बालकालिदासः

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बालसखा पुस्तकमाला—पुस्तक २४वीं

बाल–कालिदास

या

कालिदास की कहावतें

लेखक

पण्डित रूपनारायण पाण्डैये

प्रकाशक

इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग

१९२६

संशोधित संस्करण] सर्वाधिकार रक्षित

Published by

K Mittra,

at The Indian Press, Ltd,
Allahabad

Printed by

A Bose,

at The Indian Press, Ltd,
Benares-Branch

विषय-सूची
कालिदास का परिचय
वक्तव्य
रघुवश
कुमारसम्भव
मेघदूत
मालविकाग्निमित्र
विक्रमोर्वशी
अभिज्ञान-शाकुन्तल

कालिदास का परिचय

कविकुल-गुरु कालिदास कौन थे? कहाँ के रहनेवालेथे? कब हुए? इन सब बातों का ठीक निश्चय करने केलिए कालिदास के किसी ग्रन्थ मे कुछ सामान नहीं। इतनेबडे महाकवि का स्वार्थत्याग तो देखिए, उसने कहीं पर अपनापरिचय या सन्-संवत् कुछ नहीं दिया। कालिदास सचमुचस्वाभाविक महाकवि थे। उनके बनाये अभिज्ञान-शाकुन्तलनाटक का अँगरेज़ी मे जो अनुवाद हुआ उस अँगरेज़ी अनुवाद के भी जर्मन भाषा मे किये गये अनुवाद को पढकरजर्मनी के कवि ‘गेटे’ ने कहा था कि “अगर कोई वसन्त के’फूल और शरद ऋतु के फल पाने की अभिलाषा करे, अगरकोई मन को अपनी ओर खीचनेवाली, अर्थात् वशीकरणकी, वस्तु देखना चाहे, अगर कोई प्रसन्नता और प्रफुल्लतासे मिलना चाहे, अगर कोई स्वर्ग और पृथ्वी को एक जगहदेखने की इच्छा रक्खे, तो, वह कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल को पढे।” कालिदास वास्तव में सरस्वती के अनन्यउपासक थे। संस्कृत भाषा के देवभाषा नाम को यथार्थ बनानेवाले कवियों मे कालिदास का नाम सबसे पहले नहीं तो वाल्मीकि और व्यास के बाद हो लिया जा सकता है।कालिदास के बनाये हुए इतने ग्रन्थ प्रचलित हैं—(१) रघुवंश,(२) मेघदूत, (३) कुमारसम्भव, (४) विक्रमोर्वशी, (५) मालविकाग्निमित्र, (६) अभिज्ञान-शाकुन्तल, (७) श्रुतबोध, (८) ऋतुसंहार, (६) नलोदय। इनके सिवा ज्योतिर्विदाभरण, स्मृतिचन्द्रिका आदि और भी कई ग्रन्थ कालिदास के नाम से प्रचलित हैं। किन्तु उनको बहुत लोग कालिदासकृत नही मानते।

कालिदास की कविता में यह विशेषता है कि वह सरसऔर सरल ऐसी होती है कि सुनते ही समझ में आ जातीहै। कालिदास की उपमा बड़ी अनूठी होती है। चाहेजिधर से—चाहे जिस तरह से देखिए, वह चुभ जाती है।कालिदास की कविता को जो कोई पढ़ेगा उसे कहना हीपड़ेगा कि शेक्सपियर के सिवा कालिदास के पास आसनपानेवाला और कवि पृथ्वी पर नहीं हुआ। शेक्सपियरमनुष्य के हृदय के भावों को प्रकट करने में अगर बढ़ा-चढ़है तो कालिदास भी वर्णन करने में उससे बहुत बढ़ कर हैं।कालिदास की कविता मे भाव तो अच्छे होते ही हैं लेकिनभाषा भी ऐसी होती है कि कानों मे अमृत की वर्षा करतीहै। उनकी उपमाएँ और वर्णन तो चमत्कार से भरे पड़े हैंही, लेकिन उनमे बहुत सी विज्ञान (साइंस) की बातें भीउनकी बढ़ी चढ़ी जानकारी की साक्षी दे रही हैं। गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravitation), चीज़ों के कड़े होने काकारण, जलकण के संयोग से इन्द्रधनुष कीउत्पत्ति ; धुआँ,पानी, हवा और गर्मी के मेल से बादल काबनना; चन्द्रमाऔर सूर्य्य के आकर्षण से समुद्र में ज्वार-भाटा का आना,सूर्य की किरणों से उत्पन्न चन्द्रमा का प्रकाश, पृथ्वी कीपरछाईं पड़ने से सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का होना, पृथ्वीकी परछाई का चन्द्रमा मे कलक-कालिमा-रूप से दिखाईपड़ना, गर्भ की दशा मे माता-पिता जो सोचते-विचारते याकरते हैं वैसा हो पुत्र होता है—इत्यादि विज्ञान की बातेंकालिदास के ग्रन्थों में भरी पड़ी हैं। जब इन बातों काकालिदास ने समय-समय पर अपनी कविता में उल्लेख कियाहै तब यह मानना ही पड़ेगा कि उन्हें इन बातों का पूरा-पूराज्ञान था। इन बातों के सिवा कालिदास को भूगोल का भीज्ञान था। उन्होंने मेघदूत में पर्वता, नदियों और देशों काबड़ा विशद और सुन्दर वर्णन किया है । रघुवंश मे भी रघुकी दिग्विजययात्रा के प्रसंग मे फ़ारिस और चीन आदि देशोंका अच्छा और ठीक-ठीक वर्णन पाया जाता है।

इतना सब होने पर भी कालिदासजी बड़े ही नम्र थे।उनमें अभिमान का लेश भी न था। उनका यह गुण बालकोंके बड़े काम का है। महाकवि कालिदास रघुवंश के आरम्भमें लिखते हैं—

क्व सूर्य प्रभवो वंश. क्व चाल्पविषया मतिः।
तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्॥

मन्द कवियशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम्।
प्रांशुलभ्ये फले मोहादुद्बाहुरिव वामन॥

अर्थात् कहाँ यह सूर्य से उत्पन्न वंश! और कहाँ मेरीथोड़ी पूँजीवाली बुद्धि! सच तो यों है कि मोहवश मैं डोंगीसे समुद्र पार करना चाहता हूँ। मैं मन्दमति, कवियों केयश की चाह मे, वैसे ही हँसा जाऊँगा जैसे कोई वौना आदमीलम्बे आदमी के पाने लायक ऊँचे फल को तोड़ने के लिएउचकता हो।

कालिदास किस समय हुए, इस बारे मे लोगों की जुदीजुदी राय है। कोई उनको ईसा की पाँचवीं सदी मे मानताहै, कोई छठी सदी में मानता है और कोई पहली सदीमे मानता है। लेकिन उनका पहली सदी में होना ही बहुतसम्भव है। क्योंकि यह बात सिद्ध है कि वह विक्रमादित्यमहाराज की, जिनका संवत् चलता है, सभा में थे।विक्रमादित्य प्रथम ईसा की पहली सदी के भी एक सौ वर्षपूर्व थे। इस हिसाव सेकालिदास ईसा के सौ वर्ष पहले के ठहरते हैं।

कालिदास कौन थे,इस विषय मे कहावत प्रसिद्ध हैकि शारदानन्दन नाम केएक राजा की कन्या विद्यावतीबड़ी ही पण्डिता थी। बड़े-बड़े पण्डित उससे शास्त्रार्थ मेपरास्त हो गये। पण्डितों ने मिलकर सलाह की कि इसराजकन्या का विवाह किसी महामूर्ख के साथ कराना चाहिए,क्योंकि यह हम लोगों का अपमान करती है। पण्डितों नेमूर्खकी खोज मे फिरते-फिरते एक जगह देखा कि एकचरवाहा वृक्ष पर चढ़ा हुआ जिस ढाल पर खड़ा था उसी कोकाट रहा था। पण्डितों ने सोचा कि इससे बढ़कर मूर्खकौन होगा? यह नहीं सोचता कि डाल के साथ ही आपभी पृथ्वी पर गिर पड़ेगा। पण्डितों ने किसी तरह राज़ीकरके उस मूर्ख को राजसभा मे उपस्थित किया और कहाकि यह बड़े भारी पण्डित और हमारे गुरु हैं। राजकुमारीसे शास्त्रार्थ करने आये हैं। मगर यह मूकशास्त्रार्थ करेंगे,कुछ दिनों के लिए इन्होंने मौनव्रत धारण कर लिया है।राजकन्या शास्त्रार्थ के लिए राज़ी हो गई। राजकन्या नेएक उँगली उठाई; चरवाहे ने दो उँगलियाँ उठाई। राजकुमारी का मतलब यह था कि ईश्वर एक है। चरवाहे ने समझाकि वह एक आँख फोड़ने को कह रही है। उसने दो उँगलियाँ दिखाई कि मैं तुम्हारी दोनों आँखेफोड दूँगा।राजकुमारी ने समझा कि वह कह रहा है कि ईश्वर एक नहीं,प्रकृति-पुरुष दो हैं। राजकुमारी ने तीन उँगलियाँ उठाई।उसका मतलब यह था कि माया के तीन गुणों से सृष्टि हुईहै। चरवाहे ने समझा कि यह भी मारने काइशारा है,उसने थप्पड़ दिखाया। राजकुमारी ने समझा, वह कहता हैकि तीन गुण नहीं, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इनपाँच तत्त्वो से सारी सृष्टि है। इस प्रकार विचार मे राजकन्यापरास्त हुई और चरवाहा जीत गया। प्रतिज्ञा के अनुसारविद्यावती को उसी मूर्ख से व्याह करना पड़ा। विद्यावतीके महल में चरवाहा गया।इतने मे महल के पासऊँट बोला।विद्यावती ने मूर्ख सेपूछा—कस्य शब्दमेतत्?(किस की यह आवाज़ है?), मूर्ख बोला ‘उष्ट’। विद्यावती ने समझा सुनने में भूल हुई। फिर पूछा। अबकीमूर्खराज बोले ‘उट्र’। बात छिपी नहीं रही। शुद्ध उष्ट्र शब्द न कह सकने से मूर्ख की मूर्खता खुल गई।विद्यावतीदुःख के मारे बेहोश हो गई। मूर्ख चरवाहा भी लज्जितहोकर महल से चल दिया।

सरस्वती की आराधना और जी लगाकर विद्याभ्यासकरने से वही मूर्ख कुछ दिन मे महाकवि कालिदास हो गयाऔर फिर लौटकर विद्यावती के पास आया। विद्यावतीने किवाड़ न खोलकर पूछा—अस्ति कश्चिद्वाग्विशेषः?(अर्थात् वाणी मे कुछ विशेषता है?) कालिदास ने इसवाक्य के तीन शब्द लेकर तीन महाकाव्य बनाये। ‘अस्ति’ सेआरम्भ करके ‘कुमारसम्भव’ बनाया। ’ कश्चित्’ से प्रारम्भकरके ‘मेघदूत’ बनाया, और ‘वाक्’ से प्रारम्भ करके ‘रघुवंश’बनाया। उसके बाद विद्यावती बहुत प्रसन्न हुई। कालिदासविक्रमादित्य की सभा के प्रधान रत्न समझे जाने लगे।

कालिदास को इस कथा मेहम दो बातें ऐसी पाते हैंजो बालकों के बड़े काम की हैं।१—यह कि चाहे जितनामूर्ख मोटी समझ का मनुष्य हो, वह मन लगाकर मेहनतकरे तो कुछ ही दिनों में भारी पण्डित बन सकता है। २—यह कि अपढ़ आदमी का कोई आदर नही करता, स्वयंअपनी स्त्री भी अनादर की दृष्टि से देखती है। इसलिएमन लगाकर पढ़ना-लिखना चाहिए। इनके सिवा कालिदास के चरित्र से तीसरी शिक्षा जो मिलती है उसकी ओरहम ऊपर इशारा कर ही आये हैं। अर्थात् बड़ी भारी योग्यताप्राप्त करके भी नम्रता गुण को न छोड़ना चाहिए।

