[[सुभाषितमञ्जरी Source: EB]]
[
सुभाषित मंजरी पूर्वार्द्ध
[संस्कृत सूक्तियों का अनूठा संग्रह]
संग्राहकः—
श्री स्व० आचार्य प्रवर १०८ श्री शिव सागर जी
म० सा० के सुशिष्य मुनिप्रवर
अजित सागर जी
म०
अनुवादकः—
श्री पं० पन्ना लाल जी साहित्याचार्य
द्रव्य सहायक एवं प्रकाशकः—
श्री शान्ति लाल जी जैन
प्रो० शान्तिनाथ रोड़वेज, कलकत्ता
प्रथमावृत्ति
मूल्य
१०००
धर्म लाभ
दो शब्द
संस्कृत साहित्य रूप सागर अनेक सुभाषित रूप रत्नों से भरा हुआ है। ये सुभाषित, प्रकाशस्तम्भ के समान दिग्भ्रान्त पुरुषों को समुचित मार्ग का प्रदर्शन कराने में परम सहायक होते हैं। अप्रस्तुत प्रशंसा या अर्थान्तरन्यास अन्तकार के माध्यम से कवियों ने अपने काव्यों अथवा पुराणों में एक से एक बढ़कर सुभाषितों का समावेश किया है। आचार्य वादोभसिंह सूरि ने ‘क्षत्रचूडामणि’ ग्रन्थ की रचना करते हुए प्रायः प्रत्येक श्लोक में सुभाषित का समावेश किया है। अमित गति आचार्य ने ‘सुभाषित रत्न सन्दोह’ नाम से सुभाषितों का स्वतन्त्र ग्रन्थ निर्मित किया है।
सुभावितों का संग्रह विद्वानों को इतना अधिक प्रिय रहा है कि इस विषय पर अच्छे२ संग्रह प्रकाशित हुए हैं। ‘सुभाषित रत्न भाण्डाकर’ नाम का एक बृहदाकार संग्रह संस्कृत साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध है।
श्रीमान् पूज्यवर स्वर्गीय आचार्य शिवसागरजी महाराज के संघ में अनेक प्रबुद्ध मुनिराज उनके शिष्य हैं। ‘ज्ञानध्यान तपोरक्तः’ यह जो तपस्वियों का लक्षरण आगम में कहा गया है वह उन संघस्थ मुनियों में अच्छी तरह घटित
होता है। उसी संघ में श्री १०८ मुनि अजितसागर जी महाराज हैं जो बालब्रह्मचारी हैं तथा अध्ययन-अध्यापन में निरन्तर निरत रहते हैं। आपने न्याय, व्याकरण, साहित्य तथा धर्म आदि विषयों को अच्छा अनुगम किया है और बड़ी रुचि के साथ संघस्थ साधुओं तथा माताजी आदि को विविध शास्त्रों का अध्ययन कराते हैं। पठन-पाठन के अतिरिक्त आपके पास जो समय शेष रहता है उसमें आप प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन कर उनका संशोधन तथा उनमें से उपयोगी विषयों का संकलन करते हैं। ‘गणधरवलय पूजा’ तथा ‘रविव्रत कथा’ आपके द्वारा संशोधित होकर प्रकाश में आई है। यह सुभाषित मञ्जरी नाम का संकलन भी आपकी ही कृति है। अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर आपने हजारों सुभाषितों का संग्रह किया है तथा उन्हें विषय वार विभाजित कर उनके अनेक उपयोगी प्रकरण तैयार किये हैं।
इस संकलन में जिनेन्द्रस्तुति, जिन भक्ति आदि २९ प्रकरण संकलित हैं। इन प्रकरणों में शीर्षक देकर अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। जन साधारण के उपकार की दृष्टि से इन श्लोकों का हिन्दी अनुवाद भी साथ में दे दिया है। हिन्दी अनुवाद साथ रहने से प्रत्येक स्त्री पुरुष स्वाध्याय द्वारा लाभ उठा सकते हैं। इस सुभाषित मञ्जरी में १००१ श्लोक हैं। उदयपुर के चातुर्मास में मात्र
४२५ श्लोकों का मुद्रण हो सका। चातुर्मास के बाद अन्यत्र विहार हो जाने से मुद्रण स्थगित हो गया। अतः ४२५ श्लोकों का संग्रह पूर्वाद्ध के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है आगे का भाग उतरार्द्ध के रूप में प्रकाशित किया जावेगा।
इस ग्रन्थ की प्रेसकापी तैयार करने तथा प्रकरणों को विषयवार विभाजित करने में संघस्थित आर्यिका श्री १०५ विशुद्धमतीजी ने पर्याप्त योग दिया है तथा प्रकाशन में श्री पं० गुलजारीलालजी चौधरी, केसली (सागर) और जौहरी श्री मोतीलालजी व महावीरजी मिन्डा उदयपुर ने बहुत सहयोग किया है इसके लिये इन सबके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
सुभाषित मञ्जरी पूर्वार्द्ध का प्रकाशन श्री शान्तिलाल जी जैन प्रो० शान्तिनाथ रोड़वेज कलकत्ता की ओर से हो रहा है आप अत्यन्त उदार हृदय के व्यक्ति हैं। आपकी उदारता के फल स्वरूप ही इसका अमूल्य विवरण किया जा रहा है। आशा है अन्य सहधर्मी भाई भी इनका अनुकरण कर जिन वाणी के प्रचार में योग दान करेंगे।
अन्त में श्री १०८ मुनि अजितसागरजी महाराज के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हुआ आशा रखता हूँ कि आपको द्वारा इसी प्रकार अनेक ग्रन्थों का उद्धार होता रहेगा।
विनीत—
पन्नालाल साहित्याचार्य
सुभाषित मन्जरी विषयानुक्रमणिका |
विषय नाम | श्लोक संख्या |
जिनेन्द्रस्तुतिः | १—८ |
जिनमतिः | ९—१३ |
जिनेन्द्रार्चा | १४—३२ |
जिनधर्म प्रशंसा | ३३—५२ |
साधु प्रशंसा | ५३—६७ |
गुरुगौरवम् | ६८—८६ |
स्याद्वाद वंदना | ८७—९० |
गुरुनिन्दानिषेधनम् | ९१—९८ |
सम्यग्दर्शन प्रशंसा | ९९—११७ |
क्षमा प्रशंसा | ११८—१३५ |
क्रोध निन्दा | १३६—१४८ |
मान निषेधनम् | १४९—१५१ |
मायानिन्दा | १५२—१५८ |
तृष्णानिन्दा | १५९—१७४ |
परिग्रहनिन्दा | १७५—१८८ |
दया प्रशंसा | १८९—१९९ |
आहारदान प्रशंसा | २००—२०९ |
विषय नाम | श्लोक संख्या |
ज्ञान दान प्रशंसा | २१०—२१६ |
औषधदान प्रशंसा | २१७—२२९ |
ज्ञान प्रशंसा | २३०—२३७ |
उपकरण दान प्रशंसा | २३८—२४४ |
दान प्रशंसा | २४५—२५४ |
विराग वाटिका | २५५—३२८ |
रात्रि भोजन निन्दा | ३२९—३४२ |
सज्जन प्रशंसा | ३४३—३९१ |
ब्रह्मचर्य प्रशंसा | ३९२—४०१ |
चौर्य निन्दा | ४०२—४०६ |
रत्नत्रयप्रशंसा | ४०७—४१५ |
याञ्चापरिहार | ४१६—४२५ |
श्लोक
(अ)
असित गिरि समस्यात्कज्जलं सिन्धु पात्रे
अकुण्ड गोलकः श्राद्धः |
अतिबालोऽतिवृद्धश्च |
अनादरं यो वितनोति धम |
अत्यन्त विशदा कीर्ति |
अपि बालाग्र मात्रेण |
अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते |
आज्ञानान्धतम स्तोम |
अनर्घरत्नत्रय सम्पदोऽपि |
अक्षस्तेन सुदुर्धरा |
अबुद्धिमाश्रितानां च |
अपकारिणि चेत्क्रोधः |
अपकुर्वति कोपश्चेत् |
अर्थादौ प्रचुरप्रपञ्चरचनै |
अर्थः कस्सोनर्थो न भवति |
अविश्वास निदानाय |
अभयाहारभैषज्य |
अभीतितोऽत्युत्तमरूपत्त्व |
अनाच्छाद्य स्वसामर्थ्यं |
अहोमया प्रमत्तेन |
अन्वयव्रतमस्माक |
अन्धाः कुब्जक वामनाति विकला अल्पायुषः प्राणिनः |
अह्नो मुहूर्त मात्रं यः |
अञ्जलिस्थानि पुष्पाणि |
अप्रियवचन दरिद्रै |
अनाहूता स्वयं यान्ति |
आ
आयातस्त्रि जगत्पते तव पद्द |
आदि शान्ति परांश्चेति |
आशा नाम मनुष्याणां |
आशाये दासास्ते |
आशा नाम नदी मनोरथजला |
आशागर्तः प्रति प्राणी |
आसापिसायगहियो |
आरम्भो जन्तु घातश्च |
आजन्म जायते यस्य |
आर्येभ्यः आर्यिकाभ्यश्च |
आजन्मगुरू देवानां |
आयु स्तेजो बलं वीर्य |
इ
इदं शरीरं परिरणाम दुर्बल |
इन्द्राहमिन्द्र तीर्थेश |
इतो होनंदत्ते |
इन्द्रियाणि न गुप्तानि |
इच्छति शती सहस्त्रं |
ई
ईद्दशो यदि वाज्ञानाद् |
ईक्षोरग्रे क्रमशः पर्वणि |
उ
उत्तमस्य क्षणं कोपो |
उद्भूताः प्रथयन्ति मोहमसम् |
उष्णकाले जलंदद्यात् |
उदये सविता रागी |
ए
एकापि समर्थेयं |
एकः क्षमा वतां दोषः |
एवं प्रति दिनं यस्य |
ऐ
ऐरण्ड सदृशं ज्ञात्वा |
औ
औषधं यो मुनीनां स |
क
कस्यचित्संवलं विद्या |
कर्म पर्वत निपातनवज्रं |
कदानुविषयांस्त्यक्त्वा |
कालुष्य कारणे जाते |
कार्य कृन्तति सद्गुणान् |
कदाचित्को बन्धः |
काकः कृष्णः पिकः कृष्णः |
कास्था सद्मनि सुन्दरेऽपि परितो |
कारागारनिभे घोरे |
काम क्रोध महामोह |
कांतारं न यथेतरो ज्वलयितु |
काक आहूयते काकान् |
कूट द्रव्यमिवासारं |
क्रोध योधः कथंकारं |
क्रोधो हि शत्रुः प्रथमं नराणां |
क्रोधोमूलमनर्थानां |
क्रोधस्य काल कूटस्य |
क्रोधानल समुत्पन्नः |
केवलं धनमत्रैव |
कोमलानि महार्घाणि |
कोऽहं की दृग्गुणक्वत्व |
कोमलं हृदयं नूनम् |
कौ वशी करणं धर्मः |
कः कालः कानि मित्राणि |
ग
गर्वं मा कुरु शर्करे तव गुण |
गतायांति च यास्यान्ति |
गर्व नोद्वहते न निंदति परं |
गवादीनां पयोऽन्येद्युः |
गात्रभङ्ग स्वर हीनः |
गृहीतं जीवानां |
गुरवः परमार्थेन |
गुरूणां गुरू बुद्धिनां |
गुरुभक्तो भवाद्भीतो |
गुरोः सनगरग्रामं |
गुरण प्रसव संदृव्धा |
घ
घूका न द्युमणि विदन्ति किमुवा |
च
चत्वारो वित्त दायादा |
चन्द्रतापेन को दग्धः |
चक्रधरोऽपि सुरत्वं |
चलान्युत्पथ वृतानि |
चक्रवर्त्यादि सल्ल लक्ष्मीं |
च्युता दन्ताः सिताः केशा |
चारित्रं दर्शनं ज्ञानं |
चारित्रं निरगाराणां |
चिरं बद्धो जीवः |
छ
छत्र चामर लम्बूष |
छिन्न मूलो यथा वृक्षः |
ज
जन्माटवीषु कुटिलासु |
जलेन जनितः पङ्को |
जन्मेदं वन्ध्यतां नीतं |
जयन्ति जितमत्सरा |
जाग्रत्वं सौमनस्वं च |
ज
जिनेन्द्राणां मुनीशानां |
जिनधर्मस्य भव्यानां |
जीवन्तोऽपि मृता ज्ञेया |
जो मुणि भत्तवसेसं |
ड
डाकिनी प्रेत भूतादि |
त
तपस्यां केचित्तु |
तस्यैव सकलं जन्म |
तपस्यतु चिरं तीव्र |
तत एत्य सुजायन्ते |
तस्मात् स्वशक्ति तो दानं |
तपोवनं महा दुःख |
तपो भेषज योगेन |
तपः करोति यो धीमान् |
तपसालंकृतो जीवो |
तपोभिस्ताडिता एव |
तपः सर्वाक्ष सारगं |
तपो मुक्ति पुरीं गन्तु |
त
तच्च लोभोदयेनैव |
त्वां देवमित्यमभिवंद्य |
त्याग एवं गुणवलाध्यः |
त्यज दुर्जन संसर्ग |
त्याज्यमेतत्परं लोके |
तावत्तपोवृत्तंध्यानं |
तार्किकः शाब्दिकः सार |
तावत्सत्यगुणालयः पटुमतिः |
तीक्ष्ण धारेण खङ्गेन |
तुषन्ति भोजने विप्राः |
तृष्णो देवि नमस्तुभ्यं |
तृणानि नोन्मूलयति प्रभंजनो |
ते तु सत्पुरुषाः परार्थघटकाः |
ते धीरास्ते शुचित्वाढ्या |
द
दर्शनं परमो धर्मो |
दर्शन बन्धोर्न परो बन्धु |
दयालोरव्रतस्यायि |
दयामूलो भवेद्धर्मः |
ददती जनता नन्दं |
दत्तः स्वल्पोऽपि भद्राय |
दन्तीद्रं दन्तदलनेकविधौ समर्थाः |
दर्शनागोचरी भूते |
दग्धं दधं पुनरपि पुनः |
द्रव्य दुःखेन चायाति |
दानशीलोपवासादि |
दानानुःसारिणी कीर्ति |
दानं दुर्गति नाशनं हितकरं |
दानामृतं यस्य करारविन्दे |
दारा मोक्ष गृहार्गला विषधरा |
द्वारं द्वारमटन भिक्षुः |
दिव्यमाम्र रसं पीत्वा |
दुर्लभं मानुषं जन्म |
दुष्प्रापा गुरू कर्म संचयवतां |
दृष्टि हीनो भवेत्साधुः |
देवं निन्दी दरिद्रः स्यात् |
देवशास्त्र गुरूणां च |
देहीति वाक्यं वचनेषु कष्टं |
देहीति वचनं श्रुत्वा |
दौर्भाग्य जननी माया |
ध
धर्मं पानं पिबेज्ज्ञानी |
धर्म-युक्त तस्य जीवस्य |
धर्मेण सुभगा नार्यः |
धर्मो काम दुधाधेनु |
धन्यास्त एव संसारे |
धन्यास्त एव यैराशा |
धनेषु जीवितव्येषु |
धन्याः पुण्य भाजस्ते |
धर्मे रागः श्रुते चिन्ता |
धर्मझे कुलंजे सत्ये |
धर्म शास्त्र श्रुतीशास्वत् |
ध्वान्तं दिवाकरस्येव |
ध्यानानुष्ठानशक्तात्मा |
धूपं यश्चन्दनाशुभ्र |
धौत वस्त्रं पवित्रं च |
न
न च राजभयं न च चोरभयं |
नक्षत्राक्षत पूरितं मरकत |
नरस्याभरणं रूपं |
न सुखं धन लुब्धस्य |
न
न शक्नोति तपः कर्त्तु |
न जायते सरोगत्वं |
न देहेन विना धर्मः |
न सा त्रिदश नाथस्य |
नक्तं दिवा च भुञ्जानो |
न हि विक्रियते चेतः |
नहि संसर्ग दोषेण |
न च हसति नाभ्यु सूयति |
न जार जातस्य ललाटचिन्ह |
नारिकेल समाकाराः |
नमज्जयत्यम्बुनिधिः सुशीलान् |
निर्वाचो वचना शयात्रण्टभुजो |
निराभरण वस्त्रास्त्र |
नित्य पूजा स्वयं शस्तः |
निय्थदीकृतचितचण्ड |
निदांम कुरुते साधोः |
निमञ्जति भवाम्भोधौ |
निंदनीयेषु का निन्दा |
निमितमुद्दीश्य हि यः प्रकुप्यति |
निशिभुक्तिरधर्मो यैः |
निजकुलंकमण्डनं |
नो दुष्कर्म प्रवृत्तिं न |
नो संग्गाज्जायते सौख्यं |
प
परित्यक्तावृतिग्रीष्मे |
पलितैक दर्शनादपि |
परिग्रही न पूज्येत |
परिग्रह ग्रह ग्रस्तः |
परपरिवादन मूकः |
पर द्रव्येषु ये अन्धा |
पापं यदर्जितमनेकभवै |
पाति व्रत्यं स्त्रियारूपं |
पात्रे दत्तं भवेत्सर्वं |
पिता माता भ्राता |
पितुःर्मातुः शिशोः पात्रं |
पुन्यकोटि समंस्तोत्र |
पुण्य वन्तो महोत्सहाः |
पुरुषेक्षिप्यते वस्तु |
पूज्यो जिन पति पूजा |
पूजा माचरतां जगत्त्रयपते |
पूर्वं शोषयते गात्रं |
पूजा लाभ प्रसिद्धयर्थं |
पूर्वं धर्मानुभावेन |
पूज्या अपि स्वयं सन्तः |
प्रसदि वरद स्वात्म च दीक्षया |
प्रतिपद्य कदा दीक्षां |
प्रारम्भे सर्व कार्यारिण |
प्राप्ते रत्नत्रये सर्वं |
ब
बन्धं बधं धन भ्रंशं |
ब्रह्मचर्यं भवेत्सारं |
ब्रह्मचर्य मपि पालयसारं |
ब्रह्मचर्यं भवेन्मूलं |
बालेषु वृद्धेषु च दुर्बलेषु |
बिना गुरुभ्यो गुण नीरधिभ्यौ |
बोधि लाभाच्च वैराग्यात् |
भ
भवन्त मित्यभिष्टुत्य |
भक्तिः श्री वीतरागे भयवति |
भववार्द्धिं तितीर्षंति |
भक्तिपूर्वप्रदानेन |
भव्य जीवा यमासाद्य |
भगवंस्त्वत्प्रसादेन |
भज रत्नत्रयं प्रत्नं |
भय भुजंग नाग दमनी |
भाग्यत्रयं तू पोष्यार्थे |
भागद्वयी कुटुम्बार्थे |
भाग्यवन्तो महासत्वा |
भानोः करैरसंस्पृष्ट |
भास्वता भासितानर्थान् |
भ्रान्ति प्रदेषु बहुवर्त्मसु |
भ्रातः कांचन लेप गोपितवहि |
म
मक्षिका वृण मिच्छंति |
महायोगेश्वरा धीरा |
मत्वेति दर्शनं जातु |
मलिने दर्परणं यद्वत् |
महाधनी स एवस्त्र |
मनो दयानु बिद्धं चेन् |
मर्त्यापर श्रियं भुक्तवा |
मयुरवर्हं दानेन |
मन्ये देहं तदे वाहं |
मधुर स्निग्ध शीलानाम् |
मक्षिका कीट केशादि |
मनसि वचसि काये |
मत्तवारण संक्षुण्णे |
मायावी दूषको विद्वान |
मायां करोति यो मूढः |
माया युक्तं वचस्त्याज्यं |
माया बल्लिमशेषां |
मिथ्या दर्शन विज्ञान |
मिथ्यादृष्टि परीतानां |
मुक्ता दुःख शतान्मुच्चैः |
मुक्तिमार्गस्थ मेवाहं |
मुक्ति प्रदीयते येन |
मुहूर्त त्रिशतं कृत्वा |
मुहूर्त द्वितयं वस्तु |
मूर्धाभिषिक्ताश्च निजास्त्वनेक |
मूलम ध्यान्त दुःस्पर्शा |
मौन संयम सम्पनैः |
य
यस्य ज्ञान सुधाम्बुधौ जगदिदं |
यद् वाग्ज्योतिः सप्त तत्व प्रकाशि |
यतोश्व भ्राद्विनिर्गत्य |
यद्यपि रटति सरोषो |
यत्क्षमी कुरुते कार्य |
यस्य रुष्टे भयं नास्ति |
यस्या बीज महं कृतिर्गुरुतरा |
यदि स्याच्छीतलोवन्हि |
यस्य जीव दया नास्ति |
यस्य दान हीनस्य |
यथाग्नि विधिना तप्तं |
यदिस्माभिर्दृष्टं |
यस्मात्तीर्थं कृतो भवंति भुवने |
यद् दूरं यच्य दुःसाध्यं |
यत्र क्लापि हि सन्तेव |
यास्यन्ति निर्दया नूनं |
या राज लक्ष्मी |
या दुःख साध्या |
ये नौषध प्रदस्येह |
येनात्मा बुध्यते तत्वं |
येन रागादयो दोषाः |
ये बुधाः मुक्ति मापन्ना |
ये शील वन्तो मनुजा व्यतीता |
यो जिनेन्द्रालये दीपं |
यो भाषते दोष मविद्यमानं |
यो मदान्धो न जानाति |
यो ज्ञान दानं कुरुते मुनीनां |
यौवने कुरू भो मित्र |
यः सर्वथैकाँत नयान्धकारं |
र
रम्यं रूप मरोग्यता |
रक्ष्यते व्रतीनां येन |
रत्नत्रयं जैनं |
रत्नत्रयं तज्जननार्तिमृत्यु |
राजानो यं प्रशंसन्ति |
रे रे चातक सावधान मनसा |
रोगिभ्यो भेषजं देयं |
ल
लभ्यते केवल ज्ञानं |
लब्ध्वा जन्म कुले शुचौनरवपुः |
लब्धं जन्म फलं तेन |
लिखित्वा लेखयित्वा वा |
लोकत्रयेपि तन्नास्ति |
लोकद्वय विनाशाय |
लौकांतिक पदं सारं |
व
वरं मुहूर्त मेकं च |
वस्त्राद्याः समला द्रव्या |
वपुः कुब्जी भूत |
वदिला योऽथवा श्रोता |
वदनंप्रसाद सदनं |
वनेऽपि सिंहा गज मांस भक्षिणो |
वरं पक्षि वने वासो |
वातपित्त कपोत्थानैः |
व्रतानां धारणं दण्ड |
विसृष्ट सर्वं संगानां |
विश्व संतिरिपयोपि दयालो |
विमल गुण निधानं |
विचित्र रत्न निर्माणः |
विशिष्ट मिष्टं घटयत्युदारं |
विप्राक्षत्रिय वैश्या ये |
विरक्तत्व मनासाध |
विरूपो विकलांग स्यात् |
विरोचनेऽस्त संसर्गं |
विपदि धैर्य मथाभ्युदयेक्षमा |
वीतरागे मुन्नो शप्ते |
वैभवं सकलं लोके |
वैरं विवर्धयति सख्य यथा करोति |
वैराग्य सारं दुरितापहार |
स
सती भार्या पृथिवी |
सद् द्रव्य क्षेत्र कालार्चा |
सर्वशास्त्र विदेधीरा |
सत्य दुगं समारुढं |
समस्त सम्पदा, संघ |
सर्व प्राणि दया जिनेन्द्र गदिता |
सर्व बानं कृतं तेन |
सवां सानेव शुद्धीनाम् |
सन्तोष स्थूल मूलः |
सर्वतोपि सुदुःप्रेक्ष्यां |
सज्जनास्तु सतां पूर्वं |
सन्मार्ग स्खलनं विवेकं दलनं |
सकल विबुध निंद्य |
सवेषामेव शोचानाम् |
सद्दृष्टि सज्ज्ञान तपोन्विता ये |
सन्तोष लोभ नाशाय |
संसारब्धौ निमग्नानां |
सम्यक्त्वेन विना देवा |
सम्यग्दृष्टि गृहस्थोऽपि |
सम्यक्त्वेन ससंवासः |
सम्यक्त्वान्ना परो बन्धु |
संसारे मानुषं सारं |
सर्व धर्म मये क्वचित् |
संसार ध्वंसिनी चर्यां |
संयमोतम पीयूषं |
—::—
स
संसार कूप संपति |
संपत्सु महतां चित्तं |
संपदि विनयावनता |
संपदो महतामेव |
संसाराम्बुधि नारकं सुखकरं |
सम्यग्दर्शन ज्ञान |
सामोदैर्भू जलोद्भूतेः |
साधूनां दर्शनं पुण्यं |
साधोः समागमाल्लोके |
साधुसंगममनासाद्य |
साक्षादुल्लसतीव्र संयमतरु |
साधोः प्रकोपितस्यापि |
सिद्धाः सिद्धयंति सेत्स्यंति |
सिक्तोप्यम्बुधर व्रातैः |
सुतबन्धुपदातीनां |
सुचिरं देव भोगे भोगेऽपि |
सुकृताय न तृष्यन्ति |
सुजनो न याति वैरं |
सूपकारं कवि वैद्य |
सौधर्मादिषु कल्पेषु |
सौजन्यं हन्यते भ्रन्शो |
स्व वाऽस्मिन मनुज भवने |
स्पृष्टायत्र महीतदंघ्रि कमलै |
स्मरमपि हृदि येषां ध्यानवन्हि |
स्याद्वादं सततं वन्दे |
स्वामिनं सुहृदमिष्ठ सेवकं |
स्त्रैण षष्ढत्व तैरश्च |
स्वः स्वस्य यस्तु षड् भागान् |
स्वच्छानामनुकूलानां |
श
शतं विहाय भोक्तव्यं |
शस्येन देशः पयसाब्ज खण्ड |
शय्या हेतु तृणादानं |
शरीरं संयमाधारं |
श्मसानेषु पुराणेषु |
शासनं जिनंनाथस्य |
शास्त्रदाया सतां पूज्य |
शांतो दांतो दया युक्तो |
शीलं हि निर्मलकुलं सहगामिबन्धुः |
शुचि प्रसन्नो गुरू देय भक्तो |
शोचंते न मृतं कदापि वनिता |
श्र
श्रमणानां भुक्त शेषस्य |
श्रद्धादि गुण सम्पूर्णः |
श्रावकाचार मुक्तानां |
श्रद्धा स्वात्त्मैव शुद्धः |
ह
हरतु हरतु वृद्धं वार्धकं |
हंसः श्वेतो बकः श्वेतः |
क्ष
क्षमा वैराग्य सन्तोष |
क्षमा खङ्ग करे यस्य |
क्षमया क्षीयते कर्म |
क्षमावलमशक्तानां |
क्षांतिरेव मनुष्याणां |
क्षिप्तोपि केनचिद् दोषो |
त्र
त्रिसन्ध्यामाचरेत्पूजा |
ज्ञ
ज्ञानचारित्रयोर्मूलं |
ज्ञान हीनो न जानाति |
ज्ञान युक्तो भवेज्जीवः |
सुभाषितमञ्जरी
श्लोकसंग्रहकर्त्ता मुनि अजितसागर
अनुवादकर्त्ता
पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य (सागर)
जिनेन्द्रस्तुतिः
मालिनीच्छन्दः
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
यदि लिखति गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥१॥
**अर्थ—**हे नाथ! यदि समुद्र रूपो पात्र में नील गिरि के बराबर कज्जल हो, कल्प वृक्ष की उत्तम शाखा लेखनी हो, समस्त पृथ्वी कागज हो और सरस्वती उन सब को लेकर स्वयं सदा लिखती रहे तो भी आपके गुणों के पार को प्राप्त नहीं होती अर्थात् आप अनन्त गुणों के भण्डार हो॥१॥
मन्दाक्रान्ता
स्वर्गे वास्मिन्मनुजभवने खेचरेन्द्रास्पदे वा
ज्योतिर्लोके फणिपतिपूरे नारकाणां निवासे।
अन्यस्मिन्वाजिनप जनने कर्मणा मेऽस्तु सूति—
र्भूयोभूयो भवतु भवतः पादपङ्केज भक्तिः॥२॥
** अर्थ—**हे जिनेन्द्र! कर्मोदय के कारण मेरा जन्म चाहे स्वर्ग में हो, इस मनुष्य लोक में हो, विद्याधर राजाओं के स्थान में हो ज्योतिर्लोक में हो, नाग लोक में ही, नारकियों के निवास में हो और चाहे किसी अन्य जन्म में हो परन्तु मैं इतना चाहता हूंकि आपके चरण कमलों की भक्ति भव भव में मुझे प्राप्त होती रहे॥२॥
शिखरिणी
गृहीतं जीवानां परमहितबुद्ध्येव जननं
प्रजारक्षोपाया रसमितशुभा येन कथिताः।
तमोहारी ज्ञानी रविशशिनिभो यश्च जगतः
स शांति सर्वेभ्यो दिशतु वृषभः कर्मविजयी॥३॥
** अर्थ—**जिन्होने जीवों के परम हित की इच्छा से ही जन्म धारण किया था, जिन्होने प्रजा की रक्षा के छह शुभ उपाय बतलाये थे, जो अज्ञानान्धकार को हरने वाले थे, ज्ञानी थे और जो
जगत्के लिये सूर्य तथा चन्द्रमा के समान थे वे कर्मों को जीतने वाले वृषभ नाथ भगवान सब के लिये शान्ति प्रदान करें॥३॥
सती भार्यां पृथ्वी जलधिजलचीरा प्रणयिनि।
उभे त्यक्त येन प्रशमरसरुच्यैव विभुना।
कृतश्चात्मा पूर्णो विपुलमतिना योगवलिना
स शांति सर्वेभ्यो दिशतु वृषभः कर्मविजयी॥४॥
** अर्थः—**विपुल बुद्धि के धारक तथा योग बल से युक्त जिनस्वामी ने स्नेह से युक्त पतिव्रता भार्या और समुद्र के जल रूप वस्त्र से युक्त-समुद्रान्ता पृथ्वी इन दोनों का शान्ति रस में रुचि होने के कारण त्याग किया था तथा आत्मा को पूर्ण किया था। अनन्त गुणों के विकास से सहित किया था कर्मों को जीतने वाले वे वृषभ जिनेन्द्र सब के लिये शान्ति प्रदान करें॥४॥
तपस्यांकेचित्तु स्वतसुरलोकार्थमनिशं
स्फुटं कुर्वन्ति त्वं भवततिविनाशाय कृतवान्।
यदीया वाग्गङ्गा सुरमनुजमान्या प्रथमतः
स शांतिं सर्वेभ्यो दिशतु वृषभः कर्मविजयी॥५॥
** आर्थ—**हे भगवन्! स्पष्ट है कि कितने ही लोग अपने लिये पुत्र तथा स्वर्ग लोगकी प्राप्ति के उद्देश्य से निरन्तर तपस्या करते हैं परन्तु आपने जन्मों के समूह को नष्ट करने के लिये तपस्या
की थी तथा जिनकी वाणी रुपी गङ्गा पहले से हो देव और मनुष्यों के द्वारा मान्य थी वे कर्म विजयी भगवान् वृषभ जिनेन्द्र सब के लिये शान्ति प्रदान करें॥५॥
शार्दूलविक्रीडितम्
आयातस्त्रिजगत्पते तव पदद्वन्द्वाम्बुजाराधना—
वाच्छाप्रेरितमानसः स्तुतिशतैः स्तुत्वा भवन्तं महत्।
पुण्यं चाभिनवं पवित्रतरको जातोऽस्मि संप्रत्यहं
गच्छामि प्रततार्चनस्य भवतो भूयात्पुनर्दर्शनम्॥६॥
अर्थ—हे त्रिलोकीनाथ! मैं आपके चरण कमल युगल की आरा धना सम्बन्धीइच्छा से प्रेरित चित्त होता हुआ आया था और सैकड़ों स्तुतियों से आपकी स्तुति कर मैंने बहुत भारी नवीन पुण्य प्राप्त किया है उस पुण्य से अत्यन्त पवित्र होता हुआ अब मैं जाता हूं,अतिशय विस्तृत पूजा से युक्त आपका फिरभी से दर्शन प्राप्त हो॥६॥
यस्य ज्ञानसुधाम्बुधौ जगदिदं विश्वं हि भस्त्रायते
कर्माण्यष्ट निहत्य येन सुगुणांश्चाष्टौ समासादिताः।
पूजार्ह जिनदेव मध्युत मजं बुद्धं मुनिं शङ्करं
ध्यायेऽहं मनसा स्तवीमि वचमा मूर्ध्ना नमाभ्यादरात्॥७॥
अर्थ—जिनके ज्ञान रूपी अमृत के समुद्र में यह समस्त संसार
भस्त्रा के समान जान पड़ता है अर्थात लुहार को धोंकनी के समान बहुत छोटा जान पड़ता है, जिन्होंने आठ कर्मों को नष्ट कर आठ उत्तम गुण प्राप्त किये हैं, जो पूजा के योग्य हैं, प्रच्युत हैं—विष्णु हैं पक्ष में ज्ञानादिगुणों से सहित हैं। अज है—बह्मा है (पक्ष में जन्म से रहित हैं) बुद्ध हैं तथागत हैं (पक्ष में ज्ञान सम्पन्न हैं) मुनि हैं, विशिष्ट गुणों से सहित हैं) और शङ्कर हैं—शिव हैं (पक्ष में शान्ति करने वाले हैं) ऐसे जिन देव का मैं हृदय से ध्यान करता हूँ वचन से उनकी स्तुति करता हूं और मस्तक से आदर पूर्वक उन्हें नमस्कार करता हूँ॥७॥
शालिनी
यद्वाग्ज्योतिः सप्ततत्वप्रकाशि
देहज्योतिः सप्तजन्मवभासि।
ज्ञानज्योतिः सप्तभङ्ग्यात्मभासि
ज्योतिरूपः सोऽस्तु मे मोहनाशी॥८॥
अर्थः—जिनकी वचन रूपो ज्योति सात तत्वों को प्रकाशित करने वाली थी, जिनके शरीर की ज्योति सात भवों को प्रकाशित करने वाली थी और जिनकी ज्ञान रूपी ज्योति सात भङ्गों के स्वरूप से सुशोभित थी ऐसी ज्योति स्वरूप को धारण करने वाले वे जिनेन्द्र मेरे मोह को नष्ट करने वाले हों॥८॥
मालिनी
हरतु हरतु वृद्धं वार्धकं कायकान्तिं
दधतु दधतु दूरं मन्दतामिन्द्रियाणि।
भवतु भवतु दुःखं जायतां वा विनाशः
परमिह जिननाथे भक्तीरेका ममास्तु॥९॥
अर्थः—वृद्धि को प्राप्त हुआ बुढ़ापा भले ही शरीर की कान्ति को नष्ट कर दे, इन्द्रियाँ भले ही अत्यन्त मन्दता को धारणा कर लें, भले ही दुःख हो अथवा भले ही मरण हो परन्तु इस संसार में जब तक हूँ तब तक जिनेन्द्र भगवान में एक मेरी भक्ति बनी रहे॥९॥
वसन्ततिलका
त्वां देव नित्यमभिवन्द्य कृतप्रणामो
नान्यत्फलं परिमितं परिमार्गयामि।
त्वय्येव भक्तिमचलां जिन मे दिश त्वं
या सर्वमभ्युदय मुक्तिफलं प्रसूते॥१०॥
**अर्थः—**हे देव! निरन्तर आपको वन्दना कर प्रणाम करता हुआ मैं अन्य परिमित फल की याचना नहीं करता
किन्तु मैं यह याचना करता हूँ कि हे जिनेन्द्र! आप ऐसा करें जिससे कि मेरी अचल भक्ति आप में ही बनी रहे। ऐसी भक्ति जो कि समस्त स्वर्गादिक के अभ्युदय और मोक्ष के फल को उत्पन्न करता है॥१०॥
आर्या
एकापि समर्थेयं जिनभक्ति दुर्गतिं निवायितुम्
पुण्यानि च पूरयितुं दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः॥११॥
** अर्थः—**यह जिन भक्ति अकेली ही दुर्गति को दूर करने, पुण्य को पूर्ण करने और कुशल मनुष्यों को मोक्ष रूपी लक्ष्मी के प्रदान करने में समर्थ है॥११॥
अनुष्टुम्
भवन्तमित्यभिष्टुत्य विष्टपातिगपौरुषम्।
त्वय्येवभक्तिमकृशांप्रार्थये नान्यदर्थये॥१२॥
** अर्थः**—हे भगवन! लोकोत्तर पराक्रम के धारक आपकी इस तरह स्तुति कर मैं यही चाहता हूँ कि मेरी आप में ही बहुत भारी भक्ति बनी रहे, और कुछ नहीं चाहता हूँ॥१२॥
हम भगवान का स्मरण किस तरह करते हैं?
