[[सूक्तिरत्नहारः Source: EB]]
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[TABLE]
भारतीय ज्ञानपीठ काशी
ज्ञानपीठ—ग्रन्थागार
“णाणं पयासयं”
कृपया—
(१) मैले हाथोंसे पुस्तकको स्पर्श न कीजिये । जिल्दपर काग़ज़ चढ़ा लीजिये ।
(२) पन्नेसम्हाल कर उलटिये । थूकका प्रयोग न कीजिये ।
(३) निशानीके लिये पन्ने न मोड़िये, न कोई मोटी चीज़ रखिये । काग़ज़का टुकड़ा काफीहै।
(४) हाशियोंपर निशान न बनाइये, न कुछ लिखिये।
(५) खुली पुस्तक उलटकर न रखिये, न दोहरी करके पढ़िये।
(६) पुस्तकको समयपर अवश्य लौटा दीजिये । “पुस्तकें ज्ञानजननी हैं, इनकी विनय कीजिये”
TRIVANDRUM SANSKRIT SERIES
No. CXLI.
ŚrīCitrodayamañjarī
No. XXX.
THE
SŪKTIRATNAHĀRA
EDITED BY
K. SĀMBAŚIVA ŚASTRĪ,
Curator of the Department for the Publication
of Oriental Manuscripts, Trivandrum
-
*
**PUBLISHED UNDER THE AUTHORITY OF THE GOVERNMENT OF
HIS HIGHNESS THE MAHARAJA OF TRAVANCORE.
TRIVANDRUM:
PRINTED BY THE SUPERINTENDENT, GOVERNMENT PRESS,
1938.
(All Rights Reserved.)
अनन्तशयनसंस्कृतग्रन्थावलिः ।
ग्रन्थाङ्कः १४१.
श्रीचित्रोदयमञ्जरी
ग्रन्थाङ्कः३०
सूक्तिरत्नहारः
पौरस्त्यग्रन्थप्रकाशनकार्याध्यक्षेण
के. साम्बशिवशास्त्रिणा
संशोधितः ।
स च
अनन्तशयने
महोन्नतमहामहिमश्रीचित्रावतारमहाराजशासनेन
राजकीयमुद्रणयन्त्रालये तदध्यक्षेण
मुद्रयित्वा प्रकाशितः ।
कोलम्बाब्दाः १११३. क्रिस्ताब्दाः १९३८.
[TABLE]
PREFACE.
The present work, Sūktiratnahāra, is an ornament to the Trivandrum Sanskrit Series, embellished with scholarly treatises. It comprises more than two hundred Paddhatis, It is also designated, Subhāṣitaratnahāra, as evidenced by the following passage occurring at the close:—
कलिङ्गराजकृता सुभाषितरत्नमाला समाप्ता
It is appropriately entitled Ratnahāra embodying as it does several portions from treatises on varied branches of literature such as Itihāsa, Kāvya and Nātaka. Many remarkable treatises composed by eminent poets like Capphaladeva, Pakvalāva etc., and rare works such as Kappana. kāvya are aptly epitomised herein, thereby opening a vast field for research and investigation. The originator of this garland is the talented author Sūrya who is better known by his honorific title of Kaliṅgarājā and who was a distinguished Prime-minister to Kulaśekhara Mahārājā, as is evident from the closing passage in this work:—
** श्रीमहाराजाधिराजकुलशेखरासाधारणमन्त्रिणा निखिलदिक्षु विश्रुतकालिङ्गराजपट्टबन्धेन नित्योदयप्रतापनिर्जितसूर्येण सूर्येण सङ्गृहीते कुलशेखरसूक्तिरत्नहारे मोक्षपर्व सम्पूर्णम्।**
It may be presumed that the Stotrapaddhati appended to the end is the author’s own composition as no mention therein is made of its author and as indicated by the colophon **“मोक्षपर्व समाप्तम्”**seen in the preceding Mokṣaparva. By panegyrizing Hari in the Stotra paddhati, the author discloses that he is a Svāmibhakta inasmuch as Kulaśekhara Mahārāja is also a staunch devotee of Hari. Internal evidence is lacking for the ascertainment of the author’s date and place of birth. One Sūrya Paṇḍita is referred to in the Catalogus Catalogorum as a renowned astronomer, erudite scholar and as the author of many treatises. The omission of this Ratnahāra in it leads us to infer that the author of this work is a different person. The references made to great poets such as Siśupala and Murāri establishes the author’s posteriority to them. The facts of preservation of the Ms. in the Palace Library of His Most Gracious Highness The Mahārājā of Travancore and of its absence anywhere else testify a priori its composition by the Prime-minister and dedication to Kulaśekhara Mahā-rājā.
The manuscript is worn out and damaged and is about 300 years old. May this edition of Ratnahāra be a lasting ornament to the Trivandrum Sanskrit Series whose inauguration is ever memorable by the publication of Bhaktimañjarī composed by one of the illustrious Mahārājas of Travancore—a distinguished patron of letters.
Trivandrum,
21-12-1113.
K. SĀMBAŚIVAŚĀSTRÍ.
॥श्रीः॥
निवेदना।
अयं सूक्तिरत्नहारः श्रीमदनन्तशयनसंस्कृतग्रन्थावलेः कोऽपि सुमनःकृतिसुन्दरः सुगन्धिरुपहारः। इह प्ररोचनाद्या मोक्षान्ता द्विशताधिकाः पद्धतयः प्रदर्शिताः। अस्य रत्नहारस्य **‘सुभाषितरत्नमाले’**त्यभिधान्तरमपि प्रथते यदिह ग्रन्थान्ते ‘कलिङ्गराजकृता सुभाषितरत्नमाला समाप्ता’ इति दृश्यते। महाभारतादिविविधेतिहासकाव्यनाटकादिभ्यो निबन्धेभ्यः समुद्धृत्य सन्दर्भोचितं सन्निवेश्य सङ्गुम्फितोऽयं हारः स्थाने रत्नहारः शोभते। अत्रापूर्वे चप्फलदेवपक्वलावादयः कवयोऽपूर्वाणि कप्पणकाव्यादीनि च कृतयः सङ्गृहीता इतीदमुपक्रमं चरितकाराणां चर्चासंरम्भोऽप्यवसरं लभते। तस्यास्य रत्नहारस्य संगुम्फकः कविः—
“इति श्रीमहाराजाधिराजकुलशेखरासाधारणमन्त्रिणा निखिलदिक्षु विश्रुतकालिङ्गराजपट्टबन्धेन नित्योदयप्रतापनिर्जितसूर्येण सूर्येण सङ्ग्रहीते कुलशेखरसूक्तिरत्नहारे मोक्षपर्व सम्पूर्णम्”।
इति ग्रन्थान्तिमपरिसमाप्तिवाक्यात्कश्चन कुलशेखरप्रधानामात्यः सूर्यसंज्ञः कलिङ्गराजो विश्रुतपट्टबन्धो विज्ञायते। स्तोत्रपद्धतेः प्राक्परिपूर्णे मोक्षपर्वणि पुनरपि परिसमाप्तौ मोक्षपर्व सम्पूर्णमिति वदन् स्तोत्रपद्धतेः कर्तृनाम कृतिनाम वानुद्धरंश्चस्तोत्रपद्धतिं स्वप्रभवां सम्मन्यत इवायं सूर्यः कविः। स्तोत्रपद्धतौ च भगवन्तं हरिं स्तुवन् स्वस्वामिनः कुलशेखरभूपालस्य हरिस्वामिनः स्वामिस्तुतिमुपहृत्योपसंहरन् साधुकारी स्वामिभक्तोऽयं सूर्यः कदा वा कस्मिन् वा देशे काले च सञ्जातः इत्यादि चरितविज्ञानं प्रति न केऽपि निर्मृष्टा उपायाः प्रसीदन्ति। सर्वग्रन्थसूचिकायां कश्चन सूर्यपण्डितः स्मर्यमाणो ज्योतिर्विदग्रेसरो बहुग्रन्थनिर्माता दृश्यते। तत्रास्य हारस्यापरामर्शादन्य एवायं सूर्यः सम्भाव्यते। माघमुरारिप्रमुखाननेकान् महाकवीन् नामग्राहं गृह्णंस्तेभ्योऽर्वाचीन इति परं सद्यः प्रति-
पत्तुं शक्यं नातोऽधिकम्। अद्वितीयेयं मातृकास्य महोन्नतमहामहिमश्रीमहाराजग्रन्थशालात उपलब्धा सङ्गृहीतुरुक्तदिशा श्रीकुलशेखरमहाराजासाधारणमन्त्रिपदमुपपन्नं द्योतयति। मातृका च मध्ये मध्ये शिथिलत्रुटितबहुलपत्रामाकीं त्रिशतसंवत्सरीजरत्तमा दृश्यते॥
एवमस्य रत्नहारस्य प्रसाधनेन श्रीचित्रोदयमञ्जरी भूषयन्नेष मन्ये धन्यधन्यः। श्रीभक्तिमञ्जर्यां महोन्नतमहामहिमश्रीस्वातिमहाराजकृतावुपक्रान्तेयं संस्कृतग्रन्थावलिरनेन रत्नहारेण सततं सालङ्कारा विजयतामिति प्रार्थयन्निमं रत्नहारं महाजनसमक्षमुपहरामि॥
** अनन्तशयनम्,
२१-१२-११३.**
के. साम्बशिवशास्त्री.
-
*
विषयानुक्रमणी ।
| क्रमाङ्कः | विषयः |
| १ | प्ररोचनापद्धतिः |
| २ | नमस्कारपद्धतिः |
| ३ | आशीःपद्धतिः |
| ४ | वेदप्रशंसापद्धतिः |
| ५ | ब्राह्मणप्रशंसापद्धतिः |
| ६ | सृष्टिक्रमपद्धतिः |
| ७ | धर्मपद्धतिः |
| ८ | धर्मप्रशंसापद्धतिः |
| ९ | अधर्मप्रशंसापद्धतिः |
| १० | सत्यप्रशंसापद्धतिः |
| ११ | असत्यपद्धतिः |
| १२ | दम्भपद्धतिः |
| १३ | दानप्रशंसापद्धतिः |
| १४ | अन्नप्रशंसापद्धतिः |
| १५ | जलदानप्रशंसापद्धतिः |
| १६ | भूमिदानपद्धतिः |
| १७ | तिलदानपद्धतिः |
| १८ | विद्यादानपद्धतिः |
| १९ | सुवर्णदानपद्धतिः |
| २० | तपःप्रशंसापद्धतिः |
| २१ | अहिंसापद्धतिः |
| २२ | दयापद्धतिः |
| २३ | आचारपद्धतिः |
| २४ | अनाचारपद्धतिः |
| २५ | गृहस्थपद्धतिः |
| क्रमाङ्कः | विषयः |
| २६ | साध्वीपद्धतिः |
| २७ | पतिप्रशंसापद्धतिः |
| २८ | श्रुतप्रशंसापद्धतिः |
| २९ | अज्ञप्रशंसापद्धतिः |
| ३० | काव्यप्रशंसापद्धतिः |
| ३१ | सुजनपद्धतिः |
| ३२ | दुर्जनपद्धतिः |
| ३३ | युगप्रशंसापद्धतिः |
| ३४ | कर्मप्रशंसापद्धतिः |
| ३५ | विधिप्रशंसापद्धतिः |
| ३६ | दुर्विधिप्रशंसापद्धतिः |
| ३७ | मृत्युप्रशंसापद्धतिः |
| ३८ | राजलक्षणपद्धतिः |
| ३९ | राजप्रशंसापद्धतिः |
| ४० | असद्राजपद्धतिः |
| ४१ | अराजकपद्धतिः |
| ४२ | राजविद्यापद्धतिः |
| ४३ | जितेन्द्रियपद्धतिः |
| ४४ | अजितेन्द्रियपद्धतिः |
| ४५ | विनयपद्धतिः |
| ४६ | अविनयपद्धतिः |
| ४७ | कामजपपद्धतिः |
| ४८ | मृगयादोषपद्धतिः |
| ४९ | मृगयागुणपद्धतिः |
| ५० | द्यूतदोषपद्धतिः |
| ५१ | दिवास्वप्ननिन्दापद्धतिः |
| ५२ | परिवाददोषपद्धतिः |
| क्रमाङ्कः | विषयः |
| ५३ | स्त्रीव्यसनपद्धतिः |
| ५४ | स्त्रीनिन्दापद्धतिः |
| ५५ | पानदोषपद्धतिः |
| ५६ | तौर्यत्रिकपद्धतिः |
| ५७ | वृथाटाट्यापद्धतिः |
| ५८ | क्रोधप्रशंसापद्धतिः |
| ५९ | क्रोधनिन्दापद्धतिः |
| ६० | पैशुन्यपद्धतिः |
| ६१ | साहसदोषपद्धतिः |
| ६२ | द्रोहपद्धतिः |
| ६३ | ईर्ष्यापद्धतिः |
| ६४ | असूयापद्धतिः |
| ६५ | अर्थदूषणपद्धतिः |
| ६६ | वाक्पारुष्यपद्धतिः |
| ६७ | दण्डपारुष्यपद्धतिः |
| ६८ | लोभपद्धतिः |
| ६९ | मानपद्धतिः |
| ७० | हर्षपद्धतिः |
| ७१ | प्रमादपद्धतिः |
| ७२ | आज्ञापद्धतिः |
| ७३ | दण्डपद्धतिः |
| ७४ | पुत्रपद्धतिः |
| ७५ | दुष्पुत्रपद्धतिः |
| ७६ | भ्रातृपद्धतिः |
| ७७ | असद्भ्रातृपद्धतिः |
| ७८ | उत्साहशक्तिपद्धतिः |
| ७९ | प्रभुशक्तिपद्धतिः |
| क्रमाङ्कः | विषयः |
| ८० | मन्त्रशक्तिपद्धतिः |
| ८१ | पुरोहितपद्धतिः |
| ८२ | मन्त्रिपद्धतिः |
| ८३ | दुर्मन्त्रिपद्धतिः |
| ८४ | बुद्धिप्रशंसापद्धतिः |
| ८५ | मन्त्रपद्धतिः |
| ८६ | मन्त्रकालपद्धतिः |
| ८७ | मन्त्रदेशपद्धतिः |
| ८८ | मित्रपद्धतिः |
| ८९ | असन्मित्रपद्धतिः |
| ९० | कोशपद्धतिः |
| ९१ | कोशहानिदोषपद्धतिः |
| ९२ | राष्ट्रगुणपद्धतिः |
| ९३ | दुर्गपद्धतिः |
| ९४ | सेनापतिपद्धतिः |
| ९५ | बलपद्धतिः |
| ९६ | गजप्रशंसापद्धतिः |
| ९७ | तुरगप्रशंसापद्धतिः |
| ९८ | पदातिपद्धतिः |
| ९९ | वीरपद्धतिः |
| १०० | भीरुपद्धतिः |
| १०१ | धैर्यपद्धतिः |
| १०२ | मानपद्धतिः |
| १०३ | मानहीनपद्धतिः |
| १०४ | अन्तरङ्गनिन्दापद्धतिः |
| १०५ | सद्भृत्यपद्धतिः |
| १०६ | असद्भृत्यपद्धतिः |
| क्रमाङ्कः | विषयः |
| १०७ | विश्वासपद्धतिः |
| १०८ | अविश्वासपद्धतिः |
| १०९ | वैद्यप्रशंसापद्धतिः |
| ११० | असद्वैद्यपद्धतिः |
| १११ | कविप्रशंसापद्धतिः |
| ११२ | कुकविपद्धतिः |
| ११३ | वेश्याप्रशंसापद्धतिः |
| ११४ | वेश्यानिन्दापद्धतिः |
| ११५ | कायस्थनिन्दापद्धतिः |
| ११६ | राजलेखकपद्धतिः |
| ११७ | सारथिपद्धतिः |
| ११८ | सान्धिविग्रहिकपद्धतिः |
| ११९ | सूदाध्यक्षपद्धतिः |
| १२० | अधिकारिपद्धतिः |
| १२१ | दुष्टाधिकारिपद्धतिः |
| १२२ | दौवारिकपद्धतिः |
| १२३ | राजसेवापद्धतिः |
| १२४ | राजसेवानिन्दापद्धतिः |
| १२५ | गायननिन्दापद्धतिः |
| १२६ | स्वर्णकारनिन्दापद्धतिः |
| १२७ | उपायपद्धतिः |
| १२८ | सामपद्धतिः |
| १२९ | भेदपद्धतिः |
| १३० | दानपद्धतिः |
| १३१ | दण्डपद्धतिः |
| १३२ | सन्धिपद्धतिः |
| १३३ | सन्धेयपद्धतिः |
| क्रमाङ्कः | विषयः |
| १३४ | असन्धेयपद्धतिः |
| १३५ | सन्धिदूषणपद्धतिः |
| १३६ | वैरपद्धतिः |
| १३७ | विग्रहपद्धतिः |
| १३८ | दूतपद्धतिः |
| १३९ | दुष्टदूतपद्धतिः |
| १४० | चारपद्धतिः |
| १४१ | यानपद्धतिः |
| १४२ | सुनिमित्तपद्धतिः |
| १४३ | अनिमित्तपद्धतिः |
| १४४ | आसनपद्धतिः |
| १४५ | अभियुक्तप्रतिक्रियापद्धतिः |
| १४६ | परराष्ट्रदूषणपद्धतिः |
| १४७ | द्वैधीभावपद्धतिः |
| १४८ | आश्रयपद्धतिः |
| १४९ | युद्धपद्धतिः |
| १५० | कूटयुद्धपद्धतिः |
| १५१ | वीरपत्नीप्रलापपद्धतिः |
| १५२ | अभयप्रदानपद्धतिः |
| १५३ | राजचाटुपद्धतिः |
| १५४ | कीर्तिपद्धतिः |
| १५५ | अकीर्तिपद्धतिः |
| १५६ | राजवृत्तपद्धतिः |
| १५७ | करादानपद्धतिः |
| १५८ | दिनचर्यापद्धतिः |
| १५९ | आत्मरक्षापद्धतिः |
| १६० | राज्यरक्षापद्धतिः |
| क्रमाङ्कः | विषयः |
| १६१ | कण्टकशोधनपद्धतिः |
| १६२ | लोकरञ्जनपद्धतिः |
| १६३ | सामान्यनीतिपद्धतिः |
| १६४ | अर्थप्रशंसापद्धतिः |
| १६५ | अर्थनिन्दापद्धतिः |
| १६६ | लक्ष्मीप्रशंसापद्धतिः |
| १६७ | लक्ष्मीविडम्बनापद्धतिः |
| १६८ | महत्पद्धतिः |
| १६९ | लघुपद्धतिः |
| १७० | उदारपद्धतिः |
| १७१ | कृपणपद्धतिः |
| १७२ | कृतज्ञपद्धतिः |
| १७३ | कृतघ्नपद्धतिः |
| १७४ | याच्ञानिन्दापद्धतिः |
| १७५ | तृष्णानिन्दापद्धतिः |
| १७६ | दारिद्र्यनिन्दापद्धतिः |
| १७७ | संसर्गगुणपद्धतिः |
| १७८ | संसर्गदोषपद्धतिः |
| १७९ | क्षमापद्धतिः |
| १८० | शीलपद्धतिः |
| १८१ | सङ्कीर्णपद्धतिः |
| १८२ | नायकप्रशंसापद्धतिः |
| १८३ | नायिकाप्रशंसापद्धतिः |
| १८४ | वसन्तपद्धतिः |
| १८५ | धर्मपद्धतिः |
| १८६ | वर्षापद्धतिः |
| १८७ | शरत्पद्धतिः |
| १८८ | हेमन्तपद्धतिः |
| क्रमाङ्कः | विषयः |
| १८९ | अस्तमयपद्धतिः |
| १९० | सन्ध्यापद्धतिः |
| १९१ | तमःपद्धतिः |
| १९२ | चन्द्रोदयपद्धतिः |
| १९३ | प्रभातपद्धतिः |
| १९४ | सम्भोगशृङ्गारपद्धतिः |
| १९५ | विप्रलम्भशृङ्गारपद्धतिः |
| १९६ | विषयनिन्दापद्धतिः |
| १९७ | अनित्यपद्धतिः |
| १९८ | शोकपद्धतिः |
| १९९ | ज्ञानपद्धतिः |
| २०० | वैराग्यपद्धतिः |
| २०१ | मोक्षपद्धतिः |
| २०२ | स्त्रोत्रपद्धतिः |
॥श्रीः॥
**सूक्तिरत्नहारः।
१. प्ररोचनापद्धतिः।
अपूर्वं यद्वस्तु प्रथयति विना कारणकलां
जगद् ग्रावप्रख्यं निजरसभरात् सारयति च।
क्रमात् प्रख्योपाख्याप्रसरसुभगं भासयति तत्
सरस्वत्यास्तत्त्वं कविसहृदयाख्यं विजयते॥१॥
(अभिनवगुप्तस्य)
सरस्वतीविभ्रमदर्पणानां
सूक्तामृतक्षीरमहोदधीनाम्।
सन्मानसोल्लाससुधाकराणां
कवीश्वराणां जयति प्रकर्षः॥२॥
(राजशेखरस्य)
धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्त्ति प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेवणम्॥३॥
(भामहस्य)
सूक्तिसङ्ग्रह एव स्यात् प्रयोक्तॄणां मनोमुदे।
रत्नैः किमुदधौ कीर्णैः परिष्कारार्थिनां फलम्॥४॥
अभिणवराआरद्धा चुक्कक्खलिएसु विहडिअपडिट्ठविआ।
मेत्ति व्व पमुखरसिआ णिव्वोढुं होइ दुक्खरं कव्वकहा1॥५॥
(सेतौ)
बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः।
अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमङ्गे सुभाषितम्॥६॥
(भर्तृहरेः)
कान्तं खलगिरा काव्यं लभते भूयसीं रुचम्।
स्पृष्टं च दंष्ट्रयाहृद्यं यथा हेमविभूषणम्॥७॥
दोषेष्वेव खलाः सन्तो गुणेष्वेवोन्मिषन्त्यतः।
शब्दार्थयोः परीक्षार्थं मध्यस्थान् प्रार्थयामहे॥८॥
(विश्वाधिकस्य)
उद्दामसरसपअघडणसुन्दरा धिरपसण्णगम्भीरा।
दुज्जणजलणिहिपडिआ णसइ स एव्व कव्वकहा॥९॥
(गाथाकोशे)
सुभाषितं हारि विशत्यधो गला-
न्न दुर्जनस्यार्करिपोरिवामृतम्।
तदेव धत्ते हृदये (व ? न) सज्जनो
हरिर्महारत्नमिवातिनिर्मलम्॥१०॥
चतुर्षु पुरुषार्थेषु स्वेषु स्वेषु पृथक् पृथक्।
स्थानेषु स्थापितास्तास्ताः शृण्वन्त्ववहिता बुधाः॥११॥
इति प्ररोचनापद्धतिः॥
-
*
२. अथ नमस्कारपद्धतिः।
विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे॥१॥
(भट्टवार्त्तिके)
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥२॥
(रघुवंशे)
नमामि यामिनीनाथलेखालङ्कृतकुन्तलाम्।
भवानीं भवसन्तापनिर्वापणसुधानदीम्॥३॥
(जयन्तस्य)
नमस्त्रिभुवनोत्पत्तिस्थितिसंहृतिहेतवे।
विष्णवेऽपारसंसारसिन्धूत्तरणसेतवे॥४॥
(पुरन्दरस्य)
धर्माधर्मौ तद्विपाकास्त्रयोऽपि क्लेशाः पञ्च प्राणिनामायतन्ते।
यस्मिन्नेतैर्नो परामृष्ट ईशो यस्तं वन्दे विष्णुमोङ्कारवाच्यम्॥५॥
(विज्ञानेश्वरस्य)
नमस्तस्मै वराहाय लीलयोद्धरते महीम्।
खुरमध्यगतो यस्य मेरुः कणघणायते॥६॥
(वराहमिहिरस्य)
नमामि सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम्।
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थले स्थिताम्॥७॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
नमोऽस्त्वमूर्तये तुभ्यं प्राक सृष्टेः केवलात्मने।
गुणत्रयविभागाय पश्चाद् भेदमुपेयुषे॥८॥
(कालिदासस्य)
ध्वनिर्वर्णः पदं वाक्यमित्यास्पदचतुष्टयम्।
यस्याः सूक्ष्मादिभेदेन वाग्देवीं तामुपास्महे॥९॥
(भोजराजस्य)
उमाकोमलहस्ताब्जसम्भावितललाटिकम्।
हिरण्यकुण्डलं वन्दे कुमारं पुष्करस्रजम्॥१०॥
(वेदपादस्तव)
विवस्वते ज्ञानभृदन्तरात्मने
जगत्प्रदीपाय जगद्धितैषिणे।
स्वयम्भुवे दीप्तसहस्रचक्षुषे
सुरोत्तमायामिततेजसे नमः॥११॥
(महाभारते)
रविमावसते सतां क्रियायै सुधया तर्पयते सुरान् पितॄंश्च।
तमसां निशि मूर्छतां निहन्त्रे हरचूडानिहितात्मने नमस्ते॥१२॥
(कालिदासस्य)
कर्पूर व दग्धोऽपि शक्तिमान् यो जने जने।
नमोऽस्त्ववर्यवीर्याय तस्मै कुसुमधन्वने॥१३॥
(राजशेखरस्य)
णमह अवड्ढिअतुङ्गंअविसारिअवित्थअं अणोणअगहिरम्।
अप्पलहुअपरिसह्णंअणाअपरमत्थपाअडं महुमहणम्2॥१४॥
(सेतौ)
पणमह पणअप्पकुविदगौरीचरणग्गलग्गपडिबिम्बम्।
दससु णहदपणेणु एआदसतणुधरं रुद्दम्3॥१५॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
तमृषिं मनुष्यलोकप्रवेशविश्रामशाखिनं वाचाम्।
सुरलोकादवतारप्रान्तरखेदच्छिदं वन्दे॥१६॥
(मुरारेः)
मर्त्ययन्त्रेषु चैतन्यं महाभारतविद्यया।
अर्पयामास तत् पूर्वं यस्तस्मै मुनये नमः॥१७॥
इति नमस्कारपद्धतिः॥
-
*
३. अथाशीःपद्धतिः।
यूथायितमवतु हरेः क्ष्मामुद्धरतो वराहवपुषो वः।
शेषफणामणिमण्डलसहस्रसङ्क्रान्तबिम्बस्य॥१॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
रक्षन्तु लक्ष्मीकुचशातकुम्भ(कुम्भ)स्थलीकुङ्कुमपङ्किलाङ्काः।
बालातपाताम्रकलिन्दकन्याकल्लोललोला मुरवैरिबाहाः॥२॥
सलिलचरौ विपिनचरौ वसुधाक्रमणौ हलक्षतो(न्न?द्न)ताजानी।
कलिबलिदमनौ चेति द्वौ द्वौ वः पान्तु मधुरिपोरवताराः॥३॥
(तरुणवाचस्पतेः)
अच्छिन्नमेखलमलब्धदृढोपगूढ-
मप्राप्तचुम्बनमनीक्षितवक्रकान्ति।
कान्ताविमिश्रवपुषः कृतविप्रलम्भ-
सम्भोगसख्यमिव पातु वपुः पुरारेः॥४॥
दिक्कालात्मसमैव यस्य विभुता यस्तत्र विद्योतते
यत्रामुष्य सुधीभवन्ति किरणा राशेः स यासामभूत्।
यस्तत् पित्तमुषस्सु योऽस्य हविषे यस्तस्य जीवातवे
बोद्धा यद्गुणमेष मन्मथरिपोस्ताः पान्तु वो मूर्त्तयः॥५॥
येन ध्वस्तमनोभवेन बलिजित्कायः पुरास्त्रीकृतो
यो गङ्गां च दधेऽन्धकक्षयकरो यो बर्हिपत्रप्रियः।
यस्याहुः शशिमच्छिरोहर इति स्तुत्यं च नामामराः
सोऽव्यादष्टभुजङ्गहारवलयस्त्वां सर्वदोमाधवः॥६॥
यस्य करः सम्मुदञ्चति कबलधिया कुमुदिनीशमादातुम्।
स च वहति राहुशङ्कां तदवतु वः करिमुखं तेजः॥७॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
इत्याशीः पद्धतिः॥
-
*
४. अथ वेदप्रशंसापद्धतिः।
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्।
भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं वेदे प्रतिष्ठितम्॥१॥
नान्यतो ज्ञायते धर्मो वेदादेवैष निर्बभौ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन धर्मार्थी वेदमाश्रयेत्॥२॥
यथा काष्ठमयोहस्ती यश्च चर्ममयो मृगः।
यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नामधारकाः॥३॥
श्रुतिस्मृती हि विप्रस्य चक्षुषी परमे मते।
काणस्त(त्वे?त्रै) कया हीनो द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्त्तितः॥४॥
(एते मनोः)
यथा जातबलो वह्निर्दहत्यार्द्रानपि द्रुमान्।
तथा दहति वेदज्ञः कर्मजं दोषमात्मनः॥५॥
(वसिष्ठस्य)
तपोविशेषैर्विविधैः स्मृतैश्च विधिचोदितैः।
वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना॥६॥
(बृहत्कथायाम्)
सर्वं विदुर्वेदविदो वेदे सर्व प्रतिष्ठितम्।
वेदो हि निष्ठा सर्वस्य यद्यदस्ति च नास्ति च॥७॥
दृष्ट्वा स्वर्गस्य को ह्यस्ति तथैव नरकस्य च।
आगमांस्त्वनतिक्रम्य दद्याच्चैव यजेत च॥८॥
(महाभारते)
इति वेदप्रशंसापद्धतिः॥
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*
५. अथ ब्राह्मणप्रशंसापद्धतिः।
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते।
ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये॥१॥
स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च।
आनृशंस्याद् ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जनाः॥२॥
(एतौ मनोः)
न ब्राह्मणे परिभवः कर्त्तव्यस्ते कदाचन।
ब्राह्मणो रुषितो हन्यादपि लोकान् प्रतिज्ञया॥३॥
सत्यं दानं दया शीलमानृशंस्यं दमो घृणा।
दृश्यन्ते यत्र नागेन्द्र!स ब्राह्मण इति स्मृतः॥४॥
दैवाधीनं जगत् सर्वं मन्त्राधीनं तु दैवतम्।
तन्मन्त्रं ब्राह्मणाधीनं ब्राह्मणो दैवतं महत्॥५॥
देवद्रव्यविनाशेन ब्रह्मस्वहरणेन च।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥६॥
ब्रह्मस्वे मा मतिं कुर्यात् प्राणैः कण्ठगतैरपि।
अग्निदग्धाः प्ररोहन्ति ब्रह्मदग्धं न रोहति॥७॥
ब्राह्मणाः कस्य वक्तव्याः कस्य वा छन्दचारिणः।
गुणैरेव वसन्त्येते कामगाः पक्षिणो यथा॥८॥
ब्राह्मणानां गवाश्चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति॥९॥
गतश्रीर्गणिकां द्वेष्टि गतायुश्च चिकित्सकम्।
गतश्रीश्च गतायुश्चब्राह्मणान् द्वेष्टि भारत! ॥१०॥
अष्टौ पूर्वनिमित्तानि नरस्य विनशिष्यतः।
ब्राह्मणान् प्रथमं द्वेष्टि ब्राह्मणैश्च विरुध्यति॥११॥
ब्राह्मणस्वानि चादत्ते ब्राह्मणांश्च जिघांसति।
रमते निन्दया चैषां प्रशंसां नाभिनन्दति॥१२॥
नैतान् स्मरति कृत्येषु याचितश्चाभ्यसूयति।
सममब्राह्मणे दानं द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे॥१३॥
सहस्रं श्रोत्रिये दानमनन्तं वेदपारगे।
(एते महाभारते)
अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत्॥१४॥
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः।
कव्यानि चैवं पितरः किं भूतमधिकं ततः॥१५॥
न स्कन्दते न व्यथते न विनश्यति कर्हिचित्।
वरिष्ठमग्निहोत्रेभ्यो यद् ब्राह्मणमुखे हुतम्॥१६॥
(एते मनोः)
धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे॥१७॥
(श्रीरामायणे)
अश्मानमप्युपायेन लोहं वा जरयेन्नरः।
न तु कश्चिदुपायोऽस्ति ब्रह्मस्वं येन जीर्यते॥१८॥
हालाहलादपि विषाद् ब्रह्मस्वं कष्टमुच्यते।
विषमेकाकिनं हन्ति ब्रह्मस्वं पुत्रपौत्रकम्॥१९॥
(इतिहाससमुच्चये)
अन्धस्य पन्थाः स्थविरस्य पन्थाः स्त्रियाः पन्था वैवधिकस्य पन्थाः।
राज्ञः पन्था ब्राह्मणेनासमेत्य समेत्य तु ब्राह्मणस्यैव पन्थाः॥२०॥
यद्ब्राह्मणास्तुष्टतमा वदन्ति तद्देवताः कर्मभिराचरन्ति।
तुष्टेषु तुष्टाः सततं भवन्ति प्रत्यक्षदेवेषु परोक्षदेवाः॥२१॥
(महाभारते)
शमप्रधानेषु तपोधनेषु गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेजः।
स्पर्शानुकूला इव सूर्यकान्तास्तदन्यतेजोभिभवाद् वपन्ति॥२२½॥
(कालिदासस्य)
इति ब्राह्मणप्रशंसापद्धतिः॥
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६. अथ सृष्टिक्रमपद्धतिः।
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नंततः प्रजाः॥१॥
शुक्लशोणितसम्मिश्रं चैतन्येनाप्यधिष्ठितम्।
दिनेनैकेन कललं पश्चाहेनापि बुद्बुदम्॥२॥
दशाहाच्छोणितं तत् स्यान्मांसपेशी तु पक्षतः।
वासराणां तु विंशत्या घनमांसंभवेत् ततः॥३॥
दिनानां पञ्चविंशत्या तत् सर्वाङ्कुरितं भवेत्।
पञ्चभूतान्वितं मासे मासाभ्यां मेदसान्वितम्॥४॥
नवमे मासि सम्प्राप्ते स्मरणं तत्र जायते।
नवमे दशमे मासि गर्भिणी गर्भमुत्सृजेत्॥५॥
समेषु दिवसेषु स्याद् गर्भसङ्क्रमणात् पुमान्।
विषमेषु तु तेष्वेव कन्यायाः सम्भवो भवेत्॥६॥
रक्ताधिक्ये भवेद्योषिच्छुक्लाधिक्ये भवेत् पुमान्।
शुक्लासृजोर्भवेत् साम्ये नपुंसकसमुद्भवः॥७॥
अस्थीनि मज्जा शुक्लं च पितुरंशास्त्रयो मताः।
रक्तं रोमाणि पललमंशा मातुरमी मताः॥८॥
इति सृष्टिक्रमपद्धतिः॥
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७. अथ धर्मपद्धतिः।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥१॥
यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा।
परापवादसस्येभ्यो गाश्चरन्तीर्निवारय॥२॥
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥३॥
अव्रतस्यापि ते धर्मः कार्य एवान्तरान्तरा।
मेघीभूतोऽपि(हि) भ्राम्यन्(ला?घा)सग्रासं करोति गौः॥४॥
येन खट्वां समारूढः परितप्येत कर्मणा।
आदावेव न तत् कुर्यादध्रुवे जीविते सति॥५॥
सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत् त्यक्तुं न शक्यते।
सद्भिरेव स कर्त्तव्यः सङ्गः सङ्गस्य भेषजम्॥६॥
दरिद्रान् भर कौन्तेय! न समृद्धान् कदाचन।
व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरुजस्य किमौषधैः॥७॥
धर्मोपदेशः संक्षेपाद् ब्राह्मणान् भर कौरव!।
पुनः पुनश्च संक्षेपात् ब्राह्मणान् भर कौरव!॥८॥
ए … … … … … …।
… … … … … … …॥९॥
… … … … … … …।
… … … … … … याम्॥१०॥
हृदि विद्ध इवात्यर्थं यया सन्तप्यते जनः।
पीडितोऽपि हि मेधावी न तां वा (चमुदीरयेत्)॥११॥
… … … … … …।
… … … … … …
… … … … … …
… … … … … … के॥१२॥
दानं वित्तादृतं वाचः कीर्त्तिधर्मौ तथायुषः।
परोपकरणं काया(दसारात् सारमाहरेत्)॥१३॥
(श्वस्त्वया सुखसंवित्तिः स्मरणीयाधुनातनी।
इति स्वप्नोपमान् मत्वा कामान्मा) गास्तदङ्गताम्॥१४॥
(भारवेः)
न फलादर्शनात्तात! शङ्कितव्या न वेदना।
…. ….येण क्षीयन्ते नोपभोगेन सम्पदः॥१५॥
(रामाभ्युदये)
इदमन्तरमुपकृ … … … … …।
… … … … … … …॥१६॥
… … … … … … …।
… … … … … ण्ड्यस्य॥१७॥
धनस्य यस्य राजतो भयं न चापि चोरतः
समार्जयस्व तद्धनं … … … …।
… … … … … …
… … … … … …॥१८॥
… … … … …तध्वं मृत्युरापतति गच्छति कालः।
प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।
तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः॥१९॥
(भर्तृहरेः)
… … … … … … … …।
… … … … … … … …॥२०॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
संगं मुञ्चहविसएधम्मं गहिऊण आढिआभोहः।
… … … … … … … ॥२१॥
… … … … … … … …।
… … …कलित्ते कुणहमहं सामिकं जम्मि॥२२॥
परिहर परपरिवाअं परिहर परसं… … …।
… … … … … … … …॥२३½॥
इति धर्मपद्धतिः॥
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८. अथ धर्मप्रशंसापद्धतिः।
धर्मः श्रुतो वा दृष्टो वा स्मृतो वा कथितोऽपि वा।
अनुमेयः… … … … … …॥१॥
… … … … … … …।
… … … मन्नाशं सर्वमन्यच्च गच्छति॥२॥
कुत्सिता ये दरिद्राश्च विरूपा व्याधितास्तथा।
… … … … … … …॥३॥
… स्माद्धि परमं नास्ति तथा प्राहुर्मनीषिणः।
धर्मोऽयं सेवितः शुद्धस्त्राय… … … ॥४॥
… … … … … … …।
… … … … … र्थनिबन्धनः॥५॥
इतरेतरयोर्नीतौ विद्धि मेघोदधी यथा।
यद… … … … … ॥६॥
… … … सौ धनवानपि निर्धनः।
श्रुतवानपि मूढश्च यो धर्मः… … …॥७॥
… … … … … … …।
… … … … … चराचराः॥८॥
धर्माय येऽभ्यसूयन्ति बुद्धिमोहपरायणाः।
अपथा गच्छता तेन… … … …॥९॥
… … … … … … …।
… … … … … न जीवति॥१०॥
(एते महाभारते)
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्ष(ति रक्षितः)।
… … … … … …॥११॥
… … … … …भवते सुखम्।
धर्मेण लभते सर्वं धर्मसारमिदं जगत्॥१२॥
(रामायणे)
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
सुखं च न विना धर्मात् तस्माद्धर्मपरो भवेत्॥१३॥
(संग्रहे)
एकस्मिन्नप्यतिक्रान्ते दिवसे धर्मवर्जिते।
दस्युभिर्मुषतस्येव युक्तमाक्रन्दितुं चिरम्॥१४॥
वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते लयम्।
वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्॥१५॥
निधानमिव मण्डूकाः सरः पूर्णमिवाण्डजाः।
शुभकर्माणमायान्ति निश्शेषाः शुभसम्पदः॥१६॥
कामार्थौ लिप्समानस्तु धर्ममेवादितश्चरेत्।
नहि धर्माद् भवेत् किञ्चिद् दुष्प्रापमिति मे मतिः॥१७॥
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं क्षितौ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥१८॥
धर्मं कृत्वा कर्मणां तात! मुख्यं
महाप्रभावः सवितेवावभाति।
हानेन धर्मस्य महीमपीमां
(कृ?हि)त्वा नरः सीदति पापबुद्धिः॥१९॥
(महाभारते)
इति धर्मप्रशंसापद्धतिः॥
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९. अथाधर्मप्रशंसापद्धतिः।
अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति।
ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति॥१॥
न चिरं पापकर्माणो नरा लोकजुगुप्सिताः।
ऐश्वर्य प्राप्य तिष्ठन्ति छिन्नमूला इव द्रुमाः॥२॥
अवश्यं लभते कर्त्ता फलं पापस्य कर्मणः।
घोरं पर्यागते काले द्रुमाः पुष्पमिवार्त्तवम्॥३॥
(रामायणे)
नाधर्मश्चरितो राजन्! सद्यः फलनि गौरिव।
पुत्रेषु वा नप्तृषुवा चेदात्मनि पश्यति॥४॥
एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः।
भोक्तारस्तत्र मुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते॥५॥
पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः।
नष्टप्रज्ञः पुनः कर्म पापमारभते नरः॥६॥
पापात्मा पापबुद्धिर्यः पापमेवानुवर्तते।
कर्मणामविभागज्ञः प्रेत्य चेह च नश्यति॥७॥
श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि।
अश्रेयसि प्रपन्ने तु कापि यान्ति विघातकाः॥८॥
परलोकोऽस्तु वा मा वा त्याज्यमेवाशुभं बुधैः।
यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः॥९॥
मन्यते पापकं कृत्वा कश्चिद्वेत्ति न मामिति।
देवाश्चैनं विजानन्ति भूताश्चापि तथा परे॥१०॥
(महाभारते)
सर्वाशुचिनिधानस्य कृतघ्नस्य विनाशिनः।
शरीरकस्यापि कृते मूढाः पापानि कुर्वते॥११॥
शारीरैः कर्मदोषैश्च याति स्थावरतां नरः।
वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्॥१२॥
(मनोः)
आधिव्याधिपरीताय अद्य श्वो (वा विनाशिने।)
(ह?को हि) नाम शरीराय धर्मापेतं समाचरेत्॥१३॥
आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च
द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च।
अहश्चरात्रिश्च उभे च सन्ध्ये
धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तम्॥१४॥
(रामायणे)
इत्यधर्मप्रशंसापद्धतिः॥
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१०. अथ सत्यप्रशंसापद्धतिः।
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्राश्च सत्यमेव विशिष्यते॥१॥
न तत्त्ववचनं सत्यं नातत्त्ववचनं मृषा।
यद् भूतहितमत्यन्तं तत् सत्यमितरन्मृषा॥२॥
एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्! नावबुध्यसे।
सत्यं स्वर्गस्य संयानं पारावारस्य नौरिव॥३॥
सर्ववेदाधिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम्।
सत्यं च वदतो राजन्! समं वा स्यान्नवा समम्॥४॥
वरं कूपशताद्वापी वरं वापीशतात् क्रतुः।
वरं क्रतुशतात् पुत्रः सत्यं पुत्रशताद्वरम्॥५॥
यमो वैवस्वतो राजा यस्तवैष हृदि स्थितः।
तेन चेद (पि?वि) वादस्तं मा गङ्गां मा कुरून् गमः॥६॥
एकतश्चतुरो वेदाः साङ्गोपाङ्गाः सविस्तराः।
स्वाधीनास्ते नरश्रेष्ठ! सत्यमेकं किलैकतः॥७॥
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यज्ञानं तु दुष्करम्।
यद् भूत(मि?हि)तमत्यन्तं तद्वै सत्यं ब्रवीम्यहम्॥८॥
न नर्मयु(क्तम?ह्य) नृतं हिनस्ति
न स्त्रीषु राजन्! न विवाहकाले।
प्राणात्यये सर्वधनातिपाते
पञ्चानृतान्याहुरपातकानि॥९॥
(महाभारते)
इति सत्यप्रशंसापद्धतिः॥
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११. अथासत्यपद्धतिः।
मिथ्यावचनदग्धस्य चेष्टापूर्त्तं विनश्यति।
न रूपमनृतस्यास्ति नानृतस्यास्ति सन्ततिः॥१॥
पञ्च पश्वनृते हन्ति दश हन्ति गणानृते।
शतमश्वानृते हन्ति सहस्रं पुरुषानृते॥२॥
हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थेऽनृतं वदन्।
सर्वं भूम्यनृते हन्ति मा स्म भूम्यनृतं व(दीः?दः)॥३॥
यां रात्रिमधिविन्ना स्त्री यां चैवाक्षपराजितः।
यांच भारातितप्ता गौर्दुर्विवक्ता तु तां वसेत्॥४॥
यन्मन्त्रे भवति वृथा प्रयुज्यमाने
यत्सोमे भवति वृथाभिपूयमाणे।
यच्चाग्नौ भवति वृथाभिपूयमाणे
तत् सर्वं भवति मृषाभिधीयमाने॥५॥
(महाभारते)
इत्यसत्यपद्धतिः॥
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१२. अथ दम्भपद्धतिः।
सन्ध्यावन्दनवेलायां मुक्तोऽहमिति मन्यते।
खण्डलण्डुकवेलायां दण्डमादाय धावति॥१॥
अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिपुण्ड्रं भस्मधारणम्।
बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः॥२॥
श्रुतडम्भः शमदम्भः स्नातकदम्भः समाधिडम्भश्च।
निःस्पृहदम्भस्य तुलां यान्ति तु नैते शतांशस्य॥३॥
लोभः पितातिवृद्धो जननी माया सहोदरः कूटः।
भ्रुकुटिरचना च विद्या पुत्रो डम्भस्य हुङ्कारः॥४॥
(कलाविलासे)
मृद्धिन्दुलाञ्छितललाटभुजोदरोरः
कण्ठोष्ठपृष्ठचिबु(कोरु)कपोलजानुः।
चूडाग्रकर्णकटिपाणिविराजमान-
दर्भाङ्कुरःस्फुरति(पूर्व?मूर्त) इवैष डम्भः॥५॥
सदनमुपगतोऽहं पूर्वमम्भोजयोनेः
सपदि मुनिभिरुच्चैरासनेषूज्झितेषु।
सशपथमनुनाथ्य ब्रह्मणा गोमयाम्भः-
परिमृजितनिजोरावाशु संवेशितोऽस्मि॥६॥
(प्रबोधचन्द्रोदये)
वाताहार(भ?त)या जगद्विषधरैरास्वाद्य निःशेषितं
ते(त्राः?ग्रस्ताः पुनर(ग्र?भ्र)तोयकणिकातीव्रव्रतैर्हिभिः।
तेऽपि क्रूरचमूरुचर्मवसनैर्नीताः क्षयं लुब्धकै-
र्दम्भस्य स्फुटितं चिदन्नपि जनो जाल्मो गुणानीहते॥७॥
(भल्लटे)
इति दम्भपद्धतिः॥
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१३. अथ दानप्रशंसापद्धतिः।
दानं विभूषणं लोके दानं दुर्गनिवारणम्।
दानं स्वर्गस्य सोपानं दानं दारिद्र्यनाशनम्॥१॥
दुर्भिक्षे चान्नदातारं सुभिक्षे च हिरण्यदम्।
भये चाभयदातारं स्वर्गोऽपि बहुमन्यते॥२॥
शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः।
वक्ता शतसहस्रेषु दाता भवति वा न वा॥३॥
चलं चित्तं चलं वित्तं चलं जीवितमावयोः।
प्रसारय करं विप्र! दैवस्य कुटिला गतिः॥४॥
नास्ति दानात् परतरं पृथिव्यामस्ति किञ्चन।
अर्थे हि महती तृष्णा स च दुःखेन लभ्यते॥५॥
(महाभारते)
आयासशतलब्धस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयसः।
गतिरेकैव वित्तस्य दानं शेषा विपत्तयः॥६॥
देयानि कणपिण्याकशाकान्यपि च याचते।
तदभ्यासोचितत्यागः स्वमांसान्यपि चार्पयेत्॥७॥
(पन्चतन्त्रे)
कुलं शीलं श्रुतं शौर्य सर्वमेतन्न गण्यते।
दुर्वृत्ते वा सुवृत्ते वा जनो दातरि रज्यते॥८॥
(चाणक्यस्य)
यस्यान्नपानपुष्टाङ्गः कुरुते धर्मसञ्चयम्।
अन्नस्य दातुस्तस्यार्धं कर्त्तश्चार्धं न संशयः॥९॥
दातृयाचकयोर्भेदः कराभ्यामेव दर्शितः।
एकस्य गच्छताधस्तादुपर्यन्यस्य तिष्ठता॥१०॥
(बृहत्कथायाम्)
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेव कलौ युगे॥११॥
श्रोत्रियस्य कदर्यस्य वदान्यस्य च वार्धुषेः।
मीमांसित्वोभयं देवाः सममन्नमकल्पयन्॥१२॥
तान् प्रजापतिरित्याह मा कृढ्वं विषमं समम्।
श्रद्धापूतं वदान्यस्य हतमश्रद्धयेतरत्॥१३॥
(मनोः)
अदाता पुरुषस्त्यागी स्वधनं त्यज्य गच्छति।
दातारं कृपणं मन्ये मृतोऽप्यर्थं न मुञ्चति॥१४॥
तापपीयूषजलदस्तिमिरध्वंसभास्करः।
दानं हिनाम संसारे निधानं शुभसम्पदाम्॥१५॥
(बृहत्कथायाम्)
अतिसाहसमतिदुष्करमत्याश्चर्यं च दानमर्थानाम्।
योऽपि ददाति शरीरं न ददाति स वित्तलेशमपि॥१६॥
(कलाविकासे)
दत्तो जलं वि जलओ (वि?हि) वललहो होइ सअललोअस्स।
णिच्चं पसारिअकरो करेइमित्तो वि सन्दावम्4॥१७॥
(गाथाकोशे)
इति दानप्रशंसापद्धतिः॥
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१४. अथान्नप्रशंसापद्धतिः।
चतुर्विधानि भूतानि जङ्गमानि स्थिराणि च।
अन्नाद्भवन्ति राजेन्द्र! सृष्टिरेषा प्रजायते॥१॥
अन्नाद्रक्तं च शुक्लं चाप्यतो जीवः प्रतिष्ठितः।
इन्द्रियाणि च बुद्धिश्च तृप्यन्त्यन्नेन नित्यशः॥२॥
अन्नप्रणाशे सीदन्ति शरीरे पञ्च धातवः।
आहारात् सर्वभूतानि सम्भवन्ति महीतले॥३॥
अन्नेन धार्यते सर्वं जगदेतच्चराचरम्।
अन्नात् प्रभवति प्राणः प्रत्यक्षं नास्ति संशयः॥४॥
देवा रुद्रादयः सर्वे पितरो ह्यग्नयस्तथा।
यस्मादन्नेन तुष्यन्ति तस्मादन्नं विशिष्यते॥५॥
यस्मादन्नात् प्रजाः सर्वाः कल्पे कल्पेऽसृजत् प्रभुः।
तस्मादन्नात् परं दानं न भूतं न भविष्यति॥६॥
प्रत्यक्षं प्रीतिजननं भोक्तृदात्रोर्भवत्युत।
अन्नदस्य मनुष्यस्य बलमोजो यशः सुखम्॥७॥
कीर्तिश्च जायते शश्वत् त्रिषु लोकेषु पार्थिव !॥
इत्यन्नप्रशंसापद्धतिः॥
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१५. अथ जलदानप्रशंसापद्धतिः।
संरक्षणार्थं भूतानां सृष्टंप्रथमतो जलम्।
यः प्राणः सर्वभूतानां वर्धते येन च प्रजाः॥१॥
तृषितस्य न चान्नेन पिपासा हि प्रणश्यति।
सर्वदानैर्गुरुतरं जलदानं विशिष्यते॥२॥
निदाघकाले सलिलं तटाके यस्य तिष्ठति।
वाजपेयफलं तस्य फलं वै ऋषयोऽब्रुवन्॥३॥
एकाहमपि कौन्तेय! भू(मि?यि)ष्ठमुदकं कुरु।
कुलं तारयते तात! सप्त सप्त च सप्त च॥४॥
इति जलदानप्रशंसापद्धतिः॥
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१६. अथ भूमिदानपद्धतिः।
भूमिं यः प्रतिगृह्णाति यश्च भूमिं प्रयच्छति।
तावुभौ पुण्यकर्माणौ नियतौ स्वर्गगामिनौ॥१॥
आश्रितस्याप्रदानेन दत्तस्य हरणेन च।
जन्मप्रभृति यद्दत्तं सर्वं नश्यति भारत !॥२॥
इति भूमिदानपद्धतिः॥
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१७. अथ तिलदानपद्धतिः
सदक्षिणां काञ्चनचारुशृङ्गीं
कांस्यपदोहांसवनोत्तरीयाम्।
धेनुं तिला(ना?न् वा) ददतो द्विजाय
लोका वसूनां सुलभा भवन्ति॥१॥
इति तिलदानपद्धतिः॥
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१८. अथ विद्यादानपद्धतिः।
त्रीण्याहुरतिदानानि गावः पृथ्वी सरस्वती।
सर्वेषामेव दानानां विद्यादानं ततोऽधिकम्॥१॥
विद्यादानात् परं नास्ति वेदविद्या महाफला।
अध्यापकः परिक्लेशादक्षयं फलमश्नुते॥२॥
(उमामहेश्वरसंवादे)
दापनं त्वथ विद्यानां दरिद्रेभ्योऽर्थवेतनैः।
स्वयं दत्तेन तुल्यं स्यादिति विद्धि शुभानने !॥३॥
इति विद्या(दा)नपद्धतिः॥
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१९ अथ सुवर्णदानम्।
अग्निर्हि देवताः सर्वाः सुवर्णं च तदात्मकम्।
तस्मात् सुवर्णं ददता दत्ताः सर्वाः स्म देवताः॥
इति सुवर्णदानम्॥
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२०. अथ तपःप्रशंसापद्धतिः।
अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा।
एतत् तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम्॥१॥
तपसा तदवाप्नोति यन्न शक्यं मनोरथैः।
त्रैलोक्यराज्यादपि हि तप एव विशिष्यते॥२॥
मृन्मये भाजने पक्वे यथा वै न्यस्यते द्रवः।
तथा शरीरं तपसा तप्तं विषयमश्नुते॥३॥
विषयानश्नुते यस्तु न स भोक्ष्यत्यसंशयम्।
यस्तु भोगांस्त्यजेदात्मा स वै भोक्तुं व्यवस्यति॥४॥
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत् त्रिविधं नरैः।
अफलाकांक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥५॥
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥६॥
मूढग्राहेणात्मना यत् पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वै तत् तामसमुदाहृतम्॥७॥
(एते महाभारते)
इति तपःप्रशंसापद्धतिः॥
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२१. अथाहिंसापद्धतिः।
सर्ववेदाधिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम्।
सर्वयज्ञफलं चैव नहि तुल्यमहिंसया॥१॥
अहिंसा परमो धर्मश्चाहिंसा परमं तपः।
अहिंसा परमं सत्यमहिंसा परमार्जवम्॥२॥
अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो जायते सदा।
अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता॥३॥
(इतिहासमुच्चये)
इत्यहिंसापद्धतिः॥
२२. अथ दयापद्धतिः।
सर्वसत्त्वेच यद्दानं सर्वसत्त्वेच या दया।
सर्वसत्त्वप्रदानात्तु दयेवैका विशिष्यते॥१॥
सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वयज्ञाश्च खेचराः।
सर्वतीर्थाभिषेकश्च यत् कुर्याद् प्राणिनां दया॥२॥
वाङ्मनःकर्मभिर्ये तु सर्वभूतहिते रताः।
दयादर्शितपन्थानो ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते॥३॥
फलाभिलाषोपहतान्तरात्मा परीक्षते पात्रविशेषमेव।
कृपालुकस्त्वर्थितयैव तुष्टः प्रवर्त्तते दीनजनेषु दातुम्॥४॥
(एते महाभारते)
इति दयापद्धतिः॥
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२३. अथाचारपद्धतिः।
न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलो मुनिः।
न चाङ्गचपल + + इति शिष्टस्य लक्षणम्॥१॥
आचारसम्भवो धर्मो धर्माद्वेदाः समुत्थिताः।
वेदैर्यज्ञाः समुत्पन्ना यज्ञैर्देवाः प्रतिष्ठिताः॥२॥
आचाराल्लभ्यते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः।
आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्॥३॥
अनसूया क्षमा शान्तिः सन्तोषः प्रियवादिता।
कामक्रोधपरित्यागः शिष्टाचारनिदर्शनम्॥४॥
न जातिर्न कुलं तात! न स्वाध्यायो न च श्रुतम्।
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम्॥५॥
प्राप्नोति वै वीर्यमसह्यरूपं नित्योत्थानात् प्रज्ञया पौरुषेण।
न त्वेव सम्यग् लभते प्रशंसां न वृत्तमाप्नोति महाकुलानाम्॥६॥
सूक्ष्मोऽपि भारं नृपतेः स्यन्दनो वैशक्तो बोहुं न तथान्ये
[महीजाः]
एवं युक्ता भारसहा भवन्ति महाकुलीना न तथा मनुष्याः॥७॥
(एते महाभारते)
इत्याचारपद्धतिः॥
२४. अथ अनाचारपद्धतिः।
कपाले यद्वदापः स्युः श्वदृतौ वा वृथा पयः।
आश्रयस्थानदोषेण वृत्तहीने तथा श्रुतम्॥१॥
लोष्टमदीं तृणच्छेदी नखच्छेदी च यो नरः।
नित्योच्छिष्टः सूत्रकश्च नेहायुर्विन्दते महत्॥२॥
ये नास्तिका निष्क्रियाश्च गुरुशास्त्रातिलङ्घिनः।
अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः॥ ३॥
अशीला भिन्नमर्यादा नित्यसङ्कीर्णमैथुनाः।
अल्पायुषो भवन्तीह तथा निरयगामिनः॥४॥
(एते महाभारते)
इत्यनाचारपद्धतिः॥
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२५. अथ गृहस्थपद्धतिः।
चतुर्णामाश्रमाणां तु गृहस्थस्तु विशिष्यते।
सीदमानेन तेनेह सीदन्त्यन्येऽपि ते त्रयः॥१॥
अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्।
शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थो धर्म उच्यते॥२॥
अतिथिः पूजितो यस्य गृहस्थस्य तु गच्छति।
नान्यस्तस्मात् परो धर्म इति प्राहुर्मनीषिणः॥३॥
देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भृत्यान् गृह्याश्च देवताः।
पूजयित्वा ततः पश्चाद् गृहस्थो भोक्तुमर्हति॥४॥
येषां नाग्नभुजो देवा न वृद्धातिथिबालकाः।
राक्षसानेव तान् विद्धि निर्विशङ्कानमङ्गलान्॥५॥
अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च।
सामान्यं भोजनं सद्भिर्गृहस्थस्य प्रशस्यते॥६॥
तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता।
एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥७॥
(मनोः)
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः॥८॥
(महाभारते )
दूरादतिथयो यस्य गृहमायान्ति निर्वृताः।
गृहस्थ इति विज्ञेयः शेषास्तु गृहलक्षणाः॥९॥
(मार्कण्डेये)
चत्वारस्ते तात! गृहे वसन्ति श्रियाभियुक्तस्य गृहस्थधर्मे।
भ्रान्तो ज्ञातिरवसन्नःकुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपन्या॥१०॥
स्वधर्मकर्मार्जितजीवितानां स्वेष्वेव दारेषु सदा रतानाम्।
जितेन्द्रियाणामतिथिमियाणां गृहेऽपि मोक्षः पुरुषोत्तमानाम्॥११॥
(महाभारते)
इति गृहस्थपद्धतिः॥
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२६. अथ साध्वीपद्धतिः।
कायक्लेशेन महता पुरुषः प्राप्नुयात् फलम्।
तत् सर्वं लभते नारी सुखेन पतिपूजया॥१॥
आत्मनोऽर्धमिति श्रौतं सा रक्षति धनं प्रजाम्।
शरीरं लोकयात्रां च धर्मंस्वर्गमृषीन् पितॄन्॥२॥
(महाभारते)
प्रहृष्टमानसा नित्यं स्थानमानविचक्षणा।
भर्तुः प्रीतिकरी या तु सा भार्या चेतरा जरा॥३॥
(दक्षस्मृतौ)
भर्त्तृशुश्रूषया नारी लभते स्वर्गमुत्तमम्।
अपि या निर्नमस्कारा निवृत्ता देवपूजनात्॥४॥
(महाभारते)
वधूनां परिणीतानां पत्युः पादान्तिकं विना।
एकरात्रमपि स्थातुं न युक्तं कुलवेश्मनि॥५॥
पूजनीया महाभागाः पुण्याच गृहदीप्तयः।
श्रियः स्त्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः॥६॥
(महाभारते)
भर्त्तारमनुगच्छन्ती सहधर्मचरी सती।
इति कीर्त्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमां गतिम्॥७॥
(श्रीरामायणे )
नित्यं प्रहृष्टयाभाव्यं गृहकार्ये च दक्षया।
सुसंयतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया॥८॥
(पञ्चतन्त्रे)
सम्पत्तौ च विपत्तौ च मरणे च न मुञ्चति।
या स्त्रीया तां प्रति प्रेम जायते पुण्यकर्मणाम्॥९॥
(भोजस्य)
न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
गृहं हि गृहिणीहीनमरण्यसदृशं स्मृतम्॥१०॥
(इतिहाससमुच्चये)
शुश्रूषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने
भर्तुर्विप्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः।
भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भोग्येष्वनुत्सेकिनी
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः॥११॥
(शाकुन्तले)
*हसिअं कपोलकहिअं गमिअमणकन्तदेहलिपएसम्।
दिट्ठमणुविस्वत्तमुहं एस हि मग्गो कुलवहूणम्॥१२॥
जह जह जरापरिणओ होइ पई दुग्गओ विरूवो अ।
कुलपालिआण तह तह अहिअअरं वल्लहो होइ॥१३॥
कुलपालिआ पेच्छह जोवणलाअण्णविब्भमविलासा।
पवसन्तिव्वपवसिए एन्ति व्व पिए घरम्पइन्दे॥१४॥
(सप्तशत्याम्)
दुग्गअघरम्मि घरिणी रक्खन्ती आउलतणं पइणो।
पुच्छिअदोहलसद्धा पुणो वि उअअं विअ कहेइ॥१५॥
(शातवाहनस्य)
किवणाण धणं णाआण फणमणी केसराइ सीहाण।
कुलपालिआण वि थणा कुत्तो छिप्पन्ति अमुआण॥१६॥
(गाथाकोशे)
इति साध्वीपद्धतिः॥
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*हसितं कपोलकथितं गमितमनाक्रान्तदेहलीप्रदेशम्।
दृष्टमनुत्क्षिप्तमुखमेष हि मार्गः कुलवधूनाम्॥
यथा यथा जरापरिणतो भवति पतिर्दुर्गतो विरूपश्च।
कुलपालिकानां तथा तथाधिकतरं वल्लभो भवति॥
कुलपालिकाः पश्यत यौवनलावण्यविभ्रमविलासाः।
प्रवसन्तीव प्रवसिते यान्तीव प्रिये गृहमायाते॥
दुर्गतगृहे गृहिणी रक्षन्ती आकुलत्वं पत्युः।
पृष्टदोहदश्रद्धा पुनरप्युदकमेव कथयति॥
कृपणानां धनं नागानां फणामणिः केसराणि सिंहानाम्।
कुलपालिकानामपि स्तनाः कुतः स्पृश्यन्तेऽमृतानाम्॥
२७. अथ पतिप्रशंसापद्धतिः।
नातन्त्री वाद्यते वीणा नाचक्रोवर्त्तते रथः।
नापतिः सुखमेधेत या स्यादपि शतात्मजा॥१॥
मितं ददाति हि पिता मितं माता मितं सुतः।
अमितस्य हि दातारं भर्त्तारं का न पूजयेत्॥२॥
दुश्शीलः कामवृत्तो वा धनैर्वा परिवर्जितः।
स्त्रीणामार्यस्वभावानां परमं दैवतं पतिः॥३॥
पतिर्हि भूषणं नार्या भूषणं भूषणादपि।
…. …. …. …. …. …. ॥४॥
(एतेश्रीरामायणे)
यादृग्गुणेन भर्त्रा स्त्री संयुज्येत यथाविधि।
तादृग्गुणा सा भवति समुद्रेणेव निम्नगा॥५॥
(मनोः)
पत्या विना जीवति या न सा जीवत्यसंशयम्।
पत्या विना मृतिः श्रेयो नार्याः क्षत्रियपुङ्गव!॥६॥
(महाभारते)
इति प्रतिप्रशंसापद्धतिः॥
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२८. अथ श्रुतप्रशंसापद्धतिः।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥१॥
प्रस्तावसदृशं वाक्यं स्वभावसदृशं प्रियम्।
आत्मशक्तिसमं क्रोधं यो जानाति स पण्डितः॥२॥
(महाभारते)
प्राज्ञो हि जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः।
गुणवद्वाक्यमादत्ते हंसः क्षीरमिवाम्भसः॥३॥
(वल्लभदेवस्य)
सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च नैव शास्त्रविदर्हति॥४॥
अपर्यन्तस्य कालस्य कियद्वा शरदां शतम्।
तन्मात्रपरमायुर्यः स कथं स्वप्तुमर्हति॥५॥
(पञ्चतन्त्रे)
ईक्षणध्यानसंस्पर्शैर्मत्स्यकूर्मविहङ्गमाः।
पोषयन्ति स्वकान् पुत्रान् तद्वत् पण्डितवृत्तयः॥६॥
यत्र सूक्तं दुरुक्तं वा समं स्यान्मधुसूदन !।
न तत्र प्रलपेत् प्राज्ञो बधिरेष्विव गायनः॥७॥
(महाभारते)
विद्वानेव विजानाति विद्वज्जनपरिश्रमम्।
नहि बन्ध्या विजानाति गुर्वीप्रसववेदनाम्॥८॥
वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम्।
