[[नागानन्दम् नाटकम् Source: EB]]
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संस्कृतसाहित्य का अद्वितीय रत्न—
महाकवि कालिदास विरचित
अभिज्ञान शाकुन्तल नाटक
अतिसरल ‘अभिनवराजलक्ष्मी’ नामक विस्तृत संस्कृतटीका तथा विशद’भाषाटीका’ सहित।
टीकाकार—काशीके सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० श्रीगुरुप्रसाद शास्त्री व्याकरणाचार्य, न्यायाचार्य, दर्शनाचार्य।
[अध्यक्ष—श्रीराजस्थान-संस्कृत-कालेज, मीरघाट, बनारस]।
अभिज्ञान शाकुन्तल सभी यूनिवर्सिटियोंकी परीक्षाओंमें पाठ्य रूपसे निर्धारित है। केवल संस्कृतसाहित्यकी परिक्षाओं में ही नहीं, किन्तु अंग्रेजी कीबी. ए. एम्. ए. परिक्षाओं में भी यह पाठ्यरूपसे निर्धारित है।
परन्तु इसकी सरल और परीक्षोपयोगी तथा सर्वाङ्गपूर्ण संस्कृत टीका औरटीका का सर्वथा अभाव था जिससे परीक्षार्थियोंको कठिनाइयों का अनुभवहोता था। इस अभाव को दूर करने के लिए ‘अभिनवराजलक्ष्मी’ नामक बहुतही सरल संस्कृतटीका और भाषाटीका के साथ यह संस्करण निकाला गया है।इससे संस्कृत और अंग्रेजी के परीक्षार्थी छात्र पूरी २ सहायता ले सकेंगे। इन टीकाओंकेसहायतासे गुरु की सहायता के विना भी छात्र स्वयं ही अर्थ समझ सकेंगे और महाकवि कालिदासके इस महत्त्वपूर्ण नाटक का आनन्द ले सकेंगे। -अतः एक प्रति इसकी आज ही मंगाइए।)
पुस्तक मिलने का पता—
भार्गवपुस्तकालय, गायघाट, बनारस।
ब्राञ्च- कचौड़ीगली, बनारस।
प्रस्तावना
महाराजाधिराज हिन्दूसम्राट् श्रीहर्षवर्द्धनदेव विरचित अतिप्राचीन उत्कृष्टनागानन्द नामक नाटक का परीक्षोपयोगी ‘अभिनवराजलक्ष्मी’ नामक विस्तृतसंस्कृतटीका, एवं ‘कलभाषिणी’ नामक विशद भाषाटीका के साथ यह परीक्षोपयोगी उत्तम संस्करण आप लोगों के समक्ष उपस्थित करते हुए हमें बड़ा हर्षऔर अतिप्रसन्नता हो रही है।
इस नाटक की विशेषता सर्व विदित है। यह एक करुणा एवं शान्त रससेओत-प्रोत, वीर रस प्रधान नाटक है। इसके उद्धरण ‘काव्यप्रकाश’ ‘साहित्यदर्पण’ ‘ध्वन्यालोक - लोचन’ आदि साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों में, भारत के ख्यातनामा ‘मम्मट-भट्ट’ ‘अभिनवगुप्तपादाचार्य’ प्रभृति महाविद्वानों द्वारा दिए गए हैं। एतावताइसकी सार्वभौम मान्यता स्पष्ट हो जाती है। इसमें सन्देह नहीं कि—श्रीहर्षवर्द्धन की कृतियों में नागानन्दका बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
इस नागानन्द का कथानक–प्राचीन ‘बृहत्कथा’ नामक भूतभाषात्मक ग्रन्थ केआधार पर, तथा बौद्ध जातकों के आधार पर है। जिसमें बृहत्कथा तो अबमिलती नहीं है। परन्तु इसके संस्कृतच्छायानुवाद ‘कथासरित्सागर’ तथा ‘बृहत्कथामञ्जरी’ आजकल उपलब्ध होते हैं। उनमें इस नाटक के कथांशका पूराविवरण देखने को मिलता है। इसमें सन्देह नहीं कि—इस नागानन्द का कथाभाग बड़ा ही आकर्षक, रोचक और उपदेशप्रद।अतः इससे छात्रवर्ग तथा सहृदयगण अच्छी शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। भाषा का सौष्ठव, माधुर्य तोइसमें पद-पद पर देखने को मिलता है।
श्रीहर्षवर्द्धन—
इस नाटक के रचयिता महाराजाधिराज श्रीहर्षवर्द्धन वैक्रम सं० ६५० मेंविद्यमान थे। इनका राज्यारोहण काल विक्रम संवत् ६६३ माना जाता है।सं० ७०४ वै० तक ४१ वर्ष तक इन्होंनें संपूर्ण उत्तरी भारत (गोदावरी कीसीमातक) को राज्य किया। इनकी राजधानी थानेसर (कुरुक्षेत्र-दिल्ली) थी।
वे बड़े विद्वान्, और पितृभक्त तथा परोपकारी थे। नागानन्द इन्हीं के चरित कीछाया लेकर बनाया गया है — ऐसा भी कुछ विद्वानों का मत है।
इनकी सभा में बड़े बड़े विद्वान् रहते थे। जिनमें बाणभट्ट, मयूरभट्ट प्रधानथे। बाणभट्ट ने इन्हीं की प्रशंसा में ‘हर्षचरित’ नामक ग्रन्थ बनाया है।
इनकी दान की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। प्रयाग में कुम्भ के अवसरपरइन्होंने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति विद्वानों, साधुओं, महात्माओं, अनाथों को अनेकबार बाँट दी थी।
एकबार तो इनके पास कौपीन ( लंगोटी ) के अतिरिक्त वस्त्र तक नहीं रहाथा। धोती भी इन्होंने अपनी बहिन से लेकर पहिनी थी। इतने बड़े सम्राट् काको अपने सम्पूर्ण राज्य की तथा अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का अनाथ, गरीब, साधु,विद्वानों में बाँट देने का ऐसा उदाहरण इतिहास में वहुत कम मिलेगा। अतःकहना पड़ेगा, कि ये अति उदार थे। परोपकार में इनकी बड़ी रुचि थी। इन्हीं सेमिलता-जुलता यह नागानन्द के नायक जीमूतवाहन का कथानक है। अतएवअतिशय उच्च श्रेणिके त्याग का इसमें वर्णन खूब बढाकर दिया गया है। यहीअन्थकर्त्ता का भी आदर्श था। अस्तु। सभी दृष्टि से यह नाटक बड़ा हीआकर्षक, शिक्षाप्रद तथा सरस है।
इसकी सरसता का शब्द सौष्ठव का, प्रसाद गुण का कुछ थोड़ा साहरण भी दे देना अप्रासङ्गिक नहीं होगा।
कुछ उदाहरण—
यैरत्यन्तदयापरैर्न विहिता वन्ध्याऽर्थिनां प्रार्थना,
यैः कारुण्यपरिग्रहान्न गणितः स्वार्थः परार्थं प्रति।
ये नित्यं परदुःखदुःखितधियस्ते साधवोऽस्तङ्गताः,
मातः ! संहर बाष्पवेगमधुना कस्याग्रतो रुद्यते ?॥४॥१०॥
मूढाया मुहुरश्रुसन्ततिमुचः, कृत्वा प्रलापान्बहून्,
‘कस्त्राता तव पुत्रके’ ति कृपणं दिक्षु क्षिपन्त्या दृशम्।
अङ्के मातुरवस्थितं शिशुमिमं त्यक्त्वा घृणामश्नत-
श्चञ्चूर्नैव, खगाधिपस्य हृदयं वज्रेण मन्ये कृतम् !॥४॥९॥
इस प्रकार अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं।
इसकी भाषा भी बड़ी ही सरल और मधुर है। विवेचन व वर्णनप्रणालीतो और भी - उच्चकोटि की है। यह बात पाठकों को इसके पढ़ते समय स्वयंअनुभव में आवेगी।
इस प्रकार उच्चकोटि के उपदेशप्रद इस नागानन्दनाटक की कोई परीक्षोपयोगी सरल टीका नहीं देखकर काशी के सुप्रसिद्ध भार्गव पुस्तकालयाध्यक्ष - पं०कैलासनाथजी भार्गव अमर, तथा पं० बैकुण्ठनाथजी भार्गव के विशेष अनुरोध से हम समय की एवं अवकाश की कमी रहनेपर भी इसको अभिनवराजलक्ष्मी नामक संस्कृतटीका, एवं ‘कलभाषिणी’ भाषाटीका का निर्माणकर परीक्षार्थीछात्रों के लाभार्थ मुद्रित कराकर सहृदय विद्वानों के तथा छात्रों के करकमलों मेंप्रेम समर्पित कर रहे हैं।
इससे परीक्षार्थी विद्यार्थियों का तथा अध्यापक वर्ग का विशेष लाभ हुआतो हम अपना श्रम सफल समझेंगें।
आशा है, विद्वान् तथा छात्रगण इसको अधिकाधिक संख्या में मंगा करलाभ उठावेंगें।
यद्यपि नागानन्द के अन्यान्य अच्छे २ संस्करण भी निकले हैं, परन्तुजहाँआपको पाठ में, अर्थ में, भावांशमें कहीं भी कुछभी सन्देह हो, आप हमारीटीका ‘अभिनवराज लक्ष्मी’ और ‘कलभाषिणी’ को उठाकर देखिए, आपका सन्तोषअवश्य हो जाएगा। अतः प्रत्येक परीक्षार्थी छात्र व अध्यापकों के लिए नागानन्द के हमारे इस अतिसरल-संस्करण का अपने पास में रखने की विशेषआवश्यकता स्पष्ट है। साथही पाठान्तर देकर इस संस्करण की उपादेयता औरभी बढ़ा दी गई है। अतः प्रत्येक संस्कृत पुस्तकालय, संस्कृतविद्यालय, छात्रवर्ग और अध्यापकवर्ग - इसकी १ - १ प्रति मंगा कर परीक्षा आदि में इससे सहायता लेकर लाभ उठावें। यही हमारी प्रार्थना है।
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| नागानन्द-नाटक के पात्रों का परिचय — |
| जीमूतवाहन—विद्याधर राजकुमार |
| नायक—विद्याधर राजकुमार |
| विदूषक— नायक का हंसोड मित्र |
| जीमूतकेतु — विद्याधरराज |
| वृद्धा — जीमूतवाहन की माता |
| मलयवती—सिद्धराजकी कन्या |
| नायिका — सिद्धराजकी कन्या |
| चतुरिका—नौकरानी, चेटी |
| मनोहरिका—नौकरानी, चेटी |
| चेटी—नौकरानी, चेटी |
| शेखरक— मद्यप, कुम्भदासी — विट |
| नवमालिका — नौकरानी |
| विट — भडुवा, शराबी, वेश्या भक्त |
| चेट — विटका नौकर |
| पल्लविका — उद्यानपालिका |
| प्रतीहार, सुनन्द —जमादार |
| कञ्चुकी— अन्तः पुरका वृद्ध अफसर |
| वसुभद्र—अन्तः पुरका वृद्ध अफसर |
| शङ्खचूड — तीन फण वाला गरुड़ के लिए बलिस्वरूप वासुकिद्वारा भेजागया नाग |
| वृद्धा — शङ्खचूड की माता |
| मित्रावसु — मलयवती का भाई |
| विश्वावसु — सिद्धों का राजा |
| गौरी — पार्वती जी |
| मतङ्गदेव — जीमूतवाहन का शत्रु |
| वासुकि — नागराज |
| किङ्कर —— नागराज का सिपाही |
| गरुड —पक्षिराज गरुड |
| तापस— मुनि |
| शाण्डिल्य—मुनि |
| कौशिक—मुनि |
॥श्रीगणेशाय नमः॥
अभिनवराजलक्ष्मीविराजितं -
नागानन्दं नाम नाटकम्।
तस्य चायं—
प्रथमोऽङ्कः।
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॥श्रीश्रीमहागणपतये नमः॥
अथ श्रीगुरुप्रसादशास्त्रिकृता—
नागानन्दाऽभिनवराजलक्ष्मीः।
ऐन्द्रस्येव शरासनस्य दधती मध्येललाटं प्रभां,
शौक्लीं कान्तिमनुष्णगोरिव शिरस्यातन्वती सर्वतः।
एषासौ त्रिपुरा हृदि द्युतिरिवोष्णांशोः सदाहस्स्थिता,
छिन्द्यान्नः सहसा पदैस्त्रिभिरघं ज्योतिर्मयी वाङ्मयी॥
महालक्ष्मीसमाश्लिष्टवामाङ्कं करुणाकरम्।
स्फुरद्बोधं महः किञ्चिदरुणं चिन्मयं नुमः॥२॥
वन्देऽनवद्यसद्वन्द्यविद्योद्भासितदिङ्मुखान्।
मरुमण्डलमार्त्तण्डस्नेहिरामाभिधान् गुरून्॥३॥
नत्वा सरस्वतीं शुद्धां परामकुलसंस्थिताम्।
नागानन्दस्य कुर्वेऽहं व्याख्यां बालापयोगिनीम्॥४॥
लोके ह्यस्मिन् खलु धर्मार्थकाममोक्षाख्याश्चत्वारः पुरुषार्थाः प्रसिद्धाः। तत्रैकैकधर्माद्यर्थसाधनेष्वपि पुंसां नैसर्गिकी प्रवृत्तिरुपलक्ष्यत। किं पुनरेकपदे एवसकल - (चतुर्विध)-पुरुषार्थसाधने प्रवृत्तिः। काव्येन च चतुर्विधपुरुषार्थप्राप्तिरभियुक्तैः स्पष्टमुक्ता। तथाहि भामहाचार्यैरुक्तं—
धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्तिं प्रीतिञ्च साधुकाव्यनिषेवणम्। इति।
तदेवं न केवलं धर्मादय एव, किन्तु कलासु कौशलं, लोके विशदं यशो, मनःप्रीतिञ्च पुसां काव्यसेवनं विधत्ते इति लभ्यते। तथा च सर्वार्थसाधकत्वात्—
‘काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कलहेन वा ॥
—इत्यभियुक्तोक्तेश्च साधुकाव्यं सर्वथा विद्वद्भिः सेवनीयमिति स्पष्टमायातम्। तच्च काव्यं दृश्यकाव्य—श्रव्यकाव्यभेदेन द्विविधम्। तत्र श्रव्यकाव्यं रघुवंश-नैषधादि। दृश्यकाव्यं नाटकादि दशविधं रूपकाख्यम्। तदुक्तं साहित्यदर्पणे—
‘दृश्यश्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्यं द्विधा मतम्।
दृश्यं तत्राऽभिनेयं, तद्रूपारोपात्तु रूपकम् ॥
भवेदभिनयोऽवस्थाऽनुकारः, स चतुर्विधः।
आङ्गिको वाचिकश्चैवमाहार्यः सात्त्विकस्तथा ॥’ इति।
तत्र दृश्यं-नाट्यम्। तदुक्तं दशरूपके—
‘अवस्थाऽनुकृतिर्नाट्यम्।’ इति।
रसार्णवसुधाकरे च—
‘शृङ्गारादिरसाधारं ‘नाट्यं’ ‘रूपक’ मित्यपि।
नटस्यातिप्रवीणस्य कर्मत्वान्नाट्यमुच्यते ॥
यथा मुखादौ पद्मादेरारोपो रूपकप्रथा।
तथैव नायकारोपो—नटे रूपकमुच्यते ॥ इति।
‘त्रिवर्गसाधनं नाट्यम्’ इत्यग्निपुराणेऽपि।
नाटकलक्षणं च साहित्यदर्पणे—
‘नाटकं ख्यातवृत्तं स्यात्पञ्चसन्धिसमन्वितम्।
विलासर्द्ध्यादिगुणवद्युक्तं नानाविभूतिभिः॥
सुखदुःखसमुद्भूति नानारसनिरन्तरम्।’ इति।
तत्र च—
‘पञ्चादिका दशपरास्तत्राङ्काः परिकीर्त्तिताः।
[अथ1नान्दी]
‘ध्यानव्याजमुपेत्य चिन्तयसि कामुन्मील्य चक्षुः क्षणं
पश्यानङ्गशरातुरं जनमिमं, त्राताऽपि नो रक्षसि ।
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प्रख्यातवंशो राजर्षिर्धीरोदात्तः प्रतापवान् ।
दिव्योऽथ दिव्याऽदिव्यो वा गुणवान्नायको मतः ।
एक एव भवेदङ्गी शृङ्गारो, वीर एव वा ।
अङ्गमन्ये रसाः सर्वे, कार्यो निर्वहणेऽद्भुतः ।
चत्वारः पञ्च वा मुख्याः कार्यव्यापृतपूरुषाः ।
गोपुच्छाग्रसमाग्रन्तु बन्धनन्तस्य कीर्त्तितम् ।’ इति ।
ईदृशं सर्वलक्षणालङ्कृतंविद्वत्प्रेक्षणीयं ‘नाट्येषु रूपकं रम्यम्’ इत्यभियुक्तोक्तेरतिरमणीयं नागानन्दं नाम करुणारसप्रधानं नाटकं प्रारभमाणो महाकविकुलालङ्कारः श्रीकण्ठादि(दिल्ली)देशाधिपः सम्राट्पदमधिरूढो महाराजाधिराजःश्री-श्रीहर्षवर्द्धनः ‘समाप्तिकामो मङ्गलमाचरेत्’ इति, ‘विघ्नध्वंसकामो मङ्गलमाचरेत्’ इति वा शिष्टाचारानुमितश्रुत्या ग्रन्थादाववश्यकर्त्तव्यतया प्रसिद्धं शिष्टाद्यकृतिर्नतिपूर्विका’ इत्यभियुक्तोक्त्याऽवश्याचरणीयम्,—
‘आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्द्देशो वापि मङ्गलम्’
—इति लक्षणानुगुण्येन आशीर्वादात्मकं मङ्गलमाचरन् पूर्वरङ्गप्रधानाङ्गतया नाटकादाव-वश्यावरणीयामष्टपदात्मिकां नटपठनीयां नान्दीं प्रकृतप्रबन्धादावुपनिबध्नाति—ध्यानव्याजमुपेत्येति ।
[अन्वयः -]“ध्यानव्याजम् उपेत्य कां चिन्तयसि?।‘चक्षुः क्षणम्उन्मील्य अनङ्गशरातुरम् इमं जनं पश्य’ । ‘त्रातापि नो रक्षसि’ ?।‘मिथ्या
मिथ्याकारुणिकोऽसि, निर्घृणतरस्त्वत्तः कुतोऽन्यः2 पुमान्’,
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कारुणिकः अति’। ‘त्वत्तः अन्यः पुमान् कुतः निर्घृणतरः ?। इति मारवधूभिः सेर्ष्यम् अभिहितः बोधौ (स्थितः) जिनः वः पातु।
[विग्रहः—] ध्यानमेव व्याजः—ध्यानव्याजः, तं-ध्यानव्याजम्। अनङ्गस्य शराः अनङ्गशराः, अनङ्गशरैः आतुरः—अनङ्गशरातुरः, तम्-अनङ्गशरातुरम्।करुणा शीलमस्य कारुणिकः। ‘शील’मिति ठक्। मिथ्यैव कारुणिकः मिथ्याकारुणिकः। सुप्सुपेति समासः। निर्गता घृणा यस्यासौनिर्घृणः, अतिशयेननिर्घृणः—निर्घृणतरः। ईर्ष्ययासहित सेष्ययथा स्यात्तथा (क्रियाविशेषणमेतत्)।मारस्वामिकाः, मारस्य सहकारिण्यो वा वध्वः—मारवध्वः। माराक्रान्तमानसावध्वः-मारवध्व इति वा। ताभिः—मारवधूभिः। जानातीति जिनः।
[अर्थः] ध्यानव्याजं = ध्यानच्छलम्। उपेत्य=आस्थाय। स्वीकृत्य।काम् = कां खलुअलौकिकसौन्दर्यशालिनीम्। अतिशयसौन्दर्यसम्पन्नां कां नामअस्मदतिरिक्तां सुभगाम्। चिन्तयसि=त्वं ध्यायसि?। योगभूमिषु सप्तमीमवस्थां पर्यङ्कबन्धाक्षिनिमीलन-निश्चलावस्थानादनाच्छलेन बहिर्भावयित्वा कामलौकिकलावण्यसौन्दर्यसौ-भाग्यपरम्परासम्पन्नां कान्तां चेतसा त्वमनुसन्दधासि ?। अस्माननादृत्य अस्मभ्यधिकां कां नाम कामिनोत्वं ध्यानच्छलेन नेत्रे निमील्यसाभिलाषं विभावयसि ?। चक्षुः=नेत्रं। नयनकमलयुगलम्। क्षणं=क्षणमात्रमपि। मुहूर्त्तमानमपि। उन्मील्य=उद्घाट्य। अनङ्गशरातुर=कामबाणपातव्याकुलीभूतस्वान्तम्। कामातुरमिति यावत्। इमं=पुरतः स्थितं। जनम्=त्वदासक्तम्अस्मल्लक्षणं जनम्। कामातुरमप्सरोगणमिमम्। पश्य=अवलोकय। एवं कातरोक्तिगर्भे व वचस्युक्तेऽपिनिर्विकारत्वं जिनस्यालक्ष्याधिक्षेपगर्भमुच्यते—त्रातापीति। त्रातापि=रक्षकोऽपि सन्। सर्वजनरक्षणबद्धदीक्षोऽपि सन्। नो रक्षसि=अस्मान्(कामशरसम्पातत्रस्ता बाला अपि त्वं) हा हन्त! नैव परित्रायसे ?। मृगयुशरसम्पातचकितहरिणीवृन्दमिव निर्दयतरमन्मथबाणप्रहारजर्जारवमानसं वधूजनमिमं सर्वप्राणिरक्षकतया लोके विदितोऽपि, त्रातुं शक्तोऽपि च कथं भवान्नैव परिरक्षति !।
एवमधिक्षेपेऽपि बुद्धस्य भगवतो विकारमनालक्ष्योपालम्भगर्भोक्तिः–मिथ्येति।
सेर्ष्यंमारवधूभिरित्यभिहितोबोधौ जिनः3 पातुः वः ॥१॥
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मिथ्याकारुणिकासि=मिथ्यादयालुरसि। मिथ्यैव त्वां लोका दयालुं मन्यन्ते। वस्तुतो नैव त्वं दयालेशमपिबिभृषे, यतोऽस्मान्कामसंतप्तमनसोऽपि नैव दृष्टिपातमात्रेणापि रक्षसि, अतस्त्वं नितरां क्रूराशयोऽसि। दयालुरिति च लोके प्रसिद्धं तत्र नामधेयं तु वृथैव, दीनरक्षणप्रवृत्तेस्त्वय्यत्यन्तमभावादिति यावत्। ‘स्याद्दयालुः कारुणिकः’ इत्यमरः।
एवमपि विकारादर्शने पुनरप्यधिक्षेपोक्तिः—निघृणेति। त्वत्तः=भवतः। अन्यः=अतिरिक्तः। पुमान्=पुरुषः। कुतः=कः खलु। आद्यादित्वात्सार्वविभक्तिकः प्रथमार्थे तसिः। विभक्तिप्रतिरूपकं वाऽव्ययमेतत् क इत्यर्थे। निघृणतरः=निर्दयतरः। ‘कारुण्यं करुणा घृणा’ इत्यमरः। भवदपेक्षयाऽन्यो जगति कोऽपि क्रूराशयो नास्तीत्याशयः। ‘त्वत्तः अन्यः पुमान् निर्घृणतरः कुतः इत्येवमन्वये तु त्वदन्यः क्रूरतरः पुमान् कुतः=कस्माद्धेतोः ?। न केनापि हेतुना त्वदतिरि क्तस्य कस्यापि क्रूरत्वारोपो न्याय्यः। ननु त्वमेव सर्वातिशायी क्रूर इत्यर्थः। संमतश्चायमेवार्थो नागानन्दविमर्शिनीकारस्य शिवरामस्य।
इति=इत्थं। मारवधूभिः=कामदेवसेनायां समवेताभिः, कामदेवसहचरीभिर्नवयौवनाभिः कामिनीभिः। ‘नारी सीमन्तिनी वधूः’ इत्यमरः। सेयं साभ्यसूयम्। बोधौ=समाधो। समाधिकाले। अभिहितः उक्तः। (बोधौ) जिनः=समाधिस्थः सुगतो नाम बुद्धः। वः=युष्मान् सामाजिकान्। श्रोतॄन्। पातु=रक्षतु।
‘सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराजस्तथागतः।
समन्तभद्रा भगवान् मारजिल्लोकजिज्जिनः।’
—इत्यमरः। ‘जिनाऽर्हति च बुद्धे च पुंसिस्याज्जित्वरे त्रिषु’ इति रत्नकोषः। अत्र बोधिपदेन जिनप्रक्रियया समाधिरभिधीयते। ‘विशुद्धबुद्धिसन्तानो बोधिरित्यभिधीयते’ इति जिनशासनम्। ‘बोधौ=अश्वत्थमूले स्थित’ इत्यर्थ इत्यन्ये। ‘पिप्पलो बोधिरश्वत्थः’ इति रत्नकोशः। इदमत्रानुसन्धेयम्—‘कलौ द्विजधामसु समवतीर्णानां दैत्यदानवासुररक्षसां श्रौतयज्ञयागादिषु प्रवृत्त्या प्राप्त-
अपि च—
कामेनाकृष्य चापं, हतपटुपटहाऽऽवल्गिभिर्मारवीरै-
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सिद्धीनां प्रकर्षेण लोकत्रासो माभूदिति धिया कलौ समवतीर्णस्य भगवतो बुद्धस्यबोधगयायां बोधितरुतले निषद्य तपस्यतः समाधिभूमिकामधितिष्ठतः समाधिभङ्गाय भगवता महेन्द्रेण प्रेषितस्य कामस्य सहचारिणीभिर्देवाङ्गनाभिर्नानाविधलोभप्रदर्शनेन, कटाक्षभ्रूविक्षेपादिभिश्च कदर्थीकृतोपि बुद्धो यदा समाधिभङ्गंनाससाद तदा किल पराभूतमिवात्मानं मन्यमानाभिर्देववारवनिताभिरित्थमुपालम्भगर्भा नानाविधा गिरः समुच्चारिताः। तावताऽपि तस्य समाधेर्भङ्गो नैवजात इति अहो बुद्धस्य कामविजयित्वम्। अत एव च ‘मारजित्’ इति बुद्धनामधेयं लोके प्रसिद्धिं प्राप—इति लिङ्गपुराणे, बौद्धजातकादौ च कथाऽस्ति। स एवच प्रसङ्गोऽत्र महाकविनोपनिबद्धो ‘बुद्धस्य समाधिदार्ढ्यरूपस्य प्रकर्षस्यद्योतनाय’ इति।
अत्र शार्दूलविक्रीडितं नाम वृत्तम्। तल्लक्षणन्तु— ‘सूर्याश्वैर्म-स-ज-स्वताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम्’ इति ॥ १ ॥
एवं नान्दीश्लोकं पठित्वा पुनरपि लोकोत्तरं मारवधूपराभवानन्तरवृत्तान्तंसूचयन् बुद्धमेव प्रशंसितुमुपक्रमते–अपि चेति। किञ्चास्यैव बुद्धस्य खल्ववश्यवक्तव्यो विशेषः कथ्यतेऽस्माभिः, श्रोतृभिः सावधानैर्भाव्यमित्यर्थः। तमेव विशेषमाह -कामेनेति।
[अन्वयः] कामेन—चापम् आकृष्य ‘बोधेरवाप्तौ ध्यायन् अचलित इति’(दृष्टः), मारवीरैः हतपटुपटहाऽऽवल्गिभिः (दृष्टः), दिव्यनारीजनेन भ्रूभङ्गोत्कम्पजृम्भास्मितचलितदृशा (सता दृष्टः), सिद्धैः प्रह्वोत्तमाङ्गैः ( दृष्टः ), वासवेन - विस्मयात् पुलकितदृशा ( सत्ता दृष्टः ), मुनीन्द्रः वः पातु।
[विग्रहः] हताः = प्रचण्डं वादिताः—पटवः, तीक्ष्णध्वनयः—पटहा यैस्तेहवपटुपटहाः। आ समन्तात् वल्गन्ति तच्छीलाः आवल्गिनः, हतपटुपटहाश्च तेआवल्गिनश्च—हतपटुपटहावल्गिनः। तैः— हतपटुपटहावलिगभिः। मारस्य वीराः—मारवीराः, तैः मारवीरैः। भ्रुवोर्भङ्गः भ्रूभङ्गः, भ्रूभङ्गश्च उत्कम्पश्चजृम्भा च स्मितं च ललितं च भ्रूभङ्गोत्कम्प-जृम्भा-स्मितललितानि तानिसन्त्यस्य, तेन — भ्रूभङ्गोत्कम्पजृम्भास्मितललितवता। ‘ललितदृशा’ इति तु युक्तो,
भ्रूभङ्गोत्कम्पजृम्भास्मितललितवता4दिव्यनारीजनेन।
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मनोहरश्च पाठः। ‘समन्मथविकारा च दृष्टिः सा ललिता भवेत्’ इति हि भावप्रकाशने शारदातनयः। तथा च ललितदृशा=मन्मथविकारशालिन्यादृष्ट्येत्यर्थः। ‘चलितदृशा’ इत्यपि पाठः। तत्र तु भ्रूभङ्गोत्कम्पजृम्भास्मितैःचलिते दृशौ यस्यासौ, तेन - भ्रूभङ्गात्कम्पजम्भास्मितचलितदृशा। दिवि भवः दिव्यः,दिव्यश्वासौ नारीजनश्च–दिव्यनारीजनः, तेन—दिव्यनारीजनेन। प्रह्वाणिउत्तमाङ्गानि येषान्ते—प्रह्वोत्तमाङ्गाः, तैः प्रह्वोत्तमाङ्गैः। पुलकाः सञ्जाता अस्यपुलकितं। पुलकितं वपुर्यस्यासौ, तेन पुलकितवपुषा। मुनीनामिन्द्रः— मुनीन्द्रः।
[अर्थः] कामेन=समाधिभङ्गार्थमिन्द्रप्रेषितेन स्मरेण। चापमाकृष्य=पौष्पं धनुः सन्धाय। बोधेरवाप्तौ=समाधिसिद्ध्यर्थं। समाधिरूपफललाभाय।ध्यायन्=ध्यानमास्थितः। अचलितः=ध्यानादप्रचलितः। नानाविधकटाक्षभ्रूविक्षेपहावभावादि-लीलाप्रदर्शनपराभिमरवधूभिर्वि-लोक्यमानोऽपि समाधेर्भङ्गंनैवाससादेति अहोऽस्य सत्त्वप्रकर्षः। इति=हेतोः। स्वपराजयं मन्यमानेन पराभूत—संभावितशूरवत् - कामेन=स्मरेण। चापमाकृष्य=धनुरुद्यम्यापि, पुनरपि स्वपराजयाशङ्कया स्तब्धहस्तेन बाणमोक्षणपराङ्मुखेन चकितेनेव स्थितेन कामेन।दृष्टः=साशङ्कं, साभ्यसूयं सामर्थं च दृष्टः। ‘मुनिः सामाजिकान् पातु’ इत्यग्रिमेणसम्बन्धोऽस्य बोध्यः। किञ्च मारवीरैः =स्मरयोधैः। कामदेवसैनिकैर्वसन्तमलयानिलादिभिः। हतपटुपटहाऽऽवल्गिभिः =वादितमुखरपटहैरुप्त्लुवोत्प्लुत्य बुद्धस्याग्रेसञ्चरमाणैः सविस्मयं दृष्टः। एवंविधे समाधिभङ्गसामग्रीसद्भावेऽपि समाधिभङ्गमदृष्ट्वा विस्मयविकस्वरलोचनैः स्मरसैनिकैर्दृष्ट इत्याशयः। यद्वा पूर्वप्रयत्नस्यवैफल्यमालोच्य पुनरपि महता प्रयत्नेन पटहादि वादयित्वा कूर्दमानैर्बुद्ध विमोहनाय प्रवृत्तैर्मारभटैर्दृष्ट इत्येवार्थोऽत्र बोध्यः। किञ्च—दिव्यनारीजनेन=स्वर्गीयवाराङ्गनालोकेन च—भ्रूभङ्गोत्कम्प-जृम्भा-स्मित-ललितवता=कटाक्षभुजविक्षेपकम्प-रोमाञ्च-जृम्भणे-षद्धास्य लीलाविलास-हावभावपरेण। दृष्टः= अवलोकितः–बुद्धो मुनिर्युष्मान् रक्षत्विति सम्बन्धः। तत्र, भ्रूभङ्गः=भ्रूविलासः। नेत्रे विस्मयेन विस्फार्य दर्शनं वा। उत्कम्पः=विस्मयाद् गात्रकम्पः। कामविकारात्कम्पोवा। स्मितम्—ईषद्धासः। स च बुद्धविमोहनायैव प्रयुक्त इति बोध्यम्। ललितं=
सिद्वैः प्रह्वोत्तमाङ्गैः, पुलकितवपुषा विस्मयाद्वासवेन,
‘ध्यायन् बोधेर5वाप्तावचलित’ इति वः पातु दृष्टो मुनीन्द्रः ॥२॥
[ नाद्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधारः ]
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हावभावविलासमसृणगतिलीलादिकामविकार एव। तदुक्तं-‘सुकुमारोऽङ्गविन्यासोमसृणो ललितं भवेत्’ इति दशरूपके। ’ भ्रूभङ्गोत्कम्पजृम्भास्मितचलितदृशा।”इति पाठे तु—विक्षेपकम्पजृम्भास्मितादिना कामविकारेण चञ्चललोचनेनदिव्यवारनारीजनेन सविस्मयं दृष्टः। पुनरपि बुद्धसमाधिभङ्गाय यत्नमाचरताकटाक्षविक्षेपादिपरेणाप्सरोगणेन निभृतं दृष्ट इत्यर्थो वा। किञ्च—सिद्धैः=सनकसनन्दनसनत्कुमारादिभिः सिद्धैर्देवयोनिविशेषैः। प्रह्वोत्तमाङ्गैः=भक्त्या प्रणतमस्तकैः सद्भिः। दृष्टः=अवलोकितः। एवंविधां निर्विकारचित्ततां, कामविजयितां च दृष्ट्वाभक्तिभरावनतकन्धरैः सिद्धविद्याधरादिदेव निकायैर्बहुमानपुरस्सरं दृष्टो बुद्धो मुनिर्वःपातु— इति सम्बन्धो बोध्यः। किञ्च—वासवेन=महेन्द्रेण देवराजेन।विस्मयात् =आश्चर्येण। पुलकितवपुषा=रोमाञ्चितकलेवरेण सबहुमानं—दृष्टो बुद्धो नाम मुनिःवः पातु—इत्यर्थः। इन्द्रप्रेरितेन भगवता कामदेवेन सकलसैन्यसन्नाहपूर्वकं दिव्याङ्गसाहाय्येन समाधिभङ्गाय नानाविधे प्रयासे कृतेऽपि बुद्धस्य समाधिभङ्गमनालक्ष्य,ध्यानतत्परतां च वीक्ष्य विलक्षैः कामादिभिः सातङ्कं सासूयं सभयं सानुरागंसोत्कर्षं सविस्मयं च (मारेण मारवीरैरप्सरोभिर्देवगणैर्महन्द्रेण च ) सबहुमानं दृष्टोऽविचलसमाधिरत एव मुनीन्द्रपदमवाप्तो बुद्धो वः सामाजिकान् रक्षत्वित्यस्य पद्यस्यसाकल्येनाभिप्रायो बोध्यः।
स्रग्धरा वृत्तम्। ‘भ्रम्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्त्तितेयम्’इति च तल्लक्षणम् ॥२॥
नाद्यन्त इति। इत्थं नान्दीश्लोकपाठसमाप्तौ। ततः=तदनन्तरमित्यर्थः। नान्दी,हि नाट्यारम्भात्पूर्वं रङ्गप्रसादनार्थं, निर्विघ्नतादिसिद्धयर्थं च क्रियमाणस्य पूर्वरङ्गस्य अङ्गभूता देवादिस्तुत्याद्यात्मिका।
सूत्रधारः—अलं6 प्रविस्तरेण। अद्याहमिन्द्रोत्सवे सबहुमान-
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तदुक्तं साहित्यदर्पणे—
‘तत्र पूर्वं पूर्वरङ्गः सभापूजा ततः परम्।
कथनं कविसज्ञादेर्नाटकस्याप्यथाऽऽमुखम्।’ इति।
तत्र=नाटके। सभापूजा=सभ्यलोकप्रशंसा।
तत्र पूर्वरङ्गस्य लक्षणं च दर्पणे-
‘यन्नाट्यवस्तुनः पूर्वं रङ्गविघ्नोपशान्तये।
कुशीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स उच्यते॥’ इति।
नाट्यवस्तु=नाट्ये वर्णनीयं कथानकम्। रङ्गः=रङ्गस्थलम् ( ‘स्टेज’ नाटकका रङ्गस्थल)। कुशीलवाः = सूत्रधारप्रमुखा नटाः। प्रकुर्वन्ति = देवस्तुतिगीतवादित्रप्रयोगादिकं कुर्वन्ति।
‘यस्माद्रङ्गे प्रयोगोऽयं पूर्वमेव प्रयुज्यते।
तस्मादयं पूर्वरङ्गः…………..’। इति च।
रङ्गमण्डपाद्वहिर्यवनिकाऽन्तःस्थैर्नटैर्यदेव पूजादिकं, वाद्यस्वरसिद्ध्यर्थं वाद्ययोजनं च क्रियते, यच्च यवनिकामुद्घाट्य रङ्गस्थलमागत्य रङ्गद्वारादिकं क्रियते तत्सर्वं’पूर्वरङ्ग’ इत्युच्यते इत्यर्थः।
तमिमं पूर्वरङ्गमधिकृत्योक्तं भरताचार्यैर्नाट्यशास्त्रे—
‘अस्याऽङ्गानि तु कार्याणि यथावदनुपूर्वशः।
तन्त्रीभाण्डसमायोगैः पाठ्ययोगकृतैस्तथा॥ इति।
पूर्वरङ्गस्य च प्रत्याहारादीनि २२द्वाविंशतिरङ्गानि। तदुक्तं भरताचार्यैः—
‘प्रत्याहारोऽवतरणं तथा ह्यारम्भ एव च।
आस्रावणा वक्रपाणिस्तथा च परिघट्टना॥
संघट्टनाततः कार्या मार्गाऽऽसारितमेव च।
ज्येष्ठमध्यकनिष्ठा च तथैवाऽऽसारितक्रिया॥
एतानि च बहिर्गीतान्य7न्तर्यवनिकागतैः।
प्रयोक्तृभिः प्रयोज्यानि, तन्त्री भाण्डकृतानि तु॥
ततश्च सर्वकुतपैर्युक्तान्यन्यानि कारयेत्।
विघाट्य वै यवनिकांनृत्यपाठकृतानि च॥
गीतानां मुद्रकादीनामेकं योज्यन्तु गीतकम्।
वर्द्धमानमथापीह ताण्डवं यत्र युज्यते॥
ततश्चोत्थापनं कार्यं परिवर्त्तनमेव च।
नान्दी शुष्कापकृष्टा8 च रङ्गद्वारन्तथैव च॥
चारी चैव ततः कार्या महाचारी तथैव च।
त्रिकं प्ररोचना चापि पूर्वरङ्गे भवन्ति हि॥
एतान्यङ्गानि कार्याणि पूर्वरङ्गविधौ तु च।’
एतेषां लक्षणान्यपि नाट्यशास्त्रे—
‘कुतपस्य तु विन्यासः प्रत्याहार इति स्मृतः।
[‘कुतपो मुरजादीनां भाण्डादीनां चयः स्मृतः’ इति भावप्रकाशने]।
तथाऽवतरणं प्रोक्तं गायकानां निवेशनम्॥
परिगीतक्रियारम्भ आरम्भ इति कीर्त्तितः।
आतोद्यरञ्जनार्थन्तु भवेदास्रावणाविधिः।
वाद्यवृत्तिविभागार्थं वक्रपाणिर्विधीयते।
तन्त्र्योजस्करणार्थन्तु भवेच्च परिघट्टना।
तथा पाणिविभागार्थं भवेत्संघट्टनाविधिः।
तन्त्रीभाण्डसमायोगान्मार्गाऽऽसारितमिष्यते।
कालपातविभागार्थं भवेदासारितक्रिया।
कीर्त्तनाद्देवतानाञ्च ज्ञेयो गीतविधिस्तथा।
यस्मादुत्थापयन्त्यादौ प्रयोगं नान्दिपाठकाः॥
पूर्वमेव तु रङ्गेऽस्मिंस्तस्मादुत्थापनं स्मृतम्।
यस्माच्च लोकपालानां परिवृत्त्य चतुर्दिशम्।
वन्दनादि प्रकुर्वन्ति तस्मात्तु परिवर्त्तनम्।
आशीर्वचनसंयुक्ता स्तुतिर्यस्मात्प्रवर्त्तते।
देवद्विजनृपादीनां तस्मान्नान्दीति संज्ञिता।
यत्र शुष्काक्षरैरैव ह्यपकृष्टा ध्रुवा यतः।
तस्माच्छुष्काऽपकृष्टैव जर्जरश्लोकदर्शिता।
यस्मादभिनयस्तत्र प्राथम्यादवतार्यते।
रङ्गद्वारमतो ज्ञेयं वागङ्गाभिनयात्मकम्।
शृङ्गारस्य प्रचरणाच्चारी संपरिकीर्त्तिता।
रौद्रप्रचरणाच्चापि महाचारीति कीर्त्तिता।
विदूषकः सूत्रधारस्तथा वै पारिपार्श्विकः।
यत्र कुर्वन्ति संजल्पं तच्चापि त्रिगतं स्मृतम्।
उपक्षेपेण काव्यस्य हेतुयुक्तिसमाश्रया।
सिद्धेनाऽऽमन्त्रणा या तु विज्ञेया सा प्ररोचना। इति।
इत्थं प्रत्याहारादिप्ररोचनान्ताङ्गविशिष्टस्य पूर्वरङ्गस्य केनापि कारणेन साकल्येनाऽनुष्ठानाऽसम्भवेऽपि पूर्वरङ्गाङ्गभूता नान्दी त्ववश्यं सूत्रधारेणानुष्ठेयानिर्विघ्नतार्थम्। तदुक्तं दर्पणे—
‘प्रत्याहारादिकान्यङ्गान्यस्य भूयांसि यद्यपि।
तथाप्यवश्यं कर्त्तव्या नान्दी विघ्नोपशान्तये ॥ इति।
नान्दलक्षणमपि तत्रैव—
‘आशीर्वचनसंयुक्ता स्तुतिर्यस्मात्प्रयुज्यते।
देवद्विजनृपादीनां तस्मान्नान्दीति संज्ञिता॥
मङ्गल्य-शङ्खचन्द्राब्जकोककैरवशंसिनी।
पदैर्युक्ता द्वादशभिरष्टाभिर्वा पदैरुत॥‘इति।
‘आशीर्नमस्क्रियारूपः श्लोकः काव्यार्थसूचकः।
नान्दीति कथ्यते ——’ इति च।
अत्रच—‘ध्यानव्याजमुपेत्य’ इति, ‘कामेनाकृष्य चापम्’ इति च श्लोकद्वयंमुनिस्तुतिपरत्वान्नान्दी।तत्पाठश्च—‘सूत्रधारः पठेन्नान्दीं मध्यमं स्वरमास्थितः’इत्युक्तेःसूत्रधारेण= प्रधाननटेन करणीयः। नान्दीपाठानन्तरं च प्रथमः सूत्रधारो विनिर्गच्छति, सूत्रधारसदृशोऽपरः स्थापकनामा नटश्च सूत्रधारसादृश्यात्सूत्रधारपदव्यपदेशभाक् रङ्गं प्रविशति—नान्द्यन्ते ततः प्रविशतिसूत्रधार इति (८ पृ०)।नान्दीश्लोकपाठानन्तरं मुख्ये सूत्रधारे रङ्गान्निर्गते सति सूत्रधारसमाकृतिरपरःस्थापकनामकः कश्चिन्नटो रङ्गं प्रविशतीत्यर्थः। तदुक्तं—
‘पूर्वरङ्ग विधायैव सूत्रधारो निवर्त्तते।
प्रविश्य स्थापकस्तद्वत्काव्यमास्थापयेत्ततः॥ इति।
रङ्गं प्रसाद्य विधिवत्सूत्रधारे विनिर्गते।
प्रविश्य तद्वदपरः काव्यमास्थापयेन्नटः”॥इति च।
दर्पणे तु—
अद्यत्वे पूर्वरङ्गस्य सम्यक्प्रयोगाऽभावादेक एव सूत्रधारो रङ्गद्वारं प्रयुङ्क्ते,स्थापकनटकार्यं च करोति। तदा तु सूत्रधारः सर्वं करोतीति न स्थापकावश्यकतेति ध्येयम्। केचित्तु— ध्यानव्याज्येत्यादि पद्यद्वयं न नान्दी, चन्द्रादिपदप्रयोगाऽभावात्। किन्तु नान्दी तु नटैः रङ्गाद्बहिरेव कृता। ‘ध्यानव्याजे’ त्यादि तुरङ्गद्वाराख्यं पूर्वरङ्गाङ्गम्। यद्वा प्रथमश्लोक एव नान्दी, अपरस्तु रङ्गद्वारम्।तल्लक्षणं च—
‘यस्मादभिनयो ह्यत्र प्राथम्यादवार्यते।
रङ्गद्वारमतो ज्ञेयं वागङ्गाभिनयात्मकम्’॥
इत्युक्तमेव।
‘रङ्गद्वारमारभ्य कविः कुर्यात्’ इत्युक्तेस्तव आरभ्यैव कविव्यापारस्य प्रवृत्तेश्च। अतएव स्वप्नवासवदत्तादिभासनाटकचक्रादौ ‘उदयनवेन्दु’ इत्यादिमङ्गलाचरणश्लोकात्पूर्वमेव ‘नान्द्यन्ते ततः प्रविशति सूत्रधारः’ इति पाठो दृश्यते। एवञ्चमङ्गलाचरणरूपा नान्दीरङ्गाद्बहिरेव नटैः क्रियते, रङ्गद्वाराख्यं पूर्वरङ्गाङ्गं च रङ्गेऽवतीर्णैर्नटः प्रयुज्यते इति निष्कृष्टोऽर्थः सिद्धः। अतएव च साहित्यदर्पणे—
—“सूत्रधारेण क्रियमाणं मङ्गलं नान्दी’ ति कस्य चिन्मतमाश्रित्यैवास्य नान्दीत्वमुक्तम्। वस्तुतस्तु ‘निष्प्रत्यूहमुपास्महे’ इत्यादि ‘शिरसिधृतसुरापगेत्यादि च पूर्वरङ्गस्य रङ्गद्वाराभिधानमङ्ग, न तु नान्दी।यदुक्तं भरतेन— ‘यस्मादभिनयो ह्यत्र प्राथम्यादवतार्यते। रङ्गद्वारमतोज्ञेयं वागङ्गाभिनयात्मकम्’ इति। ‘आशीर्वचनसंयुक्ता’ इत्यादिलक्षणलक्षिता च नान्दी रङ्गद्वारात्प्रथमं नटैरेव संभूय कर्त्तव्या। ‘नान्दी शुष्काऽपकृष्टा च रङ्गद्वारं तथैव चे’त्यादिना भरतेन तथैव क्रमेण वयोनिर्देशात्। कालिदासादिमहाकविप्रबन्धेषु ‘वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुष’ मित्येवमादिषु नान्दीलक्षणाऽयोगाच्च। तत्र रङ्गद्वारत्वस्यैव त्वयापि वक्तव्यत्वात्। उक्तञ्च ‘रङ्गद्वारमारभ्य कविः कुर्यादिति। अतएव प्राक्तनपुस्तकेषु ‘नान्द्यन्ते सूत्रधारः’इत्यनन्तरमेव ‘वेदान्तेषु यमाहुरित्यादिश्लोकलेखनं दृश्यते। यच अभिज्ञानशाकुन्तालदौ श्लोकस्य पश्चात्–‘नान्द्यन्ते सूत्रधार’ इति लेखनं तस्यायमभिप्रायः — नान्द्यन्ते सूत्रधारइत्थं प्रयोजितवान्। इतः प्रभृति च मया नाटकमुपादीयते’ इति कवेरभिप्रायः सूचितः—” इत्युक्तम्।
तस्मादत्रापि ‘ध्यानव्याज’मिति न नान्दी, किन्तु नटैर्बहिरेव प्रयुक्ताया नान्द्याअनन्तरं सूत्रधारसमः कथासूचकः स्थापकनामा नटः प्रविशतीत्यर्थोऽत्र’ नान्द्यन्ते’इत्यस्य बोध्य इति सर्वं चतुरस्रम्।
अलमिति। प्रविस्तरेण=अधिकविस्तरेण। अलं=न प्रयोजनम्। एतावतैवबुद्धस्य महिमातिशयो नून प्रदर्शितः। इदानीं प्रकृतमनुसरणीयमिति भावः। ‘अलं भूषणपर्यातिशक्तिवारणवाचकम्’ इत्यमरः।
अथ स्थापकनामा नटः —
‘या वाक्प्रधाना नृधरप्रयोज्या स्त्रीवर्जिता संस्कृतपाठ्ययुक्ता।
स्वनामधेयैर्भरतैः प्रयोज्या सा भारती नाम भवेत्त वृत्तिः ॥
भेदास्तस्यास्तु विज्ञेयाश्चत्वारोऽङ्गत्वमागताः।
प्ररोचनाऽऽमुखं चैव वीथी प्रहसनं तथा ॥
माहूय नानादिग्देशागतेन राज्ञः श्रीहर्षदेवस्य पादपद्मोपजीविना राजसमूहेनोक्तः—‘यत्तदस्मत्स्वामिना श्रीहर्षदेवेनापूर्ववस्तुरचना-
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— इत्यादिभरताचार्यप्रदर्शितरीत्या भारतीं वृत्तिमाश्रित्य प्ररोचनाऽऽमुखाभ्यांप्रस्तावनां कर्त्तुमिच्छन्, ततोऽप्यादौ स्वावस्थां प्रकटयति— अद्याहमित्यादिना।अद्य=अस्मिन् दिवसे। अहं=नटोऽहम्। इन्द्रोत्सवे=प्रतिवर्षं वर्षादिसिद्धयर्थं वेणुदण्डनिमितमिन्द्रध्वजाख्यं महाध्वजमुत्पाद्य, नगरमध्ये राजद्वारे तं निखाय, राजभिः क्रियमाणे इन्द्रध्वजरोपणनाम्ना प्रसिद्धे महोत्सवे।
तदुक्तं भविष्योत्तरे—
‘एवं यः कुरुते यात्रामिन्द्रकेतोर्युधिष्ठिर !।
पर्जन्यः कामवर्षी स्यात्तस्य राज्ये न संशयः।
चतुरस्रं ध्वजाकारं राजद्वारे प्रतिष्ठितम्।
आहुः शक्रध्वजं नाम परं लोकसुखावहम्।’ इति।
बहुमानेन सहितं सबहुमानं यथा स्यात्तथा। आहूय=आकार्य।द्रव्यदानप्रीतिसंभाषणाह्वानादिना मम आदरातिशयं कृत्वेति यावत्।
नानादिग्भ्यो, नानादेशेभ्यश्च आगतः—नानादिग्देशाऽऽगतः, तेन— नानादिग्देशागतेन=दशदिग्वर्त्तिनानादेशदेशान्तरादागतेन। राज्ञः=सम्राजः।श्रीहर्षदेवस्य=श्रीहर्षवर्द्धनाख्यस्य सार्वभौमस्य। पादावेव पद्मं, पादौ पद्ममिव वा पादपद्मं पादपद्ममुपजीवति तच्छीलेन—पादपद्मोपजीविना=श्रीहर्षचरणकमलसेवापरायणेन। राज्ञां समूहः राजसमूहः, तेन—राजसमूहेन=नृपतिलोकेन। उक्तः=अहमभिहितोऽस्मि। राज्ञामुक्तिप्रकारमेवाभिनीय दर्शयति—यथेति। तत्=सुप्रसिद्धम्। अस्माकं स्वामिना—अस्मत्स्वामिना=अस्मत्प्रभुवरेण। अपूर्वं चतद्वस्तु च अपूर्ववस्तु, अपूर्ववस्तुनः रचना, तथा अलङ्कृतम्-अपूर्ववस्तुरचनाऽलङ्कृतम्=अद्भुताऽश्रुतपूर्वकथावस्तुसङ्घटनाऽलङ्कृतम्। अद्भुतकथाचित्रितम्। विद्याधरजातकप्रतिबद्धं। जातएव जातकः। विद्याधरस्य जातकः =पुत्रः विद्याधरजातकः,तस्य तेन वा प्रतिबद्धं—विद्याधरजातकप्रतिबद्धं=विद्याधरकुमार-जीमूतवाहन—
ऽलङ्कृतं विद्याधरजातकप्रतिबद्धं9‘नागानन्द्ं’ नाम नाटकं कृतमित्यस्माभिः श्रोत्रपरम्परया श्रुतं न च प्रयोगतो दृष्टम्।
** तत्तस्यैव राज्ञः सकलजनहृदयाह्लादिनो बहुमानादस्मासु चानुग्रहबुद्ध्या यथावत्प्रयोगेणाऽद्य त्वया नाटयितव्यम्’-इति। तद्यावदिदानीं नेपथ्यरचनां कृत्वा यथाऽभिलषितं सम्पादयामि। (परिक्रम्याव-**
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सम्बन्धि। केचित्तु—‘विद्याधरजातकाख्यग्रन्थविशेषाश्रितमित्यर्थे वर्णयन्ति,तन्नोचितं, तादृशजातकस्याऽप्रसिद्धेः। ‘विद्याधरचक्रवर्तिप्रतिबद्ध’मिति पाठान्तरं,तत्र (भावि) विद्याधरचक्रवर्त्तिजीमूतवाहनसम्बन्धीत्यर्थो बोध्यः। नागानन्दमिति।नागानामानन्दो यस्मिन् वर्णनीयतयाऽस्ति तत् नागानन्दं=नागानन्दनामकम्।नाम इति प्रसिद्ध। इति इत्थम्। श्रोत्राणां परम्परा—श्रोत्रपरम्परा, तया श्रोत्रपरम्परया=कर्णाकर्णिकया। कस्मादप्याप्तादन्येन श्रुतं, ततोऽन्येन, ततोऽस्माभिरपीति रीत्या। श्रुतम्=आकर्णितम्। न=नतु।प्रयोगतः=प्रयोगे। अभिनये।अत्र सार्वविभक्तिक आद्यादित्वात्सप्तम्यर्थे तसिल्प्रत्ययः। पञ्चम्यर्थ एव वातसिल्।ल्यब्लोपे पञ्चमी। प्रयोग इत्यधिकरणे घः। प्रयोगतः—प्रयोगं=रङ्गस्थलमारुह्यदृष्ट न इति च तदर्थः। तत्=नागानन्दं नाम नाटकम्। तस्यैव राज्ञः=श्रीहर्षदेवस्यराज्ञः। सकलजनानां हृदयानि—आह्लादयति तच्छीलस्य—सकलजनहृदयाह्लादिनः=सकलजनमानसानन्ददायिनः। प्रजाऽनुरञ्जनप्रवीणस्य। श्रीहर्षविशेषणमेतत्। क्वचित्तु नायं पाठः। बहुमानात्=विपुलादरात्। आदरातिशयात्।अनुग्रहपरा बुद्धिः—अनुग्रहबुद्धिः, तथा—अनुग्रहबुद्ध्या=अस्मदनुरञ्जनबुद्ध्या। अस्मासु कृपाभावेनेति यावत्। यथावत्=समुचितेन। प्रयोगेण=गीतवाद्याङ्गहारादिना करणेन। नाटयितव्यम्=अभिनेयम्। इति=इत्येवमभिहितोऽस्मीति पूर्वेणान्वयः। उक्तिसमाप्तिसूचनार्थो वा इतिः।
तत्=तस्मात्। उक्तप्रार्थनानुसारेण। यावत्=साकल्येन। ‘यावत्तावच्चसाकल्येऽवधौ मानेऽवधारणे’ इत्यमरः।
यावत्= शीघ्रमेवेत्यर्थोवा। नेपथ्परचनां= रूपपरिग्रहं।वेषपरिवर्त्तनं। नेपथ्यं =वेषः। ‘नेपथ्यन्तु प्रसाधने। रङ्गभूमौ वेषभेदे’ इति हैमः। ‘आकल्पवेषौ नेपथ्यम्’इत्यमरश्च। अभिलषितमनतिक्रम्य=यथाऽभिलषितं=राजलोकेच्छानुगुण्येन ना-
लोक्य च–) आवर्जितानि च सकलसामाजिकमनांसीति10 मे निश्चयः।यतः,—
श्रीहर्षो निपुणः कविः, परिषदप्येषा गुणग्राहिणी,
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गानन्दनाटकप्रयोगम्। सम्पादयामि=करोमि शीघ्रमेवाभिनयामि।अत्र अभिनेष्यामीत्यर्थोबोध्यः, वर्त्तमानसामीप्यं हि लट्।
एतत्पर्यन्तम् (उपाद्धाततया) नटस्य स्वावस्थाप्रकाशनमिति शिवरामः। अथैवमुपोद्धा तानन्तरम्–परिक्रम्य=किञ्चिञ्चलित्वा। समुखमवलोक्य च इत्थमाहेतिशेषः। अथ—
‘सर्वपापप्रशमनी पूर्वरङ्गे प्ररोचना।
सिद्धाऽऽमन्त्रणतो भाविदर्शिका स्यात्प्ररोचना।’
—इति भरतमतानुसारेण प्ररोचनामारभमाणः कविकाव्य-श्रोतृपरिषत्प्रयोक्तॄणांगुणवत्त्वख्यापनेन—साध्यस्यापि सिद्धवत्प्रतिपादनं करोति—आवर्जितानति। आवर्जितानि=प्रयोगपरितोषेण प्रागेव अनुकूलतां नीतानि। वशीकृतानीति यावत्। सामाजिकजनमनांसि=सभासमवेत श्रोतृजनवित्तानि। ननु कथ प्रयासातिशयविपुल साधनादिसाध्यस्य श्रोतृजनचित्तानुकूल्यस्य प्रयागप्रारम्भ एवनिश्चय इत्यत आह—
कुत इति। कस्माद्धेतो ममेत्थं निश्चय इति चेच्छ्रूयतामित्यर्थः।
श्रीहर्ष इति। एतन्नाटकप्रणेता श्री श्रीहर्षदेवः (६०० वैक्रमसंवत्सरनिकटेस्थाण्वीश्वरे=(थानेश्वरे) कुरुक्षेत्रदेशे दिल्लीप्रान्ते वर्त्तमानः)। निपुणः कविः =नाटकप्रणयने कुशलोमहाकविः। काव्य–नाटक–निर्माणौपयिकप्रतिभाशक्त्यादियुक्तश्च। रसानुगुण्येन शब्दार्थयोजने, नायकादीनामवस्थावर्णने, रसानामङ्गाङ्गिभावानुगुण्येन विभावानुभावव्यभिचारियाजने, निर्द्दोषसरससालङ्कारशब्दार्थविनिवेशने च नितरां पटुः श्रीहर्ष इत्यर्थ इति शिवरामः। एषा परिषदपि=सामाजिकानां राज्ञां पोरजानपदानां च लोकानां सन्ततिरपि। सभाऽपि। गुणान् गृह्णाति तच्छीला गुणग्राहिणी=गुणैकपक्षपातिनी गुणग्रहणस्वभावा। नाटकादि।गुणदोषपरीक्षणे विवेकिनीति यावत्। तत्र नितरां कुशलेत्यर्थः।
लोके हारि च बोधिसत्त्व11चरितं, नाट्ये च दक्षा वयम्।
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तदुक्तंसामाजिकवर्णनप्रस्तावे भरताचार्यैः-
चतुराऽऽतोद्यकुशला वृत्तज्ञास्तत्त्वदर्शिनः।
देशभाषाविशेषज्ञाः कलाशिल्पविचक्षणाः॥
सर्वाभिनयतत्त्वज्ञा रसभावविकल्पकाः।
शब्दच्छन्दोविधानज्ञाः प्राश्निका नाट्यमण्डपे॥
ये तुष्टौ तुष्टिमायान्ति, शोके शाकं व्रजन्ति च।
दैन्ये दीनत्वमायान्ति, गुणग्रहणतत्पराः॥
व्यक्तरोषानुरागाश्च ते नाट्ये प्रेक्षका मताः।—इति।
लोके=जगति। ‘त्रिष्वथोजगती लोको विष्टपं भुवनं जगत्’ इत्यमरः।
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अथ नागानन्द नाटक भाषाटीका प्रारभ्यते।
[नान्दी = नाटक के आदि में आवश्यक मङ्गलाचरण। ]
अर्थ—आप आँख मूंद कर ध्यान लगाने का बहाना करके किस सुन्दरी रमणी का चिन्तन कर रहे हैं ?। जरा आंख खोलकर क्षण भर के लिए ही सहो, कामवाणपीड़ित हम अबलाओं की ओर भी तो देखिए। सब प्राणियों केरक्षक होने का दावा करनेवाले आप कामदेव के बाणों से हमारी रक्षा क्योंनहीं करते हैं ? आप झूठे ही दयालु बने हुए हो। भला, आप से अधिकनिर्दयी और कौन हो सकता है ?। इस प्रकार कामदेव की सेना में काम करने वाली कामातुर अप्सराओं से उलाहना, (ताना ) दिए गए समाधिस्थ बुद्ध आपसब ( दर्शक-सभासदों ) की रक्षा करें॥१॥
भावार्थः—नाटक के आदि में निर्विघ्न समाप्त्यर्थं सूत्रधार (मुख्य नट)नान्दी = मङ्गलाचरण का— पाठ करता है—यह नियम है। अतः नागानन्द केप्रारम्भ में कवि ने यह सूत्रधार पठनीय नान्दी की है।विक्रम संवत् ६०० के निकट यह नाटक रचा गया था, उस समय बौद्धों काभारतवर्ष में जोर था। अतः समयानुसार बुद्ध की प्रशंसा में ही यह नान्दी है।गौतम बुद्ध सिद्धि प्राप्तकरने जब बोधि-गया में पीपल के वृक्ष के नीचे समाधि में स्थित थे उस समयइन्द्र की आज्ञा से कामदेव ने उनकी समाधि में विघ्नकरने के लिए अप्सराओं
को साथ लेकर उनपर चढ़ाई कर दी। अप्सराओंने नाना प्रकार के प्रलोभन हाव-भाव-कटाक्ष आदि से उनकी समाधि के भङ्ग करने का प्रयत्न किया। पर वे जबसर्वथा असफल रहीं, तब गौतम बुद्ध को ऊपर लिखित प्रकार से ताना- उलाहना सुनाने लगीं। फिरभी उनकी समाधि नहीं टूटी। इस प्रकार बुद्ध की महिमाका नान्दी में वर्णन किया गया है ॥१॥
दृढ़ समाधिस्थ जिस मुनीन्द्र गौतम (बुद्ध) को—कामदेव ने धनुष बाणका सन्धान करते हुए सशङ्क दृष्टि से उन्हें देखा, कामदेव के वीर सैनिकों ने भी जोरसेयुद्धके बाजे बजाते हुए उन्हें देखा, दिव्य अप्सराओं ने भ्रूभङ्ग (कटाक्षपात),उत्कम्प, जम्भाई, ईषत् हास्य आदि कामसूचक विकारयुक्त हो चञ्चल ललितनेत्रों से हाव-भाव करते हुए देखा, सिद्धों ने मस्तक नवाते हुए उन्हें देखा, इन्द्रने पुलकित हो आश्चर्य से देखा। ऐसे समाधिस्थ गौतम बुद्ध–जो कामदेव कीचढ़ाई से भी समाधि से विचलित नहीं हुए–आपकी रक्षा करें। भावार्थ—कामदेव अपने अद्भुत प्रतिद्वन्द्वी दृढव्रत गौतम को पराजित होते न देख कर क्रुद्धहो प्राणपन से पुनः धनुष-बाण का सन्धान कर रहा है। सेना के वीर वसन्त, चन्द्रमा,मलयानिल आदि जोर २ से ढोल पीट कर प्रहार करने में व्यस्त हैं। अप्सराएँनाना प्रकार से हाव-भाव-कटाक्ष- कामविकार प्रदर्शित कर रही हैं। सिद्ध विद्याधर गण आकाश से नत मस्तक हो मुनि की दृढ़ता को देखकर वाह २ कर रहेहैं। इन्द्र भगवान् भी अदृष्टपूर्व अलौकिक दृढ़ता को देखकर चकित विस्मितरोमाञ्चित हो रहे हैं। कामदेव सब प्रयत्न कर हार जाता है। मुनि की समाधिनहीं टूटती है। अन्त में गौतम बुद्ध की ही विजय होती है। उन्हें सब सिद्धियांप्राप्त होती हैं। उनकी समाधि सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार बौद्ध जातकों मेंवर्णित कथा के आधार पर गौतम बुद्ध की बुद्धत्व प्राप्ति का वर्णन कवि ने दोश्लोकों को नान्दी में किया है ॥२॥
[नान्दी पाठ के अन्त में सूत्रधार के तुल्य दूसरे नटका प्रवेश]
सूत्रधार—ज्यादा विस्तर की आवश्यकता नहीं है। अतः विस्तर रहने दो।आज प्रजा की सुख समृद्धि के लिए किए जाने वाले इन्द्रध्वज महोत्सव मेंदेश-देशान्तर से आये हुए–महाराजाधिराज श्रीहर्षदेव के चरण सेवक–राजाओंने मुझे बड़े आदर से बुलाकर कहा कि—‘हमारे महाराज श्रीहर्षवर्धन ने अपूर्व
वस्त्वेकैकमपीह वाञ्छितफलप्राप्तेः पदं, किं पुन-
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हारि=मनोहरम्। बोधिसत्त्वचरितम्=जीमूतवाहनाख्यप्रकृतनाटकनायकचरितम्। ‘बोधिसत्त्व’ इति जीमूतवाहनस्यैव जन्मान्तरानुगणं नामधेयम्। बुद्धांशभूत इति तदर्थः। ‘बुद्धस्तु श्रीघनःशास्ता बोधिसत्त्वो विनायकः’ इति शब्दार्णवः। जीमूतवाहनस्य नायकस्य बुद्धांशता च बृहत्कथायाश्छायानुवादे बृहत्कथामञ्जर्यां क्षेमेन्द्रेण स्पष्टमुक्ता—
‘जीमूतवाहनस्यैतदात्मदानं किमद्भुतम्।
बोधिसत्त्वः स हि पुरा दत्तवान् बहुशस्तनुम्’ ॥ इति।
क्वचित्तु ‘सिद्ध-राजचरित’ मिति पाठः। तत्र—सिद्धानां खड्गमालापादुकादिसिद्धिभिः सिद्धानां=विद्याधराणां, राजा-सिद्धराजः। यद्वा सिद्धश्चासौ राजा च सिद्धराजः। विद्यासिद्ध्याऽधिगतविद्याधरचक्रवर्त्तिपदो जीमूतवाहन एव। तस्यचरितमित्यर्थोऽनुसन्धेयः। नाट्येच=नटकर्मणि नाटके, नाटकाद्यभिनये च। वयम्=अहं, मद्वर्गीयाः सर्वेऽपि नटाश्च। दक्षाः=कुशलाः। ’ ताण्डवं नटनं नाट्यम्’- इत्यमरः। ‘दक्षः प्रजापतौ रुद्रवृषभे कुक्कुटे पटौ। द्रुमे, दक्षा तु मेदिन्याम् – ‘इतिविश्वः। नेयमात्मप्रशंसा नटस्य, किन्तु वस्तुस्थितिकथनमात्रमिति बोध्यम्। एकैकमपि=इदं खलु प्रत्येकमपि अन्यनिरपेक्षं। वस्तु=वस्तुजातम्। कविकाव्यपरिषत्प्र-
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कथानक से अलंकृत विद्याधरजातकानुसारी ‘नागानन्द’ नामक नाटक की रचनाकी है’ यह हम लोगों को कर्ण परम्परा (लोगों के कहने) से ज्ञात हुआ है। परअभी तक उस नागानन्द नाटक का हमने रङ्गमञ्चपर खेल नहीं देखा है। सोप्रजारंजक उन महाराज के रचित उस गौरवपूर्ण नाटक का तुम कृपाकर आजप्रयोग (खेल) करके हमें दिखाओ’। अतः अभी पात्रों को सजाकर मुझेराजाओं के मनोविनोदार्थ नागानन्द का खेल दिखाना है।
(कुछ चलकर, दर्शक वृन्द की ओर देखकर) सभी दर्शकों का मन यहाँइस नाटक को देखने के लिए अवश्य उत्सुक है। क्योंकि—
महाराज श्रीहर्ष एक निपुण कवि हैं। दर्शकों के इस समाज में गुणग्राहीएवं नाटक को सूक्ष्म विशेषताओं को समझनेवाले बड़े २ विद्वान् राजा महाराजा भी उपस्थित हैं। सिद्ध (विद्याधर) राजा जीमूतवाहन का चरित जो इसनाटक में वर्णित है वह लोक में सबके चित्त को खींचने वाला है ! हम लोग
र्मद्भाग्योपचयादयं समुदितः सर्वो गुणानां गणः॥३॥
[इति प्ररोचना]
[अथ आमुखम्]
** तद्यावदहं गृहं गत्वा गृहिणीमाहूय सङ्गीतकमनुतिष्ठामि।**
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योक्तृगुणवत्त्वरूपम्। इह=प्रयोगे। वाञ्छितस्य फलस्य प्राप्तिः, तस्याः—वाञ्छितफलप्राप्तेः=अभीष्टफलसिद्धेः।सामाजिकप्रेक्षकलोकमनः समावर्जनरूपफलसिद्धेः। पदम्=स्थानम्। आस्पदं। निमित्तमिति यावत्। ‘पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्माङ्घ्रिवस्तुषु’ इत्यमरः।
मम भाग्यस्य उपचयः, तस्मात्—मद्भाग्योपचयात्=मत्सौभाग्यपरम्परया।अस्मत्सौभाग्यभरेणेति यावत्। अयम्=पूर्वोक्तः कविनैपुण परिषद्गुणग्राहित्वनट-कौशलादिरूपः, सर्वोऽपि गुणानां गणः=गुणसमूहः। समुदितः=एकत्र समुपस्थितः। समवेतः। तर्हि—किं पुनः=किंनु। प्रत्येकमपि एषां गुणानामभीष्टसिद्विदान—सामर्थ्ये सतिसंभूय प्रवृत्तौ तु फलात्कर्षः किं तु कथनीयः। अवश्यंसफलः प्रयोगोऽस्माकं भविष्यतीति भावः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥३॥
[इति प्ररोचना]
एवं भारतीवृत्त्यङ्गतया प्ररोचनां (=खुशामद, प्रशंसा) प्रतिपाद्य अद्य प्रस्तावनाऽपरपर्यायमामुख तावत्प्रस्तौति तद्यावदिति। आमुखलक्षणं च भरते—
‘नटी विदूषको वाऽपि पारिपार्श्विक एव वा।
सूत्रधारेण सहिताः सल्ँलापं यत्र कुर्वते।
चित्रैर्वाक्यैःस्वकार्योत्थैर्वीथ्यङ्गैरन्यथाऽपि च।
आमुखं तत्तु विज्ञेयं बुधैः, प्रस्तावनाऽपि च ॥ इति।
तत्=यस्मादेवं मद्भाग्येन सकलगुणसमवायः समुपस्थितस्तस्मात्। यावदिति।
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भी नाटक खेलने में बड़े प्रवीण हैं। ये सब बात तो इकल्ली भी सिद्धि देनेवालीहैं, फिर यहाँ तो मानों हमलोगों के भाग्य से ही इन सभी गुणों का समन्वय हीउपस्थित हुआ है अतः हमारी सफलता में अब क्या सन्देह है ॥३॥ [प्ररोचना]।
अतः—घर जाकर अपनी स्त्री को बुलाकर सङ्गीत (गाना-बजाना) प्रारम्भ
[परिक्रम्य, नेपथ्याभिमुखमवलोक्य—] इदमस्मद्गृहं। यावत् प्रविशामि।[प्रविश्य—] आर्य्ये! इतस्तावत्।
[द्विजपरिजन12बन्धुहिते ! मद्भवनतटाकहंसि ! मृदुशीले !।
परपुरुषचन्द्रकमलिन्यार्ये! कार्यादितरतावत्॥४॥]
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झटिति। निश्चयेनेति वा। ‘यावत्तावच्च साकल्येऽवधौ मानेऽवधारणे’ इत्यमरः।गृहं गत्वा=नटशालां गत्वा। गृहिणीम्=स्वधर्मपत्नीम्। भार्यासहचारिणो हि नटाः,भार्योपजीवित्वात्। आहूय=समाहूय। तथा सहित इति यावत्। सङ्गीतकमनुतिष्ठामि=प्रयोगारम्भे समुचितं गीतवाद्यादि प्रारभे। ‘गीतवादित्रगीतानिसङ्गीतकमिहोच्यते इति भरतः।
परिक्रम्य=किञ्चिच्चलित्वा। पादविक्षेपं नाटयित्वा। नेपथ्याभिमुखमवलोक्य=रङ्गशालाऽन्तर्वर्त्तिनटशालाऽभिमुखं दृष्ट्वा। स्वसहधर्मिणीमित्थमाहूतवानिति कविवाक्यमिदं बोध्यम्। आह्वानप्रकारमेवाह—द्विजेति। द्विजाश्च परिजनाश्च बन्धवश्च द्विजपरिजनबन्धवः, तेभ्यो हिता, तत्सम्बुद्धौ द्विजपरिजनबन्धुहिते=हे विप्र-साधु-सेवक-बन्धु-बान्धवहिताचरणशीले। आतिथ्यसत्कारादिना विप्राणां, भोजनवस्त्रभृतिधनादिदानेन सेवकादीनां, दानमानसत्कारादिना बन्धूनां च सदा हितकारिणी-अत एवहे सद्गृहिणि। किञ्च मदीयं भवनमेव तटाकः, तत्र हंसीव—हे मद्भवनतटाकहंसि=मद्गृहरूपतटाकशोभाधायिके, हंसीव लीलाविलासशीले। ‘पद्माकरस्तडा -गोऽस्त्री’ इत्यमरः। ‘तटाक’ इति च तत्र कोशे पाठान्तरम्। मृदु शीलं यस्याः सा—मृदुशीला।तत्सम्बुद्धौ हे मृदुशीले=हे कोमलस्वभावशालिनि। मृदुभाषणपरायणे। परः पुरुष एव चन्द्रः, तत्र कमलिनीव पराङ्मुखी-परपुरुषचन्द्रकमलिनी।
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करूँ। [कुछ चल कर नेपथ्य (पर्दे के पीछे नटशाला) की ओर देखकर ] यह मेरा घर है। अच्छा भीतर चलता हूँ। ( भीतर जाकर ) प्रिये ! इधर आवो। ब्राह्मण,बन्धुबान्धव, भृत्यवर्ग की हितकरनेवाली, मेरे घररूपी सरोवर में हंसी की तरहकल्लोल करने वाला, मधुर कोमल स्वभाव वाली, परपुरुष रूपी चन्द्रमा को देखकर कमिलिनी की तरह सुरझानेवाली अहोप्यारी ! जरा जल्दी इधर आवो, आवश्यककाम है। [कमलिनी सूर्यका देखकर खिलती है। चन्द्रमाको देख मुरझाती है]॥४॥
** नटी—[ प्रविश्य सास्रम् –] अज्ज ! इअम्हि मन्दभग्गा। आणवेदुअज्जउत्तो को णिओओ अणुचिट्ठीअदु त्ति।**
** [आर्य ! इयमस्मि मन्दभाग्या। आज्ञापयतु आर्यपुत्रः, को नियोगोऽनुष्ठीयतामिति। ]**
** सूत्रधारः—[ नटीमवलोक्य**—] आर्य्ये! नागानन्दे नाटयितव्ये किमिदमकारणमेव रुद्यते ?।
** नटी—अज्ज13 ! कधं ण रोइस्सं ? यदी दाव तादो अज्जाए सह थविरभावं जाणिअअदूरजाद णिव्वेदो ‘कुडुम्बभारुव्बहणजोग्गो दाणींतुमं’ त्ति हिअए वितक्किअ तवोवणं गदो।**
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तत्सम्बुद्धौ—परपुरुषचन्द्रकमलिनि=हे परपुरुषपराङ्मुखि। मदेकपरायणे। आर्ये=कुलीने। प्रिये। ‘आर्यः साधौ कुलीने च’ इति सज्जनकोशः। कार्यात्=कार्यमुद्दिश्यसत्वरम्। इतस्तावत्=पूर्वमिहागच्छ। ‘गम्यमानाऽपि हि क्रिया कारकविभक्तीनांनिमित्तम्।’ ‘इत’ इति इहेत्यर्थेऽव्ययं, सार्वविभक्तिको वा सप्तम्यर्थे तसिः।आर्या वृत्तम् ॥४॥
सास्रमिति। साश्रुपातमित्थमाहेत्यर्थः। आर्य=हे आर्यपुत्र। इयमस्मि =इयमहं समागतैव। कथ्यतां को नियोगोऽनुष्ठेय इति च गम्योऽर्थः। ‘समायातैव,कथय किं मया क्रियतामिति शेषयोजनं वा। ‘आर्यपुत्रेति संभाव्यः स्त्रीभिर्भर्त्ता तु यौवने’ इति च नाटके नियमः। आर्यपुत्रेत्यस्यैकदेशोऽत्रार्येति, भीमादिवत्प्रयुक्तः।
सूत्रधार इति। तां साश्रुवदनां विलोक्य सूत्रधारस्तां . प्रतीत्थमुवाचेत्यर्थः।
सूत्रधारः —नटीं साश्रुलोचनामवलोक्य— इत्थमाहेत्यर्थः। आर्ये=प्रिये।
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नटी —(रोती हुई आकर ) आर्य ! मैं मन्दभागिनी यह आ गई। कहिए,क्या आज्ञा है ? आपकी किस आज्ञा का पालन करूँ ?।
सूत्रधार— (नटी को देखकर ) प्रिये ! नागानन्द का हमें खेल दिखाना है,ऐसे समय तुम अकारण ही रो क्यों रही हो ?।
[आर्य्य ! कथं न रोदिष्यामि, यतस्तावत्-तात आर्य्यया सह स्थविरभावं ज्ञात्वा अदूरजातनिर्वेदः ‘कुटुम्बभारोद्वहनयोग्य इदानीं त्व’मिति हृदये वितर्क्यतपोवनं गतः ]।
** सूत्रधारः**—[सनिर्वेदम् —] अये ! कथं14 मामपि परित्यज्यतपोवनं15 प्रयातौ पितरौ तत्किमिदानीं16 तत्किमिदानीं युज्यते ? अथवा ‘") युज्यते ?। \ [विचिन्त्य17 —]अथवा कथमहं गुरुचरण-परिचर्या-सुखं परित्यज्य गृहे तिष्ठामि ?।
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नागानन्दे=तन्नामके आनन्दभरोल्लासिनि नाटके। नाटयितव्ये=नटनीयेप्रति प्रयुज्यमाने सति। अकारणं=निष्कारणमेव। इदम्=इत्थम्। किमिति रुद्यते =भवत्या कुतो रोदनं क्रियते ?। हर्षावसरे समुपस्थितेऽपि क एष भवत्या निर्हेतुकोरोदनप्रसङ्ग इति प्रश्नाशयः।
तातः=श्वशुरः। त्वत्पितेति यावत्। आर्या=श्वश्रूः। भवज्जननी। तया सहेत्यर्थः। स्थविरभावं=वार्द्धक्यमात्मनः। ‘स्थविरभावजातनिर्वेदौ’ इतिपाठे—वार्द्धक्यसंजातवैराग्यौ इत्यर्थः। अदूरजातनिर्वेदः=सद्योजातवैराग्यः। ‘दूरजात’ इतिपाठे—दृढतरसंजातवैराग्य इत्यर्थः। कुटुम्बभारोद्वहनयोग्यः=कुटुम्बभारवहनसमर्थः। कुटुम्बसंरक्षणयोग्यः। इदानीं=सम्प्रति। त्वं=भवान्। संजातइति शेषः। हृदये=मनसि। वितर्क्य= विचिन्त्य। ‘आरोप्ये’ ति पाठे—हृदये स्थापयित्वा। मनसि कृत्वेत्यर्थः। तपोवनं=तपश्चर्यानुरूपं गहनं वाऽऽश्रमपदम्। एवञ्चतद्वियोगभारक्लान्तमानसाऽहं सम्प्रति रोदिमीत्याशयः।
मामपि=एकं पुत्रमपि। आज्ञावर्त्तिनमपि माम्। परित्यज्य=अनादृत्य। अनापृच्छ्यवा। प्रयातौ=गतौ। पितरौ=मातापितरौ। कथं=कथ-
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नटी - आर्य ! रोऊँ कैसे नहीं। आपके पिता-माता (मेरे सास ससुर)अपनी वृद्धावस्था को देख विरक्त हो – ‘आप अब कुटुम्बके भार उठाने लायक होही गए हैं यह जानकर तपोवन को चले गए हैं। अतः उनके वियोग में खिन्नहो मैं रो रही हूँ !
सूत्रधार—(खेद व उदासी के साथ) हैं ! मुझे छोड़कर मेरे पिता-माताचले गए ?। अब मुझे क्या करना चाहिए। (कुछ सोच कर) अथवा गुरुजनों
कुतः ?-
पित्रोर्विधातुं18 शुश्रूषां त्यक्त्वैश्वर्यं क्रमागतम्।
वनं याम्यहमप्येष19, यथा जीमूतवाहनः॥५॥
[निष्क्रान्तौ20]
[ प्रस्तावना—आमुखम् ]।
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मिव। एवञ्च तयोर्वैराग्यातिशयो ध्वनितः। युज्यते=किं मयात्र कर्त्तुंयुज्यते।विचिन्त्य=क्षणं विचारमभिनीय। अथवा=पक्षान्तरे, वितर्के वा। गुरुचरणपरिचर्यासुखं=मातापितृरूपगुरुचरणसेवासुखं। परित्यज्य=विहाय। गृहे=दुःखैकनिकेतने गृहे ! तिष्ठामि=अधिवसामि। कुतः=कस्मादेतत् ! (क्यों कि)
पित्रोरिति। क्रमागतं=पितृपितामहादिपरम्पराप्राप्तम्। ऐश्वर्यं=वैभवम्।धनैश्वर्यप्रभुत्वराज्यादिसम्पदम्। त्यक्त्वा=विहाय। पित्रोः=मातापित्रोः।शुश्रूषां=सेवां। विधातुं=कर्त्तुम्। यथा एष जीमूतवाहनः=पुरतो दृश्यमानस्तन्नामा विद्याधरराजो नागानन्दनादकनायको यथा गतस्तथैव। एषोऽहमपि अयमहं नटोऽपि मातापितृचरणसेवां विधातुं सकलनटाधिपत्यं, कुलक्रमागतंधनादिकं गृहञ्च त्यक्त्वा। वनं यामि=वनमेव गच्छामि। एतेन जीमूतवाहनस्य प्रवेशः सूचितः। रङ्गेऽसूचितस्य पात्रस्य प्रवेशाऽभावात्॥५॥
इति= इत्थमुक्त्वैव। जीमूतवाहनप्रवेशं सूचयित्वा। निष्क्रान्तौ प्रथमं नटोरङ्गान्निःसृतस्तमनु तत्पत्न्यपि तदनुनयव्याजेन ततो निर्गता।
आमुखमिति। एतत्पर्यन्तमामुखाऽपरनाम्नी प्रस्तावनाऽऽसीत्, सा समाप्ते-
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(पिता-माता) के चरणों को सेवा के सुख को छोड़कर मैं घर में कैसे रहसकता हूँ ?। क्योंकि—
कुल परम्परा से प्राप्त इस बड़े भारी ऐश्वर्य को एवं सुख सम्पत्ति को छोड़ कर माता-पिता की सेवा करने मैं आज ही उसी प्रकार बन को जा रहा हूँ, जैसे यह जीमूतवाहन सब राजसुख को छोड़कर बनमें माता-पिता की सेवा करने चला गया है॥५॥
(दोनों जाते हैं)
[आमुख=नाटक की प्रस्तावना (भूमिका) समाप्त]
[ इतः प्रथमोऽङ्कः प्रारभ्यते ]
[ततः प्रविशति नायको, विदूषकश्च]
नायकः21 —[सनिर्वेदं] वयस्य आत्रेय !
** रागस्याऽऽस्पदमित्यवैमि, न हि मे ध्वंसीति न प्रत्ययः,**
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त्यर्थः। आमुखस्य कथोद्धात–प्रवर्त्तक–प्रयोगातिशयादयः षोडशाङ्गानि। तदुक्तम्–
‘एषामन्यतमेनार्थं पात्रं वाऽऽक्षिप्य सूत्रभृत्।
प्रस्तावनाऽन्ते निर्गच्छेत्ततो वस्तु प्रपञ्चयेत्॥’ इति।
प्रकृते च—पितृशुश्रूषणार्थं स्वस्य वनगमनमङ्गीकृत्य सूत्रधारेण पात्रस्यजीमूतवाहनस्य प्रवेशः सूचित इति भवत्यर्थाक्षेपः। ‘एष यथेति साक्षात्कृतत्वाच्चप्रयोगातिशयो नाम प्रस्तावनाऽङ्गम्। एवमेवाऽन्यान्यपि अङ्गानि यथायथं बोध्यानि।
ततः=सूत्रधारकृतसूचनासमनन्तरमेव। प्रविशति=रङ्गस्थलीमवतरति।नायकः=प्रकृतनाटकमुख्यो जीमूतकेतुपुत्रो जीमूतवाहनो नाम विद्याधरपतिः।नायकलक्षणं च शारदातनयीये–
‘अभिगम्यगुणैर्युक्तो धीरोदात्तः प्रतापवान्।
कीर्त्तिकामो महोत्साहस्त्रय्यास्त्राता महीपतिः।
प्रख्यातवंश्योराजर्षिर्दिव्यो वा तत्र नायकः॥’ इति॥
विदूषकः=हास्याचार्यो नर्मसचिवो नायकसहचर आत्रेयनामा ब्राह्मणकुमारश्च। प्रविशतीति शेषः। सनिर्वेदं=सखेदम्। आत्रेयः=अत्रापत्यम् आत्रेयः=अत्रिगोत्रप्रसूतः, तन्नामा वा। विदूषकलक्षणञ्च भावप्रकाशने—
‘तदात्वप्रतिभोनर्मचतुर्भेदप्रयोगवित्।
वेदविन्नर्मवेदी यो नेतुः स स्याद्विदूषकः॥’ इति॥
रागस्येति। [ अन्वयः—] ( इदं यौवनं–) रागस्य आस्पदम् इति अवैमि।(यौवने –) ध्वंसि इति मे न प्रत्ययः (इति) नहि। (यौवनं—) कृत्याऽकृत्य-
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[नायक जीमूतवाहन और विदूषक का प्रवेश]
नायक— (खेद और उदासी के साथ ) मित्र आत्रेय !मैं यौवन (युवावस्था) को विषयवासना, अनुराग तथा द्वेष आदि का घर सम-
कृत्याकृत्यविचारणासु विमुखं को वा न वेत्ति क्षितौ।
एवं निन्द्यमपीदमिन्द्रियवशं22प्रीत्यै भवेद्यौवनं,
भक्त्यायाति यदीत्थमेव पितरौ शुश्रूषमाणस्य मे॥६॥
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विचारणासु विमुखम् ( इति ) क्षितौ को वा न वेत्ति ?। एवम् इन्द्रियवरां निन्द्यमपि इदं यौवनं मे प्रीत्यै भवेत् यदि–इत्थमेव भक्त्या पितरौ शुश्रूषमाणस्य याति।
[अर्थः] ( इदं यौवनं=युवत्वम् ) रागस्य=विषयेषु अनुरागस्य, कामक्रोधादेश्च। आस्पदं=स्थानम्। आश्रयः। इति इत्येवमहम्। अवैमि=यौवनस्यदोषं नूनं जानामि। किञ्च (यौवने=युवावस्थायां। तारुण्ये )। ध्वंसि=विनाशीद खलु तारुण्यम्। इति=इत्येवं। मे=मम। न प्रत्यय इति नहि=विश्वासोनास्तीति नैव खलु। इदं यौवनं स्थिरमिति मम भ्रमो नास्ति, किन्तु यौवनमिदं स्वल्पैरेवाहोभिर्विनाशमुपयास्यतीति दृढो मे निश्चयोऽस्त्येवेत्याशयः। क्षणनश्वरमिदं तारुण्यमिति यावत्। ‘द्वौ नञौप्रकृतार्थं द्रढयत’ इत्युक्तेः प्रत्ययस्यैव दार्ढ्यं नञ्भ्यां द्योत्यते।
दोषान्तरमप्याह—कृत्याऽकृत्येति। कृत्यञ्च अकृत्यं च कृत्याकृत्ये, कृत्याकृत्ययोविचारणास्तासु-कृत्याऽकृत्यविचारणासु=धर्माधर्मकार्याकार्योचितानुचितविचारेषु।विमुखं=विपरीतमिदं च यौवनम्। इति=इत्थं। क्षितौ=पृथिव्यां। लोके। को वा न वेत्ति=को वा न जानाति ?। अपि तु सर्वोऽपि लोको जानात्येव।
एवम्=इत्थं। निन्द्यमपि=पूर्वोक्तदोषाकरतया गर्हणीयमपि। इन्द्रियवशम् =विषयेन्द्रियपरतन्त्रम्। इदं यौवनम्=इदं मयि वर्त्तमानमपि तारुण्यं। प्रीत्यै=आनन्दायैव मम। भवेत्=जायेत। यदि=यदि चेत्। इत्थमेव=एवमेव। भक्त्या =अनुरागेण। पितरौ=जननीजनकौ। शुश्रूषमाणस्य=सेवमानस्यैव। मम याति =मम तत्तारुण्यमतिवर्त्तते। सर्वदोषोद्भवहेतुभूतमपीदं यौवनं तदैवाऽहं सफलं, सगुणं,
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झता-हूँ। यह यौवन क्षणभंगुर है—यह भी मुझे दृढ़ विश्वास है। यौवन के वश होमनुष्य कर्त्तव्य अकर्त्तव्य (उचित अनुचित) ज्ञान शून्य हो जाता है—यहसंसार में सभी जानते हैं। इस प्रकार इन्द्रिय वासना के परवश भीयह निन्द्ययौवन मुझे कुछ प्रीतिकर होसकता है—यदि इसी प्रकार भक्तिपूर्वक माता-पिताकी सेवा करने में ही यह व्यतीत हो।६।
** विदूषकः**—[सरोषं–] भो वअस्स ! ण णिव्विण्णो एव तुमं एत्तिअंकालं एदाणं जीवन्तमुआणं बुड्ढाणं किदे इमं ईदिसं बणवासदुक्खंअणुहवन्तो। ता पसीद। दाणिं पि दाव गुरुचरण सुस्सूसाणिब्बंधादोणिअत्तिअ इच्छापरिभोगरमणिज्जं रज्जसोक्खं अणुहवीअदु।
\भो वयस्य ! न निर्विण्ण एव त्वमेतावन्तं कालमेतयोर्जीवन्मृतयो[वृद्धयोः23कृते इदमीदृशं वनवासदुःखमनुभवन्। तत् प्रसीद। इदानीमपि तावद्गुरुचरणशुश्रूषानिर्बन्धान्निवृत्त्य इच्छापरिभोगरमणीयं राज्यसौख्यमनुभूयताम् ]।
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श्लाघनीयं च मन्ये, यद्येवमेव गुरुजनसेवायां संलग्नस्य मम यातीत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ ६॥
विदूषकस्तु एवमतिप्रवृद्धया (राज्यमपि परित्यज्य पितृसेवार्थं वने वसतो जीमूतवाहनस्य) पितृभक्त्या खिन्न इवोपहासेन तमुपालभते, शिक्षयति च-भो वयस्येति।भो वयस्य=हे सखे। न निर्विण्णः=नोद्विग्नःकिम्। न तृप्तः किम्। एतावन्तम् =इयन्तमपरिच्छिन्नम्। कालं=समयम्। एतयोः=अत्रैवाश्रमपदे स्थितयोः।जीवन्तावपि मृताविव, तयोः—जीवन्मृतयोः=जीवतोरपि मृतवन्निश्चेष्टयोर्निरीहयोश्च।जीवन्मुक्तदशां प्राप्तयोरिति तु गूढोऽर्थः। वृद्धयोः कृते=जीर्णयोः पित्रोः प्रयोजनाय। स्वभावत एव जीर्णतया सुखभोगवितृष्णयोः पित्रोः कृते। ईदृशम्=अतिकठिनम्। वनवासस्य दुःखं—वनवासदुःखं=तपोवनक्लेशम्। अनुभवन्=आस्वादयन्। पित्रोःकृते सर्वं राज्यसुखं परित्यज्य भूयसा कालेन वनवासक्लेशमनुभवन्नपि भवान्नैवेदानीमपि निर्विण्णोऽस्ति किमित्यधिक्षेपगर्भोक्तिरियम्। तत्=तस्मात्। प्रसीद =अस्मासु त्वदनुचरेषु दयां कुरुष्व। ननु सखे ! प्रजासु, परिजनेषु चास्मद्विधेषु दयां कुरु।
ननु भोस्त्वं किमिच्छसीति नायकाशयमुन्नीय स्वयमेवाह—इदानीमपीति।इदानीमपि तावत्=इत्थं बहुतिथे काले व्यतीतेऽपि। (तावत्=अभी भी)।गुरुजनस्य शुश्रूषायां यो निर्बन्धः=आग्रहः, अभिनिवेशश्च, तस्मात् —गुरुजनशुश्रूषा-
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विदूषक—( कुछ क्रोध के साथ—) प्रिय मित्र ! इतने दिन तक जीवन्मृततुल्य इन बुड्ढे बुड्ढियों (अपने माता-पिता) के लिए इस प्रकार इस जंगल मेंकष्ट पाते हुए भी तुमारा मन क्या अभी तक उद्विग्न नहीं हुआ ? अब तो हम लोगों
नायकः —वयस्य ! न सम्यगभिहितं त्वया। कुतः ?—तिष्ठन् भाति पितुः पुरो भुवि यथा, सिंहासने किं तथा ?, यत्संवाहयतः24 सुखं तु चरणौ तातस्य, –किं राजके25?।
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निर्बन्धात्=मातापितृसेवादुराग्रहात्। निवृत्य=विरम्य। इच्छायाः=इच्छाविषयीभूतानां विषयाणां परिभोगेण रमणीयम्=इच्छापरिभोगरमणीयम्=यथेच्छविषयसुखोपभोगमनोहरम्। अत्र इच्छापदमिच्छाविषयोपलक्षणमिति शिवरामः। राज्यस्य सौख्यं=राज्यसुखम्। अनुभूयताम्=आस्वाद्यताम्। वनवासान्निवृत्त्य राज्यं पालय, सुखं चानुभवेत्याशयः। न सम्यगभिहितं=त्वया न युक्तंवचनमुक्तम्। यतो राज्यसुखापेक्षया गुरुजनसेवायां महदेव सुखमस्ति, राज्योपभोगेतल्लेशतोऽपि नास्तीत्याशयः। कुतः=कस्मात्। ( क्योंकि—) तिष्ठन्निति।पितुः=जनकस्य, जनन्याश्च। पुरः=पुरतः। अग्रे। भुवि=आस्तरणरहितायांकठिनायां भूमौ। तिष्ठन्=आसीनः पुत्रः। यथा भाति=यथा शोभते। तथा=तथैव।सिंहासने=राजसिंहासने। किं=किं शोभते ?। नैव शोभते। पितुरग्रेभूमौ स्थितस्य पुत्रस्य यथा शोभा, सुखं च भवति न तथा राज्यसिंहासनस्थस्य शोभा वा, सुखं वा भवितुमर्हतीत्याशयः। किञ्च — यत् - तातस्य पितुः। चरणौ=पादौ। संवाहयतस्तु=मर्दयतस्तु। सेवमानस्य पुत्रस्य तु। सुखं=सुखं भवति। ( तत् सुखं ) राजके=राजमण्डले-स्थितस्यापि किं भवति ? नैव भवतीत्यर्थः। राज्ञां समूहो राजकम्। सामन्तराजमण्डलम्। तन्मध्यस्थितस्येत्यर्थः। ‘गोत्रोक्षो’ इत्यादिना समूहेऽर्थेवुञ्। ‘राज्यके’ इति पाठस्तु सुन्दरः। कुत्सिते राज्ये इदं सुखमस्ति कि, नैवेत्यर्थात्।
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पर दया करो। अब तो माता-पिता के चरण सेवा की झक (सनक) को छोड़करयथेच्छ विषय उपभोगों से रमणीय राज्य के सुख का आनन्द लो।
नायक— मित्र ! तुमने यह बात ठीक नहीं कही। क्योंकि पिताश्री के चरणोंमें भूमि पर ही बैठकर जो शोभा पुत्र को प्राप्त होती है वह क्या राज्य सिंहासनपर बैठने में भो उसे प्राप्त हो सकती है ?। जो सुख पिता-माता के चरणों को दबाने में हैवह क्या राज्य में कभी मिल सकता है ?। जो सुख पिता-माता के उच्छिष्ट छोड़े हुए
किं भुक्ते भुवनत्रये धृतिरसौ, भुक्तोज्झिते या गुरो-
रायासः खलु राज्यमुज्झितगुरोस्तन्नाऽस्ति26 कश्चिद् गुणः।७।
** विदूषकः—[ आत्मगतम्–] अहो से गुरुअण27सुम्सूसाणुराओ !।**
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किञ्च—गुरोः=पित्रादेः। भुक्तं च तदुज्झितं च भुक्तोज्झितं तस्मिन्—भुक्तोज्झिते। भुक्ते=भुक्तोच्छिष्टे–भुक्ते सति। या धृतिः=यद्धैर्यं। या च तृप्तिर्भवति। असौधृतिः=सा धृतिः। भुक्ते भुवनत्रये=त्रैलोक्यपदार्थेषु भुक्तेष्वपि। किं=किं भवति ?।पितृजनभुक्तोच्छिष्टे भोज्ये यो मधुरो रसोऽनुभूयते पुत्रेण स रसस्त्रैलोक्यवर्त्तिपदार्थेष्वपि भुक्तेषु नानुभूयते, राज्योपभोगस्य तु वार्त्तैव का–इत्याशयः। अतः—उज्झितो गुरुर्येनासौ तस्य—उज्झितगुरोः=परित्यक्तगुरुजनस्य। परित्यक्तगुरुजनचरणसेवस्य पुत्रस्य। राज्यं=राज्यसुखम्। आयासः खलु=आयासमात्रमेव खलु। श्रम एव हि तत्रकेवलं, नतु राज्ये किमपि सुखमस्तीत्याशयः। तत्= तस्मात्।कश्चिद्गुणः=राज्ये कोऽपि गुणः। किमपि सुखम्। नास्ति=नैवास्ति। ‘पितृचरणसेवासुखापेक्षया राज्ये सुखलेशोऽपि नास्ति, तत्किं वृथा राज्यसुखेषु सखे ! त्वं मांनियोजसी’ त्याशयः।
‘तत्रास्ति कश्चिद् गुणः ‘ ? इति पाठे तु तत्र=राज्ये, कश्चिद् गुणः=कोऽपिगुणः, किमपि सुखञ्च, अस्ति=किमस्ति ? कथयेत्येवं काक्वायोजनीयम्। ‘तेनाऽस्ति कश्चिद् गुण’ इति पाठेऽपि—तेन=तस्मात्। पूर्वोक्तहेतोरेव। अस्ति राज्येकश्चिदपि गुणः?=नैवास्तीत्येवं काक्वायोजनीयम्। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥७॥
आत्मगतमिति। जीमूतवाहनस्य धीरोदात्तगुणयुक्तं वचः समाकर्ण्यविदूषको जीमूतवाहनमश्रावयन्निव सभ्यांश्च श्रावयन्नित्थंस्वयमेव कथयति।
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भोजन में है वह क्या त्रैलोक्य के किसी भा भोग्यपदार्थ के उपभोग में प्राप्त होसकता है ?।कभी नहीं। अतः पिता जी के चरणों को छोड़कर राज्य के झञ्झटोंमें पड़ना, राज्य सुख की चाहना करना—केवल आयास (क्लेश ) मात्र ही है।तुम्हीं बताओ, राज्य में क्या गुण और सुख रखा है ?। अर्थात् पिता-माता कीसेवा के सर्वोत्तम सुख के सामने मुझे तो राज्य सुख बिलकुल फीका लगता है॥७॥
विदूषक—( मनही मन ) गुरुजनों की सेवा में यह इसका दृढ़ प्रेम प्रशंस-
** [विचिन्त्य–] भोदु28ता एवं पि दाव, अण्णं विअ भणिस्सं। [ प्रकाशं –]भो अस्स ! ण क्खु अहं रज्जसोक्खं ज्जेव केवलं उद्दिसिअ एव्वं भणामि,अण्णं पिदे करणीज्जं अस्थि ज्जेव।**
** \अहो ! अस्य गुरुजनशुश्रूषाऽनुरागः !। भवतु, [तदेतदपि29 तावत्। अन्यदिव भणिष्यामि। भो वयस्य न खल्वहं राज्यसुखमेव केवलमुद्दिश्य एवं भणामि,अन्यदपि ते करणीयमस्त्येव]।**
** नायकः—–[सस्मितं-30] वयस्य ! ननु कृतमेव यत्करणीयं। पश्य-**
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किन्तदित्याकाङ्क्षायामाह—अहो इति। अहो इत्याश्चर्ये। अस्य=जीमूतवाहनस्य। गुरुजनशुश्रूषाऽनुरागः=स्वपितृजन सेवानिर्बन्धः। अहो खल्वस्य पितृभक्तिः।भवतु=अस्तु तावत्। (अच्छा इसे रहने दो)। तदेतदपि तावत्=इदमपितावत्। इयं वार्ता तिष्ठतु नाम। अन्यदिव=प्रकारान्तरेण इदमेव वक्तव्यम्।भणिष्यामि=कथयिष्यामि। प्रकाशं=सर्वश्राव्यं। ब्रूते इति शेषः। एवं भणामि=इत्थं वदामि।राज्यपरिपालने भवन्तं प्रेरयामि। अन्यदपि=प्रजापालनगृहस्थधर्म-पालनादिकम्। ते=तव। तदर्थमेव त्वां वनवासान्निवर्त्य राज्य योजयितुमेव मयेत्थं भणितमित्याशयः।
सस्मितम्=ईषद्धासपूर्वकमित्थमाहेत्यर्थः। ईषदासश्च दारपरिग्रहादिषुविदूषकस्य गूढं सङ्केतमभिलक्ष्यीकृत्यैवेति ध्येयम्। ननु इति - निश्चये। करणीयम्=राज्ञा अवश्यकर्त्तव्यम्। पश्य=विचारय। अवधेहि।
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नीय हैं। ( कुछ सोचकर ) यह इस तरह तो नहीं मानेगा। अच्छा इसे दूसरेप्रकार से ही समझाता हूँ। ( प्रकट में –) नहीं मित्र ? मैं केवल राज्य-सुख के उपभोगको ही उद्देश्य करके यह नहीं कह रहा हूँ। किन्तु आपको और भी तो बहुतकुछ करना है। इस तरह राज्य छोड़ कर वन में बैठे रहने से कैसे कामचलेगा।
नायक—( मुसकुराकर –) मित्र, जो मेरा कर्तव्य था उसे मैं पहिले ही करचुका हूँ। देखो—
न्याय्ये वर्त्मनि योजिताः प्रकृतयः सन्तः सुखं स्थापिता,
नीतो बन्धुजनस्तथात्मसमतां, राज्ये च रक्षा कृता।
दत्तो दत्त मनोरथाधिकफलः कल्पद्रुमोऽप्यर्थिने,
किं कर्त्तव्यमतः परं, कथय वा यत्ते स्थितं चेतसि ॥८॥
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न्याय्ये इति। प्रकृतयः=प्रजाः, अमात्यादिप्रकृतयश्च। न्यायादनपेतं— न्याय्यं,तस्मिन्— न्याय्ये=न्यायोचिते। यस्य यस्य यद्यद्योग्यं तत्रैव। वर्त्मनि=मार्गे।अधिकारे च। योजिताः=स्थापिताः। ’ स्वाम्यमात्य सुहृत्कोश राष्ट्र दुर्गबलानि च।राज्याङ्गानि प्रकृतयः, पौराणां श्रेणयोऽपि च॥ इत्यमरः। सन्तः=साधवः। सज्जनाः।सुखं यथा स्यात्तथा। स्थापिताः=राष्ट्रविनिवेशिताः। दानमानादिना सत्कृत्य राष्ट्रेविनिवेशिताः। तथा=तथैव। बन्धुजनः=बान्धववर्गः। आत्मसमतां नीतः=स्वतुल्यविभवतां प्रापितः। अतोऽन्तरङ्गकोपभयमपि मम राज्येनास्त्येवेत्याशयः। किञ्च—राज्येऽपि=राष्ट्रेऽपि। रक्षा कृता=सेनादुर्गस्थापनादिविधिना रक्षोपायः कृत एव।तथा च बाह्यशत्रुभयमपि तत्र न सम्भवतीत्याशयः। किञ्च—दत्तंमनोरथादधिकं फलंयेनासौ-दत्तमनोरथाधिकफलः=इच्छाधिकफलप्रदः।सकलमनोरथपूरणक्षमः। कल्पद्रुमोऽपि=कुलक्रमागतः स कल्पपादपोऽपि। अर्थिने=याचकाय।दत्तः=मया वितीर्णः। अतः परम्=इतोऽधिकम्। कर्त्तव्यं=करणीयं। किं=किमवशिष्यते ?। न किमपीत्यर्थः। वा=अथवा। ते=तव। चेतसि=मनसि। यत् =यत्किमपि कर्त्तव्यतयाऽवशिष्टमिति वर्त्तते। तत्-कथय=स्पष्टं निर्द्दिश। मया तु
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मैंने अपनी प्रजा को तथा राज्य के अधिकारियों को न्यायोचित मार्ग में लगादिया है’। सज्जनों को जीविका आदि देकर सुख पूर्वक राज्य में बसा दिया है।बन्धु बान्धओं को भी अपने ही समान अधिकार एवं भूमि आदि देकर प्रसन्न करदिया है। राज्य की सब प्रकार से रक्षा दृढ़कर दी है। हमारे यहाँ वंश परम्परासे चले आते हुए कल्पवृक्ष को भी (जो मनुष्यों की सभी इच्छाओं को अधिकाधिक रूप से पूर्ण करने वाला था उसे भी ) याचकों के तथा जगत्के उपकारके लिए दे दिया है। बताओ–इससे अधिक अब और क्या मेरा कर्त्तव्य बाकीरहा है कि जिसके विषय में तुम विचार कर रहें हो ?॥८॥
विदूषकः —भो वअस्स ! अच्चन्तसाहसिओ मदङ्गदेवहदओ31 दे पडिवक्खो, तस्सिंअ समासण्णट्ठिदे पहाणामच्चसमधिट्ठिदं पि ण तुएविणा रज्जंसुत्थिरं त्ति पडिभादि।
** [भो वयस्य ! अत्यन्तसाहसिको मतङ्गदेवहतकस्ते प्रतिपक्षः। तस्मिंश्च समासन्नस्थिते प्रधानामात्यसमधिष्ठितमपि न त्वया विना राज्यं सुस्थिरमिति प्रतिभाति ]। **
** नायकः—धिङ्32 मूर्ख ! मतङ्गो33 राज्यं हरिष्यतीति शङ्कसे ?।**
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स्वबुद्ध्याऽवश्यकर्तव्यतयाऽवधारितं तत्सर्वमनुष्ठितमेव परं यद्भवानपि मत्कर्त्तव्यतया मनसि किञ्चिच्चिन्तयति तदपि स्पष्टं कथयतु, किं मे करणीयमवशिष्यते इत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्। अत्रत्यं जीमूतवाहनस्य कल्पवृक्षदानवर्णनं चबृहत्कथामञ्जर्यां समर्थितम्। तदुक्तं क्षेमेन्द्रेण—
‘तं सर्वगुणसम्पन्नमभिषिच्याऽऽत्मजं पिता।
कल्पवृक्षं ददावस्मै नानासिद्धिसुधाफलम्॥
कान्ताकटाक्षविक्षेपचपलं यावनं धनम्।
जीवितं चेति स ध्यात्वा तमर्थिभ्यस्तरु ददौ॥
कुलक्रमागते तस्मिन् कल्पवृक्षे व्ययीकृते।
अपूर्वत्यागिना तेन त्रिलोकी विस्मयं ययौ ॥ इति ॥८॥
अत्यन्तसाहसिकः=नितान्तंसाहसी। क्षिप्रकारी। अतिबलवीर्योत्साहदुर्ललितः।प्रतिपक्षः-शत्रुः। तस्मिन्=बलवतिशत्रो। समासन्नस्थिते=सर्वदा राष्ट्रस्यनिकटवर्त्तिनिजागरूके सति। प्रधानामात्यसप्तविष्ठितमपि=प्रधानमन्त्रिपरिरक्षितमपिन त्वया विनाराज्यं—सुस्थिरं=सुदृढं, सुव्यवस्थितं च। अस्तीति शेषः। अतो भवता राज्ये सर्वदा
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विदूषक—मित्र ! मतङ्गराज नामक जो तुमारा प्रतिपक्षी ( शत्रु ) हैवह बडाही साहसी और उद्दण्ड है। उसके रहते तुमारा राज्य केवल प्रधानमन्त्रीके सहारे हां पर सुस्थिर नहीं कहा जा सकता है। अतः राज्य में आपका उपस्थितरहना सर्वथा आवश्यक है।
नायक—बाहरे मूर्ख ! मेरेर राज्यको मतङ्ग छीन लेगा क्या यही तुम्हारी शङ्का है ?।
विदूषकः — अध इं।
[अथ किम्]।
** नायकः – यद्येवं, ततः34 किं स्यात्35 ?। ननु स्वशरीरात्प्रभृतिसर्वं परार्थमेव मया परिपाल्यते। यत्तु स्वयं न दीयते, तत्तातानुरोधात्। तत् किमनेनाऽवस्तुना चिन्तितेन ?। वरं वाताज्ञैवानुष्ठिता।आज्ञापितश्चास्मि36 तातेन यथा—‘वत्स! जीमूतवाहन! बहुदिवसपरिभोगेण दूरीकृतसमित्कुशकुसुमम्, उपभुक्त37मूलफल-कन्दनीवारप्रायमिदंस्थानं वर्त्तते। तदितो मलयपर्वतं गत्वा किञ्चित्तस्मिन्निवासयोग्यमाश्रमपदं निरूपय’ इति। तदेहि38 मलयपर्वतमेव गच्छावः।**
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सन्निहितेन स्थातव्यमित्याशयः। आशङ्कसे=चिन्तयसि। अथ किम्=ओम्। एवमेव शङ्केऽहमित्यर्थः। स्वशरीरतः प्रभृति=स्वकीयं शरीरमारभ्य मदीयं यत्किञ्चिद्वस्तु वर्त्तते तत्सर्वमपि। परार्थम्=परोपकारार्थमेव। परिपाल्यते=मया रक्ष्यते। स्वयं नदीयते=आत्मनाऽर्थिभ्यो विभज्य यन्न दीयते तत्। तात नुरोधात्=पितुरनुरोधरक्षायै। पितुराज्ञां शिरसा धारयतैव मया राज्यं रक्ष्यते, नोचेन्मम तु तत्र नाणुरपिराग इत्याशयः। अवस्तुना=निःसारेण। चिन्तितेन=विचारितेन।ताताज्ञा=पितुरादेशः। अनुष्ठिता=पालिता। वरम्=श्रेष्ठम्। पितुः सेवैव श्रेष्ठेत्याशयः।
पितुराज्ञामेवाह—यथेति। बहुदिवसपरिभोगेण=दीर्घकालकृतोपभोगेन!दूरीकृतेति। व्यपगतकुशपुष्पादि-बलिपूजोपहारसामग्रीकम्।
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विदूषक—( तो फिर ?। अर्थात् हाँ, याने ) यही मेरी शङ्का है। इसपर तुम क्या उत्तर देते हो, कहो ?।
नायक—यदि मतङ्ममेरा राज्य ले ही लेगा तो हानि ही क्या है। मेरा तोशरीर भी परोपकार के ही लिए है, तो फिर राज्य की तो बात ही क्या है। उसेभी यदि कोई दूसरा लेले तो क्या हानि है। अच्छा ही है। यह भी तो उपकार हीहै। मैं स्वयं राज्य को दूसरों को जो नहींदे रहा हूँ यह केवल पिताजी के अनु-
विदूषकः39— जं भवं आणवेदि। एदु भवं।
** [यद् भवानाज्ञापयति। एतु भवान्। ]**
\ [इत्युभौ40 परिक्रामतः ]।
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दूरीकृताः समिधः कुशाः कुसुमानि च यस्मात्तत्तादृशमिति च विग्रहः। उपयुक्तेति।उपयुक्तानि=उपभुक्तानि। उपयोगाय आनीतानि, मूलानि फलानि कन्दानि नीवाराश्चप्रायेण यस्मात्तत्—उपयुक्तमूलफलकन्दनीवारम्=प्रतिदिनोपभोगपरिक्षीणप्रायमूलफलकन्द तृणधान्यादिकमित्यर्थः। स्थानम्=आश्रमपदमिदम्। वर्त्तते=सम्प्रतिवर्त्तते। इदानीं जातम्। ‘कन्दोऽस्त्री सूरणे सस्यमूले जलधरे पुमान्’ इत्यमरः।तत्=तस्मात्कारणात्। आश्रमपदम्=आश्रमस्थानम्। ‘पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्माऽङ्घ्रिवस्तुषु’ इत्यमरः। निरूपय=निरीक्षस्व। विलोकय। मलयपर्वतःदक्षिणसमुद्रनिकटस्थश्चन्दनप्रभवो गिरिः। (मलाबार-मैसूरप्रान्तस्थपर्वतो, मलयद्वीपस्थो गिरिर्वा )।
इति=इत्थमामन्त्र्य स्थानगवेषणाय। उभौ=जीमूतवाहनविदूषकौ। परिक्रामतः=किञ्चिञ्चलन नाटयतः।
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रोध की रक्षा के ही लिए है। इस लिए व्यर्थ को इस चिन्ता को छोड़ो। मुझेतो पिताजी की आज्ञा का पालन करना ही अच्छा लगता है। मेरे लिए तो वहाउत्तम है। पिता जी ने आज आज्ञा दी है कि— वत्स जीमूतवाहन ! जिसस्थान में हम लाग अभी हैं वहाँ प्रतिदिन के उपभोग (खर्च) से हवन वपूजोपकरण समिधा, कुशा, पुष्प, फल, मूल कन्द, नीवार ( तिन्नी के चावल )आदि सभी पदार्थ कम हो गये हैं। अतः मलयाचल (पर्वत) पर जाकर कोईअच्छा सा रहने योग्य आश्रम लायक स्थान ठीक करो। अतः आवो मलयपर्वतपर ही चलें। (मलय पर्वत—वर्त्तमान मलाया टापू का पर्वत। वह पर्वतसिद्ध-विद्याधरों की निवास भूमि प्रसिद्ध है। बालरामायण आदि में भी इसकावर्णन आता है। दूसरा मलय पर्वत मैसूर के पास भी हैं जिसमें चन्दनउत्पन्न होता है )।
विदूषक — जैसी आपकी आज्ञा। आइए चलें। (दोनों चलते हैं)।
विदूषकः—\अग्रतोऽवलोक्य–[सविस्मयं41] भो वअस्स42 ‘। ‘विदूषकः - भोवअस्स’।") ! पेक्खपेक्ख, एसो क्खु सरसघणसिणिद्धचंदणवणुच्छङ्गपरिमिलणलग्गबहलपरिमलो43, विषमतडणिबडण44।") जज्जरि45ज्जंतणिच्छलितसिसिरसीअरासारवाही, पढमसङ्गमुक्कण्ठिअपिआकण्ठग्गहो विअ मग्गपरिस्समं अवणअंतो रोमाञ्चेदिपिअवअस्सं मलअमारुदो।
** \भो वयस्य! प्रेक्षस्व प्रेक्षस्व। एष खलु सरसवनस्निग्धचन्दन-वनोत्सङ्गपरिमिलनलग्नबहल परिमलो विषमतटनिपतनजर्जरायमाणनिर्झरो [च्छलित46’।")शिशिर-**
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मलयमारुतं वर्णयति विदूषकः—एष इति। अतिमनोहरः। खलु इति निश्चये।सरसेति। सरसानि=रसार्द्राणि वनानि=निरन्तराणि निविडानीति यावत्,स्निग्धानि=स्नेहार्द्राणीवमसृणानि, चिक्कणानि यानि चन्दनानां=चन्दनद्रुमाणांवनानि, तेषामुत्सङ्गे=मध्ये यत् परिमिलनं=मुहुर्मुहुः परिवर्त्तनं वारं वारं गमनं,संचारः, तेन-लग्नः=निरन्तरं संसृष्टः, बहलः=नान्द्रः, परिमलः=सर्वजनमनोहर आमोदो यस्यासौ—सरस -घन-स्निग्ध-चन्दन-बनोत्सङ्ग-परिमिलन- लग्न-बहल-परिमलः=रसार्द्र-निबिड- चिक्कण-चन्दन-तरु-वनमध्यसंचारसङ्क्रान्तविपुलामोदः।किञ्च—विषमेति। विषमाणि=शिलाखण्डनिम्नोन्नतानि यानि तटानि=प्रवाहोभयस्थलानि, तत्रपतनेन जर्जरीक्रियमाणाः=खण्डशः क्रियमाणा ये निर्झराः =पर्वतजलनिर्झराः, तेभ्य उच्छलिताः=उद्गता ये शिशिराः=शीतलाः, शीकराः =जलकणाः, तेषाम् आसारान्=सञ्चयान् वहति तच्छीलः— विषमतटपतन - जर्जरी-
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विदूषक—( आगे देखकर ) अहो मित्र ! देखो देखो। सरस स्निग्धसचिक्कण चन्दन के वन के बीच से बहने के कारण गहरी सुगन्धि से भराहुआ, विषम ( उबड़-खाबड़ ) तट में गिरते उछलते हुए झरनों के जल केछोटे छोटे कणों के समूह से भीगा हुआ, पति के साथ प्रथम समागम के लिएउत्कण्ठित प्रियतमा के कण्ठाश्लेषकी तरह सभी प्रकार की थकावट को दूर करने वाला यह मलयमारुत आपको रोमाञ्चित कर रहा है। अर्थात् मलयगिरि परअब हमलोग पहुंच गये हैं।
सीकराऽऽसारवाही प्रथमसङ्गमोत्कण्ठितप्रियाकण्ठग्रह इव मार्गपरिश्रम-मपनयन्रोमाञ्चयति प्रियवयस्यं मलयमारुतः ]।
** नायकः—[निरूप्य47 अये !कथं प्राप्ता एवमलयपर्वतं? पा०।") सविस्मयम् ] अये ! प्राप्ता एव वयं मलयपर्वतम्॥ [समन्तादवलोक्य48] अहो रामणीयकमस्य मलयाचलस्य41 !तथा हि**
माद्य49दिग्गजगण्डभित्तिकषणैर्भग्नस्रवच्चन्दनः,
क्रन्दत्कन्दरगह्वरो जलनिधेरास्फालितो वीचिभिः।
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????????निर्झरोच्छलितशिशिर-शीकराऽऽसारवाही=उन्नताऽऽनततटनिपातभग्ननिर्झरोच्छलितशिशिरतरजलकण-सञ्चय-वहन -शीतलः। प्रथमसङ्गमे उत्कण्ठिता याप्रिया तत्कर्तृको यः कण्ठग्रहः=स्वयंकृताश्लेषः, तद्ववत् - मार्गपरिश्रमं दूरीकुर्वन्मलयमारुतः=मलयानिलः प्रियवयस्यं=मत्प्रियमित्रं त्वां जीमूतवाहनमपि।रोमाञ्चयति=रोमाञ्चं जनयन् आनन्दयति। प्रियाकर्तृकः त्वयंग्रहोऽपिरत्यादिश्रमं मार्गश्रमं चापनयत्येवेत्यर्थः निरूप्य=अग्रतोऽवलोक्य।अये इत्याश्चर्ये। कथं=कथमिव। झटित्येव वयं प्राप्ता इत्याश्चर्यम्। ‘सर्वतो दत्तदृष्टिरिति पाठे— सर्वतः=सर्वासु दिक्षु। दत्तदृष्टिः=दृष्टिपातं कृत्वा। समन्तादवलोक्येत्यर्थः। रमणीयस्य भावो रामणीयकं=रमणीयता। मनोहरत्वम्। ( ‘योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुञ्’ इति भावे वुञ्। ) अस्य=मलयपर्वतस्य। क्वचित्तथा पाठएव। रामणीयकमेव दर्शयति - तथा हीति।
माद्यदिति। माद्यन्तश्च ते दिग्गजाश्च माद्यद्दिग्गजाः, तेषां गण्डभित्तिभिः
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नायक—( देखकर आश्चर्य के साथ— ) अहा हा !! अब तो हम लोग मलयगिरिपर पहुंच ही गये हैं। ( चारों ओर देखकर ) अहा ! इस मलय पर्वत कीअद्भुत रमणीयता है। जैसे—
एक ओर मदमत्त दिग्गजों के गण्डस्थल ( शिर ) केबृक्षों से चन्दन का रस बह रहा है। दूसरी ओर गिरि कीघर्षण से चन्दन केगुहाओं तथा दरोंसे
पादालक्तकरक्तमौक्तिकशिलः सिद्धाङ्गनानां गतैः,
सेव्योऽयं50 मलयाचलः किमपि मे चेतः करोत्युत्सुकम् ॥९॥
** तदेहि, अत्राऽऽरुह्य51 वासयोग्यं किञ्चिदाश्रमपदं निरूपयावः।**
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यानि कषणानि, तैः-माद्यद्दिग्गजदन्तभित्तिकषणैः=प्रारब्धमदावस्थदिक्कुञ्जर-गण्डस्थलनिर्द्दयघर्षणैः। भग्नानि च स्रवन्ति च चन्दनानि यत्रासौ भग्नस्थलपरिस्रवच्चन्दनरसः।भग्नस्थलपरिस्रवच्चन्दनरसः। दिव्यकरिगण्डस्थलघर्षणोद्भूतक्षत-परिस्रवञ्चन्दनद्रव इतियावत्। जलनिधेः=लवणार्णवस्य। वीचिभिः=तरङ्गैः। आस्फालितः= सशब्दंसलीलञ्चाक्रान्ततटः। धौतपर्यन्तभागः। अत एव — क्रन्दत्कन्दरगह्वरः। क्रन्दन्तःकन्दरा गह्वराणि च यत्रासौ–क्रन्दत्कन्दरगह्वरः=गम्भीरध्वनिपूर्णदरीगुहोपशोभितः। ‘देवखातबिले गुहा। गह्वरम्’ इत्यमरः। ‘दरी तु कन्दरो वाऽस्त्री’ इत्यमरः।समुद्र तरङ्गाघातनादितगुहाकन्दर इति मलयगिरिविशेषणम्। किञ्च—सिद्धाङ्गनानाम्=देवजातिविशेषसुन्दरीणाम्। विद्याधर-रमणीनामिति वाऽर्थः। विद्याधराणामपि खड्गपादुकागुटिकादिसिद्धिशालित्वात्। गतैः=सलीलसविलासचङ्क्रमणैः।पादलग्नेन अलक्तकेन=यावकरसेन रक्ता मौक्तिकशिला यत्रासौ पादालक्तकरक्तमौक्तिकशिलः=सिद्धविद्याधराङ्गनापादसंलग्नयावकर-सरक्तमुक्ताशिलातलः। अयं=पुरो दृश्यमानः। मलयाचलः=मलयगिरिः। सेव्यः। सर्वैरपि सेवनीय इत्यर्थः।‘दृष्ट’ इति पाठे — विलोकितः सन्नित्यर्थः। किमपि=अनिर्वचनीयानन्दनिर्भरम्।चेतः=विषयविमुखमपि मदीयं मानसम्। उत्सुकम्=उत्कण्ठितं करोति। शाद्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ ९॥
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सिंह आदि के घनघोर शब्द सुनाई दे रहे हैं। समुद्र की उचाल तरंगे कहींटक्कर खा रही हैं। सिद्धों (देवजाति विशेष) कां स्त्रियों के चलने फिरने सेउनके पैरों की महावर ( एक प्रकार का लाल रंग, मेहदी ) से मोती की तरह स्वच्छ मणि शिलाएँ भी लाल हो रही हैं। किं बहुना, सब प्रकार से यहपर्वत सेवनीय है। और यह मलय पर्वत मेरे मन में विशेष प्रकार की उत्सुकता(गुदगुदी तथा कामविकार विशेष को) उत्पन्न करता है ॥९॥
अतः आवो, इसपर चढ़कर अपने रहने योग्य आश्रमको (देखकर) निश्चित करें।
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विदूषकः52—एब्बंकरेम्ह। [अग्रतः स्थित्वा] एदु भवं।**
** [एवं कुर्वः। एतु भवान]।**
[आरोहणं नाटयतः।]
** नायकः**—[दक्षिणाक्षिस्पन्दनं53 सूचयन् ] अये54 !—
दक्षिणं स्पन्दते चक्षुः, फलाकाङ्क्षा न मे क्वचित्।
न च मिथ्या मुनिवचः, कथयिष्यति किं न्विदम् १॥१०॥
** विदूषकः - भो वअस्स ! अवस्स55मासण्णं दे पिअं णिवेदेदि।**
** [भो वयस्य ! अवश्यमासन्नं ते प्रियं निवेदयति]।**
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तत्=यतोऽयमानन्दजनकः, तस्मात्। एहि=आगच्छ। आश्रमपदम्=आश्रमस्थानम्। निरूपयावः=निश्चिनुवः। नाटयतः=तथाऽभिनीय रङ्गस्थसामाजिकेभ्यो दर्शयतः। निमित्तं=शकुनम्। स्पन्दत इति। दक्षिणं चक्षुर्मे स्पन्दते=स्फुरति। दक्षिणाक्षिस्पन्दनं च पुंसां प्रियप्राप्तिसूचकमिति निमित्तविदः। फलाकाङ्क्षा=शुभप्रियासमागमादिफलेच्छा। क्वचिदपि विषये मे=मम न=नैवास्ति परन्तु–मुनिवचः=शकुनशास्त्रप्रणेतृमुनिवचनम्। मिथ्या न च=नैव भवितुमर्हति।अतः–इदं दक्षिणाक्षिस्पन्दनरूपं शकुनम्, किंनु=किंस्वित्। कथयिष्यति=आवेदयिष्यतीति वितर्कपरं वाक्यं जीमूतवाहनस्य। एतेन च भाविमङ्गलमयप्रियाप्राप्तिःसूचिता। ‘इष्टप्राप्तिश्च नेत्रयोः। ऊर्ध्वभागे’ इति नैमित्तिकाः॥ १०॥
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विदूषक—ठीक है, ऐसा ही करना चाहिए। ( आगे होकर) आइए चलें।(दोनों पर्वत पर चढ़ने का अभिनय करते हैं)।
नायक—(दहिनी आँख फड़कने की बात कहता हुआ ) अहो मित्र ! देखोमेरी यह दहिनी आँख फड़क रही है। यह क्या फल दिखलाएगी ?। यद्यपिमुझे तो किसी भी फल की इच्छा नहीं है, पर ऋषि-मुनियों (शास्त्रों) के वचनतो मिथ्या हो नहीं सकते। अतः देखें यह क्या फल दिखलाती है॥ १०॥
विदूषक—प्रिय वयस्य ! यह तो निकट भविष्य में किसी प्रिय जन के साथ
** नायकः**—एवं नाम, यथाऽऽह56 भवान्।
** विदूषकः**—** [विलोक्य57 ‘भो वअस्स’ पा०।")] भो वअस्स ! पेक्ख41 पेक्ख। एदं क्खु सविसेसघणसिणिद्ध पाअवोवसोहिअं58 सुरहि59हविग्गन्धगब्भिणुद्दामधूमणिग्गमं अणुव्विग्ग-[मग्ग]- सुहणिसण्णसावअगणं तबोवणं विअलक्खी अदि।**
** [भो वयस्य! प्रेक्षस्व प्रेक्षस्व। एतत् खलु सविशेषघनस्निग्धपादपोपशोभितं, सुरभिहविर्गन्धगर्भितोद्दामधूमनिर्गमम्, अनुद्विग्न[मार्ग] सुखनिषण्णश्वापद गणंतपोवनमिव लक्ष्यते !]।**
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अवश्यसमासन्नम्=अवश्यम्भावि, संनिकटस्थं च। प्रियं=प्रियादर्शनलाभादिकम्। निवेदयति=सूचयति-दक्षिणाक्षिस्पन्दनम्। एवं नाम=ईदृशमेवप्रतीयते। यथाह भवान्=यथा भवान्निर्द्दिशति=कथयति, तथैवाहमपि प्रत्येमीत्याशयः। एतत्खलु=पुरतो दृश्यमानं स्थानम्। सविशेषं घनाः=निबिडाः,जलादिसेकाच्च स्निग्धाः=मसृणाश्च ये पादपाः=वृक्षाः, तैरुपशोभितं–सविशेषघनस्निग्धपादपोपशोभितं=अतिनिबिडचिक्कणवृक्षपङ्क्तिविराजितं। सुरभिणा= मनोहरेण, हविषः=घृतादेर्धूयमानस्य, गन्धेन गर्भितः=संपृक्तः, उद्दामः=प्रबलो धूमस्य निर्गमोयस्मिंस्तत्-सुरभि-हविर्गन्ध-गर्भितोद्दामधूमनिर्गमम्=मनोहारिहविःसुगन्धशालि-
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आपका समागम सूचित करती है। (क्योंकि पुरुष की दहिनी आँख और स्त्रीकी बाई आँख फड़कने से प्रिय बन्धुजन से समागम होता है — यह शास्त्रकारोंका वचन है।)
नायक—जैसा आप कहते हैं वही बात तो मालूम होती है।
विदूषक—मित्र ! देखो, यह सामने विशेष रूप से घने व लहलहाते हुएस्निग्ध वृक्षों से शोभित और जहाँ से सुगन्धित हवि (घृत आदि) की सुगन्धसेसुवासित धूम निकल रहा है, निर्भय सुख पूर्वक बैठे हुए सिंह व्याघ्र हरिणआदि वन्य पशुओं से सुशोभित तपोवन ( मुनियों का आश्रम ) सा दिखाईदे रहा है।
** नायकः—सम्यगुपलक्षितम्। तपोवनमेवैतत्। कुतः ?**—
वासोऽर्थं दययेव60 नातिपृथवः कृत्तास्तरूणां त्वचो,
भग्ना61ऽऽलक्ष्यजरत्कमण्डलु नभः62स्वच्छं पयो नैर्झरम्।
दृश्यन्ते त्रुटितोज्झिताश्च वटुभिर्मौञ्जयः क्वचिन्मेखला,
नित्याऽऽकर्णनया शुकेन च पदं साम्नामिदं पठ्यते ॥११॥
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प्रबलधूमोद्गारशोभितम्। किञ्च—अनुद्विशाः—अत एव मार्गे सुखं निषण्णाःश्वापदानाम्= सिंहव्याघ्रादीनां मृगादीनां च परस्परविरुद्धानामपि गणा यत्र तत्-अनुद्विग्न-मार्ग-सुखनिषण्ण-श्वापदगणम्। तपोवनमिव=मुनीनामाश्रमस्थानं तपोवनमिव।लक्ष्यते=प्रतिभाति।
सम्यगुपलक्षितं=सुष्ठु तर्कितं भवता। कुतः=कस्मादिदं निर्धारितं भवतेति प्रश्नमुद्भाष्य स्वयमेवोत्तरयति वासोऽर्थमिति। वासोऽर्थम्=वल्कलवस्त्रार्थम्।तरूणाम्=वृक्षाणाम्। नातिपृथवः=स्वल्पतमाः। त्वचः=वल्कलानि। छल्लयः। दययेव =कृपयेव। कृत्ताः=छिन्नाः। उत्खाताः। ‘दृश्यन्ते’ इति शेषः। किञ्च निर्झराणामिदं-नैर्झरम्=निर्झरसम्बन्धि। ‘प्रवाहो निर्झरो झरः’ इत्यमरः। नभोवत् स्वच्छं—नभः-स्वच्छम्=व्योमनिर्मलम्। पयः=जलम्। भग्नाः - आ समन्तात् लक्ष्याः=जलनैर्मल्येन स्पष्टं दृश्यमानाः, जरन्तः कमण्डलवो यस्मिंस्तत्-भग्नाऽऽलक्ष्यजरत्कमण्डलु=स्पष्टदृश्यमानस्फुटित—जीर्णकमण्डलु—खण्डमण्डितं। दृश्यते इति शेषः। च=किञ्च।बटुभिः=ब्राह्मणबालकैर्ब्रह्मचारिभिः। त्रुटिताश्च ता उज्झिताश्च - त्रुटितोज्झिताः =
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नायक—तुमने ठीक ही पहिचाना।यह सामने तपोवन ही है। क्योंकि—देखो, यहाँ वल्कलके वस्त्र बनाने के लिए वृक्षों की छाल मानों दया के कारण हीथोड़ी थोड़ी उखाड़ी हुई हैं, झरनों के निर्मल जल में जगह २ टूटे हुए पुराने कमण्डलु पड़े हुए साफ दिखाई दे रहे हैं। कहीं कहीं टूटी हुई मूंज की मेखलाएँ ( ब्रह्मचारियों की कमर में बाँधने की गूंज की करधनी ) ब्रह्मचारियोंद्वारा फेंकी हुई पड़ी दीख रही हैं। प्रतिदिन सुनने से सुग्गे भी यहाँ सामवेद केमधुर सुरीले पद गा रहे हैं। अतः यह अवश्य मुनियों का कोई आश्रम स्थान ही है ॥११॥
** तदेहि प्रविश्याऽवलोकयावः। [प्रवेशं नाटयतः]**
** [सविस्मयं63विलोक्य] अहो! नु खलु मुदितमुनिजनप्रविचार्य्य-माणसन्दिग्धवेदवाक्यविस्तरस्य, पठद्बटुजन64च्छिद्यमानाऽऽर्द्रार्द्रसमिधः65**
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त्रुटितत्वात्परित्यक्ताः। मौञ्ज्यः = मुञ्जविकाराः। मेखलाः=कटिपरिधानीयमुञ्जनिर्मित-रज्जुरूपाः काञ्च्यः। क्वचित्=क्वचित्प्रदेशे। विशीर्णाः=विकीर्णाः। दृश्यन्ते=विलोक्यन्ते। च=पुनः। नित्यमाकर्णना–नित्याकर्णना, तथा—नित्याकर्णनया =प्रतिदिनं श्रवणेन। शुकेन=कीरेण। इदम् =श्रूयमाणम्।साम्नां=सामवेदमन्त्राणाम्।पदम्=खण्डं। पठ्यते=उच्चार्यते। स्पष्टमुद्बुध्यते। शुकानामनुकरणस्वभावस्यप्रसिद्धत्वात्। एवञ्च—ईदृशैर्लक्षणैर्मुनीनामाश्रमोऽयमिति स्पष्टं ज्ञातुं शक्यत एवेत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥११॥
प्रवेशम्=आश्रमप्रवेशम्। नाटयतः=तथा नाटयित्वा दर्शयतः। अहो इत्याश्चर्ये। ‘नु’ इति वितर्के। ‘अहो तु’ इति क्वचित्पाठः। तत्र—‘अहो तु’ इति निपातसमुदाय आश्चर्ये इति शिवरामः। प्रशान्तरमणीयतेति। प्रशान्तरमणीयता च-प्रशान्तरमणीयता=शान्तियुक्तता, मनोहरता च। दृश्यतेऽनुभूयते च तपोवनस्य। तपोवनमेव विशिनष्टि—मुदितेति। मुदितेन=सदा प्रसन्नेन। यथालाभपरितुष्टेन। मुनिजनेन=मुनिलोकेन, प्रविचार्यमाणः=संचिन्त्यमानः, संदिग्धवेदवाक्यानां विस्तरः=समूहो यत्र तत्, तस्य—प्रमुदितमुनिजनप्रविचार्यमाणसन्दिग्धवेद-वाक्यविस्तरस्य=प्रसन्नमुख मुनिगणविचिन्त्यमान वैदिकमन्त्रस्तोमसन्दिग्धस्थलविशेषस्य। किञ्च—पठन्तो ये बटुजनाः, तैराच्छिद्यमानाआर्द्रार्द्राः समिधो यत्र, तस्य—पठद्वटुजनाऽऽच्छिद्यमानाऽऽर्द्राऽऽर्द्रसमिधः=स्वाध्यायशीलब्रह्मचारिगणाऽऽच्छिद्यमान–हरितेन्धनभारस्य। ब्रह्मचारिसमाह्रियमाणपालाशार्द्रसमिद्भारस्य।
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अतः आवो, भीतर चलकर इसे देखें। [ दोनों आश्रम में प्रवेश करते हैं ]।(आश्चर्यपूर्वक देखकर) अहो ! यह तपोवन कितना शान्त और मन को हरनेवाला है, जहाँ प्रसन्न मन से मुनिगण सन्दिग्ध कठिन वेद वाक्यों का विचार
तापसकुमारिकाऽऽपूर्य्यमाणबालवृक्षकाऽऽलवालस्य प्रशान्तरमणीयता66तपोवनस्य। इह हि—
मधुरमिव वदन्ति स्वागतं67 भृङ्गशब्दै-
र्नतिमिव फलनम्रैः कुर्वतेऽमी शिरोभिः।
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किञ्च—तापसानाम्=मुनीनाम् याः कुमारिकाः=कन्याः, ताभिः आपूर्यमाणानि=सम्भ्रियमाणानि, बालवृक्षकाणाम्=बालपादपानाम्, आलवालानि, यत्रतस्य–तापसकुमारिकाऽऽपूर्यमाणबालवृक्षकाऽऽलवालस्य=मुनिकन्याभ्रियमाणबालपादपमूल भागस्थाऽऽवापाख्यजलाधारस्थलस्य। ‘स्यादालवालमावालमावापः’ इत्यमरः। तथा च प्रशान्ततमं मनोहारि चेदं तपोवनमित्याशयः। इह हि =अस्मिन् खलु तपोबने हि। मधुरमिवेति। इह तपोवने वृक्षा अपि अतिथिसपर्यांकुर्वन्तीव। तथाहि—शाखिनः=वृक्षाः। भृङ्गशब्दैः=कुसुमोपरि भ्रमतां मधुकराणांशब्दैः। मधुरम्=प्रियम्। स्वागतमिव =सुष्ठु आगतम्=‘इहखलु आगमनं शोभनं भवत’ इति स्वागतशब्दमिव। वदन्ति=उच्चारयन्ति। किञ्च—अमी=पादपाः। फलैर्नम्रैः—फलनम्रैः=फलभारावनतैः। शिरोभिः=मूर्धभिः। नतिमिव=प्रणाममिव। कुर्वते=आचरन्ति। किञ्च—पुष्पाणां वृष्टीः=वर्षणानि—पुष्पवृष्टीः= कुसुमोत्करवर्षाणि।किरन्तः=विक्षिपन्तः। वर्षन्तः। मम= मे । अर्घ्यमिव=अर्घार्थं पुष्पाञ्जलि-
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कर रहे हैं। जगह २ वेदपाठी ब्रह्मचारियों द्वारा हवन के लिए जहाँ काट काटसमाधाएं (हवनार्थ इन्धन) लाई जा रही हैं। जगह २ ऋषिकन्याएँ वृक्षऔर पौधों के थालों (क्यारियों) को जहाँ सींच रही हैं। (आलवाल =थाल वृक्षों औरव पौधों की जड़ में पानी ठहरने के लिए बनाया हुआ मिट्टी का घेरा )।
और यहाँ — वृक्ष भी अतिथि की सेवा करने की मानों शिक्षा पाये हुएक्योंकि—भृङ्गों के गुञ्जान शब्दों से मानों ये मधुर स्वागत शब्द का उच्चारण कररहे हैं। और फल भार से नम्र (झुके हुए) अपने शिरों से मानों ये वृक्ष हमलोगों को प्रणाम कर रहे हैं। पुष्प की वृष्टि से मानों ये वृक्ष हमें अर्घ्य
मम ददत इवार्घ्यंपुष्पवृष्टीः68किरन्तः,
कथमतिथिसपर्य्यां शिक्षिताः शाखिनोऽपि ॥ १२ ॥
** तन्निवासयोग्यमिदं69 तपोवनम्। मन्ये भविष्यतीह निवसतामस्माकं70निर्वृतिः।**
** विदूषकः—भो वअस्स ! किंनु क्खु एदे ईसिअ बलिअकन्धरा**
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मिव। ददते=निवेदयन्ति। तदेवम्—शाखिनोऽपि=आश्रमवृक्षा अपि। अतिथिसपर्याम्=अतिथिपूजाम्। कथम्=कथमिव। केन प्रकारेण। मुनिभिः- शिक्षिताः =उपदिष्टाः। इहाश्रमे हि वृक्षा अपि मुनिजनसम्पर्केण अतिथिपूजां कुर्वन्तीत्याशयः मालिनीवृत्तम्। ‘न-न-म-य-य-युतेयं मालिनी भोगिलोकैः’ इति तल्लक्षणम् ॥१२॥
[तत्=तस्मात्। मनोहरत्वात्, शान्ततमत्वात्, पुष्पादिपूजोपकरणप्रचुरत्वाच्च।निवासयोग्यम्=अस्मन्निवासोचितं प्रतिभाति। इह=अस्मिन् मलयतपोवने !निर्वृतिः=सुखम्। चित्तशान्तिः। ईषदिति। ईषत्=स्तोकम्, वलिताः वक्रीभूताः,कन्धराः=ग्रीवा येषान्ते— ईषद्वलितकन्धराः=किञ्चिद्वक्त्रीभूतग्रीवाः। निश्चलंयन्मुखं ततोऽपसरन्तः=गलन्तः, निःसरन्तः, दरदलिताः=ईषच्चर्विताः, दर्भाणाम्=कुशानाम्, कवलाः=ग्रासा येषान्ते- निश्चलमुखाऽपसरद्ददलितदर्भकवलाःनिश्चलवदनकुहरनिर्यद्दरचर्वितदर्भग्रासाः। समुन्नमितः=शब्दग्रहणायोन्नमितः,दत्तः=अवधानं प्रापितः, एकः कर्णो यैस्ते—समुन्नमितदत्तैककर्णाः=उन्नमित-शब्द-श्रवणाऽवहितैकश्रोत्राः। सुखं निमीलिते लोचने यैस्ते —सुखनिमीलितलोचनाःआनन्दभरमन्थरनिमीलितनयनाः। आकर्णयन्त इव=शब्दं शृण्वन्त इव, स्थिताः।एते हरिणाः=आश्रममृगाः। लक्ष्यन्ते= इतो दृश्यन्ते। किंन्नु खलु - किमेतत्। एवञ्च-
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दे रहे हैं। (अर्घ्य=पूजा के लिए पुष्प आदि से युक्त जल )। इन वृक्षों को भीइस प्रकार अतिथि पूजा करने की शिक्षा किसने कैसे दी है॥१२॥
अतः यह तपोवनका स्थान हमलोगोंके रहने योग्य ही है। यहाँ रहने से हमलोगों को सब प्रकारका सुख और चित्तकी शान्ति प्राप्त होगी यह मेरा विश्वास है।
विदूषक— मित्र ! देखो, ग्रीवा (गर्दन) को थोड़ी सी टेढ़ी घुमाकर, अपनेएक २ कान को खड़ा करके, आनन्द विभोर हों, आँख मूंदकर, मुख के अर्ध
णिच्चलमुहोवसरंतदरदलिअदव्भकवला समुण्णमिददिण्णैककण्णा सुहणिमीलिदलोअणा आअणंतो विअ हरिणा लक्खीअन्ति ?।
** [भो वयस्य! किं नुखल्वेते ईषद्वलितकन्धरा, निश्चलमुखोपसरद्दरदलितदर्भकबलाः, समुन्नमितदत्तैककर्णाः, सुखनिमीतलोचना आकर्णयन्त इव हरिणा लक्ष्यन्ते ? ]**
** नायकः**—** [कर्णे दत्त्वा ] सखे ! सम्यगुपलक्षितं71 भवता72। तथाहि—**
स्थानप्राप्त्या दधानं प्रकटितगमकां73 मन्दतारव्यवस्थां74
निर्ह्वादिन्या विपञ्च्या मिलितमलिरुतेनेव तन्त्रीस्वनेन75।
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इतोऽपि भवता दृष्टिर्दीयताम्। इह हि किमपि शृण्वन्त इव निरुद्धसकलबाह्यव्यापाराः सुखनिमीलितलोचनार्द्धा हरिणा लक्ष्यन्ते, किं नु खल्वेतदिति प्रश्नाशयः।
कर्णं दत्त्वा=अवधानदानं नाटयित्वा। नायको ब्रूते इति शेषः। उपलक्षितम्=तर्कितं। ज्ञातम्। तथाहि = यद्भवताऽवगतं तद्युक्तम्। नूनमिमे हरिणा गीतमेवाकर्णयन्ति तथाहि —स्थानेति।
[अन्वयः] – एते कुरङ्गाः व्याजिह्माङ्गाः ( सन्तः ) दन्तान्तरालस्थिततृणकवलच्छेदशब्दं नियम्य — स्थानप्राप्त्या प्रकटितगमकां मन्द्रतारव्यवस्थांदधानं, निर्ह्रादिन्याः विपञ्च्याः तन्त्रीस्वनेन अलिरुतेनेव मिलितं, स्फुटललितपदंगीतम्—आकर्णयन्ति।
[अर्थः] — एते कुरङ्गाः = इमे हरिणाः। ‘मृगे कुरङ्गवाता हरिणाजिनयो-
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चर्वित ग्रास को भी चबाना छोड़कर ( जिससे इनके मुखों से कुशा आदि तृणोंके ग्रास कुछ कुछ बाहर भी गिर रहे हैं ) इस प्रकार ये हरिण कुछ सुनते सेमालूम होते हैं। बताओ तो ये क्या सुन रहे हैं ?।
नायक —(कान लगाकर ) अहो सखे ! तुमने ठीक समझा, क्योंकि देखो—
ये हरिण—अपने दाँतों के मध्य में स्थित जो वास के ग्रास हैं, उनकेचबाने से उत्पन्न होने वाले शब्द को भी रोककर ( घास के ग्रास को चबाना-छोड़कर ), और अपने अङ्गोंको कुछ टेढा करके ( गर्दन को घुमाकर ),
एते दन्तान्तरालस्थिततृणकवलच्छेदशब्दं नियम्य
व्याजिह्माङ्गाः कुरङ्गाः स्फुटललितपदं गीतमाकर्णयन्ति॥१३॥
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नयः’ इत्यमरः। व्याजिह्यं=गीतश्रवणार्थं वक्रीभूतम् अङ्गं=शरीरं येषान्ते–व्याजिह्माङ्गाः=विपर्यस्ताङ्गाः सन्तः। वक्रीभूतवपुषः सन्तः। दन्तान्तराले=दन्तमध्ये, स्थितस्य, तृणानाम्=दर्भादीनाम्, कबलस्य=ग्रासस्य,च्छेदे=चर्वणे-यःशब्दः, तं-दन्तान्तरालस्थिततृणकबलच्छेदशब्दं=मुखमध्यस्थघासग्रासचर्वणशब्दमपि। नियम्य=संरुध्य। कबलचर्वणमपि परित्यज्य। गीतमाकर्णयन्तीत्यग्रिमेणान्वयः। एतेन गीतस्यातिसरसत्वं सूचितम्। गीतमेव विशिनष्टि—स्थानेति।स्थानप्राप्त्या। स्थानानाम्=उरः कण्ठ-शिरसां, स्वर—(वर्णगीतादि) स्थानानां,प्राप्त्या=प्रकृष्टया आप्त्या। प्रकटिता गमकाः=सप्तस्वरोत्थानप्रकारा यस्यां सा, तां प्रकटितगमकाम्=स्पष्टसप्तस्वरोत्थानप्रकाराम्। मन्द्रतारयोव्यवस्था, तां— मन्द्रतारव्यवस्थाम्=मेघगम्भीरस्वराऽत्युच्च स्वरयोर्व्यवस्थाम्। दधानम्= बिभ्राणम्। गीत—विशेषणमेतत्। तत्र स्वरस्थानानि यथा—
‘यदूर्ध्वं हृदयग्रन्थेः कपालफलकादधः।
प्राणसञ्चरणस्थानं ‘स्थान’ मित्यभिधीयते॥
उरः कण्ठः शिरश्चेति तत्पुनस्त्रिविधं मतम्॥” इति॥
गमकलक्षणं च—
‘स्वरोत्थानप्रकारस्तु गमकः परिकीर्त्तितः।
स कम्पितादिभेदेन स्मृतः सप्तविधो बुधैः॥’ इति॥
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वीणा के गान को सुन रहे हैं, जो गान वीणा के बजते हुए तारों से भौरों कीगुञ्जान की तरह निकल रहा है, और जिस गान में मन्द्र स्वर (धीमा स्वर ),मध्यम स्वर और तार स्वर ( ऊँचा स्वर ) के नियत स्थानों ( क्रमशः - हृदयकण्ठ और शिर ) की ठीक २ प्राप्ति से स्वरों की व्यवस्था स्पष्ट मालूम हो रहीहै। और जिस गान में गमक ( स्वरों का उतार-चढ़ाव ) भी साफ साफप्रकट हो रहा है। ऐसे स्पष्ट और ललित और मधुर वीणा ( बीन ) के गीत कोही ये मृग बड़े ध्यान से सुन रहे हैं॥१३॥
** विदूषकः**—भो वअस्य ! को उण76 एसो तबोवणे गाअदि ?।
\भो वयस्य ! कः [पुनरेष77 तपोवने गायति ?]
