समांसैरुत्क्लेशनीयः पयसा च वम्यः॥८॥
रसैस्तथा जाङ्गलजैः सयूषैः स्निग्धः कफावृद्धिकैरैर्विरेच्यः।
श्लेष्मोत्तरश्छर्दयति ह्यदुःखं2754 चिरिच्यते मन्दकफस्तु सम्यक्॥९॥
अधः कफेऽल्पे वमनं हि गच्छेद्विरेचनं2755 वृद्धकफे तथोर्ध्वम्।
स्निग्धाय देयं वमनं यथोक्तं वान्तस्य पेयादिरनुक्रमश्च॥१०॥
स्त्रिंग्धस्य2756 सुस्विन्नतनोर्यथावद्विरेचनं योग्यतमं प्रयोज्यम्2757।
पेयां विलेपीमकृतं कृतं च यूषं रसं त्रिर्द्विरथैकशश्च॥११॥
क्रमेण सेवेत विशुद्धकायः प्रधानमध्यावरशुद्धिशुद्धः।
यथाऽणुरग्निस्तृणगोमयाद्यैः सन्धुक्ष्यमाणो भवति क्रमेण॥१२॥
महान् स्थिरः सर्वसहस्तथैव2758 शुद्धस्य पेयादिभिरन्तरग्निः।
जघन्यमध्यप्रवरेषु वेगाश्चत्वार इष्टा वमने षडष्टौ॥१३॥
दशैव ते द्वित्रिगुणा विरेके प्रस्थस्तथा द्वित्रिचतुर्गुणश्च।
पित्तान्तमिष्टं वमनं विरेकादर्धं2759 कफान्तं च विरेकमाहुः॥१४॥
द्वित्रान् सविट्कानपनीय वेगान्मेयं विरेके वमने तु पीतम्।
क्रमात् कफः पित्तमथानिलश्च यस्यैति सम्यग्वमितः स इष्टः॥१५॥
हृत्पार्श्वमूर्धेन्द्रियमार्गशुद्धौ तथा लघुत्वेऽपि च लक्ष्यमाणे।
दुश्छर्दिते स्फोटककोठकण्ड्वो हृत्खाविशुद्धिर्गुरुगात्रता च॥ १६॥
तृण्मोहमूर्च्छानिलकोपनिद्राबलातिहानिर्वमनेऽति च स्यात्।
स्रोतोविशुद्धीन्द्रियसंप्रसादो लघुत्वमूर्जोऽग्निरनामयत्वम्॥१७॥
प्राप्तिश्व विट्पित्तकफानिलानां सम्यग्विरिक्तस्य भवेत् क्रमेण।
स्वाच्छ्लेष्मपित्तानिलसंप्रकोपः सादस्तथाऽग्नेर्गुरुगात्रता2760 च॥१८॥
तन्द्रा तथा छर्दिररोचकश्च वातानुलोम्यं न च दुर्विरिक्ते।
कफास्त्रपित्तक्षयजानिलोत्थाः सुप्त्यङ्गमर्दक्लमवेपनाद्याः॥१९॥
निद्राबलाभावतमः प्रवेशाः सोन्मादहिक्काश्च विरेचितेऽति।
संसृष्टभक्तं नवमेऽह्नि सर्पिस्तं पाययेताप्यनुवासयेद्वा॥२०॥
तैलाक्तगात्राय ततो निरुहं दद्यान्त्रयहान्नातिबुभुक्षिताय।
प्रत्यागते धन्वरसेन भोज्यः समीक्ष्य वा दोषबलं यथार्हम्॥२१॥
नरस्ततो निश्यनुवासनार्हो नात्याशितः स्यादनुवासनीयः2761।
शीते वसन्ते च दिवाऽनुवास्यो रात्रौ शरद्ग्रीष्मघनागमेषु॥२२॥
तानेव दोषान् परिरक्षता ये स्नेहस्य पानं प्रति कीर्तिताः प्राक्।
प्रत्यागते2762 चाप्यनुवासनीये दिवा प्रदेयं व्युषिताय भोज्यम्॥२३॥
सायं च भोज्यं परतो द्व्यहे वा त्र्यहेऽनुवास्योऽहनि पञ्चमे वा।
(द्व्यहे त्र्यहे वाऽप्यथ पञ्चमे वा दद्यान्निरूहादनुवासनं च)॥२४॥
एकं तथा त्रीन्कफजे विकारे पित्तात्मके पञ्च तु सप्त वाऽपि।
वाते नवैकादश वा पुनर्वा बस्तीनयुग्मान्कुशलो विदध्यात्॥२५॥
नरो विरिक्तस्तु निरूहदानं विवर्जयेत् सप्तदिनान्यवश्यम्।
शुद्धो निरूहेण विरेचनं च तद्ध्यस्य शून्यं विकषेच्छरीरम्॥२६॥
बस्तिर्वयः स्थापयिता सुखायुर्बलाग्निमेधास्वरवर्णकृच्च।
सर्वार्थकारी शिशुवृद्धयूनां निरत्ययः सर्वगदापहश्च॥२७॥
विट्श्लेष्मपित्तानिलमूत्रकर्षी स्थिरत्वकृच्छुक्रबलप्रदश्च।2763
विष्वक्स्थितं दोषचयं निरस्य सर्वान्विकारान् शमयेन्निरूहः॥२८॥
देहे निरूहेण विशुद्धमार्गे संस्त्रेहनं वर्णबलप्रदं च।
न तैलदानात्परमस्ति किञ्चिद्द्रव्यं विशेषेण समीरणार्ते॥२९॥
स्नेहाद्धि रौक्ष्यं लघुतां गुरुत्वादौष्ण्याच्च शैत्यं पचनस्य हत्वा।
तैलं ददात्याशु मनःप्रसादं वीर्यं बलं वर्णमथाग्निपुष्टिम्॥३०॥
मूले निषिक्तो हि यथा द्रुमः स्यान्नीलच्छदः कोमलपल्लवाग्रः।
काले महान् पुष्पफलप्रदश्च तथा नरः स्यादनुवासनेन॥३१॥
स्तब्धाश्च ये संकुचिताश्च येऽपि ये पङ्गवो येऽपि च भग्नरुग्णाः।
येषां च शाखासु चरन्ति वाताः शस्तो विशेषेण हि तेषु बस्तिः॥ ३२॥
आध्मापने विग्रथिते पुरीषे शूले च भक्तानभिनन्दने च।
एवंप्रकाराश्च भवन्ति कुक्षौ ये चामयास्तेषु च बस्तिरिष्टः॥३३॥
याच स्त्रियो वातकृतोपसर्गाद्गर्भं न गृह्णन्ति नृभिः समेताः।
क्षीणेन्द्रिया ये च नराः कृशाश्च तेषां च बस्तिः परमः प्रदिष्टः ॥३४॥
उष्णाभिभूतेषु वदन्ति शीताञ्छीताभिभूतेषु तथा सुखोष्णान्।
तत्प्रत्यनीकौषधसंप्रयुक्तान्सर्वत्र बस्तीन् प्रविभज्य युञ्ज्यात्॥ ३५॥
न बृंहणीयान् विदधीत बस्तीन् विशोधनीयेषु गदेषु वैद्यः।
कुष्ठप्रमेहादिषु मेदुरेषु नरेषु ये चापि विशोधनीयाः॥३६॥
क्षीणक्षतानां न विशोधनीयान्न शोषिणां नो भृशदुर्बलानाम्।
न मूर्च्छितानां न विशोधितानां येषां च दोषेषु निबद्धमायुः॥३७॥
शाखागताः कोष्ठगताश्च रोगा मर्मोर्ध्वसर्वांवयवं गताश्च2764 ।
ये सन्ति तेषां न तु कश्चिदन्यो वायोः परं जन्मनि हेतुरस्ति॥३८॥
विण्मूत्रपित्तादिमलाशयानां विक्षेपसंघातकरः स यस्मात्।
तस्यातिवृद्धस्य शमाय नान्यद्वस्तेर्विना भेषजमस्ति किंचित्॥३९॥
तस्माच्चिकित्सार्धमिति ब्रुवन्ति सर्वां चिकित्सामपि बस्तिमेके।
नाभिप्रदेशं च कटीं च गत्वा कुक्षिं समालोड्य पुनश्च पार्श्वम्2765॥४०॥
संत्रेह्य कायं2766 शिथिलांश्च कृत्वा दोषान् पुरीषं ग्रथितं विमथ्य।
स्वसक्तवेगः सपुरीषदोषः प्रत्यागतो बस्तिरिति प्रशस्तः2767॥४१॥
प्रसृष्टविण्मूत्रसमीरणत्वं रुच्यग्निवृद्ध्याशयलाघवानि।
रोगोपशान्तिः प्रकृतिस्थता च बलं च तत्स्यात्सुनिरूढलिङ्गम् ॥४२॥
स्याद्रुक्2768 शिरोहृद्गुदकुक्षिलिङ्गे शोथप्रतिश्यायविकर्तिकाश्च।
हृलासकासारुचिमूत्रसङ्गाः2769 श्वासो न सम्यक् च निरूहिते स्यात् ॥४३॥
लिङ्गं यदेवातिविरेचितस्य भवेत्तदेवातिनिरूहितस्य।
प्रत्येत्यसक्तं सशकृच्च तैलं रक्तादिबुद्धीन्द्रियसंप्रसादः॥४४॥
स्वप्नानुवृत्तिलघुता बलं च सृष्टाश्च वेगाः स्वनुवासिते स्युः।
अधःशरीरोदरबाहुपृष्ठपार्श्वेषु रुग् रूक्षखरं च गात्रम्॥४५॥
ग्रहश्च विण्मूत्रसमीरणानामसम्यगेतान्यनुवासिते स्युः।
हृल्लासमोहक्लमसादमूर्च्छा विकर्तिका चात्यनुवासितस्य॥४६॥
यस्येह यामाननुवर्तते त्रीन् स्नेहो नरः स्यात् स विशुद्धदेहः।
आश्वागतेऽन्यस्तु पुनर्विधेयः स्नेहो न संस्त्रेहयति ह्यतिष्ठन्॥४७॥
त्रिंशत् स्मृताः कर्मसु2770 बस्तयो हि कालस्ततोऽर्धेन ततश्च योगः।
सान्वासना द्वादश वै निरूहाः प्राक् स्नेह एकः परतश्च पञ्च॥४८॥
काले त्रयोऽन्ते पुरतस्तथैकः स्नेहा निरूहान्तरिताश्च षट् स्युः।
योगे निरूहास्त्रय एव देयाः स्नेहाश्च पञ्चैव परादिमध्याः॥४९॥
त्रीन् पञ्च वाऽऽहुश्चतुरोऽथ षड्वा वाताधिकेभ्यस्त्वनुवासनीयान्।
स्नेहान्प्रदायाशु भिषग्विदध्यात्स्रोतोविशुद्ध्यर्थमतो निरूहान्॥५०॥
विशुद्धकायस्य ततः क्रमेण स्निग्धं तलस्वेदितमुत्तमाङ्गम्।
विरेचयेन्त्रिर्द्विरथैकशो वा बलं समीक्ष्य त्रिविधं मलानाम्॥५१॥
उरःशिरोलाघवमिन्द्रियाणां2771 स्रोतोविशुद्धिश्च भवेद्विशुद्धे।
गलोपलेपः शिरसो गुरुत्वं निष्ठीवनं चाप्यथ दुर्विरिक्ते॥५२॥
शिरोक्षिशङ्खश्रवणार्तितोदावत्यर्थशुद्धे तिमिरं च पश्येत्।
स्यात्तर्पणं तत्र मृदु द्रवं च स्निग्धस्य तीक्ष्णं तु पुनर्न योगे॥५३॥
इत्यातुरस्वस्थसुखः प्रयोगो बलायुषोर्वृद्धिकृदामयघ्नः।
कालस्तु बस्त्यादिषु याति यावांस्तावान् भवेद्द्विःपरिहारकालः॥५४॥
अत्याशनस्थानवचांसि यानं स्वप्नं दिवा मैथुनवेगरोधान्।
शीतोपचारातपशोकरोषांस्त्यजेदकालाहितभोजनं च॥५५॥
बद्धे प्रणीते विषमे(मं) च नेत्रे मार्गे तथाऽर्शःकफविड्विबद्धे।
न याति बस्तिर्न सुखं निरेति दोषावृतोऽल्पो यदि वाऽल्पवीर्यः॥५६॥
प्राप्ते तु वर्चोनिलमूत्रवेगे वाते विवृद्धेऽल्पबले गुदे वा।
अत्युष्णतीक्ष्णश्च मृदौ च कोष्ठे प्रणीतमात्रः पुनरेति बस्तिः॥५७ ॥
भेदःकफाभ्यामनिलो निरुद्धः शूलाङ्गसुप्तिश्वयथून् करोति।
स्नेहं तु युअन्नबुधस्तु तस्मै संवर्धयत्येव हि तान्विकारान्॥५८॥
रोगास्तथाऽन्येऽप्यवितर्क्यमाणाः परस्परेणावगृहीतमार्गाः।
संदूषिता धातुभिरेव चान्यैः स्वैर्भेषजैर्नोपशमं व्रजन्ति॥५९॥
सर्वं च रोगप्रशमाय कर्म हीनातिमात्रं विपरीतकालम्।
मिथ्योपचाराच्च न तं विकारं शान्तिं नयेत् पथ्यमपि प्रयुक्तम्॥६०॥
तत्र श्लोकः।
प्रश्नानिमान् द्वादश पञ्चकर्माण्युद्दिश्य सिद्धाविह कल्कनायाम्।
प्रजाहितार्थं भगवान्महार्थान्सम्यग् जगादर्षिवरोऽत्रिपुत्रः॥६१॥
** इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थाने**
** कल्पनासिद्धिर्नाम प्रथमोऽध्यायः।**
द्वितीयोऽध्यायः।
अथातः पञ्चकर्मीयां सिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
येषां यस्मात् पञ्चकर्माण्यग्निवेश न कारयेत्।
येषां च कारयेत्तानि तत् सर्वं संप्रवक्ष्यते॥३॥
चण्डः साहसिको भीरुः कृतघ्नो व्यग्र एव च।
सद्वैद्यनृपतिद्वेष्टा तद्द्विष्टः शोकपीडितः॥४॥
यादृच्छिको मुमूर्षुश्च विहीनः करणैश्च यः।
वैरी वैद्याभिमानी2772 च श्रद्धाहीनः सशङ्कितः॥५॥
भिषजामविधेयश्च नोपक्रम्यो भिषग्विदा।
एतानुपाचरन् वैद्यो बहून् दोषानवाप्नुयात्॥६॥
एभ्योऽन्ये समुपक्रम्या नराः सर्वैरुपक्रमैः।
अवस्थां प्रविभज्यैषां वर्ज्यं2773 कार्यं च वक्ष्यते॥७॥
अच्छर्दनीयास्तावत्2774—क्षतक्षीणातिस्थूलातिकृशबालवृद्धदुर्बलश्रान्तपिपासितक्षुधितकर्मभाराध्वहतोपवासमैथुनाध्ययनव्यायामचिन्ताप्रसक्तक्षामगर्भिणीसुकुमारसंवृतकोष्ठदुश्छर्दनोर्ध्वरक्तपित्तप्रसक्तच्छद्यूर्ध्ववातास्थापितानुवासितहृद्रोगोदावर्तमूत्राघातप्लीहगुल्मोदराष्ठीलास्वरोपघाततिमिरशिरःशङ्खकर्णाक्षिपार्श्वशूलार्ताः॥८॥
तत्र, क्षतस्य च भूयः क्षणनाद्रक्तातिप्रवृत्तिः स्यात्, क्षीणातिस्थूलकुशबालवृद्धदुर्बलानामौषधबलासहत्वात् प्राणोपरोधः, श्रान्तपिपासितक्षुधितानां च तद्वत्, कर्मभाराध्वहतोपवासमैथुनाध्ययनव्यायामचिन्ताप्रसक्तक्षामाणां रौक्ष्याद्वातरक्तच्छेदक्षतभयं स्यात्,गर्भिण्या गर्भव्यापदामगर्भभ्रंशाच्च दारुणा रोगप्राप्तिः, सुकुमारस्य हृदयविकर्षणादूर्ध्वमधो वा रुधिरातिप्रवृत्तिः, संवृतकोष्ठदुश्छर्दनयोरतिमात्रप्रवाहणाद्दोषाः समुत्क्लिष्टा ह्यन्तःकोष्ठे2775 विसर्पन्तो जनयन्ति स्तम्भं जाड्यं वैचित्यं मरणं वा, ऊर्ध्वरक्तपित्तस्योदान ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य प्राणान् हरेद्रक्तं चातिप्रवर्तयेत्, प्रसक्तच्छर्देस्तद्वत्, ऊर्ध्ववातास्थापितानुवासितानामूर्ध्वं वातातिप्रवृत्तिः, हृद्रोगिणो हृदयोपरोधः, उदावर्तिनो घोरतर उदावर्तः स्याच्छीघ्रतरहन्ता,मूत्राघातादिभिरार्तानां तीव्रतरशूलप्रादुर्भावः, तिमिरिणां तिमिरातिवृद्धिः, शिरःशूलादिषु शूलातिवृद्धिः, तस्मादेते न वम्याः॥९॥
सर्वेष्वपि तु खल्वेतेषु विषगरविरुद्धाजीर्णाभ्यवहारामकृतेष्वप्रतिषिद्धं, शीघ्रकारित्वाद्दोषाणामिति2776॥१०॥
शेषास्तु वम्याः, विशेषतस्तु पीनसकुष्टनवज्वरराजयक्ष्मकासश्वासगलग्रहगलगण्डश्लीपद मेहमन्दाग्निविरुद्धाजीर्णान्नविसूचिकालसकविषगरपीतदष्टदिग्धविद्धाधःशोणितपित्तकफप्रसेकदुर्नाम2777हृल्लासारोचकाविपाकापच्यपस्मारोन्मादातिसारशोषपाण्डुरोगमुखपाकदुष्टस्तन्यादयः श्लेष्मव्याधयो विशेषेण महारोगाध्यायोक्ताश्च; तेषुहि वमनं प्रधानतममित्युक्तं, केदारसेतुभेदे शाल्याद्यशोषदोषविनाशवत्॥११॥
अविरेच्यास्तु–सुभगक्षतगुदमुक्तनालाधोभागरक्तपित्तविलङ्घितदुर्बलेन्द्रियाल्पाग्निनिरूढकामादिव्यग्राजीर्णिनवज्वरमदात्ययिताध्मातशल्यार्दिताभिहतातिस्निग्धरूक्षदारुणकोष्ठाः क्षतादयश्च गर्भिण्यन्ताः॥१२॥
तत्र, सुभगस्य सुकुमारोक्तो दोषः स्यात्, क्षतगुदस्य क्षते गुदेवायुः प्राणोपरोधकरीं रुजां जनयेत्, मुक्तनालमतिप्रवृत्त्या हन्यात्,अधोभागरक्तपित्तिनं च तद्वदेव, विलङ्घितदुर्बलेन्द्रियाल्पाग्निनिरूढा औषधवेगं न सहेरन्, कामादिव्यग्रमनसो न प्रवर्तते कृच्छ्रेणवा प्रवर्तमानमयोगदोषान् कुर्यात्, अजीर्णिन आमदोषःस्यात्,नवज्वरस्याविपक्वान् दोषान्न निर्हरेद्वातमेव च कोपयेत्, मदात्ययितस्य मद्यक्षीणे देहे वायुः प्राणोपरोधं कुर्यात्, आध्मातस्य आध्मायमानस्य2778 वा पुरीषकोष्ठनिचितो वायुर्विसर्पन् सहसाऽऽनाहं तीव्रतरंमरणं वा जनयेत्, शल्यार्दिताभिहतयोः क्षते वायुराश्रितो जीवितंहिंस्यात्, अतिस्निग्धस्य अतियोगभयं भवेत्, रूक्षस्य वायुरङ्गप्रग्रहं कुर्यात्, दारुणकोष्ठस्य विरेचनोद्धता दोषा हृच्छूलपर्वभेदानाहाङ्गमर्दच्छर्दिमूर्च्छांक्लमाञ्जनयित्वा प्राणान् हन्युः, क्षतादीनां गर्भिण्यन्तानां छर्दनोक्तो दोषः स्यात्, तस्मादेते न विरेच्याः॥१३॥
शेषास्तु विरेच्याः; कुष्ठज्वरमेहोर्ध्वरक्तपित्तभगन्दरोदरार्शोब्रध्नप्लीहगुल्मार्बुदगलगण्डग्रन्थि विसूचिकालसकमूत्राघातक्रिमिकोष्ठविसर्पपाण्डुरोगशिरःपार्श्वशूलोदावर्तनेत्रास्यदाहहृद्रोगव्यङ्गनीलिकानेत्रनासिकास्यश्रवण2779रोगगुदमेढ्रपाकहलीमकश्वासकासकामलापच्यपस्मारोन्मादवातरक्तयोनिरेतोदोषतैमिर्यारोचकाविपाकच्छर्दिश्वयथूदरविस्फोटकादयः पित्तव्याधयो विशेषेण महारोगाध्यायोक्ताश्च;एतेषु हि विरेचनं प्रधानतममित्युक्तमग्न्युपशमेऽग्निगृहवत्॥१४॥
अनास्थाप्यास्तु–अजीर्णातिस्निग्धपीतस्नेहोत्क्लिष्टदोषाल्पाग्नियानक्लान्तातिदुर्बलक्षुत्तृष्णाश्रमार्तातिकृशभुक्तभक्तपीतोदकवमितविरिक्तकृतनस्तः कर्मक्रुद्धभीतमत्तमूर्च्छितप्रसक्तच्छर्दिनिष्ठीविकाश्वासकासहिक्काबद्धच्छिद्रदकोदराध्मानालसकविसूचिकामप्रजातातिसारमधुमेहकुष्ठार्ताः॥१५॥
तत्र, अजीर्णातिस्निग्धपीतस्नेहानां दूष्योदरं मूर्च्छा श्वयथुर्वास्यात्, उत्क्लिष्टदोषाल्पाग्न्योररोचकस्तीव्रः, यानक्लान्तस्य क्षोभव्यापन्नो बस्तिराशु देहं शोषयेत्, अतिदुर्बलक्षुत्तृष्णाश्रमार्तानांपूर्वोक्तो दोषः स्यात्, अतिकृशस्य कार्श्यं पुनर्जनयेत्, पीतोदकभुक्तभक्तयोरुत्क्लिश्योर्ध्वमधो वा क्षिप्रं बस्तिर्घोरान् विकाराञ्जनयेत्, वमितविरिक्तयोस्तु रूक्षं शरीरं निरूहः क्षतं क्षार इवनिर्दहेत्, कृतनस्तःकर्मणो विभ्रंशं भृशसंरुद्धस्नोतसं (सः) कुर्यात्, क्रुद्धभीतयोर्बस्तिरूर्ध्वमुपप्लवेत्, मत्तमूर्च्छितयोर्भृशं विचलितायां संज्ञायां चित्तोपघाताद् व्यापत् स्यात्, प्रसक्तच्छर्दिनिष्ठीविकाश्वासकासहिक्कार्तानामूर्ध्वीभूतो वायुरूर्ध्वं बस्तिं नयेत्,बद्धच्छिद्रदकोदराध्मातानां भृशतरमाध्माप्य बस्तिः प्राणान् हिंस्यात्, अलसकविसूचिकामप्रजातातिसारिणामामकृतो दोषःस्यात्,मधुमेहकुष्ठिनोर्व्याधेः पुनर्वृद्धिः; तस्मादेते नास्थाप्याः॥१६॥
शेषास्त्वास्थाप्याः; विशेषतस्तु सर्वाङ्गैकाङ्गकुक्षिरोगवातवर्चोमूत्रशुक्रसङ्गबलवर्णमांसरेतःक्षय दोषाध्मानाङ्गसुप्तिक्रिमिकोष्ठोदावर्तस्तब्धाङ्गशुद्धातिसारपर्वभेदाङ्गाभितापप्लीहगुल्महृद्रोगभगन्दरोन्मादज्वरबध्नशिरःकर्णशूलहृदय-पार्श्व-पृष्ठ-कटी- ग्रहवेपनाक्षेपकगौरवातिलाघवरजःक्षयार्तवि2780षमाग्निस्फिग्जानुजङ्घोरुगुल्फपार्ष्णिप्रपदयोनिबाह्वङ्गुलिस्तनाङ्गदन्त2781नखपर्वास्थिशूलशोथ(ष)स्तम्भान्त्रकूजनपरिकर्तिकाल्पाल्पसशब्दोग्रगन्धोत्थानादयो वातव्याधयो विशेषेण महारोगाध्यायोक्ताश्च; एतेष्वास्थापनं प्रधानतममित्युक्तं वनस्पतेर्मूलच्छेदवत्॥१७॥
य एवानास्थाप्यास्त एवाननुवास्याः स्युः; विशेषतस्त्वभुक्तभक्तनवज्वरपाण्डुरोगकामलाप्रमेहार्शः प्रतिश्यायारोचकमन्दाग्निदुर्बलप्लीहकफोदरोरुस्तम्भवर्चोभेदविषगरपीतपित्तकफाभिष्यन्दगुरुकोष्ठश्लीपदगलगण्डापचीक्रिमिकोष्ठिनः॥१८॥
तत्राभुक्तभक्तस्यानावृतमार्गत्वादूर्ध्वमतिवर्तते स्नेहः, नवज्वरपाण्डुरोगकामलाप्रमेहिणां दोषानुत्क्लिश्योदरं जनयेत्, अर्शसस्यार्शांस्यभिष्यन्द्याध्मानं कुर्यात्, अरोचकार्तस्यान्नगृद्धिं पुनर्हन्यात्,मन्दाग्निदुर्बलयोर्मन्दतरमग्निं कुर्यात्, प्रतिश्यायप्लीहादिमतांच भृशतरमुत्क्लिष्टदोषाणां भूय एव दोषं वर्धयेत्, तस्मादेतेनानुवास्याः॥१९॥
य एवास्थाप्यास्त एवानुवास्याः; विशेषतस्तु रूक्षास्तीक्ष्णाग्नयःकेवलवातरोगार्ताश्च; एतेषु ह्यनुवासनं प्रधानतममित्युक्तं मूलेद्रुमाणां प्रसेकवत्॥२०॥
अशिरोविरेचनार्हाः पुनः–अजीर्णिभुक्तभक्तपीतस्नेहमद्यतोयपातुकामाः स्नातशिराः स्नातुकामक्षुत्तृष्णाश्रमार्तमत्तमूर्च्छितशस्त्रदण्डाहतव्यवायव्यायामपानक्लान्तनवज्वरशोकाभितप्तविरिक्तानुवासितगर्भिणीनवप्रतिश्यायार्ता अनृतुदुर्दिने चेति॥२१॥
तत्राजीर्णिभुक्तभक्तयोर्दोष ऊर्ध्ववहानि स्रोतांस्यावृत्य कासश्वासच्छार्दप्रतिश्यायाञ्जनयेत्, पीतस्ने हमद्यतोयपातुकामानांकृते च पिबतां मुखनासास्त्रावाक्ष्युपदेहतिमिरशिरोरोगाञ्जनयेत्,स्त्रातशिरसः कृते च स्त्रातस्य प्रतिश्यायं, क्षुधार्तस्य वातप्रकोपं, तृष्णार्तस्य पुनस्तृष्णाभिवृद्धिं मुखशोषं च, श्रमार्तमत्तमूर्च्छितानामास्थापनोक्तो दोषः स्यात्, शस्त्रदण्डहतयोस्तीव्रतरां रुजंजनयेत्, व्यवायव्यायामपानक्लान्तानां शिरःस्कन्धनेत्रोरःपीडनं,नवज्वरशोकाभितप्तयोरूष्मा नेत्रनालीरनुसृत्य तिमिरं ज्वरवृद्धिं चकुर्यात्, विरिक्तस्य वायुरिन्द्रियोपघातं कुर्यात्, अनुवासितस्यकफः शिरोगुरुत्वं कण्डूक्रिमिदोषांश्च जनयेत्, गर्भिण्या गर्भंस्तम्भयेत् स काणः कुणिः पक्षहतः पीठसर्पिर्वा स्यात्, नवप्रतिश्यायार्तस्य स्त्रोतांसि व्यापादयेत्, अमृतुदुर्दिने शीतदोषान् पूतिनस्यंशिरोरोगं च कुर्यात् तस्मादेते न शिरोविरेचनार्हाः॥२२॥
शेषास्त्वर्हाः; विशेषतस्तु शिरोदन्तमन्यास्तम्भगलहनुग्रहपीनसगलशुण्डिकाशालूकशुक्रतिमिरवर्त्मरोगव्यङ्गोपजिह्विकार्धावभेदकग्रीवास्कन्धांसास्यनासिकाकर्णाक्षिमूर्धकपालशिरोरोगार्दितापतन्त्रकापता कगलगण्डदन्तशूलहर्षचालाक्षिराज्यर्बुद2782स्वरभेदवाग्ग्रहगद्गदक्रथनादय2783 ऊर्ध्वजत्रुगताश्च वातादिविकाराः परिपक्वाः; एतेषुशिरोविरेचनं प्रधानतममित्युक्तं, तद्ध्युत्तमाङ्गमनुप्रविश्य मुञ्जदीषिकामिवासक्तां(क्तं) केवलं विकारकरं दोषमपकर्षति॥२३॥
प्रावृट्शरद्वसन्तेष्वितरेष्वात्ययिकेषु रोगेषु नावनं कुर्यात् कृत्रिमगुणोपधानात्, ग्रीष्मे पूर्वाह्ने, शीते मध्याह्ने, वर्षास्वदुर्दिने चेति॥२४॥
भवन्ति चात्र ।
इति पञ्चविधं कर्म विस्तरेण निदर्शितम्।
येभ्यो यन्न हितं यस्मात् कर्म येभ्यश्च यद्दितम्॥२५॥
न2784 चैकान्तेन निर्दिष्टमेकान्तेन समाश्रयेत्2785।
स्वयमप्यत्र वैद्येन2786 तर्क्यं बुद्धिमता भवेत्॥२६॥
उत्पद्यते हि सावस्था देशकालबलं प्रति।
यस्यां कार्यमकार्यं स्यात् कर्म कार्यं च वर्जितम्2787॥२७॥
छर्दिहृद्रोगगुल्मानां वमनं स्वे चिकित्सिते।
अवस्थां प्राप्य निर्दिष्टं कुष्ठिनां बस्तिकर्म च॥२८॥
तस्मात् सत्यपि निर्देशे कुर्यादूह्य स्वयं घिया।
विना तर्केण या सिद्धिर्यदृच्छासिद्धिरेव सा॥२९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थानेपञ्चकर्मीयसिद्धिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
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तृतीयोऽध्यायः।
अथातो बस्तिसूत्रीयां2788 सिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
कृतक्षणं शैलवरस्य रम्ये स्थितं धनेशायतनस्य पार्श्वे।
महर्षिसंघैर्वृतमग्निवेशः पूनर्वसुं प्राञ्जलिरन्वपृच्छत्॥३॥
बस्तिर्नरेभ्यः किमपेक्ष्य दत्तः स्यासिद्धिमान्किम्मयमस्य नेत्रम्।
कीहक्प्रमाणाकृति किंगुणश्च केषां2789 च किंयोनिगुणश्च बस्तिः॥४॥
निरुहकल्पः2790 प्रणिधानमात्राः स्नेहस्य वा काः शमने विधिः कः।
के बस्तयः केषु म(हि)ता इतीदं श्रुत्वोत्तरं प्राह वचो महर्षिः॥५॥
समीक्ष्य दोषौषधदेशकालसात्म्याग्निसत्त्वादिवयोबलानि।
बस्तिः प्रयुक्तो नियतं गुणाय स्युः सर्वकर्माणि च सिद्धिमन्ति॥६॥
सुवर्णरूप्यत्रपुताम्ररीतिकांस्या2791स्थिलोहद्रुमचेणुदन्तैः।
नालैर्विषाणैर्मणिभिश्च2792 तैस्तैः कार्याणि नेत्राणि त्रिकर्णिकानि॥७॥
षडद्वादशाष्टाङ्गुलसंमितानि षड्विंशतिद्वादशवर्षजानाम्।
स्युर्मुद्गकर्कन्धुसतीनवाहिच्छिद्राणि वर्त्या पिहितानि चैव ॥८॥
यथावयोऽङ्गुष्ठकनिष्ठिकाभ्यां मूलाग्रयोः स्युः परिणाहवन्ति।
ऋजूनि गोपुच्छसमाकृतीनि लक्ष्णानि च स्युर्गुलिकामुखानि॥९॥
स्यात् कर्णिकैकाऽग्रचतुर्थभागे मूलाश्रिते बस्तिनिबन्धने द्वे ।
जारद्गवो माहिषहारिणो वा स्याच्छौकरो बस्तिरजस्य वाऽपि॥१०॥
दृढस्तनुर्नष्टसिरो विगन्धः कषायरक्तः सुमृदुः सुशुद्धः2793।
नृणां वयो वीक्ष्य यथानुरूपं नेत्रेषु योज्यस्तु सुबद्धसूत्रः॥११॥
बस्तेरभावे2794 प्लवजो गलो वा स्यादङ्कपादः सुधनः पटो वा।
(नेत्रस्य चालाभत एव नाली हिताऽस्थिजा वंशभवा नलो वा2795)॥१२॥
आस्थापनार्हं पुरुषं विधिज्ञः समीक्ष्य पुण्येऽहनि शुक्लपक्षे।
प्रशस्तनक्षत्रमुहूर्तयोगे जीर्णान्नमेकाग्रमुपक्रमेत2796॥१३॥
बलां गुडूचीं त्रिफलां सरास्नां द्वे पञ्चमूले च पलोन्मितानि।
अष्टौ पलान्यतुलां च मांसाच्छागात्पचेदप्सु चतुर्थशेषम्॥१४॥
पूतं यवानीफलबिल्वकुष्ठवचाशताह्वाघनपिप्पलीनाम्।
कल्कैर्गुडक्षौद्गघृतैः सतैलैर्युतं सुखोष्णैस्तु पिचुप्रमाणैः॥१५॥
गुडात्पलं द्विप्रसृतां तु मात्रां स्नेहाच्च युक्त्या मधु सैन्धवं च।
स्नेहं सुनिर्मथ्य ततोऽनुकल्पं प्रक्षिप्य बस्तौ मथितं खजेन॥१६ ॥
बस्तिं ततः सव्यकरे निधाय सुबद्धमुच्छ्वास्थ च निर्वलीकम्।
अनुष्ठमध्येन मुखं पिधाय नेत्राग्रसंस्थामपनीय वर्तिम्॥१७॥
तैलाक्तगात्रं कृतमूत्रविट्कं नातिक्षुधार्तं शयने मनुष्यम्।
समेऽथ किञ्चिन्नतशीर्षके2797 वा नात्युच्छ्रिते स्वास्तरणोपपन्ने॥१८॥
सव्येन पार्श्वैन सुखं शयानं कृत्वर्जुदेहं स्वभुजोपधानम्।
निकुञ्च्य2798 सव्येतरदस्य सक्थि सव्यं2799 प्रसार्य प्रणयेच्छनैस्तम्॥१९ ॥
स्निग्धे गुदे नेत्रचतुर्थभागं स्निग्धं शनैर्ऋज्वनुपृष्ठवंशम्।
अकम्पनावेपनलाघवादीन्पाण्योर्गुणांश्चापि हि दर्शयंस्तम्॥२० ॥
प्रपीड्य चैकग्रहणेन दत्तं नेत्रं शनैरेव ततोऽपकर्षेत्।
तिर्थक्प्रणीते तु न याति धारा गुदे व्रणः स्याञ्चलिते च नेत्रे॥२१॥
दत्तः शनैर्नाशयमेति बस्तिः कण्ठं प्रधावत्यतिपीडितश्च।
शीतस्त्वतिस्तम्भकरो विदाहं मूर्च्छां च कुर्यादतिमात्रमुष्णः॥२२॥
स्त्रिग्धोऽतिजाड्यं पवनं तु रूक्षस्तन्वल्पमात्रालवणस्त्वयोगम्।
करोति मात्राभ्यधिकोऽतियोगं क्षामं तु सान्द्रः सुचिरेण चैति ॥२३॥
दाहातिसारौ लवणोऽतिकुर्यात्तस्मात्प्रयुक्तं सममेव दद्यात्।
पूर्वं हि योज्यं मधुसैन्धवाभ्यां स्नेहं विनिर्मथ्य ततोऽनु कल्कम् ॥२४॥
विमथ्य संयोज्य पुनद्रवैस्तद्वस्तौ निदध्यान्मथितं खजेन।
वामाश्रयोऽग्निर्ग्रहणी गुदं च तत्पार्श्वसंस्थस्य सुखोपलब्धिः॥२५॥
लीयन्त एवं बलयश्च तस्मात् वामं शयानोऽर्हति बस्तिदानम्।
विज्ञातवेगो यदि चार्धदत्ते निष्कृष्य मुक्ते प्रणयेदशेषम्॥२६॥
उत्तानदेहश्व कृतोपधानः स्याद्वीर्यमाप्नोति तथाऽस्य देहम्।
एकोऽपकर्षत्यनिलं स्वमार्गात्पित्तं द्वितीयस्तु कफं तृतीयः॥२७॥
प्रत्यागते कोष्णजलावसिक्तः शाल्यन्नमद्यात्तनुना रसेन।
जीर्णे तु सायं लघु चाल्पमात्रं भुक्तोऽनुवास्यः परिबृंहणार्थम्॥ २८॥
निरूहपादांशसमेन तैलेनाम्लानिलघ्नौषधसाधितेन।
दत्त्वा स्फिचौ पाणितलेन हन्यात्स्नेहस्य शीघ्रागमरक्षणार्थम्॥२९॥
ईषत्पदानुष्ठयुगं च कर्षेदुत्तानदेहस्य तलौ प्रमृज्यात्।
स्नेहेन पार्ष्ण्यङ्गुलिपिण्डिकाश्च ये चास्य गात्रावयवा रुगार्ताः॥३०॥
तांश्चावमृद्गीत ततः सुखं स निद्रामुपासीत कृतोपधानः।
भागाः कषायस्य तु पञ्च पित्ते स्नेहस्य षष्ठः प्रकृतौ स्थिते च॥३१॥
वाते विवृद्धे तु चतुर्थभागो मात्रा निरूहेषु कफेऽष्टभागः।
निरूहमात्रा प्रसृतार्धमाद्ये वर्षे ततोऽर्धप्रसृताभिवृद्धिः॥३२॥
आ द्वादशात्स्यात्, प्रसृताभिवृद्धिरष्टादशाद्द्वादश ते परं स्युः।
आ सप्ततेरुक्तमिदं प्रमाणमतः परं षोडशवद्विधेयम्॥३३॥
निरूहमात्रा प्रसृतप्रमाणा बाले च वृद्धे च मृदुर्विशेषः।
नात्युच्छ्रितं नाप्यतिनीचपादं सपादपीठं शयनं प्रशस्तम्॥३४॥
प्रधानमृहास्तरणोपपन्नं प्राक्शीर्षकं शुक्लपटोत्तरीयम्।
भोज्यं पुनर्व्याधिमवेक्ष्य सम्यक्2800 प्रकल्पयेध्यूषपयोरसाद्यैः॥३५॥
सर्वेषु विद्याद्विधिमेत(न)दाद्यं वक्ष्यामि बस्तीनत उत्तरीयान्।
(सम्यक् प्रणीताः खलु बस्तयो ये वातामयघ्नाश्च बलप्रदाश्च2801)।
द्विपञ्चमूलस्य रसोऽम्लयुक्तः सच्छागमांसस्य सपूर्वपेष्यः॥३६॥
त्रिस्नेहयुक्तः प्रवरो निरूहः सर्वानिलव्याधिहरः प्रदिष्टः।
स्थिरादिवर्गस्य बलापटोलत्रायन्तिकैरण्डयवैर्युतस्य॥३७॥
प्रस्थो रसाच्छागरसार्धयुक्तः साध्यः पुनः प्रस्थसमस्तु2802 यावत्।
प्रियङ्गुकृष्णाघनकल्कयुक्तः सतैलसर्पिर्मधुसैन्धवश्च॥३८॥
स्याद्दीपनो मांसबलप्रदश्व चक्षुर्बलं चापि ददाति सद्य2803ः।
एरण्डमूलं त्रिपलं पलानि2804 हस्वानि मूलानि च यानि पञ्च॥३९॥
रास्स्नाश्वगन्धातिबलागुडूचीपुनर्नवारग्वधदेवदारु।
भागाः पलांशा मदनाष्टकं च जलद्विकंसे क्वथितेऽष्टशेषे॥४०॥
पेष्याः2805 शताह्वा हपुषा प्रियङ्गु सपिप्पलीकं मधुकं वचा2806 च।
रसाञ्जनं वत्सकबीजमुस्तमक्षप्रमाणं लवणांशयुक्तम्॥४१॥
समाक्षिकस्तैलयुतः समूत्रो बस्तिर्नृणां दीपनलेखनीयः।
जङ्घोरुपादत्रिकपृष्टशूलं2807 कफावृतिं मारुतनिग्रहं च॥४२॥
विण्मूत्रवातग्रहणं सशूलमाध्मानतामश्मरिशर्करे च।
आनाहमर्शोग्रहणीप्रदोषानेरण्डबस्तिः शमयेत् प्रयुक्तः॥४३॥
चतुष्पले तैलघृतस्य भृष्टश्छागाच्छतार्धो दधिदाडिमाम्लः।
रसः सपेष्यो बलवर्णमांसरेतोग्निदश्चान्ध्यशिरोरुजाघ्नः॥४४॥
जलद्विकंसेऽष्टपलं पलाशात् पक्त्वा रसोऽर्धाढकमात्रशेषः।
कल्कैर्बलामागधिकापलाभ्यां2808 युक्तः शताहाद्विपलेन चापि॥४५॥
ससैन्धवः क्षौद्रयुतः सतैलो देयो निरूहो बलवर्णकारी।
आनाहपार्श्वामययोनिदोषान् गुल्मानुदावर्तरुजं च हन्यात्॥४६॥
यष्ट्याह्वमूलाष्टपलेन सिद्धं पयः शताह्वाफलपिप्पलीभिः।
युक्तं ससर्पिर्मधु वातरक्तवैस्वर्यवीसर्पहितो निरूहः॥४७॥
यष्ट्याह्वलोध्राभयचन्दनैश्च शृतं पयोऽग्न्यं कमलोत्पलैश्च।
सशर्करं क्षौद्रयुतं सुशीतं पित्तामयान् हन्ति सजीवनीयम्॥४८॥
द्विकार्षिकाश्चन्दनपद्मकर्धियष्ट्याह्वारास्त्रावृषसारिवाश्च।
सलोध्रमञ्जिष्ठमथाप्यनन्ताबलास्थिरादीन् तृणपञ्चमूलम्॥४९॥
तोये समुत्क्वाथ्य रसेन तेन शृतं पयोर्धाढकमम्बुहीनम् ।
जीवन्तिभेदर्धिशतावरीभिर्वीराद्विकाकोलिकशेरुकाभिः॥५०॥
सितोपलाजीवकपद्मरेणुप्रपौण्डरीकैः कमलोत्पलैश्च।
लोध्रात्मगुप्तामधुकैर्विदारीमुञ्जातकैः केशरचन्दनैश्च॥५१॥
पिष्टैर्घृतक्षौद्गयुतैर्निरूहं ससैन्धवं शीतलमेव दद्यात्।
प्रत्यागते धन्वरसेन शालीन्क्षीरेण वाऽद्यात्परिषिक्तगात्रः॥५२॥
दाहातिसारौ प्रदरास्नपित्तहृत्पाण्डुरोगान् विषमज्वरांश्च।
सगुल्ममूत्रग्रहकामलादीन् सर्वामयान्पित्तकृतान्निहन्ति॥५३॥
द्राक्षादिकाश्मर्यमधूकसेव्यैः ससारिवाचन्दनशीतपाक्यैः।
पयः शृतं श्रावणिमुद्गपर्णीतुगात्मगुप्तामधुयष्टिकल्कैः॥५४॥
गोधूमचूर्णैश्च तथाऽक्षमात्रैः सक्षौद्रसर्पिर्मधुयष्टितैलैः।
पथ्याविदारीक्षुरसैर्गुडेन2809 बस्तिं युतं पित्तहरं विदध्यात्॥५५॥
हृन्नाभिर्श्वोदरदेहदाहे दाहेऽन्तरस्थे च समूत्रकृच्छ्रे।
क्षीणक्षते रेतसि चापि2810 नष्टे पैत्तेऽतिसारे च नृणां प्रशस्तः॥५६॥
कोशातकारग्वधदेवदारुमूर्वाश्वदंष्ट्राकुटजार्कपाठाः।
पक्त्वा कुलत्थान् बृहतीं च तोये रसस्य तस्य प्रसृता दश स्युः॥५७॥
तान् सर्षपैलामदनैः सकुष्ठैरक्षप्रमाणैः प्रसृतैश्च युक्तान्।
फलाह्वतैलस्य2811 समाक्षिकस्य क्षारस्य तैलस्य च सार्षपस्य॥५८॥
दद्यान्निरूहं कफरोगिणे ज्ञो मन्दाग्नये चाप्यशनद्विषे च।
पटोलपथ्यामरदारूभिर्वा सपिप्पलीकैः क्वथितैर्जलाख्यैः2812॥५९॥
द्विपञ्चमूले त्रिफलां सबिल्वां फलानि गोमूत्रयुतः कषायः।
कलिङ्गपाठाफलमुस्तकल्कः ससैन्धवः क्षारयुतः सतैलः॥६०॥
निरूहमुख्यः कफजान्विकारानू सपाण्डुरोगालसकामदोषान्।
हन्यात्तथा मारुतमूत्रसङ्गं बस्तेस्तथाऽऽटोपमथातिघोरम्॥६॥
रास्नामृतैरण्डविडङ्गदारुसप्तच्छदोशीरसुराह्वनिम्बैः।
शम्पाकभूनिम्बपटोलपाठातिक्ताखुपर्णीदशमूलमुस्तैः॥६२॥
त्रायन्तिकाशिग्रुफलत्रिकैश्च क्वाथः सपिण्डीतकतोयसूत्रः।
यष्ट्याह्वकृष्णाफलिनीशताह्वारसाञ्जनश्वेतवचाविडङ्गैः॥६३॥
कलिङ्गपाठाम्बुदसैन्धवैश्च कल्कैः ससर्पिर्मधुतैलमिश्रः।
अयं निरूहः क्रिमिकुष्ठमेहब्रघ्नोदराजीर्णकफातुरेभ्यः॥६४॥
रूक्षौषधैरत्यपतर्पितेभ्य एतेषु रोगेष्वपि सत्सु दत्तः।
निहत्य वातं ज्वलनं प्रदीप्य विजित्य रोगांश्च बलं करोति॥६५॥
पुनर्नवैरण्डवृषाश्मभेदवृश्वीरभूतीकबलापलाशाः।
द्विपञ्चमूलानि पलांशकानि क्षुण्णानि धौतानि पलानि2813 चाष्टौ॥६६॥
बिल्वं यवान् कोलकुलत्थधान्यफलानि चैकप्रसृतोन्मितानि।
पयोजलद्व्याढकयोः2814 शृतं तत्क्षीरावशेषं कृ(सि) तवस्त्रपूतम्॥६७॥
वचाशताह्वामरदारुकुष्ठ2815यष्ट्याह्वासिद्धार्थकपिप्पलीनाम्।
कल्कैर्यवान्या मदनैश्च युक्तं नात्युष्णशीतं गुडसैन्धवाक्तम्॥६८॥
क्षौद्रस्य तैलस्य च सर्पिषश्च तथैव युक्तं प्रसृतत्रयेण2816।
दद्यान्निरूहं विधिना विधिज्ञः स सर्वसंसर्गकृतामयघ्नः॥६९॥
स्निग्धोष्ण एकः पवने निरूहो2817 द्वौ स्वादुशीतौ पयसा च पित्ते।
त्रयः समूत्राः कटुकोष्णतीक्ष्णाः कफे निरूहा न परं विधेयाः॥ ७०॥
रसेन वाते प्रतिभोजनं स्यात् क्षीरेण पित्ते तु कफे च यूषैः।
तथाऽनुवास्येषु च बिल्वतैलं स्याज्जीवनीयं फलसाधितं च॥७१॥
तत्र श्लोकः।
इतीदमुक्तं निखिलं यथावद्वस्तिप्रदानस्य विधानमग्र्यम्।
योऽधीत्य विद्वानिह बस्तिकर्म करोति लोके लभते स सिद्धिम्॥७२॥
इत्यभिवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थाने
बस्तिसूत्रीयसिद्धिर्नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
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चतुर्थोऽध्यायः।
अथातः स्नेहव्यापदिकीं2818 सिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
स्नेहबस्तीन् प्रवक्ष्यामि2819 वातपित्तकफापहान्।
मिथ्याप्रणिहितानां च व्यापदः सचिकित्सिताः॥३॥
दशमूलं बलां रास्नामश्वगन्धां पुनर्नवाम्।
गुडूच्येरण्डभूतीकभार्गीवृषकरोहिषान्॥४॥
शतावरीं सहचरं काकनासां पलांशिकम्।
यवमाषातसीकोलकुलत्थान् प्रसृतोन्मितान्॥५॥
चतुर्द्रोणेऽम्भसः पक्त्वा द्रोणशेषेण तेन च।
तैलाढकं समक्षीरं जीवनीयैः पलोन्मितैः॥६॥
अनुवासनमेतद्धि सर्ववातविकारनुत्।
आनूपानां वसा तदुज्जीवनीयोपसाधिता॥७॥
शताह्वायवबिल्वाम्लैः सिद्धं तैलं समीरणे।
सैन्धवेनाग्निवर्णेन तप्तं चानिलनुध्दृतम्॥८॥
जीवन्तीं मदनं मेदां श्रावणीं मधुकं बलाम्।
शताह्वर्षभकौ कृष्णां काकनासां शतावरीम्॥९॥
स्वगुप्तां क्षीरकाकोलीं कर्कटाख्यां शटीं वचाम्।
पिछ्वा क्षीरे घृतं तैलं साधयेत्तच्चतुर्गुणे(णम्)॥१०॥
बृंहणं वातपित्तघ्नं बलशुक्राग्निवर्धनम्।
मूत्ररेतोरजोदोषान्2820 हरेत्तदनुवासनात्॥११॥
लाभतश्चन्दनाद्यैश्च पिष्टैः क्षीरचतुर्गुणम्।
तैलपादं घृतं सिद्धं पित्तघ्नमनुवासनम्॥१२॥
सैन्धवं मदनं कुष्ठं शताह्वां निचुलं बलाम्।
ह्रीबेरं मधुकं भार्गींदेवदारु सकट्फलम्॥१३॥
नागरं पुष्करं मेदां चविकां चित्रकं शटीम्।
विडङ्गातिविषे श्यामां हरेणुं नीलिनीं स्थिराम्॥१४॥
बिल्वाजमोदे कृष्णां च दन्तीं रास्नां च पेषयेत्।
साध्यमेरण्डजं तैलं तैलं वा कफरोगनुत्॥१५॥
ब्रध्नोदावर्तगुल्मार्शःप्लीहमेहाढ्यमारुतान्।
आनाहमश्मरीं चैव हन्यात्तदनुवासनात्॥१६॥
मदनैर्वाऽम्लसंयुक्तैर्बिल्वाद्येन गणेन वा।
तैलं कफहरैर्वाऽपि कफघ्नं कल्पयेद्भिषक्॥१७॥
विडङ्गैरण्डरजनीपटोलत्रिफलामृताः।
जातिप्रवालनिर्गुण्डीदशमूलाखुपर्णिकाः॥१८॥
निम्बपाठासहचरशम्पाककरवीरकाः।
एषां काथेन विपचेन्तैलमेभिश्च कल्कितैः॥१९॥
फलबिल्वत्रिवृत्कृष्णारास्नाभूनिम्बदारुभिः।
सप्तपर्णवचोशीरदार्वीकुष्ठकलिङ्गकैः॥२०॥
लतायष्टिशताह्वाग्निशटी चोरकपौष्करैः।2821
तत् कुष्ठानि क्रिमीन् मेहानर्शांसि ग्रहणीगदम्॥२१॥
क्लीबतां विषमाग्नित्वं मलं दोषत्रयं तथा।
प्रयुक्तं प्रणुदत्याशु पानाभ्यङ्गानुवासनैः॥२२॥
व्याधिव्यायामकर्माध्वक्षीणाबलनिरोजसाम्।
क्षीणशुक्रस्य चातीव स्नेहबस्तिर्बलप्रदः॥२३॥
पादजङ्घोरुपृष्ठांसकटीनां स्थिरतां पराम्।
जनयेदप्रजानां च प्रजां स्त्रीणां तथा नृणाम्॥२४॥
वातपित्तकफात्यन्नपुरीषैरावृतस्य च।
अभुक्ते च प्रणीतस्य स्नेहबस्तेः षडापदः॥२५॥
शीतोऽल्पो वाऽधिके वाते पित्तेऽत्युष्णः कफे मृदुः।
अतिभुक्ते गुरुर्वर्चःसंचयेऽल्पबलस्तथा॥२६॥
दत्तस्तैरावृतः स्नेहो न यात्यभिभवादधः2822।
अभुक्तेऽनावृतत्वाच्च यात्यूर्ध्वं तस्य लक्षणम्॥२७॥
स्तम्भोरुसदनाध्मानज्वरशूलाङ्गमर्दनैः।2823
पार्श्वरुग्वेष्टनैर्विद्यात् स्नेहं वातावृतं भिषक्॥२८॥
स्निग्धाम्ललवणोष्णैस्तं रास्नापीतद्रुतिल्वकैः।
सौवीरकसुराकोलकुलत्थयवसाधितैः॥२९॥
निरूहैर्निर्हरेत् सम्यक् समूत्रैः पाञ्चमूलिकैः।
ताभ्यामेव च तैलाभ्यां सायं भुक्तेऽनुवासयेत्॥३०॥
दाहरागतृषामोहतमकज्वरदूषणैः।
विद्यात् पित्तावृतं स्वादुतिक्तैस्तं बस्तिभिर्हरेत्॥३१॥
तन्द्राशीतज्वरालस्यप्रसेकारुचिगौरवैः।
संमूर्च्छाग्लानिभिर्विद्याच्छ्लेष्मणा स्नेहमावृतम्॥३२॥
कषायकटुतीक्ष्णोष्णैः सुरामूत्रोपसाधितैः।
फलतैलयुतैः साम्लैर्बस्तिभिस्तं विनिर्हरेत्॥३३॥
छार्दिमूर्च्छा2824रुचिग्लानिज्वरशूलाङ्गमर्दनैः।
आमलिङ्गैः सदाहैस्तं विद्यादत्यशनावृतम्॥३४॥
कटूनां लवणानां च क्वाथैश्चूर्णैश्च पाचनम्।
विरेको मृदुरत्रामविहिता च क्रिया हिता॥३५॥
विण्मूत्रानिलसङ्गार्तिगुरुत्वाध्मानहृद्ग्रहैः।
स्नेहं विडावृतं ज्ञात्वा स्नेहस्वेदैः सवर्तिभिः॥३६॥
श्यामाबिल्वादिसिद्धैश्च निरूहैः सानुवासनैः।
नर्हद्विधिना सम्यगुदावर्तहरेण2825 च॥३७॥
अभुक्ते शून्यपायौ वा वेगात् स्नेहोऽतिपीडितः।
धावत्यूर्ध्वं ततः कण्ठादूर्ध्वेभ्यः स्वेभ्य एत्यपि॥३८॥
मूत्रश्यामात्रिवृत्सिद्धो यवकोलकुलत्थवान्।
तत्सिद्धतैल इष्टोऽत्र निरूहः सानुवासनः॥३९॥
कण्ठादागच्छतः स्तम्भकण्ठग्रहविरेचनैः।
छार्दघ्नीभिः क्रियाभिश्च तस्य कार्यं निवर्तनम्॥४०॥
यस्य नोपद्रवं कुर्यात् स्नेहबस्तिरनिःसृतः।
सर्वोऽल्पो वाऽऽवृतो रौक्ष्यादुपेक्ष्यः स विजानता॥४१॥
युक्तस्नेहं2826 द्रवोष्णं च लघुपथ्योपसेवनम्।
भुक्तवान्मात्रया भोज्यमनुवास्यस्त्रयाहात्रयहात्॥४२॥
धान्यनागरसिद्धं हि(वा) तोयं दद्याद्विचक्षणः।
व्युषिताय निशाः कल्यमुष्णं वा केवलं जलम्॥४३॥
स्नेहाजीर्णं जरयति श्लेष्माणं तद्भिनत्ति च।
मारुतस्यानुलोम्यं च कुर्यादुष्णोदकं नृणाम्॥४४॥
वमने च विरेके च निरूहे सानुवासने।
तस्मादुष्णोदकंसेव्यं2827 वातश्लेष्मप्रशान्तये॥४५॥
रूक्षनित्यस्तु दीप्ताग्निर्भृशं व्यायामपीडितः।
वङ्क्षणश्रोण्युदावृत्तवाताश्चार्हा दिने दिने॥४६॥
एषां चाशु जरां स्नेहो यात्यम्बु सिकतास्विव।
अतोऽन्येषां त्र्यहात् प्रायः स्नेहं पचति पावकः॥४७॥
न त्वामं प्रणयेत् स्नेहं स ह्यभिष्यन्दयेद्गुदम्।
सावशेषं च कुर्वीत वायुः शेषे हि तिष्ठति॥४८॥
न चैव गुदकण्ठाभ्यां दद्यात् स्नेहमनन्तरम्।
सङ्गतः2828 स ह्युभयतो वातमग्निं च दूषयेत्॥४९॥
स्नेहबस्तिं निरूहं वा नैकमेवातिशीलयेत्।
उत्क्लेशाग्निवधौ स्नेहान्निरूहात् पवनाद्भयम्॥५०॥
तस्सान्निरूढः स्नेह्यः2829 स्यान्निरूह्यश्चानुवासितः।
स्नेहशोधनयुक्त्यैवं बस्तिकर्म त्रिदोषनुत्॥५१॥
कर्मव्यायामभाराध्वपान स्त्रीकार्शितेषु च।
दुर्बले वातभन्ने च मात्राबस्तिः सदा मतः॥५२॥
ह्रस्वायाः स्नेहमात्राया मात्राबस्तिः समो भवेत्।
यथेष्टाहारचेष्टस्य सर्वकालं निरत्ययः॥५३॥
बल्यं सुखोपचर्यं च सुखं सृष्टपुरीषकृत्।
स्रेहमात्राविधानं हि बृहणं वातरोगनुत्2830॥५४॥
तत्र श्लोकौ।
वातादीनां शमायोक्ताः प्रवराः स्नेहबस्तयः।
तेषां चाज्ञप्रयुक्तानां व्यापदः सचिकित्सिताः॥५५॥
प्राग्भोज्यं स्नेहबस्तेर्यध्द्रुवं येऽर्हास्त्रयहाच्च2831 ये।
स्नेहबस्तिविधिश्वोक्तो मात्राबस्तिविधिस्तथा॥५६॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रति संस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थाने
स्नेहव्यापदिकीसिद्धिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
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पञ्चमोऽध्यायः।
अथातो नेत्रबस्तिव्यापदिकीं2832 सिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
अथ नेत्राणि बस्तींश्च शृणु वर्ज्यानि कर्मसु।
नेत्रस्याज्ञप्रणीतस्य व्यापदः2833 सचिकित्सिताः॥३॥
ह्रस्वं दीर्घं तनु स्थूलं जीर्णं शिथिलबन्धनम्।
पार्श्वच्छिद्रं2834 तथा वक्रमष्टौ नेत्राणि वर्जयेत्॥४॥
अप्राप्त्यतिगतिक्षोभकर्षणक्षणनस्त्रवाः।
गुदपीडा गतिर्जिह्मा तेषां दोषा यथाक्रमम्॥५॥
विषममांसलच्छिद्गस्थूलजालिकवातलाः।
स्निग्धः किन्नश्च तानष्टौ बस्तीन् कर्मसु वर्जयेत्॥६॥
गतिवैषम्यविस्रत्वस्रावदौर्ग्राह्यनिस्रवाः।
फेनिलच्युत्यधार्यत्वं बस्तेः स्याद्वस्तिदोषतः॥७॥
सवातातिद्रुतोत्क्षिप्ततिर्यगुत्क्षिप्तकम्पिताः।
अतिबाह्यगमन्दातिवेगदोषाः प्रणेतृतः॥८॥
अनुच्छ्रास्य तु बद्धे वा दत्ते निःशेष एव वा।
प्रविश्य कुपितो वायुः शूलतोदकरो भवेत्॥९॥
तत्राभ्यङ्गो गुदे स्वेदो वातघ्नान्यशनानि च।
द्रुतं प्रणीते निष्कृष्टे सहसोत्क्षिप्त एव वा॥१०॥