नारीपुरुषतोयानामन्तरं महदन्तरम्॥९॥
(नीतिशास्त्रे)
अश्वाः शस्त्रं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नारी च।
पुरुषविशेषं प्राप्य भवन्त्ययोग्याच योग्याश्च॥१०॥
(कलाविद्यायाम्)
न पण्डिताः साहसिका भवन्ति श्रुत्वा पुनस्ते तुलयन्त्यसत्यम्।
ततः समादाय समाचरन्ति स्वार्थाश्चकुर्वन्ति परस्य चार्थान्॥११॥
( सर्वज्ञसोमेश्वरस्य)
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥१२॥
(भर्तृहरेः)
चरइति णस्सामण्णं विअइजलस्सअणगोहणव्वोरिअम्।
धवल तह वि किसोअरि णस्सामण्णं धुरं वहसि॥१३॥
हंसो मिएण मज्झे काओ जाइ वसइणन्दणवणम्मि।
तह वि हु हंसो हंसो काओ काओ च्चिअ वराओ॥१४॥
दोविसपक्खादह्णंधवलिमादो विसरवणिवासा।
तह वि हु हंसघआणं दीसइचित्र अन्तरं गुरुअम्॥१५॥
(गाथाकोशे)
इति श्रुतप्रशंसापद्धतिः॥
२९. अथाज्ञप्रशंसापद्धतिः।
निर्धनश्चापि कामार्थी दुर्बलः कलहप्रियः।
मन्दशास्त्रो विबादार्थी त्रिविधं मूर्खलक्षणम्॥१॥
अनाहूतः सम्प्रविशत्यपृष्टो बहुभाषते।
बलवन्तं च (वो?यो) द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥२॥
द्वाविमौ पुरुषौ लोके परप्रत्ययकारिणौ।
स्त्रियः कामितकामिन्यो मूर्खाः पूजितपूजकाः॥३॥
(महाभारते )
लोहिताभस्य च मणेः पद्मरागस्य चान्तरम्।
यो न वेत्ति कथं तत्र क्रियते रत्नविक्रयः॥४॥
एरण्डभेण्डोकनलैः प्रभूतैरपि संहतैः।
दारुकृत्यं यथा नास्ति तथैवाज्ञैः प्रयोजनम्॥५॥
(पञ्चतन्त्रे)
आत्मप्रशंसिनं धृष्टं दुष्टं विपरिधावकम्।
सर्वदोत्सृष्टदण्डं च लोकः सत्कुरुते नरम्॥६॥
(श्रीरामायणे )
यच्छ्रुतं न विरागाय न धर्माय न शान्तये।
सुबद्धमापशब्देन काकवाशितमेव तत्॥७॥
(व्यासशतके)
प्रत्युपस्थितकालस्य सुखस्य परिवर्जनम्।
अनागतसुखाशा च नैष बुद्धिमतो नयः॥८॥
(वल्लभदेवस्य)
यस्तु वेदे च वाक्ये च ग्रन्थधारणतत्परः।
न च ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञस्तस्य तद्धारणं वृथा॥९॥
अध्रुवेण शरीरेण प्रतिक्षणविनाशिना।
ध्रुवं यो नार्जयेद् धर्मं स शोच्यो मूढचेतनः॥१०॥
नमन्ति फलिता वृक्षा नमन्ति च बुधा जनाः।
शुष्ककाष्ठानि मूर्खाश्च भिद्यन्ते न नमन्ति च॥११॥
(व्यासशतके)
विषमां हि गतिं प्राप्य देवान् गर्हयतेऽबुधः।
आत्मनः कर्मदोषेणेत्येवं न ह्यवगच्छति॥१२॥
(महाभारते)
कश्चिदाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च निषिञ्चति।
पुष्पं दृष्ट्वा फले गृध्नुः स शोचति फलागमे॥१३॥
(श्रीरामायणे)
प्रवर्धमानः पुरुषस्त्रयाणामसुखावहः।
पूर्वार्जितानां मित्राणां दाराणामथ वेश्मनाम्॥१४॥
(महाभारते)
यदविज्ञातशास्त्रेण कदाचित् साधितं भवेत्।
नैव तद् बहुमन्तव्यं घुणोत्कीर्णमिवाक्षरम्॥१५॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
सुखं स्वपिति दुर्मेधाः स्वानि कर्माण्यचिन्तयन्।
अविज्ञानेन महता कम्बलेनेव संवृतः॥१६॥
(महाभारते)
अकामां कामयति यः कामयानां परिद्विषन्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्॥१७॥
परं क्षिपति दोषेण वर्त्तमानः स्वयं तथा।
यश्च कुप्यत्यनीशः सन् स तु मूढतमो नरः॥१८॥
गुरुलाघवमर्थानामारम्भे कर्मणां फलम्।
दोषं वा यो न जानाति स बालइति होच्यते॥१९॥
कालप्राप्तं महारत्नं यो न गृह्णात्यबुद्धिमान्।
अन्यहस्तगतं दृष्ट्वा पश्चात् स परितप्यते॥२०॥
अविज्ञातप्रपञ्चस्य वचो वाचस्पतेरपि।
व्रजत्यफलतामेव नयद्रुह इवेहितम्॥२१॥
(भारवेः)
सूर्यादन्यत्र यच्चन्द्रेऽप्यर्थासंस्पर्शि तत् कृतम्।
खद्योत इति कीटस्य नाम तुष्टेन केनचित्॥२२॥
(भल्लटे)
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषतः।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति॥२३॥
(भर्तृहरेः)
मूर्खा न द्रष्टव्या द्रष्टव्याश्चेन्न तैस्तु सह तिष्ठेत्।
यदि तिष्ठेन्न तु कथयेद् यदि कथयेन्मूर्खवत् कथयेत्॥२४॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
स्तब्धप्रकृतिर्लोके बहुमानमुपैति नातिशयनम्रः।
स्फुटमत्रोदाहरणं पयोधरः कुवलयाक्षीणाम्॥२५॥
शाठ्येन मित्रं कपटेन धर्मं
परोपतापेन समृद्धभावम्।
सुखेन विद्यां परुषेण नारीं
कांक्षन्ति ये नूनमपण्डितास्ते॥२६॥
एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेको
विद्वद्भिरेव सह संवसति(द्वि?र्द्वि)तीयम्।
यस्यास्ति न द्वयमिदं स्फुटमेव सोऽन्ध-
स्तस्यापमार्गचलने वद कोऽपराधः॥२७॥
काव्येन मूर्खधनिनं प्रणयेन नीचं
वेश्यां श्रुतेन शठशात्रवमार्जवेन।
इच्छन्ति ये जगति रञ्जयितुं विमूढा-
स्तेषामरण्यरुदितेन समः प्रयासः॥२८॥
(वल्लभदेवस्य )
आराध्य दुग्धजलधिः (स्व?सु)धयैव देवान्
देवाय हन्त महते गरलं दिदेश।
येषां ध्रुवं प्रकृतिरेव जलाशयानां
नीचेषु सम्मतिरसम्मतिरुत्तमेषु॥२९॥
काकाः प्रभुप्रणिहितैः पिकपट्टब(द्वै?न्धै)-
र्माकन्दबृन्दमकरन्दरसं लभन्ताम्।
प्राप्ते वसन्तसमये कथमाचरन्ति
कर्णामृतानि कलपञ्चमकूजितानि॥३०॥
(सकलविद्याचक्रवर्त्तिनः)
किं कर्पूररजः सुगन्धि न वदेत् किं वा विवादास्पदं
सौरभ्ये हरिचन्दनं परिमले का कुङ्कुमस्य क्षतिः।
याचे त्वामयमम्जलिस्तव पदं गृह्णामि तेषां स्तुति-
प्रस्तावेषु विशेषकोविद! भवान् न स्तौतु कस्तूरिकाम्॥३१॥
कनकभूषणसङ्क्रमणोचितो
यदि मणिस्त्रपुणि प्रतिबध्यते।
न च विरौति न याति न शोभते
भवति योजयितुर्वचनीयता॥३२॥
(भल्लटे)
अमितद्युतिराकारात् प्रसूतिः परिशुद्धा च महामणेर्विशेषः।
मकुटे चरणाङ्गुलीयके वा विनिवेशः पुनरस्य शिल्पितन्त्रम्॥३३॥
(वल्लभदेवस्य )
तद्वैदग्ध्यं समुचितपयस्तोयतत्त्वं विवेक्तुं
सल्लापास्ते स च मृद्पदन्यासहृद्यो विलासः।
आस्तां तावद् बक! यदि तथा वेत्सि किश्चिच्छ्लथाङ्ग-
स्तूष्णीमेवासितुमपि सखे! त्वं कथं मे न हंसः॥३४॥
(भल्लटे)
लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादये-
न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्॥३५॥
(भर्तृहरेः)
ण गुणेहि हीर जणो हीरइ जो जेण भाविओदेण।
णेच्छन्ति पुलिन्दा मोत्तिआइ गुञ्जाइ गह्णन्ति॥३६॥5
(सप्तशत्याम् )
गाहाण अ गेआण अ तन्तीसद्दाणवोढमहिलाण।
ताणस्सच्चिअ+ण्डो जे ताण रसं ण आणन्ति॥३७॥
दोहिच्चिअलहहज्जइसाअरसरिसो वि हिअअभवित्थारो।
जकअक्कप्पाण्णज्जइ पडिवण्णजेञ्च णिब्वहइ॥३८॥
सज्जणविलाहण्णिर्ज्जेपाअम्मिठवि ओण जेहि अप्पाणो।
ते पुष्वपुरिसमाहप्पगष्विआ कह ण इज्जन्ति॥३९॥
सरसं मलअसहापं विमलगुणं मित्तसङ्गदुल्ललिअम्।
कमलं णट्ठच्छायं कुणन्ति दोसाअर! णमो दे॥४०॥
मज्झे जडाण णिवसन्तअस्स कसो गुणाण वित्थारो।
हरससिणो किण्ण बहुं एविकलाजण्णसेरीणा॥४१॥
सारह कलाभिरामं तण्णस्स तुह जाणिअं चिरमिअक।
सरसा वि जेण समुहीण सक्किअं कमलिणीकालम्॥४२॥
जलरा सीणविलच्छी उक्खासन्तो ण माइ भुवणअले।
दोसाअरस्स एअंकेत्तिअमेत्तं वलइअस्स॥४३॥
हा हा कह ण मरिज्जइ इमिणा दुक्खेण जम्म इन्दस्स।
दीसह गुहासमुब्जध्दजम्बुअ पअपन्ति चित्तलिआ॥४४॥
उज्झइ परक्कमोकपतेण लिआभिमाणरसो।
सीहातणव्वणघइघोप्पइ लक्खेहि माअङ्गो॥४५॥
अवडसअपडणपच्चुट्ठअस्स सबन्धमुक्कस्स।
वाहणजलज्जसिपुरओ गाहन्तो जिण्णहरिस्त॥४६॥
णिवसउ सरम्मि हअविहिवसेण धवलत्तणं समुच्चहउ।
तह वि हु हंसस्सगलंव्भणभ (?) वओ कहं णु पावेइ॥४७॥
(गाथाकोशे)
इत्यज्ञप्रशंसापद्धतिः॥
३०. अथ काव्यप्रशंसापद्धतिः।
मधु स्वादु भृशं स्वादु मधुनोऽपि प्रियामुखम्।
प्रियामुखादपि स्वादु सूक्तं सूक्तान्न किञ्चन॥१॥
(कविवल्लभस्य)
आदिराजयशोबिम्बमादर्श प्राप्य वाङ्मयम्।
तेषामसन्निधानेऽपि न स्वयं पश्य नश्यति॥२॥
(दण्डिनः)
वेश्यानामिव विद्यानां बहवः सन्ति भोगिनः।
हृदयग्राहिणस्त्वासां विरलाः सन्ति वा न वा॥३॥
दुर्जनहुताशतप्तं काव्यसुवर्णं विशुद्धिमुपयाति।
दर्शयितव्यं तस्मान्मत्सरमनसः प्रयत्नेन॥४॥
(वराहमिहिरस्य)
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥५॥
(काव्यप्रकाशे)
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्।
यत्तत् प्रसिद्धावयवातिरिक्तमाभाति लावण्यमिवाङ्गनासु॥६॥
(वल्लभदेवस्य)
इति काव्यप्रशंसापद्धतिः॥
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३१. अथ सुजनपद्धतिः।
सद्भिरेव सहासीत सद्भिः कुर्वीत सङ्गमम्।
सद्भिर्विवादो मैत्रं च नासद्भिः किञ्चिदाचरेत्॥१॥
(महाभारते)
निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः।
नहि संहरति ज्योत्स्नां चन्द्रश्चण्डालवेश्मनः॥२॥
अपेक्षन्ते न च स्नेहं न पात्रं न दशान्तरम्।
सदा लोकहितासक्ता रत्नदीपा इवोत्तमाः॥३॥
साधोः परुषवाक्येन न मनो याति विक्रियाम्।
नहि तापयितुं शक्यं सागराम्भस्तृणोल्कया॥४॥
पृष्ठतो न विजल्पन्ति दीनमप्युद्धरन्ति च।
संवासं नावमन्यन्ते तस्मात् सेव्या हि साधवः॥५॥
(महाभारते)
सन्तो मनसि कृत्वैव प्रवृत्ताः कृत्यवस्तुनि।
कस्य प्रतिशृणोति स्म कमलेभ्यः श्रियं रविः॥६॥
(मुरारेः)
सत्सु कार्यवतां पुंसामलमेवाग्रतः स्थितिः।
वाग्वृत्तिरधिका सा चेत् करोत्युभयलाघवम्॥७॥
(भोजस्य)
सुवृत्तस्यैकरूपस्य परप्रीत्यै कृतोन्नतेः।
साधोः स्तनयुगस्येव पतनं कस्य तुष्टये॥८॥
वरं तस्करसम्बन्धः सुजनैः सह सङ्गमात्।
तस्करो हि हरत्यर्थ साधुस्तु हृदयं हरेत्॥९॥
पातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः।
प्रायेण हि सुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः॥१०॥
(बृहत्कथायाम्)
विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
एते मदावलिप्तानामेत एव सतां दमाः॥११॥
(महाभारते )
ससारविषवृक्षस्य द्वयमेवाधिकं फलम्।
सुभाषितरसास्वादः सुजनैः सह सङ्गमः॥१२॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति सलिलाकराः।
मर्यादाभेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः॥१३॥
गुणः कृशोऽपि प्रथते पृथुरप्यपचीयते।
प्राप्य साधुखलौ चन्द्रः पक्षाविवसितासितौ॥१४॥
सन्त एव सतां नित्यमापत्तरणहेतवः।
गजानां पङ्कलग्नानां गजा एव धुरन्धराः॥१५॥
(पञ्चतन्त्रे)
हृदयानि सतामेव कठिनानीति मे मतिः।
खलवाग्विशिखैस्तीक्ष्णैर्भिद्यन्ते न मनाग्यतः॥१६॥
(गजेन्द्रसिंहस्य)
गतिरेवात्मनः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः।
काकैः सह प्रवृद्धस्य कोकिलस्य कला गिरः॥१७॥
खलसङ्गेऽपि नैष्ठुर्यं कल्याणप्रकृतेः कुतः।
… … … … … ॥१८॥
(भोजस्य)
विरलास्तादृशो लोके शीलसौन्दर्यसम्पदः।
निशाः कियत्यो वर्षेऽपि यास्विन्दुः पूर्णमण्डलः॥१९॥
(उद्भटस्य)
चरितं हि सतां नित्यं दुर्जनैर्नोपहन्यते।
रत्नदीपस्य तीव्रोऽपि न वायुर्बाधते शिखाः॥२०॥
(बृहत्कथायाम्)
सुजनो न याति वैरं परहितबुद्धिर्विनाशकालेऽपि।
छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य॥२१॥
न भवति भवति तु न चिरं भवति चिरं चेत् फले विसंवदति।
कोपः सत्पुरुषाणां तुल्यः स्नेहेन नीचानाम्॥२२॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
स्वल्पापि साधुसम्पद् भोग्या महतां न पृथ्व्यपि खलश्रीः।
सारसमेव पयस्तृषमपनयति न यादसां पत्युः॥२३॥
(रविगुप्तस्य)
श्वा यदि दशति मनुष्यान् न ते जनास्तं प्रति दशन्ति।
यद्याक्रोशति नीचो न च तं वदतीह सज्जनः किञ्चित्॥२४॥
रागिणि नलिने लक्ष्मीं दिवसो विदधाति दिनकरप्रभवाम्।
अनपेक्षितगुणदोषः परोपकारः सतां व्यसनम्॥२५॥
(भट्टबाणस्य)
इक्षोरग्रात् क्रमशः पर्वणि पर्वणि यथा रसविशेषः।
तद्वत् सज्जनमैत्री विपरीतानां तु विपरीतम्॥२६॥
स्वाधीने माधुर्ये मधुराक्षरसंहितेषु वाक्येषु।
किं नाम सत्त्ववन्तः पुरुषाः परुषाणि भाषन्ते॥२७॥
धिक् धिक् सज्जनमैत्रीं दुर्जनसंसर्ग एव नो भवतु।
सज्जनवियोगकाले भवन्ति तीव्राणि दुःखानि॥२८॥
अप्रियवचनाङ्गारैर्दग्धोऽपि न विप्रियं वदत्यार्यः।
किं दह्यमानमगरु स्वभावसुरभिं परित्यजति॥२९॥
अपि सहवसतामसतां जलरुहजलवद्भवत्यसंश्लेषः।
दूरेऽपि सतां वसतां प्रीतिः कुमुदेन्दुवद् भवति॥३०॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
मृद्घटवत् सुखभेद्यो दुःसन्धानश्च दुर्जनो भवति।
सुजनस्तु कनकघट इव दुर्भेद्योऽसौ सुसन्धानः॥३१॥
(पञ्चतन्त्रे)
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः
खादन्ति न स्वादुफलानि वृक्षाः।
पयोधरो न क्वचिदत्ति सस्यं
परोपकाराय सतां विभूतिः॥३२॥
भवन्ति नम्रास्तरवः फलागमै-
र्नवाम्बुभिर्दुरविलम्बिनो घनाः।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः
स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्॥३३॥
(कालिदासस्य)
इयमुन्नतसत्त्वशालिनां महतां कापि कठोरचित्तता।
उपकृत्य भवन्ति दूरतः परतः प्रत्युपकारशङ्कया॥३४॥
(अमृतवर्धनस्य)
आदिमध्यनिधनेषु सौहृदं सज्जने भवति नेतरे जने।
छेददाहविनिघर्षणादिभिर्नान्यभावमुपयाति काञ्चनम्॥३५॥
(किराते)
उदीरितोऽर्थः पशुनापि गृह्यते
हयाश्च नागाश्च भवन्ति चोदिताः।
अनुक्तमप्यूहति पण्डितो जनः
परेङ्गितज्ञानफला हि बुद्धयः॥३६॥
*ते विरला सप्पुरिसा जे अभणन्ता घटेन्ति कज्जकलावे।
थोअ च्चिअ ते वि दुमा जे अमुणि अकुसुमणिग्गमा देन्ति फलम्॥३७॥
सअलुज्जोइअवसुहे समत्थजिअलोअवित्थरन्तपआवे।
ठाइण इरं रविम्भ वविहाणपडिआ वि मइलदा सप्पुरिसे॥३८॥
(सेतौ)
अणुवत्तणं किलन्तो वेसे वि जणे अहिष्णमुहराओ।
अप्पव्वसो वि सुअणो परव्वसो आहिजाईए॥३९॥
विष्णाणगुणमप्पे पुरिसे वेसत्तणं वि रमणिज्जम्।
जणणिन्दिए उण जणे पिअत्तणेणावि लज्जामो॥४०॥
*
*ते विरलाः सत्पुरुषा येऽभण्यमाना घटयन्ति कार्यकलापान्।
स्तोका एव तेऽपि द्रुमा येऽज्ञातकुसुमनिर्गमा ददति फलम्॥
सकलोद्द्योतितवसुधे समस्तजीवलोकविस्तीर्यमाणप्रतापे।
तिष्ठति न चिरं रवाविव विधानपतितापि मलिनता सत्पुरुषे॥
अनुवर्तनं कुर्वन् द्वेष्येऽपि जनेऽभिन्नमुखरागः।
आत्मवशोऽपि सुजनः परवश आभिजात्यस्य॥
विज्ञानगुणमाहात्म्ये पुरुषे द्वेष्यत्वमपि रमणीयम्।
जननिन्दिते पुनर्जने प्रियत्वेनापि लज्जामहे॥
*अवमाणिओ वि (ण) तहा दुम्मिज्जइ सज्जणो विभवहीणो।
पडिकाउं असमत्थो माणिज्जन्तो जह परेहि॥४१॥
सुजणो ण कुप्पइ व्विअ अह कुप्पइ अप्पिअं ण चिन्तेइ।
अह चिन्तेइण जप्पइ अह जप्पइ लज्जिओ होइ॥४२॥
दिढरोसकलुसिअस्स वि सुअणस्स महाहि विप्पिअंकन्तो।
राहुमुहम्मि वि ससिणो किरणा अमुअञ्चिअमुअन्ति॥४३॥
फलसम्पत्तीए समोणआइ तुङ्गाइ फलविपत्तीए।
हिअआइ सुपुरिसाणं महातरूणं व सिहराइ॥४४॥
(एताः सप्तशत्याम्)
पणक्कुडिए वि जलिऊण हुअवहो जलज्जणवटम्मि।
णहु दे परिहरिअं मा विसमदसा सट्ठिआअसप्पुरिसा॥४५॥
अच्छतु अणं सुअणा परोवआरकरणदुल्ललिआ।
सन्ताविअ खललोए सुणिअ गुणेसु पित्त्विज्जन्ति॥४६॥
अड्ढत्तणाइ वालअ होन्ति जलच्छाहा णिग्गुणाणं पि।
सज्जनसिलाहणिज्जा दुक्खं हि गुणा विडप्पन्ति॥४७॥
णवरपिआजच्चिवणिपद्धति विवरिअमुहम्मि सुअणम्मि।
रअणा जप्पिअ उपहिसमो सरन्तो वि दावेइ॥४८॥
पच्चक्खश्चिअणवरं रअणेहि पसाहिओ भावेइ।
होइ गुणमण्डिओ गुणअई समाणो वि रमणिज्जो॥४९॥
महइ सम्मूला ण समुण्णआ ण बहुसउणिसत्थणिलआण।
सप्पुरिसा ण दुमाणं वपरो व आरप्फलारती॥५०॥
*अवमानितोऽपि न तथा दूयते सज्जनो विभवहीनः।
प्रतिकर्तुमसमर्थो मान्यमानो यथा परैः॥
सुजनो न कुप्यत्येवाथ कुप्यत्यप्रियं न चिन्तयति।
अथ चिन्तयति न जल्पत्यथ जल्पति लज्जितो भवति॥
दृढरोषकलुषितस्यापि सुजनस्य मुखाद् विप्रियं कुतः।
राहुमुखेऽपि शशिनःकिरणा अमृतमेव मुञ्चन्ति॥
फलसम्पत्या समवनतानि तुङ्गानि फलविपत्त्या।
हृदयानि सुपुरुषाणां महातरुणामिव शिखराणि॥
दिण्णदुरिदप्प … सणदुमुक्खलं सुअणरक्खसन्तेह्णाम्।
एआरिसं सुपुरिसं धरणिधरं ती कअत्थासि॥५१॥
अकहिज्जन्ता विजणे ण णेअलज्जं वहन्ति काउरिसा।
सप्पुरिसा उण गुणकीत्तणो विलिहिओ ण आहोन्ति॥५२॥
विमलेण विकहव उमा एकसरुह्वस्स सुअणहिअअस्स।
फलिहो फलेण किरइ आसअवसम्भिण्णरूवेण॥५३॥
णे पच्छन्तिअ णेहलवस्स कज्जलग्गाण होन्ति मणअन्ति।
अमुण्णिणिअदसाविसेसा मुअणा रअणप्परएक्ख॥५४॥
अभणन्ताण वि लज्जइ परिमाणं सुपुरिसाण चरिएहि।
किं जप्पन्ति मणीओ जेण सहस्सेण गप्पन्ति॥५५॥
(एसा गाथाकोशे)
इति सुजनपद्धतिः॥
-
*
३२. अथ दुर्जनपद्धतिः।
निर्माय खलजिह्वाग्रं सर्वप्राणहरं नृणाम्।
चकार किं वृथा शस्त्रविष(वह्नीन्) प्रजापतिः॥१॥
वर्जनीयो मतिमता दुर्जनः सख्यवैरयोः।
श्वा भवत्युपघाताय लिहन्नपि दशन्नपि॥२॥
(प्रतापः)
ये मूर्खा ये च मुखरास्ते हि भूत्यवलेपतः।
क्षणसौम्याः पराकाराद्विपर्यासेन गृह्णते॥३॥
(भोजस्य)
यद् यदिष्टतमं देयं तत्तद् गुणवते किल।
अत एव खलो दोषान् साधुभ्यः सम्प्रयच्छति॥४॥
(वल्लभः)
दुर्जनः प्रकृतिं याति सेव्यमानोऽपि नित्यशः।
स्वेदनाभ्यञ्जनोपायैः श्वपुच्छमिव नामितम्॥५॥
किं हि नाम न भिद्येत भिद्यमानं दुरात्मभिः।
परोपघातव्यायामकिणीकृतमुखैर्नरैः॥६॥
दुर्जनो निकृतिप्रायः सेव्यमानो बुधैरपि।
घृष्यमाण इवाङ्गारो निर्मलत्वं न गच्छति॥७॥
(व्यासशतके)
खलेषु सत्(सु नि)र्याता (व)यमार्जयितुं गुणान्।
इयं सा तस्करग्रामे रत्न(क्र)विडम्बना॥८॥
(बृहत्कथायाम् )
कुलीनः प्रायशो लोके तादृशस्योपकारकः।
तिमिरं हि तिरस्कारि तस्करस्योपकारकम्॥९॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
प्रायः प्रकाशतां याति मलिनः साधुबाधया।
नाग्रसिष्यत चेदर्कं कोऽज्ञास्यत् सिंहिकासुतम्॥१०॥
(प्रतापः)
परवाच्येषु निपुणः सर्वो भवति सर्वदा।
आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्यति॥११॥
प्रायः परापकाराय दुर्जनः सततोद्यतः।
अवश्यकरणीयत्वान्न कारणमपेक्षते॥१२॥
(वल्लभदेवस्य )
यथा गजः परिश्रान्तश्छायामाश्रित्य विश्रमेत्।
विश्रम्य तद्द्रुमं हन्यात् तथा नीचः स्वमाश्रयम्॥१३॥
(सोमेश्वरस्य )
श्रुतेनापि हृदिस्थेन खलो न स्यात् सुशीलवान्।
मधुना कोटरस्थेन निम्बः किं मधुरायते॥१४॥
चारुता परदारेभ्यो धनं लोकोपतप्तये।
प्रभुत्वं साधुनाशाय खले खलतरा गुणाः॥१५॥
दुर्जनेनोच्यमानानि वचांसि मधुराण्यपि।
अकालकुसुमानीव त्रासं सञ्जनयन्ति हि॥१६॥
येषां प्राणिवधः क्रीडा नर्म मर्मच्छिदो गिरः।
कार्यं परोपतापित्वं ते मृत्योरपि मृत्यवः॥१७॥
(एते शृङ्गारप्रकाशे)
अहो कुटिलबुद्धीनां दुर्ग्राह्यमसतां मनः।
अन्यन्मनसि कण्ठेऽन्यदन्यदोष्ठपुटे स्थितम्॥१८॥
(व्यासशतके)
दह्यमानाः सुतीक्ष्णेन नीचाः परयशोग्निना।
अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते॥१९॥
न मानं न च सान्त्वं वा न दानं वापि भेषजम्।
अमोघं भेषजं तावत् खलानां खल एव सः॥२०॥
इतो हास्यतरं लोके किञ्चिदन्यन्न विद्यते।
यत्तु दुर्जन इत्याह सज्जनं दुर्जनः स्वयम्॥२१॥
वृथा ज्वलितकोपाग्नेः परुषाक्षरवादिनः।
दुर्जनस्यौषधं नास्ति किञ्चिदन्यदनुत्तरात्॥२२॥
(एते महाभारते)
अहो प्रकृतिसादृश्यं श्लेष्मणां दुर्जनस्य च।
मधुरैः कोपमायाति कटुकैरपि शाम्यति॥२३॥
(सोमेश्वरस्य)
दुर्जनः परिहर्त्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन्।
मणिनालङ्कृतः सर्पः किमसौन भयङ्करः॥२४॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणे)
उपकारोऽपि नीचानामपकाराय कल्पते।
पयःपानं भुजङ्गस्य केवलं विषवर्धनम्॥२५॥
(प्रतापः)
खलजिह्वा च नौका च प्रतिकूलप्रवर्त्तिनी।
प्रतारणाय लोकानां दारुणा केन निर्मिता॥२६॥
(कविवल्लभस्य )
कुर्वते स्वमुखेनैव बहुधान्यस्य खण्डनम्।
नमः पतनशीलाय खलाय मुसलाय च॥२७॥
(चप्फलदेवस्य)
परनिन्दा जन्मफलं परव्यापत्तिरुत्सवः।
परदोषोपलम्भश्च खलानां निधिदर्शनम्॥२८॥
(व्यासशतके)
न बिभेम्यस्तदोषत्वादिति चेतसि मा कृथाः।
गुणिनां गुणवत्तैव वैरहेतुर्दुरात्मनाम्॥२९॥
चिरेण रक्षितस्यापि पोषितस्याप्यधोगतेः।
आर्द्रकस्येव नीचानां कटुत्वं केन खण्ड्यते॥३०॥
परोपघातविज्ञानलाभमात्रोपजीविनाम्।
दाशानामिव धृर्त्तानां जालाय गुणसङ्ग्रहः॥३१॥
(पञ्चतन्त्रे)
तप्यते याति सन्धानं द्रवीभवति नम्यते।
मृदु दुर्जनचित्तेन किं लोहमुपमीयते॥३२॥
(व्यासशतके)
गुणा यत्र न पूज्यन्ते का तत्र गुणिनां गतिः
नग्नक्षपणकग्रामे रजकः किं करिष्यति॥३३॥
(बिल्हणस्य)
गुणैरप्युपनीतानां वाचालानां पदे पदे।
खलानां मेखलानां च जघन्या केवलं स्थितिः॥३४॥
(गोपालस्य )
अधमे सङ्गता लक्ष्मीर्नोपयोगाय कस्यचित्।
कर्दमे पतिता छाया महकारतरोरिव॥३५॥
असतामुपभोगाय दुर्जनानां विभूतयः।
पिचुमन्दः फलाढ्योऽपि काकैरेवोपभुज्यते॥३६॥
(बृहत्कथायाम्)
न क्षुधातृप्तये किञ्चिन्नाधर्मो विद्यते क्वचित्।
तथापि सर्पोदशति दुर्जनानां तथा क्रिया॥३७॥
अपवादादभीतस्य समस्य गुणदोषयोः।
असद्वृत्तेरहो वृत्तं दुर्विभाव्यं विधेरिव॥३८॥
(भारवेः)
विवृण्वती पुरस्तैक्ष्ण्यं पृष्ठतः कुर्वती गुणम्।
कर्णान् विध्यति लोकस्य सूचिवत् सूचकस्य वाक्॥३९॥
(कविराक्षसस्य)
नीचः प्रकृतितीव्रत्वान्मानितोऽपि च बाधते।
शिरसि स्थाप्यमानोऽपि दशत्येव भुजङ्गमः॥४०॥
दुर्जनैः सह सम्पर्कः शत्रुतापि न युज्यते।
गृहीते दह्यतेऽङ्गारे शान्ते कृष्णायते करः॥४१॥
(व्यासशतके)
जीवनग्रहणे नम्रा गृहीत्वा पुनरुन्नताः।
किं कनिष्ठाः किमु ज्येष्ठा घटीयन्त्रस्य दुर्जनाः॥४२॥
(सकलविद्याधरस्य)
शुनां च पिशुनानां च प्रतिवेश्मप्रवेशिनाम्।
प्रयोजनं न जानीमः पात्राणां दूषणादृते॥४३॥
(गोविन्दकवेः )
यथा पुष्करपर्णेषु पतितास्तोयविन्दवः।
न श्लेषमुपगच्छन्ति तथानार्येषु सौहृदम्॥४४॥
प्रशमश्च क्षमा चैव चार्जनं प्रियवादिता।
असामर्थ्यं फलन्त्येते निर्गुणेषु सदा गुणाः॥४५॥
(श्रीरामायणे)
दीयते स्वच्छहृदयैः पिण्डो येनैव पाणिना।
मार्जार इव दुर्वृत्तस्तमेव हि विलुम्पति॥४६॥
(कविवल्लभस्य)
अन्तश्छिद्राणि भूयांसि कण्टका बहवो बहिः।
कथं कमलनालस्य मा भूवन् भङ्गुरा गुणाः॥४७॥
(भल्लटे)
प्रखला एव खलानां प्रशमायालं न जातु सत्पुरुषाः।
कुष्ठव्याधेरौषधम (रूप? रुष्कर)मुशन्त्यनिष्टतमम्॥४८॥
(पञ्चतन्त्रे)
लब्धोदयः खलजनः प्रथमं स्वजने करोति परितापम्।
उद्गच्छन् दवदहनो जन्मभुवं दारु निर्दहति॥४९॥
दूरेऽपि परस्यागसि पटुर्जनो नात्मनः समीपेऽपि।
स्वं व्रणमक्षि न पश्यति शशिनि कलङ्कं निरूपयति॥५०॥
परिवादे दशवदनः पररन्धनिरीक्षणे सहस्राक्षः।
सद्वृत्तवित्तहरणे बाहुसहस्रार्जुनो नीचः॥५१॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
दृढतरनिबद्धमुष्टेः कोशनिषण्णस्य सहजमलिनस्य।
कृपणस्य कृपाणस्य च केवलमाकारतो भेदः॥५२॥
(पञ्चतन्त्रे)
पात्रमपात्रीकुरुते दहति गुणान् स्नेहमाशु नाशयति।
अमले मलं नियच्छति दीपच्छायेव खलमैत्री॥५३॥
अप्यात्मनो विनाशं न गणयति खलः परव्यसनहृष्टः।
प्रायः सहस्रनाशे समरमुखे नृत्यति कबन्धः॥५४॥
(चष्फलदेवस्य)
अतिमथिते कर्त्तव्ये भवति खलानामतीव निपुणा धीः।
तिमिरे हि कौशिकानां रूपं प्रतिपद्यते दृष्टिः॥५५॥
(सुबन्धोः)
हालाहलवज्राशनिकृतान्तपाशाश्रयाशदृष्टिविषान्।
विधिना नूनं सृजता दुर्जनसर्गे कृता योग्याः॥५६॥
(अङ्कावल्यां)
कटु रटति निकटवर्ती वाचाटष्टिट्टिभो यत्र।
अपसरणमेव युक्तं मौनं वा राजहंसस्य॥५७॥
उपकृतिरेव खलानां दोषस्य गरीयसोहेतुः।
अनुकूलाचरणेन हि कुप्यन्ति व्याधयोऽत्यर्थम्॥५८॥
(चष्फलदेवस्य)
सहजान्धदृशः स्वदुर्नये परदोषेक्षणदिव्यचक्षुषः।
स्वगुणोच्चगिरो मुनिव्रताः परवर्णग्रहणेष्वसाधवः॥५९॥
(माघे)
श्रुतिस्मृतिभ्यां सुजनो नियम्यते परापवादेन तु मध्यमो जनः।
कषायसंसाधितशुष्कचर्मवद् वधेन नीचःमुपैति मार्दवम्॥६०॥
(किराते)
किमत्र चित्रं यदि सज्जनो जनः करोति विद्वज्जनसाधुपूजनम्।
करोति यन्नीचकुलोद्भवो जनस्तदद्भुतं शैत्यमिवार्कमण्डले॥६१॥
(पञ्चतन्त्रे)
धूमः पयोधरपदं कथमप्यवाप्य
वर्षाम्बुभिः शमयति ज्वलनस्य तेजः।
दैवादवाप्य कलुषप्रकृतिर्महत्त्वं
प्रायः स्वबन्धुजनमेव तिरस्करोति॥६२॥
परार्थे यः पीडामनुभवति भङ्गेऽपि मधुरो
यदीयः सर्वेषामिह खलु विकारोऽप्यभिमतः।
न सम्प्राप्तो वृद्धिं यदि सदृशमक्षेत्रपतितः
किमिक्षोर्दोषोऽयं न पुनरगुणाया मरुभुवः॥६३॥
आमूलाग्रनिबद्धकण्टकतनुर्निर्गन्धपुष्पोद्गम-
श्छाया न श्रमहारिणी न च फलं क्षुत्क्षामसन्तर्पणम्।
बुर्बूरद्रुमसाधुसङ्गरहितस्तत्तावदास्तामहो
अन्येषामपि शाखिनां फलवतां गुप्त्यै वृतिर्जायसे॥६४॥
(भल्लटे)
चन्दाम असुरतरुकोद्धुहाणजम्मो तहिञ्चेअ।
हालाहलस्स जाई सुअणो वलवञ्जिआ कत्तो॥६५॥
सुअणो मुहा किलम्मइ हरइ खलच्चेअण परव(हु?हू) हिअ-[अम्।
तरुणोपलालगलहि उन्तरइकरण्ण उण पञ्चमुहो॥६६॥
के वि कअपरिभवं चिअ वहन्ति णहु अण्णहा पसहा।
पाएसि पेक्खिआसञ्चरन्ति करिणो ण हत्थेहि॥६७॥
सुअणत्तणं णकेण वि अन्तो मइलाणतिरए काउम्।
सीसेण वहन्तस्स व हरस्मकोच्चिअ मिअंको॥६८॥
आ अधरविआह वि कुउरिसाण सज्जणरहस्स भणिआइ।
अपहुप्पन्ता लच्चिअ फलहुअन्तिहिअएवलाणन्ति णिद्दोसो[॥ ६९॥
णहु कोइ वि णहु कोइ सच्चाहा गुणविमुक्को।
छीरसमुद्देपि विसं रअणाइ विसहरसिरम्मि॥७०॥
मन्दं पेच्छन्ति सुणन्ति किं विधो अञ्चिरेण कुप्पन्ति।
दिण्णा खखाणवाही विहिणा विभवापदेसेण॥७१॥
पुरिसा जं गुणरहिआ कुलेण गव्वं वहन्ति दे मूढाः।
पंसुप्पण्णं वि धणं गुणरहिअं भणह किं कुणइ॥७२॥
पुरिसाणा कुलीणाण वि ण कुलं विणअस्स कारणं होइ।
मइरामअलच्छिसहोअरं पि मारेइ किं ण विसम्॥७३॥
विद्दविआ गुणदोसे कवाअ डोहेण खणतत्तिलो।
दिव्वो वखलोण आसणसण्ठिअण्णमइलेइ॥७४॥
वद्धरमइ आच्छिअ रअणाइजिआ विअविखिद्देवेण।
जाणं खलअणचिन्ता खविअं हिअअं ण णिम्मविअम्॥७५॥
धण्णा बहिरद्धलआ दोच्चिअ जीयन्ति माणुसा खोए!
ब सुणन्ति पिसुणवअणं खलिस्सिद्धं ण पेच्छन्ति॥७॥
मइलामअन्धणअणदूरत्तो सन्तु दुअणमाअगा।
जे वि परिअत्तजीहापच्छासण्णापरं भयं देन्ति॥७७॥
(गाथाकोशे)
*मा वच्छह विस्सम्भं पमुहे बहुचाडुअम्मणिउणाण।
णिव्वत्तिअकज्जपरम्मुहाण सुगआण व खलाण॥७८॥
अउलीणो दोमुहओ ता महुरो भोअणं मुहे जाव।
मुखो व्व खलो जिण्णम्मि भोअणे विरसमारसइ॥७९॥
(सप्तशत्याम्)
इति दुर्जनपद्धतिः॥
*मा व्रजत विस्रम्भं प्रमुखे बहुचाटुकर्मनिपुणानाम्।
निर्वर्तितकार्यपराङ्मुखानां शुनकानामित्र खलानाम्॥
अकुलीनो द्विमुखस्तावन्मधुरो भोजनं मुखे यावत्।
मुख इव खलो जीर्णे भोजने विरसमारसति॥
३३. अथ युगप्रशंसापद्धतिः।
कृतं नाम युगं तात! यत्र धर्मः सनातनः।
कृत एव न कर्त्तव्यं तस्मिन् काले युगोत्तमे॥१॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च कृतलक्षणाः।
कृते युगे समभवन् स्वधर्मनिरताः प्रजाः॥२॥
यावद्यावदभूच्छ्रद्धा देहं धारयितुं नृणाम्।
तावत् तावच्च जीवन्तो नासीद् यमकृतं भयम्॥३॥
न तस्मिन् युगसंसर्गे व्याधयो नेन्द्रियक्षयः।
नासूया नापि रुदितं न दर्पो नापि पैशुनम्॥४॥
ततस्त्रेतायुगं नाम त्रयी यत्र भविष्यति।
प्रोक्षिता यत्र पशवो धर्म प्राप्स्यन्ति वै मखे॥५॥
ततो वै द्वापरं नाम मिश्रः कालो भविष्यति।
द्विपादहीनो धर्मश्च युगे तस्मिन् भविष्यति॥६॥
न च विक्रीयते ब्रह्म ब्राह्मणैश्च तदा नृप!।
न च शूद्रसमभ्याशे वेदानुच्चारयन्त्युत॥७॥
कलौ जगत्पतिं विष्णुं सर्वस्रष्टारमीश्वरम्।
नार्चयिष्यन्ति मैत्रेय! पाषण्डोपहता जनाः॥८॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
कलेरन्ते भविष्यन्ति नररूपेण राक्षसाः।
मनुष्यान् भक्षयिष्यन्ति वित्ततो न शरीरतः॥९॥
अट्टशूला जनपदाः शिशूलाश्चतुष्पथाः।
केशशूलाः स्त्रियश्चैव भविष्यन्ति कलौ युगे॥१०॥
प्रायशः कृपणानां च तथा बन्धुमतामपि।
विधवानां च वित्तानि हरिष्यन्तीह मानवाः॥११॥
आक्रम्याक्रम्य साधूनां दारांश्चैव धनानि च।
भोक्ष्यन्ति निरनुक्रोशा रुदतामपि भारत!॥१२॥
परमायुश्च भवति तदा वर्षाणि षोडश।
ततः प्राणान् विमोक्ष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते॥१३॥
क्रयविक्रयकालेच सर्वः सर्वस्य वञ्चनाम्।
युगान्ते भरतश्रेष्ठ! वृत्तिलोभात् करिष्यति॥१४॥
(महाभारते)
नष्टा श्रुतिः स्मृतिर्लुप्ताप्रायेण पतिता द्विजाः।
मलेननाशिताः शिष्टा हा वृद्धो वर्धते कलिः॥१५॥
(माधवस्य )
प्राप्ते कलौराजनि चार्यलुब्धे धनेन किं जीवितमेव रक्ष।
किं नैष लाभो यदि सौनिकेन मुच्येत मेषो हृतसर्वरोमा॥१६॥
गुणार्जनक्लेशमपार्थकं त्यज प्रगल्भतामाश्रय जीव्यते यया।
गतः स कालः सह साधुचेष्टितैरकृत्रिमैर्यत्र गुणैर्विजृम्भितैः[॥१७॥
अहृतहृदयाः सन्तः सत्यं ब्रवीमि निशम्यतां
विपिनमधुना गत्वा वासो मृगैः सह कल्प्यताम्।
सुजनचरितध्वंसिन्यस्मिन् खलोदयशालिनि
प्रभवति कलौ नायं कालो गृहेषु भवादृशाम्॥१८॥
कपटपटुता द्रोहे चित्तं सतां च विमानना
मतिरपनये शाठ्यं मित्रे सुतेष्वपि वञ्चना।
कृतकमधुरा वाक् प्रत्यक्षं परोक्षविघातिनी
कलियुगमहाराजस्यैताः स्वराज्यविभूतयः॥१९॥
(पञ्चतन्त्रे)
इति युगप्रशंसापद्धतिः॥
-
*
३४. अथ कर्मप्रशंसापद्धतिः।
इह यत् क्रियते कर्म तत् परत्रोपयुज्यते।
सिक्तमूलस्य वृक्षस्य फलं शाखासु दृश्यते॥१॥
(व्यासशतके)
अर्था गृहे निवर्त्तन्ते श्मशाने मित्रबान्धवाः।
सुकृतं दुष्कृतं चैव गच्छन्तमनुगच्छति॥२॥
(महाभारते)
अदीर्घदर्शिभिर्मूढैः क्रूरैरैन्द्रियकैरपि।
हसद्भिः क्रियते कर्म रुदद्भिरनुभूयते॥३॥
यथा छायातपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम्।
तथा कर्म च कर्त्ता च सम्बद्धौ सर्वजन्तुषु॥४॥
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्।
तथा पूर्वकृतं कर्म कर्त्तारमनुगच्छति॥५॥
अष्वोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च।
स्वकालं नातिवर्त्तन्ते तथा कर्माणि देहिनाम्॥६॥
यं यमिच्छेद् यथाकामं तं तमेव तथाप्नुयात्।
यदि न स्या(त्) पराधीनं पुरुषस्य क्रियाफलम्॥७॥
न बुद्धिर्धनलाभाय न जाल्यमसमृद्धये।
कर्मपर्यायवृत्तान्तं प्राज्ञो जानाति नेतरः॥८॥
(व्यासशतके)
यः करोति नरः पापं न तस्यात्मा ध्रुवं प्रियः।
आत्मनैव कृतं पापमात्मनैवोपभुज्यते॥९॥
विपत्तौ किं विषादेन सम्पत्तौ विस्मयेन किम्।
भवितव्यं भवत्येव कर्मणामीदृशी गतिः॥१०॥
मनोनुकूलाः प्रमदा रूपवत्यः स्वलङ्कृताः।
वासः प्रासादपृष्ठेषु भवन्ति शुभकर्मणाम्॥११॥
अन्यथा शास्त्रगर्भिण्या धिया धीरोऽर्थमीहते।
स्वामिवत् प्राक्तनं कर्म विदधाति तदन्यथा॥१२॥
महच्च फलवैषम्यं दृश्यते कर्मसन्धिषु।
वहन्ति शिविकामन्ये यान्त्यन्ये शिविकां गताः॥१३॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
बहवः सम्मदृश्यन्ते तुल्यनक्षत्रसम्भवाः।
महच्च फलवैषम्यं दृश्यते कर्मसन्धिषु॥१४॥
शयानं चानुशयति तिष्ठन्तं चानुतिष्ठति।
अनुधावति धावन्तं कर्म पूर्वकृतं नरम्॥१५॥
बहुशश्चाग्निसङ्क्रान्तं लोहं शुचितमं यथा।
बहुदुःखाभिसन्तप्तस्तथात्मा शोध्यते बलात्॥१६॥
(महाभारते)
वृद्धि हानिं सुखं दुःखं सच्चासच्चाभयं भयम्।
यौगपद्येन भुञ्जाना दृश्यन्ते कर्मसाक्षिणः॥१७॥
उष्णीषवान् यथा वस्त्रैस्त्रिभिर्भवति संवृतः।
संवृतोऽयं तथा देही सत्वराजसतामसैः॥१८॥
यो हि मोहाद्विषं पीत्वा नावगच्छति मानवः।
परिणामे स वै मूढो जानीते कर्मणः फलम्॥१९॥
कस्यचिन्नहि दुर्बुद्धेश्छन्दतो जायते मतिः।
यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते॥२०॥
यथा फलानां पक्वानां नान्यत्र पतनाद्भयम्।
एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद् भयम्॥२१॥
(इतिहासे)
आजन्मनो विहितभक्तिरनन्यनाथः
सारथ्यकर्मणि च दक्षतया नियुक्तः।
नाद्याप्यवाप चरणावरुणोऽपि सूर्यात्
पुण्यैर्विना नहि भवन्ति मनीषितानि॥२२॥
नैवाकृतिः फलति नैव कुलं न शीलं
विद्यासहस्रगुणिता न च वाग्विशुद्धिः।
कर्माणि पूर्वशुभसञ्चयसञ्चितानि
काले फलन्ति पुरुषस्य महाफलानि॥२३॥
(विदग्धजनवल्लभायाम्)
नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा
विधिर्षन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मान्तफलदः।
फलं कर्मायत्तं यदि किममरैः किञ्च विधिना
नमस्तत् कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति॥२४॥
(काव्यप्रकाशे)
काऊणमणं दीणत्तभिमाकुणह गरह णिज्जाह।
जज्झस्स अलिअहिन्तं तस्स ण को विइप्पसह॥२५॥
(गाथाकोशे)
इति कर्मप्रशंसापद्धतिः॥
-
*
३५. अथ विधिप्रशंसापद्धतिः।
ब्रह्मणः स्तम्बभावं वा स्तम्बस्य ब्रह्मतामपि।
स्वेच्छया विदधानस्य नातिभारः पिनाकिनः॥१॥
(महाभारते)
गुणाः खलु गुणा एव न गुणाः फलहेतवः।
अर्थसञ्चयकर्त्तृणि भाग्यानि पृथगेव हि॥२॥
आत्मायत्ते गुणाधाने नैर्गुण्यं वचनीयता।
दैवायतेषु वित्तेषु पुंसः का नाम वाच्यता ॥३॥
करोतु नाम नीतिज्ञो व्यवसायांस्ततस्ततः।
फलं पुनस्तदेवास्य यद् विधेस्तु मनःस्थितम्॥४॥
(पञ्चतन्त्रे)
कर्तुरिष्टमनिष्टं वा कः प्रभुर्विधिना विना।
कर्त्तारमन्यमारोप्य लोकस्तुष्यति कुध्यति ॥५॥
(वल्लभदेवस्य)
न देवा यष्टिमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् ।
यं हि रक्षितुमिच्छन्ति बुद्धया संयोजयन्ति तम् ॥६॥
(महाभारते)
यो गर्भगतस्यापि वृत्तिं कल्पितवान् प्रभुः।
शेषवृत्तिविधाने तु किं सुप्तः सोऽथवा मृतः ॥७॥
साक्षान्मघवतः पौत्रः पुत्रो गाण्डीवधन्वनः।
स्वस्त्रीयो वासुदेवस्य तं गृधाः पर्युपासते ॥८॥
भाग्यवन्तं प्रसूयध्वं मा शूरं मा च पण्डितम्।
शूराश्च पण्डिताश्चैव मम पुत्रा वनं गताः॥९॥
(महाभारते)
नीलकण्ठं समासाद्य वासुकिर्वायुभक्षणः।
प्राप्यापि महतां स्थानं फलं भाग्यानुसारि यत्॥१०॥
आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।
पञ्चैतानि निषिच्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः॥११॥
तद्धनुस्तानि शस्त्राणि स रथस्ते च वाजिनः।
सर्वमेकपदे नष्टं दानमश्रोत्रिये यथा॥१२॥
अप्रार्थितानि दुःखानि यथैवायान्ति देहिनाम्।
सुखान्यपि तथा मन्ये दैन्यमत्रातिरिच्यते॥१३॥
मनसा यदपि स्पृष्टं दूरादपि यदुज्झितम्।
तदप्युपायैर्विविधैर्विधिरिच्छन् प्रयच्छति॥१४॥
(रुद्रस्य)
दैवोपसृष्टः पुरुषो यत् कर्म कुरुतेऽनिशम्।
कृतं कृतं हि कर्मैतद् दैवेन विनिहन्यते॥१५॥
दग्धमेवानुदहति हतमेवानुहन्यते।
नश्यते नष्टमेवाग्रे लब्धव्यं लभते नरः॥१६॥
अन्नपानानि जीर्यन्ते यत्र भक्षाश्चभक्षिताः।
तस्मिन्नेवोदरे गर्भः किं नाम न विजीर्यते॥१७॥
(महाभारते)
रागो योगस्तथा दाक्ष्यं नयश्चेत्यर्थसाधकाः।
उपायाः पण्डितैः प्रोक्तास्ते तु दैवं समाश्रिताः॥१८॥
यं भारं पुरुषो वोढुं मनसा हि व्यवस्यति।
दैवमेव ध्रुवं तस्य साहाय्यायोपपद्यते॥१९॥
कृतप्रज्ञोऽकृतप्रज्ञो बालो वृद्धश्चमानवः।
ससहायोऽसहायोवा सर्वः सर्वं न विन्दति॥२०॥
यदि स्यात् पुरुषः कर्त्ताप्यात्मनः श्रेयसे ध्रुवम्।
आरम्भस्तस्य (वि?सि)ध्येयुर्न च जातु पराभवः॥२१॥
उपर्युपरि लोकस्य सर्वो भवितुमिच्छति।
यतते च यथाशक्ति न च तद्वर्त्तते तथा॥२२॥
स एव बलवान् भूत्वा मृदुर्भवति दुर्बलः।
स ए(वै?वे)शश्च भूत्वेह परैराज्ञाप्यते पुनः॥२३॥
बुद्धिमन्तं च मूढं च शूरं भीरुं कपिञ्जलम्।
दुर्बलं बलवन्तं च भागिनं भजते सुखम्॥२४॥
न विधिं ग्रसते प्रज्ञा प्रज्ञां तु ग्रसते विधिः।
विधिपर्यागतानर्थान् प्रज्ञया परिपश्यति॥२५॥
यथा वायोस्तृणाग्राणि वशं यान्ति बलीयसः।
धातुरादेशमायान्ति (य?त)था भूतानि भारत!॥२६॥
नियतिः कारणं लोके नियतिः कर्मसाधनम्।
नियतिः सर्वभूतानां नियोगेष्विह कारणम्॥२७॥
सुखदुःखे भयक्रोधौ भावाभावौ नयानयौ।
यच्च किञ्चित् तथाभूतं ननु दैवस्य कर्म तत्॥२८॥
(रामायणे)
स्वयमाहृत्य भुञ्जाना बलिनोऽपि स्वभावतः।
नरेन्द्राश्च गजेन्द्राश्च प्रायः सीदन्ति दुःखिताः॥२९॥
शूराश्च बलवन्तश्च कृतास्त्राश्चनरा रणे।
कालाभिपन्नाः सीदन्ति यथा सैकतसेतवः॥३०॥
(मुद्राराक्षसे)
नेवार्थेन न कामेन विक्रमेण न चाज्ञया।
शक्या दैवगतिर्लोके निवर्तयितुमुद्यता॥३१॥
यथा दारुमयीं योषां नरो धीरः समाहितः।
इङ्गयत्यङ्गमङ्गानि तथा विधिरिमाः प्रजाः॥३२॥
मणिः सूत्र इव प्रोतः नस्योत इव गोवृषः।
धातुरादेशमन्वेति तन्मयो हि तदर्पणः॥३३॥
अज्ञो जन्तश्च नीचोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा॥३४॥
आर्ये कर्मणि युञ्जानः पापे वा पुनरीश्वरः।
व्याप्य भूतानि चरते न चायमिति लक्ष्यते॥३५॥
सम्प्रयोज्य वियोज्याथ कामकारकरः प्रभुः।
क्रीडते भगवान् भूतैर्बाल क्रीडनकैरिव॥३६॥
वैद्याश्चाप्यातुराः सन्ति बलवन्तश्च दुर्बलाः।
श्रीमन्तश्चापरे षण्डा विचित्रो विधिपर्ययः॥३७॥
सन्ति पुत्राः सुबहवो दरिद्राणामनिच्छताम्।
बहूनामिच्छतां नास्ति समृद्धानां विचेष्टताम्॥३८॥
(महाभारते)
पिबन्ति मधु पद्मेषु भृङ्गाः केसरधूसरम्।
हंसाः शैवलमश्नन्ति धिग् दैवमसमञ्जसम्॥३९॥
(वल्लभदेवस्य)
उत्पलस्यारविन्दस्य मत्स्यस्य कुमुदस्य च।
एकयोनिप्रसूतानां तेषां गन्धः पृथक् पृथक्॥४०॥
(प्रतापरुद्रीये)
कृतान्तपाशबद्धानां दैवोपहतचेतसाम्।
बुद्धयः कुब्जगामिन्यो भवन्ति महतामपि॥४१॥
(पञ्चतन्त्रे)
दैवमेव परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम्।
एकादशचमूभर्त्ता यदेकाकी वनं गतः॥४२॥
प्राप्तव्यान्येव प्राप्नोति गन्तव्यान्येव गच्छति।
लब्धव्यान्येव लभते दुःखानि च सुखानि च॥४३॥
(महाभारते)
किञ्चिद् दैवेन सौमित्रे! योद्धुमुत्सहते पुमान्।
यस्य न ग्रहणं किञ्चित् कर्मणोऽन्यत्र दृश्यते॥४४॥
सर्व एव महाभाग! महत्त्वं प्रति सोद्यमाः।
तथापि पुंसां भाग्यानि नोद्यमा बुद्धिहेतवः॥४५॥
(श्रीरामायणे)
औदासीन्यं दयालूनामर्थिनां भाग्यहीनता।
नहि स्वमुखवैरूप्यं दर्पणस्यापराधतः॥४६॥
अलिरनुसरति परिमलं लक्ष्मीरनुसरति नवगुणसमृद्धिम्।
निम्नमनुसरति सलिलं विधिलिखितं बुद्धिरनुसरति॥४७॥
द्वीपादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात्।
आनीय झटिति घटयति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः॥४८॥
(रत्नावल्याम्)
प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विकलत्वमेति बहुसाधनता।
अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न पतिष्यतः करसहस्रमपि॥४९॥
(माघे)
यत्रानेकः क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको
यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र नैकोऽपि चास्ते।
इत्थं नेयौ रजनिदिवसौ डोलयन्द्वाविवाक्षौ
कालः कल्यो भुवनफलके क्रीडति प्राणिशारैः॥५०॥
(भर्तृहरैः)
रज्ज्वा दिशः प्रवितताः सलिलं विषेण
खाता मही हुतभुजा ज्वलिता वनान्ताः।
व्याधाः पदान्यनुचरन्ति गृहीतचापाः
कं देशमाश्रयतु यूथपतिर्मृगाणाम्॥५१॥
(भल्लटे)
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति च प्रभातं
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजं च।
एवं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे
हा ! हन्त! हन्त!नलिनीं गज उज्जहार॥५२॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
बाली यथाविनिहतः प्रथितप्रभावो
दग्धा यथैककपिना प्रसभं च लङ्का।
तीर्णो यथा जलनिधिर्गिरिसेतुना च
मन्ये यथाभिलषितं चपलस्य धातुः॥५३॥
(अङ्कावल्याम्)
अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा
यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा।
तृणेन वात्येव तयानुगम्यते
जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना॥५४॥
(खण्डनकारस्य)
अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं
सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।
जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः
कृतप्रयत्नोऽपि गृहे न जीवति॥५५॥
(इतिहासे)
पौलस्त्यः स किमन्यदारहरणे दोषं न विज्ञातवान्
काकुत्स्थेन कथं न हेमहरिणस्यासम्भवो लक्षितः।
अक्षाणां न युधिष्ठिरेण महता दृष्टोऽपि पापः कथं
ज्ञातॄणामपि दैववञ्चितधियां प्रायो मतिः क्षीयते॥५६॥
(सुवर्णविस्तारस्य)
हा! धिक्कष्टमहो! गतः स नृपतिः सामन्तचक्रं च तत्
पार्श्वे तस्य च सा विदग्धपरिषत् ताश्चन्द्रबिम्बाननाः।
उद्रिक्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः
सर्वं यस्य वशात् स्मृतेः पदमगात् कालाय तस्मै नमः॥५७॥
(भर्तृहरेः)
इति विधिप्रशंसापद्धतिः॥
३६. अथ दुर्विधिप्रशंसापद्धतिः।
अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिश्च यः।
द्वावेतौ सुखमेधेते यद्भविष्यो विनश्यति ॥१॥
परीक्ष्य सत्कुलं विद्यां वयः शौर्यं सुशीलताम्।
विधिर्ददाति निपुणः कन्यामिव दरिद्रताम् ॥२॥
(वल्लभदेवस्य)
विघटयति राज्यमखिलं घटयति चण्डालदास्यमध्यचिरात्।
किं न करोति स वेधा दुर्वेधा वामतां यातः॥३॥
सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुषरत्नमलङ्करणं भुवः।
तदनु तत् क्षणभङ्गिकरोति चेदहह! कष्टमपण्डितता विधेः॥४॥
(फल्गुहस्तिन्याम्)
स्वप्नेऽपि देवि! रमसे न मया विना त्वं
(स्था?स्वा)पे त्वया विरहि(तं?तो ) मृतवद् भवामि।
दूरीकृतासि विधिदुर्ललितैस्तथापि
जीवत्यवेहि मन इत्यसवोदुरन्ताः॥५॥
(प्रबोधचन्द्रोदये)
अलङ्कारः शङ्काकरनरकपालं परिजनो
विशीर्णाङ्गो भृङ्गी वसु च वृष एको गतवयाः।
अवस्थेयं स्थाणोरपि भवति सर्वामरगुरो-
र्विधौ वक्रेमूर्ध्नि स्थितवति वयं के पुनरमी॥६॥
(अलङ्कारसर्वस्वे)
खर्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्तापिते मस्तके
वाम्छन् देशमनातपं विधिवशात् तालस्य मूलं गतः।
तत्रस्थस्य च तत्फलेन पतता भिन्नं समस्तं शिरः
प्रायो गच्छति यत्र दैवहतकस्तत्रैव यान्त्यापदः॥७॥
(पञ्चतन्त्रे)
इति दुर्विधिप्रशंसापद्धतिः॥
३७. अथ मृत्युप्रशंसापद्धतिः।
श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्नेचापराह्निकम्।
नहि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वा स्यान्नवा कृतम्॥१॥
(महाभारते)
विपत्तिः कालसंजाता दुर्वारा येन केनचित्।
सायं पद्मवने जाता हानिः केन (न?नि)वार्यते॥२॥
यौवनस्थांश्च बालांश्च वृद्धान् गर्भगतानपि।
सर्वानाविशते मृत्युरेवंभूतमिदं जगत्॥३॥
(श्रीरामायणे)
सञ्चिन्वानकमेवेदं कामानाम(पि?वि)तृप्तकम्।
व्याघ्रः पशुमिवारण्ये मृत्युरादाय गच्छति॥४॥
(महाभारते)
न मृत्युरामन्त्रयते हर्त्तुकामो जगत् प्रभुः।
अबुद्ध एवाक्रमते मीनान् मीनग्रहो यथा॥५॥
(रामायणे)
इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम्।
एवमीहासमायुक्तं कृतान्तः कुरुते वशे॥ ६॥
न कालो दण्डमुद्यम्य शिरः कृन्तति कस्यचित्।
कालस्य बलमेतावद् विपरीतार्थदर्शनम्॥७॥
(व्यासशतके)
तुल्यजातिवयोवस्थान् हृतान् पश्यसि मृत्युना।
ननु नामास्ति ते त्रासो लोहं तु हृदयं तव॥८॥
बलिनां दुर्बलानां च ह्रस्वानां महतामपि।
जरामृत्यू हि भूतानां खादितारौ वृकाविव॥९॥
आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव पदे पदे।
आसन्नतरतां याति मृत्युर्जन्तोर्दिने दिने॥१०॥
गतेभ्यो बहुमन्यन्ते दिवसानागमिष्यतः।
मूढा न गणयन्त्येतान् मृत्योरासन्नचारिणः॥११॥
ऐश्वर्ये वा सुविस्तीर्णे व्यसने वातिदारुणे।
रज्ज्वेव पुरुषं बद्ध्वा कृतान्तः परिकर्षति॥१२॥
मातुलो यस्य गोविन्दः पिता यस्य धनञ्जयः।
अभिमन्युर्वधं प्राप्तः कालो हि दुरतिक्रमः॥१३॥
(महाभारते)
मस्तकस्थायिनं मृत्युं यदि पश्येदयं जनः।
आहारोऽपि न रोचेत किमुताकार्यकारिता॥१४॥
(ब्रह्माण्डपुराणे)
विदेशे वर्त्मनि गृहे हायने मासि वासरे।
जरायां यौवने बाल्ये मृत्युः प्राशयति प्रजाः॥१५॥
गुणिनां हीनविद्यानां श्रीमतां क्षीणसम्पदाम्।
कृतान्तपण्यशालायां समानः क्रयविक्रयः॥१६॥
माता पुत्रः पिता भ्राता भार्या बन्धुजनस्तथा।
अष्टापदपदस्थाने ह्यक्षमुद्रेव दृश्यते॥१७॥
(महाभारते)
संनिमज्जेज्जगदिदं गम्भीरे कालसागरे।
जन्ममृत्युजराग्राहे न कश्चिदवबुध्यते॥१८॥
सहैव मृत्युर्व्रजति सह मृत्युर्निषीदति।
गत्वा तु दीर्घमध्वानं सह मृत्युर्निवर्त्तते॥१९॥
तृष्णासूचिविनिर्भिण्णं सिक्तं विषयसर्पिषा।
रागद्वेषानले तप्तं मृत्युरश्नाति मानवम्॥२०॥
शुष्काणि दिनखण्डानि निप(न्तति?तन्ति) जनाग्रतः।
आयुषः खण्ड्यमानानि मृत्युना किं न पश्यसि॥२१॥
प्रायेणाकृतकृत्यत्वान्मृत्युमुद्विजते जनः।
कृतकृत्याः प्रतीक्षन्ते मृत्युं प्रियमिवातिथिम्॥२२॥
बीजं पिता क्षेत्रमिदं च माता वृष्टिश्च कर्माणि शुभाशुभानि।
भूतानि सस्यप्रतिमानि लोके जातानि जातानि लुनाति कालः॥२३॥
अस्मिन् जगत्यण्डकटाहमध्ये सूर्याग्निना रात्रिदिनेन्धनेन।
मासर्त्तुदर्वीपरिघट्टनेन भूतानि कालः पचतीति वार्त्ता॥२४॥
किं शक्यं सुमतिमतापि तत्र कर्तुं
यत्रासौ व्यसनमहोदधिः कृतान्तः।
रात्रौ वा दिवसकरेऽपि वा स उग्रे
योऽदृश्यः प्रहरति तेन को विरोधः॥२५॥
(पञ्चतन्त्रे)
इति मृत्युप्रशंसापद्धतिः
धर्मपर्व समाप्तम्॥
३८. अथ राजलक्षणपद्धतिः।
पुत्रा इव पितुर्गेहे विषये यस्य मानवाः।
निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तमः॥१॥
अगूढविभवा यस्य (पु?पौ)रा राष्ट्रनिवासिनः।
नयापनयवेत्ता यः स राजा राजसत्तमः॥२॥
प्रजा यस्य विवर्धन्ते सरसीव महोत्पलम्।
स राजा सर्वसुखदः स्वर्गलोके महीयते॥३॥
यस्य वृत्तं नमस्यन्ति स्वर्गस्थस्यापि मानवाः।
पौरजानपदाः सर्वे स राजा राजसत्तमः॥४॥
(एते महाभारते)
इति राजलक्षणपद्धतिः॥
३९. अथ राजप्रशंसापद्धतिः।
राजानं प्रथमं विन्देत्ततोभार्यां ततो धनम्।
राजन्यसति लोकस्य कुतो भार्या कुतो धनम्॥१॥
देवा मानुषरूपेण चरन्त्येते महीतले।
तान् न हिंस्यान्न चाक्रोशेन्नाक्षिपेन्नाप्रियं वदेत्॥२॥
(श्रीरामायणे)
यस्य प्रसादे पद्मा श्रीर्विजयश्च पराक्रमे।
मृत्युश्च वसति क्रोधे सर्वतेजोमयो हि सः॥३॥
यस्याभावेन भूतानामभावः स्यात् समन्ततः।
भावे च भावो नियतः कस्तं न प्रतिपूजयेत्॥४॥
(मनोः)
पर्जन्य इव भूतानामाधारः पृथिवीपतिः।
विकलेऽपि हि पर्जन्ये जीव्यते न तु भूपतौ॥५॥
यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ्नेता ततः प्रजाः।
अकर्णधारा बलवद् विप्लवे(ने?ते)ह नौरिव॥६॥
(कामन्दके)
राजा माता पिता चैव राजा कुलवतां कुलम्।
राजा सत्यं च धर्मश्च राजा हितकरो नृणाम्॥७॥
(रामायणे)
एकस्य हि प्रसादेन कृत्स्नो लोकः प्रसीदति।
व्याकुलेनाकुलः सर्वो भवतीति विनिश्वयः॥८॥
अतस्त्वष्टाङ्गया बुद्ध्या नृपतिर्नीतिशास्त्रवित्।
समर्थः पृथिवीं कृत्स्नामपि जेतुं विचक्षणः॥९॥
(चाक्षुषीये)
राजमूलो महाराज !धर्मो लोकस्य रक्ष्यते।
प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम्॥१०॥
कालो वा कारणं राज्ञोराजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम्॥११॥
(महाभारते)
न कुलं न धनं नाज्ञा नाचारो हि भवेन्नृणाम्।
अराजकेषु लोकेषु तस्माद् राजा परा गतिः॥१२॥
(मनोः)
यथा दृष्टिः शरीरस्य नित्यमेव प्रवर्त्तने।
तथा नरेन्द्रो लोकस्य प्रभवः सत्यधर्मयोः॥१३॥
(रामायणे)
माता पिता गुरुः शास्ता वह्निर्वैश्रवणो यमः।
सप्त राजगुणानेतान् मनुराह प्रजापतिः॥१४॥
पिता हि राजा लोकस्य प्रजानां योऽनुकम्पिता।
सम्भावयति मातेव दिनमभ्यवपद्यते॥१५॥
गुरुर्धर्मोपदेशेन शास्ता च परिपालनात्।
दहत्यग्निरिवानिष्टान् दमयत्यहितांस्तथा॥१६॥
इष्टेषु विसृजत्यर्थान् कुबेर इव कामदः।
नमस्येयुश्च तं भक्त्या शिष्या इव गुरुं सदा॥१७॥
अष्टानां लोकपालानां सम्भवत्यंशतो नृपः।
तस्मादभिभवत्येष सर्वभूतानि तेजसा॥१८॥
बालोऽपि नावमन्तव्यो राजापत्यं प्रतीच्छता।
वह्निः स्फुलिङ्गमात्रोऽपि दहेद् ग्राममुपेक्षितः॥१९॥
(महाभारते)
इन्दोरगतयः पद्मे सूर्यस्य कुमुदेंऽशवः।
गुणास्तस्य विपक्षेऽपि गुणिनो लेभिरेऽन्तरम्॥२०॥
(कालिदासस्य)
बुद्धिशस्त्रः प्रकृत्यङ्गो घनसंवृतिकञ्चुकः।
चारेक्षणो दूतमुखः पुरुषः कोऽपि पार्थिवः॥२१॥
(माघे)
तेजसा सह जातानां वयः कुत्रोपयुज्यते।
बालस्यापि रवेः पादाः पतन्त्युपरि भूभृताम्॥२२॥
(व्यासशतके)
बालोऽपि नावमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः।
महती देवता ह्येष नररूपेण तिष्ठति॥२३॥
(मनोः)
श्रीः श्लाघ्या तस्य भूभर्त्तुर्द्वारि यस्य न सीदति।
दुर्बलः करुणाक्रन्दी बलवत्पीडितो जनः॥२४॥
(चाक्षुषीये)
स्तवैर्नाक्षिप्यतेधूर्त्तैर्हास्यैर्नाक्षिप्यते विटैः।
छ(न्देन?न्दैर्न) लङ्घ्यते (भृ)त्यैर्भूभृन्मेरुरिवाचलः॥२५॥
(राजग)
राजास्य जगतो हेतुर्बुद्धेर्बुद्धाभिसम्मतः।
नयनानन्दजननः शशाङ्क इव तोयधेः॥२६॥
(कामन्दके)
कोष्ठागारं कोशगृहं पुण्यश्लोकः पुरूरवाः।
हस्तं दक्षिणमेवासौ ब्राह्मणानाममन्यत॥२७॥
(महाभारते)
सत्येन लोकान् जयति दीनान् दानेन राघवः।
गुरून् शुश्रूषया वीरो धनुषा युधि शात्रवान्॥२८॥
(श्रीरामायणे)
आहूतस्याभिषेकाय निसृष्टस्य वनाय च।
न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः॥२९॥
(कालिदासस्य)
द्विः शरं न तु सन्धत्ते द्विः स्थापयति नाश्रितान्।
द्विर्ददाति न चार्थिभ्यो रामो द्विर्नाभिभाषते॥३०॥
निवासवृक्षः साधूनामापन्नानां परा गतिः।
आर्त्तानां संश्रयश्चैव यशसश्चैकभाजनम्॥३१॥
प्रियवादी च भूतानां सत्यवादी च राघवः।
बहुश्रुतानां वृद्धानां ब्राह्मणानामुपासिता॥३२॥
(श्रीरामायणे)
अतिसाहसिकं शूरा मन्त्रिणस्तं निरूपकम्।
विनीतं गुरवो जज्ञुर्धूर्त्तमन्तःपुराङ्गनाः॥३३॥
(वीरचरिते)
आनृशंस्यमनुक्रोशः श्रुतं शीलं दमः शमः।
राघवं शोभयन्त्येते षड् गुणाः पुरुषोत्तमम्॥३४॥
(श्रीरामायणे)
येन येन वियुज्यन्ते प्रजाः स्निग्धेन बन्धुना।
स स पापादृते तासां दुष्यन्त इति घुष्यताम्॥३५॥
