कालिदाससूक्तिसुधा

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विषय–सूची

१. प्राक्कथन
कालिदास–विवेचन
३. आराधना
* ब्रह्मा
* विष्णु
* शिव
४. कुमारसम्भव
* हिमालय
* पार्वती
* मदन–दहन
* रति–विलाप
* पार्वती–तपस्या
* ब्रह्मचारी–पार्वती–संवाद
* बाललीला
५. रघुवंश
* आदर्श राजा
* वसिष्ठ
* नन्दिनी
* सिंह–दिलीपसंवाद
* इन्दुमती–स्वयंवर
* अज–विलाप और वसिष्ठ–सन्देश
* श्रीराम
* सीता
* सीता–परित्याग
* सीता–समाधि
६. मेघदूत
*अलकानगरी
* यक्षगृह
* विरहिणी–यक्षिणी
* यक्ष–सन्देश
७. ऋतुसंहार
* ग्रीष्म ऋतु
* वर्षा ऋतु
* शरत् शिशिर ऋतु
* हेमन्त ऋतु
* वसन्त ऋतु
८. अभिज्ञानशाकुन्तल
* शकुन्तला
* शकुन्तला–प्रस्थान
* भरत
९. विक्रमोर्वशीय
* उर्वशी
* पुरूरवा–विलाप
१०. मालविकाग्निमित्रम्
* मालविका
११. विविध
* अग्नि
* अध्यापक
* आदर्श पुरुष
* आशीर्वाद
* कामदेव
* कामवासना
* गंगा
* गृहस्थाश्रम
* जितेन्द्रिय
* तपोवन
* दुर्जन
* धर्मपत्नी
* पितृभक्ति
* प्रकृति रक्षा
* प्रजापालन
* बुढ़ापा
* माता
* मित्रता
* यौवन
* सज्जन
* सन्तान
* सन्ध्या
* सम्भोग
* समुद्र
* सेवक
* सुभाषित
* प्रकीर्ण

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प्राक्कथन

संस्कृत की एक प्रसिद्ध उक्ति है—

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते॥

“पृथिवी में तीन (ही) रत्न हैं—जल, अन्न और सुभाषित। अज्ञानी लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न का नाम दे देते हैं। “सुभाषितों के रत्न होने के कारण ही संस्कृत के अपने समय में संस्कृत सुभाषितों के कोष को सुभाषितरत्न—भाण्डागार की संज्ञा दी गई।

सुभाषितों का अपना ही रस है। इसके आगे तो किशमिश का रंग भी पीला पड़ने लगने लगता है, शक्कर भी पत्थर बन जाती है (यही कारण रहा होगा कि शक्कर के अर्थ में शर्करा शब्द का कंकड़, पत्थर यह अर्थ भी हो गया) और सुधा (अमृत) भयभीत होकर द्युलोक में चली गई—

द्राक्षा म्लानमुखी जाता शर्करा चाश्मतां गता।
सुभाषितरसस्याग्रे सुधा भीता दिवं गता॥

जब सामान्य सुभाषितों की यह स्थिति है तो कालिदास के सुभाषितों का तो कहना ही क्या जो कि कविकुलगुरु हैं, कवियों में कनिष्ठिकाधिष्ठित हैं। उनके सुभाषितों के विषय में ठीक ही
कहा गया है—

निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु।
प्रीतिर्मधुरसान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते॥

“मञ्जरियों के समान मिठासभरी एवं घनी कालिदास की मीठी और सारगर्भित सूक्तियों के निकल आने पर किसे आनन्द नहीं आता ?”

कालिदास की सूक्तियों की दो प्रकार की विशेषताओं को ऊपर उद्धृत पद में रेखांकित किया गया है। एक है उनका मधुर होना और दूसरा सारगर्भित या सटीक होना। मधुरता उनके शब्द — विन्यास में है। उनकी सहज—सरल पदशय्या तत्काल हृदय

का स्पर्श करती है। सारगर्भितता उनके कथ्य में है। शब्द जितनी बात अभिधा से कहते हैं उससे कहीं अधिक वे लक्षणा और व्यञ्जना से अभिव्यक्त करते हैं। पाठक और श्रोता को उनमें निहित भावों को और उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप को ग्रहण करने पर जो आनन्द आता है वह वर्णनातीत है।

संस्कृत काव्यों में सूक्तियाँ अधिकांशतया विशेष रूप से सामान्य और सामान्य से विशेष के समर्थनरूप अर्थान्तरन्यास के माध्यम से प्रस्फुटित हुई हैं। कालिदास के काव्यों की भी यही स्थिति है। इनके द्वारा कालिदास के अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है जो कि शाश्वत हैं, कालातीत हैं।

कालिदास की कृतियों में बिखरे इन सूक्तिरत्नों के सङ्ग्रह एवञ्च विषय-वस्तु के आधार पर इनका वर्गीकरण करने का श्लाघनीय कार्य संस्कृत जगत् के सुप्रसिद्ध मनीषी श्री सुभाष विद्यालङ्कार जी ने किया है जिसके लिए वे हार्दिक साधुवाद के पात्र हैं।

अभी कुछ समय पूर्व ही उनका वाल्मीकि रामायण का सूक्ति सङ्कलन प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत कृति सूक्ति सङ्कलनों की दिशा में उनका दूसरा प्रयास है। आशा ही नहीं, विश्वास है कि इस प्रकार के अन्य सङ्कलन भी उनकी सशक्त लेखनी द्वारा प्रस्तुत होंगे।

मैं प्रस्तुत कृति का हृदय से अभिनन्दन करता हूं।

कालिदास —विवेचन

भारत में कालिदास का जन्म कहाँ हुआ था। इस सम्बन्ध में अभी तक निश्चित जानकारी नहीं मिल पाई है। अपनी साहित्यिक प्रतिभा और काव्य सौष्ठव के कारण कालिदास ने केवल भारत के अपितु सम्पूर्ण विश्व के नागरिक माने जाते हैं। अनुपम—पद — विन्यास और काव्य—गरिमा के अतिरिक्त कालिदास की सब से बड़ी विशेषता उनकी कृतियों में यथार्थ और आदर्श का अनुपम समन्वय है। कालिदास, भारत की मनीषा, अन्तरात्मा और सौन्दर्य के महान् व्याख्याकार हैं। उनकी रचनाओं का आधार भारत की चेतना है उनकी कृतियों में भारत की आध्यात्मिक प्रवृत्तियां, परम्परागत उदाराशयता, कलात्मक अभिव्यक्तियों तथा राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों की विशद झांकी मिलती है। उनकी भाषा शिष्ट, स्पष्ट, सूक्तिबद्ध और सरल है। इसमें काव्यात्मक—संवेदनशीलता तथा विचारों और भावनाओं का समन्वय है। उनके नाटकों में करुणा और सौन्दर्य के साथ ही साथ कथानकों की चातुर्य पूर्ण संरचना और पात्रों का स्वाभाविक चरित्र—चित्रण है। राजभवनों, आह्लादपूर्ण घरों, तपोवनों और वन—पर्वतों तक महाकवि की गति निर्बाध है। इन विशेषताओं के कारण महाकवि कालिदास की रचनाएं विश्व साहित्य का अंग बन गई हैं।

कालिदास का समय

प्राचीन परम्परा के अनुसार कालिदास का नाम उज्जयिनी के महाराजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में लिया जाता है। विक्रमादित्य ने ईस्वी सन् शुरू होने से ५७ वर्ष पहले शक आक्रमणकारियों को परास्त करके विक्रमी संवत् चलाया था। इसी प्रसंग में यह भी कहा जाता है कि कालिदास ने अपने नाटक विक्रमोर्वशीय का नाम नाटक के नायक पुरूरवा की जगह विक्रमादित्य के नाम

पर रखा।

उनके दूसरे नाटक मालविकाग्निमित्र का नायक अग्निमित्र ईसा से दो सौ वर्ष पहले विदिशा में राज्य करता था। इससे स्पष्ट है कि महाकवि अग्निमित्र के समय (१५० ई० पू० ) और ६३४ ईस्वी से पहले थे, क्योंकि ऐहोल के शिलालेख का समय सातवीं शती निर्धारित किया गया है और इस शिलालेख में कालिदास को महाकवि कहा गया है। यदि मन्दसौर के शिलालेख (४७३ ईस्वी) पर कालिदास की रचनाओं का प्रभाव माना जाता है तो कालिदास का समय चौथी शती की समाप्ति के बाद का नहीं माना जा सकता।

दूसरी ओर अश्वघोष की रचना बुद्धचरित और कालिदास की रचनाओं में समानता पाई जाती है। यदि अश्वघोष की रचना पर कालिदास का प्रभाव पड़ा तो कालिदास पहली शती ईस्वी से पहले थे। यदि कालिदास पर अश्वघोष का प्रभाव माना जाय तो कालिदास का काल ईसा की पहली शताब्दि के बाद का होना चाहिये। किन्तु डॉ० बलदेव उपाध्याय, वाचस्पति गैरोला और क्षेमेशचन्द्र चट्टोपाध्याय आदि कई विद्वान् अश्वघोष को कालिदास के बाद का मानते हैं। मालविकाग्निमित्र नाटक में कालिदास ने अपने पूर्ववर्ती कवियों भास, सौमिल्ल और कविपुत्र भिन्द्र का उल्लेख किया है किन्तु अश्वघोष का नहीं।

यह भी कहा जाता है कि कालिदास गुप्त काल में चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यदरबार में थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादितय की उपाधि प्रदान की गई थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ३४५ ईस्वी में सत्ता सम्हाली थी और उन्होंने लगभग ४१४ ईस्वी तक राज्य किया था। इस विचार के अनुसार कालिदास का समय आज से १५०० वर्ष पूर्व का होना चाहिये। किन्तु उनके जन्म के समय के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

कालिदास के जीवन के साथ अनेक किंवदन्तियां जुड़ी हुई हैं, जिनका कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है। उनकी रचनाओं से स्पष्ट है कि वे उस युग में जन्मे थे जब भारत में साहित्य, संस्कृति और ललित कलाएं उन्नति के चरम शिखर पर थीं। समाज का

जीवन सुख समृद्धि से परिपूर्ण था। नृत्य, संगीत, चित्रकला, ज्योतिष, दर्शनशास्त्र, कानून आदि विषयों में कालिदास की गहरी रुचि थी। उन्होंने सारे भारत की यात्रा भी की थी।

कालिदास को संस्कृत भाषा पर पूरा अधिकार था, इसलिए वे अपनी बात नपे तुले शब्दों में कहते हैं जबकि अन्य कवि कई वाक्यों में भी वे विचार प्रकट नहीं कर पाते।

उनकी रचनाओं की भाषा धीर गम्भीर, सन्तुलित मधुर, व्यञ्जनापूर्ण, संवेदनशील और स्पष्ट है। भावनाओं की विशद अभिव्यक्ति, विचारों की ओजस्विता और सर्वोत्कृष्ट शब्दविन्यास से उनकी शैली अनुपम है। उनके शब्दचित्र सम्पूर्ण और सन्तुलित हैं। उपमाएं देने में वे अद्वितीय हैं।

रचनाएं

कालिदास ने किसी भी रचना में अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा है। कालिदास को अनेक कृतियों का लेखक बताया जाता है किन्तु प्रायः यही माना जाता है कि उन्होंने चार काव्यों और तीन नाटकों की रचना की। इनके नाम निम्नलिखित हैं-

**१. ऋतुसंहार—**यह महाकवि की प्रथम कृति मानी जाती है। इसमें वर्ष की छहों ऋतुओं का ललित वर्णन है।

२. मेघदूत— इस काव्य के दो भाग हैं पूर्वमेघ और उत्तरमेघ। मेघदूत में मन्दाक्रान्ता छन्द में रचित १११ श्लोक हैं। इस काव्य में विरही यक्ष वर्षाऋतु में मेघ के द्वारा अलकापुरी में अपनी
पत्नी को कुशल सन्देश भेजता है।

३. कुमारसम्भव— इस महाकाव्य में १७ सर्ग हैं। इसमें शिव और पार्वती के विवाह तथा कुमार कार्तिकेय के जन्म की कथा है।

४. रघुवंश— इस महाकाव्य में १९ सर्ग हैं। इसमें सूर्यवंशी इक्ष्वाकु राजाओं का वर्णन है।

५. मालविकाग्निमित्र— इस नाटक के पांच अंकों में अग्निमित्र और

मालविका की प्रणय कथा है।

६. विक्रमोर्वशीय— यह भी पांच अंकों का नाटक है। इसमें पुरूरवा और उर्वशी के विवाह, वियोग और पुनर्मिलन की कथा है।

**७. अभिज्ञानशाकुन्तल—**सम्भवतः यह महाकवि की अन्तिम रचना है। इस नाटक के सात अंकों में दुष्यन्त और शकुन्तला के प्रणय और विवाह तथा वियोग और पुनर्मिलन का वर्णन है।

धर्म

कालिदास शिव के उपासक थे। उन्होंने अपने तीनों नाटकों और महाकाव्य रघुवंश का प्रारम्भ शिव की आराधना से किया है। मालविकाग्निमीत्र में प्रार्थना की गई है कि शिव हमें कल्याणकारी मार्ग पर चलाते रहें। विक्रमोर्वशीय में कहा गया है कि भक्ति के द्वारा शिव आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं। शाकुन्तल में शिव के आठ रूपों का वर्णन है। यद्यपि कालिदास शिव के उपासक थे किन्तु उनका दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं था। वे हिन्दू धर्म की परम्परागत उदार विचारधारा का आदर करते थे। इसलिए रघुवंश में देवताओं द्वारा विष्णु की स्तुति का और कुमारसम्भव में इन्द्र द्वारा ब्रह्मा की स्तुति का वर्णन है।

कालिदास के अनुसार धर्म का उद्देश्य वास्तविकता का तत्त्वज्ञान प्राप्त करना तथा जन्म मरण के बन्धन से मुक्ति पाना है। महाकवि ने अपनी अन्तिम रचना अभिज्ञानशाकुन्तल के अन्तिम श्लोक में अपने लिए प्रार्थना की है-

ममापि च क्षपयतु नीललोहितः पुनर्भवं परिगतशक्तिरात्मभूः।

शाकुन्तल ७। ३५॥

अर्थात् अपने से ही स्वयम् उत्पन्न होकर चारों ओर अपनी शक्ति का प्रसार करने वाले शिव जी मुझ पर ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर जन्म न लेना पड़े।

राजा रघु अपने पुत्र को सिंहासन सौंप कर तपस्या करने वन में चले जाते हैं और वहां पर समाधि द्वारा अन्धकार रहित परम पद प्राप्त कर लेते हैं-

तमसः परमापदव्ययं पुरुषं योगसमाधिना रघुः॥

रघुवंश ८।२४॥

कालिदास पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं।

भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि॥ शाकुन्तल ५ ॥२॥

प्रेमियों के मन में पिछले जन्म के संस्कार संचित रहते हैं। वे चित्त में फिर जाग उठते हैं। राम द्वारा सीता का परित्याग कर देने पर भी वह यही मानती है—

साऽहं तपः सूर्यनिविष्टदृष्टिरूर्ध्वं प्रसूतेश्चरितुं यतिष्ये।
भूयो यथा मे जननान्तरेऽपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः॥

रघुवंश १४। ६६॥

पुत्रोत्पत्ति के बाद मैं सूर्य को एकटक देखती हुई ऐसी घोर तपस्या करूंगी कि अगले जन्म में भी आप ही मेरे पति हों। और आप से मेरा वियोग न हो।

हमारा यह जीवन पूर्णता प्राप्त करने की दशा में एक पड़ाव है। हमें यह जीवन पिछले जन्मों के कर्मों के परिणामस्वरूप मिला है और हम अपने इस जीवन में सही दिशा में प्रयत्न करके और सत्कर्म करके अपना भविष्य संवार सकते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् नैतिक मूल्यों के बल पर चल रहा है। कालिदास की कोई भी रचना दुःखान्त नहीं है। क्योंकि उनका विश्वास है कि अन्त में धर्म की ही विजय होती है।

कालिदास ने इस भ्रान्ति का भी निवारण किया है कि हिन्दू समाज पारलौकिक विषयों की ही चिन्ता करता है और इस संसार से वह कोई वास्ता नहीं रखना चाहता। कालिदास की रचनाओं का आयाम बहुविध और व्यापक है। उन्होंने अपने जीवन में ललित कलाओं और प्राकृतिक छटा का भरपूर रसपान किया। उन्होंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के बीच सन्तुलन स्थापित करने पर बल दिया। उनका यही सन्देश है कि व्यक्ति और समाज के आर्थिक, राजनीतिक और कलात्मक पक्ष नैतिक मूल्यों पर आधारित होने चाहिए। इसीलिए उन्होंने दिलीप के लिए कहा कि

उसके लिए अर्थ और काम धर्म ही थे-

अप्यर्थकामौ तस्यास्तां धर्म एव मनीषिणः।

रघुवंश १।२५॥

प्रकृति प्रेम

वैदिक साहित्य में संसार के जड़ और चेतन सभी प्राणियों के बीच एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए प्रकृति के अनेक रूपों को वैदिक देवताओं के रूप में चित्रित किया गया है। इस संसार की नियामक सत्ता के साक्षात्कार के लिए वन पर्वतों और नदियों के एकान्त स्थलों पर बने तपोवनों में रहकर साधना करने की परम्परा भारत में अत्यन्त प्राचीन है। मनुष्य के नाते हमारा आधार प्रकृति है। दिन और रात तथा ऋतु परिवर्तन के चक्र हमारे मन और शरीर को प्रभावित करते हैं। इसीलिए कालिदास ने प्रकृति को सजीव और मनोरम रूप में चित्रित किया है। उनके पात्र नदियों, वन-पर्वतों, वृक्षों और लताओं के प्रति संवेदनशील हैं। उनमें पशुओं के प्रति बन्धुत्व की भावना है।

शाकुन्तल के प्रथम सर्ग में ही शकुन्तला अपनी सखियों के साथ आश्रम के वृक्षों को सींचती हुई दिखाई देती है। उसे वृक्ष सींचने में आलस्य नहीं लगता। वह तो उनसे अपने भाई-बहिन जैसा स्नेह करती है। शकुन्तला का लालन-पालन प्रकृति के बीच हुआ। वृक्षों और लताओं के फूल खिलने पर उसे हार्दिक आनन्द होता है। वह मृग छौने के कुश से बिंधे मुख में इंगुदी फल का तेल लगाती है। इसीलिए शकुन्तला की विदाई के समय सारा तपोवन शोकाकुल हो उठता है। महर्षि कण्व और उसकी सखियों का हृदय रो उठता है। हरिणों के मुखों से घास गिर पड़ती है, मोर नाचना बन्द कर देते हैं, लताएं पत्ते झाड़कर रोने लगती हैं। और हरिण का बच्चा शकुन्तला का आंचल खींच कर उसे जाने से रोकता है। इसी प्रकार वन में परित्यक्ता सीता का विलाप सुनकर मोर नाचना बन्द कर देते हैं, हरिणियां घास चरना छोड़ देती हैं, वृक्षों से आंसुओं के रूप में फूल झड़ने लगते हैं। मानो सारा वन

ही रो पड़ता है।

प्रेम

स्त्री—पुरुष के प्रेम सम्बन्धों के बारे में कालिदास ने अपनी प्रतिभा का विलक्षण परिचय दिया है। उन्होंने पुरुष की उपेक्षा नारी सौन्दर्य का अत्यन्त मनोहारी वर्णन किया है। पार्वती मालविका और यक्षिणी की सुन्दरता हमारे मन पर छा जाती है।

नर—नारी का प्रेम, विरह और विपत्तियों की अग्नि-परीक्षाओं से गुजर कर कई गुना बढ़ जाता है। विरही यक्ष और यक्षिणी की व्यथा में, रति के विलाप में और अज के करुण क्रन्दन में महाकवि ने विरह व्यथा का स्वाभाविक वर्णन किया है। अभिज्ञान शाकुन्तल में हम शारीरिक सौन्दर्य से आकृष्ट वासनामय प्रेम की परिणति नैतिक सौन्दर्य और आध्यात्मिक परिपक्वता में देखते हैं। शकुन्तला को अपनी माता मेनका से सौन्दर्य और स्वच्छन्द स्वभाव तथा पिता विश्वामित्र से धैर्य और क्षमा जैसे गुण मिले थे। तपोवन के उन्मुक्त किन्तु संयमपूर्ण वातावरण में उसका लालन-पालन हुआ था। उसके जीवन में इन दोनों का अद्भुत समागम हुआ।

कालिदास प्रेमियों के प्रथम मिलन को अनैतिक नहीं मानते। यद्यपि प्रणयी-युगल पापी नहीं होता किन्तु वे विपत्तियों का सामना कर पारस्परिक प्रणय को दृढ़ आधार पर ले आते हैं। जब पार्वती ने अपने शारीरिक सौन्दर्य से समाधिस्थ शिव को अपने वश में करना चाहा तो उसे असफलता ही मिली। शिव के द्वारा कामदेव को भस्म कर देने पर पार्वती समझ गई कि उसका शारीरिक सौन्दर्य निरर्थक है और उसने घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। पार्वती ने शिव को अपने शारीरिक सौन्दर्य से नहीं अपितु अपनी हार्दिक भक्ति से वश में किया। वह ब्रह्मचारी के मुख से शिव की निन्दा सहन नहीं कर सकी। उसने ब्रह्मचारी को फटकार लगाई और कहा कि महापुरुषों का स्वभाव मूर्ख लोगों की समझ से परे होता है। किन्तु ब्रह्मचारी वास्तव में शिव ही थे। उन्होंने अपने प्रति पार्वती की

निष्ठा की परीक्षा लेकर स्वयं को पार्वती के सम्मुख समर्पित कर दिया और कहा—“आज से मैं तुम्हारा दास हूं। तुमने अपनी घोर तपस्या से मुझे खरीद लिया है। “यह सुनकर पार्वती की कठोर तपस्या के सारे कष्ट क्षण भर में दूर हो गये। इससे हमें यही शिक्षा मिलती है कि शारीरिक आकर्षण से उत्पन्न प्रेम का परिपाक साधना और संयम में होना चाहिये। पार्वती और शकुन्तला दोनों ही अलौकिक सुख पाने के लिए लालायित थीं किन्तु इसे पाने के लिए उन्हें घोर तपस्या और साधना करनी पड़ी।

मनुष्य का यौन जीवन; आध्यात्मिक साधना का विरोधी नहीं है किन्तु असंयत जीवन और संयमहीन वासना का आध्यात्मिकता से कोई नाता नहीं होता। मनुष्य गृहस्थ जीवन बिताते हुए भी सन्त का स्वभाव विकसित कर सकता है। जीवन का उद्देश्य आनन्द और धैर्य है न कि वासनाओं की मनमानी पूर्ति। प्रेम का उद्देश्य स्त्री और पुरुष के बीच उल्लासमय सामञ्जस्य
है। अर्धनारीश्वर से यही अभिप्राय है।

मनुष्य की धर्मपत्नी समाज कल्याण की केन्द्र होती है। वह सभी कर्तव्य पूरे करने में पुरुष का हाथ बंटाती है। अज के लिए इन्दुमती सद्गृहिणी, सलाहकार, सच्ची सखी और आदर्श शिष्या थी।

कालिदास का विश्वास है कि विवाह की चरम परिणति सन्तानोत्पत्ति में होती है। शिव और पार्वती के विवाह का उद्देश्य कुमार कार्तिकेय का जन्म था। दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र के नाम पर हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है। भरत, आयुष, रघु और कार्तिकेय की बाललीलाओं के वर्णन से स्पष्ट है कि कालिदास बच्चों से बहुत स्नेह करते थे।

कालिदास के अनुसार जीवन के विभिन्न उद्देश्य पूरे करने के साथ-साथ सन्तुलित व्यक्तित्व विकसित करना ही बुद्धिमत्ता है। उन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा, कल्पना-प्रवणता, मनुष्य-स्वभाव में गहन अन्तर्दृष्टि और मानव मन की सुकुमार भावनाओं के वर्णन द्वारा इसी उद्देश्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। कालिदास

को साहित्य साधना समस्त देश के बौद्धिक, मानसिक और भावात्मक विकास में एक कड़ी के समान है। युगों के संचित अनुभव द्वारा निर्मित और सांस्कृतिक परम्पराओं द्वारा पोषित जिन मानवोचित आदर्शों से किसी भी राष्ट्र की जनता को प्रेरणा मिलती है, कालिदास की साधना उन्हीं परम्पराओं का अविभाज्य अंग है।

आज पाश्चात्य भौतिकवाद की चमक से भारत के युवक दिग्भ्रमित हो रहे हैं। भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए राजनीति, धर्म, समाज और शिक्षा के क्षेत्रों में संगठित योजनाबद्ध प्रयत्न किये जा रहे हैं। देश की युवा सन्तान को अपनी संस्कृति और साहित्य से परिचित कराने के लिए कालिदास की रचनाओं के कुछ महत्त्वपूर्ण, ललित और हृदयग्राही अंश तथा सुभाषितों का संग्रह किया गया है। मुझे विश्वास है कि हिन्दी के पाठक इस संग्रह का आदर करेंगे।

कृतियों का संक्षिप्त परिचय

** ऋतुसंहार—** महाकवि की सर्वप्रथम रचना ऋतुसंहार मानी जाती है। इसमें देश की छहों ऋतुओं ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर और वसन्त का वर्णन है। ऋतुसंहार ग्रीष्म ऋतु के वर्णन से प्रारम्भ होता है और इसकी समाप्ति वसन्त ऋतु के वर्णन से होती है। देश की सभी ऋतुओं का विशद वर्णन करने की प्रथा कालिदास ने ही प्रारम्भ की। महर्षि वाल्मीकि के आदिकाव्य रामायण में वर्षा, शरद्, हेमन्त और वसन्त इन चार ऋतुओं का ही वर्णन किया गया है। कालिदास ग्रीष्म ऋतु का वर्णन प्रारम्भ करते हुए कहते हैं—हे प्रिये ! अब सूर्य बहुत तपाने लगा है। चन्द्रमा की चांदनी अच्छी लगने लगी है; प्राणियों के निरन्तर नहाते रहने से तालाबों का पानी घटने लगा है। सायंकाल अच्छा लगता है। कामवासना मन्द पड़ गई है क्योंकि गर्मी की ऋतु आ गई है।

इसके बाद वर्षा ऋतु का वर्णन है। संस्कृत कवियों ने वर्षा ऋतु का वर्णन सब से अधिक किया है।

हे प्रिये ! ग्रीष्म ऋतु के बाद अब किसी राजा की सवारी

की तरह वर्षा ऋतु आ गई है। जल से भरे काले काले बादल हाथियों जैसे लगते हैं। इनमें कोंधने वाली बिजली राजा की पताकाओं जैसी लगती है। राजा की सवारी के नगाड़ों की तरह बादल गरज रहे हैं। वर्षाऋतु विलासी युवक युवतियों को बहुत अच्छी लगती है।

इसके बाद शरद्, हेमन्त शिशिर और वसन्त ऋतुओं का मनोहारी वर्णन किया है।

** कुमारसम्भव—**इस महाकाव्य में कालिदास ने प्रकृति और पुरुष का अपूर्व समन्वय प्रस्तुत किया है। कुमारसम्भव में १७ सर्ग हैं। कहते हैं कि प्रथम सात सर्ग कालिदास की मौलिक रचना हैं, शेष दस सर्ग बाद में जोड़े गये हैं। कालिदास के इन सात सर्गों में मदन- दहन, रति विलाप, पार्वती तपस्या और बटुक—पार्वतीसंवाद अत्यन्त हृदयग्राही हैं। महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने पार्वती तपस्या के सम्बन्ध में कहा है कि “कालिदास ने भारतीय नारी के आदर्शों की सजीव व्याख्या की है। जब पार्वती ने अपने बाह्य रूप से शिव को जीतना चाहा तब वह असफल रही किन्तु शिव की आध्यात्मिक आराधना करने पर उसे सफलता मिली। कवि का यही सन्देश है कि धर्म में जो सौन्दर्य है वही शाश्वत है। प्रेम का संयत स्वरूप ही श्रेष्ठ होता है। बन्धन में ही यथार्थ शोभा है और उच्छृङ्खलता में सौन्दर्य की विकृति। नर—नारी का प्रेम तब तक स्थायी नहीं होता जब तक वह बन्ध्य और संकीर्ण रहता है। कल्याण की ओर चलते हुए जब यह प्रेम सन्तान के रूप में परिणत होता है तभी वह अपनी मादकता बनाये रखता है। "

कुमारसम्भव में शिव और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय के जन्म की पौराणिक गाथा है। यह महाकाव्य हिमालया पार्वती के जन्म और उसके बचपन के वर्णन से प्रारम्भ होता है। एक दिन नारद जी ने हिमालय के घर आकर बताया कि तुम्हारी कन्या का विवाह शिव जी से होगा।

इन्हीं दिनों तारकासुर इन्द्र आदि सभी देवताओं को सता रहा था क्योंकि उसे ब्रह्मा ने वरदान दे दिया था कि उसे कोई नहीं

मार सकेगा। ऐसी विकट परिस्थिति में देवता ब्रह्मा के पास जाते हैं। देवताओं की व्यथा सुनकर ब्रह्मा ने कहा कि मैंने ही तारकासुर को वरदान दिया है इसलिए मैं स्वयं उसे नहीं मार सकता। यदि तुम शिव और पार्वती का विवाह करा सको तो उनसे उत्पन्न पुत्र तारकासुर का वध कर सकेगा। यह सुनकर इन्द्र ने हिमालय में तपस्या कर रहे शिव की समाधि भंग करने का कठिन काम कामदेव को सौंपा। इधर अपने पिता हिमालय की आज्ञा पाकर पार्वती, तपस्यालीन शिव की सेवा कर रही थी। कामदेव अपनी पत्नी रति और मित्र वसन्त के साथ शिव की तपस्थली पर पहुंचा। इनके वहां पहुंचते ही वसन्त ने सारे वन में वसन्त ऋतु की शोभा फैला दी। एक दिन शिव के पहरेदार नन्दी की आंख बचाकर कामदेव शिव के तपस्या स्थल पर पहुंच गया। शिव के समाधि से उठने पर नन्दी ने कहा कि पार्वती अपनी सखियों के साथ आपकी पूजा करने के लिए अन्दर आना चाहती है। पार्वती ने फूलों और कमल—पुष्प के बीजों की माला से शिव की वन्दना की और शिव ने प्रसन्न होकर उसे सब से अद्भुत पति पाने का वर दिया।

शिव और अनिन्द्य सुन्दरी पार्वती को आमने सामने देखकर कामदेव ने धनुष पर चढ़ा सम्मोहन अस्त्र छोड़ दिया। जिस से शिव जी का मन डांवाडोल हो उठा, किन्तु वे क्षण भर में ही संभल गये और सामने कामदेव को खड़ा देखकर आगबबूला हो गये। प्रचण्ड क्रोध के कारण उनका तीसरा नेत्र खुल गया और इससे निकली आग से कामदेव जलकर राख हो गया। कामदेव की यह दशा देखकर रति बेहोश हो गई और होश में आने पर विलाप करने लगी। किंकर्तव्यविमूढ़ पर्वतराज हिमालय अपनी पुत्री को घर ले आये। दुःख से विह्वल रति आत्महत्या करने लगी किन्तु तभी आकाशवाणी हुई कि शिव और पार्वती का विवाह होने पर कामदेव फिर जीवित हो उठेंगे।

निराश पार्वती कठोर तपस्या करने लगी। अनेक वर्षों की तपस्या के बाद एक दिन कोई ब्रह्मचारी पार्वती के पास आया और उससे पूछने लगा कि तुम तपस्या किसलिए कर रही हो? पार्वती;

शिव को पाने के लिए तपस्या कर रही है यह जानकर वह ब्रह्मचारी शिव जी की निन्दा करने लगा और पार्वती को समझाने लगा कि श्मशान की भस्म लगाने वाले और हाथी की खाल ओढ़ने वाले शिव से तुम्हारा विवाह करना मुझे उचित नहीं लगता। ब्रह्मचारी से शिव की निन्दा सुनकर पार्वती को क्रोध आ गया और वह जाने लगी। तभी ब्रह्मचारी ने अपना असली रूप प्रकट करके पार्वती का हाथ थाम लिया। अपने आगे साक्षात् शिव जी को देखकर पार्वती रोमांचित हो उठी। चलने के लिए उठे हुए उसके पैर न तो आगे बढ़ सके और न ही वहां ठहर सके। पार्वती की यह अवस्था देख शिव ने कहा—“तुमने अपनी तपस्या से मुझे खरीद लिया है। आज से मैं तुम्हारा दास हूं।”

विवाह के बाद शिव-पार्वती अनेक वर्षों तक भोग विलास में मग्न रहे। तब इन्द्र ने अग्नि को उनके पास भेजा अग्नि कबूतर बनकर शिव और पार्वती के शयनागार में पहुंच गया। अपने विलास में अग्नि के विघ्न डालने पर शिव क्रोधित हो उठे। किन्तु अग्नि ने क्षमा मांग कर देवताओं का सन्देश शिव को सुनाया। इसे सुनकर शिव ने अपना वीर्य अग्नि को दे दिया। किन्तु अग्नि इसे सहन नहीं कर सका। इन्द्र के कहने पर अग्नि ने यह तेज स्वर्ग-गंगा में डाल दिया। स्वर गंगा भी इसे सहन नहीं कर सकी और इसने वह तेज स्नान करने आईं छह कृत्तिकाओं के शरीर में डाल दिया। कृतिकाएँ भी इसे सहन नहीं कर सकीं। उन्होंने शिव के तेज को सरकण्डों के वन में छोड़ दिया। वहीं पर कार्तिकेय का जन्म हुआ। कृत्तिकाएं नवजात शिशु का पालन-पोषण करने लगीं। एक दिन इस वन के ऊपर से जाते हुए पार्वती ने इस शिशु को देखा। तब शिव ने बताया कि यह शिशु तुम्हारा ही पुत्र है। पार्वती ने शिशु को गोद में उठा लिया और घर लौटकर उसे पालने लगी।

एक ऐतिहासिक मत यह भी है कि कालिदास गुप्तयुग में विद्यमान थे। वे कुमारगुप्त प्रथम, स्कन्दगुप्त तथा पुरुगुप्त के शासन काल में थे। कालिदासः स्कन्दगुप्त को सब से श्रेष्ठ वीर मानते थे। क्योंकि उसने भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों को

पराजित किया था और इस जंगली जाति से देश की रक्षा की थी।

कुमारसम्भव में स्कन्द और तारकासुर के संग्राम का वर्णन राजा स्कन्दगुप्त और हूणों के युद्ध का संकेत करता है।

** रघुवंश—** इस महाकाव्य में कालिदास की परिपक्व प्रज्ञा और प्रतिभा स्पष्ट झलकती है। डा० सीताराम सहगल के अनुसार “रघुवंश में सूर्यवंश के इक्ष्वाकु राजाओं के बहाने महाकवि ने अपने समकालीन गुप्त सम्राटों का वर्णन किया है। रघु की दिग्विजय के वर्णन से तात्पर्य स्कन्दगुप्त की शत्रुओं पर आसाधारण विजय से है। “डा० सहगल का यह भी विचार है कि “रघुवंश को राष्ट्रीय काव्य भी कहा जा सकता है, क्योंकि कालिदास ने ही सर्वप्रथम अखण्ड भारत को देखा। भारत के प्रत्येक प्रदेश का वर्णन रघुवंश में किया गया है। कालिदास ने एक बार नहीं तीन बार भारत की सुषमा का बखान किया है। सब से पहले रघु की दिग्विजय में, फिर इन्दुमती के स्वयंवर में और अन्तिम बार श्रीराम के लंका से लौटते हुए। भारतीय प्रदेशों के वर्णन कालिदास की राष्ट्रीय भावना को व्यक्त करते हैं। इस भावना को व्यक्त करने के लिए उनके पुनः प्रेषण ने इस महाकाव्य को अमर और सनातन बना दिया है। महाकवि ने अपनी अन्तःप्रज्ञा से राष्ट्रीयता को सुनहले सूत्रों से बांधने का सर्वप्रथम प्रयत्न किया।”

रघुवंश की कथा राजा दिलीप और उनकी रानी सुदक्षिणा से प्रारम्भ होती है। अयोध्या के इन राजा-रानी की कोई सन्तान नहीं थी। इसलिए वे अपने कुलगुरु वसिष्ठ के पास जाते हैं और उन्हें अपनी व्यथा बताते हैं। वसिष्ठ ने कहा कि एक बार स्वर्ग से लौटते हुए तुमने रास्ते में कामधेनु की अनजाने ही उपेक्षा कर दी थी। तुम्हारे इस आचरण से क्रुद्ध होकर कामधेनु ने तुम्हें सन्तान न होने का शाप दे दिया था। इस शाप से छूटने के लिए तुम्हें कामधेनु को प्रसन्न करना चाहिये। किन्तु इन दिनों कामधेनु पाताललोक में है। इसलिए तुम कामधेनु के बदले उसकी पुत्री नन्दिनी की सेवा करो। नन्दिनी मेरे ही आश्रम में है। यह सुनकर अगले दिन से ही राजा-रानी, नन्दिनी की सेवा में लग गये।

सवेरा होते ही दिलीप नन्दिनी को चराने के लिए जंगल ले जाते और सुदक्षिणा सुबह शाम नन्दिनी और उसके बच्चों की देखभाल करती। एक दिन नन्दिनी हिमालय के घने वन में पहुंच गई दिलीप उसके पीछे ही थे। वे हिमालय की छटा देख रहे थेँ कि अचानक उन्हें शेर की दहाड़ सुनाई दी और उन्होंने देखा कि नन्दिनी को दबोचे हुए शेर सामने खड़ा था। शेर को मारने के लिए दिलीप ने तरकस से बाण निकालने के लिए हाथ उठाया लेकिन उनका हाथ मुड़कर अकड़ गया। तब सिंह मनुष्य की आवाज में बोला कि तुम मुझे नहीं मार सकते। मैं शिव जी का सेवक कुम्भोदर हूं। सामने जो देवदारु का पेड़ है उसे पार्वती जी ने अपनी सन्तान की तरह पाला है। एक दिन जंगली हाथी ने खुजली मिटाने के लिए इस वृक्ष से शरीर रगड़ते हुए इसकी छाल फाड़ दी। देवदारु की यह हालत देखकर पार्वती बहुत दुःखी हुई। तब से शिव जी ने इस पेड़ की रक्षा करने के लिए मुझे नियुक्त कर रखा है और आदेश दिया है कि जो पशु इस पेड़ के पास आये उसे तुम खा जाना। इसलिए आज मैं इस गाय को खाकर कई दिन की भूख मिटाऊंगा।

यह सुनकर दिलीप ने सिंह से विनति की कि वह गाय को छोड़ दे क्योंकि गुरु वसिष्ठ के आश्रम की इस गाय की रक्षा का भार मुझ पर है। किन्तु शेर नहीं माना। दोनों के बीच बहुत वाद-विवाद होने के बाद भी जब शेर ने गाय को नहीं छोड़ा तब दिलीप ने शेर के आगे अपना शरीर समर्पित करने को कहा। शेर ने उसे बहुत समझाया कि एक गाय के बदले तुम्हें अपनी जान नहीं देनी चाहिये क्योंकि सारे देश की रक्षा का उत्तरदायित्व तुम पर है। अभी तुम नवयुवक हो। राज्य का सुख भोगने के लिए तुम्हारी बहुत आयु बची हुई है। इस एक गाय के बदले तुम हजारों गायें देकर अपने गुरु जी का क्रोध शान्त कर सकते हो। किन्तु दिलीप अपनी बात पर अडिग रहे। वे मुंह नीचा करके शेर के सामने लेट गये और मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे। तभी नन्दिनी की आवाज उनके कानों में पड़ी। दिलीप ने आंखें खोलीं तो शेर की

जगह नन्दिनी खड़ी थी और शेर न जाने कहां चला गया था। नन्दिनी ने दिलीप से कहा कि तुम परीक्षा में सफल रहे। अब तुम पेड़ के पत्ते का दोना बनाकर उसमें मेरा दूध दुहकर पी लो। तुम्हें यशस्वी पुत्र प्राप्त होगा।

नन्दिनी के वरदान से दिलीप के घर रघु का जन्म हुआ। दिलीप ने अश्वमेध यज्ञ किया और वृद्ध होने पर रघु को राज्य सौंप कर पत्नी सहित वन में रहने लगे।

रघु ने सम्पूर्ण भारत की दिग्विजय की और अयोध्या लौटकर विश्वजित् यज्ञ किया। इस यज्ञ की समाप्ति पर उन्होंने सारी सम्पत्ति दान कर दी।

एक दिन वरतन्तु के शिष्य कौत्स रघु के पास आये और बोले कि मुझे गुरुदक्षिणा के लिए चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ चाहिये। सर्वस्वदान के कारण रघु का कोष खाली था। इसलिए यह राशि जुटाने के लिये उन्होंने अगले ही दिन कुबेर पर आक्रमण करने का निश्चय किया। किन्तु रात में ही कुबेर ने सोने की वर्षा करके रघु का खजाना भर दिया।

रघु के पुत्र का नाम अज था। अज के नवयुवक होने पर विदर्भ देश के राजा भोज ने अपनी बहिन इन्दुमती के स्वयंवर में उसे बुलाया। इन्दुमती और अज का विवाह हो गया। रघु ने अज को राजपाट सौंप कर संन्यास ले लिया।

अज और इन्दुमती से दशरथ का जन्म हुआ। एक दिन अज और इन्दुमती बाग में घूम रहे थे कि आकाश मार्ग से जाते हुए नारद जी की वीणा में टंगी माला इन्दुमती के ऊपर गिर पड़ी और उसका प्राणान्त हो गया। अपनी पत्नी को अचानक मृत्यु अज व्याकुल हो उठे और विलाप करने लगे। अज की पागलों जैसी हालत जानकर गुरु वसिष्ठ ने अपने शिष्य द्वारा उसे सन्देश भिजवाया और बताया कि इन्दुमती स्वर्ग की अप्सरा थी। शाप के कारण वह पृथ्वी पर आ गई थी। शाप से मुक्ति पाकर वह फिर स्वर्ग चली गई है। तुम्हें उसकी मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिये क्योंकि ज्ञानी पुरुष मृत्यु पर शोक और जन्म पर प्रसन्नता

व्यक्त नहीं करते। किन्तु अज अपनी रानी का वियोग सहन नहीं कर सके और चल बसे।

अज के बाद दशरथ राजा बने। उनके चार पुत्र हुए। इस स्थल पर महाकवि ने रामायण की कथा का संक्षिप्त वर्णन किया है। राम ने लोकापवाद सुनकर गर्भवती सीता को फिर वन में भेजदिया। राम के इस कठोर निर्णय के बावजूद सीता ने राम की निन्दा नहीं की और अगले जन्म में भी राम का साथ पाने के लिए सूर्य की ओर एकटक देखते हुए घोर तपस्या करने की प्रतिज्ञा की।

रघुवंश का अन्तिम राजा अग्निवर्ण था जो लम्पट और चरित्रहीन था। उसे तपेदिक हो गया। उसकी अकाल मृत्यु होने पर उसकी रानी मन्त्रिपरिषद् की सलाह से शासन करने लगी।

** मेघदूत—**वासना के प्रबल उद्वेग से प्रारम्भ होकर उदात्त चिन्मय प्रेम में परिणत होने वाला मेघदूत का विरह सहृदय पाठक को विश्वात्मा की भूमिका तक ले जाने में समर्थ है।

डा० वासुदेव शरण अग्रवाल ने “भोग और योग के समन्वय को ‘मेघ’ की चेतना माना है। भोग और संयम का सम्यक् संयोजन ही प्रणयानुरूप मार्ग का उत्तम आदर्श है। वासना के दृष्टिपात में लिपटा प्रकृति का विराट् रूप यहां विरही युगल को ‘शिव-शिवा’ के तुंग शिखर तक उठा ले जाता है। कविता दर्शन को जीत लेती है।”

डा० कृष्णकुमार के अनुसार “मेघदूत के माध्यम से कालिदास ने विश्व को भारतीय संस्कृति का जो मनोरम सन्देश दिया, वह न केवल मानव के व्यक्तिगत जीवन की दृष्टि से उपयोगी है अपितु सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी मूल्यवान् है। "

पौराणिक साहित्य में यक्ष जाति प्रणय और श्रृंगार की प्रतीक है। यक्षों की मूर्तियां और चित्र प्रायः श्रृंगार मुद्राओं में मिलते हैं। इन मुद्राओं पर प्रणय विलास की उद्दाम अतृप्त आकांक्षाएं अंकित हैं।

मेघदूत काव्य का न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण संसार में आदर किया गया है। ऋतुसंहार की भांति कालिदास ने मेघदूत

काव्य की रचना करके कवियों को साहित्य—सर्जन की नई शैली और दिशा प्रदान की। मेघदूत दो भागों में है। पूर्वमेघ और उत्तरमेघ। अलकानगरी के राजा कुबेर ने अपने सेवक यक्ष को अपराध करने पर एक वर्ष के लिये देश निकाला दे दिया। यक्ष का कुछ ही समय पहले विवाह हुआ था। विरही यक्ष अलकानगरी छोड़कर रामगिरि पर्वत पर रहने लगा। वहां पर उसने किसी तरह आठ महीने बिताये। आषाढ़ मास के पहले दिन वर्षा के बादल देखकर उसने अपनी पत्नी विरहिणी यक्षिणी के पास कुशल-समाचार भेजने का निश्चय किया। यक्ष ने मेघ को अपना सन्देश वाहक दूत बनाया। पूर्वमेघ में रामगिरि से अलकानगरी तक पहुंचने का रास्ता बताया गया है। यक्ष ने बादल को बताया कि तुम्हारे मार्ग में मालवा, आम्रकूट, विन्ध्याचल, दशार्ण प्रदेश की राजधानी विदिशा (भेलसा), नर्मदा नदी, उज्जयिनी में महाकाल का मन्दिर, गम्भीरा नदी, देवगिरि पर बना कार्तिकेय का मन्दिर, चर्मण्वती नदी (चम्बल), दशपुर (मन्दसौर), ब्रह्मावर्त्त, कुरुक्षेत्र, सरस्वती नदी और गंगा तट पर बसी कनखल नगरी आयेंगी। पूर्वमेघ में इन सब स्थानों का और वर्षा ऋतु का ललित वर्णन है।

इन स्थानों को पार करके मेघ अलकानगरी पहुंचता है। उत्तरमेघ में अलकानगरी, यक्ष के निवासस्थान और विरहिणी यक्षिणी की दीन दशा का वर्णन है। मेघ, यक्ष के बताये हुए संकेतों के अनुसार उसके घर पहुंच कर यक्षिणी को अपने मित्र का सन्देश धीमे धीमे गरज कर सुनाता है।

नाटक

कालिदास से पहले भी भारत में नाटकों की परम्परा विद्यमान थी। आचार्य भरत ने ‘अमृत मन्थन’ और “त्रिपुरदाह”, पतञ्जलि मुनि ने ‘कंसवध’ और ‘बलि-बन्ध’ तथा भास ने तेरह नाटकों की रचना की। महाकवि कालिदास ने इसी परम्परा में मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और अभिज्ञानशाकुन्तल ये तीन नाटक लिखे। ये तीनों ही रंगमंच पर खेले जाते थे। ‘मालविकाग्निमित्र’ में विदिशा

के शुंगवंशीय महाराज अग्निमित्र और विदर्भ की राजकुमारी मालविका की प्रणय कथा है। कुछ विद्वानों का मत है कि महाराज समुद्रगुप्त और महादेवी दत्तदेवी की कथा को ‘मालविकाग्निमित्र’ में प्रस्तुत किया गया है।

दूसरे नाटक विक्रमोर्वशीय में महाराज पुरुरवा और उर्वशी की प्रणय कथा है। पुरुरवा और उर्वशी की कथा का उल्लेख ऋग्वेद में भी है। ‘मालविकाग्निमित्र’ की भांति इस नाटक का सम्बन्ध गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय से बताया जाता है। माना जाता है कि यह नाटक चन्द्रगुप्त और ध्रुवदेवी की कथा पर आधारित है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि कोई शक राजा रामगुप्त की पत्नी ध्रुवदेवी पर आसक्त था। रामगुप्त ने ध्रुवदेवी को उसे सौंप भी दिया था। परन्तु ध्रुवदेवी के वेश में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शत्रु के शिविर में जाकर शक राजा की हत्या कर दी। इसीलिए विक्रमोर्वशीय में शकराजा को केशी राक्षस, चन्द्रगुप्त द्वितीय को पुरुरवा और ध्रुवदेवी को उर्वशी के रूप में चित्रित किया गया है। इस नाटक का मुख्य आकर्षण पुरुरवा और उर्वशी का वियोग है। एक दिन उर्वशी, पुरुरवा के साथ गन्धमादन पर्वत पर घूमने जाती है। जब उर्वशी रेत में खेल रही थी तभी उसने देखा कि राजा पुरुरवा; विद्याधर की कन्या उदयवती को देख रहे हैं। उर्वशी राजा से नाराज होकर कुमारवन में चली गई। यहां पर स्त्रियों का जाना मना था। इसलिए वहां पहुंचते ही उर्वशी लता बन गई। विरही पुरुरवा अपनी प्रियतमा को ढूंढ़ने लगा और जंगल के मोर, कोयल, हंस, चकवे, हरिण, भ्रमर, हाथी, पर्वत और नदी सभी से पूछने लगा कि तुमने उर्वशी को तो नहीं देखा ? जंगल में पागलों की तरह टक्कर मारते हुए राजा को ‘संगमनीय मणि’ मिलती है और तभी आकाशवाणी होती है कि यह मणि तुम्हें उर्वशी से मिला देगी। पुरुरवा और उर्वशी के हार्दिक प्रेम को देखकर इन्द्र ने उर्वशी को पुरुरवा के साथ जीवन पर्यन्त रहने की अनुमति दे दी।

जैन कालकाचार्य कथानक में उल्लेख है कि शक आक्रान्ताओं ने उज्जयिनी पर आक्रमण करके गर्दभिल्ल वंश के

राजा महेन्द्रादित्य को परास्त कर दिया। कुछ वर्ष बाद उसके पुत्र विक्रमादित्य ने शक आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया और प्राचीन राज्यवंश को फिर स्थापित किया। इसीलिए यह भी माना जाता है कि विक्रमोर्वशीय नाटक में इसी विजय का वर्णन किया गया है। नाटक में उज्जयिनी नगरी को उर्वशी के रूप में चित्रित किया गया है। उस पर केशी राक्षस ने (दाढ़ी-मूंछों वाले शकों ने) अधिकार कर लिया। उज्जयिनी खण्डहर बन गई और वहां घास पात उग आये अर्थात् उर्वशी लता बन गई। राजकुमार विक्रमादित्य ने इस हार का बदला लिया और महेन्द्रादित्य अपने पुत्र विक्रमादित्य को शासन सौंपकर जंगल में तपस्या करने चले गये। इस महान् विजय को चिरस्थायी बनाने के लिए विक्रमादित्य ने विक्रम संवत् चलाया—

महेन्द्रोपकारपर्याप्तेन विक्रममहिम्ना वर्धते भवान्।

** अभिज्ञानशाकुन्तल—**दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रणय कथा बहुत पुरानी है। एक दिन राजा दुष्यन्त शिकार करते हुए हरिण का पीछा कर रहे थे कि दो तपस्वी कुमारों ने राजा को हरिण पर बाण चलाने से रोका और कहा कि यह हरिण महर्षि कण्व के आश्रम का है। आपको इसे नहीं मारना चाहिये। दुष्यन्त, मालिनी नदी के किनारे कण्व के आश्रम में गये और वहां पर अपनी सखियों के साथ पौधों को सींचती हुई शकुन्तला को देखकर उससे प्रेम करने लगे। महर्षि कण्व तब आश्रम में नहीं थे। दुष्यन्त और शकुन्तला ने गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ दिन बाद दुष्यन्त अपनी राजधानी लौट आये।

एक दिन दुर्वासा ऋषि कण्व के आश्रम में आये किन्तु दुष्यन्त की याद में बेसुध शकुन्तला उनका उचित अतिथि सत्कार नहीं कर सकी। इससे क्रुद्ध होकर दुर्वासा ने उसे शाप दे दिया कि तू जिसे याद कर रही है वह तुझे भुला देगा। शकुन्तला की सखियों के बहुत अनुनय-विनय करने पर दुर्वासा का क्रोध कुछ शान्त हुआ और उन्होंने कहा यदि शकुन्तला अपने विवाह की कोई निशानी राजा को दिखायेगी तो मेरे शाप का प्रभाव नष्ट हो जायेगा।

आश्रम लौटने पर महर्षि कण्व को सारी घटना पता चल गई। उन्होंने शकुन्तला को दुष्यन्त के पास भेज दिया, किन्तु शाप के प्रभाव के कारण दुष्यन्त ने शकुन्तला को नहीं पहिचाना। जब शकुन्तला ने विवाह में मिली दुष्यन्त की अंगूठी उसे दिखानी चाही तो उसे अपनी अंगुलि में अंगूठी नहीं मिली, क्योंकि नदी पार करते हुए शकुन्तला की अंगुली में ढीली अंगूठी अचानक पानी में गिर गई थी और शकुन्तला को पता भी नहीं चला था। राजा ने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उसे आश्रम से छोड़ने आये तपस्वी भी शकुन्तला को अकेली छोड़कर लौट गये। शकुन्तला रोने लगी। इतने में ही कोई स्त्री आकाश से उतरी और शकुन्तला को अपने साथ ले गई।

कुछ दिन बाद राजा को सिपाहियों ने किसी मछुआरे के पास राजा दुष्यन्त की अंगूठी देखी। मछुआरे ने बताया कि जाल में फंसी मछली का पेट चीरने पर यह अंगूठी निकली थी। अंगूठी देखते ही राजा को सारी बातें याद हो आईं और शकुन्तला को ठुकरा देने पर पश्चात्ताप करने लगा। इसी बीच इन्द्र ने कालनेमि राक्षस को मारने के लिए दुष्यन्त को स्वर्ग में बुलाया। कालनेमि को मारने के बाद स्वर्ग से लौटते हुए दुष्यन्त हेमकूट पर्वत पर कश्यप ऋषि के आश्रम में गये। वहां उन्होंने देखा कि एक बालक शेरनी का दूध पीते बच्चे को जबर्दस्ती खींच रहा था और उसके दांत गिनना चाह रहा था। इस बालक को देखते ही दुष्यन्त का हृदय आनन्द से भर उठा। शकुन्तला इसी आश्रम में तपस्विनी का जीवन बिता रही थी और अनेक वर्षों बाद उसका दुष्यन्त से पुनर्मिलन हुआ। शकुन्तला, राजा दुष्यन्त और उनका पुत्र सर्वदमन, कश्यप ऋषि और उनकी धर्मपत्नी अदिति को प्रणाम करने गये। ऋषि ने आशीर्वाद दिया कि यह बालक चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा। आश्रम में पशुओं का दमन करने के कारण यह सर्वदमन कहलाता था। सम्राट् बनकर प्रजा का भरण पोषण करने के कारण यह भरत कहलायेगा। बंगला के प्रसिद्ध नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय ने शकुन्तला के चरित्र में उतार चढ़ाव को विशेष महत्त्वपूर्ण मान कर

कहा है—“शकुन्तला तपस्विनी होकर भी गृहस्थ है, ऋषिकन्या होकर भी प्रेमिका है। शान्ति की गोद में लालन-पालन होने पर भी उसकी मति चपल है। उसको लज्जा नहीं है, संयम नहीं है. धैर्य नहीं है। उसका नाम सीता, सावित्री शैव्या और दमयन्ती के साथ नहीं लिया जा सकता तो फिर किस गुण के कारण वह इस जगत्प्रसिद्ध नाटक की नायिका हुई ? जिस कारण से दुष्यन्त इस नाटक के नायक हुए हैं, उसी कारण उन्हीं के अनुरूप गुणों से शकुन्तला भी इस नाटक की नायिका हुई है। दुष्यन्त की भांति शकुन्तला के चरित्र का माहात्म्य उत्थान और पतन में है। "

शकुन्तला की सरलता अपराध में, दुख में, अभिज्ञता में, धैर्य और क्षमा में परिपक्व है, गम्भीर है और स्थायी है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर

शकुन्तला के आरम्भिक तरुण सौन्दर्य ने, मंगलमय परिणति में सफलता प्राप्त करके मर्त्यलोक को स्वर्ग के साथ मिला दिया है।

जर्मन महाकवि गोथे (गेटे)

१८वीं शती के उत्तरार्ध में यूरोप के विद्वान् उपनिषदों, गीता और कालिदास के साहित्य से परिचित हुए थे। वैदिक साहित्य और संस्कृत साहित्य ने शोपेनहार जैसे चिन्तकों और गेटे तथा
वर्ड्सवर्थ जैसे महाकवियों और यूरोप के अनेक मनीषियों की जीवन दृष्टि ही बदल दी।

बीसवीं शती के उत्तरार्ध में कम्प्यूटर के आविष्कार के कारण सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो कल्पनातीत क्रान्ति हुई है उसके कारण पाश्चात्य वैज्ञानिकों का ध्यान एक बार फिर संस्कृत की ओर आकृष्ट हुआ है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी के लिए संस्कृत ही सब से अधिक उपयुक्त और पूर्ण भाषा है। इसलिए आवश्यक है कि देश की युवा पीढ़ी संस्कृत साहित्य से परिचित हो। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर महाकवि कालिदास की कृतियों के कुछ विशिष्ट प्रसंगों और सुभाषितों का संकलन किया गया है।