** नायकः—यथैताः कोमलाङ्गुलितलाभिहन्यमाना नातिस्फुटंक्वणन्ति तन्त्र्यः, काकलीप्रधानं च गीयते, तथा तर्कयामि**—[ अङ्गुल्यग्रेणाग्रतो निर्दिशन्—] – ‘अस्मिन्नायतने देवतामाराधयन्ती काचिद्दिव्यायोषिदुपवीणयती’ति।
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मन्द्रतारव्यवस्था च—
‘मन्द्रो वक्षसि, मध्यमोऽप्यथ गले, तारः पुनर्मस्तके ’ इति।
मन्द्रतारलक्षणं च—
‘मन्द्रस्तु गम्भीरे, तारोऽत्युच्चै, स्त्रयस्त्रिषु’ इत्यमरकोशे।
किञ्च निर्ह्रादिन्याः=प्रशस्तनादशालिन्याः। विपञ्च्याः=नवतन्त्रीयुतायावीणायाः। ‘विपञ्ची नवतन्त्री स्या’ दिति भरतः। तन्त्रीस्वनेन=लोहतन्तुस्वरेण।अलिरुतेनेव= भ्रमरशब्देनेव, मिलितं=संपृक्तम्। संश्लिष्टम्। स्फुटानि=स्पष्टानि,ललितानि=मधुराणि च पदानि=वाक्यावयवा यस्मिंस्तत्तथाभूतं— स्फुटललितपदम्=स्पष्टमधुरपदगुम्फितम्। गीतं=गानम्। सङ्गीतम्। इमे हरिणा-आकर्णयन्ति=निश्चलतया शृण्वन्ति। अतो युक्तमुट्टङ्कितं भवतेति नायकोक्तिः।
तदेवं— मधुरं ललितं स्पष्टपदवाक्यं वीणातन्त्रीस्वनानुगतं च गीतमिमेहरिणास्त्यक्तव्यापारा वलितग्रीवाश्चाऽऽकर्णयन्तीत्यर्थः ॥ १३ ॥
तपोवने=मुन्याश्रमपदे। को नु खलु गायति=कः खलु गायति। विरक्तानांमुनीनां हि गानाऽसम्भवात्कुतोऽयं गानध्वनिरिति प्रश्नाशयः। यथा=येन प्रकारेण।कोमलैरङ्गुलितलैरभिहन्यमानाः — कोमलाङ्गुलितलाऽभिहन्यमानाः= मृदुतर-
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विदूषक— हे सखे ! इस तपोवन में यह कौन गा रहा है ?।
नायक—कोमल २ अङ्गुलियों से बजाए गए वीणा के इन तारों से विशेषरूप से साफ ध्वनि ( आवाज ) नहीं निकल रही हैं, गीत भी मधुर व महीनस्वर अस्पष्ट से ही गाया जा रहा है, इसी से मैं समझता हूँ कि - ( अंगुली सेसामने मन्दिरकी ओर निर्देश करते हुए ) सामने दिखाई देनेवाले इस मन्दिर मेंदेवी की आराधना करती हुई कोई दिव्यस्त्री ( देवाङ्गना ) वीणा बजा रही है।
विदूषकः— भो वअस्स ! एहि78 अम्हेवि देवदाअदणं पेक्खम्।
[भो ‘वयस्य ! एहि, आवामपि देवतायतनं प्रेक्षावहे]।
** नायकः—वयस्य ! साधूक्तं79 (खलु80) भवता। वन्द्याः खलुदेवताः**
[उपसर्पन् सहसा स्थित्वा] वयस्य ! कदाचिद् द्रष्टुमनर्होऽयं जनो भविष्यति81, तदावां तमालगुल्मान्तरितौ पश्यन्ताववसरं प्रतिपालयावः82।
** [ तथा कुरुतः ]**
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कमनीयकरतलाङ्गुल्यग्रैराहन्यमानाः। कोमलकराङ्गुलिताड्यामाना इव। अतएव—नास्तिस्फुटं= नाऽतिस्पष्टं यथा स्यात्तथा। तन्त्र्यः=वीणातन्त्र्यः। (तन्त्री=‘तांत’‘तार’ )। कणन्ति=शब्दायन्ते। यथा च—काकलीप्रधानं च=सूक्ष्मकलमन्दमधुरास्फुटस्वरप्रधानं च। गीयते=गानं क्रियते। तथा=तेन प्रकारेण। तेन हेतुना।तर्कयामि=विचिन्तयामि। निश्चिनोमि वा। चत् — अस्मिन्=अङ्गुल्यग्रेण प्रदर्शितेस्मिन्। आयतने=मन्दिरे। देवतां=काञ्चन देवताम्। आराधयन्ती=सेवमाना।दिव्ययोषित्=अतीव सुन्दरी सुकुमाराङ्गी काचिद्देवाङ्गना। उपवीणयति=वीणयोपगायति। इति इत्थमहं तर्कयामि। ‘काकली तु कले सूक्ष्मे ध्वनौ तु मधुरास्फुटे’ इत्यमरः। साधु=समुचितम्। उक्तं=कथितम्। वन्द्याः=वन्दनीयाः।खलु=निश्चयेन। उपसर्पन्=अग्रतो गच्छन्। सहसा=अकस्मात्। स्थित्वा=गमनाद्विरम्य। ‘इत्थमुवाचेति शेषः। वयस्य—सखे। द्रष्टुमनर्हः=द्रष्टुमनुचितः। परदारत्वात्=परपरिग्रहत्वात्। जनः=स्त्रीजनः। भविष्यति=भवेत्।अतः सहसोपसर्पणं देवमन्दिरेऽप्यस्माकं नोचितमित्याशयः। तत्=तस्मात्।तमालगुल्मः=तमालाख्यो ह्रस्वपादपः। ( गुल्म - ‘पौधा ‘)। तमालस्तम्बः।
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विदूषक — हे मित्र, आवो, हमलोग भी चलकर इस मन्दिर को देखें !
नायक—मित्र ! आपने बहुत ठीक कहा। देवताओं की वन्दना तो अवश्यकरनी ही चाहिए। (आगे की ओर चलते २ सहसा रुक कर -) परन्तु मित्र !कदाचित् यह कोई पराई स्त्री हो, और इसी कारण हम लोगों के देखने के योग्य
[ततः प्रविशति भूमावुपविष्टा वीणां वादयन्ती मलयवती, चेटी च]
[नायिका वीणया सह गायति]।
उत्फुल्लकमलकेसरपरागगौरद्युते ! मम हि गौरि !।
अभिवाञ्छितं प्रसिध्यतु भगवति ! युष्मत्प्रसादेन॥१४॥
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कलस्कन्धस्तमालः स्यात्तापिच्छोऽपी’त्यमरः। ‘अप्रकाण्डे स्तम्ब-गुल्मौ’ इत्यमरः।तेन—अन्तरितौ=प्रतिच्छन्नौ। अन्तर्हितौभूत्वा। अवसरं=तद्गमनानन्तरभवमुचितं कालम्। ( मौका )। प्रतिपालयावः=प्रतीक्षावहे। तथा कुरुतः=तमालगुल्मान्तर्हितौ भूत्वाऽवसरं पालयन्तौ तिष्ठतः। भूमौ=देवाग्रे भूप्रदेशे। मलग्रवती=नायिका। चेटी च= दासी च। नायिका च भगवतीं गौरीं वीणया गायन्ती गाथयास्तौति—उत्फुल्लेति। उत्फुल्लस्य=विकसितस्य कमलस्य=अरविन्दस्य, पद्मस्य,ये केसराः- किञ्जल्कः, ‘किञ्जल्कः केसरोऽस्त्रियाम्’ इत्यमरः। तेषां यः परागः =धूलिः। ‘परागः सुमनोरजः’ इत्यमरः। तद्वत् गौरा=पीता, द्युतिः=कान्तिर्यस्याः सा तत्सम्बुद्धौ=उत्फुल्लकमलकेसरपरागगौरद्युते=हे विकचारविन्दकेसरपरागपीतप्रभे। भगवति=हे सकलज्ञाननिधे, सर्वशक्तिमति। गौरि=हे पार्वति। हे हिमगिरिसुते।‘उमा कात्यायनी गौरी’ इत्यमरः।
“ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥
इत्युक्तेर्भगः=ज्ञानैश्वर्यादिः। तद्वती भगवती। अभिवान्छितं=मम मनोरथः,योग्यवरलाभरूपः। युष्मत्प्रसादेन=युष्माकं कृपया। ‘प्रसादस्तु प्रसन्नता’ इत्यमरः।त्वत्प्रसादेन। प्रसिध्यतु=आशु सिध्यतु ॥१४॥
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न हो, अतः यही उचित है कि—इस तमाल के गुल्म ( ‘पौधा’ ‘झाड़ी’ ) केपीछे छिपकर हमलोग देखें और अवसर ( मोंके ) की प्रतीक्षा करें।
( दोनों झाड़ी के पीछे छिपकर बैठते हैं और अवसर की प्रतीक्षा करते हैं )।
[भूमिपर बैठी हुई, बीणा बजाती हुई मलयवती और उसकी बेटी - दासीका प्रवेश }
[ नायिका— बीणा पर गाती है— ]
खिले हुए कमलके केसर की रेणुकी तरह पीली कान्तिवाली हे भगवती गौरी !आपकी कृपासे (योग्य वंरकी प्राप्ति रूप) मेरा मनोरथ सिद्धिको शीघ्र प्राप्त हो ॥१४॥
** नायकः — [कर्णंदत्त्वा —] वयस्य ! अहो गीतम् ! अहो वाद्यम् !**
व्यक्तिर्व्यञ्जनधातुना दशविधेनाप्यत्र लब्धाऽमुना,
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कर्णं दत्वा=श्रवणाय कर्णदानं नाटयित्वा, नायक एवं कथयतीत्यर्थः। अहो=आश्चर्यजनकम्। धन्यं। प्रशंसाऽर्हम्। गीतं=गानम्। वाद्यं=वीणावादनं च।गुणविशेषवत्त्वेनाश्चर्यजनकतामेव स्फुटयति—व्यक्तिरिति। दशविधेनापि व्यञ्जनधातुना=वीणावादनविधिना। अत्र=वीणागीते, व्यक्तिर्लब्धा=स्पष्टता सम्प्राप्ता।अर्थात् दशविधेन वीणावादनप्रकारेण युक्तेयं वीणागीतिरिति। अयमाशयः—गीतंद्विविधं – मातुः, धातुश्च। तदुक्तं — बाङ् ‘मातु’ रुच्यते, रोयं ‘धातु’ रित्यभिधीयते इति। तदेवं —धातुर्नाम—वाद्यवादन प्रकार। तदुक्तं—
‘विस्तारः करणश्चैव व्याविद्धो व्यञ्जनस्तथा।
चत्वारो धातवो ज्ञेया वादित्रकरणाश्रयाः ॥ इति।
व्यञ्जनधातुश्च —वीणावाद्यस्य वादनप्रकारः। स च दशविधः। तदुक्तं भरतेन —’ इति दशविधः प्रयोज्यो वीणायां व्यञ्जनो धातुः’ इति। तदेवं — दश-
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नायक—( कान देकर सुनता हुआ ) मित्र, अहा ! क्या ही सुन्दर यहगीत है। अहो, बीणा बजने का प्रकार भी इसका बहुत ही उत्तम है। क्योंकि—
इस गीत में वीणा बजाने के दश प्रकार के व्यञ्जन नामक धातु स्पष्टअभिव्यक्त हो रहे हैं। द्रुत ( शीघ्र ), मध्य ( मध्यम ), विलम्बित ( धीरे : २)ये तीनों प्रकार के लय (सुर ताल के बीच का समय ) भी स्पष्ट प्रतीत हो रहे है।और इस गीत में ‘गोपुच्छा,’ ‘समा’ और ‘स्रोतोवहा’ नामक तीनों प्रकार कीयति (विराम ) भी क्रम से सुन्दरता पूर्वक स्पष्ट दर्शाई गई हैं, और ‘तत्त्व’‘ओघ’ ‘अनुगत’ नामक तीनों प्रकार की वाद्यविधि ( वीणा आदि बाजाबजाने की विधि ) भो सम्यक् प्रकार से इसके वीणा वाद्य में स्पष्ट रूप सेप्रदर्शित हो रही हैं। अतः इस का गीत और वाद्य दोनों ही उत्तम कोटि केहो रहे है। सारांश यह है कि गाने में और बजाने में जिन गुणों की आवश्यकता होती है वे सभी गुण इसके गाने व बजाने में स्पष्ट प्रतीत हो रहे हैं,अतः यह गानविद्या में परम प्रवीण है — यह नायक का भाव है।
विस्पष्टो द्रुतमध्यलम्बितपरिच्छिन्नस्त्रिधाऽयं लयः।
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विधेन व्यञ्जनधातुना=वीणावाद्य—( बीनबाजा)—वादनप्रकारेण। अस्मिन् गानेस्पष्टता प्राप्त्यर्थो लब्धः। व्यञ्जनधातोर्दश प्रकाराश्चोक्ता गानशास्त्रे —
‘व्यञ्जनधातोर्ज्ञेयं कल^(१)-तल^(२)-निष्कोटितं^(३) तथोत्कृष्टम्^(४)।
रेफो^(५)-वमृष्ट^(६)-^(७)पुष्पावनुम्वनो^(८) ^(९)बिन्दुरनुबन्धः ^(१०) ॥ इति।
तल्लक्षणञ्च——
‘अङ्गुष्ठाभ्यान्तु तन्त्रीणां स्पर्शनं यत्कलन्तु तत्।
वामेनपीडनं कृत्वा दक्षिणेनाऽऽहतिस्तलम्॥
सव्याङ्गुष्ठप्रहारश्च निष्कोटितमिहोच्यते।
सव्यप्रदेशिनीघात उत्कृष्टं83 परिकीर्त्तितम्॥
सर्वाङ्गुलीसमाघातो रेफ इत्यभिधीयते।
कनिष्ठाङ्गुष्ठकाभ्यान्तु दक्षिणाभ्यामधो गतम्॥
तन्त्रीषुत्रिप्रकारं वाऽप्यवमृष्टमिति स्मृतम्।
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भावार्थ — किसी प्रकारके भी वाद्य ( बाजा ) के बजाने में चारप्रकार की बजाने की क्रिया ( ‘तरीका’ प्रकार, ‘तर्ज’ ) होती है। उसकोसङ्गीत शास्त्र में ‘धातु’ कहते हैं। उन चारों प्रकारों के नाम ये हैं—१ विस्तार( वाद्यों का सब प्रकार से फैलाव ), २-करण ( किसी शाखा विशेष का आश्रयलेकर किसी वाद्य विशेष का आयोजन ), ३-व्याविद्ध ( मिश्रित प्रकार ),४-व्यञ्जन (बीणा आदि वाद्यों का [बाजों का ] अपने भावों को स्पष्ट करते हुएबजाना); इनमें व्यञ्जन नामक धातु वीणा आदि बजाने में प्राणभूत है। यह’व्यञ्जन धातु’ ( वीणा बजाने की क्रिया ) दश प्रकार की है, यह नाट्यशास्त्र मेंविशद रूप से वर्णन किया गया है। उनके नाम ये हैं — १ कल, २ तल, ३ निष्कोटित,४ उन्मृष्ट, ५. रेफ, ६ अवमृष्ट, ७ पुष्प, ८ अनुस्वनित ६ बिन्दु, १० अनुबन्ध।
इनके लक्षण —१ कल = दोनों हाथ के अंगुष्ठों से वीणा के तारों का स्पर्श।
गोपुच्छाप्रमुखाः क्रमेण यतयस्तिस्रोऽपि संवादिता84-
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कनिष्ठाङ्गुष्ठसंयुक्तं पुष्पमित्यभिधीयते।
तलस्थानेऽधरन्यासस्तथाऽनुस्वनितं भवेत्।
गुर्वक्षरमयी तन्त्री बिन्दुरित्यभिधीयते।
व्याससमासादेषामनुबन्धः सार्वधातुको ज्ञेयः। इति ॥
एवं दशविधोऽपि व्यञ्जनधातुर्वीणावादनेऽनया स्फुटमाश्रित इति भावः।किञ्च– अमुना=ब्यन्जनधातुना सह। द्रुत-मध्य- लम्बित - परिच्छिन्नः=द्रुतमध्यविलम्बितभेदभिन्नः। अयं त्रिधा= त्रिप्रकाशेऽयं। लयः=तालाऽन्तरालवर्ती कालः।विस्पष्टः=अतीव स्पष्टं। प्रतीयते। तदुक्तं—
‘तालान्तरालवर्ती यः स कालो ‘लय’ उच्यते।
त्रिविधः स च विज्ञेयो द्रुतो मध्यो विलम्बितः”॥इति।
एवं दशविधेन वीणावादनप्रकारेण व्यञ्जनधातुनाम्ना प्रसिद्धेन सह त्रिविधोलयोऽपि (तालमध्यवर्ती समयोऽपि ) अनया गाने स्पष्टं प्रदर्शित इति यावत्।‘द्रुतमध्यविलम्बितलया व्यन्जनधातुना सहैवराद्ध-विद्ध-शय्यागताख्यत्रिविधहस्तचालनप्रकारेण सहानया वीणावादने स्पष्टं प्रदर्शिता’ इत्यर्थन्तु विमर्शिनीकाराःशिवरामकवयः प्राहुः।
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२ तल=बाएं अंगूठे से वीणा के तारों को दबाकर दहने अगूठे से बजाना।३ निष्कोटित=दाहिने से दबाकर बाएं अंगूठे से बीणा के तारों को बजाना।४ उन्मृष्ट=बाएं हाथ की तर्जनी से बजाना। ५ रेफ=सब अंगुलियों से वीणाकेतारों को बजाना। ६ अवमृष्ट= दहनी कनिष्ठा (छोटी) अंगुली और अंगूठे सेबजाना। ७ पुष्प=कनिष्ठा और अंगुष्ठ से बजाना ८ अनुस्वनित=तल के स्थान में अधर का प्रयोग। दाहिने हाथ के अंगूठे से दबाकर वाएं से बजाना।६ बिन्दु=गुरु अक्षर बजाना। १० अनुबन्ध=उक्त सब प्रकारों का कुशलतापूर्वक मिश्रित प्रयोग।
लय—ताल के ब्रांच का समय लय कहलाता है। वह समय तीन प्रकार काहोता है। ज्यादा, मध्यम और कम। ये क्रमशः विलम्बित, मध्य और द्रुत कहलाते हैं।
यति—ताल और छन्द के ज्ञान के लिए गीत के बीच में … ??????… …
स्तत्त्वौघानुगताश्च वाद्यविधयः सम्यक् त्रयो दर्शिताः॥१५॥
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किञ्च–गोपुच्छाप्रमुखाः=गोपुच्छाऽऽद्याः। समा-स्रोतोवहा—गोपुच्छाख्याः।तिस्रोऽपि=त्रिप्रकारा अपि। यतयः=तालच्छन्दोज्ञानार्थं विरामाः। क्रमेण संवादिताः=स्पष्टं स्वस्वोचिते स्थाने दर्शिताः। तदुक्तं—
‘ताल-च्छन्दोऽवगतिविषये वाद्यते यो विरामो
वाद्यैर्हीनः श्रवणसुभगो नामतः सा यतिः स्यात्॥’ इति।
‘लयगानाद्यतिः सम्यक्कथिता दत्तिलादिभिः।
समा स्रोतोवहा चैव गोपुच्छा चेति सा त्रिधा ‘॥इति च।
….स्मिन् स्वस्वोचितेषु स्थानेषु तिस्रोऽपि यतयः साधु प्रयुक्ता इति सरलोऽर्थःविविधयतिप्रयोगस्थाननियमश्चोक्तो यथा—
‘समा यतिर्लयश्चैव द्रुतो यत्र भवेदिह।’
‘अवपाणिस्तु यत्र स्यात्प्रयोगो लम्बितो लयः॥
गोपुच्छा च यतिस्तत्र—‘इति।
‘स्रोतोगता यतिर्यत्र लयो मध्यस्तथैव च’॥इति।
किञ्च—तत्त्वौघानुगताश्च=तत्त्व—ओघ—अनुगतात्मकाः। त्रयोऽपि—वाद्य-….=त्रयोऽपि वीणा-वाद्य-(बाजा) वादनप्रकाराः। सम्यक्=सम्यक्प्रकारेण दर्शिताः=गीतेऽनया समुपदर्शिताः। तदुक्तं—
‘त्रिविधं गीते कार्यं वादित्रं वैणमेव वाद्यज्ञैः।
तन्त्वं तथाऽप्यनुगतमोघो वा, नैककरणन्तु।’
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विराम दे दिया जाता है वह ‘यति’ कहाता है। वह यति तीन प्रकार की है—१ समा, २ स्रोतोवहा, ३ गोपुच्छा। १ समा=बराबर। २ स्रोतोवहा=झरने की समान।३ गोपुच्छा=उतार चढाव। शनैः शनैः कम करना।
वीणा के बजाने में १ तत्त्व २ अनुगत और ३ ओघ ये तीनप्रकार हैं। १ तत्त्व—लय, ताल, वर्ण, पद, यति, गीत इनका समन्वय जिसबजाने में हो वह ‘तत्त्व’ कहलाता है। २ अनुगत -बाजे के साथ २ गीत भीगाया जाय तो उस विधि का नाम ‘अनुगत’ है। ३ ओघ— गीत के बिना भीद्रुतलय से तेजी के साथ हाथ चलाते हुए बजाना।
** चेटी**—** [सप्रणयं41] भट्टिदारिए85 ’ भट्टिदारिए ! चिरं खु वाइदं। ण खुदे परिस्समोअग्गहत्थाणं। [भर्तृदारिके ! चिरं खलु वादितं। न खलु ते परिश्रमोऽग्रहस्तयोःपा०। ‘सप्रणय’ मित्यत्र सोल्लुण्ठनमित्युचितम्।") ! चिरं क्खु बादअंतीए कुदोणपरिस्समो अग्गहत्थाणं ?।**
[भर्तृदारिके ! चिरं खलु वादयन्त्याः कुतो न परिश्रमोऽग्रहस्तयोः ?]।
** नायिका—हञ्जे86 चउरिए ! कुदो मे [भगवदीए ] देईए पुरदो**
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लय-ताल-वर्ण-पद-यति-गीत्यक्षरवादकं भवेतत्त्वम्।
गीतं तु यदनुगच्छत्यनुगतमिति तद्भवेद्वाद्यम्।
आविद्धकरणबहुलं पर्युपरिपाणिकं द्रुतलयं च।
अनपेक्षितगीतार्थं वाद्यमथौघो विधातव्यम्।’ इति।
तदेवं गीतशास्त्रानुसारेण वीणावाद्यस्य यानि यान्यङ्गानि तान्यनया स्पष्टं यथोचितं चोपयुक्तानीत्यहो अस्या गीतवीणावाद्यादिकौशलमित्याशयः॥१५॥
सप्रणयं=सानुरागम्। इत्थमाह चेटीत्यर्थः। ( खुशामद व चापलूली कल्लीहुई चेटी योंबोली)। भर्तृदारिके—हे राजपुत्रि। ‘राजा भट्टारको देवस्तत्सुता भर्तृदारिका"इत्यमरः। चिरं=बहुकालं यावत्। वादयन्त्याः=वीणां वादयन्त्याः, गीतं चकुर्वत्याः। अग्रहस्तयोः=हस्ताग्रभागयोः। कोमलानां हस्ताङ्गुलीनामिति यावत्।
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इन सब गीत वाद्यके प्रकारों का सङ्गीत शास्त्र में तथा भारत नाट्यशास्त्र मेंविशदरूप से वर्णन है, अतः विशेष विवरण वहीं से जानना चाहिए ॥ १५ ॥
चेटी—( बड़े दुलार व खुशामद के साथ) भर्तृदारिके ( कुँवरानीजी ! ) इतनीदेर से आप वीणा बजा रही हैं, इस परिश्रम से क्या आपके हाथ ( व अंगुलियां )दुःखने नहीं लगे होंगे ?। अतः अब तो रहने दीजिए ! इतना परिश्रम मत करिए।
नायिका—अरी चतुरिके ! भगवती के सामने वीणा बजाने में मुझे कुछभी परिश्रम नहीं मालूम होता है।
** दअन्तीए अगहत्थाणं परिस्समो !**
[हज्जे चतुरिके ! कुत्तो मे [भगवत्याः] देव्या. पुरतो वीणां
वादयन्त्या अग्रहस्तयोः परिश्रमः ! ]
** चेटी**—** [साधिक्षेपं ] भट्टिदारिए ! णं भणामि किं एदाए णिक्करुणाएपुरदो वाइदेण, जा एत्तिअं कालं कण्णआजणदुक्करेहिं णिअमो87-वासणेहिंआराधअन्तीए अज्जबि88 ण दे पसादं दंसेदि।**
** [भर्तृदारिके !नतु भणामि**—** किमेतस्यानिष्करुणायाः पुरतोवादितेन’ याएतावन्तं कालं कन्यकाजनदुष्करैर्नियमोपासनैराराधयन्त्या अद्यापि न ते प्रसादंदर्शयति। ]**
** विदूषकः**— भोवअस्स89 ! कण्णआ क्खु एसा, किं90 ण पेक्खम्ह !
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‘न खलु’ इतिपाठे नैव किमिति सोल्लुण्ठनं वचनम्। वृथैवैष ते परिश्रम इति तदाशयः।‘सोल्लुण्ठनंतु सोत्प्रालम्’ इत्यमरः। ( ताना मारते हुए वचन )। हञ्जे=हे सखि। ‘चतुरिकेति सखीनामधेयम्। भगवत्याः=सर्वाधिष्ठायाः। देव्याः=गौर्याः। पुरतः=अग्रतः। वादयन्त्याः=वीणावादनेन गीतमुपगायन्त्याः। कुतः=कस्मात्। नैवेतियावत्। ननु भणामि=एवं खलु कथयामि। इत्थं हि मेऽभिप्रायो, नतु भवत्या योगृहीत इत्याशयः। निष्करुणायाः=दयाशून्यायाः। या देवी। कन्यकाजनेन=बालिकालोकेन। दुष्करैः=दुःखेनाऽप्यनुष्ठातुमशक्यैः। कठिनैः। नियमोपासनैः =
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चेटी—( अवज्ञा और ताने के साथ —) हे कुमारीजी ! मेरा तो यह कहनाहै कि इस दयाशून्य देवी के सामने वीणा बजाने से लाभ ही क्या है, जोआपके हम प्रकार — अन्य कन्याजनों से नहीं किए जा सकने वाले—दुष्कर व्रतउपवास व नियम आदि से उपासना करने पर भी अभी तक कुछ भी कृपा नहींदिखा रही है।
विदूषक— मित्र ! यह (मलयवती) तो कन्या है, और कन्या के देखने मेंतो कोई दोष नहीं है, अतः चलो देखें। ( उस समय केवल विवाहिता स्त्रियाँ ही
\ भो वयस्य, कन्यका, खल्वेषा, किं न प्रेक्षवहे (पश्यावः)?।
** नायकः — को दोषः, [निर्दोषदर्शना91 हि कन्यका भवन्ति। किन्तु कदाचिदस्मान् दृष्टा बालभावसुलभलज्जासाध्वसान्न चिरमिह तिष्ठेत्, तदनेनैव तावल्ल92वाजालान्तरेण पश्यावः93।**
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नियमपूर्वकं व्रतोपवासादिनाऽऽराधनैः। ‘नियमोपवासै’रिति पाठे— नियमपूर्वकैर्व्रतोपवासपूजाजागरणादिभिरित्यर्थः। प्रसादं=प्रसन्नताम्। अनुग्रहम्। न दर्शयति=नप्रकटीकरोति। वरं नैव ददाति। इत्थमालापश्रवणात्कन्येयमिति जातनिश्चयो विदूषकोनायकमाह— किं नेति। कुतो न। कन्यकादर्शनं हि नैव निषिद्धं, यतः परपरिग्रह दर्शनमेव परपुरुषस्य निषिद्धं न च परपरिग्रहः खल्वेषा, कन्यात्वादतोऽस्मत्प्रेक्षणे को दोषः,दृश्यतान्तावडियमित्याशयः। को दोषः=नैच कश्चन दोषः। दोषः=लोकचारविरोधादिरूपःहि=यतः। निर्दोषं=दोषरहितं, दर्शनं=प्रेक्षणं यासां ताः—निर्द्दोषदर्शनाः=सर्वजननिर्बाधदर्शनार्हाः। बालभावेन=बाल्येन, सुलभा या लज्जा=अपत्रपा, साध्वसं=भयं च तस्मात् बालभावसुलभलज्जासाध्वसात्=बाल्योचितलज्जाभयादिना। ‘भीतिर्भीः साध्वसं भयम्’ इत्यमरः। चिरं=चिरकालं यावत्। इह न तिष्ठेत्=नेहावस्थितिं कुर्यात्। तत्= तस्मात्। लताजालस्य—अन्तरेण=मध्येन।अवकाशेन। ‘अन्तरमवकाशावधिपरिधाना-न्तर्द्धिभेदतादर्थ्ये। छिद्रात्मीयविनाबहिरवसरमध्येऽन्तरात्मनि ‘च’ इत्यमरः। उभौ= नायकविदूषकौ। पश्यतः=तमालतरुलता-
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पर पुरुष के सामने पर्दा किया करती थीं, कन्याओं के लिए तो पर्दे की आवश्यकता नहीं थी, उनको सभी पुरुष निःसंकोच देख सकते थे )।
नायक—हाँ ठीक है, इस कन्या के देखने में तो कोई आपत्ति नहीं हैं। कन्याओंको तो सभी मनुष्य बिना रोक के देख सकते हैं, परन्तु कहीं अपरिचित हम लोगोंको देखकर बालभाव सुलभ लज्जा और भय से यह यहाँ ज्यादा न ठहरे औरचली जाए तो ठीक नहीं होगा। अतः इस झाड़ी व लताकुञ्ज की ओट से हीइसको देखना ठीक है।
** विदूषकः— एवं [करेम्ह94 ।**
[एवं कुर्ब्वः]।
[उभौ पश्यतः]।
** विदूषकः**—** [दृष्ट्वा सविस्मयं— ] भो वअस्स ! पेक्ख पेक्ख। एसा95 ण केवलं ‘वीणाविण्णाणेणेब्ब सुहं उप्पादेदि, जाव इमिणा वीणाविण्णाणाणुरुबेण96 रूबेण बि अच्छीणं सुहं उप्पादेदि97। का उण एसा ?किं दाव देई ? आदु98 णाअकण्णआ ? आहो विज्जाहरदारिआ ?दाहो सिद्धकुलसम्भवेत्ति ?।**
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जालमध्यस्थितावेव तां पश्यतः। ‘पेक्ख पेक्ख’ इत्यादेः पश्यपश्येतिच्छाया क्वचित्। ‘अहहआश्चर्य’मिति क्वाचित्कः पाठः। अहह इत्याश्चर्ये निपातः। महदेवाश्चर्यमित्यर्थः, पुनरप्याश्वर्यपदोपादानात्। वीणाविज्ञानेनैव=वीणावादनकौशलेनैव। ‘वीणया कर्णयोरेवसुखमुत्पादयती ‘ति पाठान्तरम्। वीणाविज्ञानानुरूपेण=वीणावादनपाटवानुरूपेण।तदनुकूलेन। अक्ष्णोः=लोचनयोरपि। सुखं=तृप्तिम्। उत्पादयति=जनयति।अतीव सुन्दरीयमित्याशयः। देवी=देवाङ्गना। अथवा =आहोस्वित्। नागकन्यका=नागपुत्री । नागाः पातालवासिनो देवयोनिविशेषाः। विद्याधरदारिका=विद्याधराख्यदेवजातिविशेषदुहिता। सिद्ध कुलसम्भवा=सिद्धाख्यदेवजातिप्रसूता। ‘विद्याधराऽप्स-
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विदूषक—ठीक है, ऐसा ही करना ठीक है।
(लताओं के कुञ्ज में छिप कर दोनों देखते हैं )।
विदूषक—अहो मित्र ! देखो, देखो ! यह दिव्याङ्गना हम लोगों के हृदयमें अपने अद्भुत अपूर्ण वीणावादन के कौशल से ही केवल आनन्द का सञ्चारनहीं कर रही है, किन्तु वीणावादन कौशल के योग्य इस अलौकिक रूप व सौन्दर्यसे हमारे नेत्रों को भी सुखी व आनन्दित कर रही है। पर यह है कौन ? क्यायह कोई देवकन्या है ? या नागकन्या है ? या विद्याधरकन्या है ? या सिद्धकुलप्रसूता है ?।
** [भोवयस्य ! प्रेक्षस्व प्रेक्षस्व ( पश्य**—पश्य )। एषा न केवलं वीणाविज्ञानेनैव सुखमुत्पादयति यावदनेन वीणाविज्ञानानुरूपेणरूपेणाप्यक्ष्णोः सुखमुत्पादयति। का पुनरेषा? किं तावद्देवी? अथवा नागकन्यका? आहोस्विद्विद्याधरदारिका, उताहो सिद्धकुलसम्भवेति ?]।
** नायकः — [ सस्पृहमवलोकयन् ] वयस्य! केयमिति नावराच्छामि,एतत्पुनरहं जानामि—**
स्वर्गस्त्री यदि तत्कृतार्थमभवच्चक्षुःसहस्रं हरे-
र्नागी चेन्न रसातलं शशभृता शून्यं मुखेऽस्याः स्थिते।
जातिर्नः सकलान्यजातिजयिनी विद्याधरी चेदियं,
स्यात्सिद्धान्वयजा यदि त्रिभुवने सिद्धाः प्रसिद्धास्ततः ॥ १६॥
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रोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नराः। पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः।’ इत्यमरः।
संस्पृहं=साभिलाषं यथा स्यात्तथा। एतेन जीमूतवाहनस्य तस्यामनुरागःसूचितः। केयं=कस्य पुत्री, किंजातीयेति च। नावगच्छामि=नैव जानामि।एतत्=इदन्तु जानामि। पुनः=किन्तु। विशेषतः। तदेव विशदयति—
स्वर्गस्त्रीति। यदि—इयं स्वर्गस्त्री=दिव्याङ्गना। देवी। तत्=तर्हि। हरेः= इन्द्रस्य। चक्षुषां सहस्रं-चक्षुःसहस्रं=नेत्राणां सहस्रम्। कृतार्थमभवत्=सफलजातम्। ‘हरिश्चन्द्राऽर्कवाताश्वशुकभेकयमाहिषु। कपौ सिंहे हरेऽजेंशौशक्रे लोकान्तरे पुमान् ॥ वाच्यवत् पिङ्गहरितोः’ इति मेदिनी। श्चेत्=यदि। नागी= नागलोकस्त्री।नागकन्या। तदा — अस्याः मुखे स्थिते=एतदाननेन्दौ नागलोके सन्निहिते।रसातलं=सूर्यचन्द्रप्रकाशरहितमपि पातालं। शशभृता=शशाङ्केन। चन्द्रमसान शून्यं=विरहितं न। एतन्मुखचन्द्रस्य सर्वदा पाताले स्थितत्वान्नागलोके पाताले कदापि चन्द्रविरहो नैव भवति। चन्द्राननेयं सुन्दरीत्याशयः। ‘अधोभुवन-
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नायक— (बड़े चाव से देखता हुआ— ) मित्र ! मैं यह तो नहीं जानता हूँ कियह कौन है।परन्तु यह मैं अवश्य जानता हूँ और कह सकता हूँ कि यह यदिस्वर्ग में रहने वाली देवाङ्गना है तो भगवान् महेन्द्र के हजार नेत्र इसको देखकर सफल हो गए यही समझना चाहिए और यदि यह पाताललोक में रहनेवालीनागकन्या है तो फिर पाताल लोक इसके मुख चन्द्र के प्रकाश से सदा ही प्रका-
विदूषकः— [नायकमवलोक्य सहर्षमात्मगतं ] दिट्ठिआ चिरस्स दावकालस्स पडिदो क्खु एसो गोअरे मम्महस्स। \आत्मानं निर्दिश्य ([भोजनमभिनीय99—) अहवा णहि णहि, मअएव्व [एक्क्स्स ] बह्मणस्स।
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पातालं बलिसद्मरसातलम्। नागलोकः’ इत्यमरः। इयं=बालेयम्। चेत्=यदि। विद्याधरी=विद्याधरंजातित्वविशिष्टा। विद्याधरकुलोत्पन्ना। तदा नः=अस्माकं! जातिः=विद्याधरजातिः। एतेन जीमूतवाहनो नायकोऽपि विद्याधरजातीय इतिसूचितम्। सकलाः=सम्पूर्णाः, या अन्यजातीः=देवादिदिव्यजातीः। ताःजयति तच्छीला-सकलाऽन्यजातिज यिनी=सर्वविधदिव्यजातितोऽपि विशिष्टा। जातेतिशेषः। यदि=चेत्। सिद्धान्वयजा=सिद्धाख्यदिव्यकुलजा। स्यात्=भवेत्। तर्हि—त्रयाणां भुवनानां समाहारः—त्रिभुवनं तस्मिन्—त्रिभुवने=त्रिष्वपि स्वर्गभूपाताललोकेषु। सिद्धाः=सिद्धजातीयाः। प्रसिद्धाः सम्प्रति प्रसिद्धिमागताः। यस्मिन्कस्मिन्नपि कुले इयमुत्पन्ना, तत्कुलं लोके प्रसिद्धिं गतमनया, यतो हीयं त्रैलोक्यातिशायिसौन्दर्यविशिष्टेत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥१६॥
नायकमवलोक्य=अनुरागपरवशं नायिकाऽऽसक्तचित्तं नायकं दृष्ट्वा। आत्मगतं स्वयमेव ब्रू ते। नायकमश्रावयन्, रङ्गस्थलोकं च श्रावयन् ब्रूते इत्यर्थः।
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शित होता हुआ चन्द्रमा केअभाव का दुःख कभी अनुभव नहीं करता है।(चन्द्रमा का उदय पाताल में नहीं होता है)। यदि यह ( हमारी ) विद्याधरजाति में उत्पन्न हुई है तो हमारी जाति अन्य सब जातियों से श्रेष्ठता को पहुँचगई। यदि यह सिद्ध कुल ( देवजाति विशेष ) मैं उत्पन्न हुई है तो फिर सिद्धलोग त्रैलोक्य में प्रसिद्ध हो गए — यह समझना चाहिए॥१६॥
विदूषक—( नायक की अनुराग पूर्ण ऐसी हालत देखकर प्रसन्न हों मन हीमन—) हर्ष का विषय है कि बहुत दिनों के बाद आज यह जीमूतवाहन कामदेव के बाणों का शिकार बना है। (इस कन्या पर अनुरक्त हुआ है)।[अपने तरफ अंगुली से इशारा करता हुआ मुख की ओर हाथ कर भोजनमुद्रा बनाकर ] अथवा, कामदेव के नहीं, किन्तु मेरे ब्राह्मण के चङ्गुल में यह अब
\दिष्ट्याचिरस्य तावत्कालस्य पतितः खल्वेष गोचरे .????….। अथवानहि नहि, ममैव ([एकस्य99) ब्राह्मणस्य। ]
** चेटी—[सप्रणयं] भट्टिदारिए णं भणामि, किं एदाए णिक्करुणाए पुरदो बाइदेण ?।[—इति वीणामाक्षिपति ]।**
[भर्तृदारिके ! ननु भणामि, — ‘किमेतस्या निष्करुणायाः पुरतो वादितेन’ ]
** नायिका**— [सरोषं100 ] हञ्जे! मा101 मा भअवदि गोरिं अधि-
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दिष्ट्या=आनन्दावसरोऽयम्। ‘दिष्ट्या समुपजोषं चेत्यानन्दे’ इत्यव्ययकाण्डेऽमरः तावत्=प्रथममेव।चिरस्य कालस्य=बहोः समयस्यानन्तरम्। मन्मथस्य=कामस्य। गोचरे=विषये। ‘खलु’ इति निश्चये। एषः=जीमूतवाहनः।पतितः=निपतितः। वैराग्याविष्टमानलोऽप्ययं कामवाणलक्ष्यतामिदानीं गत इतिमहानयमस्माकमानन्दस्यावसर इत्यर्थः। ममैव ब्राह्मणस्य=मम भोजनभट्टस्य !‘विषये पतितः’ इति शेषः। एवञ्चास्मिन्नायके भोगासक्तेमम बनवासदुःखं विनाशमेष्यति, पुनरपि राज्यसुखञ्चास्माकं सिद्धिमेष्यतीत्याशयः ! अथवा मवैवैष कामोपभोगमार्गे जीतो नायकः, अतः परमयं मदधीन एवं भविष्यतीति सिद्धं मे समीहितमित्याशयो बोध्यः। भोजनमभिनी=मुखे पञ्चाङ्गुलियोजनेन ग्रासमुद्रांबध्द्वा भोजनमभिनीयेत्यर्थः। एवञ्च वन्यफलानि विहाय मधुरं भोजनं प्राप्स्यामीत्याशयो बोध्यः।सप्रणयं=सस्नेहम्। नतु भणामीति। पुनः पुनः कथनेऽपि त्वया सदभिप्रायो नावबुध्यते हन्त मया कथ्यते त्वया वृथैव श्रमः कस्मात्क्रियते इति। इति=इत्युक्त्वा। आक्षिपति=आच्छिद्य हस्तादादातुमिच्छति।
सरोषं=सक्रोधम्। भगवत्यधिक्षेपाद्रोषः। भर्तृदारिके=हे राजपुत्रि। हे स्वामितनये ! भगवत्या कीदृशः प्रसादः कृतः, कथय तावत्सत्वरमित्याशयः। नायिका
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फँसा है। [ अब तो हमारे चकाचक लड्वा उड़ेंगे, लडुवा ! ]।
चेटी — ( बड़े प्रेम से ) अहो कुमारी जी ! मैं तो कह रही हूँ कि आपका इसदयारहित देवी के सामने वीणा बजाना व्यर्थ है। इसके सामने वीणा बजाने सेक्या लाभ है ? अतः वीणा बजाना छोड़ दीजिए। आप थक गई होंगी !(वीणा को उनके हाथ से छीनती है )।
नायिका— ( नाराज होकर ) अरी चेटी ! खबरदार, तू भगवती गौरी की
क्खिब। णं102 अज्जकिदो मे भअवदीए पसादो।
\हञ्जे! मा मा भगवतीं गौरीमधिक्षिप, [नन्वद्य102 कृतो मे भगवत्या प्रसादः।]
** चेटी — [ सहर्षं ] भट्टिदारिए ! कहेहि दाब कीरिसो सो पसादो ?**
\भर्तृदारिके ! कथय तावत्कीदृशः [स103 प्रसादः ?]
** नायिका –हञ्जे ! जाणामि, अज्ज104सिबिणए एदं105वीणंखादन्ती गोरिए भअवदीए भणिदम्हि**—‘वच्छे मलअवदि106 ! परितुट्ठम्हि तुह एदिणा वीणाविण्णाणादिसएण, इमाए अ बालजणदुक्कराए107 असाहारणाए ममोबरि भत्तिए अ। ता बिज्जाहरचक्कवट्टी अचिरेण ज्जेब108पाणिग्गहणं दे णिब्बत्तइस्सदि’ त्ति।
** [हञ्जे ! जानामि,– ‘अद्य स्वप्ने एतामेव वीणां वादयन्ती भगवत्या गौर्य्याभणिताऽस्मि —‘वत्से मलयवति! परितुष्टाऽस्मि तवैतेन वीणाविज्ञानातिशयेन,अनया चबालजनदुष्करयाऽसाधारणया ममोपरि भक्त्या च। तद्विद्याधरचक्रवर्ती अचिरेणैव ते पाणिग्रहणं निर्वर्त्तयिष्यति’ इति।]**
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ब्रूते–हञ्जे=हे परिचारिके। ‘हण्डे हञ्जे हलाऽऽह्वाने नीचां चेटीं सखीं प्रति’ इत्यमरः। जानामि=अवबुध्ये। अहं स्मरामि। एतामेव=इमामेव। एवमेवेति वापाठे–इत्थमेवेत्यर्थः। वत्से=हे पुत्रि। वीणाया यद्विज्ञानं=वादनकौशलं, तस्य अतिशयेन=प्रकर्षेण। वीणावादनपाटवप्रकर्षेणेत्यर्थः। बालजनदुष्करया=बालजनदुरनुष्ठेयया। ‘बालजनदुर्लभये’ तिपाठे - बालजन दुष्प्रापया - इत्यर्थः। असाधारणया=विशिष्टया। भक्त्या च=आदरातिशयेन च। परितुष्टास्मीति शेषः। विद्याधर-चक्रवर्त्ती=भाविविद्याधरचक्रवर्त्ती। अचिरेणैव=शीघ्रमेव। पाणिग्रहणं=परिणयविधिं। विवाहम्। निर्वर्त्तयिष्यति=करिष्यति। इति इत्थं स्वप्ने भगवत्या
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निन्दा मत कर। आज ही भगवती ने मेरे ऊपर कृपा प्रदर्शित की है। भला,हमारी इस दयामयी भगवती गौरीजी को तू निष्करुण कैसे कहती है।
चेटी—[सहर्षम्] भट्टिदारिए ! जइ एब्बं, ता109 कीससिबिणअं110 इमं भणीअदि ? हिअअत्थिदो111 बरो112 देईए दिण्णो।
** \भर्तृदारिके ! यद्येवं [तत्क109स्मात् स्वप्नोऽयं110 भण्यते ?। ननु हृदय111स्थितो वरो112 देव्या दत्तः।]**
** विदूषकः—[श्रुत्वा] भो व अस्स ! !अवसरो क्खु एसों112 अह्माणं**
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प्रसादः कृत इत्यर्थः। यद्येवं = यद्येवं स्वप्ने भगवत्या स्पष्टमेव भणितं। तर्हि -अयं = प्रसादः। वरदानमिति यावत्। स्वप्न इति कस्मात् = स्वप्नतया कुतो नु। भण्यते =त्वया व्यपदिश्यते ?। तर्हि किमेतदत आह- नन्विति। ननु—इति निश्चये। हृदयस्थितः = इष्टः। मनोरथीभूतः। वरः = वरदानं। पतिर्वा। दत्तः = तुभ्यं दत्तः। एवञ्चनायं स्वप्नदृष्टालीकपदार्थवदवमन्तव्यः, किन्तु प्रसन्नया भगवत्या वर एव तुभ्यमयं दत्त इति विभावयेत्याशयः।
श्रुत्वा = मलयवतीतत्परिचारिकयोरालापं श्रुत्वा। ‘विदूषको नायकमाहे ‘ति
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चेटी —( बड़े हर्ष के साथ ) कुमारी जी ! कहिए तो भगवती ने आप परक्या प्रसाद ( कृपा ) प्रदर्शित किया है ?।
नायिका — अरी चेटी ! मुझे ऐसा मालूम हुआ कि आज स्वप्न में मैं इसवीणा को बजाती हुई भगवती का आराधन कर रही हूँ। तब भगवती गौरी नेमुझसे कहा कि “वत्से ! मलयवती ! मैं तेरे वीणावादन कौशल से तथा बालकजनोंसे नहीं की जा सकने वाली इस असाधारण तपस्या व मेरे ऊपरतेरी दृढ़ भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अतः, जा, बहुत शीघ्र ही विद्याधरों काचक्रवर्ती तेरा पाणिग्रहण ( विवाह ) करेगा।”
चेटी — (बड़े हर्ष से) कुमारी जी ! यदि यह बात है तो फिर आप इसको स्वप्न क्यों कह रही हो ?।यह तो भगवती ने आपको हृदयस्थित अभीष्टवर ( वरदान व पति ) ही प्रदान कर दिया हैं।
विदूषक —( सुनकर ) हे मित्र, यही उचित अवसर हम लोगों के देवीदर्शन का है। चलो, हम लोग मन्दिर में देवीजी के दर्शनों को चलें।
देईदंसणस्स। ता एहि पविसम्ह113।
** [भो वयस्य ! अवसरः खल्वेषोऽस्माकं देवीदर्शनस्य। तदेहि प्रविशावः।]**
** [नायकः114- न तावत् प्रविशामि।]**
** विदूषकः - [अनिच्छन्तमपि115 नायकं बलादाकृष्य उपसृत्य116 —]सोत्थि117 इति पाठः क्वचिदेव दृश्यते न सार्वत्रिकः") भोदिए। भोदि सच्चं एव्व एसा (चदुरिआ118 ) भणादि, वरोएब्ब एसो देईए दिण्णो।**
** \स्वस्ति भवत्यै। भवति ! सत्यमेव एषा ([चतुरिका118) भणति,एवैष देव्या दत्तः]।**
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शेषः। उपसर्पावः=निकटे गच्छावः। न तावत्=नैव खलु। प्रविशामि=प्रवेक्ष्यामि। अनिच्छन्तं=देवीमन्दिरे नायिकानिकटे गन्तुमनिच्छन्तमपि। नायकंजीमूतवाहनं। बलादाकृष्य=हठादाकृष्य। उपसृत्य=नायिकासमीपं गत्वा। ‘इत्थंप्रोवाच विदूषक’ इति शेषः। स्वस्ति भवत्यै=कल्याणं भवतु भवत्याः। स्वस्यब्राह्मणत्वादाशीर्वचनमेतत्। अयं पाठ क्वचिदेव दृश्यते। एषा=चेटीचतुरिका। ‘एष’ इत्यङ्गुल्या नायकं प्रति निर्देशः। वरः=पतिः। वरः=वरदानं चेत्युभयविधोऽप्यर्थोऽत्र बोध्यः श्लेषेण।
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नायक —हम तो मन्दिर में नहीं जाएंगें, तुम चाहें जाओ।
विदूषक — ( नायक की इच्छा नहीं होते हुए भी उसे बलात्कर से खींचकर मन्दिर में ले जाकर मलयवती से कहता है ) हे श्रीमतीजी, आपका कल्याणहो। यह चेटी (चतुरिका ) ठीक ही कह रही है, भगवती ने तो (नायक की ओरइशारा करता हुआ—) यह वर ( पति, वरदान ) ही आपको दे दिया है।
** नायिका — \ ससाध्वसमुत्तिष्ठन्ती ([नायकमुद्दिश्य119–) ] हञ्जे! को णुक्खु एसो ?**
** [ हञ्जे ! को नु खल्वेषः ? ]।**
** चेटी—\ नायकं निरूप्य ([अपवार्य्य120) - ] इमाए अणोण्णसरिसीए121 आकिदीएएसोसो भअवदीए पसादीकिदो122 त्ति तक्केमि।**
** [ अनया अन्योन्यसदृश्या आकृत्या ‘एष स भगवत्या प्रसादीकृत’ इति तर्कयामि ]**
** \नायिका — सस्पृहं [सलज्जञ्च107 नायकमवलोकयन्ती तिष्ठति123 ]।**
** नायकः**—
तनुरियं तरलायतलोचने !
वसितकम्पितपीनघनस्तनि !।
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ससाध्वसं=सभयम्। परपुरुषं दृष्ट्वा भयं च भवति कुलकन्यानां स्वभावत एवेतिबोध्यम्। नायकमुद्दिश्य=नायकमङ्गुल्या निद्दिश्य। कचिन्नायं पाठः। हञ्जे=हेचेटि। कोऽयमिति। कोयमत्र निभृते प्रशान्ते प्रदेशेऽभिनवः पुमान् समायात इतिप्रश्नाशयः। निरूप्य=दृष्ट्वा। अपवार्य=अन्यानश्रावयन्ती केवलं स्वयमेवात्मानंप्रत्येवाह। अन्योन्यसदृश्या=परस्परसदृश्या। सौन्दर्यादिभिरन्योन्यानुरूपया।आकृत्या=अवयवसंस्थानेन। एष सः अयं स एव यः स्वप्ने भगवत्या वर्णितः।भगवत्या प्रसादीकृतः=देव्या गौर्या वररूपेण मलयवत्यै प्रतिपादितः पुमान्। तर्कयामि=अनुमिनोमि। सस्पृहं=साभिलाषं। ‘इच्छाऽऽकाङ्क्षा स्पृहेहा तृड् वाञ्छा लिप्सा मनोरथः’ इत्यमरः। अवलोकयन्ती=कटाक्षनिक्षेपैर्निभृतं सानुरागंच पश्यन्ती। तिष्ठति=निश्चलं, निर्व्यापारान्तरं च तिष्ठति।
तादृशीं नायिकायाः सानुरागां दशामालक्ष्य नायकश्चाटुगर्भमाह — तनुरिति।
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नायिका — ( डर से उठती हुई, नायक की ओर इशारा करके ) अरीचेटी ! यह देख कौन यहाँ आगया है ?।
चेटी —( नायक को देखकर, अलग से— ) इन ( मलयवती व नायक )दोनों की समान जोड़ी को देखकर मैं तो यही समझती हूँ कि भगवती नेराजकुमारीसे जिस वर का प्रसङ्ग स्वप्न में चलाया था वह वर यही है।
श्रममलं तपसैव गता पुनः
किमिति सम्भ्रमकारिणि !खिद्यते124 ?॥१७॥
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तरले=स्वभावचञ्चले, आयते=दीर्घे, आकर्णान्तविस्तृते च लोचने यस्याः सा,तत्सम्बोधने-तरलायतलोचने= हे मृगशावचञ्चलदीर्घनयने। किञ्च–श्वसितेन=अस्मदनुरागेण जातो योऽधिकः श्वासः, तेन कम्पितौ=सकम्पौ, पीनौ=सुवृत्तौ, विपुलाभोगौअत एव घनौ=कठिनौ च स्तनौ=वक्षोजौ यस्याः सा तत्सम्बुद्धौ—श्वसितकम्पितपीनघनस्तनि=हे श्वासमारुवोत्कम्पितविपुल सुवॄत्तकठिनकुचकलशे। इयं तनुः=इयन्तव कोमला शरीरयष्टिः। तपसैव=व्रतोपवासादिनैव। अलं=परिपूर्णं। ‘अलं भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणवाचकम्।’ इत्यमरः। श्रमं=खेदम्। आयासं।गता=पूर्वमेव प्राप्ता। पुनः=पुनरपि। अस्मान् दृष्ट्वा सम्भ्रमं=संवेगं, त्वरां च कर्त्तुं शीलंयस्याः सा, तत्सम्बुद्धौ — हे सम्भ्रमकारिणि=साध्वसशीले। हे त्रस्तकुरङ्गसम्भ्रम(त्वरा ) – शीले। ‘समौ संवेगसम्भ्रमौ’ इति, ‘सम्भ्रमस्त्वरा’ इति चामरः। किमिति=कुतो नु। खिद्यते=क्लिश्यते, आयास्यते वा। कन्यकाजनदुर्लभं व्रतोपवासादिरूपंतप आतिष्ठन्त्या भवत्या नितरां क्लिष्टमिदं शरीरं पुनरप्यस्मान्दृष्ट्वा सम्भ्रममास्थायमुहुः किमिति खेदं प्राप्यते इति भावः। अलं सम्भ्रमेण, निभृतमिहैव तिष्ठेति चहृदयम्। द्रुतविलम्बितं वृत्तम्। तल्लक्षणंच—‘द्रुतविलम्बितमाह न-भौ भरौ’ इति।
‘खिद्यसे’ इत्यपि पाठः। तत्र—तनुरियं तपसैव खेदं गता पुनः किमितिसम्भ्रममूरीकृत्य खिद्यसे=आत्मखेदेन तदर्थं यतसे। अर्थात्—तव खेदे हि श्रान्तायास्तनोः पुनरपि खेदो भवेदतोऽलं खेदेनेव तदर्थो बोध्यः ॥ १७॥
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[नायिका— बड़े चाव व प्रेम से नायक की ओर टकटकी लगा कर देखतीहुई खड़ी रहती है।]
नायक —हे चञ्चल नयनों वाली प्रिये ! दीर्घ श्वासों से आपके घनें व कठिनस्तन युगल काँप रहे हैं। अतः बैठ जाओ। तुम्हारा यह सुन्दर शरीर तो कठिन तपस्या से पहिले से ही बहुत श्रम व खेद को पा चुका है। अब फिर इस शरीरको इस प्रकार संभ्रम ( घबराहट ) में डाल कर और क्यों खेद ( कष्ट ) में डालरही हो अतः घबड़ाओ मत। निःशङ्क चित्र हो बैठो ॥ १७ ॥
** नायिका— [ अपवार्य्य] हञ्जे ! अदिसद्धसेण ण सक्कणोमि एदस्सअहिमुही125 ठादुं। \नायकं तिर्यक् [सलज्जञ्च126 पश्यन्ती किञ्चित् परावृत्तमुखी127 तिष्ठति ] ।**
[हञ्जे ! अतिसाध्वसेन न शक्नोमि एतस्याभिमुखीस्थातुम् ]।
** चेटी128 — भट्टिदारिए किं एदम् ? ।**
** [भर्तृदारिके ! किमेतत् ?।]**
** नायिका — हञ्जे ! ण सक्कुणामि एदस्स आसण्ण चिट्ठिदुं, ता एहि अण्णदो गच्छम्ह - [ —उत्थातुमिच्छति ]।**
[हञ्जे! न शक्नोमि एतस्याभिमुखीस्थातुम्। तदेह्यन्यतो गच्छावः ]।
** विदूषकः — भो ! आदि क्खु एसा। मम पठिअविज्जं विभ**
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अपवार्य=निहितं कान्तं विलोक्य पल्लवितरतिभावसध्रीचीनसहजलज्जासाध्वसपरदशा नायिका त्रिपताकहस्तमुद्रायाऽन्यानपवार्य चेटीमेव ब्रूते। अतिसाध्वसेन=अदृष्टपुरुषदर्शनजन्येनातिभयेन। कान्तदर्शनजन्येन ऊरुकम्पस्वेदादिविकारजनकेनतीव्रेण हृदयकम्पेन। एतस्य= कमनीयमूर्तेरस्य नायकस्य। अभिमुखी=संमुखे,=अग्रतः। अभिमुखं। स्थातुं न शक्नोमि। अतः परावृत्याऽत्रैव तिष्ठामीत्याशयः।तिर्यक्=कटाक्षनिक्षेपैः साचि विलोकयन्ती। तिर्यक् साचिरपि स्त्रियाम्’ इतिरत्नकोषः। ‘तिर्यगर्थे साचि तिरोऽपि’ इत्यमरः। सलज्जं=सव्रीडं। पश्यन्ती=विलोकयन्ती। किञ्चित्=लोकाचारानुरोधेन किञ्चिदेव। पराङ्मुखी=परावृत्तवदना।
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नायिका —( अलग से चेटी के प्रति ) हञ्जे ! मुझे तो बड़ा डर लग रहा हैं,अतः मे इसके सामने खड़ी नहीं रह सकती हूँ ।
[नायक को लज्जायुक्त तिर्छे नेत्रों से कनखियों से देखती हुई नायिका मुख फेरकर खड़ी हो जाती है।]
चेटी — हैं, राजकुमारीजी ! यह क्या ? आपने मुख क्यों फेर लिया ?
नायिका — अरी चेटी ! लजा और भय के कारण मैं इसके पास ठहरने मेंअसमर्थ हूँ, अतः आवो, दूसरी जगह चलें।
मुहुत्तअं धारेमि।
** [भो ! बिभेति खल्वेषा ! मम पठितविद्यामिव मुहूर्त्तं धारयामि]।**
** नायकः—को दोषः ?।**
** विदूषकः —भोदि ! किं एत्थ तुह्माणं तबोवणे ईरिसो आआरो,जेण अदिहिजो आअदो वाआमत्तेण बिण संभावीअदि129 ?।**
** [भवति ! किमत्र युष्माकं तपोवने ईदृश आचारो येनातिथिजन आगतो वाङ्मात्रेणापि न सम्भाव्यते ? ]**
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बिभेति=अस्मदागमनेन भयातुरा भवति। एषा=नायिका। मम पठित विद्यामिव =मदधीतविद्याऽनभ्यासभीतेव यथा मां परित्यज्य यातुमिच्छति तथैवेयमपि गन्तुमिच्छति। तदेनां मुहूर्त्तं=क्षणमात्रमपि।धारयामि=अवरूणध्मि। “चेटी—भतृदारिके” इत्यारभ्य, “नायकः – को दोष” इत्यन्तः पाठः क्वचिन्न दृश्यते।
किमिति—प्रश्ने। आचारः=व्यवहारः। समुदाचारः। येन येन व्यवहारेण।वाङ्मात्रेणापि=वाचाऽपि केवलया। न संभाव्यते= न सत्क्रियते। दूरे तावदातामतिथिसत्कारो, वाङ्मात्रेण=कुशलप्रश्नादिना, आसनादिदानेनाऽपि चातिथिजनो न सम्भाव्यत इति विचित्रोऽयं भवदाश्रमे व्यवहारो येनाऽस्मानविधिरूपेण समागतानपि भवती न सम्भाषते, मुखं परावृत्यैव केवलं तिष्ठतीति विदूषकाशयः।
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( उठना चाहती है )।
विदूषक —मित्र ! यह तो डर कर इस प्रकार भागना चाहती है जैसेमेरी पढ़ी हुई विद्या अनभ्यास के कारण मुझे छोड़ कर भाग रही है। अच्छाथोड़ी देर के लिये इसे किसी प्रकारसे रोकने का प्रयत्न करता हूँ।
नायक —क्या हानि है, प्रयत्न करके देखो।
विदूषक —( चेटी से ) श्रीमती जी क्या तुमारे तपोवन (आश्रम) में यही रीति है कि आये हुए अतिथि का वाणीमात्र से ही सत्कार नहीं कियाजाए ? ( अर्थात् —हम अतिथियों का सत्कार तो दूरआप लोग बोलना भी नहीं चाहती हो। )
** चेटी—[ नायिकां दृष्ट्वा आत्मगतम् ] अणुरज्जदि बिअ एत्थ एदाएदिट्ठी। (भोदु130 वा ) एव्वं दाव भणिस्सं [प्रकाशं] भट्टिदारिए ! जुत्तंभणादि बह्मणो, उइदो क्खु दे अदिहिजणसक्कारो। ता131 किं ईरिसेमहाणुभावे पडिबतिमूढ़ा विअ132 चिट्ठति ?। अहवा चिट्ठ तुमं, अहंबधाणुरू करइस्सं। \ [नायकमुद्दिश्य133 ] साअद् अज्जस्स !।आसणपडिग्गहेण अलङ्करेदु अज्जो134 इमं पदेसं।**
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आत्मगतं=स्वगतम्। अन्यानश्रावयन्ती चेटी परामृशतीत्याशयः। अनुरज्यतीव =अनुरागवतीव। स्नेहार्देव। अत्र=नायके। अस्याः=मलयवत्याः। दृष्टिः=नेत्रयुगलम्। तत्=तस्मात्। एतत्नियाचरणार्थमेव। युक्तम्=उचितमेव। भणति ब्रूते।ते=तव। अतिथिजनसत्कारः=कुशलप्रश्वासनदानादिना अतिथिपूजनम्।ईदृशे=मनोहरे कान्तदर्शने। महानुभावे=महाप्रभावे। सकुलप्रसूते। प्रतिपत्तौ मूढा प्रतिपत्तिमूढा - इव=कर्त्तव्यज्ञानविधुरेव। एवं नायकसन्तोषाय नायिकामुपालभ्य स्वयमेवाऽतिथिजनोचितं सत्कारमातनोति चेटी अथवेति।यथानुरूपं=यथोचितम्। अतिथिजनोचितम्। सुष्ठु आगतं=स्वागतं =शोभनमिहागमनम्। भवदागमनेन वयं प्रसीदामः। आसनस्य=अवस्थानस्य,परिग्रहेण=स्वीकारेण। इहावस्थानेनेत्यर्थः। अलङ्करोतु=परिभूषयतु। इमंप्रदेशम्=इदं स्थानम्। अस्मिन् स्थाने स्थित्वा विश्रम्यतामित्याशयः। शोभनं =
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चेटी— [ नायिका की हालत देख मनही मन ] इस ( नायिका ) की दृष्टितो इस राजपुत्र में अनुरागपूर्ण - सी जान पड़ती है। मालूम होता है कि यहराजपुत्री इस पर आसक्त हो गई है। अच्छा ठीक है, मैं ऐसा मीठाउत्तर दूंगी। [ प्रकट में ] राजकुमारीजी ! यह ब्राह्मण ठीक ही कह रहा है।अतिथि का यथायोग्य सत्कार करना आपके लिये सर्वथा उचित ही है। सो,आप ऐसे महानुभाव श्रेष्ठकुलप्रसूत अतिथि को पाकर भी किंकर्त्तव्यविमूढ़-सहोकर क्यों खड़ी है ? संभाषण आसन प्रदान आदि से इनका अतिथिसत्कार
[अनुरज्यतीवाऽत्रैतस्या दृष्टिः। [भवतु] तदेवं तावद्भणिष्यामि।भर्तृदारिके ! युक्तं भणति ब्राह्मणः, उचितः खलु तेऽतिथिजनसत्कारः। तत् किमीदृशेमहानुभावे प्रतिपत्तिमूढेव तिष्ठसि ? अथवा तिष्ठ त्वम्, अहमेव यथाऽनुरूपंकरिष्यामि। स्वागतमार्य्यस्य। आसनपरिग्रहेण अलङ्करोत्वार्य्य इमं प्रदेशम्। ]
विदूषकः— भो वअस्स ! सोहणं एसा भणादि। उबविसिअ[एत्थ135] मुहुत्तअं वीसमम्ह।
[भो वयस्य ! शोभनमेषा भणति। उपविश्य (अत्र) मुहूर्त्तं विश्राम्यावः]।
** नायकः**—युक्तमाह भवान्। [ उभावुपविशतः ]।
नायिका136—[चेटीमुद्दिश्य सलज्जम्] अइ परिहाससीले ! मा एबं करोहि। कदाबि कोबिताबसो137 मं पेक्खदि, तदो मं अविणीदेत्तिसंमावइस्सदि।
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समुचितम्। अवसरोचितम्। एषा=चेटी। भणति=ब्रूते। अत्र=चेटीनिर्दिष्टेनायिकानिकटे स्थाने। मुहूर्त्तं=क्षणमात्रम्। विश्राम्यावः=विश्रम्य मार्गखेदं परिहरावः।चेटीमुद्दिश्य=चेटीं प्रति। भणतीति शेषः। सलज्जं=लज्जां नाटयन्ती। परिहास-
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करिये। अथवा, आपसे नहीं होता है तो न सही, आप रहने दो, मैं ही इनकायथोचित सत्कार करती हूँ। [नायक के प्रति] आर्य ! आपका स्वागत है।आपके यहाँ पधारने से हम लोग बड़े प्रसन्न और कृतार्थ हुए हैं। हे आर्य !आप इस आसन पर विराजिये और इस स्थान कीशोभा बढ़ाइये। ( आसन दिखाती है। )
विदूषक — हे वयस्य ! यह चेटी ठीक कहती है। यहाँ बैठकर हमें थोड़ासा विश्राम तो कर ही लेना चाहिये।
नायक — आप ठीक ही कह रहे हैं। यहाँ थोड़ा विश्राम कर लेने में क्याहानि है ? [ दोनों नायिका के पास आसन पर बैठते हैं ]।
नायिका —[ लज्जापूर्वक चेटी से धीरे से ] अरी परिहासशीले ! तेरी यह
[अयि परिहासशीले ! मैवं कुरु। कदाऽपि कोऽपि तापसः ( मां ) प्रेक्षते,ततो मामविनीतेति सम्भावयिष्यति।]
[ततः प्रविशति तापसः]।
** तापसः—आज्ञापितोऽस्मि कुलपतिना कौशिकेन यथा,—‘वत्सशाण्डिल्य ! पितुराज्ञया युवराजो138 मित्रावसुर्भविष्यद्विद्याधरचक्रवर्त्तिनंकुमारं जीमूतवाहनमिहैव मलयपर्वते कापि वर्त्तमानं भगिन्या मलय-**
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शीले=नर्मचतुरे। नायकं मत्समीपे स्थापयित्वा मम परिहास एव त्वया कृत इत्याशयः। मैवं कुरु=परपुरुषं मत्समीपे मा स्थापय। तापसः=आश्रमवासी मुनिः। प्रेक्षते=परपुरुषसमीपस्थितां मां पश्यति चेत्।अविनीता=ष्टष्टा। निर्लज्जा।संभावयिष्यति=तर्कयिष्यति। ज्ञास्यति। एवं नायिकया सूचितस्तापसः प्रविशति—तत इति।नायिकोक्तिसमनन्तरमेव। प्रशस्तं तपः अस्यास्तीति तापलः=तपोधनो मुनिः।कुलपतिना=आश्रमाधिपतिना। ‘छात्राणां दशसाहस्रं योऽध्यापयति स्वे गृहे।स वै कुलपतिर्नाम -’ इति कुलपतिलक्षणम्। कौशिकेन=तन्नामकेन उपाध्यायेन। आज्ञापितोऽस्मि=दत्ताज्ञोऽस्मि। निर्दिष्टोऽस्मि। आज्ञामेव प्रकटयतियथेति। युवराजः=सिद्धराजविश्वावसुपुत्रः कुमारः। भविष्यद्विद्याधरचक्रवर्त्तिनं=भाविविद्याधरेश्वरम्। वरहेतोर्द्रष्टुं =स्वभगिन्या वरत्वेन स्वीकर्त्तुं। वरार्थं निश्चेतुम्।
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हँसी करने की आदत ठाक नहीं है। मेरे ही पास इनको बैठाने की यह हँसीरहने दे।यदि कोई तापस ( तपस्वो मुनि ) मुझे इस प्रकार अपरिचित पुरुष केपास बैठी हुई देख लेगा तो मुझे तो अविनीता ( ढीठ, निर्लज्ज ) ही समझनेलगेगा।अतः ऐसी हँसी मत कर।
[ तापस का प्रवेश ]
तापस—इस आश्रम के कुलपति (दस हजार छात्रों और मुनियों को अपनीओर से भोजन वस्त्र देकर पढ़ाने वाले गुरु ) कौशिक मुनि ने मुझे आज्ञा दी है।कि ‘वत्स शाण्डिल्य ! सिद्धयुवराज मित्रावसु अपने पिता विश्वावसु की आज्ञा सेअपनी बहिन मलयवती के विवाह के लिये वर निश्चय करने को भावी विद्याधरचक्रवर्त्ती कुमार जीमूतवाहन को — जो कि इसी मलय पर्वत पर कहीं हैं—
वत्या वरहेतोर्द्रष्टुमद्य गतः। तञ्च प्रतीक्षमाणाया [मलयवत्याः139] कदाचिन्मध्यन्दिनसवन140-वेलाविधिरतिक्रामेत्, तदेनामाहूयाऽऽगच्छेति। तद्यावद्गौरीगृहमेव141 गच्छामि। [परिक्रम्य142 अये’ पा. ।") भूमिं निरूप्य सविस्मयम्।] अये !कस्य पुनरियं पांशुले भूप्रदेशे143 प्रकाशित144चक्रवर्त्तिचिह्ना पदपङक्तिः ?\अग्रतो जीमूतवाहनं [निरूप्य145] नूनमस्यैवेयं महापुरुषस्य। अपिच146—
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कदाचित्=प्रतीक्षापारवश्येन कदाचित्। मध्यन्दिनसवनवेलाविधिरिति।दिनस्य मध्यं-मध्यन्दिनं, मध्यन्दिने यत्सवनं=स्नानं, तस्य या वेला=समयः,तस्या विधिः=अनुष्ठानम्। मध्याह्नकालिकस्नानादिसमयः। अतिक्रामेत्=निर्गच्छेत्। ‘सवनविधि’रिति पाठे— मध्याह्नसमयस्नानाद्यनुष्ठानमित्यर्थः। अत्र ‘मध्याह्नसवनवेलाविधिः’ ‘वेलाऽवधिः’ इति च पाठान्तरम्। तत्र वेला=समयः।अवधिः=सीमा।
परिक्रम्य=किञ्चिञ्चलनं नाटयित्वा। भूमिं=पांसुलं प्रदेशं। निरूप्य=दृष्ट्वा।पांसुलप्रदेशे=सिकतान्विते भूभागे। प्रकाशितानि चक्रवर्त्तिनः चिह्नानि=चक्रस्वस्तिकध्वजावज्रच्छत्रादीनि चिह्नानि यस्यां सा— प्रकाशितचक्रवर्त्तिचिह्ना=प्रकटितचक्र-
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आज देखने (वरत्वेन स्वीकार करने ) गये हैं। उनकी प्रतीक्षा करती हुई मलयबती को मलय पर्वत पर घूमते २ कहीं देर न हो जाये और उसका मध्याह्नकालिक स्नान और पूजा का समय कहीं अपने भाई की प्रतीक्षा में ही न बीतजाये - इसलिये तुम जाकर मलयवती को खोज कर यहाँ बुला लाओ”। इसलियेइस तपोवन के निकटवर्ती श्रीगौरी मन्दिर को ही मैं जा रहा हूँ। [कुछ दूर चलकर पृथ्वी की ओर अच्छी तरह देखकर आश्चर्य के साथ ] हैं ! ये बालुका युक्तइस भूप्रदेश में चक्रवर्ती राजा के चिह्नभूत चक्र, शङ्ख, ध्वजा आदि से शोभितकिस महाभाग के चरणों के चिह्न ( पैरों के खोज ) दिखाई दे रहे हैं !!।
[आगे जीमूतवाहन को देखकर उसकी ओर लक्ष्य करके] ठीक है, येपदचिह्न निश्चय ही इसी महापुरुष के होंगे ऐसा ही मालूम होता है। और
उष्णीषः स्फुट एष मूर्द्धनि विभात्यूर्णेयमन्तर्भ्रुवो-
श्चक्षुस्तामरसानुकारि, हरिणा वक्षःस्थलं स्पर्द्धते।
चक्राङ्कञ्चयथा147करद्वयमिदं मन्ये तथा कोऽप्ययं
नो विद्याधरचक्रवर्त्तिपदवीमप्राप्य विश्राम्यति ॥ १८ ॥
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वर्त्तिसामुद्रिकलक्षणयुता। इयं पदपङ्क्तिः=इयं पदप्रतिबिम्बपरम्परा च रणावलिः।(खोज)। कस्य=कस्य महाभागस्य भवेत्। निरूप्य=दृष्ट्वा। नूनं=निश्चयेन।अस्यैव =महापुरुषस्य=महापुरुषलक्षणस्य जीमूतवाहनस्यैव। ‘इयं पदपङ्क्तिरस्ती ‘ति शेषः।
अपिचेति। न केवलं चरणयोरेव चक्रवर्त्तिलक्षणान्यस्य सन्ति, किन्तु शरीरेऽपितथैव चिह्नानि दृश्यन्ते, अतोऽस्यैव सेयं चरणपक्तिरिति निश्चेतुं शक्यते। तानिशरीरचिह्नान्येव विवृणोति—उष्णीष इति। उष्णीषः=सामुद्रिकशास्त्रप्रसिद्धो ललाटोपरि स्थितः पट्टबन्धरेखाविशेषः। मूर्धनि=मस्तके।‘मूर्धा ना मस्तकोऽस्त्रियामित्यमरः। स्फुटः=स्पष्टः। विभाति=विराजते। शोभते। भ्रुवोरन्तः=भ्रूमध्ये। ऊर्णा=भ्रूमध्यगो रोमावर्त्तविशेषः। (‘भौरी’)। विभाति =शोभते। ‘ऊर्णा भ्रूमध्यगावर्त्ते तन्तौमेषादिलोमसु’ इति कोशः। ‘ऊर्णा मेषादिलोम्नि स्यादावर्त्ते चाऽन्तराभ्रुवो’ रित्यमरश्च। चक्षुः=नेत्रम्। तामरसमनुकरोति तच्छीलं —तामरसानुकारि= कमलसदृशं। विभाति।‘वा पुंसि पद्मं नलिनमरविन्दं महोत्पलम्। पङ्केरुहं तामरसम्’ इत्यमरः।हरिणा=सिंहेन। लक्षणया—सिंहवक्षसा। वक्षःस्थलम्=उरःस्थलम्। स्पर्द्धते=संघर्षं कुरुते। सिंहवद्विशालं वक्षःस्थलमस्येत्यर्थः। यथा च=येन च हेतुना। इदंकरद्वयं=हस्तयुगलमिदं। चक्राङ्कं=चक्ररेखालाञ्छितं। ‘दृश्यते’ इति शेषः। ‘पदद्वयमिति पाठे — चरणयुगलमस्य चक्ररेखाङ्कितं पदपङ्क्तिषु स्पष्टं दृश्यते इत्यर्थः।
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भी देखो !—
इसके मस्तक पर यह उष्णीष (मुकुट) का यह चिह्न स्पष्ट मालूम हो रहा है।भ्रूमध्य में ( भौंह के बीच में ) भी यह ऊर्णा=रोमावर्त्त ( भौंरी ) का चिह्नशोभायमान हो रहा है। और कमल को तरह इसके नेत्र हैं। सिंह की तरह विशाल(चौड़ा) इसका वक्षःस्थल (छाती) है। और इसके दोनों पैर भी ( और हाथ भी)चक्र चिह्न ( चक्रआदि की रेखाओं ) से सुशोभित हैं। इससे मैं समझता हूँ कि
अथवा कृतं सन्देहेन। सुव्यक्तमनेनैव148 जीमूतवाहनेन भवितव्यम्।[मलयवतीं निरूप्य —] अये ! इयमपि राजपुत्री। [ उभौ विलोक्य ]चिरात्खलु युक्तकारों विधिः स्याद्यदि149 युगलमिदमन्योन्यानुरूपंघटयेत्। \ उपसृत्य [नायकमुद्दिश्य150 ] स्वस्ति भवते।
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तथा=तेन हेतुना। मन्ये=तर्कयामि। यत् कोऽप्ययं पुरुषः =अज्ञातविशेषपरिचयोऽयं यः कोऽपि वा भवतु। परन्तु—विद्याधरचक्रवर्त्तिपदवीं=विद्याधरसम्राट्पदम्। अप्राप्य=अलब्ध्वा। न विश्राम्यति=न निवर्त्तते। नैव स्थास्यति। अवश्यमनेन शीघ्रमेव विद्याधरचक्रवर्त्तिध्वं लप्स्यते इति लक्षणैर्ज्ञायत इत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥१८॥
कृतम्=अलम्। सन्देहोऽत्र नैव कार्यः। किन्तु निश्चयेनायमेव जीमूतवाहन इत्याशयः। ‘कृतं युगेऽलमर्थे स्याद्विहिते हिंसिते त्रिषु’ इति मेदिनी। सुव्यक्तं=स्पष्टम्।ध्रुवम्। इयमपि राजपुत्री —‘इहैव तिष्ठती’ति शेषः। उभौ=मलयवतीजीमूतवाहनौ।चिरात्=चिरकालेन। बहोः कालादनन्तरम्। युक्तकारी=उचितसङ्घटनकारी।विधिः=दैवम्। ब्रह्मा। ‘विधिविधाने दैवे च’ इत्यमरः। अन्योन्यानुरूपं=परस्परसदृशं। युगलं=मिथुनम्। घटयेत्=परिणयविधिना योजयेत्। यद्यनयोः परस्परंविवाहः स्यात्तर्हि युक्तं भवेदित्याशयः। उपसृत्य=किञ्चिन्निकटे गत्वा। भवते=तुभ्यं। स्वस्ति=कल्याणं। भवत्विति शेषः। अभिवादये= प्रणमामि। आशीर्वादं च
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यह अवश्य हो विद्याधरों के चक्रवर्ती राजा के पद को पाए बिना नहीं रहेगा।अर्थात्—अवश्य ही यह निकट भविष्य में ही विद्याघरों का चक्रवर्ती होगा यहमैं सामुद्रिक शास्त्रानुसार इसके चिह्नों को देखकर कह सकता हूँ। १८।
अथवा — इसमें सन्देह करने की कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु निश्चयरूपसे मैं कह सकता हूँ कि यही वह जीमूतवाहन है, जिसको देखने युवराजमित्रावसु गए हैं।
[उसके पास में बैठी हुई मलयवती को पहिचान कर ] ऐं ! राजकुमारीमलयवती भी इनके पास ही बैठी है !!!
** नायकः**—भगवन् ! जीमूतवाहनोऽ151हमभिवादये। [ आसनं दातुमिच्छति। ]
** तापसः**—** अलमलमभ्युत्थानेन152। ननु ‘सर्वस्याभ्यागतो गुरुरिति भवानेवास्माकं पूज्यः। तद्यथासुखं स्थीयताम्।**
[नायकः119—बाढम्]
** नायिका**—अज्ज पणमामि।
** [आर्य्य। प्रणमामि ]।**
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याचे इत्यर्थः। अलमलम्-नैव खलूत्थानेनात्र किञ्चित्प्रयोजनम्। सर्वस्य=सर्वस्यापि। अभ्यागतः=अतिथिः। स्थीयतां तावद्यथासुखमिति भावः। बाढं=यथा भवानाहतथैव स्वीकरोमि ! आर्य=महानुभाव मुने। वत्से—हे पुत्रि।अनुरूपभर्त्तभागिनीभूयाः —स्वानुरूपं पतिं त्वरिमेव प्राप्नुहि। अतिक्रामति=व्यत्येति। व्यपगच्छति।मध्यन्दिनसवनवेला=मध्याह्नस्नानादिसमयः। ‘सवनं त्वध्वरे स्नाने सोमनिर्दलनेऽपि च’ इति मेदिनी।
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[दोनों (मलयवती और जीमूतवाहन) की सुन्दर जोड़ी को चाव से देखकर ]
यदि परस्पर अनुरूप इस जोड़ी को विधाता ( ब्रह्माजी ) कहीं मिला दें तो यह कार्य विधाता का बहुत ही उचित कहलावेगा। क्योंकि काचित् ही परस्पर योग्य ऐसी वर कन्या की जोड़ी का संघटन होता है।
[कुछ आगे की ओर बढ़कर नायक को लक्ष्यकर— ] महाभाग ! आपकाकल्याण हो।
नायक — भगवन् ! मैं जीमूतवाहन आपका अभिबादन (प्रणामपूर्वक आशीर्वादयाचन व सत्कार ) करता हूँ। [ उठकर अपना आसन देना चाहता है ]।
तापस —हाँ ! हाँ ! उठने की आवश्यकता नहीं है। अभ्यागत=अतिथि तोसब का गुरु व पूज्य होता है। अतः आप तो अतिथि होने के कारण हमारेपूज्य हैं। इसलिए हमको ही आपका आदर एवं सत्कार करना चाहिए। अतएवआप उठिए मत। सुखपूर्वक बैठे रहिए।
[नायक— जैसी आपकी आज्ञा]।
[]153तापसः153 — [नायिकां निर्दिश्य] वत्से ! अनुरूपभर्तृभागिनी भूयाः।राजपुत्रि ! त्वामाह154कुलपतिः कौशिको यथा,—‘अतिक्रामति मध्यन्दिनसवनवेला, तत्त्वरितमागम्यताम्’ इति।
** मलयवती — जं गुरू आणबेदि। [आत्मगतम्155]**
एक्कतो155 गुरुवअणं अण्णतो दइअदंसणसुहाइं।
गमणागमणारूढं अज वि दोलयदि मे हिअअं ॥१९॥
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एकतः=एकस्यां दिशि। गुरुवचनं=कौशिकादिगुरूणामाज्ञा। अन्यतः =अपरस्यां दिशि तु। दयितस्य=प्रियस्य यत् दर्शनं तेन जायमानानि सुखानि।सन्तीति शेषः। तदेवं गमने=याने, अगमने=इहावस्थाने च, अधिरूढं=स्थितं। विचारपरम्।अद्यापि=सम्प्रत्यपि। दोलायते=संशयदोलाधिरूढमिव इतस्ततो भ्राम्यतीव।मे= मम। हृदयम्=मनः। गुरोराज्ञया गमनमेवोचितम्, प्रियदर्शनसुखं च मामिहैवस्थातुं निर्दिशति। अतो गन्तुमवस्थातुं चेच्छन्त्यपि गन्तुमवस्थातुं च नैव शक्नोमीति भावः। गाथाच्छन्दः॥ १९॥
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नायिका—आर्य ! मैं आपको प्रणाम करती हूँ।
तापस —( नायिका को लक्ष्य करके ) वत्से भगवान् करें तूं शीघ्र ही अपनेसमान योग्य पति को प्राप्त करे। और हे राजपुत्रि ! कुलपति कौशिकजीने तुमकोआज्ञा दी है कि “मध्याह्नकालके स्नान पूजा का समय बीत रहा है। अतः तुमशीघ्र ही आश्रम को लौट आवो।”
नायिका — जैसी गुरुजनों की आज्ञा। चलती हूँ। [ मन ही मन ]
एकओर तो आश्रम वापिस आनेकी गुरुजनों की आज्ञा, दूसरी ओर ( यहाँठहरने से) प्राणप्रियके दर्शनों का सुख। इस प्रकार मेरा मन -कभी जानेको औरकभी यहीं रहने को करता हुआ-संधयदोहा में झूल रहा है। जाऊं तो कैसेजाऊँ, ठहरूं तो कैसे ठहरूं, और क्या करू। कुछ समझ में नहीं आता है ॥१६॥
** [यद् गुरुराज्ञापयति।
एकतो गुरुवचनमन्यतो दयितदर्शनसुखानि।
गमनाऽगमनारूढमद्यापि दोलायते मे हृदयम् ॥ १९ ॥ ]**
** \उत्थाय निःश्वस्य सलज्जंसानुरागञ्च नायकं पश्यन्ती तापससहिता निष्क्रान्ता [नायिका156, चेटी च।]**
** नायकः —\सोत्कण्ठं निःश्वस्य नायिकां [गच्छन्तीं157 पश्यन्]।—**
अनया जघनाऽऽभोगभरमन्थरयानया।
अन्यतोऽपि व्रजन्त्या मे हृदये निहितं पदम् ॥ २०॥
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सोत्कण्ठं=साभिलाषम्। सोत्कलिकं। सरणरणकम्। ‘उत्कण्ठोत्कलिके समे’इत्यमरः। निःश्वसन्=दीर्घमुष्णं च श्वासं विमुञ्चन्। ’ इत्थमाहे ‘ति शेषः।
अनयेति। जवनस्य=नितम्बस्य, य आभोगः=विस्तारः। परिपूर्णतेति यावत्।‘आभोगः परिपूर्णता’ इत्यमरः। ’ आभोगो वरुणच्छत्रे पूर्णतायत्नयोरपि’ इतिमेदिनी। तेन यो भरः=भारः, गौरवमिति यावत् तेन मन्थरं=मन्दं, यानं=गमनं यस्याः सा, तथा जघनाऽऽभोगभरमन्थरया=पीवरजघनस्थलभारोद्वहनखेदमन्दगमनया। अनया=कामिन्या। अन्यतोऽपि व्रजन्त्या=आश्रमं प्रति गच्छन्त्याऽपि। मे=मम। हृदये=मनसि। पदं=चरणः, स्थानञ्च। निहितं=दत्तम्। स्थापितञ्च।अनया गजगामिन्याऽऽश्रमं यान्त्या मम मानसं वशीकृतमिति यावत् ॥२०॥
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[अनिच्छा पूर्वक उठकर, दीर्घ निःश्वास छोड़ती हुई, लज्जा और प्रेम भरेनेत्रों से नायक को देखती हुई चेटी सहित नायिका का मुनि के साथ प्रस्थान ]।
नायक—[ उत्कण्ठापूर्वक दीर्घ श्वास छोड़ता हुआ, प्राणप्रिया को जाती हुईदेखकर मनही मन —]
विशाल नितम्बों के भार से धीरे २ आश्रमकी ओर जाती हुई भी इस सुन्दरीने मेरे हृदय में ही अपना पैर (आसन) जमा लिया है। अर्थात् मेरे हृदय में घरकर लिया है।२०।
विदूषकः158 —भो दिट्टं जं पेक्खिदब्बं,दाणिं159 मज्झण्ण सूरसंताब160विउणिओ विअ मे जठरग्गी161 पा०।”) धमधमाअदि162। ता (एहि163)णिक्कमम्ह।जेण164 अदिही भविअ मुणिजणसआसादो लद्धेहिं कंदमूलफलेहिं पि दाव पाणधारणं करेमि165।
** [भो ! दृष्टं यत् प्रेक्षितव्यम्। तदिदानीं मध्याह्नसूर्य्यकिरणसन्तापद्विगुणितइव मे उदराग्निर्धमधमायते। तदेहि निष्क्रामावः, येनाऽतिथिर्भूत्वा मुनिजनसकाशालुब्धैः कन्दमूलैरपि यावत् प्राणधारणं करोमि ]।**
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नायकं नायिकापराधीनमानसं प्रबोधयन् विदूषकः प्रस्तावान्तरमुपस्थापयन्नाहभोइति। दृष्टं=विलोकितम्। यत्=यदनिर्वचनीयं वस्तु। स्त्रीरत्नमिदमिति यावत्।प्रेक्षितव्यम्=द्रष्टव्यम्। सिद्धं नः समीहितम्। अह्नो मध्यं मध्याह्नः, मध्याह्नस्य=दिनमध्यवर्त्तिभागस्य यः सूर्यः=आदित्यः, तस्य यः सन्तापः=आतपः तेन द्विगुणित इव=द्विगुणितसन्ताप इव। जठराग्निः=जाठराऽनलः। बुभुक्षेति यावत्। दमदमायते=नितरामुद्दीप्यते, प्रखरतां च धत्ते। दमदमेति, धमधमेरि वा बह्वेरव्यक्तशब्दस्य (‘भकभक’ इत्यस्य) अनुकरणम्। सखे, ननु मध्याह्नकाल इदानीं संवृत्तः,तद् बुभुक्षा मां नितरां पीडयतीति भावः। निष्क्रामावः=इतोऽन्यत्रापगच्छावः।येन इतोऽन्यत्र गमनेन। अतिथिर्भूत्वा=कस्यापि मुनेराश्रमवासिलोकस्य वाप्राघुणिको भूत्वा। मुनिजनसकाशात्=आश्रमस्थतापसलोकात्। कन्दमूलफलैः=
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विदूषक —मित्र ! जो तुम्हें देखना था वह तो तुम देख ही चुके। अर्थात्अब तो तुमारी प्राणप्रिया नायिका यहाँ से आश्रम को चली ही गई। अबयहाँ बैठे रहना व्यर्थ ही है। और इस समय मध्याह्न का समय हो गया है।अतः मध्याह्नकालिक ( दोपहर के ) सूर्य की किरणों के सन्ताप से मेरीउदराग्नि —भूख भी दूनी हो गई है। और मेरे पेट में जठराग्नि दमदमा रहीहै। भूख के मारे मेरी तो आँखे बाहर निकली पड़ रही है। अतः आवो,
** नायकः—[ऊर्द्ध्वमवलोक्य—] अये166! मध्यमध्यास्ते नभस्तलस्यभगवान्त्सहस्रदीधितिः। तथाहि, —**
तापात्तत्क्षणघृष्टचन्दनरसौ पाण्डू कपोलौ वहन्
संसक्त167ेर्निजकर्णतालपवनैः संवीज्यमानाऽऽननः।
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कन्दैर्मूलैः फलैर्वा यथोपलब्धैः। यावत्=किञ्चित्कालमपि। प्राणधारणं=बुभुक्षाशान्त्या प्राणयात्रां। करोमि=निर्वहामि।
नायकोऽपि तच्छ्रुत्वा जातस्मृतिब्रूते—अये इति। नभस्तलस्य=गगनाङ्गणस्य। मध्यं=मध्यभागम्। भगवान्=सर्वशक्तिसम्पन्नः। तेजसां निधिः।सहस्त्रदीधितिः=सहस्ररश्मिः।सूर्यनारायणः। अध्यास्ते=अलङ्करोति। तत्सत्यमेव मध्याह्णवेला संजातेति भावः। तदेव द्रढयति-तथाहीति।
तापादिति। तापात्=प्रखरसूर्यकिरणसन्तापात्। पक्षे— कामसन्तापाच्चतत्क्षणं=तदानीमेव। शीतजलादिना घृष्टं=पिष्टं यच्चन्दनं, तस्य यो रसः=द्रवः, तद्वत्आ=ईषत्पाण्डू।धवलौ। घृष्टचन्दनद्रववद्धवलौ। कपोलौ=गण्डौ। वहन्=धारयन्। [यद्वा–गण्डस्थलकण्डूयननिर्घृष्ट चन्दनद्रुमपरिस्रुतरसवत्पाण्डुरावित्यर्थः।]
किञ्च—संसक्तैः=प्रसृतैः। ‘संसिक्तरिति पाठे—जलाप्लुतैरित्यर्थः। निजकर्णतालान्दोलननिःसृतैः। निजकर्णतालपवनैः=स्वकीयकर्णतालान्दोलनोद्भूतपवनैः। संवीज्यमानम्=शीतलीक्रियामाणम् आननं यस्या सा—संवीज्यमानानः=संवीज्यमानसुखः।
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अब चले। और इस आश्रम में किसी मुनि के यहाँ अतिथि बनकर कन्दमूल फलआदि जो भी मिले उनसे उदर की ज्वाला की शान्ति करें। किसी तरह से जोकुछ जहाँ से मिले उसीसे प्राण धारण किया जाए।
नायक — [ ऊपर आकाश की ओर देखकर ] हॉ, भगवान् सूर्यनारायणआकाश के मध्य शिखरपर पहुँच गए हैं। क्योंकि प्रखर सन्ताप से सन्तप्त होयह मत्त गजपति— अपने गण्डस्थल से तत्काल घिसे हुए चन्दन वृक्षों के रस कीतरह पाण्डु ( पीले )—कपोलों को धारण किए हुए है। उसपर भी सन्ताप की
सम्प्रत्येष विशेषसिक्तहृदयो हस्तोज्झितैः शीकरै-
र्गाढाऽऽयल्लनकदुःसहामिव दशां धत्ते गजानां पतिः॥२१॥
[निष्क्रान्तौ168]।
[इति169] प्रथमोऽङ्कः।
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किञ्च — हस्तोज्झितैः=शुण्डादण्डप्रक्षिप्तैः। शीकरैः=जलकणैः। ‘शीकरोऽम्बुकणाः स्मृताः’ इत्यमरः। विशेषं सिक्तं=संसिक्तं, हृदयं=हृदयस्थलं यस्यासौ—विशेषसिक्तहृदयः=नितरां संसिक्तहृदयः। एषः=मलयारण्ये दृश्यमानोऽसौ। गजानांपतिः=गजराजः। करीन्द्रः। सम्प्रति=इदानीं। मध्याह्ने। गाढं=तीव्रं यत् आयल्लकम्=उत्कण्ठा, तेन दुःसहा, तामिव— गाढायल्लकदुःसहामिव=तीव्रतरोत्कण्ठादुःसहां विरहिजनदशामिव। दशाम्=अवस्थां। धत्ते=बिभर्त्ति। ‘स्यादायल्लकमाध्यानमुत्कण्ठोत्कलिकाऽरतिः’ इति कोशः। धर्मसन्तापपीडितोऽयं गजो विरहसन्तापपीडितस्य मादृशस्य कामिनो दशामनुकरोतीति यावत्। तथाहि—विरहातुरः कामिलोकोऽपेि— विरहसन्तापात्सद्यो भृत्यवगैर्धृष्टेन चन्दनरसेन शीतलेन धवलतकपोलितलोऽपि प्रवृद्धसन्तापोऽथ तालव्यजनैरात्मानं वीजयन्, शीतलजलैरुशीरादिभिश्चहृदथस्थलनिहितैर्हृदयसन्तापमपनेतुकामो दृढतरप्रिय-दर्शनोत्कण्ठाकुलितमानसो दुःसहां कामदशामनुभवति। एवञ्च गजपतिवर्णनव्याजेन जीमूतवाहनेन स्वस्यापिप्रियाविरहोद्भूता दुःसहा विप्रलम्भदशा वर्णिता। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ २१ ॥
निष्क्रान्तौ=रङ्गान्निष्क्रान्तौ। अङ्कान्ते सकलपात्रनिर्गमस्याऽऽवश्यकत्वान्निष्क्र
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शान्ति न होनेपर संसिक्त(जल से भागे हुए) ठण्डे २ अपने कर्णरूपी पङ्खोंसे अपने मुखपर हवा कर रहा है। फिर भी शान्त न होते हुए सन्ताप से व्याकुलहो अपने हाथ से (= अपनी सूंड से) जलकी बिन्दुओं की (फुहार ) वर्षा कर अपनेहृदय को (वक्षःस्थल को) सींच रहा है। इस प्रकार यह हस्ती विरही कीतरह गहरी बैचेनी से युक्त दुःसह दशाको धारण कर रहा है।
कामसन्ताप से सन्त विरहीजन भी — ताजा घिसे हुए ठण्डे २ चन्दन को
मणोक्तिः। तदुक्तं भरतनाट्यशास्त्रे —
‘यत्रार्थस्य समाप्तिर्यत्र च बीजस्य भवति संहारः।
किञ्चिदवलग्नबिन्दुः सोऽङ्क इति सदाऽवगन्तव्यः॥
एकदिवसप्रवृत्तं कार्यं त्वङ्केऽथ बीजमधिकृत्य।
रङ्गन्तु ये प्रविष्टाः सर्वेषां भवति तत्र निष्क्रान्तिः॥ इति॥
*इति श्रीगुरुप्रसादशास्त्रिसमभ्यूहितायां नागानन्दाभिनवराज-
लक्ष्मीसमाख्यायां व्याख्यायां प्रथमोऽङ्कः।*
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शरीर पर लेप करते हैं, तथा विरह व्यथा से उनके कपोल भी पीछे पड़ जाते हैं।फिर वे चन्दन से भी कामसन्ताप की शान्ति न होनेपर जल से भीगे हुएतालपत्र, कमलिनी पत्र केपुनरपि विरह सन्ताप कीआदि से ठण्डेशान्ति न होतीपंखों द्वारा मुखपर हवा करते हैं।देखकर अपने हाथों से या अन्यद्वारा हृदय पर ठण्डे २ जल से सिञ्चन करते हैं।इस प्रकार प्रिया विरहजन्यसन्ताप से उत्पन्न बिरहीजन की [ प्रबल बेचैनी व उत्कण्ठा घबड़ाहट आदिसे असह्य- ] दशा की तरह इस हाथी की भी ( गर्मी से ) दशा हो रही है !अतः सूर्य भगवान् का सन्ताप बढ़ गया है। मध्याह्न का समय हो रहा है।अतः चलो चलें। [दोनों जाते हैं]।
॥ इति प्रथमोऽङ्कः॥
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अथ द्वितीयोऽङ्कः।
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[ तत्राऽऽदौ प्रवेशकः ]।
[ ततः प्रविशति चेटी ]।
चेटी—आणत्तह्मि भट्टिदारिआए मलअवदीए, [जहा170 ’ इति कचिन्न।")] हञ्जे मणोहरिए !, अज्ज चिराअदि भादरो171’ पा० “) मे अज्जो मित्तावसु। ता गदुअजाणेहि दाव कि आअदो ण वेत्ति \। \ परिक्रामति। उ [नेपथ्याभिमुख172-
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अथ द्वितीयाङ्के नायकयोरयोगविप्रलम्भे वर्णयिष्यमाणे—प्रथमं नायिकायामलयवत्या विरहतापोपशान्तये शिशिरोपचारार्थं चन्दनलतागृहविरचनादिकं,मित्रावसुव्यापारं च सूचनीयमर्थमसन्धौविनियुक्तेन चेटीद्वयरूपनीचपात्रप्रयुक्तेनप्रवेशकाख्येनाऽर्थोपक्षेपण कविः प्रतिपादयति- अणउम्हीत्यादिना। तदुक्तंभरताचार्येण—
‘बह्वाश्रयमप्यर्थं प्रवेशकैः संक्षिपेच्च सन्धिषु च।
अङ्केषु संप्रयुक्तो जनयति खेदं प्रयोगस्य ॥’
‘सदृशाभ्यां प्रयोज्यः स्यादङ्कसन्धौ प्रवेशकः।’ इति।
आज्ञप्ताऽस्मि=अनुशिष्टाऽस्मि। दत्ताज्ञाहमस्मि। भर्तृदारिकया=राजपुत्र्या। ‘राजा भट्टारको देवस्तत्सुता भर्तृदारिका’ इत्यमरः। आज्ञामेव प्रदर्शयतियथेति। ‘यथेति’ क्वचिन्न दृश्यते। ‘हञ्जे’ इति परिचारिकायाः सम्बोधनम्।
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अथ द्वितीयाङ्कः
चेटी—राजकुमारी मलयवतीजीने मुझे आज्ञा दी है कि– ‘अरी मनोहरिके !आज मेरे भाई मित्रावसु आने में बहुत देर कर रहे हैं। अतः जाकर देख कि-मेरे भ्राता मित्रावसु आए है कि नहीं। [चलती है। नेपथ्य ( नटशाला ) की ओर
मवलोक्य ] का उण एसा \ तुरिद [तुरिदं41 ] इदो एब्ब आअच्छदि ?।[निरूप्य] कहंचदुरिआ!
** [आज्ञप्ताऽस्मि भर्तृदारिकया मलयवत्या, ‘यथा— ‘हञ्जेमनोहरिके ! अद्यचिरयति भ्राता मे आर्य्योमित्रावसुः। तद् गत्वा तावत् जानीहि किमागतो नवे’ ति। का पुनरेषा (त्वरितत्वरितमित) एवागच्छति। कथं चतुरिका ? ]।**
\ ततः प्रविशति [चतुरिका173 ]।
** मनोहरिका174— \ [उपसृत्य175 हञ्जे चउरिए। किंणिमित्तंपुण तु एव्वं तुरिअ तुरिअं आअच्छसि। [ हञ्जे चतुरिके ! किं निमित्तं पुनस्त्वमेवं त्वरितत्वरितमागच्छसि ] पा०।”) ] हला चदुरिए ! किं णिमित्तं उण मंपरिहरिअ एवं तुरिददाए गच्छीअदि ?।**
[ हला चतुरिके ! किं निमित्तं पुनर्मां परिहृत्य एवं त्वरितया गम्यते ? ]
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‘हण्डे, हञ्जे, हला—ऽऽह्वाने नीचां, चेटीं, सखीं प्रति’ इत्यमरः। ‘मनोहरिका’इति चेटीनामधेयम्। अद्य=अस्मिन्दिवसे। चिरयति=चिरं करोति। विलम्बयति।इतरदिवसापेक्षयाऽस्मिन्दिवसे तदागमने विलम्बो जात इत्याशयः। आर्यः=श्रेष्ठः।ज्येष्ठ इति यावत्। ‘मित्रावसु’ रिति च स्वज्येष्ठ भ्रातृनामधेयकीर्त्तनम्। तत् =तस्मात्। गत्वा=आश्रमपदं गत्वा। जानीहि=गवेषय तावत्। अन्विष्यतांतावन्मम ज्येष्ठो भ्राता गृहमायातो न वेत्याज्ञप्ताऽस्मीति भावः। परिक्रामति=किञ्चिच्चलनं नाटयति। नेपथ्याभिमुखमवलोक्य=नटशालाऽभिमुखमवलोक्य।‘नेपथ्यन्तु प्रसाधने। रङ्गभूमौ वेषभेदे’ इति हैमः। नेपथ्यो नाम रङ्गस्थलस्य पश्चाद्ययवनिकान्तरितो वेषपरिवर्तनाद्युचितो नटपरिजनावस्थानदेशः। ‘कुशीलव कुटुम्बस्य स्थली नेपथ्य इष्यते’ इति वचनात्। ब्रवीवीति शेषः। त्वरितत्वरितम्=अतित्वरया। अतिवेगेन। इत एव=मदभिमुखमेव। अस्मिन्नेव प्रदेशे। मत्समीपेएव। निरूप्य=नितरां दृष्ट्वा। अतितरां निर्वर्ण्य। कथमिति। इयं हि चतुरिका
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देखकर ] हैं ! यह कौन जल्दी जल्दी इधर ही आ रही है ? (अच्छी तरह देखकर )हैं ! यह तो चतुरिका है ! यह इधर क्यों आ रही है ?।
(दूसरी चेटी चतुरिका का प्रवेश )।
पहली चेटी ( मनोहरिका )—हला चतुरिके ! आज क्या कारण है कि तुम
** चतुरिका** —(हला41 मणोहरिए) आणत्तह्मिभट्टिदारिआए मलअवदीए, —‘हञ्जे चदुरिए ! कुसुमावचअपरिस्समणिस्सहं मे सरीरं।सरदादजणिदो विअ (मं176 ) संदाबो अधिअदरं बाधेदि। ता गच्छतुमं, बालकदलीपत्तपरिक्खिते चंदणलदाघरए चन्दमणिसिलाअलसज्जीकरेहित्ति। अणुचिट्ठिदं अ मए जधा आणतं। ’ ता जाव गटुअभट्टिदारिआए णिवेदेमि।
([हला176 मनोहरिके ) आज्ञप्ताऽस्मि भर्तृदारिकया मलयवत्या—‘हञ्जेचतुरिके! कुसुमावचयपरिश्रमनिःसहं मे शरीरं, शरदातपजनित इव ( मां176 )
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नाम मलयवत्या अपरा चेटी। सेह कथमायाति। अस्या अत्रागमने को हेतुरित्यर्थः।तदेवाह-कथं=कुतो हेतोः। ‘चतुरिका’। इहागच्छतीति शेषः। ततः=एवं सूचनानन्तरं। प्रविशति=रङ्गं प्रविशति। चतुरिका= अपरा चेटी। क्वचित्— ’ ततः प्रविशतिद्वितीया चेटी’ इत्येव पाठः। प्रथमा=मनोहरिका। क्वचित्—‘प्रथमा’ इत्येव पाठः।एवमग्रेऽपि प्रथमा-द्वितीया पदाभ्यामेवानयोरुल्लेखो दृश्यते, नतु नामनिर्देशपुरस्सरमुल्लेखःक्वचित्। उपसृत्य= चतुरिकासमीपं गत्वा। ‘ब्रूते’ इति शेषः। किंनिमित्तं=केनकारणेन। मां परिहृत्य=मत्संभाषणमपि परित्यज्य। मत्समागमं परित्यज्येति वार्थः।एवं त्वरितया=इत्थं वेगवत्या त्वया गम्यते। ‘त्वरितया गत्या च गम्यते ’ इत्यप्यर्थः। ‘हला’ इति सख्यामन्त्रणम्। उभयोश्चेटीत्वेन परस्परमनयोः सखीभावोबोध्यः। कुसुमेति। कुसुमानां=पुष्पाणाम्, अवचये=संग्रहणे, त्रोटने, यःपरिश्रमः=खेदः, आयासः, तस्मिन्—निःसहम्=अशक्तम्। कुसुमावचयपरिश्रम-
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मेरे से बात किए विना ही जल्दी २ जा रही हो ?।
द्वितीया चेटी (चतुरिका ) — अरी मनोहरिके ! राजकुमारी मलयवती जी नेमुझे आज्ञा दी है कि ‘अरी चतुरिके ! फूल तोड़ने से होते हुए परिश्रम को मेरा शरीरसहन नहीं कर रहा है। अतः अब फूल तोड़ने में मैं असमर्थ हूँ। शरद् ऋतु(आश्विन मास) के प्रचण्ड घास के लगने से ही मानो मेरे शरीर में अधिकजलन हो रही है। अतः तू जाकर कोमल केले के पत्तों घिरे हुए चन्दनलतागृह (कुञ्ज ) में ठण्डी चन्द्रमणि शिक्षा के तल को ठीक कर। अर्थात उस पर
सन्तापोऽधिकतरं बाधते। तद्गच्छ त्वं, बालकदलीपत्रपरिक्षिप्ते चन्दनलतागृहे
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निःसहं=पुष्पावचयक्रीडाखे सहनाऽसमर्थम्। अद्याऽहं पूर्ववत्पुष्पाहरणे नैवसमर्थाऽस्मीत्याशयः। पुष्पावचयक्लेशाऽसहिष्णुत्वे हेतुं निर्दिशति—शरदेति।शरदि=शरदृतौ, य आतपः=धर्मः, सूर्यसन्तापः, तेन जनितः=उद्भूतः, शरदातपजनित इव= शरदृतुप्रखरसूर्यकिरणसम्पर्कजनित इव। सन्तापः=तापः। तीक्ष्णतरो दाहः। अधिकतरं=नितान्तम्। बाधते=शरीरं पीडयति। ‘शरदातपजनितइव मां सन्ताप’ इति पाठान्तरम्। तत्र—’ सन्तापो मां बाधते’ इत्यन्वयः। तत्र’कुसुमावचयपरिश्रमनिस्सहं मे शरीर’मिति च पृथग्वाक्यमिति ध्येयम्। तत्=तस्मात्। आतपजन्यतीक्ष्णतरसन्तापशान्तये शिशिरतरोपचारस्यावश्यकत्वात्।त्वं गच्छ=शीतोपचारसामग्रीसमवधानाय त्वं गच्छ। बालायाः=अनतिप्रवृद्धायाः।कदल्याः=रम्भायाः, पत्रैः=अतिमृदुलैः शीतलैर्दलैः। परिक्षिप्ते=आच्छादिते।सम्बाधे।निबिडितान्तरे। चन्दनलतागृहे=सुरभिचन्दनलताकुजे। चन्द्रमणिशिलातलं=चन्द्रकान्तमणिशिलातलं। सज्जीकुरु=शयनाद्यर्थं शय्यात्वेन सज्जीकुरु। तत्र तृणकण्टकाद्यपनयनं कुरु। ‘हज्जे, चतुरिके, मम शरीरसन्तापो नितरांवर्द्धते मन्ये शारदसूर्यातपजनित एवायं तापो भवेत्, तस्य च शीतोपचारैरेवशान्तिः सम्भाव्यते, अतो मदर्थं चन्दनलताकुजे बालकदलीदलसंवृत्तेऽतिशीतलं चन्द्रकान्तमणिशिलाखण्डं परिष्कुरु। तत्र गत्वाऽहं क्षणं तीव्रतरतापापनोदायशयिष्ये’ इति चेटीं प्रति मलयवत्या आदेशः। अत्र बालपदेन कदलीपत्राणांनितरां शैत्यं, चन्द्रमणिशिलातलस्य निर्देशेन च तस्य नितरां शैत्यं, तेन चसन्तापशामकत्वं सूचितम्। चेटी ब्रूते—अनुष्ठितमिति। यथाज्ञप्तं=यथाभर्तृदारिकया चन्दनलतागृहपरिष्काराद्यर्थमाज्ञा दत्ता तथैव, मयाऽनुष्ठितं=मया सर्वंकार्यं सम्पादितम्। सज्जं तावच्चन्दनलतागृहमित्याशयः। तत्=तस्मात्।
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बिछौना लगा। और जैसी राजकुमारी जी ने आज्ञा दी थी, मैंने सब ठीक भीकर दिया है। अब जाकर राजकुमारीजी को इसकी सूचना देती हूं।
पहली चेटी— (मनोहरिका) - यदि ऐसी बात है तो फिर जा जल्दी ही राजकुमारीजी को इसकी सूचना दे ताकि वहाँ जाने से राजकुमारीजी का सन्ताप शान्त हो।
चन्द्रमणिशिलातलं सज्जीकुरु’ इति। अनुष्ठितञ्च मया यथाऽऽज्ञप्तम्। तद्यावद्गत्वा भर्तृदारिकायै निवेदयामि। ]
** मनोहरिका177 — जइ एव्वं, ता लहुं ( गदुअ41) णिवेदेहि, जेण सेतहिं गदाए उबसमदि178संदाबो।**
[यद्येवं,तल्लघु (गत्वा) निवेदय, येनास्यास्तत्र गताया उपशाम्यतिसन्तापः। ]
** चतुरिका179 — [ विहस्यात्मगतं - ] ण ईरिसो ( से ) संदाबो जो एव्वं उबसमिस्सदि। (अण्णच्च41 -) विवित्तरमणीअं चंदणलदाघर अं पेक्खन्तीए अधिअदरो180 संदाबो हुविस्सदि त्तितक्केमि। (प्रकाशं — ) ता**
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कार्यस्य यथावदनुष्ठितत्वात्। यावत्=त्वरितम्। निवेदयामिसज्जं चन्दनलतागृहमिति मलयवत्यै विनिवेदयामि।
प्रथमा=मनोहरिका। क्वचित्तथैव पाठः। यद्येवं=यदि सन्तापपीडिताभर्त्तृदारिका, त्वं च तदाज्ञप्ता शीतलोपचारोचितं प्रदेशं सज्जीकृत्य समागता। तत् =तर्हि। लघु शीघ्रमेव गत्वा। ‘लघु क्षिप्रमरं व्रतम्’ इत्यमरः। निवेदय=सज्जं लतागृहमिति विज्ञापय। अस्याः=शारदातपपीडिताया मलयवत्याः। तस्मिन्=चन्दनलतागृहे। गतायाः=प्राप्तायाः। सन्तापः=आतपसन्तापः। उपशमं=शान्ति।गमिष्यति=प्राप्स्यति। ‘तत्र गताया उपशाम्यति सन्तापः’ इति पाठान्तरम्।उपशाम्यति=शान्तिं यास्यति। विहस्येति। कामसन्तापो मलयवत्या, न खलुशारदातपसन्ताप इति रहस्यार्थमभिप्रेत्य विहसनम्। आत्मगतं=मनोहरिकायथा न शृणोति सामाजिकाश्च यथा शृण्वन्ति तथा। भाषते इति शेषः। ईदृशः =
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द्वितीया— ( चतुरिका )—( हँस कर मनही मन ) राजकुमारी का सन्तापऐसा ( घाम लगने से) नहीं है जो इस प्रकार के ठण्डे उपचार से शान्त होसके। मैं तो समझती हूँ कि — एकान्त और रमणीय चन्दनलता गृह को देखनेसे उसका यह (कामजन्य) सन्ताप उलटा बढ़ेगाही। ( प्रकट में ) अच्छा तू तो
गच्छ तुमं। अहम्पि181‘सज्जीकिदं मणिसिलाअलं’त्ति गदुअ भट्टिदारिआए णिवेदेमि। (इति निष्क्रान्ते)।
*प्रवेशकः*
** \नेदृशो**—([ऽस्याः41) सन्तापो य एवमुपशमिष्यति। (अन्यच्च ) विविक्तरमणीयं चन्दनलतागृहं प्रेक्षमाणाया अधिकतरः सन्तापो भविष्यतीति तर्कयामि।तद् गच्छ त्वम्। अहमपि ’ ’ सज्जीकृतं मणिशिलातल’ मिति गत्वा भर्तृदारिकायैनिवेदयामि ]।
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साधारण आतपजन्यः सन्तापः। एवं=शीतलोपचारमात्रेण। उपशमिष्यति=शान्तोभविष्यति। मन्मथशरपातजनितो विषमोऽस्याः सन्तापो वर्द्धते, नतु साधारणआतपसन्तापो वर्त्तते स हि प्रियसङ्गमं विना शान्तिं नैव यास्यतीत्याशयः।
अन्यञ्च=प्रत्युत। किन्तु। विपरीतम्। विविक्तरमणीयम्=एकान्ततया मनोहरम्। ‘विविक्तं विजनं छन्न’ मिति कोशः। चन्दनलतागृहं=पाटीरवल्लीनिकुञ्जं।प्रेक्षमाणायाः=पश्यन्त्याः। अधिकतरः=नितरां प्रवृद्धः। सन्तापः=विरहसन्तापः। भविष्यति=सम्भविष्यति। तर्कयामि शङ्के। कामोद्दीपकसामग्रीसनाथंकुञ्जगृहं दृष्ट्वैव तस्याः सन्तापोऽतितरां वृद्धिं यास्यतीत्यर्थः। प्रकाशं=सर्वश्राव्यं।ब्रूते इति शेषः। तत्=यतोऽहं शीघ्र भर्तृदारिकायाः समीपे गच्छामि, अतः। अहमपि=चतुरिकाख्याऽहमपि। निवेदयामि=कृतं स्वकार्यमावेदयामि। एतेनमलयवत्या जीमूतवाहनदर्शनसमकालमेव स्नेहानुबन्धस्तन्मूलको मन्मथविकारश्च सन्तापाऽरत्यादिरूपोऽत्र सूचित इति बोध्यम्।
इति इत्थनुक्त्वा। निष्क्रान्ते=मनोहरिका-चतुरिके स्वस्वकार्यानुष्ठानायरङ्गान्निष्क्रान्ते।
प्रवेशक इति। वृत्तवर्त्तिष्यमाणानां कथांशानां सङ्क्षेपेण सूचकः प्रवेश-
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जा। मैं भी जाकर ‘चन्द्रमणि शिलातल तैयार है’ यह सूचना राजकुमारी जीको देती हूँ।
(दोनों जाती हैं )
(प्रवेशक—नीच पात्र— नौकर, चेटी आदि जहाँ प्रसङ्ग से प्रकृत विषयक वार्ताकरें वह प्रवेशक कहाता है। यह दो अङ्कों के बीच में रखा जाता है। )
[ ततः प्रविशति सोत्कण्ठा मलयवती, चेटी च ]।
** मलयवती—[ निःश्वस्यात्मगतम् ] हिअअ ! तथा णाम तदातस्स्रिंजणे लज्जाए मं182परं मुही कदुअ दाणिं अप्पणा एव तहिं गदंसिति अहो ! दे अतंभरित्तणं। ( प्रकाशम् ) हञ्जे183 (चदुरिए !)आदेसेहि मे भअवदीए आअदणस्स मग्गं।**
** [ हृदय ! तथा नाम तदा तस्मिञ्जने लज्जया मां पराङ्मुखीकृत्येदानीमात्मना तत्रैव गतमसीत्यहो ! ते आत्मम्भरित्वम्। हज्जे (चतुरिके ! ) आदिशमे भगवत्या आयतन (स्य मार्ग)म्। ]**
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काख्योऽर्थोपक्षेपको द्वितीयाङ्कादारभ्य एतत्पर्यन्तं बोध्य इत्यर्थः। अर्थोपक्षेपकश्चद्वयोरङ्कयोर्मध्ये निबध्यते। अयमपि प्रवेशकनामाऽर्थोपक्षेपकोऽङ्कद्वयसन्धौ कविनानिबद्धः। अनेन—नायिकाया नायकदर्शनानन्तरं कामसन्तापजनिताऽरतिः सन्तापश्च सूचितः, तदुपशमाय शीतोपचारादिव्यवस्था च क्रियामाणा सूचितेति ध्येयम्।
सोत्कण्ठा=उत्कण्ठितेव। प्रियदर्शनमिच्छन्ती। चेटी- चतुरिका।
निःश्वस्य=उष्णं दीर्घं च श्वासं परित्यज्य। आत्मगतं=स्वगतम्। चतुरिकायथा न शृणोति तथेति यावत्। ‘हृदयं प्रति उपालम्भवाक्यं ब्रूते’ इति शेषः।तथानाम=तेन प्रकारेण। तदा=देवीभवने जीमूतवाहनदर्शनसमये। तस्मिन्जने=यदृच्छया समागतनयनसुखदजीमूतवाहनाख्यनायकविषये। लज्जया=व्रीडया।मां=मलयवतीं तद्नुरक्तामपि। पराङ्मुखीकृत्य=परावृत्तमुखीं विधाय। इदानीं=तद्गमनानन्तरम्। आत्मना=स्वयं। तस्मिन्नेव=निसर्गसुन्दरे तस्मिन्नेवनायके। गतमसि=तदनुसरणं कृतवदसि। तत्रैव गत्वा स्थितमसि। अहो इत्याश्चर्ये,खेदे वा। ते=तव। आत्मम्भरित्वं=स्वोदरमात्रपूरकत्वम्। स्वार्थपरायणता।
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मलयवती—( ऊँची सांस लेकर मनही मन) अरे हृदय ! उस समय तो ( प्रथमदर्शन के समय तो ) तूने मुझे उस ( नायक ) से लज्जा से पराङ्मुख कर दिया
** चेटी— [आत्मगतं184] चंदणलदाधरअं पत्थिदा भणादि भअवदीएआअदणस्स मग्गं। (प्रकाशं) णं चंदणलदाघरअं भट्टिदारिआ पत्थिदा।**
** [ चन्दनलतागृहं प्रस्थिता भणति—‘भगवत्या आयतनस्य मार्गम्’ !। ननु चन्दनलतागृहं भर्तृदारिका प्रस्थिता ]।**
** नायिका—[सलज्जं] (हञ्जे185!) सुट्ठु सुमराविद, ता एहितहि ज्जेव गच्छम्ह।**
[ हञ्जे ! सुष्ठु स्मारितम्। तदेहि तत्रैव गच्छावः ]।
** चेटी —एदु एदु भट्टिदारिआ। [ अग्रतो गच्छति ]।**
** [ एतु एतु भर्तृदारिका ]**
** [नायिका—ऽप्यन्यतो गच्छति]।**
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‘आत्मम्भरिः कुक्षिम्भरिः स्वोदरपूरके’ इत्यमरकोशः। आत्मानं बिभर्तीतिआत्मम्भरिः, तस्य भाव आत्मम्भरित्वम्। अत्र ‘मद्धृदयं तस्मिन्नेव जनेऽनुरक्तं,बलवन्निवार्यमाणमपि ततो न निवर्त्तते, किं करोमीत्याशयो नायिकया स्वहृदयाधिक्षेपभङ्ग्या प्रकटीकृतः। हञ्जे=हे चेटि चतुरिके। आदेशय=निद्दिश। दर्शयतावत्। भगवत्याः=गौर्याः। आयतनस्य=भवनस्य। मार्गं=पन्थानम्। ‘भगवत्या
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था अब तूं स्वयं ही उस में (नायक में ) आसक्त हो रहा है। अहो ! तूं बड़ा हीस्वार्थी है। (प्रकट में) अरी चतुरिके ! मुझे भगवती श्रीगौरीजी के मन्दिर कामार्ग दिखा।
चेटी— ( मनही मन ) राजकुमारी चली तो है चन्दन लता गृह को, परमुझसे कहती है कि— ‘देवी जी के मन्दिर का रास्ता बता’ !। ( प्रकट में ) राजकुमारी जी ! आप तो चन्दन लता कुञ्ज को न चल रही हैं ?