निर्वाचो वचनाशया तृणभुजो मानुष्यजन्माशया
निःस्वा भूरिधनाशया कुतनवः सद्रूपदेहाशया।
मर्त्याः स्वर्गकलाशयाऽमृ तभुजो निर्वाणसौख्याशया
संध्यायन्ति दिवानिशं सुमनसा तद्वत्स्मरामो वयम्।१३।
** अर्थः**—जिस प्रकार गूंगेमनुष्य वचनों की आशा से तिर्यच मनुष्यभव की आशा से, निर्धन बहुत भारी धन की आशा से कुरूप, सुन्दर शरीर को आशा से, मनुष्य स्वर्ग की आशा से, और देव मोक्ष सुख की आशा से रात दिन ध्यान करते हैं उसी प्रकार हे भगवन्! हम अच्छे हृदय से आपका ध्यान करते हैं॥१३॥
जिनेन्द्रार्चा
पञ्च शुद्धियाँ
सदद्रव्यक्षेत्रकालार्चाभावाख्याः पन्चशुद्धयः
जिनपुजाप्रतिष्ठार्थ बुधैरुक्ताः पृथक् पृथक्॥१४॥
** अर्थः—**विद्वानों ने जिन पूजा की प्रतिष्ठा के लिये द्रव्य शुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि, प्रतिमाशुद्धि और भावशुद्धि के भेद से पांच शुद्धियों का पृथक पृथक् निरूपण किया है॥१४॥
कैसी प्रतिभा शुभ होती है
निराभरणवस्त्रास्त्रविकारादोषवर्जिता।
दशतालविनिर्माणा जिनार्चा शुभदा भवेत्॥१५॥
** अर्थः—**जो आभूषण, वस्त्र, अस्त्र तथा मोह आदि के विकास रहित हो, निर्दोष हो और दशताल से जिसका निर्माण हुआ हो ऐसी जिन प्रतिमा शुभ होती है॥१५॥
पूजा किस प्रकार की जाती है?
धौतवस्त्रं पवित्रं च ब्रह्मसूत्रं सभूषणम्।
जिनपादार्चनागन्धं माल्यं धृत्वाऽर्च्यते जिनः॥१६॥
** अर्थः—**घुले हुए पवित्र वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, जिन चरणचर्चित की गन्ध और जिन चरण स्पर्शित माला धारण करजिनेन्द्र देव की पूजा की जाती है॥१६॥
पूजा का आचार्य कौन हो सकता है?
दानशीलोपवासादि पुण्याचारक्रियारतः।
एवं विधगुणादयोऽर्हत्पूजकाचार्य इष्यते॥१७॥
** अर्थः—**जो दान, शील, तथा उपवास आदि पुण्याचार विषयक क्रियाओं में लीन हो तथा इसी प्रकार सम्यक्त आदि अन्य गुणों से युक्त हो वही अर्हन्त भगवान् का पूजकाचार्य हो सकता है॥१७॥
पूज्य, पूजक, पूजा और पूजा का फल
पूज्यो, जिनपतिः पूजा पुण्य हेतु र्जिनार्चना।
फलं साभ्युदया मुक्ति र्भव्यात्मा पूजको मतः॥१८॥
** अर्थः—**जिनेन्द्र भगवान् पूज्य हैं, भव्य जीव पूजक है
जिनेन्द्र भगवान् की अर्चा करना पुण्य वर्धक पूजा है, और स्वर्गतथा मोक्ष की प्राप्ति होना पूजा का फल है॥१८॥
पूजा करने का अधिकारी
अकुण्डगोलकः श्राद्धः शोचाचमनतत्परः।
पितृमातृसुह्ववन्धुभार्याशुद्धो निरामयः॥१६॥
** अर्थः—**
जो कुण्ड¹ और गोकल1 न हो जो श्रद्धा गुण से सम्पन्न हो, जन्म मरण सम्बन्धी शौच को दूर करने में तत्पर हो, पिता माता मित्र भाई और भार्या से शुद्ध हो तथा निरोग हो वही पूजा का अधिकारी है॥१६॥
शुचिः प्रसन्ननो गुरुदेवभक्तो दृढव्रतः सत्वदयासमेतः
दक्षः पटु र्बीजपदावधारी जिनेन्द्रपूजासु स एव शस्तः॥२०॥
अर्थः—
जो पवित्र हो, प्रसन्न हो, गुरु और देव का भक्त हो अपने व्रत में दृढ रहने वाला हो, धैर्य और दया से सहित हो, समर्थ हो, चक्षुतु हो, और बीजाक्षर पदों का अवधारण करने वाला हो वही पुरुष जिनेन्द्र भगवान् को पूजा में उत्तम माना गया है॥२०॥
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1 पति के न मरने पर अर्थात् जीवित रहते हुए अन्य पुरुष के संपर्क से जा सन्तान होती है उसे कुण्ड कहते हैं
के मर जाने पर विधवा के अन्य पुरुष के संपर्क से जो सन्तान होती है उसे गोलक कहते हैं।
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नित्यपूजास्वयं शस्तः प्रोच्यते विनयान्वितः।
पूजकोक्तगुणोपेतः सर्वशास्त्ररहस्यवित्॥२१॥
** अर्थः-** जो विनय से सहित हो, पूजक के कहे हुए गुणों से सहित हो, तथा समस्त शास्त्रों के रहस्य को जानने वाला हो, वही पुरुष नित्य पूजा में प्रशस्त कहा जाता है॥२१॥
पूजा कौन करे?
मौनसंयमसम्पन्नै र्दैवोपास्ति र्विधीयाताम्।
दन्तधावनशुद्धास्यै र्धौतवस्त्रपवित्रितैः॥२२॥
** अर्थः—**जो मौन संयम से सहित हैं, दातौन के द्वारा जिनका मुख शुद्ध हो गया है तथा जो घुले हुए वस्त्रों से पवित्र हों ऐसे मनुष्यों के द्वारा भगवान की पूजा की जाती है॥२२॥
प्रतिष्ठा के समय पूजा का अनधिकारी
अतिबालोऽतिवृद्धश्च ह्यतिदीर्घोऽतिवामनः।
हीनाधिकाङ्गो व्याधिष्ठो भ्रष्टो मूर्खः कुरूपवान्॥२३॥
मायावी दूषकोऽविद्वानर्थी क्रोधी च लोभवान्।
दुष्टात्मा व्रतहीनोऽर्हयतिष्ठायां न शस्यते॥२४॥
** अर्थः—**जो अत्यन्त बालक हो, अत्यन्त वृद्ध हो, अत्यन्त लम्बा हो अत्यन्त बौना हो, हीनाङ्ग हो, अधिकाङ्ग हो, बीमार हो, भ्रष्ट हो, जाति पतित हो, मूर्ख हो, कुरूप हो, मायावी हो, दोषदर्शी हो, अविद्वान हो, याचना करने वाला हौ, क्रोधी हो, लोभी हो, दुष्ट प्रकृति का हो, और व्रतहीन हो, ऐसा व्यक्तिअर्हन्त भगवान् की प्रतिष्ठा में अच्छा नहीं समझा जाता॥२४॥
अनधिकारी मनुष्य के पूजक होने का फल
ईदृशो यदि वाज्ञाना दयेर्चज्जिनपुङ्गवम्।
देशो राष्ट्रं पुरं राज्यं राजा विश्वं विनश्यति॥२५॥
** अर्थः—**यदि अज्ञान वश ऐसा पुरुष जिनेन्द्र की पूजा करे तो देश, राष्ट्र, नगर, राज्य और राजा सब नष्ट होजाते हैं॥२४॥
पूजन का काल और विधि
त्रिसन्ध्यामाचरेत्पूजां चतुर्भक्तिः स्तवं तथा।
उत्तमाचरणं प्रोक्तं जपध्यानस्तवान्वितम्॥२६॥
** अर्थः—**सिद्धभक्ति, पञ्च गुरुभक्ति, चैत्य भक्ति और शान्ति भक्ति इन चार भक्तियों से सहित प्रातः
मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों संध्याओंमें भगवान् की पूजा और स्तवन करना चाहिये। जप, ध्यान और स्तवन से सहित भगवान् की पूजा को उत्तमाचरण कहा गया है।२६।
पुष्प से की जाने वाली पूजा का फल
सामोदेंर्भूजलोद्भूतैः पुष्पैर्यों जिनमर्चति।
विमानं पुष्पकं प्राप्य स क्रीडति यथेप्सितम्॥२७॥
** अर्थः—**जो पुरुष पृथ्वी और जल में उत्पन्न हुए सुगन्धित पुष्पों से जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है वह पुष्पक विमान को पाकर इच्छानुसार क्रीडा करता है॥२७॥
जिन मन्दिर में दीपक रखने का फल
यो जिनेन्द्रालये दीपं ददाति शुभभावतः।
स्वयं प्रभशरीरोऽसौ जायते सुरसद्मनि॥२८॥
** अर्थः—**जो भव्यात्मा शुभ भाव से जिन मन्दिर में दीपक देता है वह स्वर्ग में देदीप्यमान शरीर का धारक देव होता है॥२८॥
धूप से पूजा का फल
धूपंयश्चन्दनाशुभ्रगुर्वादिप्रभवं सुधीः।
जिनानां ढौकयत्येष जायते सुरभिः सुरः॥२९॥
जो बुद्धिमान पुरुष जिनेन्द्र भगवान् श्री चम्बन तथा
कृष्णगुरु आदि से बनी हुई धूप समर्पित करता है वह सुगन्धित देव होता है॥२९॥
पूजा नमस्कार और भक्ति का फल
जिनेन्द्राणां मुनीशानां पूजनात्पूज्यतापदम्।
उच्चैर्गोत्रं नमस्कराद्भक्ते रुपं च सुन्दरम्॥३०॥
** अर्थः—**जिनेन्द्र भगवान और मुनिराजों की पूजा करने से पूज्यता का पद जिनेन्द्र भगवान तथा मुनिराजों के नमस्कार करने से उच्च गोत्र और इन्हीं की भक्ति करने से सुन्दर रूप प्राप्त होता है॥३०॥
पूजा की प्रेरणा
शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्रं स्नानमाचरेत्।
लक्षं त्यक्त्वा नृपाज्ञा च कोटिं त्यक्त्वा जिनार्चनम्॥
** अर्थः—**सौ काम छोड़कर भोजन करना चाहिये, हजार काम छोड़कर स्नान करना चाहिये, लाख काम छोड़कर राजा की आज्ञा का पालन करना चाहिये और करोड़ काम छोड़कर जिनेन्द्र देव की पूजा करनी चाहिये॥३१॥
पूजा से जन्म की सफलता
पूजामाचरतां जगत्त्रयपतेः संघार्चनं कुर्वतां
तीर्थानामभिवन्दनं विदधतां जैनं वचः शृण्वताम्।
सद्दानं ददतां तपश्च चरतां सत्वानुकम्पावतां
येषां यान्ति दिनानि जन्म सफलं तेषां सपुण्यात्मनाम्
** अर्थः—**जिनके दिन त्रिलोकी नाथ की पूजा करते हुए, संघ की पूजा करते हुए, तीर्थों की वन्दना करते हुए, जिनवाणी को सुनते हुए, समीचीन दान देते हुए, तपश्चरण करते हुए, और जीवदया को धारण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं उन्हीं पुण्यात्माओं का जन्म सफल है॥३२॥
जिनधर्म प्रशंसा
अज्ञानियों के न जानने से जिन धर्म की हीनता नहीं होती
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः
घूका न द्युमणिं विदन्ति किमु वा क्वास्य प्रकाशो गतः।
काकाः पूर्णविधुं न जातु विदितः कान्तिर्गता क्वास्य किम्।
भेका क्षीरनिधिं च कूपनिलया निन्दन्ति निन्दास्य का
नान्येऽज्ञा जिनधर्ममत्र विदिता स्तस्यास्ति का हीनता।३३।
**अर्थः—**यदि उल्लू सूर्य को नहीं जानते हैं तो क्या इससे
सूर्य का प्रकाश कहीं चला गया,? यदि कौए पूर्ण चन्द्रमा को नहीं जानते हैं तो क्या इससे कहीं इसकी कान्ति चली गई? यदि कुए में रहने वाला मेढ़क क्षीर समुद्र की निन्दा करते हैं तो क्या इससे इसकी निन्दा हो जाती है? इसी तरह अन्य अज्ञानी जीव यदि जिन धर्म को नहीं जानते हैं तो क्या इससे इसकी कुछ हीनता होती है अर्थात् नहीं॥३३॥
धर्म रूपी रसायन का पान प्रति दिन करना चाहिये
इदं शरीरं परिणामदुर्बलं पतत्यवश्यं शतसन्धिजर्जरम्।
किमौषधं यच्छसि नाम दुर्मते निरामय धर्मरसायनं पिब॥
**अर्थः—**सैंकड़ों सन्धियों से जर्जर हुआ यह शरीर अन्त में दुर्बल होकर अवश्य ही नष्ट हो जाता है। हे दुर्बुद्धि तू इसे क्या औषध देता है? तू तो रोग को नष्ट करने वाली धर्म रूपी रसायन को पी॥३४॥
जिनधर्म की दुर्लभता
दुर्लभं मानुषं जन्म ह्यार्यखण्डं च दुर्लभम्।
दुर्लभं चोत्तमं गोत्रं जिनधर्मः सुदुर्लभः॥३५॥
**अर्थः—**मनुष्य जन्म दुर्लभ है, आर्यखण्ड दुर्लभ है, उत्तम गोत्र दुर्लभ है और जिन धर्म अत्यन्त दुर्लभ है ॥३५॥
जिन धर्म की अमूल्यता
जिनधर्मस्य भव्यानां संसारोच्छेदकारिणः।
त्रैलोक्याधिकमूल्यस्य केन मूल्यं विधीयते॥३६॥
**अर्थः—**जो भव्य जोवों के संसार का उच्छेद करने वाला है तथा जिसका मूल्य तीन लोक से अधिक है उस जिनधर्मका मूल्य किससे किया जा सकता है?
धर्मात्माओं का धर्म
भक्तिः श्रीवीतरागे भगवति करुणा प्राणिवर्गे समग्रे
दानं दीने च पात्रे श्रवणमनुदिनं श्रद्धया सच्छुतीनाम्।
पापे हेयत्वबुद्धिर्भवभयमथने मुक्तिमार्गेऽनुरागः
सङ्गेनिःसङ्गचित विषयविमुखता धर्मिणामेष धर्मः॥३७॥
** अर्थ—**श्री वीतराग भगवान् में भक्ति होना, समस्त प्राणियों के समूह पर दया होना, दीन पात्र के लिये दान देना, प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक समीचीन शास्त्रों का सुनना पाप में हेयत्व बुद्धि का होना, संसार के भय को नष्ट करने वाले मोक्ष मार्ग से अनुराग करना, परिग्रह में विरक्त चित्त का होना और विषयों से विरक्त रहना यह धर्मात्माओं का धर्म है॥३७॥
धर्म ही सिद्धिसुख को देने वाला है।
शिखरिणीच्छन्द
चिरं बद्धो जीवः सुकृतदुरिताभ्यां च वपुषा
स्वयं योग्योपायैर्भवति पयसोऽन्तर्घृतमिव।
विमुक्तोऽयं यस्मा-दभव-दर्हन सिद्धभगवान्
प्रपद्येऽर्हद्धर्मं तमिह शरणं सिद्धिदम्॥३८॥
** अर्थः—**जिस प्रकार दूध के अन्दर घी चिरकाल से निबद्ध है उसी प्रकार यह जीव भी चिरकाल से पुण्य पाप और शरीर से निबद्ध है। जिस धर्म के प्रभाव से यह जीव अर्हन्त और सिद्ध हुए हैं उसी सिद्धि सुख को देने वाले जिनधर्म की मैं शरण को प्राप्त होता है॥३८॥
धर्म की प्रधानता
चत्वास्ते वित्तदायादा धर्मचोराग्निभूभुजः।
ज्येष्ठेऽपमानिते पुंसि त्रयः कुप्यन्ति सादराः॥३९॥
** अर्थः—**धन के हिस्सेदार चार है—१ धर्मं, चोर, अग्नि, और राजा। इनमें से ज्येष्ठ अर्थात् धर्म का अपमान होने पर उसके प्रति आदर रखने वाले शेष तीन कुपित्त हो जाते॥३९॥
धर्म ही सुख का कारण है
धर्मपानं पिबेज्ज्ञानी प्रौढयुक्तिसमन्वितम्।
ऋते धर्म न सौख्यं स्याद् दुःखसङ्गविवर्जितम्॥४०॥
** अर्थः—** ज्ञानी मष्नुय को प्रबलयुक्तियों से सहित धर्म रूपी
पेय का पान करना चाहिये क्योंकि धर्म के बिना दुःख के संसर्ग से रहित सुख नहीं होता॥४०॥
धर्म की महीमा
धर्मयुक्तस्य जीवस्य भृत्यः कल्पद्रुमो भवेत्।
चिन्तामणिः कर्मकरः कामधेनुश्च किङ्करी॥४१॥
** अर्थः—**धर्म सहित जीव का कल्प वृक्ष सेवक है, चिन्तामणि किङ्कर है और कामधेनु किङ्करी है॥४१॥
धर्मात्मा मनुष्य का अल्प जीवन भी अच्छा है
वरं मुहूर्त्तमेकं च धर्मयुक्तस्य जीवितम्।
तद्धीनस्य वृथा वर्ष कोटीकोटी विशेषतः॥
** अर्थः—**धर्म सहित मनुष्य का एक मुहूर्त का जीवन भी अच्छा है और धर्म रहित मनुष्य का कोटिकोटी वर्ष का जीवन भी व्यर्थ है॥४२॥
धर्म ही जीवन है
जीवन्तोऽपि मृता ज्ञेया धर्महीना हि मानवाः।
मृता धर्मेण संयुक्ता इहामुत्र च जीविताः॥४३॥
** अर्थः—**यथार्थ में धर्म से रहित मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृत जानने के योग्य है और धर्म से सहित मनुष्य मर
कर भी इस लोक तथा परलोक दोनों में जीवित है॥४३॥
जिन धर्म ही मुक्ति का कारण है
सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति कालेऽन्तपरिवर्जिते।
जिनदृष्टेन धर्मेण नैवान्येन कथञ्चन॥४४॥
** अर्थः—**आज तक जितने सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में सिद्ध हो हो रहे हैं और अनन्त भविष्यकाल में जितने सिद्ध होंगे वे सब जैनधर्म से ही हुए हैं, हो रहे हैं, और होंगे, अन्य प्रकार से नहीं॥४४॥
धर्म का अनादर करने वाले की मूढ़ता
अनादरं यो वितनोति धर्मे कल्याणमालाफलकल्पवृक्षे।
चिन्तामणिं हस्तगतं दुरापं मन्ये स मुग्धस्तृणवज्जहाति॥४५॥
** अर्थः—**जो कल्याण परम्परा रूप फल को देने के लिये कल्पवृक्ष स्वरूप धर्म का अनादर करता है। जान पड़ता है वह मूर्ख हाथ में आये हुए दुर्लभ चिन्तामरिण रत्न को तृण के समान छोड़ देता है॥४५॥
धर्म शोभा का कारण
सस्येन देशः पयसाब्जपण्डः शौर्येण शस्त्री विटपी फलेन।
धर्मेण शोभामुपयाति मर्त्योमदेन दन्ती तुरगो जवेन॥४६॥
देश धान्य से, कमल समूह जल से, शस्त्र का धारक
धर्महीन मनुष्य जल्दी नष्ट होता है
छिन्नमूलो यथा वृक्षो गतशीर्षो यथा भटः।
धर्महीनो नरस्तद्वत्कियत्कालं च तिष्ठति॥४७॥
** अर्थः—**छिन्न मूल वृक्ष के समान और शिर रहित योद्धा के समान धर्म हीन मनुष्य कितने समय तक स्थित रह सकता है॥४७॥
धर्म का लौकिक फल
धर्मेण सुभगा नार्यो रूपलावण्यसंयुताः।
कामदेवनिभाः पुत्राः कुटुम्बसुखसाधनम्॥४८॥
** अर्थः—**धर्म से सौभाग्य शालिनी एवं रूप और सौन्दर्य से सहित स्त्रियां, कामदेव के समान पुत्र और सुख का साधन कुटुम्ब प्राप्त होता है॥४८॥
धर्मो कामदुघाधेनु र्धर्मचिन्तामणिर्महान्।
धर्मः कल्पतरुः स्थेयान्धर्मो हि निधिरक्षयः॥४९॥
** अर्थः—**धर्म मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु है। बड़ाभारी चिन्तमणि रत्न है स्थिर रहने वाला कल्पवृक्ष है और अक्षय निधि है॥४९॥
अत्यन्तविशदा कीर्त्ति स्तवनाच्च जगत् त्रये।
जायते धीमतो धर्मादन्यद्वा यच्च दुर्घटम्॥५०॥
**अर्थः—**जिनेन्द्र देव का स्तवन करने से बुद्धिमान मनुष्य की तीनों लोको में अत्यन्त उज्वल कीति फैलती है तथा धर्म के प्रभाव से और भो असंभव कार्य संभव हो जाते ह॥५०॥
शार्दूल विक्रीडितम्
रम्यं रूपमरोगता गुणगणाः कान्ता कुरङ्गीदृशः।
सौभाग्यं जनमान्यता सुमतयः संपत्तयः कीर्त्तयः।
वैदुष्यं रतिरुत्तमेन गुरुणा योगः सहायः सुखं
धर्मादेव नृणां भवन्ति ह्यनिशं धर्मे मतिर्दीयताम्॥५१॥
**अर्थः—**मनुष्यों को सुन्दर रूप, निरोगता, गुणसमूह, मृगनयनी स्त्रियां, सौभाग्य, लोक मान्यता, सद्बुद्धि, सम्पत्ति कोति, पाण्डित्य, प्रीति, उत्तम गुरु का सानिध्य सहायता, और सुख धर्म से ही प्राप्त होते हैं इसलिये निरन्तर धर्म में ही बुद्धि दीजिये॥५१॥
कौ वशीकरणं धर्मो धर्मश्चिन्तामणिः परः।
उक्तेन बहुना किं वा सारं यद् यच्च दृश्यते॥५२॥
**अर्थः—**धर्म ही पृथ्वी पर वशी करण मन्त्र है धर्म ही
उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है अथवा बहुत कहने से बया? संसार में जो जो सारभूत वस्तु देखी जाती हैं वह सब धर्म से प्राप्त होती है।
—: साधु प्रशंसा :—
विसृष्टसर्वसङ्गानां श्रमाणानां महात्मनाम्।
कीर्त्तयामि समाचारं दुरितक्षोदनक्षमम्॥५३॥
**अर्थः—**मैं सर्व परिग्रह के त्यागी महात्मा साधुओं के समीचीन आचार का कोर्सन करता है क्योंकि सद् गुरुवों का गुण कीर्तन सर्व पायं को नष्ट करने में समर्थ हैं॥५३॥
कौन क्या चाहता है?
मक्षिका व्रणमच्छिन्ति धनमिच्छन्ति पार्थिवाः
नीचा कलहमिच्छन्ति शान्तिमिच्छन्ति साधवः॥५४॥
**अर्थः—**मक्खियां घाव चाहती हैं, राजा घन चाहते हैं, नीच कलह चाहते हैं और साधु शान्ति चाहते हैं॥५४॥
साधु दर्शन का फल
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः।
तीर्थ फलति कालेन सद्यः साधुसमागमः॥५५॥
**अर्थः—**साधुओं का दर्शन करना पुण्य है, क्योंकि साधु तीर्थ स्वरूप हैं, अथवा तीर्थ से बढकर हैं, क्योंकि तीर्थ तो कालान्तर में फल देता है परन्तु साधुओं का समागम शीघ्र हीफल देता है॥५५॥
गुरु ही पृथ्वी के रक्षक हैं
गुरवः परमार्थेन यदि न स्युर्भवादृशाः।
अधस्ततो धरित्रीयं व्रजेन्मुक्ता धरैरिव॥५६॥
**अर्थः—**गुरुयों से भक्त कहते हैं कि यदि वास्तव में आप जैसे गुरु न हों तो यह पृथ्वी पर्वतों से मुक्त हुई के समान नीचे चली जावे अर्थात जिस प्रकार पर्वतों से छोड़ी हुई कोई वस्तु नीचे जाती है उसी प्रकार गुरुओं से छोड़ी हुई पृथ्वी नीचे जाती है—चारित्र से भ्रष्ट हो जाती है॥५६॥
साधु समागम से कुछ दुर्लभ नहीं है
साधोः समागमाल्लोके न किञ्चिदुर्लभं भवेत्।
बहुजन्मसु न प्राप्ता बोधिर्येनाधिगम्यते॥५७॥
**अर्थः—**साघु समागम से संसार में कुछ दुर्लभ नहीं है क्योंकि उससे, जो अनेक जन्मों में प्राप्त न हो सकी ऐसी बोधि प्राप्त हो जाती है॥५७॥
साधु संगति फल
साधुसङ्गमनासाद्य यो मुक्तेरालयं व्रजेत्।
स चान्यः प्रस्त्वलन्मार्गे कथं मेरु समारुहः॥५८॥
अर्थः—जो पुरुष साधु संगति को प्राप्त किये बिना मोक्ष को प्राप्त होना चाहता है वह अन्धा मार्ग में हो लड़खड़ा कर रह जाता है मेरु पर्वत पर कैसे चढ़ सकता है?॥५८॥
अन्योक्ति—आम और शर्करा का संवाद
शार्दूल विक्रीडितम्
गर्व मा कुरु शर्करे तव गुणान् जानन्ति राज्ञां गृहे
ये दीना धनवर्जिताश्च कृपणाः स्वप्नेऽपि पश्यन्ति नो।
आम्रोऽहं मधुकूपकोमलकलैस्तृप्ता हि सर्वे जना
रे रण्डे तब को गुणो मम फलैः सार्धं न किञ्चित्फलम्॥५९॥
अर्थः—री शक्कर! तू गर्व मत कर, तेरे गुणों को लोग राजाओं के घर में ही जानते हैं परन्तु जो, दीन, निर्धन और कृपण पुरुष हैं वे तुझे स्वप्न में भी नहीं देखते हैं। मैं आम हूँ, मेरे मीठे एवं कोमल फलों से सब लोग संतुष्ट रहते हैं। री रांड़ तेरा ऐसा कौनसा गुण है जो मेरे फलों की समानता कर सके। मेरे फल सवन, निर्धन—सभी के काम आते हैं। भावार्थ—साधु पुरुष वही है जो सव के काम आता है॥५९॥
जैन यातियों का प्रभाव
स्पृष्टा यत्र मही तदङ्घिकमलैस्तत्रैति सत्तीर्थतां—
तेभ्यस्तेऽपि सुराः कृताञ्जलिपुटा नित्यं नमस्कुर्वते।
तन्नाम स्मृतिमात्रतोऽपि जनता निष्कल्मषा जायते
ये जैना यतयश्चिदात्मनिरता ध्यानं समातन्वते॥६०॥
अर्थः—चैतन्य स्वरूप अत्मा में लीन रहने वाले जैन यति जहां ध्यान करते हैं वहां उनके चरण कमलों से स्पृष्य पृथ्वी समीचीन तीर्थता को प्राप्त होती है, ऐसी भूमिको देव लोग भी हाथ जोड़ कर निरन्तर नमस्कार करते हैं और उनके नाम के स्मरण मात्र से जन समूह निष्पाप हो जाता है॥६०॥
मुनिपद में पाये जाने वाले गुण
स्रग्धराछन्द
नो दुष्कर्मप्रवृत्तिर्न कुयुवतिसुतस्वामिदुर्वाक्यदुखं।
राजादौ न प्रणामोऽशनवसनधनस्थानचिन्ता च नैव।
ज्ञानाप्तिर्लोकपूजा प्रशमसुखरतिः प्रेत्य मोक्षाद्दवाप्तिः
श्रामण्येऽमी गुणाः स्युस्तदिह सुमतयस्तत्र यत्नं कुरुध्वम्
** अर्थः**—मुनि पद में न खोटे कार्यों में प्रवृति होती है और न दुष्ट स्त्री न दुष्ट पुत्र और न दुष्ट स्वामी के कुवचनों का
दुःख होता है,न राजा आदि को प्रणाम करना पड़ता है
और न भोजन वस्त्र, धन तथा स्थान आदि की चिन्ता करनी पड़ती है। इनके विपरीत ज्ञान की प्राप्ति होती है, लोक प्रतिष्ठा बढ़ती है
. शान्ति सुख में प्रीति होती है और मरने के बाद मोक्ष प्रादि की प्राप्ति होती है। हे बुद्धिमानजनो! चूंकि मुनिपद में ये गुण हैं इसलिये उसे प्राप्त करने का यत्न करो॥६१॥
दिगम्बर साधु क्या वारण करते हैं?
