मङ्गलाशासनम्
ब्रह्मा रुद्रः कुमारो हरि-वरुणयमा वह्निर् इन्द्रः कुबेरश्
चन्द्रादित्यौ सरस्वत्य्-उदधि-युग-नगा वायुर् उर्वी भुजङ्गाः ।
सिद्धा नद्योऽश्विनौ श्रीर् दितिर् अ-दिति-सुता मातरश् चण्डिकाद्याः ।
वेदास् तीर्थानि यज्ञा+++(/यक्षा)+++ गण-वसु-मुनयः पान्तु नित्यं ग्रहाश् च ॥
हिन्दी
विष्णुशर्मा ग्रन्थारम्भ में निर्विघ्न ग्रन्थसमाप्ति के लिए मङ्गलाचरण करते हैं - ब्रह्मा इत्यादि । ब्रह्मा, महेश, कार्तिकेय, विष्णु, वरुण, यम, अग्नि, इन्द्र, कुबेर, चन्द्र, सूर्य, सरस्वती, समुद्र, युग ( कृत, त्रेता, द्वापर, कलि ), पर्वत, वायु, पृथ्वी, वासुकि आदि नागराज, कपिलादि सिद्ध, नदी, अश्विनीकुमार ( यमल, स्ववैद्य), लक्ष्मी, दिति, अदितिपुत्र देवता, चण्डिकाप्रभृति माताएँ, वेद ( ऋक्, युजुः साम. अथर्व ), तीर्थ - काशी · प्रयागादि, यज्ञ - अश्वमेघादि, गण- प्रमथादि, वसु ( घर, ध्रुव, सोम, विष्णु, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभास .), मुनि- व्यासादि और ग्रह - सूर्यादि, नव, ये सब नित्य हम लोगों की रक्षा करें ॥१॥
मनवे वाचस्-पतये
शुक्राय पराशराय ससुताय ।
चाणक्याय च विदुषे
नमोऽस्तु नय-शास्त्र-कर्तृभ्यः ॥ १॥
हिन्दी
मनु, बृहस्पति, शुक्राचार्य, पुत्र ( व्यास ) के सहित पराशरमुनि, विद्वान्- चाणक्य तथा नीतिशास्त्र के बनानेवालों के प्रति मेरा नमस्कार है ॥ २ ॥
सङ्कल्पः
स-कलार्थ-शास्त्र-सारं
जगति समालोक्य विष्णु-शर्मेदम् ।
तन्त्रैः पञ्चभिर् एतैश् +++(/एतच्)+++
चकार सुमनोहरं शास्त्रम् ॥ २॥
हिन्दी
इस ग्रन्थ की मौलिकता सिद्ध करने के लिए कहते हैं-सकलार्थ इत्यादि । इस संसार में उपलब्ध सम्पूर्ण निष्कर्ष की समालोचना कर मैंने ( विष्णुशर्मा ने ) पाँच तन्त्रों से युक्त इस मनोहर शास्त्र को बनाया है ॥ ३ ॥
राजसमस्या
तद् यथा ऽनुश्रूयते +++(क५)+++-
अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे
महिलारोप्यं नाम नगरम् ।
तत्र सकलार्थि-(सार्थ-)कल्पद्रुमः प्रवर-नृप-मुकुट-मणि–मरीचि-चय–चर्चित-चरण-युगलः
सकल-कला-पारङ्गतो
ऽमर-शक्तिर् नाम राजा बभूव ।
हिन्दी
इस प्रकार सुना जाता है कि दक्षिण देश में महिलारोप्य नाम का नगर था । वहाँ समस्त याचकों के लिए कल्पवृक्ष के समान उच्चतम राजाओं की मुकुटमणियों के किरणसमूह से पूजित चरणयुगलवाला और समग्र कलाओं का पारदर्शी अमरशक्ति नाम का राजा था।
तस्य त्रयः पुत्राः परम-दुर्-मेधसो
वसु-शक्तिर् उग्र-शक्तिर् अनेक-शक्तिश्
चेति-नामानो बभूवुः ।
हिन्दी
उसके परम मूर्ख तीन पुत्र हुए, जिनके नाम थे - बहुशक्ति, उग्रशक्ति और अनन्तशक्ति |
अथ राजा तान् शास्त्र-विमुखान् आलोक्य
सचिवान् आहूय प्रोवाच -
भोः, ज्ञातम् एतद् भवद्भिर्
यन् ममैते त्रयोऽपि पुत्राः
शास्त्र-विमुखा विवेक-हीनाश् च ।
तद् एतान् पश्यतो
मे महद् अपि राज्यं
न सौख्यम् आवहति ।
अथवा साध्व् इदम् उच्यते -
हिन्दी