स्यात् कटीगुदजङ्घार्तिबस्तिस्तम्भोरुवेदनाः2835।
भोजनं तत्र वातघ्नं स्नेहाः स्वेदाः सबस्तयः॥११॥
तिर्यग्वल्यावृतं द्वारे बध्दे वाऽपि न गच्छति।
नेत्रं तदृजु निष्कृष्य संशोध्य च प्रवेशयेत्2836॥१२॥
पीड्यमानेऽन्तरा मुक्ते गुदे प्रतिहतोऽनिलः।
उरःशिरोर्तिमूर्वोश्च2837 सदनं जनयेद्वली॥१३॥
बस्तिः स्यात्तत्र बिल्वादिफलश्यामादिमूत्रवान्।
स्याद्दाहो दवथुः शोफः कम्पनाभिहते गुदे॥१४॥
कषायमधुराः शीताः सेकास्तत्र सबस्तयः।
अतिमात्रप्रणीतेन नेत्रेण क्षणनाद्वलेः॥१५॥
स्याच्छर्दिदाहनिस्तोदगुरुवर्चः2838 प्रवर्तनम् ।
तत्र सर्पिःपिचुः क्षीरं पिच्छाबस्तिश्च शस्यते॥१६॥
न2839 वा वहति मन्दस्तु बाह्यस्त्वाशु निवर्तते।
स्नेहस्तत्र पुनः सम्यक् प्रणेयः सिद्धिमिच्छता॥१७॥
अतिप्रपीडितः कोष्ठे तिष्ठत्यायाति वा गलम्।
तन्त्र बस्तिर्विरेकश्च गलपीडादिकर्म च॥१८॥
तत्र श्लोकः।
नेत्रबस्तिप्रणेतॄणां दोषानेतान् सभेषजान्।
वेत्ति यस्तेन मतिमान् बस्तिकर्माणि कारयेत्॥१९॥
इत्यग्निवेशकृते तत्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थानेनेत्रबस्तिव्यापदिकीसिद्धिर्नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
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षष्ठोऽध्यायः।
अथातो वमनविरेचनव्यापत्सिद्धिं2840 व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
अथ शोधनयोः सम्यग्विधिमूर्ध्वानुलोमयोः।
असम्यक्कृतयोश्चैव दोषान् वक्ष्यामि सौषधान्॥३॥
अत्युष्णवर्षशीता हि ग्रीष्मवर्षाहिमागमाः।
तदन्तरे2841 प्रावृडाद्यास्तेषां साधारणास्त्रयः॥४॥
प्रावृट् शुचिनभौ ज्ञेयौ शरदूर्जसहौ पुनः।
तपस्यश्च मधुश्चैव वसन्तः शोधनं प्रति॥५॥
एतानृतून् विचिन्त्यैवं2842 दद्यात् संशोधनं भिषक्।
स्वस्थवृत्तमभिप्रेत्य व्याधौ व्याधिवशेन तु॥६॥
कर्मणां वमनादीनामन्तरेष्वन्तरेषु2843 च।
स्नेहस्वेदौ प्रयुञ्जीत स्नेहं चान्ते प्रयोजयेत्॥७॥
विसर्पपीडका2844शोफकामलपाण्डुरोगिणः।
अभिघातविषार्तांश्च नातिस्निग्धान् विरेचयेत्॥८॥
नातिस्निग्धशरीराय दद्यात् स्नेहविरेचनम्।
स्नेहोत्क्लिष्टशरीराय रूक्षं दद्याद्विरेचनम्॥९॥
स्नेहस्वेदोपपन्नेन जीर्णे मात्रावदौषधम्।
एकाग्रमनसा पीतं सम्यग्योगाय कल्पते॥१०॥
स्निग्धात् पात्राद्यथा तोयमयत्नेन प्रणुद्यते।2845
कफादयः प्रणुद्यन्ते स्निग्धाद्देहात्तथौषधैः॥११॥
आर्द्रं काष्ठं यथा वह्निर्विष्यन्दयति सर्वतः।
तथा स्निग्धस्य वै दोषान् स्वेदो विष्यन्दयेत्स्थिरान्॥१२॥
क्षारोत्क्लिष्टो2846 यथा वस्त्रे मलः संशोध्यतेऽम्भसा।
स्नेहस्वेदैस्तथोत्क्लेश्य शोध्यते शोधनैर्मलः॥१३॥
अजीर्णे वर्धते ग्लानिर्विबन्धश्चापि जायते।
पीतं संशोधनं चैव विपरीतं प्रवर्तते॥१४॥
अल्पमात्रं महावेगं बहुदोषहरं सुखम्।
लघुपार्क सुखास्वादं प्रीणनं व्याधिनाशनम्॥१५॥
अविकारि च व्यापत्तौ नातिग्लानिकरं च यत्।
गन्धवर्णरसोपेतं विद्यान्मात्रावदौषधम्॥१६॥
विधूय मानसान् दोषान् कामक्रोधभयादिकान्2847।
एकाग्रमनसा पीतं सम्ययोगाय कल्पते॥१७॥
नरः श्वो वमनं पाता भुञ्जीत कफवर्धनम्।
सुजरं द्रवभूयिष्ठं लघु शीतं विरेचनम्॥१८॥
उत्क्लिष्टाल्पकफत्वेन क्षिप्रं दोषाः स्रवन्ति हि।
पीतौषधस्य तु भिषक् शुद्धिलिङ्गानि लक्षयेत्॥१९॥
ऊर्ध्वं कफानुगे पित्ते विट्पित्तेऽनुकफे त्वधः।
हृतदोषं वदेत् कार्श्यदौर्बल्ये चेत् सलाघवे॥२०॥
वामयेत्तु ततः शेषमौषधं न त्वलाघवे।
स्तैमित्येऽनिलसङ्गे च निरुद्गारेऽपि वामयेत्॥२१॥
आ लाधवात्तनुस्वाच्च2848 कफस्यापत् परं भवेत्।
वमिते वर्धते वह्निः शमं दोषा व्रजन्ति हि॥२२॥
चमितं लङ्घयेत् सम्यग्जीर्णलिङ्गान्यलक्षयन्2849।
तानि दृष्ट्वा तु पेयादिक्रमं कुर्यान्न लङ्घनम्॥२३॥
संशोधनाभ्यां शुद्धस्य हृतदोषस्य देहिनः।
यात्यग्निर्मन्दतां2850 तस्मात् क्रमं पेयादिमाचरेत्॥२४॥
कफपित्ते विशुद्धेऽल्पं मद्यपे वातपैत्तिके।
तर्पणादिक्रमं कुर्यात् पेयाऽभिष्यन्दयेद्धि तान्॥२१॥
अनुलोमोऽनिलः स्वास्थ्यं क्षुत्तृष्णोर्जो मनस्विता।
लघुत्वमिन्द्रियोद्गारशुद्धिर्जीर्णौषधाकृतिः॥२६॥
क्लमो दाहोऽङ्गमर्दश्च2851 भ्रमो मूर्च्छा शिरोरुजा2852।
अरतिर्बलहानिश्च सावशेषौषधाकृतिः॥२७॥
अकालेऽल्पातिमात्रं च पुराणं न च भावितम्।
असम्यक् संस्कृतं चैव व्यापद्येतौषधं ध्रुवम्॥२८॥
आध्मानं परिकर्तिश्च स्रावो हृद्गात्रयोर्ग्रहः।
जीवादानं सविभ्रंशः स्तम्भः सोपद्रवः क्लमः॥२९॥
अयोगादतियोगाच्च दशैता व्यापदो मताः।
प्रेष्यभैषज्यवैद्यानां वैगुण्यादातुरस्य च॥३०॥
योगः सम्यक्प्रवृत्तिः स्यादतियोगोऽतिवर्तनम्॥३१॥
अयोगः प्रातिलोम्येन न चाल्पं वा प्रवर्तनम्।
श्लेष्मोत्क्लिष्टेन दुर्गन्धमहृद्यमति वा बहु॥३२॥
विरेचनमजीर्णे च पीतमूर्ध्वं प्रवर्तते।
क्षुधार्तमृदुकोष्ठाभ्यां स्वल्पोत्क्लिष्टकफेन2853 वा॥३३॥
तीक्ष्णं पीतं2854 स्थितं क्षुब्धं वमनं स्याद्विरेचनम्।
प्रातिलोम्येन दोषाणां हरणात्ते झकृत्स्रशः॥३४॥
अयोगसंज्ञे कृच्छ्रेण न2855 वा गच्छति चाल्पशः।
पीतौषधो न शुद्धश्चेज्जीर्णे तस्मिन् पुनः पिबेत्॥३५॥
औषधं न त्वजीर्णेऽन्यद्भयं स्यादतियोगतः।
कोष्ठस्य गुरुतां ज्ञात्वा लघुत्वं बलमेव च॥३६॥
अयोगे मृदु वा दद्यादौषधं तीक्ष्णमेव वा।
वमनं न तु दुश्छर्दं दुष्कोष्ठं2856 न विरेचनम्॥३७॥
पाययेतौषधं भूयो हन्यात् पीतं पुनर्हि तौ।
अस्निग्धास्विन्नदेहस्य2857 रूक्षस्यानवमौषधम्॥३८॥
दोषानुत्क्लिश्य निर्हर्तुमशक्तं जनयेद्गदान्।
विभ्रंशं श्वयथुं हिक्वां तमसो दर्शनं तृषाम्॥३९॥
पिण्डिकोद्वेष्टनं कण्डूमूर्वोः सादं विवर्णताम्।
स्निग्धस्विन्नस्य चात्यल्पं दीप्ताग्नेर्जीर्णमौषधम्॥४०॥
शीतैर्वा स्तब्धमामैर्वा दोषानुत्क्लिश्य नाहरेत्2858।
तानेव जनयेद्गोगानयोगः सर्व एव सः॥४१॥
विज्ञाय मतिमांस्तत्र यथोक्तां कारयेत् क्रियाम्।
तं तैललवणाभ्यक्तं स्विन्नं प्रस्तरसङ्करैः॥४२॥
पाययेत पुनर्जीर्ण समूत्रैर्वा निरूहयेत्।
निरूढं च रसैर्धान्वैर्भोजयित्वाऽनुवासयेत्॥४३॥
फलमागधिकादारुसिद्धतैलेन मात्रया।
स्निग्धं वातहरैः स्नेहैः पुनस्तीक्ष्णेन शोधयेत्॥४४॥
(नचातितीक्ष्णेन2859 ततो ह्यतियोगस्तु जायते)।
अतितीक्ष्णं क्षुधार्तस्य मृदुकोष्ठस्य भेषजम्।
हृत्वाऽऽशु विट्पित्तकफान् घातून् विस्त्रावयेद्द्रवान्॥४५॥
बलस्वरक्षयं दाहं कण्ठशोषं क्लमं2860 तृषाम्।
कुर्याच्च मधुरैस्तत्र शेषमौषधमुल्लिखेत्॥४६॥
वमने तु विरेकः स्याद्विरेके वमनं मृदु।
परिषेकावगाहाद्यैः सुशीतैः स्तम्भयेच्च तम्॥४७॥
कषायमधुरैः शीतैरन्नपानौषधैस्तथा।
रक्तपित्तातिसारघ्नैर्दाहज्वरहरैरपि॥४८॥
अञ्जनं चन्दनोशीरमजासृक्शर्करोदकम्।
लाजचूर्णैः पिबेन्मन्थमतियोगहरं परम्॥४९॥
शुङ्गाभिर्वा वटादीनां सिद्धां पेयां समाक्षिकाम्।
वर्चःसांग्राहिकैः सिद्धं क्षीरं भोज्यं च दापयेत्॥५०॥
जाङ्गलैर्वा रसैर्भोज्यं पिच्छाबस्तिं2861 च दापयेत्।
मधुरैरनुवास्यश्च सिद्धेन क्षीरसर्पिषा॥५१॥
वमनस्यातियोगे तु शीताम्बुपरिषेचितः।
पिबेत् फलेरसैर्मन्थं2862 सघृतक्षौद्रशर्करम्॥५२॥
सोद्वारायां भृशं वम्यां मूर्च्छायां धान्यमुस्तयोः।
समधूकाञ्जनं चूर्णं लेहयेन्मधुसंयुतम्॥५३॥
वमतो(ने)ऽन्तःप्रविष्टायां जिह्वायां कवलग्रहाः।
स्निग्धाम्ललवणैहृध्यैर्यूपक्षीररसैर्हिताः॥५४॥
फलान्यम्लानि खादेयुस्तस्य चान्येऽग्रतो नराः।
निःसृतां तु तिलद्राक्षाकल्कलिप्तां प्रवेशयेत्॥५५॥
वाग्ग्रहानिलरोधेषु घृतमांसोपसाधिताम्।
यवागूं तनुकां दद्यात्2863 स्नेहस्वेदौ च बुद्धिमान्॥५६॥
वमितश्च विरिक्तश्च मन्दाग्निश्च विलङ्घितः।
अग्निप्राणविवृद्ध्यर्थं क्रमं पेयादिकं भजेत्॥५७॥
बहुदोषस्य रूक्षस्य हीनाग्नेरल्पमौषधम्।
सोदावर्तस्य चोत्क्लिश्य दोपान्मार्गान्निरुध्य च॥५८॥
भृशमाध्मापयेन्नाभिं पृष्ठपार्श्वशिरोरुजम्।
श्वासविण्मूत्रवातानां सङ्गं कुर्याच्च दारुणम्॥५९॥
अभ्यङ्गस्वेदवर्त्यादि सनिरूहानुवासनम्।
उदावर्तहरं सर्वं कर्माध्मातस्य शस्यते॥६०॥
स्त्रिग्धेन गुरुकोष्ठेन सामे बलवदौषधम्।
क्षामेण मृदुकोष्ठेन श्रान्तेनाल्पबलेन वा॥६१॥
पीतं गत्वा गुर्द साममाशु दोषं निरस्य च॥
तीव्रशूलां सपिच्छास्त्रां करोति परिकर्तिकाम्॥६२॥
लङ्घनं पाचनं सामे रूक्षोष्णं लघुभोजनम्।
बृंहणीयो विधिः सर्वः क्षामस्य मधुरस्तथा॥६३॥
आमाजीर्णेऽनुबन्धश्चेत् क्षाराम्लं लघु शस्यते।
पुष्पकासीसमिश्रं वा क्षारेण लवणेन च॥६४॥
सदाडिमरसं सर्पिः पिबेद्वातेऽधिके सति।
दध्यम्लं भोजने पाने संयुकं दाडिमत्वचा॥६५॥
देवदारुतिलानां वा कल्कमुष्णाम्बुना पिबेत्।
अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षकदम्बैर्वां शृतं पयः॥६६॥
कषायमधुरं बस्तिं2864 पिच्छावस्तिमथापि वा।
यष्टीमधुकसिद्धं वा स्नेहबस्तिं प्रदापयेत्॥६७॥
अल्पं तु बहुदोषस्य दोषमुत्क्लिश्य भेषजम्।
अल्पाल्पं स्नावयेत् कण्डूं शोफं कुष्ठानि गौरवम्॥६८॥
कुर्याच्चाग्निवधोत्क्लेशस्तैमित्यारुचिपाण्डुताः।
परिस्रावः2865 स तं दोषं शमयेद्वामयेदपि॥६९॥
स्नेहितं वा पुनस्तीक्ष्णं पाययेत विरेचनम्।
शुद्धे चूर्णासवारिष्टान् संस्कृतांश्च प्रदापयेत्॥७०॥
पीतौषधस्य वेगानां निग्रहान्मारुतादयः।
कुपिता हृदयं गत्वा घोरं कुर्वन्ति हृद्गहम्॥७१॥
सहिक्काश्वासपार्श्वा2866र्तिदैन्यलालाक्षिविभ्रमैः।
**जिह्वां खादति निःसंज्ञो दन्तान् किटिकिटापयन्॥७२॥ **
न गच्छेद्विभ्रमं तत्र वामयेदाशु तं भिषक्।
मधुरैः पित्तमूर्च्छार्तं कटुभिः कफमूर्च्छितम्॥७३॥
पाचनीयैस्ततश्चास्य दोषशेषं विपाचयेत्।
कायाग्निं च बलं चास्य क्रमेणाभिप्रवर्धयेत्2867॥७४॥
पवनेनातिवमतो हृदयं यस्य पीड्यते।
तस्मै स्निग्धाम्ललवणं दद्यात् पित्तकफेऽन्यथा॥७५॥
पीतौषधस्य वेगानां निग्रहेण कफेन वा।
रुध्दोऽति चाविशुद्धस्य2868 गृह्णात्यङ्गानि मारुतः॥७६॥
स्तम्भवेपथुनिस्तोदसादोद्वेष्टार्तिमूर्च्छनैः2869।
तत्र वातहरं सर्वं स्नेहस्वेदादि कारयेत्॥७७॥
अतितीक्ष्णं मृदौ कोष्ठे लघुदोषस्य भेषजम्।
दोषान् हृत्वा विनिर्मथ्य जीवं हरति शोणितम्॥७८॥
तेनान्नं मिश्रितं दद्याद्वायसाय शुनेऽपि वा।
भुंक्ते तच्चेद्वदेज्जीवं2870 न भुंक्ते पित्तमादिशेत्॥७९॥
शुक्लं वा भावितं वस्त्रमावानं2871 कोष्णवारिणा।
प्रक्षालितं विवर्णं स्यात् पित्ते शुद्धं तु शोणिते॥८०॥
तृषामूर्च्छामदार्तस्य कुर्यादा मरणात् क्रियाम्।
तस्य पित्तहरीं सर्वामतियोगे च या हिता॥८१॥
मृगगोमहिषाजानां सद्यस्कं जीवतामसृक्।
पिबेज्जीवाभिसन्धानं जीवं तध्याशु गच्छति॥८२॥
तदेव दर्भमृदितं रक्तं बस्तिं प्रदापयेत्।
श्यामाकाश्मर्यबदरीदूर्वोशीरैः शृतं पयः॥८३॥
घृतमण्डाञ्जानयुतं शीतं बस्तिं प्रदापयेत् ।
पिच्छाबस्तिं सुशीतं वा घृतण्मडानुवासनम्॥८४॥
गुदं भ्रष्टं कषायैश्च स्तम्भयित्वा प्रवेशयेत्।
सामगान्धर्वशब्दांश्च संज्ञानाशेऽस्य कारयेत्॥८५॥
यदा विरेचनं पीतं विडन्तरवतिष्ठते।
वमनं भेषजान्तं वा दोषानुत्क्लिश्य नावहेत्॥८६॥
तदा कुर्वन्ति कण्ड्वादीनू दोषाः प्रकुपिता गदानू।
स विभ्रंशो मतस्तत्र स्याद्यथाव्याधि भेषजम्॥८७॥
पीतं स्निग्धेन सस्नेहं तद्दोषैर्मांर्दवाद्वृतम्।
न वाहयति दोषांस्तु स्वस्थानात् स्तम्भयेच्च्युतान्॥८८॥
वातसङ्गगुदस्तम्भशूलैः क्षरति चाल्पशः।
तीक्ष्णं बस्तिं विरेकं वा सोऽर्हो लङ्घितपाचितः2872॥८९॥
रूक्षं विरेचनं पीतं रूक्षेणाल्पबलेन वा।
मारुतं कोपयित्वाऽऽशु कुर्यांध्दोरानुपद्रवान्॥९०॥
स्तम्भशूलानि घोराणि सर्वगात्रेषु मुह्यतः।
स्नेहस्वेदादिकस्तत्र कार्यो वातहरो विधिः॥९१॥
स्निग्धस्य गुरुकोष्ठस्य2873 मृदूत्क्लिश्यौषधं कफम्।
पित्तं वातं च संरुध्य सतन्द्रागौरवं क्लमम्॥९२॥
दौर्बल्यं साङ्गमर्दं च कुर्यादाशु तदुल्लिखेत्।
लङ्घनं पाचनं चात्र2874 स्निग्धे तीक्ष्णं च शोधनम्॥९३॥
तत्र श्लोकौ।
इत्येता व्यापदः प्रोक्ताः सरूपाः सचिकित्सिताः।
वमनस्य2875 विकरेस्य कृतस्याकुशलैर्नृणाम्॥९४॥
एतान् विज्ञाय मतिमानवस्थाश्चैव तत्त्वतः।
दद्यात् संशोधनं सम्यगारोग्यार्थं नृणां सदा॥१५॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थाने वमनविरेचनव्यापत्सिद्धिर्नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
सप्तमोऽध्यायः।
अथातो बस्तिव्यापदिकों2876 सिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
घीधैर्यौदार्यगाम्भीर्यक्षमादमतपोनिधिम्।
पुनर्वसुं शिष्यगणः पप्रच्छ विनयान्वितः॥३॥
काः कति व्यापदो बस्तेः किंसमुत्थानलक्षणाः।
का चिकित्सा इति प्रश्नान्छ्रुत्वा तानब्रवीद्गुरुः॥४॥
नातियोगौ क्लमाध्माने हिक्का हृत्प्राप्तिरूर्ध्वता।
प्रवाहिका शिरोङ्गार्तिः परिकर्तः परिस्रवः॥५॥
द्वादश व्यापदो बस्तेरसम्यग्योगसंभवाः।
आसामेकैकशो रूपं चिकित्सां च निबोधत॥६॥
गुरुकोष्ठेऽनिलप्राये रूक्षे वातोल्बणेऽपि वा।
शीतोऽल्पलवणस्नेहद्रव्यमात्रो घनोऽपि वा॥७॥
बस्तिः संक्षोभ्य तं दोषं दुर्बलत्वादनिर्हरन्।
करोति गुरुकोष्ठत्वं वातमूत्रशकृद्ग्रहम्॥८॥
नाभिबस्तिरुजं दाहं हृल्लेपं श्वयथुं गुदे।
कण्डूगण्डानि वैवर्ण्यमरुचिं वह्निमार्दवम्॥९॥
तत्रोष्णायाः प्रमथ्यायाः पानं स्वेदाः पृथग्विधाः।
फलवर्त्योऽथवा कालं ज्ञात्वा शस्तं विरेचनम्॥१०॥
बिल्वमूलत्रिवृद्दारुयवकोलकुलत्थवान्।
सुरादिमूत्रवान्2877 बस्तिः सप्राकूपेष्यस्तमानयेत्॥११॥
इत्ययोगव्यापच्चिकित्सा।
स्निग्धस्विन्नेऽतितीक्ष्णोष्णो मृदुकोष्ठेऽतियुज्यते।
तस्य लिङ्गं चिकित्सा च शोधनाभ्यां समा भवेत्॥१२॥
पृश्निपर्णीं स्थिरां पद्मं काश्मर्यं मधुकोत्पलम्2878।
पिष्ट्वा द्राक्षां मधूकं च क्षीरे तण्डुलधावने॥१३॥
द्राक्षायाः पक्वलोष्टस्य प्रसादे मधुकस्य च।
विनीय सघृतं बस्तिं दद्याद्दाहेऽतियोगजे॥१४॥
इत्यतियोगव्यापचिकित्सा।
आमदोषे2879 निरूहेण मृदुना दोष ईरितः।
रुणद्धि मार्गं वातस्य हन्त्यग्निं मूर्च्छयत्यपि॥१५॥
क्लमं सदाहं हृच्छूरलं मोहवेष्टनगौरवम्।
कुर्यात् स्वेदैर्विरुक्षैस्तं पाचनैश्चाप्युपाचरेत्॥१६॥
पिप्पलीकत्तृणोशीरदारुमूर्वाशृतं जलम्।
पिबेत् सौवर्चलोन्मिश्रं दीपनं हृद्विशोधनम्॥१७॥
वचानागरशट्येला दधिमण्डेन मूर्च्छिताः।
पेयाः प्रसन्नया वा स्युररिष्टेनासवेन वा॥१८॥
दारु त्रिकटुकं पथ्यां पलाशं चित्रकं शटीम्।
पिष्ट्वा कुष्ठं च मूत्रेण पिबेत् क्षारांश्च दीपनान्॥१९॥
बस्तिमस्य विदध्याच्च समूत्रं दाशमूलिकम्।
समूत्रमथवा व्यक्तलवणं माधुतैलिकम्॥२०॥
इति क्लमव्यापञ्चिकित्सा।
अल्पवीर्यो महादोषे रूक्षे क्रूराशये कृतः।
बस्तिर्दोषावृतो रुद्धमार्गो रुन्ध्यात् समीरणम्॥२१॥
स विमार्गोऽनिलः कुर्यादाध्मानं मर्मपीडनम्।
विदाहं गुरुकोष्ठस्य मुष्कवङ्क्षणवेदनाम्॥२२॥
रुणध्दि हृदयं शूलैरितश्चेतश्च धावति।
फलश्यामादिभिः कुष्ठकृष्णालवणसर्षपैः॥२३॥
धूममाषवचाकिण्वक्षारचूर्णगुडैः कृताम्।
कराङ्गुष्ठनिभां वर्तिं यवमध्यां निधापयेत्॥२४॥
स्वभ्यक्तस्विन्नगात्रस्य तैलाक्तां स्नेहिते गुदे।
अथवा लवणागारधूमसिद्धार्थकैः कृताम्॥२५॥
बिल्वादिना निरूहः स्यात् पीलुसर्षपमूत्रवान्।
सरलामरदारुभ्यां सिद्धं चैवानुवासनम्॥२६॥
इत्याध्मानव्यापच्चिकित्सा।
मृदुकोष्ठेऽबले बस्तिरतितीक्ष्णोऽतिनिर्हरन्।
कुर्याद्धिक्कां हितं तत्र हिक्काघ्नं बृंहणं च यत्॥२७॥
बलास्थिरादिकाश्मर्यत्रिफलागुडसैन्धवैः।
सप्रसन्नारनालाम्लैस्तैलं पक्त्वाऽनुवासयेत्॥२८॥
कृष्णालवणयोरक्षं पिबेदुष्णाम्बुना युतम्।
धूमलेहरसक्षीरस्वेदाश्चान्नं च वातनुत्॥२९॥
इति हिक्काव्यापच्चिकित्सा।
अतितीक्ष्णः सवातो वा न वा सम्यक् प्रपीडितः।
घट्टयेद्धृदयं बस्तिस्तत्र काशकुशेत्कटैः॥३०॥
स्यात् साम्ललवणस्कन्धकरीरबदरीफलैः।
शृतैर्बस्तिर्हितः सिद्धं वातघ्नैश्चानुवासनम्॥३१॥
इति हृत्प्राप्तिव्यापच्चिकित्सा।
वातमूत्रपुरीषाणां दत्ते वेगान्निगृह्णतः।
अति वा पीडितो बस्तिर्मुखेनायाति वेगवान्॥३२॥
मूर्च्छाविकारं तस्यादौ दृष्ट्वा शीताम्बुना मुखम्।
सिञ्चेत् पार्श्वोदरं चाधः प्रमृज्याद्वीजयेच्च तम्॥३३॥
केशेष्वाकृष्य चाकाशे2880 धुनुयास्त्रासयेच्च तम्।
गोखराश्वगजैः सिंहै राजप्रेष्यैस्तथोरगैः॥३४॥
उल्काभिरेवमन्यैश्च बस्तिं2881 तस्यानयेदधः।
वस्त्रपाणिग्रहैः कण्ठं रुन्ध्यान्न म्रियते यथा॥३५॥
प्राणोदाननिरोधाद्धि प्रसिद्धतरमार्गगः।
अपानः पवनो बस्तिं तमाश्वेवापकर्षति॥३६॥
ततः ऋमुककल्काक्षं पाययेताम्लसंयुतम्।
औष्ण्यात्तैक्ष्ण्यात् सरत्वाच्च बस्तिं सोऽस्यानुलोमयेत्॥३७॥
पक्वाशयस्थिते स्विन्ने निरूहो दाशमूलिकः।
यवकोलकुलत्यैश्च विधेयो मूत्रसाघितः॥३८॥
बिल्वादिपञ्चमूलेन सिद्धो बस्तिरुरःस्थिते ।
शिरःस्थे नावनं धूमः प्रच्छाद्यं सर्षपैः शिरः॥३९॥
इत्यूर्ध्वव्यापच्चिकित्सा।
स्निग्धस्विन्ने महादोषे बस्तिर्मृद्वल्पभेषजः।
उक्लिश्याल्पं हरेद्दोषं जनयेच्च प्रवाहिकाम्॥४०॥
श्वयथुं2882 बस्तिपाय्वोश्च जङ्घोरुसदनं तथा।
निरुद्धमारुतो जन्तुरभीक्ष्णं संप्रवाहृते॥४१॥
स्वेदाभ्यङ्गान्निरूहांश्च शोधनीयानुलोमिकान्।
विध्याल्लङ्घयित्वा तु वृत्तिं कुर्याद्वरिक्तवत्॥४२॥
इति प्रवाहिकाव्यापञ्चिकित्सा।
दुर्बले तीव्रदोषे च क्रूरकोष्ठे तनुर्मृदुः।
शीतोऽल्पश्चावृतो दोषैर्बस्तिस्तद्विहतोऽनिलः॥४३॥
गात्राण्यनुसरन् मार्गेरुर्ध्वं मूर्ध्नि विधावति।
ग्रीवां मन्ये च गृह्णाति शिरः कण्ठं भिनत्ति च॥४४॥
बाधिर्यं कर्णनादं च पीनसं नेत्रविभ्रमम्।
कुर्यादभ्यञ्जनं तैललवणेन यथाविधि॥४५॥
युञ्ज्यात् प्रधमनैर्नस्यैर्धूमैरास्य विरेचनैः।
तीक्ष्णानुलोमिकेनाथ स्विन्नं भुक्तेऽनुवासयेत्2883॥४६॥
इति शिरःशूलव्यापच्चिकित्सा।
सुस्विन्नस्निग्धदेहस्य यस्य बस्तिर्विधीयते।
अतितीक्ष्णो गुरुश्चैव सोऽतिमात्रं प्रवर्तयेत्॥४७॥
स्रुतेषु तस्य दोषेषु निरूढस्यातिमात्रशः।
स्तब्धोदावृतकोष्ठस्य वायुः संप्रतिहन्यते॥४८॥
विलोमनसमुद्भूतो रुजत्यङ्गानि देहिनः।
गात्रवेष्टननिस्तोदभेदस्फुरणजृम्भणैः॥४९॥
तं तैललवणाभ्यक्तं सेचयेदुष्णवारिणा।
एरण्डपत्रनिष्क्वाथैः प्रस्तरैश्वोपपादयेत्॥५०॥
यवान् कुलत्थान् कोलानि पञ्चमूले तथोभये।
जलाढकद्वये पक्त्वा पादशेषेण तेन च॥५१॥
कुर्यात् सबिल्वतैलोष्णलवणेन निरूहणम्।
निरूहेण समाश्वस्तं द्रोण्यां तमवगाहयेत्॥५२॥
ततो भुक्तवतस्तस्य कारयेदनुवासनम्।
यष्टीमधुकतैलेन बिल्वतैलेन वा भिषक्॥५३॥
इत्यङ्गशूलव्यापच्चिकित्सा।
मृदुकोष्ठाल्पदोषस्य रूक्षतीष्णोऽतिमात्रवान्।
बस्तिर्दोषान्निरस्याशु जनयेत् परिकर्तिकाम्॥५४॥
त्रिकवङ्क्षणबस्तीनां तोदं नाभेरधो रुजम्।
विबन्धोऽल्पाल्पमुत्थानं गुदनिर्लेखनं2884 भवेत्॥५५॥
स्वादुशीतौषधैस्तत्र पय इक्ष्वादिभिः शृतम्।
यष्ट्याह्वतिलकल्काभ्यां बस्तिः स्यात् क्षीरभोजिनः॥५६॥
ससर्जरसयष्ट्याह्वजिङ्गिनीकर्दमाञ्जनम्।
विनीय दुग्धे बस्तिः स्याध्व्यक्ताम्लमृदुभोजिनः॥५७॥
इति परिकर्तिकाव्यापच्चिकित्सा।
पित्तरक्तेऽम्ल उष्णो वा तीक्ष्णो वा लवणोऽथ वा।
बस्तिर्गुदं2885 विलिखति क्षिणोति विदहत्यपि॥५८॥
स विदग्धः स्रवत्यस्रं पित्तं चानेकवर्णवत्।
बहुधा ह्यतिवेगेन2886 मोहं गच्छति चासकृत्॥५९॥
आर्द्रशाल्मलिवृन्तैस्तु क्षुण्णैराजं पयः श्रुतम्।
सर्पिषा योजितं शीतं बस्तिमस्मै प्रदापयेत्॥६०॥
वडादिपल्लवेष्वेष कल्पो यवतिलेषु च।
सुवर्चलोपोदिकयोः कर्बुदारे च शस्यते॥६१॥
गुदे सेकाः प्रदेहाश्च शीताः स्युर्मधुराश्च ये।
रक्तपित्तातिसारघ्नि क्रिया चात्र प्रशस्यते॥६२॥
इति परिस्रवव्यापच्चिकित्सा।
तीक्ष्णत्वं मूत्रपील्वग्निलवणक्षारसर्षपैः।
प्राप्तकालं विधातव्यं क्षीराद्यैर्मार्दवं तथा॥६३॥
आपादतलमूर्ध्वस्थान् दोषान् पक्वाशये स्थितः।
वीर्येण बस्तिरादत्ते खस्थोऽर्को भूरसानिव॥६४॥
यद्वत् कुसुम्भसंमिश्रात्तोयाद्वागं हरेत् पटः।
तद्वद्द्रवीकृतात् देहान्निरूहो निर्हरेन्मलान्॥६५॥
तत्र श्लोकः।
इत्येता व्यापदः प्रोक्ता बस्तेः साकृतिभेषजाः।
बुध्द्वा कात्स्न्र्ये ता बस्तीन्नियुञ्जन्नापराध्यति॥६६॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थाने बस्तिव्यापदिकीसिद्धिर्नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
अष्टमोऽध्यायः।
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अथातः प्रासृतयोगिकां सिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
अथेमान् सुकुमाराणां निरूहान् स्नेहनान्मृदून्2887।
कर्मणा विप्लुतानां च वक्ष्यामि प्रसृतैः पृथक्॥३॥
क्षीराद्वौ प्रसृतौ कार्यौ मधुतैलघृतास्त्रयः।
खजेन मथितो बस्तिर्वातघ्नो बलवर्णकृत्॥४॥
एकैकः प्रसृतस्तैलप्रसन्नाक्षौद्रसर्पिषाम्।
बिल्वादिमूलक्वाथाद्वौ कौलत्थाद्वौ स वातनुत्॥५॥
पञ्चमूलरसात् पञ्च द्वौ तैलात् क्षौद्रसर्पिषोः।
एकैकः प्रसृतो बस्तिः स्नेहनीयोऽनिलापहः॥६॥
सैन्धवार्धाक्ष एकैकः क्षौद्रतैलपयोघृतात्।
प्रसृतो हपुषाकर्षो2888 निरूहः शुक्रकृत् परम्॥७॥
पटोलनिम्बभूनिम्बरास्नासप्तच्छदाम्भसः।
चत्वारः प्रसृता एको घृतात् सर्षपकल्कितः॥८॥
निरूहः पञ्चतिक्तोऽयं मेहाभिष्यन्दकुष्ठनुत्।
विडङ्गत्रिफलाशिग्रुफलमुस्ताखुपर्णिजात्॥९॥
कषायात् प्रसृताः पञ्च तैलादेको विमथ्य तान्।
विडङ्गपिप्पलीकल्को निरूहः क्रिमिनाशनः॥१०॥
पयस्येक्षुस्थिरारास्नाविदारीक्षौद्रसर्पिषाम्।
एकैकः प्रसृतो बस्तिः कृष्णाकल्को वृषत्वकृत्॥११॥
चत्वारस्तैलगोमूत्रदधिमण्डाम्लकाञ्जिकात्।
प्रसृताः सर्षपैः पिष्टैर्विट्सङ्गानाहभेदनः॥१२॥
श्वदंष्ट्राश्मभिदेरण्डरसात्तैलात् सुरासवात्।
प्रसृताः पञ्च यष्ट्याह्वाकौन्तीमागधिकासिताः॥१३॥
केल्को2889 बस्तिस्तु सानाहे मूत्रकृच्छ्रे परो मतः।
एते सलवणाः कोष्णा निरूहः प्रसृता2890नव॥१४॥
मृदुबस्तिजडीभूते तीक्ष्णोऽन्यो बस्तिरिष्यते।
तीक्ष्णैर्विकर्षिते स्वादु प्रत्यास्थापनमिष्यते॥१५॥
वातोपसृष्टस्योष्णैः स्युर्गुददाहादैयो2891 यदि।
द्राक्षाम्बुना2892 त्रिवृत्कलकं दद्यादोषानुलोमनम्॥१६॥
तद्धि पित्तशकृद्वातान् हत्वा दाहादिकाञ्जयेत्
शुद्धश्चापि पिबेच्छीतां यवागूं शर्करायुताम्॥१७ ॥
अथवाऽतिविरिक्तः स्यात् क्षीणविकः स भक्षयेत्।
भाषयूषेण कुल्माषान् पिबेद्दध्यथवा2893सुराम्॥१८ ॥
सामं चेदतिसातर्येतपूति शूलैरैरोचकी2894।
सतदा2895 हपुषाकुष्ठनतदारुवचाः पिबेत्॥ १९ ॥
शकद्वातमसृक् पित्तं कफंवा योऽतिसार्यते।
पक्कस्तत्र2896 स्ववर्गीयैर्बस्तिः श्रेष्ठं भिषग्जितम्॥ २० ॥
षण्णामेषां द्विसंसर्गात्रंशद्भेदा भवन्ति ते।
केवलैः सह षट्त्रिंशद्विद्यात् सोपद्रवानपि॥२१॥
शूलप्रवाहिकाध्मानपरिकर्त्यरुचिज्वरान्।
तृष्णादाहमूर्च्छादींश्चैषां विद्यादुपद्रवान्॥२२॥
तत्रामेऽन्तेरपानं2897 स्याद् व्योषाम्ललवणैर्युतम्।
पाचनं शस्यते बस्तिरामे हि प्रतिषिध्यते॥
वातन्घ्नग्राहिवर्गीयैर्बस्तिः शकृति शस्यते।
स्वाद्वम्ललवणैः शस्तः स्नेहवस्तिः समीरणे॥२४॥
रक्ते रक्तेन पित्ते तु कषायस्वादुतिक्तकैः।
सर्यमाणे कफे बस्तिः कषायकटुतिक्तकैः॥२५॥
शकृता वायुना चामे तेन वर्चस्यथानिले।
संसृष्टेऽन्तरपानं स्याद्व्योषाम्ललवणैर्युतम्॥२६॥
पित्तेनामेऽसृजा वाऽपि तयोरामेन वा पुनः।
संसृष्टयोर्भवेत् पानं सव्योषकटुतिक्तकम्2898॥२७॥
तथाऽऽमे कफसंसृष्टे कषायव्योषतिक्तकम्।
आमेन तु कफे व्योषकषायलवणैर्युत्अम्॥२८॥
वातेन विषि पित्ते वा विपित्तात्रैस्तथाऽनिले2899।
मधुराम्ककषायः स्यात् संसृष्टे बस्तिरुत्तमः॥२९॥
शकृच्छोणितयोः पित्तशकृतो रक्तपित्तयोः।
बस्तिरन्योन्यसंसर्गे कषायस्वादुतिक्तकः॥३०॥
कफेन विषि पित्ते वा कफे वि पित्तशोणितैः।
व्योषतिक्तकषायः स्यात् संसृष्टे बस्तिरुत्तमः॥३१॥
स्याद्वस्तिर्व्याषव्यक्ताम्लः संसृष्टे वायुना कफे।
मधुरव्योषतिक्तस्तु रक्ते कफविमिश्रिते॥३२॥
मारुते कफसंसृष्टे व्योषाम्ललवणो भवेत्।
बस्तिर्वातेन रक्ते2900 तु कार्यः स्वाद्वम्लतिक्तकः॥३३॥
त्रिचतुः पञ्चसंसर्गाने2901वमेव विकल्पयेत्।
युक्तिश्चैषाऽतिसारोक्ता सर्वरोगेष्वपि स्मृता॥३४॥
युगपत् षड्र्संषण्णां संसर्गे पाचनं भवेत्।
निरामाणां च पञ्चानां बस्तिः षाड्र्सिको मतः॥३५॥
उदुम्बरशलाटूनि जम्ब्वाम्रोदुम्बरस्वचः।
शङ्खं सर्जरसं प्लाक्षीं2902ं कर्दमं च पलांशिकम्॥३६॥
पिष्ट्वातैः सर्पिषः प्रस्थं क्षीरद्विगुणितं पचेत्।
अतीसारेषु सर्वेषु पेयमेतद्यथाबलम्॥३७॥
कच्छुराधातकीबिल्वसमङ्गारक्तशालिभिः।
मसूराश्वत्थशुङ्गैश्च यवागूः स्याज्जले श्रृतैः॥३८॥
बालोदुम्बरकटुङ्गसमङ्गालक्षपल्लवैः2903।
मसूरघातकी पुष्पबलाभिश्च तथा भवेत्॥३९॥
स्थिरादीनां बलादीनामिक्ष्वादीनामथापि2904 वा।
काथेषु समसूराणां यवाग्वः स्युः पृथक् पृथक्॥४०॥
कच्छुरामूलशाल्यादितण्डुलैरुपैसाधिताः2905।
दधितक्रारनालाम्लक्षारेष्विक्षुरसेऽपि वा॥४१॥
शीताः सशर्कराक्षौद्राः सर्वांतीसारनाशनाः।
ससर्पिर्मरिचाजाज्यो मधुरा लवणाः शिवाः॥४२॥
भवन्ति चात्र।
स्निग्धाम्ललवणमधुरं पानं बस्तिश्च मारुते कोष्णः।
शीतं तिक्तकषायं मधुरं पित्ते च रक्ते च॥४३॥
तिंक्तोष्णकषायकटु श्लेष्मणि संग्राहि वातनुच्छकृति।
पाचनमामे पानं पिच्छासम्बस्तयो रक्ते॥४४॥
अतिसारं प्रत्युक्तं मिश्रं दन्द्वादियोगजेष्वपि2906 च।
तत्रोद्रेकविशेषाद्दोषेषूपक्रमः कार्यः॥४५॥
तत्र श्लोकौ।
प्रासृतिका सव्यापत्क्रिया निरूहास्तथाऽतिसारहिताः।
रकल्कघृतवाग्वश्वोक्ता गुरुणा प्रासृतसिद्धौ॥४६॥
ग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थाने
प्रासृतयोगिकासिद्धिर्नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
_________________
नवमोऽध्यायः।
अथातस्त्रिमर्मीयां सिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सप्तोत्तरं मर्मशतमस्मिन्छरीरे स्कन्धशाखाश्रितमनिवेश ! तेषामन्यतमपीडायां समधिका पीडा भवति, चेतनानिबन्धवैशेष्यात्।तत्र शाखाश्रितेभ्यो मर्मभ्यः स्कन्धाश्रितानि गरीयांसि, शाखानांतदाश्रितत्वात्; स्कन्धाश्रितेभ्योऽपिहृद्वस्तिशिरांसि, तन्मूलत्वा-च्छरीरस्य॥३॥
तत्र हृदि दश च धमन्यः प्राणोदानौ2907 मनो बुद्धिश्चेतना महाभूतानिच नाभ्यामरा इव प्रतिष्ठितानि; शिरसि इन्द्रियाणि इन्द्रियप्राणवहानि च स्त्रोतांसि सूर्यमिव गभस्तयः संश्रितानि; बस्तिस्तु स्थूलगुदमुष्कसेवनीशुक्रमूत्रैवाहिनीनां2908 नाली (डी) नां मध्ये मूत्राधारोऽम्बुवहानां सर्वत्रोतसामुदधिरिवापगानांप्रतिष्ठितः2909, बहुभिश्च तन्मूलैर्मर्मसंज्ञकैः स्रोतोभिर्गगनमिव दिनकरकरैर्व्याप्तमिदं शरीरम्॥४॥
तेषां त्रयाणामन्यतमस्यापि भेदादाश्वेव शरीरभेदः स्यात्,आश्रयनाशादाश्रितस्यापि विनाशः ; तदुपघातातु2910 घोरव्याधिप्रादुभवः ; तस्मादेतानि विशेषेण रक्ष्याणि बाह्याभिघाताद्वातादिदोषेभ्यश्चेति॥५॥
तत्र हृदयेऽभिहते कासश्वासबलक्षयकण्ठशोषक्लोमापकर्षणजिह्वानिर्गममुखतालुशोषापस्मारोन्मादप्रलापचित्तनाशादयः स्युः; शिरस्वभिहतेमन्यास्तम्भार्दितचक्षुर्विभ्रममोहवदष्टतचेष्टानाश्सश्वासहनुग्रहमूकगद्गदत्वाक्षिनिमीलनगण्डस्य(स्प)न्दनजृम्भणलालानावस्वरहानिवदनजिह्मत्वादीनि, बस्तौ तु वातमूत्रवचनिग्रहवलणमेहनबस्तिशूलकुण्डलोदावर्तगुल्मब्रनानिलाष्ठीलोपस्तम्भनाभिकुक्षिगुदश्रोणिग्रहादयः। वातायुपसृष्टानां त्वेषां लिङ्गानि चिकित्सिते सक्रियाविधीन्युक्तानि। किं त्वेतानि विशेषतोऽनिलाद्रक्ष्याणि, अनिलोहि पित्तकफसमुदीरणे हेतुः प्राणमूलं च स बस्तिकर्मसाध्यतमः।तस्मान्न बस्तिकर्मसमं किंचित् कर्म मर्मपरिपालनमस्ति॥६॥
तत्र षडास्थापनस्कन्धान विमाने द्वौ चानुवासनस्कन्धाविह चविहितान् बस्तीन् बुद्ध्या विचार्य महामर्मपरिपालनार्थ प्रयोजयेद्वा वातव्याधिचिकित्सां च॥७॥
भूयश्च हृद्युपसृष्टे वातेन हिङ्गुचूर्णलवणानामन्यतमचूर्णसंयुक्तां2911पेयां मातुलुङ्गस्य रसेनान्येन वाऽम्लेन हृद्येन वा पाययेत्।स्थिरादिपञ्चमूलीरसः सशर्करः पानार्थ, बिल्वादिपञ्चमूलरससिद्धाच यवागूः, हृद्रोगविहितं च कर्म। मूर्ध्नि तु वातोपसृष्टेऽभ्यङ्गस्वेदनोपनाहन स्नेहपाननस्तः कर्मावपीडन धूमादीनि। बस्तौ तु कुम्भीस्वेदो,वर्तयः, श्यामादिभिर्गोमूत्रसिद्धो निरूहः, बिल्वादिभिश्च सुरादिसिद्धः, शरकासेक्षुदर्भगोक्षुरकमूलश्तक्षीरैश्च त्रपुषैर्वारुखराश्वाबीजयवर्षभककल्पितो निरूहः, पीतदारुसिद्धतैलानुवासनं, तैल्वकंच सर्पिर्विरेकार्थ, शतावरीगोक्षुरकबृहतीकण्टकारिकागुडूची-पुनर्नवोशीरमधुकद्विसारिवालोध्रश्रेयसीकुशकाशमूलकषायक्षीरचतुर्गुणंबलावृषर्षभकखराश्वोपकुञ्चिकावत्सकत्रपुषैर्वारुवीजशितिवारकमधुकवचाशतपु-ष्पाशममेदवर्षाभूमदनफलकल्कसिद्धं तैलमुत्तरबस्तिः,निरूहः शुद्धस्निग्धस्विन्नस्य बस्तिशूलमूत्रविकारहर इति॥८॥
भवन्ति चात्र।
हृदि मूर्ध्नि च बस्तौ च नृणां प्राणाः प्रतिष्ठिताः।
तस्मात्तेषां सदा यत्नात् कुर्वीत परिपालनम्॥९॥
ओघातवर्जनं2912 नित्यं स्वस्थवृत्तानुवर्तनम्।
उत्पन्नार्तिविघातश्च मर्मणां परिपालनम्॥१०॥
अतऊर्ध्वं विकारा ये त्रिममये चिकित्सिते।
न प्रोक्ता मार्मस्तेषां कांश्चिद्वक्ष्यामि सौषधान्॥११॥
क्रुद्धः स्त्रैः कोपनैर्वायुः स्थानादूर्ध्वं प्रपद्यते।
पीडयन् हृदयं गत्वा शिरः शङ्खौ च पीडयन्॥१२॥
धनुर्वन्नमयेद्गात्राण्याक्षिपेन्मोहयेत्तथा।
कृच्छ्रेण चाप्युच्छ्वसिति स्तब्धाक्षोऽथ निमीलकः॥१॥
कपोत इव कूजेच्च निःसंज्ञः सोऽपतन्त्रकः।
दृष्टि संस्तभ्य संज्ञां च हत्वा कण्ठेन कूजति॥१४॥
हृदि मुक्ते नरः स्वास्थ्यं याति मोहं वृते पुनः।
वायुना दारुणं प्राहुरेके तमपतानकम् ॥ १५॥
श्वसनं कफवाताभ्यां रुद्धं तस्य विमोच(क्ष)येत्।तीक्ष्णैः प्रधमनैः संज्ञां तासु2913मुक्तासु विन्दति॥१६॥
मरिचं शिग्रुबीजानि विडङ्गं च फणिञ्झक्रम्।
एतानि सूक्ष्मचूर्णानि दद्याच्छीर्षविरेचनम्॥१७॥
हिङ्गु तुम्बुरु पथ्या2914च पौष्करं लवणत्रयम्।
यवक्कथाम्बुना पेयं हृत्पार्श्चार्त्यपतन्त्रके2915॥ १८॥
हिङ्ग्गम्लवेतसं शुण्ठीं ससौवर्चलदाडिमम् ।
पिबेद्वातकफघ्नंच कर्म हृद्रोगनुद्धितम् ॥ १९॥
शोधना बस्तयस्तीक्ष्णा न हितास्तस्य कृत्स्रशः2916।
सौवर्चलाभयाव्योषैःसिद्धं तस्मै घृतं हितम् ॥ २०॥
मधुरस्निग्धगुर्वन्न(म्ल)सेवनाच्चिन्तनाद्भयात्2917।
शोकायाध्यनुषङ्गाच्च वायुनोदीरितः कफः ॥ २१॥
यदाऽसौ समवस्कन्द्य हृदयं हृदयाश्रयान्।
समावृणोति ज्ञानादींस्तदा तन्द्रोपजायते॥२२॥
हृदये व्याकुलीभावो वाक्चेष्टेन्द्रियगौरवम्।
मनोबुद्ध्यप्रसादश्च तन्द्राया लक्षणं मतम्॥२३॥
कफघ्नं तत्र कर्तव्यं शोधनं शमनानि च।
व्यायामो रक्तमोक्षश्च भोज्यं च कटुतिक्तकम्॥२४॥
मूत्रौ (त्रै) कसादो जठरं कृच्छ्र्ं सोत्सङ्गसङ्क्षयौ।मूत्रातीतोऽनिलाष्ठीला वातबस्त्युष्णमारुतौ॥२५॥
वातकुण्डलिका ग्रन्थिर्विङ्घातो बस्तिकुण्डलम्।
त्रयोदशैते मूत्रस्य दोषास्ताल्ँलिङ्गतः शृणु॥२६॥
पित्तं कफो द्वावपि वा बस्तौ संहन्यते यदा।
मारुतेन तदा मूत्रं रक्तं पीतं धनं सृजेत्॥२७॥
सदाहं श्वेतसान्द्रं वा सर्वैर्वा लक्षणैर्युतम्।
मूत्रौकसादं तं विद्यात् पित्तश्लेष्महरैर्जयेत्॥२८॥
विधारणात् प्रतिहतं वातोदावर्तितं यदा।
पूरयव्युदरं मूत्रं तदा तदनिमित्तरुक्॥२९॥
अपक्तिमूत्रविसङ्गैस्तन्मूत्रजठरं वदेत्।
मूत्रवैरेचनीं तत्र चिकित्सां संप्रयोजयेत्॥३०॥
हिङ्गुद्विरुत्तरं चूर्णं त्रिमर्मीये प्रकीर्तितम्।
हेन्यान्मूत्रादिसंघातं2918 व्याधिं च गुदमेढ्र्योः॥३१॥
मूत्रितस्य व्यवायात्तु रेतो वातोद्धतं च्युतम्।
पूर्व मूत्रस्य पश्चाद्वा स्रवेत्तत्कृच्छ्रमुच्यते2919॥३२॥
खवैगुण्यानिलाक्षेपैः किञ्चिन्मूत्रं हि तिष्ठति।
मणिसन्धौ स्रवेत् पश्चात्तदरुग्वाऽथ चातिरुक्॥३३॥
मूत्रोत्सङ्गः स विच्छिन्न मुच्छेषगुरुशेफसैः2920।
वाताकृतिर्भवेद्वातान्मूत्रे शुष्यति संक्षयः॥३४॥
चिरं धारयतो मूत्रं त्वरया न प्रवर्तते।
मेहमानस्य मन्दं वा मूत्रातीतः स उच्यते॥३५॥
आध्मापयन् बस्तिगुदं रुद्ध्वावायुश्चलोन्नताम्।
कुर्यात्तीव्रार्तिमष्ठीलां मूत्रविण्मार्गरोधिनीम्॥३६॥
मूत्रमाधारयेद्वस्तौ वायुः क्रुद्धो विधारणात्।
मूत्ररोधार्तिकण्डूभिर्वातबस्तिः स उच्यते॥३७॥
ऊष्मणा सोष्मकं मूत्रं शोषयन् रक्तपीतकम्।
उष्णवातः सृजेत् कृच्छ्राद्वस्त्युपस्थार्तिदाहवान्॥३८॥
गतिसङ्गादुदावृत्तः स मूत्रस्थानमार्गयोः।
मूत्रस्य विगुणो वायुर्भव्याविद्धकुण्डली॥३९॥
मूत्रं विहन्ति संस्तम्भभङ्गगौरववेष्टनैः।
तीव्ररुड्यूत्रविट्सङ्गैर्वातकुण्डलिकेति सा॥४०॥
रक्तं वातकफाद्दुष्टं बस्तिद्वारे सुदारुणम्।
ग्रन्थि कुर्यात् स कृच्छ्रेण सृजेन्मूत्रं तदावृतम्॥४१॥
अश्मरीसमशूलं तं मूत्रग्रन्थि प्रचक्षते।
रूक्षदुर्बलयोर्वातेनोदावृत्तं शकृद्यदा॥४२॥
मूत्रस्रोतः प्रपद्येत विदसंसृष्टं तदा नरः।
विङ्गन्धं मूत्रयेत् कृच्छ्राद्विङ्विघातं विनिर्दिशेत्॥४३॥
द्रुताध्वलङ्घनायासादभिघातात् प्रपीडनात्।
स्वस्थानाद्बस्तिरुद्वृत्तः स्थूलस्तिष्ठति गर्भवत्॥४४॥
शूलस्पन्दनदाहार्तो बिन्दुं बिन्दुं स्रवत्यपि।
पीडितस्तु सवेद्वारां2921 स्तम्भनोद्वेष्टनार्तिमान्॥४५॥
बस्तिकुण्डलमाहुस्तं घोरं शस्त्रविषोपमम्।
पवनप्रबलं प्रायो दुर्निवारमबुद्धिभिः॥४६॥
तस्मिन् पित्तान्विते दाहः शूलं मूत्रविवर्णता।
श्लेष्मणा गौरवं2922 शोफः स्त्रिग्धं मूत्रं घनं सितम्॥४७॥
लेष्मरुद्धबिलो बस्तिः पित्तोदीर्णो न सिध्यति।
अविभ्रान्तबिलः साध्यो न तु यः कुण्डलीकृतः॥४८॥
स्याद्वस्तौ कुण्डलीभूते तृण्मोहः2923 श्वास एव च।
दोषाधिक्यमवेक्ष्यैतान्मूत्रकृच्छ्रहरैर्जयेत्
बस्तिमुत्तरबस्तिंच सर्वेषामेव योजयेत्।
पुष्पनेत्रं तु हैमं स्यात् सूक्ष्ममौत्तरबस्तिकम्॥५०॥
जातीपुष्पस्य2924 वृन्तेन समं गोपुच्छसंस्थितम्।
रौप्यं वा सर्षपच्छिद्रं द्विकर्णं द्वादशाङ्गुलम्॥५१॥
तेनाजबस्तियुक्तेन स्नेहस्यार्धपलं नयेत्।
यथावयो विशेषेण स्नेहमात्रां विकल्प्य वा॥५२॥
स्वातस्य भुक्तभक्तस्य रसेन पयसाऽपि वा।
सृष्टविण्मूत्रवेगस्य2925 पीठे जानुसमे मृदौ॥५३॥
ऋजोः सुखोपविष्टस्य हृष्टे मेढ्रेघृतान्विते।
शलाकयाऽन्विष्य गतिं यद्यप्रतिहता व्रजेत्॥५४॥
ततः शेफःप्रमाणेन पुष्पनेत्रं प्रवेशयेत्।
गुदवन्मूत्रमार्गेण प्रणयेदनुसेवनीम्॥५५॥
हिंस्यादतिगतं2926 बस्तिमूने स्नेहो न गच्छति।
सुखं प्रपीड्य निष्कम्पं निष्कर्षेन्नेत्रमेव च॥५६॥
प्रत्यागते द्वितीयं तु तृतीयं च प्रदापयेत्।
अनागच्छन्नुपेक्ष्यस्तु रजनीव्युषितस्य च॥५७॥
पिप्पलीलवणागारधूमापामार्गसर्षपैः।
वार्ताकुरसनिर्गुण्डीशम्पाकैः ससहाचरैः॥५८॥
मूत्राम्लपिष्टैः सगुड़ैर्वार्तिंकृत्वा प्रवेशयेत्।
अग्रे तु सर्षपाकारां पश्चाद्वौ भाषसंमिताम्॥५९॥
नेत्रदीर्घां घृताभ्यक्तां सुकुमारामभङ्कुराम्।
नेत्रवम्मूत्रनाड्यां तु पायौ चाङ्गुष्ठसंमिताम्॥६०॥
स्नेहे प्रत्यागते ताभ्यामानुवासनिको विधिः।
परिहारश्च सव्यापत् ससम्यक्दत्तलक्षणः॥६१॥
स्त्रीणांचार्तवकाले तु प्रतिकर्म तदाचरेत्।
गर्भासना सुखं स्नेहंतदाऽऽदत्ते ह्यपावृता६२॥
गर्भं योनिस्तदा शीध्रं जिते गृह्णाति मारुते2927।
बस्तिजेषु विकारेषु योनिविभ्रंशजेषुच॥६३॥
योनिश्यूलेषु तीव्रेषुयोनिषव्यापत्स्वसृग्दरे।
अप्रस्रवति मूत्रे च बिन्दुं बिन्दुं स्रवत्यपि॥६४॥
विदध्यादुत्तरं बस्तिं यथास्वौषधसंस्कृतम्2928।
पुष्पनेन्रप्रमाणं तु प्रमदानां दशाङ्गुलम्॥६५॥
मृत्रस्नोतःपरीणाहं मूत्रस्नोतोऽनुवाहि च।
गर्भमार्गेतु नारीणां विधेयं चतुरङ्कलम्॥६६॥
व्द्यङ्गुलं मूत्रमार्गेतु बालायास्त्वेकमङ्गुम्।
उत्तानायाः शयानायाः सम्यक् सङ्कोच्य सक्थिनी॥६७॥
अथास्याः प्रणयेन्नेत्रेमनुवंशगतंसुखम्।
द्विस्त्रिश्चतुरिति स्नेहानहोरात्रेणयोजयेत्॥६८॥
बस्तौ, बस्तौ प्रणीते च वर्तिःपीनतरा2929 भवेत्।
त्रिरात्रंकर्म कुर्वीत स्नेहमात्रांविवर्धयेत्॥६९॥
अनेनैव विधानेन कर्म कुयात् पुनरुयहात्।
अतः शिरोविकाराणां कश्चिभ्देदः प्रवक्ष्यते॥७०॥
रक्तपित्तानिलादुष्टाः शङ्गदेशेविमूर्च्छिताः।
तीव्ररुदाहरागं हि शोफंकुर्वन्दिदारुणम्॥७१॥
स शिरो विषवद्वेगी निरुध्याशुगलतथा।
त्रिरात्राज्जीवितं2930 हन्ति शङ्खको नाम नामतः॥७२॥
जीवेत्र्यहं चेद्भैषज्यं2931 प्रत्याख्याय समाचरेत्।
शिरोविरेकसेकादि सर्वंवीसर्पमुच्च यत्॥७३॥
रूक्षात्यध्यशनात् पूर्ववातावश्यायमैथुनैः।
वेगसन्धारणायासव्यायामैः कुपितोऽनिलः2932॥७४॥
केवलः सकफो वाऽपि2933 गृहीत्वाऽर्धं शिरो बली।
मन्याभ्रूशङ्खकर्णाक्षिललाटार्धे च वेदनाम्॥७५॥
शस्त्रारणिनिभां कुर्यात्तीव्रांसोऽर्धावभेदकः।
नयनं वाऽथवा श्रोत्रमतिवृद्धो विनाशयेत्॥७६॥
चतुःस्नेहोत्तमा मात्रा शिरः कायविरेचनम्।
नालीस्वेदो घृतं जीर्णं बस्तिकर्मानुवासनम्॥७७॥
उपनाहः शिरोबस्तिर्दहनं चात्र शस्यते।
प्रतिश्याये शिरोरोगे यच्चोद्दिष्टं चिकित्सितम्॥७८॥
संधारणादजीर्णाद्यैर्मस्तिष्कं रक्तमारुतौ।
दुष्टौ दूषयतस्तच्च दुष्टं ताभ्यां विमूच्छितम्॥७९॥