मलयवती —( लज्जित हो ) ठीक है, तू नें ठीक हीयाद दिलाया। आ,वही चलें।
चेटी — राजकुमारीजी ! इस रास्ते से आइए।
** चेटी —[ पृष्ठतो दृष्ट्वा सोद्वेगमात्मगतम् ] अहो ! सेसूण्णहिअअत्तणं ! कहं तं ज्जेव देवीभवणं186 पत्थिदा। [ प्रकाशं ] भट्टिदारिए ! णंइदो चंदणलदाघरअं। ता इदो (इदो41) एहि।**
** \अहो ! अस्याः शून्यहृदयत्वम् ! कथं तदेव देवीभवनं प्रस्थिता !!।भर्तृदारिके ! नन्वितश्चन्दनलतागृहम्। तदित (इत) एहि।**
** [नायिका— [सविलक्षं187, सलज्जं च तथा करोति]**
** चेटी —भट्टिदारिए188! इदं चंदनलदाघरअं। ता पविसिअ चंद-**
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आयतन’ मिति पाठान्तरे–आयतनं=मन्दिरं। तन्मार्गमिति यावत्। चेटी नायिकामुपहसति– चन्दनेति। आयतनं=भवनं। तन्मार्गमिति यावत्।
अहो — इति खेदे। अस्याः=मलयवत्या नायिकायाः। शून्यं=रिक्तीभूतमिवहृदयं यस्याः सा शून्यहृदया, तस्या भावः–शून्यहृदयत्वं=विक्षिप्तचित्तत्वम्।नायक पराधीनमानसत्वम्। या खलु चन्दनलतागृहं प्रस्थिता देव्यायतनमेवयत्र खल्वनया नायको दृष्टस्तत्रैव गच्छति। अन्यतो गच्छति=चन्दनलतागृहंप्रस्थिताऽपि देवीगृहं गच्छति। तदेव=यत्र प्रियोऽनया दृष्टस्तदेव देवीमन्दिरम्। ननु-इत्यनुनये। इतः=अस्यां दिशि। यन्नाहं गच्छामि तत्रैव। ‘नतु यस्यां दिशि त्वंगच्छसि तत्र चन्दनलतागृहं वर्त्तते’ इति शेषः। इतः=अनेन मदधिष्ठितेनमार्गेण। एहि=आगच्छ। देवीभवनमार्गं परित्यज्य अनेन मार्गेणागच्छेत्याशयः।सविलक्षं=सविस्मयम्। ‘विलक्षो विस्मयान्विते’ इत्यमरः। सलज्जमिति। मम
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(चेटी आगे २ रास्ता दिखाती है )।
[ मलयवती—दूसरी ही ओर जाती है ]।
चेटी—( पीछे घूम के देख के, दुःखी हो, मन ही मन ) अहो ! देखो तोयह कैसी शून्यहृदय (बेसुध) हो रही है। यह तो उसी गौरी भवन ( देवी
मणिसिलादले उपविसदु189 भट्टिदारिआ।
** [भर्तृदारिके ! इदं चन्दनलतागृहम् तत् प्रविश्य चन्द्रमणिशिलातले उपविशतु भर्तृदारिका। (उभे उपविशतः)।**
** नायिका—[ निःश्वस्य आत्मगतं– ] भअवं कुसुमाउह ! जेण तुमंरूबसोहाए णिज्जिदोसि, तस्स190 [ तस्मिन्न किञ्चित्त्वया कृतं मम पुनरनपराधाया अपि अवलेति कृत्वा प्रहरन् न लज्जसे ? [ आत्मानं निर्दिश्य ], पा०।") तुए ण किम्पि किदं। मं उण अणवरद्धंबि अबलेत्ति करिअ पहरंतो कहं ण लज्जेसि ? \। [आत्मानं निर्वर्ण्य,मदनावस्थां नाटयन्ती प्रकाशं ] हञ्जे ! कीस उण ( एदं ) घणपल्लवणिरुद्धसूरकिरणं तं एव्वचंदणलदाघरअंण मे अज्जवि संदाबदुक्खं अवणेदि।**
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खलु नायकपराधीनचित्तत्वं तयाज्ञातमिति लज्जाऽत्र बोध्या। तथा करोति=देवीमन्दिरमार्गं परित्यज्य पुनरपि चन्दनलतानिकुञ्जमार्गमनुसरति। चेटी चन्दनलतानिकुञ्जहस्तेन निर्द्दिशति - इदमिति। तत्=चन्दनलतागृहम्।समाश्वसितु=धैर्यं धारयतु। क्लेशमपनयतु। उभे=मलयवतीचेट्यौ। उपविशतः =यथास्थानमुपवेशनं नाटयतः।
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जी के मन्दिर ) को जा रही है ! ( जहाँ पहिले पहिल नायक के साथ इसकासाक्षात्कार हुआ था ! )।
( प्रकट में )—राजकुमारीजी ! चन्दन लता गृह तो इधर है, उधर नहीं है,अतः इधर आइए, इधर। आप उधर कहां जा रही हैं ?।
[ नायिका —कुछ सकपका कर तथा लज्जित हो घूमकर चेटी के पीछेपीछे जाती है ]।
चेटी—राजकुमारीजी ! यह चन्दन लता कुञ्ज है, इसमें प्रवेश कर चन्द्रकान्तमणि विला खण्ड के पट्टे पर बैठकर थोड़ी शान्त एवं ठण्डी हो जाए। (स्वस्थ हो जाइए)।
(दोनों बैठती हैं )।
\भगवन् कुसुमायुध ! येन त्वं रूपशोभया निर्जितोऽसि तस्य त्वया नकिमपि कृतम्। [मां191 पुनरनपराधामप्यबलेतिकृत्वा प्रहरन् कथं न लज्जसे ?।हञ्जे ! कस्मात्पु192नरेतद्वनपल्लवनिरुद्धसूर्य्यकिरणं193 तदेव चन्दनलतागृहं194न मेसन्तापदुःखमपनयति !।]
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भगवन्—हे सर्वज्ञाननिधे। जगद्विजयोर्जितकीर्त्ते। कुसुमायुध=हे पुष्पायुध,कामदेव। येन=जीमूतवाहनेन। रूपशोभया=स्वरूपलावण्य सौकुमार्यादिना।निर्जितः=पराजितोऽसि। तस्येति। स्वप्रतिस्पर्द्धिनस्तस्य कमप्यपकारं—स्वबाणप्रहारविषयताऽऽपादनरूपमकृत्वा। माम् अनपराधां=निरागसं मामबलां स्वतीक्ष्णतरबाणैः प्रहरन् कथं न लज्जसे इत्यर्थः। मामेव किं कामशरपीडितां कुरुपे, ननुमत्प्रियमपि मद्विषयेण कामेन मदनुरक्तं विधेहीत्याशयः। आत्मानं निर्वर्ण्य=स्वस्य विरहकृशं शरीरं दृष्ट्वा। निर्द्दिश्येति पाठेऽपि—विरहपाण्डुरां स्वकीयामङ्गयष्टींनितरां दृष्ट्वेत्येवार्थः। मदनावस्थां नाटयन्ती= चन्दनलतामलयानिलविजनस्थानादिमोदीपितां कामावस्थामभिनीय दर्शयन्ती। प्रमादोन्मादोद्वेगसन्तापजाड्यादिरूपांकामदशामुद्वहन्तीनायिकेत्थमाहेत्याशयः। कस्मात्=केन कारणेन। घनैः=निबिडैः,पल्लवैः=पत्रैः, निरुद्धाः=अवरुद्धाः, सूर्यस्य किरणाः=रश्मयो यस्मिन् तत्-घन-
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नायिका— (ऊंची सांस लेकर मनही मन ) भगवन् कुसुमायुध ( कामदेव ) !जिसनें ( नायक ने ) आप को अपनें रूप की शोभा से जीत लिया है, उसकातो आपने कुछ भी नहीं बिगाड़ा, उस पर तो आपका कुछ जोर नहीं चला, परन्तुमुझ निरपराध पर आप अबला जानकर अपने वाणों का प्रहार कर रहे हैं- क्याआपको लज्जा भी नहीं आती है ?। ( अपने शरीर की ओर देखती हुई, मदनबाण पीड़ा को प्रकाशित करती हुई, प्रकट में ) अरी चेटी ! क्या बात है !।घने पत्तों से घिरे रहने से जिसमें सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर सकती हैंऐसा यह ठण्डा चन्दनलतागृह भी —आज पहिले की ही तरह मेरे सन्ताप कोक्यों नहीं दूर कर रहा है ?।
चेटी— जाणामि अहं एत्थ (संदाबस्स41) कारणं किं उण असंभावणीअं ति भट्टिदारिआ ण तं पडिबज्जिअदि195।
** [जानाम्यहमत्र (सन्तापस्य) कारणं, किन्तु असम्भावनीयमिति भर्तृदारिका न तत् प्रतिपद्यते।]**
** नायिका196 आलक्खिदम्हि इमाए। तहवि पुच्छिस्सं। ( प्रकाशं—) हञ्जेकिं तबएदिणा। कहें हि दाब किं तं कारणं। [आलचिताऽस्म्यनया। तथाऽपिप्रक्ष्यामि। हञ्जे ! किं तवैतेन। कथय तावत् किं तत्कारणम् ? ]’ पा०।")—[ आत्मगतं ] लक्खिदा विअ अहं एदाए, वह बि**
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पल्लवनिरुद्धसूर्यकिरणं=निबिडतरकिसलयावरुद्धदिवाकरकिरणजालप्रसरं। तदेव=पूर्वं, बहुशः सेवितमपि। चन्दनलतागृहं=पाटीरव्रततिनिकुञ्जः। अद्य=इदानीम्। एतद्दिवसे। सन्तापदुःखं=सन्तापक्लेशं। न अपनयति=नैव दूरीकरोति।पूर्वं यस्मिंश्चन्दनलतागृहे समेताया मे धर्मादिसन्तापः सद्य एव निवृत्तोऽभूत्तस्मिन्नेवाऽस्मिंश्चन्दनलतानिकुञ्जे चिरं स्थिताया अपि मे सन्तापो नैवाद्यनिवर्त्तते, विपरीतं प्रवर्द्धते एवेत्यत्र किं नु कारणं तद्ब्रूहि चतुरिके इत्यर्थः। सस्मितं=सेषद्वास्यं। रहस्यभूतवस्तुविषयकत्वात्प्रश्नस्य, चेट्याः सस्मितमुत्तरमित्यवधेयम्।रहस्यज्ञाऽहं तवेत्याशयश्चात्र चेटीस्मितस्य। जानामि=वेद्मि। अत्र=चन्दनलतागृहेवर्द्धमानस्य सन्तापस्य। कारणं=निगूढं हेतुं। तत्=कारणम्। असम्भावनीयम्=अतर्कणीयं ‘नेदं संभाव्यते’ इत्युक्त्वा च त्वं नेदमङ्गीकरोषि। परन्तुकारणं त्विदमेव सन्तापस्येत्याशयः। अविश्वसनीयम्। इति=हेतोः। तत् =
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चेटी—राजकुमारी जी ! आपके इस सन्ताप के कारण को तो मैं खूब अच्छीतरह जानती हूँ। परन्तु आपतो उसको असम्भव कह कर विश्वास नहीं करेंगी।अर्थात् इस सन्ताप का कारण घाम का लगना नहीं है जो इस ठण्डे चन्दनलतागृहमें आ जाने मात्र से ही यह सन्तान शान्त हो जाएगा। किन्तु इसका कारण तोकुछ और ही है। मैं उसे जानती हूँ।
नायिका —( मनही मन ) मालूम पड़ता है—यह मेरी बात को जान गईहै। तो भी इससे पूछती हूँ। देखें यह क्या कहती हैं। अरी चेटी ! वह क्या
पुच्छिस्सं दाव। [ प्रकाशं–] हञ्जे ! किं तं जं ण पडिवज्जिअदि। ताकहेहि दावकिं तं कारणं ?।
** [लक्षितेवाऽहमेतया, तथाऽपि पृच्छामि तावत्। हञ्जे ! किं तद्यन्न प्रतिपद्यते ? तत् कथय तावत् किं तत् कारणम् ?। ]**
** चेटी— ‘एसो दे हिअअट्ठिदो197 पा०।") वरो……………..’**
** [‘एष ते हृदयस्थितो वरः …………………..’]**
** नायिका—\सहर्षं [सम्भ्रम107ञ्चोत्थाय (अग्रतो198) द्वित्राणि पदानि गत्वा ]कहिं कहिंसो ?।**
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तत्कारणम्। न प्रतिपत्स्यते – रहस्यगोपनाय न स्वीकरिष्यतिभवती। ‘यस्त्वया स्वप्नेभगवत्या दत्तो वरो लब्धः, स एव जीमूतवाहनस्तत्कालमेव त्वत्संमुखे समायातोभवत्या दृष्टश्च तद्दर्शनसमकालमेव तदनुरक्ता त्वं तद्विरहजं तापं धत्से, तत्सङ्गमंविना चाऽयं सन्तापो नैव कथमपि शान्तिमुपयास्यति, विपरीतं वृद्धिमेव प्रयास्यतिनिकुन्जादिस्थानसेवयेति त्वद्रहस्यमहं तत्त्वतो जानामीत्याशयः। ‘प्रतिपद्यते’इति पाठे— त्वं यत्स्पष्टं नाङ्गीकुरुषे, तत्केवलं लज्जयेति तदर्थः। आलक्षितेव=ज्ञातरहस्येव। जीमूतवाहनानुरक्तमानसाऽहमिति मद्रहस्यमनयाऽवगतमिवेत्यर्थः।किन्तत्=किन्तत्कारणम्। कथय तावत्तत्कारणम्। यन्न प्रतिपद्यते=यन्मया न स्वीक्रियते, तत्कारणं प्रथमं तावत् प्रकटय त्वं येनाऽहमपि जानामि तत्कारणमित्याशयः। हृदयेप्सितः=मनोरथगोचरीभूतः। हृदयेप्सितः। मनोगतः। वरः=अनुरूपः पतिः। स्वप्रियनामश्रवणात्— सहर्षं=सानन्दम्। ससम्भ्रमम्=सत्वरञ्च। अग्रतौ
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कारण है जिसको मैं असम्भव कहकर स्वीकार नहीं करूंगी ?। जरा कह तो सहीकि—वह कारण क्या है ?।
चेटी—" इस सन्तान का कारण तो तुमारे हृदय में स्थित वह वर" [तुमाराप्यारा जीमूतवाहन है जिसे आपनें देवी जी के मन्दिर में देखा था ]।
नायिका— (चेटी के मुख से वर का नाम सुनते ही बोच में ही बात काट
** [ कुत्र कुत्रसः ?। ]**
** चेटी**—** [ उत्थाय सस्मितं ] भट्टिदारिए ! सो199 पा०। “) को ?।**
** [ भर्तृदारिके ! स कः ?। ]**
** [ नायिका— सलज्जमुपविश्य अधोमुखी तिष्ठति ]।**
** चेटी—भट्टिदारिए ! (णं200) एदम्हि वतुकामा – ‘एसो दे हिअअट्ठदो वरो एव्व देईए दिण्णो (ति200)। सिबिणके पत्थाविदे जो तक्खणंएव्ब पविमुक्तकुसुमबाणो विअ (भगवं200) मअरद्वओ भट्टिदारिआएदिट्ठो ! सो दे इस संदाबस्स कारणं, जेण एदं201 सहावसीदलंपि चंदणलदाघरअ ण दे (अज) संदाबदुक्खं अबणेदि।**
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द्वित्रपदगमनं च नायिकायास्त्वरौत्सुक्य सूचकमेवेति बोध्यम्। सः =मदभिलषितोवरः=जीमूतवाहनः, कुत्र कुत्र =क्वनु वर्त्तते, कथयेत्यर्थः। सम्भ्रमे द्विरुक्तिः। सम्भ्रमश्च नायिकया’तव हृदयेष्टो यो वरः स एष’ इत्यर्थं बुध्दा स्वप्रियदिदृक्षया - ‘कुत्रकुत्रस’इति वाक्येन प्रकटीकृत इति बोध्यम्। चेटी तु नायिकाप्रदर्शितसम्भ्रमेण तस्या हृद्गतोगूढो भावः प्रकटीभूत इति सस्मितं ब्रूते - स क इति। एवं कं वरं पृच्छतीत्यर्थः।तदा स्वभ्रमं बुध्वा नायिका स्वप्रियदर्शनाशां परित्यज्य शोकाकुला सती अधोमुखी=अवनतमुखी, तिष्ठति=किङ्कर्त्तव्यमूढेव, हृतहृदयेव च तिष्ठति, किमप्युत्तरमप्रयच्छन्ती-
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कर, सहर्ष हडबड़ा कर उठकर और दो चार पैर चलकर- ) कहाँ है, कहाँ है वहमेरा प्रियवर ? ( जीमूतवाहन )।
चेटी— ( उठकर पास में जाकर हंसती हुई -) राजकुमारीजी ! वह कौन ?।आप किसके लिए पूछ रही हैं ?।
[ नायिका— अपनी भूल समझ कर लज्जित हो मुख नीचे करके शोकाकुलभाव से बैठती है]।
चेटी — राजकुमारी जी ! आपनें तो मेरी बात पूरी सुनी ही नहीं, केवल वरका नाम सुनते ही आप उसे पूछनें लगीं !। मैं तो यह कह रही थी कि—तुम्हारेजिस मनोनुकूल वर को भगवती ने स्वप्न में बताया था वही वर स्वप्न के बाद ही
\ भर्तृदारिके।नन्वेतदस्मि वक्तुकामा, — ‘एष ते हृदयस्थितो वर एव देव्या दत्तः ( ‘इति। ) स्वप्ने प्रस्तुते यस्तत्क्षणमेव प्रविमुक्तकुसुमबाण इव (भगवान् ) मकरध्वजो भर्तृदारिकया दृष्टः, स तेऽस्य सन्तापस्य कारणं, येनैतत्स्वभावशीतलमपि चन्दनलतागृहं न ते ( [ऽद्य202 ) सन्तापदुःखमपनयति।]
नायिका—\ [चतुरिकाया203 अलकानि सज्जयन्ती—] हञ्जे! चदुरिआ क्खु तुमं किं दे अबरं एच्छाईअदि, ता कइहस्सं !
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त्याशयः। अतश्चेष्टी स्वयमेव स्वविवक्षितं वाक्यं वक्तुमारभते–नन्विति। अवधारणे, आमन्त्रणे वा ननुः। ‘प्रश्नाऽवधारणाऽनुज्ञानुनयामन्त्रणे ननु’ इत्यमरः। वक्तुं कामोऽस्याः सा वक्तुकामा=विवक्षुः। वक्तुमिच्छुः। मद्वक्तव्यं पूर्णमश्रुत्वा मध्ये एव तदाच्छिद्य, स्वमनोरथानुसारेण तदर्थं परिकल्प्य च त्वयाऽन्यथैव व्यवसितं, मदीयं पूर्णं वक्तव्यं शृणु तावदित्याशयः ।
स्ववक्तव्यमेवादित आरभते—एष ते इति। देव्या स्वप्ने तव मनोरथविषयी भूतो वर एव=त्वदनुरूपो भर्त्तैव, दत्तः=प्रदत्तः। प्रदिष्टः। कुत एतत्त्वया ज्ञातमत आह-स्वप्न इति। यतः स्वप्ने–प्रस्तुते=दृष्टे एव। स्वप्नदर्शनान्तरमेव। यः=स्वमदत्तो वरो जीमूतवाहनः। तत्क्षणमेव=सद्य एव। प्रभात एव। प्रविमुक्ताः कुसुमबाणा येनासौ प्रविमुक्तकुसुमबाण इव=परित्यक्तपुष्पायुध इव। मकरध्वजः=मीनकेतुर्भगवान् मन्मथ एव। भर्तृदारिकया=राजपुत्र्या भवत्या। गौरीमन्दिरपरिसरभुवि। दृष्टः=स्वयमेव प्रत्यक्षीकृतः। केवलं कुसुमबाणाऽभावमात्रेण कामदेवाद्भिन्नः, रूपेण तु साक्षान्मन्मथ इव प्रतिभासमानो यो वरो दृष्टः, स एव भगवतीस्वप्नदत्तो भवत्या वर इत्याशयः। सः=भगवतीप्रदिष्टो जीमूत-वाहनो नाम वर एव। अस्य सन्तापस्य=अस्य तव हृदयसन्तापस्य। कारणं=
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भगवती गौरी के मन्दिर में आपको दिखाई पड़ा था। जो कि मानों कुसुमके बाणों को छोड़कर साक्षात् कामदेव ही आ गया हो—ऐसा मालूम होता था। वही आपके इस घोर सन्तान का कारण हो रहा है। इसी लिए यह स्वभाव शीतल चन्दन छता गृह भी आपके सन्ताप को दूर नहीं कर सक रहा है।
नायिका—( चतुरिका के बालों को सँवारती हुई ) अरी चेटी ! तूं तो स्वयं
[हञ्जे। चतुरिका खलु त्वम्, किं तेऽपरं प्रच्छाद्यते, तत् कथयिष्यामि]।
** चेटी**—भट्टिदारिए ! (ण204%20इति%20क्वचिन्न। “ण’ (ननु) इति क्वचिन्न।”)) दाणि एब्ब कहिदं इमिणा वरालाबमत्तजणिदेण संभ्रमेण। ता मा संतप्प। जइ अहं चदुरिआ, तदा सोबि भट्टिदारिअं अप्पेक्खंतो ण मुहुत्तअं205 पि (अण्णहिं) अहिरमिस्सदिति। एदम्पि मए आलक्खिदं एव्व।
\भर्तृदारिके ! नन्विदानीमेव कथितममुना वरालापमात्रजनितेन सन्त्रमेण। तन्मा सन्तप्यस्व। यद्यहं चतुरिका, तदा सोऽपि भर्तृदारिकामपश्यन्न मुहूर्त्त-
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हेतुः। नह्ययं शारदातपप्रभवः सन्तापो येन चन्दनसेकादिना शीतलोपचारेण शाम्येत्, अयं तु कामशरप्रहारप्रभवो भवत्याः सन्तापः, स कथं नाम चन्दनसेकादिभिरुपशमं यास्यतीत्याशयः। येन=यतो हि। स्वभावशीतलमपि=सहजशिशिरमपि। अद्य=इदानीम्। अस्मिन्नहनि। ते सन्तापदुःखं=तब सन्तापक्लेशं, न अपनयति=नैव दूरी कर्त्तुं शक्नोति। चतुरिकोक्तिं श्रुत्वा–‘चतुरिकया लक्षितो मम हृद्गतो भाव’ इति विभाव्य तदनुरञ्जनाय तदीयानि–अलकानि=केशान्। ‘अलका कुबेरपुर्यामस्त्रियां चूर्णकुन्तले’ इति मेदिनी। सञ्जयन्ती= प्रसाधयन्तीव, नायिका ब्रूते–हञ्जे इति। अयि चतुरिके। चतुरिका= परभाववेदले नितरां कुशलाऽसि त्वम्। खलु–निश्चये। अतः ते तव। त्वत्तः सकाशात्। अपरम्=अन्यत्। अधिकं वा, कि प्रच्छाद्यते = किं गोप्यते। गोपनीयं रहस्यन्तु त्वया स्वयमेव ज्ञातमतोऽधिकं किं नाम मम गोपनीयमवशिष्यते। तत्=तस्मात्। कथयिष्यामि=स्वरहस्यभूतं वृत्तान्तमादितः सर्वं तुभ्यं कथयिष्यामीत्यर्थः। चेटी ब्रूते—भर्त्त दारिके इति। ननु–निश्चयेन। इदानीमेव=सम्प्रत्येव।
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चतुर है।जैसा तेरा नाम चतुरिका है वैसे ही तूं चतुर भी है। तेरे से अब क्या छिपाना है। अतः सब हाल मैं तेरे से कहती हूँ।
चेटी—राजकुमारीजी ! आपने तो अपना हाल तभी कह दिया था जब आप ‘वर’ इस नाम को सुनते ही हड़बड़ा कर उठकर वरको पूछने लगी थी। अब
[‘मप्यन्यन्त्राऽभिरंस्यते,206— इत्येतदपि मयाऽऽलक्षितमेव ]।
नायिका–[सास्रम् ] हञ्जे ! कुदो ‘अम्हाणं207%20पा०%C2%A0 " कुदो मे (कुतो म) पा०”) एत्तिआणि भाअवे आई ?।
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कथितं=कथितमेव त्वया सर्वं रहस्यं मां प्रति। वरालापमात्रजनितेन=वरशब्दोच्चारणमात्र जनितेन। अमुना=इदानीमेव त्वया प्रदर्शितेन। सम्भ्रमेण =बेगेन। आवेगेन। ‘हे भतृ दारिके, न तव रहस्यं किमपि ममाऽविदितं वर्त्तते, अधिकं किं कथयिष्यसि, मदुच्चरित ‘वरे’तिशब्दश्रवणसमकालमेव यः सम्भ्रमः ‘कुत्रकुत्रसः?" इत्येवं कथयन्त्या त्वया दर्शितस्तेनैव सर्वं त्वद्वत्तान्तं त्वयाऽकथितमपि ज्ञातवत्यहमस्मीत्याशयः। तत्र त्वत्सम्भ्रमं दृष्ट्वैव–तस्मिञ्जने त्वमनुरक्ताऽसीति मया ज्ञातमिति तु तत्त्वम्। तत्=तस्मिन्वरे जातानुरागाऽपि त्वं। मा सन्तप्यस्व=सन्तापं, खेदं च मा कार्षीः। वदप्राप्तिशङ्कया खेदं, तापं च मा समुद्वह। यथा तत्र तत्रानुरागो मयाऽऽलक्षितस्तथैव तस्याऽपि स्वय्यनुरागातिशयोऽपि मया तदानीं गौरीगृहावस्थानकाल एवं समालक्षित इत्याह यद्यहमिति। यदि सम चतुरिकेति नामधेयमन्वर्थं, सार्थकञ्च मन्यसे तदा मदुक्तं विश्वसिहि–सोऽपि=स वरोऽपि त्वयि रागातिशयं भजते एव। भत्तृ र्दारिकां=त्वाम्। अपश्यन्=अप्रेक्षमाणः सन्।मुहूर्त्तमपि=क्षणमात्रमपि त्वां विना। अन्यस्मिन्=अन्यस्मिन्विषये, वस्तुनि च। न अभिरमते=न रतिं लभते। ‘अभिरंस्यते’ इति पाठे–रतिं सुखं लप्स्यते इत्यर्थः। तस्मिन्यथा त्वमनुरक्ता तद्विरहे सन्तापं वहसि, तथैव त्वद्विरहे सोऽपि सन्तापं वहतीति मया ज्ञातमतः परस्परमनुरक्तयोर्युवयोः शीघ्रमेव संयोगो भविष्यतीत्याशयः। इत्थं चतुरिकावचनेन आश्वास्यमाना नायिका जातस्पृहा स्वभाग्यं प्रति शङ्कते—
सास्रमिति। साश्रुपातं ब्रूते इत्यर्थः। कुतो मे इयन्ति=एतावन्ति। ईदृशानि
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और अधिक क्या कहोगी। अस्तु, आप सन्ताप मत करा। यदि मेरा नाम चतुरिका सच्चा है तो मैं ठीक कहती हूँ कि वह (नायक) भी आप के विरह मे आपको देखे विना एक क्षण भी शान्ति को प्राप्त नहीं होगा। यह बात भां मैं उसी समय समझ गई थी। (अर्थात् वह भी आपकी ही तरह आप पर आसक हो चुका है, अतः उससे आपका समागम शीघ्र ही अवश्य होगा, आप कोई चिन्ता और खेद न करें)।
नायिका—(आँसू गिराती हुई—) अरी चेटी ! मेरा ऐसा सौभाग्य कहाँ है
[हञ्जे ! कुतोऽस्माकमियन्ति भागधेयानि? ]।
** चेटी**—भट्टिदारिए ! मा एव्वं मम । किं मधुमहणो वच्छत्थलेण लच्छिंअणुञ्वहंतोणिव्वुदो भोदि।
\भर्तृदारिके ! मैवं भण । किं मधुमथनो वक्षःस्थलेन लक्ष्मीमनुद्वहन् निर्वृतो भवति?।
नायिका—किं ([वा208) सुअणो पिअं बज्जिअ अण्णं भणिदं जाणादि ?। सहि ! अदो बि संदात्रो अधिअदरं मं बाधेदि, जं सो महाणुभाओ वामेण वि [मए209 ण संभाविदो। सो बि] अकिदपडिव्रत्ती अदक्खिणेत्ति मं संभावइस्सदि। [—इति रोदिति ]।
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नायकाऽऽवर्जनसमर्थानि। भागधेयानि=भाग्यानि। नायकानुरागश्चेन्मयि भवेत्तर्हि भाग्यशालिनी खल्वहं स्याम्, परं क्व खलु तावन्ति मे भागधेयानीत्याशयः। मधुमथनः=मधुदैत्यरिपुः। विष्णुरिति यावत्। वक्षःस्थलेन=उरःस्थलेन। अनुद्वहन्=अवारयन्। निर्वृतः-कृतार्थः। लक्ष्मीं विना विष्णोरपि शोभा यथा नास्ति तथैव
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जो उनका भी मन मेरे प्रति आकृष्ट हो सके?।
चेटी—राजकुमाराजो ! ऐसा मत कहिये।क्या भगवान् विष्णु लक्ष्मों की वक्षःस्थल में धारण किए विना कभी कृतार्थ हो सकते हैं। अर्थात्—जैसे लक्ष्मी जी के विना भगवान् विष्णु नहीं रह सकते, वैसे ही तुम्हारे विना वह (जीमूतवाहन) भी नहीं रह सकता है । अतः तुम्हारा उनका समागम लक्ष्मी नारायण के समागम की ही तरह अवश्यं भावी है। घबड़ाओ मत !
नायिका–क्या सुजन लोग प्रिय भाषण के सिवाय दूसरा कुछ बोलना भी जानते हैं। अर्थात् तुम मुझे प्रसन्न करने को ही यह मीठी २ बात कर रही हो। ‘नहीं तो मेरे इतने भाग्य कहां कि वह (नायक) भी मुझे प्रेम करने लगे। और हे चेटी—इसलिए भी मुझे यह सन्ताप और अधिक हो रहा है कि मैंने उस महानुभाव का उस समय वाणीमात्र से भी सत्कार नहीं किया। उससे मैं बोलो तक
\ किं ([वा210) सुजनः प्रियं वर्जयित्वाऽन्यद्भणितुं जानाति ?। सखि ! अतोऽपि सन्तापोऽधिकतरं मां बाधते, यत्स महानुभावो वाङ्मात्रेणापि [मया न सम्भावितः’। सोऽपि] अकृतप्रतिपत्तिमदक्षिणेति मां सम्भावयिष्यति।]
चेटी—भट्टिदारिए ! मा रोद। [’ अहवा कहं ण रोइस्सदि ? अहिओ से हिअअस्स संदाबो अधिअदरं बाधेदि। ता किं दाणों एत्थ करइस्सं?
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त्वां विना नायकोऽप्यकृतार्थं एवेति त्वल्लाभाय सोऽपि प्रयत्नं करिष्यत्येवेत्याशयः। लक्ष्मीरूपां त्वां प्राप्य नायकोऽपि स्वानुरूपपत्नीलाभेन धन्यो भविष्यतीति यावत्। नायिका तत्स्तुतिं चाटुवादं मन्यमाना ब्रूते किंवेति। स्वजनः= आत्मीयो भवादृशो लोकः। प्रियं= मधुरं। चाटुवाक्यं। वर्जयित्वा= विहाय। अन्यत्=अप्रियं। भणितुं=निगदितुं। किंवा जानाति=नैव जानाति। हे चतुरिके ! त्वं मत्परिचारिकात्वेन मां सुखीकर्तुमेव एवं कर्णसुखानि मधुराणि वाक्यानि मत्पुरतो भाषसे, अन्यथा–कथं ममेदृशं भाग्यं यन्मां स महापुरुषो बहु मन्येत, मामुरीकुर्याच्च। केवलं स्वजनत्वात्वं मदासक्तं तं तर्कयसि, वस्तुत एवं मयि तदनुरागो दुर्लभ एवेत्यहं मन्ये इत्याशयः। पुनरपि स्वहृदयशंकु प्रकटीकरोति–सखीति। अतोऽपि=अतोऽपि (वक्ष्यमाण) हेतोरपि। न केवलं तद्विरहमात्रेणैव मां सन्तापोऽधिकतरं बाधते, किन्तु स महानुभावः=स गौरीभवनाङ्गणे मया दृष्टो महाप्रभावः। वाङ्मात्रेणापि=वाचाऽपि। भाषणेन, कुशलप्रश्नादिनाऽपि। मया न संभावितः=मया नैव सत्कृतः। इदमपि मां नितरां सन्तापयति। सोऽपि= स महानुभावोऽपि।अकृता =अननुष्ठिता, प्रतिपत्तिः=तत्कालोचितशिष्टाचारो या सा, ताम्-अकृतप्रतिपत्तिम्=अप्रदर्शित शिष्टाचारादि–सौजन्याम्। अदक्षिणा=अचतुरा।‘अविदग्धा। मूढा। शठा’। इति=इत्येवं। मां सम्भावयिष्यति= मां धर्माचरणाद्यावश्यककृत्येष्वपि
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नहीं।इसलिए (उचित अतिथि सत्कार नहीं करने से) कदाचित् वे मुझ अदक्षिणा= चातुरीशून्य, व्यवहार–ज्ञानशून्य (फूइड) ही समझेगें। (रोती है)।
चेटी–राजपुत्री ! रोओ मत। (मनही मन) अथवा यह क्यों नहीं रोएगी, क्योंकि इसके हृदय का सन्ताप और भी अधिक बढ़ कर इसे कष्ट दे रहा है। तो अब इसका क्या उपाय करूं?।अच्छा तब तक चन्दनलता के पत्तों का रस ही
ता जाव चंदणलदापल्लवरसं से हिअए दाइस्सं ]। [ उत्थाय चन्दनपल्लवं गृहीत्वा निष्पीड्य हृदये ददाति। ]। ( भट्टिदारिए !211 ) णं भणामि, मा रोद
(त्ति)। अअं क्खु थणपट्टदिण्णो चंदणरसो इमेहिं अणबरदपडंतेहि वाहबिंदूहिं ण दे हिअअस्स (एवं) संदाबदुःखं अबणेदि।
\भर्तृदारिके! [मा212 रुदः। [अथवा ‘कथं न रोदिष्यति?।अधिकोऽस्या हृदयस्य सन्तापोऽधिकतरं बाधते। तत् किमिदानीमन्त्र करिष्ये! तद्यावञ्चन्दनलता- पल्लवरसमस्या हृदये दास्ये]। (भर्तृदारिके ! ननु) भणामि, २ मा रुदः। अयं
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मूढां तर्कयिष्यति। व्यवहाराऽकुशला मदयोग्यैवैति च कदाचिन्मां ज्ञास्यतीत्याशयः। ‘दक्षिणे सरकोदारौ’ इत्यमरः। इति=मां स्वयोग्यां नैव मंस्यते इति विकलतया। रोदिति=अश्रुपातं नाटयति। चेटी सान्त्वयति–मा रुद इति। रोदनेनेदानीं न किमपि फलं, तत्तूष्णीमास्स्व। इत्थं नायिकां सान्त्वयित्वा स्वयमेव मनसि तर्कयति–अथवेति। कथं नेयं वराकी रोदिष्यति, अधिकतरोऽस्याः सन्तापोऽनुशय–निमित्तो, मनसिजबणप्रहारजन्यवेदनाप्रभवश्च एनां बलवद्दाधत्ते। अत इयं बलवद्-दुःखसन्तापाऽभिभूता वराकी रोदिति। सेयं कथं वाङ्मात्रेण सान्त्वयितुं मया शक्यते। तदिदानीमत्र=ईदृशे प्रसङ्गे, किं करिष्ये=कमुपायं विदधामि। येनेयं शान्तिमुपगच्छेदिति मनसि विभाव्य स्वयमेवोपायं स्थिरीकरोति- तद्यावदिति तत्=तस्मात्। उपायस्यावश्यानुष्ठेयत्वात्। यावत्=निश्चयेन। ‘यावत्तावच्च साकल्येऽवधी मानेऽवधारणे’ इत्यमरः। चन्दनलतापल्लवरसं=श्रीखण्डलताकोमलपन्नरसं। हृदये=उरःस्थले। स्तनपट्टे। दास्ये=सिञ्चामि। अभिषेक्ष्यामि। शीतलेन चन्दनक्किसलयरसेनाऽस्या हृदये कदाचिच्छान्तिर्भवेदित्याशयः। ‘अथवा’ इत्यारभ्य-‘दास्ये’ इत्यन्तः पाठो न सार्वत्रिकः। चन्दनपल्लवं=श्रीखण्डकिसलयं। निष्पीड्य=निश्च्योत्य, तद्रसं। हृदये=हृदयस्थले। स्तनान्तराले। ददाति=परिषिञ्चति। पुनरपि नायिकाऽश्रूणि पातयति। चेटी पुनः सान्त्वयति–नन्विति।
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इसके हृदय पर देती हूं, कदाचित् इससे इसके हृदयका सन्ताप कुछ कम पड़े। (उठकर चन्दन के पत्ते को निचोड़ कर उसका रस उसके हृदय पर लगाती है) राजपुत्री ! मैं कहती हूँ कि आप रोओ मत। देखो, रोने से जो आंखों से निरन्तर आंसुओं की धारा पड़ रही है उससे यह चन्दनलता के कोमल
‘खलु213 स्तनपट्टदत्तश्चन्दन (पल्लव) रस एभि214रनवरतपतद्भिर्बाष्पबिन्दुभिरुष्णीकृतो न ते हृदयस्य (एतं) सन्ताप (दुःख) मपनयति। [कदलीपत्रमादाय वीजयति।]
नायिका–[ हस्तेन निवारयन्ती–] सहि ! मा वीजेहि। उन्हो क्खु एसो कअलीदलमारुदो !
[सखि ! मा वीजय। उष्णः खल्वेष कदलीदल मारुतः]।
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ननु-अनुनये। स्तनपट्टदत्तः=कुचयुगलपट्टाभ्यन्तरप्रदत्तः। हृदयस्थलविनिवेशितः। चन्दनपल्लवरसः=श्रीखण्डकोमलपत्रनिःष्यन्दः। एभिः=अमीभिः। अनवरतपतद्भिः=चक्षुर्भ्यामविरलधाराऽऽसारं विनिष्पतद्भिः। बाष्पबिन्दुभिः अश्रुबिन्दुभिः। उष्णीकृतः=उष्णतां नीतः। हृदयस्य, एवं=प्रवर्त्तमानं, सन्ताप एव दुःखं, सन्तापेन वा यदुःखं=क्लेशः, तं—नापनयति = न दूरीकर्त्तुं प्रभवति। यो मया चन्दनद्रवस्तव स्तनयुगलाञ्चले विनिवेशितः सन्तापापनयनाय, सोऽपि त्वया उष्णैरश्रुविन्दुभिरुष्णतां नीयते, तत्तेन कथं तब हृदयस्य सन्तापोऽपनेतुं शक्यते, तद्दयस्वास्मासु परिजनेषु। कृपया रोदनं परित्यजेत्याशयः। एतेन नायिकाया अतिभूमिगतो हृदयतापः, कामव्यथाऽवस्था च प्रकटितेति ध्येयम्। चन्दनरसेन सन्तापशान्तिमपश्यन्ती चेटी कोमलेन कदलीदलेन शीतलेन वीजयति=आन्दोलयति। ‘वीजतीति पाठान्तरम्। हस्तेन=हस्तसंज्ञया। एतेन शब्दव्यापारेऽपि नायिकाया अशक्तिः सूचिता। केवलं हस्तेनैव निरुणद्धि, वक्तुमपि नैव समर्थेति च गूढ आशयः।
एवमपि वीजयन्तीं चेटीं निषेधति सहीति। कदलीदलमारुतः=रम्भापत्रपवनः–
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पत्तों का रस भी गर्भहो रहा है। अतएव यह तुम्हारे हृदय के सन्ताप को कैसे दूर करेगा ? अतः रोना बन्द करो।
[केलेके पत्रो को हाथ में लेकर उससे पङ्खा (हवा) करती है]।
नायिका—( हाथ से मना करती हुई ) अरी चेटी ! पंखा मत कर। क्योंकि यह केले के पत्ते का पवन तो और भी गर्म है।
चेटी—भट्टिदारिए ! मा इमस्स दोसं कहेहिं,
कुणसि घणचन्दणलदापल्लवसंसग्गसीदलं पि इमं।
णीसासेहिं तुमं एव्व कअलीदलमाअं उण्हं॥१॥
[भर्तृदारिके ! माऽस्य दोषं कथय—
करोषि घनचन्दनलतापल्लवसंसर्गशीतलमपीमम्।
निःश्वासैस्त्वमेव कदलीदलमारुतमुष्णम्॥१॥]
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उष्णः खलु=उष्ण एव। उष्णेन कदलीदलमारुतेन कथं सन्तापमपनेतुमिच्छसीत्यधिक्षेपगर्भा चेयमुक्तिः। अत्र विरहसन्तापाधिक्यात्कदलीदलमारुतः शीतलोऽपि नायिकया उष्णत्वेनैव व्यपदिश्यते इत्यवधेयम्।
अस्य=कदलीदलमारुतस्य। दोषम्=उष्णत्वरूपं दोषं। मा कथय=मा ब्रूहि। नायं कदलीदलमारुत उष्णः। तर्हि कथं मां सन्तापयत्ययं कदलीपल्लवपवन इत्याशङ्क्याह–करोषीति। घना=सान्द्रा, रसभृता, श्रीखण्डरसनिबिडा, या चन्दनलता=श्रीखण्डलता, तस्या यः पल्लवः=किसलयं, (पल्लवोऽस्त्री किसलयम्’ इत्यमरः), तस्य संसर्गेण=सम्पर्केण, शीतलं=शिशिरमपि, इमं कदलीदलमारुतं=रम्भापल्लवपवनम्, निःश्वासैः=उष्णश्वासैः, उष्णं=सन्तप्तं, कुरुषे=विदधासि। अतस्तवैवार्य दोषो न कदलीदलमारुतस्य, त्वयैव कदलीपनमारुतोऽपि दीर्घोष्णनिःश्वासैरुग्णतां नीयते, अन्यथा चन्दनरससम्पर्कादतीव शीतलः कदलीदलव्यजनमारुतः कथं त्वत्सन्तापं न शमयति, अतस्त्वं रोदनं मा कृथाः, उष्णश्वासांश्च मा विसृजेत्यनुनयगर्भोक्तिश्चेटचाः। एतेन नायिका दीर्घमुष्णं च निःश्वसितीत्यावेदितम्॥१॥
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चेटी—राजकुमारी ! आप इसको दोष क्यों देती हो। यह दोष तो आपका ही है। क्योंकि घनीभूत चन्दनलता के पलवों के संसर्ग से अत्यन्त शीतल भी जो कदली पत्रका पवन है उसे भी आप अपने गर्म २ दीर्घ श्वासों से उष्ण कर रही हो॥१॥
नायिका— [सास्रं–215] सहि ! अत्थि कोबि इमरत संदाबउसमोबाओ?।
[सखि, अस्ति कोऽप्यस्य सन्तापस्योपशमोपायः ?]।
चेटी—भट्टिदारिए ! अत्थि, जदि सो एत्थ आअच्छदि।
[भर्तृदारिके ! अस्ति, यदि सोऽत्राऽऽगच्छति]।
[ततः प्रविशति नायको विदूकश्च]।
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एवं सन्तापशान्तिमपश्यन्ती नायिका चेटीं पृच्छति—सखीति। अस्य=सन्तापदुःखस्य, प्रियवियोगस्य च। अस्ति=उपायोऽस्ति। उपशमोपायः=निवृत्युपायः। सः=नायकः। अत्र=चन्दनलताकुन्जे। यदि स इहागच्छेत्तदा तत्कालोचितभाषणादिना त्वयि संजातायास्तस्य अदाक्षिण्यबुद्धेः, त्वत्सन्तापस्य च प्रशमो भवितुमर्हति, तत्सङ्गमात्त्वद्विरहज्वालाऽपि शान्ति गच्छेदित्याशयः।
इत्येतत्पर्यन्तं नायिकाया अयोगविप्रलम्भस्य उद्दीपनादिभिः प्रकर्षं प्रतिपाद्य इतोऽप्यधिकं तस्य विप्रलम्भस्य तस्यां चरमसीमाप्राप्तिं, नायकस्य रतिपरिपोषं च प्रतिपादयितुं चेटी सूचितस्य नायकस्य प्रवेशं समुपनिबध्नाति—तत इति। नायको हि दैवाद्गौरीभवने निजसम्बन्धोचितसौन्दर्यादिगुणगणालङ्कृतं कन्यारत्नं मलयवतीं दृष्ट्वा तस्यामभिनवमनुरागमवलम्बमानस्तद्विनयलज्जाकटाक्ष वीक्षणादिसंकल्पपरम्परा परिबृंहिते, चिन्तौत्सुक्यादिव्यभिचारि तरङ्गसङ्कुले रतिसागरे निमज्जन्, विषयान्तरविमुखमानसो विरहातुरो रात्रौ स्वप्ने तामेव प्रियां दृष्ट्वा, प्रातश्चित्रलेखनादिमनोविनोदनव्यापारैर्मनो विनोदयितुं त्वरमाणः, प्रातरावश्यककृत्यादिकं,
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नायिका—(आँसू बहाती हुई—) हे सखी ! क्या इस सन्ताप के शमन का भी कोई उपाय है?।
चेटी—हे राजकुमारीजी ! इसका एकही वह उपाय है, वह यह है कि—यदि वह (नायक) यहां आ जावे तो आपका यह सन्ताप तत्काल शान्त हो सकता है।
(नायक का विदूषक के साथ प्रवेश)।
नायकः—
व्यावृत्यैव सिताऽसिक्षणरुचा तानाश्रमे शाखिनः
कुर्वत्या विटपावसक्तविलसत्कुष्णाजिनौघानिव।
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गुरुशुश्रूषादिकं च यथाकथञ्चिन्निर्वत्य दुस्तरंविरहदिवसमतिवाहयितुं नायिकाधिष्ठितं मनोरमं प्रदेशं नर्मसचिवेन विदूषकेण सह प्राप्तो, मन्मथबाणपावोद्भूतप्रबलोन्माददशामधिरूढः कामं पुरतः पश्यन्निव विक्षिप्तहृदयोऽनङ्ग प्रतिब्रूते–व्यावृत्येत्यादि। व्यावृत्त्यैव=परावृत्यैव। गुरुजन (मुनि) वचनपारवश्येनाश्रमं गन्तुमुद्यतथा कतिपयपदविन्यासानन्तरं मद्दर्शनार्थमेव विवलितग्रीवं परावर्त्य। अनेन वलिताख्या शृङ्गारदृष्टिरुक्ता। तदुक्तं–’ वलितं तन्निवृत्तस्य भूयस्त्रयश्रावलोकनम्’ इति। सिता श्वेता चासौ असिता=कृष्णा च - सिताऽसिता, सिताऽसिता चासौ ईक्षणरुक्=नेत्रकान्तिश्च, तया–सिताऽसितेक्षणरुचा=शुभ्रकृष्णलोचनकान्त्या। नायिका लोचनं हि–कनीनिका बहिर्भागेऽतिशुभ्रं, कनीनिकाप्रदेशे त्वतिकृष्णञ्चेति=तस्य सिताऽसितकान्तिमत्त्वं स्पष्टम्। आश्रमे=मलयाचलाश्रमपदे। तान्=इलाघ्यजन्मनः। शाखिनः=तरुवरान्। वृक्षान्। तत्त्वं च नायिकाकटाक्षपातात्। विटपेषु =शाखासु, अवसक्ताः=निरन्तरलग्नाः, अतएव विलसन्तः=प्रत्यग्रतया, निर्मलतया च स्फुरन्तः (प्रकाशमानाः), कृष्णाजिनानां=कृष्णमृगचर्मणाम्, ओघाः=समूहा येषु ते, तान्=विटपाऽवसक्त-विलसत्कृष्णाऽजिनौघान्—इव=शाखाग्रसंसक्तस्फुरदभिनव कृष्णसाराऽजिनसमूहानिव। कुर्वत्या= विदधत्या। कृष्णमृगचर्मं हि प्रान्तेशुभ्रं, मध्ये च कृष्णं भवति, नायिकालोचनयुगलं च प्रान्ते विशदं मध्ये च कृष्णमिति तत्कान्त्या वृक्षशाखासु पतन्त्या वृक्षशाखासु कृष्णमृगचर्मसंसक्तिरिव विरचितेत्याशयः। ’ शाखायां पल्लवे स्तम्बे विस्वारे विटपोऽस्त्रियाम्’ इति रभसकोशः। स्तम्बादूर्ध्वं तरोः शाखा कटप्रो विटपो मतः’ इति कात्यकोशः। ’ अजिनं चर्म कृत्तिः स्त्री’ इत्यमरः। ‘वृक्षो महीरुहः शाखी विटपी पादपस्तरुः’ इत्यमरः। मुनेः=शाण्डिल्यस्य। पुरोऽपि=अग्रेऽपि। तया=नायिकया। यद्द्दष्टोऽस्मि =
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नायक—अपने काले और श्वेत कान्तिवाले नयनों की कान्ति से आश्रम के उन वृक्षों को— मानों उनकी शाखाओं पर कृष्णमृग चर्म हो फैला (बिछा ) हुआ ऐसा करती हुई ( कृष्णमृगचर्म भी काला और सफेद होता है ) उस प्यारी
यद् दृष्टोऽस्मि तया मुनेरपि पुरस्तेनैव मय्याहते,
पुष्पेषो ! भवता मुधैव किमिति क्षिप्यन्त एते शराः?॥२॥
** विदूषकः**—भो वअस्स ? कहिं216 क्खु गर्द दे (तं) धीरत्तणं ?।
\भो वयस्य ! क्व खलु गतं ते ([तत्215 २) धीरत्वम्?]।
नायकः — वयस्य ! नतु धीर एवास्मि। कुतः?
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यत्कटाक्षपातैर्दृष्टोऽस्मि। तेनैव=तदृर्शनेनैव। निशितशिलीमुखानुकारिणा तस्या लोचनेनैव ! आहते=विद्धे \। मयि=विरहातुरे मयि। पुष्पेषो= हे पुष्पबाण भगवन् कामदेव !।मुधैव = वृथैव। एते शराः = एते अमोघाः कुसुममया बाणाः। किमिति = कस्माद्धेतोः। भवता क्षिप्यन्ते= भवता किमिति मयि बाणप्रहारायासो विधीयते। ननु बाणप्रयोगफलस्य हृदयवेधस्य नायिकाकटाक्षैरेव कृतत्वादिदानींतव वाणप्रहारो नाम पिष्टपेषणवद्वयर्थ एव। तद्विरम् तावदस्मान्निष्फलाद्वाणमोक्षायासादित्यर्थः। नायिकाकटाक्षबाणैर्हृदि मर्मणि ताडितोऽहं तद्विरहे च मां कामो नितरां पीडयतीत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्। ‘सूर्याश्वैर्मसजस्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम्’ इति तल्लक्षणम्॥२॥
एवं विदूषकेण ‘उन्मत्तभूतो भवा’ नित्यधिक्षिप्तो नायको नाऽहं सखे विक्षिप्तो, न चाऽधीर इति ब्रूते—वयस्येति। वयस्य = हे सखे ! ननु इति निश्चये। धीर एव=धैर्यवानेव। नतु विक्षिप्त, उन्मत्तो वाऽस्मि। धीरत्वमेव स्वस्य साधयति
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ने जो मुनि के सामने ही मुझे घूमकर देखा था, हे पुष्पवाण ! (कामदेव), उस दृष्टि से ही मैं तो घायल हो चुका हूँ, फिर तुम वृथा अपने बाण मुझपर क्यों चला रहे हो ?। मरे को मारना व्यर्थ है॥२॥
विदूषक—हे मित्र ! तुम्हारी वह धीरता गम्भीरता इस समय कहां चली गई जो तुम इस तरह अधीर हो विलाप कर रहे हो ?।
नायक—हे मित्र ! मैं तो धीर ही हूँ। क्योंकि—क्या मैंने विरोद्दीपक चन्द्रमा की चाँदनी से जगमगाती हुई रात्रियां जाग २ के नहीं बिताई ?।क्या
नीताः किं न निशाः शशाङ्करुचयो217, नाघ्रातमिन्दीवरं?
किं नोन्मीलितमालतीसुरभयः सोढाः प्रदोषानिलाः?
झङ्कारः कमलाकरे मधुलिहां किं वा मया न श्रुतो,
निर्व्याजं विधुरेष्वधीर इति मां केनाभिधत्ते218 भवान्?॥३॥
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नायकः—नीता इति। शशाङ्केन=पूर्णचन्द्रेण, रुचिः=कान्तिर्यासु ता इति व्यधिकरणबहुव्रीहिः। शशाङ्करुचयः=चन्द्रज्योत्स्नाधवलप्रकाशाः। निशाः =रात्रयः। मया–किं न नीताः=नाऽतिवाहिताः किं?। किन्तु प्रियावियोगेऽपि चन्द्रज्योत्स्नानिर्मलप्रकाशा अतितरामुद्दीपिका रात्रयोऽपि मया धैर्यमवलम्ब्याऽतिवाहिता एवेत्यहो मे धीरत्वमिति नायकाशयः। किञ्च—इन्दीवरं=नीलकमलं। तद्गन्ध इत्याशयः। नाऽऽघ्रातं किं=नैव मयाऽऽघ्रातं किम्?। अपितु धैर्यमवष्टभ्य कामोद्दीपकमूर्धन्यो नीलकमलगन्धोऽपि बलान्नासारन्धं प्रविशन् सोढ एवेत्यहो मे प्रसंसाऽर्हं धीरत्वमित्याशयः। ‘अथ नीलाम्बुजन्म च। इन्दीवरञ्च नीलेऽस्मिन्’ इत्यमरः। उन्मीलिताभिर्मालतीभिः सुरभयः—उन्मीलितमालतीसुरभयः= विकसितमालतीकुसुमसौरभसम्भूताः। ‘सुमना मालवी जातिः’ इत्यमरः। प्रदोषे (भवा) अनिलाः–प्रदोषाऽनिलाः=प्रदोषे मारुताः। किं न सोढाः=किं तु मया नैव सोढाः?।अपितु–सन्ध्यासु विरहिजनोत्कण्ठाऽरतिप्रदाननिष्करुणाः समुन्मीलितजातीकुसुमसमुद्वान्तसौरभसमा श्लेषसम्भृतगुणा अतिदुःसहा अपि प्रादोषिकसमीरणाः सोढा एव मयेति नितरां सखे ! धीरोऽहमित्याशयः।
वा=अथवा। किञ्च। कमलाकरे=पद्माकरे। पङ्कजवने। मधुलिहां=भ्रमराणां। मधुपानां। ‘मधुव्रतो मधुकरो मधुलिण्ममधुपालिनः’ इत्यमरः। झङ्कारः =मकरध्वजकार्मुकटङ्कारानुकारी झाङ्कारध्वनिः। मया किं न श्रुतः=कर्णैर्मया नाऽश्रावि किं?। धैर्यं बध्वा विरहोत्तेजकशिरोमणिर्भ्रमरझाङ्कारध्वनिः कमलवने श्रुतः
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विरोद्दीपक कमलों की भीनी २ सुगन्धि को मैंने नहीं सूँघा। क्या उसे सहन नहीं किया?। क्या खिले हुए मालती के पुष्पों से सुरभित विरहोद्दीपक प्रदोषकालिक मन्द २ पवन को नहीं सहा ?। क्या मैंने कमलों के समूह में भ्रमरों का गुञ्जान
\[[विचिन्त्य219] अथवा220 मृषा नाभिहितं, वयस्याऽऽत्रेय ! नन्वधीर एवास्मि।
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अतो धीरतमोऽहं नत्वधीर इति नायकाशयः। विरहिभिः कथमपि सोढुमशक्याश्चन्द्रज्योत्स्ना-कमलगन्ध-प्रदोषाऽनिल-मधुकरझाङ्कारादयो विरहोद्दीपका मया ‘धैर्येण सोढा एवेति हृदयम्। अतः—भवान्=मद्रहस्यवेदी मत्सहचरोऽपि भवान्। केन=केन खलु हेतुना। मां=धीराग्रेसरमपि माम्। विधुरेषु=प्रियजनवियोगविकुवेषु विरहिषु मध्ये। ‘वैकल्येऽपि च विश्लेषे विधुरं विकले त्रिषु’ इति ‘कोशः। अधीरः=अत्यन्तमधीरः। इति=इत्थ। निर्व्याजं=निष्कपटं यथास्यात्तथा। उपहासं विना, सत्यतयैवेति यावत्। अभिधत्ते=भवान् कथयति। उपहासे तु त्वं मामधीर इति कथय तावत्, परन्तु सत्यतयाऽपि मामधीर इति केन हेतुनाऽऽक्षिपसि?। अहन्तु सखे! नितरां धीरोऽस्मि। तवैव मन्ये बुद्धिविपर्ययो येन मां धीरमप्यधीरं मन्यसे इति विदूषकोपालम्भपरोक्तिर्नायकस्येति भावः॥३॥
विचिन्त्य=विचारमभिनीय। वयस्य=सखे! आत्रेय=अत्रिगोत्रालङ्कारभूत। एतादृशप्रसिद्धब्राह्मणकुलप्रसूतोऽपि भवान् कथं मिथ्याऽभिदधीतेत्याशयः। मृषा=मिथ्या। नाभिहितं त्वया नोक्तम्। किन्तु सत्यमेव त्वयोक्तं–‘कथमधीरतां त्वं वहसी’ ति। ननु–इति निश्चये। अधीर एव=विरहकातर एवाऽहमस्मि। प्रियाप्रियोऽधीर एवाऽस्मि संवृत्त इत्यर्थः। अत्र— ‘विचिन्त्य’ त्यारभ्य ‘अधीर एवास्मी’ त्यन्तग्रन्थस्य स्थाने – “अथवा न सम्यगहं ब्रवीमि वयस्यात्रेय’ इति पाठो दाक्षिणात्यकोशेषु दृश्यते। तत्र अहं सम्यक्=यथार्थं, न ब्रवीमि, चित्तविक्षेपादेव।
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नहीं सुना?। इतनी विरह की उत्तेजक सामग्रो को सहन करते रहने पर भी तुम सहसा विना समझे ही मुझे ‘तुम विरह सहन करने में असमर्थ हो, अधीर हो’, यह दोष कैसे देते हो?॥३॥
(कुछ विचारकर—) अथवा तुम भी मिथ्या नहीं कहते हो। मित्र आत्रेय! अवश्य ही मैं अधीर (कायर) ही हूँ। क्योंकि—
स्त्रीहृदयेन न सोढाः क्षिप्ताः कुसुमेषवोऽप्यनङ्गेन।
येनाद्यैव पुरस्तव वदामि ‘धीर’ इति स कथमहम्?॥४॥
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किन्तु सम्प्रत्यधीर एवाऽस्मि, यथा भवतोच्यते तथैव संवृत्तोऽस्मीत्यर्थो बोध्यः। अधीरतामेव स्वस्य प्रकटयति–स्त्रीहृदयेनेति। स्त्रिया इव हृदयं यस्य, स्त्रिय एव हृदयं=हृदयस्थानीयं वस्तुस्वरूपं तत्त्वं, बलमाश्रयो वा यस्य वा असौ स्त्रीहृदयः=कामः, तेन-स्त्री हृदयेन=कामिनीजनसमाश्रयेण। अबलासहायेन। अतो निर्बलत्वं ध्वन्यते। स्वयञ्च अनङ्गेन=अङ्गरहितेन कामेन। अतो नितरां तस्य निर्बलत्वमिति ध्वन्यते। क्षिप्ताः=प्रेरिताः। मुक्ताः। कुसुमेषवोऽपि=पुष्पमया बाणा अपि। अतो बाणानामतीव मृदुत्वान्निर्बलत्वं ध्वन्यते। कामस्य स्त्रीसहायत्वम्, अनङ्गत्वं, कुसुमबाणत्वं च कविसंप्रदायप्रसिद्धमेव। ‘अनङ्गेनाऽबलासङ्गाज्जिता येन जगत्र्त्रयी। स चित्रचरितः कामः सर्वकामप्रदोऽस्तु वः॥’ इत्यादौ तथोक्तेः। तथा च— स्त्रीहृदयेन=अबलामात्रसहायेन, अनङ्गेन च कामेन क्षिप्ताः पुष्पमयाः पञ्च बाणा अपि येन=मया अद्यैव=इदानीमेव। न सोढाः=न मर्षिताः, कामबाणैर्विह्वलतां यदहमद्यैव गतः, सः=सोऽहं कामबाणव्याकुली-भूतस्वान्तः, तव पुरतः=रहस्यवेदिनः सख्युस्तवाग्रतः। धीर इति=धीरोऽहमिति। कथं वदामि=कथं वक्तुं शक्नोमि। अतोऽधीर एवास्मि, सखे! यथा भवामामाक्षिपन्ना तथैवाहमस्मि संवृत्त इति स्वस्य कामशरविधुरता नायकेन प्रकटितेति भावः। स्त्रीहृदयेनेति स्त्रीवत्कोमल हृदयेनेति नायकविशेषणं केचिदिच्छन्ति।स्त्रियां=मलयवत्यां, सक्तम्=आसक्तं हृदयं यस्येत्यर्थो वा। आर्या॥४॥
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स्त्री हैं सहायक जिसको ऐसे अनङ्ग (शरीर रहित, और कामदेव) से चलाए गए फूलों के (कोमल) बाणों को भी मैं जब सहन नहीं कर सका तो किस मुख से तुम्हारे सामने अपने को ‘धीर’ (धैर्यशाली और वीर) कहूँ ? अतः मैं अवश्य ही अधीर (कायर) हूँ।
स्त्रा हृदयेन—स्त्रियों की समान कमजोर हृदयवाले मैंने। या स्त्रियां ही हृदय-मुख्य सहायक हैं जिसकी ऐसे कामदेवने। ये दोनों अर्थ इसके होते हैं।
** विदूषकः**—[आत्मगतम्—] एव्वमवीरत्तणं पडिवज्जंतेण आचक्खिदो अणेण221हिअअस्स महन्तो आवेगो। ता जाव कहिं222%20एवं%20आचक्लामि।%20(प्रकाशं—)%20भो%20वअस्त%20!%20कीस%20तुमं%20अज%20लहु%20एव्व’।%20%5B%20तत्%20(यावत्)%20एवमाचक्षे।%20(प्रकाशं—)%20भी%20वयस्य%20!%20कुतस्त्वमद्य%20लध्वेव%20%5D%20पा०। “‘ता (जाव) एवं आचक्लामि। (प्रकाशं—) भो वअस्त ! कीस तुमं अज लहु एव्व’। [ तत् (यावत्) एवमाचक्षे। (प्रकाशं—) भी वयस्य ! कुतस्त्वमद्य लध्वेव ] पा०।”) एव्व एवं अबक्खिबामि। [प्रकाशं—] भो वअस्स ! कीस उण अज्ज तुम लहु एव्व गुरुअणं सुस्सूसिअ इह आगदो?
[एवमधीरत्वं प्रतिपद्यमानेनाऽऽख्यातोऽनेन हृदयस्य महानावेगः, तद्यावत्क्काऽप्येनमक्षिपामि। भो वयस्य! कथं पुनरद्य त्वं लध्वेव गुरुजनं शुश्रूषयित्वेहाऽऽगतः?]।
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एवं नायकस्याऽधीरतां ज्ञात्वा विदूषको विचारयति—एवमिति। आत्मगतं=नायकमश्रावयन् स्वयमेवेत्थं विमृशतीत्यर्थः। एवम्=इत्थं भङ्गयन्तरेण। अधीरत्वं=स्वस्य कामबाणविह्वलीभूतस्वान्तत्वं। प्रतिपद्यमानेन=स्वयमेव स्वीकुर्वाणेन। आख्यातः=प्रकटीकृतः। स्पष्टमुक्तः। अनेन=वयस्येन। जीमूतवाहनेन। हृदयस्य=चित्तस्य। महानावेगः=उत्कटः संक्षोभः। सम्भ्रमः। अतीव विदुरावस्था। तत्=तस्मात्। यावत्=किञ्चित्कालम्। अन्यत्र क्वापि=क्वाप्यन्यस्मिन्विषये। अवक्षिपामि=योजयामि। प्रसङ्गान्तरमुपस्थापयामि। येनाऽस्य मनसः स्थैर्यं, सावधानता च स्यादित्याशयः। अत्र - तद्यावत्क्वाऽप्येनमवक्षिपामि’ इत्यस्य स्थाने ‘तदेवमाचक्षे’ इत्थेव क्वचित् पाठः। तत्र एवमाचक्षे=इत्थं कथयामि। प्रसङ्गान्तरमुपस्थापयामीत्यर्थः। प्रकाशं=सर्वश्राव्यं। ब्रूते। अद्य=अस्मिन्नहनि। लब्देव क्षिप्रमेव। शीघ्रमेव। ‘लघु क्षिप्रमरं द्रुतम्’ इत्यमरः। शुश्रूषयित्वा=वन्दनादिकं, सेवां च विधाय। इह=
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कहा भी है ‘अनङ्गेनावकासङ्गाज्जितायेन जगत्र्त्रयो। म चित्रत्ररितः कामः—
विदूषक—(मनही मन) इस प्रकार अपनी अधीरता को स्वीकार करके इसने अपने मन का उद्वेग स्पष्ट ही कह दिया। अतः इसका मन कहीं दूसरी ओर लगाऊं तो ठीक हो। [प्रकट में] हे मित्र ! आज क्या बात है कि आप गुरुजनों की सेवा से शीघ्र हो निवृत्त हो यहां आगए ?।
** नायकः**—वयस्य ! स्थाने खल्वेष प्रश्नः। कस्य वाऽन्यस्यैतत्कथनीयम्?। अद्य खलु स्वप्ने जानामि—सौव प्रियतमा [अङ्गुल्या निर्दिशन्] अत्र चन्दनलतागृहे चन्द्रकान्तमणिशिलायामुपविष्टा प्रणयकुपिता किमपि मामुपालभमानेव रुदता मया दृष्टा। तदिच्छामि स्वप्नानुभूतदयितासमागमरम्येऽस्मिंश्चन्दनलतागृहे223दिवसमतिवाहयितुम्। तदेहि,गच्छावः। [परिक्रामतः]।
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मलयवने। आयातः=समागतः। नैवं भवता त्वरा कदाऽपि क्रियते स्म, इदानीन्तुभवता त्वरा गुरुजनशुश्रूषांनिर्वर्त्त्याऽऽगमनं कृतमिति कोऽत्र हेतुरिति प्रश्नाशयः।
स्थाने=उचितेऽवसरे। युक्तः। यद्वा ‘स्थाने’ इत्यव्ययं युक्तार्थे। ‘युक्ते हे साम्प्रतं स्थाने’ इत्यमरः। अयं प्रश्नस्तव समुचित एवेत्यर्थः। कस्य वाऽन्यस्य=त्वदतिरिक्तस्य कस्य वा। एतत्=एतद्रहस्यम्। अतस्तुभ्यमेतद्रहस्यभूतमपि मया प्रकटीक्रियत इत्याशयः। अद्य=अद्य गतरात्रौ। ‘स्वप्ने मया सैव प्रियतमा प्रणयकुपिता मामुपालभमानेव दृष्टा इति जानामि’—इत्यन्वयो बोध्यः। सैव प्रियतमा=गौरीमन्दिरे अपरेद्युर्दष्टा सा खलु प्रेयसी। अत्र=अङ्गुलीनिर्देशेन
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नायक—मित्र ! तुमने उचित प्रश्न किया। यह बात तुमसे मुझे कहना ही थी। और दूसरे से कहूँगा भी किलसे। तुमसे बढ़कर मेरा अन्तरङ्ग मित्र दूसरा कौन है।अतः सुनो—आज मैंने स्वप्न में देखा कि—मेरी वह प्रियतमा (अंगुली से मणिशिला का ओर संकेत कर) इसी चन्दनलता गृह में इस चन्द्र-कान्तमणि के शिला तल पर बैठी हुई प्रणय कुपिता (मानिनी) होकर मुझे कुछ उलहना–सा देती हुई रो रही है। अतः मेरी इच्छा है कि— जहां इस चन्दनलता गृह में मैंने स्वप्न में अपनी प्यारी को शेते हुए बैठी देखा था वहीं बाकी का दिन बिताऊं। अतः गुरुजनों की सेवा से जल्दी ही निवृत्त हो इधर आगया हूँ। अतः आवो। इस चन्दनलता गृह में चलें।
[दोनों उधर जाते हैं ]।
** चेटी**— [ कर्णे दत्त्वा ससम्भ्रमं ] भट्टिदारिए ! पदसदोसुणीअदि224।
[भर्तृदारिके ! पदशब्द इव श्रूयते ]।
नायिका—[ससम्भ्रममात्मानं पश्यन्ती–] हञ्जे ! मा ईरिसं आआरं
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बोधितेऽत्र स्थाने चन्दनलतानिकुञ्जे। उपविष्टा=स्थिता। प्रणयकुपिता=प्रेमकुपिता। मानवती। ‘प्रणयास्त्वमी। विश्रम्भयाञ्चाप्रेमाणः’ इत्यमरः। कारणं विनाऽपि मानेन कोपः–प्रणयकोपः। किमपि=अनिर्देश्यम्। अव्यक्तं वा। माम् उपलभमानेव = मयि दोषाधानं कुर्वाणेव। मया दृष्टा=सया स्वप्नेऽवलोकिता। इति–जानामि = कथंचित्स्मरामि। तत्=तस्मात्। स्वप्ने अनुभूतो यो दयितया=प्रेयस्या, समागमः=सङ्गमः, तेन रम्ये=हृद्ये, चन्दनलतागृहे = श्रीखण्डलतानिकुञ्जभवने। दिवसं = दिनम्। अतिवाहयितुं = गमयितुम्। इच्छामि=वाञ्छामि। अतएव क्षिप्रमेव गुरुजनसेवादिकार्यं समाप्य इह समायातोऽस्मीत्याशयः। तत्=तस्मात्। यतोऽत्र दिवसमतिवाहयितुमिच्छाम्यतः। एहि=मया सहाऽऽगच्छ। गच्छावः=चन्दनलतागृहं गच्छावः। परिक्रामतः=पादप्रक्षेपमाचरतः। चलनं नाटयतः।
कर्णंदत्त्वा = कर्णदानेन शब्दश्रवणमभिनीय \। ससम्भ्रमं=सत्वरम्। ‘ब्रूते’ इति शेषः। पदशब्द इव श्रूयते=कस्यापि पदचलनशब्द इव चन्दनलतानि–कुञ्जे श्रूयते। ससम्भ्रमं = सावेगं, सत्वरं च। आत्मानं पश्यन्ती=स्वं शरीरादिकं पश्यन्ती। ’ इत्थमुवाचे ‘ति शेषः।
हञ्जे=हे चेटिके। ईदृशमाकारं=मम ईदृशीं दशां। शिशिरोपचारं चन्दन–
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चेटी–(कान देकर सुनती हुई कुछ घबड़ाहट के साथ–) राजकुमारीजी ! किसी आनेवाले के पैरों की आहट (ध्वमि) सी सुनाई दे रही है !।
नायिका–(हड़बड़ाहट से अपनी ओर देखती हुई ) अरी चेटी ! मेरे इस आकार–प्रकार (चन्दन लेप, कदली दल ब्यजन आदि से विरहिणी की दशा) को जानकर कोई मेरे मन की बात (नायक में आसक्ति) के विषय में
पेक्खिअ कोबि मे हिअअं तुलीअदु।225 ता उट्ठेहि, इमिणा रत्तासोअपादवेण अंतरिदा पेक्खम्ह दाब को एसो त्ति। [तथा कुरुतः]
\हओ ! मा ईदृशमाकारं प्रेक्ष्य कोऽपि मे हृदयं [तुलयतु226। तदुत्तिष्ठ (अनेनरक्ताशोकपादपेनाऽन्तरिते प्रेक्षावहे तावत् ‘क एष’ इति—) ]।
विदूषकः—एवं चंद्णलदाघरअं। ता एहि पविसम्ह।
[ नाट्येन प्रविशतः ]
[इदं चन्दनलतागृहम्। तदेहि प्रविशावः।]
नायकः-
चन्दनलतागृहमिदं सचन्द्रमणिशिलमपि प्रियं न मम।
चन्द्राननया रहितं चन्द्रिकया मुखमिव निशायाः॥५॥
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लताद्रवलेपादिकं च। प्रेक्ष्य=दृष्ट्वा। मम हृदयं=मदीयं हृद्गतं भावम्। ‘कुन्नाऽप्यासन्तेय’मिति रहस्यं। कोऽपि=कोऽपि जनः। मा तुलयतु=माऽबगच्छतु नाम कश्चिदपि। तत्=अतः। उत्तिष्ठ। रक्ताशोकपादपेन=रक्ताशोकवृक्षेण। अन्तरिते=व्यवहिते भूत्वा। प्रेक्षावहे=निभृतं पश्यावः। क एष आगच्छतीति। तथा कुरुतः=उत्थाय चन्दनलतागृहान्तर्वर्त्तिरक्तकङ्केल्लिवृक्षान्तरिते भूत्वा पश्यतः।
इदं=पुरतो वर्त्तमानम्। चन्दनलतागृहम्–अस्तीति शेषः। प्रविशावः=तद्न्तर्गच्छावः। नाट्येन प्रविशतः=प्रवेशं नाटयतः।
चन्दनलतागृहं प्रविष्टो नायकस्तत्र स्वप्ने दृष्टां स्वदयितामिदानीमदृष्ट्वा वियोगज्वालावलीढतनुर्विलपन्नाह–चन्दनेति। इदं चन्दनलतागृहं=रात्रौ स्वप्ने यत्र चन्दन–
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कहीं कुछ न समझ ले, इस लिए उठ, इस रक्त अशोक वृक्ष के पीछे छिप जाएँ और देखें—‘कि यह कौन आ रहा है’ ?।(दोनों अशोक वृक्ष के पीछे छिप कर देखती हैं)।
विदूषक—मित्र ! यह चन्दन लता गृह है, आओ, इसमें चलें।
(दोनों उसमें प्रवेश करते हैं)
नायक—चन्द्रकान्त मणि शिला खण्ड से युक्त भी यह चन्दन लता गृह चन्द्रमुखी मेरी उस स्वप्न दृष्ट प्रिया के विना मुझे उसी तरह प्रिय (अच्छा)
** चेटी**—[ दृष्ट्वा ] भट्टिदारिए ! दिट्टिआ बड्ढसि। सो एव्व णं दे हिअअबल्लहो जणो।
[भर्तृदारिके ! दिष्ट्या वर्द्धसे। स एव ननु ते हृदयवल्लभो जनः ]।
नायिका—[ दृष्ट्वा सहर्षं, ससाध्वसञ्च—] हब्जे ! एदं पेक्खिअ
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लतागृहे रुदती स्वप्रिया दृष्टा तदिदं चन्दनलतागृहम्। चन्द्रमणिशिलया सहितं सचन्द्रमणिशिलमपि=चन्द्रकान्तमणिशिलासनाथमपि। चन्द्र इव आननं यस्याः सा, तथा–चन्द्राननया=चन्द्रमुख्या मत्प्रेयस्या स्वप्नानुभूतया। रहितं=वियुक्तं सत्। चन्द्रिकया=ज्योत्स्नया। रहितं–निशायाः=रजन्याः। रात्र्याः। मुखमिव=प्रदोष इव। मम प्रियं न मम नैव मनोहरं प्रतिभाति। ‘प्रदोषो रजनीमुखम्’ इत्यमरः। ‘चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना।’ इत्यमरः। यथा चन्द्रज्योत्स्नारहितं रजनीमुखं न शोभते, तथैवेदं चन्दनलतागृहं चन्द्राननया मम तया प्रियया रहितं नैव मे प्रतिभातीति भावः। आर्याच्छन्दः ॥५॥
नायकमागच्छन्तं दृष्ट्वा चेटी ब्रूते—दिष्टयति। दिष्ट्या=आनन्दावसरेण। वर्द्धसे=समुपयुज्यसे । ‘दिष्ट्येत्यानन्दार्थेऽव्ययम्। दिष्टचा समुपजोषं चेत्यानन्दे’ इत्यव्ययप्रकरणेऽमरः। ननु कोऽन्नानन्दावसर इत्यत आह—स एवेति। तव हृदयबल्लभः=हृदयप्रियः। जनः=जीमूतवाहनलक्षणो लोकः। ‘समागच्छती’ति शेषः। तदेवमनायासेनैव प्रियासमागमादानन्दावसरोऽयं भवत्या इत्याशयः। दृष्ट्वा=नायकं दृष्ट्वा। प्रियदर्शनात्सहर्षं, सहसाऽपरिचितजनसमागमात्कन्या सुलभत्वाद्भयस्य ससाध्वसंच=सभयञ्च। ‘भीतिर्भीः साध्वसं भयम्’ इत्यमरः। चेटीम्प्रतीत्थमाह
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नहीं लग रहा है जिस तरह चन्द्रमा के बिना रात्रि का मुख ( सायंकाल काप्रदोष) अच्छा नहीं मालूम होता है॥५॥
चेटी—(नायक को देखकर) राजकुमारी जी? बड़े आनन्द का विषय हे। बधाई है। मैं आपको एक हर्ष की बात सुनाती हूँ। यह तो वही आपका हृदय वल्लभ (प्राण प्यारा आरहा है, जिसके लिए आप इतनी व्याकुल थी।
नायिका–(अच्छी तरह देखकर, सहर्ष एवं कुछ भयभीत–सी हाकर–) अरी चेटी ! इसको देखकर मैं भय के मारे यहाँ बैठ ही नहीं सक रही हूँ।
अदिसद्धसेण ण सक्कुणोमि इइ एव्व असण्णे चिट्ठिदुं, कदाबि एसो मं पेक्खदि, ता एहि अण्णदो गच्छम्ह। [सोत्कण्ठं पदं दत्वा—] हब्जे ! बेबंति मे ऊरुओ।
[हञ्जे ! एनं प्रेक्ष्याऽतिसाध्वसेन न शक्नोमीहैवाऽऽसन्ने स्थातुं, कदाप्येष मां पश्यति। तदेह्यन्यतो गच्छावः। हञ्जे ! वेपेते मे ऊरू]।
चेटी—[विहस्य–] अई काअरे ! इइ ट्विदं तुमं को पेक्खदि? णं विसुमरिदो दे अअंरत्तासोअपादबो, ता इध एव्व उबविसिअ चिठ्ठम्ह।
[तथा कुरुतः ]।
[अयि कातरे ! इह स्थितां त्वां कः पश्यति ?। ननु विस्मृतस्तेऽयं रक्ताशोकपादपः?। तदिहैवोपविश्य तिष्ठावः]।
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नायिकेतिशेषः। एवं=स्वप्रियतमम्। प्रेक्ष्य=दृष्ट्वा। अतिसाध्वसेन=कन्याजनोचितेन अतिभयेन। इहैव=चन्दनलताकुञ्जेएव। आसन्ने=निकटप्रदेशे।स्थातुम्=अवस्थातुं। न शक्नोमि=नैव शक्तोऽस्मि। भयकारणं स्वयमेवाह—कदापीति। कदाचिदेष मामिहस्थां पश्येत्=जानीयात्। तञ्च अनुचितं स्यात्। तत्=अतः।एहि=आगच्छ। अन्यतो गच्छावः=अन्यस्मिन् स्थाने गच्छावः। सोत्कण्ठम्=उत्कण्ठापूर्वकम्। उत्कण्ठा चात्र नायकदर्शने एवेति बोध्यम्। गन्तुमनिच्छन्त्यपि गन्तुं प्रवर्तते इतियावत्। पदं दत्त्वा=पादविक्षेपं नाटयित्वा। मे=मम। ऊरू=सक्थिनी। ‘सक्थि क्लीबे पुमानूरुः’ इत्यमरः। वेपेते=कम्पेते। एतेन नायकानुरागप्रभवः कम्पो नाम सात्त्विको भावः सूचितः। तदुक्तं साहित्यदर्पणे–‘रागद्वेष-श्रमादिभ्यः कम्पो गात्रस्य वेपथुः’ इति। एवमेव प्रस्वेदादयोऽप्युपलक्षणीयाः।
एवं गमनोद्यतां नायिकां चेटी ब्रूते–अयोति। अयि कातरे=अयि भीरु, अधीरस्वभावे। ‘अधीरे कातरः’ इत्यमरः। इह स्थितां त्वां कः पश्यति=को नाम द्रष्टुं प्रभवति। यतो वयं रक्ताशोकपादपान्तरिते तिष्ठावः। ननु—प्रश्ने। रक्ताऽशोक–
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कहीं यह मुझे यहाँ बैठे देख न ले। अतः आ, दूसरी जगह चलें। (बड़ी उत्कण्ठा पूर्व कुछ पैर चल कर) अरी चेटी ! मेरे उरू (पैर-जाँव) ही कॉप रहे हैं, मेरे से तो चला ही नहीं जाता है।
चेटी—(हँसकर—) अयि डरपोक स्वभाव वाली राजकुमारी जी ! इतना क्यों डर रही हो। यहाँ आपको भला कौन देख सकता है ?।क्या आप भूल
** विदूषकः**—[निरूप्य–] भो वअस्स ! एसा सा चंदमणिसिला।
[भो वयस्य ! एषा सा चन्द्रमणिशिला]।
[नायकः—सबाष्पं निःश्वसिति ]।
** चेटी**—भट्टिदारिए ! जाणामि सिबिणआलाबो बिअ, ता अबहिदा दाव सुणम्ह। [उभे आकर्णयतः]
[ भर्तृदारिके ! जानामि स्वप्नाऽऽलाप इव, तदवहिते तावच्छृणुवः]।
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पादपः=रक्तकङ्केल्लिवृक्षः।विस्मृतः=तव विस्मृतिं गतः किम्। ननु रक्ताशोकतरुव्यवहिते आवां स्वः। तदावां कः प्रेक्षितुं शक्नुयात्। तत्=तस्मात्। इहैव=चन्दनलतागृहे एव। उपविश्य तिष्ठावः=उपविश्य निभृतं तिष्ठावः। नाऽन्यत्र गमनस्यावश्यकताऽस्ति। इह स्थिते आवां न कोऽपि द्रष्टुं शक्नोति, तन्निर्भयं तिष्ठेत्याशयः। तथा कुरुतः=रक्ताऽशोकवृक्षाऽन्तरि भूत्वा तिष्ठतः। निरूप्य=दृष्ट्वा।विलोक्य।एषा सा=सेयं त्वदभिमता। यस्यां त्वया स्वप्रियोपविष्टा स्वप्ने दृष्टा सैषा। चन्द्रमणिशिला चन्द्रकान्तमणिशिला। अस्तीति शेषः। नायकस्तां स्वप्रियाविरहितां सम्प्रति दृष्ट्वा सबाष्पं=साश्रुपातम्। निःश्वसिति=दीर्घमुष्णञ्च श्वासं मुञ्चति। रोदितीति यावत्। जानामि=अवगच्छामि। मन्ये। स्वप्नाऽऽलाप इव=स्वप्नविषयको वार्तालाप इव आभ्यां क्रियते। अवहिते=सावधाने भूत्वा। शृणुवः =श्रवणं कुर्वः। उभे मलयवतीचेट्यौ। आकर्णयतः=नायकविदूषकयोरालापं सावधानीभूय शृणुतः। रुदन्नायकोमूर्च्छित इव मोहमापन्नस्तिष्ठतीति बुद्ध्वा विदूषकः संज्ञालब्धये तं हस्तेन
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गईं कि—हम इस लाल अशोक वृक्ष के पीछे छिपी हुई हैं। अतः आवो, यहीं बैठ कर देखें। (दोनों बैठती हूँ)।
विदूषक—(अच्छी तरह देखकर—) हे मित्र ! देखो यही वह (जहाँ तुम नेस्वप्न में अपनी प्रिया को बैठी हुई देखा था वह) चन्द्रमणि शिला है।
[नायक—आँसू बहाता हुआ दीर्घ निःश्वास छोड़ता है]।
चेटी—राजकुमारी जी ! मालूम होता है, ये लोग स्वप्न में देखी हुई किसी सुन्दरी के विषय में कुछ बात-चीत कर रहे हैं। अतः हम सावधान होकर सुनें। (दोनों कान लगा कर सुनती हैं)।
** विदूषकः**— [ हस्तेन चालयन्—] भो वअस्स ! णं भणामि, एसा सा चंदमणिसिलेति।
[ भो वयस्य ! ननु भणाम्येषा सा चन्द्रमणिशिलेति]।
नायकः — [सबाष्पं निःश्वस्य–] सम्यगुपलक्षितम्। [इस्तेन निर्द्दिश्य]।
शशिमणिशिला सेयं यस्यां विपाण्डुरमाननं
करकिसलये कृत्वा वामे घनश्वसितोद्गमा !
चिरयति मयि व्यक्ताकूता मनाक् स्फुरितैर्भुवो-
र्विरमितमनोमन्युर्दष्टा मया रुदती प्रिया॥६॥
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चालयन्नाह–भोवयस्येति। भणामि=भवन्तं प्रति कथयामि। एषा सा मणिशिलेति=त्वदभीष्टा मणिशिलेयं पुरतो वर्त्तते, तां पश्येति त्वां भणामि। त्वया च मद्वचनं न श्रूयते किमेतदित्याशयः। एतेन नायकस्य मोहावस्था सूचिता। सबाष्पं=साश्रुपातं। निःश्वस्य=श्वासमुन्मुच्य। सम्यगुपलक्षितं=सम्यग् ज्ञातं भवता। इयमेव सा चन्द्रकान्तमणिशिलाऽस्ति या मया स्वप्ने स्वप्रियासनाथा दृष्टेत्याशयः। हस्तेन निर्द्दिश्य=चन्द्रकान्तमणिशिलां हस्तेन दर्शयित्वा।
** शशिमणीति**। सा इयं शशिमणिशिला=सैवेयं चन्द्रकान्तमणिशिलाऽस्ति। यस्यां=मणिशिलायां। समुपविष्टा सती। मयि=अरसिकशिरोमणौ शठे जीमूतवाहने।चिरंकुर्वति–चिरयति=सङ्केतस्थलागमने विलम्बं कुर्वाणे सति। एतेन इयमेव चन्दनलताकुञ्जमध्यवर्त्तिनी मणिशिला प्रियया सङ्केतस्थानत्वेन कल्पिताऽऽसीत्। तत्रसा त्वायाता, परं मया मौर्ख्यादन्नागमने विलम्बः कृत इत्याशयो ध्वनितः। विपाण्डुरं=मद्विरहेण विगतच्छायं। म्लानम्। आननं=मुखं। वामे कर-
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विदूषक—(बेसुध नायक को हाथ से हिला कर) मित्र ! मैं कह रहा हूँ कि- ‘यही वह चन्द्रमणि शिला है’।
नायक—(आँसू गिराता हुआ ऊँची गर्म श्वास लेकर—) मित्र ! तुमने ठीक ही पहिचाना। (हाथ से दिखा कर—)
यह वही चन्द्रमणि शिला है जहाँ विरह से पीले पड़े हुए अपने मुख को बाएँ कर किसलय (हाथ) पर रखकर, गहरे व लम्बे २ श्वास छोड़ती हुई,
अतस्त्वस्यामेव चन्द्रमणिशिलायामुपविशावः।
[ उभावुपविशतः ]।
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किसलये कृत्वा=वामे हस्तपल्लवे निधाय। पल्लवपदोपादानात्करतलस्यातिमृदुलत्वं, रक्तवर्णतया नितरां लोभनीयत्वं च सूचितम्। घनः=निबिडतमः, श्वसितानां=दीर्घोच्छ्वासानाम्, उद्गमः=आविर्भावः, उद्भवो यस्याः सा—घनश्वसितोद्गमा=निबिडतमान् श्वासान् मुहुर्मुहुर्मुञ्चन्ती। किञ्च–भ्रुवोः=भ्रुकुट्योः। मनाक्=ईषत्। स्फुरितैः=स्फुरणैः। कम्पैः। मनाक=ईषत्।व्यक्तः=प्रकटीभूतः, आकूतः=अभिप्रायो यस्याः सा–मनाक्—व्यक्ताकूता=किञ्चित् प्रकटिताशया। प्रकटितानुरागातिशया।कामावेशादेव भ्रुवोः स्फुरणमित्याशयः। ‘व्यक्ताकूता—‘प्रकटितप्रणयकोपे’ त्यर्थो वा। विरमितो मनसो=मनोगतो, मन्युः=कोपो यस्याः सा–विरमितमनोमन्युः=उपशमितमनोगतप्रणयकोपा। ‘मन्युर्दैन्ये क्रतौ क्रुधि’ इत्यमरः। कामावेगादेव च व्यपगतप्रणयकोपेत्यर्थः। एतेन—‘मनोगत एव मन्युर्व्यपगतो नतु बाह्यः प्रणयकोपः इति केषां चिद्व्याख्यानं पराहतं’ तथा व्याख्याने चमत्काराऽभावाच्च। अतएव—रुदती=विरहावेगाद्रोदनपरायणा। प्रिया=कान्ता। मया दृष्टा=स्वप्ने मयाऽत्रोपविष्ठा दृष्टा। हरिणी वृत्तम्। ‘रसयुगहयैर्न्सी म्रीस्लौ गो यदा हरिणी तदा’ इति तल्लक्षणम्॥६॥
अतस्त्वस्यामेव चन्द्रमणिशिलायामुपविशावः=यत इयं मत्प्रियावस्थानमनोहरा, अत एवात्रैवावां समुपविशावः। उभौ=नायकविदूषकौ। उपविशतः= चन्द्रकान्तमणि-शिलायामुपविशतः।
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तथा मेरे आने में कुछ विलम्ब होने से (मान से) किंचित् चढ़ी हुई भ्रुकुटी से जिसका मनोगत अभिप्राय (प्रणय कोप) स्पष्ट मालूम हो रहा था, परन्तु मेरे आ जाने से जिस का मनोगत कोप कुछ शान्त हो गया था–ऐसी अपनी प्राणप्यारी को मैंने स्वप्न में आज देखा था॥६॥
अतः आओ इसी चन्द्रमणि शिला पर ही बैठें। (दोनों उस शिला पर बैठते हैं)।
** नायिका**— [ विचिन्त्य–] का उण एसा हुविस्सदि ?।
[ का पुरेषा भविष्यति ? ]।
चेटी—भट्टिदारिए ! जधा अम्हे ओबारिदा दाब एवं पेक्खम्ह, म्रा णाम तुमपि एव्वं दिट्टा।
[ भर्तृदारिके ! यथा आवामपवारिते तावदेनं प्रेक्षावहे, मा नाम त्वमप्येवं दृष्टा ] ।
** नायिका**—जुज्जदि एदं। किं उण पणअकुबिदं पिअअणं हिअए करिअ मंतेदि ?।
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नायिका स्वमनसि विचिन्तयन्ती चेटीं पृच्छति–का पुनरिति। नायकनिर्दिष्टा तत्प्रिया का खलु भविष्यति, यस्या अयमित्थं स्मरतीत्याशयः। चेटी नायिकाया औत्सुक्यं दृष्ट्वा सान्त्वयति–यथेति। यथा=येन प्रकारेण। अपवारिते=वृक्षान्तरिते भूत्वा। एनं=नायकं। प्रेक्षावहे=पश्यावः। मा नाम=कदाचित्।त्वमप्येवं दृष्टा=तथैवाऽयमपि नायकः कदाचिद्वृक्षान्तरितो भूत्वा किं नु त्वां दृष्टवान्। यथा वयं निगूढा एनं पश्यावस्तथैवानेनापि निगूढेनैव स्थित्वा विरहकातरा कदाचित्त्वमेव दृष्टाऽसि। अतस्त्वामेव निर्दिश्याऽयं शोचतीति चेढ्याः सान्त्ववाक्यम्। नायिकाऽपि
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नायिका—(कुछ सोच कर–) अरी चेटी ! यह कौन स्त्री हो सकती है जिसको इन्होंने आज स्वप्न में देखा है?।
चेटी—राजकुमारी जी ! हम लोग यहां छिप कर बैठी हुई हैं। कहींइन्होंने आपको ही इस अवस्था मेंअतः ये यहाँ कहीं यहाँ बैठे देख लिया होगा ?।अतः ये आपके ही विषय में बात कर रहे हैं किसी दूसरी नायिका के विषय में, बात नहीं कर रहे हैं।
नायिका—ठीक है, यह हो सकता है। परन्तु प्रणय कुपित किसी प्रियजन को मन में रख कर ये बातें क्यों कर रहे हैं ?। अर्थात् मैं तो प्रणय कुपिता नहीं हूँ। अतः ये मेरे विषय में बात न कर किसी दूसरी ही हृदयस्थित प्रिया के विषय में बातें कर रहे हैं। अतः ये किसी दूसरी ही पर आसक्त हैं, मेरे पर नहीं।
[युज्यते एतत्। किं पुनः प्रणयकुपितं प्रियजनं हृदये कृत्वा मन्त्रयति ?]।
** चेटी**—भट्टिदारिए ! माईरसिं सङ्कं करेहि। पुणोबि दाव सुणम्ह।
[भर्तृदारिके ! मा ईदृशीं शङ्कां कुरुष्व। पुनरपि तावच्छृणुत्रः]
विदूषकः—[आत्मगतम्–] अहिरमदि एसो एदाए कधाए, भोदु एवं जेव्व वड्ढाइस्सं। [प्रकाशं—] भो वअस्स ! तदा सा तुए रुदती किं भणिदा?।
[अभिरमते एष एतया कथया, भवतु एतामेव वर्द्धयिष्यामि। भो वयस्य ! तदा सा त्वया रुदती किं भणिता?]।
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तद्वाक्यं श्रुत्वा सन्तुष्टा ब्रूते—युज्यत इति। सम्भाव्यते एतत्। कदाचिदनेनाऽहं निगूढेन विरहकातरा शिलातलोपविष्टाऽत्र दृष्टा भवेयमिति सम्भाव्यते एतदित्यर्थः। अथवा–‘का पुनरेषा भविष्यतीत्यौत्सुक्यं दृष्ट्वा नायिकां चेटी निषेधतियदावां गुप्तरूपेणाऽत्र स्थिते, तत्तूष्णीमावाभ्यां स्थातव्यम्, अन्यथाऽयं त्वां कदाचित्पश्येत्, अतस्तूष्णीमास्वेति। नायिकाऽपि स्वीकरोति–युज्यत इति। किंपुनरिति। अयं नायकः, प्रणयकुपितं=स्नेहकुपितं, प्रियजनं=मदतिरिक्तं स्वप्रियजनं, हृदये कृत्वा=स्मृत्वा। तमुद्दिश्य। किं मन्त्रयति=किं कथयति। शङ्कां=‘मदतिरिक्तां कां खलु प्रियां स्मरन्प्रार्थयते’ इतीदृशीं शङ्कां। मा कुरुष्व=मा कार्षीः। त्वामेवाऽयं कदाचित्स्मरतीत्येव मे निश्चय—इति चेंटीवाक्यस्यार्थः। पुनरपि शृणुवः=किमयं मन्त्रयते तत्तावच्छृणुवः। आत्मगतं=स्वयमेव नायकमश्रावयन् परामृशति। अभिरमते=प्रसीदति। आनन्दमनुभवति। एषः=नायकः। एतया कथया=स्वप्नदृष्ट प्रियाविषयिण्या वार्त्तया। भवतु=अस्तु तावत्। अस्यानुरञ्जनाय–एतामेव=इमामेव प्रियकथाम्। वर्द्धयिष्यामि=प्रचारयामि। अनुवर्त्तयामि। प्रकारां=नायकमश्रावयन् ब्रूते। तदा=स्वप्ने। सा=प्रिया। किं भणिता=किमुक्ता। तदनुरञ्जनाय भवता किमुक्तं। सा सान्त्ववाक्यैस्त्वया
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चेटी—राजकुमारी जी ! ऐसी निराधार शङ्का आप मत करिए। और भी आगे इनकी बातें सुननी चाहिए।
विदूषक–(मन ही मन—) यह नायक इस (स्वप्न दृष्ट नायिका की) बात से प्रसन्न होता है। अच्छा, इसे प्रसन्न करने को इसी प्रसन को मैं आगे
** नायकः**—वयस्य ! इदमुक्ता—
निष्यन्दत इवाऽनेन मुखचन्द्रोदयेन ते।
एतद्बाष्पाम्बुना सिक्तं चन्द्रकान्तशिलातलम्॥७॥
** नायिका**—[सरोषम्] (सुदं एदं)। चदुरिए227%20सुदंएदं%20चउरिए।%20अत्थिं%C2%A0किंपि%20अदोवरं%20सोदव्वं।%20(सास्रं)%20एहि%20गच्छम्ह।%20%5B(सरोषं)%20श्रुतमेतच्चतुरिके।%20अस्ति%20किमप्यतः%20परं%20श्रोतव्यम्।%20एहि%20गच्छावः%5D%20पा०। “(सरोषं) सुदंएदं चउरिए। अत्थिंकिंपि अदोवरं सोदव्वं। (सास्रं) एहि गच्छम्ह। [(सरोषं) श्रुतमेतच्चतुरिके। अस्ति किमप्यतः परं श्रोतव्यम्। एहि गच्छावः] पा०।”) ! अस्थि किं अदो
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आश्वासिता नवा, किन्नु खलु त्वया तदानीमुक्तमिति प्रश्नाशयः। वयस्य=हे सखे। इदमुक्ता=वक्ष्यमाणं वचनं मया कथिता।
तदेव वचनं निर्द्दिशति—निष्यन्दत इति। बाष्पाम्बुना=त्वल्लोचनयुगलात्प्रस्रवता अश्रुजलेन।सिक्तम्=क्लिन्नम्। आर्द्रम्। एतत्=इदं। चन्द्रकान्तमणिशिलातलं=चन्द्रकान्तमणिशिलातलम्।ते=तव। अनेन=एतेन। मुखचन्द्रस्य=आननेन्दोः, उदयेन= आविर्भावेण। उद्गमेन। सम्पर्केण। निष्यन्दत इव =द्रवतेइव। रोदितीव। प्रक्षरतीव। त्वद्रोदनदुःखाज्जलप्रवाहं मुञ्चतीव। तद्विरम रोदनात्। प्रसीदास्मासु इति प्रार्थनेयमित्याशयः। अनुष्टुप्छन्दः॥७॥
एवं नायकस्य स्वप्नदृष्टप्रसङ्गवर्णनेऽपि जाग्रदवस्थाबुद्ध्या अन्यनायिकानुरक्तोऽयजिति मत्वा प्रणयकोपेन नायिका चेटीमाह—सरोषमिति। सरोषं=सक्रोधम्।
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बढ़ाता हूँ। (प्रकट में—) हैं मित्र ! तब आपने रोती हुई अपनी उस प्राणप्रिया से क्या कहा?।
नायक—मित्र ! उससे मैंने कहा कि—हे प्रिये ! तुम्हारे आँसुओं से यह चन्द्रकान्तमणिशिलाखण्ड गीला हो रहा है, मानों तुम्हारे प्रकाशमान मुख चन्द्र को देखकर यह चन्द्रकान्त शिलातल ही स्वयं जललाव कर रहा है।
भावार्थ—चन्द्रकान्तमणि चन्द्रमा को देखकर जल स्राव करती है–यह लोक प्रसिद्ध है। यह चन्द्रकान्त शिलाखण्ड भी आँसुओं से भीग रहा है। अतः मानों तुम्हारे मुखचन्द्र के प्रकाश से ही जल स्राव कर रहा है॥७॥
नायिका—(इसे दूसरी नायिका का वर्णन समझकर क्रोध के साथ) अरी चतुरिके ! सुन लिया ! क्या इससे भी अधिक अब और कुछ सुनना बाकी रह गया है ?।
बि अबरं सोदव्वं ! (साऽस्रं215–) (ता) एहि, (अण्णदो) गच्छम्ह।
[श्रुतमेतत्–चतुरिके ! अस्ति किमतोऽप्यपरं श्रोतव्यम्?।(सास्रं–) तदेहि, (अन्यतो) गच्छावः।
चेटी—[हस्ते228%20भट्टिदारिए%20!%20मा%20एवं।%20जेण%20तुमं%20दिट्ठा,%20सो%20अण्णं%20उद्दिसिअ%20एवं%20भणिस्सदि%20त्ति%20णमे%20हिअअं%20पत्तिआअदि।%20ता%20कहावसाणं%20दाव%20पडिवालम्ह’।%20%5B(हस्ते%20गृहीत्वा)%20भर्तृदारिके%20!%20मैवं।%20येन%20त्वं%20दृष्टा,%20सोऽन्यामुद्दिश्यैवं%20भणिष्यतीति%20न%20मे%20हृदयं%20प्रत्येति।%20तत्कथावसानं%20तावत्प्रतिपालयावः%20%5D “चेटी—(हस्तेन गृहीत्वा) भट्टिदारिए ! मा एवं। जेण तुमं दिट्ठा, सो अण्णं उद्दिसिअ एवं भणिस्सदि त्ति णमे हिअअं पत्तिआअदि। ता कहावसाणं दाव पडिवालम्ह’। [(हस्ते गृहीत्वा) भर्तृदारिके ! मैवं। येन त्वं दृष्टा, सोऽन्यामुद्दिश्यैवं भणिष्यतीति न मे हृदयं प्रत्येति। तत्कथावसानं तावत्प्रतिपालयावः ]”) गृहीत्वा—] भट्टिदारिए ! एव्वं मा भण, तुमं एव्व सिबिए दिट्ठा, ण एदस्स अण्णस्सिं दिट्ठी अहिरमदि।
[भर्तृदारिके ! एवं मा भण, त्वमेव स्वप्ने दृष्टा,नैतस्याऽन्यस्यां दृष्टिरभिरमते]।
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सप्रणयकोपम्। श्रुतमेतदिति। नायिकान्तरासक्तस्य नायकस्य। एतत्=नायिकानुनयवचनादिकं, श्रुतं=समाकर्णितमेवेत्यर्थः। अश्रोतव्यमपि अप्रियमपि श्रुतमेव मयेति यावत्। अस्तीति। इतोऽप्यधिकं श्रोतव्यं किमवशिष्यते?। न किमपि श्रोतव्यमिदानीमवशिष्यते। अन्यासक्तोऽयमिति ज्ञातमेव मयेत्याशयः। साश्रं (साऽस्रं)=सबाष्पम्। तदेहि=तदागच्छ। गच्छावः=अन्यत्र गच्छावः।
हस्ते गृहीत्वा=बलाद्गच्छन्तीं हस्तेन धृत्वा वारयन्ती। एवं मा भण=मैवं वादीः। ‘इतःपरमप्रियं किं श्रोतव्य’मितीत्थं मा वोचः। अनेन त्वमेव खलु स्वप्ने दृष्टाऽसि। अतस्त्वामधिकृत्यैवैष विलपति। एतस्य=नायकस्य। अन्यस्यां=त्वदतिरिक्तायां कस्यामपि योषिति। न दृष्टिरभिरमते=न मनोऽभिरमते। अतस्त्वय्येवाऽयमासक्त इति विश्वसिहीत्याशयः। अयं मय्येवाऽनुरक्त इत्यत्र प्रमाणाऽभावात् न मे हृदयं
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अर्थात्—[अव तो स्पष्ट हो ही तो गया कि ये किसी दूसरी ही अपनी प्राणप्रिया के विषय की ही बात कर रहे हैं। अतः चल, दूसरी जगह चलें। अब कुछ सुनना बाकी नहीं रह गया।
चेटी—(हाथ पकड़ कर) राजकुमारी जी ! ऐसा मत कहो। इस नायक की आप से अतिरिक्त किसी दूसरी नायिका में आसक्ति नहीं है। आपको कुछ भ्रम हो गया है। पर ऐसी बात तो नहीं मालूम होती है।
** नायिका**—ण मे हिअअं पतिआअदि, ता कहावसानं जाव पडिवालेम्ह।
[न मे हृदयं प्रत्येति, तत्कथाऽवसानं यावत् प्रतिपालयावः]।
नायकः—‘वयस्य229 ! (जाने230) तामेवास्यां शिलायामालिख्य,
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प्रत्येति=न मे मनसि विश्वास उत्पद्यते। न मे मनोऽत्र प्रत्ययं गच्छति। अस्तु त्वदनुरोधेन दृढनिश्चयार्थं-तत्=तस्मात्कारणात्। कथावसानं यावत्=एतदालापपरिसमाप्तिपर्यन्तं यावत्। प्रतिपालयावः=प्रतीक्षावहे। धैर्यं तावद्वध्नामीत्याशयो नायिकायाः।
अन्र—“बेटी (हस्तेन गृहीत्वा–) भर्तृदारिके ! मैवम्। येन त्वं दृष्टा सोऽन्यामुद्दिश्यैवं भणिष्यतीति न मे हृदयं प्रत्येति। तत्कथावसानं तावत्प्रतिपाल्यावः। नायकः–वयस्य–“इति पाठो दाक्षिणात्यपुस्तके वर्त्तते। स एव च शोभनः। तत्र–भर्त्तृदारिके! मैवं–वादीः। येन=नायकेन, त्वं=सकलसुन्दरीश्रेष्ठा, दृष्टा=प्रत्यक्षीकृता, सोऽन्यां=त्वदतिरिक्तां नायिकामुद्दिश्य। एवं=तां प्रसादयितुमेवं चाटुवचनानि। भणिष्यति=कथयिष्यतीति, न मे हृदयं=मनः, प्रत्येति=विश्वसिति। तत्=तस्मात्। निश्चयार्थं–कथावसानं=प्रसङ्गसमाप्तिं यावत्, प्रतिपालयावः=प्रतीक्षावहे इत्यर्थः।
चन्द्रकान्तमणिशिलाफलके नायिकामदृष्ट्वाऽरतिसमुद्विग्नमानसो नायकस्तत्प्रतिकृतिं विलिख्याऽऽत्मानं विनोदयितुमिच्छुश्चिन्त्रकर्म सामग्रीसमवधानाय विदूषकं विनियुङ्क्ते–वयस्येति। तामेव=स्वप्नदृष्टां स्वप्रियामेव। अस्यां शिलायां=
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नायिका—मेरा मन तो तेरी बातों पर विश्वास नहीं कर रहा है। अच्छा, इनकी बातें पूरी होने तक हमें यहाँ बैठना चाहिए। और इनकी पूरी २ बातें सुन कर कुछ निर्णय हो सकता है।
नायक—मित्र ! मेरी इच्छा है कि उस स्वप्न दृष्टा प्रिया की मूर्ति को इस चन्द्रकान्तमणि शिलातल पर लिखकर मैं अपने मन को सन्तुष्ट करूँ। अतः तुम इस मलय पर्वत के नीचे से मैनशिल धातु के कुछ टुकड़े लेकर शीघ्र आओ।
तया चित्रगतयाऽऽत्मानं विनोदयेयमिति231। तदित एव गिरितटान्मनः–शिलाशकलान्यादायऽऽगच्छ232।
** विदूषकः**—जं भवं आणबेदि। [परिक्रम्य।233 गृहीत्वोपसृत्य–] भो बअस्स ! तुए एक्को वण्णो234 आणत्तो।” मए235 उण इध पव्वदादो पञ्चवण्णा आणीदा, ता आलिहदु भवं।\—[उपनयति236]
[यद्भवानाज्ञापयति।भो वयस्य ! त्वयैको वर्ण आज्ञप्तो, मया पुनरिह पर्वतात् पञ्चवर्णा अनीताः। तदालिखतु भवान्]।
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चन्द्रकान्तमणिशिलायाम्, आलिख्य=चित्रपटे समालिख्य।तया=प्रियया। चित्रगतया= चित्रस्थयैव। आत्मानं= स्वमानसं।विनोदयेयमिति=सन्तोषयेयमिति,मे समीहा वर्त्तते।तत्= तस्मात्। इत एव गिरितटात्=अस्मादेव मलयपर्वतपरिसरप्रदेशात्। मनःशिलाशकलानि= चित्रकर्मोपयोगिमनःशिला—(मैनसिल)ऽख्यधातुखण्डानि ‘मनःशिला मनोगुप्ता मनोह्वा नागजिह्विका। नेपाली कुनटी गोला’ इत्यमरः। आदाय= गृहीत्वा। आगच्छ= सत्वरमायाहि। येन चित्रकर्म प्रसिद्ध्येदित्यर्थः। “वयस्य, जाने–“इत्यादि पाठान्तरे–हे मित्र ! तां चन्द्रकान्तशिलायामालिख्य स्वचितं तावद्विनोदयामीति, जाने= मम मनसि स्वचित्तसान्त्वोपायः प्रतिभासते इत्यर्थो बोध्यः।विदूषकस्तन्मनोरथं विदित्वा गैरिकादिरञ्जनधातुसमानयनाय गच्छति–यथेति।यथा=येन प्रकारेण।गिरिधातुसमानयनाय, भवानाज्ञापयति=भवान् मां विनियुङ्क्ते।‘तथा सम्पादयामी’ति शेषः।
परिक्रम्य=किञ्चिद्दूरं पर्वतसमीपं गत्वेव। गृहीत्वा=धातुखण्डान्यादाय।उपसृत्य=पर्वततटात्प्रत्यावृत्य निकटे गव्वा। ‘ब्रूते’ इति शेषः।अत्र–‘निष्क्रम्य, प्रविश्ये’ति
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विदूषक—जैसी आपकी आज्ञा। ( कुछ दूर जाकर तथा रंग बिरंगे पत्थरों के टुकड़े लेकर पास में आकर—) मित्र ! आपनें तो केवल मैनशिल के टुकड़े लाने को ही कहा था परन्तु मैंने तो इस पर्वत में अनायास मिलने वाले पाँचों रंग के पत्थर
** नायकः**—वयस्य ! साधु कृतम्।
[गृहीत्वा शिलायामालिखन् सरोमाञ्चं—] सखे ! (पश्य) पश्य,
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पाठान्तरे—निष्क्रम्य=बहिर्गत्वा। प्रविश्य=पुनरागत्येत्यर्थः। त्वयैको वर्ण आज्ञप्तः=त्वया एकवर्ण–(कुनटी) धातुखण्डान्यानेतुं समाज्ञप्त आसम्। परं– मया=बुद्धिमता उचितज्ञेन। इह पर्वतात्=अस्मान्मलयपर्वतात्। पञ्चवर्णाः=श्वेत–कृष्ण–नीलपीत रक्ताख्य–पञ्च रागवर्णाः। आनीताः=समानीताः। वत्=तस्मात्। आलिखतु=स्वप्रेयसीचित्रं लिखतु भवान्। ‘मया पुनरिहैव सुलभाः पञ्चरागिणो वर्णकाः समानीता इत्यालिखतु भवान्’ इति पाठान्तरम्। तत्रइहैव=मलयाचले।सुलभाः=अनायासलभ्याः। पञ्चरागिणः=पञ्चविधरागशालिनः। वर्णयन्ति रज्जयन्तीति वर्णकाः=गैरिकादिधातवः। समानीताः।=आनीताः। इति=हेतोः, चित्रमालिखतु भवानित्यर्थः। उपनयति=ददाति। ‘उपनयतीति पाठो दक्षिणात्यकोशे नास्ति। साधु कृतम्=उचितं कृतम्। एभिः पञ्चभिर्वणैः प्रियायाः प्रतिकृतेः शोभनतया लेखनं भविष्यतीत्याशयः। गृहीत्वा=वर्णखण्डानि गृहीत्वा। शिलायां=चन्द्रकान्तमणिशिलाफलके। आलिखन्=स्वप्नदृष्टप्रियाचित्रं लिखन्। सरोमाञ्चं=सरोमोद्गमम्। इत्थमाहेति शेषः। ‘पश्य पश्येति सम्भ्रमे द्विरुक्तिः। क्वचित्तु ‘पश्येत्येव पाठः।
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के टुकड़े ला दिए हैं। इन से अपनी प्रिया को प्रतिमा लिखिए। (रंगीन पत्थर के टुकड़े देता है)।
नायक—मित्र ! तुमने अच्छा किया। (रंगीन पत्थर के टुकड़े लेकर चन्द्रमणि शिलातल पर अपनी प्रिया की प्रतिमा लिखता हुआ रोमाञ्चित हो–)
मित्र ! देखो, देखो — पूर्ण एवं मेघादि से अनावृत प्रकाशमान विम्ब की शोभा धारण करने वाले, तथानेत्रों को आनन्दित करने वाले चन्द्रमा की रेखा भी (दूज का कलात्मक चन्द्र भो) जैसे हृदय को आनन्दित करती है, वैसे ही पूर्ण चन्द्रमा की शोभा को धारण करने वाले, तथा लाल बिम्ब फल (करौंदा) की तरह अधरोष्ठ वाले, नयनों को आनन्दित करने वाले प्रिया के मुख की रेखा भी (उसका अधूरा चित्र भी) मेरे मन को आह्लादित व सुखी कर रहा है। अर्थात्–
अक्लिष्टविम्बशोभा–(ऽ) घरस्य नयनोत्सवस्य शशिन इव।
दयितामुखस्य सुखयति रेखाऽपि प्रथमदृष्टेयम्॥८॥
[—आलिखति]।
** विदूषकः**—[सकौतुकं निर्वर्ण्य —] भो वअस्स237 अपच्चक्खवि णाम
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अक्लिष्टेति। अक्लिष्टं=स्वतः कालेनैव सुपक्कं बिम्बं=बिम्बफलं—(करौंदाख्यम्),–अक्लिष्टबिम्बम्, अक्लिष्टविम्बस्य शोभेव शोभा यस्यासौ–अक्लिष्टबिम्बशोभः, अक्लिष्टबिम्बशोभः अधरो यस्य तत्–अक्लिष्टबिम्बशोभाऽधरं तस्य–अक्लिष्टबिम्बशोभाऽधरस्य=सुपक्वबिम्बीफलसदृश शोणाऽधरविराजितस्य। नयनयोरुत्सवः=आनन्दो येन तत्–नयनोत्सवं, तस्य–नयनोत्सवस्य=लोचनानन्दप्रदस्य। दयितामुखस्य=प्रियामुखस्य। ‘दयितं वल्लभं प्रियम्’ इत्यमरः। [अक्लिष्टा=अखण्डिता, मेधायाच्छादकाभावेन परिपूर्णा, विम्बस्य=मण्डलस्य (‘बिम्बोऽस्त्री मण्डलं त्रिपु इत्यमरः) शोभा-अक्लिष्टबिम्बशोभा, धरतीति धरः, अक्लिष्टबिम्बशोभाया धरः, तस्य अक्लिष्टबिम्बशोभाधरस्य=अकलङ्क परिपूर्णमण्डलशोभा विराजितस्य। नयनोत्सवस्य=नयनानन्ददायिनः]—शशिन इव=चन्द्रस्येव। प्रथमदृष्टा=प्रथमविलोकिता।[चन्द्रपक्षे–प्रथमदृष्टा=द्वितीयायां प्रथमं दृष्टा]।इयं रेखाऽपि=प्रियामुखचित्ररेखाऽपि। [चन्द्रपक्षे–रेखाऽपि=चन्द्ररेखाऽपि]। सुखयति=आनन्दयति। यथा चन्द्रस्यरेखाऽपि द्वितीयायां दृष्टा नयनानन्दं जनयति तथैवेयं कान्तामुख रेखाऽपि चित्रे लिखिता मामतितरामानन्दसागरे निमज्जयतीत्याशयः। आर्या ॥८॥
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शरद ऋतु के चमचमाते हुए तथा हृदय को और नेत्रों को सुख देने वाले चन्द्रमा की रेखा भी आनन्दित करती है, ऐसे भी मेरी प्रिया के सुन्दर मुख की यह अधूरी रेखा भी मुझे आनन्दित कर रही है। पूरा २ मुख मण्डल का चित्र जब बन जाएगा तब तो मेरे आनन्द का कहना ही क्या है॥८॥
[फिर चित्र लिखने में लग जाता है]।
विदूषक—(आश्चर्य और उत्सुकता से अच्छी तरह चित्र को देखकर—)
एव्वंरूअं आलिहीअदि त्ति(अहो215) अच्चरिअं !।
[अप्रत्यक्षमपि एवं नाम रूपमालिख्यते इति (अहो) आश्चर्य्यम् ! ]।
नायकः—[सस्मितं—] वयस्य !
प्रिया सन्निहितैवेयं सङ्कल्पस्थापिता पुरः।
दृष्ट्वा दृष्ट्वा लिखायेनां यदि तत्कोऽत्र विस्मयः ?॥६॥
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आलिखति=इत्थं चित्ररेखाप्रशंसां कुर्वन्नायकः प्रियाचित्रं पूरयति। विदूषको रम्यं सर्वाङ्गसुन्दरं चित्रमालिखितं दृष्ट्वा नायकचित्रलेखनकौशलस्य प्रशंसां कुर्वन्नाह-भो वयस्येति। अप्रत्यक्षमपि=पुरतोऽवर्त्तमानमपि। अदृष्टमपि। एवं नाम=इत्थं सर्वाङ्गसुन्दरं। सर्वाङ्गपरिपूर्ण च। रूपम्=आकृतिः। आलिख्यते=चिन्नेत्वया लिख्यते। इत्याश्चर्यम्=अहो ते रूपचित्रणकौशलम्। ‘अप्रत्यक्षेऽपि एवं नाम रूपं लिख्यते’ इति पाठेअप्रत्यक्षेऽपि=पुरतोऽवर्त्तमाने नायिका–(प्रिया)रूपे वस्तुनि सत्यपि। त्वया–रूपं=तदाकृतिः। तत्संवादिनी प्रतिकृतिः। एवं नाम=ईदृशेन कौशलेन। एवं त्वरया, स्पष्टतया च। लिख्यते=चित्रे विलिख्यते इत्यर्थो बोध्यः।
स्वप्रशंसां श्रुत्वा प्रसन्नो नायकः स्वगंर्व परिहरन्, स्वप्रेम्णः परां काष्टांच दर्शयन्नाह—(सस्मितं) वयस्येति। सस्मितम्=ईषद्धसन्! ईषद्धासश्च स्वप्रशंसया, विदूषकस्य स्मरशरलक्ष्यताऽप्राप्तिविरहेण प्रेममार्गाऽपरिचयेनाऽवज्ञयाचेति बोध्यम्।
प्रियेति। सङ्कल्पैः=तद्गतैर्नानाविधैर्मनोरथैः। ‘सङ्कल्पः कर्म मानसम्’ इत्यमरः। संनिहितैव=निकटे स्थितैव। पुरत आनीतैव। इयं=पुरतो मन चेतसि भासमाना।
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अहो ! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि—आपके सामने आपकी प्रिया का मुख न होने पर भी (उसे बिना देखे ही) आप उसका ऐसा सुन्दर व पूरा २ चित्र उतार रहे हैं। यह तो बढ़े ही आश्चर्य की बात है।
नायक—(हँसकर) मित्र ! मेरी वह प्रिया तो मेरे मन में बैठी हुई है, अतः मेरे सामने ही वह विद्यमान है। उसो को देख देख कर हो इस चित्र
** नायिका**— [सास्रं—] चदुरिए। ‘जादं238क्खु कहावसानं, ता एहि अय्य मित्तावसुं दाव पेक्खह्म।
[ चतुरिके ! जातं खलु कथाऽवसानं, तदेहि, आर्यमित्रावसुं तावत्पश्यावः]।
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प्रिया=मत्प्रेयसी गौरीभवने दृष्टा सैव मलयवती। पुरतः=अग्रतः। स्थापिता=निवेशिता। यद्वा–‘सङ्कल्पैः संनिहिता इयं प्रिया मया पुरतः स्थापितैव’ इत्यन्वयः। यदि=चेत्। एनां=मनसा पुरतो निहितां प्रियाम्। दृष्ट्वा दृष्ट्वा=मुहुर्मुहुर्दृष्ट्वा। लिखामि=तच्चित्रं लिखामि। तत्प्रतिकृतिमालिखामि। तत्=तर्हि ।अत्र=मच्चित्रस्य सर्वाङ्गपूर्णत्वे। को विस्मयः=किमाश्चर्यम्। किं च प्रशंसार्हं मे कौशलमित्यर्थः। यदीति–यदर्थे वा निपातः। एत्थञ्च तदिति प्रयोगः स्वरसत उपपद्यते। एतेन नायिकाविषयोऽनुरागो नायकस्य परां काष्टामापन्नो, येन सर्वा दिशस्तन्मयतयैवाऽयं पश्यतीति ध्वनितम्॥९॥
इत्थं नायकविदूषकयोरालापं समाकर्ण्य नायके नितरामासक्ताऽपि नायिका ‘नायकोऽयमन्यस्यां नायिकायामासक्तस्तच्चित्रं लिखति, तां चमुहुर्मुहुः स्मरतीति निश्चित्य दुःखितहृदया, निराशा च सती दीर्घमुष्णं च, सास=साश्रुपातं, अग्नमनो-रथतया रुदती चेटीं ब्रूते—चतुरिके इति। जातं=निप्पन्नम्।कथावसानं=प्रसङ्गसमाप्तिः। निश्चितश्चाऽयमन्यस्यामनुरागीति मया। तत्=तस्मात्। इहा–
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को लिख रहा हूँ। अतः इसमें आश्चर्य की क्या बात है। अर्थात् प्रिया के सामने न रहने पर मैं यदि उसका इतना सुन्दर व सच्चा चित्र बनाता तो अवश्य आश्चर्य की बात होती, परन्तु वह प्रिया तो मेरे मन में बैठी है, मानसिक संकल्प द्वारा मैंने उसे अपने पास ही बैठा रखा है, उसे ही देख २ कर यदि ऐसा सच्चा चित्र मैं बना रहा हूँ तो इसमें आश्चर्य और कौशल की बात ही क्या है। भावार्थ—मेरी प्रिया तो प्रतिक्षण मेरे हृदय में ही बैठी (उपस्थित) रहती है, एक क्षण के लिए भी मैं उसे नहीं भूल रहा हूँ॥६॥
नायिका–(आँसू बहाती हुई—) अरी चतुरिके ! अब इस प्रसङ्घ का पूरा २ अवसान (अन्त) तो जान ही लिया गया (अर्थात् यह नायक तो
चेटी—[ सविषादमात्मगतं—] हं जीविदणिरवेक्खो विअ से ‘आलाबो239। (प्रकाश—) भट्टिदारिए ! णं गदा एव्व तहिं मणोहरिआ, ताकदाइ240 भट्टिदारिओ241 ! मित्तावसू इध एव्व आअच्छे242।
\ हा धिक् जीवितनिरपेक्ष इवास्या आलापः। भर्तृदारिके ! " [ननु243 गतैव तत्र मनोहारिका, तत् कदाचिद्भर्तृदारको मित्रावसुरिहैवागच्छेत् ]।
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वस्थानस्येदानीं निष्फलत्वात्। एहि=आगच्छ। आर्यमित्रावसुं=ज्येष्ठभ्रातरं मेमित्रावसुं नाम। पश्यावः=दृष्टुं गच्छावः। इत्थमुक्त्या नायिकाया अन्तर्वर्त्तमानं महान्तं क्लेशं, सन्तापं च विदित्वा चेटी खिन्ना सती स्वगतं विचारयति–हमिति ! हमिति विषादपीडाद्योतकमव्ययं प्राकृते प्रसिद्धम्।( हं=आह ! हाय ! ) जीवितनिरपेक्ष इव=प्राणनिरपेक्ष इव। कृतप्राणत्यागनिश्चयाया इव। अस्याः=भर्त्तृदारिकायाः। आलापः=संभाषणं—प्रतीयते। प्रियस्यान्यासक्ततां बुद्ध्वा सम्प्रतीयं खण्डितमनोरथा सती मरणे कृतनिश्वयेव ( भाषणेन ) ज्ञायते। तदस्याः सान्त्वनं कथञ्चित्संपादयामीति चेट्याशयः। प्रकाशं=नायिकां श्रावयन्ती। इत्थमाहेति शेषः। तत्र=आर्यमित्रावसुं द्रष्टुम्। मनोहरिका=द्वितीया चेटी। गतैव=त्वत्प्रेषिता सती गतैव। मित्रावसुप्रवृत्तिं विचेतुं द्वितीया चेटी गतैव, अतोऽस्मद्गमनं तदर्थं नोचितं तदिहैव स्थित्वा नायकमुखावलोकनसुखमनुभव, लद्वार्त्तालापश्रवणेन कथंचिदात्मानं विनोदय तावदिति गूढश्चेट्याशयः।
भर्त्तृदारकः =राजपुत्रः। युवराजः। ’ भर्त्ता’ इति पाठे तु–युवराजत्वेन राजतुल्य–
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किसी अन्य ही कान्ता पर अनुरक्त है, मेरे ऊपर आसक्त नहीं है)। अब यहाँ ठहरने की आवश्यकता नहीं है। न आगे मुझे अब कुछ सुनना ही है। अतः आओ, भाई मित्रावसु के देखने (खोजने) चलें।
चेटी—(बड़े खेद के साथ मन ही मन) इसकी (मलयवतीकी) यह निराशापूर्ण बात तो ऐसी मालूम होती है जैसे इस ने हताश हो कर अब अपने जीवन का ही अन्त करने का निश्चय कर लिया है। (प्रकट में -)
[ ततः प्रविशति मित्रावसुः ] \।
** मित्रावसुः**–आज्ञापितोऽस्मि तातेन, यथा–‘वत्स मित्रावसो !
[कुमारो244] जीवमूतवाहनोऽस्माभिरिहासन्नवासात्सुपरीक्षितः245।
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त्वाद्भर्त्तेति चेट्या व्यपदेशः कृत इति बोध्यम्। भर्त्ता=प्रभुः। आगच्छेदिति सम्भावनायां लिङ्। तदत्रैवस्थित्वा तत्प्रतिपालनं युक्तमिति तद्गमनं निवारयितुं चेट्या उक्तिः।
तत इति। एवं चेटीसूचनानन्तरं। मित्रावसुः=मलयवतीभ्राता मित्रावसुनामा। प्रविशति=रङ्गस्थलं (चन्दनलतागृहं)।प्रविशति=अवतरति। आगच्छति। तातेन=पित्रा सिद्धराजेन विश्वावसुना। आज्ञापितोऽस्मि=अनुशिष्टोऽस्मि। आज्ञप्तोऽस्मि। स्ववृत्तान्तकथनभङ्गया प्रवेशप्रयोजनं प्रकटयतियथेति। यथा=यादृशी पितुराज्ञा तां, तत्प्रकारञ्च प्रकटीकरोमि। ‘वत्से’ त्यादि ‘प्रतिपाद्यतामित्यन्तं विश्वावसोराज्ञा। वत्सेति पुत्रवात्सल्येन सम्बोधनम्। ‘मित्रावसो’ इति युवराजतया स्वप्रतिनिधिभूतत्त्वेन कार्यसम्पादनक्षमता सूचिता। कुमारः=राजपुत्रः। जीमूतवाहनस्य राजपदारूढत्वेऽपि जीवत्पितृकतया कुमारपदेन व्यपदेशः। भाविजामातृत्वेन वा कुमारपदप्रयोगः। (कुमार-कुंवरज्जी)। ‘कुमार’ इति च क्वचिन्नैव दृश्यते। अस्माभिः=मया, त्वन्मात्रा, सर्वैः कुटुम्बिलोकैश्च। महत्वादात्मन्येव बहुवचनं वा। इह=मलयपर्वते। आसन्नवासात्=
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अहो राजकुमारीजी ! युवराज मित्रावसु को खोजने तो मनोहरिका ( दूसरा। चेटी ) जा हो चुकी है, अपने चलने की क्या आवश्यकता है। क्योंकि कदाचित् भर्त्ता मित्रावसुजा इधर ही आ जावें। अतः यहीं ठहरना उचित है। (यों हताश होकर यहाँ से मत जाइए)।
(तब मित्राचसु प्रवेश करते हैं )।
मित्रावसु—पिताजी ने मुझे आज्ञा दी है कि— “पुत्र मित्रावसो, जीमूतवाहन इसी मलय पर्वत पर निवास करने के कारण हमारे संनिहित हो है,
(कुतोऽस्माद्योग्यो वरः)त (द) स्मै वत्सा मलयवती प्रतिपाद्यताम्’ इति।
अहन्तु स्नेहपराधीनतयाऽन्यदेव किमप्यवस्थान्तरमनुभवामि। कुतः246?–
यद्विद्याधरराजवंशतिलकः प्राज्ञः सतां सम्मतो,
रूपेणाप्रतिमः पराक्रमधनो विद्वान् विनीतो युवा।
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निकटवासात्। निकटस्थिततया परीक्षासौकर्यं सूच्यते। ‘आसन्नभावात्’ इति पाठे - आसन्नत्वात्=समीपाऽवस्थितेरित्यर्थः। सुपरीक्षितः=सुतरां कृतपरीक्षः। जामातृयोग्यगुणानामन्त्र परीक्षाऽस्माभिः कृता। तत्=कृतपरोक्षत्वात्। योग्योऽयं वरः=वरत्वेन ग्रहणे समुचितः। मलयवतीभतृतया वरणे योग्यः। तत्=तस्मात्। तदस्मै=कृतपरीक्षाय अस्मै। प्रतिपाद्यतां=वाचा दीयताम्। इतिः आज्ञास्वरूपबोधकः। आदेशसमाप्तिसूचकश्च। अहन्तु=मित्रावसुस्तु। स्नेहपरा-धीनता=भगिनीवात्सल्यपरतन्त्रतया। अन्यदेव=अन्यादशमेव। अनिर्वचनीयतया विलक्षणमेव। अन्या अवस्था—अवस्थान्तरं=हर्ष-सन्तोष-विषाद-रूपां विचित्रामवस्थाम्।अनुभवामि=विभावयामि। पितुराज्ञायाः समुचितत्वेऽपि मया मनसि नानाविधचिन्ता हर्ष-विषादादीनामुद्भवोऽनुभूयतं मन्ये स किल स्नेहवात्सल्यादिपरतन्त्रतयैवेति भावः। कस्मादेवमवस्थान्तरानुभवः कीदृशञ्च तदवस्थान्तरं तद्विवृणोति—कुत इति। कुतः=कस्मात्।‘अन्यच्चे ‘ति पाठान्तरम्। अन्यच्च=किञ्च।
यादति। यत्=यस्मात् कारणात्। विद्याधराणां राजवंशस्य तिलक इव=
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हम लोगाने उसको खूब परीक्षा कर ली है। इस से योग्य वर (मलयवती के लिए) और कौन हो सकता है। इस लिए इसो जोमूतवाहन के साथ मलयवतो का विवाह कर देना चाहिये।” पर मैं तो अपनी बहिन के प्रति मेरा अत्यन्त वात्सल्य स्नेह होने के कारण तथा किसा अज्ञात भय की शङ्का के कारण अनिर्वचनीय अवस्था का (विवाह हो जाने पर बहिन का मेरे से वियोग हो जाएगा, अतः मैं उसके वियोग की शङ्का से भी दुःख का ) ही अनुभव कर रहा हूँ। पर कन्या का तो विवाह करना ही होगा। क्या किया जाए। और भी
यह जीमूतवाहन–विद्याधर राजवंश का तिलक (भूषण स्वरूप) है,
यच्चासूनपि सन्त्यजेत्करुणया सच्चार्थमभ्युद्यत-
स्तेनास्मै ददतः स्वसारमतुला तुष्टिर्विषादश्च मे॥१०॥
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मस्तकभूषणमिव—विद्याधरराजवंशतिलकः=विद्याधरकुलाऽलङ्कारभूतः। सत्कुलप्रसूत इति यावत्। ‘तमालपत्रतिलक–चित्रकाणि विशेषकम्। द्वितीयं च तुरीयं च न स्त्रियाम्’ इत्यमरः। प्राज्ञः=धीमान्। पण्डितः। सतां=सज्जनानां। संमतः=इष्टः। सद्भिरिष्यमाणः। वृद्धोपसेवी। रूपेण=सौन्दर्यरूपशीललावण्यादिना। नास्ति प्रतिमा=सादृश्यंयस्यासौ–अप्रतिमः=असदृशः। अद्वितीय-रूपवान्। सर्वातिशायिरूपवान्। पराक्रम एव धर्म पत्यासौ-पराक्रमधनः=विक्रमधनः। अत्यन्तशौर्य-सम्पन्नः।विद्वान्=सकलार्थतत्त्वज्ञः। निखिलविद्यापारदृश्वा। विनीतः=विनयसम्पन्नः। युवा=तरुणः। एवञ्च वहयोग्यसर्वगुणसम्पत्तिः सूचिता। अत एवास्मै कन्यां ददतो मम तुष्टिः सन्तोषोऽस्ति। एवं तुष्टिकरणान्यभिधाय विषादकारणमपि प्रकटयति-यच्चेति। यच्च=अथ च। यस्माच्चायम्। करुणया=दयया। दयापरवशः सन्। ‘कारुण्यं करुणा घृणा। कृपा दयाऽनुकम्पा स्यात् इत्यमरः। सत्वार्थं=जीवार्थम्। जीवोपकाराय। अभ्युद्यतः=लघुयुक्तः। सोत्साहः सन्। असूनपि=प्राणानपि। ‘पुंसि भूम्न्यलचः प्राणाः’ इत्यमरः। सन्त्यजेत्=दद्यात्। तेन=समुचितेन कारणद्वयेन। अस्मै=वरोचितसकलगुणा- लङ्कृतायापि परोपकारदुर्ललितत्वेन स्वजीवितनिरपेक्षाय। स्वसारं =भगिनीं मलयवतीं। ददतः=प्रतिपादयतः। तुष्टिः =सन्तोषः। विषादश्च=खेदश्च। मे=मम। भवति। वरोचितसकलगुणालङ्कृतत्वादस्मै भगिनीं ददतस्तुष्टिः, प्राणनिरपेक्षत्वाद्भाव्यमङ्गलशङ्कया विषादश्च मनसि समकालमेव मे भवत इत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्।१०।
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चतुर है, समझदार है, सज्जनों में आदरणीय है, रूप में अद्वितीय है, पराक्रमी भी है, विद्वान्=पढ़ा लिखा है, विनय सम्पन्न ( नम्रः ) है, सुशील है, युवा है। और दयापरवश हो जीवों के उपकार के लिए अपने प्राण भी देने को सदा तैयार रहता है। इस लिए इस के साथ अपनी बहिन का विवाह करते हुए मुझे अत्यन्त हर्ष हो रहा है। साथ ही साथ दुःख और विषाद भी इस लिए हो रहा है कि कहीं परोपकार की धुन में यह अपने प्राणों को हो न दे बैठे।
श्रुतञ्च मया247—असौ ‘जीमूतवाहनोऽत्रैव गौर्य्याश्रमसम्बद्धे चन्दनलतागृहे वर्त्तते इति। तदेतच्चन्दनलतागृहं। यावत् प्रविशामि ।
[ – प्रविशति ] \।
** विदूषकः**–[ससम्भ्रममवलोक्य ] भो वअस्स ! पच्छादेहि248 इमिणाकअलीयन्तेण इमं चित्तगदं कण्णअं। एसो क्खु सिद्धजुबराओ मित्तावसू इध एव आअदो। कदावि एसो पेक्खिस्सदि249।
[भो वयस्य ! प्रच्छादयाऽनेन कदलीपत्रेणेमां चित्रगतां कन्यकाम्। एष
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श्रुतं च मया=परिजनादारुणितं च मया। श्रवणप्रकारमेवाह-यथेति। असौ=वरणीयः। अत्रैव=मलयाचले एव। गौर्याश्रमसम्बद्धे=गौरीभवनसन्निहिताश्रसैकदयो। चन्दनलतागृहे चम्मनलतानिकुञ्जभवने।वर्त्तते=इतिः=प्रवणप्रकार-समाप्तिसूचकः। तदेतच्चन्दनलतागृहं=तच्चन्दन-। लतागृहम् एतत्=पुरोवर्ति। दृश्यते। यावदिति–अध्यवाले। प्रविशामि=तदन्तर्निविशामि। प्रविशति=चन्दनलतागृहान्तः प्रविशति मित्रावसुः।
ससम्भ्रमवलोक्य=व्यग्रतथा मित्रावसुमवलोक्य। ससंवेगं मित्रावसुमवलोक्य। प्रच्छादय=संवृणु। इमां=लिखिताम्। कन्यकां=कन्यकाकृतिम्। सिद्धयुवराजः=देवजातिविशेषसिद्ध लोकयुवराजः। इहैवागतः=चन्दनलता-
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(इस से भावी अमङ्गल–शङ्खचूड नाग की रक्षा के लिए अपने शरीर दे देने-की सूचना कर रहा है)॥१०॥
सुना है—जीमूतवाहन इस समय गौरी आश्रम के निकटस्थ चन्दनलवा गृह में बैठे हैं। यही चन्दन लतागृह है। अतः इस में चलू।
(चन्दनलता गृह में प्रवेश करता है)।
विदूषक—(घबड़ाहट के साथ देखकर–) हे मित्र ! इस चित्रगता (और तुम्हारी चित्तगता) कन्या को इस केले के पत्ते से ढक दो। क्योंकिसिद्ध युवराज मित्रावसु इधर ही आ रहे हैं। कदाचित् इस को देख लें।
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२. भो वअस्स! इमिणा पच्छादेहि कदलीपत्तेण इमं चित्तगदं कम्म (भो वयस्य, अनेन प्रच्छादय कदलीपत्रेण इदं चित्रगतं कर्म)’पा०।
खलु सिद्धयुवराजो मित्रावसुरिहैवाऽऽगतः। कदापि (एष) द्रक्ष्यति ]।
[नायकः— कदलीपत्रेण प्रच्छादयति ]।
** मित्रावसुः**—[[उपसृत्य]]250 कुमार ! मित्रावसुः प्रणमति।
** नायकः**—(दृष्ट्वा) मित्रावसो ! स्वागतम्। इतः251 स्थीयताम्।
** चेटी**—भट्टिदारिए ! आअदो252 खु एसो (भट्टा ) मित्ताबसू।253
[भर्तृदारिके ! आगतः खल्वेष भर्त्ता मित्रावसुः ]
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भवनमेवायातः। ‘इहागतः कदापि प्रेक्षिष्यते’ इति पाठान्तरम्। कदापि कदाचित्।प्रेक्षिष्यते = पश्येत्। चित्रगतां कन्यां यदि पश्येत्तदा रहस्यभेदादनुचितं भवेदित्यर्थः। ‘कदाचिदेष पश्येत्’ इति पाठेऽपि स एवार्थः।
कदलीपत्रेण प्रच्छादयति=चित्रलिखितां प्रियाप्रतिकृतिं कदलीपत्रेण तिरोधत्ते। उपसृत्य=निकटे गत्वा। ‘प्रविश्येति’ पाठान्तरम्। प्रणमति=सादरं नसति। दृष्ट्वा= मित्रावसुं पुरःस्थितं विलोक्य।स्वागतं=शोभनमागतम्=आगमनम् =वदागमनेन प्रीताः स्मः। इतः = इह प्रदेशे। इह मणिशिलाखण्डे। ‘इह स्थीयता’मिति पाठान्तरम्।
चेटी मित्रावसुं समागतं दृष्ट्वा नायिकां बोधयति—भर्तृदारिके इति। भर्त्तृदारिके=हे राजपुत्रि।खलु = निश्चयेन। एषः =पुरतः स्थितः। भर्त्ता=युवराजः। आगतः=संभागत एव। प्रियं मे=इष्टं मे त्वया कथितम्। मित्रावसुसमागमनेन मनसः प्रियं मे जातमित्यर्थः। तदागमनेन प्रीताऽस्मीति यावत्।
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[नायक–उस लिखी हुई प्रतिमा को केले के पत्ते से ढकता है ]।
(मित्रावसु का प्रवेश)।
मित्रावसु—कुमार ! मित्रावसु आप को प्रणाम करता है।
नायक—(मित्रावसु को देखकर) मित्रावसो ! तुम्हारा स्वागत है, आवो, यहाँ बैठो (—आसन दिखलाता है)।
चेटी—राजकुमारीजी ! स्वामी मित्रावसुजी यहाँ आ गए हैं।
** नायिका**—हञ्जे! पिअं मे।
[हञ्जे ! प्रियं मे ]।
** नायकः**—मित्रावसो ! अपि कुशली सिद्धराजो विश्वावसुः ?
मित्रावसुः—कुशली तातः। तातसन्देशेनैवास्मि254त्वत्सकाशमिहाऽऽगतः।
नायकः–किमाह तत्रभवान् ?
