तत् प्रभूतेऽपि वित्ते,
ऽर्थोपायाश् चिन्तनीयाः कर्तव्याश् चेति । यत उक्तं च -
हिन्दी
धन का आधिक्य हो जाने पर भी धनप्राप्ति का उपाय सोचना और करना ही चाहिये । क्योंकि कहा भी है –
न हि तद् विद्यते किंचिद्
यद् अर्थेन न सिध्यति ।
यत्नेन मतिमांस् तस्माद्
अर्थम् एकं प्रसाधयेत् ॥ २॥
हिन्दी
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो धन द्वारा सिद्ध न होती हो, इसलिए बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये कि यत्न के साथ केवल धन का उपार्जन करे ॥ २ ॥
यस्यार्थास् तस्य मित्राणि
यस्यार्थास् तस्य बान्धवाः ।
यस्यार्थाः स पुमाल्ँ लोके
यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥ ३॥ +++(५)+++
हिन्दी
जिसके पास धन है उसी के मित्र होते हैं ! जिसके पास धन है उसी के बन्धु होते हैं । जिसके पास घन रहता है वही इस संसार में पुरुष है और जिसके पास धन है वही पण्डित ( सदसद्विवेकशील ) समझा जाता है ॥ ३ ॥
न सा विद्या न तद् दानं
न तच् छिल्पं न सा कला ।
न तत् स्थैर्यं हि धनिनां
याचकैर् यन् न गीयते ॥ ४॥ +++(५)+++
हिन्दी
न कोई ऐसी वह विद्या है, न वह दान है, न वह कारीगरी है, न वह कला है, न वह स्थिरता है, जिसे धनिकों में याचकगण न कहते हों (अर्थात् विद्या आदि समस्त गुण धनिकों में ही कहे जाते हैं ) ॥ ४ ॥
इह लोके हि धनिनां
परोऽपि स्व-जनायते ।
स्व-जनोऽपि दरिद्राणां
सर्वदा दुर्-जनायते ॥ ५॥ +++(५)+++
हिन्दी
इस संसार में अनात्मीय लोग भी धनियों के आत्मीय ( सम्बन्धी ) हो जाते हैं, किन्तु दरिद्र पुरुष के अपने कुटुम्बी भी सर्वदा दुर्जन के समान व्यवहार करने लगते हैं ॥ ५ ॥
अर्थेभ्यो ऽपि हि वृद्धेभ्यः
संवृत्तेभ्य इतस् ततः ।
प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः
पर्वतेभ्य इवापगाः ॥ ६॥ +++(र५)+++
हिन्दी
जिस प्रकार पर्वतों से ही सब नदियाँ निकल कर समस्त कार्य पूर्ण करती हैं, उसी प्रकार इधर-उधर से इकट्ठा कर बढ़ाये हुए धन से ही समस्त लौकिक क्रियाओं की प्रवृत्ति होती है ॥ ६ ॥
पूज्यते यद् अ-पूज्यो ऽपि
यद् अ-गम्योऽपि गम्यते ।
वन्द्यते यद् अवन्द्यो ऽपि
स प्रभावो धनस्य च ॥ ७॥ +++(५)+++
हिन्दी
यह धन का ही प्रभाव है जो कि – अपूज्य भी पूजित होता है, न जाने योग्य के यहां भी जाया जाता है और प्रणाम न करने के योग्य भी व्यक्ति लोगों से प्रणम्य हो जाता है ॥ ७ ॥
अशनाद् इन्द्रियाणीव
स्युः, कार्याण्य् अखिलान्य् अपि ।
एतस्मात् कारणाद् वित्तं
सर्व-साधनम् उच्यते ॥ ८॥ +++(४)+++
हिन्दी
जिस प्रकार भोजन करने से समस्त इन्द्रियां सबल होती हैं, उसी प्रकार समस्त कार्य धन से ही सम्पन्न होते हैं, इसलिए घन सर्वसाधन कहलाता है ॥८॥
अर्थार्थी जीव-लोको ऽयं
श्मशानम् अपि सेवते ।
त्यक्त्वा जनयितारं स्वं
निः-स्वं गच्छति दूरतः ॥ ९॥ +++(४)+++
हिन्दी
धन की अभिलाषा से प्राणी श्मशान ( मुर्दा जलाने का स्थान ) का मी सेवन करता है, और वही प्राणी अपने उत्पन्न करनेवाले निर्धन पिता को भी छोड़ कर दूर चला जाता है ॥ ९ ॥
गत-वयसाम् अपि पुंसां
येषाम् अर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थेन तु ये विहीना
वृद्धास् ते यौवनेऽपि स्युः ॥ १०॥ +++(४)+++
हिन्दी
वृद्ध पुरुषों में भी जिनके पास धन है वे तरुण हैं । किन्तु जो धनहीन हैं वे युवावस्था में भी वृद्ध हो जाते हैं ॥ १० ॥