सूर्योदयेंऽशुसंतापाद्द्रवं2934विष्यन्दते शनैः।
ततो दिने शिरःशूलं दिनवृद्ध्या विवर्धते॥८०॥
दिनक्षये ततः स्त्याने मस्तिष्के संप्रशाम्यति।
सूर्यावर्तः स तत्र स्यात् सर्पिरौत्तरभक्तिकम्॥८१॥
शिरःकायविरेकौ च मूर्ध्ना च ( त्रि) स्नेहधारणम्।
जाङ्गलैरुपनाहश्च घृतक्षीरैश्च सेचनम्॥८२॥
बर्हितित्तिरिलावादिशृतक्षीरोत्थितं घृतम्।
स्यान्नावनं जीवनीयक्षीराष्टगुणसाधितम्॥८३॥
उपवासातिशोकातिरूक्षशीताल्पभोजनैः।
दुष्टा दोषास्त्रयो मन्यां पश्चाद्धाटासु वेदनाम्॥८४॥
तीव्रांकुर्वन्ति नासाक्षिभ्रूशङ्खेष्ववतिष्ठते2935।
स्पन्दनं गण्डपार्श्वस्य नेत्ररोगं हनुग्रहम्॥८५ ॥
सोऽनन्तवातस्तं हन्यात् सिराऽर्कावर्तनाशनैः।
वातो रूक्षादिभिः क्रुद्धः शिरःकम्पमुदीरयेत्॥८६॥
तत्रामृताबलारास्नामहाश्वेताश्वगन्धकैः।
स्नेहस्वेदादि वातघ्नं शस्तं नस्यं च तर्पणम्॥८७॥
नस्तःकर्म च कुर्वीत शिरोरोगेषु शास्त्रवित् ।
द्वारं हि शिरसो नासा तेन तव्द्याप्य हन्ति तानू॥८८॥
नावनं चावपीडश्च ध्मापनं धूम एव च ।
प्रतिमर्शश्च विज्ञेयो नस्तःकर्म तु पञ्चधा॥८९॥
स्नेहनं शोधनं चैव द्विविधं नावनं स्मृतम्।
शोधनः स्तम्भनश्च स्यादवपीडो द्विधा मतः॥ १०॥
चूर्णस्याध्मापनं तद्धि देहस्रोतोविशोधनम्2936 ।
विज्ञेयस्त्रिविधो धूमः प्रागुक्तः शमनादिकः॥९१॥
प्रतिमर्शे भवेत् स्नेहो निर्दोष उभयार्थकृत्।
एवं तद्द्वेचनं कर्म तर्पणं शमनं त्रिधा॥१२॥
स्तम्भसुप्तिगुरुत्वाद्याः श्लैष्मिका ये शिरोगदाः।
शिरसो रेचनं तेषु नस्तःकर्म प्रशस्यते॥९३॥
ये च वातात्मका रोगाः शिरः कम्पार्दितादयः।
शिरसस्तर्पणं तेषु नस्तःकर्म प्रशस्यते॥१४॥
रक्त्तपित्तादिरोगेषु शमनं नस्यमिष्यते।
ध्मापनं धूमपानं च तथा योग्येषु शस्यते2937॥९५॥
( दोषादिकं2938 समीक्ष्यैव भिषक् सम्यक् च कारयेत् )
फलादि भेषजं प्रोक्तं शिरसो यद्विरेचनम्॥९६॥
तच्चूर्णंकल्पयेत्तेन पचेत् स्नेहं विरेचनम्।
यदुक्तं मधुरस्कन्धे भेषजं तेन तर्पणम्॥९७॥
साधयित्वा भिषक् स्नेहं नस्तः कुर्याद्विधानवित्।
प्राक्सूर्ये मध्यसूर्ये वा प्राक्कृतावश्यकंस्य च॥९८॥
उत्तानस्य शयानस्य शयने स्वास्तृते सुखम्।
प्रलंम्बशिरसः किंचित् किंचित्पादोन्नतस्य च॥१९॥
दद्यान्नासापुटे स्नेहं तर्पणं बुद्धिमान् भिषक्।
अनवाक्शिरसो नस्यं न शिरः प्रतिपद्यते॥१००॥
अत्यवाशिरसो नस्यं मस्तुलुङ्गेऽवतिष्ठति।
अत एव शयानस्य शुद्ध्यर्थं स्वेदयेच्छिरः॥१०१॥
संवेद्य नासामुन्नाम्य वामेनाङ्गुष्ठपर्वणा।
हस्तेन दक्षिणेनाथ दद्यादुभयतः समम्॥१०२॥
प्रणाल्या पिचुना वाऽपि नस्तः स्नेहं यथाविधि।
कृते च स्वेदयेद्भूय आकर्षेच्च पुनः पुनः॥१०३॥
तं स्नेहं श्लेष्मणा सार्ध2939ं तथा स्नेहो न तिष्ठति।
स्वेदेनोत्क्लेशितः श्लेष्मा नस्तःकर्मण्युपस्थितः॥१०४॥
भूयः स्नेहस्य शैत्येन शिरसि स्त्यायेते2940 ततः।
श्रोत्रमन्यागलाद्येषु विकाराय स कल्पते॥१०५॥
ततो नस्तःकृते धूमं पिबेत् कफविनाशनम्2941।
हितान्नभुङ्गिवातोष्णसेवी स्यान्नियतेन्द्रियः॥१०६॥
विधिरेषोऽवपीडस्य कार्यः प्रधमापनस्य तु।
तत् पडङ्गुलया2942 नात्याघमेच्चूर्णंमुखेन तु॥१०७॥
विरिक्तशिरसं तूर्णं पाययित्वाऽम्बु भोजयेत्।
लघु त्रिष्वविरुद्धं च निवातस्थमतन्द्रितः॥१०८॥
विरेकशुद्धो दोषस्य कोपनं यस्य सेवते।
स दोषो विचरंस्तत्र करोति स्वान् गदान्बहून्॥१०९॥
यथास्वं विहितां तेषु क्रियां कुर्याद्विचक्षणः।
अकालकृतजातानां रोगाणामनुरूपतः॥११०॥
अजीर्णे भुक्तभक्ते च तोयपीतेऽथ दुर्दिने।
प्रतिश्याये नवे स्नाने2943 स्नेहपानेऽनुवासने॥१११॥
नावनं स्नेहनं रोगान् करोति श्लैष्मिकान् बहून्।
तत्र श्लेष्महरः सर्वस्तीक्ष्णोष्णादिविधिर्हितः॥११२॥
क्षामे विरेचिते गर्भे व्यायामाभिहते तृषि॥
वातो रूक्षेण नस्येन क्रुद्धः स्वाञ्जनयेद्गदान्॥११३॥
तत्र वातहरः सर्वो विधिः स्नेहनबृंहणः।
स्वेदादिः स्याद्धृतं क्षीरं गर्भिण्यास्तु विशेषतः॥११४॥
ज्वरशोकाभितप्तानां तिमिरं मद्यपस्य च॥
रूक्षैः शीताञ्जनैर्लेपैः पुटपाकैश्च साधयेत्॥११५॥
स्नेहनं शोधनं चैव द्विविधं नस्यमुच्यते2944॥
प्रतिमर्शस्तु नस्यार्थं करोति न च दोषवान्॥११६॥
नस्तः स्नेहाङ्गुलिं दद्यात् प्रातर्निशि च सर्वदा॥
नचोत्सिङ्घेदरोगाणां प्रतिमर्शः स दार्ढ्यकृत्॥११७॥
तत्र श्लोकौ।
त्रीणि यस्मात् प्रधानानि मर्माण्यभिहतेषु च॥
तेषु लिङ्गं चिकित्सां च रोगभेदाश्च सौषधाः॥११८॥
विधिरुत्तरबस्तेश्च नस्तः कर्मविधिस्तथा॥
सव्यापद्भेषजं सिद्धौ मर्माख्यायां प्रकीर्तितम्॥११९॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थानेत्रिमर्मीयसिद्धिर्नाम नवमोऽध्यायः॥९॥
______________
दशमोऽध्यायः॥
अथातो बस्तिसिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
सिद्धानां बस्तीनां शस्तानां तेषु तेषु रोगेषु॥
शृण्वग्निवेश गदतः सिद्धिं सिद्धिप्रदां भिषजाम्॥३॥
बलदोषकालरोगप्रकृतीः प्रविभज्य योजितः सम्यक्॥
स्वैः स्वैरौषधवर्गैः स्वान्2945स्वान् रोगान्निवर्तयति॥४॥
कर्मान्यद्वस्तिसमं न विद्यते शीघ्रसुखविशोधित्वात्॥
आश्वपतर्पणतर्पणयोगाञ्च निरत्ययत्वाञ्च ॥५॥
सत्यपि दोषहरत्वे कटुतीक्ष्णोष्णादिभेषजादानात्।
दुःखोद्गारोत्क्लेशाहृद्यत्वक्कोष्ठरुजा2946 विरेके स्युः ॥६॥
अविरेच्यौ शिशुवृद्धौ तावण्यप्राप्तहीनधातुबलौ।
आस्थापनमेव तयोः सर्वार्थमृदुत्तमं कर्म ॥७॥
बलवर्णहर्षमार्दवगात्रस्नेहान्नृणां ददात्याशु।
अनुवासनं निरूहश्नोत्तरबस्तिश्च स त्रिविधः॥८॥
शाखावातार्तानां सङ्कुचितस्तब्धभग्नसन्धीनाम्।
विट्सङ्गाध्मानारुचिपरिकर्तिरुगादिषु च शस्तः॥९॥
उष्णार्तानां शीताञ्छितार्तानां तथा सुखोषणांश्च।
तद्योगौषधयुक्तान् बस्तीन्संतर्क्यविनियुञ्जयात् ॥१०॥
बस्तीन्नबृंहणीयान् दद्याद्व्याधिषु विशोधनीयेषु।
मेदस्विनोविशोध्या ये च नराः कुष्ठमेहार्ताः॥ ११॥
न क्षीणक्षतदुर्बलमूच्छितकृशशुकस्तब्धदेहानाम्।
दद्याद्विशोधनीयान् दोषनिबद्धायुषो ये च॥१२॥
वाजीकरणेऽसृपित्तयोर्मधुघृतपयः संयुताः सर्वे।
शस्ताः सतैलमूत्रारनाललवणाः2947कफावृते वाते॥१३॥
युञ्जयाद्रव्याणि बस्तिष्वम्लं मूत्रं पयः सुरां काथान्।
अविरोधाद्धातूनां रसयोनित्वाञ्च जलमुष्णम्॥१४॥
सुरदारुशताह्वैलाकुष्ठमधुकपिप्पलीमधुस्नेहाः।
ऊर्ध्वानुलोमभागाः ससर्षपाः शर्करा लवणम्॥१५॥
आवापो2948 बस्तीनामतः प्रयोज्यानि येषु यानि स्युः।
युक्तानि सह कषायैस्तदुत्तरतः प्रवक्ष्यामि॥१६॥
चिरजातकठिनबलिषु व्याधिषु तीक्ष्णा विपर्यये मृदवः।
सप्रतिवापकषाया योज्यास्त्वनुवासननिरूहाः॥ १७॥
अर्धश्लोकैरतः सिद्धान्नानाव्याधिषु वर्गशः2949।
बस्तीन् वीर्यसमैर्भागैर्यथार्हालोडनान्छृणु2950॥१८॥
बिल्वोऽभिमन्थः स्योनाकः काश्मर्यः पाटलिस्तथा।
शालिपर्णी पृश्नपर्णी बृहत्यौ वर्धमानकः॥१९॥
यवाः कुलस्थाः कोलानि स्थिरा चेति त्रयोऽनिले।
शस्यन्ते सचतुःस्नेहाः पिशितस्य रसान्विताः॥२०॥
नलवञ्जुलवानीरशतपत्राणि शैवलम्।
मञ्जिष्ठा सारिवाऽनन्ता पयस्या मधुयष्टिका॥२१॥
चन्दनं पद्मकोशीरं तुङ्गं च पैत्तिके त्रयः।
सशर्कराघृतक्षौद्राः सक्षीरा बस्तयो हिताः॥२२॥
अर्कस्तथैव चालर्कएकाष्ठीला पुनर्नवा।
हरिद्रा त्रिफला मुस्तं पीतदारु कुटन्नटम्॥२३॥
पिप्पल्यश्चित्रकश्चेति त्रयस्ते श्लेष्मरोगिणाम्।
सक्षारक्षौद्रगोमूत्रा नातिस्त्रेहान्विता हिताः॥२४॥
फलजीमूतकेक्ष्वाकुधामार्गवकवत्सकाः।
श्यामा च त्रिफला2951 चैव स्थिरा दन्ती द्रवन्त्यपि॥२५॥
प्रकीर्या चोदकीर्या च नीलिनी क्षीरिणी तथा।
सप्तला शङ्खिनी लोध्रं फलं कम्पिल्लकस्य च॥२६॥
चत्वारो मूत्रसिद्धास्ते पक्काशयविशोधनाः।
व्यस्तैरपि समस्तैश्च चतुर्योगा उदाहृताः॥२७॥
काकोली क्षीरकाकोली मुद्रपर्णी शतावरी।
विदारी मधुयष्ट्याह्वा शृङ्गाटककशेरुके॥२८॥
आत्मगुप्ताफलं माषाः सगोधूमा यवास्तथा।
जाङ्गलानूपजं मांसमित्येते शुक्रमांसदाः॥२९॥
जीवन्ती चाग्निमन्थश्च धातकीपुष्पवरसकौ।
प्रग्रहः खदिरः कुष्ठं शमी पिण्डीतको यवाः॥३०॥
प्रियङ्गूरक्तमूली च तरुणी स्वर्णयूथिका।
वटाद्याः किंशुको लोध्र इति सांग्राहिका मताः॥३१॥
परिस्नावे शृतंक्षीरं सवृश्चीरपुनर्नवम्।
आखुपर्णिकया वाऽपि तण्डुलीयकयुक्त्तया॥३२॥
कालङ्कतककाण्डेक्षुदर्भपोटेक्षुवालिभिः2952।
दाहघ्नः सघृतक्षीरो द्वितीयश्चोत्पलादिभिः॥३३॥
कर्बुदाराढकीनीविदुलैःक्षीरसाधितैः।
बस्तिः प्रदेयो भिषजा शीतः समधुशर्करः॥३४॥
परिकर्ते तथा वृन्तैः श्रीपर्णीकोविदारजैः।
मुष्टिः2953 शाल्मलिवृन्तानां क्षीरसिद्धो घृतान्वितः॥३५॥
हितः प्र॒वाहणे तद्वद्वृन्तैः2954 शाल्मलिकस्य च।
अश्वावरोहिकाकाकनासाराजकशेरुकैः ॥३६॥
सिद्धाः क्षीरेऽतियोगे स्युः क्षौद्राञ्जनघृतैर्युताः।
न्यग्रोधाद्यैश्चतुर्भिश्च तेनैव विधिनाऽपरः ॥३७॥
बस्तिःप्रवाहणे देयो भिषजा कल्पितो घिया।
बृहती क्षीरकाकोली पृश्चिपर्णी शतावरी ॥३८॥
काश्मर्यंबदरी दुर्वा तथोशीरप्रियङ्गवः।
जीवादाने शुतौ क्षीरे द्वौ घृताञ्जनसंयुतौ॥३९॥
बस्ती प्रदेयौ भिषजा शीतौ समधुशर्करौ।
गोऽव्यजामहिषीक्षीरैर्जीवनीययुतैस्तथा॥४०॥
तेनैव विधिना बस्तिर्देयः सक्षौद्रशर्करः।
शशैणदक्षमार्जारमहिषाव्यजशोणितैः॥४१॥
सद्यस्कैमृदितै2955बस्तिर्जीवादाने प्रशस्यते।
मधूकमधुकद्राक्षादूर्वाकाश्मर्यचन्दनैः॥४२॥
शर्कराचन्दनद्राक्षामधुधात्रीफलोत्पलैः
रक्तापित्ते, प्रमेहे तु कषायः सोमवल्कजः॥४३॥
** तत्र श्लोकाः।**
त्रिकास्त्रयोऽनिलादीनां चतुष्काश्चापरे त्रयः।
पक्काशयविशुद्ध्यर्थं वृष्याः सांग्राहिकास्तथा॥४४॥
परित्रावे तथा दाहे परिकर्ते प्रवाहणे।
अतियोगे मताः पञ्च जीवादाने तथा त्रयः॥४५॥
रक्त्तपित्ते द्वयं मेह एकस्त्रिंशच्च पञ्च च।
सुलभा नौषधक्केशा बस्तयो गुणवत्तमाः॥४६॥
गुल्मातिसारोदावर्तस्तम्भसङ्कुचितादिषु।
सर्वाङ्गैकाङ्गरोगेषु रोगेष्वेवंविधेषु च॥४७॥
यथास्वमौषधैः सिद्धान् बस्तीन् दद्याद्विचक्षणः।
पूर्वोक्तेन विधानेन कुर्याद्योगान् पृथग्विधान्॥४८॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरिते सिद्धिस्थाने
बस्तिसिद्धिर्नाम दशमोऽध्यायः॥ १०॥
————
एकादशोऽध्यायः।
अथातः फलमात्रासिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः॥२॥
भगवन्तमुदारसत्त्वधीश्रुतविज्ञानसमृद्धमत्रिजम्।
फलबस्तिवरत्वनिश्चये सविवादा मुनयोऽभ्युपागमन्॥३॥
भृगुकौशिककाप्यशौनकाः सपुलस्त्यासितगौतमादयः।
कतमत् प्रवरं फलादिषु स्मृतमास्थापनयोजनास्विति॥४॥
कफपित्तहरं वरं फलेष्वथ जीमूतकमाह शौनकः।
मृदुवीर्यतया (ऽ) भिनत्ति तच्छकृदित्याह नृपोऽथ वामकः॥५॥
कटुतुम्बीफलमुत्तमं2956 मतं वमने दोषसमीरणं च तत्।
तंदवृष्यमशैत्यतीक्ष्णताकटुरौक्ष्यादिति गौतमोऽब्रवीत्॥६॥
कफपित्तनिबर्हणं परं स च धामार्गवमित्यमन्यत2957।
तदमन्यत वातलं पुनर्बडिशो ग्लानिकरं बलापहम्॥७॥
कुटजं प्रशशंस चोत्तमं न बलघ्नं कफपित्तहारि च।
अतिविज्जलमूर्ध्वभागिकं पवनक्षोभि च काप्य आह तत्॥८॥
कृतवेधनमाह वातलं कफपित्तं प्रबलं हरेदिति।
तदसाध्विति भद्रशौनकः कटुकं चापि बलघ्नमित्यपि॥९॥
इति तद्वचनानि हेतुभिः सुविचित्राणि निशम्य बुद्धिमान्।
प्रशशंस फलेषु निश्चयं परमं चात्रिसुतोऽब्रवीदिदम्॥१०॥
फलदोषगुणान् सरस्वती प्रति सर्वैरपि सम्यगीरिता।
न तु किंचिददोषनिर्गुणं गुणभूयस्त्वमतो विचिन्त्यते॥११॥
इह कुष्ठहिता गरागरी हितमिक्ष्वाकु तु मेहिने मतम्।
कुटजस्य फलं हृदामये प्रवरं कोठफलं च पाण्डुषु॥१२॥
उदरे कृतवेधनं हितं मदनं सर्वगदाविरोधि तु।
मधुरं सकषायतिक्तकं तदरूक्षं सकटूष्णविज्जलम्॥१३॥
कफपित्तहृदाशुकारि चाप्यनपायं पवनानुलोमि च।
फलनामविशेषतस्त्वतो लभतेऽन्येषु फलेषु सत्स्वपि॥१४॥
गुरुणेति वचस्युदाहृते मुनिसङ्केन च पूजिते ततः।
प्रणिपत्य मुदा समन्वितः सहितः शिष्यगणोऽनुपृष्टवान्॥१५॥
सर्वकर्मगुणकद्गुरुणोक्तो बस्तिरूर्ध्वमथ नैति नाभितः।
नाभ्यधो गुदम(ग)तश्च शरीरात् सर्वतः कथमपोहति दोषान्2958॥१६॥
तद्गुरुरब्रवीदिदं शरीरं तन्त्रयतेऽनिलः सङ्गविघातात्2959।
केवल एव दोषसहितो वा स्वाशयगः प्रकोपमुपयाति॥ १७॥
तं पवनं सपित्तकफविट्कंशुद्धिकरोऽनुलोमयति बस्तिः।
सर्वशरीरगश्च गदसंघस्तत्प्रशमात्प्रशान्तिमुपयाति॥ १८॥
अथाधिगम्यार्थमखण्डितं2960 धिया गजोष्ट्रगोऽश्वाव्यजबस्तिकर्म2961।
अपृच्छदेनं स च बस्तिमब्रवीद्विधिं च तस्याह पुनः प्रचोदितः॥ १९॥
अजोरणौ सौम्य गजष्ट्रयोः कृते गवाश्वयोर्बस्तिमुशन्ति माहिषम्।
अजाविकानां तु जरद्भवोद्भवं वदन्ति बस्ति तदुपायचिन्तकाः॥२०॥
अरन्तिमष्टादशषोडशाङ्गुलं तथैव नेत्रं हि दशाङ्गुलं क्रमात्।
गजोष्ट्रगोश्वाव्यजबस्तिसंधौ चतुर्थभागे2962 कृतकर्णिकं वदेत्॥२१॥
प्रस्थस्त्वजाव्योर्हि2963 निरूहमात्रा गवादिषु द्वित्रिगुणो(णं)यथाबलम्।
निरूह उ ( मु) ष्ट्रस्य तथाऽऽढकद्वयं गजस्य वृद्धिस्त्वनुवासनेऽष्टमः॥२२॥
कलिङ्गकुष्ठे मधुकं च पिप्पली वचा शताह्वामदनं रसाञ्जनम्।
हितानि सर्वेषु गुडः ससैन्धवो द्विपञ्चमूलं च विकल्पना त्वियम्॥२३॥
गजेऽधिकोऽश्वत्थवटाश्वकर्णजः सखादिरः प्रग्रहशालतालजः।
तथा च पर्ण्यौधवशिग्रुपाटलामधूकसाराः सनिकुम्भचित्रकाः॥२४॥
पलाशभूतीकसुराह्वरोहिणीकषाय उक्तस्त्वधिको गवां हितः।
पलाशदन्तीसुरदारुकत्तृणद्रवन्त्य उक्तास्तुरगस्य चाधिकाः॥२५॥
खरोष्ट्र्योः पीलुकरीरखादिराः शम्पाकबिल्वादिगणस्य च च्छदाः।
अजाविकानां त्रिफलापरूषकं कपित्थकर्कन्धु सबिल्वकोलजम्॥२६॥
अथाग्निवेशः सततातुरान्नरान् हितं च पप्रच्छ गुरुस्तदाह च।
सदातुराः श्रोत्रियराजसेवकास्तथैव वेश्यासह पण्यजीविभिः॥२७॥
द्विजो हि वेदाध्ययनव्रताह्निकक्रियादिभिर्देहहितं न चेष्ट॒ते2964।
नृपोपसेवी नृपचित्तरक्षणात्परानुरोधाद्बहुचिन्तनाद्भयात्2965॥२८॥
नृचित्तवर्तिन्युपचारतत्परा मृजाविभूषानिरता पणाङ्गना।
सदासनादत्यनुबन्धविक्रयक्रयातिलोभादपि पण्यजीविनः॥२९॥
सदैव ते ह्यागतवेगनिग्रहं समाचरन्ते2966 न च कालभोजनम्।
अकालनिर्हारविहारसेविनो भवन्ति येऽन्येऽपि सदातुराश्च ते॥३०॥
समीरणं वेगविधारणोद्धतं विबद्ध (न्ध ) सर्वाङ्गरुजाकरं भिषक्।
समीक्ष्य तेषां फलवर्तिमादितः सुकल्पितां स्नेहवतीं प्रयोजयेत् ३१
पुनर्नवैरण्डनिकुम्भचित्रकान् सदेवदारुत्रिवृतानिदिग्धिकान्।
महान्ति मूलानि च यानि पञ्च विपाच्य मूत्रे दधिमस्तुसंयुते॥३२॥
सतैलसर्पिलवणैश्च पञ्चभिर्विमूच्छितं बस्तिमथ प्रयोजयेत्।
निरूहितं धन्वरसेन भोजितं निकुम्भतैलेन ततोऽनुवासयेत्॥३३॥
बलाश्वगन्धाफलबिल्वचित्रकान्द्विपञ्चभूले कृतमालकोस्पले2967।
यवान्कुलस्थांश्च पचेजलाढके रसः सपेष्यैस्तु कलिङ्गकादिभिः॥ ३४॥
सतैलसर्पिर्गुडसैन्धवो2968 हितः सदातुराणां बलवर्णवर्धनः।
तथैव शस्तं मधुकेन साधितं फलेन बिल्वेन शताह्वयाऽथ वा॥३५॥
सजीवनीयस्तु रसोऽनुवासने निरूहणे चालवणः शिशोर्हितः।
नचान्यदाश्वङ्गबलाभिवर्धनं निरूहबस्तेः शिशुवृद्धयोः परम् ॥३६॥
** तत्र श्लोकः।**
फलकर्म बस्तिवरता नेत्रं यद्धस्तयो गवादीनाम्।
सततातुराश्च दिष्टाः फलमात्रायां हितं चैषाम् ॥ ३७॥
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढबलसंपूरते सिद्धिस्थाने
फलमात्रासिद्धिर्नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
** _________ **
** द्वादशोऽध्यायः।**
अथात उत्तरबस्तिसिद्धिं व्याख्यास्यामः॥१॥
इति ह स्माह भगवानात्रेयः ॥ २ ॥
अथ खल्चातुरं वैद्यः संशुद्धं वमनादिभिः।
दुर्बलं कृशमलपानि मुक्तसंधानबन्धनम्॥३॥
निर्हतानिलविण्मूत्रकफपित्तं कृशाशयम्।
शून्यदेहं प्रतीकारासहिष्णुं परिपालयेत्॥४॥
यथाण्डं तरुणं पूर्ण तैलपात्रं यथैव च।
गोपाल इव दण्डी गाः सर्वस्मादपचारतः॥५॥
अग्निसंधुक्षणार्धं तु पूर्वं पेयादिना भिषक्।
रसोत्तरेणैव चरेत् क्रमेण क्रमकोविदः॥६॥
स्निग्धाम्लस्वादुहृद्यानि ततोऽम्ललवणौ रसौ।
स्वादुतिक्तौ ततो भूयः कषायकटुकौ ततः ॥ ७॥
अन्योऽन्यप्रत्यनीकानां रसानां स्त्रिग्धरूक्षयोः।
व्यत्यासादुपयोगेन प्रकृतिं गमयेद्भिषक् ॥८॥
बलवान्2969 वर्णवान् सर्वरतिः स्वङ्गः स्थिरेन्द्रियः।प्रसन्नात्मा सर्वसहो विज्ञेयः प्रकृतिं गतः॥९॥
एतां प्रकृतिमप्राप्तः सर्ववर्ज्यानि वर्जयेत्।महादोषकराण्यष्टाविमानि तु विशेषतः॥१०॥
उच्चैर्भाव्यं रथक्षोभमतिचङ्क्रमणासने।अजीर्णाहितभोज्ये च दिवास्वप्नं च मैथुनम्॥११॥
तज्जा देहोर्ध्व सर्वाधोमध्यपीडामदोषजाः।
श्लेष्मजाः क्षयजाश्चैव व्याधयः स्युर्यथाक्रमम्॥१२॥
तेषां विस्तरतो लिङ्गमेकैकस्य सभेषजम्।
यथावत् संप्रवक्ष्यामि सिद्धान् बस्तींश्च यापनान्॥१३॥
तत्र, उच्चैर्भाष्यातिभाष्याभ्यां शिरस्तापकर्णशङ्खनिस्तोदस्रोतोऽवरोधमु2970खतालुकण्ठशोषतैमिर्यपिपासाज्वरतमकहनुमन्याग्रहनिष्ठीवनोरःपार्श्वशूलस्वरभेदहिक्काश्वासादयः स्युः, रथक्षोभात् संधिपर्वशैथिल्यहनुनासाकर्णशिरःशूलतोदकुक्षिक्षोभाटोपात्रकूजनाध्मानहृदयेन्द्रियोपरोधस्फिकपार्श्ववंक्षणवृषणकटीपृष्ठवेदनासंधिस्कन्ध2971हनुग्रीवादौर्बल्याङ्गाभितापपादशोफप्रस्वापहर्षणादयः, अतिचङ्क्रमणात् पादजङ्गोरुजानुवंक्षणश्रोणीपृष्ठशूलच्छर्दिसक्थिसादनिस्तोदपिण्डिकोद्वेष्टनाङ्गमर्दांसाभितापसिराधमनीहर्षश्वासकासादयःस्युःअत्यासनाद्वथक्षोभजाः स्फिक्पार्श्ववंक्षणवृषणकटीपृष्ठवेदनादयः स्युः,अजीर्णांध्यशनाभ्यां तु मुखशोषाध्मानशूलनिस्तोदपिपासागात्रसादच्छर्द्यतीसारमूछज्वरप्रवाहणामविषादयः स्युः, विषमाहिताशनाभ्यामनन्नाभिलाषदौर्बल्यवैवर्ण्यकण्डूपामागात्रावसादवातादिप्रकोपजाश्च ग्रहण्यर्शोविकारादयः, दिवास्वप्नादरोचकाविपाकाग्निनाशस्तैमित्यपाण्डुकुण्डूपामादाहच्छर्चङ्गमर्दहृत्स्तम्भजाड्यतन्द्रानिद्राप्रसङ्गग्रन्थिजन्मदौर्बल्यरक्त-मूत्राक्षितातालुप्रलेपाः पिपासा च, व्यवायादाशुबलनाशोरुसादबस्तिशिरोगुदमेढ्रवृषणवृक्षणोरुजानुजङ्घापाद2972शूलहृदयस्पन्दननेत्रपीडाङ्गशैथिल्यशुक्रमार्गशोणितागमनकासश्चासशोणितष्ठीवनस्वरावसादकटीदौर्बल्यैकाङ्गसर्वाङ्गरोगमुष्कश्वयथुवातवर्चोमूत्रसङ्गशुक्रविसर्गजाड्यवेपथुबाधिर्यविषादादयः स्युः, उत्पाव्यत2973 इव गुदस्ताड्यत इव मेढ्रमवसीदतीव मनो2974 वेपते हृदयं पीड्यन्ते सन्धयस्तमः प्रविशतीव च; इत्येवमेभिरष्टभिरपचारैरेते प्रादुर्भवन्त्युपद्रवाः॥१४॥
तेषां सिद्धिः— उच्चैर्भाव्यातिभाष्यजानामभ्यङ्गस्वेदोपनाहधूमनस्योपरिभक्तस्त्नेहपानरसक्षीरादिर्वातहरः सर्वो विधिमौनं च, रथक्षोभातिचङ्क्रमणात्यासनजानां स्नेहस्वेदादि वातहरं कर्म सर्व निदानवर्जम्, अजीर्णाध्यशनजानां निरवशेषतश्छर्दनं रूक्षस्वेदधूमपानलङ्घनीयपाचनीयदीपनीयौषधावचारणं च, विषमाहिताशनजानां यथास्वं दोषक्रियाः, दिवास्वप्नजानां धूमपानलङ्घनवमनशिरोविरेचनव्यायामरुक्षाशनारिष्टदीपनीयौषधोपयोगः प्रघर्षणोन्मर्दनपरिषेचनादिश्च श्लेष्महरः सर्वो विधिः, मैथुनजानां जीवनीयसिद्धयोः क्षीरसर्पिषोरुपयोगस्तथा वातहराः स्वेदाभ्यङ्गोपनाहा वृष्याश्चाहाराःस्नेहाः2975 स्नेहविधयो यापनाबस्तयोऽनुवासनं च, मूत्रवैकृतबस्तिशू2976लेषु चोत्तरबस्तिर्विदारीगन्धादिगण-जीवनीयगणक्षीरसंसिद्धं तैलंस्याद्यापनाश्च बस्तयः सर्वकालं देयाः; तानुपक्ष्यामः॥१५॥
मुस्तोशीरबलारग्वधरास्नाञ्जिष्ठाकटुरोहिणीत्रायमाणापुनर्नवाबिभीतकगुडूचीस्थिरादिपञ्चमूलानि पलिकानि खण्डशः क्लृप्तान्यष्टौच मदनफलानि प्रक्षालय जलाढके परिक्काथ्य पादशेषो रसः क्षीरद्विप्रस्थसंयुक्तः पुनः शृतः क्षीरावशेषो जाङ्गलरसपादस्तुल्यमेधुघृत2977युतः शतकुसुमामधुककुटजफलर साञ्जनप्रियङ्गुकल्कीकृतः ससैन्धवःसुखोष्णो बस्तिः शुक्रमांसाग्निबलजननः क्षतक्षीणकासगुलमशूलविषमज्वब्रन्धकुण्डलोदावर्तकुक्षिशूलमूत्रकृच्छ्रासृग्रजोविसर्गप्रवाहिकाशिरोरुजाजानूरुजङ्घाबस्तिग्रहाश्मर्युन्मादार्शःप्रमेहाध्मानवातरक्त्तपित्तश्लेष्मव्याधिहरः सद्योबलजननो रसायनश्चेति॥१६॥
एरण्डमूलपलाशात् षट्पलं शालिपर्णी पुश्चिपर्णी बृहती कण्टकारिका गोक्षुरको रास्त्राऽश्वगन्धा गुडूची वर्षाभूरारग्वधो देवदार्वितिपलिकानि खण्डशः क्लृप्तानि फलानि चाष्टौ प्रक्षाल्य जलाढके क्षीरपादे पचेत्, पादशेषं कषायं पूतं शतकुसुमाकुष्ठमुस्तपिप्पलीहपुषाबिल्ववचावत्सकफलरसाञ्जनप्रियङ्ग्यवानिप्रक्षेपकल्पि (ल्कि) तं मधुघृततैलसैन्धवयुक्तं सुखोष्णं निरूहमेकं द्वौ त्रीन् वा दद्यात्, सर्वेषांप्रशस्तो विशेषतो ललितसुकुमारस्त्री विहारक्षतक्षीणस्थविरचिरार्शोमूत्रकृच्छ्रोदावर्तग्रहणीदोषाइमरीणां हितोऽपत्यकानां च॥१७ ॥
सहचरबलामूलदर्भमूलसारिवासिद्धेन पयसा तथा बृहतीकण्टकारीशतावरीच्छिन्न रुहावतेन पयसा मधुकमदनपिप्पली कलिकतेनपूर्ववद्वस्तिः॥१८ ॥
तथा बलातिबलाविदारीशालिपर्णीवृश्चिपर्णीबृहतीकण्टकारिकादर्भमूल्यवकाश्मर्यबिल्वफलसिद्धेन पयसा मधूकमदनकल्कीकृतेनमधुघृतसौवर्चलप्रयुक्तेन कासज्वरगुल्मप्लीहार्दित स्त्रीमचक्लिष्टानांसद्योबलजननो रसायनश्च॥१९ ॥
बलातिबलारास्नारग्वधमदनबिल्वगुडूचीपुनर्नवैरण्डाश्वगन्धासहचरपलाशदेवदारुद्विपञ्चमूलानि पलिकानि यवकोलकुलत्थद्विप्रसृतंशुष्कमूलकानां2978 च जलगोणे सिद्धं निरूहप्रमाणावशेषं कषायं पूतं मधुकमदनशतपुष्पाकुष्ठपिप्पलीवचावत्सकफलरसाञ्जनप्रियजयवानीकल्कीकृतं गुडघृततैलक्षौद्रक्षीरमांसरसाम्लकाञ्जिकसैन्धवयुक्तंसुखोष्णं च बस्तिं दद्याच्छुक्रमूत्रवर्चः सङ्गेऽनिलजगुल्महद्गोगोगाध्मानब्रघ्नपार्श्वपृष्ठकटीग्रहसंज्ञानाशबलक्षयेषु च॥२०॥
हपुषार्धकुडवो द्विगुणार्धक्षुण्णयवः क्षीरोदक सिद्धः क्षीरशेषो मधुघृततैललवणयुक्तो बस्तिः सर्वाङ्गविसृतवातरक्तसक्तविण्मूत्रस्त्रीखेदितहितो वातहरो बुद्धिमेधाग्निबलजननश्च॥२१॥
हस्वपञ्चमूलीकषायः क्षीरोदकसिद्धः पिप्पलीमधुकमदनकल्कीकृतः सगुडघृततैलवणः क्षीणविषमज्वरकर्षितस्य बस्तिः॥२२॥
बलातिबलापामार्गात्मगुप्ताष्टपलार्धक्षुण्णयवाञ्जलिकषायः(सगुडघुततैललवणः) पूर्ववद्वस्तिः स्थविरदुर्बलक्षीणशुक्ररुधिराणां पथ्यतमः॥२३॥
बलामधुकविदारीदर्भमूलमृद्वीकायवैः कषायमाजेन पयसा पुनःपक्त्वा मधुकमदनकलिकतं समधुघृतसैन्धवं ज्वरार्ते-भ्यो बस्तिदद्यात्॥२४॥
शालिपर्णीपुचिपर्णीगोक्षुरकक्कोलकाश्मर्यपरूषकखर्जूरफलमधूकपुष्पैरजाक्षीरजलप्रस्थाभ्यां सिद्धः कषायः पिप्पलीमधुकोत्पलकल्कितःसघृतसैन्धवः क्षीणेन्द्रियविषमज्वरकर्षितस्य बस्तिः शस्तः॥२५॥
स्थिरादिपञ्चमूलीपञ्चपलेन शालिषष्टिकयवगोधूममाषकषायपञ्चप्रसृतेन छागं पयः शृतं पादशेषं कुक्कुटाण्डरसमधुघृतशर्करासैन्धवसौवर्चलयुक्तो बस्तिर्वृष्यतमो बलवर्णजननैश्च2979 । इति यापनाबस्तयो द्वादश॥२६॥
कल्पश्चैष शिखिगोनर्दहंसाण्डरसेषु स्यात्॥२७॥
सतित्तिरिः ससारसमयूरराजहंसः2980 पञ्चमूलीपयः सिद्धः शतकुसुमामधुकरानाकुटजमदनफलपिप्पलीकल्को घृततैलगुडसैन्धवयुक्तोबस्तिर्बलवर्णशुक्रजननो रसायनश्च॥२८॥
द्विपञ्चमूलीकुक्कुटरससिद्धं पयः पादशेषं पिप्पलीमधुकरास्त्रामदनमधुकककल्कंशर्करामधुघृतयुक्तं स्त्रीष्वति-कामानां बलजननोबस्तिः॥२९॥
मयूरमपित्तपक्षपादास्यात्रं कृत्वा स्थिरादिभिः पलिकैः सजलेपयसि पक्त्वा क्षीरशेषं मदनविदारीपिप्पलीशतकुसुमामधुककल्कीकृतं मधुघृतसैन्धवयुक्त्तं बस्तिं दघात्, स्त्रीष्वतिप्रसक्त्तक्षीणेन्द्रियेभ्यो हितो बलवर्णकरश्च॥३०॥
कल्पश्चैष विष्किरप्रतुदप्र्सहाम्बुचरेषु स्यात्, अक्षीरो रोहितादिषु मत्स्येषु च ॥ ३१ ॥
गोधानकुलमार्जारमूषिकशल्लकमांसानां दशपलान् भागान् सपञ्चमूलान् पयसि पक्त्वा तत्पयः पिप्पलीफलकल्कसैन्धवसौवर्चलशर्करामधुघृततैलयुक्त्तोक्त बस्तिर्बल्यो रसायनः क्षीणक्षतस्य सन्धानकरो मथितोरस्करथगजहयभग्नवातबलासकप्रभृत्युदावर्तवातसक्तमूत्रवर्चः शुक्राणां हिततमश्च ॥ ३२ ॥
कूर्मादीनामन्यतमपिशितसिद्धं पयो गोवृषनागहयनक्रहंसकुक्कुटाण्डरसमधुघृतशर्करासैन्धवेक्षुरकात्म गुप्ताफलकत्क-संसृष्टो बस्तिवृद्धानामपि बलजननः ॥ ३३ ॥
गोवृषबस्तवराहवृषणकर्कटचटकसिद्धं क्षीरमुञ्चटकेक्षुरकात्मगुप्सामधुघृतयुतं किंचिल्लवणितं बस्तिः ॥ ३४ ॥
कर्कटकरसश्चटकाण्डरसयुक्तः समधुघृतशर्करो बस्तिः;इत्येतेबस्तयः परमवृष्याः ॥ ३५ ॥
उच्चटकेक्षुरकात्मगुप्ताशृतक्षीरप्रतिभोजनानुपानात् स्त्रीशतगामिनं नरं कुर्युः ॥ ३६॥
दशमूलमयूरहंसकुक्कुटक्काथात् पञ्चतं मधुतैलघृतवसामाज्जचतुष्प्रसृतयुक्तं शतपुष्पामुस्तहपुषाकल्कीकृतः सलवणो बस्तिः पादगुल्फोरुजानु-जङ्घात्रिकवंक्षणबस्तिवृषणानिलरोगहरः ॥ ३७॥
मृगविष्किरानूपबिलेशयानामेतेनैव कल्पेन बस्तयो देयाः ॥३८॥
मधुघृतद्विप्रसृतं तुल्योष्णोदकं शतपुष्पार्धपलं2981 सैन्धवार्धायुक्त्तोबस्तिर्दिपनो बृंहणो बलवर्णकरो निरुपद्रवो वृष्यतमो रसायनःक्रिमिकुष्ठोदावर्तगुल्मार्शोब्रघ्नप्लीमेहहरः ॥ ३९ ॥
तद्वत्समधुघृतः पयस्तुल्यो बस्तिः पूर्वकल्पेन बलवर्णकरो वृष्यतमो निरुपद्रवो बस्तिमेदूपाकपरिकर्तिकामूत्रकृच्छ्रपित्तम्बाधिहरोरसायनश्च ॥४०॥
मधुघृताभ्यां मांसरसतुल्यो मुस्ताक्षयुक्तः पूर्ववद्बस्तिर्बलासपादहर्षगुल्मजानूरुनिकुञ्चनवस्तिवृषणमेढत्रिकोरुपृष्ठशूलहरः॥४१
सुरासौवीरककुलात्थमांसरसमधुघृततैलससप्रसृतो मुस्तशताहाकल्कितः सलवणो बस्तिः सर्ववातरोगहरः ॥४२ ॥
द्विपञ्चमूलत्रिफलाबिल्वमदनफलकपायो गोमूत्रसिद्धः कुटजमदनफलमुस्तपाठाकल्कितः सैन्धवयावशूकक्षौद्रतैलयुक्त्तोबस्तिःश्लोष्मण्याधिबस्त्याटोपवातशुक्रसङ्गपाण्डुरोगाजीर्णविसूचिकालसकषु देय इति ॥४३ ॥
अत ऊर्ध्वं वृष्यतमान् स्नेहान् वक्ष्यामः ॥४४ ॥
शतावरीगुडूचीक्षुविदार्यामलकद्राक्षाखर्जूराणां यत्रपीडितानांरसप्रस्थं पृथगेकैकं तद्वद्धृततैलगोमहिष्यजाक्षीराणां द्वौ द्वौदद्यात,जीवकर्षभकमेदामहामेदास्तक्क्षीरीशृङ्गाटकमधूलिकामधूकोश्चटापिप्पलीपुष्कर बीजनीलोत्पलकदम्बपुष्पपुण्डरीककेशरकल्कान् पृषतनरक्षुमांसकुक्कुटचटकचकोरमत्ताक्षबहिंजीवञ्चीवककुलिङ्गहंसाण्डरसवसामज्ज्ञां च प्रस्थं दत्वा साधयेत। ब्रह्मघोषशङ्गपटहभेगनिनादैःसिद्धं सितच्छत्रकृतच्छायं गजस्कन्धमारोहयेद्भगवन्तं वृषध्वजमभिपूज्य तं स्नेहं त्रिभागमाक्षिकं मङ्गलाशीः स्तुतिदेयताश्चनैवस्तिगमयेत्। नृणां स्त्रीविहारिणां नष्टरेतसांक्षतक्षीणविषमज्वरातांनांव्यापन्नयोनीनां वन्ध्यानां रक्तगुल्मनीनां मृतापत्यानामनातवानांच स्त्रीणां क्षीणमांसरुधिराणां पथ्यतमं रसायनमुत्तमं वलीपलितनाशनं विद्यात् ॥४५॥
बलागोक्षुरकरास्नाश्वगन्धाशतावरीसहचराणां शतं शतमापोथ्यजलद्रोणशते प्रसाध्य तस्मिन् जलद्रोणावशेषे रसे वस्त्रपूतेविदार्यामलकस्वरसयोर्बस्तमहिषवराहपकुक्कुटबहिहंसकारण्डवसारसाण्डरसानां घृततैलयोश्चककं प्रस्थमष्टौप्रस्थान् क्षीरस्य दत्वा चन्दनमधुकमधूलिकात्वक्क्षीरीबिसमृणालोत्पलपटोलफलात्मगुप्तोदनपाकीतालमस्तकखर्जूरमृद्धीकातामलकीकण्टकारीजीवकर्षभक्षुद्रसहामहासहाशतावरीमेदामहामेदापिप्पलीह्रीबेरस्वकूपत्रकल्कांश्च दत्वासाधयेत् । ब्रह्मघोषादिना विधिना तत्सिद्धं बस्ति दद्यात् । तेनस्त्रीशतं गच्छेत्, न चात्रास्ते विहाराहारयन्त्रणा क्वचित् । एष वृष्योवण्यों बृंहण आयुष्यो वलीपलितनुत् क्षतक्षीणनष्टशुक्रविषमज्वरातीनां व्यापन्नयोनीनां च पथ्यतमः ॥ ४६ ॥
सहचरपलशतमुदकद्रोणचतुष्टये पक्त्वा द्रोणशेषे रसे सुपूतेविदारीक्षुरसप्रस्थाभ्यामष्टगुणक्षीरं घृततैलप्रस्थं बलामधुक-मधूकचन्दनमधूलिकासारिवामेदामहामेदाकाकोलीक्षीरकाकोलीपयस्याऽगुरुमञ्जिष्ठाव्याघ्रनखराटीसहचरसहस्रवीर्यावराङ्गलोधाणामक्षमात्रैद्विगुणशर्केरैः कल्कैः साधयेद्ब्रह्मघोषादिना विधिना । तत्सिद्धं बस्तिंदद्यात्, एष सर्वरोगहरो रसायनो ललितानां श्रेष्ठोऽन्तःपुरचारिणां क्षतक्षयवातपित्तवेदनाश्वासकासहरस्त्रिभागमाक्षिकोऽकालवलीपलितनुद्वर्णरूपबलमांसशुक्रवर्धनः ॥ ४७ ॥
इत्येते रसायनाः स्नेहबस्तयः सति विभवे शतपाकाः सहस्रपाका वा कार्या वीर्यबलाधानार्थमिति ॥ ४८ ॥
भवन्ति चात्र \।
इत्येते बस्तयः स्नेहाश्चोक्ता यापनसंज्ञिताः।
स्वस्थानामातुराणां च वृद्धानां चाविरोधिनः॥४९॥
अतिव्यवायशीलानां शुक्रमांसबलप्रदाः।
सर्वरोगप्रशमनाः सर्वेष्वृतुषु यौगिकाः ॥५०॥
नारीणामप्रजातानां नराणां चाप्यपत्यदाः।
उभयार्थकरा दृष्टाः स्नेहबस्तिनिरूहयोः ॥५१॥
व्यायामोमैथुनं मद्यं मधूनि शिशिराम्बु च।
संभोजनं रथक्षोभो बस्तिष्वेतेषु गर्हितम् ॥५२॥
तत्र श्लोकाः।
शिखिगोनर्दहंसाण्डैर्दक्षवद्धस्तयस्त्रयः।
विंशतिर्विष्किरैस्त्रिंशत् प्रतुदैः प्रसहैर्नव ॥५३॥
विंशतिश्च तथा सप्तविंशतिश्वाम्बुचारिभिः।
नव मत्स्यादिभिश्चैव शिखिकल्पेन बस्तयः॥५४॥
दश कर्कटकाद्यैश्च कूर्मकल्पेन बस्तयः।
मृगैः सप्तदशैकोनविंशतिर्विष्किरैर्दशं2982॥५५॥
आनूपैर्दक्षशिखिवद्भूशयैश्च चतुर्दश।
एकोनत्रिंशदित्येते सह स्नेहैः समासतः॥५६॥
प्रोक्ता विस्तरशो भिन्ना द्वे शते षोडशोत्तरे।
एते माक्षिकसंयुक्ताः कुर्वन्त्यतिवृषं2983 नरम्॥५७॥
नातियोगं न वाऽयोगं स्तम्भितास्तेन कुर्वते।
मृदुत्वान्न निवर्तेरन्2984 बस्तयश्चेन्निरूहणे॥५८॥
समूत्रैर्बस्तिभिस्तीक्ष्णैरास्थाप्यः क्षिप्रमेव च।
शोफाग्निनाशपाण्डुस्वशूलार्शः परिकर्तिकाः॥५९॥
स्युर्ज्वरश्चातिसारश्च यापनात्यर्थसेवया।
अरिष्टक्षीरसीध्वाद्या तत्रेष्टा दीपनी क्रिया॥६०॥
युक्त्या तस्मान्निषेवेत यापनान्न प्रसङ्गतः।
इत्युच्चैर्भाग्यपूर्वाणां व्यापदः सचिकित्सिताः॥६१॥
विस्तरेण पृथक् प्रोक्तास्तेभ्यो रक्षेन्नरं सदा।
कर्मणां वमनादीनामसम्यक्करणापदाम्॥६२॥
यत्रोक्तं साधनं स्थाने सिद्धिस्थानं तदुच्यते।
इत्यध्यायशतं विंशमात्रेयमुनिवाङ्मयम्॥६३।\।
हितार्थं प्राणिनां प्रोतमग्निवेशेन धीमता।
दीर्घमायुर्यशः प्रज्ञामारोग्यं2985 चापि पुष्कलम्॥६४॥
सिद्धिं चानुत्तमां लोके प्राप्नोति विधिना पठन्।
विस्तारयति लेशोतं संक्षिपत्यतिविस्तरम्॥६५॥
संस्कर्ता कुरुते तन्त्रंपुराणं च पुनर्नवम्।
अतस्तन्त्रोत्तममिदं चरकेणातिबुद्धिना॥६६॥
संस्कृतं तत्त्वसंपूर्णं त्रिभागेनोपलक्ष्यते।
तच्छङ्करं भूतपतिं संप्रसाद्यसमापयत्॥६७॥
अखण्डार्थं दृढबलो जातः पञ्चनदे पुरे।
कृत्वा बहुभ्यस्तन्त्रेभ्यो विशेषोञ्छशिलोच्चयम्॥६८॥
सप्तदशौषधाध्यायसिद्धिकल्पैरपूरयत्।
इदमन्यूनशब्दार्थं तन्त्रं दोषविवर्जितम्॥६९॥
षड्त्रंशता विचित्राभिर्भूषितं तन्त्रयुक्तिभिः।
तत्राधिकरणं योगो हेत्वर्थोऽर्थः पदस्य च॥७०॥
प्रदेशोद्देनिर्देशवाक्यशेषाः प्रयोजनम्।
उपदेशापदेशातिदेशार्थापत्तिनिर्णयाः॥७१॥
प्रसङ्गैकान्तनैकान्ताः सापवर्गो विपर्ययः।
पूर्वपक्षविधानानुमतव्याख्यानसंशयाः॥७२॥
अतीतानागतावेक्षास्वसंज्ञोह्यसमुच्चयाः।
निदर्शनं निर्वचनं संनियोगो विकल्पनम्॥७३॥
प्रत्युत्सारस्तथोद्धारः संभवस्तन्त्रयुक्तयः।
तन्त्रे व्याससमासोक्त्तेभवन्त्येता हि कृत्स्नशः॥७४॥
एकदेशेन दृश्यन्ते समासाभिहितास्तथा2986।
यथाऽम्बुजवनस्यार्कःप्रदीपो वेश्मनो यथा॥७५॥
प्रबोधनप्रकाशार्थास्तथा तन्त्रस्य युक्तयः।
एकस्मिन्नपि यस्येह शास्त्रे लब्धास्पदा मतिः॥७६॥
स शास्त्रमन्यदण्याशु युक्तिज्ञत्वात् प्रबुध्यते।
अधीयानोऽपि शास्त्राणि तन्त्रयुत्तयंविचक्षणः2987॥ ७७॥
नाधिगच्छति शास्त्रार्थानर्थान् भाग्यक्षये यथा।
दुर्गृहीतं क्षिणोत्येव शास्त्रं शस्त्रमिवाबुधम्॥७८॥
सुगृहीतं तदेव ज्ञं शास्त्रं शस्त्रं च रक्षति।
( तस्मादेताः2988 समक्ष्यन्ते विस्तरेणोत्तरे पुनः॥७९॥
तत्वज्ञानार्थमस्यैव तन्त्रस्य गुणदोषतः।
इदमखिलमधीत्य सम्यगर्थान्
विमृशति यो विमलः2989 प्रयोगनित्यः॥८०॥
स मनुजसुखजीवितप्रदाता
भवति धृतिस्मृतिबुद्धिधर्मवृद्धः॥८१॥
(यस्य2990 द्वादशसाहस्त्री हृदि तिष्ठति संहिता।
सोऽर्थज्ञः स विचारज्ञश्चिकित्साकुशलश्च सः॥८२॥
चिकित्सा वह्निवेशस्य2991 स्वस्थातुरहितं प्रति॥
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्॥८३॥
अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते।
सिद्धिस्थानमिदं श्रेष्ठमष्टमं परिपूर्यतें॥८४॥)
इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढवलसंपूरिते सिद्धिस्थाने
उत्तरबस्तिसिद्धिर्नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
समाप्तं चेदं चरकतन्त्रम् \।
चरकसंहितायाः शुद्धिपत्रम्।
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| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| एवास्तुबंस्तांश्च | एवास्तुवंस्तांश्च |
| किटिमं | किटिभं |
| ऐन्द्व्यृ० | ऐन्द्र्यृ० |
| त्यक्पुष्य | त्यक्पुष्प्य |
| ०पाषाणमेद० | ०पाषाणभेद० |
| ०विभी- | ०बिभी- |
| ०थ्योर्योपकल्प्यते | ०र्थ्यायोपकल्पते |
| बलसुवर्णसुखायुषा | बलवर्णसुखायुषा |
| गुग्गुल्यगुरु० | गुग्गुल्वगुरु० |
| ’नस्तकर्म’ | ‘नस्तःकर्म’ |
| ०मागमयेन् | ०भागमयेत् |
| नाशुचिभिरभिचार० | नाशुचिरभिचार० |
| विद्यादेकषथं | विद्यादेकपथं |
| तद्विद्यावृद्धानां | तद्विद्यवृद्धानां |
| भृज्जति | भर्जते |
| ०वातहराणि समा० | ०वातहरादिसमा० |
| स्वस्तिवाचनप्रयुक्ता० | स्वस्तिवाचनं प्रयुक्ता० |
| चोतोर्ध्वमुखीभूतं | चोर्ध्वमुखीभूतं |
| दूयनं | दूयनं |
| दित् | त् |
| ०रुपक्रम० | ०रुपक्रमै० |
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| ०र्ध्वमुत्थिते | ०र्ध्वमुत्क्षिपति |
| रतिकश० | रतिकृश० |
| किंखिल्लङ्गंनीयाश्च | किंखिल्लङ्घनीयाश्च |
| द्विदोषलिङ्गं | द्विदोषलिङ्गं |
| पुरुषाद्रौर्गौ० | पुरुषाद्रौर्गो० |
| मार्दंवकराणां | मार्दवकराणां |
| द्रब्याणि | द्रव्याणि |
| द्बिरसादिनि | द्विरसादीनि |
| केचिद्विविध० | केचिद्विविध० |
| समघृतं | समधृतं |
| ‘शोफाम्लपित्ता०’ | ‘शोफाम्लपित्त०’ |
| स्थितः | स्थितिः |
| ० विशेषत्तु | ० विशेषात्तु |
| नव्श्रयन्त्येते | नाश्रयन्त्येते |
| ० द्यहिता ० | ०ध्द्यहिता |
| प्रयोक्षयेत् | प्रयोजयेत् |
| स्वस्थवृत० | स्वस्थवृत्त० |
| यतश्चायुष्यानायु- | यतश्चायुष्याण्यनायु- |
| भिषक्सेव्य- | भिषक्सेव्यत्वे- |
| ०व्यापादिकी | ० व्यापदिकी |
| अर्थे दशमहामूले | अर्थदशमहामूले |
| ० प्रतिप्रदानं | ० प्रतिपादनं |
| त्रिविधजा- | त्रिविधाय- |
| भेहजनकः | मेहजनकः |
| सर्वैंरेव | सर्वैरेव |
| शनैर्मेहित० | शनैर्मेहिन० |
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| तथाबिध० | तथाविध० |
| ऽपथ्द्यमित्यादि | ऽपथ्यमित्यादि |
| ०जिह्वाकृतीनि | ०जिह्वाकृतीनि |
| ०वहिस्तनूनि | ०बहिस्तनूनि |
| ‘बराहोष्ट्रखरैः’ | ‘वराहोष्ट्रखरैः” |
| ०चलितावनवस्थितानां | ०चलितानवस्थितानां |
| ०मनलकारिकै० | ०मनलङ्कारिकै० |
| ०मुन्मादादिमिनिर्वृत्तिः | ०मुन्मादामिनिर्वृत्तिः |
| हृदये विशुद्धे | हृदये |
| कुतो मूलमेषां | कुतोमूलमेषां |
| ०विनिग्रह्रा० | ०विनिग्रहा० |
| ०संशमान्येव | ०संशमनान्येव |
| तथा नेतरौ | न तथेतरौ |
| ब्यजन- | व्यजन- |
| शीर्षादीन् | शीषीदान् |
| समयर्विरुद्धं | समयैर्विरुद्धं |
| ०कार्यफाला० | ०कार्यफला० |
| भिषगादिपु | भिषगादिषु |
| ०करणयोपकल्प्यते | ०करणायोपकल्पते |
| ०विड्० | ०विड० |
| यथा खे० | यथास्वे० |
| असंज्ञा० | ससंज्ञा० |
| यथा स्व० | यथास्व० |
| ०सन्धवेक्षु० | ०सैन्धवेक्षु० |
| ०मौपपादिकमिति | ०मौपपादुकमिति |
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| ०जीवस्पृक् शरीरेणा ० | ०जीवस्पृक्शरीरेणा०2992 |
| ०ज्जीवस्पृक् शरी- | ० ज्जीवस्पृक्शरी- |
| ०र्मुंहुर्मुहुरोजः | ०र्मुहुर्मुहुरोजः |
| ऽथवानेके | ऽथवाऽनेके |
| भैककशो | मेकेकशो |
| प्रश्वासोन्मेष- | प्रश्वासोन्मेष- |
| शब्द- | शब्दः |
| शरीरावयवः | शरीरावयव- |
| यथाशीरेवतयोः | यथाशीरेव तयोः |
| मैङ्गुदकानां | मैङ्गुदानां |
| स्यात्- | स्यात्, |
| अनु, | अनु- |
| इत्यघिकं | इत्यधिकं |
| बा | वा |
| ० दाद्यन्तस्थान्त ० | ० दाद्यन्तः स्थान्त ० |
| ०ज्जसि | ०ज्जति |
| सशिला० | सलिला० |
| नाभिं | नाभिं |
| भल्लातकविधिः | भल्लातकगुणाः |
| ०स्तदायुर्वेदमृत० | स्तदायुर्वेदामृत० |
| गुडिकास्त्यानास्ता | गुडिकाः स्त्यानास्ता |
| स्वरसः | रसः |
[TABLE]
[TABLE]
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| हरिद्रा | हरिद्रे |
| मह्रर्षिणा | महर्षिणा |
| नर्भाशयस्य | गर्भाशयस्य |
| सर्वृतां | संवृतां |
| ० श्वाक्षकैः | ०श्चाक्षिकैः |
| ०श्याह्वैः | श्र्याह्वैः |
| ० पुस्ते | ० पुस्तके |
| द्युदाने | ह्युदाने |
| ० विरेचनसंज्ञां | • विरेचनाद्विरेचनसंज्ञां |
| ० र्बध्वा’ | ०बंद्ध्वा’ |
| लम्वा | ‘लम्बा |
| ० ज्बर० | ०ज्वर० |
| ० भेकशोऽपि | ० मेकशोऽपि |
| कर्म वाता० | कर्मवाता० |
| वैचित्यं | वैचित्त्यं |
| ० मूर्च्छा० | ० मूर्च्छा ० |
| पूनर्वसुं | पुनर्वसुं |
| पला० | फला० |
| ०दाद्यं | ० माद्यं |
| त्रिस्त्रेह० | त्रिस्नेह० |
| ० गुत्क्षिप्त ० | ० गुल्लुप्त ० |