नायिका–सुणिस्सं दाव किं तादेण संदिट्ठं ति।
\श्रोष्यामि तावत् किं [तातेन255 सन्दिष्टमिति]।
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अपि कुशली=कुशली कच्चित्। अपिरत्र प्रश्ने। ‘गहीसमुच्चयप्रभशङ्कासम्भावनास्वपिः’ इत्यमरः। ‘कुशलं क्षेममस्त्रियाम्’ इत्यमरः। सिद्धराजः= सिद्धलोकाधिपः। विश्वावसुरिति तन्नामधेयम्। तातः=मत्पिता। सिद्धराजो विश्वावसुः। तातसंदेशेनैव=पितुराज्ञयैव। पित्रुक्तं वाचिकं सन्देशमादायैव। ‘सन्देशवाग्बाचिकं स्यात्’ इत्यमरः। नायकः तत्सन्देशं पृच्छति–किमाहेति। तत्र भवान्=पूज्यः। ‘पूज्ये तत्र भवान्’ इति कोशः। किमाह=किं मां प्रति संदिशति। तत्कथयेति शेषः। मित्रावसुद्वारा विश्वावसोः सन्देशे नायिका स्वकुतूहलं प्रकयति–श्रोष्यामीति। तावेन=मत्पित्रा विश्वावसुना। सन्दिष्टं=वाचिकं प्रहितम्।‘किं कुशलं सन्दिष्टम्’ इति पाठान्तरम्। कीदृशः कुशलसन्देशः
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नायिका–अरा चेटी ! इस से (इन के आने से) मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है।
नायक—हे मित्रावसो ! तुम्हारे पिता सिद्धराज विश्वावसु कुशल पूर्वक तो हैं ?।
मिन्नावसु—हाँ, पिताजी बड़े आनन्द में हैं और उन्हीं की आज्ञा से ही मैं यहाँ आया हूँ।
नायक—माननीय आपके पिताजी ने हमें क्या कहलाया है?।
नायिका—मैं भी तो सुनूं कि—पिताजी ने क्या कुशल सन्देश (समाचार) भेजा है ?।
** मित्रावसुः**—[सास्रम्—] इदमाह तातः256—‘अस्ति मेमलयवती257 नाम कन्या जीवितमिवास्य सर्वस्यैव सिद्धराजान्वयस्य। सा मया तुभ्यं प्रतिपाद्यते258, प्रतिगृह्यताम्’ इति।
** चेटी**–[विहस्य–] भट्टिदारिए ! किं ण कुप्पप्ति दाणीं ?।
[भर्तृदारिके ! किं न कुप्यसीदानीम्?]
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प्रेषित इत्यर्थः। मित्रावसुर्वात्सल्येन—सास्रं=सबाष्पं, पितृसन्देशमाह–इदमाह तात इति। तातः = मत्पिता। ‘तातस्तु जनकः पिता’ इत्यमरः। ‘ताते’ ति पाठान्तरे—जीमूतवाहनं प्रति (‘तात=हे वत्स’ इत्येवं) वात्सल्यसूचकं सम्बोधनं तदिति बोध्यम्। ‘तातोऽनुकम्प्ये पितरि’ इति हैमः। मे=मम। विश्वावसोः। नामेति प्रसिद्धौ। कन्या=दुहिता। क्वचित्तथैव पाठः। अस्य=सुप्रसिद्धस्य।सर्वस्यैव=सकलस्यैव। नतु केवलं ममैवेत्यर्थः। सिद्धराजान्वयस्य=सिद्धराजकुलस्य। प्राणभूता मलयवती नाम पुत्री समास्तीत्यन्वयः। सा=अस्मज्जीवितभूता मलयवती। मया=सिद्धराजेन। तुभ्यं =जीमूतवाहनाय। प्रतिपाद्यते भार्यात्वेन प्रदीयते। ‘प्रतिपादिता’ इति पाठान्तरे—दत्तैवेत्यर्थः। प्रतिगृह्यतां सा कन्या भार्यात्वेन त्वया स्वीक्रियताम्। इतिः= सन्देशसमाप्तिसूचकः।
** किं न कुप्यसीति**। पूर्वं कुपिता सती गन्तुमुद्यताऽऽसीस्त्वम्। इदानीं वातसन्देशं श्रुत्वाऽपि कुतो न कुप्यसि?। इदानीं कोपं कृत्वागच्छ। अनेन पितृसन्देशेन तव हृदि सन्तोषाऽतिरेकी लक्ष्यते नतु कोप इति सोल्लुण्ठनं (उपहास=छेड-छाड, ताना) वचनं चेट्याः। सस्पृहं=साभिलाषम्। सलज्जं = सव्रीडं च।
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मित्रावसु—(आँखों में आँसू भर कर) पिताजाने कहा है कि—“हे वत्स जीमूतवाहन ! मेरे प्राणों से भी प्यारी मलयवती नामक कन्या है जो केवल मेरे ही नहीं, किन्तु संपूर्ण सिद्धराज कुल की हो प्राण स्वरूप है, उसे मैं तुमको (विवाह के लिए) देता हूँ, इसे स्वीकार करो।”
चेटी–(हँस कर) राजकुमारीजी ! इस समय क्यों नहीं कोप कर रही हो ?।
** नायिका**—[सस्मितं259, सलज्जञ्चाऽधोमुखी स्थित्वा260—] हञ्जे! मा तुस्स, किं बिसुसरिदं दे एस्स अण्णहिअअत्तणं?।
\हञ्जे ! मा [तुष्य261 किं विस्मृतं ते एतस्याम्यहृदयत्वम् ?]।
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** अधोमुखी स्थित्वेति**। अवाङ्मुखी स्थिता सतीत्थं ब्रूते नायिकेति तदर्थः। अत्र स्पृहा च–तातसन्देशेन उन्मिपता नायकविषयकेण रतिविशेषेण, लजा च स्वसम्बन्धसङ्कीर्त्तनादिना। ताभ्यामेव च अधोमुखीत्वं नायिकाया इति बोध्यम्। हञ्जे=अयि चेटिके। मा तुप्य=मैवमुपहासादिनाऽतिसन्तोषं समावह। ननु सन्तोषावसरेऽपि कथं न तुप्यामीत्यत आह–किं विस्तृतमिति। एतस्य=नाचकस्य। अन्यहृदयत्वम्=मदतिरिक्तनायिकासक्तहृदयत्वम्, इदानीनेव चित्र-लेखन-विरहमलापादिनाऽऽवाभ्यां निश्चितं। ते=तव। त्वया। विस्मृतं=स्मृति-पटलादुपसृतम्। अयं नायकोऽन्यवनितासकमानस इति कदाचिदिमं सम्बन्धं नैवाङ्गीकुर्यादतो मित्रावसुप्रस्तावमात्रेण नायकोक्तटुत्तरमश्रुत्वैव तावन्मा हर्षं कार्षीरित्यर्थः। नायकोत्तरमपि तावच्छृणु, अथायं मत्प्रतिग्रहं करोति, ततो हर्षस्तवोचितो भविष्यतीति यावत्। एतेन नायिकया ‘कदाचिदयं मां स्वीकरिष्यति नवे’ति स्वशङ्का प्रकटीकृतेति ध्येयम्। हञ्जे ! मा हस’ इति पाठान्तरम्। तत्र प्रमोदमानमानसा भूत्वा ममोपहासं मा कार्षीरित्यर्थः।
एवं मित्रावसूक्तं तज्जनकसिद्धराजविश्वावसुसन्देशं श्रुत्वा नायकोऽपवार्य विदूषकं ब्रूते–(अपवार्य) वयस्येति। तत्र–अपवार्याक्तिर्नाम यस्य रहस्यं न श्रायं हस्तेन तमपवार्यं नाव्यधर्मिन्यायेन अन्यस्य रहस्य कथनम्। तदुक्तं धनञ्जयेन दशरूपके–’रहस्यं कथ्यतेऽन्यस्य परावृत्त्याऽपवारितम्।इति। नाट्यधर्मिन्यायश्च–यं श्रावयितुमनिच्छा तमपवार्य अन्यस्मै कथनमेव।
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नायिका—(कुछ मुसकरा कर लज्जापूर्वक नाचे मुख करके) अरी चटी ! इतने से ही प्रसन्न हो मत हँस। क्या तूं भूल गई कि इनका (नायक का) मन तो किसी अन्य स्त्री (स्वप्नदृष्ट स्त्री) में आसक्त है !। ये मुझे क्यों स्वीकार करने लगे?।
** नायकः**—[अपवार्य्य—] वयस्य262 ! सङ्कटे पतिताः स्मः।
विदूषकः—[अपवार्य्य] भो (वयस्य !) जाणामि भवदो ण तं वज्जिअ अण्णहिं चित्तं अहिरमदि त्ति। तहवि जं263 किञ्चि भणिअ विसजीअदु एसो।
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तथा च मित्रावसुरनयोरालापं न शृणोति, वृक्षान्तरिता नायिका, रङ्गस्थाः सर्वे सभासदश्च तयोरालापं शृण्वन्तीति निर्व्यूढं भवति। वयस्य !=सखे आत्रेय। सङ्कटे=धर्मसङ्कटे। कर्त्तव्यसम्बाधे। ‘सङ्कटं ना तु सम्बाधः’ इत्यमरः। किं नु कर्त्तव्यमिति संशये। पतिताः स्मः=वयं निमग्नाः स्मः। किंन्वत्र मया वक्तव्यमिति संशयदोलायां मे मनो निपतितमित्यर्थः। अयमत्राशयः–मस्त्रिया त्वन्या काचित्, एतद्भगिनी मलयवती त्वन्येति भेदबुद्धया मित्रावसुप्रस्तावानङ्गीकारेण नायिकाया अभिलाषशृङ्गारं व्यभिचारिपरम्परया मरणाऽध्यवसायान्तं परिपोषं लम्भयतो
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नायक—(अलग से विदूषक के प्रति) मित्र ! हम तो बड़े धर्म सङ्कट में पड़े, कहो अब क्या करें ?। ( भावार्थं—नायक को यह मालूम नहीं है कि—गौरी के मन्दिर में देखी हुई ना येका, जिस पर यह आसक्त है, जिसकी मूर्ति पत्थर पर लिखी है, वह और मलयवती ये दोनों एक ही हैं। अतः अपने को धर्म सङ्कट में यह समझ रहा है। क्योंकि यदि सिद्धराज विश्वावसु की कन्या को अस्वीकार करते हैं तो इनको बढ़ा कष्ट होगा। परन्तु मेरा मन तो दूसरी कन्या (भ्रम से यह दोनों को अलग समझता है) जिसको मैंने गौरी मन्दिर पर देखा था—उस पर आसक्त है। अतः इस सम्बन्ध को मैं कैसे स्वीकार करूँ। यही सङ्कट नायक के मन में है )।
विदूषक—(अलग से नायक से) मित्र ! मैं जानना हूँ कि आपका मन गौरी मन्दिर में देखी हुई उस कन्या के सिवाय अन्यत्र नहीं लग सकता है। अतः इनको ( मित्रावसु को ) इधर उधर की मीठी मीठी बातें कर के बिदा करो। (अर्थात् नहीँ कहो, न नाहीं करो, कुछ बहाना कर चलता करो)
[भो (वयस्य) ! जानामि भवतो न तां वर्जयित्वाऽन्यत्र चित्तमभिरमते इति। तथाऽपि यत् किञ्चिद्भणित्वा विसृज्यतामेषः]।
** नायिका**—[सरोषमात्मगतं—] हदास ! को वा एदं ण जाणादि?
[हताश ! को वैतन्न जानाति?]।
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भ्रमबुद्ध्यैव नायकस्य प्रत्याख्यानसूचकं वचनं–सङ्कटे पतिताः स्म इति। नाऽहमेतद्भगिनीं जिवृक्षामि। कथंचाऽस्य प्रत्याख्यानं करोमीति धर्मसङ्कटे निक्षिप्तोऽस्म्यनेनेति तत्त्वम्। अपवार्यैव सङ्कटतरणे विदूषक उपायं दर्शयति—जानामीत्यादिना। हे सखे ! भवतः=तव, चित्तं=मनः, वां= गौरीगृहाश्रमपदे दृष्टां बालां। वर्जयित्वा=परित्यज्य। अन्यत्र=अन्यासु सुन्दरीषु। न अभिरमते=नैव रतिं लभते। इति जानामि इत्येवं त्वद्रहस्यमहं जानामि। अतस्तव सङ्कटमिदं जानामि। तथापि=एवमपि। यत्किञ्चिद्भणित्वा=यत्किमपि कैतवमयं वाक्यं कथयित्वा। एतत्सन्तोषाय यत्किमपि व्यपदिश्य विसृज्यतामेषः=प्रहीयतामेषः। अपसार्यतामेष मित्रावसुः। इत्थं नायकविदूषकयोरालापं पादपान्तरिता नायिका मलयवती स्पष्टं श्रुत्वा— सरोषं=सक्रोधम्। अन्यासक्ततां स्वप्रियस्य ज्ञात्वा नायिकाया रोषः समुचित एव। आत्मगतम्=: स्वगतमित्थमुदाचहताशेति। हता आशा येनासौ तत्सम्बोधने—हताश= हे मदाशाभञ्जक।यद्वा-हताशपदं क्रूराशयवाचकमन्त्र। को वा जनः—एतत्=तवान्यासक्तत्वम्। न जानाति=नैवावगच्छति। अहमप्येतत्तव रहस्यं जानाम्येवेति यावत्। त्वमन्यासकोऽसि अत एव न मां स्वीकुरुषे इत्यहं तत्त्वतो वेद्मीत्याशयः। नायिकाऽपि - मदन्य- कामिनीसमासक्ततयाऽयं पितृप्रतिपादितामपि मां नोरीकरोतीति भ्रमेणेत्थमुपालम्भपरं वाक्यं स्वगतमाहेति बोध्यम्।
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नायिका—(नायक और विदूषक की परस्पर हुई इस गुप्त बात को सुन कर, नायक के प्रति मन ही मन—) हे हताश ! (=दूसरे की आशा को भङ्ग करने वाले !) इस बात को कौन नहीं जानता है कि—दूसरी रमणी में आसक्त है ?। अर्थात् मैं भी तुम्हारी इस बात गई हूँ।
** नायकः**—मित्रावसो ! क इह264नेच्छेद्भवद्भिः सह श्लाघ्य265मीदृशंसम्बन्धम्?। किन्तु न शक्यते चित्तमन्यतः प्रवृत्तमन्यतो निवर्त्तयितुम्,266 अतो267 नाऽहमेनां प्रतिग्रहीतुमुत्सहे।
[नायिका—मूर्च्छां नाटयति]।
** चेटी**—समस्ससदु समस्ससदु भट्टिदारिआ।
[समाश्वसितु समाश्वसितु भर्तृदारिका]
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एवं विदूषकोक्तिमनुसृत्य नायको मित्रावसुं समानं प्रत्याचष्टे—क इहेति। कः=कः खलु सचेताः पुमान्। इह=लोके। कइवेति पाठे–को वैपुमानित्यर्थः। भवद्भिः=अभिजनादिगुणविशिष्टैर्भवद्भिः सह। श्लाघ्यं=योग्यतया प्रशंसार्हम्। इमं सम्बन्धं=विवाहसम्बन्धम्। ‘ईदृशं सम्बन्ध’मिति पाठेऽप्ययमेवार्थः। ईदृशं=जामातृसम्बन्धम्। किन्तु=तथापि। अन्यतः=अन्यत्र।प्रवृत्तम्=आसक्तम्। चितं=मम स्वान्तम्। ‘चित्तन्तु चेतो हृदयं स्वान्तं हृन्मानसं मनः। इत्यमरः। अन्यतो निवर्त्तयितुम्=अन्यत्र नेतुम्। न शक्यते=नैव मया पार्यते। अतः=अस्मात्कारणात्। एनां=त्वद्भगिनीं। प्रतिगृहीतुं=भार्यात्वेन स्वीकर्तुम्। नोत्सहे=नैव खलु शक्नोमि। भवतो भगिनीं भार्यात्वेन स्वीकर्तुमहमन्यासक्तचित्तत्वान्नैव समर्थीस्मीति भावः। ’ मत्प्रियाऽन्या, एतद्भगिनी चान्ये ‘ति भ्रमेणव नायकस्य प्रत्याख्यान–परमिदं वाक्यमिति बोध्यम्। इत्थं स्वसम्बन्धप्रत्याख्यान निश्चयपरं वाक्यं नायकसुखाच्छुत्वा नायिका मूर्छा=मोहं, नाटयति=नाटयेन दर्शयति। एतेन नायिकाया नितरामुद्वेगः सूच्यते। एवं दुःखितां नायिकां चेटी बोधयति–समाश्व-
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नायक—हे मित्रावसो ! आप ऐसे श्लाघ्य पुरुषों से ऐसा सम्बन्ध (विवाह सम्बन्ध) करना भला कौन नहीं चाहेंगा, परन्तु अन्यत्र (दूसरी रमणी में) आसक्त मेरे मन को दूसरी ओर (मलयवती की ओर) प्रवृत्त करना बड़ा कठिन है। इस लिए मैं आपकी बहिन मलयवती को ग्रहण करने में असमर्थ हूँ।
[नायिका–इस कठोर बात को सुनकर मूच्छित हो जाती है ]।
चेटी—राजकुमारीजी ! धीरज धरिए, धीरज धरिए।
** विदूषकः**—भो ! पराधीणोक्खु एसो, किं एदिणा अब्भत्थिदेण? ता गुरुअणं से गदुअ अन्भट्ठेहि।
[भो ! पराधीनः खल्वेषः, क्रिमनेनाभ्यर्थितेन ?। तद्गुरुजनमस्य गत्वाऽभ्यर्थय ]।
** मित्रावसुः**— [आत्मगतम्—] साधूक्तं, नायं **^(२)**गुरुजन (वचन)-
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सित्विति। धैर्यं धारयतु भवतात्यर्थः। सम्भ्रमे च द्विरुक्तिः। शोको नैव खलु भवत्या विधेय इत्याशयः।
नायकेन प्रत्याख्यातं मित्रावसुं सान्त्वयन्निव विदूषको ब्रूते—भोः=मित्रावसो।एषः=जीमूतवाहनः। पराधीनः खलु पित्रादि-गुरुजन–पराधीन एवास्ति।अतः–अनेन=पराधीनेन जीमूतवाहनेन। अभ्यर्थितेन=प्रार्थितेन। किं=किं फलम् ?। न किमपि फलमित्यर्थः। अस्य स्वीकृतौ, निषेधे च न किमपि फलम्। यदस्य गुरवः करिष्यन्ति तदेव कार्यं भविष्यति। तत्=अतः! अस्य=जीमृतवाहनस्य। गुरुजनं=मातापितृलक्षणं गुरुलोकम्। गत्वा—अभ्यर्थय=तविकटे गत्वा स्वभगिनीप्रतिग्रहाय प्रार्थनां कुरु। एतद्गुरव एव विधौ निषेधे चाधिकारिणो, नायम्।
आत्मगतं=स्वगतम्। साधु=शोभनम्। उक्तम्=विदूषकेणानेनाभिहितम्। अयं=नायकः। गुरुजनं= गुरुजनवचनम्। तदाज्ञाम्। नैव अतिक्रामति= उल्लङ्घते। एष गुरुरुपि (गुरुजनोऽपि)=एतस्य एष गुरुजनोऽपि। अस्मिन्नेव=निकटस्थ एव। गौर्याश्रमे=महागौरीमन्दिरपरिसरवर्त्तिनि आश्रमपदे एव। प्रतिवसति=निवसति। एतेनाऽतिनिकटवर्त्तित्वं गुरुजनस्येति तत्र गमनमति सुकरमिति सूचितम्।
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विदूषक—(मित्रावसु के प्रति—) हे मित्रावसा! यह जीमूतवाहन तो पराधीन है। इससे प्रार्थना करनी तो आपकी व्यर्थ है। अतः इनके गुरुजनों से (पिता माता से) आप जाकर इस सम्बन्ध के विषय में प्रार्थना करिए।
मित्रावसु—(मन ही मन) इसने ठीक कहा। यह जीमूतवाहन अपने गुरुजनों की बात को नहीं टालता है। और इसके पिता-माता इसी गौरो
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१ ‘ता किं एदेण भणन्तेण। गुरुजणं से गदुअ अब्भत्येहि’ [तत्किमेतेन भणितेन (‘भणता’ इत्यपि पाठः) गुरुजनमस्य गत्वाऽभ्यर्थय ] पा०।
२ ‘नायं गुरुजनवचनमतिक्रामति। एष गुरुजनोऽप्यस्मिन्नेव गौर्याश्रमे प्रतिवसति। तद्यावद् गत्वाऽस्य पित्रोर्मलयवतीं प्रतिग्राहयामि’ पा०।
मतिक्रामति। एष गुरुरप्यस्मिन्नेव गौर्य्याश्रमे प्रतिवसति। तद्यावद् गत्वाऽस्य पित्रा मलयवतीं प्रतिग्राहयामि।
[नायिका—समाश्वसिति]।
** मित्रावसुः**— (प्रकाशम्—) एवं निवेदितात्मनोऽस्मान् प्रत्याचक्षाणः कुमार एव बहुतरं जानाति !।
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तत्=तस्मात्। यावदिति निर्धारणे। ‘यावत्तावच्च साकल्येऽवधौ मानेऽवधारणे इत्यमरः। गत्वा=गौर्याश्रमं गत्वा। अस्य=नायकस्य। पित्रा=पित्रादिगुरुजनेन। मलयवतीं=स्वभगिनीम्। प्रतिग्राहयामि=एतद्भार्यात्वेन स्वीकारयामि। एवं विदूषकोक्तमाशासूचकं वचनमाकर्ण्य नायिका समाश्वसिति=किञ्चिद्वैर्यमालम्बते। कदाचिदस्य गुरुजनो मां स्वीकरिष्यतीत्याशयैवास्याश्च समाधान इति ध्येयम्। प्रकाशं=सर्वश्राव्यम्। ब्रूते इति शेषः। मित्रावसुनायकं प्रति सोत्प्रासं व्रते इति यावत्। एवम्=इत्थम्। निवेदितः=प्रकटितः, आत्मा=स्वाभिप्रायो चैस्तान्- निवेदितात्मनः=प्रकटीकृतस्वाभिप्रायान्। स्वयमुपेत्य कन्यासम्बन्धवार्त्तां समुत्थापयताम्। स्वयं प्रार्थनापरानस्मान्। प्रत्याचक्षाणः–निराकुर्वन्। ‘नाहं भवद्भगिनीं प्रतिग्रहीतुमुत्सहे’ इत्येवं प्रत्याख्यानेनाऽस्माकमाशाभङ्गं कुर्वाणः। कुमार एव=जीमूतवाहनोऽयम्। भवानेवेति नायकं प्रत्युक्तिर्वा। मिन्नावमुक्कर्तृकः कुमारपदेन नायकस्योल्लेखस्तु मित्रावसोः कन्यापक्षवर्त्तित्वेनोचित एव। बहुतरं जानाति=अधिकं वेत्ति \। सज्जनोचितं समुदाचारं विपुलं वेत्ति।‘सज्जनोचितं व्यवहारं नैव वेती ‘ति तु गूढोऽर्थः। अस्मत्प्रार्थनाभङ्गो नोचितो धर्मतत्वविदः किल कुमारस्येति तु तत्वम्। तदेवं ‘कुमारेण पुनरपि विचारः क्रियतां नाम।नाऽस्माकं
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आश्रम में ही रहते हैं। अतः उनके पास जाकर इसके पिता से ही मलयवती को अपने पुत्र के विवाह के लिए स्वीकार करने की प्रार्थना करूँ।
[नायिका—कुछ सावधान होकर उठ बैठती है]।
मित्रावसु—(प्रकट में) इस प्रकार स्वयं आकर कन्या के सम्बन्धं के लिए हमारे प्रार्थना करने पर भी हमारी बात को यों ठुकरा देने वाले राजकुमार जीमूतवाहन ही अधिक जानकार हैं। ये स्वयं बुद्धिमान हैं इनको हम क्या कहें। अर्थात् इनका इस प्रकार सम्बन्ध को अस्वीकार कर देना अत्यन्त अनुचित है। ज्यादा क्या कहें।
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नायिका**—[सरोषं268—] कहं पञ्चाक्खाणलहूओ मित्तावसू पुणो वि मन्तेदि?।
[कथं प्रत्याख्यानलघुर्मित्रावसुः पुनरपि मन्त्रयते]।
*मित्रावसुः*—[निष्क्रान्तः269]।
** नायिका**—\सास्रमात्मानं पश्यन्ती ([आत्मगतं270)—] किं मम एदिणा दोब्भग्गकलङ्कमणिण अच्चंतदुक्खभाइणा अज्जबिसरीरहदएण271
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प्रार्थना सहसा त्वया खण्डनीये’ति प्रार्थनापरं वाक्यमेतत्। एवं प्रार्थनापरं मित्रावसुं दृष्ट्वा नायिका सरोषं=सक्रोधं स्वगतं चेटीं वा प्राह–कथमिति। प्रत्याख्यानलघुः=प्रत्याख्यानेन लाघवं प्रापितः। पुनरपि कथं मन्त्रयते=पुनरपि तेनैव सह कथमालापं करोति?। अनेन (नायकेन) सह पुनरपि वार्तालापेन मित्रावसोरतीव लाघवं भवतीति भावः। पूर्व स्वप्रार्थनाया निराकरणादप—मानितोऽपि मित्रावसुः पुनरनेनैव सह भाषणमपि करोतीति महदेवाश्वर्यम्। महल्ला-घवं तस्येत्थं प्रकटीभवतीति सक्रोधं नायिकोक्तिरितिभावः।
मित्रावसुर्निष्क्रान्तः=नायकगुरुजनं सम्बन्धार्थं प्रार्थयितुं तत्समीपं गतः। साऽस्रं=सानुलोचनं रुदती। आत्मानं पश्यन्ती=स्वं विलोकयन्ती। स्वमुद्दिश्य।आत्मगतं=स्वगतम्। ‘इत्थं विस्तृशती’ति शेषः। ‘आत्मगत’मिति पाठः
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नायिका—(क्रोध पूर्वक) हैं ! इतना अपमान होने पर भी मित्रावतु फिर इन से ही बात कर रहे हैं !।इतना हलकापन क्यों ?। अर्थात् मित्रावसु की बात को न मानना इनका घोर अपमान है। फिर भी ये अपमानकर्ता नायक से बात कर रहे हैं। यह बहुत अनुचित है। मित्रावसु को तो इस प्रकार अपमान होने पर इन से फिर भाषण तक नहीं करना चाहिए ।
[मित्रावसु—जाता है]।
नायिका—(आँसू बहाती हुई, अपने को देखती हुई, आप ही आप—दौर्भाग्य रूपी कलङ्क से मलिन, अत्यन्त दुःख भागी मेरे इस शरीर को धारण
करने से अब क्या लाभ है ?।
(धारिदेण)272’%20इति%20काचित्कम् " ‘घारिदेन (धारितेन)’ इति काचित्कम्”)। ता273इध ज्जेव्व रत्तासोअपाअ274बेइमाए अदिमुत्तलदाए उब्बंधिअ अत्ताणं बाबादइस्सं। ता (एदं275) एव्वं दाव। \प्रकाशं [सविलक्षस्मितं276] हञ्जे! पेक्ख दाब—मित्तावसू277 दूरं गदो ण वेन्ति, जेण अहम्पि इदो गमिस्सं।
[किं ममैतेन दौर्भाग्यकलङ्कनलिनेनाऽत्यन्तदुःखभागिनाऽद्यापि शरीरहतकेन(धारितेन)?। ‘तदिहैव रक्ताशोकपादपेऽनयाऽविमुक्तलतयोध्याऽऽत्मानं व्यापादयिष्यामि।तदेवन्तावत्। हञ्जे ! पश्य तादृम्मिश्रावसुर्दूरंगतो न वेति,येनाहमपीतो गमिष्यामि]
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क्वचिन्न। तन्नापि स्वयमेवेत्थं विचारयतीति शेषो वोध्यः। विरहदुःभागि स्वीशरीरं दृष्ट्वा निराशया जायमानं विचारमेव निर्दिशति–किं नमति। दौर्भाग्यं=योग्यवराऽप्राप्तिरूपं, स्वेष्टवर कर्तृकमस्वीकरणमेव या स्वदीयरियापयत्दौर्भाग्यम् =असौभाग्यं, तदेव कलङ्कः =लाञ्छनं, तेन महिनं हतप्रभं तेन- दौर्भाग्य कलङ्कमलिनेन=‘नूनं कन्यैवेयं दुर्भगा न कोऽप्येनां न स्वीकरोतीतिस्वाऽयशःख्यापकदोर्भाग्यकलङ्कपितेन। अत एव अत्यन्तदुःखभागिना नितरां क्लेश परम्परापीडितेन। प्रियविरहदुःखपीडितेन। ममैतेन=महीयेनानुजा! शरीरहतकेन=कलङ्ककलुषितेन हतभाग्येन वपुषा। ‘शरीरेणेत्येव क्वचित्पाठः। अद्यापि=इत्थं प्रियप्रत्याख्यानतिरस्कारकलङ्काद्यनुभवानन्तरमपि। धारितेन किं=प्राणधारणेन किंनु प्रयोजनम्?। नैव किमपि ममेदानीमनेन प्रयोजनमित्याशयः। तत्=तस्मात्। इहैव=अस्मिन्नेव स्थाने। ‘यावदिहैव’ इति पाठे’यावत्’ इति निर्धारणे। ‘यावत्तावच्च साकल्येऽवधौ मानेऽवधारणे’ इत्यमरः।
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अर्थात्—मेरा इनसे जो सम्बन्ध ही नहीं हुआ—यह मेरे दुर्भाग्य का ही द्योतक है, अतएव मेरे जीने से ही अब क्या लाभ है? अतश्च इसी अशोक वृक्ष में इस अतिमुक्त (वासन्ती) लता से अपने को बाँध कर गले में फाँसी लगा कर मैं अपना शरीर छोड़ दूंगी (फाँसी लगा कर मर जाऊँगी)। इस काम को यों करूँ।
** चेटी**— (जं भट्टिदारिआ आणवेदि)। \ [कतिचि278%20अण्णारिसं%20%5Bअन्यादृशं%5D’%20इत्थं%20क्वचित्पाठः।%20)त्279अण्णारिसं (अन्यादृशं ) इत्थं क्वचित्पाठः ।”) पदानि गत्वा] (अवलोक्यात्मगतम्236—) अण्णारिसं से हिअअं पेक्खामि, ता ण (दाव) गमिस्सं। इधु ज्जेव्व ओबारिदा पेक्खामि, किं ऐसा पडिबज्जदिति। [–इति स्थिता]
[(यद्भर्तृदारिकाऽऽज्ञापयति २)। अन्यादृशमस्या हृदयं पश्यामि। तन्न तावद्गमिष्यामि। इहैवाऽपवारिता पश्यामि—“किमेषा प्रतिपद्यते’ इति ]।
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रक्ताशोकपादपे=रक्ताशोकवृक्षे। अनयाऽतिमुक्तलतया=समीपस्थया माधवीलतया सुदृढत्वात्बन्धनरज्जुकार्यकरणक्षमया। ‘अविमुक्तः पुण्ड्रकः स्याद्वासन्ती माधवीलता’ इत्यमरः। (आत्मानम्=शरीरम्)। उद्बध्य=ऊर्ध्वं बध्वा। आत्मानं व्यापादयिष्यामि=स्वशरीरं, प्राणांश्च त्यक्ष्यामि। तत्=तस्मात्। एवं तावद्=इमां चेटीं मद्व्यवसायविप्वभूतामनेनोपायेन इतोऽपसारयामीति स्वबुद्धिस्वोपायाभिप्रायेणोक्तिः। ‘तदिदमेवं ताव’दिति पाठान्तरे–इदं कार्यमेवं चेटी–निस्सारणेन निष्पादयिष्यामीत्यर्थः। तावत्=आदौ। झटिति। येन=मित्रावसोर्दूरं गमनस्य निश्चयेन। इतः=चन्दनलताकुञ्जात्। गमिष्यामि=आश्रमं यास्यामि। ‘इत्थं मित्रावसुप्रेक्षणाय चंटीं प्रेष्य अहमुबन्धनं करिष्यामी’ति नायिकाया अभिप्राय वेदितव्यः।
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(प्रकट में सूखी बनावटी हँसी हँसकर—) अरी चेटो ! देख तो अभी मित्रावसु दूर चले गए कि नहीं, क्योंकि मैं भी अब यहाँ से जाना चाहती हूँ।
चेटी—(कुछ दूर जाकर, इधर उधर देखकर, मन ही मन) इस मलयवती का मन कुछ दूसरे ही प्रकार का मालूम हो रहा है। अर्थात्—कुछ दाल में काला मालूम हो रहा है। मालूम होता है—मुझे किसी बहाने से यहाँ से हटा कर यह आत्महत्या करना चाहती है। क्योंकि इसका ढंग बेढंग सा मालूम हो रहा है। अतः मैं मित्रावसु को देखने न जाऊँगी। किन्तु यहीं कहीं छिपकर देखूंगी कि–यह क्या करती है ?।
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१. चेटी—(कतिचित्पदानि गत्वा )अण्णारिसं (अन्यादृशं ) इत्थं क्वचित्पाठः ।“जं” इत्यादिपाठश्च नास्ति ।
नायिका—[उत्थाय दिशोऽवलोक्य पाशं गृहीत्वा सास्रं —] भअवदि गोरि ! इध तुए280ण किदो पसादो, ता281जम्मन्तरे जधा ण ईरिसी दुक्खभाइणी होमि, तथा करेसि282।
** [(इत्यभिधाय कराभ्यां) कण्ठे पाशमर्पयति] !**
** \भगवति गौरि ! इह त्वया न कृतः प्रसादः, तज्जन्मान्तरे यथा नेदृशी दुःखभागिनी भवामि तथा [करिष्यसि283]।**
** चेटी—[दृष्ट्वा ससम्भ्रममुपेत्य ] “पलित्ताअदु पलित्ताअदु (अज्जो) एसा भट्टिदारिआ उब्वंधिज अत्ताणं बाबादेदि।**
** [परित्रायतां284 परित्रायताम् (आर्य्यः)। एषा भर्तृदारिकोद्वध्याऽऽत्मानं व्यापादयति ]।**
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अन्यादृशं=शङ्कनीयां दशां बिभ्रदिव। हृदयं = मनः। पश्यामि = तर्कयामि। न तावत् = नैव खलु। गमिष्यामि = मित्रावसुप्रेक्षणाय गमिष्यामि। किन्तु इहैव = क्वचिदवकाशे। अपवारिता = प्रच्छन्ना भूत्वा। प्रतिपद्यते = विधत्ते। करोति। इह = अस्मिन् जन्मनि। जन्मान्तरे = अवान्तरे। भाविनि जम्मति। यथा =येन प्रकारेण।ईशी = प्रियवियोगविक्लवा। दौर्भाग्यविधुरा सती। दुःख-
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नायिका—(चारों ओर देखकर, फाँसी के फन्दे को हाथ में लेकर, आखा मैं आँसू भर कर हताशभाव से—) हे भगवती गौरी ! इस जन्म में तो आपने मेरे प्यारे से मुझे मिलानें की कृपा नहीं की। अच्छा ! अब इतनी तो कृपा अवश्य करना कि मैं ऐसा प्रियवियोग का दुःख जन्मान्तर में तो न पाऊँ। अर्थात् मेरे प्यारे जीमूतवाहनसे मुझे अगले जन्म में तो मिला देने की कृपा करना। (ऐसा प्रार्थना कर गले में फांसी का फन्दा डालती है)।
चेटी—(मलयवती को फाँसी लगाते हुए देखकर, झपट कर नायक के पास में जाकर) हे आर्य ! बचाइए, बचाइए, यह हमारी राजकुमारी गले में फांनी लगा कर अपना प्राण दे रही है।
** नायकः —–[ससम्भ्रममुपसृत्य—] क्वासौ ? क्वासौ ?।**
** चेटी—इअं असोअपादवे।**
[इयमशोकपादपे ]।
** नायकः—[सहर्षं दृष्ट्वा] कथं सैवेयमस्मन्मनोरथभूमिः?।**
\नायिकां पाणौ गृहीत्वा [लतापायमाक्षिपन्—285]
** न खलु न खलु मुग्धे ! साहसं कार्यमेवं,286**
** व्यपनय करमेतं287 पल्लवाऽऽभं लतायाः।**
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भागिनी=क्लेशभाजनं। न भवामि=नैव भवेयम्। तथा करिष्यसि=तथा कृपां करिष्यसि। इत्थं दयां कुरु। इतीयं भगवत्याः प्रार्थना। ‘कुरु’ इति पाठान्तरम्। इत्यभिधाय=इत्थमुदश्रु प्रलापं कृत्वा। पाशं=माधवीलतातन्तुवर्त्तितंपाशम्। कण्ठे-अर्पयति=गले निबध्नाति। ससम्भ्रमं=सत्वरम्। उपसृत्य=नायकनिकटे गत्वा। इत्थमभिहितवती’ति शेषः। ससम्भ्रममुपेत्य=सत्वरं चेटीसमीपमागत्य। नायकः ‘पृच्छती’ति शेषः। असौ=त्वद्भर्तृदारिका। क्व=क्व वर्त्तते ?। सम्भ्रमं द्विरुक्तिः। दृष्ट्वा=अशोकपादपोद्बद्धां नायिकां निपुणं विलोक्य, सैवेयं मत्प्रिया मलयवतीति ज्ञात्वाच। सहर्षं=सानन्दम्। प्रियादर्शनादेवात्र हर्षः। कथमिति विमर्शे, प्रश्ने वा। सैवेयं=यामहं स्वप्ने दृष्टवान् दिष्ट्या सैवेयमिह दृश्यते। अस्मन्मनोरथभूमिः =मदभिलाषस्य परममालम्बनम्। अनुरागास्पदम्। मत्प्रिया मलयवती। कथमिहागतेति नायकस्य विमर्शः। आक्षिपन्=दूरीकुर्वन्। अपनयन्। इत्थमनुनयगर्भमुवाचेति शेषः। न खल्विति। मुग्धे=हे बाले। अनिन्द्याऽलौकिक सौन्दर्यशालिनि ! \। ‘मुग्धः सुन्दरमूढयोः’
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नायक—(झपट कर पास में जाकर) वह कहाँ है ? कहाँ है ?। जल्दीवता।
चेटी—यह इसी अशोकवृक्ष के नीचे है।
नायक—(देखकर, पहिचान कर आनन्द के साथ–) हैं ! यह तो वही मेरी प्यारी है जिसके लिए में इतना विरहातुर और शोकाकुल हो रहा था। (नायिका को हाथ में उठाकर लता का फन्दा छुडाता है)।
कुसुममपि विचेतुं यो न मन्ये समर्थः
कलयति स कथन्ते पाशमुद्बन्धनाय॥११॥
** नायिका–[ससाध्वसं–] हद्धी288 ! को णु खु एसो ?। [नायकं289 निरूप्य**
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इति विश्वमेदिन्यौ। प्राणपरित्यागसाहसे तव मौग्ध्यमेव निमित्तं, नत्वौचित्यनिरूपणसामर्थ्यं तवास्तीति ‘मुग्धे’ इति सम्बोधनेन सूचितम्। एवम्=ईदृशं निन्दनीयं प्राणपरित्यागरूपं, साहसम्=अविचारितं कार्यम्। न खलु न खलु=नैव खलु। कार्यं=त्वया करणीयम्। सहसा प्राणपरित्यागं मा कार्षीः। स्वप्राणपरित्यागस्य अत्यन्तानौचित्यं ध्वनयितु’ ‘न खलु न खलु’ इति द्विरुक्तिः। पल्लवाभं=लताकिसलयर्सनिभं। नितरां मृदुलमाताम्रं सुकुमारं रमणीयञ्च किसलयानुकारिणम्। एतं करं=स्वहस्तम्। ‘पल्लवोऽस्त्री किसलयम्’ इत्यमरः। लतायाः=स्वकण्ठवन्धनार्थं गृहीताया अतिमुक्तक (माधवी) लतायाः सकाशात्। व्यपनय=विश्लेषय।दूरीकुरु। पाशभूतामिमां लतां मुञ्च तावत्। करस्य पाशग्रहणाऽयोग्यतां प्रकटीकुर्वन् मौग्ध्यमेवास्याः साधयति–कुसुममपीति। यः=यस्तवाऽतिसुकुमारः करः। कुसुममपि=अतिसुकुमारं मृदु रमणीयं शिरीषादि पुष्पमपि। विचेतुम्=अवचेतुम्। न समर्थः=न खलु शक्तः। इति–मन्ये=अहं वितर्कयामि। ते=तव! सः=स एवाऽतिमृदुलः करः। उद्बन्धनाय=ऊर्ध्वं बन्धनार्थं। पारां=कर्कशं लतापाशं। कथं कलयति=कथं धारयति?। कथं गृह्णाति?।नैव ग्रहीतुं शक्नोति। अतस्तादृशलोकोत्तरसौकुमार्यशालिनः स्वहस्तस्य पाशयोजने विनियोगस्तव मध्यमेव सूचयतीति विरमाऽस्मात्साहसात्, अनुचितमिदं ते कर्मेति भावः। मालिनी वृत्तम्। ‘न-न-म-य-य-युतेयं मालिनी भोगिलोकैः’ इति तल्लक्षणम्॥११॥
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हे मुग्धे ! अरी बावरी ! ऐसा साहस मत कर। अपने पल्लव के समान लाल और कोमल हाथ को इस लतापाश से हटाले। लता छोड़ दे। हे मुग्धे ! जो कोमल हाथ अति कोमलता के कारण फूल उठाने में भी असमर्थ है वह भला फाँसी लगाने में कैसे समर्थ हो सकता है? अतः इस लतापाश को छोड़ दे।१६।
नायिका—(डर के साथ—) (अरी चेटी! देख तो) यह यहाँ कौन आगया है?।(अच्छी तरह देखकर, नायक को पहिचान कर हाथ छुडाना चाहती हुई-)
सरोषं हस्तमाक्षेप्तुमिच्छति290]– मुञ्च मुञ्च मे अग्गहत्थं291, को तुमं णिबारेढुं? मरणे बि किं तुमं ज्जेब्व अब्भट्ठणीओ?।
** [हा धिक् को नु खल्वेषः?। मुञ्च मुञ्च मेऽग्रहस्तं कस्त्वं निवारयितुं ?। मरणेऽपि किं त्वमेवाभ्यर्थनीयः ?]।**
** नायकः—नाहं मुन्नामि।**
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ससाध्वसं=सभयम्।‘भीतिर्भीः साध्वसं भयम्’ इत्यमरः। हा धिगिति—स्वव्यापारनिरोधात्खेदसूचकमव्ययम्। हञ्जे’ इति पाठे चेट्यामन्त्रणम्। को नुखल्वेष मां पाशबन्धनसाहसाश्निवारयतीति शोकावेगपारवश्यात्संमुखमपश्यन्त्य नायिकाया अनिर्धारणमभक्तिः। नायकं निरूप्य=नायकं दृष्ट्वा। सरोषं= सक्रोधम्। ‘मम प्रियोऽयमन्यासक्त’ इति भ्रमादोषाविष्करणम्। अग्रहस्तं=हस्तपल्लवम्। कस्त्वं निवारयितुं=मां मरणग्यापारान्निवारयितुं तत्र कोऽधिकारः ?। त्वया सह मम नास्ति कोऽपि सम्बन्धः, अतस्त्वं मां निरोद्धुं नैव प्रभुरसीत्यधिक्षेपगभक्तिः। मरणेऽपि=स्वाधीने मरणेऽपि। किं त्वमेवाभ्यर्थनीयः= प्रार्थनीयः ?। किं खलु या मरणेऽपि तवैव प्रार्थना करणीया ?। मरणादि साहसान्निवारणमपि सम्बन्धिनामेवाचितं न तूदासीनस्य, त्वं च न मत्सम्बन्धं स्वीकृतवानसीति कुतस्त्वमद्य मां मरणान्निवारयसि। तन्मुञ्च मामित्याशयः। मातुर्मत्सम्बन्धविषयिणीं प्रार्थनां त्वमद्यैवान्यासक्ततया प्रत्याख्यातवानसि। तत्किमिदानीं मां साहसान्निवायसि?। मरणेऽपि किं त्वत्प्रार्थनाया आवश्यकताऽस्ति?। नैवेति हृदयम्।
इत्थं प्रणयकोपसूचकं वचनं श्रुत्वा नायकस्य चाटुगर्भमनुनयपरं प्रतिकूलं वचनं—नाहं मुञ्चामीति। चाटुवाक्यमेवाह-कण्ठे इति। हारलतायोग्ये=मुक्ता–
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छोडो, मेरा हाथ छोडो। मुझे रोकने वाले तुम कौन?।क्या मरने के लिए भी तुमसे ही पूछना पड़ेगा ?। अर्थात् सम्बन्ध करना तो तुम्हारे हाथ है। अतः तुमने नाही करके मेरी आशा को चूर २ कर दिया। पर मरने के लिये तो तुमसे पूछना नहीं पड़ेगा।मरना तो मेरे हो आधीन है। तुम्हारे प्रेम से हताश हो कर ही में प्राणत्याग कर रही हूँ। इसमें भी विघ्न करने वाले तुम कौन होते हो।
नायक—नहीं, मैं नहीं छोडूँ गा। क्योंकि—(हार की लड़ी) के योग्य
कण्ठे हारलतायोग्ये येनपाशस्तवाऽर्पितः।292
गृहीतः सापराधोऽयं स293 कथं मुच्यते करः॥१२॥
विदूषकः–भोदि,294 किं उण से (इमस्स215) मरणव्त्रवसायस्स कारणं ?।
** [भवति, किं पुनरस्या (अस्य) मरणव्यवसायस्य कारणम् ?।]**
** चेटी—(साकूतं) णं एसो एव दे पिअबअस्सो।**
** [नन्वेष एव ते प्रियवयस्यः।]**
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हारसूत्रपरिकलनोचिते। मुक्तावलीधारणार्हे। तव कण्ठे = त्वदीये ग्रीवानाले। त्वद्ग्रीवायाम्। येन=येन हस्तेन। पाशः=बन्धनपाशः।अर्पितः=दत्तः। नियोजितः। अत एव—सापराधः=सदोषः। अयं करः=तवाऽयं हस्तः। कथं मुच्यते=सहसा मोक्तुं नैव शक्यते। त्वन्निर्बन्धेऽपि तव सापराधमिमं करं मोक्तुं नैव शक्नोमीत्यर्थः।‘येन पाशस्त्वयाऽर्पितः, ‘कथन्ते सुच्यते करः’ इति पाठे–येन हेतुना त्वया कण्ठे पाशो दत्तोऽतः सापराधायास्तव हस्तः कथं मुच्यतामित्यर्थे बोध्यः॥१२॥
इत्थं प्रवर्त्तमानं तयोः प्रणयकलहं निवर्त्तयितुं विदूषकः प्रसङ्गान्तरमवतारयतिभवतीति। भवतीति चेटीसम्बोधनम्। भवति=अयि कल्याणिनि। किं पुनः =किं नु खलु। अस्याः=भवत्स्वामिपुत्र्या मलयवत्याः। मरणव्यवसायस्य=मरणोद्योगस्य। उद्बन्धनादिना मरणनिश्चयस्य। किं कारणं=को हेतुः?। किमर्थमियं मर्त्तुमिच्छतीति प्रश्नाशयः। साकूतं=साभिप्रायम्। अभिप्रायविशेषमग्रे वक्ष्यमाणं मनसि निधायेत्यर्थः। एष एव ते=तव, प्रियवयस्यः=प्रियसखो
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तुमारे गले में जिस हाथ [से तुम] नेंफासीका फन्दा डाला है, इस अपराधी हाथ को भला कैसे छोड़ा जा सकता है ?।१२।
विदूषक—अच्छा, भवति ! इस नायिका के इस प्रकार मरने के लिये संनद्ध होने का कारण क्या है ?।
चेटी—यही आपके प्रियमित्र जीमूतवाहन ही इस मरण व्यवसाय के कारण हैं।
नायकः—(सानुशयं295—) कथमहमेवाऽस्या मरणकारणं ?। न खल्ववगच्छामि।
** विदूषकः— भोदि ! कहं विअ ?।**
** [भवति ! कथमिव ?]।**
** चेटी—(साकूतं—) जा सा पिअवअस्सेण देकाबि हिअअवल्लहा सिलाअले आलिहिदा। ताए पक्खवादिणा एदेण296 पडिबादअन्तरसबि मित्तात्रसुणो णाहं पडिच्छिदे त्ति जादणिवेदाए इमाए एव्वं व्ववसिदं।**
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जीमूतवाहनोऽस्या मरणव्यवसाये हेतुरिति सोपालम्भं चेट्या वाक्यम्। ननु इति निश्चयद्योतकः। सानुशयं=सखेदम्। कथं केन प्रकारेण।अहमेव= सर्वप्राणिहितावह एतस्याः प्रेम्णः कामुकश्चाऽहमेव। मरणकारणं=मरणे हेतुः। न खलु=नैव निश्चयेन। अवगच्छामि=अधिगच्छामि। जानामि। कथमिव=केन प्रकारेण मत्प्रियवयस्योऽस्या मरणाऽध्यवसाये हेतुरिति स्पष्टं कथयेति प्रश्नाशयः। चेटी स्पष्टतयाऽभिधत्ते—या सेति। अत्रापि ‘साकूत’ मिति क्वचित्पढ्यते। ते=तव।प्रियवयस्येन=प्रियसखेनानेन। या सा=स्वानुभूता। कापि=काचित्। हृदयवल्लभा=स्वप्नदृष्टा स्वप्राणप्रिया।शिलातले=चन्द्रकान्तशिलातले, आलिखिता=उत्कीर्णा। चित्रिताऽऽसीत्। तस्यां=स्वलिखितायां प्रतिनायिकायाम्। पक्षपातिना=अनुरक्तेन। तदेकपक्षपातिना। तस्यामेव सुदृढमनुरागं दधानेन। एतेन=अमुना। त्वद्वयस्येन जीमूतवाहनेन। प्रतिपादयतोऽपि=कन्यारत्नं मां ददतोऽपि। मित्रावसोः=सिद्धयुवराजात्। मातुः। मित्रावसोः सकाशात्।
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नायक—(खेद पूर्वक) मैं इसके निश्चय (मरने) का कारण कैसे हूँ ? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया।
विदूषक—श्रीमती जी ! यह क्या मामला है, जरा स्पष्ट ( साफ २ ) कहिए।
चेटी—(बड़े नखरे व मिजाज एवं ताने के साथ—) आपके मित्र जीमूतवाहन नें जो चन्द्रमणि शिला तल पर लिखे हुए चित्र में अपनी प्यारी किसी नायिका को लिख रखा है, और उसी में आसक्ति के कारण तथा उसी के पक्ष-
\या सा प्रियवयस्येन ते काऽपि हृदयवल्लभा [शिलातले283आलिखिता, तस्यां297 पक्षपातिना298 एतेनप्रतिपादयतोऽपि मित्रावसोर्नाऽहं प्रतीष्टा इति जातनिर्वेदयाऽनया एवं व्यवसितम्]।
नायकः—[सहर्षमात्मगतं—] कथमियमेवासौ विश्वावसोर्दुहिता मलयवती!।अथवा रत्नाकरादृते कुतश्चन्द्रलेखायाः प्रसूतिः?299। हा300! कथं वञ्चितोऽस्म्यनया301?।
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नाऽहं प्रतीष्टा=नाऽहमनेन भार्यात्वेन स्वीकृता। प्रतीष्टा=गृहीता। इति=अतो हेतोः। जातनिर्वेदया=सञ्जातखेदया। अवमानितयेव। एवं=मरणोद्योगः।व्यवसितम्=आरब्धः। अन्यासक्तेन मत्प्रियेणाऽहं न स्वीकृतेति खेदादेवाऽनया मरणाऽध्यवसायः कृत इति त्वद्वयस्योऽस्या मरणोद्योगे हेतुरित्याशयः। ‘तस्यां ‘पक्षपातिनाऽनेन त्वद्वयस्येन प्रत्याख्यातस्य मित्रावसोः=स्वभ्रातुः सकाशात्–‘नाऽहंप्रतीच्छामि’=नाऽहं त्वद्भगिनों जिघृक्षामीति त्वद्वयस्यस्य वाक्यं श्रुत्वेति पाठान्तरेऽर्थो बोध्यः।
सहर्षं=सानन्दम्। भ्रान्त्यपगमेन हर्षः। आत्मगतं=स्वगतम्। कथमियमेवासाविति। इयमेव=मत्प्रियाखल्वियमेव, असौ=मित्रावसुवर्णिता, तेन दातुमिष्टा च। विश्वावसोः सिद्धराजस्य विश्वावसोः। दुहिता=पुत्री। कथमेतदित्याश्चर्य-सूचकमिदमव्ययम्। मदभिलाषभूमिरियं, विश्वावसुसुता चैकैनेति मद्भाग्येनेव कथं नु जातमित्याशयः। अथवेति पक्षान्तरोपन्यासः। किमत्राश्चर्यमित्यर्थः। रत्नाकरात् =
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पात के कारण ही इन्होंने (जीमूतवाहन) स्वयं आकर सम्बन्ध को प्रार्थना करते हुए मित्रावसु की प्रार्थना पर भी इसको (मलयवती को) इन्होंने स्वीकार नहीं किया इस लिये हताश होकर उदास व खिन्न मन से हो इसनें ऐसा यह प्राणत्यागने का निश्चय किया है।
नायक—(हर्षपूर्वक मन ही मन) हैं ? क्या यही विश्वावसु की कन्या ‘मलयवती है !। अथवा इसमें आश्चर्य ही क्या है। रत्नाकर (समुद्र) के बिना
** विदूषकः— भोदि ! जइ एव्वं, (ता215) अणबरद्धो दाणों पिअव. अस्सो।अहवा जइ (मम) ण पत्ति आदि, (तदा) सअं ज्जेव्वसिलाअलं गदुअ302 पेक्खदु भोदी।**
** [भवति ! यद्येवं, (तत्) अनपराद्ध इदानीं प्रियवयस्यः। अथवा यदि (मम) न प्रत्येति, (तदा) स्वयमेव शिलातलं गत्वा पश्यतु भवती]।**
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सकलरत्ननिधेः सागरात्।ऋते=विना। रत्नाकरं विहायेत्यर्थः। चन्द्रलेखायाः=इन्दुकलायाः। प्रसूतिः=उद्भवः। कुतः=कस्मात् भवति। नैव भवतीत्यर्थः। देवैर्मथितात्समुद्रादेव चन्द्रकलाया उद्भवः पुराणेषु प्रसिद्धएव। सिद्धराजाहिश्वावसो रत्नाकर स्थानीयादस्याश्चन्द्र कलावदाह्लादजनिकाया मत्प्रियायाः समुद्भवी युज्यत एवेति भावः। हा–इति कष्टे। कथं=कथमिव। अनया=मलयवत्या। भ्रान्त्युत्पादनेन अहं वञ्चितोऽस्मि=प्रतारितोऽस्मि। अत एव गौरीभवनदृष्टाया अस्या मत्प्रियाया मलयवत्या, सिद्धराजडुहितुश्चैक्यमनवगच्छता मया मित्रावसुः प्रत्याख्यात इति खेदः। अत्र–‘कष्टं मनाग् वञ्चितोऽस्मीति दाक्षिणात्य पुस्तक-पाठो मनोहरः। तत्र–मनाक्=ईषदिव। वञ्चितोऽस्मि=अनयोर्मलयवतीविश्वा-वसुपुत्र्योर्भेदबुद्ध्या प्रतारितोऽस्मीति तदर्थः। भ्रान्तोऽयद्य यावत् अन्यथा कथमहं मित्रावसोः प्रत्याख्यानं कर्तुं प्रवृत्तो भवेयमित्याशयः। यद्येवं=यदि मणिशिलालिखितायां पक्षपातमाशङ्कय मत्प्रियवयस्यकृत प्रत्याख्यानेन कुपितेयं। तत् = तर्हि। इदानीं = मलयवतीदर्शनानन्तरम्। अनपराद्धः = निरपराधः। निर्दोष
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चन्द्रमा की रेखा का जन्म अन्यत्र कहाँ हो सकता है? अर्थात् सिद्धराजवंश में ही मलयवती ऐसे रत्न की उत्पत्ति संभव है। हा ! मैं तो इस मलयवती द्वारा बहुत ठगा गया। अर्थात् - मैंने इस भ्रम से कि- मेरी प्रिया गौरीमन्दिरवाली कोई दूसरी है, और विश्वावसु की कन्या कोई दूसरी है, अतः मैंने मित्रावसु को सम्बन्ध के लिए नाहीं कर दी थी। मुझे क्या मालूम था कि वह मेरी प्रिया और विश्व की कन्या ये दोनों एक ही हैं। हा ! बड़ा धोखा हुआ
विदूषक — श्रीमतीजी ! यदि वही (जीमूतवाहन का इसके साथ विवाह सम्बन्ध स्वीकार नहीं करना ही) कारण है तब तो मेरा मित्र बिलकुल अपराध
** नायिका—\सहर्षं, सलज्जञ्च नायकं पश्यन्ती [हस्त303माक्षेप्तुमिच्छति]।**
(मुञ्च मुञ्च304 मे अग्गहत्थं)।
** \मुञ्च [मुञ्च304 मेऽग्रहस्तम्]।**
नायकः—[सस्मितं304] न तावन्मुञ्चामि यावन्मम305 हृयवल्लभां शिलायामालिखितां306 न पश्यसि।
[सर्वे परिक्रामन्ति]।
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एव खलु। प्रियवयस्यः=मत्प्रियसहचरोऽयं नायकः। मलयवतीपक्षपातेनैव मित्रावसुभगिनीं तदन्यतयाऽऽशङ्कय प्रख्यातवानयम्। वस्तुतोऽस्यामेवाऽस्य पक्षपात इति शिलालिखितां प्रतिकृतिं दृष्ट्वैव निर्णयो भवत्या विधेय इति भावः।
अथवा=पक्षान्तरे यदि चेत्। मम=मदुक्तिं। न भवती प्रत्येति=त्वं न विश्वसिषि। तदा=तर्हि। स्वयमेव गत्वा–शिलातलं=तत्र लिखितं चित्रम्। पश्यतु भवतीत्वं पश्य तावत्। इयमेव तत्र प्रियवयस्येनालिखिताऽस्तीति भावः।
‘अहमेवाऽनेन शिलाफलके आलिखिता, वस्तुतोऽयं मय्येवाऽनुरक्त’ इति ज्ञात्वा नायिका सहर्ष=सानन्दं। सलज्जं=सव्रीडञ्च। नायकं=जीमूतवाहनं कटाक्षपातैः पश्यन्ती स्वहस्तमाक्षेप्तुमिच्छति=आक्रष्टुमिच्छति। अग्रहस्तं=हस्ताग्रम्। सस्मितं=सेषद्धास्यं। सर्वे=नायिकाचेटीविदूषकादयः। परिक्रामन्ति=शिलाफलक निकटगमनं नाटयन्ति।
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रहित (बेकसूर) है। यदि आपको मेरी बातों पर विश्वास न हो तो स्वयं चलकर उस शिलातल पर लिखे हुए चित्र को देख सकती हैं। वह चित्र तो इस मलयवती का ही है। दूसरी नायिका का नहीं है। अतः मेरा मित्र निरपराध सिद्ध हो जाता है।
[नायिका—हर्ष और लज्जा से, नायक को प्रेम दृष्टि से देखती हुई अपने हाथ को खींचना चाहती है]
नायक—(मुस्कुराता हुआ—) जब तक मणिशिला तल पर लिखी हुई मेरी प्राणप्रिया हृदयवल्लभा की प्रतिमा को नहीं देखोगी तब तक हाथ नही छोडुँगा।
(सब मणिशिला के पास चित्र देखने जाते हैं)।
** विदूषकः— [[कदलीपत्रमपनीय]]307 भोदि ! पेक्ख एवं से हिअअबल्लहं जणं।**
** [भवति ! पश्य (पश्य)एतमस्य हृदयवल्लभं जनम् ]।**
** नायिका— [निरूप्याऽपवार्य्यं सस्मितं—] चदुरिए ! अहं विअ आलिहिदा !।**
** [चतुरिके ! अहमिवाऽऽलिखिता!]।**
** चेटी— [चित्राकृतिं, नायिकाञ्च निर्वर्ण्य—] भट्टिदारिए ! किं भणसि अहं विअ आलिहिदेति। ईरिसं सेसारिच्छं308, जेण ण जाणीअदि—किं दाव इध (ज्जेव्व मणि) सिलाअले भट्टिदारिआए पडिबिम्बं सङ्कतं, उद तुम आलिहिदे न्ति।**
** \भर्तृदारिके ! किं भणसि—‘अहमिवाऽऽलिखितेति’ ?। ईदृशमस्य**
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निरूप्य=चित्रं दृष्ट्वा।अपवार्य=अन्यानपवार्य। नायकविदूषकावश्रावयन्ती चेटीमाह। अहमिव=मत्सदृशीयं प्रतिकृतिः। आलिखिता= चित्रिताऽत्रानेन। ‘अहमिव’ ति सन्दिग्धमिव लज्जयोक्तमपि नायिकावचनं श्रुत्वा सोल्लासं चेटी ब्रूते—भर्तृदारिके इति। अहमिवेति किं ब्रवीषि?।अनेन चित्रेण सह भवत्या ईदृशं सादृश्यं वर्त्तते येन भवत्या इदं प्रतिबिम्बमेव मणिशिलातले संक्रान्तं= प्रतिफलितं वा, चित्रं वेदमिति संशयो भवति। तत्त्वमेवात्र नायकेन लिखिताऽसि, संशयं
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विदूषक — (केले के पत्ते को चित्र परसे हटा कर) श्रीमती जी ! देखिए यही इस (जीमूतवाहन) की हृदयवल्लभा (की मूर्ति) है।
नायिका—(अच्छी तरह देखकर, अपनी ही मूर्ति लिखी हुई देखकर, हंसती हुई अलग से चेटी के प्रति—) अरी चतुरिके ! इस चित्र में तो मालूम
होता है–जैसे मैं ही लिखी हुई हूँ !।
चेटी—(चित्रलिखित आकृति को और नायिका को अच्छी तरह देखकर, मिलान कर) राजकुमारीजी ! आप कहती हैं कि–मैं ही लिखी हुई हूँ !
सादृश्यं येन न ज्ञायते किं [तावदिह309 मणिशिलातले भर्तृदारिकायाः प्रतिबिम्बं सङ्क्रान्तम्, उत त्वमालिखितेति ! ]\।
** नायिका—[ विहस्य — ] (हञ्जे ! ) दुज्जणीकिदम्हि इमिणा310 मं चित्तगदं दंसअंतेण।**
** [ हञ्जे ! दुर्जनीकृताऽस्मि अनेन (मां) चित्र (चित्त) गतां दर्शयता]।**
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तावन्मा कार्षीः। अहो चित्रकर्मचातुरी स्वत्प्रियस्यास्येत्याशयोऽप्यत्र बोध्यः। अनेन=चित्रेण। ईदृशम्= एवंविधम्।
एवं चेटीवचनेन सञ्जातनिश्चया नायिका स्वाऽविनयं संभाव्य विनयनेव तावद्दर्शयति-हञ्जे इति। चित्रगतां=चित्रलिखितां, चित्तगतां= स्वहृदयाभिलाषविषयीभूतां, मां= मलयवतीं–चित्रे दर्शयता, अनेन=मत्प्रियतमेनानेन। दुर्जनीकृताऽस्मि= अहमेव मूढेति ख्यापिताऽस्मि। अस्मिंश्चित्रे ममैव रूपमालिखितं नान्यस्याः प्रतिनायिकायाः, मय्येव चाऽस्य पक्षपात आसीदिति ज्ञात्वा मम मनसीदानीं–‘त्वमेवापराधिनी याऽन्यथाऽऽशङ्कितवती‘ति स्वाऽविनयेन खेदो भवति। मयाऽसज्जनोचितं कर्माऽऽचरितमिति च नितरामहं लज्जिताऽस्मीति नायिकाया विनयप्रदर्शनोक्तिरियम्। दुर्जनीकृताऽस्मि=अविनयशीलेति प्रतिबोधिताऽस्मि। दुर्जनोचिताचारपराऽहमेवाऽस्मि, वस्तुतोऽयं मप्रियः सर्वथाऽःत्रापराधशून्यो मदेकपरायण एवास्तीति तदाशयः। पाठान्तरे–अमुना= नायकेन।इदं= मत्प्रतिरूपघटितं चित्रं दर्शयता। दुर्जनीकृताऽस्मि= त्वमेवापराधिनीति
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इस चित्र में तो आपका इतना ठीक २ साहश्य है कि मालूम हो नहीं होता है कि–यह मणिशिला पर आपका प्रतिबिम्ब पड़ रहा है, या आपकी मूर्ति लिखी हुई है ! इतना आपके साथ इस चित्र का सादृश्य (मिलान) है !।
नायिका—(हंसकर अलग से) अरी चेटी, इन्होंने चित्र में (तथा चित्त में) मेरो ही मूर्ति को लिखी हुई दिखाकर मुझे ही अपराधिनी सिद्ध कर दिया। अर्थात्–नायक का कुछ भी दोष नहीं रह गया। अब तो दोष मेरा ही हुआ कि–मैंन चित्रगत स्त्री को अपने से दूसरी समझा और अपना अपमान समझ कर मरने पर उतारू हो गई। यह नायक तो सर्वथा निर्दोष है।
विदूषकः—(भो !) णिव्वुत्तो दाणीं (दे) गन्धव्वो विआहो। (ता) मुञ्च दाव से अग्गहत्थं। एषा (क्खु) काबि तुरिदतुरिदा इध ज्जेव्व आअच्छदि।
** \भो ! [निर्वृत्त311 इदानीं (ते230) गान्धर्वो विवाहः। तन्मुञ्च तावदस्या अग्रहस्तम्। एषा खलु काऽपि त्वरितत्वरिता इहैवाऽऽगच्छति]।**
** [नायको मुञ्चति]।**
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बोधिताऽस्मीत्यर्थः। कथाविच्छेदायविदूषकः प्रसङ्गान्तरमुपस्थापयति-भोइति। निर्वृत्तः=निष्पन्नः। गान्धर्वो विवाहः=स्वेच्छानुरागप्रधानः, परस्परहस्तादिग्रहणमात्रापेक्षो विवाहविशेषः। हस्तस्य अग्रम्—अग्रहस्तम्=हस्ताग्रम्। राजदन्तादित्वाद्धस्तस्य परनिपातः। अष्टविधो हि विवाहो भवति—
ब्राह्मो दैवस्तथैवाऽऽर्षः प्राजापत्यस्तथाऽसुरः।
गान्धर्वराक्षसौ चान्यौ पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥
—इति मनुस्मृत्युक्तेः। तत्र गान्धर्वस्य लक्षणन्तु—
‘इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च।
गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः॥’
—इति मनुस्मृतावुक्तम्।
एषा=पुरतः। काऽपि=अज्ञातनामधेया। त्वरितत्वरिता=अतित्वरावती। वेगेन। इहैव=अत्रैव। अतोऽस्या हस्तपल्लवं झटिति मुञ्च। माऽन्यो भवन्तमित्थं कोऽपिद्राक्षीदित्याशयः। इत्थं सूचितप्रवेशाऽपरा चेटी रङ्गं प्रविशति। उपसृत्य–
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विदूषक—हे मित्र ! इसके साथ आपका गान्धर्व विवाह तो हाथ पकड़ने मात्र से हो ही गया है, अब तो इसका हाथ छोड़ दो। देखो, यह कोई स्त्री
जल्दी २ इधर आ रही है।
गान्धर्व विवाह—अपनी इच्छा से वर–कन्या दोनों मिलकर सम्बन्ध स्थानित कर लें उसे गान्धर्व विवाह कहते हैं। यह रीति क्षत्रियों में ही अधिक प्रचलित थी ]।
[नायक—नायिका का हाथ छोड़ देता है]।
[दूसरी बेटी–मनोहरिका का प्रवेश]।
[ततः312 प्रविशति (द्वितीया’) चेटी]
** (द्वितीया) चेटी313%20उपसृत्य’)। " [ प्रविश्य ] चेटी–‘सहर्षे’ (सहसा) उपसृत्य’)।")—[प्रविश्य सहर्षे—] भट्टिदारिए ! दिट्टिआ वड्ढसि। पडिच्छिदा (क्खु) तुमं (भट्टिओ) जीमूदवाहणस्स गुरुहिं।**
** [भर्त्तृदारिके314 ! (दिष्ट्यावर्द्धसे ) प्रतीष्टा (खलु) त्वं भर्तुर्जीमूतवाहनस्य गुरुभिः]।**
** विदूषकः— [नृत्यन्] (ही ही भोः !) सम्पुण्णा मणोरहा पिअअस्सस्स। अहवा णहि णहि (अत्त) भोदीए मलअवदीए।अहवा ण एदाणं। [भोजनमभिनयन्—] मम ज्जेव्व (एक्कस्स) बम्हणस्स।**
** [ही ही भोः ! सम्पूर्णा मनोरथाः प्रियवयस्यस्य। अथवा न हि न हि, अत्र भवत्या मलयवत्याः। अथवा नैतयोः, ममैव एकस्य ब्राह्मणस्य]।**
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समीपमागत्य। सहर्षमित्थमुवाचेति योजना। दिष्ट्येति हर्षमङ्गलानन्दव्यञ्जकमव्ययम्। दिष्ट्या वर्द्धसे=सौभाग्येन वर्द्धसे। सौभाग्यावसरस्ते समुपस्थित इत्यर्थः। प्रतीष्टाखलु=विवाहार्थं निश्चयेन स्वीकृता। भर्तुः=स्वामिनः। चेटीनां राजसम्बोधने भर्त्तृपदप्रयोग इति समुदाचारः। गुरुभिः=तातमातृप्रभृतिभिः। तदेवं निश्चितस्ते विवाहसम्बन्धः स्वप्रियेण जीमूतवाहनेनेत्याशयः। इत्थं चेटीवाचं श्रुत्वा जीमूतवाहनस्य स्वप्रियया मलयवत्या सह सम्बन्धो निष्पन्न इति विज्ञाय विदूषको हर्षेण नृत्यति—ही हा भो इति। ‘ही हो भो’ इति हर्षे। क्वचिन्नायं पाठः। सम्पूर्णाः=सम्यक् पूर्णाः। मनोरथाः=इच्छाः। क्वचित्=‘सम्पूर्णो मनोरथ’ इति पाठः। अथवेति पक्षान्तरे। नहि नहि=नखलु प्रियवयस्यस्य मनोरथः पूर्णः,
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दूसरी चेटी (मनोहरिका)—(बड़ी प्रसन्नता के साथ) राजकुमारीजी ! बड़े आनन्द की बात है। बधाई है। बधाई है !!। जीमूतवाहन के गुरुजनों नेंजीमूतवाहन के साथ आपका सम्बन्ध स्वीकार कर लिया है।
विदूषक—(हर्ष के साथ नाचता हुआ–) अहा ! हा ! वाह ! वाह !! हमारे मित्र के सब मनोरथ सिद्ध हो गए। मन चाही प्रिया भार्या मिल गई।
चेटी—[नायिकामुद्दिश्य—] आणत्तम्हि जुअराजमित्तावसुणा, जह—‘अज्ज ज्जेव्व मलवअदीए विआहो, ता लहुं एतं गेण्हिअ आअच्छ’त्ति। ता एहिं गच्छम्ह।
** \आज्ञप्ताऽस्मि युवराजमित्रावसुना यथा—‘अद्यैव मलयवत्याः विवाहः, तल्लघु [एनां315 गृहीत्वाऽऽगच्छ’ इति। तदेहि गच्छावः]।**
** विदूषकः—गदा (क्खु215) तुमं दासीए धीए एवं गेव्हिअ। पिअवअस्सेण कि इध ज्जेब्वअवत्थिदव्वं ?।**
** \गता खलु त्वं दास्याः पुत्रि ! इमां गृहीत्वा। [प्रियवयस्येन316 किमिहैवाऽबस्थातव्यम्?]।**
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किन्तु अत्रभवत्याः=नाननीयायाः। मलयवत्या एव प्रियप्राप्तिरूपो मनोरथः पूर्णः।अथवा–नैतयोः= न खलु जीमूतवाहनस्य, न च खलु मलयवत्याश्च मनारथ इदानीं पूर्णः, किन्तु ममैव एकस्य=केवलस्य उदरम्भरिणो ब्राह्मणस्य यथेच्छमोदकभोजनप्राप्तिरूपो मनोरथ एव पूर्णः। विवाहे यथेष्टमोदकलाभस्य निश्चितत्वादिति हस्तेन भोजनमुद्रां बध्नन् नृत्यतीत्यर्थः। लघु=शीघ्रमेव। एनां=मलयवतीम्। तत्=तस्मात्। युवराजमित्रावसुनिर्द्देशात्। एहि=शीघ्रमागच्छ। गच्छावः=स्वभवनं गच्छावः। विदूषकः साधिक्षेपं चेटीमाह गतेति।
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अथवा नहीं, नहीं, हमारे मित्र के क्या मनोरथ सिद्ध हुए, मलयवती के ही मनोरथ सिद्ध हुए–यही कहना चाहिये।
अथवा–इन दोनों के मनोरथ क्या सिद्ध हुए किन्तु मेरे इकल्ले के ही मनोरथ (लड्डू भोजन) सिद्ध हुए–यही कहना ज्यादा ठीक होगा। क्योंकि–अब खूब खाने को मिलेंगें। वाह ! वाह !!
दूसरी चेटी—(नायिका के प्रति—) युवराज मित्रावसु ने मुझे आज्ञा दी है कि—आज ही मलयावती का विवाह का मङ्गलमय मुहूर्त है, अतः उसे शीघ्र ही साथ लेकर आ। अतः आइए चलें।
विदूषक—(हंसी से) अरी दासी की बेटी ! मलयवती को तो तूं साथ लेकर
चेटी—हदास ! मा तुवर ( मा तुवर )। तुम्हाणं पि ह्णावणअं आअदं ज्जेव्व।
** [हताश ! मा त्वरस्व [ मा त्वरस्व ]। युष्माकमपि स्नपनकमागतमेव]।**
** \नायिका—सानुरागं, सलज्जञ्च [नायकं317 पश्यन्ती सपरिवारा निष्कान्ता]।**
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‘दास्याःपुत्री’ति समस्तं पदं।निन्दायां गम्यमानायां षष्ट्या आक्रोशे’ इति षष्ठ्या अलुक्।निन्दाचाऽत्रोपहासेनैव, सम्बन्धिनां परस्परं विवाहादौ गालीप्रदानस्य प्रसिद्धत्वात्।किञ्च त्वम् इमां=मलयवर्ती नयसि, परन्तु मत्प्रियवयस्यस्य त्वया कोऽपि प्रबन्धो न विहितः, किमयं वराक इहैव=एकाकी तिष्ठतुइत्यधिक्षेपोऽत्र बोध्यः। इहैव=कानन एव।अवस्थातव्यम्=आसितव्यम्।क्वचित्- ‘आसितव्यम्’ इत्येव पाठः। चेटी परिहासेनाऽधिक्षिपन्ती समाधत्ते - हताशेति।हताश=हे अधीर।हे लम्पट।हे लोभपरायण। मा त्वरस्व (मा त्वरस्व)=मा त्वरां कार्षीः।धैर्यं मा मुञ्च।धैर्यं बधान किञ्चित्कालम्।अविक्षेपे क्वाचिकी द्विरुक्तिः समर्थनीया। युष्माकमपि=तव वयस्यस्यापि तेनैव सह तवापि। स्नपनकं=वरोचितं स्नानोपकरणमङ्गरागनवीनवस्त्रादिकम् आगतमेव=अनुपदमागतमेव विद्धि। ततो वरस्नानकारिण्यो युवतयः सर्वसम्भारहस्ताः शीघ्रमाह्वयिष्यन्त्येवेत्याशयः।विवाहावसरे हि कन्याभवने वरस्य मङ्गलस्नानं सुवासिन्यो युवतयः कारयन्तीत्याचारः।एवञ्च स्नानार्थं कन्याभवने युष्माकमागमनमपि शीघ्र भविष्यति।तदर्थमाह्वातुं लोका अनुपदमेवागच्छन्तीत्यर्थः।
नायिका स्वमनोरथसिद्ध्या नायकं सानुरागं, सलज्जं च पश्यन्ती चेटीपरिवृती रङ्गस्थलान्निष्क्रान्ता।
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जा रही है, पर मेरे मित्र जामूतवाहन क्या यहां इसी तरह बैठे रहेगें ?। इनके बिना विवाह कैसे होगा ?।
चेटी—अरे उतावले ! इतनी जल्दी मत कर।धीरज धर। आपके मित्र के लिये भी माङ्गलिक स्नान के लिए बुलावा शीघ्र ही आ ही रहा है। (वर को विवाह के पहले मङ्गल स्नान कराया जाता है)।
[नायिका—प्रेम और लज्जा से नायक को कटाक्षपात से देखती हुई चेटियों के साथ जाती है]।
[वैतालिको318 नेपथ्ये पठति]
वृष्ट्यापिष्टातकस्य द्युतिमिह मलये मेरुतुल्यां दधानः
सद्यः सिन्दूर-दूरीकृ319तदिवससमारम्भसन्ध्याऽऽतपश्रीः।
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ततो नेपथ्ये स्नानावसरस्थानादिसूचकाः सिद्धकुलवैतालिकाः पठन्ति—वृष्ट्येति। ‘वैतालिको नेपथ्ये पठती’ति पाठे–वैतालिकः = स्तुतिपाठकः। ‘वैतालिका बोध कराः’ इत्यमरः। नेपथ्यं=जवनिकान्तरितो रङ्गस्थले स्थानविशेषः। अप्रविष्टैः पात्रैर्यत्किमपि सूच्यते तत्र ‘नेपथ्ये’ इति प्रयुज्यते। वृष्ट्येति। पिष्टातकस्य=पटवासस्य। विवाहाद्युत्सवेषु माङ्गलिकस्य यस्य सुगन्धिद्रव्यमिश्रितस्य हरिद्रा–तण्डुल–कुङ्कुमादीनां चूर्णस्य प्रक्षेपो विधीयते तच्चूर्ण’ ‘रंग’ ‘पटवास’ इत्युच्यते। (‘इन’ ‘गुलाल’ ‘अवीर बुक्का’ ‘रंग’ इति भाषायां)। तत्त्व—वृष्ट्या=निरन्तरं प्रक्षेपेण। इह मलये= इह मलयप्रदेशेऽपि। मेरुतुल्यां=सुमेरुसदृशीं। युतिं=शोभां। कान्तिं। दधानः=विदधानः। कुर्वाणः। पटवासैः सर्वत्राऽरुणिमोदयेन कनकगिरि–सुमेरु-तुल्यां शोभां विस्तारयन्। किञ्च-सद्यः=झटिति। तदानीमेव।पटवास–प्रक्षेपानन्तरमेव। सिन्दूरेण=उपर्युपरि प्रक्षिप्तेनसिन्दूर (‘गुलाल’ ‘सिन्दूर’ आदि) चूर्णेन दूरीकृता=न्यक्कृता, तिरस्कारं लम्भिता, दिवससमारम्भस्य=प्रभातसमयस्य, सन्ध्यातपस्य=सन्ध्याकालिकसूर्यातपस्य च, श्रीः=शोभा येन असौ–सद्यः सिन्दूरदूरीकृतदिवस समारम्भसन्ध्यातपश्रीः=पिष्टातकोपरिप्रक्षिप्त-सिन्दूर-चूर्ण-तिरस्कृत-प्रभात–सन्ध्या तपशोभः। अर्थात्–पिष्टातकोपरि सिन्दूरधूलीप्रक्षेपेण मलये एव अरुणसन्ध्यातपकृतशोभां
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[वैतालिक– (स्तुतिपाठक भाट–) नेपथ्य में (पर्दे के पीछे से) पढ़ता हैः–] चारों ओर लाल अबीर-गुलाल की वृष्टि से मलयाचल को सुमेरु की शोभा को प्रदान करते हुए, सिन्दूर के प्रक्षेप से प्रातःकालिक सन्ध्या की तथा प्रातः कालिक आप की शोभा को पराजित करते हुए, नाचती हुई स्त्रियों के बजते हुए मनोहर घुंघुरुओं से हृद्य गीतों के साथ ये सिद्ध लोग आपके विवाह समय मङ्गल स्नान की सूचना दे रहे हैं।
उद्गीतैरङ्गनानां चलचरणरणन्नूपुरहादहृद्यै320—
रुद्वाहस्नानवेलां कथयति भवतः सिद्धये सिद्धलोकः॥१३॥
** विदूषकः—[आकर्ण्य—] भो वअस्स ! (दिट्टिआ321) आगदं ग्रहणअ।**
भो वयस्य ! (दिष्ट्या) आगतं स्नपनकम्।322
** नायकः— [ सहर्षं ] सखे ! यद्येवं किमिदानीमिह स्थितेन ?। तदागच्छ। तातं नमस्कृत्य स्नानभूमिमेव गच्छावः।**
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सातिशयं सम्पादयन्। एवं भूतः सिद्धलोकः=कन्यापक्षीयः सिद्धजातिजनः। अङ्गनानां=नृत्यन्तीनां तरुणीनां सुन्दरीणाञ्च चलन्तः=प्रचलन्तो ये चरणाः=पादाः। चरणकमलानि, तत्र रणन्तः=शब्दायमाना ये नूपुराः=मञ्जीराः पादकटकानि, तेषां ह्रादेन=शिञ्जितेन मधुरध्वनिना, हृद्यैः = मनोहरैः, उद्गीतैः। सिद्धये=विवाहमङ्गलसिद्धये। सम्बन्धिनां वधूवरयोरस्माकं च मङ्गलहर्षवृद्धये इति यावत्। भवतः=तव। नायकस्येति यावत्। उद्दाहस्नानवेलां=वैवाहिक–मङ्गलस्नानसमयं। कथयति=निवेदयति। भवतो विवाहस्नानसमयः सञ्जात–स्तवरतां स्नानाय गन्तुं भवानिति दृष्टः सिद्धलोको निवेदयतीति भावः। स्रग्धरा वृत्तम् ॥१३॥
आकर्ण्य=नेपथ्ये वैतालिकैः पठ्यमानं पद्यं श्रुत्वा। ‘दिष्ट्या’ इति हर्षे।सौभाग्येन। स्नपनकं=स्नानसमयादिसूचना। स्नानसमयो वा। आगतम्=समुपस्थितः। अभीष्टसिद्धेरुपस्थित्या नायकः सहर्षमाह–सखे इति। चद्येवं = यदि स्नानावसर उपस्थितस्तर्हि। इह=मणिशिलागृहे। स्थितेन =अवस्थानेन।
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भावार्थ—विवाह महोत्सव के कारण चारों ओर अबीर–गुलाल–सिन्दूर फेंकी जा रही है। स्त्रियाँ नाच रहो हैं, गारही हैं। सिद्धगण इस प्रकार मङ्गलमय उल्लास से आपको (जीमूतवाहन को) स्नान के लिए बुला रहे हैं।
विदूषक—(सुनकर) हे मित्र ! लो आपको वैवाहिक माङ्गलिक स्नान की बुलाइट आगई है।
नायक— (हर्ष के साथ) यदि ऐसी बात है तो, यहाँ बैठे रहने की अब
अन्योन्यदर्शनकृतः समानरूपानुरागकुलवयसाम्।
केषाञ्चिदेव मन्ये समागमो भवति पुण्यवताम् ॥१४॥
[ (इति) निष्क्रान्ताः ]।
इति द्वितीयोऽङ्कः।
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किं = किं प्रयोजनम्। न किमपि प्रयोजनम्। तत् = तस्मात्। आगच्छ = आयाहि। तातं = पितरम्। स्नानभूमिं = वधूगृहक्लृप्तां मङ्गलस्नानशालामेव। गच्छावः =यावः।
एवं स्वसमीहितसिया हृष्ट आत्मनो विवाहाय श्लाघमान आह नायकः—अन्योन्येति। समानं=तुल्यं, रूपं = स्वरूपं सौन्दर्यादिकम्, अनुरागः तुल्यःस्नेहः, कुलं=समानो वंशः, वयः = तुल्याऽवस्था च येषां तेषां–समानरूपाऽनुराग-कुलक्ष्यलां = तुल्यरूपप्रीतिकुलावस्थानां। केषां चिदेव = केषामेव।पुण्यवतां पुण्यात्मनाम्। भाग्यशालिनां यूनाम्। अन्योन्यदर्शनकृतः = परस्परदर्शनसम्भाषगादिनिष्पादितः। समागमः = सम्बन्धः। विवाहादिसम्बन्धः। भवति = लोके जायते। इति मन्ये = तर्कयामि। लोके हि परस्परप्रीतिकृतः समानशीलानां सम्बन्धः कदाचित्कस्यचिदेव भाग्यशालिनो भवति, न सर्वेषाम्। मम चायं मलयवत्या सह विवाहसम्बन्धः सर्वथा योग्योऽदुरूपश्चेत्यहो से सौभाग्यमिति भावः। अन्योन्यदर्शनकृतं सम्बन्धं कामसूत्रकारो भगवान् वात्स्यायनोऽपि प्रशंसति– ‘यस्यां मनश्चक्षुषोः प्रवृत्तिस्तस्यामृद्धिः’ इति। आर्या॥१४॥
निष्क्रान्तौ = विवाहमण्डपगमनार्थं निष्क्रान्तौ।
इतिश्रीगुरुप्रसादशास्त्रिरचितायां नागानन्दाभिनवराजलक्ष्म्यां द्वितीयोऽङ्कः।
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क्या आवश्यकता है। अतः चलो, पिताजी को प्रणाम कर स्नान भूमि का (कन्या के घर पर) ही चलें।
मैं समझता हूँ कि—समान-रूप, प्रेम, कुल और अवस्था वाले हमारे ऐसे किन्हीं भाग्यशाली युवक युवतियों का ही इस प्रकार परस्पर प्रेम से समागम (विवाह) हुआ करता है। सबका नहीं। अतः हम बड़े भाग्यशाली हैं जो मन चाही वस्तु इस प्रकार हमें प्राप्त हो रही है॥१४॥ इति द्वितीय अङ्क समाप्त॥
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अथ तृतीयोऽङ्कः।
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\ ततः प्रविशति मत्तो [विचित्रविह्वलवेषश्चषक323हस्तो विटः,
(स्कन्धारोपितसुराभाण्डः211) चेटश्च ]।
** विटः—**
णिच्चं जो पिबई सुरं जणस्य पिअसंगमञ्च जो कुणई।
मह दे दो च्चिअ324 देवा बलदेओ कामदेओ अ॥१॥
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अथ द्वितीयाङ्कसमाप्तौ विवाहारम्भस्य प्रतिपादितत्वादवसरप्राप्तसम्भोगवर्णनोपक्रमेऽत्र तृतीयेऽङ्के ‘वृत्तयः काव्यमातृकाः’ इत्युक्तत्वात्, नाटकस्य च सर्ववृत्तिसमाश्रयसर्वरसविशिष्टत्वाच्छृङ्गारहास्यकरुणानां कैशिकीवृत्त्याश्रयत्वाच्च—
‘या श्लक्ष्णनेपथ्यविशेषवित्रा स्त्रीसंयुता या बहुनृत्तगीता।
कामोपभोगप्रभवोपचारां तां कशिकीं नाम वदन्ति वृत्तिम्॥
—इत्युक्तलक्षणायाः कैशिक्या नेतृनायकादिव्यापाररूपायाः—
‘नर्म च नर्मस्पन्दो नर्मस्फोटोऽथ नर्मगर्भश्च।
कैशिक्याश्वत्वारो भेदा ह्येते मयाऽऽख्याताः॥
—इत्युक्तेषु चतुर्ष्वङ्गेषु,
‘वैदग्ध्यक्रीडितं नर्म प्रियोपच्छन्दनात्मकम्।’
—इति लक्षितस्य कैशिक्या नर्माख्यस्याऽङ्गस्य हास्य-भय-शृङ्गाररूपेण
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अथ तृतीयाङ्क प्रारम्भ
\उन्मत्त, विचित्र औरअट–पटवेषधारी, हाथ में मद्यपात्र लिए विट (= छैल, शौकीन, रंडीबा) का तथा साथ में मदिरा का घड़ा लिए नौकर का प्रवेश ?।
विट—जो नित्य मदिरा पीते हैं वे (कृष्णचन्द्र के बड़े भाई) बलदेव जी, तथा लोगों को अपने प्रिय जन से जो मिलाते हैं वे भगवान् कामदेव–ये दो ही मेरे लिए (मेरी समझ में) सच्चे देवता हैं॥१॥
नित्यं यः पिबति सुरां, जनस्य प्रियसङ्गमञ्च यः करोति।
मम तौ [द्वावेव325देवौ—बलदेवः, कामदेवश्च॥१॥
\ [घूर्णन215—] सफलं क्खु मे सेहरअस्स जीविदं।
[ सफलं खलु मे शेखरकस्य जीवितम्—]
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त्रैविध्येऽपि–प्रकृते हास्यनर्म, विट–विदूषक–चेटी चेटानां मदहास्यादिघटितं विवाह-निर्वहणोद्यानगमनादिसूच्यसूचनविशिष्टं तावदङ्के निबध्नाति—नट इति। विटलक्षणं च दर्पणे—
‘सम्भोगहीनसम्पद्विटस्तु धूर्त्तःकलैकदेशज्ञः।
वेशोपचारकुशला मधुरोऽथ बहुमतो गोष्ठ्याम्॥’ इति।
मत्तः = सुरापानजन्यमदेनोन्मत्तः। विचित्रविह्वल्वेषः = हास्यानुगुणविचित्रवेषो, विह्वलवेषः = विशृङ्खलविपरीतभूषाम्बरपरीधानश्च। चषकहस्तः =पानपात्रहस्तः। ‘आकल्पवेषौनेपथ्यम्। इत्यमरः। ‘चषकोऽस्त्री पानपात्रम्’इत्यमरः विटः=वेश्यादिसमासक्तिशीलः पानशौण्डो विटः। स्कन्धे आरोपितं सुराया भाण्डं = पात्रं येनासौ स्कन्धारोपितसुराभाण्डः = अंसस्थापितमद्यघटः। चेटः = दासः। अत्र चेटस्कन्धस्थापितसुराभाण्डसूचनेन पानशौण्डत्वं विटस्य प्रदर्शितम्। मदमत्तो विटः स्वमार्गस्यैवौचित्यं दर्शयन् सुरापानप्रसिद्धं बलभद्रं, भुजङ्गवृत्ताधिदैवततया प्रख्यातं कामदेवं च प्रस्तौति - णिच्चमिति। यो हि नित्यं = सदैव, सुरां = मंदिरां, पिबति = सेवते स बलभद्रः, जनस्य = लोकस्य, मादृशभुजङ्गवृत्तस्यापि लोकस्य यः प्रियसङ्गमं = प्रियसमागमं करोति = स कामदेवश्च, इमौ द्वावेव मम देवौ = मान्यतया, पूज्यतया चाभिमतौ देवौ। नान्ये इत्यर्थः। सुरापानं कृष्णज्येष्ठभ्रात्रा बलदेवेन सर्वदैवानुष्ठीयते, भुजङ्गवृत्तिः, स्त्रीयोजनादिविटव्यापारश्च कामदेवेनापि क्रियते इत्यहो विटानां देवानुसारिचरिततया श्लाघ्यत्वमित्याशयः। तदेवाह–सफलमिति। शेखरक इति विटनामधेयम्। वक्षःस्थले = अङ्कपाल्यां, दयिता = प्रिया, विलसति। विकसितोत्पल-,
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[नशे में झूमता हुआ–] मेरा शेखरक का ही जन्म सफल है, क्योंकि—मेरे वक्षस्थल (बगल) में सदा मेरी प्राण प्रिया रहती है, और विकसित कमलों से
वच्छत्थलम्हि दहआ दिण्णुप्पलवासिआ326 मुहे महरा।
सीसम्मि अ सेहरओ णिच्चंचिअ327 संठिआ जस्स॥२॥
\वक्षःस्थले दयिताविकसितोत्पलवासिता मुखे मदिरा।
शीर्षे च शेखरको नित्यमेव [संस्थिता328 यस्य॥२॥]
\ [प्रस्खलन्329 – ] अरे ! को मं चालेदि ! \ [“सहर्षम्330–] अवस्सं णोमालिआ मं परिहसंदि।
[ अरे ! को मां चालयति ?। अवश्यं नवमालिका मां परिहसति ]।
** चेटः—भट्टक331 ! ण अ दाव सा अज्जवि इहागच्छदि।**
** [ भर्त्तः (भट्टक) ! ‘न च तावत्साऽद्यापीहाऽऽगच्छति ]।**
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वासिता=उत्फुल्लकमलाधिवासिता। मदिरा = माध्वीकं। मुखे = बदनाम्भोजे विराजते। शीर्षे = मूर्धनि। शेखरकः = पुष्पापीडश्च, यस्य मे नित्यमेव संस्थिताः सोऽहं शेखरकाख्यो विटराज एव धन्यः सफलजीवितोऽस्मीत्यर्थः। ‘दन्तोत्यले’ति पाठान्तरम्॥२॥
नवमालिकेति। तन्नाम्नी काऽपि चेटिका शेखरकस्य प्रियतमा।परिहसति = उपहसति। भट्टक=हे स्वामिन्। ‘भर्त्तः’ इति पाठान्तरम्। सा = नवमालिकाख्या त्वत्प्रेयसी। अद्यापि = अद्य यावत्। इदानीमपि। इत्थं बहुले समये व्यतीतेऽपीति यावत्। एतेन तद्विरहस्याऽसह्यत्वं सूच्यते।
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अधिवासित (सुगन्धित की हुई ) मदिरा सदा मेरे मुख मैं रहती हैं, और शिर पर पुष्पों का बना हुआ मुकुट है। अतः मैं धन्य हूँ, मेरा जन्म भी धन्य (सफल) है।२।
(लड़खड़ाता हुआ) अरे ! मुझे कौन हिला ( छेड़ रहा है ?।(हर्ष के साथ) अवश्य ही यह मेरी प्राण प्रिय नवमालिका ही होगी, जो मुझ इस तरह हिला कर मुझसे हंसी कर रही है।
नौकर–मालिक ! वह (नवमालिका) तो अभी तक यहाँ आई ही नहीं है।
** विटः—[ सरोषम्–] पढमपदोस332 ज्जेव्व मलअवदीए विआहमंगलं णिञ्वुत्तं। ता कीस (सा283) दाणीं पभादे बिण आअच्छदि?।**
([विचिन्त्य295) सहर्षम्—] अहवा विआहमहोत्सवे333सब्बो ज्जेव्बपिअपणइणीजणसणाहो सिद्धविज्जाहरलोलो कुसुमाअरुज्जाणे आवाअसोक्वमणुभविस्सदि त्ति तक्केमि। तहिं ज्जेव्व णोमालिआ मं अबेक्खमाणा चिट्ठदि। ता तहिं ज्जेव्व गभिस्तं। कीरिसो णोमालिआए विणा सेहरओ ?।
** \ प्रथमप्रदोषएव मलयवत्या विवाहमङ्गलं निर्वृत्तम्। तत्कथं (सा) इदानीं प्रभातेऽपि नागच्छति ?।अथवा (अमुष्मिन्मलयवत्या) ^(४) विवाहमहोत्सवे सर्व**
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प्रथमप्रदोष एव=गतदिवसे सन्ध्याकाले गोधूलिवेलायामेव। ‘प्रदोषो रजनीमुखम्’ इत्यमरः। ‘प्रथमप्रहरे’ इति पाठान्तरम्। निर्वृत्तं=निष्पन्नम्। सा= नवमालिका। निजप्रणयिनीजनसनाथः=स्वस्वप्रेयसीलोकपरिवृतः। सिद्धविद्याधरलोकः=सिद्धाख्यविद्याधराख्य-देवजातिलोकः। कुसुमाकरोद्याने= पुष्पाकराख्ये देवोद्याने। ‘पुमानाक्रीड उद्यानम्’ इत्यमरः। आपानसौख्यं = मद्यपानगोष्ठीसुखम्। तत्रैव=
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विट—(क्रोध पूर्वक–) मलयवती का मङ्गलमय विवाह तो गत रात्रि के पहिले प्रहर में ही हो गया था। तो फिर वह (नवमालिका) आज सबेरा हो जाने पर भी अभी तक क्यों नहीं आई ?।(कुछ विचार कर, हर्षं पूर्वक-) अथवामलयवतीके विवाह महोत्सव में आज सभी सिद्ध और विद्याधरगण अपनी २ प्रियतमाओं के साथ कुसुमाकरोद्यान में मद्यपान के आनन्द का अनुभव करेंगे। अतः मैं समझता हूँ कि वहीं कुसुमाकर उद्यान में ही नवमालिका मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी। अतः वहीं जाता हूँ। नवमालिका, के बिना शेखरक कैसा ?।
(नवमालिका=बेला का फूल और शेखरक नामक इस विट की खी। शेखरक—फूलों से बना शिर का मुकुट, और विट। फूलों का मुकुट भी नवमालिका के फूल के बिना जैसे फीका है वैसे ही नवमालिका नामक अपनी प्रिया के बिना शेखरक नामक मैं विट भी नहीं जचता हूँ–यहविट का भाव है )।
[एव334निजप्रणयिनीजनसनाथः सिद्धविद्याधरलोकः कुसुमाकरोद्याने आपानसौख्यमनुभवति335? (इति215। तर्कयामि तत्–) तत्रैव नवमालिका मामपेक्षमाणा तिष्ठति। तत्तत्रैव गमिष्यामि। कीदृशो नवमालिकया विना शेखरकः?]।
[स्खलन्336 परिक्रामति]।
**
चेटः—एदु337 एदु भट्टके। एदं कुसुमाअरुजाणं। विसदु भट्टके। [उभौ338 प्रवेशं नाटयतः]।
[एतु एतु भर्त्ता। एतत् कुसुमाकरोद्यानम्। तत् प्रविशतु भर्ता ]।
[ततः प्रविशति स्कन्धन्यस्तवस्त्रयुगलो विदूषकः।**
** विदूषकः—(संपुण्णा मणोरहा पिअवअस्सस्स)। सुदं (क्खु) मए पिअवसेस्सो कुसुमाअरुज्जाणं गमिस्सदि त्ति। ता जाव तहिंज्जेव्व गमिस्सं। [परिक्रम्य, विलोक्य च] इदं कुसुमाअरुज्जाणं, जाव पविशामि (इदं)। [प्रविश्य भ्रमरबाधां नाटयन्–] अरे! कीस उण (एदे) दुट्टमहुअरा मंज्जेव्व अभिवंति ! [आत्मानमात्राय] भोदु जाणिदं (मए) जं **
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कुसुमाकरोद्याने। अपेक्षमाणा=प्रतीक्षमाणा। कीदृशः =कीदृक्षः। नैव शोभते। नवमालिका=पुष्पविशेषः (बेला)। शेखरकप्रिया च तन्नाम्नी। शेखरकः= ! आपीडो, विटश्च। यथा नवमालिकाकुसुमं विना शिरोमाल्यं न शोभते, तथैव
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[गिरता–पड़ता बाहर निकल कर जाना चाहता है]।
नौकर—हे स्वामी ! इधर आइए, इधर। यही कुसुमाकर नामक बगीचा है। इसमें आप पधारिए।
[दोनों कुसुमाकर उद्यान में प्रवेश करने का अभिनय करते हैं ]।
[कन्यापक्ष से मिले हुए माङ्गलिक दो वस्त्र (धोती–डुपट्टा) कन्धे पर रखे हुए विदूषक का प्रवेश]।
विदूषक–मेरे प्रिय वयस्य जीमूतवाहन का मनोरथ तो (मलयवती के साथ आदि) सिद्ध हो गए। आज मैंने सुना है कि मेरा मित्र जीमूतवाहन
तं मलअदीबंधुजणेण ‘जामातुअस्स पिअवअस्सो’ त्ति कदुअ सबहुमाणं वण्णकेहिं विलत्तोम्हि।संवाणकुसुमसेहरअं च (मम283 सीसे) पिणद्धं। सो क्खु एसो अञ्च्चाअरो मे अणत्थोभूदो। किं दाणिं एत्थ करिस्सं?।अहवा एद्रेण ज्जेव्व मलअवदीएसआसादो लद्वेण रतंसुअजुअलेण इत्थिआवेस339 विहिअ उत्तरीअकिदावगुण्ठणो गमिस्सं। पेक्खामि दाव दासी पुत्ता दुठ्ठ महुअरा किं करिस्संवित्ति।
[तथा करोति]।
** [सम्पूर्णोमनोरथाः प्रियवयस्यस्य। श्रुतं खलु मया—प्रियवयस्यः कुसुमाकरोद्यानं गमिष्यतीति। तद्यावत्तत्रैव गमिष्यामि। इदं कुसुमाकरोद्यानं। याव-**
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स्वप्रियां नवमालिकां विना शेखरकाख्योऽहं विशेऽपि न शाभां धारयामीति तत्रैव गच्छामीत्याशयः। संपूर्णाः= परिपूर्णतां गताः। प्रियासमागमलक्षणाः। मनोरथाः=अभिलाषाः। निर्वृत्तो विवाहो जीमूतवाहनस्येति यावत्। कुसुमाकरोद्यानं=पुष्पकराख्यमाक्रीडम्।‘पुमानाक्रीड उद्यानम्’ इत्यमरः। भ्रमरबाधां =स्वस्य भ्रमरकृतां पीडां रङ्गे प्रदर्शयन्। मधुकराः=भ्रमराः। मद्यपाश्च। अभिद्रवन्ति=अनुसरन्ति, पीडयन्ति, अभिभवन्ति च। सबहुमानं= सादरातिशयम्। ससत्कारम्। वर्णकैः=कुङ्कुमकस्तूरीकेसरादिविलेपनैः। ‘वर्णकं स्याद्विलेपनम्’ इत्यमरः। सन्तानकुसुमशेखर (क)श्च= सन्तानख्यकल्पवृक्षस्य पुष्पैः कृतः शेखरः (कः) = शिरोमाल्यम् ‘सन्तानः कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम्’ इत्यमरः। पिनद्धः =बद्धः। अत्या-
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कुसुमाकर उद्यान में बिहार करने जाएगा। तो फिर मैं भी वहा चलूं। [कुछ चलकर और सामने देखकर–] यही कुसुमाकर उद्यान है। अच्छा, इसमें चलता [भीतर प्रविष्ट हो भ्रमर बाधा का अभिनय करता हुआ—) अरे ! आज यह क्या बात है, जो ये दुष्ट मधुकर (भ्रमर और मतवाला = विट) मुझे कष्ट दे रहे हैं ![अपने को सूंघ कर] अच्छा, मालूम हो गया। मलयवती के बन्धुजनों ने (जीमूतवाहन) का प्रिय मित्र समझ कर मुझे बड़े मान सरकार पूर्वक वढ़िया इत्र और सुगन्धित उबटन आदि लगा दिए हैं, मेरे शिर पर भो
त्प्रविशामि (इदं)। अरे ! कथं पुनरेते दुष्टमधुकरा मामेवाऽभिद्रवन्ति340”
भवतु ज्ञातं, यत् (तत्) मलयवतीबन्धुजनेन ‘जामातुः प्रियवयस्य’ इति कृत्वा सबहुमानं वर्णकैर्विलिप्तोऽस्मि। सन्तानकुसुमशेखरकश्च (मम295शीर्षे) पिनद्धः। (स215 खलु) एषोऽव्यादरो मेऽनर्थीभूतः। किमिदानीमन्त्र करिष्यामि?।अथवा एतेनैव मलयवतीसकाशाल्लब्धेन रक्तांशुकयुगलेन स्त्रीवेशं विधाय उत्तरीयकृतावगुण्ठनो गमिष्यामि। पश्यामि तावत् दास्याः पुत्रा दुष्टमधुकराः किं करिष्यन्तीति ]।
** विटः—[ निरूप्य सहर्षम् ] अरे चेडा ! [अङ्गुल्या निर्दिश्य सहासम्] एसा क्खु णोमालिआ [आअदा। मं पेक्खिअ] ‘अहं चिरस्सआअदो’ त्ति कुबिदा अवगुण्ठणं कदुअ अण्णदो गच्छदि। ता कण्ठे गेण्हिअ पसादेमिणं।**
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दरः=सत्काराविशयः। अनर्थीभूतः=हानिप्रदः संवृत्तः। मलयवतीसकाशात्=जीमूतवाहनस्य नवपरिणीताया वध्वाः सकाशात्। रक्तांशुकयुगलेन= माङ्गलिककुसुम्भरागारुणेन कौशेयवस्त्रयुगलेन। उत्तरीयकृतावगुण्ठनः=उत्तरौय (‘ओढ-णाख्य’) वस्त्रेण कृतमुखावरणः सन्। (घूंघट निकालकर)। पश्यामि तावत्=इक्ष्येऽहं तावत्। दास्याःपुत्राः=रण्डापुत्राः। आक्रोशे षष्ट्या अलुक्। इदं गालि–
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कल्पवृक्ष के सुगन्धित पुष्पों का मुकुट पहिरा दिया है। यही अति सत्कार तो मेरे लिये आफत हो गया है। उसकी सुगन्धि से आकृष्ट हो ये भ्रमर मुझे कष्ट दे रहे हैं। अवइनसे बचने का क्या उपाय करूं?।अच्छा ! मलयवती से मिले हुए इस कुसुम्भारुण माङ्गलिक वस्त्र युगल (पियरी) से ही स्त्रीवेश बनाकर (लाल धोती बान्धकर) डुपट्टे का ओढणा बनाकर, घूँघट निकाल कर चलू। देखूंगा तब ये दासी के पुत्र भ्रमर मेरा क्या बिगाडेगें। [लाल धोती बान्धकर स्त्रीका वेश धारण कर, घूंघट से मुख ढक कर चलता है ]।
विट—(अच्छी देखकर बड़े हर्ष के साथ–) अरे नौकरवा, (अरे टहलवा !)
[अङ्गुली से विदूष की ओर इशारा करके हंसता हुआ–] यह देख नवमाआ गई है। और मेरे को देख कर भी—‘इतनी देरकर के क्यों आया’
\सहसोपसृत्य कण्ठे गृहीत्वा [मुखेन341 ताम्बूलं दातुमिच्छति ]।
[अरे चेट! एषा खलु नवमालिका (आगता। मां प्रेक्ष्य) ‘अहं चिरस्याऽऽगतः इति कुपिताऽवगुण्ठनं कृत्वाऽन्यतो गच्छति। तत्कण्ठे गृहीत्वा प्रसादयाम्येनाम्]
विदूषकः——\मद्यगन्धं सूचयन्नासिकां गृहीत्वा पराङ्मुखः [स्थित्वा342] अहं एक्काणं सहुअराणं ससाआदो कहं वि परिब्भट्टो दाणि अण्णस्स दुट्टमहुअरस्स मुद्दे पडिदोम्हि।
[अहमेकेषां343 मधुकराणां मुखात्कथमपि परिभ्रष्ट इदानीमन्यस्य दुष्टमधु- करस्य मुखे पतितोऽस्मि !]
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दानं स्वकोपप्रदर्शनार्थम्। निरूप्य=स्त्रीवेषं विदूषकं दृष्ट्वा। चिरस्यागतः=विलम्ब्य समायातः। इति=इति हेतोः। कुपिता=कृतप्रणयकोपा। अवगुण्ठनं= मुखावरणं कृत्वा। स्वाननं पिधाय। कण्ठे गृहीत्वा=कण्ठाश्लेषपूर्वकम् आलिजय। प्रसादयामि=अनुनयामि।
एकेषाम्=एकविधानां। मधुकराणां= भ्रमराणाम्। परिभ्रष्टः=मुक्तः। अन्यस्य=अपरस्य दुष्टमधुकरस्य=मद्यशौण्डस्य। नद्यहस्तस्य। (‘पियक्कड़’)। मुखे =वागुरायां। हस्ते। अत्रमधु=मद्यं, करे=हस्ते यस्यासौ मधुकर इति व्युत्पत्त्या मधुकरशब्दो मद्यपस्य विटस्यापि बोधक इत्यवधेयम्। ‘मनुब्रतो मधुकरो मधुलिप्युपालिनः’ इत्यनरः। प्रसीदः=प्रसादं कुरु। मयि कृपापरा भव। नवसालिकेति शेखरकप्रियायाश्चेव्या नामधेयम्। ततः = तत्समनन्तरमेव एवं सूचितप्रवेशा, चेटी= नवमालिका। प्रविशति=रङ्गस्थलीमवतरति।
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इस लिये मुझसे कुपित हो दूसरी ओर (अन्यत्र) जा रही है। अतः इसे गले से लगाकर प्रसन्न करता हूँ। [स्त्री वेषधारी विदूषक के पास सहसा पहुँच कर उसे गले से लगाकर, उसके मुख में अपना जूठा पान देना चाहता है ]।
विदूषक—(मद्य की दुर्गन्ध की सूचना देता हुआ, अर्थात् दुर्गन्ध से घबडा कर अपनी नाक बन्द कर, मुख फेर कर) हाय ! हाय, मैं तो कथं चित् दुष्ट मधुकरों (भ्रमरों) की एक विपत्ति से छूटा तो इस दूसरे मधुकर= मतवाला शराबी) के मुख में (चक्कर में) पड़ गया हूँ।
** बिटः–कह कोबेण परम्मुद्दी भूदा ? \ ([प्रणामं230 कुर्वन्) विदूषकस्य चरणमात्मनः शिरसि कृत्वा344 ] पसीद गोमा लिए ! पसीद।
[कथं कोपन पराङ्मुखीभूता। प्रसीद् नवमालिके ! प्रसीद !]।**
[ततः प्रविशति चेटी]
** चेटी—आणत्तम्हि भट्टिदारिआए’ मादाए- ‘हज्जे गोमालिए, कुसुमाअरुज्जाणं गदुअ उज्जाणपालिअ पल्लविअं भणाहि—‘अज्ज सविसेसं तमालवीहिअं सज्जीकरेहि। मलअवदीसहिदेण जायादुएण तत्थ345 गन्तब्दं’ त्ति \। आणत्ता भए पल्लविभा। (ता) जाव रअणाबिरहवडिवोत्कण्ठं पिअबल्लहं सेहरअं अण्णंसामि। [दृष्ट–] एसो सेहरओ !। [सरोषं-] कहं अण्णं कम्पि इत्थि पसादि !। (ता इह ट्ठिदा ज्जेव्व जाणामि का एसेत्ति)।**
\आज्ञप्ताऽस्मि भर्तृदारिकाया [मात्रा346–“हञ्जेनवमालिके? कुसुमाकरोद्यानं गत्वा उद्यानपालिकां पल्लविकां भण–‘अद्य सविशेषं तमालवीथिकां सज्जीकुरु। मलयवतीसहितेन जामात्रातत्र गन्तव्यम्’ इति। आज्ञप्ता च347 मया पल्लविका। (तद्230) यावद्रजनीविरहवर्द्धितोत्कण्ठं प्रियवल्लभं348 शेखरकमन्विष्यामि। एष
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भर्त्तृदारिकायाः = मलयवत्याः। मात्रा= जनन्या। हञ्जे= अयि चेटिके। ‘हण्डे हञ्जे हलाऽऽह्वाने नीचां चेटीं सखीं प्रति’ इत्यमरः। उद्यानपालिकां = कुसुमाकरोद्यानपरिपालिकाम्। पल्लविकेति उद्यानपालिकानामधेयम्। भण= कथय। तमालवीथिकां = तमालतरुपङ्क्तिकुञ्जम्। ‘वीथी पङ्क्तौ गृहाने च रूपकाऽन्तरवर्त्मनोः’ इति मेदिनी। ‘वीथी वर्त्मनि पङ्क्तौ च गृहाने नाट्यरूपके’ इति हैमः। सज्जीकुरु = परिष्कुरु। आज्ञप्ता = आज्ञां श्राविता। रजनीविरहवर्द्धितोत्कण्ठं = रात्रौविट हैं ! इसनें तो कोप से मुंह फेर लिया। [प्रणाम करता हुआ विदूषक के पैरों के अपने शिर पर रखकर ] अरी नवमालिके ! मेरे पर प्रसन्न हो, प्रसन्न हो। [ इसी समय चेटी (नवमालिका) का कुसुमाकर उद्यान में प्रवेश।
शेखरकः। कथमन्यां कामपि स्त्रियं प्रसादयति ! (तदिह स्थितैव जानामि कैषेति)]।
विटः—\ [सहर्षम्215 ]
हरिहरपिदामहाणं पि गव्विदो जो ण जाणइणमिदु।
सो सेहरओ चलणेसु तुज्ज णोमालिए ! पडइ॥३॥
[हरिहरपितामहानामपि गर्वितो यो न जानाति नन्तुम्।
स शेखरकश्चरणयोस्तव नवमालिके ! पतति ॥३॥]
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विरहेण=वियोगेन वर्द्धिता उत्कण्ठा=औत्सुक्यं यस्य तं-रात्रिवियोगवर्द्धितौत्सुक्यं। प्रियवयस्यं=प्रियं सहचरं। ‘प्रियं वल्लभं’ इति पाठान्तरम्। अन्विष्यामि=गवेषयामि। कैषेति=का खल्वेषा सुन्दरी यामयमेवं प्रसादयति।
हरिहरेति। हरेः=विष्णोः, हरस्य=रुद्रस्य, पितामहस्य=ब्रह्मणोऽपि, चरणयोर्नन्तुं=प्रणामं कर्त्तुं, यो गर्वितः=गर्वोद्धुरः। साऽहङ्कारः : शेखरकः=शेखरकनामाऽयं। न जानाति=नोत्सहते। हे नवमालिके, स शेखरकस्तव चरणयोः पतति=प्रणमते॥३॥
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चेटी—राजकुमारी मलयवती की माताजीनें मुझे आज्ञा दी है कि-“अरी नवमालिके ! कुसुमाकर उद्यान में जाकर उद्यान पालिका पल्लविका को कह दे कि आज अच्छी तरह से तमालबीथी (तमालवृक्षों की क्यारियों) को सजावे। क्यों कि–आज मलयवती के साथ जामाता (जमाई जीमूतवाहन) वहाँ जावेगें।” सो यह आज्ञा मैनें पल्लविका को सुना दी। अब तो रजनी(मेरे) विरह से विशेष उत्कण्ठित प्राणप्यारे शेखरक को यहीं कहीं खोजूं। (देख कर–) शेखरक तौ यहां है। (क्रोध पूर्वक) हैं ? यह तो किसी दूसरी स्त्री को प्रसन्न करने में लगा है ! अच्छा, यही ठहर कर जानना चाहिए कि यह स्त्री कौन है ?।
विट—(बड़े हर्ष के साथ—) अरी नवमालिके ! जो शेखरक गर्व के कारण ब्रह्मा विष्णु महेश को भी कभी प्रणाम करना नहीं जानता है वही मैं शेखरक तेरे चरणों में पड़ रहा हूँ॥३॥
विदूषकः–दासिएपुत्ता349 ! मच्चवालआ230 ! कुदो एत्थ णोमालिआ?
[दास्याःपुत्र ! मत्तपालक ! कुतोऽत्र नवमालिका?]।
चेटी—[निरूप्य, सस्मितं–] कधं ..त्तिकरिअ मदपरवसेण सेहरएण अज्जो अत्तेओ पसादिअदि?।(ता) जाव अलीअ कोव करिअ दुवेबि ए परिहस्सिं।
[कथं मामिति कृत्वा मदपरवशेन शेखरकेण आर्य्य आत्रेयः प्रलाद्यते?। (तद्) यावदलीकं कोपं कृत्वा द्वावप्येतौ परिहसिष्यामि]।
चेटः—([चेटीं दृष्ट्वा350) शेखरकं हस्तेन चालयन्—] भट्टका!
मुञ्च (मुञ्च215) एदं। ण भोदि (एसा) णोमालिआ। एसा351 उण णोमालिआ352) रोसारत्तेहिं ‘लोअणेहिं353 पेक्खंती आअदा]।
[भट्टक ! मुच मुचैनम्। न भवत्येषा नवमालिका। एषा पुनर्नवमालिका रोषाऽऽरक्ताभ्यां लोचनाभ्यां प्रेक्षमाणा आगता]।
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मत्तपालकेति। मन्तपालकः=मत्तश्रेष्ठः। मदान्ध इति यावत् (मतवाला)। मामिति कृत्वा=नवमालिकेयमिति बुद्धचा मदपरवशेन=मद्यपानजन्यमदविक्लवेन।–(मद=नशा)। आर्यः=पूज्यः! श्रेष्ठः। आत्रेयः=विदूषकः। प्रसाद्यते=अनुनीयते। अलीकं=मिथ्या। कृतक (बनावटी) कोपं=क्रोधं। द्वावपि=आत्रेयशेखरकौ। एनं=विदूषकम्। एषा नवमालिका नैव भवति=अस्ति। शेषाऽऽरक्ताभ्यां=
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विदूषक—अरे रण्डापुत्र मतवाले ! मद्यप ! यहाँ कहाँ नवमालिका है?।(मत्तवालक, मत्तपालक=मतवाला) !
चेटी—(पहिचान कर, मामला समझकर, मुसकुराती हुई—) अरे यह शेखरक तो नशे के कारण बदहोश हो आर्य मैत्रेय (विदूषक) को ही—‘मैं (नवमालिका) हूँ ’ ऐसा समझ कर मना रहा है। अच्छा, इन दोनों के उपर नकलो क्रोध कर इनसे दिल्लगी करती हूँ।
नौकर—(नवमालिका को आई हुई देखकर) हजूर ! इसको छोड दीजिए।
** चेटी—[उपसृत्य—] सेहरअ ! का उण एसा पसादिअदि ?।**
** [शेखरक ! का पुनरेषा प्रसाद्यते ?]।**
** विदूषकः—[अवगुण्ठनमपनीय–] (भोदि ! कोवि बम्हणो215) अहं मन्दभाअवेअपउत्तोः।**
** [(भवति ! कोऽपि ब्राह्मणः) अहं [मन्दभागधेयप्रयुक्तः]]354।**
** विटः—[विदूषकं निरूप्य—] अरे कबिलसंडा ! तुमंपि (मं) सेहरअपदारेसि355। अरे चेडा ! गेण्ह एदं, जाव णोमालिअं पसादेमि।**
** [अरं कपिलमर्कट ! त्वमपि ( ‘मां) शेखरकं प्रतारयसि !।अरे चेट ! गृहाणैनं यावन्नवमालिकां प्रसादयामि]।**
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कोपाऽरुणाभ्यां। लोचनाभ्यां=नेत्राभ्यां। प्रेक्षमाणा=पश्यन्ती। (लाल२ आँख निकालती हुई)। उपसृत्य=निकटेगत्वा। अवगुण्ठनं कुसुम्भारुणं प्रावरणम्। अपनीय=अवतार्य। अवतार्येति क्वचित्पाठः। मन्दभागधेयप्रयुक्तः=दुर्भाग्यपरवशः। ‘दुर्भगायाः पुत्र’ इति पाठे—दुःखिताया ब्राह्मण्याः पुत्र इत्यर्थः। स्वस्य ‘दुःस्थितत्वसूचनायेत्थमुक्तिः। कपिलमर्कट=पिङ्गलवर्णवानर। (अरे भूरे बन्दर)
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यह नवमालिका नहीं है। देखिए, नवमालिका तो क्रोध से लाल २ आँखे किये हुए यह आ रही है।
चेटी—(पास में प्रसन्न कर रहे हो ?। आकर डपट कर) अरे शेखरक ! यह तुम किसको यह स्त्री कौन है ?।
विदूषक—(घूँघट हटा कर) सुभगे ! यह तो मैं एक मन्दभाग्य गरीब ब्राह्मण हूँ, जिसे यह कष्ट दे रहा है।
विट—(विदूषक को पहिचान कर–) अरे भूरे बन्दर ! (कपिल=भूरा। ब्राह्मणों का रंग कपिल=कुछ हलकी ललाई लिए हुए सफेद माना गया है)।
तू भी शेखरक को ठगने के लिए स्त्री बन के आया था। अरे नौकरवा, इसे पकड़ तो सही। जब तक मैं नवमालिका को प्रसन्न करलूँ।
चेटः—जं भट्टके आणवेदि।
[यद्भट्टक आज्ञापयति]।
विटः—\विदूषकं [मुक्त्वा356 चेट्याः पादयोः पतन्—357] पसीद णोमालिए! पसीद।
[प्रसीद नवमालिके ! प्रसीद]।
विदूषकः—[आत्मगतम्—] एसो मे अवक्कमिदुं अवसरो।
[एष मेऽपक्रमितुमवसरः]।
[पलायितुमीहते]।
चेटः—[विदूषकं यज्ञोपवीते गृह्णाति। यज्ञोपवीतं त्रुट्यति]—कहिं कहिं किलबमंकडा ! पलाअसि ?।
[कुत्र कुत्र कपिलमर्कट ! पलाअसि?]।
\तदुत्तरीयेण [(एव215) गले बद्ध्वाऽऽकर्षति]।
विदूषकः—भोदि णोमालिए ! पसीद।मोआबेहि मं।
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कोपेन विटस्येयमुक्तिः। प्रतारयसि=वञ्चयसि। (मेरेसे ही हंसी करता है!)। तस्य नानावर्णकोपलेपविचित्ररूपत्वात्कपिलमर्कटवदाभासमानत्वादित्यमुक्तिः। एनं=विदूषकम्। अपक्रमितुं=पलायितुम्। अवसरः=समुचितः समयः। विटोऽयम–
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चेट—जो हुकुम सकोर का।
विट—(विदूषक को छोड़ कर चेटी के पाँव में गिरता हुआ) कृपा कर नवमालिके ! दया कर। नाराज मत हो।
विदूषक—(मन ही मन–) मेरे भागने का यही मौका है।
(भागना चाहता है )।
चेट—(विदूषक का भागते हुए का जनेऊ पकड़ता है। जनेऊ टूट जाता है)। अरे भूरे बन्दर कहाँ भागता है ?। (उसके ही डुपट्टे से गले में बाँध कर खींचता है)।
विदूषक—सुभगे नवमालिके ! दया करके मुझे इससे छुड़ा।
[भवति नवमालिके ! प्रसीद मोचय माम्]।
** चेटी—[ विहस्य–] जइ भूमोए सीसं णिवेसिअ पादेसु मे पडसि।
[यदि भूमौ शीर्षं निवेश्य पादयोर्मे पतसि]।**
** विदूषकः—\सरोषं ([सप्रकम्पञ्च215) ] (‘भो!) कह राअमित्तो (बम्हणो) भविअ दासीए धीआए पादेसु पडइस्सं?**
** [( भोः ! कथं) राजमित्र (ब्राह्मणो) भूत्वा दास्याःपुत्र्याः पादयोः पतिष्यामि?]।**
** चेटी—[अङ्गुल्या तर्ज्जयन्ती सस्मितं—] दाणिं पाडइस्सं। सेहर ! हि पसण्णा दे अहं। [कण्ठे गृह्णाति]।एसो (उण215) जामाउकरस पिअवअस्सो तुए खलीकिदो। एवञ्च सुणिअ कदाबि358’। “‘भट्टा (भत्तो)’।”) भट्टारओ मित्तावसू तव दुप्पइ।आदरेण सम्माणेहि णं।**
[इदानीं पातयिष्यामि। शेखरक ! उत्तिष्ठ। प्रसन्ना तेऽहम् ! एक (पुनः )
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न्यासक्त इति पलायनमिदानीं मे समुचितमिति भावः। शीर्षं=मस्तकम्। ‘उत्तमाऽङ्गं शिरः शीर्षं मूर्धा ना मस्तकोऽस्त्रियाम्’ इत्यमरः। पादयोः पतसि= दण्डवत्प्रणमस्ति। राजमित्रं=विद्याधरराजजीमूतवाहनसहचरः। पुनश्च—ब्राह्मणः=विप्रः। दास्याः पुत्र्याः=दासीजाताया नीचायाः। तर्जयन्ती=भर्त्सयन्तीव। उपहासप्रसङ्गात्–सस्मितं= सेषद्धासम्। इदानीं=सम्प्रत्येव। अनुपदमेव। पातयि-
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चेटी—(हंस कर) यदि पृथ्वी पर शिर रख कर मेरे पैरों में पड़ो तो छुड़ा दूं।
विदूषक—(क्रोध ते काँपता हुआ) हैं ! मैं राजा जीमूत वाहन का मित्र तथा ब्राह्मण होकर तेरे राँड़ की बेटी के पाँव पहूँगा (कभी नहीं)।
चेटी—(अँगुली दिखा कर डराती हुई और हँसती हुई) देखो, तुमको पैरों में मैं अभी गिराती हूँ। शेखरक ! उठ, मैं तेरे पर प्रसन्न हूँ। (गले लगाती है)। यह जामाता जीमूतवाहन का मित्र है, इसे तुमने बहुत कष्ट दिया है। यह बात कहीं युवराज मित्रावसु को मालूम होगी तो तेरे पर रुष्ट होंगे।अतः इनका आदरपूर्वक सम्मान कर।
जामातुः प्रियवयस्यस्त्वया खलीकृतः। एवञ्च श्रुत्वा कदाऽपि भट्टारको मित्रावसुस्तुभ्यं कुप्यति। तदादरेण संमानयैनम् ]।
** विटः—जं णोमालिआ आणबेदि। [ विदूषकं कण्ठे गृहीत्वा—]। अज्ज ! तुमं (मए पिय215) सम्बन्धिओ ति करिअ परिहसिदो।359**
[घूर्णन–] किं सञ्चकं ज्जेव्व सेहरओ ! मन्तो। किदो परिहासो।[उत्तरीयं वत्तुलीकृत्य आसनं ददाति—] इध उबविसदु सम्बन्धिओ।
** \यन्नवमालिका आज्ञापयति। आर्य ! त्वं मया ‘प्रियसम्बन्धिक’ इति कृत्वा परिहसितः। किं सत्यमेव शेखरको [मत्तः360 !।कृतः परिहासः। इह उपविशतु सम्बन्धिकः ]।**
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ष्यामि=स्वपादयोस्त्वां पातयिष्यामि। जामातुः=मलयवतीभर्तुर्जीमूतवाहनस्य। खलीकृतः=तिरस्कृतः। अवमानितः। क्लेशितश्च। भट्टारकः=स्वामी युवराजः। कुप्यति=कोपं करिष्यति। संमानयैनम्=एनमार्यमात्रेयं जामातृवयस्यं संमानय। प्रसादयैनम्। सम्बन्धीति कृत्वा=जामातृपक्षबत्तीं खल्त्रयमिति सम्बन्धिको टिप्रविष्ट इति मनसि निधाय। परिहसितः=उपहासेनैव एवं खलीकृतः। चूर्णन्=मदविकारं स्खलनादिकं नाटयन्। किं सत्यमेव शेखरको मत्तः=किमहं वस्तुतो मत्तोऽस्मि। नैवाहं मत्तोऽस्मीत्यर्थः। नहि खल्वहं विटाग्रणीः शेखरको मदमत्तोऽस्मि। अतो नाऽहं मचो भूत्वा त्वामुपहसितवान् किन्तु सम्बन्धिबुद्धचा जाननेव त्वामुपहसितवानस्मि। नैव खल्वह मत्तोऽस्मि। अतो मदमत्तेन मया खलीकृतोऽसीति खेदं मा कृथाः। वस्तुत उपहास एवायमासीदित्याशयः। कृत उपहासः=जात उपहासः। अतोऽधिकेनोपहासेनाऽलमित्याशयः। उत्तरीयं=
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विट–जो नवमालिका की (तुम्हारी) आज्ञा। (विदूषक को गले लगा कर) आर्य ! आप हमारे सम्बन्धो हैं, इसलिए मैंने यह आप से हँसी ही की थी। (झूमता हुआ) नहीं तो क्या शेखरक उन्मत्त है ? कभी नहीं। अच्छा, हंसी हो चुकी। (डुपट्टे को गोल कर आसन की तरह बनाकर आसन देता हुआ—) आप तो हमारे सम्बन्धी हैं, अतः इस आसन पर आप विराजिए।
** विदूषकः—\ [स्वगतं230–] दिट्ठिआ अबगदो विअ से मदावेगो। [उपविशति]।
\ दिष्ट्याऽपगत इवाऽस्य [मदाऽऽवेगः361 ]।**
** विटः—णोमालिए! उवविस तुमं (पि) एदस्सपासे,362 जेण दुवेबि तुम्हे समं ज्जेव्व सम्माणइस्सं।363
[नवमालिके ! उपविश त्वमप्येतस्य पार्श्वे, येन द्वावपि युवां सममेव संमानयिष्यामि]।**
** [चेटी— विहस्योपविशति]।**
** विटः—[चषकमादाय] (अरे) चेडअ,364 सुभरिदं क्खु एवं चस करेहि अच्छसुराए।
[(अरे) चेटक ! सुभृतं खल्वेतच्चषकं कुरु अच्छसुरया]।**
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स्वोत्तरीयम्। वर्त्तुलीकृत्य=आसनवद्वर्चुलीकृत्य। उपहासो जातः, सम्प्रति भवानस्मिन्नासने उपविशत्विति भावः।
‘दिष्ट्या’ इत्यानन्दे, हर्षे चाऽव्ययम्। ‘दिष्ट्या समुपजोषं चेत्यानन्दे’ इत्यमरः। मदाऽऽवेगः=मदप्रभावः। अपगत इव=ईषन्नष्टः। एतस्य=जामातृसहचरस्य विदूषकस्य।पार्श्वे=पार्श्वतः। क्वचित्पार्श्वत इत्येव पाठः। संमानयिष्यामि=सत्करिष्यामि। संमानवार्तांश्रुत्वा चेट्या उपहासः। चषकं=पानपात्रम्।
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विदूषक—(मन ही मन—) बड़े आनन्द को बात है कि–इसका नशे का वेग कुछ कम हो रहा है। (बैठता है) !