उन पुत्रों को शास्त्र से विमुख देखकर राजा ने मन्त्रियों को बुलाकर कहा—‘यह तो आप लोगों को विदित ही है कि ये मेरे पुत्र शास्त्रज्ञान से विमुख तथा विवेकशून्य हैं। इसलिए इन्हें देखते हुए मुझे यह विशाल राज्य भी आनन्द नहीं देता ।’ अथवा यह किसी ने ठीक ही कहा है–
अ-जात–मृत–मूर्खेभ्यो
मृताजातौ सुतौ वरम् ।
यतस् तौ स्वल्प-दुःखाय
यावज्-जीवं जडो दहेत् ॥ ३॥ +++(र४)+++
हिन्दी
उत्पन्न ही नहीं हुए, उत्पन्न होकर मर गये एवं मूखं - इन तीन पुत्रों में से उत्पन्न ही न हुए और उत्पन्न होकर मर गये ये दोनों बल्कि अच्छे हैं क्योंकि वे अत्यन्त अल्प दुःख देनेवाले होते हैं, किन्तु अन्तिम मूखं पुत्र तो जीवनपर्यन्त सन्ताप ही देता रहता है ॥ ४ ॥
वरं गर्भ-स्रावो, वरम् ऋतुषु नैवाभिगमनं
वरं जातः प्रेतो, वरम् अपि च कन्यैव जनिता ।
वरं वन्ध्या भार्या, वरम् अपि च गर्भेषु वसतिर्
न चाविद्वान् रूप-द्रविण-गुण-युक्तोऽपि तनयः ॥ ४॥ +++(४)+++
हिन्दी
बल्कि गर्म का पतन हो जाना अच्छा है, ऋतुकाल में स्त्री के पास न जाना अच्छा है, किसी प्रकार सन्तति के उत्पन्न होने पर उसका तत्काल ही मर जाना अच्छा है, अथवा पुत्र न होकर कन्या का ही जन्म होना अच्छा है, स्त्री का वन्ध्या होना या सन्तान का गर्भ में ही रहना अच्छा है, किन्तु रूप-सम्पत्ति- गुण-सम्पन्न होता हुआ भी मूर्ख पुत्र अच्छा नहीं है ॥ ५ ॥
किं तया क्रियते धेन्वा
या न सूते न दुग्ध-दा ।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन
यो न विद्वान् न भक्तिमान् ॥ ५॥ +++(५)+++
हिन्दी
उस गौ से क्या प्रयोजन ज़ो न बच्चा उत्पन्न करती है और न तो दूध ही देती है ? उसी प्रकार उस पुत्र से क्या प्रयोजन जो न विद्वान् हो और न माता- पिता, गुरु एवं इष्टदेवों में प्रेम करनेवाला हो ॥ ६ ॥
वरम् इह वा सुत-मरणं
मा मूर्खत्वं कुल-प्रसूतस्य।
येन विबुध-जन-मध्ये
जार-ज इव लज्जते मनुजः॥
हिन्दी
अथवा इस संसार में पुत्र का मरण अच्छा है, परन्तु कुल में उत्पन्न पुत्र का मूर्ख होना उचित नहीं है । क्योंकि उस मूखं पुत्र से जारज पुत्र के समान मनुष्य लज्जित होता है ॥ ७ ॥
गुणि-गण-गणनारम्भे
न पतति कठिनी+++(=लेखनी)+++ स-सम्भ्रमा यस्य।
तेनाम्बा यदि सुतिनी
वद वन्ध्या कीदृशी भवति?॥
हिन्दी
विद्वानों के मध्य में गुणी लोगों की गणना के समय जिसके नाम पर अंगुली शीघ्रता के साथ न गिरे, यदि उस प्रकार के पुत्र से उसकी माता पुत्रवती है तो बताओ फिर aroar किस प्रकार की स्त्री होती है ॥ ८ ॥
तद् एतेषां यथा बुद्धि-प्रबोधनं भवति,
तथा को ऽप्य् उपायो ऽनुष्ठीयताम् ।
अत्र च मद्-दत्तां वृत्तिं भुञ्जानानां
पण्डितानां पञ्चशती तिष्ठति ।
ततो
यथा मम मनोरथाः सिद्धिं यान्ति
तथा ऽनुष्ठीयताम्
इति ।
हिन्दी
इसलिए जिस प्रकार इनकी बुद्धि का विकास हो वैसा कोई उपाय आप लोग करें । यहाँ पर मेरे द्वारा दी हुई जीविका को भोगते हुए पाँच सो विद्वान् रहते हैं । अत एव जिस प्रकार मेरे मनोरथ सिद्ध हों वैसा उद्योग करें ।
मन्त्रिवचनम्
तत्रैकः प्रोवाच -
देव, द्वादशभिर् वर्षैर् व्याकरणं +++(पूर्णं)+++ श्रूयते,
ततो धर्म-शास्त्राणि मन्व्-आदीन्य्,
अर्थ-शास्त्राणि चाणक्यादीनि