संतोषं लोभनाशाय धृतिं च सुखशान्तये।
ज्ञानं च तपसां वृद्ध्यै धारयन्ति दिगम्बराः ॥६२॥
अर्थः—दिगम्बर साधु लोभ का नाश करने के लिये संतोष को,सुख शान्ति के लिये धैर्य को और तप की वृद्धि के लिये ज्ञान को धारण करते हैं॥६२॥
मुनि परिग्रह से रहित होते हैं
अपि वालाग्रमात्रेण पापोपार्जनकारिणा।
ग्रन्थेन रहिता धीरा मुनयः सिंहविक्रमाः॥६३॥
अर्थः—धीरवीर एवं सिंह के समान पराक्रमी मुनि, पापका उपार्जन करने वाला बाल के अग्रभाग बराबर भी परिग्रह अपने पास नहीं रखते॥६३॥
मुनिराज वन्दनीय हैं
महायोगेश्वरा धीरा मनसाशिरसा गिरा।
वन्यास्ते सावत्रो नित्यं सुरैरपि सुवेष्टिताः॥६४॥
जो उत्कृष्ट ध्यान के स्वामी हैं, धीरवीर हैं तथा देव भी जिन्हें निरन्तर घेरे रहते हैं ऐसे साधु मन से, शिर से और वाणी से बन्दनीय हैं॥६१॥
मुनिपद का माहात्म्य
न च राजभयं न च चोरभयं नरलोकसुखं परलोकहितम्।
वरकीर्त्तिकरं नरदेवनुतं श्रमणत्वमिदं रमणीयतरम्॥६५॥
अर्थः
—
यह मुनिपद अत्यन्त रमणीय है क्योंकि इसमें न राजा का भय रहता है न चोर का भय रहता है किन्तु इसके विपरीत उत्तम कीत्ति को करने वाला है और मनुष्य तथा देवों के द्वारा स्तुत है॥६५॥
मुनि कैसे होते हैं
परित्यक्तावृत्तिर्गीष्मे समाप्तनियमस्थितिः।
बिइङ्ग इव निःसङ्गः केसरीव भयोज्झितः॥६६॥
अर्थः
—विगम्बर मुनि ग्रीष्म ऋतु में छाया आदि को आवरण से रहीत होते हैं, आवश्यक कार्यों में अच्छी तरह
स्थित रहते हैं, पक्षी के समान निःसङ्ग—निष्परिग्रह रहते हैं और सिंह के समान निर्भय होते हैं॥६६॥
मुनिपद को कौन प्राप्त होते हैं ?
ऐरण्डसदृशं ज्ञात्वा मनुष्यत्वमसारकम्।
सङ्गेन रहिता धन्याः श्रमणात्वमुपाश्रिताः॥६७॥
अर्थः
—
भाग्यशाली मनुष्य, मनुष्य भव को ऐरण्ड के समान निःसार जानकर परिग्रह से रहित होते हुए मुनिपद को प्राप्त होता है।॥६७॥
गुरुगौरवम्
गुरु किसे कहते हैं ?
सर्वशास्त्रविदो धीराः सर्वेसत्वहितङ्करः।
रागद्वेषविनिर्मुक्ता गुरवो गरिमान्विताः॥६८॥
अर्थः
—जो समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं, धीरवीर हैं, सब प्राणियों का हित करने वाले हैं, तथा रागद्वेष से रहित है ऐसे गुरु ही गौरव से हित होते हैं॥६८॥
गुरु ही श्रेष्ठ बन्धु हे
वसन्ततिलकावृत्तम्
जन्माटवीषु कुटिलासु विनष्टमार्गान्
येऽत्यन्तनिर्वृतिपथं प्रतिबोधयन्ति।
तेभ्योऽधिकः प्रियतमो वसुधातलेऽस्मिन्
कोऽन्योऽस्ति बन्धुरपरः परिगण्यमानः॥६९॥
अर्थः—जो संसार रूपीकुटिल अटवियों में मार्ग भूले हुए मनुष्यों को अविनाशी मोक्ष का मार्ग बतलाते हैं उनसे अधिक आदरणीय प्रियतम बन्धु इस पृथ्वीतल पर दूसरा कौन है ?॥६९॥
गुरु वाक्य ही औषध है
मिध्यादर्शन विज्ञान सन्निपात निपीडनात्।
गुरुवाक्यप्रयोगेण मुच्यन्ते सर्वमानवाः॥७०॥
अर्थः—समस्त मनुष्य गुरुओं के वचन रूपी औषध के प्रयोग द्वारा मिध्यादर्शन और मिथ्याज्ञान रूपी सन्निपात की बीमारी से मुक्त हो जाते हैं।॥७०॥
जगत में गुरु हो रक्षक हे कुटुम्बादिक नहीं, यह बताते हैं
शिखर
णीच्छन्दः
पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवहः।
सुहृत्स्वामी माद्यत्करिभटरयाश्वं परिकरः।
निमज्जन्तं जन्तुं नरककुहरे रक्षितुमलं
गुरोधर्माधर्मप्रकटनपरात् कोऽपि न परः॥७१॥
अर्थः—धर्म और अधर्म को प्रकट करने में तत्पर गुरु सिवाय कोई दूसरा पिता, माता, भाई, प्रिय सखी, पुत्रसमूह मित्र, स्वामी, मदोन्मत्त हाथी, योद्धा, रथ, घोड़ा तथा परिजन नरक रूपी गर्त में डूबते हुए जीव की रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं॥७१॥
गुरु ही नौका है
संसाराब्धौ निमग्नानां कर्मयादः प्रपूरिते।
भविनांभव्यचितानां तरण्डं गुरवो मताः॥७२॥
अर्थः—कर्मरूपी मगरमच्छों से भरे हुए ससार रूपी समुद्र में निमग्न भव्य प्राणियों को तारने के लिये गुरु नौका सदृश माने गये हैं॥७२॥
तरण तारण गुरु
वंशस्थवृत्तम्
अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते, प्रवर्तयत्यन्यजनं च निस्पृहः।
स सेवितव्यः स्वहितौषिणा गुरु, स्वयं तरंस्तारवितुं क्षमः परम॥७३॥
अर्थः—जो निर्दोष मार्ग में स्वयं प्रवर्तते हैतथा निःस्पृह
भाव से दूसरों को प्रवर्तते हैं। साथ ही जो स्वयं तरते हैं तथा दूसरों को तारने में समर्थ हैं ऐसे गुरु आत्म हितैषीजनों के द्वारा सेवनीय हैं॥७३॥
गुरु वचन ही पदार्थ दर्शक हैं
अज्ञानान्धतम स्तोमविध्वस्ताशेषदर्शनाः।
भव्याः पश्यन्ति सूक्ष्मार्थान् गुरुमानुत्रचऽशुभिः॥७४॥
**अर्थः—**अज्ञान रूपी गाढ अन्धकार के समूह से जिनकी सम्पूर्ण दृष्टि नष्ट हो गई है,ऐसे भव्य जीव गुरु रूपी सूर्य के वचन रूपी किरणों के द्वारा सूक्ष्म पदार्थों का दर्शन करते हैं॥७४॥
साधुयों का कषाय दमन
मालिनी छन्दः
स्मरमपि हृदि येषां ध्यानत्रह्निप्रदीप्ते
सकलभुवनमन्लं दह्यमानं विलोक्य।
कृतिमिप इव नष्टास्ते कषाया न तस्मिन्
पुनरपि हि समीयुः साधवस्ते जयन्ति॥७५॥
**अर्थः—**ध्यान रूपी अग्नि से प्रदीप्त जिनके हृदय में जलते हुए सकल जगत् के मल्ल कामदेव को देख कर वे क्रोधादि कषाय, मानों बहाना बनाकर ही इस तरह भाग कर खड़े
कि फिर वहां नहीं आये, वे गुरु जयवन्त हों॥७५॥
गुरु ही संसार समुद्र के तारक हैं
भववार्धितितीर्षन्ति सद्गुरुभ्यो विनापि ये।
जिजीविपन्ति ते मूढा नन्वायुः कर्म वर्जिताः॥७६॥
**अर्थः—**जो सद्गुरुयों के बिना भी संसार सागर को तैरने की इच्छा करते हैं वे मूर्ख आयु कर्म से रहित होकर जीवित रहने की इच्छा करते हैं॥७६॥
गुरुयों के वचन सदा ग्राह्य हैं
गुरूणां गुरुबुद्धीनां निःस्पृहाणामनेनसाम्।
विचारचतुरैर्वाक्यं सदा संगृहयते बुधैः॥७७॥
**अर्थः—**विशाल बुद्धि के धारक, निःस्पृह एवं निष्पाप गुरुयों के वचन विचार निपुण विद्वानों के द्वारा सदा संग्रहीत किये जाते हैं॥७७॥
गुरु ही मोक्ष मार्ग के प्राप्त कराने वाले हैं
वसन्ततिलका
भ्रांतिप्रदेषु बहुवर्त्मसु जन्मक्षे
पन्थानमेकममृतस्य परं नयन्ति।
ये लोकमुन्नतधियः प्रणमामि नित्यं।
तानप्यहं गुरुवरान् शिवमार्गमिच्छुः ॥७८॥
अर्थः—
संसार रूपी अठवी में भ्रांति उत्पन्न करने वाले अनेक मार्गों में भटके हुए मनुष्य को जो मोक्ष का एक अद्वितीय मार्ग प्राप्त कराते हैं, मोक्ष मार्ग का इच्छुक मै उत्कृष्ट बुद्धि के धारक उन श्रेष्ठ गुरुयों को निरन्तर प्रणाम करता हूँ ॥७८॥
नमस्कार करने योग्य गुरु
उपजातिछन्द
अनर्घरत्नत्रयसम्पदोऽपि निर्ग्रन्थतायाः पदमद्वितीयम्।
जयन्ति शान्ताः स्मरवधूनां वैधव्यदास्ते गुरवो नमस्याः॥
**अर्थः—**जो अमूल्य रत्नत्रय रूप सम्पदा से सहित होकर भी निग्रन्यता—निष्परिग्रहता के अद्वितीय स्थान हैं, शान्त हैं तथा काम की बाधा से युक्त स्त्रियों के लिये वैधव्य प्रदान करने वाले हैं वे गुरु नमस्कार करने योग्य है ॥७९॥
गुरु वचन की दुर्लभता
वैभवं सकलं लोके सुलभं भववर्तिनाम्।
तत्त्वार्थदर्शिनां तथ्यं गुरूणां दुर्लभं वचः॥८०॥
**अर्थः—**संसार में प्राणियों को समस्त वैभव सुलभ है परन्तु
तत्थार्थ के द्रष्टा गुरुयों के सत्य वचन दुर्लभ हैं॥८०॥
गुरुयों के बिना तत्वज्ञान संभव नहीं है
उपजाति
बिना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो जानाति तत्त्वंन विवक्षणोऽपि।
स्कवर्णपूर्णेज्ज्वललोचनोऽपि दीपं बिना पश्यति नान्धकारे॥८१॥
**अर्थः—**गुण सागर गुरूओं के विना विद्वान भी तत्व को नहीं जानता है सो ठीक ही है क्योंकि अपने कानों तक लम्बे उज्ज्व नेत्रों को धारण करने वाला मनुष्य भी अन्धकार में दीपक के बिना पदार्थ को नहीं देख पाता है॥८१॥
गुरु ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं
शार्दूलविक्रीडित
अक्षस्तेनसुदुर्धरा अतिखला जीवस्य लुण्ठन्ति ये
वृत्तज्ञानगुणादिरत्ननिचितं भाण्डं जगत्तारकम्।
तान् संनह्य यतीश्वरा यमवनुश्चादाय मार्गे स्थिताः
ध्नन्ति ध्यानशरेण येऽत्र सुखिनस्ते यान्ति मुक्त्यालयम्॥८२॥
**अर्थः—**जो अतिशय दुष्ट इन्द्रिय रूपी प्रबल चोर, जीवों को सम्यक चारित्र तथा ज्ञान आदि गुणरूपी रत्नों से परिपूर्ण जगत् को तारने वाले पात्र को लूटते हैं उन्हें जो मुनिराज
मार्ग में खड़े हो चारित्र रूपी धनुष को लेकर तथ बांधकर ध्यान रूपी वाण के द्वारा नष्ट करते हैं वे ही इस संसार मेंसुखी हैं तथा मुक्ति मन्दिर को प्राप्त होते हैं ॥८२॥
गुरु सङ्घ का प्रभिनन्दन
नक्षत्राक्षतपूरितं मरकयस्थालं विशानं नमः
पीयूषद्यु तिनारिवे लकलितं सच्चन्द्रिकाचन्दनम्।
यावन्मेरुकराग्रकङ्कणवरा धते धरित्री वधू
स्तावन्नन्दतु धर्मकर्मनिरतः श्रीजैनसङ्घ क्षितौ ॥८३॥
**अर्थः—**मेरु पर्वत रूपी हस्ताग्र के कंकरण को धारण करने वाली यह पृथ्वी रूपी वधु जब तक नक्षत्र रूपी अक्षतों से युक्त, चन्द्रमा रूपी नारियल से सहित एवं चांदनी रूपी चन्दन से सुशोभित आकाश रूपी विशाल नीलमणिमय स्थाल को धारण करती है तब तक धर्म कर्म में लीन जैन गुरुयों का सङ्घ पृथ्वी पर आनन्द को प्राप्त हो—शिष्य प्रशिष्यों की परम्परा से वृद्धि युक्त हो ॥८३॥
वे गुरु कल्याणकारी हो
निःष्पन्दीकृतचित्तचण्डविहगाः पञ्चाक्षकक्षान्तका
ध्यानध्वस्तसमस्तकिल्विषविषा विद्याम्बुधेः पारगाः।
लीलोन्मूलितकर्मकण्टकचयाः कारुण्यपुण्याशया
योगीन्द्रा भवभीमदैत्यदलनाः कुर्वन्तु ते निर्वृतिम्॥८४॥
**अर्थः—**जिन्होंने मन रूपी प्रबल पक्षी को निश्चेष्ट कर दिया है, जो पञ्चेन्द्रिय रूपी वन को नष्ट करने वाले हैं,जिन्होंने ध्यान के द्वारा समस्त पाप रूपी विष को नष्ट कर दिया है, जो विद्या रूपी सागर के पारगामी हैं, जिन्होंने कर्म रूपो कांटों के समूह को अनायास ही उखाड़ दिया है,जिनका अभिप्राय दया से पुण्य रूप है, और जो संसार रूपीभयंकर दैत्य को नष्ट करने वाले हैं ऐसे योगिराज महामुनि तुम्हारा कल्याण करें॥६४॥
शिष्य का लक्षण
गुरुभक्तो भवाद्भीतो विनीतो धार्मिकः सुधीः
शान्तस्वान्तो ह्यतन्द्राठुः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते॥८५॥
**अर्थः—**जो गुरु भक्त हो, संसार से भयभीत हो, विनीत हो धर्मात्मा हो, बुद्धिमान हो शान्तचित्त हो, आलस्य रहित हो,
और सभ्य हो वह शिष्य कहा जाता है
गुरु से कोई ऋण रहित नहीं हो सकता
गुरोः सनगरग्रामां ददाति मेदिनीं यदि।
तथापि न भवत्येष कदाचिदनृणः पुमान्॥८६॥
**अर्थः—**यदि गुरु के लिये नगर और ग्राम से सहित पृथ्वी को देवे वो भी पुरुष कभी ऋण रहित नहीं हो सकता॥८६॥
स्याद्वादवन्दना
स्याद्वादवन्दना
स्याद्वादं सततं वन्दे सर्वप्राणिहितावहम्।
समतामृतपूर्णं यद् विश्वभ्रान्तिहरं परम्॥८७॥
**अर्थः—**जो समस्त प्राणियों का हित करने वाला है, समता रूपी अमृत से पूर्ण है तथा सब प्रकार की भ्रान्तियों को हरने वाला है उस श्रेष्ठ स्याद्वाद सिद्धान्त की मैं वन्दना करता हूँ॥८७॥
अनेकान्तरवि
उपजाति
यः सर्वथैकान्तनयान्धकारं निहन्त्यवश्यं नयरश्मिजालैः।
विश्वप्रकाशं विदधाति नित्यं पायादनेकान्तरविः स युष्मान्॥८८॥
**अर्थः—**जो नय रूपी किरणों के समूह से सर्वथाएकान्तनय रूपी अन्धकार को अवश्य हो नष्ट करता है तथा जो निरन्तर समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है वह अनेकान्त रूपी रवि तुम सब की रक्षा करे॥८८॥
जिन शासन की महिमा
शासनं जिननाषस्य भवदुःखस्य नाशकम्।
तस्यास्ति वासना यस्य स कृती कृतिनां वरः॥८९॥
**अर्थः—**जिनेन्द्र भगवान् का शासन ससांर के दुःखों का नाश करने वाला है। जिस पुरुष के उस जिन शासन को वासना है वह कुशल एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ है॥८९॥
जिन वाक्य सुखकारी है
चन्द्रातपेन को दग्धः को मृतोऽमृतसेवया।
जैनवाक्येन को नष्टः गुरुकोपेन को हतः॥९०॥
**अर्थः—**चांदनी से कौन जला है ? अमृत पान से कौन मरा है ? जिन वाक्य से कौन नष्ट हुआ है ? और गुरु कोप से कौन मरा है ?॥९०॥
गुरुनिन्दानिषेधनम्
गुरु निन्दा का फल
देवनिन्दी दरिद्रः स्याद् गुरुनिन्दी च पातकी।
स्वामिनिन्दी भवेत्कुष्ठी गोत्रनिन्दी कुलक्षयी
॥
९१॥
**अर्थः—**देव को निन्दा करने वाला दरिद्र होता है, गुरु की
निन्दा करने वाला पातकी होता है, स्वामी की निन्दा करने बाला कुष्ठा होता है ओर गोत्र की निन्दा करने वाला कुल क्षयीकुल का क्षय करने वाला होता है॥९१॥
अविद्यमान दोषों के कथन का फल
यो भाषते दोषमविद्यमानं सतां गुणानां ग्रहणे च मूकः।
स पापभाक् स्याद् स विनिन्दकश्च यशोरवः प्राणवधाद्गरीयान्॥९२॥
**अर्थः—**जो किसी के अविद्यमान दोष को कहता है और विद्यमान गुणों के ग्रहण करने में मूक रहता है वह पापी है तथा निन्दक है क्योंकि यश का घात करना प्राणघात से कहीं अधिक है॥९२॥
गुरु की निन्दा करने वाला स्वयं दोषी होता है
निन्द्रां यः कुरुते साधोस्तया स्वं दूषयत्यसौ।
रवौ भूतिं त्यजेद्यो हि मूर्धि्न तस्यैव सा पतेत्॥९३॥
**अर्थः—**जो गुरु को निश्दा करता है वह उस निन्दा के द्वारा अपने आपको दूषित करता है। जो सूर्य पर रास्ख डालता है वह राख उसी के मस्तक पर पड़ती है॥९३॥
गुरु निन्दक संसार सागर में डूबते हैं
निमज्जन्ति भावाम्भोधौ यतनां दोषत्परा।
किं चित्रं यद्भवेन्मृत्युः कालकूटविषादनात्॥९४॥
**अर्थः—**गुरुयों के दोष खोजने में तत्पर रहने वाले पुरुष संसार रूपी सागर में डूबते हैं सो ठीक ही है क्योंकि कालकूट विष के खाने से यदि मृत्यु होती है इसमें नया आश्चर्य है ?
गुरु निन्दा से निन्द्यगति प्राप्त होती है
बीतरागे सुनौ शस्ते यो द्वेषं कुरुतेऽधमः।
धर्मवद्भिर्जनैः सोऽपि निन्द्यो निन्द्यगतिं व्रजेन्॥९५॥
**अर्थः—**जो अधम पुरुष राग द्वेष से रहित उत्तम मुनि से द्वेष करता है वह धर्मात्माजनों के द्वारा निन्दित होता है तथा स्वयं निन्द्यगति को प्राप्त होता है ॥९५॥
धनिन्दनीय की निन्दा नरक का कारण है
निन्दनीयेषु का निन्दा स्वभावो गुणकीर्तनम्।
अनिन्द्येषु च या निन्दा सा निन्दा नरकावहा ॥९६॥
**अर्थः—**निन्दनीय लोगों की क्या निन्दा करना है? उनकी निन्दा तो स्वयं प्रकट है। मनुष्य का स्वभाव तो गुणों का कीर्तन होना चाहिये। धनिन्दनीय लोगों की जो निन्दा है वह नरक को प्राप्त कराने वाली है ॥९६॥
नीतिज्ञ मनुष्य किनकी निन्दा नहीं करते हैं ?
रथाद्धताच्छन्दः
स्वामिनं सुहृदमिष्टसेवकं बल्लभामनुजमात्मजं गुरुम्।
मातरं च जनकं च बान्धवं दूषयन्ति नहि नीतिवेदिनः॥९७॥
**अर्थः—**नीति के जानने वाले मनुष्य, स्वामी, मित्र, इष्ट सेवक, स्त्री, छोटा भाई, पुत्र, गुरु, माता, पिता, और भाई की निन्दा नहीं करते॥९७॥
मुनि निन्दा निगोद का कारण है
मुक्त्या दुःखरातान्युच्चैः सर्वासु श्वभ्रभूमिषु।
निगोतेऽभिपतन्त्येते यतिदोषपरायणाः॥९८॥
**अर्थः—**मुनियों के दोष खोजने में तत्पर रहनेवाले मनुष्य नरक की समस्त पृथिवीयों में सैकड़ों दुःख भोगकर निगोद में पड़ते हैं॥९८॥
सम्यग्दर्शन प्रशंसा
सम्यग्दर्शन परम धर्म है
दर्शनं परमो धर्मो दर्शनं शर्म निर्मलम्।
दर्शनं भव्यजीवानां निर्वृतेः कारणं परम्॥९९॥
**अर्थः—**सम्यग्दर्शन परम धर्म है, सम्यग्दर्शन निर्मल सुख है
और सम्यग्दर्शन भव्य जीवों के निर्वाण का कारण है।॥९९॥
सम्यग्दर्शन रहित साधु निन्दनीय है
दृष्टिहीनो भवेत्साधुः कुर्वन्नपि तपो महत्।
दृग्विशुद्धः सुरैर्मर्त्यैनिन्दनीयः पदे पदे॥१००॥
**अर्थः—**सम्यग्दर्शन से रहित साधु महान् तप करता हुआ भी सम्यग्दृष्टि देवों और मनुष्यों के द्वारा पद पद पर निन्दनीय होता है ॥१००॥
सम्यग्दर्शन सहित गृहस्थ प्रशंसनीय है
सम्यग्दृष्टिगृहस्थोऽपि कुर्वन्नारम्भमञ्जसा।
पूजनीयो भयेल्लोके नृनाकिपतिभिः स्तुतः॥१०१॥
**अर्थः—**सम्यदृष्टि मनुष्य गृहस्थ होने पर भी तथा प्रशस्त आरम्भ करने पर भी लोक में मनुष्यों और इन्द्रों के द्वारा पूजनीय एवं स्तवनीय होता है॥१०१॥
सम्यक्त्वेन विना देवा आर्तध्यानं विधाय ये।
दिवश्रच्युत्वा प्रजायन्ते स्थावरेष्वत्र तत्फलात्॥१०२॥
**अर्थः—**सम्यवत्व के विना देव अर्तध्यान कर उसके फल स्वरूप स्वर्ग से च्युत हो स्थावर जीवों में उत्पन्न होते हैं॥
सम्यग्दर्शन से मनुष्य तीर्थंकर होता है
यतः श्वभ्राद्विनिर्गत्य क्षपित्वा प्राक्तनाशुभम्।
समदर्शनमाहात्म्यात्तीर्थनाथो भवेत्सुधीः॥१०३॥
**अर्थः—**सम्यग्दर्शन के प्रभाव से भेद विज्ञानी प्राणी नरक से निकल कर तथा पहले के अशुभ कर्मों को खिपा कर तीर्थङ्कर होता है॥१०३॥
सम्यक्त्व के साथ नरक का वास भी अच्छा है
सम्यक्त्वेन समं वासो नरकेऽपि वरं सताम्।
सम्यक्त्वेन विना नैव निवासो राजते दिवि॥१०४॥
**अर्थः—**सम्यकत्व के साथ सत्पुरुषों का नरक वास भी अच्छा है और सम्यक्त के बिना स्वर्ग का निवास भी शोभा नहीं देता॥१०४॥
सम्यवत्व से ही जन्म सफल है
तस्यैव सफलं जन्म मन्येऽहं कृतिनो भुवि।
शशाङ्कनिर्मलं येन स्वीकृतं दर्शनं महत्॥१०५॥
**अर्थः—**जिसने चन्द्रमा के समान निर्मल उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन स्वीकृत किया है पृथ्वी पर मैं उसी कुशल मनुष्य के जम््म
को सफल मानता है।
सम्यग्दर्शन के धारक जीव ही धन्य हैं
धन्यास्त एव संसारे बुधैः पूज्याः सुरैः स्तुताः।
दृष्टिरत्नं न यैर्नीतं कदाचिन्मत सन्निधौ॥१०६॥
**अर्थः—**संसार में वे ही धन्य हैं, वे ही विद्वानों के द्वारा पूज्य हैं और वे ही देवों के द्वारा स्तुत्य हैं जिन्होंने सम्यग्दर्शन रूपी रत्न को कभी मलिन नहीं होने दिया॥१०६॥
सम्यग्दर्शन को कभी मलिन नहीं करना चाहिये
मत्वेति दर्शनं जातु स्वप्नेऽपि मलसन्निधिम्।
निर्मलं मुक्ति सोपानं न नेतव्यं शिवार्थिभिः॥१०७॥
**अर्थः—**यह जानकर मोक्ष के अभिलाषी पुरुषों को मुक्ति की सीढ़ी स्वरूप निर्मल सम्यग्दर्शन को कभी स्वप्न में भी मल के समीप नहीं ले जाना चाहिये॥१०७॥
मलिन सम्यग्दर्शन से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती
मलिने दर्पणे यद्वत्प्रतिविम्बं न दृश्यते।
सदोषे दर्शने तद्वन्मुक्तिस्त्रीवदनाम्बुजम्॥१०८॥
**अर्थः—**जिस प्रकार मलिन दर्पण में प्रतिविम्ब नहीं दिखाई देता उसी प्रकार मलिन सम्यग्दर्शन में मुक्ति रूपी स्त्री का मुख कमल नहीं दिखाई देता ॥१०८॥
सम्यग्दर्शन का ऐहलौकिक और पारलौकिक फल
इन्द्राहमिन्द्रतीर्थेश लौकान्तिकमहात्मनाम्।
बलादीनां पदान्यत्र महान्ति च सुरालये॥१०९॥
अर्थः—
सम्यग्दर्शन के प्रभाव से इस लोक और परलोक में इन्द्र, अहमिन्द्र,, तीर्थंकर लौकान्तिक देव तथा बलभद्र आदि के बड़े बड़े पद प्राप्त होते हैं।॥१०९॥
सम्यग्दर्शन सब पापों को नष्ट करने वाला है
वसन्तलिका
पापं यदर्जितमनेकभवैर्दुरन्तं
सम्यक्त्वमेतदखिलं सहसा हिनस्ति।
भस्मीकरोति सहसा तृणकाष्ठराशिं
किं नोर्जितोज्ज्वलशिखो दहनः समृद्धः॥११०॥
अर्थः—
अनेक भवों में जो दुरन्त—दुःखदायी पाप का संचय होता है उन सव को यह सम्यग्दर्शन शीघ्र ही नष्ट कर देता है सो ठीक ही है क्योंकि प्रचण्ड और उज्ज्वल ज्वालाओं से युक्त देदीप्यमान अग्नि क्या तृण और काष्ठ की राशि को सहसा भस्म नहीं कर देती ?
सम्यग्दर्शन से बढ़कर सुख नहीं है
दर्शनबन्धो र्न परो बन्धुर्दर्शनलाभान्न परो लाभः।
दर्शनमित्रान्न परं मित्रं दर्शनसौख्यान्न परं सौख्यम्॥१११॥
**अर्थः—**सम्यग्दर्शन रूपी बन्धु से बढ़कर दूसरा बन्धु नहीं है, सम्यग्दर्शन रूपी लाभ से बढ़कर दूसरा लाभ नहीं है, सम्यग्दर्शन रूपी मित्र से बढ़कर दूसरा मित्र नहीं है और सम्यग्दर्शन रूपी सुख से बढ़कर दूसरा सुख नहीं है॥१११॥
सम्यग्दर्शन से बढ़कर बन्धु नहीं है
सम्यक्त्वान्नापरो बन्धुः स्वामी विश्वहितंकरः।
स्वर्गमुक्तिकरः पुंसां पापघ्नञ्च वृषप्रदः॥११२॥
**अर्थः—**मनुष्यों का मम्यग्दर्शन से बढ़कर दूसरा बन्धु नहीं है, सम्यग्दर्शन से बढ़कर दूसरा सर्वं हितकारी स्वामी नहीं है, और सम्यग्दर्शन से बढ़कर दूसरा स्वर्ग तथा मोक्ष को शप्त कराने वाला, पापापहारी धर्म दायक नहीं है ॥११२॥
सम्यक्त्व रूपो चिन्तामणि की विशेषता
केवलं धनमत्रैव सुखं दुखं ददात्यहो।
मम्यक्चिन्तामणि र्विश्वसुखं लोकत्रये सताम् ॥११३॥
**अर्थः—**धन तो केवल इसी लोक में सुख और दुःख देता है
परन्तु सम्यक्त्व रूपो चिन्तामणि तीनों लोकों में सत्पुरुषों को समस्त सुख प्रदान करता है॥११३॥
सम्यग्दृष्टि ही मोक्ष मार्ग में स्थित है
मुक्तिमार्गस्थमेवाहं तं मन्ये पुरुषोत्तमम्।
भोक्तार त्रिजगल्लक्षम्याः स्वीकृतं येन दर्शनम्॥११४॥
**अर्थः—**जिसने सम्यग्दर्शन स्वीकृत किया है मैं उसी पुरुषोत्तम को मोक्ष के मागं में स्थित तथा तीन जगत् की लक्ष्मी का भोगने वाला मानता है।॥११४॥
सम्यग्दृष्टि ही यहां धनी है
महाधनी स एवात्र मतो दक्षै परत्र च।
अनर्ध्यदृष्टि सद्रत्नं हृदि यस्य विराजते॥११५॥
**अर्थः—**जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन रूपी अमूल्य रत्न सुशोभित है वही चतुर मनुष्यों के द्वारा इस लोक तथा परलोक में महाधनी माना गया है॥११५॥
सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र का मूल
ज्ञानचारित्रयोर्मूलं दर्शनं भाषितं जिनैः।
सोपान प्रथमं मुक्तिधाम्नो बीजं वृषस्य च॥११६॥
**अर्थः—**जिनेन्द्र भगवान् ने सम्यग्दर्शन को ज्ञान और
चरित्र का मूल मोक्ष महल की पहली सीढ़ी और धर्म का बीजकहा है॥११६॥
सम्यक्त्वान् की पहिचान
क्षमावैराग्यमन्तोषदयावान् विषयातिग।
कषायमदसंहारी सम्यक्त्वभूषणो भवेत्॥११७॥
**अर्थः—**जो क्षमा वैराग्य संतोष और दया से सहित है। विषयों से परे है तथा कपायरूपी मद का संहरण करने बाला है वही सम्यक्त्य रूपो आभूषण से सहित होता है॥११७॥
क्षमा प्रशंसा
क्षमावान् का दुर्जन क्या कर सकता है?