(दिष्ट्या—आनन्द अर्थ में अव्यय )।
विट—नवमालिके ! तूं भी इस के पास ही बैठ जा। जिससे तुम दोनों का साथ ही सत्कार कर सकूं।
[चेटी—हंसती हुई विदूषक के पास बैठती है]।
विट—(मद्य का प्याला हाथ में लेकर) अरे नौकरवा ! इस प्याले को
\चेटः—नाट्येन चषकभरणं [करोति365]।
** विटः—\स्वशिरःशेखरात् पुष्पाणि गृहीत्वा चषके विन्यस्य जानुभ्यां [पतित्वा366, नवमालिकाया उपनयन्–367] णोमालिए ! (पिबिअ) चक्खिअ देह एदं।**
** \नवमालिके ! ([पीत्वा368) आस्वाद्य369” देह्येतत्।370**
** चेटी [सस्मितं ] जं सेहरओभणादि371। [तथा कृत्वा विटस्याऽर्पयति]
[यच्छेखरको भणति ]।**
** विटः—[विदूषकस्य चषकमर्पयति—] एदं णोमालिआमुहसंसगसविसेसबासिअरसं372 सेहरआअण्णेण केनबि अणासादिपुरुव्वं ता पिबेहि एदं। किं दे अबरं सम्माणं करेमि ?373।**
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‘अरे चेटके’ति चेटकसम्बोधनम्। सुभृतं=नितरां पूरितं। कुरु=विधेहि। अच्छसुरया=स्वच्छेन मद्येन। चषकं=पानभाजनम्। आस्वाद्य=किञ्चिद्रसयित्वा। एतत्=पानपात्रम्। ‘आस्वाद्य देहि एतदेतस्मै’ इति पाठान्तरम्। प्रियामुखोच्छिष्टं हि मद्यं सरसं पवित्रं च भवतीत्याशयः। तथा करोति=पीत्वा शेखर-
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बढिया साफ मदिरा से खूब ऊपर तक भरदे।
[चेट—बड़े ढंग व नजाकत से मदिरा से प्याला भरता है]।
विट—[अपने शिर के फूलों के मुकुट से फूल लेकर सुगन्धी के लिये शराब के ध्याले में रखकर घुटने टेककर अदा के साथ पहिले नवमालिका के पास ले ‘जाकर] पहिले तुम इसका स्वाद लेकर इसे चीखकर इसको (विदूषक को) दो।
चेटी—(हंसती हुई) जैसे शेखरक कहता है वैसे ही करती हूँ। (पीकर विट को देती है)।
विट—(विदूषक को मद्य का झूठा प्याला देता हुआ—) नवमालिका के मुख
\एतन्नवमालिकामुखसंसर्गसविशेषवासितरसं शेखरकादन्येन केनाप्यनाऽऽस्वादितपूर्वं, तत् पिबैतत्। किं तेऽतोऽप्यपरं संमानं [करोमि374?]।
**
विदूषकः—[सवैलक्ष्यस्मितं375 कृत्वा—] सेहरअ ! बम्हणो क्खु अहं।
[शेखरक ! ब्राह्मणः खल्वहम्]।**
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कायार्पयति। उपनयन्=विदूषकाय ददत्। नवमालिकामुखसंसर्गसविशेषवासितरसं=मत्प्रियानवमालिकामुत्वकमलसंपर्कसविशेषसुवासितवर्द्धितरसम्। नवमालिकाया मुखसंसर्गेण=सम्पर्केण, सविशेषम्=अतिशयेन, वासितः=अधिवासितः, रसः=आस्वादो यस्य तत्तथाभूतमिति विग्रहः। शेखरकादन्येन=मदतिरिक्तेन। केनाऽपि=केनापि पुरुषेण। अनास्वादितपूर्वम्=इतः पूर्वमनास्वादितम्। मस्त्रियामुखसुवासितासवपानस्य सौभाग्यं कथमन्यो जनः प्राप्तुं शक्नोतीत्याशयः। ईदृशं मद्यं त्वत्संमानवर्द्धनाय मयोपनतं, तत्पिव प्रकाममिति तदाशयः। अतः परं=स्वप्रियामुखोच्छिष्टपानपात्रप्रदानातिरिक्तं न किमपि संमान भवितुमर्हतीत्यतोऽधिकं किन्ते समानं करोमि, नैव कर्तुं शक्नोति। इयं संमानस्य परा काष्ठा, यत्स्त्रप्रागवल्लभावदनाम्भोजगन्धाधिवासितं तेमद्यं समुपनयामीति भावः।
सवैलक्ष्यस्मितं कृत्वा=सविस्मयं किञ्चिद्वासं कृत्वा। ‘विलक्षो विस्मयान्विते’ इत्यमरः। विलक्षस्य भावो वैलक्ष्यं। ब्राह्मणः खल्वहं=ननु ब्राह्मणोऽहमस्मि। ब्राह्मणेन च सुरा प्राणसन्देहेऽपि न पातव्या। ‘ब्राह्मणश्च सुरां पीत्वा ब्राह्मण्यादेव हीयते’ इत्युक्तेर्ब्राह्मणस्य सुरापानं हि जातिभ्रंशकरमहापातकेषु परिगणितमिति ध्ये
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के संसर्ग से अतिसुवासित सुगन्धित एवं सरस इस मद्य को जिसका (नवमालिकाके झूठे मद्य का) आस्वादन शेखरक के सिवाय किसी दूसरे ने आजतक नहीं किया है पीओ। इससे बढ़ कर भला आपका मैं और क्या सत्कार कर सकता हूँ।
विदूषक—(घबड़ा कर कुछ हंसता हुआ) शेखरक ! मैं तो ब्राह्मण हूँ। ब्राह्मण के लिए मद्य पीना तो नितान्त ही वर्जित है। ब्राह्मण के लिये इस से बढ़कर कोई पाप ही नहीं माना गया है। “ब्राह्मणो मद्यपानाद्धि ब्राह्मण्यादेव हीयते”। मद्य पीने से ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व ही नष्ट हो जाता है।
विटः—जदि तुमं बम्हणो, (ता230) कहिं दे ब्रम्हसुत्तं?।
[यदि त्वं ब्रह्मणः, (तत्) क्व ते ब्रह्मसूत्रम्?]।
** विदूषकः—तं क्खु (मे) इमिणा चेडेण कट्टीअमाणं376 छिण्णं \तत् खलु (‘मे) अनेन चेटेनाऽऽकृष्यमाणं [छिन्नम्377]।**
** चेटी—[विहस्य—] जइ एव्वं, (‘ता) वेदुक्खराहंपि (दाव) कति वि उदाहर।
\यद्येवं, (तद्’) वेदाक्षराण्यपि ([तावत्230) कत्यपि [उदाहर]]378।**
** विदूषकः–भोदि ! ( इमिणा)215 सीहुगन्धेण (मे) विणद्धाहं वेदक्खराहं379। अहवा—किं मम भोदीए समं विबादेण? एसो वम्हणो पादे दे दि**
[(इति) पादयोः पतितुमिच्छति]।
\भवति ! (अनेन) शीधुगन्धेन पिनद्धानि मे वेदाक्षराणि? अथवा किं मम
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यम्। अतोऽहं सुरां पातुं नैव शक्नोमीति भाव इति ध्येयम्। यदीति। यदि त्वं ब्राह्मणस्तर्हि ते=तव, ब्रह्मसूत्रं=यज्ञोपवीतं ब्राह्मणचिह्न क्वास्तीत्यर्थः। वेदाक्षराणि=वेदमन्त्रान्। उदाहर=उच्चारय। शीधुगन्धेन=मद्यगन्धेन दुःसहेन। पिनद्धानि=अवरुद्धानि, विनष्टानि। ‘नष्टानी’ति पाठे–विस्मृतानीत्यर्थः। ‘मैरेयमासवः सीधुः’
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विटः—यदि तुम ब्राह्मण हो तो अपनी जनेऊ दिखाओ, जनेऊ कहाँ है?।
विदूषक—मेरी जनेऊ तो इस नौकर ने खींचकर तोड़ दी है।
चेटी—(हँसकर) यदि ऐसी बात है तो कुछ वेद के मन्त्र ही बोलो, तब जानेंगे कि तुम ब्राह्मण हो।तुमारी हम
विदूषक—सुभगे ! इस मद्य की दुर्गन्ध से मैं वेद के मन्त्रों को भी भूल गया हूँ। अथवा—आपके साथ विवाद करने से मुझे क्या लाभ है। मैं ब्राह्मण तेरे पैर पड़ता हूँ, मुझे बचा। ( चेटी के पैरों पर पड़ना चाहता है)।
भवत्या समं विवादेन? [एष380 ब्राह्मणः पादयोस्ते पतति ]।
चेटी—\ ([विहस्य215) हस्ताभ्यां निवार्य्य—] मा381 क्खु एव्वं करेदु अज्जो। सेहरअ ! (ओसर ओसर। सञ्चं236) बह्मणो क्खु एसो।[विदूषकस्य पादयोः पतति—] अज्ज! ण तुए कुबिदव्वं, सम्बन्धिअनुरूवो (क्खु एसो भए) परिहासा किया।(शेहरअ ! तुमंपि इमं पसादेहि)।
[मा खल्वेवं करोत्वार्थः। शेखरक ! (अपसर अपसर। सत्यं) ब्राह्मणः खल्वेषः। आर्य्य ! न त्यचा कोपितव्यं, सम्बन्धिकाऽनुरूपः (खल्वेष मया) परिहासः कृतः। (शेखरक ! त्वमपीमं प्रसादय ४)]।
विटः—अहं पि णं पसादेमि। [पादयोर्निपत्य–] मरिसेदु मरिसेदु अज्जो, जं मए मदवरबसेण अवरड्ढं, जेण अहं णोमालिआए सह आवा गमिस्लं।
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इत्यमरः। भवत्या=त्वया सह। विवादेन=अधरोत्तरोत्तरप्रत्युत्तरोपन्यासेन। मम किं=मम न प्रयोजनम्।नैवं खलु करोत्वार्यः=पूज्यो भवान्, मम पादपतनं नैव भवता करणीयम्। (अपसर अपसर=दूरीभव। मद्यपात्रदानसंरम्भाद्विरम्यतान्तावत्)। न कोषितव्यं=त्वया कोपो मैवात्र प्रसङ्गे विधेयः। सम्बन्धिकानुरूपः=
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चेटी—(हाथो से रोक कर) आये ! ऐसा अनर्थ मत करिए। मेरे पैरों में मत पड़िए। शेखरक ! इन्हें छोड़ छोड़। दूर हट हट। यह बिचारा ब्राह्मण हैं, इसको मद्य का प्याला मत दे। (विदूषक के पाँव पड़ती हुई–) आर्य ! आप नाराज मत होना। यह तो मैंने सम्बन्धी के नाते थोड़ी सी आप से हंसी ही की थी। ( शेखरक ! तुम भी इनले क्षमा मांगों )।
विट—मैं भी इनसे क्षमा माँगता हूँ। (पैर में पड़ता हुआ–) आर्य ! जो कुछ मैंने नशे के झोंक में अपराध किया हो उसे आप क्षमा करें। जरूर क्षमा करें। ताकि मैं भी नवमालिका को साथ लेकर मद्य पीने पानशाला को जाऊँ।
[अहमप्येनं प्रसादयामि।मर्षयतु मर्षयत्वार्य्यो, यन्मया मदपरवशेनाऽपराद्धम्, येनाहं नवामलिकाया सह आपानकं गमिष्यामि]।
** विदूषकः—मरिसिदं मए, गच्छ तुम्हे (जाव)304 अहंपि पिअवअस्सं पेक्खामि**
** [मर्षितं मया, गच्छतं युवाम्। यावदहमपि प्रियवयस्यं पश्यामि।]**
** [विटः—अय्य ! तह। [ आर्य्य ! तथा ]]**
\निष्कान्तो [विटश्चेट्या382सह चेटश्च ]।
विदूषकः—आदिक्कंतो खु383 बम्हणस्स अकालमित्तू। ता (जाब)215 अहंपि मत्तबालअसङ्गदूसिदो इध दिग्धिकाए ण्हाइस्सं। [तथा करोति। नेपथ्याभिमुखमवलोक्य] एसो पिअवयस्लो बि रुक्किणीं384 विअ
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सम्बन्धिजनोचितः। मया=चेट्या। मर्षयतु=क्षाम्यतु भवान्। क्षमतां भवान्। अपराद्धम्=अपराधः कृतः। येन=भवव्प्रसादेन निर्वृतचित्तः सन्। आपानकं=मदिरापानभूमिम्। मद्यपानशालाम्। यथेच्छं सुरां पातुं पानशालामेव गमिष्यामि, तन्ममापराधं क्षमस्वेत्याशयः। मर्षितं=तवापराधः सोढो मया। गच्छतम्=अपसरतं युवाम्। प्रियवयस्यं= जीमूतवाहनम्। पश्यामि=द्रष्टुं गच्छामि। आर्य तथा=भगवन् यथा भवानाह तथा कुर्वः। आवां गच्छाव इत्यर्थः।
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विदूषक— मैंने तुम्हारा दोनों का सब अपराध क्षमा कर दिया, अतः तुम दोनों जाओ। मैं भी जा कर अपने मित्र जीमूतवाहन को देखता हूँ।
[विट और चेटी तथा नौकर जाते हैं]।
विदूषक—मेरे ब्राह्मण का अकाल मृत्यु के समान यह पियक्कड़ चला गया। मैं भी इस मद्यप के संग से दूषित हो गया हूँ, अतः इस बावड़ी में स्नान करता हूँ। [नहाता है। नेपथ्य की ओर देखकर] यह मेरा मित्र जीमूतवाहन मलयवती को संग लिए हुए—रुक्मिणी को संग लिए हुए
हरी मलअवदीं अवलम्बिअ इदो ज्जेव्व आअच्छदि, ता385।%20तदिहैव%20स्थास्यामि%20पा०’। “ता इह एव्व चिट्ठिस्सं (स्थितः)। तदिहैव स्थास्यामि पा०’।”) जाव पास्स परिवत्ती होमि।
\अतिक्रान्तः ([खलु386) ब्राह्मणस्याऽकालमृत्युः। तद्यावदहमपि मत्तवालक (जन)सङ्गदूषित इहदीर्घिकायां स्नास्यामि। एष (खलु) प्रियवयस्यो (ऽपि) रुक्मिणीमिव हरिर्मलयवतीमवलम्ब्य इत एवाऽऽगच्छति। ‘तद्यावत् पार्श्ववर्त्तीभवामि]।\ततः प्रविशति (गृहीतवरनेपथ्यो) नायको, [मलयवती387, विभवतश्च परीवारः]
नायकः—[मलयवतीमवलोक्य388 सहर्षं—]
दृष्टा दृष्टिमधो ददाति कुरुते नाऽऽलापमाभाषिता,
शय्यायां परिवृत्य तिष्ठति, बलादालिङ्गिता वेपते।
निर्य्यान्तीषु सखीषु वासभवनान्निर्गन्तुमेवेहते,
जाता वामतयैव मेऽद्य सुतरां प्रीत्यै नवोढा प्रिया॥४॥
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अतिक्रान्तः=दूरीभूतः। अकालमृत्युः=अकालमृत्युरिव प्राणापहारी मदमत्तो विटः। मत्तवालकः=मदिरामत्तो जनः। (मत्तबालक=मतवाला।) दीर्घिकायाम्=उद्यानवापिकायाम्। (दीर्घिका=दिध्धी, बावडी)। रुक्मिणीमिव हरिरिति। श्रीकृष्णो यथा रुक्मिणीं परिणीयागत एवमयं मलयवतीं परिणीय समायातीत्यर्थः। रूपिणीमिव लक्ष्मीमिति पाठे–रूपधारिणीं साक्षाल्लक्ष्मीमिव मलयवतीग्रादायेत्यर्थो बोध्यः। पाश्ववर्त्ती=निकटचरः। विभवतश्च परीवारः=यथाविभवं राजार्हः परिवारः तेन परिवृतो, वरवधूयोग्यसंख्यादिपरीवारसमन्वितश्च जीमूतवाहनः प्रविशतीत्यर्थः। सम्भोगशृङ्गारं नायकस्य प्रस्तौति—
—दृष्टेति। दृष्टा=मया सस्नेहं विलोकिता। दृष्टिं=लोचनयुगलम्।
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श्रीकृष्णचन्द्र की तरह शोभायमान होता हुआ—इधर ही आ रहा है। अतः मैं भी इनके पास ही पहुँचता हूँ।
[वर के वेष में नायक का, और नववधू के वेष में मलयवती का विभवानुसार नौकर-चाकरों के साथ प्रवेश]।
नायक—(मलयवती की ओर देखकर हर्ष के साथ—) यह मेरी प्रिया—
[मलयवतीमवलोकयन्389—] प्रिये मलयवति !
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अधो ददाति=नीचैरञ्चयति। मन्नेत्रयोःसंमुखं नेत्रं नैव कुरुते, किन्तु लज्जया स्वलोचने न्यक्कुरुते। आभाषिता=आ= समन्तात्–बहुना निर्बन्धेन, भाषिता=कृतालापाऽपि। आलापम्=आभाषणम्। उत्तरप्रदानम्। ‘स्यादाभाषणमालापः’ इत्यमरः। न कुरुते=नैव विधत्ते। लज्जयेति शेषः। शय्यायां= सुरताय पर्यङ्के नीता सती। परिवृत्य = मुखं परावर्त्य। तिष्ठति=लज्जया स्थिरीभूतेव निश्चलं तिष्ठति। बलात् = आनुलोम्यमनपेक्ष्य किञ्चिदिव बलात्कारेण। हठात्कारेण मया। आलिङ्गिता=मन्दं मन्दं कृताश्लेषा सती। वेपते=भयात्कम्पते। किञ्च रहस्यसम्पादनाय कार्यान्तरोपक्षेपव्याजेन–सखीषु=आलीषु। निर्यान्तीषु=गच्छन्तीषु। वासभवना-निर्गन्तुमेव=भयाद्वतिगृहाद्वहिर्गन्तुमेव। ईहते=वाञ्छति। चेष्टते। इत्थं–नवोढा= नवपरिणीता। प्रिया=प्राणप्रिया मे मलयवती। अद्य = नूतनविवाहमहोत्सवमनोहारिणि समये। वामतयैव = विरुद्धाचरणेनैव। मे = ममसुतराम्=अनु- कूलाचरणाऽपेक्षयाऽप्यधिकं। प्रीत्यै=प्रमोदाय। हर्षायैव।जाता=निष्पन्ना अविलम्भाया मुग्धाया नवोढाया मत्प्रियाया रतौ वैपरीत्याचरणमपि मे महते प्रमोदायैव भवतीत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥४॥
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जब मैं इसकी ओर देखता हूँ तो लजा से नेत्र नीचे कर लेती है, मैं यदि कुछ पूछता हूँ, बात करना चाहता हूँ, तो लजा से उत्तर नहीं देती है, और न बात चीत ही करती है। शय्या पर मुख फेर कर सो जाती है। बलात् मेरे आलिङ्गन करने पर भय से काँपने लगती है। वासभवन (रति भवन) से जब इसकी सखियाँ जाने लगती हैं तो यह भी उनके साथ ही जाना चाहती है, इस प्रकार मेरी इच्छा के विरुद्ध आचरण करने पर भी यह नवोढा(नवविवाहिता) मेरी प्रिया मुझे और भी आनन्द देने वाली हो रही है। ( नवविवाहिता वधू का पतिकी इच्छा के विरुद्ध इस प्रकार का आचरण भी कामीजनों की कामवासना का और भी उत्तेजक तथा आनन्ददायक माना जाता है। क्योंकि नवोढा की लज्जा ही भूषण है)॥४॥
हुङ्कारं ददता मया प्रतिवचो यन्मौनमासेवितं,
यद्दावानलदीप्तिभिस्तनुरियं चन्द्रातपैस्तापिता।
ध्यातं यत्सुबहून्यनन्यमनसा390 नक्तन्दिनानि प्रिये !,
तस्यैतत्तपसः फलं-मुखमिदं पश्यामि यत्तेऽधुना॥५॥
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एवं मलयवत्या विनयानुरोधात्प्राप्तपरिपोषां रतिमुद्वहन्नुदात्तनायकः सुकुमारोपक्रमत्वमनुसृत्य नायिकायाः कृच्छ्रलभ्यत्वप्रतिपादनद्वारा गुणवर्णनेन तां मार्दवेनाऽऽवर्ज्जयितुमुपक्रमते—प्रिये इति। (—इति विमर्शिनीकाराः)। प्रियं=हे प्राणप्रिये मलयवति ! यत्—वचो वचः प्रतीति–प्रतिवचः=प्रतिवचनं। सुहृद्वन्धुबान्धवेऽजनादिकृतप्रश्नोक्त्यादिषु। हुङ्कारम्=प्रतिवचने स्वीकारादिसूचकं हुमितिशब्दमेव। ददता=उच्चारयता। मया=तपस्विना मया। मौनं=वाचंयमत्वम्। आसेवितम्=आलम्बितम्। सुहृदादिकृतेषु प्रश्नादिषु केवलं हुहुमिति स्वीकारादिसुचकमव्यक्तं शब्दं प्रतिवदता मया यन्मौनमाश्रित्य तपश्चर्या कृति यावत्। यत्=यञ्च। दावानलस्य दीप्तिरिव दीप्तिर्येषान्तैः—दावानलदीप्तिभिः विरहिभ्यो दावाग्निवत्सन्तापप्रदैः। ‘दवदावौ वनाऽरण्यवह्नी’ इत्यमरः। चन्द्रातपैः=चन्द्रज्योत्स्नाभिः। चन्द्रोद्द्योतैः। ‘प्रकाशोद्योत आतपः’ इत्यमरः। इयं तनुः=सन्ता- पसहनाऽसमर्थाऽपि मम तनुरियं। तापिता=सन्तापं मया प्रापिता। यद्दावानलवद्दुःसहैश्चन्द्रकिरणोद्द्यतैर्ममेयं कोमला तनुर्मया भृशं संतापितेति यावत्। यत्=यच्च। सुबहूनि=अतिविपुलानि। असङ्ख्यातानि। नक्तन्दिनानि=अहर्निशम्। अनन्य–मनसा=एकाग्रचित्तेन। त्वदेकनिष्ठचेतसा। मया ध्यातं=तव ध्यानं कृतम्। तस्य तपसः=तपश्चर्यायाः। एतत्फलम्=फलमिदम्। यत्ते इदं=यदिदं तव। मुखं=मुखकम-
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[मलयवती की ओर देखता हुआ—]
हे प्रिये मलयवति !
तेरा यह चन्द्रमा का सा सुख जो मुझे आज देखने को प्राप्त हो रहा है यह मरे उस कठिन तप का फल है जो तेरे विरह में मैंने किया था। जैसे—लोगों के प्रश्न आदि के उत्तर में केवल हुङ्कार (हुंकारा, हूं हूं) करते हुए मैंने मौनव्रत धारण किया था। चन्द्रमा की किरण भी तेरे विरह में दावानल (जङ्गल की भीषण
नायिका–[अपवार्य्य–] हञ्जे ( चदुरिए ) ! ण केवलं दंसणीओ, पिअं पि भणिदुं जाणादि’।
\हञ्जे (चतुरिके !) न केवलं दर्शनीयः, प्रियमपि भणितुं ’ [जानादि391]।
** चेटी—[विहस्य–] अयि पडिपक्खबादिणि ! सच्चं ज्जेव्व एदं, किं एत्थ पिअबअणं?।
[अयि प्रतिपक्षवादिनि ! सत्य (क) मेवैतत्। किमत्र प्रियवचनम्?]।**
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लम्। अधुना=साम्प्रतम्। इदानीं। पश्यामि=विलोकयामि। ‘एतर्हि सम्प्रतीदानी-मधुना साम्प्रतं तथा’ इत्यमरः। ‘मया विपुलं तपः कृतं येनेदं त्वन्मुखमधुना पश्यामीति नायिकाया गुणानुवर्णनमेतत्तदावर्जनायेति ध्येयम्। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥५॥
न केवलं दर्शनीयः=सुन्दर एव न केवलं, किन्तु। प्रियं=मनोज्ञं वचः। भणितुं=गदितुमपि। जानाति=अवबुद्ध्यते। न केवलं सुन्दर एवायं मत्प्राणवल्लभः, किन्तु मधुर भाष्यपीति नितरां कुशलोऽयं नायक इति भावः।
प्रतिपक्षवादिनि=हे विपरीतभाषिणि। स्वकीयवास्तविकगुणानङ्गीकरणशीले।
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अग्नि) की तरह मालूम होती थीं, उनसे मैंने अपने शरीर को बहुत तपाया था। बहुत कालतक रात–दिन अनन्य भाव से तेरा ही ध्यान लगाया था। उसी तपस्या की सिद्धिस्वरूप आज तेरा यह मुख मुझे देखने को मिला है। अर्थात्–जैसे साधकगण–मौनव्रत धारण कर, पञ्चाग्नि आदि से शरीर को सन्तप्त कर,अनन्य भाव से इष्ट देवता का ध्यान कर सिद्धि प्राप्त करते हैं, वैसे ही मैंने इन पूर्वोक्त तपस्याओं के द्वारा यह सिद्धि प्राप्त की है॥५॥
नायिका—(अलग से) अरी चतुरिके ! यह नायक केवल सुन्दर ही नहीं है, मधुर भाषण में भी पटु है। मीठा बोलना भी जानता है।
चेटी—(हंस कर) अहो ! विपरीतभाषणशीले राजकुमारी जी ! यह तो सच्ची बात है। इनका अहोभाग्यही है जो आपका समागम इनको प्राप्त हुआ है इसमें प्रियवचन (चाटुकारिता) की क्या बात है ?।
नायकः — चतुरिके ! आदेशय392मार्ग कुसुमाकरोद्यानस्य।
चेटी—एदु एदु भट्टा393।
\ एतु एतु [भर्त्ता394 ] \।
नायकः —–\ परिक्रम्य [नायिकां395 निर्दिश्य– ] स्वैरं स्वैरमागच्छतु भवती।
खेदाय स्तनभार एव, किमु ते मध्यस्य हारोऽपर–
स्ताम्यत्युरुयुगं नितम्बभरतः काञ्च्याऽनया किं पुनः?।
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सत्यमेवेदं=तपस्याफलमेवेदं नायकस्य यदनेन सह भवत्याः समागमः। अत्र=अस्मिन्विषये। प्रियवचनं=चाटुभाषणम्। किं=न किमपि। सत्यमेवैतद्वचनं नायको ब्रूते नतु चाटुकारितामात्रेणेत्थमयं भाषते इत्याशयः। आदेशय= निर्द्दिश। सूचय। एतु= मत्पृष्ठतः समायातु। भर्त्ता= स्वामी। ‘भर्तृदारक’ इति पाठेजीवत्पितृया तादृशं तस्य सम्बोधनमिति मन्तव्यम्। परिक्रम्य= किञ्चिच्चलनं नाट"यित्वा। नायिकां= मलयवतीं। निर्दिश्य= तामुद्दिश्य। ‘ब्रूते’ इति शेषः। स्वैरं स्वैरं= शनैः शनैः। नायिकायाः श्रमक्लेशाद्याशङ्कयेत्थं नायकस्योक्तिश्चाटुगर्भा। चाटुक्तिपरो नायकः क्लेशमेव स्फोरयति—खेदायेति। स्तनयोर्भारः स्तनभारः। स्तनभार एव=कुचकलसभार एव तावत्। ते=तव। मध्यस्य=अवलग्नस्य। शरीरमध्यप्रदेशस्य। ‘मध्यमं चाऽवलग्नं च मध्योऽस्त्री’
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नायक—चतुरिके ! कुसुमाकर उद्यान का मार्ग बता।
चेटी—प्रभो ! इधर से पधारिए, इधर से।
नायक—(कुछ—चलकर नायिका के प्रति) सुभगे ! धीरे धीरे आप आइए, ताकि आपको कष्ट न हो।
हे प्रिये ! तुमारे कुश मध्य (कटि भाग) के खेद (क्लेश) के लिए तो यह स्तनकलशद्वय का भार ही बहुत है, फिर हारकी तो बात ही क्या है ?अर्थात्
शक्तिःपादयुगस्य नोरुयुगलं वोढुं, कुतोनूपुरे396,
स्वाङ्गैरेव विभूषिताऽसि, वहसि क्लेशाय किं मण्डनम् !॥६॥
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इत्यमरः। ‘मध्यं वलग्ने न स्त्री स्यान्न्याय्येऽन्तरेऽधमे त्रिषु’ इति च मेदिनी। खेदाय=परिक्लेशाय। श्रमाय। ‘भवती’ति वा, ‘अल’ मिति वा शेषः। अपरः=अन्यः। ततोऽप्यधिकः खेदप्रदः। हारः=मुक्ताहारस्य भारः। किमु=खेदप्रद इति किमु वक्तव्यम्। अतिखेदप्रद एव भवेदिति—सोऽयं हारः किमिति भवत्या कुचयोरारोपितः। त्वन्मध्यस्यातिकृशस्य कुचकलसभार एव दुःसहः, पुनर्भवत्या तत्र हारोऽप्यर्पित इति स त्वतितरां मध्यस्य खेदाय भवेदिति नितरां दुर्वहत्वं तद्भारस्येति–पीनस्तनी, कृशमध्या, हारावलीराजिता च नायिकेति चाटूक्त्या सूचितम्। किञ्च–(ते=तव) नितम्ब भरतः=गुरुतर विपुलनितम्बभारादेव। ‘पश्चान्नितम्बः स्त्रोकव्याः, [क्लीबे तु जघनं पुरः’] इत्यमरः। (ते–) ऊरुयुगं सक्थियुगलं। ‘सक्थि क्लीबे पुमानूरुः’ इत्यमरः। ताम्यति=ग्लानिं गच्छति। खिद्यते। क्लाम्यति। पुनः-अनया काञ्च्या=रत्नमेखलया। ‘स्त्रीकट्यां मेखला काञ्ची सप्तकी रशना तथा’ इत्यमरः। नितम्बबिम्बोपरि निहितयाऽनया गुरुतरमहार्घरत्नमालाघटितया रशनया। ताम्यतीति-किं=किम्पुनः। किं पुनर्वक्तव्यम्। नैव वक्तव्यम्। स्पष्टत्वात्। गुरुतरनितम्ब भारोद्वहनप्रयत्तग्लानं तवोरुयुगलं कान्च्या महार्हरतराजिघटितयाऽनया नितरां खिद्यते इति भावः। किञ्च–(=तव)। पादयुगस्य=चरणसरोरुहद्वन्द्वस्य। ऊरुयुगलं=विपुलं मांसल सक्थियुगं। वोढुं=धारयितुं। नेतुं च। न शक्तिः=नैव सामर्थ्यमस्ति। नूपुरे=मञ्जीरौ पादाङ्गदं तुला कोटिर्स जीरो नूपुरोऽस्त्रियाम्’ इत्यमरः। ’ वोढु मिति शेषः।
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स्तनभार से पहिले ही से पीडित मध्य के लिये हार का बोझा तो और भी ज्यादा हो रहा है। और तुम्हारे ऊरुयुगल (जांघ, साथल) नितम्ब (कटि से नोचे के पिछलेभाग) के भार से ही खिन्न और म्लान हो रहे हैं, फिर इनपर इस काञ्ची (करधनी, तागड़ी) के भोर की तो बात ही क्या है, अर्थात् काञ्ची का भार तो ऊरुयुगलके लिये और भी भार होरहा है। तुम्हारे पैरोंकी शक्ति तो जङ्घायुगलको ही
चेटी— एदं(क्खु283 तं) कुसुमाअरुज्जाणं, ता पविसदु भट्टा।
[ सर्वे प्रविशन्ति ]।
\ एतत् (—खलु तत् ) कुसुमाकरोद्यानं, तत् प्रविशतु [भर्त्ता397]।
नायकः– [ विलोक्य—] अहो (नु) कुसुमाकरोद्यानस्य (परा215) श्रीः !। इह हि—
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कुतः= कुतो नु सामर्थ्यं भवेत्। ऊरुयुगलभारोद्वहनखिन्नयोश्चरणयोर्मञ्जीरधारणं नितरां तयोर्भारायैवेति भावः। (हे प्रिये ! ननु त्वन्तु–) स्वाङ्गैरेव= स्वावयवैः स्तनयुगल–मध्योरुयुग्म–नितम्बबिम्ब–कोमलचरणादिभिरेव। विभूषिताऽसि=शोभिताऽसि। (पुनः स्वाङ्गक्लेशमात्रफलं–) मण्डनं= भूषणजातं। किं वहसि= कुतो दु धारयसि?। अनिन्द्यातिशयसहजसौन्दर्यलावण्यशालिन्या भवत्या भूषण-धारणं वृथैवति भावः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥६॥
अहो–इत्याश्चर्ये। [‘नु’ इति वाक्यालङ्कारे]। परा श्रीः=नितरां हृदयाह्लादिनी शोभा। शोभामेवोपपादयन् कुसुमाकरोद्यानं वर्णयति–इह हीति। इह=कुसुमाकरोद्याने।
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वहन करने की भी शक्ति नहीं है, फिर नूपुर (पैर का भूषण पाजेब) को बहन करने का शक्ति तो हो ही कैसे सकती है। हे प्रिये ! तुम तो अपने अङ्गों से ही– विपुल स्तन युगल, कृशमध्य, पीवर ऊरु युगल, सुवृत्त कदलीकाण्डवत् जङ्घा, मनोहर चरण आदि से ही –भूषित हो, फिर इन अङ्गों को कष्ट देने के लिए भारभूत आभूषणों को क्यों वारण कर रही हो?। अर्थात् तेरे सभी अङ्ग साँचे में ढले हुए से तथा कोमल और मनोहर हैं। तुमारे अड्डों की मनोहरता और कान्ति के सामने आभूषणों की कान्ति तो फीकी हो रही है॥६॥
चेटी—स्वामिन् ! यही कुसुमाकर उद्यान है, आप इसके भीतर पधारिये। [सब उद्यान में प्रवेश करते ह ]।
नायक—(उद्यान की शोभा को देखकर) अहो ! इस कुसुमाकर उद्यान (बगीचे) की क्या ही अनुपम, उत्कृष्ट शोभा और समृद्धि है। यहाँ पर-
निष्यन्दश्चन्दनानां शिशिरयति लतामण्डपे398 कुट्टिमान्ता-
नाराद्धारागृहाणां ध्वनिमनु399 तनुते ताण्डवं नीलकण्ठः।
यत्रोन्मुक्तश्च वेगाच्चलति400 विटपिनां पूरयन्नालवाला-
नापातोत्पी401डहेलाहृतकुसुमरजःपिञ्जरोऽयं जलौघः॥७॥
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निःष्यन्द इति। चन्दनानां=निकटस्थितानां पाटीरद्रुमाणां शाखादिसङ्घर्षेण वृष्टक्षतवल्कलानां। निष्यन्दः=रसप्रसरः। लतामण्डपे=लताजालनिर्मिते गृहे। तल्लतामण्डपे। ‘मण्डपोऽस्त्री जनाश्रयः’ इत्यमरः। कुट्टिमान्तान्=मणिखण्डनिबद्धभूतभागान्। ‘कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भूः’इत्यमरः। शिशिरयति=शीतलीकरोति। चन्दनद्रव–सम्पर्काल्लतामण्डपकुट्टिमभूभागानामतिशैत्यात्खेदापनोद—स्वैरविहारयोग्यो लतामण्डपप्रदेशोऽत्र कुसुमाकरोद्याने वर्त्तते इत्याशयः। किञ्च—अन्रोद्याने। आरात्=समीपे एव। ‘आराद्दूरसमीपयोः’ इत्यमरः। धारागृहाणां= कुसुमाकरोद्यानान्तरवर्तिग्रीष्मोपभोगाह्र—जलप्रक्षेपयन्त्र (‘फुहारा’)–भवनानां। ध्वनिमनु=मेघगम्भीरं ध्वनिमभिलक्ष्यीकृत्य। नीलकण्ठः=मयूरः। ‘मयूरो बर्हिणो बर्ही नीलकण्ठो भुजङ्गभुक्’ इत्यमरः। ताण्डवं=लास्यम्। नाट्यं। तनुते=कुरुते। ‘ताण्डवं नटनं नाट्यंलास्यं नृत्यं च नर्त्तने’ इत्यमरः। समीपवर्त्तिधाराग्रहनिपतज्जलध्वनिं श्रुत्वा मेघागमभ्रमेण मयूरा उद्यानेऽत्र मण्डलबन्धेन लास्यं कुर्वन्तीत्यहो मनोहारिताऽस्येति भावः। च=किञ्च। यन्त्रोन्सुक्तः=जलधारायन्त्रोत्क्षिप्तः। [अयं जलौघः=पुरतो विभाव्यमानो जलपूरः । विटपिनां=वृक्षाणाम्। ‘विटपी पादपस्तरुः इत्यमरः। आलवालान्=आवापान्। मूलस्थजलावस्थानप्रदेशान्। ‘स्यादांलवालमावालमावापः’ इत्यमरः। पूरयन्=समापूरयन्। जलपूर्णान् कुर्वन्। आपाते=वृक्षेषु पतने, य उत्पीडः=पादपानां कोमलानां लतानां च कम्पः तेन हेलया=अनायासेन, झटिति, हृतेन=आहृतेन,
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चन्दन वृक्षों से निकलते हुए चन्दन द्रव की यह धारा लता–मण्डपों को ठण्डा कर रही है। धारागृहों (जल के फौवारों) से वर्षते हुए जल की ध्वनि को सुनकर मणिकुट्टमों (मणियों से बने चबूतरे एवं फर्शो) के पास मोर नाच
अपि च—
अमी गीताऽऽरम्भैर्मुखरितलतामण्डपभुवः,
परागैः पुष्पाणां प्रकटपटवासव्यतिकराः।
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कुसुमरजसा=पुष्पजेन पीतपरागेण, पिञ्जरः=पीतः। ‘पिञ्जरोऽश्वान्तरे पीते क्लीबं स्वर्णे च पीतने’ इति विश्वः। अयं जलौघः=पुरतो दृश्यमानो जलपूरः। वेगात् तरसा। चलति=प्रवहति। एतेनातितरां हृद्यत्वं कुसुमाकरोद्यानस्येति भावः। स्रग्धरा वृत्तम्॥७॥
अपि च=किञ्च। इतोऽप्यधिकं मनोहरत्वमस्योद्यानस्येति सूचयन् पुनरपि तदेव वर्णयति—अमी इति। गीतारम्भैः=प्रारब्धगीतप्रबन्धैः। मुखरिताः=आध्माताः, लतानण्डपानां=वल्लीनिकुञ्जगृहाणां, भुवः=प्रदेशा यैस्ते—मुखरितलतामण्डपभुवः=आध्मातलतागृहान्तरालभूमयः। किञ्च– पुष्णाणां=कुसुमानां। परागैः=रजोभिः। ‘परागः सुमनोरजः’ इत्यमरः। प्रकटः=स्पष्टं प्रतीयमानः, पटवासस्य=आमोदिमाङ्गलिकसुगन्धिचूर्णस्य, व्यतिकरः=सम्पर्कोयेषान्ते—प्रकटपटवासव्यतिकराः=स्पष्टं पटवाससम्पर्कशालिनः। पटवास उत्सवेषु हरिद्रातण्डुलादिचूर्णनिर्मितो वसनादिषु प्रक्षेप्यः सुगन्धिद्रव्यविशेषः। (‘सुगन्धित रंग, गुलाल’)। मधुपाः=भ्रमराः। मधु पिबन्तीति व्युत्पत्या मद्यपा, विद्याश्व। ‘मधुव्रतोमधुकरो मधुलिण्मधुपाऽलिनः’ इत्यमरः। ‘मधुपो भ्रमरं पिङ्गेमद्यशौण्डं च वाच्यवत्’ इति शिष्टाः। सहचरीभिः सह तदुच्छिष्टतया सुभगं=स्वप्रियाभिः साकं मधुरसं। भ्रमरपक्षे–मकरन्दं पुष्परसं। बिटपक्षेसरसं मद्यं च। पर्याप्तं=यथेच्छं। प्रकामम्। आकण्ठम्। पिबन्तः=आस्वा-
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रहे हैं। और यन्त्रों (फौवारों) से निकलने वाले जल का प्रबल प्रवाह–बृक्षों के, पौधों के आलवालों (थालों) को भरता हुआ, तथा बड़े वेग से गिरने से सहसा पीडित पुष्पों के परागको हरणकरने से पीला होकर बड़े वेगसे बह रहा है॥७॥
और भी—अपने मधुर गीतों के आरम्भ से जिहोंने लतामण्डप स्थलों को मुखरित कर रखा है, पुष्पों के पराग से जिह्नोंने पटवास (सुगन्धित अङ्गराग) धारण कर रखा है ऐसे में मधुप (भ्रमर और मदिरा पीने वाले शराबी लोग) अपनी अपनी प्रियाओं के साथ यहाँ खूब छककर मधुरस (पुष्पों का मकरन्द
पिबन्तः पर्य्याप्तंसह सहचरीभिर्मधुरसं
समन्तादापानोत्सवमनुभवन्तीह मधुपाः॥८॥
विदूषकः—[उपसृत्य–] जेदु (जेदु230) भवं। सोत्थि भोदीए।
[जयतु (जयतु) भवान्। स्वस्ति भवत्यै]।
** नायकः—वयस्य ! चिगदागतोऽसि।402**
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दयन्तः। ‘मधु पुष्परसे क्षौद्रे मधे’ इति मेदिनी। ‘मकरन्दः पुष्परसः’ इत्यमरः। इह= कुसुमाकरोद्याने। समन्तात्=सर्वत्र। सर्वप्रदेशेषु। दिशि दिशि। आपानोत्सवम्=पानगोष्ठीमहोत्सवसुखम्। ‘आपानं पानगोष्ठिका’ इत्यमरः। अनुभवन्ति=रसयन्ति। आस्वादयन्ति। सहपीतिमहोत्सवमातन्वते। एवं तिर्यक्षु भ्रमरेष्वपि आपानोत्सवानुभवारोपेण सिद्धविद्याधाराणामापानोत्सवार्थं मिलितानां प्रवृत्तिस्तु वर्णनातीतेति सूचितम्। भ्रमरा अपि—मधुरगीतानुकारिझाङ्कारमुखरितलतामण्डप–कुञ्जादिप्रदेशाः,पुष्पपरागधूलिधूसरितवपुषः, पटवासव्यतिकरं प्रकटयन्तः, स्वप्रियाभिः सह पुप्परसमुद्याने पिबन्ति।
मद्यशौण्डा विटा अपि—गीतमुखरितलतामण्डपभुवः, सुगन्धितचूर्णसुरभितवसनाभरणा, उच्चैर्गायन्तः, सहचरीभिः सह पानगोष्ठीसुखमनुभवन्तीति तयोः साम्यम्। एतेन कुसुमाकरोद्यानस्य शोभातिशयो दर्शितः। शिखरिणी वृत्तम्। ‘रसै रुद्रैरिछन्ना य-म-न-स-भ-ला गः शिखरिणी’ ति तल्लक्षणम्॥ ८॥
चिरात्= बहोः कालात्। एतावत्कालं कुत्र स्थितो भूरिति प्रश्नाशयः। ‘चिराद्दष्टोऽसी’ ति पाठान्तरम्। लघु=शीघ्रम्। द्रुतमेव। ‘लघु क्षिप्रमरं द्रुतम्’
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और मदिरा) पीते हुए चारों ओर आपानोत्सव (पान महोत्सव) मना रहें हैं। (भ्रमर भी मधुर गुञ्जान करते हुए पुष्पों के पराग से लिप्त हो अपनी प्रियाओं के साथ पुष्परस का पान करते हैं। कामी लोग भी—अपनीं २ प्रियाओं के साथ गाना गाते हुए पुष्पों से उनके पराग से लदे हुए मद्यपान करते हैं॥८॥
विदूषक–(पास में जाकर) आप की जय हो। हे सुभगे, आप का कल्याण हो।
नायक–मित्र ! बहुत कालके बाद दिखाई दिए, क्या बात है ?। कहाँ रहे ?।
विदूषकः—भो वअस्स! लहुँ ज्जेव्वआअदीम्हि। किं उण विआहमहूसवमिलिदसिद्ध-बिज्जाहराणं अपाणदंसणकोदूहलेण परिब्भोभंतो एत्तिअं वेलं चिट्ठिदोम्हि।403 ता तुमं पि दाव पेक्ख।
** \भो वयस्य! लघु [एवाऽऽगतोऽस्मि।404 किं पुनर्विवाहमहोत्सवमिलितसिद्धविद्याधराणामा-पानदर्शनकौतूहलेन परिभ्रमन्नेतावतीं वेलां स्थितोऽस्मि। तत्त्वमपि तावत्पश्य ]।**
** नायकः—यथाऽऽह405भवान्। [सहर्षं406 परितः पश्यन्407] (वयस्य408 !**
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इत्यमरः। किम्पुनः=किन्तु।विवाहमहोत्सवे=युष्मद्विवाहमङ्गले, मिलिताः=सङ्गतायेसिद्धाः=कन्यापक्षीया देवजातिविशेषाः, विद्याधराः= वरपक्षीयाश्च देवजातिविशेषाः, तेषामित्यर्थः। आपानदर्शनकौतूहलेन=पानगोष्ठीदर्शनकौतूहलेन। ‘आपानं पानगोष्ठिका’ इत्यमरः। ‘कौतूहलं कौतुकञ्च कुतुकञ्च कुतूहलम्’ इत्यमरः। परिभ्रमन्=(इतस्ततः सञ्चरन्। एतावतीं वेलाम्=इयन्तं समयम्। स्थितोऽस्मि=व्यवस्थितोऽस्मि।अत्र—‘किन्त्वियन्तं कालं विवाह महोत्समिलितसिद्धविद्याऽपानदर्शनकौतूहलेन परिभ्रमन्न लक्षितः। तत्प्रियवयस्योऽपि तावदेतत्पश्यतु’ इति पाठान्तरं मनोहारि प्रतिभासते। तत्= तस्माद्धेतोः, कुतूहलवर्द्धकत्वात्। पश्य=आपानमहोत्सवं सिद्धविद्याधाराणां प्रेक्षस्व। नायकस्तदुक्तं स्वीकुर्वन्नाहयथाहेति। यथा भवानाह तथाऽऽपानमहोत्सवं द्रष्टुं संनद्धोऽस्मीत्यर्थः। ‘एव’–
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विदूषक–मित्र, आया तो मैं जल्दी ही रहा। परन्तु विवाह महोत्सव परपरस्पर मिले हुए सिद्ध और विद्याधरों के आपान (मधुपान शालाओं) को देखने के कौतूहल से इतनी देरतक यहाँ इधर—उधर घूम रहा था। आप भी इनके आपान महोत्सव का आनन्द लीजिए और इनका निरीक्षण कीजिए ।
नायक–अवश्य, जैसा आप कह रहे हैं वैसा ही करूंगा ।
पश्य पश्य, ) —
दिग्धाङ्गा409 हरिचन्दनेन, दधतः सन्तानकानां स्रजो,
माणिक्याऽऽभरणप्रभाव्यतिकरैश्चित्रीकृताऽच्छांशुकाः।
सार्द्धं सिद्धजनै410र्मधूनि दयितापीताऽवशिष्टान्यमी
मिश्रीभूय पिबन्ति चन्दनतरुच्छायासु विद्याधराः ॥९॥
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मिति पाठे—यथाऽऽह भवान् तथैव कर्त्तुं संनद्धोऽस्मीत्यर्थः। आपानकमेववर्णयति – परितः = समन्तात्।
दिग्धाङ्गा इति। हरिचन्दनेन = पीतचन्दनेन कुङ्कुमेन वा। ‘छेदे रक्तंकषेपीतं हरिचन्दनमुच्यते’ इति तल्लक्षणात्। ( कषे = घर्षणे तु )। ‘हरिचन्दनमस्त्रि स्यात्त्रिदशानां महीरुहे। नपुंसकन्तु गोशीर्षे ज्योत्स्नाकुङ्कुमयोरपि’ इति मेदिनी। ‘तैलपर्णिकगोशीर्षे हरिचन्दनमस्त्रियाम्’ इत्यमरश्च। दिग्धाङ्गाः = लिप्ताङ्गाः। सन्तानकानां = देवतरूणां कल्पतरुविशेषाणां। ‘सन्तानः कल्पवृक्षश्च पुंसिवा हरिचन्दनम्’ इत्यमरः। स्रजः = पुष्पमाल्यानि। दधतः = धारयन्तः। किञ्च—माणि क्यघटितानि = लोहितादिमणि ( ‘लाल चुन्नीआदि ) घटितानि यानि - आभरणानि = स्वर्णभूषणानि, तेषां प्रभाणां = छवीनां व्यतिकरैः = सम्पकैः। आच्छुरणैः। चित्रीकृतानि अच्छानि अंशुकानि येषान्ते — चित्रीकृताऽच्छांशुकाः चित्रीकृतस्वच्छदुकूलाः। ‘अंशुकं श्लक्ष्णवस्त्रे स्याद्वस्त्रमात्रोत्तरीययोः’ इति मेदिनी। ‘अलङ्कारस्त्वाभरणं परिष्कारो विभूषणम्’ इत्यमरः।’ स्युः प्रभा रुचिस्त्विड्भाभाश्छविद्युतिदीप्तयः’ इत्यमरः। अमी विद्याधराः = एते खलु तत्र तत्र स्फुटं दृश्यमानाः। विद्याधराः = अस्मज्जातीया वरपक्षीया देवविशेषाः। सिद्धजनैः = सिद्धलोकैः। सार्द्धं = साकं। मिश्रीभूय = मिलित्वा। परस्परसंसर्गंप्राप्य। चन्दनतरुच्छायासु = मलयोद्भवचन्दनवृक्षच्छायासु। दयितापीतावशिष्टानि = प्रणयिनीजनपीतोच्छिष्टानि। मधूनि = मद्यानि। पिबन्ति = आस्वादयन्ति। स्त्रीमुखो-
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( चारों ओर देखता हुआ ) मित्र ! देखो, देखो—
हरिचन्दन (पीला सुवर्णाभ सुगन्धित दिव्य चन्दन ) से जिनके अङ्ग लिप्त हैं,
** तदेहि वयमपि ( तां ) तमालवीथि411कां गच्छामः।**
\ सर्वे [परिक्रामन्ति412 ]।
** विदूषकः— एसा क्खु तमालबीहिआ। एदं413 संचरंती दाब परिखेदिदा विअ भोदी दीसई। ता इध ज्जेव्व फटिअमणिसिलाअले वीसमम्ह।**
** [एषा खलु तमालवीथिका। एतां सञ्चरन्ती तावत्परिखेदितेव भवती दृश्यते। तदिहैव स्फटिकमणिशिलातले उपविश्य विश्राम्यामः]।**
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च्छिष्टं मद्यं विशेषतो हृद्यं, पवित्रं, सौभाग्यसूचकं च भवतीति मद्यपानां समयः। तत्सूचनायैव—‘दयितापीतावशिष्यानी’ति विशेषणं दत्तम्। ‘शार्दूलविक्रीडितम् ॥९॥
एवं विदूषकोक्यनुसारेणापानोत्सवं वर्जयित्वा विश्रमार्थमाह—तदिति। तत्=तस्मात्। आपानदर्शनोत्सुकत्वेन अतिश्रान्तत्वात्। एतेषामापानगोष्ठीमहोत्सवे विघ्नो मा भूदिति हेतोरिति वा। तमालवीथिकां = तमालतरुपक्तिवटितां वाटिकां, कुञ्जं विश्रमाय गच्छाम इत्याशयः। उपलक्षितं = चिह्नेन तर्कितम्। एतदिति।
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तथा सन्तानक (कल्पवृक्ष) के पुष्प की माला धारण किये हुए हैं, माणिक्य (लाल, चुन्नी) आदि से घटित आभूषणों की प्रभा से जिनके स्वच्छ वस्त्र चित्र विचित्र रंग के हो रहे हैं, ऐसे ये विद्याधरगण सिद्धों के साथ मिल जुलकर चन्दन के वृक्षों के नीचे बैठकर, अपनी प्रियाओं के पोने से बचे हुए ( उच्छिष्ट ) मधु = मद्य को पी रहे हैं। (अपनी प्रियाओं के उच्छिष्ट मधु को मद्यप लोग अति सौभाग्यवप्रद व उत्कृष्ट मानते हैं ) ॥ ९ ॥
अतः —आओ, अपने लोग भी उस तमालवीथी ( तमालवृचों की पंक्ति ) की ओर चलें। ( सब चलते हैं )
विदूषक— यही तमाल वीथिका है। इसमें घूमने से श्रीमती जी (मलयवती)
नायकः—वयस्य ! सम्यगुपलक्षितम्—
एतन्मुखं प्रियायाः शशिनं जित्वा कपोलयोः कान्त्या।
तापाऽभिताम्रमधुना414 कमलं ध्रुवमीहते जेतुम् ॥ १० ॥
** [ मलयवतीं हस्ते गृहीत्वा— ] प्रिये ! इहोपविशामः।**
** \ [नायिका415 — अज्जउत्तो आणवेदि ]।**
** [ यदार्य्यपुत्र आज्ञापयति ]**
[ सर्वे उपविशन्ति ]।
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प्रियायाः=मत्प्रियाया मलयवत्या। एतन्मुखम्=इदं मुखकमलम्। कपोलयोः= करिदन्तशुभ्रवर्णयोर्गण्डस्थलयोः। कान्त्या = स्वच्छशुभ्रप्रभया। शशिनं = चन्द्रं। जित्वा = विजित्यापि। अधुना इदानीं। तापाऽभिताम्रं = शारदाऽऽतपताम्रवर्णं सत्। कमलं = रक्तपद्मम्। उत्पलं। जेतुं = विजेतुं। तिरस्कर्त्तुम्। ध्रुवं = नूनं। निश्चयेन। ईहते=चेष्टते। सम्प्रति शरदातपाभिरक्तमेतन्मुखं ध्रुवं रक्तोत्पलवच्छोभां पुष्णातीत्यर्थः। आर्या ॥१०॥
हस्ते गृहीत्वेति विश्रम्भोपक्रमोऽयं नायकस्य। उपविशामः = व्यवतिष्ठामहे। ‘यदि भवती समनुमन्यते’ इति, ‘यदि भवत्यै रोचते’ इति वा शेषः। एवञ्च एका-
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कुछ थकी हुई सी मालूम हो रही हैं। इस लिये इस स्फटिक मणिशिला के ऊपर बैठ कर थोड़ा विश्राम ले लें।
नायक— मित्र ! आपने ठीक ही सोचा। क्योंकि— प्रिया मलयवती का यह मुख अपने गोरे २ कपोलों की कान्ति से चन्द्रमा को जीतकर, मार्ग के चलने से हुए परिश्रम से लाल हो कर मानों रक्तकमल को ही जीतना चाहता है। (अर्थात्- ‘परिश्रम से इसके कपोल ( गाल ) लाल हो गए हैं, अतः यह थक गई है - यह आपने ठीक ही समझा ॥ १० ॥
[ नायिका का हाथ पकड़ कर ] प्रिये ! हम लोग यहाँ ही बैठे ?।
नायिका—जैसी आर्यपुत्र ( प्राणनाथ, आप ) की आज्ञा। ठीक है, यहीं
नायकः— [ नायिका ( या ) — मुखमुन्नमय्य पश्यन् - ] प्रिये ! वृथैव त्वमस्माभिः कुसुमाकरोद्यानदर्शनकुतूहलिभिः416 परिखेदिताऽसि417।
कुतः ?—
एतत्ते भ्रूलतोल्लासि418 पाटलाऽधरपल्लवम्।
मुखं नन्दनमुद्यानमतोऽन्यत्केवलं वनम् ॥ ११ ॥
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सनोपवेशने नायिकायाः साध्वसापनयनं फलम्। ‘यदार्यपुत्र आज्ञापयती’ ति नायिकावाक्यं क्वचिन्न दृश्यते। वृधैव = मुधैव। परिखेदिताऽसि = आयासितासि। उद्यानस्य तु त्वन्मुख एवं समवहितत्वात्कुसुमाकरोद्यानदर्शनायऽऽगमनमस्माकं प्रयास एव केवलमिति भावः।
कुसुमाकरोद्यानस्याहृद्यत्वं नायिकानुग्ववर्णनेन समर्थयते—एतदिति। एतत् = स्फुटं मया विभाव्यमानमिदम्। ते = तव। मुखं=वदनमेव। भ्रूलतोल्लासि = भ्रूलताशोभमानम्। सदैव भ्रूयुग्मरूपलतोल्लसनशीलम्। उद्याने तु लतानां हासवृध्यादिनाना-वस्थादर्शनान्नोलसनमित्युद्यानापेक्षया मुखस्याऽऽधिक्यं सूचितम्। पाटलं = सततारुणम्, अधरपल्लवं यस्य तत्—पाटलाधरपल्लवम् = ईषद्रक्तपाटलाकुसुमा-(गुलाब)-ऽनुकारिबिम्बाधरोपशोभितम्। पाटला कुसुमानुकार्यधरोपशोभितम्। उद्याने तु—पाटलाकुसुमं कदाचिन्म्लानिमपि गच्छति, कण्टकावृतं च तद्भवति इदन्तु न तथेति तत आधिक्यमनेन मुखस्य दर्शितम्। नन्दनमुद्यानम् =
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विराजिए। [ सब स्फटिक मणिशिला पर तथा आसपास यथायोग्य बैठते हैं ] ।
नायक – ( नायिका के मुख को ऊँचा करके देखता हुआ - ) हे प्रिये ! हम लोगों ने कुसुमाकर उद्यान के देखने के कौतूहल से तुमको व्यर्थ ही कष्ट दिया क्याकि-भ्रू (भौंह) रूपी लता से शोभित, तथा पाटल वर्ण = ( अरुणवर्ण, लाल ) अधर पल्लव से विराजमान यह तुम्हारा सुख हो नन्दनवन ( देवोद्यान ) है, इससे अतिरिक्त जो उद्यान ( कुसुमाकर उद्यान ) है वह तो केवल वन = बीहड जङ्गल ही है। अर्थात् उद्यान में भी लता होती हैं, पाटला = गुलाब रहते हैं, वृक्षों के कोमल २ लाल २ पल्लव होते हैं, वे ही सब तुमारे इस मुख में भी
चेटी— [ सस्मितं विदूषकं निर्दिश्य— ] सुदं तुए, भट्टिदारिआ ’ कहं वण्णिदेत्ति !419 ।
[ श्रुतं त्वया, भर्तृदारिका कथं वर्णितेति ? ] \।
विदूषकः420 — [सस्मितं— ] चउरिए ! मा एब्बं गवं उब्वह। अम्हाणं पि मज्झे दंसणीयो जणो अत्थि एव्व । केवलं मच्छरेण को वि ण वण्णेदि।
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आनन्दप्रदमुद्यानम्। नन्दनोद्यानं = विबुधोद्यानमेवेति गम्योऽर्थः। अतः = त्वन्मुखात्। अन्यत् = भिन्नमिदं कुसुमाकरोद्यानन्तु। केवलं वनं = वनमात्रमेव नोद्यानपदवीमधिरोहति, परमाह्लादजनकत्वाभावात्। वस्तुतस्त्वन्मुखमेव विबुधोद्यानपदवीमाटीकते, सदाविकसित भ्रूलतापाटलादिसम्पर्कात् इदं कुसुमाकरोद्यानन्तु न त्वन्मुखोद्यानसमकक्षतामीषदपि भजते इति चाटुगर्भा नायकोक्तिः ॥ ११ ॥
भर्त्तृदारिका = मत्प्रभुतनया मलयवती। कथं = केन प्रकारेण। नन्दनोद्यानानुकारिमुखतया। वर्णिता = स्तुता। कीर्त्तिता। ‘भर्त्तृदारिकां कथं वर्णयति’ इति, ‘‘दारिकाकथं वर्ण्यते’ इति च पाठान्तरम्। मलयवतीप्रशंसाहर्षितां चतुरिकां विषको ब्रूते— मैवमिति। एवम् = इत्थं। गर्वम् = अभिमानम्। स्वभर्तृदारिकामलयवतीप्रशंसयाऽभिमानं मा वह। अस्माकमपि = यूनामपि न केवलं
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हैं ही। अतः कुसुमाकर उद्यान देखने का हमने वृथा ही प्रयास किया। [ पाटलावर = गुलाब से तथा पल्लवों से युक्त उद्यान। मुखपक्ष में — लाल २अधरोष्ठ पल्लव युक्त मुख ] ॥११॥
चेटी— [ हंस कर विदूषक के प्रति—] आर्य ! आपने सुना, हमारी राजकुमारी का ये कैसा सुन्दर वर्णन कर रहे हैं !
विदूषक— ( हंसकर ) चतुरिके ! इस तरह गर्व मत कर। हम लोग भी सुन्दर हैं ही। केवल ईर्ष्या से हमारा वर्णन कोई नहीं करता है।
[ चतुरिके ! मैवं गर्वमुद्वह। अस्माकमपि मध्ये दर्शनोयो जनोऽस्त्येव। केवलं मत्सरेण कोऽपि न वर्णयति ] \।
चेटीः—[ सस्मितम् - ] अय्य! अहं तुमं वण्णेमि।421
[ आर्य ! अहं त्वां वर्णयामि ]।
विदूषकः— [ सहर्षं - ] ( भोदि422 ! ) जीविदोम्हि। (ता423) करेदु भोदी पसादं, जेण एसो मं पुणोषि ण भणादि, जहातुमं इरिसो तारिसो कविलमंकडाआरां त्ति।
\ ( भवति ! ) जीवितोऽस्मि। ( [तत्422 ) करोतु भवती प्रसादं येनैष मां पुनरपि423 न भणति, ( यथा त्वम् ) ईदृशस्तादृशः (कपिल422) मर्कटाकार इति।
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स्त्रीणामेव मध्ये दर्शनीयः = प्रेक्षणीयः। सुन्दरः। जनः = अहमपि मलयवत्यपेक्षया सुन्दरतरोऽत्र तिष्ठाम्येव। परन्तु – मत्सरेण = द्वेषबुद्धया \। मत्सौन्दर्यगुणाऽसहिच्णुतया। ‘मत्सरोऽन्यशुभद्वेषे वद्वत्कृपणयोस्त्रिषु’ इत्यमरः। कोऽपि = कश्चिदपि, मत्प्रियवयस्यो जीमूतवाहनोऽपि। न मां वर्णयतीत्यर्थः। वर्णयामि= प्रशंसां करोमि। ( पक्षे ) वर्णेन ( ‘रंग’ से ) तव रूपपरिवर्त्तनं करोमीति चार्थः। ‘तं वर्णयामीति पाठे - ते = तव - मुखम्। वर्णयामि= प्रशंसामि, कृष्णवर्णञ्च करोमीत्युभयथाऽर्थो बोध्यः। द्वितीयमर्थमबुद्ध्वा, मन्मुखसौन्दर्यवर्णनं करिष्यतीति बुद्धया च विदूषक आह—जीवितोऽस्मि = हर्षेण जीवितमिव ग्राहितोऽस्मि। भवती = श्रीमती। प्रसादं = कृपाम्। वर्णनं प्रति प्रसादं कुर्वित्याशयः। येन =
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चेटी— आर्य ! आपका वर्णन ( = प्रशंसा या रंग में रंगना ) मैं करती हूँ।
विदूषक— ( हर्ष पूर्वक - ) सुभगे ! यदि आप मेरा वर्णन कर दोगी तो मैं ‘जी गया’ ऐसा समझिए। अतः आप मेरे ऊपर अपना अनुग्रह (दया) करिए। मेरा कुछ वर्णन कर दीजिए। जिससे यह मेरा यह मित्रमुझे ‘तूं ऐसा है ’ ‘वैसा है’ कपिल मर्कट ( भूरा बन्दर ) है - इत्यादि बातें तो नहीं कह सकेगा। अतः आप मेरा वर्णन करिए। \ चेटी ने तो ‘आपका वर्णन मैं करती हूँ’ इसका अर्थ ‘तुम्हें
चेटी— अज्ज ! तुमं मए त्रिआहजाअरेण णिज्जाअमाणो णिमीलिअअच्छो सोहन्तो दिट्टो। ता तह जेव चिट्ठ, जेण वण्णेमि।
** [ आर्य्य ! त्वं मया विवाह[जागरेण424 निद्रायमाणो निमीलिताक्षः शोभमानो दृष्टः। तत्तथैव तिष्ठ, ( येन425 वर्णयामि ) ] \।**
** [ विदूषकः— तथा करोति ]।**
** चेटी— \ [स्वगतम्426— ] ( जाव एसो णिमीलिअअच्छो चिट्ठदि )**
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त्वत्कृतप्रशंसया। एषः=जीमूतवाहनः। ईदृशस्तादृशः= ईदृशाकारस्तादशाकार इत्यादिरीत्या। अयं तिरस्कारप्रकारसंक्षेपः। कपिलमर्कटाकार—इति = कपिलवर्णवानरसदृशवदन इत्येवं निन्दाप्रकारप्रदर्शनम्। न भणति = न – निन्दिष्यति। त्वत्कृतप्रशंसया मम कुरूपत्वकलङ्कोऽपयास्यतीत्याशयः। ‘कडारः कपिलः ’ इत्यमरः। ( कपिल = भूरा )। विवाहजागरेण = विवाहमहोत्सवजागरेण। निमीलिताक्षः = निमीलितलोचनः। शोभमानः = शोभान्वितः। ‘शोभन’ इति पाठान्तरम्। तत् = तथैव तव मुखस्य शोभनत्वात्। तथैव = निमीलितलोचनः। वर्णयामि = नीलीरसेन कालीकरोमि, प्रशंसामीत्युभयथाऽर्थो ध्येयः। तथा करोति =
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रंग से रंग देती हूँ’ यह किया है। वर्णन का अर्थ रंगना भी है। परन्तु विदूषक ‘वर्ण’ का अर्थ बड़ाई समझ रखा है। अतः चेटी से अपनी बड़ाई करने की प्रार्थना कर रहा है। पर चेटी उसे नीले काले रंग से रंग देती है। तब विदूषक को वर्णन का सच्चा अर्थ मालूम होता है।
वर्णन = प्रशंसा । वर्णन = रंगना। यह द्व्यर्थक पद है ]।
चेटी— आर्य ! विवाह में जागरण से आपको मैंने उँघते हुए, आँखें निद्रा से बन्द किए हुए देखा था। उस तरह आँख बन्द किए हुए आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। अतः आँख बन्द करके बैठिए तो मैं आपका वर्णन करूं।
[ विदूषक आँख बन्द करता है ]
चेटी— ( मन ही मन ) जब तक यह आँख बन्द किये हैं तब तक नीली रस
दाव णीलीरसाणुआरिणा तमालपल्लवरसेण मुहं से कालीकरिस्सं ।
** \ (यावदेष निमीलिताक्ष[स्तिष्ठति41। तावन्नीली427रसानुकारिणा तमालपल्लवरसेन मुखम् ( अस्य ) कालीकरिष्यामि ]।**
** \ [उत्थाय428 तमालपल्लवं निष्पीड्य विदूषकस्य मुखं कालीकरोति। नायको नायिका विदूषकस्य429 मुखं पश्यतः ] !**
** नायकः— वयस्य ! धन्यः खल्वसि, " योऽस्मासु430 तिष्ठत्सु भवानेवं वर्ण्यते !।
\ [नायिका431— नायकस्य मुखं दृष्ट्वा स्मितं करोति।**
** नायकः—\ [नायिकामुखं432 दृष्ट्वा —**
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नेत्रे निमील्य तिष्ठति। नीलीरसानुकारिणा = नील्योषधिरसतुल्येन॥ नीले रंगकी तरह काला )। तमालः = तापिच्छतरुः। पल्लवः = किसलयम्। ‘कालस्कन्धस्तमालः स्यात्तापिच्छोऽपि’ इत्यमरः। ‘नीली काला क्लीतकिका ग्रामीणा मधुपर्णिका। रञ्जनी श्रीफली तुत्था लूणी दोला च नीलिनी’ इत्यमरः। धन्यः = सुभगः। सफलजीवनः। अस्मासु तिष्ठत्सु = अस्मानिहस्थानप्यनादृत्य षष्टी चानादरे’ इत्यनादरे सप्तमी। एवम् = इत्थं। संरम्भेण। अत्यादरेण । स्मितं
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के समान तमाल पत्र के रस से इसके मुख को मैं काला कर दूँ। [ उठकर तमाल के पत्ते से रस निकाल उससे विदूषक के मुख्ख को काला करती है।
[ नायक और नायिका— विदूषक को देखते हैं ]
नायक— मित्र ! तुम धन्य हो, जो हमारे रहते हुए ( हमें कोई नहीं पूछता है, परन्तु केवल ) तुमारा इस प्रकार वर्णन ( रंगाई, प्रशंसा ) हो रहा है।
नायिका— [ विदूषक को देखकर कुछ हंस (ती हुई नायक की ओर देखती है ] \।
नायक – [ किंचित् हंसती हुई नायिका के मुख को देख कर—] हे सुन्दर
स्मितपुष्पोद्गमोऽयं ते दृश्यतेऽधरपल्लवे।
फलं433 त्वन्यत्र मुग्धाक्षि ! चक्षुषोर्मम पश्यतः ॥ १२॥
** विदूषकः — भोदि ! किं तुए किदं ?।
[ भवति ! किं त्वया कृतम् ? ]।**
** चेटी—णं वण्णिदोसि।**
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करोति = ईषद्धसति। एतेन क्रमशो लज्जापनयः प्रदर्शितः। नायिकायाः स्वानुकूल्यं, विगतसाध्वसतां च दृष्ट्वा नायक आह— स्मितपुष्पेति। मुग्धे अक्षिणी यस्यास्तत्सम्बुद्धौ— हे मुग्धाक्षि = हे सुन्दरमनोहरनयने। ते तव। अधरपल्लवे = अधरोष्टकिसलयोपरि। अयं स्मितपुष्पोद्गमः = ईषद्धास्यरूपपुष्पनिर्गमः। स्मितमेव पुष्पोद्गम इति विग्रहः। दृश्यते = विभाव्यते। तु = किन्तु। फलं = स्मितजन्यं फलन्तु। साफल्यन्तु। अन्यत्र = पुष्पादन्यत्र। पश्यतः = त्वन्मुखं पश्यतः। मम चक्षुषोः = नयनयोः। ‘जातमित्यहो आश्चर्य’ मिति शेषः। त्वां स्मितमुखीं दृष्ट्वा मम नयनयोः सफलता जातेत्याशयः। लोके हि यत्र पत्रं पुष्पं च भवति तत्रैव फलोद्गमोऽपि भवतीति नियमो दृश्यते, परन्तु त्वन्मुखे त्वधरपल्लवोपरि स्मितरूपं पुष्पं विराजते, फलं = साफल्यन्तु पश्यतो मम लोचनयोर्जातमित्यहो वैशिष्ट्यं सस्मितस्य स्वन्मुखस्येति हृदयम् ॥ १२ ॥
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नेत्र वाली प्रिये ! ईषत् हास्य रूपी पुष्प तो तुमारे अधरोष्ठ पल्लव में आविर्भूत हो रहा है, पर उसका फल ( आनन्द ) मेरी आँखो में हो रहा है। अर्थात् तुमारे मुसकुराते हुए मुख को देखकर मेरे नेत्र सफल हो गए। भाव —जहाँ फूल लगता है, वहीं कल भी लगता है— यह साधारण नियम है, परन्तु स्मित रूपी फूल तुमारे अधरोष्ठ रूपी पल्लव ( कोमल लाल पत्ते ) पर खिला है, पर उससे सफल मेरी आँखे हो रही हैं-अतः यह एक आश्चर्य की बात है ॥ १२॥
विदूषक— हे सुभगे ! तुमने क्या किया ?।
चेटी— मैंने आपका वर्णन किया है। अर्थात् आपका मुख मैंने काले रंग से रंग दिया है।
** [ ननु वर्णितोऽसि ]।**
** विदूषकः—\ हस्तेन मुखं प्रमृज्य ( [हस्तं200 ) दृष्ट्वा सरोषं दण्डकाष्ठ- सुद्यम्य (ससंरम्भं434) ]। (आः) दासीए धीए ! राअउलं क्खु एदं। किं तव करिस्सं ?। [ नायकमुद्दिश्य ] भो435, तुम्हाणं पुरदो एव्व अहं दासीए धीआए खलीकिदो ! ता किं मम इध ट्टिदेण ?। अण्णदो गमिस्तं।**
\ [निष्क्रान्तः436 ]।
** \ आः दास्याः पुत्रि ! राजकुलं खल्वेतत्। किं तव करिष्यामि ?। भोः ! [युष्माकं435 पुरत एवाहं दास्याः पुत्र्या खलीकृतोऽस्मि ( तत्41 ) किं ममेह स्थितेन ?। अन्यतो गमिष्यामि।**
** चेटी— कुविदो (खु) मम अज्ज अत्तेओ, जाव णं गदुअ पसादेमि।437 \ कुपितः (खलु) मम आर्य आत्रेयः, यावदेनं गत्वा [प्रसादयामि437 ]।**
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वर्णितः = कालेन वर्णेन कालमुखः कृतः। पक्षे - प्रशंसितः। ससंरम्भं = साटोपम्। सावेशमिति वा। ‘आः’ इति क्रोधसूचकमव्ययम्। दास्याः पुत्रि = रण्डादासीतनये। अयि जारजाते। इदं गालिप्रदानं क्रोधसंरम्भसूचनायैवेति ध्येयम्। ‘षष्ठ्या आक्रोशे’ इति षष्ठ्या अलुक्। राजकुलं=राजगृहमेतत्। किन्ते करिष्यामि= किमपि दण्डं दातुमशक्तः। राजकोपभयात्तत्व शासनं दण्डेन कर्तुमशक्तोऽहं, नो दण्डाघातेन शिक्षयेयम्। निर्दिश्य = उद्दिश्य। खलीकृतः = विडम्बितः। तिरस्कृतः। अन्यतः = इतोऽन्यत्रैव। प्रसादयामि = प्रसन्नं करोमि। अनुनया-
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बिदूषक—( हाथ से मुख पोंछ कर, देखकर, क्राधपूर्वक डण्डा उठाकर ) अरी रण्डापुत्रि ! यह राजकुल है, नहीं तो मैं तेरे को इसका दण्ड देता। पर क्या करूँ, लाचारी है। ( नायक के प्रति ) आपके सामने ही जब इस दुष्टा ने मेरी यह दुर्दशा कर दो तो फिर मेरा यहाँ रहना ही व्यर्थ है। मैं दूसरी जगह जाता हूँ। [ जाता है ] \।
चेटी—आर्य आत्रेय मेरे ऊपर कुपित हो गए हैं, अतः इनको जाकर मैं प्रसन्न करती हूँ।
** नायिका — ह चदुरिए ! कहं438 मं एआइणीं उज्झिअ गच्छसि ?
[ हञ्जेचतुरिके ! कथं मामेकाकिनीमुज्झित्वा गच्छसि ? ]।**
** चेटी— \ नायक[मुद्दिश्य439 सस्मितम् ] एव्वं ( एव्व ) एआइणी चिरं होहि। [ (इति निष्क्रान्ता ]।
\ [एवमेव चिरमेकाकिनी भव440 ]।**
** नायक— \ नायिकाया मुखं [पश्यन्176 ]—**
दिनकरकराऽऽमृष्टं बिभ्रद् द्युतिं परिपाटलां
दशनकिरणैरुपसर्पद्भिः स्फुटीकृतकेसरम्।
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मि तावत्। एवमेव = प्राणप्रियसनाथा। पत्या सह रहस्यवर्त्तिनी। एवं नायिकानायकयोः सुरतक्रीडाऽवसरप्रदानाय कलहव्याजेन विदूषकचतुरिकयोरपसरणम्। तद्गमनानन्तरं नायको रहसि प्रकारान्तरेण चुम्बनं प्रार्थयमानः सुरतोपचारायोपक्रमते - दिनकरकरेति। अयि मुग्धे = अयि बाले। मौग्ध्यात्संभोगरसाऽनभिज्ञतया संभोगपराङ्मुखे। दिनकरस्य = सूर्यस्य, करैः = = किरणैः, ( ‘बलि- हस्तांऽशवः कराः" इत्यमरः। ) आमृष्टं = समन्तात्परामृष्टं, सन्तापितम्, अतएव – परिपाटलां = ( परितः ) सर्वतोऽरुणां, द्युतिं = कान्तिं, प्रभां ( ’ स्युः प्रभारुग्रुचिखिड्भाभाश्छविद्युतिदीप्तयः’ इत्यमरः। ) विभ्रत् = दधत्। ( ते मुखं ) किञ्च—उत्सर्पद्भिः = प्रसरद्भिः, विसारिभिः। दशनकिरणैः = दन्तमौक्तिकमयूखैः।
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नायिका—अरी चतुरिके ! क्या मुझे इकल्ली ही छोड़ कर तूं चली जायगी ! (जामत, यहीं रह)।
चेटी— ( नायक की ओर देखकर मुसकराती हुई ) भगवान् करे आप इसी तरह सदा एकाकिनी रहें ! ( पति के साथ इसी प्रकार एकान्त में रति सुख का अनुभव करती रहें )। [ जाती है ]।
नायक—( नायिका के मुख को देखता हुआ ) अयि मुग्धे ( भोली ) प्रिये ! तेरा यह मुख सूर्य की किरणों ( धाम ) के सम्पर्क से गुलाब की सी लाल
अयि मुखमिदं मुग्धे ! सत्यं समं कमलेन ते,
मधु मधुकरः किन्त्वेतस्मिन् पिबन्न विभाव्यते ?। १३ ॥
\ नायिका— विहस्य [मुखमुन्नमयति441 ]।
**\ नायकः — तदेव ( [दिनकरकरेत्यादि41) पठति ] **
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दन्तप्रभापूरैः। स्फुटीकृतकेसरं = स्पष्टीकृतकिञ्जल्कशोभम्। इदं ते मुखं = तव मुखमिदं। सत्यं= निश्चयेन। कमलेन समं = कमलतुल्यम् अस्तीति शेषः। प्रखरतापरविकिरणसम्पर्कारुणं दशनकिरणोत्सर्पणप्रकटीकृतकेसरव्यतिकरन्ते मुखमिदं कमलेन तुल्यमेव। कमलमप्यरुणं, केसरोपशोभितञ्च भवति, तत्र मुखमपि तथैवे त्यनयोः स्फुटमेव साम्यमस्तीत्याशयः। किन्तु = उभयोः साम्येऽपि। एतस्मिन् = त्वन्मुखकमले। मधुकरः = भ्रमरः। पक्षे कामुकः। मधुरसं। मकरन्दं। पक्षे- अधरामृतं पिबन्=आस्वादयन्। न विभाव्यते = नैव दृश्यते। अतः सर्वथा त्वन्मुखस्य कमलेन सादृश्ये या त्रुटिस्तामहं भ्रमरस्थानीयस्त्वत्कामुकस्त्वदधरपानेन दूरीकर्त्तुमिच्छामि, यदि भवतीदमनुमन्यते। इत्येवं तन्मुखाम्बुजरसास्वादप्रार्थना नायकेन कृतेत्यवधेयम्। हरिणी वृत्तम् ॥ १३ ॥
उन्नमयति=अपसारयति चुम्बनदानाय समीपमानयति। वा। अन्यतो नयति।
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कान्ति को धारण कर रहा है, इसमें फैलता हुई दातो की किरण ही कसर (किज्जल्क) के समान हैं, अतः यह तुमारा मुख अवश्य ही कमल के समान है। अन्तर (त्रुटि) केवल यही है कि इस तुम्हारे मुखरूपी कमल पर मधु ( मकरन्दरस) को पीने वाला कोई भौंरा नहीं दिखाई दे रहा है। अर्थात् - मैं तुमारे इस मुख रूपी कमल का भ्रमरवत् रस पान ( चुम्बन ) करना चाहता हूँ, ताकि यह ठीक २ कमल की शोभा को पहुँच सके। इस प्रकार एकान्त देखकर नायिका से नायक चुम्बन आदि की अनुमति मांग रहा है। और चुम्बन करना ही चाहता है।
[ नायिका— हंस कर मुख को हटा लेती है ]।
[ नायक—पुनः उसी प्रकार प्रार्थना करता हुआ नायिका का चुम्बन करना ही चाहता है ]।
** चेटी— \पटाक्षेपेण [प्रविश्य442, उपसृत्य ] एसो क्खु (सिद्धजुवराओ176) (अज्ज443) मित्तावसू केणविकज्जेण444 कुमारं पेक्खिदुं445 आअदो**
** [एष खलु सिद्धयुवराज आर्य्यमित्रावसुः केनापि कार्येण कुमारं द्रष्टुमागतः ] ।**
** नायकः— प्रिये ! गच्छ त्वमात्मनो गृहम्। अहमपि मित्रावसुं दृष्ट्वा त्वरित (सर176) मागत एव।**
** \ नायिका— [चेट्या सह निष्क्रान्ता446 ]।
[ ततः प्रविशति मित्रावसुः ]।**
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क्वचित्तथैव पाठः। पुनरपि नायकः प्रार्थनां कुर्वंस्तदेव दिनकरकरेत्यादि पठति। इत्येवं बाह्यसुरतोपक्रमपुरस्सरमान्तरसुरतोपचारे प्रवर्त्तमानं नायकं —
‘चुम्बनं, लोकधर्मं च, तथा गुह्यं न कारयेत्।
केनचिद्वचनार्थन तस्य भेदं प्रयोजयेत्’॥
—इत्युक्तरीत्या लोकधर्मान्मैथुनादेर्विघटयितुं— पटाक्षेपेण=जवनिकाऽपसारणेन। सहसैव चेटीप्रवेशमुपन्यसति-प्रविश्योपसृत्येति। उपसृत्य= समीपमागत्य।अथाऽङ्गत्वेन परिपोषं गतस्य शृङ्गारस्य अङ्गतासम्पादनपूर्वकमङ्गिनि करुणे रसे नायकस्य प्रवेशाय कान्तासोदरस्य मित्रावसोः प्रवेशः प्रतिपाद्यते। मतङ्गस्य - जीमूतवाहन-
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[ उसी समय सहसा पर्दे को हटा कर चेटी का प्रवेश ]।
चेटी— ( पास में जाकर ) युवराज मित्रावसु किसी आवश्यक कार्य के
लिए आपसे मिलने बाहर खड़े हैं।
नायक— प्रिये ! तुम अपने निवासस्थान को जाओ। मैं भी मित्रावसु से मिलकर तुमारे पास तुरन्त ही आता हूँ।
[ नायिका—चेटी के साथ जाती है ]
[ मित्रावसु का प्रवेश ]
मित्रावसुः—
अनिहत्य तं सपत्नं447 कथमिव जीमूतवाहनस्याऽहम्।
कथयिष्यामि हृतं तव448 राज्यं रिपुणेति निर्लज्जः ? ॥ १४ ॥
** अनिवेद्य च न युक्तं गन्तुमिति निवेद्य गच्छामि।449 \ [कुमार450 ! मित्रावसुः प्रणमति ]।**
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प्रतिपक्षभूतस्य राज्ञो वृत्तान्तं मनसि निधाय स्वयमेवाह मित्रावसुः— अनिहत्येति। समर्थः = तच्छत्रुविनाशने शक्तः। अहं = सिद्धयुवराजो मित्रावसुः। तं = मतङ्गं नाम तत्प्रतिपक्षम्। अनिहत्य = अनुन्मूल्य। अविनाश्य। निर्लज्जः = निरपत्रपः सन्। ‘तव राज्यं रिपुणा = स्वच्छत्रुणा मतङ्गेन, हृतं = बलाद् गृहीतम्’ इति इत्येव वृत्तान्तम्। जीमूतवाहनस्य = अस्मद्भगिनीपतेः। कथमिव-कथं नु। कथयिष्यामि= सूचयिष्यामि। यदि तच्छत्रोविनाशं कृत्वैव तद्वृत्तान्तो मया जीमूतवाहनस्य कथ्यंत तर्ह्येव समुचितं स्यादित्याशयः। ‘आर्या’ ॥ ३४ ॥
तथापि—अनिवेद्य = जीमूतवाहनस्यैतं वृत्तान्तमसूचयित्वा। नयुक्तम् = अनुचितम्। गमनं = शत्रुविनाशाय गमनम्। निवेद्य = सूचयित्वैव। गच्छामि = शत्रून्मूलनाय गमिष्यामि। एतेन त्वरा सूचिता। वर्त्तमानसामीप्ये गम्ये भविष्यति लट्। ’ तथाप्यनिवेद्य न युक्तरूपं गमनमिति निवेद्य गच्छामि’ इति पाठान्तरम्। न युक्तरूपम् - अयुक्तरूपं = नोचितम्। अनुपपन्नम्। इतः = इह मत्समीपे। आस्यतां=स्थीयताम्। उपविश्यताम्। तत्संभ्रममविज्ञायेयमुक्तिः। निरूप्य=
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मित्रावसु —( मन हो मन ) जीमूतवाहन के शत्रु को मारे विनाही जाकर उस ( जीमूतवाहन ) से मैं यह निर्लज्जतापूर्वक कैसे कहूँगा—कि-‘आपके राज्य पर शत्रुने अधिकार कर लिया है’ ॥ १४॥
परन्तु जीमूतवाहन से कहे बिना ही शत्रु के ऊपर चढाई करना भी ठीक नही होगा, अतः उनसे कहकर शत्रु पर चढाई करूंगा। (प्रकट में - ) कुमार ! मित्रावसु प्रणाम करता है।
नायकः—\ मित्रावसुं [दृष्ट्वा41- ] मित्रावसो ! इत451 आस्यताम्।
मित्रावसुः— ( निरूप्य41 ) उपविशति ]।
नायकः—\ ( [निरूप्य41 ] मित्रावसो ! ससंरम्भ इव452 लक्ष्यसे ?।
मित्रावसुः— कः खलु मतङ्गइतके संरम्भः ?।
नायकः— किं कृतं मतङ्गेन ?।
मित्रावसुः – स्वनाशाय किल युष्मदीयं453 राज्यमाक्रान्तम्।
नायकः— [ सहर्षमात्मगतम्— ] अपि नाम सत्यमेतत्स्यात् ?।
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पश्चादवधानेन संरम्भमाशङ्क्य, पृच्छति—ससंरम्भ इवेति। सक्रोधवेग इवेत्यर्थः। क्रोधवेगः — संरम्भः। लक्ष्यसे मुखरागौष्ठस्कुरणादिना प्रतीयसे। मतङ्गहतके= नीचे मतङ्गाख्ये तुच्छे राजनि। कः खलु संरम्भः = कः खलु क्रोधवेगः। तस्य तुच्छत्वेन संरम्भविषयतैव नोचिता, नहि मृगाधिराजस्य जम्बूके, मूषके वा संरम्भः युज्यते इत्याशयः। स्वनाशाय = आत्मविनाशाय। युष्मदीय = भवदीयम्। आक्रान्तं = बलाद्गृहीतम्। अतोऽहमेनमचिरादेव निहन्मीत्याशयः। अपिनामेति— सम्भावनायाम्। दैवानुकूल्यात्सत्यमेवैतद्भवत्वित्यर्थः। पितृगौरवेणैव मया राज्यं
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नायक— हे मित्रावसु ! आओ यहाँ बैठो।
[ मित्रावसु — अच्छी तरह इधर-उधर देखकर बैठता है ]।
नायक— ( अच्छी तरह देखकर ) मित्रावसो ! कुछ आवेश में ( क्रोध में और जोश में ) मालूम पड़ रहे हो। क्या बात है ?।
मित्रावसु— दुष्ट मतङ्ग ( जीमूतवाहन के शत्रुराजा ) के ऊपर क्रोध तथा जोश ही क्या करना है ?। अर्थात् वह तो आपकी आज्ञा होते ही चींटो की तरह पीस दिया जायगा, अतः उसके लिए जोश की आवश्यकता ही नहीं है )।
नायक — मतङ्ग ने क्या किया है ?।
मित्रावसु—अपने विनाश के लिए आपके राज्य पर अधिकार कर लिया है।
नायक— ( प्रसन्न हो मन ही मन ) भगवान् करें इसकी यह बात सच हो।
मित्रावसुः— अतस्तदुच्छित्तये आज्ञां दातुमर्हति कुमारः।454
किं बहुना ?—
संसर्पद्भिः समन्तात्कृतसकलवियन्मार्गयानैर्विमानैः
कुर्वाणाः प्रावृषीव स्थगितरविरुचः श्यामतां वासरस्य।
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स्वयं न दत्तम्। यदि कश्चन बलाद्गृह्णीयात्तर्हि समीहितसिद्धिरेव मम स्यात्, बन्धनमेव किल मम राज्यमिति तदाशयः। अतो राज्यापहरणवृत्तान्तश्रवणे हर्ष आविष्कृतो नायकेनेति तत्त्वम्। एवं जीमूतवाहनाशयमविज्ञाय संरम्भेणैवाह मित्रावसुः—तदुच्छित्तय इति। मतङ्गविनाशायेत्यर्थः। त्वदाज्ञामात्रापेक्षोऽयमर्थः। किंबहुना=किमधिकजल्पनेन। साध्यस्य (=कार्यस्य ) सिद्धत्वादित्यर्थः।
साध्यस्य सिद्धत्वमेव प्रतिपादयति—संसर्पद्धिरिति। समन्तात्=सर्वतः सर्वासु दिशासु। संसर्पद्भिः=प्रसर्पद्भिः। संभूय प्रचलद्भिः। सर्वतो धावमानैः। कृतं=विहितं, सकलस्य=समग्रस्य, वियन्मार्गस्य=आकाशमार्गस्य, यानं= गमनं यैस्तादृशैः। व्याप्तगगनाङ्गणैः। एतेन प्रावृट्कालीन मेघ सादृश्यन्तेषां ध्वनितम्। एवंभूतैः—विमानैः=आकाशयानः। ‘व्योमयानं विमानोऽस्त्री’ इत्यमरः। स्थगितरविरुचः। स्थगिताः=आवृताः, अवरुद्धाः, रवेः=सूर्यस्य, रुचः=प्रभाः - यस्मिस्वादृशस्य-स्थगितरविरुचः=निरुद्धसूर्यरश्मिप्रसरस्य। वासरस्य=दिवसस्य। प्रावृषि इव=जलधरमालासमये इव। वर्षत्तुसमय इव। श्यामतां=कालवर्णताम्। अन्धकारावृततां। कुर्वाणाः=सम्पादयन्तः। यथा वर्षर्तौ जलधरमालावृते सूर्ये दिवसस्य श्यामतेव भवति, तथैव विमानैर्गगनाङ्गणमावृत्य दिवसमन्धकारावृतं कुर्वन्तः सिद्धा इत्याशयः। ‘विमानैः स्थगितरविरुच’ इति सिद्धविशेषणं वा।
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( अथात् मतङ्गदेव यदि मेरा राज्य ले ले तो मुझे बड़ा प्रसन्नता ही होगी, क्योंकि इस प्रकार मेरा राज्य उसके काम ही आएगा। अतः परोपकार ही होगा )।
मित्रावसु—अतः हे कुमार ! आप उसके विनाश के लिए मुझे तुरन्त आज्ञा दें। अधिक क्या कहूँ— सब दिशाओं में जाने वाले, आकाशमार्ग को व्याप्त कर लेने वाले विमानों से सूर्य की किरणों को भी ढक लेने से वर्षा ऋतु में मेघों से
एते याताश्च सद्यस्तववचनमितः प्राप्य युद्धाय सिद्धाः,
सिद्धञ्चोद्वृत्तशत्रुक्षयभयविनमद्राजकं ते स्वराज्यम् ॥१५॥
अथवा, किं बलौघैः,—
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‘दिवसविशेषणमिद’ मिति तु विमर्शिनीकारः। एते सिद्धाः = सन्नद्धा एवं विमानस्थाः सिद्धजातीया देवयोनयः। तव वचनं त्वदाज्ञां। प्राप्य = लब्ध्वा। इतः = अस्मान्मलयप्रदेशात्। युद्धाय। सद्यो याताश्च = सपदि गता एव। गतप्रायाएवेति विद्धि नतु गमिष्यन्ति। त्वद्वचनप्रातिसमकालमेव तत्र सिद्धा युद्धाय गमिष्यन्तीति भावः। भविष्यतोऽपि गमनस्य भूतत्वेन निर्देशो गमनस्य सद्यो निष्पत्तिसूचनायैव। आदिकर्मणि वा क्तः, याताः = यातुं प्रवृत्ता एवेत्यर्थः। च = किञ्च। उद्वृत्तस्य = उद्दण्डस्य, उच्छृङ्खलस्य, शत्रोः = रिपोः, मतङ्गस्य, क्षयेण समूलं नाशेन, यत् — भयं = भीतिः तेन विनमत् = प्रणमत्, वशीभवत्, राज्ञां समूहो—राजकं = सामन्तराजचक्रं यस्मिंस्तत् (‘क्रियाविशेषणं वा’)-उद्वृतशत्रुक्षयभयविनमद्वाजकं = दुर्दान्तशत्रुविनाशभयवशीभवत्सकल-सामन्तराजचक्रमण्डितम्। ते = तव। स्वराज्यं = पितृपितामहादिवंशपरम्परागतं राज्यं। सिद्धं= सिद्धमेव। अस्मसिद्धसेनागमनमात्रसिद्धमेव निष्कण्टकं स्वकीयं राज्यं जानीहि। तत्त्वरितमेवाज्ञापय, सन्नद्धा हि सिद्धयोधा भवदाज्ञां प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्तीत्याशयः। स्रग्धरा वृत्तम् ॥ १५ ॥
निजशक्तिविश्वासात्पक्षान्तरमाह – अथवेति। बलौघैः = सेनासमूहैः। किं= किं प्रयोजनम् ?। न किमपि प्रयोजनम्। एकाकिनैव मया तत्कार्यस्याऽनाया-
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सूर्य के आच्छन्न होने से अन्धकार पूर्ण दिन की तरह दिन में अन्धकारसा करने वाले ये सिद्ध लोग, युद्ध के लिए जाने को तैयार ही खड़े हैं, केवल आपकी आज्ञा मात्र की ही प्रतीक्षा में हैं। अतः आप केवल आज्ञा ही दे दीजिए, फिर तो दुर्दान्त, उच्छृङ्खल शत्रु मतङ्ग के मारे जाने से अवशिष्ट सम्पूर्ण राजा गण भय के मारे आपके पैरों में स्वयं ही आपड़ेगें और आपका स्वराज्य बात की बात में सिद्ध हो जायगा ॥ १५॥
अथवा— इस कार्य के लिए तो सेना की भी मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। केवल मैं इकल्ला हो - अतिशय वेग से निकाली हुई तलवार की चमचमाती
एकाकिनाऽपि हि मया रभसाऽवकृष्ट-
निस्त्रिंशदीधितिसटाभरभासुरेण।
आरान्निपत्य हरिणेव मतङ्गजेन्द्र-
माजौ मतङ्गहतकं हतमेव विद्धि॥१६॥
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सेन साधयितुं शक्यत्वादित्याशयः। तदेव विशदयति – एकाकिनापीति \। हि= यतः। एकाकिनाऽपि ( मया )=असहायेनापि ( मया )। सहायसम्पत्तौ तु किम्पुनरित्यपिना सूच्यते। रभसेन=वेगेन, (‘रभसो वेगहर्षयोः’ इति विश्वः।) अवकृष्टः=कोशादुद्धृतो यो निस्त्रिंशः=खड्ङ्गः ( ‘खड्गे तु निस्त्रिंशचन्द्रहासासिरिष्टयः’ इत्यमरः), सटा इव=सिंहकेसरा इव उज्ज्वलाः (‘सटा जटा-केसरयोः" इत्यमरः।), तासां भरेण=पुञ्जेन, समूहेन, भासुरः=समुज्ज्वलः, तेन-रभसावकृष्टनिस्त्रिंशदीधितिसटानरभासुरेण=वेगाकृष्टखड्गधारामयूखलटाभरसमुज्ज्वलेन। खड्गप्र-भाबद्धसिंहसटाभारेण सिंहवद्विद्योतनानेन। मया=मित्रावसुना।आजौ=सङ्ग्रामे। युद्धे। आरान्निपत्य=तत्समीपे सहसोत्प्लुत्य। (झपटकर)। (‘आराद्दूरसमीपयोः’ इत्यमरः)। हरिणा=सिंहेन। मतङ्गजेन्द्र निव=नागेन्द्रमिव। हस्तिराजनिव। ‘मतङ्गजो गजो नागः’ इत्यमरः। रभसावकृष्टनित्रिंशदीधितिसटाभरभासुरंण सिंहेनेव मया) मतङ्गहतकं=नीचं मतङ्गाख्यं रिपुम्। हतमेव=निहतमेव। उन्मूलितमेव। विनाशितमेव। विद्धि=जानीहि। यथा केसरालीकरालः केसरी सहसाऽऽरान्निपत्य एकाक्येव करीन्द्रं निहन्ति, तथैव खड्गप्रभानिकर-केसरालीविराजितोऽहं सिंह इव सहसोत्प्लुत्य युद्धे सद्यो मतङ्गं निहनिध्यामीत्याशयः। वसन्ततिलका वृत्तम्। ‘उक्ता वसन्ततिलका त-भ-जा ज-गौ गः’ इति तल्लक्षणम्॥ १६॥
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हुई कान्ति ही मानों सिंह के कन्धे के से बाल हैं, उनसे देदीप्यमान हो मैं झपट कर उस नीच मतङ्ग को युद्ध में ऐसे तत्काल मार डालूंगा, जैसे सिंह मस्त हाथी को मारता है । अतः शत्रु को मरा हुआ ही समझिए। आप तो केवल आज्ञा मात्र दे दीजिए॥ १६॥
नायकः— [ कर्णौ पिधाय आत्मगतम् ] अहह455 ! दारुणमभिहितम्। अथवा एवं तावत्। [ प्रकाशं, सस्मितम् ] मित्रावसो ! कियदेतत् ?।
बहुतरमतोऽपि बाहुशालिनि त्वयि सम्भाव्यते। ( किन्तु176 ) —
स्वशरीरमपि परार्थे यः खलु दद्यामयाचितः456 कृपया।
राज्यस्य कृते स कथं प्राणिवधक्रौर्य्यमनुमन्ये ? ॥ १७ ॥
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एवं शत्रुविनाशप्रतिपादकं मित्रावसोर्वचनं समाकर्ण्य परहितैकप्रवणो जीमूतवाहनः शूलविद्ध इव व्यथामनुभवन्, परपीडाप्रसङ्गस्य नितान्तमश्रव्यत्वेन कर्णौ पिधाय = हस्ताभ्यामवरुध्य, स्वगतमाह—अहहेति। निपातसमुदायोऽयं दुःसहत्वद्योतकः। हहहेति कचित्पाठः। दारुणं = रौद्रं। कठिनम्। निर्दयम्। ‘वच’ इति शेषः। अभिहितम् = अनेनोक्तम्। मम हि परनिग्रहवचनस्यैवासह्यत्वं, किं पुनस्तादृश व्यापारस्येति भावः। तदस्माद्व्यापारादमुं निवारयामीति विमृश्य तत्रापि पारुष्यमाशङ्क्य उपायान्तरं निश्चित्याह—अथवेति। एवं तावत् = इत्थममुं कथयिष्यामि। स्पष्टं निषेधमकृत्वा प्रशंसादिनाऽनुकूलतां नीत्वाऽस्माद्व्यापारात्तावन्निवर्त्तयामि। प्रकाशं=सर्वश्राव्यम्। सस्मितं=सेषद्वासम्। तदीयकोपोपशमनायैव सस्मितमुक्तिरियम्। कियदेतत् = महापराक्रमस्य तव क्षुद्रमतङ्गहतकोन्मूलनं सिंहस्य जम्बुकनाशनमिव नानुरूपं, किं त्वतितुच्छं, न किञ्चिदेतत्। अतोऽपि = उक्तादस्मादपि शौर्यात्। बहुतरम् = अतिप्रचुरम् \। वीर्यमिति शेषः। बाहुशालिनि = भुजबलशालिनि। महावीर्ये त्वयि सम्भाव्यते = सम्भावनाविषयी कर्त्तुं शक्यते। इतोऽप्यतिकठिनं कार्यं पराक्रमेण सम्पादयितुं त्वं समर्थ एवेत्याशयः। किन्तु =तथापि।
स्वशरीरमपीति। यः = योऽहं। स्वशरीरमपि = स्वकीयं वपुरपि। किं
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नायक— ( कान बन्द कर, मन ही मन ) अहह ! इसने बहुत ही क्रूर वाक्य कहे। यह तो मरने मारने को तुला हुआ है। अच्छा इससे यों बात करनी चाहिए। (प्रकट में ) हे मित्रावसो ! यह छोटा सा कार्य - मतङ्ग को जीतना— तो तुमारे लिए क्या चीज है, इससे भी बड़े व कठिन कार्य तुम अपने भुजा के बढ से सिद्ध कर सकते हो। परन्तु —
** अपि च—
क्लेशान् विहाय मम शत्रुबुद्धिरेव457 नान्यत्र। यदि त्वमस्मत्प्रियं458**
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पुना राज्यादिकम्। परार्थे = परोपकाराय। अयाचितः = अप्रार्थितोऽपि, स्वयमेव। कृपया = दययैव। दद्यां खलु = निश्चयेन दातुं शक्नुयाम्। वितरेयम्। सः = सोऽहं परहितैकजीवितः सन्नपि। राज्यस्य = स्वराज्यस्य हेतोः। प्राणिवधक्रौर्यप्राणिनां=जीवानां वध एव क्रौर्यं = क्रूरत्वं, निर्दयत्वं, निरपराधप्राणिहत्याप्रचुरं युद्धमिति यावत्। कथमनुमन्ये = कथमनुमतिं तत्र ददामि। स्वल्पस्य राज्यस्य कृते जीववधप्रचुरयुद्धाख्यनिर्दयकर्मणि त्वां नियोक्तुं नाऽहं शक्रोमीत्याशयः। आर्या जातिः ॥ १७ ॥
अपिच = किञ्च। क्लेशान् = अविद्या-ऽस्मिता-राग-द्वेषा-भिनिवेशाख्यान् पञ्च क्लेशान्। [तदुक्तं योगसूत्रकृता ‘अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः।" तत्र- अविद्या - अनित्ये शरीरादावात्मादिबुद्धिः। अस्मिता—अहङ्कारः। रागः— ‘अनुरागः। द्वेषः - अप्रीतिः।अभिनिवेशः—आग्रहः ]। विहाय = त्यक्त्वा। अन्यत्र संसारबन्धहेतुक्लेशातिरिक्ते मतङ्गादौ प्राणिमात्रे। शत्रुबुद्धिः = विपक्षभावना। द्वेष्यबुद्धिः। ईहसे = चेष्टसे। प्रवर्तसे। तत् = तर्हि। असौ अनुकम्प्यतां = स दयापात्रतां नेयः। तदुपरि दया क्रियताम्। राज्यस्य कृते = स्वल्पस्य विनाशिनो राज्यस्यापि लाभाय। क्लेशैर्दासीकृतः - क्लेशदासीकृतः = अविद्यातत्कार्येषु भ्रान्तो विपुलैः क्लेशैर्वशीकृतः। राज्यप्राप्तये स्वीकृताऽनेककष्टः। अतएव - तपस्वी = अनुकम्प्यो वराकः। (बेचारा )। ‘तपस्वी तापसे चाऽनुकम्प्ये त्रिष्वथ योषिति। मांसिकाकटु- रोहिण्योः’ इति मेदिनी। सामर्षं = सकोपम्। ‘कोपक्रोधाऽमर्षरोषप्रतिघा रुट्
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मैं तो परोकार के लिए विना मांगे भी अपना शरीर तक देने का भी संनद्ध रहता हूँ, तब इस थोड़े से राज्य के लिए किसी प्राणी के मारने की स्वीकृति मैं कैसे दे सकता हूँ ॥ १७ ॥
और भी— मेरी तो—अविद्या, अहङ्कार, राग, द्वेष, आग्रह, काम क्रोध आदि काय क्लेशों के सिवाय किसी में शत्रु बुद्धि ही नहीं है। मतङ्ग को मैं शत्रु समझता ही नहीं हूँ। यदि तुमको मेरी प्रसन्नता और प्रीति का कार्य करना है तो छोटे से
कर्त्तुमीहसे, तदनुकम्प्यतामसौ राज्यस्य कृते क्लेशदासीकृतस्तपस्वी।
** मित्रावसुः— \ सामर्षे ([सहासञ्च459 ) ] कथं460 नानुकम्पनीय ईदृशोऽस्माकमुपकारी, कृपणश्च !।**
** नायकः461 प्रत्यग्रकोपा’") — ( अपवार्य्य462— )**
हिंसाप्रभवो विजयस्तस्य फलं श्रीस्ततः सुखं क्षणिकम्।
तत्प्राप्तये विशुद्धं धर्मञ्चयशश्च को जह्यात्41 ॥ १८ ॥
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क्रुधौ स्त्रियौ’ इत्यमरः। सहासं च = शत्रावपि दयां कुर्विति वचनश्रवणात्सहासञ्च साभ्यसूयञ्च। ईदृशः = राज्यापहरणादिना। उपकारी = उपकारपरायणः। कृपणश्च = दीनश्च। अत्र विपरीतलक्षणया अपकारपरो, गर्वोन्नद्धश्च दण्ड्य एवेत्यथ गम्यः। ’ उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते सुजनता प्रथिता भवता चिरम्।" इत्यादी यथा।
अपवार्य = तमश्रावयन्। स्वगतम्। हिंसाप्रभवः = परपीडाविघातादिजन्यः। विजयः = युद्धे विजयः। श्रीः = राजलक्ष्मीः। क्षणिकं = स्वल्पकालविनाशि। अस्थिरम्। तत्प्राप्तये = तादृशक्षणिकसुखप्राप्तये। विशुद्धं = निष्पापम्। धर्मं = प्राणिहिंसावैमुख्यादिरूपं धर्मम् । यशः = कीत्तिञ्च। जह्यात् = त्यजेत् ॥ १८॥
स्वयमेव नायको विमृशति—अनिवार्यसंरम्भः = प्रबलकोपवेगः। अशक्य- प्रतिरोधक्रोधवेगः। प्रत्यग्रकोपाक्षिप्तचेताः। प्रत्यग्रेण = अभिनवोद्भूतेन, कोपेन = क्रोधेन, आक्षिप्तं = समाक्रान्तं चित्तं = मनो यस्यासौ तथाभूतः। निवर्त्तयितुं =
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राज्य के टुकड़े के लिए यों क्लेश उठाने वाले उस बेचारे मतङ्गदेव पर तुमदया करो । राज्य उसीके पास रहने दो।
मित्रावसु— ( क्रोध पूर्वक ताने के साथ ) जैसे इसने हमारा बड़ा भारी कोई उपकार ही किया हो, और बढ़ा बेचारा गरीब हो !। इस पर तो हमें दया करनी ही चाहिए !!।अर्थात् यह तो हमारा अपकार करने वाला शत्रु है, इस पर दया कैसी ?।
नायक—( मन ही मन - ) इस समय तो यह अनिवार्य संरम्भ-बड़े जोश में
[ स्वगतम् ] ( अनिवार्य्यसंरम्भः41) प्रत्यग्रकोपाक्षिप्तचेता463 न तावदयं शक्यते निवर्त्तयितुं। तदेवं तावत्। [प्रकाशं—] मित्रावसो ! उत्तिष्ठ, अभ्यन्तरमेव प्रविशावः। तत्रैव464 तावत्त्वां बोधयिष्यामि। सम्प्रति465 परिणतमहः। तथाहि—
निद्रामुद्राऽवबन्धव्यतिकरमनिशं पद्मकोशादपास्य466
न्नाशापूरैककर्मप्रवणनिजकरप्रीणिताऽशेषविश्वः।
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सहसा युद्धान्निवारयितुं। न शक्यते। ‘प्रत्यग्रोऽभिनवो नव्यो नवीनो नूतनो नवः’ इत्यमरः। तत् = तस्मात्। एवन्तावत् = इत्यन्तावदभिधाय सम्प्रति प्रसङ्गान्तरोपस्थापनेनामुं सान्त्वयामीत्यर्थः। प्रकाश= सर्वश्राव्यम्। अभ्यन्तरं = गृहाभ्यन्तरम्। तत्रैव = रहसि । सम्प्रति = इदानीम्। परिणतं = परिणामं प्राप्तम्। सायंसमयो जातः। सायं सन्ध्या सन्निहितेति यावत्। सन्ध्यासमयप्राप्तिमंत्र दर्शयन् स्वसङ्कल्पं सूर्यचर्याव्याजेन विशदयति— तथाहीति । तदेवं दृश्यते, पश्येत्यर्थः।
निद्रेति। पद्मकोशात्=पद्ममुकुलेभ्यः। कमलकुड्मलेभ्यः। जातावेकवचनं। ‘कोशोऽस्त्री कुड्मले खड्गपिधानेऽर्थौघदिव्ययोः’ इत्यमरः। निद्रामुद्राऽवबन्धव्यतिकरम्। निद्रायां= (पत्राणां) सङ्कोचावस्थायां, यो मुद्रायाः = कमलमुखमुद्रायाः, अवबन्धः = दृढसंश्लेषः। संकोचवशात्कमलपत्राणां परस्परं सुदृढो बन्धविशेषः, तस्य—व्यतिकरं = सम्पर्कं। सम्बन्धम्। अनिशं = प्रतिदिनम्। अपास्यन् = विकासेन दूरीकुर्वन्। कमलमुकुलानि प्रत्यहं विकासमापादयन्नित्यर्थः।
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है, क्रोध ( जोश ) भी इसका इस समय ताजा ही है, इस लिए इस समय इसको रोकना बड़ा कठिन है। अच्छा, यों करना चाहिए। (प्रकट में-) हे मित्रावसो ! उठो, चलो, भीतर चलें। वहीं तुमको शान्ति से समझा वेगें। इस समय तो दिन बीत रहा है। अर्थात् इस समय तो सन्ध्या हो गई है। देखोः- पद्म के कोशों
दृष्टः सिद्धैः प्रसक्तस्तुतिमुखरमुखैरस्तमप्येष गच्छ-
न्नेकः श्लाघ्यो विवस्वान् परहितकरणायैव यस्य प्रयासः ॥ १९॥
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[अन्योऽपि परोपकारधृतव्रतो वदान्यः पुमान्—पद्माद्याकारात्=सुदृढं गुप्तात्, पद्मनिधितुल्याञ्च्च, कोशात् = राजकीयभाण्डागारात् निद्रां = भाण्डागाराध्यक्ष- (स्वजाञ्ची )— भाण्डागारिकादीनां (रोकड़िया-मुनीम आदि) आलस्यं=दाने बिलम्बकारितां, मुद्रावबन्धव्यतिकरं = धनकोष्टादीनां राजमुद्राबन्ध— ( मोहर — चपड़ी आदि ) सम्पर्कम्-अनिशं दूरीकुर्वन्। सदा दानाय भाण्डागारस्य विवृतमुखत्वात्, सदा दानोद्यमाच्च ) ]। किञ्च — आशानां = सूर्यपक्षे दिशां, ( ‘दिशस्तु- ककुभः काष्टा आशाश्च हरितश्च ताः इत्यमरः। ) अन्यत्र—आशानां = मनोरथानाम्। पूरः = पूरणं। तच्च सूर्यपक्षे—स्वतेजसा पूरणं, वदान्यपक्षे च—आशापूरणम् मनोऽभिलषितार्थसम्पादनमेव। तदेव एकं= प्रधानं, कर्म=कर्त्तव्यं, प्रवणैः=प्रवृत्तैः, उन्मुखैः, निजकरैः = ( सूर्यपक्षे – स्वकिरणैः, वदान्यमपक्षे - तत्र प्रवणाभ्यां निजकराभ्यां = स्वहस्ताभ्यां। प्रीणितम् = ( सूर्यपक्षे - प्रकाशितं, ( वदान्यपक्षं— सन्तर्पितञ्च ) अशेषं = सकलं, विश्वं = जगत्, येनासौ तथाविधः। सूर्यो हि—स्वतेजसा दिङ्मण्डलं प्रकाशयन् स्वकिरणैर्जगत्प्रीणयति। वदन्योऽपि अर्थिमनोरथपूरणप्रवणाभ्यां स्वहस्ताभ्यां सकलमपि विश्वं सन्तर्पयतीति तयोः साम्यम्। किञ्च— प्रसक्ताभिः = उच्चरिताभिः स्तुतिभिः = स्तोत्रैः,
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( कलियों ) की निद्रा को बराबर दूर करने वाले, ( कमलों को सदा विकसित करने वाले ), आशाओं ( दिशाओं तथा इच्छाओं) को पूर्ण करने के काम में सदा लगे हुए, सब प्राणियों को अनुप्राणित करनेवाले इस भगवान् सूर्य नारायण को अस्त होते हुए को भी-स्तुतियों से जिनके मुख मुखरित ( शब्दायमान) हो रहे हैं ऐसे सिद्ध - विद्याधर आदि देवगणों ने भक्ति से देखा है। अतः भगवान् सूर्यनारायण ही एक प्रशंसनीय हैं, जिनका सभी प्रयास ( उदय - अस्त ) परहित के लिए ही होता है। अर्थात् - परोपकारपरायण सूर्य के अस्त होते हुए की भी सभी लोग स्तुति करते हैं, क्योंकि वे निःस्वार्थ परोपकार में लगे रहते हैं। इस प्रकार नायक ने अपना भावी कार्य-नागों के लिए शरीर दान —सूचित किया ॥ १८ ॥
[ इति निष्क्रान्ताः सर्वे ]
इति तृतीयोऽङ्कः।
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प्रशंसावाक्यैः, मुखराणि=शब्दायमानानि मुखानि = वदनानि येषान्तैः - प्रसक्तस्तुतिमुखरमुखैः =प्रोद्गच्छत्स्तुतिवचनपरिपूर्णमुखैः। सिद्धैः=सूर्यपक्षे—देवयोनिविशेषैः सिद्धविद्याधर-गन्धर्वादिभिः। दृष्टः समन्तादवलोकितः। वदान्यपक्षे—सिद्धैः = सिद्धमनोरथैरर्थिसार्थैः, प्रशंसामुखरितवदनैर्दृष्ट इत्यर्थः। एष विवस्वान्=एष भगवान् सूर्यः। वदान्यश्च। यस्य परहितकरणायैव = परोपकार करणायैव। प्रयासः = उद्योगः। उदयः, जीवनञ्च। अस्तीति शेषः। अस्तम् = अस्ताचलं। विनाशं च। सम्पत्तिविपर्ययञ्च। गच्छन्नपि = व्रजन्नपि। का कथा तत्समुदयस्य, विनाशोऽपि यस्य स्पृहणीय इत्याशयः। एकः = एक एवाऽद्वितीयः। केवलः। श्लाघ्यः श्लाघनीयः। परोपकारमात्रप्रयासस्य=जगदानन्दयितुर्भगवतो भास्करस्य, वदान्याग्रेसरस्य परोपकारमात्रपरायणस्य जनस्य च जीवनं श्लाघ्यं, नान्यस्येति स्वकर्त्तृकं शङ्खचूडप्राणपरित्राणं करिष्यमाणं सूचितम्। समासोक्तिरलङ्कारः। खन्धरा वृत्तम् ॥ १९ ॥
इत्यभिनवराजलक्ष्म्यां तृतीयोऽङ्कः।
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[ सब जाते हैं ]।
तृतीय अङ्क समाप्त।
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अथ चतुर्थोऽङ्कः।
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[ ततः प्रविशति कञ्चुकी गृहीतरक्तवस्त्रयुगलः, प्रतीहारश्च ]।
कञ्चुकी—
अन्तःपुराणां विहितव्यवस्थः, पदे पदे सं467स्खलितानि रक्षन्468।
जरातुरः सम्प्रति दण्डनीत्या सर्वां नृपस्यानुकरोमि वृत्तिम् ॥१॥
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॥ अथ चतुर्थोऽङ्कः ॥
[अथात्र विष्कम्भकः]।
ततः = तदनन्तरम्। कञ्चुकी = काञ्चुकीयः। ‘मुसाहब’।
‘अन्तःपुरचरो, वृद्धो विप्रो गुणगणान्वितः।
सर्वकार्यार्थकुशलः कञ्चुकीत्यभिधीयते ॥’
—इति तल्लक्षणम्। गृहीतवस्त्रयुगलः=मलयवतीजननीप्रेषितमाङ्गलिककौसुम्भ-रक्तवस्त्रयुगलहस्तः। प्रतीहारश्च=द्वारपालश्च। प्रविशतीतिशेषः। वस्त्रयुगलञ्च विवाहमङ्गलाचारप्राप्तं जीमूतवाहनधारणाय तद्वधूमात्रा प्रेषितमिति ध्येयम्।
अन्तःपुरचरोचितां स्वजरावस्थां प्रकटयति कञ्चुकी— अन्तःपुराणामिति। दण्डनीत्या = दण्डधारणात्। अहं नृपस्य वृत्तिमनुकरोमि = यथा नृपो वर्त्तते लोके, तथैवाऽहमपि वर्त्ते इति राजतुल्यता ममेति कञ्चुकिभावः। तत्र स्वस्य नृपवृत्त्यनुका-
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अथ चतुर्थ अङ्कः।
[ लाल धोती- दुपट्टा हाथ में लिए कञ्चुकी ( रनिवास का प्रधान ), और द्वारपाल का प्रवेश ]।
कञ्चुकी— मैं अन्तःपुरकी सदा व्यवस्था किया करता हूँ, (राजा भी- अपनी दण्डनीति से पुर नगर आदि की रक्षा करता है)। मैं जगह २ पग २ पर त्रुटियों
प्रतीहारः— आर्य वसुभद्र ! क्व नु खलु भवान् प्रस्थितः ?।
कञ्चुकी— आदिष्टोऽस्मि देव्या मित्रावसुजनन्या, - ’ कञ्चुकिन् !