तेनार्थवांल्लाभपराङ्मुखेन तेन घ्नता विघ्नभयं क्रियावान्।
तेनास लोकः पितृमान् विनेत्रा तेनैव शोकापनुदेन पुत्री॥३६॥
(कालिदासस्य)
राजा प्रजानां प्रथमं शरीरं प्रजाश्च राज्ञोऽप्रतिमं शरीरम्।
राज्ञा विहीना न भवन्ति देशा देशैर्विहीना न नृपा भवन्ति॥३७॥
राजा प्रगल्भं पुरुषं करोति राजा भृशं बृंहयते मनुष्यम्।
राजा विपन्नं सुखिनं करोति राज्ञा विपन्नस्य कृतः सुखानि॥३८॥
(महाभारते)
सो को वदणिज्जो जाओ महिमण्डणम्मि उद्देसो।
जन्तो सन्तावहदा चन्दणविडवा समुप्पण्णा॥३९॥
(गाथाकोशे)
इति राजप्रशंसापद्धतिः॥
४०. अथासद्राजपद्धतिः।
उद्वेजनीयो भूतानां नृशंसः पापकर्मकृत्।
त्रयाणामपि लोकानामीश्वरोऽपि न तिष्ठति॥१॥
(रामायणे)
अघृष्टमिव माणिक्कममत्तमिव च द्विपम्।
अशूरं पार्थिवं लोको जात्यमप्यवमन्यते॥२॥
भूभर्त्तुर्भूषणं नास्ति प्रजानामिव रञ्जनम्।
अन्यथा कुनटस्येव किरीटकटकग्रहः॥३॥
(राजग)
अनात्मवान् नयद्वेषी वर्धयन्नरिसम्पदः।
प्राप्यापि महदैश्वर्यं सह तेन विपद्यते॥४॥
(कामन्दके)
भोगिनः कञ्चुकासक्ताः क्रूराः कुटिलगामिनः।
मन्त्रसाध्याश्च राजानो राजानो भुजगा इव॥५॥
प्रजा न रञ्जयेद्यस्तु राजा रक्षादिभिर्गुणैः।
अभागलस्तनस्येव तस्य नाम निरर्थकम्॥६॥
(महाभारते)
वैद्यसांवित्सरामात्या यस्य राज्ञः प्रियंवदाः।
आरोग्यधर्मकोशेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते॥७॥
कामाभिभूतः क्रोधात्मा यो मिथ्या प्रतिपद्यते।
स्वेषु वान्येषु वा तस्य न सहाया भवन्त्युत॥८॥
(पञ्चतन्त्रे)
यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोऽपि सहायताम्।
अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति॥९॥
(मुरारेः)
दूरारूढं पदं राज्ञां सर्वलोकनमस्कृतम्।
अल्पेना(प्यु?प्य)पचारेण ब्राह्मण्यमिवदुष्यति॥१०॥
(कामन्दके)
भदोद्रिक्तः क्रियामूढो योऽतिक्रामति मन्त्रिणः।
अचिरात् तं वृथामन्त्रं वशे कुर्वन्ति शत्रवः॥११॥
सर्वातिशङ्की नृपतिर्यश्च सर्वहरोभवेत्।
सकम्पमनृजुर्लुब्धः स्वजनेनैव बाध्यते॥१२॥
प्रसादो निष्फलो यस्य कोपश्चापि निरर्थकः।
न तं भर्त्तारमिच्छन्ति षण्डं पतिमिव स्त्रियः॥१३॥
प्रजापीडनसन्तापसमुद्भूतो हुताशनः।
राज्ञः श्रियं कुलं प्राणा (ना)दा(य) विनिवर्त्तते॥१४॥
(महाभारते)
अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन्।
अयज्ञो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति॥१५॥
(मनोः)
अ(द)त्तवारं दुर्दर्शमस्वाधीनं नराधिपम्।
वर्जयन्ति नरा दूरं नदीपङ्कमिव द्विपाः॥१६॥
तीक्ष्णमल्पप्रदातारं प्रमत्तं गर्वितं शठम्।
व्यसने सर्वभूतानि नाभिधावन्ति पार्थिवम्॥१७॥
स्वयं कार्याणि यः काले नानुतिष्ठति पार्थिवः।
स तु वै सह राज्येन स्वैश्चकार्यैर्विनश्यति॥१८॥
दुर्विनीते तु नृपतावकाले म्रियते जनः।
राजदोषैर्विपद्यन्ते प्रजास्त्वविधिपालिताः॥१९॥
(श्रीरामायणे)
भोगोत्कर्षातिवेगेन क्षयं यान्ति क्षितीश्वराः।
दृष्टोऽतिहर्षाद् वृष्णीनां तृणाद्वधसमुद्भवः॥२०॥
(श्रीहरिवंशे)
तदेतत् काकतालीयं तदेतद्वै घुणाक्षरम्।
यदपथ्यभुजामायुर्यदनीतिमतां श्रियः॥११॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
मुख्यानमात्यान् योहित्वा विहीनान् कुरुते प्रियान्।
स तैर्व्यसनमागम्य साधुमार्गं न गच्छति॥२२॥
(महाभारते)
उच्छास्त्रपदविन्यासः सहसैवाहिसम्पतः।
शत्रुखड्गमुखग्रासमगत्वा (वि?न) निवर्त्तते॥२३॥
(कामन्दके)
न तथाराजकं राष्ट्रं विनश्यति परिप्लुतम्।
अराजकं यथासद्भिः पाषण्डिभिरधिष्ठितम्॥१४॥
(राजग)
यस्मात् त्रस्यन्ति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव।
सागरान्तामपि महीं लब्ध्वा स परिहयिते॥२५॥
क्षत्रियस्य प्रमत्तस्य दोषः सब्जायते महान्।
अधर्माः सम्प्रवर्त्तन्ते प्रजाः सङ्करकारकाः॥२६॥
(महाभारते)
यः कोशमेव पुष्णाति त्यागभोगपराङ्मुखः।
केवलं राज्यवाणिज्यं स करोति नराधिपः॥२७॥
(राज)
चातुर्वर्ण्यं तथा वेदाश्चातुराश्रम्यमेव च।
सर्वमेतत् प्रमुह्येत यदा राजा प्रमुह्यति॥२८॥
(महाभारते )
व्यालाः सुखेन सेव्यन्ते वातोद्धूताश्च वह्नयः।
न तु नित्यमदाध्माता राजानः कुटिलाशयाः॥२९॥
(बृहत्कथायाम्)
किं करिष्यत्यपात्राणामुपदेष्टा सुवागपि।
तक्षा तीक्ष्णकुठारोऽपि दुर्दा(रू?रु)णि विहन्यते॥३०॥
(वल्लभदेवस्य)
व्यसनैरेवाघ्राताः शृण्वन्ति वचांसि पापमित्राणाम्।
उद्भूतारिष्टेभ्यो ह्यपध्यमेवाधिकं स्वदते॥३१॥
अव्यवसायिनमलसं दैवपरं पुरुषकारपरिहीणम्।
वृद्धमिव पतिं कन्या नेच्छत्युपगूहितुं लक्ष्मीः॥३२॥
यस्यार्थिनो न विमुखाः सर्वार्त्तिहरं यशः स किल राजा।
अभिषेकपट्टबन्धो बालव्यजनं व्रणस्यापि॥३३॥
(राज)
अहिते हितबुद्धिरल्पधीरवमन्येत मतानि मन्त्रिणाम्।
चपलः सहसैव सम्पतन्नरिखद्गाभिहतः प्रबुध्यते॥३४॥
शक्तिरर्थपतिषु स्वयंग्रहं
प्रेम कारयति वा निरत्ययम्।
कारणद्वयमिदं निरस्यतः
प्रार्थनाधिकबले विपत्फला॥३५॥
(भारवेः)
वृद्धापवादी स्वगुणावमर्दी
भक्ताप्तवैरी खलसम्मुखश्च।
विज्ञप्तिमौनी कृपणः प्रमादी
त्याज्यो मदान्धः कृपतिः पिशाचः॥३६॥
(कामन्दके)
न नटा न विटा न गायका न च सभ्येतरवादचुञ्चवः।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः॥३७॥
(भर्तृहरेः)
स्वेच्छोपजातविषयोऽपि न याति वक्तुं
देहीति मार्गणशतैश्च ददाति दुःखम्।
मोहात् समाक्षिपति जीवितमप्यकाण्डे
कष्टो मनोभव इवेश्वरदुर्विदग्धः॥३८॥
(हर्षचरिते)
नृपः कामासक्तो न गणयति धर्मं न च हितं
यथेष्टं स्वच्छन्दः प्रचर(य?)ति (च) मत्तो गज इव।
तपोमानाध्मातः पतति (न?च) यदा शोकगहने
तदा (हृ?भृ)त्ये दोपान्क्षिपति न निजं वेत्यविनयम्॥३९॥
(पञ्चतन्त्रे)
रक्षां न क्षमते क्षिपत्यपि करं शिक्षागुणे क्षुभ्यति
प्रद्वेष्टि स्वजनं त्यजत्यवनतिं मृद्गाति मार्गस्थितान्।
भूमिं नेच्छति यच्छति प्रतिभयं दुर्वर्त्मना गच्छति
क्रूराग्रंविनयाङ्कुशं न सहते भूपालमत्तद्विपः॥४०॥
(राज)
आहूतेषु विहङ्गमेषु मशको नायान् पुरो वार्यते
मध्येवारिधि वा वसंस्तृणमणिर्धते मणीनां रुचिम्।
खद्योतोऽपि न कम्पते प्रचलितुं मध्येऽपि तेजस्विनां
धिक् सामान्यमचेतनं प्रभुमिवानामृष्टतत्त्वान्तरम्॥४१॥
(वल्लभदेवस्य)
भुञ्जन्ति कसणदसणा अब्भन्तरसण्ठिआ गइन्दाण।
जे उण विदुरसहा ते धवला वाहिरवे॥४२॥
कट्ठारि चरणजोग्गकरहविहिवसेण चूदलआ।
तुह मुह पडिआ तेण्णंअसोभणिज्जा जए जाआ॥४३॥
उपरि भुजङ्गा साहासु कण्टआ खुद्दकीडआ हेट्टे।
तुङ्गस्स वि तुह पाअव पहिअअगोकत्थविसम॥४४॥
(गाथाकोशे)
इत्यसद्राजपद्धतिः॥
४१. अथाराजकपद्धतिः।
राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः।
शूले मत्स्यानिवाधक्ष्य(द्) दुर्बलान् बलवत्तरः॥१॥
अराजकेषु राष्ट्रेषु धर्मो न ह्यवतिष्ठते।
परस्परं च बाधन्ते सर्वथा धिगराजकम्॥२॥
(मनोः)
नाराजके जनपदे विद्युन्माली मद्दाखनः।
अभिवर्षतिपर्जन्यो महीं दिव्येन वारिणा॥३॥
नाराजके जनपदे स्वकं भवति कस्यचित्।
नाराजके जनपदे बीजमुष्टिः प्रकीर्यते॥४॥
यथा ह्यनुदका नद्यो यथा वाप्यतृणं वनम्।
अगोपालायथा गावस्तथा राष्ट्रमराजकम्॥५॥
(श्रीरामायणे)
विप्रोषितकुमारं तद्राज्यमस्तमितेश्वरम्।
रन्ध्रान्वेषणदक्षाणां द्विषामामिषतां ययौ॥६॥
(कालिदासस्य)
राज्ञा शून्या कुमारैश्च चोरभोग्या भवेन्मही।
केवलासुरभोग्यैव सन्ध्या चन्द्रार्कवर्जिता॥७॥
यः स्यादराजको लोकश्चक्षुष्मानपि सोऽन्धकः।
तं विना यन्न शक्नोति कृत्याकृत्वनिरीक्षणम्॥८॥
सिंहशून्यमिवारण्यं चन्द्रशून्यमिवाम्बरम्।
अर्कशून्यमिबाहः स्याद्राजशून्यं महीतलम्॥९॥
(चाक्षुषीये)
इत्यराजकपद्धतिः॥
४२. अथ राजविद्यापद्धतिः।
आन्वीक्षिकीं त्रयींवार्त्तां दण्डनीतिं च पार्थिवः।
तद्विद्यैस्तत्क्रियोपेतैश्चिन्तयेद्विनयान्वितः॥१॥
आन्वीक्षिक्यात्मविज्ञानं धर्माधर्मौ त्रयीस्थितौ।
अर्थानर्थौ तु वार्त्तायां दण्डनीत्यां नयानयौ॥२॥
(कामन्दके)
इति राजविद्यापद्धतिः॥
४३. अथ जितेन्द्रियपद्धतिः।
प्रकीर्णे विषयारण्ये धावन्तं विप्रमाथिनम्।
ज्ञानाङ्कुशेन कुर्वीत वश्यमिन्द्रियदन्तिनम्॥१॥
लोकाधाराः श्रियो राज्ञां दुरापाः दुष्परिग्रहाः।
तिष्ठन्त्याप इवाधारे चिरमात्मनि संस्कृते॥२॥
यथाम्भसि प्रसन्ने तु रूपं पश्यति चक्षुषा।
तद्वत् प्रसन्नेन्द्रियवान् ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति॥३॥
जीयन्तां दुर्जया देहे रिपवश्चक्षुरादयः।
जितेषु ननु लोकोऽयं तेषु कृत्स्नस्त्वया जितः॥४॥
शब्दः स्पर्शश्चरूपं च रसो गन्धश्चपञ्चमः।
एकैकमलमेतेषां विनाशप्रतिपत्तये॥५॥
शुचिः शप्पाङ्कराहारो विदूरक्रमणक्षमः।
लुब्धकाद्गीतलोभेन मृगो मृगयते वधम्॥६॥
गिरीन्द्रशिखराकारो लीलयोन्मूलितद्रुमः।
करिणीस्पर्शसंमोहादालानं याति वारणः॥७॥
स्निग्धदीपशिखालोकविलोभितविलोचनः।
मृत्युमृच्छत्यसन्देहात् पतङ्गः सहसा पतन्॥८॥
दूरेऽपि हि भवन् दृष्टेरगाधे सलिले चरन्।
मीनस्तु सामिषं लोहमास्वादयति मृत्यवे॥९॥
गन्धलुब्धो मधुकरो दानासवपिपासया।
अभ्येत्यसुखसञ्चारां गजकर्णझलज्झलाम्॥१०॥
(एते कामन्दके)
अजितेन्द्रियवर्गस्य नाचारेण भवेत् फलम्।
केवलं देहखेदाय दुर्भगस्य विभूषणम्॥११॥
तस्य राज्ञः स्थिरैव श्रीर्यदि स्यान्नियतेन्द्रियः।
गजस्नानमिवाचारस्तस्य यो जितेन्द्रियः॥१२॥
(राजग)
राज्ञा मदद्विपो नेयः शमालाननिलीनताम्।
शमितः शौरिणा बाणदर्पाग्निश्चक्रधारया॥१३॥
(चाक्षुषीये)
इन्द्रियाण्येव तत् सर्वं यत् स्वर्गनरकावुभौ।
निगृहीतविसृष्टानि स्वर्गीय नरकाय च॥१४॥
(महाभारते)
स्वान्त! गतं किङ्करतां यस्य त्वं तस्य किङ्करो लोकः।
लोकस्य किङ्करोऽसौ यो भवतः किङ्करो भवति॥१५॥
(स्वान्तशतके)
कुमुदान्येव शशाङ्कः सविता बोधयति पङ्कजान्येव।
वशिनां हि परपरिग्रहसंश्लेषपराङ्मुखी बुद्धिः॥१६॥
(शाकुन्तले)
रथः शरीरं पुरुषस्य दृष्ट आत्मा नियन्तेन्द्रियाण्या(शु?हु)रश्वाः।
तैरप्रमत्तः कुशलः सदश्वैर्दान्तैः कृती याति पदं स धीरः॥१७॥
कुरङ्गमातङ्गपतङ्गमीनभृङ्गा हताः पञ्चभिरेव पञ्च।
एकः प्रमाथी स कथं न बध्यो यस्यां हताः पञ्चभिरेव पञ्च॥१८॥
(महाभारते)
क्व चिराय परिग्रहःश्रियः क्व च दुष्टेन्द्रियवाजिवश्यता।
शरदभ्रचलाश्चलेन्द्रियैरसुरक्षा हि बहुच्छलाः श्रियः॥१९॥
(भारवेः)
विसआण बसे लोओ भवसा विसजण उण वजे धीरा।
को ताण जर अवसो विसआ हि वसीकआ जेहि॥२०॥
(गाथाकोशे)
इति जितेन्द्रियपद्धतिः॥
४४. अथाजितेन्द्रियपद्धतिः।
स्त्रीद्यूतमृगयाम द्यवाक्पारुष्योग्रदण्डता।
अर्थसन्दूषणं चेति राज्ञां व्यसनसप्तकम्॥१॥
सर्वोपचये राज्ये सन्निपातज्वरोपमे।
जननिद्रेव दुर्वार(:?)शक्ति व्यसनसप्तकम्॥२॥
यो जितः पञ्चवर्गेण सहजेनात्मकर्शिना।
भापदस्तस्य वर्धन्ते शुक्लपक्ष इवोडुराट्॥३॥
पञ्चेन्द्रियस्य मर्त्त्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम्।
ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम्॥४॥
धर्मार्थी यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानुगः।
श्रीप्राणराज्यकोशेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते॥५॥
अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणामनीश्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्वर्यादैश्वर्याद् भ्रश्यते हि सः॥६॥
(महाभारते)
एकस्यापि न यः शक्तो मनसः सन्निवर्हणे।
महीं सागरपर्यन्तां स कथं विजिगीषते॥७॥
(कामन्दके)
दुरासदाननुग्रान् धृतेर्विश्वासजन्मनः।
भोगान् भोगानिवाहेयानध्यास्यापन्नदुर्लभा॥८॥
(भारवेः)
अविजित्य य आत्मानममात्यान् विजिगीषते।
अजितात्माजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते॥९॥
अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्थं चैवाप्यनर्थतः।
इन्द्रियैः प्रसृतो बालः सुदुःखं मन्यते सुखम्॥१०॥
कामः क्रोधव लोभश्व मानो हर्षो मदस्तथा।
षड्वर्गमुत्सृजेदेनं यस्मिंस्त्यक्ते सुखी नृपः॥११॥
दाण्डक्यो नृपतिः कामात् क्रोधाच्च जनमेजयः।
लोभादैलस्तु राजर्षिर्वातापिर्हर्षतोऽसुरः॥१२॥
पौलस्त्यो राक्षसो मानान्मदाद् दम्भोद्भवो नृपः।
प्रयाता निधनं ह्येते शत्रुषड्वर्गमाश्रिताः॥१३॥
सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या विजिगीषुणा।
प्रायशो यैर्विनश्यन्ति दृढमूलाश्च पार्थिवाः॥१४॥
(कामन्दके)
इत्यजितेन्द्रियपद्धतिः॥
४५. अथ विनयपद्धतिः।
नयस्य विनयो मूलं विनयः शास्त्रनिश्चयः।
विनयो हीन्द्रियजयस्तद्युक्तः शास्त्रमृच्छति॥१॥
आत्मानं प्रथमं राजा विनयेनोपपादयेत्।
ततोऽमात्यांस्ततः पुत्रस्ततो भृत्यांस्ततः प्रजाः॥२॥
शास्त्राय गुरुसंयोगः शास्त्रं विनयवृद्धये।
विद्याविनीतो नृपतिर्न कृच्छ्रेष्ववसीदति॥३॥
इयं हि लोकव्यतिरेकवर्त्तिनी स्वभावतः पार्थिवता समुन्नता।
बलात् तदेनां विनयेन योजयेन्नयस्य वृद्धौ विनयः पुरस्सरः॥४॥
परां विनीतः समुपैति सेव्यतां महीपतीनां विनयो हि भूषणम्।
प्रवृचदानो मृदुसञ्चलत्करः करीवभद्रो विनयेन शोभते॥५॥
जितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते।
गुणाधिके पुंसि जनोऽनुरज्यते जनानुरागप्रसवा हि सम्पदः॥६॥
(किराते)
इति विनयपद्धतिः॥
४६. अथाविनयपद्धतिः।
अविनयरतमादरादृते वशमवशं हि नयन्ति विद्विषः।
भुतिविनयविधिं समाश्रितस्तनुरपि नैति पराभवं क्वचित्॥१॥
नयनाद् विनयप्रमाथिनः समुपेक्षेत समुन्नतिं द्विषः।
सुजयः खलु तादृगन्तरे विपदन्ता ह्यविनीतसम्पदः॥२॥
(किराते)
इत्यविनयपद्धतिः॥
४७. अथ कामजयपद्धतिः।
कामःक्रोधश्च लोभश्व मानो हर्षो मदस्तथा।
एते हि षड् विजेतव्या नित्यं स्वं देहमाश्रिताः॥१॥
सतामपि कुले जाताः कर्मणा बत! दुर्बलम्।
प्राप्नुवन्ति दुरात्मानः कामजालप्रलोभिताः॥२॥
नहि कामात्मना राज्ञा सततं शठबुद्धिना।
नृशंसेनापि लुब्धेन शक्याः पालयितुं प्रजाः॥३॥
अनौचित्येन कन्यासु पुरस्त्रीषु च या रतिः।
स कामो हि क्षितीन्द्राणामरिषड्वर्गपूर्वजः॥४॥
अभिमानितभूतेन सानुबन्धरसेन तु।
यतः सर्वेन्द्रियप्रीतिः स कामः प्रोच्यते बुधैः॥५॥
कामा मनुष्यं प्रदहन्त एव धर्मस्य ये विममूला नरेन्द्र!।
पूर्वं नरस्तान् मतिमान् प्रतिघ्नल्ँलोके प्रशंसां लभतेऽनवद्याम्॥६॥
(महाभारते)
इति कामजयपद्धतिः॥
४८. अथ मृगयादोषपद्धतिः।
मृगयाक्षा दिवास्वप्नःपरिवादः स्त्रियो मदः।
तौर्यत्रिकं वृथाटाट्या कामजो दशको गणः॥१॥
कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः।
वियुज्यतेऽर्थकामाभ्यां क्रोधमेष्वात्मनैव यः॥२॥
यस्मासु व्यसनं राज्ञस्त्वनुमोदन्ति शत्रवः।
तदसह्यतरं दुःखं मन्यन्ते मरणादपि॥३॥
ईर्ष्ययैव समुद्विग्राःपुरुषा(द्वि? द् दु)ष्टचेतसः।
अतिसक्ताः पलायन्ते श्रीधृतिस्मृतिकीर्त्तयः॥४॥
मृगतृष्णेव मृगया मृगानिव नराधिपान्।
हरन्ति पा(र ? त)यन्त्याराच्छ्वभ्रेष्विव विपत्तिषु॥५॥
(बृहत्कथायाम्)
प्रच्छन्नोपगतैः शैलसरिद्विपिनकुक्षिषु।
वधबन्धपरिक्लेश आसन्नाटविकादिभिः॥६॥
स्वसैन्यैश्च स्वकुल्यैश्च परभिश्चैश्च मारणम्।
इत्यादि पृथिवीन्द्राणां मृगयाव्यसनं स्मृतम्॥७॥
(कामन्दके)
पाण्डुर्जित्वा बहून् देशान् युधा विक्रमणेन च।
मृगव्यवायनिधने कृच्छ्रां प्राप स आपदम्॥८॥
(महाभारते)
(नृपतेः) प्रतिषिद्धमेव तत् कृतवान् पङ्क्तिरथो विशङ्क्य यत्।
अपथे पदमर्पयन्ति हि श्रुतवन्तोऽपि रजोनिमीलिताः॥९॥
(कालिदासस्य)
इति मृगयादोषपद्धतिः॥
४९. अथ मृगयागुणपद्धतिः।
यदि घातयते कश्चित् पापसत्त्वं प्रजाहितम्।
सर्वसश्व(मि ? हि)तार्थाय न तेनासौ विहिंस्रकः॥१॥
द्वीपिनं शरभं सिंहं व्याघ्रं कुञ्जरमेव च।
महिषं वानरं चैव सूकरश्वानपन्नगान्॥२॥
गोब्राह्मणहितार्थाय बालस्त्रीरक्षणाय च।
वृद्धातुरपरित्राणे यो हिनस्ति स धर्मवित्॥३॥
निर्मानुषामिमां सर्वे मृगा इच्छन्ति मेदिनीम्।
भक्षयन्ति च सस्यानि शासितव्या नृपेण ते॥४॥
या वै शत्रुवधे वृत्तिः सा मृगाणां वधे स्मृता।
अमाययाप्यच्छलेन मृगाणामिषुधारिभिः॥५॥
स्वर्गं मृगाश्च गच्छन्ति स्वयं नृपतिना हताः।
… … … … … …॥६॥
मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः
सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चित्तं भयक्रोधयोः।
उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले
मिथ्या हि व्यसनं वदन्ति मृगयामीदृग्विनोदः कृतः॥७॥
(कालिदासस्य)
इति मृगयागुणपद्धतिः॥
५०. अथ द्यूतदोषपद्धतिः।
बहूनि धर्मशास्त्राणि पठन्ति द्विजसत्तमाः।
तेषु किंस्विदिदं दृष्टं द्यूते जीयेत यत् परम्॥१॥
किं ते द्यूतेन राजेन्द्र! बहुदोषेण मानद!।
देवने बहवो दोषात् तस्मात् तत् परिवर्जयेत्॥२॥
धनक्षयः शिष्टगर्हासदाचारविवर्जितम्।
शत्रुभिः पीडनं चैव द्यूतासक्तधियां नृणाम्॥३॥
घृतादनर्थसंरम्भोद्यूतात् स्नेहक्षयो महान्।
पक्षाणां चापि महतां द्यूताद् भेदः प्रवर्तते॥४॥
(कामन्दके)
नलश्च राजा द्यूतेन हृते राज्ये महोदये।
धर्मदारान् परित्यज्य परधर्मपरोऽभवत्॥५॥
(महाभारते)
पाण्डवो धर्मराजस्तु लोकपाल इवापरः।
स राज्यं धनमक्षय्यं पणमेकममन्यत॥६॥
(चाक्षुषीये)
यत्तदूर्जितमत्युग्रं क्षात्रं तेजोऽस्य भूपतेः।
दीव्यताक्षैस्तदा तेन नूनं तदपि हारितम्॥७॥
(वेणीसंहारे)
इति द्यूतदोषपद्धतिः॥
५१. अथ दिवास्वप्ननिन्दापद्धतिः।
न दिवा प्रस्वपेज्जातु न पूर्वापररात्रयोः।
न स्वपेदेषु यो राजा तस्येयं दृढवन्मही॥१॥
स्वप्नेहि रजसा देही तमसा चाभिभूयते।
देहा(न्न ?न्त)रमिवापन्नश्चरत्यपगतस्मृतिः॥२॥
(महाभारते)
इति दिवास्वप्ननिन्दापद्धतिः॥
५९. अथ परिवाददोषपद्धतिः।
न वाच्यः परिवादो वै न श्रोतव्यः कथञ्चन।
कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः॥१॥
आक्रोशपरिवादाभ्यां विहिंसन्त्वबुधा बुधान्।
तस्मान्नस्पर्धयेदन्यं न चात्मानं विहिंसयेत्॥२॥
सङ्ग्रामान् विपुलान् जित्वा लब्ध्वा च विपुलं धनम्।
विजित्य च महीं कृत्स्नां न विकत्थेत पण्डितः॥३॥
(वृत्ते महाभारते)
इति परिवाददोषपद्धतिः॥
५३. अथ स्त्रीव्यसनपद्धतिः।
न स्त्रीभ्यः किञ्चिदन्यद्वै पापीयतरमस्ति वै।
स्त्रियो हि मूलं दोषाणां तथा त्वमपि वेत्थ ह॥१॥
संसारतन्त्रवाहिन्यस्तत्र बुध्येत योषितः।
कृत्या ह्येता घोररूपा मोघं मन्ये विपश्चितम्॥२॥
अमित्रप्रमिता ह्येता गतश्रद्धाः सुदारुणाः।
मूलप्रवादेन विषं प्रयच्छन्ति जिघांसवः॥३॥
न स्वप्नेन जयेन्निद्रां न कामेन स्त्रियं जयेत्।
नेन्धनेन जयेदग्निं पानेन जयेत् सुराम्॥४॥
(एते महाभारते)
इति स्त्रीव्यसनपद्धतिः॥
५४. अथ स्त्रीनिन्दापद्धतिः।
चतुरः सृजता पूर्वमुपायांस्तेन वेधसा।
न सृष्टः पञ्चमः कोऽपि गृह्यन्ते येन योषितः॥१॥
(वल्लभदेवस्य)
जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्नंसविभ्रमाः।
हृद्गतंचिन्तयन्त्यन्यं प्रियः को नाम योषिताम्॥२॥
(प्रतापरुद्रीये)
शतहदानां लोलत्वं शस्त्राणां चातितीक्ष्णताम्।
मरुडानिलयोः शैघ्रथमनुगच्छन्ति योषितः॥३॥
(श्रीरामायणे)
को जातु परभावां हि नारीं व्यालीमिव स्थिताम्।
वासयेत गृहे जानन् स्त्रीणां दोषा महात्ययाः॥४॥
(मनोः)
वस्तु जिह्वासहस्रः स्याज्जीवेच्च शरदां शतम्।
अनन्यकर्मा स्त्रीदोषाननुक्त्वा निधनं व्रजेत्॥५॥
न विषेण न शस्त्रेण नाग्निना न च मृत्युना।
अप्रतीकारपारुष्यात् स्त्रीभिरेव स्त्रियः कृताः॥६॥
(गोविन्दकवेः)
नाभिस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः।
नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचनाः॥७॥
(महाभारते)
न कुलं न कृता विद्या न दानं नापि सङ्ग्रहः।
स्त्रीणां गृह्णाति हृदयमनित्यहृदयाः स्त्रियः॥८॥
अन्तकः पवनो मृत्युः पातालं बडवानलः।
क्षुरधारा विषं सर्पो वह्निरित्येकतः स्त्रियः॥९॥
(मनोः)
न मानेन न दानेन दाक्षिण्येन च सेवया।
न शस्त्रेण न शास्त्रेण सर्वथा किमपि स्त्रियः॥१०॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
या इमाः प्रेष्यसे राजन्! मदनव्याधवागुराः।
अपसामेव प्रभावेन ज्वलन्ति नरकाग्नयः॥११॥
प्राज्ञं विनीतं स्वाचारं विश्वस्तमपि मन्त्रिणम्।
चलयन्ति नरं नित्यमेते योषित्पिशाचिकाः॥१२॥
(महाभारते)
प्रायेण धनिनां दारा बहवो निरवग्रहाः।
बाह्येसत्युपभोगेऽपि निर्विस्रम्भा बहिर्मुखाः॥१३॥
मनः प्रह्लादयन्तीभिर्मन्दं यान्तीभिरप्यलम्।
महान्तोऽपि हि भिद्यन्ते स्त्रीभिरद्भिरिवाचलाः॥१४॥
(कामन्दके)
श्रुतस्य रक्षा सतताभियोगः
कुलस्य वृत्तं पुरुषस्य विद्या।
राज्ञोऽप्रमादः प्रशमो धनस्य
स्त्रीणां तु र(क्षा ? क्षां) नहि जातु जाने॥१५॥
(वल्लभदेवस्य)
शक्यो वन्यक(रि ? री) प्रभिन्नकरटः कुन्तैः प्रतिव्यूहितुं
(शा ? शक्या) नीतिबलाश्रयेण रिपवश्छत्रेण सूर्यांशवः।
शक्यो वारयितुं जलेन (भुजगं ?हुतभुग्) मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं स्त्रीणां तु नास्त्यौषधम्॥१६॥
इति स्त्रीनिन्दापद्धतिः॥
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*
५५. अथ पानदोषपद्धतिः।
अकार्यकरणात् भीतः कार्याणां च विवर्जनात्।
अकाले मन्त्रभेदाच्चयेन माद्येन्नतत् पिबेत्॥१॥
ये पिबन्ति महामोहं पानं पापयुता नराः।
कलिं ते कुर्वतेऽभीक्ष्णं प्रहरन्ति परस्परम्॥२॥
अयुक्तं बहु भाषन्ते यत्र क्वचन शेरते।
नग्ना विक्षिप्य गात्राणि नष्टसंज्ञा इवासते॥३॥
गुरूनतिवदेन्मत्तः परदारान् प्रधर्षयेत्।
स(हि ? मि)कं कुरुते शौण्डैर्न शृणोति हितं क्वचित्॥४॥
(महाभारते)
इति पानदोषपद्धतिः॥
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५६. अथ तौर्यत्रिकपद्धतिः।
नृत्ते गीते च वाद्ये च यः प्रसक्तो नराधिपः।
दोषैरेवं त्रिभिर्जुष्टो विषमैर्नश्यति ध्रुवम्॥१॥
पानमक्षास्तथा नार्यो मृगया गीतवादिता।
एतानि युक्त्या सेवेत प्रसङ्गो ह्यत्र दोषवान्॥२॥
इति तौर्यत्रिकपद्धतिः॥
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५७. अथ वृथाटाव्या।
अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम्।
डम्भं स्तैन्यं पैशुनं मद्यपानं न सेवते यः स सुखी स देवः॥१॥
(महाभारते)
इति वृथाटाव्या॥
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५८. अथ क्रोधप्रशंसापद्धतिः।
न च संकुचितः पन्था येन बाली हतो गतः।
समये तिष्ठ सुग्रीव! मा बालिपथमन्वगाः॥१॥
चापमानय सौमित्रे! शरांश्चाशीविषोपमान्।
सागरं शोषयिष्यामि पद्भ्यां यान्तु प्लवङ्गमाः॥२॥
(श्रीरामायणे)
उदाहरणमाशीःसु प्रथमे ते मनस्विनाम्।
शुष्केऽशनिरिवामर्षो यैररातिषु पात्यते॥३॥
(किराते)
कोपं प्रभो ! संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति।
तावत् स बह्निर्भवनेत्रजन्मा भस्मावशेषं मदनं चकार॥४॥
(कालिदासस्य)
मथ्नामि कौरवशतं समरे न कोपाद्
दुःशासनस्य रुधिरं न पिवाम्युरस्तः।
सञ्चूर्णयामि गदया न सुयोधनोरू
सन्धिं करोतु भवता नृपतिः पणेन॥५॥
श्रुतमनुमतं दृष्टं वा यैरिदं गुरूपातकं
मनुजपशुभिर्निर्भर्यादैर्भवद्भिरुदायुधैः।
नरकरिपुणा सार्धं तेषां सभीमकिरीटिना-
मयमहमसृङ्मेदोमांसैःकरोमि दिशां बलिम्॥६॥
यो यः शस्त्रं बिभर्त्ति स्वभुजगुरुमदः पाण्डवीनां चमूनां
यो यः पञ्चालगोत्रे शिशुरधिकवया गर्भशय्यां गतो वा।
यो यस्तत्कर्मसाक्षी चरति मयि रणे यश्च यश्च प्रतीपः
क्रोधान्धस्तस्य तस्य स्वयमपि जगतामन्तकस्यान्तकोऽहम्॥७॥
(वेणीसंहारे)
इति क्रोधप्रशंसापद्धतिः॥
५९. अथ क्रोधनिन्दापद्धतिः।
न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भूभुजाम्।
होतारमपि जुह्वानं स्पृष्टो दहति पावकः॥१॥
(वल्लभदेवस्य)
क्रुद्धः पापं न कुर्यात् कः क्रुद्धो हन्याद् गुरूनपि।
क्रुद्धः परुषया वाचा नरः साधूनधिक्षिपेत्॥२॥
हिंस्यात् क्रोधादवध्यांश्च वध्यान् सम्पूजयेदपि।
आत्मानमपि वा क्रुद्धः प्रेषयेद्यमसादनम्॥३॥
नावाच्यमस्ति क्रुद्धस्य नाकार्यं विद्यते तथा।
वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्॥४॥
(श्रीरामायणे)
सामवादाः सकोपस्य तस्य प्रत्युत दीपकाः।
प्रतप्तस्येव सहसा सर्पिषस्तोयविन्दवः॥५॥
(माघे)
अविधेये जने पुंसां कोपः किमुपजायते।
विधेयेऽपि च कः कोपस्तस्मिन्निवेशितजीविते॥६॥
(वल्लभदेवस्य)
न पूतो न तपस्वी च न यज्वा न च धर्मभाक्।
क्रोधस्य यो वशं गच्छेत् तस्य लोकद्वयं न च॥७॥
पुत्रो भृत्यः सुहृन्मित्रं भार्या धर्मश्च सत्यता।
तस्यैतान्यपयास्यन्ति क्रोधशीलस्य निश्चितम्॥८॥
यः समुत्पतितं क्रोधं दैन्यं वा न नियच्छति।
नश्यते स श्रियं प्राप्य पात्रमाममिवाम्भसि॥९॥
(महाभारते)
अपकारिणि कोपश्चेत् कोपे कोपःकथं न जाये(ते ? त)।
धर्मार्थकाममोक्षप्राणयशोहारिणि क्रूरे॥१०॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
निर्दहति कुलमशेषं ज्ञातीनां वैरसम्भवः क्रोधः।
वनमिव घनपवनाहततरुवनसङ्घट्टसम्भवो दहनः॥११॥
(वेणीसंहारे)
यत् क्रोधनो यजते यद्ददाति यद्वा तपस्तप्यते यज्जुहोति।
वैरोचनिस्तद्धरतेऽस्य सर्वं मोघः श्रमो भवति क्रोधनस्य॥१२॥
(महाभारते)
बलवानपि कोपजन्मनस्तमसो नाभिभवं रुणद्धि यः।
क्षयपक्ष इवैन्दवीः कलाः सकला हन्ति स शक्तिसम्पदः॥१३॥
अपनेयमुदेतुमिच्छता तिमिरं रोपमयं धिया पुरः।
अविभिद्य निशाकृतं तमः प्रभया नांशुमताप्युदीयते॥१४॥
(भारवेः)
अन्धीकरोमि भुवनं बधिरीकरोमि
धीरं सचेतनमचेतनतां नयामि।
कृत्यं न पश्यति न येन हितं शृणोति
धीमानधीतमपि न प्रतिसन्दधाति॥१५॥
(प्रबोधचन्द्रोदये)
इति क्रोधनिन्दापद्धतिः॥
६०. अथपैशुन्यपद्धतिः।
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणे।
वाग्दण्डयोश्च पारुष्यंक्रोधजोऽपि गणाष्टकः॥१॥
न सतां शीलमेतद्वै परिवादेन पैशुनम्।
गुणानामेव वक्तारः सन्तो नित्यं युधिष्ठिर!॥२॥
(महाभारते)
विष(धा ?धर)तोऽप्यतिविषमःखलइति न मृषा वदन्ति विद्वांसः।
यदयं न कुलद्वेषी कुलविद्वेषी पुनः पिशुनः॥३॥
(सुबन्धोः)
इति पैशुन्यपद्धतिः॥
६१. अथ साहसदोषपद्धतिः।
साहसप्रकृतिर्यस्तु कुरुते किञ्चिदुल्वणम्।
अशास्त्रलक्षणो राजा क्षिप्रमेव विनश्यति॥१॥
महापापानि कर्माणि यानि केवलसाहसात्।
आरभ्यन्ते भीमसेन! व्यथते तानि भारत!॥२॥
(महाभारते)
इति साहसदोषपद्धतिः॥
६२. अथ द्रोहपद्धतिः।
करोति (यः) परद्रोहं जनस्यानपराधिनः।
तस्य राज्ञः स्थिरापि श्रीः समूलं नाशमृच्छति॥१॥
(महाभारते)
इति द्रोहपद्धतिः॥
__________
६३. अथेर्ष्यापद्धतिः।
यः ईर्ष्यःपरवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलेऽन्वये।
सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः॥१॥
न चेर्ष्या स्त्रीषु कर्त्तव्या रक्ष्या दाराश्च सर्वशः।
अनायुष्या भवेदीर्ष्या तस्मादीर्ष्यांविवर्जयेत्॥२॥
सहस्वश्रियमन्येषां यद्यपि त्वयि नास्ति सा।
अन्यत्रापि सतीर्लक्ष्मीः कुशला भुञ्जते जनाः॥३॥
न हि जातूपतप्यन्ते धीराः परसमृद्धिभिः।
दातारः सङ्ग्रहीतारः कार्यकारणवेदिनः॥४॥
(महाभारते)
इतीर्ष्यापद्धतिः॥
__________
६४. अथासूयापद्धतिः।
अनार्यवृत्तमप्राज्ञमसूयकमधार्मिकम्।
अनर्थाः क्षिप्रमायान्ति वा (त्? ग्दु) ष्टं क्रोधनं तथा॥१॥
(महाभारते )
इत्यसूयापद्धतिः॥
__________
६५. अथार्थदूषणपद्धतिः।
अर्थानामननुष्ठाता कामचारी विकत्थनः।
अपि सर्वां महीं लब्ध्वा क्षिप्रमेव विनश्यति॥१॥
अनर्थे चैव निरतमर्थे चैव पराङ्मुखम्।
न तं भर्त्तारमिच्छन्ति षण्डं पतिमिव स्त्रियः॥२॥
योऽर्थकामस्य वचनं प्रतिकूलान्न मृष्यते।
शृणोति प्रतिकूलानि द्विषतां वशमेति सः॥३॥
सुहृदां हितकामानां यो न तिष्ठति शासने।
प्राज्ञानां कृतविद्यानां स नरः शत्रुनन्दनः॥४॥
दूष्यस्य दूषणार्थं हि परित्यागो महीयसः।
अर्थस्य नीतितत्त्वज्ञैरर्थदूषणमुच्यते॥५॥
अन्यायोपार्जितं द्रव्यमर्थदूषणमुच्यते।
अपात्रदानं पात्रार्थहरणं तस्य लक्षणम्॥६॥
तदकस्मात् सदाविष्टः कोपेनातिबलीयसा।
नित्यमात्महिताकांक्षी न कुर्यादर्थदूषणम्॥७॥
(एते महाभारते)
इत्यर्थदूषणपद्धतिः॥
__________
६६. अथ वाक्पारुष्यपद्धतिः।
तीव्राण्युद्वेगकारीणि
विसृष्टान्यशमात्मकैः।
कृन्तन्ति देहिनां मर्म
शस्त्राणि च वचांसि च॥१॥
(कामन्दके)
शपता यत् कृतं पापं शप्यमानं न गच्छति।
शप्यमानस्य यत् पापं शपन्त (तं न?मधि) गच्छति॥२॥
क्रूरक्रकचसङ्काशे वाक्पारुष्यकरे नृपे।
राज्योद्यानलतालक्ष्मीः पोषणामर्हते कथम्॥३॥
(राज)
संरोहति शरैर्विद्धं परं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्॥४॥
कर्णनालीकनाराचा निष्पतन्ति शरीरतः।
वाक्छ (ल्यं तु ? ल्यस्तु) न निर्हर्त्तुंशक्यो हृदिशयो हि सः[॥५॥]
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि।
परस्य (ना? हा) मर्मसु ते पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु॥६॥
मर्माण्यस्थीनि हृदयं तथासून
घोरा वाचो निर्दहन्ती (व?ह) पुंसाम्।
तस्माद्वाचं रुशतीं रूक्षरूपां
धर्मारामो नित्यशो वर्जयेत् ताम्॥७॥
(महाभारते)
इति वाक्पारुष्यपद्धतिः॥
__________
६७. अथ दण्डपारुष्यपद्धतिः।
अस्थाने ह्यपि च स्थाने सततं चानुगामिनि।
क्रुद्धो दण्डान् प्रणयति विविधांस्तेजसा वृतः॥१॥
सन्तापलोभमोहांश्च शत्रून् स लभते नरः।
कोषदण्डान् मनुष्येषु विविधान् नृपतिर्नयन्॥२॥
भ्रश्यते शीघ्रमैश्वर्यात् प्रजाभ्यः स्वजनादपि
स्वोपकर्तॄन् स्वशत्रूंश्च तेजसैवोपगच्छति॥३॥
तस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद्वेश्मगतादिव।
दण्डपारुष्यदोषेण विलुप्यन्तेऽखिलाः प्रजाः॥४॥
क्षपयत्युग्रदण्डो हि जनं राजा यमोपमः।
स्खलितः स्खलितोवध्य इति चेन्निश्चितं भवेत्॥५॥
द्वित्रायद्यवशिष्येरन् बहुदोषाहि मानवाः।
(एते महाभारते)
इति दण्डपारुष्यपद्धतिः॥
_________
६८. अथ लोभपद्धतिः।
मनःसङ्कल्पवीर्येण कामेन विषयेषुभिः।
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात् पतङ्गवत्॥१॥
दानार्हेष्वप्रदातृत्वमकारणधनुर्ग्रहः।
लोभमाहुर्महानर्थं तस्मात् तं परिवर्जयेत्॥२॥
यथाद्रिः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति॥३॥
अक्षमा श्रीपरित्यागो ह्रीनाशोऽथ धनक्षयः।
अभिध्या चाज्ञता चैव सर्वं लोभात् प्रवर्तते॥४॥
नहि पूरयितुं शक्यो लोभः प्रीत्या कथञ्चन।
नित्यगम्भीरतोयाभिरापगाभिरिवाम्बुधिः॥५॥
सुमहान्त्यपि शास्त्राणि धारयन्तो बहुश्रुताः।
छेत्तारः संशयानां च क्लिश्यन्ते लुब्धबुद्धयः॥६॥
भूतिर्लोभाभिभूतस्य भूभर्त्तुर्भूरिदुःखदा।
लुब्धः प्राप व्यथां शुक्रः पिनाकिजठरालये॥७॥
(एते महाभारते)
इति लोभपद्धतिः॥
__________
६९. अथ मानपद्धतिः।
लक्ष्मीलतां प्रमथ्नाति राज्ञां मानमहाशनिः।
हृदन्तर्मकरीदंशक्लेशं सेहे सुयोधनः॥१॥
अतिमानः श्रियं हन्ति पुरुषस्याल्पमेधसः।
गर्भेण दूष्यते कन्या गृहवासेन च द्विजः॥२॥
जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया।
कोधःश्रियं शीलमनार्यसेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः॥३॥
( एते महाभारते )
इति मानपद्धतिः॥
_________
७०. अथ हर्षपद्धतिः।
सम्प्रहासः स्वभृत्येषु न कर्त्तव्यो नराधिप!।
लघुत्वमेव प्राप्नोति यस्य चाज्ञातिवर्त्तते॥१॥
अवमन्यन्ति भर्त्तारं लङ्घयन्ति च तद्वचः।
प्रेष्यमाणा विकल्पन्ते गूढमप्यनुयुञ्जते॥२॥
अयाच्यं चैवयाचन्तेऽभोज्यान् व्याहारयन्ति च।
उत्कोचैर्वञ्चनाभिश्च कार्याणि घ्नन्ति चास्यति॥३॥
जर्जरं चास्य विषयं कुर्वन्ति प्रतिशासनैः।
क्षुतं च ष्ठीवनं चैवकुर्वते चास्य सन्निधौ॥४॥
हयं वा दन्तिनं वापि रथं वा नृपसम्मतम्।
अधिरोहन्त्यनादृत्य हर्षुलं पार्थिवं मृदुम्॥५॥
हेलय (न्तं च ? न्तश्च) कुर्वन्ति सावज्ञास्तस्य शासनम्।
निन्दन्ति स्वानधीकारान् सन्त्यजन्ति च भारत!॥६॥
न वृत्त्या परितुष्यन्ति राजदेयं हरन्ति च।
अस्मत्प्रणेयो राजेति लोके चैव वदन्त्युत॥७॥
एते चान्ये च बहवो दोषाः प्रादुर्भवन्त्युत।
नृपतौ मार्दवोपेते हर्षुले च युधिष्ठिर!॥८॥
(एते महाभारते)
इति हर्षपद्धतिः॥
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७१. अथ प्रमादपद्धतिः।
मदं कामजव्यसनमवदत्॥
क्षत्रियस्य प्रमत्तस्य दोषः सञ्जायते महान्।
अधर्माः सम्प्रवर्तन्ते प्रजासम्मोहकारकाः॥१॥
चातुर्वर्ण्यं तथा वेदाश्चातुराश्रम्यमेव च।
सर्वमेतत् प्रमुह्येत यदा राजा प्रमाद्यति॥२॥
यथा वप्रेवेगवति सरितः सम्प्लुतोदके।
नित्यं पञ्चनखाबाधस्तथा राज्ञः प्रमाद्यतः॥३॥
राज्ञः प्रमाददोषेण दस्युभिः परिमुष्यते।
अशरण्यः प्रजानां यः स राजा कलिरुच्यते॥४॥
संयुक्तोऽपि बलैः कश्चित् प्रमादेनेह युज्यते।
तेन द्वारेण शत्रुभ्यः क्षीयते सबलोनृपः॥५॥
लोकवृत्ताद्राजदृतमन्यदाह बृहस्पतिः।
तस्माद्राज्ञाविशेषेण स्वार्थश्चिन्त्योऽप्रमादतः॥६॥
प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि सदाप्रमादादमृतत्वं ब्रवीमि।
प्रमादाद्वा अ(सु)राः पराभवन्ति सदाप्रमादाद् ब्रह्मभूताः सुराश्च॥७॥
(एते महाभारते)
इति प्रमादपद्धतिः॥
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७२. अथाज्ञापद्धतिः।
एतदर्थं हि राजानः प्रशासन्ति वसुन्धराम्।
यदेषां सर्वकृत्येषु मनो न प्रतिहन्यते॥१॥
(श्रीरामायणे)
आज्ञा तेजः पार्थिवानां सा च वाचि प्रति (ष्ठ ? ष्ठिता।
यत्ते ब्रूयुरसत् सद्वा स धर्मो व्यवहारिणाम्॥२॥
(मनोः)
राजा रजतसूपेन न भुङ्क्ते कनकौदनम्।
आज्ञासिद्धिरसिद्धा चेत् किं फलं नृपजन्मनः॥३॥
(पञ्चतन्त्रे)
न तेन सज्यं क्वचिदुद्यतं धनुः
कृतं न वा कोपविजिह्ममाननम्।
गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते
नराधिपैर्माल्यमिवास्य शासनम्॥४॥
(भारवेः)
*तुझ च्चिअएस भरो आणामेत्तप्फलो पहुत्तणसद्दो।
अरुणो छाआवहणो विसअंविअसन्ति अप्पणा कमलसरा॥५॥
कह तम्मि वि लाइज्जइ जम्मि अदिण्णप्फला अदूरपसरिआ।
पडिअम्मि दुमे व्वलआ स च्चिअ अण्णं पुणो वि लग्गह आणा॥६॥
(सेतुबन्धे)
इत्याज्ञापद्धतिः॥
__________
*
* युष्माकमेवैष भर आज्ञामात्रफलः प्रभुत्वशब्दः।
अरुणश्छायावहनो विशदं विकसन्त्यात्मना कमलसरांसि॥
कथं तस्मिन्नपि लग्यते यस्मिन्नदत्तफला अदूरप्रसृता।
पतिते द्रुम इव लता सैवान्यं पुनरपि लगत्याज्ञा॥
७३. अथ दण्डपद्धतिः।
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एव हि रक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्त्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः॥१॥
(मनोः)
दण्डेन र (क्ष?क्ष्य) माणा हि राजन्नहरहः प्रजाः।
राजानं वर्धयन्तीह तस्माद्दण्डः परायणम्॥२॥
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
दण्डस्यैव भयादेते मनुष्या वर्त्मनि स्थिताः॥३॥
(महाभारते)
चतुर्वर्णाश्रमो लोके राज्ञा दण्डेन पालितः।
स्वधर्मकर्माभिरतो वर्त्तते स्वेषु कर्मसु॥४॥
(कौटिल्ये)
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।
उत्पथं प्रतिपन्नस्य कार्यं भवति शासनम्॥५॥
(श्रीरामायणे)
एकस्मिन् यत्र निधनं प्रापिते दुष्टकारिणि।
बहूनां भवति क्षेमस्तस्य पुण्यप्रदो वधः॥६॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः।
चतुर्णामाश्रमाणां स धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः॥७॥
अद्यात् काकः पुरोडाशं श्वा च लिह्याद्धविस्तथा।
स्वाम्यं च (तस्मा ? न स्या) त् कस्मिंश्चित् प्रवर्त्तेताधरोत्तरम्॥८॥
अन्धं तम इवेदं स्यान्न प्रज्ञायेत किञ्चन।
दण्डश्चेन्नभवेल्लोके विभजन् साध्वसाधुनी॥९॥
(मनोः)
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधु पश्यति॥१०॥
उद्वेजयति तीक्ष्णेन मृदुना परिभूयते।
दण्डेन नृपतिस्तस्माद्युक्तदण्डःप्रशस्यते॥११॥
नियतविषयपत्तिः प्रायशो दण्डयोगा-
ज्जगति परवशेऽस्मिन् दुर्लभः साधुवृत्तः।
कृशमथ विकलं वा व्याधितं बाधनं वा
पतिमपि कुलनारी दण्डनीत्याभ्युपैति॥१२॥
(कामन्दकीये)
इति दण्डपद्धतिः॥
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७४. अथ पुत्रपद्धतिः।
इह वा तारयेत् पुत्र उत वा प्रेत्य (दा ? ता)रयेत्।
सर्वथा तारयेत् पुत्र आत्मा वै पुत्र उच्यते॥१॥
भार्यायां जनितं पुत्रमादर्शे स्वमिवाननम्।
जनिता ह्लादते प्रेक्ष्य स्वर्गं प्राप्येव पुण्यकृत्॥२॥
(महाभारते)
नास्ति पुत्रसमो बन्धुर्नास्ति पुत्रसमं सुखम्।
नास्ति पुत्रसमा प्रीतिर्नास्ति पुत्रसमा गतिः॥३॥
(पञ्चतन्त्रे)
जीवतोर्वाक्यकरणात् प्रत्यब्दं भूरिभोजनात्।
गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता॥४॥
(मनोः)
यस्य पुत्रगुणान्मित्राण्यमित्रा यत्पराक्रमम्।
कथयन्ति सदा सत्सु पुत्रवांस्तस्य वै पिता॥५॥
गर्भक्लेशः स्त्रिया मन्ये सफलो हि पिता तदा।
यदा सबीजबीजा स्यात् सङ्ग्रामे वा हतः सुतः॥६॥
(मार्कण्डेये)
कोऽर्थोऽस्ति बहुभिः पुत्रैर्गणनापूरणात्मकैः
वरमेकः कुलालम्बी विश्रान्तः स्यात् पिता यतः॥७॥
एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन धीमता।
कुलं पुरुषसिंहेन चन्द्रेणेव प्रकाश्यते॥८॥
(पञ्चतन्त्रे)
दिग्वाससं गतव्रीलं जटिलं धूलिधूसरम्।
पुण्यहीना न पश्यन्ति गङ्गाधरमिवात्मजम्॥९॥
(वल्लभदेवस्य)
हितेन गुरुणा पित्रा कृतज्ञेन नृपेण च।
नियुज्यमानो विस्रब्धःकिं न कुर्यामहं प्रियम्॥१०॥
स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्याः पुत्रः सुखानि वा।
गुरुवृत्त्यनुरोधेन न किञ्चिदपि दुर्लभम्॥११॥
स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम्।
अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरभिराध्यते॥१२॥
विक्रीतमाहितं क्रीतं दत्तं पित्रा तु जीवता।
पुत्रस्तदन्यथाकर्तुं यः पुमान् प्रसहिष्यते॥१३॥
गन्धर्वलोकानपरान् ब्रह्मलोकांस्तथा परान्।
प्राप्नुवन्ति महात्मानो मातापितृपरायणाः॥१४॥
पितुर्हितमतिक्रान्तं पुत्रो यः साधु मन्यते।
तदपत्यं मतं लोके विपरीतमतोऽन्यथा॥१५॥
(श्रीरामायणे)
विनीताः श्रुतसम्पन्नाः शस्त्रेषु च कृतश्रमाः।
गजाश्वारोहणे दक्षा लभ्यन्ते सुकृतैः सुताः॥१६॥
धर्मज्ञाः शुचयो वीराः पितुः शुश्रूषणे रताः।
रूपौदार्यबलोपेता लभ्यन्ते सुकृतैः सुताः॥१७॥
(मनोः)
किं मृष्टं सुतवचनं पुनरपि मृष्टं तदेव सुतवचनम्।
मृष्टादपि मृष्टतरं श्रुतपरिपक्वंतदेव सुतवचनम्॥१८॥
(कलाविलासे)
आलक्ष्य दन्तमुकुलाननिमित्तहासै-
रव्यक्तवर्णरमणीयवचःप्रवृत्तीन्।
अङ्काश्रयप्रणयिनस्तनयान् वहन्तो
धन्यास्तदङ्गरजसा मलिनीभवन्ति॥१९॥
(कालिदासस्य)
तिष्ठन् भाति पितुः पुरो भुवि यथा सिंहासने किं तथा
किं संवाहयतः सुखानि चरणौ तातस्य किं राजकम्।
किं भुक्ते भुवनत्रये धृतिरसौ भुक्तोज्झिते या गुरो-
रायासः खलु राज्यमुज्झितगुरोस्तेनास्ति कश्चिद् गुणः॥२०॥
(नागानन्दे)
इति पुत्रपद्धतिः॥
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७५. अथ दुष्पुत्रपद्धतिः।
राजपुत्रा मदोन्मत्ता गजा इव निरङ्कुशाः।
भ्रातरं स्वामिनं घ्नन्ति पितरं वाभिमानिनम्॥१॥
प्रजात्मश्रेयसे राजा कुर्वीतात्मजरक्षणम्।
लोलुभ्यमानास्तेऽर्थेषु हन्युरेनमलक्षिताः॥२॥
राजपुत्रैर्मदोन्मत्तैः प्रार्थ्यमानमितस्ततः।
दुःखेन रक्ष्यते राज्यं व्याघ्राघ्रातमिवामिषम्॥३॥
रक्ष्यमाणा यदि च्छिद्रं कथञ्चित् प्राप्नुवन्ति ते।
सिंहा इवाशुतं घ्नन्ति रक्षितारमसंशयम्॥४॥
(कामन्दकीये)
तयागवा किं क्रियते या न धेनुर्न गर्भिणी।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान्न धार्मिकः॥५॥
(पञ्चतन्त्रे)
राजपुत्रपरित्यागः सुदुर्वृत्तोऽपि नार्हति।
क्लिश्यमानः स पितरं परमाश्रित्य हन्ति हि॥६॥
(कौटिल्ये)
पितॄन् भ्रातॄनपि घ्नन्ति प्राप्तराज्या नृपात्मजाः।
राज्यलक्ष्मीर्हि मोहाय क्षत्रियाणां दुरात्मनाम्॥७॥
रञ्जयन्ति प्रजाः प्राज्ञा मन्त्रिभिर्नृपसूनवः।
प्राप्तराज्याः पुनर्घ्नन्ति बन्धूनपि विरोधिनः॥८॥
माने तपसि शौर्ये वा यस्य न प्रथितं यशः।
विद्यायामर्थलाभे वा मातुरुच्चार एव सः॥९॥
यौवनं बलसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्॥१०॥
(पञ्चतन्त्रे)
इति दुष्पुत्रपद्धतिः॥
७६. अथ भ्रातृपद्धतिः।
देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता ममेदृशः॥१॥
(अङ्कावल्याम्)
अहं तावन्महाराजे पितृत्वं नोपलक्षये।
भ्राता भर्त्ता च बन्धुश्च पिता च मम राघवः॥२॥
(श्रीरामायणे)
ज्येष्ठो भ्राता पितृसमो मृते पितरि भारत!।
सह्येषां वृत्तिदाता स्यात् स ह्येतान् परिपालयेत्॥३॥
(महाभारते)
सम्भोजनं सङ्कथनं सम्प्रश्नोऽथ समागमः।
ज्ञातिभिः सह कार्याणि न विरोधः कथञ्चन॥४॥
(पञ्चतन्त्रे)
अधिरोहार्य! पादाभ्यां पादुके हेमभूषिते।
एते हि सर्वलोकस्य योगक्षेमं विधास्यतः॥५॥
न सर्वे भ्रातरस्तात! भवन्ति भरतोपमाः।
मद्विषा वा पितुः पुत्राः सुहृदो वा भवद्विधाः॥६॥
कदान्वहं समेष्यामि भरतेन महात्मना।
शत्रुघ्नेन च वीरेण त्वया च पुरुषर्षभ!॥७॥
न तेऽम्बा मध्यमा माता गर्हणीया कथञ्चन।
तमेवेक्ष्वाकुनाथस्य भरतस्य कथां कुरु॥८॥
(श्रीरामायणे)
सङ्घातवान् यथा वेणुनिबन्धः कण्टकैर्वृतः।
न शक्यते समुच्छेत्तुं भ्रातृसङ्घातवांस्तथा॥९॥
(कामन्दकीये)
यथा ज्येष्ठानुवृत्त्यास्मि भवतानुगता यथा।
तथा त्वामनुयास्यामि गुणज्येष्ठो हि मे भवान्॥१०॥
जायावियोगदहनो दुर्वारः कृत्रिमो ह्यसौ।
अयं तु सहजच्छेदविच्छेदाग्निर्न पार्यते॥११॥
(अङ्कावल्याम्)
का प्रस्तुताभिषेकादार्यं प्रच्यावयेद् गुणज्येष्ठम्।
मन्ये ममैव पुण्यैः सेवावसरः कृतो विधिना॥१२॥
(उदात्तराघवे)
अथेतरे सप्त रघुप्रवीराः ज्येष्ठं पुरो जन्मतया गुणैश्च।
चक्रुः कुशं रत्नविशेषभाजंसौभ्रात्रमेषां हि कुलानुसारि॥१३॥
ते सेतुवार्तागजबन्धमुख्यैरभ्युच्छ्रिताः कर्मभिरप्यवन्ध्यैः।
अन्योन्यदेशप्रविभागसीमांवेलां समुद्रा इव न व्यतीयुः॥१४॥
(रघुवंशे)
इति भ्रातृपद्धतिः॥
_________
७७. अथासद्भ्रातृपद्धतिः।
ईदृशं व्यसनं प्राप्तं भ्रातरं यः परित्यजेत्।
को नाम स भवेत्तस्य यमेष न परित्यजेत्॥१॥
(श्रीरामायणे)
नाग्निर्नान्यानि शस्त्राणि न नः पाशा भयावहाः।
घोराः स्वार्थप्रयुक्ताश्च ज्ञातयो नो भयावहाः॥२॥
सौहृदेन परित्यक्तं निःस्नेहं खलवत् त्यजेत्।
सोदर्यं भ्रातरमपि किमुतान्यं पृथग्जनम्॥३॥
(भोजस्य)
भवन्ति चेह ज्ञातीनां कलहाश्च महामते! ।
प्रसक्तानि च वैराणि ज्ञातिधर्मो न नश्यति॥४॥
धूमायन्ति व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि तु।
धृतराष्ट्रेषुकानीव ज्ञातयो भरतर्षभ! ॥५॥
सम्भाव्यं गोषु सम्पन्नं सम्भाव्यं ब्राह्मणे तपः।
सम्भाव्यं स्त्रीषु चापल्यं सम्भाव्यं ज्ञातिनो भयम्॥६॥
जानामि शीलं ज्ञातीनां सर्वलोकेषु राक्षस!।
हृष्यन्ति व्यसनेष्वेते ज्ञातीनां ज्ञातयः सदा॥७॥
प्रधानं साधनं वैद्यं धर्मशीलाश्च राक्षसाः।
ज्ञातयो ह्यवमन्तव्याः शूरं परिभवन्ति च॥८॥
नित्यमन्योन्यसंहृष्टा व्यसनेष्वाततायिनः।
प्रच्छन्नहृदया घोरा ज्ञातयस्तु भयावहाः॥९॥
सत्कृतं स्वजनेनेह परोऽपि बहुमन्यते।
स्वजनेन ह्यवज्ञातं परे परिभवन्त्युत॥१०॥
ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटूनि परुषाणि च।
सकोपं हृदयं वाचा श्लक्ष्णया शमयेद् बुधः॥११॥
(महाभारते)
न त्वा जिघांसामि चरेति यन्मामयं महात्मा मतिमानुवाच।
तस्यैव तद्राजवचोऽनुरूपमिदं पुनः कर्म च मेऽनुरूपम्॥१२॥
(कालिदासस्य)
इत्यसद्भ्रातृपद्धतिः॥
-
*
७८. अथोत्साहशक्तिपद्धतिः।
यस्य स्यादुद्यमे नित्यं चित्तमुत्साहसंयुतम्।
उत्साहशक्तिः सा ज्ञेया नृपाणां भूतिमिच्छताम्॥१॥
(मनोः)
उत्साहो बलवानार्य! नास्त्युत्साहात् परं बलम्।
उत्साहारम्भमात्रेण जायन्ते सर्वसम्पदः॥२॥
उत्साहो बलवानार्य! नास्त्युत्साहात् परं बलम्।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चिदपि दुष्करम्॥३॥
(श्रीरामायणे )
यो यमर्थं प्रार्थयते यमर्थं घटते च यः।
सोऽवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छान्तो निवर्त्तते॥४॥
योजनानां सहस्रं तु शनैर्याति पिपीलिका।
अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति॥५॥
(पञ्चतन्त्रे)
*आरम्भन्तस्स धुअं लच्छी मरणं व होइ पुरिसस्स।
तं मरणमणारम्भे वि होइ लच्छी उण ण होइ॥६॥
(सप्तशत्याम्)
ओअग्गइ अहिमाणं पडिवक्खस्स वि ण तारिसं देइ भअम्।
अमरिसगहिअं व सरो विद्दाइ अभाअसण्डिओ उच्छाहो॥७॥
(सेतुबन्धे)
इत्युत्साहशक्तिपद्धतिः॥
७९. अथ प्रभुशक्ति पद्धतिः।
आज्ञारूपेण या शक्तिः सर्वेषां मूर्धनि स्थिता।
प्रभुशक्तिर्हि सा ज्ञेया प्रभावमहितोदया॥१॥
(मनोः)
इति प्रभुशक्तिपद्धतिः॥
८०. अथ मन्त्रशक्तिपद्धतिः।
कामात् क्रोधाद् भयादन्यैर्लोभ्यमानो न लुभ्यति।
यया शक्त्या युतः कार्ये मन्त्रशक्तिस्तु सा स्मृता॥१॥
(मनोः)
***
*आरभमाणस्य ध्रुवं लक्ष्मीर्मरणं वा भवति पुरुषस्य।
तन्मरणमनारम्भेऽपि भवति लक्ष्मीः पुनर्न भवति॥
अवक्रामत्यभिमानं प्रतिपक्षस्यापि न तादृशं ददाति भयम्।
अमर्षगृहीत इव शरो विद्रात्यभागसंहित उत्साहः॥
प्रभावोत्साहशक्तिभ्यां मन्त्रशक्तिः प्रशस्यते।
प्रभावोत्साहवान् काव्यो जितो देवपुरोधसा॥२॥
(कामन्दकीये)
इति मन्त्रशक्तिपद्धतिः॥
८१. अथ पुरोहितपद्धतिः।
त्रय्यां च दण्डनीत्यां च शान्तिकर्मणि पौष्टिके।
आथर्वणे च कुशलः सम्यग्राजपुरोहितः॥१॥
(मनोः)
यदेको ब्राह्मणो विद्वान् कुर्यात् कार्यं नृपस्य तत्।
अक्षौहिणी न शक्नोति कर्तुं वर्षशतैरपि॥२॥
अक्षौहिणी रिपुं हन्यात् स्वयं वा तेन हन्यते।
ब्राह्मणो मन्त्रविद्धन्यात् सर्वानेव रिपून् क्षणात्॥३॥
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो जपहोमपरायणः।
आशीर्वादरतो नित्यमेष राजपुरोहितः॥४॥
अलभ्यलाभाय च लब्धवृद्धये
यथार्हतीर्थप्रतिपादनाय च।
यशस्विनं वेदविदं विपश्चितं
बहुश्रुतं ब्राह्मणमेव (वा) सय॥५॥
(एते महाभारते)
इति पुरोहितपद्धतिः॥
८२. अथ मन्त्रिपद्धतिः।
देशकालविधानज्ञान् भर्तृकार्यहितैषिणः।
नित्यमर्थेषु संसक्तान् राजा कुर्वीत मन्त्रिणः॥१॥
(महाभारते)
कुलीनाः शुचयः शूराः श्रुतवन्तोऽनुरागिणः।
दण्डनीतेः प्रयोक्तारः सचिवाः स्युर्महीपतेः॥२॥
(कामन्दकीये)
सन्धिविक्रमतत्त्वज्ञाः सततं प्रियवादिनः।
प्राप्तकालं च ये दण्डं धारयेयुः सुतेष्वपि॥३॥
(श्रीरामायणे)
सहायसाध्यं राजत्वं चक्रमेतन्न वर्त्तते।
कुर्वीत सचिवांस्तस्मात् तेषां च शृणुयान्मतम्॥४॥
(कौटिल्ये)
नीतिशास्त्रविदः शूरा मन्त्रिणो ब्राह्मणप्रियाः।
ज्ञानवृद्धाः शास्त्रवृद्धा धर्मे राज्ञः प्रवर्त्तकाः॥५॥
रागमानमदान्धस्य स्खलतः पृथिवीपतेः।
हस्तावलम्बं भवति सुहृत्सचिवचेष्टितम्॥६॥
सज्यमानमकार्येषु निरुन्ध्युर्मन्त्रिणो नृपम्।
गुरुणामिव चैतेषां शृणुयात् पृथिवीपतिः॥७॥
मन्त्रिभिर्मन्त्रकुशलैरन्धः पथि निवेश्यते।
चक्षुष्मांस्तु मदान्धः सन्नात्मानं हन्त्यशेषतः॥८॥
कृतप्रज्ञस्तु मेधावी धीरो बुद्धो जितेन्द्रियः।
सर्वकर्मसु संशुद्धः स मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥९॥
(महाभारते)
एको ह्यमात्यो मेधावी शूरो दान्तो विचक्षणः।
राजानं राजपुत्रं वा प्रापयेन्महतीं श्रियम्॥१०॥
(कामन्दकीये)
स्वेच्छया कुरुते स्वामी यत्किञ्चन यतस्ततः।
तत्तत् प्रतिचिकीर्षन्तो दुःखं जीवन्ति मन्त्रिणः॥११॥
(मुद्राराक्षसे)
त्रिवर्गसाधकं यत् स्याद् द्वयोर्वैकस्य साधकम्।
कार्यं तदपि कुर्वीत न त्वेवार्थं द्विबाधकम्॥१२॥
(वात्सायनीये)
अप्रियस्यापि वचसः परिणामविरोधिनः।
वक्ता श्रोता (च) यत्रास्ति रमन्ते तत्र सम्पदः॥१३॥
(पञ्चतन्त्रे)
त्रिवर्गभयसंशुद्धानमात्यान् स्वेषु कर्मसु।
अधिकुर्याद् यथाशौचमित्याचार्या व्यवस्थिताः॥१४॥
(कौटिल्ये)
प्राज्ञे नियोजिते राज्ये सन्ति राज्ञस्त्रयो गुणाः।
यशः स्वर्गनिवासश्च पुष्कलश्च धनागमः॥१५॥
यो हि धर्मं व्यपाश्रित्य हित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये।
अप्रियाण्याह पथ्यानि तेन राजा सहायवान्॥१६॥
(श्रीरामायणे)
यस्मिन् वाचः प्रणश्यन्ति कूपे प्रास्ताः शिला इव।
न वक्तारं पुनर्यान्ति स वै पण्डित उच्यते॥१७॥
(चाक्षुषीये)
सुलभाः पुरुषा राजन्! सततं प्रियवादिनः।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥१८॥
(श्रीरामायणे)
निश्चित्य यः प्रकुरुते नान्तर्वसति कर्मणः।
अवन्ध्यकामो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते॥१९॥
(मुद्राराक्षसे)
अपृष्टेन न वक्तव्यः सचिवेन विपश्चिता।
नानुशिष्यादपृच्छन्तं महदेतद्धि साहसम्॥२०॥
(सङ्ग्रहे)
आयत्यां गुणदोषज्ञस्तदात्वे दृढनिश्चयः।
अतीते कार्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते॥२१॥
अहन्यहनि बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृतम्।
दत्तं वा दापितं वापि वाक्साह्यमपि वा कृतम्॥२२॥
मतिबलशालिनि मन्त्रिणि लभते कां वा न सम्पदं स्वामी।
रत्नावलीमुदयनो लेभे यौगन्धरायणनयेन॥२३॥
(मुद्राराक्षसे)
अर्थंसप्रतिबन्धं प्रभुरधिगन्तुं सहायवानेव।
दृश्यं तमसि न पश्यति दीपेन विना सचक्षुरपि॥२४॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
विषमोऽपि विगाह्यते नयः कृततीर्थः पयसामिवाशयः।
स तु तत्र विशेषदुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म यः॥२५॥
(भारवेः)
