प्राक्कथन संस्कृत में आख्यान साहित्य का एक विशिष्ट स्थान है। इसकी मौलिकता, आचारों की कुशलता तथा भावों की उत्कृष्टता का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त है । भारतीय मनोरञ्जनशील मस्तिष्क की विशुद्ध कल्पनाशक्ति ने इस साहित्य का आविर्भाव किया है । आख्यान - साहित्य के प्रमुख रूप से दो विभाग हैं—नीतिकथाएं तथा लोक कथाएँ । नीतिकथाओं में उपदेशप्रद विषयों की प्रधानता रहती है। मारम्भ काल से चली आती हुई मनुष्य की उपदेशात्मक प्रवृत्ति का ही इसमें स्थान है। धर्म, अर्थ एवं काम सम्बन्धी विषयों के साथ-साथ सदाचार, राजनीतिक तथा व्यावहारिक ज्ञान को इन कथाओं में अत्यन्त रोचक ढंग से उपस्थित किया जाता है । कुछ आध्यात्मिक विषयों को भी सरलता से समझाने का प्रयास किया जाता है। इनमें पात्र प्रायः पशु-पक्षी ही होते हैं, किन्तु इनके द्वारा होने वाला नैतिक एवं व्यावहारिक ज्ञान मनुष्यमात्र के लिए उपयोगी होता है। इनकी शैली बालोचित होनेपर भी इनमें अतिगहन विषय प्रस्तुत किये जाते हैं। इन कथाओं में गद्य एवं पद्य दोनों का समावेश हुआ है । गद्य में मुल्यः कथाएँ हैं और पद्य भाग में गम्भीर तत्त्वों को छोटे-छोटे छन्दों में सरलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है । परम्परागत नीति वाक्यों को जिज्ञासु जनता के मस्तिष्क में बैठाने के लिए कहानी गढ़ ली गयी है और प्रसंग जोड़ दिये हैं, जिससे एक नये साहित्य का सृजन हो गया है। इसमें एक नीतिवाक्य से दूसरा नीति- वाक्य, एक कथा से दूसरी कथा निकलती चलती है । इस प्रकार नीति कथाएँ अत्यन्त रोचक, स्पृहणीय एवं उपादेय हो जाती हैं। संस्कृत के आख्यान-साहित्य में ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथानकों की अपेक्षा विशुद्ध काल्पनिक पात्रों तथा कथानकों का चित्रण है । यह एक ऐसा काल्पनिक जगत् है, जिसमें घटना- वैचित्र्य और पात्र-वैचित्र्य के साथ-साथ कौतूहल, हास्य, व्यंग्य, विनोद एवं उपदेश का एकत्र समावेश है । इन कथाओं का आविर्भाव कब एवं कैसे हुआ ? यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, फिर भी ॠग्वेदीय मनु-मत्स्य संवाद के आधार पर इसकी प्रचीनता का आभासमात्र प्रतीत होता है । वस्तुतः पशु-पक्षियों की कथाओं का . ( २ ) प्राचीनतम संग्रह जातक कथाओं में उपलब्ध होता है, जिनका परिमार्जित रूप हमें बृहत्कथामञ्जरी, कथासरित्सागर, शुकसप्तति, पञ्चतन्त्र आदि में प्राप्त होता है । पञ्चतन्त्र भारत के इतिहास में यह तथ्य स्पष्टतया प्रसिद्ध है कि पञ्चतन्त्र के द्वारा अल्पकाल में ही नीतिशास्त्र तथा वास्तविक व्यवहार का सारभूत ज्ञान सम्भव है । पञ्चतन्त्र की अतिसरल, रोचक एवं सदुपदेशप्रद कथाओं के आधार पर उसमें निहित नीतिवाक्यों का अभ्यास कर लेने पर कोई भी व्यक्ति अपने वैय- क्तिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन की समस्याओं को भली- भाँति सुलझा सकता है । इसमें स्थल-स्थल पर अनेक महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का भी संग्रह है, जिनका समुचित अवसर पर प्रयोग कर लाभ उठाया जा सकता । इस प्रकार यह ग्रन्थ एक समुज्ज्वल प्रकाशमान मणि के समान सबका मार्ग-प्रदर्शन करने में सर्वदा समर्थ है । पञ्चतन्त्र न केवल भारतवर्ष में ही, अपितु समस्त विश्व-साहित्य में एक कथा-साहित्य के रूप में मान्य है । इसकी सरलता, लोकप्रियता एवं उपयोगिता सर्वप्रसिद्ध है । इसमें लेखक ने मुख्य रूप से विचारपूर्वक कार्य करने की नीति पर बल दिया है । पञ्चतन्त्र के अनुशीलन से नीतिशास्त्रविषयक ज्ञान आसानी से हो जाता है, क्योंकि इसके निर्माण का एक मात्र उद्देश्य ही सुकुमारमति राजकुमारों को कथा के व्याज से विनोदपूर्वक राजनीति का ज्ञान कराना है । नीतिज्ञान के अतिरिक्त पञ्चतन्त्र के अध्ययन का एक लाभ और भी है- आरम्भिक सरल संस्कृत पढ़ने एवं लिखने के लिए यह एक आदर्श और स्पृहणीय ग्रन्थ माना गया है । इसीलिए सरलता से संस्कृत भाषा का ज्ञान कराने के निमित्त प्रायः सभी शिक्षण संस्थाओं की पाठ्य-पुस्तक के रूप में यह स्वीकृत है और प्रेमपूर्वक विद्यालयों में पढ़ाया भी जाता है । अनुवाद बाइबिल के बाद पञ्चतन्त्र ही वह ग्रन्थ है, जिसका अनुवाद विश्व की सर्वा- धिक सभ्य भाषाओं में हुआ है । पञ्चतन्त्र का सबसे पहला रूपान्तर पहलवी भाषा में हुआ। बाद में उसी के आधार पर अरबी में अनुवाद हुआ । तदनन्तर
य ज प्र इ ए की अ वय अन शा का बा के उप कि हो रह शम मन उन सभ उल रूप नास रा नव पर य- ठी- का ता का एक ता ति नी ति 1 य के त T- ( -३ ) योरप का सबसे प्राचीन अनुवाद यूनानी में हुआ । इसके पश्चात् इटेलियन, जर्मन, फ्रेञ्च, अंग्रेजी आदि में पञ्चतन्त्र का अनुवाद प्रारम्भ हुआ । इस प्रकार संस्कृत पञ्चतन्त्र का अनुवाद पहलवी से अरबी, उससे हिनु, यूनानी, इटैलियन, जर्मन आदि के पश्चात् अंग्रेजी साहित्य को उपलब्ध हुआ । जर्मन एवं ब्रिटेन का अनुवाद बहुत ही लोकप्रिय रहा। अंग्रेजी में भी इसके संस्करणों की अनेक आवृत्तियां हुईं, किन्तु फ्रेञ्च के संस्करण का यूरोप-वासियों ने सबसे अधिक सम्मान किया । रचना-काल पञ्चतन्त्र का प्रणयन कब हुआ ? यह निश्चित रूप से कहना कठिन है, क्योंकि इस ग्रन्थ की मूल प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं है । इसका पहला अनुवाद पहलवी में ईसा की छठी शताब्दी में हुआ था और कौटिल्य के अर्थ- शास्त्र का उस पर प्रभाव भी है, क्योंकि उसमें दीनार शब्द का प्रयोग हुन है । अतः सम्भवतः इसकी रचना गुप्तकाल में संस्कृत के सर्वविध अभ्युदय काल में हुई प्रतीत होती है । लेखक-परिचय पञ्चतन्त्र के लेखक, निवास-स्थान, वंश, माता-पिता, पुत्र, पत्नी एवं आश्रयदाता आदि के विषय में कुछ भी विवरण उपलब्ध नहीं होता। हाँ, विश्व के सभी संस्करणों में पञ्चतन्त्र के लेखक के रूप में विष्णुशर्मा का नाम अवश्य उपलब्ध होता है । यद्यपि कुछ विद्वान् इसमें विश्वास नहीं करतें, तथापि बन्द किसी नाम के उपलब्ध न होने के कारण इस सम्बन्ध में सन्देह करना अनावश्यक । विष्णुशर्मा के परिचय के विषय में पञ्चतन्त्र के कथामुख से यह प्रतीत होता है कि वे दक्षिण देश के महिलारोप्य नामक नगर के राजा के राज्य में रहते थे, किन्तु इस नगर एवं दक्षिण देश का नाम अन्य अनेक कथाओं से सम्बद्ध होने के कारण इसे कल्पना के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं कहा जा सकता है । पञ्चतन्त्र के लेखक के विषय में कथामुख से संकेत मिलता है कि विष्णु- शर्मा नाम के विद्वान् भारतीय नीतिशास्त्र में बड़े प्रवीण एवं प्रखर बुद्धि के मनीषी थे। उन्हें प्राचीन नीतिविदों एवं उनके नीतिशास्त्रों का पूर्ण ज्ञान था । उन्होंने बड़ी श्रद्धा से अपने पूर्वज नीतिज्ञों को प्रणाम किया है और लोक-प्रसिद्ध सभी नीति-ग्रन्थों का सार-संग्रह करके पञ्चतन्त्र नामक ग्रन्थ के निर्माण का है उल्लेख किया हैumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri ( ४ ) इस प्रकार उन्हें नीतिशास्त्रों का परिपूर्ण अनुभवात्मक ज्ञान था । उन्होंने समस्त नीतिज्ञों की नीतियों को अपने जीवन में उतार कर जो समुचित समझा उसे अपनी कृति पञ्चतन्त्र में प्रस्तुत किया है । वे बड़े निस्पृह, निर्भीक एवं त्यागी विद्वान् थे । अस्सी वर्ष की अवस्था में जब उनका मन एवं सभी इन्द्रियां विषयों से विमुख होकर शिथिल हो चुकी थीं तब भी उन्हें राजा अमरशक्ति के द्वारा दिये जाने वाले शासनशत का लोभ अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सका । उन्होंने निर्भीकतापूर्वक राजा को उत्तर देते हुए कहा था- नाऽहं विद्याविक्रयं शासनशतेनापि करोमि । उन्हें अपने विशिष्टवैदुष्य पर पूर्णतया विश्वास था और वे अपने विद्वज्जनो- चित कर्त्तव्य पथ पर सदा सुदृढ़ थे । इसलिए उन्होंने राजा को चुतौती देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था कि यदि मैं छः महीनों में आपके राजकुमारों को नीतिशास्त्रों का ज्ञान न करा सकूंगा तो अपने नाम का त्याग कर दूँगा- पुनरेतांस्तव पुत्रान् मासषट् केन यदि नीतिशास्त्रज्ञान् न करोमि, ततः स्वनामत्यागं करोमि । पञ्चतन्त्र की रचना का उद्देश्य विष्णुशर्मा ने पञ्चतन्त्र का निर्माण कोमलमति राजकुमारों को आसानी से नैतिक व्यवहार सिखाने के निमित्त किया है, न कि कलाचातुय्यं एवं पाण्डित्य- प्रदर्शन के लिए । पञ्चतन्त्र के कथामुख में उन्होंने अस्सी वर्ष की अवस्था में भी सिह्नाद करते हुए अपनी वास्तविक स्वाभिमान युक्त निस्पृहता को इस प्रकार व्यक्त कर दिया था- किंबहुना श्रूयतां ममैष सिंहनादः, नाहमर्थलिप्सुर्ब्रवीमि ममाशीतिवर्षस्य न किश्चिदर्थेन प्रयोजनम् । पञ्चतन्त्र का वर्गीकरण पञ्चतन्त्र अन्वर्थनामा पाँच तन्त्रों (प्रकरणों) में विभक्त है- (१) मित्र- भेद, ( २ ) मित्र सम्प्राप्ति, ( ३ ) काकोलूकीय, ( ४ ) लब्धप्रणाश और (५) अपरीक्षितकारक – इन पांचों तन्त्रों के नाम अन्वर्थ हैं, इनके वर्ण्य विषयों का आभास इनके नामों से ही व्यक्त हो जाता है । इनको हृदयङ्गम कर लेने से मनुष्य किसी व्यावहारिक या नैतिक विचारों से वंचित नहीं रहता । इनकी विषय-सामग्री का प्रसङ्ग ऐसे सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि
होंने झा एवं दयाँ क्ति कर नो- 什刷存 हुए को ततः से त्य-
- में इस त्र- ५) का से की कि } ( ५ ) उनकी अवगति के निमित्त उत्तरोत्तर रुचि बढ़ती ही जाती है। इसकी रोचकता, मधुरता एवं सरलता सर्वप्रसिद्ध है । अपरीक्षितकारक इस प्रकार अपरीक्षितकारक पञ्चतन्त्र का अन्तिम भाग (पांचवां तन्त्र) है जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रन्थकार ने बल दिया है । इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया गया है कि बिना भलीभांति विचार किये एवं बिना अच्छी तरह से देखे सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन में अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है । अतः अन्धानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता । अपरीक्षितकारक में कुल पन्द्रह कथाएँ हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- ( १ ) क्षपणक कथा ( आमुख ) - इस कथा में बिना अच्छी तरह परीक्षा करके अनुकरण करने वाले एक नाई की कथा है, जिसको मणिभद्र नाम के सेठ का अनुकरण कर जैन-संन्या- सियों के वध के दोष पर न्यायाधीशों द्वारा मृत्यु का दण्ड दिया गया है । अतः बिना परीक्षा किये हुए नाई के समान अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए- कुदृष्टं कुपरिज्ञातं कुम्भूतं कुपरीक्षितम् । तमरेण न कर्तव्यं नापितेनात्र यत् कृतम् ॥ १ ॥ (२) ब्राह्मणी- नकुल- कथा - इसमें बिना सोचे-समझे भ्रम के कारण नेवले की हत्या से ब्राह्मण-पत्नी के पश्चात्ताप का चित्रण है, जिसने सांप से अपने पुत्र की रक्षा करने पर भी भ्रमवश जल से भरे घड़े को नेवले के उपर पटककर मार डाला था । इसलिए पूरी जानकारी के बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिए- अपरीक्ष्य न कर्त्तव्यं कर्त्तव्यं सुपरीक्षितम् । पश्चाद् भवति सन्तापो ब्राह्मण्या नकुले यथा ॥ १७ ॥ (३) लोभाविष्ट चक्रधर-कथा- इसमें अतिलोभ के भयङ्कर परिणाम का दिग्दर्शन है । यह कथा आगे की सभी कथाओं में अनुस्यूत है । इस कथा के द्वारा यह बतलाया गया है कि चार
( ६ ) ब्राह्मणकुमार दरिद्रता से कब गये थे, जो घर से निकल कर अवन्तीपुरी में जा पहुँचे। वहीं सिप्रास्नान और महाकाल के दर्शन के बाद वे भैरवानन्द योगी से चार सिद्ध गुटिकाओं को प्राप्त कर हिमालय की तरफ प्रस्थान किये। मार्ग में एक को ताँबे की खान मिली, दूसरे को चांदी की खान प्राप्त हुई तथा तीसरे को सोने की खान उपलब्ध हुई । वे तीनों उन्हें लेकर अपने-अपने घर लौट गये, किन्तु अति लोभ के कारण चौथे को चक्रधर बनना पड़ा । अतः मनुष्य को न तो अधिक लोभ करना चाहिए, न बिलकुल लोभ ही छोड़ देना चाहिए, क्योंकि अतिलोभ के कारण मित्र की बात न मानने पर लोभी मनुष्य को कंष्ट ही उठाना पड़ता है, जैसे अतिलोभी के मस्तक पर चक्र घूमने लगा- अतिलोभो न कर्तव्यो लोभं नंव परित्यजेत् । अतिलोभाभिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके ॥ (४) सिंहकारक मूर्खाह्मण-कथा- इसमें यह दिखाया गया है कि लोक व्यवहार के बिना मूर्ख की विद्या उसी को कष्ट पहुँचाती है। इस कथा के द्वारा तीन शास्त्रज्ञानी, पर लोकव्यवहार से शून्य एवं एक अशास्त्रज्ञ, किन्तु लोकव्यवहार- चतुर ब्राह्मणों का धनोपार्जन के निमित्त विदेश जाने के लिए प्रस्थान करने के बाद मार्गवर्ती किसी वन में मृत सिंह की हड्डियों को इकट्ठाकर विद्या के प्रभाव से उसको जिला देने पर उसके द्वारा तीनों शास्त्रज्ञों के मारे जाने का तथा चौथे अशास्त्रज्ञ, किन्तु लोकव्यवहार- कुशल ब्राह्मण के बच जाने का प्रदर्शन है । अतः शास्त्रज्ञान के साथ-साथ लोक- व्यवहार का ज्ञान भी आवश्यक है, क्योंकि विद्या की अपेक्षा बुद्धि उत्तम मानी गयी है। कहा भी गया है, बिना बुद्धि जरे विद्या- वरं बुद्धिनं सा विद्या विद्याया बुद्धिरुत्तमा । बुद्धिहोना विनश्यन्ति तथा ते सिंहकारकाः ॥ (५) मूर्खपण्डित-कथा- इस कथा में सिद्ध किया गया है कि केवल शास्त्रज्ञान वाले लोकव्यवहार से वञ्चित एवं ज्ञानशून्य व्यक्ति किस प्रकार दुःखी होते हैं । वस्तुतः लोकव्यव- हार से शून्य व्यक्ति केवल शास्त्रज्ञान के आधार पर सफल नहीं हो पाता है । अतः शास्त्रज्ञान के साथ-साथ लोक व्यवहार का ज्ञान भी आवश्यक है । इस कथा का सारांश यह है कि चार ब्राह्मण मित्र १२ वर्षों तक विद्याध्ययन करने के बाद अपने घर को लौटे। रास्ते में मृत महाजनपुत्र के शव के पीछे / ( ७ ) पीछे चले ।’ जब वे श्मशान पहुँचे तब वहीं चरते हुए एक गदहे को देखकर उन्होंने शाब्दिक अर्थ के बल से उसे बन्धु माना और तेज चलने वाले ऊँट - को धर्म समझा और उसके गले में गधे को बांध दिया। आगे बढ़ने पर नदी में बहते हुए पत्ते को नाव जानकर जब वे उस पर चढ़े तब उसमें से एक डूबने लगा । बाद सर्वनाश की स्थिति में आधे से कार्य- निर्वाह कर लेने के सिद्धान्त पर उसका शिर काट डाला गया- सवनाशे समुत्पन्ने अर्द्ध त्यजति पण्डितः । अर्द्धन कुरुते कार्य सर्वनाशो हि दुःसहः ॥ ४० ॥ अनन्तर शेष तीनों जब एक गाँव में पहुँचे तब गाँव वालों ने उन्हें पण्डित ब्राह्मण समझकर अपने-अपने घरों में भोजन कराने के लिए निमन्त्रण दिया । तीनों को भिन्न-भिन्न घरों में तीन प्रकार के भोजन मिले । एक को खाँड मिली, तो उसने शाब्दिक आधार पर उसे दीर्घसूत्री से विनाश समझकर छोड़ दिया। दूसरे को चौड़ी-चौड़ी रोटियाँ मिलीं तो उसने उसे अतिविस्तार वाली होने के आधार पर आयु घटाने वाली समझकर छोड़ दी । तीसरे को मालपूजा मिला तो वह भी छिद्रों में अनर्थ समझकर उसे छोड़ चला गया । तीनों ने शाब्दिक आधार पर उन्हें अखाद्य समझ कर छोड़ दिया और उप- वास किया । इस प्रकार केवल पुस्तकीय ज्ञान वाले वे ब्राह्मण लोक व्यवहार का ज्ञान न होने के कारण अर्थ का अनर्थ करते हुए सदा असफल रहे तथा लोगों ने उनका उपहास किया- अपि शास्त्रेषु कुशला लोकाचारविर्वाजिता । सर्वे ते हास्यतां यान्ति यथा ते मूर्खपण्डिताः ॥ ३८ ॥ १. महाजनो येन गतः स पन्थः । २. उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे । राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ।। ३९ ।। ३. धर्मस्य त्वरिता गतिः । ४. इष्टं धर्मेण योजयेत् । ५. दीर्घसूत्री विनश्यति । ६. अतिविस्तारविस्तीर्णा न भवेत्तच्चिरायुषम् । ७. छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ।
(६) मत्स्य-मण्डूक-कथा-
( ८ ) इस कथा में विद्या की अपेक्षा बुद्धि का प्राधान्य प्रदर्शित है । और यदि दैव अनुकूल हो तो कम बुद्धि वाला व्यक्ति भी जीवन में सफल हो सकता है । अतः दैव की प्रतिकूलता से शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि मत्स्य - जाल में फँसकर मारे गये तथा देव के अनुकूल होने से एक बुद्धिवाला मेढक बच गया- सुबुद्धयोऽपि नश्यन्ति दुष्टदेवेन नाशिताः । स्वल्पधीरपि तस्मिंस्तु कुले नन्दति सन्ततम् ॥ ४१ ॥ शतबुद्धिः शिरस्थोऽयं लम्बते च सहस्रघीः । एकबुद्धिरहं भद्रे ! क्रीडामि विमले जले ॥ ४३ ॥ (७) रासभ-शृगाल- कथा - व्यक्तियों का वर्णन है, जो न तो मानते हैं । यदि शतबुद्धि और कहा मान कर तालाब से निकल इसी प्रकार गधा यदि अपने मित्र . छ: ओर सात दोनों कथाओं में ऐसे स्वयं बुद्धिमान् हैं, न मित्रों का कहना ही सहस्रबुद्धि अपने मित्र एकबुद्धि मण्डूक का गये होते तो धीवरों द्वारा न मारे जाते । शृगाल की बात मानकर खेत में गीत नहीं गाता तो वह रखवालों द्वारा गले में ओखल-बन्धन के सङ्कट में न पड़ता । अतः जिसमें स्वयं बुद्धि नहीं है, उसे अपने मित्रों की बातें मान लेनी चाहिये- साघु मातुल ! गीतेन मया प्रोक्तोऽपि न स्थितः । अपूर्वोऽयं मणिबंद्धः साम्प्रतं गीतलक्षणः ॥ ५६ ॥ (८) मन्थर-कौलिक कथा- इसमें वर्णन है कि मित्र की बात न मानने ने मनुष्य संकट में पड़ जाता है । यदि अपने मित्र नाई की बात मान कर जुलाहा यक्ष के राज्य माँग लेता और अपनी पत्नी के कहने पर एक शिर तथा दो भुजाएँ और नहीं मांगता तो मार्ग में गांव वाले उसे दो शिर और चतुर्भुज राक्षस समझ कर नहीं मार डालते । मित्र नाई की बात न मानने से जुलाहे को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा । अतः जो स्वयं बुद्धिमान् नहीं है, उसे अपने मित्रों की बात माननी चाहिए- यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा मित्रोक्तं न करोति यः । स एव निधनं याति यथा मन्थर-कौलिकः ॥ ५७ ॥