पद्मश्री महामहोपाध्याय डॉ० सत्यव्रत जी शास्त्री ने इस संकलन का प्राक्कथन लिखने की कृपा की। उनकी इस अहैतुकी कृपा के लिए मैं उनके प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता हूं।

संस्कार—प्रकाशन के कुशल संचालक श्री अजयकुमार जी ने कालिदास सूक्तिसुधा के प्रकाशन का उत्तरदायित्व लेकर मेरा उत्साह बढ़ाया। इसके लिए मैं उन्हें हृदय से धन्यवाद देता हूं। मुझे विश्वास है कि सत्साहित्य के प्रकाशन में एक शताब्दि से भी अधिक प्राचीन उनकी प्रकाशन— संस्था देश के नवयुवकों का सफल मार्गदर्शन करती रहेगी।

आराधना
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ब्रह्मा

१. नमस्त्रिमूर्तये तुभ्यं प्राक् सृष्टेः केवलात्मने।
गुणत्रयविभागाय पश्चाद्भेदमुपेयुषे ॥ कुमार० २।४

हे ब्रह्मन् ! सृष्टि की रचना करने से पहले आपका केवल एक ही रूप रहता है किन्तु संसार बनाते समय आप सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों को उत्पन्न करके ब्रह्मा, विष्णु और महेश के नाम से त्रिमूर्ति बन जाते हैं। आपको हमारा प्रणाम स्वीकार हो।

२. यदमोघमपामन्तरुप्तं बीजमज ! त्वया।
अतश्चराचरं विश्वं प्रभवस्तस्य गीयसे ॥ कु० २।५ ॥

हे अजन्मा ब्रह्मा ! आपने सब से पहले जल उत्पन्न करके उस में कभी भी नष्ट न होने वाला बीज बो दिया। इस अमोघ बीज से सम्पूर्ण प्राणी और वृक्ष, पर्वत आदि स्थावर पदार्थ उत्पन्न हुए हैं, अतः संसार का निर्माण करने के कारण आपकी महिमा की स्तुति की जाती है।

३. तिसृभिस्त्वमवस्थाभिर्महिमानमुदीरयन्।
प्रलयस्थितिसर्गाणामेकः कारणतां गतः ॥ कु० २।६ ॥

आप ही शिव, विष्णु और हिरण्यगर्भ इन तीन अवस्थाओं में अपनी शक्ति प्रकट करके इस सारे संसार को उत्पन्न करते हैं तथा इसका पालन-पोषण करते हैं और अन्त में आप ही इस का नाश भी कर देते हैं।

४. स्त्रीपुंसावात्मभागौ ते भिन्नमूर्तेः सिसृक्षया।
प्रसूतिभाजः सर्गस्य तावेव पितरौ स्मृतौ ॥ कु० २।७॥

जब आप सृष्टि की रचना करना चाहते हैं तब आप स्त्री और पुरुष इन दो भिन्न रूपों में बंट जाते हैं। आपके ये दोनों स्त्री-पुरुष रूप ही सारे संसार के प्राणियों को जन्म देते हैं इसीलिए आप इस सम्पूर्ण जगत् के माता-पिता हैं।

५. स्वकालपरिमाणेन व्यस्तरात्रिन्दिवस्य ते।
यौ तु स्वप्नावबोधौ तौ भूतानां प्रलयोदयौ।कु० २।८ ॥

आपके द्वारा बनाये गये काल की गिनती के अनुसार आपके दिन और रात होते हैं। आपका जागरण काल संसार की रचना का समय होता है और आपके सो जाने पर प्रलय हो जाती है।

६. जगद्योनिरयोनिस्त्वं जगदन्तो निरन्तकः।
जगदादिरनादिस्त्वं जगदीशो निरीश्वरः ॥ कु० २।९॥

आप संसार बनाते हैं किन्तु आपको किसी ने उत्पन्न नहीं किया। आप ही सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करते हैं किन्तु आपका अन्त कभी नहीं होता। यद्यपि सृष्टि का आरम्भ होता है किन्तु आपका प्रारम्भ कभी नहीं होता। आप सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी हैं किन्तु आपका स्वामी कोई नहीं है।

७. आत्मानमात्मना वेत्सि सृजस्यात्मानमात्मना।
आत्मना कृतिना च त्वमात्मन्येव प्रलीयसे॥कु० २।१० ॥

आप ही अपने आप को जानते हैं और अपने ही स्वरूप से अपने को उत्पन्न करते हैं। और जब आपकी इस सृष्टि की रचना का उद्देश्य पूरा हो जाता है तब आप अपने को अपने में ही लीन कर लेते हैं।

८. द्रवः सङ्घातकठिनः स्थूलः सूक्ष्मो लघुर्गुरुः।
व्यक्तो व्यक्तेतरश्चासि प्राकाम्यं ते विभूतिषु॥कु०२।११॥

आप तरल भी हैं और ठोस भी आप बड़े आकार के भी हैं और बहुत छोटे आकार के भी हैं। आप बहुत स्थूल भी हैं और बहुत सूक्ष्म भी हैं। आप दिखाई भी देते हैं और दीखते भी नहीं। सभी सिद्धिया आपके वश में हैं इसलिए आप जब जैसा रूप धारण करना चाहते हैं

तब वैसे ही बन जाते हैं।

९. उद्घातः प्रणवो यासां न्यायैस्त्रिभिरुदीरणम्।
कर्म यज्ञः फलं स्वर्गस्तासां त्वं प्रभवो गिराम् ॥ कु० २।१२॥

आप ही उस वैदिक भाषा के रचयिता हैं जो ओंकार से प्रारम्भ होती है और जिसका उच्चारण उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित इन तीन स्वरों से होता है। इसी वैदिकी भाषा के मन्त्रों द्वारा यज्ञ करके मनुष्यों को स्वर्ग फल की प्राप्ति होती है।

१०. त्वामामनन्ति प्रकृतिं पुरुषार्थप्रवर्तिनीम्।
तद्दर्शिनमुदासीनं त्वामेव पुरुषं विदुः ॥ कु० २।१३॥

मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों में लगाने वाली प्रकृति आप ही हैं। इस संसार का निर्माण करने वाली प्रकृति के तटस्थ या उदासीन द्रष्टा भी आप ही हैं।

११. त्वं पितॄणामपि पिता देवानामपि देवता।
परतोऽपि परश्चासि विधाता वेधसामपि ॥ कु० २।१४॥

आप हमारे पूर्वजों के भी पिता हैं और देवताओं के भी देव हैं। आप अदृश्य जगत् और परम सत्ता से भी कहीं अधिक उत्कृष्ट हैं तथा सृष्टि के निर्माण में लगे हुए गौण सृष्टिकर्ता दक्ष आदि प्रजापतियों के भी आप स्वामी हैं।

१२. त्वमेव हव्यं होता च भोज्यं भोक्ता च शाश्वतः।
वेद्यं च वेदिता चासि ध्याता ध्येयं च यत्परम् ॥ कु० २।१५॥

आप ही हवन की सामग्री हैं और यज्ञ करने वाले भी हैं। आप ही संसार की विभिन्न भोग्य वस्तुएं हैं और आप ही इन सभी भोगों का उपयोग भी करते हैं। इस सारे संसार के पदार्थों में आप ही को जानने का हमें प्रयत्न करना चाहिये और आप ही अपने को भलीभांति जानते हैं। आप ही का हम सब को ध्यान करना चाहिये और आप ही ध्यान करने वाले भी हैं।

१३. मयि सृष्टिर्हि लोकानां रक्षा युष्मास्ववस्थिता ॥

कुमार० २।२८॥

मेरा (ब्रह्मा) का काम तो संसार को उत्पन्न करना है इसकी रक्षा का भार तो देवताओं पर ही है।

विष्णु

१. नमो विश्वसृजे पूर्वं विश्वं तदनु बिभ्रते।
अथ विश्वस्य संहर्त्रे तुभ्यं त्रेधा स्थितात्मने ॥

रघु० १०।१६॥

हे भगवान् ! आप प्रारम्भ में संसार को उत्पन्न करते हैं, फिर इसका पालन पोषण करते हैं और अन्त में इस सृष्टि का संहार कर देते हैं। इस सृष्टि के उत्पादक, पालक और संहारक इन तीन रूपों को समय-समय पर धारण करने वाले आपको हम प्रणाम करते हैं।

२. रसान्तराण्येकरसं यथा दिव्यं पयोऽश्नुते।
देशे देशे गुणेष्वेवमवस्थास्त्वमविक्रियः ॥

रघु० १०।१७॥

एक ही स्वाद का वर्षा का जल अलग-अलग स्थानों पर बरसने से भिन्न-भिन्न स्वादवाला हो जाता है। वैसे ही प्रकृति के विकारों से प्रभावित न होने पर भी आप सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के द्वारा अनेक रूप धारण कर लेते हैं।

३. अमेयो मितलोकस्त्वमनर्थी प्रार्थनावहः।
अजितो जिष्णुरत्यन्तमव्यक्तो व्यक्तकारणम् ॥

रघु० १०।१८॥

हे प्रभो ! आपका विस्तार कोई नहीं जान सकता किन्तु आप सभी लोकों को जानते हैं। आपको किसी से भी किसी वस्तु की इच्छा नहीं है किन्तु आप सब की मनोकामनाएं पूरी करते हैं। कोई भी शक्ति आपको जीत नहीं सकती किन्तु आप सभी पर विजय प्राप्त कर चुके हैं। आप किसी को नहीं दीख पाते किन्तु आपने यह दृश्य जगत् उत्पन्न किया है।

४. हृदयस्थमनासन्नमकामं त्वां तपस्विनम्।
दयालुमनघस्पृष्टं पुराणमजरं विदुः॥ रघु० १०।१९॥

आप सब प्राणियों के हृदयों में विराजमान होते हुए भी इन सभी प्राणियों से बहुत दूर हैं। आपके हृदय में कोई कामना भी नहीं है फिर भी आप तपस्वी हैं। आप दयालु हैं, रोग-शोक से परे हैं। आप पुराण पुरुष होने पर भी जराजीर्ण अर्थात् वृद्ध नहीं हैं।

५. सर्वज्ञस्त्वमविज्ञातः सर्वयोनिस्त्वमात्मभूः।
सर्वप्रभुरनीशस्त्वमेकस्त्वं सर्वरूपभाक्॥

रघु० १०।२०॥

आप सब कुछ जानते हैं किन्तु आपको कोई नहीं जान पाता। आप सभी प्राणियों को उत्पन्न करते हैं किन्तु आप स्वयमेव उत्पन्न हुए हैं। आप सब के स्वामी हैं किन्तु आपका कोई स्वामी नहीं है। आप एक रूप होते हुए भी इस संसार के नानाविध सभी रूपों में समाये हुए हैं।

६. सप्तसामोपगीतं त्वां सप्तार्णवजलेशयम्।
सप्तार्चिमुखमाचख्युः सप्तलोकैकसंश्रयम्॥

रघु० १०।२१॥

सामवेद के सातों प्रकारों के गान में आपका स्तुति गान किया जाता है। आप पृथ्वी के सातों महासागरों के जल में निवास करते हैं। सूर्य की सातों किरणें या सात अग्नियां आपके मुख हैं और आप ही सातों लोकों के एकमात्र आधार हैं।

७. चतुर्वर्गफलं ज्ञानं कालावस्थाश्चतुर्गुणाः।
चतुर्वर्णमयो लोकस्त्वत्तः सर्वं चतुर्मुखात्॥

रघु १०।२२॥

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाला ज्ञान आपके चारों मुखों से मनुष्यों को प्राप्त हुआ है। चार युगों में विभक्त काल भी आपने बनाया है। प्राणियों की बाल, युवा, वृद्धावस्था और मृत्यु को तथा ब्राह्मण. क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों को भी आपने ही बनाया है।

८. अभ्यासनिगृहीतेन मनसा हृदयाश्रयम्।
ज्योतिर्मयं विचिन्वन्ति योगिनस्त्वां विमुक्तये॥

रघु० १०।२३॥

अपने हृदय में विराजमान आपका साक्षात्कार करने के लिए योगी अपने मन को प्राणायाम आदि योगसाधनों से वश में करने का अभ्यास करते हैं जिससे उन्हें इस संसार से मुक्ति मिल सके।

९. अजस्य गृह्णतो जन्म निरीहस्य हतद्विषः।
स्वपतो जागरूकस्य याथार्थ्यं वेद कस्तव॥

रघु० १०।२४॥

हे प्रभो! आप अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। आपको किसी से भी राग-द्वेष नहीं है फिर भी आप शत्रुओं का नाश करते हैं। आप योगनिद्रा में रहने पर भी सदा जागते रहते हैं, ऐसी स्थिति में आपका यथार्थ स्वरूप कौन जान सकता है।

१०. शब्दादीन्विषयान्भोक्तुं चरितुं दुश्चरं तपः
पर्याप्तोऽसि प्रजाः पातुमौदासीन्येन वर्तितुम्॥

रघु० १०।२५॥

कृष्ण आदि अवतारों के रूपों में आप शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि सांसारिक विषयों का भोग करते हैं। नर-नारायण के रूप से कठिन तपस्या करते हैं। राम का अवतार लेकर प्रजा पालन का आदर्श स्थापित करते हैं और यह सब करने पर भी आप शान्त स्वरूप धारण कर उदासीन हो जाते हैं।

११. बहुधाऽप्यागमैर्भिन्नाः पन्थानः सिद्धिहेतवः।
त्वय्येव निपतन्त्योघजाह्नवीया इवार्णवे॥

रघु० १०।२६॥

शास्त्रों में सिद्धि पाने के अनेक मार्ग बताये गये हैं किन्तु जैसे गंगा की अनेक धाराएं समुद्र में ही जाती हैं वैसे ही सिद्धि के विभिन्न मार्गों से साधक आप को ही पाते हैं।

१२. त्वय्यावेशितचित्तानां त्वत्समर्पितकर्मणाम्।
गतिस्त्वं वीतरागाणामभूर्यः सन्निवृत्तये॥

रघु० १०।२७॥

जो साधक सदा आपका ध्यान करते हैं और अपने सारे कर्मों के फल आपको ही अर्पित कर देते हैं और जिन साधकों के मन से राग-द्वेष

के भाव मिट गये हैं उन्हें जन्म-मरण के बन्धन से आप ही छुटकारा दिलाते हैं।

१३. प्रत्यक्षोऽप्यपरिच्छेद्यो मह्यादिर्महिमा तव।
आप्तवागनुमानाभ्यां साध्यं त्वां प्रति का कथा॥

रघु० १०।२८॥

यद्यपि पृथ्वी आदि देखकर आपकी महिमा का आभास होता है किन्तु यह सृष्टि आपका पूरी तरह वर्णन नहीं कर सकती। ऐसे में वेदों के वर्णन से तथा अनुमान करने से आपका ज्ञान कैसे हो सकता है।

१४. उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः।
स्तुतिभ्यो व्यतिरिच्यन्ते दूराणि चरितानि ते।

रघु० १०।३०॥

जिस प्रकार समुद्र के रत्नों की और सूर्य की किरणों की गिनती नहीं की जा सकती उसी प्रकार अनेकविध स्तुतियों से भी आपका सम्पूर्ण गुणगान नहीं किया जा सकता।

१५. अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किञ्चन विद्यते।
लोकानुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणोः॥

रघु० १०।३१॥

इस संसार की ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे आप प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी आप जन्म लेते हैं और तरह-तरह के कर्म करते हैं। इसका कारण संसार का भला करना ही है।

१६. महिमानं यदुत्कीर्त्य तव संह्रियते वचः।
श्रमेण तदशक्त्या वा न गुणानामियत्तया॥

रघु० १०।३२॥

आपकी स्तुति कर अब हम मौन हो रहे हैं, क्योंकि आपका गुणगान करने की सामर्थ्य हम में नहीं रह गयी है और हम थक गये हैं। ऐसा नहीं है कि हमने आपके सारे गुणों का बखान कर डाला है।

१७. विभक्तात्मा विभुस्तासामेकः कुक्षिष्वनेकधा।
उवास प्रतिमाचन्द्रः प्रसन्नानामपामिव॥

रघु० १०।६५॥

यद्यपि भगवान् विष्णु एक ही हैं, परन्तु जैसे स्वच्छ जलों में चन्द्रमा की अनेक परछाइयां दिखाई देती हैं उसी प्रकार सर्वव्यापी विष्णु दशरथ की तीनों रानियों के गर्भों में अलग-अलग रह रहे थे।

शिव

१. वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥

रघु० १।१॥

वाणी और अर्थ अलग-अलग होते हुए भी एक ही माने जाते हैं। उसी प्रकार इस समस्त सृष्टि के माता-पिता पार्वती और शिव भी एक ही हैं। इसलिए मैं वाणी और इसका अर्थ भली भांति समझने के लिए तथा वाणी और अर्थ का ठीक प्रकार से प्रयोग करने के लिए शिव और पार्वती को प्रणाम करता हूं।

२. वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्य स्थितं रोदसी,
यस्मिन्नीश्वर इत्यनन्यविषयः शब्दो यथार्थाक्षरः।
अन्तर्यश्च मुमुक्षुभिर्नियमितप्राणादिभिर्मृग्यते,
स स्थाणुः स्थिरभक्तियोगसुलभो निःश्रेयसायाऽस्तु वः॥

विक्रमो० १।१॥

वेदान्त दर्शन के विभिन्न मतों में जिसे ऐसा एकमात्र पुरुष माना गया है जो आकाश और पृथिवी में सभी जगह समाया हुआ है। जिसका ‘ईश्वर’ नाम वास्तव में ठीक है क्योंकि अन्य किसी भी व्यक्ति या वस्तु को ईश्वर नहीं कहा जा सकता। मोक्ष चाहने वाले लोग जिस ईश्वर को प्राणायाम आदि अष्टांग योग के साधनों से अपने हृदय के अन्दर ढूंढ़ते हैं. ऐसे स्थिर - भक्ति अर्थात् सच्ची भक्ति से प्राप्त हो सकने वाले शिव जी आप सभी का कल्याण करें।

३. या सृष्टिः स्त्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री,
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः,
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः॥

शाकुन्तल १। १॥

इस संसार को बनाने वाले ब्रह्मा ने सब से पहले जल बनाया था, भगवान् शिव जल के रूप में हमें दिखाई देते हैं। शिव उस अग्नि के रूप में भी दीखते हैं जो विधिपूर्वक यज्ञ में दी गई आहुति को ग्रहण करती है। शिव यज्ञ करने वाले पुरुष के रूप में भी दिखाई देते हैं। शिव, सूर्य और चन्द्र के रूप में भी दिखाई देते हैं जो सूर्य और चन्द्र दिन और रात का समय नियत करते हैं। शिव, उस आकाश के रूप में भी दीखते हैं जिस आकाश में सुनाई देने वाला शब्द सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है। शिव, उस पृथिवी के रूप में भी दीख रहे हैं जो सभी प्रकार के बीजों को उत्पन्न करती है। वे शिव उस वायु के रूप में भी दीखते हैं जिससे सारे प्राणी जीवित रहते हैं। इन जल, अग्नि, होता ( यज्ञ करने वाला) सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथिवी और वायु इन आठ रूपों में सभी को दिखाई देने वाले भगवान् शिव आप सब का कल्याण करें।

४. एकैश्वर्ये स्थितोऽपि प्रणतबहुफले यः स्वयं कृत्तिवासाः,
कान्तासम्मिश्रदेहोऽप्यविषयमनसां यः परस्ताद् यतीनाम्।
अष्टाभिर्यस्य कृत्स्नं जगदपि तनुभिर्बिभ्रतो नाभिमानः,
सन्मार्गालोकनाय व्यपनयतु स वस्तामसीं वृत्तिमीशः॥

मालविका ० १। १॥

भक्तजनों की सभी इच्छाएं पूरी कर देने के लिए अपार सुख सम्पत्ति के स्वामी होने पर भी जो स्वयं हाथी की खाल ओढ़ते हैं। अपने शरीर में धर्मपत्नी पार्वती को धारण कर अर्धनारीश्वर होने पर भी जो सांसारिक भोगों में न रमने वाले ऋषियों से भी कहीं अधिक निर्लिप्त हैं। अपने आठ स्वरूपों से सम्पूर्ण संसार का पालन करते हुए भी जो अभिमान रहित हैं। ऐसे शिव जी आपकी तामसिक वृत्तियों को दूर कर आपको सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।

५. स हि देवः परं ज्योतिस्तमः पारे व्यवस्थितम्।
परिच्छिन्नप्रभावद्धिर्न मया न च विष्णुना॥

कुमार० २।५८॥

देव शिव, अन्धकार से परे परम ज्योति स्वरूप हैं। उनका प्रभाव छिपा रहता है, इसलिए मैं (ब्रह्मा) और विष्णु भी उन्हें भली भांति नहीं

जान पाते हैं।

६. अणिमादिगुणोपेतमस्पृष्टपुरुषान्तरम्
शब्दमीश्वर इत्युच्चैः सार्धचन्द्रं बिभर्ति यः॥

कु० ६ ७५।

जो अणिमा आदि आठों सिद्धियों से युक्त हैं। जिनके सिवाय कोई और ईश्वर नहीं कहा जा सकता और जिन शिव के माथे पर अर्धचन्द्र विराजमान है।

७. कलितान्योन्यसामर्थ्यैःपृथिव्यादिभिरात्मभिः।
येनेदं ध्रियते विश्वं धुर्यैर्यानमिवाध्वनि॥

कु० ६।७६

जो शिव, पृथिवी आदि अपने आठ शरीरों से इस सम्पूर्ण सृष्टि का पालन कर रहे हैं, और जिनके पृथिवी, जल आदि आठों शरीर एक दूसरे की सहायता करते हुए संसार को नियमों में बांध कर उसी प्रकार चला रहे हैं जैसे सधे हुए घोड़े रथ को चलाते हैं।

८. योगिनो यं विचिन्वन्ति क्षेत्राभ्यन्तरवर्तिनम्।
अनावृत्तिभयं यस्य पदमाहुर्मनीषिणः॥

कु० ६।७७॥

जिन शिव को योगीजन अपने शरीर के अन्तस्तल में ढूंढ़ते हैं। विद्वान् पुरुष जिन शिव को जन्म और मृत्यु के बन्धन से परे मानते हैं।

९. असि त्वमेको जगतामधीशः स्वर्गौकसां त्वं विपदो निहंसि।
ततः सुरेन्द्रप्रमुखाः प्रभो त्वामुपासते दैत्यवरैर्विधूताः॥

कुमार० ९।७॥

हे प्रभो ! आप ही सम्पूर्ण सृष्टियों के स्वामी हैं और आप ही स्वर्ग के निवासी देवताओं की विपत्तियां दूर करते हैं, इसीलिए शक्तिशाली राक्षसों से हारे हुए इन्द्र आदि सभी देवता आपकी ही शरण में आते हैं।

१०. पुरातनीं ब्रह्मकपालमालां कण्ठे वहन्तं पुनराश्वसन्तीम्।
उद्गीतवेदां मुकुटेन्दुवर्षत्सुधाभरौघाप्लवलब्धसंज्ञाम्॥

कुमार० १२।१७॥

शिव जी के गले में मनुष्यों की खोपड़ियों की पुरानी माला थी। शिव जी के सिर पर विराजमान चन्द्रमा से निकली अमृत की बूंदें इन

खोपड़ियों में पड़ने से वे फिर जीवित होकर वेद मन्त्रों का गान कर रही थीं।

११. ज्ञानप्रदीपेन तमोपहेनाविनश्वरेणास्खलितप्रभेण।
भूतं भवद्भावि च यच्च किञ्चित्सर्वज्ञ सर्वं तव गोचरं तत्॥

कु० १२।४४॥

आपका ज्ञानचक्षु, अज्ञान का अन्धकार मिटाता है, इस ज्ञानचक्षु का नाश कभी नहीं होता और न ही इसका प्रकाश कभी मन्द पड़ता है। इसलिए आप भूत, भविष्य और वर्तमान काल की सारी बातें जानते हैं और इस सारी सृष्टि में जो कुछ है वह आपकी दृष्टि से अनभिज्ञ नहीं है।

१२. पुरा मयाऽकारि गिरीन्द्रपुत्र्याः प्रतिग्रहोऽयं नियतात्मनाऽपि।
तत्रैष हेतुः तद्भवेन वीरेण यद् वध्यत एष शत्रुः ॥

कुमार० १२/५५ ॥

संयमी और जितेन्द्रिय जीवन बिताने पर भी मैंने पार्वती से इसलिए विवाह किया ताकि हम से उत्पन्न वीर पुत्र देवताओं के शत्रु तारक का नाश करे।

कुमारसम्भव

हिमालय

१. अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

कुमार० १।१॥

भारतवर्ष की उत्तर दिशा में पर्वतों का सम्राट् दिव्य हिमालय पर्वत है। जो भारत भूमि के पूर्व समुद्र और पश्चिम समुद्र की गहराई नाप कर पृथिवी का मापदण्ड बन गया है।

२. धातुताम्राधरः प्रांशुर्देवदारुबृहद्भुजः।
प्रकृत्यैव शिलोरस्कः सुव्यक्तो हिमवानिति ॥

कुमार० ६।५१॥

गेरू आदि धातुओं की लाल चट्टानों के ओठों, ऊंचे देवदारु वृक्षों की लम्बी भुजाओं और स्वभाव से ही चट्टानों की छाती वाला हिमालय ही है।

३. मनसः शिखराणां च सदृशी ते समुन्नतिः ॥

कुमार० ६। ६६ ॥

तुम्हारा मन भी उतना ही उच्च विचारों वाला है जितनी ऊँची तुम्हारी चोटियां हैं।

पार्वती

१. योषित्सु तद्वीर्यनिषेकभूमिः सैव क्षमेत्यात्मभुवोपदिष्टम्॥

कु० ३।१६॥

मुझे ब्रह्मा जी ने बताया है कि स्त्रियों में पार्वती ही शिव जो का वीर्य धारण कर सकती है।

२. वधूं द्विजः प्राह तवैष वत्से ! वह्निर्विवाहं प्रति कर्मसाक्षी।
शिवेन भर्त्रा सह धर्मचर्या कार्या त्वया मुक्तविचारयेति ॥

कुमार० ७।८३ ॥

पुरोहित ने पार्वती से कहा बेटी ! तुम्हारे विवाह का साक्षी यह अग्नि है। अब तुम्हें अपने पति शिव जी के साथ धर्म के सभी कार्य सन्देह रहित होकर करने चाहिये।

मदन—दहन

१. स देवदारुद्रुमवेदिकायां शार्दूलचर्मव्यवधानवत्याम्।
आसीनमासन्नशरीरपातस्त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श ॥

कुमार० ३।४४ ॥

जल्दी ही मृत्यु के मुख में समाने वाले कामदेव ने देवदार के पेड़ के नीचे बनी वेदी पर बाघाम्बर बिछाकर बैठे संयमी शिव जी को देखा।

२. पर्यङ्कबन्धस्थिरपूर्वकायमृज्वायतं सन्नमितोभयांसम्।
उत्तानपाणिद्वयसन्निवेशात् प्रफुल्लराजीवमिवाङ्कमध्ये ॥

कुमार० ३।४५॥

शिव जी पालथी लगाकर शरीर को सीधा और निश्चल रखकर ध्यान मग्न बैठे हुए थे। उनके कन्धे कुछ झुके हुए थे और खिले कमल जैसी उनकी हथेलियां गोद में थीं।

३. भुजङ्गमोन्नद्धजटाकलापं कर्णावसक्तद्विगुणाक्षसूत्रम्।
कण्ठप्रभासङ्गविशेषनीलां कृष्णत्वचं ग्रन्थिमतीं दधानम् ॥

कुमार० ३।४६॥

शिव जी ने अपनी जटाएं सांपों से बांधी हुई थी। उनके कान पर दुहरी रुद्राक्ष माला लटक रही थी। उन्होंने शरीर पर कृष्ण मृग की त्वचा बांध रखी थी जो उनके कण्ठ की नीली चमक से सांवली लग रही थी।

४. किञ्चित्प्रकाशस्तिमितोग्रतारैर्भ्रूविक्रियायां विरतप्रसङ्गैः।
नेत्रैरविस्पन्दितपक्ष्ममालैर्लक्ष्यीकृतघ्राणमधोमयूखैः ॥

कुमार० ३।४७॥

शिव जी की भौंहें और पलकें निश्चल थीं। आंखों से थोड़ी सी चमक निकल रही थीं। आंखों की पुतलियां भी स्थिर थीं। वे अपनी नाक के अगले भाग पर अपलक देख रहे थे।

५. अवृष्टिसंरम्भमिवाम्बुवाहम् अपामिवाधारमनुत्तरङ्गम्
अन्तश्चराणां मरुतां निरोधान्निवातनिष्कम्पमिव प्रदीपम् ॥

कु० ३।४८॥

शिव ने शरीर के अन्दर चलने वाले श्वास-प्रश्वास, प्राण-अपान आदि पवनों को रोका हुआ था, इसलिए वे न बरसने वाले बादल, तरङ्ग रहित तालाब या वायु रहित स्थान में जलते हुए दीपक की स्थिर ज्योति की भांति निश्चल बैठे हुए थे।

६. कपालनेत्रान्तरलब्धमार्गैर्ज्योतिः प्ररोहैरुदितैः शिरस्तः।
मृणालसूत्राधिकसौकुमार्यां बालस्य लक्ष्मीं ग्लपयन्तमिन्दोः ॥

कु० ३।४९॥

उनके मस्तक और नेत्रों से निकलने वाले तेज की किरणों के आगे कमलनाल के तन्तुओं से भी अधिक कोमल बाल चन्द्रमा की किरणें फीकी दीख रही थीं।

७. मनोनवद्वारनिषिद्धवृत्ति हृदि व्यवस्थाप्य समाधिवश्यम्।
यमक्षरं क्षेत्रविदो विदुस्तमात्मानमात्मन्यवलोकयन्तम् ॥

कुमार० ३।५०॥

समाधिस्थ शिव उस अविनाशी प्रभु का अपने हृदय में साक्षात्कार कर रहे थे जिसे योगीजन अपना मन और चक्षु, कान, नासिका, मुख आदि शरीर के नौ द्वारों को वश में करके और समाधि लगाकर देख पाते हैं।

८. स्मरस्तथाभूतमयुग्मनेत्रं पश्यन्नदूरान्मनसाऽप्यधृष्यम्।
नालक्षयत्साध्वससन्नहस्तः स्त्रस्तं शरं चापमपि स्वहस्तात् ॥

कुमार० ३।५१॥

तीन नेत्र वाले शिव जी का जो स्वरूप मन की कल्पना में भी नहीं आ सकता उसे इतने समीप से देखकर कामदेव के हाथ डर के मारे इतने ढीले पड़ गये कि अनजाने ही हाथ से उसके धनुष और बाण गिर पड़े।

९. निर्वाणभूयिष्ठमथास्य वीर्यं सन्धुक्षयन्तीव वपुर्गुणेन।
अनुप्रयाता वनदेवताभ्यामदृश्यत स्थावरराजकन्या ॥

कुमार० ३।५२॥

शिव जी के इस प्रताप के आगे कामदेव शक्तिहीन हो चुका था, तभी वन देवियों के साथ आती हुई पर्वतराज की रूपसी पुत्री पार्वती को देखकर कामदेव का सामर्थ्य फिर लौट आया।

१०.अशोकनिर्भर्त्सितपद्मरागमाकृष्टहेमद्युतिकर्णिकारम्।
मुक्ताकलापीकृतसिन्धुवारं वसन्तपुष्पाभरणं वहन्ती ॥

कुमार० ३।५३॥

पार्वती की देह लाल पद्मरागमणि को भी लज्जित कर देने वाले अशोक के नवपल्लवों, सोने से भी अधिक कान्तिमान् कनेर के फूलों और मोतियों की माला जैसे सफेद सिन्धुवार के वासन्ती फूलों के आभूषणों से सजी थी।

११. आवर्जिता किञ्चिदिव स्तनाभ्यां वासो वसाना तरुणार्करागम्।
पर्याप्तपुष्पस्तबकावनम्रा सञ्चारिणी पल्लविनी लतेव॥

कुमार०३।५४॥

पार्वती स्तनों के भार से कुछ झुकी हुई थी, वह प्रातः काल के सूर्य को आभा जैसे लाल वस्त्र पहिने हुए थी। इस रूप में वे ऐसी लग रहीं थीं जैसे फूलों के गुच्छों के भार से झुकी हुई नये लाल पत्तों वाली बेल चल रही हो।

१२. स्त्रस्तां नितम्बादवलम्बमाना पुनः पुनः केसरदामकाञ्चीम्।
न्यासीकृतां स्थानविदा स्मरेण मौर्वीद्वितीयामिव कार्मुकस्य ॥

कुमार० ३।५५॥

पार्वती की कमर में बंधी केसर के फूलों की तगड़ी जब खिसक जाती थी तब वे उसे ऊपर कर लेती थीं। वह तगड़ी कामदेव के धनुष की दूसरी डोरी जैसी दीखती थी जिसे कामदेव ने पार्वती के शरीर में ठीक जगह पहना दिया था।

१३. सुगन्धिनिश्वासविवृद्धतृष्णं बिम्बाधरासन्नचरं द्विरेफम्।
प्रतिक्षणं सम्भ्रमलोलदृष्टिर्लीलारविन्देन निवारयन्ती ॥

कु० ३।५६॥

पार्वती की सुवासित श्वास से ललचाये भौर उनके बिम्बाफल जैसे लाल ओठों के पास मंडरा रहे थे। घबरायी हुई पार्वती अपने हाथ के कमल से भौरों को बार-बार भगा रही थी।

१४. तां वीक्ष्य सर्वावयवानवद्यां रतेरपि ह्रीपदमादधानाम्।
जितेन्द्रिये शूलिनि पुष्पचापः स्वकार्यसिद्धिं पुनराशशंसे ॥

कु० ३१५७॥

अपने सौन्दर्य से रति को भी में लज्जित कर देने वाली सर्वाग सुन्दरी पार्वती को देखकर कामदेव ने जितेन्द्रिय शिव की तपस्या भंग करने की फिर ठान ली।

१५. भविष्यतः पत्युरुमापि शम्भोः समाससाद प्रतिहारभूमिम्।
योगात्स चान्तः परमात्मसंज्ञं दृष्ट्वा परं ज्योतिरूपारराम ॥

कु० ३१५८॥

पार्वती अपने भावी पति शिव जी के तपस्या स्थल पर पहुंची, तभी शिव ने भी अपने हृदय में परमात्मा की ज्योति का दर्शन कर अपनी समाधि भंग की।

१६. ततो भुजङ्गाधिपतेः फणाग्रैरधःकथञ्चिद्धृतभूमिभागः।
शनैः कृतप्राणविमुक्तिरीशः पर्यङ्कबन्धं निबिडं बिभेद ॥

कु० ३।५९॥

समाधि से जगे शिव जी ने धीरे से श्वास छोड़ा और पालथी खोल दी। शिव के भूमि पर पैर रखते ही शेषनाग ने बड़ी कठिनाई से अपने फनों पर उन का भार सम्हाला।

१७. तस्मै शशंस प्रणिपत्य नन्दी शुश्रूषया शैलसुतामुपेताम्।
प्रवेशयामास च भर्तुरेनां भ्रूक्षेपमात्रानुमतप्रवेशाम् ॥

कुमार० ३।६०॥

नन्दी ने प्रणाम करके शिव जी से कहा कि आपकी सेवा के लिए पार्वती जी आईं हैं। शिव जी ने आंख के इशारे से उन्हें अन्दर ले आने की अनुमति दे दी।

१८. तस्याः सखीभ्यां प्रणिपातपूर्वं स्वहस्तलूनः शिशिरात्ययस्य।
व्यकीर्यत त्र्यम्बकपादमूले पुष्पोच्चयः पल्लवभङ्गभिन्नः ॥

कु० ३।६१॥

पार्वती की दो सखियों ने शिव जी को सब से पहले प्रणाम किया और फिर अपने हाथों से चुने हुए वसन्त के फूल और पत्तों के टुकड़ों का ढेर शिव जी के पैरों पर बिखेर दिया।

१९. उमापि नीलालकमध्यशोभि विस्रंसयन्ती नवकर्णिकारम्।
चकार कर्णच्युतपल्लवेन मूर्ध्ना प्रणामं वृषभध्वजाय ॥

कु० ३।६२॥

उमा ने भी शिव जी को सिर झुकाकर प्रणाम किया। अपना सिर झुकाने से पार्वती के सिर के काले बालों में गुंथे कनेर के नये फूल और कानों के आभूषण बने नये पत्ते भी शिव जी के आगे गिर पड़े।

२०. अनन्यभाजं पतिमाप्नुहीति सा तथ्यमेवाभिहिता भवेन।
न हीश्वरव्याहृतयः कदाचित् पुष्णन्ति लोको विपरीतमर्थम्॥

कु० ३।६३॥

शिव जी ने पार्वती को आशीर्वाद दिया कि तुम्हें सर्वश्रेष्ठ पति मिले। उनकी यह बात सत्य ही थी क्योंकि अधिकारसम्पन्न महापुरुषों की वाणी झूठी नहीं होती।

२१. कामस्तु बाणावसरं प्रतीक्ष्य पतङ्गचद्वह्निमुखं विविक्षुः।
उमासमक्षं हरबद्धलक्ष्यः शरासनज्यां मुहुराममर्श॥

कु० ३।६४॥

आग में कूद पड़ने के लिए तैयार पतंगे की तरह कामदेव ने सोचा कि शिव जी पर बाण चलाने का यह उचित अवसर है। उसने पार्वती के सामने बैठे शिव जी को निशाना बनाकर अपने धनुष की डोरी खींची।

**२२. अथोपनिन्ये गिरिशाय गौरी तपस्विने ताम्ररुचा करेण।
विशोषितां भानुमतो मयूखैर्मन्दाकिनी पुष्करबीजमालाम् **

कुमार०३।६५॥

प्रणाम करके पार्वती ने अपने सुन्दर लाल हाथों से स्वर्ग की गंगा में उगे और धूप में सुखाये कमल के बीजों की माला शिव जी के गले में पहिना दी।

२३. प्रतिग्रहीतुं प्रणयिप्रियत्वात् त्रिलोचनस्तामुपचक्रमे च
सम्मोहनं नाम च पुष्पधन्वा धनुष्यमोघं समधत्त बाणम्॥

कुमार०३।६६॥

अपने भक्त से स्नेह करने के नाते शिव जी ने पार्वती की वह माला स्वीकार की ही थी कि कामदेव ने सम्मोहन नाम का अमोघ बाण अपने धनुष पर चढ़ा लिया।

२४. हरस्तु किञ्चित्परिलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः।
उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि॥

कुमार० ३।६७॥

चन्द्रमा के उदय होने पर जैसे समुद्र में ज्वार आने लगता है वैसे

ही बिम्बाफल जैसे लाल होठों वाले उमा के मुख को देखकर शिव जी के हृदय में कुछ हलचल होने लगी और वे पार्वती को एकटक देखने लगे।

२५. विवृण्वती शैलसुताऽपि भावमङ्गैःस्फुरद् बालकदम्बपुष्पैः।
साचीकृता चारुतरेण तस्थौ मुखेन पर्यस्तविलोचनेन॥

कुमार० ३।६८॥

पार्वती भी फूले हुए कदम्ब के नये फूलों की भांति पुलकित अंगों से अपना प्रेम प्रकट करती हुई, शर्मायी आँखों से शिव जी को निहारती हुई अपना बहुत ही सुन्दर मुखड़ा कुछ झुकाकर उनके सामने खड़ी रही।

२६. अथेन्द्रियक्षोभमयुग्मनेत्रः पुनर्वशित्वाद् बलवन्निगृह्य।
हेतुं स्वचेतोर्विकृतेर्दिदृक्षुर्दिशामुपान्तेषु ससर्ज दृष्टिम्॥

कुमार० ३।६९॥

जितेन्द्रिय शिव ने अपनी इन्द्रियां फिर अपने वश में कर लों और मन की चंचलता का कारण जानने के लिए उन्होंने चारों ओर अपनी दृष्टि घुमाई।

२७. स दक्षिणापाङ्गनिविष्टमुष्टिं नतांसमाकुञ्चितसव्यपादम्।
ददर्श चक्रीकृतचारुचापं प्रहर्तुमभ्युद्यतमात्मयोनिम्॥

कुमार० ३७०॥

शिव जी ने देखा कि कामदेव ने धनुष तान रखा है और दाहिनी आँख तक डोर खींच रखी है, वह बाण छोड़ने के लिए दांया कन्धा झुकाकर और बांया पैर मोड़कर बैठा है। तस्य।

२८. तपः परामर्शविवृद्धमन्योभ्रूभङ्गदुष्प्रेक्ष्यमुखस्य
स्फुरन्नुदर्चिः सहसा तृतीयादक्ष्णः कृशानुः किल निष्पपात॥

कु० ३।७१॥

अपनी तपस्या में विघ्न पड़ने पर शिव जी को इतना क्रोध आया कि उनकी चढ़ी हुई त्यौरियों वाले मुख को देखने का साहस नहीं होता था। तभी उनके तीसरे नेत्र से धधकती आग निकली।

२९. क्रोधं प्रभो ! संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति।
तावत् स वह्निर्भवनेत्रजन्मा भस्मावशेषं मदनं चकार॥

कुमार ३।७२॥

यह देख आकाश में उपस्थित देवता पुकार उठे हे प्रभो ! अपना क्रोध रोकिये रोकिये किन्तु शिव जी के तीसरे नेत्र से निकली ज्वाला ने कामदेव को जलाकर राख कर दिया।

रति—विलाप

१. अयि जीवितनाथ ! जीवसीत्यभिधायोत्थितया तया पुरः।
ददृशे पुरुषाकृतिं क्षितौ हरकोपानलभस्मकेवलम्॥

कुमार० ४।३॥

प्राणनाथ ! क्या तुम जीवित हो ? कहती हुई रति जब बेहोशी से उठी तो उसे महादेव जी की क्रोधाग्नि से भस्म पुरुष के आकार की राख का ढेर अपने सामने दिखाई दिया।

२. अथ सा पुनरेव विह्वला वसुधालिङ्गनधूसरस्तनी।
विललाप विकीर्णमूर्धजा समदुःखामिव कुर्वती स्थलीम्॥

कुमार० ४।४॥

राख का ढेर देखते ही वह फिर अत्यन्त दुखी हो उठी और जमीन पर गिर पड़ी उसके स्तन धूल में भर गये, वह सिर के बाल खोलकर विलाप करने लगी और ऐसा लगने लगा कि सारा जंगल ही उसके साथ रोने लगा है।

३. उपमानमभूद् विलासिनां करणं यत्तव कान्तिमत्तया।
तदिदं गतमीदृशीं दशां न विदीर्ये कठिनाः खलु स्त्रियः॥

कुमार० ४।५॥

अब तक तुम्हारे सुन्दर शरीर से विलासी पुरुषों की तुलना की जाती थी। उसका यह हाल देखकर मेरा हृदय क्यों नहीं फटता ? वास्तव में स्त्रियां कठोर हृदय वाली होती हैं।

४. क्व नु मां त्वदधीनजीवितां विनिकीर्य क्षणभिन्नसौहृदः।
नलिनीं क्षतसेतुबन्धनो जलसङ्गात इवासि विद्रुतः॥

कुमार० ४।६॥

मेरा जीवन तो तुम्हारे ही अधीन था किन्तु तुम पल भर में मेरा साथ छोड़कर न जाने उसी प्रकार कहाँ चले गये जैसे बांध टूटने पर पानी का बहाव अपनी साथिन कमलिनी को छोड़कर चला जाता है।

५. कृतवानसि विप्रियं न मे प्रतिकूलं न च ते मया कृतम्।
किमकारणमेव दर्शनं विलपन्त्यै रतये न दीयते॥

कुमार० ४।७॥

हे प्रियतम ! तुम ने मेरी इच्छा के विरुद्ध कभी कुछ नहीं किया और न ही मैंने कभी तुम्हारे विरुद्ध कुछ किया। फिर भी बिना किसी कारण के तुम मुझ बिलखती हुई रति को दिखाई क्यों नहीं दे रहे हो ?

६. स्मरसि स्मर ! मेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम्।
च्युतकेशरदूषितेक्षणान्यवतंसोत्पलताडनानि वा॥

कुमार० ४।८॥

कामदेव एक दिन जब तुमने भूल से किसी स्त्री का नाम लिया था तब मैंने तुम्हें अपनी तगड़ी से बांध कर दण्ड दिया था। इसी प्रकार एक बार मैंने तुम्हें अपने कान में पहिने हुए कमल के फूल से मारा था तब फूल का पराग तुम्हारी आँख में पड़ जाने से दर्द होने लगा था। क्या मेरे इन्हीं अपराधों की सजा तुम आज मुझे दे रहे हो ?

७. हृदये वससीति मत्प्रियं यदवोचस्तदवैमि कैतवम्।
उपचारपदं न चेदिदं त्वमनङ्गः कथमक्षता रतिः॥

कुमार० ४।९॥

तुम सदा मेरे हृदय में रहती हो तुम्हारी यह बात क्या झूठी नहीं थी ? तुम मुझे बहलाने के लिए ही ऐसी बातें कहा करते थे। यदि ये बातें सच्ची होतीं तो तुम्हारे भस्म हो जाने पर भी रति कैसे जीवित है ?

८. परलोकनवप्रवासिनः प्रतिपत्स्ये पदवीमहं तव।
विधिना जन एष वञ्चितस्त्वदधीनं खलु देहिनां सुखम्॥

कुमार० ४।१०॥

भाग्य ने मुझे बेहोश कर बहुत धोखा दिया, नहीं तो मैं तुम्हारे साथ ही चलती। तुम्हारे बिना यहां सुख कहां क्योंकि सभी प्राणियों को तुम्हीं सुखी रखते हो।

९. रजनीतिमिरावगुण्ठिते पुरमार्गे घनशब्दविक्लवाः।
वसतिं प्रिय ! कामिनां प्रियास्त्वदृते प्रापयितुं क ईश्वरः॥

कुमार० ४।११।

रात में नगर के मार्ग घने अन्धकार में छिप जाने पर और बादलों की गरज से भयभीत अभिसारिकाओं को हे प्रियतम ! तुम्हारे सिवाय और कौन उनके प्रियतमों के समीप पहुंचा सकेगा ?

१०. अलिपङ्क्तिरनेकशस्त्वया गुणकृत्ये धनुषो नियोजिता।
विरुतैः करुणस्वनैरियं गुरुशोकानुरोदितीव माम्॥

कुमार० ४।१५।

तुम अनेक भौंरों से अपने धनुष की डोरी बनाया करते थे। आज उनकी दुःखी गूंज ऐसी लग रही है कि वे भी मेरे साथ विलाप कर रहे हैं।

११. शिरसा प्रणिपत्य याचितान्युपगूढानि सवेपथूनि च।
सुरतानि च तानि ते रहः स्मर ! संस्मृत्य न शान्तिरस्ति मे॥

कुमार० ४।१७॥

हे कामदेव ! तुम मेरे पैरों पर अपना सिर रखकर मुझे मनाते थे और कांपते हुए मेरा आलिंगन किया करते थे। एकान्त स्थान में मेरे साथ तुम तरह-तरह से सम्भोग किया करते थे। इन बातों को याद करके मुझे शान्ति नहीं मिल रही।

१२. रचितं रतिपण्डित ! त्वया स्वयमङ्गेषु ममेदमार्तवम्।
ध्रियते कुसुमप्रसाधनं तव तच्चारु वपुर्न दृश्यते॥

कुमार० ४।१८॥

हे कामशास्त्र के पण्डित ! तुमने वसन्त ऋतु के अनुकूल अपने हाथों से मेरा श्रृंगार किया था। फूलों से सजा हुआ मेरा यह शरीर तो है किन्तु तुम्हारी मनोहर देह मुझे दिखाई नहीं दे रही।

**१३. बिबुधैरसि यस्य दारुणैरसमाप्ते परिकर्मणि स्मृतः।
तमिमं कुरु दक्षिणेतरं चरणं निर्मितरागमेहि मे **

कुमार० ४।१९॥

तुम मेरा श्रृंगार पूरा कर भी नहीं पाये थे कि कठोर हृदय देवताओं ने तुम्हें बुला लिया। अब आकर तुम मेरे बांये पैर का श्रृंगार भी पूरा कर दो।

१४. अहमेत्य पतङ्गवर्त्मना पुनरङ्काश्रयणी भवामि ते।
चतुरैः सुरकामिनीजनैः प्रिय ! यावन्न विलोभ्यसे दिवि॥

कुमार० ४।२०॥

हे प्रियतम ! मैं आग में जलकर तुम्हारे पास आ रही हूँ। स्वर्ग की चालाक अप्सराएं तुम्हें कहीं लुभा न लें इसलिए मैं तुम्हारी गोद में फिर बैठने आ रही हूँ।

१५. मदनेन विना कृता रतिः क्षणमात्रं किल जीवितेति मे।
वचनीयमिदं व्यवस्थितं रमण ! त्वामनुयामि यद्यपि॥

कुमार० ४।२१॥

हे रमणशील प्रियतम ! यद्यपि मैं तुम्हारे पीछे आ रही हूँ फिर भी मुझ पर यह कलंक तो लग ही गया कि मैं तुम्हारे बिना कुछ देर तक जीवित रही।

१६. क्रियतां कथमन्त्यमण्डनं परलोकान्तरितस्य ते मया।
सममेव गतोऽस्यतर्कितां गतिमङ्गेन च जीवितेन च॥

कुमार० ४।२२॥

हाय मैं तुम्हारा अन्तिम शृंगार कैसे करूँ ? क्योंकि तुम तो अपना शरीर और प्राण दोनों ही को साथ लेकर परलोक में चले गये।

१७. ऋजुतां नयतः स्मरामि ते शरमुत्सङ्गनिषण्णधन्वनः।
मधुना सह सस्मितां कथां नयनोपान्तविलोकितं च यत्॥

कुमार० ४।२३॥

तुम अपनी गोद में धनुष रखकर बाण सीधा किया करते थे। वसन्त के साथ हंस हंस कर बातें किया करते थे और बीच-बीच में कनखियों से मुझे देखा करते थे। ये सब बातें आज तुम्हारे चले जाने पर याद आ रही हैं।

१८. क्व नु ते हृदयङ्गमः सखा कुसुमायोजितकार्मुको मधुः
न खलूग्ररुषा पिनाकिना गमितः सोऽपि सुहृद्गतां गतिम्॥

कुमार० ४।२४।

तुम्हारे लिए फूलों का धनुष बनाने वाला तुम्हारा मित्र वसन्त कहां चला गया ? क्या शिव जी के प्रचण्ड कोप के कारण तुम्हारी तरह उसकी भी वही गति हुई ?

१९. अथ तैः परिदेविताक्षरैर्हृदये दिग्धशरैरिवाहतः।
रतिमभ्युपपत्तुमातुरां मधुरात्मानमदर्शयत् पुरः॥

कुमार० ४॥२५॥

रति के करुण विलाप के बाणों से आहत हृदय वाला वसन्त; रति को सान्त्वना देने के लिए वहां आ पहुंचा।

२०. तमवेक्ष्य रुरोद सा भृशं स्तनसम्बाधमुरो जघान च।
स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमिवोपजायते॥

कुमार० ४।२६॥

वसन्त को सामने देखकर रति अपनी छाती पीट-पीट कर और अधिक रोने लगी, क्योंकि अपने लोगों को देखकर दुःख का बांध फूट पड़ता है।

२१. इति चैनमुवाच दुःखिता सुहृदः पश्य वसन्त ! किं स्थितम्।
तदिदं कणशो विकीर्यते पवनैर्भस्म कपोतकर्बुरम्॥

कुमार० ४।२७॥

वसन्त को अपने सामने देख मर्माहत रति उससे बोली वसन्त !

देखो तुम्हारे मित्र की क्या हालत हो गई है। उसके शरीर की कबूतर के रंग जैसी राख को वायु इधर उधर उड़ा रहा है

२२. अयि सम्प्रति देहि दर्शनं स्मर ! पर्युत्सुक एष माधवः।
दयितास्वनवस्थितं नृणां न खलु प्रेम चलं सुहृज्जने ॥

कुमार० ४।२८॥

अरे कामदेव ! अब तो अपने दर्शन दो वसन्त तुम्हें देखने के लिए उतावला है। पुरुष, अपनी स्त्री से तो कम प्रेम कर सकता है किन्तु अपने मित्र से उसकी प्रीति बनी रहती है।

२३. गत एव न ते निवर्तते स सखा दीप इवानिलाहतः।
अहमस्य दशेव पश्य मामविषह्यव्यसनेन धूमिताम् ॥

कुमार० ४।३०॥

तुम्हारा मित्र चला गया अब वह वायु के झोंके से बुझे हुए दीपक की भांति लौटकर नहीं आयेगा। मैं दुखियारी; बुझे दीये की धुआं देती हुई बत्ती के समान बच रही हूं।

२४. विधिना कृतमर्धवैशसं ननु मां कामवधे विमुञ्चता।
अनपायिनि संश्रयद्रुमे गजभग्ने पतनाय वल्लरी ॥

कुमार० ४।३१ ॥

कामदेव का वध हो जाने पर ब्रह्मा ने मुझे जीवित छोड़कर मुझे अधमरी बना दिया है किन्तु हाथी की टक्कर से पेड़ के टूट जाने पर क्या उस पर लिपटी हुई लता जीवित रह सकती है ?