| ० वृतं द्वारे | ०वृतद्वारे |
| ० कामलपाण्डु० | ० कामलापाण्डु० |
| लघु शीतं | लघ्वशीतं |
| अशुद्धम् | शुद्धम् |
| ०मामैर्वा | ०मामे वा |
| आमाजीर्णे | आमे जीर्णे |
| पिच्छावस्ति० | पिच्छाबस्ति ० |
| ०रवतिष्ठते | ० मवतिष्ठते |
| कृतात् द्देहा ० | ० कृताद्देहा ० |
| ‘विड्- | “विट्- |
| द्वा वात ० | द्वात ० |
| घृतान्विते | घृताक्त्तया |
| पश्चाद्द्वौ | पश्चार्धे |
| प्रतिमर्शे | प्रतिमर्शो |
| एव शयानस्य | एवंशयानस्य |
| तूर्णं | तूष्णं |
| ० क्कोष्ट ० | ०कोष्ठ० |
| ०शुष्कस्तब्धदेहानाम् | ० शुष्कदेहानाम् |
| अजोरणौ | आजोरणौ |
| यथाण्डं | यथाऽण्डं |
| स्ताम्यतीव | गुदस्ताम्यतीव |
| ‘समधु | ‘समधु- |
| ० प्रमृत्यु ० | ० प्रभृत्यु० |
| भिहितास्तथा | ० भिहिते तथा |
]
-
“’_व्रताजुषाम्’ इति ग.। तपोपवासेत्याद्यजुषामित्यर्थः।” ↩︎
-
“’कपिष्ठलः’ इति ग.।” ↩︎
-
“’–कौण्डिल्यौ–’ इति ग.।” ↩︎
-
“’मारीचिकाश्यपौ’ इति ग.।” ↩︎
-
“’लोगाक्षिः’ पा०।” ↩︎
-
“वैखानसा वानप्रस्थाः।” ↩︎
-
“’यमस्य’ ग.।” ↩︎
-
“बलनाम्नोऽसुरस्य हन्तारमिन्द्रम्।” ↩︎
-
" तेनर्षयस्ते ग.।" ↩︎
-
" चाप्यनश्वरम् इति यो.।" ↩︎
-
" सर्वभूतेष्वनुक्रोशः इति पा०।" ↩︎
-
" घोषश्च इति ग.।" ↩︎
-
" कीर्तिःकीर्तनं वक्तुं ज्ञानमित्यर्थः, न तु कीर्तिर्यशोरूपा, तस्या अज्ञानरूपत्वात् चक्रः।" ↩︎
-
" लोकयोरुभयोर्हितः ग.।" ↩︎
-
“योगीन्द्रनाथसेनस्तु सत्त्वमात्मा शरीरं चेत्याद्यायुर्वेदाधिकरणप्रतिपादकंग्रन्थं प्राक् पठित्वाऽनन्तरं सर्वदा सर्वभावानामित्यादिग्रन्थं पठति।” ↩︎
-
" नित्यं इति शेषः।" ↩︎
-
" समवायी समवायाधेयः चक्रः।" ↩︎
-
“१. योगीन्द्रनाथसेनस्तु भूयश्चात इत्याद्यर्धश्लोकं कटुतिक्तकषायाश्च कोपयन्ति समीरणम् इत्यनन्तरं पठति। " ↩︎
-
" जाङ्गमौद्भिदपार्थिवम् इति पा.।” ↩︎
-
" ऽरूक्षं इति ग.।" ↩︎
-
" सर्वथोच्यते ग.।" ↩︎
-
“येषां दृ(दि ↩︎
-
" रूपमात्रेण इति पा०।” ↩︎
-
" योगवित्त्वप्यरूपज्ञः इति यो,।" ↩︎
-
" तन्त्रकारस्य रीतिरियं यत् - यत्रोक्तमर्थं संग्रहेणाभिधत्ते तत्र तत्रश्लोकाः इति करोति, यत्र तूक्तादनधिकमुच्यते तत्र भवति चात्र इतिकरोति इति चक्रः" ↩︎
-
“( अध्यायारम्भे प्रथमं अपामार्गस्य बीजानि इतिपदं, ततश्च ↩︎
-
" चाजमोदां इति यो.।” ↩︎
-
" उपस्थितदोषाणामिति शाखां त्यक्त्वा कोष्ठगमनेन तथा लीनत्वपरित्यागेन प्रधानावस्था प्राप्तदोषाणाम् चक्रः।" ↩︎
-
" पलाशस्य निर्दाहेन गृहीतो रसः पलाशनिर्दाहरसः, स च पलाशस्यप्रधानमूले छिन्नेऽधः कुम्भं दत्त्वोपरि वृक्षदाहाद्यो गलति स्वरसः स गृह्यते चक्रः।" ↩︎
-
" षड्विरेचनशतीयं इति यो.। " ↩︎
-
" यत्रप्रपीडनात् इति ग.।" ↩︎
-
" प्रतप्तेनिशि इति पा०।" ↩︎
-
“अयं पाठश्चक्रासंमतः।” ↩︎
-
" तृप्तिः श्लेष्मरोगः, येन तृप्तमिवात्मानंमन्यते, तद्धंतृप्तिघ्नम्’ चक्रः।" ↩︎
-
" स्नेहोपगानीति स्नेहस्य सर्पिरादेः स्नेहनक्रियायां सहायत्वेनोपगच्छन्तीति स्नेहोपगानि, एवं वमनोपगादौ व्याख्येयं ;शिरोविरेचनोपगे तु शरोविरेचनप्रधानान्येव द्रव्याणि बोद्धव्यानि चक्रः।" ↩︎
-
" पुरीषस्य विरज़नं दोषसंबन्धनिरासं करोतीति पुरीषविरजनीयः, एवं मूत्रविरजनीयेऽपि व्याख्येयम् चक्रः।" ↩︎
-
" शोणितस्य दुष्टस्य दुष्टिमपहृत्य तंप्रकृतौ स्थापयतीति शोणितस्थापनं, वेदनायां संभूतायां तां निहत्य शरीरंप्रकृतौ स्थापयतीति वेदनास्थापनं, संज्ञां ज्ञानं च स्थायपतीति संज्ञास्थापनंप्रजोपघातकं दोषं हत्वा प्रजांस्थापयतीति प्रजास्थापनं, वयस्तरुणं स्थापयतीति वयःस्थापनम्’ चक्रः। शोणितं स्थापयति अतिप्रवृत्तं स्तम्भयतीति शोणितस्थापनं इति योगीन्द्रनाथसेनः।" ↩︎
-
" सरला इति यो.।" ↩︎
-
" कर्मणःसंपादनात् इति यो.।" ↩︎
-
" तेषां इति यो.।" ↩︎
-
" गव्यमामिषम् यो.।" ↩︎
-
“स्राव्यमञ्जनं स्रावणं रसाञ्जनम्।” ↩︎
-
" धूमो मूर्धविरेचनम् यो.।" ↩︎
-
" खालित्यं इति पा०।" ↩︎
-
" धूमरक्तकपालस्य इति धूमरिक्तकपालस्य इति च पा०।" ↩︎
-
“‘न मद्यं न पयः पीत्वा इति यो.।” ↩︎
-
" न चापि भुक्तवान् दध्ना यो.।" ↩︎
-
" ऋजु त्रिकोषमच्छिद्रं यो.।" ↩︎
-
" वर्त्मवर्षे ग।" ↩︎
-
" प्रतुच्यन्ते ग., प्रलुप्यन्ते यो.।" ↩︎
-
" मुखं इति शेषः।" ↩︎
-
" शुष्कता ग.।" ↩︎
-
" इतेर्विधमनं यो.। ईतिःदुर्दैवम्।" ↩︎
-
“गुप्तिः पिशाचादिभ्यो रक्षा।” ↩︎
-
" शीते ससंवतं इति गो.।" ↩︎
-
" सारं ग.।" ↩︎
-
" च विवर्जयेत् च।" ↩︎
-
" अग्निं संरक्षणवता ग.।" ↩︎
-
“ओकसात्म्यमभ्याससात्म्यम् ।” ↩︎
-
" वम्याः ग.।" ↩︎
-
“‘वातवर्चोनिरोधनम्’ ग.।” ↩︎
-
“प्रमाथि अनुलोमनम्।” ↩︎
-
" वातमूत्रपुरीषाणां सङ्गो ध्मानं क्लमो रुजा ग.।" ↩︎
-
“आद्यमन्नम्।” ↩︎
-
“अभिध्या परद्रव्ये स्पृहा।” ↩︎
-
" काचिद्वर्तते यो.।" ↩︎
-
" स्थैर्यात्मा ग.।" ↩︎
-
" दुःखसहिष्णुता च.।" ↩︎
-
“५. गजः सिंहमिवाकर्षन् ग.। सिंहःकिलस्वल्पप्रमाणः स्वबलोद्रेकाद्गजं कर्षन् पाटयन् स्वदेहानुचितव्यायामात् पश्चाद्वातक्षोभेण विपद्यते, तेनायं दृष्टान्तः संगतार्थः चक्रः” ↩︎
-
" स्वेदवहानि यो.।" ↩︎
-
" नस्तकर्म यो.।" ↩︎
-
" यथायोग्यमत च.।" ↩︎
-
" चान्तमुपैति ग.।" ↩︎
-
" परनारीप्रवेशिनः यो.।" ↩︎
-
" धीमता ये सुखार्थिना यो.।" ↩︎
-
" तत्र द्रव्याश्रितं कर्म ग.। द्रव्याश्रितं कर्म यदुच्यते सा क्रियेति यो.।" ↩︎
-
" सामर्थ्ययोगात् च.।" ↩︎
-
" तद्ध्यनुष्ठानं ग.।" ↩︎
-
" मूर्धस्रोतोऽभ्यङ्गपादतैलनित्यो ग.। " ↩︎
-
" मौनी ग.।" ↩︎
-
" नक्तं युगमात्रदृक् यो.।" ↩︎
-
" शमप्रधानःच.।" ↩︎
-
“यदासनं जानुप्रमाणोत्सेधं न भवति तदजानुसमम्।” ↩︎
-
" कुलच्छायां सत्कुलोत्पन्नानां स्ववंशोत्पन्नानां वा छायां नोपासीत पद्भ्यां इति शेषः, गङ्गाधरः ; कूलच्छायां यो.।" ↩︎
-
" न हूंकुर्याच्छिवम् यो.।" ↩︎
-
" असुनिभृतोऽसमाहितः चक्रः। नानिभृतः ग.।" ↩︎
-
“द्विजैः दन्तैः।” ↩︎
-
" नाति न निषिद्धतिथिषु ग.।" ↩︎
-
" अजग्धमेषजोऽनुपयुक्तवृष्यभेषजः चक्रः।" ↩︎
-
" महाग्रहोपगमनं चन्द्रसूर्यग्रहणम् चक्रः।" ↩︎
-
" अवपतितं हीनवर्णम् चक्रः।" ↩︎
-
" तान्तं रुक्षस्वरम् चक्रः।" ↩︎
-
" अतिसमयो मिलित्वा बहुभिः कृतो नियमः चक्रः।" ↩︎
-
" दक्षिणान् ग.।" ↩︎
-
" कृच्छ्रद्वितीय आपदि सहायः चक्रः।" ↩︎
-
" बहिःकुर्यादवजानीयात्’ चक्रः।" ↩︎
-
" न सर्वदा कालविचारी यो.।" ↩︎
-
" औत्सुक्यं ग.।" ↩︎
-
“जुहुयात्। आत्मानमाशीभिराप्रशासान :— अग्निर्मेमा गच्छरीरात् यो.।” ↩︎
-
" आशीर्भिराशासान इति छेदः चक्रः। आत्मानमित्यादिः अपःस्पृशेदित्यन्तो विच्छेदः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" मूर्धनि खानि षट्-द्वे नासारन्ध्रे, द्वेचक्षुषी, द्वे च श्रोत्रे गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" खुड्डाकशब्दोऽल्पवचनः, अल्पत्वं चास्य वक्ष्यमाणमहाचतुष्पादमपेक्ष्य चक्रः।" ↩︎
-
" पर्यवदातत्वं विशुद्धज्ञानवत्त्वम् चक्रः।" ↩︎
-
" हतोऽज्ञेन इति पा०।" ↩︎
-
" सद्भूतमर्हेत् यो.।" ↩︎
-
" दर्शनमिव दर्शनं चक्षुरिवेत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
“शक्ये साधयितुं शक्ये व्याधौ, प्रीतिश्चिकित्सितुं ग्रहणं ; प्रकृतिशब्देनेहमरणमुच्यते, प्रकृतिस्था आसन्नमृत्यवः। उपेक्षणं चिकित्सार्थमग्रहणम्।” ↩︎
-
" षोडशकलं षोडशगुणं चक्रः।" ↩︎
-
“श्वभ्रे गर्ते।” ↩︎
-
" इति मैत्रेयः यो.।" ↩︎
-
“‘मिथ्या विचिन्त्यत इत्यात्रेयः यो.।” ↩︎
-
" केवलात् संपूर्णात् चक्रः।" ↩︎
-
" न नास्तीत्युभयनकारकरणादस्तिसमुत्थानविशेष इत्यर्थः’ चक्रः। समुत्थानविशेषः कारणविशेषः। समुत्थानविषेशोऽस्ति ग. यो.।" ↩︎
-
" इष्वासो धानुष्कः चक्रः।" ↩︎
-
" परीक्ष्य यो.।" ↩︎
-
" भेषनातुरं चिकित्समः इति पा०।" ↩︎
-
" स्वार्थविद्या० ग. यो.।" ↩︎
-
“देशो भूमिरातुरश्च।” ↩︎
-
" इष्यतेऽन्विष्यते साध्यतेऽनयेत्येषणा ; प्राणो जीवितं, तत्साध्यतेदीर्घत्वेन रोगानुपहतत्वेन चानयेति प्राणैषणा। एवं धनैषणा। परलोकोपकारकस्य धर्मस्यैषणा परलोकैषणा चक्रः। " ↩︎
-
“अस्याग्रे किमर्थमिति चेत्उच्यते इत्यधिकं पठति योगीन्द्रनाथसेनः।” ↩︎
-
“उपकरणमारोग्यभोगधर्मसाघनीभूतो धनप्रपञ्चः’ चक्रः।” ↩︎
-
“अनवमतो अनवज्ञातो बहुमानगृहीतइत्यर्थः। ‘दीर्घजीवितमनवमतः पुरुषो जीवति यो.।” ↩︎
-
" श्रुतिः प्रतिवादिवचनमेवंग्रन्थनिबद्धम् चक्रः।" ↩︎
-
" विभागे ग.।" ↩︎
-
" कस्मान्नीरजस्तमसो मृषा ग.।" ↩︎
-
" मथ्यं मन्थनार्थमधःस्थकाष्ठमरणिर्नाम, मन्थनमूर्ध्वस्थकाष्ठं येन घृष्यते, मन्थानः कर्ता, एषां संयोगान्मन्थनक्रिययाऽवश्यमग्निसंभव इति युक्तिः । गङ्गाधरः।" ↩︎
-
“‘व्यवस्येदेवं पुनर्भवम्’ यो.।” ↩︎
-
" एवं पुनर्भवः प्रत्यक्षमपि ग.।" ↩︎
-
" संस्कारःसहितमुपसेवमानस्य ग.।" ↩︎
-
" अतिसूक्ष्मातिविप्रकृष्ट यो.।" ↩︎
-
“विमानस्थानस्य प्रथमेऽध्याये इति ज्ञेयम्।” ↩︎
-
" अत्र यद्यपि भूरिप्रधानशारीररोगकर्तृत्वेन पूर्वं शारीरमेव कर्मासात्म्यमभिधातुं युज्यते, तथाऽप्यल्पत्वेन वाङ्मानसे कर्मणी पूर्वमुक्ते ; प्रत्येकमिथ्यायोगकथने तु प्राधान्याच्छारीर एव मिथ्यायोगः प्रथमं दर्शितः चक्रः।गङ्गाधरस्तु वाङ्मनःशरीरातियोगान् यथाक्रमेणैव पठति।" ↩︎
-
" यथास्वं युक्तिर्या यस्य भावस्याभावस्य वा युक्तिः स्वकारणयुक्तिः,तदपेक्षिणौ हि भावाभावौ भवत इति संबन्धः चक्रः।" ↩︎
-
“२. –विपरीतेनापि ग. मानसव्याधिपरीतशरीरेणापि यो.।” ↩︎
-
" कण्डरा इह तन्त्रे स्थूलस्नायुः चक्रः। स्नायुकण्डराःसिरादयश्च यो.।" ↩︎
-
" कला गुणः, यदुक्तं षोडशगुणं इति, अकला गुणविरुद्धो दोषः ; यदिवा कला सूक्ष्मो भागः, तस्यापि कला कलाकला तस्यापि सूक्ष्मो भाग इत्यर्थः’ चक्रः।" ↩︎
-
" असज्यमानोऽनवतिष्ठमानः क्षीयमाणावयव इति यावत् चक्रः।" ↩︎
-
" उपघाताय भवति यो.।" ↩︎
-
" आदित्यादीनां सन्तानेन अविच्छेदेन गतिविधानं सन्तानगतिविधानम् चक्रः।" ↩︎
-
“धातूनां स्वर्णादीनां, मानं स्वं स्वं विशिष्टमानम् (स्पेसिफिक्ग्रेविहटी Specific Gravity ↩︎
-
" विक्लेदोपशोषणम् यो.।” ↩︎
-
" प्रवर्तते यो.।" ↩︎
-
" इत्येतदृषयः श्चत्वा ग.।" ↩︎
-
“संख्या सम्यग्ज्ञानं, तेन व्यवहरन्तीति सांख्याः।” ↩︎
-
“‘चासौ च.।” ↩︎
-
“प्रमीढाःप्रमेहवन्तः।” ↩︎
-
" क्षतक्षीणा ग.।" ↩︎
-
" प्रवृद्धमेदःश्लेष्माणः यो.।" ↩︎
-
" प्रतान्ता ग्लानिमन्तः।" ↩︎
-
॑ “केवलमसंस्कृतम्। केवले ग.।” ↩︎
-
" ह्यनुचरेद्देहं ग.। अनुरुजेत् यो.।" ↩︎
-
" तन्द्रीरुत्क्लेश इति ग.।" ↩︎
-
" शूलमामप्रदोषश्च जायते ग.।" ↩︎
-
“प्रस्कन्दनं विरेचनम्। प्रस्कन्दनः ग०।” ↩︎
-
" स्नेहं च द्रवमुष्णं च ग.।" ↩︎
-
" स्यात्तु संशोधनार्थाय ग.।" ↩︎
-
" कृता ग.।" ↩︎
-
“व्योषगर्भं त्रिकटुकल्कयुक्तम्।” ↩︎
-
" क्षीरं इति पा०।" ↩︎
-
" क्षारः सर्पिश्च इति पा०।" ↩︎
-
" तथाऽग्निर्जीर्यति स्नेहं तथा स्रवति चाधिकम् ग.।" ↩︎
-
" वाऽऽक्लेद्य ग.।" ↩︎
-
" संशोधनमनन्तरम् यो.।" ↩︎
-
" वा नवा ग.।" ↩︎
-
" स्वेदातिप्रवृत्त्याऽङ्गदौर्बल्यम् इति गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" ब्रध्नंगुदं, विदग्धं पक्वं, भ्रष्टं बहिर्निर्गतं वा येषां तेषां ; पक्वगुदबलीनां गुदभ्रंशवतां च इति गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" आढ्यरोगिणां वातरक्तवतां गङ्गाधरः।" ↩︎
-
“°विशुद्धाना° ग.।” ↩︎
-
" सर्वेष्वेषु यो.। सर्वाङ्गेषु विकारेषु ज्वरादिषु गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" पूर्वैस्तिलादिभिः चक्रः।" ↩︎
-
" विधूमाङ्गारतप्तेषु स्वभ्यक्तः स्विद्यते सुखम् यो.।" ↩︎
-
" वराहमेदःपित्तासृक् यो.।" ↩︎
-
" स्नेहवद्यावद्बीजमेरण्डबीजादिकं, तत्रप्राधान्यान्निस्तुषीकृत्य ग्रहणार्थं पृथगुक्तं तिलतण्डुला इति गङ्गाधरः।" ↩︎
-
““शैरीषº” ↩︎
-
“’°शुङ्गवल्कादीनां ग.।” ↩︎
-
" व्यामाध्यर्धदीर्घया ग.।" ↩︎
-
" ह्यनृजुगामी यो.।" ↩︎
-
" उत्तरवातिकानि उत्तरवाते प्रधानवाते वातश्लेष्मणि हितानीह ग्राह्याणि चक्रः।" ↩︎
-
“परीवापो दीर्घिका।” ↩︎
-
“कूटागारं वर्तुलागारम्॥” ↩︎
-
“किष्कुर्हस्तः।” ↩︎
-
" यया चुल्हिकया तण्डुलादीनि लोके भृज्जति तद्भर्जनचुल्हिका कन्दुनाम्नोच्यते’ गङ्गाधरः। ‘कुन्दसंस्थानं च.; कुन्दःकुम्भकाराग्निसंस्थानं चक्रः।" ↩︎
-
" अङ्गारार्थं कोष्ठोऽवकाशो विद्यतेऽस्मिन् सोऽङ्गारकोष्ठकः स एवस्तम्भः चक्रः।" ↩︎
-
" स यदा च. स इत्यत्र त्वमित्यध्याहार्यं चक्रः। त्वं यदा जानीयाश्च ग.।" ↩︎
-
“‘अथ व्यपगत ग.।” ↩︎
-
" शयानः स्विद्यते सुखम् यो.।" ↩︎
-
“’कौरवंकार्पासवस्त्रं चक्रः। रौरवाजिनº ग.।” ↩︎
-
" सुखं वृतः यो.।" ↩︎
-
" कर्षूः अभ्यन्तरविस्तीर्णोऽल्पमुखो गर्तः चक्रः।" ↩︎
-
“’०कम्बलगोणिकैः” यो.।” ↩︎
-
" हसन्तिका अङ्गारधानिका चक्रः।" ↩︎
-
" परिवार्य तामारोहेत् च।" ↩︎
-
" वेधत इत्यधःखननप्रमाणेन चक्रः।" ↩︎
-
" धीतिका शुष्कगोमयादिकृतोऽश्याश्रयविशेषः चक्रः।" ↩︎
-
" अग्निगुणादृते साक्षादग्निसंबन्धेन कृतादुष्णत्वाद्विना चक्रः।" ↩︎
-
" द्वन्द्वंपरस्परविरुद्धं युग्मं चक्रः।" ↩︎
-
“परिसंख्यायेति ज्ञात्वा चक्रः।” ↩︎
-
" क्रयःपण्यं, आक्रयो मूल्यं चक्रः।" ↩︎
-
" यथावदुपदेष्टुं शक्यमस्माभिरस्मद्विधैर्वेति योजना; एतदिति प्रयोगसौष्ठवं, एवमिति यथावत्, उपधारयितुमिति ग्रन्थेन धारयितुं, प्रतिपत्तुमित्यर्थतो गृहीतं चक्रः।" ↩︎
-
" अनुपत्यकं यद्विदूरमन्यस्य महतो गृहस्य चक्रः।" ↩︎
-
“उदकं पीयते येन तदुदपानं चक्रः। सोपानोदूखल° ग.।” ↩︎
-
" उल्लापकं स्तोत्रं चक्रः।" ↩︎
-
“‘°कथा°’यो.।” ↩︎
-
" शरणं गृहं चक्रः।" ↩︎
-
" पर्योगःकटाहः चक्रः।" ↩︎
-
" परिपचनं तैलपाचनिका’ चक्रः।" ↩︎
-
“‘भृङ्गारो नालमुखजलपात्रविशेषः, प्रतिग्रहः निष्ठीविकादिक्षेपणपात्रं गङ्गाधरः।” ↩︎
-
" सोपाश्रयाणि यो।" ↩︎
-
" उपधानः शिलापुत्र इति प्रसिद्धः चक्रः।" ↩︎
-
" कुशहस्तकं संमार्जनी शिवदासः।" ↩︎
-
" उभयभाजि इति पा०।" ↩︎
-
“‘अस्मिन्नन्तरे स्नेहस्वेदकरणसमये चक्रः’।” ↩︎
-
" इष्टे नक्षत्रे तिथिकरणमुहूर्तनक्षत्रे प्रशस्ते इति यो.।" ↩︎
-
“कुक्षिमनुसृतं यो.।” ↩︎
-
" स्वापाश्रयं ग.।" ↩︎
-
" प्रतिगृह्णन्तीति प्रतिग्रहा ललाटप्रतिग्रहादयः चक्रः। प्रतिग्रहांश्च ये त्वङ्गविशेषं धारयेयुस्तानुपाचरेत् गङ्गाधरः। प्रतिग्रहान् पतद्ग्रहान् शिवदासः।" ↩︎
-
" अनुकूलाः यो.।" ↩︎
-
" सुपलिखित ग.।" ↩︎
-
" अनभिस्पृशन् ईषदभिस्पृशन् इति गङ्गाधर। कण्ठमभिस्पृशन् यो.। " ↩︎
-
" अप्रवृत्तिः कुतश्चिदिति सर्वस्यैवाप्रवृत्तिः, तथा केवलस्य कृत्स्नस्य शोधनीयदोषस्याप्रवृत्तिः, तथौषधस्य विभ्रंशः प्रातिलोम्येन गमनं चक्रः।" ↩︎
-
" यथाक्रममिति वमने प्रथमं कफः, तदनु पित्तं, तदनु वायुः’ चक्रः। ‘यथास्वं ग.।" ↩︎
-
" चन्द्रकोद्गमनं यो.।" ↩︎
-
" सामर्थ्यत इति यद्यस्य युज्यत इत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
“‘प्रमितभोजनमेकरसाभ्यासः, अतिहीनं नष्टशक्तिकं धान्यादि’ चक्रः।” ↩︎
-
" सर्वमाहारमद्याः इति ग.।" ↩︎
-
" प्रतिविनीतमालोडितम् चक्रः।" ↩︎
-
" वमनोक्तेन ग.।" ↩︎
-
“विशोधनम् यो.।” ↩︎
-
“संभाराणां प्रकर्षेण भृतिर्भरणमायोजनं प्रभृतिः, तया वर्तते यः स प्राभृतः, चिकित्सायां प्राभृतो यः स चिकित्साप्राभृतः गङ्गाधरः।” ↩︎
-
“‘०श्चानुवर्धनम् ग.।” ↩︎
-
" चैवानुलोमं ग. ।" ↩︎
-
“प्रसवानामङ्कुराणाम्। प्रसराणां ग.।” ↩︎
-
" भेषजक्षयिते ग.।" ↩︎
-
" मधुरकैर्जविनीयैर्दशभिः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" स्मरन्पूर्वमनुक्रममित्यनेन यः पूर्वमयोगे हेतुभूतस्तं परिहरन्निति शिक्षयति चक्रः।" ↩︎
-
" जायन्त इत्यादि। देहधातवो देहस्य धारका ये भावास्ते " ↩︎
-
" कान् समीकुरुते इति विषमाणामस्थिरत्वेन साम्यं तत्र कर्तुं न पार्यत इत्याशयः। किमर्थं प्रयुज्यत इति यन्निवृत्त्यर्थं चिकित्सा प्रयुज्यते तद्धातुवैषम्यं स्वभावान्निवृत्तमिति चिकित्साप्रयोजनं नास्ति इति चक्रः।" ↩︎
-
" २. भावानां सदैव स्वभावस्योपरमो यो नाशस्तस्य कारणं न ज्ञायते नोपल-" ↩︎
-
" वाऽप्यनिलादीनां यो.।" ↩︎
-
" क्षयस्थानवृद्धयो दोषमानं, तस्य विकल्पो दोषान्तरसंबन्धासंबन्धकृतो भेदः चक्रः।" ↩︎
-
" वाऽनघ यो.।" ↩︎
-
" दृष्टाः ग.।" ↩︎
-
“‘गतिर्वक्ष्यामि विस्तरम्’ ग.।” ↩︎
-
“‘°दुत्स्वेदार्द्र यो.‘°दाघ्राताद्र°’ ग.।” ↩︎
-
" पृथग्दृष्टास्तु ग.।" ↩︎
-
“‘तीक्ष्णघ्राणात्’ ग.।” ↩︎
-
" °व्द्यायामा ” ग.।" ↩︎
-
“‘वैधमनीर्वायु’ग.।” ↩︎
-
“घाटा ग्रीवायाः पश्चाद्भागः।” ↩︎
-
“‘भ्रुवोर्मध्यं’ ग.।” ↩︎
-
" बध्येते इव बध्येते इत्यर्थः, पीडायुक्तत्वेन चक्रः। बाध्येते यो।" ↩︎
-
" शीतं सुषूयते शीतमिच्छति चक्रः। शीतं सुखायते यो.। " ↩︎
-
" छेदव्यधनरुक्कण्डूशोफदौर्गत्यदुःखितम् इति पा०।" ↩︎
-
" दर्शनेन इति पा०।" ↩︎
-
“‘°शीतरूक्षाल्पभोजनैः यो.। " ↩︎
-
" भ्रमः ग.। द्रवः . यो.।” ↩︎
-
" पित्ताम्लोद्गिरणं ग.।" ↩︎
-
“अयमर्धश्लोकश्चक्रासंमतः।” ↩︎
-
" ते जाता ग.। " ↩︎
-
“‘संसर्गेण नवैते षट्’ ग.।” ↩︎
-
" समैस्त्रय इति वृद्धैः समैः चक्रः।" ↩︎
-
" उपदिश्यते यो.।" ↩︎
-
" भवेत्तस्य ग.।" ↩︎
-
" प्रकृतिस्थं ग.।" ↩︎
-
" शैत्यस्तम्भनगौरवम् ग.।" ↩︎
-
" प्रकृतिस्थं यदा वातं ग.।" ↩︎
-
" प्रकृतिस्थं कफं ग.।" ↩︎
-
" संनिरुध्यात्तदा ग.।" ↩︎
-
“प्रकृतिस्थं यदा वातं श्लेष्मा पित्तपरिक्षये ग.।” ↩︎
-
" ज्वरं ग.।" ↩︎
-
" प्रकृतिस्थं यदा पित्तं श्लेष्मा मारुतसंक्षये ग.।" ↩︎
-
" सदाहं ग.। " ↩︎
-
" पाण्डुतां दूयनं तथा यो.।" ↩︎
-
" हीनपित्तस्य ग.।" ↩︎
-
" स्फोटनमुत्तमम् इति पा०।" ↩︎
-
" वेपयत्यथ मानवम् यो.।" ↩︎
-
“‘शूलति’ ग.।” ↩︎
-
" भ्रमः ग.।" ↩︎
-
" यच्छुभ्रं यो.।" ↩︎
-
“गङ्गाधरमतोऽयं पाठः।” ↩︎
-
" अतिवर्तनमोक्षणम् ग.।" ↩︎
-
““लवणान्यतिमात्रं निषेविणाम्’ ग.। “लवणान्यतिमात्रं समश्नताम् यो.।” ↩︎
-
“‘तैरावृतः प्रसादं च गृहीत्वा याति मारुतः’ यो.।” ↩︎
-
" भवन्त्युपेक्षया तस्य यो.।" ↩︎
-
" दुःखा दहति यो.।" ↩︎
-
" कण्डराभास्थूलस्वय्वाकारा चक्रः।" ↩︎
-
" संक्लिष्टं दोषलं इति चक्रः।" ↩︎
-
" चोल्ककैरिव ग.। उल्मुकैरङ्गारैः।" ↩︎
-
" व्यम्लतां याता विदाहं प्राप्ता इति चक्रः।" ↩︎
-
" स्रावं इति पा०।" ↩︎
-
“प्रधानमर्मजायां हृदयजायाम्।” ↩︎
-
“‘कृच्छ्रमूत्रपूतिवर्चस्त्वं यो.।” ↩︎
-
" प्रभूतश्लेष्ममेदसः ग.।" ↩︎
-
" संभवन्त्यल्पमेदसः ग.।" ↩︎
-
" पाष्ण्योस्तले ग.।" ↩︎
-
" यथास्वं हेतुलक्षणैः यो.।" ↩︎
-
“‘°मांससंकोच ग.।” ↩︎
-
“‘स्थानं स्वमानावस्थानं’ इति चक्रः।” ↩︎
-
" गतिः प्रकारोऽवस्था वा इति चक्रः।" ↩︎
-
“‘पित्तादूष्मोष्मणः’ इति पा°।” ↩︎
-
“‘पित्तं चैव’ ग.।” ↩︎
-
" बलमिति बलहेतुत्वेन, मल इति शरीरमलिनीकरणात्; ओज इति सारभूतं, यदि वा द्वितीयश्लैष्मिकौजोहेतुत्वेनौजः, वक्ष्यति शारीरे तावञ्चैव लैष्मिकस्यौजसः प्रमाणम् इति चक्रः।" ↩︎
-
" उपरुध्यते म्रियते चक्रः।" ↩︎
-
“‘कर्मरोगोपवासाध्वकर्षितस्य ग.।” ↩︎
-
““धूमोपवासा” ग.।” ↩︎
-
“‘°भिन्नलोमा ग.।” ↩︎
-
" शोणितादीन्यभिभूय ग.।" ↩︎
-
" न सुषूयते न सहते चक्रः। नच स्पर्शमुष्णं च सहते यो.।" ↩︎
-
" एक एवं सप्तविधो भेदः ग.।" ↩︎
-
" प्रकृतिभि° ग.। " ↩︎
-
" दूयन्ते ग.। " ↩︎
-
“पीतमुखनेत्रत्वक् ग.।” ↩︎
-
“‘प्रसूयते ग.।” ↩︎
-
" पाण्डुः कण्डूयतेऽपि च यो.।" ↩︎
-
" पिच्छां ग.।" ↩︎
-
" पादाभिनिर्वृत्तः पुरुषाणां लघावधोदेशे जातः सन् स यदा न जीयते तदा गुरुमूर्ध्वप्रदेशं गतः स च न पार्यते जेतुं, यो हि लधौ प्रदेशे जेतुं न पार्यते गुरुप्रदेशगतो नितरामेव न पायेंते; एवं प्रभृतः स्त्रीमुग्वाच्च य इत्यपि ज्ञेयं वचनं हि— अधोभागो गुरुः स्त्रीणामूर्ध्वः पुलां गुरुस्तथा इति चक्रः।" ↩︎
-
" शोधो गुर्वगो ग.।" ↩︎
-
" विसर्पस्य पिडकायाश्च तुल्यकारणत्वेऽप विसर्फे सर्पणशीलो दोषः पिडकायां च स्थिरो ज्ञेयः, अत एव पिडकासंप्राप्ती अवतिष्ठते इत्युक्तम् इति चक्रः।" ↩︎
-
" यस्यपित्तमित्यादौ पित्तं प्राप्य शोणितं कर्तृ शुष्यतीति योजनीयं इति चक्रः।" ↩︎
-
“पार्श्वेहृन्नाभिवस्तिष्वित्यर्थः।” ↩︎
-
" कुक्षिमावार्य ग.।" ↩︎
-
“‘क्षिप्रमनुकान्तः शीघ्रं चिकित्सित इत्यर्थः चक्रः।” ↩︎
-
" मिथ्याचारेण ग.।" ↩︎
-
" यात्राकरं यापनाकरं चक्रः।" ↩︎
-
" वैद्यैः इति पा०।" ↩︎
-
“रुजावर्णसमुत्थान° च. ग.।” ↩︎
-
" व्यवस्थाकरणं चिकित्साव्यवहारार्थं संख्याकथनं, यथास्थूलेष्विति ये ये स्थूला उदरमूत्रकृच्छ्रादयस्तेषु, संग्रहोऽष्टोदरीये संग्रह इत्यर्थः चक्रः। व्यवस्थाकारणं यो।" ↩︎
-
" विकारान् कुरुते’ यो.।" ↩︎
-
" अधिष्ठानान्तराणि आशयान्तराणि चक्रः।" ↩︎
-
" गतिमतां पुरीषादीनां बहिनिःसरतां चक्रः।" ↩︎
-
" बन्धःसन्धिबन्धः चक्रः।" ↩︎
-
" चैतत् यो.।" ↩︎
-
" दोषेत्यादि प्रकृतिः स्वभावः, तस्य वैशेष्यमाधिक्यं’ चक्रः।" ↩︎
-
“‘वीतमोहरजोदोष० यो.।” ↩︎
-
" यद्यपि चिकित्सितेऽष्टादश कुष्ठानि, तथाऽपीह महाकुष्ठाभिप्रायेण सप्तोच्यन्ते चक्रः।" ↩︎
-
" स्थानमिव स्थानं कारणं, तेन अनशनस्थानान्यरोचकानि; अनेन कारणेन कार्याण्यरोचकानि गृह्यन्ते, तेन रोगसंग्रहे कारणाभिधानमन्याय्यमिति न भवति चक्रः।" ↩︎
-
" वातपित्तकफद्वेषायासाः ग.।" ↩︎
-
" पूर्वोद्देशमभिसमस्येति कियन्तःशिरसीये विस्तरोक्तान् संक्षिप्य चक्रः।" ↩︎
-
" अतत्त्वाभिनिवेशो मानसो विकारः, स च सर्वसंसारिदुःखहेतुतया गद इत्युच्यते चक्रः।" ↩︎
-
" सर्व दिवसमपि इति पा०।" ↩︎
-
“१. स्थानं रसादयो बस्त्यादयश्च, संस्थानमाकृतिर्लक्षणमिति यावत्, प्रकृतिः कारणं, एषां विशेषानभिसमीक्ष्य तांस्तानुपदिशन्ति अष्टावुदराणि इत्येवमाद्युपदिशन्ति; तदात्मकानपीति वातादिजनितानपि चक्रः। समुत्थानस्थानसंस्थानवेदनावर्णनामप्रभावचिकित्सितप्रकृतिविशेषान् यो.।” ↩︎
-
““मतिप्रवृद्धः ग.।” ↩︎
-
" प्रकृत्यधिष्ठानलिङ्गायतनवेदनाविकल्पानामपरिसंख्येयत्वात् यो.।" ↩︎
-
" मुखानि कारणानि चक्रः।" ↩︎
-
" प्रेरणं कारणं चक्रः।" ↩︎
-
" न चान्योन्येन सह संदेह°’ग.।" ↩︎
-
" जघन्यमिति पश्चात् गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" स्थानविभागम नुव्याख्यास्यामः ग.।" ↩︎
-
" पुरीषाधानं पक्वाशयः चक्रः।" ↩︎
-
" लसीका देहोदकस्य पिच्छाभागः गङ्गाधर।" ↩︎
-
" पित्तस्थाने आमाशय इत्यामाशयाधोभागः, श्लेष्मस्थाने आमाशय इति आमाशयोर्ध्वभागः चक्रः।" ↩︎
-
" सामान्यजा इति वातादिभिः प्रत्येकं मिलितैश्च ये जन्यन्ते, नानात्मजा इति ये वातादिभिर्दोषान्तरासंपृक्तैर्जन्यन्ते चक्रः।" ↩︎
-
" तत्रादित एव यो.।" ↩︎
-
" वृषणाक्षेपश्च यो।" ↩︎
-
" कुब्जत्वं च इति क्वचित्पुस्तके न पठ्यते।" ↩︎
-
“‘उन्मादश्च’ ग.” ↩︎
-
" हनुताडश्च च.; हनुभेदश्च ग.।" ↩︎
-
" तालुभेदश्च इत्यष्टाङ्गसंग्रहे पा०।" ↩︎
-
" पक्षभेदश्च इति क्वचित्पुस्तके न पठ्यते।" ↩︎
-
" तमश्च पा०।" ↩︎
-
“३. नखभेदःनखभङ्गुरता, विपादिका पाणिपादस्फुटनं, पादभ्रंशः पादस्यारोपदेशविषयादन्यत्र पतनं, जानुविश्लेषः जानुसन्धिशैथिल्यं, ऊरुस्तम्भः ऊरुस्तम्भनमात्रं, हृद्रवः हृदयस्य द्रुतिः स्फुरणं, कण्ठोद्ध्वसः शुष्ककासः, ओष्ठभेद ओष्ठस्तम्भः, अक्षिभेदः अक्षिगोलकभ्रमणाभावरूपोऽक्षिस्तम्भः, दन्तभेदःदन्तभङ्गः, वाक्संगःअस्फुटवचनत्वं, अशब्दश्रवणं शब्दाभावेऽपि शब्दश्रवणं, उच्चैःश्रुतिः बृहद्धनिश्रवणं न त्वल्प- ध्वनेः, अक्षिव्युदासः नेत्रस्य स्वस्थानच्युतता, भ्रूव्युदासः भ्रुवोः स्वस्थानादधो निपतनं, शङ्खभेदः शङ्खो ललाटैकदेशस्तस्य वेदना न तु शङ्खकरोगः, शिरोरुगिति केवलं शिरःपीडा नतु पञ्चशिरोरोगा ये उक्ताः, हि क्वेति न पञ्च हिक्का या सामान्यजा उक्ताः किंतु हिक्कनमात्रं, अतिप्रलापश्चेति वातकृतः प्रलापस्तु पित्तकृत इति अतिप्रलापप्रलापयोर्भेदान्न सामान्यजत्वं इति गङ्गाधरः। ‘एकाङ्गरोगः सर्वाङ्गरोगश्चेति ज्वरादिपु उष्णत्वशीतत्वादीनां कदाचिदेकाङ्गव्यापकत्वेनैकाङ्गरोगः, तेषामेव कदाचित्सर्वाङ्गव्यापकत्वेन सर्वाङ्गरोगः, दोषान्तरसंबन्धेऽपि व्याप्त्यव्याप्ती वातकृते एव इति चक्रः। अर्दितादयः षट् वातव्याधिचिकित्सिते वक्ष्यन्ते इति योगीन्द्रनाथसेनः।” ↩︎
-
" अपरिणामीति सहजसिद्धं नान्योपाधिकृतमित्यर्थः, कर्मणश्चेति विकृतस्य वायोः कर्मणः’ चक्रः। अपरिणामि अव्यभिचारि इति योगीन्द्रनाथसेनः।" ↩︎
-
" स्रंसः किंचिदवस्थानचलनं, भ्रंशस्तु दूरगतिः, व्यासो विस्तरणं, वर्तुलीकरणं वर्तः, चालःस्पन्दः, रसवर्णौवायुना रसवर्णरहितेनापि प्रभावात् क्रियेते चक्रः।" ↩︎
-
““व्यासङ्ग " ↩︎
-
" केवलं वैकारिकमिति सकलविकारकारकम् चक्रः।” ↩︎
-
“अयं पाठःक्वचित्पुस्तके नोपलभ्यते।” ↩︎
-
“अयं पाठः क्वचित्पुस्तके नोपलभ्यते।” ↩︎
-
" चर्मदलनं च ग.।" ↩︎
-
“१. ओषःपार्श्वस्थितेन वह्निनेव पीडा, प्लोषःकिंचिद्दहनमिव दाहः सर्वाङ्गदहनमिव, दवथुः धक्धकीति लोके, त्वगवदरणं बाह्यत्वङ्मात्रविदीर्णता, चर्मावदरणं षण्णां त्वचां विदीर्णता, रक्तसंसर्गेण रक्तीभूतं पित्तं रक्तपित्तंं नतु रक्तपित्ताख्यो रोगः, तृष्णाधिक्यं केवलतृष्णातिशयः नतु तृष्णाख्यरोगविशेषः तस्य सामान्यजत्वात्, जीवादानं विरेचनव्यापद्विशेष उक्तो यो जीवरक्तनिर्गमः, हरितेत्यादिना एक एव रोगः गङ्गाधरः।” ↩︎
-
" लाघवमनतिस्नेहः इति पा०।" ↩︎
-
“व्यपोढे व्यपगते; व्यपगते ग.।” ↩︎
-
" तृप्तिर्येन तृप्तमिवात्मानं सर्वदा मन्यते, बलासको बलक्षयः, किंवा श्लेष्मोद्रेकान्मन्दजषित्वं, स्थूलाङ्गता बलासकः, धमनीप्रतिचयो धमन्युपलेपः चक्रः ।" ↩︎
-
" अपक्तिश्च ग.।" ↩︎
-
" मार्त्ख्यंमसृणता चक्रः।" ↩︎
-
" विकारो मुखमीरणम् ग.।" ↩︎
-
" अतिश्वेतश्चातिकृष्णश्च यो।" ↩︎
-
" जरोपरोधः’ ग.।" ↩︎
-
“‘अतिसंपूरणमतिभोजनं चक्रः।” ↩︎
-
" बीजस्वभावादिति स्थूलमातापितृजन्यात् चक्रः।" ↩︎
-
" जरोपरोधः ग.।" ↩︎
-
" क्रियातियोगो वमनादिसंशोधनक्रियाणामतियोगः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" रूक्षस्योद्वर्तनं स्नानस्याभ्यासः इति पा०।" ↩︎
-
" प्रकृतिरतिकशमातापित्रोः शोणितशुक्रस्य स्वभावः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" विकारानुशयो व्याधेश्चिरानुवृत्तिः’ गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" क्षुत्पिपासामहौपधम् इति पा०।" ↩︎
-
" ऽभिबाधन्ते यो.।" ↩︎
-
" धमनीजालसंवृतः यो.।" ↩︎
-
" समसंहनन इति समं यथायोग्यं संहननं शरीरमांसादीनां संनिवेशो दार्ढ्य यस्य सः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" दृढेन्द्रियो विकाराणां यो.।" ↩︎
-
“गुरु चातर्पणं यथा - मधु, एतद्धिगुरुत्वाद्वृद्धमग्नियापयति, अपतर्पणत्वान्मेदो हन्ति; लघु संतर्पणं च शालिपष्टिकैणेयमांसादि।” ↩︎
-
" कुलत्थाश्च मकुष्ठकाः ग.।" ↩︎
-
" क्लमं गताः यो.।" ↩︎
-
“४. मनसीति चेतसि, क्लान्ते क्लमान्विते, कर्मात्मान इन्द्रियाणि, विषयेभ्यः शब्दस्पर्शादिभ्यः; कालस्वभावात् श्रमादिहेत्वन्तरतो वा मनसि चेष्टाहीने मनःप्रयुज्यानीन्द्रियाणि क्लमान्वितानि भूत्वा विषयेभ्यः शब्दस्पर्शादिभ्यो निवर्तन्ते यदा तदा मानवो राशिपुरुषः स्वपितिः एतेन समनस्केन्द्रियाणां विषयतो निवृत्तिर्निद्रेति ख्यापितम् गङ्गाधरः।” ↩︎
-
" कोठारुःपिडकाः यो।" ↩︎
-
" आसीनप्रचलायितमुपविष्टस्य किंचिन्निद्रासेवनम् चक्रः। आसीनप्रचलायितमुपविष्टस्य घूर्णनं घूर्णितं प्रचलायितं इत्यमरः शिवदासः।" ↩︎
-
“२. तमोभवा तमोगुणोद्रेकभवा, मनःशरीरश्रमसंभवा मनःशरीरयोः श्रमेण क्रियोपरमे सति नेन्द्रियाणि नच गनो विषयेषु प्रवर्तते ततश्च निद्रा भवति, आगन्तुकी रिष्टभूता, व्याध्यनुवर्तिनी सन्निपातज्वरादिकार्या, रात्रि स्वभावात्प्रभवतीति रात्रिस्वभावप्रभवा, दिवा प्रभवन्ती तु निद्रा तमःप्रभृतिभ्यस्त्रिभ्य एव भवति चक्रः।” ↩︎
-
“३. भूतानि प्राणिनो दधतीति भूतधात्री, धात्रीव धात्री; अघस्य पापस्य मूलमिति कारणं, तमोगृहीतो हि सदा निद्रात्मकत्वेनानुष्ठेयं सद्वृत्तं न करोति, ततश्चाधर्मोत्पादः; व्याधिषु शारीरव्याधिषु चक्रः।” ↩︎
-
" अतिनिद्रायानिद्राय च।" ↩︎
-
" यथा यत्प्रभवा ग.।" ↩︎
-
" जानीयात् स भवेद्भिषक् ग.।" ↩︎
-
" शिष्याऊचुः यो।" ↩︎
-
" किं त° ग.।" ↩︎
-
" के स्नेहा ग.।" ↩︎
-
““तिवृत्तानां ग.।” ↩︎
-
" गुरुरुवाच यो.।" ↩︎
-
" विष्यन्दो विलयनम् चक्रः।" ↩︎
-
" स्थूलं यो.।" ↩︎
-
" चतुःप्रकारा संशुद्धिरिति अनुवासनं वर्जयित्वा, तस्य बृंहणत्वात् चक्रः।" ↩︎
-
" पिपासेति पिपासानिग्रहः चक्रः।" ↩︎
-
" दोषान् यो.।" ↩︎
-
" दोषाणामवरं यो.।" ↩︎
-
“३. प्रमीढानां प्रमेहिणाम् ।” ↩︎
-
" अदिग्धविद्धविषाक्तशस्त्राविद्धं चक्रः।" ↩︎
-
" अक्लिष्टं रोगानुपहतप्राणिमांसम् ।" ↩︎
-
" सात्म्ये देशे चरन्तीति सात्म्यचारिणः, तेषां चक्रः।" ↩︎
-
" खलिः निःस्नेहसर्षपखलिः, पिण्याको निःस्नेहतिलखलिः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" स्तम्भनीया निदर्शिताः यो.; स्तम्भनीयास्तथाऽपरे ग.।" ↩︎
-
" कार्श्यदोषविवर्जनमिति कार्श्येये दोषाः शीतोष्णासहत्वादयः, तेषां वर्जनम् चक्रः।" ↩︎
-
" कृतातिकृतचिह्नं ग.।" ↩︎
-
" तदौषधानां लङ्घनादिसाध्यानां चक्रः।" ↩︎
-
" दोषाणां यस्मात् संसर्गा बहवस्तस्मात्तत्साधनार्थमुपक्रमा अपि संकीर्यन्ते मिश्रतां यान्ति; यथा - क्वचिलङ्घनस्वेदे, क्वचिद्बृहणस्वेदने, एवमादि; षट्त्वं तु नातिवर्तन्त इति संसृष्टा अपि लङ्घनादिस्वरूपं न जहति, लङ्घनादयो मधुसर्पिःसंयोगवन्न प्रकृतिगुणानपेक्षिकार्यान्तरमारभन्त इति भावः चक्रः।" ↩︎
-
“‘°चान्यैः यो.।” ↩︎
-
" प्रमेहपिडकाकोठकण्डूपाण्ड्वामयज्वराः यो.।" ↩︎
-
" प्रमीलकः सततं प्रध्यानं चक्रः।" ↩︎
-
" उद्वर्तनमभ्यङ्गपूर्वकं, उद्धर्षस्त्वनभ्यङ्गपूर्वकः चक्रः। " ↩︎
-
" क्षयम् यो.।" ↩︎
-
" लोहोदकाप्लुत इत्यगुरूदकाप्लुतः, उदककरणं च षडङ्गविधानेन चक्रः।" ↩︎
-
" सन्तर्पणमिति जलालोडितसक्तुरूपतया, तेन संतर्पणसंज्ञकस्याप्यपतर्पणरूपता ज्ञेया चक्रः।" ↩︎
-
" लौल्यं यो.।" ↩︎
-
" ऊर्ध्ववातः श्वासादिर्यत्रोर्ध्वं वायुर्याति, किंवा तन्त्रान्तरोक्तो रोगविशेषः; यथा-अधः प्रतिहतो वायुः श्लेष्मणा कुपितेन च । करोत्यनिशमुद्गारमूर्ध्ववातः स उच्यते चक्रः।" ↩︎
-
" यत्तदर्थे ग.।" ↩︎
-
" तर्पणास्तर्पणाश्चेति संतर्पणकारकमन्थादयः, तेनेह संज्ञामात्रेण ये तर्पणा अतर्पणकारका व्योषादयस्ते न ग्राह्याः चक्रः।" ↩︎
-
““पिप्पलीतैल ग॰।” ↩︎
-
" विधिनेति सम्यगाहाराचारविधिना चक्रः।" ↩︎
-
" संप्रकाशित इति तस्याशितीयादौ चक्रः। स प्रदर्शितः यो।" ↩︎
-
" अत्यादानं तृप्तिमतिक्रम्य भोजनं चक्रः।" ↩︎
-
" मुखनासाक्षिपाकश्च ग.।" ↩︎
-
" वैरस्य ग.।" ↩︎
-
" विरेकमनुवासं च ग.।" ↩︎
-
" संज्ञावहानीति संज्ञाहेतुमनोवहानि चक्रः।" ↩︎
-
“‘सक्रोधपरुषाभासं यो।” ↩︎
-
" निद्रा°ग.।" ↩︎
-
" °कफश्रयात्ग.।" ↩︎
-
" तमोघनैरिति तमोभिर्धनैश्च चक्रः।" ↩︎
-
" विना बीभत्सचेष्टितैरिति दन्तखादनाङ्गविक्षेपणादिकं विना चक्रः। " ↩︎
-
" कृतवेगेष्विति वेगं कृत्वा क्षीणबलेषु, वेगो हि दोषाणां बलक्षयकारणं भवति, यदुक्तं विषमज्वरे कृत्वा वेगं गतबला इत्यादि चक्र । हृतवेगेषु इति पा०। " ↩︎
-
" प्राणायतनं हृदयं चक्रः।" ↩︎
-
" मुक्त्वेति अप्राप्य चक्रः। " ↩︎
-
" गालयेदिति यत्रेन मुखे प्रक्षिपेत् चक्रः।" ↩︎
-
" ततः स रक्षितव्यो हि मनःप्रलयहेतुतः ग.।" ↩︎
-
" अष्टाविंशत्यौषधस्येति पानीय कल्याणस्य चक्रः।" ↩︎
-
" कौम्भस्य दशाब्दिकस्य चक्रः।" ↩︎
-
“प्रत्यक्षधर्माणं साक्षात्कृतधर्माण, सुदृढेन प्रमाणेनावधारिता अर्था येन स साक्षात्कृतधर्मा।” ↩︎
-
" उपासतां ग.; महर्षय उपासीनाःप्रादुश्चक्रुरिमां कथाम् इति पा०।" ↩︎
-
" तदन्तरं काशिपतिर्वामको वाचमर्थवित् ग.।" ↩︎
-
““°मभिष्टुत्या°’ ग.।” ↩︎
-
" भोः ग. ।" ↩︎
-
" तत एव पुरुषजनकात् कारणाज्जातास्तज्जाः चक्रः।" ↩︎
-
" चेतनाधातुरात्मा चक्रः।" ↩︎
-
" सुखदुःखयोरारोग्यरोगयोः" ↩︎
-
" न ह्येकं कारणं मन इति व्याधिमात्रं प्रतीति शेषः" ↩︎
-
" शरीराच्छारीररोगाणां ग.।" ↩︎
-
" रसजानीत्यादौ स्मृता निर्वृत्तिहेतव इति व्याधिपुरुषयोः; एतेन व्याधिपुरुषजनकरसकारणत्वेनापः कारणकारणतया पुरुषविकारयोः कारणं भवन्ति चक्रः।" ↩︎
-
" यस्मादतीन्द्रियं मन आत्मा चातीन्द्रियः, तस्मान्न रसजौ; रसाद्धि जायमानं कारणगुणानुविधानादौन्द्रियकं स्यादित्यर्थः। हेत्वन्तरमाहसन्तीत्यादि। अहितशब्दादिजन्ये विकारे न रसः कारणमित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" आत्मा पृथिव्यादीनि च पञ्च षड् धातवः चक्रः।" ↩︎
-
" परीक्षितः ग.।" ↩︎
-
" शौनकिः यो।" ↩︎
-
" ‘मातापित्रनपेक्षित्वे सर्वप्राणिषु षड्धातुसमुदायस्य विद्यमानत्वेन नरगोश्वादिभेदो न स्यादिति भावः चक्रः।" ↩︎
-
" पुरुषः पुरुषं गौर्गामश्वोऽश्वं तु प्रजायते ग.। अस्मिन् पाठे प्रजायते इत्यस्य उत्पादयतीत्यर्थः।" ↩︎
-
" मातापितृभवाश्चोक्ता ग.।" ↩︎
-
" प्रागिति सर्गादौ निःशरीरिणि मातापित्रोरुत्पत्तिर्न स्यात् चक्रः।" ↩︎
-
" कर्मणःपूर्व कर्ता भवति इति शेषः, येन कर्मणा स पुरुषः कर्तव्यस्तस्य कर्मणः पुरुषपूर्वभावित्वात् कारणत्वं स्वीकर्तव्यं, ततश्च स चेद्विना कर्म पुरुषोऽभूत्, कथं पुरुषस्य कर्म कारणमिति भावः चक्रः।" ↩︎
-
" भावहेतुरुत्पत्ति हेतुः’ चक्रः।" ↩︎
-
“‘यदि स्वभावादेव भावानां विकारशरीरादीनां सिद्ध्यसिद्धी भवतः, तदाऽऽरम्भफलं न भवेत्, स्वाभाविकत्वाद्भावानां; य इमे लोकशास्त्रसिद्धा यागकृष्यध्ययनाद्यारम्भास्ते निष्प्रयोजना भवेयुरकारणत्वादित्यर्थः चक्रः।” ↩︎
-
" चेतनाचेतनस्यायं कारणं ग.।" ↩︎
-
" पक्षसंश्रयादिति रागतः पक्षसंग्रहात् चक्रः।" ↩︎
-
" तिलपीडकस्तैलार्थं यन्त्रोपरिस्थितो मनुष्यः चक्रः।" ↩︎
-
“‘पक्षरागश्चेह तत्त्वज्ञानप्रतिबन्धकत्वेन तमःस्कन्ध उच्यते चक्रः।” ↩︎
-
" ‘येषामिति यज्जातीयानां, ते च महाभूतादयः चक्रः।" ↩︎
-
" भूयिष्ठकल्पा नानाप्रकारा उत्तमाधममध्यमा इत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" सर्वाननुदाहरन्तः यो।" ↩︎
-
" उदर्क उत्तरकालीनं फलं चक्रः।" ↩︎
-
" °संस्कारादिकरण° ग.।" ↩︎
-
" भूयिष्ठकल्पानामिति किञ्चिन्यूनबहूनां चक्रः। गङ्गाधरस्तु भूयिष्ठकल्पनाश्च इति पठित्वा भूयिष्ठकल्पना आहारस्य विकारा यबाग्वादयः इति व्याख्यानयति।" ↩︎
-
" मूलकं ग.।" ↩︎
-
" चकारेण आहारविकाराणामिति समुच्चीयते।" ↩︎
-
" द्रव्यादीनि ग.।" ↩︎
-
" श्रेष्ठतमम् ग.। " ↩︎
-
" उदकमाप्यायनकराणां यो.।" ↩︎
-
“‘अम्लं हृद्यानामिति रुच्यानां, अम्लं हि स्वयमेव रोचते चक्रः।” ↩︎
-
" मन्दकमिति मन्दजातं चक्रः।" ↩︎
-
" चन्दनं यो ।" ↩︎
-
" मृद्धृष्टलोष्टप्रसादः यो। 2" ↩︎
-
" पराघातनं वधस्थानं, वध्यमानप्राणिदर्शनाद्धि घृणया नान्ने श्रद्धा स्यात् चक्रः; परायतनं ग.।" ↩︎
-
" अनशनमनायुष्कराणां यो।" ↩︎
-
" व्याधिकराणां यो।" ↩︎
-
" संकल्पःस्त्रीसंगसंकल्पः चक्रः। संकल्पः स्त्रीसंगमे तद्गुणादिविकल्पनम् अष्टाङ्गसंग्रहटीकायामिन्दुः।" ↩︎
-
" तन्त्राणामिति कर्मणां चक्रः।" ↩︎
-
“‘नास्तिकोऽवर्याणां ग.।” ↩︎
-
" वार्तलक्षणानामित्यारोग्यलक्षणानां चक्रः। अथार्तासारलक्षणानाम् ग.। " ↩︎
-
" संप्रतिपत्तिः यथाकर्तव्यतानुष्ठानं चक्रः। कालानतिक्रमेण कार्यकरणं संप्रतिपत्तिः शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" फलातिपत्ति° इति पा०।" ↩︎
-
" अमृतानामिति जीवितप्रधा(दा ↩︎
-
" अलमिति समर्थं चक्रः।" ↩︎
-
" कार्यकर्तृत्वेऽवरत्वं ग.।" ↩︎
-
" पथः शरीरमार्गात् स्रोतोरूपादनपेतं; अपेतमपकारकं, अनपेतमनपकारकमित्यर्थः; पथग्रहणेन पथोवाया दोषा धातवश्च तथा पथोनिर्वर्तका धातवो गृह्यन्ते, तेन कृत्स्नमेव शरीरं गृहीतं भवति, ततश्च शरीरानुपघाति पथ्यमिति भवति; मनसो हितमिति प्रियार्थः। एतेन मनःशरीरानुपधाति पथ्यमिति पथ्यलक्षणमनपवादं भवति चक्रः। " ↩︎
-
" नियतं निश्चितमिदमप्रियमेव सर्वदेदमपथ्यमेवेत्येवरूपं किञ्चिन्नास्तीत्यर्थः। कुतो नास्तीत्याह°मात्रेत्यादि चक्रंः।" ↩︎
-
“‘द्रव्यश्च संयोगश्च करणं च, ततोऽपरिसंख्येयाः स्युः चक्रः।” ↩︎
-
" बिल्व° इति पा०।" ↩︎
-
" आसुतत्वात् सन्धानरूपत्वात् चक्रः।" ↩︎