कामशास्त्राणि वात्स्यायनादीनि +++(च श्रूयते)+++।
एवं च ततो धर्मार्थ-काम-शास्त्राणि ज्ञायन्ते ।
ततः +++(अपिक्षित-ज्ञानस्य)+++ प्रतिबोधनं भवति ।
हिन्दी
उनमें से एक मन्त्री ने कहा–’ राजन् । बारह वर्ष में व्याकरणशास्त्र का अध्ययन होता है, तत्पश्चात् मनु आदि के धर्मशास्त्र, चाणक्यादि के अर्थशास्त्र, वात्स्यायनादि के कामशास्त्र । तदन्तर धर्म, अर्थ तथा कामशास्त्र पढ़े जाते हैं । इन सबों के पढ़ने के अनन्तर ही ज्ञान होता है।’
अथ तन्-मध्यतः सुमतिर् नाम सचिवः प्राह -
अशाश्वतोऽयं जीव-विषयः ।
प्रभूत-काल-ज्ञेयानि शब्द-शास्त्राणि ।
तत्-सङ्क्षेप-मात्रं शास्त्रं किञ्चिद्
एतेषां प्रबोधनार्थं चिन्त्यताम्
इति ।
उक्तञ्च यतः -
हिन्दी
इसके अनन्तर उनमें से सुमति नामक एक मन्त्री ने कहा - ‘यह मानवजीवन अनित्य है और शब्दशास्त्र ( व्याकरण ) का ज्ञान अधिक समय के अनन्तर होता है । इसलिए इनके बोध के लिए किसी संक्षिप्त- शास्त्र का विचार कीजिए । क्योंकि कहा भी है-
अनन्त-पारं किल शब्द-शास्त्रं,
स्वल्पं तथायुर्, बहवश् च विघ्नाः ।
सारं ततो ग्राह्यम् अपास्य फल्गु
हंसैर् यथा क्षीरम् इवाम्बु-मध्यात् ॥ ६॥ +++(४)+++
हिन्दी
शब्दशास्त्र ( व्याकरण ) का निश्चित कहीं पार नहीं, अवस्था थोड़ी और बिघ्न अत्यधिक हैं। इसलिए सार ( तत्त्व ) को ग्रहण कर, असार (निस्तत्त्व ) का वैसे ही परित्याग कर देना चाहिए जैसे हंस जल से दूध निकाल लेते और जल त्याग देते हैं ॥ ९ ॥
तद् अत्रास्ति
विष्णुशर्मा नाम ब्राह्मणः,
सकल-शास्त्र-पारङ्गमश् चात्र संसदि लब्धकीर्तिः ।
तस्मै समर्पयत्व् एतान् ।
स नूनं द्राक् प्रबुद्धान् करिष्यति
इति ।
हिन्दी
यहाँ अपने विद्वन्मण्डलियों में समस्त शास्त्रों का पारगामी और छात्रों की मण्डली में यशस्वी विष्णुशर्मा नाम का एक ब्राह्मण है, उसे इन पुत्रों को आप सौंप दें । वह अवश्य इनको शीघ्र ही ज्ञानवान बना देगा ।’
विष्णु-शर्म-प्रतिज्ञा
स राजा तद् आकर्ण्य
विष्णु-शर्माणम् आहूय प्रोवाच-
भो भगवन्,
मद्-अनुग्रहार्थम्
एतान् अर्थ-शास्त्रं प्रति
द्राग् यथा ऽनन्य-सदृशान् विदधासि
तथा कुरु ।
तद् अहं त्वां
+++(ग्राम-)+++शासन-शतेन योजयिष्यामि ।
हिन्दी
राजा ने यह बात सुनकर विष्णुशर्मा को बुलाकर कहा- ‘भगवन् ! मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आप मेरे इन पुत्रों को शीघ्र अर्थशास्त्र में जिस प्रकार हो सके उस प्रकार असाधारण विद्वात् बना दीजिये । इसके बदले में आपको सो गांव का मालिक बना दूंगा’ ।
अथ विष्णुशर्मा तं राजानम् आह/ऊचे -
देव श्रूयतां मे तथ्य-वचनम् ।
नाहं विद्या-विक्रयं शासन-शतेनापि करोमि ।
पुनर् एताँस् तव पुत्रान्
मास-षट्केन यदि नीति-शास्त्रज्ञान् न करोमि -
ततः स्व-नाम-त्यागं करोमि।
हिन्दी
इसके अनन्तर राजा से विष्णुशर्मा ने कहा- ‘राजन् मेरे सत्य वचन सुनिये | मैं सौ गाँव लेकर भी विद्या- विक्रय नहीं करता । तथापि आपके इन पुत्रों को यदि छः महीने में नीतिशास्त्र का ज्ञाना न बना दूँ तो मैं अपना नाम त्याग दूँगा ।
किं बहुना?