२५. तदिदं क्रियतामनन्तरं भवता बन्धुजनप्रयोजनम्।
विधुरां ज्वलनातिसर्जनान्ननु मां प्रापय पत्युरन्तिकम् ॥

कुमार० ४।३२॥

तुम मेरे भाई होने के नाते मुझ विधवा की चिता में आग लगाकर मुझे अपने पति के पास पहुंचा दो।

२६. शशिना सह याति कौमुदी सह मेघेन तडित्प्रलीयते।
प्रमदाः पतिवर्त्मगा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनैरपि ॥

कुमार० ४।३३ ॥

चांदनी चन्द्रमा के साथ ही चली जाती है, और बादल के न रहने पर बिजली नहीं रहती। जड़ पदार्थों में भी दिखाई देता है कि पति के न रहने पर पत्नी भी जीवित नहीं रहती. फिर मैं भी कैसे जीवित रह सकती हूं।

२७. अमुनैव कषायितस्तनी सुभगेन प्रियगात्रभस्मना।
नवपल्लवसंस्तरे यथा रचयिष्यामि तनुं विभावसौ ॥

कुमार० ४।३४॥

मैं अपने प्रिय के सुन्दर शरीर की भस्म से अपने स्तनों का श्रृंगार करके नये पत्तों से बने बिस्तर की भांति चिता पर सो रही हूं।

२८. कुसुमास्तरणे सहायतां बहुशः सौम्य ! गतस्त्वमावयोः।
कुरु सम्प्रति तावदाशु मे प्रणिपाताञ्जलियाचितश्चिताम् ॥

कुमार० ४।३५ ॥

हे सुन्दर वसन्त ! तुमने फूलों की सेज बनाने में हम दोनों की अनेक बार सहायता की है। आज मैं तुमसे हाथ जोड़कर भीख मांगती हूं कि तुम जल्दी ही मेरी चिता बना दो।

२९. तदनु ज्वलनं मदर्पितं त्वरयेर्दक्षिणवातवीजनैः।
विदितं खलु ते यथा स्मरः क्षणमप्युत्सहते न मां विना ॥

कुमार० ४।३६॥

तुम चिता बनाकर दक्षिण पवन के झोंकों से चिता को जल्दी ही प्रज्वलित कर दो, क्योंकि तुम जानते हो कि कामदेव मेरे बिना क्षण भर भी नहीं रह सकता।

३०. इति चापि विधाय दीयतां सलिलस्याञ्जलिरेक एव नौ।
अविभज्य परत्र तं मया सहितः पास्यति ते स बान्धवः ॥

कुमार० ४।३७॥

मेरी चिता भस्म हो जाने पर तुम हम दोनों के लिए एक ही जलांजलि देना ताकि परलोक में तुम्हारा मित्र मेरे साथ ही यह जल पिये।

३१. परलोकविधौ च माधव! स्मरमुद्दिश्य विलोलपल्लवाः।
निवपेः सहकारमञ्जरीः प्रियचूतप्रसवो हि ते सखा ॥

कुमार० ४।३८॥

हे वसन्त ! जब तुम कामदेव का श्राद्ध करो तब उसमें चंचल पत्तों वाली आम की मंजरी अवश्य देना, क्योंकि तुम्हारे मित्र को आम की मंजरी बहुत प्रिय थी।

३२. इति देहविमुक्तये स्थितां रतिमाकाशभवा सरस्वती।
शफरीं ह्रदशोषविक्लवां प्रथमा वृष्टिरिवान्वकम्पयत् ॥

कुमार० ४।३९ ॥

प्राण देने के लिए तैयार रति ने तभी आकाशवाणी सुनी। तालाब का पानी सूख जाने से व्याकुल मछली को वर्षा की पहली बूंद की तरह रति को अचानक जीवन मिल गया।

३३. कुसुमायुधपत्नि ! दुर्लभस्तव भर्ता न चिराद् भविष्यति।
शृणु येन स कर्मणा गतः शलभत्वं हरलोचनार्चिषि ॥

कुमार० ४।४० ॥

हे कामदेव की पत्नी ! तुम्हारा पति बहुत समय तक तुम से दूर नहीं रहेगा। महादेव के नेत्र की ज्वाला से वह क्यों जला उसका कारण भी तुम सुनो।

३४. अभिलाषमुदीरितेन्द्रियः स्वसुतायामकरोत् प्रजापतिः।
अथ तेन निगृह्य विक्रियामभिशप्तः फलमेतदन्वभूत् ॥

कुमार० ४।४१॥

सृष्टि रचते समय ब्रह्मा ने जब सरस्वती को बनाया तो वे स्वयम् उस पर मोहित हो गये तब ब्रह्मा ने अपने को वश में करके मन में यह विकार उत्पन्न करने के लिए कामदेव को जो शाप दिया था आज वह उसी के परिणामस्वरूप शिव जी के नेत्र की अग्नि से भस्म हुआ हैं।

३५. परिणेष्यति पार्वतीं यदा तपसा तत्प्रवणीकृतो हरः।
उपलब्धसुखस्तदा स्मरं वपुषा स्वेन नियोजयिष्यति ॥

कुमार० ४।४२॥

जब पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी उनसे विवाह कर लेंगे और दाम्पत्य सुख के लिए कामदेव को सहायक मानेंगे तब शिव जी उसे फिर जीवित कर देंगे।

३६. इति चाह स धर्मयाचितः स्मरशापान्तभवां सरस्वतीम्।
अशनेरमृतस्य चोभयोर्वशिनश्चाम्बुधराश्च योनयः ॥

कुमार० ४।४३ ॥

जब धर्म ने सृष्टि चलाने के लिए कामदेव का शाप समाप्त करने की प्रार्थना की थी। तब ब्रह्मा ने सरस्वती से शाप मुक्ति की यह बात कही थी। यह सत्य है कि जैसे बादल में अमृत सदृश जल और बिजली साथ रहते हैं उसी प्रकार जितेन्द्रिय पुरुषों के मन में क्रोध और क्षमा भी साथ-साथ रहते हैं।

३७. तदिदं परिरक्ष शोभने। भवितव्यप्रियसङ्गमं वपुः।
रविपीतजला तपात्यये पुनरोधेन हि युज्यते नदी ॥

कुमार० ४।४४ ॥

अयि सुन्दरि ! इसलिए तुम अपना शरीर नष्ट मत करो क्योंकि कुछ समय बाद प्रियतम से तुम्हारा मिलन होगा। गरमी में जो नदियां सूर्य की किरणों से सूख जाती हैं ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षाऋतु में उन्हीं में बाढ़ भी आ जाती है।

३८. इत्थं रतेः किमपि भूतमदृश्यरूपम् मन्दीचकार मरणव्यवसायबुद्धिम्
तत्प्रत्ययाच्च कुसुमायुधबन्धुरेना माश्वासयत् सुचरितार्थपदैर्वचोभिः ॥

कुमार० ४।४५ ॥

यह आकाशवाणी सुनकर रति ने शरीर त्यागने का विचार छोड़ दिया और कामदेव के मित्र वसन्त ने भी उस आकाशवाणी पर विश्वास करके रति को समझदारी की बातें कहकर धीरज बंधाया।

३९. अथ मदनवधूरुपप्लवान्तं व्यसनकृशा परिपालयाम्बभूव।

शशिन इव दिवातनस्य लेखाकिरणपरिक्षयधूसरा प्रदोषम् ॥

कुमार० ४।४६ ॥

वसन्त के धैर्य बंधाने तथा आकाशवाणी सुनने के बाद शोक से कमजोर हुई रति शाप के अन्त हो जाने की उसी प्रकार प्रतीक्षा करने लगी जैसे दिन में उदय हुई चन्द्रमा की प्रभाहीन कला सन्ध्या समय की प्रतीक्षा करती रहती है।

पार्वती-तपस्या

१. अथानुरूपाभिनिवेशतोषिणा कृताभ्यनुज्ञा गुरुणा गरीयसा।
प्रजासु पश्चात्प्रथितं तदाख्यया जगाम गौरीशिखरं शिखण्डिमत् ॥

कुमार० ५।७॥

पार्वती के दृढ़ निश्चय का पता चल जाने पर हिमालय ने उसे तपस्या करने की आज्ञा दे दी और पार्वती हिमालय की उस चोटी पर गई जहां मोर रहते थे। बाद में इसी शिखर को लोग गौरीशंकर चोटी कहने लगे।

२. यथा प्रसिद्धैर्मधुरं शिरोरुहैर्जटाभिरप्येवमभूत् तदाननम्।
न षट्पदश्रेणिभिरेव पङ्कजं सशैवलासङ्गमपि प्रकाशते ॥

कुमार० ५।९॥

सिर के बालों का शृंगार करने पर पार्वती का मुख जितना सुन्दर दीखता था जटा बढ़ा लेने पर भी वह सुन्दर ही बना रहा क्योंकि कमल का फूल भौंरों के मंडराने से ही अच्छा नहीं लगता अपितु सेवार से लिपटा होने पर भी सुन्दर दीखता है।

३. प्रतिक्षणं सा कृतरोमविक्रियां व्रताय मौञ्जीं त्रिगुणां बभार याम्।
अकारि तत्पूर्वनिबद्धया तया सरागमस्या रसनागुणास्पदम् ॥

कुमार० ५।१०॥

पार्वती ने तपस्या के लिए मूंज की तीन रस्सियों वाली जो मेखला बांधी वह उनके कोमल शरीर में चुभती और उनके रोंगटे खड़े हो जाते।

कमर पर रस्सी की मेखला बांधने से उनकी सारी कमर छिलकर लाल हो गई।

४. कुशाङ्कुरादानपरिक्षताङ्गुलिः कृतोऽक्षसूत्रप्रणयी तया करः ॥

कुमार० ५।११॥

पार्वती ने रुद्राक्ष की माला हाथ में ले ली, कुश उखाड़ने से उनकी अंगुलियां कट गईं।

५. महार्हशय्यापरिवर्तनच्युतैः स्वकेशपुष्पैरपि या स्म दूयते।
अशेत सा बाहुलतोपधायिनी निषेदुषी स्थण्डिल एव केवले ॥

कुमार० ५।१२॥

मूल्यवान् पलंग पर करवट बदलने पर अपने सिर के जूड़े से गिरे फूलों के दबने से पार्वती घबरा उठती थी किन्तु अब वह चट्टान पर बैठी अपनी बांह का तकिया लगाकर चट्टान पर ही सो जाती थी।

६. पुनर्ग्रहीतुं नियमस्थया तया द्वयेऽपि निक्षेप इवार्पितं द्वयम्।
लतासु तन्वीषु विलासचेष्टितं विलोलदृष्टं हरिणाङ्गनासु च ॥

कु० ५।१३॥

तप में लीन पार्वती ने अपनी भाव-भंगिमाएं कोमल लताओं को और अपनी आंखों की चंचलता हरिणियों को सौंप दी।

७. कृताभिषेकां हुतजातवेदसं त्वमुत्तरासङ्गवतीं निवीतिनीम्।
दिदृक्षवस्तां मुनयोऽभ्युपागमन् न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते ॥

कुमार० ५।१६॥

जब पार्वती स्नान करके तथा यज्ञ करके पेड़ों की छाल की चादर ओढ़कर ध्यान करती थीं, तब उन की तपस्या देखने के लिए ऋषि भी आ जाते थे, क्योंकि जिनका धार्मिक जीवन श्रेष्ठ होता है उनकी आयु पर ध्यान नहीं दिया जाता चाहे वे छोटी आयु के क्यों न हों।

८. विरोधिसत्त्वोज्झितपूर्वमत्सरं द्रुमैरभीष्टप्रसवार्चितातिथि।
नवोटजाभ्यन्तरसम्भृतानलं तपोवनं तच्च बभूव पावनम् ॥

कुमार० ५।१७॥

उस तपोवन के पशु पक्षियों ने आपसी वैर त्याग दिया और अतिथियों के लिए पेड़ फलों से लद गये। नयी पर्णकुटी में यज्ञाग्नि जलती रहने से तपोवन पवित्र हो गया।

९. शुचौ चतुर्णां ज्वलतां हविर्भुजां शुचिस्मिता मध्यगता सुमध्यमा।
विजित्य नेत्रप्रतिघातिनीं प्रभामनन्यदृष्टिः सवितारमैक्षत ॥

कुमार० ५।२० ॥

पतली कमर वाली और मधुर मुस्कान वाली पार्वती पञ्चाग्नि तप करने के लिए चारों ओर आग जलाकर बीच में खड़ी होकर एकटक सूर्य देखती रहती और चकाचौंध की परवाह नहीं करती।

१०. तथातितप्तं सवितुर्गभस्तिभिर्मुखं तदीयं कमलश्रियं दधौ।
अपाङ्गयोः केवलमस्य दीर्घयोः शनैः शनैः श्यामिकया कृतं पदम् ॥

कुमार० ५।२१॥

सूर्य की किरणों से तपा हुआ पार्वती का मुख कमल के समान सुन्दर दीखने लगा किन्तु उनकी बड़ी बड़ी आंखों के नीचे कुछ कालापन छा गया।

११. अयाचितोपस्थितमम्बु केवलं रसात्मकस्योडुपतेश्च रश्मयः।
बभूव तस्याः किल पारणाविधिर्न वृक्षवृत्तिव्यतिरिक्तसाधनः ॥

कुमार० ५।२२॥

बिना मांगे वर्षा का जल तथा चन्द्रमा की किरणों का अमृत पीकर ही पार्वती अपना उपवास तोड़ती थी। इन दिनों पार्वती वृक्षों की भांति वर्षा जल और किरणों का भोजन कर रही थी।

१२. निकामतप्ता विविधेन वह्निना नभश्चरेणेन्धनसम्भृतेन सा।
तपात्यये वारिभिरुक्षिता नवैर्भुवा सहोष्माणममुञ्चदूर्ध्वगम् ॥

कुमार० ५।२३॥

अपने चारों ओर जलती हुई अग्नि और सूर्य की ताप से तपे हुए पार्वती के शरीर पर ग्रीष्म ऋतु समाप्त होने पर वर्षा जल पड़ने से तपी हुई भूमि की भांति ही भाप निकलती।

१३. शिलाशयां तामनिकेतवासिनीं निरन्तरास्वन्तरवातवृष्टिषु।
व्यलोकयन्नुन्मिषितैस्तडिन्मयैर्महातपः साक्ष्य इव स्थिताः क्षपाः ॥

कु० ५।२५॥

पार्वती आंधी और वर्षा में भी कुटिया में न रहकर आसमान के नीचे शिला पर ही सोती थी। रातें अपनी बिजली की आंखों से पार्वती को देखती रहती थीं मानो वे इसके इस कठोर तप की गवाह हों।

१४. निनाय सात्यन्तहिमोत्किरानिलाः सहस्यरात्रीरुदवासतत्परा।
परस्पराक्रन्दिनी चक्रवाकयोः पुरो वियुक्ते मिथुने कृपावती ॥

कुमार० ५।२६॥

पौष की रातों में जब ठंडी हवा चलती थी और बर्फ गिरती थी पार्वती पानी में बैठी रहती थी। वह अंधेरे में बिछुड़े हुए चकवा चकवी की विरह व्यथा की गवाह बनी रहती थीं।

१५. मुखेन सा पद्मसुगन्धिना निशि प्रवेपमानाधरपत्रशोभिना।
तुषारवृष्टिक्षतपद्मसम्पदां सरोजसन्धानमिवाकरोदपाम् ॥

कुमार० ५।२७।

सर्दी की रातों में पानी में बैठी हुई पार्वती का सुन्दर मुख पानी से ऊपर दीखता था। ठण्ड से उनके ओंठ कांपते रहते थे। मुख से कमल जैसी सुगन्ध निकलती रहती थी। जल में खड़ी पार्वती ने पाले से नष्ट कमल के फूलों की जगह अपने मुखारविन्द से सारे सरोवर को कमल की शोभा से परिपूर्ण बना दिया।

१६. स्वयं विशीर्णद्रुमपर्णवृत्तिता परा हि काष्ठा तपसस्तया पुनः।
तदप्यपाकीर्णमतः प्रियंवदां वदन्त्यपर्णेति च तां पुराविदः ॥

कुमार० ५।२८॥

पेड़ से अपने आप टूट कर गिरे हुए पत्तों से अपनी भूख शान्त करना तपस्या की पराकाष्ठा मानी जाती है किन्तु पार्वती ने पत्ते खाना भी छोड़ दिया था अतः विद्वान् उन्हें अपर्णा अर्थात् पत्ते न खाने वाली कहने लगे।

१७. मृणालिकाकोमलमेवमादिभिर्व्रतैः स्वमङ्गं ग्लपयन्त्यहर्निशम्।
तपः शरीरैः कठिनैरुपार्जितं तपस्विनां दूरमधश्चकार सा ॥

कुमार० ५।२९ ॥

कुमुदिनी जैसे अपने सुकुमार शरीर को कठोर तपस्या से रातदिन सुखाकर पार्वती ने तपस्या से कठोर बनाये हुए शरीरों वाले तपस्वियों को भी पीछे छोड़ दिया।

ब्रह्मचारी -पार्वतीसंवाद

१. अथाजिनाषाढधरः प्रगल्भवाग्ज्वलन्निव ब्रह्ममयेन तेजसा।
विवेश कश्चिज्जटिलस्तपोवनं शरीरबद्धः प्रथमाश्रमो यथा ॥

कुमार० ५।३०॥

एक दिन मृगचर्म ओढ़े, हाथ में ढाक का डण्डा थामे ब्रह्म तेज से देदीप्यमान जटाधारी ब्रह्मचारी उस तपोवन में आया। वह ब्रह्मचर्य आश्रम की साक्षात् प्रतिमा ही लगता था।

२. विधिप्रयुक्तां परिगृह्य सत्क्रियां परिश्रमं नाम विनीय च क्षणम्।
उमां स पश्यन्नृजुनैव चक्षुषा प्रचक्रमे वक्तुमनुज्झितक्रमः ॥

कुमार० ५।३२॥

पार्वती का अतिथि सत्कार ग्रहण करके और थोड़ी देर में अपनी थकान मिटाकर वह ब्रह्मचारी पार्वती को एकटक देखता हुआ बोलने लगा।

३. विकीर्णसप्तर्षिबलिप्रहासिभिस्तथा न गाङ्गैः सलिलैर्दिवश्च्युतैः।
यथा त्वदीयैश्चरितैरनाविलैर्महीधरः पावित एष सान्वयः ॥

कुमार० ५।३७॥

सप्तर्षियों द्वारा समर्पित फूलों से तथा स्वर्ग से गिरने वाले गंगाजल से भी हिमालय सपरिवार उतना पवित्र नहीं हो सका है जितना आपके पावन चरित्र से।

४. कुले प्रसूतिः प्रथमस्य वेधसस्त्रिलोकसौन्दर्यमिवोदितं वपुः।
अमृग्यमैश्वर्यसुखं नवं वयस्तपः फलं स्यात्किमतः परं वद ॥

कुमार० ५।४१॥

आपका जन्म प्रथम ब्रह्मा के वंश में हुआ है। आपका शरीर तीनों लोकों के सौन्दर्य से परिपूर्ण है और आप युवती हैं तथा आपके पास धन ऐश्वर्य सुख की भी कमी नहीं है फिर आप यह कठोर तपस्या क्यों कर रही हैं ?

५. किमित्यपास्याभरणानि यौवने धृतं त्वया वार्धकशोभि वल्कलम्।
वद प्रदोषे स्फुटचन्द्रतारका विभावरी यद्यरुणाय कल्पते ॥

कुमार० ५।४४॥

इस युवावस्था में आपने आभूषण उतारकर वृद्धावस्था में अच्छे लगने वाले वल्कल वस्त्र क्यों पहिन लिये हैं ? रात्रि की शोभा खिली हुई चांदनी और तारों से होती है या सवेरे के सूर्य की लालिमा से ?

६. निवेदितं निःश्वसितेन सोष्मणा मनस्तु मे संशयमेव गाहते।
न दृश्यते प्रार्थयितव्य एव ते भविष्यति प्रार्थितदुर्लभः कथम् ॥

कु० ५।४६ ॥

अभी आपने जो गरम सांस ली उससे मेरे मन में यही बात आ रही है कि ऐसा कौन है जो आप के प्रणयनिवेदन को ठुकरा रहा है?

७. मुनिव्रतैस्त्वामतिमात्रकर्शितां दिवाकराप्लुष्टविभूषणास्पदाम्।
शशाङ्कलेखामिव पश्यतो दिवा सचेतसः कस्य मनो न दूयते ॥

कु० ५।४८॥

कठोर तपस्या से सूखे हुए तुम्हारे शरीर को देखकर किसका मन दुखी नहीं होगा ? आभूषणों से सजाये जाने योग्य तुम्हारे अंग सूर्य की किरणों से झुलस गये हैं और तुम दिन में निकले चन्द्रमा की तरह उदास दिख रही हो।

८. कियच्चिरं श्राम्यसि गौरि ! विद्यते ममापि पूर्वाश्रमसञ्चितं तपः।
तदर्धभागेन लभस्व काङ्क्षितं वरं तमिच्छामि च साधु वेदितुम् ॥

कुमार० ५।५०॥

हे गौरी! आप कितने समय तक तपस्या करती रहेंगी। ब्रह्मचर्याश्रम में मैंने भी बहुत तपस्या की थी। आप मेरी तपस्या का आधा भाग ले लें और अपना मनोवांछित पति प्राप्त कर लें किन्तु यह तो बताइये

कि वह युवक कौन है ?

९. सखी तदीया तमुवाच वर्णिनं निबोध साधो ! तव चेत्कुतूहलम्।
यदर्थमम्भोजमिवोष्णवारणं कृतं तपः साधनमेतया वपुः ॥

कुमार० ५।५२॥

पार्वती की सहेली ने उस ब्रह्मचारी से कहा हे सत्पुरुष। यदि आपको जानने की उत्सुकता है तो मैं बतलाती हूं कि इन्होंने अपने इस शरीर को कठोर तपस्या में क्यों लगा रखा है। इनकी तपस्या वैसी ही है जैसे धूप से बचने के लिए कमल का छाता लगाना।

१०. इयं महेन्द्रप्रभृतीनधिश्रियश्चतुर्दिगीशानवमत्य मानिनी।
अरूपहार्यं मदनस्य निग्रहात् पिनाकपाणिं पतिमाप्तुमिच्छति॥

कुमार० ५१५३॥

मानिनी पार्वती इन्द्र आदि को तथा चारों दिक्पालों को छोड़कर शिव जी से विवाह करना चाहती है जिन्हें कामदेव के भस्म हो जाने के बाद सौन्दर्य से नहीं रिझाया जा सकता।

११. असह्यहुङ्कारनिवर्तितः पुरा पुरारिमप्राप्तमुखः शिलीमुखः।
इमां हृदि व्यायतपातमक्षिणोद् विशीर्णमूर्तेरपि पुष्पधन्वनः ॥

कुमार० ५।५४॥

कामदेव ने शिव जी पर जो बाण चलाया था वह उनकी हुंकार सुनकर लौट गया और कामदेव के भस्म हो जाने पर भी वह बाण पार्वती के हृदय में घाव कर गया।

१२. द्रुमेषु संख्या कृतजन्मसु स्वयं फलं तपः साक्षिषु दृष्टमेष्वपि।
न च प्ररोहाभिमुखोऽपि दृश्यते मनोरथोऽस्याः शशिमौलिसंश्रयः ॥

कुमार० ५।६०॥

हमारी सखी को तपस्या करते हुए इतने वर्ष बीत गये हैं कि इनके रोपे हुए वृक्षों में फल आने लगे हैं। किन्तु शिव को पाने की इनकी मनोकामना में अभी अंकुर भी नहीं फूटे हैं। ये वृक्ष हमारी सखी की कठोर तपस्या के गवाह हैं।

१३. अगूढसद्भावमितीङ्गितज्ञया निवेदितो नैष्ठिकसुन्दरस्तया।
अपीदमेवं परिहास इत्युमामपृच्छदव्यञ्जितहर्षलक्षणः ॥

कुमार० ५।६२॥

पार्वती के मन की बात जानने वाली सखी ने जब उस सुन्दर ब्रह्मचारी को सारी बात बता दी तब उसने अपने मुख पर तनिक भी प्रसन्नता प्रकट किये बिना पार्वती से पूछा कि यह जो कह रही है वह सच है या मजाक हैं ?

१४. यथा श्रुतं वेदविदां वर ! त्वया जनोऽयमुच्चैः पदलङ्घनोत्सुकः।
तपः किलेदंतदवाप्तिसाधनं मनोरथानामगतिर्न विद्यते ॥

कुमार० ५।६४॥

हे वेदों के श्रेष्ठ ज्ञाता ! आपने जैसा सुना है मेरा मन वैसा ही ऊँचा पद पाना चाहता है और इसे पाने के लिए मैं तप कर रही हूँ क्योंकि इच्छाएं कहीं भी पहुंच जाती हैं।

१५. अथाह वर्णी विदितो महेश्वरस्तदर्थिनी त्वं पुनरेव वर्त्तसे।
अमङ्गलाभ्यासरतिं विचिन्त्य तं तवानुवृत्तिं न च कर्तुमुत्सहे ॥

कु० ५।६५ ॥

यह सुन ब्रह्मचारी बोला कि शिव जी तुम्हारे प्रेम को ठुकरा चुके हैं फिर भी तुम उन्हीं से विवाह करना चाहती हो। उस अशुभ वेश धारण करने वाले शिव के बारे में सोचकर मैं तो तुम्हें उनसे विवाह करने की सलाह नहीं दे सकता।

१६. अवस्तुनिर्बन्धपरे कथं नु ते करोऽयमामुक्तविवाहकौतुकः।
करेण शम्भोर्वलयीकृताहिना सहिष्यते तत्प्रथमावलम्बनम् ॥

कुमार० ५१६६॥

हे पार्वती। तुम कैसे व्यक्ति से विवाह करना चाहती हो ? विवाह संस्कार के अवसर पर मंगलसूत्र बंधा हुआ तुम्हारा हाथ सापों से लिपटे शिव जी के हाथ को पहली पहली बार कैसे छू सकेगा ?

१७. त्वमेव तावत्परिचिन्तय स्वयं कदाचिदेते यदि योगमर्हतः।
वधूदुकूलं कलहंसलक्षणं गजाजिनं शोणितविन्दुवर्षि च ॥

कुमार० ५।६७॥

तुम ही भला सोचो कहां सुन्दर हंसों की छाप वाली आपकी ओढ़नी और कहां खून टपकती हाथी की खाल ओढ़े शिव जी इन दोनों का मेल कैसे हो सकता है ?

१८. चतुष्कपुष्पप्रकरावकीर्णयोः परोऽपि को नाम तवानुमन्यते।
अलक्तकाङ्कानि पदानि पादयोर्विकीर्णकेशासु परेतभूमिषु ॥

कुमार० ५।६८॥

अब तक तुम फूल बिछे फर्श पर चलती हो, महावर लगे तुम्हारे पैर श्मशान भूमि में मुर्दों के बिखरे बालों पर कैसे चल सकेंगे। यह बात तुम्हारा शत्रु भी नहीं चाहेगा।

१९. अयुक्तरूपं किमतः परं वद त्रिनेत्रवक्षः सुलभं तवापि यत्।
स्तनद्वयेऽस्मिन् हरिचन्दनास्पदे पदं चिताभस्मरजः करिष्यति ॥

कुमार० ५।६९॥

यदि तुम्हारा शिव जी से विवाह हो भी जाय तो यह कितना अटपटा लगेगा कि चन्दन लगाये जाने वाले तुम्हारे स्तनों पर चिता की भस्म लगे।

२०. इयं च तेऽन्या पुरतो विडम्बना यदूढया वारणराजहार्यया।
विलोक्य वृद्धोक्षमधिष्ठितं त्वया महाजनः स्मेरमुखो भविष्यति ॥

कुमार० ५।७० ॥

और यह भी क्या विडम्बना होगी कि तुम विवाह के बाद हाथी पर बैठकर ससुराल जाने की बजाय बूढे बैल पर चढ़कर जाओगी। यह देख लोग खूब हंसेंगे।

२१. द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया पिनाकिनः।
कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी ॥

कुमार० ५।७१॥

शिव जी को पाने के फेर में तो अब इन दोनों की ही हालत पर मुझे तरस आ रहा है, पहली तो शिव जी के माथे की चन्द्रकला पर और संसार को आनन्दित करने वाली आप पर।

२२. वपुर्विरूपाक्षमलक्ष्यजन्मता दिगम्बरत्वेन निवेदितं वसु।
वरेषु यद्बालमृगाक्षि मृग्यते तदस्ति किं व्यस्तमपि त्रिलोचने॥

कुमार० ५।७२॥

हे मृगशिशु जैसी आंखों वाली शिव जी का चेहरा तीन आंखों वाला होने के कारण अजीब है, उनके माता-पिता का भी पता नहीं है, वे नंगे रहते हैं इसी से पता चलता है कि उनके पास धन सम्पत्ति भी नहीं है। इसलिए किसी वर में जो बातें देखी जाती हैं उनमें से कोई भी अच्छी बात महादेव जी में दिखाई नहीं देती।

२३. इति द्विजातौ प्रतिकूलवादिनि प्रवेपमानाधरलक्ष्यकोपया।
विकुञ्चितभ्रूलतमाहिते तथा विलोचने तिर्यगुपान्तलोहिते ॥

कुमार० ५।७४॥

इस बटुक की शिव जी के विरुद्ध ये बातें सुनकर पार्वती को क्रोध आ गया। उनका निचला ओंठ कांपने लगा, उनकी आंखें लाल हो गईं और वे गुस्से में भौंहें चढ़ाकर आँखें तरेरकर उसे देखने लगीं।

२४. उवाच चैनं परमार्थतो हरं न वेत्सि नूनं यत एवमात्थ माम्।
अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकं द्विषन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम् ॥

कुमार० ५।७५।

वे उस बटुक से बोलीं कि तुम शिव जी को वास्तव में जानते ही नहीं हो। इसीलिए उनके बारे में मुझ से अटपटी बातें कर रहे हो। बेसमझ लोग महापुरुषों के साधारण लोगों से भिन्न लोकोत्तर कार्यों को समझ न सकने के कारण उनसे द्वेष करते हैं।

२५. विपत्प्रतीकारपरेण मङ्गलं निषेव्यते भूतिसमुत्सुकेन वा।
जगच्छरण्यस्य निराशिषः सतः किमेभिराशोपहतात्मवृत्तिभिः ॥

कुमार० ५।७६ ॥

लोग विपत्ति दूर करने के लिए अथवा अपनी शान दिखाने के लिए सुगन्धित माला आदि पदार्थों का प्रयोग करते हैं किन्तु शिव जी सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते हैं। उनके मन में कोई इच्छा नहीं है अतः उन्हें इन पदार्थों में कोई लगाव नहीं है।

२६. अकिञ्चनः सन् प्रभवः स सम्पदां त्रिलोकनाथः पितृसद्मगोचरः।
स भीमरूपः शिव इत्युदीर्यते न सन्ति याथार्थ्याविदः पिनाकिनः ॥

कुमार० ५।७७॥

शिव जी के पास कुछ भी नहीं दीखता किन्तु वे सम्पूर्ण सम्पत्तियों को उत्पन्न करते हैं। वे श्मशान में रहने पर भी तीनों लोकों के स्वामी हैं। वे डरावने दीखने पर भी शिव अर्थात् मंगलमय कहलाते हैं। पिनाक धनुर्धारी शिव का वास्तविक स्वरूप कोई नहीं समझ पाता।

२७. विभूषणोद्धासि पिनद्धभोगि वा गजाजिनालम्बि दुकूलधारि वा।
कपालि वा स्यादथवेन्दुशेखरं न विश्वमूर्तेरवधार्यते वपुः ॥

कुमार० ५।७८ ॥

इस संसार में जितने भी रूप दिखाई देते हैं वे सब शिव जी के ही हैं अतः वे आभूषण पहिने या शरीर पर सांप लपेटें, हाथी की खाल ओढ़ें. या शाल दुशाले ओढ़ें, गले में नरमुण्डों की माला पहिनें या मस्तक पर चन्द्रकला धारण करें, इन सब बाह्याडम्बरों से उनके वास्तविक रूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

२८. तदङ्गसंसर्गमवाप्य कल्पते ध्रुवं चिताभस्म रजो विशुद्धये।
तथाहि नृत्याभिनयक्रियाच्युतं विलिप्यते मौलिभिरम्बरौकसाम् ॥

कुमार० ५।७९॥

चिता की भस्म शिव जी के शरीर पर लगकर निश्चय ही पवित्र हो जाती है इसीलिए ताण्डवनृत्य के समय शरीर से झड़ी हुई उनकी इस राख को देवता भी माथे पर लगाते हैं।

२९. असम्पदस्तस्य वृषेण गच्छतः प्रभिन्नदिग्वारणवाहनो वृषा।
करोति पादावुपगम्य मौलिना विनिद्रमन्दाररजोरुणाङगुली ॥

कुमार० ५।८०॥

तुम शिव को निर्धन कहते हो किन्तु जब वे अपने नन्दी पर सवार होते हैं तब मस्त ऐरावत पर बैठा इन्द्र भी उनको प्रणाम करता है। और कल्पवृक्ष के फूलों के पराग से उनके पैरों की अंगुलियों को विभूषित करता है।

३०. विवक्षता दोषमपि च्युतात्मना त्वयैकमीशं प्रति साधु भाषितम्।
यमामनन्त्यात्मभुवोऽपि कारणं कथं स लक्ष्यप्रभवो भविष्यति ॥

कुमार० ५।८१॥

तुम्हारा स्वभाव बुराइयाँ देखने का ही है। फिर भी तुमने शिव जी के दोष गिनाते हुए उनके बारे में एक बात तो ठीक ही कह दी। जिन शिव जी को ब्रह्मा की उत्पत्ति का कारण बताया जाता है ऐसे शिव जी के जन्म और कुल की जानकारी भला किसे हो सकती है।

३९. अलं विवादेन यथाश्रुतस्त्वया तथाविधस्तावदशेषमस्तु वः।
ममात्र भावैकरसं मनः स्थितं न कामवृत्तिर्वचनीयमीक्षते ॥

कुमार० ५।८२॥

अब बहस बन्द कीजिये। आपने शिव जी के बारे में जैसी बातें सुनी हैं वैसी ही सही किन्तु मेरा हृदय तो उन्हीं में लगा है और जब किसी का मन किसी व्यक्ति में रम जाता है तब वह किसी की कही भली बुरी बात पर ध्यान नहीं देता है।

३२. निवार्यतामालि ! किमप्ययं वटुः पुनर्विवक्षु स्फुरितोत्तराधरः।
न केवलं यो महतोऽपभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक् ॥

कु० ५।८३ ॥

हे सखि ! इस बटुक को अब मत बोलने दो, इसका निचला ओठ कुछ कहने के लिए फड़क रहा है क्योंकि जो व्यक्ति महापुरुषों की निन्दा करता है उसे तो पाप लगता ही है किन्तु निन्दा सुनने वाले को भी पाप लगता है।

३३. इतो गमिष्याम्यथवेति वादिनी चचाल बाला स्तनभिन्नवल्कला।
स्वरूपमास्थाय च तां कृतस्मितः समाललम्बे वृषराजकेतनः ॥

कु० ५।८४॥

या मैं ही यहां से चली जाती हूं। यह कहकर जल्दी में पार्वती ने चलने के लिए जैसे ही पांव बढ़ाया कि उनके स्तन का वल्कल वस्त्र फट गया। तभी अपना असली रूप दिखाकर मुस्कुराते हुए शिव जी ने पार्वती का हाथ थाम लिया।

३४. तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसाङ्गयष्टि-
र्निक्षेपणाय पदमुद्धृतमुद्वहन्ती।
मार्गाचलव्यतिकराकुलितेव सिन्धुः,
शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ॥ कु० ५।८५॥

अचानक शिव जी का कल्याणकर रूप देखकर पार्वती कांपने लगी,आगे बढ़ने के लिए उठाया हुआ उनका पैर रुक गया। नदी की बहती धारा के बीच में अचानक कोई पर्वत आ जाने की भांति ही पार्वती न तो आगे बढ़ सकी और न ही वहां खड़ी रह सकी।

३५. अद्य प्रभृत्यवनताङ्गि! तवास्मि दासः,
क्रीतस्तपोभिरिति वादिनि चन्द्रमौलौ।
अह्नाय सा नियमजं क्लमुत्ससर्ज
क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते॥ कु० ५।८६।

हे कोमलाङ्गि! तुम ने मुझे अपनी कठोर तपस्या से खरीद कर अपना दास बना लिया है। शिव जी की यह बात सुनकर पार्वती अपनी तपस्या का सारा कष्ट भूल गई, क्योंकि काम में सफलता पा लेने पर उठाया हुआ कष्ट अच्छा लगने लगता है।

बाललीला

१. ततः कुमारः समुदां निदानैः स बाललीलाचरितैर्विचित्रैः।
गिरीशगौर्योर्हृदयं जहार मुदे न हृद्या किमु बालकेलिः॥

कुमार० ११।४०॥

कुमार कार्तिकेय अपनी निश्छल और अनोखी बाललीलाओं से शंकर और पार्वती को आनन्दित करने लगा। बाललीला देखकर किसका मन प्रसन्न नहीं होता।

२. क्वचित्स्खलद्भिः क्वचिदस्खलद्भिः क्वचित्प्रकम्पैः क्वचिदप्रकम्पैः।
बालः स लीला चलनप्रयोगैस्तयोर्मुदं वर्धयति स्म पित्रोः॥

कुमार० ११।४२॥

जब बालक चलने का प्रयत्न करता तो कभी उसके पैर लड़खड़ा

जाते और कभी वह चलने लगता, कभी उसके पैर कांपते तो कभी ठहर जाते। अपनी इस डगमग चाल से वह माता-पिता का आनन्द बढ़ाता।

३. अहेतुहासच्छुरिताननेन्दुर्गृहाङ्गणक्रीडनधूलिधूम्रः।
मुहुर्वदन् किञ्चिदलक्षितार्थं मुदं तयोरङ्कगतस्ततान॥

कुमार० ११।४३॥

कभी शिशु के चन्द्र जैसे मनोहर मुखड़े पर बिना बात मुस्कान छा जाती। घर के आंगन में खेलते हुए उसका शरीर धूल से भर जाता और माता-पिता की गोद में बैठा कभी तोतली बोली से उन्हें आनन्दित करता।

४. इत्थं शिशोः शैशवकेलिवृत्तैर्मनोऽभिरामैर्गिरिजागिरीशौ।
मनोविनोदैकरसप्रसक्तौ दिवानिशं नाविदतां कदाचित्॥

कुमार० ११।४९॥

अपने शिशु की मनोहारी बाललीलाओं से शिव और पार्वती अपनी सुधबुध खो बैठते और उन्हें पता ही नहीं चलता कि दिन कब निकला और रात कब हो गई।

रघुवंश

१. सोऽहमाजन्मशुद्धानामाफलोदयकर्मणाम्।
आसमुद्रक्षितीशानामानाकरथवर्त्मनाम्॥ रघु० १।५॥

मैं रघुवंश के ऐसे राजाओं का वर्णन करूंगा जिनका चरित्र जीवन के प्रारम्भ से लेकर जीवन के अन्तिम समय तक पवित्र रहता है जो हाथ में लिया हुआ कोई काम पूरा करके ही रहते हैं। जो समुद्रपर्यन्त पृथिवी के शासक हैं और जिनके रथ स्वर्ग तक जा सकते हैं।

२. यथाविधिहुताग्नीनां यथाकामार्चितार्थिनाम्।
यथाऽपराधदण्डानां यथाकालप्रबोधिनाम्॥ रघु० १।६॥

जो शास्त्रोक्त विधि से यज्ञ करते हैं, याचकों को उनकी मांगी हुई वस्तु देते हैं। अपराधियों को उचित दण्ड देते हैं और सवेरे ठीक

समय पर जागते हैं।

३. त्यागाय सम्भृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम्।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम्॥ रघु० ११७॥

दान और त्याग करने के लिए सम्पत्ति एकत्र करते हैं, सत्य आचरण करने के लिए कम बोलते हैं, यश के लिए विजय करते हैं और सन्तान उत्पन्न करने के लिए विवाह करते हैं।

४. शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्॥ रघु० ११८॥

बचपन में विद्या और सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करते हैं, युवावस्था में भोगों का आनन्द लेते हैं, बुढ़ापे में तपस्या करते हैं और योगसमाधि से अपना शरीर छोड़ते हैं।

५. अप्यसुप्रणयिनां रघोः कुले न व्यहन्यत कदाचिदर्थिता॥

रघु० ११।२॥

रघुवंशी राजाओं की यही रीति रही है कि वे प्राण मांगनेवाले को भी निराश नहीं करते।

६. सौभ्रात्रमेषां हि कुलानुसारि॥ रघु० १६।१॥

भ्रातृप्रेम रघुकुल का धर्म सदैव रहा है।

७. अन्योन्यदेशप्रविभागसीमां वेलां समुद्रा इव न व्यतीयुः॥

रघु० १६।२॥

जैसे समुद्र अपनी सीमा में रहता है वैसे ही किसी भी भाई ने दूसरे भाई के राज्य की सीमा का उल्लंघन कभी नहीं किया।

८. वशिनां रघूणां मनः परस्त्रीविमुखप्रवृत्तिः॥ रघु० १६८॥

जितेन्द्रिय रघुवंशी राजाओं का मन परायी स्त्री की ओर नहीं खिंचता।

९. न चान्यतस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्यगुप्ता हि मनोः प्रसूतिः॥

रघु० २।४॥

दिलीप को अपनी रक्षा के लिए किसी सेवक की आवश्यकता नहीं थी क्यों कि मनु के वंश में उत्पन्न राजा अपने सामर्थ्य से स्वयं अपनी रक्षा कर लेते हैं।

१०. तितीर्षुदुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्॥रघु० १।२॥

मूर्खतावश मैं छोटी सी नाव में बैठकर अपनी अल्पबुद्धि से रघुवंश जैसे महासागर को पार करना चाहता हूँ।

आदर्श राजा

९. प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत्।
सहस्त्रगुणमुत्स्त्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः॥रघु० १।१८

दिलीप की भांति आदर्श राजा को भी अपनी प्रजा की भलाई के लिए उसी प्रकार कर लेना चाहिये जैसे सूर्य अपनी किरणों से जल सोख कर वर्षा के द्वारा उस जल से सभी प्राणियों को हजारों गुणा अधिक लाभ देता है।

२. शास्त्रेष्वकुण्ठिता बुद्धिर्मौर्वी धनुषि चातता॥रघु० १।१९॥

राजा को सभी उपयोगी विद्याओं का भलीभांति ज्ञान होना चाहिये तथा उसे देश की रक्षा के लिए अपने आपको और सेना को तैयार रखना चाहिये।

३. जुगोपात्मानमत्रस्तो भेजे धर्ममनातुरः।
अगृध्नुराददे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत्॥ रघु० १।२१॥

राजा को निडर होकर अपनी रक्षा करनी चाहिये और धैर्य के साथ धर्मानुसार आचरण करना चाहिये। लोभ के बिना राजकोष को बढ़ाना चाहिये और निस्पृह रहकर राज्य के सुखों का भोग करना चाहिये।

४. ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्ययः॥ रघु० १।२२॥

राजा को सब बातों की जानकारी होने पर भी चुप रहना चाहिये।

शत्रु को पराजित करने की शक्ति होने पर भी क्षमाशील होना चाहिये और कोई त्याग करने या दान करने पर अपनी प्रशंसा की कामना नहीं करनी चाहिये।

५. प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद् भरणादपि।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः॥ रघु० १।२४॥

दिलीप की तरह राजा को अपनी प्रजा को अच्छे कामों में लगाना चाहिये। प्रजा की रक्षा और उसका पालन-पोषण करना चाहिये तभी वह सच्चे अर्थों में प्रजा का पिता कहलायेगा और माता-पिता तो जन्म देने वाले ही माने जायेंगे।

६. राजा प्रकृतिरञ्जनात्॥ रघु० ४।१२॥

प्रजाओं को सुखी और प्रसन्न रखना ही राजा शब्द का सच्चा अर्थ है।

७. न खरो न च भूयसा मृदुः पवमानः पृथिवीरुहानिव।
स पुरस्कृतमध्यमक्रमो नमयामास नृपाननुद्धरन्॥

रघु० ८।९॥

राजा आज की भांति राजा को बहुत कठोर और बहुत कोमल नीतियां नहीं अपनानी चाहियें अपितु मध्यमार्ग अपनाना चाहिये। राजा को विरोधी राजाओं को उनके अधिकार आदि छीने बिना उसी प्रकार विनयशील बना देना चाहिये जैसे हवा का मध्यम वेग पेड़ों को उखाड़े बिना उन्हें झुका देता है।

८. जनपदे न गदः पदमादधावभिभवः कुत एव सपत्नजः।
क्षितिरभूत्फलवत्यजनन्दने शमरतेऽमरतेजसि पार्थिवे॥

रघु० ९।४॥

देवताओं के समान तेजस्वी और जितेन्द्रिय राजा दशरथ के राज्य की भांति देश धन धान्य से परिपूर्ण होना चाहिये, किसी प्रजा जन को कोई रोग नहीं सताना चाहिये और शत्रु को आक्रमण करने का साहस नहीं होना चाहिये।

९. न मृगयाभिरतिर्न दुरोदरं न च शशिप्रतिमाभरणं मधु।
तमुदयाय न वा नवयौवना प्रियतमा यतमानमपाहरत्॥

रघु० ९।७॥

दशरथ की तरह राज्य की उन्नति में दत्तचित्त राजा को शिकार खेलने और चांदनी रात में बैठकर शराब पीने का व्यसन नहीं होना चाहिये और नवयुवती पत्नी के आकर्षण से भी उसे अपना कर्तव्य अधिक प्रिय होना चाहिये।

१०. न कृपणा प्रभवत्यपि वासवे न वितथा परिहासकथास्वपि।
न च सपत्नजनेष्वपि तेन वागपरुषा परुषाक्षरमीरिता॥

रघु० ९।८॥

दशरथ प्रतिभाशाली इन्द्र के सामने भी नहीं गिड़गिड़ाते थे; वे हंसी में भी झूठ नहीं बोलते थे और शत्रुओं से भी कड़वी बात नहीं कहते थे।

११. श्रियमवेक्ष्य स रन्ध्रचलामभूदनलसोऽनलसोमसमद्युतिः॥

रघु० ९।१५॥

अग्नि और चन्द्रमा के समान द्युतिमान् राजा दशरथ, आलस्य कभी नहीं करते थे क्योंकि वे जानते थे कि एक भी दोष होने पर राज्यलक्ष्मी उन्हें छोड़ देगी।

१२. वापीष्विव स्रवन्तीषु वनेषूपवनेष्विव।
सार्थाः स्वैरं स्वकीयेषु चेरुर्वेश्मस्विवाद्रिषु॥ रघु० १७।६४॥

राजा अतिथि के राज्य में व्यापारियों के काफिले निडर होकर व्यापार करते थे। उनके लिए नदियां, बावड़ियों की भांति, वन, उद्यान और पर्वत घर जैसे बन गये थे।

१३. तपो रक्षन् स विध्नेभ्यस्तस्करेभ्यश्च सम्पदः।
यथास्वमाश्रमैश्चक्रे वर्णैरपि षडंशभाक्॥

रघु० १७।६५॥

राजा अतिथि, विध्न-बाधाओं से तपस्वियों की और चोरों से प्रजा की सम्पत्ति की रक्षा करते थे। वे चारों आश्रमों और चारों वर्णों के लोगों से उनकी सम्पत्ति का छठा भाग लेते थे।

१४. यस्मिन्महीं शासति वाणिनीनां निद्रां विहारार्धपथे गतानाम्।
वातोऽपि नास्त्रंसयदंशुकानि को लम्बयेदाहरणाय हस्तम्॥

रघु० ६।७५॥

राजा दिलीप के शासन में मदिरा पीकर उपवनों में सोई हुई श्रृंगारप्रिय और स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों के वस्त्र वायु भी नहीं छू सकता था, उनके अपहरण की बात तो कोई सोच भी नहीं सकता था।

वसिष्ठ

१.दैवीनां मानुषीणां च प्रतिहर्ता त्वमापदाम्॥ रघु० १ १६०॥

आप ही बाढ़, भूकम्प आदि दैवीय और चोर, डाकू आदि मनुष्यों से उत्पन्न संकटों को दूर करने वाले हैं।

२. तव मन्त्रकृतो मन्त्रैर्दूरात्प्रशमितारिभिः॥रघु० १।६१॥

आप मन्त्रों के रचयिता हैं। आपके मन्त्र इतने शक्तिसम्पन्न हैं कि इन मन्त्रों के उच्चारण से दूर के शत्रु भी नष्ट हो जाते हैं।

३. हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु।
वृष्टिर्भवति सस्यानामवग्रहविशोषिणाम्॥रघु० १।६२॥

हे यज्ञकर्ता ऋषिवर! आपके द्वारा शास्त्रोक्त विधान से यज्ञ करने पर सूखे से नष्ट हो रही फसल पर वर्षा होने लगती है।

४. पुरुषायुषजीविन्यो निरातङ्का निरीतयः।
यन्मदीयाः प्रजास्तस्य हेतुस्त्वद्ब्रह्मवर्चसम्॥ रघु० १।६३॥

यह आपके ब्रह्मतेज का ही परिणाम है कि मेरी सारी प्रजा बिना किसी कष्ट के सौ वर्ष की स्वाभाविक मनुष्य की आयु तक जीवित रहती है और उसे किसी भी प्रकार की विपत्ति या भय नहीं सताता।

५. त्वयैवं चिन्त्यमानस्य गुरुणा ब्रह्मयोनिना।
सानुबन्धाः कथं न स्युः सम्पदो मे निरापदः॥

रघु० १।६४॥

ब्रह्मा जी के पुत्र आप जब हमारे कुलगुरु हैं और हमारे कल्याण

का ध्यान सदैव रखते हैं तो हम अपनी सुख सम्पत्ति और ऐश्वर्य का भोग बिना किसी संकट के क्यों नहीं करते रहेंगे?

६. इक्ष्वाकूणां दुरापेऽर्थे त्वदधीना हि सिद्धयः॥ रघु० १।७२॥

इक्ष्वाकु वंश की सभी कठिनाइयां आपकी कृपा से सदा दूर होती रही हैं।

नन्दिनी

१. इति वादिन एवास्य होतुराहुतिसाधनम्।
अनिन्द्या नन्दिनी नाम धेनुराववृते वनात्॥ रघु० १।८२॥

ऋषि वसिष्ठ कामधेनु की पुत्री नन्दिनी की चर्चा कर ही रहे थे कि यज्ञ के लिए घृत आदि पदार्थ जुटाने वाली सुन्दर नन्दिनी गौ वन से चर कर लौट आई।

२. ललाटोदयमाभुग्नं पल्लवस्निग्धपाटला।
बिभ्रति श्वेतरोमाङ्कं सन्ध्येव शशिनं नवम्॥ रघु० १।८३॥

नन्दिनी का शरीर नये पत्ते की भांति कोमल और हल्का सा लाल था। उसके माथे पर सफेद रोमों का निशान ऐसा लग रहा था मानो सन्ध्या के समय रक्तिम आभा वाले आकाश में नया चन्द्रमा उदय हो रहा है।

३. भुवं कोष्णेन कुण्डोध्नी मेध्येनावभृथादपि।
प्रस्त्रवेनाभिवर्षन्ती वत्सालोकप्रवर्तिना॥ रघु० १।८४॥

अपने बछड़े को देखते ही नन्दिनी के कुण्ड जैसे विशाल थनों से हल्का गर्म दूध टपकने लगा। यह दूध यज्ञीय स्नान के जल से भी कहीं अधिक पवित्र था।

४. रजःकणैः खुरोद्भूतैः स्पृशद्भिर्गात्रमन्तिकात्।
तीर्थाभिषेकजां शुद्धिमादधाना महीक्षितः॥ रघु० १।८५॥

नन्दिनी के खुरों से उठी हुई धूलि के शरीर पर लगने से राजा दिलीप उसी प्रकार पवित्र हो गये जैसे किसी तीर्थ में स्नान करके

आये हों।

५. अदूरवर्तिनीं सिद्धिं राजन्विगणयात्मनः।
उपस्थितेयं कल्याणी नाम्नि कीर्तित एव यत्॥ रघु० १।८७॥

वसिष्ठ जी ने कहा हे राजन्! तुम्हारी मनोकामना शीघ्र ही पूरी होगी, क्योंकि यह कल्याणकारिणी गौ नाम लेते ही यहां आ पहुंची है।

६. वन्यवृत्तिरिमां शश्वदात्मानुगमनेन गाम्।
विद्यामभ्यसनेनेव प्रसादयितुमर्हसि॥ रघु० १।८८॥

तुम वन में विचरती हुई इस गाय की निरन्तर सेवा करो और कन्द, मूल फल खाकर रहो। जैसे विद्यार्थी निरन्तर अभ्यास करके विद्या प्राप्त करते हैं वैसे ही तुम भी इसे प्रसन्न करो।

७. प्रस्थितायां प्रतिष्ठेथाः स्थितायां स्थितिमाचरेः।
निषण्णायां निषीदास्यां पीताम्भसि पिबेरपः॥ रघु० १।८९॥

जब यह चले तो तुम भी चल पड़ना, इसके रुकने पर ठहर जाना, यदि यह गौ कहीं बैठ जाये तो तुम भी बैठ जाना और इसके पानी पीने पर ही तुम पानी पीना।

८. अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम्।
वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच॥

रघु० २।१॥

अगले दिन सवेरे सुदक्षिणा ने हार और सुगन्धित पदार्थों से नन्दिनी की पूजा की। जब बछड़े ने मां का दूध पी लिया तब बछड़े को बांध कर राजा ने गाय को खोल दिया।

९. तस्याः खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां धुरि कीर्तनीया।
मार्गं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्॥

रघु० २।२॥

नन्दिनी के खुरों से उड़ती हुई धूल रास्ते को पवित्र करने लगी

नन्दिनी के पीछे चलती हुई राजा दिलीप की सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता धर्मपत्नी सुदक्षिणा ठीक वैसी ही लग रही थी मानो श्रुति (वेद) के पीछे स्मृतियां चल रही हों। स्मृतियां, वेद मन्त्रों का यथार्थ अभिप्राय प्रकट करती हैं।

१०. आस्वादवद्भिः कवलैस्तृणानां कण्डूयनैर्दंशनिवारणैश्च।
अव्याहतैः स्वैरगतैः स तस्याः सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत्॥

रघु० २।५॥

सम्राट् दिलीप अपने हाथ से स्वादिष्ठ घास नन्दिनी को खिलाते, उसकी देह खुजलाते, मच्छर उड़ाते, वह जहां जाती जाने देते और उसका हर प्रकार से ध्यान रखते।

११. स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां निषेदुषीमासनबन्धधीरः।
जलाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत्॥

रघु० २।६॥

नन्दिनी वन में जब खड़ी हो जाती तो राजा भी ठहर जाते और उसके चल पड़ने पर चल देते, बैठ जाने पर बैठ जाते, गौ के पानी पीने पर स्वयं पानी पीते। इस प्रकार राजा दिलीप छाया की तरह नन्दिनी के पीछे पीछे चलते रहते।

१२. पुरस्कृता वर्त्मनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पार्थिवधर्मपत्न्यां।
तदन्तरे सा विरराज धेनुर्दिनक्षपा मध्यगतेव सन्ध्या॥

रघु० २।२०॥

शाम को वन से लौटती हुई नन्दिनी के पीछे राजा थे और रानी गौ के स्वागत के लिए आगे खड़ी थी। राजा और रानी के बीच नन्दिनी, दिन और रात के बीच सन्ध्या समय की अरुणिमा जैसी लग रही थी।

सिंह—दिलीपसंवाद

अलं महीपाल तव श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात्।
न पादपोन्मूलनशक्तिरंहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य॥

रघु० २।३४॥

**सिंह–**हे राजन्! तुम मुझे मारने का प्रयत्न मत करो क्योंकि मुझ

पर चलाया हुआ तुम्हारा अस्त्र व्यर्थ ही जायेगा। वायु का जो झोंका पेड़ों को उखाड़ सकता है वह पर्वत को हिला भी नहीं सकता।

२. कैलासगौरं वृषमारुरुक्षोः पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम्।
अवेहि मां किङ्करमष्टमूर्तेः कुम्भोदरं नाम निकुम्भमित्रम्॥

रघु० २।३५॥

मैं शिव जी का गण हूं, मेरा नाम कुम्भोदर है, मैं निकुम्भ का मित्र हूँ। जब शिव जी कैलाशपर्वत के समान उजले नन्दी पर चढ़ते हैं तब वे मेरी पीठ पर पैर रखकर चढ़ते हैं। उनके पैर से मेरी पीठ पवित्र है।

३. अमुं पुरः पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन।
यो हेमकुम्भस्तननिःसृतानां स्कन्दस्य मातुः पयसां रसज्ञः॥

रघु० २।३६॥

तुम्हारे सामने जो देवदार का वृक्ष दिखाई दे रहा है उसे शिव जी अपना पुत्र ही मानते हैं। पार्वती जी ने अपने सोने के घड़े जैसे स्तनों के दूध से इसे सींचा है।

४. कण्डूयमानेन कटं कदाचिद्वन्यद्विपेनोन्मथिता त्वगस्य।
अथैनमद्रेस्तनया शुशोच सेनान्यमालीढमिवासुरास्त्रैः॥

रघु० २।३७॥

एक दिन जंगली हाथी इस देवदार के तने से रगड़ कर अपनी कनपटी खुजला रहा था कि इसकी छाल छिल गई। इस पेड़ की यह हालत देखकर पार्वती वैसी ही दुःखी हुई जैसी दुखी वे दैत्यों के बाणों से घायल कार्तिकेय को देखकर हुई थीं।

५. तदा प्रभृत्येव वनद्विपानां त्रासार्थमस्मिन् हिमाद्रिकुक्षौ।
व्यापारितः शूलभृता विधाय सिंहत्वमङ्कागतसत्त्ववृत्तिः॥

रघु० २।३८॥

तभी से शंकर जी ने जंगली हाथियों को डराने के लिए मुझे इस पहाड़ की गुफा में सिंह बनाकर पेड़ की रखवाली करने के लिए बैठा दिया है और आज्ञा दी है कि इस गुफा में जो भी पशु आये उसे

तुम खा लेना।

६. तस्यालमेषा क्षुधितस्य तृप्त्यै प्रदिष्टकाला परमेश्वरेण।
उपस्थिता शोणितपारणा मे सुरद्विषश्चान्द्रमसी सुधेव॥

रघु० २।३९॥

चन्द्रग्रहण में जैसे राहु चन्द्रमा का अमृत पीता है उसी प्रकार मुझ भूखे शेर का उपवास तोड़ने के लिए शिव जी ने ठीक समय पर यह गाय भेज दी है। मैं इसका खून पीकर अपना उपवास तोडूंगा और इसके मांस से मेरा पेट भर जायेगा।

७. स त्वं निवर्तस्व विहाय लज्जां गुरोर्भवान् दर्शितशिष्यभक्तिः।
शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्यरक्ष्यं न तद्यशः शस्त्रभृतां क्षिणोति॥

रघु० २।४०॥

इसलिए तुम लज्जा त्याग कर लौट जाओ तुमने अपने गुरु के प्रति शिष्य की भक्ति भलीभांति दिखा ही दी है, क्योंकि जब शस्त्र से किसी वस्तु की रक्षा की ही न जा सके तब शस्त्रधारी का यश घटता नहीं है।

८. संरुद्धचेष्टस्य मृगेन्द्र! कामं हास्यं वचस्तद्यदहं विवक्षुः।
अन्तर्गतं प्राणभृतां हि वेद सर्वं भवान्भावमतोऽभिधास्ये॥

रघु० २।४३॥

दिलीप—हे सिंह! अपना हाथ बंध जाने से मैं कुछ नहीं कर सकता इसलिए जो कुछ कहूंगा उसे सुनकर तुम मेरी हंसी ही उड़ाओगे। किन्तु तुम सब के मन की बात जानते हो इसलिए मैं अपनी बात कहूंगा।

९. मान्यः स मे स्थावरजङ्गमानां सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतुः।
गुरोरपीदं धनमाहिताग्नेर्नश्यत्पुरस्तादनुपेक्षणीयम्॥

रघु० २।४४॥

स्थिर और चेतन सभी प्राणियों के जन्मदाता, पालनकर्ता और संहारकर्ता शिव जी का मैं आदर करता हूं किन्तु मैं अग्निहोत्र करने वाले अपने गुरु के इस गो धन को अपनी आँखों के सामने नष्ट होते
नहीं देख सकता।

१०. स त्वं मदीयेन शरीरवृत्तिं देहेन निर्वर्तयितुं प्रसीद।
दिनावसानोत्सुकबालवत्सा विसृज्यतां धेनुरियं महर्षेः॥

रघु० २।४५॥

इसलिए तुम मुझे खाकर अपनी भूख मिटा लो और महर्षि वसिष्ठ की इस गाय को छोड़ दो क्योंकि इसका नन्हा सा बछड़ा शाम के समय इसके आने की प्रतीक्षा कर रहा होगा।

११. एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च।
अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन् विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्॥

रघु० २।४७॥

सिंह- हे राजन्! तुम संसार के एकछत्र सम्राट् हो,फिर तुम्हारा सुन्दर शरीर नवयौवन से परिपूर्ण है, इसलिए इस छोटी सी गाय के बदले अपना राजपाट और अपना शरीर न्योछावर करते हुए तुम मूर्खता ही कर रहे हो।

१२. भूतानुकम्पा तव चेदियं गौरेका भवेत् स्वस्तिमती त्वदन्ते।
जीवन्पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि॥

रघु० २।४८॥

यदि तुम जीवों पर दया करने के कारण अपनी बलि चढ़ा रहे हो तो तुम एक गाय की ही रक्षा कर पाओगे, किन्तु यदि तुम जीवित रहोगे तो पिता की तरह अपनी सारी प्रजा की रक्षा करते रहोगे।

१३. अथैकधेनोरपराधचण्डाद् गुरोः कृशानुप्रतिमाद् बिभेषि।
शक्योऽस्य मन्युर्भवता विनेतुं गाः कोटिशः स्पर्शयता घटोघ्नीः॥

रघु० २।४९॥

यदि तुम इस अकेली गाय के स्वामी और अग्नि के समान तेजस्वी अपने गुरु के प्रति अपराध करने के कारण उनके भयंकर क्रोध से डरते हो तो तुम इस एक गाय के बदले गुरु जी को घड़े जैसे ऊधसवाली करोड़ों गायें देकर उनका क्रोध शान्त कर सकते हो।

१४. तद्रक्ष कल्याणपरम्पराणां भोक्तारमूर्जस्वलमात्मदेहम्।
महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नमृद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहुः॥

रघु० २।५०॥

अभी तो तुम्हारी अवस्था संसार के भोग-ऐश्वर्य भोगने की है इसलिए तुम अपने शक्तिशाली शरीर को बचाओ, क्योंकि सुखसमृद्धि से परिपूर्ण राज्य पृथ्वी पर ही स्वर्ग बन जाता है। असली स्वर्ग से इसमें इतना ही अन्तर है कि यह पृथ्वी का स्वर्ग है और वह देवलोक का स्वर्ग है।

१५. निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यदेवः पुनरप्युवाच।
धेन्वा तदध्यासितकातराक्ष्या निरीक्ष्यमाणः सुतरां दयालुः॥

रघु० २।५२॥

शिव जी के गण की बात सुनकर और सिंह से दबोची हुई गाय की भयभीत आँखें देखकर अत्यन्त दयालु राजा दिलीप बोले।

१६. क्षतात्किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः।
राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा॥

रघु० २।५३॥

दिलीप– अरे शेर! क्षत्रिय शब्द का अर्थ ही यह है कि क्षत्रिय दूसरे प्राणियों की रक्षा करें। यदि मैंने क्षत्रिय का यह कर्तव्य पूरा नहीं किया तो मेरा यह राज्य और अपयश से भरा जीवन किस काम का?