-
" संयोगसंस्कारादौ देशकालमात्रादयश्च भावास्तेषां ग.।" ↩︎
-
" मनःशरीरेत्यादिना गुणकथनं युक्त्या पीतस्यासवस्य ज्ञेयम् चक्रः।" ↩︎
-
" शरीररोगप्रकृतौ मतानीति शरीररोगयोःकारणे ये मुनीनां मतभेदास्तानित्यर्थः शिवदासः।" ↩︎
-
" चाहारविनिश्चयाय ग.।" ↩︎
-
" महामुनिः यो।" ↩︎
-
" जिह्वावैषयिकमिति जिह्वाग्राह्यं चक्रः।" ↩︎
-
" छेदनीय इति कर्शनीयः, उपशमनीय इति बृंहणीयः, साधारण इति आग्नेयसौम्यसंबन्धाल्लङ्घनबृंहणयोः कर्ता, यथा—तैलम् शिवदासः।" ↩︎
-
" स्वादुरित्यभीष्टः, हित इत्यायत्यनपकारी चक्रः।" ↩︎
-
" आश्रयगुणकर्मसंस्कारविशेषाणामपरिसंख्येयत्वात् ग.।" ↩︎
-
" योनिराधारकारणम् चक्रः।" ↩︎
-
" भक्तिः च। भक्तिरितीच्छेत्यर्थः, तेन यो यमिच्छति स तस्य स्वादुरस्वादुरितर इति पुरुषापेक्षौ धर्मो चक्रः।" ↩︎
-
" विचारो विचारणा द्रव्यान्तरसंयोग इत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" तेषामाश्रयेषु इति पा०।" ↩︎
-
" क्षरणादधोगमनक्रियायोगात क्षारो द्रव्यं न रसः, रसस्य हि निष्क्रियस्य क्रियाऽनुपपन्नेत्यर्थः चक्रः। " ↩︎
-
" अव्यक्तभावस्तु यो। " ↩︎
-
" प्रकृतौ कारणे जले इत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" अणुरसेऽणुरससमन्विते वा द्रव्ये ग.।" ↩︎
-
" आदिशब्देन गुणकर्मसंस्वादानां ग्रहणं, आश्रयगुणकर्मसंस्वादानां विशेषा भेदास्तेषामपरिसंख्येयत्वात्तेषां रसानामपरिसंख्येयत्वं यदुच्यते तन्न युक्तं, तत्र हेतुमाह— एकैकोऽपीत्यादि। एषामाश्रयगुणकर्मसंस्वादानां विशेषानेकैकोऽपि मधुरादिराश्रयते, न त्वस्मादाश्रयादिभेदादन्यत्वमाश्रितस्य मधुरादेर्भवति, एतेन आश्रयादय एव परं भिन्नाः, मधुरादिस्त्वेक एवेत्यर्थः। तथाहि—यद्यपि शालिमुद्गघृतक्षीरादयो मधुरस्याश्रया भिन्नास्तथाऽपि तत्र मधुरत्वजात्याक्रान्त एक एव रसो भवति बलाकाक्षीरादिषु शुक्लवर्णवत्, एवं गुणादावपि बोद्धव्यं इति शिवदासः। " ↩︎
-
" पुनर्न तेषां ग.।" ↩︎
-
" विशेषापरिसंख्येयत्वाद्युक्तम् ग.।" ↩︎
-
" विशेषानेवाश्रयते ग.।" ↩︎
-
" परस्परसंसर्गभूयिष्ठत्वादेषां रसानामभिनिर्वृत्तेः प्रकृतिभूतानां मधुरादिगुणानामसंख्येयत्वं न चेति योजना, तेन रसानां रसान्तरसंसर्गे तत्संसर्गाणामेवा परिसंख्येयत्वं, न पुनः प्रकृतिभूतमधुरादिषड्सानां षट्त्वातिक्रमः शिवदासः।" ↩︎
-
" न च तस्मादन्यत्वमुपपद्यते परस्परसंसृष्टभूयिष्ठत्वात्। न चैषामभिनिर्वृत्तौ गुणप्रकृतीनामसंख्येयत्वं भवति यो।" ↩︎
-
" अस्मिन्नर्थेऽस्मिन् प्रकरणे चक्रः ।" ↩︎
-
" संघातः काठिन्यं चक्रः।" ↩︎
-
" प्रह्लादःशरीरेन्द्रियतर्पणं चक्रः।" ↩︎
-
" सूक्ष्मं सूक्ष्मस्रोतोनुसारि चक्रः। " ↩︎
-
" प्रभा वर्णप्रकाशिनी दीप्तिः चक्रः।" ↩︎
-
" विचरणं विचारो गतिः चक्रः।" ↩︎
-
" अनेनेति प्रतिनियतद्रव्योपदेशेन यत्पार्थिवादिद्रव्यं यद्गुणं तद्गुणे देहे संपाद्ये भेषजं भवतीत्यर्थः; युक्तिमित्युपायं, अर्थमिति प्रयोजनं, अभिप्रेत्येत्यधिकृत्य; तेन केनचिदुपायेन क्वचित् प्रयोजने किञ्चिद्द्रव्यमौषधं स्यान्न सर्वत्र चक्रः।" ↩︎
-
" तां तां युक्तिमासाद्येति तां तां योजनां प्राप्य इति चक्रः।" ↩︎
-
" त्रिपष्टिविधरसविकल्पः ग.।" ↩︎
-
" रसास्तरतमाभ्यस्ताः इति पा०।" ↩︎
-
" तत्र स्वस्थातुरहितचिकित्साप्रयोगेऽनतिसंक्षेपविस्तररूपतया हितत्वादित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" शुष्कस्य चेति" ↩︎
-
" द्रव्याणां योगःसंबन्ध इत्युक्ते अवयवावयविसंबन्धस्यापि संयोगत्वं स्यादत आह—सहेति, साहित्यरूपो योगः, स च पृथक्सिद्धयोरेव भवतीति भावः शिवदासः। सहेत्यनेनेहाकिञ्चित्करं परस्परसंयोगं निराकरोति, तद्भेदानाह—द्वन्द्वेत्यादि। तत्र द्वन्द्वकर्मजो यथा—युध्यमानयोर्मेषयोः, सर्वकर्मजो यथा—भाण्डे प्रक्षिप्यमाणानां भाषाणां बहुलभाषक्रियायोगजः, एककर्मजो यथा—वृक्षवायसयोः, अनित्य इति संयोगस्य कर्मजत्वेनानित्यत्वं दर्शयति चक्रः।" ↩︎
-
" सः यो।" ↩︎
-
" ननु, यदि द्रव्यगुणा एव ते ततः किमिति रसगुणत्वेनोच्यन्त इत्याह—कर्तुरिति।—कर्तुरिति तन्त्रकर्तुः, अभिप्राया इति तत्र तत्रोपचारेण तथा सामान्यशब्दादिप्रयोगेण तन्त्रकरणबुद्धयः चक्रः।" ↩︎
-
" प्रकृतं प्रकरणं शिवदासः; प्रकृतिं ग.।" ↩︎
-
" उपायानिति शास्त्रोपायान्तन्त्रयुक्तिरूपान्, अर्थ अभिधेयं चक्रः।" ↩︎
-
" परं चातः प्रवक्ष्यामि रसानां षड् विभक्तयः इति पा०।" ↩︎
-
" भ्रश्यमाना इति वदता भूमिसंबन्धव्यतिरेकेणान्तरिक्षेरितैः पृथिव्यादिपरमाण्वादिभिः संबन्धो रसारम्भको भवतीति दर्यते " ↩︎
-
" अभिमूर्च्छन्ति रसा इति व्यक्तिं यान्ति चक्रः।" ↩︎
-
" अत्र सोमशब्देन पृथिवीजलयोर्ग्रहणं, उभयोः सौम्यत्वात् शिवदासः। पृथ्वीसोमगुणातिरेकात् ग.।" ↩︎
-
“‘उत्प्लवनत्वात्तिर्यगूर्ध्वगतिमत्त्वात् शिवदासः।” ↩︎
-
" यथाद्रव्यमिति यद्यस्य रसस्य द्रव्यमाधारस्तदनतिक्रमेण, एतेन रसानां गुणकर्मणी रसाधारद्रव्ये बोद्धव्ये इति दर्शयति चक्रः।" ↩︎
-
" विलालयति ग.।" ↩︎
-
" °च्छिन्नविद्धोत्तिष्ठादीन च.।" ↩︎
-
" अवस्रंसी यो।" ↩︎
-
" वर्धयति ग.।" ↩︎
-
" कण्डूं विलालयति ग.।" ↩︎
-
" वमथु यो।" ↩︎
-
" पीलु हस्ततलम् इति गङ्गाधरः ।" ↩︎
-
" संधारणः ग.।" ↩︎
-
" पीडनो व्रणपीडनः चक्र , आकृष्य संकोचकरः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" शरीरक्लेदस्योपयोक्तेति आचूषकः चक्रः।" ↩︎
-
" विष्टभ्य जरयति ग.।" ↩︎
-
" उपकारकाः ग; उपकाराय यो.।" ↩︎
-
" अध्यात्मलोकस्येति सर्बप्राणिजनस्य चक्रः।" ↩︎
-
" यद्द्रव्यं इति पा°।" ↩︎
-
" वीर्यतो विपरीतानां ग.।" ↩︎
-
" यथा वाऽऽनूपमामिषम् ग.।" ↩︎
-
““°मौष्ण्यमुच्यते ग.। “°मौष्यमिष्यते’ यो.।” ↩︎
-
" ‘तिक्तात्कषायो मधुरः शीताच्छीततरः परः ग.।" ↩︎
-
" उभयोरपीति मतद्वयेऽपि स लवणोऽवरः; अग्निवेशमते गौरवेऽवरः, मतान्तरे लाघवेऽवरः शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" कटुकादिशब्देन तदाधारं द्रव्यमुच्यते, यतो न रसाः पच्यन्ते किंतु द्रव्यमेव; लवणस्तथेति लवणोऽपि मधुरविपाक इत्यर्थः। विपाकलक्षणं तु जठराग्नियोगादाहारस्य निष्ठाकाले यो गुण उत्पद्यते सविपाकः, वचनं हि—“जाठरेणाग्निना योगाद्यदुदेति रसान्तरम् । रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः” चक्रः। चरके मधुरोऽम्लो लवणश्चेति विपाकत्रयमुक्तं, सुश्रुते तु मधुरः कटुकश्चेति विपाकद्वयमुक्तं, एतद्विरोधपरिहारार्थं गङ्गाधरेणैवं समाधानमुक्तं— रसपाकाभिप्रायेण त्रिधा विपाक उक्तश्चरकेण, सुश्रुते भूतगुणपाकाभिप्रायेण द्विधा विपाक उक्तो गुरुर्लघुश्चेति क्रमेण मधुरसंज्ञः कटुसंज्ञश्च इति। विस्तरस्तु जल्पकल्पतरौ द्रष्टव्यः।" ↩︎
-
“‘°भूयस्त्वमेव च यो.। विपाकलक्षणस्याल्पमध्यभूयिष्ठतामुपलक्षयेत्, प्रति प्रति द्रव्याणां गुणवैशेष्याद्धेतोरित्यर्थः। एतेन द्रव्येषु यथा वैशेष्यं मधुरत्वमधुरतरत्वमधुरतमत्वादि, ततो हेतोर्विपाकानामल्पत्वादयो विशेषा भवन्तीत्युक्तं भवति’ चक्रः।” ↩︎
-
" मृदुतीक्ष्णगुरुलघुखिग्धरक्षोष्णशीतलम् यो।" ↩︎
-
" एतच्चैकीयमतद्वयं पारिभाषिकीं वीर्यसंज्ञां पुरस्कृत्य प्रवृत्तं; वैद्यके हि रसविपाकप्रभावव्यतिरिक्ते प्रभूतकार्यकारिणि गुणे वीर्यमिति संज्ञा चक्रः।" ↩︎
-
" पारिभाषिकवीर्यसंज्ञापरित्यागेन शक्तिपर्यायस्य वीर्यस्य लक्षणमाह—वीर्यंत्वित्यादि चक्रः।" ↩︎
-
" सर्वा वीर्यकृता हि सा ग.।" ↩︎
-
" निपाते इति रसनायोगे, कर्मनिष्ठयेति कर्मणो निष्ठा निष्पत्तिः कर्मनिष्ठा क्रियापरिसमाप्तिः, अधीवासः सहावस्थानं, यावदधीवासात् यावच्छरीरनिवासात् चक्रः।" ↩︎
-
" सा नरम् यो.।" ↩︎
-
" गुणसाम्ये ग.।" ↩︎
-
" प्रीणयन् ग.।" ↩︎
-
" एवमुक्तवन्तं यो.।" ↩︎
-
" विरोधश्च विरुद्धगुणत्वे सत्यपि क्वचिदेव द्रव्यप्रभावात स्यात्, तेन षड्रसाहारोपयोगे मधुराम्लयोर्विरुद्धशीतोष्णवीर्ययोर्विः रोधो न भावनीयः चक्रः।" ↩︎
-
" मधुरविपाकान्महाभिष्यन्दि इति पा°।" ↩︎
-
" ‘विरुद्धजानां’ ग.।" ↩︎
-
" स्थूललक्षणभवानेतान् ग.।" ↩︎
-
" “°मारिषै° ग.।" ↩︎
-
" कलमूकता च.।" ↩︎
-
" सीसको हि भटित्रकरणकाष्ठमच्यते चक्रः। ·" ↩︎
-
" यत्किंचिद्दोषमात्राव्य च।" ↩︎
-
" शोफाम्लपित्ता° इति पा°।" ↩︎
-
" संतानदोषो मृतवत्सत्वादिः चक्रः।" ↩︎
-
" प्रतीघातकरा भवन्ति ग.।" ↩︎
-
" तद्विरोधिनामिति षाण्ड्यादिहराणां; तथाविधैरिति विरुद्धाहारजन्यव्याधिविरुद्धैः। चक्रः।" ↩︎
-
" अभिसंस्कार इति सत्ताभ्यासेन शरीरभावनम् चक्रः। शुद्धिरत्रेष्टा शमो वातद्विरोधिभिः। द्रव्यैस्तैरेव वा पूर्वं शरीरस्याभिसंस्कृतिः इति वाग्भटः।" ↩︎
-
" प्राणिनामित्यनेनैव लब्धेऽपि प्राणिसंज्ञकानामिति वचनं स्थावरप्राणिप्रतिषेधार्थं चक्रः।" ↩︎
-
" तदित्युदाहरणं, किंवा स स्वभावो यस्य स तत्स्वभावस्तस्मात् क्लेदनस्वभावादित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" संदधाति विश्लिष्टानि मांसादीनि संषयति चक्रः।" ↩︎
-
" रसो मांसरसः चक्रः।" ↩︎
-
“जर्जरीकरोतिमांसादि शिथिलीकरोति शिवदाससेनः।” ↩︎
-
" अवधमयति कृशीकरोति शिवदाससेनः।" ↩︎
-
“‘आचिनोति दोषान् इति शेषः चक्रः।” ↩︎
-
" सुगन्धंका लोहबालाः शारिवाख्याः प्रमोदकाः।पतङ्गास्तपनीयाश्च ग.। ." ↩︎
-
" ‘पांशुबाष्पनैषधकादयः यो.।" ↩︎
-
" गुणागुणैरिति शालीनां रक्तशाल्यादीनां ये गुणास्तृष्णाघ्नत्वत्रिमलापहत्वादयः, तेषामगुणैस्तद्गुणविपरीतैर्दोषैर्यवकादयोऽनुकारं कुर्वन्ति, ततश्च यवकादयस्तृष्णात्रिमलादिकराः स्युः चक्रः।" ↩︎
-
" लघुः यो.।" ↩︎
-
“‘लौहित्याभ्यःप्रियङ्गवः यो.।” ↩︎
-
" मुकुन्दो झिण्टिरमुखो वरुका ग.।" ↩︎
-
“‘इत्येवं’ ग.।” ↩︎
-
" ‘श्लेष्मपित्तप्रशमनः ग.।" ↩︎
-
" रूक्षश्चैव कषायश्च वातलः श्लेष्मपित्तहा। विष्टम्भी चाप्यवृष्यश्च राजमाषः प्रकीर्तितः। इति पाठान्तरम्।" ↩︎
-
" कफशुक्राम्लपित्तकृत् ग.।" ↩︎
-
" धूमिका ग.।" ↩︎
-
" काकलः च.।" ↩︎
-
" पुष्करारी च ग.। पुष्कराक्षश्च यो.।" ↩︎
-
" माणतुण्डिकः ग.। " ↩︎
-
" कशिकानी इति पा°।" ↩︎
-
““°धाङ्कोर°’यो.।” ↩︎
-
“‘आनूपानूपसंश्रयादिति पूर्वत्रासिद्धविधेरनित्यत्वादानूपाऽनूपसंश्रयादित्यत्र लोपस्य सिद्धत्वेनैवं संहिता ज्ञेया चक्रः। अनूपोऽनूपसंश्रयात् यो.।” ↩︎
-
" ‘त्वेषां ग.।" ↩︎
-
" योनावजावी व्यामिश्र°ग.।" ↩︎
-
" कषाया विशदा ग.।" ↩︎
-
" स्वल्पं मृदुतराश्च ग.।" ↩︎
-
" रूक्षशीतलम् यो.।" ↩︎
-
" कफशुक्राभिवर्धनाः ग.।" ↩︎
-
" वर्ण्यो यो.।" ↩︎
-
" वर्चोमेदि च ग.।" ↩︎
-
" कालायं यो.।" ↩︎
-
" संशुष्कं यो.।" ↩︎
-
" संबृंहणं शीघ्रजरं ग.।" ↩︎
-
" परिपक्वंतु यो.।" ↩︎
-
" रक्तपित्तकरं ग.।" ↩︎
-
" हृद्यं ग. रुच्यं इति पा°।" ↩︎
-
" शतारुकं ग.। शताक्षकं इति शसाहकं इति च पा°।" ↩︎
-
" विप्लवे इति पा°।" ↩︎
-
" सुगन्धि मधुरं साम्लं विशदं भक्तरोचनम् ग.।" ↩︎
-
" मधुराण्यम्लपाकीनि पित्तश्लेष्महराणि च ग.।" ↩︎
-
" त्वङ्मांसं इति पा°।" ↩︎
-
" ‘मुखशोधनः च.।" ↩︎
-
" जलपिप्पली गण्डीरःशृङ्गवेर्यथ तुम्बरु ग.।" ↩︎
-
" भूस्तृणो गन्धतृणः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" खराश्वापारसीययवानी गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" न च पित्तकृत् यो.।" ↩︎
-
" शोफघ्नः इति पा°।" ↩︎
-
" दीपनपाचन ग.।" ↩︎
-
" लेखनः यो.।" ↩︎
-
“आक्षिकी बिभीतककृता सुरा।” ↩︎
-
" मध्विति मधुप्रधान आसवः चक्रः।" ↩︎
-
" वृष्टं हैमन्तिकजलं खिग्धं वृष्यं हितं गुरु यो.।" ↩︎
-
" आनूपधन्वशैलेषु इति पा°।" ↩︎
-
" दधि शुक्रलम्। सरः पित्तानिलघ्नस्तु मस्तु स्रोतोविशोधनम् इति पा०.।" ↩︎
-
" ज्वरा ग०।" ↩︎
-
" °स्वादु ग.। सर्पीषि स्वानीति संबन्धः, तेनाजाक्षीरवदजासर्पिर्निर्दिशेदित्यादि ज्ञेयम् चक्रः।" ↩︎
-
" रस इत्यत्र चकारलोपो द्रष्टव्यः, तेन क्षुद्रगुडश्चतुर्भागावशेषिताद्रसाद्गुरुः, इत्यादि ज्ञेयम्। अत्र क्षुद्रगुडोऽसितगुड इत्युच्यते, फाणितं च तन्तुलीभावात् चक्रः। सरो गुरुः इति पा०।" ↩︎
-
“संधानं भग्नस्य, छेदनं मेदोग्रन्थ्यादीनाम्।” ↩︎
-
" सद्यो बलाय ग.।" ↩︎
-
“तर्षणाःतृषाजननाः।” ↩︎
-
" पैष्टिकास्तण्डुलपिष्टकृता भक्ष्याः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" हृद्याश्च ग.।" ↩︎
-
" पृथुका गुरवो बल्याः यो.।" ↩︎
-
" व्यतिक्रान्तपाका इति चिरेण जरां गच्छन्ति चक्रः।" ↩︎
-
" पक्वामक्लिन्नभर्जितैः इति पा०।" ↩︎
-
" कालाम्लं कालेन जातरसमम्लं भवति तत् गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" सर्वः क्षारः इति च.।" ↩︎
-
" आगच्छति क्षिप्रमिति उप्तं सत् शीघ्रं भवति, किंवा आगच्छति क्षिप्रमिति भुक्तं सत् क्षिप्रं पच्यते चक्रः। यज्जरां याति शीघ्रं तु यो.।" ↩︎
-
" कृशममेध्यं इति पा०।" ↩︎
-
" अगोचरभृतमसात्म्यदेशादिषु पुष्टम् गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" हरितानां पलाण्डुप्रभृतीनां यथाशाकं निर्देशः, तेन हरिता अपि क्रिमिवाताद्युपहतास्तथा शुष्कजीर्णा अनार्तवाश्च न ग्राह्याः; साधनादृते इति साधनं संस्कारः, तेन हरितानां निःस्नेहसिद्धानामपि तथाऽपरिवतानामपि निर्दोषत्वमित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" आहारगुणैरिति शीतस्नेहमधुरादिभिः, विपरीतमिति विपरीतगुणमनुपेयं; एवं दध्नोऽम्लस्य मधुरं क्षीरं तथा पायसस्य काञ्जिकानुपानं स्यादित्यत आह—धातूनां यन्न विरोधि चेति, एवं चाम्ले पयोऽनुपीयमानं विरुद्धत्वाद् धातुविरोधेन प्रत्युक्तं भवति; एवमन्यदविरुद्धं बोद्धव्यं चक्रः।" ↩︎
-
" भुक्तमासादयति ग.। भुक्तमवसादयति आमाशयाधोभागं नयति शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" गत्वा यो.।" ↩︎
-
" अनुपानैकदेशोऽयं इति पा०।" ↩︎
-
" यथा येन प्रकारेण नानौषधं किंचिदिति पूर्वाध्याये प्रोक्तं तथा तेन प्रकारेणानुक्तं द्रव्यं वाच्यं गुणेन इति शेषः चक्रः।" ↩︎
-
" भक्ष्यस्य संविधिः भक्ष्यभक्षणं; तत्रानूपजलाकाशधन्वाद्य इत्यनेन गतिरूपो चर उच्यते, भक्ष्यसंविधिवचनेन च भक्ष्यरूपश्चर उच्यते (चरधातोर्गतिभक्षणार्थकत्वात् ↩︎
-
" सक्थिमांसाद्गुरुतरं स्कन्धक्रोडशिरस्पदा (द ↩︎
-
" सविपर्ययमिति संस्कारा ल्लघूनामपि गौरवं विद्यादित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" मात्रामेक्षते द्रव्यं यो.।" ↩︎
-
" अन्तरादृते इति अन्तरात् कारणादृते विना, अपथ्यस्य तथा अधर्मस्य रोगकारणस्य भावाद्गदा भवन्तीति भावः इति चक्रंः।" ↩︎
-
" यथास्वनोष्मणेति पृथिव्यादिरूपाशितादेर्यस्य य ऊष्मा पार्थिवाग्न्यादिरूपस्तेन; वचनं हि भौमाप्याग्नेयवायव्याः पञ्चोष्माणः सनाभसाः। पञ्चाहारगुणान् स्वान् स्वान् पार्थिवादीन् पचन्ति हि चक्रः।" ↩︎
-
" अनुपहतानि सर्वधातूनामूष्ममारुतस्त्रोतांसि यस्य तत्तथा, ऊष्मा धातुपाचकोऽग्निः, मारुतो धातुपोषकरसवाही व्यानरूपः, स्रोतो धातुपोषकरसवहम् चक्रः।" ↩︎
-
" तत्राहारः प्रसादाख्यं रसं किट्टं च मलाख्यमभिनिर्वर्तयति ग.।" ↩︎
-
" निमित्तत इत्यनेनानिमित्तेऽरिष्टरूपे क्षयवृद्धी निराकरोति चक्रः।" ↩︎
-
" उत्सर्गो बहिर्निःसरणं संशोधनरूपमेषां शास्त्रोक्तमस्ति, उत्सर्गे वा वहन्तीत्युत्सर्गिणः चक्रः। उत्सर्गिणः संशोधनार्हाः शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" पर्ययो विपर्ययः, तेन शीतोष्णविपरीतगुणैरित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" अयनमुखानि गतिमार्गाणीत्यर्थः’ चक्रः।" ↩︎
-
“‘तानि च स्रोतांसि मलप्रसादपूरितानि, धातून् यथा—स्वमिति यद्यस्य पोष्यं तच्च तत् पूरयति; यथाविभागेनेति यस्य धातोर्यो विभागः प्रमाणं तेनैव प्रमाणेन पूरयति चक्रः।” ↩︎
-
" कारणतः च.।" ↩︎
-
" पथ्याहारदोषशरीरविशेषेभ्यः इति पा०।" ↩︎
-
" अङ्गमर्दो ज्वरस्तन्द्रा हल्लासो गौरवं तमः ।" ↩︎
-
" न चास्य जायते गर्भः ग.।" ↩︎
-
" स्नायुसिराकण्डराभ्यो दुष्टा इति पाठान्तरम् ।" ↩︎
-
“शाखा इति रसादिधातून् शिवदासः।” ↩︎
-
" बहषश्चैष’ ग.।" ↩︎
-
" अनृणतामिव प्राप्तोऽनृणतां प्राप्तः, एतेन परिहार्यपरिहारेण पुरुषकारेऽनपराधः पुरुषो भवतीति दर्शयति चक्रः।" ↩︎
-
" संग्रहःसंकलय्य कथनं, व्याकरणं च विवरणं शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" स्वस्थवृतविहितभोजनपान°" ↩︎
-
" चतुर्विंशत्युपनयस्येति उपनयो विचारणा शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" उपकल्पनीयस्य इति ह. पु. न पठ्यते।" ↩︎
-
" आहारविहाराणां इति पा०।" ↩︎
-
" नवविधस्य चरः शरीरावयवाः इत्यादेः चक्रः।" ↩︎
-
" गृहीतस्योत्तरकालस्मरणं धारणं, विज्ञानमर्थतो ज्ञानं, प्रयोगश्चिकित्साप्रयोगः, कर्म अनेकविधचिकित्साकरणं, कार्यं धातुसाम्यं, कालः क्रियाकालः, कर्तेह भिषक्, करणं भेषजं चक्रः।" ↩︎
-
" विपर्ययेण ग.।" ↩︎
-
" अपचारिकं इति पा०।" ↩︎
-
" आत्मनोऽपदेशं नाम देशाद्यपह्नवरूपं कपटं कृत्वा शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" अधीरवदिति उच्चाटरवाः सन्तः चक्रः।" ↩︎
-
" अनुयोगं पृच्छां चक्रः।" ↩︎
-
" वीतंसःपक्षिबन्धनजालं शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" सुखविशारदान् ग.। मुखविशारदाः स्वमुखेनैव स्ववैशारद्यं वदन्तः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" समासक्ताः इति पा०।" ↩︎
-
" गोपानस्यो गृहाच्छादनाधारकाष्ठानि, आगारकर्णिका गृहाच्छादनकाष्ठनिबन्धनी चक्रः।" ↩︎
-
" स्पर्शो विज्ञायतेऽनेनेति स्पर्श वा विजानातीति स्पर्शविज्ञानं, तस्यैव विशेषणं—धारीति, धारि तु शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगः; तेन यः शरीरादिसंयोगःस्पर्शनेन विजानाति सर्वेज्ञेयं यश्चायं शरीरधारणाद्धारीत्युच्यते स हृदि स्थितः’ चक्रः।" ↩︎
-
" चिकित्सकैः इति पा०।" ↩︎
-
" यत्सारमादौ गर्भस्येति शुक्रशोणितसंयोगे जीवाधिष्ठितमात्रे यत्सार भूतं, तत्रापि तिष्ठति; यत्तद्गर्भरसाद्रसइति गर्भरसाच्छुक्रशोणितसंयोगपरिणामेन कललरूपात्, रस इति सारभूतं; संवर्तमानं हृदयं समाविशति यत्पुरेति यदा हृदयं निष्पद्यमानं तदैव व्यक्तलक्षणं सत् हृदयमधितिष्ठति यदित्यर्थः; एतेन गर्भावस्थात्रयेऽपि तदोजस्तिष्ठतीत्युच्यते’ चक्रः। " ↩︎
-
“‘संवर्धमानं’ ग.।” ↩︎
-
" यत् पुनः इति कविराजगणनाथसेनसंमतः पाठः।" ↩︎
-
" यस्याना शान्न नाशोऽस्ति ग.।" ↩︎
-
" तन्त्रस्थितानां दुर्बोधार्थानां यत्पुनः प्रकाशनानि तैरुक्तं तन्त्रमवयवश उक्तं भवतीत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" अथर्ववेदे भक्तिः सेवेत्यर्थः, एतेन भिषक्सेव्यनार्थवेदस्यायुर्वेदत्वमुक्तं भवति चक्रः। अथर्ववेदेऽस्योक्तिः’ ग.।" ↩︎
-
“‘इहैवेति तत्रायुश्चेतनानुवृत्तिः इत्यादिना चक्रः।” ↩︎
-
" यच्चसुखादितस्तत्र ग.।" ↩︎
-
" समर्थानुगतबल° ग.।" ↩︎
-
" ज्ञानविज्ञानेन्द्रियार्थबलसदाये ग.।" ↩︎
-
" सामपरस्य समीक्ष्यकारिणः यो.।" ↩︎
-
" ज्ञानविज्ञानोपशमशीलवृद्धोपसेविनः यो.।" ↩︎
-
" तत्परस्य अध्यात्मपरस्य चक्रः।" ↩︎
-
“अनादित्वादिति प्रथमं हेतुं विवृणोति—नहीत्यादि।” ↩︎
-
" आरोग्य सुखं, व्याधिदुःखं, सद्रव्यहेतुलक्षणमिति सद्रव्यचिकित्सितलिङ्गं; हेतुशब्दस्य हि द्रव्यशब्देनैव व्याधिकारणत्वेनोक्तत्वात् प्रशमहेतुत्वमाहुः। अपरापरयोगादिति संताना दित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" स्वभावसंसिद्धलक्षणत्वं द्वितीयं हेतुमाह—एष चेत्यादि। एष इति सुखदुःखादिः, अर्थसंग्रहोऽभिधेयसंग्रहः; एतेन आयुरादिरायुर्वेदप्रतिपाद्य इति दर्शयति, अयं चायुरादित्रायुर्वेदलक्षणमिति विभाव्यते ज्ञायते, आयुरादिनाऽभिधेयेनायुर्वेदो लक्ष्यते चक्रः।" ↩︎
-
" भावस्वभावनित्यत्वादिति तृतीयं हेतुं व्याकरोति—गुर्वित्यादि। चक्रः।" ↩︎
-
" द्रव्याणां यो।" ↩︎
-
" स्वलक्षणं पृथिव्यादीनां खरद्रवत्वादि चक्रः।" ↩︎
-
" प्रजानां ग.।" ↩︎
-
" आरक्षार्थे यो.।" ↩︎
-
“‘षड्विरेकाश्रयश्चेति’ ग.।” ↩︎
-
" त्रिंशत्कमर्थवत च.।" ↩︎
-
" ‘चतुर्थ इन्द्रियानीकः पञ्चमः पूर्वरूपिकः इति पा०" ↩︎
-
" परं शृणु ग." ↩︎
-
" चकारोऽत्र अध्यायार्थ इत्यनन्तरं योज्यः, तेन स्थानार्थ इति समुच्चीयते, ततश्च स्थानान्ते स्थानार्थसंग्रहमध्यायान्तेऽध्यायार्थसंग्रहं यथाक्रमेण वक्ष्यतीत्यर्थः’ शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" तं सर्वमिति तत्रार्थं स्थानार्थमध्यायार्थे च; अर्थसंग्रहादिति ल्यब्लोपे पञ्चमी, तन्त्रादीनामर्थे संग्रह्य संक्षिप्येत्यर्थः; सर्वतोऽनवशेषतः, यथास्वमित्यनेन यो यस्यार्थस्तस्य संग्रहं कृत्वा तन्त्रार्थे स्थानार्थमध्यायार्थं चाशेषतो ब्रूयादित्यर्थः शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" यथार्थाद्ध्यनुसंग्रहात् इति पा०।" ↩︎
-
" तन्त्रादिति तन्त्रमारभ्य, यथाम्नायं यथाक्रमं, विधिना सामान्यविशेषप्रकारेण पूर्वापरविरोधादिदोषशून्येन वा पृच्छा प्रश्न उच्यत इत्यर्थः। प्रश्नार्थं विवृणोति—प्रश्नार्थ इत्यादि। तस्य प्रश्नस्य तन्त्रेण शास्त्रेणार्थनिश्चयो यः स प्रश्नार्थः प्रश्नप्रयोजनमुच्यते। युक्तिमानिति उपपत्तिमानित्यर्थः शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" निबन्धं ग.।" ↩︎
-
" तन्त्रणादिति व्युत्पादनाव, अर्थप्रतिष्ठयेति प्रधानभूतार्थावस्थानात; एतेन तन्त्र्यते व्युत्पाद्यतेऽनेनेति तन्त्रम्, अर्थाः प्रतिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानमिति निरुक्तिर्दशिता भवति शिवदासः। एताश्च योगरूढाः संज्ञाः, तेन अतिप्रसंगो न वाच्यः चक्रः।" ↩︎
-
" अधिकृत्येति अधिकारिणं कृत्वा, अर्थ दीर्घजीवितादिकं, अध्यायनामसंज्ञा अध्यायरूपनामसंज्ञा, नामसंज्ञा च योगरूढा संज्ञोच्यते, चक्रः।" ↩︎
-
" अध्यायो नाम संज्ञा प्रकीर्तिता यो.।" ↩︎
-
" पाल्लविकोपेताः ग.। तन्त्रस्यैकदेशविदः सन्तो निखिलशास्त्रपण्डितमानिनो दम्भिनः प्रौढोक्तिकारिणः वृक्षपल्लववदतिविस्तरश्लाघाद्युपेताः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" तस्मात्तु पूर्वकं जल्पे ग.।" ↩︎
-
" तत्र शास्त्रविदां बलमिति शास्त्रविद एव प्रश्नाष्टकं जानन्ति न पाल्लविकाः" ↩︎
-
“केवलस्य समग्रस्य। " ↩︎
-
“प्रकृर्ति स्वभावम्।” ↩︎
-
" बभ्रुर्वृद्धनकुल ऊर्णाराशिमध्यगो यथा न किंचित्प्रतिपद्यते तथाऽबुद्धिरपि संजल्पे वादिप्रतिवादिकथायाम् चक्रः। बभ्रुगूढः ग.।” ↩︎
-
" कुण्डमेदीति निन्दितजातिरित्यर्थः शिवदाससेनः।" ↩︎
-
" स्वल्पाधाराः स्वल्पश्रुताः, न मर्षयेदिति नोपेक्षेत चक्राः।" ↩︎
-
" तत्त्वज्ञानपरा यो. ।" ↩︎
-
“निरता तत्परा।” ↩︎
-
" असत्पक्षाःक्षणित्वाद्धि दम्भपारुष्यसाधनाः ग.।" ↩︎
-
" समग्रमिति शारीरं मानसं च चक्रः।" ↩︎
-
“‘हेत्वादिभूरिपर्यायकथनं शास्त्रे व्यवहारार्थेतथा हेत्वादिशब्दानामर्थान्तरेऽपि वर्तमानत्वे पर्यायान्तरेण समं सामानाधिकरण्यात् कारण एव वृत्तिर्नियम्यते, तेनैकस्मिन्नर्थे यस्मिंस्ते शब्दाः प्रवर्तन्ते तत् कारणमितरहेत्वाद्यर्थेभ्यो व्यवच्छिद्यते, तेन लक्षणार्थं च पर्यायाभिधानं भवति, एवमन्यत्रापि व्याध्यादिपर्यायाभिधानेऽपि व्याख्येयम् चक्रः।” ↩︎
-
" अतस्त्रिविधा ग.। " ↩︎
-
“चक्रपाणिसंमतोऽयं पाठः।गङ्गाधरस्तु आग्नेयाः, सौम्या वायव्याश्च इति पठति। ‘आग्नेयाः पैत्तिकाः, सौम्याः कफजाः, वायव्या वातजाः; यद्यपि प्रधानत्वेन वायव्या एव प्रथमं निर्देष्टुं युज्यन्ते, तथाऽपीह ज्वरे पित्तस्य प्रधानत्वादाग्नेयाभिधानम् चक्रः।” ↩︎
-
" व्याध्यादिशब्दानां व्युत्पत्त्या रोगधर्मा लक्षणीयाः; तथाच —विविधं दुःखमादधातीति व्याधिः; प्रायेणामसमुत्थत्वेनामय उच्यते; आतङ्क इति दुःखयुक्तत्वेन कृच्छ्रजीवनं करोति, वचनं हि—‘आतङ्कः कृच्छ्रजीवने ; यक्ष्मशब्देन च राजयक्ष्मवदनेकरोगयुक्तत्वं विकाराणां दर्शयति; ज्वरशब्देन च देहमनःसन्तापकरत्वं; विकारशब्देन च शरीरमनसोरन्यथाकरणत्वं व्याधेर्दर्शयति; रोगशब्देन च रुजाकर्तृवम् चक्रः।" ↩︎
-
" पूर्वरूपं प्रागुत्पत्तिलक्षणं व्याधेरिति व्याघेरुत्पत्तेः पूर्वं यल्लक्षणं तत् पूर्वरूपं व्याधेः" ↩︎
-
" हेतुना, तथा व्याधिना तथा हेतुव्याधिभ्यां च विपरीता हेतुव्याधिविपरीताः, तेषां; तथा हेतुव्याधिविपरीतार्थकारिणामौषधान्नविहाराणां सुखरूपोऽनुबन्ध उपशयः। तत्र विपरीतार्थकारि तदेवोच्यते यदविपरीततया आपाततः प्रतीयमानं विपरीतस्यार्थं प्रशमलक्षणं करोति चक्रः।" ↩︎
-
" तरतमाभ्यामुपलभ्यते ग.।" ↩︎
-
" यद्यपि च संख्याप्राधांन्यादिकृतोऽपि व्याधेर्विधिमेदो भवत्येव, तथाऽपि संख्यादिमेदानां स्वसंज्ञयैव गृहीतत्वाद् गोबलीवर्दन्यायात् संख्याद्यगृहीते व्याधिप्रकारे विधिशब्दो वर्तनीयः चक्रः।" ↩︎
-
" समवेतानां पुनर्दोषाणां च.।" ↩︎
-
" समवेतानां सर्वेषां तेन एकशो द्विशो मिलितानां च दोषाणां ग्रहणं; अंश अंशं प्रति बलमंशांशबलं, तस्य विकल्प उत्कर्षापकर्षरूपोंऽशांशबलविकल्पः; एवंभूतो दोषाणामंशांशबलविकल्पोऽस्मिन्नर्थेऽस्मिन् प्रकरणे विकल्प उच्यते, प्रकरणान्तरे तु विकल्पशब्देन भेदमात्रमुच्यते चक्रः।" ↩︎
-
" बलकालविशेषःऋतवो वसन्तादयः अहोरात्र आहारश्च तेषां कालविधिना विनियतो अवधारितो भवति। यस्य दोषस्य यो बलकालविशेषः ऋत्वादिभिरवधार्यते तद्दोषजव्याधेरपि तैर्ऋत्वादिभिर्बलकालविशेषोऽवधार्यते गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" ‘विस्तरेणोपदिशन्तः ग.।" ↩︎
-
“चक्रसंमतोऽयं पाठः, योगीन्द्रनाथसेनस्तु चिकित्सितं चोत्तरकालं यथोद्दिष्टं विकाराणां इति पठति।” ↩︎
-
" प्रविश्यामाशयमूष्मणा सह यो.।" ↩︎
-
" अन्विति यथोक्तक्रमेण, अवेत्य गत्वा चक्रः।" ↩︎
-
" ‘क्लृप्तीभावोऽप्रवृत्तिः, सा च योग्यतया मूत्रपुरीषयोरेव चक्रः।" ↩︎
-
" अवनुन्नं प्रेरितं चक्रः।योगीन्द्रनाथस्तु अवतुन्नत्वमिव इति पठति, अवतुन्नत्वं प्राजनेनेव तोदः इति च व्याख्यानयति।" ↩︎
-
" अन्नरसे मधुरादौ खेदः सर्वरसेष्वनिच्छेत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
“योगीन्द्रनाथस्तु वातज्वलिङ्गानि स्युः इति न पठति।” ↩︎
-
“आमाशयं प्रविशदेवोष्माणमुपसृजदाद्यं यो.।” ↩︎
-
" बहिद्वरं निरस्य । बहिर्वा संप्रपीडयत ह.।" ↩︎
-
" अङ्गे भृशमुत्तिष्ठन्ति यो.।" ↩︎
-
" वा जगुभिषजः यो.।" ↩︎
-
" उष्णाम्ललवणकटुकप्रियता ग.।" ↩︎
-
““°हासकरः ग.।” ↩︎
-
" वा पयसा समश्नाति इति पा०।" ↩︎
-
" क्षीरमाममतिमात्रमथवा इति पा०।" ↩︎
-
" चाशु प्रमाणमतिवर्तते ग.।" ↩︎
-
" प्रतिरुन्ध्यात् इति पा०।" ↩︎
-
" °मिव ग.।" ↩︎
-
" पिडकोलिका नेत्रमलः चक्रः।" ↩︎
-
" यदधोमार्गं ग.।" ↩︎
-
“यदुभयमार्गं ग.।” ↩︎
-
" रुद्रकोपाग्निना यो.।" ↩︎
-
" तत्रानुगः ग.।" ↩︎
-
" कषायं तिक्तमेव च ग.। मधुरं चैव भेषजमित्यत्र एवशब्दोऽप्यर्थः; तेन कषायतिक्ते तावद्वेषजे भवत एव, पित्तकफप्रत्यनीकत्वात्; मधुरमपि लङ्घनादिना कफे जिते भेषजं भवतीत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" साध्यतमं ग.।" ↩︎
-
" जयार्थेश्रेष्ठमुच्यते यो.। " ↩︎
-
" तत्रान्वयो ह.।" ↩︎
-
" स्याच्चयोगावहं तत्र मधुरं चैव भेषजम्’ ग.। " ↩︎
-
" ‘पूर्वोक्तादपि इति पा०।" ↩︎
-
" त्रिविधोदर्कमिति त्रिविधजा तीयफलम् चक्रः।" ↩︎
-
" वाससोरञ्जनं इति पा०।" ↩︎
-
" तत्र तावत् ग.।" ↩︎
-
" कठिनीभूत आप्लुत्य यो.।" ↩︎
-
" पिण्डित इति कुण्डलीभूतः। पिण्डितश्चेति द्वितीयपिण्डितशब्देन मांसाद्युत्तुण्डनेन गुल्मप्रदेशस्यापि पिण्डितत्वमुच्यते; पूर्वेण पिण्डितशब्देन तु वायोः पिण्डितत्वमिति न पौनरुत्त्यम् इति चक्रः।" ↩︎
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" अणुत्वमापद्यते यो.।" ↩︎
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" मृदुशिथिलः ग.।" ↩︎
-
" अल्परोमाञ्चः इति पा०।" ↩︎
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" विरुद्धोपक्रमत्वात् ग.।" ↩︎
-
" विकाराणां भावाभावप्रतिविशेषा भवन्ति यो.। विकाराणां सर्वेषामेव रोगाणां विघातस्य भावो विकाराणामनुत्पत्तिः, विघातस्याभावो विकाराणां जननं, तयोः विघातस्य भावाभावयोः प्रतिविशेषाः प्रत्येकं विशेषाःविकारविघातभावाभावप्रति विशेषाः गङ्गाधरः।" ↩︎
-
“चक्रसंमतोऽयं पाठः। योगीन्द्रनाथसेनस्तु परस्परं नानुबध्नन्ति न तदा विकाराभिनिर्वृत्तिर्भवति, अथाप्रकर्षादबलीयांसोऽनुबध्नन्ति न तदाऽवश्यं विकाराभिनिर्वृत्तिर्भवति, चिराद्वाऽप्यभिनिर्वर्तन्ते विकाराः, तनवो वा भवन्ति, अयथोक्तसर्वलिङ्गा वा इति पठति। परस्परं नानुबध्नन्ति परस्परं प्रतिकूला भवन्ति, अनुबन्धो ह्यनुकूलेऽभिप्रेतः; अथवा कालप्रकर्षादिति अनुबनन्तीत्यनेन संबन्धः, कालप्रकर्षादनुबघ्नन्तीति कालप्रकर्षात् परस्परं निदानादयोऽनुगुणा भवन्ति; तनवोऽल्पमात्राः, अयथोक्तसर्वलिङ्गा इति येन प्रकारेण लिङ्गान्युक्तानि न तेन प्रकारेणापि सर्वलिङ्गानि भवन्तीत्यर्थः। अत्र यदा निदानादिविशेषाः परस्परं नानुबध्नन्ति न तदा विकाराभिनिवृत्तिः, कालप्रकर्षादनुबन्ति तदा चिरादभिविनिर्वर्तन्ते विकाराः, अबलीयांसोऽनुबध्नन्ति तदा तनवो अयथोक्तसर्वलिङ्गा वा विकारा अभिनिवर्तन्ते इति चक्रः।” ↩︎
-
" सर्वविकारभावाभावप्रतिविशेषाभिनिर्वृत्तिहेतुर्भवत्युक्तः यो.।" ↩︎
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" बहुद्रवः श्लेष्मा दोषविशेष इति बहुद्रव एव कफो मेहजनकः, नाल्पद्रवः इति चक्रः।" ↩︎
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" अबद्धमिति असंहृतं व्याख्येयम्। अत्र तु बहुत्वमघनत्वं च यथायोग्यतया बोद्धव्यं, तेन मेदसि मांसे वसामज्ज्ञोश्च द्वितीयमपि, शेषेषु बहुत्वम् इति चक्रः। बहुबद्धं ग.। बहुबद्धमित्यस्य मेदोमांसाभ्यामन्वयः। शरीरजक्लेदो मूत्रादिद्रवः, वसा मांसस्य स्नेहः, लसीका स्वयं वक्ष्यते यत्तु मांसत्वगन्तरे उदकं तल्लसीकाशब्दं लभते, रस आद्यो धातुः, ओज इत्यर्धाञ्जलिपरिमितं श्लेष्मविशेषो न तु रस एवौजः, तस्य पाठवैयर्थ्यात् गङ्गाधरः। बहुबद्धं चितं इति योगीन्द्रनाथसेनः।" ↩︎
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" रसश्वौजसंख्यातः इति पा०।" ↩︎
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" बहुबद्धत्वात् यो.।" ↩︎
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" मिश्रीभवन् यो.।" ↩︎
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" एनत्वेन मिश्रीयमाणं मेदः संदूषयति गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" मेदसोपहतः ग.।" ↩︎
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" वृक्कबस्तिप्रभवाणां इति पाठश्चेत् साधुः।" ↩︎
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" प्रकृतिविकृतिभूतत्वादिति प्रकृतिभूतैः सर्वैरेव विकृतत्वात्; सर्व एव यस्माच्छ्लेष्मणो गुणा विकृतास्तस्मात् प्रकोपप्रकर्षात् स्थिरो भवति, अतिप्रकर्षात्त्वसाध्य इत्यर्थः चक्रः।गङ्गाधरस्तु स्थैर्य साध्यतां वा इति पठित्वा एवं व्याचष्टे— प्रकृतिविकृतिभूतत्वादिति प्रकृत्या हेतुना प्रकृत्यनुरूपेण विकृतिभूतत्वात्, विकृत्या विकृतिभूतत्वाभावात, दूष्यहरक्रिया साध्यत्वेन समक्रियत्वाच्च इति।" ↩︎
-
" वैषम्यमिह वृद्धिकृतमेव वेदितव्यं, क्षयरूपवैषम्यस्यैवंरूपव्याध्यजनकत्वात्; वैषम्य एव वृद्धवृद्धतरत्वादिना हानिवृद्धी बोद्धव्ये चक्रः।" ↩︎
-
" भूयसा समुपगृह्यते ग.।" ↩︎
-
" मूर्तानिति कठिनान् चक्रः।" ↩︎
-
" तन्तुबद्धं तन्तुवद्दीर्घमित्यर्थः। लालामिवालालं, समन्ताल्लालारूपमित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" ‘तथाविधशरीरस्यैव’ यो.।" ↩︎
-
" पूर्ववद्गुणविशेषेणैव इति पा०।" ↩︎
-
“‘संसृष्टदोषमेदःस्थानत्वादिति संनिकृष्टं दोषस्य पित्तस्य मेदसश्च स्थानं, यस्मात् पित्तस्य ह्यामाशयः स्थानं तथा मेदसोऽपि यत्स्थानं वसाबहुलं तदप्यामाशथैकदेश एव, तेन दोषदूष्ययोः स्थानप्रत्यासत्त्या दूषणं नित्यं प्रत्यासन्नत्वाद्दुर्जयमिति भावः; किंवा संसृष्टदोषं मेदोरूपं स्थानं यस्य स तथा; एष विरुद्धोपक्रमत्वे हेतुः चक्रः ।” ↩︎
-
“‘तथाविधम्’ ग.।” ↩︎
-
" तथाविधशरीरस्य यो. ।" ↩︎
-
" तथाविधशरीरे यो. ।" ↩︎
-
" अनुबन्धमित्यविच्छेदेन, च्योतयति पातयति चक्रः। श्च्योतयति यो.।" ↩︎
-
" लसीकातिबहुत्वाद्विक्षेपाच्चास्यामूत्रप्रवृत्तिसङ्गं करोति ह.।" ↩︎
-
" महात्ययिकत्वादितिमज्जप्रभृतिसारभूतधातुक्षयकरत्वात्; विरुद्धोपक्रमत्वं तु यद्वायोः स्निग्धादि पथ्यं तन्मेदसोऽपथ्यमित्यादि ज्ञेयम् चक्रः। " ↩︎
-
" पूर्ववद्गुणविशेषेण इति पा०।" ↩︎
-
" नीडद्रुमः पक्षिणां वासवृक्षः चक्रः।" ↩︎
-
" यथा च वायुश्चतुरः प्रमेहान् कुरुते बली ग.।" ↩︎
-
" प्रकृतिविकृतिमापन्नानि ग.। प्रकृतिभावं भजन्ति विकृतिमापन्नानि ह.।" ↩︎
-
" लसीकाचतुर्थाः ह।" ↩︎
-
" ‘प्रभवाण्यभिनिर्वर्तमानानि ह.।" ↩︎
-
“‘स एव " ↩︎
-
“भूयोऽतः प्रकृति विकल्पनया " ↩︎
-
" उद्वृत्तवाहिस्तनूनि उच्छलीकृत बाह्यदेहानि चक्रः” ↩︎
-
" सुप्तवत्सुप्तानि च” ↩︎
-
" शुकुरोमराजीसंततानि इति पा०" ↩︎
-
““पिच्छास्रावीण इति पा०” ↩︎
-
" नि स्तोदपाकबहुलानि इति पा०" ↩︎
-
" ऋष्यो हरिणविशेषः चक्रः" ↩︎
-
“‘रक्ति राराजिसंततानि ग.” ↩︎
-
" पुण्डरीकपलाशशब्देन पद्मपुष्पदलमिह चक्रः" ↩︎
-
" पापीयसा च" ↩︎
-
" दोषाश्च ह." ↩︎
-
" आददते च" ↩︎
-
" यात कुच्छेण छिद्यते ग." ↩︎
-
“उत्सादनपराघातने यो " ↩︎
-
“उपसंगृह्ण पित्तं च दूषयन् विहरति ग.” ↩︎
-
" शोणितगमनाच्चा स्यदौर्मन्ध्यमुपजायते ग." ↩︎
-
" अतिप्रयोगमारभते ग." ↩︎
-
" अतिमात्रोपक्षीणरेतस्त्वात् यो" ↩︎
-
" ऽरसिकं ग." ↩︎
-
“एतदनन्तरं गङ्गाधरमते स कासप्रसङ्गादुरसि क्षते शोणितं ष्ठीवति, शोणितगमनाच्चास्य दौर्बल्यमुपजायते इत्यधिकः पाठः” ↩︎
-
" क्षयादस्यबहून् रोगान्मरणं वाऽधिगच्छति यो. " ↩︎
-
“‘स्रोतांस्यायतिमुखानि ह.; स्रोतसां मुखानि यो” ↩︎
-
" शिरःशूलं ग." ↩︎
-
" बराहोष्ट्र्खरैः यो" ↩︎
-
" बलवानुपचितो हि ग." ↩︎
-
“तन्त्रं शरीरं, तस्य परिपालनार्थे सद्वृत्तोक्तः प्रयोगस्तन्त्रं प्रयोगः, तं चक्रः; तन्त्रं प्रयोगं वेदादिशास्त्रोक्तं स्वाभीष्टदेवतासिद्धिराजादिवशीकरणोच्चाटनादि- निमित्तं प्रयोगः गङ्गाधरः " ↩︎
-
" अत्युदीर्णत्वाद्दोषाः प्रकुपिताः इति यो।” ↩︎
-
" ० विभ्रंश इति यो " ↩︎
-
" चक्षुषोश्चास्वच्छता ग.।" ↩︎
-
“अयं पाठश्चकसंमतः, गङ्गाधरस्तु अर्दिताकृतिकरणमुन्मर्दितत्वं च इति पठति।” ↩︎
-
" शम्यादक्षिणहस्तेन वादनं, तालस्तु वामहस्तेन वादनम् इति चक्रः।" ↩︎
-
" तीव्रत्वं यो।" ↩︎
-
" ० स्तब्धाक्षता ग.।" ↩︎
-
" चेत्यागन्तुनिमित्तोन्मादस्य पूर्वाणि भवन्ति ग." ↩︎
-
" अत्यात्मबलवीर्यपौरुषपराक्रमज्ञानवचनविज्ञानानि च." ↩︎
-
" हिंसार्थिनोन्माद्यमानः इति पा० " ↩︎
-
" न ह्यन्यकृतकृत्यता इति, न ह्यस्य कृतकृत्यता इति च पा० " ↩︎
-
" ते च तेभ्योऽविरोधश्च , इति न च तेभ्यो विरोधश्च इति च पाठान्तरद्वयमत्रोपलभ्यते" ↩︎
-
“द्विविधं पा०” ↩︎
-
" हृदयमुपसंगृह्योपरितिष्ठन्ते इति ग. " ↩︎
-
" वातेनापस्मरन्तं इति पा०" ↩︎
-
" पित्तेनापस्मरन्तं इति पा०" ↩︎
-
" अपस्मरन्तं इति पा०" ↩︎
-
" दोषलिङ्गाननुरूपंग." ↩︎
-
" अतिसरणप्लवनलङ्घनाद्यैः’ ह." ↩︎
-
“‘सर्वौषधविशेषवित्’ ग.” ↩︎
-
" हेतुत्वं ग." ↩︎
-
" तथैकुस्यैकमुच्यते ग. तथैकस्यैकमेव च’ ह·" ↩︎
-
" तथैकैकस्य ग." ↩︎
-
“रोगाणामुपलक्षयेत् च. " ↩︎
-
" चतुःश्रेयः च; चतुःश्रेय इति चतुःश्रेयः कारकं चिकित्सितं, प्रपद्यते बुध्यते चक्रः " ↩︎
-
" तेषु तु त्वरया कुर्याद्देहाग्निबलवत्क्रियाम् यो " ↩︎
-
" यथास्वं तं ग.‘तमातुरं, हरेत् ताम् कोष्ठप्रपन्नाम् दोषान् हारयेत्, इति अन्तर्भावितो णिजर्थः गङ्गाधरः” ↩︎
-
" संग्रह इति व्याधिनिदानादिसंग्रहे; ये ज्ञानार्थंप्रधानभूतज्वरादि- ज्ञानार्थेव्याधयः सन्ति तेऽविपाकारुच्यादयः स्वातन्त्रयेणोत्पद्यमाना व्याधय एव व्याधित्वेनैव व्यपदेष्टन्या इत्यर्थः; तदात्वे तु लिङ्गानीति यदा ज्वरादिपरतन्त्र जायन्तेऽरुच्यादयः, तदा पारन्त्रयाल्लिङ्गान्येव ते नामयाः चक्रः" ↩︎
-
" हेतोरभावान्नानुवर्तते ग." ↩︎
-
" अभिनिविश्य ग." ↩︎
-
" “दोषभेषजदेश’ च " ↩︎
-
" दोषादिमानज्ञाःनायत्तत्वात् च." ↩︎
-
" दोषादीनां च." ↩︎