रूपनारायण पाण्डेय

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वक्तव्य

यह बतलाने की तो कोई जरूरत ही नही कि बालकोका हृदय मोम की तरह सुकुमार होता है—उस पर जो छापपड़ जाती है वह अन्त तक नहीं मिटती।उस पर किसीभाव या विचार को अंकित कर देना बहुत ही सहज हुआकरता है। बालक लोग बचपन में जो याद कर लेते हैं वहउन्हें कभी नही भूलता। यह भी देखा गया है कि लड़कपनमें मनुष्य जो देखता या पढ़ता है उसी के अनुसार कार्यकरने की प्रवृत्ति उसमे प्रबल होती है। यही विचारकरमैंने महाकवि कालिदास के सब ग्रन्थों से उनकी चुनी हुईउत्तम कहावतों का संग्रह कर यह पुस्तक बालकों के आगेउपस्थित की है। इसकी सब कहावतें अनमोल रत्न है।उनमे सामाजिक, नैतिक और प्राकृतिक ‘सत्यों’ का बड़ी खूबीके साथ वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ को जो बालकपढ़ेंगे उनकी न केवल अच्छे कामो की ओर रुचि ही होगी,वरन् वे थोड़े ही परिश्रम मे बहुत सा लौकिक ज्ञान प्राप्त करलेगे। इसके सिवा वे जिस सभा मे इसमे की कोई समयानुकूल उक्ति कह देंगे वहाँ लोग उनकी प्रशंसा किये बिना नरह सकेंगे।

इस संग्रह का पठन-पाठन प्रचलित होने से एक लाभयह भी होगा कि वे ही बालक बड़े होने पर महाकवि कीसारी ग्रन्थावली पढ़ने का प्रयत्न अवश्य करेंगे, और उससेउनकी प्रतिभा तथा विद्याबुद्धि का विकास होना अवश्यम्भावी है।

इस संग्रह को बालकों के लिए उपयोगी बनाने में कोईकसर नहीं रक्खी गई है। हर एक कहावत के नीचे सरलभाषा में उस कहावत का सारांश भी विस्तार के साथ लिखदिया गया है, जिसे पढ़कर बालक आसानी से सब मतलबसमझ लेंगे, और यह भी जान जायँगे कि किस मौके के लिएकौन कहावत है।

कहने को तो यह संग्रह बालकों के लिए किया गया है,लेकिन इससे बड़े और सयाने भी लाभ उठा सकते हैं। जोमहाशय संस्कृत भाषा नही जानते वे इस संग्रह को पढ़करकालिदास की अमृत-मधुर कविता का रस कुछ-कुछ पासकेंगे। इन कहावतों को कण्ठस्थ कर लेने से मनुष्य सहजही सभाचतुर बन सकेगा।

मुझे पूर्ण आशा है कि कम से कम हिन्दी को अपनीमातृभाषा समझकर गौरव का अनुभव करनेवाले सज्जनतो अवश्य ही इस पुस्तक कीएक-एक प्रति ख़रीदकर अपनेबालकों के हाथ में दे देंगे।रहे सयाने लोग, उनसे भी मैंअनुरोध करता हूँ कि वे अवश्य इस पुस्तक को ख़रीदकरकविवर कालिदास की कविता का रसास्वादन करे।

विनीत

रूपनारायण पाण्डेय

बाल–कालिदास

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रघुवंश

प्रथम सर्ग

(१)

हेम्न. सलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धि श्यामिकाऽपि वा॥१०॥

सोना खोटा है या खरा, इसका निर्णय आग में तपने सेही होता है॥१०॥

तात्पर्य यह कि किसी आदमी या वस्तु के अच्छे या बुरेहोने का निर्णय कठोर परीक्षा से ही होता है।

(२)

सन्तति शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे॥६९॥

शुद्ध वंश (घराने) की सन्तान, इस लोक और परलोक,दोनों लोकों में कल्याण का कारण होती है॥६९॥

तात्पर्य यह कि जो असल बाप से पैदा है वह औलाद,इस लोक में भी अपने बाप-दादे का नाम बढ़ाती है औरपरलोक में भी श्राद्ध आदि करके उन्हें (बाप-दादों को)प्रसन्न रखती है।

(३)

प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः॥७९॥

जो पूजने योग्य हैं उनकी पूजा न करने से मङ्गललाभ मेंरुकावट पड़ती है॥७९॥

तात्पर्य यह कि जो लोग मङ्गल की कामना रखते होंउन्हेंपूजनीय पुरुष का कभी अनादर न करना चाहिए।

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द्वितीय सर्ग

(४)

न पादपोन्मूलनशक्तिरंहः
शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य॥३४॥

वायु का वेग यद्यपि बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़कर फेंक सकताहै, मगर पहाड़ से उसका कुछ वश नहीं चलता॥३४॥

तात्पर्य यह कि चाहे कोई कितना ही शक्तिशाली क्यों नहो, परन्तु जो उससे अधिक शक्तिवाला है उसका वह कुछनहीं बना-बिगाड़ सकता।

(५)

शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्यरक्षं
न तद्यशः शस्त्रभृता क्षिणोति॥४०॥

जिसकी रक्षा करने का भार अपने ऊपर है उसकी रक्षाअगर शस्त्र से न की जा सके तो वह शस्त्रधारियों के लिएनिन्दा की बात नहीं हो सकती॥४०॥

(६)

महीतलस्पर्शनमात्रभिन्न
ऋद्ध हि राज्यम् पदमैन्द्रमाहु॥५०॥

समृद्ध (भरा-पूरा ) राज्य इन्द्रपद के समान ही कहलाताहै। अन्तर केवल यही है कि वह पृथ्वी पर होता है॥५०॥

(७)

क्षतात्किल त्रायत इत्युदग्र
क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढ।
राज्येन किं तद्विपरीतवृत्ते
प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा॥५३॥

शस्त्र के घाव, अथवा विपत्ति से जो निर्बलो को बचावेउसी को ‘क्षत्र’ कहते हैं । ‘क्षत्र’ शब्द का यही अर्थ जगत्में प्रसिद्ध है। जो क्षत्र (क्षत्रिय) इस (अर्थ) के विपरीतआचरण करता है, अर्थात् निर्बलों को विपत्ति से नहीं बचाता,उसका राज्य, या निन्दा-मलिन जीवन, किस काम का?अर्थात् उसने अपने कर्त्तव्य का पालन न करके अगर राज्य-भोग किया ही, अथवा बहुत दिनों तक वह ‘जिया ही तोउससे क्या? उसका वह निन्दित राज्यभोग और कलङ्कितजीवन वृथा है !॥५३॥

(८)

स्थातुं नियोक्तुर्न हि शक्यमग्रे
विनाश्य रक्ष्यं स्वयमक्षतेन॥५६॥

जिस चीज़ की रखवाली का भार अपने ऊपर है उसको(अपने आगे ही) नष्टकराकर सेवक, आप वेदाग़ शरीरलेकर, स्वामी के आगे नहीं जा सकता॥५६॥

(९)

सम्बन्धमाभाषणपूर्वमाहुः *** ॥५८॥

पण्डितों या सज्जनों का कहना है कि बातचीत होते ही(विद्वानों में) परस्पर एक प्रकार का सम्बन्ध (मित्रता)हो जाता है॥५८॥

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तृतीय सर्ग

(१०)

क्रिया हि वस्तुपहिता प्रसीदति॥२९॥

अच्छे काम में किया गया परिश्रम अवश्य ही सफलहोता है॥२९॥

(११)

पथः श्रुतेर्देर्शयितार ईश्वराः
मलीमसामाददते न पद्धतिम्॥४६॥

सर्वसाधारण को वेदोक्त मार्ग दिखलानेवाले समर्थपुरुष कभी मैले मन (नीच विचार) वालोंकी राह परनहीं चलते॥४६॥

अर्थात् जिनको साधारण लोग अपना आदर्श मानते हैंवे महापुरुष कभी बुरे काम नही करते।

(१२)

यशस्तु रक्ष्यं परतो यशोधनै ***॥४८॥

जिनका यश ही सर्वस्व है उन्हें शत्रुओं से अपने यश कीसर्वदा रक्षा करनी चाहिए॥४८॥

अर्थात हमेशा इससे सावधान रहना चाहिए कि शुद्धलोग झूठी निन्दा फैलाकर बदनाम करने काअवसरन पा सकें।

(१३)

** पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते॥६२॥**

मनुष्य के गुण सब जगह अपने पद को प्राप्त करलेते हैं॥६२॥

अर्थात् गुणी आदमी जहाँ जाता है वहीं उसकी प्रतिष्ठाहोती है।

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चतुर्थ सर्ग

(१४)

प्रणिपातप्रतीकार संरम्भोहि महात्मनाम्॥६४॥

नम्रता ही महापुरुषों के क्रोध को शान्त करने का सहजउपाय है॥६४॥

(१५)

आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव॥८६॥

बादलों की तरह सज्जनों का ‘लेना’ औरों को देने हीके लिए होता है॥८६॥

अर्थात् बादल जिस तरह वर्षा करने के लिए ही समुद्रसे जल लेते हैं वैसे सज्जन लोग भी दूसरों (दीन-दुखियों)को देने के लिए ही किसी से कुछ लेते (या माँगते) हैं;अपने लिए नहीं।

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पञ्चम सर्ग

(१६)

सूर्य्येतपत्यावरणाय दृष्टे
कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्रा॥१३॥

सूर्य के तपते रहने पर (भी) अन्धकार कैसे लोगों केदेखने में बाधा डाल सकता है?॥१३॥

तात्पर्य यह है कि प्रतापशाली राजा के रहते प्रजा कोकिसी तरह का कष्ट नहीं होता।

(१७)

पर्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशो.
कलाक्षय श्लाघ्यतरो हि वृद्धेः॥१६॥

पारी पारी करके देवता लोगों के पी जाने से (क्योंकिचन्द्रमा अमृतमय है, और अमृत हिदेवता लोगों का भोजनहै) जो चन्द्रमा की कलाएँ घटती हैं, वह उनका घटनाबढने की अपेक्षा सराहनीय है॥१६॥

तात्पर्य यह कि अपनी जातिवालोका दुःख मिटाने मेंहोनेवाली दरिद्रता अमीरी से कही बढ़कर है।

(१८)

* * * निर्गलिताम्बुगर्भम्
शरद्घन नार्दति चातोकोऽपि॥१७॥

पानी की वर्षा करके ख़ाली हो गये शरद् ऋतु के बादलको घातक भी (पानी के लिए) नहीं दिक़ करता॥१७॥

अर्थात् दान करने से दरिद्रावस्था को प्राप्त दानी मनुष्यको, समझदार लोग, आप अत्यन्त दरिद्र होकर भी, मॉगमाँगकर पीड़ा नहीं पहुँचाते।

(१९)

उष्णत्वमग्न्यातपसंप्रयोगात्
शैत्यंहि यत् सा प्रकृतिर्जलस्य॥५४॥

आग या घाम लगने से पानी भले ही गर्म हो जाय, किन्तुउसका स्वभाव ठण्डापन ही है॥५४॥

अर्थात् बड़े लोगों का स्वभाव शान्त रहना ही है। यदिकिसी कारण कभी उनको क्रोध आता भी है तो वह बहुतदेर तक नहीं ठहरता ; वे शीघ्र ही शान्त हो जाते हैं।

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षष्ठ सर्ग

(२०)

नक्षत्रताराग्रहसङ्कुलाऽपि
ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः॥२२॥

नक्षत्र, तारागण और ग्रहों के भरे रहने पर भी चन्द्रमासे ही रात उजियाली होती है॥२२॥