१७. कथं न शक्योऽनुनयो महर्षेर्विश्राणनाच्चान्यपयस्विनीनाम्।
इमामनूनां सुरभेरवेहि रुद्रौजसा तु प्रहृतं त्वयाऽस्याम्॥

रघु० २।५४॥

तुम कह रहे हो कि मैं इस गाय के बदले और गायें देकर महर्षि वसिष्ठ का रोष शान्त कर दूं किन्तु यह गाय कामधेनु से कम नहीं है। तुम ने शिव जी के प्रभाव से इसे धर दबोचा है नहीं तो यह तुम्हारी पकड़ में नहीं आती।

१८. सेयं स्वदेहार्पणनिष्क्रयेण न्याय्या मया मोचयितुं भवतः।
न पारणा स्याद्विहता तवैवं भवेदलुप्तश्च मुनेः क्रियार्थः॥

रघु० २।५५॥

इसलिए मुझे अपना शरीर देकर भी इसे तुम्हारे पंजे से अवश्य छुड़ाना चाहिये। अपना शरीर देने से तुम्हारी भूख भी मिट जायेगी और मेरे गुरु जी की यज्ञ की क्रियाओं में भी कोई विघ्न बाधा नहीं पड़ेगी।

१९. भवानपीदं परवानवैति महान् हि यत्नस्तव देवदारौ।
स्थातुं नियोक्तुर्न हि शक्यमग्रे विनाश्य रक्ष्यं स्वयमक्षतेन॥

रघु० २।५६॥

तुम भी किसी के सेवक हो और इस देवदार वृक्ष की बड़ी लगन से रक्षा कर रहे हो। यदि सेवक बिना चोट खाये रक्षा करने योग्य वस्तु को नष्ट हो जाने दे तो वह अपने स्वामी के सामने क्या मुंह लेकर जायेगा।

२०. किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं यशः शरीरे भव मे दयालुः।
एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानां पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु॥

रघु० २।५७॥

यदि तुम मुझ पर थोड़ी भी दया करना चाहते हो तो तुम मेरे यश रूपी शरीर की ही रक्षा करने की कृपा करो, क्योंकि मेरे जैसे व्यक्ति पांच तत्त्वों से बने इस भौतिक और अवश्य नष्ट होने वाले शरीर से
तनिक भी मोह नहीं करते।

२१. सम्बन्धमाभाषणपूर्वमाहुर्वृत्तः स नौ सङ्गत्तयोर्वनान्ते।
तद्भूतनाथानुग नार्हसि त्वं सम्बन्धिनो प्रणयं विहन्तुम्॥

रघु० २।५८॥

इस जंगल में हम दोनों की बातचीत होने से अब हमारे बीच मित्रता हो गई है। इसलिए हे शिव के अनुचर! तुम अपने मित्र की प्रार्थना मत ठुकराना।

२२. तथेति गामुक्तवते दिलीपः सद्यः प्रतिष्ठम्भविमुक्तबाहुः।
स न्यस्तशस्त्रो हरये स्वदेहमुपानयत्पिण्डमिवामिषस्य॥

रघु० २।५९॥

सिंह ने दिलीप का यह अनुरोध मान लिया और दिलीप का हाथ खुल गया। दिलीप ने अपने अस्त्र फेंक दिये और शेर के सामने मांस के लोथड़े की तरह अपना शरीर सौंप दिया।

२३. तस्मिन् क्षणे पालयितुः प्रजानामुत्पश्यतः सिंहनिपातमुग्रम्।
अवाङ्मुखस्योपरि पुष्पवृष्टिः पपात विद्याधरहस्तमुक्ता॥

रघु० २।६०॥

अपना मुख पृथिवी की ओर किये हुए प्रजापालक राजा दिलीप शेर के आक्रमण की प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि तभी आकाश से विद्याधर उन पर फूल बरसाने लगे।

२४. उत्तिष्ठ वत्सेत्यमृतायमानं वचो निशम्योत्थितमुत्थितः सन्।
ददर्श राजा जननीमिव स्वां गामग्रतः प्रस्त्रविणीं न सिंहम्॥

रघु० २।६१॥

तभी दिलीप के कानों में उठो बेटे! अमृत भरे शब्द सुनाई दिये और जब राजा ने अपना सिर उठाया तो दूध टपकाती हुई माता जैसी नन्दिनी गौ सामने दिखाई दी। शेर न जाने कहां चला गया था।

२५. तं विस्मितं धेनुरुवाच साधो मायां मयोद्भाव्य परीक्षितोऽसि।
ऋषिप्रभावान्मयि नान्तकोऽपि प्रभुः प्रहर्तुं किमुतान्यहिंस्राः॥

रघु० २।६२॥

आश्चर्य में डूबे दिलीप से नन्दिनी ने कहा हे सत्पुरुष! मैंने माया रचकर तुम्हारी परीक्षा ली थी। महर्षि के प्रभाव से यमराज भी मेरा बाल बांका नहीं कर सकता फिर दूसरे हिंसक पशुओं से क्या डर।

२६. भक्त्या गुरौ मय्यनुकम्पया च प्रीताऽस्मि ते पुत्र वरं वृणीष्व।
न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां कामदुघां प्रसन्नाम्॥

रघु० २।६३॥

हे पुत्र! मैं गुरु के प्रति तुम्हारी भक्तिभावना से और मेरे प्रति तुम्हारी दया से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। इसलिए तुम मनचाहा वर मांग लो, क्योंकि मैं केवल दूध देने वाली गाय नहीं हूँ अपितु प्रसन्न होने पर सारी मनोकामनाएं पूरी कर देती हूँ।

२७. ततः समानीय स मानितार्थी हस्तौ स्वहस्तार्जितवीरशब्दः।
वंशस्य कर्तारमनन्तकीर्तिं सुदक्षिणायां तनयं ययाचे॥

रघु० २।६४॥

तब याचकों की इच्छा पूरी करने वाले दिलीप अपने ही पराक्रम से वीर कहलाने लगे। उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़कर यही वर मांगा कि मेरी पत्नी सुदक्षिणा ऐसा पुत्र उत्पन्न करे जो हमारा वंश चलाये

और यशस्वी हो।

२८. सन्तानकामाय तथेति कामं राज्ञे प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा।
दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदीयं पुत्रोपभुङ्क्ष्वेति तमादिदेश॥

रघु० २।६५॥

सन्तान की कामना करने वाले दिलीप को सन्तान प्राप्ति का वरदान देकर नन्दिनी ने कहा हे राजन्! तुम पत्ते का दोना बनाकर मेरा दूध दुह लो और इसे पी लो।

२९. वत्सस्य होमार्थविधेश्च शेषमृषेरनुज्ञामधिगम्य मातः।
औधस्यमिच्छमि तवोपभोक्तुं षष्ठांशमुर्व्या इव रक्षितायाः॥

रघु० २।६६॥

यह सुनकर दिलीप ने कहा- हे मां! बछड़े के दूध पी लेने पर और यज्ञ की क्रियाओं से बचा हुआ आपका दूध महर्षि की आज्ञा लेकर वैसे ही पीना चाहता हूँ जैसे मैं पृथिवी की रक्षा करने के बदले छठा भाग लेता हूँ।

३०. इत्थं क्षितीशेन वसिष्ठधेनुर्विज्ञापिता प्रीततरा बभूव।
तदन्विता हैमवताच्च कुक्षेः प्रत्याययावाश्रममश्रमेण॥

रघु० २।६७॥

राजा दिलीप की यह बात सुनकर नन्दिनी बहुत प्रसन्न हुई और हिमालय की गुफा से निकलकर दिलीप के साथ आश्रम लौट आई।

इन्दुमती-स्वयंवर

१. सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा।
नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः॥

रघु० ६।६७॥

रात्रि में दीपक लेकर राजमार्ग पर चलते हुए जो भवन पीछे छूटते जाते हैं वे अन्धेरे में घिरते जाते हैं। उसी प्रकार स्वयंवर करने वाली इन्दुमती जिन राजाओं को छोड़कर आगे बढ़ जाती थी उनके मुखों पर उदासी छा जाती थी।

२. तं प्राप्य सर्वावयवानवद्यं व्यावर्ततान्योपगमात्कुमारी।
न हि प्रफुल्लं सहकारमेत्य वृक्षान्तरं काङ्क्षति षट्पदाली॥

रघु० ६।६९॥

सर्वांग सुन्दर अज को देखकर इन्दुमती वहीं रुक गई और आगे किसी राजा के पास नहीं गई। क्योंकि भौंरों का झुण्ड बौर से लदे आम को छोड़ और कहीं नहीं जाता।

३. कुलेन कान्त्या वयसा नवेन गुणैश्च तैस्तैर्विनयप्रधानैः।
त्वमात्मनस्तुल्यममुं वृणीष्व रत्नं समागच्छतु काञ्चनेन॥

रघु० ६।७९॥

ये कुल, सौन्दर्य, नवयौवन, गुणों और विनयशीलता आदि में तुम्हारे ही रूप–गुण के समान हैं, अतः तुम उन्हें वर लो और मणि कांचन का सुन्दर संयोग हो जाय।

४. ततः सुनन्दावचनावसाने लज्जां तनुकृत्य नरेन्द्रकन्या।
दृष्ट्या प्रसादामलया कुमारं प्रत्यग्रहीत्संवरणस्त्रजेव॥

रघु० ६।८०॥

सुनन्दा के चुप हो जाने पर राजकन्या इन्दुमती ने संकोच छोड़कर स्निग्धदृष्टि से अज को देखा और उसे वर लिया। इन्दुमती की वह चितवन ही स्वयंवर की माला बन गई।

५. सा यूनि तस्मिन्नभिलाषबन्धं शशाक शालीनतया न वक्तुम्।
रोमाञ्चलक्ष्येण स गात्रयष्टिं भित्त्वा निराक्रमादरालकेश्याः॥

रघु० ६।८१॥

इन्दुमती शालीनता के कारण अपने प्रेम की बात अज से नहीं कह सकी किन्तु घुंघराले बालों वाली इन्दुमती की सारी देह रोमांचित हो उठी। मानो उसका प्रेम रोमाञ्च के रूप में शरीर से बाहर फूट पड़ा हो।

६. तथागतायां परिहासपूर्वं सख्यां सखी वेत्रभृदाबभाषे।
आर्ये! व्रजामोऽन्यत इत्यथैनां वधूरसूयाकुटिलं ददर्श॥

रघु० ६।८२॥

इन्दुमती की यह अवस्था देखकर सुनन्दा हंसी में बोली-आर्य! आगे बढ़िये और इन्दुमती ने रोषपूर्ण नयनों से सुनन्दा को देखा।

७. तया स्त्रजा मङ्गलपुष्पमय्या विशालवक्षःस्थललम्बया सः।
अमंस्त कण्ठार्पितबाहुपाशां विदर्भराजावरजां वरेण्यः॥

रघु० ६।८४॥

कल्याणकारी पुष्पों की वरमाला अपनी विशाल छाती पर लटकती देख अज मन ही मन सोचने लगा कि इन्दुमती ने अपना भुजपाश ही मेरे गले में डाल दिया है।

८. शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तम्-
जलनिधिमनुरूपं जह्नुकन्याऽवतीर्णा।
इतिसमगुणयोगप्रीतयस्तत्रपौराः
श्रवणकटुनृपाणामेकवाक्यं विवव्रुः॥

रघु० ६।८५॥

नगरवासी समान गुणों वाले अज-इन्दुमती का सम्बन्ध देख कहने लगे कि चांदनी और चन्द्रमा का अथवा गंगा और समुद्र का मिलन हुआ है। अन्य राजा कुढ़ने लगे।

९. रतिस्मरौ नूनमिमावभूतां राज्ञां सहस्त्रेषु तथा हि बाला।
गतेयमात्मप्रतिरूपमेव मनो हि जन्मान्तरसङ्गतिज्ञम्॥

रघु० ७।१५॥

पूर्वजन्म में अज और इन्दुमती अवश्य ही कामदेव और रति होंगे तभी तो हजारों राजाओं के बीच इन्दुमती ने अपने अनुरूप अज को वर लिया क्योंकि मन पिछले जन्म का सम्बन्ध भलीभांति जानता है

अज—विलाप और वसिष्ठ—सन्देश

१. विललाप स वाष्यगद्गदं सहजामप्यपहाय धीरताम्।
अभितप्तमयोऽपि मार्दवं भजते कैव कथा शरीरिषु॥

रघु० ८।४३॥

अज अपना स्वाभाविक धैर्य त्याग कर फूट फूट कर रोने लगे।

लोहा भी तपाने पर मुलायम हो जाता है इसलिए शरीरधारी मनुष्यों का शोक से विह्वल हो उठना स्वाभाविक ही है।

२. कुसुमान्यपि गात्रसङ्गमात्प्रभवन्त्यायुरपोहितुं यदि।
न भविष्यति हन्त साधनं किमिवान्यत्प्रहरिष्यतो विधेः॥

रघु० ८।४४॥

हाय! यदि फूल भी शरीर को छूकर जीवन समाप्त कर सकते हैं। तब तो दैव किसी को मारने के लिए कोई भी वस्तु प्रयोग में ला सकता है।

३. अथवा मृदुवस्तु हिंसितुं मृदुनैवारभते प्रजान्तकः।
हिमसेकविपत्तिरत्र मे नलिनी पूर्वनिदर्शनं मता॥

रघु० ८।४५॥

यह भी हो सकता है कि यमराज कोमल पदार्थ को नष्ट करने के लिए कोमल वस्तु ही प्रयुक्त करता है। जैसे कमलिनी को नष्ट करने के लिए पाला ही पर्याप्त होता है।

४. स्त्रगियं यदि जीवितापहा हृदये किं निहिता न हन्ति माम्।
विषमप्यमृतं क्वचिद्भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया॥

रघु० ८।४६॥

यदि यह माला प्राण लेने वाली है तो हृदय पर रखने से यह मुझे क्यों नहीं मारती। ईश्वर की इच्छा से कहीं विष अमृत हो जाता है और अमृत विष।

५. अथवा मम भाग्यविप्लवादशनिः कल्पित एष वेधसा।
यदनेन तरुर्न पातितः क्षपिता तद्विटपाश्रिता लता॥

रघु० ८।४७॥

अथवा यह मेरा दुर्भाग्य है कि विधाता ने इस माला को वज्र बनाकर भेजा, जिसने पेड़ को तो छोड़ दिया किन्तु उससे लिपटी हुई लता को नष्ट कर दिया।

६. मनसाऽपि न विप्रियं मया कृतपूर्वं तव किं जहासि माम्।
ननु शब्दपतिः क्षितेरहं त्वयि मे भावनिबन्धना रतिः॥

रघु० ८।५२॥

मैंने मन से भी कभी तुम्हारा बुरा नहीं सोचा फिर भी तुम मुझे छोड़कर क्यों चली गईं। मैं नाम का ही राजा हूँ मेरा सच्चा प्रेम तो तुम से ही है।

७. शशिनं पुनरेति शर्वरी दयिता द्वन्द्वचरं पतत्रिणम्।
इति तौ विरहान्तरक्षमौ कथमत्यन्तगता न मां दहेः॥

रघु० ८।५६॥

चन्द्रमा को रात्रि फिर मिल जाती है और प्रातः काल होने पर चकवा चकवी फिर मिल जाते हैं। इनका वियोग कुछ ही समय के लिए होता है किन्तु मुझे तुम्हारे विरह की आग अवश्य जला ही डालेगी।

८. नवपल्लवसंस्तरेऽपि ते मृदु दूयेत यदङ्गमर्पितम्।
तदिदं विषहिष्यते कथं वद वामोरु! चिताधिरोहणम्॥

रघु० ८।५७॥

कोमल किसलयों की सेज पर तुम्हारे शरीर को कष्ट पहुंचता था। हे सुन्दर जांघों वाली! अब तुम्हारी देह चिता पर कैसे रखी जा सकेगी?

९. कलमन्यभृतासु भाषितं कलहंसीषु मदालसं गतम्।
पृषतीषु विलोलमीक्षितं पवनाधूतलतासु विभ्रमाः॥

रघु० ८।५९॥

तुम्हारे मधुर स्वर कोयलों ने तुम्हारी अलसाई चाल हंसिनियों ने, तुम्हारी चंचल चितवन हरिणियों ने और तुम्हारी भावभंगिमा वायु से हिलती लताओं ने ले ली है।

१०. समदुःखसुखः सखीजनः प्रतिपच्चन्द्रनिभोऽयमात्मजः।
अहमेकरसस्तथापि ते व्यवसायःप्रतिपत्तिनिष्ठुरः॥

रघु० ८।६५॥

तुम्हारे सुख दुःख में साथ रहने वाली सखियां यहीं खड़ी हैं। प्रतिपदा के चन्द्र जैसे सुन्दर मुखड़े वाला तुम्हारा बेटा भी तुम्हारे पास है और

तुम्हारा अनन्य प्रेमी मैं भी यहीं हूं। फिर भी सब को छोड़कर चले जाना तुम्हारी निष्ठुरता है।

११. धृतिरस्तमिता रतिश्च्युता विरतं गेयमृतुर्निरुत्सवः।
गतमाभरणप्रयोजनं परिशून्यं शयनीयमद्य मे॥

रघु० ८।६६॥

मेरा धैर्य समाप्त हो गया है, मेरे जीवन से आनन्द चला गया है, गाना बजाना बन्द हो गया है, ऋतुएं फीकी पड़ गई हैं, अच्छे वस्त्र और आभूषण पहिनने को मन नहीं करता और मेरी शय्या सूनी हो गई है।

१२. गृहिणी सचिवः सखी मिथः प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ।
करुणाविमुखेन मृत्युना हरता त्वां वद किं न मे हृतम्॥

रघु० ८।६७॥

तुम्हीं मेरी एकमात्र पत्नी थीं, तुम मुझे अच्छी सलाह देती थीं, मेरी एकान्त सखी थीं, ललित कलाएं सीखने वाली प्रिय शिष्या थीं, निर्दयी मृत्यु ने तुम्हें मुझ से छीन कर बोलो मेरा क्या कुछ नहीं छीन लिया?

१३. विभवेऽपि सति त्वया विना सुखमेतावदजस्य गण्यताम्।
अहृतस्य विलोभनान्तरैर्मम सर्वे विषयास्त्वदाश्रयाः॥

रघु० ८।६९॥

विशाल ऐश्वर्य होते हुए भी तुम्हारे बिना अज का सारा सुख नष्ट हो गया है। मेरा मन किसी भी प्रलोभन में नहीं फंसता था। मुझे तो केवल तुम्हीं से प्रेम था।

१४. विलपन्निति कोसलाधिपः करुणार्थग्रथितं प्रियां प्रति।
अकरोत्पृथिवीरुहानपि स्त्रुतशाखारसवाष्पदूषितान्॥

रघु० ८।७०॥

कोसल नरेश अज अपनी प्रिया के शोक में विलाप कर रहे थे, उन्हें देख वहां खड़े वृक्ष भी अपनी शाखाओं के रस से आंसू बहाने लगे।

१५. प्रमदामनु संस्थितः शुचा नृपतिः सन्निति वाच्यदर्शनात्।
न चकार शरीरमग्निसात् सहदेव्या न तु जीविताशया॥

रघु० ८।७२॥

अपनी पत्नी की मृत्यु से अज इतने दुःखी हो गये कि उनके जीवन में कोई आशा नहीं रह गई, परन्तु वे इन्दुमती के साथ चिता पर इसीलिए नहीं बैठे कि लोग यही कहेंगे कि अज अपनी पत्नी का वियोग नहीं सह सका।

१६. अथ तं सवनाय दीक्षितः प्रणिधानाद् गुरुराश्रमस्थितः।
अभिषङ्गजडं विजज्ञिवानिति शिष्येण किलान्वबोधयत्॥

रघु० ८।७५॥

तब महर्षि वसिष्ठ यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने आश्रम में बैठे ही योग बल से राजा के शोक का कारण जान लिया और अज के पास शिष्य द्वारा सन्देश भेजा।

१७. तदलं तदपायचिन्तया विपदुत्पत्तिमतामुपस्थिता।
वसुधेयमवेक्ष्यतां त्वया वसुमत्या हि नृपाः कलत्रिणः॥

रघु० ८१८३

अब आप इन्दुमती के लिए शोक करना छोड़िये क्योंकि जो प्राणी पैदा होता है उसकी मृत्यु भी होती है। आप को इस पृथिवी का पालन करना चाहिए क्योंकि राजाओं की सच्ची स्त्री पृथिवी ही होती है।

१८. उदये मदवाच्यमुज्झता श्रुतमाविष्कृतमात्मवत्त्वया।
मनसस्तदुपस्थिते ज्वरे पुनरक्लीबतया प्रकाश्यताम्॥

रघु० ८।८४॥

अपने उत्कर्ष में भी आप अभिमान रहित रहे इसलिए आत्मज्ञानी आप ने यश प्राप्त किया। अतः आज शोक में भी आप उसी प्रकार धैर्यवान् बने रहिये।

१९. रुदता कुत एव सा पुनर्भवता नानुमृतापि लभ्यते।
परलोकजुषां स्वकर्मभिर्गतयो भिन्नपथा हि देहिनाम्॥

रघु० ८।८५॥

रोने से क्या लाभ? यदि आप मर भी जायें तब भी इन्दुमती आपको फिर नहीं मिल सकती। मृत्यु के बाद प्राणी अपने कर्मानुसार भिन्न-भिन्न मार्गों पर चले जाते हैं।

२०. मरणं प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधैः।
क्षणमप्यवतिष्ठते श्वसन्यदि जन्तुर्ननु लाभवानसौ॥

रघु० ८।८७॥

जो जन्म लेता है वह अवश्य मरता है यह प्रकृति का नियम हैं। विद्वान् जीवन को एक प्रकार का विकार ही मानते हैं। इसलिए यदि कोई प्राणी क्षणभर के लिए भी जीवित रहता है तो उसे उतने से ही
सन्तोष कर लेना चाहिये।

२१. स्वजनाश्रु किलातिसन्ततं दहति प्रेतमिति प्रचक्षते॥

रघु० ८।८६॥

शास्त्रों के अनुसार जिसके सम्बन्धी बहुत रोते हैं तो उसकी प्रेतात्मा को बहुत कष्ट होता हैं।

२२. अवगच्छति मूढचेतनः प्रियनाशं हृदि शल्यमर्पितम्।
स्थिरधीस्तु तदेव मन्यते कुशलद्वारतया समुद्धृतम्॥

रघु० ८।८८॥

मूर्ख लोग प्रियजन की मृत्यु को हृदय में गड़ी हुई कील की भांति कष्टकर मानते हैं किन्तु स्थितप्रज्ञ मनुष्य को मृत्यु से वैसा ही सुख मिलता है जैसा कि हृदय में धंसी कील के निकल जाने पर।

२३. स्वशरीरशरीरिणावपि श्रुतसंयोगविपर्ययौ यदा।
विरहः किमिवानुतापयेद्वद बाह्यैर्विषयैर्विपश्चितम्॥

रघु० ८।८९॥

जब अपनी आत्मा भी अपने शरीर से अलग हो जाती है तब विद्वान् पुरुष को बाह्य विषयों और सम्बन्धियों के बिछुड़ जाने पर दुखी नहीं होना चाहिये

२४. न पृथग्जनवच्छुचो वशं वशिनामुत्तम! गन्तुमर्हसि।
द्रुमसानुमतां किमन्तरं यदि वायौ द्वितयेऽपि ते चलाः॥

रघु० ८।९०॥

आप पूर्ण जितेन्द्रिय हैं। अतः आपको साधारण मनुष्यों की भांति शोक नहीं करना चाहिये। यदि पर्वत भी आंधी के झोंकों से वृक्षों की तरह हिलने लगे तो वृक्षों और पर्वतों में क्या भेद रह जायेगा ?

२५. स तथेति विनेतुरुदारमतेः प्रतिगृह्य वचो विससर्ज मुनिम्।
तदलब्धपदं हृदि शोकधने प्रतियातमिवान्तिकमस्य गुरोः॥

रघु० ८।९१॥

विद्वान् तथा महामति गुरु का सन्देश अज ने ध्यान से सुना और उनके शिष्य को विदा किया। ऐसा लगता था कि शोक से भरे अज के हृदय में गुरु वसिष्ठ का उपदेश नहीं ठहरा और शिष्य के साथ ही वसिष्ठ के पास लौट गया।

श्रीराम

१. राम इत्यभिरामेण वपुषा तस्य चोदितः।
नामधेयं गुरुश्चक्रे जगत्प्रथममङ्गलम्॥ रघु० १०।६७॥

गुरु वसिष्ठ ने बालक का सुन्दर शरीर देखकर उसका नाम राम रख दिया। राम का नाम जगत् में सर्वप्रथम मंगलकारी नाम है।

२. पित्रा दत्तां रुदन् रामः प्राङ्महीं प्रत्यपद्यत।
पश्चाद् वनाय गच्छेति तदाज्ञां मुदितोऽग्रहीत्॥

रघु० १२७॥

जब पिता ने राम को राज्य प्रदान किया था तब उन्होंने रोकर पिता की आज्ञा मानी थी, किन्तु उन्होंने पिता की वन गमन की आज्ञा हंस कर स्वीकार की।

३. दधतो मङ्गलक्षौमे वसानस्य च वल्कले।
ददृशुर्विस्मितास्तस्य मुखरागं समं जनाः॥ रघु० १२।८॥

प्रजाजन यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि राज्याभिषेक के

लिए रेशमी वस्त्र पहिनते समय और वनवास के लिए वल्कल वस्त्र धारण करते समय भी राम के मुख की भाव-भंगिमा एक जैसी ही बनी रही।

सीता

१. क्लेशावहा भर्तुरलक्षणाऽहं सीतेति नाम स्वमुदीरयन्ती।
स्वर्गप्रतिष्ठस्य गुरोर्महिष्यावभक्तिभेदेन वधूर्ववन्दे॥

रघु० १४।५॥

मैं अपने पति को कष्ट पहुंचाने वाली कुलक्षणा सीता हूँ। यह कहते हुए सीता ने बिना किसी भेदभाव के स्वर्गवासी श्वसुर की दोनों रानियों को प्रणाम किया।

२. उत्तिष्ठ वत्से! ननु सानुजोऽसौ वृत्तेन भर्त्ता शुचिना तवैव।
कृच्छ्रं महत्तीर्ण इति प्रियार्हां तामूचतुस्ते प्रियमप्यमिथ्या॥

रघु० १४।६॥

दोनों रानियों ने अपने चरणों पर झुकी हुई सीता को उठाया और कहा कि तुम्हारे सच्चरित्र के प्रभाव से ही राम और लक्ष्मण इस महान् संकट से उबर पाये हैं। रानियों की यह बात वास्तव में सच्ची और प्रिय भी थी।

३. बभूव रामः सहसा सवाष्पस्तुषारवर्षीव सहस्यचन्द्रः।
कौलीनभीतेन गृहान्निरस्ता न तेन वैदेहसुता मनस्तः॥

रघु० १४।८४॥

लक्ष्मण से सीता का सन्देश सुनकर रामचन्द्र जी की आँखों से पाला बरसाने वाले पौष के चन्द्रमा की भांति आँसू टपकने लगे, क्योंकि उन्होंने कुल पर कलंक लगने के डर से सीता को घर से निकाल दिया था किन्तु अपने मन से नहीं निकाला था।

४. श्लाघ्यस्त्यागोऽपि वैदेह्याः पत्युः प्राग्वंशवासिनः।
अनन्यजानेः सैवासीद्यस्माज्जाया हिरण्यमयी॥

रघु० १५।६१॥

लोगों ने राम के द्वारा सीता के परित्याग की इसलिए भी सराहना की कि विष्णु के वंशज राम ने दूसरा विवाह नहीं किया और यज्ञवेदी पर सीता की सोने की मूर्ति को प्रतिष्ठापित किया।

सीता—परित्याग

१. निर्बन्धपृष्टः स जगाद सर्वं स्तुवन्ति पौराश्चरितं त्वदीयम्।
अन्यत्र रक्षोभवनोषितायाः परिग्रहान्मानवदेव देव्याः॥

रघु० १४।३२॥

बार-बार पूछने पर गुप्तचर ने बताया हे नरश्रेष्ठ! सभी प्रजाजन आपके व्यवहार की प्रशंसा करते हैं किन्तु राक्षस के घर में रही हुई सीता जी को फिर स्वीकार करने की बात को वे अनुचित मानते हैं।

२. कलत्रनिन्दागुरुणा किलैवमभ्याहतं कीर्तिविपर्ययेण।
अयोघनेनाय इवाभितप्तं वैदेहिबन्धोर्हृदयं विदद्रे॥

रघु० १४।३३॥

अपनी पत्नी पर लगाये गये इस भीषण कलंक को सुनकर सीता में अनुरक्त राम का हृदय वैसे ही फट गया जैसे तपाया हुआ लोहा घन की चोट खाकर फट जाता है।

३. किमात्मनिर्वादकथामुपेक्षे जायामदोषामुत सन्त्यजामि।
इत्येकपक्षाश्रयविक्लवत्वादासीत् स दोलाचलचित्तवृत्तिः॥

रघु० १४।३४॥

क्या मुझे अपनी इस निन्दा की उपेक्षा कर देनी चाहिये या निर्दोष सीता का परित्याग ? राम का मन कोई भी निर्णय नहीं कर पा रहा था। वे डांवाडोल हो उठे।

४. निश्चित्य चानन्यनिवृत्तिवाच्यं त्यागेन पत्न्याः परिमार्ष्टुमैच्छत्।
अपि स्वदेहात्किमुतेन्द्रियार्थाद्यशोधनानां हि यशो गरीयः॥

रघु० १४।३५॥

किन्तु यह कलंक मिटाने का और कोई उपाय न देखकर राम ने धर्मपत्नी के परित्याग का निश्चय कर लिया क्योंकि यशस्वी पुरुषों को

अपना यश शरीर से भी बढ़कर प्यारा होता है उनके लिए सांसारिक भोगों का कोई महत्त्व नहीं होता।

५. राजर्षिवंशस्य रविप्रसूतेरुपस्थितः पश्यत कीदृशोऽयम्।
मत्तः सदाचारशुचेः कलङ्कः पयोदवातादिव दर्पणस्य॥

रघु० १४।३७॥

श्री राम ने अपने भाइयों से कहा यद्यपि मैं सदाचारी हूं फिर भी जैसे बरसाती हवा से दर्पण धुंधला हो जाता है वैसे ही सूर्यवंशी राजर्षियों के कुल पर मेरे कारण कैसा कलंक लग रहा है।

६. पौरेषु सोऽहं बहुलीभवन्तमपां तरङ्गेष्विव तैलबिन्दुम्।
सोढुं न तत्पूर्वमवर्णमीशे आलानिकं स्थाणुमिव द्विपेन्द्रः॥

रघु० १४।३८॥

पानी की लहरों पर तेल की बूंद जैसे फैलती जाती है वैसे ही प्रजाजनों में मेरी निन्दा बढ़ती जा रही है। जैसे हाथी अपना खूंटा उखाड़ देने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार मैं भी इस कलंक को सहन नहीं कर सकता।

७. तस्यापनोदाय फलप्रवृत्तावुपस्थितायामपि निर्व्यपेक्षः।
त्यक्ष्यामि वैदेहसुतां पुरस्तात् समुद्रनेमिं पितुराज्ञयेव॥

रघु० १४।३९॥

यह कलंक मिटाने के लिए मैं अपने मोह के सभी बन्धन तोड़कर गर्भवती सीता को उसी भांति त्याग दूंगा जिस प्रकार पिता की आज्ञा से मैंने राज्य छोड़ दिया था।

८. अवैमि चैनामनघेति किन्तु लोकापवादो बलवान्मतो मे।
छाया हि भूमेः शशिनो मलत्वेनारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः॥

रघु० १४।४०॥

मैं जानता हूं कि सीता पवित्र और निर्दोष है किन्तु मेरे विचार में बदनामी सत्य से भी अधिक बलवती होती है। जैसे निर्मल चन्द्रमा पर पड़ी पृथ्वी की छाया को लोग चन्द्रमा का कलंक मानते हैं यद्यपि यह बात सत्य नहीं है।

९. इत्युक्तवन्तं जनकात्मजायां नितान्तरूक्षाभिनिवेशमीशम्।
न कश्चन भ्रातृषु तेषु शक्तो निषेद्धुमासीदनुमोदितुं वा॥

रघु० १४।४३॥

सीता के प्रति इतना निष्ठुर व्यवहार करने का राजा राम का दृढ़ निश्चय देख किसी भी भाई को उनका विरोध या समर्थन करने का साहस नहीं हुआ।

१०. प्रजावती दोहदशंसिनी ते तपोवनेषु स्पृहयात्नुरेव।
स त्वं रथी तद्व्यपदेशनेयां प्रापय्य वाल्मीकिपदं त्यजैनाम्॥

रघु० १४।४५॥

श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि गर्भवती सीता तपोवन देखना चाहती हैं। अतः तुम इन्हें इसी बहाने वाल्मीकि आश्रम ले जाओ और वहीं छोड़ आओ।

११. स शुश्रुवान्मातरि भार्गवेण पितुर्नियोगात्प्रहृतं द्विषद्वत्।
प्रत्यग्रहीदग्रजशासनं तदाज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया॥

रघु० १४।४६॥

लक्ष्मण ने सुन रखा था कि परशुराम ने पिता की आज्ञा मानकर अपनी माता पर वैसा ही निर्मम प्रहार किया था जैसा किसी शत्रु पर किया जाता है। इसीलिये लक्ष्मण ने बड़े भाई राम की आज्ञा मान ली क्योंकि बड़ों की आज्ञा को बिना किसी आपत्ति के मान लेना चाहिये।

१२. सा नीयमाना रुचिरान्प्रदेशान्प्रियङ्करो मे प्रिय इत्यनन्दत्।
नाबुद्ध कल्पद्रुमतां विहाय जातं तमात्मन्यसिपत्रवृक्षम्॥

रघु० १४।४८॥

रथ में बैठी सुन्दर स्थानों से गुजरती हुई सीता सोचती जा रही थी कि राम मेरे मन को अच्छी लगने वाली बातें करते हैं। किन्तु उसे यह पता नहीं था कि सभी इच्छाएं पूरी करने वाले राम अब कल्पवृक्ष नहीं रहे हैं अपितु ऐसे निष्करुण वृक्ष बन गये हैं जिसके पत्ते तलवार की तरह नोकीले हैं।

१३. अथ व्यवस्थापितवाक्कथञ्चित्सौमित्रिरन्तर्गतवाष्पकण्ठः।
औत्पातिको मेघ इवाश्मवर्षं महीपतेः शासनमुज्जगार॥

रघु० १४।५३॥

गंगा पार उतार कर लक्ष्मण ने अपने को किसी तरह सम्हालकर और रुंधे हुए कण्ठ से जैसे तैसे राजा राम का आदेश ओले बरसाकर अनर्थ करने वाले बादल की तरह सीता को सुना दिया।

१४. ततोऽभिषङ्गानिलविप्रविद्धा प्रभ्रश्यमानाभरणप्रसूना।
स्वमूर्तिलाभप्रकृतिं धरित्रीं लतेव सीता सहसा जगाम॥

रघु० १४।५४॥

कलंक के रूप में अचानक आई इस विपत्ति से मर्माहत सीता के आभूषण शरीर से गिर पड़े और वह लू लगने से सूखी और पुष्परहित लता की भांति अपनी माता भूमि की गोद में लुढ़क गई।

१५. न चावदद् भर्तुरवर्णमार्या निराकरिष्णो वृजिनादृतेऽपि।
आत्मानमेव स्थिरदुःखभाजं पुनः पुनर्दुष्कृतिनं निनिन्द॥

रघु० १४।५७॥

निर्दोष सीता को घर से निकाल देने पर भी उन्होंने राम को बुरा भला नहीं कहा अपितु अपने आपको ही धिक्कारने लगीं कि मुझ अभागिन के भाग्य में तो सदा ही दुःख भोगना लिखा है।

१६. आश्वास्य रामावरजः सतीं तामाख्यातवाल्मीकिनिकेतमार्गः।
निघ्नस्य मे भर्तृनिदेशरौक्ष्यं देवि! क्षमस्वेति बभूव नम्रः॥

रघु० १४।५८॥

सती-साध्वी सीता को लक्ष्मण ने बहुत धीरज बंधाया और वाल्मीकि मुनि के आश्रम का रास्ता बता कर कहा देवि! मैं पराधीन हूं इसीलिए मैंने राजा की आज्ञा से आपके प्रति कठोरता दिखाई। आप मुझे क्षमा करें यह कहकर लक्ष्मण सीता के चरणों पर गिर पड़े।

१७. सीता तमुत्थाप्य जगाद वाक्यं प्रीताऽस्मि ते सौम्य! चिराय जीव।
बिडौजसा विष्णुरिवाग्रजेन भ्रात्रा यदित्थं परवानसि त्वम्॥

रघु० १४।५९॥

सीता ने लक्ष्मण को उठाया और कहा हे सौम्य! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम चिरायु हो। जैसे इन्द्र के छोटे भाई विष्णु सदा इन्द्र की आज्ञा मानते हैं। वैसे ही तुम भी अपने बड़े भाई की आज्ञा का पालन करते रहो।

१८. वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम्।
मां लोकवादश्रवणादहासीः श्रुतस्य किं तत्सदृशं कुलस्य॥

रघु० १४।६१॥

लक्ष्मण तुम मेरी ओर से राजा से पूछना कि अपने सामने मेरी अग्नि परीक्षा लेने पर भी अपनी लोकनिन्दा के डर से आपने मुझे घर से निकाल दिया, क्या आपका यह आचरण आपके कुल की मर्यादा के अनुकूल है।

१९. कल्याणबुद्धेरथवा तवायं न कामचारो मयि शङ्कनीयः।
ममैव जन्मान्तरपातकानां विपाकविस्फूर्जथुरप्रसह्यः॥

रघु० १४।६२॥

हे राम! आप तो सभी का कल्याण करते हैं। आपने अपनी इच्छा से मेरे साथ यह व्यवहार नहीं किया है अपितु मेरे पूर्वजन्म के पापों का फल ही मुझे भोगना पड़ रहा है।

२०. किं वा तवात्यन्तवियोगमोघे कुर्यामुपेक्षां हतजीवितेऽस्मिन्।
स्याद्रक्षणीयं यदि मे न तेजस्त्वदीयमन्तर्गतमन्तरायः॥

रघु० १४।६५॥

अब आप से सदा के लिए बिछुड़ जाने पर मैं इस अभागे जीवन का अन्त ही कर देती किन्तु मेरे गर्भ में आपका तेज है और उसकी रक्षा मुझे करनी चाहिये। मेरे प्राणत्याग में यह तेज ही बाधा बन गया है।

२१. साऽहं तपः सूर्यनिविष्टदृष्टिरूर्ध्वं प्रसूतेश्चरितुं यतिष्ये।
भूयो यथा मे जननान्तरेऽपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः॥

रघु० १४।६६॥

किन्तु सन्तान उत्पन्न करने के बाद मैं सूर्य पर दृष्टि जमाकर ऐसी कठोर तपस्या करूंगी जिससे अगले जन्म में आप ही मेरे पति हों।

और मुझे आपसे अलग न होना पड़े।

२२. नृपस्य वर्णाश्रमपालनं यत् स एव धर्मो मनुना प्रणीतः।
निर्वासिताऽप्येवमतस्त्वयाऽहं तपस्विसामान्यमवेक्षणीया॥

रघु० १४।६७॥

मनु के अनुसार राजा को चारों वर्णों और आश्रमों के लोगों का पालन-पोषण करना चाहिये। इसलिए अपने घर से निर्वासित कर देने पर भी आप साधारण तपस्विनी की भांति मेरी देखभाल करते रहियेगा।

२३. तथेति तस्याः प्रतिगृह्य वाचं राजानुजे दृष्टिपथं व्यतीते।
सा मुक्तकण्ठं व्यसनातिभाराच्चक्रन्द विग्ना कुररीव भूयः॥

रघु० १४।६८॥

आपका यह सन्देश मैं दे दूंगा, यह कहकर लक्ष्मण के आंखों से ओझल होते ही सीता इस महती विपत्ति में भयभीत क्रौंच वधू की भांति रोने लगी।

२४. नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षा दर्भानुपात्तान्विजहुर्हरिण्यः।
तस्याः प्रपन्ने समदुःखभावमत्यन्तमासीद्रुदितं वनेऽपि॥

रघु० १४।६९॥

वन में सीता का विलाप सुनकर मोरों ने नाचना बन्द कर दिया, वृक्ष, फूलों के आंसू गिराने लगे और हरिणियों के मुखों से घास गिर गई। सीता के इस हृदयविदारक संकट में सारा वन ही सहानुभूति में रोने लगा।

२५. तामभ्यगच्छद्रुदितानुसारी कविः कुशेध्माहरणाय यातः।
निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः॥

रघु० १४।७०॥

शिकारी द्वारा क्रौंच पक्षी की मृत्यु से जिन वाल्मीकि मुनि का शोक कविता के रूप में फूट पड़ा था वे तब यज्ञ के लिए कुशा लेने वन में गये थे। सीता के विलाप को सुनकर वे उसके पास आये।

२६. तमश्रु नेत्रावरणं प्रमृज्य सीता विलापाद् विरता ववन्दे।
तस्यै मुनिर्दोहदलिङ्गदर्शी दाश्वान् सुपुत्राशिषमित्युवाच॥

रघु० १४।७१॥

उन्हें देख सीता ने आंसू पोंछकर रोना बन्द किया और मुनिवर को प्रणाम किया। सीता को गर्भवती देख वाल्मीकि ने आशीर्वाद दिया कि तुम पुत्रवती हो और कहा।

२७. जाने विसृष्टां प्रणिधानतस्त्वां मिथ्यापवादक्षुभितेन भर्त्रा।
तन्मा व्यथिष्ठा विषयान्तरस्थं प्राप्तासि वैदेहि पितुर्निकेतम्॥

रघु० १४।७२॥

बेटी वैदेहि! मैंने समाधिबल से जान लिया है कि झूठी निन्दा से क्षुब्ध तुम्हारे पति ने तुम्हें त्याग दिया है। तुम दुःखी मत होओ, तुम अपने पिता के घर आ गई हो।

२८. उत्खातलोकत्रयकण्टकेऽपि सत्यप्रतिज्ञेऽप्यविकत्थनेऽपि।
त्वां प्रत्यकस्मात् कलुषप्रवृत्तावस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे॥

रघु० १४।७३॥

यद्यपि राम ने तीनों लोकों को दुःखी करने वाले रावण को मार दिया है, वे अपनी प्रतिज्ञा भी निभाते हैं। और अपनी बड़ाई भी नहीं करते किन्तु उन्होंने तुम से जो अनुचित व्यवहार किया है उसे देख मुझे राम पर क्रोध आ रहा है।

२९. धुरि स्थिता त्वं पतिदेवतानां किं तन्न येनासि ममानुकम्पया॥

रघु० १४।७४॥

तुम पतिव्रता नारियों में सर्वश्रेष्ठ हो फिर मैं तुम पर कृपा क्यों नहीं करूंगा।

सीता–समाधि

१. स तावाख्याय रामाय मैथिलेयौ तदात्मजौ।
कविः कारुणिको वव्रे सीतायाः सम्परिग्रहम्॥

रघु० १५/७१॥

वाल्मीकि मुनि ने राम को बताया कि ये दोनों कुमार तुम्हारे ही पुत्र हैं जिन्हें सीता जी ने जन्म दिया है। अब तुम्हें सीता जी को स्वीकार कर लेना चाहिये।

२. तात! शुद्धा समक्षं नः स्नुषा ते जातवेदसि।
दौरात्म्याद्रक्षसस्तां तु नात्रत्याः श्रद्दधुः प्रजाः॥

रघु० १५।७२॥

मुनिवर! आपकी पुत्रवधू मेरे सामने ही अग्निपरीक्षा दे चुकी है किन्तु रावण की दुष्टता देखकर यहां की प्रजा सीता के चरित्र पर सन्देह करती है।

३. ताः स्वचारित्रमुद्दिश्य प्रत्यायतु मैथिली।
ततः पुत्रवतीमेनां प्रतिपत्स्ये त्वदाज्ञया॥

रघु० १५।७३॥

यदि सीता, प्रजाजनों को अपनी चरित्र-शुद्धि का विश्वास दिला दे तो मैं आपकी आज्ञा से इस पुत्रवती सीता को स्वीकार कर लूंगा।

४. इति प्रतिश्रुते राज्ञा जानकीमाश्रमान्मुनिः।
शिष्यैरानाययामास स्वसिद्धिं नियमैरिव॥ रघु० १५/७४॥

राजा की यह प्रतिज्ञा सुनकर वाल्मीकि जी ने शिष्य भेजकर आश्रम से सीता जी को वैसे ही बुला लिया जैसे वे अपने नियमों से अपनी सिद्धियाँ बुला रहे हों।

५. अन्येद्युरथ काकुत्स्थः सन्निपात्य पुरौकसः।
कविमाह्वययामास प्रस्तुतप्रतिपत्तये॥ रघु० १५/७४

अगले दिन राम ने सारे नगरवासियों को एकत्र कर सीता को निर्दोष मानने के लिए वाल्मीकि को बुलाया।

६. स्वरसंस्कारवत्याऽसौ पुत्राभ्यामथ सीतया।
ऋचेवोदर्चिषं सूर्यं रामं मुनिरुपस्थितः॥ रघु० १५।७४

वाल्मीकि मुनिः सीता और लव-कुश को साथ लेकर उपस्थित हो गये। अपने पुत्रों के साथ चरित्रवती सीता सूर्य सदृश तेजस्वी राम

के पास जाती हुई ऐसी दीख रही थीं मानो वे स्वर से संयुक्त ऋचा हों।

७. काषायपरिवीतेन स्वपदार्पितचक्षुषा।
अन्वमीयत शुद्धेति शान्तेन वपुषैव सा॥

रघु० १५।७७॥

गेरुए वस्त्र धारण किये और अपने पैरों पर दृष्टि गड़ाकर चलती हुई सीता अपने शान्त शरीर से ही पवित्र दीख रही थीं।

८. तां दृष्टिविषये भर्तुर्मुनिरास्थितविष्टरः।
कुरु निःसंशयं वत्से! स्ववृत्ते लोकमित्यशात्॥

रघु० १५।७९॥

आसन पर बैठे वाल्मीकि ने पति के सामने खड़ी सीता से कहा बेटी! अपने चरित्र के बारे में प्रजाजनों का सन्देह दूर कर दो।

**९. अथ वाल्मीकिशिष्येण पुण्यमावर्जितं पयः।
आचम्योदीरयामास सीता सत्यां सरस्वतीम्॥ **

रघु० १५।८०॥

तब वाल्मीकि के शिष्य ने पवित्र जल लाकर दिया। उस का आचमन कर सीता ने सत्य वचन कहा।

१०. वाङ्मनकर्मभिः पत्यौ व्यभिचारो यथा न मे।
तथा विश्वम्भरे देवि! मामन्तर्धातुमर्हसि॥

रघु० १५।८१॥

यदि मैंने मन, वचन और कर्म से कभी भी अपना पतिव्रता का धर्म भंग न किया हो तो हे पृथिवी माता! तुम मुझे अपनी शरण में ले लो।

११. एवमुक्ते तया साध्व्या रन्ध्रात्सद्योभवाद् भुवः।
शातह्रदमिव ज्योतिः प्रभामण्डलमुद्ययौ॥

रघु० १५।८२॥

पतिव्रता सीता के यह कहने पर पृथ्वी फट गई और उसमें से बिजली जैसा चमकीला प्रभामण्डल प्रकट हुआ।

१२. तत्र नागफणोत्क्षिप्तसिंहासननिषेदुषी।
समुद्ररशना साक्षात्प्रादुरासीद् वसुन्धरा॥ रघु० १५।८३॥

इस छेद में से नाग के फन पर रखे सिंहासन पर मूर्तिमती पृथिवी देवी विराजमान थीं। समुद्र उनकी मेखला था।

१३. सा सीतामङ्कमारोप्य भर्तृप्रणिहितेक्षणाम्।
मा मेति व्यवहरत्येव तस्मिन् पातालमभ्यगात्॥

रघु० १५।८४॥

पृथिवी माता ने सीता जी को अपनी गोद में बिठा लिया। सीता जी एकटक अपने पति को देख रहीं थीं। राम के मना करते-करते पृथिवी माता सीता को लेकर पाताल में चली गईं।

मेघदूत

अलकानगरी

१. हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धम्,
नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः।
चूडापाशे नवकुरबकं चारु कर्णे शिरीषम्,
सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम्॥

उत्तरमेघ २॥

अलकापुरी की सुन्दरियां कमल के पुष्पों से हाथ सजाती हैं, वेणियों में कुन्द के नये फूल लगाती हैं। लोध्र के फूलों के पराग से अपने चेहरे का श्रृंगार करती हैं, जूड़े में कुरबक के फूल लगाती हैं, कानों में शिरीष के फूल सजाती हैं। और अपनी मांग को वर्षा ऋतु में खिलने वाले कदम्बपुष्प से सजाती हैं।

२. यत्रोन्मत्तभ्रमरमुखराः पादपा नित्यपुष्पा,
हंसश्रेणिरचितरशना नित्यपद्मा नलिन्यः।
केकोत्कण्ठा भवनशिखिनो नित्यभास्वत्कलापा,
नित्यज्योत्स्नाः प्रतिहततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाः॥

उ० मे० ३॥

वहां सदा फूलते रहने वाले पेड़ों पर भौरों की गुंजार सुनाई देती है। सरोवरों में सदा खिले रहने वाले कमल के फूलों में हंस घूमते रहते हैं। पालतू मोरों के चमकीले पंखों से और उनके शोर से घर भरे रहते हैं। रातों में सदा चांदनी छिटकी रहती है।

३. आनन्दोत्थं नयनसलिलं यत्र नान्यैर्निमित्तै-
र्नान्यस्तापः कुसुमशरजादिष्टसंयोगसाध्यात्।
नाप्यन्यस्मात् प्रणयकलहाद्विप्रयोगोपपत्ति-
र्वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनादन्यदस्ति॥ उ०म० ४॥

वहां यक्षों की आंखों में सदा आनन्द के आंसू आते हैं। किसी दुःख के कारण वहां लोग नहीं रोते, अपने प्रेमी से बिछुड़ जाने का ही वहां दुख सताता है, प्रणयकलह के अतिरिक्त प्रेमियों के बीच विरह नहीं होता और वहां युवावस्था के सिवाय और कोई आयु नहीं होती।

४. यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येत्य हर्म्यस्थलानि,
ज्योतिश्छायाकुसुमरचितान्युत्तमस्त्रीसहायाः।
आसेवन्ते मधुरतिफलं कल्पवृक्षप्रसूतम्,
त्वद्गम्भीरध्वनिषु शनकैः पुष्करेष्वाहतेषु॥ उ० मे० ५॥

अलकापुरी के यक्ष सुन्दर स्त्रियों के साथ स्फटिक मणि के बने महलों की छतों पर आमोद-प्रमोद करते हैं। इन महलों की छतों पर तारों की छाया पड़ने से लगता है कि इनके फर्श फूलों से जड़े हुए हैं। ये लोग छतों पर बैठकर कल्पवृक्ष से उत्पन्न कामवासना को उत्तेजित करने वाला मधु पीते हैं। कल्पवृक्ष से यह मधु तुम्हारी भांति गम्भीर गर्जन करने वाले ढोलों की मन्दध्वनि सुनकर निकलता है।

५. नीवीबन्धोच्छ्वसितशिथिलं यत्र बिम्बाधराणाम्,
क्षौमं रागाद् निभृतकरेष्वाक्षिपत्सु प्रियेषु।
अर्चिस्तुङ्गानभिमुखमपि प्राप्य रत्नप्रदीपान्,
ह्रीमूढानां भवति विफलप्रेरणा चूर्णमुष्टिः॥

उ० मे० ७॥

वहां पर प्रेमीजन अपने चंचल हाथों से जब अपनी प्रेमिकाओं की

साड़ियों की गांठ खोल देते हैं तो शर्मायी हुई प्रेयसियां हाथों में कुमकुम भरकर रत्नदीपों को बुझाने की व्यर्थ चेष्टा करती हैं।

६. यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजालिङ्गनोच्छ्वासितानाम्,
अङ्गग्लानिं सुरतजनितां तन्तुजालावलम्बाः
त्वत्संरोधापगमविशदैश् चन्द्रपादैर्निशीथे,
व्यालुम्पन्ति स्फुटजललवस्यन्दिनश्चन्द्रकान्ताः॥

उ० मे० ९॥

हे मेघ! आकाश से तुम्हारे हट जाने पर आधी रात में चन्द्रमा की किरणों से उत्पन्न ओस, चन्द्रकान्त मणियों से बनी खिड़की की जालियों से टपक कर प्रियतम की भुजाओं के आलिंगन और सम्भोग से शिथिल नारियों की थकान मिटाती है।

७. गत्युत्कम्पादलकपतितैर्यत्र मन्दारपुष्पैः
पत्रच्छेदैः कनककमलैः कर्णविभ्रंशिभिश्च।
मुक्ताजालैः स्तनपरिसरच्छिन्नसूत्रैश्च हारै-
र्नैशो मार्गः सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम्॥

उ० मे० ११॥

रात में प्रेयसियों के पैर लड़खड़ाने से वेणियों में लगे कल्पवृक्ष के फूल गिर जाते हैं और कानों में पहिने सुवर्ण कमल गिर जाते हैं। स्तनों पर लटकते हारों के मोती भी टूटकर गिर पड़ते हैं। सूर्योदय होने पर रास्ते में पड़ी इन चीजों को देखकर अभिसारिकाओं का रास्ता पता चल जाता है।

यक्षगृह

१. तत्रागारं धनपतिगृहानुत्तरेणास्मदीयम्,
दूराल्लक्ष्यं सुरपतिधनुश्चारुणा तोरणेन।
यस्योपान्ते कृतकतनयः कान्तया वर्द्धितो मे
हस्तप्राप्यस्तबकनमितो बालमन्दारवृक्षः॥

उ० मे० १५॥

अलका नगरी में कुबेर के घर से उत्तर की ओर मेरा घर है जो

दूर से ही दिखाई पड़ता है। इसके द्वार के ऊपर सुन्दर इन्द्रधनुष बना हुआ है। घर के पास ही छोटा सा हरसिंगार का पेड़ है। जिसे मेरी पत्नी ने अपने बेटे की तरह पाला है और जिसके फूलों के गुच्छे हाथ से डाली झुका कर ही तोड़े जा सकते हैं।

२. वापी चास्मिन्मरकतशिलाबद्धसोपानमार्गा,
हैमैश्च्छन्नाविकचकमलैः स्निग्धवैदूर्यनालैः।
यस्यास्तोये कृतवसतयो मानसं सन्निकृष्टं
नाध्यास्यन्ति व्यपगतशुचस्त्वामपि प्रेक्ष्य हंसाः॥

उ० मे० १६॥

इस घर में बावड़ी है जिसकी सीढ़ियां मरकत मणि की हैं। इसमें सोने के कमल खिले होंगे जिनकी चिकनी नाल नीलम की है। इस बावड़ी के जल में रहने वाले हंस तुम्हें देख प्रसन्न होने पर और मानसरोवर पास ही होने पर भी मेरी बावड़ी छोड़कर नहीं जायेंगे।