(4) सोमशमं- पितृ- कथा - ( 3 ) इसमें अनागत ( न आयी हुई ) विपत्ति की चिन्ता करने वाले व्यक्ति का उपहास किया गया है। वस्तुतः मनुष्य अनागत बातों की चिन्ता से दुःखी होता है । अर्थात् भविष्य के विषय में व्यर्थ की कल्पना करनेवाला व्यक्ति सत्तू संग्रही सोमशर्मा के पिता के समान दुःखी होता है । सोमशर्मा के पिता की भविष्य- कल्पना की परम्परा अपूर्व थी । अतः मनुष्य को व्यर्थ भविष्य की कल्पना में व्यस्त नहीं रहना चाहिए- अनागतवतीं चिन्तामसम्भाव्यां करोति यः । स एव पाण्डुरः शेते सोमशमं पिता यथा ॥ ६७ ॥ (१०) चन्द्र भूपति-कथा- इस कथा में चन्द्रभूपति नामक एक लालची राजा के परिवार के विनाश का चित्रण है । जिसमें एक बन्दर की बात पर विश्वास कर प्रचुर रत्नमाला की प्राप्ति के लिए राक्षसयुक्त एक तालाब में अर्धोदय काल के अवसर पर अपने परिवार एवं परिजनों को स्नान कराकर धोखा खाने का तथा तृष्णा की तरु- गाई का वर्णन है । परिणाम का विचार न कर अपने नेता की समुचित बात न - मानने वाले व्यक्ति वानरों के समान मारे जाते हैं बीर लोभवश कार्य करने- वाले व्यक्ति चन्द्रभूपति की तरह धोखा खाते हैं । अतः बिना परिणाम सोचे अति लोभ से किसी अविश्वासी का सहसा विश्वास कर कोई कार्य नहीं करना चाहिए । नीति- कुशल व्यक्ति एक ही साधन से अनेक कार्य सिद्ध कर सकता है । वानरों के नीतिज्ञ नेता ने रत्नमाला प्राप्त कर ली, राक्षस को मित्र बना लिया, अपने कुलघातक राजा से बदला ले लिया और राजा को जीवित छोड़ कर स्वामी-भक्ति प्रगट कर उन्हें दुःख का अनुभव भी करा दिया । यह है बन्दर के प्रतिशोध की भावना - यो लोल्यात् कुरुत कर्म नैवोदर्कमवेक्षते । विडम्बनामवाप्नोति स यथा चन्द्रभूपतिः ॥ ६८ ॥ तृष्णे देवि ! नमस्तुभ्यं यथा वित्तान्वितो अपि । अकृत्येषु नियोज्यन्ते भ्राम्यन्ते दुर्गमेष्वपि ॥ ७६ ॥ ( ११ ) विकाल-वानर-कथा- यह कथा इस तथ्य को व्यक्त करती है कि दुःखी व्यक्ति के मित्र भी उसको
( १० ) छोड़ कर उससे दूर भाग जाते हैं। इस कथा का सारांश यह है कि राजा भद्रसेन की कन्या रत्नवती के अनुपम सौन्दर्य पर आसक्त होकर विकाल नामक एक राक्षस प्रतिदिन आधी रात में आकर उसे कष्ट देता था । अतः उससे ऊबकर एक दिन जब वह उससे छुटकारा पाने के निमित्त अपनी सखी से बात- चीत कर रही थी, तब विकाल उपस्थित होकर दूसरे विकाल राक्षस के भ्रम से घोड़ा बन कर घोड़साल में छिपकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा । इसी बीच घोड़ा चुराने के लिए एक चोर आया और उसे उत्तम घोड़ा समझकर उसके मुंह में लगाम लगा कर दौड़ाया । विकाल को तो दूसरे विकाल का भ्रम था ही, चोर को भी बार-बार रुकने के प्रयास करने पर भी न रुकने से उसके प्रति राक्षस का सन्देह हो गया। इस प्रकार वे एक-दूसरे से डरे हुए थे। संयोगवश बरगद के पेड़ के बीच से गुजरते समय पूँछ लटका कर उस पर बैठे हुए अपने मित्र बन्दर के द्वारा चोर को मनुष्य बता कर उसे खा जाने की राय देने पर चोर बन्दर की पूंछ चबाने लगा और उसका मित्र राक्षस आपद्ग्रस्त अपने मित्र बन्दर को छोड़ कर भाग गया । जिस प्रकार अपने मित्र बन्दर को कष्ट में पड़े देखकर उसको मित्र विकाल नामक राक्षस उसे छोड़ कर भाग गया उसी प्रकार दुःखी को उसके मित्र छोड़ देते हैं- यस्त्यक्त्वा सापदं मित्रं याति निष्ठुरतां वहन् । कृतघ्नस्तेन पापेन नरके यात्यसंशयम् ॥ ८१ ॥ यादृशी वदनच्छाया दृश्यते तव वानर । विकालेन गृहीतोऽसि यः परैति स जीवति ॥ ८२ ॥ (१२) अन्धक- कब्जक- त्रिस्तनी-कथा- इस कथा में अदृष्ट का चित्रण करते हुए बताया गया है कि असत्कार्य करने वाले व्यक्ति को भी किस प्रकार कभी-कभी सफलता मिल जाती है । भाग्य के अनुकूल होने पर कुकर्मी व्यक्ति भी कभी जीवन में सफल हो जाता है, जैसे बुरा कर्म करने पर भी अन्धक, कुब्जक और विस्तनी का जीवन अन्त में पहले से अधिक सुखी हो गया । यद्यपि इन तीनों ने धर्मपूर्वक उचित कार्य नहीं किया था, फिर भी भाग्य अच्छा होने के कारण उनके बुरे कर्म का परिणाम अच्छा ही निकला- अन्धक: कब्जकश्चैव त्रिस्तनी राजकन्यका । जयोऽप्यन्यायतः सिद्धाः सम्मुखे कर्मणि स्थिते ॥ ८४ ॥
( ११ ) (१३) राक्षसगृहीत- ब्राह्मण-कथा- इस कथा में बार-बार पूछनेवाले व्यक्ति के स्वभाव की प्रशंसा की गयी है, क्योंकि सन्देह उपस्थित होने पर बार-बार पूछ लेने का परिणाम अच्छा ही होता है । अतः जिस प्रकार पूछने के स्वभाव के कारण ब्राह्मण के जीवन की रक्षा हुई, उसी प्रकार पृच्छक स्वभाव वाला व्यक्ति लाभ में रहता है । वस्तुतः अपने कन्धे पर बैठे हुए राक्षस से उसके लटके हुए पैर की कोमलता के विषय में पूछकर उसे राक्षस जानकर भाग जाने के कारण उस ब्राह्मण के प्राण बच सके— यः सततं परिपृच्छति शृणोति सन्धारयत्यनिशम् । तस्य दिवाकरकिरणैर्नलिनीच विवर्द्धते बुद्धिः ॥ ८५ ॥ पृच्छकेन सदा भाव्यं पुरुषेण विशेषतः । राक्षसेन गृहीतोऽपि प्रश्नान्मुक्तो द्विजः पुरा ॥ ८६ ॥ (१४) भारुण्डपक्षि-कथा- इसमें आपस में मेल न रहने के कारण दो मुखों का विनाश प्रदर्शित है । परस्पर विरोध के कारण भारुण्ड पक्षी के दोनों मुख विनष्ट हो गये । अतः एक साथ रहने पर भी मेल के बिना जीवन खतरे में रहता है। साथ ही साथ इस कथा में यह बतलाया गया है कि किसी स्वादिष्ट वस्तु को अकेले नहीं खाना चाहिए, अन्य लोगों के सो जाने पर जागते नहीं रहना चाहिए, विचार- णीय वस्तु को अकेले नहीं विचारना चाहिए और अकेले ही विदेश नहीं जाना चाहिए- एकोदरा पृथग्ग्रीवा असंहता विनश्यन्ति (१५) ब्रह्मण-कर्कटक-कथा- अन्योऽन्यफल भक्षिणः । भारुण्डा इव पक्षिणः ॥ ६२ ॥ इस कथा द्वारा यह भाव व्यक्त किया गया है कि एकाकी यात्रा करना हानिप्रद है, क्योंकि केकड़े को साथ ले जाने के कारण ही ब्राह्मण के प्राण बच पाये, अन्यथा उसके प्राणपखेरु उड़ जाते । भले ही क्षुद्र जीव क्यों न हो, पर यात्रा में किसी साथी का रहना अत्यावश्यक है- अपि कापुरुषो मांगें द्वितीयः क्षेमकारकः । फर्कटेन द्वितीयेन जीवितं परिरक्षितम् ॥ ६४ ॥’ इस संस्करण में परीक्षार्थी छात्रों के हितार्थ संस्कृत-हिन्दी व्याख्या के साथ- साथ प्रस्तावना में प्रत्येक कथा का दिग्दर्शन भी करा दिया गया है । आशा है इससे छात्रों को विशेष लाभ होगा और वे प्रकाशक के प्रयास को सफल बनायेंगे । - श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी
कथा क्षपणक कथा ( आमुख ) १ ब्राह्मणी- नकुल- कथा २ लोभाविष्टचक्रधर कथा ३ सिंहकारक- मूर्खब्राह्मण - कथा ४ मूर्खपण्डित-कथा ५ मत्स्य - मण्डूक- कथा ६ रासभ - शृगाल-कथा ७ मन्थरकोलिक-कथा ८ सोमशमं पितृ - कथा कथा-सूची पृष्ठाडू १ २० २५ ४० ४४ ५१ ५७ ६५ ७५ ९ चन्द्रभूपति - कथा ७७ इली १० विकालवानर-कथा ९५ ११ अन्धक - कुब्जक - त्रिस्तनी - कथा १०१ प्रार १२ राक्षस- गृहीत- ब्राह्मण-कथा १०२ अपर १३ भारुण्डपक्षि - कथा ११३ कार १४ ब्राह्मणकर्कटक – कथा ११६ यस्य कुदृष्ट आरु 柳安 भी
न क पञ्चतन्त्रस्य पञ्चमं तन्त्रम् अपरीक्षितकारकम् संस्कृत-हिन्दी व्याख्याद्वयोपेतस् क्षपणक कथा अथेदमारभ्यतेऽपरीक्षितकारकं नाम पश्चमं तन्त्रम्, तस्याऽयमादिमः इलोक:- व्याश्या – अनाथशब्दो मङ्गलार्थः प्रकरणारम्भकश्च । आरभ्यते == प्रारभ्यते । अपरीक्षितकारकम् =न परीक्षितम्, अपरीक्षितम्, करोतीति कारकः अपरीक्षितस्य कारक: अपरीक्षितकारकः तमधिकृत्य कृतं तन्त्रमिति अपरीक्षित- कारकम् = अपरीक्षितकारकनामकम् । पश्चमं पश्वसंख्याकम् । तन्त्र-प्रकरणम् । यस्य = अपरीक्षितकारकस्य । आदिमः प्रथमः । श्लोकः = पद्यम् । इदमस्ति = कुदृष्टमिति ।
हिन्दी - अब यह अपरीक्षितकारकनामक पश्चम तन्त्र (पांचवां प्रकरण ) आरम्भ किया जाता है, जिसका प्रथम श्लोक यह है- कुदृष्टं कुपरिज्ञातं कुभूतं कुपरीक्षितम् । तन्नरेण न कर्तव्यं नापितेनाऽत्रं यत् कृतम् ॥ १ ॥ अन्दयः – अत्र नापितेन कुदृष्टं कुत्रतं कुपरीक्षितं (च) यत् कृतं तत् नरेण न कर्तव्यम् ॥ १ ॥ व्याख्या - अत्र = अस्मिन् प्रकरणे । नापि तेन क्षौरकर्मकारिणा । कुदृष्टं =
२ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके ।
न सम्यगवलोकितम् । कुपरिज्ञातम् = यथावन्न ज्ञातम् । कुश्रुतं असम्यगा- कणितम् । कुपरीक्षितं न यथावद् विचारितम् । यत् = यादृशं कर्म । कृतं = विहितम् । तत् = तादृशं कर्म । नरेण अन्येन पुंसा । न कर्तव्यं नहि अनु- उठेयम्, किन्तु सम्यग्दर्शन ालोचनादिपुरःसरमेव कार्यं करणीयमिति भावः ।
हिन्दी- - इस प्रकरण में नाई ने बिना ठीक-ठीक देखे, बिना ठीक जाने- बिना ठीक सुने, बिना ठीक परीक्षा किये जो कार्य किया था, वह दूसरे मनुष्य के द्वारा नहीं किया जाना चाहिये ॥ १ ॥ तद्यपाऽनुभूयते - अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे पाटलिपुत्रं नाम नगरम् । तत्र मणिभद्रो नाम श्रेष्ठी प्रतिवसति स्म । तस्य च धर्मार्थकाममोक्षकर्माणि कुर्वतो विधिवशाद्धनक्षयः सञ्जातः । ततो विभवक्षयादपमानपरम्परया परं विषादं गतः । अथाऽन्यदा रात्रौ सुप्तश्चिन्तितवान् — अहो षिगियं दरिद्रता । उपतं च- = । । ।