अर्थात छोटे-छोटे राजा, ज़मींदार और रईसों के रहतेभी सम्राट् से ही पृथ्वी सनाथ होती है।

(२१)

★ ★ ★ भिन्नरुचिहि लेोकः॥३०॥

हर एक आदमी की रुचि एक दूसरे से भिन्न हुआकरती है॥३०॥

(२२)

न हि प्रफुल्ल सहकारमेत्य
वृक्षान्तरं काङ्क्षति षट् पदाली॥६६॥

खूब फूले हुए आम के पेड़ को पाकर फिर भ्रमरों केझुण्ड दूसरे वृक्ष पर जाना नही चाहते॥६९॥

तात्पर्य यह कि यथेष्ट (काफ़ी) आश्रय को पाकर फिरकोई अन्य आश्रय की इच्छा नहीं करता।

(२३)

रत्न समागच्छतु काञ्चनेन॥७९॥

मणि और काञ्चन (सुवर्ण) कासंयोग हो॥७९॥

अर्थात् योग्य का सम्बन्ध योग्य से ही अच्छा और उचितहोता है, सब लोग ऐसे हो सम्बन्ध को पसन्द करते हैं।

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सप्तम सर्ग

(२४)

मनोहि जन्मान्तरसङ्गतिज्ञम्॥११॥

मनुष्य का मन पूर्वजन्म के सम्बन्ध को सहज हीजान लेता है॥१५॥

तात्पर्य यह कि अपना मन जिस किसी को देखकर अकारण स्नेह करने लगे उससे अवश्य ही पूर्वजन्म का कोईसम्बन्ध है—ऐसा समझना चाहिए।

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अष्टम सर्ग

(२५)

प्रतिकारविधानमायुष
सति शेषे हि फलाय कल्पते॥४०॥

आयु (ज़िन्दगी) अगर कुछ शेष होती है तभी दवा आदिउपाय कारगर होते हैं॥४०॥

अर्थात् अगर ज़िन्दगी नही है तो लाख दवा-दारू औरदौड़-धूप करो, फल कुछ नहीं होता।

(२६)

अभितप्तमयोऽपि मार्दवं
भजते कैव कथा शरीरिषु॥४३॥

जब इतना कड़ा लोहा भी आँच से गल जाता है तबशरीरधारी मनुष्य की तो कोई बात ही नहीं है॥४३॥

अर्थात् कड़े से कड़े हृदय का आदमी भी विपत्ति की आँचमें अधीर हो उठता है।

(२७)

विषमप्यमृत क्वचिद्भवेत्
अमृतं वा विषमीश्वरेच्छ्या॥४६॥

ईश्वर की इच्छा से कहीं विष भी अमृत का काम करजाता है, और कहीं अमृत भी विष बन जाता है॥४६॥

अर्थात् ईश्वर की इच्छा से कहीं बुराई में भलाई औरकहीं भलाई में बुराई पैदा हो जाती है।

(२८)

धिगिमां देहभृतामसारताम्॥५१॥

देहधारियों की ऐसी असारता (अभी हैं, घड़ी भर मेंमर गये) को धिक्कार है॥५१॥

(२६)

वसुमत्या हि नृपा कलत्रिणः॥८३॥

भू-पति (राजा) लोगों की स्त्री पृथ्वी ही है॥८३॥

तात्पर्य यह कि राजा लोगों को अपनी स्त्री से भी बढ़करपृथ्वी के पालन या रक्षा का ध्यान रखना चाहिए।

(३०)

परलोकजुपां स्वकर्मभिः
गतयो भिन्नपथा हि देहिनाम्॥८५॥

परलोक जानेवाले जीवों की गतियाँ, उनके कर्मों केअनुसार, भिन्न-भिन्न मार्गों में हुआ करती हैं॥८५॥

(३१)

स्वजनाश्रु किलातिसन्तत
दहति प्रेतमिति प्रचक्षते॥८६॥

लोग कहते हैं कि अत्यन्त दुःख से विलाप कर रहे स्वजनोंके आँसू प्रेत (मृतक) को जलाते हैं॥८६॥

(३२)

मरण प्रकृतिः शरीरिणां
विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधै॥
क्षणमप्यवतिष्ठते श्वसन्
यदि जन्तुर्ननु लाभवानसौ॥८७॥

पण्डितों का कहना है कि मरना ही शरीरधारियों कीप्रकृति (उनके लिए स्वाभाविक) है, और जीवित रहनाही विकृति (स्वाभाविक) है। घड़ी भर भी इससंसार में साँस लेना (जीते रहना) ग़नीमत समझनाचाहिए॥८७॥

तात्पर्य यह कि हर घड़ी मौत सिर पर सवार है। किसीका अचानक मर जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं, बल्किजीवित रहना ही विचित्र है।

(३३)

अवगच्छति मूढचेतनः
प्रियनाशं हृदि शल्यमर्पितम्॥
स्थिरधीस्तु तदेव मन्यते
कुशलद्वारतया समुद्धृतम्॥८८॥

जो लोग नासमझ (मोहमुग्ध) हैं वे ही किसी प्रियजन के मरण को हृदय में लगनेवाली कटारी समझते हैं।किन्तु जो लोग ज्ञानी महापुरुष हैं वे उसी (प्रियजन-वियोग)को कल्याण का द्वार खुलना मानते हैं॥८८॥

अर्थात् साधारण लोग ही आत्मीयवियोग मे रोते औरसिर पटकते हैं। किन्तु जो लोग मृत्यु के तत्त्व को जानतेहैं वे उससे विचलित नहीं होते।

(३४)

स्वशरीरशरीरिणावपि
श्रुतसयोगविपर्ययौयदा॥
विरहः किमिवानुतापयेद्
वद वाह्यैर्विषयैर्विपश्चितम्॥८९॥

जब अपने शरीर और शरीर में स्थित आत्मा का ही परस्परसंयोग और वियोग होते देखा जाता है, तब बतलाओ, विद्वानलोग पुत्र-स्त्री आदि बाहरी विषयों के वियोग में क्यों शोककरें?॥८९॥

मतलब यह कि जब अपना ही शरीर बने रहने का कोईठिकाना नहीं—अपनी ही जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, तबऔरो के न रहने या मर जाने का ही शोक क्या?

(३५)

द्रुमसानुमता किमन्तरं
यदि वायौद्वितयेऽपि ते चला॥९०॥

यदि वायु के वेग से वृक्ष और पहाड़ दोनों ही विचलित हो उठें तो फिर उनमे अन्तर ही क्या रहा?॥९०॥

मतलब यह कि विषयवासना और दुःख, शोक आदि केघात-प्रतिघात से साधारण लोग ही हिल उठते हैं, बड़े लोग नहीं।

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नवम सर्ग

(३६)

अपथे पदमर्पयन्ति हि
श्रुतवन्तोऽपि रजोनिमीलिताः॥७४॥

कभी-कभी ज्ञानी लोग भी रजोगुण (वासना) से (ज्ञान-)दृष्टि रुँध जाने पर कुमार्ग मे पैर रख देते हैं॥७४॥

(३७)

कृष्यां दहन्नपि खलु क्षितिमिन्धनेद्धो
बीजप्ररोहजननीं ज्वलन. करोति॥८०॥

खेत में लगी हुई आग धरती कोजलाकर भी उसकीउपजाऊ शक्ति को बढ़ाती है॥८०॥

तात्पर्य यह कि बड़े लोगों का दिया हुआ दण्ड उस समयकड़ा जान पड़ने पर भी अन्त को अच्छा फल करता है।

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दशम सर्ग

(३८)

अव्याक्षेपोभविष्यन्त्याः
कार्य्यसिद्धेहि लक्षणम्॥६॥

किसी काम मे किसी रुकावट का न पड़ना उस काम की’सिद्धि का सच्चा लक्षण है॥६॥

(३९)

स्वयमेव हि वातोग्ने.
सारथ्यंप्रतिपद्यते॥४०॥

हवा आप ही अग्नि की सहायता करती है॥४०॥

मतलब यह कि सच्चे मित्रों से कहना नहींपडता;आप ही सहायता करते हैं।

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एकादश सर्ग

(४०)

तेजसा हि न वय समीक्ष्यते॥१॥

तेजस्वी पुरुषों की अवस्था नहीं देखी जाती॥१॥

मतलब यह कि जो होनहार या प्रतापी हैं वे छुटपन सेहीअपना चमत्कार दिखाने लगते हैं।

(४१)

किं महोरगविसर्पिविक्रमो
गजिलेषु गरुड. प्रवर्तते॥२७॥

बड़े-बड़े विषधारी नागों पर झपटनेवाला गरुड़ पनिया(पानी के) साँप पर वार नहीं करता॥२७॥

मतलब यह कि जो लोग पराक्रमी हैं वे बराबरीवाले शत्रुसे ही भिड़ते हैं, अपने से छोटों पर हमला नहीं करते।

(४२)

सद्य एव सुकृतां हि पच्यते
कल्पवृक्षफलधर्मिकाङ्क्षितम्॥५०॥

पुण्यात्मा लोगों के मनोरथ कल्पवृक्ष की तरह शीघ्रफलते हैं॥५०॥

(४३)

पावकस्य महिमा स गण्यते
कक्षवज्ज्वलति सागरेऽपि य॥७१॥

अग्नि की महिमा यही है कि वह सुखी घास के समानसागर के जल मे भी जलता है॥७१॥

तात्पर्य यह कि सच्ची शक्ति रखनेवाला आदमी साधारणशत्रु की तरह प्रबल शत्रु को भी परास्त कर सकता है।

(४४)

खातमूलमनिलोनदीरयै.
पातयत्यपि मृदुस्तटद्रुमम्॥७६॥

नदी की लहरों से जिसकी जड़ कट गई है उस किनारेपर के पेड़ को हलकी हवा भी गिरा देती है॥७६॥

तात्पर्य यह कि अन्य कारणों से दुर्बल हो रहे शत्रु कोबहुत ही सहज में जीता जा सकता है।

(४५)

केवलोऽपिसुभगो नवाम्बुदः
किं पुनस्त्रिदशचापलाञ्छित.॥८०॥

नवीन मेघ-माला एक तो यों ही बहुत भली मालूम पड़तीहै, दूसरे अगर उसमें इन्द्र-धनुष भी हो तो फिर उसकी शोभाका क्या कहना है॥९०॥

तात्पर्य यह कि एक स्वाभाविक सुन्दर वस्तु से अगरदूसरी भी मनोहर वस्तु मिल जाती है तो फिर मणिकाञ्चनसंयोग हो जाता है

(४६)

निर्जितेषु तरसा तरस्विनां
शत्रुषु प्रणतिरेव कीर्तये॥८९॥

अपने पराक्रम से जीते गये शत्रु से नम्र व्यवहार करनाही शूर-वीरों के लिए गौरव की बात है॥८॥

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द्वादश सर्ग

(४७)

काले खलु समारब्धा
फलं बध्नन्ति नीतयः॥९९॥

समय पर जिसका प्रयोग किया जाता है वही नीति(पंलिसी ) सफल होती है॥९९॥

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चतुर्दश सर्ग

(४८)

अपि स्वदेहात् किमुतेन्द्रियार्थत्
यशोधनानां हि यशो गरीय॥३५॥

जो लोग यशोधन (यश को ही सर्वस्व समझनेवाले)हैं, उन्हें, सांसारिक सुखभोग की सामग्री की कौन कहे,अपने शरीर से भी अधिक यश प्यारा होता है॥३५॥

(४६)

छाया हि भूमेः शशिनेा मलत्वे-
नारोपिता शुद्धिमत प्रजाभिः॥४०॥

संसार के लोगों ने पृथ्वी की छाया को भी निर्मलचन्द्रमा का कलङ्क मान रक्खा है॥४०॥

मतलब यह कि सर्वथा शुद्ध लोगों के लिए भी संसारकी बदनामी से बचना कठिन है।

(५०)