-
“‘दोषादिमानज्ञानार्थे’ च” ↩︎
-
" शरीरयोगक्षेमकरा : यो" ↩︎
-
" चोपहतप्रकृतिकानां इति पा०" ↩︎
-
" प्रयोगसमसागुण्यादिति समस्य प्रयोगस्य सद्गुणत्वात्, समेऽल्पकालेऽल्पमात्रे च पिप्पल्याः प्रयोगे सगुणा भवन्तीत्यर्थः चक्रः ।" ↩︎
-
" निगमोनगरपुरोवर्तिग्रामः गङ्गाधरः ।" ↩︎
-
" सेविताभ्यां क्रमेणैव ग" ↩︎
-
" गुणाधानमुच्यते ग." ↩︎
-
" देशकालवशेन भावनादिभिः गं." ↩︎
-
“चाग्निमनुदीर्णमुदीरयति ग.” ↩︎
-
" चानु दीर्णमग्निमुदीरयति ग." ↩︎
-
" तत्स्नेहस्वादनभोजनस्याप्रतिष्ठानं ग.।" ↩︎
-
" सनो भिषगिति नोऽस्माकं संमत इस्यर्थः’ चक्रः। सना ग. ।" ↩︎
-
" परिणामगमनं यो।" ↩︎
-
" आमप्रदोषकारणमिच्छन्ति ग.।" ↩︎
-
" आमप्रदोषरूपाणि यथोक्तान्यभिदर्शयति ह.। " ↩︎
-
" तमलसकम् यो ।" ↩︎
-
" एवंदोषमामविषमित्याचक्षते ग. ।" ↩︎
-
" छेदन ग. छेदनं हे मच्छेदनीयरसकवादिना श्लेष्मच्छेदनम् गङ्गाधरः । " ↩︎
-
" उपहृत्य कायाग्निं इति पा० ।" ↩︎
-
" अनुद्रिक्तामप्रदोषस्य ग.। " ↩︎
-
" सर्वाशयं ग. ।" ↩︎
-
" द्विजातिवराध्युषिते काम्पित्ये राजधान्यां ह.। " ↩︎
-
" वनविचारमनुविचरन्निति वनं विचर्य विचर्यानुविचरन्नित्यर्थः चक्रः । वनचिचारं वनविहारं, विचरन् विहरन् गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" च प्रकृतिभूतानां ग.।" ↩︎
-
" उद्धरध्वमिति बहुवचनं बह्वन्तेवासियुक्ताग्निवेशाभिप्रायेण चक्रः ।" ↩︎
-
" सम्यग्विचारचारितेषु इति पा०। " ↩︎
-
" सम्यग्विचारचारितानि इति पा०।" ↩︎
-
" एवमसामान्यवतामेभि " ↩︎
-
" उपक्षीणजलाशयं इति पा०।" ↩︎
-
" प्रकृतिविकृत ग.।" ↩︎
-
“तृणोलूपोप्रवनलताप्रतानादिबहुलं ह. ।” ↩︎
-
" प्रतिभयावाररूपं ग.। प्रतिभयं भयङ्करमप्यवारं रूपं मूर्तिर्यत्र तं तथा गङ्गाधरः।" ↩︎
-
" विद्यादपरिहार्यत्वाद्रीयः परमर्थवित् ग.।" ↩︎
-
“स्नेहस्वेदपूर्वकवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानीति पञ्चविधम्।” ↩︎
-
" सत्कथा ग.।" ↩︎
-
" तथाविधान्तर्हितधर्मणां ग." ↩︎
-
" स्पृश्याभ्यवहार्यदोषात् च" ↩︎
-
" प्रांगेवेति झटिति, अनेकपुरुषकुलविनाशायाभिशप्ता भस्मतां यान्तीत्यर्थःचक्रः" ↩︎
-
“‘नियतप्रत्ययोपलम्भात् प्रतिनियतपुरुषाभिषाशात्, अनियता अमिलिंता एव भस्मतां यान्ति न सर्वे जना इत्यर्थः चक्रः ।” ↩︎
-
" ॰ऽतिबलविपुलप्रभावाः" ↩︎
-
" विधिर्यज्ञविधायको वेदः,विधानं यज्ञविधानं’ चक्रः।" ↩︎
-
" तेषामुदारसत्त्वगुणैः कर्मणां धर्माणां चाचिन्त्यत्वात् ।" ↩︎
-
“‘सत्त्वानां गौरवात् ग. । " ↩︎
-
" हीयमानानि हीयमानगुणपादैहींबमानगुणैश्चाहारविहारैरयथापूर्वमुपष्टभ्यमानानिमारुतपरीतानि यो ।” ↩︎
-
" संवत्सराणां शते शतकृत्वो विभक्तानामेकैकभागे संपूर्णे जाते तद्युगोत्पन्नानां देहिनां तत्तत्परिमितस्यायुष एकैकः संवत्सरः क्षयं याति गङ्गाधरः " ↩︎
-
" दैवेन पुरुषकारं पराभूतं दृष्ट्वा चक्रः" ↩︎
-
" दृष्टकारणैरुद्रिक्तं क्रियते’ चक्रः" ↩︎
-
“भेषजेनोपचरेतां ग॰” ↩︎
-
" यद्दिव्यं चक्षुः ग." ↩︎
-
" आहारं ग." ↩︎
-
" क्रमोपयोगः सम्यक्, त्यागः सर्वाणां चातियोगायोगमिथ्यायोगानां, संधारणमनु दीर्णानां ग." ↩︎
-
" पर्यसनं परिक्षेपः, अनुपाङ्गादिति स्नेहादानात् चक्रः" ↩︎
-
" विरेचनवमना पतर्पणसंशमान्येव ग. ।" ↩︎
-
" अग्निंचानुदीर्णमुदीरयति ग. ।" ↩︎
-
" अल्पवादप्रतीकारस्य ग." ↩︎
-
" अपचारिकस्य ह." ↩︎
-
" पुनर्मत्तोन्मत्तमूर्खरक्तदुष्टादुष्टवचनमिति च " ↩︎
-
“‘० आत्मना ग.” ↩︎
-
" सर्वमथोत्तरकालं च ।" ↩︎
-
" त्रिविधां वा सहोपदेशेनेच्छन्ति बुद्धिमन्तःग." ↩︎
-
“अयं पाठो गङ्गाधसंमतः” ↩︎
-
" एवंनामानमेवयोगं ग." ↩︎
-
" अनुमानादुपदेशतश्च इति पा०" ↩︎
-
" खल्वन्यतमा ये इति पा०" ↩︎
-
" वीर्यमुत्थानेन च । वीर्यमारब्धदुकरकार्येष्वव्यावृत्तिमैनसः, उत्थानेनेति क्रियारम्भेण चक्रः " ↩︎
-
“अवस्थानंस्थिरमतित्वं चक्रः” ↩︎
-
" उपेत्य धीयत इति उपधिः छद्मेत्यर्थः, अनुबन्धेनेत्युत्तरकालं हि भ्रात्रादिवधेन फलेन ज्ञायते चक्रः" ↩︎
-
“‘द्विष्टेष्टेषु सुखासुखानि यो” ↩︎
-
" योगवित् ग." ↩︎
-
" स्रोतसां विमानं ग. " ↩︎
-
" यथा वहन्ति ग." ↩︎
-
" यस्य हि स्रोतांसियद्धिटितानीत्यर्थः, यच्च वहन्तीति यच्च पुष्यन्तीत्यर्थः, यच्च रसरक्तादि, आवहन्ति नयन्ति । यत्र चावस्थितानीति यत्र मांसादौ संबद्धानीत्यर्थः चक्रः" ↩︎
-
" पक्काशयो नाभेरधः, स्थूलगुदं त्रिवलिरूपं गङ्गाधरः, स्थूलात्रं गुदं च इति पा० " ↩︎
-
" सशब्दशूलं ग." ↩︎
-
" मूत्रितस्य मूत्रवेगवत उदकभक्ष्यस्त्रीणां सेवनात् गङ्गाधरः ।" ↩︎
-
" भेदप्रकृत्यन्तरेणेति भेदकारणान्तरेण चक्रः ।" ↩︎
-
" रुक्सामान्यात् ग.।" ↩︎
-
" ननु, संख्येयत्वमसंख्येयत्वं च विरुद्धावेतौधर्मो, तथैकत्वमनेकत्वं चेति, तत् कथं विरुद्धत्वेन ख्यातौ धर्मावेकस्मिन् रोगेघटेतामित्यत आह - न चेत्यादि। संख्येयाग्रेष्विति संख्येयरोगपरिमाणेषुअत्राग्रशब्दः परिमाणे वर्तते; भेदप्रकृत्यन्तरीयेषु भेदकारणान्तरभवेषु, विगीतिः विरुद्धभाषणमित्यर्थः।विगीतौ दोषाभावं दर्शयित्वा भेदकारणान्तरकृतायामविगीतावपि दोषो भवतीति दर्शयन्नाह- नचाविगीतिरित्यादि। यदि ह्येकं रोगानीकं रुजासामान्यादित्यभिधाय पुनरेकं रोगानीकं प्रभावभेदादित्यविरुद्धा एकताख्यायिकाऽविगीतिः क्रियते तथाऽपि सा विरुद्धैव स्यात्,यतो न प्रभावमेदेन रोगाणामेकत्वमुपपन्नं किंतु द्वैधमेवेति भावः। विगीतौद्रोषाभावे हेतुमाह - मेत्ता हीत्यादि।एवं मन्यते – यद्धर्मयोगविवक्षयैकत्वमुक्तंतद्धर्मयोगविवक्षयैव यदि बहुत्वमप्युच्यते ततो विरोधो भवति, नहि तदेवैकंचानेकं चेत्युपपन्नं; यदा तु धर्मान्तरयोगविवक्षया बहुत्वमुच्यते तदा नविरोधः, बहुत्वाभिधानकाले बहूनामेव रोगधर्माणां विवक्षितत्वात् ; रोगाणामेकत्वमेकधर्मविषयं, बहुत्वं च बहुधर्मविषयमिति न विरोधः इति चक्रः।" ↩︎
-
" प्रकृतस्य समानशब्देनाभिहितस्य यद्भेदख्यापकं पश्चात्प्रयोगान्तरं तदपेक्षणीयं चक्रः। प्रकृत्यनुप्रयोगान्तरं ग.।" ↩︎
-
" तस्माद्यथोचितं ग. ।" ↩︎
-
“अनुबन्ध्यलक्षणसमन्विताः च. " ↩︎
-
" ० वि - शेषाव्द्यूहः ग. " ↩︎
-
" समवातपित्तश्लेष्मप्रकृतयः ग.” ↩︎
-
" अनु उत्तरकालं प्रकर्षेण प्रकृतिरूपेण निधीयन्ते वाताधाधिक्यसामान्यानि यैस्तान्यनुप्रणिधानानि गङ्गाधरः । अन्नप्रणिधानानि इति पा०" ↩︎
-
" दोषप्रकृतिप्रतिकूलयोगीनि यो ।" ↩︎
-
“तानि ग.” ↩︎
-
" स्युर्बलवन्तश्च ग." ↩︎
-
" वातप्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्य ग." ↩︎
-
“पित्तप्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्य ग. " ↩︎
-
“० शतपत्रहृ्दानां यो” ↩︎
-
“२ श्लेष्मप्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्य ग.” ↩︎
-
" देहाग्ने रक्षणानि च इति ग. ।” ↩︎
-
“व्याधिरूपमधातुरे च” ↩︎
-
" संख्याग्रसंभवमिति संख्याप्रमाणसंभवमित्यर्थः चक्रः ।" ↩︎
-
" न्यायतः न्याय्यं, उचितमित्यर्थः इति योगीन्द्रनाथसेनः ।" ↩︎
-
" तस्मिन् शीतीभूते तूपयुक्तभूयिष्ठेऽम्भसि ग." ↩︎
-
“पश्चिमे शेषे ।” ↩︎
-
" मूलकपर्णी च" ↩︎
-
" उपकूड्य च । उपकूड्येति पाचयित्वा चक्रः ।" ↩︎
-
“काष्ठफलके कटे वा ।” ↩︎
-
" ऋणानि च." ↩︎
-
" पुनरिन्द्रियस्थाने यो" ↩︎
-
" तत्र यो" ↩︎
-
" प्रवृष्टः च" ↩︎
-
" अवरुद्धदोषं ग. ।" ↩︎
- ↩︎
-
" अभिसंधानं ग.।" ↩︎
- ↩︎
- ↩︎
-
““तालीसोशीर कपायैश्च यो ।” ↩︎
-
" भक्ष्यप्रकारान् ग." ↩︎
-
" संयुक्तासंयुक्तरित्यर्थः’ चक्रः । च. १०" ↩︎
-
“समग्रज्ञेय विज्ञानान्निवृत्तिं यो । समज्ञाज्ञानविज्ञानात् ग.।” ↩︎
-
" ज्ञेयं च" ↩︎
-
“सप्रजाऽपीति अवन्ध्याऽपीत्यर्थः चक्रः ।” ↩︎
-
" हितैस्तथाऽन्नैः यो" ↩︎
-
““ स्तदासगस्रावि " ↩︎
-
" दृष्ट्वाऽसृगेवं न च गर्भमज्ञाः च.” ↩︎
-
" परित्रवं यो" ↩︎
-
" सव्याङ्गगर्भा ग." ↩︎
-
““सदृशत्वलिङ्गं च.” ↩︎
-
" अनूकमिति प्राक्तनाऽव्यवहिता देहजातिः;तेन यथानूकमिति यो देवशरीरादव्यवधानेनागत्म भवति सदेवसत्त्वो भवति चक्रः।" ↩︎
-
" ससूक्ष्मैः ग.।" ↩︎
-
" सह अनुशयेन रागादिना वर्ततइति सानुशयः। चक्रः।" ↩︎
-
" ज्ञानात् च.।" ↩︎
-
“विषमास्तदर्थाः ग.।” ↩︎
-
“रूप्यत इति रूपं भौतिकंशरीरं चक्रः।” ↩︎
-
“सत्त्वं विधेयं स्वायतं मनः चक्रः।” ↩︎
-
" तथायुक्ते संसर्गे हृ।" ↩︎
-
" सत्त्वसम्प्रयोगादितिमनोगमनादित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" सत्त्वसंज्ञमौपपादुकमिति ग.। औपपादुकमिति आत्मनः शरीरान्तरसंबन्धोत्पादकं चक्रः। उपपादुकं यो.।" ↩︎
-
" Sप्यनुपपन्नं हृ।" ↩︎
-
" कन्दमूलभक्ष्याश्च ग।" ↩︎
-
" ह्येवमवक्रामेत् ह।" ↩︎
-
" तस्मादेतदवोचामः ह।" ↩︎
-
" तस्माज्जात एवायं जातं गर्भं जनयति,अजातोऽप्यजातं च इति पा० ।" ↩︎
-
" सत्त्वमौपपादुकं ग.।" ↩︎
-
" द्वितीयामाजातिं ह" ↩︎
-
" जातिमति क्रान्तामपि ह." ↩︎
-
" अनुवृत्तेराहु ह.।" ↩︎
-
" ‘प्रतिज्ञादोषः’ च.।" ↩︎
-
" निर्विकारो शश्च ह.। विकार इति विकारवानित्यर्थो मतुप्लोपाज्ज्ञेयः’ चक्रः।" ↩︎
-
“‘मधूच्छिष्टविग्रहेषु’ च.। ‘मधूच्छिष्टविग्रहेष्विति सिक्थकेनमृत्तिकायां निर्मितसंचकरूपविग्रहेषु चक्रः।” ↩︎
-
" समुदायप्रभवः ग.।" ↩︎
-
" यैः क्रिया वर्तते भावैः च.।" ↩︎
-
" संक्षिप्य ग.।" ↩︎
-
" सर्वत्रावहितज्ञानः च।" ↩︎
-
" स्वप्नगतो यदा ग.।" ↩︎
-
" एकमसहायं चक्रः।" ↩︎
-
" उदितेन ग.।" ↩︎
-
" गुणग्रहणायेत्यत्र गुणशब्देन गुणगुणिनोरभेदोपचारात गुणवन्ति भूतान्युच्यन्ते चक्रः।" ↩︎
-
" बोधयिता यो.।" ↩︎
-
" सवधातुकलुषीकृतः च.। सर्वधातुकलुषीकृत इति अव्यक्तसर्वधातुतया कलुषीकृतः, धातुशब्देन रसादिधातुबी जान्युच्यन्ते; खेटः श्लेष्मा तेन खेटभूतः श्लेष्मतुल्य इत्यर्थः; अव्यक्तविग्रह इत्यस्य विवरणं सदसद्भूतङ्गावयव इति, अङ्गानां बीजरूपेण स्थितत्वात्सत्त्वं, अव्यक्तभावाच्चासत्त्वं चक्रः । सर्वधातुकलनीकृतः इति पा०।" ↩︎
-
" तत्र घनः पुरुषः ग.।" ↩︎
-
" उभयभागावयवाः च।" ↩︎
-
" द्वैहृदय्याविमानितं ह.।" ↩︎
-
" उपचारसंबोधनं ग.।" ↩︎
-
" स्तन्यमोक्षः यो।" ↩︎
-
" कान्ततमा ग.।" ↩︎
-
" गर्भस्या संपूर्णत्वात् इति पा०।" ↩︎
-
" अगण्यमिति न गणनया गर्भिण्यां प्रतिपादनीयं, यदि हि गर्भिणी गण्यमानमष्टममासं गर्भजन्मव्यापत्तिकरं शृणुयात् ततो भीता स्यात्, तद्भयाच्च गर्भस्य वातक्षोभाद् व्यापत् स्यादिति भावः चक्रः।" ↩︎
-
" दोष- प्रकोपणानि यो।" ↩︎
-
" बीजभागानां ग.।" ↩︎
-
" रान्तां इति पा०।" ↩︎
-
" एवमेव पुरुषस्य यदा बीजे च.।" ↩︎
-
“बीजभागनां ग.।” ↩︎
-
" तृणपुत्रिकं इति पा०।" ↩︎
-
" अनूकामिनिर्देशन सात्म्याभिनिर्देशेन चक्रः।" ↩︎
-
" अतिथिपूजकं यो।" ↩︎
-
" लेखा कर्तव्या कर्तव्यमर्यादा, तत्र स्थितं वृत्तंयस्य स लेखा स्थवृत्तः चक्रः।" ↩︎
-
" ऐश्वर्यलम्भिनं च।" ↩︎
-
" औपधिक मिति छद्मानुचारिणं चक्रः। " ↩︎
-
" विहारशीलं यो।" ↩︎
-
" मन्त्रसुगोचरं यो.।" ↩︎
-
" निरलङ्करिष्णुममे घसं च।" ↩︎
-
" सर्वबुद्ध्यङ्गहीनं ग.।" ↩︎
-
" गर्भावक्रान्तिसंप्रयुक्तस्यार्थस्य विज्ञाने सामर्थ्य यो।" ↩︎
-
" पुरुष च.।" ↩︎
-
" तस्यात्मबुद्धिः इति पा०।" ↩︎
-
" हेत्वादिभिरयुक्त : ग.।" ↩︎
-
" असंवलनं इति पा०।" ↩︎
-
“‘अलङ्कारादिषूपसर्गसंज्ञा च।” ↩︎
-
" अघसंज्ञा च.।" ↩︎
-
" शान्तमव्ययम् च.।" ↩︎
-
" सर्वभावान् हि च।" ↩︎
-
" शरीरस्य विचयनं विचयः, शरीरस्य प्रविभागेन ज्ञानमित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" समेनोचितप्रमाणेन धातूनां मेलकेन समयोगतया वहतीति समयोगवाहि इति चक्रः। समयोगवाहिनो यदा ह्यस्मिन् ग.।" ↩︎
-
" अकात्सर्येनेति एकदेशेन, प्रकृत्येति सकलेन स्वभावेन चक्रः।" ↩︎
-
" प्रकृत्या च यौगपद्येन ग.।" ↩︎
-
" धातूनामधिकमपकर्षति ग.।" ↩︎
-
" पर्यायेणेत्युचितेन क्रमेण चक्रः।" ↩︎
-
" तद्विपरीतकरणलक्षणसमाज्ञातचेष्टया ग.।" ↩︎
-
“‘क्रमेणोपयोगः, सम्यक् सर्वाभियोग अनुदीनां सन्धारणं यो।” ↩︎
-
" आहारविहारेः ह.।" ↩︎
-
" वाऽप्याहारैरभ्यस्यमानैः ग.।" ↩︎
-
" सामान्यात् यो ।" ↩︎
-
“‘भूयोऽन्ये- न्यः यो।” ↩︎
-
" कुष्कुण्डं पलालादिच्छत्रिका चक्रः।" ↩︎
-
" संयोगश्चेति ग.।" ↩︎
-
“संयोगस्त्वेषां ग.।” ↩︎
-
" त्वेवं द्विविधाः ग.।" ↩︎
-
" मले च। " ↩︎
-
" प्रसादे च.।" ↩︎
-
" एवंवादिनं च.।" ↩︎
-
" कथं चास्य ग.।" ↩︎
-
" उपलभ्यन्ते ग.।" ↩︎
-
" ‘सर्वाङ्गप्रवृत्तिः’ यो.।" ↩︎
-
" सर्वाङ्गानां तुल्यकाला भिनिर्वृत्तत्वादयप्रभृतीनां ग.।" ↩︎
-
" अन्तः कुक्षौ च.।" ↩︎
-
" ०बुभुक्षापिपासस्तु ह,।" ↩︎
-
" अपरा इति पा०।" ↩︎
-
“योगीन्द्रनाथस्त्वमुं पाठं न पठति।” ↩︎
-
" परिवर्त्य ग.।" ↩︎
-
" कालस्वलक्षणभावात् ग.।" ↩︎
-
“अस्याग्रे अकालमृत्युर्नास्ति इत्यधिकं पठति गङ्गाधरः।” ↩︎
-
" न त्वायुष ह.।" ↩︎
-
" कालाकालव्यक्तिः ह.।" ↩︎
-
" एनं वादं ह.।" ↩︎
-
" चैषां यो।" ↩︎
-
" नाम शारीरं ग.।" ↩︎
-
“अयं पाठश्चक्रासंमंतः।” ↩︎
-
" सर्वशरीरमाचक्षाणस्य च। आचक्षाणस्येत्यत्र मतं इति शेषः इतिचक्रः।" ↩︎
-
" द्रद्रुकुष्ठसंभवाधिष्ठाना ह.।" ↩︎
-
“२ तालुषके हृ.।” ↩︎
-
“‘पर्यायैः प्रकाश्यानि भवन्ति च.।” ↩︎
-
" द्वौ श्लेष्मभुवौ च। श्लेष्मभुवौ कण्ठपार्श्वयोर्व्यवस्थितौकठिनौ भागौ चक्रः " ↩︎
-
" पञ्च ग.।" ↩︎
-
" द्वे दशोत्तरे सन्धिशते यो।" ↩︎
-
" तर्क्यमेव चैके, तदुभयमपि न विकल्पते प्रकृतिभावाच्छारीरस्य च.।" ↩︎
-
" तावदेव चौजसः,स्त्रीणामर्तवस्य चत्वारोऽञ्जलयः इति पा०।" ↩︎
-
" अजर्जरात् पात्रात् च।" ↩︎
-
" वासांस्याच्छादयेद्भूषां च धारयेत् ग.।" ↩︎
-
" संवसेयातामति ब्रूयात् ग.।" ↩︎
-
“अतिबांला अप्राप्तजंरस्का।” ↩︎
-
“हितमशनं मात्रावदशित्वा दक्षिणपादेन ग.।” ↩︎
-
" ‘अवदातं यवानां यो।" ↩︎
-
" परिधिभिरिति चतुर्भिःपलाशवृहद्दण्डेः,परिधायेति वेष्टयित्वा च्र.।" ↩︎
-
" सर्पिर्धृतं, आज्यार्थमिति मत्रपूततकरणार्धम् चक्रः।" ↩︎
-
" अभिघार्यमिश्रीकृत्य चक्र ; अभिसंसार्थ ग.।" ↩︎
-
" परिबर्हःशयनासनपुष्पादिपरि च्छदः। तेन यथाविधा पुत्रेच्छा तथावर्णः परिबर्हः कर्तव्य इति वाक्यार्थःचक्रः।" ↩︎
-
" ततो या या यो ।" ↩︎
-
" देहलीमुपधाय यो। " ↩︎
-
" सदा चैताभिः समालभेत ग.।" ↩︎
-
" उत्कटविषमस्थान कठिनासन सेविन्याः ग.।" ↩︎
-
" अपचितमांस ग.।" ↩︎
-
" अभिध्यात्री ग.।" ↩︎
-
" तदनुकान ग.।" ↩︎
-
" अक्षोभ्य यो।" ↩︎
-
" मृदुमधुरशीतलं च।" ↩︎
-
" घृतसलिलसिद्धेन ह.।" ↩︎
-
" सर्पिषामुपयोगःपयसामामगर्भाणां च ह.।" ↩︎
-
" भुबुक्षायां ग.।" ↩︎
-
" गर्भा न स्पन्दते ग.।" ↩︎
-
" गर्भसगर्भा गर्मिणी वा निषायेत् यो।" ↩︎
-
" उद्गमय्य रसमिति क्वार्थ निष्काथ्य चक्रः।" ↩︎
-
“‘० विशोधनमात्रं वा तत्कालं यो ।” ↩︎
-
" शङ्केत च।" ↩︎
-
" विदहन्ति ग.।" ↩︎
-
" पातुं ग.।" ↩︎
-
" ह्यारोग्यवलवर्णसंपदुपेतं ग.।" ↩︎
-
" वास्तुविद्याहृदयं वास्तुविद्यातत्त्वं, तद्योगादग्न्यादीनां स्थानं यत्र चक्र ; हृदययोगेनाग्नि० ग.।" ↩︎
-
" हुत्वा यो।" ↩︎
-
" गोब्राह्मणेभ्यो नत्वा प्रदक्षिणं चरणमभिचरन्ती प्रविशेत् सूतिकागारम् ह; गोब्राह्मणमन्वावर्तमाना प्रविशेत्सूतिकागारं ग.।" ↩︎
-
" तदध्यासीत सा, तां ततः इति पा०।" ↩︎
-
" उपदिष्टवंदर्थाभिधायिनीभिः ग.।" ↩︎
-
" अस्या अवाग्गर्भः ग.।" ↩︎
-
" प्रवाहयितुमुपक्रमेत ग.।" ↩︎
-
" वायुरिन्द्रः प्रजापतिः ग.।" ↩︎
-
" लमते यो।" ↩︎
-
" बल्वजक्काथे यो। " ↩︎
-
" मण्डूकपर्णीपिप्पलीसंपाके हृ.।" ↩︎
-
" ºकालविडगुड यो।" ↩︎
-
" खरवृषभस्य च. खरवृषभश्चण्डबलीवर्द इति चक्रः।" ↩︎
-
" जरतः ग.।" ↩︎
-
" बल्वयूषादीनामाप्लावनानामन्यतमे इति पा०।" ↩︎
-
“‘वायोरेवाप्रतिलोमगत्वात् च ।” ↩︎
-
" अन्तर्बहिर्भागानि इति, अन्तर्बहि मार्गानिति च पा० " ↩︎
-
" सुखपरिषेक : इति पा०।" ↩︎
-
" यद्यच्चेष्टं स्याद्यावत् प्राणानां प्रत्यागमनं तत् सर्वमेव कार्यम् यो.।" ↩︎
-
" मित्वाऽष्टाङ्गुल ह " ↩︎
-
" अर्थधारण इति पा० । " ↩︎
-
“अस्यान कुमारस्य इत्यधिकं पठति योगीन्द्रनाथसेनः ।” ↩︎
-
“प्राङ्गाम कर्मणः ग. । " ↩︎
-
" वाणकुण्डुकाग्निः ह.; कणकण्डकतिन्दुककाठैन्धनश्याग्निः यो ।” ↩︎
-
" उभयकालं ग. । " ↩︎
-
“‘पवित्रेष्टलघुभूषणवती’ ग. ।” ↩︎
-
" त्रिपुरुषान्तरं ग. ।" ↩︎
-
“’नक्षत्रदेवतास्ंयुक्तं कृतं’” ↩︎
-
“’वृत्ते’ च” ↩︎
-
“’प्रकृतियुक्ता पाटलवर्णा’ ग” ↩︎
-
" क्षीर मिति ज्ञेयम् ग. ।" ↩︎
-
" तितकषा यक टुकप्रायाणां च यो ।" ↩︎
-
" सुप्रक्षालितोपधानानि सुधूपितानि शुद्धानि शुष्काण्युपयोगं गच्छेयुः यो ।च. १२" ↩︎
-
“”शङ्करं ’यो.।” ↩︎
-
" भेषजं च मेषजप्रवृत्तिश्च भेषजाधिकारे युक्तिश्च ग.। " ↩︎
-
" दशानुपा- तिनी ग.। " ↩︎
-
" अस्या लक्ष्यमिति तावनिमित्तानुमानं इत्यधिकं पठति" ↩︎
-
" हेतुभूतानि विवक्षितानि कांनिचिदैवाच्छारीरोपनिबद्धानि, यानि तस्मिंस्तस्मिन् काले तां तां विकृतिमुत्पादयन्ति ह. । गङ्गाधरः ।" ↩︎
-
" ‘यथोक्तेषु’ इति पा० ।" ↩︎
-
" तं विस्तरेणोपदिशन्तो भूयः परमतो व्या" ↩︎
-
“‘कृष्णश्यामः ह. । " ↩︎
-
" उपेत्य ईक्षमाण इत्युपेक्षमाणः चक्रः । ‘अवेक्ष्यमाणानपि ग. । " ↩︎
-
" अवेक्ष्यमाणानपि यो ।” ↩︎
-
" प्राग्वि कृतादभूत्वोत्पन्नान्’ यो. । प्राग्विकृतानदूरोत्पन्नान् ग.। " ↩︎
-
" ‘एवमस्य व- र्णमेदो मुखस्यान्तर्गतः ग. ।" ↩︎
-
" शुककलग्रहग्रस्ताव्यक्त० ग. । ३ अवे-" ↩︎
-
“क्ष्यमाणानपि यौ. । " ↩︎
-
" अदूरोत्पन्नान् ग. । " ↩︎
-
" स्वरानेकत्वं च. ।” ↩︎
-
" रौक्ष्यम तथा भृशम् यो । ७ तद्गतायुषः ग. I" ↩︎
-
" मरणोदयम् च । " ↩︎
-
" यस्तौ यो ।" ↩︎
-
“ज्ञानसंवर्धनार्थ ग. ।” ↩︎
-
" बहुविधान् बहून् ग. ।" ↩︎
-
" भाति ग. ।" ↩︎
-
" आम्लतानाता च. ।" ↩︎
-
" घृतानि यो ।" ↩︎
-
" वित्वरो यस्य गन्धो गात्रेषु हृ. ।" ↩︎
-
" जायते ग. ।" ↩︎
-
" सामान्येन च. । " ↩︎
-
" स्पर्शप्रामाण्येन यो ।" ↩︎
-
" प्रमाणावशेषं ग. ।" ↩︎
-
" स्तम्भ ग । " ↩︎
-
“संसभ्रंशधावनानि च । " ↩︎
-
" प्रसुप्तं ह. । " ↩︎
- ↩︎
-
" स्कन्नानि इति हस्तलिखित पुस्तके न पठ्यते ।" ↩︎
-
" प्रतिकीर्णा ग. ।" ↩︎
-
" प्रकाशेरन् ग. । " ↩︎
-
" आयुः प्रमाणं जिज्ञासुभिषक् तन्नो निबोधत यो ।” ↩︎
-
" वितथं ग. ।" ↩︎
-
" न स जीवितुमर्हति ह. । " ↩︎
-
" यः पश्यति स नश्यति ग. ।" ↩︎
-
" भावान् च. । " ↩︎
-
" यमक्षयमसंशयम् ह. । " ↩︎
-
" न चैतान् ग.।" ↩︎
-
" इन्द्रियाणामृते दृष्टेरिन्द्रियार्थानदोषजान् । नरः पश्यति यः कश्चिदिन्द्रियैर्न स जीवति च । " ↩︎
-
" येऽसद्व हुशः च. ।" ↩︎
-
" मृत्युर्यैरवबुध्यते यो ।" ↩︎
-
“न जीवेन च सृज्यते ग. ।” ↩︎
-
" नीयते ग. । " ↩︎
-
॑॑॑# “‘म जसि ग. ।” ↩︎
-
" द्रविडान्ध्रकैः यो ।" ↩︎
-
" संसज्जति च. । " ↩︎
-
॑॑# “लगति ह. ।” ↩︎
-
“”प्रपतत्यपि ’ ग” ↩︎
-
॑# " नीयते ग. ।" ↩︎
-
" पादचर्मणोः ग. ।" ↩︎
-
" ‘दन्त चन्द्रार्क नक्षत्र ० ह. ।" ↩︎
-
" कपियुक्तेन यानेन इति शेषः चक्रः । " ↩︎
-
“पापाननाचारा यो ।” ↩︎
-
“दृष्टमिति चक्षुषा, अनुभूतं तु शेषेन्द्रियज्ञातं, कल्पितमिति मनसा भावितं,प्रार्थितं याञ्चाविषयीकृतं, भाविक मिति भाविशुभाशुभफलसूचकं, दोषजमितिउल्बणवातादिदोषजन्यम् चक्रः।” ↩︎
-
" च बुद्धिमान् यो ।" ↩︎
-
" सुदुर्वचम् इति पा० । " ↩︎
-
“भुक्तं ह. । " ↩︎
-
" शीघ्रं ग. ।” ↩︎
-
" श ह. ।" ↩︎
-
" उरोमुक्तः ह. ।" ↩︎
-
" शुष्ककासज्वरार्दितः ग. ।" ↩︎
-
" कष्टाभिलक्षिताः च. कण्ठाभिलक्षिताः ह. । " ↩︎
-
" डम्बरी स्तब्धाक्षा- वलोकी, किंवा डम्वरी संरम्भवान् चक्रः ।" ↩︎
-
" व्यायच्छते ताम्यति च शर्म किञ्चिन्न ग. ।" ↩︎
-
" जायन्ते " ↩︎
-
" हीयन्ते ग. ।" ↩︎
-
“हीयते यो । " ↩︎
-
“विधः ग. ।” ↩︎
-
" छिद्राकुला ग. । विन्दति ग. ।" ↩︎
-
" सा च . ।" ↩︎
-
" या च ग. । " ↩︎
-
" शुभा " ↩︎
-
" स्निग्धायता ग. ।" ↩︎
-
" विपुलाश्च इति पा० ।" ↩︎
-
" संक्षिप्ताः ह. ।प्रभाविताः ह. ।" ↩︎
-
" भास्तु ह. ।" ↩︎
-
" भाः प्रकृष्टाः च ।" ↩︎
-
" छायाः" ↩︎
-
" विकत्थनः च· । गुणसंपन्न च ।" ↩︎
-
" प्रागभुक्त्वान्नमाश्रितः च ।" ↩︎
-
" इष्टं च" ↩︎
-
" यस्यानारतकम्पने ग. ।" ↩︎
-
" निचितमिति क्षीणं, निशब्दस्य प्रतिषेधार्थत्वात् ; एवं च तथा मांसं क्षीणं भवति यथा त्वगस्थिष्वेव लग्ना दृश्यते चक्रः । मांसं तु त्वगस्थिचैव ग.।" ↩︎
-
" क्षीणस्यान्यूनतस्तस्य ग. ।" ↩︎
-
" निगृह्यते ह. ।" ↩︎
-
“ग्लायते च.” ↩︎
-
" विकृतौ ग. । " ↩︎
-
" उच्चैश्छिद्राणि ग. ।" ↩︎
-
“शिरोग्रीवं ग. । " ↩︎
-
" मुमूर्षुः इलथबन्धनः ग. ।” ↩︎
-
" समृद्ध : च. ।" ↩︎
-
“हरिताभा यो ।” ↩︎
-
" रक्ती ग.।" ↩︎
-
" मन्देष्वपि ग.।" ↩︎
-
" शुष्कत्वादास्यकण्ठयोः। उरसश्च विबद्धत्वात् ग.।"
↩︎ -
" ब्रूयान्नास्य कुर्याद्विशोधनम् च।" ↩︎
-
“‘सीदेत् पयः ग. ।” ↩︎
-
“दुर्लभं तस्य जीवितन् यो. ।” ↩︎
-
" सुसंवृत्ता ग. ।" ↩︎
-
" गुदं नाभिं चान्तरेण गृह्णाति च ।" ↩︎
-
" नाभिं बस्तिशरो मूत्रं ग. ।" ↩︎
-
" चापि त्रुध्यते ग. ।" ↩︎
-
" गन्ता ग. " ↩︎
-
" समान्तं तस्य जीवितम् ग.।" ↩︎
-
" सच मासाद्विनश्यति यो ।" ↩︎
-
" बस्तिशीर्षे वा ग.। " ↩︎
-
" विली- यन्ते ग. ।" ↩︎
-
" पर्वमेदश्च दारुणः ग. ।" ↩︎
-
" परान् गृह्णात्यतीव च ग. । प्रतिगृह्णात्यतीव च ह. ।" ↩︎
-
" स्वस्थवदाहारवचनः ग. ।" ↩︎
-
" अहास्यहसनो मुह्यन् ह. ।" ↩︎
-
" सखेहे ग. ।" ↩︎
-
" निर्धर्षन्निव ग. । " ↩︎
-
" संपादयितुमौपधं ग.।" ↩︎
-
" आहारमपि सुज्ञानः यो ।" ↩︎
-
" मार्जनीसूर्यमुसलान्युपानअझविच्चुते’ ग. ।" ↩︎
-
“पतनं दर्शनं बापि मृतं व्यसनिनं तथा ग. ।” ↩︎
-
" व्रअतां दर्शनं चैवमुत्तानानां च दर्शनम् ग. ।" ↩︎
-
" पश्यताऽऽसुरवर्त्मनि ग.।" ↩︎
-
" व ब्राह्मणरलानां देवतानां च निर्गतिम् यो ।" ↩︎
-
" अत्यर्थे ग. ।" ↩︎
-
“विधीयते ।” ↩︎
-
" तस्मिन्नेवाधिकारे यत्पूर्व- मेवाभिशब्दितम् च. ।" ↩︎
-
" चरमं कालं च. ।" ↩︎
-
" समुपरुध्यन्ते यो ।" ↩︎
-
" वेदना ग. । परिसर्पते ह्. ।" ↩︎
-
" क्रोधस्तेजश्च ग. ।" ↩︎
-
" शक्तिश्च ग; भक्तिश्च" ↩︎
-
" प्रकृति प्रति ह. विकृतिं प्रति ग. ।" ↩︎
-
" गच्छत्यसगपि क्षयम् ग. ।" ↩︎
-
" तथा रुचिम् ग. ।" ↩︎
-
“सिध्यति ग. ।” ↩︎
-
" अमुण्डजटिलं ग. ।" ↩︎
-
" पावकस्य ग. ।" ↩︎
-
" कन्याना ग. ।" ↩︎
-
" मांसस्य च ग. । " ↩︎
-
" रोचिकादर्शसिद्धानां रोचनायाश्च दर्शनम् ह. ।" ↩︎
-
" ‘गन्धः सुगन्धो वर्णश्च ग. ।" ↩︎
-
" ० मभिष्ठतिः ग. । छ- श्रादर्शप्रतिग्रहः ग. ।" ↩︎
-
“बाघनमिह तदात्वमात्रबाधकं, यथा - स्वल्पमपथ्यं, सानुबाधनं च दीर्घकालावस्थायिकुष्ठादिविकारकारि इति चक्रः । " ↩︎
-
" प्रणति ह. । " ↩︎
-
" भ बत्यर्च्यः इ. " ↩︎
-
" ततो वक्ष्यामि यो ।” ↩︎
-
" यावकं यवान्नं चक्रः । " ↩︎
-
“अयं श्लोको हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते । शस्यानीति अस्थिरहितानि फलानि चक्रः ।” ↩︎
-
" च्यावनः प्राशः हृ. ।" ↩︎
-
" कुकूलकः करीषाग्निः चक्रः ।" ↩︎
-
" प्रत्यवस्थापनं च । प्रत्यव पनमिति यवाग्वादिक्रमविशेषणं, तेन प्रयोगान्ते यदा अभ्यङ्गोत्सादनं र्तव्यं, तदा यवाग्वादिक्रमेणेत्युक्तस्यार्थस्य प्रत्यवस्थापनं क्रियत इत्यर्थः ऋः ।" ↩︎
-
" अपि च च. ।" ↩︎
-
“निर्यूहे च ।” ↩︎
-
“प्रयुञ्जानोऽग्निबलसमां मात्रां हृ. ।” ↩︎
-
“’इति पञ्चमामलकरसायनम्’” ↩︎
-
" इति पञ्चमामलकरसा यनम् च ।" ↩︎
-
" समाध्यशनप्रायाणां ह. ।" ↩︎
-
" पलाशतरुण सारोदकोत्तरं ह. ।" ↩︎
-
" तदनुगतक्षारं ह. । " ↩︎
-
" सात्म्या पेक्षः च । " ↩︎
-
“सहस्रेति हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते” ↩︎
-
" सात्म्यापेक्षी च । " ↩︎
-
" इत्यामलकावलेह : च. ।" ↩︎
-
" शर्कराया । " ↩︎
-
" जातामनुपहतामनध्यारूढामबालामजीर्णामधिगतवीर्यो शीर्णपुराण- र्णामसंजातान्यपर्णी ह. ।" ↩︎
- ↩︎
-
" क्षीरसर्पिय ह. ।" ↩︎
-
" दश या वयःस्थापना व्याख्यातास्तास्तेषां स्वरसा नागबलावत् ग. । " ↩︎
-
" असहस्रपरः ग. ।" ↩︎
-
" ना ह. । " ↩︎
-
“सप्तत्रिंशन्महर्षिणा हृ. ।” ↩︎
-
“षड्विरेचनशतीयोक्ताना” ↩︎
-
" छिन्नानां ग.; चाणुशः" ↩︎
-
" ब्रा ह. । " ↩︎
-
" षड्विरेचनशताश्रितीयोक्तानां ह.।क्षिप्तानां हृ. ।" ↩︎
-
“छिन्नानां ग.; चाणुशः” ↩︎
-
" शुक्लस्य इति पा० ।" ↩︎
-
" तिलोत्सेधतनूनि च ग. ।" ↩︎
-
" तथैव यो. ।" ↩︎
-
“महाधनः ह । " ↩︎
-
" मेधाकररसायनानि च ।” ↩︎
-
" पञ्चेत्यादौ संख्याव्यतिक्रमेणानुक्तसंख्यानामपि पिप्पलीनामुपयोगं चयति चक्रः ।" ↩︎
-
" मधुसंमिश्राः ह. ।" ↩︎
-
" दशपिप्पलिकं च । दश पपुल्यो यत्र वर्धन्ते तद्दिनं दशपिप्पलिकं, तेन प्रत्यहं दश पिप्पल्योर्धनीया इत्यर्थः चक्रः । " ↩︎
-
“चूर्णीकृता च ।” ↩︎
-
" प्राग्भक्ते ह. ।" ↩︎
-
" त्रिफलारसायनम् च । " ↩︎
-
" प्रक्षिप्तो कृत० यो ।" ↩︎
-
" वरात् यो ।" ↩︎
-
" धन्यं च. । " ↩︎
-
" हेमादिशब्देनेह हेमादिसंभवस्थानभूतशिलोच्यते,यतो न साक्षात्स्वर्णादिभ्य एव शिलाजतु भवति’ चक्रः । " ↩︎
-
" कुनखान्" ↩︎
-
" तक्राणि च. ।" ↩︎
-
" शालाप्रवेश मर्हन्तीति शालीनाः, गृहं निर्माय एकत्र कृतावस्थानाः;यायावराः पुनः पुनर्गमनशीलाः, स्थानात् स्थानान्तरं पुनः पुनर्गच्छन्तोनैकत्र स्थितिशीलाः इति योगीन्द्रनाथसेनः । " ↩︎
-
" प्रजानां, स्वशरीरमवेक्षितुं कालोऽयं च. । स्वशरीररक्षिभिः यो ।" ↩︎
-
" पञ्चदशपर्वा ह. ।" ↩︎
-
" सपिधानायां दिग्वासाः इति हस्तलिखितपुस्तके न पट्ठ्यते ।" ↩︎
-
" प्रत्यवस्थापन मिति आहारसेवायां योज्यमित्यर्थः चक्रः ।" ↩︎
-
" विषयाभिजाःपुण्यदेशे जाताः इति योगीन्द्रनाथसेनः।" ↩︎
-
" करुणया सत्त्वानि पश्यतीति करुणवेदी चक्रः । कारुण्यवेदिनम् यो ।" ↩︎
-
" अरजोभ्यो द्विजातिभ्यः शुश्रूषा येषु पुरुषेषु नास्ति, तेषु चैतन्नवाच्यमिति योजना चक्रः। अरुजेभ्यः यो।" ↩︎
-
" ग्रहाः सोमपानपात्राणि चक्रः ।" ↩︎
-
" तथा नानाहवींषि च ह. ।" ↩︎
-
" युक्तो द्विजातिः ह. " ↩︎
-
" भिषजो द्वितीया च । " ↩︎
-
" द्वैद्यो द्विजः च ।" ↩︎
-
“नार्थकामार्थ ह. ।१ धर्मार्थ सदृशस्तस्य दाता ग. ।” ↩︎
-
“धर्मार्थसदृशस्तस्य दाता ग.” ↩︎
-
“प्रतिष्ठिताः यो । " ↩︎
-
" निर्वर्तन्ते च । निवर्तन्ते निष्पन्नाः संपद्यन्ते " ↩︎
-
" मन्तव्यः यो । " ↩︎
-
“प्रशस्योऽयं च ।” ↩︎
-
" विभवः ग. ।” ↩︎
-
" अपत्यसंश्रिताः यो ।" ↩︎
-
“गुडिकाः कृत्वा ता ग. ।” ↩︎
-
" यदाद्यं यो ।" ↩︎
-
" म्लिष्टे यो । " ↩︎
-
" आसिक्तक्षीरिकं च । " ↩︎
-
" क्षीर दितम् ग. । सुसमाहितः यो ।" ↩︎
-
" ‘गौधूममेव ग.।‘गौधूमिकं तथा यो. । " ↩︎
-
" ‘च तद्विधाः ह. ।" ↩︎
-
“‘वृष्यपूपलिकादियोगाः’ ग.।” ↩︎
-
“तमद्यादुपरिष्टाच्च रसांलां मात्रया पिबेत् यो।” ↩︎
-
" वृष्यदध्यादि ग.। वृष्यदुग्धादि यो ।" ↩︎
-
" ‘नक्राण्डपाकवृष्ययोगः यो । " ↩︎
-
" वयःसंस्थापनैश्चैव यो ।" ↩︎
-
॑# “पिंषः कुडवश्चैव क्षीरेण मृदितं च तत् यो ।” ↩︎
-
" संकल्पप्रबलः यो । " ↩︎
-
" राज्यः इति पा० ।" ↩︎
-
" पयसि वर्तयेत् यो ।" ↩︎
-
" वर्तनस्तम्भिताः यो । " ↩︎
-
" दधिदाडिमसाधिते इति पा० । " ↩︎
-
“कण्ठ्य च.” ↩︎
-
“वृष्या लप्सिका यो ।” ↩︎
-
“संस्पर्शन इति संस्पर्शनवति, तेन केशादौ संस्पर्शनाव्याप्तेः शुक्रमपि गीत दर्शयति चक्रः । " ↩︎
-
" अणुप्रवणभावोऽणुत्वे सति बहिर्निर्गमनस्वभा बलं चक्रः। ‘अणुपुवनभावाच्च यो।” ↩︎
-
" वाजीव लभते इति पा० ।" ↩︎
-
" विधिभेदाच्च च. ।" ↩︎
-
“सनिषेधं ह. ।” ↩︎
-
" एकार्थनामपर्यायैः’ ग. ।" ↩︎
-
" अत्र च उक्ताः इति तथा यमात्मकाः इति बहुवचनमेकस्मिन्नर्थे ज्वरे क्षयकर्तृत्वा दिधर्मभेद विवक्षया ज्ञेयं चक्रः। मृत्युश्चोक्तोऽयमात्मजः यो।" ↩︎
-
" बद्धाना ह।" ↩︎
-
" प्रवृत्तिः प्रथमाविर्भावः, परिग्रहादिति जनपदोसनीये भ्रश्यति तु कृतयुगे इत्यादिना परिग्रहावरप्रवृत्तिमुक्तां स्मारयति चक्रः।" ↩︎
-
" पूर्वमितिपदेन रुद्रकोपभवा प्रथमा, परिग्रहभवा तु द्वितीया प्रवृत्तिरिति दर्शयति चक्रः ।" ↩︎
-
" तपोविघ्नाशनाः कर्तुं तपोविघ्नं महात्मनाम् च ।" ↩︎
-
" रुद्रः ग.।" ↩︎
-
“‘ऋचः पशुपतेर्याश्च ह. ।” ↩︎
-
" स्पृट्वा च ।" ↩︎
-
" बालं ग." ↩︎
-
" असृजच्छत्रुनाशनम् यो ।" ↩︎
-
“अपचारान्तरेध्विति ज्वरनिदानसेवास चक्रः ।” ↩︎
-
" मनुष्याणां च ह. " ↩︎
-
" पूर्वमुक्तानि भागशः इति पा० ।" ↩︎
-
" गुरव इति वृद्धाः चक्रः।" ↩︎
-
" एभिर्धात्वादिद्वादशाश्रयित्वदशाहादिव्यापकत्वादिभिर्धमैंः संततो भिन्न एव वातादिज्वरेभ्यः कालानियमेनद्वित्रिदिनेषु व्यवच्छेदेनानुसक्तेभ्यः, यस्तु तत्रान्तरे तथा सन्ततएवान्यः स्वल्पदुर्बलकारणः। अतुल्यदूष्यप्रकृतिः स्वल्पोपद्रवलक्षणः ॥ एकदोषो द्विदोषो वा इत्यादिना ग्रन्थेनोच्यते, स एतस्मादन्य एवेति तत्रान्तरेऽपि अन्यशब्दप्रयोगात्प्रतिपादितमिति न विरोधः चक्रः। अनुबध्नन्ति युगपद्रवश्यं संतते ज्वरे यो।" ↩︎
-
“ऽव्यक्तलक्षणम् ।ह. । " ↩︎
-
“वैद्य उपकामेत्तुसंततम् ह. ।” ↩︎
-
“सप्रत्यनीक इति कालादिषु मध्ये अन्यतमः प्रत्यनीकः चक्रः।” ↩︎
-
" अन्येदुष्कं ज्वरं दोषो रुहा मेदोवहाः सिराः। सप्रत्यनीकं जनयत्येककालमहर्निशम् ग.।” ↩︎
-
" क्षिप्त्वा ह. । " ↩︎
-
" प्रत्यनीकस्य कालप्रकृत्यादेदोंपविरुद्धस्य बलक्षयः, तेन दोषवृज्या यदा प्रत्यनीकस्य क्षयो भवति तदा ज्वरयतीत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" त्रिविधो धातुरिति बातादिः। द्विधातुस्थ इति अस्थिमज्जगतः चक्रः ।" ↩︎
-
“रसादिधातु गतज्वरलक्षणपाठस्त्वनार्ष इति प्रतिभाति, अत एव चक्रेण नायं व्याख्यातः;सुश्रुतव्याख्यायां नेज्जटेनाप्येवमेवोक्तं; तथाहि - निबन्धसंग्रहे डल्हण : यतः सर्वशरीरं संततेन व्याप्तं सततादिभिश्च रसादिधातव इति कुतो रसादिधातुणतज्वरावकाश इति रसादिस्थज्वराणां पाठो न पठनीय एवेति नेज्जटाचार्याभिमतम् इति।” ↩︎ ↩︎
-
" रोमहर्षश्च दाहश्च पर्वभेदः शिरोरुजा यो । " ↩︎
-
“स्वेदस्तम्भ इति स्वेदाप्रवर्तनं चक्र ; स्वेदः स्तम्भः यो ।” ↩︎
-
" स्यान्मारुताधिके’ यो ।" ↩︎
-
“पर्वभेदोऽग्निदौर्बल्यं यो ।” ↩︎
-
" लो.चने इति पा० ।" ↩︎
-
“अत्र दोषशब्दो विबद्धोपपदान्मले वर्तते चक्रः ।” ↩︎
-
" पक्तिस्थानान्निरस्य च यो. १" ↩︎
-
“स्वेनेति दोषोष्मणा चक्रः । " ↩︎
-
" बद्धा इ.। .” ↩︎
-
" केवलमिति समस्तं चक्रः । " ↩︎
-
“सविबन्धत्वात् ह. । " ↩︎
-
“° ऽविशदं ग. ।” ↩︎
-
“‘अन्नशब्देनात्र गुर्वन्नमभिधत्ते चक्रः । " ↩︎
-
" प्राणाविरोधिनेति बला-विरोधिना, विरोधश्चातिक्षयकरत्वेनेहोच्यते चक्रः ।” ↩︎ ↩︎
-
" काल इत्यष्टाहः चक्रः । " ↩︎
-
" असुनिर्हराः च. ।” ↩︎
-
“तर्पणं तोयपरिष्ठताः सक्तवः चक्रः ।द्भिषक यो । " ↩︎
-
“प्रदेयं यो ।” ↩︎
-
" कषायरसेनेत्यर्थः’ चक्रः ।" ↩︎
-
" नतु कल्पनमुद्दिश्येति स्वरस्कल्कशतशीतफाण्टरूपकल्पनं लक्ष्यीकृत्य, यः कषायः कषाय इति कषायैरामलकादिभिः कृतः स्वरसादिरूपःकषायः, स निषिध्यत इत्यर्थः चक्रः ।" ↩︎
-
" कषायकषायः इति पा० ।" ↩︎
-
" बलं ह्यलं निग्रहाय दोषाणां बलकृच्च तत् च। तदिति मांसरसेनाशनं न्यक्र।" ↩︎
-
" दद्याच्छीर्षविरेचनम् यो ।" ↩︎
-
" अत्र जातीशब्देन जातीपलवा ग्राह्याः चक्रः " ↩︎
-
" स्नेहवध्यः च" ↩︎
-
" त्रिफलां यो" ↩︎
-
" मधुकं मधुराणि च च" ↩︎
-
" पर्णीश्चतस्रो मधुकं यो" ↩︎
-
" भेषजाध्याये इति अपामार्गतण्डुलीये चक्रः ।" ↩︎
-
" यच्च नावनिकं तैलमित्यणुतैलम् चक्रः" ↩︎
-
" सहस्रशब्दो विपुलवचनः, तेन अनेकधा धौतमित्यर्थः सूचितः चक्रः।" ↩︎
-
" संस्पर्शानुरसान् स्पृशेदिति वचनान्न त्विरं धारयेदिति दर्शयति, त्विरधारणे हि तेषामप्युष्णता स्यात् चक्रः। संस्पर्शानु-रसा ह" ↩︎
-
" कह्वाराणां इति पा०" ↩︎
-
" शीतवातकरैः यो" ↩︎
-
" तच्च शयनमिति कुटीपरिकरतया प्रतिपादितं शयनं, एवं छादनमपि, एतच्च शयनाच्छादनं पृथगप्यत्र हितमिति पृथक्पाठाद्दर्शयति चक्रः।" ↩︎
-
" धूपा गुग्गुलुजा च.।" ↩︎
-
" संसर्गबलयोजनादित्यनन्तरोक्त एवोष्णाभिप्रायज्वरकरो वातकफसंसर्गः संसर्गशब्देनोच्यते, तेन वातकफसंसर्गे यदि वातो बलवान् तदा गुरूष्णस्निग्धभूयिष्ठं, यदा कफो बलवान् तदा लघूष्णप्रायमित्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" वर्धनेनेत्यादि। पञ्चविंशतिप्रकारोऽत्र सन्निपात उच्यते " ↩︎
-
" परिशिष्टसमसंनिपातचिकित्सामाह-कफेत्यादि चक्रः।" ↩︎
-
" तस्याशुमुञ्चेद्वाह्नोःक्रमात्सिराम् यो" ↩︎
-
" कुर्यात्तृतीयकचतुर्थके यो" ↩︎
-
" पराः यो" ↩︎
-
" शकृद्वेगागमे पिबेत् यो" ↩︎
-
" मनोविकारे इति उन्मादेऽपस्मारे च चक्रः।" ↩︎
-
" मरुद्गणांश्चेष्टान् यो।" ↩︎
-
" क्षतानामिति उरःक्षतानां चक्रः।" ↩︎
-
" हीनतेजसम् यो।" ↩︎
-
“‘कण्ड्वरुःकोठपिडकाः’ ह।” ↩︎
-
" कुर्यात्तच्चिकित्सितम् यो" ↩︎
-
" द्रवो धातुरिति द्रवरूपोंऽशः धातोर्धातोरिति रसादेः, प्रसिच्यत इति क्षरति, स्विद्यतस्तेनेति पित्तोष्मणा स्विद्यमानधातुभ्यश्च्युतेन द्रवरूपेण धातुना युक्तं सत् पित्तं भूयोऽतितरां वृद्धिं गच्छतीति योजना चक्रः।" ↩︎
-
" रक्तस्य संयोगात्तथा रक्तस्य दूषणात्तथा रक्तस्य गन्धवर्णयोः पित्ते सामान्यात् पित्तं रक्तपित्तमुच्यत इति वाक्यार्थः चक्रः। " ↩︎
-
" सप्तद्वाराणि ह." ↩︎
-
" छिद्रभ्य एभ्यः सर्वेभ्यो ग." ↩︎
-
" यद्वा ग" ↩︎
-
" भूयः प्रवर्तते ग" ↩︎
-
" सुखे काले इति हेमन्ते शिशिरे च चक्रः" ↩︎
-
““मनुवर्तते ग” ↩︎
-
“‘मूत्रकृच्छ्रताम् ग.” ↩︎
-
" मलिनं ह." ↩︎
-
" बलदोषौ प्रपश्यता यो " ↩︎
-
" मार्गं हृ." ↩︎
-
" खर्जूरादिना जलं षडङ्ग विधानेनैव कर्तव्यं, एतच्च जलमत्र मधुरमपि ऊर्ध्वगे कफसमन्वितेऽपि यौगिकं भवति, रक्तपित्तव्याधिप्रत्यनीकत्वात् चक्रः।" ↩︎
-
" प्रदापयेत् यो" ↩︎
-
" बिसोत्पलादीनां ग." ↩︎
-
" सार्धं यो" ↩︎
-
" दद्याद्बहुशो वाऽल्पशोऽपि वा ग." ↩︎
-
“‘अक्षीणबलमांसस्येत्यनेन सहजा बलहानिरुच्यते, बलवत इत्यनेन कालकृतं बलमुच्यत इत्यपौनरुक्त्यम् चक्रः” ↩︎
-
" अधोगते ग." ↩︎
-
" साऽथ यो." ↩︎
-
" पृथक् पृथगिति वीप्सायां प्रत्येक मुशीरादीनां चन्दनसमानां प्रयोगं दर्शयति, तथा चाष्टौ योगा भवन्ति; सशर्करा इति वचनेनात्र शर्करा समभागैव देया चक्रः।" ↩︎
- ↩︎
-
" केशरतण्डुलीयं ग." ↩︎
-
" फाण्टीकृताः यो" ↩︎
-
" शमयन्त्युदीर्णम् ग." ↩︎
-
" बलाजले इति बलासाधितार्धशृतजले, पर्युषितः कषायः शीतकषायः चक्रः। ‘पर्युषिताः कषायाः ग." ↩︎
-
“‘वैदूर्यादिना सह स्थितं जलं वैदूर्यादिजलं ज्ञेयम् चक्रः॥ " ↩︎
-
" यष्टिकाम्बना यो " ↩︎
-
" सफलां समूलां ग.।” ↩︎
-
" मधुद्रवमिति पादिकेन मधुना द्रवीकृतं चक्रः ।" ↩︎
-
" युक्तस्य युक्त्येति मात्रया युक्तस्य, युक्तिशब्दोऽत्र मात्रावचनः चक्रः।" ↩︎
-
" यद्यपि च क्षारस्तीक्ष्णस्तथाऽपि कण्ठस्थितकफविलयनार्थमुत्पलनालादि- कृतः क्षारो दीयत एव, एवंभूतरक्तपित्तहरत्वप्रभावात्’ चक्रः।" ↩︎
-
" कुणपैः सगन्धं यो।" ↩︎
-
" भूरिवारिधारायुक्तं गृहं धारागृहं चक्रः" ↩︎
-
" पद्मोत्पलानां च कलापवाता इति पद्मोत्पलसमूहकृतवाता इत्यर्थः चक्रः।" ↩︎
-
" सिद्धमिति साध्याव्यभिचारि सर्वमेव चिकित्सितं यद्यपि सिद्धमेव वक्तव्यं, तथाऽप्यारब्धप्रकरणे स्तुत्यर्थं सिद्धमिति पदं ज्ञेयं चक्रः।" ↩︎
-
" स दुष्ट्वायुरुद्धूय ग" ↩︎
-
" वायोः कोष्ठस्याधोगमनमेव प्रायो भवति, तेन तन्निषेधः साक्षादुक्तः, इतरमार्गगमननिषेधस्तु सामान्यतया लभ्यते चक्रः।" ↩︎
-
" श्रमाभिघातौ यो " ↩︎
-
" रुधिरं च दुष्टमित्यनेन दुष्टाद्रुधिरान्मलभूतस्य पित्तस्य दर्शयति " ↩︎
-
" स्त्रिया च" ↩︎
-
" अत ऊर्ध्वं चेति क्रियाक्रमाभिधानादुत्तरं चक्रः।" ↩︎
-
" रक्ताश्रयत्वादेव च गुल्मस्य अनिलादिचिकित्सया अप्रशमो ज्ञेयः, रक्ताधिष्ठानत्वं च गुल्मस्य पाकप्रस्तावे दर्शनीयं चक्रः।" ↩︎
-
“‘०रुचिज्वरैः ग.” ↩︎
-
" बहिस्त्वङ्गे ग. । बहिस्तुङ्गे बाह्यत उन्नते चक्रः" ↩︎
-
" हृत्क्रोडशूलमन्तःस्थे यो" ↩︎
-
" क्षारतन्त्रस्य अष्टाङ्गेषु पृथगनभिधानाच्छल्यतन्त्रमेवानुशस्त्रक्षारविधायकं क्षारतत्रमुच्यते चक्रः।" ↩︎
-
" सिद्धानिति वक्ष्यमाणयोगस्तुतिः शिष्यप्रवर्तिका चक्रः।" ↩︎
-
" पुष्कराजाजिधन्याक० यो." ↩︎
-
" ०वृश्चीर० ग." ↩︎
-
" व्यपोहति यो" ↩︎
-