द्वेष्यो भवत्युत्कटभाषणेन प्रियः प्रभोश्छन्दपरिग्रहेण।
हितानुबन्धं मधुरं च मन्त्री ब्रूयात् क्रियावानुभयानुकूलम्॥२६॥
(नरकवधे)
स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं
हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः।
सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं
नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः॥२७॥
(भारवेः)
रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्त तुरगा
निरालम्बो मार्गश्चरणरहितः सारथिरपि।
रविर्यात्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे॥२८॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
बहिः सर्वाकारप्रवणरमणीयं व्यवहरन्
पराभ्यूहस्थानान्यपि तनुतराणि स्थगयति।
जनं विद्वानेकः सकलमतिसन्धाय कपटै-
स्तटस्थः स्वानर्थान् घटयति च मौनं च भजते॥२९॥
(मालतीमाधवे)
प्रायः पथ्यपराङ्मुखा विषयिणो भूपा भवन्त्यात्मनो
निर्दोषान् सचिवान् भजत्यतिमहाल्ँलोकापवादज्वरः।
वन्द्याः श्लाध्यगुणास्त एव गुरवोऽसन्तोषभाजः परं
बाह्योऽयं वरमेव सेवकजनो धिक् सर्वथा मन्त्रिणः॥३०॥
(मुद्राराक्षसे)
*विहडन्तं पि समत्थो ववसाअं पुरिसदुग्गमं णेइ वहम्।
भुवणन्तरविक्खंभं दिअसअरो विअलिएक्कचक्कंव रहम्॥३१॥
(सेतौ)
इति मन्त्रिपद्धतिः॥
*
*विघटमानमपि समर्थो व्यवसायं पुरुषदुर्गमं नयति पन्थानम्।
भुवनान्तरविष्कम्भं दिवसकरो विघटितैकचक्रमिव रथम्॥
८३. अथ दुर्मन्त्रिपद्धतिः।
मन्त्रिणः स्वार्थतात्पर्या + + मिच्छन्ति विग्रहम्।
तेषां तु भोग्यतामेति दीर्घकार्याकुलो नृपः॥१॥
(कामन्दकीये)
भीरवोऽनीतिशास्त्रज्ञाः कामुका ब्रह्मविद्विषः।
अधर्मरुचयो लुब्धाः शत्रवोऽमी न मन्त्रिणः॥२॥
(महाभारते)
अपथ्यस्य च भुक्तस्य दन्तस्य चलितस्य च।
अमात्यस्य च दुष्टस्य समूलोद्धरणं सुखम्॥३॥
गुणवानप्यसन्मन्त्री नृपतिर्नाभिगम्यते।
प्रसन्नस्वादुसलिलो दुष्टग्राह इवह्रदः॥४॥
(पञ्चतन्त्रे)
दुःखान्येव प्रसुवते निरुन्धन्ति सुखानि च।
अयशांसि प्रयच्छन्ति भूपतीनां कुमन्त्रिणः॥५॥
(कौटिल्ये)
हीनतेजा हि संवृष्टो नैव जातु व्यवस्यति।
अपथ्यं जनयत्येव सर्वकर्मसु संशयात्॥६॥
एवमल्पश्रुतो मन्त्री कल्याणाभिजनोऽप्युत।
धर्मार्थकामसंयुक्तं नालं मन्त्रं परीक्षितुम्॥७॥
अनागतोपधं हिंस्रं दुर्बुद्धिमबहुश्रुतम्।
त्यक्तोपात्तं मद्यपानद्यूतस्त्रीमृगयाप्रियम्॥८॥
कार्ये महति युञ्जानो हीयतेऽर्थपतिः श्रिया।
(महाभारते)
स्त्रीधानानि राज्यानि विद्वद्भिर्वर्जितानि च।
मूर्खामात्यप्रतप्तानि शुष्यन्ति जलबिन्दुवत्॥९॥
(बृहत्संहितायाम्)
निरुन्धानाः सतां मार्गं भक्षयन्ति नृपश्रियम्।
क्रूरात्मानस्तु सचिवास्तस्मात् सुसचिवोभवेत्॥१०॥
(कामकला)
मूर्खे नियोजितेऽमात्ये त्रयो दोषा महीपतेः।
अयशश्चार्थनाशश्च नरकं च न संशयः॥११॥
अहिते हि हिताकारं धार्ष्ट्यंजल्पन्ति ये नराः।
अवेक्ष्य मन्त्रबाह्यास्ते कर्त्तव्याः कृत्यदूषणाः॥१२॥
(महाभारते)
गुणानामायथातथ्यादर्थंविप्लावयन्ति ये।
अमात्यव्यञ्जना राजन्! दूष्यास्ते शत्रुसंशिताः॥१३॥
(माघे)
स दोषः सचिवस्यैव यदसत् कुरुते नृपः।
याति यन्तुः प्रमादेन गजो व्यालत्ववाच्यताम्॥१४॥
न स्वल्पमप्यध्यवसायभीरोः
करोति विज्ञानविधिर्गुणं हि।
अन्धस्य किं हस्ततलस्थितोऽपि
निर्वर्त्तयत्यर्थमिह प्रदीपः॥१५॥
अभ्युच्छ्रिते मन्त्रिणि पार्थिवे वा
विष्टभ्य पादाववतिष्ठते श्रीः।
सा स्त्रीस्वभावादसहा भरस्य
तयोर्द्वयोरेकतरं जहाति॥१६॥
दुर्मन्त्रिणं कमुपयान्ति न भीतिदोषाः
सन्तापयन्ति कमपथ्यभुजं न रोगाः।
कं श्रीर्न दर्पयति कं न निहन्ति मृत्युः
कं श्रीकृता न विषयाः परितापयन्ति॥१७॥
एकं भूमिपतिः करोति सचिवं राज्ये प्रधानं यदा
तं मोहाच्छ्रयते मदः स च मदस्तस्यैव निर्विद्यते।
निर्विण्णस्य पदं करोति हृदये तस्य स्वतन्त्रस्पृहा
स्वातन्त्र्यस्पृहया ततः स नृपतेः प्राणानभिदुह्यति॥१८½॥
(पञ्चतन्त्रे)
इति दुर्मन्त्रिपद्धतिः॥
८४. अथ बुद्धिप्रशंसापद्धतिः।
एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राष्ट्रं सराजकम्॥१॥
अपकृत्वा बुद्धिमतो दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्।
दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिंसति हिंसितः॥२॥
न कश्चिन्नापनयते पुमानन्यत्र भार्गवात्।
शेषसम्प्रतिपत्तिस्तु बुद्धिमत्स्ववतिष्ठते॥३॥
(महाभारते)
शक्याशक्यपरिच्छेदं कुर्याद् बुद्ध्या प्रसन्नया।
केवलं दन्तभङ्गाय दन्तिनः शैलताडनम्॥४॥
(कामन्दकीये)
प्रज्ञागुप्तशरीरस्य किं करिष्यन्ति सङ्गताः।
गृहीतच्छत्रहस्तस्य वारिधारा इवारयः॥५॥
(प्रतापः)
कार्यमालोचितापायं मतिमद्भिर्विवेचितम्।
न केवलं हि सम्पत्तौ विपत्तावपि शोभते॥६॥
(भोजस्य)
नागामिनमनर्थं हि प्रतिघातशतैरपि।
शक्नुवन्ति प्रतिव्योढुमृते बुद्धिबलान्नरः॥७॥
प्रज्ञया निर्मितैर्धीरास्तारयन्त्यबुधान् प्लवैः।
नाबुधास्तारयन्त्यन्यानात्मानं वा कथञ्चन॥८॥
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा।
ऊहापोहार्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः॥९॥
(कामन्दकीये)
श्रियः प्रसूते विपदो रुणद्धि यशांसि दुग्धे मलिनं प्रमार्ष्टि।
संस्कारशौचेन परं पुनीते शुद्धा हि बुद्धिः किल कामधेनुः॥१०॥
(विद्धसालभञ्जिकायाम् )
अश्वा नागाः स्यन्दनानां च सङ्घा
मन्त्राः सिद्धा दैवतं चानुकूलम्।
एतान्याहुः साधनानि स्म राज्ञां
येभ्यश्चेयं बुद्धिरुत्कृष्यते मे॥११॥
शस्त्रैर्हता न रिपवोऽभिहता भवन्ति
प्रज्ञाहतास्तु पुरुषाः सुहता भवन्ति।
शस्त्रं विहन्ति पुरुषस्य शरीरमेकं
प्रज्ञा कुलं च विभवं च यशश्च हन्ति॥१२॥
(पञ्चतन्त्रे)
यदपसरति मेषः कारणं तत् प्रहर्तुं
मृगपतिरतिरोषात् सङ्कुचत्युत्पतिष्यन्।
हृदयनिहितवैरा गूढमन्त्रप्रचाराः
किमिव हि गणयन्तो बुद्धिमन्तः क्षमन्ते॥१३॥
(वल्लभदेवस्य)
इति बुद्धिप्रशंसापद्धतिः ॥
_______________
८५. अथ मन्त्रपद्धतिः।
मन्त्रयेतेह मन्त्रज्ञो मन्त्रज्ञैः सह मन्त्रिभिः।
मन्त्रार्थकुशलो राजा सुखं विजयमश्नुते॥१॥
(कामन्दकीये)
अपश्चात्तापकृत् सम्यगनुबन्धिफलप्रदः।
अदीर्घकालाभीष्टश्च प्रशस्तो मन्त्र इष्यते॥२॥
(कौटिल्ये)
आवर्त्य यो मुहुर्मन्त्रं धारयेच्च प्रयत्नतः।
अप्रयत्नधृतो मन्त्रः प्रचलन्नग्निवद् दहेत्॥३॥
आप्ताप्तसन्ततेर्मन्त्रं संरक्षेत् तत्परस्तु सः।
अरक्ष्यमाणं मन्त्रं हि भिनत्त्यप्तपरम्पराम्॥४॥
अम्भसा भिद्यते सेतुस्तथा मन्त्रोऽप्यरक्षितः।
पैशुन्याद्भिद्यते स्नेहो वाग्भिर्भिद्येत कातरः॥५॥
नैतदेकान्ततः सिद्धं गृहजाताश्चिरन्तनाः।
भृत्याः श्रेयस्करा (रा)ज्ञां न सन्त्यवहिता इति॥६॥
(पञ्चतन्त्रे)
असंहृताकारतया भिन्नमन्त्रस्य भूपतेः।
सकृच्छिद्रघटस्येव न तिष्ठत्युदयोदकम्॥७॥
(महाभारते)
किंस्विच्छिद्रं भवेद् दोषः किंस्विद्धि विनिपातनम्।
कुतो मम स्रवेद् दोष इति नित्यं विचिन्तयेत्॥८॥
(राजग)
सततं गुप्तवाक्यस्य नित्यं गुप्तेङ्गिताकृतेः।
फलैर्ज्ञेयाः समारम्भाः पुण्यं पूर्वकृतं यथा॥९॥
आत्मानं मन्त्रिणं दूतममात्यवचनं क्रमम्।
आकारं ब्रुवते षष्ठमेत्तावान् मन्त्रनिश्चयः॥१०॥
एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च बध्यते।
सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति समागम्य पृथग्जनः॥११॥
स कृत्स्नां पृथिवीं भुङ्क्ते कोशहीनोऽपि पार्थिवः।
मासुहृत् परमं मन्त्रं भरतार्हति वेदितुम्॥१२॥
अपण्डितो वापि सुहृत् पण्डितो वाप्यनात्मवान्।
मन्त्रमूलं यतो राज्यमतो मन्त्रं सुरक्षितम्॥१३॥
कुर्याद्यथास्य न विदुः कर्मणामाफलोदयात्।
षट्कर्णश्छिद्यते मन्त्रश्चतुष्कर्णश्च धार्यते॥१४॥
विकर्णस्य तु मन्त्रस्य ब्रह्माप्यन्तं न गच्छति।
(महाभारते)
निर्मन्त्रमेनं रिपवो यातुधाना इव क्रतुम्।
समन्ततो विलुम्पन्ति तस्मान्मन्त्रपरो भवेत्॥१५ ॥
(महाभारते)
समावायव्ययौ यत्र व्ययो यत्राधिको भवेत्।
असाध्यं च शतोपायैः कथञ्चित्तन्न मन्त्रयेत्॥१६॥
(कौटिल्ये)
किं स्यात् परत्रेत्याशङ्का कार्ये यस्मिन्नविद्यते।
न चार्थघ्नंसुखं चेति ‘शिष्टास्तस्मिन्नवस्थिताः॥१७॥
(महाभारते)
निष्फलं क्लेशबहुलं सन्दिग्धफलमेव च।
न कर्म कुर्यान्मतिमान् महावैरानुबन्धि च॥१८॥
(पञ्चतन्त्रे)
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥१९॥
मतिभेदतमस्तिरोहिते गहने कृत्यविधौ विवेकिनाम्।
सुकृतः परिशुद्ध आगमः कुरुते दीप इवार्थदर्शनम्॥२०॥
(भारवेः)
सर्वस्यकार्यस्य समुद्भवार्थमागामिनोऽर्थस्य च सङ्ग्रहार्थम्।
अनर्थकार्यप्रतिषेधनार्थं यन्मन्त्र्यतेऽसौ परमो हि मन्त्रः॥२१॥
(पञ्चतन्त्रे)
किं व ण आणह एअं कज्जं परिपेलवं विजह परिणामे।
देइ परं सम्मोहं कुसुमं विसपाअवस्स व मलिज्जन्तम्॥२२½॥
(सेतौ)
इति मन्त्रपद्धतिः ॥
______________
**८६. अथ मन्त्रकालपद्धतिः। **
मध्यन्दिनेऽर्धरात्रे च विश्रान्तो विगतक्लमः।
चिन्तयेद् धर्मकामार्थान् सार्धं तैरेक एव वा॥१॥
(चाक्षुषीये)
इति मन्त्रकालपद्धतिः ॥
_______________
**८७. अथ मन्त्रदेशपद्धतिः। **
जलान्धबधिरान् मूकांस्तैर्यग्योन्यान् वयोधिकान्।
स्त्रीम्लेच्छव्याधितव्यङ्गान् मन्त्रकालेऽव (बो)धयेत्॥१॥
निस्तम्भे निर्गवाक्षे च निर्मित्त्यन्तरसंश्रये।
प्रासादाग्रे ह्यरण्ये वा मन्त्रयेदविभावितः॥२॥
(कौटिल्ये)
इति मन्त्रदेशपद्धतिः ॥
___________________________________________________________
* किं वा न जानीतैतत्कार्ये परिपेलवमपि यथा परिणामे।
ददाति परं सम्मोहं कुसुमं विषपादपस्येव मृद्यमानम्॥
८८. अथ मित्रपद्धतिः।
त्यागविज्ञानसत्त्वाढ्यं महापक्षं प्रियंवदम्।
आयतिक्षममद्वैध्यं मित्रं कुर्वीत सत्कुलम्॥१॥
(कामन्दकीये)
ददाति प्रतिगृहाति कार्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं बन्धुलक्षणम्॥२॥
(महाभारते)
न तत्र तिष्ठति भ्राता न पितान्योऽपि वा जनः।
पुंसामापत्प्रतीकारे सन्मित्रं यत्र तिष्ठति॥३॥
(कामन्दकीये)
गुरुवन्मित्रनाशेन यन्मित्रमुपलभ्यते।
शालिस्तम्बा (हि ? भि) भवनं श्यामाकमिव तत् त्यजेत्॥४॥
न मातरि न दारेषु न सोदर्ये न चात्मजे।
विस्रम्भस्तादृशः पुंसां यादृङ् मित्रे निरन्तरे॥५॥
शोकारातिभयत्राणं प्रीतिविस्रम्भभाजनम्।
केन रत्नमिदं सृष्टं मित्रमित्यक्षरद्वयम्॥६॥
मित्रस्वजनबन्धूनां बुद्धेर्धैर्यस्य चात्मनः।
आपन्निकषपाषाणे नरो जानाति सारताम्॥७॥
सर्वः पदस्थस्य सुहृद् बन्धुरापदि दुर्लभः।
ये यान्त्यापदि बन्धुत्वं सुहृदो बान्धवाश्च ते॥८॥
स सुहृद् यो विपन्नार्थं दीनमभ्युपपद्यते।
न तु दुश्चरिताभीतकर्मोपालम्भपण्डितः॥९॥
(पञ्चतन्त्रे)
मित्रे निवेदिते दुःखं दुःखिनो जायते लघु।
भारं भारवहस्येव स्कन्धयोः परिवर्त्तनम्॥१० ॥
(कनक)
ययोश्चित्तेन वा चित्तं नैभृत्येन च नैभृतम्।
समेति प्रज्ञया प्रज्ञा तस्य मैत्री न जीर्यति॥११॥
(बृहत्कथायाम्)
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुपीडने।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः॥१२॥
आकेशग्रहणान्मित्रमहितेभ्यो निवारयेत्।
अवाच्यः कस्यचिद् भवति कृतयत्नो यथाबलम्॥१३॥
सहायवानेव नरो भारं वहति दुर्वहम्।
असहायः समर्थोऽपि तेजस्वी किं करिष्यति॥१४॥
(महाभारते)
उपकार्योपकारित्वं दूरे चेत् सा हि मित्रता।
पुष्प (व)न्तौ किमासन्नौ (भुवि) कैरवपद्मयोः॥१५॥
असहायः समर्थोऽपि तेजस्वी किं करिष्यति।
नि (पा?वा) तपतितो वह्निः स्वयमेव प्रशाम्यति॥१६॥
(भोजस्य)
उत्तारकमतिस्निग्धं भ्रूक्षेपवशवर्त्ति च।
सदा मुखस्थं मित्रं चेन्नेत्रेण चपलेन किम्॥१७॥
(कविवल्लभस्य)
यदप्यल्पपतरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्।
पुरुषेणासहायेन किमु राज्यं महोदयम्॥१८॥
(चाणक्यस्य)
प्रार्थयेतैव मित्राणि सति वासति वा धने।
नानर्थयन् विजानाति मित्राणां सारफल्गुताम्॥१९॥
(महाभारते)
दर्शितानि कलत्राणि गृहे भुक्तमशङ्कितम्।
कथितानि रहस्यानि सौहृदं किमतः परम्॥२०॥
अचेतना अपि प्रायो मैत्रीमेवानुबध्यते (?)।
स्ववृद्धात् क्षीयते क्षीरात् क्षीरात् प्रागेव वारिणा॥२१॥
(पञ्चतन्त्रे)
अकिश्चिदपि कुर्वाणः सौख्ये दुःखान्यपोहति।
तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियो जनः॥२२॥
(भवभूतेः)
मृदु व्यवहितं तेजो भोक्तुमर्थान् प्रकल्पते।
प्रदीप स्नेहमादत्ते दशयाभ्यन्तरस्थया॥२३॥
शून्यमाकीर्णतामेति तुल्यं व्यसनमुत्सवैः।
विप्रलम्भोऽपि लाभाय सति प्रियतमागमे॥२४॥
तदा रम्याण्यरम्याणि प्रियाः शल्यं तदासवः।
तदैकाकी सबन्धुः सन्निष्टेन रहितो यदा॥२५॥
(भारवेः)
व्यसनानलसन्तापे विरहच्छेदे प्रयोगनिकषे वा।
अविकारकरं मित्रं तत् काञ्चनवत् क्वचिद्भवति॥२६॥
(पञ्चतन्त्रे)
उपचारः कर्त्तव्यो यावदनुत्पन्नसौहृदो भवति।
उत्पन्नसौहृदानामुपचारः कैतवं भवति॥२७॥
न तन्मित्रं यस्य कोपाद् बिभेति यद्वा मित्रं कोपनेनोपशक्यम्।
यस्मिन् मित्रे पितरीवाश्वसीत तद्वै मित्रं सङ्गतानीतराणि॥२८॥
(महाभारते)
सुहृल्लघुः कार्यकरः समीपे महाप्रभावो न तु विप्रकृष्टः।
करोति किं नाम भिषग्विषघ्नः सर्वे शिरःस्थे शतयोजनस्थः॥२९ ॥
(राजग)
लभ्वमेकसुकृतेन दुस्त्यजा रक्षितारमसुरक्षभूतयः।
स्वन्तमन्तविरसा जिगीषतां मित्रलाभमनु लाभसम्पदः॥३०॥
(भारवेः)
* हिअअण्णएहि समअं असमत्ताइं पि जह सुहावेन्ति।
कज्जाइ मणे ण तहा इअरेहि समाइआइं पि॥३१॥
अविइणपेच्छणिज्जं समसुहदुक्खं विइण्णसब्भावम्।
अण्णोण्णहिअअलग्गं पुष्णेण जणो जणं लहइ॥३२॥
__________________________________________________________
हृदयज्ञैः सममसमाप्तान्यपि यथा सुखयन्ति
कार्याणि मन्ये न तथा इतरैः समाप्तान्यपि॥
अवितृष्णप्रेक्षणीयं समसुखदुःखं वितीर्णसद्भावम्।
अन्योन्यहृदयलग्नं पुण्यैर्जनो जनं लभते॥
*तं मित्तं काएव्वं जं किर वसणम्मि देसआलम्मि।
आलिहिअभित्तिवाउल्लअं व ण परम्मुहं ठाइ॥३३॥
(गाथासप्तशत्याम्)
मुहराओ च्चिअवहडेइजो जस्स वल्लहो किमण्णेण।
सावेइ अंकणो च्चिअ घरस्स अब्भन्तरलच्छी॥३४॥
(गाथाकोशे)
इति मित्रपद्धतिः॥
_____________
८९. अथासन्मित्र पद्धतिः।
वसेत् सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशीविषेण वा।
न तु मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रुसेविना॥१॥
(श्रीरामायणे )
शत्रुसेविनि मित्रे च गूढैर्युक्ततरो भवेत्।
गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरो रिपुः॥२॥
(महाभारते )
दुर्बुद्धिमकृतप्रज्ञं छन्नं कूपं तृणैरिव।
विवर्जयेत मेधावी तस्मिन् मैत्री प्रणश्यति॥३॥
(श्रीरामायणे)
अकलिप्तेषु मूढेषु रौद्रसाहसिकेषु च।
तथैवापेतधर्मेषु न मैत्रीमाचरेद् बुधः॥
(महाभारते)
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं धर्मशीलता।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तेन सङ्गतिम्॥५॥
परोक्षे गुणहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत् तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्॥६॥
(कैटिल्ये)
दुःखेन श्लिष्यते भिन्नं श्लिष्टं दुःखेन भिद्यते।
भिन्ना श्लिष्टा तु या प्रीतिर्न सा स्नेहेन युज्यते॥७॥
(पञ्चतन्त्रे)
______________________________________
* तन्मित्रं कर्तव्यं यत् किल व्यसने देशकालेषु।
आलिखितभित्तिपुत्तलकमिव न पराङ्मुखं तिष्ठति ॥
मुखराग एव प्रकटयति यो यस्य वल्लभः किमन्येन।
सूचयत्यङ्कणमेव गृहस्याभ्यन्तरलक्ष्मीम् ॥
मित्रमपि याति रिपुतां स्वस्थानात् प्रच्युतस्य पुरुषस्य।
कमलं जलादपेतं शोषयति रविर्न तापयति॥८॥
म (हति) विनष्टा प्रीतिर्यद्यपि चारेण बहुगुणा भवति।
छिन्नविरूढेव लता पूर्वच्छायां न पूरयति॥९॥
नर्मान्तः परिहासो यावत् क्रियमाणमभद्रकत्वं च।
स्मरणं च दुष्कृतानां त्रीणि कुमित्रस्य चिह्नानि॥१०॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
आपा अमेत्तगरुप माकम ओसरन्तलहुएहि।
घण्टाणिणाअसरि एहि लज्जिमो कोअपम्मेहि॥११॥
अवडव्वतच्छंण्णं परिहरतज्जणइपच्छिहिविपत्ति।
अपवतिअसग्गावे जाम्मिणिमित्तत्थिरा होइ॥१२॥
*एको च्चिअ दोसो कारिसंस (?) चन्दणदुमस्स वि घडिओ।
जस्सिं दुठ्ठभुजङ्गा खणं पि वासं ण मुञ्चेइ[॥१३]॥
पेम्मस्स विहडिअसण्ठिअस्स पञ्चक्खदिट्ठविलअस्स।
उअअस्स व ताविअसीथलस्स विरसो रसो होइ॥१४॥
(गाथासप्तशत्याम्)
इत्यसन्मित्रपद्धतिः॥
_________
९०. अथ कोशपद्धति॥
न कोशः शुद्धभावेन नानृशंस्येन जायते।
मध्यमं पदमास्थाय कोशसङ्ग्रहणं चरेत्॥१॥
यथा क्रमेण पुष्पेभ्यश्चिनोति मधु षट्पदः।
तथा (द्रव्यव्य?व्याव्यु)पादाय राजा कुर्वीत सञ्चयम्॥२॥
कोशस्तु सततं रक्ष्यो यत्नमास्थाय राजभिः।
कोशमूला हि राजानः कोशवृद्धिपरो भव॥३॥
_______________________________________
*एक एव दोषोऽकारि चन्दनद्रुमस्यापि घटितः।
यास्मिन् दुष्टभुजङ्गाः क्षणमपि वासं न मुञ्चन्ति॥
प्रेम्णो विघटित सन्धितस्य प्रत्यक्षदृष्टव्यलीकस्य।
उपकस्येव तापितशीतलस्य विरसो रसो भवति ॥
धर्महेतोस्तथार्थाय भृत्यानां भरणाय च।
आपदर्थं च संरक्ष्यः कोशः कोशवता सदा॥४॥
(कामन्दकीये)
आकारप्रभवः कोशः कोशाद् दण्डः प्रजायते।
पृथिवी कोशदण्डाभ्यां प्राप्यते कोशभूषणा ॥५॥
अर्थानामार्जनं कार्यमार्जितानां च रक्षणम्।
भुज्यमानो निरावापः क्षीयते हिमवानपि॥६॥
(महाभारते )
शोकं क्रोधं भयं कामं व्यसनं देशविभ्रमम्।
निग्रहानुग्रहौ राजा सर्व तरति कोशवान्॥७॥
(चाक्षुषीये)
कोशादाश्रयणीयत्वमिति तस्यार्थसङ्ग्रहः।
अम्बुगर्भो हि जीमूतवातकैरभिनन्द्यते॥८॥
(कालिदासस्य )
स्वसैन्यपोषः क्रियते धनेन धनेन धन्या धनमाप्नुवन्ति।
धनं विना कामकथैव नास्ति राज्यस्य मूलं धनमेव नान्यत्॥९॥
अग्निः स्तोको वर्धते चाज्यसिक्तो बीजं चैकं बहुसाहस्रमेति।
क्षयोदयौ विपुलौ सन्नियम्य तस्मादल्पं नावमन्येत वित्तम्॥१०॥
(कामन्दकीये)
इति कोशपद्धतिः ॥
____________
९१. अथ कोशहानिदोषपद्धतिः।
दुर्गस्य संस्कारकथैव नास्ति वृत्तेर्विलोपादपयाति सैन्यम्।
पलायते शून्यकरस्य मित्रं राज्येन किं कोशविवर्जितस्य॥१॥
कोशे वितीर्णे जनतां नृपस्य वृद्धस्य नारीब भवत्यवश्या।
दरिद्रगेहे दरदीपदीप्तिरिव प्रयात्यल्पतरत्वमाज्ञा॥२॥
विकत्थनैश्छन्दगृहीतचित्तै-
र्विटैर्विदग्धैः पिशुनैः सडम्भैः।
कायस्थसेनापतिगायनाद्यैः
कोशाः प्रणालीरिव निःसरन्ते (?)॥३॥
(कलाविकासे)
इति कोशहानिदोषपद्धतिः ॥
__________
९२. अथ राष्ट्रगुणपद्धतिः।
भूगुणैर्वर्धते राष्ट्रं तद्वृद्धिर्नृपवृद्धये।
तस्माद् गुणवतीं भूमिं भूत्यै भूषतिरावसेत्॥१॥
रम्या सकुब्जरवना वारिस्थलपथान्विता।
अदेवमातृका चेति शस्यते भूर्विभूतये॥२॥
शुद्रकारुवणिक्मायो महारम्भकृषीवलः।
सानुरागो रिपुद्वेषी पीडाकरसहः पृथुः॥३॥
नानादेश्यैः समाकीर्णो धार्मिकः पशुमान् धनी।
ईदृग् जनपदः शस्तोऽमूर्खव्यसनिनायकः॥४॥
(कामन्दकीये)
जाङ्गलं सस्यसम्पन्नमार्यप्रायमनाविलम्।
रम्यमानतसामन्तं स्वाजीवं देशमावसेत्॥५॥
(मनोः)
यस्य भूमिस्तस्य सर्वं जगत् स्थावरजङ्गमम्।
यस्यां हि गृध्रा राजानो निविघ्नन्तीतरेतरम्॥६॥
(महाभारते)
सशर्करा सपाषाणा साटवी नित्यतस्करा।
रूक्षा सकण्टकवना सव्याला चेति भूरभूः॥७॥
शरीरकर्शनात् प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्शनात्॥८॥
(मनोः)
भूमौ तु जायते सर्वं भूमौ सर्वं विनश्यति।
भूमिः प्रतिष्ठा भूतानां भूमिरेव परायणम्॥९॥
(महाभारते)
इति राष्ट्रगुणपद्धतिः ॥
____________
९३. अथ दुर्गपद्धतिः।
पृथुसीमं महाखातमुच्चप्राकारगोपुरम्।
समावसेत् पुरं शैलसरिन्मरुवनाश्रयम्॥१॥
धन्वदुर्गं महीदुर्गमब्दुर्गं वार्क्षमेव च।
नृदुर्गं गिरिदुर्गं च समाश्रित्यावसेत् पुरम् ॥२॥
सापसाराणि दुर्गाणि भुवः सानूपजाङ्गलाः।
निवासाय प्रशस्यन्ते भूभुजां भूतिमिच्छताम्॥३॥
(मनोः)
इष्टाः पशुमृगव्याला मत्स्याश्चाभयचारिणः।
अन्यत्र गुप्तिस्थानेभ्यो वधबन्धमवाप्नुयुः॥४॥
(कौटिल्ये)
दुर्गाणि दुर्गहाण्यासंस्तस्य रोद्धुरपि द्विषाम्।
नहि सिंहो गजास्कन्दी भयाद् गिरिगुहाशयः॥५॥
(कालिदासस्य )
दुर्गेषु वै महाराज! षट्सु वै शास्त्रनिश्चिताः।
सर्वदुर्गेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुर्गमम्॥६॥
यत्पुरं दुर्गसम्पन्नं धान्यायुधसमन्वितम्।
वश्यामात्यबलो राजा तत्पुरं स्वयमाविशेत्॥७॥
(महाभारते )
दुर्गेण रक्ष्यते राष्ट्रं तस्मात् कोशस्ततो बलम्।
तस्माद् दुर्गप्रधाना वै जयलक्ष्मीर्महीभृताम्॥८॥
(राजग)
जलवद् धान्यधनवद् दुर्गे कालसहं महत्।
दुर्गहीनो नरपतिर्वाताभ्रावयवैः समः॥९॥
(कामन्दकीये)
इति दुर्गपद्धतिः॥
_______________
९४. अथ सेनापतिपद्धतिः।
हन्तारं परसैन्यानां दुःसाध्याहितनिश्चयम्।
इत्यादिलक्षणोपेतं कुर्वीत ध्वजिनीपतिम्॥१ ॥
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञं सहिष्णुं देशजं तथा।
अलुब्धं लब्धसन्तुष्टं स्वामिमित्रं बुभूषकम्॥२॥
सेनापतिं यः कुरुते न चैनमवमन्यते।
तस्य विस्तीर्यते राष्ट्रं ज्योत्स्ना ग्रहपतेरिव॥३॥
(महाभारते )
ऋते सेनाप्रणेतारं पृतना सुमहत्यपि।
दीर्यते युद्धमासाद्य पिपीलिकपटं यथा॥४॥
यथाप्यकर्णधारा नौ रथश्चासारथिर्यथा।
द्रवेद् यथेष्टं तद्वत् स्यादृते सेनापतेर्बलम्॥५॥
नद्यद्रिवनदुर्गेषु यत्र यत्र भयं भवेत्।
सेनापतिस्तत्र तत्र गच्छेद् व्यूहीकृते बले॥६॥
दाता प्रियंवदो दान्तो मतिमान् दृढनिश्चयः।
राज्ञा सेनापतिः कार्यः शूरो युद्धविशेषवित्॥७॥
अभिप्रायं यो विदित्वा तु भर्त्तुः सर्वाणि कार्याणि करोत्यवक्रः।
वक्ता हितानामनुरक्त आर्यः शक्तिज्ञ आत्मैव हि सोऽनुकम्प्यः ॥८॥
क्रूरं व्यसनिनं स्तब्धमप्रगल्भमनायकम्।
मूर्खमन्यायकर्त्तारं नाधिपत्ये नियोजयेत्॥९॥
(महाभारते)
इति सेनापतिपद्धतिः ॥
____________
९५. अथ बलपद्धतिः।
मौलं बलं भृतं चाथ श्रै(ष्णि ?णि) काटविकं तथा।
मैत्रं शात्रवमित्येवं षड्विधं बलमुच्यते॥१॥
अति धर्माद् बलं मन्ये बलाद्धर्मः प्रवर्त्तते।
बलात् प्रतिष्ठितो धर्मो धरण्यामिव जङ्गमः॥२॥
बभूषेद् बवलमेनेह सर्वं बलवतो वशे।
श्रियं बलममात्यांश्च बलवानिह विन्दति॥३॥
धूमो वायोरिव वशं बलं धर्मोऽनुवर्तते।
अनश्वरे बले धर्मो द्रुमे वल्लीवसंश्रितः॥४॥
वश्यो बलवतां धर्मः सुखं भोगवतामिव।
नास्त्यसाध्यं बलवतां सर्वं बलवता जितम्॥५॥
(महाभारते )
सैन्येन लभ्यते राज्यं सेनाधीना जयश्रियः।
सैन्येन शासनं राज्ञां न क्वचित् प्रतिहन्यते॥६॥
गण्यः सैन्येन नृपतिः सैन्येनायाति मान्यताम्।
निर्दैन्यः सैन्यवानेव सैन्यादन्यन्न विद्यते॥७॥
(कामन्दकीये)
*विसमम्मि वि अविसण्णो धारेइ धुरं धुरन्धरो च्चिअ अवरम्।
किं दिणअरोव राए हिणस्स होइ अवहुप्पणं ससिबिम्बम्6॥८॥
इति बलपद्धतिः॥
____________
**९६. अथ गजप्रशंसापद्धतिः। **
वारणा यत्र तत्राहं यत्राहं तत्र वारणः।
न ते यत्र न तत्राहं नाहं यत्र न तत्र ते॥१॥
ततः पार्ष्ण्यङ्कुशाङ्गुष्ठैः कृतिना चोदितो द्विपः।
प्रसादितकरः पायात् स्तब्धकर्णेक्षणो द्रुतम्॥२॥
(महाभारते )
सुगन्धिदानच्युतीशीकरेषु दन्ताभिघातस्फुटितोपलेषु।
गजेषु नीलाभ्रसमप्रभेषु राज्यं निबद्धं पृथिवीपतीनाम्॥३॥
(कामन्दकीये)
जले स्थले च द्रुमसङ्कटे च चलेऽचले साधु समेऽसमे च।
प्राकारहर्म्याट्टविदारणे च जयो ध्रुवं नागवतां बलानाम्॥४॥
सुकल्पितः संयति दृष्टमार्गः स्वधिष्ठितो वीरतमेन पुंसा।
तुरङ्गमानामपि कल्पितानामेको गजः षष्टिशतानि हन्ति॥५॥
भयेषु दुर्गाणि नदीषु सेतवो
गृहाणि मार्गेषु रणेषु राक्षसाः।
मनः प्रसादेषु विनोदहेतवो
गजा इवान्यत् किमिवास्ति वाहनम्॥६॥
(भोजस्य)
एको हि वारणपतिर्द्विषतामनीकं
व्यक्तं निहन्ति मदसत्त्वगुणोपपन्नः।
नागेषु हि क्षितिभृतां विजयो निबद्ध-
स्तस्माद् गजाधिकबलो नृपतिः सदा स्यात्॥७॥
(कामन्दकीये)
इति गजप्रशंसापद्धतिः ॥
____________
९७. अथ तुरगप्रशंसापद्धतिः।
यस्याश्वा विजयस्तस्य यस्याश्वास्तस्य मेदिनी।
यस्याश्वाः सम्पदस्तस्य यस्याश्वास्तस्य कीर्त्तयः॥१॥
(शालिहोत्रे)
निवसत्यश्वसङ्घातैः सङ्कीर्णा यस्य वाहिनी।
तस्य सागरपर्यन्ता हस्ते तिष्ठति मेदिनी॥२॥
(गणककृतेः)
त्यागभोगविलासेषु राज्ञां मित्रपरम्परा।
असिसङ्घट्टसङ्घाते मित्रमेकं तुरङ्गमः॥३॥
(अश्वहृदये)
श्रान्तं युद्धेषु निर्भिन्नं शस्त्रैः संज्ञाविपर्य (ते?ये)।
अतिवाहयते भूषमेक एव तुरङ्गमः॥४॥
(अश्वशास्त्रे)
राजारूढो हयो भाति हयस्थः शोभते नृपः।
उभयोरविशेषत्वाद्राष्ट्र (मा? स्या) त्मसमा हयाः॥५॥
(अश्वहृदये)
गन्धं च माल्यं च विलेपनं च स्वादुं हितं खादनभोजनं च।
आहारकाले स्मरणं च सर्वं सङ्ग्रामकाले तुरगाः स्मरन्ति॥६॥
(अश्वहृदये)
बलाभिपूर्णाः स्थिरसत्त्वबन्धुरंहस्विनो लक्षणयोगमृत्युः (?)।
तुरङ्गमा यत्र वसन्ति देशे तत्र स्थिरा सङ्गमुपैति लक्ष्मीः॥७॥
किं स्यन्दनैः केतनदीर्णमेघैः किं वा गजैर्गण्डविदीर्णदानैः।
किं पत्तिभिर्वा तुरगो यदि स्यात् स एव सङ्ख्येषु जयं प्रसूते॥८॥
कृच्छ्रेषु सन्मित्रमुदूढभारं भूषा च हृद्या विहृतिष्वमेया।
रणाम्बुराशिष्वपि यानपात्रं तत् किं न यस्मान्नृपतेस्तुरङ्गः॥९॥
(राजपुत्रीये)
रात्रिश्चन्द्रविवर्जितेव नलिनीवोत्सन्नपङ्केरुहा
योषित् प्रोषितभर्त्तृकेव जलदच्छन्ना दिनश्रीरिव।
लीलोद्यानमहीरुहां ततिरिवानुद्भिन्नचूतद्रुमा
गर्जत्कुञ्जरवीरवत्यपि चमूर्न भ्राजतेऽश्वैर्विना ॥१०॥
(श्रृङ्गारप्रकाशे)
इति तुरगप्रशंसा पद्धतिः ॥
______________
९८. अथ पदातिपद्धतिः।
पितृपैतामहो वंश्यः संहतो दत्तवेतनः।
विख्यातपौरुषो जन्यः कुशलः कुशलैर्वृतः॥१॥
प्रवासायासदुःखेषु युद्धेषु च कृतश्रमः।
अद्वैध्यः क्षत्रियमायो दण्डो दण्डविदां मतः॥२॥
योधाः समरशौण्डीराः कृतज्ञाः शस्त्रकोविदाः।
इष्वस्त्रकुशला यस्य तस्येयं नृपतेर्मही॥३॥
(महाभारते)
पित्रा संवर्धितो नित्यं कृतास्त्रः साम्परायिकः।
तस्य दण्डवतो दण्डं स्वदेहान्न विशिष्यते॥४॥
(कामन्दकीये)
इति पदातिपद्धति ॥
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**अथ वीरपद्धतिः। **
असमर्थं परित्यज्य समर्थाःपरिभुञ्जते।
नृपाणां नास्ति दायाद्यं वीरभोग्या वसुन्धरा॥१॥
(महाभारते)
योषिन्मध्ये सभामध्ये सुलभाः खड्गपाणयः।
असिसङ्घातसङ्घट्टविष्फुलिङ्गेषु दुर्लभाः॥२॥
(वल्लभदेवस्य )
जयेन लभ्यते लक्ष्मीर्मृतेनापि सुराङ्गना।
क्षणविध्वंसिभिः कायैः का चिन्ता मरणे रणे॥३॥
(पञ्चतन्त्रे)
शातयत्येव तेजांसि दुरस्थोऽप्युन्नतो रिपुः।
सायुधोऽपि निकृष्टात्मा किमासन्नः करिष्यति॥४॥
नात्युच्चशिखरो मेरुर्नातिनीचंरसातलम्।
व्यवसायद्वितीयानां नास्त्यपारो महोदधिः॥५॥
(वल्लभदेवस्य)
विद्याविक्रमजं योऽत्ति सायुधोऽत्तीह मानवः!
श्वापि नाम स्वलाङ्गूलचालनात् फलमश्नुते॥६॥
(पञ्चतन्त्रे)
बहवः पङ्गवोऽपीह नराः शास्त्राण्यधीयते।
विरला रिपुखद्गोग्रधारापातसहिष्णवः॥७॥
सर्वैर्गुणैर्विहीनोऽपि वीर्यवान् हि तरेद् रिपून्।
सर्वैरपि गुणैर्युक्तो निर्वीर्यः किं करिष्यति॥८॥
(वल्लभदेवस्य)
स्वर्गे हतः पूज्यते वै हन्ता त्वत्रैव पूज्यते।
द्वावेव सुखमेधेते हन्ता यश्चैव हन्यते॥९॥
साधयत्यसहायोऽपि कार्यमुद्धतपौरुषः।
सिंहः पातयते मत्तानेक एव मतङ्गजान्॥१०॥
यथा चराणामचरा ह्यदंष्ट्रा दंष्ट्रिणामपि।
अपाणयः पाणिमतामन्नं शूरस्य कातराः॥११॥
(महाभारते)
क्षमया हि समायुक्तं मामयं मकरालयः।
असमर्थं विजानाति धिक् क्षमामीदृशे जने॥१२॥
विक्लवो वीर्यहीनो यः स दैवमनुवर्त्तते।
वीराः सम्भावितात्मानो न दैवं पर्युपासते ॥१३॥
(श्रीरामायणे)
उदायुधो यावदहं तावदन्यैः किमायुधैः।
यद्वा न सिद्धमस्त्रेण मम तत् केन सेत्स्यति॥१४॥
(वेणीसंहारे)
अजन्मा पुरुषस्तावद् गतासुस्तृणमेव वा।
यावन्नेषुभिरादत्ते विलुप्तमरिभिर्यशः ॥१५॥
ग्रसमानमिवौजांसि सदसा गौरवेरितम्।
नाम यस्याभिनन्दन्ति द्विषोऽपि स पुमान् पुमान् ॥१६॥
(भारवेः)
छिन्नेन पतता व(ह्नौ) यन्मुखेन हरेत् कृते (?)।
स्वेति हेति हरेणोक्ते स्वाहासीत् सैष रावणः॥१७॥
(महाभारते)
अकृत्वा हेलया पादमुच्चैर्मूर्धसु विद्विषाम्।
कथङ्कारमनालम्बा कीर्त्तिर्द्यामधिरोहति॥१८॥
(माघे)
गाण्डीवेनाभिधास्यामि क्लीबाहि भुवनोत्तराः।
कर्त्तव्यमेव सर्वेण चरमं पूर्वमेव वा॥१९॥
(महाभारते)
तावद् गर्जति मातङ्गो वने मदकलालसः।
शिरोवलग्नलाङ्गूलो यावन्नायाति केसरी॥२०॥
(वल्लभदेवस्य)
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥२१॥
(पञ्चतन्त्रे)
पृथुर (लमभयं? यमहं) क्रशीयान् गम्यो नास्याहमित्यनास्थैषा।
किमचलशिरोऽतिमहदिति वज्रमणीयो न दारयति॥२२॥
(रवि गुप्तस्य)
अङ्कणवेदी वसुधा कुल्या जलधिः स्थली च पातालम्।
वल्मीकश्च सुमेरुः कृतप्रतिज्ञस्य पुरुषस्य॥२३॥
(भट्टबाणस्य)
यदि खाण्डवमेष्यति प्रमादात् सगणो वा परिरक्षितुं महेन्द्रः।
शरताडितखण्डकुण्डलानां कदनं द्रक्ष्यति देववाहिनीनाम्॥२४॥
(महाभारते)
को धीरस्य मनस्विनः स्वविषयः को वा विदेशः स्मृतो
यं देशं श्रयते तमेव कुरुते बाहुप्रतापार्जितम्।
यद् दंष्ट्रानखराङ्गुलिप्रहरणः सिंहो वनं गाहते
तस्मिन्नेव तद्विपेन्द्ररुधिरैस्तृष्णां छिनत्त्यात्मनः॥२५॥
(पञ्चतन्त्रे)
गरूए बिसमरकज्जे विअसन्तो ञ्चिअ फलं लभन्ति समत्था।
बत्थप्फलम्मि कुसुमे गलिणो होइ महुअराण अवसरे॥२६॥
*ववसाअसप्पिवासा कह ते हत्थट्ठिअं ण पावेन्ति जसम्।
जे जीविअसन्देहे विसं भुअङ्गो व्व उव्वमन्ति अमरिसम्॥२७॥
अकअत्थपडिणिअत्ता कह सॅंमुहालोअमेत्तपडिसंकन्तम्।
दप्पणअलेसु व ठिअं णिअअं पेच्छह पिआमुहेसु विसाअम्॥२८॥
गरुम्मि विडिवक्खे होन्ति भडा अहिअवारिअप्पडिऊला।
पडिगअगन्धाइद्धा उद्धंकुसरुद्धमत्थए व्व गइन्दा॥२९॥
______________________________________
* व्यवसायसपिपासाः कथं ते हस्तस्थितं न पास्यन्ति यशः।
ये जीवितसन्देहे विषं भुजङ्गा इवोद्वमन्त्यमर्षम् ॥
अकृतार्थप्रतिनिवृत्ताः कथं सम्मुखालोकमात्रप्रतिसङ्क्रान्तम्।
दर्पणतलेष्विव स्थितं निजकं द्रक्ष्यथ प्रियामुखेषु विषादम्॥
गुरावपि प्रतिपक्षे भवन्ति भटा अधिकवारितप्रतिकूलाः।
प्रतिगजगन्धाविद्धा ऊर्ध्वांकुशरुद्धमस्तका इव गजेन्द्राः ॥
*काअरपडिमुक्कधुरं जअन्ति पत्थाणलङ्घिअग्गक्खन्धा।
पुढमं ता णिअअबलं पच्छा पहरेहि सुपुरिसा पडिनक्खम्॥३०॥
वच्चन्ता अहभूमिं कड्ढिअसुभडासिपत्तपथापडिआ।
णवर ण चलन्ति वीअं लुअपक्खा महिहरो व्व बेरावन्धा॥३१॥
समुहमिलएक्कमेक्के को इर आसण्णसंसअम्मि सहाओ।
जाव ण दिज्ज दिट्ठी काएव्वं दाव होइ चिरणिव्वुत्तम्॥३२॥
अण्णेन्ति मङ्गलाइं अलिअह सिरी जसो पवङ्ढइ पुरओ।
पडिवण्णरणुच्छाहे पडिपक्खुद्धरणपत्थिअम्मि सुउरिसे॥३३॥
(सेतुबन्धे)
इत्तो रुहिरं इह मोत्तिआइ इह करिकवाललद्धाइ।
पुच्छदु अण्णं पञ्चाणणस्स मग्गो वि दुव्विसहो॥३४॥
अच्छतु ताव मइद्दो गन्धो पिहुअस्स जसु संकन्तो।
ते विणवणन्ता दीसन्ति वज्जइत्तागलं देहि ॥३५॥
अच्छन्तु गआ किम्मएहि गणिआहि कत्थ वणमहिसा।
घणगज्जिअं पि ण सहइ अहिमाणी केसरिकिसोरो॥३६॥
ससअवहेण विकोसो वि सारमेभस्स होइ परिओसो।
सीहस्स उणो मत्तेभकुम्भदलणे व अग्गहणा॥३७॥
णिसि अखरणदपहरणवितिण्णकरिकुम्भभासुरकरेण।
हरिणा ण को विरोहो का मेत्ती सह उइन्देण॥३८॥
_______________________________________
*कातरप्रतिमुक्तधुरं जयन्ति प्रस्थानलङ्घिताग्रस्कन्धाः।
प्रथमं तावन्निजकबलं पश्चात् पश्चात् प्रहरणैः सुपुरुषाः प्रतिपक्षम्॥
वजन्तोऽतिभूमिं कृष्टसुभटासिपत्रपथापतिताः।
केवलं न चलन्ति द्वितीयं लूनपक्षा महीधरा इव वैराबन्धाः॥
सम्मुखमिलितैकैकस्मिन् कः किलासन्नसंशयेसहायः।
यावन्न दीयते दृष्टिः कर्तव्यं तावद्भवति चिरनिर्वृत्तम्॥
अनुगच्छन्ति मङ्गलान्यालीयते श्रीर्यशः प्रवर्धते पुरतः।
प्रतिपन्नरणोत्साहे प्रतिपक्षोद्धरणप्रस्थिते सुपुरुषे॥
पहरसि जेहिअ अगइन्दे करा उणहपञ्जरेहि हत्थेहि।
तेहिञ्चिअ पहरन्तो लज्जसि ण उइन्दहरिणम्मि॥३९॥
सोकेण णिज्जविज्जइ धीरपआवाण लोविअंभन्तो।
उप्पत्तिकारणं जस्स खग्गधाराजलच्चेअ॥४०॥
मरणभअं ण भअं चिअजाआ मरइ त्ति णत्थि सन्देहो।
जं माणखण्डणं सु(प? पु) रिसाण मरणादु (तं? त्तं) अहिअम्॥४१॥
(गाथाकोशे)
इति वीरपद्धतिः॥
_________________
१००. अथ भीरुपद्धतिः।
असन्तो ये निवर्त्तन्ते वेदेभ्य इव नास्तिकाः।
नरकं भजमानास्ते प्रतिपद्यन्ति किल्बिषम्॥१॥
पलायन्ते ये त्वहतास्तांश्च वैवस्वतो यमः।
दण्डयन् भर्त्सयन् नित्यं निरयेभ्यो न मुञ्चति।॥ २॥
मनुष्यापशदा ह्येते ये भवन्ति पराङ्मुखाः।
रागवद्धनमात्रास्ते नैव ते प्रेत्य नो इह॥३॥
शत्रुभिश्चापहसितो मानी पौरुषवर्जितः।
चेतयानो हि को जीवेत् कृच्छ्राच्छत्रुभिरुज्झितः॥४॥
नैष पूर्वैः कृतो धर्मः क्षत्रियस्य पलायनम्।
श्रेयो हि मरणं युद्धे क्षत्रियस्य पलायनात्॥५॥
आत्मानं च परं चैव पलायन् हन्ति संयुगे।
द्रव्यनाशो व्ययोऽकीर्त्तिरयशश्च पलायने॥६॥
यो हि तेजो यथाशक्ति न दर्शयति विक्रमात्।
क्षत्रियो विजिताकाङ्क्षी स्तेन इत्येव तं विदुः॥७॥
यच्चास्य सुकृतं किश्चिदमुत्रार्थमुपार्जितम्।
भर्त्ता तत् सर्वमादत्ते परावृत्तिपरस्य तु॥८॥
त्यागेन यः स्वनाथानां स्वान् प्राणांस्त्रातुमिच्छति।
तं हन्युः काष्ठलोष्टैर्वा दग्धव्यः शकटाग्निना॥९॥
यस्तु यौधः परावृत्तः स त्रस्तो हन्यते परैः।
अप्रतिष्ठं स नरकं याति नास्त्यत्र संशयः॥१०॥
यस्तु भीतः परावृत्तः सङ्ग्रामे हन्यते परैः।
भर्तुर्यद् दुष्कृतं किञ्चित् तत् सर्वं प्रतिपद्यते॥११॥
निरामर्षं निरुत्साहं निर्वीर्यमरिनन्दनम्।
मा स्म सीमन्तिनी काचिज्जनयेत् पुत्रमीदृशम्॥१२॥
(महाभारते)
मात्सिज्जसुभअस्स धीरमत्तेभमाणगरुएण \।
सीहेण विहस विव्वत्ति सोहइ तुजुज्झमाणस्स॥१३॥
कुञ्जरमइन्ददंसणविमुक्कदुव्वोरमयपसंगेण।
णहुणवरतुए अप्पा वीरो वि लहुत्तणं णीओ॥१४॥
सअलजणपेच्छणिज्जो सोव्वि अगरुओ गइन्द तुवे।
अप्पा केसरिभरण जंभन्त अज्ज लघुत्तणं णीओ॥१५॥
मुक्खत्तणेण सहसीहंपडिऊण पासुत्तम्।
असरणभए किं सरणं एहि तुह बाहवच्छिहीसि॥१६॥
(गाथाकोशे)
इति भीरुपद्धतिः॥
_____________
१०१. अथ धैर्यपद्धतिः।
न सन्त्याज्यं च ते धैर्यं कदाचिदपि पाण्डव!
धीरस्य स्पष्टदण्डस्य नास्याज्ञा प्रतिहन्यते॥१॥
धैर्येण युक्तस्य सतः शरीरं नापि शीर्यते।
आरोग्यात् तु शरीरस्य स पुनर्विन्दते श्रियम्॥२॥
अथ राज्ञा दरः कार्यो न तु कस्यांचिदापदि।
अपि चेतसि दीर्णः स्यान्नैव वर्तेत दीर्णवत्॥३॥
(महाभारते)
भीतवत् संविधातव्यं यावद् भयमनागतम्।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमभीतवत्॥४॥
दीर्णं हि दृष्ट्वा राजानं सर्वमेवानुदीर्यते।
राष्ट्रं बलममात्याश्च पृथक्कुर्वन्ति तन्मतिम्॥५॥
पुत्रैर्दारैः सुखैश्चैव वियुक्तस्य धनेन च।
मग्नस्य व्यसने घोरे पुंसः श्रेयस्करी धृतिः॥६॥
(महाभारते )
कदर्थितस्यापि च धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम्।
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधः शिखा याति कदाचिदेव॥७॥
इति धैर्यपद्धतिः ॥
________________
१०२. अथ मानपद्धतिः।
न कदाचिद् बहिर्यान्ति मानिनां प्रार्थनागिरः।
यदि निर्यातुमिच्छन्ति तदा प्राणपुरःसराः॥१॥
(शृङ्गारशतके)
कुसुमस्तबकस्येव द्वयी वृत्तिर्मनस्विनः।
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य शीर्यते वन एव वा॥२॥
म्रियते मानमापन्नो न याति च पराभवम्।
शिलास्तम्भोऽतिभारेण भिद्यते नैव नम्यते॥३॥
(व्यासशतके)
परान्नं प्राप्य दुर्बुद्धे! मा प्राणेषु दयां कृथाः।
दुर्लभानि परान्नानि प्राणा जन्मनि जन्मनि॥४॥
(बृहत्कथायाम् )
यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहवः स तु जीवति।
बकोऽपि किं न कुरुते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम्॥५॥
एक एव खगो मानी चिरं जीवति चातकः।
म्रियते मानमापन्नो याचते वा पुरन्दरम्॥६॥
(पञ्चतन्त्रे)
तुङ्गत्वमितरा नाद्रौ नेदं सिन्धावगाधता।
अलङ्घनीयताहेतुरुभयं तन्मनस्विनि॥७॥
नीतिरापदि यद् गम्यः परस्तन्मानिनो ह्रिये।
विधुर्विधुन्तुदस्येव पूर्णस्तस्योत्सवाय सः॥८॥
(माघे)
तावदाश्रीयते लक्ष्म्या तावदस्य स्थिरं यशः।
पुरुषस्तावदेवासौ यावन्मानान्न हीयते॥९॥
दुरासदवनज्यायान् गम्यस्तुङ्गोऽपि भूधरः।
न जहाति महौजस्कं मानप्रांशुमलङ्घ्यता॥१० ॥
(भारवेः)
वरमश्रीकता लोके नासमानसमानता।
इतीव कुमुदोद्धे (दः? दात्) कमलं मुकुलायते॥११॥
वरमुन्नतलाङ्गूलात् सटाधूननधूसरात्।
सिंहात् पादप्रहारोऽपि न सृगालाधिरोहणम्॥१२॥
(बृहत्कथायाम् )
दातुः शत्रोश्च गूहन्ते लुठन्तोऽपि मुमूर्षया।
उत्तानप्रसृतं हस्तमपराङ्गं च मानिनः ॥१३॥
अभिमानधनस्य गत्वरै-
रसुभिः स्थास्नु यशश्चिचीषतः।
अचिरांशुविलासचञ्चला
ननु लक्ष्मीः फलमानुषङ्गिकम्॥१४॥
ज्वलितं न हिरण्यरेतसं
चयमास्कन्दति भस्मनां जनः।
अभिभूतिभयादसूनतः
सुखमुज्झन्ति न धाम मानिनः॥१५॥
अभिमानवतो मनस्विनः प्रियमुच्चैः पदमारुरुक्षतः।
विनिपातनिवर्तनक्षमं मतमालम्बनमात्मपौरुषम्॥१६॥
असमापितकृत्यसम्पदां हतवेगं विनयेन तावता।
प्रभवन्त्यभिमानशालिनां मदमुत्तम्भयितुं विभूतयः॥१७॥
(भारवेः)
अत्युन्नतिव्यसनिनः शिरसोऽधुनैष
स्वस्यैव चातकशिशुः प्रणयं विधत्ताम्।
अस्यैतदिच्छति यदि प्रततासु दिक्षु
ताः स्वच्छशीतमधुराः क्वनु नाम नापः॥१८॥
(भल्लटे)
स्व(ल्पो?ल्पे ) ऽप्यामिषवस्तुनि प्रपतितो नीचः करोत्य (ञ्ज?र्थ) ना
(मा) कारैरपि चार्थितां कथयति प्राज्ञस्तु भावोन्नतिम्।
श्वा तु प्रोषितपिण्डमप्यभिलषल्ँलाङ्गूलमुल्लासय-
त्यालानार्पितकन्धरोऽपि च करी यत्नेन सम्भोज्यते॥१९॥
पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालीं कपाली-
मादायाम्नायगर्भं द्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठम्।
द्वारं द्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो
मानी प्राणी सनाथो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषु दीनः॥२०॥
लज्जे! लज्जे! निमज्ज क्वचिदपि परतस्तिष्ठ तिष्ठ प्रतिष्ठे!
याहि द्रेणीं(?) हिमाद्रेः पुनरपि तपसे भारति! स्वस्ति तुभ्यम्।
सोऽयं प्रक्षीणपुण्यः प्रचुरपरिभवातङ्कनिर्हृष्टशङ्कः
सेवापङ्के पतामि द्रविणकणधियां निष्कृपाणां नृपाणाम्॥२१॥
(पञ्चतन्त्रे)
ण अ तह तवेइ हिअअं दोग्गोच्चहुआसणो कुलीणाण।
अणुकम्पासअगरुओ णूणं जह लद्धुसम्माणो॥२२॥
इच्छापडिवण्णसुहं काले थोअं पि होइ मरणिज्जम्।
दरमिलिअमाणभङ्गे पच्छा पुदुवीए विण कज्जम्॥२३॥
सन्तोतामअमलालसेहि धण्णेहि तण्ण विण्णअम्।
जं होइ हिअअदुक्खं देहि त्ति परं भणन्तस्स॥२४॥
क्तणम्मिणवस्मरुआ ण होन्ति मरुआविपकलसहवा।
अवलम्बणं गअच्चिअ आणखणपक्खखुत्ताण॥२५॥
अखलन्ता दीणत्तदरीसु कअमाणलट्ठिविट्ठम्भा।
रोरत्तणन्धआरेभमिउं जाणन्ति सप्पुरिसा॥२६॥
वेमग्गाभुवणअले माणिणि माणं ण आण पुरिसाण।
अहवा पावेन्ति सिरिं अ वहमन्ता समुप्पेन्ति॥२७॥
एकोच्चिअ जीअ (अ)सुहं चाअअसउणो घराइ जो माणि।
तण्णं कत्तो मरइ (वा ? या ) चइ अहवा सुराहिवलम्॥२८॥
(गाथाकोशे)
इति मानपद्धतिः ॥
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अथ मानहीनपद्धतिः।
तुल्येऽपि हि मनुष्यत्वे भृत्यत्वे चातिगर्हिते।
तत्रापि यो न प्रथमः सोऽपि वाञ्छति जीवितुम्॥१॥
जीव्यते धनहीनेन विकलाङ्गेन जीव्यते।
जीवि(ते)प्रियतां पश्य परिभूतोऽपि जीवति॥२॥
(भोजस्य)
शक्तिवैकल्यनम्रस्य निःसारत्वाद् बलीयसः।
जन्मिनो मानहीनस्य तृणस्य च समा गतिः॥३॥
(बृहत्कथायाम्)
मुनिरपि निरागसः कुतो मे
भयमित्येष न भूतयेऽभिमानः।
परवृद्धिषु बद्धमत्सराणां
किमिव ह्यस्ति दुरात्मनामलङ्घ्यम्॥४॥
(भारवेः)
इति मानहीनपद्धतिः॥
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१०४. अथान्तरङ्गनिन्दापद्धतिः।
यं यं गुणानुरागेण राजा नयति मुख्यताम्।
तस्य तस्योपघाताय यतन्ते राजवल्लभाः॥१॥
आयुक्तकेभ्यश्चोरेभ्यः परेभ्योराजवल्लभात्।
पृथिवीपतिलोभाच्च नराणां पञ्चधा भयम्॥२॥
अन्तरङ्गा हि ये राज्ञः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्या भवन्ति प्रायेण तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः॥३॥
राज्योपधातंकुर्वन्ति ये पापा राजवल्लभाः।
एकैकशः समेता वा तान् दूष्यान् सम्प्रचक्षते॥४॥
दूष्यानुपांशुदण्डेन हन्याद् राजाविलम्बितम्।
प्रदूष्यं वा प्रकाशं वा लोकविद्वेषमागतान्॥५॥
न बालिशा न च क्षुद्रा नाप्राज्ञा नाजितेन्द्रियाः।
नाकुलीना जनाः पार्श्वे स्थाप्या राज्ञा हितैषिणा॥६॥
(कामन्दके)
द्वेष्योऽपि सम्मतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम्।
त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदङ्गुलीवोरगक्षता॥७॥
(कालिदासस्य)
ये कर्षकेभ्योऽर्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात् प्रवासनम्॥८॥
दौष्कुलेयाश्च लुब्धाश्च नृशंसा निरपत्रपाः।
न त्वा जातु निषेवेयुर्यावदार्द्रकपाणयः॥९॥
अकुलीनस्तु पुरुषः प्रकृतः साधुसंक्षयात्।
दुर्लभैश्वर्यसम्प्राप्तो गर्वितः शत्रुतां व्रजेत्॥१०॥
काकः श्वा च बिडालश्चनकुलः सर्प एव च।
अकुलीना च या नारी तुल्यास्ते परिकीर्तिताः॥११॥
असन्तुष्टाश्च्युताः स्थानान्मानात् प्रत्यवरोपिताः।
स्वयं चोपहता भृत्या ये चाप्युपहताः परैः॥१२॥
परिक्षीणाश्च लुब्धाश्च क्रुद्धा भाराभितापिताः।
हृतस्वा मानिनो ये च त्यक्तोपात्ता महेप्सवः॥१३॥
संलालिताश्च ये केचिद् व्यसनौघप्रतीक्षिणः।
अन्तर्हितास्तूपहिताः सर्वे ते परसाधनाः॥१४॥
इन्द्रियाण्यन्तरङ्गाणि पातयन्ति यथा जनान्।
अभ्यन्तरास्तथा राष्ट्रे भृत्याः स्वार्थपरायणाः॥१५॥
रिक्ताः कर्मणि पटवस्तृप्तास्त्वलसा भवन्ति ये भृत्याः।
तेषां जलौकसामिव पूर्णानां रिक्तता कार्या ॥१६॥
धनं प्राज्यं पुत्रदारं समृद्धिं सर्वं लुब्धाः प्रार्थयन्ते परेषाम्।
लुब्धे दोषाः सम्भवन्तीह सर्वे तस्माद् राजा न प्रगृह्णीत लुब्धान्॥१७॥
(महाभारते)
इत्यन्तरङ्गनिन्दापद्धतिः ॥
_________________
१०५. अथ सद्भृत्यपद्धतिः।
प्रख्यातवंशमक्रूरं लोकसङ्ग्राहिणं शुचिम् \।
कुर्वीतात्महिताकाङ्क्षी परिवारं महीपतिः॥१॥
क्रूरोऽपि भोग्यतामेति परिवारगुणैर्नृपः।
न क्रूरपरिवारस्तु व्यालाकान्त इव द्रुमः॥२॥
(कामन्दकीये)
क्षमी दाता गुणग्राही स्वामी दुःखेन लभ्यते।
अनुकूलः शुचिर्दक्षो राजन् ! भृत्योऽपि दुर्लभः॥३॥
(महाभारते)
स्वभूमौ च वसेत् सर्वः परभूमौ न सञ्चरेत्।
न च बाह्येन संसर्ग कश्चिदभ्यन्तरो व्रजेत्॥४॥
(कौटिल्ये)
अणुरप्यपहन्ति विग्रहः प्रभुमन्तः प्रकृतिप्रकोपजः।
अखिलं हि हिनस्ति भूधरं तरुशाखान्तरघर्षजोऽनलः॥५॥
महौजसो मानधना धनार्चिता
धनुर्भृतः संयति लब्धकीर्तयः।
न संहतास्तस्य न भेदवृत्तयः
प्रियाणि वाञ्छन्त्यसुभिः समीहितुम्॥६॥
(भारवेः)
अप्राज्ञेन च कातरेण च गुणः स्यात् सानुरागेण किं
प्रज्ञाविक्रमशालिनोऽपि न भवेत् किं भक्तिहीनात् फलम्।
प्रज्ञाविक्रमभक्तयः समुदिता येषां गुणा भूतये
ते भृत्या नृपतेः कलत्रमितरे सम्पत्सु चापत्सु च॥७॥
(मुद्राराक्षसे)
णिज्जन्ति चिरपअत्ता समुद्दगि (हि) आ वि पडिप णइसोत्ता।
तीरीति विपत्तेउ असमाणि अपेसणा ण उण सप्पुरिसा॥८॥
(सेतुबन्धे)
इति सद्भृत्यपद्धतिः ॥
**________________ **
१०६. अथ असद्भृत्यपद्धतिः।
कुभृत्यो दुरुपानञ्चप्राप्यापि स्नेहसत्क्रियाम्।
स्वामिनः पदभङ्गाय स्वकाठिन्येन कल्पते॥१॥
(कविराक्षसस्य)
अलसं दुर्मुखं स्तब्धं क्रूरं व्यसनिनं शठम्।
असन्तुष्टमभक्तं च त्यजेद् भृत्यं नराधिपः॥२॥
लघून्यपि न सिध्यन्ति भृत्यैः कार्याणि दुर्भृतैः।
न च सिक्ताः फलं वृक्षा दधते छिन्नपल्लवाः ३॥
(महाभारते)
गुरुर्ज्यौतिषिको बाणः किमेकः स्तम्भमूलकः।
प्रेषितप्रेषकश्चैव षडेते सेवकाधमाः॥४॥
स वंशस्यावदातस्य शशाङ्कस्येव लाञ्छनम्।
कृच्छ्रेषु व्यर्थया यत्र भूयते भर्तुराज्ञया॥५॥
(भारवेः)
असद्भिःसेवितो राजा स्वयं सन्नपि दूष्यते।
किं सेव्यो भोगिसंवीतो गन्धवानपि चन्दनः॥६॥
वाक्यं तु यो नाद्रियतेऽनुशिष्टः
प्राप्याभयं चापि नियुज्यमानः।
आत्माभिमानी प्रतिकूलवादी
त्याज्यः स तादृक् त्वरयैव भृत्यः॥७॥
(वल्लभदेवस्य)
इत्यसद्भृत्यपद्धतिः ॥
______________
१०७. अथ विश्वासपद्धतिः।
प्रज्ञाशौर्यविवृद्धेषु वृद्धेश्च शठवृत्तिषु।
स्वामी विश्वासनिद्रालुः पाताय न चिरायते॥१॥
गुणयुक्तेऽपि चैकस्मिन् विश्वसीत विचक्षणः।
सर्वार्थत्यागिनं राजा कुले जातं बहुश्रुतम्॥२॥
पूजयेत् तादृशं दृष्ट्वा शयनासनभोजने।
तस्मिन् कुर्वीत विश्वासं राजा कस्यांचिदापदि॥३॥
(महाभारते)
इति विश्वासपद्धतिः॥
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१०८. अथाविश्वासपद्धतिः।
कृतवैरे न विश्वासः कार्यस्त्विह सुहृद्यपि।
प्रच्छन्नं तिष्ठते वैरं गूढोऽग्निरिव दारुषु॥१॥
नास्ति वैरमतिक्रान्तं सान्त्वतोऽस्मीति नाश्वसेत्।
विश्वासाद्धन्यते लोकस्तस्माच्छ्रेयो ह्यदर्शनम्॥२॥
शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा सन्धिं बलीयसा।
समाहितश्चरेन्नित्यं कृतार्थं + न विश्वसेत्॥३॥
वध्यन्ते न ह्यविश्वस्ताः शत्रुभिर्दुर्बला अपि।
विश्वस्तास्त इव+न्ते (?) बलवन्तो हि शत्रुभिः॥४॥
सपत्नसहितो राज्ये कृत्वा सन्धिं न विश्वसेत्।
अपक्रामेत् ततः क्षिप्रं कृतकार्यो विचक्षणः॥५॥
अरिश्च मित्रं भवति मित्रं चापि प्रदुष्यति।
अनित्यचित्तः पुरुषस्तस्मिन् को नाम विश्वसेत्॥६॥
न जातु बलवान् भूत्वा दुर्बलान् विश्वसेद् बुधः।
भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमाद्यतः॥७॥
अकालमृत्युर्विश्वासो विश्वसन् हि विपद्यते।
यस्मिन् करोति विश्वासं स जीवत्यपरो मृतः॥८॥
विश्वासयेत् परांश्चैव विश्वसेच्च न कस्यचित्।
पुत्रेष्वपि च राजेन्द्र ! विश्वासो न प्रशस्यते॥९॥
(महाभारते)
अशङ्क्यमपि शङ्केत न त्वशङ्केत शङ्किता (१)।
भयं ह्यशङ्किताज्जातं समूलमपि कृन्तति॥१०॥
(पञ्चतन्त्रे)
स्त्रीषु राजसु सर्पेषु स्वाध्याये शत्रुसेविषु।
भोगे चायुषि विश्वासं कः पुमान् कर्त्तुमर्हति॥११॥
योऽरिणा सह सन्धाय विश्वस्तः स्थातुमिच्छति।
स सुप्त इव वृक्षाग्रात् पतितः प्रतिबुध्यते॥१२॥
(चाक्षुषीये)
न जातु गच्छेद्विश्वासं संहितोऽपि हि बुद्धिमान्।
अद्रोहसमयं कृत्वा वृत्रमिन्द्रः पुरावधीत्॥१३॥
(महाभारते)
संयोगं हेतुना गत्वा पितर्यपि न विश्वसेत्।
विश्वासादागतं सन्तं प्रायो द्रुह्यन्ति साधवः॥१४॥
(भोजः)
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
यस्मिन् विश्वासमायाति विभूतेः पात्रमेव सः॥१५॥
(नीतिशास्त्रे)
न विश्वसेद् दुष्टभावमासन्नं शत्रुसेविनम्।
स्त्रियं बालं च मूर्खं च नीचं चासत्प्रलापिनम्॥१६॥
(चाक्षुषीये)
अपराधो न मेऽस्तीति नैतद् विश्वासकारणम्।
विद्यते हि नृशंसेभ्यो भयं गुणवतामपि॥१७॥
(पश्चतन्त्रे)
नखिनां च नदीनां च शृङ्गिणां शस्त्रपाणिनाम्।
विश्वासो नोपगन्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च॥१८॥
( दण्डनीत्याम् )
स्त्रियां धूर्त्तेऽलसे भीरौ षण्डे परुषवादिनि।
चोरे न कार्यो विश्वासः कृतघ्ने न च नास्तिके॥१९॥
एतच्छास्त्रार्थतत्त्वं तु मयाख्यातं तवानघ ! \।
अविश्वासो नरेन्द्राणामपरं गुह्यमुच्यते॥२०॥
इत्यविश्वासपद्धतिः॥
____________
**१०९. अथ वैद्यप्रशंसापद्धतिः। **
राजा राजगृहासन्ने प्राणाचार्यं निवेशयेत्।
सर्वथा स भवत्येव सर्वत्र प्रतिजागृविः॥१॥
अभेद्योऽनुद्ध(तः ?तोऽ) स्तब्धः सूनृतः प्रियदर्शनः।
बहुश्रुतः कालवेदी जितग्रन्थोऽर्थकर्मवित्॥२॥
हेतौ लिङ्गे प्रशमने रोगाणामपुनर्भवे।
ज्ञानं चतुर्विधं यस्य स राजार्हो भिषक्तमः॥३॥
अनाथान् रोगिणो यश्च पुत्रवत् परिपालयेत्।
गुरुणा समनुज्ञातः स भिषक्छब्दमश्नुते॥४॥
यथा कञ्चुकमामुश्चन् वीरो हन्ति रणे रिपून्।
भिषक्कञ्चुकितो राजा तथा हन्त्यखिला रुजः॥५॥
व्याधेस्तत्त्वपरिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रहः।
एवद्वैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यः प्रभुरायुषः॥६॥
आयुर्वेदकृताभ्यासः सर्वज्ञः प्रियदर्शनः।
आर्यशीलगुणोपेत एष वैद्यो विधीयते॥७॥
(सङ्ग्रहे)
सर्वस्वमेव परमं प्राणा येषां कृते प्रयत्नोऽयम्।
वैद्या वैद्याः सततं येषां हस्ते स्थितास्तेऽपि॥८॥
(मानसोल्लासे)
इति वैद्यप्रशंसापद्धतिः॥
________________
११०. अथासद्वैद्यपद्धतिः।
अज्ञातशास्त्रसद्भावाञ्छास्त्रमात्रपरायणान्।
त्यजेद् दूराद् भिषक्पाशान् पाशान् वैवस्वतानिव॥१॥
यस्तु केवलशास्त्रज्ञः कर्मस्वपरिनिष्ठितः।
स मुह्यत्यातुरं प्राप्य प्राप्य भीरुरिवाहवम्॥२॥
यः पुनः कुरुते कर्म धार्ष्ट्याच्छास्त्रार्थवर्जितः।
सत्सु गर्हामवाप्नोति व (स? ध) मिच्छति राजतः॥३॥
यमः क्रूरो भिषक् क्रूरो यमात् क्रूरतरो भिषक्।
यमस्तु हरते प्राणान् वैद्यस्तु सवसूनसून्॥४॥
चिकित्सका वै दुष्टा ये लोभमोहसमन्विताः।
आ+ते व्रणकुष्ठैश्च श्वित्ररोगार्शसंयुताः॥५॥
आतुराद्वित्तहरणं मृताच्च प्रपलायनम्।
एतदैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यः प्रभुरायुषः॥६॥
बैद्यनाथ! नमस्तुभ्यं मारिताशेषमानव!