अमर्षणः शोणित-काङ्क्षया किं
पदा स्पृशन्तं दशति द्विजिह्नः॥४१॥

असहनशील सर्प क्या रुधिर पीने की इच्छा से पैर सेकुचलनेवाले को काटता है ?॥४१॥

मतलब यह कि तेजस्वी लोग, किसी लाभ के लिए नहीं,वरन् अपने अपमान का बदला लेने के लिए, शत्रु या अपमान करनेवाले पर आक्रमण करते हैं।

(५१)

आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया॥४६॥

गुरु या बड़ों की आज्ञा को बिना सोचे-विचारे मानलेना चाहिए॥४६॥

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पञ्चदश सर्ग

(५२)

धर्मसंरक्षणार्थाय
प्रवृत्तिर्भुवि शार्ङ्गिणः॥४॥

धर्म की रक्षा करने के लिए ही पृथ्वी पर भगवान् काअवतार होता है॥४॥

(१३)

जयो रन्ध्रप्रहारिणाम्॥१७॥

जो लोग कोई छिद्र पाकर उस मौके पर चोट मारते हैं वेअवश्य अपने शत्रु पर जय पाते हैं॥१७॥

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षोडश सर्ग

(१४)

प्रह्वेष्वनिर्बन्धरुपो हि सन्त॥८०॥

सज्जनों का क्रोध नत्र मनुष्य पर अधिक समय तक नहींरहता॥८०॥

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सप्तदश सर्ग

(५५)

वयोरूपविभूतीनामेकैकं मदकारणम्॥
* * * ॥४३॥

जवानी, सुन्दरता और ऐश्वर्य, इनमे से हर एक मेंमनुष्य को मतवाला बना देने की शक्ति है॥४३॥

(५६)

कातर्यं केवला नीतिः
शौर्यं श्वापदचेष्टितम्॥४७॥

कोरी नीति (चाहे कोई दबाता ही चला जाय,मगरआप भलमंसी के मारे चुपचाप लातें खाते जायँ ) कायरपनहै, और कोरी बहादुरी (कोई बोलता ही नहीं, मगर हम उसेमारने को तैयार हैं) पशुओं का काम या लक्षण है॥४७॥

(५७)

न हि सिंहो गजास्कन्दी
भयाद्गिरिगुहाशयः॥१२॥

हाथो का शिकार करनेवाला शेर किसी भय के मारे पहाड़की कन्दराओं में नहीं रहता; उसका यह स्वभाव ही है॥५२॥

तात्पर्य यह कि वीर लोग भय के मारे लड़ाई को नहींटाल जाते, बिना किसी के छेड़ किये न बोलना उनका स्वभाव ही होता है।

(१८)

वृद्धौनदीमुखेनैव
प्रस्थान लवणाम्भस॥१४॥

बाढ़ के समय भी समुद्र अपनी मर्यादा (हद) को नहींछोडता (या उमड़ नहीं पड़ता), बल्कि जो नदियाँ उसकोजल देती हैं उन्हीं मे वह (उसका जल) गमन करताहै॥५४॥

तात्पर्य यह कि बड़ेऔर गम्भीर लोग बढ़ती होने परमर्यादा को नहीं छोड़ते, अपनी ही राह पर चलते हैं।

(५६)

समीरणसहायोऽपि
नाम्भःप्रार्थी दवानल॥५६॥

वायु के सहायक (अनुकूल) होने पर भी दावानलकभी पानी के पास नहीं जाता॥५६॥

तात्पर्य यह कि प्रबल सहायक पाकर भी अपने से प्रबलशत्रु से भिड़ना उचित नहीं।

(६०)

अम्बुगर्भो हि जीमूत
चातकैरभिवन्द्यते॥६०॥

चातक पक्षी पानी-भरे मेघ का ही अभिनन्दन करते है॥६०॥

तात्पर्य यह कि समृद्धिशाली मनुष्य का ही प्रार्थी लोगआदर करते हैं।

(६१)

जयश्रीर्वीरगामिनी॥६९॥

जयलक्ष्मी वीर को ही पसन्द करती है॥६९॥

(६२)

प्रवृद्धौ हीयते चन्द्र
समुद्रोऽपि तथाविधः॥७१॥

पूर्ण वृद्धि होते ही चन्द्रमा घटने लगता है; समुद्र में भी’ज्वार’ के बाद ही ‘भाटा’ शुरू होता है॥७१॥

तात्पर्य यह कि पूर्ण उन्नति के बाद अवनति का आरम्भहोना प्रकृति (Nature ) का नियम ही है।

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अष्टादश सर्ग

(६३)

सकृद्विविघ्नानपि हि प्रयुक्तं
माधुर्य मीष्टे हरिणान् ग्रहीतुम्॥१३॥

डरे हुए मृग भी मधुर गीत से पकड़े जा सकते॥१३॥

तात्पर्य यह कि मीठी बोली से भड़के हुए लोग भी काबूमें किये जा सकते हैं।

(६४)

* * * सुखोपरोधि
वृत्त हि राज्ञामुपरुद्धवृत्तम्॥१८॥

सुख मे बाधा डालनेवाले राजकाज के बन्धन में राजालोगों की दशा कैदियों की ऐसी रहती है॥१८॥

तात्पर्य यह कि राजा लोगों को घड़ी भर के लिए भी चैननहीं, राजकाज की उलझन में वे कैदी की तरह चिन्तित रहते हैं ।

(६५ )

दृष्टो हि वृण्वन् कलभप्रमाणे-
ऽप्याशा पुरोवातमवाप्य मेघ॥३८॥

छोटा सा बादल का टुकड़ा भीपुरवाई हवा पाकर सारेआकाश को छा लेता है—ऐसा देखा जाता है॥३८॥

मतलब यह कि राजा छोटी उमर का होने पर भी राजसिंहासन को पाकर सम्पूर्ण राज्य का शासन कर सकता है।

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ऊनविंश सर्ग

(६६)

स्वादुभिस्तु विषयैर्हृतस्ततो-
दुःखमिन्द्रियगणो निवार्यते॥४९॥

मधुर स्वादिष्ट विषयों की ओर झुकी हुई इन्द्रियों कोउधर से फिराना बहुत ही कठिन होता है॥४९॥

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कुमारसम्भव

प्रथम सर्ग

(६७)

एको हि दोषो गुणसन्निपाते
निमज्जतीन्दो’ किरणेष्विवाङ्कः॥३॥

चन्द्रमा की किरणों में जैसे उसका कलङ्क छिप जाता हैवैसे ही बहुत से गुणों में मनुष्य का एक दोष छिपजाता है॥३॥

(६८)

क्षुद्रोऽपि नूनं शरणंप्रपन्ने
ममत्वमुच्चै शिरसां सत्तीव॥१२॥

क्षुद्र (ओछे हृदय का) आदमी भी अगर शरणागतहोता है तो उस पर महात्मा लोग वैसी ही ममता करनेलगते हैं जैसी कि सज्जनों से॥१२॥

(६९)

अनन्तपुष्पस्य मधोर्हिचूते
द्विरेफमाला सविशेषसङ्गा॥२७॥

वसन्त ऋतु मे और-और फूलों के रहते भी, भौरों के झुण्ड,केवल आम की मञ्जरी से ही जाकर लिपटते हैं॥२७॥

मतलब यह कि संसार में अनेक लोग हैं, लेकिन जिसपर जिसका पूर्वानुराग होता है उसी को वह चाहता है।

(७०)

ऋते कृशानोर्न हि मन्त्रपूत-
मर्हन्ति तेजास्यपराणि हव्यम्॥५१॥

अग्नि के सिवा अन्य (सुवर्ण आदि) चमकीले पदार्थमन्त्र से पवित्र आहुति को नहीं पा सकते॥५१॥

मतलब यह कि केवल आकार से नहीं, वरन् गुणों से हीप्रतिष्ठा प्राप्त होती है।

(७१)

अभ्यर्थनाभङ्गभयेन साधु
माध्यस्थमिष्टेऽप्यवलम्बतेऽर्थे॥५२॥

साधु लोग, इस भय से कहीं प्रार्थना निष्फल न हो,अपनी इष्ट वस्तु पर भी चाह नही प्रकट करते॥५२॥

(७२)

विकारहेतौसति विक्रियन्ते
येषा न चेतासि त एव धीराः॥५९॥

विकार (चित्त चलायमान) होने के सामान वर्तमानहोने पर भी जिनके मन मे विकार नहीं आता वे ही धीरकहलाते हैं॥५३॥

तात्पर्य यह कि बुराई के सामान जुटे रहने पर भी जोबुराई की तरफ़ नहीं झुकता वही सच्चा सच्चरित्र है।

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द्वितीय सर्ग

(७३)

शाम्येत्प्रत्यपकारेण
नापकारेश दुर्जन॥४०॥

दुर्जन लोग बुराई के बदले बुराई करने से ही शान्तरहते हैं; बुराई के बदले भलाई करने से नहीं॥४०॥

(७४)

विषवृक्षोऽपि संवर्द्ध्य
स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्॥५५॥

विषवृक्ष को भी अपने हाथ से लगाकर—बढ़ाकर—फिरकाटना उचित नहीं॥५५॥

तात्पर्य यह कि जिसको आश्रय दे, वह चाहे जैसाअपकारी (बुराई करनेवाला) निकले, अपने हाथ सेउसकी जड़ में कुल्हाड़ों चलाना, सज्जनों की दृष्टि में,ठीक नहीं।

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तृतीय सर्ग

(७५)

प्रयोजनापेक्षितया प्रभूणां
प्रायश्चलं गौरवमाश्रितेषु॥५॥

प्रभु लोग प्रायः अपने प्रयोजन से अपने आश्रित जनोंको गौरव दिया करते हैं, अतएव स्वामियों के द्वारा कियागया सेवकों का ऐसा आदर स्थिर नहीं होता॥१॥

(७६)

व्यादिश्यते भूधरतामवेक्ष्य
कृष्णेन देहोद्वहनाय शेषः॥१३॥

पृथ्वी का भार उठाने की शक्ति देखकर ही नारायण नेशेषनाग को निज-शरीर-वहन करने का भार दिया है॥१३॥

तात्पर्य यह कि मालिक लोग जाने-बूझे आदमी को हीकिसी विशेष कार्य का भार देते हैं।

(७७)

अप्यप्रसिद्ध यश से हि पुंसा-
मनन्यसाधारणमेव कर्म॥१९॥

जो काम असाधारण होता है वह प्रसिद्ध न होने परभी पुरुषों को अवश्य यशस्वी बनाता है॥१९॥

तात्पर्य यह कि प्रसिद्धि की पर्वा न करके शक्तिशालीलोगों को बड़े काम करने चाहिएँ, तत्काल ही न सही,परन्तु किसी न किसी समय उस कार्य के लिए उनको सुयशअवश्य मिलता है।

(७८)

समीरणो नोदयिता भवेति
व्यादिश्यते केन हुताशनस्य॥२१॥

अग्नीकी सहायता करने के लिए वायु से कौनकहता है?॥२१॥

तात्पर्य यह कि सच्चे मित्र से सहायता करने के लिएकहना ही नहीं पड़ता; वह आप ही मदद के लिए खड़ाहो जाता है।

(७६)

प्रायेण सामग्र्यविधौगुणानां
पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः॥२८॥

प्रायः एक ही पुरुष में सब गुणों का समावेश करने कीप्रवृत्ति विधाता में नही पाई जाती॥२८॥

अर्थात् ब्रह्मा की सृष्टि में कोई भी ऐसा नहीं जिसमेंसभी गुण हैं।

(८०)