सत्यदुर्गसमारूढं शीलप्राकारवेष्टितम्।
क्षमाखङ्गयुतं नित्यं दुर्जनः किं करिष्यति॥११८॥
**अर्थः—**जो सत्यरूपी किले पर चढ़ा हुआ है, जो शील रूपी कोट से घिरा हुआ है तथा जो सदा क्षमारूपी खङ्ग से सहित है दुर्जन उसका क्या कर सकता है॥११८॥
अकारण द्वेषी को संतुष्ट करना कठिन है
निमित्तमुदिश्य हि यः प्रकुप्यति ध्रुवं सतस्यापगमे प्रसीदति।
अकारणद्वेषि मनस्तु यस्य वै कथं जनं तं परितोषयिष्यति
**अर्थः—**जो किसी कारण को लेकर कुपित होता है वह निश्चय ही उस कारण के दूर हो जाने पर प्रसन्न हो जाता है परन्तु जिसका मन बिना कारण ही द्वेष करता है उसे किस प्रकार संतुष्ट किया जा सकता है॥ ११९॥
क्षमारूप खङ्ग की महिमा
क्षमाखङ्गः करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति।
अतृणे पतितो वन्हिः स्वयमेवोपशाम्यति॥१२०॥
**अर्थः—**क्षमा रूपी खङ्ग जिसके हाथ में हो उसका दुर्जन क्या कर लेगा ? क्योंकि तृणरहित स्थान पर पड़ी हुई अग्नि स्वयं ही शान्त हो जाती है॥१२०॥
मुनियों का सम्बल क्षमा है
कस्यचित्सम्बलं विद्या कस्यचित्सम्बलं धनम्।
कस्यचित्सम्बलं मात्येमुनीनां सम्बलं क्षमा॥१२१॥
**अर्थः—**वि.सी का सम्बल (नाश्ता) विद्या है, किसी का
सम्बल धन है, किसी का सम्बल मनुष्यता है और मुनियों का सम्बल क्षमा है॥१२१॥
सबल निर्बल पर कोप नहीं करते
यद्यपि रटति सरोषो मृगपतिपुरतोऽपि मत्तगोमायुः।
तदपि न कुप्यति सिंहो ह्यसदृशि पुरुषे कुतः कोपः॥१२२॥
**अर्थः—**यद्यपि क्रोध से युक्त मत्त शुगाल सिंह के सामने भी शब्द करता है तथापि सिंह कुपित नहीं होता सो ठीक है, क्योंकि अपनी समानता न रखने वाले पुरुष पर क्रोध कैसे किया जा सकता है ?॥१२२॥
क्षमा ही आभूषण है
सुतबन्धुपदातीना—मपराधशतान्यपि।
महात्मानः क्षमन्ते हि तेषां तद्धि विभूषणम्॥१२३॥
**अर्थः—**महात्मा पुरुष पुत्र, बन्धु और सेवक आदि से सैकड़ों अपराध क्षमा करते हैं, सो ठीक ही है क्योंकि क्षमा उनका आभूषण है॥१२३॥
क्षमा करोड़ों ध्यान के समान हैं
पूण्यकोटीसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमो जपः।
जपकोटीसमं ध्यानं घ्यानकोटीसमा क्षमा॥१२४॥
अर्थः—
भगवान का स्तोत्र करोड़ों पुण्यकार्यों के समान है जप करोडों स्तोत्रों के समान है, ध्यान करोड़ों जपों के समान है और क्षमा करोड़ों ध्यानों के समान है।॥१२४॥
शान्तात्मा का लक्षण
कालुष्यकारणे जाते दुर्निवारे गरीयसि।
नान्तः क्षुम्यति कस्मैचिच्छान्तात्माऽसौ निगद्यते॥१२५॥
अर्थः—
कलुषता का बहुत भारी दुर्निवार कारण उपस्थित होने पर भी जो अन्तरङ्ग में किसी से क्षोभ नहीं करता वह शान्तात्मा कहलाता है। ॥१२५॥
क्षमा से कर्म क्षय होते हैं
क्षमया क्षीयते कर्म दुःखदं पूर्वसाञ्चितम्।
चित्तञ्च जायते शुद्धं विद्वेषभयवर्जितम्॥१२६॥
अर्थः—
क्षमा से पूर्व संचित दुःखदायी कर्म क्षीण हो जाते हैं तथा हृदयद्वेष और भय से रहित होकर शुद्ध हो जाता है।
तपस्वियों का रूप क्षमा है
पातिव्रत्यं स्त्रिया रूपं पिकीनां रूपकं स्वरः।
विद्यारूपं कुरूपाणां क्षमारूपं तपस्विनाम्॥१२७॥
**अर्थः—**स्त्री रूप पतिव्रत्य धर्म है, कोकिलाओं का रूप स्वर है कुरूप मनुष्यों का रूप विद्या है और तपस्वियों का रूप क्षमा है॥१२७॥
क्षमावान् मनुष्यों का एक दोष (?)
एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपलभ्यते।
यदेन क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः॥१२८॥
**अर्थः—**क्षमावान मनुष्यों का एक ही दोष उपलब्ध है दूसरा नहीं, वह यह कि जमा से युक्त मनुष्य को लोग असमर्थ समझते हैं॥१२८॥
क्षमा से क्या साध्य नहीं है ?
क्षमावलमशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा।
क्षमावशीकृतोलोकः क्षमया किं न साध्यते।॥१२६॥
**अर्थः—**क्षमा असमर्थ मनुष्यों का बल है, और समर्थ मनुष्यों का आभूषण है। सारा संसार क्षमा से वश में हो जाता है सो ठीक है क्षमा से क्या नहीं सिद्ध होता ?॥१२९॥
क्षमा ज्ञान का आभरण हैः
नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणाः।
गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥१३०॥
**अर्थः—**मनुष्य का आभरण रूप है, रूप का आभरण गुण है, गुण का आभरण ज्ञान है और ज्ञान का आभरण क्षमा है॥१३०॥
क्षान्ति मनुष्यों का हित करने वाली है
क्षान्तिरेव मनुष्याणां मातेव हितकारिणी।
माता कोपं समायाति क्षान्तिनैंत्र कदाचन्॥१३१॥
**अर्थः—**क्षमा ही मनुष्यों का माता के समान हित करने वाली है। विशेषता यह है कि माता तो कभी क्रोध को प्राप्त हो जाती है, परन्तु क्षमा कभी भी क्रोध को प्राप्त नहीं होती है।
क्षमा ही कार्य को सिद्ध करती है।
यत्क्षमी कुरुते कार्यं न क्रोधस्य वशं गतः।
कार्यस्य साधिनी बुद्धिः सा च क्रोधेन नश्यति॥१३२॥
**अर्थः—**क्षमावान् मनुष्य जो कार्य करता है उसे क्रोधोमनुष्य नहीं कर सकता, क्योंकि कार्य को सिद्ध करने वाली बुद्धि है, और बुद्धि कोष से नष्ट हो जाती है॥१३२॥
क्षमा कोष को पराजित करती है
क्रोधयोधः कथंकारमहंकारं करोत्ययम्।
लीलयैव पराजिग्ये क्षमया रामयापियः॥१३३॥
अर्थः—
यह कोध रूपी सुभट अहंकार क्यों करता है, जब कि वह स्त्री रूप (स्त्री लिंग) क्षमा के द्वारा अनायास ही पराजित हो चुका है॥१३३॥
मूर्ख अपराधी क्षमा के पात्र हैं
अबुद्धिमाश्रितानां च क्षन्तव्यमपराधिनाम्
न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलर्भ पुरुषे क्वचित्॥१३४॥
अर्थः—
मूर्ख अपराधियों को क्षमा करना चाहिये। क्योंकि सभी पुरुषों में, कहीं भी पाण्डित्य सुलभ नहीं है॥१३४॥
क्रोध का पात्र क्रोध है
अपकारिणि चेत्क्रोधः, क्रोधे क्रोधः कथं न ते।
धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुर्णां परिपन्थिनि॥१३५॥
अर्थः—
यदि अपराधी पर क्रोध करता है तो धर्म, अर्थ काम और मोक्ष—चारों के विरोधी कोष पर तुझे क्रोध क्यों नहीं आता है ?॥१३५॥
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क्रोध निन्दा
क्रोध ही प्रथम शत्रु है
उपजाति छन्दः
क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणां, देहस्थितो देहविनाशहेतुः।
अग्निर्यथा काष्ठगतोऽपि गूढः, स एव काष्ठं दहतीह नित्यम्
अर्थः—
क्रोध व ही मनुष्यों का सबसे पहला शत्रु, है क्योंकि वह शरीर में स्थित होता हुआ ही शरीर के नाश का कारण है। जैसे जो अग्नि काष्ठ में स्थित होकर छिपी रहती है, वही इस संसार में निरन्तर काष्ठ को जलाती है॥१३६॥
क्रोध अनर्थ का मूल है
क्रोधो मूलमनर्थानां, क्रोधः संसारवर्धनः।
धर्मक्षयकरः क्रोधस्तस्मात्क्रोधं विवर्जयेत्॥१३७॥
अर्थः—
क्रोध अनथों का मूल है, क्रोध संसार को बढ़ाने वाला है और क्रोध धर्म का क्षय करने वाला है। इसलिये क्रोध को छोड़ देना चाहिये॥१३७॥
क्रोध और कालकूट में अन्तर
क्रोधस्य कालकूटस्य, विद्यते महदन्तरम्।
स्वाश्रयं दहति क्रोधः कालकूटो न चाश्रयम्॥१३८॥
अर्थः—
क्रोध और कालकूट विष में बड़ा अन्तर है। क्योंकि क्रोध तो अपने आश्रयो को जलाता है। परन्तु कालकूट अपने आश्रयी को नहीं जलाता॥१३८॥
क्रोधाग्नि की दाह तप आदि को नष्ट करती है।
क्रोधानलसमुत्पन्नो महादाहः शरीरिणाम्।
निर्दहति तपो वृत्तं धर्म द्वैपायनादिवत्॥१३९॥
अर्थः—
क्रोध रूपी अग्नि से उत्पन्न हुई बड़ी भारी दाह, द्वैपायन प्रादि के समान मनुष्यों के, तप, चारित्र तथा धर्म को बिल्कुल जला देती है॥१३९॥
क्रोध पहले शरीर को जलाता है
पूर्वं शोष्यते गात्रं, क्रोधाग्निः प्रकटीस्थितः।
पश्चादन्या अपि दद्याद् दुःखशोकादिदुर्गतीः॥१४०॥
अर्थः—
क्रोध प्रकट होकर सबसे पहले शरीर को सुखाता है
पीछे दुःख, शोक आदि अन्य दुर्गतियों को भी देता है॥१४०॥
क्रोध को छोड़ने का उपदेश
तावत्तपो व्रतं ध्यानं स्वस्थचित्तं दयादिकम्।
यावत्क्रोधो न जायेत तस्मात्क्रोधं त्यजेन्मुनिः॥१४१॥
**अर्थः—**व्रत, ध्यान, स्वस्थ चित्त तथा दया आदिक तभी तक रहते है जब तक क्रोध उत्पन्न नहीं होता इसलिये मुनि को क्रोध छोड़ देना चाहिये॥१४१॥
क्रोध रूप शत्रु दोनों लोकों का विनाशक है
लोकद्वयविनाशाय पापाय नरकाय च।
स्वपरस्यापकाराय क्रोधशत्रुः शरीरिणाम॥१४२॥
**अर्थः—**क्रोधरूपी शत्रु मनुष्यों के दोनों लाकों के विनाश के लिये, पाप के लिये, नरक के लिये तथा निज और पर के अपकार के लिये है॥१४२॥
क्रोध के तीन भेद
उत्तमस्य क्षणं कोपो मध्यस्य प्रहरद्वयम्।
अधमस्य त्वहोरात्रं पापिष्ठस्य सदा भवेत्॥१४३॥
**अर्थः—**उत्तम मनुष्य का क्रोध क्षण भर ठहरता है, मध्यम
पुरुष का दो प्रहर ठहरता है, नीच का दिन—रात ठहरता है और अत्यन्त पापी मनुष्य का क्रोध सदा ठहरता है॥१४३॥
क्रोध के प्रति क्रोध क्यों नहीं करते?
अपकुर्वति कोपश्चेत् किं कोपाय न कुष्यति।
त्रिवर्गस्यापवर्णस्य जीवितस्य च नाशिने॥१४४॥
अर्थः—
यदि अपकार करने वाले पर क्रोध किया जाता है तो त्रिवर्ग को मोक्ष को और जीवन को नष्ट करने वाले क्रोध पर क्यों नहीं क्रोध करते हो॥१४४॥
क्रोध के समान दूसरा शत्रु नहीं है
वैरं विवर्धयति सख्यमपाकरोति
रूपं विरूपयति निन्द्यमतिं तनोति।
दौर्भाग्यमानयति शातयते च कीर्त्तिं
लोकेऽत्र रोपसदृशो न हि शत्रुरस्तिः॥१४५॥
अर्थः—
वैर को बढ़ाता है, मित्रता को दूर करता है. रूप को विरूप करता है, निन्दितबुद्धि—दुबुद्धि को विस्तृत करता है. दौर्भाग्य को लाता है और कीर्ति को नष्ट करता है सचमुच ही इस संसार में क्रोध के समान दूसरा शत्रु नहीं है।
असमर्थ मनुष्य का क्रोध क्या कर सकता है?
यस्य रुष्ठे भय नास्ति तुष्टे नैव धनागमः।
निग्रहानुग्रहौ न स्तः स रुष्टः किं करिष्यति॥१४६॥
अर्थः—
जिसके क्रुद्ध होने पर भय नहीं होता और संतुष्ट होने पर धन की प्राप्ति नहीं होती इस तरह जिसमें निग्रह ओर अनुग्रह करने को क्षमता नहीं हैं वह क्रुध होकर क्या करेगा ?॥१४६॥
किनको कुपित नहीं करना चाहिये?
सूपकारं कविं वैद्य बन्दिनं शस्त्रपाणिकम्।
स्वामिनं धनिनं मूर्खंमर्मज्ञं न च कोपयेत्॥१४७॥
अर्थः—
रसोइया, कवि, वैद्य, बन्दी, हथियार हाथ में लिए हुए, स्वामी, धनी मूर्ख ओर मर्म को जानने वाला, इतने मनुष्यों को कुपित नहीं करना चाहिये॥१४७॥
स्त्री स्वार्थ से ही पति को स्मरण करती है
शोचन्ते न मृतं कदापि वनिता यद्यस्ति गेहे धनं
तच्चेन्नास्ति रुदन्ति जीवनाधंया स्मृत्वा पुनः प्रत्यहम्।
तन्नामापि च विश्मरन्ति कतिभिर्मासैर्दिनैवीन्धवाः
कृत्वा तद्दहनक्रियां निजनिजव्यापारचिन्ताकुलाः॥१४८॥
अर्थः
—
यदि घर में धन है तो स्त्रियां मरे हुए पति के प्रति कभी शोक नहीं करतीं। यदि धन नहीं है तो आजीविका की बुद्धि से प्रति-दिन बार बार स्मरण कर रोती हैं फिर कुछ महीनों में उसका नाम भी भूल जाती हैं। इस प्रकार भाई भी उसकी दाहक्रिया कर अपने अपने कार्य की चिन्ता में निमग्न हो कुछ दिनों में उसका नाम भूल जाते हैं।॥६४६॥
नोट—यह श्लोक स्वार्थपरता प्रकरण का है।
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मान निषेधनम्
मानी क्या करता है ?
कायं कृन्तति सद्गुणांस्तिरयति क्लेशं करोत्यात्मना
मर्तुं
वाञ्छति ना तनोत्यविनयं लोकस्थितिं प्रोज्झति।
मान्यं द्वेष्टि जनं विमुञ्चति नयं शेते न भुङक्ते सुखं
मानी मानवशेन कष्टपतितः पापं चिनोत्याततम्॥१४९॥
अर्थः
—
मानी मनुष्य काय को छेदता है, सद्गुणों को छिपाता है, अपने आप क्लेश करता हे मरने की इच्छा करता है, अविनय को विस्तृत करता है, लोक मर्यादा को छोड़ता है।
माननीयजनों के प्रति द्वेष करता है, नीति को छोड़ता है. न छोता और न सुख से खाता है इस तरह मानो मनुष्य मान के वश कष्ट में पड़ कर अत्यधिक पाप का संचय करता है।
मान का फल
यो मदान्धो न जानाति हिताहितविवेकताम्।
स पूज्येषु मदं कृत्वा नरो भवति गर्दभः॥१४९॥
अर्थः—
जो मद से अन्धा होकर हित और अहित के विवेक को छोड़ देता है वह मनुष्य पूज्य पुरुषों के विषय में मद करके गधा होता है॥१४९॥
मान छोड़ने का उपदेश देने वाले स्वयं मान करते हैं
आदिशान्ति परांश्चेति त्याज्यो मानकषायकः।
स्वयं जैनगृहं दृष्ट्वा बहिस्तिष्ठन्ति नीचवत्॥१५०॥
अर्थः—
कितने ही लोग दूसरों को तो उपदेश देते हैं कि मान कषाय छोड़ने के योग्य है परन्तु जैन मन्दिर को देखकर स्वयं नीच की तरह बाहर खड़े रहते हैं॥१५०॥
विनय का फल
समस्तसपदां सङ्घः विदधाति वशं स्वकम्।
चिन्तामणिरिवाभीष्ठं विनयः कुरुते न किम्॥१५१॥
**अर्थः—**विनयी मनुष्य समस्त सपदाओं के समूह को अपने वश कर लेता है सो ठीक है क्योंकि विनय चिन्तामणि के समान क्या नहीं करता है ?॥१५१॥
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माया निन्दा
माया नरक का कारण है
अर्थादौ प्रचुरप्रपञ्चरचनै ये र्वञ्चयन्ते परान्
नूनं ते नरकं व्रजन्ति पुरतः पापित्रजा दन्यतः।
प्राणाः प्राणिषु तन्निवन्धनतया तिष्ठन्ति नष्टे धने
यावान् दुःखभरो नृणां न मरणे तावानिह प्रायशः॥१५२॥
**अर्थः—**धन आदि के विषय में जो लोग बहुत भारी छल कपट करके दूसरे लोगों को ठगते हैं वे दूसरे पापियों से पहले निश्चित ही नरक जाते हैं क्योंकि प्राणी धन को प्राणों का कारण होने से प्राण समझते हैं और धन के नष्ट होने पर मनुष्यों को जितना दुःख होता है उतना प्रायः मरण में बी नहीं होता॥१५२॥
मायाबियों के सब अनुष्ठान व्यर्थ हैं
कूटद्रव्यमिवासारं तपो धर्मव्रतादिकम्।
मायाविनामनुष्ठानं सर्वं भवति निष्फलम्॥१५३॥
अर्थः—
मायावी मनुष्यों के तप, धर्म तथा व्रतादिक कूट द्रव्य-निर्माल्य के समान सार रहित हैं इसी तरह मायावी मनुष्यों के सब अनुष्ठान निष्फल हैं॥१५३॥
मायावी का गुप्त पाप स्वयं प्रकट होता है
मयां करोति यो मूढ, इन्द्रियादिकसेवने।
गुप्तपापं स्वयं तस्य व्यवतं भवति कुष्ठवत्॥१५४॥
अर्थः—
जो मूर्ख इन्द्रियादिक के सेवन में माया करता है ‘उसका गुप्त पाप कुष्ठ के समान स्वयं प्रकट हो जाता है।
माया युक्त वचन त्याज्य है
मायायुक्तं वचस्त्याज्यं माया संसारवर्धिनी।
यदि सङ्गपरित्यागः कृतः किं मायया तव॥१५५॥
अर्थः—
मायायुक्त वचन छोड़ने योग्य है क्योंकि माया ससार को बढ़ाने वाली है। हे मुने! यदि तूने परिग्रह का त्याग किया है तो तुझे माया से क्या प्रयोजन है ?॥१५५॥
मया मनुष्य को स्रि बना देती है
दौर्भाग्यजननी माया माया दुर्गतिवर्तनी।
नृणां स्त्रीत्वप्रदा माया ज्ञानिभिस्त्यज्यते ततः॥१५६॥
अर्थः—
माया दौर्भाग्य को उत्पन्न करने वाली है, माया दुर्गति में ले जाने वाली है, और माया मनुष्यों को स्त्रीपर्याय प्रदान करने वाली है इसलिये उसका त्याग किया जाता है॥१५६॥
माया के दोष
स्त्रैणषण्ढत्वतैरश्चनीचगोत्रपराभवाः।
मायादोषेण लभ्यन्ते पुंसां जन्मनि जन्मनि॥१५७॥
अर्थः—
स्त्रीत्व, नपुसंकत्व, त्रियञ्चगति, नीच गोत्र और पराभव ये सब मनुष्यों को माया के दोष से भवभव में प्राप्त होते हैं॥१५८॥
मुनि मायारूपी लता को ज्ञानरूपी शस्त्र से छेदते हैं
आर्यां
मायावल्लिमशेषां मोहमहातरुवरसमारूढाम्।
विषयविषपुष्पसहितां लुनन्ति मुनयो ज्ञानशस्त्रेण॥१५८॥
अर्थः—
मोहरूपी महावृक्ष के ऊपर चढ़ी हुई तथा विषयरूपी विष पुष्प के सहित मायारूपी समस्तलता को मुनि ज्ञानरूपी शस्त्र के द्वारा छेदते हैं॥१५८॥
तृष्णा निन्दा
लोभी को सुख नहीं होता
न सुखं धनलुब्धस्य न धर्मो दुष्टचेतसः।
न चार्थो भाग्यहीनस्य ह्यौषधं न गतायुषः॥१५९॥
अर्थः—
धन के लोभी को सुखनहीं होता, दुष्ट चित्त वाले मनुष्यों से घर्म नहीं होता, भाग्यहीन को धन नहीं मिलता और जिसकी आयु समाप्त हो जाती है उसे औषधि नही लगती॥१५९॥
आशा को नष्ट करने वाले ही धन्य है
घन्यास्त एव यैराशाराक्षसी प्रहता भुवि।
सन्तोषयष्टिमुष्ट्याद्यैः सुखिनो जगदर्चिताः॥१६०॥
अर्थः—
जिन्होंने इस पृथ्वी पर संतोषरूपी लाठी तथा मुक्के आदि के द्वारा आशारूपी राक्षसी को नष्ट कर दिया है वे ही धन्य हैं, वे ही सुखी हैं तथा वे ही जगत् के द्वारा पूज्य है।
तृष्णा एक लता है
यस्या वीजमहंकृतिर्गुरुतरा मूलं ममेति ग्रहो।
नित्यत्वस्मृतिरङ्कुरः सुतसुहृज्जात्यादयः पल्लवाः।
स्कन्धो दारपरिग्रहः परिभवः पुष्पं फलं दुर्गतिः
सामे त्वल्ललितांघ्रिणा परशुना तृष्णालता लूयताम्॥१६१॥
**अर्थः—**बहुत भारी अहंकार जिसका बीज है, ममताभाव जिसकी जड़ है। नित्यपना का स्मरण जिसका अङ्कर है, पुत्र, मित्र तथा कुटुम्ब आदि जिसके पल्लव हैं, स्त्री जिसका स्कन्ध है, तिरस्कार जिसका पुष्प है और दुर्गति जिसका फल है, ऐसी तृष्णारूपी लता हे भगवन् ! आपके सुन्दर चरणरूपी परशु के द्वारा छिन्न भिन्न हो ?॥१६१॥
आशा एक शृङ्खला है
आशा नाम मनुष्याणां काचि दाश्चर्यश्रृङ्खला।
यया बद्धाः प्रधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत्॥१६२॥
**अर्थः—**आशा मनुष्यों के लिये एक विचित्र श्रृङ्खला है जिसके द्वारा बंधे हुए मनुष्य दौड़ते हैं और जिससे छूटे हुए पङ्गु के समान स्थित रहते हैं॥१६२॥
आशा के दास सब के दास हैं
आर्या
आशाया ये दासास्ते दासाः सर्वलोकस्य।
आशा येषां दासी तेषां दासायते लोकः॥१६३॥
**अर्थः—**जो आशा के दास हैं वे सब संसार के दास हैं और आशा जिनकी दासी है सब संसार उनका दास है ॥१६४॥
आशा एक नदी है
शार्दूल विक्रीडितच्छन्द
आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला।
रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी
मोहावर्तसुदुस्तरातिगहनाप्रोत्तुङ्गचिन्तातटी
तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः॥१६५॥
**अर्थः—**जिसमें मनोरथ रूपी जल भरा है, जो तृष्णा रूपी तरङ्गों से व्याप्त है, जो राग रूपी मगरमच्छों से सहित है, जिसमें वितर्क-विकल्प रूपी पक्षी हैं, जो धैर्य रूपी वृक्ष को उखाड़ने वाली है, जो मोह रूपो कठिन भंवर से व्याप्त है धौर चिन्ता ही जिसके ऊंचे किनारे हैं ऐसी आशा नाम की नदी है। विशुद्ध हृदय वाले जो मुनिराज उस श्राशा रूपी नदी के उस पार पहुँच जाते हैं वे हो सुखी हैं॥१६५॥
आशा एक गर्तहै
आशागर्तः प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वमणूपमम्।
कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता॥१६६॥
**अर्थः—**प्रत्येक प्राणी के सामने आशारूपीऐसा गड्डा है जिसमें सारा संसार एक अणु के समान है फिर किसके लिये कितना प्राप्त हो सकता है, इसलिये हे भव्यजनों ! तुम्हारी विषयों की इच्छा व्यर्थ है॥१६६॥
तृष्णा धनिकों को घुमाती है
तृष्णादेवि नमस्तुभ्यं यया वित्तान्विता अपि।
अकृत्येषु नियोज्यन्ते भ्रम्यन्ते दुर्गमेष्वपि॥१६७॥
**अर्थः—**हे तृष्णादेवि! तुम्हें नमस्कार हो, जिसके द्वारा धनिक लोग भी खोटे कार्यों में लगाये जाते हैं और दुर्गभ स्थानों में घुमाये जाते हैं॥१६७॥
घनादिक से कभी कोई संतुष्ट नहीं हुआा
धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु भोजनवृत्तिषु।
अतृप्ता मानवाः सर्वे याता यास्यान्ति यान्ति च॥१६८॥
**अर्थः—**धन, जीवन, स्त्री और भोजन के विषय में सभी लोग असंतुष्ट होकर ही गये हैं. और जावेंगे और जा रहे हैं।
पतिव्रता स्त्री की तरह तृष्णासाथ नहीं छोड़ती
च्युता दन्ताः सिताः केशा वाग्रोधः स्यात् पदे पदे।
पातसज्जमिदं देहं तृष्णा साध्वी न मुञ्चति॥१६९॥
**अर्थः—**दांत गिर गये, बाल सफेद हो गये. वाणी में रुकावट आ गई और पद पद पर शरीर गिरने को हो गया, फिर भी तृष्णारूपी पतिव्रता स्त्री साथ नहीं छोड़ती॥२६१॥
इच्छा उत्तरोत्तर बढ़नी है
इच्छति शती सहस्रंसहस्त्री चापि लक्षमीहते कर्त्तुम्।
लक्षाधिपश्च राज्यं राज्ये सति सकलचक्रवर्तित्वम्॥१७०॥
**अर्थः—**सौ रुपये का धनी हजार चाहता है, हजार का धनी लाख करना चाहता है. लाख का धनी राज्य चाहता है भौर राज्य होने पर पूर्ण चक्रतिपना चाहता है॥१७१॥
क्लेश का सागर कौन तैरते हैं
धन्याः पुण्यभाजस्ते तैस्तीर्णः क्लेशसागरः।
जगत्संमोहजननी यै—राशाराक्षसी जिता॥१७१॥
**अर्थः—**संसार को मोह उत्पन्न करने वाली आशारूपी राक्षसी को जिन्होंने जीत लिया है वे ही पुण्यात्मा भाग्यशाली हैं और उन्होंने क्लेशरूपी सागर को पार कर पाया है॥१७१॥
सत् और असत् पुरुष की तृष्णा में अस्तर
पलितैकदर्शनादपि सरति सतश्चित्तमाशु वैराग्यम्।
प्रतिदिनमितरस्य पुनः सह जरया वद्ध ते तृष्णा॥१७२॥
अर्थः—
सज्जन का चित्त तो एक सफेद बाल के देखने से ही शीघ्र वैराग्य को प्राप्त हो जाता है परन्तु असज्जन की तृष्णा प्रतिदिन स्वाभाविक वेग से बढ़ती जाती है॥१७२॥
आशारूरी पिशाच दुःख का कारण है
आसापिसायगहिओ जीवो पावेइ दारुणं दुक्खं।
आसा जाहूँ णियत्ता ताइँ णियत्ताइँ सयलदुक्खाइँ॥१७३॥
**अर्थः—**आशा रूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त जीव दारुण दुःख पाता है जिन्होंने आशा को रोक लिया उन्होंने समस्त दुःखों को रोक लिया है॥१७३॥
तृष्णा निवृत्त नहीं होती
चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरोऽपि सुरराजमीहते कर्तुम्।
सुरराजोऽप्यूर्ध्वगतिं तथापि न निवर्तते तृष्णा॥१७४॥
**आर्थः—**चक्रवर्ती देव पद चाहता है, देव इन्द्र पद चाहता है और इन्द्र सिद्ध पद चाहता है किसी तरह तृष्णा निवृत्तनहीं होती॥१७४॥
परिग्रह निन्दा
परिग्रह से सुख नहीं होता
नो सङ्गाज्जायते सौख्यं, मोक्षसाधनमुत्तमम्।
सङ्गाच्च जायते दुःखं, संसारस्य निबन्धनम्॥१७५॥
** अर्थः—**परिग्रह से मोक्ष को प्राप्त कराने वाला उत्तम सुखप्राप्त नहीं होता किन्तु इसके विपरीत संसार का कारणदुःख उत्पन्न होता है॥१७५॥
परिग्रह नरक का कारण है
आरम्भो जन्तुघातश्च, कषायाश्च परिग्रहात्।
जायन्तेऽत्र ततः पातः प्राणिनां श्वभ्रसागरे॥१७६॥
** अर्थः—**परिग्रह से आरम्भ, जीवघात और कषाय उत्पन्नहोती हैं तथा उनके कारण जीवों का नरक रूपी सागर मेंपतन होता है॥१७६॥
परिग्रह प्रीति का कारण नहीं है
यास्यन्ति निर्दया नूनं ये दत्वा दाहमूर्जितम्।
हृदि पुंसां कथं ते स्यु स्तव प्रीत्यै परिग्रहाः॥१७७॥
**अर्थः—**जो दया रहित परिग्रह पुरुषों के हृदय में बहुतभारी दाह देकर नष्ट होने वाले हैं वे तुम्हारी प्रीति के लियेकैसे हो सकते हैं ?॥१७७॥
धन अनर्थ का कारण है
अर्थः कस्यानर्थो न भवति भरतः समस्तधनलाभरतः।
चक्री चक्रेऽनुज बधाय मनः प्रहतवैरिचक्रोचक्रे॥१७८॥
** अर्थः—**धन किसके लिये अनर्थ का क रण नहीं है ? जबकि भारत चक्रवर्ती ने शत्रुओं के समूह को नष्ट करने वाले चक्ररत्न प्राप्त होने पर छोटे भाई के बध के लिये मन किया था।
उस धन के लिये नमस्कार हो (?)
अविश्वास निदानाय महापातकहेतवे।
पितृपुत्रविरोधाय हिरण्याय नमोस्तु ते॥१७९॥
** अर्थः—**जो अविश्वास का कारण है, महापाप का हेतु हैतथा पिता और पुत्र में विरोध उत्पन्न करने वाला है उस स्वर्ण(धन) के लिये नमस्कार हो॥१७९॥
परिग्रह सदा बन्ध का कारण है
कादाचित्को बन्धः क्रोधादेः कर्मणः सदा सङ्गात्।
नातः क्वापि कदाचित्परिग्रहवतां जायते सिद्धिः॥१८०॥
**अर्थः—**क्रोधादि कर्मों से कदाचित् बन्ध होता है परन्तु परिग्रह से सदा बन्ध होता है अतः परिग्रहो मनुष्यों को कहीं भीकभी भी सिद्धि नहीं होती॥१८०॥
घन दुःख का कारण हे
द्रव्यं दुःखेन चायाति स्थितं दुःखेन रक्ष्यते।
दुःखशोककरं पापं धिग्द्रव्यं दुःखभाजनम्॥१८१॥
** अर्थः—**धन दुःख से आता है ओर आया हुआ दुःख से रक्षितहोता है, वन दुःख और शोक को करने वाला है, पापरूप है,तथा दुःख का भाजन है ऐसे धन को धिक्कार है॥१८१॥
परिग्रही मुनि निन्द्य है
शय्याहेतुतृणादानं मुनीनां निन्दितं बुधैः।
यः स द्रव्यादिकं गृह्णन् किं न निन्द्योजिनागमे॥१८२॥
** अर्थः—**जब कि विद्वानों ने मुनियों के लिये शय्या के हेतुतृणों का ग्रहण करना भी निन्दनीय बतलाया है तब जोमुनि द्रव्य आदि का ग्रहण करता है वह जिनागम में निन्दनीय क्यों नहीं है ? अवश्य है॥१८२॥
परिग्रह सुख का कारण तब हो सकता है
यदि स्याच्छीतलोवह्निः कालकूटः सुधोपमः।
व्योम्नि स्थिरा भवेद्विद्युत्तदा स्याद्गेहिनां शिवम्॥१८३॥
** अर्थ**:—
यदि अग्नि ठण्डी हो जाय, विष अमृत हो जाय औरआकाश में विजली स्थिर हो जाय तो परिग्रही जीवों को सुखहो सकता है॥१८३॥
सम्पदाएं सुख का कारण नहीं है
उद्भूताः प्रथयन्ति मोहमसमं नाशे महान्तं नृणां
सन्तापं जनयन्त्युपार्जनविधौ क्लेशं प्रयच्छन्ति च।
एता नीलपयोदगर्भविलसद्विद्युल्लताचञ्चलाः
काले कुत्र भवन्ति मानवततेः क्षेमावहाः सम्पदः॥१८४॥
** अर्थ**:—
जो उत्पन्न होते ही असाधारण मोह को विस्तृतकरती है, नष्ट होते ही मनुष्यों को बहुत भारी संताप उत्पन्नकरती है, जो उपार्जन के कार्यों में क्लेश प्रदान करती है तथाजो नील मेघ के मध्य में चमकती हुई विजली रूपी लता केसमान चञ्चल है, ऐसी ये संपदाएं मनुष्यों के लिये कल्याण करने वाली कब हो सकतीं हैं ?॥१८४॥
सब लोग घन के पीछे ही पड़ते हैं।
मूर्धाभिषिक्ताश्च निजास्त्वनेक मलिम्लुचाद्याश्च बहुप्रकारा।
गृद्धाः परेऽप्यर्थवतीवसिहं यत्रामिषं तत्र वकाः पतन्ति॥१८५॥
**अर्थः—**मूर्धाभिषिक्त राजा, निजी कुटुम्ब के लोग, तथाअनेक प्रकार के चोर आदि अन्य पुरुष गीधों के समान धनवान् के ऊपर पड़ते हैं—उसे घेरे रहते हैं इससे यह बात सिद्ध होती है कि जहां मांस होता है वहां बगुले पड़ते हैं॥१८५॥
धन संतोष का कारण नहीं है
परिग्रहग्रहग्रस्तः सर्व गिलितुमिच्छति।
धने न तस्य संतोषः सरित्पूर इवार्णवः॥१८६॥
**अर्थः—**परिग्रहरूपी पिशाच से ग्रसा हुआ मनुष्य सबकोनिगलने की इच्छा करता है। जिस प्रकार नदी के प्रवाह मेसमुद्र को संतोष नहीं होता उसी प्रकार परिग्रही मनुष्य कोपरिग्रह में संतोष नहीं होता॥१८६॥
परिग्रह का त्याग ही पूजा का कारण है
परिग्रही न पूज्येत निःपरिग्रहस्तु पूज्यते।
तिष्ठन्ति भूभृतां भाले तन्दुलास्तुषवर्जिताः॥१८७॥
**अर्थः—**परिग्रही मनुष्य नहीं पूजा जाता किन्तु परिग्रहरहित मनुष्य पूजा जाता है क्योंकि छिलके से रहित चांवलराजाओं के ललाट पर स्थित होते हैं॥१८७॥
निष्परिग्रहता से क्या लाभ है ?