व्याख्या - तत् = नापितवृत्तान्तम् । अनुश्रूयते = कर्णाकर्णिकथाऽऽकर्ण्यते । दाक्षिणात्ये = दक्षिणदिशि वर्तमाने । जनपदे – देशे । पाटलिपुत्रं नाम = पाटलिपुत्रनामकम् । तत्र = पाटलिपुत्रे । श्रेष्ठी = श्रीमान् वणिक् । प्रतिवसति स्म = निवसति स्म । तस्य = मणिभद्रस्य । धर्मार्थकाममोक्षकर्माणि धर्मादि- चतुर्वर्गकार्याणि । कुर्वतः = कुर्वाणस्य । विधिवशात् = दुर्दैवात् । धनक्षयः = वित्तनाशः । सञ्जातः अभवत् । ततः तदनन्तरम् । विभवक्षयात् धननाशात् । अपमानपरम्परया = भूयो भूयो निरादरेण । परं= अत्यन्तम् । विषादं = दुःखम् । गतः =प्राप्तः । अथ=अनन्तरम् । अन्यदा = अन्यस्मिन् दिने । सुप्तः = शयानः | चिन्तितवान् = विचारितवान् । अहो इति खेदे । धिक् माम् । इयं = ईदृशी । दरिद्रता = निर्धन | ( सञ्जाता ) उक्तं च कथितं च केनापि- । हिन्दी - वह कथानक इस प्रकार है, जैसा कि सुना जाता है - दक्षिण देश में पाटलिपुत्र नामक एक नगर था। वहीं मणिभद्र नाम का एक सेठ रहता था। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के निमित्त विहित कर्मों को करते हुए दुर्भाग्य- वश उसके धन का नाश हो गया । निर्धनता के कारण होनेवाले प्रतिदिन के अपमान से वह अत्यन्त खिन्न रहता था, रात में सोते समय उसने सोचा- मोह ! निर्धनता को धिक्कार है । किसी ने कहा है-
सव क्ष धन ये को वि ज्ञा नि प्रण वि जा शि गा- i= अनु- जाने- नुष्य 1 तत्र र्वतो वषादं ता। यंते । म= वसति र्मादि- := त् खम् । नः । दृशी । ण देश रहवा भाग्य- दिन के चा- क्षपणक कथा शीलं शौचं क्षान्तिर्दाक्षिण्यं मधुरता कुले जन्म । न विराजन्ति हि सर्वे वित्तविहीनस्य पुरुषस्य ॥ २ ॥ , ३ अन्वयः - शीलं शौचं क्षान्तिः, दाक्षिण्यं मधुरता, कुले जन्म च ( एते ) सर्वे हि वित्तविहीनस्य पुरुषस्य न विराजन्ति ॥ २ ॥ व्याख्या - शीलं = स्वभावः सदाचारो वा शौचं = पवित्रता | क्षान्तिः = क्षमा । दाक्षिण्यं = उदारता, शिष्टता । मधुरता = मधुरभाषित्वम् । कुले जन्म = सत्कुले जन्म । एते सर्वे पूर्वोक्ता गुणाः । हि = निश्चयेन । वित्तविहीनस्य= धनहीनस्य, निर्धनस्य । पुरुषस्य = पुंसः । न विराजन्ति =न शोभन्ते । शीलादिभि- गुणैर्दरिद्रस्य शोभा न भवतीत्यर्थः ॥ २ ॥
हिन्दी -शील शुचिता, क्षमा, उदारता, मधुरभाषिता, उत्तम कुल में जन्म, ये सभी गुण निर्धन पुरुष की शोभा नहीं देते । अर्थात् निर्धन मनुष्य में इनकी कोई मान्यता नहीं ॥ २ ॥ मानो वा दर्पो वा विज्ञानं विभ्रमः सबुद्धिर्वा । सर्वं प्रणश्यति समं, वित्तविहीनो यदा पुरुषः ॥ ३ ॥ अन्वयः - मानः वा, दर्पः वा, विज्ञानं, विभ्रमः, सुबुद्धिर्वा यदा पुरुष वित्तहीन: ( भवति, तदा ) सर्वं समं प्रणश्यति ।। ३ ।। = । व्याख्या –मानः = सम्मानः । दर्पः = महङ्कारोऽभिमानो । विज्ञानं विशेष- ज्ञानं, शिल्पज्ञानम् । विभ्रमः = विलासचेष्टा, सुबुद्धि- सद्बुद्धिर्वा । वित्तविहीनः = निर्धनः । यदा भवति तदा सर्व = निखिलं शीलादिकम् । समं धनेन साकमेव । प्रणश्यति = विनष्टं भवति । दारिद्र्यात् मानादयो नश्यन्तीत्यर्थः ॥ ३ ॥ हिन्दी - सम्मान, गर्व, विशिष्ट कलाओं का ज्ञान, आनन्द, विलास, विचारशीलता एवं सुबुद्धि ये सभी गुण निर्धन पुरुष के धन के साथ ही चले जाते हैं । अर्थात् निर्धन के सब कुछ एक साथ नष्ट हो जाते हैं ।। ३ ।। प्रतिदिवसं याति लयं वसन्तवाताहतेव शिशिरश्रीः । बुद्धिर्बुद्धिमतामपि कुटुम्बभरचिन्तया सततम् ॥ ४ ॥ अन्वयः - बुद्धिमताम् अपि बुद्धिः सततं कुटुम्बभरचिन्तया वसन्सवाताहता शिशिरथीः इव प्रतिदिवसं लयं याति ॥ ४ ॥
अं पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके
व्याख्या - बुद्धिमतां = मतिमताम् | बुद्धिः प्रज्ञा । अपि सततं = निरन्तरम् । कुटुम्बभरचिन्तया - कुटुम्बस्य परिवारस्य; भरः = पालनपोषणं तस्य चिन्ता चिन्तनमिति कुटुम्बभरचिन्ता तथा कुटुम्बभरचिन्तया । वसन्तवाताहता - वसन्तस्य वातः बसन्तवातः = वसन्तकालीनवातः तेनाहता = प्रताडिता इति वसन्त वाताहता । शिशिरश्री:- शिशिरस्य श्रीः शिशिरश्रीः = शिशिरर्तुसुषमेव । विनाशं = क्षयं । याति गच्छति । बुद्धिमन्तोऽपि नराः प्रतिदिनं सर्वदा कुटुम्बभरणपोषणचिन्तया क्षीणबुद्धयो भवन्तीत्यर्थः ॥ ४ ॥ हिन्दी - बुद्धिमानों की भी बुद्धि हमेशा परिवार पालन की चिन्ता से उसी प्रकार क्षीण हो जाती है जैसे निरन्तर वसन्तकालीन वायु से शिशिर ऋतु की शोभा प्रतिदिन क्षीण होती जाती है । अर्थात् कौटुम्बिक चिन्ताओं में उलझा हुआ बुद्धिमान् मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग किसी महत्त्वपूर्ण कार्य में नहीं कर पाता ॥ ४ ॥ नश्यति विपुलमतेरपि बुद्धिः पुरुषस्य मन्दविभवस्य । वृत्त - लवण-त-सण्डुल - वस्त्रेन्धन चिन्तया अन्वयः - विपुलमतेः मन्दविभवस्य पुरुषस्य बुद्धिः तण्डुल-वस्त्र- इन्धनचिन्तया नश्यति ॥ ५ ॥ सर विर्ह यस्ि जल रूक्षं- शोभ तार भया सततम् ॥ ५ ॥ सततं घृत-लवण-तेल- पयस व्याख्या:- विपुला मतिर्यस्य स विपुलमतिः तस्य विपुलमतेः = निर्मलयतेः । अन्दविभवस्य = स्वल्पधनस्य । पुरुषस्य = जनस्य । बुद्धिः = मतिः । सततं = निरन्तरम् । घृतं च लवणं च तैलं च तण्डुलं च वस्त्रं च इन्धनं चेति घृत-लवण- तेल- तण्डुल-वस्त्रेन्धनानि तेषां चिन्ता घृत-लवण-तैल-तण्डुल- वस्त्रेन्धन चिन्ता तथा घृत-लवण-तैल-तण्डुलवस्त्रेन्धनचिन्तया = कूटुम्बभरणपोषणोपकरणविचारेण । नश्यति = विनश्यति । सुबुद्धिरपि निर्धनो नंरः नित्यं घृतलवणादिचिन्तनाद् बुद्धिविहीनो भवतीति भावः ।। ५ ।। हिन्दी - विशाल बुद्धिवाले धनहीन पुरुष की भी बुद्धि निरन्तर परिवार के भरण-पोषण के साधन घी, नमक, तेल, चावल, वस्त्र और लकड़ी की चिन्ता से नष्ट हो जाती है ॥ ५ ॥ ग गर्ननमिव नष्टतारकं शुष्कमिव सरः, श्मशानमिव रौद्रम् । प्रियदर्शनमपि रूक्षं, भवति गृहं नरा: जले जलस वा द उत्प पड़त देते हैं धनविहीनस्य ॥ ६ ॥ कपि रम् । चिन्ता ar- इति मेव । सर्वदा चा से शिर ताम कार्य
- तेल- a: 1 तं = वण- तया ण । नाद वार चन्ता
क्षपणक कथा ५ अन्वयः - प्रियदर्शनम् अपि धनविहीनस्य गृहं नष्टतारकं गगनम् इव शुष्कं सर इव रौद्रं श्मशानम् इव रूक्षं भवति ।। ६ ।। व्याख्या - प्रियं दर्शनं यस्य तत् प्रियदर्शनमपि - चारुदर्शनमपि । धनेन विहीनः धनविहीनः तस्य धनविहीनस्य = निर्धनस्य । गृहं गेहम् । नष्टाः तारा यस्मिस्तत् नष्टतारं = लुप्तनक्षत्रम् | गगनमिव = आकाशमण्डलमिव । शुष्कं = जलहीनम् । सरः = जलाशय इव, रौद्रं भयङ्करम् । श्मशानमिव = प्रेतभूमिरिव । रूक्षं श्रीविहीहम्, अशोभनम् । भवति = जायते । दर्शनीयमपि दरिद्रस्य गृहं न शोभते इति तात्पर्यम् ॥ ६ ॥
हिन्दी - सम्पत्तिहीन व्यक्ति का अत्यन्त सुन्दर घर भी धन के अभाव में तारारहित आकाश - मण्डल की तरह शून्य, सूखे हुए तालाब के समान रूक्ष और भयानक मरघट के समान उदास लगता है ॥ ६ ॥ न विभाव्यन्ते लघवो वित्तविहीनाः पुरोऽपि निवसन्तः । सततं जातविनष्टाः पयसामिव बुदबुदाः पर्यास ॥ ७ ॥ अन्वयः - वित्तविहीनाः लघवः पुरः निवसन्तोऽपि पयसि सततं जातविनष्टा पयसां बुदबुदाः इव न विभाव्यन्ते ॥ ७ ॥
- 1 व्याख्या - वित्तेन विहीनाः वित्तविहीनाः धनहीनाः । सघवः = नगण्या नराः । पुरः = अग्रे । निवसन्तोऽपि = वर्तमाना अपि । सततं = निरन्तरम् । पयसिं= जिले । जातविनष्टाः = उत्पत्तिमात्रेण नष्टाः । पयसां जलानाम् । बुदबुदाः जलस्फोटाः । इव=पथा । न विभाव्यते =न लक्ष्यन्ते । पुरो वर्तमानं समीपस्थं वा दरिद्रं नरं दृष्टिपातेनापि संसारे न कोऽपि पश्यतीत्यर्थः ॥ ७ ॥
हिन्दी - धनहीन व्यक्ति तुच्छ हो जाता है । सामने रहने पर भी निरन्तर उत्पन्न एवं विनष्ट होनेवाले पानी के बुलबुले के समान सामने नहीं दिखाई पड़ता । अर्थात् निर्धन व्यक्ति को देखते हुए भी लोग उसकी उपेक्षा कर देते हैं ॥ ७ ॥ सकुलं कुशलं, सुजनं विहाय, फूलकुशलशीलविकलेऽपि । आढये कल्पतराविव नित्यं रज्यन्ति जननिवहाः ॥ ८ ॥ अन्वयः - जननिवहाः सुकुलं कुशलं सुजनं विहाय कुलकुशलशीलविकले अपि आये कल्पतरौ इव नित्यं रज्यन्ति ॥ ८ ॥
पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके
व्याख्या - जनानां निवहा जननिवहाः = जनसंघाः । सुकुलं = श्रेष्ठवंशजम् । कुशलं = प्रवीणम् । सुजनं = सज्जनं निर्धनम् । विहाय = परित्यज्य । कुलं === विशुद्धो वंशः, कुशलं = कौशलम्, शीलं सद्वृत्तम् कुलं च कुशलं च शीलं च कुलकुशलशीलानि तैः विकलः कुल- कुशल -शील विकलः तस्मिन् कुलकुशलशील- विकले = कुलीनतादिगुणरहिते अपि । आढये = धनसम्पन्ने जने । कल्पतरौ = सकलमनोरथपूरके = कल्पवृक्षे इव । नित्यं = निरन्तरम् । रज्यन्ति = अनुरक्ता भवन्ति । जनसमूहो लोके सत्कुलीनतादिकमनपेक्ष्य निर्गुणमपि धनिकं समा- द्रियते इत्यर्थः ॥ ८ ॥