" शूलानाहहरी यो" ↩︎
-
" गुदयोनिरुजासु च इति पा०" ↩︎
-
" सिद्धशुष्कस्य ह." ↩︎
-
" क्षीररसोनयोश्च यद्यपि सहोपयोगो विरुद्धस्तथाऽपि व्याधिमहिम्ना अत्र महर्षिवचनादविवाद उन्नीयते चक्रः।" ↩︎
-
" तैलं प्रसन्नेत्यादौ यौगिकत्वाज्जतुकर्णसंवादादेरण्डतैलं ज्ञेयं, यदुक्तं जतुकर्णे मदिरारनालमूत्रक्षारैः संयोज्य तैलमेरण्डम् इत्यादि।" ↩︎
-
" वाट्यं यवान्नं, पिप्पलीप्रधानो यूषःपिप्पलीयूपः चक्रः।" ↩︎
-
" सर्पिषा तिक्तकेन वा इति पा०" ↩︎
-
" कर्षाशास्त्रायमाणा च यो" ↩︎
-
" न्यसेत ग" ↩︎
-
" स गृहीतः यो." ↩︎
-
" प्रमृष्टं ह." ↩︎
-
" चूर्णितं चार्धपलिकं ग." ↩︎
-
“‘दद्याच्चूर्णपलं ग.” ↩︎
-
" दोषप्रस्थमनामयम् यो" ↩︎
-
" योनिविरेचनम् यो" ↩︎
-
" दद्याद्योनिविरेचनम् ह." ↩︎
-
" वातगुल्मेषु ह" ↩︎
-
““ऽग्निवेशाय ह.” ↩︎
-
" कुरुतेऽनिलश्च ग" ↩︎
-
" मूत्रयतेऽनिलेन ग" ↩︎
-
" परितर्पणानि यो" ↩︎
-
" योज्यानि यो" ↩︎
-
" पवनं ह" ↩︎
-
" पाठा यो" ↩︎
-
" प्रयोगान् यो" ↩︎
-
" विलेपनैश्च प्रशमन्ति मेहाः’ ह." ↩︎
-
" साध्यतानुरूपश्च यो" ↩︎
-
" त्रिविधं ह." ↩︎
-
" अजीर्णे विदग्धे चक्रः" ↩︎
-
" शीघ्रोत्पत्तिश्चिरस्थितिश्च व्रणानामेव चक्रः" ↩︎
-
" सुप्तत्वमङ्गे दाहश्च यो" ↩︎
-
" घृष्टमुद्गिरते रजः यो" ↩︎
-
" रक्तं सशूलं कण्डू मत्सस्फोटं यद्वलत्यपि ग." ↩︎
-
" प्रक्षेप्याः षट्पलिकास्ततश्चूर्णिकृतास्तस्मिन् ह" ↩︎
-
" सौवर्णी त्वक् दारुहरिद्रात्वक चक्रः।" ↩︎
-
" कुष्ठेष्वनिलकफकृतेष्वेव तु पेयोऽल्पपित्तेषु ह." ↩︎
-
" कुष्ठरोगविनिहन्ता ग.।" ↩︎
-
" कुरुविन्दमर्कनागरकम् ह. कुरुविन्दमर्कं च।नागरकचूर्णमिश्रमष्टाहं भावितं पलाशस्य इति पा०" ↩︎
-
" भिद्यन्ते च विशन्ति च ह." ↩︎
-
" मण्डलप्रणुदः ह." ↩︎
-
" माषेषु ह." ↩︎
-
" शैरीषी त्वगित्यादौ प्रत्येकद्रव्यकृतत्वेन चतुर्विधलेपो ज्ञेयः; अन्ये तु चतुर्भिरपि मिलितैरवचूर्णमुद्वर्तनं जलपिष्टलेपनं रसक्रियालेपन मिति चतुर्विधलेपं वदन्ति चक्रः।" ↩︎
-
" कषघमेष एव चालेपः " ↩︎
-
" सिद्धं ग." ↩︎
-
" मारुतकफघ्नम् यो" ↩︎
-
" कनकक्षीरी कङ्कुष्ठ इति ख्याता चक्रः।" ↩︎
-
" सैला है." ↩︎
-
" कुष्ठं तुम्बरु पाठा मूर्वा मुस्तं वचाऽथ षड्ग्रन्था यो।" ↩︎
-
" स्थाप्यं कटुकालाबुनि यो" ↩︎
-
" सप्ताहाद्धर्मसेविनो व्येति’ ग; ‘सप्ताहं घर्मसेविनोऽपैति’ ह" ↩︎
-
" मुक्त्वा यो" ↩︎
-
" कम्पिल्लकः पयस्तुत्थ (ल्य ↩︎
-
" शाम्यतेऽभ्यक्ता यो; शाम्यति व्याप्ता ह." ↩︎
-
" क्लिन्नं वराहरुधिरे ग." ↩︎
-
" लेपोऽजाज्याः ह" ↩︎
-
" भिषजां मतमिदमुद्वर्तनं क्रमशः ह." ↩︎
-
" चोन्मर्दने प्रदेहे च ग" ↩︎
-
" वाप्यं कुष्ठं, लोहमगरु चक्रः" ↩︎
-
" व्यधनविरेकौ ह" ↩︎
-
" हरिद्रे द्वे यो" ↩︎
-
" कल्कीकुर्यात् ह" ↩︎
-
" कल्कस्य चतुर्भागः ह." ↩︎
-
" कुष्टातिवर्तते ग" ↩︎
-
" स्नाने पाने प्रदेहे च ह" ↩︎
-
" निःस्रतेष ह." ↩︎
-
“गुरूणां ग” ↩︎
-
" दोषनिर्देशः इति पा०" ↩︎
-
" रजोन्धमबलं दीनं ह." ↩︎
-
" ऽतिगुरुणा ह." ↩︎
-
" तेजसा ह." ↩︎
-
" एकार्थो दुःखसंज्ञकः ग." ↩︎
-
" क्षणनादुरसः कासात् कफं ष्ठीवेत् सशोणितम्। जर्जरेणोरसा कृच्छ्रमुरःशूलातिपीडितः’ यो." ↩︎
-
“‘अतिव्यवायानशनात् ग” ↩︎
-
““मेकादशमहाग्रहः ग्र” ↩︎
-
" रोगेशस्य समुत्थितम् यो" ↩︎
-
" धातुतः ग." ↩︎
-
“‘छर्दनं रक्तकफयोः श्वासो वर्चोगदोऽरुचिः यो” ↩︎
-
" चाथ ग" ↩︎
-
" व्यापन्नंष्ठीवति रसं यक्ष्मी कासन् कफानुगम् ग" ↩︎
-
" संतापःकरपादयोः ग" ↩︎
-
" तालुकण्ठपरिप्लोषः यो" ↩︎
-
" कफाद्भेदो विबद्धश्च स्वरः खुनखुनायते ग." ↩︎
-
" मन्दः ह" ↩︎
-
" अत्यभिष्यण्णदेहस्य ह" ↩︎
-
" नोपप " ↩︎
-
" प्रपौण्डरीकं पद्मस्य केशरं नीलमत्पलमा ग" ↩︎
-
" साधितं क्षीरसर्पिश्च तत्स्वर्यं नावनं घृतम् ग" ↩︎
-
" यथाग्नि प्रवि" ↩︎
-
" प्राशयेद्वैतच्छासकासज्वरापहम ग" ↩︎
-
" जीर्णान्ते ग" ↩︎
-
" सह तक्रेण ना पिबेत् ह." ↩︎
-
" सुरामण्डेन " ↩︎
-
" इत्युक्तं भिन्नशकृतां दीपनं ग्राहि भेषजम्। वक्ष्याम्यूर्ध्वं रुचिकरं मुख " ↩︎
-
" प्रयोक्तव्याः इति पा०" ↩︎
-
" नियतस्याल्पचित्तस्य ग" ↩︎
-
" लभते " ↩︎
-
" किण्वं इति पा०" ↩︎
-
" किञ्चित इति पा० ।" ↩︎
-
" तं विभ्रमं ह." ↩︎
-
" रूक्षाल्पशीतातिविरेक हृ." ↩︎
-
" चिन्तादिदुष्टं ह." ↩︎
-
" पारुष्यकृष्णारुणवर्णता च ह." ↩︎
-
" निदानेऽस्य परं सुरादिभिः ह." ↩︎
-
" प्रहासनृत्तगीतवादिनं ह" ↩︎
-
““श्रुतिकाव्यकुशलं ह” ↩︎
-
" अतिवाक्करणं ह" ↩︎
-
" ब्रह्मवादिनं इति पा० । ब्राह्मणमब्राह्मणं वा ब्राह्मणवादिनं यो" ↩︎
-
" स्तेनं यो" ↩︎
-
" हृष्टौ ग्रहा ह" ↩︎
-
" निःसंज्ञं इति पा०" ↩︎
-
" छिद्यमानचर्मा यो" ↩︎
-
" हृच्छीषेन्द्रियकोष्ठेषु शुद्धेषु ह" ↩︎
-
" कान्ता यो" ↩︎
-
" देहसंवेजनं ग." ↩︎
-
" स्थिरा नतं ग" ↩︎
-
" प्रपुराणमतः परम् ग." ↩︎
-
" एतानौषधयोगान् वा विधेयत्वमगच्छति। अञ्जनोत्सादनालेपनावनादिषु योजयेत् ग." ↩︎
-
" लघूनि यो" ↩︎
-
" प्रबुध्यते ह." ↩︎
-
" ऽग्नितप्तैर्वा ह." ↩︎
-
" कामलायां हलीमके ग. " ↩︎
-
" मधूकद्विपले ग." ↩︎
-
" च खुरान् ह" ↩︎
-
" जतुकाशकृता ग. " ↩︎
-
" पित्तं ह." ↩︎
-
" श्वेता श्वे(श ↩︎
-
" दृश्येत तस्य कार्यं स्यात् यो" ↩︎
-
" अतत्त्वाभिनिवेशस्तु तस्य व्यक्तिरिहोच्यताम् ह." ↩︎
-
" सत्त्वे मनसि संवृते यो" ↩︎
-
" हृदयस्यानुकूलाश्च कथाः सिद्धार्थवादिनः ग" ↩︎
-
" विज्ञानं ह." ↩︎
-
" महागदः ग." ↩︎
-
" प्रजाहितार्थं भगवानपस्मार चिकित्सिते ग." ↩︎
-
" बलिभिः सह युध्यतः ग" ↩︎
-
" चापि प्रनृत्यतः यो" ↩︎
-
" ऽत्यर्थं ह" ↩︎
-
" विभज्यते ग." ↩︎
-
" ऽग्निवधादपि ह." ↩︎
-
" पार्श्वबस्तिरुजोश्चाल्पपित्ताग्निस्तां ह." ↩︎
-
" त्वकूक्षीरीसंमितं इति पा०" ↩︎
-
" चूर्णमामानां ह" ↩︎
-
" बृंहणी ह." ↩︎
-
" हितम् यो " ↩︎
-
" दत्त्वा इति पा०" ↩︎
-
" पलार्धकं च मरिचत्वगे लापत्रकेशरात्। विनीय चूर्णितं तस्माल्लिह्यान्मात्रां सदा नरः यो ।" ↩︎
-
" “हृद्भव’ ग." ↩︎
-
“‘त्वक्क्षीरीपिप्पलीलाजचूर्णैः इति पा०” ↩︎
-
" समाक्षिकं कौडविकं यो " ↩︎
-
" शर्कराशृते यो" ↩︎
-
" खर्जूराणां यो" ↩︎
- ↩︎
-
" जाङ्गलं घृतभर्जितम् ह " ↩︎
-
" यवान्नं इति पा०" ↩︎
-
““विवर्धितम् ह.” ↩︎
-
" काष्ठानिशल्याश्मविषायसाद्यैः ग." ↩︎
-
" बहिः सिराः प्राप्य ह" ↩︎
-
" ऊर्ध्वं स्थितैरूर्ध्वमधश्च यो" ↩︎
-
" तत्संज्ञमभ्येति इति पा०; ताच्छब्दयमभ्येति ह" ↩︎
-
" ऽस्पर्शसहोऽक्षिरागकृत् " ↩︎
-
" भीमबलश्च ह·" ↩︎
-
" पिशितमबलं यो" ↩︎
-
" सलवणं इति यो । सकृशरं ह." ↩︎
-
" त्वग्दारु यो" ↩︎
-
" गर्मोटिका ह" ↩︎
-
" काञ्जिकमस्तुनस्तु यो" ↩︎
-
" भयाक्षक्षुद्राफलानां ग" ↩︎
-
" क्षुद्रगुडात् ह" ↩︎
-
" वासां गुडूचीं सह चित्रकेण ग" ↩︎
-
" हेमत्वगेलामरिचाम्बुपत्रैःग." ↩︎
-
" ज्वरारोचक ह" ↩︎
-
" त्वणुसूक्ष्मचूर्णं ह." ↩︎
-
" पयो यूषरसाश्च भक्तम् यो" ↩︎
-
" श्वासं ग" ↩︎
-
" प्रदद्यात् यो" ↩︎
-
" तद्धन्ति दीप्तं च करोति वह्निम् यो" ↩︎
-
" पञ्चमलैः ग" ↩︎
-
" सुवर्चला इति पा०" ↩︎
-
" जलैस्तथैरण्डवृषार्कशिग्रु” यो" ↩︎
-
" सदूर्वा इति पा०" ↩︎
-
" ज्ञेया बहुत्वादतिवृत्तसंख्यास्तेषांस्तु कांश्चिद्गदतो निबोध ह.।" ↩︎
-
" श्वसनोच्छ्वासोग्रः ग" ↩︎
-
" स्याद्विद्रधिर्मांसविदाहरागपा कान्वितस्तालुनि सत्रिदोषः ह.।" ↩︎
-
" स्याल्लङ्घनं यो.।" ↩︎
-
" तैर्भेषजैः यो.।" ↩︎
-
" शोफः क्षताच्चर्मनखान्तरे ह।" ↩︎
-
" वृद्धे यो।" ↩︎
-
“चेत् इति पा०।” ↩︎
-
" क्रिम्यस्थिसूक्ष्मक्षणनव्यवाय ह.।" ↩︎
-
" पाकप्रभिन्ना यो।" ↩︎
-
" यथावच्छ्रोतुमिच्छामि ह.।" ↩︎
-
" पुरीषनिचये वृद्धिरुदावर्तकृता च रुक् ह.।" ↩︎
-
" शुष्कोदावर्तहेतुकी है.।" ↩︎
-
" निहन्त्यामाशये यो।" ↩︎
-
" संभुक्तैश्च ह।" ↩︎
-
“‘अत्याशितस्य संक्षोभात् यो.।” ↩︎
-
" उदकोदरं स्यात् इति पा०।" ↩︎
-
" अनुदकपूर्ण यो। " ↩︎
-
" अजातशोथमरुणं यो।" ↩︎
-
" गुडगुडायच यो" ↩︎
-
" पायौ तु ह ।" ↩︎
-
" लालयाऽविरसे चास्ये इति पा०। मूत्रेऽल्पे संहते दोषे लोलस्याविरसे मुखे ह.।" ↩︎
-
" स्रोतोमार्गनिरोधनात् यो।" ↩︎
-
" संभवत्युदरं तस्मान्नित्यमेव विरेचयेत् यो।" ↩︎
-
" अस्य यो.।" ↩︎
-
" युक्तः इति नरः इति च पा०।" ↩︎
-
" रक्तं च पित्तलक्षणैः इति पा०।अस्याग्रे योगीन्द्रनाथसेनेन विद्यात् समस्तैः सर्वैस्तु सन्निपातं तथा भिषक् इत्यर्धेश्लोकोऽघिकः पठ्यते ।" ↩︎
-
" बिडार्धांशयुतं ह.।" ↩︎
-
" सक्तून् सघतान् ह।" ↩︎
-
" दद्यात् प्लीहोदरे भिषकू यो.।" ↩︎
-
" तस्माद्वातादिशमनी यो.।" ↩︎
-
" बद्धोदरी तु हपुषायवान्यजाजीसैन्धवैः ह.।" ↩︎
-
" साश्वकर्णैः यो.।" ↩︎
-
" वर्षाभूं ग.।" ↩︎
-
" त्रिवृद्विशाले द्विगुणे यो.।" ↩︎
-
" वातपित्तकफांश्चापि ह.।" ↩︎
-
" कोष्णमर्धशृतं जलम्। शुण्ठ्याः पिबेत्ततः पेयां ह.।" ↩︎
-
" भूयो वा ह.।" ↩︎
-
" मासं युक्त्याऽथवा हस्तिपिप्पल्या नागरस्य च ह.।" ↩︎
-
" मन्दाग्नेर्मद्यपस्य च यो। मन्दाग्निर्मद्यपस्तथा ह.।" ↩︎
-
" स्थिराम् यो ।" ↩︎
-
" अन्तर्धूमतः ह.।" ↩︎
-
" कृत्वा त्वम्लेन ना पिबेत् ह.।" ↩︎
-
" ‘व्रजन्त्येवं यो.।" ↩︎
-
" शाकं पक्त्वा प्रयुञ्जीत प्राग्भक्तं गाढवर्चसि ग.।" ↩︎
-
" क्षारं ग.।" ↩︎
-
“‘परम् ह.।” ↩︎
-
" पार्श्वशूलमुरः स्तम्भं ह.।" ↩︎
-
" प्रयोजयेत् यो।" ↩︎
-
" वामभागे ग.।" ↩︎
-
" तदस्त्यधिमांसदेश एषः ह.।" ↩︎
-
" शर्कराश्मरीमान् यो ।" ↩︎
-
“गुदमार्गोपरोधात् यो.।” ↩︎
-
" भ्रंशस्तत्र ग.।" ↩︎
-
" यवमाषकुलत्थानां पुलाकानां च पोट्टलैः यो ।" ↩︎
-
" स्वभ्यक्तमवगाहयेत् यो।" ↩︎
-
" अर्कपत्रं यो ।" ↩︎
-
" सुखी यो ।" ↩︎
-
" चव्यत्चित्रकैः ह.।" ↩︎
-
" हृतानि न प्ररोहन्ति ह.।" ↩︎
-
" दद्याद्धृतैरेभिर्विमिश्रितम् यो.।" ↩︎
-
" सगुडामभयां वाऽथ प्राशयेत् पौर्वभक्तिकीम् ग.।" ↩︎
-
“‘गुडक्षारसमन्वितम्’ ग.।” ↩︎
-
“दधिनागरधान्यकैः ग.।” ↩︎
-
" ऽर्धपलिकं यो.।" ↩︎
-
" साधयेत्तत् यो.।" ↩︎
-
" प्रयोक्तव्यं यो.।" ↩︎
-
" आनुलोम्येन निर्मले इति आनुलोभ्येऽथ निर्मले इति च पा०।" ↩︎
-
" यमके भर्जितं दद्याच्छाकं दधिसरान्वितम् ह.।" ↩︎
-
" चुच्चुपर्णी ह.।" ↩︎
-
" अम्लिकां समहापत्रीं काकमाचीं रुहां तथा ह।" ↩︎
-
" शर्कराजातां यो।" ↩︎
-
“‘दार्वन्तैरौषधैर्लेप्याः ह।” ↩︎
-
" कफे समूत्रलवणं ह.।" ↩︎
-
" ततोऽर्धेनेन्द्रवारुणी यो।" ↩︎
-
" गुदजा यान्ति संक्षयम् यो ।" ↩︎
-
" हरीतकीदलप्रस्थं ह.।" ↩︎
-
" पिबेज्जातं ह.।" ↩︎
-
" शीते तस्मिन् सिताशतम् ह.।" ↩︎
-
" यवासः पिप्पलीमूलं ग.।" ↩︎
-
" मञ्जिष्ठैल्वालुक ह.। " ↩︎
-
" पादावशेषे इति पा०।" ↩︎
-
" यावत्स्यादर्धरसं ह.।" ↩︎
-
" ह्युभयभागम् ह.।" ↩︎
-
“°दद्याद्यमकेन भर्जितां पेयाम् ह.।” ↩︎
-
" मसूरसूपं ह.।" ↩︎
-
" °सतीनमुद्गाढकीमसुराणाम् ग.।" ↩︎
-
" °शाक° ग.।" ↩︎
-
" गुदजाः शाम्यन्ति रक्तवहाः ग.।" ↩︎
-
" प्रयोज्यं ह.।" ↩︎
-
" क्लेदे च तम्यगवगाह्य ह.।" ↩︎
-
" पूर्वं तैलेन शीतेन ह.।" ↩︎
-
" त्रिकोद्देशे ह.।" ↩︎
-
" मरिचं ग.।" ↩︎
-
" चन्दनमञ्जनम् ग.>" ↩︎
-
" परं ह.।" ↩︎
-
" फेनभूतः इति पा० ।" ↩︎
-
" किट्टप्रसादतः इति पा०।" ↩︎
-
" प्रजायते इति पा०।" ↩︎
-
" तथा रक्तं इति, ततो रक्तं इति च पा०।" ↩︎
-
" परस्परोपसंरम्भाद्धातुस्नेहपरंपरा ह.।" ↩︎
-
" परिवर्तस्तु ग.।" ↩︎
-
" रसाद्रक्तात् ह.।" ↩︎
-
“वा इति पा०।” ↩︎
-
" येन ह.।" ↩︎
-
" स्थलान्निम्नादिवोदकम् इति पा०। एतदनन्तरं हस्तलिखितपुस्तकेषु किट्टमन्नस्य विण्मूत्रं इत्यादिः परिवृत्तिस्तु चक्रवत् इत्यन्तः पाठः पठ्यते।" ↩︎
-
" करोति विकृतिं चात्र खे वर्षमिव तोयदः इति पा० ।" ↩︎
-
" पित्तेन सह संसृष्टं ह.।" ↩︎
-
" युक्तवाय्विन्धनो युक्तो ह.।" ↩︎
-
" नाभेरुपर्यग्निबलेनोपस्तब्धोपबृंहिता ह.।" ↩︎
-
" आप्लावयद्धन्त्यनलं ह.।" ↩︎
-
" तेषामतो वक्ष्यामि भेषजम् ह.।" ↩︎
-
" स्नेहाभ्यक्तं इति पा०।" ↩︎
-
" ज्ञात्वा सर्वशश्चानुवासयेत् ग.।" ↩︎
-
" °व्योष ह.।" ↩︎
-
" रास्नाक्षारद्वयाजाजीविडङ्गशटिभिर्घृतम् ह.।" ↩︎
-
" अग्निसंदीपन ह.।" ↩︎
-
“‘छर्द्यन्त्रग्रन्थिशूलेषु’ ह.।” ↩︎
-
“‘व्योषं लवणक्षारहिङ्गु च’ ह।” ↩︎
-
“‘°वृक्षाम्लान् कुडवान् पृथक्। दशाम्लवेतसपलानिमांश्चार्धपलांशिकान्’ ह.।” ↩︎
-
“‘तच्चूर्णं’ ह.।” ↩︎
-
“‘कपित्थाम्बष्ठकीहस्तिपिप्पलीबिल्वशाल्मलम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘घृतेन भर्जितां दघ्ना’ ह.।” ↩︎
-
“‘तक्रारनालं पानार्थं मद्यं चारिष्टमेव च’ ह.।” ↩︎
-
“‘ग्रहणीदोषिणां तक्रं’ ह.।” ↩︎
-
“‘पथ्यं’ ह.।” ↩︎
-
“‘मुखप्रियम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘सर्पिर्भिश्चापि तिक्तकैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘सन्निपातं च’ ह.।” ↩︎
-
“‘वातपित्तनुत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘दुरालाभाया द्विप्रस्थं’ ह.।” ↩︎
-
“‘पक्षादूर्ध्व पिबेन्नरः’ ह.।” ↩︎
-
“‘द्विपञ्चमूले रजनी’ ह.।” ↩︎
-
“‘पृथक्’ ह.।” ↩︎
-
“‘स्निग्धरसाशनः’ ह.।” ↩︎
-
“‘चावपेत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘खादेत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘हन्यात् सर्वविषाणां च क्षारोऽयं शमनो वरः’ इ.।” ↩︎
-
“‘मन्दाग्निरपि पक्वं तु’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘अन्नावलीढितं’ ह.।” ↩︎
-
“‘सोष्मणा पाचकस्थाने’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘मधुरपिच्छिलैः’ इति पा०।” ↩︎
-
" ‘यथा’ इति ‘तथा’ इति च पा०। " ↩︎
-
“‘स्रोतोभिर्दशभिः सृतम्’ इति पा०।” ↩︎
-
" ‘केवले देहे’ इति पा०।" ↩︎
-
“‘पाण्डुहारिद्रहरितान् वर्णाश्च विविधांस्त्वचि’ ह.।” ↩︎
-
" ‘वर्चसो मेदः’ ह.।" ↩︎
-
“‘मूत्राक्षिवर्चसां शौक्ल्यं’ ह.।” ↩︎
-
" ‘लवणास्यत्वमिति’ ह.।" ↩︎
-
“‘रौक्ष्याद्भुक्ता’ ह.।” ↩︎
-
“‘बलं हत्वा तेजो वीर्योजसी तथा’ ह.।” ↩︎
-
" ‘प्रवक्ष्यामि चिकित्सितम्’ ह.। " ↩︎
-
" ‘कामलावान्’ ह.।" ↩︎
-
“‘शालयो ययवगोधूमाः पुराणाः सूपसंस्कृताः’ ह.।” ↩︎
-
" ‘यथादोषविशेषं च’ ह.।" ↩︎
-
“‘च सुतप्रदम्’ है.।” ↩︎
-
“‘सपिप्पलीपर्पटकं भूनिम्बंदेवदारु च। पिष्ट्वाऽक्षमात्रांस्तैः सर्पिः प्रस्थं क्षीराढके पचेत्॥’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘दन्त्याश्चतुष्प्रस्थरसे’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘माहिषाज्यस्य तु प्रस्थः’ ह.। पूर्वे पाण्डुरोगे, परे कामलाख्ये।” ↩︎
-
“‘गोमूत्रकिन्नयुक्तां’ ह.।” ↩︎
-
“‘पिबेद्वा कामलावान्ना त्रिवृतां त्रिफलारसैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘कर्षोन्मितानतिविषां कर्षार्धांशां च दापयेत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘लिह्यात्तु माक्षिकम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘प्रातः प्रातर्भधुयुतं’ ह.।” ↩︎
-
“‘पिबेत् पक्वं’ ह.।” ↩︎
-
“‘कल्कं’ ह.।” ↩︎
-
“‘मूत्रयुतां प्रयोगेणाथवा’ ह.।” ↩︎
-
“‘गुल्मान्यजरकं’ ह.।” ↩︎
-
“‘रजतस्य च’ ह.।” ↩︎
-
“‘मधुत्रिपलसंयुक्तान् कुर्यादक्षसमान् गुडान्’ ह.।” ↩︎
-
“‘गलामयान् ह.।” ↩︎
-
“‘वर्ध्मभ्रमान्’ ह.।” ↩︎
-
“‘लेहयेत् कामलापहम्’ ह.।” ↩︎
-
“हलीमकं पाण्डुरोगं कामलां चैव नाशयेत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘द्राक्षा हरिद्रा मञ्जिष्ठा’ ह.।” ↩︎
-
“‘रसं तु तम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘क्षौद्राष्टभागं पिप्पल्याश्चूर्णार्धकुडवायुतम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘कटुरूक्षोष्णं मिश्रं स्यात् सान्निपातिके’ ह.।” ↩︎
-
“‘सक्षीरैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘लोधशाड्वलैः’।” ↩︎
-
“‘शुक्लातिविषया निम्बैर्विङ्गैःकुटजेन वा’ ह.।” ↩︎
-
“‘°पाठया’ ह.।” ↩︎
-
“‘कामलावान् सृजेन्मलम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘°ऽनुबध्येत ह.।” ↩︎
-
“‘मले पित्तानुरञ्जिते’ ह.।” ↩︎
-
“‘निवृत्तोपद्रवस्य स्यात् पूर्वः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘लक्षणं’ ह.।” ↩︎
-
“‘इत्यग्निवेशस्य वचः’ ह.।” ↩︎
-
" ‘परमदुर्जयौ’ ह.। " ↩︎
-
“‘रोगावेतौ प्ररोहतः’ ह·।” ↩︎
-
“‘जृम्भतः’ ह.।” ↩︎
-
“‘क्षुद्रां संजनयेत्तदा’ ह.।” ↩︎
-
“‘सहसैवातिसंभुक्तैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘प्रकरोत्यन्नजां हिक्कामुरःस्रोतः समाश्रितः’ ह.।” ↩︎
-
“‘आमसंचितदोषस्य भक्तच्छेदकृतस्य च’ ह.।” ↩︎
-
“‘विवृताक्षाननो’ ग.।” ↩︎
-
“‘ऊर्ध्वं श्वसिति यो दीर्घ’ ह.।” ↩︎
-
“‘प्रताम्यति स वेगेन’ ग.।” ↩︎
-
“‘श्लेष्मलैश्च प्रवर्तते’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘वातश्चाप्यनुलोमताम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘तेषां मृदुभिराचरेत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘गोशकृतो रसः’ ग.।” ↩︎
-
“‘पृथग्लिह्यासक्षौद्रं तु कफेऽधिके’ ह.।” ↩︎
-
“‘श्वाविज्जाहकचाषाणां’ ह.।” ↩︎
-
“‘प्राणप्रकोपहाः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘सक्षारकाचगन्धार्क’ इति, ‘ससारगल्व(न्ध ↩︎
-
“‘शुष्कक्षीणकफोरस्का हिक्काश्वासानुबन्धिनः’ ग.।” ↩︎
-
“‘नियच्छति’ ह.।” ↩︎
-
“‘शाखानिलार्शोग्रहणी’ ह.।” ↩︎
-
“‘वासाधृतं दाधिकं वा पिबेन्त्र्यूषणमेव चं’ ह.।” ↩︎
-
“‘हिक्काश्वासेषुतद्धितम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘ह्यल्पशक्यः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘वेदनाशब्दवैशेष्यं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘कफकासमुदीरयेत्’ ह।” ↩︎
-
“‘कण्ठेन रुजताऽत्यर्थं’ ह।” ↩︎
-
“‘स्थानादुत्कासमानश्च हृदयं मन्यते च्युतम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘प्रसन्नस्निग्धवदनः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘घृणावानभ्यसूयकः’ ह.।” ↩︎
-
“‘भिन्नसंहतवर्चस्त्वं’ ह.।” ↩︎
-
“‘स्वरभेदोऽनित्तं च भिन्नवृत्तपुरीषता’ ह.।” ↩︎
-
“‘हिक्काश्वासे च कासे च लिह्यात् क्षौद्रघृतप्लुतम्’ ग.।” ↩︎
-
“‘कल्कानर्धतुलाक्वाथे निदिग्ध्याः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘सर्पिषः’ ह.।” ↩︎
-
" ‘यवैः स्विन्नैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘पिबेद्बदरसारं वा’ ह.।” ↩︎
-
" ‘पीडने’ ग.।" ↩︎
-
“‘मुखेन वैरेचनिकं’ ह.।” ↩︎
-
“‘शेवाल’ ह.।” ↩︎
-
“‘बिल्वमध्यचित्रकनागरैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘शटिपौष्करैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘सिद्धां स्निग्धां सलवणां ह.।” ↩︎
-
“‘ससैन्धवांपाययेत यवागूं वातकासिनम्’ ग.।” ↩︎
-
“‘पित्तकासे तु सकफे’ ह.।” ↩︎
-
“‘क्षीरे पक्त्वा’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘चाल्यते’ इति ‘पीड्यते’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘कफे शुद्धे शनैः पुष्टिं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘चविकात्रिफलाभार्गीदशमूलैः सचित्रकैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘सिद्धं वा’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘मधुसर्पिषा’ ह.।” ↩︎
-
“‘वार्ताकपिप्पलीद्राक्षापद्मकं मधुसर्पिषा’ ह.।” ↩︎
-
" ‘बलारास्नायुतं सूक्ष्मं शर्कराक्षौद्रसर्पिषा’ इति पा०।" ↩︎
-
“‘बलारास्नायुतं सूक्ष्मं शर्कराक्षौद्रसर्पिषा’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘पिप्पलीं’ ह.।” ↩︎
-
“‘स्वरोपधाते’ ह.।” ↩︎
-
“‘नारम्भाय प्रह्रियन्ते स्म’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘प्रोक्षणमेवापुः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘पुरीषाश्रयविसृतं’ ह.।” ↩︎
-
“‘रक्तपित्तोपहतं’ ह.।” ↩︎
-
“‘पुरीषाशयमुपहत्य’ ह.।” ↩︎
-
“‘शतं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘संप्रवाहयेत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘वहतां’ ह.।” ↩︎
-
“‘दापयेज्जलम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘चोरकपिप्पलीम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘सरोऽल्पस्नेहाढ्यः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘भोजनं’ ह.।” ↩︎
-
“‘शटीशताह्वाकुष्ठैर्वा’।” ↩︎
-
“‘नागरं धातकीपुष्पमुत्पलं दाडिमत्वचः’ ह.।” ↩︎
-
“‘श्लोकार्धेषु’ ह.।” ↩︎
-
“‘सह पाययेत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘बस्तिः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘व्यञ्जनार्थं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘वत्सकस्य च बीजानि दार्व्याश्च त्वच उत्तमाः’ ह.।” ↩︎
-
“‘सेचयेद्गुदवंक्षणम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘जरति’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘लेहयेत् क्षौद्रपादिकम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘फलत्वचम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘कफसंक्षयात्’ ह.।” ↩︎
-
“‘ह्यातिसारिकी’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘दोषास्त्रयस्त्रिप्रभवाश्चतस्रः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘तथा तमस्यन्’ ह.।” ↩︎
-
“‘आमाशयोद्रेककृतश्च’ इति तथा ‘आमाशयोद्रेगयतश्र’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘समुद्धृत्य’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘वातात्मके हृद्द्रवकासयुक्तो नरः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘शृङ्गारिकाश्चैव’ ह.।” ↩︎
-
“‘सात्म्यं प्रियमस्य योज्यम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘छर्दिचिरोत्थां प्रशमं नयन्ति’ ह.।” ↩︎
-
“‘स स्यात् पित्तकफात्मकः’ ह.।” ↩︎
-
“‘वधबन्धप्रपतनाद्दंष्ट्रादन्तक्षतान्नखात्’ ह.।” ↩︎
-
“‘सर्वाणि रूपाणि’ ह.।” ↩︎
-
“‘पित्तमुष्णोपचारादि’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘मार्गांध’ ह.।” ↩︎
-
“‘दाहसंतोदनपरीतैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘प्रसेक’ ह.।” ↩︎
-
“‘तममेवंविधमातुरं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘देहिनम्’ ह.।” ↩︎
-
" शिरोगौरवं त्वग्दाहः ह.।" ↩︎
-
“‘निस्तोदो दौर्वल्यं’ इति पा।” ↩︎
-
“‘अङ्गमर्दः’ इति हस्तलिखितपुस्तकें न पठ्यते।” ↩︎
-
“‘क्रमेण ग्रन्थीनां मालां कुरुते तीव्ररुजां’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘सिरास्नायुमांसत्वगाश्रितं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘रोगान्तरकालजः’ ह.।” ↩︎
-
“‘दहेत्’ ग.।” ↩︎
-
“‘तं च’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘दुरालभां पर्पटकं गुडूचीं विश्वभेषजम्’ गः।” ↩︎
-
" अन्तःशरीरे संशुद्धे ह.।" ↩︎
-
“‘एला’ ह.।” ↩︎
-
“‘वातपित्तोल्बणे’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘वचाम्’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘सोऽम्लभावात्’ ह.।” ↩︎
-
“‘यः’ ह.।” ↩︎
-
“‘यूषेणाद्यात्तु’ ह.।” ↩︎
-
“एतच्छ्लोकद्वयं हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते।” ↩︎
-
“‘ज्ञात्वा’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘पक्वक्षारयुतेन’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘भेषजैः सरैः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘दाहेन पाटनं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘देशकालप्रमाणज्ञः’ इति, ‘देशकालकारज्ञः’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘लभ्यते’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘समासव्यासनिर्देरुक्तंचैतच्चिकित्सितम्’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘नाली’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘म्बुकामत्वम्’।” ↩︎
-
“‘मर्मपीडनं सादम्’ इति, ‘मर्मणां दवं सादम्’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘देहस्य’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘कण्ठोपरोध इति च’ ह.।” ↩︎
-
“‘तृष्यतिस्तु’ ह.।” ↩︎
-
“‘तावाशु च’ ह.।” ↩︎
-
“‘मद्यं पीतं विशुष्यति क्षिप्रम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘तस्माद्भजेत सहसा नोष्णक्लान्तो जलं शीतम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘अप्संक्षयाद्धि’ ह.।” ↩︎
-
“‘लाजासक्तुसिताह्वामधुयुतमैन्द्रेण वा मन्थम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘भृष्टा घृते देयाः’ ह.।” ↩︎
-
“शैवालपङ्कजजलैः ह·।” ↩︎
-
“‘अपाकशर्करं’ च.।” ↩︎
-
“‘सकषायलोहलवणं दाडिममम्लं फलं च लेह्यं वा’ ह.।” ↩︎
-
“‘पेयमथवा प्रदद्याद्रजनीमधुशर्करायुक्तम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘सम्यगग्निवेशावधारय’ ह.।” ↩︎
-
“‘मध्यमाने जलनिधावमृतार्थं सुरासुरैः’ ह.।” ↩︎
-
“‘विषं स तु विषादनात्’ ह.।” ↩︎
-
“‘गलगोडिका’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘गालमिन्द्रायुधं तैलं मेघकं’ इतिपा०।” ↩︎
-
“‘हृन्मोह’इति पा०।” ↩︎
-
“‘चिमिचिमातमकाः’ इति, पा०।” ↩︎
-
“‘मन्दाहारश्च ततो म्रियते श्वासेन हि चतुर्थे’ ह.।” ↩︎
-
“‘आद्ये वेगे पक्षी प्रभ्राम्यति द्वितीयवेगे तु’ ह.।” ↩︎
-
“‘तृड्पाकज्वरशोषक्लम’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘खानि निरुध्याशु’ ह.।” ↩︎
-
“‘विरेकोपधावानि’ ह.।” ↩︎
-
“‘प्रधमनाति’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘द्रुतं’ ग.।” ↩︎
-
“‘पञ्चलवणचोरकाः सवार्ताकाः’ ह.।” ↩︎
-
“‘विषाधानमिति विषय प्रसारकं’ इति चक्रः। ‘रक्तं विषादनं हि’ ह.।” ↩︎
-
“‘इक्षु सुपक्वमथवा’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘शोथहरैश्छर्दनं’ ग.।” ↩︎
-
“‘धरणीबन्धः’ ह.।” ↩︎
-
“‘सिरावेधः’ह.।” ↩︎
-
“‘विषदूषितकफमार्गस्रोतःसंरुद्धवायुस्तु’ ह.।” ↩︎
-
“‘कटभीजालिनीकटुकैः प्रधमनं च’ ह.। ‘कटुकोठफलाप्रधमनं च’ इति पा०।” ↩︎
-
“अयं श्लोकः क्वचित्पुस्तके न पठ्यते।” ↩︎
-
“‘वचा विडङ्गं’ ह.।” ↩︎
-
“‘बन्धूककरञ्जबीजानि’ ह।” ↩︎
-
“‘बृहती’ ह.।” ↩︎
-
“‘वंशलेखनं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘विषपीतविषघाती’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘दद्रौ’इति ‘कण्ढ्वां’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘बचाऽभया रोचना च गवाम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘गृह्णीत भक्षयेत विषम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘कालातीतोऽपि’ ह।” ↩︎
-
“‘नित्यं निरातङ्कः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘भवन्ति’ इति ‘वहन्ति’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘पिष्यमाण इमं चात्र’ ह.।” ↩︎
-
“‘विजयो नाम मे पिता’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘लिहि मिलि संस्पृष्टे रक्ष सर्वं भेषजोत्तमे स्वाहा’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘विषहा’ ह.।” ↩︎
-
“‘भुजगपतिशिर इति द्विमुखसर्पशिरः’ इति चक्रः। ‘भुजगस्य शेरः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘प्राप्तप्रकृतिविकारः’ ह.।” ↩︎
-
“‘तदन्नमग्नौतु’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘तीक्ष्णाक्षमरूक्षकुणपधूमश्च’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘पश्यति विकृतामथवा’ ह.।” ↩︎
-
“‘कूर्चः पतति हि’ ह.।” ↩︎
-
“‘वस्त्रालङ्कारकैर्दुष्टैः’ इति ‘वस्त्रालङ्कारभूषणैर्दुष्टैः’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘तोदक्लमातिरागाश्च’ ह.।” ↩︎
-
“‘शिरसोरुक्छोथलोमहर्षकरम्’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘इह दर्वीकरः सर्पोमण्डली राजिमानिति। त्रयो यथाक्रमं इति पा०।” ↩︎
-
“‘पित्तरक्तविकारकृत्’ ग.” ↩︎
-
“‘समाङ्गः शिरसा स्थूलः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘गौधेरकः’ इति,‘गौधारकः’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘गाढसंपादितोद्धृतं’ ह.।” ↩︎
-
" ‘तथाऽपरे’ इति पा०।" ↩︎
-
“‘तथाऽपरे’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘गोपुच्छात्’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘सकण्डूरागवीसर्पपाकि’ ग.” ↩︎
-
“‘प्राणहरैः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘शोफो’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘दग्धाकृति’ ग.; ‘दीर्घाकृति’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘निरुक्पाकं’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘सर्वेषामेव’ ह.।” ↩︎
-
“अर्यमर्धश्लोको हस्तलिखितपुस्तकेषु न पठ्यते।” ↩︎
-
“‘भवेच्छ्वासो दाह’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘प्राणान्तिकाभिः सश्वासा दाहहिक्काशिरोग्रहाः’ ह.।” ↩︎
-
“‘स्यात्तु कृकण्टकैः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘एकदंष्ट्रायतः’ इति, ‘एकदंष्ट्रार्पितः’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘पीतकस्त्विषा’ ह.।” ↩︎
-
“‘दाहतोदस्वेदशोधकरी तु गलगोडिका’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘स्थपिका’ इति, ‘छप्पिका’ इति च पा०।” ↩︎
-
“‘मध्याह्नेष्वर्धरात्रे’ इति पा०।” ↩︎
-
" मुक्तत्वचो बृद्धवालाः ग.।" ↩︎
-
" उच्चिटिङ्गाश्च वृश्चिकाः ह.।" ↩︎
-
" °पीनसैः इति पा०। " ↩︎
-
" गुडेन इति पा०।" ↩︎
-
" ग्रन्थिर्निकुञ्चनम् इति पा० ।" ↩︎
-
" यथादोषं ग.। " ↩︎
-
" विषे कण्ठगतेमांसं कपित्थात् ससितामधु ह. ।" ↩︎
-
“विषे इति पा० ।” ↩︎
-
" प्रवृद्धे श्लेष्मणि भिषक् ह.।" ↩︎
-
" अम्लपेषितैः”इति पा० । " ↩︎
-
" शिरीषपुष्पस्वरसे ह. ।" ↩︎
-
" पिष्टानि ह.।" ↩︎
-
" ‘कुसुम्भपुष्पं गोदन्ताः स्वर्णक्षीरी कपोतविट् ह.।" ↩︎
-
" स्नुक्क्षीरपिष्टं शैरीषं फलं दर्दुरजे विषे ह.।" ↩︎
-
" श्वेतभण्डाया मूलं इति, श्वेतपिण्डाया मूलं इति च पा० ।" ↩︎
-
" नस्याञ्जनाङ्गलेपेषु ह.।" ↩︎
-
" गलगोड्या विषं इति पा० ।" ↩︎
-
" प्रधानं ग।" ↩︎
-
" कुर्यादाश्वासन हृ. ।" ↩︎
-
" सिताजगन्धिकां इति सितां वैगन्धिकां इति च पा० ।" ↩︎
-
" शुष्कौष्ठकण्ठता ग.। " ↩︎
-
" सुरसं ग.।" ↩︎
-
" मदश्चास्योपजायते इतिपा०।" ↩︎
-
" मर्मप्रमथनाध्मानं इति मर्माभिघात आध्मानं इति च पा०।" ↩︎
-
" विषमज्वरम इति पा० ।" ↩︎
-
" तदवेक्ष्य ह· । " ↩︎
-
" मधु कासारं इति पा० । " ↩︎
-
" त्वचाम् इति पा०।" ↩︎
-
" विषोद्वद्धमृतान्नरान् । " ↩︎
-
" भिषक् इति पा०।" ↩︎
-
“‘सोमातिपरितः इति पा० ।” ↩︎
-
" सौत्रामण्यां च या सोमः सिद्धं शक्रबलं च या ह· । " ↩︎
-
" ‘सोमः सौत्रामण्यां च या मता इति पा० ।" ↩︎
-
" मृष्टेकुसमप्रसरीकते ह. ।" ↩︎
-
“‘संचार्यमाणमिष्टाभिः ग.।” ↩︎
-
“‘पौरोगवज्ञविहितैः’ ह.।” ↩︎
-
" पूजयित्वा सुरान् पूर्वमाशिषः प्राक् प्रयुज्य च इति पा०।" ↩︎
-
" मद्यमर्थिभ्यः पृथिवीतले इति पा०।" ↩︎
-
" भावितश्चान्यैः ग.।" ↩︎
-
" चान्यैः ग." ↩︎
-
" भवितव्यवसबश्च ह.।" ↩︎
-
" मार्द्वी(ध्वी ↩︎
-
" बहुकर्म मदात्मकम् ह.।" ↩︎
-
" ‘गौरवं ह· ।" ↩︎
-
" कुरुते इति पा० ।" ↩︎
-
" रसधात्वादिमार्गाणां ह.।" ↩︎
-
" कुरुते ह. ।" ↩︎
-
" पाठगीतप्रभाष्याणां ग." ↩︎
-
" प्रचलायनमेव च ह.।" ↩︎
-
" धृष्यः ह.।" ↩︎
-
" तं चाज्ञा ह.।" ↩︎
-
" रजोमोहपरायणाः ह.।" ↩︎
-
" सर्वमसाधु यत् ह.।" ↩︎
-
" निम्दन्ति यत्नतः इति पा० ।" ↩︎
-
" ‘परं ह. ।" ↩︎
-
" वाक्प्रबोधनम् हः ।" ↩︎
-
" ‘प्रसादकम् ह.।" ↩︎
-
“‘प्रीतिसौभाग्यवर्धनम् इति पा० ।” ↩︎
-
" कान्तेषु ह. ।" ↩︎
-
" युक्तं ह. ।" ↩︎
-
“मदे इति पा० ।” ↩︎
-
" सदा मधुरसंकरम् इति पा० ।" ↩︎
-
" सुखपानं सुखद ह.।" ↩︎
-
" स्वर्तु इति स्वात्तं इति च पा० ।" ↩︎
-
" मद्ययोगान्न ह.।" ↩︎
-
" मद्यं हि बलवत्सत्त्वं मृद्गाति ( गृह्णाति ↩︎
-
" क्षणे ह.।" ↩︎
-
" ’°रुपेतो ह. । " ↩︎
-
" प्राङ्मयाः क्षुत्पिपासार्ताः ह. ।" ↩︎
-
" स तु वातोल्बणस्याशु प्रशमं याति हन्ति वा ह. ।" ↩︎
-
" प्रमोहः ह.।" ↩︎
-
" जायते विपुला ह.।" ↩︎
-
" छर्दिर्विड्भेद उत्क्लेशो वातपित्तकफात्मकः ह· । " ↩︎
-
" ’°श्चातिपूरणम् ह .।" ↩︎
-
" प्रमाणवित् इति पा °।" ↩︎
-
" विष्यन्दनार्थे दोषस्य तस्य ह.।" ↩︎
-
" चित्रैः ह· ।" ↩︎
-
" ‘रसप्रलेपिसंपूपैः’ ह.।" ↩︎
-
" दह्यमानस्य तृष्यतः ह ।" ↩︎
-
" नोद्वस्यते ह .।" ↩︎
-
" शीतमथापि वा हः।" ↩︎
-
" मुद्गदाडिमलाजानां इति पा० ।" ↩︎
-
" शीतानि सदनानि च हः ।" ↩︎
-
“अयमर्धश्लोको हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते ।” ↩︎
-
" चित्रा ग." ↩︎
-
" कर्मणाऽनेन सिद्धेन विकार उपशाम्यति ह ।" ↩︎
-
" नीरसवर्तितम् ह.।" ↩︎
-
" ‘रोचनदीपनम्’ ग. ।" ↩︎
-
" व्यक्ताम्लान्मधुरीकृतान् ग. ।" ↩︎
-
" रूक्षाम्लेनान्नपानेन सोष्णेन शिशिरेण वा ग.।" ↩︎
-
" स्नानवर्णकवासानां इति पा० ।" ↩︎
-
" हुताशवेशस्य वचस्तच्छ्रुत्वा ह।" ↩︎
-
" सभेषजम् ह.।" ↩︎
-
" व्रणैः ग. ।" ↩︎
-
" ‘महारुजः’ ह’।" ↩︎
-
" ‘स्निग्धैः ग.।" ↩︎
-
" लङ्घनशोधनैः’ ग. ।" ↩︎
-
" भिन्नाः स्युर्विंशतिर्व्रणाः ह. " ↩︎
-
" विभाव्यमानान् ह. ।" ↩︎
-
" कल्पेनानेन इति पा० । " ↩︎
-
" चतुर्विंशतिरुद्दिष्टा दोषाः कल्पान्तरेण वै ह.।" ↩︎
-
" नखकाष्ठप्रतोदाच्च ह.।" ↩︎
-
" व्यवायात् क्षोभणात्तथा ग.।" ↩︎
-
" परिस्त्रावाच्च गन्धाच्च इति पा०।" ↩︎
-
" निरुपक्रमः ह.।" ↩︎
-
" द्वौ स्नेहौ तद्गुणौ ह.।" ↩︎
-
" पिण्डितोन्नतम् इति पा०।" ↩︎
-
" सुकुमारस्येति च्छेदः । कृच्छ्रस्येत्यति सुकुमारस्य शस्त्रं परं भेदनमिति संबन्धः इति चक्रः ।" ↩︎
-
" ये च रक्तजा इति रक्तगुल्मा चक्रः।" ↩︎
-
" तानि ज्ञात्वा सुसंस्थानि ह.।" ↩︎
-
" ‘परीक्षकः’ ह. ।" ↩︎
-
" ‘पौष्टिकैः समुपाचरेत् ह.।" ↩︎
-
" उपाचरेत् ह.।" ↩︎
-
" स्नेहस्यात्र संहतावस्थितत्वात् मधुशर्करावत् स्नेहशर्कराव्यपदेशः इति चक्रः ।" ↩︎
-
" सतैलं हृ. ।" ↩︎
-
" पार्श्वे इति पा० ।" ↩︎
-
" तानुपाचरेत् ह.।" ↩︎
-
" न्यग्रोधादिबलाकुशाः । निम्बः कुलकपत्राणि ह.।" ↩︎
-
" धृतोत्तमम् इति पा० ।" ↩︎
-
" भिन्ने इति पा० ।" ↩︎
-
" सुप्तेपु ग. ।" ↩︎
-
" गन्धैः सारैश्च इति पा० ।" ↩︎
-
" °प्रबोधन ह.।" ↩︎
-
" त्वचमाशु निगृह्णन्ति इति पा० ।" ↩︎
-
" मनःशिलालं ह.।" ↩︎
-
" ध्यामकाश्वत्थनिचुलं त्वच इति पा० ।" ↩︎
-
" तस्मात् इति पा०।" ↩︎
-
" प्रधानभूतान्यृषयो वदन्ति ह.।" ↩︎
-
" तानिह पीडयन्तः ह.।" ↩︎
-
" तत्संसृताना° इति पा० ।" ↩︎
-
" महागदेभ्यः इति पा० ।" ↩︎
-
" संधारणाभोजनमैथुनैश्च ह. ।" ↩︎
-
" वायुर्विवृद्धः प्रकरोति तीव्रं विण्मूत्रबातमग्रहमेत्य बस्तिम् । स्रोतांस्युदावर्तमधोगमानि रुवोर्ध्वमागम्य करोत्यपानम् इति पा० ।" ↩︎
-
" ततो विपाकश्च है.।" ↩︎
-
“अयमर्धश्लोको हस्तलिखितपुस्तकेषु न पठ्यते ।” ↩︎
-
" राढं मदनफलम् ।" ↩︎
-
" नाड्याऽथवाऽस्य प्रधमेत चूर्णम् ह.।" ↩︎
-
" ‘भूयोऽनुबन्धेषु ह. ।" ↩︎
-
" °ऽनिलवर्चसोः स्यात् हं. ।" ↩︎
-
" °विलम्बिकार्शोहृदोग ह.।" ↩︎
-
" हिंस्राऽर्कमूलं ह.।" ↩︎
-
" °रुजाघ्नमग्र्यम् ह.।" ↩︎
-
" वेपते च हृ. ।" ↩︎
-
" मूत्रयति ह. ।" ↩︎
-
“अयं पाठः क्वचित्पुस्तके न पठ्यते ।” ↩︎
-
" मूत्रायनस्थाः इति पा०।" ↩︎
-
" क्षताद्विघातात् हृ. ।" ↩︎
-
" हितानि पिष्टान्यपि ग.।" ↩︎
-
" दण्डैरकाणामथवाऽपि मूलं ह. ।" ↩︎
-
" सकुङ्कुमात् इति पा० ।" ↩︎
-
" पिबेदश्मरिभेदि पक्वं ह.।" ↩︎
-
" हिभश्वा° ह.।" ↩︎
-
" पुनर्नवायोरजसी इति पा० ।" ↩︎
-
" ‘प्रपेयाः कृच्छ्रेषु मूत्राश्मरिशर्करासु’ ह. ।" ↩︎
-
" ‘सुराह्नं’ ह ।" ↩︎
-
" वसुकाश्मभेदौ इति पा०।" ↩︎
-
" मधु माधवं वा इति पा० ।" ↩︎
-
" °कुशोदकानि ह.।" ↩︎
-
" स्थिरादिकालङ्कतकादिकाना° ह.।" ↩︎
-
" °भ्रम° ह. ।" ↩︎
-
" क्षाराम्लसर्पिलेवणैः ह. ।" ↩︎