साक्षादुल्लसतीव संयमतरुनिर्भीकता रोहती—
बोल्लासं व्रजतीव शान्तिपदवी शुद्धिं दधातीव च।
धर्मः शर्मकरः समस्तविषयव्यामुग्धता मूर्च्छती—
बासङ्गेलसतीव लाघवगुणः स्वायत्तता क्रीडति॥१८८॥
**अर्थः—**निष्परिग्रहता में ऐसा जान पड़ता है मानों संयमरूपीवृक्ष साक्षात् लहलहा रहा हो, निर्भीकता बढ़ रही हो,शान्ति का मार्ग उल्लास को प्राप्त हो रहा हो, सुखकारी धर्मशुद्धि को धारण कर रहा हो, समस्त विषयों का व्यामोहमूर्छित हो रहा हो भारहीनता सुशोभित हो रही हो औरस्वाधीनता कीड़ा कर रही हो॥१८८॥
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दया प्रशंसा
सब जीवों पर दया करना चाहिये
सर्वप्राणिदया जिनेन्द्रगदिता स्वर्गार्गलोद्वाटिका
सर्वश्रायसमुक्तिसौख्यजननी कीर्त्याकरा प्राणदा।
संसाराम्बुधितारिका गुणकरी पारान्तिका प्राणिनां
सद्रत्नत्रयभूमिका कुरु सदा सर्वेषु जीवेषु च॥१८९॥
**अर्थः—**जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही हुई समस्त प्राणियोंकी दया स्वर्ग के अर्गल को खोलने वाली है मोक्ष के समस्तसुखों को उत्पन्न करने वाली है, कीर्ति की खान है, प्राणों को देने वाली है, संसार समुद्र से तारने वाली है, गुणों को पैदाकरने वाली है, प्राणियों के पाप को नष्ट करने वाली है तथा सम्यक् रत्नत्रय की भूमिका है, हे भव्यजीवो! ऐसी दया कोदुम सदा समस्त जीवों पर धारण करो॥१८९॥
निर्दय मनुष्य, मनुष्य नहीं है
वालेषु वृद्धेषु च दुर्बलेषु भ्रष्टाधिकारेषु निराश्रयेषु।
रोगाभियुक्तेषु जनेषु लोके येषां कृपानास्ति न ते मनुष्याः॥१९०॥
**अर्थः—**इस संसार में बालकों पर, वृद्धों पर, दुर्बलों पर,
अधिकार से भ्रष्टजनों पर, निराश्रितों पर और रोगीजनोंपर जो दया नहीं करते हैं, वे मनुष्य नहीं है॥१९०॥
दया विश्वास का कारण है
विश्वसन्ति रिपवोऽपि दयालो, वित्रसन्ति सुहृदोऽप्यदयाच्च।
प्राणसंशयपदं हि विहाय स्वार्थमीप्सति ननु स्तनपोऽपि॥१९१॥
**अर्थः—**दयालु मनुष्य का शत्रु भी विश्वास करते हैं औरनिर्दय मनुष्य से मित्र भी भयभीत रहते हैं। स्तन पान करनेवाला शिशु भी जहां प्राणों का संशय है ऐसे स्थान को छोड़कर अपना भला करना चाहता है॥१९१॥
दया ही सार है
संसारे मानुषं सारं कौलीन्यं चापि मानुषे।
कौलीन्ये धार्मिकत्वं च धार्मिकत्वे च सद्दया॥१९२॥
**अर्थः—**संसार में मनुष्य जीवन सार है, मनुष्य जीवन मेंकुलीनता सार है, कुलीनता में धार्मिकता सार है और धार्मिकता में समीचीन दया सार है॥१९२॥
दया सिद्धि का कारण है
मनो दयानुविद्धं चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये।
मनो दयारविद्धंचेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये॥१९३॥
**अर्थः—**यदि तेरा मन दया से सहित है तो सिद्धि प्राप्त करनेके लिये व्यर्थ ही क्लेश उठाता है क्योंकि दया के कारणसिद्धि नियम से प्राप्त होगी और यदि तेरा मन दया से रहितहै तो सिद्धि प्राप्त करने के लिये व्यर्थ ही क्लेश उठाता है।क्योंकि दया के विना तपश्चरणादि का क्लेश उठाने पर भीसिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती॥१९३॥
दयालु मनुष्य पर दोषोरोपण नहीं होता
क्षिप्तोऽपि केनचिद्दोषो दयार्द्रे न प्ररोहति।
तक्रार्द्रेतृणवत् किन्तु गुणग्रामाय कल्पते॥१९४॥
**अर्थः—**जिस प्रकार छांछ से गीली भूमि पर तृण नहींजमता है उसी प्रकार दया से आर्द्र मनुष्य पर किसी के द्वारालगाया हुआ दोष जमता नहीं है किन्तु गुणसमूह का कारण होता है॥१९४॥
निर्दय मनुष्य का तप तथा व्रताचरण व्यर्थ है
तपस्यतु चिरं तीव्र व्रतयत्वतियच्छतु।
निर्दयस्तत्फलैर्दीनः पीनश्चौकां दयां चरन्॥१९५॥
**अर्थः—**भले ही चिरकाल तक तीव्र तपश्चरण करो, व्रतकरो और दान देओ परन्तु निर्दय मनुष्य उनके फल से रहितहोता है और दया का आचरण करने वाला उनके फल से सहित होता है॥१९५॥
दयाहीन मनुष्य के सदाचार कैसे हो सकता है ?
यस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चारितं कुतः।
नहि भूतांद्रुहांकापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत्॥१९६॥
**अर्थः—**जिसे जीवदया नहीं है उसके सदाचार कैसे होसकता है। वास्तव में जीवघात करने वालों की कोई भीक्रिया श्रेयस्कर नहीं होती॥१९६॥
दयालु मनुष्य की दुर्गति नहीं होती
दयालोरव्रतस्यापि दुर्गतिः स्याददुर्गतिः।
व्रतिनस्तु दयोनस्यादुर्गतिः स्याद्धि दुर्गतिः॥१९७॥
**अर्थः—**दयालु मनुष्य भले ही व्रत रहित हो, परन्तु उसकीदुर्गति, दुर्गंति नहीं रहती—वह दुर्गति में पड़ कर भी सुखोपभोगकरता है। और निर्दय मनुष्य भले ही व्रत सहित हो परन्तु सुगति भी उसके लिये दुर्गति हो जाती है, वह अच्छी गति मेंपहुँच कर भी दुर्गति का पात्र होता है॥१९७॥
दयावान् मनुष्य ही दानी है
सर्वं दानं कृतं तेन सर्वे यज्ञाश्चभारताः।
सर्वतीर्थाभिषेकाश्चयः कुर्यात्प्राणिनां दयाम्॥१९८॥
**अर्थः—**हे पाण्डवो! जो प्राणियों की दया करता है उसने
सब दान दिये है,सब यज्ञ किये हैं और सब तीर्थों में स्नानकिये हैं॥१९८॥
दया धर्म का मूल है
दयामूलोभवेद् धर्मो दया प्राण्यनुकम्पनम्।
दयायाः परिरक्षार्थं गुणाः शेषाः प्रकीर्त्तिताः॥१९९॥
**अर्थः—**धर्म दयामूलक है प्राणियों पर अनुकम्पा करना दयाहै तथा दया की रक्षा के लिये ही शेष—समस्त गुण कहे गये हैं॥१९९॥
आहारदान प्रशंसा
मुनि भुक्तावशेष भोजन के भक्षण का फल
श्रमणानां भुक्तशेषस्य भोजनेन नरो भवेत्।
तुष्टिपुष्टिबलारोग्यदीर्घायुःसमन्वितः॥२००॥
**अर्थः—**मुनियों के भोजन से अवशिष्ट पदार्थों का भोजनकरने से मनुष्य तुष्टि, पुष्टि, बल, आरोग्य और दीर्घं आयु सेसहित होता है॥२००॥
मुनियों को आहारदान का फल
वो मुणिभुत्तवसेसंभुंजइ सो भुंजए जिणुद्दिट्ठं।
संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं॥२०१॥
**अर्थः—**जो मुनियों के भोजन से अवशिष्ट पदार्थों काभोजन करता है वह जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कथित संसारके श्रेष्ठसुख को भोगकर क्रम से निर्वाण के उत्तम सुख कोप्राप्त होता है॥२०१॥
पात्रदान का फल
सौधर्मादिषु कल्पेषु भुज्जते स्वेप्सितं मुखम्।
मानवाः पात्रदानेन मनोवाक्कायशुद्धितः॥२०२॥
तत एत्य सुजायन्ते चक्रिणो वार्धचक्रिणः।
इक्ष्वाक्वादिषु वंशेषु पात्रदानफलान्नराः॥२०३॥
भक्तिपूर्वप्रदानेन लक्ष्मीः स्याद्भोगसंयुता।
अनादरप्रदानेन लक्ष्मीः स्याद्भोगवर्जिता॥२०४॥
**अर्थः—**मन वचन काय की शुद्धि पूर्वक पात्र दान देने से मनुष्य सौधर्म आदि स्वर्गो में अपने अभीष्ट सुख को भोगीहैं और वहां से आकरइक्ष्वाकुआदि वंशो मेंचक्रवर्ती तथा अर्धचक्रवर्तीहोते हैं। भक्तिपूर्वक दान देने से ऐसी लक्ष्मी प्राप्त होती है जो अपनेभोग में आती है और अनादरपूर्वकदान देने से ऐसी लक्ष्मी इक्ष्वाकु मिलती है जो अपने भोग में नहीआती॥२०२, २०३, २०४॥
दानहीन मनुष्य की संपत्तियां निरर्थक है
यस्य दानहीनस्य धनान्यायान्ति यान्ति किम्।
अरण्यकुसुमानीव निरर्थास्तस्य संपदः॥२०५॥
**अर्थः—**दानहीन मनुष्य के धन आते हैं और जाते हैं इससेक्या? उसकी संपदाएं जङ्गल के फूलों के समान निरर्थक है॥२०५॥
पात्रदान ही सफल होता है
पात्रे दत्तं भवेत्सर्वं पुण्याय गृहमेधिनाम्।
शुक्तावेव हि मेघानां जलं मुक्ताफलं भवेत्॥२०६॥
**अर्थः—**पात्र के लिये दिया हुआ सब दान गृहस्थों के पुण्यका कारण होता है क्योंकि सीप में पड़ा हुआ ही मेघों काजल मुक्ताफल होता है॥२०६॥
दातापीर पूजक का भाव कैसा होना चाहिये ?
श्रद्धादिकगुणसम्पूर्णः कषायपरिवर्जितः।
दातृ पूजकयोर्भावश्चान्योम्यप्रीतिसंयुतः॥२०७॥
**अर्थः—**दान देने वाले और पूजा करने वाले मनुष्य का भाव श्रद्धादिगुणों से परिपूर्ण, कषाय से रहित, होना चाहिए तथादाता और पात्र एवं पूजक और पूज्य इन दोनों की परस्पर की प्रीति से सहित होना चाहिये॥२०७॥
निर्दोष आहार कहां प्राप्त नहीं होता ?
श्रावकाचारमुवतानां हिंसोद्यमविवर्तिनाम्।
दयाक्षमाविनीत्यादिगुणग्रामास्तचेतसाम्॥२०८॥
मिथ्यादृष्टिपरीतानां स्वयं मिथ्यादृशामरम्।
गेहिनां वेश्मसु भुक्ति र्निर्दोषा लभ्यते कथम्
॥
२०९
॥
**अर्थः—**जो श्रावकाचार से रहित है, हिंसामय व्यापार करते हैं दया क्षमा तथा विनय आदि गुणों के समूह से शून्य हृदयहैं, मिथ्यादृष्टियों से घिरे हुए हों. तथा स्वयं मिथ्यादृष्टि हों,ऐसे गृहस्थों के घरों में निर्दोष आहार कैसे प्राप्त हो सकता है ?
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ज्ञानदान प्रशंसा
ज्ञानदान मुक्ति का कारण है
यो ज्ञानदानं कुरुते मुनीनां स देवलोकस्य सुखानि भुक्त्वा।
राज्यं च सत्केवलवोधलाब्धिं लब्ध्वा स्वयं मुक्तिपदं लभेत॥२१०॥
**अर्थः—**जो मुनियों के लिए ज्ञानदान करता है वह स्वर्ग लोक के सुख भोग कर राज्य को प्राप्त होता है और केवलज्ञान को प्राप्त कर स्वयं मोक्ष पद को प्राप्त होता है॥२१०॥
ज्ञानदान से जीव मोक्ष पद को प्राप्त होता है
मर्त्यामरश्रियं भुक्त्वाभुवनोत्तमपूजिताम्।
ज्ञानदानप्रसादेन जीवो गच्छति निर्वृनिम्॥२११॥
**अर्थः—**जीव ज्ञानदान के प्रसाद से मनुष्य और देवों कीलक्ष्मी का उपभोग कर लोकोत्तम पुरुषों के द्वारा पूजित मोक्षको प्राप्त होता है॥२११॥
ज्ञानदान देने वाले को सांसारिक लक्ष्मी कठिन नहीं है
मुक्तिः प्रदीयते येन शास्त्रदानेन पावनी।
लक्ष्मीं सांसारिकीं तस्य प्रददानस्य कः श्रमः॥२१२॥
**अर्थः—**जिस शास्त्रदान के द्वारा पवित्र मुक्ति प्रदान कीजाती है उस शास्त्र दान को सांसारिक लक्ष्मी प्रदान करतेहुए क्या श्रम होता हैं ? अर्थात् कुछ नहीं॥२१२॥
शास्त्रदान किसे कहते हैं
लिखित्वा लेखयित्वा वा साधुभ्यो दीयते श्रु तम्।
व्याख्यायतेऽथवा स्वेन शास्त्रदानं तदुच्यते॥२१३॥
**अर्थः—**स्वयं लिख कर अथवा दूसरों से लिखवा कर मुनियोंके लिये जो शास्त्र दिया जाता है अथवा स्वयं शास्त्र कोव्याख्या की जाती है वह शास्त्रदान कहलाता है॥२१३॥
शास्त्रदान केवलज्ञान का कारण है
लभ्यते केवलज्ञानं यतो विश्वावभासकम्।
अपरज्ञानलाभेषु कीदृशी तस्य वर्णना॥२१४॥
**अर्थः—**जिस शास्त्रदान से समस्त पदार्थों को प्रकाशितकरने वाला केवलज्ञान प्राप्त होता है उससे अन्य ज्ञानों कीप्राप्ति होती है यह वर्णन क्या महत्व रखता है ?
शास्त्रदान का फल
शास्त्रदायी सतां पूज्यः सेवनीयो मनीषिणाम्।
वादी वाग्मी कवि र्मान्यः ख्यातशिक्षः प्रजायते॥२१५॥
**अर्थः—**शास्त्रों का दान करने वाला मनुष्य सत्पुरुषों कापूज्य, विद्वानों का सेव्य, वाद करने वाला, प्रशस्त वचन बोलनेबाला, कवि, मान्य और प्रसिद्ध शिक्षा से युक्त होता है॥२१५॥
शास्त्रदान से मनुष्य श्रेष्ठ विद्वान् होता है
तार्किकः शाब्दिकः सार—सिद्धान्तशतसेवितः।
शास्त्रदानेन जायेत मुनेर्विद्वच्छिरोमणिः॥२१६॥
**अर्थः—**मुनि को शास्त्रदान देने से यह मनुष्य तर्कशास्त्रका ज्ञानी, व्याकरण शास्त्र का ज्ञाता सैकड़ों सिद्धान्त ग्रन्थों का
ज्ञाता तथा विद्वानों में शिरोमणि होता है॥२१६॥
औषधदान प्रशंसा
औषधदान कर्मरूपी रोग को नष्ट करने वाला है
औषधं यो मुनीनां संदत्ते पुण्याकरं बुधः।
देवलोके सुखं भुक्त्वा कर्मरोगादिकं क्षिपेत्॥२१७॥
**अर्थः—**जो विद्वान् पुरुष मुनियों के लिये पुण्य की खानस्वरूप औषध प्रदान करता है वह स्वर्ग लोक में सुख भोग करकर्मरूपी रोगादिक का क्षय करता है और मोक्ष प्राप्त करता है॥२१७॥
औषधदान की उपयोगिता
व शक्नोति तपः कर्तु सरोगः संयतो यतः।
ततो रोगापहारार्थ देयं प्रातुकमौषधम॥२१८॥
**अर्थः—**क्योंकि रोगी मुनि तप करने में समर्थ नहीं है इसलिये रोग दूर करने के लिये उन्हें प्रामुक औषध देना चाहिये॥२१८॥
रोगियों को औषध देना चाहिये
रोगिभ्योभेषजं देयं रोगा देहविनाशकाः।
देहनाशे कुतो ज्ञानं ज्ञानाभावे न निर्वृतिः॥२१६॥
**अर्थः—**रोगियों को औषध देना चाहिये क्योंकि रोग शरीरके नाशक हैं, शरीर का नाश होने पर ज्ञान कैसे हो सकता हैऔर ज्ञान के बिना निर्वाण कैसे प्राप्त हो सकता है ?॥२१९॥
औषधदान से मनुष्य निरोग होता है।
तस्मात् स्वशक्तितो दानं भौज्यं मोक्षहेतवे।
देयं स्वयं भवेऽन्यस्मिन्भवेद् व्याधिविवर्जितः॥२२०॥
**अर्थः—**इसलिये मोक्ष प्राप्ति के निमित्त अपनी शक्ति के’अनुसार औषधदान देना चाहिये क्योंकि औषधदान देने वालास्वयं अन्यभव में रोगों से रहित होता है॥२२०॥
निरोग मनुष्य का सुख अकथनीय है।
आजन्मजायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः।
कि सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्येव महात्मनः॥२२१॥
**अर्थः—**जिसमनुष्य के शरीर में संताप उत्पन्न करने वालारोग जीवन पर्यन्त नहीं होता सिद्ध महात्मा के समान उसकेसुख का क्या कहना है, उसका सुख वचनअगोचर है॥२२१॥
औषधदान देने वाले के रोग नष्ट होते है
ध्वान्तं दिवाकरस्येव शीतं चित्ररुचेरिव।
भैषज्यदायिनो देहाद् रोगित्वं प्रपलायते॥२२२॥
**अर्थः—**जिस प्रकार सूर्य से अन्धकार और अग्नि से शीतदूर भागता है उसी प्रकार औषधदान करने वाले मनुष्य केशरीर से रोगीपना दूर भागता है॥२२२॥
औषधदान देने वाले के सरोगअवस्था नहीं होती
न जायते सरोगत्वं जन्तो रौषधदायिनः।
पावकं सेवमानस्य तुषारं हि पलायते॥२२३॥
**अर्थः—**औषधदान देने वाले के सरोगपना नहीं होता सोठीक ही है क्योंकि अग्नि की सेवा करने वाले के शीत भागही जाता है॥२२३॥
औषनधदान का महत्व
बातपित्तकफोत्थानै रोगैरेष न पीड्यते।
दावैरिव जलस्थायी भेषजंयेन दीयते॥२२४॥
**अर्थः—**जिस प्रकार जल में स्थित रहने वाला जीव दावानल से पीडित नहीं होता उसी प्रकार जिसने ओषध प्रदानकी है वह वात्तपित और कफ से उत्पन्न होने वाले रोगों सेपीडित नहीं होता॥२२४॥
औषघदान का फल वचनों से अकथनीय है
येनौषधप्रदस्येह वचनैः कथ्यते फलम्।
चुलकै र्मीयते तेन पयो नूनं पयोनिधेः॥२२५॥
**अर्थः—**इम लोक में जिसके द्वारा औषधदान देने वाले काफल कहा जाता है उसके द्वारा मानों निश्चय से समुद्र केजल को चुल्लियों में भर भर कर नापा जाता है॥२२५॥
औषधदान देने वाले का फल कौन कह सकता है ?
रच्यते व्रतिनां येन शरीरं धर्मसाधनम्।
पार्यते न फलं वक्तुं तस्य भैषज्यदायिनः॥२२६॥
अर्थः—
जिसके द्वारा व्रतियों के धर्मसाधन कराने वाले शरीरकी रक्षा की जाती है उस औषधदान देने वाले का फल कहतेमे नहीं प्राता॥२२६॥
औषध क्यों दी जाती है
न देहेन विना धर्मो न धर्मेण विना सुखम्।
यतोऽतो देहरक्षार्थं भैषज्यं दीयते यतेः॥२२७॥
**अर्थः—**क्योंकि शरीर के बिना धर्म नहीं होता और धर्म केविना सुख नहीं होता इसलिये शरीर की रक्षा के अर्थ मुनिको औषध दी जाती है॥२२७॥
शरीर की रक्षा करना चाहिये
शरीरं संयमाधारो रक्षणीयं तपस्विनान्।
प्रासुकैरौषधैः पुंसा यत्नतो मुक्तिकाङक्षिणा॥२२८॥
**अर्थः—**तपस्वियों का शरीर संयम का आधार है इसलियेमुक्ति के अभिलाषी पुरुषों को प्रासुक औषधियों के द्वारा साधुवोंके शरीर की रक्षा करना चाहिये॥२२८॥
औषधदान में सब दान गर्भित है
चारित्रं दर्शनं ज्ञानं स्वाध्यायो विनयो जपः।
सर्वेऽपि विहिता स्तेन दत्तं येनौषधं यतेः॥२२९॥
**अर्थः—**जिसने मुनि के लिये औषध दी है उसने चारित्र,दर्शन, ज्ञान, स्वाध्याय, विनय और जप आदि सभी कुछदिये हैं॥२२९॥
ज्ञान प्रशंसा
विवेक ही शोभा का कारण है
हंसः श्वेतो बकः श्वेतः को मेदो बकहंसयोः।
नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंसो बको बकः॥२३०॥
**अर्थः—**हंस सफेद है और बगुला भी सफेद है। बाह्य रूपरङ्ग की अपेक्षा बगुला और हंस में क्या भेद है? परन्तु जबदूध और पानी को अलग अलग करना पड़ता हैं तब हंस इस हो जाता है और बगुला ही बना रह जाता है॥२३०॥
काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः।
प्राप्ते वसन्तसमये काकः काकः पिकः पिकः॥२३१॥
अर्थः—कौप्राकाला है और कोयल भी काली है परन्तुबसन्त का समय आने पर कौआकौआ रह जाता है औरकोयल कोयल हो जाती है॥२३१॥
ज्ञानाराधना की प्रेरणा
मालिनी छन्द
विमलगुणनिधानं विश्वविज्ञानवीजं
जिनमुनिगण्सेव्यंसर्वतत्त्वप्रदीपम्।
दुरितधनसमीरं पुण्यतीर्थं जिनोक्तं
मनइभमदसिंहं ज्ञानमाराधयत्वम्॥२३२॥
**अर्थः—**जो निर्मल गुणों का भण्डार है, समस्त विज्ञानोंका बीज है, जिनेन्द्र और मुनियों के समूह से सेवनीय है,समस्त तत्वों का प्रकाशन करने वाला है, पापरूपी मेघ कोप्रचण्ड वायु है, पवित्र तीर्थ रूप है, जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा गया है और मनरूपी हाथी के मद को नष्ट करने केलिये सिंह है ऐसे ज्ञान की हे भव्यजीवोतुम आराधना करो।
ज्ञान क्या है ?
येनात्मा बुध्यते तत्त्वं मनो येन निरुध्यते।
पापाद्विमुच्यते येन तज्ज्ञानं ज्ञानिनो विदुः॥२३३॥
**अर्थः—**जिससे आत्मा तत्त्व को जानता है, जिससे मन कानिरोध होता है और जिसके द्वारा आत्मा पाप से छूटता है,ज्ञानी पुरुष उसे ज्ञान कहते हैं॥२३३॥
प्रवल ज्ञान कौन है ?
येन रागादयो दोषाः प्रणश्यन्ति द्रुतं सताम्।
संवेगाद्याः प्रवर्धन्ते गुणा ज्ञानं तदूर्जितम्॥२३४॥
**अर्थः—**जिसके द्वारा सत्पुरुषों के रागादि दोष शीघ्र हीनष्ट होते हैं तथा संवेग आदि गुणों की वृद्धि होती है वहप्रवल ज्ञान है—उत्कृष्ट ज्ञान है॥२३४॥
ज्ञान का लक्षण
येनात्रविषयेभ्योऽत्र विरज्य शिववर्त्मनि।
ज्ञानी प्रवर्तते नित्यं तज्ज्ञानं जिनशासने॥२३५॥
**अर्थः—**जिसके द्वारा ज्ञानी जीव इन्द्रियों के विषयों सेविरक्त होकर निरन्तर मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति करता है जिनशासन में वही ज्ञान कहा जाता है॥२३५॥
ज्ञान की महिमा
ज्ञानयुक्तो भवेज्जीवः स्वर्गश्रीमुक्तिवल्लभः।
ज्ञानहीनो भ्रमेन्नित्यं संसारे दुःखसागरे॥२३६॥
**अर्थः—**ज्ञान से युक्त जीव स्वर्ग की विभूति तथा मुक्तिका स्वामी होता है और ज्ञान रहित जीव दुःखों के समुद्रस्वरूप इस संसार में निरन्तर भ्रमण करता है॥२३६॥
ज्ञानहीन मनुष्य गुण और अगुण को नहीं जानता
ज्ञानहीनो न जानाति धर्मपापगुणागुणम्।
हेयाहेयविवेकं च जात्यन्ध इव भास्करम्॥२३७॥
**अर्थः—**जिस प्रकार जन्मान्ध मनुष्य सूर्य को नहीं देखता हैउसी प्रकार ज्ञानहीन मनुष्य धर्म के गुण, पाप के अवगुणतथा हेय और उपादेय के विवेक को नहीं जानता॥२३७॥
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उपकरणदान प्रशंसा
वस्त्रदान का फल
आर्येभ्य आर्यिकाभ्यश्च वस्त्रदानेन धीधनः।
अरजोऽम्बरधारी स्याच्छुक्लध्यानी मवान्तरे॥२३८॥
**अर्थः—**ऐलक क्षुल्लक तथा आर्यिकाओं के लिये वस्त्र देनेसे बुद्धिमान् मनुष्य इस भव में उज्ज्वल वस्त्रों का धारी औरभवान्तर में शुक्लध्यान का धारक होता है॥२३८॥
कोमलानि महार्घणि विशालानि धनानि च।
बासोदानेन वासांसि संपद्यन्ते सहस्रशः॥२३९॥
अर्थः— वस्त्रदान से हजारों वार कोमल, महामूल्य, विशालऔर सघन वस्त्र प्राप्त होते हैं॥२३९॥
पीछी और कमण्डलु के दान का फल
मयूरवर्हदानेन सपुत्रश्चिरजीवितः।
दानात्कमण्डलोः पात्रे निर्मलाङ्गः शुचित्रतः॥२४०॥
**अर्थः—**पात्र के लिये मयूरपुच्छ से निर्मित पीछी के देने सेवह मनुष्य पुत्र सहित चिरकाल तक जीवित रहता है औरकमण्डलुके देने से निर्मल शरीर और निरतिचार व्रत काधारक होता है॥२४०॥
पेयदान का फल
ददती जनतानन्दं चन्द्रकान्तिरिवामला।
जायते पानदानेन वाणी तपापनोदिनी॥२४१॥
**अर्थः—**पेय पदार्थों के दान से जनता को आनन्द देनेबाली, चन्द्रमा की कान्ति के समान निर्मल और संताप कोदूर करने वाली वाणी प्राप्त होती है॥२४१॥
निवास दान का फल
विचित्ररत्ननिर्माणः प्रोक्तुङ्गोबहुभूमिकः।
लभ्यते वासदानेन वासश्चन्द्रकरोज्ज्वलः॥२४२॥
**अर्थः—**निवास स्थान के देने से चित्र विचित्र रत्नों सेनिर्मित, ऊंचा, अनेकतल्लों वाला एवं चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल भवन प्राप्त होता है॥२४२॥
मन्दिर में छत्र चामर आदि उपकरण चढ़ाने का फल
छत्रचामरलम्बूषपताकादर्पणदिभिः।
भूपयित्वा जिनस्थानं याति विस्मयिनीं गतिम्॥२४३॥
**अर्थः—**छत्र, चामर, फन्नूस, पताका और दर्पण आदिके द्वारा जिन मन्दिर को विभूषित कर मनुष्य आश्चर्यकारक लक्ष्मी को प्राप्त होता है॥२४३॥
किस समय क्या देना चाहिये ?
उष्णकाले जलं दद्याच्छीतकाले च कार्पसम्।
प्रावृट्काले गृहं दद्याद्सर्वकाले च भोजनम्॥२४४॥
**अर्थः—**उष्णकाल में जल देना चाहिये, शीतकाल में वस्त्रदेना चाहिये, वर्षाकाल में घर देना चाहिये और भोजन सबसमय देना चाहिये॥२४४॥
दान प्रशंसा
दान महिमा
दानं दुर्गतिनाशनं हितकरं दानं बुधाः कुर्वते
दानेनैव गृहस्थता गुणवती दानाय यत्नं सताम्।
दानान्नास्त्यपरः सुभोगजनको दानस्य योग्या विदो
दाने दातृमनःस्थितिं प्रकुरुते दानं ददध्वंजनाः॥२४५॥
**अर्थः—**दान दुर्गति को नष्ट करने वाला है, विद्वान् लोगहितकारी दान देते हैं, दान से ही गृहस्थपना सफल होताहै, दान के लिये सत्पुरुषों का प्रयत्न होता है, दान से बढ़कर दूसरा कोई भोगों को उत्पन्न करने वाला नहीं है, विद्वान्दान देने के योग्य है, दाता का मन दान में स्थिर होता हैइसलिये हे भव्यजनो! दान देओ॥२४५॥
दान कीर्त्ति का कारण है
दानानुसारिणी कीर्ति र्लक्ष्मीः पुण्यानुसारिणी।
अभ्याससारिणी विद्या बुद्धिः कर्मानुसारिणी॥२४६॥
**अर्थः—**कीर्ति दान के अनुसार फैलती है, लक्ष्मी पुण्य केअनुसार बढ़ती है, विद्या अभ्यास के अनुसार प्राप्त होती हैऔर बुद्धि कर्म के अनुसार मिलती है॥२४६॥
दानी किसे प्रिय नहीं होता ?