हिन्दी – लोग कुलीन, कुशल और उत्तम व्यक्ति को छोड़कर कुलीनता, चतुरता तथा शील से हीन भी धनी पुरुषों में कल्पवृक्ष की भांति अनुराग करते हैं अर्थात् लोगों की दृष्टि में गुणवान् की अपेक्षा धनवान् का ही अधिक महत्त्व होता है ॥ ८ ॥ विफलमिह पूर्वसुकृतं विद्यावन्तोऽपि फुलसमुद्भूताः । यस्य यवा विभवः स्यात्तस्य तदा दासतां यान्ति ॥ ६ ॥ अन्वय- इह पूर्वसुकृतं विफलं कुलसमुद्भूता अपि विद्यावन्तः यदा यस्य विभवः स्यात् तदा तस्य दासतां यान्ति ॥ ९ ॥
व्याख्या - इह = अस्मिन् संसारे । पूर्वं च तत् सुकृतं पूर्वसुकृतं पूर्वो• पार्जितं सत्कर्म । विगतं फलं यस्मिन् तत् विफलं = व्यथं भवति । यतो हि कुले सत्कुले समुद्भूताः = इति कुलसमुद्भूताः सत्कुलोत्पन्ना अपि । विद्यावन्तः = विद्वांसः पुरुषाः । यदा = यस्मिन् काले । यस्य = पुरुषस्य । विभवः = धनं स्यात् । तदा = तस्मिन् काले । तस्य = पुरुषस्य । दासतां = आज्ञाकारिताम् । यान्ति गच्छन्ति, स्वीकुर्वन्ति । विश्वस्मिन् जगति पूर्वोपाजितं सर्वं सत्कर्मादिकं धनिनां समक्षं व्यर्थं भवति, यतो हि तत् स्वं विस्मृत्य कुलजा अपि विद्वांसः धनिनां दासा भवन्तीति भावः ॥ ९ ॥ हिन्दी - इस संसार में पूर्वोपार्जित पुण्य भी व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि विद्वान् तथा सत्कुल में उत्पन्न व्यक्तियों को भी अकुलीन तथा मूखं धनी व्यक्ति की दासता स्वीकार करनी पड़ती है । अर्थात् अकुलीन धनी व्यक्ति के सामने सत्कुलोत्पन्न विद्वान् भी चापलूसी करते दिखाई पड़ते हैं ॥। ९ ॥
प कु य अ जा क्य न क वि प ग म f न जम् लं = लंच शील- रौ= नुरक्ता समा- निता, अनुराग अधिक दायस्य = पूर्वो• हि कुले -विद्वांसः तदा= च्छन्ति, समक्ष नांदासा क्योंकि व्यक्ति सामने क्षपणक कथा लघुरयमाह न लोकः कामं गर्जन्तमपि पति पयसाम् । सर्वमलज्जाकर मिह, यद् यत् कुर्वन्ति परिपूर्णाः ॥ १० ॥ अन्वय - लोकः कामं गर्जन्तमपि पयसां पतिम् अयं लघुः न बाह । इह परिपूर्णाः यत् यत् कुर्वन्ति ( तत् ) सर्वम् अलज्जाकर ( भवति ) ||१० ।।
व्याख्या - लोकः जनः । कामं = यथेच्छम् । गर्जन्तमपि = उच्चैर्नाएं कुर्वन्तमपि । पयसां जलानाम् । पति = स्वामिनं समुद्रम् । अयं लघुः प्रयं क्षुद्र इति न आह नहि कथयति । यतो हि इह = संसारे । परिपूर्णाः = श्रीमन्तः । यत् यत् कार्यं कुर्वन्ति = यद् यदाचरन्ति । तत्तत् सर्व= सकलम् । अलज्जाकरम् अलज्जावहम् । भवति जायते । यथा हि जनो व्यर्थं प्रलपन्तं समुद्रं न किश्विद ग्रूते यतो हि स महानस्ति तथैव धनिनां किचिदप्याचरणं न लब्जोत्पादकं जायते अपितु तत्कृतं सर्वं प्रशंसास्पदमेव भवति ॥ १० ॥
हिन्दी - व्यर्थं गरजते हुए समुद्र को ‘यह नीच है’ ऐसा कोई नहीं कहता, क्योंकि बड़े लोग जो कुछ कार्य करते हैं, वह लज्जाकर नहीं कहा जाता । अर्थात् - सम्पन्न व्यक्ति अनुचित कार्य करने पर भी निन्दनीय नहीं होता न वह अनुचित कार्य करते हुए लज्जित ही होता है, किन्तु निर्धन व्यक्ति अच्छा कार्य करने पर भी प्रशंसा का पात्र नहीं होता ॥ १० ॥ एवं सम्प्रधार्य भूयोऽप्यचिन्तयत् — तबहमनशनं कृत्वा प्राणानुत्सृमामि । किमनेन नो व्यर्थजीवितव्यसनेन ? एवं निश्चयं कृत्वा सुप्तः । अथ तस्य स्वप्ने पानिधिः क्षपणकरूपो वर्शनं वस्वा प्रोवाच - भोः श्रेष्ठिन् ! मा त्वं वैराग्यम गच्छ । अहं पद्मनिधिस्तव पूर्वपुरुषोपार्जितः । तवनेनैव रूपेण प्रातस्त्वगृह- मागमिष्यामि । तत्त्वयाऽहं लगुडप्रहारेण शिरसि ताडनीयः, येन फनकमयो भूत्वाऽक्षयो भवामि ।
उपास्या – एवं पूर्वोक्तप्रकारेण | सम्प्रधार्य = विचायं । भूयोऽपि = पुनरपि । अचिन्तयत् = चिन्तयामास । न अशनम् अनशनं= भोजनत्यागम् । कृत्वा = विहाय । प्राणान् = जीवनम् । उत्सृजामि परित्यजामि । अनेन = धनरहितेन । व्यर्थ - जीवितव्यसनेन = निरर्थकजीवनयापनेन । एवं इत्यम् । निश्चयं कृत्वा === निर्णयं विधाय । सुप्तः शयनं कृतवान् । अथ अनन्तरम् । पद्मनिधिः पद्म• नामको निधिः । निधयो हि नवसंख्यका विभिन्ननामानो भवन्ति । तथाहि-
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सु ८ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके महापद्मश्च पद्मश्च शङ्खो मकर कच्छपौ । मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खवंश्च निघयो नव ॥
क्षपणकरूपो = जैन भिक्षुरूपी वौद्ध भिक्षुरूपी वा । दर्षानं दत्त्वा = प्रत्यक्षीभूय । प्रोवाच = उक्तवान् । तव = भवतः । पूर्वपुरुषोपार्जितः पूर्ववंशजैः सवितः । अनेनैव रूपेण = क्षपणकरूपेण एव । लगुडप्रहारेण दण्डघातेन । ताडनीयः = हन्तव्यः । येन = ताडनेन । कनकमयः = सुवर्णमयः । अक्षय: अनश्वरः, चिर- स्थायी वा । भवामि = भविष्यामि । । हिन्दी - इस प्रकार विचार कर उसने पुनः सोचा- मैं अनशन कर प्राण त्याग कर दूँगा । इस निर्धनता में जीने की व्यर्थं दुराशा करने से क्या लाभ है ? ऐसा निश्चय कर वह सो गया । पद्मनिधि ने उसके सो जाने पर स्वप्न में जैनभिक्षु के रूप में दर्शन देकर कहा—ओ सेठ जी ! तुम विरक्त न होओ, मैं तुम्हारे पूर्वजों द्वारा कमाया हुआ. पद्मनिधि नामक कोष हूँ । कल मैं प्रात:- काल इसी रूप में तुम्हारे घर आऊँगा । तुम मेरे शिर पर लाठी से प्रहार करना, जिससे मैं सुवर्णमय होकर तुम्हारे निमित्त कभी कम न होने वाला धन हो जाऊँगा । अथ प्रातः प्रबुद्धः सन् स्वप्नं स्मरंश्चिन्ताचक्रमारूढ स्तिष्ठति-अहो, सत्योऽयं स्वप्नः कि वा असत्यो भविष्यति, न ज्ञायते । अथवा नूनं मिथ्याऽनेन भाव्यम् । यतोऽहमहनिशं केवलं वित्तमेव चिन्तयामि । उक्तं च-
व्याख्या - अथ = स्वप्नदर्शनानन्तरम् । प्रातः प्रबुद्धः प्रभातकाले जागृतः । सन् स्वप्नं स्मरन् स्वप्नं ध्यायन् । चिन्ताचक्रमारूढः = विचारपरम्परामग्नः । सत्य: = वास्तविकः । असत्यः = मिथ्या । नूनं निश्चयम् । मिथ्याऽनेन भाव्यम् । = । = असत्येन नूनं भवितव्यम् । यतः = यस्मात् कारणात् । अहर्निशम् = अहोरात्रम् । वित्तमेव धनमेव । चिन्तयामि = अनुशोचामि । उक्तं च कथितं च ।
} हिन्दी — बाद प्रातः काल नींद खुलने पर स्वप्न के विषय में वह तर्क-वितर्क करने लगा कि क्या यह स्वप्न सत्य होगा गा असत्य भी हो सकता है ? कुछ भी कहना कठिन है । अथवा असत्य ही होगा, क्योंकि मैं रात दिन केवल धन के विषय में ही सोचता हूँ। कहा भी गया है कि-
भूय । वतः । न:- चिर- प्राण लाभ स्वप्न होओ, नात:- बहार धन योऽयं यम् । युतः । मनः । व्यम् त्रम् । वितर्क कुछ धन क्षपणक कथा व्याधितेन सशोकेन चिन्ताग्रस्तेन जन्तुना । कामार्तेनाऽथ मत्तेन दृष्टः स्वप्नो निरर्थकः ॥ ११ ॥ अन्वयः - व्याधितेन सशोकेन चिन्ताग्रस्तेन कामार्तेन अथ मत्तेन दृष्टः स्वप्नः निरर्थकः ( भवति ) ।। ११ ।। जन्तुना
व्याख्या - व्याधितेन = रुग्णेन । सशोकेन = शोकाकुलेन । चिन्ताग्रस्तेन चिन्तामग्नेन । कामार्तेन = विषयासक्तेन । अथ यद्वा । मत्तेन = उन्मत्तेन । जन्तुना = जीवेन । दृष्टः - अवलोकितः । स्वप्नः निरर्थकः = निष्फलः भवति, जायते । रुग्णादिभिर्दृष्टः स्वप्नो न किमपि फलं प्रसूत इत्यर्थः ।। ११ ।। हिन्दी - रोगी, दुःखी, चिन्तित, कामासक्त और विक्षिप्त मनुष्य के द्वारा देखा गया स्वप्न निष्फल हो जाता है ॥। ११ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तस्य भायंया कश्चिन्नापितः पादप्रक्षालनायाहूतः अत्रान्तरे च यथानिर्विष्टः क्षपणकः सहसा प्रादुर्बभूव । अथ स तमालोक्य प्रहृष्टमना यथासन्नकाष्ठदण्डेन तं शिरस्यताडयत् । सोऽपि सुवर्णमयो भूत्वा तत्क्षणात् भूमौ निपतितः । अथ तं स श्रेष्ठी निभृतं स्वगृहमध्ये कृत्वा नापितं सन्तोष्य प्रोवाच- तदेतद्धनं वस्त्राणि च मया दत्तानि गृहाण । भद्र ! पुनः कस्यचिन्नाख्येयोऽयं वृत्तान्तः । ।
1 व्याख्या - एतस्मिन्नन्तरे = अस्मिन्नेव समये । तस्य = श्रेष्ठिनः । भार्यया = पल्या । पादप्रक्षालनाय = पादपक्षालन- नखकर्तन रञ्जनादि-कार्याय । कश्चिन्ना- पितः - एको नापितः । आहूतः = समाहूतः । अत्रान्तरे = अस्मिन्नेवासरे । यथा- निर्दिष्ट: = स्वप्ने यथानिर्दिष्टः । सहसा अकस्मात् । प्रादुर्वभूव = समागतः । सः = श्रेष्ठी । तं = क्षपणकरूपं पद्मनिधिम् । आलोक्य == दृष्ट्वा । प्रहृष्टमनाः = । प्रसन्नः सन् यथासन्नकाष्ठदण्डेन = समीपस्थ दारुखण्डेन । अताडयत् = प्रहारम- करोंत् । सोऽपि = क्षपणकोऽपि । तत्क्षणात् तस्मिन्नेव काले । सद्यः तत्काले एव । भूमौ निपतितः = पृथिव्यां पपात । अथ = अनन्तरम् । तं = मृतं सुवर्णमयं क्षपणकम् । स श्रेष्ठी = मणिभद्रः । निभृतं = निगूढम् । स्वगृहमध्ये कृत्वा = निजसद्मनि संस्थाप्य । नापितं सन्तोष्य = धनादिना पुरस्कृत्य । प्रोवाच = कथित- वान् । गृहाण = स्वीकुरुष्व । कस्यचित् न आख्येयः = कस्मं अपि न वक्तव्यः । अयं वृत्तान्तः = एष समाचारः 1