३. तस्यास्तीरे रचितशिखरः पेशलैरिन्द्रनीलैः,
क्रीडाशैलः कनककदली वेष्टनप्रेक्षणीयः।
मद्गेहिन्याः प्रिय इति सखे! चेतसा कातरेण,
प्रेक्ष्योपान्तस्फुरिततडितं त्वां तमेव स्मरामि॥

उ० मे० १७॥

इस बावड़ी के किनारे मनोरंजन के लिए क्रीड़ा पर्वत है जिसकी चोटी इन्द्रनील मणियों की है। पर्वत के चारों ओर सुनहरे केले के वृक्ष हैं जिनके कारण यह बहुत सुन्दर लगता है। मेरी पत्नी को यह पर्वत बहुत अच्छा लगता है। जब मैं तुम्हारे कोनों पर बिजली की चमक देखता हूं तो मेरा मन उदास हो जाता है और क्रीड़ापर्वत याद आने लगता है।

४. रक्ताशोकश्चलकिसलयः केसरश्चात्र कान्तः,
प्रत्यासन्नौ कुरबकवृतेर्माधवी मण्डपस्य।
एकः सख्यास्तव सह मया वामपादाभिलाषी,
काङ्क्षत्यन्यो वदनमदिरां दोहदच्छद्मनाऽस्याः॥

उ० मे० १८॥

इस क्रीड़ा पर्वत पर कुरबक की बाड़ से घिरा माधवीमण्डप है। इसके पास ही चंचल नये पत्तों वाले रक्त अशोक और बकुल के पेड़ हैं। जैसे मैं तुम्हारे साथ अपनी प्रेयसी के बांयें पैर की ठोकर खाने के लिए बेचैन हूं वैसे ही अशोक का पेड़ भी उसकी ठोकर और बकुल का पेड़ उसके मुख की मदिरा के छींटे पाने के लिए बेचैन हैं।

५. तन्मध्ये च स्फटिकफलका काञ्चनीवासयष्टि-
र्मूले बद्धा. मणिभिरनतिप्रौढवंशप्रकाशैः।
तालैः शिञ्जावलयसुभगैर्नर्तितः कान्तया मे,
या मध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृद्धः॥

उ० मे० १९॥

इन दोनों पेड़ों के बीच में हरे बांस जैसी चमकीली मणियों से बनी छतरी है जिस पर स्फटिक से बनी चौकी रखी है। इस चौकी पर जड़ी हुई सोने की छड़ी पर शाम होने पर तुम्हारा मित्र मोर आकर बैठता है और मेरी प्रिया घूंघरुवाले कङ्गन पहिनकर ताली बजाकर इस मोर को नचाती है।

६. एभिः साधो! हृदयनिहितैर्लक्षणैर्लक्षयेथा,
द्वारोपान्ते लिखितवपुषौ शङ्खपद्मौ च दृष्ट्वा।
क्षामच्छायं भवनमधुना मद्वियोगेन नूनम्,
सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम्॥

उ० मे० २०॥

हे सज्जन मेघ! यदि तुम इन निशानियों को याद रखोगे और घर के दरवाजे पर शंख तथा कमल के चित्र देखोगे तो तुम मेरा घर पहिचान लोगे। मेरे बिना वह घर सूना सूना सा दिखाई देगा क्योंकि सूर्य के छिप जाने पर कमल का फूल भी शोभा रहित हो जाता है।

विरहिणी—यक्षिणी

१. तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नीम्,
अव्यापन्नामविहतगतिर्द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम्।

आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानाम्,
सद्यःपाति प्रणयिहृदयं विप्रयोगे रुणद्धि॥ पूर्व०मे० ९॥

हे बादल! तुम जहां चाहो वहां जा सकते हो। अलकापुरी में तुम अपनी भाभी के पास जाकर देखोगे कि वह पतिव्रता जीवित है और मेरे लौटने के दिन गिन रही है। प्रेमियों का हृदय जल्दी ही उसी प्रकार निराश हो जाता है जैसे कोई फूल कुछ ही देर में झड़ जाता है, किन्तु विरही स्त्रियों के हृदय में आशा बनी रहती है इसीलिए वे विरहाग्नि में भी इसी आशा के सहारे जीवित रहती हैं।

२. तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी,
मध्ये क्षामा चकितहरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभिः।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रास्तनाभ्याम्,
या तत्र स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः॥

उ० मे० २२॥

इकहरे शरीर एकसार दांतों, पके बिम्बाफल जैसे लाल ओठों, पतली कमर, डरी हुई हरिणी जैसी आंखें, गहरी नाभि वाली और भारी नितम्बों के कारण अलसाई गति से चलने वाली तथा स्तनों के भार के कारण थोड़ी सी झुकी हुई जो युवती तुम्हें दीखेगी वही मेरी प्रिया है और ब्रह्मा की सर्वश्रेष्ठ युवती है।

३. तां जानीथाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयम्,
दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम्।
गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बालाम्,
जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वान्यरूपाम्॥

उ० मे० २३॥

तुम देखोगे कि वह बहुत कम बोलती है, वह मानो मेरा दूसरा जीवन ही है और मुझ जीवनसाथी के दूर हो जाने से वह चकवी जैसी अकेली पड़ गई है। विरह के लम्बे और कठिन दिन बेहद उतावली से बिताते हुए उसका रूप वैसे ही बदल गया होगा जैसे कि पाले से मारी कमलिनी का हाल बेहाल हो जाता है।

४. नूनं तस्याः प्रबलरुदितोच्छूननेत्रं प्रियाया,
निःश्वासानामशिशिरतया भिन्नवर्णाधरोष्ठम्।
हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्तिलम्बालकत्वाद्,
इन्दोर्दैन्यं त्वदनुसरणक्लिष्टकान्तेर्विभर्ति॥

उ० मे० २४॥

** **मेरे विरह में रोते रोते उसकी आंखें अवश्य सूज गई होंगी, गर्म सांसों के कारण उसके निचले ओंठ की लाली फीकी पड़ गई होगी, हाथ में मुँह को थामे वह चिन्तित बैठी होगी। सिर के लम्बे बालों के मुख पर आ जाने के कारण उसका पूरा मुखड़ा नहीं दीखेगा और बादलों में छिपे चांद की भांति उसका मुख भी कान्तिरहित होगा।

५. आलोके ते निपतति पुरा सा बलिव्याकुला वा,
मत्सादृश्यं विरहतनु वा भावगम्यं लिखन्ती।
पृच्छन्ती वा मधुरवचनां सारिकां पञ्जरस्थाम्,
कच्चिद् भर्तुः स्मरसि रसिके त्वं हि तस्य प्रियेति॥

उ० मे० २५॥

तुम उसे देवताओं को बलि अर्पित करते हुए देखोगे अथवा वह अपनी कल्पना से विरह से दुबले मेरे शरीर का चित्र बना रही होगी या पिंजरे में बैठी मिठबोली मैना से पूछ रही होगी कि क्या तुम अपने पति को याद भी करती हो वे तो तुम्हें बहुत स्नेह करते थे।

६. उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य! निक्षिप्य वीणाम्,
मद्गोत्राङ्कं विरचितपदं विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा।
तन्त्रीमार्द्रां नयनसलिलैः सारयित्वा कथञ्चिद्,
भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती॥

उ० मे० २६॥

हे सुन्दर मेघ! तुम देखोगे कि वह मैले कपड़े पहिने अपनी गोद में वीणा रख कर मेरे नाम वाली कविता लिखकर गाने की चेष्टा कर रही होगी किन्तु गला भर आने से उसकी आंखों से आंसू बहने लगे होंगे और वह आंसुओं से भीगी वीणा को किसी तरह पोंछ कर अपनी बनाई हुई स्वरलिपि ( मूर्च्छना) को भी बार बार भूल जाती होगी।

७. शेषान्मासान् विरहदिवसस्थापितस्यावधेर्वा,
विन्यस्यन्ती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पैः।
मत्सङ्गं वा हृदयनिहितारम्भमास्वादयन्ती,
प्रायेणैते रमणविरहेष्वङ्गनानां विनोदाः॥

उ० मे० २७॥

विरह की अवधि के महीनों और दिनों की गिनती वह घर की देहली पर फूल रख कर करती रहती होगी अथवा मेरे साथ बिताये सुख के दिन याद कर समय काटती होगी क्योंकि विरहिणियां इसी तरह से अपने दिन काटती हैं।

८. सव्यापारामहनि न तथा पीडयेन्मद्वियोगः,
शङ्के रात्रौ गुरुतरशुचं निर्विनोदां सखीं ते।
मत्सन्देशैः सुखयितुमलं पश्य साध्वीं निशीथे,
तामुन्निद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः॥

उ० मे० २८॥

दिन में काम-काज में लगी रहने के कारण उसे मेरा विरह अधिक नहीं सताता होगा किन्तु रात्रि में कोई काम न रहने से वह बहुत दुखी हो जाती होगी इसलिए तुम उस पतिव्रता नारी को मेरा सन्देश आधी रात में सुना कर उसे सुखी बनाना। तब तुम मेरे घर की खिड़की में बैठे हुए देखोगे कि वह जमीन पर उनींदी सी पड़ी है।

९. आधिक्षामां विरहशयने सन्निषण्णैकपार्श्वाम्,
प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशोः
नीता रात्रिः क्षण इव मया सार्धमिच्छारतैर्या,
तामेवोष्णैर्विरहमहतीमश्रुभिर्यापयन्तीम्॥

उ० मे० ३१॥

सूने पलंग पर एक ओर लेटी हुई चिन्ता में डूबी मेरी प्रेयसी अब पूर्व दिशा के क्षितिज पर पहुंचे आभाहीन चन्द्रमा की एक कला जैसी उदास होगी। मेरे साथ मनचाहा सम्भोग कर रातें एक पल में बीतती हुई लगती थीं। अब वह रो रो कर रातें काट रही होगी।

१०. पादानिन्दोरमृतशिशिराञ्जालमार्गप्रविष्टान्,
पूर्वप्रीत्या गतमभिमुखं सन्निवृत्तं तथैव।
चक्षुः खेदात्सलिलगुरुभिः पक्ष्मभिश्छादयन्तीम्,
साभ्रेऽह्रीव स्थलकमलिनीं न प्रबुद्धां न सुप्ताम्॥

उ० मे० ३२॥

खिड़की की जालियों से आती चन्द्रमा की अमृत जैसी शीतल चांदनी विरह से पहले उसे अच्छी लगा करती थी। इसलिए वह चांदनी को सुख देने वाली समझकर जब उसकी ओर मुंह करेगी तो विरह में चन्द्रमा की किरणें उसे और दुखी कर देंगी। तब वह आंसुओं से भारी पलकों से अपनी आंखें बन्द कर लेगी। उसकी यह हालत बादलों से घिरे दिन में उस कमल के फूल जैसी होगी जो न तो खिला है और न ही बन्द है।

११. निःश्वासेनाधरकिसलयक्लेशिना विक्षिपन्तीम्,
शुद्धस्नानात्परुषमलकं नूनमागण्डलम्बम्।
मत्सम्भोगः कथमुपनयेत्स्वप्नजोऽपीति निद्रा-
माकाङ्क्षन्तीं नयनसलिलोत्पीडरुद्धावकाशाम्॥

उ०मे० ३३॥

सिर के बालों में शृंगार या प्रसाधन की वस्तु प्रयोग न करने से उसके बाल रूखे हो गये होंगे और गालों तक लटक रहे होंगे। विरह की गरम सांसें उसके कोमल अधर को जला रही होंगी और इन श्वासों से ये बाल हिल रहे होंगे। वह मन ही मन चाहती होगी कि स्वप्न में ही मेरे साथ वह सम्भोग का सुख ले ले किन्तु आंखों में आंसू भरे होने से उसे नींद नहीं आ रही होगी।

१२. आद्ये बद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा,
शापस्यान्ते विगलितशुचा तां मयोद्वेष्टनीयाम्।
स्पर्शक्लिष्टामयमितनखेनासकृत् सारयन्तीम्,
गण्डाभोगात् कठिनविषमामेकवेणीं करेण॥

उ० मे० ३४॥

विरह के पहले दिन जूड़े से माला हटाकर मैंने अपनी प्रेयसी की

जो चोटी बांधी थी उसे शाप समाप्त होने पर प्रसन्न हृदय से मैं खोलकर सजाऊंगा। विरह के इन दिनों में वह अपने केशों की देखभाल नहीं करती होगी। इसलिए सिर के रूखे और उलझे बालों वाली एक चोटी छूने में अच्छी नहीं लगती होगी। अपने गालों पर लटकती हुई इस चोटी को वह बढ़े हुए नाखूनों वाले हाथ से बार बार हटा रही होगी।

१३. सा संन्यस्ताभरणमबला पेशलं धारयन्ती,
शय्योत्सङ्गे निहितमसकृदुःखदुःखेन गात्रम्।
त्वामप्यस्त्रं नवजलमयं मोचयिष्यत्यवश्यम्,
प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा॥

उ० मे० ३५॥

उसने शरीर से सारे गहने उतार रखे होंगे। वह बार-बार दुखी मन से रोती हुई सेज पर पड़ी जैसे तैसे अपने दुर्बल शरीर को सम्हाले होगी। उसकी यह दयनीय दशा देखकर तुम भी अपने नये जल वाले आँसू अवश्य बहाने लगोगे क्योंकि करुणा से भरे हृदय वाले लोग दूसरों का दुःख देखकर पसीज जाते हैं।

१४. जाने संख्यास्तव मयि मनः सम्भृतस्नेहमस्माद्,
इत्थम्भूतां प्रथमविरहे तामहं तर्कयामि।
वाचालं मां न खलु सुभगम्मन्यभावः करोति,
प्रत्यक्षं ते निखिलमचिराद् भ्रातुरुक्तं मया यत्॥

उ० मे० ३६॥

तुम्हारी सखी मुझे बहुत प्रेम करती है इसलिए मैं सोचता हूं कि पहले-पहले विरह में उसकी यह दशा होगी। तुम कहीं यह न सोचना कि मैं अपने को सुन्दर समझकर यह सब कह रहा हूं। हे भाई! मैंने तुम से जो कुछ कहा है उसे तुम जल्दी ही स्वयं देख लोगे।

१५. रुद्धापाङ्गप्रसरमलकैर् अञ्जनस्नेहशून्यम्,
प्रत्यादेशादपि च मधुनो विस्मृतभूविलासम्।
त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या,
मीनक्षोभाच्चलकुवलयश्रीतुलामेष्यतीति॥

उ० म० ३७॥

सिर के खुले बालों के कारण वह चितवनों से कुछ नहीं देख पाती होगी, वह आँखों में काजल भी नहीं लगाती होगी। और मदिरा पान न करने से वह अपनी चंचल भौंए भी चलाना भूल गई होगी। तुम्हारे पास पहुंचने पर उसकी ऊपर की पलक फड़कने लगेगी तब उस मृगनयनी की आँखें ऐसी दीखेंगी मानों मछलियों की हलचल से नील कमल हिल रहा हो।

१६. वामश्चास्याः कररुहपदैर्मुच्यमानो मदीयै-
र्मुक्ताजालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या।
सम्भोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहनानां
यास्यत्यूरुः सरसकदलीस्तम्भ गौरश्चलत्वम्॥

उ० मे० ३८॥

तुम्हें उसकी बांयी जांघ पर मेरे हाथ के नाखूनों के निशान अब नहीं मिलेंगे। दुर्भाग्य से अब उस जांघ पर वह मोतियों की तगड़ी भी नहीं होगी जिसे वह पहिने रहती थी। सम्भोग के पश्चात् मैं उसकी केले के स्तम्भ जैसी चिकनी और गोरी जांघों को अपने हाथों से सहलाया करता था। तुम्हारे वहां पहुंचते ही उसकी बांयी जांघ फड़कने लगेगी।

१७. तस्मिन्काले जलद यदि सा लब्धनिद्रासुखा स्याद-
न्वास्यैनां स्तनितविमुखो याममात्रं सहस्व।
माभूदस्याः प्रणयिनि मयि स्वप्नलब्धे कथञ्चित्,
सद्यः कण्ठच्युतभुजलताग्रन्थिगाढोपगूढम्॥

उ० मे० ३९॥

हे मेघ! तुम्हारे उसके पास पहुंचने के समय यदि वह सो रही हो तो तुम पास बैठकर पहर भर प्रतीक्षा कर लेना और तब गरजना भी नहीं। ऐसा न हो कि कहीं तुम्हारा गर्जन सुनकर उसकी नींद टूट जाये और यदि वह स्वप्न में मेरे आलिंगन में बंधी हो तो स्वप्न भंग हो जाने से उसकी भुजलताएं मेरे गले से अलग हो जायें।

यक्ष-सन्देश

१. भर्तुर्मित्रं प्रियमविधवे विद्धि मामम्बुवाहम्,
तत्सन्देशैर्हृदयनिहितैरागतं त्वत्समीपम्।
यो वृन्दानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानाम्,
मन्द्रस्निग्धैर्ध्वनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि॥

उ० मे० ४१॥

हे सौभाग्यवती! तुम्हारे पति का मित्र मैं बादल अपने हृदय में तुम्हारे पति का सन्देश लेकर तुम्हारे पास आया हूं। मैं अपनी हल्की और मीठी गरज से पथिकों को जल्दी घर लौटने के लिए उत्कण्ठित कर देता हूं ताकि वे अपनी दुखी प्रेयसियों का विरह समाप्त कर उनकी लट सुलझा सकें।

२. इत्याख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा,
त्वामुत्कण्ठोच्छ्वसितहृदया वीक्ष्य सम्भाव्य चैवम्।
श्रोष्यत्यस्मात्परमवहिता सौम्य सीमन्तिनीनाम्,
कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः सङ्गमात्किञ्चिदूनः॥

उ० मे० ४२॥

हे सौम्य! यह सुनते ही वह तुम्हें बड़े आदर से देखकर और उत्कण्ठा भरे मन से तुम्हारी बात बड़े ध्यान से उसी प्रकार सुनेगी जैसी सीता ने हनुमान् की बातें सुनीं थीं। किसी मित्र के द्वारा लाया गया प्रियतम का सन्देश पाकर स्त्रियों को प्रिय से मिलने जैसी ही अनुभूति होती है।

३. तामायुष्मन्मम च वचनादात्मनश्चोपकर्तुम्,
ब्रूया एवं तव सहचरो रामगिर्याश्रमस्थः।
अव्यापन्नः कुशलमबले! पृच्छति त्वां वियुक्तः,
पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव॥

उ० मे० ४३॥

हे आयुष्मन्! तुम परोपकार करने के लिए मेरा यह सन्देश देना कि तुम्हारा जीवन साथी रामगिरि आश्रम में तुम से बिछुड़ा हुआ भी

जीवित है और वह तुझ अबला का कुशल समाचार जानना चाहता है। विपत्ति में पड़े प्राणियों को सब से पहले कुशल समाचार देना चाहिये।

४. अङ्गेनाङ्गंप्रतनु तनुना गाढतप्तेन तप्तम्,
सास्त्रेणाश्रुद्रुतमविरतोत्कण्ठमुत्कण्ठितेन।
उष्णोच्छ्वासं समधिकतरोच्छ्वासिना दूरवर्ती,
सङ्कल्पैस्तैर्विशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः॥

उ० मे० ४४॥

वैरी भाग्य तुम से मिलने का रास्ता रोके बैठा है। ऐसे में मैं यही सोचता रहता हूं कि तुम भी मेरी ही तरह दुबली हो गई हो। तुम्हारा शरीर भी विरह के ताप से सन्तप्त है, तुम भी मेरी भांति रो रो कर दिन काटती हो और गर्म सांसें भरती रहती हो तथा शीघ्र ही फिर मिलने के लिए मेरी ही तरह उत्कण्ठित हो।

५. शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनाम्,
पुरस्तात्कर्णे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात्।
सोऽतिक्रान्तः श्रवणविषयं लोचनाभ्यामदृष्ट-
स्त्वामुत्कण्ठाविरचितपदं मन्मुखेनेदमाह॥

मैं जो बात तुम्हारी सखियों के सामने भी कह सकता था किन्तु तुम्हारे मुखड़े का स्पर्श पा लेने के लोभ से तुम्हारे कान में ही कहा करता था। अब तुम न तो मेरी बात सुन सकती हो और न ही मुझे देख सकती हो इसलिए मैं यह सन्देश मेघ से कहला रहा हूं।

६. श्यामास्वङ्गचकितहरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातम्,
वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिनां बर्हभारेषु केशान्।
उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु भ्रूविलासान्,
हन्तैकस्मिन् क्वचिदपि न ते चण्डि सादृश्यमस्ति॥

उ० मे० ४६॥

अयि कोपने! मैं वन की लताओं में तुम्हारी देह भयभीत हरिणी की आँखों में तुम्हारे नयन, चन्द्रमा में तुम्हारा मुखड़ा मोरों के पंखों में तुम्हारे अलक और नदियों की तरंगों में तुम्हारे कटाक्ष की कल्पना करता

रहता हूं किन्तु किसी में भी तुम्हारी जैसी बात नहीं है।

७. त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलाया-
मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्त्तुम्।
अस्त्रैस्तावन्मुहरुपचितैर्दृष्टिरालुप्यते मे क्रूर-
स्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्तः॥

उ० मे० ४७॥

जब मैं गेरु से चट्टान पर तुझ प्रणयकुपिता का चित्र बनाकर तुझे मनाने के लिए तेरे चरणों पर गिरना चाहता हूँ तभी मेरी आंखों में आंसू उमड़ आते हैं और मैं तुम्हें देख भी नहीं पाता। निर्दयी भाग्य चित्र में भी हमारा मिलन सहन नहीं करता।

८. मामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दयाश्लेषहेतो-
र्लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसन्दर्शनेषु।
पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलीदेवतानां
मुक्तास्थूलास्तरुकिसलयेष्वश्रुलेशाः पतन्ति॥

उ० मे० ४९॥

मुझे जब स्वप्न में जैसे तैसे तुम्हारे दर्शन होते हैं और मैं तुम्हें आलिंगन में भर लेने के लिए अपने हाथ फैलाता हूँ तो मेरी यह दयनीय दशा देखकर वन देवता भी आँसू बहाने लगती हैं और उनके मोती जैसे ये आंसू वृक्षों के नये पत्तों पर गिरने लगते हैं।

९. भित्त्वा सद्यः किसलयपुटान् देवदारुद्रुमाणाम्,
ये तत्क्षीरस्त्रुतिसुरभयो दक्षिणेन प्रवृत्ताः।
आलिङ्ग्यन्ते गुणवति मया ते तुषाराद्रिवाताः,
पूर्वं स्पृष्टं यदि किल भवेदङ्गमेभिस्तवेति॥

उ० मे० ५०॥

हे गुणशालिनी! देवदारु के कोमल पत्तों को झोंकों से तोड़कर और देवदार के रस की सुगन्धि से भरपूर हिमालय की जो ठण्डी हवाएं दक्षिण दिशा की ओर आती हैं उन्हें मैं यही समझ कर अपने आलिंगन में भर लेता हूं कि ये पवन तुम्हारी देह छूकर आ रही होंगी।

१०. सङ्क्षिप्येत क्षण इव कथं दीर्घयामा त्रियामा,
सर्वावस्थास्वहरपि कथं मन्दमन्दातपं स्यात्।
इत्थं चेतश्चटुलनयने! दुर्लभप्रार्थनं मे
गाढोष्माभिः कृतमशरणं त्वद्वियोगव्यथाभिः॥ उ०म० ५१॥

हे चंचल नयने! मैं यही मनाता रहता हूं कि विरह की लम्बी रातें किसी तरह छोटी हो जायें और दिन की तपन भी कम हो जाय किन्तु मेरी यह दुर्लभ प्रार्थना कौन सुनता है। मुझे तो तुम्हारे वियोग के दुःख की ज्वालाओं ने बेबस बना दिया है।

११. नन्वात्मानं बहु विगणयन्नात्मनैवावलम्बे,
तत्कल्याणि! त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम्।
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा,
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण॥

उ० मे० ५२॥

अयि कल्याणमयि! मैं सब कुछ सोच कर अपने को किसी तरह समझा लेता हूं, इसलिए तुम भी बहुत अधीर मत होओ। सुख और दुःख सदा नहीं रहते। जीवन में सुख और दुःख पहिये के घेरे की तरह कभी ऊपर और कभी नीचे आते जाते रहते हैं।

१२. शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शार्ङ्गपाणौ,
शेषान् मासान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा।
पश्चादावां विरहगुणितं तं तमाभिलाषम्,
निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु॥

उ० मे० ५३॥

विष्णु जी के शेषनाग की शय्या से उठने के दिन मेरा शाप समाप्त हो जायेगा, इसलिए इन चार महीनों को तुम आंख मूंद कर जैसे तैसे बिता लो। फिर हम ने वियोग के दिनों में जो इच्छाएं मन में संजो रखी थीं उन्हें शरद् ऋतु की चांदनी भरी रातों में पूरी करेंगे।

१३. भूयश्चाहं त्वमपि शयने कण्ठलग्ना पुरा मे,
निद्रां गत्वा किमपि रुदती सास्वनं विप्रबुद्धा।

सान्तर्हासं कथितमसकृत्पृच्छतश्च त्वया मे,
दृष्टः स्वप्ने कितव! रमयन्कामपि त्वं मयेति॥

उ० मे० ५४॥

विरह से पहले किसी रात तुम मेरा आलिंगन कर सो रही थी कि अचानक उठ बैठी और रोने लगी। मेरे बार-बार पूछने पर तुम ने मुस्काते हुए कहा था कि अरे धूर्त! मैंने सपना देखा था कि तुम किसी और युवती के साथ रंगरेलियां मना रहे हो।

१४. एतस्मान्मां कुशलिनमभिज्ञानदानाद्विदित्वा,
मा कौलीनादसितनयने मय्यविश्वासिनी भूः।
स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगाद्,
इष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशी भवन्ति॥

उ० मे० ५५॥

अयि श्यामलनेत्रि! इन पहिचानों को सुनकर तुम समझ जाओगी कि मैं सकुशल हूं। तुम अफवाहें सुनकर मेरे प्रेम में किसी प्रकार का सन्देह मत करना। लोग कहते हैं कि विरह में प्रेम समाप्त ही हो जाता है किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि किसी मनचाही वस्तु के न मिलने पर उस वस्तु के प्रति आकर्षण और प्रेम बहुत बढ़ जाता है

ऋतु-संहार

ग्रीष्म ऋतु

१. प्रवृद्धतापो दिवसोऽतिमात्रमत्यर्थमेव क्षणदा च तन्वी॥

रघु० १६।४५॥

गर्मियों में बहुत गर्म दिन बड़े हो गये और रात्रियां छोटी।

२. दिने दिने शैवलवन्त्यधस्तात्सोपानपर्वाणि विमुञ्चदम्भः।
उद्दण्डपद्मं गृहदीर्घिकाणां नारी नितम्बद्वयसम्बभूव॥

रघु० १६।४६॥

गर्मी बढ़ने से घरों की बावड़ियों का पानी प्रतिदिन सूखने से काई

लगी सीढ़ियों से नीचे जाने लगा। पानी घटने से कमलों की डण्डियां दिखाई देने लगीं और पानी स्त्रियों की कमर तक ही बच रहा।

३. वनेषु सायन्तनमल्लिकानां विजृम्भणोद्गन्धिषु कुड्मलेषु।
प्रत्येकनिक्षिप्तपदः सशब्दं संख्यामिवैषां भ्रमरश्चकार॥

रघु० १६।४७

जंगलों में रात की रानी के फूलों की सुगन्ध फैल गई। खिले हुए फूलों पर गुंजार भरते भौंरे उड़ने लगे। ऐसा लगता है कि ये भौरे फूलों की गिनती कर रहे हैं।

४. स्वेदानुविद्धार्द्रनखक्षताङ्के भूयिष्ठसन्दष्टशिखं कपोले।
च्युतं न कर्णादपि कामिनीनां शिरीषपुष्पं सहसा पपात॥

रघु० १६।४८॥

स्त्रियों के गालों पर प्रेमियों के नाखूनों से हुए हल्के घावों पर पसीना फैल जाता है और उनके कानों में लगे शिरीष के फूलों का केसर इस पसीने पर चिपक जाने से कानों से निकले हुए फूल एकदम नहीं गिरते।

५. स्नानार्द्रमुक्तेष्वनुधूपवासं विन्यस्तसायन्तनमल्लिकेषु।
कामो वसन्तात्ययमन्दवीर्यः केशेषु लेभे बलमङ्गनानाम्॥

रघु० १६।५०॥

गर्मियों में नहाने से गीले खुले केशों को धूप से सुवासित कर सन्ध्या समय में चमेली के फूलों से सजाया जाता है। वसन्तऋतु बीत जाने से क्षीण पड़ा कामदेव इन बालों में बैठकर फिर बलवान् बन गया है।

६. पत्रच्छायासु हंसा मुकुलितनयना दीर्घिका पद्मिनीनाम्,
सौधान्यत्यर्थतापाद्बलभिपरिचयद्वेषिपारावतानि।
बिन्दुक्षेपान्पिपासुः परिसरति शिखी भ्रान्तिमद्वारियन्त्रम्-
सर्वैरुस्त्रैः समग्रैस्त्वमिव नृपगुणैर्दीप्यते सप्तसप्तिः॥

मालविका० २।१२॥

गर्मी की दोपहर में हंस आँखें मूंदकर बावड़ियों में उगे कमल के पत्तों की छाया में सो रहे हैं। धूप से महल के तपे हुए छन्जों पर कबूतर

बैठ नहीं पा रहे हैं। घूमते हुए रहट से बिखरती हुई पानी की बूंदें पीने के लिए मोर कुएं का चक्कर लगा रहे हैं और सूर्य की किरणें वैसे ही चमक रही हैं जैसे आपके राजसी गुण।

७. प्रचण्डसूर्यः स्पृहणीयचन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसञ्चयः।
दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये॥

ऋतु० १।१॥

हे प्रिये। गर्मी की ऋतु आ गई है। इसमें सूर्य बहुत तपता है, चांदनी अच्छी लगती हैं। नहाते रहने से नदियों आदि का पानी घट जाता है, सन्ध्या का समय अच्छा लगता है और कामेच्छा मन्द पड़ जाती है।

८. पयोधराश्चन्दनपङ्कचर्चितास्तुषारगौरार्पितहारशेखराः।
नितम्बदेशाश्च सहेममेखलाः प्रकुर्वते कस्य मनो न सोत्सुकम्॥

ऋतु० १।६॥

चन्दन लगे स्तन, कण्ठ में पड़े हिम जैसे उज्ज्वल हार और सोने की तगड़ियों से सुभूषित नितम्ब देखकर किसका मन विचलित नहीं होता।

९. असह्यवातोद्धतरेणुमण्डला प्रचण्डसूर्यातपतापिता मही।
न शक्यते द्रष्टुमपि प्रवासिभिः प्रियावियोगानलदग्धमानसैः॥

ऋतु० १।१०॥

तेज हवाएं चलने से धूल के गुबार उड़ रहे हैं, सूर्य के भीषण ताप से पृथ्वी तप रही है। अपनी प्रेमिकाओं की विरहाग्नि से सताये प्रवासी यह सब सहन नहीं कर रहे हैं।

१०. रवेर्मयूखैरभितापितो भृशं विदह्यमानः पथि तप्तपांसुभिः
अवाङ्मुखो जिह्मगतिः श्वसन्मुहुः फणी मयूरस्य तले निषीदति॥

ऋतु० १।१३॥

सूर्य की प्रचण्ड किरणों से बहुत परेशान रास्ते की गर्म रेत से झुलसा हुआ सांप तिरछा चल रहा है और सिर नीचा करके मोर की छाया में बैठा हुआ वह बार-बार सांस ले रहा है।

११. हुताग्निकल्पैः सवितुर्गभस्तिभिः कलापिनः क्लान्तशरीरचेतसः।
न भोगिनं घ्नन्ति समीपवर्तिनं कलापचक्रेषु निवेशिताननम्॥

ऋतु० १।१६॥

यज्ञ की प्रचण्ड अग्नि के समान सूर्य की गर्म किरणों से परेशान शरीर और मन वाले मोर अपने पंख में मुख छिपाकर पास ही लेटे सांपों को नहीं मार रहे हैं।

१२. रविप्रभोद्भिन्नशिरोमणिप्रभा विलोलजिह्वाद्वयलीढमारुतः।
विषाग्निसूर्यातपतापितः फणी न हन्ति मण्डूककुलं तृषाकुलः॥

ऋतु० १।२०॥

सूर्य की किरणों से सर्पों के सिरों की मणियां चमक रही हैं, अपने विष और सूर्य के प्रखर ताप से परेशान और प्यासे सांप अपनी फटी जीभों से वायु पी रहे हैं और मेंढकों को नहीं मार रहे हैं

१३. गजगवयमृगेन्द्रा वह्निसन्तप्तदेहाः,
सुहृद इव समेता द्वन्द्वभावं विहाय।
हुतवहपरिखेदादाशु निर्गत्य कक्षाद्,
विपुलपुलिनदेशान्निम्नगां संविशन्ति॥

ऋतु० १।२७॥

हाथी, चमरीमृग और शेर जंगल में लगी आग से झुलसे हुए जंगल से जल्दी-जल्दी निकलकर और आपस का वैर छोड़कर नदियों में घुस रहे हैं ताकि उनके झुलसे शरीरों को शान्ति मिले।

१४. कमलवनचिताम्बुः पाटलामोदरम्यः,
सुखसलिलनिषेकः सेव्यचन्द्रांशुहारः।
व्रजतु तव निदाघः कामिनीभिः समेतो,
निशि सुललितगीते हर्म्यपृष्ठे सुखेन॥

ऋतु० १।२८॥

ग्रीष्मऋतु आने पर जलाशयों में कमल खिल गये हैं, गुलाब के फूलों की सुगन्ध वातावरण में भर गई है, पानी में बैठना अच्छा लगता है, चांदनी अच्छी लगती है। गर्मियों की यह ऋतु बहुमंजिले घरों की छतों पर रात में सुन्दरियों के साथ गाना बजाना सुनते हुए सुख से बीते।

१५. सुभगसलिलावगाहाः पाटलसंसर्गिसुरभिवनवाताः।
प्रच्छायसुलभनिद्रा दिवसाः परिणामरमणीयाः॥

शाकुन्तल १।३॥

गर्मियों में नहाना अच्छा लगाता है, पाटल के फूलों की गन्ध से सुगन्धित वन का पवन भी अच्छा लगता है। छाया में अच्छी नींद आ जाती है और शाम सुहावनी होती है।

वर्षा–ऋतु

१. ससीकराम्भोधरमत्तकुञ्जरस्तडित्पताकोऽशनिशब्दमर्दलः।
समागतो राजवदुद्धतद्युतिर्घनागमः कामिजनप्रियः प्रिये॥

ऋतु० २।१॥

हे प्रिये! पानी की बूंदों से भरे मतवाले हाथियों जैसे बादलों वाली बिजली की पताकाएं फहराती हुई और ओलों की गड़गड़ाहट से पूर्ण विलासी लोगों को अच्छी लगने वाली वर्षाऋतु राजा के हाथियों, झण्डों और गाजे बाजे वाले जुलूस की तरह आ गयी है।

२.नितान्तनीलोत्पलपत्रकान्तिभिः क्वचित्प्रभिन्नाञ्जनराशिसन्निभैः।
क्वचित्सगर्भप्रमदास्तनप्रभैः समाचितं व्योम घनैः समन्ततः॥

ऋतु० २।२॥

कहीं गहरे हरे रंग के कमल के पत्तों की आभा वाले कहीं पर काजल के बड़े ढेर जैसे काले रंग वाले और कहीं पर गर्भवती स्त्री के स्तनों के रंग वाले बादल सारे आकाश में छा गये हैं।

३. बलाहकाश्चाऽशनिशब्दमर्दलाःसुरेन्द्रचापं दधतस्तडिद्गुणम्।
सुतीक्ष्णधारापतनोग्रसायकैस्तुदन्ति चेतः प्रसभं प्रवासिनाम्॥

ऋतु० २।४॥

ओलों की गड़गड़ाहट से ढोल जैसा शब्द करने वाले बादल. बिजली को डोर वाला इन्द्रधनुष मूसलाधार पानी के तेज बाणों से घर से दूर गये प्रवासी लोगों के हृदयों को घायल कर रहा है।

४. निपातयन्त्यः परितस्तटद्रुमान् प्रवृद्धवेगैः सलिलैरनिर्मलैः।
स्त्रियः सुदुष्टा इव जातविभ्रमाः प्रयान्ति नद्यस्त्वरितं पयोनिधिम्॥

ऋतु० २।७॥

मैले पानी से भरी तेज प्रवाह वाली नदियां किनारे खड़े पेड़ों को उखाड़ती हुई, समुद्र से जल्दी मिलने उसी तरह जा रहीं हैं जैसे दुश्चरित्रा स्त्रियां अपने प्रेमियों के साथ रंगरेलियां मनाने जाती हैं।

५. पयोधरैर्भीमगभीरनिःस्वनैस्तडिद्भिरुद्वेजितचेतसो भृशम्।
कृतापराधानपि योषितः प्रियान्परिष्वजन्ते शयने निरन्तरम्॥

ऋतु० २।११॥

बादलों की गम्भीर गड़गड़ाहट से और बिजली की कौंध से डरी हुई स्त्रियां अपने अपराधी पतियों का भी बिस्तर पर बार-बार आलिंगन कर रही हैं।

६. विलोचनेन्दीवरवारिबिन्दुभिर्निषिक्तबिम्बाधरचारुपल्लवाः।
निरस्तमाल्याभरणानुलेपनाः स्थिता निराशाः प्रमदाः प्रवासिनाम्॥

ऋतु० २।१२॥

अपने कमलों जैसे नेत्रों के आंसुओं से जिनके बिम्बाफल जैसे सुन्दर अधर पल्लव धुल गये हैं और जिन्होंने मालाएं, आभूषण तथा चन्दन आदि का लेप छोड़ दिया है ऐसी प्रवासी पुरुषों की स्त्रियां वर्षाऋतु में निराशा से भरी बैठी हैं।

७. शिरोरुहैः श्रोणितटावलम्बिभिः कृतावतंसैः कुसुमैः सुगन्धिभिः।
स्तनैः सहारैः ससीधुभिः स्त्रियो रतिं सञ्जनयन्ति कामिनाम्॥

ऋतु० २।१८॥

कमर तक लटक रहे सिर के बालों से, सुगन्धित फूलों के गहनों से, स्तनों पर झूलते हुए हारों से और मदिरा से सुवासित मुखों से स्त्रियां कामीजनों को आकृष्ट कर रही हैं।

८. वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्ति रुदन्ति नृत्यन्ति समाश्रयन्ति।
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गाः॥

ऋतु० २।१९॥

वर्षा ऋतु में नदियां बहती हैं, बादल बरसते हैं, मतवाले हाथी चिंघाड़ते हैं, जंगल सुन्दर लगते हैं, विरही रोते हैं, मोर नाचते हैं और बन्दर गुफाओं में छिप जाते हैं।

९. कालागुरुप्रचुरचन्दनचर्चिताङ्ग्यः,
पुष्पावतंससुरभिकृतकेशपाशाः
श्रुत्वा ध्वनिं जलमुचां त्वरितं प्रदोषे,
शय्यागृहं गुरुगृहात्प्रविशन्ति नार्यः॥ ऋतु० २।२२॥

काले अगर वाले चन्दन को शरीर के अंगों पर लगाकर और फूलों के गहनों से जूड़ों को सुगन्धित बनाकर रात्रि में बादलों की गरज सुनकर स्त्रियां सास ससुर के कमरे से निकलकर अपने शयनागारों में जल्दी ही चली जाती हैं।

१०. बहुगुणरमणीयः कामिनीचित्तहारी,
तरुविटपलतानां बान्धवो निर्विकारः।
जलदसमय एष प्राणिनां प्राणभूतो,
दिशतु तव हितानि प्रायशो वाञ्छितानि॥ऋतु० २।२९॥

नानाविध गुणों से अच्छा लगने वाला, स्त्रियों के मन को डांवाडोल बनाने वाला, वृक्षों और लताओं आदि का निस्स्वार्थ बन्धु और सृष्टि के सभी प्राणियों का प्राण वर्षाकाल आप सभी की मनोकामनाएं पूरी करे।

११. मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्तिचेतः।
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे॥

पू० मे० ३॥

वर्षाकाल के बादलों को देखकर सुखी लोगों का मन डांवाडोल हो जाता है। परदेस में पड़े अपनी प्रेयसी का आलिंगन करने के लिए व्याकुल पुरुष का तो कहना ही क्या।

१२. कः सन्नद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायाम्॥

पू० मे० ८॥

बादलों के घिर आने पर कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो विरह से पीड़ित

अपनी पत्नी की सुध नहीं लेगा।

शरत्—शिशिर ऋतु

१. पुण्डरीकातपत्रस्तं विकसत्काराचामरः।
ऋतुर्विडम्बयामास न पुनः प्राप तच्छ्रियम्॥ रघु० ४।१७॥

राजा रघु के सफेद छत्र और चंवर को देखकर शरद् ऋतु सफेद कमल के फूलों के छत्र और फूले हुए कास के चंवरों से होड़ करने लगी किन्तु शरद् ऋतु, राजा का मुकाबला नहीं कर सकीं।

२. हंसश्रेणीषु तारासु कुमुद्वत्सु च वारिषु।
विभूतयस्तदीयानां पर्यस्ता यशसामिव॥ रघु० ४।१९॥

आकाश में उड़ते हुए सफेद हंसों की पक्तियां, रात में छिटके हुए तारे और सरोवरों में खिली सफेद कमलिनी के फूलों को देख ऐसा लगता था कि इन सभी में राजा रघु की उज्ज्वल कीर्ति समा गई है।

३. प्रससादोदयादम्भः कुम्भयोनेर्महौजसः॥ रघु० ४।२१॥

शरद् ऋतु आने पर चमकीले अगस्त्य तारे के उदय होने से तालाबों आदि का जल साफ हो गया।

४. सरितः कुर्वती गाधाः पथश्चाश्यानकर्दमान्।
यात्रायै चोदयामास तं शक्तेः प्रथमं शरत्॥ रघु० ४।२४

शरद् ऋतु आते ही नदियों का पानी घट गया और रास्तों की कीचड़ सूख गई। शरदऋतु रघु को दिग्विजय के लिए प्रेरित करने लगी।

५. काशाशुंका विकचपद्ममनोज्ञवक्त्रा,
सोन्मादहंसरवनूपुरनादरम्या
आपक्वशालिरुचिरा नतगात्रयष्टिः,
प्राप्ता शरन्नववधूरिव रूपरम्या॥ ऋतु० ३।१॥

सुन्दरी नई नवेली बहू जैसी शरद् ऋतु आ गई है। कास के फूल ही इस ऋतु के वस्त्र हैं, सरोवरों में खिले सुन्दर कमल इसका मुखड़ा

हैं. मदमस्त हंसों का शोर ही इसके पैरों में बजते घुंघरू हैं। धान पकने वाले हैं इसलिए इनके पौधे बालों के भार से नवयुवती के शरीर की भांति कुछ झुक गये हैं।

६. काशैर्मही शिशिरदीधितिना रजन्यो,
हंसैर्जलानि सरितां कुमुदैः सरांसि।
सप्तच्छदैः कुसुमभारनतैर्वनान्ताः,
शुक्लीकृतान्युपवनानि च मालतीभिः॥

ऋतु० ३।२॥

सफेद कास के फूलों से धरती, चन्द्रमा की उज्ज्वल चांदनी से रातें, हंसों के तैरने से नदियों का पानी, सफेद कमल के फूलों से तालाबों का पानी, सप्तच्छद के फूलों के भार से झुके पेड़ों से वन तथा मालती के फूलों से बाग-बगीचे सभी शरदऋतु में सफेद हो गये हैं।

७. तारागणप्रवरभूषणम् उद्वहन्ती,
मेघावरोधपरिमुक्तशशाङ्कवक्त्रा।
ज्योत्स्नादुकूलममलं रजनी दधाना,
वृद्धिं प्रयात्यनुदिनं प्रमदेव बाला॥

ऋतु० ३।७॥

अनेक तारों के गहनों से सुभूषित, बादलों के नष्ट हो जाने से साफ चन्द्रमा के मुखवाली और चांदनी की सफेद साड़ी पहिने हुए शरद् ऋतु की रात्रि युवती होती हुई कन्या की भांति प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

८. हंसैर्जिता सुललिता गतिरङ्गनाना-
मम्भोरुहैर्विकसितैर्मुखचन्द्रकान्तिः।
नीलोत्पलैर्मदकलानि विलोकितानि,
भ्रूविभ्रमाश्च रुचिरास्तनुभिस्तरङ्गैः॥

ऋतु० ३।१७॥

नवयुवतियों की सुन्दर चाल को हंसों ने पराजित कर दिया है, खिले हुए कमल के फूलों के सामने स्त्रियों के मुखों की शोभा फीकी पड़ गई है, नीलकमलों के लहलहाते पुष्पों के आगे मतवाले नयन रसहीन से लगने लगे हैं और सुन्दर हल्की तरंगों ने स्त्रियों के कटाक्ष भी प्रभावहीन बना दिये हैं।

९. शरदि कुमुदसङ्गाद्वायवो वान्ति शीता,
विगतजलदवृन्दा दिग्विभागा मनोज्ञाः।
विगतकलुषमम्भः श्यानपङ्का धरित्री,
विमलकिरणचन्द्रं व्योम ताराविचित्रम्॥ ऋतु० ३।२२॥

शरदऋतु में सफेद कमल के फूलों के स्पर्श से ठण्डी हवा चलती है. आकाश में बादल न होने से दिशाएं सुन्दर दीखती हैं, नदी-नालों का जल साफ हो जाता है, पृथिवी का कीचड़ सूख जाता है और उज्ज्वल किरणों वाले चन्द्रमा तथा तारों से आकाश शोभायमान हो जाता हैं

१०. करकमलमनोज्ञाः कान्तसंसक्तहस्ता,
वदनविजितचन्द्राः काश्चिदन्यास्तरुण्यः।
रचितकुसुमगन्धि प्रायशो यान्ति वेश्म,
प्रबलमदनहेतोस् त्यक्तसङ्गीतरागाः॥ ऋतु० ३।२३॥

चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर मुखों वाली कुछ नवयुवतियां कामवासना प्रबल हो उठने के कारण गाना बजाना छोड़कर अपनी कमल जैसी सुन्दर बांहें प्रेमियों के हाथों में डालकर फूलों से सुगन्धित सेज पर सोने के लिये जा रही हैं।

११. विकचकमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षी,
विकसितनवकाशश्वेतवासो वसाना।
कुमुदरुचिरकान्तिः कामिनीवोन्मदेयम्,
प्रतिदिशतु शरद्वश्चेतसः प्रीतिमग्र्याम्॥ ऋतु० ३।२८॥

खिले हुए कमल के फूलों के मुख वाली विकसित नील कमल के फूलों के सुन्दर नयनों वाली, खिले हुए कास के नये फूलों की साड़ी पहिने, कमलिनी के समान सुन्दरी मदोन्मत्त कामिनी जैसी यह शरदऋतु आपके मन को खूब प्रसन्न रखे।

१२. निरुद्धवातायन मन्दिरोदरम्,
हुताशनो भानुमतो गभस्तयः।

गुरूणि वासांस्यबलाः सयौवनाः,
प्रयान्ति कालेऽत्र जनस्य सेव्यताम्॥ ऋतु० ५।२॥

शिशिर ऋतु में घरों की खिड़कियां बन्द रहती हैं, आग और धूप सेकी जाती है। मोटे गर्म वस्त्र पहिने जाते हैं और स्त्रियों के साथ आमोद-प्रमोद किया जाता है।

१३. न चन्दनं चन्द्रमरीचिशीतलं न हर्म्यपृष्ठं शरदिन्दुनिर्मलम्।
न वायवः सान्द्रतुषारशीतला जनस्य चित्तं रमयन्ति साम्प्रतम्॥

ऋतु० ५।३॥

सर्दियों में चन्द्रमा की किरणों जैसा ठण्डा चन्दन, छिटकी चांदनी से चमचमाती छतें, और पाले से ठण्डी हवाएं अच्छी नहीं लगतीं।

१४. प्रचुरगुडविकारः स्वादुशालीक्षुरम्यः,
प्रबलसुरतकेलिर् जातकन्दर्पदर्पः।
प्रियजनरहितानां चित्तसन्तापहेतुः,
शिशिरसमय एष श्रेयसे वोऽस्तु नित्यम्॥ ऋतु० १६॥

इन दिनों गुड़ की बनी चीजें खूब मिलती हैं, स्वादिष्ठ चावल और गन्ने खाये जाते हैं। कामी जन सम्भोग में मस्त रहते हैं और विरहीजन दुखी मन से समय काटते हैं। सर्दियों की ऋतु आपका सदा
कल्याण करे।

हेमन्त ऋतु

१. नवप्रवालोद्गमसस्यरम्यः प्रफुल्ललोध्रः परिपक्वशालिः।
विलीनपद्मः प्रपतत्तुषारो हेमन्तकालः समुपागतोऽयम्॥

ऋतु० ४।१॥

हेमन्त ऋतु आने पर नई कोपलें और अनाज के खेत सुन्दर दीख रहे हैं, लोध्र के पेड़ों पर फूल खिल गये हैं, धान पककर तैयार हैं, कमल नष्ट हो गये हैं और पाला पड़ने लगा है।

२. प्रफुल्लनीलोत्पलशोभितानि सोन्मादकादम्बविभूषितानि।
प्रसन्नतोयानि सुशीतलानि सरांसि चेतांसि हरन्ति पुंसाम्॥

ऋतु० ४।९॥

हेमन्त ऋतु में सरोवरों का पानी साफ और ठण्डा हो गया है। इनमें नीलकमल खिले हुए हैं और मदमस्त कलहंसों के आ जाने से सुशोभित तालाब मन मोह रहे हैं।

३. मार्गं समीक्ष्यातिनिरस्तनीरं प्रवासखिन्नं पतिमुद्वहन्त्यः।
अवेक्ष्यमाणा हरिणेक्षणाक्ष्यः प्रबोधयन्तीव मनोरथानि॥

ऋतु० ४।१०॥

मृगनयनी नारियां रास्तों को कीचड़ रहित देखकर परदेश गये पति के लौटने की प्रतीक्षा कर रही हैं और अपने मनोरथ पूर्ण करने की आशाएं मन में संजोने लगी हैं।

४. दन्तच्छदैः सव्रणदन्तचिह्नैःस्तनैश्च पाण्यग्रकृताभिलेखैः।
संसूच्यते निर्दयमङ्गनानां रतोपभोगो नवयौवनानाम्॥

ऋतु० ४।१३॥

नवयुवतियों के अधरों पर घावों तथा उनके स्तनों पर नख चिह्नों से पता चलता है कि इनके साथ जी भर कर सम्भोग किया गया है।

५. अन्या प्रकामसुरतश्रमखिन्नदेहा रात्रिप्रजागरविपाटलनेत्रपद्मा।
स्त्रस्तांसदेशलुलिताकुलकेशपाशा निद्रां प्रयाति मृदुसूर्यकराभितप्ता॥

ऋतु० ४।१५॥

कोई रमणी मनमाने सम्भोग की थकान से निढाल होकर सवेरे की सूर्य किरणों की गरमी में सो रही है। उसके बाल कन्धों पर बिखरे हैं तथा रात में जागने से आंखें लाल हैं।

६. अन्याश्चिरं सुरतकेलिपरिश्रमेण,
खेदं गताः प्रशिथिलीकृतगात्रयष्ट्यः।
संहृष्यमाण — पुलकोरुपयोधरान्ता,
अभ्यञ्जनं विदधति प्रमदाः सुशोभाः॥ ऋतु० ४।१८॥

कोई सुन्दरी रति क्रीड़ा की थकान से ढीला और सुस्त शरीर देखकर मालिश कर रही है। मालिश करते हुए उसके स्तन और जांघें रोमांचित हो उठती हैं।

७. बहुगुणरमणीयो योषितां चित्तहारी,
परिणतबहुशालिव्याकुलग्रामसीमा।
विनिपतिततुषारःक्रौञ्चनादोपगीतः,
प्रदिशतु हिमयुक्तः काल एषः सुखं वः॥ ऋतु० ४।१९॥

अनेक अच्छी बातों से अच्छी लगने वाली रमणियों के मन को चंचल बनाने वाली, ग्राम सीमाओं पर धान की पकी फसल के ढेर लगाने वाली, पाला पड़ने से ठण्डी और कुरर ( हंस) पक्षियों के कलरव से परिपूर्ण हेमन्त ऋतु आपको सुखी करे।

वसन्त ऋतु

१. कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिलकूजितम्।
इति यथाक्रममाविरभून्मधुर्द्रुमवतीमवतीर्य वनस्थलीम्॥

रघु० ९।२६॥

सब से पहले पेड़ों पर फूल खिले, फिर उनमें नये पत्ते आने लगे। अब भौंरों की गुंजार और कोयल की कूक भी सुनाई देने लगी। इस प्रकार वृक्षों से भरे-पूरे वनों में वसन्त ऋतु धीरे-धीरे छा गई।

२. अमदयन्मधुगन्धसनाथया किसलयाधरसङ्गतया मनः।
कुसुमसम्भृतया नवमल्लिका स्मितरुचा तरुचारुविलासिनी॥

रघु० ९०४२॥

वृक्षों का आलिंगन कर उनके साथ विलास करने वाली नवमल्लिका लता फूलों से लद गई। उसके फूलों की मधुर गन्ध और ओठों जैसे लाल नये कोमल पत्ते मन को मोहने लगे।

३. अरुणरागनिषेधिभिरंशुकैः श्रवणलब्धपदैश्च यवाङ्कुरैः।
परभृताविरुतैश्च विलासिनः स्मरबलैरबलैकरसाः कृताः॥

रघु० ९।४३॥

उषाकाल की अरुणिमा से भी अधिक लाल रंगों के दुपट्टों से, युवतियों के कानों में लगे जौ के अंकुरों से तथा कोयल की कूक से कामदेव ने विलासी पुरुषों को युवतियों के प्रेम में डुबो दिया।

४. ध्वजपटं मदनस्य धनुर्भृतश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः।
कुसुमकेसररेणुमलिव्रजाः सपवनोपवनोत्थितमन्वयुः॥

रघु० ९४५॥

जब वायु से उपवनों में फूले कुसुमों का पराग उड़ता तब भौरे उसके पीछे उड़ने लगते। इन्हें देख लगता कि फूलों का धनुष हाथों में लिये कामदेव की यह पताका है अथवा वसन्त ऋतु के मुख के श्रृंगार के लिए पाउडर है।

५. त्यजत मानमलं बत विग्रहैर्न पुनरेति गतं चतुरं वयः।
परभृताभिरितीव निवेदिते स्मरमते रमते स्म वधूजनः॥

रघु० ९४७॥

अब रूठना छोड़ो और लड़ना-झगड़ना बन्द करो, क्योंकि बीता हुआ यौवन फिर नहीं आता। कोयलों की कूक में कामदेव का यह सन्देश सुनकर नवयुवतियां अपने पतियों के साथ आमोद-प्रमोद करने लगीं।

६. चूताङ्कुरस्वादकषायकण्ठः पुंस्कोकिलो यन्मधुरं चुकूज।
मनस्विनीमानविघातदक्षं तदेव जातं वचनं स्मरस्य॥

कुमार० ३।३२॥

आम की मंजरियां खाने से मधुर कण्ठ स्वर वाले नर कोकिल की गूंज सुनकर रूठी हुई स्त्रियों का रोष दूर हो गया, क्योंकि कोयल की कूक ही कामदेव का सन्देश थी।

७. तं देशमारोपितपुष्पचापे रतिद्वितीये मदने प्रपन्ने।
काष्ठागतस्नेहरसानुविद्धं द्वन्द्वानि भावं क्रियया विवव्रुः॥

कुमार० ३।३५।

फूलों के धनुष पर बाण चढ़ाकर जब कामदेव रति के साथ आया तब सभी प्राणियों में बढ़ी हुई सम्भोग की इच्छा उनके क्रियाकलापों

में दीखने लगी।

८. मधु द्विरेफः कुसुमैकपात्रे पपौ प्रियां स्वामनुवर्तमानः।
शृङ्गेण च स्पर्शनिमीलिताक्षीं मृगीमकण्डूयत कृष्णसारः॥

कुमार० ३।३६॥

अपनी प्रेयसी के पीछे उड़ता हुआ भौंरा फूल के एक ही कटोरे में उसके साथ पुष्परस पीने लगा, कृष्णमृग अपनी प्रेयसी का शरीर सींग से खुजाने लगा और मृगी अपनी आंखें बन्द कर इस स्पर्श का सुख लेने लगी।

९. ददौ रसात् पङ्कजरेणुगन्धि गजाय गण्डूषजलं करेणुः।
अर्धोपभुक्तेन बिसेन जायां सम्भावयामास रथाङ्गनामा॥

कुमार० ३।३७॥

हथिनी, कमल के पराग से सुगन्धित जल अपनी सूंड से निकाल कर हाथी को पिलाने लगी और चकवा आधी खाई हुई कमलनाल चकवी को खिलाने लगा।

१०. गीतान्तरेषु श्रमवारिलेशैः किञ्चित्समुच्छ्वासितपत्रलेखम्।
पुष्पासवाघूर्णितनेत्रशोभि प्रियामुखं किम्पुरुषश्चुचुम्बे॥

कु० ३।३८॥

किन्नर, अपनी प्रेयसियों के मुख गाने के बीच में ही चूमने लगे जिन पर थकान से पसीना आ गया था और कपोलों पर की गई सजावट पुंछ गई थी तथा जिनके नेत्र फूलों की मदिरा पीने से मतवाले हो गये थे।