आत्मेश्वराणां नहि जातु विघ्नाः
समाधिभेदप्रभवोभवन्ति॥४०॥

जो जितेन्द्रिय हैं, अर्थात् जिन्होंने मन (आदिइन्द्रियों) का दमन कर लिया है उनकी समाधि (यानिष्ठा) को विघ्नसमूह कदापि विचलित नहीं करसकते॥४०॥

(८१)

नहीश्वरव्याहृतयः कदाचित्
पुष्णन्ति लोके विपरीतमर्थम्॥६३॥

ईश्वरों (अलौकिक शक्तिशालियों) के वाक्य कभी मिथ्यानहीं होते॥६३॥

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चतुर्थ सर्ग

(८२)

स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो
विवृतद्वारमिवोपजायते॥२६॥

स्वजन को देखकर (दुखिया के) दुःख का जैसे द्वारखुल जाता है, ऐसा वह उमड़ पड़ता है॥२६॥

(८३)

दयितास्वनवस्थित नृणां
न खलु प्रेम सुहृज्जने॥२८॥

पुरुषों में स्त्री का प्रेम चाहे न भी रहे परन्तु मित्र कास्नेह कभी नहीं मिटता॥२८॥

तात्पर्य यह कि स्त्रियों के प्रति पुरुषों का जो प्रेम होताहै वह किसी कारण से स्थिर नही भी रह सकता। किन्तुमित्रों के प्रति पुरुषों का जो प्रेम होता है वह सदा वैसा हीबना रहता है।

(८४)

अनपायिनि संशयद्रुमे
गजभग्ने पतनाय वल्लरी॥३१॥

आपत्तिशून्य वृक्ष के सहारे रहनेवाली लता भी उससमय जमीन में लोटने लगती है जब कोई हाथी आकर उसपेड़ को उखाड़ डालता है॥३१॥

(इस वाक्यांश में कालिदास ने विधवा स्त्री की शोचनीय दशा का निदर्शन कराया है।)

(८५)

शशिना सह याति कौमुदी
सह मेघेन तडित्प्रलीयते।
प्रमदाः पतिवर्त्मगा इति
प्रतिपन्नं हि विचेतनैरपि॥३३॥

चाँदनी चन्द्रमा के साथ हीअस्त हो जाती है; मेघ केसाथ ही बिजली भी लीन हो जाती है।स्त्रियों की गतिपति ही है—इस बात को जड़ वस्तुओं नेदिखाया है॥३३॥

तात्पर्य यह कि स्त्री को पति का अनुगमन करना चाहिए,यह केवल शास्त्र की आज्ञा ही नहीं है; उसके उदाहरण जड़जीवों मे भी पाये जाते हैं।

(८६)

रविपीतजला तपात्यये
पुनरोधेन हि युज्यते नदी॥४४॥

सूर्य किरणों से सूखी हुई नदी गर्मी के बाद फिर जलराशि से परिपूर्ण हो जाती है॥४४॥

तात्पर्य यह कि दुःख के बाद सुख का मिलना स्वाभाविक ही है।

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पञ्चम सर्ग

(८७)

प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता॥१॥

सौन्दर्य की सफलता प्रेमी से प्रेम पाने ही मे होतीहै॥१॥

(८८)

पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं
शिरीषपुष्पं न पुन पतत्रिणः॥४॥

कोमल सिरिस (मौलसिरी) का फूल भौंरे के भार कोसह सकता है; मगर पक्षी के बोझ को नहीं॥४॥

तात्पर्य यह कि सुकुमार लोग कठिन तपस्या (शारीरिक-कष्ट) नहीं कर सकते।

(८९)

क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मन
पयश्च निम्नाभिमुख प्रतीपयेत्॥१॥

इष्ट वस्तु की प्राप्ति केलिए दृढ़ निश्चयवाले मनको और निम्नगामी जल कीगति को कौन फिरा सकताहै?॥५॥

(९०)

न षट् पदश्रेणिभिरेव पङ्कजं
सशैवलासङ्गमपि प्रकाशते॥९॥

केवल भ्रमरों के झुण्ड से ही नहीं, सेवार के साथ भीकमल का फूल सुशोभित होता है॥९॥

तात्पर्य यह कि जिसमें सच्चा सौन्दर्य है वह असुन्दरवस्तु के साथ भी सुन्दर जान पड़ता है।

(९१)

न धर्म्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते॥१६॥

धर्म्मवृद्ध (धर्माचरण से महत्व को प्राप्त) लोगों की अवस्था नहीं देखी जाती॥१६॥

(९२)

भवन्ति साम्येऽपि निविष्टचेतसां
वपुर्विशेषेष्वतिगौरवा क्रियाः॥३१॥

साधुजन समदर्शी होने पर भी विशेष आकार-प्रकार केलोगों के प्रति अधिक सम्मान प्रकट करते हैं॥३१॥

(९३)

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्॥३३॥

धर्म करने का पहला साधन (सामग्री या उपाय)शरीर ही है॥३३॥

तात्पर्य यह कि धर्मात्मा को शरीर-रक्षा पर पहले दृष्टिरखनी चाहिए। क्योंकि अगर शरीर अस्वस्थ होगा तो फिरधर्म के नियमो का पालन नहीं किया जा सकेगा।

(९४)

* * * सङ्गतं
मनीषिभिः साप्तपदीनमुच्यते॥३९॥

पण्डितों का कहना है कि परस्पर सात बातें होने से(या सात क़दम एक साथ चलने से) ही सज्जनों मे मित्रताहो जाती है॥३९॥

(९५)

* * * क करं
प्रसारयेत्पन्नगरत्नसूचये॥४३॥

विषधर नाग के सिर की मणि लेने के लिए कौन हाथबढ़ाने का साहस करेगा?॥४३॥

मतलब यह कि प्रतापी और तेजस्वी यदि अपनी सम्पत्तिको सुरक्षित रक्खे तो फिर कोई उस पर हाथ सफ़ा करने कासाहस नहीं कर सकता।

(९६)

वद प्रदोषे स्फुटचन्द्रतारका
विभावरी यद्यरुणाय कल्पते॥४४॥

चन्द्रमा और तारागण से परिपूर्ण रात्रि कही सन्ध्याकाल(शुरू शाम) में ही अरुणोदय (प्रातःकाल की ललाई, जो सूर्य-उदय होने के पहले ही पूर्व दिशा मे छिटक जाती है)केयोग्य हो जाती है?॥४४॥

मतलब यह कि अवस्था के अनुसार सब सोहता है।जवानी में बूढ़ों का पहनावा (या बुढ़ापे में जवानी कापहनावा) भला नहीं लगता।

(९७)

न रत्नमन्विष्यति
मृग्यते हि तत्॥४५॥

रत्न किसी को नहीं खोजता, रत्न को ही सब खोजतेहैं॥४५॥

मतलब यह कि योग्य आदमी को अपना आदर कराने कीज़रूरत नहीं होती, लोग आप हो उसका आदर करते हैं।

(९८)

मनोरथानामगतिर्न विद्यते॥६४॥

ऐसी कोई जगह या चीज़ नहीं है जहाँ मनुष्य के मनोरथन जा सकें॥६४॥

(९९)

अपेक्ष्यते साधुजनेन वैदिकी
श्मशानशूलस्य न यूपसत्क्रिया॥७३॥

कोई भी विद्वान वैदिक यज्ञ-स्तम्भ के समान मसान मेंगड़ी हुई ‘सूली’ के काठ की पूजा न करेगा॥७३॥

तात्पर्य यह कि सुपात्र (मनुष्य) की तरह कुपात्र की पूजानहीं हो सकती, चाहे वे एक ही वंश के क्यों न हो।

(१००)

अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुक
द्विषन्ति मन्दाश्वरितं महात्मनाम्॥७५॥

जो लोग नीच और मूर्ख हैं वे ही महात्मा लोगों केअलौकिक, अचिन्त्य चरित्रों की निन्दा किया करते हैं॥७५॥

(१०१)

न विश्वमूर्तेरवधार्यते वपु॥७८

सारा संसार ही जिसकी मूर्ति है उसके आकार काठीक निश्चय कौन कर सकता है?॥७८॥

मतलब यह कि यह विचित्र ब्रह्माण्ड भर जब परमेश्वरका रूप है तब उस ‘अनेकरूपरूपाय’ का कोई एक रूपमानकर यह कहना कि ‘यही उसका रूप है’ अनुचित औरभ्रम है।

(१०२)

न कामवृत्तिर्वचनीयमीक्षते॥८२॥

मनमाना करनेवाला लोक-निन्दा से नहीं डरता॥८२॥

(१०३)

न केवल यो महतोऽपभाषते
शृणोति तस्मादपि य स पापभाक्॥८३॥

बड़े लोगों को बुरा कहनेवाला ही नहीं, बल्कि उसकेउन शब्दों को सुननेवाला भी पापभागी होता है॥८३॥

(१०४)

क्लेश फलेन हि पुनर्नवता विधत्ते॥८६॥

किसी काम में परिश्रम करो और अगर वह सफल हो गयातो फिर सब थकावट दूर होकर नया बल आ जाता है॥८६॥

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षष्ठ सर्ग

(१०५)

स्त्रीपुमानित्यनास्थैषा
वृत्तं हि महतं सताम्॥१५॥

स्त्री और पुरुष का भेदभाव रखना भ्रम है, सज्जनों कीदृष्टि मे चरित्र ही पूजनीय है॥१२॥

अर्थात् सज्जन लोग, स्त्री है या पुरुष, यह नहीं देखते,वे गुणों का ही आदर करते हैं।

(१०६)

क्रियाणां खलु धर्म्याणां
सत्पत्न्यो मूलकारणम्॥१३॥

मनुष्यों के धर्माचरण का मूल-कारण अच्छी स्त्रियाँ हीहोती है॥१३॥

प्रायः प्रत्ययमाधत्ते स्वगुणेषूत्तमादरः॥२०॥

बड़े लोगों द्वारा (अपना) आदर होते देख प्रायः लोगोंको अपने गुणों पर विश्वास होता है॥२०॥

मतलब यह कि वही यथार्थ गुणी है जिसका आदरउत्तम पुरुष करते हैं।

(१०८)

विक्रियायै न कल्पन्ते सम्बन्धा सदनुष्ठिता॥२९॥

सज्जनों के जोड़े हुए सम्बन्धों का परिणाम कष्ट देनेवाला नहीं होता॥२९॥

(१०६)

विनियोगप्रसादा, हि
किङ्करा प्रभविष्णुषु॥६२॥

स्वामी की कोई आज्ञा पाकर ही सेवक लोग अपने कोकृतार्थ मानते हैं॥६२॥

(११०)

अशोच्या हि पितु. कन्या
सद्भर्तृ प्रतिपादिता॥७९॥

सत्पात्र वर को कन्या देने से फिर माता-पिता को उस(कन्या) के लिए कुछ शोच नहीं करना पड़ता॥७९॥

(१११)

प्रायेण गृहिणीनेत्राः
कन्यार्थेषु कुटुम्बिनः॥८५॥

कुंटुम्बी (गृहस्थ) लोगों को, कन्या के मामले मे प्रायःस्त्री की ही सलाह से काम करना पड़ता है॥८५॥

(११२)

भवन्त्यव्यभिचारिण्येा
भर्तुरिष्टे पतिव्रताः॥८६॥

पतिव्रता स्त्रियों का नियम है कि वे (कभी) अपनेस्वामी की इच्छा के विरुद्ध अभिलाषा नहीं करती॥८६॥

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सप्तम सर्ग

(११३)

स्त्रीणां प्रियालोकफलोहि वेशः॥२२॥

स्त्रियों का शृङ्गार उनके प्रिय जन के देखने से ही सफलसमझा जाता है॥२२॥

(११४)

कालप्रयुक्ता खलु कार्य्यविद्भि-
र्विज्ञापना भर्तृषुसिद्धिमेति॥२३॥

काम निकालने का ढङ्ग जाननेवाले लोग ठीक समयपर प्रभुओं के निकट जो प्रार्थना करते हैं वह अवश्य ही पूरीहोती है॥२३॥