4 स १० पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके हिन्दी - इसी समय उसकी स्त्री ने पैर धोने, नख काटने तथा पैर रंगने के लिए एक नाई को बुलाया । ठीक उसी समय स्वप्न में देखा हुआ जैन भिक्षु एकाएक प्रकट हो गया । उसे देख अत्यन्त प्रसन्न हो सेठजी ने पास पड़े हुए लकड़ी के डण्डे से उसके सिर पर प्रहार कर ही दिया । वह भी तत्काल सुवर्ण- मय बनकर जमीन पर गिर गया । तव सेठ ने उसे अपने घर में छिपाकर नाई को द्रव्य से सन्तुष्ट कर कहा - मेरे द्वारा दिये गये, ये धन-वस्त्र- लो, यह समाचार किसी से भी न बताना । नापितोऽपि स्वगृहं गत्वा व्यचिन्तयत्- नूनमेते सर्वेऽपि नग्नकाः शिरसि ताडिता: काश्वनमया भवन्ति । तदहमपि प्रातः प्रभूतानाहूय लगुडे: शिरसि हन्मि, येन प्रभूतं हाटकं मे भवति । एवं चिन्तयतो महता कष्टेन निशा व्यक्तिचक्राम | अथ प्रभातेऽभ्युत्थाय वृहल्लगुडमेकं प्रगुणीकृत्य, क्षपणकबिहारं गत्वा जिनेन्द्रस्य प्रदक्षिणत्रयं विधाय, जानुभ्यामवन गत्वा वक्त्रद्वारन्यस्तोत्तरीयाश्वल- स्तारस्वरेणेमं श्लोकमपठत् -
1 व्याख्या - स्वगृहं गत्वा = निजगेहमुपसृत्य । व्यचिन्यत् = विचारितवान् । नूनं = निश्वयेन । नग्नकाः क्षपणकाः । शिरसि प्रताडिताः - मस्तके प्रहारिताः । काञ्चनमया: सुवर्णमयाः । भवन्ति जायन्ते । प्रभूतान् = प्रचुरान्, अधिक- संख्याकान् । आहूय = समाहूय । लगुडैः शिरसि हन्मि काष्ठखण्डः मस्तके ग्रह- । रिज्यामि । येन = प्रहारेण । प्रभूतम् = प्रचुरम् । हाटकं सुवर्णम् । एवं चिन्तयतः = इत्थं विचारयतः तस्य । महता कष्टेन अतिकष्टेन कथञ्चित् । निशा = रात्रिः । व्यतिचक्राम = व्यतीयाय । अथ = तदनन्तरम् । प्रभाते = प्रातःकाले । उत्थाय = शयनादुत्थाय । बृहल्लगुडमेकं = अतिदीर्घमेकं दण्डम् । प्रगुणीकृत्य = सज्जीकृत्य । क्षपणकविहारं = जैन भिक्षुक निवासभूतं मठम् । गत्वा = समुप- स्थाय । जिनेन्द्रस्य = भगवतो जिनस्य | प्रदक्षिणत्रयं = वारत्रयं प्रदक्षिणाम् । कृत्वा = विधाय । जानुभ्यामवनि गत्वा = जानुभ्यां भूमि संस्पृश्य । वक्त्र द्वार- न्यस्तोत्तरीयाश्वलः उत्तरीय वस्त्रेण पिहितमुखः । तारस्वरेण = उच्चस्वरेण । इमं श्लोकम् अपठत् = पद्य मिममुच्चारयत् ।
क्षपणक कथा ११ । 1
- 1- हिन्दी - इसके बाद नाई ने अपने घर जाकर सोचा- अवश्य ही, ये सभी जैन भिक्षु सिर पर प्रहार करने से सोने के हो जाते हैं । तो मैं भी सुबह अपने यहाँ अनेकों को बुलाकर दण्डों से शिर पर चोट करूंगा । जिससे मेरे पास भी अधिक धन हो जायेगा । इस प्रकार चिन्ता करते हुए उसने बड़ी कठिनाई से रात बितायी। पुनः सुबह उठकर एक बड़ी लाठी तैयार की ओर जैन भिक्षुओं के मठ में जाकर झुककर दुपट्टे के छोर को मुख पर रखते हुए ऊँचे स्वर से यह श्लोक पढ़ा- जयन्ति ते जिना येषां केवलज्ञानशाखिनाम् । आजन्मः स्मरोत्पत्ती मानसेनोषरापितम् ॥ १२ ॥ अन्वयः - केवलज्ञानशालिनां येषां भजन्मः स्मरोत्पत्ती मानसेन उबरा- यितम्, ते जिना: जयन्ति ॥ १२ ॥ व्याख्या - केवलज्ञानशालिनाम् = ज्ञानपरायणानाम् । येषां जेनक्षपणका- नाम् । आजन्मनः = जन्मत आरभ्य । स्मरोत्पत्ती - स्मरस्योत्पत्तिरिति स्मरोत्पत्तिः तस्यां स्मरोत्पत्ती = कामोत्पत्ती । मानसेन = चित्तेन । उषरायितं = उषरमिवा- चरितम् । ते प्रसिद्धाः कामहीना: । जिना: जैन साधवः । जयन्ति सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते । क्षारभूमी उप्तं बीजमिव जिनानां मनसि कामो नोत्पद्यते इति भावः ।। १२ ।।
हिन्दी - एकमात्र ज्ञानी, जिनके मन में कामविकार नहीं होता एवं जिन्होंने जन्म से ही कामोत्पत्ति के विषय में अपने मन को ऊपर भूमि के समान बना दिया, उन ज्ञानपरायण जिनों की जय हो ॥ १२ ॥ अव्यच्च- सा जिह्वा या जिनं स्तौति तच्चित्तं यज्जिने रतम् । तौ एव तु करौ श्लाघ्यो यौ तत्पूजाकरौ करौ ॥ १३ ॥ अन्वयः - सा जिह्वाया जिनं स्तोति, तत् चित्तं यत् जिने रतम्, तो एव करौ श्लाघ्यो, यो तत्पूजाकरी ।। १३ ।। र- " व्याख्या - सा जिह्वा = सैव स्तीति प्रार्थयति । तत् चित्तं रसना प्रशंसा तदेव मनः । । या जिनं = जिनाचार्यम् । यत् जिने रतम् = जिनेऽनुरक्तम्,
- १२. पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके भवति । तो एव करो = हस्ती | श्लाघ्यो = प्रशंसनीयो । यो तत्पूजाकरी जिन पूजको स्त: । जिनस्तुत्यादिभिरेव रसनादीनां सार्थक्यमिति भावः ॥ १३ ॥
हिन्दी — और भी, मनुष्य की वही जीभ जीभ है, जो भगवान् जिन को स्तुति करती है । वही मन वास्तविक रूप से मन है, जो जैनभिक्षुओं में लीन रहता है और वे ही हाथ प्रशंसनीय हैं, जो इन जिनों की पूजा करते हैं ||१३|| तथा च- ध्यान व्याजमुपेत्य चिन्तयसि कामुन्मील्य चक्षुः क्षणं पश्यानङ्गशरातुरं जनमिमं त्राताऽपि नो रक्षसि । मिथ्याकारुणिकोऽसि निघृणतरस्त्वत्तः कुतोऽन्यः पुमान्, सेष्यं मारवधूभिरित्यभिहितो बौद्धो जिनः पातुः वः ॥ १४ ॥ अन्वयः - व्यानव्याजम् उपेत्य कां चिन्तयसि, क्षणं चक्षुः उन्मील्य अनङ्ग- शरातुरम् इमं जनं पश्य, त्राता अपि नो रक्षसि, मिथ्याकारुणिकः असि, त्वत्तः निर्घुणतरः अन्यः पुमान् कुतः मारवधूभिः, सेष्यंम् इति अभिहितः बौद्धः जिनः वः पातु ।। १४ । | व्याख्या - ध्यानस्य व्याजं ध्यानव्याजं तत् ध्यानव्याजं = कपटसमाधिम् । उपेत्य = विधाय । कां प्रेयसीम् । चिन्तयसि = ध्यायसि । क्षण-क्षणमात्रं । चक्षुः = लोचनम् । उन्मील्य = उद्घाटय । अनङ्गस्य शरा अनङ्गशराः तैः आतुरः अनङ्ग- शरातुरः तमनङ्गशरातुरं = कामवाणप्रपीडितम् । इमं जनं = पुरोवर्तिनंम् जनं मां पश्य = विलोकय । त्राताऽपि = रक्षकोऽपि । नो रक्षसि = रक्षां न करोषि । मिथ्या =असत्यमेव । कारुणिकः = दयालुरसि । त्वत्तः = युष्मत् । निर्घृणतरः = निर्दयः । अन्यः पुमान् = इतरो मनुष्यः । कुतः = कोऽस्ति । इति इत्थम् । मार- वधूभिः = मदनपत्नीरतिसुन्दरीभिः अप्सरोभिः । सेव्यं इष्यंया सहितम् । अभि हितः = निगदितः । बौद्धः = सावधान | जिनः = जिनाचार्य:, बौद्ध भिक्षुः भगवान् बुद्धो वा । वः युष्मान् । पातु रक्षतु । समाधि विहाय कामवधूरतिसमसुन्दर्यः कामाकुला वयं दृष्टिपातादिना नूनं सभाजनीया इति भावः ॥ १४ ॥
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। हिन्दी—मोर भी— ध्यान का बहाना बनाकर आप किस सुन्दरी का ध्यान कर रहे हो, थोड़ी देर के लिए आंखों को तो खोलो और काम के बाणों से व्यथित
H क्षपणक कथा १३ इस जन - हमारी ओर तो देखो, आश्चर्य है, आप रक्षक होकर भी रक्षा नहीं कर रहे हो, आप झूठ मूठ से दयालु बने हो । आप से बढ़कर निर्दयी कोई दूसरा नहीं है । इस प्रकार ईर्ष्यायुक्त होकर काम की पत्नी रति के समान सुन्दरी अप्सराओं के द्वारा आक्षिप्त जितेन्द्रिय भगवान् जिन आप लोगों की रक्षा करें। एवं संस्तूय, ततः प्रधानक्षपकणमासाद्य क्षितिनिहितजानुचरण: ’ नमोऽस्तु, वन्दे’ इत्युच्चार्य, लग्घषमंवृद्ध पाशीर्वादः सुखमालिकाऽनुग्रहलब्धव्रतादेश उत्तरीय- निबद्धप्रन्थिः सप्रश्रयमिदमाह - भगवन् ! अद्य विहरणक्रिया समस्तमुनिसमेते- नास्मद्गृहे कर्तव्या ।
व्याख्या — एवं = इत्थम् । संस्तुत्य = स्तुति कृत्वा । प्रधानक्षपणकं प्रमुख- भिक्षुम्, मठाधीशम् । आसाद्य प्राप्य । क्षितौ निहितो जानुचरणो येन स क्षिति- निहितजानुचरण: = भूमिगतजानुपादप्रदेशः । धर्मस्य वृद्धिः धर्मवृद्धिः धर्मवृद्धे- राशीर्वादः धर्मवृद्ध्याशीर्वादोः, लब्धः धर्मवृद्धघाशीर्वादो येन स लब्धधर्म वृद्धया- शीर्वादः = धर्म वृद्धेराशीर्वादमवाप्य । सुखार्थं धारिता मालिका सुखमालिका तस्या अनुग्रहः तेन लब्धः व्रतस्य आदेशो येन स सुखमालिकानुग्रहलब्धव्रतादेशः अनु- ग्रहपुष्पमालिकया प्राप्तव्रतादेशः । उत्तरीयेण निबद्धा ग्रन्थिः येन स उत्तरीय- निबद्धग्रन्थिः दुकूलाबद्धग्रन्थिः । सप्रश्रयं = सानुनयम् । विहरणक्रिया अशन- क्रिया, भिक्षाटनं वा । समस्त मुनि समेतेन सकलभिक्षुसहितेन । अस्मद्गृहे = मम. गेहे । कर्तव्या = कृपया विधेया ।
हिन्दी - इस प्रकार प्रशंसा करके वह नाई प्रमुख भिक्षु के पास गया और पृथ्वी पर घुटना टेककर बैठ गया और विनीत भाव से उनसे यह कहा- आपको नमस्कार है, मैं आपकी वन्दना करता हूँ। मुख्य भिक्षु ने धर्मवृद्धि का आशी- र्वाद दिया और अपने गले की माला निकालकर उसको प्रदान कर व्रत एवं उपवास आदि की शिक्षा दी । आशीर्वाद पाने के पश्चात् उसने अपने दुपट्टे को गले में लपेटते हुए बड़ी नम्रता से निवेदन किया-भगवन् ! सभी भिक्षुओं के साथ आज का भोजन मेरे घर पर होवे । स आह-भोः श्रावक ! धर्मज्ञोऽपि किमेवं वदसि, किं वयं ब्राह्मणसमानाः,
१४ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके यत आमन्त्रणं करोषि ? वयं सदैव तत्कालपरिचर्यया भ्रमन्तो भक्तिभाजं श्रावक- मवलोक्य तस्य गृहे गच्छामः । तेन कृच्छ्रादययितास्तद्गृहे प्राणधारणमात्रा- मशनक्रियां कर्मः । तद्गम्यताम्, नैवं भूयोऽपि वाच्यम् । I तच्छ्रुत्वा नापित आह— भगवन् ! वेवम्यहं युष्मद्धर्मम् । परं भक्तो बहु- श्रावका आह्वयन्ति । साम्प्रतं पुनः पुस्तकाच्छादनयोग्यानि कर्पटानि बहुमूल्यानि प्रगुणीकृतानि । तथा पुस्तकानां लेखनार्थं लेखकानां च वित्तं सवितमास्ते । - तत्सर्वथा कालोचितं कार्यम् ।