११. पर्याप्तपुष्पस्तबकस्तनाभ्यः स्फुरत्प्रवालोष्ठमनोहराभ्यः।
लतावधूभ्यस्तरवोऽप्यवापुर्विनम्रशाखा भुजबन्धनानि॥

कु० ३।३९॥

वृक्ष अपनी डालियां झुकाकर उन लताओं का आलिंगन करने लगे जिनमें फूलों के गुच्छों के बहाने स्तन उभर आये थे और पत्तों के रूप में जिनके ओठ बहुत सुन्दर दीख रहे थे।

१२. उन्मत्तानां श्रवणसुभगैः कूजितैः कोकिलानाम्,
सानुक्रोशं मनसिजरुजः सह्यतां पृच्छतेव।
अङ्गे चूतप्रसवसुरभिदक्षिणो मारुतो मे,
सान्द्रस्पर्शः करतल इव व्यापृतो माधवेन॥

मालविका० ३।४॥

मतवाले कोकिलों की कानों को मीठी लगने वाली कूक के बहाने कामदेव मुझ से पूछ रहा है कि क्या प्रेम रोग का दर्द सहन हो पा रहा है ? आम के बौर की गन्ध वाला दक्षिण पवन मेरे शरीर को छू रहा है। लगता है वसन्त ने सुख देने वाले हाथ से मुझे दे दिया है।

१३. रक्ताशोकरुचा विशेषितगुणो बिम्बाधरालक्तकः,
प्रत्याख्यातविशेषकं कुरबकं श्यामावदातारुणम्।
आक्रान्ता तिलकक्रिया च तिलकैर्लग्नद्विरेफाञ्जनैः,
सावज्ञेव मुखप्रसाधनविधौ श्रीर्माधवी योषिताम्॥

मालविका० ३।५॥

लाल अशोक के फूल की लालिमा से युवतियों के चमकीले ओठों पर लगी लाली पिछड़ गई है। काले, सफेद और लाल रंग के कुरबकके फूलों ने कपोलों की चित्रकारी को मात दे दी है। तिलक के फूलों पर मंडराते भौरों से माथे के तिलक की शोभा फीकी पड़ गई है। वसन्त की शोभा ने युवतियों के श्रृंगार को परास्त कर दिया है।

१४. प्रफुल्लचूताङ्कुरतीक्ष्णसायको द्विरेफमालाविलसद्धनुर्गुणः।
मनांसि भेत्तुं सुरतप्रसङ्गिनां वसन्तयोद्धा समुपागतः प्रिये॥

ऋतु० ६।१॥

कामीजनों के मनों को विदीर्ण करने के लिए वसन्त ऋतु योद्धा बनकर आ गई है। खिली हुई आम की मंजरियां इस योद्धा के तीखे बाण हैं और भौरों की पंक्तियां इसके धनुष की डोरी है।

१५. द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मं स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः।
सुखाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः सर्वं प्रियं चारुतरं वसन्ते॥

ऋतु० ६।२॥

हे प्रिय! वसन्तऋतु में सभी कुछ अच्छा और सुन्दर लगने लगता है। इस ऋतु में पेड़ों पर फूल खिल जाते हैं, तालाबों में कमल फूलने लगते हैं, स्त्रियों में कामवासना जाग जाती है, वायुमण्डल सुगन्धित हो उठता है। सन्ध्या काल सुखदायी लगता है और दिन मनोहर।

१६. नेत्रेषु लोलो मदिरालसेषु गण्डेषु पाण्डुः कठिनः स्तनेषु।
मध्येषु निम्नो जघनेषु पीनः स्त्रीणामनङ्गो बहुधा स्थितोऽद्य॥

ऋतु० ६।१२॥

स्त्रियों के अंगप्रत्यंग में कामदेव अनेक रूपों में आ बसा है। कामदेव मदिरापान से अलसायी आंखों में चंचलता ला रहा है। गालों को गोरा बना रहा है, स्तनों को कठोर कर रहा है। कमर कुछ लचकीली बना रहा है और जांघों को सुपुष्ट बना रहा है।

१७. आदीप्तवह्निसदृशैर्मरुताऽवधूतैः सर्वत्र किंशुकवनैः कुसुमावनम्रैः।
सद्यो वसन्तसमयेन समाचितेयं रक्तांशुका नववधूरिव भाति भूमिः॥

ऋतु० ६।२१॥

वसन्त ऋतु में पलाश के आग जैसे लाल फूलों से लदे वृक्षों को वायु झुला रहा है। इन्हें देख ऐसा लगता है कि नई नवेली बहू की तरह धरती ने लाल साड़ी पहन ली है।

१८. आलम्बिहेमरसनाः स्तनसक्तहाराः,
कन्दर्पदर्पशिथिलीकृतगात्रयष्ट्यः।
मासे मधौ मधुरकोकिलभृङ्गनादैर्नार्यो,
हरन्ति हृदयं प्रसभं नराणाम्॥ ऋतु० ६।२६॥

कमर पर सोने की तगड़ी और स्तन पर हार पहिने तथा कामदेव के द्वारा अलसाये हुए शरीरों से मधुमास में कोयल की कूक और भौंरों की गुंजार से स्त्रियां पुरुषों के मन लुभा रही हैं।

१९. रम्यः प्रदोषसमयः स्फुटचन्द्रभासः,
पुंस्कोकिलस्य विरुतं पवनः सुगन्धिः।
मत्तालिपृथविरुतं निशि शीधुपानं,
सर्वं रसायनमिदं कुसुमायुधस्य॥ ऋतु० ६।३५॥

मनोहारी सन्ध्या समय, छिटकी हुई चांदनी, कोयल की कूक, सुगन्धित वायु, भौंरों की गुंजार और रात्रि में मदिरापान ये सब कामदेव की अव्यर्थ ओषधियां हैं।

२०. आम्रीमञ्जुलमञ्जरीवरशरः सत्किंशुकं यद्धनु-
र्ज्यायस्यालिकुलं कलङ्करहितं छत्रं सितांशुः सितम्।
मत्तेभो मलयानिलः परभृता यद्वन्दिनो लोकजित्,
सोऽयं वो वितरीतरीतु वितनुर्भद्रं वसन्तान्वितः॥

ऋतु० ६।३८॥

आम की सुन्दर मंजरियां जिसके बाण हैं, पलाश के सुन्दर फूल जिसका धनुष है, भौरों का झुण्ड इस धनुष की डोर है, कलंकहीन चन्द्रमा जिसका सफेद छत्र है, मदमस्त हाथी जिसके मलयपवन हैं तथा कोयलें जिसकी चारण हैं ऐसा शरीर रहित और संसार को अपने वश में रखने वाला कामदेव वसन्त ऋतु के साथ आप सब का कल्याण करें।

अभिज्ञान—शाकुन्तल

शकुन्तला

१. इदं किलाव्याजमनोहरं वपुस्तपः क्षमं साधयितुं य इच्छति।
ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया शमीलतां छेत्तुमृषिर्व्यवस्यति॥

शाकुन्तल॥ १।१८॥

किसी भी आभूषण के बिना सुन्दर दीखने वाले शकुन्तला के शरीर को यदि ऋषि तपस्या करने के लिए तैयार कर रहे हैं तो उनका यह प्रयत्न नीले कमल की पंखुड़ी से शमी लता को काटने जैसा ही है।

२. इदुमुपहितसूक्ष्मग्रन्थिना स्कन्धदेशे
स्तनयुगपरिणाहाऽऽच्छादिना वल्कलेन।
वपुरभिनवमस्याः पुष्यति स्वां न शोभां
कुसुममिव पिनद्धं पाण्डुपत्रोदरेण॥ शाकुन्तल १।१९॥

इसके उभरे हुए दोनों स्तनों को ढकने के लिए वृक्ष की छाल का वस्त्र कन्धे पर गांठ लगाकर बांधा हुआ है। इसलिए शकुन्तला की नवयौवन सम्पन्न मनोहारी देह की स्वाभाविक शोभा उसी तरह प्रकट नहीं हो रही है। जैसे पीले पत्ते के ऊपर खिले हुए किसी फूल की शोभा मारी जाती है।

३. सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यम्
मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्मलक्ष्मीं तनोति।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी,
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्॥ शाकुन्तल १।२०॥

सेवार से घिरा होने पर भी कमल का फूल सुन्दर दीखता है। चन्द्रमा का कलंक भी चन्द्रमा की शोभा को बढ़ाता है। इसी तरह यह नवयुवती वल्कल - वस्त्र पहिने हुए भी बहुत सुन्दर दीख रही है। सुन्दर वस्तुओं पर और मनोहारी शरीर पर सभी कुछ अच्छा दीखता है।

४. कठिनमपि मृगाक्ष्या वल्कलं कान्तरूपम्,
न मनसि रुचिमङ्गं स्वल्पमप्यादधाति।
विकचसरसिजायाः स्तोकनिर्मुक्तकण्ठम्,
निजमिव कमलिन्याः कर्कशं वृन्तजालम्॥

शाकुन्तल १।२१॥

मृगनयनी शकुन्तला के गले तक बंधा हुआ कठोर वल्कल वस्त्र देखकर भी इसकी सुन्दर देह के प्रति आकर्षण तनिक भी कम नहीं होता जैसे खिली हुई कमलिनी का फूल पानी के अन्दर कठोर डण्ठल और जड़ होने पर भी सुन्दर ही दीखता है।

५. अधरः किसलयरागः कोमलविटपानुकारिणौ बाहू।
कुसुममिव लोभनीयं यौवनमङ्गेषु सन्नद्धम्॥

शाकुन्तल १।२२॥

शकुन्तला के निचले ओंठ का रंग नई कोंपल की आभा जैसा है। दोनों भुजाएं वृक्ष की कोमल शाखाओं जैसी हैं। इसके अंग प्रत्यंग में विकसित यौवन फूल जैसा लुभावना है।

६. यतो यतः षट्चरणोऽभिवर्तते ततस्ततः प्रेरितवामलोचना।
विवर्त्तितभ्रूरियमद्य शिक्षते भयादकामाऽपि हि दृष्टिविभ्रमम्॥

शाकुन्तल १।२४॥

यह भौंरा जिस ओर जाता है उसी दिशा में शकुन्तला के सुन्दर नयन देखने लगते हैं। यद्यपि शकुन्तला के मन में अभी कोई कामना नहीं है फिर भी यह भौरे से डरी हुई कटाक्ष करना सीख रही है।

७. चलापाङ्गां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमतीं,
रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः।
करौ व्याधुन्वन्त्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरम्,
वयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर! हतास्त्वं खलु कृती॥

शाकुन्तल १।२५॥

हे भौंरे! तुम निश्चय ही भाग्यवान् हो। हम तो असली बात पता लगाने में ही फंस गये और तुम इस चंचल नयनोंवाली और भय से कांपती हुई शकुन्तला को बार बार छू रहे हो। कोई भेद की बात कहने के बहाने तुम उसके कान के पास गुनगुना रहे हो और उसके बार बार हाथ झटकने पर भी उसके अधर रस को पी रहे हो।

८. लोलां दृष्टिमितस्ततो वितनुते सभ्रूलताविभ्रमा-
माभुग्नेन विवर्त्तिता वलिमता मध्येन कम्रस्तनी।
हस्ताग्रं विधुनोति पल्लवनिभं शीत्कारभिन्नाधरा
जातेयं भ्रमराभिलङ्घनभिया वाद्यैर्विना नर्त्तकी॥

शाकुन्तल १।२६॥

शकुन्तला भौर से डरकर कटाक्षों के साथ इधर उधर देख रही है। त्रिवली वाला उसके शरीर का यह मध्य भाग और सुन्दर स्तन कुछ झुक गये हैं। वह अपना किसलय जैसा कोमल हाथ भौरे को भगाने के लिए घुमा रही है और डर के कारण इसके ओंठों से सिसकी जैसी आवाज आ रही है। भौंरे के आक्रमण के डर से शकुन्तला बाजों के बिना ही नाचने लगी है।

९. मानुषीषु कथं वा स्यादस्य रूपस्य सम्भवः।
न प्रभातरलं ज्योतिरुदेति वसुधातलात्॥

शाकुन्तल १।२८॥

पृथ्वी की स्त्रियां इतनी मनोहर कन्या को जन्म नहीं दे सकतीं। क्या सूर्य और चन्द्रमा जैसी दिव्य ज्योति पृथिवी से उत्पन्न हो सकती है ?

१०. स्त्रस्तांसावतिमात्रलोहिततलौ बाहू घटोत्क्षेपणा-
दद्यापि स्तनवेपथुं जनयति श्वासः प्रमाणाधिकः।
बद्धं कर्णशिरीषरोधिवदने घर्माम्भसां जालकम्,
बन्धे स्त्रंसिनि चैकहस्तयमिताः पर्याकुला मूर्धजाः॥

शाकुन्तल १।३२॥

पानी से भरे घड़े उठाने से शकुन्तला के कन्धे और भुजाएं थककर शिथिल हो गई हैं और हथेलियां लाल हो गई हैं। थकान के कारण सांस फूल जाने से इसके स्तन हिल रहे हैं। परिश्रम से मुख पर पसीना आ जाने के कारण कान में लगे शिरीष के फूलों की पंखुरियां गालों पर चिपक गई हैं और इसने अपने खुले हुए जूड़े के बालों को एक हाथ से पकड़ रखा है।

११. वाचं न मिश्रयति यद्यपि मद्वचोभिः,
कर्णं ददात्यभिमुखं मयि भाषमाणे।
कामं न तिष्ठति मदाननसम्मुखीना,
भूयिष्ठमन्यविषया न तु दृष्टिरस्याः॥ शाकुन्तल १।३३॥

यद्यपि शकुन्तला मेरे साथ बात नहीं कर रही है फिर भी मेरी बातें बड़े ध्यान से सुन रही है। इसी तरह यह मेरे सामने मुख करके नहीं बैठी हुई है किन्तु यह मेरे सिवाय किसी और वस्तु को नहीं देख
रही है।

१२. सुरयुवतिसम्भवं किल मुनेरपत्यं तदुज्झिताधिगतम्।
अर्कस्योपरि शिथिलं च्युतमिव नवमालिका कुसुमम्॥

शाकुन्तल २८॥

यह अप्सरा से उत्पन्न सन्तान है। इसे जब अप्सरा ने छोड़ दिया था तो कण्व मुनि ने इसे पाला। आक के पौदे पर नवमल्लिका के फूल के गिरने की भांति ही शकुन्तला का पालन हुआ है।

१३. चित्ते निवेश्य परिकल्पितसर्वयोगात्,
रूपोच्चयेन विधिना विहिता कृशाङ्गी।
स्त्रीरत्नसृष्टिरपरा प्रतिभाति सा मे
धातुर्विभुत्वमनुचिन्त्य वपुश्च तस्याः॥ शाकुन्तल २।९॥

शकुन्तला की देह का सौन्दर्य देखकर तथा सृष्टि रचना करने की विधाता की कुशलता पर विचार करके मुझे तो यही लगता है कि ब्रह्मा ने अपने मन में सभी प्रकार के सम्भव रूपों की कल्पना करके और इन सब का सम्मिश्रण करके इस कोमलाङ्गिनी स्त्री-रत्न की रचना की है।

१४. अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररुहै-
रनाविद्धं रत्नं मधु नवमनास्वादितरसम्।
अखण्डं पुण्यानां फलमिव च तद्रूपमनघम्,
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः॥

शाकुन्तल २।१०॥

शकुन्तला का निष्कलंक और पवित्र रूप लावण्य बिना सूंघे हुए फूल जैसा है, हाथों से न तोड़े हुए नये पत्ते जैसा है। बिना बिंधे हुए रत्न जैसा है, बिना चखे हुए नये मधु जैसा है और बिना भोगे हुए पुण्यों के फल जैसा है। न जाने विधाता इस रूपराशि का उपभोग करने के लिए किसे चुनेंगे ?

१५. अभिमुखे मयि संहृतमीक्षितं हसितमन्यनिमित्तकृतोदयम्।
विनयवारितवृत्तिरतस्तया न विवृतो मदनो न च संवृतः॥

शाकुन्तल २।११॥

मेरे देखने पर वह अपनी आंखें नीची कर लेती थी। वह किसी भी बहाने हंसने लगती थी। लज्जा और शील संकोच के कारण वह न तो अपना राग प्रकट कर पाती थी और न ही छिपा पाती थी।

१६. दर्भाङ्कुरेण चरणः क्षत इत्यकाण्डे,
तन्वी स्थिता कतिचिदेव पदानि गत्वा।
आसीद्विवृत्तवदना च विमोचयन्ती,
शाखासु वल्कलमसक्तमपि द्रुमाणाम्॥

शाकुन्तल २।१२॥

मेरे पैर में कांटा चुभ गया है यह कहकर वह थोड़ी दूर जाकर ही बिना बात ठहर गई, पेड़ की शाखाओं में वल्कल वस्त्र के न उलझने पर भी वह अपना वस्त्र शाखा से छुड़ाने का दिखावा करती हुई अपना रूप दिखाती रही।

१७. क्षामक्षामकपोलमाननमुरः काठिन्यमुक्तस्तनम्,
मध्यः क्लान्ततरः प्रकामविनतावंसौ छविः पाण्डुरा।
शोच्या च प्रियदर्शना च मदनक्लिष्टेयमालक्ष्यते,
पत्राणामिव शोषणेन मरुता स्पृष्टा लता माधवी॥

शाकुन्तल ३।८॥

शकुन्तला के गाल मुरझा गये हैं, इसके स्तनों की कठोरता समाप्त हो गई है, इसकी देह बीच में और भी पतली हो गई है, कन्धे भी दुलक गये हैं और देह पीली हो गई है। कामज्वर से पीड़िता शकुन्तला दयनीय दीखने पर भी अच्छी लग रही है। उसकी हालत वायु से सूखे पत्तों वाली माधवी लता जैसी हो गई है।

१८. तव न जाने हृदयं मम पुनः कामो दिवाऽपि रात्रिमपि।
निर्घृण! तपसि बलीयस्त्वयि वृत्तमनोरथान्यङ्गानि॥

शाकुन्तल ३।१४॥

हे निष्ठुर! मुझे तुम्हारे मन की बात मालूम नहीं है किन्तु तुम्हारे प्रति आकृष्ट मेरे सारे शरीर के अंगों को कामदेव रात दिन अत्यन्त सन्ताप पहुंचा रहा है।

१९. सन्दष्टकुसुमशयनान्याशुक्लान्तबिसभङ्गसुरभीणि।
गुरुपरितापानि न ते गात्राण्युपचारमर्हन्ति॥

शाकुन्तल ३।१६॥

काम ज्वर से अत्यन्त पीड़ित तुम्हारे शरीर से फूलों की सेज के फूल मुरझा गये हैं और हाथों में पहिने हुए कमलनाल के कंगन सूख गये हैं ऐसी हालत में तुम्हारा शरीर किसी प्रकार का शिष्टाचार निभाने योग्य नहीं है।

२०. का स्विदवगुण्ठनवती नातिपरिस्फुटशरीरलावण्या।
मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पाण्डुपत्राणाम्॥

शाकुन्तल ५।१३॥

घूंघट वाली यह स्त्री कौन है जिसके शरीर का सौन्दर्य पूरी तरह दिखाई नहीं दे रहा है। तपस्वियों के बीच खड़ी यह युवती पीले पत्तों के बीच नये पत्ते की भांति दिखाई दे रही है।

२१. त्वमर्हतां प्राग्रसरः स्मृतोऽसि नः शकुन्तला मूर्तिमती च सत्क्रिया।
समानयंस्तुल्यगुणं वधूवरं चिरस्य वाच्यं न गतः प्रजापतिः॥

शाकुन्तल ५। १५॥

आप सम्माननीय व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ हैं और हमारी शकुन्तला सदाचार की प्रतिमा है। ब्रह्मा ने बहुत दिन बाद समान गुणों वाले वर-वधू को मिलाकर अपने को दोषी कहलाने से बचा लिया है।

२२. इदमुपनतमेवं रूपमक्लिष्टकान्ति,
प्रथमपरिगृहीतं स्यान्न वेत्यध्यवस्यन्।
भ्रमर इव विभाते कुन्दमन्तस्तुषारं
न च खलु परिभोक्तुं नैव शक्नोमि हातुम्॥ शाकुन्तल ५। १९॥

मेरे पास जिस अत्यन्त रूपवती युवती को लाया गया है उसके बारे में मैं निश्चय नहीं कर पा रहा हूं कि इससे मैंने कभी विवाह किया है या नहीं। प्रातः काल में ओस से गीले कुन्द के फूल पर भौंरा न तो बैठ सकता है और न ही उससे दूर जा सकता है। इसी प्रकार मैं इस युवती को न तो ग्रहण कर सकता हूं और न ही छोड़ सकता हूं।

२३. आजन्मनः शाठ्यमशिक्षितो यस्तस्याप्रमाणं वचनं जनस्य।
परातिसन्धानमधीयते यैर्विद्येति ते सन्तु किलाप्तवाचः॥

शाकुन्तल ५।२५॥

जिस शकुन्तला ने जन्म से लेकर आज तक छल प्रपंच कभी नहीं सीखा उसकी बात झूठी मानी जाय और जो लोग विद्या के नाम पर दूसरों को ठगना सीखते हैं उनकी बात सच्ची मानी जाय?

२४. वसने परिधूसरे वसाना नियमक्षाममुखी धृतैकवेणिः।
अतिनिष्करुणस्य शुद्धशीला मम दीर्घं विरहव्रतं बिभर्ति॥

शाकुन्तल ७।२१।

शकुन्तला ने मैले कपड़े पहने हुए हैं, तपस्या करने से उसका चेहरा उतर गया है, उसने सिर के बालों की एक चोटी बनाई हुई है, उसका चरित्र और आचरण निष्कलंक है। वह मुझ निर्दयी के कारण इतनी लम्बी अवधि से विरह का दुःख झेल रही है।

शकुन्तला–प्रस्थान

१. यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया,
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम्।
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः,
पीड्यन्ते गृहिणः कथं नु तनया विश्लेषदुःखैर्नवैः॥

शा० ४।६॥

आज शकुन्तला जायेगी यह सोचकर मेरे हृदय में हलचल मची हुई है। आंसुओं को रोकने के कारण मेरा गला रुंध गया है और चिन्ता के कारण आंखों में धुंधलापन छा गया है। यदि मेरे जैसे वनवासी तपस्वी को बेटी के स्नेह के कारण इतना दुःख हो रहा है तो उन गृहस्थों को कितना अधिक दुःख होता होगा जो अपनी बेटी को पहली बार विदा करते हैं।

२. पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या,
नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्।
आदौ वः कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः,
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम्॥

शा० ४।९॥

हे तपोवन के वृक्षो! शकुन्तला तुम्हें सींचे बिना स्वयं पानी नहीं पीती थी। अपने को सजाने का शौक होने पर भी वह तुम से स्नेह करने के कारण तुम्हारा एक पत्ता भी अपने श्रृंगार के लिए नहीं तोड़ती थी। जब पहली बार तुम्हारे फूल खिलते थे तो वह बहुत प्रसन्न होती थी। तुम्हारी वही शकुन्तला आज अपनी ससुराल जा रही है आप सब इसे विदा कीजिये।

३. उद्गलितदर्भकवला मृगाः परित्यक्तनर्तना मयूराः।
अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्त्यश्रूणीव लताः॥

शा० ४।१२॥

शकुन्तला की विदाई के कारण सारा तपोवन ही उदास हो उठा है। हरिणों ने घास के कौर मुखों से गिरा दिये हैं, मोरों ने नाचना बन्द कर दिया है और लताएं पीले पत्ते गिराने के बहाने रो रही हैं।

४.यस्य त्वया व्रणविरोपणमिङ्गुदीनां,
तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविद्धे।
श्यामाकमुष्टिपरिवर्धितको जहाति,
सोऽयं न पुत्रकृतकः पदवीं मृगस्ते॥ शाकुन्तल ४।१४॥

कुशा के नोक से मुंह में हुए घाव को भरने के लिए जिस हरिण के बच्चे के मुंह में तुम इंगुदी का तेल लगाया करती थीं। जिसे तुमने अपने हाथों से सांवा चावल खिलाकर पाला था और जिसे तुमने अपना बेटा बना रखा था वही हरिण का छौना तुम्हारा रास्ता रोक कर खड़ा हुआ है।

५. उत्पक्ष्मणोर् नयनयोपरुद्धवृत्तिम्,
वाष्पं कुरु स्थिरतया विहतानुबन्धम्।
अस्मिन्नलक्षितनतोन्नत भूमिभागे,
मार्गे पदानि खलु ते विषमीभवन्ति॥

शा० ४।१५॥

आंसुओं से भरी पलकों के कारण तुम भली प्रकार नहीं देख पा रही हो इसलिए धैर्य धारण कर रोना बन्द करो, क्योंकि यह ऊंचा-नीचा

रास्ता तुम्हारा परिचित नहीं है और आंसुओं के कारण तुम्हारे पैर लड़खड़ा रहे हैं।

६. अस्मान्साधु विचिन्त्य संयमधनान्नुच्चैः कुलं चात्मन-
स्त्वय्यस्याः कथमप्यबान्धवकृतां स्नेहप्रवृत्तिं च ताम्।
सामान्यप्रतिपत्तिपूर्वकमियं दारेषु दृश्या त्वया,
भाग्यायत्तमतः परं न खलु तद्वाच्यं वधूबन्धुभिः॥

शा० ४।१७॥

आपने हम संयमी तपस्वियों और अपने ऊंचे कुल के बारे में अच्छी प्रकार सोच समझकर और हमारे किसी बन्धुबान्धव के प्रयत्न के विना ही शकुन्तला को अपना प्रेम दिया है। इन सब बातों को सोचकर हमारा इतना ही निवेदन है कि आप अपनी रानियों के बीच शकुन्तला को भी अन्य रानियों जैसा आदर अवश्य दीजियेगा। यदि शकुन्तला को आप अधिक आदर प्रदान कर सके तो यह उसका सौभाग्य ही होगा। हम इस बारे में कुछ नहीं कह सकते।

७. शुश्रूषस्व गुरून् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने,
पत्युर्विप्रकृताऽपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः।
भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी,
यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः॥

शा० ४।१८॥

हे शकुन्तला! तुम ससुराल में घर के बड़े बूढ़ों की सेवा करना, अपनी सौतों के साथ सहेली जैसा व्यवहार करना। यदि पति कभी तुम्हारा निरादर भी करे तो भी तुम गुस्से में आकर झगड़ना नहीं। अपने नौकर चाकरों के साथ उदार और स्नेह भरा व्यवहार करना और अपने सौभाग्य पर इतराना नहीं। इस प्रकार का आचरण करके ही युवतियां अच्छी गृहिणी बन पाती हैं और जो इससे उल्टा आचरण करती हैं वे सारे परिवार को परेशानी में डाल देती है।

८. अभिजनवतो भर्तुः श्लाघ्ये स्थिता गृहिणीपदे,
विभवगुरुभिः कृत्यैस्तस्य प्रतिक्षणमाकुला।

तनयमचिरात् प्राचीवार्कं प्रसूय च पावनम्,
मम विरहजां न त्वं वत्से! शुचं गणयिष्यसि॥

शाकुन्तल ४।१९॥

बेटी! तुम ऊंचे कुल वाले पति की आदरणीया पत्नी बनकर उनके घर के तरह तरह के कार्यों में दिनभर व्यस्त रहोगी। कुछ ही समय बाद तब तुम पूर्वदिशा से उत्पन्न सूर्य की भांति पवित्र सन्तान को जन्म दोगी तब तुम मेरे से बिछुड़ने का दुःख भूल जाओगी।

९. भूत्वा चिराय चतुरन्तमहीसपत्नी,
दौष्यन्तिमप्रतिरथं तनयं निवेश्य।
भर्त्रा तदर्पितकुटुम्बभरेण सार्धम्,
शान्ते करिष्यसि पदं पुनराश्रमेऽस्मिन्॥

शा० ४।२०॥

तुम अनेक वर्षों तक चारों समुद्रों तक की पृथिवी की सौत बनकर और अपने पति दुष्यन्त के अद्वितीय पुत्र को राज्य तथा परिवार का भार सौंपकर अपने पति के साथ फिर इस आश्रम के शान्त वातावरण में आकर रहना।

१०. शममेष्यति मम शोकः कथं नु वत्से! त्वया रचितपूर्वम्।
उटजद्वारविरूढं नीवारबलिं विलोकयतः॥

शा० ४।२१॥

बेटी! तुम मेरी कुटिया के बाहर पशु पक्षियों के खाने के लिए जंगली चावल बिखेरती थीं। उनमें अंकुर फूटे हुए देखकर मेरा शोक कैसे कम होगा ? इन्हें देखकर मुझे तुम्हारी याद आती ही रहेगी।

११. अर्थो हि कन्या परकीय एव तामद्य सम्प्रेष्य परिग्रहीतुः।
जातो ममायं विशदः प्रकामं प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा॥

शा० ४।२२॥

कन्या तो पराया धन ही होती है। उसे आज पति के घर भेजकर मेरा मन उसी प्रकार निश्चिन्त हो गया है जैसे किसी की धरोहर लौटा कर मन हल्का हो जाता है।

१२. आखण्डलसमो भर्ता जयन्तप्रतिमः सुतः।
आशीरन्या न ते योग्या पौलोमी सदृशी भव॥

शा० ७।२८॥

बेटी! तुम्हारे पति इन्द्र के समान हैं और बेटा जयन्त जैसा है। अतः तुम्हें इसके सिवाय और क्या आशीर्वाद दूं कि तुम भी इन्द्राणी के समान होओ।

१३. दिष्ट्या शकुन्तला साध्वी सदपत्यमिदं भवान्।
श्रद्धा वित्तं विधिश्चेति त्रितयं तत्समागतम्॥

शा० ७।२९॥

सौभाग्यवश आज पतिव्रता शकुन्तला, यह श्रेष्ठ पुत्र और आप तीनों इसी प्रकार मिल गये हो मानो श्रद्धा, धन और कर्म एक साथ मिल गये हों।

भरत

१. अर्धपीतस्तनं मातुरामर्दक्लिष्टकेसरम्।
प्रक्रीडितुं सिंहशिशुं बलात्कारेण कर्षति॥ शा० ७।१४॥

मां का दूध पीते हुए शेर के बच्चे के साथ खेलने के लिए उसे जबर्दस्ती मां की गोद से खींच रहा है। बच्चे को खींचने के कारण उसकी गर्दन के बाल (केसर) इधर-उधर बिखर गये हैं।

२. महतस्तेजसो बीजं बालोऽयं प्रतिभाति मे।
स्फुलिङ्गावस्थया वह्निरेधापेक्ष इव स्थितः॥ शा० ७।१५॥

यह बालक किसी तेजस्वी पुरुष की सन्तान प्रतीत होती है। यह उस चिनगारी के समान दिखाई दे रहा है जो भड़क उठने के लिए ईंधन की प्रतीक्षा में रहती है।

३. प्रलोभ्यवस्तुप्रणयप्रसारितो विभाति जालग्रथिताङ्गुलिः करः।
अलक्ष्यपत्रान्तरमिद्धरागया नवोषसा भिन्नमिवैकपङ्कजम्॥

शा० ७।१६॥

खिलौना लेने के लोभ में फैलाये हुए इस बच्चे के हाथ की सुन्दर

अंगुलियां आपस में मिली हुई हैं। इसकी हथेली उषा काल में थोड़े खिले हुए कमल के फूल की पंखुड़ियों जैसी कोमल और लाल हैं।

४. आलक्ष्यदन्तमुकुलाननिमित्तहासैरव्यक्तवर्णरमणीयवचः प्रवृत्तीन्।
अङ्काश्रयप्रणयिनस्तनयान्वहन्तो धन्यास्तदङ्गरजसा मलिनी भवन्ति॥

शा० ७।१७॥

विना बात हंसने से थोड़े से दीखते हुए दांतों वाले और तोतली मीठी वाणी बोलने वाले बच्चे जिनकी गोद को अपने शरीर की धूल से मैला कर देते हैं वे लोग बहुत भाग्यवान् होते हैं।

५. अनेन कस्यापि कुलाङ्कुरेण स्पृष्टस्य गात्रेषु सुखं ममैवम्।
कां निर्वृत्तिं चेतसि तस्य कुर्याद्यस्यायमङ्कात्कृतिनः प्ररूढः॥

शा० ७।१९॥

न जाने यह बालक किस कुल का है, फिर भी इसे छूने से मुझे इतना सुख मिल रहा है तो उस भाग्यशाली को कितना सुख मिलता होगा जिस का यह पुत्र है।

६. रथेनानुद्घातस्तिमितगतिना तीर्णजलधिः,
पुरा सप्तद्वीपां जयति वसुधामप्रतिरथः।
इहायं सत्त्वानां प्रसभदमनात् सर्वदमनः,
पुनर्यास्यत्याख्यां भरत इति लोकस्य भरणात्॥

शा० ७।३३॥

यह बालक बेरोक टोक चलने वाले रथ से सागरों को पारकर सातों द्वीपों वाली पृथ्वी को जीत लेगा। इसके सामने कोई भी वीरपुरुष खड़ा नहीं हो पायेगा। इस आश्रम में सने सभी पशुओं को अपने वश में कर रखा था, इसलिए इसे सर्वदमन कहा जाता था किन्तु संसार का पालन-पोषण करने के कारण यह भरत कहलायेगा।

विक्रमोर्वशीय

उर्वशी

१. अस्याः सर्गविधौ प्रजापतिरभूच्चन्द्रो न कान्तिप्रदः,
शृङ्गारैकरसः स्वयं नु मदनो मासो नु पुष्पाकरः।
वेदाभ्यासजडः कथं नु विषयव्यावृत्तकौतूहलो,
निर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं रूपं पुराणो मुनिः॥

विक्रम० १।१०॥

उर्वशी को गढ़ने के लिए या तो सौन्दर्य प्रदान करने वाला चन्द्रमा प्रजापति बना होगा अथवा श्रृंगार रस के एक मात्र अधिपति कामदेव ने इसे बनाया होगा या वसन्त ऋतु ने। क्योंकि वेदों के पढ़ने से नीरस हृदय और विषय भोगों से दूर रहने वाले पुराणमुनि ब्रह्मा, उर्वशी जैसी अनिन्द्य सुन्दरी नहीं रच सकते।

२. आभरणस्याभरणं प्रसाधनविधेः प्रसाधनविशेषः।
उपमानस्यापि सखे प्रत्युपमानं वपुस्तस्याः॥

विक्रम० २।३॥

उस उर्वशी की देह तो आभूषणों की भी अलंकार है। उर्वशी तो शृंगार सामग्री की भी श्रृंगार है। जिस किसी भी वस्तु से उसके शरीर की तुलना की जा सकती है उस सुन्दर वस्तु की भी उपमा उर्वशी की रूपवती काया से दी जा सकती है।

३. सुरसुन्दरी जघनभरालसा पीनोत्तुङ्गघनस्तनी,
स्थिरयौवना तनुशरीरा हंसगतिः।
गगनोज्ज्वलकानने मृगलोचना भ्रमन्ती,
दृष्टा त्वया तर्हि विरहसमुद्रान्तरादुत्तारय माम्॥

विक्रम० ४।५९॥

देवलोक की सुन्दरी, जंघाओं के भार के कारण अलसायी चाल से चलने वाली सुपुष्ट ऊंचे और घने स्तनों वाली. सदा युवती बनी रहने

वाली पतली दुबली, हंस जैसी गति वाली, हरिणी जैसी आँखों वाली, उर्वशी को क्या तुमने आकाश जैसे स्वच्छ वन में घूमते कहीं देखा है, यदि हां तो तुम उसका पता बताकर मुझे शोकसागर से उबार दो।

पुरुरवा–विलाप

१. पद्भ्यां स्पृशेद् वसुमतीं यदि सा सुगात्री,
मेधाभिवृष्टसिकतासु वनस्थलीषु।
पश्चान्नता गुरुनितम्बतया ततोऽस्या,
दृश्येत चारुपदपङ्क्तिरलक्तकाङ्का॥ विक्रम० ४। १६॥

यदि वह सुन्दरी वर्षा से गीली वन की इस रेतीली भूमि पर चली होती तो महावर से रंगे उसके मनोहारी पैरों की छाप दिखाई देती। उर्वशी के नितम्ब भारी हैं अतः उसके पैरों के निशान पीछे एड़ी की ओर अधिक गहरे होते।

२. बर्हिण परमित्यभ्यर्थये आचक्ष्व मे तत्,
अत्र वने भ्रमता यदि त्वया दृष्टा सा मम कान्ता।
निशामय मृगाङ्कसदृशवदना हंसगतिरनेन,
चिह्नेन ज्ञास्यस्याख्यातं तव मया॥

विक्रम० ४।२०॥

ऐ मोर! मैं तुम से पूछता हूं क्या तुम ने इस वन में मेरी प्रेयसी को देखा है ? उसका मुखड़ा चन्द्रमा जैसा है और चाल हंस जैसी। इन लक्षणों से तुम उसे अवश्य पहिचान लोगे।

३. नीलकण्ठ ममोत्कण्ठा वनेऽस्मिन्वनिता त्वया।
दीर्घापाङ्गा सितापाङ्गदृष्टा दृष्टिक्षमा भवेत्॥

विक्रम० ४।२१।

सफेद नेत्र कोरों वाले मोर! क्या तुमने इस वन में मेरी प्रिया को कहीं देखा है ? उसकी आंखों की कोर बड़ी बड़ी है और वह दर्शनीय भी है।

४. परभृते! मधुरप्रलापिनि कान्ते नन्दनवने स्वच्छन्दं भ्रमन्ती।
यदि त्वया प्रियतमा सा मम दृष्टा तर्ह्याचक्ष्व मे परपुष्टे॥

विक्रम० ४।२४॥

अरी मधुरभाषिणी कोयल! तुम इस नन्दनवन में इधर उधर घूम रही हो यदि तुमने मेरी प्रियतमा को यहां कहीं देखा हो तो मुझे उसका पता बता दो।

५. त्वां कामिनो मदनदूतिमुदाहरन्ति,
मानावभङ्गनिपुणं त्वममोघमस्त्रम्।
तामानय प्रियतमां मम वा समीपम्,
मां वा नयाशु कलभाषिणी यत्र कान्ता॥ विक्रम० ४।२५॥

अरी सुरीली बोली वाली! कामी पुरुष तुम्हें कामदेव की दूती कहते हैं। तुम मानिनियों का मान भंग करने के लिए अव्यर्थ अस्त्र हो। तुम मेरी प्रियतमा को मेरे पास ले आओ अथवा मुझे ही उसके
पास जल्दी ही ले चलो।

६. पश्चात्सरः प्रतिगमिष्यसि मानसं तत्,
पाथेयमुत्सृज बिसं ग्रहणाय भूयः।
मां तावदुद्धर शुचो दयिताप्रवृत्त्या,
स्वार्थात्सतां गुरुतरा प्रणयिक्रियैव॥ विक्रम० ४।३१॥

ऐ हंस! तुम मानसरोवर बाद में जाना, तुमने रास्ते में खाने के लिए जो कमलनाल मुख में दबा ली है उसे भी फिर तोड़ लेना। पहले तुम मेरी प्रिया की खबर देकर मुझे इस शोक से उबारो क्योंकि सज्जन अपने प्रिय मित्रों की सहायता स्वार्थ से बढ़कर मानते हैं।

७. रे! रे! हंस! किं गोप्यते गत्यनुसारेण मया लक्ष्यते।
केन तव शिक्षिता एषा गतिर्लालसा सा त्वया दृष्टा जघनभरालसा॥

विक्रम० ४।३२॥

अरे हंस! तुम मुझ से क्या छिपा रहे हो ? मैं तुम्हारी चाल देख कर ही जान गया हूँ कि तुम्हें इस तरह सुन्दर चलना किसने सिखाया है ? तुमने नितम्ब भार से मन्द गति वाली मेरी प्रियतमा को

निश्चय ही देखा है।

८. यदि हंस गता न ते नतभ्रूः सरसो रोधसि दर्शनं प्रिया मे।
मदखेलपदं कथं नु तस्याः सकलं चोरगतं त्वया गृहीतम्॥

विक्रम० ४।३३।

ऐ हंस! यदि तूने सरोवर के तट पर मेरी बांकी चितवन वाली प्रियतमा को नहीं देखा तो अरे चोर तूने उसकी मदमाती चाल कैसे सीख ली ?

९. रथाङ्गनामन् वियुतो रथाङ्गश्रोणिबिम्बया।
अयं त्वां पृच्छति रथी मनोरथशतैर्वृतः॥

विक्रम० ४।३७॥

ओ चकवे! रथ के पहिये जैसे बड़े नितम्बों वाली प्रियतमा से बिछुड़ा हुआ और मन में सैकड़ों मनोरथ संजोये हुए मैं महारथी तुम से ही पूछ रहा हूं।

१०. मधुकर! मदिराक्ष्याः शंस तस्याः प्रवृत्तिम्,
वरतनुरथवासौ नैव दृष्टा त्वया मे।
यदि सुरभिमवाप्स्यस्तन्मुखोच्छवासगन्धम्
तव रतिरभविष्यत्पुण्डरीके किमस्मिन्॥ विक्रम० ४।४२॥

हे भ्रमर। नशीले नयनों वाली मेरी प्रिया का पता बताओ। सम्भव है तुमने उसे देखा ही न हो। यदि तुमने मेरी प्रिया के मुख के श्वास की सुगन्ध पी होती तो तुम इस कमल पर नहीं मंडराते।

११. अहं पृच्छामि आचक्ष्व गजवर! ललितप्रहारेण नाशिततरुवर।
दूरविनिर्जितशशधरकान्तिर्दृष्टा प्रिया त्वया सम्मुखं यान्ती॥

विक्रम० ४।४५॥

हल्के से प्रहार से वृक्ष को उखाड़ने वाले गजराज! मैं तुमसे पूछ रहा हूं कि क्या तुमने मेरी प्रिया को अपने सामने से जाते हुए देखा है? मेरी प्रियतमा की सुन्दरता के आगे चन्द्रमा की चांदनी फीकी पड़ जाती है।

१२. मदकलयुवतिशशिकला गजयूथप! यूथिकाशबलकेशी।
स्थिरयौवना स्थिता ते दूरालोके सुखालोका॥

विक्रम० ४।४६॥

हे गजपति! क्या तुमने दूर दूर तक मेरी प्रियतमा को कहीं देखा है? उसे देखकर सुख मिलता है, उसका यौवन सदा बना रहता है, वह युवतियों की चन्द्रकला है और उसके केशपाश में जूही के फूल गुंथे हैं।

१३. अपि वनान्तरमल्पकुचान्तरा श्रयति पर्वतपर्वसु सन्नता।
इदमनङ्गपरिग्रहमङ्गना पृथुनितम्ब नितम्बवती तव॥

विक्रम० ४।४९।

अनेक पर्वत श्रेणियों वाले हे पर्वत! तुमने अपने कामदेव जैसे सुन्दर वन में मेरी प्रिया को देखा है? उसके दोनों स्तनों के बीच थोड़ा ही अन्तर है, वह नितम्बों के भार से कुछ झुकी है, उसके नितम्ब भारी हैं।

१४. स्फटिकशिलातलनिर्मलनिर्झर! बहुविधकुसुमैर्विरचितशेखर।
किन्नरमधुरोद्गीतमनोहर दर्शय मम प्रियतमां महीधर॥

विक्रम० ४।५०॥

स्फटिक की शिलाओं पर बहने वाले स्वच्छ जल के झरनों वाले, नाना प्रकार के फूलों से अपना मुकुट बनाने वाले, किन्नरों के मधुर गीतों से मनोहर पर्वत मुझे मेरी प्रियतमा को दिखा दो।

१५. सुरसुन्दरी जघनभरालसा पीनोत्तुङ्गघनस्तनी,
स्थिरयौवना तनुशरीरा हंसगतिः।
गगनोज्ज्वलकानने मृगलोचना भ्रमन्ती दृष्टा त्वया,
तर्हि विरहसमुद्रान्तरादुत्तारय माम्॥

विक्रम० ४।५९॥

भारी नितम्बों के कारण अलसायी गति वाली, उभरे सुपुष्ट और घने स्तनों वाली, सदा युवती बनी रहने वाली दुबली-पतली, हंस जैसी चाल वाली, हरिणी जैसी आँखों वाली, अप्सरा को यदि तुमने इस आकाश जैसे स्वच्छ वन में देखा हो तो मुझे उसका पता बताकर विरह सागर से उबार लो।

१६. समर्थये यत्प्रथमं प्रियां प्रति क्षणेन तन्मे परिवर्ततेऽन्यथा।
अतो विनिद्रे सहसाविलोचने करोमि न स्पर्शविभावितप्रियः॥

विक्रम० ४।७०॥

पहले जिस वस्तु को मैं अपनी प्रियतमा समझ बैठता हूँ वह अगले ही क्षण बदल जाती है। इस लता को छूने से मुझे प्रिया से मिलने जैसा सुख मिल रहा है इसलिए अब मैं अचानक अपनी आंखें नहीं खोलूंगा।

१७. मयूरः परभृता हंसो रथाङ्गः अलिर्गजः पर्वतः सरित्कुरङ्गमः।
तव कारणेनारण्ये भ्रमता को न खलु पृष्टो मया रुदता॥

विक्रम० ४।७२॥

तुम्हारे विरह में रोते रोते जंगल में भटकते हुए मैंने मोर, कोयल, हंस, चकवे, भौर, हाथी, पर्वत, नदी, और हरिणी इन सब से तुम्हारा पता पूछा।

मालविकाग्निमित्रम्

मालविका

१. दीर्घाक्षं शरदिन्दुकान्तिवदनं बाहू नतावंसयोः,
सङ्क्षिप्तं निबिडोन्नतस्तनमुरः पार्श्वे प्रमृष्टे इव।
मध्यः पाणिमितो नितम्बि जघनं पादावरालाङगुली-
छन्दो नर्तयितुर्यथैव मनसि श्लिष्टं तथास्या वपुः॥

मालविका० २।३॥

मालविका के सुन्दर मुख पर बड़ी-बड़ी आँखें हैं, शरत् काल के निर्मल चन्द्रमा की भांति उसका मुख कान्तिमान् है। कन्धों पर कुछ झुकी भुजलताएं हैं, ऊंचे और कठोर स्तनों से युक्त वक्षस्थल है, बगलों से नीचे का भाग सुगठित है, कमर हाथ की मुट्ठी में ही समा सकती है, नितम्ब और जांघें मांसल हैं, पैरों की अंगुलियां थोड़ी झुकी हुई हैं। इसे देख लगता है कि नृत्यगुरु के निर्देशानुसार इसका शरीर गढ़ा गया है।

२. अव्याजसुन्दरीं तां विधानेन ललितेन योजयता।
परिकल्पितो विधात्रा बाणः कामस्य विषदिग्धः॥

मालविका० २।१३॥

इस अनिन्द्य सुन्दरी मालविका को विधाता ने ललितकलाएं सिखाकर इसे कामदेव का विष में बुझा बाण ही बना दिया है।

३. विपुलं नितम्बदेशे मध्ये क्षामं समुन्नतं कुचयोः।
अत्यायतंनयनयोर्ममजीवितमेतदायाति॥

मालविका० ३।७॥

मालविका के नितम्ब भारी हैं, इसकी कमर पतली है और स्तन उभरे हुए हैं और आँखें विशाल हैं। यह तो मेरा जीवन ही साक्षात् चला आ रहा है।

४. शरकाण्डपाण्डुगण्डस्थलेयमाभाति परिमिताभरणा।
माधवपरिणतपत्रा कतिपयकुसुमेव कुन्दलता॥

मालविका० ३।८॥

मालविका के गाल सरकण्डे के समान हल्के पीले हैं. इसका शरीर थोड़े से आभूषणों से भी सुन्दर दीख रहा है। मानो यह वसन्त ऋतु में कम पत्तों और फूलों वाली कुन्द लता है।

**विविध **

अग्नि

१. हवींषि मन्त्रपूतानि हुताश! त्वयि जुह्वतः।
तपस्विनस्तपः सिद्धिं यान्ति त्वं तपसां प्रभुः॥

कुमार० १०।१९॥

हे अग्नि! तपस्या करने वाले अग्निहोत्र में मन्त्रों से पवित्र आहुतियां तुम्हें अर्पित करके अपनी तपस्या का फल पा जाते हैं। अतः तुम तपस्या के एकमात्र देवता हो।

२. निधत्से हुतमर्काय स पर्जन्योऽभिवर्षति।
ततोऽन्नानि प्रजास्तेभ्यस्तेनासि जगतः पिता॥

कुमार० १०। २०॥

हे अग्नि! सूर्य के लिए अर्पित आहुति को तुम सूर्य तक पहुंचा देते हो। सूर्य इस आहुति को बादल बनाकर पृथिवी पर वर्षा कर देते हैं। इस वर्षाजल से अन्न पैदा होता है और प्राणी जीवित रहते हैं अतः तुम सारे संसार के पिता हो।

३. अन्तश्चरोऽसि भूतानां तानि त्वत्तो भवन्ति च।
ततो जीवितभूतस्त्वं जगतः प्राणदोऽसि च॥

कुमार० १०।२१॥

हे अग्नि! तुम सभी प्राणियों के शरीरों में रहते हो और तुम्हीं से सारे प्राणी उत्पन्न होते हैं, इसलिए तुम्हीं सम्पूर्ण संसार के जीवन और प्राणदाता हो।

४. जगतः सकलस्यास्य त्वमेकोऽस्युपकारकृत्।
कार्योपपादने तत्र त्वत्तोऽन्यः कः प्रगल्भते॥

कुमार० १०।२२॥

हे अग्नि! तुम सम्पूर्ण संसार का अकेले ही उपकार करते हो कोई भी काम करने में तुम से अधिक समर्थ कौन हो सकता है ?

५. अमीषां सुरसङ्घानां त्वमेकोऽर्थसमर्थने।
विपत्तिरपि संश्लाघ्योपकारव्रतिनोऽनल॥ कुमार० १०।२३

हे अग्नि देव! इन देवताओं का काम तुम्हीं कर सकते हो। इसलिए दूसरों का उपकार करने वालों को जो कष्ट उठाने पड़ते हैं वे भी उनका गौरव बढ़ाते हैं।

अध्यापक

१. श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था सङ्क्रान्तिरन्यस्य विशेषयुक्ता।
यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां धुरि प्रतिष्ठापयितव्य एव॥

मालविका० १।१६१॥

कुछ शिक्षक अपने ज्ञान को अपने तक ही सीमित रखते हैं किन्तु कुछ अध्यापक अपना ज्ञान और कला आदि दूसरों को भी भली भांति सिखा देते हैं। किन्तु आदर्श शिक्षक वही माना जाता है जो ज्ञानवान्होने के साथ ही अपना ज्ञान शिष्यों को भी दे सके।

**२. यदा पुनर्मन्दमेधा शिष्या उपदेशं
मलिनयन्ति तदाऽऽचार्यस्य न दोषः॥ **

मालविका० १।१६-१७॥

यदि मूर्ख शिष्य अपने गुरु की शिक्षा को ठीक न समझे तो इसमें आचार्य का दोष नहीं।

३. विनेतुरद्रव्यपरिग्रहोऽपि बुद्धिलाघवं प्रकाशयति॥

मालविका० १।१६-१७॥

यदि अध्यापक मूर्ख शिष्य को चुनता है तो यह शिक्षक की मूर्खता ही मानी जायेगी।

४. लब्धास्पदोऽस्मीति विवाद भीरोस्तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम्।
यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति॥

मालविका० १।१७॥

जो शिक्षक नियुक्ति पाकर शास्त्रार्थ आदि से डरते हैं और अपने बारे में निन्दा सहन कर लेते हैं। वे अपना पेट पालने के लिए ही पढ़ाते हैं ऐसे लोग विद्वान् नहीं माने जाते। अपितु अपना ज्ञान बेचने वाले बनिये कहलाते हैं।

५. सुशिक्षितोऽपि सर्व उपदेशदर्शनेन निष्णातो भवति॥

मालविका० १।१८-१९॥

सुशिक्षित व्यक्ति भी अपना सम्पूर्ण पाण्डित्य प्रदर्शित करने पर ही विद्वान् माने जाते हैं।

६. प्रभवत्याचार्यः शिष्यजनस्य॥ मालविका० १।१९-२०॥

शिष्यों पर आचार्य का अधिकार होता है।

७. प्रायः समानविद्याः परस्परयशः पुरोभागाः॥

मालविका० १।२०॥

जो लोग ज्ञान में एक समान होते हैं वे प्रायः दूसरे की उन्नति नहीं सहन कर पाते।

८. उपदेशं विदुः शुद्धं सन्तस्तमुपदेशिनः।
श्यामायते न युष्मासु यः काञ्चनमिवाग्निषु॥

मालविका० २।९॥

जैसे आग में तपाने से सोना काला नहीं पड़ता उसी प्रकार जिस अध्यापक की शिक्षा में कोई कमी न रहे उसी ज्ञान को सज्जन सच्ची शिक्षा मानते हैं।

आदर्श पुरुष

१. व्यूढोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुर्महाभुजः॥ रघु० १।१३॥

महाराजा दिलीप की छाती बहुत चौड़ी थी, उनके कन्धे साण्ड के कन्धों जैसे ऊंचे थे, उनकी भुजाएं लम्बी थीं और उनका डील-डौल साल के पेड़ जैसा था।

**२. आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः।
आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसदृशोदयः॥ **

रघु० १।१५॥

महाराजा दिलीप अपने आकर्षक व्यक्तित्व की भांति ही बुद्धिमान्थे। उन्होंने अपनी प्रखर बुद्धि से ज्ञान प्राप्त किया था और इस गहन ज्ञान से वे कोई काम हाथ में लेते थे और शास्त्रों के अनुकूल आचरण करने के कारण अपने कार्यों में सफल होते थे।

३. युवा युगव्यायतबाहुरंसलः कपाटवक्षाः परिणद्धकन्धरः।
वपुः प्रकर्षादजयद् गुरुं रघुस्तथापि नीचैर्विनयाददृश्यत॥

रघु० ३।३४॥

युवावस्था के कारण रघु की भुजाएं बैलगाड़ी के जुए की तरह लम्बी और बलिष्ठ हो गईं। उनकी छाती दरवाजे जैसी चौड़ी हो गई और कन्धे विशाल हो गये। शरीर का डील-डौल बढ़ जाने से रघु अपने

पिता से भी अधिक शक्तिशाली दीखने लगा फिर भी वह सदैव विनयशील और नम्र बना रहा।

४. पथः श्रुतेर्दर्शयितार ईश्वरा मलीमसामाददते न पद्धतिम्॥

रघु० ३।४६॥

वेदों का मार्ग दिखाने वाले महापुरुषों को ओछा काम शोभा नहीं देता।

५. अवन्तिनाथोऽयमुदग्रबाहुर्विशालवक्षास्तनुवृत्तमध्यः
आरोप्य चक्रभ्रममुष्णतेजास्त्वष्ट्रेव यत्नोल्लिखितो विभाति॥

रघु० ६।३२॥

ये अवन्ति देश के राजा हैं। इनकी भुजाएं लम्बी हैं, वक्षस्थल चौड़ा है तथा कमर पतली और गोल है। ये तेजस्वी भी हैं। विश्वकर्मा ने अपनी खराद पर रखकर इनका शरीर बहुत सावधानी से बनाया है।

६. प्रसन्नमुखरागं तं स्मितपूर्वाभिभाषिणम्।
मूर्तिमन्तममन्यन्त विश्वासमनुजीविनः॥ रघु० १७।३१

राजा अतिथि के मुख पर सदा प्रसन्नता विराजमान रहती थी। वे मुस्कुरा कर बोलते थे। उनके सेवक उन्हें विश्वास की साकार प्रतिमा ही मानते थे।

आशीर्वाद

९. ययातेरिव शर्मिष्ठा भर्तुर्बहुमता भव।
सुतं त्वमपि सम्राजं सेव पुरुमवाप्नुहि॥

शाकुन्तल ४।७॥

जिस प्रकार शर्मिष्ठा ययाति की समादरणीया रानी थी उसी प्रकार तुम भी दुष्यन्त की पटरानी बनो और शर्मिष्ठा के चक्रवर्ती पुत्र पुरु की भांति तुम भी सुपुत्र प्राप्त करो।

२. अमीं वेदिं परितः क्लृप्तधिष्ण्याः समिद्वन्तः प्रान्तसंस्तीर्णदर्भाः।
अपघ्नन्तो दुरितं हव्यगन्धैर्वैतानास्त्वां वह्नयः पावयन्तु॥

शाकुन्तल ४।८॥

यज्ञ की इस पवित्र भूमि के चारों ओर पड़ी हुई प्रज्वलित समिधाएँ और चारों ओर बिखरी हुई कुशाएं सब प्रकार के पाप नष्ट कर दें। यज्ञाग्नियां तुम्हें पवित्र करें।

३. रम्यान्तरः कमलिनीहरितैः सरोभि-
श्छायाद्रुमैर्नियमितार्कमयूखतापः
भूयात्कुशेशयरजो मृदुरेणुरस्याः,
शान्तानुकूलपवनश्च शिवश्च पन्थाः॥

शाकुन्तल ४। ११॥

शकुन्तला का मार्ग कमलिनियों से भरे हुए तालाबों वाला हो। थोड़ी थोड़ी दूर पर लगे पेड़ों की छाया से इसे धूप न सताये, धूल में कमल के पराग जैसी मृदुलता हो, शान्त और अच्छी लगने वाली वायु चलती रहे और तुम्हारी यात्रा मंगलमय हो।

कामदेव

१. अथ स ललितयोषिद्भ्रूलताचारुशृङ्गं,
रतिवलयपदाङ्के चापमासज्य कण्ठे।
सहचरमधुहस्तन्यस्तचूताङ्कुरास्त्रः,
शतमखमुपतस्थे प्राञ्जलिः पुष्पधन्वा॥ कु० २।६४॥

रति के कंगन की छाप से अंकित सुन्दर स्त्री की भौहों जैसा सुन्दर धनुष गले में लटका कर अपने साथी वसन्त के हाथ में आम की मंजरी से बना बाण देकर कामदेव हाथ जोड़कर इन्द्र के सम्मुख आ गया।

२. तव प्रसादात् कुसुमायुधोऽपि सहायमेकं मधुमेव लब्ध्वा।
कुर्यां हरस्यापि पिनाकपाणेर्धैर्यच्युतिं के मम धन्विनोऽन्ये॥

कुमार० ३।१०॥

आप की कृपा से मैं केवल वसन्त को साथ लेकर अपने फूलों के बाणों से पिनाक जैसा शक्तिशाली धनुष धारण करने वाले शिव जी का मन चंचल कर सकता हूँ। फिर दूसरे धनुर्धारियों की मेरे सामने क्या गिनती है ?