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रितामेव तावद्विशदयति—अन्तः पुराणामिति। अन्तःपुराणाम् = राजस्त्र्यगाराणाम्। शुद्धान्तानाम्। विहिता व्यवस्था येनाऽसौ विहितव्यवस्थः=कृतव्यवस्थः। अन्तःपुरव्यवस्थारक्षार्थं नियुक्तः सन् कृतराजस्त्रीगृहव्यवस्थः। अन्तःपुररक्षार्थं नियुक्तिश्चाऽस्य दण्डग्रहणात्=वृद्धावस्थाप्राप्तेरेवेति बोध्यम्। किञ्च पदे पदे=प्रतिपदं। स्खलितानि=स्वपादस्खलनानि, रक्षन् = दण्डेन निवारयन्। वृद्धो हि पादस्खलनरक्षार्थं करोति। ‘राजान्तःपुराणां स्खलितानि = नियमव्यतिक्रमं वा रक्षन्नित्यप्यर्थो बोध्यः। जरातुरः = वार्द्धक्यविकलः। अहं = कञ्चुकी। सम्प्रति = इदानीम्। अस्मिन्वयसि। दण्डनीत्या = दण्डग्रहणेन। नृपस्य = राज्ञः, वृत्तिं = व्यवहारम्। अनुकरोमि = अनुहरामि।
राजापि—दण्डनीत्या = दण्डनीतिसमाश्रयेण। चतुर्थोपायाश्रयणेन। पुराणां = नगराणाम्।अन्तः = मध्ये। पुरनगरग्रामादिषु। विहितव्यवस्थः = दुष्टदण्डशिष्टरक्षादिना कृतव्यवस्थो भवति। पदे पदे = तत्तत्स्थानेषु च। अधिकारपदेषु—अधिकारिलोकानां, स्खलितानि= धर्मादिमर्यादाव्यतिक्रमांश्च पदे पदे दण्डेनैव रक्षति। अत उभयोः साम्यमिति बोध्यम्। ‘पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्षमाऽङ्घ्रिवस्तुषु’ इत्यमरः।
भावार्थ:— यथा राजा दण्डेनैव स्वप्रजानां रक्षां करोति, पुरनगर ग्रामादिवत्तितत्तदधिकारिपुरुषाणां च मर्यादाव्यतिक्रमांश्च दण्डेनैव वारयति, तथैवाऽहं वार्धक्यादात्तदण्डोऽन्तःपुररक्षार्थं प्रचरन् राजसाम्यं वहामीति कञ्चुक्याशयः। इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रालक्षणलक्षितत्वादुपजातिर्वृत्तम् ॥१ ॥
वसुभद्रति—कञ्चुकिनामधेयम् प्रस्थितः=प्रचलितः। आदिष्टः=आज्ञप्तः।
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का समाधान किया करता हूँ। ( राजा भी - पदाधिकारियों की त्रुटि व दोषों को ठीक करता है )। अब मैंने जरावस्था के कारण हाथ में दण्ड ( छड़ी ) ले लिया है। ( राजा भी - दण्डनीति से चलता है )। अतः मैं भी राजां की तरह ही व्यवहार करता हूँ, चलता हूँ ॥ १ ॥
प्रतीहार—आर्य वसुभद्र ! आप कहाँ पधार रहे हैं ? ।
कञ्चुकी – महारानी मित्रावसु की माता जी ने मुझे आज्ञा दी है, कि -’ है
दशरात्रं त्वया यावन्मलवयत्या, जामातुश्च रक्तवासांसि नेतव्यानि (इति176 )। दुहिता च श्वशुरकुले वर्त्तते। जीमूतवाहनोऽपि युवराजेन सह समुद्रवेलां द्रष्टुमद्य गत’ इति श्रूयते। तन्न जाने, किं राजपुत्र्याः सकाशं गच्छामि, अथवा जामातुरिति ? \।
प्रतीहारः— आर्य ! वरं राजपुत्र्याः सकाशं गन्तव्यम्। तत्र हि कदाचिदस्यां वेलायां जामाता स्वयमेवागतो भविष्यति।
कञ्चुकी –- साधूक्तम्। अथ भवान् पुनः क्व प्रस्थितः ?।
प्रतीहारः — आदिष्टोऽस्मि महाराजविश्वावसुना, यथा— ‘भो
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देव्या=राजमहिष्या। दशरात्रं यावत्=दशरात्रिपर्यन्तम्। दशानां रात्रीणां समाहारो दशरात्रम्। दशदिनानि यावदिति तु तत्त्वम्। मलयवत्याः=वध्वाः कृते। जामातुः=जीमूतवाहनस्य चोपयोगार्थम् ! विवाहितौ वधूवरौ मासं वा, दशरात्रं वा यावन्माङ्गलिकानि कौसुम्भादिरनानि वस्त्राणि धारयन्तीति देशाचारः। दुहिता=मलयवती। श्वशुरकुले=पतिगृहे।युवराजेन=मित्रावसुना सह। समुद्रवेलां=समुद्रजलवृद्धिम्। ‘अब्ध्यम्बुविकृतौ वेला कालमर्यादयोरपि’ इत्यमरः। (वेला=
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कञ्चुकिन्, आप दस दिन तक मलयवती के लिए, तथा जामाता जीमूतवाहन के लिए माङ्गलिक लाल वस्त्र ( पहिरने-ओढने के लिए ) पहुँचाया करिए’। सो मलयवती तो अपनी ससुरार में है, जामाता भी-युवराज मित्रावसु के साथ समुद्र के ज्वार-भाटे का दृश्य देखने गए हैं- ऐसा सुना है। अब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है, कि— मैं पहिले मलयवतीके पास जाऊं ?, या जामाता के पास जाऊं ?। दोनों दो जगह हैं।
प्रतीहार—आर्य ! आपका मलयवती के पास जाना ही ठीक होगा। क्योंकि वहाँ जामाता भी कदाचित् पहुँच ही गए होंगे। क्योंकि उन्हें गए बहुत देर हो चुकी है।
कञ्चुकी – तुमने ठीक कहा। वहीं जाऊंगा। अच्छा तुम कहाँ जा रहे हो ?।
प्रतीहार — मुझे महाराज विश्वावसु ने आज्ञा दी है, कि हे सुनन्द, तुम जा
सुनन्द ! गच्छ, मित्रावसुं ब्रूहि, अस्मिन् दीपप्रतिपदुत्सवे मलयवत्या,जामातुश्च यत्किञ्चित् प्रदीयते, तदुत्सवानुरूपं किञ्चिदागत्य चिन्त्यताम्’ इति। तद्गच्छतु राजपुत्र्याः सकाशमार्यः। अहमपि मित्रावसोराह्नानाय गच्छामि।
( निष्क्रान्तौ )
इति विष्कम्भकः।
[ ततः प्रविशति जीमूतवाहनो, मित्रावसुश्च ]।
नायकः—
**शय्या शाद्वलमासनं शुचि शिला सद्म द्रुमाणामधः,
शीतं निर्झरवारि पानप्रशनं कन्दाः सहाया मृगाः। **
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ज्वारभाट) जानातुः। जामातुः सकाशं गच्छामि— इति न जाने इत्यन्वयः। वरं=युक्तम्। वेलायां=समये। दीपप्रतिपदुत्सवे=दीपमालिका महोत्सवान्तर्वर्त्तिन्यां प्रतिपदि। भ्रातृद्वितीयायामिति तु तत्त्वम्। भातृद्वितीयायां भ्रातरो भगिनीभ्यो यथाशक्ति धनादिकं वितरन्तीति लोकाचारः।
विष्कम्भक इति। भूतभाविकार्यसूचनाय मध्यमादिपात्राणामालापो विष्कम्भकः।
‘वृत्तवर्त्तिष्यमाणानां कथांऽशानां निदर्शकः।
मध्येन, मध्यमाभ्यां वा पात्राभ्यां सम्प्रयोजितः। शुद्धः स्यात्….’।
—इति तल्लक्षणम्। मध्यमपात्रप्रयोजितत्वाच्छुद्ध विष्कम्भकोऽयम्। वनवासं स्तुवन्स्वस्य परोपकारव्यसनितां स्फोरयन्नाह—शय्येति। शादो घासोऽस्त्यस्मिंस्तत्-शाद्वलं=हरितघासपूर्णं स्थानम्। हरिततृणप्रचुरा भूमिः। ‘शादो-
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कर मित्रावसु को कहो - कि, - इस दीपावली क उत्सव पर ( भाई-दूज का ) मलयवती और जामाता को जो उत्सव के अनुरूप उपहार देने चाहिएं, उनके विषय में यहाँ आकर परामर्श करलो। सो-आप तो राजपुत्री के पास जाइए, मैं भी मित्रावसु जी को बुलाने जा रहा हूँ।
[ दोनों जाते हैं ]।
[ जीमूतवाहन ( नायक ) और मित्रावसु का प्रवेश ]।
इस वन में—सुन्दर व कोमल घासवाली भूमि ही शय्या है, साफ और
इत्यप्रार्थितलभ्यसर्वविभवे दोषोऽयमेको वने,
दुष्प्रापार्थिनि यत्परार्थघटनावन्ध्यैर्वृथा स्थीयते ॥२॥
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जम्बालघासयोः’ इत्यमरः।’ शाद्वलः शादहरिते’ इत्यमरः। शय्या=तल्पम्। बने लभ्यते। शुचिशिला=शुद्धं शिलातलम्। आसनम्=अवस्थानन्। उपवेशनाय वने सुलभम्। द्रुमाणां=वृक्षाणाम्। अधः=अधस्तलमेव। सद्म=गृहम्। लभ्यते इति शेषः। शीतं=स्वभावशीतलं। निर्झरवारि=गिरिनिर्झरोद्भूतं जलम्। पानं=पानीयं। वने लभ्यते। कन्दाः=कन्दमूलफलादीनि अनायाससुलभानि। अशनं भोजनम्। मृगाः=हरिणादयो वन्यपशवः। सहायाः=सहचराः। मित्राणि च। वने लभ्यन्ते। इति=इत्येवम्। इत्थम्। अप्रार्थिता एव। अप्रार्थितेन=प्रार्थनां विनेव लभ्याः सर्वे विभवा यस्मिंस्तस्मिन्-अप्रार्थितलभ्यसर्वविभवे=प्रार्थनां विनैव सुलभसर्वजीवनोपयोगिपदार्थसार्थे। वने=कानने। अयमेको दोषः=अयमेव केवलो दोषो विद्यते। यत्—दुष्प्रापार्थिनि=दुर्लभार्थिलोके। याचकरहिते वने। परार्धस्य घटनायां वन्ध्याः—परार्धघटनावन्ध्यैः, तै— परार्थघटनावन्ध्यैः=परोपकारशून्यैरस्माभिः। स्थीयते=आस्यते। अयमाशयः—अस्मिन् मलयगिरिकानने सर्वेषां जीवनोपयोगिनां पदार्थानां सर्वथा सौलभ्यमिति यद्यपि प्रसीदति मे वनेऽत्र वसतश्चेतः, परमत्र कस्याप्यर्थिनोऽभावात्परोपकारदुर्ललितं मे मनो नाऽत्र सन्तुष्यतीति स्वस्य परोपकारव्यसनित्वमाविष्कृतम्, भाविनागोपकारवृत्तान्तश्चावेदितः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ २॥
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शुद्ध मणिशिलाएं आसन का काम देती हैं, वृक्षों की कुञ्ज हो गृहस्वरूप हैं, झरनों का ठण्डा व मीठा जल पीने को मिलता है, कन्द मूल फल खाने को सदा सुलभ हैं, मृग पशु पक्षी सहायक और मित्र के तुल्य सदा वर्तमान हैं। इस प्रकार वन में विना मांगे सब प्रकार के आनन्द की, वैभव की वस्तुएं सदा सन्नद्ध हैं। परन्तु वन में तो एक ही दोष है कि - यहाँ अर्थी ( भिक्षुक ) कोई नहीं है, अतः परोपकार करने के लिए यहाँ अवसर हो प्राप्त नहीं होता है। इसका मुझे बड़ा ही खेद है ॥ २॥
मित्रावसुः— [ ऊर्ध्वमवलोक्य—] कुमार ! त्वर्य्यतां त्वर्य्यतां, समयोऽयं चलितुमम्बुराशेः।
नायकः— [ आकर्ण्य— ] सम्यगुपलक्षितम्—
उन्मज्जज्जलकुञ्जरेन्द्र469रभसाऽऽस्फालानुबन्धोद्धतः,
सर्वाः पर्वतकन्दरोदरभुवः कुर्वन् प्रतिध्वानिनीः470।
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उदूर्ध्वमवलोक्य=नभोमण्डलं. सूर्यं वाऽवलोक्य। समयपरिज्ञानायोद्ध्या- वलोकनम्। ‘अग्रे समुद्रं दृष्ट्वेत्यर्थो’ वा। अम्बुराशेः=समुद्रस्य।चलितुं समयः=वृद्धेः समयः। समुद्रो हि नियतंसमये प्रवर्द्धते इति तद्विदो जानन्ति। उपलक्षितं=ज्ञातम्। तदेव द्रव्यति-उन्मज्जदिति। उन्मज्जतां=जले निमज्जताम्। पाठान्तरे- उद्गर्जनाम्=जलताडनवशात् नवेन वा उच्चैर्नदतां जलकुञ्जरेन्द्राणां=जलहस्तीन्द्राणां, रभसेन वेगेन, ये आस्फलाः =शुण्डादण्डैः समुद्रतरङ्गाणां ताडनानि तेषाम्। अनुबन्धन=सम्पर्केण, उद्धृतः=प्रवृद्धः। (ध्वनिविशेषणमेतत्॥ उद्गर्जज्जलकुञ्जरेन्द्ररभसाऽऽ-स्फालाऽनुबन्धोद्धतः=उन्नदज्जलहस्तिमुख्य वेगावातानुबन्धी, अतएव उद्धृतः। सागरजले जलहस्तिनो भवन्ति। ते च बेला जलावातत्रस्तास्तत्र निमज्जन्तः स्वशुण्डाभिर्जलं ताडयन्तीति ध्येयम्। किञ्च—सर्वाः पर्वतकन्दराणामुदरभुवः—सकलाः पर्वतकन्दरोदरभुवः=गिरिकन्दरदरीः। प्रतिध्वानिनीः कुर्वन्=प्रतिध्वनिभृताऽन्तराः सम्पादयन्। मुखरितान्तराः कुर्वन्। द्वित्रकन्दरप्रतिध्वनिस्तु सिंहादिगर्जितादपि सम्भवतीति सर्वपदोपादनम्। तच्च वेलागर्जनेनैव सम्भवतीति ध्येयम्। श्रुतिपथम् उन्मथति तच्छीलः— श्रुतिपथोन्माथी कर्णमागत्पीडकः। बधिरितकर्णयुगलः। यथा=येन प्रकारेण। अयं ध्वनिः =यतोऽयमीदृशो ध्वनिविशेषः। उच्चरति=उद्गच्छति। तथा=तेन प्रकारेण। तेनैव हेतुना। जानेऽहमिति शेषः। किन्तदित्याह—प्रायइति। प्रायः=कदाचित्।
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मित्रावसु —( ऊपर की ओर या आगे की ओर देखकर—) कुमार ! जल्दी करिए, जल्दी करिए। समुद्र के बढ़ने का अब समय हो गया है।
नायक— ( सुनकर— ) आप ठीक ही कहते हैं।
उच्चैरुच्चरति ध्वनिः श्रुतिपथोन्माथी यथाऽयं तथा
प्रायः प्रेङ्खदसङ्ख्यशङ्खवलया471 वेलेयमागच्छति ॥ ३ ॥
मित्रावसुः — नन्वियमागतैव। पश्य (पश्य41 ) —
कवलितलवङ्गपल्लवकरिमकरोद्गारसुरभिणा पयसा।
एषा समुद्रवेला रत्नद्युतिरञ्जिता भाति ॥ ४ ॥
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नूनम्। प्रेङ्खन्तः=उल्लसन्तः, असङ्ख्यानां शङ्खानां वलयाः=समूहाः कटका वा यस्यां सा– प्रेङ्खदसङ्ख्यशङ्खवलया=भ्रमदगणितकम्बुमण्डला। अत्र वलयपदोपादानाद्वेलायाः कामिनीत्वारोपः सूचितः। ‘आवापकः पारिहार्यः कटको वलयोऽस्त्रियाम्’ इत्यमरः। इयं वेला=अयं जलपूरः। प्रवृद्धो जलराशिः। समागच्छति=त्वरिततरमायाति। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥ ३ ॥
कवलितेति। कवलिताः=भुक्ताः, चर्विताश्च, लवङ्गानां=देवकुसुमादिसुगन्धिवृक्षाणां, पल्लवाः=किसलयानि, कोमलपत्राणि यैस्ते कवलितलवङ्गपल्लवाः, तेषां करिणां=जलहस्तिनाम्, मकराणां=यादोविशेषाणां ग्राहाणां च, य उद्गारःः=उद्गारवायुः। तेन सुरभिणा=सुगन्धिना। पयसा=जलेन। उपलक्षणे इयंतृतीया, ‘जटाभिस्तापस’ इतिवत्। एषा=पुरतो दृश्यमाना, रत्नानां
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समुद्र बढ़ी २ लहरों में डूबते हुए अतएव गर्जते हुए जलहस्तियों के प्रबल शुण्डादण्डों के आघातों से प्रचण्ड, संपूर्ण पर्वत की कन्दराओं को गूंजाता हुआ, कान के पदों को फाडता हुआ यह घोर शब्द जिस प्रकार उठ रहा है, इससे ज्ञात होता है कि—असङ्ख्य शङ्खों की राशि को उछालतो हुई समुद्र की प्रचण्ड वेला ( जल की बाढ़ ) चली आ रही है। यहाँ वेला को कामिनी बनाया गया है। कामिनी भी—अपने हाथों की मांगलिक शङ्ख की चूडियों की झनकार करती हुई आती है। समुद्र की वेला भी— अनन्त शङ्खों की राशि को उछा लती हुई आ रही है ॥ ३ ॥
मित्रावसु— देखिए, यह वेला ( बाढ़ ) आ ही गई। देखिए— यह समुद्र की वेला ( बाढ़ ) — लवङ्ग के कोमल २ पत्तों को खाने वाले – जलहस्ती,
तदेहि अस्माज्जलप्रसरणमार्गादपक्रम्याऽनेनैव गिरिसानुसमीपमार्गेण परिक्रमावः।
** नायकः—मित्रावसो ! पश्य पश्य शरत्समयपाण्डुभिः पयोदपटलैः प्रावृताः प्रालेयाचलशिखरश्रियमुद्वहन्त्येते मलयसानवः।**
** मित्रावसुः— नैवामी मलयसानवः, नागानामस्थिसङ्घाताः खल्वमी।**
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द्युतिभिः रञ्जिता रत्नद्युतिरञ्जिता=मणिगणकान्तिच्छुरिता। समुद्रवेला=सामुद्रो जलपूरः। भाति=शोभते। आर्या ॥४॥
जलप्रसरणमार्गात्=बेलाजलप्रसारमार्गात् अपक्रम्य=निर्गत्य। दूरीभूय। गिरिसानुसमीपमार्गेण=मलयपर्वतशृङ्गसमीपमार्गेण। ‘कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गं स्नुःप्रस्थः सानुरस्त्रियाम्’ इत्यमरः। पर्वतशृङ्गाधिरोहणमार्गेणेति यावत्। परिक्रमावः= व्यपगच्छावः। अपसर्पावः।
शरत्समयपाण्डुभिः=शरदृतुसमागमधवलैः। पयोदपटलैः=मेघमण्डलैः। प्रावृताः=परिवृताः। प्रालेयाचलशिखरश्रियं=हिमगिरिशृङ्गशोभाम्। मलयसानवः=मलयाचलशृङ्गाणि। ‘तुषारस्तुहिनं हिमम्। प्रालेयं मिहिका चाऽथ’ इत्यमरः। उद्वहन्ति=धारयन्ति। दधति। श्वेतपयोदावृतत्वाद्धवलहिमपरिवृत-हिमालयशिखरश्रियं धारयन्तीति भावः।
अमी=श्वेतमेघमण्डलपरिवृताः पुरतो दृश्यमानाः। खलु=निश्चयेन। सोद्वेगं= सखेदम्। कष्टं=हा धिक्। नितरामश्राव्यं श्रुत्वा कष्टमिति पदं प्रयुज्यते। किं निमित्तं=केन कारणेन। सङ्घातमृत्यवः=समूहमरणाः। सामूहिकमृत्युवशीभूताः।
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ग्राह, मगरमच्छ आदि की श्वास से सुगन्धित हुए जल के कारण, तथा रत्नों की राशि से देदीप्यमान होने से कैसी सुन्दर व सुहावनी लग रही है ॥ ४ ॥
इस लिए आइए, इस जल के (ज्वार भाटा ) फैलने के मैदान से हट कर इस पर्वत की चोटी के रास्ते पर चलें।
नायक—मित्रावसो ! देखो, देखो, शरदृतु की सफेद मेघ मण्डली से ढके हुए ये मलयाचल के शृङ्ग ( चोटियाँ ) हिमालय की वर्फीली चोटियों की तरह शोभित हो रहे हैं।
मित्रावसु—ये मलय की चोटियाँ नहीं हैं, ये तो सर्पों की हड्डियों का ढेर हैं।
** नायकः— [ सोद्वेगं—] कष्टम् ! किं निमित्तममी सङ्घातमृत्यवो जाताः ?।**
** मित्रावसुः—कुमार ! नैवामी सङ्घातमृत्यवः। श्रूयतां यथैतत्। पुरा किल स्वपक्षपवनाऽपास्तसमस्तसागरजलस्तरसा472 रसातलादुदूधृत्य भुजङ्गमाननुदिनमाहारयति473 स्म वैनतेयः।**
** नायकः— [ सोद्वेगं - ] कष्टम् ! अतिदुष्करं करोति। ततस्ततः ?।**
** मित्रावसुः—ततः सकलनागविनाशाऽऽशङ्किना वासुकिना गरुत्मानभिहितः।**
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कथमन्यथाऽयमस्थिराशिः सम्भवेत्। श्रूयतां यथैतत्=येन प्रकारेणैतद्द्वृत्त तं प्रकारं शृणु। पुरा किलेत्यैतिह्ये। स्वपक्षयोः पवनेन अपास्तं समस्तस्य सागरस्य जलं येनासौ—स्वपक्षपवनाऽपास्तसमस्तसागरजलः=स्वपक्षवातावधूतसागरजलः तरसा=वेगेन। ‘रहस्तरसी तु रयः स्यदः’ इत्यमरः। रसातलात्=पातालात्। भुजङ्गमान्=नागान्। सर्पान्। अनुदिनं प्रतिदिनम्। विनताया अपत्यं पुमान्—वैनतेयः=गरुडः। ‘गरुत्मान् गरुडस्तार्क्ष्यो वैनतेयः खगेश्वरः। नागान्तको विष्णुरथः सुपर्णः पन्नगाशनः’ इत्यमरः। आहारयति=भुङ्क्ते। आहारं करोति।
अतिदुष्करम्=अतिक्रूरं कर्म। ततस्ततः=अग्रे किं जातं तत्कथय। वासु-
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नायक— ( उद्वेग पूर्वक—) यह तो बड़े दुःख की बात है। इन सर्पों की इस तरह एक साथ मृत्यु कैसे हुई ? \।
मित्रावसु — कुँवरजी ! ये एक साथ नहीं मरे हैं। सुनिए—पुराने समय की बात है, कि अपनी प्रचण्ड से यह बात यों है, जरा पंखों को प्रचण्ड पवन समुद्र के सम्पूर्ण जल को छितरा कर ( हटा कर ) गरुड बलात् पाताल में घुसकर नागों को पकड़ २ कर खाया करता था।
नायक—( घबड़ा कर — ) हैं ! यह तो गरुड़ बड़ा ही अन्याय और क्रूर कर्म करता था। हाँ, फिर आगे क्या हुआ ?।
मित्रावसु—तब सब नागों के विनाश की शङ्का से भयभीत हो नागराज वासुकि ने गरुड़ से कहा कि—।
** नायकः— [ सादरं–] किं, ‘मां प्रथमं भक्षये’ति ? \।**
** मित्रावसुः— न हि, न हि।**
** नायकः— किमन्यत् ?।**
** मित्रावसुः— इदमुक्तं,–‘त्वदभिसम्पातसन्त्रासात्सस्रशः स्रवन्ति भुजङ्गमाङ्गनानां गर्भाः, शिशवश्च पञ्चत्वमुपयान्ति। एवञ्च सन्ततिविच्छेदादस्माकं तवैव स्वार्थहानिर्भवेत्। यदर्थमभिपतति भवान्नागलोकं तमिह नागमेकैकमनुदिनं प्रेषयामि।**
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किना=नागराजेन। गरुत्मान्=गरुडः। अभिहितः=उक्तः। किमिति प्रश्ने। मां=वासुकिमेव नागराजं। प्रथमम्=नागभक्षणात्पूर्वम्। इति=इत्थं वासुकिना गरुडोऽभिहितः किमिति प्रश्नः। राज्ञः प्रजारक्षणस्य, स्वप्राणोत्सर्गस्य वा समुचितत्वादीदृशोराम्बूहः। किमन्यत्=यदीत्थं नोक्तं ततोऽन्यत्किमुक्तम् ?। अन्यस्य वक्तव्यस्याऽसम्भवात्प्रश्नः। त्वदभिसम्पातत्रासात् =त्वत्सम्पातभयात्। सहस्रशः=अनेकशः। भुजङ्गमाङ्गनानां=पन्नगवधूनाम्। शिशवः=बालाः। पञ्चत्वं=मृत्युम् उपयान्ति=गच्छन्ति। अस्माकं सन्ततिविच्छेदात्=अस्माकं नागानां सन्तानत्योच्छेदात्। स्वार्थहानिः=भयविनाशात्प्रयोजनहानिः। यदर्थम्=आहारार्थम्। नागार्थम्। तं नागन्=आहारार्थं नागम्। प्रेषयामि=स्वयमेव बहिः प्रेषयिष्यामि। अतो भवता नागलोके न प्रवेष्टव्यमित्याशयः। ‘कष्ट’ मिति
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नायक —(आदर पूर्वक—) वासुकि ने क्या कहा कि—’ इन नागों का छोड़ कर मुझे खाओ ?।
मित्रावसु—नहीं, ऐसा नहीं कहा।
नायक – तो फिर क्या कहा ?। अर्थात् यहीं तो उन्हें कहना चाहिए था।
मित्रावसु — उन्होंने कहा, कि - हे गरुड़ ! यहाँ आकर तुमारे नागों पर टूट ’ पड़ने की ध्वनि को सुनकर भय से हजारों नाग स्त्रियों के गर्भ ही गिर जाते हैं, हजारों बच्चे भी मर जात हैं। इस प्रकार नागवंश के नाश हो जाने से हमारी तथा आप के स्वार्थ ( भोजन ) की भी हानि है। अतः जिस उद्देश्य से (नागों को भक्षण करने के लिए) आप आते हैं, उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैं ही
** नायकः — कष्टमेवं रक्षिता नागराजेन पन्नगाः ?।**
जिह्वासहस्राद्वतयस्य मध्ये नैकाऽपि सा तस्य किमस्ति जिह्वा।
एकाहिरक्षार्थमहिद्विषेऽद्य दत्तो मयात्मेति यया ब्रवीति ? ॥ ५॥
** मित्रावसुः — प्रतिपन्नं तत् पक्षिराजेन।**
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खेदे। एवम्। अनेन निकृष्टेनोपायेन। नागराजेन=नागलोकाधिपतिना वासुकिना। पन्नगाः=नागाः। ननु कथमयमुपायो निकृष्टः, कश्चात्रान्य उत्तमोपायः सम्भवतीत्याशङ्क्यस्वयमेवाभिधत्ते नायकः श्रेष्ठोपायगर्भं नागराजाधिक्षेपपरं वाक्यं—जिह्वेति। जिह्वासहस्रद्वितयस्य मध्ये एकाऽपि सा=तादृशी=परोपकारप्रवणा, तस्य=नागराजस्य, जिह्वा नास्ति किं ? यया=एकयापि जिह्वया, ‘अहिरक्षार्थं= नागरक्षार्थम्, अहिद्विषे=पन्नगाशनाय गरुडाय, अद्य=इदानीम्, मया=वासुकिना आत्मा=स्वात्मा, दत्तः=प्रतिपादितः= दीयते इति =इत्थं, ब्रवीति=गरुडं प्रति ब्रूते। भावार्थः—नागकुलरक्षार्थमयमात्मा मया गरुडायोपह्रियते इति वासुकिना गरुडाय कुतो न अभिहितम्। वासुकिर्हि सहस्रफणामण्डितः सर्पाणां मुखे च जिह्वाद्वयं भवति, तदेवं वासुकेर्जिह्वानां सहस्रद्वितयमस्ति, जिह्वास्वेकाऽपि जिह्वा किं परोपकारललितं वाक्यमभिधातुं न शक्तेत्यहो ! वासुकेर्नागराजस्य क्रूराशयता। वस्तुतो नागराजेनाऽऽस्वात्मैव बलितया दातुमुचित आसीदिति परोपकारव्यसनिनो नायकस्याऽऽशयः। इन्द्रवज्रा वृत्तम् ॥५॥
प्रतिपन्नं=प्रत्यहमेकैकनागप्रेषणपणबन्धघटितं वासुकिवचनं स्वीकृतम्।
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प्रतिदिन एक नाग को तुमारे भोजन के लिए भेज दिया करूंगा। तुम स्वयं नागलोक ( पाताल ) में आज से मत आया करो।
नायक— बडे दुःख की बात है कि वासुकि ने इस प्रकार से नागों की रक्षा की। उनको तो चाहिए था कि अपना ही शरीर नागों की रक्षा के लिए दे देते।
क्या सहस्रफणोंसे मण्डित वासुकि की दो हजार जीभों में से एक भी जीभ ऐसी नहीं है, जिससे वह यह कह देता कि-नागों की रक्षा के लिए मैं गरुड़ को अपना शरीर दे रहा हूँ ! । ( सपों की जीभ बीच से कटी रहने के कारण उनको दो जीभ होती है) अतः हजार फणवाले वासुकि को दो हजार जीभ हुई ॥ ५ ॥
मित्रावसु—तब इस बात को ( भोजन के लिए एक सर्प रोज भेज देने पर
इत्येष भोगिपतिना विहितव्यवस्थो
यान् भक्षयत्यहिपतीन् पतगाधिराजः।
यास्यन्ति, यान्ति च, गताश्च दिनैविर्वृद्धिं,
तेषाममी तुहिनशैलरुचोऽस्थिकूटाः॥ ६॥
** नायकः**—आश्चर्यम्।
सर्वाऽशुचिनिधानस्य कृतघ्नस्य विनाशिनः।
शरीरकस्यापि कृते नूढाः पापानि कुर्वते !॥ ७॥
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पक्षिराजेन=गरुडेन। प्रसङ्गमुपसंहरति—इत्येष इति। इति=इत्यन्। भोगिपतिना =नागराजेन वासुकिना विहितव्यवस्थः=कृतव्यवस्थः। एष पन्नगाधिराजः=गरुडोऽयम् यान् अहिपतीन्=यान् पन्नगान्। भक्षयति=प्रत्यहं ग्रसति। तेषां=तेषां नागानां दिनैः=कतिपयदिवसैः। विवृद्धिं=वृद्धिं। स्फीतिम्। गताश्च = याताश्च। यान्ति=विवृद्धिं गच्छन्ति च। यास्यन्ति भूयोऽपि वृद्धिं च ये चास्यन्ति तथाविधाः। तुहिनशैलरुचः=हिमगिरिकान्तयः। हिमालयशैलप्रख्याः। अस्थिकूटाः =कीकसराशयः। अमी=पुरतो दृयमानाः सन्ति। वसन्ततिलका वृत्तम्। उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः’ इति तल्लक्षणम्॥
आश्रयमिति नित्यर्थः। अतीव विस्मयावहमिदं वासुकेर्नागराजस्य विचेष्टितमित्यर्थः।
नागराजव्यवहारस्यानौचित्यं प्रकटयति—सर्वेति। सर्वाऽशुचिनिधानस्य=
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पाताल में नहीं आने की शर्त को ) गरुड़ ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार नागराज वासुकि के व्यवस्था कर देने पर यह पक्षिराज गरुड़ जिन बड़े २ सप को खाता रहा है, उनकी हड्डियों में रोज २ बढ़ते २ यह हिमालय की बड़ीं २ चोटियों के समान कूट ( कुड्डी, ढेर ) लग गए हैं, जो प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं, और प्रतिदिन बढ़ते ही जाएगें भी ! ६॥
नायक— यह बड़े हो आश्चर्य की बात है, कि सभी प्रकार की अपवित्रताओं
अहो ! कष्टमनवसानेयं विपत्तिर्नागानाम्। [ आत्मगतम् ] अपि शक्नुयामहं स्वशरीरसमर्पणेन एकस्यापि नागस्य प्राणपरिरक्षां कर्त्तु्म्।
[ ततः प्रविशति प्रतीहारः ]।
प्रतीहारः—आरूढोऽस्मि गिरिशिखरं यावन्मित्रावसुमन्विष्यामि। [परिक्रम्य] अयं मित्रावसुर्जामातुः समीपे तिष्ठति। [ उपसृत्य ] विजयेतां कुमारौ।
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सर्वविधाऽशुचिमलमूत्रादिकरण्डस्य। कृतघ्नस्य=कृतविहन्तुः। उपकारशतैरपि स्थिरतामप्राप्नुवतः। अत एव— विनाशिनः=विनाशशीलस्य। शरीरकस्य कृते। कुत्सितस्य स्ववपुषः कृते। मूढाः=मूर्खाः। मोहाविष्टमनसः। पापानि=दुष्कर्माणि। पापमयानि कर्माणि। कुर्वते=अनुतिष्ठन्ति। तदेवं विनाशिनः स्वशरीरस्य रक्षार्थं परान् नागान् गरुडाय बलिं प्रेषयन् वासुकिर्मूढ एवेत्याशयः ॥७॥
कष्टमिति खेदे। अनवसाना=अनन्ता। आत्मगतं=स्वगतम्। अपीति सम्भावनायाम्। स्वशरीरसमर्पणेन=गरुडाय स्वशरीरदानेन। ‘एकस्यापि नागस्य प्राणरक्षां कर्त्तुमहं शक्नुयामपि’ इत्यन्वयः।
प्रतीहारः=मित्रावसुमाह्वातुं विश्वावसुना प्रेषितो द्वारपालः। ‘प्रतीहारो द्वारि द्वास्थे द्वाःस्थितायाञ्च योषिति’ इति मेदिनी। ‘सुनन्द’ इति प्रतीहारनामधेयम्। तातः=पिता विश्वावसुः। आह्वयति=कार्यविशेषेण मामाकारयति। कुमारेण=जीमूतवाहनेन भवता। बहवः प्रत्यवाया यस्मिंस्तस्मिन्— बहुप्रत्यवाये =
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के खजाने, कृतघ्न और नष्ट होने वाले इस शरीर के लिए भी मूर्ख लोग इसप्रकार के घोर पाप करते हैं ! \। ( शरीर को कितना ही बना कर उसकी सेवा कर रखा जाए फिर भी वह एक दिन छोड़ कर चला जाता है, अतः वह कृतघ्न है ) ॥७॥
आह ! बेचारे इन नागों की यह विपत्ति तो समाप्त होने वाली ही नहीं दीखती है। ( मन ही मन ) क्या मैं अपने शरीर को देकर एक नाग की भी प्राणरक्षा कर सकता हूँ ?। यदि ऐसा हो सके तो मैं अपने को कृतार्थ समझंगा।
प्रतीहार—मैं मलय पर्वत के शिखर पर चढ़ गया हूँ। अब युबराज मित्रावसु को खोजता हूँ। ( कुछ चल कर ) यह मित्रावसु जामाता के पास खड़े हैं। ( पास में जाकर— ) दोनों कुमारों की जय जयकार हो।
मित्रावसुः— सुनन्द ! किं निमित्तमिहाऽऽगमनम् ?।
** [ प्रतीहारः— कर्णे कथयति ]**
** मित्रावसुः— कुमार ! तातो मामाह्वयति।**
** नायकः— गम्यताम्।**
** मित्रावसुः— कुमारेणापि बहुप्रत्यवायेऽस्मिन् प्रदेशे न चिरं स्थातव्यम्। [ इति निष्क्रान्तः ]। **
** नायकः —यावदहमप्यस्माद् गिरिशिखरादवतीर्य समुद्रतटमव- लोकयामि। [परिक्रामति ]।**
[ नेपथ्ये— ]
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अनर्थबहुले। नानाविघ्नौघसङ्कुले। इति=इत्युपदिश्य। परिक्रामति=प्रचलति। परिभ्रमति वा। नेपथ्ये=जवनिकाभ्यन्तरे। ‘नेपथ्यं स्याज्जवनिका’ इति कोशः। व्यापाद्यमानः=गरुडेन वध्यमानः। प्रेक्षितव्यः=द्रष्टव्यः। योषित इव=अबलाया इव। आर्त्तिप्रलापः=विपन्नजनकरुणक्रन्दनम्। ‘श्रूयते’ इति शेषः। स्फुटीकरिष्ये=निश्चेष्ये। गोपायितवस्त्रयुगलः=प्रच्छन्नरक्षितवध्यचिह्नवस्त्रयुगलः। किङ्करः=नागराजसेवकः। पुत्रक=अनुकम्पार्ह बालपुत्र। पातालं=नागलोकः। अनेन
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मित्रावसु—सुनन्द ! यहाँ तुम कैसे आए ?।
[ प्रतीहार— मित्रावसु के कान में धीरे ते महाराज विश्वावसु का वह सन्देश सुनाता है ]
मित्रावसु— कुँवर जी ! मुझे तो पिताजी ने कार्यवश अभी बुलाया है।
नायक—तो आप जाइए।
मित्रावसु – कुँवरसाहिब ! आप भी नाना विपत्तियों से घिरे हुए इस स्थान में ज्यादा मत ठहरिएगा। जल्दी ही यहाँ से आप भी चले आइएगा। ( जाता है )।
नायक —मैं भी इस पर्वत शिखर से उतर कर समुद्र तट पर जाकर तट की शोभा को देखता हूँ ( जाता है )।
[ नेपथ्य में(पर्दे के पीछे से) ]
हाय पुत्र शङ्खचूड ! मारे जाते हुए तुम्हें मैं आज कैसे देख सकूंगी ?।
हा पुत्तअ संखचूड़ ! कहं वावदिअमाणो अज्ज किल तुमं नए पेक्खिदव्वो? !
** [ हा पुत्रक शङ्खचूड ! कथं व्यापाद्यमानोऽद्य किल त्वं मया प्रेक्षितव्यः ? ]**
** नायकः—[ आकर्ण्य ] अये ! योषित इवाऽऽर्त्तप्रलापः। ‘केयं ?, कुतो वाऽस्या भय’ मिति स्फुटीकरिष्ये। [ परिक्रामति ] \।**
[ततः प्रविशति रुदत्या वृद्वयाऽनुगम्यमानः शङ्खचूडो, गोपायितवस्त्रयुगलश्चकिङ्करः]।
** वृद्धा— [ सास्रम् ] हा पुत्तअ संखचूड ! कहं वादिणो अज्ज किल तुमं नए पेक्खिदव्वो ?। चिबुकं गृहीत्वा—इमिणा नुहचंदेण विरहीअं दाणी अंधआरीभविस्सदि पाआलं।
[ हा पुत्रक शङ्खचूड ! कथं व्यापाद्यमानोऽद्य किल त्वं मया प्रेक्षितव्यः ?। अनेन मुखचन्द्रेण विरहितमिदानीमन्धकारी भविष्यति पातालम् ]।**
** शङ्खचूडः—अम्ब ! किमिति वैक्लव्येन सुतरां नः पीडयसि ?।**
** वृद्धा— [निर्वर्ण्य, पुत्रस्यानानि स्पृशन्ती ] हा पुत्तअ ! कह दे सूरकिरणं सुउमारं सरीरं निग्धिणहिअओ गल्डा आहालद्दस्तदि ? **
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मुखचन्द्रेण = तवानेन मुखशशिना। वैक्लव्येन = अधीरतया। निर्वर्ण्य = नितरां
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नायक— ( सुनकर ) हैं ! यह तो किसी स्त्री का आतंक बिलान सा मालूम होता है। ‘यह कौन है, इस पर क्या विपत्ति आ पडी है’ यह चलकर स्पष्ट मालूम करूँ। ( जाता है )।
[ रोती हुई, पीछे २ आतो हुई वृद्धा के साथ शङ्खचूड का तथा दो लाल वों को छिपा कर संग लाते हुए सिपाही का प्रवेश ]।
वृद्धा— (आंखों में आंसू भरकर ) हाय मेरे छोटे से पुत्र शङ्खचूड ! मैं तुम्हें मारे जाते हुए कैसे देख सकूंगी ?। ( ठुड्डी पकडकर ) तेरे इस मुखचन्द्र के बिना आज नागलोक ( पाताल ) अन्धकारपूर्ण हो जाएगा।
शङ्खचूड—माताजी ! इस प्रकार की विकलता से हमें आप और भी अधिक कष्ट क्यों दे रही हो !।
[ हा पुत्र ! कथं तेऽदृष्टसूर्यकिरणं सुकुमारं शरीरं निर्घुणहृदयो गरुड आहारयिष्यति। कण्ठे गृहीत्वा रोदिति ]
** शङ्खचूडः—अम्ब ! अलं परिदेवितेन। पश्य—**
क्रोडीकरोति प्रथमं यदा जातमनित्यता।
धात्रीव जननी पश्चात्तदा शोकस्य कः क्रमः ?
[ गन्तुमिच्छति ]
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दृष्ट्वा। अदृष्टसूर्यकिरणम्=अनवलोकितसूर्यमयूखम्। अननुभूतसूर्यातपक्लेशम्। निर्घृणहृदयः=निर्दयमानसः। निष्करुणचेताः। ‘कारुण्यं करुणावृणा’ इत्यमरः। परिदेवितेन=आक्रन्देन। विलापेन।
विपस्यानौचित्यं समर्थयते— क्रोडीति। यदा=यहि। जातं=जातमात्रमेव शिशुम्। प्राणिनम्। धात्रीव=उपमातेव। ‘धात्री जनन्यामलक……’ इति मेदिनी। अनित्यता=नश्वरता। प्रथमम्=आदावेव। क्रोडीकरोति=अङ्के करोति। गृह्णाति। पश्चात्=तदनन्तरमेव। जननी=माता— जातं शिशुं क्रोडीकरोति। तदा=तर्हि। शोकस्य=शुचः। कः क्रमः=कोऽवसरः ?। यदि कोऽपि नित्यस्थायी स्यात्तदैवाऽनित्यवस्त्वर्थे शोको युज्येत, इह संसारं तु जातमात्र एवं शिशुधात्र्येव जातमात्र एव प्राणी प्रथममनित्यतया कोडीक्रियत, तहि शोकस्यावसर एव नास्ति। धात्री हि प्रथमं बालमङ्के धृत्वा नालच्छेदस्तनपानादिकं करोति, ततो माताऽन्यो वा लोको बालमङ्के समारोपयतीति लोकव्यवहारः ॥८॥
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वृद्धा— ( अच्छी तरह देखकर, पुत्र के शरीर पर हाथ फेरती हुई - ) हाय पुत्र ! सूर्य की किरणों के सन्तान को भी नहीं अनुभव करने वाले तेरे इस तुकुमार कोमल शरीर को भला निर्दयी गरुड आज कैसे खाजायगा ?।
( गले से लगाकर रोती है )
शङ्खचूड — माता जी ! रोओ मत, रोने से क्या लाभ है। देखो-जन्मे हुए बालक को जैसे पहिले दाई ही गोद में लेती है, वही उसका नाला तब कहीं उसे माता गोद में लेती है, उसी प्रकार जन्मते ही पहले काटती है, मनुष्य को अनित्यता रूपी दाई ही पहिले ग्रहण करती है। अर्थात् जो जन्म लेता है उसे तो कभी न कभी मरना ही पडता है। अतः इसमें तो शोक की जगह हीं कहाँ है ?। जब सभी को मरना है तब इसमें शोक ही किस बात का है ? ॥ ८ ॥
** वृद्धा —पुत्तअ ! चिट्ठ मुहुत्तअं, जाव दे वअणं पेक्खामि।
[ पुत्र ! तिष्ठ मुहुर्तं, यावत्ते वदनं पश्यामि ]**
** किङ्करः— एहि कुमाल संखचूड ! किं ते एदाए भणंताए ? पुत्त सिणेहमोहिदा क्खु एसा, ण जाणेदि लाअकज्ज।
[ एहि कुमार शङ्खचूड ! किं ते एतया भणन्त्या ! पुत्रस्नेहमोहिता खल्वेषा न जानाति राजकार्यम् ]।**
** शङ्खचूडः—अयमागच्छामि।**
** किङ्करः—[ अग्रतोऽवलोक्याऽऽत्मगतम्—] आणोदो क्खु एसो मर ज्झसिलासमवे। ता वज्झचिन्हं दाइस्सं।
[ आनीतः खल्वेष मया वध्यशिलासमीपे तद्वध्यचिह्नं दास्यामि ]।**
** नायकः— इयमसौ योषित् \। [ शङ्खचूड़ दृष्ट्वा - ] नूनमनेन अस्याः **
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गन्तुं=वध्यशिलां यातुम्। राजकार्यं=नागराजवासुकिनिर्द्दिष्टं गरुडबलि- प्रदानरूपमावश्यककार्यातिपातम्। न जानाति=न गणयति। नावबुध्यते। अयमागच्छामि=त्वत्पृष्ठत आगच्छाम्येव। वध्यचिह्न=वध्यनागचिह्नं रक्तवस्त्रद्वयम्। असौ=या करुणमाक्रन्दं मुञ्चति सेयम्। किम्=केन हेतुना। आक्रन्दति =
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[ आगे जाना चाहता है ]
वृद्धा— हे पुत्र ! कुछ देर तो ठहर, जिससे तेरा नुख तो मैं अच्छी तरह से देख लूं।
किङ्कर (सिपाही - )— कुमार शङ्खचूड ! जल्दी २ जल्दी चले आओ। इस वृद्धा की बातों पर ध्यान मत दो। क्योंकि यह तो पुत्र के मोह से मोहित हो रही है, राजकार्य का तो इसको कुछ ध्यान है नही।
शङ्खचूड—मैं आ ‘ही रहा हूँ।
किङ्कर— (आगे देखकर, मन ही मन ) इसे मैं वध्यशिला के पास ले आया हॅू। अब इसे वध्यचिह्न ( लालवस्त्र ) और दे दूं।
नायक— जिस स्त्री का विलाप मुझे सुनाई दिया था वह स्त्री यही है। (शङ्ख-
सुतेन भवितव्यम्। तत् किमाक्रन्दति ?। [ समन्तादवलोक्य— ] न खल्व- स्या भयकारणं किञ्चित् पश्यामि। कुतोऽस्या भयमिति ?। यावदुप- सर्पामि। प्रसक्त एवायमेतेषामालाः। कदाचिदत एवास्याभिव्यक्तिर्भ- विष्यति। तद्विटपान्तरितस्तावच्छृणोमि। [ तथा करोति ]।
** किङ्करः – [ सास्रं कृताञ्जलिः— ] कुमाल संखचूड़ ! एसो सामिणो आदेशो त्ति करिअ ईरिसं णिट् ठुरं मन्तीअदि।**
** [कुमार शङ्खचूड ! ‘एष स्वामिन आदेश’ इति कृत्वा ईदृशं निष्ठुरं मन्त्रयते ]।**
** शङ्खचूड़ :—भद्र ! कथय।**
** किङ्करः— नागलाओ वासुई आणवेदि।**
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सततं रोदिति। विलपति। प्रसक्तः=प्रवृत्तः। प्रचलितः। आलापः= संभाषणम्॥ ‘स्यादाभाषणमालापः’ इत्यमरः। अत एव=आलापादेव। अस्य=भयहेतोः। आक्रन्दहेतोः, व्यक्तिः=स्फुटता। स्पष्टता। अभिव्यक्तिः। विटपान्तरितः=पादपान्तरितः। ‘विटपः पल्लवे षिड्गे विस्तारे स्तम्बशाखयोः’ इति मेदिनी। तथा करोति=वृक्ष शाखाऽन्तरितः शृणोत्यालापम्।
साऽस्रं=साऽश्रुपातम्। कृताञ्जलिः=बद्धाञ्जलिः सन्। एषः=त्वरितं वध्यशिलां प्रति भवतो नयन’ मित्येषः। स्वामिनः=नागराजस्य। आदेशः=आज्ञा। इति कृत्वा=इति हेतोः। ईदृशं निष्ठुरम्=वक्ष्यमाणं क्रूरं वाक्यं मन्त्रयते
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चूड को देखकर ) अवश्य हो यह इसका पुत्र है। ( चारो ओर देखकर ) इसके डर का कारण तो कोई दीख नहीं पड़ रहा है ?। यह किससे डर रही है ? ! अच्छा, पास में चलता हूँ। (आवाज सुनकर ) इनकी परस्पर बातचीत चल रही है। कदाचित् इससे ही कुछ पता लगेगा। अतः इस वृक्ष की शाखा की ओट होकर सुनता हूँ। ( छिप कर उनकी बातें सुनता है)।
किङ्कर— ( आँसूभर के हाथ जोडकर ) कुमार शङ्खचूड ! महाराज की आज्ञा है इसी लिए मैं इस कड़ो बात आपको सुना रहा हूँः—
शङ्खचूड—भद्र ! कहो क्या बात है ?।
किङ्कर— नागराज वासुकि की यह आज्ञा है, किः—
** [ नागराजो वासुकिराज्ञापयति ] \।**
** शङ्खचूडः— [ शिरस्यञ्जलिं बध्दा सादरम्— ] किमाज्ञापयति देवः ?।**
** किङ्करः—’ एवं लत्तंसुअजुअलं परिहि आलुह बज्झसिलं, जेणलत्तंसुअं उवलक्ख्अि गलुडो आहालइत्सदि’ति।**
** [‘इदं रक्तांशुकयुगलं परिधाय आरोह वध्यशिलां, येन रक्तांशुकमुपलक्ष्य गरुड आहारयिष्यति’ इति ]।**
** नायकः—[ श्रुत्वा —] कथमसौ वासुकिना परित्यक्तः ?।**
** किङ्करः— कुमाल ! गेण्ह एवं वसणजुअलं।
[ कुमार ! गृहाणैतद्वसनयुगलम् ]।**
[ - इत्यर्पयति ]
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= मयाऽभिधीयसे। मया त्वमुपदिश्यसे। उपदेशेऽत्र मन्निधातुः। अतः ध्वन्तव्योऽहन्तव्येत्याशयः। किन्तत्क्रूरं वाक्यमिति पृच्छति शङ्खचूडः-भद्रेति। भद्र=साधो। कथय=किं वक्तुकामस्त्वं कथय तत्। सादरमिति।राजशासनस्येत्थमेव श्रोतव्यत्वाच्छिरस्याञ्जलिबन्ध, आदरप्रदर्शनं च। देवः =नागराजो वासुकिः। इदं=मया दीयमानं बध्यचिह्नम्। उपलक्ष्य=दृष्ट्वा। आहारयिष्यति=त्वां भक्षयिष्यति। इतिराज्ञासमाप्तिसूचकः। असौ=शङ्खचूडः। परित्यक्तः=मरणाय प्रेषितः। इत्थमुन्मुक्तः। उपनय - अर्पय मह्यम्। देहि तावत्। स्वाल्यादेशः=राजाज्ञा। शिरसि=शिरसि मया धार्यते। सादरं राजशासनं मया शिरसि धार्यते। इदं
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शङ्खचूड—[बड़े आदर पूर्वक शिरपर अञ्जलि बान्धकर—] हाँ, महाराज की क्या आज्ञा है ?।
किङ्कर — इस लालवस्त्र के जोड़े को पहिर कर इस वध्यशिला पर चढ जाओ, जिससे वध्यचिह्न स्वरूप इस लाल वस्त्र को देखकर गरुड़ तुमका भक्षण कर ले।
नायक — हैं ! इस बेचारे को वासुकि ने इस तरह मरने को कैसे छोड़ दिया?।
किङ्कर— कुमार ! इस वध्यचिह्न लाल वस्त्र के जोड़े को लीजिए।( वस्त्र देता है )।
** शङ्खचूडः— [ सादरम्—] उपनय। [गृहीत्वा - ] शिरसि स्वाम्यादेशः।**
** वृद्धा—[ पुत्रस्य हस्ते वाससी दृष्ट्वा सोरस्ताडम् —] हा वच्छ ! एदं क्खु वज्जपाडसण्णिभं संभावीअदि।
[ हा वत्स ! इदं खलु वज्रपातसन्निभं सम्भाव्यते ]।**
[— मोहं गता ]।
** किङ्करः— आसण्णा गलडस्स आगमणवेला, ता लहुँ गच्छामि !
[ आसन्ना गरुडस्याऽऽगमनवेला, तल्लघु गच्छामि ]।**
**[—इति निष्क्रान्तः ] **
** शङ्खचूडः—अम्ब ! समाश्वसिहि।**
** वृद्धा—[ समाश्वस्य, सास्रं ] हा पुत्तअ ! हा मणोरहसदलद्ध ! कहिं पुणा तुमं पेक्खिस्से ?।
हा पुत्रक ! हा मनोरथशतलब्ध ! क्व पुनस्त्वां प्रेक्षिष्ये ? ]।**
[ - कण्ठे गृह्णाति ] \।
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=त्वन्मरणम्। वस्त्रपरिधानं वा। वज्रपातसन्निभं=वज्रपतनवदसह्यम्। सम्भाव्यते।=मया विभाव्यते। तत्र वध्यचिह्नधारणं मया वज्रपातवदनुभूयते। मोहं गता=मूर्च्छानाप्ता। लघु=त्वरितं ! गच्छामि=नागलोकमेव परावृत्य गच्छामि। निष्क्रान्तः=गतः। मनोरथशतलब्धः=अनेकविधेच्छाऽधिगतः। ‘अयं जातो मे पुत्रो
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शङ्खचूड – ( आदरपूर्वक ) लाओ दो। (बस्त्र लेकर—) महाराज की आज्ञा शिर माथे पर ।
वृद्धा — पुत्र के हाथ में वथ्य लाल चिह्न वस्त्र देख कर छाती कूट कर रोती हुई— ) हाय वत्स ! यह ( वल ) तो मुझे वज्रपात की तरह दीख रहा है। ( मूर्च्छित हो जाती )।
किङ्कर— गरुड़ के आने का समय हो ही गया है। अतः मैं अब शीघ्र ही जाता हूँ। ( जाता है )।
शङ्खचूड— माता जी! चेत करिए। सावधान होइए।
नायकः— अहो नैर्घृण्यं गरुडस्य !। अपि च—
मूढाया मुहुरश्रुसन्ततिमुचः कृत्वा प्रलापान् बहून्
‘कस्त्राता तव पुत्रके’ ति कृपणं दिक्षु क्षिपन्त्या दृशम्।
अङ्के मातुरवस्थितं474 शिशुमिमं त्यक्त्वा घृणामश्नत-
श्चञ्चुर्नैव खगाधिपस्य, हृदयं वज्रेण मन्ये कृतम् ॥९॥
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ममैवं कार्यं करिष्यति’ ‘इदं करिष्यती’ त्यादिनानाविधमनोरथप्रसूतेत्यर्थः। पुनः=मृतं त्वां क्व प्रेक्षिष्ये। नैर्वृण्यं=निर्दयत्वम्। अपिच=किञ्च।
गरुडस्य वज्रहृदयत्वं समर्थयते—मूढाया इति। मूढायाः=मोहमुपगतायाः। पुत्रमोहविक्लवायाः। मुहुः=वारं वारम्। अश्रुसन्ततिमुचः=बाष्पधारावर्षिण्याः। बहून् प्रलापान् कृत्वा =नानाविधं करुणमुन्मत्तवत् प्रलाप विधाय। प्रलापोऽनर्थकं वचः’ इत्यमरः। कृपणं=दीनं यथा स्यात्तथा। दिक्षु=आशासु। दृशं=शून्यां दृष्टिं। क्षिपन्त्याः=निक्षिपन्त्याः। त्राणं किमप्यलभमानायाः। मातुः=स्वजनन्या वृद्धायाः। अङ्के=क्रोडे। अवस्थितं=निषण्णम्। भयाल्लीनम्। इमं शिशुं=नागबालं शङ्खचूडम्। घृणां त्यक्त्वा=दयां विहाय। अश्नतः=कवलीकुर्वाणस्य। ग्रसतः। खगाधिपस्य=पक्षिराजस्य गरुडस्य। चञ्चुर्नैव=केवलं त्रोटिरेव वज्रघटितेति नैव। अथवा नहि नहि चञ्चूवज्रसारा-किन्तु हृदयं वज्रेण कृतं=वज्रेण निर्मितम्। इति मन्ये=अहं तर्कयामि। वज्रसारहृदयो भगवान्खगेश्वरो य एवं करुणं विलपन्त्या मातुरङ्काच्छिशुमाकृष्य भक्षयतीत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥९॥
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वृद्धा—(चैतन्य होकर राता हुइ ) हा पुत्र ! हा ! सैकड़ों आशाओं से प्राप्त हुए मेरे लाल ! मैं अब तेरे को कहाँ देखूँगी। ( गले लगाती है )।
नायक— अहो ! गरुड़ की यह बड़ी निर्दयता है। और भी—शोक से मूर्च्छित, आंसुओं की धारा को बहाती हुई, नानाविध प्रलाप कर ‘मेरे तुत्र को कोई बचावे’ इस आशा से चारों ओर दीन दृष्टि से देखती हुई, बुढ़िया माता की गोद में छिपे हुए इस बालक की बलात् छीन कर खानेवाले गरुड़ की
** शङ्खचूड़ः—[आत्मनोऽश्रूणि475 निवारयन्— ] अम्ब! किमतिवैक्लव्येन।**
यैरत्यन्तदयापरैर्न विहिता वन्ध्याऽऽर्थिनां प्रार्थना,
यैः कारुण्यपरिग्रहान्न गणितः स्वार्थः परार्थं प्रति।
ये नित्यं परदुःखदुःखितधियस्ते साधवोऽस्तं गता,
मातः ! संहर वाष्पवेगमधुना कस्याग्रतो रुद्यते ? ॥ १०॥
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किं=किं फलम्। अतिवैक्लव्येन=अतिविह्वलतया। ‘विक्लवो विह्वलः’ इत्यमरः। ‘लभ्यते’इति शेषः। रोदनस्य निष्फलतां द्रढयति—यैरिति। यैः=यैर्जनैः, अत्यन्तं दयापरैः=करुणापरैः, अर्थितां=याचकानां प्रार्थना=याच्जा, वन्ध्या=विफला, न विहिता=कदाऽपि न कृता, किञ्च यैः=साधुजनैः कारुण्यपरिग्रहात्=करुणास्वीकारात्। दयापारवश्यात्, ‘कारुण्यं करुणा घृणः’ इत्यमरः, स्वार्थः=स्वकार्यमपि परार्थं प्रति=परोपकारं प्रति परोपकारसमये, न गणितः=नाऽवलोकितः, किञ्च ये=साधवः, नित्यं=सदैव, परदुःखदुःखितधियः=परदुःखदुःखितमानसा आसन्, ते साधवः=परोपकारपरायणाः साधवो लोकाः, अस्तं=कालविपर्ययात्सम्प्रति विलोपं, परलोकं गताः=याताः। अतः हे मातः ! अधुना=सम्प्रति। ईदृशे परोपकारपरायणसाधुजनविरहिते काले। बाप्पवेगम्=
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केवल चोंच ही नहीं, किन्तु हृदय भी वज्र से ही बना हुआ है। अर्थात् जैसे गरुड़ की चोंच वज्र की तरह कठोर है ॥ ९॥
शङ्खचूड— ( माता के व अपने आँसू पोंछता हुआ - ) मातः ! इस प्रकार की अति व्याकुलता से भला क्या लाभ हैं ?।
जो दयालु याचकों की आशा को, प्रार्थना को कभी विफल नहीं करते थे, जिन्होंने करुणा के वशीभूत हो परोपकार करने में अपने स्वार्थों को कभी कुछ नहीं समझा, जो पराए दुःख से ही सदा दुखिःत रहते थे, वे साधु ( सजन ) लोग तो परलोक को चले गए, अस्त हो गए, हे मातः ! अब ऐसा परोपकारी कौन है जो मुझे बचाने के लिए अपने प्राण सङ्कट में डालेगा। अतः
ननु समाश्वसिहि समाश्वसिहि।
** वृद्धा—[ सास्रं] कहं समस्ससिस्सं ? किं एक्कपुत्तओ त्ति कदुअ साणुकंपेण णाअराएण पेसिदोसि ? हा ! कहं अविच्छिणे जीअलोए मम पुत्तओ सुमरिदो ? सव्वधा अहं हि मंदभग्गा।**
** [ कथं समाश्वसिष्यामि ? किमेकपुत्रक इति कृत्वा सानुकम्पेन नागराजेन प्रेषितोऽसि ? हा ! कथमविच्छिन्ने जीवलोके मम पुत्रकः स्मृतः ?। सर्वथाऽहमस्मि मन्दभाग्या ] [ मूर्च्छति ]**
** नायकः— [ सकरुणम् ]**
आर्त्तं कण्ठगतप्राणं, परित्यक्तं स्वबन्धुभिः।
त्राये नैनं यदि ततः कः शरीरेण मे गुणः ? ॥ ११ ॥
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अश्रुधारावेगं। संहर=निरुणद्धि। कस्याग्रतः=कस्य खलु जनस्य पुरतः। रुद्यते=त्वया रुद्यते ?। अरण्यरोदनमेवेदं, नास्य किमपि फलमतः संहराश्रूणित्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तन्॥१२॥
एकपुत्रकः=मातुरेक एवायं पुत्रः। इति कृत्वा=इति विचार्य। अधिक्षेपगर्भोक्तिरियम्, एकपुत्रकस्य प्रेषयितुमनुचितत्वात्। अविच्छिन्ने=अखण्डिते। वर्तमाने सत्यपि। स्मृतः=वध्यत्वेन प्रेषणायानुमतः।
नायको विमृशति आर्त्तमिति। आर्तं=पीडितम्। कण्ठगतप्राणं=मृत्युमुखे निपतितम्। आसन्नविनाशम्। स्वबन्धुभिः परिव्यक्तं=स्वबान्धवैरपि मुक्तम्।
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तुम किसके आगे रो रही हो ?। अब अनाथों का रक्षक कोई दीखता हो नहीं है। क्यों वृथा रो रही हो ॥ १० ॥
मातः ! ‘चैतन्य हो जाओ, धीरज धरो’।
वृद्धा— ( आँखों में आँसू भर कर ) बेटा ! कैसे धीरज वरूँ ?। क्या ‘मेरे तू एक ही पुत्र है’ यही समझ कर कृपा करके नागराज वासुकि ने तुझे बलि के लिए मेजा है !। और भी बहुत से नाग थे, क्या मेरा ही पुत्र उन्हें भेजने को याद आया ! हा! मैं सब प्रकार से अभागिन हूँ। ( मूर्च्छित होती हैं )।
नायक— ( करुणा से ) यदि इस आर्त्त, दुःखी, कण्ठगत प्राण को—
**तद्यावदुपसर्पामि। **
** शङ्खचूडः — अम्ब ! संस्तम्भयाऽऽत्मानम्। **
** वृद्धा— हा पुत्तअ ! जदा णाअलोअपरिरक्खएण वासुइणा परिचत्तोसि तदा को दे अवरो परित्ताणं करिस्सदि ? \।
[ हा पुत्रक ! यदा नागलोकपरिरक्षकेण वासुकिना परित्यक्तोऽसि तदा कस्तेऽपरः परित्राणं करिष्यति ?।**
** नायकः— [ उपसृत्य— ] नन्वहम्।**
** वृद्धा – [ नायकं दृष्ट्वा ससम्भ्रममुत्तरीयेण पुत्रकमाच्छाद्य नायकमुपसृत्यजानुभ्यां स्थित्वा ] बिणदाणंदण ! वावादेहि मं। अहं दे णाअराएण आहारणिमित्तं परिकप्पिदा।**
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एनं=दीनमनाथं नागं। यदि=चेत्। न त्राये=नाऽहं परिपालयामि। ततः=तर्हि । मे=मम। शरीरेण=नश्वरेणाऽनेन कायेन। को गुणः=किं फलं। को लाभः। अतो मयाऽद्य स्वशरीरव्ययेनापि रक्षणीयोऽयमिति नायकेन स्वाध्यवसायः सूचितः। अनुष्टुप्छन्दः ॥ ११ ॥
तत्=तस्मात्। यावत्=अवश्यं तावत्। उपसर्पामि=अनयोः समीपं गच्छामि। आत्मानं संस्तम्भय=स्वात्मानं संस्थापय। धैर्य बधान। ननु = निश्चयेन। अहम्। अहम्—‘अस्य परित्राणं करिष्यामी ‘ति शेषः। पुत्रकं=बालं
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जिस सभा बन्धु बान्धवों ने छोड़ दिय। है, इसे यदि मैं नहीं बचाऊँगा तो मेरे इस शरीर से फिर लाभ ही क्या है ? ॥ ११ ॥
अतः मैं इनके पास जाता हूँ।
शङ्खचूड—माता ! अपने मनको दृढ़ करो।
वृद्धा —–हा मेरे छोटे से पुत्र ! जब नागराज वासुकि ने ही तुमको यो छोड़ दिया तो अब तुम्हारी रक्षा और कौन करेगा ?।
नायक— ( पास में जाकर ) मैं इसकी रक्षा करूँगा।
वृद्धा—( नायक को देख, गरुड़ समझ, घबड़ा कर अपने बच्चों को दुपट्टे से ढक कर, नायक के सामने घुटने टेक कर ) हे गरुड़ ! मुझे मारो, मैं ही नागराज के द्वारा तुम्हारे भोजन के लिए भेजी गई हूँ।
[विनतानन्दन! व्यापादय माम्, अहं ते नागराजेनाऽऽहारनिमित्तं परिकल्पिता ]।
** नायकः— [ सास्रम् ] अहो ! पुत्रवात्सल्यम् !।**
अस्या विलोक्य मन्ये पुत्रस्नेहेन विक्लवत्वमिदम्।
अरुणहृदयः करुणां कुर्वीत476 भुजङ्गशत्रुरपि ॥१२॥
** शङ्खचूडः—अम्ब ! अलं त्रासेन ? न नागशत्रुः। पश्य—**
महाहिमस्तिष्कविभेदमुक्त रक्तच्छटाचर्च्चि्तचण्डचञ्चुः।
कासौ गरुत्मान् ? क्व च नाम सौम्य477स्वभावरूपाकृतिरेष साधुः ? १३
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पुत्रम्। जानुभ्यामवस्थानं च प्रार्थनापरिपोषायेति बोध्यम्। विनतानन्दन=वैनतेय। हे गरुड। अहन्ते आहारनिमित्तम्=आहारार्थं, परिकल्पिता=निश्चिता। नायं मत्पुत्र’ इति शेषः।
नायको नागमातुर्वैक्लव्यं दृष्ट्वा तर्कयति—अस्या इति। पुत्रस्नेहेन=सुतवात्सल्येन। अस्याः=वृद्धायाः। इदं विक्लवत्वं=वैक्लव्यमिदं। विह्वलतां। विलोक्य=दृष्ट्वा। अकरुणहृदयः=निर्दयमानसः। भुजङ्गशत्रुरपि=नागान्तको गरुडोऽपि। करुणां=दयां। कुर्वीत=कुर्यात्। सम्भावनायां लिङ्। इति — मन्ये=तर्कयाम्यहम्। ईदृशं वृद्धाया अस्या दीनत्वं विलोक्याऽकरुणस्यापि मन्ये गरुडस्य करुणोदयः सम्भाव्यते इत्याशयः। आर्या जातिः ॥ १२ ॥
न नागशत्रुः=नाऽयं पन्नगारिः। पश्य=विभावय। नाऽयं नागशत्रुरिति- समर्थयते शङ्खचूडः—महाहीति। महतां=महत्त्वशालिनाम्, महामहिम्नाम्,
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नायक—अहो ! देखो, इसका कितना पुत्रस्नेह है।
इसकी पुत्र-स्नेह से इस प्रकार व्याकुलता को देख कर निर्दय हृदय गरुड़ को भी करुणा आ जाएगी यह मैं समझता हूँ ॥ १२ ॥
शङ्खचूड —माताजी ! घबड़ाओ मत ! यह नागशत्रु गरुड़ नहीं है। क्योंकि, देखो—
कहाँ तो बड़े २ सर्पों के मस्तकों को चूर २ करने से निकले हुए ब के
वृद्धा—अहं क्खु तुज्झ मरणभीआ सव्वं जेव्व लोअं गलुडमअं पेक्खामि।
[ अहं खलु तव मरणभीता सर्वमेव लोकं गरुडमयं पश्यामि ]।
** नायकः— अम्ब! मा भैषीः। नन्वयमहं विद्याधरस्त्वत्सुत संरक्षणार्थमेवायातः।**
** वृद्धा —[ सहर्षं- ] पुत्तअ ! पुणो पुणो एवं भण।
[ पुत्रक ! पुनः पुनरेवं भण ]।**
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अतिविपुलवपुषां च। अहीनां=सर्पाणां मस्तिष्काणां=शिरसां, यो विभेदः स्फोटनं तेन मुक्तं=निःसृतं यत् रक्तं=क्षतजं, तस्य याः—छटाः=धाराः, ताभिः—चर्चिता=रक्ता, चण्डा=प्रचण्डा, भीषणा, चञ्चुः=त्रोटिर्यस्यासौ तथा। महानागशिरोविदारणोच्छलित रक्तधाराचर्चितचञ्चुपुट इत्यर्थः। अतिभयङ्करवदन इति यावत्। ‘चञ्चुस्त्रोटिरूमे स्त्रियो’ इत्यमरः। असौ गरुत्मान्=असौ गरुडः क्व । सोमवत् सौम्यः स्वभावः, रूपम्, आकृतिश्च यस्यासौ सोमसौम्यस्वभावरूपाकृतिः=चन्द्रवच्छान्तमधुरहृद्यस्वभावरूपसंस्थानः। एष साधुः क्व=एष पुरतो दृश्यमानः साधुजनः क्व ?। नाऽनयोः साम्यं घटते, नाऽतो गरुत्मानयम्, अतो न भेतव्यमित्याशयः। उपजातिर्वृत्तम् ॥३३॥
तव=पुत्रकस्य। लोकं=जनं। ‘लोकस्तु भुवने जने’ इति मेदिनी। एवं मधुरं वाक्यं। श्रवणमनोहरमित्थं वाक्यम्। पुनः पुनर्भण=मुहुर्मुहुः कथय ता
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छींटों से लाल २ भयङ्कर चोंचवाला गरुड़, और कहाँ शान्त स्वभाव सुन्दर रूप, मधुर आकृति वाला यह साधु पुरुष !।अतः यह तो गरुड़ ही ही नहीं सकता ॥ १३ ॥
वृद्धा—मैं तो तुम्हारे प्राणों के भय से सभी को गरुड़ ही गरूड़ समझ रही हूँ।
नायक—अम्ब ! तुम डरो मत, मैं एक विद्याधर हूँ। तुम्हारे पुत्र की रक्षा के लिए ही तुम्हारे पास आया हूँ।
वृद्धा— हे पुत्र ! तुम इस मीठे वचनों को वारंवार कहो। इससे मुझे बड़ा शान्ति मिल रही है।
नायकः—अम्ब! किं पुनः पुनरभिहितेन। ननु कर्मणैव सम्पादयामि।
** वृद्धा— [शिरस्यञ्जलिं बद्ध्वा ] पुत्तअ ! चिरं जीव।**
** [पुत्रक! चिरं जीव]।**
** नायकः —**
ममैतदम्बाऽर्पय वध्यचिह्नं,
प्रावृत्य यावद्विनताऽऽत्मजाय।
पुत्रस्य ते जीवितरक्षणाय
स्वदेहमाहारयितुं ददामि ॥१४॥
** वृद्धा — [कर्णौ पिधाय–] पडिहदं अमंगलं। तुमं पि संखचूडणिव्विसेसो पुत्तो।\। अहवा संखचूडादा वि अहिअअरो, जो एव्वं वंधु-**
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वत्। कर्मणैव=कार्येणैव। सम्पादयामि कार्यं कृत्वैव स्ववचनं सार्थकं करोमि।
ममैतदिति। हे अम्ब! एतद्वध्यचिह्नं = वासोयुगलं। मह्यमर्पय = मह्यंदेहि, यावत् = निश्चयेन, प्रावृत्य = एतेनात्मानमाच्छाद्य, विनतात्मजाय = वैनतेयाय गरुत्मते, ते= तव पुत्रस्य = सुतस्य शङ्खचूडस्य, जीवितरक्षणाय = प्राणरक्षार्थं, स्वदेहं = स्वशरीरम्, आहारयितुं = ग्रासार्थं, ददामि = उत्सृजामि।उपजातिर्वृत्तम् ॥१४॥
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नायक —अम्ब! वारंवार कहने की क्या आवश्यकता है, मैं तो इसे कार्यरूप में ही करके दिखा दूंगा।
वृद्धा —पुत्र ! भगवान् करें तुम चिरंजीव होवो।
नायक — हे अम्ब ! इस बध्य चिह्न (वस्त्र) को मुझे दे दो। इसकोओढ़ कर मैं तुम्हारे पुत्रकी रक्षा के लिए अपना शरीर गरुड़ को भोजन केलिए दे दूंगा ॥ १४ ॥
वृद्धा — ऐसी अमङ्गलमय बात तो मुख से भी मत निकालो। तुम भीमेरे लिए शङ्खचूड की ही तरह हो। अथवा –शङ्खचूड से भी बढ़ कर हो,
जणपरिच्चत्तं वि पुत्तअं मे सरीरपदाणेण रक्खिदुमिच्छसि ।
** [प्रतिहतममङ्गलम्।त्वमपि शङ्खचूडनिर्विशेषः पुत्रः। अथवा शङ्खचूडादप्यधिकतरः, य एवं बन्धुजनपरित्यक्तमपि पुत्रकं मे शरीरप्रदानेन रक्षितुमिच्छसि]।**
** शङ्खचूडः — अहो! जगद्विपरीतमस्य महासत्त्वस्य चरितम्। कुतः?**
विश्वामित्रः श्वमांसं श्वपच इव पुराऽभक्षयद्यन्निमित्तं,
नाडीजङ्घोनिजध्नेकृततदुपकृतिर्यत्कृते गौतमेन।
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कर्णौ पिधायेति। कर्णस्थगनममङ्गलवचनश्रवणप्रतिरोधनार्थन्। प्रतिहतं =निरस्तरम् भवतु।‘स्वदेहं वैनतेयाय ददामीत्यमङ्गलवचनं मा वादीरित्यर्थः।निर्विशेषः =सदृशः। अभिन्नः। पुत्रकः = बालः पुत्रः। जगद्विपरीतं = जगद्विलक्षणम्। महासत्त्वस्य = महापुरुषस्य। अत्र सत्त्वं हि स्वभावः। ‘सत्त्वं गुणेपिशाचादौ बले द्रव्यस्वभावयोः’ इति मेदिनी। चरितं = व्यवहारः। जगद्विलक्षणस्वभावशालित्वं, महापुरुषताञ्चास्य द्रढयति - विश्वामित्र इति। येषां = प्राणानां, निमित्तं —यन्निमित्तं = स्वकीयप्राणरक्षार्थम्। विश्वामित्रनामा कश्चन महाभारतप्रसिद्धो मुनिः, पुरा = पूर्वकाले, श्वपच इव = चाण्डालवत्, श्वमांसं = कुक्कुरमांसमभक्ष्यमपि, अभक्षयत् = भुङ्क्ते स्म। [‘पुरा दुर्भिक्षसमये कश्चन विश्वामित्रनामा ऋषिरन्नमलब्ध्वा चौर्येण चाण्डालगृहं प्रविश्य श्वमांसंप्रतिबुद्धेनचाण्डालेन वार्यमाणोऽपि - बलाद् वुभुजे’ इति पौराणिकी कथा]। यत्कृतेःप्राणानां कृते। स्वप्राणरक्षायै। गौतमेन = तन्नाम्ना विप्रेण। कृततदुपकृतिः - कृतोपकारोऽपि। स्वमित्राद्राक्षसाद्धनादिप्रदापयिताऽपि, नाडीजङ्घो नाम बकः =
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जो तुम बन्धु बान्धवों से परिव्यक्त मेरे पुत्र की इस प्रकार रक्षा करना चाहते हो।
शङ्खचूड —अहो ! इस महात्मा का स्वभाव तो संसार से विलक्षण हीमालूम होता है। क्योंकि—
जिन प्राणों की रक्षा के लिए विश्वामित्र नामक मुनि ने चाण्डाल की तरह कुत्तेका मांस भी खा लिया था। (यह विश्वामित्र मुनि कोई प्रसिद्ध विश्वामित्र ऋषि सेअतिरिक्त है।इसके विषय में महाभारत में कथा है, कि - एक समय भीषणअकाल पडने पर भूख से व्याकुल विश्वामित्र चाण्डाल के घर में घुसकर चोरी सेकुत्ते का मांस - जो वहाँ रखा था —खाने लगा। चाण्डाल (वधिक) जाग उठा,
पुत्रोऽयं काश्यपस्य प्रतिदिनमुरगानत्ति तार्क्ष्यो यदर्थं,
प्राणांस्तानेषसाधुस्तृणमिव कृपया यः परार्थं ददाति॥१५॥
** [नायकमुद्दिश्य—] भो महासत्त्व! त्वया दर्शितैवाऽऽत्मप्रदानव्यवसायान्निर्व्याजा मयि कृपालुता। तदलमनेन निबन्धेन। पश्य-**
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बकराजः, निजघ्ने = निहतः। महाभारतेऽनुशासनपर्वणि कृतघ्नचरितवर्णने हिएषा कथा भीष्मेणोपनिबद्धाऽस्ति। यदर्थं = स्वप्राणरक्षार्थमेव च। अयं कश्यपस्यमहर्षेः पुत्रः – तार्क्ष्यः = गरुडः, प्रतिदिनम् — उरगान् = पन्नगान्, नागान्,अत्ति = भक्षयति, तान् = दुस्त्यजान् प्राणान् य एष साधुः = योऽय महापुरुषः,कृपया = दयया, तृणमित्र = तृणवन्मन्यमानः परार्थ = परोपकाराय ददाति=दातुमिच्छति। दुस्त्यजान् प्राणान्येषां कृते महान्तोऽपि पुरुषा अन्याय कर्मारभन्ते – तान् योऽयं साधुस्तृणवत्परित्यक्तुमिच्छति परोपकाराय सोऽयं जगद्विलक्षणचरितो महापुरुष इति वक्तुं शक्यत एवेत्याशयः। स्रग्धरा वृत्तम्॥३५॥
भो महासत्त्व = हे उदाराशय । महाशील।आत्मप्रदानव्यवसायात् =स्वदेहप्रदाननिश्चयोपन्यासात्। निर्व्याजा = निष्कपटा। अहैतुकी। मयिकृपालुता
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उसने कहा कि आप मुनि होकर इस अभक्ष्य मांस को मत खाइए। पर विश्वामित्रजी ने आपद्धर्म कह कर उसका समाधान कर दिया और उस मांस को खागए)।
गौतम नामक किसी ब्राह्मण ने अपने उपकारी नाडीजङ्घ नामक बगुले कोमार कर भी अपने प्राणों को रक्षा की। (गौतम नामक निर्धन ब्राह्मण को नाडीजङ्घने अपने मित्र विरूपाक्ष राक्षस के पास भेजकर बहुत सा धन दिलाया।वहाँ से आकर उस गौतम ने बगुलों के राजा उस नाडीजङ्घ को भूख से व्याकुलहों मार दिया और खा गया। यह कथा ‘कृतघ्न पुरुष ऐसे होते हैं - इस प्रसङ्ग मेंभीष्मजी ने महाभारत में कही है)।
और जिन प्राणों की रक्षा के लिए (कश्यप ऋषि का पुत्र होकर भी)गरुड़ प्रतिदिन सर्पों को मार २ कर खाता है, उहीं प्राणों को यह महात्मा तृणकी तरह समझ, दयावश हो, परोपकार के लिए दे रहा है!।अतः यह कोई जरूरबड़ा महात्मा ही है॥१५॥
जायन्ते च म्रियन्ते च मादृशाः478 क्षुद्रजन्तवः।
परार्थे बद्धकक्षाणां479 त्वादृशामुद्भवः कुतः॥१६॥
** तत् किमनेन निर्बन्धेन?। मुच्यतामयमध्यवसायः।**
** नायकः— शङ्खचूड! न मे चिराल्लब्धावसरस्य परार्थसम्पादनामनोरथस्यान्तरायं कर्त्तुमर्हसि। तदलं विकल्पेन। दीयतामेतद्वध्यचिह्नम्।**
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दर्शितैव। अनेन निर्बन्धेन = आग्रहेण। स्वशरीरप्रदानसाहसेन। अलं = न प्रयोजनम्। विरमाऽस्माद्व्यापारादिति यावत्। पश्य = विचारय। जायन्त इति। मादृशाः =शङ्खचूडसदृशाः, क्षुद्रजन्तवः = पामराः, साधारणा जनाः, जायन्तंच = उत्पद्यन्तेच, म्रियन्ते च = विलीयन्ते च पञ्चतामपि गच्छन्ति। तत्र का गणनाऽस्मद्विधानांतुच्छानां देहभृताम्। परन्तु–परार्थे = परोपकाराय। बद्धा कक्षा कक्षो वा यैस्तेषांबद्धकक्षाणां = बद्धपरिकरबन्धानाम्। ‘कक्षः शुष्कतृणे प्रोक्तः, कक्षः कच्छ उदाहृतः।कक्षा स्पर्द्धास्पदेकाञ्च्यां रथ-गेहप्रकोष्ठयोः। गजरज्जोपरीधानपश्चादञ्चलपल्लवे।‘इति धरणिकोशः। [कक्ष = कच्छ, पायचा, कक्षा। कमर, पायचा। बद्धकक्ष =कमर कसके तैयार]। त्वादृशां = भवादृशां महासत्त्वानाम्। उद्भवः =उत्पत्तिः। कुतः = कस्माद्भवेत्। कथं भवेत्। अतस्त्वादृशा दुर्लभा एवेत्याशयः॥१६॥
निर्बन्धेन = अभिनिवेशेन। अध्यवसायः = निश्चयः। मुच्यतां= त्यज्यताम्।
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(नायक के प्रति-) हे महासत्त्व ! आपने अपने शरीर को देकर मुझेबचाने का जो प्रस्ताव किया है, उससे आपकी मेरे प्रति निःस्वार्थ दयालुता प्रकट हो रही है। परन्तु इस प्रकार आग्रह आप मत करिए। देखिए -
मेरे सदृश क्षुद्र प्राणी तो इस संसार में नित्य कितने हो उत्पन्न होते हैं,और कितने हा मरते हैं। परन्तु परोपकार के लिए कमर कस कर इस प्रकारतैयार होने वाले आप सदृश महापुरुष कहाँ उत्पन्न होते हैं?, कहाँ मिलते हैं॥१६॥
अतः इस आग्रह को छोड़िए। (मेरे लिए अपने प्राण देने के निश्चय कोआप कृपया छोड़ दीजिए)।
नायक — हे शङ्खचूड! परोपकार करने की मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी।
शङ्खचूडः—भो महासत्त्व! किमनेन वृथाऽऽत्मायासेन?। नखलु शङ्खधवलं शङ्खपालकुलं शङ्खचूडो मलिनीकरिष्यति। यदि ते वयमनुकम्पनीयास्तदियमस्मद्विपत्तिविक्लवा न यथा जीवितं जह्यात्तयाऽभ्युपायश्चिन्त्यताम्।
** नायकः— किमत्र चिन्त्यते? चिन्तित एवाभ्युपायः। स तुत्वदायत्तः।**
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चिरात् = बहोः कालात्। लब्धावसरस्य = प्राप्तावसरस्य। भाग्यादेवोपनतस्याऽस्याऽवसरस्य। परार्थसम्पादनामनोरथस्य = परकार्यसम्पादनाऽभिलाषस्य।अन्तरायं=विघ्नम्। कर्त्तुं नार्हसि = न योग्योऽसि। परार्थे प्राणव्ययं चिकीर्षतो मे मनोरथं मा विनाशय। विकल्पेन = संशयेन। अलं = न प्रयोजनम्।बध्यचिह्नं=रक्तवस्त्रयुगलम्।
वृथाआत्मायासेन = वृथैव शरीराद्यायासप्रदेन यत्नेन। परिश्रमेण। किं =किं फलं। न किमपि फलं भविष्यति। नाऽहं वध्यचिह्नं भवते दास्यामीत्याशयः। न खलु = नैव खलु। शङ्खधवलं = शङ्खवत्पाण्डुरम्। शुभ्रम्। शङ्खपालकुलं = शङ्खपालाख्यनागराजकुलम्। शङ्खचूडः = शङ्खचूडोऽहं। मलिनीकरिष्यति = मलिनं करिष्यामि। एतेन स्वस्य शङ्खपालनागकुलोत्पन्नत्वं प्रकटितम्। अष्टौ हि वंशकर्त्तारो नागाः — तक्षक—कक्कोटक-शङ्ख (पाल)—कुलिक-अनन्त-वासुकि-
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अतः बहुत समय के बाद मुझे मिले हुए इस अवसर में तुम विघ्न मत करो।अतः विचार एवं सन्देह मत करो। इस वध्य चिह्न को मुझे दे दो। मेरीपरोपकार की इच्छा को पूरी होने दो।
शङ्खचूड —हे महासत्त्व ! तुम वृथा यत्न क्यों कर रहे हो। मैं अपने शङ्खकी तरह उज्ज्वल शङ्खपाल नागराज के कुल को तथा शङ्खचूड इस नाम को इसप्रकार कलङ्कित नहीं कर सकता हूँ। हाँ, यदि आपकी हमारे उपर दया ही है,तो ऐसा कोई उपाय सोचिए, — जिससे मेरी यह माता मेरी मृत्यु रूप विपत्ति सेव्याकुल हो अपने प्राण न दे दे।
नायक— इसमें विचारना क्या है? उपाय तो सोचा हुआ है, परन्तु बहउपाय तो तुमारे ही हाथ में है।
** शङ्खचूडः– कथमिव?।**
** नायकः—**
म्रियते म्रियमाणे या त्वयि जीवति जीवति।
तां यदीच्छसि जीवन्तीं रक्षाऽऽत्मानं ममासुभिः॥१७॥
** — अयमभ्युपायः। तदर्पय त्वरितं वध्यचिह्नं, यावदनेनाऽऽत्मानंप्रच्छाद्य वध्यशिलामारोहामि। त्वमपि जननीं पुरस्कृत्याऽस्माद्देशान्निवर्त्तस्व। कदाचिदम्बाऽवलोक्य सन्निकृष्टं घातस्थानं स्त्रीम्वभावकातरत्वेन**
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शेष-पद्मेत्याख्याः। क्वचिदेषां नामभेदोऽपि दृश्यते स च कल्पभेदात्समाधेयः।अनुकम्पनीयाः = अनुग्राह्याः। इयं = वृद्धा नन्माता। विपत्तिविक्लवा = पुत्रशोकविपत्तिविह्वला सती। जीवितं = प्राणान्। न जह्यात् = न त्यजेत्। अभ्युपायः =उपायः। चिन्त्यतां = विभाव्यताम्। त्वदायत्तः = त्वदधीनः। कथमिव= केनप्रकारेण कोऽसावुपायः कथं च मदायत्त इति प्रश्नाशयः।
उपायमाह—म्रियत इति। या वृद्धा, त्वयि म्रियमाणे म्रियते, त्वयिजीवति = प्राणान्दधाने सति च जीवति, तां = वृद्धां मातरं यदि जीवन्तीमिच्छसि तर्हि मम - असुभिः = प्राणैः। आत्मानं = स्वशरीरं। स्वप्राणान्। रक्ष =पालय। वध्यचिह्नं मह्यं दत्त्वा गृहं गच्छ। अयमेव वृद्धाया अस्याजीवनोपायइत्याशयः। ‘पुसि भूम्न्यसवः प्राणाः’ इत्यमरः॥१७॥
सन्निकृष्टं = समीपवर्त्तिनं। घातस्थानं = वध्यशिलाम्। स्त्रीस्वभावकारत्वेन = अबलासुलभभीरुत्वेन। विपन्नानां = मृतानां,पन्नगानां = नागानाम्,
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शङ्खचूड – वह कौनसा उपाय है, कहिए।
नायक – जो तुमारे जीने से ही जो जी सकती है, तुमारे मरने से जिसकामरना निश्चित है, उस अपनी वृद्धा माता को तुम यदि वचाना चाहते हो तोफिर मेरे प्राणों से अपने शरीर को बचाओ। अर्थात्-तुमारे बदले में मुझेअपने प्राण दे देने दो ॥१७॥
यही उपाय है। अतः मुझे इस वध्यचिह्न को तुम दे दो, जिससे मैं इसे ओढकर वध्य शिला पर चढ जाऊं, और तुम यहाँ से अपनी माता को लेकर वापिस
जीवितं जह्यात्। किं न पश्यति भवानिदं विपन्नपन्नगाऽनेककङ्कालसङ्कुलं महाश्मशानम्?। तथाहि—
[चञ्चच्चञ्चू480द्धृतार्द्धच्युतपिशितलवग्राससंवृद्धगर्द्धै-
र्गृद्धैरारब्धपक्षद्वितयविधुतिभिर्बद्धसान्द्रान्धकारे।
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अनेकैः = विपुलैः, कङ्कालैः = त्वङ्मांसशून्यशरीराऽस्थिपञ्जरैः। ‘स्याच्छशीरास्थिन कङ्कालः’ इत्यमरः। सङ्कुलं = व्याप्तम्। महश्मशानं = महपितृवनम्। महतीं वध्यभुवम्। ‘श्मशानं स्यात्पितृवनम्’ इत्यमरः।
श्मशानमेव वर्णयति - चञ्चदिति। चञ्चन्तीभिः = स्फुरन्तीभिः, आहारान्वेषणभक्षणादौ भ्रमन्तीभिः चञ्चुभिः = त्रोटिभिः, (‘चञ्चुत्र्सोटिरुभे स्त्रियौ’इत्यमरः। ), उद्धृताः = निःसारिताः, गृहीताः, पुनश्च - अर्धे = अर्द्धमार्गे एव,च्युताः = पतिताः, ये पिशितस्य = मांसस्य, लवाः = खण्डाः, तेषां - ग्रासे = पुनरादाने, भक्षणे च संवृद्धः = प्रवृद्धः, उत्कटः, गर्द्धः = अभिलाषो येषान्तैःचञ्चञ्चञ्चञ्चूष्टताऽर्द्धच्युत-पिशितलव-प्राससंवृद्धगदैः = प्रचलच्चञ्चूत्कृत्तार्द्धपथप्रभ्रष्ट-मांसखण्ड-भक्षणोत्कटाऽभिलाषैः। गृद्धविशेषणमेतत्। पुनश्च आरब्धाः=प्रारब्धाः, पक्षद्वितयस्य = स्वगरुद्युगलस्य, विधुतयः = प्रकम्पा यैस्तैः - आरब्धपक्षद्वितयविधुतिभिः = प्रारब्धपक्षयुगलप्रकम्पैः। मांसभक्षणाय पक्षद्वन्द्वं विधुन्वानैरिति यावत्। एष हि गृद्धस्वभावः। एवं भूतैः गृद्धैः = दाक्षाय्यनामकैः मांसादैःपक्षिभिः। ‘दाक्षाय्यगृध्रौ’ इत्यमरः। बद्धः = कृतः, सान्द्रः = गाढः, घनः,
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पाताल को चले जाओ। क्योंकि कहीं यह तुमारो वृद्धा माता स्त्रीस्वभाव केकारण इस भीषण वध्य शिला को देखकर अपने प्राण ही न दे दे। क्या तुममरे हुए अनेक सर्पों के कङ्कालों (हड्डियों के पञ्जरों) से भयानक इस महाश्मशान को सामने नहीं देख रहे हो ?। जैसे किः—
चमचमाती हुई व फड़कती हुई अपनी चोंचों से पकड़े हुए मांस के ‘टुकड़ों को, बीच में ही छूटकर गिरते हुओं को, फिर से पकड़ने के लिये जिनकीप्रबल इच्छा है ऐसे गृनों के फैलाए हुए फडफडाते हुए लम्बे २ पंखों से जिस(श्मशान) में अन्धकार सा छा रहा है, ऐसे इस महाश्मशान में बहते हुए
वक्त्रोद्वान्ताः पतन्त्यश्छमिति481 शिखिशिखाश्रेणयोऽस्मिञ्छिवानामस्रस्रोतस्यजस्रस्रुतवहलव-सावासविस्रे482स्वनन्ति॥१८॥
** शङ्खचूडः—कथं न पश्यामि?!**
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अन्धकारो= ध्वान्तं यत्र तस्मिन् बद्धसान्द्रान्धकारे = कृतगाढान्धकारे। ‘वनंनिरन्तरं सान्द्रम्’ इत्यमरः। अस्मिन्=अस्मिन्महाश्मशाने। ’ अस्मिन्=अस्रस्स्रोतसी’ति वा। अजस्त्रं स्रुतया = परिस्रुतया, बहलया, गुणाधानं, वसया =मेदसा यो वासः = वासना, गुणाधानं, तेनविस्रं= दुर्गन्धि, तस्मिन् - अजस्त्रस्तु तबहलवसावासविस्रे= निरन्तरगलद्विपुलगाढवासम्पर्कदुर्गन्धे। अस्रस्रोतसि = रुधिरप्रवाहे। ‘विस्रं स्यादामगन्धि यत्’ इत्यमरः। शिवानां = जम्बुकानाम्। फेत्कारिणीनाम्। वक्त्रोद्वान्ताः = मुखनिः मृताः। शिखिशिखा श्रेणयः = वह्निज्वालापङ्क्तयः। ‘शिखिनां वह्निबर्हिणौ’ इत्यमरः। ’ वह्नेर्द्वयोर्ज्वालकीलावचिर्हेतिः शिखा स्त्रियाम्’ इत्यमरः। पतन्त्यः = निष्पतन्त्यः छमिति स्वनन्ति = ‘छम्’‘छम्’ ‘छन्’ ‘छन्’ इत्यव्यक्तशब्दं कुर्वन्ति। भावार्थः अत्र हि मांसखण्डग्रहणबद्धाभिलाषैर्गगने विचरद्भिर्गृध्रैर्विततस्वपक्षप्रकम्पनैर्बद्ध-गाढान्धकारे महाश्मशाने वसारुधिरप्रवाहे शिवानां मुखान्निःसृता वह्निज्वालाः ‘छम्’ छमिति ध्वनिं सर्वतः कुर्वन्ति। अतो भयानकं महाश्मशानमिदमित्याशयः। खग्धरावृत्तम्॥१८॥
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रक्त के स्रोतों में - (जिस श्मशान में या रक्तधारा में) बराबर टपकती हुईघनी व चिकनी चर्बी व मांस के सम्पर्क से भीषण दुर्गन्ध उठ रही है (ऐसी रक्तकीधारा में) शिवाओं (फेत्कारिणी, फेकरी, गीदड़ विशेषों) के मुख से निकलतीहुई अग्नि की लपटें ‘छर्न’ ‘छन्न छन्न’ करती हुई गिर रही है॥१८॥
शङ्खचूड —— क्यों नहीं देख रहा हूँ?। अर्थात् इस महा श्मशानकी भीषणता को मैं समझ ही रहा हूँ। क्योंकि यह महाश्मशान भगवान् रुद्र के शरीरकी तरह, तथा रौद्र = भीषण दिखाई दे रहा है गरुड पक्ष में अर्थ - यहश्मशान-प्रतिदिन सर्पों के आहार के कारण गरुड को प्रीति देने वाला है।
प्रतिदिनमहिनाऽऽहारेण विनायकाऽऽहित प्रीति।
शशिधवलाऽस्थिकपालं वपुरिव रौद्रं श्मशानमिदम्॥१६॥
** नायकः— शङ्खचूड! तद्गच्छ, किमेभिः सामोपन्यासैः?।**
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प्रतिदिनमिति । इदं श्मशानं दिनं दिनं प्रतीति प्रतिदिनम् = अनुदिनम् ।अहिना = सर्पेण, आहारेण = आहारभूतेन, वीनां = पक्षिणां। नायकस्य = स्वामिनः —विनायकस्य= गरुडस्य, आहिता = दत्ता प्रीतिर्येन तथाभूतं = पक्षिराजगरुडप्रमोदावहम्। किञ्च - शशिवत् = चन्द्रवत् धवलानि अस्थिकपालानि = सर्पास्थिखण्डानि यत्र तत् – शशिधवलास्थिकपालं = चन्द्रधवलसर्प कीकसखण्डमण्डितं।रुद्रस्येदं रौद्रं = शिवस्य सम्बन्धि। वपुरिव = शरीरमिव। दृश्यते इतिशेषः। (इति श्मशानपक्षेऽर्थः)।
शिवस्य वपुरपि — प्रतिदिनं = नित्यम्, अहिना = सर्पेण, हारेण = हारभूतेन—उपलक्षितम्, विनायकस्य = गणेशस्य प्रमोदावहम्। ‘विनायकस्तु हेरम्बेतार्क्ष्येविघ्ने जिते गुरौ’ इति मेदिनी। किञ्च - शशिना = चन्द्रेण शिरोभूषणेन,(तत्कान्त्या) धवलानि अस्थिकपालानि = सुण्डमाला यत्र तत् —चन्द्रभूषणं,मुण्डमाला-मण्डितं च भाति। अतः श्मशानस्य रौद्रेण वपुषा साम्यमुपदर्शितम्। रौद्रमपि श्मशानमिदं भगवतो रुद्रस्य वपुरिव शिवभक्तस्य मे शान्तिमेव जनयति न भयमित्यपि व्यङ्ग्यमत्र बोध्यम्। आर्या॥१९॥
सामोपन्यासैः = मदावर्जनपरैः सान्त्ववाक्यैः किम्। तत् = तस्मात्। अस्य
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इसमें चन्द्रमा की तरह श्वेत हड्डों व कपाल (खप्पर) इधर-उधर विखरे हुए हैं।
भगवान् रुद्र पक्ष में —जिस रुद्रमूर्ति (रुद्र के शरीर) पर सर्प ही हार कीतरह शोभित हैं, जो रुद्रमूर्त्ति - गणेश जी तथा विनायकों (गण, भूत, प्रेत) कोप्रीति देने वाली है, जिस रुद्रमूर्त्ति पर - चन्द्रमा और हड्डियों की व मुण्डों कीमाला शोभित हो रही है, ऐसी रुद्र मूर्ति की तरह हो यह महाश्मशान भयङ्करमालूम हो रहा है।
दूसरा भाव यह है कि— मैं (शंखचूड) शङ्कर भक्त हूँ। अतः यह श्मशान भी मुझे शङ्कर भगवान् की ही तरह भयप्रद नहीं मालूम होता है।
नायक - शङ्खचूड! तुम अब तुम जाओ, हमको समझाने-बुझाने का
शङ्खचूडः— आसन्नः खलु गरुडस्याऽऽगमनसमयः।
** [मातुरग्रतो जानुभ्यां स्थित्वा — ] अम्ब ! त्वमपि निवर्त्तस्वेदानीम्।**
समुत्पस्यामहे मातर्यस्यां यस्यां गतौ वयम्।
तस्यां तस्यां प्रियसुते! माता भूयास्त्वमेव नः॥२०॥
[पादयोः पतति]।
** वृद्धा483 — [सास्रं] कहं पच्छिमं से वअणं?। (पुत्तअ ! ण क्खुतुमं उज्झि मे पाआ अण्णदो वहति। इह ज्जेव्व तुए सह चिट्ठिसं)।**
** [कथमस्य पश्चिमं वचनम्?। (पुत्रकन खलु त्वामुज्झित्वा मे पादावन्यतो वहतस्तदिहैव त्वया सह स्थास्यामि)]**
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श्मशानस्यातीव रौद्रत्वात् (भयानकत्वात्) गच्छ = इतोऽपसर। अम्ब= हे मातः। निवर्त्तस्व = प्रतियाहि। गृहं गच्छ।
समुपत्स्यामहे इति। प्रियः सुतो यस्याः सा,तत्सम्बुद्धौ —हे प्रियसुते = हे पुत्रवत्सले। मातः = हे अम्ब ! यस्यां यस्यां गतौ = योनौ, वयं समुपत्स्यामहे =कर्मपरवशा वयं जनिष्यामहे। तस्यां तस्यां गतौ = योनौ, त्वमेव नः =अस्माकं, माता = जननी, भूयाः = भव। आशिषि लिङ्॥२०॥
पश्चिमम् = अन्तिमम्। उज्झित्वा = त्यक्त्वा। अन्यतः = अन्यस्यां दिशि,
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वृथा प्रयत्न क्यों कर रहे हो?।
शङ्खचूड — गरुड़ के आने का समय हो गया है। [माता के आगे घुटनाटेक कर] अम्ब! तुम भी अब जाओ।
जिस जिस योनि में हम कर्मवश उत्पन्न हों, उस में हे पुत्रवत्सले! हमारीतू ही माता हो यही भगवान् से प्रार्थना है। [माता के पैरों में पड़ता है]॥२०॥
वृद्धा — (रोती हुई —) हाय! यह तो इसका अब अन्तिम वचन ही मालूम होता है। [पुत्र! तेरे को छोड़ कर मेरे पैर दूसरी ओर उठते (चलते) ही नहीं है, अतः मैं तो तेरे पास ही रहूँगी]।
[शङ्खचूडः484]—[उत्थाय] यावदहमप्यदूरे भगवन्तं दक्षिणगोकर्णं प्रदक्षिणीकृत्य स्वाम्यादेशमनुतिष्ठामि।
[उभौ निष्क्रान्तौ]।
** नायकः— कष्टम्। न सम्पन्नमभिलषितम्। तत्कोऽत्राभ्युपायः?।**
** कञ्चुकी —[तरसा प्रविश्य —] इदं वासोयुगम्।**
** नायकः —[दृष्ट्वा सहर्षमात्मगतं] दिष्ट्या सिद्धमभिवाञ्छित-**
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प्रदेशे वा। वहतः = प्रचलतः। गच्छतः। यावत् = यावत्पर्यन्तं गरुड आयाति,माता च गृहं गच्छति तावदेव। यावत् = शीघ्रमेव। यावदित्यस्य स्थाने’जवा’ दिति पाठान्तरम्। अदूरे = निकट एव स्थितं, दक्षिणगोकर्ण = दक्षिणदिक्स्थं गोकर्णेश्वरम्। प्रदक्षिणीकृत्य = प्रदक्षिणं विधाय। गोकर्णेश्वरदर्शनंकृत्वा।स्वाम्यादेशं = वासुकिनिर्देशम्। अनुतिष्ठामि = पालयामि। गोकर्णतीर्थं हि द्विविधं — दक्षिणगोकर्णतीर्थम्, उत्तरगोकर्णतीर्थञ्च। तत्र दक्षिणगोकर्णतीर्थंमलयपर्वतस्य (मलयालमप्रान्तस्य) निकटे एव वर्त्तते। उत्तरगोकर्णतीर्थञ्च मध्यदेशे (युक्तप्रान्ते ‘गोला गोकर्णनाथ’ इति प्रसिद्धे स्थाने) वर्त्तते। उभौ =नागमाता, तत्पुत्रः शङ्खचूडश्च।
अभिलषितं = मनोरथः। परोपकाराय प्राणदानरूपः। अत्र = मनोरथसिद्धौ।अभ्युपायः = उपायः। तरसा = वेगेन। इदं वासोयुगं — ‘वधूजनन्या प्रेषितं पर’धत्स्वे’तिशेषः। वाक्यस्य मध्ये एव जीमूतवाहनस्तर्कयति सहर्षमिति। दिष्ट्या=
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शङ्खचूड — (उठकर) मैं भी तब तक पास में ही स्थित दक्षिण गोकर्णेश्वरकी प्रदक्षिणा कर नागराज वासुकि की आज्ञा पालन करता हूँ। (दोनों जाते हैं।)
नायक —बडे दुःख की बात है, मेरा अभीष्ट सिद्ध नहीं हुआ। क्योंकि इसनाग ने वध्यचिह्न मुझे नहीं दिया।अब क्या उपाय करूं?।
कञ्चुकी — (जल्दी से आकर) लाल वस्त्र का यह जोड़ा (है, लोजिए)।
नायक — (देखकर हर्षित हो, मन में —) बड़े आनन्द की बात है कि, सहसा
मनेनाऽतर्कितोपनतेन रक्तांशुकयुगलेन।
** कञ्चुकी — इदं वासोयुगं देव्या मित्रावसुजनन्या कुमारायप्रेषितम्। तदेतत् परिधत्तां कुमारः।**
** नायकः— [सादरम्] उपनय।**
[कञ्चुकी—उपनयति]!
** नायकः— [गृहीत्वाऽऽत्मगतम्] सफलीभूता में मलयवत्याःपाणिग्रहः। [प्रकाश] कञ्चुकिन्! गम्यतां मद्वचनादभिवादनीया देवी।**
** कञ्चुकी —यदाज्ञापयति कुमारः। [— इति निष्क्रान्तः]।**
** नायकः—**
वासोयुगमिदं रक्तं प्राप्ते काले समागतम्।
महतीं प्रीतिमाघते परार्थे देहमुज्झतः ॥२१॥
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आनन्दावसरोऽयम्। अतर्कितोपनतेन — सहसा स्वयमेव समुपस्थितेन। कुमाराय =भवते जीमूतवाहनाय। अभिवादनीया = प्रणम्या। प्रणामानन्तरमाशीर्वादं चप्रार्थनीया। वासोयुगमिति।
इदं रक्तं वासोयुगं = रक्तं वस्त्रयुगलमिदं। प्राप्ते काले = उचिते समये।
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प्राप्त हुए इस (लाल वस्त्र) से मेरा मनारथ सिद्ध हो गया।
कञ्चुकी— इस लाल (माङ्गलिक) वस्त्र के जोड़े को मित्रावसु की माता नेआपको भेजा है, इसे आप पहिन लें।
नायक — (आदर पूर्वक) लाओ दो।
[कञ्चुकी — वस्त्र देता है]।
नायक — (लेकर, मन ही मन) आज मेरा मलयवती से विवाह करनासफल हो गया। (प्रकट में) कञ्चुकिन् ! तुम जाओ। और महारानी जी कोमेरा प्रणाम कह देना।
कञ्चुकी – जैसी कुँवरजी की आज्ञा। (जाता है )।
नायक — उचित अवसर (मौके) पर आए हुए इस लालवस्त्रों के जोड़े
(दिशोऽवलोक्य—) यथाऽयं चलितमलयाऽचलशिखरशिलासञ्चयःप्रचण्डो नभस्वाँस्तथा तर्कयाम्यासन्नीभूतः खलु पक्षिराज इति ।
** तथाहि—**
तुल्याः संवर्त्तकाभ्रैःपिदधति गगनं पङ्क्तयः पक्षतीनां,
तीरे485 वेगानिलोऽम्भः क्षिपति भुव इव प्लावनायाम्बुराशेः486 ।
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समागतं = प्राप्तं सत्। परार्थे = नागार्थे। देहमुज्झतः = शरीरं त्यजतो मम।महतीं = विपुलां, प्रीतिं = हर्षम्। आधत्ते = विधत्ते। ददाति। ‘मुत् प्रीतिःप्रमदो हर्षः’ इत्यमरः॥२१॥
चलिताः = उत्पतिताः, मलयाचलस्य शिखराणां = शृङ्गाणां, शिलानां = प्रस्तरखण्डानां सञ्चया येनासौ—चलितमलयाऽचलशिखरशिलासञ्चयः = उत्थापितमलयगिरिशिलाखण्डराशिः। प्रचण्डः = प्रखरतरः। नभस्वान् = पवनः। झञ्झानिलः।प्रवहतीति शेषः। तथा = तेन हेतुना। आसन्नीभूतः = सन्निहितः। खलु—निश्चयेन।पक्षिराजः = गरुडः।
पक्षिराजागमनसूचकचिह्नानि विवृणोति — तुल्या इति। संवर्त्तकाऽभ्रैः=प्रलयकालजलधरैः। तुल्याः = संनिभाः। सदृश्यः। पक्षतीनां = पक्षमूलानां।‘पङ्क्तयः = श्रेणयः। गगनम् = आकाशमण्डलम्। गगनाङ्गणम्। पिदधतिआच्छादयन्ति। संवृण्वते। ‘संवर्गः प्रलयः कल्पक्षयः कल्पान्त इत्यपि’ इत्यमरः।‘अभ्रं मेघो वारिवाहः’ इत्यमरः। ‘पक्षतिस्तु भवेत्पक्ष मूले च प्रतिपत्तिथौ’ इति मेदिनी।
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से परोपकारार्थ अपर्ने देह का देने के लिए तैयार बैठे हुए मुझको बड़ी प्रसन्नताहो रही है ।२१ ।
(चारों ओर देखकर —) जिस प्रकार यह मलयपर्वत के शिखरों के बड़े बड़ेपत्थरों को उडाता हुआ यह प्रचण्ड पवन चल रहा है, इससे मालूम होता हैकि— पचिराज गरुड पासही में आ पहुँचे हैं।
जैसे — प्रलय काल के मेघों की तरह भीषण व प्रचण्ड, विस्तृत पँखों सेआकाश ढक गया है। समुद्र के जल को यह प्रचण्ड पवन, तीर की ओर ऐसे
कुर्वन् कल्पान्तशङ्कां सपदि च सभयं वीक्षितो दिग्द्विपेन्द्रै-
र्देहोद्योतो487 दशाऽऽशाः कपिशयति मुहुर्द्वादशा488दित्यदीप्तिः।२२।
तद्यावदसौ नागच्छेच्छङ्खचूडस्तावत्त्वरिततरमिमां वध्यशिलामा-
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किञ्च – वेगाऽनिलः= चण्डाऽनिलः। अम्बुराशेः = समुद्रस्य। अम्भः = जलं।भुवः = पृथिव्याः। प्लावनायेव = मज्जनायेव। तीरे = तटे। क्षिपति = प्रक्षिपति।उदञ्चति। अत्र- ‘तीरं वेगान्निरस्तं क्षिपति भुव इव लावनायाम्बु सिन्धोः’ इतिपाठान्तरं तन्न शोभनम्।
च = किञ्च। जनानां - सपदि = एकपदे एव। कल्पान्तशङ्कां =प्रलयशङ्कां।कुर्वन् =जनयन्। दिग्द्विपेन्द्रैः= ऐरावतादिभिष्टरभिर्दिक्कुञ्जरेन्द्रैः। सभयं =ससाध्वसं। वीक्षितः = दृष्टः।द्वादशादित्यदीप्तिः = युगपदुदितप्रलयकालिकद्वादशसूर्यप्रभः। देहोद्द्योतः = (गरुड) शरीरप्रकाशः। ‘प्रकाश द्योत आतपः’इत्यमरः। मुहुः = वारं वारं। दशाऽऽशाः = दश दिशः। कपिशाः = श्यावरुचीः।ईषत्पीतकृष्णाभाः, ‘श्यावः स्यात्कपिशः’ इत्यमरः। करोति-कपिशयति=देहोद्द्योतैर्विधत्ते’ इति पाठस्तु नैव रुचिरः। ’ शिशुद्वादशादित्यदीप्तिः’ इति पाठान्तरं। बालद्वादशादित्यप्रभ इति च तदर्थः। प्रलयकाले हि जगद्विनाशाय द्वादशाऽऽप्यादित्या युगपदुदितास्तपन्तीति पुराणविदुः। अत्र च– पूर्वपक्षतिच्छायायाः, ततो जलधिजलक्षोभस्य, ततो गरुडदेशप्रभाविसरस्य च क्रमशो दर्शनाद्वर्णनंकविना कृतम्। स्रग्धरा वृत्तम्॥२२॥
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फेक रहा है - मानों पृथिवीका ही यह डुबा देना चाहता है। और प्रलय कालकी शङ्का उत्पन्न करने वाला, अष्ट दिग्गजों से भी अकाल में प्रलय की शङ्का सेभय पूर्वक देखा गया, प्रलय काल में बारह मासों के बारहों सूर्योों के एक साथउदय होने से जैसी भयानक कान्ति होती है वैसी प्रचण्ड कान्ति बाला, यह गरुडकी देह का प्रकाश-दशों दिशाओं को कपिश (लाल काले) रंग की कर रहा है।अतः गरुड आ ही गए हैं।२२।
अतः जब तक शङ्खचूड न आजाये तब तक मैं जल्दी से इस वध्यशिला पर
रोहामि। [तथा कृत्वा, उपविश्य स्पर्शं नाटयति—] अहो स्पर्शोऽस्याः–
न तथा सुखयति489मन्ये मलयवती मलयचन्दनरसाऽऽर्द्रा ।
अभिवाञ्छितार्थसिद्ध्यै वध्यशिलेयं यथाऽऽश्लिष्टा490॥२३॥
** अथवा किं मलयवत्या?।**
शयितेन मातुरङ्के विस्रब्धं शैशवे न तत् प्राप्तम् ।
लब्धं सुखं मयाऽस्या वध्यशिलाया यदुत्सङ्गे॥२४॥
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अभिवाञ्छितार्थसिद्ध्यै = परोपकारार्थं। स्वशरीरदानरूपाऽभिलषितार्थसिद्ध्यर्थम्।आश्लिष्टा = आलिङ्गिता। स्पृष्टा। इयं वध्यशिला = वध्यनागारोहणशिला। यथा सुखयति = यथा मामानन्दयति। तथा = तेन प्रकारेण। मलयचन्दनरसाऽऽर्द्रा = मलयोद्भूतचन्दनद्रवार्द्रा। मलयवती = मत्प्रिया मलयवत्यपि,आश्लिष्टा न सुखयति = न मे सुखमुत्पादयति। इति मन्ये = तर्कयामि ।सुखयति मनो’ इति पाठान्तरम्। आर्या जातिः ॥२३॥
किं मलयवत्या = मलयवत्याऽत्र किं प्रयोजनम्। मरणसमये प्रियादिस्मरणस्याऽनुचितत्वात्। कातरत्वप्रतीतेः। यद्वा - ‘मलयवत्या न सुखमित्येव किं स्वल्पंमया कथ्यते, ततोऽध्यधिकस्य मातुरङ्कस्यापीदृशः स्पर्शो नेत्याशयो बोध्यः।
शयितेनेति। शैशवे = बाल्ये। ‘शिशुत्वं शैशवं बाल्यम्’ इत्यमरः। मातुः=जनन्याः। अङ्के = उत्सङ्गे। ‘उत्सङ्गचिह्नयोरङ्कः’ इत्यमरः। विस्रब्धं = निर्भयम्।सविश्वासं यथा स्यात्तथा। ‘समौ विस्रम्भविश्वासौ’ इत्यमरः। ‘विश्रब्ध’ इति
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चढ़ जाता हूँ। (वध्य शिला पर चढकर, उसके स्पर्श का अभिनय करता है)।अहा! इस वध्यशिला का कैसा मनोहर स्पर्श है !।
चन्दन के द्रव से आर्द्र = शीतलाङ्गी अपनी प्राण प्रिया मलयवती केआलिङ्गन से भी जैसा सुख मुझे कभी नहीं प्राप्त हुआ वैसा सुख परोपकार के(एक प्राणी के प्राण बचाने के) लिए इस वध्य शिला के आलिङ्गन (स्पर्श) से मुझे प्राप्त हो रहा है॥२३॥
अथवा–मलयवती की तो बात ही क्या है, किन्तु—बाल्य अवस्था में
तदयमागतो गरुत्मान्, यावदात्मानमाच्छादयामि।
[तथा करोति]
** गरुडः—**
क्षिप्त्वा491 विम्बं हिमांशोर्भयकृतवलयां संस्मरज्छेषमूर्त्तिं,
सानन्दं स्यन्दनाश्वत्रसनविचलिते पूष्णि दृष्टोऽग्रजेन।
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तालव्यशकारघटितोऽपि पाठः। गयितेन = सुप्तेन मया। तत् = सुखं। न प्राप्तं =नाऽधिगतम्। यत् = यच्च (सुखम्)। अस्या वध्यशिलायाः - उत्सङ्गे = क्रोडे।अङ्के। सुखं मया लब्धम्। मातुरङ्के सुप्तेनाऽपि तादृशं सुखं मया न लब्धं यादृशमत्रवध्यशिलायां मयाऽनुभूयते इत्याशयः। आर्या॥२४॥
अथ वैकुण्ठान्मलयपर्वतं प्राप्तो गरुडः स्वमार्गवृत्तं वर्णयति — क्षिप्त्वेति।भयकृतबलयां = मद्दर्शन्जन्यभयेन कुण्डलीकृतदेहाम्। शेषमूर्तिं = वैकुण्ठे दृष्टांविष्णुशय्यास्थितशेषनागमूर्तिं, वैकुण्ठेऽनुभूतां, संस्मरन् = विचिन्तियन्। ‘कथमयं विष्णुतल्पतां गतः शेषोऽपि मत्संपातभयात्कुण्डलितवपुर्जात’ इति मनसिस्मरन्। एतेन गरुडेन स्वस्य वैकुण्ठलोकादागमनं सूच्यते। ततश्च–हिमांशोः =शीतरुचेश्चन्द्रस्य। ‘हिमांशुश्चन्द्रमाश्चन्द्रः’ इत्यमरः। बिम्बं = मण्डलं। ‘बिम्बोऽस्त्री मण्डलं त्रिषु’ इत्यमरः। क्षिप्त्वा= स्वपक्षोत्थत्रानेनोङ्क्षिप्य। ‘दृष्ट्वा’ इतिपाठे - ततश्चन्द्रमण्डलं दृट्वेत्यर्थोबोध्यः। विष्णुपदस्याऽधश्चन्द्रमण्डलस्यावस्थितेः।ततश्च पूष्णि = सूर्ये। स्यन्दनस्य = सूर्यरथस्य, ये अश्वाः = वाजिनः,तेषां
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माता कीगोद में निर्भयता पूर्वक सोने में भी जो सुख नहीं मिला था वही सुखइस वध्य शिला की गोद में सोने में मिल रहा है॥२४॥
लो, गरुड़ भी आगया, अतः मैं जल्दी से अपने शरीर को इन लाल वस्त्रोंसे ढक लेता हूँ।
(लाल वस्त्रों से अपने शरीर को ढक कर वध्य शिला पर लेट जाता है)।
गरुड़ — वैकुण्ठ धाम से भगवान् विष्णु की सेवा से छुट्टी पाकर जब मैंउडने को तैयार हुआ उस समय मेरे झपट्टे के भय से भगवान् की शय्या मेंस्थित शेषनाग भी सिकुड गया था, उसकी उस दशा को मन ही मन स्मरण कर
एष प्रान्तावसज्जज्जलधरपटलाऽत्यायतीभूतपक्षः,
प्राप्तो वेलामहीध्रंमलयमहमहिग्रासगृध्नुः क्षणेन ॥२५॥
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त्रसनेन = उद्वेगेन, भयेन, विचलिते = प्रकम्पिते सति। अग्रजेन = मज्ज्येष्ठभ्रात्रासूर्यसारथिनाऽरुणेन। सानन्दं = सहर्षं, दृष्टः = अनुजप्रभावदर्शनप्रीतेन विलोकितः। चन्द्रमण्डलानन्तरं हि सूर्यमण्डलमधो लभ्यते, तत्र सूर्यस्याश्वा मत्पक्षवातेन त्रस्ताः तेषां त्रासाच्च रथस्थो भगवान् आदित्योऽपि कम्पमवापेतिमत्प्रभावदर्शनप्रीतेनाऽरुणेन स्वाग्रजेनाऽहं सहर्षं भ्रातृस्नेहादवलोकितोऽस्मीत्युक्त्याचन्द्रमण्डलात्सूर्यमण्डलप्राप्तिः, सूर्यरथाश्वत्रासात्सूर्यस्यापि कम्पः भ्रात्रा सह समागमश्चेति सूचितम्। ततः सूर्यमण्डलादधो याने च मेघमण्डलप्राप्तिर्जातेति सूचयन्नाह – एष इति। प्रान्ते = शरीरप्रान्ते, अवसज्जद्भिः = पक्षवाततवेगात्संश्लिष्यद्भिः, जल-
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हंसता हुआ, फिर कुछ नीचे आने पर माग मे पडने वाले चन्द्रमा क मण्डलको भी अपने पंखों के थपेडों से हिलाता -डुलाता हुआ, फिर उससे भी नीचे उतरनेपर सूर्य लोक में पहुँचने पर मेरी प्रचण्ड झपट के तथा पंखो के आघात के भयसे त्रस्त सूर्य के घोड़ों के भड़क उठने से सूर्य को भी विचलित करता हुआ,और सूर्य के सारथि अपने बड़े भाई अरुण के द्वारा आनन्द पूर्वक देखा गया, फिर सूर्य मण्डल से भी कुछ नीचे उतरने पर मेघ मण्डल में आकर पवनके वेग से मेरे शरीर के प्रानी भागों (पंख आदि आगे पीछे के भागों) में’लपटने वाले मेघों के समूह से और भी लम्बी चौड़ी पाँख जिसकी दीखनेलगी — ऐसा यह मैं गरुड़, कुछ और नीचे उतर कर भूमण्डल पर आकर इसवेलापर्वत मलयाचल पर सर्पों को खाने के लिए क्षण मात्र में ही पहुंच गया हूँ।
भावार्थ — गरुड़ जी वैकुण्ठ में भगवान् को सेवा में रहते हैं, वहाँ सेमलयाचल के लिए चले तो शेष नाग उनको झपटने के लिए तैयार देखकर— ‘यह कहीं मेरे ऊपर ही न टूट परे’ इस डर से सङ्कुचित हो गए।उन्हें इस तरह भयभीत देखकर गरुड़जी मन ही मन, खूब हँसे और रास्तेभर उस शेष की उस मूर्ति को याद करते हुए चले। फिर वैकुण्ठ से नीचेचन्द्रमण्डल में पहुँचे, वहाँ चन्द्रमा को अस्त व्यस्त करतेहुए नीचे उतरे तो सूर्यलोक मिला। वहाँ सूर्य के रथ के घोड़ों कीलगाम में
नायकः — [सपरितोषम्–]।
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धराणां = मेघानां, पटलैः = मण्डलैः, अत्यायतीभूतौ = अतिविस्तृतौ, पक्षौ यस्यासौ—प्रान्ताऽवसज्जज्जलधरपटलाऽत्यायतीभूतपक्षः = शरीरप्रान्तभागसंश्लिष्यद्वनसमूहसम्बन्धदीर्घभूतपक्षः। ‘गरुत्पक्षच्छदाः पत्र पतत्रं च तनूरुहम्’ इत्यमरः।पक्ष वातनुन्नमेघपक्तिसम्पर्केण प्रवृद्धावपि मत्पक्षौ पुनरप्यतिवृद्धिमिव गताविति भावः। एतेन स्वस्य मेघमण्डलोल्लङ्घनं सूचितम्। अहीनां ग्रासे = भक्षणे, गृध्नुः =लुब्धः— अहिग्रासगृध्नुः = सर्पभक्षणाभिलाषुकः। एषोऽहम् = अयनहंविष्णुवाहनं काश्यपिर्गरुडः। वेलामहीध्रं = वेलास्थितं पर्वतं। मलयं = मलयनामानम्। क्षणाव्प्राप्तः = क्षणमात्रेणैवायातः। अनेककोटियोजनमितस्य वैकुण्ठाद्भूधरमार्गस्यक्षणेनैवोल्लङ्घनादतिजवशालित्वमात्मनः स्फुटीकृतम्। महीं धरतीति महीध्रः = पर्वतः। ‘महीध्रेशिखरिक्ष्माभृवहार्यधरपर्वताः’ इत्यमरः। गृध्यति तच्छीलोगृध्नुः।‘वेला काले च सीमायामब्धिकुलविकारयोः’ इति मेदिनी। वेलामहीध्रं =समुद्रकूलस्थितं पर्वतम्। स्रग्धरा वृत्तम्॥२५॥
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सात नाग लगे हुए हे, वे गरुड़ को आया देखकर भयभीत हो गए, तबबिना लगाम के सूर्य के घोड़े उछल कूद करने लगे, जिससे रथ मेंबैठे भगवान् सूर्य भी विचलित हो उठे। तब सूर्य के सारथि अरुण (जोगरुड के बड़े भाई हैं) को अपने छोटे भाई के इस प्रकार प्रताप को देखकर बड़ा आनन्द हुआ। वहाँ अपने बड़े भाई अरुण से देखा-देखी कर गरुडनीचे उतरे, तो मेघमण्डली उन की पंखों की प्रचण्ड हवा के झोकों से उनकेशरीर के अगल बगल में तथा पंखों में आकर लिपट गए, जिससे गरुड कोलम्बी लम्बी पाँख और भी लम्बी मालूम पड़ने लगी। वहाँ से नीचे उतरे तोभूमण्डल आ गया तब क्षणमात्र में मलय पर्वत- जो समुद्र के अतिनिकटहै – उस पर पलक मारते गरुड जी पहुँच गए। सबसे ऊपर वैकुण्ठ लोक है,उससे नीचे चन्द्रमण्डल है उससे नीचे सूर्य मण्डल है, उससे नीचे सप्त वायुमण्डल हैं और मेघ मण्डल है, उसके नीचे भूमण्डल है। यह मलय पर्वत ‘मलयालम’के ‘पश्चिमी घाट’ नामके पर्वत के पास से आज कल दक्षिण में प्रसिद्ध है॥२५॥
नायक—(सन्तोष के साथ)—
संरक्षता पन्नगमद्य पुण्यं मयाऽर्जितं यत्स्वशरीरदानात् ।
भवे भवे तेन ममैवमेवं भूयात् परार्थः492 खलु देहलाभः ॥२६॥
** गरुडः— [नायकं निर्वर्ण्य–]**
अस्मिन्वध्यशिलातले निपतितं शेषानहीन् रक्षितुं,
निर्भिद्याऽशनिदण्डचण्डतरया चञ्च्वाऽधुना वक्षसि।
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नायकः स्वमनोरथसिद्धिं मन्यमान आशास्ते – सरक्षतेति । स्वशरीरदानात्अद्य पन्नगं = नागं शङ्खचूडं, संरक्षता = पालयता, मया यत्पुण्यं = धर्मः, अर्जितं = लब्धं, तेन = पुण्यप्रभावेण मम एवमेव = इत्थमेव भवे भवेजन्मनि जन्मनि ।परार्थः = परोपकारार्थः, देहलाभः खलु = शरीरप्राप्तिः खलु। भूयात् = उदीयात्। उपजातिर्वृत्तम्॥२६॥
निर्वर्ण्य = नितरां दृष्ट्वा। गरुडो मनोरथं प्रकटयति–अस्मिन्निति। शेषान् =एतदतिरिक्तान् अवशिष्टान्। अहीन् = सर्पान्। रक्षितुं = त्रातुम्। अस्मिन् वध्यशिलातले–निपतितं = प्रसुप्तम्। निविष्टं। मत्तो भयेन दीर्यमाणात् हृदयात्प्रस्यन्दते तच्छीलेन-मद्भयदीर्यमाणहृदयप्रस्यन्दिना = मदीयचञ्चुपातभीतिस्फुटितहृदयप्रवाहिणा। असृजेव = रक्तेनेव। दिग्धं = प्रलिप्तम्। रक्ताम्बरप्रावृतं=रक्तवसनावृतम्। भोगिनं = सर्पम्। अधुना। अशनिदण्डचण्डतरया = वज्रदण्डप्रचण्डतरया।अतितीक्ष्णया। चञ्च्वा = त्रोट्या। तरसा = वेगेन जवेन।बलात्कारेण वा। ‘तरसी बलरंहसी’ इत्यमरः। निर्भिद्य = विदार्य। भोक्तुमुद्धरामि=
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आज अपने शरीर को नागके बदले में देकर नाग की रक्षा करने से जो पुण्यमुझे प्राप्त हुआ है, उससे मुझे जन्मान्तर में भी इसी प्रकार परोपकार मेंलगाने के लिए देह मिलता रहे। अर्थात् जन्मान्तर में भी मेरा शरीर परोपकारके काम में ही आवे॥२६॥
गरुड़ - (नायक को अच्छी तरह गौर से देखकर) —दूसरे नागों की रक्षा के लिए इस वध्य शिला पर पड़े हुए, रक्त वस्त्र सेढके हुए इस नाग को, जो मेरे डर से फटे हुए हृदय से निकलते हुए रक्त
भाक्तुं भोगिनमुद्धरामि तरसा रक्ताम्बरप्रावृतं,
दिग्धं मद्भयदीर्य्यमाणहृदय प्रस्यन्दिनेवाऽसृजा॥२७॥
** [—इत्यभिपत्य नायकं गृह्णाति ]।**
** [नेपथ्ये-पुष्पाणि पतन्ति। दुन्दुभयश्च स्वनन्ति]।**
** गरुडः—[ऊर्ध्वं दृष्ट्वाऽऽकर्ण्य च] अये पुष्पवृष्टिर्दुन्दुभिध्वनिश्च।**
** [—सविस्मयम्] अये !**
आमोदानन्दिताऽलिर्निपतति किमियं पुष्पवृष्टिर्नभस्तः?,
स्वर्गे किं वैष चक्रं मुखरयति दिशां दुन्दुभीनां निनादः?।
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आहाराय गृह्णामि। उत्थापयामि। दण्डपदोपादानं चञ्च्वा दीर्घत्वस्य सूचनाय।इति न गपक्षेऽर्थः।
जीमूतवाहनपक्षे – शेषानहीन् रक्षितुं वध्यशिलातले निपतितं, रक्ताम्बरप्रावृतं मद्भयविदीर्णवक्षः-स्थलप्रवाहितरुधिरधाराप्रलिप्तमिव प्रश्यमानमेनं भोगिनं= विद्याधरराजवंशप्रसूतं जीमूतवाहनं तरसा अशनिदण्डप्रचण्डतरया चञ्च्च्वोद्धरामिउदरं निर्भिद्येत्यर्थोबोध्यः। ‘भोगी भुजङ्गमेऽपि स्याद्ग्राममात्रनृपे पुमान्’ इतिमेदिनी। ‘उरगः पन्नगो भोगी’ इत्यमरः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥२७॥
आमोदेन = कल्पवृक्षपुष्पाणामत्याकर्षकेण सुगन्धेन आनन्दिता अलयो =भ्रमरा यया सा-आमोदाऽऽनन्दिताऽलिः = दिव्यकुसुमामोदसमाकृष्टभ्रमरकुला।इयं पुष्पवृष्टिः = दृश्यमानेयं कुसुमवृष्टिः। नभस्तः = गगनात्। किं निपतति =
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से ही मानो लाल हो रहा है—अपनी प्रचण्ड वज्र दण्डसम कठोर चञ्चु केआघात से इसका वक्षःस्थल फाड़ कर, झपट्टा मार कर खाने के लिएपकड़ लेता हूँ॥२७॥
[झपट कर नायक को पकड़ लेता है]।
[नेपथ्य में— नायक के इस धैर्य से प्रसन्न हो देवताओं द्वारा पुष्पों कीवर्षा होती है। स्वर्ग के नगाड़े बज उठते हैं]।
गरुड़ — (उपर आकाश की ओर देखकर, तथा नगाडों की आवाज सुन कर—) हैं! यह फूलों की वृष्टि और नगाड़ों की घड़घड़ाहट कैसी हो रही है!।
** [विहस्य —]**
आं ज्ञातं! सोपि मन्ये मम जवमरुता कम्पितः पारिजातः,
सर्वैः संवर्त्तकाभ्रैरिदमपि रसितं जातसंहारशङ्कैः॥२८॥
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कुतो हेतोर्निपतति?। स्वर्गे = सुरलोके। दुन्दुभीनां = ‘नगारा’ इत्याख्यवाद्यविशेषाणां। निनादः = शब्दः। गम्भीरमधुरो ध्वनिः। दिशां चक्रं = दिङ्मण्डलम्। किं वा = कुतो वा। कस्माच्च। मुखरं करोति - मुखरयति = प्रतिध्वनिनाप्रतिनादयति। इत्थं प्रश्नद्वयमुद्भाव्य स्वयमेवोत्तरयति - आं ज्ञातमिति। ‘आं’इति स्मरणाऽभिनये। ज्ञातं = विज्ञातं मया। तत्र नभसः पुष्पवृष्टेः कारणं तर्कयति सोऽपीति। मम जवमरुता = वेगोद्भतेन झञ्झानिलेन। सोऽपि = नन्दनोद्यानगतोऽपि। पारिजातः=कल्पवृक्षः। कम्पितः = प्रचलितः। अतो नभोभागात्प्रसूनवृष्टिरियं भवति।द्वितीयप्रश्नस्योत्तरमाह — सर्वैरिति। जातसंहारशङ्कः = मत्पक्षोत्थझन्झानिलात् सञ्जातप्रलयकालशङ्कैः। सर्वैः = सकलैरपि। संवर्त्तकाभ्रैः=प्रलयकालप्रचण्डकालमेघैः। इदं रसितं = गर्जनमिदं युगपत्क्रियते। इति मन्ये = अहं तर्कयामि।एवञ्च नायं दुन्दुभिध्वनिः, किन्तु कल्पान्तमेघध्वनिरित्याशयः। नायकस्य महासत्त्वस्य साहसं, परोपकारपरायणतां च दृष्ट्वा देवैर्दिव्यानि पुष्पाणि तच्छिरसिपातितानि, देवदुन्दुभयश्च स्वर्गे नेदुरिति तु—द्रष्टव्यम्। इयं वस्तुस्थितिरिह गरुडेनान्यथा सम्भाव्यते। मदीयपराक्रमेणैवेयं पुष्पवृष्टिर्दुन्दुभिनादश्चेति गरुडस्या-
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(आश्चर्य के साथ)—अहो! [सुगन्ध से आनन्दित हो भ्रमर जिन पर गूज रहेहैं ऐसे दिव्य पुष्पों की वृष्टि आकाश से क्यों हो रही है?। और स्वर्ग में बजनेवाले नगाड़ों का यह शब्द दशों दिशाओं को क्यों व्याप्त कर रहा है?। (हंसकर -) ओह! मैं समझ गया, मेरे पंखो की प्रचण्ड वायु के झकोरों से स्वर्ग काकल्पवृक्ष पारिजात भी हिल उठा है, उससे ही ये पुष्प गिर रहे हैं। और मेरेपंखो के प्रचण्ड पवनों से व मेरो देह की भीषण कान्ति से प्रलय काल की भ्रान्तिहो जाने से प्रलयकाल में गर्जने वाले संवर्त्तक मेघ ही गरज रहे हैं। अर्थात्यह दुन्दुभि नहीं बज रही है किन्तु प्रलय काल के मेघ ही प्रलय आया समझ करएक साथ गर्ज रहे हैं। नायक के सत्व को देखकर प्रसन्न हो देवताओं ने पुष्पवृष्टि की थी, स्वर्ग में फूल वर्षाए गए हैं, देव दुन्दुभि की ध्वनि की
नायकः — [आत्मगतं] दिष्ट्या कृतार्थोऽस्मि।
** गरुडः — [नायकं कलयन्]—**
नागानां रक्षिता भाति गुरुरेष यथा मम।
तथा सर्पानाऽऽकाङ्क्षां493 व्यक्तमद्यापनेष्यति॥२९॥
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शयो नायकपरिचयगोपनार्थमेवात्र कविना निबद्धो, न गरुडगप्रदर्शनाय।स्रग्धरावृत्तम्॥२८॥
दिष्ट्या—आनन्दावसरोऽयम्। कृतार्थः = कृतकृत्यः, परोपकाराय स्वशरीरव्ययात्। कलयन् = आकलचन्। पश्यन्। विमृशन्। विमर्शमेवोपनिबध्नातिगरुडः—
नागानामिति। एवः = मया गृहीतः, नागानां रक्षिता = स्वशरीरदानेननागानां रक्षको नागः, नायको वा, यथा येन प्रकारेण, गुरुः = विपुलभारः। महत्उपदेष्टा च। भाति = दृश्यते, प्रतिभासते च, तथा = तेन प्रकारेण मन्यं मम सर्पऽशानाकाङ्क्षां = नागभक्षणेच्छाम्, अद्य व्यक्तं = नूनं स्फुटम्, अपनेष्यति = दूरीकरिष्यति। अस्य विपुलशरीरत्वादेतद्भक्षणेन मे तृप्तिर्भविष्यतीति गरुडाशयः।अनेन–‘अयं गुरुर्जीमूतवाहनो सम सपऽशनव्यसनमुपदेशेन स्वेन अपनेष्यती’त्यर्थस्याऽप्यत्रस्फुटं प्रतीत्या प्रकृतेन नागग्रहणादिना भाविनोऽर्थस्य गरुडप्रतिज्ञा-
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गई है। पर गरूड अभिमान वश इसे अपने पराक्रम से पुष्पों का गिरना औरप्रलय मेघों का गर्जन समझ रहा है॥२८॥
नायक—आनन्द की बात है कि आज मेरा जन्म कृतार्थ हो गया।
गरुड—(नायक को देखता (घूरता) हुआ -) यह नागों की रक्षा करनेवाला (नाग) जिस प्रकार बड़ा भारी मालूम होता है, इससे मैं समझता हूँकि सर्पों को भक्षण करने की मेरी आकाङ्क्षा को जरूर पूरी कर देगा (और मेरापेट खूब भर जायगा)।
भावी अर्थ का सूचक दूसरा अर्थ — यह नागों का रक्षिता जीमूतवाहन मेरा
** तद्यावदेनं गृहीत्वा मलयपर्वत मारु यथेष्टमाहारयामि।**
[इति निष्क्रान्तः] [इति निष्क्रान्ताः सर्वे]।
इति चतुर्थोऽङ्कः।
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रूपस्य, इत आरभ्य नाऽहं नागान् भक्षयिष्यामी’त्यस्यापि सूचनात्पताकास्थानकमेतदित्यवधेयम्। अनुष्टुप्॥२९॥
इति= इत्थं यथायथं। निष्क्रान्ताः सर्वे = सर्वेऽप्येवं क्रमशो गताः।
श्रीगुरुप्रसादशास्त्रिविरचितायामभिनवराजलक्ष्म्यां चतुर्थोऽङ्कः॥
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गुरु ही सिद्ध होगा और आज से मेरी नाग भक्षण की प्रवृत्ति का अपने उपदेशसे अवश्य दूर कर देगा॥२६॥
अच्छा, अब इसको लेकर मलयपर्वत पर बैठकर यथेष्ट भक्षण करूं।
(नायकको लेकर उड़ जाता है)
(सब जाते हैं)।
इति चतुर्थ अङ्क
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अथ पञ्चमोऽङ्कः।
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[ततः प्रविशति]।
** प्रतीहारः—**
स्वगृहोद्यानगतेऽपि स्निग्धे पापं विशङ्क्यते स्नेहान्।
किमु दृष्टबह्वपायप्रतिभयकान्तारमध्यस्थे?॥१ ॥
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॥ अथ पञ्चमोऽङ्कः॥
ततः = प्रथमम्। आदौ। प्रतीहारः = द्वारपालः। ‘प्रतीहारो द्वारि द्वाःस्थेद्वाः स्थितायान्तु योषिति’ इति मेदिनी। स्वेति। स्निग्धे = प्रणयिनि जने।स्वगृहोद्यानगतेऽपि = स्वभवनवर्त्युद्यानगतेऽपि। स्नेहात् = प्रणयेन। स्नेहपराधीनतया। प्रणयिलोकैरिति शेषः। पापम् = अनिष्टम्। अमङ्गलम्। विशङ्क्यते=आशङ्कते। विचिन्त्यते। ‘स्नेहः पापाशङ्की’ति न्यायादिति भावः। दृष्टाः = बहुशोऽनुभूता ये बहवः अपायाः = विघ्नाः, अनर्थाः, तैः प्रतिभये = भयानके,(‘भयानकं प्रतिभयम्’ इत्यमरः।) कान्तारस्य = दुर्गमवर्त्मनोऽरण्यादेश्च, (‘कान्तारंवर्त्म दुर्गमम्’ इत्यमरः।) मध्ये तिष्ठति यस्तस्मिन् — दृष्टबह्वपायप्रतिभयकान्तारमध्यस्थे = दृष्टनानाविधविघ्नादिभयानकदुर्गमवनादिमध्यस्थे स्निग्धे तु। किमु =किमु वक्तव्यम्?। भयानकदुर्गमकान्तारादिगते स्वजने तु नितरां पापमाशङ्गयते