त्वयि विन्यस्ताभारो यत् कृतान्तः सुखमेधते॥७॥
गृध्री गृध्रं पृच्छति पितृवनमध्ये न दृश्यते धूमः।
मन्ये सम्प्रति वैद्योऽप्यन्यग्रामं गतो नूनम्॥८॥
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्।
सञ्चिन्त्यतामौषधमातुरं च किं नाम मन्त्रेण करोत्यरोगम्॥९॥
नटोऽपि दद्याद् गणिका च दद्यादभ्यर्थितः पाशुपतोऽपि दद्यात्।
वैद्यः कथं दास्यति याचकेभ्यो यो मर्त्तुकामादपि हर्त्तुकामः॥१०॥
कृषीवलानां भुवि कालवर्षादकालवर्षाद् भिषजां प्रमोदः।
यत् सस्यवृद्धिं कुरुते हि पूर्वं प्रजासु रोगप्रचयं द्वितीयम्॥११॥
दृष्टे रवौ सरसिजं कुसुदं हिमांशौ
नीलाम्बुवाहनिबिडे गगने शिखी च।
प्रायस्तथा नहि भजन्ति विकासलक्ष्मीं
व्याधौ यथा धनवतां भिषजां मुखानि॥१२॥
मूर्धानं प्रथमं विधूय तदनु ध्यात्वा चिरं मौनवा-
नाहारं प्रथमं निरुध्य रुचिरानन्यान् विशेषानपि।
क्वाथैः कर्शितकायमातुरनरं तैलं घृतं पाचयन्
हृत्वा दक्षिणया वसु व्यसुममुं त्यक्त्वा भिषग् धावति॥१३॥
(मानसोल्लासे)
इति असद्वैद्यपद्धतिः॥
________________
१११. अथ कविप्रशंसापद्धतिः।
कविः सूयति काव्यानि हृदा दधति सज्जनाः।
सूते मुक्ताः पयोराशिर्वहन्ति तरुणीस्तनाः॥१ ॥
सन्ति श्वान इवासङ्ख्याजातिभाजो गृहे गृहे।
उत्पादका न बहवः कवयः शरभा इव॥२॥
(सुबन्धोः)
ते वन्द्यास्ते महात्मानस्तेषां लोके स्थिरं यशः
यैर्निबद्धानि काव्यानि ये वा काव्येषु कीर्त्तिताः॥३॥
निरूप्यमेव न क्षेप्यं सूरिभिः सुकवेर्वचः।
रत्नाकरमपादाय काचः स्यान्न कदाचन॥४॥
इति कविप्रशंसापद्धतिः ॥
______
**११२. अथ कुकविपद्धतिः। **
नाकवित्वमधर्माय मृतये दण्डनाय वा।
कुकवित्वं पुनः साक्षान्मृतिमाहुर्मनीषिणः॥१॥
(भामहस्य)
कुकवेः कविचोरस्तु वरं यः सज्जनान् स्वया।
नोद्वेजयेद् दुरुक्त्या च सूक्त्या चास्य प्रहर्षयेत्॥२॥
कान्तं खलगिरा काव्यं लभते भूयसीं रुचिम्।
घृष्टं श्वदंष्ट्रया हृद्यं यथा हेमविभूषणम् ॥३॥
खलैर्हि योज्यते दोषैरपदोषापि भारती।
(अव)मर्शपदे क्षिप्ता वह्निशुद्धापि मैथिली॥४॥
गणयन्ति नापशब्दं न वृत्तभङ्गं क्षयं च नार्थस्य।
रसिकत्वेनाकुलिता वेश्यापतयश्च कवयश्च॥५ ॥
(कविवल्लभस्य)
इति कुकविपद्धतिः ॥
_____________
**११३. अथ वेश्याप्रशंसापद्धतिः। **
दृशा दग्धं मनसिजं जीवयन्ति दृशैव याः।
विरूपाक्षस्य जयिनीस्ताः स्तुवै वामलोचनाः॥१॥
कलाभिरुच्छ्रिता वेश्या रूपशीलगुणान्विता।
लभते गणिकाशब्दं स्थानं च जनसंसदि॥२॥
पूजिता सा सदा राज्ञा गुणवद्भिश्च संस्तुता।
प्रार्थनीया च गम्या च लक्षभूता च जायते॥३॥
(वात्स्यायने)
कलानां ग्रहणादेव सौभाग्यमुपजायते।
देशकालवपेक्ष्यासां प्रयोगः सम्भवेन्नवा॥४॥
योगज्ञा राजपुत्री तु महामात्रसुता तथा।
सहस्रान्तः पुरमपि स्ववशे कुरुते पतिम्॥५॥
वत्सः प्रस्नवने मेध्यः श्वा मृगग्रहणे शुचिः।
शकुनिः फलशातेषु स्त्रीमुखं रतिसङ्गमे॥६॥
(मानसोल्लासे)
इति वेश्याप्रशंसापद्धतिः ॥
________________
** ११४. अथ वेश्यानिन्दापद्धतिः। **
अभ्यासवर्जिता विद्या निरुद्योगा नृपश्रियः।
वेशयोग्याश्च रागिण्यो हास्यायतनमङ्गनाः॥१॥
स्मितं नृत्तं प्ररुदितं रागो रूढिरुदारता।
स्वप्नदृष्टमिवाशेषमसत्यं वारयोषितः॥२॥
अप्य (भी)ष्टा न लभ्यन्ते सन्त्यक्ता न त्यजन्ति च।
वसाना इव संसारे मोहनैकपराः स्त्रियः॥३॥
निष्कामाः कामहारिण्यो भोगिन्यो कुलादराः।
नित्यापहारहारिण्यो जृम्भन्ते वारयोषितः॥४॥
प्रहसन्ति विषादिन्योहृष्टाः शोचन्ति हेलया।
रागिण्य इव निघ्नन्ति कश्चित्तं वेत्ति योषिताम्॥५॥
कामुके नूतनासङ्गगाढालिङ्गनकातरे।
गणिका ग्रहगणनां करोति ध्यानमास्थिता॥६॥
(बृहत्कथायाम्)
अर्थप्रियतयात्मानमप्रियाय ददाति या।
कामात्मन्यपि निःस्नेहां कोऽनुरक्तेति मन्यते॥७॥
नासां कश्चिदगम्योऽस्ति नासां वयसि निश्चयः।
विरूपं वा सुरूपं वा पुमानित्येव भुञ्जते॥८॥
साधारणस्त्री गणिका सा वित्तं परमिच्छति।
निर्गुणेऽपि न विद्वेषो न रागोऽस्या गुणिन्यपि॥९॥
किन्तु तासां कलाकेलीकुशलानां मनोहरम्।
विस्मारितापरस्त्रीकं कुशलं जायते नृणाम्॥१०॥
(बल्लभदेवस्य )
संसारादपि साश्चर्यं स्वप्नादप्युन्नतभ्रमम्।
(श्व) पुच्छादपि निःशेषकुटिलं स्त्रीविचेष्टितम्॥११॥
(राज)
रक्ताकर्षणसक्ता मायाभिर्मोहतिमिररजनीषु।
गणिकाः पिशाचिका इव हरन्ति हृदयानि मुग्धानाम्॥१२॥
श्वपुच्छकुटिलहृदयाः कपटतराः कुटिलरागहृतलोकाः।
कपटचरितेन यासां वैश्रवणः श्रमणतामेति॥१३॥
स्त्रीपरिचयाज्जडा अपि भवन्त्यभिज्ञा विदग्धचरितानाम्।
उपदिशति कामिनीनां यौवनमद एत्र ललितानि॥१४॥
(काव्यप्रकाशे)
प्रथमसमागमसुखदा मध्ये व्यसनप्रवासकारिण्यः।
पर्यन्ते दुःखफलाः पुंसामाशाश्च वेश्याश्च॥१५॥
अद्यापि हरिहरादिभिरमरैरपि तत्त्वतो न विज्ञाताः।
भ्रमविभ्रमबहुलोभा वेश्याः संसारमायाश्च॥१६॥
अज्ञातनामवर्णेष्वात्मापि ययार्प्यते धनार्थेन।
तस्यामपि सद्भावं मृगयन्ते मेषसङ्काशाः॥१७॥
(कलाविकासे)
इति वेश्यानिन्दापद्धतिः ॥
_____________
**११५. अथ कायस्थनिन्दापद्धतिः। **
काकाल्लौल्यं यमात् क्रौर्यं स्थपतेर्दृढकारिताम्।
आद्यक्षराणि सङ्गृह्य कायस्थः केन निर्मितः॥१॥
(मानसोल्लासे)
लेखन्या गणकः पत्रे चोरः कुञ्चिकया गृहे।
चित्रं वितनुतो रन्ध्रं ग्रहीतुं धनिनां धनम्॥२॥
(गोविन्दकवेः)
कायस्थेनोदरस्थेन मातुरामिषशङ्कया।
अन्त्राणि यन्न भुक्तानि तस्य हेतुरदन्तता॥३॥
(व्यासशातके)
कायस्थस्य च शल्यस्य कायस्थस्य च सा गतिः।
याभ्यामनुप्रविष्टाभ्यां दूष्यन्ते सर्वधातवः॥४॥
(गोविन्दकवेः)
परस्परोग्रकलहैः क्रूरैः श्वभिरिव प्रजाः।
नीयन्ते भूपतेर्लक्ष्मीः कायस्थैरस्थिशेषताम्॥५॥
विलेखनदशोद्गीर्णैः कटुभिः शब्दगुम्फनैः।
तीक्ष्णा गणकलेखन्योऽप्यभ्यस्यन्तीव पैशुनम्॥६॥
कठिनास्तीक्ष्णवक्त्राश्च तीक्ष्णोदर्कास्तथैव च।
गणकैः किन्नु लेखन्यस्ता वा किं ते विनिर्मिताः॥७॥
अङ्कन्यासैर्विषमैर्मायावनितालकावलीकुटिलैः।
को नाम कामचारैः कायस्थैर्मोहितो न जनः ॥८॥
मायाप्रपञ्चसञ्चयवञ्चितविश्वैर्विनाशितः सततम्।
विषयग्रामग्रासैः कायस्थैरिन्द्रियैर्लोकः॥ ९॥
ज्ञाताः संसारकला योगिभिरपयातसम्मोहैः।
न ज्ञाता दिविरकला (१) केनापि कृतप्रयत्नेन॥१०॥
कूटकलागतशिबिरैर्जनधनविवरैः क्षयक्षपातिमिरैः।
बधिरैरेव समस्तैर्ग्रस्ता जनता न कालेन॥११॥
लेखकजातिरदुष्टा शीतो वह्निर्निरामयः कायः।
भिषगपि च पथ्यकारी स्त्री च न दुष्टेत्यसम्भाव्यम्॥१२॥
कलपत्रनिर्गतमषीबिन्दुव्याजेन सन्तता करणैः।
कायस्थलुण्टमाना रोदिति खिन्नेव राजश्रीः॥१३॥
(कलाविलासे)
नरेश्वराणां नवरत्नमुक्ताशङ्खप्रवालस्थितिमाननन्तः।
कायस्थनाम्ना वडवानलेन निपीयते कोशमयः समुद्रः ॥१४॥
(राजः)
इति कायस्थनिन्दापद्धतिः ॥
____________
**११६. अथ राजलेखकपद्धतिः। **
सर्वदेशलिपिज्ञातो लेखने कुशलः परः।
अन्वितो वाचको धीमान् ज्ञेयो राज्ञः स लेखकः॥१॥
सकृदुक्तगृहीतार्थो लघुहस्तो जिताक्षरः।
मेधावी वाक्पटुः प्राज्ञ एष शासनलेखकः॥२॥
(मानसोल्लासे)
इति राजलेखकपद्धतिः ॥
______________
**११७. अथ सारथिपद्धतिः। **
चिकित्सां वेत्ति वाहानां निमित्तशकुनादिवित्।
कृतविद्यश्च शूरश्च सारथिः पार्थिवोचितः॥१॥
इति सारथिपद्धतिः ॥
_________________
**११८. अथ सान्धिविग्रहिकपद्धतिः। **
अर्थरक्षापरो भृत्यः कृत्याकृत्यविवेकवित्।
सान्धिविग्रहिकः कार्यो राज्ञा नयविशारदः॥१ ॥
(मानसोल्लासे)
इति सान्धिविग्रहिकपद्धतिः ॥
_____________
**११९. अथ सूदाध्यक्षपद्धतिः। **
असम्भेद्यः शुचिर्दक्षः कृतान्नस्य परीक्षकः।
सूदानां च विशेषज्ञः सूदाध्यक्षो विधीयते॥१॥
इति सूदाध्यक्षपद्धतिः ॥
_____________
**१२०. अथाधिकारिपद्धतिः। **
यो यद्वस्तु विजानाति तत्र तं विनियोजयेत्।
अशेषविषयप्राप्ताविन्द्रियार्थेष्विवेन्द्रियम्॥१॥
कुलशीलगुणोपेतः सत्यधर्मपरायणः।
प्रवीणः प्रेक्षणे दक्षो राजाध्यक्षो विधीयते॥२॥
(कामन्दकीये)
त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।
नियोजयेद् यथावत् तांस्त्रिविधेष्वेव कर्मसु॥३॥
न भक्षयन्ति ये त्वर्थान् न्यायतो वर्धयन्ति च।
नित्याधिकाराः कार्यास्ते राज्ञः प्रियहिते रताः॥४॥
(कौटिल्ये)
धार्मिकं धर्मकार्येषु ह्यर्थकार्येषु पण्डितान्।
स्त्रीषु क्लीबान् नियुञ्जीत क्रूरान् क्रूरेषु कर्मसु॥५ ॥
(मानसोल्लासे)
इति अधिकारिपद्धतिः ॥
____________
**१२१. अथ दुष्टाधिकारिपद्धतिः। **
मूर्खो ह्यधिकृतोऽर्थेषु कार्याणामविशारदः।
प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन रागद्वेषसमन्वितः॥१॥
(महाभारते)
जिघांसवः पापकामाः परस्वादायिनः शठाः।
रक्षांस्यधिकृता नाम तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः॥२॥
निर्दोषाः शुचयो यस्य लुब्धैरधिकृतैर्नराः।
धनार्थं विप्रलभ्यन्ते किं पापमधिकं ततः॥३॥
(पञ्चतन्त्रे)
सन्ततकुटिलकरालः परुषाक्रोशी हठाभिघातपरः।
अधिकारमदः पुंसां सर्वाशी राक्षसः क्रूरः॥४॥
(कामन्दकीये)
इति दुष्टाधिकारिपद्धतिः॥
_____________
**१२२. अथ दौवारिकपद्धतिः। **
कोटिसारोऽपि सन् द्वाःस्थस्ताम्बूलमपि लिप्सते।
अन्यत्र राज्ञः सर्वस्माद् राज्ञो हि न गृहं बहिः॥१॥
(पञ्चतन्त्रे)
इति दौवारिकपद्धतिः॥
____________
१२३. अथ राजसेवापद्धतिः।
वृत्तस्थं वृत्तसम्पन्नाः कल्पवृक्षोपमं नृपम्।
अधिगम्य गुणैर्युक्तं सेवेरन्ननुजीविनः॥१॥
(कामन्दके)
त्यागशीलः प्रभुः सेव्यस्त्यागशीलात् प्रियंवदः।
प्रियंवदाद् विशेषज्ञो विशेषज्ञात् क्षमापरः॥२॥
(राज)
सेवकः स्वामिनं द्वेष्टि पुंसां वेत्तीति नान्तरम्।
आत्मानं न सकृद् द्वेष्टि सेव्यासेव्यौ न वेत्ति यः॥३॥
(प्रतापः)
आशीविषमिव क्रुद्धं प्रभुं प्राणधनेश्वरम्।
यत्नेनोपचरेन्नित्यं नाहमस्मीति मानवः॥४॥
(महाभारते)
चित्तज्ञः कुरुते यद्यत् तत्तत् सम्पद्यते गुणः।
विभोश्चित्तमजानानः फलभाङ् नैव सेवकः॥५॥
(वल्लभदेवस्य)
अविसृष्टोऽपि सन् प्राज्ञः स्वर्गेण+समं व्रजेत्।
प्रविशेदप्यनाहूतस्त्वन्यदा भर्त्तुराज्ञया॥६॥
(कविवल्लभस्य)
न नर्मसचिवैः सार्धं किञ्चिद (प्य) प्रियं वदेत्।
ते हि मर्माण्यभिघ्नन्ति प्रहासेनैव संसदि॥७ ॥
कोऽत्रेत्यहमिति ब्रूयात् सम्यगाज्ञापयेति च।
आज्ञां चापि तथा कुर्याद् यथाशक्त्यविलम्बितम्॥८॥
(कामन्दके)
नैव लाभाद्धर्षमियान्न व्यथेच्च विमानितः।
समः पूर्णतुलेव स्याद् यो राजवसतिं वसेत्॥९॥
(महाभारते)
गच्छन्नपि परां भूतिं भूमिपालनियोजितः।
जात्यन्ध इव मन्येत मर्यादामनुचिन्तयन्॥१०॥
न मिथो भाषितं राज्ञो मनुष्येषु प्रकाशयेत्।
यं चासूयन्ति राजानः परुषं न वदेच्च तम् ॥११॥
(महाभारते )
उच्यमानोऽवलम्बेत परमर्मणि मूकताम्।
स्वकर्मणि तु बाधिर्यस्थैर्यमाधुर्यसोष्मवान्॥१२॥
आसन्नसेवां नृपतेः क्रीडाशस्त्राहिपावकैः।
कौशलेनातिमहता विनीतः सानुरुध्यते (?)॥१३॥
परार्थं देशकालज्ञो देशकाले च साधयेत्।
स्वार्थं च स्वार्थकुशलः कुशलेनाप्तकारिणा॥१४॥
अत्यायासेन नात्मानं कुर्यादतिसमुच्छ्रयम्।
पातो यथा हि दुःखाय नोच्छ्रायः सुखकृत् तथा॥१५॥
(सङ्ग्रहे)
निर्धूतोऽप्यवधूतोऽपि यो राजानं न मुञ्चति।
स वै तस्य श्रियं भुङ्क्ते नावमन्येत कर्हिचित्॥१६॥
(दण्डनीत्याम् )
मानावमानावुत्सृज्य यो नृपद्वारि तिष्ठति।
सोऽचिरेणैव कालेन शत्रूणां मूर्ध्नि तिष्ठति॥१७॥
(महाभारते)
अहीनकालंराजार्थं स्वार्थं प्रियहितैः सह।
परार्थं देशकाले च वदेद् धर्मार्थसंहितम्॥१८॥
नानुशिष्यादपृच्छन्तं महदेतद्धि साहसम्।
नाचरेदहितेनैनं मूलच्छेदकरं हि तत्॥१९॥
विपश्चिदप्यचित्तज्ञो बालिशोऽपि तु भाववित्।
अतिप्रियोऽपि द्वेष्योऽपि यात्याशु विपरीतताम्॥२०॥
मिथः कथनमन्येन कौलीनद्वन्द्ववादिताम्।
वस्त्रादि राज्ञः सदृशीं राजलीलां च वर्जयेत्॥२१ ॥
(सङ्ग्रहे)
न यायान्न चिरं तिष्ठेत् कोशस्थानावरोधयोः।
निवेद्य राज्ञे कुर्वीत कार्याणि सुबहून्यपि॥२२॥
औरसानपि पुत्रान् हि त्यजन्त्यहितकारिणः।
समर्थान् प्रतिगृह्णन्ति जनानपि जनाधिपाः॥२३॥
देवतेव हि सर्वार्थान् कुर्यात् राजा प्रसादितः।
वैश्वानर इव क्रुद्धः समूलमपि निर्दहेत्॥२४॥
अप्येव दहनं स्पृष्ट्वा वने तिष्ठन्ति पादपाः।
राजदोषपरामृष्टास्तिष्ठन्ते नापराधिनः॥२५॥
(श्रीरामायणे)
एकमेव दहत्यग्निर्नरं दुरुपसर्पिणम्।
कुलं दहति राजाग्निः सपशुद्रव्यसञ्चयम्॥२६॥
(महाभारते)
धर्मार्थसहितं वाक्यं प्रियं वा यदि वाप्रियम्।
अपृष्टस्तत् तु न ब्रूयाद् यस्तुनेच्छेत् पराभवम्॥२७॥
(वल्लभदेवस्य)
शिरोरुहसधर्माणो नरा राजकुलाश्रयाः।
पतिताः परिभूयन्ते सत्क्रियन्ते पदे स्थिताः॥२८॥
आकारैरिङ्गितैर्गत्वा चेष्टया भाषितेन च।
नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः॥२९॥
इङ्गितज्ञास्तु मगधाः प्रेक्षितज्ञास्तु कौसलाः।
अर्धोक्ताः कुरुपाञ्चालाः सर्वोक्ता दक्षिणापथाः॥३०॥
उच्चैः प्रकथनं हासः ष्ठीवनं कुत्सनं तथा।
जृम्भणं गात्रभङ्गं च सर्वस्फोटं च वर्जयेत्॥३१॥
मानकृत् कदमात्यानां मान्यानामवमानकृत्।
पथ्यद्वेषीव वैद्यानां त्याज्यो राजानुजीविना॥३२॥
अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन्।
लभते बुद्ध्यवज्ञानमवमानं च केवलम्॥३३॥
(महाभारते)
वाक्संयमो+नृपतेः सुदुष्करतमो मतः।
अर्थवच्चविचित्रं च न शक्यं बहु भाषितुम्॥३४॥
अहन्यहनि बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृतम्।
दत्तं वा दापितं वापि वाक्साह्यमपि वाक्कृतम्॥३५॥
तुष्टे सरुषि मध्यस्थे स्वामिनि त्रिविधा गुणाः।
दोषा गुणा गुणा दोषा दोषा दोषा गुणा गुणाः ॥३६॥
यस्य यस्य हि यो भावस्तेन तेन हि तं नरम्।
अनुप्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्मवशं नयेत्॥३७॥
त्यजेत् स्वामिनमत्युग्रमत्युग्रात् कृपणं त्यजेत्।
कृपणादविशेषज्ञं तस्मात् कृतविनाशिनम् ॥३८॥
स्वामिनमविशेषज्ञं लुब्धं यः सेवते धनार्थी सन्।
स हि खलु शैत्याभिहतः खद्योतं पावकेच्छया धमति॥३९
सेवामलघ्वीं न च दीर्घदीर्घांन चाङ्कलग्नां न च दूरसंस्थः।
कुर्वीत भर्त्तुर्ज्वलनो हि तेषां श्लिष्टाङ्गदाही विफलो विकृष्टः ॥४०॥
विमानना दुश्चरितानुकीर्त्तनं कथाप्रसङ्गे वचनेष्वनादरः
न दृष्टिदानं कृतपर्वनाशो विरक्तभावस्य जनस्य लक्षणम्॥४१॥
लुब्धे भूभुजि (लो) भभूः स तु सदाचारे सदाचारवान्
पापे पापरतिर्गुणी गुणवति क्लीबे परं कातरः।
दाता दातरि दुर्जने खलतरः शूरे रणोत्साहवान्
दर्पान्धे मदमूढ एष भवति क्ष्मापालतुल्यो जनः॥४२॥
इति राजसेवापद्धतिः ॥
____________
**१२४. अथ राजसेवानिन्दापद्धतिः। **
अपि स्थाणुवदासीत शुष्यन् परिगतः क्षुधां।
न त्वेवानात्मसम्पन्नाद् (वि?वृ) त्तिमीहेत पण्डितः॥१॥
(कामन्दकीये)
द्रव्य+रिश्वरद्वारि दधिचन्द्रार्धचन्द्रजाम्।
वेदनां भावयन् राज्ञः कः सेवासु प्रसज्यते॥२॥
सेवादुःखाभिभूतस्य याच्ञा दुःखाय भूयसे।
दीर्घाघ्वपरिखिन्नस्य शैलारूडिरिवांभसः॥३॥
(हरिभट्टस्य)
गन्धैकसारो विफलः सेव्यश्चन्दनपादपः।
भुजङ्गाः पवनाहाराः सेवकाः सदृशो विधिः॥४॥
(पञ्चतन्त्रे)
सेवा श्ववृत्तिर्यैरुक्ता तैरसम्यगुदाहृतम्।
स्वच्छन्दचरितः क्वश्वा विक्रीतात्मा क्वसेवकः॥५॥
सेवा दुरामयः पुंसां मरणं फलतुच्छता।
नरकः सत्क्रियाहानिर्नीचसाम्यं तु यातना॥६॥
नृपेणाहूयमानस्य यद् भयं हृदि तिष्ठति।
न तत् तिष्ठति शिष्टानां वने मूलफलाशिनाम्॥७॥
रत्नग (र्भि) तमप्यन्तं मा गाः स्त्रीभिः समाकुलम्।
जातु राजभुजङ्गानां वल्मीकमिव मन्दिरम्॥८॥
(वल्लभराजस्य)
स्त्रीषु कुर्वन्ति विश्वासं क्रीडन्ति फणिभिः सह।
राजानमपि सेवन्ते अहो ! साहसिका नराः॥९॥
प्रभूतं धनमालोक्य यो राज्ञां द्वारि तिष्ठति।
स बद्धः सौनिकश्चैव संशुष्यति न दुष्यति॥१०॥
(बृहत्कथायाम्)
चलेषु स्वामिचित्तेषु सुलभे पिशुने जने।
यदि जीवन्त्यहो चित्रं क्षणमप्यनुजीविनः॥११॥
द्वयं जहाति सेवकः सुखं च मानमेव च।
यदर्थमर्थमीहते तदेव तस्य हीयते॥१२ ॥
अतिपरिचयादवज्ञा भवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः।
लोकः प्रयागवासी कूपस्नानं समाचरति॥१३॥
तत्क्षणमपि निष्क्रान्ताः कृतदोषा इव विनापि दोषेण।
प्रविशन्ति शङ्कमाना राजकुलं प्रायशो भृत्याः॥१४ ॥
प्रणमत्युन्नतिहेतोर्जीवनहेतोर्विमुञ्चति प्राणान्।
दुःखीयति सुखहेतोः को मूढः सेवकादपरः॥१५ ॥
(सुन्दरपाण्डवस्य)
आराध्यमानो बहुभिः प्रकारैर्न तोष्यते नाम किमत्र चित्रम्
अयं त्वपूर्वः प्रतिमाविशेषो यः सेव्यमानो रिपुतामुपैति॥१६॥
वयमचतुराः कर्णोपान्ते निवेशयितुं मुहुः
कृतकचरितैर्भर्त्तुश्चेतो न वञ्चयितुं क्षमाः।
प्रियमपि वचो मिथ्या वक्तुं जनैर्नतु शिक्षिताः
क इव हि गुणो योऽस्मान् कुर्यान्नरेश्वरवल्लभान्॥१७॥
अलक्ष्मीर्न क्षीणा क्षणमपि न दैन्यं व्यपगतं
न वा भोगा भुक्ताः शममपि गता ना…. रतु वा।
न बन्धूनामाशा भवति सफला सम्प्रति यत-
स्तदप्येव श्लोकैः कृपणमबुधः स्तौति सुकविः॥१८॥
मुग्धो मौनी मधुरवचनो वन्दितुल्यः प्रभूणां
कृत्याकृत्यप्रवचनपरः स्यान्नरो दुर्विदग्धः।
मन्दप्रे (मा) विरलगमनो नित्यसेवी विमान्यः
सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः॥१९॥
अरण्यरुदितं कृतं शवशरीरमुद्वर्त्तितं
स्थलेऽब्जमवरोपितं सुचिरमूषरे वर्षितम्।
श्वपुच्छमवनामितं बधिरकर्णजापः कृतः
कृतान्धमुखमण्डना यदबुधो जनः सेवितः॥२०॥
भेतव्यं नृपतेस्ततः सचिवतो राज्ञस्ततो वल्लभा-
दन्येभ्यश्च भवन्ति येऽस्य भवने लब्धप्रसादा विटाः।
दैन्यादुत्तमदर्शनेन वलनैः पिण्डार्थमायस्यतः
सेवां लाघवकारिणीं कृतधियः स्थाने श्ववृत्तिं विदुः॥२१॥
(मुद्राराक्षसे)
न च्छन्नौ चरणौ न वा निगलितौ नैवोद्धृते चक्षुषी
जिह्वा दुर्नृपतिस्तुतिव्यसनिनी नैव त्वया दारिता।
गच्छामस्तव भद्रमस्तु (न)++न्यङ्गानि हीनानि मे
लाभोऽयं नृपमन्दिरे (नि) वसतामङ्गैर्निजैर्निर्गमः॥२२॥
हस्तावञ्जलिकुड्मलंरचयितुं पादौ पुरो धावितुं
जिह्वाग्रं स्तुतये शिरः प्रणतये वक्रेक्षणायेक्षणम्।
सोढुं पश्य कृतं हुताशपरुषां खड्गाग्रधारामुरः
कष्टं बिभ्रति धिक् परोपकरणान्यङ्गानि सेवाकृतः॥२३॥
(पञ्चतन्त्रे)
इति राजसेवानिन्दापद्धतिः ॥
_______________
१२५. अथ गायननिन्दापद्धतिः।
वर्जितसाधुद्विजवरविबुधायाः सकलकुटिलचरितायाः।
शापोऽयमेव लक्ष्म्या गायनभोग्यैव यत् सततम्॥१॥
नष्टस्वरपदगीतैः क्षणेन लक्षाणि गायनो लब्ध्वा।
दासीसुतेन दत्तं किमिति वदन् दुःखितो याति॥२॥
(कलाविलासे)
इति गायननिन्दापद्धतिः ॥
_____________
१२६. अथ स्वर्णकारनिन्दापद्धतिः।
सहसैव दूषयन्ति स्पर्शेन सुवर्णमुपहतच्छायम्।
नित्याशुचयः पापाश्चण्डाला हेमकाराश्च॥१॥
मेरुः स्थितोऽतिदूरं मनुष्यभूमिं धिया परित्यज्य।
भीतोऽवश्यं चौर्याश्चराणां हेमकाराणाम्॥२॥
(कलाविलासे)
अपि पञ्चशतं दण्ड्यान् दण्डयेत् पृथिवीपतिः।
अभावे पञ्च कायस्थानेकं वा स्वर्णकारकम्॥३॥
(नमोः)
इति स्वर्णकारनिन्दापद्धतिः ॥
**१२७. अथ उपायपद्धतिः॥ **
दारुणं विग्रहं विद्वानुपायैः प्रशमं नयेत् ॥
विजयस्य ह्यनित्यत्वाद् रभसेन न सम्पतेत्॥१॥
उपायपूर्वं लिप्सेत कालं वीक्ष्य समुत्पतेत्॥
पश्चात्तापाय भवति विक्रमैकरसज्ञता ॥२॥
न कश्चित् क्वचिदस्तीह वस्त्वसाध्यं विपश्चिताम्॥
अयोऽभेद्यमुपायेन द्रवतामुपनीयते॥३॥
स(ह)सोत्पत्य दुष्टेभ्यो दुष्करं सम्पदार्जनम्॥
उपायेन पदं मूर्ध्नि न्यस्यते मत्तहस्तिनः॥४॥
बाह्यमानमयः पिण्डं महच्चापि न कृन्तति॥
तदल्पमपि धारावद् भवतीप्सितसिद्धये॥५॥
लोकप्रसिद्धमेवैतद्वारि वह्नेर्नियामकम्॥
उपायोपगृहीतेन तत् तेनैव विशीष्यते ॥६॥
(चाणक्यस्य)
साम्ना भेदेन दानेन समस्तैरुत वा पृथक्॥
विजेतुं प्रयतेतारीन् न युध्येत कदाचन॥७॥
साम्ना प्रसाध्यते कश्चिद् दानेन च तथापरः॥
पौरुषं प्रकृतिं ज्ञात्वा द्वयोरेकतरं भजेत्॥८॥
(महाभारते)
इति उपायपद्धतिः ॥
_____________
**१२८. अथ सामपद्धतिः॥ **
कुलीनेषु कृतज्ञेषु सार्द्रचित्तेषु संयतः॥
कार्यार्थकुशलो विद्वान् पूर्वं साम प्रयोजयेत् ॥१॥
साम्नैव सिद्धये विद्वान् यतेत यतमानसः॥
सामसिद्धिं प्रशंसन्ति सर्वसिद्धिषु पण्डिताः॥२॥
(कामन्दकीये)
प्रलिम्पन्निव चेतांसि दृष्ट्या साधु पिबन्निव।
स्रवन्निवामृतं साधु प्रयुञ्जीत प्रियं वचः॥३॥
(चाणक्यस्य)
साम्नैव यत्र सिद्धिर्न तत्र दण्डो बुधेन विनियोज्यः।
पित्तं यदि शर्करया शाम्यति कोऽर्थः पटोलेन॥४॥
(बल्लभदेवस्य)
इति सामपद्धतिः ॥
___________
**१२९. अथ भेदपद्धतिः। **
भेदं कुर्वीत यत्नेन मन्त्र्यमात्यपुरोधसाम्।
तेषु भिन्नेषु भिन्नं हि युवराजे तथोर्जिते॥१॥
भयेन भेदयेत् भीरुं शूरमञ्जलिकर्मणा।
लुब्धमर्थप्रदानेन सख्याच्चैव समौजसम् ॥२॥
अमात्यो युवराजश्च भुजावेतौ महीपतेः।
मन्त्रनेत्रं हि तद्भिन्नमेकस्मिन्नपि तद्विधः॥३॥
सर्वावस्थासु मेधावी तत्कुलीनं विकारयेत् \।
विकृतस्तत्कुलीनस्तु स्वयोनिं दहतेऽग्निवत्॥४॥
तत्कुलेन च तुल्यस्तु पुमानभ्यन्तरोचितः।
तस्मादेतौ परे भिन्द्याच्छन्नमात्मवशं नयेत्॥५॥
मत्स्यो मत्स्यमुपादत्ते ज्ञातिर्ज्ञातिमसंशयम्।
रावणोच्छित्तये रामो विभीषणमपूजयत्॥६॥
(कामन्दकीये)
इति भेदपद्धतिः ॥
____________
**१३०. अथ दानपद्धतिः। **
दारुणं विग्रहं विद्वान् दानेन प्रशमं नयेत्।
इन्द्रापचारे शुक्र (श्च) दानेन वशमेयिवान्॥१॥
उपच्छन्द्यापि दातव्यं बलिने शान्तिमिच्छता।
समूलमेव गान्धारिरप्रयच्छ (न्) गतः क्षयम्॥२॥
इति दानपद्धतिः ॥
___________
**१३१. अथ दण्डपद्धतिः। **
सामादीनामुपायानां त्रयाणां विफले नये।
विनयेन्नयसम्पन्नो दण्डं द(ण्डे ? ण्ड्ये) षु दण्डवित्॥१॥
इति दण्डपद्धतिः ॥
___________
**१३२. अथ सन्धिपद्धतिः। **
बलिना विगृहीतः सन् नृपोऽनन्यप्रतिक्रियः।
आपन्नः सन्धिमन्विच्छेत् कुर्वाणः कालयापनम्॥१॥
प्रवृत्तचक्रेणाक्रान्तो राजा बलवताबलः।
सन्धिं नोपक्रमेत् तूर्णं कोशदण्डात्मभूमिभिः॥२॥
(पञ्चतन्त्रे)
सन्धिमिच्छेत् समेनापि सन्दिग्धो विजयो युधि।
नहि सांशयिकं कुर्यादित्युवाच बृहस्पतिः॥३॥
स्वगुप्तिमाधाय सुसंहितेन बलेन धीरो विचरन्नरातिम्।
सन्तापयेद् येन सुसम्प्रतप्तस्तप्तेन सन्धानमुपैति तप्तम्॥४॥
आसम्प्रवृद्धेरपि वृद्धिकामः समेन सन्धानमिहोपगच्छेत्।
अपक्वयोर्वा घटयोरवश्यमन्योन्यभेदी समसन्निपातः॥५॥,
इति सन्धिपद्धतिः ॥
___________
**१३३. अथ सन्धेयपद्धतिः। **
सत्यार्यौ धार्मिकानार्यौ भ्रातृसङ्घातवान् बली।
अनेकविजयी चेति सन्धेयाः सप्त कीर्त्तिताः॥१॥
(कामन्दकीये)
सत्त्ववन्तो जितक्रोधा बलवन्तो रणक्रियाः।
क्षान्तिशीलगुणोपेताः सन्धेयाः पुरुषोत्तमाः॥२॥
(महाभारते)
इति सन्धेयपद्धतिः॥
____________
**१३४. अथासन्धेयपद्धतिः। **
बालो बृद्धो दीर्घरोगी तथा ज्ञातिबहिष्कृतः।
भीरुको भीरुजनको लुब्धो लुब्धजनस्तथा॥१॥
विरक्तप्रकृतिश्चैव विषयेष्वतिसक्तिमान्।
अनेकचित्तमन्त्रश्च देवब्राह्मणनिन्दकः॥२॥
दैवोपहतकश्चैव दैवचिन्तक एव च।
दुर्भिक्षव्यसनोपेतो बलव्यसनसङ्कुलः॥३॥
अदेशस्थो बहुरिपुर्युक्तोऽकालेन सच्चयः।
सत्यधर्मव्यपेतश्च विंशतिः पुरुषा अमी॥४॥
एतैः सन्धिं न कुर्वीत (वि) गृह्णीयात् तु (त्त?) केवलम्।
एते विगृह्यमाणा (भिः ? हि ) क्षिप्रं यान्ति रिपोर्वशम्॥५॥
(कामन्दकीये)
शत्रुणा न तु सन्दध्यात् संक्लिष्टेना (पि) सन्धिना।
प्रतप्तमपि पानीयं शमयत्येव पावकम्॥६॥
(पञ्चतन्त्रे)
इत्यसन्धेयपद्धतिः॥
______________
**१३५. अथ सन्धिदूषणपद्धतिः। **
वैरमादौ समासज्य यः कश्चित् सन्धिमिच्छति।
मृन्मयस्येव भग्नस्य तस्य सन्धिर्न विद्यते॥१॥
(वल्लभदेवस्य)
शपथेनाप्यरीन् हन्यान्न दोष इति भार्गवः।
उभौ यदि शपेयातां श्रद्दधानस्तु बाध्यते॥२॥
(महाभारते)
सकृद् द्विष्टं तु यो मित्रं पुनः सन्धातुमिच्छति।
स मृत्युमुपगृह्णाति गर्भमश्वतरी यथा ॥३॥
(कामन्दकीये)
न समयपरिरक्षणं क्षमं ते
निकृतिपरेषु परेषु भूरिधाम्नः।
अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा
विदधति सोपधि सन्धिदूषणानि॥४॥
(भारवेः)
इति सन्धिदूषणपद्धतिः ॥
______________
**१३६. अथ वैरपद्धतिः। **
नास्ति वैजातिकः शत्रुः पुरुषस्य विशांपते !
येन साधारणी वृत्तिः स शत्रुर्नेतरो जनः॥१॥
वैरं पञ्चसमुत्था (नां? नं) बुध्यन्ते तच्च पण्डिताः।
स्त्रीकृतं वास्तुजं वाग्जं स्वसपत्नापराधजम्॥२॥
न वित्तेन न पारुष्यान्न सान्त्वेन न च श्रुतात्।
वैराग्निः शाम्यते राजन्! निमग्नोऽग्निरिवार्णवे॥३॥
नहि वैराग्निरुद्भूतः कर्म वाप्यपराजितम्।
अदग्ध्वा शाम्यते नॄणां विना ह्येकतरक्षयात्॥४॥
जातवैरश्च पुरुषो दुःखं स्वपिति सर्वदा।
अनिर्वृतेन मनसा ससर्प इव वेश्मनि॥५॥
(वल्लभदेवस्य)
अन्योन्यकृतवैराणां वैरस्यान्तं विवित्सताम्।
पुत्रपौत्रे विनष्टे तत् परलोकं च गच्छति॥६॥
(महाभारते)
दुःशासनामर्षरजोविकीर्णैरेभिर्विनाथैरिव भाग्यनाथैः।
केशैः कदर्थीकृतवीर्यसारः कच्चित् स एवासि धनञ्जयस्त्वम्॥७॥
(किराते)
इति वैरपद्धतिः ॥
_____________
**१३७. अथ विग्रहपद्धतिः। **
यदा मन्येत मतिमान् हृष्टं पुष्टं स्वकं बलम्।
परस्य विपरीतं च तदा विग्रहमाचरेत्॥१॥
आत्मनोऽभ्युदयाकाङ्क्षी पीड्यमानः परेण वा।
देशकालबलोपेतः प्रारभेतैव विग्रहम्॥२॥
भूमिर्मित्रं हिरण्यं च विग्रहस्य त्रयं फलम्।
यदैतन्नियतं भावि तदा विग्रहमाचरेत्॥३॥
(कामन्दकीये)
इति विग्रहपद्धतिः॥
___________
**१३८. अथ दूतपद्धतिः। **
कृतमन्त्रस्तु मन्त्रज्ञो मन्त्रिणं मन्त्रसम्मतम्।
यातव्याय प्रहिणुयाद् दूतं दूत्याभिमानिनम्॥१॥
प्रगल्भः स्मृतिमान् वाग्ग्मी शास्त्रे शस्त्रे च निष्ठितः।
अभ्यस्तकर्मा नृपतेर्दूतो भवितुमर्हति॥२॥
रागापरागौ जानीयाद् दृष्टिवक्त्रविचेष्टितैः।
सहेतानिष्टवचनं कामक्रोधं च वर्जयेत्॥३॥
वध्यमानोऽपि न ब्रूयात् स्वस्वामिप्रकृतिच्युतिम्।
ब्रूयात् प्रश्रितया वाचा सर्वं वेद भवानिति॥४॥
(कामन्दकीये)
इङ्गिताकारचेष्टाभिः परचित्तप्रवेदिनः।
आप्ताः सुशीघ्रगा दूता वाग्ग्मिनो मितभाषिणः॥५॥
कुलीनः शीलसम्पन्नो वाग्ग्मी दक्षः प्रियंवदः।
यथोक्तवादी स्मृतिमान् दूतः स्यात् सप्तभिर्गुणैः॥६॥
(महाभारते)
कार्ये कर्माणि निर्दिष्टे यो बहून्यपि साधयेत्।
पूर्वकार्याविरोधेन स कार्यं कर्त्तुमर्हति॥७॥
मत्तः प्रत्यवरः कश्चिन्नास्ति सुग्रीवसन्निधौ।
नहि प्रकृष्टाः प्रेष्यन्ते प्रेष्यन्ते हीतरे जनाः॥८॥
(श्रीरामायणे)
अस्तब्धमक्लीबमदीर्घसूत्रं सानुक्रोशं शक्तमहार्यमन्यैः।
अरोगजातीयमुदारवाक्यं दूतं वदन्त्यष्टगुणोपपन्नम्॥९॥
(वल्लभदेवस्य)
रामो नाम स एष येन भगिनीनासावसापङ्किलः
खड्गस्ते खरदूषणत्रिशिरसां धौतः शिरःशोणितैः।
बद्ध्वा त्वां चतुरम्बुराशिषु परिभ्राम्यन् मुहूर्तेन यः
सन्ध्यामर्चयति स्म निस्त्रप ! कथं तातस्त्वया विस्मृतः॥१० ॥
(महानाटके)
इति दूतपद्धतिः ॥
_____________
**१३९. अथ दुष्टदूतपद्धतिः। **
भूताश्चार्था विपद्यन्ते देशकालविरोधिताः।
विक्लवंदूतमासाद्य तमः सूर्योदये यथा॥१॥
अर्थानर्थान्तरे बुद्धिर्निश्चितापि न शोभते।
घातयन्ति हि कार्याणि दूताः पण्डितमानिनः॥२ ॥
(श्रीरामायणे)
इति दुष्टदूतपद्धतिः ॥
_____________
१४०. अथ चारपद्धति।
तर्केङ्गितज्ञः स्मृतिमान् मृदुर्लघुपरिक्रमः।
क्लेशायाससहो दक्षश्चारः स्यात् प्रतिपत्तिमान्॥१॥
तपखिलिङ्गिनो धूर्त्ताः शिल्पपण्योपजीविनः।
चाराश्चरेयुः परितः पिबन्तो जगतां मतम्॥२॥
(कामन्दकीये)
चारेण विदितः शत्रुः पण्डितैर्वसुधाधिपैः।
युद्धेष्वल्पेन यत्नेन समासाद्य निरस्यते॥३॥
(महाभारते)
सूक्ष्मसूत्रप्रचारेण पश्येद् वैरिविचेष्टितम्।
स्वपन्नपि हि जागर्त्ति चारचक्षुर्महीपतिः॥४॥
सर्वसम्पत्समुदयं सर्वावस्थाविचेष्टितम्।
चारेण द्विषतां विद्यात् तद्देशप्रार्थनादिव॥५॥
चारेण प्रचरेद् राजा स्वरेणर्त्विगिवाध्वरे।
दृते सन्धानमायत्तं चारे चर्या प्रतिष्ठिता॥६॥
(कामन्दकीये)
परेषु स्वेषु चाक्षिप्तैरविज्ञातपरस्परैः।
सोपसर्पैर्जजागार यथाकालं स्वपन्नपि॥७॥
(कालिदासस्य)
इति चारपद्धतिः॥
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**१४१. अथ यानपद्धतिः। **
उत्साहप्रभुशक्तिभ्यां मन्त्रशक्त्या च भारत !।
उपपन्नो नृपो यायाद् विपरीतमतोऽन्यथा॥१॥
(महाभारते)
उत्कृष्टबलवीर्यस्य विजिगीषोर्जयैषिणः।
गुणानुरक्तप्रकृतेर्यात्रा यानमिति स्मृतम्॥२॥
(कामन्दकीये)
उत्थानेनामृतं लब्धमुत्थानेनासुरा हताः।
उत्थानेन महेन्द्रेण श्रैष्ठ्यं प्राप्तं दिवीह च॥३॥
(महाभारते)
आत्मानं च परं चैव वीक्ष्य धीरः समुत्पतेत्।
एतदेव हि विज्ञानं यदात्मपरवेदनम्॥४॥
(कामन्दकीये)
यानपद्धतिः।
शरत्काले वसन्ते वा रिपोर्नाशे व्युपस्थिते।
निमित्तं शकुनं लब्ध्वा यात्रां कुर्वीत भूपतिः॥५॥
(मानवे)
पक्वसस्या हि पृथिवी भवत्यम्बुमती तदा।
नैवातिशीतो नात्युष्णः कालो भवति भारत !॥६॥
तस्मात् तदाभियोगः स्यात् परेषां व्यसने तथा।
यतो भवेद् भयाशङ्का ततो विस्तारयेद् बलम्॥७॥
राष्ट्रं च पीडयेच्छत्रोः शस्त्राग्निविषमूर्च्छनैः।
उदयांस्तृणवान् मार्गः समो गम्यः प्रशस्यते॥८॥
संशोध्य त्रिविधं मार्गं षड्विधं च स्वकं बलम्।
साम्परायिककल्पेन यायादरिपुरं प्रति॥९॥
अग्रतः शकटानीकमसि (च भ्रात?)चर्मधरं भवेत्।
पृष्ठतः शकटानीकं खनित्रं मध्यतस्तथा॥१०॥
वधेन च मनुष्याणां मार्गाणां दूषणेन च।
आकराणां विनाशैश्च परराष्ट्रं विनाशयेत्॥११॥
उत्थानहीनः पुरुषो बलवानपि नित्यशः।
सुधर्षणीयः शत्रूणां भुजङ्ग इव निर्विषः॥१२॥
अनुत्थानाद् भवेन्नाशः प्राप्तस्यानागतस्य च।
प्राप्यते फलमुत्थानाल्लभते चार्थसम्पदम्॥१३॥
(महाभारते)
रात्रावुलूकोऽपि निहन्ति काकं
काकोऽप्युलूकं रजनिव्यपाये।
इति स्म कालं समुदीक्ष्य यायात्
काले फलन्तीह समीहितानि॥१४॥
(कामन्दकीये)
इति यानपद्धतिः ॥
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**१४२. अथ सुनिमित्तपद्धतिः। **
निमित्तान्येव शंसन्ति शुभाशुभफलोदयम्।
तस्मादेतेषु शास्त्रज्ञो राजा समुपलक्षयेत्॥१॥
(मानवे)
उदीर्णमनसो यो(द्धा? धा) वाहनानि च भारत !।
यस्यां भवन्ति सेनायां ध्रुवं तस्या जयो भवेत्॥२॥
हृष्टा वाचस्तथा सत्त्वं योधानां यत्र भारत !।
न म्लायन्ते स्रजश्चैव ते तरन्ति रणे रिपून्॥३॥
(महाभारते)
प्रशस्तेन निमित्तेन विशुद्धेनान्तरात्मना।
व्यक्तमारभ्यमाणानि सिद्धिं यान्ति महीक्षिताम्॥४ ॥
निमित्तं लक्षणज्ञानं शकुनिस्वनदर्शनम्।
अवश्यं सुखदुःखेषु नराणां प्रतिदृश्यते॥५॥
(श्रीरामायणे)
वामेतरविषाणाग्रवेष्टनेन करस्य च।
बृंहितेन गजानां च जानीयाज्जयमञ्जसा॥६॥
(महाभारते)
इति सुनिमित्तपद्धतिः॥
______________
**१४३. अथानिमित्तपद्धतिः। **
कबन्धः परिघाभासो दृश्यते भास्करान्तिके।
जग्रास सूर्यं स्वर्भानुरपर्वणि महाग्रहः॥१॥
छत्रं तु नृपतेर्यस्य निपतेत् पृथिवीतले।
स सराष्ट्रो नरपतिःक्षिप्रमेव विनश्यति॥२॥
(महाभारते)
इत्यनिमित्तपद्धतिः ॥
**१४४. अथासनपद्धतिः। **
परस्परविरोधेन क्षीयमाणेषु शत्रुषु।
तद्विनाशो भवेद् यावत् तावत् तिष्ठेत बुद्धिमान्॥१॥
(मानसोल्लासे)
इत्यासनपद्धतिः ॥
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**१४५. अथाभियुक्तप्रतिक्रियापद्धतिः। **
यदा तु पीडितो राजा भवेद् राज्ञा बलीयसा।
तदा त्वाकृष्य मित्राणि विधानमुपकल्पयेत्॥१॥
(कामन्दकीये)
घोषान् न्यसेत मार्गेषु ग्रामानुत्थापयेदपि।
प्रवेशयेच्च तान् सर्वांश्छाखानगरकेषु च॥२ ॥
क्षेत्रस्थेषु च सस्येषु शत्रोरुपजपेन्नरान्।
विनाशयेद्वा तत् सर्वंब (ल? ले) नाथ स्वकेन वै ॥३॥
नदीमार्गेषु च तथा सङ्क्रमानवसादयेत्।
जलं निःस्रावयेत् सर्वमनिस्राव्यं च दूपयेत्॥४॥
कुलिङ्गद्वारकाणि स्युरुत्सवार्थं कुलस्य ह।
तेषां च द्वारवद् गुप्तिः कार्या सर्वात्मना भवेत्॥५॥
द्वारेषु च गुरूण्येव यन्त्राणि स्थापयेत् सदा।
आरोपयेच्छतघ्नीश्च स्वाधीनांश्चाधिकारयेत्॥६॥
काष्ठाग्निं निर्हरेच्चैव तथा कूपांश्च खातयेत्।
संशोधयेत् तथा कूपान् कृतान् पूर्वंपयोर्थिभिः॥७॥
तृणच्छन्नानि वेश्मानि पङ्केनाथ प्रलेपयेत्।
नक्तमेव च भक्तानि पाचयेत नराधिपः॥८॥
न दिवाग्निं ज्वलेद्गेहे वर्जयित्वाग्निहोत्रिणम्।
भिक्षुकांश्च यतींश्चैव क्लीबोन्मत्तान् कुशीलवान्॥९॥
बाह्याद् कुर्यान्नृपश्रेष्ठ ! दोषाय स्युर्हि ते शठाः।
सुमन्त्रितं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम्॥१०॥
आपदामथ काले तु कुर्वीत न विचालयेत्।
अशक्नुवंश्च युद्धाय निष्पतेत् सह मन्त्रिभिः॥११॥
कोशेन पौरैर्दण्डेन ये चान्ये सहकारिणः।
असम्भवे तु सर्वस्य यथामुख्येन निष्पतेत्॥१२॥
अपचिक्रमिषुः पूर्वं सेनां स्वां परिसान्त्वयन्।
विलङ्घयित्वा सत्रेण ततः स्वयमुपक्रमेत्॥१३॥
(महाभारते)
इत्यभियुक्तप्रतिक्रियापद्धतिः॥
___________________
१४६. अथ परराष्ट्रदृषणपद्धतिः।
उपरुध्यारिमासीत राष्ट्रं चास्योपरोधयेत्।
दूषयेच्चास्य सततं यवसेनोदकेऽन्वहम्॥१॥
भिन्द्याच्चैव तटाकानि प्राकारपरिखांस्तथा।
समवस्कन्दयेच्चैनं रात्रौ वित्रासनेन च॥२॥
उपजप्यानुपजपेद् बुध्येदेव च तत्कृतम्
(महाभारते)
इति परराष्ट्रदूषणपद्धतिः॥
_____________
१४७. अथ द्वैधीभावपद्धतिः।
बालनोर्द्विषतोर्मध्ये वाचात्मानं समर्पयन्।
द्वैधीभावेन वर्त्तेत काकाक्षिवदलक्षितः॥१॥
(कामन्दकीये)
इति द्वैधीभावपद्धतिः ॥
____________
१४८. अथ आश्रयपद्धतिः।
यापयेद् यत्नमास्थाय सन्निकृष्टमरिं द्वयोः।
उभयोरपि सम्पाते सेवेत बलवत्तरम्॥१॥
स्वयं हीनबलो राजा जयहेतुं न पश्यति।
बलिना पीड्यमानो यः क्षमं स्थानं समाश्रयेत्॥२॥
युद्धपद्धतिः।
महता बलिना यस्तु पीडितोऽल्पबलो नृपः।
सत्यसन्धं परिज्ञाय तमेवाश्रयते बुधः॥३॥
तत्संश्रयोऽन्यसंसर्गो दुर्गसंश्रयणं तथा।
इति भेदास्त्रयः प्रोक्ताश्चतुर्थो नोपपद्यते॥४॥
दधद् बलं वा कोशं वा भूमिं वा भू+सम्भवाः।
युधिष्ठिर इवाप्नोति पुनर्जीवन् वसुन्धराम्॥५ ॥
(कामन्दकीये)
इति आश्रयपद्धतिः॥
_____________
१४९. अथ युद्धपद्धतिः।
धनुषां द्वे शते गत्वा तत्र स्थित्वा नृपोत्तमः।
मेलयित्वा बलं सर्वमेवमाघोषयेत् ततः॥१॥
तस्मै दास्यामि अयुतं राजानं हन्ति यो रणे।
तत्कुमारनिहन्तॄणां दास्यामि त्वयुतार्धकम्॥२॥
सामन्तमण्डलाधीशहन्तॄणां तु तदर्धकम्।
सचिवामात्यहन्तॄणां तथा स्यात् पारितोषिकम्॥३॥
प्रधानयोधहन्तॄणां दास्ये पञ्चसहस्रकम्।
द्विसाहस्रं प्रदास्यामि रणेऽस्मिन् गजघातिनाम्॥४॥
सहस्रं प्रतिदास्यामि स्यन्दनस्य निघातिनाम् \।
अश्वसादिनिहन्तॄणां प्रदास्ये पञ्चकं शतम्॥५॥
शतमस्मै प्रदास्यामि समानयति यः शिरः।
एवं प्रलोभ्य तान् सर्वान् प्रयायाद् युद्धसम्मुखः॥६॥
द्विशतं वा तदर्धं वा तदर्धं हयसादिनः।
पुरः प्रस्थापयेद् राजा युद्धभूमिपरीक्षणे॥७॥
शूरं महाबलं दान्तं धीरं सूचनवेदिनम्।
ईदृग्गुणयुतं नागमारोहेद् विजयोद्यतः॥८॥
यतः फल्गु यतो भिन्नं यतो भिन्नैरधिष्ठितम्।
तद्बलं प्रथमं हन्यादात्मानं चोपबृंहयेत्॥९॥
संहतं तु गजानीकैः प्रचण्डैरपदारयेत्।
प्रचण्डैर्वीरमुख्यैश्च फल्गु सैन्यं विदारयेत्॥१०॥
अश्वव्यूहैर्भटानीकं वाजिव्यूहं तु दन्तिभिः।
विषतैलाञ्जितैर्बाणैर्विभिन्द्याद् गजयूथपान्॥११॥
विमृश्य राजचिह्नानि निश्चित्य नृपतेः पदम्।
सर्वसैन्येन संयुक्तस्तत्र यायाज्जयोन्मुखः॥१२॥
एवं निहत्य सङ्ग्रामे दुष्टशत्रुं मदोद्धतम्।
जयतूर्यनिनादेन हर्षयेत् सुभटान् स्वकान्॥१३॥
(मानसोल्लासे)
पुत्रो भ्राता पिता चैव स्वस्त्रीयो मातुलस्तथा।
सम्बन्धिबान्धवाश्चैव योद्धव्याः क्षत्रजीविना॥१४॥
(महाभारते)
नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दुष्करम्।
नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम्॥१५॥
इदं हि प्राणयशसां क्रयविक्रयपत्तनम्।
स्वामिसत्कारशल्यानामत्रैवोद्धरणी क्रिया॥१६॥
आहवेषु यदन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः।
युध्यमानाः परं शक्त्या स्वर्गं यान्त्यपरराङ्मुखाः॥१७॥
न वा हन्यात् प्रधावन्तं न क्लीबंन कृताञ्जलिम्।
न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्॥१८॥
न सुप्तं न विसन्नाहं न मग्नं न निरायुधम्।
नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्॥१९॥
नायुधव्यसनं प्राप्तं नार्त्तं नातिपरिक्षतम्।
न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्॥२०॥
(मनोः)
आकर्णपलितश्यामो वयसाशीतिकात् परः।
रणे पर्यचरद् द्रोणो वृद्धः षोडशवर्षवत्॥२१॥
अधर्मः क्षत्रियस्यैतद् यद् व्याधिमरणं गृहे।
युद्धे तु मरणं यत् स्यात् सोऽस्य धर्मः सनातनः॥२२॥
न ध्रुवं सुखमस्तीह कुतो राज्यं कुतो यशः।
इह कीर्त्तिर्निधातव्या सा च युद्धेन नान्यथा॥२३॥
गजानां रथिनो मध्ये रथिनामपि सादिनः।
सादिनामन्तरे स्थाप्यं पादातमपि दंसितम्॥२४॥
अमित्रं नैव मुञ्चेत ब्रुवन्तं करुणान्यपि।
दुःखतन्त्रं न कुर्वीत हन्यात् पूर्वापकारिणम्॥२५॥
एतद् धनञ्जयो वाच्यो नित्योद्युक्तो वृकोदरः।
यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः॥२६॥
अर्थास्त्यजत पात्रेषु सुखमाप्नुत कामजम्।
प्रियं प्रियेभ्यः कुरुत राजा हि त्वरते जये॥२७॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ! लभन्ते युद्धमीदृशम्॥२८॥
(महाभारते)
राष्ट्रं च हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं परस्त्रियः।
सर्वद्रव्याणि (कु)प्यं च यो यज्जयति तस्य तत्॥२९॥
राज्ञे तु दद्यादुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः।
राज्ञा तु सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जिते॥३०॥
(कामन्दकीये)
चिरआलकङ्खिआणं धुआवमाणणिअलुण्णमन्तमुहाणम्।7
एसो णवर अवसरो असरिससमससिबन्धणविमोक्खाणम्॥३१॥
इति युद्धपद्धतिः ॥
________________
१५० अथ कूटयुद्धपद्धतिः।
शक्तित्रयविहीनेन नृपेण रिपुघातिना।
प्रयोज्याः स्युस्त्रयो दण्डा विषघाताभिचारजाः॥१॥
शात्रवाणां विरक्ता ये विक्रेता अन्तरं गताः।
तान् विनोद्य प्रदानेन रसं तैस्तु प्रयोजयेत्॥२॥
तटाककूपवापीषु तथा लुब्धसरस्सु च।
विषं विषे नियोक्तव्यं द्विषतां प्राणघातकम्॥३॥
अन्ने पाने च ताम्बूले फले पुष्पे विभूषणे।
वस्त्रे विलेपने धूपे शय्यायामासनेषु च॥४॥
स्नानोदके तथा तैलपादाभ्यङ्गे सपादुके।
क्रीडापुष्करिणीनद्योः प्रयुञ्जीत विषं द्विषाम्॥५॥
कुमारसचिवामात्यमन्त्रिसेनाधिपेषु च।
महावारणमुख्येषु तुरगेषूत्तमेषु च॥६॥
एवं विषप्रयोगेण शत्रूणां क्षुद्रघातनम्।
क्षीणे तत् क्रियते यस्तु विषदण्डः स उच्यते॥७॥
शूरश्च दृढभक्तश्च त्यक्तप्राणभयश्च यः।
धीरश्च्समयज्ञश्च वधोपायविचक्षणः॥८॥
वधुपुत्रविरक्तस्तु गृहीतबहुवेतनः।
तेन सार्धं प्रयुञ्जीत प्रमत्तारिषु मायया॥९॥
गीतवाद्यप्रसक्तेषु द्यूतक्रीडारसेषु च।
मृगव्यासक्तवित्तेषु द्यूतयात्राप्रसङ्गिषु॥१०॥
अङ्कमल्लाविनादेषु तथान्येषूत्सवादिषु।
अन्तःपुरप्रचारेषु देवपूजापरेषु च॥११॥
वीरक्रीडानिषण्णेषु भोजनस्थानवर्त्तिषु।
व्यग्रेष्वन्येषु कार्येषु कुर्याद् वैरिषु घातनम्॥१२॥
पूर्वोदितगुणैस्तीक्ष्णैः सुभटैर्यत्तु घातनम्।
मायया क्रियते गूढं घातदण्डः स कीर्त्तितः॥१३॥
वीरपत्नीप्रलापपद्धतिः।
अथर्वविधितत्त्वज्ञैर्ब्राह्मणैर्विजितेन्द्रियैः।
मन्त्रतन्त्रविधानज्ञैर्दूरादुन्मूलयेद् रिपून्॥१४॥
(अ?आ)भिचारिकहोमैश्च मन्त्रैः षट्कर्मसाधनैः।
संहरेज्जीवितं यस्तु स दण्डो (ह्या) भिचारिकः॥१५॥
(मानसोल्लासे)
इति कूटयुद्धपद्धतिः॥
_________________
१५१. अथ वीरपत्नीप्रलापपद्धतिः।
अतीव खलु ते कान्ता वसुधा वसुधाधिप!।
गतासुरपि यां गात्रैर्मां विहाय निषेवसे॥१॥
हा स्वप्नः (स्वप्न ? सत्य) मेवेदं त्वं रामेण कथं हतः।
त्वं मृत्योरपि मृत्युः स्याः कथं मृत्युवशं गतः॥२॥
शयनेषु महार्हेषु शयित्वा राक्षसेश्वर!।
इह कस्मात् प्रसुप्तस्त्वं धरण्यां रेणुधूसरः॥३॥
इन्द्रियाणि पुरा जित्वा जितं त्रिभुवनं त्वया।
स्मराद्भेराप तैद्वरमिन्द्रियैरेव निर्जितः॥४॥
दृष्ट्वा न खल्वपि क्रोधो मामिहानवगुण्ठिताम्।
निर्गतां नगरद्वारात् पद्भ्यामेवागतां प्रभो !॥५॥
शूराय न प्रदातव्या कन्या खलु विपश्चिता।
शूरभार्यां हतां पश्य सद्यो मां विधवाकृताम्॥६॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ किं शेषे प्राप्ते परिभवे नवे।
अद्य वै निर्भया लङ्कां प्रविष्टाः सूर्यरश्मयः॥७॥
इष्ट्वा सङ्ग्रामयज्ञेन नानाप्रहरणाम्भसा।
अस्मिन्नवभृथे स्नातः कथं पत्न्या मया विना॥८॥
(श्रीरामायणे)
अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः।
नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसनः करः॥९॥
येनैव बाणेन हतः प्रियो मे तेनैव मां त्वं जहि सायकेन।
हता गमिष्यामि समीपमस्य न मामृते राम! रमेत वाली॥१०॥
(श्रीरामायणे)
हृदये वससीति मत्प्रियं यदवोचस्तदवैमि कैतवम्।
उपचारपदं न चेदिदं त्वमनङ्गः कथमक्षता रतिः॥११॥
(कालिदासस्य )
* पुह (वीअ) होहिइ पई बहुपुरिसविसेसचञ्चला राअसिरी।
किह ता महञ्चिअ इमं णीसामण्णं उवठ्टिअं वेहव्यम्॥१२॥8
(सेतौ)
इति वीरपत्नीप्रलापपद्धतिः ॥
________________
१५२. अथाभयप्रदानपद्धतिः।
एकतः क्रतवः सर्वे समग्रवरदक्षिणाः।
एकतो भयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम्॥१॥
(इतिहाससमुच्चये)
बद्धाञ्जलिपुटं दीनं याचकं शरणागतम्।
न हन्यादानृशंस्यार्थमपि शत्रुं परन्तप !॥२॥
आर्त्तो वा यदि वा त्रस्तः परेषां शरणागतः।
अरिः प्राणान् परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना॥३॥
विनष्टः पश्यतस्तस्य रक्षणे शरणागतः।
आदाय सुकृतं तस्य सर्वं गच्छेदरक्षितः॥४॥
(महाभारते)
विभीषणो वा सुग्रीव! यदि वा रावणः स्वयम्।
आनयैनं हरिश्रेष्ठ! दत्तमस्याभयंमया॥५॥
अमित्रमपि चेद् दीनं शरणैषिणमागतम्।
व्यसने योऽनुगृह्णाति स वै पुरुष उच्यते॥६॥
श्रूयते हि कपोतेन शत्रुः शरणमागतः।
अर्चितश्च यथान्यायं स्वैश्च मांसैर्निमन्त्रितः॥७॥
सकृदेव प्रसन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥८॥
(श्रीरामायणे)
नृगप्रभृतयो राजन्! राजानः शरणागताः।
परिवार्य महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥९॥
(महाभारते)
इत्यभयप्रदानपद्धतिः॥
_____________
१५३. अथ राजचाटुपद्धतिः।
सरस्वती स्थिता वक्त्रे लक्ष्मीर्वक्षसि ते स्थिता।
कीर्तिः किं कोपिता राजन्! येन देशान्तरं गता॥१॥
यदस्ति तद्ददासीति नैतच्चित्रमवैम्यहम् \।
भयं स्वप्नेऽपि ते नास्ति दत्तं तद् द्विषतां कथम्॥२॥
किं कृतेन न यत्र त्वं यत्र त्वं किमसौ कलिः।
कलौ चेद् भवतो जन्म कलिरस्तु कृतेन किम् \।\। ३॥
(वल्लभः)
वित्तः परिभवास्वादमर्थित्वसुलभं न तौ।
देहीति येन वा नोक्तमुक्तं त्वय्येव येन वा॥४॥
अर्थिनां कृपणा दृष्टिस्त्वन्मुखे पतिता सकृत्।
तदवस्था पुनर्देव! नान्यस्य मुखमीक्षते॥५॥
(दण्डिनः)
सर्वज्ञ इति लोकोऽयं भवन्तं भाषते मृषा।
पदमेकं न जानीषे वक्तुं नास्तीति याचते॥६॥
(भोजस्य)
नाक्षराणि पठता किमपाठि
(प्र?वि) स्मृतः किमथवा पठितोऽपि।
इत्थमर्थिजनसंशयडोला-
खेलनं खलु चकार नकारः॥७॥
(खण्डनकारस्य)
द्रविणमापदि भूषणमुत्सवे
शरणमात्मभये निशि दीपकः।
बहुविधाप्युपकारभरक्षमो
भवति कोऽपि भवानिव सन्मणिः॥८॥
(भल्लटे)
अत्युच्चाः परितः स्फुरन्ति गिरयः स्फारस्तथाम्भोधय-
स्तानेतानपि विभ्रती किमपि न क्लान्तासि तुभ्यं नमः।
आश्वर्येण मुहुर्मुहुः स्तुतिमिति प्रस्तौमि यावद् भुव-
स्तावद् बिभ्रदिमां स्मृतस्तवभुजो वाचस्ततो मुद्रिताः॥९॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणे)
कुलममलिनं भद्रा मूर्त्तिर्मतिः श्रुतिशालिनी
भुजबलमलं स्फीता लक्ष्मीः प्रभुत्वमखण्डितम्।
प्रकृतिसुभगास्ते ते भावा मदस्रुतिहेतवो
व्रजति पुरुषो यैरुन्मादं त एव तवाङ्कुशाः॥१०॥
(मुद्राराक्षसे)
नियमयसि कुमार्गप्रस्थितानात्तदण्डः
प्रशमयसि विवादं कल्पसे रक्षणाय।
अतनुषु विभवेषु ज्ञातयः सन्तु नाम
त्वयि तु परिसमाप्तं बन्धुकृत्यं प्रजानाम्॥११॥
स्वसुखनिरभिलापः खिद्यसे लोकहेतोः
प्रतिदिनमथवा ते सृष्टिरेवंविधैव।
अनुभवति हि मूर्ध्ना पादपस्तीव्रमुष्णं
शमयति परितापं छायया संश्रितानाम्॥१२॥
(कालिदासस्य)
इति राजचाटुपद्धतिः॥
_______________
१५४. अथ कीर्त्तिपद्धतिः।
कीर्त्तिरक्षणमातिष्ठ कीर्त्तिर्हि परमं बलम्।
नष्टकीर्तेर्मनुष्यस्य जीवितं विफलं स्मृतम्॥१॥
यावत् कीर्तिर्मनुष्यस्यलोके तिष्ठति शाश्वती।
तावज्जीवति राजेन्द्र! नष्टकीर्तिर्विनश्यति॥२॥
कीर्त्तिर्हिपुरुषं लोके सञ्जीवयति मातृवत्।
अकीर्त्तिर्जीवितं हन्ति जीवतोऽपि शरीरिणः॥३॥
कीर्त्तिमानश्नुते स्वर्गं नष्टकीर्त्तिस्तु नश्यति।
यावत्कीर्त्तिर्मनुष्यस्य लोके भाति यशस्करी॥४॥