दानामृतं यस्य करारविन्दे वाक्यामृतं यस्य मुखारविन्दे।
दयामृतं यस्य मनोऽरविन्दे स वल्लभः कस्य नरस्य न स्यात्॥
**अर्थः—**दानरूपी अमृत जिसके हस्त कमल में है, वचनरूपीअमृत जिसके मुख कमल में है और दयारूपी अमृत जिसकेहृदयकमल में है वह किस मनुष्य को प्रिय नहीं होता ?अर्थात् सभी को प्रिय होता है।
दान से ही पूजा होती हैं
त्याग एव गुणःश्लाघ्यः किमन्यैर्गुणराशिभिः।
त्यागाज्जगति पूज्यन्ते पशुपाषाणपादपाः॥२४७॥
**अर्थः—**दान ही प्रशंसनीय गुण है, अन्य गुणों के समूहसे क्या प्रयोजन है ? संसार में दान से ही पशु, पाषाण औरवृक्ष पूजे जाते हैं॥२४७॥
दान के भेद
अभयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधम्।
दानं मनीषिभिः प्रोक्तं शक्तिभक्तिसमाश्रयम्॥२४८॥
**अर्थः—**अभय, आहार, औषध और शास्त्र के भेद सेविद्वान् पुरुषों ने दान को चार प्रकार का कहा है। यह दानशक्ति और भक्ति के अनुसार दिया जाता है॥२४८॥
चार दान का फल
अभीतितोऽत्युत्तमरूपवत्त्व—
माहारतो भोगविभूतिमत्त्वम्।
भैषज्यतो रोग निराकुलत्वं
श्रुतादवश्यं श्रुतकेवलित्त्वम्॥२४९॥
**अर्थः—**अभयदान से उत्तम रूप, आहारदान से भोगों काऐश्वर्य, औषधदान से रोग सम्बन्धी निराकुलता और शास्त्रदान से श्रुत फेवली अवस्था प्राप्त होती है॥२४९॥
न्यायोपान्त धन का ही दान करना चाहिये
दत्तः स्वल्पोऽपिभद्राय स्यादर्थो न्यायसंचितः।
अन्यायातः पुनर्दत्तः पुष्कलोऽपि फलोज्झितः॥२५०॥
**अर्थः—**यदि धन न्याय संचित है तो थोड़ा दिया हुआ भीलाभ के लिये होता है और धन अन्यायोपार्जित है तो बहुतदिया हुआ भी निष्फल जाता है॥२५०॥
हीन त्यागी का लक्षण
स्वस्वस्य यस्तु षड्भागान् परिवाराय योजयेत्।
संचये त्रीन् दशांशं च धर्मे त्यागी लघुश्च सः॥२५१॥
**अर्थः—**जो अपने धन के छह भाग परिवार के लिये, तीनभाग संचय के लिये और दशवां भाग धर्म के लिये खर्च करताहै वह हीन त्यागी है॥२५१॥
मध्यम त्यागी का लक्षण
भागत्रयं तु पोष्यार्थे कोशार्थे तु द्वयीं सदा।
षष्ठं दानाय यो युङक्तोस त्यागी मध्यमो मतः॥२५२॥
**अर्थः—**जो अपनी आय के तीन भाग कुटुम्ब के लिये, दो भाग खजाने के लिये और छटवां भाग दान के लिये रखताहै वह मध्यम त्यागी माना गया है॥२५२॥
उत्तम त्यागी लक्षण
भागद्रयींकुटुम्बार्थे संचयार्थे तृतीयकम्।
स्वरायो यस्य धर्मार्थे तुर्यंत्यागी स सत्तमः॥२५३॥
**अर्थः—**जो अपने धन के दो भाग कुटुम्ब के लिये, तीसरा भाग खजाने के लिये और चौथा भाग धर्म के लिये खर्चकरता है वह उत्तम त्यागी है॥२५३॥
महादानी का लक्षण
इतो हीनं दत्ते सति सुविभवे यस्तु पुरुषो
मतं तद् यत् किंचित्खलु न गणितं धार्मिकनरैः।
इमान् भागांस्त्यक्त्वा वितरति बुधो यस्तु बहुधा
महासत्त्वस्त्यागी भुवनविदितोऽसौ रविरिव॥२५४॥
**अर्थः—**जो मनुष्य वैभव के रहते हुए भी उपर्युक्त विभागों से कम दान देता है धार्मिक पुरुष उसे किसी गणना में नहीं रखते तथा जो इन भागों को छोड़ कर बहुत दान देता हैवह यहां उदार त्यागी है तथा सूर्य के समान संसार प्रसिद्ध है॥२५४॥
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विराग वाटिका
जन्म का फल क्या है ?
धर्मे रागः श्रुते चिन्ता दाने व्यसनमुत्तमम्।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं संप्राप्तं जन्मनः फलम्॥२५५॥
**अर्थः—**यदि धर्म में राग है, शास्त्र में चिन्ता है, दान मेंउत्तम व्यसन है और इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य है तोजन्म का फल प्राप्त हो गया॥२५५॥
सद्धर्म की बुद्धि दुर्लभ है
दुष्प्रापा गुरुकर्मसंचयवतां सद्धर्मबुद्धिर्नृणां
जातायामपि दुर्लभः शुभगुरुः प्राप्तः स पुण्येन चेत्।
कर्त्तुन स्वहितं तथाप्यलममी स्वेच्छास्थितिव्याहताः
किंब्रूमः किमिहाश्रयेम हि किमाराध्येमहि संसृतौ॥२५६॥
**अर्थः—**बहुत भारी कर्मों के संचय से युक्त मनुष्यों के लियेसद्धर्म की बुद्धि प्राप्त हो भी जाती है तो शुभगुरु का मिलनाकठिन है, और यदि पुण्योदय से शुभ गुरु भी मिल जाता है तो स्वच्छन्द स्थिति से पीडित हुए मनुष्य आत्महित करनेमें समर्थ नहीं होते। हम संसार में किससे क्या कहें ? किस का आश्रय ले ? और किसकी आराधना करें॥२५६॥
कल्याण की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये
दारा मोक्षगृहार्गला विषधरा भोगाश्चलाः सम्पदो—
ह्यायुर्वायुकदर्थिताम्बुलहरीतुल्यं सशल्यं जगत्।
देहः श्वभ्रनिकेतनं कुगतिदं विश्वं कुटुम्बं चलं
ज्ञात्वेतीह यतध्वमेव विबुधा नित्याप्तये श्रेयसः॥२५७॥
**अर्थः—**स्त्रियां मोक्षरूपी घर के आगल हैं, भोग सांपहैं, सम्पदाएं चञ्चल हैं, आयु वायु से प्रेरित जल की तरङ्गों
के समान है, संसार शल्य सहित है, शरीर नरक का घर है,संसार कुगति को देने वाला है और कुटुम्ब चञ्चल है ऐसाजान कर हे विद्वानो! कल्याण की प्राप्ति के लिये निरन्तरयत्न करो॥२५७॥
कल्याण की प्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये ?
त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम्॥२५८॥
**अर्थः—**दुर्जन की संगति छोड़ो, सज्जन की संगति करो,रात—दिन पुण्य करो और निरन्तर अनित्यता का स्मरण करो।
तपोवन की महिमा
तपोवनं महादुःखसंसारक्षयकारणम्।
आप्रच्छया न मे किञ्चित्कार्यमाशु विशाम्यहम्॥२५९॥
**अर्थः—**तपोवन महादुःखों से युक्त संसार के क्षय का कारणहै, मुझे किसी से पूछने से क्या प्रयोजन है मैं तो शीघ्र हीइसमें प्रवेश करता हूँ विरागी मनुष्य ऐसा विचार करता है॥२५९॥
कैसा विचार निरन्तर करना चाहिये ?
कोऽहं कीदृग्गुणः क्वत्यः किं प्राप्यः किंनिमित्तकः।
इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत्॥२६०॥
**अर्थः—**मैं कौन हूँ? मैं किस प्रकार के गुणों से सहित हूं,मैं कहां उत्पन्न हुआ हूं, मुझे क्या प्राप्त करना है और मेराक्या निमित्त है ऐसा विचार यदि प्रतिदिन नहीं किया जाताहै तो नियम से बुद्धि खोटे स्थान में चली जाती है॥२६०॥
बार बार क्या विचार करना चाहिये ?
कः कालः कानि मित्राणि को देशः कौ व्ययागमौ।
कश्चाहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः॥२६१॥
**अर्थः—**कौन समय है ? कौन मित्र है ? कौन देश है ?कौन खर्च और आय है ? कौन मैं हूं ? और कौन मेरी शक्तिहै इस तरह वार वार विचार करना चाहिये॥२६१॥
विचारवान को गर्व नहीं होता
कास्था सद्मनिसुन्दरेऽपि परितो दंदह्यमानेऽग्निभिः
कायादौ तु जरादिभिः प्रतिदिनं गच्छत्यवस्थान्तरम्।
इत्यालोचयतो हृदि प्रशमिनो भास्वद्विवेकोज्ज्वले
गर्वस्यावसारः कुतोऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि॥२६२॥
**अर्थः—**जिस प्रकार अग्नि द्वारा चारों ओर से जलते हुए सुन्दरसे सुन्दर महल में कोई आदर नहीं होता उसी प्रकार बुढ़ापाआदि के द्वारा प्रतिदिन भिन्न २ अवस्था को प्राप्त होते हुएशरीर आदि में क्या आदर करना है…. इस प्रकार काविचार करने वाले प्रशान्त मनुष्य के देदीप्यमान विवेक सेउज्ज्वल हृदय में समस्त पदार्थ विषयक गर्व का अवसरकैसे आ सकता है ?॥२६२॥
संसार में कृतकृत्य कौन है ?
लब्ध्वा जन्म कुले शुचौ नरवपुः शुद्धाशयं पुण्यतो
वैराग्यं च करोति यः शुचितपो लोके स एकः कृती।
तेनैवोज्झितगौरवेण यदि वा ध्यानामृतं पीयते
प्रासादे कलशस्तदा मणिमयो हैमे समारोपितः॥२६३॥
**अर्थः—**पुण्योदय से पवित्र कुल में जन्म, मनुष्य शरीर,निर्मल अभिप्राय और वैराग्य को प्राप्त कर जो निर्दोष तपकरता है संसार में वही एक कृतकृत्य है। यदि वही कृतकृत्य मनुष्य अहंकार छोड़ कर ध्यानरूपी अमृत का पानकरता है तो समझना चाहिये कि उसने सुवर्णमय महल के ऊपर मणिमय कलशा चढ़ाया है॥२६३॥
श्रावक का लक्षण
देवशास्त्रगुरूणां च भक्तो दानदयान्वितः।
मदाष्टव्यसनैर्हीनः श्रावकः कथितो जिनैः॥२६४॥
**अर्थः—**जो देव शास्त्र और गुरु का भक्त हो, दान औरदया से सहित हो तथा आठ मद और सात व्यसनों सेरहित हो जिनेन्द्र भगवान ने उसे श्रावक कहा है॥२६४॥
मुनियों का चारित्र दुर्लभ है
भव्यजीवा यदासाद्य लभन्ते संशयोज्झितम्।
सम्यग्दर्शनसम्पन्ना गीर्वाणेन्द्रसुखं महत्॥
चारित्रं निरगाराणां शूराणां शान्तचेतसाम्।
शिवं सुदुर्लभं सिद्धं सारं क्षुद्रभयावहम्॥२६५॥
**अर्थः—**सम्यग्दर्शन से युक्त भव्यजीव जिसे पाकर निस्सन्देहइन्द्रों के बहुत भारी सुख को प्राप्त करते हैं तथा अतिशयदुर्लभ मोक्ष को भी प्राप्त होते हैं वह शूरवीर शान्त—चित्त मुनियों का चारित्र है। यह चारित्र अत्यन्त श्रेष्ठ है तथाकायर पुरुषों को भय उत्पन्न करने वाला है॥२६५॥
जिनमार्ग के आश्रय बिना इन्द्रियाँ शान्त नहीं होती
चलान्युत्पथवृत्तानि दुःखदानि पराणि च।
इन्द्रियाणि न शाम्यन्ति विना जिनपथाश्रयात्॥२६६॥
**अर्थः—**चञ्चल, कुमार्ग में प्रवृत्त और अत्यन्त दुःख देनेवालीइन्द्रियाँ जिनमार्ग का आश्रय लिये विना शान्त नहीं होती।
तप से आत्मा शुद्ध होता है
यथाग्निविधिना तप्तं द्रुतं शुध्यति काञ्चनम्।
तथा कर्मकलङ्की चात्मा सुतपोऽग्निना ध्रुवम्॥२६७॥
**अर्थः—**जिस प्रकार अग्नि की विधि से तपाया हुआसुवर्ण शीघ्र शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार कर्मरूपी कलङ्क सेयुक्त आत्मा उत्तम तपरूपी अग्नि के द्वारा निश्चित ही शुद्ध हो जाता है॥२६७॥
चित्त की शुद्धि चित्त से होती है
जलेन जनितः पङ्को जलेन परिशुद्ध्यति।
चित्तेन जनितं पापं चित्तेन परिशुद्ध्यति॥२६८॥
**अर्थः—**जिस प्रकार जल से उत्पन्न कीचड़ जल से दूरहोता है उसी प्रकार चित्त से उत्पन्न पाप चित्त से—अच्छेविचार से दूर होता है॥२६८॥
तप की शुद्धि सब शुद्धियों से श्रेष्ठ है
सर्वासामेव शुद्धीनां तपःशुद्धिः प्रशस्यते।
तपःशुद्धिप्रशुद्धानां किङ्करास्त्रिदशा नृणाम्॥२६९॥
**अर्थः—**तप की शुद्धि सब शुद्धियों में प्रशस्त है क्योंकि तपकी शुद्धि से शुद्ध मनुष्यों के देव भी किङ्कर होते हैं॥२६९॥
तापस तप से शुद्ध होते हैं
बस्त्राद्याः समला यद्वद् धौताः शुद्ध्यन्ति वारिणा।
तपोरूपेण तोयेन तद्वच्छ्रुध्यन्ति तापसाः॥२७०॥
**अर्थः—**जिस प्रकार वस्त्र आदि मलिन पदार्थ पानी सेधोने पर शुद्ध हो जाते हैं उसी प्रकार तपरूपी पानी से तापसशुद्ध हो जाते॥२७०॥
गृहस्थाश्रम हितकारी नहीं है
सर्वं धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं
क्वाप्येतद्वयवत्करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि।
तस्मादेष तदन्धरज्जुवलनं स्नानं गजस्याथवा
मत्तोन्मत्तविचेष्टितं नहि हितो गेहाश्रमः सर्वथा॥२७१॥
**अर्थः—**मूर्खों की बात जाने दो बुद्धिरूपी धन के धारक भीगृहस्थों का चरित्र कभी तो सब काम धर्म मय करता है, कभीप्रायः पापमय करता है और कभी धर्म तथा पाप दोनों सेयुक्त करता है इसलिये उनका यह कार्य अन्धे की रस्सी बटनेके समान अथवा हाथी के स्नान के समान है। गृहस्थ की चेष्टा मदिरा आदि के नशा में मत्त अथवा पागल मनुष्यकी चेष्टा के समान है यथार्थ में गृहस्थाश्रम सर्वथा हितकारीनहीं है॥२७१॥
सब पदार्थ क्षणिक हैं
शिखरिणी छन्दः
यदस्माभिःर्दृष्टं क्षणिकमभवत्स्वप्नमिव तत्
कियन्तो भावा स्युः स्मरणविषयादयगताः।
अहोपश्यत् पश्यत् स्वजनमखिलं यान्तमनिशं
इतवीडं चेतस्तदपि न भवेत्सङ्गरहितम्॥२७२॥
**अर्थः—**हम लोगों ने जिसे देखा था वह स्वप्न के समानक्षणिक हो गया। ऐसे कितने ही पदार्थ हैं जो हमारी स्मृतिसे भी ओझल हो गये हैं, और यह चित्त अपने समस्तआत्मीयजनों को निरन्तर जाता हुआ देख रहा है, फिर भीआश्चर्य है कि यह निर्लज्ज, परिग्रह से रहित नहीं होता—दंगम्बरी दीक्षा धारण नहीं करता॥२७२॥
निर्लज्ज मन विषयों की चाह करता है
वपुः कुब्जीभूतं गतिरपि तथा यष्टिशरणा
विशीर्णा दन्ताली श्रवणविकलं श्रोत्रयुगलम्।
शिरःशुक्लं चक्षुस्तिमिरपटलैरावृतमहो
मनस्ते निर्लज्जं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति॥२७३॥
**अर्थः—**शरीर टेड़ा हो गया है, गति लाठी के सहारे होगई है, दन्तपङिक्तविखर गई है, कर्णयुगल श्रवण शक्ति सेरहित हो गये हैं, सिर सफेद हो गया है, और नेत्र अन्धकार के पटल से घिर गये हैं, फिर भी मेरा मन विषयों की चाहकरता है॥२७३॥
गृहस्थाश्रम में मतिमान् प्रीति नहीं करते
कारागारनिभे घोरे चिन्तादुःखादिसंकुले।
सर्वपापाकरीभूते धर्मविध्वंसकारणे॥२७४॥
कामक्रोधमहामोह—रागाद्यन्धौ गृहाश्रमे।
मतिमान् को रतिंधत्ते ह्यनन्तभयदायिनि॥२७५॥
**अर्थः—**जो बन्दीगृह के समान है, भयंकर है, चिन्ता तथादुःख आदि से व्याप्त है, सब पापों की खान है, धर्मनाश काकारण है, काम क्रोध महामिध्यात्व तथा राग आदि का कूप है, और अनन्तभवों को देने वाला है, ऐसे गृहस्थाश्रममें कौन बुद्धिमान् प्रीति करता है ? अर्थात् कोई नहीं॥२७४॥
स्थायी बिराग के रहते, परम पद दुर्लभ नहीं है
श्मसानेषु पुराणेषु भोगान्तेषु च या मतिः।
सा मतिः सर्वदा काले न दूरं परमं पदम्॥२७६॥
**अर्थः—**श्मशान भूमि में, शास्त्र पठन कालमें तथा संभोग केअन्त में जो बिरागपूर्ण बुद्धि होती है वह यदि सदा बनी रहेतो परम पद निर्वाणधाम दूर नहीं है॥२७६॥
भोग तृप्ति के कारण नहीं है
सुचिरं देवभोगेऽपि यो न तृप्तो हताशकः।
स कथं तृप्तिमागच्छेन्मनुष्यभवभोगकैः॥२७७॥
**अर्थः—**जो जीव चिरकाल तक देवों के भोग, भोग कर भीतृप्त नहीं हुआ वह तृष्णालु, मनुष्यभव के स्वल्प भोगों सेकैसे तृप्ति को प्राप्त होगा?॥२७७॥
कषायरूपी विष संयम को निःसार कर देता है
संयमोत्तमपीयूषं सर्वाभिमतसिद्धिदम्।
कषायविषसेकोऽयं निःसारीकुरुते क्षणात्॥२७८॥
**अर्थः—**यह कषायरूपी विष का सींचना, समस्त इष्टसिद्धियों को देने वाले संयमरूपी उत्तम अमृत को क्षणभर मेंनिःसार कर देता हैं॥२७८॥
परम पद को कौन प्राप्त होते हैं ?
संसारध्वंसिनीं चर्यां ये कुर्वन्ति सदा नराः।
रागद्वेषहतिं कृत्वा ते यान्ति परमं पदम्॥२७९॥
**अर्थः—**जो मनुष्य सदा संसार को नष्ट करने वाली मुनिवृत्ति को करते हैं वे राग द्वेष का विघात कर परम पद कोप्राप्त होते हैं॥२७९॥
संयम का क्या लक्षण ?
ब्रतानां धारणं दण्डत्यागः समितिपालनम्।
कषायनिग्रहोऽक्षाणां जयः संयम इष्यते॥२८०॥
**अर्थः—**व्रतों का धारण करना, मन वचन काय की प्रवृत्तिरूप दण्डों का त्याग करना, समितियों का पालन करना,कषायों का निग्रह करना, और इन्द्रियों को जीतना संयमकहलाता है॥२८०॥
वैराग्य धारण करने की प्रेरणा
वैराग्यसारं दुरितापहारं मुक्त्यङ्गनादानविधौ समर्थम्।
पापारिवृक्षस्य महाकुठारं सौख्याकरं त्वं भज सर्वकालम्॥२८१॥
**अर्थः—**हे आत्मन्! पापों के नाशक, मुक्तिरूपी स्त्री केदेने में समर्थ, पापरूप वृक्ष को नष्ट करने के लिये तीक्ष्णकुठार तथा सुखों की खान स्वरूप वैराग्य को तू सदा धारणकर॥२८१॥
तप धारण करने की प्रेरणा
स्वागताच्छन्दः
कर्मपर्वतनिपातनवत्रज्रंस्वर्गमुक्तिसुखसाधनमन्त्रम्।
मन्मथेन्द्रियदमं शुभवीजं त्वं तपः कुरु समीहितदातृ॥२८२॥
**अर्थः—**जो कर्मरूपी पर्वत को गिराने के लिये बज्र है,स्वर्ग और मोक्ष का सुख प्राप्त कराने के लिये मन्त्र है, कामेन्द्रिय का दमन करने वाला है, शुभ कार्यों का बीज है तथा अभिलषित पदार्थों को देने वाला है ऐसे तप को तू कर॥२८२॥
जैनीं दीक्षा कैसे प्राप्त होती है ?
बोधिलाभाच्च वैराग्यात्काललब्ध्यादिसंश्रयात्।
जैनीं दीक्षां ससंस्कारां द्विजः संप्राप्तुमर्हति॥२८३॥
**अर्थः—**रत्नत्रय की प्राप्ति से, वैराग्य से तथा काललब्धिआदि के आश्रय से द्विज-ब्राह्मण क्षत्रीय और वैश्य संस्कार सेयुक्त जैनी दीक्षा प्राप्त होने के योग्य हैं॥२८३॥
भोगेच्छा से जन्म व्यर्थ होता हैं
जन्मेदं वन्ध्यतां नीतं भवभोगोपलिप्सया।
काचमूल्येन विक्रीतो हन्त चिन्तमणिर्यथा॥२८४॥
**अर्थः—**मैंने संसार सम्बन्धी भोगों की इच्छा से इस जन्मको निष्फल कर दिया। खेद है कि कांच के मूल्य सेचिन्तामणिरत्न को बेच दिया॥२८४॥
तप के बिना कर्मसमूह नष्ट नहीं हो सकता
कान्तारं न यथेतरो ज्वलयितुं दक्षोदवाग्निं विना।
दावाग्निं न यथा परः शमयितुं शक्तो विनाम्भोधरम्॥
निष्णातः पवनं विना निरसितुं नान्यो यथाम्भोधरं।
कर्मौधं तपसा विना किमपरं हन्तु समर्थस्तथा॥२८५॥
**अर्थः—**जिस प्रकार दावानल के बिना कोई दूसरा वन कोजलाने के लिये समर्थ नहीं है, जिस प्रकार मेघ के बिनाकोई दूसरा दावानल को बुझाने में समर्थ नहीं है, और जिसप्रकार पवन के बिना कोई दूसरा मेघ को दूर कल्ने में समर्थनहीं है, उसी प्रकार तप के बिना कोई दूसरा कर्म समूह कोनष्ट करने के लिये समर्थ नहीं है॥२८॥
तप जयवन्त रहे
यस्मात्तीर्थकृतो भवन्ति भुवने भूरिप्रतापाश्रया
श्चक्रेशा हरयो गणेश्वरवलाः क्षोणीभृतो वज्रिणः।
जायन्ते बलशालिनो गतरुजो यस्माच्च पूर्वर्षिभि—
र्यच्चक्रघनकर्मपाशमथनं जीयात्तपस्तच्चिरम्॥२८६॥
**अर्थः—**जिस तप से मनुष्य संसार में तीर्थंकर होते हैं,बहुत भारी प्रताप के आधारभूत चक्रवर्ती होते हैं, नारायणहोते हैं, जननायक बलभद्र होते हैं, राजा होते हैं, इन्द्र होते हैं, बलिष्ठ होते हैं, निरोग होते हैं और पूर्व ॠषि जिसतप को करते थे ऐसा तीव्र कर्मरूप पाश को नष्ट करनेवाला वह तप चिरकाल तक जयवन्त रहे॥२८६॥
तप से पाप नष्ट होते हैं
तपोभेषजयोगेन जन्ममृत्युजरारुजः।
पञ्चाक्षारातिभिः सार्धं विलीयन्तेऽधराशयः॥२८७॥
**अर्थाः—**तपरूपी औषध के योग से जन्म, मृत्यु और जरारूपी रोग तथा पापों के समूह पञ्चेन्द्रिय रूपी शत्रुओंके साथ विलीन हो जाते हैं॥२८॥
तप से मुक्ति सुलभ है
तपः करोतियो धीमान् मुक्तिश्रीरञ्जिताशयः
।
स्वर्गे गृहाङ्गणस्तस्य राज्यसौख्यस्यस्यका कथा॥२८८॥
**अर्थाः—**मुक्तिरूपी लक्ष्मी में अनुरक्तचित्त होकर जो बुद्धिमान् तप करता है उसे स्वर्ग घर का आंगन हैं, राज्य सुख कीक्या कथा है ? अर्थात् वह तो प्राप्त होता ही है॥२८८॥
तप का बल सबसे श्रेष्ठ बल है—
लोकत्रयेऽपि तन्नास्ति तपसा यन्न साध्यते।
बलानां हि समस्तानां स्थितं मन्धि तपोबलम्॥२८९॥
**अर्थाः—तीनों लोकों में वह वस्तु नहीं है जो तप से सिद्धन होती हो। यथार्थ में तप का बल सब बलों के शिर परस्थित है—**सब बलों में श्रेष्ठ है॥२८९॥
तपस्वी की शक्ति इन्द्र को दुर्लभ है
न सा त्रिदशनाथस्य शक्तिः कान्ति र्द्युतिर्धृतिः।
तपोवनस्य या साधोयथाभिमतकारिणी॥२९०॥
**अर्थः—**तपस्वी साधु की यथाभिलषित कार्य को सिद्धकरने वाली जो शक्ति है, कान्ति है, द्युतिहै और धृति हैवह इन्द्र के नहीं होती॥२९०॥
तप से सब वस्तुएं सुलभ है
तपसालंकृतो जीवो यद् यद् वस्तु समीहृते।
तत्तदेव समायाति, भुवनत्रितये ध्रुवम्॥२९१॥
**अर्थः—**तप से सुशोभित जीव जिस—जिस वस्तु की चाहकरता है, तीनों लोकों में नियम से वह उसी—उसी वस्तु कोप्राप्त होता है॥२९२॥
तपरूपी वृक्ष मोक्षरूपी फल को देने वाला है
सग्धराछन्दः
सन्तोषस्थूलमूलः प्रशमपरिकरस्कन्धवन्धप्रपञ्चः
पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरतशमदलः शीलसंपत्प्रवालः
।
श्रद्धाम्भःपूरसेकाद्विपुलवलघुतैश्वर्यसौन्दर्यभोगः
स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवपदफलदः स्वात्तपःपादयोऽयम्॥२६२॥
**अर्थः—**संतोष ही जिसकी बड़ी मोटी जड़ है, शान्ति कापरिकर ही जिसकी पींड है,पञ्चेन्द्रियों का दमन हीजिसकी शाखाएं हैं, प्रकट हुआ शमभाव ही जिसके पत्ते हैं,शीलरूप संपत्ति ही जिसकी नई कोंपल हैं, श्रद्धारूपी जलके सींचने से जिसके प्रबल ऐश्वर्य और सौन्दर्यरूपी भोगविस्तार को प्राप्त हुए हैं, स्वर्गादि की प्राप्ति ही जिसके फूलहैं तथा जो मोक्षरूपी फल को देने वाला है ऐसा यह तपरूपी वृक्ष है॥२९२॥
तप से सब कुछ प्राप्त होता है
यद् दूरं यच्च दुःसाध्यं यच्च लोकत्रये स्थितम्।
अनर्घ्य वस्तु तत्सर्वं प्राप्यते तपसाऽचिरात्॥२९३॥
**अर्थः—**जो वस्तु दूर हैं, दुःख से प्राप्त होने योग्य है, तीन लोकों में कहीं स्थित है, और अमूल्य है वह सब तप के द्वाराशीघ्र ही प्राप्त हो जाती है॥२९३॥
विशिष्टमिष्टं घटयत्युदारं, दूरस्थितं वस्त्वतिदुलभं च।
जैनं तपः किं बहुनोदितेन, स्वर्गश्रियं चाक्षयमोक्षलक्ष्मीम्॥
**अर्थः—**जो वस्तु अत्यन्त इष्ट है, महान्है, दूरस्थित हैऔर अत्यन्त दुर्लभ है उसे भी जैन तप प्राप्त करा देना है।अथवा बहुत कहने से क्या ? जैन तप स्वर्ग की लक्ष्मी तथाअविनाशी मोक्ष लक्ष्मी को भी प्राप्त करा देता है॥२९४॥
तप की ताड़ना मोक्ष सुख को देती है
तपोभिस्ताडिता एव जीवाः शिवसुखस्पृशः।
तन्दुलाः खलु सिद्ध्यन्ति मुसलैस्ताडिता भृशम्॥२९५॥
**अर्थः—**जीव तपों से ताडित होकर ही मोक्ष सुख का स्पर्शकर पाते हैं क्योंकि मूसलों से ताड़ित चांवल अच्छी तरहसीझते हैं॥९९५॥
तप निःस्पृह होकर करना चाहिये
पूजालाभप्रसिद्ध्यर्थं यत्तपस्तप्यते नृभिः।
शोष एव शरीरस्य न तस्य तपसः फलम्॥२९६॥
**अर्थः—**जो तप पूजा और लाभ की सिद्धि के लिये मनुष्योंके द्वारा तपा जाता है उससे शरीर का शोषण ही होता है,उस तप का फल नहीं होता॥२९६॥
तप इन्द्रियों को वश करने वाला है
तपः सर्वाक्षसारङ्गवशीकरणवागुरा।
कषायतापमृद्विका कर्माजीर्णहरीतकी॥२९७॥
**अर्थः—**तप, समस्त इन्द्रिय रूपी हरिणों को वश करने केलिये जाल है, कषायरूपी गर्मी को शान्त करने के लिये दाखहै तथा कर्मरूपी अजीर्ण का शमन करने के लिये हर्ड है।
शक्ति को न छिपा कर तप करना चाहिये
अनाच्छाद्य स्वसामर्थ्यं द्विषड्भेदं तपोऽनधम्।
दुष्कर्मारण्यदावाग्निं विदध्यात्प्रत्यहं यतिः॥२९८॥
**अर्थः—**मुनि को चाहिये कि वह अपनी सामर्थ्य को न छिपाकर दुष्कर्मरूपी अटवी को जलाने के लिये दावानलस्वरूपबारह प्रकार का निर्दोष तप प्रतिदिन करे॥२९८॥
समर्थ युवापुरुष को तप अवश्य करना चाहिये
ध्यानानुष्ठानशक्तात्मा युवा यो न तपस्यति।
स जराजर्जरोऽन्येषां तपोविन्नकरः परम्॥२९९॥
**अर्थः—**ध्यान की सामर्थ्य से युक्त होकर भी जो तरुणपुरुष तपश्चरण नहीं करता है वह अन्त में वृद्धावस्था से जर्जरशरीर होकर दूसरों के तप में अधिक विघ्न करने वालाहोता है॥२९९॥
तप मुक्ति का पाथेय है
तपो मुक्तिपुरीं गन्तुं पाथेयं स्याद्धि पुष्कलम्।
मुक्तिरामां वशीकर्तुं तपो मन्त्रोऽङ्गिनां मतः॥३००॥
**अर्थः—**तप, मुक्तिरूपी नगरी को जाने के लिये पर्याप्तसम्बल है और मुक्तिरूपी स्त्री को वश करने के लिये प्राणियोंका वशीकरण मन्त्र है॥३००॥
पुण्यशाली जीव तप करते है
पुण्यवन्तो महोत्साहाः प्रबोधं परमं गताः।
विषवद् विषयान् दृष्टवा ये तपस्यन्ति सज्जनाः॥३०१॥
**अर्थः—**परम प्रबोध को प्राप्त हुए जो सज्जन विषयों कोविष के समान देख कर बहुत भारी उत्साह से सहित होतेहुए तप करते हैं वे पुण्यशाली हैं॥३०२॥
तप ही मुक्ति का कारण है
ये बुधा मुक्तिमापन्ना यान्ति यास्यन्ति निश्चितम्।
केवलं तपसा ते वै हेतुरन्यो न विद्यते॥३०२॥
**अर्थः—**जो विद्वान मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, हो रहे हैंऔर होंगे वे निश्चित ही एक तप के द्वारा हुए हैं, हो रहे हैंऔर होंगे, मुक्ति का दूसरा कारण नहीं है॥३०२॥
दीक्षा की प्रार्थना
संसार कूपसंपातिहस्तालम्बनधारिणीम्।
देहि दीक्षांविभो मह्यंकर्मविच्छेदकारिणीम्॥३०३॥
**अर्थः—**कोई भव्य आचार्य से प्रार्थना करता है कि हे नाथ!संसाररूपी कुए में पड़ने वालों—लिये हाथ का सहारा देनेवाली तथा कर्मों का विच्छेद करने वाली दीक्षा मुझे दीजिये,
दीक्षा की प्रार्थना
प्रसीद वरद स्वात्मदीक्षया करुणाम्बुधे।
मोहं महारिपुंजेतुमिच्छामि त्वत्प्रसादतः॥३०४॥
** अर्थः—**हे वरद! हे दयासागर! प्रसन्न होओ, आपके प्रसाद से मैं जिन दीक्षा धारण कर मोह रूपी महा-शत्रु को जीतना चाहता हूं॥३०४॥
अहो मया प्रमत्तेन विषयान्धेन नेक्षिताः।
कष्टं शरीरसंसारभोगनिस्सारता चिरम्॥३०५॥
** अर्थः—**क्योंकि मुझ प्रमादी ने विषयों में अन्धा होकर इतने दिन तक शरीर संसार और भोगोंकी असारता नहीं देखी, यह बड़े खेद की बात है॥३०५॥
दीक्षा किन्हें देना चाहिये?