व्याख्या - स आह = प्रधानक्षपणकः प्रोवाच । श्रावक ! = जिनानुरागिन् । धर्मज्ञोऽपि = धर्मस्वरूपं जानन्नपि । किमेवं वदसि = कथमेतादृशं कथयसि । वयं = जिना: ब्राह्मणसमाना:- ब्राह्मणैः समाना ब्राह्मणसमाना:- विप्रसदृशा । आमन्त्रणं = निमन्त्रणम् । तत्कालपरिचयंया = तत्काले परिचर्या तत्कालपरिचर्या तया तत्कल परिचर्यया = भोजन कालोचित विहारेण । भ्रमन्तः = बंभ्रम्यमाणाः भक्ति- भाजं भक्तिमन्तम् । श्रावकं = जैन गृहम् | अवलोक्य = विलोक्य | कच्छात् अभ्यर्थिता = बहुशः प्रार्थिताः । तद्गृहे तस्य गेहे । प्राणधारणमात्राम् = जीवनरक्षामात्राम् । अशन क्रियाम् = भोजनव्यापारम् । तद्गच्छ - तस्माद् गम्यताम् । नैवं भूयोऽपि वाच्यम् = एवं पुनरपि त्वया न वक्तव्यम् । I
तच्छ्रुत्वा = क्षपणकप्रधानस्य कथनमाकर्ण्य । वेदम्यहं सर्वमवगच्छामि । युष्मद्धर्म-भवद्धर्मम् । बहुश्रावकाः = बहवो भक्ताः । माह्वयन्ति=समाह्वयन्ति । साम्प्रतम् = इदानीम् | पुस्तकाच्छादनयोग्यानि - पुस्तकानामाच्छादनं पुस्तकाच्छादनं तस्य योग्यानि पुस्तकाच्छादनयोग्यानि = पुस्तक बन्धनो चितानि धर्मग्रन्थवेष्टनो- चितानि । कपटानि = वस्त्राणि । बहूनि मूल्यानि येषां तानि बहुमूल्यानि = महार्हाणि । प्रगुणीकृतानि = सचितानि । लेखकानां = ग्रन्थलेखकानाम् । वित्तं= धनम् । सवितं = एकत्रीकृतम् । कालोचितं = समयोचितं । कार्यं = विधेयम् । हिन्दी - उसकी प्रार्थना सुनकर उस प्रमुख भिक्षु ने कहा-श्रावक ! धर्मज्ञ होते हुए भी तुम कैसी बातें करते हो, क्या हमलोग ब्राह्मणों के समान हैं कि तुम निमन्त्रण दे रहे हो ! हम लोग भोजन के समय स्वयं घूमते फिरते किसी श्रद्धालु गृहस्थ को देखकर उसके घर चले जाते हैं उसके बहुत आग्रह करने पर क- ना- हु- नि 1 1 यं= नणं या त- ता । पि न दनं तो- तं= ज्ञ कि सी पर क्षपणक कथा १५ केवल जीवन निर्वाह के निमित्त अपेक्षित भोजन करते हैं। तुम यहां से तत्काल चले जाओ और भविष्य में पुनः ऐसा नहीं कहना । उस जैन भिक्षु की बात सुनकर नाई ने कहा- भगवन् ! मैं आपके धर्म नियमों को भलीभांति जानता हूँ, किन्तु आपके बहुतेरे भक्त हैं और आप लोगों को सदा बुलाते रहते हैं । इस समय मैंने धर्म ग्रन्थों को बाँधने के लायक तथा ग्रन्थों के लिखने वाले विद्वानों के बहुमूल्य वस्त्रों को सश्चय कर रखा है हेतु पारिश्रमिक रूप में देने के लायक द्रव्य भी एकत्र कर रखा है । फिर भी . सब प्रकार से विचार कर जैसी इच्छा हो कीजिएगा । ( सम्भव है - मैं इस प्रकार पुनः सामानों को इकट्ठा न कर पाऊँगा । ) ततो नापितोऽपि स्वगृहं गतः । तत्र च गत्वा खदिरमयं लगुडं सज्जीकृत्य कपाटयुगलं द्वारि समाधाय सार्द्धप्रहरंकसमये भूयोऽपि विहारद्वारमाश्रित्य सर्वान् क्रमेण निष्क्रामतो गुरुप्रार्थनया स्वगृहमनयत् । तेऽपि सर्वे कर्पटवित्तलोभेन भक्तियुक्तानपि परिचितभावकान् परित्यज्य प्रहृष्टमनसस्तस्य पृष्ठतो ययुः । अथवा साध्विदमुच्यते- ।
। व्याख्या – ततः = तदनन्तरम् । स्वगृहं गतः = निजगृहं प्राप्तः । तत्र च गत्वा = स्वगृहमुपेत्य । खदिरमयं = खदिरकाष्ठनिर्मितम् । लगुडं दण्डम् । सज्जीकृत्य = सुसज्जितं कृत्वा । कपाटयुगलं = कपाटद्वयम् । द्वारि= द्वारदेशे । समाधाय = पिधाय परीक्ष्य च । सार्द्धप्रहरेकसमये दशवादनवेलायाम् । विहारद्वारं = जैनाश्रमद्वारम् | आश्रित्य = उपस्थाय । निष्क्रामतः = निर्गच्छतः । गुरुप्रार्थनया= = महता निर्बन्धेन, आग्रहपूर्वकम् । स्वगृहं = निजं गेहम् । आनयत् = आनीत- वान् । तेऽपि सर्वे सकलाः जैनसाधवोऽपि । कपेटवित्तलोभेन = वस्त्रद्रव्यादि- लोभेन । भक्तियुक्तान् विनयान्वितान्, भक्तिमतः । परिचितश्रावकान् = परिचितभक्तान् । परित्यज्य = त्यक्त्वा । प्रहृष्टमनसः - प्रसन्नचेतसः सन्तः । तस्य = नापितस्य । पृष्ठतो ययुः पश्चादनुययुः । अथवा साधु इदमुच्यते = वा इदं समीचीनं कथ्यते-
हिन्दी- -तब नाई अपने घर चला गया । उसने जाकर खेर की लकड़ी की एक लाठी तैयार की ओर बाहर के दोनों दरवाजों को बन्द कर दिया । डेढ़ दिन आने के बाद वह पुन: जैन विहार के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो पहर गया । भिक्षा के निमित्त बाहर निकलते हुए उन जैन भिक्षुओं को बड़ी विनती
१६ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके से अपने घर ले गया। वे सब वस्त्र एवं द्रव्य के भक्तिमान् गृहस्थों को छोड़कर अतिप्रसन्न चित्त से दिये । अथवा ठीक ही कहा है- एकाकी गृहसन्त्यक्तः गृहसन्त्यक्तः पाणिपात्रो सोऽपि संवाह्यते लोके तृष्णया पश्य अन्वयः - ( इदम् ) कौतुकं पश्य, एकाकी, दिगम्बरः सोऽपि लोके तृष्णया संवाह्यते ।। १५ ।। । लोभ से परिचित विश्वस्त उस नाई के पीछे-पीछे चल दिगम्बरः । कौतुकम् ॥ १५ ॥ गृहसन्त्यक्तः पाणिपात्रः व्याख्या — इदं कौतुकम् = एतदाश्वर्यम् । पश्य = अवलोकय । एकाकी = एककः यः कलत्रादिरहितः सन् । गृहसन्त्यक्तः = परित्यक्तगृहः । पाणिपात्रः = पाणिरेव पात्रं यस्य स पाणिपात्रः अथवा पाणी पात्रं यस्य स पाणिपात्रः पाणिर्नव पात्रकार्यं निर्वहन् करपात्री । दिगम्बरः दिश एवाम्बराणि यस्य स दिगम्बरः = दिग्वस्त्रो नग्नः वा । सः तादृशोऽपि पुरुषः । लोके = विश्वस्मिन्न- स्मिन् । तृष्णया लिप्सया लोभेन वा । संवाह्यते = परिचाल्यते, आकृष्यते । अर्थात् लोभो विरक्तमप्याकर्षति ॥ १५ ॥ हिन्दी - यह आश्चयं देखो, एकाकी, घर को त्यागकर देने वाला, नग्न ही पात्र समझनेवाला स्यागी मनुष्य भी अनेक रहने वाला, अपने हाथों को लालसाओं में पड़ जाता है ।। १५ ।। जीयंन्ते जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः । चक्षुः श्रोत्रे च जीयेंते तृष्णका तरुणायते ॥ १६ ॥ अन्वयः - जीर्यतः (मनुष्यस्य) केशा जीयंन्ते, जीर्यंतः दन्ता जीर्यन्ति चक्षुः श्रोत्रे च जीयेंते । एका तृष्णा तरुणायते ॥ १६ ॥ . । व्याख्या – जीर्यतः = जीर्णतां वयोहानि गच्छतः वृद्धस्य मनुष्यस्य । केशाः शिरोरुहाः, जीर्यन्ते= जीर्णा शुक्ला भवन्ति । जीर्यतो वृद्धस्य दन्ताः = दशना अपि जीर्यन्ति = जीर्णत्वमापन्नाः सन्तः पतन्ति, शिथिला वा भवन्ति । चक्षः = नेत्रम् । श्रोत्रे = कर्णौ च । जीयँते श्रावणदर्शनाक्षमे भवतः । एका-केवला । तृष्णा = लालसा एव | तरुणायते तरुणीवदाचरतीति तरुणायते =न जीर्णा भवतीत्यर्थः ॥१६॥ हिन्दी - वृद्ध होने पर मनुष्य के केश पक जाते हैं। दांत जीणं होकर गिर
म f क व अ स f ह ज्ञ ग स्त चल T: || || R -
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ग्न नेक TT: पि म् । ६ पर क्षपणक कथा १७ जाते हैं । आंख और कान शिथिल हो जाते हैं, किन्तु तृष्णा ( लालसा ) सदा युवती ही बनी रहती है । अर्थात् सभी इन्द्रियों के शिथिल हो जाने पर भी मनुष्य क्री तृष्णा कम नहीं होती, उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है ॥ १६ ॥ ततः परं गृहमध्ये तान् प्रवेश्य, द्वारं निभृतं पिधाय, लगुडप्रहारैः शिर- स्यताडयत् । तेऽपि ताड्यमाना एके मृताः, अन्ये भिन्नमस्तका फूत्कतुमुपचक्र- मिरे । अत्रान्तरे तमाक्रन्दमाकर्ण्य कोटरक्षपालेनाऽभिहितम् - “भो भो ! किमयं कोलाहलो नगरमध्ये ? तद्गम्यताम् ।” ते स सर्वे तदादेशकारिणस्तत्सहिता बेगात्तद्गृहं गता यावत् पश्यन्ति तावद्रधिरप्लाबितदेहाः पलायमाना नग्नका दृष्टाः पृष्टाश्च भोः किमेतत् ? ते प्रोचुर्यथाऽवस्थितं नापितवृत्तम् ।
व्याख्या - ततः परं तेषां तद्गृहागमनानन्तरम् । गृह्मध्ये = स्वगृहाभ्यन्तरे । तान् = क्षपणकान् । प्रवेश्य = तेषां प्रवेशं विधाय । निभृतं सुप्रच्छन्नं गुप्तरूपेण वा । पिधाय = पिहितं कृत्वा अवरुध्य वा । लगुडप्रहारै:- लगुडस्य प्रहारा लगुडप्रहाराः तैः लगुडप्रहारैः दण्डाघातैः । शिरसि = मस्तके, मूनि वा । अताडयत् = ताडयामास । तेऽपि = क्षपणका अपि । ताड्यमानाः = व्याहताः सन्तः । तत्र एके = केचन । मृता = प्राणरहिताः जाताः । अन्ये = इतरे अव- शिष्टाः । भिन्नमस्तकाः = छिन्नशिरस्काः स्फुटितशिरसो वा, फुत्कर्तुम् उपचक्रमिरे == आरेभिरे, प्रारब्धवन्तः । अत्रान्तरे = अस्मिन्नवसरे । तमाक्रन्दं तं कोसा- हलं, तमाक्रोशं था । आकण्यं निशम्य । कोटरक्षपालेन नगररक्षाधिकारिणा । अभिहितम् - निगदितम् । भो भोः = अरे रक्षकाः ! किमयं कोलाहलः = कीदृशो- ऽयमाक्रन्दरवः ? नगरमध्ये = नगराभ्यन्तरे श्रूयते इति । तद्गम्यताम् = तस्मात् ज्ञातुं गच्छन्तु भवतः । तदादेशकारिणः = नगराध्यक्षाज्ञापालकाः । ते सर्वे च नगररक्षकाः । तत्सहिताः = दुर्गपालेन समेताः । वेगात् = झटिति । तद्गृहं गताः - नापित गृहमुपस्थिताः । यावत् पश्यन्ति = अवलोकयन्ति । तावत् रुधिर- प्लावित देहाः = रक्तार्द्रशरीराः । नग्नकाः क्षपणकाः । इतस्ततः पलायमानाः = धावन्तः । दृष्टाः = निरीक्षिता: । पृष्टाश्च-अपृच्छ्यन्त । किमेतत् = किमभूत् । ते = क्षपणकाः, जैनभिक्षवः । यथावस्थितं यथाऽऽदितः सञ्जातम् । नापितवृत्तम् =तापितेन कृतं कर्म । प्रोचुः = कथयामासुः । हिन्दी - तदुपरान्त उन जैन भिक्षुकों को घर के अन्दर प्रवेश कराकर चुप- चाप गुप्त रूप से दरवाजों का बन्द कर दिया और लाठी से उनके सिर पर RC Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri १८ पश्खतन्त्रस्यापरीक्षितकारके मारना शुरू कर दिया । मार खाकर कुछ तो मर गये और अवशिष्ट दूसरे शिर फूटने के कारण हाहाकार करते हुए रोने लगे। इसी बीच नगर के रक्षक कोतवाल ने उस शोर को सुनकर अपने सिपाहियों से कहा- अरे-अरे, नगर के बीच में यह कैसा शोर हो रहा है ? शीघ्र जाओ और पता लगाओ । उसकी आज्ञा का पालन करने वाले उन सभी सिपाहियों ने उनके साथ तेजी से तत्काल घटनास्थल पर पहुंचकर देखा कि खून से लथपथ क्षपणक इधर-उधर भाग रहे हैं। उन्हें देखकर दुर्गपाल ने पूछा- अरे, यह क्या हुआ ? तब क्षपणकों ने नाई के यहाँ घटित सारे वृत्तान्तों को सप्रसंग कह सुनायां । तंसि नापितो बद्धो हतशेषः सह धर्माधिष्ठानं नीतः । तैर्नापितः पृष्टः- “भोः, किमेतद् भवता ककृत्यमनुष्ठितम् ?” स आह-“कि करोमि । मया श्रेष्ठिमणिभद्रगृहे दृष्टः एवंविधो व्यतिकरः ।” सोऽपि सर्वं मणिप्रभवृत्तान्तं यथादृष्टमकथयत् । ततः श्रेष्ठिनमाहूय, ते भणितवन्त:- “भोः श्रेष्ठिन् ! · कि त्वया कश्चित्क्षपणको थापादितः ?” ततः तेनाऽपि सर्वः क्षपणकवृत्तान्तस्तेषां निवेदितः । अथ तैरभि- हितम् - “अहो शूलमारोप्यतामसो दुष्टात्मा कृपरिक्षितकारी नापितः ।” 1