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अथ पञ्चम अङ्क।
[प्रतीहार (द्वारपाल) का प्रवेश]।
प्रतीहार (दर्वान) — अपना प्यारा जन यदि गृह के बगीचे में भी टहलनेचला जाता है, तो भी स्नेह के कारण स्नेही व सम्बन्धियों के मन में उसकेविषय में नाना प्रकार के पापों (अनिष्टों ) की आशङ्का होने लगती है, तो फिरवही स्नेही जन यदि नाना विघ्न बाधाओं से भरे हुए बीहड़ घोर वन के प्रदेश
तथाहि — जीमूतवाहनो जलनिधिवेलाऽवलोकनकुतूहली निष्कान्तश्चिरयतीति दुःखमास्ते महाराजविश्वावसुः। समादिष्टश्चास्मि तेन,यथा — ‘सुनन्द! श्रुतं मया ‘सन्निहितगरुडप्रतिभयमुद्देशं जामाताजीमूतवाहनो गत’ इति। शङ्कित एवास्म्यनेन वृत्तान्तेन। तत्त्वरितंविज्ञायाऽऽच्छ ‘किमसौ स्वगृहमागतो न वे’ति। यावत्तत्र गच्छामि।
** [परिक्रामन्नग्रे दृष्ट्वा]। अयमसौ राजर्षिर्जीमूतवाहनस्य पिताजीमूतकेतुरुटजाङ्गणे सह स्वधर्मचारिण्या, राजपुत्र्या वध्वा चपर्युपास्यमानस्तिष्ठति। तथाहि—**
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प्रियजनेनेत्याशयः। एतेन दुर्गममलयगिरिकान्तारगते जीमूत्रवाहने तवन्धुबान्धवसम्बन्धिवर्गैः पापम् = अनिष्टमाशङ्कयत एवेति सूचितम्। आर्या जातिः॥१॥
अनिष्टमेव सूचयति—जलनिधेः = सागरस्य, या वेला = जलपूरयृद्धिः, तस्याअवलोकने कुतूहली = कुतुकी। निष्क्रान्तः = गतः। चिरयति=विलम्बयति।नाद्याऽप्यायातः। इति — हेतोः, दुःखं यथा स्यात्तथा। दुःखाकुलमानसः। महाराजविश्वावसुः = जीमूतवाहनश्वशुरः सिद्धराजः। आस्ते = वर्तते। ‘सुनन्दे’ —ति प्रहृीहारनामधेयम्। सन्निहितेन = निकटवर्त्तिना, गरुडेन प्रतिभयम् = भयानकंसन्निहितगरुडप्रतिभयम् — आसन्नगरूडभीषणम्। उद्देशं = प्रदेशम्। मलयगिरिकान्तारम्। अनेन वृत्तान्तेन = जीमूतवाहनस्य तादृशवनादिगमनवृत्तान्तेन।शङ्कितः = शङ्काकुलितचेताः। परिक्रामन् = गच्छन्। राजा ऋषिरिव धार्मिकःराजर्षिः राजाऽपि सन् मुनिवृत्तिः। उटजाङ्गणे = पर्णशालाऽङ्गणवेद्याम्। ‘मुनीनान्तुपर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्’ इत्यमरः। स्वधर्मचारिण्या सह= वृद्धया स्वपत्न्या सह।
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में चला जाता है तो उसक विषय में सम्बन्धियों के मन में यदि किसी अनिष्ट कीआशङ्का हो तो आश्चर्य की बात ही क्या है?॥१॥
जैसे — जीमूतवाहन ही समुद्र आज के ज्वार—भाटे का = घटने बढ़ने का दृश्यदेखने के लिए गये थे, वे अभी तक भी नहीं आए इस लिए महाराज विश्वावसु बहुत दुःखी व चिन्तित हो रहे हैं। और उन्होंने मुझे आज्ञा दीहै, किहे सुनन्द! मैंने सुना हैं, कि — जहाँ गरुड़ के प्रतिदिन आने से भय बना ही रहताहै ऐसे बीहड़ बन में कुमार जीमूतवाहन गए हैं। इस बात को सुनकर हमें
क्षौमे भङ्गवती तरङ्गितदशे494 फेनाम्बुतुल्ये वहन्,
जाह्नव्येव विराजितः सवयसा देव्या महापुण्यया।
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राजपुत्र्या = सिद्धराजपुत्र्या मलयवत्या, वध्वा = स्नुषया च। पर्युपास्यमानः=सेव्यमानः।
जीमूतकेतुं वर्णयति - क्षौमे इति। भङ्गाः = तरङ्गा विद्यन्ते ययोस्ते-भङ्गवती = तरङ्गाऽञ्चिते। रेखाऽन्विते। ‘भङ्गस्तरङ्ग ऊर्मिर्वा स्त्रियां वीचिः’ इत्यमरः। तरङ्गितादशा ययोस्ते-तरङ्गितदशे = नानाभङ्गमनोहराऽञ्चलप्रदेशललिते। प्रकम्पितवस्त्राऽञ्चलमनोहरं। ‘दशाऽवस्था दीपवत्योर्वस्त्रान्ते भूम्नि पुंस्त्रियोः’ इति रभसः। ‘स्त्रियांबहुत्वे वस्त्रस्य दशाः स्युर्वस्त्रयोर्द्वयोः’ इत्यमरः। केनाऽस्तुल्ये = केनयुक्तजलसडशे।अतिधवले। ‘डिग्डीरोऽब्धिकफः फेनः’ इत्यमरः। क्षौमे= सूक्ष्मवस्त्रे। सुसूक्ष्मदुकूलवस्त्रपुंगलम्। वहन् = धारयन्। ‘क्षौमं पट्टे दुकूलेऽस्त्री’ इतिमेदिनी।
सवयसा = तुल्यावस्थया। वृद्ध्या। जाह्नवीपक्षे - ‘खगबाल्यादिनोर्वयः’ इत्यमरोक्तेः-त्रयोभिः=जलचरैः पक्षिभिः सहिता – सवया, तया-सवयसा = पक्षिसङ्घविराजितयेत्यर्थो बोध्यः। देव्या = महाराज्ञ्या। पक्ष देव्या = दिव्यप्रभावया।
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नाना प्रकार की शङ्काएं उनके लिए हो रही है। अतः तुम जल्दी जाकर पतालगाकर आओ, कि वे अपने घर अभीतक वापिस आए, कि नहीं’। [अच्छा,मैं वहाँ पता लगाने जाता हूँ]। [ कुछ चल कर आगे की ओर देखकर -]।
ये जीमूतवाहन के पिता राजर्षि जीमूतकेतु–अपनी स्त्री और पुत्वधूराजकुमारीमलयवती के साथ बैठे हैं। और भी ― चुने हुए, लहरदारसिमेटने की सिकुडनोंसे लहराते हुए, फेन की तरह श्वेत, रेशमी वस्त्र (धोती - डुपट्टा) धारण किए हुए, समान अवस्थावाली (वृद्धा) पुण्यात्मा महारानी से सेवाकिए जाते हुए, तथा यह मलयवती जिनके पास बैठी हुई वेला (नियम और विनय की मूर्ति) की तरह मालूम होती है, ये जीमूतकेतु - ऐसे सुशोभित मालूमहोते हैं जैसे समुद्र शोभित होता है।
धत्ते तोयनिधेरयं सुसदृशीं जीमूतकेतुः श्रियं,
यस्यैषाऽन्तिकवर्त्तिनी मलयवत्याभाति वेला यथा॥२॥
** —तद्यावदुपसर्पामि।**
[ततः प्रविशति पत्नीवधूसमेतो जीमूतकेतुः]।
** जीमूतकेतुः—**
भुक्तानि यौवनसुखानि, यशोऽवकीर्णं,
राज्ये स्थितं, स्थिरधिया चरितं तपोऽपि।
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जाह्नव्येव = गङ्गयेव। महापुण्यया = पुण्यशीलया, तदाख्यया च। विराजितःशोभितः। अयं जीमूतकेतुः = जीमूतवाहनपिता। तोयनिधेः = समुद्रस्य। सुसदृशीं = तुल्यां। श्रियं = शोभाम्। धत्ते = दधाति। यस्य = जीमूतकेतोः। अन्तिकवर्त्तिनी = समीपवर्त्तिनी। एषा मलयवती = राजपुत्री। वेला यथा =समुद्रसीमेव। आभाति = शोभते। सागरपक्षे–मलयवती = मलयपर्वतयुक्ता। वेला=समुद्रसीमा।
समुद्रोऽपि-भङ्गवान् = जलतरङ्गाकुलः,तरङ्गितदशः = तरङ्गाक्रान्ततटः,फेनाम्बुयुक्तो, जाह्नव्या देव्या सङ्गतो, मलयपर्वतयुक्तवेलाविराजितश्चेति राज्ञासागरेण सह सादृश्यं युक्तमुक्तम्। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥२॥
जीमूतकेतुर्विमृशति - भुक्तानीति।यौवनसुखानि = तारुण्यसुखानि।यौवनोचितानि सर्वाणि सुरतादिसुखानि। ‘तरुण्यं यौवनं समे’ इत्यमरः।
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समुद्रपक्ष में अर्थ-समुद्र में तरङ्ग होते हैं, लहरें उठती हैं, फेन युक्त जलभी उसमें रहता है, हंस कारण्डव आदि जलचरों से सुशोभित पुण्यजलाभगवती श्री गङ्गाजी भी उसमें आकर मिलती हैं, और मलयवती = मलय पर्वतसे युक्त वेला = सीमा भी उसमें है। अतः यह जीमूतकेतु समुद्र की सी शोभाको धारण कर रहे हैं॥२॥
अच्छा, इनके पास चलता हूँ।
[पत्नी और पुत्रवधू सहित जीमूतकेतु का प्रवेश]।
जीमूतकेतु — मैंने यौवन के सब सुखों का उपभोग पर लिया, संसार में
श्लाघ्यः सुतः, सुसदृशान्वयजा स्नुषेयं,
चिन्त्यो मया ननु कृतार्थतयाऽय मृत्युः॥३॥
** सुनन्दः —[सहसोपसृत्य–] — ‘जीमूतवाहनस्य —’।**
** जीमूतकेतुः—[कर्णौ पिधाय –] शान्तं पापम्। शान्तं पापम्।**
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सुक्तानि = अनुभूतानि। किञ्च यशः =स्वकीर्त्तिः। विकीर्णं= सर्वत्र विस्तारितम्। किञ्च राज्ये = राजसिंहासने। स्थितम् = अवस्थानं कृतम्। स्थिरधिया =स्थिरचित्तेन। तपः = व्रताद्यपि। तपस्याऽपि। चरितं = कृतम्। सुतः = पुत्रो जीमूतवाहनः। श्लाघ्यः= प्रशंसार्हः। योग्यः। सुसदृश = तुल्या। अस्मत्कुलसदृशा।पुत्रतुल्येति वाऽर्थः। अन्वयजा = सकुलप्रसूता। इयं स्नुषा = इयं पुत्रवधूर्मलयवत्यपि। सर्वथा कृतकृत्योऽहमिदानीमस्मि। अद्य = इदानीन्तु। ननु =निश्चयेन। कृतार्थतया = कृतकार्यतया। सर्वकार्यविरकेन मया। मृत्युः = स्वमृत्युसमय एव। परलोक एव। चिन्त्यः = परिचिन्तनीयः। परलोकसिद्धये एव मयासम्प्रति सर्वकार्यविमुखेन केवलं यतो विधेय इत्याशयः। वसन्ततिलका वृत्तम् ॥३॥
सहसा= मृत्युपदोक्तिसमनन्तरमेव अकस्मात्। उपसृत्य = निकटे गत्वा।‘जीमूतवाहनस्य…" इत्यादि सुनन्देन स्ववक्तव्यपसुस्थाप्यते। परन्तु मृत्युपदानन्तरं जीमूतवाहनोपन्यासाज्जीमूतवाहनस्य मृत्युश्चिन्तनीय इत्यर्थोऽपि भासते।तेन च भाव्यमङ्गलस्य सूचनं भवति, अन्यार्थंनीयमानस्य दुध्यादेरन्यं प्रतिमङ्गलसूचकत्वमिवेति ध्येयम्।
इत्थममङ्गलं मृत्युपदानन्तरं जीमूतवाहननामोपन्यासेन सूचितमाशङ्क्याहशन्तमिति। पापम् = अमङ्गलमिदम्। शान्तं=शान्तं भवतु। प्रतिहतं = निर-
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मेरी यश की कीर्त्ति भी खूब फैल चुकी राज्य में रह कर प्रजा का पालन भीकिया, स्थिरचित्त हो एकाग्र मन से तपस्या भी कर ली, पुत्र भी सत्पात्र और श्लाघ्यहै, तुल्य गुण और समान वंश की कुलीन यह पुत्र वधू भी आ गई है,अतः अब मैं पूर्ण कृतार्थ हो गया हूँ। अब तो मुझे मृत्यु की चिन्ता करनी है॥३॥
सुनन्द—(सहसा पहुँच कर) ‘…जीमूतवाहन की…’
जीमूतकेतु - (कान पर हाथ रखकर कान बन्द करता हुआ) यह पाप
वृद्धा — पडिहदं क्खु एवं अमंगलं।
** [प्रतिहतं खल्विदममङ्गलम्]।**
** मलयवती — वेवदि मे हिअअ इमिणा दुण्णिभित्तेण।**
** [वेपते मे हृदयमनेन दुर्निमित्तेन]।**
** जीमूतकेतुः— [बामाक्षिस्पन्दनं सूचयित्वा] भद्र! किं जीमूतवाहनस्य?।**
** सुनन्दः — जीमूतवाहनस्य वार्त्तामन्वेष्टुं महाराजविश्वावसुनायुष्मदन्तिकं प्रेषितोऽस्मि।**
** जीमूतकेतुः — किमसन्निहितस्तत्र मे वत्सः?।**
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स्तम्। एतदुमङ्गलं दूरीभवतु। दुर्निमित्तेन = पत्युर्मेऽमङ्गलसूचकेन दुःशकुनेन। भद्र= साधो। मङ्गलमुख। वार्त्तां = वृत्तान्तम्। अन्वेष्टुं = ज्ञातुम्। ‘वार्त्ताप्रवृत्तिर्वृत्तान्तः’ इत्यमरः। युष्मदन्तिकं = भवत्समीपम्। वत्सः = पुत्रः। पुत्रकः = बालः
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(अनिष्ट) शान्त हो, दूर हो। भावार्थ - ‘अब मुझे केवल (अपनी) मृत्यु कीचिन्ता करनी है’ इतना कहते ही सुनन्द ने पहुँच कर उसमें - ‘जीमूतवाहनकी’ - इतना जो कह दिया, उससे ‘जीमूतवाहन की मृत्यु की चिन्ता करनी है ‘यह वाक्य बन गया। इस अमङ्गल बात को सुन कर कान बन्द कर ‘शान्तंपापं यह जीमूतकेतु ने कहा।वृद्धा—भगवान् करें यह अमङ्गल प्रतिहत = दूर (नष्ट) हो।
मलयवती —इस अशकुन से मेरा तो कलेजा ही कांप रहा है। न जाने क्या होने वाला है?।
जीमूतकेतु — (बाई आंख का फड़कना सूचितकरता हुआ— ) हेभद्र! ‘जीमूतवाहनस्य (= जीमूतवाहन की’) इसके आगेभी कहो क्या बात है?।अर्थात् पूरी बात कहो - ‘जीमूतवाहनस्य’ इतना ही कह कर क्यों ठहर गए?।
सुनन्द — जीमूतवाहन की—कुशल वार्ता पूछने मुझे महाराज विश्वावसु नेआपके पास भेजा है।
जीमूतकेतु —क्या मेरा पुत्र वहाँ श्वशुरगृह में नहीं है?।
वृद्धा — [सविषादं—] महाराअ! जइ तहिं ण सण्णिहिदो, वाकहिं गदो मे पुत्तओ भविस्सदि?।
** [महाराज! यदि तत्र न सन्निहितः, तत् क्व गतो मे पुत्रको भविष्यति?]**
** जीमूतकेतुः— नूनमस्मत्प्राणयात्रार्थं नितान्तं दूरं गतो भविष्यति।**
** मलयवती— [सविषादमात्मगतम् —] अहं उण अज्जउत्तं अपेक्खंतीअण्णं जब्वकिंपि आसंकामि।**
** [अहं पुनरार्य्यपुत्रमप्रेक्षमाणा अन्यदेव किमप्याशङ्के]।**
** सुनन्दः—आज्ञापय। किं मया स्वामिने निवेदनीयम्?।**
** जीमूतकेतुः—[वामाश्चित्स्पन्दनं सूचयित्वा —] ‘जीमूतवाहनश्चिरयती’ति पर्य्याकुलाऽस्मि हृदयेन।**
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पुत्रः। प्राणयात्रार्थम् = जीवननिवाहोपयोगिवन्य फलाद्यानयनाय। पक्षे प्राणयात्रार्थं =मृत्युतुल्य-कष्टदानार्थम्। मरणार्थमंत्र। अन्यदेव = अमङ्गलमेव। अनिष्टमेवकिमपि।
स्फुरसति। हे दक्षिणेतर = वाम। हतचक्षुः = पापचक्षुः। हे वामचक्षुर्हतक! मम = मह्यम्, अनिष्टम् = अमङ्गलं सूचयन्, मुहुर्मुहुः =वारं वारम्,
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वृद्धा— (दुःख व उदासी से) महाराज! यदि वहाँ भी मेरा पुत्र नहीं है,तो फिर कहाँ गया?।
जीमूतकेतु — अवश्य ही इम लोगों के लिए भोजन सामग्री लाने को कहींदूर निकल गया होगा।
मलयवता — (उदास व दुःखा हो) मैं तो आर्यपुत्र (अपने प्राणप्यारे)को यहाँ भा नहीं देखकर कुछ और हो अनिष्ट को आशङ्का करतो हूँ। अर्थात्—जरूर कुछ अनिष्ट हुआ है। नहीं तो वे इतना देर कभी नहीं लगात।
सुनन्द – आज्ञा करिए, महाराज को मैं क्या उत्तर दूं?।
जीमूतकेतु — (बाई आँख का फड़कना सूचित करता हुआ —) जीमूतवाहनको आने में इतनी देर हुई इससे मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है।
(अपना बांई आँख के प्रति —)
स्फुरसि किमु दक्षिणेतर! मुहुर्मुहुः सूचयन्ममानिष्टम्।
हतचक्षुरपहतं ते स्फुरितं495, मम पुत्रकः कुशली॥४॥
** [ऊर्द्ध्वमवलोक्य–] अयमेव त्रिभुवनैकचक्षुर्भगवान्त्सहस्रदीधितिःस्फुटं जीमूतवाहनस्य श्रेयः करिष्यति।**
[विलोक्य सविस्मयम्—]
आलोक्यमानमतिलोचनदुःखदायि,
रक्तच्छटा निजमरीचिरुचो विमुञ्चत्।
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किमु = कुतः, स्फुरसि = स्पन्दसे?। ते स्फुरितं = तवानिष्टं स्फुरणम्। पुंसां वाभचक्षुःस्फुरणमनिष्टसूचकं भवति। अपहतं = निरस्तं भवतु। मम पुत्रकश्च कुशली - वर्त्तते। ‘भवतु’ इति वा शेषः। पाठान्तरे – ‘भगवान् भानुः = सूर्यः, ते स्फुरितम्अपहतं = निरस्तम्, अपहतं, मङ्गलसूचकमेव, करिष्यते = विधास्यती’ त्यर्थोबोध्यः।‘हतचक्षुरपतन्ते स्फुरितमिहायं करिष्यते भानुः’ इति पाठे आर्येयं वामचक्षुःस्फुरसूचिताऽरिष्टनिवृत्त्यर्थो मन्त्र एवेति ध्येयम्। आर्या॥४॥
त्रिभुवनैकचक्षुः = त्रैलोक्यप्रकाशकतया त्रैलोक्यनेत्रतुल्यः। सहस्रदीधितिः=सहस्रांशुः सूर्यनारायणः। श्रेयः = कल्याणम्।
आलोक्यमानमिति। आलोक्यमानं = विलोक्यमानं।दृश्यमानम्।अतितरां लोचनयोर्दुखं ददाति तच्छीलम् – अतिलोचनदुःखदायि = अतितरां नयनदुः-
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हे पापे मेरी बांई आँख! मुझे बारंबार किसी अनिष्ट की सूचना देती हुई तूंक्यों इस तरह फड़क रही है?। तेरा यह अनिष्ट सूचक फड़कना विनाश को प्राप्तहो, और मेरा पुत्र कुशल पूर्वक रहे। [पुरुषकी बाई आँख और स्त्री की दाहिनीआँख का फड़कना किसी अनिष्ट की सूचना देती है]॥४॥
[(ऊपर की ओर देखकर) ये त्रैलोक्य के चतुस्वरूप सहस्रकिरणवालेभगवान् सूर्य नारायण मेरे पुत्र जीमूतवाहन का कल्याण करें। सूर्य की हजारकिरण हैं—यह शास्त्रों में लिखा है।
[आश्चर्यपूर्वक देखकर]- हैं! देखने मात्र से ही आँखों को कष्ट देनेवाली
उत्पात496वाततरलीकृततारकाभ—
मेतत्पुरः पतति किं सहसा नभस्तः?॥५॥
** कथं चरणयोरेव पतितम्?।**
[सर्वे — निरूपयन्ति]।
** जीमूतकेतुः — अये! कथं लग्नसरसमांसकेशश्चूडामणिः!।कस्य पुनरयं स्यात्?।**
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खप्रदम्। अमङ्गलसूचकत्वाल्लोचनदुःखदत्वम्। निजानां = स्वीयानां मरीचीनां रुगिवरुक् यासान्ताः— निजमरीचिरुचः = स्वरक्तकान्तितुल्यभासः। ‘स्युः प्रभारुग्रुचिस्त्विङ्भा ‘इत्यमरः। रक्तच्छटाः = रुधिरधाराः। विमुञ्चत् = विक्षिपत्। वमत्। उत्पातवातेनतरलीकृतायाः तारकाया आभेव आभा = कान्तिः – यस्य तत् — उत्पातवाततरलीकृततारकाभम् = उत्पातसूचकप्रचण्डपवनाघातचञ्चलीकृत — (विनिपातित) — ताराप्रभम्। एतत् = इदं वस्तु। पुरः = अग्रे। सहसा = अकस्मात्। नभस्तः = गगनाङ्गणात्। किं पतति किं तु पतति?। रुधिरोक्षितं रक्तप्रभमिदं किंस्विद्गगनात्पततीत्याशयः। वसन्ततिलका वृत्तम्॥५॥
‘इदं वस्तु कथं मे चरणयोरेव निपतित’मिति जीमूतकेतुर्विस्मयमान आह।निरूपयन्ति = पश्यन्ति। परीक्षन्ते। लग्नं सरलम् = आर्द्रं, मांसं = पिशितं,केशाश्च यस्मिन्नसौ—लग्नसरसमांसकेशः = आर्द्रमांस — केशान्वितः। चूडामणिः
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अपनी लाल२ किरणों की तरह ही रक्त के छोटे टपकाती हुई, उत्पात सूचकप्रचण्ड पवन से गिरते हुए तारा (टूटते हुए तारा या उल्कापात) की तरहदीखने वाली, यह क्या वस्तु आकाश से मेरे सामने गिर रही है!॥५॥
और आश्चर्य की बात है, कि यह मेरे पैरों के पास ही आकर पड़ी है।
[सब उसे देखते हैं]।
जीमूतकेतु — है! यह तो रक्त और गीले मास तथा बालों से लपटा हुआकिसी का चूड़ामणि (शिर पर बान्धने का मणि) है। है! यह किसका है?।
** वृद्धा — [सविषादं] महाराज! पुत्तअस्स विअ मे एवं चूडारअणं ?।**
[महाराज ! पुत्रकस्येव मे एतच्चूडारत्नम्]।
मलयवती – अम्ब! मा एव्वं भण।
[अम्ब! मैवं भण]\।
** सुनन्दः– महाराज! मैवमविज्ञाय विक्लवीभूः। अत्र हि—**
तार्क्ष्येण497भक्ष्यमाणानां पन्नगानामनेकशः।
उल्कारूपाः पतन्त्येते शिरोमणय ईदृशाः ॥६॥
** जीमूतकेतुः— देवि! सोपपत्तिकमभिहितम्। कदाचिदेवमपि स्यात्।**
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शिरोरत्नम्। कथं = केन प्रकारेणाऽऽयातः। अविज्ञाय = तत्त्वतोऽविज्ञाय।मैवंविक्लवीभूः = मैवं व्याकुलीभूः।
तार्क्ष्येणेति। तार्क्ष्येण= गरुडेन। भक्ष्यमाणानां = पन्नगानां = नागानाम्, अनेकशः = बहुशः, ईदृशाः = एवंविधाः, उल्कारूपाः = उल्कापातसंनिभाः, एते =दृश्यमानाः, शिरोमणवः = शिरोरत्नानि, ‘पतन्त्यत्र’ इति सुन्दरः पाठः। अत्र=मलयभुवि। इति चाऽर्थः। पतन्ति = निपतन्ति। अतो ‘मत्पुत्रस्यैवेदं शिरारत्न’मिति शङ्का नैव कार्येत्याशयः ॥६॥
देवि = हे महाराज्ञि!।सोपपत्तिकं = सयुक्तिकम्। नागेषु शिरोमणीनां सम्भवात्। एवमपि = नागस्यैवेदं शिरोरत्नमित्येवमपि। स्यात् = भवेत्। अनया वेलया =
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वृद्धा— (दुःख के साथ —) महाराज! यह तो मेरे पुत्र के चूडामणि की तरह ही मालूम हो रहा है?।
मलयवती — अम्ब! ऐसी बुरी बात मत कहिए।
सुनन्द — महाराज! पूरा निश्चय किए बिना आप इस तरह व्याकुल नहो। यहाँ मलय पर्वत पर तो—
गरुड़ के द्वारा नित्य खाए जाते हुए नागों की ऐसी अनेक प्रकार कीउल्कारूप चूड़ामणियाँ आकाश से बराबर गिरा ही करती हैं॥६॥
जीमूतकेतु — देवि! इसने युक्तियुक्त बात कही है, कदाचित् यह किसी
** वृद्धा —सुणंदअ! जाव इमाए वेलाए ससुरसदणं ज्जेव्व आअदोमे पुत्तओ भविस्सदि। ता गच्छ. जाणिअ लहुं संपादेहि।**
** [सुनन्दुक! यावदनया वेलया श्वशुरसदनमेवाऽऽगतो ने पुत्रको भविष्यति।तद् गच्छ, ज्ञात्वा लघु सम्पादय]।**
** सुनन्दः — यदाज्ञापयति देवी। [— इति निष्क्रान्तः]।**
** जीमूतकेतुः — देवि! अपि नागचूडामणिः स्यात्?।**
[ततः प्रविशति रक्तवस्त्रसंवीतः शङ्खचूडः]।
** शङ्खचूडः— [सास्रम्]—**
गोकर्णमर्णवत त्वरितं प्रणम्य,
प्राप्तोऽस्मि तां खलु भुजङ्गमवध्यभूमिम्।
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इयता बहुलेन समयेन। श्वशुरसदनं = श्वशुरगृहम्। लघु = शीघ्रम्। सम्पादय = अस्मान्सूचय। अपि नागचूडामणिः स्यात् = कदाचिदेष नागचूडामणिर्भूयात्।तर्हि जीविताः स्मो वयमित्याशंसापरं वाक्यम्। अपिः सम्भावनायाम्।
ततः = तदनन्तरमेवं नागपदेन सूचितः। संवीतः = प्रावृतः। शङ्खचूडः —नागः। सास्रं= साश्रुपातम्। गोरुणमिति। अर्णवतटे = लवणार्णवतटे।गोकर्णं = गोकर्णेश्वरम्। त्वरितं = शीघ्रं। प्रणम्य = नत्वा। तां खलु = प्रसिद्धाम्म्। भुजङ्गमवध्यभूमिं= नागवध्यशिलाभुवम्। प्राप्तोऽस्मि = संप्राप्तोऽस्मि।च = किञ्च! तावदेव। नखमुखक्षतवक्षसञ्च = नखाग्रविक्षतवक्षःस्थलं च तं विद्या-
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नाग की ही शिर की मणि हो?।
वृद्धा — हे सुनन्द! कदाचित् मेरा पुत्र इतनी देर में श्वशुर गृह में आगया होगा। अतः जाओ, पता लगा कर शीघ्र ही हमें सूचना दो।
सुनन्द — जैसी महारानी की आज्ञा। (जाता है)।
जीमूतकेतु— हे रानी ! कदाचित् यह नाग का ही चूडामणि हो?।
[इस प्रकार —सूचित रक्तवस्त्र पहिने हुए शङ्खचूड नाग का प्रवेश]।
शङ्खचूड— (आँखों में आंसु भरकर —) दक्षिण समुद्र तटपर विराजमान
आदाय तं नखमुखक्षतवक्षसञ्च
विद्याधरं गगनमुत्पतितो गरुत्मान्!॥७॥
** [रुदन्–] हा महासत्त्व! हा परमकारुणिक! हा निष्कारणकबान्धव! हा परदुःखदुःखित! क्व गतोऽसि?। प्रयच्छ मे प्रतिवचनम्।हा शङ्खचूडहतक! किं कृतं त्वया?—**
नाऽहित्राणात्कीर्त्तिरेका मयाऽऽप्ता,
नापि श्लाघ्यास्वामिनोऽनुष्ठिताऽऽज्ञा।
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धरं = जीमूतवाहनं नाम विद्याधरजातीयम्। आदाय = गृहीत्वा। गरुत्मान् गरुडः।गगनमुत्पतितः = आकाशमुत्पतितः। गगनमुड्डीय गतः। वसन्ततिलका वृत्तम् ॥७॥
महासत्त्व = महत्सत्त्वं यस्याऽसौ तत्सम्बुद्धौ हे महासत्व = हे महात्मन्।निष्कारणैकबान्धव = निर्हेतुकबन्धो। हे निर्व्याजबान्धव। प्रतिवचनम् = उत्तरं।प्रयच्छ = देहि। शङ्खचूडहतक! = हे पाप शङ्खचूड। किं कृतं = जन्म प्राप्यकिं नु शोभनं कर्म कृतं त्वया?। न किमपि कृतम्। तथाहि—
नाहीति। अहित्राणात् = स्वात्मदानेन नागरक्षणात्। एका = मुख्या।‘एके मुख्याऽन्यकेवलाः।’ इत्यमरः। कीर्त्तिः = यशः। आप्ता = समाधिगता। श्लाघ्या =प्रशंसनीया। स्वामिनः = वासुर्नागराजस्य। आज्ञा = वध्यशिलारोहणम्।नापि अनुष्ठिता = नैव कृता। अन्येन = विद्याधरेण जीमूतवाहनेन। आत्मानं = स्वशरीरं, प्राणांश्च दत्त्वा। रक्षितः = गरुडात्प्रतिमोचितः। अतएव शोच्यः = शोचनीयः।कलङ्कितः। अहं वञ्चितोऽस्मि = मुषितोऽस्मि। जन्म प्राप्य किमप्युचितं कर्म
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भगवान् गोकर्णेश्वर को प्रणाम कर शीघ्र ही मैं इस सर्पवध्यभूमि में पहुँचा हूँ।पर इतने में ही नख और चोंच से उसके वक्षस्थल का विदारण कर गरुड उसविद्याधर (जीमूतवाहन) को लेकर आकाश में उड़ गया॥७॥
(रोता हुआ—) हा महासत्त्व ! हा परमदयालो! हा दूसरों के निष्कारणबान्धव! हा परदुःख से दुःखित होनेवाले! आप कहाँ गए?। मुझे उत्तर तोदीजिए। हा शङ्खचूड! तैने (मैंने) जन्म पाकर क्या किया ?—
न तो मैंने सर्पों के लिए प्राण देकर कीर्ति हीपाई, न अपने राजा की
दत्त्वाऽऽत्मानं रक्षितोऽन्येन शोच्यो,
हा धिक्! कष्टं! वञ्चितो वञ्चितोऽस्मि॥८॥
तन्नाऽहमेवंविधः क्षणमपि जीवन्नुपहास्यमात्मानं करोमि। यावदेतदनुगमनं प्रति यतिष्ये। [परिक्रामन्, भूमौ दत्तदृष्टिः]—
आदावुत्पीडपृथ्वीं, प्रविरलपतितां स्थूलबिन्दुं ततोऽग्रे,
ग्रावस्वापातशीर्णप्रसृततनुकणां कीटकीर्णा स्थलीषु।
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न कृतं प्रत्युत परेण रक्षितः सत् शोच्यतामेव यातोऽस्मीति, हा धिक्! = मां धिक्। कष्टमिति खेदेऽव्ययम्। वञ्चितो वञ्चितः = सर्वथा वञ्चित एव। वृथैवमम जन्मेत्याशयः। शालिनी वृत्तम्॥८॥
एवंविधः = कलङ्कितः सन्। एतदनुगमनं - गरुडानुसरणम्। परिक्रामन् =प्रचलन्। दत्तदृष्टिः = दत्तलोचनः। सावधानतयाऽन्विष्यन्।
आदाविति। तार्क्ष्यं = गरुडम्। दिदृक्षुः = द्रष्टुमिच्छुरहम्। आदौ = प्रथमम्। वध्यशिलासमीपं। उत्पीडेन = चञ्च्वाघातेन वक्षोविदारणेन, पृथ्वीं = स्थूलाम्। ततोऽग्रे - प्रविरलपतितां = विरलविरलं भूमौ निपतितां। स्थूलाबिन्दवो यस्याः सा तां - स्थूलबिन्दुं = पृथुलरक्तबिन्दुयुताम्। किञ्च — ग्रावसु =प्रस्तरखण्डेषु। आपातेन = निपातेन, शीर्णाः = विशीर्णाः, प्रसृताः = विस्तीर्णाः,अत एव तनवः = स्वल्पाः, कणाः = अणवो यस्याः सा, ताम् - आपावशीर्णप्रसृततनुकणाम् = ऊर्ध्वनिपातविकीर्णविस्तृतस्वल्परक्तकणाम्। ‘लवलेशकणाऽणवः’ इत्यमरः। किञ्च-स्थलीषु = कण्टकादिरहितेष्वकृत्रिमेषु भूप्रदेशेषु। कीटकीर्णां=
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आज्ञा का ही पालन किया। किन्तु दूसरे ने अपन हा प्राण व शरीर देकर मुझेबचाया, इस लिए मैं शोचनीय एवं निन्दनीय हूँ। हा! धिक्कार है मुझे। बड़ेदुःख को बात है, कि मैं जोमूतवाहन से ठगा गया। खूब ठगा गया। अर्थात्मेरा जीवन वृथा हीहो गया॥८॥
अतः मैंइस प्रकार लाञ्छित हो एक क्षण भी जीकर अपनी आत्मा कोउपहास का पात्र नहीं बनाऊंगा। अच्छा, तब तक इस (जीमूतवाहन औरगरुड) के पीछे २ जाने का प्रयत्न करूंगा। \कुछ चल कर, पृथ्वी की ओरदेखता हुआ) - मैं गरुड को खोजने के लिए इस रक्त की धारा को अच्छी
दुर्लक्ष्यां धातुभित्तौ घनतरुशिखरे [स्त्यान498नीलस्वरूपा-
मेनां तार्क्ष्यंदिदृक्षुर्निपुणमनुसरन् रक्तधारां व्रजामि ॥६॥
** वृद्धा —[ससाध्वसं–] महाराअ! एसो ससोओ विअ रुदिदव ओइदो ज्जेव्व तुरिदं आअच्छंतो हिअअं मे आकुलीकरेदि। ता**
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पिपीलिकादिकीटावृताम्। किञ्च—धातुभित्तौ = गैरिकादिधातुबहलायां भुवि। दुर्लक्ष्यां = दुर्निरीक्ष्याम्। गैरिकादिधातुखण्डानां रक्तत्वाद्रक्तधारायास्तत्र भेदावभासस्याऽतिकठिन-त्वाद्दुर्निरीक्ष्याम्, घनेषु = निबिडेषु, तरूणां=वृक्षाणां, शिखरे=ऊर्ध्वदेशे-घनतरुशिखरे=निविडवृक्ष शिरस्सु। स्त्याननीलस्वरूपां=घनीभूतनीलस्वरूपाम्।वृक्षनिपातिरक्तबिन्दूनां घनीभावान्नीलरूपताऽऽपादनाच्च स्त्याननीलस्वरूपत्वम्।
‘घनतरुशिखरे गह्वरे स्त्यानरूपा’ मिति पाठान्तरे तु - घनतरुशिखरे = निबिडवृक्षशिखरविराजिते गह्वरे = गुहायाञ्च-स्त्यानरूपां = घनीभूतामित्यर्थो बोध्यः।वृक्षतलनिपतितरक्तविन्दूनां वृक्षच्छायादिना शैत्येन बनीभावो युज्यत एव। एनाम् = पुरतो दृश्यमानान्। रक्तधारां = रुधिरधाराम्। अनुसरन् = अनुगच्छन्।व्रजामि -तार्क्ष्याविलोकनाय गच्छामि। स्रग्धरा वृत्तम्॥९॥
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तरह सावधानी से देखता हुआ जा रहा हूँ। जो रक्त की धारा-प्रारम्भ में गरुडकी चोंच से हुए आघात से निकलने के कारण मोटी व ज्यादा है। फिर आगेकुछ २ दूर पर मोटे २ रक्त के बिन्दुओं से बनी है, पत्थरों पर गिरने से विखरेहुए छोटे २ छींटों से बनी है, भूमि पर चीटियों से व्याप्त बिन्दुओं से बनी हैं,गेरू आदि रंगों के धातुओं पर - जिसके छींटे साफ २ मालूम नहीं होते हैं, घनेवृक्षोंपर — जिसके रक्त के छींटे जमेहुए और नीले पड़ गए हैं। ऐसे नानास्थलों पर नाना प्रकार के रूप धारण करने वाली इस रक्तधारा को देखता हुआगरुड़ के पीछे २ जा रहा हूँ॥९॥
वृद्धा — महाराज! यह कोई व्यक्ति शोकाकुल भाव से रोता हुआ इधरही जल्दी २ आ रहा है। इसको देख मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है। देखिए,और पता लगाइए यह कौन है?।
जाणीअदु दाव को एसो ति?।
** \महाराज! एष सशोक इव [रुदितवदन499 इत एव त्वरितमागच्छन् हृदयंमे आकुलीकरोति। तज्ज्ञायतां तावत्क एष इति?]।**
** जीमूतकेतुः - यथाऽऽह देवी।**
** शङ्खचूडः — [साक्रन्दम्—] हा त्रिभुवनैकचूडामणे! क्व मया द्रष्टव्योऽसि?। मुषितोऽस्मि भो मुषितोऽस्मि।**
** जीमूतकेतुः- [आकर्ण्य, सहर्षंविहस्य—] देवि! मुञ्चशोकम्।अस्याऽयं चूडामणिर्नूनं मांसलोभात्केनापि पक्षिणा मस्तकादुत्खायाऽऽनीयमानोऽस्यां भूमौपपात।**
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रुदितवदनः = साश्रुमुखः। रुदन्। यथाऽऽह = यथा त्वयोक्तंतथा करोमि।साक्रन्दं = सशब्दं रुदन्। ‘सारावे रुदिते त्रातर्याक्रन्दो दारुणे रणे’ इत्यमरः। त्रिभुवनैकचूडामणे = हे त्रैलोक्यशिरोमणे। हे त्रैलोक्यदुर्लभरत्न। अस्यार्थद्वयम् —हेमदीयश्रेष्ठशिरोभूषणमणे इति, हे त्रैलोक्यभूषणस्वरूप इति च। तत्र “अयंस्वकीयं श्रेष्ठं शिरोमणिविशेषं केनाऽपि चोरितं गवेषयती’ त्यर्थो जीमूतकेतुनाऽवगतः। जीमूतवाहन नररत्नं सोऽयं नागो गवेषयतीति तु वास्तविकोऽर्थः। उत्त्वाय= उत्पाट्य। उद्धृत्य। पपातेति। तमेव गवेषयति, अस्य चाऽयं शिरोमणिरितिअमङ्गलऽऽशङ्का परिहृतेति जीमूतकेतोर्भावः।
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जीमूतकेतु — हे देवि! जैसा आप कहती हैं, मैं इसका पता लगाता हूँ कियह कौन है?।
शङ्खचूड —(जोर से रोता हुआ) हे तीनों लोक के श्रेष्ठ चूडामणि(स्वरूप)! मैं तुमको कहाँ खोजू?। मैं तुम्हें अब कहाँ देखूँगा?। हाय !मैं तो लुट गया, बेशक लुट गया।
जीमूतकेतु —(सुनकर हँसता हुआ) देवि! लो, अब तुम चिन्ता शोकछोड़ दो। यह इसी का चूडामणि है।मांस के लोभ से इसके मस्तक सेझाटअवश्य ही किसी मांस भक्षी पक्षी नेकर ले लिया था, और ले जाते समयवह यहाँ भूमि पर गिर पड़ा है।
** वृद्धा - [सपरितोषं मलयवतींसमालिङ्ग्य-] अविधवे! धीरा होहि।क्खु ईरिसी आकिदी बेहदुक्खं अणुहोदि।**
** [अविधवे! धीरा भव। न खल्वीदृशी भाकृतिवैधव्यदुःखमनुभवति]।**
** मलयवती — [सहर्षम् —] अम्ब! तुम्हागं आसिसां पभाषण।**
[—पादयोः पतति]।
** [अम्ब! युष्माकमाशिषां प्रभावेण]।**
** जीमूतकेतुः- [शङ्खचूडमुपसृत्य -] वत्स! किं तब चूडामणिरपहृतः?!**
** शङ्खचूडः—आर्य! न ममेकस्य, त्रिभुवनस्यापि।**
** जीमूतकेतुः—[शङ्खचूडमवलोक्य -] वत्स! कथमिव?।**
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अविधवे = हे सौभाग्यवति। ईदृशी = सर्वसौभाग्यलक्षणोपेता। ‘आशिषांप्रभावेण’ - इत्यस्य ‘अहं’ सौभाग्यवती, नेहरावैधव्यदुःखभागिनी चे’ ति शेषः।वृद्धानां पादपतनं च मङ्गलावसरेषुसौभाग्यवतीनां स्वभावः। चूडामणिः शिरोरत्नम्।आर्य= महाशय। न मम एकस्य= केवलस्य चूडामणिरपहृतः,किन्तु त्रिभुवनस्यापि = त्रैलाक्यस्यापि चूडामणिरपहृत इति मन्यताम्। तादृशनररत्नस्य त्रैलोक्येऽपि दुर्लभत्वादित्याशयः। कथमिवेति। कथमेतत्?। स्पष्टंकथ-
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वृद्धा — (सन्तोष के साथ मलयवतो को छाती से लग कर) अहोसौभाग्यवती! ले, अब तू धीरज धर। तेरे ऐसी सुन्दर आकृति वालास्त्री क्या कभी वैधव्य दुःख का अनुभव कर सकती है?।कभी नहीं।
मलयवती —हे अम्ब! यह सब आप लोगों के आशीर्वाद का ही प्रभावहै - जो मेरा सौभाग्य (अवैधव्य) बना रह गया। (-पैरों में गिरती है)।
जीमूतकेतु — (शङ्खचूड के पास जाकर) वत्स! क्या तुम्हारा चूडामणिकिसी ने हर (चोरा) लिया है?।
शङ्खचूड —हे आर्य! केवल मेरा ही चूडामणिनहीं हर (खो) गया है,(नष्ट व अपहृत हुआ है) किन्तु त्रैलोक्य का ही चूडावणि (नवरत्न) आजखो गया है।
** शङ्खचूडः— दुःखातिभाराद्बाष्पोपरुध्यमानकण्ठो न शक्नोमिकथयितुम्।**
** जीमूतकेतुः– [आत्मगतं] हन्त! हतोऽस्मि। [प्रकाशम्–]**
आवेदय ममाऽत्मीयं पुत्र! दुःखं सुदुःसहम्।
मयि सङ्क्रान्तमेतत्ते येन सह्यं भविष्यति॥१०॥
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येति प्रश्नाशयः। बाप्पोपरुध्यमानकण्ठः = वाष्पैः = रुदिताश्रुभिः, उपरुध्यमानः=निबद्ध इव कण्ठोयस्यासौ तथा। वाष्पनिरुद्धकण्ठोऽहम्। कथयितुम्–अस्य’वृत्तान्त’ मिति शेषः। हतोऽस्मि = विनष्टोऽस्मि। ममैव पुत्रस्याऽमङ्गलप्रसङ्गोऽयमिति शङ्कयैवमुक्तिः।
आवेदयेति। हे पुत्र! मम आत्मीयं = स्वकीयं सुदुःसहं दुःखम्, आवेदय = कथय। येन= ममाग्रे कथनेन। मयिसङ्क्रान्तमेतत् = मयि संविभक्तमेतद्दुःखम्। तव सह्यं = सोढव्यं भविष्यति। अस्य श्लोकस्य - ‘आत्मीयं = मदीयंसुदुःसहं पुत्रदुःखम् आवेदय। मयि सङ्क्रान्तं = मयि निहितमिदं दुखं तव तुसह्यं भविष्यति, पुत्रशोकभारस्य सर्वस्य मय्येव निपातात्’ इत्यप्यर्थो भवतीत्यवधेयम् ॥ १०॥
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जीमूतकेतु —हे वत्स! यह कैसे?।(यह क्या बात है, कहो)।
शङ्खचूड — दुःख के अत्यन्त भार व आघात से आँसुओं से मेरा गला रूंघ गया है, अतः मैं इस वृत्तान्त को आपको कहने में असमर्थ हूँ।
जीमूतकेतु —(मन ही मन अपने पुत्र की कुछ अनिष्ट की आशङ्का से —)हाय! मैं मारा गया, लुट गया! (प्रकट में) हे वत्स! तुम मुझे अपनेसुदुःसह दुःख को भी सुनाओ, इस प्रकार मुझे सुना देने से तुम्हारा यह दुःखमेरे द्वारा बँटा लिए जाने से, कुछ हलका हो कर, तुम्हें सह्य हो जाएगा।
दूसरा अर्थ —मेरे पुत्र का दुःख (मरण वृत्तान्त) जो अति दुःसह है,मुझे सुना दो। इस दुःख को मेरे ऊपर डाल देने से तुम दुःख भार से कुछ हलके हो जाओगे। ‘हे पुत्र! आत्मीयं दुःखं’ यह अन्वय भी यहाँ होता है।और आत्मीयं = मदीयं, पुत्र दुःखं पुत्रमरणवृत्तान्तं दुःखजनकमावेदय’ यह भी
जीमूतकेतुः —कोऽन्य एवं परहितव्यसनी? वत्स! ननु स्पष्टमेवोच्यतां ‘जीमूतवाहने’ नेति। हा इतोऽस्मि मन्दभाग्यः।
** शङ्खचूडः— श्रूयताम्। शङ्खचूडो नाम नागः खल्वहम्। आहारार्थं वासुकिना वैनतेयाय प्रेषितः। किं बहुना विस्तरेण — कदाचिदियंरुधिरधारापद्धतिः पांसुभिरवकीर्य्यमाणा दुर्लक्ष्यतामुपयाति। तत्सङ्क्षेपतः कथयामि —**
विद्याधरेण केनापि करुणाऽऽविष्टचेतसा।
मम संरक्षिताः प्राणा, दत्त्वाऽऽत्मानं गरुत्मते॥११॥
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रुधिरधारापद्धतिः = रक्तधारालक्षितव्यो गरुडस्य मार्गः। पांसुभिः = धूलिभिः।अवकीर्यमाणा= आच्छाद्यमाना सती। दुर्लक्ष्यताम् = अविभाव्यताम्। उपयाति =गच्छति। अतो वातकथने विलम्बो मया नैवात्र कर्तुं शक्यते इत्याशयः।
विद्याधरेणेति। केनाऽपि = अज्ञातनामधेयेन। करुणाऽऽविष्टचेतसा = करुणाक्रान्तमानसेन लता। गरुत्मते = गरुडाय। आत्मानं स्वशरीरं। दत्त्वा मम प्राणाःसंरक्षिताः = परित्राताः॥११॥
कोऽन्यः = मत्पुत्राजीमूतवाहनादन्यः। कः खलु परहितव्यसनी = ईदृशःपरहितव्यसनवान्। अतो मत्पुत्रेणैवेदं दुष्करं कर्म कृतम्। अतो जीमूतवाहनेनेतिस्पष्टमेव कथय। अर्थात् —
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अन्वय होता है। अतः दो अर्थ यहाँ होते हैं। दूसरा अर्थ भावी अमङ्गल कीसूचना देता है। इसी लिए कवि ने यहाँ ऐसे पद रखे हैं॥१०॥
शङ्खचूड — सुनिए—मैं शङ्खचूड नामक नाग हूँ। मुझे नागराज वासुकिने गरुड़ के भोजन के लिए बलिस्वरूप भेजा था। पर ज्यादा विस्तार से क्याकहना है, क्योंकि देरी होने से कदाचित् यह रुधिर की धारा का मार्ग धूलिसे ढक जाने से फिर दिखाई नहीं पड़ेगा। अतः संक्षेप से ही कहता हूँ—
करुणापूर्ण हृदयवाले किसी बिद्याधर ने गरुड़ को अपना शरीर व प्राणदेकर गरुड़ से मेरे प्राण बचाए हैं॥११॥
जीमूतकेतु — इस प्रकार परहित व्यसनी दूसरा कौन हो सकता है?। अतः
वृद्धा — हा पुत्तअ! कहं तुए एदं किदं?।
** [हा पुत्रक! कथं त्वयैतत् कृतम्?]।**
** मलयवती — [सास्रम्] कहं, सच्चीभूदं ज्जेव्व दुच्चितिदं?।**
** [कथं, सत्यीभूतमेव दुश्चिन्तितम्?]।**
** [सर्वेमोहं गच्छन्ति]**
** शङ्खचूडः — [सास्रम्] नूनमैतौ पितरौ तस्य महासत्त्वस्य। कथमप्रियवादिना मयाइमामवस्थां नीतौ!। अथवा विषादृते विषधरस्य मुखात् किमन्यन्नःसरति?। अहो ! प्राणदस्य सुसदृशं प्रत्युपहृतं**
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‘जीमूतवाहनेनैव करुणाविष्टचेतसा।
मम संरक्षिताः प्राणा दत्त्वाऽऽत्मानं गरुत्मते॥’
— इत्थं श्लोकं स्पष्टमेव पठ, ‘विद्याधरेण केनाऽपी’ति किं ब्रूयेइत्याशयः।मन्दभागः = हतभाग्यः। हतः = मृत एव। पुत्रमरणदुःखादिति शेषः। एतत् =स्वप्राणप्रदानम्। कथं कृतं = कुतः कृतम्। दुश्चिन्तितम् = अमङ्गलाशङ्का। अभङ्गचिन्ता। मोहं = मूर्च्छाम्। नूनं – निश्चयेन। तस्य = मत्प्राणदातुर्जीमूतवाहनस्य।महासत्त्वस्य = महात्मनः। कथं = केन हेतुना। इमामवस्थां = मोहावस्थान्। विषधरस्य = सर्पस्य। विषाहते = विषं विना। अन्यत् = अन्यहस्तु। निस्सरति = बहिर्भवति। अतो विषधरत्वान्मया विषवन्मोहापादकं वचनं पुत्रविपत्तिसूचकंश्राविताविमौ। अहो — इत्याश्चर्ये। प्राणप्रदस्य = स्वशरीरदानेन मत्प्राणरक्षकस्य जीमूतवाहनस्य, मया सुसदृशं = योग्यम्, प्रत्युपकृतं = प्रत्युपकारः कृतः।
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हे वत्स! तुम स्पष्ट ही कहो कि —जीमूतवाहन ने अपने शरीर को देकर तुम्हारेप्राण बचाए हैं। हाय! मैं मन्द भाग्य इस विपत्ति से मारा गया!।
वृद्धा — हे पुत्र! तैने यह अनर्थ कैसे और क्यों किया?।
मलयवती — हाय! जिस अमङ्गल की हमें शङ्का थी वह सच ही होकर रहा। [सब मूच्छित हो जाते हैं]।
शङ्खचूड — (आँखों में आँसू भर कर) अवश्य ही ये उस महात्मा केमाता—पिता मालूम होते हैं। हा! मैंने इनको अप्रिय बात सुना कर इस दशाको क्यों पहुँचाया!। अथवा — विषधर के (मेरे नाग के) मुख से विष
जीमूतवाहनस्य शङ्खचूडेन। तत् किमधुनैवाऽऽत्मानं व्यापादयामि?।अथवा—समाश्वासयामि तावदेतौ। तात! समाश्वसिहि। अम्ब!समाश्वसितु।
[उभौ— समाश्वसितः]।
** वृद्धा— वच्छे! उट्ठेहि, मा रोअ। अम्हे किं जीमूदवाहणेणविणा जिवम्ह?। ता समस्तस दाव।**
** [वत्से! उत्तिष्ठ, मा रुदिहि। वयं किं जीमूतवाहनेन विना जीवामः?।तत्समाश्वसिहि तावत्]\।**
** मलयवती – [समाश्वस्य] अज्जउत्त! कहिं मए तुमं पेक्खिदव्वो?।**
** [आर्यपुत्र! क्व मया त्वं द्रष्टव्यः?]।**
** जीमूतकेतुः – हा वत्स! गुरुचरणशुश्रूषाविधिज्ञ ! —**
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अर्थात्—नोचितं मया कृतम्। तत्पितरावेवं कष्टां दशां नयता सया नोचितंकृतमित्यर्थो विरुद्धलक्षणया बोध्यः। वत्मे = हे मलयवति। किं जीवामः = नैवजीवामः। अतो जीमूतवाहनो जीवतीत्येव जानीहीति तु ध्वनिः।
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(विष की तरह घातक बात) के सिवाय और निकल ही क्या सकता है?।अहो ! अपने प्राण बचाने वाले जीमूतवाहन के साथ मैंने यह अच्छा प्रत्युपकार किया!।अर्थात् — उसके माता-पिता की यह दशा करके मैंने तो जीमूतवाहन के साथ बड़ा ही अनुपकार किया। तो क्या मैं अभी आत्मघात कर लूं?। अच्छा, पहिले इन को कुछ धैर्य दूं। हे तात! आप चैतन्य हो (धैर्य धरें)।अम्ब! आप भी चैतन्य हो (धीरज धरिए)।
[दोनों चैतन्य होते हैं]।
वृद्धा— बेटी मलयवती ! उठ, रो मत। क्या हम लोग जीमूतवाइन केविना कभी जीते रह सकते हैं?। अतः तूं धीरज घर। अर्थात् हम लोग सबसाथ ही प्राण त्याग करेंगे।
मलयवती — हे आर्य पुत्र! (हे मेरे श्वशुर के प्यारे पुत्र, मेरे प्राणनाथ)मैं अब आपको कहाँ देखूंगी !।
चूडामणिं चरणयोर्मम पातयता त्वया ।
लोकान्तरगतेनापि नोज्झितो विनयक्रमः ! ॥ १२ ॥
** [चूडामणिं गृहीत्वा —] हा वत्स! कथमेतावन्मात्रदर्शनः संवृत्तोऽसि?।[हृदये दत्त्वा —] अहह!—**
भक्त्या विदुरविनताऽऽनननम्रमौलेः,
शश्वत्तव प्रणमतश्चरणौ मदीयौ ।
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गुरुचरणशुश्रूषाविधिज्ञ = हे गुरुजनचरणसेवाविधिज्ञ। चूडेति। नमचरणयोः, चूडामणिं = स्वशिरोरत्नं, पातयता = निक्षिपता त्वया, लोकान्तरगतेनापि =परलोकगतेनापि (त्वया), विनयक्रमः = विनयमर्यादा।‘गमने गुरुपादवन्दनंकार्य’मिति विनयमर्यादा। नोज्झितः नैव परित्यक्तः। स्वशिरोमणिं मच्चरणयोर्निक्षिपता त्वया प्रणामविधिलोकान्तरगमनसमयेऽपि समनुष्ठित इत्यहो तवगुरुजनशुश्रूषानुरागः॥१२॥
एतावन्मात्रदर्शनः = केवलशिरोभूषणमात्रदर्शनीयः। त्वां विना त्वच्छिरोभूषणंकथं मयाऽद्य दृश्यते?। त्वं क्व नु खलु सम्प्रति गतोऽसीत्याशयः।
भक्त्येति। भक्त्या = अनुरागेण। गुरुजनभक्त्यतिशयेन।विदूरम् = अतितरां, विनतं = नम्रंयत् आननं = मुखं, तेन नम्रः= विनम्रः,मौलिः = किरीटं, संयताः केशा वा यस्य, तस्य–विदूरनमितानननम्रमौलेः =अतिनमिताननविनम्रकिरीटस्य। विनम्रचूडस्येति वा। ‘चूडा किरीटं केशाश्च संयतामौलयस्त्रयः’ इत्यमरः। मदीयौ चरणौ = पादौ, प्रणमतः = नमतः, तव = भवतः,
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जीमूतकेतु — हा वत्स! हा गुरुजनोके चरणोकी सेवा करने की विधि कोअच्छी तरह जानने वाले!
परलोक को प्रयाण करते समय भी आकाश से मेरे पैरों पर अपनी चूडामणि को डाल कर तुमने विनय की मर्यादा का पालन किया। अर्थात्—कहींजाते समय गुरुजनों के चरणों पर शिर रख कर प्रणाम करने के अपने विनीतक्रम (परिपाटी) का तुमने मरते समय भी मेरे पैरों पर अपना शिरोरत्न डालकर पालन किया है॥१२॥
चूडामणिर्निकषणैर्मसृणोऽप्ययं हि,
गाढं विदारयति मे हृदयं कथं नु ?॥१३॥
** वृद्धा — हा पुत्र जीमूतवाहण! जस्स दे गुरुअणसुस्स्सं वज्जिअअण्णं सुहं ण रोअदि, सो कहिं दाणिं पिदरं उज्झिअ सग्गसुहमणुहोदुं गदोसि?।**
** [हा पुत्र जीमूतवाहन! यस्य ते गुरुजनशुश्रूषां वर्जयित्वाऽन्यत्सुखं नरोचते, स कुत्रेदानीं पितरमुज्झित्वा स्वर्गसुखमनुभवितुं गतोऽसि?]।**
** जोमूतकेतुः—** [सास्रं] देवि! किं जीमूतवाहनेन विना जीवामोवयं येनैवं प्रलपसि?।
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निकषणैः = घर्षणैः, मत्पादघर्षणैः, मसृणोऽपि = चिकणोऽपि स्निग्धोऽपि, अयंहि चूड़ामणिः = केशभूषणमणिरयं खलु, मे = मम, हृदयं = स्वान्तम्, गाढंयथा स्यात्तथा। अतितराम्। कथं नु केन हेतुना। विदारयति = खण्डयति।निकृन्तति। विदलयति। मसृणेन स्निग्धेनापि तत्र चूडामणिना त्वां विनाऽद्य दृष्टेनमद्धृदयं विदीर्यत इवेत्याशयः। वसन्ततिलका वृत्तम्॥१३॥
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(चूडामणि का हाथ में लेकर —) हाय बेटा ! अब तुम केवल इस चूडामणि मात्र से ही हमें दिखाई देते हो। अब तो तुम्हारा शरीर हमें दिखाई नदेगा। ऐसा अनर्थ क्यों हुआ?। [ चूडामणि को कलेजे से लगा कर–] अहह !
हे पुत्र! भक्ति से मेरे चरणों में सदा प्रणाम करने वाले, नीचा मुख करअपने शिर के मुकुट (या चूडा, या केशपाश) को सदा मेरे चरणों में झुकानेवाले, तुम्हारे शिर का यह मणि जो मेरे चरणों की रगड़ से चिकना हो रहा है,मेरे हृदय को जबरदस्त पीड़ा क्यों पहुंचा रहा है, और मेरे हृदय का विदारणक्यों कर रहा है?।चिकनी वस्तु काटती नहीं, पर यह तुम्हारा मणितो चिकना(पालिसदार होकर भी) मेरे हृदय के टुकड़े २ कर रहा है। अर्थात् इसमणि को देखकर मेरा हृदय फट रहा है॥१३॥
वृद्धा —हे पुत्र! तुम्हें तो गुरुजनों की (हमारी) सेवा से प्राप्त सुख केसिवाय दूसरा सुख अच्छा ही नहीं लगता था, फिर तुम आज अपने पिता-माताको छोड़ कर स्वर्ग का सुख अनुभव करने कैसे चले गए?।
** मलयवती —[पादयोर्निपत्य कृताञ्जलिः —] ता देहि मे अज्जउत्तचिण्हंचूडामणिं, जेण एदं हिअए कदुअ जलणपवेसेण अवणेमि हिअअस्स संदावदुक्खं।**
** [तद् देहि मे आर्यपुत्रचिह्नं चूडामणिं, येनैनं हृदये कृत्वा ज्वलनप्रवेशेनाऽपनयामि हृदयस्य सन्तापदुःखम्]।**
** जीमृतकेतुः —पतिव्रते! किमेवमाकुलयसि?।ननु सर्वेषामेवाऽस्माकमयं निश्चयः।**
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येनैवं प्रलपसि = ‘अस्मान् विहाय क्व गतोऽसी’ त्येवं त्वं प्रलापमाचरसि। ननुयत्रैव जीमूतवाहनस्तत्रैव वयमपि त्वरितं यास्यामः तेन विना क्षणमपि नैव जीवामइत्याशयः। कृताञ्जलिः = बद्धाञ्जलिः सती! आर्यपुत्रचिह्नं = भर्तृचिह्नभूतम्।एनं = चूडामणिम्। ज्वलनः = अग्निः। अपनयामि = दूरीकरोमि। एवम् =इत्थं प्रार्थनया। किम् आकुलयसि = कुतोऽस्मान् व्याकुलीकुरुषे। ननुः — अनुनये।अयं = ‘ज्वलनप्रवेशेन हृदयस्य सन्तापापनोदः कार्य’ इत्ययम्। किं प्रतिपाल्यतेकिम्प्रतीक्ष्यते। ज्वलनप्रवेशे कुतो विलम्बः क्रियते?।न खलु किञ्चित् =नैव किञ्चित्प्रतीक्ष्यते। आहिताग्नेः = अग्निहोत्रिणः। आहिता अग्नयोयेनाऽसौ — आहिताग्निः, तस्य — आहिताग्नेः = अग्न्याहितस्य। अन्येन= लौकि-
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जीमूतकेतु — हे देवि! क्या हम लोग जीमूतवाहन के बिना जिएगें, जोतुम ऐसा प्रलाप कर रही हो?। हम भी अपने पुत्र के पास स्वर्ग मेंपहुंचते ही हैं।
मलयवती — (पैरों में पड़ कर हाथ जोड़ कर) अम्ब! मेरे पति काचिह्न रूप यह चूडामणि मुझे दे दीजिए, जिससे मैं इसको हृदय से लगा करअग्नि में प्रवेश कर अपने हृदय की जलन व दुःख को शान्त करूँ।
जीमूतकेतु — है पतिव्रते! इस प्रकार विलाप कर हमें और भी तुम क्योंव्याकुल कर रही हो?। केवल तुम्हारा ही नहीं, हम सब का भी यही (अग्निमें प्रवेश करने का हो) निश्चय है। पर थोड़ा ठहरो, हम भी तुम्हारी ही तरहअग्नि में प्रवेश करेंगे।
वृद्धा — महाराअ! ता किं अम्हेहिं पडिपालीअदि?।
** [महाराज! तत्किमस्माभिः प्रतिपाल्यते?]।**
** जीमूतकेतुः— न खलु देवि! किञ्चित्। किन्त्वाहिताग्नेर्नाऽन्येनाऽग्निना संस्कारो विहितः। अतोऽग्निहोत्रशरणाद्ग्नीनादायाऽऽत्मानमुद्दीपयामः।**
** शङ्खचूडः—[आत्मगतं —] कष्टं! ममैकस्य कृते सकलमेवेदं विद्याधरकुलमुच्छिन्नम्। तदेवं तावत्। [प्रकाशं -] तात! न खल्वनिश्चित्यैव युक्तमिदमीदृशं साहसमनुष्ठातुम्। विचित्राणि हि दैवविलसितानि।**
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काग्निना।संस्कारो न विहितः = देहसंस्कारो न शास्त्रकारानुमतः। अग्निहोत्रशरणात् = अग्निहोत्रशालातः। ‘शरणं गृहरक्षित्रोः’ इत्यमरः। अग्नीन् = दक्षिणाऽग्निगार्हपत्याऽग्न्याहवनीयाग्नीन् त्रीनपि। तदुक्तं मनुना—
‘आहिताऽग्निर्यथान्यायं दग्धव्यस्त्रिभिरग्निभिः।’ इति।
उच्छिन्नं = नष्टम्। भविष्यति। तत् = तस्मात्। एवं तावत् = एवं तावत्कथयामि। इत्थं मनसि विचार्य प्रकटं ब्रूते - तातेति। अनिश्चित्य = जीमूतवाहनोमृतो, जीवति वेत्यनिश्चित्य। ईदृशं साहसं = ज्वलनप्रवेशसाहसम्। अनुष्ठातुं नैवयुक्तं = नोचितम्।हि = यतः। दैवविलासितानि = भाग्यविलासाः। भाग्यगतयः।
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वृद्धा—महाराज! यदि आपका भो ऐसा ही निश्चय है, तो फिर आपकिस की प्रतीक्षा कर रहे हैं?। इसमें विलम्ब क्यों कर रहे हैं?।
जीमूतकेतु — हे देवि! हम किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं, किन्तुअग्निहोत्री का दाह अपनी ही संस्कृत त्रेता अग्नि से होता है, साधारणअग्नि से अग्निहोत्री (आहिताग्नि) का (मेरा) दाह नहीं हो सकता है,अतः अग्निहोत्र शाला से तीनों कुण्डों की तीनों अग्नियों को लाकर हम अपने शरीर को अग्नि में जलावेगें।
शङ्खचूड — (मन ही मन) हाय! बड़े कष्ट की बात है, कि के.. मेरे एक के लिए यह विद्याधर कुल यों नष्ट हो रहा है। अच्छा, ऐसा करू(प्रकट में) हे तात! अपने पुत्र के मरण का पूरा २ निश्चय किए वि
कदाचिन्नायं नाग इति ज्ञात्वा परित्यजेन्नागशत्रुः। तदनयैव दिशावैनतेयमनुसरामस्तावत्।
** वृद्धा—सव्वा देवदाणं पसादेण जीवंतस्स पुत्तअस्स मुहं दंसेमा।**
** [सर्वथा देवतानां प्रसादेन जीवतः पुत्रस्य मुखं पश्यामः]।**
** मलयवती — [आत्मगतं -] दुल्लहं क्खु एदं मम मंदभग्गाए।**
** [दुर्लभं खल्वेतन्मम मन्दभाग्यायाः]।**
जीमूतकेतुः — वत्स! अवितथैषा तव भारती भवतु। तथाऽपिसाग्नीनामेवास्माकं युक्तमनुसर्त्तुम्। वदनुसरतु भवान्। वयमप्यग्नि-
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दैवगतयः। नाऽयं नागः = जीमूतवाहनोऽयं, न पन्नगः। नागशत्रुः = गरुडः।परित्यजेत् = जीमूतवाहनं मुञ्चेत्। अनया दिशा = रक्तधारामार्गेण। वैनतेयंगरुडम्। तावत् = प्रथमम्। एतत् = जीवतः पत्युर्मुखावलोकनं नाम। दुर्लभंकठिनम्। मन्दभाग्यायाः = मम दुर्भगायाः। अवितथा = सत्यैव। भारती=वाणी। ‘ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती’ इत्यमरः। युक्तम् =
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ऐसा साहस – अग्नि प्रवेश करना ठीक नहीं है। क्योंकि – देव (भाग्य)की लीला विचित्र होती हैं। कदाचित् ‘यह नाग नहीं है’ ऐसा जान कर गरुड़उसे छोड़ दे। इसलिए इसी रक्तधारा के मार्ग से हमें गरुड़ का पीछाकरना चाहिए।
वृद्धा —अवश्य ही देवताओं की कृपा से हम अपने जीते हुए पुत्रका मुख देखेंगे।
मलयवती — मेरे ऐसी मन्दभागिनी के लिए ऐसी आशा दुर्लभ है।अर्थात् जीते हुए अपने पति का मुख देखने की मुझे तो आशा नहीं होती है।
जीमूतकेतु — हे वत्स! भगवान् करें तुम्हारी यह मङ्गलमय वाणी सत्यसिद्ध हो, हम अपने पुत्र को सकुशल जीवित देखें। तो भी अपनी अग्नियोंके साथ ही हमारा गरुड़ का अनुसरण ठीक होगा। ताकि आवश्यकता होतेही हम अग्निप्रवेश कर सकें। अतः आप तो गरुड़ का पीछा करिए। हमलोग भी अग्निहोत्र शाला से अपनी तीनों अग्नियों को लेकर शीघ्र ही तुम्हारे
शरणादग्निमादाय त्वरितमेवानुगच्छामः ।
[पत्नीवधूसमेतो निक्रान्तः]।
** शङ्खचूडः—तद्यावद् गरुडमनुसरामि। [अग्रतो निर्वर्ण्य—]**
कुर्वाणो रुधिरार्द्रचञ्चुकषणैर्द्रोणीरिवाद्रेस्तटीः500,
प्लुष्टोपान्तवनान्तरः स्वनयनज्योतिः शिखासञ्चयैः।
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उचितम्। सत्यवसरे ज्वलनप्रवेशस्य सद्यस्तथा सति कर्तुं शक्यत्वात्। अनुसरतु= गरुडमनुयातु तावत्। निष्क्रान्तः = जीमूतकेतुर्गतः।
पुरतो गिरिशिखरस्थं गरुडं व्यावर्णयति शङ्खचूडः — कुर्वाण इति। रुधिरेण = रक्तेन, आर्द्रायाः = क्लिन्नायाः, चञ्च्वाः = चोट्याः, यत्कषणं = घर्षणं, रक्तापनोदाय मुहुः पार्श्वयोराघट्टनं, [रुधिरार्द्रया चञ्च्वा यत्कषणमित्यपि तृतीयान्तेनविग्रहोऽत्रबोध्यः।] तैः- रुधिरार्द्रचच्चुकषणैः। अद्रेः = मलयगिरेः। तटीः = तटप्रदेशान्। प्रान्तभागान्। द्रोणीरिव = नौका इव। कुर्वाणः = विदधानः। वज्रतुल्यकठोर-चम्बु-पुटाभ्यां घर्षणे हि पर्वतस्य प्रान्तभागे शिलानां प्रान्तभागस्याऽघृष्टत्वेन, तन्मध्यभागस्य च नितरां घृष्टतया नौकाकृतिरिव भवतीत्यवधेयम्। ‘द्रोणीकाष्ठाऽम्बुवाहिनी’ इत्यमरः। एतेन वज्रकठोर-चञ्चु-पुटवत्त्वं गरुडस्येति सूचितम्।
किञ्च — स्वनयनयोः = स्वचक्षुषोः, या ज्योतिःशिखा = तेजोमण्डलज्वाला,प्रभापुञ्जर्हतयः (‘वह्नेर्द्वयोर्ज्वालकीलावर्चिर्हेतिः शिखा स्त्रियाम्’ इत्यमरः)।तासां सञ्चयैः - स्वनयनज्योतिःशिखासञ्चयैः = स्वनेत्रप्रचण्डज्योतिर्वालापटलैः।
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पीछे २ आ रहे है।
[पत्नी व पुत्रवधु के साथ जीमूतकेतु जाता है]।
शङ्खचूड — मैं तो अब गरुड़ का अनुसरण करता हूँ।
[आगे की ओर देखकर ]—
अपनी रुधिरार्द्र लम्बी चोंच के घिसने से मलय पर्वत की तलहटियों को(प्रान्त भागों को) नाव (डोंगी) की तरह बीच में से गहरी करता हुआ,अपनी नेत्र ज्योति की ज्वालाओं से आस पास के वन के मध्यभाग को जलाता
मज्जद्वज्रकठोरघोरनखरप्रान्तावगाढावनिः,
शृङ्गाग्रे मलयस्य पन्नगरिपुर्दूरादसौ दृश्यते॥१४॥
[ततः प्रविशत्यासनस्थः पुरः पतितनायको गरुडः]।
** गरुडः — जन्मनः प्रभृति भुजङ्गपतीनश्नता नेदमाश्चर्य्यंमया**
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प्लुष्टम् = दुग्धम्, उपान्ते = समीपप्रदेशे, वनस्य अन्तरं = मध्यभागो येनासौ—प्लुष्टोपान्तवनान्तरः = दुग्धसमीपस्थवनमध्यभागः। एतेन तीक्ष्णदुःसहतेजःपुञ्ज दुर्निरीक्ष्य नेत्रत्वं गरुडस्येति सूचितम्। किञ्च — मज्जतां = मलयगिरिभुवि निमज्जतां, वज्रकठोराणां = वज्रकठिनानाम्, अशनितुल्यानाम्, अत एवघोराणां = भयङ्कराणाम्, नखराणां = नखानां प्रान्तैः = अग्रभागः, अवगाढा = दृढंनिपीडिता, अवनिः = भूर्येनासौ मजदुत्र कठोरनखरप्रान्ताऽवगाडाऽवनिः = अन्तःप्रविशदशनिसमानकठोरनखरप्रान्तनिपीडितावस्थानभूभागः।‘पुनर्भवः कररुहो नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियाम्’ इत्यमरः। असौ = दृश्यमानः।पन्नगरिपुः = नागान्तको, गरुडः। दूरात् = दूरादेव। मलयस्य = मलयाचलस्य,शृङ्गाग्रे=शिखराग्रे। दृश्यते= विलोक्यतेऽस्माभिः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥१४॥
आसनस्थः = सिंहासनस्थः, उच्चभूपदेशस्थो वा। पुरः पतितनायकः =पुरःपतितजीमूतवाहनः। जन्मनः प्रभृति = बाल्यादारभ्य। भुजङ्गपतीन् = नागेन्द्रान्। अश्नता = भक्षयता। न दृष्टपूर्वं = पूर्वंन कदापि दृष्टम्। आश्चर्यमेवाह—
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हुआ, वज्र के समान कठोर भाषण पक्षी के अग्र भागों को भूमि में गड़ा करबैठा हुआ, वह नागधत्रु गरुड़ मलय पर्वत की चोटी पर (बैठा हुआ) दूर सेही दिखाई दे रहा है। [पक्षी अपनी चोंच को भूमि में रगड़ते हैं—यहउनका स्वभाव है। गरुड़ की चोंच इतनी बड़ी व भयानक है, कि उनकीरगड़ से पर्वत की चोटी से नीचे के प्रान्त भाग नाव की आकृति के हो गएहैं। क्योंकि - जितनी दूर में रगड़ लगेगी उतना भाग गहरा हो जाएगा।अगल बगल का भाग ऊंचा रहेगा, अतः बीच में नाव की तरह आकृति होजाती है। इससे गरुड़ को चोंच को कठोरता सिद्ध होती है॥२४ ॥
[आसनस्थित गरुड़का—जिसके सामनें भूमि पर जीमूतवाहन नायक पड़ा
दृष्टपूर्वं, यदयं महासत्त्वो न केवलं न व्यथते, प्रत्युत प्रहृष्ट इव किमपि दृश्यते !।तथाहि—
ग्लानिर्नाधिकपीयमानरुधिरस्याप्यस्ति धैर्य्योदधे-
र्मांसोत्कर्त्तनजा रुजोऽपि वहतः, प्रीत्या प्रसन्नं मुखम् !।
गात्रं यन्न विलुप्तमेषपुलकस्तत्र स्फुटो लक्ष्यते !,
दृष्टिर्मय्युपकारिणीव निपतत्यस्यापकारिण्यपि !॥१५॥
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यदिति। महासत्त्वः=अतिशयधैर्यतेजःप्रतापौदार्यशाली। दृढान्तःकरणः। न व्यथते=धैर्यंन मुञ्चति, पीडां नाविष्करोति। इति न केवलम् = इत्येव केवलमत्रविशेषो नास्ति। प्रत्युत= किन्तु, प्रहृष्ट इव = प्रसन्न इव। प्रमुदित इव।
वैलक्षण्यमेव विशदयति—तथाहीति। ग्लानिरिति। अधिकं यथास्यात्तथा पीयमानं रुधिरं यस्य, तस्य—अधिकपीयमानरुधिरस्यापि = नितरां पीयमानशोणितस्यापि। धैर्योदधेः = धैर्यसागरस्य। मांसस्य यत् उत्कर्त्तनम् = चञ्च्वा छेदनं, तस्याज्जायन्ते इति–मांसोत्कर्त्तनजाः = मांसखण्डोत्खण्डनजाः। रुजोऽपि = पीडा अपि, वहतः = दधतः। अस्य = महासत्त्वस्य। ग्लानिर्न = मुखमालिन्यं न, किन्तुप्रीत्या = हर्षेण, मुखम्=आननं, प्रसन्नं= प्रफुल्लितमेव। प्रसादसंशोभितमेव। किञ्च– यद् गात्रं=योऽवयवः, न विलुप्तं =न मया चञ्च्वाकत्तितं, तत्र = तस्मिन् गात्रे, एष स्फुटः = स्पष्टः, पुलकः = रोमोद्गमः, लक्ष्यते = दृश्यते। किञ्च अपकारिण्यपि = अपकारपरे शत्रुभूते स्वभक्षकेऽपि। मयि = गरुडे। ( अस्य ) उपकारिणीव = उपकारपरायणे
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है–प्रवेश ]
गरुड़—मैं जन्म से ही बड़े २ नागराजों को ही सदा खाता आया हूँ, परन्तु ऐसा आश्चर्य मैंनें कभी नहीं देखा, कि यहमहासत्व ( महात्मा ) किसी प्रकार की व्यथा व कष्ट को नहीं प्रकट कर रहा है, यही बात केवल नहीं है, किन्तु उल्टे मेरे खाने से प्रसन्न व हर्षित ही दिखाई देता है। जैसे—
इसके शरीर से मेरे अधिक रुधिर पी लेने पर भी धैर्यसागर इस महा सत्त्व के मुख पर तनिक भी मलिनता नहीं आ रही है, यद्यपि इसके शरीर से
ततः कुतूहलमेव जनितमस्याऽनया धैर्यवृत्त्या। भवतु, न भक्षयाम्येवैनम्। पृच्छामि तावत्कोऽयमिति। [ —अपसर्पति ]।
** नायकः—[ मांसोत्कर्तनविमुखमुपलक्ष्य ]—**
शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्तमद्यापि देहे मम मांसमस्ति।
तृप्तिं501 न पश्यामि तवापि तावत्, किं भक्षणात्त्वंविरतो गरुत्मन् !॥१६॥
** गरुडः—[ आत्मगतम् ] आश्चर्य्यम् ! आश्चर्य्यम् !! कथमस्या-**
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सुहृदीव । दृष्टिः = नेत्रम् । निपतति = प्रपतति । यस्यामवस्थायामन्येषां शोकः दुखाऽधैर्यादयो भवन्ति तस्यामवस्थायामेष प्रसन्नमुखस्तिष्ठति, शत्रावपि मित्रवदेव व्यवहरतीत्यहो अस्य सत्त्वातिशय इत्याशयः । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥१५॥
मांसोत्कर्त्तनविमुखं = स्वपिशितखण्डच्छेदनविरतं गरुडम्।उपलक्ष्य = मत्वा, विभाव्य। ‘इत्थं व्रवीती’ति शेषः। गरुत्मन् = हे गरुड।मम शिरामुखैः= नाडीमुखैः। रक्तं स्रवते एव = च्योतते एव। मम देहे = मदीये शरीरे। अद्यापि = विपुलं चञ्च्वाघातमांसकर्तनानन्तरमपि। मांसमस्ति = पिशितं वर्त्तत एव। तवापि तावत् = भवतोऽपि तावत्। तृप्तिं = सन्तर्पणं। क्षुदुपशान्तिं। न पश्यामि = न तर्कयामि। तथापि = एवं सत्यपि। भक्षणात् = मन्मांसादिभक्षणात्। त्वं–किं = कस्मात्। विरतः = विरतेच्छोऽसि। उपजातिर्वृत्तम्॥१६॥
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मांस के टुकड़े काट २ कर मेरे खाने से इसको भयङ्कर पीड़ा हो रही है। उलटे इसका मुख प्रीति से प्रसन्न ही हो रहा है ! जिस शरीर के भाग को अभी मैंने नहीं नोचा है उस भाग पर हर्ष सूचक ये रोमाञ्च स्पष्ट दिखाई दे रहे है !।और अपकारी शत्रु मुझ पर भी मित्र की तरह स्नेहार्द्र दृष्टि हो इसकी पढ़ रही है ! यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है। इसका धैर्य तो अद्भुत है॥१५॥
इसकी इस प्रकार धैर्य युक्त चित्त वृत्ति को जानकर उलटे मेरा कौतूहल व उत्सुकताही बढ रही है। अच्छा, अब रहने दूं, अब और इस को नहीं खाऊंगा। और इससे पूछता हूँ कि यह कौन है ? ।( दूर हटता है )।
नायक—( मांस के टुकड़े काट कर खाने से विमुख हुए गरुड़ को जानकर ) हे गरुड़ ! मेरी नाड़ियों से अभी रक्त बह ही रहा है, और मेरे शरीर में
मप्यवस्थायामेवमूर्जितमभिधत्ते !!! [प्रकाशम्—] अहो महासत्त्व ! —
आवर्जितं मया चञ्च्वाहृदयात्तव शोणितम्।
अनेन धैर्य्येण पुनस्त्वया हृदयमेव नः॥१७॥
** तत्कस्त्वमिति श्रोतुमिच्छामि।**
** नायकः—एवं क्षुदुपतप्तो न श्रवणयोग्यस्त्वम्। कुरुष्व तावन्मममांसशोणितेन तृप्तिम्।**
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अस्यामप्यवस्थायां=मञ्चञ्च्चाघातसमुत्कृत्तसकलमांसादिधातुतया विक्लवायामपि रक्तमांसशून्यायामपि हीनायां शरीरदशायाम्। एवम् = इत्थम्। ऊर्जितं = तेजोयुक्तम्। अदीनं धीरं वचनम्। अभिधत्ते = ब्रूते। आवर्जितमिति। मया चञ्च्वातव हृदयात् शोणितमेव = रक्तमेव, आवर्जितं = गृहीतम्। पुनः = किन्तु।अनेन=अन्यत्रादृष्टेन। धैर्येण = धीरत्वेन। त्वया। नः = अस्माकं, मम गरुडस्य।हृदयमेव=चित्तमेव, आवर्जितम् = वशीकृतम्। अनुरञ्जितम्। हृतम्। स्वायत्तीकृतम्। त्वद्धैर्यतेजोवैशिष्टयं दृष्ट्वा नितरां प्रसन्नोऽस्मीत्याशयः॥१७॥
एवम् = इत्थम्।क्षुदुपतप्तः = बुभुक्षितः। न श्रवणयोग्यः =न श्रवणार्हः। मांस-
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भी अभी तो मांस बाकी ही है। तुमारा भी अभी पेट नहीं भरा है। क्योंकि पेट तुमारा खाली ही दीखता है ! फिर तुम मेरे को खाने से क्यों हट रहे हो ?॥१६॥
गरुड़—( मन ही मन ) आश्चर्य है ! आश्चर्य है !! हैं ! इस मुमूर्षु दशा में भी इसका इतना तेज ! इतनी धीरता ! ऐसे तेजस्वी वचन यह अभी भी बोल रहा है ! आश्चर्य की बात है ! ( प्रकट में ) अहो ! महासत्व ! मैंने तो केवल तुम्हारे हृदय स्थल से रक्त ही ग्रहण किया है, पर तुमने तो अपने इस धैर्य से मेरा हृदय ही हर लिया है। अर्थात्—तुम्हारी इस धीरता से मेरा मन तुम्हारे ऊपर आकृष्ट हो गया है॥१७॥
मैं सुनना चाहता हूँ कि आप कौन है ?।
अर्थात् बताओ तुम कौन हो ?। इसका उत्तर मैं सुनना चाहता हूँ।
नायक—इस प्रकार आधे पेट खाने से तुम अभी भूखे हो, अतः तुम इस प्रश्न का उत्तर सुनने योग्य नहीं हो। पहिले मेरे मांस रुधिर आदि से अपना पेट खूब भर लो, तब मैं तुम को इस बात का उत्तर दूंगा।
शङ्खचूडः—[ सहसोरसृत्य—] तार्क्ष्य ! न खलु न खलु साहसमनुष्ठेयम्। नाऽयं नागः। परित्यजैनम्। मां भक्षय।अहं तवाऽऽहारार्थं प्रेषितोऽस्मि वासुकिना। [ –उरो ददाति ]।
** नायकः—[शङ्खचूडं दृष्ट्वा, सविषादमात्मगतं ] कष्टं ! विफलीकृतो मे मनोरथः शङ्खचूडेनाऽऽगच्छता।**
** गरुडः—[ उभौ निरूप्य —] द्वयोरपि भवतोर्वध्यचिह्नम्। ‘कः खलु नाग’ इति नावगच्छामि !।**
** शङ्खचूडः—अस्थाने एव भ्रान्तिः।**
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शोणितेन = पिशितेन, शोणितेन च। तृप्तिं = क्षुन्निवृत्तिं। तावत् = आदौ। कुरु = विधेहि।तृप्ताय च तुभ्यं सर्वं पश्चाद्रक्ष्यामीत्याशयः। साहसम् = अविचारितं कर्म।अनुचितं कर्म।अनुष्ठेयं = कार्यम्। उरो ददाति = गरुडाय स्ववक्षःस्थलं विदारणायोपनयति। मनोरथः = नागप्राणरक्षणरूपोऽभिलाषः। निरूप्य = नितरां दृष्ट्वा। बध्यचिह्नं = रक्तवस्त्रम्। अस्तीति शेषः। नावगच्छामि = नावबुद्ध्ये। न खलु निश्चिनोमि। अस्थाने = अनवसरे। अयोग्ये स्थाने। भ्रान्तिः = कोऽत्र नाग इति सन्देहः। नायके–‘अयमेव नाग’ इति भ्रमश्च। अस्थाने भ्रान्तिमेवोपपाद-
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[ शङ्खचूड का प्रवेश ]।
शङ्खचूड—( सहसा पहुँचकर ) हे गरुड़ ! बिना विचारे ऐसा अनुचित कार्य मत करो।इसे मत खाओ। यह नाग नहीं है। इसको छोड़ दो। मुझे खाओ। मैं ही वासुकिद्वारा तुमारे भोजन के लिए भेजा गया हूँ। नाग मैंहूँ। [ अपनी छाती गरुड़ के आगे खाने के लिए कर देता है ]।
नायक—( शङ्खचूड़ को देखकर उदास व दुःखी हो, मन ही मन ) हा ! बड़े कष्ट की बात है कि इस शङ्खचूड ने यहाँ पहुँचकर नेरे मनोरथ ( परोपकार के लिए अपना शरीर देने की इच्छा ) को नष्ट कर दिया।
गरुड़—तुम दोनों के शरीर पर वध्यचिन्ह ( लाल वस्त्र ) है। अतः ‘कौन नाग है’।‘कौन नहीं’ यह मैं नहीं समझ रहा हूँ।
शङ्खचूड—यहाँ तो भ्रम का अवसर ही नहीं है। आप को अनवसर में ही यह भ्रम हो रहा है। क्योंकि—मेरे शरीर में वक्षस्थल पर यह जो स्वस्तिक
आस्तां स्वस्तिकलक्ष्म वक्षसि तनौ नालोकितः502कञ्चुको,
जिह्वे जल्पत एव मे न गणिते नाम त्वया द्वे अपि।
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यति—आस्तामिति। (मम) वक्षसि = उरःस्थले। स्वस्तिकलक्ष्म = स्वस्तिकचिह्नम्। नागशरीर एव प्रायो दृश्यमानम्। आस्तां = तिष्ठतु तावत्। यदि तद्भवता नालोकितं मच्छरीरे तर्हि तदास्तां तावत्। तिष्ठतु नाम तच्चिह्नमपि।
किञ्च-तनौ = मच्छरीरे। कञ्चुकः = निर्मोकः। ‘समौ कञ्चुकनिर्मोको’ इत्यमरः। नालोकितः= त्वया नैव विलोकित इत्यपि तावद् भवतु। यद्यपि अनेन चिह्नेनैव नागोऽहमिति त्वाया निर्णेतुं शक्यत एव, तथापि तदध्यास्तां नाम। किञ्च–जल्पतो मे= भाषणं कुर्वतः। आलपतो मम। नाम-इति प्रसिद्धौ। नागानां द्विजिह्वत्वं प्रसिद्धमेव। द्वे अपि मे जिह्वे = उभे मम जिह्वे अपि। मदीयं रसनायुगलमपि। त्वया न गणिते नाम = कदाचित् त्वया नावलोकिते नाम। इत्यपि सम्भवति नाम। अत्र जिह्वाद्वयं हि नागानामेव भवतीत्यनेन चिह्नेन नागोऽहमिति त्वया ज्ञातुं यद्यपि शक्यत एवेत्याशयः। अत्र नामेति सम्भावनायाम्। तथाच कदाचिन्न गणिते इति सम्भाव्यते इत्यर्थः। तथापि—तीव्रस्य = दुःसहस्य, विषमेवाग्निस्तदीयस्य धूमस्य पटलेन= समूहेन, व्याजिह्माः= वक्रीभूताः, कुटिलाः, रत्नानां = फणामणीनां, त्विषः = कान्तयो यासान्ताः—तीव्रविषाऽग्निधूमपटलव्याजिह्मरत्नत्विषः = तीक्ष्णविषज्वालाऽग्निधूमसंहतिवक्रीभवनकान्तयः। फणाविशेषणमेतत्। नागमुखाद्विषाग्निज्वाला निस्सरन्ति, तदीयधूमपटलेन च शिरोमणीनां कान्तयोऽपि कुटिलतां, मलिनतां च यान्तीत्याशयः। दुःसहेन= सोढुमशक्येन, शोकेन = शुचा,
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(जो सर्पों के ही होता है) का चिह्न है, उसे भी यदि आप जाने दें, और मेरे शरीर पर जो यह चुली है वह भी कदाचित् आपको नहीं दिखाई पड़ी हो। और मेरे बोलते समय मेरे मुखसे ये जो दो जीभ निकलती हैं, उनको भी कदाचित् तुमने न देखा हो यह सम्भव हो सकता है। परन्तु–तीव्र भयानक विषकी अग्नि से निकलते हुए धूवाँ से जिनके शिरोमणियों की कान्ति भी धूमिल मलिन और टेढी-मेढी हो रही है ऐसी,
तिस्रस्तीव्रविषाग्निधूमपटलव्याजिह्मरत्नत्विषो
नैता दुःसहशोकशूत्कृतमरुत्स्फीताः फणाः503 पश्यसि ! ॥११८॥
** गरुडः—[ उभौ निरूप्य शङ्खचूडस्य फणां दृष्ट्वा–] तत् कः खलु मया व्यापादितः ?।**
** शङ्खचूडः—विद्याधरवंशतिलको जीमूतवाहनः। कथमकारुणि-**
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जीमूतवाहनव्यापादनोद्भूतेन शोकेन, यानि शुत्कृतानि = ‘फों’ ‘फो’ ‘सं’ ‘सूँ’ इत्यव्यक्तध्वनयो नागोचिताः, तेषां मरुद्भिः = पवनैः, तद्युक्तैर्मरुद्भिरित्यर्थोवा, स्फीताः = प्रवृद्धाः, एताः = स्पष्टं दृश्यमानाः, तिस्रोऽपि फणाः = मदीयं फणात्रयमपि। न पश्यसि = नैव पश्यसिकिमिति काकुः। एतेन फणात्रयमण्डितो रत्नालङ्कृतमस्तकश्चाऽहं शङ्खचूडो नाम नाग इत्यवधेयम्। स्पष्टं दृश्यमानेन फणा रूपेण तु चिह्ननाऽहमेव नागो, नाऽयं वराक इति भवता निश्चेतुं शक्यमित्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥१८॥
कःस्वल्विति। तत् = तर्हि, योऽयं मया व्यापादितः = आहतः सोऽयं कः पुमानित्यन्वयः। अये–इत्याश्चर्यद्योतकम्। अहो यस्य मेर्वादिषु यशः श्रूयते सोऽयं जीमूतवाहनो मया हत इत्याशयः।
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दुःसहशोक से मुख से निकलती हुई फुफकार से जो प्रचण्ड पवन निकल रही है उससे फैले हुए ये तीनों मेरे फण भी क्याआप नहीं देख रहे हैं ! ये तो आपके सामने ही है !।शङ्खचूड के मस्तकपर तीन फण थे, उनपर तीन मणियाँ थी, उनकी कान्ति भी विष की ज्वाला से उठी हुई धूवाँ से टेढी-मेढी व मलिन सो हो रही थी। ये सभी चिह्न सर्प (नाग) के सिवाय दूसरे में नहीं हो सकते हैं। अतः मैं हीं तुमारा भक्ष्य नाग हूँ, यह नाग नहीं है॥१८॥
गरुड़—( दोनों को अच्छी तरह देखकर, शङ्खचूड के फणों को देखकर ) तो फिर तुमारे बदले में जिसे मैंने मारा है, यह कौन है ? ।
शङ्खचूड—यह तो विद्याधर वंश कातिलक =भूषण स्वरूप जीमूतवाहन है। तुमने इसे इस प्रकार ऐसी निर्दयतापूर्वक क्यों मारा ?।तुमनें यह कार्य बड़ा अनुचित किया।
केन त्वया इदमनुष्ठितम् ?।
** गरुडः—अये ! अयमसौ विद्याधरकुमारो जीमूतवाहनः !!।**
मेरौ, मन्दरकन्दरासु, हिमवत्सानौ, महेन्द्राचले,
कैलासस्य शिलातलेषु, मलयप्राग्भारदेशेष्वपि।
उद्देशेष्वपि504 तेषु तेषु बहुशो यस्य श्रुतं तन्मया
लोकालोकविचारिचारणगणैरुद्गीयमानं यशः !॥१९॥
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मेराविति। मेरौ = सुमेरौ पर्वते। मन्दरकन्दरासु = मन्दराचलदरीषु। मन्दरगिरिगुहासु। ‘दरी तु कन्दरो वा स्त्री’ इत्यमरः। हिमवत्सानौ = हिमालयप्रस्थेषु। हिमालयोच्चभूप्रदेशेषु। ‘स्नुःप्रस्थः सानुरस्त्रियाम्’ इत्यमरः। ( प्रस्थ= पठार )।महेन्द्राचले = कलिङ्गदेशस्थमहेन्द्रगिरौ। ( पूर्वीघाटपर्वत समीपे )। कैलासस्य शिलातलेषु = कैलासाधित्यकासु। हिमालयस्य श्रृङ्गविशेष एव कैलासः। मलयस्य ये प्राग्भारदेशाः, तेषु–मलयप्राग्भारदेशेषु अपि = मलयाचलाग्रभागेषु, शिखरादिप्रदेशेषु अपि। तेषु तेषु उद्देशेषु च = तत्तत्प्रदेशेषु च। नानादिग्देशान्तरालेषु च। लोकालोके=जीम्बूद्वीपमावृत्यस्थिते पर्वते, विचरन्ति तच्छीला ये चारणानां गणाः, तैः—लोकालोक-विचारि-चारणगणैः = लोकालोकाख्यपर्वतचारिदेवगायनगणैः। उद्गीयमानं = उच्चैर्गीयमानं। यस्य तत् यशः = प्रसिद्धं यशः, मया बहुशः=
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गरुड—ओह ! यह क्या वही विद्याधर कुमार जोमूतवाहन हे ! जिसका जगत् प्रसिद्ध विमल यश, –मैंने लोकालोक पर्वत पर्यन्त विचरण करने वाले दिव्य चारणों के सुख से बड़े चाव से उच्च स्वर से गाया जाता हुआ सुना है। और सुमेरु पर्वत पर, मन्दराचल की कन्दराओं में, हिमालय के पठारों पर ( पर्वत के ऊपर की समतल भूमि पर ), महेन्द्र पर्वत पर, कैलास पर्वत की चट्टानों पर, मलयाचल के समीपस्थ प्रदेशों में, तथा उच्च शिखरों पर, तथा इधर-उधर सभी जगहों में इसका यश बहुतबार मैंने बहुतों के मुख से सुना है।
[ लोकालोक पर्वत—संपूर्ण पृथ्वी (एशिया, युरोप, अमेरीका आदि), को तथा सातों समुद्रों को घेर कर वृत्ताकार रूप से स्थित है। इसके और पृथ्वी के बीच में
सर्वथा महत्यंहःपङ्के निमग्नोऽस्मि !।
** नायकः—भोः फणिपते ! किमेवमुद्विग्नोऽसि ?।
शङ्खचूडः—किमस्थानमिदमावेगस्य ?।**
स्वशरीरेण शरीरं तार्क्ष्यात् परिरक्षता मदीयमिदम्।
युक्तं नेतुं भवता पातालतलादपि तलं माम् ?॥२०॥
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मुहुर्मुहुः। श्रुतम् = आकर्णितम्। किं सोऽयं जीमूतवाहन इति गरुडस्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥१९॥
सर्वथा = सर्वतो भावेन। अंहःपङ्के = पापकर्द्दमे। ‘कलुषं वृजिनैनोऽवमंहोदुरितदुष्कृतम्’ इत्यमरः। ‘पङ्कोऽस्त्री शादकर्द्दमौ’ इत्यमरः। भोः फणिपते = हे नागराज शङ्खचूड।उद्विग्नः= व्याकुलितहृदयः। विषण्णवदनः। अस्थानम् = अनवसरः। अनुचितं स्थानम्। किं = किमु। किन्तु—आवेगस्य = उद्योगस्य, स्थानम् = अवसर एव इदम् = त्वद्विनाशरूपं वृत्तम्। सहेतुक एवाऽयं मदावेग इत्याशयः।
आवेगस्थानमेव विशदयति—स्वेति। स्वशरीरेण = स्वशरीरप्रदानेन। मदीयम् = मामकम्। इदं शरीरं = पुरतो दृश्यमानमिदं वपुः। तार्क्ष्यात् =
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ही सूर्य भ्रमण करता है, इस लिए इसके इधर के भाग में लोक = प्रकाश है, उधर के भाग में अलोक = अन्धकार है। इस लिए इसका नाम लोकालोक पर्वत है। महेन्द्रगिरि—राज महेन्द्री ( कलिङ्ग देश ) में है। कैलास—हिमालय की ही एक चोटी है, जिसे आजकल एवरेस्ट पर्वत भी कहते हैं। मलयपर्वत—दक्षिण में मलयालम् प्रदेश के पास है। मन्दरपर्वत—समुद्र में कहीं है॥१९॥
ओह ! मैं तो सब प्रकार से बड़े भारी पाप के पङ्क में फंस गया ! ।अब क्या करूं? ।
नायक—हे नागराज शङ्खचूड ! आप यो उद्विग्न ( व्याकुल, घबड़ाए हुए, उदास ) क्यों हो रहे है ? ।
शङ्खचूड—उद्वेग होने का तो यह प्रसङ्ग ही है। यहाँ भी यदि उद्वेग (चिन्ता उदासी, घबडाहट ) नहीं होगा तो फिर कहाँ होगा ?। क्योंकि—अपना शरीर देकर गरुड से मेरी रक्षा करके आपने तो मुझे पाताक से भी नीचे गिरा दिया
गरुडः—अये ! करुणार्द्रचेतसाऽनेन महात्मनाऽस्मद्ग्रासगोचरपतितस्याऽस्य फणिनः प्राणान् रक्षितुं स्वदेह आहारार्थमुपनीतः। तन्महदकृत्यमेतन्मया कृतम्। किं बहुना, बोधिसत्त्व एवायं व्यापादितः। तस्य महतः पापस्याऽग्निप्रवेशादृते नान्यत् प्रायश्चित्तं पश्यामि। तत् क्व तु खलु वह्निं समासादयामि ?।[ दिशः पश्यन्–] अये ! अभी केऽपि गृहीताग्नय इत एवागच्छन्ति। तद्यावदेतान् प्रतिपालयामि।
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गरुडात्। परिरक्षता भवता = परिपालयता त्वया।पातालतलादपि = नागलोका. द्रसातलादपि। तलम् = अधःप्रदेशं। नीचैः स्थानं। दुष्कीत्तिमलीमसं स्थानं। नरकमिति यावत्। मां नेतुं युक्तम् ?= मां प्रापयितुं किमुचितम् ?। नैवोचितम्भबतेदं कर्म कृतं येन मद्रक्षणाय स्वशरीरं गरुडाय प्रदाय अहमकीर्त्ति भाजनतां नीतः। अनेन स्वत्कर्मणाऽयशोभाजनतामहं गत इत्यनुचितकारितां भवतो विलोक्योद्विग्नोऽहमित्याशयः। आर्या जातिः॥२०॥
अये !—इत्याश्चर्ये। करुणार्द्रचेतसा = दयार्द्रहृदयेन। अस्माद्ग्रासागोचरपतितस्य = मद्भक्ष्यतां प्राप्तस्य। फणिनः = नागस्य। उपनीतः = ढौकितः। मह्यं दत्तः। बोधिसत्त्वः = ज्ञानी महापुरुषः। बोधिः = ज्ञानम्। बोधिः—सत्त्वं = स्वभावो यस्यासौ—बोधिसत्त्वः = ज्ञानाऽऽहितधैर्यः। संसारतत्त्वदर्शी।व्यापादितः = हतः। अग्निप्रवेशादृते = वह्निप्रवेशेन स्वशरीरपातनं विना। प्रायश्चित्तं= पापशोधनं कर्म। न पश्यामि = न विलोकयामि। ‘प्रायः पापं समाख्यातं चित्तं
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है। क्या ऐसा करना आपको उचित था ?। अर्थात्-आपके द्वारा अपना प्राण देकर मेरे बचाए जाने से मेरी कीर्ति और प्रतिष्ठा ही जाती रही। मैं कहीं मुख दिखाने लायक नहीं रहा। अतः ऐसा करना आपको कदापि उचित नहीं था।२०।
गरुड—हैं ! इस महात्मा ने दयार्द्रचित्त हो मेरे भक्ष्य इस नाग को बचाने के लिए अपना शरीर मेरे आहार के लिए दे दिया ! ओह ! मैंने तो यह बड़ा ही अनर्थ का कार्य कर दिया जो इस बोधिसत्व=ज्ञानी, उदाराशय, महात्मा का वध कर दिया। और इस महापाप का प्रायश्चित्त तो अग्नि में जल कर मरने के सिवाय और दूसरा मेरे समझ में नहीं आता है। तो फिर अग्नि मुझे कहाँ
शङ्खचूडः—कुमार ! पितरौ ते प्राप्तौ।
** नायकः—[ ससम्भ्रमम् ] शङ्खचूड ! समुपविश्याऽनेनोत्तरीयेणाऽऽच्छादितशरीरं कृत्वा धारय माम् ! अन्यथा कदाचिदीदृशं सहसैवमां दृष्ट्वापितरौ जीवितं जह्याताम्।**
** [ शङ्खचूडः—पार्श्वपतितमुत्तरीयं गृहीत्वा तथा करोति ]।
[ ततः प्रविशति पत्नीवधूसमेतो जीमूतकेतुः ]।**
** जीमूतकेतुः—[सास्र—] हा पुत्र जीमूतवाहन !—**
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तस्य विशोधनम्’ इति धर्मशास्त्रम्। समासादयामि = प्राप्नोमि। लभे। गृहीताग्नयः = आत्ताग्नयः। अग्निसहिताः। प्रतिपालयामि = प्रतीक्षे। पितरौ = पिता च माता च। प्राप्तौ = आगतौ। पश्यैतौ। ससम्भ्रमं = सत्वरम्। लोद्वेगं च। ‘समौ संवेगसम्भ्रमौ’ इति, ‘सम्भ्रमस्त्वरा’ इति चामरः।समुपविश्य = मन्त्रिकटे स्थित्वा। आच्छादितशरीरं = प्राकृतसर्वदेहं। कृत्वा = विधाय। धारय = हस्ताभ्यामवष्टम्भय। ईदृशं = विक्षतसर्वगात्रम्।मां दृष्ट्वा = मां विलोक्य। जीवितं = जीवनम्। कदाचिजह्यातां = कदाचित्परित्यजेताम्।तथा करोति= वस्त्रेणाच्छाद्य हस्ताभ्यामवष्टभ्नाति।
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मिलेगी ? ।( चारों ओर देखकर ) ओहो ! ये कुछ लोग अग्नि को हाथ में लिए हुए इधर ही आरहे हैं। अच्छा इनकी प्रतीक्षा करता हूँ।
शङ्खचूड—हे कुमार ! आपके पिता-माता आ रहे हैं।
नायक—( हड़बड़ा कर—) शङ्खचूड ! तुम मेरे पास बैठकर इस चद्दर से मेरा सब शरीर ढक कर मुझे पकड़ कर सहारा दिए रहो। नहीं तो सहसा इस ( मरणासन्न ) दशा में मुझे देखकर मेरे माता पिता कहीं अपना प्राण दे दें।
शङ्खचूड—पास में पड़ी हुई चद्दर से नायक के शरीर को ढक कर, सहारा देकर उसे बैठाता है ]।
[ स्त्री और पुत्रवधूके साथ जीमूतकेतुका प्रवेश ]।
जीमूतकेतु—( आँखों में आँसू भर कर ) हाय पुत्र जीमूतवाहन !
‘आत्मीयः’ ‘पर’ इत्ययं खलु कुतः सत्यं कृपायाः क्रमः,
‘किं रक्षामि बहून् किमेक’मिति ते जाता न चिन्ता कथम् ?।
तार्क्ष्यात्त्रातुमहिं स्वजीवितपरित्यागं स्वया कुर्वता,
येनाऽऽत्मा, पितरौ, वधूरिति हतं निःशेषमेतत्कुलम् !॥२१॥
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आत्मीय इति। आत्मीयोऽयं जनः अस्यादावुपकारः, कर्त्तव्यः। अयं परः = परो लोकः, अस्य पश्चादुपकारादिकं कर्तव्यम्। इत्ययम् = इत्येवंरूपः।कृपायाः क्रमः = कृपाकरणावसरे परिपाटी। खलु—निश्चयेन। कुतः = कथं भवति ?।नैव भवतीत्यर्थः। सत्यम्=सत्यमेवैतत्। युक्तमेवैतत्। दयाप्रदर्शने हि अयं जनोऽस्मदीयः, अयं जनोऽन्य इत्येवं क्रमो नैव युज्यते इति तु यद्यपि सत्यमेव = युक्तमेव। अतोऽस्माकं चिन्तामकृत्वाऽपि त्वया परोपकारः कृत इति युक्तं कथञ्चिद्भवति। तथापि—किं बहून्रक्षामि = किं मया बहूनां रक्षा करणीया। किमेकं=किमेकं वा जनं रक्षामि। इति = इत्थन्तु। ते चिन्ता=तव मनसि विचारः। कथं न जाता = कुतो नोत्पन्ना ?। किमयमेको नागो मया स्वशरीरदानेन रक्षणीयः, उत पित्रादयो बहवो रक्षणीयेति समुचिता चिन्ता त्वया कथं न कृता ?। येनः यतः। अविचारकृतेन अनुचितेन कर्मणा। त्वया—तार्क्ष्यात् = गरुडात्। अहिं = नागं शङ्खचूडं। त्रातुं = रक्षितुं। स्वजीवितपरित्यागं = स्वप्राणपरित्यागं। कुर्वता =
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यद्यपि यह बात ठीक है, कि–कृपा करते समय यह( या विचार) नियम नहीं रहता है, कि–‘यह अपना है, यह पराया है’ परन्तु–‘बहुतों की रक्षा करूं’ या ‘एक की रक्षा करूं? यह विचार तो तुम को करना ही चाहिए था। यह विचार तुमको क्यों नहीं हुआ ?। जिससे तुमनें गरुड़ से एक नाग के बचाने के लिए अपना शरीर देकर अपनी आत्मा, वृद्ध पिता-माता, प्रिय भार्या, इनको सब को, तथा एक साथ ही संपूर्ण कुछ को ही मार दिया !। अर्थात्-दया करते समय–अपनें घर वालों पर पहिले दया करूं, बाहर वालों पर पीछे करूं-यह, विचार तो अनुचित है-यह बात सत्य है, अतः तुमनें नाग पर दया दिखाते समय हमारा विचार ( चिन्ता ) नहीं किया-यह तो ठीक हो सकता है। परन्तु-एक की रक्षा करने से बहुतों का विनाश होता हो तो वहाँ एक की रक्षा नहीं की जाती है-यह तो नियम
वृद्धा—[मलयवतीमुद्दिश्य—] जादे ! विरम मुहुत्तअं। अविरतनिवडंतवाष्पविदूहिं अहिह्नवीअदि अअं अग्गी।
** [ जाते ! विरम मुहूर्त्तकम्।अविरतनिपतद्वाप्पबिन्दुभिरभिभूयतेऽयमग्निः ]**
[ सर्वे—परिक्रामन्ति ]
** जीमूतकेतुः—हा पुत्र जीमूतवाहन !**
** गरुडः—[ श्रुत्वा ] ‘हा ( पुत्र ) जीमूतवाहन ! इति त्रवीति। तद् व्यक्तमयमस्य पिता। तत् किमेतदीयेनाऽग्निना आत्मानमुद्दीपयामि ?।न शक्नोम्यस्य पुत्रघातालज्जया मुखं दर्शयितुम्। अथवा किम-**
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विदधता भवता। आत्मा = स्वात्मा। पितरौ = जननीजनकौ। वयमिति यावत्। वधूः=स्वभायां मलयवती। इति = इत्येवम्। एतत्कुलम् = एतद्विद्याधरकुलमेव। निःशेषं=सर्वं।हतं = विनाशितम्। अतो हि स्वकुलविनाशप्रदा नागरक्षा तव नोचिता, अनुचितं भवता कृतमित्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥२१॥
जाते = हे पुत्र मलयवति !। मुहूर्त्तकं = क्षणमात्रम्। विरस = मा रोदीः। अविरतं = निरन्तरं, विनिष्पतद्भिः = वन्नेत्रयुगलात्स्त्रवद्भिः, बाष्पबिन्दुभिः= अश्रुबिन्दुभिः।अग्निः = त्रेताऽग्निरयं त्वद्वस्तस्थः। अभिभूयते = विध्याप्यते। न प्रज्वलति। एतेन मलयवती रोदितीति सूचितम्। सर्वे = जीमूतकेत्वादयः। परिक्रामन्ति = अग्रतो गच्छन्ति। व्यक्तं = स्पष्टमेव।निश्चितमेव। अस्य = मया हतस्य विद्याधरस्य। अयं = संमुखागतो जीमूतकेतुः। अस्य पुत्रघातात् = एतत्पुत्रवधात्। लज्जया = अपत्रपया। अस्य = जोमूतकेतोरग्रे। मुखं = स्वमु-
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है ही। अतः एक नाग की रक्षा के लिए अपने प्राण देकर—अपने को, स्त्रीको, माता, पिताको, तथा वंशको नष्ट करके तुमने बड़ा अनुचित किया। क्योंकि तुमारे बिना हम सब मरेगें। अतः हम सब को तथा अपने को मार कर एक नाग का बचाना-तुमारा नियम विरुद्ध और अनुचित कार्य हैं॥२१॥
वृद्धा—( मलयवती से ) बेटो ! थोड़ी देर ठहर।रो मत। बराबर गिरते हुए तेरे आंसुओं की बूंदों से यह अग्नि बुझना ही चाहती है। (सब जाते हैं)।
जीमूतकेतु—हाय पुत्र जीमूतवाहन ! ( तूं कहाँ गया ? )।
गरुड—( सुनकर ) हैं ! यह तो ‘हाय ( पुत्र ) जीमूतवाहन’ ऐसा कहता
ग्निहेतोःपर्य्याकुलोऽस्मि ?।समीपस्थ एवास्मि जलनिधेः। तद्यावदिदानीम्—
ज्वालाभङ्गैस्त्रिलोकीग्रसनरसचलत्कालजि ह्वाग्रकल्पैः
सर्पद्भिःसप्त सर्पिष्कणमिव कवलीकर्त्तमीशे समुद्रान्।
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खम्। अग्निहेतोः = वह्निप्राप्त्यर्थम्। पर्याकुलः = चिन्तितः। यावदिति— निर्धारणे। इदानीं = सम्प्रति।
ज्वालाभङ्गैरिति। त्रयाणां लोकानां समाहारः—त्रिलोकी। त्रिलोक्याः—ग्रसने = कवलीकरणे, भक्षणे यो रसः = अभिलाषः, तेन वलन्तीनां = स्फुरन्तीनां, काल जिह्वानां = मृत्युज्वालानाम्, यानि अग्राणि = अग्रभागाः, ईषदूनानि तानि— जिह्वाग्रकल्पानि तैः—त्रिलोकीग्रसनरसचलत्कालजिह्वाग्रकल्पैः = सर्वजगद्ग्रासोत्सुकमृत्युजिह्वाग्रभागलदृशैः। सर्पद्भिः = स्फुरद्भिः। ज्वालाभङ्गैः = शिखातरङ्गैः। ज्वालोर्मिभिः। सप्त समुद्रान् = सप्त सागरानपि। दधि-क्षीर-मध्वादिसागरानपि। सर्पिष्कणमिव = घृतविन्दुमिव। कवलीकर्त्तं= भक्षयितुम्।ईशे = समर्थे। वडवानलविशेषणमेतत्। पुनश्च–स्वैः = स्वकीयैः। मदीयैः। उत्पाते = प्रलयं, ये वाताः = मिलिता भीषणाः प्रचण्डानिलाः तेषां प्रसरः=प्रसरणं, सर्वत्र व्याप्तिः, तद्वत् पटुतरैः = तीक्ष्णैः, प्रचण्डैः—उत्पातवातप्रलरपटुतरैः = प्रलयकालिकमहावातप्रसरणभीषणैः। पक्षवातैः = उड्डनप्रभवैः स्वकीयैर्गरुत्पवनैः। धुक्षिते = संधुक्षिते।
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है।अतः जरूर यह इस ( जीमूतवाहन ) का पिता ही होगा। तो क्या इसकी अग्नि से मैं अपने शरीर को भस्म करू ?। परन्तु इसके पुत्र के मारने के कारण मैं लज्जा से इसको अपना मुख नहीं दिखा सकता हूँ। अथवा–अग्नि के लिए मैं इतना व्याकुल क्यों होता हूँ ?। मैं तो इस समय समुद्र के पास ही हूँ। अतएव इस समय—
मैं,–त्रैलोक्य को ग्रास ( भस्म ) करने के आस्वाद के लिए चलती हुई काल की जिह्वाओं के अग्रभाग की तरह अपनी भीषण ज्वालाओं से सातोसमुद्रों को घृत के बिन्दु की तरह भस्म करने ( खाजाने) में समर्थ, और प्रलयाग्नि की तरह भयङ्कर इस बड़वाग्नि में ( समुद्र में होनेवाले ज्वालामुखी पर्वत की अग्नि में) जिसे उत्पातसूचक प्रलयकालिक पवन के झोंको के प्रसार की तरह भयङ्कर
स्वैरेवोत्पातवातप्रसरपटुतरैर्धृक्षिते पक्षवात–
रस्मिन् कल्पावसानज्वलनभयकरे वाडवाग्नौ पतामि॥२२॥
[—इत्युत्थातुमिच्छति]।
** नायकः—भोः पक्षिराज ! अलमनेनाध्यवसायेन। नाऽयं प्रतीकारोऽस्य पाप्मनः !**
** गरुडः—[ जानुभ्यां स्थित्वा कृताञ्जलिः—] भो महात्मन् ! कस्तर्हिकथ्यताम् ? ।**
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नितरां प्रज्वालिते। अत एव—कल्पावसाने यो ज्वलनः, तद्भयकरं = भयङ्करे। प्रलयकालिकाग्निरिव भीषणतरे। अस्मिन् वडवाग्नौ = पुरतो दृश्यमाने समुद्रान्नौ। सागरान्तर्वन्यनौ। पतामि = निपतामि।
भावार्थः—सप्त—समुद्रान् घृतविन्दुद्भस्मसात्कर्त्तुसमर्थ, प्रलयाग्नि भीषणे. काल जिह्वाप्रयत्सर्वत्र स्फुरन्तीभिर्ज्वलाभिर्जडले, मदुत्पतनप्रभवपक्षवातसन्धुक्षितं, पुरतो दृश्यमाने सागरान्तर्वत्तिनि वडवाग्नौ ( ज्वालामुखीति प्रसिद्धे ) स्वकीयं देहं प्रायश्चिकार्थं निपात्य वक्ष्यामि । अतोऽग्निचिन्ता मम नास्त्येवेति भावः। स्रग्धरा वृत्तम्॥२२॥
उत्थातुं = समुत्थातुम्। ज्वलनप्रवेशार्थमुत्थाय यातुम्। भोःपक्षिराज ?= हे
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मालूम होनेवाली, मेरे अपने पङ्खोकी वायु से और भी तेज करके, उसमे (वड- वाग्नि में ) अपने शरीर को डालकर भस्म कर देता हूँ।
भावार्थ—सातों समुद्रों को घी की बून्द की तरह बात की बात में भस्न करने की सामर्थ्य रखने वाली वडवाग्नि ( ज्वालामुखी ) में, उसे अपने पंखों की ( प्रलयकालिक हवा की तरह मालूम होने वाली ) प्रचण्ड वायु से–सुलगा कर ( उसे और भी तेज कर ), मैं अपने शरीर को डाल देता हूँ॥२१॥
[ उठना चाहता है ]।
नायक—हे पक्षिराज गरुड ! इस प्रकार मरने के अभ्यवासय ( प्रयत्न या निश्चय ) का कुछ प्रयोजन नहीं है। इसे छोडो। इस भीषण पाप का यह प्रायश्चित नहीं है।
गरुड—( दोनों पैर मोडकर भूमि पर बैठकर हाथ जोड कर–) हे महात्मा जी ! तो कहिए, इस पाप का फिर क्या प्रायश्चित्त (शोधन ) है ?।
** नायकः—प्रतिपालय क्षणमेकम्। पितरौ मे प्राप्तौ। यावदेतौ प्रणमामि।**
** गरुडः—एवं क्रियताम्।**
** जीमूतकेतुः—[ दृष्ट्वा सहर्षे–] देवि ! दिष्ट्या वर्द्धसे !।अयमसौ वत्सो जीमूतवाहनो न केवलं ध्रियते, प्रत्युत पुरः कृताञ्जलिना गरुडेन शिष्येणेव पर्युपास्यमानस्तिष्ठति !।**
** वृद्धा—महाराअ ! किअत्थम्हि। अक्खदसरीरस्स एव्व पुत्तअस्स मुहं दिट्ठं।**
** [ महाराज ! कृतार्थाऽस्मि। अक्षतशरीरस्यैव पुत्रकस्य मुखं दृष्टम् ]।**
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गरुड।अबेन अध्यवसायेन = अग्निपतनव्यापारेण, निश्चयेन वा। अलं = न किमपि प्रयोजनं भविष्यति। अस्य = नागवधरूपस्य।पाप्मनः= पापस्य। ‘अस्त्री पङ्कं पुमान् पाप्मा पापं किल्बिषकल्मषम्’ इत्यमरः। अयं प्रतीकारः = अग्निप्रवेशोऽयं। प्रतीकारोपायः = प्रायश्चित्तम्। न=नैव भवति। कस्तर्हि = कस्तर्हि पापस्याऽस्य प्रतीकारोपायः। प्रतिपालय = प्रतीक्षस्वतावत्। एवं = यथा भवानाह तथैव। पूर्वं करोतु भवान्। दिष्ट्या–हर्षावसरसूचकमव्ययम्। ध्रियते = जीवति। जीवन्तिष्ठति। व्यवतिष्ठते। प्रत्युत = वैपरीत्येन। विशेषतः। किन्तु। कृताञ्जलिना= बद्धहस्ताञ्जलिना। पर्युपास्यमानः = शिष्येण गुरुरिव सेव्यमानः। तिष्ठति = वर्त्तते।
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नायक—थोडा ठहरो। मेरे माता-पिता आ रहे हैं, उन्हें पहिले प्रणाम कर लूं, तब तुम्हें इसका प्रायश्चित्त बवाऊंगा।
गरुड—ठीक है, ऐसा ही करिए। मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
जीमूतकेतु—( सामनें देखकर, हर्ष पूर्वक– ) हे देवी! आनन्द की बात तुम्हें सुनाता हूँ। तुमको आनन्द की बधाई है! ( दिष्टया वर्द्धसे = तुमको आनन्द सूचक बधाई है)। यह बच्चा जीमूतवाहन केवल जीता ही नहीं है, किन्तु शिष्य की तरह हाथ जोड़ कर सामनें बैठे हुए गरुड़ से सेवित हो, आनन्द से बैठा है।
वृद्धा—महाराज ! मैं कृतार्थ हो गई। मेरे मनोरथ सिद्ध हो गए। जो मैनें अक्षत शरीर ( राजी-खुशी बैठे हुए) अपने पुत्र का मुख देख लिया।
मलयवती—अहं अज्जउत्तं पेक्खिन्तीवि असंभावणीयं ति करिअ ण पत्तिआमि।
** [ अहमार्य्यपुत्रं पश्यन्त्यप्यसम्भावनीयमिति कृत्वा न प्रत्येमि ]।**
** जीमूतकेतुः—[ उपसृत्य–] वत्स ! एह्येहि, परिष्वजस्व माम्।**
** [ नायकः—उत्थातुमिच्छन् पतितोत्तरीयो मूर्च्छति ]।**
** शङ्खचूडः—कुमार ! समाश्वसिहि, समाश्वसिहि।**
** जीमूतकेतुः—हा वत्स ! कथं मां505 दृष्ट्वाऽपि परित्यज्य गतोऽसि ?।**
** वृद्धा—हा पुत्तअ ! वहं वाआमेत्तकेण वितुएण संभाविदम्हि ?।**
** [ हा पुत्रक ! कथं वाङ्मात्रेणापि स्वया न सम्भाविताऽस्मि ? ]।**
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कृतार्था = सम्पन्नमनोरथा।अक्षतशरीरस्य = अविक्षतवपुषः। आर्यपुत्रं= = श्वशुरपुत्रं, प्रियं पतिम्। पश्यन्ती अपि = प्रेक्षमाणाऽपि। असम्भावनीयमिति कृत्वा = तीव्राशनिसमपातभीषणगरुडचञ्चुविषयतामुपयातस्याऽक्षतगात्रत्वं न सम्भवतीति शङ्कमाना। न प्रत्येमि = अक्षतशरीरतां पत्युर्नैव खलु विश्वसिमि। परिष्वजस्व = आलिङ्ग। पतितोत्तरीयः = व्यपगतोत्तरीयवस्त्राऽऽवरणः। गतोऽसि = परलोकमुपयातोऽसि। मृतोऽसि। वाङ्मात्रेणाऽपि = दूरे तावदास्ता मालिङ्गन-
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मलयवती—आर्य पुत्र ( अपने पति ) को सामने बैठेदेखते हुए भी– ‘इनका राजी खुशी गरुड़ के मुख से छूटना असम्भवही है’यह जानकर–मुझे तो इनकी कुशलता का विश्वास ही नहीं होता है। किन्तुअमङ्गल की ही मुझे शङ्का हो रही है।
जीमूतकेतु—( पास में जाकर ) आओ, आओ, पुत्र ! मेरी छाती से लगो।मुझे प्रेम व भक्ति से आलिङ्गन करो।
[ नायक—उठने का प्रयत्न करता है। उसके शरीर पर से चद्दर खसक कर गिर जाती है। नायक–बेहोश हो जाता है ]।
शङ्खचूड—कुमार ! चैतन्य होवो। होरा में आवो।
जीमूतकेतु—हा पुत्र ! मेरे को आलिङ्गन किए विना ही तुम मुझको छोड़ कर कैसे चले गए ?।
मलयवती—हा अज्जउत्त ! कहं गुरुअणो वि देण पेक्खिदवो ?।
** [ हा आर्य्यपुत्र ! कथं गुरुजनोऽपि ते न प्रेक्षितव्यः ]।
[सर्वे–मोहं गच्छन्ति ]।**
** शङ्खचूडः—हा शङ्खचूडहतक ! कथं गर्भ एव न विपन्नोऽसि, येनैवं क्षणे क्षणे मरणातिगं दुःखमनुभवसि ?।**
** गरुडः—सर्वमिदं मम नृशंसस्याऽसमीक्ष्यकारिताया विजृम्भितम्। तदेवं तावत् करोमि। [ पक्षाभ्यां वीजयन्–] भो महात्मन् ! समाश्वसिहि, समाश्वसिहि।**
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प्रणामादिकं, वाचाऽपि केवलया। भाषणमात्रेणापि। न सम्भाविता = नाऽऽहृता। न सत्कृता। न परितोषिता। गुरुजनोऽपि = पित्रादिगुरुजनोऽपि। ते = तव। न प्रेक्षितव्यः = चिन्तनीयः। द्रष्टव्यो वा कथं न ?।मद्वार्त्ता तावद् दूरे तिष्ठतु, मदपेक्षयाऽप्यधिकमादरणीयो गुरुजनोऽपि त्वया कथं न दृष्टः ?। ताक्षर्थमेव तावद्भवता स्वात्मा कथं न रक्षितः ?।
सर्वे = मलयवतीप्रभृतयः। मोहं = मूर्च्छाम्। शङ्खचूड एवं स्वनिमित्तमुत्पन्नमनर्थं विभाव्यात्मानमुपालभते—हेति। गर्भे = मातुरुदरे एव। कथं न = कुतो न। विपन्नः = मृतः। नष्टः। येन = जन्मना। मरणातिगं = मरणाधिकम्। नृशंसस्य = धातुकस्य। क्रूरस्य। ‘नृशंसो धातुकः क्रूरः’ इत्यमरः। असमीक्ष्यकारितायाः = अविचार्य कार्यकारितायाः। मूर्खतायाः। विजृम्भितं = विलसितम्।
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वृद्धा—हाय ! पुत्र ! तुमनें मेरा वाणी से भी सन्तोष नहीं किया। मुझसे बोले तक भी नहीं, और चले गए !।
मलयवती—हाय नाथ ! आपनें अपनें माता-पिता का भी विचार नहीं किया !।
मुझे तो आपनें भुला ही दिया, पर अपनें पूज्य गुरुजनों का तो आप को कुछ ध्यान करना था। पर उनको भी छोड़ कर आप चले गए ]।
[ सब—मूर्छित होकर गिरते हैं ]।
शङ्खचूड—हाय रे हृतभाग्य शङ्खचूड ! तूं गर्भ ही में क्यों नही मर गया। जो तूं इस तरह क्षणक्षण में मरण से बढकर कष्ट और दुःख अनुभव कर रहा है।
नायकः—[ समाश्वस्य ] शङ्खचूड ! समाश्वासय गुरून्।
** शङ्खचूडः—तात ! समाश्वसिहि, समाश्वसिहि। अम्ब ! समाश्वसिहि–समाश्वसिहि। समाश्वसितो जीमूतवाहनः, किं न पश्यथ ?। प्रत्युत युग्मानेव समाश्वासयिनुपविष्ठस्तिष्ठति।**
[ उभौ—समाश्वसितः]
** वृद्धा—पुत्त ! कहं पेक्खंताणं ज्जेव्वअम्हाणं किदंतहरण अवहारीअति ?।**
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विषमं फलमिदम्। एवम् = इत्थम्। पक्षाभ्यां वीजनम्। समाश्वसिहि = चैतन्यं लभस्व।मूर्च्छां परित्यज। सावधानो भव। समाश्वसितः = लब्धाऽऽश्वासः। जातचेतनः। उभौ = जीमूतवाहनपितरौ। देवी-राजानौ। समाश्वसितः = चेतनांलभेते। चैतन्ययुक्तौ जातौ। पश्यतामेव = प्रेक्षमाणानामेव। अस्माननादृत्येत्यर्थः। ‘षष्ठी चानादरे’ इत्यनादरे षष्ठी। कथं = कस्मात्। कृतान्तहतकेन = पापेन यमेन। कालापसदेन। ‘कृतान्तौयमसिद्धान्तौ’ इत्यमरः। अपह्रियसे = बलादाच्छिद्य नीयसे।
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गरुड—यह सबअनर्थ मेरी क्रूरहृदयता और विना विचारे कार्य करने की प्रवृत्ति के कारण ही हो रहे हैं। अच्छा ! मैं ऐसा करता हूँ। ( अपनी पंखों से हवा करता हुआ–) हे महात्मन् ! चेत करिए और होश में आइए !।
नायक—( चैतन्य हो–) हे शङ्खचूड ! मेरे गुरुजनों को होश कराओ।
शङ्खचूड—हे तात ! चेतन होइए, होश में आइए। हे माताजी ! आप चेतन होइए, होश में आइए। देखो, जीमूतवाहन अब होश में आ गया है। क्या आप उसे देख नहीं रहे हैं ?। बल्कि जीमूतवाहन होश में आकर आप लोगों को चैतन्य कराने का उद्योग कर रहा है। देखिए।उठिए।
( दोनों—जीमूतकेतु और वृद्धा–होश में आते हैं )।
वृद्धा—हाय पुत्र ! हम लोगों के देखते ही देखते तुमको यह पापी यमराज (मृत्यु) खींच कर ले जा रहा है।
[ पुत्र ! कथं पश्यतामेवाऽस्माकं कृतान्तहतकेनाऽपह्रियसे ? ]।
** जीमूतकेतुः—देवि ! मैवममङ्गल्यवादिनी भव। ध्रियतएवाऽऽयुष्मान्। तद्वधूः समाश्वास्यताम्।**
** वृद्धा—[ मुखं वस्त्रेणाऽऽवृत्य रुदती ]—पडिहदममंगलम्। ण रोइस्सम्। मलअवदि ! समस्सस समस्सस ! वच्छे। उट्ठेहि उट्ठेहि। वरं एत्ति अवेलं तुमं भत्तणो महं पेक्ख।**
** \ प्रतिहतममङ्गलम्। न रोदिष्यामि। मलयवति ! समाश्वसिहि समाश्वसिहि। वत्से ! उत्तिष्ठ, उत्तिष्ठ। वरमेतस्यां वेलायां त्वं भर्त्तुर्मुखं [पश्य506]।**
** मलयवती—[ समाश्वस्य–]—हा अज्जउत्त !।**
** [ हा आर्य्यपुत्र ! ]।**
** वृद्धा—[ मलयवत्या मुखं पिधाय—] वच्छे मा ! एव्वं करेहि।**
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अमङ्गलवादिनी= अनिष्टभाषिणी। ध्रियते = प्राणान्धारयत्येव। जीवत्येवेदानीमपि।आयुष्मान् = चिरायुः। जैवातृकः। जीमूतवाहनः। वधूः = मलयवती। आश्वास्यतां = धैर्यं लम्भनीया। प्रकृतौ स्थाप्यताम्। अमङ्गलम् = मदुक्तमनिष्टाशंसि वचनम्। प्रतिहतं = नष्टं तावद्भवतु। एतस्यां वेलायां = पश्चिमायां वेलायाम्।अन्तसमये। वरम् = उचितमेतत्। पश्य = प्रेक्षस्व तावत्। मुखं-
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जीमूतकेतु—हे देवो ! ऐसी अमङ्गल बात मुख से मत निकालो। अभी तो जीमूतवाहन जी रहा है। अतः तुम रोओ मत। देखो ! बहू को होश कराओ ! वह बेहोश पड़ी है।
वृद्धा—( मुख ढक कर रोती हुई ) भगवान् करे, यह अमङ्गल ( मेरे रोने से सूचित अमङ्गल ) दूर हो। अब मैं नहीं रोऊंगी। हे मलयवती ! होश में आ। चेतन हो। बेटी उठ उठ। देख उठकर अपने पति का इस समय तो मुख अच्छी तरह देख ले।
मलयवती—(होश में आकर ) हाय आर्य पुत्र ! हाय प्राणनाथ ! (ऐसे रोती है )।
वृद्धा—( मलयवती मुंह बन्द करती हुई—) हे बेटी ! ऐसे मत रो। ऐसा
पडिहदं क्खु एदं।
** [ वत्से ! मैवं कुरु। प्रतिहतं खल्वेतत् ]।**
** जीमूतकेतुः—[ सास्रमात्मगतम् ]—**
विलुप्तशेषाऽङ्गतया प्रयातान्,
निराश्रयत्वादिव कण्ठदेशम्।
प्राणांस्त्यजन्तं तनयं निरीक्ष्य,
कथं न पापः507शतधा व्रजामि ?॥२३॥
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पिधाय = आच्छाद्य।एवं मा कुरु = इत्थं मा रोदीः। जीवति मम पुत्रः। एतत् खलु प्रतिहतम् = इदममङ्गलं मलयवतीरोदनं किल प्रतिहतं भवतु। सधवाया रोदनस्य अमङ्गलत्वादिदं रोदनरूपममङ्गलं, प्रतिहतं = शान्तं भवत्विति वृद्धोक्तेरर्थः।
साऽस्र= साश्रु। आत्मगतं = स्वगतमित्थं तर्कयति। तदेवाऽऽह-विलुप्तति। विलुप्तानि = भक्षितानि, नष्टानि, शेषाणि= शिष्टानि, कण्ठदेशातिरिक्तानि, अङ्गानि यस्य तस्य भावस्तया-विलुप्तशेषाऽङ्गतया = विनष्टसकलगात्रतया। निराश्रयत्वादिव = आश्रयशून्यत्वादिव। कण्ठदेशं = कण्ठं। प्रयातान् = सम्प्राप्तान्। प्राणान् = प्राणवायून्। त्यजन्तं = परित्यजन्तं। तनयं = स्वपुत्रम्। निरीक्ष्य = आसन्नमृत्युं विलोक्याऽपि। पापोऽहं = पापात्माऽहम्। शतधा = अनेकधा। सहस्रधा। कथं न व्रजामि = कुतो न गच्छामि ?। शतखण्डतां कथं न मे हृदयं यातीत्याशयः। अहो ! नितरामहं वज्रहृदय इति तत्त्वम्। उपजातिश्छन्दः॥२३॥
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रोना उचित नहीं है। अभी तो यह जीता है। भगवान् करे—यह अमङ्गल दूर हो।
जीमूतकेतु—( आँखों में आँसू भरकर, मन ही मन )–गरुड के द्वारा बाकी के सभी अड्डों के खा लिए जाने के कारण निराश्रय हो कर ही मानों कण्ठ में आए हुए अपने प्राणों को सिसक-सिसक छोड़ते हुए अपने प्यारे पुत्र को देख कर भी मेरे पापी का हृदय हजार टुकड़े क्यों नहीं हो रहा है ?। हाय ! मैं बड़ा
मलयवती—हा अज्जउत्त ! अहिदुक्खरकारिणी क्खु अहं, जा ईरिसं अज्जउत्तं पेक्खंता अज्जवि जीविअ ण परिच्चआमि !।
** \हा आर्य्यपुत्र ! अतिदुष्करकारिणी खल्वहं, या [ईदृशमार्यपुत्रं508प्रेक्षमाणाऽद्यापि जीवितं न परित्यजामि !]।**
** वृद्धा—[ नायकस्याऽङ्गानि स्पृशन्ती गरुडमुद्दिश्य–] णिसंस ! कहं दाणिं तुए एदंआपूरिअमाण्णवरूवजोव्वणसोहं तं ज्जेव्व एदावदवत्थं पुत्तअस्स मे सरीरं किदम् ?।**
** [ नृशंस ! कथमिदानीं त्वया एतदापूर्यमाणनवरूपयौवनशोभं तदेव एतदवस्थं पुत्रकस्य मे शरीरं कृतम् ? ]।**
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अतिदुष्करकारिणी = अतिपापकारिणी। अतिकठिनहृदया। ईदृशं = समासन्नमृत्युम्। आर्यपुत्रं = पतिं त्वाम्।अद्यापि = दृष्टेऽपि वैशसे। ईदृशीन्तव दशां दृष्ट्वापि। त्वया = गरुडेन। आपूर्यमाणस्य नवरूपस्य ( नवस्य, रूपस्य वा ) यौवनस्य (च ) शोभा यस्मिंस्तत्-आपूर्यमाण–नवरूप–यौवनशोभं = सम्भ्रियमाणनवीनरूपसम्पत्समृद्धयौवनशोभितम्। नवयौवनरूपलावण्यललितम्। तदेव एतत् मे पुत्रकस्य शरीरं = तदेव पूर्वमनुभूतमतीव सुन्दरं मत्पुत्रस्य शरीरम्। एतदवस्धम् = ईदृशावस्थम्। अस्थिमान्त्रावशिष्टम्। जुगुप्सितम्।दुर्दशम्। नृशंस = हे क्रूर।हे धातुक। कथं कृतं = कुतः केन कारणेन विहितम् ?।
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कठोर हृदय हूँ, जो अपने पुत्र को इस विपत्ति को आँखों से देखकर भी अभो तक जी रहा हूँ॥२३॥
मलयवती—हाय नाथ ! मैं बड़ी कठिन हृदय और पापिनी हूँ जो आपको ऐसी दशा में देख कर भी अपने पापी प्राणों को नहीं व्याग रही हूँ।
वृद्धा—( नायक के भङ्गों पर हाथ लगा कर गरुड के प्रति ) अरे पापी हत्यारे ! चढती जवानी से बढते हुए रूप औरलावण्य सेभरपूर मेरे पुत्रके इस सुन्दर शरीर की तैने ऐसी दशा कैसे कर दी ?।
नायकः—अम्ब ! मा मैवम्। किमनेन कृतम् ?।ननु पूर्व्वमेप्येतदीदृशमेवपरमार्थतः। पश्य—
मेदोऽस्थिमांसमज्जाऽसृकसङ्घातेऽस्मिंस्त्वचाऽऽवृते।
शरीरनाम्नि का शोभा सदा बीभत्सदर्शने ?॥२४॥
** गरुडः—भो महात्मन् ! नरकाऽनलज्वालाऽवलोढमिवाऽऽत्मानं**
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मा मैवम् = एवं मा भण, साभण।एवं कदापि मा वादीः। ननु निश्चये। एतत् = एतच्छरीरम्।ईदृशं = बीभत्सम्। जुगुप्सितमेव।परमार्थतः = वस्तुतस्तु। परमार्थतो विचारे कृते सति तु। वस्तुगत्या रक्तमांसपूयास्थिमात्रसङ्घातत्वादस्य शरीरस्येति भावः। पश्य = विचारय। अन्तविभावय।
मेद इति। मेदो-ऽस्थि-मांस-मज्जा-ऽसृक्लङ्घाते = वसा-कीकस-पिशित-सार-रुधिरादिसमूहमात्रे। केवलं—त्वचाऽऽनृतं = त्वगाच्छादिते। त्वचा = चर्मणा, आवृते = आच्छादिते। त्वक्पनद्धे।सदा बीभत्सदर्शने= सदैव विकृतदर्शने। सदैव भयङ्करदर्शने। जुगुप्सिते। ‘बीभत्सं विकृतम्’ इत्यमरः। अस्मिन् शरीरनाम्नि = शरीराख्ये। का शोभा = का नाम शोभा भवत्या वर्ण्यते ?। भ्रम एवायं भवत्या, येनाऽत्र शरीरेऽपि शोभां पश्यति भवतीत्याशयः॥२४॥
नरकाऽनलज्वालाऽवलीढमिव = नारकीयाऽग्निज्वालाकवलितमिव। तेन च दग्धमिव।आत्मानं = स्वशरीरम्। अन्तरात्मानञ्च। दुःखं यथा स्यात्तथा तिष्ठामि।
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नायक—माता जी ! ऐसा मत कहिए। इस बेचारे नें नई बात इस शरीर में क्या को है ? ।यदि वास्तव में देखें तो यह शरीर पहिले भी इसी प्रकार कुत्सित ही था। क्योंकि, देखिए !