तावत् पुण्यकृताल्ँलोकानानन्त्यान् पुरुषोऽश्नुते॥
(महाभारते)
इति कीर्त्तिपद्धतिः॥
____________
१५५. अथाकीर्त्तिपद्धतिः।
यस्य कीर्त्तिं न जल्पन्ति मानवा महदद्भुतम्।
राशिवर्धनमात्रः स नैव स्त्री न पुनः पुमान्॥१॥
अकीर्त्तिः कीर्त्यते यस्य लोके भूतस्य कस्यचित्।
पतत्येवाधमाल्ँलोकान् यावच्छदः स कीर्त्यते॥२॥
(महाभारते)
कित्तीएकण जीअन्ति णव्व मुञ्चन्ति दन्तिसव्वस्सम्।
तह बि हआसा सुपुरुसा णणिअडेण सण्ठाइ॥३॥
उव… तरि ऊणआ गरुआ विगुणातहणतुज्झ।
अधुरा विपुरालच्छी धीरावि भमरी तुए कीत्ति॥४॥
(गाथाकोशे)
इत्यकीर्त्तिपद्धतिः ॥
_____________
१५६. अथ राजवृत्तपद्धतिः।
यथा हि रश्मयोऽश्वस्य द्विरदस्याङ्कुशा यथा।
नरेन्द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम्॥१॥
(महाभारते)
न्यायेनार्जनमर्थस्य वर्धनं रक्षणं तथा।
सत्पात्रप्रतिपत्तिश्च राजवृत्तं चतुर्विधम्॥२॥
संवर्धयेत् तथा कोशमाप्तैस्तज्ज्ञैरधिष्ठितम्।
काले चास्य व्ययं कुर्यात् त्रिवर्गपरिवृद्धये॥३॥
धर्मार्थं क्षीणकोशस्य कृश (ता ?त्व) मपि शोभते।
सुरैः पीतावशेषस्य शरद्धिमरुचेरिव॥४॥
(कामन्दकीये)
अर्थत्यागो हि कार्यः स्यादर्थं श्रेयांसमिच्छता।
बीजौपम्येन कौन्तेय! मा ते भूदत्र संशयः॥५॥
नाममात्रेण सन्तुष्येच्छत्रेण च महीपतिः।
भृत्येभ्यो विसृजेदर्धात् नैकः सह (च)रो भवेत्॥६॥
न चास्य लभ्यं लिप्सेत मूले नातिदृढे सति।
न हि दुर्बलमूलस्य राष्ट्रलाभोऽपि विद्यते॥७॥
(महाभारते)
सिद्धिं वञ्चनयोपैति परस्परवधेन वा।
निरपायं सुखं तत्र द्वयोः किमपि चिन्त्यताम्॥८॥
वने प्रज्वलितो वह्निर्दहन् मूलानि रक्षति।
समूलमुन्मूलयति वार्यलं मृदु शीतलम्॥९॥
यस्य सिद्ध्यत्ययत्नेन शत्रुः स विजयी नृपः।
य एकतरतां गत्वा जयी विजित एव सः॥१०॥
जडोऽयमिति नात्यन्तं हीनमप्युपपातयेत्।
निर्दयं वि (हि ?ह) तोऽश्मापि व(न?म)ति ज्योतिषः (क्ष?क)
\णान्॥११॥
सामन्तानां परा सिद्धिः प्रभोर्निस्तलवर्गता।
प्रभोरपि परा (सिद्धिः) ससामन्तं महीतलम्॥१२॥
आयद्वारेषु सर्वेषु कुर्यादाप्तान् परीक्षितान्।
आददीत धनं तैस्तु भास्वानुस्रैरिवोदकम्॥१३॥
कोष्ठा (का? शू) रेऽभियुक्तः स्यात् तदायत्तं हि जीवितम्।
नात्यायश्च व्ययं कुर्यात् प्रत्यवेक्षेत चान्वहम्॥१४॥
(कामन्दकीये)
समानान्वयजातानां परस्परविरोधिनाम्।
परैः प्रत्यभियुक्तानां प्रसूते संहतिः श्रियम्॥१५॥
(दण्डनीत्याम्)
यथा च योगपुरुषैरन्यान् राजाधितिष्ठति।
तथायमर्थबाह्येभ्यो रक्षेदात्मानमात्मना॥१६॥
(महाभारते)
न दूषणमदुष्टस्य विषेणेवाम्भसश्चरेत्।
कदाचिद्विप्रदुष्टस्य नाधिगम्येत भेषजम्॥१७॥
सर्वमात्ययिकं कार्यं शृणुयान्नातिपातयेत्।
कृच्छ्रसाध्यमतिक्रान्तमसाध्यमपि वा भवेत्॥१८॥
(आ? अ) पूर्वदेशा (भि?धि) गमे युवराजाभिषेचने।
पुत्रजन्मनि वा मोक्षो बन्धनस्य विधीयते॥१९॥
असंवृतस्य कार्याणि प्राप्तान्यपि विशेषतः।
निस्संशयं विपद्यन्ते भिन्नः प्लव इवोदधौ॥२०॥
अपकुर्यात् समस्तं वा नोपकुर्याद यदापदि।
उपच्छिन्द्यादेव (तत्? मित्रं) विश्वास्याङ्कमुपागतम्॥२१॥
यतो निमित्तं व्यसनं प्रकृतीनामवाप्नुयात्।
प्रागेव प्रतिकुर्वीत तन्निमित्तमतन्द्रितः॥२२॥
नक्षत्रम (पि? ति) पृच्छन्तं बालमर्थोऽतिवर्त्तते।
अर्थो ह्यर्थस्य नक्षत्रं किं करिष्यन्ति तारकाः॥२३॥
पुनरावर्त्तमानस्य निराशस्य च जीविते।
अधार्यो जायते वेगस्तस्माद्भग्नं न पीडयेत्॥२४॥
(कौटिल्ये)
आस्रावयेदुपचितान् साधुदुष्टव्रणानि च।
आयुक्तास्ते च वर्त्तेरन्नग्नाविव महीपतौ॥२५॥
(कामन्दकीये)
जातवैरस्तु पुरुषो युक्तः स्वपिति सर्वदा।
अनिर्वृतेन मनसा स सर्प इव वेश्मनि॥२६॥
परीक्ष्य दुर्जनान् राजा स राष्ट्राद्विप्रवासयेत्।
क्षोभयिष्यन्ति ते राष्ट्रं सनृपं समवस्थिताः॥२७॥
तेजस्विनि क्षमोपेते नातिकर्कशमाचरेत्।
अतिनिर्मथनादग्निश्चन्दनादपि जायते ॥२८॥
(वल्लभदेवस्य)
एकया द्वौ विनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिर्वशे कुरु।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखी भव॥२९॥
बलीयसि प्रणमतां काले विप्रकृतामपि।
सम्पदो नापगच्छन्ति प्रतीपमिव निंम्नगाः॥३०॥
बलिना सह योद्धव्यमिति नास्ति (क? नि) दर्शनम्।
(प्रतिवातं) नहि घनः कदाचिदुपसर्पति॥३१॥
भीरुः पलायमानोऽपि नान्वेष्टव्यो बलीयसा।
कदाचिच्छूरतामेति मरणे कृतनिश्चयः॥३२॥
अणुनापि प्रविश्यारिच्छिद्रेण बलवत्तरम्।
निश्शेषं मज्जयेद्राज्यं यानपात्रमिवोदकम्॥३३॥
प्रहरिष्यन् प्रियं ब्रूयात् प्रहरन्नपि भारत!।
प्रहृत्य च प्रियं ब्रूयाच्छोचन्निव रुदन्निव॥३४॥
बलिनं साधयेत् साम्ना लुब्धमर्थप्रदानतः।
शूरं भेदेन च तथा हन्याद् दण्डेन दुर्बलम्॥३५॥
यस्य चाप्रियमन्विच्छेत् ब्रूयात् तस्य सदा प्रियम्।
व्याधा मृगवधं कर्त्तुं रम्यं गायन्ति सस्वनम्॥३६॥
(महाभारते)
नोपेक्षितव्यो विद्वद्भिः शत्रुरल्पोऽप्यवज्ञया।
वह्निरल्पोऽपि सङ्क्रुद्धो भस्मसात्कुरुते वनम्॥३७॥
(बल्लभदेवस्य)
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां सम्प्रदानेन केनचित्।
प्रतिपुष्कलघाती स्यात् तीक्ष्णदण्ड इव द्विजः॥३८ ॥
(महाभारते)
गृध्रदृष्टिर्बकालीनः श्वचेष्टः सिंहविक्रमः।
अनुद्विग्नः काकशङ्की भुजङ्गचरितं चरेत्॥३९॥
बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्।
वृकवच्च विलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत्॥४०॥
(चाक्षुषीये)
विपाकदारुणो राज्ञां रिपुरल्पोऽप्यरुन्तुदः।
उद्वेजयति सूक्ष्मोऽपि चरणं कण्टकाङ्कुरः॥४१॥
(प्रबोधचन्द्रोदये)
वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत् कालस्य पर्ययः।
अथैनमागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि॥४२॥
आदातव्यं न दातव्यं प्रियं ब्रूयान्निरर्थकम्।
आशां कालवतीं कुर्यात् कालं विघ्नेन योजयेत्॥४३॥
(महाभारते)
कौर्मसङ्कोचमास्थाय प्रहारानपि मर्षयेत्।
काले प्राप्ते तु मतिमानुत्तिष्ठेत् क्रुद्धसर्पवत्॥४४॥
(कामन्दकीये)
सुपुष्पितः स्यादफलो दुरारोहः फलान्वितः।
आमः स्यात् पक्वसङ्काशो न च शीर्येत कस्यचित्॥४५॥
न हि कश्चित् कृते कार्ये कर्त्तारं समवेक्षते।
ततः सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत्॥४६॥
सम्भाष्य बुद्धिं जानीयात् शीलं च सह संवदन्।
शौचं संव्यवहारेण परमापत्सु पौरुषम्॥४७॥
कार्यस्य हि गरीयस्त्वान्नीचानामपि कालवित्।
सतोऽपि दोषान् प्रच्छाद्य गुणानप्यसतो वदेत्॥४८॥
कः कालः कानि मित्राणि को देशः कौ व्ययागमौ।
कश्चाहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः॥४९॥
यत् प्रसह्य हरेदम्यस्तत् प्रयच्छेदुपायतः।
रक्षेत् स्वदेहं यत्नेन का ह्यनित्यधने दया॥५०॥
(महाभारते)
मन्त्रभैषज्यसंयुक्ता योगमायाकृताश्च ये।
उपहन्यादमित्रांस्तैः स्वजनं चाभिपालयेत्॥५१॥
(कौटिल्ये)
वाचा भृशं विनीतः स्याद्धृदयेन तथा क्षुरः।
शुक्लः पूर्वाभिभाषी स्यात् सृष्टो रौद्राय कर्मणे ॥५२॥
अश्मना साधयेल्लोहं लोहेनाश्मानमेव च।
बिल्वानिव करे बि (ल्वे? ल्वैः) म्लेच्छान् म्लेच्छैः प्रसाधयेत्॥५३॥
आत्मना सङ्गृहीतेन शत्रूणा शत्रुमुद्धरेत्।
पदलग्नं करस्थेन कण्टकेनैव कण्टकम्॥५४॥
कर्मणा मनसा वाचा चक्षुषा च चतुर्विधम्।
प्रसीदयति लोकं यस्तं लोकोऽनुप्रसीदति॥५५ ॥
(महाभारते)
समूलघातमघ्नन्तः परान्नोद्यन्ति मानिनः।
प्रध्वंसितान्धतमसस्तत्रोदाहरणं रविः ॥५६॥
(माघे)
ऋणशेषोऽग्निशेषश्च शत्रुशेषस्तथैव च।
अल्पोऽपि वर्धतेऽत्यर्थे तच्छेषं नैव कारयेत्॥५७॥
(दण्डनीत्याम्)
न स क्षयो महाराज! यः क्षयो वृद्धिमावहेत्।
क्षयः स त्विह मन्तव्यो यं लब्ध्वा बहु नाशयेत्॥५८॥
प्रजामुखे सुखं राज्ञः प्रजानां वा हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम्॥५९॥
(महाभारते)
सुसंरक्षेत निपुणः सस्यं कण्टकशाखया।
फलाय लगुडः कार्यो दस्युभोग्यमिदं जगत्॥६०॥
अहापयन्नृपः कालं भृत्यानामनुवर्त्तिनाम्।
कर्मणामानुरूप्येण वृत्तिं समनुकल्पयेत्॥६१॥
(कामन्दकीये)
एवं वृत्तस्य राज्ञस्तु सिलोञ्छेनोपजीवतः।
वि(जी?शी)र्यते यशो लोके तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥६२॥
अतस्तु विपरीतस्य नृपतेरकृतात्मनः।
संक्षिप्यते यशो लोके घृतबिन्दुरिवाम्भसि ॥६३॥
(महाभारते)
आभ्यन्तराद् भयं रक्षन् सुरक्षेद् बाह्यतो भयम्।
आभ्यन्तराद् भयं जातं सद्यो मूलं निकृन्तति॥६४॥
सुमन्त्रितं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम्।
आपदागमकाले तु कुर्वीत न विचारयेत्॥६५॥
अनुरक्तेन हृष्टेन तुष्टेन जगतीपतिः।
अल्पेनापि स्वसैन्येन भूमिं जयति भूमिपः॥६६॥
अलङ्घ्यं तत्तदुद्वीक्ष्य यद्यदुच्चैर्महीभृताम्।
प्रियतां ज्यायसीं मा गान्महतां केन तुङ्गता ॥६७॥
(भारवेः)
कामवृत्तस्त्वयं लोकः कृत्स्नो लोकः प्रवर्तते।
यद्वृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ॥६८॥
(श्रीरामायणे)
विनयोपग्रहान् भूत्यै कुर्वीत नृपतिः सुतान्।
अविनीतकुमारं हि कुलमाशु विनश्यति॥६९॥
विनीतमौरसं पुत्रं यौवराज्येऽभिषेचयेत्।
दुष्टं गजमिवोन्मत्तं कुर्वीत सुखबन्धनम्॥७०॥
पुत्रो भ्राता पिता चैव गुरुर्वा यदि वा सुहृत्।
अर्थस्य विघ्नं कुर्वाणाः कर्त्तव्या भूमिपानां (?)॥७१॥
अनुयुक्तो दस्युवधे रणे कुर्यात् पराक्रमम्।
नास्य कृत्यमतः किञ्चिदन्यद् दस्युनिबर्हणात् ॥७२॥
जात्या न क्षत्रियः प्रोक्तः क्षतात् त्राणं करोति यः।
चातुर्वर्ण्यबहिष्ठोऽपि स चेह क्षत्रियः स्मृतः॥७३॥
क्रोधं कुर्यान्नचाकस्मान्मृदुः स्यान्नापराधिषु।
अर्थान् ब्रूयान्न चासत्सु गुणान् ब्रूयान्न चात्मनः ॥७४॥
यतो हि निम्नं भवति नयन्तीह ततो जलम्।
यतश्छिद्रं ततश्चापि नीयते पण्डितैर्बलम्॥७५
य( था?दा) बहुविधामृद्धिं मन्यते प्रतियोगतः।
तदा विवृत्य प्रहरेदरीणामविचारयन्॥७६ ॥
अपशास्त्रधनो राजा सञ्चयं नाधिगच्छति।
अस्थाने चास्य तद्वित्तं सर्वमेव विनश्यति॥७७॥
(महाभारते)
धनेनाधर्मलब्धेन यच्छिद्रमपिधीयते।
असंवृतं तद् भवति ततोऽन्यदपि दीर्यते॥७८॥
इन्द्रस्यार्कस्य वायोश्च यमस्य वरुणस्य च।
चन्द्रस्य च पृथिव्याश्च नृपः सप्तगुणो भवेत्॥७९॥
यथेन्द्रश्चतुरो मासान् वार्षिकानभिवर्षति।
एवं राष्ट्रं परीहारैरभिवर्षेज्जनाधिपः॥८०॥
अष्टौ मासान् यथादित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः।
एवं राष्ट्रात् करान् राजा हरेदादित्यसन्निभः॥८१॥
प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः।
चारैरेवं चरेद्राजा वृत्तमेतत्तु मारुतम्॥८२॥
यथा प्रियं वा द्वेष्यं वा प्राप्तकालं नियच्छति।
यथार्हं दण्डयेद् राजा वृत्तं वैवस्वतं हि तत्॥८३॥
यथा धावन्ति नद्यस्तु सिन्धुमाकाङ्क्षया विना।
तथा नाकाङ्क्षते राजा वृत्तमेतत्तु वारुणम्॥८४॥
परिपूर्णं यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः।
तथा प्रकृतयो नित्यं हृष्यन्ति नृपतेर्गुणैः॥८५॥
यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम्।
पौरजानपदान् सर्वांस्तथा राजापि धारयेत्॥८६॥
लक्ष्मीपरिपूर्णोऽहं न भयं मेऽस्तीति मोहनिद्रैषा।
परिपूर्णस्यैवेन्दोर्भवति भयं सिंहिकासूनोः॥८७॥
सखीनिव प्रीतियुजोऽनुजीविनः समानमानान् सुहृदश्च बन्धुभिः।
स सन्ततं दर्शयते गतस्मयः कृताधिपत्यामिव साधुबन्धुताम् ॥८८॥
निरत्ययं साम न दानवर्जितं
न भूरि दानं विरहय्य सत्क्रियाम्।
प्रवर्तते तस्य विशेषशालिनी
गुणानुरोधेन विना न सत्क्रिया॥८९॥
वसूनि वाञ्छन्न वशी न मन्युना
स्वधर्म इत्येव निवृत्तकारणः।
गुरूपदिष्टेन रिपौ सुतेऽपि वा
निहन्ति दण्डेन स धर्मसंप्लवम्॥९०॥
विभज्य रक्षां परितः परेतरा-
नशङ्किताकारमुपैति शङ्कितः।
क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः
कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः॥९१॥
अनारतं तेन पदेषु लम्भिता
विभज्य सम्यग्विनियोगसत्क्रियाः।
फलन्त्युपायाः परिबृंहितायती-
रुपेत्य सङ्घर्षमिवार्थसम्पदः॥९२॥
व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं
भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः।
प्रविश्य हि घ्नन्ति शठास्तथाविधा-
न संवृताङ्गान् निशिता इवेषवः॥९३॥
बलोपपन्नोऽपि हि बुद्धिमान् नरः
परं नयेन्न स्वयमेव वैरिताम्।
भिषङ् ममास्तीति विचिन्त्य भक्षये-
दकारणं को नु विषं विचक्षणः॥९४॥
द्विषतामुदयः सुमेधसा गुरुरस्वन्ततरस्तु मृष्यते।
न महानपि भूतिमिच्छता फलसम्पत्प्रवणः परिक्षयः॥९५॥
अचिरेण परस्य भूयसीं विपरीतां विगणय्य चात्मनः।
क्षययुक्तिमुपेक्षते कृती कुरुते तत्प्रतिकारमन्यथा॥९६ ॥
शुचि भूषयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलंक्रिया।
प्रशमाभरणं पराक्रमः स नयापादितसिद्धिभूषणः॥९७॥
क्षययुक्तमपि स्वभावजं दधतं धाम शिवं समृद्धये।
प्रणमन्त्यनपायमुत्थितं प्रतिपच्चन्द्रमिव प्रजा नृपम्॥९८॥
प्रभवः खलु कोशदण्डयोः कृतपञ्चाङ्गविनिर्णयो नयः।
स विधेयपदेषु दक्षतां नियतिं लोक इवानुरुध्यते॥९९॥
(भारवेः)
यदैव राज्ये क्रियतेऽभिलाषस्तदैव (दे?हे) या व्यसनेषु बुद्धिः।
घटा हि राज्ञामभिषेककाले सहाम्भसा व्यापदमुद्गिरन्ति ॥१००॥
(पञ्चतन्त्रस्य)
उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम्।
शूरं कृतज्ञं दृढनिश्चयं च लक्ष्मीः स्वयं वाञ्छति वासहेतोः ॥[१०१ ॥
कार्यार्थिनः क्षीणतरस्य नैव निःशेषकार्यं कुटिलस्य कुर्यात्।
दोषाकरः प्राप्तविवृद्धदर्पः पलायते दूरतरं हि मित्रात् ॥१०२॥
(राजशेखरस्य)
सर्वे धर्मा राजधर्मप्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति।
सर्वोद्योगा राजधर्मे निविष्टाः स्थानं चाग्र्यं राजधर्मे पुराणम्॥१०३॥
औत्सुक्यमात्रमवसाययति प्रतिष्ठा
क्लिश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव।
नातिश्रमापनयनाय न च श्रमाय
राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवातपत्रम् ॥१०४॥
(कालिदासस्य)
इति राजवृत्तपद्धतिः॥
________
१५७. अथ करादानपद्धतिः।
यथा फलेन युज्येत राजा कर्त्ता च कर्मणाम्।
तथावेक्ष्य नृपो राष्ट्रे कल्पयेत् सततं करान् ॥१॥
पुष्पं पुष्पं प्रचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत्।
माला (कार) इवारामे न तथाङ्गारकारकः॥२॥
उच्चावचाः करन्यायाः पूर्वराज्ञां युधिष्ठिर!।
यथा यथा न हीयेयुस्तथा कुर्यान्महीपतिः॥३॥
यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः।
तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया॥४॥
वत्सौपम्येन दोग्धव्यं राष्ट्रमक्षीणबुद्धिना।
भृतो वत्सो जातबलः पीडां सहति भारत!॥५ ॥
ऊधश्छिनत्ति यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत् पयः।
एवं राष्ट्रमयोगेन पीडयन् नाभिवर्धत॥६॥
कालप्राप्तमुपादद्यान्नार्थं राजा प्रसूचयेत्।
अहन्यहनि सन्दुह्यान्महीं गामिव बुद्धिमान्॥७॥
दोग्धि धान्यं हिरण्यं च मही राज्ञा सुरक्षिता।
नित्यं परेभ्यः स्वेभ्यश्च तृप्ता माता यथा पयः॥८॥
यथा विलेखकः काणमाहुः पादत्वचं तथा (?)।
अतीक्ष्णेनाभ्युपायेन तथा राष्ट्रं समापिबेत्॥९॥
जलूकावत् पिबेद्राष्ट्रं मृदुनैव नराधिपः।
व्याघ्रीवापहरेत् पुत्रं न दंशेन्न च पीडयेत्॥१०॥
क्रयविक्रयमध्वानं भक्तं च व्रीहितण्डुलम्।
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य वणिजः कारयेत् करान्॥११॥
(महाभारते)
प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्।
सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः॥१२॥
(कालिदासस्य)
इति करादानपद्धतिः ॥
___________
१५८. अथ दिनचर्यापद्धतिः।
उत्थाय पश्चिमे यामे कृतशौचः समाहितः।
हुत्वाग्निं ब्राह्मणांश्चार्च्य प्रविशेच्च शुभां सभाम्॥१॥
प्रातरुत्थाय नृपतिः कुर्याद् दन्तस्य धावनम्।
स्नानशालां समागम्य स्नात्वा पूतेन वारिणा॥२॥
अर्ध्यं दत्त्वाथ देवाय भास्कराय समाहितः।
ततोऽलङ्कृतगात्रः सन् वृत्तमालोक्य मन्त्रवत्॥३॥
घृतपात्रं तु विप्राय दद्यात् सकनकं नृपः।
वारं पुरस्ताद् द्युनिशां विभज्य तारं परस्तात् तिथिमेव पश्चात्।
सूर्येन्दुयोगात् करणानि भूपं सम्भूय ……. देवकाले॥४॥
तत्र स्थिताः प्रजाः सर्वाः प्रतिनन्द्य विसर्जयेत्।
विसृज्य च प्रजाः सर्वा मन्त्रयेत् सह मन्त्रिभिः॥५॥
एवं सर्वमिदं राजा सम्मन्त्र्य सह मन्त्रिभिः।
व्यायम्याप्लुत्य मध्याह्ने भोक्तुमन्तःपुरं व्रजेत्॥६॥
तत्रात्मभृत्यैः कालज्ञैराचार्यैः परिचारकैः।
सुपरीक्षितमन्नाद्यमद्यान्मन्त्रैर्विषापहैः॥७॥
विषघ्नैरगदैश्चास्य सर्वद्रव्याणि योजयेत्।
विषघ्नानि च रत्नानि नियतो धारयेत् सदा॥८॥
अन्नपानं विषाद्रक्षेत् विशेषेण महीपतेः।
योगक्षेमौ तदायत्तौ धर्माद्या यन्निबन्धनाः॥९॥
परीक्षिताः स्त्रियश्चैनं व्यजनोदकधूपनैः।
वेषाभरणसंशुद्धाः संस्पृशेयुः समाहिताः॥१०॥
एवं प्रयत्नं कुर्वीत यानशय्यासनाशने।
स्थाने प्रसाधने चैव सर्वालङ्कारकेषु च॥११॥
नाप्रेक्षितं नाविदितं भिषजा नानवेक्षितम्।
नाप्याशितं च सूदाद्यैः किञ्चिदप्याहरेन्नृपः॥१२॥
(सङ्ग्रहे)
इतिहासपुराणानि शृणुयात् तदनन्तरम्।
भुक्तवान् विहरेच्चैव स्त्रीभिरन्तःपुरे सह॥१३॥
विहृत्य च यथाकालं पुनः कार्याणि चिन्तयेत्।
अलङ्कृतश्च सम्पश्येदायुधीयं पृथग्जनम्॥१४॥
वाहनानि च सर्वाणि शस्त्राण्याभरणानि च।
सन्ध्यां चोपास्य शृणुयादन्तर्वेश्मनि शस्त्रभृत्॥१५॥
रहस्याख्यायिनां चैव प्रणिधीनां च चेष्टितम्।
गत्वा कक्ष्यान्तरं सम्यक् समनुज्ञाप्य तं जनम्॥१६॥
प्रविशेद् भोजनायैव स्त्रीवृतोऽन्तःपुरं पुनः।
तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्यघोषैः प्रहर्षितः॥१७॥
संविशेच्च यथाकालमुत्तिष्ठेद्विगतक्लमः।
एतद् वृतं समातिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः॥१८॥
अस्वस्थः सर्वमेवेदं भृत्येषु विनियोजयेत्॥१९॥
(मनोः)
इति दिनचर्यापद्धतिः॥
______________
१५९. अथात्मरक्षापद्धतिः।
आत्मानं सर्वथा रक्षेद्राजा रक्षेच्च मेदिनीम्।
आत्ममूलमिदं सर्वमाहुर्हि विदुषो जनाः॥१॥
ऐश्वर्यधनरत्नानां प्रत्यमित्रेषु वर्त्तिनाम्।
दृष्टा हि पुनरावृत्तिर्जीवतामिह नः श्रुतम्॥२॥
जीवतैवपरो लोकः साध्यते यश्च सर्वदा।
अजीवतस्तथैवास्ति न राज्यं न परा गतिः॥३॥
रक्ष सर्वात्मनात्मानमात्मा सर्वस्य भाजनम्।
जीविते यत्नमातिष्ठ जीवन् भद्राणि पश्यति॥४॥
राज्यं श्रीश्चैव भद्रं ते जीवमानस्य कल्पते।
मृतस्य खलु कौन्तेय! नैव राज्यं कुतः सुखम्॥५॥
मृतः कीर्त्तिं न जानाति जीवन् कीर्त्तिं समश्नुते।
मृतस्य कीर्त्तिर्मर्त्यस्य यथा माला गतायुषः॥६॥
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥७॥
आत्मार्थं सन्ततिस्त्याज्या राज्यं रत्नं धनानि च।
अपि सर्वं समुत्सृज्य रक्षेदात्मानमात्मना॥८॥
न च कन्यामविजितां संस्पृशेदपरीक्षिताम्।
विविधान् कुर्वते योगान् कुशलाः खलु मानवाः॥९॥
आजन्मविषसम्भोगात् कन्या विषमयी कृता।
स्पर्शोच्छ्वासादिभिर्हन्ति तस्यास्त्वेतत् परीक्षणम्॥१०॥
तद्धस्तकेशसंस्पर्शान्म्लायते पुष्पपल्लवैः।
शय्यायां मत्कुणैर्वस्त्रैर्यूकाभिः (स्तन? स्वेद) वारिणा॥११½॥
जन्तुभिः श्रीयते ज्ञात्वा तामेवं दूरतस्त्यजेत्॥११३॥
(संग्रहे)
इत्यात्मरक्षापद्धतिः॥
________
१६० अथ राज्यरक्षापद्धतिः।
रक्षितात्मा तुयो राजा रक्षाद्यं चाभिरक्षति।
गुणाश्च तस्य वर्धन्ते सुखं च महदश्नुते॥१॥
मित्रामात्यं पुरं राष्ट्रं दण्डः कोशो महीपतिः।
सप्तानां पञ्चसङ्घातो राज्यमित्युच्यते नृप!॥२॥
राज्यं हि सुमहत्तन्त्रं दुर्धरं ह्यकृतात्मभिः।
न शक्यमृजुना वोढुमाघातस्थानमुल्बणम्॥३॥
अमात्यः शूर एव स्याद् युद्धसम्पन्न एव च।
तस्मादपि भयं राज्ञः पश्य राज्यस्य योजनाम्॥४॥
आन्तरेभ्यः परान् रक्षेत् परेभ्यः पुनरान्तरान्।
परान् परेभ्यः स्वान् स्वेभ्यः सर्वान् रक्षेत सर्वदा॥५॥
जिघांसवः पापकामाः परस्वादायिनः शठाः।
रक्षांस्यधिकृता नाम तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः॥६॥
राज्ञो यदा जनपदे बहवो राजपुरुषाः।
अनयेनोपवर्तन्ते तद्राज्ञः किल्बिषं भवेत्॥७॥
प्रत्याहर्त्तुमशक्यं स्याद् धनं चोरैर्हृतं यदि।
स्यात् कोशात् तत् प्रदातव्यमशक्तेनोपजीविनाम्॥८॥
स्त्रियः सपुरुषा मार्गंसर्वालङ्कारसंयुताः।
निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदा रक्षति भूमिपः॥९॥
विवृत्य हि यथाकामं गृहद्वाराणि शेरते।
मनुष्या रक्षिता राज्ञा सामन्तादकुतोभयाः॥१०॥
यमह्ना कुरुते धर्मं प्रजा धर्मेण पालयन्।
हस्तो हस्तं परिमुषेद् भिद्येरन् सर्वसेतवः॥११॥
भयार्तं विद्रवेत् सर्वं यदि राजा न पालयेत्॥११½॥
(महाभारते)
इति राज्यरक्षापद्धतिः ॥
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१६१. अथ कण्टकशोधनपद्धतिः।
राज्योपघातं कुर्वीरन् ये पापा राजवल्लभाः।
एकैकशः समेतान् वा तान् दूष्यान् सम्प्रचक्षते॥१॥
दूष्यानुपांशुदण्डेन हन्याद्राजाविलम्बितम्।
अदृश्यं वा प्रकाशं वा लोकविद्वेषमागतान्॥२॥
(कामन्दके)
दण्ड्ये यः पातयेद् दण्डं दण्ड्यो यश्चाभिदण्ड्यते।
कार्यकारणसिद्धार्थावुभौ तौ नावसीदतः॥३॥
(श्रीरामायणे)
राजभिर्धृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः।
निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥४॥
वापीष्विव स्रवन्तीषु वनेषूपवनेषु वा।
सार्थाः स्वैरं तदीयेषु चेरुर्वेश्मस्विवाद्रिषु॥५॥
राजा रहसि दूष्यं हि दर्शनायोपमन्त्रयेत्।
गूढशस्रा विशेयुस्तं पश्चादासज्जिता नराः॥६॥
विश्वस्ता हि विचिन्वीयुर्द्वाःस्थाः कक्ष्यान्तरागतान्।
ते शस्त्रग्राहिणो ब्रूयुः प्रयुक्ताः स्म इति स्फुटम्॥७॥
इत्यादि दूष्यान् सन्दूष्य प्रजानामभिवृद्धये।
निनीषुः श्रियमुत्कर्षं राजा शल्यं समुद्धरेत्॥८॥
(कामन्दकीये)
निस्सर्पे बद्धसर्पे वा वस्तुं हि भवने सुखम्।
दृष्टनष्टभुजङ्गे तु निद्रा दुःखेन जायते॥९॥
(पञ्चतन्त्रे)
द्वेष्योऽपि सम्मतः शिष्टस्तस्यार्त्तस्य यथौषधम्।
त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदङ्गुलीवोरगक्षता॥१०॥
यस्मिन् महीं शासति कामिनीनां
निद्रां विहारार्धपथे गतानाम्।
वातोऽपि नास्रंसयदंशुकानि
को लम्बयेदाभरणाय हस्तम्॥११॥
(कालिदासस्य)
इति कण्टकशोधनपद्धतिः॥
_________
१६२. अथ लोकरञ्जनपद्धतिः।
लोकरञ्जनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः।
सत्यस्य रक्षणं चैव व्यवहारस्य चार्जवम्॥१॥
यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोऽनुगम्।
गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाप्यसंशयम्॥२॥
वर्त्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ! तथा धर्मानुवर्त्तिना।
स्वं प्रियं सम्परित्यज्य यद्यल्लोकहितं भवेत्॥३॥
अप्रियं यश्च कुर्वीत भूयस्तस्य प्रियं चरेत्।
अचिरेण प्रियः स स्यात् योऽप्रिये प्रियमाचरेत्॥४॥
गुप्तात्मा स्याद् दुराधर्षः स्मितपूर्वाभिभाषिता।
आभाषितं च मधुरं प्रीत्या भाषेत मानवः॥५॥
राज्ञो न याचितुर्दातुः शक्लस्य (ॽ) रसवेदिनः।
व्यसनित्वमिवोत्पन्नं विजिघांसन्ति मानवाः॥६॥
एकान्तेन हि सर्वेषां न शक्यं तात! रोचितुम्।
मित्रामित्रमथो मध्यं सर्वभूतेषु भारत!॥७॥
गोपायितारं दातारं धर्मनित्यमतन्द्रितम्।
अकामद्वेषसंयुक्तमनुरज्यन्ति मानवाः॥८॥
पर्जन्यमिव भूतानि महाद्रुममिवाण्डजाः।
नराः समुपजीवन्ति नृपं सर्वार्थसाधकम्॥९॥
(महाभारते)
इति लोकरञ्जनपद्धतिः ॥
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१६३. अथ सामान्यनीतिपद्धतिः।
अनुगन्तुं सतां वर्त्म यदि कृत्स्नं न शक्यते।
स्वल्पमप्यनुगन्तव्यं मार्गस्थो नावसीदति॥१॥
अञ्जनस्य क्षयं दृष्ट्वा वल्मीकस्य च सञ्चयम्।
अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मसु॥२॥
यदशक्यं न तच्छक्यं यच्छक्यं शक्यमेव तत्।
नोदके शकटं याति न नौर्वा गच्छति स्थले॥३॥
द्वावम्भसि विनिक्षेप्यौ गाढं बद्ध्वा गले शिलाम्।
धनिनं चाप्रदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्॥४॥
(व्यासस्य)
धनमस्तीति वाणिज्यं किञ्चिदस्तीति कर्षणम्।
सेवां न किञ्चिदस्तीति नाहमस्मीति साहसम्॥५॥
नोदन्वानर्थितामेति न चाम्भोभिर्न पूर्यते।
आत्मा तु पात्रतां नेयः पात्रमायान्ति सम्पदः॥६॥
राजानं चैव सर्पं च ब्राह्मणं च बहुश्रुतम्।
नावमन्येत मेधावी कृशानपि कदाचन॥७॥
ते धन्या ये न पश्यन्ति देशभङ्गं कुलक्षयम्।
परहस्तगतान् दारान् मित्रं च व्यसनातुरम्॥८॥
असिधाराक्रमक्रीता वरमेकापि का (रु?कि)णी।
न परभ्रूविनिर्दिष्टा सागरान्तापि मेदिनी॥९॥
परदारा न गन्तव्याः सर्ववर्णेषु कर्हिचित्।
न हीदृशमनायुष्यं यदन्यस्त्रीनिषेवणम्॥१०॥
प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः।
एतद्विज्ञानसामर्थ्यं न बालैः समतामियात्॥११॥
पुत्रैर्दारैर्नृपैर्वापि वियुक्तस्य धनेन वा।
मग्नस्य व्यसने घोरे पुंसः श्रेयस्करी धृतिः॥१२॥
(महाभारते)
दुःखे दुःखाधिकान् पश्येत् सुखे पश्येत् सुखाधिकान्।
आत्मानं शोकहर्षाभ्यां शत्रुभ्यामिव नार्पयेत्॥१३॥
(इतिहाससमुच्चये)
सभा वा न प्रवेष्टव्या वक्तव्यं वा समञ्जसम्।
अब्रुवन् विब्रुवन् वापि नरो भवति किल्बिषी॥१४॥
(विज्ञानेश्वरे)
परनिन्दासु पाण्डित्यं स्वेषु कार्येष्वनुद्यमः।
प्रद्वेषश्च गुणज्ञेषु पन्थानो व्यापदां त्रयः॥१५॥
ये तु शिष्टाः सुनियताः सत्याचारपरापणाः।
धन्यं पन्थानमारूढास्तेषां वृत्तं समाचरेत्॥१६॥
अज्ञानेनावृतो लोको मात्सर्यान्नप्रकाशते।
लोभात् त्यजति मित्राणि सङ्गात् स्वर्गं न गच्छति॥१७॥
(महाभारते)
शक्त्या च दानं सततं तितिक्षा दम आर्जवम्।
यथार्हं प्रतिपूजा च शास्त्रमेतदनाकुलम्॥१८॥
यच्छक्ता अप्युपेक्षन्ते कदाचिदपकारिणम्।
समूलकाषं कषितुमुपायोत्साहमूढता॥१९॥
(वल्लवदेवस्य)
दुःखिने बन्धुवर्गाय सुखिने संश्रिताय च।
या नहि द्रुह्यतो वृत्तिः सा कृशापि गरीयसी॥२०॥
दानं क्षमा धृतिः प्रज्ञा सन्तोषो वागनिष्ठुरा।
ह्रीरहिंसा व्यसनिनो ज्ञानं चेति सुखावहाः॥२१॥
आयुषःक्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते।
स वृथा नीयते येन प्रमादः सुमहानयम्॥२२॥
महानहमिति न्यू (नं? नो) महासत्त्वं न लङ्घयेत्।
निष्पिनष्टि गजं चापि पाणिना किं नु केसरी॥२३॥
अप्युन्मत्तात् प्रलपतो बालाच्च परिसर्पतः।
सर्वतः सारमादद्याद् अश्मभ्य इव काञ्चनम्॥
(महाभारते)
दैवयोगादुपात्ता हि प्रज्ञाहीनस्य सम्पदः।
अकस्मादेव नश्यन्ति खलानामिव सङ्गतम्॥२५॥
(वल्लभदेवस्य)
अनादरहतां सेवां दाम्पत्यं प्रेमवर्जितम्।
मैत्रीं च हेतुसापेक्षां चेतना नाधिकुर्वते॥२६॥
(काव्यप्रकाशे)
न्यायार्जितस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम्॥२७॥
अनृतं च समुत्कर्षे राजगामि च पैशुनम्।
गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया॥२८॥
आत्मानं नावमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः।
आ मृत्योः श्रियमन्विच्छेन्नैनां मन्येत दुर्लभाम्॥२९॥
(मनोः)
प्रयोजनेषु ये सक्ता न विशेषेषु भारत।
तानहं पण्डितान् मन्ये विशेषा विघ्नकारकाः॥३०॥
(महाभारते)
मा तात! वृद्धान् परिभूः शिक्षस्वागमयस्व च।
अहेरिव हि धर्मस्य सूक्ष्मा दुरधिगा गतिः॥३१॥
(व्यासशतके)
मा त्वं तात! बले स्थित्वा बाधिष्ठा दुर्बलं जनम्।
नहि दुर्बलदग्धानां कुले किञ्चित् प्ररोहति॥३२॥
मा तात! सम्पदां मध्यमारूढोऽस्मीति विश्वसीः।
दूरारूढपरिभ्रंशविनिपातो हि दारुणः॥३३॥
(महाभारते)
यं प्रशंसन्ति गणिका यं प्रशंसन्ति गायकाः।
यं प्रशंसन्ति कितवास्तमाहुः पुरुषाधमम्॥३४॥
आपत्सु मित्रं जानीयाद्रणे शूरं रहः शुचिम्।
भार्यां च विभवे क्षीणे दुर्भिक्षे च प्रियातिथिम्॥३५॥
(चाक्षुषीये)
अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम्।
हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः॥३६॥
अपहृत्य परस्यार्थं यः परेभ्यः प्रयच्छति।
स दाता नरकं याति यस्यार्थस्तस्य तत् फलम्॥३७॥
पूर्वे वयसि यः शान्तः स शान्त इति मे मतिः।
धातुषु क्षीयमाणेषु शमः कस्य न विद्यते॥३८॥
आरोप्यते शिला शैलं क्लेशेन महता यथा।
निपात्यतेक्षणेनाधस्तथात्मा पुण्यपापयोः॥३९॥
क्षत्रिये सङ्गतिर्नास्ति न प्रीतिर्न च सौहृदम्।
कारणे सान्त्वयन्त्येते कृतार्थाः सन्त्यजन्ति च॥४०॥
(महाभारते)
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं विशिष्यते।
योऽर्थे शुचिः स हि शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः॥४१॥
(मनोः)
मृत्तिकानां सहस्रैस्तु जलकुम्भशतैरपि।
भावोपहतचित्तास्तु शुध्यन्ति न कदाचन॥४२॥
कृतस्य करणं नास्ति प्रागेवातः परीक्ष्यताम्।
अविचिन्त्य कृतं सर्वं पश्चात्तापाय कल्पते॥४३॥
राजाभिषेके शत्रुघ्ने कन्यादाने धनार्जने।
विद्याया ग्रहणे रोगे कालक्षेपं न कारयेत्॥४४॥
(महाभारते)
शत्रोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या गुरोरपि।
पक्षपाताद्भवेत् पापं दोषा दोषा गुणा गुणाः॥४५॥
(वल्लभदेवस्य)
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च।
द्विषतां सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥४६॥
(नीतिशास्त्रे)
यस्य पुत्रो वशे भर्तुर्भार्या छन्दानुवर्तिनी।
विभवे सति सन्तोषः स्वर्गस्तस्य इहैव हि॥४७॥
(चाक्षुषीये)
अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।
वञ्चनं चावमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत्॥४८॥
जानीयात् प्रेषणे भृत्यं बान्धवं व्यसनागमे।
मित्रं चापदि काले तु भार्यां च विभवक्षये॥४९॥
ब्राह्मणा गणका वैद्याः सारमेयाश्चकुक्कुटाः।
दृष्टमात्रेण कुप्यन्ति न जाने तत्र कारणम्॥५०॥
(एते नीतिशास्त्रे)
मूषिका गृहजातापि हन्तव्याप्युपकारिणी।
उपप्रदानैर्मार्जारो हितकृत् प्रार्थ्यतेऽन्यतः॥५१॥
अतिरागाद् दशग्रीवो ह्यतिलोभात् सुयोधनः।
अतिदानाद्धतः कर्णो ह्यतिः सर्वत्र गर्हितः॥५२॥
(महाभारते)
आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतामापदः कुतः।
सा चेदपगता लक्ष्मीः सञ्चितं तु विनश्यति॥५३॥
(विक्रमादित्यस्य)
परोऽपि हितवान् बन्धुर्बन्धुरप्यहितः परः।
अहितो देहजो व्याधिर्हितमारण्यमौषधम्॥५४॥
(महाभारते)
आसने शयने याने भावा लक्ष्या विशेषतः।
पुरुषाणां प्रदुष्टानां स्वभावो बलवत्तरः॥५५॥
(भोजस्य)
अनायका विनश्यन्ति नश्यन्ति बहुनायकाः।
स्त्रीनायका विनश्यन्ति नश्यन्ति शिशुनायकाः॥५६॥
राजवत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि दासवत्।
प्राप्तं षोडश वर्षाणि पुत्रं मित्रवदाचरेत्॥५७॥
तुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्याश्चान्तरसायकाः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥५८॥
(नीतिशास्त्रे)
राजसत्काररहिता विद्या नातिप्रकाशते।
प्रियोपभोगशून्येव नारी सर्वाङ्गसुन्दरी॥५९॥
अभ्यावहति कल्याणं विविधा वाक् प्रपूजिता।
सैव दुर्भाषिता राजन्ननर्थायैव कल्पते॥६०॥
(महाभारते)
तदेतत् काकतालीयं तदेतद्वै घुणाक्षरम्।
यदपथ्यभुजामायुर्यदनीतिमतां श्रियः॥६१॥
(वल्लभदेवस्य)
शकटाः शाकिनी गावः कृषिरस्पन्दनं वनम्।
समुद्रः पर्वतो राजा न च दुर्भिक्षशत्रवः॥६२॥
बहूनामप्यमित्राणां य इच्छेत् कर्त्तुमप्रियम्।
आत्मा तेन गुणैर्योज्यस्तत्तेषां महदप्रियम्॥६३॥
(महाभारते)
नक्तंदिनानि मे यान्ति कथंभूतस्य सम्प्रति।
दुःखभाङ् न भवत्येव नित्यं सन्निहितस्मृतिः॥६४॥
(सङ्ग्रहे)
त्रयः स्थानं विमुञ्चन्ति काकाश्च पुरुषा मृगाः।
न मुञ्चन्ति त्रयः स्थानं सिंहाः सत्पुरुषा गजाः॥६५॥
(पञ्चतन्त्रे)
अनेकदोषदुष्टस्य कायस्यैको महान् गुणः।
यो यथा वर्तयत्येनं तं तथैवानुवर्त्तते॥६६॥
अपकारिषु मा पापं चिन्तयस्व कदाचन।
स्वयमेव पतिष्यन्ति कूलजाता इव द्रुमाः॥६७॥
न द्विषन्तः क्षयं यान्ति यावज्जीवमपि घ्नतः।
क्रोधमेव तु यो हन्ति तेन सर्वेऽरयो हताः॥६८॥
(महाभारते)
उपकारप्रधानः स्यादपकारपरेऽप्यरौ।
सम्पद्विपत्स्वेकमना हेतावीर्ष्येत् फले न तु॥६९॥
(सङ्ग्रहे)
येन बान्धवमन्विच्छेत् तेन त्रीणि न कारयेत्।
विवाहमर्थसम्बन्धं सहवासं च वेश्मनि॥७०॥
(नीतिशास्त्रे)
शैत्यमध्वा कदन्नं च वयोतीताश्च योषितः।
मनसः प्रातिकूल्यं च जरायाः पञ्च हेतवः॥७१॥
(नीतिशतके)
बहूनामल्पसाराणां समवायो हि दारुणः।
तृणैरावेष्ट्यते रज्जुर्यया नागोऽपि बध्यते॥७२॥
(कौटिल्ये)
पल्लवग्राहि पाण्डित्यं क्रयक्रीतं च मैथुनम्।
भोजनं च परायत्तं तिस्रः पुंसां विडम्बनाः॥७३॥
(बृहत्कथायाम्)
अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयङ्करः।
व्यवस्थितः प्रसन्नात्मा कुपितोऽप्यभयङ्करः॥७४॥
(महाभारते)
इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति यः।
गत्वा निरौषधं देशं स रुजः किं करिष्यति॥७५॥
आत्मैव यदि नात्मानमहितेभ्यो निवारयेत्।
कोऽन्यो हितकरस्तस्मादात्मानं वारयिष्यति॥७६॥
(महाभारते)
अधोऽधो दर्शने कस्य महिमा नोपजायते।
उपर्युपरि पश्यन्तः सर्व एव दरिद्रति॥७७॥
म्रियन्ते जन्मनोऽर्थाय जायन्ते मरणाय च।
न धर्मार्थं न कामार्थं तृणानीवेतरे जनाः॥७८॥
(क्षेमेन्द्रे)
स्नातमश्वं गजं मत्तं वृषभं काममोहितम्।
शूद्रमक्षरसंयुक्तं दूरतः परिवर्जयेत्॥७९॥
यो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवाणि च सेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति ह्यध्रुवं नष्टमेव च॥८०॥
(नीतिसारे)
प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्रबान्धवाः।
कर्मान्ते दासभृत्याश्च पुत्रा नैव मृताः स्त्रियः॥८१॥
(दण्डनीत्याम्)
वयसः कर्मणोऽर्थस्य श्रुतस्याभिजनस्य च।
वेषवाग्वृत्तिसारूप्यमाचरन् विचरेदिह॥८२॥
येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः।
तेन यायात् सतां मार्गं पर तेन गच्छंस्तरिष्यति॥८३॥
(मनोः)
गुप्त्या साक्षान्महानल्पः स्वयमन्येन वा पुनः।
करोति महतीं प्रीतिमपकारोऽपकारिषु॥८४॥
(वेणीसंहारे)
उपकारे कृतज्ञत्वमपकारे कृतघ्नता।
विषयस्य गुणावेतौ कर्तुः स्यातां विपर्ययौ॥८५॥
(कप्फणकाव्ये)
मय्येव जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं मम।
नरः प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिकाङ्क्षति॥८६॥
(वासिष्ठे)
गणाद् गृह्णन् विवर्धेत गणस्यापि न हीयते।
गणस्य दाता हीयेत गणस्यापि न किञ्चन॥८७॥
(वल्लभदेवस्य)
सकृदंशोनिपतति सकृत् कन्या प्रदीयते।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सकृत् सकृत्॥८८॥
(मनोः)
अन्यथा वर्त्तमानानामर्थो भूतोऽयमन्यथा।
अस्माभिर्यदनुष्ठेयं गन्धर्वैस्तदनुष्ठितम्॥८९॥
एकस्मिन्नेव जायेते कुले क्लीबमहारथौ।
फलाफलवती शाखे यथैकस्मिन् वनस्पतौ॥९०॥
(महाभारते)
स्त्रीषु राजसु सर्पेषु स्वाध्यायेष्वहतेषु च।
आयुधाग्रेषु विश्वासो न कर्त्तव्यः कदाचन॥९१॥
(नीतिसारे)
यद् ग्रस्यं ग्रसितुं शक्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
परिणामे च यत् स्वादु तदन्यद्यं भुक्तिमिच्छता॥९२॥
(महाभारते)
स्वादु गुर्वपि भोक्तव्यं रसिकेन मनीषिणा।
पश्चात्तज्जरणे शक्तं हस्ते यद्यस्ति भेषजम्॥९३॥
(सकलविद्याधरस्य)
सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते॥९४॥
(मनोः)
नखिनां च नदीनां च शृङ्गिणां शस्त्रपाणिनाम्।
विश्वासो नोपगन्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च॥९५॥
देहीति वचनं कष्टं नास्तीति वचनं ततः।
देहि नास्तीति वचनं मा भूज्जन्मनि जन्मनि॥९६॥
(व्यासस्य)
सम्प्रीतिभोज्यान्यन्नानि आपद्भोज्यानि वा पुनः।
न च सम्प्रीयसे राजन्! न चाप्यापद्गता वयम्॥९७॥
नहि जानपदं दुःखमेकः शोचितुमर्हति।
अप्यभावेन युज्येत तच्चास्य विनिवर्त्तते॥९८॥
आक्रुश्यमानो नाक्रोशन् मनुरेव तितिक्षतः।
आक्रोष्टारं निदहति सुकृतं चास्य विन्दति॥९९॥
नहीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु विद्यते।
मैत्री य सर्वभूतेषु दानं च मधुरा च वाक्॥१००॥
सहायबन्धना ह्यर्थाः सहायाश्चार्थबन्धनाः।
अन्योन्यबन्धनावेतौ विनान्योन्यं न सिध्यतः॥१०१॥
नास्ति वैजातितः शत्रुः पुरुषस्य विशांपते !।
येन साधारणी वृत्तिः स शत्रुर्नेतरो जनः॥१०२॥
पुत्रं हि मातापितरौ त्यजतः पतितं प्रियम्।
आत्मानं रक्षते लोकः पश्य स्वार्थस्य सारताम्॥१०३॥
यत्र स्त्री यत्र कितवो यत्र वालोऽनुशास्ति च।
(मार्ज? मज्ज) यन्त्यवशादेव नद्यामश्मप्लवो यथा॥१०४॥
(महाभारते)
किं काकणिकः पुरुषः सहस्रं नाधिगच्छति।
तथैव किं मुहूर्तोऽपि विद्यापारं न गच्छति॥१०५॥
आपत्तुला सहायानामात्मनःपौरुषस्य च \।
अनापदि सुहृत् सर्वः स्वयं च पुरुषायते॥१०६॥
आक्रोशपरिवादाभ्यां हिंसयन्त्यबुधा बुधम्।
वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्यते॥१०७॥
(महाभारते)
बहवो यत्र नेतारः सर्वे पण्डितमानिनः।
सर्वे महत्त्वमिच्छन्ति तद् वृन्दमवसीदति॥१०८॥
अतिक्रान्तं तु यः कार्यं पश्चाच्चिन्तयते नरः।
तच्चास्य न भवेत् कार्यं चिन्तया तु विनश्यति॥१०९॥
कल्याणी बत! गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे।
एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि॥११०॥
(श्रीरामायणे)
न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति मे मतिः।
अन्त्येष्वपि च जातानां वृत्तमेव विशिष्यते॥१११॥
मृदुव्यवहितं तेजो मोक्तुमर्थान् प्रकल्पते।
प्रदीपः स्नेहमादत्ते दशयाभ्यन्तरस्थया॥११२॥
नालम्बते दैष्टिकतां न निषीदति पौरुषे।
शब्दार्थौ सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते॥११३॥
(माघे)
अभिद्रोहेण भूतानामार्जयन् गत्वरीः श्रियः।
उदन्वानिव सिन्धूनामापदामेति पात्रताम्॥११४॥
(भारवेः)
यत् कृत्वा न भवेद् धर्मो न कीर्त्तिर्न यशो भुवि।
शरीरस्य भवेत् खेदः कस्तत् कर्म समाचरेत्॥११५॥
अनभ्यासेन वेदानामसंसर्गेण धीमताम्।
अनिग्रहेण चाक्षाणां व्यसनं जायते नृणाम्॥११६॥
नक्रः स्वस्थानमासाद्य गजेन्द्रमपि कर्षति।
स एव प्रच्युतः स्थानाच्छुनापि परिभूयते॥११७॥
विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि काञ्चनम्।
नीचादप्युत्तमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥११८॥
गुणवान् वा परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा।
निर्गुणः स्वजनः श्रेयान् यः परः (पा ? प)र एव सः॥११९॥
(महाभारते)
तीक्ष्णादुद्विजते लोको मृदुर्हि परिभूयते।
तीक्ष्णो मा भूर्मृदुर्मा भूस्तीक्ष्णो भव मृदुर्भव॥१२०॥
न किश्चिदवमन्येत सर्वस्य शृणुयान्मतम्।
बालस्याप्यर्थवद्वाक्यमुपयुञ्जीत पण्डितः॥१२१॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
प्रयोजनेषु ये सक्ता न विशेषेषु भारत !।
तानहं पण्डितान् मन्ये विशेषा विघ्नकारकाः॥१२२॥
(महाभारते)
गुणेषु यत्नः क्रियतां किमाटोपैः प्रयोजनम्।
विक्रीयन्ते न घण्टाभिर्गावः क्षीरविवर्जिताः॥१२३॥
अग्रच्छाया तृणाग्निश्च नीचसेवा पटे जलम्।
वेश्यारागः खलप्रेम सर्वं बुद्बुदसन्निभम्॥१२४॥
(वल्लभस्य)
अतस्करकरग्राह्यमराजाज्ञावशंवदम्।
अदायादविभागार्हं धनमार्जयत स्थिरम्॥१२५॥
(सकलविद्याधरस्य)
या गोष्ठी लोकविद्विष्टा या च स्वैरविसर्पिणी।
परहिंसात्मका या च न तत्रावतरेद् बुधः॥१२६॥
(वात्स्यायनीये)
न शास्त्रमस्तीत्येतावत् प्रयोगे कारणं भवेत्।
शास्त्रार्थव्यापिनो विद्यात् प्रयोगांस्त्वेकदेशिकान्॥१२७॥
रसवीर्यविपाकाद्याः श्वमांसस्यापि वैद्यके।
कीर्त्तिता इति किं तत् स्याद् भक्षणीयं विचक्षणैः॥१२८॥
समास्याद्याः सहक्रीडा विवाहः सङ्गतानि च।
सदृशैरेव कार्याणि नोत्तमैर्नापिचाधमैः॥१२९॥
(वल्लभस्य)
कार्यगतैर्वैचित्र्यान्नीचोऽपि क्वचिदलं न जातु महान्।
कांस्येनैवादर्शः क्रियते राज्ञामपि न हेम्ना॥१३०॥
(पञ्चतन्त्रे)
अप्रियमुक्ताः पुरुषाः प्रयतन्ते द्विगुणमप्रियं वक्तुम्।
तस्मान्न वाच्यमप्रियमप्रियमश्रोतुकामेन॥१३१॥
गन्तव्यं राजगृहं द्रष्टव्या राजसम्मताः पुरुषाः।
यद्यपि न भवन्त्यर्था भवन्त्यनर्थप्रतीकाराः॥१३२॥
सुहृदि निरन्तरचित्ते गुणवति भृत्ये प्रियासु नारीषु।
स्वामिनि शक्तिसमेते निवेद्य दुःखं सुखीभवति॥१३३॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
भ्रातरि विपरीतमतिर्मातरि शौर्यंपितर्यनृतवादः।
राजनि रहस्यभेदो मरणाय महात्मनां भवति॥१३४॥
(वल्लभस्य)
प्राप्य चलानधिकारान् शत्रुषु मित्रेषु बन्धुवर्गेषु।
नापकृतं नोपकृतं न सत्कृतं किं कृतं तेन॥१३५॥
अविधेयो भृत्यजनः शठानि मित्राण्यदायकः स्वामी।
विनयरहिता च भार्या मस्तकशूलानि चत्वारि॥१३६॥
कुलजोऽयं गुणवानिति विश्वासो न क्षमः खलप्रकृतौ।
न तु ? मलयचन्दनादपि समुत्थितोऽग्निर्दहत्येव॥१३७॥
अप्रतिबुद्धे श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम्।
नेत्रविहीने कामिनि लावण्यमनर्थकं स्त्रीणाम्॥१३८॥
विगतज्वरमिव हृदयं गात्रं लघुतरमिवावासितभारम्।
तीर्णार्णवस्य च सुखं मनो भवत्यवसितप्रतिज्ञस्य॥१३९॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
एकेनैव हि कश्चिद् गुणेन जगति प्रसिद्धिमुपयाति।
एकेन करेण गजः करी न सूर्यः सहस्रेण॥१४०॥
(प्रकाशवर्षस्य)
गुण एव नालमृजुता कौटिल्यं दोष एव न च जन्तोः।
ऋजुरपि मारयति शरो वक्रोऽपि धनुस्तनुं पाति॥१४१॥
गुणवानस्मि विशेषः क इव ममेत्येष दुरभिमानलवः।
अञ्जनमक्ष्णि विराजति विन्यस्तं न पुनरधरमणौ॥१४२॥
आकारदारुणोऽयं भयमस्मादित्यनिश्चयो भवति।
प्रकृतिमहाभैरवमपि शिवस्वरूपं शिवायैव॥१४३॥
असतोऽपि भवति गुणवान् सद्भ्योऽपि परं भवन्त्यसद्वृत्ताः।
पङ्कादुदेति कमलं कृमयः कमलादपि भवन्ति॥१४४॥
(रविगुप्तस्य)
मद्यान्नपानं कलहं पूगवैरं जायापत्योरन्तरं ज्ञातिभेदम्।
राजद्विष्टं स्त्रीपुमांसोर्विवादं वर्ज्यानाहुर्यश्च पन्थाः प्रदुष्टः॥१४५॥
(महाभारते)
वश्याः सुता वृत्तिकरी च विद्या नीरोगता सज्जनसङ्गतिश्च।
इष्टा च भार्या वशवर्त्तिनी च दुःखस्य मूलोद्धरणानि पञ्च॥१४६॥
(दण्डनाथस्य)
द्वे एव लोके शुचिमप्रमत्तं बलादकार्ये विनियोजयेते।
नीचावमानप्रभवो हि मन्युः क्षुधावसन्नं च गृहे कलत्रम्॥१४७॥
देशं बलं कायमुपायमायं सञ्चिन्त्य यः प्रारभते तु कृत्यम्।
महोदधिं नद्य इवातिपूर्णं तं सम्पदः सत्पुरुषं व्रजन्ति॥१४८॥
बालेषु जीर्णातुरदुर्बलेषु भ्रष्टाधिकारेषु निराश्रयेषु !
राजाभियुक्तेष्वपरायणेषु येषां कृपा नास्ति न ते मनुष्याः॥१४९॥
धर्मार्थकामाः सममेव सेव्यास्तेष्वेकसक्तः स नरो जघन्यः।
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं स उत्तमो यो निरतत्त्रिवर्गे॥१५०॥
(महाभारते)
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना न चानृपेर्दर्शनमस्ति किञ्चित्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः॥१५१॥
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत् सत्यं यच्छलेनानुविद्धम्[॥१५२॥
सत्यं च धर्मश्च पराक्रमश्च भूतानुकम्पा प्रियवादिता च।
द्विजादिदेवातिथिपूजनं च पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः॥१५३॥
एतान् गुणांस्तात! महानुभाव एको गुणः संश्रयते प्रगृह्य।
राजा यदा सत्कुरुते मनुष्यं सर्वान् गुणानेष गुणोऽतिभाति॥१५४॥
निम्नेन तोयं हरितेन गावः सान्त्वेन बाला विनयेन सन्तः।
अर्थेन नारी तपसा हि देवाः समो हि लोके ह्रियते प्रियेण॥१५५॥
(महाभारते)
शास्त्रेषु निष्ठा सहजश्च (बन्ध? बोधः)
प्रागल्भ्यमभ्यस्तगुणा च वाणी।
कालानुरोधः प्रतिभानवत्त्व-
मेते गुणाः कामदुघाः क्रियासु॥१५६॥
(भवभूतेः)
यशस्करे कर्मणि मित्रसङ्ग्रहे
प्रियासु नारीष्वधनेषु बन्धुषु।
क्रतौ विवाहे व्यसने रिपुक्षये
धनक्षयोऽष्टासु न गण्यते बुधैः॥१५७॥
(महाभारते)
कुचेलिनं दन्तमलप्रधारिणं
बह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं नरम्।
सूर्योदये चास्तमये च शायिनं
विमुञ्चति श्रीरपि चक्रपाणिनम्॥१५८॥
(पञ्चतन्त्रे)
शिरः सुपुष्पं चरणौ सुपूजितौ
वराङ्गनासेवनमल्पभोजनम्।
अनग्नशायित्वमपर्वमैथुनं
श्रियः प्रनष्टाः पुनराश्रयन्ति॥१५९॥
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यत्
प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स पुत्रः।
यद् भर्त्तूरेव सुखमिच्छति तत् कलत्र-
मेतत् त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते॥१६०॥
(वल्लभस्य)
पुंसः स्वरूपविनिरूपणमेव युक्तं
तज्जन्मभूमिविनिरूपकथा वृथैव।
कः कालकूटमभिनन्दति सागरोत्थं
को वारविन्दमपि निन्दति पङ्कजातम्॥१६१॥
माधुर्यं प्रमदाजनेषु ललितं दाक्षिण्यमार्ये जने.