-
" पलिके ह.।" ↩︎
-
" पिष्ट्वा पिबेच्चापि सिताजलेन यष्ट्याह्वयं तिक्तकरोहिणीं वा ह.।" ↩︎
-
" क्षतेषु सपींषि च तद्गुडाश्च ये तेच शस्ता हृदि पित्तदुष्टे इति पा० ।" ↩︎
-
“अयमर्धश्लोकः क्वचित्पुस्तके न पठ्यते।” ↩︎
-
" °सैन्धव° हृ. ।" ↩︎
-
“‘मैथुनबाष्पशोकैः इति ‘मैथुनबाप्पवर्षेः इति च पा० ।” ↩︎
-
“अयं पाठो हस्तलिखितपुस्तके नोपलभ्यते ।” ↩︎
-
" इति प्रतिश्यायनिदानम् इति पा० ।" ↩︎
-
" सन्निपातात् ह.।" ↩︎
-
" अशून्यतार्थे तु ह. ।" ↩︎
-
" चिकित्सितं वक्रगदस्य वक्ष्ये इति पा०।" ↩︎
-
" °क्रोधाघहृद्याशन° ह.।" ↩︎
-
" कर्कशशीतदन्तकषायवक्रस्य मतोऽनिलेन ह ।" ↩︎
-
" अल्पस्तु रागोऽनुपदेहवांश्च सतोदभेदोऽनिलजाक्षिरोगे ग.।" ↩︎
-
" सुभृशोष्णवाही ह.।" ↩︎
-
" नेत्रस्य खेटाद्गुरुता सकण्डु : इति पा० ।" ↩︎
-
" षठटसप्तिर्नेत्रगदास्त भेदात् इति पा०।" ↩︎
-
" तेजोऽनिलाद्यैः सह केशभूमि इति पा० ।" ↩︎
-
" तन्त्रे निबद्धोऽयमशून्यतार्थम् । अतः परं भेषजसंग्रहं तु निबोध संक्षेपत उच्यमानम् इति पा० ।" ↩︎
-
" पक्वे पित्तप्रतिश्याये स्निग्धे (ग्धं ↩︎
-
" खिग्धाम्लतिक्तशाकानि’ हृ. ।" ↩︎
-
" सर्षपैः ह.।" ↩︎
-
" सकपे पीनसे पूतिघ्राणस्रावे ह. ।" ↩︎
-
" निम्बं ह. ।" ↩︎
-
" कफघ्नमन्नं वार्ताककुलत्थाढकीमुद्गजाः ।यूषाः सकुलकव्योषाः शस्तास्तोयोष्णसेविनः ह.।" ↩︎
-
" इति नासारोगचिकित्सा ह.।" ↩︎
-
" जीवनीयैः सुमनसा ह.।" ↩︎
-
" °शकृत्पादविवर्जितम् ह.।" ↩︎
-
" कर्णनासाक्षिजिह्वास्यगलरोगविनाशनम् ह.।" ↩︎
-
“‘पयसा हृ. ।” ↩︎
- ↩︎
-
" मृणालबिशखर्जूरशृङ्गीजीवकपद्मकैः ह.।" ↩︎
-
" तस्यानु इति पा० । " ↩︎
-
" हिङ्गु बीजं शिरीषस्याप्यपामार्गकरञ्जयोः । अश्मन्तकं सक्षवकं सुरसा स्वर्णयूथिका ॥ फणिज्झकयुतैस्तैलमविमूत्रद्विरंशकम् ह.।" ↩︎
-
" सक्षौद्रंपाययेदेतन्मुखरोगेषु बुद्धिमान् इति पा० ।" ↩︎
-
“अयं पाठो हस्तलिखितपुस्तके नोपलभ्यते।” ↩︎
-
" सुतृप्तस्य इति पा०।" ↩︎
-
" शूष्काश्चास्ये विधारयेत् पा०।" ↩︎
-
" श्र्योतयेत् ह.।" ↩︎
-
" गन्धतैलमिति गन्धद्रव्यकल्क ( पाचित ↩︎
-
" शुष्कमूलकशुण्ठीनां इति पा०।" ↩︎
-
" तैलमेभिर्विपक्तव्यं कर्णशूलहरं परम् इति पा०।" ↩︎
-
" पूरणादस्य तैलस्य कृमयः कर्णयोः श्रिताः। क्षिप्रं विनाशं गच्छन्ति कृष्णात्रेयस्य शासनात् ॥ क्षारतैलमिदं श्रेष्ठं मुखदन्तामयापहम् ह.।" ↩︎
-
“‘मुस्तगैरिकसैन्धवम्’ ह.।” ↩︎
-
" तत्सर्वं बहिरक्ष्णोः प्रलेपयेत् इति पा०।" ↩︎
-
" शिग्रोर्मूलं ह.।" ↩︎
-
" अमृता मधुकं निम्बं इति पा०।" ↩︎
-
" वासा प्रपौण्डरीकं च इति पा०।" ↩︎
-
" चूर्णाञ्जनमिदं सम्यक् क्रिमि इति पा०।" ↩︎
-
" एतन्नित्याञ्जनं ह. ।" ↩︎
-
" स्वरसः किंशुकस्याहेर्वसा कृष्णस्य सैन्धवम् । इति पा० ।" ↩︎
-
" वाताक्षिरोगध्नी है. ।" ↩︎
-
" क्षारात् साहचरात् इति पा० ।" ↩︎
-
" ‘मेषशृङ्गादिषु स्थितः इति पा० ।" ↩︎
-
" नस्यं स्यात् इति पा०।" ↩︎
-
" क्षारात् समार्कवरसाद्द्विप्रस्थे मधुकोत्पले इति पा० ।" ↩︎
-
" आदित्यपर्ण्याः इति पा० ।" ↩︎
-
" पञ्चपलैर्भागैः सुपिष्टैराढकं इति पा० ।" ↩︎
-
" शीर्षप्रलेपः स्याद्धरिलोमबलीहितः ह .।" ↩︎
-
" चतुष्प्रयोगस्तैलैश्च इति पा० । चतुष्प्रयोगैरिति पानाभ्यङ्गगण्डूषवस्तिप्रयोज्यैरित्यर्थः इति चक्रः।" ↩︎
-
" सुमेरुमिव चाचलम् इति पा०।" ↩︎
-
" कुरुते हीनविक्रमम ह. ।" ↩︎
-
" तस्य निद्राऽतिध्यानं स्तिमितता ज्वरः इति पा०।" ↩︎
-
" स्वेदनात् इति पा०। " ↩︎
-
" वेपते इति पा०।" ↩︎
-
" साध्यः स्यादन्यथा नवः ह.।" ↩︎
-
" श्लेष्मस्थानगतः श्लेष्मा ह. ।" ↩︎
-
" तयोः इति द्वयोः इति च पा०।" ↩︎
-
" सक्षौद्रानर्धश्लोकोक्तान् इति पा० ।" ↩︎
-
" वत्सकं स्वादुकण्टकम् इति पा० ।" ↩︎
-
" जलप्लुतम् इति पा० ।" ↩︎
-
" माक्षिकेण लिहेच्चूर्णमूरुस्तम्भविनाशनम् ह.।" ↩︎
-
" सरलो दारु कुष्ठं च ह. ।" ↩︎
-
" करञ्जात् सफलत्वचम्’ हृ.।" ↩︎
-
" ‘बिल्वचम्पकतर्कारिशिग्रुमूलकनीपजैः इति पा० ।" ↩︎
-
" गन्धाः सुरसशिग्रूणि कुष्ठं तुम्बरुवत्सकौ इति पा० ।" ↩︎
-
" सुरसासने इति सपुनर्नवे इति च पा० ।" ↩︎
-
" सह्येषु ह. ।" ↩︎
-
" यद्यत् कफप्रशमनं न च इति पा० ।" ↩︎
-
" सलिङ्गं प्राग्रूपं ह. ।" ↩︎
-
" नाभ्यूरु इति पा० ।" ↩︎
-
" ‘शीघ्रयानातिसेवनात् इति पा० ।" ↩︎
-
" °संश्रयान् इति पा० ।" ↩︎
-
" पाणिपृष्ठकटिग्रहः ह. ।" ↩︎
-
" ‘गात्रदूयनमीरणम् इति पा०।" ↩︎
-
" स्तिमितमत्यर्थं इति पा०।" ↩︎
-
" मन्दशोथरुजं गात्रं इति पा०।" ↩︎
-
" व्रजत्यस्य ह.।" ↩︎
-
" कलेत्यव्यक्ता इति चक्रः। ऽबला इति पा०।" ↩︎
-
" दर्शनं इति पा०। " ↩︎
-
" शिरोरुजा ह.। " ↩︎
-
" हियते ह.। " ↩︎
-
" हनू इति पा०." ↩︎
-
" हनुं इति पा०।" ↩︎
-
" स्तम्भयतेऽनिलः ह.।" ↩︎
-
" वेगगतेऽनिले ह.।" ↩︎
-
" चेष्टानिवृत्ति कुरुते ह.।" ↩︎
-
" स्फुरते ह.।" ↩︎
-
" अस्याग्रे क्वचिद्वस्तलिखितपुस्तकेऽयं पाठोऽधिक उपलभ्यते—वातपित्तकफा देहे सर्वस्रोतोऽनुसारिणः। नानास्थानानुरूपेण ते प्रसिद्धिवशेन च। ज्ञायन्त इति न प्रोक्तं नखभेदादिलक्षणम्॥ सामान्येन तु निर्दिष्टमशेषाणां समासतः। उक्तानां वातरोगाणामनुक्तानां च लक्षणम्॥ रौक्ष्यलाघवजत्वादि सव्यासादि हि चापरम्। महावातविकाराणामिह लिङ्गमुदाहृतम्॥ वातामयानां क्षुद्राणां नाम्नि चोक्तं स्वलक्षणम्। यदङ्गमाविशेद्वायुः स तनैव हि संज्ञितः। यथा मन्याहनुस्तम्भपार्श्वपृष्ठत्रिकग्रहाः॥ ओषप्लोषादयोऽप्येवं व्यवहारप्रसिद्धितः। ज्ञेया लक्षणमैक्यात्तु केषांचिदभिधीयते॥ ओषः सर्वाङ्गको दाहस्तीव्रत्वेदारतिप्रदः। " ↩︎
-
" सूक्ष्मत्वाद्वायोस्तत्राप्युदीरणः इति पा०।" ↩︎
-
" प्रोक्तः ह.।" ↩︎
-
" स्पर्शमस्थ्यावृते इति पा०।" ↩︎
-
" मज्जावृते विनमति जृम्भते परिवेष्ट्यते। शूल्यते ह.।" ↩︎
-
" वर्चोवृते विबन्धः इति पा०।" ↩︎
-
" गात्रशोषो हनुस्तम्भः कुञ्चनं कौब्ज्यमर्दिंतम् । संधिच्युतिः पक्षवधः पाङ्गुल्यं खुडवातता ह. ।" ↩︎
-
" स्नेहार्द्रं ह. ।" ↩︎
-
" अयमर्धोश्लोको हस्तलिखितपुस्तकेषु न पठ्यते।" ↩︎
-
" क्षीरं ग.।" ↩︎
-
" पाचनैर्दीपनीयोक्तैरम्लैर्वा इति पा०।" ↩︎
-
" च विशुष्यताम् हृ.।" ↩︎
-
" ‘सक्तुकृतोऽभ्यङ्गः’ इति पा० ।" ↩︎
-
" ग्राम्यानूपपलैर्हिताः ह. ।" ↩︎
-
" कण्डराङ्गुल्योः इति पा० ।" ↩︎
-
" विवृतास्ये हनुं स्निग्धं इति पा० ।" ↩︎
-
" स्निग्धं स्विन्नं च नामयेत् इति पा० ।" ↩︎
-
" °पानाभ्यञ्जनबस्तयः ह.।" ↩︎
-
" क्षाराम्बुना ह. ।" ↩︎
-
" ग्राम्यानूपौदकानां इति पा० ।" ↩︎
-
" नस्ये पाने च ह. ।" ↩︎
-
" °रसांस्तैलं ह ।" ↩︎
-
" कल्कीकृत्य इति पा० ।" ↩︎
-
" सम्यगेतं (नं ↩︎
-
" समूलपत्रां निर्गुण्डीं पीढयित्वा रसेन तु ह.। " ↩︎
-
" नाडीकुष्ठानिलातिनुत् इति पा०।" ↩︎
-
" श्वादंष्ट्रायाः कषायस्य द्वौ प्रस्थौ पयसा समौ ह.।" ↩︎
-
" अमृतायास्तुलाः पञ्च ह.।" ↩︎
-
" चला सिह्लकः , एला° इति पा०।" ↩︎
-
" एष कल्पोऽश्वगन्धायाः प्रसारण्या बलाह्वयाः इति पा०।" ↩︎
-
" बलाशिग्रुकसैधवैः इति पा०।" ↩︎
-
" °चित्रकैः इति पा०।" ↩︎
-
" चित्रकात्साश्वगन्धाच्च इति पा० ।" ↩︎
-
" एतन्मूलकतैलाग्र्यं इति पा० ।" ↩︎
-
" ऋतुस्नातां तथा नारीं तैलान्येतानि पाययेत् इति पा० ।" ↩︎
-
" तु पाययेत् इति पा० ।" ↩︎
-
" पुराणसर्पिस्तैलं च ह. । " ↩︎
-
" मत्वा इति पा० ।" ↩︎
-
" कारयेद्रक्तसंसृष्टे ह.।" ↩︎
-
" मूत्रावृते मूत्रलानि इति पा०।" ↩︎
-
" एरण्डतैलं वर्चःस्थे स्निग्धोदावर्तवत् क्रिया ह.।" ↩︎
-
" वृणोत्यपानादीन् इति पा०।" ↩︎
-
" उदानेनावृतेऽपाने इति लङ्घनेनावृतेऽपाने इतिच पा०।" ↩︎
-
" मोहोऽतिसारोऽग्निवधः इति, मोहोऽग्निसादोऽतीसारः इति च पा०।" ↩︎
-
" स्वेदोऽग्निनाशः स्तब्धत्वं इति पा०।" ↩︎
-
" वाऽऽवरणं मतम् इति पा०।" ↩︎
-
" भूयो बुधानां इति पा०।" ↩︎
-
" °नस्यपानादि सर्वशः इति पा०।" ↩︎
-
" श्वासश्चाप्युदाने इति पा०।" ↩︎
-
" चारुचिरेव च इति, मूर्च्छायोऽरतिरेव च इति च पा०।" ↩︎
-
" पर्वसंध्यस्थिवाग्ग्रहः ह.।" ↩︎
-
“तथा वमिः ह.। " ↩︎
-
" संवृतं ह.।” ↩︎
-
" वातेन इति पा०। च. २४" ↩︎
-
" ‘मारुतस्याविरोधिभिः इति पा०।" ↩︎
-
" मुमुह्यति कर्मवित् ह.।" ↩︎
-
" मिथ्याहारविहारिणाम् इति मिष्टान्नसुखभोजिनाम् इति च पा०।" ↩︎
-
" जायते ह.। अयमर्धश्लोकः क्वचित्पुस्तके न पठ्यते।" ↩︎
-
" सौक्ष्म्यात् सर्वसरत्वाच्च देहं गच्छन् सिरायनैः इति पा०।" ↩︎
-
“अयं श्लोको हस्तलिखितपुस्तकेषु न पठ्यते।” ↩︎
-
" सिरापथैः इति पा०।" ↩︎
-
" क्रुद्धं ह.।" ↩︎
-
" अयमर्धश्लोको हस्तलिखितपुस्तकेषु न पठ्यते ।" ↩︎
-
" तथोच्यते इति पा० ।" ↩︎
-
" यद्यत्तच्छृणु ह.।" ↩︎
-
" °श्चानिलेऽधिके हृ. ।" ↩︎
-
" शोफश्चोक्तानि ह.।" ↩︎
-
" तु यस्य ह.।" ↩︎
-
" °पाण्डुत्व° ह.।" ↩︎
-
" शृङ्गैस्तुम्बैश्च मतिमान् कण्डूचिमिचिमाहतम् इति पा०।" ↩︎
-
" अङ्गेम्लाने न तु स्राव्यं रूक्षं वातोत्तरं च यत् इति पा०।" ↩︎
-
" चातीव सेचितम् ह.।" ↩︎
-
" स्पष्टं ।" ↩︎
-
" °दाहनाशनम् ग.।" ↩︎
-
" त्रायन्तिका चामलकी द्विकाकोली च पिप्पली। दत्त्वा परूपकद्राक्षाकाश्मर्येक्षुरसं समम् इति पा०।" ↩︎
-
" पृथग्रसं विदार्याश्च ह.।" ↩︎
-
" शङ्खपुष्पीं शताह्वां च ह.।" ↩︎
-
" पृथग्द्विपिलिकान् भागान इति पा०।" ↩︎
-
" बदराक्षोट° इति पा० ।" ↩︎
-
" भक्ष्ये युञ्ज्याच्चङ्कमतः सदा ह." ↩︎
-
" कुर्यात् कषायं कल्कं च ताभ्यां तैलं घृतं पचेत ह.।" ↩︎
-
" क्षीरद्विगुणा ह. ।" ↩︎
-
" पयसा ह.।" ↩︎
-
" कषायमृतानां ग.।" ↩︎
-
" मधुपर्ण्याः पलशतं ग. मधुयष्टयाः पलशतं ह.। " ↩︎
-
" प्रपौण्डरीकमधुक° ह.। " ↩︎
-
" लवलीं° ह।" ↩︎
-
“‘सर्वाङ्गैकाङ्गजे वाते तैलमेतत् प्रशस्यते ह.।” ↩︎
-
" खञ्जपङ्गुताम् ह.।" ↩︎
-
" त्रिदोषे स्याद्वातास्रे श्वासकासनुत् ह.।" ↩︎
-
" बिम्बीमूलं च वेतसम् ह ।" ↩︎
-
" °मुस्तकोशीरपद्मकैः ह. ।" ↩︎
-
" °शताह्वावरुणच्छदान् ह.। " ↩︎
-
" दद्याच्चात्रावतारिते इति पा०।" ↩︎
-
" द्वे हरिद्रावचाऽगारधूमकुष्ठशताह्विकाः ह.।" ↩︎
-
" लिप्तमल्पं च सिद्धं वातकफोत्तरे ह.। " ↩︎
-
" लाङ्गलिकीं ह.।" ↩︎
-
" लिप्त्वाऽऽयसीं पात्रीं ह.।" ↩︎
-
" मध्वरिष्टसुरासवैः इति पा०।" ↩︎
-
" पश्चाद्वातक्रियां कर्याद्या च रक्तप्रसादनी ह.। " ↩︎
-
" स्याच्चेत्तद्वातवज्जयेत ह.।" ↩︎
-
" प्रायश्च ह.।" ↩︎
-
" दिव्य चित्रौषधिमते चित्रधातुशिलातले ह.।" ↩︎
-
" प्रोवाच हितकाम्यया ह.।" ↩︎
-
" सुप्तिमायामं ह.।" ↩︎
-
" दूषयते ह.।" ↩︎
-
“‘कण्डूग्रस्तामवेदनाम् ह.।” ↩︎
-
" बीजेऽपि साऽप्रजा इति पा०।" ↩︎
-
" पृष्ठजङ्घोरुवंक्षणम् ह.।" ↩︎
-
" शूनाऽस्पर्शा सदाहार्तिः ह.।" ↩︎
-
" सार्ती रूक्षफेनास्रवाहिनी ह.।" ↩︎
-
" यास्तासामाद्ये इति पा०।" ↩︎
-
" निःसृतां संप्रवेशयेत्। व्यधयेत् संवृतां चैव ह.।" ↩︎
-
" घृततैलाढकं पचेत् ह.।" ↩︎
-
" पचेत्।घृतं पिबेद्बातयोनिदोषनुद्गर्मदं ह.।" ↩︎
-
" सर्पिषि भृष्टानि पाययेत प्रसन्नया ह.।" ↩︎
-
" पिप्पल्यौ कुञ्चिके तथा ह.।" ↩︎
-
" वातलानां च योनीनां सेकाभ्यङ्गपिचुक्रियाः। वातार्तायां पिचुं दद्याद्योनौ च प्रणयेत्ततः इति पा०।" ↩︎
-
“अयमर्धश्लोको हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते। " ↩︎
-
" तैलघृताढकम् इति पा०।” ↩︎
-
" पिष्टैःप्रियालैश्चाक्षांशैः ह.।" ↩︎
-
" उन्मादायामसंन्यासान् इति पा०।" ↩︎
-
" माषचूर्णं इति पा०। " ↩︎
-
" जिङ्गिनीधूकमूलानां इति पा०।" ↩︎
-
" शर्करातैलयष्ट्याह्वनागरैर्वा इति पा०।" ↩︎
-
" कालीयकाम्बुजम्। सपयःशर्कराक्षौद्रं पैत्तिकेऽसृग्दरे पिबेत् इति पा०।" ↩︎
-
“‘पद्मकेशरम् ग.।” ↩︎
-
" माचिकां’ ह.।" ↩︎
-
" सर्वं चैवास्रपित्तजित् ह.।" ↩︎
-
" दध्यम्लफलसर्पिषा इति पा०।" ↩︎
-
" स्नेहैर्द्रवैः इति पा०।" ↩︎
-
" वसा दक्षवराहाणां इति पा०।" ↩︎
-
" संप्रवेश्य महायोनौ ह.।" ↩︎
-
" सर्वव्यापत्स्वनन्ते हि वाताद्योनिः प्रदुष्यति इति पा०।" ↩︎
-
" स्यात्तैलं वा ह.।" ↩︎
-
" तद्ब्रूहि ह.।" ↩︎
-
" शस्त्रक्षाराग्निभिस्तथा ह.।" ↩︎
-
" पीतं मलिनं ह.।" ↩︎
-
" क्षयादपि इति पा०।" ↩︎
-
" वारिवाहि च ह.।" ↩︎
-
" ब्राह्ममामलकीयं च ह.।" ↩︎
-
" विरुद्धात्यल्पसंक्लिष्टविषमासात्म्यभोजनात् ग.।" ↩︎
-
" विरुद्धाध्यशनात् ह.।" ↩︎
-
" दीर्घलोम्नीं इति पा०। " ↩︎
-
" परिस्रुताम् इति पा०।" ↩︎
-
“‛नरस्य प्रमदां मोहादतिहर्षात् प्रगच्छतः इति पा०।” ↩︎
-
“अयमर्धश्लोको हस्तलिखितपुस्ते न पठ्यते।” ↩︎
-
" वलयं कुरुते चापि कठिनं च परिग्रहम् इति पा०।" ↩︎
-
" धातूनां संक्षयाद्वाऽपि ह.।" ↩︎
-
" अतिप्रचिन्तनात् इति पा०।" ↩︎
-
" ईष्योत्कण्ठामनःक्षोभान् समाविशति इति पा०।" ↩︎
-
" अन्वासनं इति पा०।" ↩︎
-
" गुडम् ह.।" ↩︎
-
" रक्तं प्रमाणादधिकं पूर्वं च कुपितोऽनिलः। रजोवहाः समाश्रित्य वर्धयत्याशु तद्रजः॥ तस्मादसृग्दरं प्राहुः इति पा०।" ↩︎
-
“अयं श्लोको हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते।” ↩︎
-
" प्रत्यनीकगुणं ह.।" ↩︎
-
" शीतं ह.।" ↩︎
-
" अभिचारादनायासाद् व्याधिभिःकर्शनेन च ह.।" ↩︎
-
" क्षीराशयाः प्राप्य सिराः इति च पा०।" ↩︎
-
" न चास्मै ह.।" ↩︎
-
" तत्तु , तनु इति च ह.।" ↩︎
-
" निद्रालस्यसमन्वितः इति पा०।" ↩︎
-
" अतिस्नेहान्वितं पीत्वा ह.।" ↩︎
-
" पुन ह.।" ↩︎
-
" दोषविशेषघ्नैः ह.।" ↩︎
-
" शाकाश्च स्नेहसंयुताः ग.।" ↩︎
-
" कटुरोहिणीम् इति पा०।" ↩︎
-
" धान्यनागर ह.।" ↩︎
-
" निर्दोग्धव्यौ ह.।" ↩︎
-
" यवाम्बुचन्दनोशीरैः इति पा०।" ↩︎
-
" यदुक्तं गुदजापहम् इति पा०।" ↩︎
-
" पाठा इति पा०।" ↩︎
-
" ये तथाऽऽमयाः इति पा०। दोषा दूष्या मलाश्चैव महान्तो व्याधयश्च ये ह.॥" ↩︎
-
" त एव ज्ञेया बालानां विना बालग्रहान् बुधैः ह.।" ↩︎
-
“‘प्रविभज्य इति पा०।” ↩︎
-
" अधस्ताद्गुदतो दत्तं हन्त्याशुतरमौषधम् ह.।" ↩︎
-
" यथावस्थं इति यथादेशं इति यथादेहं इति च पा०। " ↩︎
-
" प्रातराशं तदुदाने इति प्रातरशितमुदाने इति च पा०।" ↩︎
-
" स्याद्धि दोषवदन्यथा ह.।" ↩︎
-
“एतच्छ्लोकद्वयं हस्तलिखित पुस्तके न पठ्यते।” ↩︎
-
" ऋत्वहोरात्रनियमा इति पा०।" ↩︎
-
" क्षारसात्म्यास्तथा प्राच्या मत्स्यसात्म्याश्च सैन्धवाः इति पा०।" ↩︎
-
" अश्मकानर्तकानां इति पा०।" ↩︎
-
" शाकमूलफलं इति पा०।" ↩︎
-
" मण्डः ग.।" ↩︎
-
" देशज्ञो नापराध्यति इति पा०।" ↩︎
-
" पित्तमन्तर्गतं गूढं इति पा०।" ↩︎
-
" ते इति पा० ।" ↩︎
-
" दोषे इति पा०।" ↩︎
-
" वाऽनुकूलत्वात् ग.।" ↩︎
-
" देशादिगुणयोग्यश्च ह।" ↩︎
-
" वमनविरेचनार्थं इति हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते। " ↩︎
-
" कल्पनार्थी भेदार्थे विभागार्थे चेत्यर्थः च।" ↩︎
-
" परिप्लवः इति पा०। परिप्लवन् इतस्ततो गच्छन्’ चक्रः।" ↩︎
-
“‘अणुत्वात् प्रवणभावाच्च अणुत्वमणुमार्गसंचारित्वं, प्रवणत्वमिह कोष्ठगमनोन्मुखत्वम् चक्रः” ↩︎
-
" ग्रहणादुपलम्भात् चक्रः। “प्रभावग्रहणानां ह ।" ↩︎
-
" रोगावस्थादिनानात्मत्वाच्च ह.।" ↩︎
-
" वातपित्तबहुलः इति पा०।" ↩︎
-
" सभा जनमेलकस्थानं चक्रः।" ↩︎
-
" प्रत्यग्राणीति संपूर्णगुणतया निष्पन्नानि चक्रः।" ↩︎
-
" चानुरूपगुणवद्भाजनस्थान्यागारेषु ह.।" ↩︎
-
" द्रव्यदेहदोषसात्म्यादीनि इति पा०।" ↩︎
-
“उद्देशः संक्षेपाभिधानम्। " ↩︎
-
" वमनद्रव्यान्तरापेक्षाऽल्पव्यापत्तिकरत्वात् चक्रः।” ↩︎
-
" अन्तरा पुष्येऽश्वयुजि मृगशिरसि वा ह.।" ↩︎
-
" प्रमृज्य कुशमूलैर्बध्वा इति पा०।" ↩︎
-
" पलानामिति राशीनाम् चक्रः; मुद्गपर्णानां इति पा०।" ↩︎
-
" पिप्पलीरिति मदनफलमध्यगतानि पिप्पलीसंस्थानानि बीजानि चक्रः। फलानां पिप्पलीरुद्धरेत् इति पा०।" ↩︎
-
" अवसृज्य ह.।" ↩︎
-
" फलपिप्पलीक्षीरजातस्य चक्रः।" ↩︎
-
" उत्तरकं सरः चक्रः।" ↩︎
-
" फलादीनि फलजीमूतकेक्ष्वाकुधामार्गवकुटजकृतवेधनानि षट् चक्रः।" ↩︎
-
" हरिद्राभिधानः कृशरो हरिद्राकृशरः चक्रः। " ↩︎
-
" फलादीनां च.।" ↩︎
-
" फलादिकषायोपसर्जनाः च.।." ↩︎
-
" यूषमद्यानि मदनफलफाणितेनोपसंसृज्य ह.।" ↩︎
-
" वर्तिस्वष्टौ इति पा०।" ↩︎
-
" हिक्काद्येष्वामयेषु च’ ह.।" ↩︎
-
" निर्वृत्ते इति उत्पन्नमात्रे फले’ चक्रः। ‘पयः पुष्पेषु निर्वृत्तं’ इति पा०।" ↩︎
-
" गुडूच्यामलकस्य वा इति पा०।" ↩︎
-
" एकैकशः हृ.।" ↩︎
-
" मात्राः स्युः च.।" ↩︎
-
“अयं श्लोको हस्तलिखित पुस्तके न पठ्यते।” ↩︎
-
" मदिरायोगे ह.।" ↩︎
-
" ते ह.।" ↩︎
-
" लम्वा पिण्डफला तुम्बी कटुकालाबुकी च सा ह.।" ↩︎
-
" जीर्णं मध्योद्धृतं क्षीरे इति पा०।" ↩︎
-
" भावितानि प्रयोजयेत् ह.। " ↩︎
-
" फलादीनां ह.। " ↩︎
-
" वर्तयः ग.।" ↩︎
-
" स्त्रयस्त्रिकटुकस्य च ह.।" ↩︎
-
" काले ह.।" ↩︎
-
" शोफे ह.।" ↩︎
-
" मन्थे रसे तथा ह.।" ↩︎
-
" कोठफला हं.।" ↩︎
-
" रोगेष्वेतत् ह.।" ↩︎
-
" पिबेद्गोकशतो रसे।पृषतर्ष्यकुरङ्गाश्वगजोष्ट्राश्वतराविके। श्वदंष्ट्रखरखङ्गानां इति पा०।" ↩︎
-
" पुनर्नवाकासमर्दबिम्बीहैमवतस्य च। महासहाक्षुद्रसहावृश्चीराणां पृथक् पृथक् इति पा०।" ↩︎
-
“‘निबोधेमं’ ह.।” ↩︎
-
“‘सितैः पुष्पैः ह.।” ↩︎
-
" फलपुष्पैः ह.।" ↩︎
-
" निक्षिपेत् ह.। " ↩︎
-
" तेमयेत् इति तेपयेत् इति च पा०।" ↩︎
-
" जीमूतककषायेण’ ह.।" ↩︎
-
" कृशराऽष्टादशयोगा वत्सकस्य निदर्शिताः’ह.।" ↩︎
-
" जाली ह·।" ↩︎
-
" बीजानामेकं ह.।" ↩︎
-
" रसं तं च कृत्वा लेहं, इति, रसं तस्य पक्त्वा लेहं इति च पा०।" ↩︎
-
" फलाद्यर्धांशसंयुतम् ह.।" ↩︎
-
“शाल्मलीमूलमादि येषां ते शाल्मलीमूलाःशाल्मल्यादयो विमानपठिता दश ( वि. स्था. अ. ८ ↩︎
-
" वर्तयः फलवत् षट् स्युः ह.।” ↩︎
-
" कषायैः कोविदाराद्यैरष्टाभिस्तं पृथक् पिबेत् ह.।" ↩︎
-
" क्ष्वेडरसं इति पा०।" ↩︎
-
" महर्षयः ह.।" ↩︎
-
" चैव श्यामा कूटरर्णा तथा इति पा०।" ↩︎
-
" त्रिवृत् सर्वानुभूतिश्च च.।" ↩︎
-
" कल्पवैशेष्यमासाद्य’ ह.।" ↩︎
-
" तयोः श्रेष्ठतरं ह.।" ↩︎
-
" क्षिण्वीत मूर्च्छयेत् च। क्षिण्वीत धातुक्षयं कुर्यात् चक्रः।" ↩︎
-
“‛गृहीत्वा विसृजेत्काष्ठं ग.।” ↩︎
-
" सैन्धवादयश्च द्वादश रोगभिषग्जितीये लवणस्कन्धोक्ता ज्ञेयाः चक्रः। " ↩︎
-
" त्रिवृत्रिगुणसंयुक्तं ह.।" ↩︎
-
" क्षुद्रां इति चित्रां इति च पा०।" ↩︎
-
" दद्याच्छीते ह.।" ↩︎
-
" लिह्यात्तं मात्रया लेहं ह.। " ↩︎
-
" रसान् कौडविकान् ह.।" ↩︎
-
““मेतच्छ्रेष्ठं विरेचनम्’ ह.।” ↩︎
-
““मलकान् समान्।त्रिवृतोऽष्टगुणं भागं ह.।” ↩︎
-
“‘श्रेष्ठं विरेचनम्’ ह.।” ↩︎
-
“‘पथ्याधात्र्युरुवूकाणां प्रसृतौ द्वौ त्रिवृत्पलम् ह.।” ↩︎
-
" समृद्रीकारसक्षौद्रं ह.।" ↩︎
-
" हपुषां सप्तलां श्यामां द्रवन्तीं कटुरोहिणीम् ह.।" ↩︎
-
" पिबेदेतत् सर्वकालं ह.। " ↩︎
-
" जले द्रोणे त्रिवृन्मुष्टीनष्टौ तु सनखान् पचेत् ह.।" ↩︎
-
" मधुना इति पा०।" ↩︎
-
" त्रिवृताकिण्वां पिबेत्तत्काथसंयुताम् ह.।" ↩︎
-
““नम्लं च इति पा० ।” ↩︎
-
" फलकाले फलं तस्य ग्राह्यं परिणतं च यत् ह.। " ↩︎
-
" भारं च.।" ↩︎
-
" मज्जानमिति फलमज्जानम् चक्रः।" ↩︎
-
" त्रिवृन्मज्ज्ञोस्तथा कल्कं तत्कषायेण वा पिबेत् इति पा०।" ↩︎
-
" पानमम्लं ह.।" ↩︎
-
" सौवीरकेऽथ त्रिवृतः कषाये तिल्वकस्य च इति सौवीरके कषायाभ्यां बिल्वशम्पाकयोस्तथा इति च पा०।" ↩︎
-
" श्चोतयेदिति षड्गुणद्रवेणैकविंशतिवारान् स्रावयेदित्यर्थः चक्रः। " ↩︎
-
" कषाये भावितं पुनः इ.।" ↩︎
-
" स्निग्धस्विन्ने प्रदापयेत् हं ।" ↩︎
-
" मरुजा भृष्टयवाः चक्रः " ↩︎
-
" मद्यपानाद्विरेचनम् ह.।" ↩︎
-
" कम्पिलककषायेण इति पा०।" ↩︎
-
" उपक्रममार्गान्तरे सति सुधा न प्रयोक्तव्या, तेन गत्यन्तरासंभव एव सुधा प्रयोक्तव्येत्यर्थः चक्रः। चान्यपरिक्रमे इति पा० " ↩︎
-
" नुदति ह. ।" ↩︎
-
" तौ ह. ।" ↩︎
-
“‘फलत्रिकम्’ ह॰ ।” ↩︎
-
" गोमूत्रे रजनीं कृत्वा इ.।" ↩︎
-
" समाघ्राय ह.।" ↩︎
-
" तिक्तका ज्ञेया इति तिक्तनाला च इति च पा० ।" ↩︎
-
" हृद्रोगकफवातार्ते ह. ।" ↩︎
-
" सन्धाय इति पा० ।" ↩︎
-
" नीली चूर्णस्य चापरः ह. । " ↩︎
-
" प्रत्यक्त्पर्ण्याःः इति पा० ।" ↩︎
-
“‘साधयेध्द्घृतम् ह. ।” ↩︎
-
“‘पूर्ववत्’ ह.।” ↩︎
-
" यथाक्रमं दन्त्याः श्यावानि, द्रवन्त्यास्ताम्राणि चक्रः। " ↩︎
-
" शोषयेदातपेऽर्कांग्नि इति पा०।" ↩︎
-
" दोषैरभिष्यण्णश्च ह.।" ↩︎
-
" विसर्पाजलजीकक्ष्यासु ह.।" ↩︎
-
" देयः संतापमेहनुत्’ ह. ।" ↩︎
-
" ‘मांसं यूषांश्च’ ह.।" ↩︎
-
" दन्तीकषायैर्लुलितान् ह.।" ↩︎
-
" चूर्णं ह ।" ↩︎
-
" गण्डमालासु वाते च ह.।" ↩︎
-
“‘पिबेच्छेषान् ह.।” ↩︎
-
" कण्डूकोठानिलापहाः ह. । " ↩︎
-
" द्राक्षार्धप्रस्थसाधितः ह. ।" ↩︎
-
“एतच्छोकत्रयं हस्तलिखितपुस्तके न पठ्यते।” ↩︎
-
“एतच्छ्लोकचतुष्टयं हस्तलिखित पुस्तके न पठ्यते ।” ↩︎
-
" स योगो वै भवतीति विनिश्चयः ह.।" ↩︎
-
" वमनार्थीय ह.।" ↩︎
-
" बलं त्रिविधमालक्ष्य ह.।" ↩︎
-
“सरैर्भोज्यैः ह.।” ↩︎
-
" विशुद्धस्य प्रमाणतः इति पा०।" ↩︎
-
" विबद्धेऽल्पे ह.।" ↩︎
-
" साङ्गशूलं च इति पा० ।" ↩︎
-
" सुविरिक्ते तु ह.।" ↩︎
-
" विरूक्षानाहयोर्जीर्णे ह.।" ↩︎
-
" संयावोऽत्र समघृतगुडगोधूमकृतपिण्ड उच्यते चक्रः।" ↩︎
-
" पृथग्यत्तु प्रवर्तनम् ह.।" ↩︎
-
" दर्शितः ह.।" ↩︎
-
" बस्ति ह.।" ↩︎
-
" साध्या यथास्वं शमनैश्च केचित् कस्माद्दा न प्रशमं व्रजन्ति । इत्यग्निवेशो भिषजां वरिष्ठं प्रपच्छ तस्मै स च सर्वमाई ह.।" ↩︎
-
" मृदूकरोति ह.।" ↩︎
-
“प्रसृष्टं ह।” ↩︎
-
“‘विरेचयेत्’ ह.।” ↩︎
-
“‘स्निग्धस्य च स्विन्नवतश्च कार्य विरेचनं योग्यतमं ततश्च।पेयां विलेपीमकृतं इत्यादि पा०।” ↩︎
-
" विदध्यात् हृ.।" ↩︎
-
" सर्वपचस्तथैव ह.।" ↩︎
-
" तथोर्ध्वमधः इति पा०।" ↩︎
-
" स्त्रेदोऽल्पवह्निर्गुरुगात्रता च इति पा० ।" ↩︎
-
" प्रत्यागते मांसरसेन भोज्यः सायं च भुक्तोऽल्पमलोऽनुवास्यः ह ।" ↩︎
-
“प्रत्यागते चाप्युषितस्य काले भोज्यं दिवा सायमतः परं तु । द्व्यहे त्र्यहे वाऽह्वथथ पञ्चमे वा दद्यान्निरूहादनुवासनं तु इति पा० ।” ↩︎
-
" दार्ढ्यावहः ह.।" ↩︎
-
" मर्मोर्ध्वमर्वावयवाङ्गगाश्च इति पा०।" ↩︎
-
“‘पृष्ठम्’ ग.।” ↩︎
-
" वर्चः ग।" ↩︎
-
" नाभिप्रदेशं कटिकुक्षिपार्श्वं गत्वा शकृद्दोषचयं विलोड्य । संसेह्य कायं सपुरीषदोषः सम्यक् सुखेनैति च यः स बस्तिः इति पा०।" ↩︎
-
" ‘स्याद्धृच्छिरोरुग्गुदकुक्षिलिङ्गे शोथः प्रतिश्याय विकर्तिके च इति पा०।" ↩︎
-
" हृल्लासिका मारुतमूत्रसंगः इति पा०।" ↩︎
-
" कर्म न च।" ↩︎
-
" उरःशिरोलाघवमिन्द्रियाच्छ्यं इति पा०।" ↩︎
-
" वैद्यविदग्धश्च इति पा०।" ↩︎
-
" कार्याकार्यं ह ।" ↩︎
-
" अवम्यास्तावत् इति पा०।" ↩︎
-
" अन्तःकोष्ठे जनयन्त्यन्तर्विसर्पं स्तम्भं इति पा० ।" ↩︎
-
" शीघ्रतरकारित्वाद्दोषाणां ह.।" ↩︎
-
" दुर्नाम इति हस्तलिखित पुस्तके न पठ्यते ।" ↩︎
-
" आधमतो वा ।" ↩︎
-
" नेत्रनासिकास्यस्रवण इति पा०।" ↩︎
-
" रजःक्षयानार्तव इति पा०।" ↩︎
-
" बाह्वङ्गुलितलांसदन्त ह.।" ↩︎
-
" ऽक्षिरोगनाड्यर्बुद ह.।" ↩︎
-
" गद्गदकथनादयः इति गद्गदकुथनादयः इति च पा० । " ↩︎
-
" न चैतदेवं इति पा०।" ↩︎
-
" न चैकान्तेन निर्दिष्टेऽप्यर्थेऽभिनिविशेद्बुधः च।" ↩︎
-
" भिषजा ह.।" ↩︎
-
" स्यादकार्यं कार्यमेव च ह.।" ↩︎
-
" बस्तिकर्मीयां इति पा०।" ↩︎
-
“केभ्यश्च ह. ।” ↩︎
-
" निरूहकर्म इति पा० । " ↩︎
-
““कांस्यास्थिशस्त्रद्रुमवेणुदन्तैः” इति, “कांस्यायसास्थिद्रुमवेणुदन्तैः” ↩︎
-
" नेत्राणि शृङ्गैर्मणिभिर्नलैश्च त्रिकर्णिकानि प्रवदन्ति तज्ज्ञाः इति पा० ।" ↩︎
-
" सुबद्धः इति पा० ।" ↩︎
-
" बस्तेरलामे इति पा० ।" ↩︎
-
“अयमर्धश्लोको हस्तलिखित पुस्तके न पठ्यते ।” ↩︎
-
" उपाचरेत्तम् इति पा० ।" ↩︎
-
" वेषन्नतमस्तके ह.।" ↩︎
-
" संकोच्य इति पा० ।" ↩︎
-
" वामं ह.।" ↩︎
-
" तत्तत् प्रकल्पयेत् इति पा०।" ↩︎
-
“अयमर्धश्लोकः क्वचित्पुस्तके न पठ्यते ।” ↩︎
-
" प्रस्थरसश्च इति पा०।" ↩︎
-
" बस्तिः इति पा० ।" ↩︎
-
" पलाशा च। पलाशा शटी इति चक्रः।" ↩︎
-
" पथ्या इति पा०।" ↩︎
-
" बला च इति पा०।" ↩︎
-
" त्रिकबस्तिशूलं ह.।" ↩︎
-
" वचामागधिकापलाभ्यां इति पा०।" ↩︎
-
" तथा विदारीक्षुरसैर्गुडेन इति पा०।" ↩︎
-
" संप्रणष्टे इति पा०।" ↩︎
-
" क्षौद्रस्यतैलस्य फलाह्वयस्य ह. ।" ↩︎
-
“क्वथितैर्जलेऽग्नौ इति पा०।” ↩︎
-
" फलानि इति पा० ।" ↩︎
-
" पयोजलब्ध्याढकपाचितं ग.। " ↩︎
-
““बिल्व” ह.।” ↩︎
-
“प्रसृतैस्त्रिभिश्च इति पा०।” ↩︎
-
" समांसः इति पा०।" ↩︎
-
" स्नेहव्यापत्सिद्धिं इति पा० " ↩︎
-
" निबोधेमान् इति पा०" ↩︎
-
" पुत्र्यं रेतोरजोदोषान् ह." ↩︎
-
" लतागौरीशताह्वाग्निशटीसौर राष्ट्रिपौकरैः ह." ↩︎
-
" न यात्यभिभवादपि इति पा०" ↩︎
-
" अङ्गमर्द ज्वराध्मानशीतस्तम्भोरुपीडनैः ह." ↩︎
-
““तृष्णा ह ।” ↩︎
-
" सर्वेणोदावर्तहरेण च इति पा०" ↩︎
-
" मुक्तस्नेहं इति पा०" ↩︎
-
" देयं" ↩︎
-
" उभयस्मात् समं गच्छन् वाय्वग्निदूषयेत् समम् इति पा० " ↩︎
-
" संस्नेयो इति पा० ।" ↩︎
-
" सर्वदोषजित् ह।" ↩︎
-
“स्नेह्यास्त्रयहाच्च ये ह ।” ↩︎
-
" नेत्रबस्तिव्यापत्सिद्धिं इति पा०।" ↩︎
-
“दोषांश्च स चिकित्सितान् इति पा० ।” ↩︎
-
“पार्श्वोच्छ्रितं इति पा०।” ↩︎
-
““स्तम्भोरुभेदनम् इति “ स्तम्भार्तिभेदनं इति च पा०।” ↩︎
-
" पुनर्नयेत् इति पा० ।" ↩︎
-
" उरःशिरोरुजः सादमूर्वोश्च ह.।" ↩︎
-
" स्यात्सार्तिदाहनिस्तोदगुदवर्चः प्रवर्तनम् इति पा०।" ↩︎
-
" न भावयति च., न च धावति ह.।" ↩︎
-
" संशोधनव्यापत्सिद्धिं इति पा०।" ↩︎
-
" अन्तरेषु प्रावृडाद्या ज्ञेयाः इति पा० ।" ↩︎
-
" विकल्प्याथ इति पा०।" ↩︎
-
" मन्तरे चान्तरे पुनः इति पा०।" ↩︎
-
" कुष्ठवीसर्पपिडका ह।" ↩︎
-
" प्रसिच्यते ह.।" ↩︎
-
" क्षारोत्क्लिष्टे यथा वस्त्रे मलः शुद्ध्यति वारिणा स्नेहस्वेदैस्तथोत्क्लिष्टो दोषः शुद्ध्यति शोधनैः हृ.।" ↩︎
-
" कामादीनशुभोदयान् इति पा० ।" ↩︎
-
" आ लाघवादणुत्वाच्च इति पा० ।" ↩︎
-
" जीर्णलिङ्गानि लक्षयेत् इति पा० ।" ↩︎
-
" यात्यग्निरणुतां इति पा० ।" ↩︎
-
" दाहोऽङ्गसदनं इति पा० ।" ↩︎
-
" मूर्च्छाऽरुचिस्तथा ह. ।" ↩︎
-
" पीतं स्वल्पकफेन ग ।" ↩︎
-
" स्थिरं संक्षुभितं ग.।" ↩︎
-
" याति दोषो नवाऽल्पशः इति पा० ।" ↩︎
-
" क्रूरकोष्ठं विरेचनम् इति पा० ।" ↩︎
-
" अस्निग्धस्विन्नदेहस्य ह.।" ↩︎
-
" ना वहेत ह.।" ↩︎
-
" अयमर्ध श्लोकः क्वचित्पुस्तके न पठ्यते ।" ↩︎
-
" भ्रमं है.।" ↩︎
-
“पिच्छाबस्तिश्च शस्यते ग.।” ↩︎
-
" कफहरैर्मन्थं इति पा० ।" ↩︎
-
" तन्वी दद्याद्यवागूं च इति पा०।" ↩︎
-
“शीतं इति पा०।” ↩︎
-
" परिस्रावगतं दोष इति पा०।" ↩︎
-
" हिक्कापार्श्वरुजाकार्श्य इति पा०।" ↩︎
-
" क्रमेणोत्थापयेत्ततः इति पा०।" ↩︎
-
" रुद्धोऽतीव विशुद्धस्य ह.।" ↩︎
-
" सादोद्वेष्टनमन्थनैः ह.।" ↩︎
-
" भुक्ते तच्चेद्वदेज्जीवमभुक्ते इति पा० ।" ↩︎
-
“आवानं शुष्कम् ।” ↩︎
-
" दद्याल्लङ्घनपाचनम् इति पा०।" ↩︎
-
" मृदुकोष्ठस्य इति, रिक्तकोष्ठस्य इति च पा० ।" ↩︎
-
" काले सिद्धं ह.।" ↩︎
-
" विरेचनस्याकुशलैर्दत्तस्य वमनस्यधीमान् विज्ञाय तास्तस्मा ” इति पा० ।" ↩︎
-
“‘बस्तिव्यापत्सिद्धिं ह·।” ↩︎
-
" सुरामूत्रादिना ह.।" ↩︎
-
" मधुकं बलाम् इति पा०।" ↩︎
-
" आमशेषे इति पा० ।" ↩︎
-
" केशेष्वालम्ब्य चाकेशं हृ.।" ↩︎
-
" भीतस्याधः प्रवर्तते इति पा० ।" ↩︎
-
" स बस्तिपायुशोथेन जङ्घोरुसदनेन च इति पा० ।" ↩︎
-
" विरेचनैर्निरूहैश्च बस्तिभिश्चानुलोमिकैः इति पा० ।" ↩︎
-
" बस्तिनिर्लेखनात् च.।" ↩︎
-
" बस्तिलिखति पायुं तु इति पा० ।" ↩︎
-
" सार्यते बहुवेगेन इति पा० ।" ↩︎
-
" शोधनान् ह. ।" ↩︎
-
" प्रसतौ हपुषाख्याच्च इनि पा० ।" ↩︎
-
“१ कल्कः स्यान्मूत्रकृच्छ्रे तु सानाहे बस्तिरुत्तमः ह. " ↩︎
-
" प्रसृतेनैव ह.” ↩︎
-
" गदा दाहादयो यदि इति पा०" ↩︎
-
" द्राक्षादिना ग." ↩︎
-
" मध्वथवा ह" ↩︎
-
" सामं चेत् कुणपं शूलैरुपविशेदरोचकी च" ↩︎
-
" धनातिविषाकुष्ठनतदारुवचाः ग." ↩︎
-
" पकं तत्र इति पा०" ↩︎
-
" वमनं कार्य इति पा० "
↩︎ -
॑# “‘सव्योषस्वादुतिक्तकम् ग. " ↩︎
-
" विडूपित्ताभ्यां ह” ↩︎
-
॑# " पित्ते इति पा०" ↩︎
-
“‘त्रिचतुःपञ्चषड्योगान्’ इति पा०” ↩︎
-
" ’ लाक्षां ’इति पा०" ↩︎
-
“वटोदुम्बर०’ ह .।” ↩︎
-
" वटादीनां० ह." ↩︎
-
" वाऽपि साधिताः इति पा०"
↩︎ -
" द्वन्द्वामजेष्वपि च इति पा० " ↩︎
-
" प्राणापानौ च" ↩︎
-
““°मूत्रवहानां ह. ।” ↩︎
-
" प्रतिष्ठा च." ↩︎
-
" तदुपतापात्तु ह. ।" ↩︎
-
“हिङ्गचर्णे लवणानामन्यतमचर्णसंयुतं मातुलुङ्गस्य इति पा० ।” ↩︎
-
॓॑॑॑॑# " आबाधवर्जनं इति पा० " ↩︎
-
" तास्विति चेतनावहासु धमनीषु इतिचक्रः" ↩︎
-
" तुम्बुरुण्यभया हिङ्गु इति पा०" ↩︎
-
" हृद्र हे चापतत्रके इतिपा०" ↩︎
-
" कृत्स्नशः शोधना न हिता इति वचनेन शोधनार्थेस्तोकनिरूहदानम् इति चक्रः। हितास्तस्य च कृत्स्नशः इति पा०" ↩︎
-
" श्रमात् इति पा०" ↩︎
-
" हन्यान्मूत्रोदराना हमाध्मानं गुदमेढ्र्योः ह." ↩︎
-
" कृच्छ्रं तदुच्यते ह. " ↩︎
-
" प्रवृद्धमूत्रावशेषेण स्थितेन गुरुशेफस इत्यर्थः इति चक्रः" ↩︎
-
" पीडितः संसृजेद्धारां इति पा०" ↩︎
-
" चावृते इति पा०" ↩︎
-
" हृन्मोहः श्वास एव च इति पा०" ↩︎
-
" जात्यश्वहनवृन्तेन इति पा०" ↩︎
-
“विसृष्टवर्चोमूत्रस्य हृ.” ↩︎
-
" हिंस्याद्वस्तिगतं इति पा०" ↩︎
-
“अयमर्धश्लोको हस्तलिखितपुस्तके न पठ्येत्।” ↩︎
-
“’यथास्वौषधमिश्रितम्’ ह.।” ↩︎
-
“’बस्तिश्चानन्तरो भवेत् ’ इति पा०। ’वर्तिः पीनतरा भवेदिति स्नेहप्रत्यागमानार्था वर्तिः पीनतरा कर्तव्या’ इति चक्रेः।” ↩︎
-
“शङ्खकोऽग्निनिभः क्षिप्रं विनाशयति मानवम्’ ह. ।” ↩︎
-
“’व्यहं जीवति भैषज्यं भैषज्यं’ ह.।परंत्र्यहाज्जीवति चेत् प्रत्याख्यायाचरेत् क्रियाम्’ च.।” ↩︎
-
" कुपितो नृणाम् इति पा० ।" ↩︎
-
“२ वाऽर्धेगृहीत्वा शिरसोऽनिलः इति पा० ।” ↩︎
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" रक्तं विष्यन्दयेच्छनैः इति पा०।" ↩︎
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" सा चाक्षिभ्रुशङ्खपु इति।" ↩︎
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" देहश्लेष्मविशोधनम् इति पा०।" ↩︎
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" कारयेत् ह" ↩︎
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॑# “हस्तलिखितपुस्तकेषु न पठ्यते” ↩︎
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" साकं यथा ह. । " ↩︎
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" शयायते इति पा० ।" ↩︎
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" कफविशोधनम् इति पा०" ↩︎
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" षडङ्गुल्याऽथवा ह·" ↩︎
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" स्त्याने स्नेहपीतेऽनुवासिते इति पा० । पा० ।" ↩︎
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" नावनं स्मृतम् इति पा० ।" ↩︎
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" तांस्तान् ह. ।" ↩︎
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““ कोष्ठाबाधा ह. । " ↩︎
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““लवणाश्च कफवाते ह. ।” ↩︎
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" आवापे बस्तीनामतः प्रयोज्यानि तेषु तानि स्युः ह. ।” ↩︎
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" सर्वशः इति पा०" ↩︎
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" यथार्हानिह तान्छृणु इति पा०।" ↩︎
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" त्रिवृता इति पा०।" ↩︎
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" दर्भपोटगलेक्षुभिः इति पा ।" ↩︎
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“’बस्ति’इति पा०” ↩︎
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" तद्वद्वेष्टैः इति पा०" ↩︎
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" सद्यस्कैरेव तैः ह. ।" ↩︎
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" कटुतुम्बममन्यतोत्तमं ह.।" ↩︎
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" धामार्गवमे ध्वमन्यत इति, धामार्गवमेव मन्यते इति च पा० ।" ↩︎
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" रोगान् ह.।" ↩︎
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" सर्वविधानात् ह. । " ↩︎
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" अथाधिगम्याजमुण्डिकाधिपो इति, अथाधिगम्यार्थमखण्डिकाधिपो इति च पा०।" ↩︎
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" चतुर्थभागोपनयं हितं वदेत् ह।" ↩︎
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" अजाविषु प्रस्थमुशन्ति तद्विद : हृ.।" ↩︎
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" सेवते ह.।" ↩︎
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" गुरोर्निरोधात् ह.।" ↩︎
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" समारभन्ते ह।" ↩︎
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" कृतमालकात् फलम् इति कृतमालकट्रफलम् इति च पा०।" ↩︎
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" सतैलसर्पिर्मधुसैन्धवः ह।" ↩︎
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" कृतक्रमो निरातको रतियुक्तः स्थिरेन्द्रियः । बलवान् सत्त्वसंपन्नो विज्ञेयः प्रकृतिंगतः इति पा०; सर्वक्षमो निरासङ्गो च ।" ↩︎
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" “श्रोत्रोपरोध ह।" ↩︎
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" “सक्थिस्कन्ध” ह," ↩︎
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““वंक्षणोरुस्तम्भवृषणजानुजङ्घा " ↩︎
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" अवलुप्यत इव स्ताम्यतीवढ्र्ंइति पा०” ↩︎
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" गमने ग." ↩︎
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" लेहाः इति हस्तलिखित पुस्तके न पट्यते" ↩︎
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" मूत्रकृच्छ्रबस्तिशूलेषु ह." ↩︎
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" समधु घृतः ग. ।" ↩︎
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" शुष्कमूलकानि च पलिकानि ह." ↩︎
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" बलमांसजननश्च ह." ↩︎
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" सपाकहंस : ह." ↩︎
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" हजुषार्धः पलं ह." ↩︎
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" नव ह." ↩︎
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" कुर्वन्त्यतिकृशं ह." ↩︎
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" न निवर्तन्ते यस्य त्येते प्रयोजिताः ह." ↩︎
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" स्वास्थ्यं त्रिवर्गं चापि ह." ↩︎
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" समासाभिहितैस्तथा इति पा०" ↩︎
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" तत्रयुत्त्या विना भिषक् ह. " ↩︎
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“अनार्षोऽयं श्लोकः, अग्निवेशतत्रे उत्तरतत्रस्याप्रोक्तत्वात् ।” ↩︎
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" योऽविमनाः ह." ↩︎
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“‘यस्य द्वादशसाहस्त्रीत्यादि श्लोकत्रयं केचित् पठन्ति, तच्चा- प्रस्तुतम् इति चक्रः” ↩︎
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" चिकित्सितं वह्निवेश इति पा० " ↩︎
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“योगीन्द्रनाथसेनसंमतोऽयं पाठः । यज्जीवं स्पृक्शरीरेणाभिसंबध्नाति इति चक्रपाणिदत्तसंमतः पाठः ।” ↩︎