यह शरीर ता-चर्बी, हड्डी, मांस, मज्जा, रुधिर–इनका पिण्ड ( लोथड़ा) मात्र है। केवल ऊपर ते चमड़े से ढका है। यदि चमड़ा हटादिया जाए तो यह देखने में बीभत्स और विकृत और भयानक हो लगेगा।मांस पिण्ड का ही तो नाम शरीर है। अतः इसमें शोभा और सुन्दरताक्या है ?। कुछ नहीं॥२४॥
गरुड़—हे महात्मन् ! मैं तो मानों भीतर ही भीतर नरक की अग्नि की
मन्यमानो दुःखं तिष्ठामि। तदुपदिश्यतां येन मुच्येऽहमस्मादेनसः।
** नायकः—अनुजानातु मां तातो, यावदस्य पापस्य प्रतिपक्षमुपदिशामि।**
** जीमूतकेतुः—वत्स ! एवं क्रियताम्।**
** नायकः—वैनतेय ! श्रूयताम्।**
** गरुडः—[ जानुभ्यां स्थित्वा कृताञ्जलिः–] आज्ञापय।
नायकः—**
नित्यं प्राणाभिघातात् प्रतिविरम, कुरु प्राक्कृते चाऽनुतापं,
यत्नात् पुण्यप्रवाहं समुपचिनु, दिशन्त्सर्वसत्तेष्वभीतिम्।
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कृच्छ्रेण जीवामि। उपदिश्यताम् = उपदेशः प्रदीयताम्। येन = उपदेशेन। येनोपायेन वा। अस्मादेनसः = अस्मात्प्राणिवधमहापापात्। ‘कलुषं वृजिनैनोऽघम्’ इत्यमरः। अनुजानातु = अनुमन्यतान्तावत्। अनुज्ञा( स्वीकृतिं ) ददातु। आदिशतु। प्रतिपक्षं = विनाशकं प्रायश्चित्तम्। एवं क्रियताम् = उपदेशोऽस्मै दीयताम्। उपदिशति जीमूतवाहनो गरुडं—
नित्यमिति। नित्यं = सर्वदाऽनुष्ठीयमानात्। प्राणाऽभिघातात् = प्राणिवधपातकात्। जीवघातात्। प्रतिविरम = उपरतो भव। निवर्त्तस्व। प्राकृते =
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ज्वाला से जल रहा हूँ।मेरा तो जाना ही मुझे भारी मालूम पड़ रहा है। अतः आप ऐसा उपदेश दीजिए, जिससे मैं इस घोर पाप से छूट सकू।
नायक—हे पिता जी ! यदि मुझे आप की आज्ञा हो( अनुमति हो ) तो मैं इस गरुड़ को इसके पापों का प्रायश्चित्त बताऊँ।
जीमूतकेतु—पुत्र ! अवश्य इसे कोई प्रायश्चित्त बताओ।
नायक—हें गरुड़जी ! सुनिए।
गरुड़—( घुटना टेक के जमीन पर बैठकर हाथ जोड़ कर ) आज्ञा करिए। फर्माइए।
नायक—हे गरुड़ ! जो तुम रोज २ प्राणियों ( सर्पों ) को मारते हो, उसको तुरन्त सदा के लिए छोड़ दो और पहिले के किए हुए पापों के लिए पश्चात्ताप
मग्नं येनात्र नैनः फलति परिमितप्राणिहिंसात्तमेत509—
द्दुर्गा510धाऽपारवारेर्लवणपलमिवक्षिप्तमन्तर्ह्वदस्य॥२५॥
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पूर्वकृते। पूर्वाचरिते कर्मणि। च अनुतापं=पश्चात्तापं। खेदम्। कुरु=विधेहि। यत्नात्= प्रयत्नात्। सर्वसत्त्वेषु = सर्वजन्तुषु। सर्वेभ्यो जीवेभ्यः। अभीतिम् = अभयं। दिशन्= ददत्। पुण्यप्रवाहं = पुण्यपुञ्जं। धर्मसन्तानमविच्छिन्नम्। समुपचितु= उपार्जय। येन= येन हेतुना। येन पुण्यप्रवाहेणेति वा। दुर्गाधम् = अगाधम्, अपारम् = अनन्तम्। इयत्ताशून्यञ्च, वारि = जलं यस्मिन् तस्य—दुर्गाधापारवारेः = अगाधाऽनन्तजलराशिपूर्णस्य। हृदस्य = अगाधजलस्य सरसः। अन्तःक्षिप्तं = मध्यं प्रक्षिप्तम्। लवणपलमिव = सैन्धवप्रसृतियुगमिव। परिमितप्राणिहिंसया= स्वल्पत्राणिवर्धन, आत्तं= स्वीकृतम्, जातम्। एतत् एनः = एतत्पातकम्। नागादिपरिगणितप्राणिहिंसासमुत्थं पापम्। अत्र=महति पुण्यरवाहे। मग्नं = निमग्नं। प्रक्षिप्तं सत्। न फलति=फलं न ददाति। यथाऽगावजले महाहदेस्वल्पा लवणमात्रा निक्षिप्ताऽपि स्वप्रभावं नैव दर्शयत्येवं स्वोपार्जिते महति पुण्यप्रवाहे त्वया स्वकृतपरिमितप्राणिवधपातकं निक्षिप्तं सत् विनाशमुपेच्यति, स्वफलं नैव दास्यति।
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करो। और सब प्राणियों को अभयदान देकर प्रयत्न पूर्वक अपने पुण्य का इतना बड़ा प्रवाह बढ़ाओ जिसमें तुमारे किए हुए ये पुराने पाप-ये थोड़े से प्राणियों के मारने से उत्पन्न पाप–इस पुण्य के प्रबल प्रवाह में ऐसे डूब जाएं, ऐसे नष्ट हो जाएं-जैसे अत्यन्त गहरे, अपार, अनन्त जल के बड़े भारी सरोवर ( झील ) लवण की एक चुटकी डाली हुई अपने आप नष्ट हो जाती है। अर्थात्–अपने पुण्य का इतना बड़ा (जल) प्रवाह तैयार करो, जिसमें बड़े मारी सरोवर में डाला हुई नमक की चुटकी की तरह तुमारे सभी पुराने पान डूब कर बेमालूम हो जाएं।( पल = एक छटांक ।५ ताला )। अतः यदि पापों का प्रायश्चित्त करना हो, अपने पापों को धोना हो तो पुण्य की सरिता में धोओ। अपना पुण्य इतना बढाओं जिससे बड़े २ पाप भी उसके सामने चुटकी
गरुडः—यदाज्ञापयसि।
अज्ञाननिद्राशयितो भवता प्रतिबोधितः।
सर्वप्राणिदधादेषविरतोऽद्य प्रभृत्यहम्॥२६॥
** सम्प्रति हि—**
क्वचिद् द्वीपाकारः पुलिनविपुलैभोगनिवहैः,
कृतावर्त्तभ्रान्तिर्वलयितशरीरः क्वचिदपि।
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तस्मान्महत्पुण्यं सञ्चिनु। तत्र च स्वपापानि प्रक्षालयेति भावः। ‘तत्राऽगाधजलो हृदः’ इत्यमरः। ‘पलं कर्षचतुष्टयम्’ इत्यमरः। ( पल = छटांकभर ) ॥२५॥
यदापज्ञापयसि = यदादिशसि तत्करिष्यामि। स्वप्रतिज्ञामाह—गरुडः— अज्ञानेति। अज्ञानमेव निद्रा, तथा शयितः = सुप्तः।अज्ञानतिमिराच्छादितलोचनः। भवता प्रतिबोधितः = भवतोपदेशप्रदानेन बोधं ग्राहितः। निद्रात उत्थापितश्च। जागरितश्च। एषोऽहम् = अथमहं गरुडः। अद्यप्रभृति = अद्यारभ्य। सर्वप्राणिवधात् = सकलजीववधपातकात्। विरतः = प्रतिनिवृत्तः। जातोऽस्मीति शेषः।२६।
सम्प्रति हि = इदानीं हि। मया सर्वेभ्यो जीवेभ्योऽभयं ददाने सति। न केवलं नागेभ्य एवाऽभयप्रदानं मया कृतं, किन्तु सर्वेभ्योऽपि सत्त्वेभ्योऽभयं मया दीयते इत्याशयः।
क्वचिदिति। क्वचित्सागरप्रदेशे। पुलिनवद्विपुलैः–पुलिनविपुलैः = जलोत्थ-
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भर–थोड़े-दिखाई दे। और उन पापोका पुण्य की नदी में धो डालो।यहां तुमारा प्रायश्चित्त है॥२५॥
गरुड़—जो आप को आज्ञा। मुझे यह शिरोधार्य है।
आज तक तो मैं अज्ञान रूपी निद्रा में बेखबर सूता था, आपने अब उपदेश देकर मुझे उस घोरनिद्रा से जगा दिया है।आज से मैं अब सभी प्राणियों की हत्या से दूर होता हूँ। अब आज से मैं किसी भी जीव कोनहीं मारूंगा। किसी को भी नहीं सताऊंगा॥२६॥
आज से—
कहीं तो-सद्यः जल से निकले हुए तट की तरह अपने लम्बे चौड़े विशाल
व्रजन् कूलात्कुलं क्वचिदपि च सेतु प्रतिसमः,
समाजो नागानां विहरतु महोदन्वति सुखम्॥२७॥
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तटवद्विस्तृतैः। ‘तोयोत्थितं तत्पुलिनम्’ इत्यमरः। भोगनिवहैः= स्वशरीरभारैः। ‘भोगः सुखे …व्यादिभृतावहेश्चफणकाययोः’ इत्यमरः। द्वीपाकारः = अन्तरीपाकृतिं दधानः। नागसमाजः सागरं क्रीडतु। ‘द्वीपोऽस्त्रियामन्तरीयवन्तरिणस्तटम्’ इत्यमरः। क्वचिदपि = क्वचित्सागरप्रदेशे च। वलयितशरीरः = कुण्डलीकृतकायः! कृता = जनिता, आवर्त्तस्य = जलभ्रमस्य भ्रान्तिः = भ्रमोऽसौ तथा कृतावत्तंभ्रान्तिः = आवर्त्तभ्रमं लोकानां जनयन्। जलावर्त्त इव दृश्यमानः सत्। ‘सागरे नागनिवहः क्रीडनु’ इत्यप्रिमेणान्वयः। क्वचिदपि च = क्वचित्सागरप्रदेशे च फूलास्कूलं=तीगत्तीरं व्रजन् गच्छन्। ‘कूलंग्रोधश्चतीरञ्च प्रतीरञ्च तटं त्रेषु’इत्यमरः। अत एवसेतुप्रतिसन्नः = सेतुसादृश्यंवहन्। महोदन्वति = महासागरेस्मिन् ‘उदन्वानुदधिः सिन्धुः सरत्वान् सागरोऽर्णवः’ इत्यमरः। नागानां = पन्ननानास्। समाजः = समूहः। विहरतु = क्रीडतु। नैवाऽद्यारभ्य नागानां मत्तो भयं विद्यते इति निर्भयाः सन्तो नागाः समूहं बद्ध्वासागरं क्रीडन्तु तावदित्यभयदानवचनं गरुडस्य। शिखरिणी वृत्तम्॥२७॥
अपि च = किञ्च! न केवलं नागा एव, नागाङ्गना अपि कुञ्जेषु सलीलं क्रीडन्त्यो
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शरीर से समुद्र में द्वीप ( टापू ) की तरह मालूम होते हुए, कई-अपने विशाल शरीर को गेडुली की तरह कुण्डलित करके जल के आवर्त ( भ्रमर ) की तरह मालूम होते हुए, कहीं, –अपने लम्बे २ शरीरों को दोनों तटों के आर-पार फैलाने से पुल की तरह मालूम होते हुए नागों का समूह—इस महासागर मे आनन्द से विचरण करे। आज से नागों को मेरा भय बिल कुल नहीं रहेगा।
अर्थात्–अब सर्प निःशङ्क हो समुद्र में आनन्द करे। कहीं तो अपने लम्बे चौड़े शरीरों से समुद्र में द्वीप की तरह दिखाई दें। कहीं गेडुली मारकर जल में तैरने से जल के भ्रमर ( घुमाव ) की तरह मालूम हों। कहीं—अपने लम्बे शरीर को आर पार फैलाने से पुल की सी आकृति धारण करक्रीडा करें।मैं तो उनको अब नहीं छेडूंगा॥२७॥
अपिच—
स्रस्तानापादल511म्बाँस्तिमिरचयनिभान्केशहस्तान् वहन्त्यः,
सिन्दुरेणेव दिग्धैः प्रथमरविकरस्पर्शताम्रैः कपोलैः।
आयासेनाऽलसाङ्गोऽप्यवगणितरुजः कानने चन्दनाना–
मस्मिन् गायन्तु रागादुरगयुवतयः कीर्त्तिमेतां तवैव॥२८॥
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विहरन्त्वित्यर्थः। स्रस्तानिति। स्त्रस्तान् = विकीर्णान्। संस्कारार्थमुन्मुक्तान्। आपादलम्बान् = आप्रपदं लम्बमानम्। एतेन दीर्घकेशवत्त्वं नागाङ्गनानामिति ध्वनितम्।तिमिरचयनिभान् = ध्वान्तपटलसन्निभान्। अतिकृष्णान्। मसृणतरांश्च। केशहस्तान् = केशकलापान्। प्रशस्तांश्चिकुरान्। प्रशंसावाच्यत्र हस्तशब्दः। ‘पाशः पक्षश्च हस्तश्च कलापार्थाः कचात्परे’ इत्यमरः। वहन्त्यः = धारयन्त्यः। नागाङ्गनाविशेषणमेतत्। किञ्च प्रथमम् = आदावेव, रविकराणां = सूर्यकिरणानां, स्पर्शेन=संपर्केण, ताम्रैः = रक्तैः-प्रथमरत्रिकरस्पर्शताम्रैः= प्रथममेव सूर्यकिरणस्पर्शेनाऽभितात्रैः। इतः पूर्वं गरुडभयान्नागवधूनां पातालाद्वहिर्निगमनाभावात्, सम्प्रति गरुडभयविनाशापातालं विहाय विहारार्थं सागरतटादिषु गच्छन्तीनां तासां प्रथम एव सूर्यकरस्पर्श इत्याशयः। अथवा–प्रथमस्य = प्रभातकालिकस्य उदीयमानस्य, रवेः किरणानां सम्पर्केण ताम्रैरित्यर्थः। अत एव–सिन्दूरेणेव = नागरजसेव। ‘सिन्दूरं नागसम्भवम्’ इत्यमरः। दिग्धैः = उपचितैः। उपलिप्तैः। कपोलैः = गण्डस्थलैरुपलक्षिताः। ‘गण्डौ कपोलौ’ इत्यमरः। आयासेन = यशोगान–भ्रमणादिपरिश्रमेण। अलसान्यङ्गानि यासान्ताः–अलसाङ्ग्योऽपि = आलस्योपहतशरीरावयवा
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और भी—खुले हुए व लहराते हुए, गहरे अन्धकार की तरह ( भौरे की तरह ) काले २, अपने सुन्दर व सुचिक्वण केशों के भारों को धारण करती हुई, पहिले पहिल दिखाई देनेवाली सूर्य की किरणों के संपर्क से लाल वर्ण हुए, सिन्दूर से रंगे हुए से दीखने वाले अपने गालों से सुशोभित, सुन्दरी नागाङ्गनाएंपरिश्रम से थकी हुई होने पर भी उस परिश्रम को कुछ न समझती हुई, इस मलयाचल के चन्दन वन में तुमारी इस कीर्ति का प्रेम और उत्साह से खूब गान करे। [ मेरे (गरुड के ) भय से पहिले नागों की स्त्रियां पाताल से नहीं निकल सकती थीं, अतः उनको सूर्य का दर्शन दुर्लभ था। आज से वे निर्भय हो निकलेगीं। उनके
नायकः—साधु महासत्त्व ! साधु !! अनुमोदामहे। सर्वथा दृढसमाधानो भव। [शृङ्खचूडं निर्दिश्य–] शङ्खचूड ! त्वयापि स्वगृहमिदानीं गम्यताम्।
** [शङ्खचूडः—निःश्वस्याऽधोमुखस्तिष्ठति ]।
नायकः—[ निःश्वस्य मातरं पश्यन्–]**
उत्प्रेक्षमाणा त्वां तार्क्ष्यचञ्चुकोटिविपाटितम्।
त्वद्दुःखदुःखिता दुःखमास्ते512 सा जननी तव॥२९॥
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अपि। अवगणिता रुजो याभिस्ताः-अवगणितरुजः = अगणितकुंशाः। सोत्साहाः। उरगयुवतयः = नागवध्वः। अस्मिन् चन्दनानां = पाटीरहुमाणां मलयजवृक्षाणां, कानने = वने।रागात् = अनुरागात्। प्रेम्णा। एताम् = नागरक्षाप्रधानाम्। तवैव = कारुणिक्रमूर्द्धन्यस्य भवतो जीमूतवाहनस्यैव। नतु मम गरुडस्याऽत्र कीर्त्तिलेशोऽप्यस्ति। गायन्तु = ललितं गायन्तु। स्रग्धरा वृत्तम्॥२८॥
साधु=युक्तं कृतम्। प्रशंसायां साधुपदम्। अनुमोदामहे = भवदुक्तं समर्थयामहे। दृढसमाधानः=दृढावधानः। दृढप्रतिज्ञः। प्रतिज्ञामिमां सावधानतया दृढं पालयेति तावत्।
उत्प्रेक्ष…णेति। त्वां = शङ्खचूडम्। तार्क्ष्यस्य = गरुडस्य चञ्चुकोट्या= चञ्च्वग्रभागेन, विपाटितं = विदारितवक्षःस्थलं हृतम्, उत्प्रेक्षमाणा= आश-
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लाल २ गाल सूर्य का किरणा के पहिले पहल लगने से और भी लाल—सिन्दूरलंग हुए से—मालूम होगें। और वे थकावट की पर्वाह किए बिना ही तुमारे इस नागानन्ददायक यश को खूब उत्साह से गावेगीं ] ॥२८॥
नायक—वाह ! वाह !! हे महात्मा गरुड जी ! आप धन्य हैं। आपकी इस बात का. ( नागों को अभयदान देने का ) हम अनुमोदन करते हैं। इस प्रतिज्ञा को आप बड़ी दृढ़ता से पालन करिए। सदा सावधान रहिए। कहीं यह (प्रतिज्ञा टूटने न पावे। ( शङ्खचूड से–) हे शङ्खचूड ! तुम भी अब घर जाओ।
[ शङ्खचूड—लम्बी सांस लेकर नीचा मुख कर चुप हो बैठा ही रहता है ]।
नायक—तुमारी वृद्धा माता तुमको गरुड की तीखो चोंच से फाड़ा हुआ
वृद्धा—[ सास्र–] घण्णा क्खु सा जणणी, जा गरुडमुहपडिदस्स अक्खदसरीरस्स ज्जेव्व पुत्तअस्स मुहं पेक्खिस्सदि।
[ धन्या खलु सा जननी, या गरुडमुखपतितस्याऽक्षतशरीरस्यैव पुत्रकस्य मुखं प्रेक्षिष्यते ]।
** शङ्खचूडः—अम्ब ! सत्यमेवतत्, यदि कुमारः स्वस्थो भविष्यति।
नायकः—[ वेदनां नाटयन्–] अहह ! परार्थसम्पादनाऽमृत-**
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इमाना, तर्कयन्ती, अतएव—त्वद्दुःखेन दुःखिता—त्व दुःखदुःखिता = त्वद्विनाशाऽऽशङ्काक्लेशेन, सा = वृद्धा, तव जननी = माता, दुःखमास्ते = क्लेशेन जीवति। पाठान्तरे–नूनमास्ते = दुःखिता तव माता वर्त्तते इत्यर्थः। अतस्त्वरिततरं गृहं गच्छ, ताञ्चाश्वासयेति भावः॥२९॥
धन्या= सौभाग्यशालिनी। सा जननी = सा नागजननी।गरुडमुखपतितस्य = गरुडभक्ष्यताङ्गतस्यापि। अक्षतशरीरस्य = अविकृतगात्रस्य भाग्येन गरुडान्मुक्तस्य। प्रेक्षिष्यते = द्रक्ष्यति। सैव नागमाता धन्या यस्याः पुत्रः कालमुखादिव गरुडवदनान्मुक्तः, अहन्तु मन्दभाग्या, यस्याः पुत्रएवं विपन्न इत्याशयः। सत्यमेवैतत् = सत्यमेव मन्माता धन्या, अक्षतगात्रस्य मम मुखं च द्रक्ष्यति। यदि कुमारः = जीमूतवाहनः। स्वस्थः = प्रकृतिस्थः। कुशली। नो वेदहमप्यन्नैव प्राणांस्त्यक्ष्यामीति कथं मन्माता मन्सुखं द्रक्ष्यतीति तदाशयः। परार्थस्य =
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समझती हुई (गरुड द्वारा मारा गया और खाया गया समझती हुई ) दुःख से व्याकुल हो तुमारा सोच कर रही होगी। अतः तुम शीघ्र ही घर जाकर उस वृद्धा को धीरज दो॥२६॥
वृद्धा—( आँखे डबडबा कर ) उस नागमाता का ही धन्य भाग्य है, जो गरुड के मुख से राजी खुशी बचकर आए हुए अपने पुत्र का मुख देखेगी।
शङ्खचूड—हे अम्ब ! यदि कुँवर जीमूतवाहन राजी खुशी रहेगें तभी के यह बात होगी। अर्थात् तभी मेरी माता मेरा मुख देख सकेगी, और अपने को धन्य समझेगी, नहीं तो मैं घर जाकर उसे सुख ही नहीं दिखलाऊंगा।
नायक—( पीड़ा का अभिनय करता हुआ ) ओह ! आह ! परोपकारार्थ
रसाऽऽस्वादाऽऽक्षिप्तचित्तत्वादेतावतीं वेलां मया न लक्षिताः सम्प्रति तु मां बाधितुमारब्धा मर्मच्छेदिन्यो वेदनाः !। [ मरणावस्थां नाटयति ] \।
** जीमूतकेतुः—[ ससंभ्रमं–] हा वत्स ! किमेवं करोषि ?।**
** वृद्धा—हा ! किं णु क्खु एव्वं वत्तदि ?। [ सोरस्ताडम्– ]।परित्ताअह परित्ताअह। एसो क्खु मे पुत्तओ विवज्जइ।**
** [ हा ! किं नु खल्वेवंवर्त्तते?। परित्रायध्वं परित्रायध्वम्। एष खलु मे पुत्रको विपद्यते ]।**
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परकार्यस्य, या सम्पादना = घटना, नागार्थं जीवनोत्सर्गः, सैव अमृतं = पीयूषं, तस्य यो रतः, तस्य य आस्वादः =अनुभवः, तेन आक्षिप्तचित्तत्वात् = तदाक्षिप्तचित्तत्वात्। परकार्यनिष्पादनाऽमृतरसाऽऽस्वादाक्षिप्तमानसावादित्यर्थः। एतावतीं वेलाम्=इयन्तं कालम्। न लक्षिताः=नखल्घवगताः। अनाकलिताः। मर्मच्छेदिन्यः= मर्मनिकृन्तिन्यः। वेदनाः = व्रणप्रभवाः पीडाः।बाधितुं = पीडयितुम्। आरब्धाः = प्रवृत्ताः। तीव्रादुःसहा च मां व्रणपीडा बाधते इत्याशयः। मरणावस्थां = मरणदशां।नाटयति = नाट्येन सामाजिकेभ्यो दर्शयति। एवम् = इत्थं। पीडानुभवं, परलोकयानं वा। किं करोषि = कुतो विदधासि ?। किंनु खल्वेवं वर्त्तते = किमेतद्भवति ?।अनुचितमेतद्भवति। किं नुखलु = कथं नु। एवम् = इत्थं पीडाकुलितः, वर्त्तते = मत्पुत्रो वर्त्तते इत्यप्यर्थः। परित्रायध्वं = लोकाः, लोकपाला वा परिरक्षत मत्सुतम्। विपद्यते = म्रियते। पञ्चत्वं व्रजति। परित्यक्तुकामः = अस्मान्विहाय गन्तुमना इव। मुमूर्षुरिव। लक्ष्यसे = ज्ञायसे।किं
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कार्य करने क अमृत समरस क पान में लगे रहने से अभी तक मुझे घावों की पीड़ा का अनुभवही नहीं हुआ था, पर अब तो घावों के कारण मर्मान्त घोर वेदनाएं मुझे पीड़ित कर रही हैं। ( मरणावस्थाका प्रदर्शन करता है )।
जीमूतकेतु—हाय पुत्र ! ऐसे क्यों कर रहे हो ?।
बृद्धा—है ! यह क्या हो रहा है ?। हैं ! मेरे पुत्र की यह क्या दशा हो रही है ?।( छाती पोटती हुई–) हाय ! कोई मेरे लाल को बचाओ ! बचाओ ! हाय ! यह मेरा बेटा काल के गाल में जा रहा है। कोई इसे बचाओ। बचाओ।
मलयवती—हा अज्जउत्त ! परिच्चइदुकामो विअ लक्खीअसि।
[ हा आर्य्यपुत्र ! परित्यक्तुकाम इव लक्ष्यसे ! ]।
** नायकः— [ अञ्जलिं कर्त्तुमिच्छन् ] शङ्खचूड ! समानय मे हस्तौ।**
** शङ्खचूडः—[ कुर्वन्–] कष्टम् !! अनाथीकृतं जगत्।**
** नायकः—[ अर्द्धोन्मीलितचक्षुः पितरं पश्यन्–] तात ! अम्ब ! अयंमे पश्चिमः प्रणामः !**
गात्राण्यमूनि न वहन्ति विचेतनानि513,
श्रोत्रं स्फुटाऽक्षरपदा न गिरः शृणोति।
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नु हतभाग्याऽहं करोमीति शेषः। समानय = योजय। अञ्जलिबन्धाय परस्परं योजय। कष्टं = दुःखम्। अनाथीकृतम् = अनाथतां नीतम्। ‘महापुरुषस्याऽस्य परलोकप्रयाणाद्दैवेन, अस्मान्विहाय गच्छता अनेन वा जीमूतवाहनेने’ति शेषः। अर्द्धोन्मीलितचक्षुः = किञ्चिदुन्मीलितनयनः। तात = हे पितः। पश्चिमः= अन्तिमः। इतः परं परलोकगतेन पुनः प्रणामस्य कर्तुमशक्यत्वात्प्रणामस्य पश्चिमत्वमवधेयम्।
स्वस्याऽन्तिमां दशां प्रकटयति—गात्राणीति। विचेतनानि = विगतचैतन्यानि। चेष्टारहितानि। शून्यानीव। विषयादिग्रहणाऽसमर्थानि। अमूनि गात्राणि = इमानि मदीयान्यङ्गानि हस्तपादादीनि। ‘गात्रं गजादिजङ्घादिभागेऽ-
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मलयवती—हाय नाथ ! आप तो हम लोगों को छोड़ के ही जाना चाहते हैं !।
नायक—( हाथ जोड़ने की इच्छा से ) हे शङ्खचूड ! मेरे दोनों हाथों को पास में करो, जिससे मैं अपने गुरुजनों को हाथ जोड़कर प्रणाम कर सकूं।
शङ्खचूड—( हाथों की अञ्जलि बान्धकर ) बड़े दुःख की बात है ! जीमूतवाहन ने अपना प्राण देकर इस जगत् को ही अनाथ कर दिया।
नायक—( अधखुली आँखों से पिता माता की ओर देखता हुआ—) है
कष्टं निमीलितमिदं सहसैव चक्षु-
र्हातात ! यान्ति विवशस्य ममाऽसवोऽमी॥३०॥
अथवा—किमनेन प्रलपितेन ?।
** \ संरक्षता [पन्नगमेव514पुण्यम्515।")—इत्यादि पठित्वा पतति ]।**
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ष्यङ्गेकलेवरे’ इति विश्वमेदिन्यौ। न वहन्ति = न प्रचलन्ति।संज्ञाशून्यत्वात्कार्याक्षमाणि जातानि। श्रोत्रं = कर्णः। मदीयौ कर्णौ। स्फुटाऽक्षरपदाः = स्पष्टाक्षरपदा अपि। ( स्फुटान्यक्षराणि पदानि च यासु ताः—स्फुटाक्षरपदा इति च विग्रहः)। वाचः=वाणीः। न शृणोति = नैवाकर्णयति। कष्टं=हा धिक् हा कष्टम्। इदं चक्षुरपि = नेत्रमिदम्। सहनैव = अकस्मादेव।निमीलितम् = अन्धतामुपगतम्। हा तात = हा पितः। विवशस्य = अस्वतन्त्रस्य। परवशस्येव। कालवशस्य मम। अमी असवः = असीप्राणाः। यान्ति = प्रयान्ति। इन्द्रियोपवासात्सद्योमें मृत्युरुपस्थित इत्यवैमीत्याशयः। वसन्ततिलका वृत्तम्॥३०॥
प्रलपितेन = प्रलापेन।निरर्थकवचनेन। किं = किं प्रयोजनम्। न किमपि
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तात ! हे माता जी ! यह मेरा आप के चरणों में अब अन्तिम प्रणाम है।
है पिता जी ! मेरे हाथ पांव आदि सब अङ्ग संज्ञा शून्य और निश्चेष्ट हो जाने के कारण काम नहीं दे रहे हैं, साफ और स्पष्ट अक्षर और पदवाला तेज शब्द भी कानों से लुनाई नहीं दे रहा है। हाय ! हाय ! ये मेरे नेत्र भी सहना बन्द ही हो रहे हैं। हे पिताजी ! अब तो मैं सर्वथा विवश हो गया हूँ, और मेरे प्राण ये जा रहे हैं॥३०॥
अथवा—इस प्रकार प्रकार–निरर्थक रोने से–क्या लाभ है ?।[ मैंने एक सर्प को अपना शरीर देकर बचाकर जापुण्य प्राप्त किया है, उसके प्रभाव से जन्म–जन्मान्तर में भी इसी प्रकार परोपकार में लगाने को मुझे शरीर मिलता रहे। ऐसा कहते २ भूमि पर गिर पडता है ]।
वृद्धा—हा पुत्त ! हा वच्छ ! हा गुरुअणवच्छल ! कहिं सि ?। देहि मे पडिवअणं।
** [ हा पुत्र ! हा वत्स ! हा गुरुजनवत्सल ! काऽसि ?। देहि मे प्रतिवचनम् ]।**
** जीमूतकेतुः—हा वत्सजीमूतवाहन ! हा प्रणयिजनवल्लभ ! हा सर्वगुणनिधे ! कासि ?। देहि मे प्रतिवचनम् !**
[ हस्तावुत्क्षिप्य–]।
निराधारं धैर्य्यं, कमिवशरणं यातु विनयः,
क्षमः क्षान्तिं वोढुं क इह, ? विरता दानपरता।
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प्रयोजनम्। गुरुजनवत्सल = गुरुजनभक्त। क्वासि = क्वेदानीं तिष्ठसि। प्रतिवचनम् = उत्तरम्। प्रणयिजनवल्लभ = स्नेहिलोकप्रिय। गुरुजनस्नेहपात्र। हस्तावुत्क्षिप्य = पाणी उत्थाप्य। ऊर्ध्वबाहुः सन्। विलपत्ति—
निराधारमिति। तनय = हे पुत्र। त्वयि लोकान्तरगते = परलोकं प्रयाते सति। धैर्यं = धीरता। निराधारम् = आधारशून्यं जातम्। विनयः = नम्रता।कमिव = कं खलु जनं। शरणं यातु = शरणं गच्छतु। इह = जगति। शान्तिं वोढुं = प्रशमं धारयितुं। कः क्षमः= कः समर्थः ?। न कोऽपीत्याशयः दानपरता = दानशौण्डता। दानवीरता।उपरता = नष्टा। लुप्ता।सत्यं = सत्यभाषणादिकम्। सत्यं हतं = वस्तुतो नष्टम्। अद्य = त्वयि स्वर्याते। कृपणा = वराकी। करुणा = दया। कं व्रजतु = कं शरणं गच्छतु। भवादृशस्य अन्यस्य शरण्यस्याऽभावात्।
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वृद्धा—हाय ! बेटा ! हा गुरुजनों के भक्त तुम कहाँ हो। मुझे उत्तर तो दो।
जीमूतकेतु—हाय बेटा जीमूतवाहन ! हा गुरुजन व सम्बन्धियों के प्रिय ! हा सकलगुणों के निधि स्वरूप ! तुम कहाँ हो। उत्तर तो हमें दो। ( हाथों को ऊपर को करके-)
हे पुत्र ! आज तुमारे परलोक सिधार जाने से धीरता निराश्रय हो गई। विनय का अब कौन शरण है ?।तुमारी ऐसी शान्ति = सहनशीलता–को कौन धारण कर सकेगा ?। दानशीलता नष्ट हो गई। सत्य आज सचमुच
हतं सत्यं सत्यं, व्रजतु कृपणा क्वाद्य करुणा, ?
जगज्जातं शून्यं, त्वयि तनय ! लोकान्तरगते॥३१॥
मलयवता—हा अज्जउत्त ! कहं परिच्चइअ दोसि ?।अदिणिग्विणे मलअंवदि ! किं दुए पेक्खिदव्वं ? जा एत्तिअं वेलं जीविआसि ?।
[ हा आर्य्यपुत्र कथं परित्यज्य गतोऽसि ?।अतिनिर्घुणेमलयवति ! किं त्वया प्रेक्षितव्यम् ? या एतावतीं वेलां जीविताऽसि ! ]।
** शङ्खचूडः—हा कुमार ! क्वेमंप्राणेभ्योऽपि वल्लभं जनं परित्यज्यगम्यते ?।तदवश्यतन्वेति त्वांशङ्खचूडः।**
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जगत् = जगतो। शून्यं जातं = साररहितं जातम्।सर्वगुणैकनिकेतने त्वय्येवमुपरते सर्वेऽपि गुणः अशरणःएव सम्प्रति जाता इत्यादयः। शिखरिणीवृत्तम्॥३३॥
अतिनिर्वृणे = हे अतिनिर्दये। किं त्वया प्रेक्षितव्यं = किं तु त्वया द्रष्टव्यमयशिष्यते। या = त्वम्। एतावतीं वेलाम् = इयन्तं समयम्। विक्षतगात्रं पतिं दृष्ट्वैव कृतो न मृताऽसि ! स्वप्राणनाथं गताऽसु द्रष्टुमेव त्वं ननु जीविताऽसीत्याशयः। इत्थ स्वमेवोपालभतं वराकी मलयवती। अन्वेति= पृष्ठतोयाति।
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मारा गया। करुणा बिचारी अबकिसकी शरण में जायगी ?।हे पुत्र ! तुमारे बिना आज जगत् ही शून्य हो गया॥३१॥
मलयवती—हाय नाथ ! हमें छोड कर क्यों चले गए ? ( अपने को–) हे निर्लज्ज निर्दय मलयवती ! तेरो अब और क्या देखने की साध ( इच्छा ) बाकी है ? ! जो तूं अभी तक जी रही है ? ।अपने प्राणनाथ की ऐसी दशा देखकर पहिले ही तेरे प्राण क्यों नहीं निकले ? ।अभी तुझे और क्या देखना बाकी रहा है ? ।इससे बढकर अब और क्या दुःख देखना चाहती है, जो तूं अभी भी मरती नहीं है !।
शङ्खचूड—हाय कुमार ! प्राणों से भी प्यारे इन प्रियजनों को यों छोड़कर आप कहाँ जा रहे हैं ? ।यह शङ्खचूड तो आपके पीछे २ ही आ रहा है।
गरुडः—(सोद्वेगं—) कष्टम !।उपरतोऽयं महात्मा। तत् किमिदानीं करोमि ?।
** वृद्धा—[ सास्नमूर्ध्वमवलोक्य–] भअवंतो लोअपाला ! कह पि अमिदेण सिंचिअपुत्तअं में जीआवेहि !।**
** [ भगवन्तो लोकपालाः ! कथमप्यमृतेन सिक्त्वा पुत्रकं मे जीवयत ]।**
** गरुडः—[सहर्षमात्मगतम्—] अये ! अमृतसङ्कीर्त्तनात्साधु स्मृतम् ! मन्ये प्रमृष्टमयशः। तद्यावत्रिदशपतिमभ्यर्थ्यतद्विसृष्टेनामृतवर्षेण न केवलं जीमूतवाहनम् एतानपि पूर्वभक्षितानस्थिशेषानाशीविषान् प्रत्युज्जीवयामि। यदि न ददात्यसौ तदाऽहम्,—**
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सोद्वेगं = सखेदम्। कष्टं = हा धिक्कष्टम्। उपरतः = पञ्चतां गतः। मृतः। लोकपालाः=इन्द्राग्नियमनिर्ऋतिवरुणवायुकुबेरेशानाख्या अष्टौ दिगधीशाः। भगवन्तः= सर्वशक्तिसम्पन्ना ज्ञानविज्ञानशालिनः। कथमपि = केनापि प्रकारेण।सिक्त्वा = आसिच्य। जीवयत = पुनरपि उज्जीवयत। अये—इत्याश्चर्ये, हर्षे च। अमृतनामसङ्कीर्त्तनात्। साधु=उचितम्। अयशः = जीमूतवाहनवधजन्या ममापकीर्त्तिः। प्रसृष्टं = मार्जितं स्यात्। त्रिदशपतिं = महेन्द्रम्।अभ्यर्थ्य = प्रार्थ्यं। तद्विसृष्टेन= इन्द्रमुक्तेन। अमृतवर्षेण = पीयूषवृष्ट्या। पूर्वभक्षितान् = पूर्वमेव भक्षितान्। आशीविषान् = सर्पान्। अस्थिशेषान्=अस्थिमात्रावशिष्टान्। असौ =न्त्रिदशेश्वरो
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गरुड—( दुःख और कष्ट के साथ ) हा ! धिक् ! बड़े दुःख की बात है, कि यह महात्मा तो मर गया। अब क्या करूं ?।
वृद्धा—हे सर्वशक्ति सम्पन्न इन्द्र आदि दश लोकपालों ! (किसी प्रकार भी ) मेरे इस पुत्र को आप लोग अमृत से सींच कर जैसे भी हो सके जीवित करें।
गरुड़—( हर्षित हो मन ही मन–) अहो ! इस वृद्धा के मुख से अमृत का नाम सुनकर यह उपाय अच्छा याद आया। अतः—देवताओं के राजा इन्द्र से प्रार्थना करके उनके द्वारा अमृत की वृष्टि कराकर इस जीमूतवाहन को और मेरे द्वारा पहिले मारे गए अस्थिमात्रावशेष और सब नागों को भी फिर से जिला देता हूँ। यदि इन्द्र राजी से अमृत की वृष्टि न करेगा तो-
पक्षोत्क्षिप्ताऽम्बुनाथः, ‘पटुजवपवनप्रेर्यमाणे समीरे,
नेत्राचिःप्लोषमूर्च्छाविधुरविनिपतत्साऽनलद्वादशार्कः।
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महेन्द्रः। न ददाति = वृष्ट्यर्थममृतं यदि न ददाति। अमृतवृष्टिं न मुञ्चति। तदा=तर्हि।
पक्षोत्क्षिप्तेति। पक्षाभ्यां = स्वगरुद्भ्यां, क्षिप्तः = दूरं प्रक्षिप्तः, अम्बुनाथः= वरुणो येनासौ-पक्षोत्क्षिप्ताऽम्बुनाथः = स्वपक्षकृतप्रबलाऽऽघातप्रक्षिप्तवरुणः। [पक्षैः516पीत्वाऽम्बुनाथं’, ‘पक्षैः क्षिप्त्वाऽम्बुनाथम्’ इति चाऽत्र पाठान्तरम्। तत्र—पक्षैः प्रेर्यमाणोऽहमम्बुनाथं पीत्वेत्यर्थः। ‘पक्षैः क्षिप्त्वे’ति पाठे—पक्षैःप्रक्षिप्येत्यर्थः]॥ किञ्च—पटुजवेन=तीक्ष्णवेगेन पवनेन प्रेर्यमाणे = दूरमुत्क्षिप्ते, समीरे = लोकपाले ‘वायौ क्षिप्ते सति। किञ्च—नेत्रयोः या अर्चिषः = ज्वालाः, (‘अर्चिर्हेतिः शित्वा स्त्रियाम्’ इत्यमरः। ) ताभिः–यः–प्लोपः = दाहः तेन या मूर्छा=मोहः तेन विथुराः= विक्लवाः, विह्वलाः व्याकुलीभूताः, अतएव—विनिष्पतन्तः = विनिपातिताः, (स्वस्वस्थानेभ्यः) इच्यवन्तो वा, साऽनलाः = अग्निसहिताः द्वादश अर्काः= सूर्याः येनाऽसौ—नेत्राऽर्चिःप्लोष-मूर्छा-विधुर-विनिपत्साऽनलद्वादशाऽर्कः = स्वनेत्रप्रखरज्योतिर्ज्वालाजालदाह-विह्वल-मूर्च्छित-विनिपातित-साऽग्नद्वादशादित्यमण्डलोऽहम्। शक्रस्य=इन्द्रस्य, अशनिः = वज्रम्, धनदस्य = कुबेरत्य, गदा=हेमपरिष्कृताऽष्टास्त्रिर्भीषणा गदा। प्रेतलोकेशस्य = प्रेतलोकाधिपस्य यमराजस्य च दण्डः = दण्डायुधञ्च, तान्–शक्राशनि–धनदगदा–प्रेतलोकेशदण्डान् = इन्द्रवज्र-वैश्रवणगदा-यमदण्डांश्च। चञ्च्चा = स्वत्रोटिपुटाघातेन। सञ्चूर्ण्य =चूर्णयित्वा। अन्तः=
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मैं ही–अपनी पंखों के आघात से पश्चिम दिशा के दिक्पाल वरुण को दूर फेंक कर, मेरे पङ्खोंकी प्रचण्ड पवन से वायुकोण के दिक्नाल वायु को भी तिनके की तरह दूर फेंक कर अपनी नेत्रों की प्रचण्ड ज्योति से जलाने से मूर्च्छित और विह्वल अग्नि को, तथा बारहों सूर्यों को भी अपने २ स्थानों से गिरा कर इन्द्र के, वज्रको कुबेर की गदा को, यमराज के कालदण्ड को
चञ्च्वा सञ्चूर्ण्य शक्राऽशनिधनदगदाप्रेतलोकेशदण्डा–
नन्तःसंमग्नपक्षः517क्षणममृतमयीं वृष्टिमभ्युत्सृजामि॥३२॥
—तदयं गतोऽस्मि।
[इति साटोपं परिक्रम्य निष्क्रान्तः]।
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अमृतभाजनमध्ये।संमग्नौ पक्षौ यस्याऽसौ—अन्तःसंमग्नपक्षः=अमृतभाजनाऽन्तर्विनिवेशितस्वपक्षः सन्।क्षणं = क्षणमात्रं। किञ्चित्कालम्। अमृतमयीम् = अमृतप्रचुराम्।वृष्टिं = वर्षम्। उत्सृजामि = परित्यजामि। विदधामि। विनिपातयामि।
भावार्थः—यदि शक्रो मदाज्ञां नानुवर्त्तेत तर्हि, महेन्द्रसहायान् वरुणकुबेराऽग्निवायुयनादीन् दिक्पालान् स्वपक्षापातैश्चञ्च्वघातैश्च विजित्य, इन्द्रस्य वज्रं नामायुधं, कुबेरस्य गदां यमस्य दण्डं च चञ्च्वा विचूर्ण्य, वलादेव स्वपक्षाभ्याममृतमध्यविनिवेशिताभ्यां जीमूतवाहननागानां प्रत्युज्जीवनायाऽहमेवाऽजृतवृष्टिं करिष्यामि। एवञ्चामृतवर्षेण जीमूतवाहनादिप्रत्युज्जीवने दृढो निश्चयः स्वस्य सूचितो गरुडेन। स्रग्धरा वृत्तम्॥३२॥
अयम् = अयमहं गरुडः। गतोऽस्मि = गत एव। गमिष्यताऽपि ‘गत’ इति भूतक्तान्तप्रयोगो स्वगमनस्य त्वरितत्वसूचनायैव हि गरुडेन कृतः। साटोपं=साभिमानं, सगर्वं, ससंरम्भं, सोत्साहं च। साटोप = ( बड़े तपाकसे )। परिक्रम्य = किञ्चिच्चलित्वा। निष्क्रान्तः = रङ्गाद्वहिर्गतः।
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अपनी चोंच से चूर २ कर, अमृत में अपनीं पंखा को डुबोकर ( मैं ही ) क्षण भर में अमृतमयो वृष्टि को वर्षा दूंगा। अर्थात्–यदि इन्द्र अमृत वर्षा करने के राजी न होगा तो इन्द्र, वरुण, कुबेर, अग्नि, वायु आदि सब दिक्पालों को अपने सबसे तेज पतों की वायु से उड़ाकर, आँखों की प्रलयाग्नि से भी बढ़ी हुई प्रचण्ड ज्योति से जलाकर, उनके शस्त्रों को अपनी वज्र से भी कठोर चोंच से चूर २ कर, जबरदस्ती मैं अपनीं पंखों से अमृत की वर्षा करूंगा॥३२॥
अतः इस कार्य के लिए मैं यह जाता हूँ।
(ऐसा कहता हुआ बड़े तपाक और गर्व से इधर उधर चक्कर काटकर बाहर जाता है)।
** जीमूतकेतुः—वत्स शङ्खचूड़ ! किमद्यापि स्थीयते ?।समाहृत्य दारूणि पुत्रस्य मेविरचय चितां, येन वयमप्यनेन सहैव गच्छामः।**
** वृद्धा—पुत्तशङ्खचूड ! लहु सज्जेहि। दुक्खं, अम्हेहि विणा भादुओ के चिट्टदि।**
** [ पुत्र शङ्खचूड ! लघुसज्जय। दुःखमस्माभिर्विना भ्राता ते तिष्ठति ]।**
** शङ्खचूडः—[ सास्रं— ] यदाज्ञापयन्ति गुरुवः। नन्वग्रतएवाहं युष्माकम्। [………. कृत्वा—]तत्र! अम्ब ! सज्जी………।**
** जीमूतकेतुः — कष्टं! भोःकष्टम् !!**
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अद्यापि=परलोकं गतोऽपि जीमूतवाहने। स्थीयते=उदासीनवदास्यते।लघु = शीघ्रमेव ।सज्जय = चितां विरचय। अस्माभिर्विना—ते=तव भ्रातः=जीमूतवाहनः। दुःखं = दुःखं यथा स्वात्तथा। दुःखेनैव।तिष्ठति = स्वर्गेतिष्ठति। अतस्त्वरस्व। अग्रतः = पुरोयायी। अहमपिभवद्भिः सहैव चितिं प्रवेक्ष्यामीत्याशयः।
उष्णीष इति। मूर्धनि = मस्तके।उष्णीषः= मुकुटचिह्नं। रेखानिमित्तं चक्रवर्त्तिचिह्नम्—एषः = मनसा पुरतो विभाव्यनाने पुत्रस्य मूर्धनि दृश्यमानः।
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जीमूतकेतु—बेटा शङ्खचूड ! अब चुपचाप क्या बैठे हा ? । उठो । लकड़ी बीनकर लाकर मेरे पुत्र की चिता बनाओ। हम लोग भी उसी चिता मे लाकर इसके साथ ही जाएँगे।
वृद्धा—पुत्र शङ्खचूड ! जल्दी चिता बनाओ। हमारे विना परलोक मैं तुमारा भाई (जीमूतवाहन) दुःखित ओर उदास है । अतः हमें वहाँ शीघ्र जाना चाहिए।
शङ्खचूड—( आंसू बहाता हुआ–) जैसी गुरुजनों को ( आप लोगों की ) आज्ञा। मैं भी आप लोगों के आगे हो रहूंगा। अर्थात्-मैं भी चिता में जलकर आप लोगों के साथ ही जीमूतवाहन के पास चलूँगा। ( उठकर, चिता बना कर–) हे पिताजी ! हे माताजी ! यह चिता तैयार है।
जीमूतकेतु—हा धिक् यह बड़े ही कष्ट की बात है कि—( पुत्र की मूर्ति का
उष्णीषः स्फुट एष मूर्धनि विभात्यूर्णेर्यमन्तर्भ्रुवो
श्चक्षुस्तामरसानुकारि, हरिणा वक्षःस्थलं स्पर्द्धते।
चक्राङ्कौ चरणौ, तथापि हि कथं हा वत्स ! मद्दुष्कृतै-
स्त्वं विद्याधरचक्रवर्तिपदवीमप्राप्य विश्राम्यसि ! ॥३३॥
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स्फुटं = व्यक्ततरम्।विभाति = शोभते। भ्रुवोरन्तः = भ्रूयुगलमध्ये च। इयम् = पुरतो दृश्यमाना। ऊर्णा = रोमावर्त्तोविभाति। चक्षुः = नेत्रयुगलञ्च। तामरसानुकारि = रक्तकमलसदृशं। विभाति। वक्षःस्थलञ्च = उरोभागश्च। हरिणा = सिंहेन। हरिणा = विष्णुना वा। स्पर्द्धते = प्रतिस्पर्द्धते। सिंहसदृशं विशालं, विष्णुवत् श्रीवत्सचिह्नलाञ्छितं च वक्षो विभातीत्यर्थः। चरणौ = पादौ च। चक्राङ्कौ=चक्रचिह्नलाञ्छितां च विभातः। तथापि = एवं सकलचक्रवर्त्तिचिह्नविराजितोऽपि। त्वं=भवान्। हे वत्स= हा पुत्र जीमूतवाहन !।मद्दुष्कृतैः= मत्पापैरेव मन्ये। विद्याधरचक्रवर्त्तिपदवीं = विद्याधरचक्रवर्त्तिसाम्राज्यम्। अप्राप्य = अलब्ध्वैव। विश्राम्यसि = म्रियसे। परलोकं गच्छसि। सर्वविधचक्रवर्त्तिचिह्नशालितया त्वया तु विद्याधरचक्रवर्त्तिता लभ्याऽऽसीत्। परं महौर्भाग्येनैव त्वं चक्रवर्त्तितामप्राप्यैव पञ्चतां गतोऽसीत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥३३॥
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स्मरण कर–) हाय ! पुत्र ! यह तेरे मस्तक पर उष्णीष ( मुकुटबन्ध ) का रेखा चिन्ह–स्पष्ट दिखाई दे रहा है, जो कि चक्रवर्त्ती का प्रसिद्ध चिन्ह है। और भ्रू युगल ( भौंह ) के बीच में भी यह भौंरी ( आवर्त्त ) की रेखा भी स्पष्ट दीख रही है। कमल की तरह प्रफुल्लित नेत्र हैं। वक्षः स्थल भी हरि से स्पर्द्धा करने वाला, अर्थात् सिंह की तरह विशाल है, एवं विष्णु भगवान् की तरह श्रीवत्स चिह्न से अति है। तेरे दोनों पैर भी चक्र रेखा से शोभित हैं। इन चक्रवर्ती राजा के चिन्हों से विराजित होकर भी विद्याधरों के चक्रवर्ती का पद पाए बिना ही तुम मेरे पापों के कारण से हो तुम परलोक को पधार रहे हो। अर्थात् चक्र, उष्णीष, भौरी आदि चिह्न जिसके हों वह सम्राट् होता है। ये सभी चिन्ह साफ २ तेरे शरीर पर थे। परन्तु तूं सम्राट् पदवी को नहीं पाकर, केवल मेरे पापों के ही कारण बीच में ही परलोक को प्रयाण कर रहे हो॥३३॥
जीमूतकेतुः—देवि किमपरं रुद्यते ? तदुत्तिष्ठ चितामारोहामः।
[ सर्वे उत्तिष्ठन्ति ]।
** मलयवतो—[ बद्धाञ्जलिरूर्ध्वेपश्यन्ती–] भअवदि गोरि ! तुए आणत्तं, जहा—‘विज्जाहरचक्कवट्टीभट्टा देभविस्सदिः त्ति। ता कहं मम मन्दभग्गाए किदे तुमंपि अलीअवादिणी संवुत्ता ? !**
** [ भगवति गौरि ! त्वयाऽऽज्ञप्तं, यथा–‘विद्याधरचक्रवर्त्तीभर्त्तोते भविष्यती ‘ति। तत्कथं मम मन्दभाग्याः कृते त्वमप्यलीकवादिनी संवृत्ता ! ]।**
[ ततः प्रविशति ससम्भ्रमा–गौरी ]।
** गौरी—महाराज ! जीमूतकेतो ! न खलु न खलु साहसमनुष्ठातव्यम्।**
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आज्ञप्तन् = आदिष्टमासीत्। भर्त्तो = पतिः।मन्दभाग्यायाः = मन्दप्रारब्धाया दुर्भगायाः। अलीकवादिनी = मिथ्याभाषणशीला ! संवृत्ता = जाता। ससम्भ्रमा = सोद्वेगा, सत्वरा च। गौरी = भगवती पार्वती। न खलु न खल्विति सम्भ्रमे द्विरुक्तिः। नैव कथमपीति तदर्थः। साहसं = चितारोहणसाहसम्। अनुष्ठातव्यं = विधेयम्। अमोघं = सफलं दर्शनं यस्याः सा—अमोघदर्शना = अनिष्फलदर्शना। देवदर्शनं सदेव सफलमेवभवतीत्याशयः।
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हे देवि ! अब और अधिक रोने–धोने से क्या लाभ है। उठी। चिता पर आरोहण करे।
[ सब-उठते हैं ]।
मलयवती—( हाथ जोड़कर, उपर आकाश कोओर देखती हुई–) हे भगवती गौरी ! अपने स्वप्न में मुझे आज्ञा करी थी,कि–विद्याधरों का चक्रवर्ती ( सम्राट् ) तेरा पति होगा। परन्तु–यह बात पूरी न हुई। सो मुझ हतभागिनी को आपने भी यह झूठी बात क्यों कही ?।आप भी झूठ कैसे बोलने लगी ?।
[ जल्दी २ चलकर भाती हुई, गौरी = पार्वती जी का प्रवेश ]।
गौरी—हे महाराज जीमूतकेतो ! ऐसा साहस मत करों। ऐसे साहस का काम ( चिता प्रवेश ) मत करो।
** जीमूतकेतुः—अये ! कथममोघदर्शना गौरी ?।**
** गौरी—[मलयवतीमुद्दिश्य - ] वत्से ! कथमहमलीकवादिनी भवेयम् ?**
[ नायकमुपसृत्य कमण्डलुजलेनाभ्युक्षन्ती—]
निजेन जीवितेनापि जगतामुपकारिणः।
परितुष्टाऽस्मि ते वत्स ! जीव जीमूतवाहन॥३४॥
** [ नायकः—उतिष्ठति ]।**
** जीमूतकेतुः— [सहर्षं ] देवि ! दिष्ट्या वर्द्धसे ! प्रत्युज्जीवितो वत्सः।**
** वृद्धा—भअवदीए पसादेण।**
** [ भगवत्याः प्रसादेन ]।**
[ उभौ गौर्य्याःपादयोः पतित्वा नायकमालिङ्गतः ]।
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‘अये कथ’मित्याश्चर्ये निपातसमुदायः। कमण्डलुः = जलपात्रम्।अभ्युक्षन्ती = सिञ्चन्ती। निजेनेति। हे वत्सजीमूतवाहन।अहं निजेन= स्वीयेन। जीवितेन प्राणैरपि। जगतामुपकारिणः = जगदुपकारिणः। ते = तव। तवोपरि—परितुष्टाऽस्मि = प्रसन्नाऽस्मि। अतः-जीव = पुनरपि जीवनं लभस्व। उत्तिष्ठ तावत्॥३४॥
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जीमूतकेतु—है ! यह तो अमाघदर्शना ( जिसका दर्शन कभी–निष्फल न हो ऐसी ) श्रीगौरीजी हैं !।
गोरी—( मलयवती से ) है पुत्रि ! क्या मैं भी कभी झूठ बोल सकती हूँ। [ नायक के पास जाकर अपने कमण्डलु के जल से छींटे देती हुई–) हे पुत्र जीमूतवाहन ! अपने प्राण देकर भी दूसरों का उपकार करने वाले तेरे ऊपर मैं प्रसन्न हूँ।तूं पुनः जीवित हो। उठ॥३४॥
[ नायक—जी उठता है ]।
जीमूतकेतु—( सहर्ष ) हे देवि ! तुम्हें आनन्द की बधाई है। वत्स जीमूतवाहन फिर से जीवित हो गया।
वृद्धा—यह सव भगवती गौरी के प्रसाद का ही फल है। ( जो यह मेरा पुत्र पुनः जी उठा )।
[ दोनों ( राजा रानी ) भगवती गौरी के चरणों में पड़कर जीमूतवाहन को
** मलयवती—[ सहर्षं ]—दिट्ठिआ पञ्चजीविदी अज्जउत्तो।**
(गौर्याः पादयोः पतति)।
[दिष्ट्या प्रत्युज्जीवित आर्यपुत्रः ]।
** नायकः—[गौरीं दृष्ट्वा बद्धाञ्जलिः—] भगवति !—**
अभिलषिताधिकवरदे ! प्रणिपतितजनार्त्तिहारिणि ! शरण्ये !।
चरणौ नमाम्यहं ते विद्याधरदेवते ! गौरि !॥३५॥
[इति गौर्य्याः पादयोः पतति]।
[सर्वे—ऊर्ध्वं पश्यन्ति]।
** जीमूतकेतुः—अये ! कथमनभ्रा वृष्टिः !! भगवति ! किमेतत् ?।**
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दिष्ट्यावर्द्धसे=आनन्दावसरोऽयं तवोपस्थितः। प्रत्युज्जीवितः = पुनर्जीवितः। भगवत्याः = गौर्याः। प्रसादेन = प्रसन्नतया। कृपया। पुनर्जीवितो मे वामः। नायको भगवती गौरी स्तौति—अभिलाषतेति। अभिलषितापि अधिकं वरं ददातीति-अभिलषिताधिकवरदे = हे वाञ्छिताधिकफलप्रदं। प्रणिपतितस्य = प्रणेतस्य जनस्य = भक्तलोकस्य, आर्त्तिहारिणि = कष्टनाशिनि। = हे प्रणतभक्तजनपीडाविनाशिनि। ‘आत्तिः पीडाधनुष्कोट्योः’ इत्यमरः। शरण्ये = हे शरणागतरक्षणपरायणे। विद्याधरदेवते = हे विद्याधरकुल देवि ! गौरि = हे पार्वति॥ ते = तव। चरणौ = पादौ। नमामि = प्रणमामि। आर्या॥३५॥
अनभ्रा = मेघरहिता।मेघविरहेऽपि। मेघं विना कथमियं वृष्टिर्भवतीत्या-
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छाती से लगाते हैं],
मलयवती—( हर्षित हो ) बड़े आनन्द की बात है कि मेरे प्राणनाथ फिर जी उठे। ( गौरी के चरणों में गिरकर प्रणाम करती है )।
नायक—( गौरी को देखकर, हाथ जोडकर ) हे अभिलषित से भी अधिक बरदान देनेवाली, भक्तों की पीडा को तुरन्त दूर करने वाली, शरणागत की रक्षा करने वाली. विद्याधरों की कुल देवी, गौरी जी ! मैं आप के चरणों में प्रणाम करता हूँ॥३५॥
[ श्रीगौरी के चरणों में गिरता है ]।
[ सहसा सब आकाश की ओर देखते हैं ]।
जीमूतकेतु—हैं ! यह बिना बादल के वर्षा कैसे हो रही है ?।‘हे भगवति !
गौरी—राजन् जीमूतकेतो ! जीमूतवाहनं प्रत्युज्जीवयितुमेतांश्चाऽस्थिशेषानुरगपतीन् समुपजातपश्चात्तापेन पक्षिपतिना देवलोकादियममृतवृष्टिः पातिता। [अङ्गुल्या निर्दिश्य ]। किं न पश्यति भवान् ?—
सम्प्राप्ताऽखण्डदेहाः स्फुटफणमणिभिर्भासुरैरुत्तमाङ्गै-
जिह्वाकोटिद्वयेन क्षितिममृतरसास्वादलोभाल्लिहन्तः।
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श्चर्यम्। उरगपतीन् = नागेन्द्रान्। ‘प्रत्युज्जीवयितुम्’ इति शेषः। समुपजातपश्चात्तापेन = सञ्जाताऽनुशयेन। पक्षिपतिना = पक्षिराजेन गरुडेन। अमृतवर्षणफलं नागोजीवनं निद्दिशति गौरी—किं नेति। किं न पश्यति= कथं न प्रेक्षत्ते भवान्। द्रष्टव्यमेव स्फोरयति—सम्प्राप्तेति। सम्प्राप्ताः=अधिगताः,अखण्डाः = अक्षताः, देहाः = शरीराणि यैस्ते—संप्राप्ताऽखण्डदेहाः = अमृतसिञ्चनप्रभावाधिगतस्वस्वाऽखण्डितवपुषः। किञ्च—स्फुटफणमणिभिः = स्पष्टं प्रकाशमानफणामणिमण्डनैर्हेतुभिः। भासुरैः = विद्योतमानैः। उत्तमाङ्गैः = शिरोभिः। उपलक्षिताः। किंञ्च—अमृतरसस्य आस्वादस्य लोभात्—अमृतरसाऽऽस्वादलोभात् = पीयूषरसाऽऽस्वादलोभात्। जिह्वाकोटिद्वयेन = जिद्वाद्वयाग्रभागेन। क्षितिं = भुवम्। लिहन्तः = परिलिहन्तः। उल्लिखन्तः। किञ्च–मलयगिरिसरिद्वारिपूरा इव = मलयाऽचलप्रभवनदीजलपूरा इव। आषद्धवेगाः=धृतजवाः। पर्वतीयनदीजलपूरवदास्थितजवाः। अमी = दूरतोऽपि दृश्यमानाः।
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हे मातः ! यह क्या बात है ?।
गौरी—हे राजन् ! जीमूतकेतो ! जामूतवाहन को तथा सभी नागों को पुनः जीवित करने के लिए पूर्वकृतपापों के लिए पश्चाताप करते हुए गरूड के द्वारा यह स्वर्ग से अमृतवृष्टि की जा रही है। क्या आप नहीं देख रहे हैं ?—
अमृत वृष्टि के प्रभाव से अपने अखण्डित ( पूरे २ सुन्दर ) शरीर प्राप्त करके ये नागराज, –जिनके चमकती हुई मणियों से मस्तक चमचमा रहे हैं, तथा जो अमृत पीने के लोभ से अपनी दोनों जीभों से पृथ्वो को (जहाँ अमृत की बून्दे पडी थीं वहां की पृथ्वी को चाट रहे हैं। और अब मलय पर्वत से निकली हुई नदी के वेग की तरह प्रबल वेग से अपने टेढे-मेढे मार्गों से चलकर समुद्र
सम्प्रत्यावद्धवेगा मलयगिरिसरिद्वारिपूरा इवामी
वक्रैःप्रस्थानमार्गैर्विषधरपतयस्तोयराशिं विशन्ति॥३६॥
[ नायकमुद्दिश्य—] वत्स जीमूतवाहन ! न त्वं जीवितदानमात्रस्यैव योग्यः। तदयमपरस्ते प्रसादः—
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विषधरपतयः = नागराजाः महान्तः पन्नगाः। वक्रैः = कुटिलैः। प्रस्थानमार्गेः= गमनोचितैर्मार्गैः। सर्पा हि कुटिलगतयो भवन्ति स्वभावादेव।सम्प्रति = इदानीम्। तोयराशिं = अम्बुनिधिं सागरम्। पातालं विशन्ति = प्रविशन्ति। सागरमार्गेण स्वनिलयं पातालं प्रयान्तीत्यर्थः। तदेवमसृतवृष्टिप्रभावेण नागानां प्रत्युज्जीवनं वर्णितं भगवत्या। स्रग्धरा वृत्तम्॥३६॥
अपरः = अन्योऽपि। इतोऽप्यधिकः। प्रसादः = कृपा। वर इति यावत्। ‘क्रियते मये’ति शेषः। प्रसादमेव विशदयति—हंसेति। हंसानां = मानससरोवरचारिणां राजहंसानां मरालानां च, अंसैः = स्कन्धैः, पक्षैरिति यावत्, आहतानि = ताडितानि यानि हेमपङ्कजानि = मानसोद्भवानि स्वर्णवर्णानि कमलानि, तेषां रजसः = परागस्य, सम्पर्केण = संश्ले-
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में प्रविष्ट हो रहे हैं। अर्थात्—अमृतवृष्टि से जीवित हो ये नागों के समूह नदी के प्रबल प्रवाह के वेग की तरह अति वेग से चलकर टेढे मेढे मार्गों से होते हुए, नदी के प्रवाह की तरह समुद्र में प्रविष्ट हो रहे हैं ॥३६॥
[ नायक को उद्देश्यकर के—]
हे वत्स जीमूतवाहन ! तुम केवल जीवनदान के ही अधिकारी नहीं हो, किन्तु तुमको मैं और भी वरदान देना चाहती हूँ। लो, तुमारे लिए मेरा यह और भी एक वरदान है—
खेलते हुए हंसों के कन्धों से हिलाए गए स्वर्ण के कमलों के पराग ( धूलि ) के सम्पर्क से हुए पङ्क से भी शून्य, मेरे मानस से ( मन से ) स्वेच्छा से उत्पादित और स्वेच्छा से मेरे द्वारा निर्मित रत्न के कुम्भों में रखे हुए परम पवित्र जल से तेरा अपने हाथ, से अभिषेक कर के मैं तुम्हें स्नेह से तत्काल ही का विद्याधरोंचक्रवर्ती राजा बनाती हूँ।
हंसांऽसाऽऽहतहेमपङ्कजरजःसम्पर्कपङ्कोज्झितै-
रुत्पन्नैर्मम मानसादुपनतैस्तोयैर्महापावनैः।
स्वेच्छानिर्मितरत्नकुम्भनिहितैरेषाऽभिषिच्य स्वयं
त्वां विद्याधरचक्रवर्त्तिनमहं प्रीत्या करोमि क्षणात्॥३७॥
अपि च—
अग्रेसरीभवतु काञ्चनचक्रमेत-
देष द्विपश्च धवलो दशनैश्चतुर्भिः।
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षेण, व्यतिकरेण, यः पङ्कस्तेनोज्झितैः=पङ्कशून्यैः। स्वर्णकमलेषु परागस्यापि स्वर्णकणरूपत्वाद्धलिसम्पर्कस्य सत्वान्मानससरोवरेऽपि पङ्कमस्तीत्याशयः। यद्वा—तत्स म्पर्केण जातं यत्पङ्कं तेनाऽपि—उज्झितैः शून्यैः। स्वच्छैरिति यावत्। मम = गौर्याः, मानसात् = मनसः। उपनतैः= समुद्भूतैः आनीतैः। स्वेच्छानिर्मितेषु रत्नकुम्भेषु निहितैः = स्थापितैः, महापावनैः = अतोव पवित्रैः तोयैः = जलैः। त्वाम्–स्वयम् = आत्मना अभिषिच्य = प्रीत्या= स्नेहेन तवाऽभिषेकं कृत्वा, स्नापयित्वा। क्षणात् = क्षणेनैव। त्वां— विद्याधरचक्रवत्तिनं= विद्याधराणां चक्रवर्त्तिनं सम्राजम्। करोमि = विदधामि। तवाऽभिषेकार्थं स्वेच्छयोपनतं मन्मानसाजलमादाय रत्नकुम्भैरिच्छामात्रोपनतैस्त्वामहं विद्याधरचक्रवर्त्ति–पदे स्वयमभिषिञ्चामीत्याशयः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥३७॥
अपिच = किञ्च। चक्रवर्त्तिन् = हे विद्याधरचक्रवर्त्तिन्। हे विद्याधरराजाधिराज। एतत् काञ्चनचक्रं = स्वर्णनिर्मितं दिव्यं चक्ररत्नम्। ते = तव अग्रेसरी-
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भावार्थ—मानसरोवर का अत्यन्त स्वच्छ जल भो स्वर्ण कमलों से गिरी हुई ‘पराग से हुए कीचड़ से युक्त रहता है। परन्तु तुमारे अभिषेक के लिये मेरे मानस (हृदय) से उत्पन्न यह परम पवित्र जल तो नितान्त ही निर्मल है। क्योंकि इसमें स्वर्ण कमलों के पराम के गिरने हुआ कीचड़ भी नहीं है॥३७॥
और भी—मेरो इच्छा से ही चक्रवर्त्ती का चिन्ह दिव्य स्वर्ण निर्मित यह चक्र–तुमारे सामने उपस्थित हो ( रहा है )। यह चार दांत वाला मङ्गलमय
श्यामो हरिर्मलयवत्वपि चेत्यमूनि
रत्नानि ते समवलोकय चक्रवर्त्तिन् !॥३८॥
अपि च—आलोक्यन्ताममी मत्प्रचोदिताः शारद518-शशाङ्क-निर्मल-
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भवतु = पुरोयायितां वहतु। अग्रतःसरीभवतु। चतुर्भिः–दशनैः = दन्तैः - उप- लक्षितः। उपलक्षणे तृतीया-‘इत्थम्भूतलक्षणे’ इति सूत्रेण। धवलः = श्वेतः। द्विपः = हस्तिरत्नम्।पुस्तस्तिष्ठति। श्यामः = कृष्णवर्णः। हरिः = अश्वः। ( ‘यमाऽनिलेन्द्रचन्द्रार्कविष्णुसिंहांऽशुवाजिषु। शुकाऽहिकपिभेकेषु हरिर्ना कपिले त्रिषु’ इत्यमरः। ) अपिच = किञ्च। मलयवती = स्त्रीरत्नं मलयवती च। अमूनि = इमानि। तव = चक्रवर्त्तिनः। रत्नानि = चिह्नभूतानि माङ्गलिकानि रत्नानि परितस्तिष्ठन्ति। समवलोकय = तानि समन्तात् पश्य। एतद्रत्नमण्डितस्त्वं विद्याधरचक्रवर्त्तीभवेत्याशयः। चक्रवर्त्तिनां सप्त रत्नानि चिह्नभूतानि भवन्ति। तानि च–^(१)स्वीरलं, ^(२)वाजिरत्नम्, ^(३)हस्तिरत्न, ^(४)चक्ररत्नम्, ^(५)पुरोहितः, ^(६)सेनानीः,^(७)मणिरत्नम्। अत्र नामभेदोऽपि दृश्यते, ग्रन्थभेदात्। वसन्ततिलका वृत्तम्॥३८॥
शारदः = शरदृतुभवो यो निर्मलश्वेतरश्मिः शशाङ्कः = चन्द्रः, तद्वन्निर्मलानि = शुभ्राणि यानि बालव्यजनानि = चामराणि, तानि हस्तेषु येषान्ते तथाभूताः। शरच्चन्द्रशुभ्रचामरधारिणः। मत्प्रचोदिताः = मदाज्ञप्ताः। चटुलानां = प्रणाम-
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सफेद हाथी उपस्थित है। यह श्याम रंग घोड़ा भी सामने खड़ा है। स्त्री जाति में रत्न स्वरूप यह मलयवतो–तुमारी भार्या भो—पास में ही उपस्थित है। हे विद्याधरों के चक्रवर्ती जामूतवाहन ! तुम इन रत्नों का अच्छी तरह देखो॥३८॥
और भी देखो—मेरी आज्ञा से उपस्थित हुए, शरदृतु के शुभ्रवर्ण चन्द्रमा की तरह निर्मल सफेद चामर ( चँवर) हाथों में लिए हुए, अपनी चमकती हुई, तुम्हें प्रणाम करने से चञ्चल शिरोमणियों की नानारंग की कान्तियों से आकाश में इन्द्र धनुषों की पतियाँ बनाते हुए, ( तुम्हे प्रणाम करने के लिए ) भक्ति से अपने २ शिर झुकाए हुए, ये मतङ्गदेव आदि विद्याधरों के राजागण तुमको प्रणाम कर रहे हैं।
बालव्यजनहस्ताश्चटुलचूडामणिमरीचिरचितेन्द्रचापपङ्क्तयो, भक्त्याऽवनतपूर्वकायाः, प्रणमन्ति मतङ्गदेवादयो विद्याधरपतयः !। तदुच्यतां, किं ते भूयः प्रियमुपकरोमि ?।
** नायकः—[ जानुभ्यां स्थित्वा—] अतः परमपि किं प्रियमस्ति ?।**
त्रातोऽयं शङ्खचूडः पतगपतिमुखाद्वेनतेयो विनीत–
स्तेन प्राम्भक्षिता ये विषधरपतयो जीवितास्तेऽपि सर्वे।
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सम्भ्रमेण चञ्चलानां, चूडामणीनां= शिरोरत्नानां, मरीचिभिः = किंस्णैः, रचिता इन्द्रचापानाम् = इन्द्रधनुषां, पङ्क्तयो यैस्ते तथाभूताः = चञ्चच्चूडामणिप्रभाजालविरचितशक्रचापपक्तयः। भक्त्या = श्रद्धया। अवनतपूर्णकायाः= प्रणतशिरसः। तेन विनमत्सकलविद्याधरराजकं तव चक्रवर्त्तित्वं सिद्धमित्याशयः। भूयः = पुनरपि। इतोऽधिकञ्च। प्रियम् = इष्टम्। उपकरोमि = उपकारं करोमि।
अतः परं = यद्भगवत्या स्वयमेव। कृतमतोऽधिकम् अपि = किं। प्रियम् = इष्टम्। अस्ति = विद्यते ?। इतोऽधिकं प्रियं नैव विद्यते इत्याशयः। तदेव स्पष्टमभिधत्ते–त्रात इति। पतगपतिमुखात् = पक्षिराजगरुडमुखात्। अयं शङ्खचूडः—त्रातः = भवत्या अनुग्रहेण परिरक्षितः। वैनतेयः = गरुडोऽपि। विनीतः = शिक्षितः। शिष्यतां नीतः। किञ्च तेन = गरुडेन। प्राक् = पूर्वं। जन्मप्रभृति। भक्षिताः = भुक्ताः। मारिताः। हताः। ये विषधरपतयः = नागराजाः। ते सर्वेऽपि जीविताः = पुनरुज्जीविताः। मत्प्राणाप्त्या = ममापि पुनरुज्जीवनेन। गुरुभिः = पित्रादिगुरुजनेन। असवः = प्राणाः। न विमुक्ताः = न त्यक्ताः। अहमपि पुनर्जीवितो, मद्गुरवश्च रक्षिताः। मया चक्रवर्त्तित्वं = विद्याधरचक्रवर्त्ति-
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और कहो,–इससे अधिक और क्या तुम्हारा उपकार करूं ? ( और क्या वरदान दूँ ? )।
नायक—(ठेहुने टेक कर हाथ जोड कर ) हे मातः ! इससे अधिक और क्या प्रिय हो सकता है ?। देखिए—आप की कृपा से गरुढ के मुख से यह शङ्खचूड बचा लिया गया। गरुड को भी उपदेश देकर धर्ममार्ग में प्रवृत्त कर. दिया गया, और उनको शिष्य बना लिया गया। गरुड के द्वारा पहिले खाए मए
मत्प्राणाप्त्या विमुक्ता न गुरुभिरसवश्चक्रवर्त्तित्वमाप्तं,
साक्षात्त्वं देवि ! दृष्टा प्रियमपरमतः किं पुनः प्रार्थ्यते यत्॥३६॥
तथाऽपीदमस्तु। [ भरतवाक्यम् ]।
वृष्टिं हृष्टशिखण्डिताण्डवभृतो मुञ्चन्तु काले घनाः,
कुर्वन्तु प्रतिरूढसन्ततहन्च्छिस्योत्तरीयां क्षितिम्।
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पदवी च। आप्तं = भवत्याः कृपया प्राप्तम्। देवि = हे गौरि। त्वमपि साक्षाद् दृष्टा= मया साक्षात्कृता। अतः परं = श्रेष्ठं प्रियं। किं भवेत् = किं नु भवेत्— यत् प्रियं प्रार्थ्यते = याच्यते। इतोऽधिकं किमपि प्रियं मे नावशिष्यते। मत्प्रियन्तु सकलमेव भवत्या पूर्वमेव कृतमतो न किमप्यवशिष्यते यत्प्रार्थयामहे। स्रग्धरा वृत्तम्॥३९॥
तथापि = यद्यपि त्वदिष्टं सर्वमेव निप्पन्नं तथापि। इदं वक्ष्यमाणमिष्टमस्तु।भरतवाक्यं = नटवाक्यमेतत्। इयमाशीर्नटेन पठ्यते इत्यर्थः। नागानन्दाभिनयसमाप्तिसूचकमेतन्मङ्गलवाक्यं पठन्नटः सामाजिकेभ्य आशीर्वादं ददातीति तत्त्वम्।
‘धृष्टिमिति। काले=वर्षोचिते। काले = समये। दृष्टानां = मेघागमात्प्रस-
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सभी सर्प पुनः जीवित हो गए। मेरे पुनः जीवित हो जाने से मेरे पिता—माता आदि के भी प्राण बच गए। चक्रवर्तिपद भो आपकी कृपा से मैंने पा लिया। और आपका अति दुर्लभ साक्षात् दर्शन भी मुझे प्राप्त हो गया। हे मातः ! इससे अधिक और क्या हो सकता है, जिसे मैं आप से अब मांगू ?।अर्थात्-मेरे सभी मनोरथ आप की दया से पूरे हो गए। अब मुझे इससे अधिक कुछ भी नहीं चाहिए॥३६॥
[ अब इस नाटक को खेलने वाला नट कहलाता है–]
अच्छा ! तो भी यह तो और हो, कि—
प्रसन्न हुए मोरों को नचाते हुए मेघ—समय पर पूर्ण वृष्टि किया करें। और सुदृढ व घने उगे हुए हरे २ धान्यों की चादर से सब पृथ्वी ढक जाए।
चिन्वानाः सुकृतानि वीतविपदो निर्मत्सरैर्मानसै-
र्मोदन्तां घनबद्धबान्धवसुहृद्गोष्ठीप्रमोदाः प्रजाः॥४०॥
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न्नानां = मुदितानां शिखण्डिनां= बर्हिणां मयूराणां, (‘शिखण्डो बर्हिचूडयोः’ इति हैमः। शिखण्डाः = बर्हाः सन्त्येषां ते शिखण्डिनः = मयूराः, तेषां )। ताण्डवं = नृत्यं बिभ्रति—इति–हृष्टुशिखण्डिताण्डवभृतः = प्रहृष्टमयूरनृत्यप्रयोजकाः। घनाः = मेघाः। वृष्टिं = वर्षं। मुञ्चन्तु = आतन्वन्तु। किञ्चं—घनाः मेघाः—प्रतिरूढानि=नितरामुद्भूतानि सर्वतो जातानि सन्ततानि = घनानि, हरिन्ति = हरिद्वर्णानि यानि शस्यानि = धान्यानि तान्येव उत्तरीयम् = उपरिप्रावरणवस्त्रमिव यस्याः सा तां—प्रतिरूढ-सन्तत-हरिच्छस्योत्तरीयां = सर्वतः समुद्भूतनिरन्तरहरिद्वर्णशस्यपङ्क्तिधृतोत्तरीयाम्। क्षितिं = भुवम्। कुर्वन्तु = विदधतु। यथेच्छसमयोचितजलवृष्ट्या भूरियंशस्यश्यामला भवत्वित्याशयः।
किञ्च—निर्मत्सरैः = मत्सरशून्यैः। ‘मत्सरोऽन्यशुभद्वेषे’ इत्यमरः। मानसैः= स्वान्तैः। सुकृतानि = पुण्यानि। चिन्वानाः = अर्जयन्त्यः। पुण्यप्रवणाः। अतएव—वीता विपदो यासान्ताः –वीतविपदः =अकालमृत्युरोगादिविपत्तिरहिताः सत्यः। घनं = सुदृढं निबिडं च यथा स्यात्तथा, बद्धा = स्थापिता। आस्थिता, उरीकृता या—बान्धवानां = बन्धूनां सुहृदां = मित्राणां च गोष्ठी = सभा, समाजः, तत्र प्रमोदः = हर्षो यासान्ताः—घनबद्धबान्धवसुहृद्गोष्टी’प्रमोदाः = दृढ़तराऽऽहित-बन्धुबान्धव-मित्रवर्गगोष्ठीबन्ध-प्रहृष्टाः सुहृद्वन्धुसमूहेषु विलसन्त्यो हृढं प्रमोदं च वहन्त्य इति यावत्। प्रजाः = जनाः। मोदन्तां = प्रमोदमानसा भवन्तु। ( ‘सभा’ संलापयोगोंष्ठी’ इति मेदिनी। ‘समस्या परिषद्गोष्ठी’ इत्यमरः)। स्वकीयेषु बान्धवेषु, स्वसुहृत्सु च दृढमनु-
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अर्थात्–पृथ्वी में सर्वत्र धान्य ( अन्न ) की हरियाली छा जाए। कहीं भी अकाल न पड़े। और प्रजा भी—परस्पर राग द्वेष ईर्ष्या आदि को छोड़ कर, पुण्यों का संचय करती हुई, आधि व्याधि, विपत्ति, पीड़ा से रहित हो, बड़े प्रेम से–अपने भाई बन्धु बान्धव मित्रों की सभा और गोष्ठी में बैठ कर आनन्द
अपि च—
शिवमस्तु519 सर्वजगतां परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः॥४१॥
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रक्ताः, परस्परं प्रेम्णा मेलापकं च कुर्वत्यः प्रजाः प्रमोदं वहन्तामिति यावत्। ‘प्रजा स्यात्सन्ततौ जने’ इत्यमरः। [ घनं बद्धा = प्रेरणा दृढं स्थापिता, बान्धवानां सुहृदां च या गोष्टी = सभा, तस्यां प्रमोदो = हर्षो यासान्ता इति चात्र विग्रहः। दृढतरप्रेम्णा निबद्धायां स्वबन्धु–बान्धवसुहृद्गणगोष्ठ्यां विलसन्त्य इति च सरलोऽर्थः। ‘दृढबद्धे’ ति प्रमोदविशेषणमपि केचिदिच्छन्ति। दृढं बद्धोबान्धवानां सुहृदां च गोष्ट्यां प्रमोदो = हर्षो याभिरिति च तत्र विग्रहः। शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्॥४०॥
अपि च = अन्यदपि आशीर्वचनं पठ्यते भरतेन। शिवमिति। सर्वजगतां = सर्वलोकानां। शिवं कल्याणमस्तु।भूतगणाः सर्वेऽऽपि प्राणिनः। परहितनिरताः = परोपकारनिरतमानसाः। भवन्तु = सन्तु। दोषाः = कामक्रोधादयः। नाशं = विनाशं। विलयं। प्रयान्तु = गच्छन्तु। सर्वत्र = सर्वेषुप्रदेशेषु। लोकः = जनः। सुखी भवतु = सुखं कल्याणञ्चानुभवत्विति शिवम्।‘कल्याणं मङ्गलं शिवम्।’ इत्यमरः ‘लोकस्तु भुवने जने’ इति चामरः। शुभम्।
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मनाती हुई, मिल जुल कर सदा हर्षित और प्रफुल्लित होती रहे। अर्थात् सभी लोग रागद्वेष छोड़ कर, अपने भाइयों से मिलकर, गोष्ठी सुख ( गप्प–सप्प, प्रेम की बातों ) का आनन्द ले। आपस में लड़ाई-झगड़ा न करें। सदा प्रसन्न रहे। और सबको प्रसन्न रखें॥४०॥
और भो—
विश्व ( सब जगत् ) का कल्याण हो। सभी प्राणी परोपकार में तन– मन् से लगे रहें। (प्राणियो में सद्भावना हो)। सभी दोष पाप व अधर्मों का नाश हो। (अधर्म का नाश हो)। सब धार्मिक लोक सुखी हो। ( धर्म की जय हो)।
[ इति निष्क्रान्ताः सर्वे ]।
इति पञ्चमोऽङ्कः।
समाप्तमिदं नागानन्दं नाम नाटकम्।
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इति प्रचण्डपाण्डित्यविद्योतितत्रिभुवन–शारदचन्द्रविख्यातविशदकीर्त्तिकलापमालाविराजित— पण्डितप्रकाण्ड-कैलासबासि—श्री १०८ श्रीस्नेहिरामशास्त्रिणां पौत्रेण, कैलासवासिश्रीश्री १०८ श्री शिवनारायणशास्त्रिणांन्यायाचार्याणां पुत्रेण, श्रीगुरुप्रसादशास्त्रिणा न्यायव्याकरणाद्याचार्येणाऽभ्यूहितायां नागानन्द्यऽभिनबराजलक्ष्म्यां पञ्चमोऽङ्कः।संवत् २००५ वैक्रमे गुरुपूर्णिमायाम फाणीत्।
॥शुभम्॥श्रीः॥
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इस प्रकार इस श्लोक के चारों चरणों से महत्त्व पूर्ण चार आशीर्वाद निकलते हैंः—
[TABLE]
[ सब अपने २ स्थानों को जाते हैं ]
इति श्रीगुरुप्रसादशास्त्रिविरचितायां, ‘कलभाषिणी’ति नाम्ना व्यपदिष्टायां, नागानन्दनाटकभाषाटीकायां पञ्चमोऽङ्कः। शुभम्।
इथं वैक्रमसंवत् २००५ गुरुपूर्णिमायां समाप्तिमगात्। शुभम् ॥
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मुद्रक—पं० बैकुण्ठनाथ भार्गव, आनन्दसागर प्रेस, गायघाट, बनारस।
]
-
“बालबोधाय अयं पाठोऽस्माभिरेव वर्द्धितो, न ग्रन्थगत इत्यवधेयम् ।” ↩︎
-
“‘स कोऽन्यः पुमान्’ पाठा०।” ↩︎
-
“’बुद्धो जिनः’” ↩︎
-
“‘चलितदृशा’।” ↩︎
-
“बोधेरवाप्तौन’।” ↩︎
-
" ‘अलमतिविस्तरेण’ इति पा०। क्वचिन्नायं पाठः।" ↩︎
-
“प्रत्याहारादि - आसारितान्तानि पूर्वरङ्गाङ्गानि रङ्गाद्वहिंस्तत्रैव वा यवनिकान्तस्थैरेव कार्याणि। न सामाजिकानां पुरतः। तन्त्रीभाण्डकृतानि तु यवनिकामुत्थाप्य रङ्गे प्रविश्य सभ्यसमाजस्य पुरतो विधेयानीत्यर्थः।” ↩︎
-
“शुष्का = तालादिरहिता, अपकृष्टा = निरर्थकस्य ‘सारेगमपधनी’त्यादेरालापः।” ↩︎
-
“‘चक्रवर्तिजातक’ पा०।” ↩︎
-
“‘सामाजिकजनमनांसि’ - पा०।” ↩︎
-
“‘वत्सराज’ ‘सिद्धराज’ पा०।” ↩︎
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“कचिन्नायं श्लोकः।” ↩︎
-
“अय्य! कहंण्ण रोदिस्सं। जदा तादो अजुआ अथविरभावजादणिव्वेदाओ-कुटुम्ब-भारू-ब्बहण -जोग्गो दाणिं तुअं ति हिअए आरोविअ तवोवणं गदाओ। [आर्य ! कथं न रोदिष्यामि, यदा तातोऽजुका च स्थविरभावजातनिर्वेदी ‘कुटुम्बभारोद्वहनयोग्य इदानीं त्व’ मिति हृदये आरोप्य तपोवनं गतौ] इतिपाठान्तरम्।” ↩︎
-
“‘कष्ट मामपि’ पा०” ↩︎
-
“‘वनं यातौ’ पा०।” ↩︎
-
“(विचिन्त्य ↩︎
-
“क्वचिन्न’ पा०।” ↩︎
-
“‘विधातुं पितृशुश्रूषां पा०।” ↩︎
-
“‘याम्यहमद्यैव’ पा०।” ↩︎
-
“[ इति निष्क्रान्ता ] प्रस्तावना’ पा०।” ↩︎
-
" ‘नायकः - रागस्यास्पद’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘इन्द्रियफलप्राप्त्यै भवेत्’ पा०।” ↩︎
-
“‘वृद्धयो’ रिति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘किं संवाहयतः’ ।” ↩︎
-
“‘राजकं’ पा०। ‘राज्यके’ इति गौडाःपठन्ति।” ↩︎
-
“’ तेनाऽस्ति’। ‘तत्रास्ति’ पा०। " ↩︎
-
“‘गुरुजण’।” ↩︎
-
“‘भोदु, एव्वं दाव भणिस्सं’ [भवतु, एवं तावद्भणिष्यामि ] पा०।” ↩︎
-
" ‘भोदु, एव्वं दाव भणिस्सं’ [भवतु, एवं तावद्भणिष्यामि ] पा०।” ↩︎
-
“‘सस्मित’ मिति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘देवे’ति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘धिङ् मूर्ख’ इति क्वचिन्नास्ति।” ↩︎
-
“’ किं मतङ्गो राज्यं’ग्रहीष्यतीति शङ्कसे, यद्येवं ततः किं [ स्यात् ], ननु स्वशरीर’ पा०।” ↩︎
-
“‘किं नः स्यात्’ पा०।” ↩︎
-
“यद्येवंततः किं ?। ‘स्वशरीरतः प्रभृति परार्थमेव सर्वं।” ↩︎
-
“‘आज्ञापितोस्मि’।” ↩︎
-
" ‘उपयुक्त’ पा०।" ↩︎
-
“’ तद्यावन्मलयमेव गच्छावः’ पा०।” ↩︎
-
“विदूषकोक्तिरियं क्वचिन्न।” ↩︎
-
“इतिः क्वचिन्न।” ↩︎
-
“क्वचिन्न।” ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
-
“‘विदूषकः - ( विलोक्य ↩︎
-
“‘बहुल’” ↩︎
-
“‘बिमल’ । ‘तडपडण’ (तटपतन ↩︎
-
“जर्जरीक्रियमाण’” ↩︎
-
“‘च्चलिअ (च्चलित ↩︎
-
“नायकः-( विलोक्य ↩︎
-
“‘सर्वतो दत्तदृष्टिः’।” ↩︎
-
“‘त्कुञ्जर’।” ↩︎
-
“‘दृष्टोऽयं।” ↩︎
-
“‘तदेहि। आरुह्य निवासयोग्यमाश्रमं निरूपयावः पा०।” ↩︎
-
“विदूषकोक्तिरियं सर्वापि क्वचिन्नास्ति।” ↩︎
-
“‘निमित्तं सूचयन् ’ पा०।” ↩︎
-
“‘सखे’ पा०।” ↩︎
-
“‘आसण्णं दे’ [आसन्नं ते]।” ↩︎
-
“‘यथा भवान् ब्रवीति’ ‘निर्द्दिशति’ पा०।” ↩︎
-
“(सहर्षे ↩︎
-
“‘पादबविसोभिदं। [पादपविशोभितं]’ पा०।” ↩︎
-
“‘सुरभि’ पा० !” ↩︎
-
“दययैव ।” ↩︎
-
“मग्ना ।” ↩︎
-
“रजः ।” ↩︎
-
“‘सर्वतो विलोक्य’।‘सविस्मयं विलोक्ये ‘ति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘वटुजनच्छिद्यमान’‘वटुच्छिद्यमान’ पा०।” ↩︎
-
“‘मानार्द्रसमिधः पा०।” ↩︎
-
“‘रम्यता’ पा” ↩︎
-
“वदन्तः पा०।” ↩︎
-
“वृष्टिं’। ‘वर्षे’ पा०।” ↩︎
-
" ‘योग्यं तपोवनं’ पा०।” ↩︎
-
“‘वसतां’ पा०।” ↩︎
-
“‘सम्यगुपलक्षितं। कुतः ?। स्थान’।” ↩︎
-
“‘भवतेति’ क्वचिन्न।” ↩︎
-
" ‘प्रकटितसमतामन्द्र’।” ↩︎
-
“‘व्यवस्था’।” ↩︎
-
" ‘स्वरेण’।” ↩︎
-
" ‘कोण खु एसो’।” ↩︎
-
“‘को नु खल्वेष’ पा०।” ↩︎
-
“‘भो वअस्स ! एदं देवाअदणं पेक्खम्ह [ भो वयस्य ! एतद्देवायतनं पश्यावः ]’पा०।” ↩︎
-
“‘नायकः - साधूक्तं वन्द्याः खलु’।” ↩︎
-
“‘खलु’ इति क्वाचित्कम्।” ↩︎
-
“‘भवति’। ‘मनहोंऽयं स्त्रीजनो भवति पा०।” ↩︎
-
“’ तदनेन तावत्तमालगुल्मेनान्तरितौ देवतादर्शनावसरं प्रतिपालयावः पा०।” ↩︎
-
“‘उत्कृष्ट’ स्थाने ‘उन्मृष्ट’ मिति पाठो भरतनाट्यशास्त्रे दृश्यते। ‘अनुबन्ध’ स्थानेऽघर इति च पाठः।” ↩︎
-
“‘संपादिताः पा० ।” ↩︎
-
“(सोल्लुठनं ↩︎
-
“[ ‘साधिक्षेपं ] हब्जे कुदो,‘हजे चउरिए, भवदीए पुरदो वादयन्तीए कुदो मम परिस्समो [ हञ्जे चतुरिकेभगवत्याः पुरतो वादयन्त्याः कुतो में परिश्रमः ] पा०।” ↩︎
-
“वासेंहि [उपवासैः ] पा०।” ↩︎
-
“‘अज्जवि [ अद्यापि ]’ इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“भो …. क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘कीस ण’ [ कस्मान्न ] पा०।” ↩︎
-
“‘हि’ इति ‘भवन्तीति च क्वाचित्कम् ।” ↩︎
-
“तावदिति क्वचिन्न” ↩︎
-
“पश्यावः उभौ पश्यतः” ↩︎
-
" विदूषकोक्तिरियं क्वचिन्न।” ↩︎
-
“काचित्कमेतत्।” ↩︎
-
“वीणाए कण्णाणंएव्वं सुहं [वीणया कर्णयोरेव सुखं] । ‘सुखं करेदि ’ [ सुखं करोति ] पा०।” ↩︎
-
“‘आहो’ [ आहोस्वित् ]” ↩︎
-
“आहो [ आहोस्वित् ]’ पा०।” ↩︎
-
" सरोषमिति क्वचिन्न। " ↩︎
-
“‘सा’ इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘स प्रसाद’ इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘अज जाणामि’ [ अद्यजानामि ] पा०।” ↩︎
-
“‘एब्बं एव [ एक्मेव ]।” ↩︎
-
“इदं क्वचिन्न। ‘दुलहाए[ दुर्लभया ] पा०।” ↩︎
-
“एवकारः क्वचिन्न” ↩︎
-
“‘हिअअच्छिदो एव्वदेवीएवरो दिण्णो। हृदयेष्टएव देव्या वरो दत्तः पा०।” ↩︎ ↩︎
-
“‘उवसप्पम्ह’ [ उपसर्पावः ]।” ↩︎
-
“नायकः - न तावत्प्रविशामि। विदूषकः” इत्यस्य स्थाने – " ↩︎
-
“‘अनिच्छन्तमिव’ पा०।” ↩︎
-
“’ उपसृत्येति कचिन्न।” ↩︎
-
“सोत्थि भोदीप(स्वस्ति भवत्यै ↩︎
-
“‘सच्चकं जेब चदुरिआ भणादि’ [ सत्यमेव चतुरिका भणति ] पा०। - चतुरिकेति काचित्कं।” ↩︎ ↩︎
-
“अपवार्येति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“अनन्यसदृश्या” ↩︎
-
“‘प्रसादत्ति’ [ प्रसाद इति ] पा०।” ↩︎
-
“‘नायकमवलोकयति। तनु’ पा०।” ↩︎
-
" ‘खिद्य से’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘संमुहे [ संमुखे ]।” ↩︎
-
“चकारः क्वाचित्कः।” ↩︎
-
“‘पराङ्मुखी’।” ↩︎
- ↩︎
-
“‘संभावणीयो [ संभावनीयः ] पा०।” ↩︎
-
" ‘भोदु एव्वंदाव [ भवतु एवं तावत् ], ‘दिट्ठी ता एव्वं’ [ दृष्टिः। तदेवं]पा०।” ↩︎
-
“‘ता कीस एदस्सिं [ तत्कस्मादेतस्मिन् ]’ पा०।” ↩︎
-
“विअ [ इव ] इतिक्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘निर्द्दिश्य’ पा०।” ↩︎
-
" इमं पदेशं अजो [ इमं प्रदेशमार्यः ] पा०।" ↩︎
-
“‘एत्थ’ [अत्र ] इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“नायिका – [ सलज्ज ] हा धिक् परिहास[ हा धिक् परिहासशीले ] पा०।” ↩︎
-
“तावसो मं पेक्खति [ तापसो मां पश्यति ]” ↩︎
-
“‘पितुराज्ञया सिद्धराज मित्रावसुः पा० ।” ↩︎
-
“‘मलयवत्याः’ इति क्वचिन्न ।” ↩︎
-
“‘सवनविधि’ पा ।” ↩︎
-
“‘तत्तपोवनगौरी’ पा” ↩︎
-
“(परिक्रामन् भुवं निरूप्य ↩︎
-
“‘पांसुलप्रदेशे’ पा. ।” ↩︎
-
“‘प्रकाशचक्रचिह्ना’ पा. ।” ↩︎
-
“‘निर्द्दिश्य’ पा. ।” ↩︎
-
“तथाहि ।” ↩︎
-
“‘पदद्वयमिदं’ पा.।” ↩︎
-
“‘व्यक्तमेतेनैव’ पा०।” ↩︎
-
“‘यदि’ इत्यारभ्य ‘घटयेत्’ इत्यन्तो ग्रन्थःक्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘नायकं निर्द्दिश्य’ पा०।” ↩︎
-
“‘जीमूतवाहनोऽभिवादयते’ पा०।” ↩︎
-
“‘उत्थातुमिच्छति’ पा०।” ↩︎
-
“‘आह वां कुलपतिः कौशिकः - अतिक्रामति’ पा०।” ↩︎
-
“‘नायिका चेटी च’ इति पाठः क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘गच्छन्ती’ मिति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“भो, दिहं तुए पेक्खिदव्वं’ [ भो दृष्टं त्वया प्रेक्षितव्य ] पा०” ↩︎
-
" ‘ता दाणिं [तदिदानीं ] पा०।” ↩︎
-
“‘सूरकिरण’ [ सूर्यकिरण सन्ताप पा०।” ↩︎
-
“‘उदरग्गि’(उदराग्निः ↩︎
-
“‘धमधमायति’।” ↩︎
-
" एहीति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“जेण बह्मणो’[येन ब्राह्मणोऽतिथिः]” ↩︎
-
“’ करिस्यामि’ [करिष्यामि ]।” ↩︎
-
“‘अये’ इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘संसिक्तैः पा०।” ↩︎
-
“‘निष्क्रान्ताः सर्वे पा० ।” ↩︎
-
“इतिः क्वचिन्न ।” ↩︎
-
“‘जहा ( यथा ↩︎
-
“मे भादुओ अय्य मित्तावसू (मे भ्रता आर्यमित्रावसुः ↩︎
-
“‘दृष्ट्वा’।” ↩︎
-
“‘द्वितीया चेटी’।” ↩︎
-
“‘प्रथमा चेटी’ पा०।” ↩︎
-
“मनोहरिका-( उपसृत्य ↩︎
-
“प्रथमा’। " ↩︎
-
“‘गदाए सन्दाबोउवसमं गमिस्सदि ’ [ गतायाःसन्ताप उपशमं गमिष्यति’ ] पा॰।” ↩︎
-
“‘द्वितीया’ पा०।” ↩︎
-
“अहिअदरं हुविस्सदि [ अधिकतरं भविष्यति’ ]” ↩︎
-
“सज्जं मणिशिलाअलं [‘सज्जंमणिशिलातलं’] पा०।” ↩︎
-
“‘हिअअ तथा णाम तस्सिं जणे जं लज्जाए परंमुहोकदुअ दाणिं तहिअत्तणा गदं सिति’ [‘हृदय, तथा नाम तस्मिज्जने यल्लज्जया पराङ्मुखी कृत्येदानीं तत्रात्मना गतोऽसीति ] पा०।” ↩︎
-
“हञ्जे आदेसेहि मे भगवदीए आअदणं,[ हञ्जे, आदिश मेभगवत्या आयतनम् ]।” ↩︎
-
“‘चेटी - णं चन्दनलदाघरअं भट्टिदारिआ पत्थिदा । [नतु चन्दनलतागृहं भर्तृदारिका प्रस्थिता’ ] पा० ।” ↩︎
-
“’हञ्ज’ इति क्वचिन्न " ↩︎
-
“‘देवीए भवणं [ देव्या भवनं ] पा०।” ↩︎
-
“‘सविलक्षस्मितं तथा’ पा०।” ↩︎
-
“भट्टिदारिए [ भर्तृदारिके’ ] इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“उपविसिअ समस्य भट्टिदारिआ [ उपविश्य समाश्वसितु भर्तृदारिका ]।” ↩︎
-
“‘तस्सिंण किञ्चि तुए किदं। ममउण अणवरद्वारवि अवलेति करिअ पहरन्तो ण लज्जेसि ! (आत्मानं निर्द्दिश्य……….. ↩︎
-
“‘मम पुनरनपराद्धाया अपि अवलेति कृत्वा प्रहरन लज्जसे’ पा०।” ↩︎
-
“‘किं पुनर्धन’।” ↩︎
-
“‘तादृशमेव ’ पा०।” ↩︎
-
“’ न मेऽद्यापि०पा०।” ↩︎
-
“पडिवज्जिस्सदित्ति [ प्रतिपत्स्यते इति पा०।” ↩︎
-
“नायिका—(आत्मगतं ↩︎
-
“हिअअच्छिदो वरो ( हृदयेष्टो वरः ↩︎
-
“‘अमृत’ इति काचित्कम्।” ↩︎
-
“को सो ( कः सः ↩︎
-
“’ एवं ‘।” ↩︎
-
%20क्कचिन्न " क्कचिन्न” ↩︎
-
‘अलकं’%20पा०%20। “‘अलकं’ पा० ।” ↩︎
-
ण’%20(ननु ↩︎
-
‘ण%20मुहुत्तअंपि%20अहिरमिस्सदि।%20ता%20एदं%20पि%20मए%20लक्खिदं%20%5Bन%20मुहूर्त्तकमपि%20अभिरमते।%20तदेतदपि%20मया%20लचितं%5D,%20पा०। “‘ण मुहुत्तअंपि अहिरमिस्सदि। ता एदं पि मए लक्खिदं [न मुहूर्त्तकमपि अभिरमते। तदेतदपि मया लचितं], पा०।” ↩︎
-
अन्यत्रेति%20क्वचिन्न “अन्यत्रेति क्वचिन्न” ↩︎
-
%20कुदो%20मे%20(कुतो%20म ↩︎
-
वा’%20इति%20काचित्कम् “वा’ इति काचित्कम् " ↩︎
-
%20क्वचिन्नाऽयं%20पाठः%20। " क्वचिन्नाऽयं पाठः ।” ↩︎
-
%20क्वचिन्नाऽयं%20पाठः। " क्वचिन्नाऽयं पाठः।” ↩︎
-
%20’रुदिहि’%20। " ‘रुदिहि’ ।” ↩︎
-
%20’अय%20खल्वीदृशश्चन्दनरस%20एभिः।%20पा०। " ‘अय खल्वीदृशश्चन्दनरस एभिः। पा०।” ↩︎
-
‘अमीभिर्न%20ते%20हृदयस्य%20सन्तापमपनयति’%20पा “‘अमीभिर्न ते हृदयस्य सन्तापमपनयति’ पा” ↩︎
-
क्वचिन्न। “क्वचिन्न।” ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
-
%20कहिं%20खु%20दे%20ग%20धीरतणं%20%5B%20क्व%20नु%20खलु%20ते%20गतं%20धीरत्वं%20%5D%20पा०। " कहिं खु दे ग धीरतणं [ क्व नु खलु ते गतं धीरत्वं ] पा०। " ↩︎
-
शशाङ्कधवलाः’%20इति%20पा०। “शशाङ्कधवलाः’ इति पा०।” ↩︎
-
%20’येनाऽभिधत्ते’%20पा०। " ‘येनाऽभिधत्ते’ पा०।” ↩︎
-
विचिन्त्येति%20क्वचिन्न। “विचिन्त्येति क्वचिन्न।” ↩︎
-
‘%20अथवा,%20न%20सम्यहं%20ब्रवीमि।%20वयस्यात्रेय%20!%20स्त्रीहृदयेन’%20इति%20पा०। “’ अथवा, न सम्यहं ब्रवीमि। वयस्यात्रेय ! स्त्रीहृदयेन’ इति पा०।” ↩︎
-
महन्तो%20अनेन%20हिअअस्त’%20आवेग%20%5B%20महाननेन%20हृदयस्यावेगः%5D “महन्तो अनेन हिअअस्त’ आवेग [ महाननेन हृदयस्यावेगः]” ↩︎
-
‘ता%20(जाव ↩︎
-
‘ऽस्मिन्नेव%20प्रदेशे%20दिवसशेषं%20समतिवाहयितुं%20पा०। “‘ऽस्मिन्नेव प्रदेशे दिवसशेषं समतिवाहयितुं पा०।” ↩︎
-
सुणीअदि%20%5Bश्रूयते%5D%20इति%20क्वचिन्न। “सुणीअदि [श्रूयते] इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
‘तुलस्सिदि%20%5B%5Bतुलयिष्यति%20%5D%20पा०। “‘तुलस्सिदि [[तुलयिष्यति ] पा०।” ↩︎
-
अयं%20पाठो%20न%20सार्वत्रिकः। “अयं पाठो न सार्वत्रिकः।” ↩︎
-
(सरोषं ↩︎
-
चेटी—(हस्तेन%20गृहीत्वा ↩︎
-
नायकः—वयस्य’%20इति%20पा०। “नायकः—वयस्य’ इति पा०। " ↩︎
-
‘विनोदयामीति’%20पा०। “‘विनोदयामीति’ पा०।” ↩︎
-
%20’शकलान्यानय’%20पा०। " ‘शकलान्यानय’ पा०।” ↩︎
-
‘निष्क्रम्य,%20प्रविश्य’। “‘निष्क्रम्य, प्रविश्य’।” ↩︎
-
%20वण्णओ%20%5Bवर्णकः%5D " वण्णओ [वर्णकः] " ↩︎
-
मए%20उण%20इज्जेव%20सुलहा%20पञ्चराणा%20वण्णआ%20आणोदेत%20!%20आलिहदु%20भवं।%5Bमया%20पुनरिहैव%20सुलभाः%20पञ्चरागिणोत्र%20र्णकाः%20समानीता%20इत्यालिखतुभवान्%5D%20पा०। “मए उण इज्जेव सुलहा पञ्चराणा वण्णआ आणोदेत ! आलिहदु भवं।[मया पुनरिहैव सुलभाः पञ्चरागिणोत्र र्णकाः समानीता इत्यालिखतुभवान्] पा०।” ↩︎
-
क्वचिन्न।%20’अप्पच्चक्खेबि%20एव्वं%20णाम%20रूअं%20लिहिअदि।%20अहो%20अच्छरिअं%20%5Bअप्रत्यक्षेऽप्येवं%20नाम%20रूपं%20लिख्यते।%20अहो%20आश्चर्यम्%20%5D%20पा०। “क्वचिन्न। ‘अप्पच्चक्खेबि एव्वं णाम रूअं लिहिअदि। अहो अच्छरिअं [अप्रत्यक्षेऽप्येवं नाम रूपं लिख्यते। अहो आश्चर्यम् ] पा०।” ↩︎
-
‘%20जाणिदं%20%5Bज्ञातं%20%5D%20’%20पा०।%20%5B%20उल्लापः%20%5D। “’ जाणिदं [ज्ञातं ] ’ पा०। [ उल्लापः ]।” ↩︎
-
‘उल्लाबो’। “‘उल्लाबो’।” ↩︎
-
‘अदो’%5Bअतः%20%5D%20पा०। “‘अदो’[अतः ] पा०।” ↩︎
-
कदाबिभट्टा%20%5Bकदाऽपि%20भर्चा%20%5D%20’%20पा०%20. “कदाबिभट्टा [कदाऽपि भर्चा ] ’ पा० .” ↩︎
-
‘आअच्छदि’।%20%5Bआगच्छति%20%7C%5D “‘आअच्छदि’। [आगच्छति ।]” ↩︎
-
‘ननु’%20इति%20क्वचिन्न%20%7C “‘ननु’ इति क्वचिन्न ।” ↩︎
-
कुमार’%20इति%20कचिन्न। “कुमार’ इति कचिन्न।” ↩︎
-
‘आसन्नभावात्सुपरीक्षितोंऽयम्।%20कुतोऽस्मायोग्य%20वरः,%20तदस्मै%20वत्सा’%20पा०। “‘आसन्नभावात्सुपरीक्षितोंऽयम्। कुतोऽस्मायोग्य वरः, तदस्मै वत्सा’ पा०।” ↩︎
-
%20’अन्यच्च’%20इति%20पाठान्तरम्। " ‘अन्यच्च’ इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
‘श्रुतञ्च%20यथा%20जीमूतवाहनो’%20पा०। “‘श्रुतञ्च यथा जीमूतवाहनो’ पा०।” ↩︎
- ↩︎
-
कदाइ%20एसो%20पेक्खे’%20%5B%20कदाचिदेष%20पश्येत्%20%5D।पा। “कदाइ एसो पेक्खे’ [ कदाचिदेष पश्येत् ]।पा।” ↩︎
-
%20’प्रविश्य’%20पा०। " ‘प्रविश्य’ पा०। " ↩︎
-
%20’इह%20स्थीयतां’%20पा०५ " ‘इह स्थीयतां’ पा०५” ↩︎
-
%20’आअदो%20भट्टा%20मिचावसू’%20%5B%20आगतो%20भर्चा%20मित्रावसुः%20%5D%20पा० " ‘आअदो भट्टा मिचावसू’ [ आगतो भर्चा मित्रावसुः ] पा०” ↩︎
-
भट्टा’%20’%5B%20भर्त्ता%20%5D%20इति%20क्वचिन्न। “भट्टा’ ‘[ भर्त्ता ] इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
%20’तातसन्देशेनास्मि%20त्वत्सकाशमागतः%20’%20पा०। " ‘तातसन्देशेनास्मि त्वत्सकाशमागतः ’ पा०। " ↩︎
-
%20’तादेन%20कुशलं%20सन्दिहुँ%20चि’%20%5B%20किं%20तातेन%20कुशलं%20सन्दिष्टमिति%20%5D%20पा०। " ‘तादेन कुशलं सन्दिहुँ चि’ [ किं तातेन कुशलं सन्दिष्टमिति ] पा०।" ↩︎
-
‘तात’%20पा०। “‘तात’ पा०।” ↩︎
-
‘तात%20!%20अस्ति%20मे%20दुहिता%20मलयवती%20नाम’%20पा०। “‘तात ! अस्ति मे दुहिता मलयवती नाम’ पा०।” ↩︎
-
‘प्रतिपादिता’%20पा०। “‘प्रतिपादिता’ पा०।” ↩︎
-
‘सह’%20पा०। “‘सह’ पा०।” ↩︎
-
%20’स्थिता’%20पा०। " ‘स्थिता’ पा०।" ↩︎
-
‘मा%20हस’। “‘मा हस’।” ↩︎
-
%20क्वचिदपि%20न। " क्वचिदपि न।" ↩︎
-
भो,%20जाणामि%20ण%20तं%20वजिअ%20दे%20अण्णस्तिं%20चित्तं%20अहिरमदि%20जधा,%20तधाजं%20किम्पिभणिअ’%20%5Bभो,%20जानामि%20नतां%20वर्जयित्वा%20तेऽन्यत्र%20चित्तमभिरमते%20यथा,%20तथा%20यत्किमपि%20भणित्वा%20विसृज्यतामेषः%5D%20पा०। “भो, जाणामि ण तं वजिअ दे अण्णस्तिं चित्तं अहिरमदि जधा, तधाजं किम्पिभणिअ’ [भो, जानामि नतां वर्जयित्वा तेऽन्यत्र चित्तमभिरमते यथा, तथा यत्किमपि भणित्वा विसृज्यतामेषः] पा०।” ↩︎
-
क%20इव’। “क इव’।” ↩︎
-
मिमं%20सम्बन्धम्’।%20पा० “मिमं सम्बन्धम्’। पा०” ↩︎
-
%C2%A0’प्रवर्त्तयितुं%20पा०। “‘प्रवर्त्तयितुं पा०।” ↩︎
-
ततो%20नाह’%20पा०। “ततो नाह’ पा०।” ↩︎
-
‘सरोषं%20विहस्य’%20पा०। “‘सरोषं विहस्य’ पा०। " ↩︎
-
%20’निष्क्रान्तो%20मित्रावसुः।%20पा०। " ‘निष्क्रान्तो मित्रावसुः। पा०।” ↩︎
-
‘आत्मगत’मिति%20क्वचिन्न। “‘आत्मगत’मिति क्वचिन्न। " ↩︎
-
%20’%20शरीरेण’%20पा०। " ‘शरीरेण’ पा०।” ↩︎
-
%20’घारिदेन%20(धारितेन ↩︎
-
%20’जाव%20इधएव’%20%5Bयावदिहैव%5D%20पा०। " ‘जाव इधएव’ [यावदिहैव] पा०।" ↩︎
-
%20’असो%20अपाअवे’%20%5B’अशोकपादपे’%5D%20पा०। " ‘असो अपाअवे’ [‘अशोकपादपे’] पा०।" ↩︎
-
एदमितिक्वाचित्कं।%20%5B’तदिदमेवंतावत्’%5D%20पा०। “एदमितिक्वाचित्कं। [‘तदिदमेवंतावत्’] पा०।” ↩︎
-
%20’विलक्षस्मितेन’%20पा०। " ‘विलक्षस्मितेन’ पा०। " ↩︎
-
%20’मित्तावसू%20गदो%20न%20वेति’%20%5Bमित्रावसुर्गतो%20न%20वेति%5D%20पा०। " ‘मित्तावसू गदो न वेति’ [मित्रावसुर्गतो न वेति] पा०।" ↩︎
-
‘चेटी–(कतिचित्पदानिगत्वा– ↩︎
-
“चेटी—(कतिचित्पदानि गत्वा ↩︎
-
‘तुए%20इध’%20%5Bत्वयेह%5D%20पा० “‘तुए इध’ [त्वयेह] पा०” ↩︎
-
%C2%A0ता%20अण्णस्सिंपि%20दाव%20जम्मे%20जइ%20ण%20%5B’तदन्यस्मिन्नपि%20तावज्जन्मनि%20यथा%20न’%5D%20पा०। “ता अण्णस्सिंपि दाव जम्मे जइ ण [‘तदन्यस्मिन्नपि तावज्जन्मनि यथा न’] पा०। " ↩︎
-
‘करेहि’%20%5Bकुरू%5D%20पा० “‘करेहि’ [कुरू] पा०” ↩︎
-
%C2%A0’परित्रायध्वं%20परित्रायध्वम्’%20पा०। “‘परित्रायध्वं परित्रायध्वम्’ पा०।” ↩︎
-
आक्षिपति’। “आक्षिपति’। " ↩︎
-
‘कार्यमीदृक्’%20पा०। “‘कार्यमीदृक्’ पा०।” ↩︎
-
%20’मेतत्पल्लवामं। " ‘मेतत्पल्लवामं।” ↩︎
-
हञ्जे%20!%20को%20उण%20एसो’%20%5Bहञ्जे%20!%20कः%20पुनरेषः%20%5D “हञ्जे ! को उण एसो’ [हञ्जे ! कः पुनरेषः ]” ↩︎
-
‘नायकम्’%20इति%20क्वचिन्नास्ति। “‘नायकम्’ इति क्वचिन्नास्ति।” ↩︎
-
%20’मिच्छन्ती " ‘मिच्छन्ती” ↩︎
-
%20’मे’%20इति%20क्वचिन्न। " ‘मे’ इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
%20 ↩︎
-
‘कथन्ते%20मुच्यते%20करः। “‘कथन्ते मुच्यते करः।” ↩︎
-
भोदु,%20कि%20उण%20से%20इस्स’%20%5B%20’भवतु,%20किंपुनरस्या%20अस्य’%20%5D। “भोदु, कि उण से इस्स’ [ ‘भवतु, किंपुनरस्या अस्य’ ]।” ↩︎
-
एतेनेति%20क्वचिन्न। “एतेनेति क्वचिन्न।” ↩︎
-
‘तस्याः। “‘तस्याः।” ↩︎
-
%20पक्षपातिना–प्रत्याख्यातस्य%20मित्रावसोर्नाहं%20प्रतीच्छामीति%20श्रुत्वा%20जातनिर्वेदया’%20पा०। " पक्षपातिना–प्रत्याख्यातस्य मित्रावसोर्नाहं प्रतीच्छामीति श्रुत्वा जातनिर्वेदया’ पा०।” ↩︎
-
%20’लेखाप्रसूतिः। " ‘लेखाप्रसूतिः।" ↩︎
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‘कष्टं%20मनाग्वञ्चितोऽस्मि’%20पा०। “‘कष्टं मनाग्वञ्चितोऽस्मि’ पा०।” ↩︎
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अनये’%20ति%20क्वचिन्न “अनये’ ति क्वचिन्न” ↩︎
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गदुअशिलातलं%20%5B%20गत्वा%20शिलातलं%20%5D। “गदुअशिलातलं [ गत्वा शिलातलं ]।” ↩︎
-
‘इस्तमाकर्षति’। “‘इस्तमाकर्षति’। " ↩︎
-
‘मया’ “‘मया’ " ↩︎
-
%20’शिलायामा%20लेख्यगता’। " ‘शिलायामा लेख्यगता’।” ↩︎
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‘%5Bकदलीपत्रमपनीय%20–%5D%20एसासे%20हिअअवल्लहा%20%5Bएषाऽस्य%20हृदयवल्लभा%20!%5D%20पा०। “’[कदलीपत्रमपनीय –] एसासे हिअअवल्लहा [एषाऽस्य हृदयवल्लभा !] पा०।” ↩︎
-
सोसारिच्छं%20%5B’ईदृशं%20सुसादृश्यं’%5D “सोसारिच्छं [‘ईदृशं सुसादृश्यं’]” ↩︎
-
‘इहैव%20शिलातले’%20पा०। “‘इहैव शिलातले’ पा०।” ↩︎
-
इमिणा%20इदं%20चित्तं%20दंसअन्तेण%20%5Bअमुना%20इदं%20चित्रं%20दर्शयता%5D%20पा०। “इमिणा इदं चित्तं दंसअन्तेण [अमुना इदं चित्रं दर्शयता] पा०।” ↩︎
-
%20’निर्वृत्त%20इदानी%20गान्धर्वो%20विवाहः।%20मुञ्चेदानीमस्था%20अत्रहस्तम्।%20एषाकापि’%20पा०। " ‘निर्वृत्त इदानी गान्धर्वो विवाहः। मुञ्चेदानीमस्था अत्रहस्तम्। एषाकापि’ पा०। " ↩︎
-
अयं%20पाठः%20क्वचिदेव%20दृश्यते। “अयं पाठः क्वचिदेव दृश्यते। " ↩︎
-
%20%5B%20प्रविश्य%20%5D%20चेटी–‘सहर्षे’%20(सहसा ↩︎
-
%20’%20भट्टिदारिए%20!%20पडिच्छिदा%20तुवं%20जीमूदवाहणस्स%20गुरुहि।%20%5B%20भर्त्तृदारिके%20!%20प्रतीष्टा%20त्वं%20जीमूतवाहनस्य%20गुरुभिः%20%5D। " ’ भट्टिदारिए ! पडिच्छिदा तुवं जीमूदवाहणस्स गुरुहि। [ भर्त्तृदारिके ! प्रतीष्टा त्वं जीमूतवाहनस्य गुरुभिः ]।” ↩︎
-
‘तां “‘तां” ↩︎
-
‘वयस्येन%20पुनरिव%20स्थातव्यं%20?।%C2%A0’इहैवाऽऽसितव्यं%20पा०। “‘वयस्येन पुनरिव स्थातव्यं ?।‘इहैवाऽऽसितव्यं पा०।” ↩︎
-
चकारः%20क्वचिन्न%20। “चकारः क्वचिन्न ।” ↩︎
-
‘नेपथ्ये’%20इत्येव%20प्रायः%20पाठः। “‘नेपथ्ये’ इत्येव प्रायः पाठः।” ↩︎
-
‘सिन्धूरधूलीकृत’। “‘सिन्धूरधूलीकृत’।” ↩︎
-
‘रङ्गनानामरुणमणिरणन्’ “‘रङ्गनानामरुणमणिरणन्’” ↩︎
-
‘कचिन्न’। “‘कचिन्न’।” ↩︎
-
%20’स्नापनकं’%20पा०। " ‘स्नापनकं’ पा०।” ↩︎
-
उज्ज्वलवेष’। “उज्ज्वलवेष’।” ↩︎
-
दो%20अबि%20%5Bद्वावपि%5D। “दो अबि [द्वावपि]।” ↩︎
-
%20’द्वावपि’। " ‘द्वावपि’।" ↩︎
-
%20’दत्तोत्पल’%20’नीलोत्पल’%20पा०। " ‘दत्तोत्पल’ ‘नीलोत्पल’ पा०।" ↩︎
-
‘णिच्चं%20विअ’%20%5B%20नित्यमिव%20%5D। “‘णिच्चं विअ’ [ नित्यमिव ]।” ↩︎
-
‘सस्थितानि। “‘सस्थितानि।” ↩︎
-
%20’परिस्खलन्’। " ‘परिस्खलन्’।" ↩︎
-
‘सहासं।’ “‘सहासं।’” ↩︎
-
भट्टका%20!%20ण%20दाव%20आअदा%20णोमालिआ%20%5B%20भट्ट%20!%20’न%20तावदागता%20नवमालिका’%20%5D%20। “भट्टका ! ण दाव आअदा णोमालिआ [ भट्ट ! ‘न तावदागता नवमालिका’ ] ।” ↩︎
-
‘पहरे%20%5B%20प्रहरे%20%5D।’ “‘पहरे [ प्रहरे ]।’ " ↩︎
-
%20’मङ्गलुच्छवे’%20%5B%20मङ्गकोत्सवे%20%5D। " ‘मङ्गलुच्छवे’ [ मङ्गकोत्सवे ]।” ↩︎
-
%20’प्रियप्रणयिनी’। " ‘प्रियप्रणयिनी’। " ↩︎
-
‘अनुभविष्यति’ “‘अनुभविष्यति’” ↩︎
-
प्रस्खलन्निष्क्र%20मितुमीहते’। “प्रस्खलन्निष्क्र मितुमीहते’। " ↩︎
-
%C2%A0एवं%20उय्याणं%20पविसदु%20भट्टओ’%20%5B%20एतदुद्यानं%20प्रविशतु%20भट्टकः%20%5D। “एवं उय्याणं पविसदु भट्टओ’ [ एतदुद्यानं प्रविशतु भट्टकः ]।” ↩︎
-
‘उभौ%20प्रविशतः। “‘उभौ प्रविशतः।” ↩︎
-
इत्थिविअ%20लम्बं%20परिहिअ%20%5Bस्त्रोव%20लम्बं%20लम्बं%20परिधाय%20%5D%20%7C%20पा०। “इत्थिविअ लम्बं परिहिअ [स्त्रोव लम्बं लम्बं परिधाय ] । पा०।” ↩︎
-
‘अभिभवन्ति। “‘अभिभवन्ति।” ↩︎
-
मुखे’। “मुखे’।” ↩︎
-
परावृत्तमुखः’। “परावृत्तमुखः’।” ↩︎
-
%20’कथमेकेषां%20मधुकराणां%20सकाशात्परिभ्रष्ट%20इदानीं%20%5D। " ‘कथमेकेषां मधुकराणां सकाशात्परिभ्रष्ट इदानीं ]।” ↩︎
-
%20’कुर्वन्’। " ‘कुर्वन्’।" ↩︎
-
%20एत्थ%20आगन्तव्वं%20ति%20%5Bअत्रागन्तव्यमिति%5D। " एत्थ आगन्तव्वं ति [अत्रागन्तव्यमिति]।" ↩︎
-
‘मात्रे’ति%20क्वचिन्न।%C2%A0 “‘मात्रे’ति क्वचिन्न।” ↩︎
-
‘च’%20इति%20क्वचिन्न। “‘च’ इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
‘रजनीविरहोत्कण्ठितं%20प्रियवयस्थं। “‘रजनीविरहोत्कण्ठितं प्रियवयस्थं।” ↩︎
-
%20’दासिए%20पुत्त%20मच्च%20वालअ’। " ‘दासिए पुत्त मच्च वालअ’।" ↩︎
-
क्वचिन्न।%C2%A0 “क्वचिन्न।” ↩︎
-
%20’एसा%20खुणोमालिआ’। " ‘एसा खुणोमालिआ’। " ↩︎
-
क्वचिन्न%20! “क्वचिन्न !” ↩︎
-
‘णयणेहि’%20%5Bनयनाभ्यां%20पश्यन्ती’%5D। “‘णयणेहि’ [नयनाभ्यां पश्यन्ती’]।” ↩︎
-
%20’अहं%20मन्दभाआए%20पुतो’।%20%5Bअहं%20मन्दभाग्यायाः%20पुत्रः%5D। " ‘अहं मन्दभाआए पुतो’। [अहं मन्दभाग्यायाः पुत्रः]।" ↩︎
-
%20’परिहससि। " ‘परिहससि।" ↩︎
-
‘विमुच्य’। “‘विमुच्य’।” ↩︎
-
%20’पतति’। " ‘पतति’। " ↩︎
-
‘भट्टा%20(भत्तो ↩︎
-
अवहसितः’। “अवहसितः’।” ↩︎
-
%20’शेखरक,%20त्वया%20कृतः%20परिहासः%20? " ‘शेखरक, त्वया कृतः परिहासः ?" ↩︎
-
‘%20मदवेगः’। “’ मदवेगः’। " ↩︎
-
‘परसदा%20%5B%20पार्श्वतः%20%5D। “‘परसदा [ पार्श्वतः ]।” ↩︎
-
%C2%A0’संमाणेमि%20%5B%20संमानयामि%20%5D “‘संमाणेमि [ संमानयामि ] " ↩︎
-
चेडअ,%20सुपूरिदं%20खु%20%5B%20चेटक,%20सुपूरितं%20खलु%20%5D। “चेडअ, सुपूरिदं खु [ चेटक, सुपूरितं खलु ]।” ↩︎
-
चेटश्चषकमुन्नयन्%20पूरणं%20नाट्येन%20करोति’%20पा। “चेटश्चषकमुन्नयन् पूरणं नाट्येन करोति’ पा। " ↩︎
-
%20’स्थित्वा’। " ‘स्थित्वा’।” ↩︎
-
उपनयति’। “उपनयति’।” ↩︎
-
‘पीत्वा’%20इति%20क्वचिन्न। “‘पीत्वा’ इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
%20’चोक्षित्वा। " ‘चोक्षित्वा।” ↩︎
-
एवं%20एदस्स%C2%A0%5Bदेह्येतमेतस्मै’%5D%20पा०। “एवं एदस्स[देह्येतमेतस्मै’] पा०।” ↩︎
-
%20आणवेदि%20%5Bआज्ञापयति%5D " आणवेदि [आज्ञापयति]” ↩︎
-
वड्ढिअरसं%20%5Bसंसर्गवर्द्धितरसं%5D। “वड्ढिअरसं [संसर्गवर्द्धितरसं]।” ↩︎
-
करिस्सं%20%5Bकरिष्यामि%5D%20’। “करिस्सं [करिष्यामि] ‘।” ↩︎
-
%20’करिष्यामि’। " ‘करिष्यामि’।" ↩︎
-
‘सविलक्षस्मितं%20कृत्वा’। “‘सविलक्षस्मितं कृत्वा’।” ↩︎
-
‘आवड्ढिअमाणं’। “‘आवड्ढिअमाणं’।” ↩︎
-
%20’कृष्यमाणं। " ‘कृष्यमाणं।" ↩︎
-
कति%20चिदुदाहर’। “कति चिदुदाहर’। " ↩︎
-
%20’वेदक्खराणि%20णट्टाणि%20%5Bवेदाश्चराणि%20नष्टानि%5D। " ‘वेदक्खराणि णट्टाणि [वेदाश्चराणि नष्टानि]।” ↩︎
-
‘एष%20ते%20ब्राह्मणः’। “‘एष ते ब्राह्मणः’।” ↩︎
-
%20%5B%20अय्य%20मा%20मा%20एव्वं%20कुरु%20%5D%20’आर्य%20!%20मा%20मैवंकुरु’ " [ अय्य मा मा एव्वं कुरु ] ‘आर्य ! मा मैवंकुरु’ " ↩︎
-
निष्क्रान्तो%20नवमालिकया%20विटः,%20चेटश्च’। “निष्क्रान्तो नवमालिकया विटः, चेटश्च’। " ↩︎
-
‘ख’लु’%20इति%20क्वचिन्न। “‘ख’लु’ इति क्वचिन्न।” ↩︎
-
रूबिणीं%20बिअवरलच्छों%20%5Bरूपिणीमिव%20वरलक्ष्मींमलयवतीं%C2%A0%5D। “रूबिणीं बिअवरलच्छों [रूपिणीमिव वरलक्ष्मींमलयवतीं]।” ↩︎
-
ता%20इह%20एव्व%20चिट्ठिस्सं%20(स्थितः ↩︎
-
%20क्वचिन्न।%C2%A0 " क्वचिन्न।” ↩︎
-
‘मलयवत्या’। “‘मलयवत्या’।” ↩︎
-
एतदन्तर्गतः%20पाठः%20क्वचिन्न। “एतदन्तर्गतः पाठः क्वचिन्न।” ↩︎
-
‘मलयवतीं%20पश्यन्’। “‘मलयवतीं पश्यन्’।” ↩︎
- ↩︎
-
%20’जाणादि%20ज्जेव%20%5Bजानात्येव%5D। ↩︎
-
‘आदेशय%20कुसुमाकरोद्यानस्य%20मार्गम्। “‘आदेशय कुसुमाकरोद्यानस्य मार्गम्। " ↩︎
-
%20’भट्टिदारओ%20%5B%20भर्च,%20दारकः’%20%5D। " ‘भट्टिदारओ [ भर्च, दारकः’ ]।” ↩︎
-
‘परिक्रमन्’%20पा०। “‘परिक्रमन्’ पा०।” ↩︎
-
‘श्राम्यत्यूरु’। “‘श्राम्यत्यूरु’।” ↩︎
-
‘नूपुरौ’। “‘नूपुरौ’।” ↩︎
-
भर्त्तृदारकः। “भर्त्तृदारकः।” ↩︎
-
%20’मण्डपं’। " ‘मण्डपं’।" ↩︎
-
‘कुरुते’। “‘कुरुते’।” ↩︎
-
%20’वेगाद्गलति’। " ‘वेगाद्गलति’।" ↩︎
-
‘हेलाइत’। “‘हेलाइत’।” ↩︎
-
‘चिराद्%20दृष्टोऽसि%20पा०। “‘चिराद् दृष्टोऽसि पा०।” ↩︎
-
‘चिराद्दृष्टोऽसि’। “‘चिराद्दृष्टोऽसि’।” ↩︎
-
%20’अम्मी’%20ति%20क्वचिन्न। " ‘अम्मी’ ति क्वचिन्न।" ↩︎
-
‘किंन्दु%20इअन्तं%20कालं%20विवाहमङ्गलूस्सवमिलितसिद्धविजाहरापाणदंसणकोदूहलेण%20परिभमन्तोण%20लक्खिदो।%20ता%20पिअवअस्सो%20वि%20दाव%20एवं%20पेक्खदु।%20%5Bकिन्त्वियन्तं%20कालं%20विवाहमङ्गलोत्सवमिलितसिद्धविद्याधराऽऽपानदर्शन%20कौतूहलेन%20परिभ्रमन्न%20लक्षितः।%20तत्प्रियवयस्योऽपि%20तावदेवत्पश्यतु’ “‘किंन्दु इअन्तं कालं विवाहमङ्गलूस्सवमिलितसिद्धविजाहरापाणदंसणकोदूहलेण परिभमन्तोण लक्खिदो। ता पिअवअस्सो वि दाव एवं पेक्खदु। [किन्त्वियन्तं कालं विवाहमङ्गलोत्सवमिलितसिद्धविद्याधराऽऽपानदर्शन कौतूहलेन परिभ्रमन्न लक्षितः। तत्प्रियवयस्योऽपि तावदेवत्पश्यतु’ " ↩︎
-
‘%20एवं%20यथाह%20मवान्’। “’ एवं यथाह मवान्’।” ↩︎
-
‘समन्तादवलोकयन्’। “‘समन्तादवलोकयन्’।” ↩︎
-
अयं%20पाठः%20क्वचिन्न%20। “अयं पाठः क्वचिन्न ।” ↩︎
-
“‘स्निग्धाङ्का’ पा०। " ↩︎
-
“‘सिद्धगणै’।” ↩︎
-
“‘वयमपि तमालवीथि’।” ↩︎
-
“‘परिक्रामति’।” ↩︎
-
“’ एदं चन्दणलतामण्डवं। एदं च सरदादवपरिखेदिअं विअ तत्तहोदीए वदणं लक्खीअदि। ता इह फडिअ सिलादले उपविसदु [ एतच्चन्दनलतामण्डपम्। एतच्च शरदातपपरिखेदितमिव तत्र भवत्या वदनं लक्ष्यते। तदिह स्फटिक शिलातले उपविशतु’ ] पा०।” ↩︎
-
“‘तापानुरक्त’।” ↩︎
-
" अयं पाठः क्वचिन्न।” ↩︎
-
“दर्शनेति क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘खेदिता। कुतः’ पा० " ↩︎
-
" ‘लतोद्भासि’।” ↩︎
-
“‘भट्टिदारिअ कहं बण्णेदि। [ भर्तृदारिकां कथं वर्णयति’ ] । ‘सुदं तुए, भट्टिदारिआं कहं वण्णिदेति। [ श्रुतं त्वया भर्तृदारिका कथं वर्णितेति’ ] पा. " ↩︎
-
“इयं विदूषकोक्तिः क्वचिदेव दृश्यते एतत्स्थाने - ‘कथं वर्णितेति’ एतदग्रे ‘आर्य पुनरहं त्वां वर्णयामि’ इत्येव’ क्वचित्पाठः।” ↩︎
-
“‘आर्य ! पुनरहं त्वां वर्णयामि’। ‘अहं ते वर्णयामि’।” ↩︎
-
“क्वचिन्न। " ↩︎
-
“‘जागरणे निद्रायमाणोनिमीलिताक्षः शोभनो दृष्टः। तदेवमेव तिष्ठ’ पा०।” ↩︎
-
" ‘आत्मगतं।” ↩︎
-
“यावन्नीली’।” ↩︎
-
“उत्थाय पल्लवग्रहणं कृत्वा निप्पीडनं च नाटयति।” ↩︎
-
“‘विदूषकं पश्यतः। " ↩︎
-
" ’ यदस्मातु तिष्ठत्सु त्वमेवं वर्ण्यसे पा” ↩︎
-
“अत्र—’[चेटी - तमालपल्लवस्य रसेन विदूषकस्य मुखं नाट्येन कालीकरोति ]।[ नायिका - सस्मितं विदूषकं दृष्ट्वा नायकं पश्यति ]’ इति पाठान्तरम्।” ↩︎
-
" क्वचिन्न।” ↩︎
-
“‘फलन्तु जातं मुग्वाक्षि ! पश्यतश्चक्षुषोर्मम। पा०।” ↩︎
-
“निर्द्दिश्य’। " ↩︎
-
" निष्क्रामति’।” ↩︎
-
“किं मां’।” ↩︎
-
“‘निर्द्दिश्य’। " ↩︎
-
“एवमेकाकिनी चिरं भव’ पा०।” ↩︎
-
“‘मुखमन्यतो नयति’” ↩︎
-
“चेटी [ सहसोपसृत्य ]।” ↩︎
-
“अज्जेति क्वचिन्न” ↩︎
-
“’ केणविकज्जन्तरेण’ [केनापि कार्यान्तरेण] ‘कज्जेण केणवि’ [ कार्येण केनापि ] पा०।” ↩︎
-
“पेक्खिदुमिच्छति [प्रेक्षितुमिच्छति ] पा०। " ↩︎
-
“चेटीसहिता निष्क्रान्ता नायिका’।” ↩︎
-
“तं समर्थः।” ↩︎
-
“तव हृतं।” ↩︎
-
“तथाप्यनिवेद्याऽयुक्तरूपं गमनमिति निवेद्य गच्छामि। [ उपसर्पति” ↩︎
-
“अयं पाठः क्वचिन्न।” ↩︎
-
“इहास्यतां। " ↩︎
-
“संरब्ध इव’। " ↩︎
-
“‘युष्मदीयं किल’।” ↩︎
-
“मित्रावसुः – ‘तदुच्छित्तये मामाज्ञापयतु कुमारः। पा०।” ↩︎
-
“हहह !” ↩︎
-
“दद्यादयाचितः’।” ↩︎
-
“शत्रुबुद्धिरेव मे’।” ↩︎
-
“यदि तेऽस्मत्प्रियं कर्त्तुमीहा’।” ↩︎
-
“सहास’ मिति क्वचिन्न” ↩︎
-
“कथं नानुकम्प्यते, यादृशोऽसावस्माकमुपकारी करणश्च’ पा०।” ↩︎
-
“नायक : - (स्वगतं ↩︎
-
“आत्मगतम्।” ↩︎
-
“चेतास्तावदसौ नशक्यते’” ↩︎
-
“तत्रच त्वां बोधयिष्यामि’।” ↩︎
-
“साम्प्रतं’” ↩︎
-
“पद्मकोषात् ’ पा०।” ↩︎
-
“पदे पदेऽहं।” ↩︎
-
“पश्यन्’ पा०।” ↩︎
-
“उद्गर्जज्जलकुञ्जरेन्द्र’ पा०। " ↩︎
-
“प्रतिध्वानिताः।” ↩︎
-
“शङ्खघवला’ पा०” ↩︎
-
“सागरजलपूरं रसातला’।” ↩︎
-
“प्रतिदिनमेकैकं नागमाहारयति’ पा०।” ↩︎
-
“रुपागतं’ पा० ।” ↩︎
-
“मातुरश्रूणि’ पा० ।” ↩︎
-
“करिष्यति’।” ↩︎
-
“सोमसोम्य’ पा०।” ↩︎
-
“‘मद्विधा’।” ↩︎
-
“’ कक्ष्याणां’ !” ↩︎
-
“‘चञ्चञ्चञ्च् प्रकृत्त’ पा०।” ↩︎
-
“शमित’ पा०। " ↩︎
-
" ‘वसामांसविस्रे’ पा०।” ↩︎
-
“इयं सकलैव वृद्धोक्तिः क्वचिन्न। असङ्गतश्चाऽयं पाठः, अग्रिमप्रसङ्गेन सहविरुद्धत्वात्।” ↩︎
- ↩︎
-
“‘तीरे वेगान्निरस्तं क्षिपति पा० ।” ↩︎
-
" ‘प्लावनायाम्बुसिन्धोः’ पा० ।” ↩︎
-
“‘देहाद्द्द्योतैर्दशाशाः’।” ↩︎
-
“‘शिशुद्वादशादित्यदीप्तिः’।” ↩︎
-
“‘मनो’ ।” ↩︎
-
" ‘स्पृष्टा’” ↩︎
-
“‘दृष्ट्वा बिम्ब’ पा०।” ↩︎
-
“‘परोपकाराय शरीरलाभः’, ‘परार्थहेतोः खलु देहलाभः’ पा० ।” ↩︎
-
“‘सर्पाशिनाशङ्कां’ पा०।” ↩︎
-
" ‘तैरङ्गतरले’।” ↩︎
-
“‘स्फुरितमिहायं करिष्यते भानुः।” ↩︎
-
“‘उत्पातकाल पा०।” ↩︎
-
“क्वचिन्नाऽयं श्लोकः, किन्त्वेतत्स्थाने – ‘तार्येण भक्ष्यमाणानां नागाधिपानामनेके नखमुखोत्खाताः पतन्त्येते शिरोमणयः’ इति पा०।” ↩︎
-
“‘गह्वरे नीलरूपां’ पा०।” ↩︎
-
“‘अरुणवदनः’ पा०।” ↩︎
-
“‘ऽद्रेःशिलाः” ↩︎
-
“‘पश्यामि च ते महात्मनू’ पा० ।” ↩︎
-
“अत्र ‘नालोक्यते’ इति सर्वत्र मुद्रितस्य पाठस्य स्थाने ‘नालाकितः कञ्चुको ’ इत्येव पाठो भाति, पूर्वोत्तरसाहचर्यात्। त्वया कञ्चुकोऽपि सर्पचिह्नरूपः कदाचिन्नालोकितो भवेदिति चाऽर्थः।” ↩︎
-
" ‘मरुत्स्फाराः’ ‘मरुत्पीडाः पा० ।” ↩︎
-
“‘दिक्कुञ्जेषु च तेषु’ पा०।” ↩︎
-
“‘मत्परिष्वङ्गं परित्यज्याऽपि गतोऽसि पा०।” ↩︎
-
“‘प्रेक्षस्व’ पा०।” ↩︎
-
" ‘कथं न तापाच्छतधाव्रजामि’ पा०।” ↩︎
-
" ‘पश्यन्त्यद्यापि’।” ↩︎
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“‘परिणतं प्राणिहिंसासमुत्थं पा०।” ↩︎
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“‘दुर्गाचे वारिपूरे’।” ↩︎
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“‘पाताललग्नान्’ पा०।” ↩︎
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“‘नूनमास्ते’ पा०।” ↩︎
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“‘सुचेतनत्वं’ ।‘सचेतनत्वं’ पा०।” ↩︎
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“‘मद्य पुण्यं पा०।” ↩︎
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" ‘संरक्षता पन्नगमेव पुण्यं मयाऽर्जितं यत्स्वशरीरदानात्। भवे भवे तेन ममैवमेवं भूयात्परार्थःखलुदेहलाभः ॥ (४अ. २६श्लो. ↩︎
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" ‘पक्षेः पीत्वाऽम्बुनाथं पटुतरजवनः, प्रेर्यमाणः समीरैः पा०। ‘पटुतरपवनः’। ‘पक्षैः क्षिप्त्वाऽम्बुनाथं’ ।‘पटुजव’ ‘पटुतरजवनः’।‘पवनप्रेर्यमाणैः समीरैः पा०।” ↩︎
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“‘दण्डानाजी निर्जित्य देवान्’ पा०।” ↩︎
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“‘शारदशशाङ्के’ त्यादि कचिन्न।” ↩︎
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“श्लोकोऽयं न सार्वत्रिक इति शिवम्।” ↩︎