शौर्यं शत्रुषु मार्दवं गुरुजने धर्मिष्ठता साधुषु।
धर्मज्ञेष्वनुवर्तनं बहुविधं मानं जने गर्विते
शाठ्यं पापजने नरस्य कथिताः पर्याप्तमष्टौ गुणाः॥१६२॥
(पञ्चतन्त्रे)
जंस्सा हन्ति समत्था समसारपरक्रमाणतण्णिच्चडिआ।
(महाभारते)
एकोव्व अविज्जदिढं मिलिआ उणदिणअराखवेन्तिति भुणवम्
[॥१६३॥
[जेण विणा णजिविज्जइ अणुणिज्जइ सो कआवराहो वि।
पत्ते वि णअरदाहे भण कस्स ण वल्लहो अग्गी॥१६४॥9
(सप्तशत्याम्)
पहुमिं तत्थेजीअं लाअण्णजोव्वणीअ तरुणीए।
विहलुद्धरणम्मि थणं जस्स गअं किं गअं तस्स॥१६५॥
(गाथाकोशे)
इति सामान्यनीतिपद्धतिः॥
____________
१६४. अथार्थप्रशंसापद्धतिः।
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः॥१॥
(श्रीरामायणे)
ज्ञानवृद्धास्तपोवृद्धा वयोवृद्धाश्च ये नराः।
सर्वे ते धनवृद्धस्य द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः॥२॥
(व्यासस्य)
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः॥३॥
(महाभारते)
अर्थार्थी जीवलोकोऽयं ज्वलन्तमुपसर्पति।
क्षीणक्षीरां निरालम्बां वत्सस्त्यजति मातरम्॥४॥
(कामन्दकीये)
अर्थवान् दुष्कुलीनोऽपि लोके सम्पूज्यते नरः।
शशिना तुल्यवंशोऽपि निर्धनः परिभूयते॥५॥
(व्यासस्य)
धनात् कुलं प्रभवति धनाद् धर्मः प्रवर्तते।
धनान्निस्रौति कामश्च शैलाद् गिरिनदी यथा॥६॥
अर्थोपचयविज्ञानमस्ति यस्य स पण्डितः।
सरः सलिलसम्पूर्णमाश्रयन्ति विहङ्गमाः॥७॥
अधनेनार्थकामेन नार्थः शक्यो विवित्सता।
अर्थैरर्था निबध्यन्ते गजैरिव महागजाः॥८॥
(महाभारते)
विरूपा वा सुरूपा वा पण्डिता वाप्यपण्डिताः।
अर्थवन्तो हि पूज्यन्ते सर्वलोकेषु मानवाः॥९॥
(व्यासस्य)
कार्यार्थी बन्धुजनः कार्यैर्बहुभिर्भवन्ति मित्राणि।
दाराः सुताश्च सुलभा धनमेकं दुर्लभं लोके॥१०॥
(कलाविलासे)
वित्तेन हीनं पुरुषं त्यजन्ति
दाराश्चपुत्राश्चसहोदराश्च।
तं वित्तवन्तं पुनरेव यान्ति
वित्तं हि लोके पुरुषस्य बन्धुः॥११॥
धनैर्निष्कुलीनाः कुलीनीक्रियन्ते
धनैरेव पापं नरा निस्तरन्ति।
धनेभ्यो न लोके सुहृत् कश्चिदस्ति
धनान्यार्जयध्वं धनान्यार्जयध्वम्॥१२॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणं)
इत्यर्थप्रशंसापद्धतिः ॥
____________
१६५. अथार्थनिन्दापद्धतिः।
अर्थानामार्जने दुःखम् आर्जितानां तु रक्षणे।
नाशे दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थं दुःखभाजनम्॥१॥
राजतः सलिलाद (ग्रे) श्चोरतः स्वजनादपि।
भयमर्थवतो नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव॥२॥
(महाभारते)
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वेण वित्तवान्॥३॥
(इतिहाससमुच्चये)
यस्य धर्मार्थमर्थेहा तस्यानीहैव शोभना।
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्॥४॥
(महाभारते)
नमोऽर्थेभ्यो विघातं ये भ्रातॄणामपि कुर्वते।
आक्षीरधारैक(भु) जामागर्भैकनिवासिनाम्॥५॥
(महाभारते)
कुसुमानीव फलानामर्थानां हेतवो गुणाः प्रायः।
अत एव कृतार्था इव धनवत्सु गुणा न दृश्यन्ते॥६॥
(कविवल्लभस्य)
एकामिषप्रभवमेव सहोदराणा-
मुज्जृम्भते जगति वैरमिति प्रसिद्धम्।
पृथ्वीनिमित्तमभवत् कुरुपाण्डवानां
तीव्रस्तथा (पि?हि) भुवनक्षयकृद्विरोधः॥७॥
(प्रबोधचन्द्रोदये)
इत्यर्थनिन्दापद्धतिः ॥
__________
१६६. अथ लक्ष्मीप्रशंसापद्धतिः।
श्रीर्मङ्गलात् प्रभवति प्रागल्भ्यात् सम्प्रवर्तते।
दाक्ष्यात् स्वीकुरुते रूपं संयमात् प्रतितिष्ठति॥१॥
या हि प्राणपरित्या (गं? ग) मूल्येनापि न लभ्यते।
सा श्रीर्नीतिविदां वेश्मन्यनाहूतापि धावति॥२॥
यमेवाभ्युपयाति श्रीरुपायपरितोषिता।
निरुद्विग्ना हि तत्रास्ते न कचग्रहदूषिता॥३॥
(पञ्चतन्त्रे)
स श्लाध्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान्।
स शूरः स च विक्रान्तो यं त्वं देवि ! निरीक्षसे॥४॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
वश्येन्द्रियं जितात्मानं धृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्यकारिणं दान्तमत्यन्तं श्रीर्निषेवते॥५॥
अद्वैधमानसंयुक्तं शूरं धीरं विपश्चितम्।
न श्रीः सन्त्यजते नित्यमादित्यमिव रश्मयः॥६॥
सन्तोऽपि न विराजन्ते लुप्तार्थस्येत (रा ? रे) गुणाः।
आदित्य इव भूतानां श्रीर्गुणानां प्रकाशिका॥७॥
धृतिः क्षमा दमः शौचं सन्तोषः प्रियवादिता।
मित्रत्वं च (तथा) द्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः॥८॥
(महाभारते)
गुणवद्भिः सह सङ्गममुच्चैः पदमाप्तुमुत्सुका लक्ष्मीः।
वीरकरवालवसतिर्ध्रुवमसिधाराव्रतं चरति॥९॥
(मुरारेः)
इति लक्ष्मीप्रशंसापद्धतिः॥
_____________
१६७. अथ लक्ष्मीविडम्बनापद्धतिः।
ऐश्वर्यतिमिरं चक्षुः पश्यच्चापि न पश्यति।
पश्चाद्विमलतां याति दारिद्य्रगुलिकाञ्जनैः॥१॥
(व्यासस्य)
अत्यार्यमतिदातारमतिशूरमतिव्रतम्।
प्रज्ञाभिमानिनं चैव श्रीर्भयान्नोपसर्पति॥२॥
(वल्लभदेवस्य)
नैषा गुणेषु रमते निर्गुणान्नातिवर्तते।
उन्मत्ता गौरवान्धा श्रीः क्वचिदेवावतिष्ठते॥३॥
(प्रतापचक्रवर्त्तिनः)
सम्पदेषा जनस्यास्य व्यसनेन समन्विता।
आशीराशीविषस्येव विषेण सह जायते॥४॥
(महाभारते)
या गम्याः सत्सहायानां यासु खेदो भयं यतः
तासां किं यन्न दुःखाय द्विपदामिव सम्पदाम्॥५॥
नान्तरज्ञाः श्रियो जातु प्रियैरासां न भूयते।
आसक्तास्तास्वमी मूढा वामशीला हि जन्तवः॥६॥
(भारवेः)
प्रक्षेप्तुमुदधौ लक्ष्मीं भूयोऽपि वलते मनः।
किन्तु प्रक्षिप्त एवायं पुनरायाति चन्द्रमाः॥७॥
(मुरारेः)
रजोभिरासवैर्भङ्गैः श्रीः किं रागैश्व वासजैः।
कुरुषे धूसरं मत्त! लोलं रागी च यं जनान्॥८॥
वक्रत्वं सहजादिन्दोः कालकूटाच्च मूर्च्छना।
मदिराया मदो लक्ष्म्याः काठिन्यं कौस्तुभात् परम्॥९॥
न शृण्वन्ति न जल्पन्ति नोत्पश्यन्ति हिताहितम्।
न विद्मः किं विचेष्टन्ते कष्टं श्रीविप्लुता जनाः॥१०॥
पुष्णात्यधिकमूष्माणं हिनस्ति व्यक्तवादिताम्।
करोति भक्तविद्वेषं विषमः श्रीकृतो ज्वरः॥११॥
(कादम्बरीकथासारे)
ऐश्वर्यमत्तः पापिष्ठो मधुपानमदादपि।
ऐश्वर्यमदमत्तानां गतिरूर्ध्वा न विद्यते॥१२॥
(महाभारते)
चलितानेकपुरुषा सुबहूच्छ्रायकारिणी।
श्रीः पिशाचीव संरक्ष्या गुणबन्धेन नित्यशः॥१३॥
काकतालीययोगेन यदनात्मवति क्षणम्।
करोति प्रणयं लक्ष्मीस्तदस्याः स्त्रीत्वचापलम्॥१४॥
(पञ्चतन्त्रे)
सम्पदो हि मनुष्याणां गन्धर्वनगरोपमाः।
दृश्यमानाः क्षणेनैव भवन्ति न भवन्ति च॥१५॥
(महाभारते)
आलिङ्गिताः परैर्यान्ति प्रस्खलन्ति समेष्वपि।
अव्यक्तानि च भाषन्ते धनिनो मद्यपा इव॥१६॥
उच्चैः पदमधितिष्ठंल्लोकस्तत्त्वेषु मुह्यति प्रायः।
विषममपि पश्यति समं पर्वतशिखराग्रमारूढः॥१७॥
(वल्लभदेवस्य)
शौर्यमदो भुजदर्शी रूपमदो दर्पणादिदर्शी च।
काममदः स्त्रीदर्शी विभवमदस्त्वेव जात्यन्धः॥१८॥
दीपकमृगीव लक्ष्मीर्गर्त्ते पातयति नाशयति मोहयते।
घातयति पुरुषहरिणं तृष्णाव्याधेन नीतबहुगहना॥१९॥
(कलाविलासे)
श्रीर्विशृङ्खलखलाभिसारिणी
वर्त्मभिर्घनतमोमलीमसैः।
शब्दमात्रमपि सोढुमक्षमा
भूषणस्य गुणिनः समुत्थितम्॥२०॥
(भल्लटे)
मोहं भजन्ते न कृतं स्मरन्ति
त्यजन्ति भक्तं प्रलपन्ति यत्तत्।
क्षणं न मुञ्चन्ति निजाभिलाषं
राज्यज्वरोष्मग्लपिताः क्षितीन्द्राः॥२१॥
विपुलहृदयैः कैश्चिद्धन्यैर्जगज्जनितं पुरा
विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा।
इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दश भुञ्जते
कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः॥२२॥
तीक्ष्णादुद्विजते मृदौ परिभवत्रासान्न सन्तिष्ठते
मूर्खं द्वेष्टि न गच्छति प्रणयितामत्यन्तविद्वत्स्वपि।
शूरेभ्योऽभ्यधिकं बिभेत्यपहसत्येकान्तभीरूनहो
श्रीर्लब्धप्रसरेव वेशवनिता दुःखोपचर्या भृशम्॥२३॥
(मुद्राराक्षसे)
कस्मैचित् कपटाय कैटभरिपूरःपीठदीर्घालयां
देवि! त्वामभिवाद्य कुप्यसि न चेद्यत् किञ्चिदाचक्ष्महे।
यन्मे मन्दिरमम्बुजन्म किमिदं विद्यागृहं यच्च ते
नीचान्नीचतरोपसर्पणमपामेतत् किमाचार्यकम्॥२४॥
तत्तादृक्फणिराजरज्जुकषणं संरूढपक्षच्छिदा
घातारुन्तुदमप्यहो! कथमयं मूढाचलः सोढवान्।
एतेनैव दुरात्मना जलनिधेरुत्थाप्य पापामिमां
लक्ष्मीमीश्वरदुर्गतिव्यवहृतिन्यस्तं जगन्निर्मितम्॥२५॥
शूरं वैधव्यभीता विबुधमतिरुषा विद्ययोत्पादितेर्ष्या
मा मां स्प्राक्षीज्जनोऽन्यः क्वचिदिति सततं मुक्तहस्तं विहाय।
क्लीबं मूर्खं कदर्यं यदि जगति जनं संश्रिता श्रीर्वराकी
तत् किं सा गर्हणीया भवति भुवि सदा कस्य न स्वार्थ इष्टः॥२६॥
लक्ष्मीर्नाम परं पुंसामन्यथाभावकारणम्।
विरलास्ते विकाराय न येषां तत्परिग्रहः॥२७॥
क्रमागतेति नैतस्यामाश्वासः कोऽपि विद्यते।
या हि यत्रोषिता लक्ष्मीस्तत्राद्येव न दृश्यते॥२८॥
वातरोगाभिभूतेव भिन्नपादेव कण्टकैः।
लक्ष्मीर्निधातुं शक्नोति न क्वचिन्निर्भरं वपुः॥२९॥
धूर्त्तप्रतारिताश्चैते विषयासक्तमानसाः।
अकस्मात् प्रलयं यान्ति गीतरक्ता मृगा इव॥३०॥
(कादम्बरीकथासारे)
* बहुधणरिद्धिणिसागममअणिद्दामुअचेअणो लोओ।
अवसागअविसमदसादिअहारब्भम्मि पडिबुद्धौ10॥३१॥
उप्पहगमणा लच्छी णीचं विअ मग्गगामिणो सुअणा।
जलते हि समं तिस्सा सङ्घडणीतामहं चरिअम्॥३२॥
अत्थो इमेण हअविहिवाहिणा उवणकोनुजोह्नि।
कीरइ सहसत्तिजणो अन्धो मूअं व वहिरव्व॥३३॥
णूणसहोदर वियता कूटसङ्गदूसिआ लच्छी।
ण अणाइ जेण मिलत्तितिकं खणन्ताअजे गहिआ॥३४॥
सोणड्ढी च्चिअ समओ जस्सिं जाअन्ति सुन्दरा विहवा।
मोहन्ति विपत्तिओ सम्पत्तिओ विमोहन्ति॥३५॥
(गाथाकोशे)
इति लक्ष्मीवडम्बनापद्धतिः॥
______________
१६८. अथ महत्पद्धतिः।
स पुमानर्थवज्जन्मा यस्य नाम्नि पुरः स्थिते।
नान्यामङ्गुलिमभ्येति संख्यायामुद्यताङ्गुलिः॥१॥
(भारवेः)
महद्भिर्बद्धवैरस्य विपत्तिरपि शोभते।
दन्तभङ्गोऽपि नागानां श्लाघ्यो गिरिविदारणे॥२॥
उदेति रक्तः सविता रक्त एवास्तमेति च।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥३॥
(वल्लभस्य)
अधमा धनमिच्छन्ति धनमानौ हि मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्॥४॥
(प्रतापचक्रवर्तिनः)
स्थित्यतिक्रान्तिभीरूणि स्वच्छान्याकुलितान्यपि।
तोयानि तोयराशीनां मनांसीव मनस्विनाम्॥५॥
(भारवेः)
अयं बन्धुः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥६॥
(उदात्तः)
छायावन्तो गतव्यालाः स्वारोहाः फलदायिनः।
मार्गद्रुमा महान्तश्च परेषामेव भूतये॥७॥
(वल्लभस्य)
पयोमुचः परीतापं हरन्त्येते शरीरिणाम्।
नन्वात्मलाभो महतां परदुःखोपशान्तये॥८॥
सम्पत्सु महतां चेतो भवत्युत्पलकोमलम्।
आपत्सु च महाशैलशिलासङ्घातकर्कशम्॥९॥
(शृङ्गारे)
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को (ऽपि वा) न जायते॥१॥
ब्राह्मणार्थे धनं दत्तं स्वदारे यौवनं गतम्।
स्वामिकार्ये गताः प्राणा अन्ते दृष्टोऽसि माधव!॥११॥
रवेरेवोदयः श्लाघ्यो नान्येषामुदयग्रहः।
न तमांसि न तेजांसि यस्मिन्नभ्युदिते सति॥१२॥
(भल्लटे)
यो न कामान्न च क्रोधान्न द्रोहादभिवर्त्तते।
अमित्रं वा सुमित्रं वा स एव पुरुषोत्तमः॥१३॥
सर्वावस्थास्वकार्पण्यमदर्पः सति कारणे।
उपकारः सपत्नेऽपि महापुरुषलक्षणम्॥१४॥
(महाभारते)
यदि सन्ति गुणाः पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयम्।
नहि कस्तूरिकागन्धः शपथेन विभाव्यते॥१५॥
(वल्लभदेवस्य)
प्रासाद गुलिकसिक्थस्य किं न्यूनं करिणो भवेत्।
पिपीलिका तु तेनैव संबिभर्त्ति कुटुम्बकम्॥१६॥
सकुण्डलं सकवचं दिव्यलक्षणलक्षितम्।
कथमादित्यसङ्काशं मृगी व्याघ्रं प्रसूयते॥१७॥
परैः परिभवे प्राप्ते वयं पञ्चोत्तरं शतम्।
परस्परविरोधे तु वयं पञ्चैव ते शतम्॥१८॥
(महाभारते)
किं कुलेन विशिष्टेन विपुलेन महात्मनाम्।
कृमयः किं न जायन्ते कुसुमेषु सुगन्धिषु॥१९॥
गुरून् कुर्वन्ति ते वंश्यानन्वर्था तैर्वसुन्धरा।
येषां यशांसि शुभ्राणि ह्नेपयन्तीन्दुमण्डलम्॥२०॥
(भारवेः)
पतति व्यसने दैवाद् दारुणाद्दारुणात्मनि।
संवर्मयति वज्रेण धैर्येण महतां मनः॥२१॥
(मुरारेः)
उपकर्तुमनपकर्त्तुंप्रियाणि वक्तुं कृतान्यपि (सम?स्म )र्त्तुम्।
विनिपतितांश्चोद्धर्त्तुं कुलान्वितानामुचितमेतत्॥२२॥
असदृशजनेषु यांच्ञा महतां नहि लाघवाय सुहृदर्थे।
हरिरषि पाण्डुसुतेभ्यः स्वयमर्थी धार्त्तराष्ट्रेषु॥२३॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
उपकृत्य भवन्ति दूरतः परतः प्रत्युपकारशङ्कया।
इयमेव हि सत्त्वशालिनां महतां कापि कठोरचित्तता॥२४॥
मदसिक्तमुखैर्मृगाधिपः करिभिर्वर्तयति स्वयं हतैः।
लघयन् खलु तेजसा जगन्न महानिच्छति भूतिमन्यतः॥२५॥
किमवेक्ष्य फलं पयोधरान् ध्वनतः प्रार्थयते मृगाधिपः।
प्रकृतिः खलु सा महीयसः सहते नान्यसमुन्नतिं यया॥२६॥
स्पृहणीयगुणैर्महात्मभिश्चरिते वर्त्मनि यच्छतां मनः।
विधिहेतुरहेतुरागसां विनिपातोऽपि समः समुन्नतेः॥२७॥
सावलेपनुपलिप्सिते परैरभ्युपैति विकृतिं रजस्यपि।
अर्थितस्तु न महान् समीहते जीवितं किमु धनं धनायितुम्॥२८॥
करोति योऽशेषजनातिरिक्तां सम्भावनामर्थवतींक्रियाभिः।
संसत्सु जाते पुरुषाधिकारे न पूरणी तं समुपैति संख्या॥२९॥
(किराते)
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरतिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥३०॥
(भर्तृहरेः)
पततु वारिणि यातु दिगन्तरं
विशतु वह्निमधो व्रजतु क्षितिम्।
रविरसावियतास्य गुणेषु का
सकललोकचमत्कृतिषु क्षतिः॥३१॥
(भल्लटे)
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति॥३२॥
(मुद्राराक्षसे)
तत्तावदेव शशिनः स्फुरितं गरीयो
यावान्न तिग्मरुचिरम्बरमभ्युदेति।
अभ्युद्यते सकलधामनिधौ च तस्मि -
न्निन्दोः सिताभ्रशकलस्य च को विशेषः ॥३३॥
(भल्लटस्य)
लोकोत्तरं (चरित)मर्पयति प्रतिष्ठां
पुंसां कुलं नहि निमित्तमुदात्तत्तायाः।
वातापितापनमुनेः कलशात् प्रसूति-
र्लीलायितं पुनरमुष्य समुद्रपानम् ॥३४॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणे)
पुंसः पुमान् मलिनजीवितलुब्धवृत्ति-
र्दैन्यात् प्रणाममपि कः शिरसा करोति।
कोपाधिकस्फुरितचूर्णितलोचनान्तं
कान्ताजनं किमनुनेष्यति कार्मुकेण॥३५॥
पङ्क्तौ विशन्तु गणिताः प्रतिलोमवृत्त्या
पूर्वीभवेयुरियताप्यथवा त्रपेरन्।
सन्तोऽप्यसन्त इव चेत् प्रति (भान्तु) भानो-
र्भासावृते नभसि शीतमयूखमुख्याः॥३६॥
(भल्लटे)
सम्पूर्णस्य समग्रसत्त्ववसतेर्गम्भीरधीरस्थिते-
र्वेलां पालयतः समस्तभुवनाधारस्य वारांनिधेः।
कालुष्यं नहि विद्यते यदि भवेल्लोकोपकाराय तत्
(यस्त?यत्त) स्मादभवन् सुधाकरसुधाश्रीपारिजातादयः॥३७॥
सुधांशोर्जातेयं कथमपि कलङ्कस्य कणिका
विधातुर्दोषोऽयं न च गुणनिधेस्तस्य किमपि।
स किं नात्रेः पुत्रो न किमु हरचूडामणिरसौ
न वा हन्ति ध्वान्तं जगदुपरि किं वा न च पतिः॥३८॥
(पञ्चतन्त्रे)
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधि-
स्त्वनुत्सेको लक्ष्म्यामनभिभवनीयाः परकथाः।
प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथितं चाप्युपकृतेः
श्रुतेऽत्यन्तासक्तिः पुरुषमभिजातं कथयति॥३९॥
क्वचिद् भूमौ शायी क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनः
क्वचिच्छाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः।
क्वचित् कन्थामाली क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्॥४०॥
इतः स्वपिति केशवः कुलमितस्तदीयद्विषा-
मितोऽपि शरणार्थिनः शिखरिपत्रिणः शेरते।
इतोऽपि बडवानलः सह समस्तसंवर्त्तकै-
रहो! विततमूर्जितं भरसहं च सिन्धोर्वपुः॥४१॥
(भर्तृहरेः)
किं तेण जेण कीरइ जाएण णरेण णाममेत्तेण।
जस्स ण पसरन्ति गुणा रइणो व्व करा दिअन्तेसु॥४२॥
सो च्चिअ जीअइ विपण्णो जस्स अ भुवणमिवाअडं णाम।
इअरीसजीविअं चिअ ण वरमरं णेण सारिच्चम्॥४३॥
सणम्मि विअणुव्विभावि भवेविअ गव्विआ भए विअ धीरा।
होन्ति अहिण्णसाहा वा समेसु विसमेसु विसमत्था॥४४॥
एके लहु असहा वा गुणेहि लहिहप्पहीति धणरित्थी।
अण्णे विसुद्धचरिआ विभवे वि गुणाइ मग्गन्ति॥४५॥
खलपवराहा दीसन्ति दारुणा जइ वि तह व धीराण।
हिअअचअस्स बहुमआ णहु ववसाआ विमुज्झन्ति॥४६॥
जह जह उल्लसइ जो तह तह धीराणमेत्ति सविसेसम्।
जह जह णमन्ति तह तह जसो वि दूरं समुल्लसइ॥४७॥
आमरणं णिव्वालंति सुपुरिसा जहव तहव पडिवण्णम्।
वणुदिअहवविज्जन्तो विसइबडवाणलं उवही॥४८॥
किसिअं ताणं वि सोहइ एत्तिअमेत्तेण णवश्चन्दस्स।
जीसोमहेरसं सविसिसणिवासत्तणं पत्तो॥४९॥
णिअणाममेत्तपअधणकाएकापुरं तुक्खज्जो।
आजइ विहुगअणच्छंगे तह विहुतॆकीडअच्चेण॥५०॥
विअडन्ति महारम्भा जह जह णोव्वडइ चश्चला लच्छी।
धीरा ण होइ तह तह अहिअम्माणुण्णाअं वि हिअअम्॥५१॥
धीरा मआ विकज्जीणिअअं साहेन्ति पेच्छह।
हर सन्दग्धेण विदेहत्थं अवहरिअं कुसुमबाणेण॥५२॥
तण्णन्धिज्जि णिमज्जइ ववसाअसमुत्थिअस्स धीरस्स।
जसि समेत्तोसेसो राह ससिदिणअरो गलइ॥५३॥
आआसो च्चिअ तेण कओ जेण णिम्मिअं गअणअलम्।
धीरहिअआण सरिसो ण घटइ अण्णस्स वित्थारो॥५४॥
(गाथाकोशे)
इति महत्पद्धतिः ॥
__________
१६९. अथ लघुपद्धतिः।
आबद्धकत्रिमसटाजटिलांसभित्ति-
रारोपितो मृगपतेः पदवीं यदि श्वा।
मत्तेभकुम्भतटपाटनलम्पटस्य
नादं करिष्यति कथं हरिणाधिपस्य॥१॥
(भल्लटे)
अपि वटतरोः स्पर्धां बीजेन सर्षप! साम्प्रतं
परिणमसि यो मुष्टिः शाकं सति स्थलसौष्ठवे।
जठरकुहरक्रीडद्विश्वो यदेकदलॊदरे
प्रलयशिशुको देवः शिश्ये पुरेति ह शुश्रुमः॥२॥
(कविवल्लभस्य)
अपहर सुधणं अपहर सुजोव्वणं कुणसुपिअअम।
विअ अन्धीराण धीरहरणम्मि तुज्झाभदव्व का सत्ती॥३॥
जह जह विह विहडेहि विहिक जग्गरूअं पिअसंघडिज्जन्तं।
तह तह धीरा णमणे उच्छाहो णहर पल्लवइ॥४॥
उच्छाहो भुअजुअलण्ठिडित्तम्माण गणी हिअअम्।
विधिविहसिआण लगइ एसा धीरा ण समठ्ठी॥५॥
(गाथाकोशे)
इति लघुपद्धतिः॥
_________
१७०. अथोदारपद्धतिः।
आकारमात्रविज्ञातसम्पादितमनोरथाः।
धन्यास्ते ये न शृण्वन्ति दीनानां प्राणिनां गिरः॥१॥
(व्यासशतके)
त्वचं कर्णः शिबिर्मांसं जीवं जीमूतवाहनः।
ददौ दधीचिरस्थीनि नास्त्यदेयं महात्मनाम् \।\। २॥
(इतिहाससमुच्चये)
प्रावृण्मेघस्य मालिन्ये दोषः को भूरिवर्षिणः।
शारदाभ्रस्य शुद्धत्वं वद कुत्रोपयुज्यते॥३॥
स एवैकधुरो नॄणां यः कश्चित् त्यागवारिणा।
निमार्ष्टि प्रार्थितः पांसुधूसरं मुखमर्थिनाम्॥४॥
(व्यासस्य)
म्रियते याचमानो वै तदनु म्रियते ददत्।
ददत् सञ्जीवयत्येनमात्मानं च युधिष्ठिर!॥५॥
(महाभारते)
शृणु पाणे! त्वयि न्यस्तं कियत् क्वणति कङ्कणम्।
इदमेवार्थिहस्तस्थमारावयति रोदसी॥६॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
दुष्करं बत कुर्वन्ति सन्तोऽप्यर्थास्त्यजन्ति ये।
वयं त्वेतान् परित्यक्तुमसतोऽपि न शक्नुमः॥७॥
अदाता पुरुषस्त्यागी धनं सन्त्यज्य गच्छति।
दातारं कृपणं मन्ये मृतोऽप्यर्थान्न मुञ्चति॥८॥
मूर्खो हि न ददात्यर्थंनरो दारिद्र्यशङ्कया।
प्राज्ञो हि विसृजत्यर्थांस्तयैव ननु शङ्कया॥९॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
दातृत्वमेव सर्वेभ्यो गुणेभ्यो भासतेतराम्।
ज्ञातृत्वसहितं तच्चेत् सुवर्णस्य हि सौरभम्॥१०॥
पात्रे पुरोवर्त्तिनि विश्वनाथे क्षोदीयसि क्ष्मावलये प्रदेये।
व्रीलास्मितं तस्य तदा तदासीच्चमत्कृतो येन स एव देवः॥११॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणे)
मणिः शाणोल्लीढः समरविजयी हेतिदलितो
मदक्षीणो नागः शरदि सरिदाश्यानपुलिना।
कलाशेषश्चन्द्रः सुरतमृदिता बालवनिता
तनिम्ना शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु नराः॥१२॥
(भर्तृहरेः)
किं जातोऽसि चतुष्पथे घनततच्छायोऽसि किं जायया
संयुक्तः फलितोऽसि किं फलवरैः पूर्णोऽसि किं सन्ततम्।
हे सद्वृक्ष! सहस्य सम्प्रति सखे! शाखाशिखाकर्षण-
क्षोभामोटनभञ्जनानि जनितः स्वैरेव दुश्चेष्टितैः॥१३॥
(भल्लटे)
तह कञ्जरपअणा गहिआ दाणेण भमरणिउरूम्बा।
सो विकमलाणुराओ दूरं जहताण पम्मुठ्ठो॥१४॥
पलमुकुलकुसुमवकल पत्ता एआहिपणहुणो णिच्चम्।
विमुहा ण होन्ति जाणं घण्णं जम्मं तरुवराणम्॥१५॥
तरुवर घण्णो सि तुमं जह एत्थ मरुत्थले सुजाओ सि।
एको च्चिअ वीसामो निम्मुहमा तत्तपहिआणम्॥१६॥
(गाथाकोशे)
इत्युदारपद्धतिः ॥
__________
१७१. अथ कृपणपद्धतिः।
कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति।
अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति॥१॥
(मानसोल्लासे)
शरणं किं प्रपन्नानि विषवन्मारयन्ति किम्।
न त्यज्यन्ते न भुज्यन्ते कृपणेन धनानि यत्॥२॥
अक्षरद्वयमभ्यस्तं नास्ति नास्तीति (यत्) पुरा।
तदिदं देहि देहीति विपरीतमुपस्थितम्॥३॥
(वल्लभदेवस्य)
आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्षहेतुं कालविनिर्गतम्।
वाञ्छतां धनिनामिष्टं जीवितात् परमं धनम्॥४॥
त्यागो गुणो वित्तवतां वित्तं त्यागवतां गुणः।
परस्परवियुक्तौ तु वित्तत्यागौ विडम्बना॥५॥
उभयोर्न स्वभोगेच्छा परार्थं धनसञ्चयम्।
कृपणोदारयोः पश्य तथापि महदन्तरम्॥६॥
(सकलविद्याधरस्य)
प्रणामः स्वागतं प्रश्नो गन्तुं हस्तानुकूलता।
अप्रदानस्य चिह्नानि प्रभूणां लुब्धचेतसाम्॥७॥
(पक्कलावस्य)
गृहमध्यनिखातेन धनेन रमते यदि।
स तु तेनानुमानेन मेरुणा किं न जीव्यते॥८॥
(व्यासस्य)
किंशुके किं शुकः कुर्यात् फलितेऽपि बुभुक्षितः।
अदातरि समृद्धेऽपि किं कुर्युरुपजीविनः॥९॥
दानोपभोगव (द्ध्या?न्ध्या) या सुहृद्भिर्या न भुज्यते।
पुंसः स्याद् यदि सा लक्ष्मीरलक्ष्मीः कतमा भवेत्॥१०॥
(वल्लभदेवस्य)
उपकर्त्तुः स्थिरं द्रव्यं यत्नस्तत्कालसम्भवः।
किमस्ति तालवृन्तस्य मन्दमारुतसङ्ग्रहः॥११ ॥
अतिसञ्चयलुब्धानां वित्त (मन्यैश्च?मन्यस्य) कारणात्।
अन्यैः सञ्चीयते यत्नादन्यैश्च मधु पीयते॥१२॥
(वल्लभदेवस्य)
मृतो दरिद्रः पुरुष इत्येतद् वचनं मृषा।
मृता अपि किमीक्षन्ते नृशंसं धनिनां मुखम्॥१३॥
(सकलविद्याधरस्य)
यान्ति स्वदेहेषु जरामसम्प्राप्तोषभोक्तृकाः।
फलपुष्पर्द्धिभाजोऽपि दुर्गदेशवनश्रियः॥१४॥
(श्रृङ्गारप्रकाशे)
मरौ नास्त्येव सलिलं कृच्छ्राद्यदि (न?तु) लभ्यते।
तत् कटु स्तोकमुष्णं च न करोति वितृष्णताम्॥१५॥
(भल्लटे)
धनिनोऽप्यदाननिरता गण्यन्ते धुरि महादरिद्राणाम्।
हन्ति न यतः पिपासामतः समुद्रोऽपि मरुरेव॥१६॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
अभ्युपभुक्ताः सद्भिर्गतागतैरहरहश्च निर्विण्णाः।
कृपणजनसन्निकाशं सम्प्राप्यार्थाः स्वपन्तीव॥१७॥
(पञ्चतन्त्रे)
सञ्चितं क्रतुषु नोपयुज्यते याचितं गुणवते न दीयते।
तत् कदर्यपरिरक्षितं धनं चोरपार्थिवगृहेषु दृश्यते॥१८॥
चन्दने विषधरान् सहामहे वस्तु सुन्दरमगुप्तिमत् कुतः।
रक्षितुं बत! किमात्मसौष्ठवं सञ्चिताः खदिर! कण्टकास्त्वया॥१९॥
(भल्लटे)
विनाप्यर्थैरर्थी स्पृशति च महानुन्नतिपदं
परिष्वक्तोऽप्यथैः परिभवपदं याति कृपणः।
स्वभावादुद्भूतां गुणसमुदयावाप्तिविपुलां
गतिं सैंहीं किं श्वा कृतकनकमालोऽपि लभते॥२०॥
विशालं शाल्मल्या नयनसुभगं वीक्ष्य कुसुमं
समुत्पन्ना बुद्धिः फलमपि भवेदस्य सदृशम्।
इति ध्यातोऽपास्तं फलमपि च दैवात् परिणतं
विपाके तूलोऽन्तः सपदि मरुता सोऽप्यपहृतः॥२१॥
त्वन्मूले पुरुषायुषं गतमिदं देहेन संशुष्यता
क्षोदीयांसमपि क्षणं परमितः शक्तिः कुतः प्राणितुम्।
तत् स्वस्त्यस्तु विवृद्धिमेहि महतीमद्यापि का नस्त्वरा
कल्याणैः फलितोऽसि तालविटपिन्! पुत्रेषु पौत्रेषु वा॥२२॥
अद्यैव श्वः परश्वस्त्रिचतुरदिवसानन्तरं सायमह्नि
प्रातः प्राह्णेपराह्णेक्षणमिह निवस प्रस्थितोऽभ्येहि भूयः।
इत्थं रेकातिरेकाानविदितकपटप्रक्रियानर्थिसार्था
नत्यर्थं व्यर्थयन्ति प्रतिदिवसमहो! राजधान्यां वदान्याः॥२३॥
(भल्लटे)
* होन्ती वि णिप्पलच्चिअ धणरिद्धी होइ किविणपुरिसस्स।
गिह्माअवसंतत्तस्स णिअअच्छाहि व्व पहिअस्स॥२४11॥
(सप्तशत्याम्)
इहइ गरुअत्तणच्चिअ दन्ताण करोविमुकदविणोवि।
अच्चरिअलहु आइकणअभरिओ विलुद्वाण॥२५॥
दारिइ अणकरभरं परिवत्तणखे अवसपरिसन्तम्।
अत्था किवणघरत्था अत्थापत्था सुवन्तीव॥२६॥
ण उणो अत्थिजणाणं परिओसं देइ फलसमिद्धि विं।
किवणाणं धणरित्त्थी सरिसी आलेखरूवेण॥२७॥
उपभोअकादराणं पुरिसाणं अत्थसञ्चअपराणम्।
कण्णारण्णव्व घणं घरम्मि चिट्ठइ परस्स कए॥२८॥
रक्खिज्जसि सासङ्कंपण्डिज्जइणेअणित्थलोअम्मि।
परिवढ्ढिअं वि तापेइ जारगम्भं व किवणधणम्॥२९॥
चाअअसासापअई सरअं समुआण किं विसूरअसि।
जगज्जिअनण सुइरं ईरिसं पि गुणे अ परिसन्ति॥३०॥
वेलविओवि …. पिवलगज्जिएण तह कहविसरअजलेण।
जहवासिअ मोहाण विपत्तिअइण चाअवो एह्निम्॥३१॥
(गाथाकोशे)
इति कृपणपद्धतिः॥
__________
१७२. अथ कृतज्ञपद्धतिः॥
अयं स कालः सम्प्राप्तो धार्त्तराष्ट्रोपजीविनाम्।
निवेष्टव्यं मया तत्र माणानपरिरक्षता॥१॥
(महाभारते)
स ब्रह्मचर्यं चरति स सत्यां भाषते गिरम्।
तस्य लोकद्वयं पाणौ यः कृतं नावमन्यते॥२॥
यो हि मित्रेषु कालज्ञः सततं साधु वर्तते।
तस्य स्यात् सफलं जन्म किं पुनः पूर्वकारिणः॥३॥
(श्रीरामायणे)
संस्मरेद् भर्त्तृपिण्डानां दूरविस्मृतवन्धनः।
व्याघ्रमभ्येति कृपणः श्वापि श्वगणिकेरितः॥४॥
(अङ्कावल्याम्)
*बन्धवणेहब्भरिओ होइ परो वि पणएण सेविज्जन्तो।
किं उण कओवआरो णिक्कारणाणिद्धबन्धवो दासाही॥५॥12
(सेतौ)
खण्डं खंडम्मि कथं कलेवरं अत्तणो कलोलाण।
असमत्तसामिकज्जो जूरइ सुमटो वि माणत्थो॥६॥
(गाथाकोशे)
इति कृतज्ञपद्धतिः॥
___________
१७३ अथ कृतघ्नपद्धतिः।
सत्कृताश्च कृतार्थाश्च मित्राणां न भवन्ति ये।
तान् मृतानपि क्रव्यादाः कृतघ्ना नोपभुञ्जते॥१॥
(श्रीरामायणे)
सेतुं दृष्ट्वा समुद्रस्य भ्रूणहा गुरुतल्पगः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः कृतघ्नोऽपि विशुध्यति॥२॥
(व्यासस्य)
मित्रद्रुहं कृतघ्नं च नृशंसं चनराधमम्।
क्रव्यादाः कृमयश्चैव नोपभुञ्जीत वै सदा॥३॥
मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य स्त्रीघ्नस्य पिशुनस्य च।
चतुर्णांवयमेतेषां निष्कृतिं नानुशुश्रुमः॥४॥
कृतघ्नं पापकर्माणं न भक्षयितुमुत्सहे।
दासेभ्यो दीयतामेष मित्रध्रुट् पुरुषाधमः॥५॥
कृतार्थाः सुकृता ये हि कृत्यकाल उपस्थिते।
अनवेक्ष्य कृतं पापाः कुर्वन्ति प्रियमात्मनः॥६॥
राजकिल्विषिणां तेषां भर्त्तृपिण्डापहारिणाम्।
नैवायं न परो लोको विद्यते पापकर्मणाम्॥७॥
कुतः कृतघ्नस्य यशः कुतः स्थानं कुतः सुखम्।
कुतः श्रेयः कृतघ्ने हि कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः॥८॥
(महाभारते)
न तं पश्यामि लोकेऽस्मिन् कृते प्रतिकरोति यः।
सर्वस्य हि कृतार्थस्य मतिरन्या प्रवर्त्तते॥९॥
(पञ्चतन्त्रे)
ब्रह्मस्वहरणे चोरे ब्रह्मघ्ने गुरुतल्पगे।
निष्कृतिर्विहिता सद्भिः कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः॥१०॥
(श्रीरामायणे)
मृगत्वं च मृगारित्वं (च?) सिंहत्वं च मया कृतम्।
अकृतज्ञो दुराचारः पुनः श्वानो भविष्यति॥११॥
(तन्त्रमुपाख्यायाम्)
उपकर्त्तुः कृतघ्नस्याप्युभयोरियती भिदा।
सद्यो हि विस्मरत्याद्यः (?) कृतं पश्चात्तुपश्चिमः॥१२॥
(भोजराजस्य)
स्वामिनं यः परित्यज्य स्वस्तिमान् गन्तुमिच्छति।
किं तेन न कृतं पापं चोरेणात्मापहारिणा॥१३॥
कृतप्रत्युपकारो हि वणिग्धर्मो न साधुता।
तत्रापि ये न कुर्वन्ति पशवस्ते न मानुषाः॥१४॥
आशायास्तनया माया क्रोधोऽसूयासुतः स्मृतः।
हिंसायास्तनयः पापः कृतघ्नो नार्हति प्रजाम्॥१५॥
छिन्नस्तप्तसुहृत् स चन्दनतरुर्यूयं पलाय्यागता
भोगाभ्याससुखासिकाः प्रतिदिनं ता विस्मृतास्तत्र वः।
दंष्ट्राकोटिविषोल्कया प्रतिकृतिस्तस्य प्रहर्तुर्न चेत्
किं तेनैव सह स्वयं न दलशो याताः स्थ भो भोगिनः\॥१६॥
(भल्लटे)
जं साहसं ण कीरइ तं दअमाणेण जीविअं किरदइअम्।
जो अ पडिमुकसकलो सो वि गणिज्जइ जअम्मिजीअं तमओ[॥१७॥
(गाथाकोशे)
इति कृतघ्नपद्धतिः ॥
__________
१७४, अथ याच्ञानिन्दापद्धतिः।
अदृष्टमुखभङ्गस्य युक्तमन्धस्य याचितुम्।
अहो बत महत् कष्टं चक्षुष्मानपि याचते॥१॥
(सुवर्णदेवस्य)
मरणान्नापरं दुःखमुक्तमस्तीति पण्डितैः।
नूनं परगृहद्वारे न मे व ….वस्थिताः॥२॥
(व्यासस्य)
गौरवं किंनुमृतके जानेऽहं तत्र कारणम्।
लाघवस्यार्थिता मूलं सा मृतस्य न विद्यते॥३॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
सदृशात् पुरुषं सद्यः पातयन्तीमधस्तराम्।
कथयन्ति कथं प्राज्ञा याच्यां लाघवकारिणीम्॥४॥
अहन्यहनि भूतानि सृजत्येव प्रजापतिः।
अद्यापि न सृजत्येकं योऽर्थिनं नावमन्यते॥५॥
(व्यासशतके)
कण्ठगद्गदता स्वेदो मुखवैवर्ण्यवेपथू।
म्रियमाणस्य लिङ्गानि तानि यान्येव याचतः॥६॥
(वल्लभदेवस्य)
तावद् यशस्वी मेधावी प्राज्ञः शूरः कुलोद्भवः।
पुमानित्युच्यते तावद् यावदर्थी न कस्यचित्॥७॥
तृणाल्लघुतरस्तूलस्तूलादपि च याचकः।
वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं प्रार्थयेदिति॥८॥
(विक्रमादित्यस्य)
विद्वत्तां समरे शौर्यमाभिजात्यं सुरूपताम्।
(लिखी?खली ) करोति वाञ्छैका दुश्शीलेवाङ्गना [कुलम्॥९॥
अन्तःसारोऽपि निर्याति नूनमर्थितया सह।
अन्यथा तदवस्थस्य महिमा केन देहिनाम्॥१०॥
मया निवार्यमाणोऽपि भजते प्रार्थनामयम्।
इति लज्जितया मन्ये लज्जयार्थी निराकृतः॥११॥
सेवेव मानमखिलं ज्योत्स्नेव तमो जरेव लावण्यम्।
हरिहरकथेव दुरितं गुणशतमप्यर्थिता हरति॥१२॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
रोगी चिरप्रवासी परान्नभोजी परावसथशायी।
(सन्?य) ज्जीवति तन्मरणं यन्म्रियते सोऽ(प्य?स्य) विश्रामः॥
(पञ्चतन्त्रे)
याचना हि पुरुषस्य महत्त्वं
नाशयत्यखिलमेव तथाहि।
सद्य एव भगवानपि विष्णु-
र्वामनो भवति याचितुमिच्छन्॥१४॥
(वल्लभदेवस्य)
इति याच्ञानिन्दापद्धतिः॥
__________
१७५. अथ तृष्णानिन्दापद्धतिः।
आशाखनिरगाधेयं दुष्पूरा केन पूर्यते।
या महद्भिरपि क्षिप्तैः पूरकैरेव खन्यते॥१॥
(वल्लभदेवस्य)
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः।
चक्षुः श्रोत्रे च जीर्यन्ति तृष्णैका तरुणायते॥२॥
(भर्तृहरेः)
व्याधीनामाकरस्तोयं पापानामाकरः स्त्रियः।
दुःखानामाकरः क्रोध आशा परिभवाकरः॥३॥
(प्रतापरुद्रीये)
यौवनं जरया ग्रस्तमारोग्यं व्याधिभिः क्षतम्।
जीवितं मृत्युरभ्येति तृष्णैका निरुपद्रवा॥४॥(पञ्चतन्त्रे)
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥५॥
हते भीष्मे हते द्रोणे कर्णे च निधनं गते।
आशा बलवती राजन्! शल्यो जेष्यति पाण्डवान्॥६॥
(महाभारते)
आशापिशाचिकाविष्टः पुरतो यस्य कस्यचित्।
वन्दते निन्दति स्तौति रोदिति प्रहसत्यपि॥७॥
(बृहत्कथायाम्)
एहि गच्छ पतोत्तिष्ठ वद मौनं समाचर।
एवमाशाग्रहग्रस्तैः क्रीडन्ति धनिनोऽर्थिभिः॥८॥
मनोरथरथारूढं युक्तमिन्द्रियवाजिभिः।
भ्राम्यते हि जगत् सर्वंतृष्णासारथिचोदितम्॥९॥
(वल्लभदेवस्य)
यथा हि शृङ्गं गोःकाले वर्धमानस्य वर्धते।
एवं हि तृष्णा चित्तेन वर्धमानेन वर्धते॥१०॥
नास्त्यन्या तृष्णया काचित्तुल्या स्त्री सुभगा क्वचित्।
या प्राणानपि मुष्णाति भवत्येवाथ च प्रिया॥११॥
तृष्णेः त्वमसि तृष्णान्धा त्रिषु स्थानेषु रज्यसि।
व्याधितेष्वनपत्येषु जरापरिणतेषु च॥१२॥
(महाभारते)
अकर्तव्येष्वसाध्वीव तृष्णा प्रेरयते जनम्।
तमेव सर्वपापेभ्यो लज्जा मातेव रक्षति॥१३॥
(प्रतापरुद्रे)
तृष्णा- चेत् संपरित्यक्ता को दरिद्रः प्रतापवान्।
तस्यां चेत् प्रसरो दत्तो दास्यं च शिरसि स्थितम्॥१४॥
(इतिहाससमुच्चये)
तृष्णे ! लोकत्रयस्यास्य निर्वेदपरिपन्थिनी।
(यस्? ये) त्वन्निर्माल्यवत् त्यक्ताः तेऽत्यन्तसुखिनो नराः[॥१५॥
(वल्लभदेवस्य)
आसन्नान् पुरतो भोगान् दर्शयित्वा पुनः पुनः
छागो हरितमुष्ट्येव दूरं नीतोऽसि तृष्णया॥१६॥
(वल्लभदेवस्य)
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशृङ्खला।
यया बद्धाः प्रधावन्ति-मुक्तास्तिष्ठन्ति कुत्रचित्॥१७॥
वर्त्तते येन न विना नरो बाच्छन्नामात्।
ततोऽधिकमर्यमन्नयी पृष्टो दद्यात् किमुत्तरम्॥
आशागर्त्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम्।
कस्य किं कियदायाति वृथा या विषयैषिता॥१९॥
(भोजराजस्य)
आशाखनिरगाधेयमधः कृतजगत्त्रया।
उधृत्योद्धृत्य तत्रस्थानहो! सद्भिः समीकृता॥२०॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणे)
गिरिर्महान् गिरेरन्धिर्महानब्धेर्नभो महत्।
नभसोऽपि मही ब्रह्मन्नतोऽप्याशा गरीयसी॥२१॥
कार्याकार्ये तुलयति सर्वं दृप्तो न जातु तृष्णार्त्तः।
सर्वाशुचि वापितोयं मरुपथिकः को विचारयति॥२२॥
(पञ्चतन्त्रे)
मायाविनियमविश्रमनिमित्तवैचित्र्यकूटकपटानाम्।
सञ्चयदुर्गपिशाचो धर्महरो मूलकारणं लोभः॥२३॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
दानं न दत्तं न तपश्च तप्तं नाराधितौ शङ्करवासुदेवौ।
अग्नौ रणे वा न हुतश्च कायः शरीर! किं प्रार्थयसे सुखानि॥३४॥
खलोल्लापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरै-
र्निगृह्यान्तर्बाष्पं हसितमपि शून्येन मनसा।
कृतो वित्तस्तम्भप्रतिहतधियामञ्जलिरपि
किमाशे! मोघाशे! किमपरमतो नर्त्तयसि माम्॥२५॥
(भर्तृहरेः)
निरानन्दा दारा व्यसनविमुखो बान्धवजनो
जडीभूतं मित्रं धनविरहशीर्णः परिजनः।
असन्तुष्टं चेतः कुलिशकठिनं जीवितमिदं
विधिर्वामारम्भस्तदपि च मनो वाञ्छति सुखम्॥२६॥
आराध्य भूपविमवाप्य ततो धनानि
भोक्ष्यामहे किल वयं सततं सुखानि।
इत्याशया बत! विमोहितमानसानां
कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम्॥२७॥
(प्रतापरुद्रे)
उत्खातं निधिशङ्कया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो
निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्नेन सन्तोषिताः।
मन्त्राराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः
प्राप्तः काणवराटकोऽपि न मया तृष्णे!सकामा भव॥२८॥
(भर्तृहरेः)
उन्नत्यै नमति प्रभुं प्रभुगृहं द्रष्टुं बहिस्तिष्ठति
स्वद्रव्यव्ययमातनोति हतधीरागामिवि(न्ता?त्ता) शया।
प्राणान् प्राणितुमेव मुञ्चति रणे क्लिश्नाति भोगेच्छया
सर्वं तद्विपरीतमेव कुरुते तृष्णान्धदृक् सेवकः॥२९॥
(गोविन्दभट्टस्य)
माने नेच्छति वारयत्युपशमे क्ष्मामालिखन्त्यां ह्रियां
स्वातन्त्र्ये परिवृत्य तिष्ठति करौ व्याधूय धैर्ये गते।
तृष्णे! त्वामनुबध्नता फलमियल्लब्धं जनेनामुना
यः स्पृष्टो न पदा स एव चरणौ स्प्रष्टुं न सम्मन्यते॥३०॥
(भल्लटे)
भ्रान्तं देशमनेक दुर्गविषमं माझं न किञ्चित् फलं
त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला।
भुक्तं मानविवर्जितं परगृहेष्वाशङ्कया काकवत्
तृष्णे! जृम्भसि पापकर्मपिशुने!नाद्यापि सन्तुष्यसि॥३१॥
(भर्तृहरेः)
दृष्टा बन्धुविपत्तयः परिजने सीदत्यपि प्राणितं
यातं भग्नमनोरथैः प्रणयिभिर्याच्ञागिरः शिक्षिताः।
यद्यद्यापि न तोषमेषि भगवा+तस्तथादिश्यतां
शक्तोऽयं प्रिय! जीवति स्वजनतः सोढुं विकारानपि॥३२॥
(पञ्चतन्त्रे)
तण्णत्थि जण्ण कीरइ तह्नाए जेण भमरभणोम्मा।
माअङ्गस्स विवच्छा अभिधा च गुदाण लोभेण॥३३॥
(गाथाकोशे)
इति तुष्णानिन्दापद्धतिः ॥
__________
१७६.- अथ दारिद्र्यनिन्दापद्धतिः।
द्विषन्तमनुवर्त्तन्ते कृपणं च वदन्ति यत्।
तद् दुर्भरकृतघ्नस्य जठरस्यः विजृम्भितम्॥१॥
आगमादेष नरकाः श्रूयन्ते रौरवादयः।
विषयित्वं दरिद्राणां प्रत्यक्षं नरकं विदुः॥२॥
अहिरण्यमदासीकमल्पान्नाधमनोरसम्।
गृहं कृपणवृत्तीनां नरकस्यापरो विधिः॥३॥
किं न खादयते खाद्यं किं न वाचयते बचः।
किं न कारयते कार्यमहो! सर्वङ्कषा क्षुधा॥४॥
(वल्लभदेवस्य)
दारिद्रस्य बस मूर्त्तिर्याच्ञा न द्रविणमल्पता।
जरद्गवधनः शम्भुस्तथापि परमेश्वरः॥५॥
भ्रमन्तोदेहिः देहीति भिक्षां प्रतिविनिर्गताः।
अप्रदानस्य दौरात्म्यं कथयन्ति स्वमूर्त्तिभिः।॥६॥
(प्रतापरूद्रे)
किम्वक्तरिनः कार्पण्यं कस्य ना (याति ?गाभि) मन्दिरम्।
अस्य दग्धोदरस्यार्थे किमनाटिन नाटकम्॥७॥
वरं हि नरके वासो न तु दुर्विहिते गृहे।
नरकात् क्षीयते पापं कुगृहादभिवर्धते॥८॥
वनानि दहतो वह्नेः सखा भवति मारुतः।
स एव दीपनाशाय कृशे कस्यास्ति सौहृदम्॥९॥
(एतेभोजस्य)
शिक्षयन्ति न याचन्ते देहीति कृपणा जनाः।
भदत्त्वा मादृशो भूया दत्त्वा (त?त्व) तादृशो……॥ १०॥
(व्यासशतके)
धर्मार्थकामहीनस्य परकीयान्नभोजिनः।
काकरस्यैव दरिद्रस्यः र्दीर्घमन्युश्मीकम्॥११॥
(सुवर्णविस्तारस्य)
देहीति-वक्तुकामस्य यद् दुःखमुपजायते।
दाता चेद्तद्विजानीयात् स्वमांसान्यपि चार्पयेत्॥१२॥
हे दारिद्र्य! नमस्तुभ्यं सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादतः
अहं तुः सर्वान् पश्यामि मां च कोऽपि पश्यति॥१३॥
शून्यमपुत्रस्य गृहं स हि शून्यो नास्ति यस्य (त? स) न्मित्रम्।
मूर्खस्य दिशः शून्याः सर्वं शून्यं दरिद्रस्य॥१४॥
(वल्लभदेवस्य)
मानोऽभिजनोविनयः शौर्यं प्रज्ञाः श्रुतं शुचित्वं च।
न चकास्ति निश्वमेतद्वित्तविहीनस्य पुरुषस्य॥१५॥
(भोजस्य)
अम्बा कुप्यति न मया न स्नुषया सापि नाम्बया न मया।
अहमपि न तया न तया वद राजन्! कस्य दोषोऽयम्॥१६॥
पोतानेतानयि! गुणवति! ग्रीष्मकालावसानं
यावत् तावत् समव रुदतो येन केनाशनेन।
पश्चादम्भोधररसपरीपाकमासाद्य तुम्बी
कूश्माण्डी च प्रभवति ततो भूभुजःके वयं के॥१७॥
न भिक्षा दुर्भिक्षे पतति दुरवस्थाःकथमृणं।
लभन्तेः कर्मापि द्विजपरिवृढान् कास्यतिः कः।
अदत्त्वापि ग्रासं गृहपतिरसावस्तमयते
न विश्वः किं कुर्मो गृहिणि महनो जीवनविधिः॥१८॥
सासन्तुवितानबद्धवदना चुल्ली ममोलूखले
फेलन्तोः विलसन्ति सन्तसममी न्योतैःमार्थ र्दुराः।
भूषी मूर्छति मन्दिरोदरगता काकोऽपि अस्मांङ्कणे
अग्रविस्कृत्यापि न गच्छति क्षणमपि क्ष्मापालचूडामणे !॥१९॥
पृथुकार्त्तस्वरपात्रं भूषितनिश्शेषपरिजने देव।
विलसत्करेणुगहनं सम्प्रति सममावयोः सदनम्॥२०॥
एको हि दोषो पुण्यसन्निपातेनिमज्जतीन्दीरिति यो बभाषे।
नूनंतदेतत् कविना न दृष्टं दारिद्र्यमेकं गुणराशिहारि॥२१॥
विश्वासं न करोति कश्चिदधने नाभाष्यते सादरं
सम्प्राप्ते गृहमुत्सवेषु निधनः सावज्ञमालोक्यते।
दूरादेव महाजनः परिहरत्यभ्यर्थनाशङ्कया
मन्ये निर्धनता प्रकाममपरं षष्ठं महापातकम्॥२२॥
(एते शृङ्गारप्रकाशे)
इति दारिद्र्यनिन्दापद्धतिः॥
__________
१७७. अथ संसर्गगुणपद्धतिः।
त्यज्यते यदि दोषेण गुणेन परिगृह्यते।
गुणागुणफलं ह्येतदाश्रयस्य कुतः फलम्॥१॥
(श्रीरामायणे)
गुणैः स शर्वकल्पोऽपि सीदत्येव निराश्रयः।
अनर्घमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते॥ २॥
(वल्लभस्य)
समाश्रयबलादेव गरुडं यान्तमध्वनि।
पिनाकपाणिपाणिस्थः कुशलं पृष्टवानहिः॥३॥
गुणवत्सु गुणाल्पोऽपि याति विस्तीर्णतां नरः।
पतितः स्वादुविमले तैलबिन्दुरिवाम्भसि॥४॥
विद्वद्भिरभिसम्बन्धादधमो भाजनं भवेत्।
पाषाणोऽपि मणिस्पर्शाज्जायते भूषणं परम्॥५॥
(व्यासशतके)
प्रसिद्धिहेतुर्भावानां प्रायः श्रेष्ठपरिग्रहः।
सहस्रं जलधौ शङ्खाः पाञ्चजन्यस्तु विश्रुतः॥६॥
(अभिनवगुप्तस्य)
महानुभावसम्पर्कः कस्य नोन्नतिकारणम्।
इन्दोः शिवशिरःसङ्गात् कलापि ह्यभिनन्द्यते॥७॥
सम्पर्केण सतां प्रायः पात्रतां यात्यसन्नपि।
रथ्यातोयमपि प्राप्यं गङ्गां याति पवित्रताम्॥८॥
(प्रतापरुद्रे)
गुणः कृशोऽपि प्रथते पृथुरप्यपचीयते।
प्राप्य साधुखलौ चन्द्रः पक्षाविव सितासितौ॥९॥
(कादम्बरी कथासारे)
अतिमात्र भासुरत्वं पुष्यति भानोः परिग्रहादनलः।
अधिगच्छति महिमानं चन्द्रोऽपि निशापरिगृहीतः॥१०॥
(कालिदासस्य)
यस्मिन् जीवति (जीवति) महाजनस्तस्य जीवितं नाम।
जीवन्नपि स (न) जीवति न जीवति यमाश्रितः पुरुषः॥११॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
बिभ्रति पतन्ति सह पातैरेव न (न्दि१दी) तटेषु रूढानि।
अवलम्बितानि भीतैस्तृणानि किमु चेतनावन्तः॥१२॥
(वल्लभस्य)
ख्याता नराधिपतयः कविसंश्रयेण
राजाश्रयेण च गताः कवयः प्रसिद्धिम्।
राज्ञा समोऽस्ति न कवेः परमोपकारी
राज्ञो न चास्ति कविना सदृशः सहायः॥१३॥
(रुद्रदेवस्य)
वासपरिसरण्ठिणए विगुणपरिहीणो करेइ किं गुणिणो।
जश्चं अद्धस्स वरं वो हत्थिठिओ णिप्पलं चेअम्॥१४॥
हंसा ण सरेहि विणा सराण सोहा विणा ण हंसेहि।
अण्णोष्णञ्चिअए ए अप्पाणण्णवर गरूअन्ति॥१५॥
(गाथाकोशे)
इति संसर्गगुणपद्धतिः ॥
___________
१७८. अथ संसर्गदोषपद्धतिः।
असत्सम्पर्कदोषेण सज्जनोऽपि विगर्ह्यते।
मार्गस्तिमिरसम्पर्कात् समोऽपि विषमायते॥१॥
असज्जनेनसम्पर्कादमयं यान्ति साधवः।
मधुरं शीतलं तोयं पावकं प्राप्य निर्गुणम्॥२॥
(व्यासशतके)
तिलाभस्मकसंश्लेषात् आप्नुवन्त्यधिवासनाम्।
रसोनभक्षास्तद्गन्धाः सर्वे साङ्क्रमिणो गुणाः॥३॥
अपां प्रवाहो गाङ्गोऽपि समुद्रं प्राप्य तद्रसः।
भवत्यवश्यं तद्विद्वान्नाश्रयेदशुभात्मकम्॥४॥
(कामन्दकीये)
यादृशे संविवदते यादृशांश्चोपसेवते।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पूरुषः॥९॥
(महाभारते)
संश….स्थानसम्बन्धाद् गुणवानपि दूष्यते।
रात्रौ वल्मीकसम्बन्धाद्रज्जुः सर्पायते किल॥६॥
(प्रतापरुद्रे)
क्वचिदपिवस्तुविशे (षो?षे) दोषोऽपि गुणेन तुल्यतामेति।
खण्डनमेव हि मण्डनमधरदले भवतिरमणीनाम्॥७॥
(वल्लभस्य)
असत्यागात् पापकृत्तामपापां-
स्तुल्यो दण्डः स्पृशते मित्रभावात्।
शुष्केणार्द्रं दह्यते मित्रभावात्
तस्मात् पापैः सह सन्धिं न कुर्यात्॥८॥
यदि सन्तं सेवते यद्यसन्तं
तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासो यथा रागवशं प्रयाति
तथा स तेषां वशमभ्युपैति॥९॥
(महाभारते)
अहं मुनीनां वचनं शृणोमि
गवाशनानां स वचः शृणोति।
प्रत्यक्षमेतद् भवता हि दृष्टं
संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति॥१०॥
(तन्त्रोपाख्याने)
आसअवसेण गरुअं ताइ अमडहत्तणाइएमेअ।
वि.. वी.. सिसमागतणि ह आगआ लहुआ॥११॥
(गाथाकोशे)
इति संसर्गदोषपद्धतिः॥
___________
१७९. अथ क्षमापद्धतिः।
क्षमावतामयं लोकः परलोकः क्षमावताम्।
इह सन्मानमिच्छन्ति परत्र च परां गतिम्॥१॥
यदि न स्युर्मनुष्येषु क्षमिणः पृथिवीसमाः।
न स्यात् सन्धिर्मनुष्याणां क्रोधमूलो हि विग्रहः॥२॥
यः समुत्पतितं क्रोधं दैन्यं वा न नियच्छति।
स नश्यति श्रियं प्राप्य पात्रमाममिवाम्भसि॥३॥
(महाभारते)
यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयैव निरस्यति।
यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते॥४॥
(श्रीरामायणे)
आजन्मसिद्धं कौटिल्यं हलस्य च खलस्य च।
सोढुं ययोर्मुखाक्षेपमलमेकैव सा क्षमा॥५॥
(कविवल्लभस्य)
न दुष्करतमं पुत्र! यत् प्रभुर्घातयेत् प्रजाः।
श्लाघनीया यशस्या च लोके प्रभवतां क्षमा॥६॥
एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः॥७॥
आत्मानं च परं चैव त्रायते महतो भयात्।
क्रुध्यन्तमप्रतिक्रुध्यन् द्वयोरेकश्चिकित्सकः॥८॥
(महाभारते)
क्षेत्रं तदेव पुण्यस्य भाजनं यशसां च ते।
प्ररूढा हृदये येषां क्षान्तिवल्ली महाफला॥९॥
पुण्यतीर्थमनायासः क्रतुरद्रव्यडम्बरः।
अशोषणं शरीरस्य क्षमा नाम परं तपः॥१०॥
(बृहत्कथायाम्)
धन्यास्ते पुरुषश्रेष्ठा ये बुद्ध्या कोपमुत्थितम्।
निरुन्धन्ति महात्मानो दीप्तमग्निमिवाम्भसा॥११॥
क्षमा धृतिः क्षमा सत्यं क्षमा धर्मः क्षमा गुरुः।
क्षमावतामयं लोकः परलोकः क्षमावताम्॥१२॥
(श्रीरामायणे)
उपकारकमायतेर्भृशं
प्रसवः कर्मफलस्य भूरिणः।
अनपायि निबर्हणं द्विषां
न तितिक्षासममस्ति साधनम्॥१३॥
अपरागसमीरणेरितः
क्रमशीर्णाकुलमूलसन्ततिः।
सुकरस्तरुवत् सहिष्णुना
रिपुरुन्मूलयितुं महानपि॥१४॥
(भारवेः)
न तद्बलं यन्मृदुना विरुध्यते
मैत्रो धर्मस्तरसा सेवितव्यः।
प्रध्वंसिनी क्रूरसमाश्रिता श्री-
र्मृदुः प्रौढान् गच्छति पुत्रपौत्रान्॥१५॥
(महाभारते)
इति क्षमापद्धतिः॥
-
*
१८०. अथ शीलपद्धतिः ।
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मण। मनसा गिरा।
अनुग्रहश्चदानं च शीलमेतद्विदुर्बुधाः॥१॥
सर्वेऽ(पि हार) केयूरकुण्डलप्रतिमा गुणाः।
शीलं (च ?चा) कृत्रिमं लोके लावण्यमिव भूषणम्॥२॥
धर्मं शीलं तथा वित्तं बलं ह्रीश्चैव पञ्चमी।
शीलमूला महाराज! सदा नास्त्यत्र संशयः॥३॥
सभा जिता वस्त्रवता समाशा गोमता जिता।
अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जितम्॥४॥
शीलं प्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति।
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः॥५॥
ज्यायांसमपि शीलेन विहीनं नैवपूजयेत्।
अपि शूद्रं तु सद्वृत्तं धर्मस्थमिह पूजयेत्॥६॥
(महाभारते)
विद्या श्रुतं तपो वाप्यैश्वर्यं वा यशः प्रकाशो वा।
शीलरहितस्य सर्वं द्विरदस्नानोपमं भवति॥७॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
शुष्कोऽपि चन्दनतरुर्न जहाति गन्धं
बद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम्।
यन्त्रार्दितोऽपि च रसं न जहाति चेक्षुः
क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणं सुशीलः॥८॥
यो भ्रष्टशीलविनयः स विनाशकाले
त्रासं समाविशति शीलवतो न सोऽस्ति।
तस्मात् प्रहृष्टहृदयः परलोकमन्ते
यो गन्तुमिच्छति स रक्षति शीलमेव॥९॥
वरं भ्रान्तावर्त्ते सभयजलमध्येऽवतरणं
वरं सर्पाकीर्णे तृणगहनकूपे प्रपतनम्।
वरं विन्ध्याटव्यामनशनतृषार्त्तस्य मरणं
न शीलाद्विभ्रंशो भवति कुलजस्य श्रुतवतः॥१०॥
पाण्डित्यस्य विभूषणं मधुरता शौर्यस्य वाक्संयमो
ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः।
अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभावितुर्धर्मस्य निर्व्याजता
सर्वस्यास्य पुनस्तथैव जगतः शीलं परं भूषणम्॥११॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणे)
इति शीलपद्धतिः॥
१८१. अथ सङ्कीर्णपद्धतिः।
नास्ति विद्यासमं मित्रं नास्ति व्याधिसमो रिपुः।
न चापत्यसमः स्नेहो न च दैवात् परं बलम्॥१॥
(वल्लभदेवस्य)
असन्तुष्टोद्विजो नष्टः सन्तुष्टः क्षत्रियस्तथा।
सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जा च कुलाङ्गना॥२॥
अत्यल्पमपि साधूनां शिलालेखेव तिष्ठति।
जललेखेव नीचानां यत् कृतं तद्विनश्यति॥३॥
(व्यासशतके)
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्॥४॥
(दण्डनीत्याम्)
नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न शठा न च मानिनः।
न च लोकरवाद् भीता न च शश्वत् प्रतीक्षिणः॥५॥
उत्साहो रिपुवन्मित्रमालस्यं मित्रवद्रिपुः।
अमृतं विषवद् विद्या(मृत)वद् विषमङ्गना॥६॥
(प्रतापरुद्रे)
जीवन्मृतो दरिद्राख्यस्त्यज्यते पतितो यथा।
श्रीमानाश्रीयते सर्वैः पुष्पवृक्ष इवालिभिः॥७॥
एकः स्वादु न भुञ्जीत चैकश्चार्थं न चिन्तयेत्।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात्॥८॥
गन्धेन गावः पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणाः।
चारैः पश्यन्ति राजानश्चक्षुर्भ्यामितरे जनाः॥९॥
(महाभारते)
ब्राह्मणो ब्राह्मणं वेद भर्ता वेद स्त्रियं तथा।
अमात्यं नृपतिर्वेद राजा राजानमेव च॥१०॥
(पञ्चतन्त्रे)
पानीयस्य रसं शैत्यं भोजनस्यादरो रसः।
आनुकूल्यरसा भार्या मित्रस्यावञ्चनं रसः॥११॥
आपत्सु मित्रं जानीयाद् रणे शूरं रहः शुचिम्।
भार्यां च विभवे क्षीणे व्यसनेषु प्रियातिथिम्॥१२॥
(महाभारते)
मरणान्तानि वैराणि प्रसवान्तं च यौवनम्।
कुपितं प्रणतान्तं च याचितान्तं च गौरवम्॥१३॥
(नीत्याम्)
राजपुत्र ! चिरं जीव मा जीव + + पुत्रकम्।
जीव वा मर वा साधो ! व्याध मा जीव मा मरम्॥१४॥
शास्त्रकाव्यविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेनैव मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥१५॥
माता यदि विषं दद्याद्विक्रीणीतेऽपि वा सुतम्।
राजा हरति सर्वस्वं का तत्र परिदेवना॥१६॥
सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः।
कृतविद्यश्च शूरश्च यश्च जानाति सेवितुम्॥१७॥
को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम्।
कोऽतिभारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम्॥१८॥
अविद्यः पुरुषः शोच्यः शोच्यं मिथुनमप्रजम्।
निराहाराः प्रजाः शोच्याः शोच्यं राष्ट्रमराजकम्॥१९॥
श्रद्धानुसारिणी विद्या कीर्त्तिस्त्यागानुसारिणी।
उत्साहसारिणी सम्पद् बुद्धिर्धर्मानुसारिणी॥२०॥
अग्निहोत्रफला वेदाः शीलवृत्तफलं श्रुतम्।
रतिपुत्रफला दारा दत्तभुक्तफलं धनम्॥२१॥
(महाभारते)
अ(लं)करोति हि जरा नृपविप्रचिकित्सकान्।
विडम्बयति वेशस्त्रीमल्लचारणनर्त्तकान्॥२२॥
ना(हु? कुः) सम्पन्नमश्नाति नाकुमारः प्रमोदते।
न श्रीरकृषमाणस्य नाभ्रातुर्वर्धते बलम्॥२३॥
स्पृशन्निव गजो हन्ति जिघ्रन्निव भुजङ्गमः।
हसन्निव नृपो हन्ति मानयन्निव दुर्जनः॥२४॥
देहीति वचनं कष्टं नास्तीति वचनं तथा।
देहि नास्तीति वचनं मा भूज्जन्मनि जन्मनि॥२५॥
भुक्त्वा निविशतः (व्यं? स्थौल्यं) तिष्ठतो बलवर्धनम्।