विप्राः क्षत्रिया वैश्या ये सम्यक्त्वविभूषिताः।
तेषां दीक्षा विदातव्या भिक्षा तत्रैव नान्यथा॥३०६॥
** अर्थः—**जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सम्यग्दर्शन से विभूषित हैं उन्हें ही दीक्षा देना चाहिये तथा वे ही भिक्षा के पात्र है अन्य नहीं॥३०६॥
विरक्त मनुष्य की प्रार्थना
भगवंस्त्वत्प्रसादेन संप्राप्य जिनदीक्षणम्।
तपोविधातुमिच्छामि निर्विण्णो गृहवासतः॥३०७॥
**अर्थः—**हे भगवन्! मैं गृहवास से उदास हो चुका हूँ, अब आपके प्रसाद से जिन दीक्षा प्राप्त कर तप करना चाहता हूँ।
दीक्षा योग्य मनुष्य कौन है?
शान्तो दान्तो दयायुक्तो मदमायाविवर्जितः।
शास्त्ररागी कषायन्धो दीक्षायोग्यो भवेन्नरः॥३०८॥
**अर्थ—**जो शान्त हो, जितेन्द्रिय हो, दयालु हो, मद और माया से रहित हो, शास्त्रों का अनुरागी हो और कषाय को नष्ट करने वाला हो। वह मनुष्य दीक्षा के योग्य हो सकता है॥३०८॥
रागी और वीतराग की विशेषता
चक्रवर्त्यादिसल्लक्ष्मीं वीतरागो विहाय वै।
जिनदीक्षां समादत्ते, तृणं रागी न मुञ्चति॥३०९॥
** अर्थः—**वीतराग मनुष्य चक्रवर्ती आदि की प्रशस्त लक्ष्मी को छोड़कर जिनदीक्षा धारण कर लेता है और रागी मनुष्य तृण भी नहीं छोड़ता॥३०९॥
विना वैराग्य के दीक्षा का लेना निरर्थक है
विरक्तत्वमनासाद्य दीक्षादानं करोति यः।
तस्य जन्म वृथैव स्यादजाकण्ठे स्तनाविव॥३१०॥
**अर्थः—**जो मनुष्य विरक्तता को प्राप्त किये बिना दीक्षा ग्रहण करता है उसका जन्म बकरी के गले में स्थित स्तनों के समान निरर्थक है॥३१०॥
यौवन के सम
य तप करना चाहिये
यौवने कुरु भो मित्र! तपो दुश्वरमब्जमा।
जिनदीक्षां समादाय, मुक्तिस्त्रीचित्तरञ्जिकाम्॥३११॥
**अर्थः—**हे मित्र! मुक्तिरूपी स्त्री के चित्त को अनुरक्त करने वाली जिन दीक्षा लेकर यौवन के समय दुश्चर वास्तविक तप करो॥३११॥
तप करने में समर्थ देह, देह है
मन्ये देहं तमेवाहं यश्चारित्रतपःक्षमः।
परीषहसहे धीरं मतः पापकरः परः॥३१२॥
**अर्थ—**मैं उसी शरीर को शरीर मानता हूं जो चारित्र और तप के धारण में समर्थ है तथा परीषहों के सहने में वीर है, अन्य शरीर पाप को करने वाला है॥३१२॥
पूर्व धर्म के प्रभाव से दीक्षा की प्राप्ति होती है
पूर्वधर्मानुभावेन परं निर्वेदमागतः।
अभियाति महादीक्षां जिनेन्द्रमुखनिर्गताम्॥३१३॥
**अर्थः—**पूर्व धर्म के प्रभाव से यह जीव परमवैराग्य को प्राप्त हो जिनेन्द्र भगवान् के मुख से उपदिष्ट महादीक्षा को प्राप्त होता है॥३१३॥
विरक्त पुरुष की अभिलाषा
कदा नु विषयांस्त्यक्त्वा निर्गत्य स्नेहचारकात्
आचरिष्यामि जैनेन्द्रं तपोनिर्विृतिकारणम्॥३१४॥
अर्थः—
मैं स्नेह के कारागार से निकल कर तथा विषयों का परित्याग कर मोक्ष के कारण भूत जिनोपदिष्ठ तप काआचरण कब करूंगा॥३१४॥
दीक्षा धारण करने की उत्कएठा
प्रतिपद्य कादा दीक्षां विहरिष्यामि मेदिनीम्।
क्षपयित्वा कदा कर्म प्रपत्स्येसिद्धसंश्रयम्॥३१५॥
अर्थः—
मैं दीक्षा धारण कर पृथ्वी पर कब विहार करूंगा और कर्मोंका क्षय कर सिद्धालय—
मोक्ष को कब प्राप्त करूंगा!
धीर मनुष्य तपोवन में प्रवेश करते हैं
अन्वयव्रतमस्माकमिदं यत्सूनवे श्रियम्।
दत्त्वा संवेगिनो धीराः प्रविशन्ति तपोवनम्॥३१६॥
** अर्थः—**यह हमारा वंश परम्परा से चला आया व्रत है कि पुत्र के लिये लक्ष्मी देकर संसार से भयभीत धीर मनुष्य तपोवन में प्रवेश करते हैं॥३१६॥
भाग्यवान कौन है?
भाग्यवन्तो महासत्त्वास्ते नराः श्लाघ्यचेष्टिताः।
कपिभ्रूभङ्गुरां लक्ष्मीं ये तिरस्कृत्य दीक्षिताः॥३१७॥
** अर्थः—**महा शक्तिशाली तथा प्रशंसनीय चेष्टा से युक्त वे ही मनुष्य भाग्यवान हैं जो बानर की भोंह के समान चञ्चल लक्ष्मी को तिरस्कृत कर दीक्षित हुए हैं॥३१७॥
तपस्वियों के तप का फल
लौकान्तिकपदं सारं गणेशादिपदं परम्।
तपःफलेन जायेत तपस्विनां जगन्नुतम्॥३१८॥
**अर्थः—**तपस्वियों को तप के फलस्वरूप जगत् के द्वारा स्तुत लौकान्तिक देवों का तथा गणधरादिकों का श्रेष्ठ परम पद प्राप्त होता है॥३१८॥
जितेन्द्रिय ही जिनमुद्रा धारण करते हैं
इन्द्रियाणि न गुप्तानि जयं कृत्वा हृदश्च यैः।
जिनमुद्रां समादाय तैरात्मा वञ्चितः शठैः॥३१९॥
**अर्थः—**जिन्होंने हृदय को जीतकर इन्द्रियों को सुरक्षित नहीं किया है— उन्हें स्वाधीन नहीं किया है उन मूर्खों ने जिनदीक्षा धारण कर अपने आपको ठगा है॥३१९॥
पञ्चेन्द्रियों को जीतने वाले विरले हैं।
दन्तीन्द्रदन्तदलनैकविधौ समर्थाः
सन्त्यत्र रुद्रमृगराजबधे प्रवीणाः।
आशीविषस्य च वशीकरणेऽपि दक्षाः
पञ्चाक्षनिर्जयपरास्तु न सन्ति मर्त्याः॥३२०॥
अर्थ:—इस संसार में कितने ही मनुष्य बड़े बड़े हाथियों के दांत तोड़ने में समर्थ हैं, कितने ही प्रचण्ड सिंहों के वध में निपुण हैं, और कितने ही सांपों को वश करने मेंचतुर हैं, परन्तु पञ्चेन्द्रियों के जीतने में तत्पर नहीं हैं॥१२०॥
कर्म किससे डरते है?
एवं प्रतिदिनं यस्य ध्यानं विमलचेतसः।
भीतानीव न कुर्वन्ति तेन कर्माणि संगतिम्॥३२१॥
** अर्थः—**निर्मल चित्त को धारण करने वाले जिस मनुष्य का ऐसा ध्यान प्रतिदिन रहता है, उससे डर कर ही मानों कर्म उसकी संगति नहीं करते॥३२१॥
तपही मुक्ति का कारण
गता यान्ति च यास्यन्ति मुक्तिं येऽत्र मुमुक्षवः।
कर्मारीन् केवलं हत्वा तपोभिस्ते न चान्यथा॥३२२॥
**अर्थः—**इस संसार में जो मोक्षाभिलाषी जन मोक्ष को गये हैं, जा रहे हैं, और जावेंगे, वे सिर्फ तप के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करके गये हैं, जा रहे हैं, और जावेंगे श्रन्य प्रकार से नहीं॥३२२॥
राज्यलक्ष्मी से विरक्त पुरुषों के विचार
या राज्यलक्ष्मी र्बहुदुःखसाध्या दुःखेनपाल्या चपलादुरन्ता।
नष्टाग्नि दुःखानि चिराय सूते तस्यां कदा वा सुखलेशलेश॥३२३॥
**अर्थः—**जो राज्यलक्ष्मी बहुत दुःख से प्राप्त होती है, कठिनाई से जिसकी रक्षा होती है जो चपल है, जिसका अन्त दुखदाई है और जो नष्ट होकर भी चिरकाल तक दुःख उत्पन्न करती है, उस राज्यलक्ष्मी में सुख का लेश कब सकता है? अर्थात् कभी नहीं हो सकता॥३२३\।\।
या दुःखसाध्या चपला दुरन्ता यस्या वियोगो बहुदुःखहेतुः।
तस्याःकृतेजन्तुरुपैति लक्ष्म्याः परिश्रमं पश्यत मोहमस्य॥
अर्थः—
जो लक्ष्मी बड़े कष्ट से उपार्जन की जाती है, चञ्चल है तथा जिसका वियोग अत्यधिक दुःख का कारण है, ऐसी लक्ष्मी के लिए यह जीव इतना परिश्रम करता है। अहो देखो इसके मोह को॥३२४॥
स्वच्छानामनुकूलानां संहतानां नृचेतसां।
विपर्यासकरीं लक्ष्मीं धिक् पङ्कर्द्धिमिवाम्भसाम्॥३२५॥
अर्थः—
जिस प्रकार कीचड़ स्वच्छ अनुकूल एवं मिले हुए जल को मलिन कर देता है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी स्वच्छ अनुकूल और मिले हुए मनुष्यों के चित्त को विपरीत कर देती है। अतः इसे धिक्कार हो॥३२५॥
मधुरस्निग्धशीलानां चिरस्थस्नेहहारिणीम्।
चलाचलात्मिकां धिक् धिक् यन्त्रमूर्तिमिवश्रियम्॥३२६॥
अर्थः—
जिस प्रकार यन्त्र मूर्ति (कोल्हू) मधुर एवं चिक्कण स्वभाव वाले तिलहनों के दीर्घकालिक तैल को हर लेती है, तथा अत्यन्त अस्थिर होती है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मधुर एवं स्नेहपूर्ण स्वभाव वाले मनुष्यों के चिरकालिक स्नेह
को नष्ट कर देती है एवं अत्यन्त अस्थिर है अतः इसे धिक्कार हो॥३२६॥
सर्वतोऽपि सुदुः प्रेक्ष्यां नरेन्द्राणामपि स्वयं।
दृष्टि दृष्टिविषस्येव धिक् धिक् लक्ष्मीं भयावहम्॥३२७॥
अर्थः—
जिस प्रकार दृष्टिविष सर्प की दृष्टि विषवैद्यों के लिए भी सब और से स्वयं अत्यन्त दुःख से देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी राजाओं के लिए भी सब और सेअत्यन्त दुःख से देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली हैइसलिए इसे धिक्कार हो॥३२७॥
मूलमध्यान्तदुःस्पर्शासर्वदाग्निशिखामिव।
भास्वरामपि धिग्लक्ष्मीं सर्वसन्तापकारिणीम्॥२२८॥
अर्थः—
जिस प्रकार अग्नि की शिखा सदा मूल मध्य और अन्त में दुःख कर स्पर्श से सहित है तथा देदीप्यमान होकर भी सबको सन्ताप करने वाली है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी आदि मध्य और अन्त में दुःखकर स्पर्श से सहित है सब दशाओं में दुःख देने वाली है तथा देदीप्यमान तेज से युक्त होने पर भी सबको सन्ताप उत्पन्न करने वाली है आकुलता की जननी है इसलिए इसे धिक्कार हो॥३२८॥
रात्रि भोजन निन्दा
रात्रि भोजन करने वाला कैसा होता?
विरूपो विकलाङ्गःस्यादल्पायू रोगपीडितः।
दुर्भगो दुःकुलश्चैव नक्तंभोजी सदा नरः॥३२९॥
**अर्थः—**रात्रि भोजन करने वाला मनुष्य सदा विरूप, विकलाङ्ग, अल्पायु, रोगी, अभागा और नीचकुली होता है।
रात्रि में भोजन करना योग्य नहीं है
भानोः करैरसंस्पृष्ट मुच्छिष्टं प्रेतसंचरात्
सूक्ष्मजीवाकुलं वापि निशि भोज्यं न युज्यते॥३३०॥
**अर्थः—**रात्रि में भोजन सूर्य की किरणों से अछूता, प्रेतों के संचार से जूठा और सूक्ष्म जीवों से युक्त होता है अतः करने योग्य नहीं है॥३३०॥
रात्रि भोजी पशु तुल्य है
विरोचनेऽस्तसंसर्ग गते ये भुज्जते जनाः।
ते मानुषतया बद्धाः पशवो गदिता बुधैः॥३३१॥
**अर्थः—**सूर्य के अस्त हो जाने पर जो मनुष्य भोजन करते हैं वे विद्वानों द्वारा मनुष्य पर्याय से युक्त पशु कहे गये हैं।
रात्रि भोजन के लम्पटी पुरुष परभव में क्या होते हैं
अन्धाः कुब्जकवामनातिविकला अल्पायुषः प्राणिनः
शोकक्लेशविषाददुःखबहुलाः कुष्ठादिरोगान्विताः।
दारिद्र्योपहता अतीवचपला मन्दादराः स्युर्ध्रुव
रात्रौभोजनलम्पटाः परभवे तिर्यक्षु श्वभ्रादिषु॥३३२॥
**अर्थः—**रात्रि भोजन के लम्पट पुरुष यदि परभव में मनुष्य होते हैं तो अन्धे, कुबड़े, बीने, विकलाङ्ग, अल्पायु, शोक-क्लेश और विषाद के दुःख से युक्त, कुष्ठआदि रोगों से सहित, दरिद्र, अत्यन्त चपल और आदरहीन होते हैं तथा तिर्यञ्च और नरकों में यदि पैदा होते हैं तो उनके दुःख का कहना ही क्या है?॥३३२॥
रात्रि भोजन का दुष्परिणाम
मक्षिकाकीटकेशादि भक्ष्यते पापजन्तुना।
तमःपटलसंचनचक्षुषा पापबुद्धिना॥३३३॥
**अर्थ—**अन्धकार के समूह से जिसके नेत्र आच्छादित हो रहे हैं तथा जिसकी बुद्धि पापरूप हो रही है ऐसा पापी जीव रात्रि में भोजन करते समय मक्खी, कीड़े तथा बाल आदि हानिकर पदार्थ खा जाता है॥३३३॥
रात्रिभोजी दुर्गति को नहीं देखता
दर्शनागोचरीभूते सूर्ये परमलालसः।
भुङ्क्ते पापमना जन्तुर्दुर्गतिं नावबुध्यते॥३३४॥
**अर्थः—**तीव्र लालसा से युक्त पापी मनुष्य सूर्य के छिप जाने पर भोजन करता है परन्तु उससे होने वाली दुर्गति को नहीं जानता॥३३४॥
रात्रिभोजन के दोष
डाकिनीप्रेतभृतादिकुत्सितप्राणिभिः समम्।
भुक्तं भवेत्तेन येन क्रियते रात्रिभोजनम्॥३३५॥
**अर्थः—**जो रात्रिभोजन करता है वह डाकिनी, प्रेत तथा भूत आदि निन्द्य प्राणियों के साथ भोजन करता है॥३३५॥
रात्रिभोजन के त्यागी पुरुष को उपवास का फल मिलता है
मुहूर्त्तत्रिंशतं कृत्वा काले यावति तावति।
आहारवर्जनं जन्तु-रुपवासफलं भजेत्॥३३६॥
**अर्थः—**जो पुरुष रात्रि के ३० मुहूर्त्त तक चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है वह उपवास के फल को प्राप्त होता है॥३३६॥
रात्रिभोजन को धर्म बताने वाले दुःख प्राप्त करते हैं
निशिभुक्तिरधर्मोयैर्धर्मत्वेन प्रकल्पितः।
पापकर्मकठोराणां तेषां दुःखप्रबोधनम्॥३३७॥
**अर्थः—**रात्रि में भोजन करना अधर्म है फिर भी इसे जिन्होंने धर्म बतलाया है वे पाप कर्म के उदय से क्रूर चित्त हैं उन्हें दुःख की ही प्राप्ति होती है॥३३७॥
रात्रिभोजी जिनशासन से विमुख है
नक्तं दिवा च भुञ्जानो विमुखो जिनशासने।
कथं सुखी पत्र स्यान्निर्व्रतोनियमोञ्झितः॥३३८॥
**अर्थः—**रात दिन भोजन करने वाला पुरुष जिन शासन से पराङ्मुःख है। जो व्रत रहित तथा नियम से शून्य है वह पर भव में सुखी कैसे हो सकता है?॥३३८॥
एक उपवास का फल मिलता
अह्नोमुहूर्तमात्रं यः कुरुते भुक्तिवर्जनम्।
फलं तस्योपवासेन समं मासेन जायते॥३३९॥
**अर्थ—**जो दिन में एक मुहूर्त्त के लिये भी आहार का त्याग करता है उसे एक मास में एक उपवास के बराबर फल मिलता है॥३३९॥
दो उपवास का फल मिलता है
मुहूर्तद्वितयं वस्तु न भुङ्क्ते प्रतिवासरम्।
षष्ठोपवासिता तस्य जन्तो र्मासेन जायते॥३४०॥
**अर्थः—**जो प्रतिदिन दो मुहूर्त तक भोजन नहीं करता है वह मासमें वेला अर्थात् दो उपवास के फल को प्राप्त होता है॥३४८॥
रात्रिभोजन के त्याग का फल
निजकुलैकमण्डनं त्रिजगदीशसम्पदम्।
भजति यः स्वभावतस्त्यजति नक्तंभोजनम्॥३४१॥
**अर्थः—**जो स्वभाव से ही रात्रि भोजन का त्याग करता है वह अपने कुल का आभूषण होता हुआ त्रिलोकीनाथ की सम्पत्ति को प्राप्त होता है॥३४१॥
दिन भर उपवास रखकर रात्रि में भोजन करना ठीक नहीं है
त्याज्यमेतत्परं लोके यत्प्रपीड्य दिवा क्षुधा।
आत्मानं रजनीभुक्त्या गमयत्यर्जितं शुभम्॥३४२॥
**अर्थः—**दिन भर भूख से अपने आपको पीडित कर जो शुभ कर्म अर्जित किया है उसे वह रात्रिभोजन से दूर कर देता है। लोक में यह प्रथा अत्यन्त त्याज्य है॥३४२॥
सज्जनप्रशंसा
सज्जन विरले हैं
मालिनी छन्दः
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा-
स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः क्रियन्तः॥३४३॥
**अर्थः—**जो मन वचन और काय में पुण्यरूपी अमृत से परिपूर्ण है, जो उपकारों की परम्परा से तीनों लोकों को संतुष्ट करते हैं, और जो दूसरों के परमाणु तुल्य अल्पगुणों को पर्वत जैसा बड़ा बना कर निरन्तर अपने हृदय में विकसित करते हैं ऐसे सज्जन पुरुष कितने हैं? अर्थात् अत्यन्त विरले हैं॥३४३॥
सज्जन पुरयकार्यों से कभी तृप्त नहीं होते
सुकृताय न तृप्यन्ति सन्तः सन्ततमप्यहो।
विस्मर्तव्या न धर्मस्य समुपास्तिः कुतः क्वचित्॥३४४॥
**अर्थः—**आश्चर्य है कि सज्जन पुण्य कार्य के लिये कभी
संतुष्ट नहीं होते अर्थात् पुण्य कार्य करने की उनकी सदा इच्छा बनी रहती है। किसी कारण से कहीं भी धर्म की उपासना न भुलना चाहिये॥३४४॥
गुरु औरदे व की उपासना सदा करना चाहिये
आजन्मगुरुदेवानां माननं युज्यते सताम्।
रोगादिभिः पुनस्तस्य क्षति नैव विदोषकृत्॥३४५॥
**अर्थः—**सज्जनों को निर्ग्रन्थ गुरु और वीतरागदेव की उपासना जन्म पर्यन्त करना चाहिये। रोगादि के कारण यदि कभी बाधा पड़ती है तो वह दोषोत्पादक नहीं है॥३४५॥
सज्जन कभी वैर को प्राप्त नहीं होते
सुजनो न याति वैरं परहितनिरतो विनाशकालेऽपि।
छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य॥३४६॥
**अर्थ :—**दूसरे के हित करने में तत्पर सज्जन, विनाशकाल में भी वैर को प्राप्त नहीं होता सो ठीक है क्योंकि चन्दन का वृक्ष कटते समय भी कुल्हाड़े के मुख को सुगन्धित कर देता है।
धरोहर किसके पास रखी जाती है?
धर्मज्ञे कुलजे सत्ये सुन्याये व्रतशालिनि।
सदाचाररतेऽक्रोघे शुद्धे बहुकुटुम्बिनि॥३४७॥
पुरुषे क्षिप्यते वस्तु धनं भृषादि राजतम्।
हेमवाश्वगजादि र्वा न चेन्नश्यत्यसंशयम्॥३४८॥
**अर्थः—**धर्म के ज्ञाता, कुलीन, सत्यव्यवहारी, न्यायवान्, व्रतों से सुशोभित, सदाचार में तत्पर, क्रोध रहित, शुद्ध, और बहुकुटुम्बी मनुष्य के पास ही धन, आभूषणादि, चांदी, सोना, घोड़ा तथा हाथी आदि वस्तुएं धरोहर रूप में रखी जाती है, अन्यथा वे निःसन्देह नष्ट हो जाती है॥३४७-३४८॥
सत्पुरुष ही पुरुष है
वदिता योऽथवा श्रोता श्रेयसां वचसां नरः।
पुमान् स एव शेषस्तु शिल्पिकल्पितकायिवत्॥३४९॥
**अर्थः—**जो कल्याणकारी वचनों को कहता है तथा सुनता हैं, वही पुरुष है, बाकी शिल्पकार के द्वारा निर्मित पुतले के समान है॥३४९॥
सज्जन परकल्याण में संतुष्ट रहते हैं
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते।
महान्तः परकल्याणे नीचाः परविपत्तिषु॥३५०॥
**अर्थः—**ब्राह्मण भोजन में संतुष्ट होते हैं, मयूर मेघ गर्जना में संतुष्ट होते हैं, महापुरुष दूसरों की भलाई में संतुष्ट होते हैं और नीच पुरुष दूसरोंकी विपत्तिमें संतुष्ट होते हैं।३५०।
सज्जन का मन कुपित नहीं होता
साधोः प्रकोपितस्यापि मनो याति न विक्रियाम्।
न हि तापयितुं शक्यं सागराम्भस्तृणोल्कया॥३५१॥
** अर्थ—**क्रोध उपजाये जाने पर भी सज्जन का मन विकार को प्राप्त नहीं होता सो ठीक है क्योंकि तृण की आग से समुद्र का पानी गर्म नहीं किया जा सकता॥३५१॥
सज्जन ही आदरणीय है
सज्जनास्तु सतां पूर्वं, समावर्ज्याः प्रयत्नतः।
किं लोके लोष्टवत्प्राप्यं श्लाघ्यं रत्नमयत्नतः॥३५२॥
**अर्थः—**सज्जन पुरुष ही प्रयत्न से, सज्जनों द्वारा आदरणीय हैं। क्या संसार में श्लाघ्य रत्न बिना प्रयत्न के, मिट्टी के ढेले के समान प्राप्त हो सकता है? नहीं हो सकता है।
सज्जनों के बचन अमृत तुल्य हैं
जाग्रत्वं सौमनस्यं च कुर्यात्सद्वागलं परैः।
जलाशयसम्भूत—ममृतं हि सतां वचः॥३५३॥
** अर्थ—**सज्जनों के वचन शाश्वतिक सावधानता, और मन की पवित्रता को करते हैं, विशेष क्या, सज्जनों के वचन जलाशय से उत्पन्न नही हुए, अमृत के समान है॥३५३॥
सज्जनों का मन विकारी नहीं होता
न हि विक्रयते चेतः सतां तद्धेतुसन्निधौ।
किं गोष्पदजलक्षोभी, चोभयेज्जलधेर्जलम्॥३५४॥
** अर्थः—**सज्जनों का मन विकार के कारण मिलने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता है। जैसे गाय के खुर प्रमाण गहरे जल मात्र को मैला कर सकने वाला मेढ़क समुद्र के जल को मैला कर सकता है? नहीं॥३५४॥
सज्जनों के बिना संसार का अस्तित्व नहीं!
यत्र क्वापि हि सन्त्येव, सन्तः सार्वगुणोदयाः।
क्वचित् किमपि सौजन्यं, नोचेल्लोकःकुतो भवेत्॥३५५॥
** अर्थ—** सर्व के हितकारी गुणों सहित सज्जन, सर्वत्र नहीं मिलते हैं, कहीं कहीं पर ही होते हैं। क्योंकि यदि संसार में सज्जनता की गंध न रहे तो संसार का अस्तित्व ही नहीं रह सकेगा॥३५५॥
सज्जन सज्जनों से पूज्य होते हैं।
पूज्या अपि स्वयं सन्तः, सज्जनानां हि पूजकाः।
पूज्यत्वं नाम किन्नु स्यात्, पूज्यपूजाव्यतिक्रमे॥ ३५६॥
अर्थ—
स्वयं पूज्यनीय भी सज्जन, सज्जनों के पूजक होने हैं, क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा का उल्लंघन करने पर, पूज्यपना कैसे हो सकता है? किन्तु नहीं हो सकता है॥३५६॥
सज्जनों का चित्त कैसा होता है?
सम्पत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम्।
आपत्सु तु महाशैलिशिलासंघातकर्कशम्॥३५७॥
अर्थः—
सम्पत्तियों में महापुरुषों का चित्त नीलकमल के समान कोमल होता है और आपत्तियों में किसी बड़े पर्वत की शिलाओं के समान कठोर होता है।
सज्जन संसर्गदोष से विकार को प्राप्त नहीं होते
नहि संसर्गदोषेण विक्रियां यान्ति साधवः।
भुजङ्गैर्वेष्ट्यमानोऽपि चन्दनो न विषायते॥३५८॥
अर्थः—
सज्जन पुरुष संसर्ग के दोष से विकार को प्राप्त नहीं होते सो ठीक ही है क्योंकि सांपों से लिपटा हुआ चन्दन का वृक्ष विषरूप नहीं होता॥३१८॥
सज्जनों का स्वभाव कैसा होता है?
संपदि विनयावनता विपदि समारूढगर्वगिरिशिखराः।
ज्ञाने मौनाभरणाश्चित्रचरित्रा जयन्ति भुवि सन्तः॥३५९॥
अर्थः—
जो संपत्ति में विनय से नम्रीभूत रहते हैं, विपत्ति में गर्वरूपी पर्वत की शिखर पर चढ़ते हैं और ज्ञानमें मौनरूपी आभूषण से सहित हैं ऐसे विचित्र स्वभाव को धारण करने वाले सज्जन पृथ्वी में जयवन्त हों॥३५६॥
महापुरुषों की एकरूपता होती है
उदये सविता रागी रागी चास्तमये तथा।
संपत्तौच विपत्तौ च महतामेकरूपता॥३६०॥
** अर्थ—**
सूर्य उदयकाल में लाल रहता है और अस्तकाल में भी लाल रहता है सो ठीक है क्योंकि संपत्ति और विपत्ति में महापुरुषों के एक रूपता रहती है॥३६०॥
सज्जन सब में समान रहते हैं
अञ्जलिस्थानि पुष्पाणि वासयन्ति करद्वयम्।
अहो सुमनसां वृत्तिर्वामदक्षिणयोः समा॥३६१॥
अर्थः—
अञ्जलि में स्थित फूल दोनों हाथों को सुवासित करते हैं सो ठीक है क्योंकि सज्जनों की वृत्ति वाम और दक्षिण (पक्ष में अनुकूल तथा प्रतिकूल) पुरुषों में समान रहती है॥३६१॥
विकार ही अच्छे बुरे की पहिचान है
न जारजातस्य ललाटचिह्नं, न साधुजातस्य ललाटपद्मम्।
यदा यदासौभजते विकारं, तदा तदासौ खलु जारजातः।३६२।
अर्थ :—
जार से उत्पन्न हुए मनुष्य के ललाट पर कोई चिह्न नहीं होता और न सज्जन से उत्पन्न हुए मनुष्य के ललाट पर कमल होता है परन्तु जब जब वह विकार भाव को प्राप्त होता है तब तब पता चलता है कि वह जार उत्पन्न है॥३६२॥
कुलीन पुरुष के लक्षण क्या हैं?
न च हसति नाभ्यसूयति न परं परिभवति नाप्रियंवदति।
न क्षिप्यां कथां कथयति लक्षणमेतत्कुलीनस्य॥३६३॥
अर्थ—
न दूसरे की हंसी करता है, न ईर्ष्या करता है, न दूसरे का अनादर करता है, न अप्रिय वचन बोलता है, और न आक्षेप के योग्य कथा कहता है यह कुलीन मनुष्य के लक्षण हैं॥३६३॥
सज्जन और दुर्जन की विशेषता
दिव्यमाम्ररसं पीत्वा गर्वं नायाति कोकिलः।
पीत्वा कर्दमपानीयं भेको वटवटायते॥३६४॥
अर्थः—
कोयल आम के उत्तम रस को पीकर गर्व को प्राप्त नहीं होती परन्तु मेढ़क कीचड़ से मिला हुआ पानी पी कर टर्र टर्र करता है॥३६४॥
सज्जन और दुर्जन में अन्तर
नारिकेलसमाकारा दृश्यन्ते किल सज्जनाः।
अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः॥३६५॥
अर्थः—
सज्जन नारियल के समान दिखाई देते हैं, और दुर्जन बेर के समान बाहर ही मनोहर रहते हैं॥३६५॥
सुशील मनुष्यों को कोई नष्ट नहीं कर सकता?
न मज्जयत्यम्बुनिधिः सुशीलान्,
न दग्धुमीशो ज्वलदर्चिराग्निः।
न देवता लङ्घयितुं समर्था
विघ्ना विनश्यन्ति विना प्रयत्नात्॥३६६॥
अर्थः—
सुशील मनुष्यों को समुद्र नहीं डुबाता है, जलती हुई ज्वालाओं से युक्त अग्नि जलाने में समर्थ नहीं है, और देवता लांघने में समर्थ नहीं हैं, उनके विघ्न बिना प्रयत्न के ही नष्ट हो जाते हैं॥३६६॥
कुलीन मनुष्य नम्रिभूत होते हैं
नमन्ति सफला वृक्षा नमन्ति कुलजा नराः।
शुष्ककाष्ठाश्चमुर्खाश्च न नमन्ति कदाचन॥३६७॥
अर्थः—
फलों से युक्त वृक्ष और उच्चकुल में उत्पन्न हुए मनुष्य नम्र होते हैं सूखे काष्ठ और मूर्ख मनुष्य कभी नम्रीभूत नहीं होते॥३६७॥
परमार्थ का ज्ञाता कौन?