श्रूयतां ममैष सिंहनादः ।
नाहम् अर्थ-लिप्सुर् ब्रवीमि ।
ममाशीतिवर्षस्य व्यावृत्त-सर्वेन्द्रियार्थस्य
न किञ्चिद् अर्थेन प्रयोजनम् ।
किंतु त्वत्-प्रार्थना-सिद्ध्य्-अर्थं सरस्वती-विनोदं करिष्यामि ।
हिन्दी
बहुत कहने से क्या लाभ? आप मेरा सिंहनाद सुनें । धन मिल जाने की अभिलाषा से मैं ऐसा नहीं कहता, क्योंकि अस्सी वर्ष की अवस्था तक समस्त इन्द्रियों के भोग से निःस्पृह हो गया हूं, अतः मुझे धन से कोई प्रयोजन नहीं है ।
तल् लिख्यताम् अद्यतनो दिवसः ।
यद्य् अहं षण्-मासाभ्यन्तरे तव पुत्रान्
नय-शास्त्रं प्रत्य् अनन्य-सदृशान् न करिष्यामि,
ततो नार्हति देवो देव-मार्गं संदर्शयितुम् ।’
हिन्दी
किन्तु आपकी प्रार्थनासिद्धि के निमित्त मैं सरस्वती-विनोद करूँगा । अत: आप आज के दिन का नाम लिख लीजिए। यदि मैं ६ महीने के अन्दर आपके पुत्रों को विद्या में असाधारण ज्ञाता न बना दूँ तो भगवान् मुझे देवमार्ग ( स्वर्ग ) न दिखावें ।
शिक्षाफलम्
अथासौ राजा
तां ब्राह्मणस्यासंभाव्यां प्रतिज्ञां श्रुत्वा
स-सचिवः प्रहृष्टो विस्मयान्वितस्
तस्मै सादरं तान् कुमारान् समर्प्य
परां निर्वृत्तिम् आजगाम ।
हिन्दी
इसके अनन्तर ब्राह्मण की इस असम्भव ( असाधारण ) प्रतिज्ञा को सुनकर राजा मन्त्रियों सहित अत्यधिक प्रसन्न हो आश्चर्ययुक्त हुआ और उन राज- कुमारों को आदर के साथ उनको समर्पित कर राजा अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ ।
विष्णुशर्मणा ऽपि
तान् आदाय
तद्-अर्थं मित्र-भेद–मित्र-प्राप्ति–काकोलूकीय–लब्ध-प्रणाशा–ऽपरीक्षित-कारकाणि चेति
पञ्च तन्त्राणि रचयित्वा
पाठितास् ते राजपुत्राः ।
हिन्दी
विष्णुशर्मा ने भी उन ( कुमारों ) को ले जाकर उनके निमित्त मित्रभेद, मित्र- सम्प्राप्ति, काकोलूकीय, लब्धप्रणाश और अपरीक्षितकारक नामक इन पांच तन्त्रों की रचना कर उन्हें पढ़ाया।
तेऽपि तान्य् अधीत्य
मास-षट्केन यथोक्ताः संवृत्ताः ।
हिन्दी
वे राजकुमार भी उन तन्त्रों को पढ़कर छः महीने में जैसा कहा था, असाधारण ज्ञाता हो गये ।
ततः प्रभृत्य्
एतत् पञ्चतन्त्रकं नाम नीति-शास्त्रं
बालावबोधनार्थं भूतले प्रवृत्तम् ।
किं बहुना -
हिन्दी
उसी दिन से यह पञ्चतन्त्र नामक नीतिशास्त्र का ग्रन्थ बालकों को ज्ञानप्राप्ति के लिए संसार में प्रसिद्ध हुआ । अधिक क्या ?
अधीते य इदं नित्यं
नीति-शास्त्रं शृणोति च ।
न पराभवम् आप्नोति
शक्राद् अपि कदाचन ॥ ७॥
हिन्दी
जो इस नीतिशास्त्र का नित्य अध्ययन करता है अथवा सुनता है वह देव- राज इन्द्र से भी कमी पराजित नहीं होता ॥ १० ॥
इति कथामुखम् ।
हिन्दी
इस प्रकार पश्चतन्त्र भाषाटीकान्तर्गत कथामुख समाप्त |