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अष्टम सर्ग

(११५)

महत्त्वमसतां हृतान्तरम्॥५७॥

दुष्ट नीच लोग प्रभुता पाकर ऊँच-नीच (या भले-बुरे) केअन्तर को मिटा देते हैं॥५७॥

(हिन्दी में भी इसी मेल की कहावत है कि “चौपट्ट नगरी,अनबूझ राजा। टका सेर भाजी, टका सेर खाजा॥”)

(११६)

विक्रिया न खलु कालदोषजा
निर्मलप्रकृतिसुस्थिरोदया॥६५॥

समय के दोष से उत्पन्न होनेवाला विकार साफ़ स्वभाववाले सज्जनों में अधिक देर तक नहीं ठहरता॥६५॥

(११७)

उन्नतेषु शशिनः प्रभा स्थिता
निम्नसश्रयपरं निशातम्॥
नूनमात्मसदृशी प्रकल्पिता
वेधसैव गुणदोषयोर्गति॥६६॥

ऊँचे (वृक्षों की चोटी, मकानों के ऊपरी भाग इत्यादि)पर चाँदनी है, और रात्रि का अन्धकार नीचे पड़ा हुआ है।इससे जान पड़ता है कि विधाता ने ही गुण और दोष कीगति उनकी योग्यता के अनुसार बनाई है॥६६॥

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दशम सर्ग

(११८)

स्तोत्रं कस्य न तुष्टये॥९॥

स्तुति (प्रशंसा) सुनकर कौन खुश नहीं होता?॥९॥

(११९)

अर्थेष्ववश्यकार्येषु
सिद्धये क्षिप्रकारिता॥२४॥

अवश्य करने के कामों में फुर्ती करने से अवश्य सिद्धिप्राप्त होती है॥२४॥

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एकादश सर्ग

(१२०)

रत्नाकरे युज्यत एव रत्नम्॥११॥

रत्नाकर (समुद्र) में ही रत्नों का होना सर्वथा सम्भवहै॥११॥

तात्पर्य यह कि उत्तम वस्तु श्रेष्ठ स्थान में ही अधिकता सेपाई जाती है।

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द्वादश सर्ग

(१२१)

प्रभुप्रसादो हि मुदेन कस्य॥३२॥

मालिक की प्रसन्नता किसको आनन्द नहीं देती?॥३२॥

(१२२)

ध्रुवमभिमते को वा पूर्णे मुदा न हि माद्यति॥२८॥

अपनी इच्छा पूर्ण होने पर कौन आनन्द में मग्न नहींहोता?॥५८॥

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पञ्चदश सर्ग

(१२३)

*** महतां वृथा भवे-
दसद्ग्रहान्धस्य हितोपदेशना॥२६॥

असत् आह (हठ) से अन्धे हो रहे मनुष्य कोमहापुरुषों का हित की बात बताना वृथा ही होताहै।(क्योंकि वह उनकी नही सुनता, अपने ही मनकीकरता है)॥२६॥

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मेघदूत

पूर्वमेघ

(१२४)

कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु॥५॥

जो लोग कामी (या काम के क़ाबू में ) हो जाते हैंउन्हें, स्वभावतः जड़ और चेतन का ज्ञान नहींरहता॥५॥

(१२५)

याञ्चा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा॥६॥

(अपने से) अधिक गुणी (श्रेष्ठ) मनुष्य से की गईप्रार्थना का निष्फल (पूर्ण न) होना भी अच्छा, किन्तुनीच जन से की गई सफल प्रार्थना (भी) नहींअच्छी!॥६॥

क्योंकि उत्तम पुरुष अगर प्रार्थना पूर्ण न कर सकेगा तोवह प्रार्थी की हँसी भी नही उड़ावेगा; किन्तु नीच मनुष्ययदि प्रार्थना पूर्ण भी कर देगा तो पचास जगह कहेगा किअमुक मनुष्य से मैंने ऐसा सलूक किया—जिससे प्रार्थी कीआँख सदा सर्वत्र नीची रहेगी।

(१२६)

आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्याङ्गनानां
सद्यः पाति प्रणयिहृदयं विप्रयोगे रुणद्धि॥१०॥

स्त्रियों का प्रेममय हृदय फूल के समान होता है, विरहकी दशा मे (मिलने की) आशा का बन्धन ही उसको शीघ्र-पतन से बचाये रहता है॥१०॥

(१२७)

न क्षुद्रोपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
प्राप्ते मित्रे भवति विमुख किं पुनर्यस्तथोच्चै॥१७॥

क्षुद्र (छोटा) मित्र भी, यदि उसका उपकारी मित्र (किसीतरह का) आश्रय पाने के लिए आता है तो वह उसके कियेपहले उपकारो को याद कर उससे मुॅह नही मोड़ता, तब ऊँचे(विचार के) मित्रों के लिए तो कहना हो क्या है!॥१७॥

(१२८)

सद्भावार्द्रफलति न चिरेणोपकारो महत्सु॥१९॥

बड़े लोगो का कुछ उपकार करो तो वह उपकारं काअंकुर उनकी सज्जनता के जल से सिंचकर, बहुत शीघ्र फलदेता है॥१९॥

(१२९)

रिक्त सर्वो भवति हि लघु पूर्णता गौरवाय॥२०॥

भीतर के खाली सब हलके (ओछे) होते हैं, पूर्णही गौरवशाली (भारी) हुआ करते हैं॥२०॥

तात्पर्य यह कि जिसमे कुछ तत्त्व नहीं है वह लाख बने,लेकिन उसे लोग चुटकियों मे उड़ा देते हैं, और जो विद्वान् या सम्पन्न है उसका गौरव सब जगह होता है, उसे कोई-नहीं हिला सकता।

(१३०)

मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः॥३९॥

मित्र के किसी काम को कर देने का वादा करके कभीकोई उसमे ढिलाई नहीं करता॥३९॥

(१३१)

आपन्नातिर्प्रशमनफला सम्पदोह्युत्तमानाम्॥५४॥

अच्छे लोग शरणागत का दुःख दूर करने मेही अपनीसम्पत्ति या वैभव की सफलता मानते हैं॥५४॥

(१३२)

के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः॥५५॥

कोई कार्य करने के पहले उसका परिणाम सोचे बिना उद्योगकरनेवाले लोग सफलमनोरथ तो होते ही नहीं, बल्कि उन्हें हारऔर तिरस्कार से लज्जित भी होना पड़ता है॥५५॥

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उत्तरमेघ

(१३३)

सूर्य्यापाये न खलु कमल पुष्यति स्वामभिख्याम्॥१९॥

सूर्य के अस्त हो जाने पर कमल अपनी शोभा को नहींबनाये रख सकता॥१९॥

तात्पर्य यह कि मालिक के पीछे उसकी सम्पत्ति, देखरेखन होने के कारण, नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है।

(१३४)

प्राय सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा॥३२॥

प्रायः सभी कोमल—आर्द्र—हृदयवाले लोग दयापरिपूर्ण हुआ करते हैं॥३२॥

(१३५)

कान्तोदन्त सुहृदुपनत सङ्गमात् किञ्चिदून॥३९॥

मित्र के द्वारा प्राप्त अपने प्यारे का सन्देसा प्रियमिलनसे कुछ ही कम होता है॥३९॥

(१३६)

कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्तता वा
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण॥४९॥

संसार मे सदा सुखी या सदा दुखी कोई नही रहता।मनुष्य की दशा गाड़ी के पहिये के समान कभी ऊपर चढ़जाती और कभी नीचे गिर जाती है॥४९॥

(१३७)

स्नेहानाहु किमपि विरहे त्वं सिनरते त्वमोगा-
दिष्टे वस्तुन्युपचितरसा प्रेमराशीभवन्ति॥५२॥

‘कुछ लोग कहते हैं कि वियोग में स्नेह कम हो जाता है,किन्तु यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि उस समय भोग केअभाव से, प्रियजन के ऊपर, अनुराग जमा हो-होकर “प्रेमकी राशि” बन जाता है॥५२॥

तात्पर्य यह कि जो चीज़ खर्च में लाई जाती है वही चुकतीहै, और जिसका ख़र्च नहीं होता वह जमा होती रहती है—इसी नियम के अनुसार बिछोह के दिनों में भोग न होने केकारण स्नेह का ख़र्च नहीं होता और इसी से वह दिन-दिनजमा होकर और भी गाढ़ा होता जाता है।

(१३८)

** प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव॥५४॥**

सज्जन लोग मित्र की प्रार्थना का उत्तर, बातों से नहीं,वरन कार्य से ही देते हैं॥५४॥

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मालविकाग्निमित्र

प्रथम अंक

(१३९)

पुराणमित्येव न साधु सर्वं
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्॥
सन्त परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते
मूढ परप्रत्ययनेयबुद्धि॥६॥

जितने पुराने काव्य हैं वे सभी अच्छे नहीं। किसी काव्यको नवीन जानकर दूषित या हीन कहना भी ठीक नहीं।जो समझदार हैं वे परीक्षा करके अच्छे और बुरे का निर्णयकरते हैं। जो लोग दूसरों के विश्वास पर आँख मूँदकरनिश्चय कर बैठते हैं वे मूढ़ हैं॥६॥

(१४०)

त्रैगुण्योद्भवमत्र लोकचरितं नानारसं दृश्यते
नाट्य भिन्नरुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनम्॥२८॥

‘नाटक’ के अभिनय मे सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी लोगों के अनेक-रसमय विचित्र चरित्र दिखाये जाते हैं।यही कारण है कि भिन्न-भिन्न रुचिवाले अनेक लोग एक नाटकसे ही सन्तुष्ट किये जा सकते हैं (नाटक की यही श्रेष्ठता औरविशेषता है)॥२८॥

(१४१)

पात्रविशेषे न्यस्त गुणान्तरं व्रजति शिल्पमाधातुः।
जलमिव समुद्रशुक्तौ मुक्ताफलतां पयोदस्य॥३५॥

जैसे बादल की बूँद सीप में पड़ने से मोती वनजाती है वैसे ही सिखलानेवाले का गुण सुपात्र सीखनेवाले में उत्तम रूप धारण कर शिक्षक को भी यशस्वी बनाताहै॥३५॥

मतलब यह कि अच्छा विद्यार्थी गुरु से पाई हुई विद्याको अपनी योग्यता से और भी बढ़ा लेता है, जिससे उसकेगुरु की भी प्रशसा होती है।

(१४२)

अचिराधिष्ठितराज्य शत्रुः प्रकृतिष्वरूढमूलत्वात्।
नवसंरोपणशिथिलतरुरिव सुकरः समुद्धर्तुम्॥४७॥

नये रोपे हुए वृक्ष की जड़ शिथिल रहती है और इसी सेवह सहज ही उखाड़ा जा सकता है। इसी तरह जो शत्रुहाल ही में राज्यासन पर बैठा है, और इसी कारण प्रजा केहृदय में जिसकी जड़ नहीं जमी है उसे भी अनायास उखाड़डाला जा सकता है॥४७॥

(१४३)

सप्रतिबन्धं कार्यं प्रभुरधिगन्तुं सहायवानेव।
दृश्यं तमसि न पश्यति दीपेन विना सचक्षुरपि॥५८॥

रुकावटवाले काम में सहायक के बिना सिद्धि नही मिलती।देखो, आँखों के रहते भी, अन्धकार में दीपक के बिना कुछनहीं दिखाई पड़ता॥५८॥

(१४४)

शिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था
सक्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता।
यस्योभयंसाधु स शिक्षकाणां
धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव॥१०८॥