आयुश्च क्रमतो नित्यं मृत्युर्धावति धावतः॥२६॥
सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रोयत्र निर्वृतिः।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो यत्र बान्धवः॥२७॥
अध्वा जरा मनुष्याणामनध्वा दन्तिनां जरा।
अमैथुनं जरा स्त्रींणामश्वानां मैथुनं जरा॥२८॥
नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति विद्यासमं बलम्।
नास्ति रोगसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्॥२९॥
(एते महाभारते)
विद्याप्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः।
आतुरस्यौषधं मित्रं मित्रं दानं मरिष्यतः॥३०॥
मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम्।
मृतमश्रोत्रिये दानं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः॥३१॥
हिंसा (फ? ब)लमसाधूनां राज्ञां दण्डविधिर्बलम्।
शुश्रूषा तु बलं स्त्रीणां क्षमा गुणवतां बलम्॥३२॥
पक्षिणां बलमाकाशं मत्स्यानामुदकं बलम्।
दुर्बलस्य बलंराजा बालानां रुदितं बलम्॥३३॥
(नीत्याम्)
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
देशे देशे न विद्वांसश्चन्दनं न वने वने॥३४॥
विनयेन विना का श्रीः का निशा शशिना विना।
रहिता सुकवित्वेन कीदृशी वाग्विदग्धता॥३५॥
पूरितः पाणिमुत्तानं जितः कुण्डलितं धनुः।
पुनः करोति चेदग्रे धिग् दानं धिक् च पौरुषम्॥३६॥
अपात्रे रमते नारी गिरौ वर्षति वासवः।
लुब्धमाश्रयते वित्तंप्राज्ञाः प्रायेण निर्धनाः॥३७॥
मक्षिका व्रणमिच्छन्ति धनमिच्छन्ति पार्थिवाः।
नीचाः कलहमिच्छंन्ति सन्धिमिच्छन्ति साधवः॥३८॥
स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥३९॥
गर्जति शरदि न वर्षति वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः।
नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजनः करोत्येव॥४०॥
अपि सहवसतामसतां जलरुहजलवद् भवत्यसंश्लेषः।
दूरेऽपि सतां वसतां प्रीतिः कुमुदेन्दुवद् भवति॥४१॥
अनुकुरुतः खलसुजनावग्रिमपाश्चात्त्यभागयोः सूच्याः।
विदधाति रन्ध्रमेको गुणवानन्यस्तु पिदधाति॥४२॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
जलधिजलान्ता नद्यः स्त्रीभेदान्तानि बन्धुहृदयानि।
पिशुनजनान्तं गूढं दुष्पुत्रान्तानि च कुलानि॥४३॥
(महाभारते)
हिमवति तिष्ठत्यौषधमुदधौ रत्नं विभावसौ तेजः।
वैरमसज्जनहृदये सज्जनहृदये सदा क्षान्तिः॥४४॥
यस्य जना न वदन्ति महत्त्वं नो समरे विजयं मरणं वा।
न श्रुतदानमहाधनतां वा तस्य भवः कृमिकीटसमानः॥४५॥
(एते वराहमिहिरस्य)
त्यजति भयं कृतपापं मित्राणि शठं प्रमादिनं विद्या।
ह्रीः कामिनमलसं श्रीः स्त्री क्रूरं दुर्जनं लोकः॥४६॥
दक्षः श्रियमधिगच्छति पथ्याशी कल्यतां सुखमरोगः।
उद्युक्तो विद्यान्तं धर्मार्थयशांसि च विनीतः॥४७॥
कोऽन्धो यो (ऽकार्यर)तः को बधिरो यः शृणोति न हितानि
को मूढः काले यः प्रियातिथिं नैव जानाति॥४८॥
(सुन्दरपाण्ड्यस्य)
दीनं पुत्रं ब्राह्मणी याचितारं गौर्वोढारं शीघ्रगन्तारमश्वः।
दीनं शूद्रा कर्मकारं तु वैश्या मृतं सूते क्षत्रिया राजपुत्री॥४९॥
तृणोल्कया ज्ञायते जातरूपं युगेन भद्रो व्यवहारेष्वसाधुः।
शूरो भवेष्वस्वतन्त्रेषु धीरः कृच्छ्राश्चापत् ……श्चारयश्च॥५०॥
जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् ब्रह्मचर्यामसूया।
क्रोधः श्रियं शीलमनार्यसेवा लज्जा कामं सर्वमेवाभिमानः॥५१॥
राजाश्रयस्तस्करमश्वपण्यमाथर्वणं चापि समुद्रयानम्।
एतानि सिध्यन्ति महाफलानि विपर्यये प्राणहराणि पञ्च॥५२॥
(महाभारते)
रिपुभावमपास्य यः सुहृत्तां गमयेच्छत्रुजनं स एव विद्वान्।
अरितामुपयान्ति यस्य मित्राण्यपचारेण दुरात्मनां स राजा॥५३॥
(पञ्चतन्त्रे)
स्तब्धस्य नश्यति यशो विषमस्य मित्रं
नष्टक्रियस्य कुलमर्थपरस्य धर्मः।
विद्याफलं व्यसनिनः कृपणस्य सौख्यं
राज्यं प्रमत्तसचिवस्य नराधिपस्य॥५४॥
दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनश्यति यतिः सङ्गात् सुतो लालनाद्
विप्रोऽनध्ययनात् कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्।
ह्रीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रया-
न्मैत्री चाप्रणयात् समृद्धिरनयात् त्यागात् प्रमादाद्धनम्॥५५॥
(भर्तृहरेः)
आघ्रातं मरणेन जन्म जरसा जात्युज्ज्वलं यौवनं
सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः।
लोके मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनै-
रस्थैर्येण विभूतिरित्युपहतं रम्यं न किं येन तत्॥५६॥
(प्रतापरुद्रीये)
क्षते प्रहारा निपतन्त्यभीक्ष्णं
धनक्षये दीप्यति जाठराग्निः।
आपत्सु वैराणि समुद्भवन्ति
च्छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति॥५७॥
(पञ्चतन्त्रे)
स्वधर्मनाशो धनिकोपरोधः
कन्याबहुत्वं च कुपुत्रता च।
मित्रं विरक्तं विमुखाश्च दाराः
षड्जीवलोके व्यसनान्यमुष्मिन्॥५८॥
(भल्लटे)
शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी
सरो विगतवारिजं मुखम(न)क्षरं स्वाकृतेः।
प्रभुर्धनपरायणः सततदुर्गतः सज्जनो
नृपाङ्कणगतः खलो मनसि सप्त शल्यानि मे॥५९॥
(भर्तृहरेः)
दातारो यदि कल्पशाखिभिरलं यद्यर्थिनः किं तृणैः
सन्तश्चेदमृतं वृथा यदि खलाः किं कालकूटेन किम्।
किं कर्पूरशलाकया यदि दृशः पन्थानमेति प्रिया
संसारेऽपि सतीन्द्रजालमपरं यद्यस्ति तेनापि किम्॥६०॥
(काव्यप्रकाशे)
एको नेता क्षत्रियो वा द्विजो वा
चैका विद्यान्वीक्षिकी वा त्रयी वा।
एका भार्या वंशजा वा प्रिया वा-
प्येकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा॥६१॥
(महाभारते)
पङ्गो ! वन्द्यस्त्वमसि न गृहं यासियोऽर्थी परेषां
धन्योऽन्ध। त्वं धनमदवतां नेक्षसे यो मुखानि।
श्लाघ्योमूक! त्वमपि कृपणं स्तौषि नार्थाशया यः
स्तोतव्यस्त्वं बधिर!न गिरं यत् खलानां शृणोषि॥६२॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
किमासेव्यं पुंसां? सविधमनवद्यं द्युसरितः
किमेकान्ते ध्येयं?चरणयुगलं कौस्तुभभृतः।
किमाराध्यं पुण्यं किमभिलषणीयं च सुधियां
यदासत्त्याचेतो निरवधिविमुक्त्यै प्रभवति॥६३॥
(अलङ्कारसर्वस्वे)
क्षान्तिश्चेत् कवचेन किं किमरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद् देहिनां
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद् दिव्यौषधैः किं फलम्।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनाः किमु धनैर्विद्यानवद्या यदि
व्रीडा चेत् किमु भूषणेन कविता यद्यस्ति राज्येन किम्॥६४॥
(भर्तृहरेः)
न क्रोधिनोऽर्थो न शठस्य मित्रं
क्रूरस्य न स्त्री सुखिनो न विद्या।
न कामिनो हीरलसस्य न श्रीः
सर्वं तु न स्यादनवस्थितस्य॥६५॥
स स्निग्धोऽकुशलान्निवारयति यस्तत् कर्म यन्निर्मलं
सा स्त्री यानुविधायिनी स च पुमान् यः सद्भिरभ्यर्च्यते।
सा श्रीर्या न मदं करोति स सुखी यस्तृष्णया नोह्यते
तन्मित्रं यदयन्त्रणं स पुरुषो यः खिद्यते नैन्द्रियैः॥६६॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
किमुच्छ्रणफलेहिं किं वा कुसुमेहिं चन्दणदुमस्स।
सुहसस्स की उणेहिं भूसाए की सुसीलस्स॥६७॥
[का विसमा दव्वगई किं लद्धब्वं जणो गुणग्गाही।
किं सोक्खं सुकलत्तंकिं दुक्खं जो स्वलो लोओ॥६८॥13
तह हस सजहण हसिज्जइ तह जीवटहापरं पिभंहोइ।
तह जिअ जहल हसिजस तह परजह ओइणसंम्भवो होहि॥६९॥
सो अत्थो जो हत्थे तं मित्तं जं णिरन्तरं वसणे।
तं रूअं जत्थ गुणा तं विण्णाणं जहिं धम्मो14॥७०॥
(सतराव्याम् )
धीरं हरइ विसाओ विणअं जोव्वणमओ अणंगो लज्जम्।
एक्कन्तगहिअपक्खो किं सीसउ जं ठवेइ वअपरिणामो15॥७१॥
(सेतौ)
कस्स व जणंति ण सुहं सुजणा विसुणापकष्णदूलमत्ति।
आणन्देइ मिअङ्कोधूमो कटुएइ णअणाइ॥७२॥
विअलिअधणा वीधीरा जाअन्तिमहाधणव्व चरिएहि।
इअरा सन्ते वि धणिणो विहलिणविभवेव्वदीसन्ति16॥७३॥
(गाथाकोशे)
इति सङ्कीर्णपद्धतिः॥
अर्थपर्व समाप्तम्॥
-
*
१८२. अथ नायकप्रशंसापद्धतिः।
उत्पत्तिर्जमदग्नितः स भगवान् देवः पिनाकी गुरु-
र्वीर्यंयत्तु न तद् गिरांपथि ननु व्यक्तं हि तत् कर्मभिः।
त्यागः सप्तसमुद्रमुद्रितमही निर्व्याजदानावधिः
सत्यं ब्रह्म तपोनिधेर्भगवतः किं वा न लोकोत्तरम्॥१॥
(भवभूतेः)
कपोले जानक्याः करिकलभदन्तद्युतिमुषि
स्मरस्मेरं गण्डोड्डमरपुलकं वक्रकमलम्।
मुहुः पश्यन् शृण्वन् रजनिचरसेनाकलकलं
जटाजूटग्रन्थिं द्रढयति रघूणां परिवृढः॥२॥
(महानाटके)
मुञ्चकोपमनिमित्तकोपने ! सन्ध्यया प्रणमितोऽस्मि नान्यथा
किं न वेत्सि सहधर्मचारिणं चक्रवाकसमवृत्तिमात्मनः॥३॥
(कालिदासस्य)
इति नायकप्रशंसापद्धतिः॥
-
*
१८३. अथ नायिकाप्रशंसापद्धतिः।
नामापि स्त्रीति संह्लादि विकरोत्येव मानसम्।
किं पुनर्दर्शनं तस्या विलासोल्लासितभ्रुवः॥१॥
(कामन्दकीये)
प्राणानां च प्रियायाश्च मूढाः सादृश्यकारिणः।
प्रियाः कण्ठगता रत्यै प्राणा मरणहेतवः॥२॥
(प्रतापरुद्रे)
स्मृता भवति तापाय दृष्टा चोन्मादकारिणी।
स्पृष्टा भवति मोहाय सा नाम दयिता कथम्॥३॥
(वल्लभस्य)
यद्यत् साधु न चित्रेऽस्याः क्रियते तत्तदन्यथा।
तथापि तस्या लावण्यं रेखया किञ्चिदन्वितम्॥४॥
चित्रे निवेश्य परिकल्पितसत्त्वयोगा
रूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता तु।
स्त्रीरत्नसृष्टिरपरा प्रतिभाति सा मे
धातुर्विभुत्वमनुचिन्त्य वपुश्च तस्याः॥५॥
(कालिदासस्य)
लावण्यद्रविणव्ययो न गणितः क्लेशो महान् स्वीकृतः
स्वच्छन्दं चरतो जनस्य हृदये चिन्ताज्वरो निर्मितः।
एषा तु स्वगुणानुरूपरमणाभावाद्वराकी हता
कोऽर्थश्चेतसिवेधसा विनिहितस्तस्यास्तनुं तन्वता॥६॥
(अलङ्कारसर्वस्वे)
अमृतममृतं चन्द्रश्चन्द्रस्तथाम्बुजमम्बुजं
रतिरपि रतिः कामः कामो मधूनि मधून्यपि।
इति न भजते वस्तु प्रायः परस्परसङ्करं
तदियमबला धत्ते लक्ष्मीं कथं सकलात्मिकाम्॥७॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणे)
अस्याः सर्गविधौ प्रजापतिरभूच्चन्द्रो नु कान्तप्रभः
शृङ्गारैकरसः स्वयं तु मदनो मासो नु पुष्पाकरः।
वेदाभ्यासजडः कथं स विषयव्यावृत्तकौतूहलो
निर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं रूपं पुराणो मुनिः॥८॥
(कालिदासस्य)
* विरहे विसं व्व विसमा अमअमआहोइ सङ्गमे अहिअम्।
किं विहिणा समअंचिअदोहिं वि पिआ विणिम्मिआ॥९॥
तुह मुहसारिच्छं णलहइत्ति संपूण्णमण्डलो विहिणा।
अण्णमअं व्व घटइउं पुणो वि खण्डिज्जइमिअङ्को॥१०॥
एद्दहमेत्तम्मिजए सुन्दरमहिलासहस्सभरिए वि।
अणुहरइ णवर तिस्सा वामद्धं दाहिणद्धस्स॥११॥
चिअपसिअदेसु ककन्दुअं रमसु अण्ठहा किंपि।
भञ्जिहिसिअन्धलट्ठिव्व णवर एका अणंगस्स॥१२॥
-
*
*विरहे विषमिव विषमामृतमया भवति सङ्गमेऽधिकम्।
किं विधिना सममेय द्वाभ्यामपि प्रिया विनिर्मिता॥
तव मुखसादृश्यं न लभत इति सम्पूर्णमण्डलो विधिना।
अन्यमयमिव घटयितुं पुनरपि खण्ड्यते मृगाङ्कः॥
एतावन्मात्रे जगति सुन्दरमहिलासहस्रभृतेऽपि।
अनुहरति केवलं तस्या वामार्धं दक्षिणार्धस्य॥
*जस्स जहिं विअ पढमं तिस्सा अंगम्मि णिवडिआ दिट्ठी।
तस्स तहिं चेअठिआ सव्वंग केण वि ण दिट्टम्॥१३॥
(गाथाकोशे)
इति नायिकाप्रशंसापद्धतिः॥
-
*
१८४. अथ वसन्तपद्धतिः।
क्षीरक्षालितचन्द्रेव नीलधौताम्बरेव च।
टङ्कोल्लिखितसूर्येव वसन्तश्रीरदृश्यत॥१॥
पतितैः पतमानैश्च पादपस्थैश्च मारुतः।
कुसुमैः पश्य सौमित्रे! क्रीडतीव समन्ततः॥२॥
पद्मकेसरसंस्पृष्टो वृक्षान्तरविनिस्सृतः।
निःश्वास इव सीताया वाति वायुर्मनोहरः॥३॥
पादपात् पादपं गच्छन् शैलाच्छैलं वनाद्वनम्।
वाति नैकरसास्वादः स मोदित इवानिलः॥४॥
(श्रीरामायणे)
बालेन्दुवक्त्राण्यविकासभावाद् बभुः पलाशान्यतिलोहितानि।
सद्यो वसन्तेन समागतानां नखक्षतानीव वनस्थलीनाम्॥५॥
चूताङ्कुरास्वादकपायकण्ठः पुंस्कोकिलो यन्मधुरं चुकूज।
मनस्विनीमानविघातदक्षस्तदेव जातं वचनं स्मरस्य॥६॥
अग्रे स्त्रीनखपाटलं कुरवकं श्यामं द्वयोर्भागयो-
र्बालाशोकमुपोढरागसुभगं भेदोन्मुखं तिष्ठति।
ईषद्वद्धरजःकणाग्रकपिशा चूते नवा मञ्जरी
मुग्धत्वस्य च यौवनस्य च सखे! मध्ये मधुश्रीः स्थिता॥७॥
(कालिदासस्य)
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*यस्ययत्रैव प्रथमं तस्या अङ्गेनिपतिता दृष्टिः।
तस्य तत्रैव स्थिता सर्वाङ्गं केनापि न दृष्टम् ॥
*कुसुमाउहपिअदूअभो मुउलीकिदबहुचूअओ।
सिढिलिअमाणग्गहणओ वाअदि दाहिणपवणओ॥८॥
इह पढमं महुमासो जणस्स हिअआइंकुणइ मिउलाइं।
पञ्चाविद्धइ कामो लद्धप्पसरेहिं कुसुमबाणेहिं॥९॥
(रत्नावल्याम्)
अभिणवराअक्खित्ता महुअरिआ वामएण कामेण।
उत्तम्मइ पत्थन्तं दट्ठुंपिअदंसणं दउअम्॥१०॥
(प्रियदर्शिकायाम्)
इति वसन्तपद्धतिः॥
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*
१८५. अथ धर्मपद्धतिः।
प्रविश्य तत्र मूलानि नीत्वा मध्यन्दिनातपम्।
अध्वनीना इव च्छाया निर्गच्छन्ति शनैः शनैः॥१॥
किंशुकव्यपदेशेन तरुमारुह्य सर्वतः।
दग्धादग्धमरण्यानां पश्यतीव विभावसुः॥२॥
(सोमदत्तभट्टस्य)
सुभगसलिलावगाहाः पाटलसंसर्गिसुरभिवनवाताः।
प्रच्छायसुलभनिद्रा दिवसाः परिणामरमणीयाः॥३॥
दिने दिने शैवलवन्त्यधस्तात् सोपानपर्वाणि विमुञ्चदम्भः।
उद्दण्डपद्मं गृहदीर्घिकाणां नारीनितम्बद्वयसं बभूव॥४॥
नवेषु सायन्तनमल्लिकानां विजृम्भणोद्ग्रन्थिषु कुड्मलेषु।
प्रत्येकनिक्षिप्तपदः सशब्दं संख्यामिवैषां भ्रमरश्चकार॥५॥
(कालिदासस्य)
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*
*कुसुमायुधप्रियदूतको मुकुलीकृतबहुचूतकः।
शिथिलितमानग्रहणको वीजति दक्षिणपवनकः॥
इह प्रथमं मधुमासो जनस्य हृदयानि कुरुते मृदुलानि।
पश्चाद्विष्यति कामो लब्धप्रसरैः कुसुमबाणैः॥
अच्चन्तक्खविअदोसो परिवड्ढिअमित्तमण्डणालोओ।
कस्स ण जणेइ दुःखं दिअहा असुणेव्व वालत्तो॥६॥
(गाथाकोशे)
इति धर्मपद्धतिः॥
-
*
१८६. अथ वर्षापद्धतिः।
मेघकृष्णाजिनधरा धारायज्ञोपवीतिनः।
मारुतापूरितगुहाः प्राधीता इव पर्वताः॥१॥
कशाभिरिव हैमीभिर्विद्युद्भिरिव ताडितम्।
अन्तःस्तनितनिर्घोषं सवेदनमिवाम्बरम्॥२॥
मन्दमारुतनिःश्वासं सन्ध्याचन्दनरञ्जितम्।
आपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम्॥३॥
सुरतामर्दविच्छिन्नाः स्वर्गस्त्रीहारमौक्तिकाः।
पतन्तीवाकुला दिक्षु तोयधाराः समन्ततः॥४॥
निलीयमानैर्विहगैश्चलद्भिरिव पङ्कजैः।
विकसन्त्या च मालत्या गतोऽस्तं ज्ञायते रविः॥५॥
सन्ध्यारागोत्थितैस्ताम्रैरन्तेष्वधिकपाण्डरैः।
स्निग्धैरभ्रपटच्छेदैर्बद्धव्रणमिवाम्बरम्॥६॥
निद्रा शनैः केशवमभ्युपैति द्रुतं नदी सागरमभ्युपैति।
हृष्टा बलाका घनमभ्युपैति कान्ता सकामा प्रियमभ्युपैति॥७॥
(श्रीरामायणे)
अणुदिअहज्झिजिरीओ आलेए ऊण पहिअजाआओ।
धारामोक्खणिहेण व मेहाण गलन्ति अस्सूइ॥८॥
(सप्तशत्याम्)
इति वर्षापद्धतिः॥
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*
१८७. अथ शरत्पद्धतिः।
सञ्जहार शरत्कालः कदम्बकुसुमश्रियः।
प्रेयोवियोगिनीनां च निःशेषाः सुखसम्पदः॥१॥
(उद्भटस्य)
अपीतक्षीबकादम्बमसम्मृष्टामलाम्बरम्।
अप्रसादितसूक्ष्माम्बु जगदासीन्मनोहरम्॥२॥
ज्योत्स्नाम्बुनेन्दुकुम्भेन ताराकुसुमशारितम्।
क्रमशो रात्रिकन्याभिर्व्योमोद्यानमसिच्यत॥३॥
मयूरा मौनमातस्थुः परित्यक्तमदा वने।
असारतां परिज्ञाय संसारस्येव योगिनः॥४॥
सर्वत्रातिप्रसन्नानि सलिलानि तथाभवन्।
ज्ञाते सर्वगते विष्णौ मनांसीव सुमेधसाम्॥५॥
अवापुस्तापमत्यर्थं शफर्यः पल्वलोदके।
पुत्रक्षेत्रादिसक्तेन ममत्वेन यथा गृही॥६॥
शनकैः शनकैस्तीरं तत्यजुश्च जलाशयाः।
ममत्वं क्षेत्रपुत्रादिरूढमुच्चैर्यथा बुधः॥७॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
स्नपिताः प्रावृषापूर्वं दिशः परिदधुस्ततः।
शरदोपहृतं सूक्ष्ममम्बरं हंसलक्षणम्॥८॥
(सकलविद्याधरचक्रवर्तिनः)
शाखासु सप्तच्छदपादपानां प्रभासु तारार्कनिशाकराणाम्।
लीलासु चैवोत्तमवारणानां श्रियं विभज्याद्य शरत् प्रवृत्ता॥९॥
(श्रीरामायणे)
अह मणहरचन्दमुही बन्धुज्जीवाहरा कुवलअच्छी।
विअसिअपङ्कअहत्था विअ प्पवुत्ता सरअलच्छी॥१०॥17
(गाथाकोशे )
*अहिणवचन्दालोआ उद्देसासारदीसमाणजललवा।
णिम्माअमज्जणसुहा दरवसुआअच्छविं वहन्ति व दिअहा॥११॥
सोहइविसुद्धकिरणो गअणसमुद्दम्मि रअणिवेलालग्गो।
तारामुत्तावअरो फुडविहडिअमेहसिप्पिसंपुडमुक्को॥१२॥
पज्जत्तसलिलथोए दूरालोक्कन्तणिम्मले गअणअले।
अच्चासण्णंव ठिअं विमुक्कपरभाअपाअडं ससिबिम्बम्॥१३॥
चन्दाअवधवलाओ पुरन्तदिअहरअणन्तरिअरूवाओ।
सोम्मे सरअस्स उरे मुत्तावलिबिम्भमं वहन्ति णिसाओ॥१४॥
(सेतौ)
सरए महद्धदाणं अन्ते सिसिराइंवाहिरुह्णाइं।
जाआइ कुविअसज्जणहिअअसरिच्छाइ सलिलाइ॥१५॥
(सप्तशत्याम्)
विमलमिअङ्काहरणो केअइदलधूलिधूसरसरीरो।
पमहाहि णेव्वबिदिसइ उद्दीविअवम्महो सरओ॥१६॥
उरसि णिवेसिअणलिणीदलाआ तणुईओ बद्धवेणीओ।
सरआ दइआ जाआबाअसदलअस्स विरहम्मि॥१७॥
(गाथाकोशे)
इति शरत्पद्धतिः॥
*अभिनवचन्द्रालोका उद्देशासारदृश्यमानजललवाः।
निर्मितमज्जनसुखा दरशुष्कच्छविं वहन्तीव दिवसाः॥
शोभते विशुद्धकिरणो गगनसमुद्रे रजनिवेलालग्नः।
तारामुक्ताप्रकरःस्फुटविघटित मेघशुक्तिसम्पुटमुक्तः॥
पर्याप्तसलिलधौते दूरालोक्यमाननिमले गगनतले।
अत्यासन्नमिव स्थितं विमुक्तपरभागप्रकटं शशिबिम्बम्॥
चन्द्रातपधवलाः स्फुरद्दिवसरत्नान्तरितरूपाः।
सौम्ये शरद उरसि मुक्तावलिविभ्रमं वहन्ति निशाः॥
शरदिमहाहूदानामन्तः शिशिराणि बाहरुणानि।
जातानि कुपितसज्जनहृदयसदृक्षाणिसलिलानि॥
१८८. अथ हेमन्तपद्धतिः ।
नीहारपरूपो लोकः पृथिवी सस्यमालिनी।
जलान्यनुपभोग्यानि सुभगो हव्यवाहनः॥१॥
अत्यन्तसुखसञ्चारामध्याह्ने स्पर्शतः सुखाः।
दिवसाः सुभगादित्याश्छायाः सलिलदुर्भगाः॥२॥
एते हि समुपासीना विहगा जलचारिणः।
न विगाहन्ति सलिलमप्रगल्भा इवाहवम्॥३॥
सेवमाने दिशं सूर्ये भृशमन्तकसेविताम्।
विहीनतिलकेव स्त्री नोत्तरा दिक् प्रकाशते॥४॥
खर्जूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः।
शोभन्ते किञ्चिदालम्बाः शालयः कनकप्रभाः॥५॥
(श्रीरामायणे)
अवणको सन्तापं हेमन्तो सज्जणं व्व अल्लिअइ (दु?)।
दुज्जणवअणेण व्वताविआण लोआण साएण॥६॥
(गाथाकोशे)
इति हेमन्तपद्धतिः॥
-
*
१८९. अथास्तमयपद्धतिः।
अभिनववधूरोषस्वादुः करीषतनूनपा-
दसरलजनाश्लेषक्रूरम्तुषारसमीरणः।
गलितविभवस्याज्ञेवाद्य द्युतिर्मसृणा रवे-
र्विरहिवनितावक्त्रौपम्यं विभर्ति निशाकरः॥१॥
पद्मकान्तिमरुणत्रिभागयोः सङ्गमय्य तव नेत्रयोरिव।
संक्षये जगदिव प्रजेश्वरः संहरत्यहरसावर्हातिः॥२॥
सोऽयमानतशिरोधरैर्हयैः कर्णचामरविघट्टितेक्षणैः।
अस्तमेति युगभुग्नकेसरैः संनिधान दिवसंमहोदधौ॥३॥
दूरमग्नपरिमेयरश्मिना वारुणी दिगरुणेन भानुना।
भाति केसरवतेव मण्डिता बन्धुजीवतिलकेन कन्यका॥४॥
एषवृक्षशिखरे कृतास्पदो जातरूपरसगौरमण्डलः।
हीयमानमहरत्ययातपं पीवरोरु! पिबतीव बर्हिणः॥५॥
खं प्रसुप्तमिव संस्थिते रवौ तेजसो महत ईदृशी गतिः।
तत् प्रकाशयति यावदुत्थितं मीलनाय खलु तावतश्च्युतम्॥६॥
(एते कालिदासस्य)
ओलुग्गपरिस्साणज्झिज्जं तपसारिआ अवणिराआणम्।
आआमिज्जीति णवजाअन्तलिअत्तणं दुच्छाआणम्॥७॥
(गाथाकोशे )
इत्यस्तमयपद्धतिः॥
-
*
१९०. अथ सन्ध्यापद्धतिः।
अनुरागवती सन्ध्या दिवसस्तत्पुरःसरः।
अहो ! दैवगतिश्चित्रा तथापि न समागमः॥१॥
सन्ध्ययाप्यनुपदं रवेःपदं धर्म्यमस्तशिखरे समर्पितम्।
प्राक् तथेयमुदये पुरस्कृता नानुयास्यति कथं तमापदि॥२॥
सान्ध्यमस्तमितशेषमातपं रक्तरेखमपरा बिभर्ति दिक्।
साम्परायवसुधा सशोणितं मण्डलाग्रमिव तिर्यगुज्झितम्॥३॥
(कालिदासस्य)
सन्ध्या निशावासरयोर्वभासे विभक्तयोरिन्दुदिवाकराभ्याम्।
विश्लेषशङ्काचकितेन धात्रा सन्दंशदत्ता जतुवर्तिकेव॥४॥
(वीरेश्वरस्य)
अत्थसिहरम्मि दीसइ मेरुअडुग्गुठ्ठकणअकद्दमकअम्बो।
चलमाणतुलिअरविरहपलिअङ्ढिअथअबढंबसज्झाराओ॥५॥
सञ्झअवमुज्झन्तं जलिअपसम्मन्त उअवहठ्ठाणणिणम्।
दूरत्थम्मिअदिणअरं जाअं संवत्थसरिसरूवं गअणम्॥६॥
(सतौ)
इति सन्ध्यापद्धतिः॥
-
*
१९१. अथ तमःपद्धतिः।
लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभः।
असत्पुरुषसेवेव दृष्टिर्निष्फलतां गता॥१॥
(दण्डिनः)
यामिनीदिवससन्धिसम्भवे तेजसि व्यवहिते सुमेरुणा।
एतदन्धतमसं निरङ्कुशं दिक्षु दीर्घनयने! विजृम्भते॥२॥
नोर्ध्वमीक्षणगतिर्नचाप्यधो नाभितो न च पुरो न पृष्ठतः।
लोक एष तिमिरौघवेष्टितो गर्भवास इव वर्त्तते निशि॥३॥
शुद्धमाविलमवस्थितं चलं वक्रमार्जवगुणायितं च यत्।
सर्वमेव तमसा समीकृतं धिङ्भहत्त्वमसतां हतान्तरम्॥४॥
(कालिदासस्य)
नाभीदघ्नपुराणपङ्कबहलाभोगेव विश्वम्भरा
नीलाद्वैतमयीं विभर्त्ति विकृर्ति भावेषु रूपान्तरम्।
तत्तद्ग्राह्यमपोह्य पञ्चकरणी मूकत्वमापद्यते
यत् सत्यं न तु खण्डताड्यमधुना कल्पेत कृत्स्नं नभः॥५॥
(आश्चर्यराघवे)
बहइ व महिअजलभरिओणोलेइ व पच्छओ धरेह व पुरओ।
पेल्लेइव पासगओगरुआइ व उवरि सण्ठिओ तमणिवहो॥६॥
(सेतौ)
इति तमःपद्धतिः॥
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*
१९२. अथ चन्द्रोदयपद्धतिः।
उदयतटान्तरितमियं प्राची सूचयति दिङ् निशानाथम्।
परिपाण्डुना मुखेन प्रियमिवहृदयस्थितं रमणी॥१॥
कृष्टं दिवा भानुमतस्तुरङ्गैर्नक्तं वनैः कर्दमितं तमोभिः।
बीजैर्विकीर्णैरिव चन्द्रिकायां तारागणैर्व्योमतलं विरेजे॥२॥
(जगदेकवीरचरिते)
नूनमुन्नमति यज्वनां पतिः शार्वरस्य तमसो निषिद्धये।
पुण्डरीकमुखि! दिङ्मुखं हरेः केतकैरिव रजोभिरावृतम्॥३॥
रुद्धनिर्गमनमादिनक्षयात् पूर्वदृष्टतनुचन्द्रिकास्मितम्।
एतदुद्गिरति रात्रिचोदिता दिग्रहस्यमिव चन्द्रमण्डलम्॥४॥
पश्य भामिनि ! नवेन्दुरश्मिभिः सामिभिन्नतिमिरं नभःस्थलम्।
लक्ष्यते द्विरदभोगदूषितं सम्प्रसीददिव मानसं सरः॥५॥
रक्तभावमपहाय चन्द्रमा जात एष परिशुद्धमण्डलः।
विक्रिया न खलु कालदोषजा निर्मलप्रकृतिषु स्थिरोदया॥६॥
उन्नतेषु शशिनः प्रभा स्थिता निम्नसंश्रयपरं निशातमः।
नूनमात्मसदृशी प्रकल्पिता वेधसैव गुणदोषयोर्गतिः॥७॥
पश्य पक्वफलिनीफलत्विषा बिम्बलाञ्छितवियत्सरोम्भसा।
विप्रकृष्टविवरं हिमांशुना चक्रवाकमिथुनं विडम्ब्यते॥८॥
(कालिदासस्य)
तो उअअसिहरमिलिअं जाअं उप्पुसिअ तिमिरधवलच्छाअम्।
इअहुत्ताठ्ठिअसुरगअदन्तच्छेअपरिमण्डलं ससिबिंबं॥९॥
तह परिसण्ठिअसेलं वित्थिणदिसं तउज्झिअणइप्पवहम्।
धेत्तुणव उक्खन्ती ससिणा तमसंचअं पुणो वि महिअलम्॥१०॥
बद्दलम्मि तिमिरणिवहे णिव्वालेऊण सच्चविअरूवाओ।
अणुबज्जन्ति ससिअरा घेत्तुं ण चअन्ति पाअवच्छाआओ18 ॥११॥
दीसइविद्दुमअबं सिन्दूराह अगइन्दुरुहच्छाअम्।
मन्दरधाउकलङ्किअवासुइमण्डणलणिअक्कलं ससिबिंबं॥१२॥
(सेतौ)
जाओ सि खन्दणिज्जो जीसासंगेण सुद्धपक्काए।
तुइ सा वि होइ वीआ पढमा उण चन्दका तुज्झम्॥१३॥
घणघडिअलोहपञ्जरबन्धं घेत्तूण करणिहाएहि।
कमकरीतुलपडिक्कओ चन्दो सिहो व्व णिक्कन्तो॥१४॥
सन्तापं विजणन्ति संज्झारुणमण्डणम्मि अङ्कस्स।
रविविम्बत्तिसहमुसं सन्दिसइचक्काअमिहुणेहि॥१५॥
(गाथाकोशे)
इति चन्द्रोदयपद्धतिः॥
-
*
१९३. अथ प्रभातपद्धतिः।
यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरोपधीना-
माविष्कृतोऽरुणपुरस्सर एकतोऽर्कः।
तेजोद्वयस्य युगपद्व्यसनोदयाभ्यां
लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु॥१॥
(कालिदासस्य)
ताव अ अत्थणिअम्बं णवसलिलापुण्णगअपअच्छविकलुसो।
पत्तो अरुणुण्णामि अपासल्लन्तअगणोसरन्तो व्वससी॥२॥
संखोहिअकमलसरो सज्झाअवअंवधाउकद्दमिअमुहो।
ठाणप्पिडिओ व्वगओ रत्तिंभमिऊण पडिणिउत्तो दिणहो19॥३॥
(सेतौ)
इति प्रभातपद्धतिः॥
-
*
१९४. अथ सम्भोगशृङ्गारपद्धतिः।
किं शीतलैः क्लमविनोदिभिरार्द्रवातान्
सञ्चारयामि नलिनीदलतालवृन्तैः।
अङ्केनिधाय करभोरु! यथासुखं ते
संवाहयामि चरणावुत (पद्म)ताम्रौ॥१॥
(कालिदासस्य)
तेत्थण्णाजे समुहे तरुणीणं पेम्मले हिअए।
पेच्छन्ति दप्पणमिव सन्ततं अप्पणो रूवम्॥२॥
अण्णण्णमहिलापसङ्गंहा देव्वकरे सुअगमदइअस्स।
पुरिसा एकन्तरसा णहु दोसगुणे विआणन्ति॥३॥
तापच्छिअरूसमये महिलाणं विब्भसा विराअन्ति।
जाव ण कुबलअदलसच्छाहाइ मलउलन्ति णअणाइ॥४॥
अग्गे पुलअं अदरं सवेविरं जं पिभअं ससिकारम्।
सव्वंसिसिरेण कअंजं काअव्वं पिअअमेण॥५॥
कल्लव्विअखरहिअओ पवसिहिइं पिओ त्ति सुव्वइ जणादो।
तह वड्ढभअवदिणिसे जह से कल्लिचिण होइ॥६॥
णअणाइ सामलेई णेलाविअमहुअरमन्ददाराइ।
ईस ण हरन्ति हिअभं गेआ इव कण्डलग्गाइ॥७॥
(गाथाकोशे)
इति सम्भोगशृङ्गारपद्धतिः॥
-
*
१९५. अथ विप्रलम्भशृङ्गारपद्धतिः।
गच्छ गच्छसि चेत् कान्त! पन्थानः सन्तु ते शिवाः।
ममापि जन्म तत्रैव भूयाद् यत्र गतो भवान्॥१॥
(दण्डिनः)
हस्तमाच्छिद्य निर्यासि बलादिति किमद्भुतम्।
हृदयाद् यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते॥२॥
अदृष्टेदर्शनोत्कण्ठा दृष्टे विश्लेषभीरुता।
नादृष्टेन न दृष्टेन भवता विद्यते सुखम्॥३॥
(सरस्वतीकण्ठाभरणे)
हारोऽपि नार्पितः कण्ठे स्पर्शसंरोधभीरुणा।
आवयोरन्तरे जाताः पर्वताः सरितो द्रुमाः॥४॥
(उदात्तराघवे)
वह्वेतत् कामयानस्य शक्यमेकेन जीवितुम्।
बदइंसा च वामोरुरेकां धरणिमाश्रितौ॥५॥
वाहि बात! यतः कान्ता तां स्पृष्ट्वा मामपि स्पृश।
त्वयि मे गात्रसंस्पर्शश्चन्द्रे दृष्टिसमागमः॥६॥
(श्रीरामायणे)
दह्यमानेऽपि हृदये मृगाक्ष्या मन्मथाग्निना।
स्नेहस्तथैव यत्तस्थौ तदाश्चर्यमिवाभवत्॥७॥
मूढाः संयोगमिच्छन्ति वियोगस्तु मयेष्यते।
एकैव सङ्गमे बालावियोगे तन्मयं जगत्॥८॥
(शृङ्गारप्रकाशे)
गच्छति पुरः शरीरं धावति पश्चादसंस्तुतं चेतः।
चीनांशुकमिवकेतोः प्रतिवातं नीयमानस्य॥९॥
(कालिदासस्य)
सङ्गविरहविकल्पे वरमिह विरहो न सङ्गमस्तस्याः।
सङ्गेचैव तथैका त्रिभुवनमपि तन्मयं विरहे॥१०॥
बाणस्यैकस्यामिषीकृत्य रक्षो
मारीचाख्यं संनिवृत्यानुजेन।
सीताशुन्यां पश्यतः पर्णशाला-
मन्तर्वृत्तं किं कथा राघवस्य॥११॥
अङ्गुलीकिसलयाग्रतर्जनं भ्रूविभङ्गकुटिलं च वीक्षितम्।
मेखलाभिरसकृच्च बन्धनं वञ्चयन् प्रणयिनीरवाप सः॥१२॥
(कालिदासस्य)
प्रसीदेतिब्रूयामिदमसति दोषे न घटते
करिष्याम्येवं नो पुनरिति भवेदभ्युपगमः।
न मे दोषोऽस्तीति त्वमिदमपि हि ज्ञास्यसि मृषा
किमेतस्मिन् वक्तुं क्षममिति न वेद्मि प्रियतमे!॥१३॥
(वल्लभदेवस्य)
सा बाला वयमप्रगल्भवचसः सा स्त्री वयंकातराः
सा पीनोन्नतिमत्पयोधरभरं धत्ते सखेदा वयम्।
साक्रान्ता जघनस्थलेन गुरुणा गन्तुं न शक्ता वयं
दोषैरन्यजनाश्रितैरपटवो जाताः स्म इत्यद्भुतम्॥१४॥
(अमरुकस्थ)
*समसुहदुक्खपरिवड्ढिआण कालेण रूढपेम्माणम्।
मिहुणाणँ मरइ जं तं खु जिअइ इअरं मुअं होइ॥१५॥
जत्थाणउच्छं गिरओ जत्थणईसाविसूरणं माणम्।
सब्भावचादुअं जणात्थिणहो तहिण्णात्थि॥१६॥
+अद्दंसणेण पेम्मं अवेइअदिदंसणेण वि अवेइ।
पिसुणजणजम्पिएण पि अवेइ एमेअ वि अवेइ॥१७॥
महिलासहस्सभरिए तुह हिअए सुहअ! सा अमाअन्ती।
दिअहं अणण्णकम्मा अङ्गं तणुअं पि तणुएइ॥१८॥
अच्चउ ताव मणहरं पिआए सुहदंसणं अइमहग्घम्।
तग्गामछेत्तसिमा बि झत्तिदिट्ठा सुहावेइ॥१९॥
जीवं अच्छसुधीअंफरीसो अंगे सुजीविअंकण्टोहि।
हिअअं हिअएण ठिअं समं विओअन्ति किन्धदेव्वेण॥
++ देव्वायत्तम्मि फले किं कीरइ एत्तिअं पुणो भणिमो।
कङ्केल्लिपल्लवाणं ण पल्लवा होन्ति सारिच्छा॥२१॥
(सप्तशत्याम्)
-
*
*समसुखदुःखपरिवर्धितयोः कालेन रूढप्रेम्णोः।
मिथुनयोर्म्नियते यत्तत् खलुजीवति इतरन्मृतं भवति॥
- अदर्शनेन प्रेमापैस्यतिदर्शनेनाप्यपैति।
पिशुनजनजल्पितेनाप्यपैत्येवमेवाप्यपैति॥
महिलासहस्रभृते तव हृदये सुभग।सा अमान्ती।
दिवसमनन्यकर्मा अङ्गं तनुकमपि तनूकरोति॥
अस्तु तावन्मनोहरं प्रियाया मुखदर्शनमतिमहार्घम्॥
तद्ग्रामक्षेत्रसीमापि झटिति दृष्टा सुखयति॥
++ दैवायत्ते फलं किं क्रियतामियत् पुनर्भणामः।
कङ्कोल्लिपल्लवानां न पल्लवा भवन्ति सदृशाः॥
किं भरीमो पस्ससुहं कीसो भरिमो मुहं पसणच्छम्।
किं व विलासे हरिमो किं किं भरिमो ण सम्मरीमो॥
लइ मेरुसिहरं विसइसिहिंसाअरस्स मोवअइ।
लहइमहीअपिअन्तं अणुराअपख्वसं हिअअम्॥२३॥
*कहँ सा णिष्वणिज्जइ जीअ जहा लोइअम्मि अंगम्मि।
दिट्ठी दुब्बलगाई व्व पङ्कपडिआण उत्तरइ॥२४॥
(गाथाकोशे)
इति विप्रलम्भशृङ्गारपद्धतिः॥
-
*
कामपर्व सम्पूर्णम्॥
-
*
१९६. अथ विषयनिन्दापद्धतिः।
रागो नाम मनःशल्यं गुणद्रविणतस्करः।
राहुर्विद्याशशाङ्कस्य तपोवनहुताशनः॥१॥
(व्यासशतके)
अन्यत्र भीष्मात् गाङ्गेयादन्यत्र च हनूमतः।
हरिणीस्वुरमात्रेण चर्मणा मोहितं जगत्॥२॥
(महाभारते)
विषस्य विषयाणां च दूरमत्यन्तमन्तरम्।
उपभुक्तं विषं हन्ति विषयाः स्मरणादपि॥३॥
(व्यासशतके)
यानि द्रष्टुमशक्यानि वस्तुरूपाणि भागशः।
सन्निवेशविशेषान्धास्तान्येवालिङ्ग्यशेरते॥४॥
(वल्लभस्य)
येषु येषु प्रदेशेषु कायो नित्यं जुगुप्सितः।
तेषु तेषु जनः सक्तो वैराग्यं केन यास्यति॥५॥
स्वार्थसम्प्रतिपत्त्यर्थं पुरुषस्येन्द्रियाणि हि।
तमप्यतीत्य वर्तन्ते कास्था मित्राप्तबन्धुषु॥६॥
-
*
*कथं सा निर्वर्ण्यतां यस्या यथालोकितेऽङ्गे।
दृष्टिर्दुर्बलगौरिव पङ्कपतिता नोत्तरति॥
अलं परिग्रहेणेह दोषवान् हि परिग्रहः।
कृमिहिंकोश्चकारस्तु वध्यते स्वपरिग्रहात्॥७॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
पुत्रदारकुडुम्बेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः।
महापङ्कार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव॥८॥
आशालतावलयितं बद्धमूलं(च ?त्व) विधवा।
को हि तापयितुं शक्तः सुखेन भव(दापद?पादप)म्॥९॥
धनपुत्रकलत्रेषु स्वयमेवार्जितेष्वहो।
अंतिसक्ता विनश्यन्ति क्षुद्राः क्षौद्ररसेष्विव॥१०॥
तरङ्गतरलैरर्थैर्भोगैर्भ्रूभङ्गभङ्गुरैः।
मुहूर्त्तमेघैस्तारुण्यैर्विप्रलब्धो न नाम कः॥११॥
तैलक्षयाद् यथा दीपो निर्वाणमधिगच्छति।
धर्मक्षयात् तथा जन्तोः शरीरं नाशपृच्छति॥१२॥
मूर्छन् विषविपाकेषु विषयेष्वल्पचेतसः।
अपथ्येष्वातुरस्येव नाभिलाषः प्रशाम्यति॥१३॥
जन्मान्तरशताभ्यस्ता विषयेषु मतिर्नृणाम्।
जरद्गौरिव सस्येभ्यो दुःखेन विनिवार्यते॥१४॥
(व्यासस्य)
कोटराग्निर्यथा शेषः समूलं पादपं दहेत्।
धर्मार्थानां तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत्॥१५॥
(महाभारते)
रागो लिङ्गमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु।
कुतः शाङ्वलता तस्य यस्याग्निकोटरे तरोः॥१६॥
(नैष्कर्म्यसिद्धौ)
मनुष्या ह्याढ्यतांप्राप्य राज्यमिच्छन्त्यतःपरम्।
राज्याद् देवत्वमिच्छन्ति देवत्वादिन्द्रतामपि॥१७॥
(महाभारते)
श्रद्धया विप्रलब्धारः प्रिया विप्रियकारिणः।
सुदुस्त्यजास्त्यजन्तोऽपि कामाः कष्टा हि शत्रवः॥१८॥
(भारवेः)
अणुमात्रं यथा शल्यं शरीरे दुःखदायकम्।
तथातिम् + संयुक्तं मनः संसारदायकम्॥१९॥
(महाभारते)
वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां
गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः।
अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते
निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम्॥२०॥
(कालिदासस्य)
भिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवारं
शय्या मही परिजनो निजदेहमात्रम्।
वस्त्रं च जीर्णपटखण्डमयी च कन्था
हा हा तथापि विषया न परित्यजन्ति॥२१॥
क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः
क्षणं वित्तैर्हीनः क्षणमपि च सम्पूर्णविभवः।
जराजीर्णैरङ्गैर्नट इव बली(येषि ?वेष्टि)ततनु-
र्नरः संसाराङ्के विशति यमधानीयवनिकाम्॥२२॥
निवृत्ता भोगेच्छा पुरुषबहुमानोऽपि गलितः
समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः।
शनैर्यष्ट्युत्थानं घनतिमिररूढे च नयने-
ऽप्यहो! धृष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः॥२३॥
(भर्तृहरेः)
अहो ! मोहः पुंसामिह जगति जातिः किल शुभा
जरामृत्युव्याधीनपि जयति या निष्प्रभतया।
परस्माज्जातानां व्यसनशतमेतेऽपि दधति
स्वयं सुत्वातेभ्यो विदिशति सुतान् सा विशसितुम्॥२४॥
(वल्लभदेवस्य)
आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितं
व्यापारैर्यहुभारकार्यगुरूभिःकालो हि न ज्ञायते।
दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्चनोत्पद्यते
पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत्॥२५॥
(भर्तृहरेः)
इति विषयनिन्दापद्धतिः॥
-
*
१९७. अथानित्यपद्धतिः।
अनित्यं ते जगन्नित्ये! वन्दनीयासि मां प्रति।
यां तनोषि प्रयत्नेन वन्दनीयासि मां प्रति ४ ॥१॥
यां करोषि प्रयत्नेन दुःखानामप्ययत्नताम्।
पृथिवी दाह्यते येन मेरुश्चापि विशीर्यते॥२॥
शुष्यते सागरजलं शरीरे तत्र का कथा।
मेघच्छाया खलप्रीतिर्नवसस्यानि योषितः॥३॥
किञ्चित्कालोपभोग्यानि यौवनानि धनानि च।
(पञ्चतन्त्रे)
सर्वशास्त्रप्रमथनी सर्वोपायविनाशनी।
अप्रमत्ताप्रमत्तानां नृणां जागर्त्यनित्यता॥४॥
यया हि पथिकः कश्चिच्छायामाश्रित्य विश्रमेत्।
विश्रम्यच पुनर्गच्छेत् तद्वद् भूतसमागमः॥५॥
अश्रान्तिर्बन्धुतां धत्ते कष्टं नष्टस्य नश्वरः।
स्कन्धेन पङ्गुना पङ्गुर्नहि वर्त्मनि नीयते॥६॥
(बृहत्कथायाम्)
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्॥७॥
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
चक्रवत् परिवर्त्तन्ते दुःखानि च सुखानि च॥८॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मुतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥९॥
यथा फलानां पक्वानां नान्यत्र पतनाद् भयम्।
एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद् भयम्॥१०॥
भूतजीवितमत्यल्पंनिद्रा तस्यार्ध+ + +।
व्याधिशोकजरायासैर्ग्रस्तमर्धं च निष्फलम्॥११॥
(महाभारते)
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च।
युगे युगे व्यतीतानि कस्य ते कस्य वा भवान्॥१२॥
(हर्षचरिते)
यथा भारं दृढस्थूणं जीर्णं भूत्वावसीदति।
तथावसीदन्ति नरा जरामृत्युवशंगताः॥१३॥
अङ्गीकरोति प्रथमं यथाजातमनित्यता।
धात्रीव जननी पश्चात्तदा शोकस्य कः क्रमः॥१४॥
कायः संनिहितापायः सम्पदः पदमापदाम्।
समागमाः सापगमाः सर्वमुत्पाति भङ्गुरम्॥१५॥
स्रवन्ति न निवर्त्तन्ते स्रोतांसि सरितामिव।
आयुरादाय मर्त्यानां रात्र्यहानि पुनः पुनः॥१६॥
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ।
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागमः॥१७॥
धर्मस्यार्थस्य कामस्य यशसो जीवितस्य च।
अतृप्ताः पुरुषा राजन्! याता यास्यन्ति यान्ति च॥१८॥
यस्य स्यान्मृत्यना सख्यं यो वा स्यादजरामरः।
तस्यैतद्युज्यते वक्तुमिदं मे श्वोभविष्यति॥१९॥
संयोगाश्चवियोगाश्च जातानां प्राणिनां ध्रुवाः।
बुदबुदा इव तोयेषु भवन्ति न भवन्ति च॥२०॥
अशाश्वतमिदं सर्वं चिन्त्यमानं हि भारत !।
कदलीसन्निभो लोकः समो ह्यस्य न विद्यते॥२१॥
रात्र्यांरात्र्यांव्यतीतायामायुरल्पतरं यथा।
गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कोविदः॥२२॥
अनित्यं परमं रूपं जीवितं द्रव्यसञ्चयः।
आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येदेषु न पण्डितः॥२३॥
महतो जनसार्थस्य गन्तव्यं प्रति गच्छतः।
एकश्चेत् त्वरितं याति का तत्र परिदेवना॥२४॥
गतं शोचति को नाम यः प्रातः शोच्यते परैः।
छिन्नहस्तो विहस्तस्य कथं बध्नाति कङ्कणम्॥२५॥
(बृहत्कथायाम्)
न तज्जगति पश्यामो विचिन्त्य निखिलं जगत्।
दुष्प्रापं यदयत्नेन लीढकारस्य जिह्वया॥२६॥
(महाभारते)
अद्यैकेप्रातरपरे विततेऽह्नि तथा परे।
यान्ति निःसीम्नि संसारे कः स्थाता ननु शोचति॥२७॥
लम्बमाने यदादित्ये न दत्तं धनमर्थिने।
न स जानाति तद्वित्तंप्रातः कस्य भविष्यति॥२८॥
अश्वत्थचलपत्राग्रलीनतोयकणोपमे।
स्थिराशा जीविते यस्य तत्समो नास्त्यचेतनः॥२९॥
सत्यं मनोरमाः कान्ताः सत्यं रम्या विभूतयः।
किन्तु मत्ताङ्गनापाङ्गभङ्गलोकं हि जीवितम्॥३०॥
दूरस्थमपि भावित्वाद्विनाशं विध्युपस्थितम्।
अयमेव हि नः कालः पूर्वमासीदनागतः॥३१॥
(महाभारते)
मरणं प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधैः।
कणमप्यचतिष्ठते श्वसन् यदि जन्तुर्ननु लाभवानसौ॥३२॥
(कालिदासस्य)
यथार्चिषोऽग्नेःपवनस्य वेगा
मरीचयोऽर्कस्य नदीषु चापः।
गच्छन्ति चायान्ति च सन्ततास्तु
तद्वच्छरीराणि शरीरिणां च॥३३॥
यदा मेरुः श्रीमान् निपतति युगान्ताग्निदलितः
समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरमकरग्राहकलिलाः।
धरा गच्छन्त्यन्तर्धरणिधरजालैरपि धृता
शरीरे का वार्ता करिकलनकर्णाग्रचपले॥३४॥
(भर्तृहरेः)
वधूः श्वश्रूस्थाने व्यवहरति पुत्रः पितृपदे
पदे शून्ये शून्ये प्रणिहितपदार्थान्तरमिति।
नदीस्रोतोन्यायादकलितविवेकक्रममिदं
न च प्रत्यावृत्त्यै+ + + + + +पूर्णमधु च॥३५॥
(चतुर्विपर्यासे)
रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्राव्यं न गेयादिकं
किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकं प्रीतये।
किन्तु भ्रान्तपतङ्गपक्षपवनव्यालोलदीपाङ्कुर-
च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गताः
[॥३६ १/२॥]
(भर्तृहरेः)
इत्यनित्यपद्धतिः॥
-
*
१९८. अथ शोकपद्धतिः।
मानसेनैव दुःखेन शरीरमुपतप्यते।
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम्॥१॥
अदर्शना….पतितःपुनश्चादर्शनं गतः।
न त्व + + + + त्वं तत् कस्मात् कमनुशोचसि॥२॥
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥३॥
न वाच्यमस्ति शोकेन शरीरं चोपशुष्यति।
अमि+ + + + + ति नास्ति शोके सहायता॥४॥
शोको नाशयते धैर्यं शोको नाशयते श्रुतम्।
शोको नाशयते सर्वं नास्ति शोकसमो रिपुः॥५॥
(श्रीरामायणे)
अन्धस्य दर्पणेनेव हितेनेव हतश्रुतेः।
(दुःखाभितप्तः) शोकेन नेक्षते न शृणोति च॥६॥
शोकस्थानसहस्राणि हर्षस्थानशतानि च।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥७॥
(महाभारते)
इति शोकपद्धतिः॥
-
*
१९९. अथ ज्ञानपद्धतिः।
समीपतीर्थस्नानात्तुदू++++++मम्।
ऋषीणां परमं गुह्यमिदं भरतसत्तम!॥१॥
अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैर्विविधैराप्तदक्षिणैः।
न तत् फलमचाप्नोति तीर्थार्थे गमनेन यत्॥२॥
यास्तु लोके महानद्यः सर्वास्त ++++ ताः।
तासाम् प्राक्स्रोतसः श्रेष्ठाः सङ्गमाश्च परस्परम्॥३॥
कावेरीं तां समासाद्य विहतामप्सरोगणैः।
तत्र स्नात्वा नरो राजन्! गोसहस्रफलं लभेत्॥४॥
यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गातोयेऽवतिष्ठति।
तावद्व + + + + + स्वर्गं प्राप्य महीयते॥५॥
श्रुताभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीतावगाहिता।
गङ्गा तारयते नॄणामुभौ वंशौ विशेषतः॥६॥
सेतुं दृष्ट्वासमुद्रस्य भ्रूणहा गुरुतल्पगः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः कृतघ्नो+ + + + + ॥७॥
अश्वमेधसहस्राणां सहस्रं यः समाचरेत्।
नासौ पदमवाप्नोति मद्भक्तैर्यदवाप्यते॥८॥
मां हि पार्थ!व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥९॥
यश्च रूपं परं दिव्यं कूटस्थमचलं ध्रुवम्।
न दृश्यते यथा देवैर्मद्भक्तैर्दृश्यते यथा॥१०॥
मद्भक्तान् शूद्रसामान्यानवमन्यन्ति ये नराः।
नरकेष्ववतिष्ठन्ति वर्षकोटीर्नराधमाः॥११॥
अपि चेत् स दुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः॥१२॥
वृथा जप्तं वृथा दत्तं वृथा चेष्टं वृथा हुतम्।
वृथा सत्यं च तत्तस्य यो न भक्तो मम द्विजः॥१३॥
इष्टं दत्तं +++ श्च +++ नियमाश्च ये।
सर्वमेतद्विनाशान्तं ज्ञानस्यान्तो न विद्यते॥१४॥
प्रज्ञाप्रासादमारुह्यत्वं शोच्यः शोचते जनान्।
जगतीस्थानिवाद्रिस्थः प्रज्ञया परिपश्यति॥१५॥
ज्ञानेन तु++++++ नाशितमात्मना।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्॥१६॥
तमःपरिगतं वेश्म यथा दीपेन दृश्यते।
तथा बुद्धिप्रदीपेन शक्य आत्मा निरीक्षितुम्॥१७॥
यथैधांसि समिद्धोऽ(ग्निर्भिस्मसात्)कुरुते तथा।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन!॥१८॥
(महाभारते)
इति ज्ञानपद्धतिः॥
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*
२००. अथ वैराग्यपद्धतिः।
सुखं वा यदि वा दुःखं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियम्।
प्राप्तंप्राप्तमुपासीत हृदयेनापि दूयता॥१॥
व्द्यक्षरस्तु भवेन्मृत्यु(स्त्र्यक्षरं ब्र)ह्म शाश्वतम्।
ममेति व्द्यक्षरो मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम्॥२॥
(महाभारते)
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥३॥
सर्वत्र सम्पदस्तस्य सन्तुष्टं यस्य मानसम्।
उपानद्गूढपादस्य ननु चर्मास्तृतैव भूः॥४॥
असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः।
अन्तो नास्ति विवित्सायाः सन्तोषः परमं सुखम्॥५॥
(महाभारते)
यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान् मनसः प्रियान्।
तावतोऽस्य निस्वन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः॥६॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
नालमेकस्य पर्याप्तमिति पश्यन्नमुह्यति॥७॥
न योजनशतं दूरं मुह्यमानस्य तृष्णया।
सन्तुष्टस्य करप्राप्तेऽप्यर्थे भवति नादरः॥८॥
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत!।
अव्यक्तनिधनान्येव का तत्र परिदेवना॥९॥
किं धनेन करिष्यन्ति देहिनो भङ्गुराश्रयाः।
यदर्थं धनमिच्छन्ति तच्छरीरमशाश्वतम्॥१०॥
पश्यन्नपि प्रस्खलसि शृण्वन्नपि न बुध्यसे।
शठैस्त्वमिन्द्रियैरेभिर्बुद्धिमानपि वञ्च्यसे॥११॥
लब्धास्त्यक्ताश्च संसारे यावन्तो बान्धवास्त्वया।
न सन्ति खलु तावत्यो गङ्गायामपि बालुकाः॥१२॥
नन्दन्त्युदित आदित्ये नन्दन्त्यस्तमिते रवौ।
आत्मनो नावबुध्यन्ते मनुष्या जीवितक्षयम्॥१३॥
अनिर्वेदः श्रियो मूलं दुःखनाशे सुखस्य च।
महान् भवति निर्विण्णः सुखं चात्यन्तमश्नुते॥१४॥
(महाभारते)
देहेन्द्रियान्तःशल्यानामार्द्राणां मर्म(दे ? दा) हिन्मम्।
गाढशोकप्रहाराणामचिन्तैव महौषधम्॥१५॥
अनन्तं मत मे शुक्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किञ्चन दह्यते॥१६॥
(महाभारते)
यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः।
किं जातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम्॥१७॥
(भर्तृहरेः)
एतावदेव पर्याप्तं भिक्षोरेकान्तशायिनः।
न तस्य म्रियते कश्चिन्प्रियते सोऽस्य कस्यचित्॥१८॥
मांसासृक्पूयविण्मूत्रस्नायुमज्जास्थिसंहतौ।
देहे चेत् प्रीतिमान् मूढो भविता नरकेऽपि सः॥१९॥
चतुर्भिरुह्यते यत्तत् सर्वशक्त्या शरीरकम्।
तूलायते तदेवाहंधियाघातात्मचेतसाम्॥२०॥
अतिक्रान्तमतिक्रान्तमनागतमनागतम्।
वर्तमानसुखभ्रान्तिर्नवा भोगिदरिद्रयोः॥२१॥
शरन्मृगः श्रृङ्गमिव त्वचं वृद्ध इवोरगः।
पक्षी वोन्मथितं फालं बन्धमुज्झति तत्त्ववित्॥१२॥
(बृहत्कथायाम्)
जायते क्षणदृष्टेषु स्नेहो दुःखाय देहिनाम्।
ममायमिति मुग्धानां न स तेषां न तस्य ते॥२३॥
प्रयाति चपलो लोकः स्त्रवत्यायुररक्षितम्।
इति वस्तुस्वभावेऽस्मिन् कोऽनुशोचति तत्त्वधीः॥२४॥
वा(श्यै)कं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः।
नाकल्याणं न कल्याणं ध्यायेदुभयतः सुखम्॥१५॥
(मनोः)
यदभावि न तद् भावि यद्भावि न तदन्यथा।
इति चिन्ताविषघ्नोऽयमगदः किं न पीयते॥२६॥
सन्ति शाकान्यरण्येषु नदीषु विमलोदकम्।
चन्द्रः सामान्यदीपोऽयं विभवैः किं प्रयोजनम्॥२७॥
(महाभारते)
प्रतिगृहमदैन्यसुलभे ! निरीहमातर्द्ररिद्रकल्पलते!।
कुनृपतिनरकोत्तारिणि। भगवति !भिक्षे ! नमस्तुभ्यम्॥२८॥
धनिषु मुधा किमु धावत तूष्णीमाध्वं न साध्विदं चरितम्।
विधिलिखिताक्षरमफलं फलति कपालं न भूपालः॥२९॥
(पञ्चतन्त्रे)
शय्या शैलतलं गृहं गिरिगुहा वासस्तरूणां त्वचः
सारङ्गाः सुहृदो न तु(?) क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कोमलैः।
येषां नैर्झरमम्बुपानमुचितं रत्यै च विद्याङ्गना
मन्यन्ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवाञ्जलिः॥३०॥
(भर्तृहरेः)
नाथे नः पुरुषोत्तमे त्रिजगतामेकाधिपे चेतसा
सेव्ये स्वस्य पदस्य दातरि सुरे नारायणे तिष्ठति।
यं कञ्चित् पुरुषाधमं कतिपयग्रामेशमल्पार्थदं
सेवायै मृगयामहे नरमहो ! मूका वराका वयम्॥३१॥
(यादवप्रकाशे)
- ढं रुन्धि दृढं कवाटयुगलं यद्वद् गृहीत्वा गले
द्राङ्निष्कासय नास्ति न क्षितिरुह! त्वं देव! सुस्थो भव।
अस्माकं पुनरप्रदाय सुलभा निष्कारणाविष्कृत-
क्रोधान्धप्रतिहारपालपिहितद्वारा न वाराणसी॥३२॥
आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला
रागग्राहवती वितर्कहृदया धैर्यद्रुमध्वंसिनी।
मोहावर्त्तसुदुस्तरातिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी
तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः॥३३॥
(भर्तृहरेः)
इह कखण्णज्जरंई अवेसपि विचित्तसंसारे।
जरमरणवाहिविअरे जणविओअदुक्खञ्जइण होत्ति॥३४॥
(गाथाकोशे)
इति वैराग्यपद्धतिः॥
-
*
२०१. अथ मोक्षपद्धतिः।
पञ्चभूतात्मके देहे देही मोहतमोवृतः।
अहमेतदिति ह्युच्चैः कुरुते कुमतिर्मतिम्॥१॥
(श्रीविष्णुपुराणे)
पञ्चभूतात्मकैर्भोगैःपञ्चभूतात्मकं वपुः।
आप्याय्यते यदि ततः पुंसो भोगोऽत्र किंकृतः॥२॥
(महाभारते)
मातर्मेदिनि! तात! मारुत! सखे! तेजः! सुबन्धो! जल!
भ्रातर्व्योम! निबद्ध एष भवतामन्त्यः प्रणामाञ्जलिः।
युष्मत्सङ्गवशोपजातसुकृतस्फारस्फुरन्निर्मल-
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परे ब्रह्मणि॥३॥
(भर्तृहरेः)
इति मोक्षपद्धतिः॥
-
*
मोक्षपर्व समाप्तम्॥
कालिङ्गराजकृता सुभाषितरत्नमालासमाप्ता॥
-
*
२०२. अथ स्तोत्रपद्धतिः।
अपराधसहस्रभाजनं
पतितं भीमभवार्णवोदरे।
अगतिं शरणागतं हरे!
कृपया केवलमात्मसात्कुरु॥१॥
निमज्जतोऽनन्तमहार्णवाम्भ-
श्चिराय मे कूलमिवासि लब्धम्।
त्वयापि लब्धं भगवन्निदानी-
मनुत्तमं पात्रमिदं दयायाः॥२॥
अभूतपूर्वं मम भावि किं वा
सर्वं सहे मे सहजं च दुःखम्।
किन्तु त्वदग्रेशरणागतान्तां
पराभवो नाथ! न तेऽनुरूपम्॥३॥
इति स्तोत्रपद्धतिः॥
-
*
इति श्रीमहाराजाधिराजकुलशेखरासाधारणमन्त्रिणा निखिलदिक्षु
विश्रुतकालिङ्गराजपट्टबन्धेन नित्योदयप्रतापनिर्जितसूर्येन
सूर्येण सङ्गृहीते कुलशेखरसूक्तिरत्नहारे
मोक्षपर्व सम्पूर्णम्॥
-
*
शुभं भूयात्।
-
*
श्लोकानुक्रमणी ।
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“अभिनवराजारब्धा च्युतस्खलितेषु विघटितपरिस्थापिता। मैत्रीव प्रमुखरसिका निर्वोढुं भवति दुष्करं काव्यकथा॥” ↩︎
-
“नमतावर्धिततुङ्गमविसारित विस्तृत मनवनतगभीरम्। अप्रलघुकपरिश्लक्ष्णमज्ञातपरमार्थप्रकटं मधुमथनम्॥” ↩︎
-
“प्रणमत प्रणय प्रकुपितगौरीचरणाप्रलमप्रतिविम्बम्। दशसु नखदर्पणेषु एकादशतनुधरं रुद्रम् ॥” ↩︎
-
“दत्त्वा जलमपि जलदो हि वल्लभो भवति सकललोकस्य । नित्यं प्रसारितकरः करोति मित्रोऽपि सन्तापम् ॥” ↩︎
-
“न गुणैर्ह्रियते जनो ह्रियते यो येन भावितस्तेन । नेच्छन्ति पुलिन्दा मौक्तिकानि गुब्जा गृह्णन्ति ॥” ↩︎
-
“* विषमेऽप्यविषण्णो धारयति धुरं धुरन्धर एव केवलम् । किं दिनकरोपरागे दिनस्य भवत्यवलम्बनं शशिबिम्बम्”
↩︎(गाथासप्तशत्याम्) -
" चिरकालकाङ्क्षित नां धुतापमाननिगलोन्नमन्मुखानाम्। एष केवलमवसरोऽदृसशसमशीर्षबन्धनविमोक्षाणाम्"
↩︎(सेतौ) -
" पृथिव्या भविष्यति पतिर्बहुपुरुषविशेषचञ्चला राजश्रीः। कथं तावन्ममैवेदं निस्सामान्यमुपस्थितं वैधव्यम्" ↩︎
-
“येन विना न जीव्यतेऽनुनीयते स कृतापराधोऽपि। प्रप्तेऽपि नगरदाहे भण कस्य न वल्लभोऽमिः” ↩︎
-
“बहुधनऋद्धिनिशागमम दनिद्रामुषितचेतनो लोकः। अवशागतविषम दशादिनारम्भे प्रतिबुद्धः”
↩︎(चिन्तामणौ) -
" भवन्त्यपि निष्फलैव धनऋद्धिर्भवति कृपणपुरुषस्य । ग्रीष्मातपसन्तश्वस्य निजकच्छायेव पथिकस्य " ↩︎
-
" वान्धवस्नेहाभ्यधिको भवति परोऽपि प्रणयेन सेव्यमानः। किं पुनः कृतोपकारो निष्कारणस्त्रिग्धबान्धवो दाशरथिः" ↩︎
-
“का विषमा दैवगतिः किं लब्धव्यं जनो गुणग्राही। किं सौख्यंसुकलत्रं किं दुःखं यः खको लोकः॥” ↩︎
-
“सोऽर्थो यो हस्ते तन्मित्रं यन्निरन्तरं व्यसने। तद्रूपं यत्र गुणास्तद्विज्ञानं यत्र धर्मः॥” ↩︎
-
“धैर्यंहरति विषादो विनयं यौवनमदोऽनङ्गो लज्जाम्। एकाम्तगृहीतपक्षःकिं शिष्यतां यस्स्थापयति वयःपरिणामः॥” ↩︎
-
“विगलितधना अपि धीरा जायन्ते महाधना इव चरितैः। इतरे सन्तोऽपि धनिनो विगलितविभवा इव दृश्यन्ते॥” ↩︎
-
“अथ मनोहरचन्द्रमुखी बन्धुजीवाधरा। कुवलाक्षी। विकसितपङ्कजहस्तेव प्रवृत्ता शरल्लक्ष्मीः॥” ↩︎
-
“बहले तिमिरनिवहे निर्वाल्यसत्यापितरूपाः। अनुबध्नन्ति शशिकरा ग्रहीतुं न शक्नुवन्ति पादपच्छायाः॥” ↩︎
-
“संक्षोभितकमलसराः सन्ध्यातपाताम्रधातुकर्दभितमुखः। स्थानस्फिटित इव गजो रात्रिं भ्रमित्वा प्रतिनिवृत्तो दिवसः॥” ↩︎