३. त्वदधीनं खलु देहिनां सुखम्॥ कुमार० ४।१०।

हे कामदेव! तुम्हीं सम्पूर्ण प्राणियों को सुख देते हो।

४. तव कुसुमशरत्वं शीतरश्मित्वमिन्दो-
र्द्वयमिदमयथार्थं दृश्यते मद्विधेषु।
विसृजति हिमगर्भैरग्निमिन्दुर्मयूखै-
स्त्वमपि कुसुमबाणान्वज्रसारी करोषि॥ शा० ३।३॥

अरे कामदेव! तुम्हारे पास फूलों का बाण है और चन्द्रमा की किरणें शीतल हैं, किन्तु मेरे लिए ये दोनों ही बातें झूठी हैं क्योंकि मुझे चन्द्रमा की किरणों से आग और तुम्हारे बाण से वज्र बरसते हुए दीख रहे हैं।

५. चारुणा स्फुरितेनायमपरिक्षतकोमलः।
पिपासतो ममानुज्ञां ददातीव प्रियाधरः॥

शाकुन्तल ३।३६॥

मेरी प्रेयसी का कोमल और अभी तक किसी के द्वारा स्पर्श नहीं किया गया सुन्दर अधर फड़क कर मुझ प्यासे को अपनी प्यास बुझाने की अनुमति देता सा दिखाई दे रहा है।

६. इदमप्युपकृतिपक्षे सुरभि मुखं ते यदाघ्रातम्।
ननु कमलस्य मधुकरः सन्तुष्यति गन्धमात्रेण॥

शा० ३।३७॥

मुझे तुम्हारे मुख की सुगन्ध मिल गई यह भी तुम्हारा उपकार ही है। क्योंकि भ्रमर कमल की सुगन्ध पाकर भी सन्तुष्ट हो जाता है।

कामवासना

१. अत्यारूढो हि नारीणामकालज्ञो मनोभवः॥

रघुवंश १२।३३॥

अत्यन्त कामासक्त हो जाने पर स्त्रियों को उचित-अनुचित आचरण का ध्यान नहीं रहता।

२. मामक्षमं मण्डनकालहानेर्वेत्तीव बिम्बाधरबद्धतृष्णम्॥

रघुवंश १३।१६॥

मैं तुम्हारे अधरपान का प्यासा हूँ अतः तुम्हारे श्रृंगार पूरा कर लेने की प्रतीक्षा नहीं करूँगा।

३. विघ्नितसमागमसुखो मनसिशयः शतगुणी भवति ॥

विक्रम० ३।८ ॥

समागम सुख में बाधा पड़ने पर कामजनित पीड़ा सौगुनी बढ़ जाती है।

४. अन्यसङ्क्रान्तप्रेमाणो नागरिका भार्यामधिकं दक्षिणा भवन्ति ॥

विक्रम० ३।१३-१४॥

दूसरी स्त्री से प्रेम करने वाले पुरुष अपनी पत्नी का पहले से भी अधिक आदर करने लगते हैं।

५. अङ्गमनङ्गक्लिष्टं सुखयेदन्या न मे करस्पर्शात्।
नोच्छ्वसिति तपनकिरणैश्चन्द्रस्यैवांशुभिः कुमुदम् ॥

विक्रम० ३।१६।

कोई दूसरी स्त्री अपने हाथ के स्पर्श से कामवासना से पीड़ित मेरे शरीर को सुखी नहीं कर सकती जैसे चन्द्रमा की किरणों से खिलनेवाली कमलिनी सूर्य की किरणों से नहीं खिलती।

६. पादास्त एव शशिनः सुखयन्ति गात्रम्,
बाणास्त एव मदनस्य मनोनुकूलः।
संरम्भरूक्षमिव सुन्दरि! यद्यदासीत्,
त्वत्सङ्गमेन मम तत्तदिवानुनीतम् ॥

विक्रम० ३।२०॥

आज चन्द्रमा की वही किरणें मेरे शरीर को सुखी कर रही हैं, कामदेव के वही बाण मुझे अच्छे लग रहे हैं। सुन्दरि! कामपीड़ा से उत्पन्न क्षोभ के कारण जो वस्तुएं मुझे कष्ट दे रही थीं वही पदार्थ आज तुम्हारे मिलने से मुझे अच्छे लग रहे हैं।

७. दुरारूढः खलु प्रणयाऽसहनः ॥

विक्रम० ४।२-३॥

बहुत अधिक बढ़ा हुआ प्रेम किसी का दखल सहन नहीं कर पाता।

८. क्व रुजा हृदयप्रमाथिनी क्व च ते विश्वसनीयमायुधम्।
मृदु तीक्ष्णतरं यदुच्यते तदिदं मन्मथ दृश्यते त्वयि ॥

मालविका० ३।२॥

हे कामदेव! कहां तो हृदय को व्यथित कर देने वाली तुम्हारी कामवेदना और कहां तुम्हारे फूलों के विश्वस्त बाण? अतएव ठीक ही कहा है कि जो जितने कोमल दिखाई पड़ते हैं वे अन्दर से उतने ही कठोर होते हैं।

९. कामार्त्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥

पूर्वमेघ ५ ॥

कामवासना से परेशान लोगों को यह सुधि नहीं रहती कि कौन जड़ है और कौन चेतन।

१०. स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ॥ पूर्वमेघ ३० ॥

स्त्रियां सब से पहले हाव-भाव से ही प्रिय केप्रति प्रेम प्रकट करती हैं।

११. ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः ॥ पूर्वमेघ ४५॥

सम्भोग का आनन्द अनुभव कर लेने वाला कौन व्यक्ति स्त्री की खुली जांघ देखकर उनका उपयोग किये बिना कैसे रह सकता है।

१२. स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते
त्वभोगादिष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ॥

उ० मे० ५५॥

कहते हैं कि प्रेम विरह में नष्ट हो जाता है किन्तु कोई मनचाही वस्तु न मिलने पर उस वस्तु के प्रति आकर्षण और प्रेम बहुत बढ़ जाता है।

१३. सर्वं तत्किल मत्परायणमहो कामी स्वतां पश्यति ॥

शाकुन्तल २।२॥

प्रेयसी की यह सारी चेष्टाएं मेरे लिए ही हैं कामी पुरुष को सभी बातों में अपनी ही बात दिखाई देती है।

गंगा

१. शम्भोरम्भोमयी मूर्तिः ॥कुमार० १०। २६ ॥

गंगा जी, जल के रूप में शिव जी का ही रूप हैं।

२. सा निःशेषक्लेशनाशिनी ॥कुमार० १०।२८॥

गंगा जी सभी प्रकार के दुःख दूर करती हैं।

३. स्वर्गरोहणनिःश्रेणिर्मोक्षमार्गाधिदेवता।
उदारदुरितोद्गारहारिणी दुर्गतारिणी॥ कुमार० १०।२९॥

गंगा जी, स्वर्ग जाने की सीढ़ी हैं, वे मोक्ष का मार्ग दिखाती हैं। बड़े से बड़ा पाप भी दूर कर देती हैं और सभी संकटों से रक्षा करती हैं।

४. महेश्वरजटाजूटवासिनी पापनाशिनी।
सगरान्वयनिर्वाणकारिणी धर्मधारिणी ॥ कुमार० १०।३०॥

गंगा जी शिव जी की जटाओं में निवास करती हैं। वे पाप नष्ट कर देती हैं। उन्होंने सगर के पुत्रों को सद्गति प्रदान की, वे धर्म की रक्षा करती हैं।

५. विष्णुपादोदकोद्भूता ब्रह्मलोकादुपागता।
त्रिभिः स्त्रोतोभिरश्रान्तं पुनाना भुवनत्रयम् ॥

कुमार० १०।३१ ॥

गंगा जी विष्णु के चरणों से जल के रूप में प्रकट हुईं हैं और ब्रह्मलोक से पृथिवी पर आई हैं। वे अपनी तीन धाराओं से तीनों लोकों को निरन्तर पवित्र करती रहती हैं।

६. गंगावारिणि कल्याणकारिणि श्रमहारिणि।
स मग्नो निवृत्तिं प्राप पुण्यभारिणी तारिणि ॥

कुमार० १०।३६ ॥

गंगा जी,सभी का कल्याण करती हैं वे सभी को संसारसागर से पार कराती हैं, पुण्यों से परिपूर्ण हैं और सभी की थकान तथा क्लेश दूर करती हैं। गंगा जी के इन गुणों से युक्त जल में डुबकी लगाकर

अग्नि को बहुत आनन्द प्राप्त हुआ।

७. ब्रह्मध्यानपरैर्योगपरैर्ब्रह्मासनस्थितैः
योगनिद्रागतैर्योगपट्टबन्धैरुपाश्रिताम् ॥

कुमार० १०।४६ ॥

गंगा जी के तट पर ईश्वर का ध्यान लगाते हुए ब्रह्मासन में बैठे (पद्मासन) योगी विराजमान रहते हैं। ये योगीजन कमर से घुटनों तक का वस्त्र (योगपट्ट) पहिन कर भावसमाधि लगाकर योगनिद्रा में ध्यान मग्न रहते हैं।

८. पादाङ्गुष्ठाग्रभूमिस्थैः सूर्यसम्बद्धदृष्टिभिः।
ब्रह्मर्षिभिः परं ब्रह्म गृणद्धिरुपसेविताम् ॥

कुमार० १०।४७॥

गंगा जी के तट पर परब्रह्म परमेश्वर की स्तुति में लीन ब्रह्मर्षि विराजमान रहते हैं। ब्रह्मर्षि अपने पैरों के अंगूठे के सहारे पृथ्वी पर खड़े रहकर सूर्य की ओर निरन्तर देखते हुए त्राटक करते हैं।

९.अथ दिव्यां नदीं देवीमभ्यनन्दन्विलोक्य ताः।
कं नाभिनन्दयत्येषा दृष्टा पीयूषवाहिनी ॥

कुमार० १०।४८ ॥

इस दिव्य गंगा नदी को देखकर छहों कृत्तिकाओं ने प्रणाम किया। अमृतमयजल से परिपूर्ण गंगा जी को देखकर किस का मन प्रसन्न नहीं होता।

१०. चन्द्रचूडामणिर्देवो यामुद्ववहति मूर्धनि।
यस्या विलोकनं पुण्यं श्रद्दधुस्ता मुदा हृदि ॥

कुमार० १०।४९ ॥

जिन पवित्र गंगा जी को शंकर अपने मस्तक पर धारण किये रहते हैं और जिस पुण्यतोया नदी के दर्शन से भी पुण्य मिलता है उसे देख उनके मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई।

गृहस्थ-आश्रम

९. कालो ह्ययं सङ्क्रमितुं द्वितीयं सर्वोपकारक्षममाश्रमं ते ॥

रघु० ५।१०॥

अब आपकी इतनी आयु हो गई है कि आप सब का उपकार करने वाले गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें।

२. अशोच्या हि पितुः कन्या सद्धर्तृप्रतिपादिता ॥

कुमार० ६।७९॥

अच्छे वर से कन्या का विवाह कर पिता निश्चिन्त हो जाता है।

३. प्रायेण गृहिणीनेत्राः कन्यार्थेषु कुटुम्बिनः ॥ कुमार० ६।८५

कन्या के विवाह सम्बन्ध के बारे में गृहस्थी प्रायः अपनी पत्नी की सलाह पर चलते हैं।

४. स्त्रीणां प्रियालोकफलो हि वेशः ॥

कुमार० ७।२२॥

स्त्रियों का शृंगार तभी सफल होता है जब प्रियतम उसे देखकर सराहना करे।

५. भर्तृवल्लभतया हि मानसीं मातुरस्यति शुचं वधूजनः ॥

कुमार० ८।१२॥

बेटी को पति का प्रेम मिलता हुआ देख माता को बहुत शान्ति मिलती है।

६. सतीमपि ज्ञातिकुलैकसंश्रयां जनोऽन्यथा भर्तुमतीं विशङ्कते।
अतः समीपे परिणेतुरिष्यते प्रियाप्रिया वा प्रमदा स्वबन्धुभिः ॥

शा० ५।१७॥

अपने पिता के घर में रहने वाली पतिव्रता विवाहिता स्त्री के बारे में लोग तरह तरह की बातें करने लगते हैं। इसलिए बन्धु बान्धवों को अच्छी लगने वाली या अच्छी न लगने वाली विवाहिता स्त्री को उसके पति के घर भेज देना चाहिए।

जितेन्द्रिय

१. अमुं सहासप्रहितेक्षणानि व्याजार्धसन्दर्शितमेखलानि।
नालं विकर्तुं जनितेन्द्रशङ्कं सुराङ्गना विभ्रमचेष्टितानि ॥

रघु० १३।४२॥

इन चरित्रवान् सुतीक्ष्ण ऋषि को अप्सराओं की मुस्कान भरी चितवनें, किसी न किसी बहाने अपनी तगड़ियां दिखाने और उनके उत्तेजक हाव-भाव भी अपने संयम से नहीं डिगा सके।

२. पित्रा विसृष्टां मदपेक्षया यः श्रियं युवाऽप्यङ्कगतामभोक्ता।
इयन्ति वर्षाणि तया सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् ॥

रघु० १३।६७॥

मेरे युवा भाई भरत ने पिता से छोड़े हुए राज्य का इतने वर्षों तक भोग न करके और मेरी प्रतीक्षा करते हुए वैसा ही कठिन असिधारा व्रत निभाया है जैसे कोई युवक अपनी गोद में बैठी हुई युवती का सम्भोग न कर तलवार की धार पर चलता है।

३. आत्मेश्वराणां न हि जातु विघ्नाः समाधिभेदप्रभवो भवन्ति ॥

कुमार० ३।४० ॥

अपना मन वश में रखने वालों की समाधि विघ्नों से भंग नहीं की जा सकती।

४. भवन्ति साम्येऽपि निविष्टचेतसां वपुर्विशेषेष्वतिगौरवाः क्रियाः ॥

कुमार० ५।३९।

अपना मन वश में रखने वाले ही समान तेजस्वी पुरुषों के प्रति बहुत आदर प्रकट करते हैं।

५. वशिनां हि परपरिग्रहसंश्लेषपराङ्मुखी वृत्तिः ॥

शाकुन्तल ५।२८ ॥

जितेन्द्रिय व्यक्ति पराई स्त्री के सम्पर्क से सदा बचते हैं।

तपोवन

१. वनान्तरादुपावृत्तैः समित्कुशफलाहरैः।
पूर्यमाणमदृश्याग्निप्रत्युद्यातैस्तपस्विभिः ॥ रघु० १।४९

सन्ध्या समय की अदृश्य अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए हाथ में समिधाएं, कुशाएं और फल लेकर अनेक तपस्वी वन से आश्रम लौट रहे थे।

२.आकीर्णमृषिपत्नीनामुटजद्वाररोधिभिः।
अपत्यैरिव नीवारभागधेयोचितैर्मुगैः ॥

रघु० १।५०॥

अनेक हरिण आश्रम की पर्ण-कुटियों के दरवाजे पर खड़े थे। ऋषि पत्नियां इन्हें अपनी सन्तान की तरह पालती थीं और जंगली चावल खिलाती थीं।

३. सेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोज्झितवृक्षकम्।
विश्वासाय विहङ्गानामालवालाम्बुपायिनाम् ॥

रघु० १।५१॥

पौदों में पानी देकर मुनि कन्याएं वहां से जल्दी ही हट जाती थीं, ताकि पक्षी डरे बिना वृक्षों के थांवलों में जमा पानी पीने के लिए आ सकें।

४. आतपात्ययसङ्क्षिप्तनीवारासु निषादिभिः।
मृगैर्वर्तितरोमन्थम् उटजाङ्गनभूमिषु ॥ रघु० १।५२॥

कुटियों के आंगनों में सुखाने के लिए फैलाये हुए जंगली चावल धूप ढल जाने पर समेट लिये गये थे। और आश्रम के हरिण बैठे हुए जुगाली कर रहे थे।

५. अभ्युत्थिताग्निपिशुनैरतिथीनामाश्रमोन्मुखान्।
पुनानं पवनोद्धूतैर्धूमैर् आहुतिगन्धिभिः ॥

रघु० १।५३ ॥

हवन सामग्री की आहुतियों से सुगन्धित अग्निहोत्र का धुआं आश्रम के वायुमण्डल में फैल गया था। सुगन्धित धुएं की गन्ध आश्रम आने

वाले अतिथियों को तपोवन का पता बता रही थी। अतिथि इस धुएं से पवित्र हो रहे थे।

६. सा दष्टनीवारबलीनि हिंस्त्रैः सम्बद्धवैखानसकन्यकानि।
इयेष भूयः कुशवन्ति गन्तुं भागीरथीतीरतपोवनानि ॥

रघु० १४।२८॥

सीता जी ने गंगा जी के तट पर बने उन तपोवनों में फिर जाना चाहा, जहाँ हिंसक पशु मांस न खाकर जंगली चावल खाते हैं। सीता जी की सखियां तपस्वियों की कन्याएं रहती हैं और जहाँ चारों ओर कुशा (कांस) की झाड़ियां हैं।

७. तपस्विसंसर्गविनीतसत्त्वे तपोवने वीतभया वसास्मिन् ॥

रघु० १४।७५॥

हे सीता! तुम इस तपोवन में निडर होकर रहो, क्योंकि मुनियों के पास रहने के कारण सभी पशु सीधे हो गये हैं।

८. अशून्यतीरां मुनिसन्निवेशैस्तमोपहन्त्रीं तमसां वगाह्य।
तत्सैकतोत्सङ्गबलिक्रियाभिः सम्पत्स्यते ते मनसः प्रसादः ॥

रघु० १४।७६॥

तामसिक विचारों की नाशक इस तमसा नदी के तट पर मुनि रहते हैं। इसके जल में स्नान कर इसकी रेती पर पूजा करने से तुम्हारा मन प्रसन्न रहेगा।

९. पयोघटैराश्रमबालवृक्षान् संवर्धयन्ती स्वबलानुरूपैः।
असंशयं प्राक्तनयोपपत्तेः स्तनन्धयप्रीतिमवाप्स्यसि त्वम् ॥

रघु० १४।७८॥

तुम अपनी सामर्थ्य के अनुसार उठा सकने योग्य घड़ों से आश्रम के पौदों को सींचना। इस तरह तुम सन्तान उत्पन्न होने से पहले ही यह सीख लोगी कि सन्तान से किस तरह स्नेहपूर्ण व्यवहार करना चाहिये।

१०. सायं मृगाध्यासितवेदिपार्श्वंस्वमाश्रमं शान्तमृगं निनाय ॥

रघु० १४।७९ ॥

शाम हो जाने से वाल्मीकि सीता को अपने आश्रम में ले गये। जहां बहुत सारे हिरण वेदी के चारों ओर बैठे हुए थे और शेर आदि आंखें मूंदे पड़े थे।

११. ता इङ्गुदीस्नेहकृतप्रदीपमास्तीर्णमेध्याजिनतल्पमन्तः।
तस्यै सपर्यानुपदं दिनान्ते निवासहेतोरुटजं वितेरुः ॥

रघु० १४।८१ ॥

शाम ढलने पर और पूजा समाप्त होने पर तपस्वियों ने सीता को रहने के लिए कुटिया दे दी, जिसमें इंगुदी तेल का दीपक जल रहा था और मृगचर्म का बिछौना था।

१२. आविशद्भिरुटजाङ्गणं मृगैर्मूलसेकसरसैश्च वृक्षकैः।
आश्रमाः प्रविशदग्र्ये धेनवो बिभ्रति श्रियमुदीरिताग्नयः ॥

कुमार० ८\।३८॥

शाम हो जाने पर हरिण आश्रम के आंगन में जमा होने लगे थे, पौदों को सींचा जा चुका था। वनों से गौएँ लौट रही थीं और अग्निहोत्र की अग्नि से आश्रम सुन्दर दीख रहे थे।

१३. अरण्यबीजाञ्जलिदानलालिता-
स्तथा च तस्यां हरिणा विशश्वसुः।
यथा तदीयैर्नयनैः कुतूहलात्
पुरः सखीनाममिमीत लोचने ॥

कुमार० ५।१५॥

पार्वती ने जिन हरिणों को जंगल के वृक्षों के बीज खिलाकर पाला था वे उससे इतने हिल गये थे कि पार्वती अपनी सखियों के सामने हरिणों की आंखों से अपनी आँखों की लम्बाई नापा करती थीं।

१४. अपि प्रसन्नं हरिणेषु ते मनः करस्थदर्भप्रणयापहारिषु।
य उत्पलाक्षि ! प्रचलैर्विलोचनैस्तवाक्षिसादृश्यमिव प्रयुञ्जते ॥

कुमार० ५।३५॥

हे कमलनयनि ! तुम्हारे हाथ से स्नेह पूर्वक कुशा छीनकर खाने वाले हरिणों से तुम्हारा मन प्रसन्न रहता है न ? जिनकी आँखें तुम्हारी

आँखों की तरह ही चंचल हैं।

१५. नीवाराः शुकगर्भकोटरमुखभ्रष्टास्तरूणामधः,
प्रस्निग्धाः क्वचिदिङ्गुदीफलभिदः सूच्यन्त एवोपलाः।
विश्वासोपगमादभिन्नगतयः शब्द सहन्ते मृगा-
स्तोयाधारपथाश्च वल्कलशिखानिष्यन्दरेखाङ्किताः॥

शाकुन्तल १।१४॥

पेड़ों के नीचे तोतों के घोंसलों से गिरे जंगली चावल बिखरे पड़े हैं। इधर उधर पड़े चिकने पत्थरों से पता चल रहा है कि इनसे इंगुदी के फल तोड़े गये हैं। विश्वस्त हरिण रथ की आवाज सुनकर भी नहीं भाग रहे हैं। और नदी के रास्तों पर मुनियों के वल्कल वस्त्रों से पानी टपकने की रेखाएं बनी हुई हैं।

१६. कुल्याम्भोभिः प्रकृतिचपलैः शाखिनो धौतमूलाः,
भिन्नो रागः किसलयरुचामाज्यधूमोद्गमेन।
एते चार्वागुपवनभुवि च्छिन्नदर्भाङ्कुरायाम्,
नष्टाशङ्काः हरिणशिशवो मन्दमन्दं चरन्ति॥

शाकुन्तल १।१५॥

वायु चलने से नालों के पानी की लहरों से किनारे खड़े पेड़ों की जड़ें धुल गई हैं। यज्ञ में घी की आहुति से उठे धुएं से पेड़ों के नये पत्तों का रंग बदल गया है। वन के पासवाली भूमि से कुशाएं उखाड़ लेने के कारण आश्रम मृगों के छौने वहां निडर होकर आराम से चर रहे हैं।

१७. वल्मीकार्धनिमग्नमूर्तिरुरसा सन्दष्टसर्पत्वचा,
कण्ठे जीर्णलताप्रतानवलयेनात्यर्थसम्पीडितः।
अंसव्यापि शकुन्तनीडनिचितं बिभ्रज्जटामण्डलम्
यत्र स्थाणुरिवाचलो मुनिरसावभ्यर्कबिम्बं स्थितः॥

शा० ७।११॥

कश्यप ऋषि का आधा शरीर दीमक की बांबी से ढक गया है। उनकी छाती पर सांपों की कैंचुलियां बिखरी हुई हैं। गले में सूखी बेलें

उलझ गई हैं। कन्धों तक लटकी जटाओं में चिड़ियों ने घोंसले बना लिये हैं। ठूंठ की तरह निश्चल बैठे हुए कश्यप ऋषि एकटक सूर्य को देख रहे हैं।

१८. प्राणानामनिलेन वृत्तिरुचिता सत्कल्पवृक्षे वने,
तोये काञ्चनपद्मरेणुकपिशे धर्माभिषेकक्रिया।
ध्यानं रत्नशिलातलेषु विबुधस्त्रीसन्निधौ संयमौ,
यत्काङ्क्षन्ति तपोभिरन्यमुनयस्तस्मिंस्तपस्यन्त्यमी॥

शा० ७।१२॥

कश्यप ऋषि के आश्रम में तपस्वी कल्पवृक्षों के वन की वायु पीकर जीवित रहते हैं। स्वर्णकमलों के पराग से सुवासित सुनहरे जल में स्नान करते हैं। अप्सराओं के बीच में रहते हुए भी संयमित जीवन बिताते हैं और रत्नों की चट्टानों पर बैठकर समाधि लगाते हैं। दूसरे मुनि तपस्या करके जिन वस्तुओं को पाना चाहते हैं उन वस्तुओं के बीच रहकर ये लोग तपस्या कर रहे हैं।

दुर्जन

१. त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदङ्गुलीवोरगक्षता॥

रघु० १।२८॥

यदि अपना कोई प्रिय व्यक्ति भी दुष्ट आचरण करे तो उसका साथ वैसे ही छोड़ देना चाहिये जैसे सांप के काट लेने पर अपनी ही अंगुली काटनी पड़ती है।

२. प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः॥ रघु० १।७९॥

जो पुरुष अपने आदरणीय पुरुषों की सेवा-सत्कार नहीं करता तो उसके शुभ कार्यों में विघ्न अवश्य पड़ता है।

३. हीनान्यनुपकर्तॄणि प्रवृद्धानि विकुर्वते॥ रघु० १७।५८॥

चरित्रहीन, उपकार न करने वाले और धनी मित्र अनुचित आचरण करते हैं।

४. शाम्येत्प्रत्यपकारेण नोपकारेण दुर्जनः॥ कुमार० २।४०॥

दुष्ट लोग दण्ड पाकर ही सीधे होते हैं उपकार करने से नहीं।

५. याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा॥

पूर्वमेघ ६॥

दुष्ट पुरुष से अपना काम पूरा कराना अच्छा नहीं होता चाहे सज्जन के आगे हाथ फैलाने पर भी काम न बने।

६. न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः॥

पू०मे० १७॥

नीच व्यक्ति भी उपकार करने वाले की अवसर आने पर सहायता करता है फिर कुलीन व्यक्ति का आचरण तो अनुकरणीय ही होता है।

धर्मपत्नी

१. क्रियाणां खलु धर्म्याणां सत्पत्न्योमूलकारणम्॥

कुमार० ६।१३।

धार्मिक अनुष्ठान पतिव्रता पत्नी के बिना पूरे नहीं किये जा सकते।

२. अवधूतप्रणिपाताः पश्चात्सन्तप्यमानमनसो हि।
विविधैरनुतप्यन्ते दयितानुनयैर्मनस्विन्यः॥

विक्रम० ३।५॥

मानिनी स्त्रियां रूठ जाने पर पति के पैरों पर गिर जाने पर भी नहीं मानतीं किन्तु बाद में वे अपने ऐसे आचरण पर बहुत पछताती हैं।

३. प्रभुता रमणेषु योषितां न हि भावस्खलितान्यपेक्षते॥

विक्रम० ४।२६॥

स्त्रियां अपने पतियों पर रौब जमाये रखती हैं वे अपने अपराध नहीं देखतीं।

४. प्रभवन्त्योऽपि हि भर्तृषु कारणकोपाः कुटुम्बिन्यः॥

मालविका० १।१८॥

कुलीन नारियों को अपने पतियों पर पूरा अधिकार होता है फिर भी वे किसी कारण से ही उनसे नाराज होती हैं।

पितृ-भक्ति

९. शासनं पशुपतेः स कुमारः स्वीचकार शिरसाऽवनतेन।
सर्वथैव पितृभक्तिरतानामेष एव परमः खलु धर्मः॥

कुमार० १२।५८॥

कुमार कार्तिकेय ने अपने पिता शिव जी की आज्ञा सिर झुका कर स्वीकार कर ली। पितृभक्त सन्तान का यही सर्वोपरि कर्तव्य है कि वह पिता की आज्ञा का पालन करे।

प्रकृति–रक्षा

१. आधारबन्धप्रमुखैः प्रयत्नैः संवर्धितानां सुतनिर्विशेषम्।
कच्चिन्न वाय्वादिरुपप्लवो वः श्रमच्छिदामाश्रमपादपानाम्॥

रघु० ५।६॥

तपस्वियों ने आश्रम के वृक्षों को थांवले बनाकर अपने पुत्रों की तरह बड़े ध्यान से पाला है। अपनी छाया से पथिकों की थकान मिटाने वाले इन वृक्षों को आंधी तूफान से कोई हानि तो नहीं पहुंची है ?

२. क्रियानिमित्तेष्वपि वत्सलत्वादभग्नकामा मुनिभिः कुशेषु।
तदङ्कशय्याच्युतनाभिनाला कच्चित् मृगीणामनघा प्रसूतिः॥

रघु० ५।७॥

हरिणियों के जिन शिशुओं की नाभि की नाल तपस्वियों की गोद में सोते हुए ही सूखकर अलग हो जाती है और जिन्हें स्नेह के कारण यज्ञ के लिए लाई गई कुशा खाने से नहीं रोका जाता ऐसे मृग शिशु कुशल पूर्वक हैं न ?

३. निर्वर्त्यते यैर्नियमाभिषेको येभ्यो निवापाञ्जलयः पितॄणाम्।
तान्युञ्छषष्ठाङ्कितसैकतानि शिवानि वस्तीर्थजलानि कच्चित्॥

रघु० ५।८

उन नदियों का जल तो स्वच्छ है न जिनमें आप प्रतिदिन स्नान

और पितरों का तर्पण आदि करते हैं और जिनकी रेती पर आप अन्न एकत्र कर उसका छठा भाग राजा के लिए छोड़ देते हैं।

४. नीवारपाकादिकडङ्गरीयैरामृश्यते जानपदैर्न कच्चित्।
कालोपपन्नातिथिकल्य्यभागं वन्यं शरीरस्थितिसाधनं वः॥

रघु० ५।९॥

वनों में उत्पन्न चावलों और फलों आदि से आप अपना पेट भरते हैं और अतिथियों का सत्कार करते हैं, इन कन्दमूल फलों को गांव के पशु तो नहीं खा जाते ?

५. त्वं रक्षसा भीरु! यतोऽपनीता तं मार्गमेताः कृपया लता मे।
अदर्शयन्वक्तुमशक्नुवन्त्यः शाखाभिरावर्जितपल्लवाभिः॥

रघु० १३।२४॥

अरी डरपोक! तुम्हें रावण जिस रास्ते से ले गया था वन की लताएं मुझ पर दया करके वह मार्ग बताना चाहती थीं किन्तु वे बोल नहीं सकती थीं। इसलिए इन बेलों ने पत्तों से भरी अपनी शाखाएं उसी ओर करके मुझे रास्ता बता दिया था।

६. मृग्यश्च दर्भाङ्कुरनिर्व्यपेक्षास्तवागतिज्ञं समबोधयन्माम्।
व्यापारयन्त्यो दिशि दक्षिणस्यामुत्पक्ष्मराजीनि विलोचनानि॥

रघु० १३॥२५।

वन की हरिणियों ने भी जब देखा कि मुझे तुम्हारे ले जाने का रास्ता मालूम नहीं है तो उन्होंने घास खाना छोड़ दिया और अपनी खुली हुई आंखें दक्षिण दिशा की ओर फेरकर मुझे रास्ता बता दिया था।

७. एषा त्वया पेशलमध्ययाऽपि घटाम्बुसंवर्धितबालचूता।
आनन्दयत्युन्मुखकृष्णसारा दृष्टा चिरात्पञ्चवटी मनो मे॥

रघु० १३।३४॥

इसी पञ्चवटी में तुमने अपनी पतली कमर पर घड़े रखकर आम के पौधों को सींचा था। देखो ये कृष्ण मृग सिर उठाकर हमारा विमान देख रहे हैं। पञ्चवटी को इतने दिन बाद देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है।

प्रजापालन

१. भानुः सकृद्युक्ततुरङ्ग एव रात्रिन्दिवं गन्धवहः प्रवाति।
शेषः सदैवाऽऽहितभूमिभारः षष्ठांशवृत्तेरपि धर्म एषः॥

शाकुन्तल ५।४॥

सूर्य अपने रथ में एक ही बार घोड़े जोड़कर संसार का पालन पोषण करने के लिए सदा चलता ही रहता है। वायु भी रातदिन चलती रहती है। शेषनाग अपने सिर पर पृथिवी का भार सदा उठाये रहते हैं। इसी प्रकार राजा भी दिन रात प्रजापालन में लगा रहता है।

२. स्वसुखनिरभिलाषः खिद्यसे लोकहेतोः,
प्रतिदिनमथवा ते सृष्टिरेवंविधैव।
अनुभवति हि मूर्ध्ना पादपस्तीव्रमुष्णम्,
शमयति परितापं छायया संश्रितानाम्॥

शा० ५।६॥

अपने सुख की परवाह न कर राजा रात दिन प्रजापालन में व्यस्त रहता है। अथवा राजकाज होता ही ऐसा है जैसे पेड़ अपने सिर पर भयंकर गर्मी सहन कर के भी अपनी छाया में आश्रय लेने वाले पथिकों की थकान मिटाता है।

३. नियमयसि विमार्गप्रस्थितानात्तदण्डः,
प्रशमयसि विवादं कल्पसे रक्षणाय।
अतनुषु विभवेषु ज्ञातयः सन्तु नाम,
त्वयि तु परिसमाप्तं बन्धुकृत्यं जनानाम्॥

शा० ५।७॥

हे राजा! तुम राज्याधिकार अपने हाथ में लेकर गलत रास्ते पर चलने वालों को वश में रखते हो। आपसी वैर विरोधों को शान्त करते हो. प्रजा की रक्षा और पालन करते हो। धन सम्पत्ति आ जाने पर बन्धु बान्धव भी जुट जाते हैं परन्तु आप प्रजा जनों के एकमात्र रक्षक और पालनकर्त्ता हो।

बुढ़ापा

१. आचार इत्यधिकृतेन मया गृहीता,
या वेत्रयष्टिरवरोधगृहेषु राज्ञः।
काले गते बहुतिथे मम सैव जाता,
प्रस्थानविक्लवगतेरवलम्बनाय॥ शा० ५।३॥

राजा के अन्तः पुर की पहरेदारी के लिए मैंने परम्परानुसार जो लाठी हाथ में ली थी, बहुत समय बाद अब वही लाठी बुढ़ापे से लड़खड़ा कर चलने वाले का सहारा बन गई है।

२. क्षणात्प्रबोधमायाति लङ्घ्यते तमसा पुनः।
निर्वास्यतः प्रदीपस्य शिखेव जरतो मतिः॥

शाकुन्तल ५।२॥

जैसे दीपक की बुझती हुई लौ कभी जलने लगती है और अगले ही क्षण धीमी पड़ जाती है। उसी तरह बुढ़ापे में कोई बात याद आती है और अगले ही क्षण भूल जाती है।

माता

१. इयं ते जननी प्राप्ता त्वदालोकनतत्परा।
स्नेहप्रस्त्रवनिर्भिन्नमुद्वहन्ती स्तनांशुकम्॥ विक्रम० ५।१२

पुत्र! ये तुम्हारी माता आ गईं। ये तुम्हें निरन्तर देख रही हैं और इनकी चोली तुम्हारे प्रति स्नेह के कारण टपकते हुए दूध से भीग गई है।

२. सुतविक्रमे सति न नन्दति का खलु वीरसूः॥

कुमार० १२।५९॥

वीर सन्तान उत्पन्न करने वाली माता अपने बेटे की बहादुरी देखकर प्रसन्न होती ही है।

मित्रता

१. सम्बन्धमाभाषणपूर्वमाहुः॥रघुवंश २।५८॥

** **बातचीत से ही मैत्री सम्बन्ध प्रारम्भ होता है।

२. दयितास्वनवस्थितं नृणां न खलु प्रेम चलं सुहृज्जने॥

कुमार ४।२८॥

पुरुष अपनी स्त्री से कम प्रेम कर सकता है किन्तु मित्रों के प्रेम में कभी कमी नहीं आती।

३. प्रयुक्तसत्कारविशेषमात्मना न मां परं सम्प्रतिपत्तुमर्हसि।
यतः सतां सन्नतगात्रि! सङ्गतं मनीषिभिः साप्तपदीनमुच्यते॥

कुमार० ५।३९॥

हे शुभाङ्गि! तुमने मेरा जो विशेष आदर-सत्कार किया है उससे लगता है कि तुम मुझे पराया नहीं मानतीं, क्योंकि सज्जनों का कहना है कि सात कदम साथ चलने से सत्पुरुष मित्र बन जाते हैं।

यौवन

१. असम्भृतं मण्डनमङ्गयष्टेरनासवाख्यं करणं मदस्य।
कामस्य पुष्पव्यतिरिक्तमस्त्रं बाल्यात्परं साऽथ वयः प्रपेदे॥

कुमार० १।३१॥

पार्वती बाल्यावस्था से युवावस्था में आ गई। यौवन; देहलता का स्वाभाविक शृंगार है, वह मदिरा के विना ही मन को मस्त बना देता है और कामदेव का विना फूलों वाला बाण है।

२. उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रं सूर्यांशुभिर्भिन्नमिवारविन्दम्।
बभूव तस्याश्चतुरस्रशोभि वपुर्विभक्तं नवयौवनेन॥

कुमार० १।३२॥

तूलिका से रंग भर देने पर जैसे चित्र और सूर्य की किरणों से कमल पुष्प खिल उठता है उसी प्रकार नवयौवन की शोभा से पार्वती के शरीर का अंग अंग मनोहारी बन गया।

३. अन्योन्यमुत्पीडयदुत्पलाक्ष्याः स्तनद्वयं पाण्डु तथा प्रवृद्धम्।
मध्ये यथाश्याममुखस्य तस्य मृणालसूत्रान्तरमप्यलभ्यम्॥

कुमार० १।४०॥

कमलनयनी पार्वती के सांवली घुण्डियों वाले गोरे स्तन इतने बढ़ गये थे कि दोनों स्तनों के बीच में कमलनाल का एक तार भी नहीं समा सकता था।

४. सर्वोपमाद्रव्यसमुच्चयेन यथाप्रदेश विनिवेशितेन।
सा निर्मिता विश्वसृजा प्रयत्नादेकस्थसौन्दर्यदिदृक्षयेव॥

कु० १।४९॥

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा एक ही स्थान पर संसार की सम्पूर्ण सुन्दरता शायद देखना चाहते थे इसलिए उन्होंने सुन्दर अंगों की उपमा के लिए यह आने वाली सभी वस्तुएं पार्वती की देह में यथास्थान रख दी थीं।

५. अप्यौत्सुक्ये महति दयिता प्रार्थनासु प्रतीपाः,
काङ्क्षन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने।
आबाध्यन्ते न खलु मदनेनैव लब्धान्तरत्वा-
दाबाधन्ते मनसिजमपि क्षिप्तकालाः कुमार्य्यः॥

शाकुन्तल ३।२७॥

प्रियतम से समागम करने के लिए अत्यधिक उत्कण्ठित रहने पर भी कुमारियां अपने प्रिय का अनुरोध स्वीकार नहीं करती हैं। परस्पर समागम का सुख पाना चाहती हुई भी अपना शरीर समर्पित करते हुए डरती हैं। समागम का अवसर मिलने पर वे काम वेदना से पीड़ित रहती हैं ऐसी कुमारियां न केवल अपने को अपितु कामदेव को भी सताती हैं।

६. अतः परीक्ष्य कर्तव्यं विशेषात्सङ्गतं रहः।
अज्ञातहृदयेष्वेवं वैरीभवति सौहृदम्॥

शाकुन्तल ५।२४॥

गुप्त प्रेम बहुत सोच विचार कर करना चाहिये क्योंकि किसी

व्यक्ति का शील–स्वभाव जाने बिना की गई मित्रता एक दिन शत्रुता में बदल जाती है ।

सज्जन

१. आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव॥ रघु० ४।८६॥

** **सज्जन धनसंग्रह कर उसे अच्छे कामों में लगा देते हैं जैसे बादल समुद्र से जल लेकर उसे पृथिवी पर बरसा देते हैं ।

२. प्रतिप्रियं चेद्भवतो न कुर्यां वृथा हि मे स्यात्स्वपदोपलब्धिः॥

रघु० ५।५६॥

यदि मैं आपके उपकार के बदले कुछ न करूं तो शापमुक्ति के बाद यह शरीर फिर से पाना व्यर्थ ही होगा ।

३. अपथे पदमर्पयन्ति हि श्रुतवन्तोऽपि रजोनिमीलिताः॥

रघु० ९।७४ ॥

समझदार व्यक्ति भी क्रोध या आवेश में आकर कभी कभी गलत आचरण कर बैठते हैं ।

४. अकामोपनतेनेव साधोर्हृदयमेनसा॥ रघु० १०।३९॥

अनजाने में किये हुए पाप से सज्जन का हृदय बेचैन हो उठता है ।

५. अत्यारूढं रिपोः सोढं चन्दनेनेव भोगिना॥ रघु० १०।४३

सज्जन; शत्रु का उत्कर्ष कुछ समय तक वैसे ही सहन करते हैं जैसे चन्दन का वृक्ष अपने ऊपर सांप को चढ़ने देता है

**६. सद्य एव सुकृतां हि पच्यते कल्पवृक्षफलधर्मिकाङ्क्षितम्॥ **

रघु० ११५०॥

पुण्य कर्म करने वालों की मनोकामना कल्पवृक्ष की भांति जल्दी ही पूरी होती है ।

७. त्राणाभावे हि शापास्त्राः कुर्वन्ति तपसो व्ययम्॥

रघु० १५।३॥

रक्षक न होने पर ही तपस्वी अपने शाप का प्रयोग करते हैं।

८. धर्मसंरक्षणार्थैव प्रवृत्तिर्भुवि शार्ङ्गिणः॥ रघु० १५।४॥

धर्म की रक्षा करने के लिए ही भगवान् पृथ्वी पर अवतार लेते हैं।

९. स तुल्यपुष्पाभरणो हि धीरः॥ रघु० १६।७४॥

धीर पुरुष (राजा कुश) फूल को और आभूषण को दोनों को समान मानते हैं।

१०. प्रह्वेष्वनिर्बन्धरुषो हि सन्तः॥ रघु० १६।८०।

सज्जन विनयशील पुरुषों पर क्रोध नहीं करते।

११. क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसां सतीव॥

कुमार० १।१२॥

महापुरुष शरण में आये हुए नीच पुरुषों पर भी सज्जनों जैसी कृपा-दृष्टि रखते हैं।

१२. अभ्यर्थनाभङ्गभयेन साधुर्माध्यस्थ्यमिष्टेऽप्यवलम्बतेऽर्थे॥

कुमार० १।५२।

सज्जनों को जहां अपनी बात अस्वीकृत होने की शंका रहती है तो वे किसी मध्यस्थ का सहारा ले लेते हैं।

१३. विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः॥

कुमार० १।५९॥

धीर पुरुष वही हैं जिनका मन लुभावने पदार्थ देखकर भी डांवाडोल नहीं होता।

१४. आत्मेश्वराणां न हि जातु विघ्नाः समाधिभेदप्रभवो भवन्ति॥

कुमार० ३।४०॥

अपना मन वश में रखने वालों की समाधि विघ्नों से भंग नहीं हो सकती।

१५. न हीश्वरव्याहृतयः कदाचित् पुष्णन्ति लोको विपरीतमर्थम्॥

कुमार० ३।६३॥

ऐश्वर्यशाली महापुरुषों के वचन कभी झूठे नहीं होते।

१६ अशनेरमृतस्य चोभयोर्वशिनश्चाम्बुधराश्च योनयः॥

कुमार० ४।४३।

जिस प्रकार बादलों में पानी और बिजली एक साथ रहती हैं। उसी प्रकार संयमी व्यक्तियों के हृदय में क्षमा और क्रोध साथ ही साथ रहते हैं।

१७. क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुखं प्रतीपयेत्॥

कुमार० ५।५॥

किसी वस्तु को पाने के लिए दृढनिश्चयी व्यक्ति के मन को और पानी के नीचे बहते हुए वेग को कौन बदल सकता है?

१८. न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते॥ कुमार० ५।१६।

अत्यधिक धर्माचरण करने वालों की आयु पर ध्यान नहीं दियाजाता।

१९. भवन्ति साम्येऽपि निविष्टचेतसां वपुर्विशेषेष्वति गौरवाः क्रियाः॥

कु० ५।३१॥

जितेन्द्रिय व्यक्ति अपने समान तेजस्वी पुरुषों के प्रति बहुत आदर प्रकट करते हैं।

२०. अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकं द्विषन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम्॥

कुमार० ५७५॥

मूर्ख व्यक्ति ही महापुरुषों के असाधारण और अचिन्तनीय कामों की निन्दा करते हैं।

२१. न केवलं यो महतोऽपभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक्॥

कुमार० ५।८३।

जो महापुरुषों की निन्दा करता है वही पाप का फल नहीं पाता अपितु महापुरुषों की निन्दा सुनने वाले को भी पाप लगता है।

२२. स्त्रीपुमानित्यनास्थैषा वृत्तं हि महितं सताम्॥

कुमार० ६।१२॥

सज्जन स्त्री, पुरुष के बीच भेद किये बिना सच्चरित्र ही देखते हैं।

२३. प्रायः प्रत्ययमाधत्ते स्वगुणेषूत्तमादरः॥ कुमार० ६।२०॥

महापुरुषों द्वारा किसी के गुणों की प्रशंसा करने पर ही व्यक्ति को अपने गुणों पर विश्वास होता है।

२४. विक्रियायै न कल्पन्ते सम्बन्धाः सदनुष्ठिताः॥

कुमार० ६।२९॥

सत्पुरुषों द्वारा कराये गये सम्बन्धों में कभी कोई बाधा नहीं आती।

२५. यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थं प्रचक्षते॥कुमार० ६।५६॥

जिस स्थन पर पूजनीय व्यक्ति बैठ जाते हैं वह स्थान तीर्थ बनजाता है।

२६. विक्रिया न खलु कालदोषजा निर्मलप्रकृतिषु स्थिरोदया।

कुमार० ८।६५॥

निर्मल चित्त के व्यक्तियों के मन में आया विकार बहुत समय तक नहीं ठहरता।

२७. विपत्तिरपि संश्लाघ्योपकारव्रतिनोऽनल॥ कुमार० १०।२३

हे अग्नि! जो लोग उपकार करते हुए स्वयं कष्ट झेलते हैं वह भी उनके लिए गौरवपूर्ण होती है।

२८. न कस्य वीर्याय वरस्य सङ्गतिः॥ कुमार० १५।५१॥

अच्छे व्यक्ति के साथ से किसका बल नहीं बढ़ता ?

२९. अतिस्नेहः खलु कार्यदर्शी॥ विक्रम० २।८-९॥

अत्यधिक स्नेह करने वाला ही कोई काम सफलता से करने का रास्ता बतलाता है।

३०. स्वार्थात्सतां गुरुतरा प्रणयिक्रियैव॥ विक्रम० ४।३१॥

सज्जन स्वार्थ त्याग कर भी अपने प्रियजनों की सहायता करते हैं।

३१. न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किंपुनर्यस्तथोच्चैः॥

पूर्वमेघ १७॥

नीच लोग भी अपना उपकार करने वाले मित्र का अवसर पड़ने पर काम कर देते हैं फिर सज्जनों का तो कहना ही क्या।

३२. सद्भावार्द्रः फलति न चिरेणोपकारो महत्सु॥

पूर्वमेघ १९॥

यदि महापुरुषों के प्रति सद्भाव के साथ कोई उपकार किया जाय तो उसका फल जल्दी ही मिलता है।

३३. मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः॥ पूर्वमेघ ४२॥

अपने मित्रों का काम करने का निश्चय कर लेने वाले काम करने में देर नहीं लगाते।

३४. आपन्नार्तिप्रशमनफलाः सम्पदो ह्युत्तमानाम्॥

पूर्वमेघ ५७॥

महापुरुष अपनी सम्पत्ति और वैभव दीन दुःखियों का कष्ट दूर करने में लगाते हैं।

३५. प्रत्युक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव॥

उत्तरमेघ ५७॥

सज्जन मुंह से कुछ न कहकर अपने स्नेहीजनों का काम पूरा करके ही उनकी प्रार्थना का उत्तर देते हैं।

३६. केषां न स्यादभिमतफला प्रार्थना ह्युत्तमेषु॥

उत्तरमेघ ६१॥

महापुरुषों से की गई प्रार्थना सफल होती ही है।

३७. भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैर्नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्॥

शा० ५।१३॥

फल लगने पर पेड़ झुक जाते हैं, जल से भरे बादल भी नीचे मंडराने लगते हैं। सज्जन समृद्धिशील होने पर भी नम्र बने रहते हैं। परोपकारी पुरुषों का स्वभाव नम्र व्यवहार वाला ही होता है।

३८. प्रसादसौम्यानि सतां सुहृज्जने पतन्ति चक्षूंषि न दारुणाः शराः॥

शा० ६।२९॥

सज्जन, मित्रों पर दयादृष्टि रखते हैं कठोर बाण नहीं बरसाते हैं।

सन्तान

१. लोकान्तरसुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम्।
सन्ततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे॥ रघु० १।६९॥

तपस्या और दान से जो पुण्य मिलता है वह परलोक में ही सुख देता है, किन्तु सच्चरित्र सन्तान, माता-पिता की सेवा करके इसी लोक और जन्म में तथा पिण्ड आदि तर्पण करके परलोक में भी सुख देती है।

२. दिशः प्रसेदुः मरुतः ववुः सुखाः प्रदक्षिणार्चिर्हविरग्निराददे।
बभूव सर्वं शुभशंसि तत्क्षणं भवो हि लोकाभ्युदयाय तादृशाम्॥

रघु० ३।१४॥

रघु के जन्म के समय चारों दिशाओं में प्रकाश फैल गया। मन्द पवन बहने लगा. यज्ञाग्नि की लपटें चक्कर लगा कर आहुति स्वीकार करने लगीं। तब सभी प्रकार के कल्याण सूचक शकुन हो रहे थे
क्योंकि ऐसे बच्चे जगत् कल्याण के लिए उत्पन्न होते हैं।

३. तमङ्कमारोप्य शरीरयोगजैः सुखैर्निषिञ्चन्तमिवामृतं त्वचि।
उपान्त सम्मीलितलोचनो नृपश्चिरात्सुतस्पर्शरसज्ञतां ययौ॥

रघु० ३।२६॥

अपने बेटे को गोद में लेने पर दिलीप को बेटे का शरीर छूकर ऐसा अनुभव होता था कि मेरे शरीर पर अमृत बरस रहा है। पिता अपनी आँखें बन्द करके बहुत देर तक बेटे के स्पर्श का आनन्द लेते रहते थे।

४. न चोपलेभे पूर्वेषामृणनिर्मोक्षसाधनम्।
सुताभिधानं स ज्योतिः सद्यः शोकतमोऽपहम्॥ रघु० १०।२॥

पितरों के ऋण से मुक्ति दिलाने वाली और शोक का अन्धकार दूर करने वाली ‘पुत्र’ नाम की ज्योति नहीं मिली है।

५. वाष्पायते निपतिता मम दृष्टिरस्मिन्,
वात्सल्यबन्धि हृदयं मनसः प्रसादः।
सञ्जातवेपथुभिर्उज्झितधैर्यवृत्ति-
रिच्छामि चैनमदयं परिरब्धुमङ्गैः॥

विक्रम० ५।९॥

इस बालक को देखते ही मेरी आँखें भर आई हैं, हृदय में वात्सल्य भाव उमड़ा पड़ रहा है, मन फूला नहीं समा रहा, मेरा सारा शरीर अधीर हो कांपने लगा है। मेरा मन कर रहा है कि इसे अपने अङ्गों से सटा लूं।

६. यदि हार्दमिदं श्रुत्वा पिता ममायं सुतोऽहमस्येति।
उत्सङ्गवर्धितानां गुरुषु भवेत् कीदृशः स्नेहः॥

विक्रम० ५।१०॥

यदि केवल यह सुनकर कि ये मेरे पिता हैं और मैं इनका पुत्र हूँ इतना प्रेम उमड़ रहा है तो उन सन्तानों को अपने माता-पिता के प्रति कितना स्नेह होता होगा जिनकी गोद में पलकर वे बड़े होते हैं।

७. सर्वाङ्गीणः स्पर्शः सुतस्य किल तेन मामुपगतेन।
आह्लादयस्व तावच्चन्द्रकरश्चन्द्रकान्तमिव॥

विक्रम० ५।११॥

पुत्र का स्पर्श पाते ही सम्पूर्ण शरीर सुख से परिपूर्ण हो जाता

है। अतः तुम भी मेरे पास आकर मुझे भी उसी प्रकार सुखी करो जैसे चन्द्रमा की किरणें चन्द्रकान्त मणि को सुख पहुंचाती हैं।

८. प्रमोदवाष्पाकुललोचना सा न तं ददर्श क्षणमग्रतोऽपि।
परिस्पृशन्ती करकुड्मलेन सुखान्तरं प्राप किमप्यपूर्वम्॥

कुमार० ११।१८॥

आँखों में आनन्द के आंसू उमड़ आने से पार्वती अपने पुत्र को कुछ देर तक नहीं देख सकी और अपने कोमल हाथ से उसे सहलाकर अनिर्वचनीय सुख लेती रही।

९. सुविस्मयानन्दविकस्वरायाः शिशुर्गलद्वाष्पतरङ्गितायाः।
विवृद्धवात्सल्यरसोत्तराया देव्या दृशेर्गोचरतां जगाम॥

कुमार० ११।१९॥

अपने पुत्र का स्पर्श पाकर पार्वती की आँखें अत्यन्त आश्चर्य और आनन्द से खिल उठीं, उनमें आँसू उमड़ पड़े हृदय में वात्सल्य भाव छलक उठा और तब पार्वती ने अपने पुत्र को देखा।

१०. तमीक्षमाणा क्षणमीक्षणानां सहस्रमाप्तुं विनिमेषमैच्छत्।
सा नन्दनालोकनमङ्गलेषु क्षणं क्षणं तृप्यति कस्य चेतः॥

कुमार० ११।२०॥

अपने बेटे को एकटक देखती हुई पार्वती सोचने लगीं यदि पलक न झपकने वाले मेरे हजारों नेत्र होते तो कितना अच्छा होता। अपने पुत्र को देखकर भला किस माता का मन भरता है ?