कोई शिक्षक ऐसे होते हैं जो आप, स्वयं, उस काम कोअच्छी तरह करके दिखा सकते हैं। और कोई ऐसे होते हैंजो विद्यार्थी को सिखाकर उसी के द्वारा उस काम को अच्छाकर दिखा सकते हैं। किन्तु जिसशिक्षक में ये दोनों बातेंहैं, अर्थात् जो आप भी निपुण (होशियार) हैं और विद्यार्थियो को भी अपनी ही तरह निपुण बना सकता है उसे तोसब शिक्षकों में श्रेष्ठ मानना ही चाहिए॥१०८॥

(१४५)

यस्योद्यमः केवलजीविकायै
त ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति॥११६॥

जो केवल जीविका के लिए शास्त्रों का अभ्यास करता हैउसे लोग ज्ञान का वैपारी बनिया कहते हैं॥११६॥

(५४६)

प्रायसमानविद्या
परस्परयश पुरोभागा॥१४३॥

जो किसी विद्या मे वरावरी का दावा रखते हैं वे प्रायःएक दूसरे के छिद्र देखा करते हैं। कारण यही है कि एकदूसरे को अपने बराबर होने देना नहीं चाहता॥१४३॥

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द्वितीय अंक

(१४७)

मन्दोप्यमन्दतामेति ससर्गेण विपश्चितः।
पङ्कच्छिद फलस्येव निकषेणाविल पय॥२०॥

रीठे के फल मलने से जैसा गँदला पानी साफ़ हो जाताहै उसी तरह बुद्धिमान विद्वान के संसर्ग (सोहबत) से बुराभी अच्छा बन जाता है॥२०॥

(१४८)

उपदेशंविदुः शुद्धम् सन्तस्तमुपदेशिनं।
श्यामायते न विद्वत्सु य काञ्चनमिवाग्निषु॥२६॥

उपदेशक के उसी उपदेश को सज्जन लोग शुद्ध समझतेहैं जो अग्नि मे पड़े हुए सुवर्ण की तरह विद्वानों के समाज मेंमलिन न हो, बल्कि और भी चमक उठे॥२६॥

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तृतीय अंक

(१४९)

* * * तत्वावबोधैकफलोन तर्कः॥४९॥

तर्क(बहस) से ही तत्त्व का निर्णय होता हो—यहबात नही है॥४९॥

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चतुर्थ अंक

(१५०)

छेदोदंशस्य दाहो वा क्षतस्यारक्तमोक्षणम्।
एतानि दृष्टमात्राणामायुष्या प्रतिपत्तयः॥४९॥

जहाँ सर्प ने डस लिया हो उस अड्ड को तुरन्त काटडालना, जला (दाग) देना, या वहाँ का खून निकाल देनाही मृत्यु से बचने के उपाय हैं॥४८॥

(१५१)

प्रतिपक्षेणापि पतिं सेवन्ते भर्तृ सेवना नार्यः।
अन्यसरितामपि जलम् समुद्रगाः प्रापयन्त्युदधिम्॥१५०॥

पतिव्रता स्त्रियाँ सौत के साथ भी पति की सेवा करती हैं,देखोगंगा आदि नदियाँ अन्य नदियों (के जल) को साथलेकर समुद्र से मिलने जाती हैं॥१५०॥

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विक्रमोर्वशी

प्रथम अंक

(१५२)

वसुधाधरकन्दराविसर्पा
प्रतिशब्दोपि हरेर्हिनस्ति नागान्॥

पर्वत की कन्दरा मे गूँज रही सिंह के गरजने की प्रतिध्वनि भी गजराजों को गिरा देती है।

मतलब यह कि पराक्रमी प्रभु के अनुचर भी प्रभु केप्रताप से शत्रुओं का नाश कर सकते हैं।

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द्वितीय अंक

(१५३)

तप्तेन तप्तमयसाघटनाय योग्यम्॥

तपे हुए लोहे से ही तपेलोहे का ‘जोड़’ पक्का होता है।

मतलब यह कि दोनों में स्नेह का जोश होने से ही दृढ़मेल (मैत्री) होता है।

तृतीय अंक

(१५४)

सर्वः कल्पे वयसि यततेलब्धुमर्थान्कुटुम्बी
पश्चात्पुत्रैरुपहितभर कल्पते विश्रमाय॥

हर एक विज्ञ कुटुम्बी मनुष्य नई उमर (जवानी) में कमानेकी कोशिश करता है और पीछे (बुढ़ापे में) पुत्रों पर गृहस्थीका भार डालकर व्याप विश्राम लेता है।

(१५५)

यदेवोपनतं दुःखं सुखं तद्धि रसान्तरम्।
निर्वाणाय तरुच्छाया तप्तस्य हि विशेषतः॥

जिस वस्तु से दुःख मिलता है वही वस्तु दूसरे रूप मेंसुखदायक भी हो जाती है। देखो, धूप मे तपे हुए पथिकको वृक्ष की छाँह अधिक सुख देनेवाली हुआ करती है।धूप भी सूर्य की छाया है, किन्तु वही (छाया) वृक्ष कीछाया होने से दुःख की जगह सुख देती है।

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चतुर्थ अङ्क

(१५६)

राजा कालस्य कारणम्॥

राजा ही ‘समय’ का कारण है।

तात्पर्य यह कि राजा जैसा चाहे वैसा ही समय (ज़माना) हो सकता है।

(१५७)

महदपि परदुःख शीतलं सम्यगाहुः॥

दूसरे के भारी दुःख को भी साधारणतः लोग साधारणही समझा करते हैं। (इसी तरह की एक कहावत हिन्दीमे भी है—“जाके पायँ न गई बेंवाई। सो का जानै पीरपराई”)।

(१५८)

स्वार्थात्सतां गुरुतरा प्रणयिक्रियैव।

सज्जनों की दृष्टि में मित्र का काम अपने काम से भी बढ़कर होता है।

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पञ्चम अंक

(१५९)

न हि सुलभवियोगा कर्तुमात्मप्रियाणि
प्रभवति परवत्ता * * * ॥

पराधीन मनुष्य का विरह सदा सहजसिद्ध सुलभ है,क्योंकि वह अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकता। (कहाभी है—” पराधीन सपने सुख नाही “)।

(१६०)

शमयति गजानन्यान् गन्धद्विपः कलभोऽपि सन्
प्रभवतितरां वेगोदग्रं भुजङ्गशिशोर्विषम्॥
भुवमधिपतिर्बालावस्थोप्यलंपरिरक्षितुं
न खलु वयसा जात्यैवायं स्वकार्य्यसहोगुण॥

मदमस्त हाथी का बच्चा भी और हाथियों को परास्त करसकता है; सँप के बच्चे का भी विष अत्यन्त उग्र हुआकरता है; राजकुमार बालक होने पर भी अच्छी तरह पृथ्वीका शासन और पालन कर सकता है, अतएव कहना पड़ेगाकि अपना काम करने की शक्ति अवस्था पर नहीं, वरन् जातिपर निर्भर है।

(१६१)

परस्पर विरोधिन्योरेकसंश्रयदुर्लभम्।
सङ्गतं श्री सरस्वत्योर्भयादुद्भूतये सत्ताम्॥

लक्ष्मी और सरस्वती का वैर चिरकाल से चला आताहै, इन दोनों का एक हो पात्र में होना दुर्लभ समझा जाताहै। ईश्वर से प्रार्थना है कि सज्जनों के अभ्युदय और मङ्गलके लिए यह लक्ष्मी और सरस्वती का दुर्लभ सङ्गम भी संसारमें सुलभ हो।

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अभिज्ञान शाकुन्तल

प्रथम अंक

(१६२)

अपरितापाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम्।
बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेत्॥६॥

किसी कार्य के करने की चातुरी को तब तक मैं उत्तमनहीं मानता, जब तक उसे देखकर विद्वान लोग सन्तुष्ट नहों। सुशिक्षित (उस कार्य में निपुण) लोगों को भी अपनेऊपर विश्वास नहीं होता॥६॥

(१६३)

***भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र॥३७॥

होनहार के द्वार (जरिये) सब जगह हुआ करते हैं॥३७॥

(१६४—१६५)

सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं
मलिनमपि हिमाशोर्लक्ष्मलक्ष्मीं तनोति॥

* * *
*
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्॥४७॥

सेवार के बीच मे भी कमल की शोभा होती है, चन्द्रमाके बीच का चिह्न मलिन (श्याम) होने पर भी (चन्द्रमा की)शोभा को बढ़ाता है।* * * *

जो स्वभाव-सुन्दर हैं उनके लिए, कौन ऐसी वस्तु है जोआभूषण नहीं बन जाती?॥४७॥

तात्पर्य यह कि जिसमें सच्चा सौन्दर्य है उसके अङ्गमें,चाहे जो वह पहन-ओढ़ ले, सब भला लगता है।

(१६६)

सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु
प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः॥६२॥

शुद्ध हृदय और आचरणवाले लोगों की चित्तवृत्ति ही सन्देहयुक्त विषय के निर्णय मे प्रमाण- स्वरूप हुआ करती है॥६२॥

अर्थात् ऐसे सज्जनों का ख़याल कभी अन्यथा या मिथ्यानही होता।

(१६७)

न प्रभातरलं ज्योतिरुदेति वसुधातलात्॥१०३॥

बिजली कभी पृथ्वीतल से नहीं प्रकट होती॥१०३॥

तात्पर्य यह कि स्वर्गीय सौन्दर्य पार्थिव (पृथ्वी के)पदार्थ से नहीं निकलता।

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द्वितीय अंक

(१६८)

* * * कामी स्वतां पश्यति॥३॥

कामी पुरुष, स्त्रियों की हरकतों को अपने ही प्रतिसमझता है॥३॥

(१६९)

शमप्रधानेषु तपोवनेषु
गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेज॥
स्पर्शानुकूला अपि सूर्यकान्ता-
स्ते ह्यन्यतेजोभिभवाद्दहन्ति॥३४॥

शान्तिप्रधान ऋषियों के आश्रम मे जलाने की शक्ति रखनेवाला तेज छिपा रहता है। देखो, सूर्यकान्त मणि बहुत हीशीतल होती है, लेकिन वह दूसरे (सूर्य) के तेज को नही सहसकती। सूर्य का तेज पड़ते ही जला देती है॥३४॥

(१७०)

लभेत वा प्रार्थयिता न वा श्रियं
श्रिया दुरापः कथमीप्सितोभवेत्॥५४॥

लक्ष्मी को चाहनेवाले के लिए लक्ष्मी चाहे दुर्लभ भीहो, लेकिन लक्ष्मी जिसे चाहती हो वह लक्ष्मी के लिए कभीदुर्लभ नही हो सकता॥५४॥

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तृतीय अंक

(१७१)

ननु कमलस्य मधुकरः सन्तुष्यति गन्धमात्रेण॥१६२॥

भ्रमर कमल की गन्ध से ही सन्तोष कर लेता है॥१६२॥

अर्थात् बहुत दिन साथ रहने का अवकाश न होने परभी मित्र से दो-चार बातें कर लेने से हीमित्र को सन्तोष होजाता है।

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चतुर्थ अंक

(१७२)

यात्येकतोस्तशिखरं पतिरोषधीना-
माविष्कृतारुणपुरस्सर एकतोर्कः॥
तेजोद्वयस्य युगपद्व्यसनोदयाभ्यां
लोको नियम्यत इवैष दशान्तरेषु॥३३॥

एक तरफ तो चन्द्रमा नीचे गिर रहा है और दूसरी तरफअरुण की लाली प्रकट करते हुए सूर्य नारायण ऊपर चढ़ रहेहैं। सूर्य-चन्द्र के एक साथ पतन और उदय को दिखलाकर मानोविधाता संसार को यह शिक्षा दे रहे हैं कि सबदिन बराबर नहीं जाते॥३३॥

(१७३)

पादन्यासं क्षितिधरगुरोर्मूर्ध्नि कृत्वा सुमेरोः
कान्तंयेन क्षपिततमसा मध्यमं धाम विष्णो॥

