स चार्थः पुरुषाणां
षड्भिर् उपायैर् भवति -
भिक्षया, नृप-सेवया, कृषि-कर्मणा,
विद्योपार्जनेन, व्यवहारेण+++(=ऋण-दानम्)+++, वणिक्-कर्मणा वा ।
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वह धन मनुष्यों को छः उपायों से मिलता है– ( १ ) भिक्षा (२ राजजीय सेवा (नौकरी) (३) खेती के कार्य ( ४ ) विद्योपार्जन ( ५ ) व्यवहार ( लेनदेन ) और (६.) वाणिज्य ( धनियों के कर्म, व्यापार ) द्वारा ।
सर्वेषाम् अपि तेषां
वाणिज्येनातिरस्कृतो ऽर्थ-लाभः स्यात् ।
उक्तं च यतः -
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इन सब में वाणिज्य द्वारा अपमानरहित धनलाभ होता है । क्योंकि कहा भी है–
कृता भिक्षा ऽनेकैर्, वितरति नृपो नोचितम् अहो
कृषिः क्लिष्टा, विद्या गुरु-विनय-वृत्त्या ऽतिविषमा ।
कुसीदाद्+++(=ऋण-दानात्)+++ दारिद्र्यं पर-कर-गत-ग्रन्थि-शमनान्,
न मन्ये वाणिज्यात् किम् अपि परमं वर्तनम् इह ॥ ११॥ +++(४)+++
+++(शिखरिणी)+++
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अनेक पुरुषों के घरों से भिक्षा प्राप्त की जाती है । सेवा करने पर राजा भी उचित वृत्ति नहीं देता, ओरों की तो बात ही क्या पूर्ण है, विद्या गुरु की विनयवृत्ति द्वारा बड़ी विषम है, कृषिकर्म क्लेश से परि- व्याज से भी दरिद्रता होती है, क्योंकि अपना धन दूसरे के हाथों में जाने से ग्रन्थिशमन ( पूँजी गायब ) का सन्देह बना रहता है । इसलिये वाणिज्य कर्म से बढ़कर और किसी को मैं जीवनोपाय का साधन नहीं मानता ॥ ११ ॥
उपायानां च सर्वेषाम्
उपायः पण्य-संग्रहः ।
धनार्थं शस्यते ह्य् एकस्
तद्-अन्यः संशयात्मकः ॥ १२॥
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समस्त उपायों में बेचने योग्य वस्तुओं का संग्रह ( वाणिज्य ) ही एक धनप्राप्ति का उत्तम उपाय है, इसके अतिरिक्त अन्य सब संशयात्मक हैं ।। १२ ।।