११. निसर्गवात्सल्यरसौघसिक्ता सान्द्रप्रमोदामृतपूरपूर्णा।
तमेकपुत्रं जगदेकमाताऽभ्युत्सङ्गिनं प्रस्रविणी बभूव॥

कुमार० ११।२३॥

समस्त संसार की एकमात्र माता पार्वती ने जब अपने पुत्र को गोद में लिया तो उनके रोम रोम से वात्सल्य रस की धाराएं फूट पड़ीं हर्षातिरेक से अमृत का स्रोत छलक उठा और उनके स्तनों से दूध बहने लगा।

१२. हैमी फलं हेमगिरेर्लतेव विकस्वरं नाकनदीव पद्मम्।
पूर्वेव दिङ्नूतनमिन्दुमाभात्तं पार्वती नन्दनमादधाना॥

कुमार० ११।२६॥

पुत्र को गोद में लिये हुए पार्वती ऐसी लगने लगीं मानो सोने के सुमेरु पर्वत की लता पर सुनहरा फल आ गया हो अथवा आकाशगंगा में कमल खिल उठा हो या पूर्व दिशा में नया चन्द्र उदय हो गया हो।

सन्ध्या

१. पश्य पश्चिमदिगन्तलम्बिना निर्मितं मितकथे! विवस्वता।
लब्धया प्रतिमया सरोऽम्भसां तापनीयमिव सेतुबन्धनम्॥

कुमार० ८।३४॥

अयि मितभाषिणि। पश्चिम दिशा में लटके हुए सूर्य की परछाईं से जलाशयों में सोने के पुल बंध गये हैं।

२. खं प्रसुप्तमिव संस्थिते रवौ तेजसो महत ईदृशी गतिः।
तत्प्रकाशयति यावदुद्गतं मीलनाय खलु तावतश्च्युतम्॥

कुमार० ८।४३॥

सूर्यास्त होते ही सारा आकाश सोया हुआ सा लगने लगा है। तेजस्वी महापुरुषों का प्रभाव ही ऐसा होता है कि वे जहां से निकलते हैं वहां प्रकाश छा जाता है और उनके चले जाने पर वहां अन्धेरा छा जाता है।

३. निर्मितेषु पितृषु स्वयम्भुवा या तनुः सुतनु पूर्वमुज्झिता।
सेयमस्तमुदयं च सेवते तेन मानिनि! ममात्र गौरवम्॥

कुमार० ८।५२॥

अयि शुभाङ्गि! ब्रह्मा ने पितरों को बनाते समय अपनी भी एक छोटी प्रतिमा बना ली थी। सूर्योदय और सूर्यास्त काल में वही प्रतिमा सन्ध्या के रूप में पूजी जाती है। अतएव हे मानिनि। मैं भी सन्ध्या का आदर करता हूँ।

४. नोर्ध्वमीक्षणगतिर्न चाप्यधो नाभितो न पुरतो न पृष्ठतः।
लोक एष तिमिरौघवेष्टितो गर्भवास इव वर्तते निशि॥

कुमार० ८।५६॥

सूर्यास्त हो जाने पर अब न तो ऊपर कुछ दीखता है न नीचे, न आगे न पीछे, न ही चारों ओर अन्धेरे में छिपा हुआ यह सारा संसार गर्भ में पड़े शिशु जैसा दिखाई पड़ता है।

सम्भोग

१. व्याहृता प्रतिवचो न सन्दधे गन्तुमैच्छदवलम्बितांशुका।
सेवते स्म शयनं पराङ्मुखी सा तथापि रतये पिनाकिनः॥

कुमार० ८।२॥

यदि शिव जी ; पार्वती से कुछ पूछते तो वह लज्जा से उत्तर नहीं देती, यदि वे उसका आंचल थाम लेते तो वह जाने लगती। पार्वती पलंग पर भी करवट बदल कर लेट रहती। पार्वती के इस संकोच भरे आचरण से शिव जी का मन और आसक्त हो उठा।

२. नाभिदेशनिहितः सकम्पया शङ्करस्य रुरुधे तया करः।
तद् दुकूलमथ चाभवत् स्वयं दूरमुच्छवसितनीविबन्धनम्॥

कुमार० ८।४॥

जब शिव जी, पार्वती की नाभि छूते तब वह लज्जा से कांपते हाथ से उनका हाथ पकड़ लेती किन्तु घबराहट भरा श्वास निकलने से पहले ही साड़ी की गांठ स्वयं खुल जाती।

३. चुम्बनेष्वधरदानवर्जितं खिन्नहस्तसदयोपगूहनम्।
क्लिष्टमन्मथमपि प्रियं प्रभोर्दुर्लभप्रतिकृतं वधूरतम्॥

कुमार० ८।८॥

** **जब शिव जी पार्वती का चुम्बन लेना चाहते तो वे मुंह फेर लेतीं, उसका आलिंगन करते तो अपना हाथ भी नहीं हिलातीं। ऐसे अधूरे और अड़चन भरे सम्भोग से भी शिव जी प्रसन्न ही होते।

४. यन्मुखग्रहणमक्षताधरं दानमव्रणपदं नखस्य यत्।
यद्रतं च सदयं प्रियस्य तत्पार्वती विषहते स्म नेतरत्॥

कुमार० ८।९॥

यदि शिव जी चुम्बन करते हुए पार्वती का अधरोष्ठ नहीं काटते या उनकी देह पर नाखून से घाव नहीं करते तो ऐसे कोमल सम्भोग को पार्वती सहन कर लेतीं किन्तु शिव जी के तीव्र सम्भोग से घबरा जातीं।

५. ज्ञातमन्मथरसा शनैः शनैः सा मुमोच रतिदुःखशीलताम्॥

कुमार० ८।१३॥

धीरे-धीरे पार्वती को सम्भोग में रस आने लगा और उनकी झिझक मिटने लगी।

६. सस्वजे प्रियमुरोनिपीडनं प्रार्थितं मुखमनेन नाहरत्।
मेखलाप्रणयलोलतां गतं हस्तमस्य शिथिलं रुरोध सा॥

कुमार० ८।१४॥

अब शिव जी के आलिंगन करने पर पार्वती भी उन से लिपट जातीं, चुम्बन के समय अपना मुख नहीं फेरती और तगड़ी खींचने पर दिखावे भर के लिए रोकतीं।

७. दष्टमुक्तमधरोष्ठमम्बिका वेदनाविधुरहस्तपल्लवा।
शीतलेन निरवापयत् क्षणं मौलिचन्द्रशकलेन शूलिनः॥

कुमार० ८।१८॥

जब शिव जी पार्वती का निचला ओठ चुम्बन में दांत से थोड़ा दबाते तो वह दर्द से बेचैन हो हाथ झटकने लगती और अपना अधरोष्ठ शिव जी के मस्तक पर विराजमान चन्द्रमा की शीतल कला पर रखकर दर्द शान्त करती।

८. क्लिष्ट केशमवलुप्तचन्दनं व्यत्ययार्पितनखं समत्सरम्।
तस्य तच्छिदुरमेखलागुणं पार्वतीरतमभून्न तृप्तये॥

कुमार० ८।८३॥

शिव और पार्वती के उन्मुक्त सम्भोग से दोनों के केश बिखर

गये शरीर पर लगा चन्दन का लेप पुंछ गया, दोनों के अंगों पर जगह जगह नख चिह्न दिखाई देने लगे। पार्वती की तगड़ी की डोर टूट गई, फिर भी दोनों में से किसी का मन नहीं भरा।

९. स प्रजागरकषायलोचनं गाढदन्तपरिताडिताधरम्।
आकुलालकमरंस्त रागवान्प्रेक्ष्य भिन्नतिलकं प्रियामुखम्॥

कुमार० ८।८८॥

रात भर जागने से पार्वती की आँखें लाल थीं, चुम्बनों से अधरोष्ठ कट गया था, सिर की केशसज्जा अस्त व्यस्त हो गई थी और माथे का तिलक पुंछ गया था। अपनी प्रियतमा को इस रूप में देखकर भी शिव जी प्रेम से गद्गद थे।

१०. स प्रियामुखरसं दिवानिशं हर्षवृद्धिजननं सिषेविषुः।
दर्शनप्रणयिनामदृश्यतामाजगाम विजयानिवेदनात्॥

कुमार० ८।९०॥

शिव जी अपनी प्रियतमा के मुखारविन्द का रस रात-दिन पीने को लालायित रहते और इसका पान कर सुखी होते। अतः विजया के कहने पर भी किसी से नहीं मिलते।

११. समदिवसनिशीथं सङ्गतिस्तत्र शम्भोः,
शतमगमदृतूनां साग्रमेका निशेव।
न तु सुरतसुखेभ्यश्छिन्नतृष्णो बभूव,
ज्वलन इव समुद्रान्तर्गतस्तज्जलौघैः॥

कुमार० ८।९१॥

शिव जी ने दिनरात पार्वती से सम्भोग करते हुए सैकड़ों वर्ष एक रात की तरह बिता दिये फिर भी उनका मन नहीं भरा। जैसे समुद्र में रहने पर भी वडवानल की प्यास नहीं बुझती।

१२. स नाम सम्भोगो यस्तादृशेषु प्रदेशेषु॥ विक्रम० ४।२-३॥

सुन्दर स्थानों पर किया गया सम्भोग सदा स्मरण रहता है।

१३. कार्त्स्न्येन निर्वर्णयितुं च रूपमिच्छन्ति तत्पूर्वसमागमानाम्।
न च प्रियेष्वायतलोचनानां समग्रवृत्तीनि विलोचनानि॥

मालविका० ४।८॥

प्रथम भेंट में स्त्रियां अपने प्रियतम को जी भरकर देखना चाहती हैं किन्तु लज्जा के कारण विशाल नेत्रवाली सुन्दरियां अपने नेत्रों से प्रियतम को भली भांति नहीं देख पातीं।

१४. हस्तं कम्पयते रुणद्धि रसनाव्यापारलोलाङगुलीः,
स्वौहस्तौ नयति स्तनावरणतामालिङ्ग्यमाना बलात्।
पातुं पक्ष्मलनेत्रमुन्नमयतः साची करोत्याननम्,
व्याजेनाप्यभिलाषपूरणसुखं निर्वर्तयत्येव मे॥

मालविका० ४।१५॥

नवयुवतियां प्रारम्भिक सम्भोग में हाथ हिलाती हैं,तगड़ी खोलने में तत्पर प्रेमी के हाथों की अंगुलियां पकड़ लेती हैं। बलपूर्वक आलिंगन करने पर अपने हाथों से स्तनों को छिपा लेती हैं, घनी बरौनी वाले नेत्रों से सुसज्जित मुख का चुम्बन करने के लिए मुखड़ा ऊपर करते समय अपना मुंह फेर लेती हैं फिर भी इन चेष्टाओं से प्रेमी की इच्छा पूरी होती ही है।

१२. कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः सङ्गमात्किञ्चिदूनः॥

उत्तरमेघ ४२॥

किसी मित्र के हाथ भेजा गया प्रियतम का सन्देश मिलने से कुछ ही कम होता है।

१३. मुहुरङ्गुलिसंवृताधरोष्ठं प्रतिषेधाक्षरविक्लवाभिरामम्।
मुखमंसविवर्तिपक्ष्मलाक्ष्याः कथमप्युन्नमितं न चुम्बितं तु॥

शा० ३।२३॥

सुन्दर पलकों वाली शकुन्तला अपनी अंगुलि से निचले ओंठ को बारबार ढक रही थी, घबराकर मना करती हुई भी सुन्दर लग रही थी, उसने अपना मुखड़ा कन्धे की ओर फेर लिया था, किन्तु मैं उसका मुख जैसे तैसे ऊपर करके भी चुम्बन न ले सका।

समुद्र

१. गुरोर्वियक्षोः कपिलेन मेध्ये रसातलं संक्रमिते तुरङ्गे।
तदर्थमुर्वीमवदारयद्भिः पूर्वैः किलायं परिवर्धितो नः॥

रघु० १३।३॥

जब हमारे पूर्वज महाराज सगर अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे तब कपिल मुनि अश्वमेध के घोड़े को पाताल लोक में ले गये। सगर के पुत्रों ने इस घोड़े को ढूंढते हुए जब पृथिवी खोदी तब यह समुद्र बन गया।

२. गर्भं दधत्यर्कमरीचयोऽस्माद् विवृद्धिमत्राश्नुवते वसूनि।
अबिन्धनं वह्निमसौ बिभर्ति प्रह्लादनं ज्योतिरजन्यनेन॥

रघु० १३।४॥

सूर्य की किरणें समुद्र से जल खींच कर उसे पृथ्वी पर बरसाती हैं। समुद्र में ही रत्न उत्पन्न होते हैं और बढ़ते हैं। समुद्र में ही वडवाग्नि रहती है और समुद्र से ही मनमोहक चांदनी फैलानेवाला चन्द्रमा उत्पन्न हुआ है।

३. तां तामवस्थां प्रतिपद्यमानं स्थितं दश व्याप्य दिशो महिम्ना।
विष्णोरिवास्यानवधारणीयमीदृक्तया रूपमियत्तया वा॥

रघु० १३।५॥

सागर सदैव अपना स्वरूप बदलता रहता है यह दसों दिशाओं में दूर-दूर तक फैला हुआ है। जैसे भगवान् विष्णु के रूप और आकार की कल्पना नहीं की जा सकती उसी प्रकार सागर के बारे में नहीं कहा जा सकता है कि वह कैसा है और कितना बड़ा है।

४. अमुं युगान्तोचितयोगनिद्रः संहृत्य लोकान्पुरुषोऽधिशेते॥

रघु० १३।६॥

आदि पुरुष विष्णु तीनों लोकों का संहार कर के सागर में ही योगनिद्रा लेते हैं।

सेवक

९. स्थातुं नियोक्तुर्न हि शक्यमग्रे विनाश्य रक्ष्यं स्वयमक्षतेन॥

रघु० २।५६॥

यदि सेवक स्वामी की वस्तु की रक्षा न कर सके और स्वयं सुरक्षित रहे तो ऐसा सेवक, स्वामी के सामने कैसे खड़ा हो सकता है।

२. प्रयोजनापेक्षितया प्रभूणां प्रायश्चलं गौरवमाश्रितेषु॥

कुमार० ३।१।

जब स्वामी को अपने सेवकों से जैसा काम निकालना होता है तब उसी के अनुरूप वे अपने सेवकों का आदर करते हैं।

३. अनुग्रहं संस्मरणप्रवृत्तमिच्छामि संवर्धितमाज्ञया ते॥

कुमार० ३।३॥

आपने मुझे स्मरण कर मुझ पर जो कृपा की उसे मैं आपकी आज्ञा का पालन करके और भी अधिक बढ़ाना चाहता हूँ।

**४. विनियोगप्रसादा हि किङ्कराः प्रभविष्णुषु॥ **

कुमार० ६।६२॥

सेवक अपने समर्थ स्वामियों का कुछ काम करके ही प्रसन्नता अनुभव करते हैं।

५. कालप्रयुक्ता खलु कार्यविद्भिर्विज्ञापना भर्तृषु सिद्धिमेति॥

कुमार० ७।९३॥

समझदार सेवक उचित अवसर देखकर अपने स्वामी से जो मांगते हैं वह उन्हें मिल जाता है।

६. परितोषयन्ति गीर्भिगिरीशा रुचिराभिरीशम्॥

कुमार० ९।१२॥

बोलने में चतुर व्यक्ति मीठी-मीठी बातों से अपने स्वामी को प्रसन्न कर लेते हैं।

७. प्रभुप्रसादो हि मुदे न कस्य॥ कुमार० १२।३२॥

अपने स्वामी की कृपादृष्टि पाकर कौन प्रसन्न नहीं होता?

८. स्त्रीषु कष्टोऽधिकारः॥ विक्रम० ३।१॥

स्त्रियों की नौकरी में रहना बड़ा टेढ़ा काम होता है।

सुभाषित

१. आद्यः प्रणवश्छन्दसामिव॥ रघु० १।११॥

वेदों में सब से पहला स्थान ‘ओ३म्’ का ही है।

२. भक्तोपपन्नेषु हि तद्विधानां प्रसादचिह्ननि पुरःफलानि॥

रघु० २।२२॥

नन्दनी जैसी गौ के समान देवता यदि भक्ति से प्रसन्न हो जायें तो समझना चाहिये कि मनोकामना अवश्य पूरी होगी।

३. न पादपोन्मूलनशक्तिरंहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य॥

रघु० २।३४॥

वृक्षों को जड़ से उखाड़ देने वाला आंधी का झोंका पर्वत को हिला भी नहीं पाता।

४. शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्यरक्ष्यं न तद्यशः शस्त्रभृतां क्षिणोति॥

रघु० २।४०॥

जब हथियार से रक्षा करने योग्य वस्तु की रक्षा नहीं की जा सकती तब शस्त्र चलाने वाले का यश नष्ट नहीं होता।

५. महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नमृद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहुः॥

रघु० २।५०॥

सुख-समृद्धि से परिपूर्ण राज्य स्वर्ग ही होता है। इन्द्रलोक के स्वर्ग से इस स्वर्ग में केवल यही अन्तर है कि यह स्वर्गलोक भूमि पर है।

६. क्रिया हि वस्तूपहिता प्रसीदति॥ रघु० ३।२९॥

उचित पात्र को दी गई शिक्षा शीघ्र ही सफल होती है।

७. यशस्तु रक्ष्यं परतो यशोधनैः॥ रघु० ३।४८॥

यशस्वी व्यक्ति को दूसरे लोगों से अपने यश की रक्षा करनी चाहिये।

८. पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते॥ रघु० ३।६२॥

गुणवान् व्यक्ति सभी जगह अपनी छाप छोड़ता है।

९. प्रणिपातप्रतीकारः संरम्भो हि महात्मनाम्॥ रघु० ४।६४॥

महापुरुषों के क्रोध से बचने का एकमात्र उपाय क्षमा प्रार्थना करना ही है।

१०. सूर्ये तपत्यावरणाय दृष्टेः कल्पेत लोकस्य कथं तमिस्रा॥

रघु० ५।१३॥

सूर्य के उदय होने पर रात्रि का अन्धकार कैसे ठहर सकता है?

११. निर्गलिताम्बुगर्भं शरद्धनं नार्दति चातकोऽपि॥

रघु० ५।१७॥

पपीहा भी पानी से रहित शरद् ऋतु के बादल से पानी नहीं मांगता।

१२. उष्णत्वमग्न्यातपसम्प्रयोगाच्छैत्यं हि यत्सा प्रकृतिर्जलस्य॥

रघु० ५।५४॥

जल, आग या सूर्य से ही गरम होता है किन्तु उसका स्वभाव तो शीतलता ही है।

१३. नक्षत्रताराग्रहसङ्कुलाऽपि ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः॥

रघु० ६।२२॥

अनन्त नक्षत्रों, तारों ओर ग्रहों के चमकते रहने पर भी रात का अन्धेरा चन्द्रमा के उदय होने पर ही दूर होता है।

१४. निसर्गभिन्नास्पदमेकसंस्थमस्मिन्द्वयं श्रीश्च सरस्वती च॥

रघु० ६।२९॥

लक्ष्मी और सरस्वती के स्वभाव सर्वथा भिन्न होते हैं, परन्तु

इनमें ये दोनों ही निवास करती हैं।

१५. भिन्नरुचिर्हि लोकः॥ रघु० ६।३०॥

संसार में कोई वस्तु किसी को अच्छी लगती है किन्तु वही पदार्थ किसी को अच्छा नहीं लगता।\

१६. कृष्यां दहन्नपि खलु क्षितिमिन्धनेद्धो
बीजप्ररोहजननीं ज्वलनः करोति॥

रघु० ९।८०॥

जंगल की आग खेती योग्य भूमि को जलाकर भी फिर से उसे कृषि योग्य बना देती है।

१७. अव्याक्षेपो भविष्यन्त्याः कार्यसिद्धेर्हि लक्षणम्॥

रघु० १०।६॥

काम में देर न लगना ही भविष्य में काम पूरा होने का शुभ लक्षण होता है।

१८. स्वयमेव हि वातोऽग्नेः सारथ्यं प्रतिपद्यते॥

रघु० १०।४०॥

वायु बिना कहे ही अग्नि का साथ देकर उसे भड़का देती है।

१९. सम्यगाराधिता विद्या प्रबोधविनयाविव॥ रघु० १०।७१॥

भलीभांति विद्या प्राप्त करने से मनुष्य को ज्ञान और विनयशीलता दोनों ही मिलती हैं।

२०. तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते॥ रघु० ११।१॥

तेजस्वी पुरुषों की छोटी या बड़ी आयु पर ध्यान नहीं दिया जाता।

२१. पावकस्य महिमा स गण्यते कक्षवज्ज्वलति सागरेऽपि यः॥

रघु० ११।७५॥

अग्नि का तेज तभी स्वीकार किया जाता है जब वह समुद्र में भी उसी प्रकार जलती है जैसे सूखी घास में।

२२. खातमूलमनिलो नदीरयैः पातयत्यपि मृदुस्तटद्रुमम्॥

रघु० ११।७६॥

नदी की धार से किनारे खड़े जिस पेड़ की जड़ खोखली हो जाती है उसे हवा का हल्का सा झोंका भी गिरा देता है।

२३. केवलोऽपि सुभगो नवाम्बुदः किं पुनस्त्रिदशचापलाञ्छितः॥

रघु० ११।८०॥

नया बादल वैसे ही सुन्दर लगता है, यदि उसमें इन्द्रधनुष भी चमकने लगे तो उसकी शोभा और भी अधिक बढ़ जाती है।

२४. निर्जितेषु तरसा तरस्विनां शत्रुषु प्रणतिरेव कीर्तये॥

रघु० ११।८९॥

अपने पराक्रम से शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेने पर यदि वीर पुरुष, शत्रु से विनीत व्यवहार करता है तो ऐसे आचरण से उसका यश ही फैलता है।

२५. तस्याभवत्क्षणशुचः परितोषलाभः
कक्षाग्निलङ्घिततरोरिव वृष्टिपातः॥

रघु० ११।९२॥

कुछ समय के दुःख के बाद उन्हें ऐसा सुख मिला जैसा सुख दावाग्नि में झुलसे वृक्ष को वर्षाजल से मिलता है।

२६. काले खलु समारब्धाः फलं बध्नन्ति नीतयः॥

रघु० १२।६९॥

उचित अवसर पर अपनाई गई नीतियां अवश्य सफल होती हैं।

२७. नृपा इवोपप्लविनः परेभ्यो धर्मोत्तरं मध्यममाश्रयन्ते॥

रघु० १३।७॥

शत्रुओं से डरे हुए राजा किसी धर्मात्मा और तटस्थ राजा की शरण लेते हैं।

२८. स्तुवन्ति पौराश्चरितं त्वदीयम्॥ रघु० १४।३२॥

हे राम! नगरवासी आपके चरित्र की सराहना करते हैं।

२९. यशोधनानां हि यशो गरीयः॥ रघु० १४।३५।

यशस्वियों को अपना यश ही अच्छा लगता है।

३०. लोकापवादो बलवान्मतो मे॥ रघु० १४।४०।

मेरी दृष्टि में बदनामी बहुत बलवती होती है।

३१. अमर्षणः शोणितकाङ्क्षया किं पदा स्पृशन्तं दशति द्विजिह्वः॥

रघु० १४।४१।

पैर से दबने पर क्रुद्ध सांप बदला लेने के लिए काटता है खून पीने के लिए नहीं।

३२. आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया॥ रघु० १४।४१।

अपने से बड़ों के आदेश में मीन-मेख नहीं निकालना चाहिए।

३३. जयो रन्ध्रप्रहारिणाम्॥ रघु० १५।१७॥

शत्रु के कमजोर स्थान पर प्रहार करने वाले की विजय होती है।

३४. प्रागेव मुक्ता नयनाभिरामाः प्राप्येन्द्रनीलं किमुतोन्मयूखम्॥

रघु० १६।६९॥

मोती तो सुन्दर होते ही हैं किन्तु इन्द्रनील मणि की चमक से उनकी कान्ति और बढ़ जाती है।

३५. पश्चिमाधामिनी यामात्प्रसादमिव चेतना॥

रघु० १७।१॥

रात्रि के अन्तिम प्रहर में अर्थात् ब्राह्म मुहूर्त में बुद्धि को नवीन स्फूर्ति मिलती है।

३६. अपुनात् सवितेवोभौ मार्गावुत्तरदक्षिणौ॥ रघु० १७।२॥

सूर्य अपने प्रकाश से उत्तर और दक्षिण दोनों ही दिशाओं को प्रकाशित कर देता है।

३७. वयोरूपविभूतीनामेकैकं मदकारणम्॥ रघु० १७।४३।

नवयौवन, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इन तीनों में से एक भी वस्तु मनुष्य को विवेकहीन बना देती है।

३८. कातर्यं केवला नीतिः शौर्यं श्वापदचेष्टितम्।
अतः सिद्धिं समेताभ्यामुभाभ्यामन्वियेष सः॥

रघु० १७।४७॥

सदा कूटनीति से काम लेना कायरता होती है और सदैव मारकाट करते रहना पशुओं जैसा आचरण होता है। इसलिए राजा को कूटनीति और शस्त्रबल दोनों का उचित सहारा लेकर शत्रु को
परास्त करना चाहिये।

३९. न हि सिंहो गजस्कन्दी भयाद् गिरि गुहाशयः॥

रघु० १७।५२।

हाथियों को मारने वाला शेर किसी से डर कर पर्वत की गुफा में नहीं सोता।

४०. वृद्धौ नदीमुखेनैव प्रस्थानं लवणाम्भसः॥ रघु० १७।३४॥

ज्वार आने पर समुद्र, नदियों के मुहाने से ही आगे बढ़ता है अन्य मार्गों से नहीं।

४१. समीरणसहायोऽपि नाम्भः प्रार्थी दावानलः॥ रघु० १७।५६॥

वायु की सहायता से धधकती हुई जंगल की आग पानी को नहीं जलाती।

४२. अम्बुगर्भो हि जीमूतश्चातकैरभिनन्द्यते॥ रघु० १७।६०॥

चातक, जल से भरे बादल का स्वागत करते हैं।

४३. प्रवृद्धौ हीयते चन्द्रः समुद्रोऽपि तथाविधः।
स तु तत्समवृद्धिश्च न चाभूत्ताविव क्षयी॥

रघु० १७।७१।

पूर्णिमा के बाद चन्द्रमा घटने लगता है और समुद्र में भी ज्वार

के बाद भाटा आता है। किन्तु राजा को उन्नति करके चन्द्र और समुद्र की भांति क्षीण-शक्ति नहीं होना चाहिये।

४४. सकृद्विविग्नानपि हि प्रयुक्तं माधुर्यमीष्टे हरिणान् ग्रहीतुम्॥

रघु० १८।१३॥

डरे हुए हरिणों को भी मधुर वाणी अपने वश में कर लेती है।

४५. सुखोपरोधि वृत्तं हि राज्ञामुपरुद्धवृत्तम्॥ रघु० १८। १८॥

अनेक कामों में व्यस्त रहने के कारण राजा सुखों का भोग नहीं कर पाते।

४६. स्वादुभिस्तु विषयैर्हतस्ततो दुःखमिन्द्रियगणो निवार्यते॥

रघु० १९।४९॥

रमणीय विषयों और भोगों में फंसी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना कठिन हो जाता है।

४७. एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः॥

कुमार० ११३॥

अनेक गुणों में एक अवगुण उसी प्रकार छिप जाता है जैसे चन्द्र की किरणों में उसका कलंक।

४८. अनन्तपुष्पस्य मधोर्हि चूते द्विरेफमाला सविशेषसङ्गा॥

कुमार० १४।२७॥

वसन्तऋतु में अनेक प्रकार के फूल खिले होने पर भी भौंरो का झुण्ड आम की मंजरियों पर ही मंडराता रहता है।

४९. संस्कारवत्येव गिरा मनीषी तया स पूतश्च विभूषितश्च॥

कुमार० १।२८॥

विद्वान् और मनस्वी पुरुष जैसे शुद्धवाणी से सम्मानित और सुशोभित हो जाता है उसी प्रकार उमा जैसी पुत्री पाकर हिमालय पवित्र और धन्य हो गया।

५०. ऋते कृशानोर्न हि मन्त्रपूतमर्हन्ति तेजांस्यपराणि हव्यम्॥

कुमार० १।९॥

मन्त्रों से पवित्र यज्ञ की सामग्री को वेदी की अग्नि के सिवाय और कोई नहीं ले सकता।

५१. वीर्यवन्त्यौषधानीव विकारे सान्निपातिके॥ कुमार० २।४८॥

भीषण ज्वर (सन्निपात) में प्रभावशाली ओषधियां भी प्रभावहीन हो जाती हैं।

५२. विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्॥

कुमार० २।५५॥

विषवृक्ष को स्वयं सींचने के बाद उसे अपने ही हाथों से काटना उचित नहीं होता।

५३. मनसा कार्यसंसिद्धौ त्वराद्विगुणरंहसा। कुमार० २।६३॥

जो काम पूरा होने वाला होता है उसे करने के लिये मन भी दुगुने वेग से प्रयत्न करने लगता है।

५४. अप्यप्रसिद्धं यशसे हि पुंसामनन्यसाधारणमेव कर्म॥

कुमार० ३।९॥

असाधारण काम करने पर ही मनुष्य का यश फैलता है।

५५. समीरणो नोदयिता भवेति व्यादिश्यते केन हुताशनस्य॥

कुमार० ३।२१॥

वायु से कौन कहता है कि तुम अग्नि की सहायता करो।

५६. प्रायेण सामग्यूविधौ गुणानां पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः॥

कुमार० ३।२८॥

ब्रह्मा जी किसी भी वस्तु की रचना करते समय उसमें सारे गुण नहीं भरते।

५७. स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमिवोपजायते॥

कुमार० ४।२६॥

अपने सम्बन्धियों को देखकर दुखी व्यक्ति की पीड़ा उसी तरह और अधिक बढ़ जाती है जैसे दरवाजा खुलने पर बन्द की

हुई वस्तु निकल पड़ती है।

५८. दयितास्वनवस्थितं नृणां न खलु प्रेम चलं सुहृज्जने॥

कुमार० ४।२८॥

पुरुष अपनी स्त्री से प्रेम करने में विमुख हो जाता है किन्तु अपने मित्रों के प्रति उसका प्रेम कभी कम नहीं होता।

५९. शशिना सह याति कौमुदी सह मेघेन तडित्प्रलीयते।
प्रमदाः पतिवर्त्मगा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनैरपि॥

कुमार० ४।३३॥

चन्द्रमा के साथ ही चांदनी चली जाती है और बादल के साथ बिजली। जब जड़ पदार्थों में भी पति के साथ उनकी पत्नी चली जाती है तो स्त्रियों को भी अपने पति के साथ ही नष्ट हो जाना चाहिये।

६०. रविपीतजला तपात्यये पुनरोधेन हि युज्यते नदी॥

कुमार० ४।४४॥

जो नदी गर्मी में सूर्य के ताप से सूख जाती है उसी में फिर बाढ़ आ जाती है।

६१. प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता॥

कुमार० ५।१॥

प्रियतम के रीझने पर ही सौन्दर्य सफल होता है।

६२. अवाप्यते वा कथमन्यथा द्वयं तथाविधं प्रेम पतिश्च तादृशः॥

कुमार० ५।२॥

कठोर तप के बिना शिव जी जैसा पति और उनका प्रेम ये दोनों ही कैसे मिल सकते हैं।

६३. पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः॥

कुमार ५।४॥

कोमल शिरीष का फूल भौरे का भार तो सह सकता है किन्तु पक्षी का नहीं।

६४. न षट्पदश्रेणिभिरेव पङ्कजं सशैवलासङ्गमपि प्रकाशते॥

कुमार० ५।९॥

कमल का फूल भौंरों के मंडराने से ही अच्छा नहीं लगता अपितु सेवार में खिला होने पर भी सुन्दर लगता है।

६५. शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्॥ कुमार० ५।३३॥

शरीर की रक्षा करना सब से पहला धर्म का काम है।

६६ पापवृत्तये न रूपम्॥कुमार० ५।४३॥

सौन्दर्य पाप के कामों में नहीं लगाता।

६७. कः करं प्रसारयेत् पन्नगरत्नसूचये॥ कुमार० ५।३६॥

सांप के फन की मणि लेने के लिए कौन हाथ लगायेगा ?

६८. वद प्रदोषे स्फुटचन्द्रतारका विभावरी यद्यरुणाय कल्पते॥

कुमार० ५।४४॥

सन्ध्याकाल में रात्रि की शोभा चांदनी और तारों से होती है या उषा की लालिमा से ?

६९. न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्॥

कुमार० ५।४५॥

रत्न किसी को ढूंढने नहीं जाता अपितु लोग रत्न की खोज में भटकते हैं।

७०. मनोरथानामगतिर्न विद्यते॥

कुमार० ५।६४॥

मनुष्य की इच्छाएं कहां तक जा सकती हैं इसकी कोई सीमा ही नहीं है।

७१. अपेक्ष्यते साधुजनेन वैदिकी श्मशानशूलस्य न यूपसत्क्रिया॥

कुमार० ५।७३॥

श्मशान में सूली पर चढ़ाने के खम्भे को भले लोग यज्ञ-स्तम्भ नहीं बनाते।

७२. न कामवृत्तिर्वचनीयमीक्षते ॥ कुमार० ५।८२

जब किसी का मन किसी के प्रति आसक्त हो जाता है तब वह कोई बात नहीं सुनता।

७३. मार्गाचलव्यतिकराकुलितेव सिन्धुः
शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ ॥

कुमार० ५/८५ ॥

नदी की धारा के बीच में पर्वत आ जाने से नदी न तो आगे बढ़ सकती है और न ही पीछे जा सकती है। इसी प्रकार शिव जी के हाथ पकड़ लेने पर पार्वती न तो जा ही सकी न खड़ी रह सकी।

७४. क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते।

कुमार० ५।८६ ॥

किसी काम के पूरा हो जाने पर उसे पूरा करने के लिए उठाया हुआ कष्ट अच्छा ही लगने लगता है।

७५. प्रायेणैवंविधे कार्ये पुरन्ध्रीणां प्रगल्भता ॥ कुमार० ६ \।३२॥

विवाह सम्बन्ध जैसे कामों में स्त्रियां प्रायः अधिक चतुर होती हैं।

७६. नूनमात्मसदृशी प्रकल्पिता वेधसा हि गुणदोषयोर्गतिः ॥

कुमार० ८ ६६ ॥

ब्रह्मा ने अपने स्वभाव के अनुसार गुण और दोष की स्थिति ऐसी बनाई है कि गुण ऊपर रहते हैं और दोष नीचे।

७७. स्तोत्रं कस्य न तुष्टये ॥कुमार० १० १९ ॥

प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती।

७८. कार्येष्ववश्यकार्येषु सिद्धये क्षिप्रकारिता ॥ कुमार० १० २५ ॥

जो काम अवश्य ही पूरे करने होते हैं उन्हें पूरा करने में जल्दी करनी चाहिये।

७९. विपदा परिभूताः किं व्यवस्यन्ति विलम्बितुम् ॥ कुमार० १० ३५ ॥

मुसीबत के मारे लोगों को कुछ देर ठहर कर सोचने समझने की सुध नहीं रहती।

८०. रत्नाकरे युज्यते एव रत्नम् ॥ कुमार० ११।११ ॥

रत्न तो रत्नों के भण्डार समुद्र से ही निकलता है।

८१. पुत्रोत्सवे माद्यति का न हर्षात् ॥ कुमार० ११।१७॥

ऐसी कौन माता है जो पुत्र प्राप्त कर आनन्दविभोर न हो उठे?

८२. कस्य मनो न हि क्षुभ्यति धाम धाम्नि ॥ कुमार० १२।२२ ॥

सुख-सम्पत्ति देखकर किसका मन विचलित नहीं हो उठता ?

८३. चिरार्जितं पुण्यमिवापचारात् ॥ कुमार० १२।३८ ॥

बहुत समय से संचित किया हुआ पुण्य; पाप कर्मों से नष्ट हो जाता है।

८४. दावानलप्लोषविपत्तिमन्यो महाम्बुदात् किं हरते वनानाम् ॥

कुमार० १२।४१ ॥

बादलों की घनघोर वर्षा के अतिरिक्त कौन जंगल की आग से वनों की रक्षा कर सकता है।

८५. भवन्ति वाचोऽवसरे प्रयुक्ता ध्रुवं फलाविष्टमहोदयाय ॥

कुमार० १२।४३॥

उचित अवसर पर कही गई बात का परिणाम अवश्य अच्छा होता है।

८६. ध्रुवमभिमते पूर्णे को वा मुदा न हि माद्यति ॥

कुमार० १२।६०॥

अपनी इच्छा पूरी होने पर कौन खुशी से फूला नहीं समाता ?

८७. महतां वृथा भवेदसदाग्रहान्धस्य हितोपदेशनम् ॥

कुमार० १५।२६ ॥

दुराग्रह से अन्धे व्यक्ति को बड़े बूढ़ों की हितकारी बात अच्छी

नहीं लगती।

८८. कुतस्त्वया तस्य समं विरोधिता ॥कुमार० १५।३४॥

उसके सामने तेरा विरोध नहीं ठहर पायेगा। कालिदास सूक्तिसुधा

८९. आहवस्तस्य सह त्वया कुतः ॥कुमार० १२।३५ ॥

उसके साथ तुम क्या लड़ सकोगे।

९०. युयुत्सुभिः किं समरे विलम्ब्यते ॥कुमार० १५।४७ ॥

लड़ने वाले वीर युद्ध करने में देर नहीं करते।

९१. नास्त्यगतिर्मनोरथानाम् ॥विक्रम० २।११-१२ ॥

इच्छाओं की दौड़ कहीं भी नहीं रुकती।

९२. अनुत्सेकः खलु विक्रमालङ्कारः ॥ विक्रम० १।१७-१८॥

विनय, पराक्रमी पुरुष का आभूषण होता है।

९३. ननु प्रथमं मेघराजिर्दृश्यते पश्चाद्विद्युल्लता ॥विक्रम० २।१४-१५ ॥

पहले बादल दीखते हैं और इसके बाद बिजली कीकौंध।

९४. तप्तेन तप्तमयसा घटनाय योग्यम् ॥ विक्रम० २।१५ ॥

तपे हुए लोहे को गर्म लोहे से जोड़ देना चाहिये।

९५. लोत्रेण गृहीतस्य कुम्भीरकस्यास्ति वा प्रतिवचनम् ॥

विक्रम० २।१९-२०॥

चोरी के सामान के साथ पकड़ा गया चोर क्या उत्तर दे सकता है ?

९६. आश्वासितः पिशाचोऽपि भोजनेन ॥ विक्रम० १२।१९-२०॥

भोजन देखकर तो भूत-प्रेत भी कहना मान जाते हैं।

९७. भवितव्यानुविधायिनी इन्द्रियाणि ॥

विक्रम० २। मिश्र विषकम्भक ॥

इन्द्रियां, होनहार के अनुरूप काम करने लगती हैं।

९८. स्त्रीषु कष्टोऽधिकारः ॥ विक्रम० ३\।१॥

स्त्रियों की सेवा करना बड़ा ही कठिन होता है।

९९. यदेवोपनतं दुःखात् सुखं तद्रसवत्तरम्।
निर्वाणाय तरुच्छाया तप्तस्य हि विशेषतः ॥ विक्रम० ३।२१॥

दुःख झेलकर प्राप्त हुआ सुख बहुत अच्छा लगता है। जैसे धूप से तपे हुए मनुष्य को पेड़ की छाया बहुत शान्ति प्रदान करती है।

१००. सर्वथा नास्ति विधेरलङ्घनीयं नाम ॥विक्रम० ४।२-३॥

विधि का विधान अटल होता है।

**१०१. परावृत्तभागधेयानां दुःखं दुःखानुबन्धि ॥ **

विक्रम० ४१९-१०॥

फूटे भाग्य वालों को एक के बाद दूसरी विपत्ति झेलनी ही पड़ती है।

१०२. राजा कालस्य कारणम् ॥ विक्रम० ४।११-१२ ॥

राजा जो चाहे कर सकता है।

१०३. महदपि परदुःखं शीतलं सम्यगाहुः ॥विक्रम० ४।२७ ॥

दूसरों के महान् दुःख को भी लोग थोड़ा ही समझते हैं।

१०४. विभावितैकदेशेन देयं यदभियुज्यते ॥ विक्रम० ४\।३४॥

चोरी का थोड़ा सा सामान बरामद होने पर चोर को सारा माल वापस करना पड़ता है।

१०५. अनिर्वेदप्राप्याणि श्रेयांसि ॥विक्रम ४/५५-५६॥

परिश्रम के बिना सुख नहीं मिलता।

१०६. उपपद्यते परिभवास्पदं दशाविपर्ययः ॥ विक्रम० ४।६०-६१ ॥

बुरे दिन आने पर व्यक्ति को अपमान सहने पड़ते हैं।

१०७. न खलु वयसा जात्यैवायं स्वकार्यसहो भरः ॥

विक्रम० ५।१८॥

अपना कर्तव्य पालन करने की क्षमता आयु से नहीं अपितु जाति से आती है।

१०८. पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥

मालविका० १।२ ॥

कोई वस्तु पुरानी होने से ही अच्छी नहीं हो जाती और कोई नई होने के कारण निन्दनीय नहीं मानी जा सकती। विवेकशील व्यक्ति किसी वस्तु या कृति के गुण-दोषों की परीक्षा करके ही किसी रचना को पसन्द करते हैं। मूर्ख लोग तो दूसरों की बातों में आकर किसी भी काव्य कृति की आलोचना करने लगते हैं।

१०९. आकृतिविशेषेष्वादरः पदं करोति ॥ मालविका० १।३-४॥

सुन्दर व्यक्ति की ओर मन खिचता ही है।

११०. नाट्यं भिन्नरुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधकम् ॥

मालविका० १।४ ॥

अलग-अलग रुचियों वाले लोगों को भी नाटक में एक जैसा आनन्द आता है।

१११. पात्रविशेषे न्यस्तं गुणान्तरं व्रजति शिल्पमाधातुः।
जलमिव समुद्रशुक्तौ मुक्ताफलतां पयोदस्य ॥

मालविका० १।६ ॥

उत्तम शिष्य अपने गुरु की शिक्षा और कला को उसी प्रकार बहुत अधिक चमका देता है जैसे वर्षा का जल समुद्र की सीपी में पड़कर मोती बन जाता है।

११२. हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकाऽपि वा॥

रघु० १।१०॥

सोने का खरा या खोटापन उसे आग में तपाने से ही पता चलता है।

११३. अचिराधिष्ठितराज्यः शत्रुः प्रकृतिष्वरूढमूलत्वात्।
नवसंरोपणशिथिलस्तरुरिव सुकरः समुद्धर्तुम्॥

मालविका० १।८॥

जो शत्रु राजा कुछ ही समय पहले सिंहासन पर बैठा हो उसे नये रोपे हुए पेड़ की तरह जल्दी ही उखाड़ा जा सकता है क्योंकि प्रजा के बीच नये शत्रु-राजा की जड़ें मजबूत नहीं हो पातीं।

११४. प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्बाहुरिव वामनः॥ रघु० १।३॥

किसी लम्बे व्यक्ति द्वारा तोड़े जा सकने वाले फल को तोड़ने के लिए जैसे कोई बौना पुरुष लोभ से हाथ उठाये।

११५. प्रतिकारविधानमायुषः सति शेषे हि कल्पते॥

रघु० ८।४०॥

आयु शेष होने पर ही इलाज से लाभ होता है।

११६. कठिनाः खलु स्त्रियः॥ कुमार० ४।५॥

स्त्रियों का हृदय वास्तव में बहुत कठोर होता है।

११७. रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय॥

पूर्वमेघ २१॥

खाली हाथ व्यक्ति का सब जगह अपमान किया जाता है और सम्पन्न व्यक्ति का आदर।

११८. के वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयत्नाः॥

पूर्वमेघ ५८॥

व्यर्थ के काम शुरू कर देने वालों को नीचा देखना ही पड़ताहै।

११९. सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम्॥

उत्तरमेघ २०॥

सूर्यास्त हो जाने पर कमल का फूल शोभा रहित हो जाता है।

१२०. प्रायः सर्वो भवति करुणा वृत्तिरार्द्रान्तरात्मा॥

उत्तरमेघ ३४॥

दयालु लोग दूसरों के दुख से प्रायः पसीज जाते हैं।

१२१. पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव॥ उत्तरमेघ ४३॥

मुसीबत के मारे लोगों को सब से पहले कोई अच्छी बात कहनी चाहिये।

१२२. कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा।
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण॥ उत्तरमेघ ५२॥

किसी भी सुख और दुःख सदा नहीं रहते। जीवन में पहिये के घेरे की तरह सुख और दुःख ऊपर और नीचे आते जाते रहते हैं।

१२३. बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः॥

शाकुन्तल १।२॥

भलीभांति प्रशिक्षित कर देने पर भी व्यक्ति या कलाकार के मन में अविश्वास बना ही रहता है।

१२४. आर्तत्राणाय वः शस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि॥

शाकुन्तल १।११॥

शक्तिसम्पत्र या राजा के हथियार पीड़ितों की रक्षा करने के लिए होते हैं न कि निरपराध लोगों को मारने के लिए।

१२५. विनीतवेषेण प्रवेष्टव्यानि आश्रमतपोवनानि॥

शाकुन्तल १५-१६॥

आश्रमों और तपोवनों में साधारण वस्त्र पहिनकर जाना चाहिये।

१२६. भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र॥शाकुन्तल १। १६॥

अवश्य होने वाली बातों के लिए सभी जगह सम्भावना रहती है।

१२७. सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः॥

शाकुन्तल १।२१॥

सज्जनों को जिस बात के बारे में सन्देह हो उसके बारे में अपने अन्तःकरण की बात मान लेनी चाहिये।

**१२८. राजरक्षितव्यानि तपोवनानि नाम॥ **शाकुन्तल २२-२३॥

तपोवनों की रक्षा करना राजा का हीकर्तव्य है।

**१२९. सर्वं खलु कान्तमात्मानं पश्यति॥ **शाकुन्तल २।७-८॥

सभी लोग अपने को सुन्दर समझते हैं।

१३०. विकारं खलु परमार्थतोऽज्ञात्वाऽनारम्भः प्रतीकारस्य॥

शाकुन्तल ३।७-८॥

जब तक रोग का ठीक पता न चले तब तक उसका इलाज कैसे शुरू किया जा सकता है?

१३१. स्निग्धजनसंविभक्तं हि दुःखं सह्यवेदनं भवति॥

शा० ३।८-९॥

अपने स्नेहीजनों में दुख बाँट देने से उसकी वेदना सहन करने योग्य हो जाती है।

१३२. सागरमुज्झित्वा कुत्र वा महानद्यवतरति॥

शा० ३।१०-११॥

महानदी, सागर के अतिरिक्त किस से मिलती है?

१३३. श्रिया दुरापः कथमीप्सितो भवेत्॥ शाकुन्तल ३।१२॥

जिसे लक्ष्मी चाहे वह लक्ष्मी को न मिले यह सम्भव ही नहीं है।

१३४. विवक्षितं हि अनुक्तमनुतापं जनयति॥

शाकुन्तल ३।१६-१७॥

यदि मन की बात नहीं कही जाती तो बाद में पछतावा होता है।

१३५. अहो विघ्नवत्यः प्रार्थितार्थसिद्धयः॥

शाकुन्तल ३।२२।-२३॥

मन की इच्छाएँ पूरी होने में अनेक बाधाएं आती हैं।

१३६. क इदानीं शरीरनिर्वापयित्रीं शारदीं ज्योत्स्नां पटान्तेन वारयति?

शा० ३।१२-१३॥

शरीर को सुख देने वाली शरद् ऋतु की चांदनी को कपड़े से कौन रोकना चाहता है?

१३७. को नामोष्णोदकेन नवमालिकां सिञ्चति?

शाकुन्तल ३। विष्कम्भक॥

नवमल्लिका की बेल को गरम पानी से कौन सींचना चाहता है?

१३८. प्रकृतिदुरवापा हि विषयाः॥ शाकुन्तल ३।४०॥

मनोरथ बड़ी कठिनाई से पूरे हो पाते हैं।

१३९. तेजोद्वयस्य युगपद्व्यसनोदयाभ्यां
लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु॥ शा० ४।२॥

प्रातः काल होने पर चन्द्रमा को अस्त होता और सूर्य को उदय होता देख यही पता चलता है कि जीवन में कभी सुख और कभी दुःख आता-जाता रहता है।

१४०. इष्टप्रवासजनितान्यबलाजनस्य
दुःखानि नूनमतिमात्रसुदुःसहानि॥

शा० ४।३॥

पति के प्रवास पर चले जाने पर पत्नियों को निश्चय ही

बहुत दुःख झेलने पड़ते हैं।

१४१. अत्यारूढिर्भवति महतामप्यपभ्रंशनिष्ठा। शाकुन्तल ४।५॥

बड़े लोगों की अत्यधिक उन्नति भी किसी न किसी दिन नष्ट हो जाती है।

१४२. सुशिष्यपरिदत्ता विद्येवाशोचनीया संवृत्ता॥ शाकुन्तल ४।३-४॥

जैसे सुयोग्य शिष्य को विद्या देकर सुख होता है वैसे ही उत्तम वर को कन्या सौंपने पर खुशी होती है।

१४३. ओदकान्तं स्निग्धो जनोऽनुगन्तव्यः॥

शाकुन्तल ४।१५-१६॥

प्रियजन को विदा करते समय जलाशय तक पहुंचकर लौट जाना चाहिये।

१४४. गुर्वपि विरहदुःखमाशाबन्धः साहयति॥

शाकुन्तल ४।१६॥

विरह का महान् कष्ट भी मिलन की आशा के सहारे सहन कर लिया जाता है।

१४५. स्नेहः पापशङ्की॥ शाकुन्तल ४।१९-२०।

अपने प्रेमीजन के कल्याण के बारे में मन शंकित रहता है।

१४६. कुतो विश्रामो लोकपालानाम्॥ शाकुन्तल ५।३-४॥

राजाओं और सूर्य चन्द्र आदि संसार का पालन करने वालों को विश्राम नहीं मिलता।

१४७. नातिश्रमापनयनाय यथा श्रमाय
राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवातपत्रम्॥

शा० ५।५॥

अपने हाथ में छाता पकड़ने के कष्ट की तुलना में गर्मी से बचने का आराम कम ही होता है इसी प्रकार राज्य से सुख

मिलने की अपेक्षा उसे संभालना अधिक कठिन होता है।

१४८. भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि॥ शाकुन्तल ५।९॥

पिछले जन्म के प्रेमियों के संस्कार चित्त में वासना रूप से अगले जन्म में रहते हैं।

१४९. अनिर्वर्णनीयं परकलत्रम्॥ शाकुन्तल ५।१३-१४॥

पराई स्त्री को नहीं देखना चाहिये।

१५० तमस्तपति घर्मांशौ कथमाविर्भविष्यति॥ शाकुन्तल ५।१४॥

सूर्य के उदय होने पर अन्धेरा नहीं रह सकता।

१५१. स्वाधीनकुशलाः सिद्धिमन्तः॥ शाकुन्तल ५।१४-१५॥

कुशल क्षेम, सिद्धपुरुषों के अधीन रहती है।

१५२. मूर्च्छन्त्यमी विकाराः प्रायेणैश्वर्यमत्तेषु॥ शाकुन्तल ५।१८॥

ऐश्वर्य में मतवाले लोग गलत आचरण करने लगते हैं।

१५३. सर्वः सगन्धेषु विश्वसिति॥ शाकुन्तल ५।२१-२२॥

अपने बन्धु बान्धवों का सभी विश्वास करते हैं।

१५४. स्त्रीणामशिक्षितपटुत्वममानुषीषु
सन्दृश्यते किमुत याः प्रतिबोधवत्यः।
प्रागन्तरिक्षगमनात् स्वमपत्यजात-
मन्यैर्द्विजैः परभृताः खलु पोषयन्ति॥ शा० ५।२२॥

पशु-पक्षियों में भी मादाएं बिना सिखाये पढ़ाये ही बहुत चालाक होती हैं और फिर समझदार स्त्रियों का तो कहना ही क्या। कोयलों के बच्चे जब तक उड़ना नहीं सीख जाते तब तक उनकी माताएं कौओं से अपने बच्चों का पालन पोषण कराती हैं।

१५५. उपपन्ना हि दारेषु प्रभुता सर्वतोमुखी॥ शाकुन्तल ५।२६॥

पति का अपनी स्त्रियों पर पूरा अधिकार होता है।

१५६. वशिनां हि परपरिग्रहसंश्लेषपराङ्मुखी वृत्तिः॥

शाकुन्तल ५।२८॥

जितेन्द्रिय व्यक्ति पराई स्त्री के सम्पर्क से सदा बचते हैं।

१५७. अवसरोपसर्पणीया राजानः॥ शाकुन्तल ६। प्रवेशकः॥

अवसर देखकर ही राजा के पास जाना चाहिये।

१५८. उच्छेत्तुं प्रभवति यन्न सप्तसप्तिस्तन्नैशं तिमिरमपाकरोति चन्द्रः॥

शा० ६।३०॥

रात का जो अंधेरा सूर्य नहीं हटा सकता उसे चन्द्रमा दूर कर देता है।

१५९. ज्वलितचलितेन्धनोऽग्निर्विप्रकृतः पन्नगः फणां कुरुते।
प्रायः स्वं महिमानं क्षोभात् प्रतिपद्यते हि जनः॥

शा० ६।३१॥

जलती हुई लकड़ियों को हिलाने डुलाने से ही अग्नि प्रज्वलित होती है। छेड़ने पर ही सांप अपना फन उठाता है। मनुष्य भी उकसाने पर अपनी तेजस्विता प्रकट करता है।

१६०. कल्पिष्यमाणा महते फलाय वसुन्धरा काल इवोप्तबीजा॥

शा० ६।२४॥

समय पर बीज डालने से पृथिवी बहुत अच्छी फसल देती है।

१६१. हंसो हि क्षीरमादत्ते तन्मिश्रा वर्जयत्यपः॥

शाकुन्तल ६। २८॥

हंस पानी मिले दूध में से दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है।

१६२. उत्सर्पिणी खलु महतां प्रार्थना॥ शाकुन्तल ७।१२- १३॥

महापुरुषों की आकांक्षाएं महान् ही होती है।

१६३. पूर्वावधीरितं श्रेयो दुःखं हि परिवर्धते॥

शाकुन्तल ७।१३॥

जिस कल्याणमयी वस्तु का एक बार तिरस्कार कर दिया जाता है वह फिर बड़ी कठिनाई से मिल पाती है।

१६४. किमीश्वराणां परोक्षम्॥ शाकुन्तल ७।२५-२६॥

क्या साधन सम्पन्न पुरुषों से कोई बात छिपी रह सकती है ?

१६५. प्रबलतमसामेवम्प्रायाः शुभेषु हि प्रवृत्तयः।
स्वजमपि शिरस्यन्धः क्षिप्तां धुनोत्यहिशङ्कया॥

शा० ७।२४॥

तमोगुणी पुरुष शुभ कार्यों में भी वैसे ही भूल कर बैठते हैं। जैसे गले में पहनायी गयी माला को अन्धा व्यक्ति सांप समझ कर फेंक देता है।

१६६. छाया न मूर्च्छति मलोपहतप्रसादे
शुद्धे तु दर्पणतले सुलभावकाशा॥

शा० ७।३२॥

धूल से भरे दर्पण में आकृति दिखाई नहीं देती है किन्तु साफ दर्पण में शक्ल आसानी से दीखने लगती है।

१६७. सरस्वती श्रुतिर्महती महीयताम्॥ शाकुन्तल ७।३५॥

वेदों से श्रेष्ठ बनी देववाणी संस्कृत की सर्वत्र विजय हो। अथवा शास्त्रों के अध्ययन से परिपक्व महाकवियों की वाणी का सर्वत्र आदर हो।

प्रकीर्ण

१. ग्रीवाभङ्गाभिरामं मुहुरनुपतति स्यन्दने बद्धदृष्टिः,
पश्चार्धेन प्रविष्टः शरपतनभयाद्भूयसा पूर्वकायम्।
दर्भैरर्धावलीढैः श्रमविवृतमुखभ्रंशिभिः कीर्णवर्त्मा,
पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुर्व्यां प्रयाति॥

शाकुन्तल १।७॥

यह हरिण बाण लगने के डर से भाग रहा है और अपनी गर्दन मोड़कर पीछा करते हुए रथ को बार-बार देखता जा रहा है। दौड़ते हुए इसके शरीर का पिछला भाग शरीर के अगले भाग में आकर सिकुड़ गया है। हांपने के कारण उसके खुले हुए मुख से आधी चबाई हुई घास रास्ते पर गिरती जा रही है। चौकड़ी भर कर भागते हुए यह हरिण जमीन पर कभी कभी ही पैर टिकाता है, नहीं तो यह आकाश में ही उड़ता दीख रहा है।

२. मुक्तेषु रश्मिषु निरायतपूर्वकाया,
निष्कम्पचामरशिखा निभृतोर्ध्वकर्णाः।
आत्मोद्धतैरपि रजोभिरलङ्घनीया,
धावन्त्यमी मृगजवाक्षमयेव रथ्याः॥शाकुन्तल १।८॥

लगाम छोड़ते ही रथ के घोड़े अपने शरीर का अगला भाग फैलाकर ऊपर उठी हुई पूंछ को बिना हिलाये तथा कान खड़े करके इतनी तेज दौड़ रहे हैं कि इनके खुरों से उठी धूल भी इन्हें नहीं छू पा रही है। ऐसा लगता है कि रथ के घोड़े हरिण की दौड़ से बाजी लगा रहे हैं।

३. यदालोके सूक्ष्मं व्रजति सहसा तद्विपुलताम्,
यदर्थे विच्छिन्नं भवति कृतसन्धानमिव तत्।
प्रकृत्या यद्वक्रं तदपि समरेखं नयनयो-
र्न मे दूरे किञ्चित्क्षणमपि न पार्श्वे रथजवात्॥

शाकुन्तल १।९॥

रथ के तेज चलने के कारण कोई भी वस्तु न तो मुझ से दूर दीखती है और न ही पास कुछ ही समय पहले जो वस्तु छोटी लग रही थी वही अचानक बड़ी लगने लगती है, जो बीच में से कटी हुई लगती थी वह पूरी दिखाई देने लगती है और टेढ़ी चीजें भी पास आने के कारण सीधी दीखने लगती हैं।

४. शैलानामवरोहतीव शिखरादुन्मज्जतां मेदिनी,
पर्णस्वन्तरलीनतां विजहति स्कन्धोदयात्पादपाः।

सन्तानैस्तनुभावनष्टसलिला व्यक्तिं भजन्त्यापगाः,
केनाप्युत्क्षिपतेव पश्य भुवनं मत्पार्श्वमानीयते॥

शाकुन्तल ७।८॥

** **ऐसा लग रहा है मानों पृथिवी पहाड़ों की चोटियों से नीचे उतर रही हो। पेड़ों की शाखाएं दीखने लगी हैं जो ऊँचाई से पत्तों में छिपी हुई दीख रहीं थीं। विमान की बहुत ऊंचाई के कारण जो नदियां बिना जल की पतली रेखा सी दीख रही थीं. अब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी हैं। पास आती जा रही पृथिवी ऐसी लग रही है मानो इसे किसी ने ऊपर उछाल दिया हो।

५. उदेति पूर्वं कुसुमं ततः फलं घनोदयः प्राक् तदनन्तरं पयः।
निमित्तनैमित्तिकयोरयं क्रमस्तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः॥

शा० ७।३०॥

कारण और कार्य का तो यही क्रम है कि पहले फूल खिलता है फिर फल लगता है। पहले बादल आते हैं फिर वर्षा होती हैं। किन्तु आप जैसे महर्षियों की कृपा से सुख-समृद्धि विना प्रयत्न तुरन्त प्राप्त हो जाती है।

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