सोऽयं चन्द्रः पतति गगनादल्पशेषैर्मयूखै-
रत्यारुढिर्भवति महतामप्यपभ्रंशहेतु॥३६॥

जो पर्वतराज सुमेरु के सिर पर किरण-रूपी चरण रखकर अन्धकार को दूर करता हुआ विष्णुपद अर्थात् आकाशपर चढ़ गया था वही यह चन्द्रमा लुढ़कता-लुढ़कता नीचे गिररहा है। सच है, जो लोग अपनी शक्ति से बढ़कर कामकरने की अभिलाषा करके दुर्लभ पद पर चढ़ने का दुस्साहस करते हैं, वे चाहे जितने बड़े हों, उनका अन्त को अवश्य हीअधःपतन होता है॥३६॥

(१७४)

शुश्रूषस्व गुरून् कुरुप्रियसखीवृत्तिंसपत्नीजने
भर्तुर्विप्रकृताऽपि रोषणतय मास्मप्रतीपं गम॥
भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भोगेष्वनुत्सेकिनी
यान्त्येवंगृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याघयः॥१२६॥

बड़े-बूढों की सेवा करो, अपनी सौतों को प्रिय सखीसमझो, स्वामी अगर कभी कुछ तिरस्कार भी करे तो कभीक्रोध करके उससे विरोध न बढ़ाओ, नौकर-चाकरों से सहानुभूति रक्खो और भोग-विलास तथा अभ्युदय प्राप्त होने परअहङ्कार न करो। ऐसा करनेवाली स्त्रियाँ ही ‘गृहिणी’ केपद को पाती हैं। और जो इसकेविपरीत काम करती हैं वेस्त्रियाँ कुल का कण्टक होती हैं॥१२६॥

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पञ्चमअंक

(१७५)

क्षणात् प्रबोधमायाति तमसा लङ्घ्यते पुन।
निर्वास्यतःप्रदीपस्य शिखेव जरतो मति॥४॥

बुड्ढे मनुष्यकी बुद्धि बुझते हुए दीपक की ज्योतिकभी जग उठती है और कभी मैली पड़ जाती

(१७६)

भानुः सकृद्युक्ततुरंग एव
रात्रिन्दिवं गन्धवहः प्रयाति॥
शेष सदैवाहितभूमिभारः
षष्ठांशवृत्तेरपि धर्म एषः॥६॥

सूर्यदेव एक ही बार के जुते रथ पर चढ़कर अब तक जगत् मेघूम रहे हैं, हवा दिन-रात डोला करती है और शेषजी सदैव अपने शिर पर पृथ्वी का भार धारण किये हुए हैं,प्रजा से उसकी कमाई का छठा हिस्सा ‘कर’ लेनेवाले राजाका भी यही धर्म, अर्थात् कर्त्तव्य, है॥६॥

(१७७)

औत्सुक्यमात्रमवसादयति प्रतिष्ठा
क्लिश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव॥
नातिश्रमापनयनाय यथा श्रमाय
राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवातपन्नम्॥७॥

राजपद मिलने से केवल (राजा बनने की) हौस मिटजाती है, किन्तु मिले हुए राज्य को पालने में दिन-दिन कष्टही मिलते रहते हैं। अपने हाथ में लेकर लगाई गई छतरीके समान राज्य से सुख तो थोड़ा ही मिलता है, लेकिनपरिश्रम बड़ा करना पड़ता है॥७॥

(१७८)

अनुभवति हि मूर्ध्ना पादपम्तीव्रमुष्णं
शमयति परितापं छायया सश्रितानाम्॥८॥

देखा, कड़ी धूप को अपने शिर लेकर ये वृक्ष अपनी छायासे पास आये हुए आश्रित लोगों के ताप को हरते हैं॥८॥

मतलब यह कि सज्जन लोग आप कष्ट उठाकर भी दूसरीके—शरणागतों के—कष्ट को दूर करते हैं।

(१७९)

रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दा-
न्पर्य्युत्सुको भवति यत् सुखितोपि जन्तु॥
तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्वं
भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि॥२५॥

रम्य रूप और मीठे बोल सुनकर सुखी जीव भी उनकेलिए उत्कण्ठित होते हैं, इसका कारण यही तो नहीं है कि उसरूप और बोली से उसका पहले का कोई सम्बन्ध रहता है,जिसे वह इस जन्म मे भूल जाता है? मेरी समझ मे तोपूर्वानुराग हो इसका कारण है कि उसी रूप और बोली कोदेख-सुनकर मनुष्य मोहित हो जाता है॥२५॥

(१८०)

भवन्ति नम्रस्तरवः फलोद्गमैः
नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः॥
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः
स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्॥४३॥

फल पाकर वृक्ष झुक जाते हैं, पानी-भरे बादल भी झुकआते हैं। इसी तरह अच्छे पुरुष भी सम्पन्न होने पर नम्रतादिखाते हैं। सच तो यह है कि परोपकार करनेवालों कास्वभाव ही ऐसा होता है॥४३॥

(१८१)

सतीमपि ज्ञातिकुलैकसंश्रयां
जनोऽन्यथा भतृर्मर्तीं विशङ्कते॥
अतः समीपे परिणेतुरेष्यते
प्रियाप्रिया वा प्रमदा स्वबन्धुभिः॥६८॥

सधवा स्त्री अगर हमेशा अपने पिता के यहाँ रहती है तो,वह चाहे सती ही क्यों न हो, उसके चरित्र के बारे मे लोगकानाफूसी करने लगते हैं। इसी लिए कन्या के भाई, बाप,वह चाहे पति को प्यारी हो या न हो, उसे उसकी ससुरालमें रखने की ही चेष्टा करते हैं॥६८॥

(१८२)

स्त्रीणामशिक्षितपटुत्वममानुषीणां
संदृश्यते किमुत याः परिबोधवत्यः॥
प्रागन्तरिक्षगमनात्स्वमपत्यजातं
अन्यद्विजैपरभृतः किल पोषयन्ति॥९६॥

सीखी और बुद्धिमती मनुष्य-रमणियों की तो बात हीनहीं, पक्षी जाति की स्त्रियाँ भी बिना सीखे— बिना बुद्धिके—स्वाभाविक चतुर होती हैं। कोकिलाओं को देखो, उनकेबच्चे जब तक उड़ने के लायक नहीं होते तब तक दूसरे (कौए)से उनको पलवा लेती हैं [ कोकिलाओं का कायदा है कि वे अण्डे कौए के झोंझ में देती हैं। कौए अपने ही अण्डे समझकर उनके अण्डों को भी सेते हैं। जब बच्चे परदार होते हैंतो वे उड़कर अपने दल में मिल जाते हैं। कौए और कोयलका रंग तथा आकार प्रायः एक सा होता है ]॥९६॥

तात्पर्य यह कि स्त्रीजाति को चातुरी सीखने की ज़रूरतनहीं, वह स्वाभाविक चतुर हुआ करती है।

(१८३)

आजन्मनः शाख्यमशिक्षितोय-
स्त्तस्याप्रमाणं वचनं जनस्य॥
पराभिसन्धानमधीयते यै-
र्विद्येति ते सन्तु किलाप्तवाचः॥१०७॥

प्रायःदेखा जाता है कि जन्म के सीधे—चल-छन्द नजाननेवाले—लोगों की बात तो अप्रमाण (झूठ ) मानी जातीहै और जो लोग दूसरे को छलना भी एक विद्या (गुण)समझे हुए हैं वे सच्चे समझे जाते हैं॥१०७॥

(१८४)

उपयन्तुर्हि दारेषु प्रभुता विश्वतोमुखी॥११२॥

स्त्री के ऊपर स्वामी की प्रभुता सब तरह है॥११२॥

(१८५)

कुमुदान्येव शशाङ्कः
सविता बोधयति पङ्कजान्येव॥
वशिनां हि परपरिग्रहः
संश्लेषपराङ्मुखी वृत्तिः॥११८॥

चन्द्रमा केवल कुमुदिनी को ही खिलाता है, और सूर्यकेवल कमलिनी को ही जगाते हैं। जितेन्द्रिय लोगों कीचित्तवृत्ति सदा पराई स्त्री से विमुख रहती है॥११८॥

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षष्ठ अंक

(१८६)

रन्ध्रोपपातिनोऽनर्था॥

छिद्र (असावधानता) में ही अनर्थ होते हैं॥

(१८७)

हंसोहि क्षीरमादत्ते तन्मिश्रा वर्जयत्यपः॥२१९॥

हंस दूध पी लेता है और उसमें मिले हुए पानी को छोड़देता है॥२१९॥

सारांश यह कि विवेकी लोग हर एक बात या वस्तु कासारांश ग्रहण कर लेते हैं, और बुरे अंश को छोड़ देते हैं।

(१८८)

ज्वलति चलितेन्धनोऽग्नि
विप्रकृता पन्नग फणा कुरुते॥
तेजस्वी सक्षोभात्
प्रायः प्रतिपद्यते तेज॥२३१॥

ईंधन की लकड़ी चलाने से प्राग जल उठती है, औरछेड़ने से नाग फन उठाता है। तेजस्वी पुरुष क्षोभ को प्राप्तहोने पर ही अपना तेज दिखाते हैं॥२३१॥

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सप्तम अंक

(१८९)

सिद्ध्यन्ति कर्म्मसु महत्स्वपि यन्नियोज्या
सम्भावनागुणमवेहि तमीश्वराणाम्॥
किं प्राभविष्यदरुणस्तमसां वधाय
तञ्चेत्सहस्रकिरणो धुरि नाकरिष्यत्॥९॥

कार्य में नियुक्त भृत्य लोग जो बड़े-बड़े काम कर डालते हैंसो सब उनके प्रभुओंका ही प्रताप है। भला अरुण (प्रातःकाल के समय) अन्धकार का नाश करसकते थे, अगरसूर्यदेव उनके पृष्ठपोषक न होते?॥९॥

(१९०)

पूर्वावधीरितं श्रेयो दुःखं हि परिवर्तते॥४९॥

पहले छोड़ी गई भलाई दुःख के रूप में आगे आतीहै॥४९॥

(१९१)

आलक्ष्य दन्तमुकुलाननिमित्तहासैः
अव्यक्तवर्णरमणीयवचः प्रवृत्तीन्॥
अङ्काश्रयप्रणयिनस्तनयान् वहन्तो-
धन्यास्तदङ्गरजसा कलुषीभवन्ति॥७०॥

अकारण हँसी से कुछ दिखलाई दे रहे दाँतों से मनोहरमुखवाले, और अस्फुट आधे-आधे अक्षरों का उच्चारण करमन को हरनेवाले, तथा सदा गोद में रहने के लिए उत्सुकबच्चों को लेकर उनके अङ्ग की धूल से अपने शरीर को मलिनकरनेवाले लोग धन्य हैं !॥७०॥

(१९२)

भवनेषु सुधासितेषु पूर्वं
क्षितिरक्षार्थमुषन्ति ये निवासम्।
नियतैकयतिव्रतानि पश्चात्
तरुमूलानि गृहीभवन्ति तेषाम्॥८५॥

जो लोग जवानी में पृथ्वी की रक्षा करने के लिए अमलधवल महलों में रहते हैं वे ही (राजा) लोग बुढ़ापे में मुनिव्रतधारण कर वृक्षमूल को अपना घर बना लेते हैं॥८५॥

(१९३)

स्रजमपि शिरस्यन्ध
क्षिप्तां धुनोत्यहिशङ्कया॥१२७॥

अन्धा आदमी माला को भी, ऊपर छोड़ने से, साँपसमझकर उसे फेंक देता है॥१२७॥

तात्पर्य यह कि भ्रम या कुसंस्कार के कारण अज्ञानीलोग भलाई को भी बुराई समझकर छोड़ बैठते हैं।

इति

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