धर्मशास्त्र श्रुतौ शश्वल्लालसं यस्य मानसम्।
परमार्थं स एवेह सम्यग्जानाति नापरः॥३६८॥
अर्थः—
जिसका मन सदा धर्म शास्त्र के सुनने की लालसा से युक्त रहता है, वही इस संसार में परमार्थ को अच्छी तरह जानता है दूसरा नहीं॥३६८॥
अन्तरङ्ग की बात को विचारने वाले अल्प हैं
अन्योक्ति
शार्दूलविक्रीडतच्छन्दः
भ्रातः काञ्चनलेपगोपितबहिस्ताम्राकृतिः साम्प्रतं
मा भैषीः कलश! स्थिरीभव चिरं देवालयस्योपरि।
ताम्रत्वं गतमेव काञ्चनमयी कीर्तिः स्थिरा तेऽधुना
नान्तः केऽपि विचारयन्ति नियतं लोका बहिबुद्धयः।३६९।
अर्थः—
सुवर्ण के लेप से जिसकी तामें की बाह्य आकृति छिप गई है, ऐसे हे भाई कलश! इस समय तू डर मत, मन्दिर के ऊपर चिर काल के लिये स्थिर हो जा, तेरा तामें का रूप चला गया है अब तो तेरी सुवर्णमय कीर्ति स्थिर हो गई क्योंकि अन्तरङ्ग की बात का कोई विचार नहीं करते, सचमुच ही लोग बहिर्बुद्धि हैं**—**
केवल बाह्य रूप को देखते हैं।
सज्जन का हृदय कैसा होता है?
कोमलं हृदयं नूनं साधूनां नवनीतवत्।
परसन्तापसन्तप्तं परसौख्यसुखावहम्॥३७८॥
अर्थः—
सज्जनों का हृदय सचमुच ही मक्खन के समान कोमल होता है, इसीलिये तो वह दूसरों के संताप से संतप्त होता है और दूसरों के सुख से सुखी रहता है॥३७०॥
सज्जन और दुर्जन की मित्रता कैसी होती है?
इक्षोरग्रे क्रमशः पर्वणि पर्वणि यथा रसविशेषः।
तद्वत्सज्जनमैत्री विपरीतानां तु विपरीता॥३७१॥
जिस प्रकार ईख के आगे आगे की पोर में क्रम से रस की विशेषता होती जाती है उसी प्रकार सज्जन की मित्रता आगे आगे विशिष्ट**—**
अधिक अधिक होती जाती है परन्तु दुर्जनों की मित्रता इससे विपरीत होती है॥३७१॥
पुरुषोत्तम कौन है?
राजानो ये प्रशंसन्ति यं प्रशंसन्ति वै द्विजाः।
साधवो यं प्रशंसन्ति स पार्थ पुरुषोत्तमः॥३७२॥
** अर्थः—**
राजा जिसकी प्रशंसा करते हैं, ब्राह्मण जिसकी प्रशंशा करते हैं और साधु जिसको प्रशंसा करते हैं है अर्जुन! वह पुरुषोत्तम है॥३७२॥
मनुष्यों के चार भेद
तेतु सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यज्य ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वर्थाय निघ्नन्ति ये
ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे।३७३।
अर्थः—
जो स्वार्थ को छोड़ कर परार्थ करने में तत्पर रहते हैं वे सत्पुरुष हैं, जो स्वार्थ का विरोध न कर परार्थ करने में तत्पर रहते हैं, वे सामान्य पुरुष हैं, जो स्वार्थ के लिये
परार्थ को नष्ट करते हैं वे मनुष्यों में राक्षस हैं और जो बिना प्रयोजन ही दूसरों का हित नष्ट करते हैं वे कौन हैं यह हम नहीं जानते॥३७३॥
महापुरुष का लक्षण
प्रारम्भे सर्वकार्याणि विचार्याणि पुनः पुनः।
प्रारब्धस्यान्तगमनं महापुरुषलक्षणम्॥३७४॥
अर्थः—
प्रारम्भ में सब कार्यों का बार बार विचार कर लेना चाहिये पश्चात् प्रारम्भ किये हुए कार्य को पूरा करना चाहिये यही महापुरुष का लक्षण है॥३७४॥
महात्माओं के प्रकृतिसिद्धगुण
द्रुतविलम्बितच्छन्दः
विपदिधैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचि र्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥३७५॥
अर्थः—
विपत्ति में धैर्य, ऐश्वर्य में क्षमा, सभा में बोलने की चतुराई, युद्ध में पराक्रम, यश में इच्छा और शास्त्र में व्यसन-आसक्ति, यह सब महात्माओं में स्वभाव से सिद्ध होते हैं॥३७५॥
उत्तम पुरुष कब भोजन करते हैं?
पितु र्मातुः शिशोः पात्रगर्भिणीवृद्धरोगिणाम्।
प्रथमं भोजनं दत्वा स्वयं भोक्तव्यमुत्तमैः॥३७६॥
अर्थः—
पिता, माता, बालक, मुनि आदि योग्य पात्र, गर्भिणी स्त्री, वृद्ध और रोगी मनुष्यों को पहले भोजन देकर पीछे उत्तम पुरुषों को स्वयं भोजन करना चाहिये॥३७६॥
किनके पद पद पर तीर्थ हैं?
परद्रव्येषु ये ह्यन्धाः परस्त्रीषु नपुसंकाः।
परापवादने मूकास्तेषां तीर्थं पदे पदे॥३७७॥
अर्थः—
जो दूसरे के धन में अन्धे हैं, परस्त्रियों के विषय में नपुसंक हैं और दूसरे की निन्दा करने में गूंगे हैं उन्हें पद पद पर तीर्थ हैं॥३७७॥
देवताओं के समान पुरुष कौन है?
परपरिवादनमूकाः परदोषनिदर्शने चान्धाः।
परकटुकवचनवधिरास्ते पुरुषा देवतासदृशाः॥३७८॥
अर्थः—
जो दूसरे की निन्दा करने में गूंगे हैं, दूसरे के दोष देखने में अन्धे हैं और दूसरे के कडुए वचन सुनने में बहरे हैं वे पुरुष देवता के समान हैं॥३७८॥
कुलीन मनुष्य नीच कार्य नहीं करते
वनेऽपि सिंहा गजमांसभक्षिणो, बुभुक्षिता नैव तृणांश्चरन्ति,
एवं कुलीना व्यसनाभिभूता, न नीचकर्माणि समाचरन्ति॥३७९॥
अर्थः—
जिस प्रकार सिंह वन में भी हाथी का मांस खाते हैं भूख से पीड़ित होने पर घास नहीं खाते उसी प्रकार कुलीन मनुष्य व्यसनों से युक्त होने पर भी नीच कार्य नहीं करते।
सज्जन किनके बन्ध नहीं है?
वदनं प्रसादसदनं हृदयं सदयं सुधामुचो वाचः।
करणंपरोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥३८०॥
अर्थः—
जिनका मुख प्रसन्नता का घर है, हृदय दया से सहित है, वचन अमृत को कराते हैं और इन्द्रियां परोपकार करती हैं वे सज्जन किनके बन्ध नहीं है॥३८०॥
सज्जनों के लक्षण क्या हैं?
गर्व नोद्वहते न निन्दति परं नो भाषते निष्ठुरं
प्रोक्तं केनचिदप्रियं हि सहते क्रोधं च नालम्बते।
श्रुत्वा काव्यमलक्षणं परकृतं संतिष्ठते मूकवद्
दोषांश्छादयते गुणान् प्रथयते चैतत्सतां लक्षणम्।३८१।
** अर्थ—**
जो न गर्व को धारण करता है, न दूसरे की निन्दा करता है, न कठोर वचन बोलता है, कोई अप्रिय बात कहता है तो उसे सह लेना है, क्रोध का आश्रय नहीं लेता है, दूसरे के द्वारा रचित दोषपूर्ण काव्य को सुन कर जो गूंगे की तरह चुप बैठा रहता है जो दूसरे के दोषों को छुपाता है तथा गुणों को विस्तृत करता है वह सज्जन है। सज्जन का यही लक्षण है॥३८१॥
महापुरुष छोटे पुरुषों पर क्रोध नहीं कर
तृणानि नोन्मूलयति प्रभञ्जनो
मृदूनि नीचैःप्रणतानि सर्वतः।
समुच्छ्रितानेव तरून्प्रबाधने
महान् महत्स्वेव करोति विक्रमम्॥३८२॥
अर्थः—
आंधी सब ओर से नीचे झुके हुए तृणों को नहीं उखाड़ती, ऊंचे वृक्षों को ही उखाड़ती है सो ठीक है क्योंकि महापुरुष महापुरुषों पर ही पराक्रम करते हैं॥३८२॥
सज्जनों से पृथ्वी सुशोभित है
अप्रियवचनदरिद्रैःप्रियवचनाढ्यैःस्वदारपरितुष्टैः।
परपरिवादनिवृत्तैः क्वचित्क्वचिन्मण्डिता वसुधा॥३८३॥
** अर्थः—** जो अप्रिय वचनों के विषय में दरिद्र हैं, प्रिय वचनों से सम्पन्न हैं, अपनी स्त्री में संतुष्ट हैं, और परनिन्दा से दूर हैं ऐसे पुरुषों से पृथ्वी कहीं कहीं सुशोभित है॥३८३॥
साधु कौन है?
पृथ्वीच्छन्दः
जयन्ति जितमत्सराः परहितार्थमभ्युद्यताः
स्वयं विगतदोषकाः परविपत्तिखेदावहाः।
महापुरुषसंकथाश्रवणजातरोमोग्दमाः
समस्तदुरितार्णवे प्रकटसेतवः साधवः॥३८४॥
** अर्थः—**जिन्होंने ईर्ष्या को जीत लिया है, जो परहित के लिये तत्पर रहते हैं, जो स्वयं दोष रहित हैं, जो दूसरों की विपत्ति में खेद धारण करते हैं, जो महापुरुषों की कथा सुन कर रोमाञ्चित होते हैं और जो समस्त पुरुषों के पापरूपी समुद्र में प्रकट पुल हैं वे साधु हैं॥३८४॥
धीर कौन है?
ते धीरास्ते शुचित्वाढ्या स्ते वैराग्यसमुन्नताः।
विक्रियन्ते न चेतांसि सति येषामुपद्रवे॥३८५॥
** अर्थः—**जिनके चित्त उपद्रव के होने पर भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होते वे ही धीर है, वे ही पवित्रता से युक्त हैं, और वैराग्य से उन्नत हैं॥३८५॥
संपत्ति और आपत्ति महापुरुषों के ही होती है
संपदो महतामेव महतामेव चापदः।
वर्धते क्षीयते चन्द्रो न तु तारागणः क्वचित्॥३८६॥
**अर्थः—**महापुरुषों के ही संपदाए होती हैं और महापुरुषों के ही आपदाएं होती हैं क्योंकि चन्द्रमा ही बढ़ता है और घटता है ताराओं का समूह कहीं नहीं बढ़ताघटता है।३८६।
महापुरुषों को विकार नहीं होता है
गवादीनां पयोऽन्येद्यः सद्यो वा दधि जायते।
क्षीरोदधिस्तु नाद्यापि महतां विकृतिः कुतः॥३८७॥
**अर्थः—**गाय आदि का दूध दूसरे दिन अथवा शीघ्र ही दही बन जाता है परन्तु क्षीरसागर आज तक दहीरूप नहीं हो सका सो ठीक है क्योंकि महापुरुषों के विकार कैसे हो सकता है?॥३८७॥
उत्तम पुरुषों की प्रकृति में विकार नहीं होता
मन्दाक्रान्ता
दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्णं
घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारुगन्धम्।
छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादुदं येक्षुदण्डं।
प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम्॥३८८\।\।
**अर्थः—**सुवर्ण बार बार जलाये जाने पर भी सुन्दर वर्ण का धारक होता है, चन्दन बार बार घिसे जाने पर भी सुन्दर गन्ध से युक्त होता है और ईख बार बार काटे जाने पर भी मधुर स्वाद को देने वाला होता है सो ठीक ही है क्योंकि प्राणान्त होने पर भी उत्तम मनुष्यों की प्रकृति—स्वभाव में विकार नहीं होता॥३८८॥
महापुरुषों का सब अनुसरण करते हैं
मत्तवारणसंक्षुण्णे व्रजन्ति हरिणाः पथि।
प्रविशन्ति भटा युद्धं महाभटपुरस्सराः॥३८९॥
भास्वताभासितानर्थान् सुखेनालोकते जनः।
सूचीमुखविनिर्भिन्नं मणिं विशति सूत्रकम्॥३९०॥
**अर्थः—**मत्त हाथी के द्वारा चले हुए मार्ग में हरिण चलते हैं, महायोद्धा को आगे कर साधारण योद्धा युद्ध में प्रवेश करते हैं सूर्य के द्वारा प्रकाशित पदार्थों को लोग अच्छी तरह देखते हैं और सूई के अग्रभाग से भिन्न मणि में सूत्र प्रवेश करता हूँ॥३८९-३९०॥॥
सज्जनों को अनादर से दुःख होता है
अन्योक्ति
न दुःखं दह्यमाने मे न च्छेदे न च घर्षणे।
एकमेव महादुःखं गुञ्जया सह तोलनम्॥३९१॥
**अर्थः—**सुवर्ण कहता है कि मुझे जलाने पर दुःख नहीं होता, काटने पर दुःख नहीं होता और घसीटने में दुःख नहीं होता किन्तु गुमची के साथ तोला जाना यही एक मुझे सबसे बड़ा दुःख है॥३९१॥
—::—
ब्रह्मचर्य प्रशंसा
ब्रह्मचर्य धारण करने की प्रेरणा
संसाराम्बुधितारकं सुखकरं देवैः सदा पूजितं
मुक्तिद्वारमपारपुण्यजनकं धीरैः सदा सेवितम्।
सम्यग्दर्शनबोधवृत्तगुणसद्भाण्डं पवित्रं परं
ह्यत्रामुत्र च सौख्यगेहमपरं त्वं ब्रह्मचर्य भज॥३९२॥
**अर्थः—**जो संसाररूपी समुद्र से तारने वाला है, सुख को करने वाला है देवोंके द्वारा सदा पूजित है, मुक्ति का द्वार है,
अपार पुण्य का जनक है, धीर मनुष्यों के द्वारा सदा सेवित है, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र गुणों का उत्तम पात्र है, परम पवित्र है, तथा इस लोक और परलोक में सुख का घर है ऐसे ब्रह्मचर्य को तुम धारण करो॥३९२॥
ब्रह्मचर्य ही श्रेष्ठ है
ब्रह्मचर्यं भवेत्सारं सर्वेषां गुणशालिनाम्।
ब्रह्मचर्यस्य भङ्गेन गुणाः सर्वे पलायिताः॥३९३॥
** अर्थः—**सभी गुणी मनुष्यों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। क्योंकि ब्रह्मचर्य के भङ्ग होने से सब गुण नष्ट हो जाते हैं॥ ३९३॥
ब्रह्मचर्य स्वर्ग और मोक्ष का हेतु है
ब्रह्मचर्यमपि पालय सारं धर्मसारगुणदं भवतारम्।
स्वर्गमुक्तिगृहप्रापणहेतु दुःखसागरविलङ्घनसेतुम्॥३९४॥
**अर्थः—**जो सारभूत है, धर्म आदि श्रेष्ठ गुणों को देने वाला हूँ, संसार से तारने वाला है, स्वर्ग और मोक्षरूपी घर की प्राप्ति का हेतु है तथा दुःखरूपी सागर को पार करने के लिये सेतु है ऐसे ब्रह्मचर्य का पालन करो॥३९४॥
ब्रह्मचर्य के बिना सब व्रत व्यर्थ हैं
ब्रह्मचर्यं भवेन्मूलं सर्वस्या व्रतसन्ततेः।
ब्रह्मचर्यस्य भङ्गेन व्रतानि स्युर्वृथानृणाम्॥३९५॥
**अर्थ—**ब्रह्मचर्य समस्त व्रत समूह का मूल है। ब्रह्मचर्य के भङ्ग होने से मनुष्यों के व्रत व्यर्थ हो जाते हैं॥३९५॥
परस्त्री सेवन का फल
बन्धं वधं धनभ्रंशं शोक तापं कुलक्षयम्।
दुःखदं कलहं मृत्युं लभन्ते पारदारिकाः॥३९६॥
**अर्थ—**परस्त्रीसेवी पुरुष, बन्ध, वध, धननाश, शोक, संताप, कुलक्षय, दुःखदायक कलह और मृत्यु को प्राप्त होते हैं॥३९६॥
अब्रह्मचर्य से क्या नष्ट होता है?
आयुस्तेजो बलं वीर्यं प्रज्ञा श्रीश्च महायशः।
पुण्यं सुप्रीतिमत्त्वं च हन्यतेऽब्रह्मसेवनात्॥३९७॥
**अर्थः—**अब्रम्ह—कुशील सेवन करने से, आयु, तेज, बल, वीर्य, लक्ष्मी, विपुलयश, पुण्य और उत्तम प्रीति नष्ट हो जाती है॥३९७॥
शीलव्रत शाश्वतसुख का कारण है
ये शीलवन्तो मनुजा व्यतीता दृढव्रतास्ते जगतः प्रपूज्याः।
परत्र देवासुरमानुषेषु परं सुखं शाश्वतमप्नुवन्ति॥३६८॥
**अर्थः—**जो शीलवान् मनुष्य हो चुके हैं वे अपने व्रत पर
दृढ़ रहने वाले तथा जगत् के पूजनीय हुए हैं। शीलवान्मनुष्य परभव में भी देव दानव और मनुष्यों के सुख को तथा अविनाशी उत्कृष्ट मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं॥३९८॥
शील ही अनुपम धन है।
शीलं हि निर्मलकुलं सहगामिबन्धुः
शीलं बलं निरुपमं धनमेव शीलम्।
पाथेयमक्षयमलं निरपायरक्षा
साक्षादयं गुण इति प्रवदन्ति सन्तः॥३९९॥
**अर्थः—**शील ही निर्मल कुल है, शील ही साथ जाने वाला बन्धु है, शील ही अनुपम बल है, शील ही धन है, शील ही अक्षय सम्बल है, शील ही निर्बाध रक्षा है और शील ही साक्षात् गुण है ऐसा सत्पुरुष कहते हैं॥३९९॥
परदार सेवन कष्टकर है
सन्मार्गस्खलनं विवेकदलनं प्रज्ञालतोन्मूलनं
गाम्भीर्योन्मथनं स्वकायदमनं नीचत्वसंपादनम्।
सद्ध्यानावरणं स्वधर्महरणं पापप्रपापूरणं
धिक् कष्टं परदारलक्षणमिदं चलेशानुभाजां नृणाम्॥४००॥
**अर्थः—**जो सन्मार्ग से स्खलित करने वाला है विवेक को
नष्ट करने वाला है, प्रज्ञारूपी लता को उखाड़ने वाला है, गाम्भीर्य को दूर करने वाला है, अपने शरीर का दमन करने वाला है, नीचत्व को प्राप्त कराने वाला है, समीचीन ध्यान को रोकने वाला है, आत्मधर्म का हरण करने वाला है और पापरूपी प्याऊ को भरने वाला है ऐसे क्लेशभोजी मनुष्यों के इस परस्त्री सेवन रूप कष्ट को धिक्कार है॥४००॥
कामाग्नि का संताप बड़ा प्रबल है
सिक्तोऽम्बुधरव्रातैः प्लावितोऽप्यम्बुराशिभिः।
न हि त्यजति संतापं कामवह्निप्रदीपितः॥४०१॥
**अर्थः—**कामाग्नि से संतप्त मनुष्य मेघों के समूह से सींचे जाने पर तथा समुद्रों में डुबोये जाने पर भी संताप को नहीं छोड़ता है॥४०१॥
चौर्यनिन्दा
चौर्य के त्याग की निन्दा
सकलविबुधनिन्द्यं दुःखसंतापबीजं
विषमनरकमार्ग बन्धुविच्छेदहेतुम्।
कुगतिकरमसारं पानवृक्षस्य कन्दं
त्यज सकलमदत्तं त्वं सदा मुक्तिहेतोः॥४०२॥
** अर्थः—**समस्त विद्वानों के द्वारा निन्दनीय, दुःख एवं संताप का कारण, नरक का विषम मार्ग बन्धुओंके वियोग का हेतु, कुगति को करने वाला सारहीन, तथा पापरूपी वृक्ष का कन्द ऐसे समस्त अदत्तादान को तुम मुक्ति की प्राप्ति के अर्थ सदा के लिये छोड़ो॥४०२॥
सबसे श्रेष्ठ अर्थ शौच है
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं विशिष्यते।
योऽर्थेषु शुचिः स शुचि र्नवृद्धादिभिः शुचिः॥४०३॥
**अर्थः—**सब प्रकार की पवित्रताओं में धन की पवित्रता अपनी विशेषता रखती है। जो धन के विषय में पवित्र है वह पवित्र है वृद्धावस्था आदि के कारण मनुष्य पवित्र नहीं होता॥४०३॥
चोरी से हानि
सौजन्यं हन्यतेभ्रंशो विस्रम्भस्य धृतादिषु।
विपत्तिः प्राणपर्यन्ता मित्रबन्ध्यादिभिः सह॥४०४॥
गुणप्रसवसंदृब्धा कीर्ति रम्लानमालिका।
लतेव दावसंश्लिष्टा सद्यः चौर्येण हन्यते॥४०५॥
तच्च लोभोदयेनैव दुर्विपाकेन केनचित्।
द्वयेन तेन बध्नाति दुरायु र्दुष्टचेष्टया॥४०६॥
अर्थ:—चोरी से सौजन्य नष्ट हो जाता है, धरोहर आदि रखने में विश्वास चला जाता है, मित्र तथा बन्धु आदि के साथ प्राणान्त विपत्ति प्राप्त होती है, गुणरूपी फूलों से गुम्फित कीर्तिरूपी ताजी माला दावाग्नि से झुलसी लता के समान शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। वह चोरी की आदत किसी बहुत भारी लोभ कर के उदय से ही होती है। लोभ और चोरी इन दोनों से यह जीवन प्रवृत्ति द्वारा खोटी आयु का बन्ध करता है॥४०४, ४०५, ४०६॥
रत्नत्रयप्रशंसा
रत्नत्रय के धारक ही सत्पुरुष हैं
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयं हितम्।
तद्वन्तः सर्वदा सन्तः कथयन्ति जिनेश्वराः॥४०७॥
अर्थः— सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों ही हितकर हैं जो सदा इनसे सहित हैं वे सत्पुरुष हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं॥४०७॥
रत्नत्रय की महिमा
प्राप्ते रत्नत्रये सर्वं प्राप्तं जगति मानवैः।
गते रत्नत्रये लोके हारितो रत्नसंग्रहः॥४०८॥
**अर्थः—**रत्नत्रय के प्राप्त होने पर संसार में मनुष्यों को सब कुछ प्राप्त हो जाता है और रत्नत्रय के चले जाने पर रत्नों का संग्रह लुट जाता है॥४०८॥
रत्नत्रय से ही जन्म सफल होता है
लब्धं जन्मफलं तेन सम्यक्त्वं च जीवितम्।
येनावाप्तमिदं पूतं रत्नत्रयमनिन्दितम्॥४०९॥
**अर्थः—**उसी ने जन्म का फल पाया और उसी ने सम्यक्त्व को जीवित किया जिसने कि इस पवित्र एवं प्रशंसनीय रत्नत्रय को प्राप्त किया है॥४०९॥
रत्नत्रय का फल
सदृष्टिसज्ज्ञानतोऽन्विता ये चक्रेश्वरत्वं च सुरेश्वरत्वम्।
प्रकृष्टसौख्यामहमिन्द्रतां च, संपादयन्त्येव न संशयोऽस्ति॥४१०॥
**अर्थः—**जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक तप से सहित हैं वे चक्रवर्ती पद को तथा उत्कृष्ट सुख से युक्त अहमिन्द्र पद को नियम से प्राप्त करते हैं इसमें संशय नहीं है॥४१०॥
रत्नत्रयरूपी अस्त्र जयवन्त रहे
रत्नत्रयं जैनं जैत्रमस्त्रं जयत्यदः।
येनाव्याजं व्यजेष्टार्हन् दुरितारातिवाहिनीम्॥४११॥
अर्थ:—श्री अरहन्त भगवान् ने जिसके द्वारा पापरूपी शत्रुओं की सेना को सहज ही जीत लिया था, ऐसा जयनशील जिनेन्द्र प्रणीत रत्नत्रयरूपी अस्त्र हमेशा जयवन्त रहे॥४११॥
रत्नत्रय को नमस्कार
रत्नत्रयं तज्जननातिमृत्युमत्रयीदर्पहर नमामि।
यद्भूषणं प्राप्य भवन्ति शिष्टा मुक्तो र्विरूपाकृतयोऽप्यभीष्टाः॥४१२॥
**अर्थः—**मैं जन्मजरा और मृत्युरूपी तीन सर्पों के मद को हरने वाले उस रत्नत्रय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र को नमस्कार करता हूँ। जिसका आभूषण प्राप्त कर साधुजन विरूप आकृति के धारक होकर भी मुक्तिरूपी स्त्री के प्रिय हो जाते हैं॥४१२॥
निश्चय रत्नत्रय का स्वरूप
श्रद्धा स्वात्मैव शुद्धः प्रमदवपुरूषादेव इत्यञ्जसा दृक्।
तस्यैव स्वानुभूत्या पृथगनुभवनं विग्रहादेश्च संवित्॥
तत्रैवात्यन्ततया मनसि लयमितेऽवस्थितिः स्वस्य चर्या।
स्वात्मानं भेदरत्नत्रयपर परमं तन्मनं विद्धि शुद्धम्॥४१३॥
**अर्थः—**हे भेद रत्नत्रय में तत्पर आराधकराज! सद्गुरुने
उपदेश दिया है कि आनन्दमय द्रव्य और भाव कर्मों से रहित केवल निजात्मा ही मुमुक्षुओं के द्वारा उपादेय है। इस प्रकार से शुद्ध स्वात्मरूप अभिनिवेश ही निश्चय सम्यग्दर्शन है और उस शुद्ध स्वात्मा का ही स्वानुभूति के द्वारा मन वचन काय से पृथक चिंतवन करना परमार्थभूत सम्यग्ज्ञान है। तथा उस शुद्ध निज स्वरूप में ही अत्यन्त वैतृष्ण भाव से मन को लय करके अवस्थान करना निश्चय चारित्र है अतः तू अपने को परम शुद्ध सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय समझ॥४१३\।\।
रत्नत्रय कैसा है
भजरत्नत्रयं प्रत्नं भव्यलोकैकभूषणम्।
तोषणं मुक्तिकान्तायाः, पूषणं ध्वान्तसन्ततेः॥४१४॥
**अर्थः—**मैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी उस श्रेष्ठ रत्नत्रय की आराधना करता हूं जो कि भव्यजीवों का मुख्य आभूषण है, मुक्तिरूपी कान्ता को सन्तुष्ट करने वाला है और अज्ञानान्धकार के समूह को नष्ट करने वाला है॥४१४॥
भवभुजगनागदमनी, दुःखमहादावशमनजलवृष्टिः।
मुक्तिसुखामृतसरसी, जयति दृगादित्रयी सम्यक्॥४१५॥
** आर्थः—**जो सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्न संसार रूपी सर्प का दमन करने के लिये नागदमनी के समान हैं, दुखःरूपी दावानल को शान्त करने के लिये जलवृष्टि के समान हैं, तथा मोक्ष सुखरूप अमृत के तालाब के समान हैं, वे समयग्दर्शन आदि तीन रत्न भले प्रकार जयवन्त होते हैं॥४१५॥
याञ्चा परिहार
सबसे याचना न करो
अन्योक्ति
रे रे चानक सावधनमनसा मित्र क्षणं श्रुयता-
मम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः।
केचिद् वृष्टिभि रार्द्रयन्ति धरणीं गर्जन्ति केचिद् वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रू हि दीनं वचः॥४१६॥
**अर्थः—**हे मित्र चातक! क्षण भर के लिये साबधान चित्त होकर सुनो, यद्यपि आकाश में बहुत से मेघ रहते हैं तथापि सभी मेघ ऐसे नहीं होते। उनमें कोई तो वृष्टि से पृथ्वी को आर्द्र करते हैं और कोई व्यर्थ ही गरजते हैं इसलिये तू जिसे जिसे देखता है उसके आगे दीन वचन मत बोल॥४१६॥
याचना के पूर्व ही गुण रहते हैं पीछे नहीं
तावत्सत्यगुणालयः पटुमतिस्तावत्सतां वल्लभः
शूरः सच्चरितः कलङ्करहितो मानी कृतज्ञः कविः।
दक्षो धर्मरतः सुशीलगुणवान् प्राप्तप्रतिष्ठान्वितो
यावन्निष्ठुरवज्रघातसदृशं देहीति नो भाषते॥४१७॥
**अर्थः—**यह मनुष्य जब तक कठोर वज्रघात के समान ‘देहि’ देओ इस प्रकार के दीन वचन को नहीं कहता है तभी तक वास्तविक गुणों का घर रहता है, तभीतक तीक्ष्ण बुद्धि रहती है, तभी तक सज्जनों को प्रिय, शूरवीर, सदाचारी, कलङ्क रहित, मानी, कृतज्ञ, कवि, चतुर, धर्मात्मा, सुशीलगुण से युक्त और प्राप्त प्रतिष्ठा से सहित होता है॥४१७॥
याचक के शरीर में मरण के चिह्न प्रकट होते हैं
गात्रभङ्गः स्वरो हीनो ह्यङ्गस्वेदो महाभयम्।
मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके॥४१८॥
**अर्थः—**शरीर का टूटना, स्वर का हीन होना, शरीर से पसीना छूटना और महाभय होना इस तरह जो चिह्न मरण के समय होते हैं वे सब याचक में होते हैं॥४१८॥
याचना कष्टकर है
देहीति वाक्यं वचनेषु कष्टं, नास्तीतिवाक्यं च ततोऽतिकष्टम्,
गृह्णतु वाक्यं वचनेषु राजा नेच्छामि वाक्यं च ततोऽधिराजः।
**अर्थः—’**देहि’—‘देओ’ इस प्रकार का वचन, वचनों में कष्ट है। ‘नास्ति’—‘नहीं है’ इस प्रकार का वचन उससे भी
अधिक कष्ट है। ‘गृह्णातु’—‘लेओ’ इस प्रकार का वाक्य वचनों में राजा है और ‘नेच्छामि’ ‘मैं नहीं चाहता हूं इस प्रकार का वाक्य उससे भी अधिक बड़ा राजा है॥४१६॥
भिक्षुक निन्दा
अनाहूताः स्वयं यान्ति रसास्वादविलोलुपाः।
निवारिता न गच्छन्ति माक्षिका व भिक्षुकाः॥४२०॥
**अर्थः—**रसास्वाद के लोभी भिक्षुक मक्खियों के समान विना बुलाये स्वयं आ जाते हैं और हटाये जाने पर भी नहीं हटते॥४२०॥
याचना से क्या नष्ट होता है
देहीति वचनं श्रत्वा देहस्थाः पञ्चदेवताः।
नश्यन्ति तत्क्षणादेव श्रीह्रीधीस्मृतिकीर्तयः॥४२१॥
अर्थः—‘देहि’ ‘देओ’ यह वचन सुन कर शरीर में रहने वाले पांच देवता—श्री, ह्री, धी, स्मृति और कीर्ति तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं अर्थात् याचना करने वाले की लक्ष्मी, लज्जा, बुद्धि, स्मरणशक्ति और कीर्ति नष्ट हो जाती है॥४२१॥
याचक के कुल में जन्म लेना अच्छा नहीं है
वरं पक्षिवने वासो वरं पाषाणपर्वते।
वरं नीचकुले जन्म न जन्म याचके कुले॥४२२॥
**अर्थः—**पक्षियों के वन में रहना अच्छा, पत्थरों के पर्वत पर
रहना अच्छा और नीच कुल में जन्म लेना अच्छा परन्तु याचक के कुल में जन्म लेना अच्छा नहीं है॥४२२॥
काक और याचक में अन्तर
काक आह्वयते काकान् याचको न तु याचकान्।
काकयाचकयोर्मध्ये वरं काको न याचकः॥४२३॥
**अर्थः—**एक कौआ दूसरे कौओंको बुला लेता है परन्तु एक याचक दूसरे याचकों को नहीं बुलाता इस तरह कौआ और याचक इन दोनों में कौआ अच्छा है याचक नहीं॥४२३॥
याचना करना अच्छा नहीं
तीक्ष्णधारेण खङ्गेन वरं जिह्वा द्विधा कृता।
न तु मानं परित्यज्य देहि देहीति जल्पनम्॥४२४॥
** अर्थः—**पैनी धार वाले कृपाण से जीभ के दो टुकड़े कर लेना अच्छा परन्तु मान छोड़ कर “देहि देहि” ऐसा करना अच्छा नहीं॥४२४॥
भिक्षुक क्या शिक्षा देता है?
द्वारं द्वारमटन् भिक्षुः शिक्षयते न याचते।
अदत्त्वा मादृशो मा भू र्दत्त्वा त्वं त्वादृशो भव॥४२५॥
**अर्थः—**द्वार द्वार पर घूमता हुआ भिक्षुक याचना नहीं करता है किन्तु सभी को ऐसी शिक्षा देता है कि दान न देकर मेरे समान मत बनो किन्तु देकर अपने समान बनो॥४२५॥
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