वाणिज्यविभागाः

तच् च वाणिज्यं सप्त-विधम्
अर्थागमाय स्यात् ।
तद् यथा -
गान्धिक-व्यवहारः, +++(परस्मिन्)+++ निक्षेप-प्रवेशः,
गोष्ठिक+++(←गोस्थान/मनुष्य-समिति)+++-कर्म ,
परिचित-ग्राहकागमः +++(अन्यत्र क्रयणाय)+++,
मिथ्या-क्रय-कथनम् +++(यतः स्व-समुदाये लोभो गर्हितः)+++,
कूट-तुला-मानम्,
देशान्तराद् भाण्डानयनं चेति ।
उक्तं च -

हिन्दी

धन की प्राप्ति के लिए सात प्रकार का वाणिज्य होता है । जैसे -
( १ ) सुगन्धित द्रव्यों जड़ी-बुटी आदि का व्यवसाय,
(२) निक्षेप-प्रवेश- अर्थात् दूसरे की वस्तु धरोहर रखना
और उसे उसके बदले व्याज पर रुपया देना,
( ३ ) गोष्ठिक ( गाय से सम्बन्धित ) कर्म
अथवा गोष्ठिक कर्म अर्थात् समाज सम्बन्धी कर्म
( समाज में मुखिया बनकर न्यायान्याय का विचार ‘सामाजिक सेवा’ करना )
( ४ ) परिचित ग्राहकों को खींचना,
(५) विक्री करते समय थोड़े मूल्य में खरीदी चीज का अधिक मूल्य बताना,
( ६ ) तराजू तौलने में चालबाजी करना और
( ७ ) दूसरे देश से वरंतन आदि वस्तुओं को लाना ।

कहा गया है कि-

पण्यानां गान्धिकं पण्यं
किम् अन्यैः काञ्चनादिभिः ।
यत्रैकेन च यत् क्रीतं
तच् छतेन प्रदीयते +++(विक्रेतृ-नैयून्यात्)+++ ॥ १३॥

हिन्दी

बेचने योग्य वस्तुओं में, सुगन्धित द्रव्यों, जड़ी-बूटी आदि का व्यापार सर्वोत्तम होता है, क्योंकि एक का खरीद कर सी का बेचा जाता है, तब अन्य सुवर्ण आदि वस्तुओं के व्यापार से क्या लाभ ।। १३ ।।

निक्षेपे पतिते हर्म्ये श्रेष्ठी स्तौति स्व-देवताम् ।
“निक्षेपी म्रियते तुभ्यं प्रदास्याम्य् उपयाचितम्” ॥ १४॥ +++(४)+++

हिन्दी

धरोहर घर में आ जाने पर सेठ अपने कुलदेवता से प्रार्थना करता है कि यदि धरोहर रखने वाला मर जाय तो मैं आपकी अभिलषित वस्तु से पूजा करूंगा ।। १४ ।।

गोष्ठिक-कर्म-नियुक्तः
श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः ।
वसुधा वसु-संपूर्णा
मयाद्य लब्धा किम् अन्येन ॥ १५॥

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गोष्ठिक कर्म ( गाय-बैल के व्यापार में लगा हुआ सेठ प्रफुल्लित मन से विचार करता है कि धन से परिपूर्ण पृथ्वी की प्राप्ति मैंने आज की है । मुझे अब अन्य वस्तु से क्या प्रयोजन है ।। १५ ।।

परिचितम् आगच्छन्तं
ग्राहकम् उत्कण्ठया विलोक्यासौ ।
हृष्यति तद्-धन-लब्धो
यद्वत् पुत्रेण जातेन ॥ १६॥

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परिचित ग्राहकों को आते हुए उत्कण्ठा से देखकर व्यापारी उसके धन पर आँख गड़ा कर इस प्रकार प्रसन्न होता है,
जिस प्रकार उसके यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ हो ।। १६ ।।

अन्यच् च -

हिन्दी

और भी—

पूर्णापूर्णे माने
परिचित-जन-वञ्चनं तथा नित्यम् ।
मिथ्या-क्रयस्य कथनं
प्रकृतिर् इयं स्यात् किरातानाम् ॥ १७॥

हिन्दी

और भी कम और पूरा तोल कर
प्रतिदिन परिचित लोगों को ठगना
और असत्य भाव बतलाना -
यह किरातों ( किराना के व्यापारियों या जङ्गलियों ) का स्वभाव है ।। १७॥

द्विगुणं त्रिगुणं वित्तं भाण्ड-क्रय-विचक्षणाः ।
प्राप्नुवन्त्य् उद्यमाल् लोका दूर-देशान्तरं गताः ॥ १८॥

हिन्दी

बरतनों के बेचने में चतुर मनुष्य दूसरे दूर देश में जाकर उद्योग द्वारा दूना तिगुना धन प्राप्त कर लेते हैं ॥ १८ ॥