व्याख्या - तैरपि = नगररक्षकैरपि । कोटपालैः = राजपुरुषैः । स नापितः क्षीर- कर्मकारी | बद्धः निगडितः । हतशेषः सह मृतावशिष्टैः साकम् । धर्माधिष्ठानं= न्यायालयम् । नीतः = प्रापितः । तैः = न्यायाधीशेः । कुकृत्यं = गहितं निन्दितं वा कर्म । अनुष्ठितम् = कृतम् । एवंविधः = इत्थंप्रकारकः । व्यतिकरः = विपरीता- चरणयुक्तः प्रसङ्गः । सोऽपि नापितोऽपि । यथादृष्टम् येन प्रकारेण दृष्टम् । आहूय - आकारयित्वा । भणितवन्तः = अपृच्छन् । व्यापादितः हतः । तेनापि = श्रेष्ठिनापि । क्षपणकवृत्तान्तः = स्वद्वारदृष्टक्षपणकप्रसङ्गः । निवेदितः = कथितः । तैः = न्यायाधीशैः । अभिहितं = कथितम्, आज्ञप्तं वा । अहो = नूनम् शूलम् = वधसाधनम् । आरोप्यताम् । असी = एष । दुष्टात्मा=दुर्बुद्धिः । कुपरी- क्षितकारी = असमीक्ष्यकारी । । हिन्दी - बाद में उन सिपाहियों ने उन नाई को बाँधकर मरने से बचे हुए क्षपणकों के साथ न्यायालय में उपस्थित कर दिया । वहीं न्यायाधीशों ने नाई से पूछा -अरे, तुमने यह क्या कुकृत्य कर डाला ? तब नाई ने कहा- हजुर, मैं क्या करूँ, मैंने सेठ मणिभद्र के घर इसी
क्षपणक कथा १६ दूसरे नगर के रे-अरे, गाओ । के साथ झपणक हुआ ? श्री । पृष्टः- करः ।" अपणको तैरभि- ==क्षीर• धिष्ठानं= निन्दितं परीता• दृष्टम् । तेनापि दितः =
- नूनम् । कुपरी- बचे हुए ने नाई वर इसी प्रकार की घटना देखी थी और मणिभद्र के घर घटे समस्त प्रसंग को यथावत् कह सुनाया । उस घटना को सुनकर न्यायाधीशों ने मणिभद्र को बुलाकर पूछा – सेठजी, पूछा-सेठजी, क्या आपने किसी क्षपणक की हत्या की है ? इसपर मणिभद्र ने स्वप्न में दृष्ट क्षपणक के समस्त वृत्तान्त को कह सुनाया । मणिभद्र के मुख से सारी घटना सुनने के बाद न्यायाधीशों ने आदेश देते हुए सिपाहियों से कहा—ओह, बिना ठीक ठीक परीक्षा किये कार्य को करनेवाले इस अविवेकी दुष्ट नाई को शूली पर चढ़ा दो । तथाऽनुष्ठिते तैरभिहितम् - “कदृष्टं कपरिज्ञातं कुत्रुतं कुपरीक्षितम् । तन्नरेण न कर्तव्यं नापितेनाऽत्र यत्कृतम् ॥” अथवा साध्विदमुच्यते व्याख्या - तथा = तेन प्रकारेण । अनुष्ठिते कृते, शूलमारोपिते । तैः = न्यायाधीशैः । अभिहितं -कथितम् - कुदृष्टमित्यादि । अत्र नापितेन कुदृष्टं कुपरिज्ञातं कुश्रुतं कुपरीक्षितं यत् कृतं तत् नरेण न कर्तव्यम् । श्लोकोऽयं पूर्वं व्याख्यातोऽते न पुनर्व्याख्यायते । अथवा साधु = सम्यक् । इदम् = एतत् । उच्यते । 1 हिन्दी – नाई को शूली पर चढ़ा देने के बाद न्यायाधीशों ने कहा- “विनः भली भांति देखे, बिना अच्छी तरह जाने एवं सुने और बिना परीक्षा किये किसी काम को नहीं करना चाहिए, जैसा कि इस मूर्ख नाई ने किया ।” अथवा ठीक ही कहा है कि- “अपरीक्ष्य न कर्तव्यं कर्तव्यं सुपरीक्षितम् । पश्चाद्भवति सन्तापो ब्राह्मण्या नकुले यथा” ॥ १७ ॥ मणिभद्र आह- ‘कथमेतत् ?" ते धर्माधिकारिणः प्रोचुः- अन्वयः — अपरीक्ष्य न कतव्यम्, सुपरीक्षितं कर्तव्यम् । पश्चात् सन्तापो भवति यथा ब्राह्मण्या नकुले ( अभवत् ) । S व्याख्या - अपरीक्ष्य परीक्षां विना, अविचार्य असमीक्ष्य वा । किमपि न कर्तव्यम् = नैव करणीयम् । सुपरीक्षितम् = सम्यगालोचितम् सुविचारितम् । फर्तव्यं = विधेयम् । पश्चात् - असमीक्ष्यकृते । अनन्तरं सन्तापो भवति = पश्चात्तापो जायते । यथा येन प्रकारेण । ब्राह्मण्याः ब्राह्मणपत्न्याः । नकुले =
२० पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके नकुले मृते, नकुलविषये, अभवत् । तस्मात् असमीक्ष्यकारी पश्चात्तापमवाप्नो- तीति भावः । मणिभद्र आह= मणिभद्र उवाच । ते धर्माधिकारिणः = न्यायाधीशाः । प्रोचुः उक्तवन्तः । हिन्दी - बिना भली भांति समझे बूझे तथा परीक्षा किये किसी कार्य को नहीं करना चाहिए, जिस कार्य को करना हो उसकी पूरी जानकारी कर लेनी चाहिए। अन्यथा कार्य कर चुकने पर मनुष्य को पश्चात्ताप करना पड़ता है, जैसा कि नेवले की मृत्यु के बाद ब्राह्मणी को पश्चात्ताप करना पड़ा था ।। १७ ॥ . मणिभद्र ने पूछा- यह कैसे ? न्यायाधीशों ने पुनः कहना शुरू किया– १. ब्राह्मणी- नकुल-कथा “कस्मिश्चिदधिष्ठाने देवशर्मा नाम ब्राह्मणः प्रतिवसति स्म । तस्य भार्या प्रसूता सुतमजनयत् । तस्मिन्नेव दिने नकुली नकुलं प्रसूय सृता । अथ सा सुतवत्सला दारकवत्तमपि नकुलं स्तन्यदानाऽभ्यङ्गमर्दनादिभिः पुपोष, परं तस्य म विश्वसिति । अपत्यस्नेहस्य सर्वस्नेहातिरिक्ततया सततमेवमाशङ्कते यत्- कदाचिदेष स्वजातिदोषवशादस्य दारकस्य विरुद्धमाचरिष्यति इति । उक्तं च- a व्याख्या - अधिष्ठाने नगरे । प्रतिवसति स्म निवसति स्म । तस्य भार्या = विप्रस्य स्त्री । प्रसूता गर्भिणी । सुतम् = पुत्रम् | अजनयत् = उत्पादयामास । नकुली = नकुलस्य स्त्री । प्रसूय उत्पाद्य । मृता मृतवती । अथानन्तरम् । सुतवत्सला = पुत्रस्नेहवती । दारकवत् =स्वपुत्रवत् । तमपि = मातृहीनं नकुली- बालकमपि । स्तन्यदानाऽभ्यङ्गमर्दना दिभिः - स्तने भवं स्तन्यं दुग्धं तस्य दानम्; अभ्यङ्गं तैलाभ्यञ्जनम्, मर्दनं च तथा स्तन्यदानं च अभ्यङ्गं च मर्दनं च स्तन्यदा- नाभ्यङ्गमर्दनानि तानि एव आदीनि स्तन्यदानाभ्यङ्गमर्दनादीनि तैः स्तन्यदाना- भ्यङ्गमर्दनादिभिः = दुग्धपानतैलादिलेपन-प्रभृतिभिः उपकरणेः । पुपोष=पालयां- मास । तस्य नकुलस्य । न विश्वसिति विश्वासं न करोति । अपत्य- स्नेहस्य = पुत्रप्रेम्णः । सर्वस्नेहातिरिक्ततया = अन्यापेक्षया स्नेहाधिकतया । सततं = निरन्तरम् । आशङ्कते आशङ्कां करोति स्म । स्वजातिदोषवशात् — स्वस्य जातेः दोषः तद्वशात् = निजजातिदोषात् । अस्य दारकस्य = मम पुत्रस्य । विरु- दम् = अनिष्टम् । आचरिष्यति = करिष्यति । उक्तं च = कथितं च ।
प्नो- TT: 1 售價 को लेनी जैसा ॥ भार्या न्य सा तस्य पत्- च- नार्या= मास । तरम् । कुली- दानम् अन्यदा- दाना- लिया- अपत्य- सततं
- स्वस्थ विरु- ब्राह्मणी-नकुल-कथा २१ हिन्दी - किसी नगर में देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था । उसकी गर्भिणी स्त्री ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसी दिन एक नेवली भी एक नेवले को उत्पन्न करके मर गयी । तब पुत्र पर स्नेह करनेवाली उस ब्राह्मणी ने पुत्र के समान उस नेवले को भी दुग्धपान, उबटन तथा तेल मालिश आदि क्रिया के द्वारा पाला पोशा । किन्तु वह उसका विश्वास नहीं करती थी । पुत्रस्नेह के सर्वोपरि होने के कारण हमेशा डरती रहती थी कि कभी यह अपने जातिगत दोष के कारण पुत्र का अनिष्ट न कर बैठे ? क्योंकि कहा भी गया है- कुपुत्रोऽपि भवेत्पुंसां हृदयानन्दकारकः । दुर्विनीतः कुरूपोऽपि, मूर्खोऽपि व्यसनी, खलः ॥ १८ ॥ अन्वयः - दुर्विनीतः, कुरूप:, मूर्खः, व्यसनी, खलः, कुपुत्रोऽपि पुंसां हृदया- नन्दकारकः भवति ।। १८ ।।
व्याख्या - दुर्विनीतः = दुर्नयः । कुरूपः कुत्सितं रूपं यस्य स कुरूपः असुन्दरः । मूर्खः=अशिक्षितः । व्यसनी - व्यसनमस्ति अस्येति व्यसनी-दुवं सः खलः = दुष्टः । कुपुत्रोऽपि = कृत्सितः सूनुरपि । पुंसां जनानाम् । हृदयानन्द- कारकः - हृदयस्यानन्दः इति हृदयानन्दः, हृदयानन्दं करोतीति हृदयानन्दकारकः = हृदयाह्लादको भवति । कपुत्रेष्वपि पुमांसो नूनमेव स्नेहं कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ १८ हिन्दी - अपना पुत्र चाहे कितना भी दविनीत, कुरूप, मूर्ख, व्यसनी ता दुर्वृत्त क्यों न हो, वह अपने माता-पिता के हृदय को आह्लादित करनेवाला होता है ।। १८ ।। एवं च भाषते लोकश्चन्दनं किल शीतलम् । संस्पर्शश्चन्दनादतिरिच्यते ॥ १६ ॥ पुत्रगात्रस्य अन्वयः - लोकः च एवं भाषते ( यत् ) चन्दनं किलं शीतलं ( भवति, किन्तु ) पुत्रगात्रस्य संस्पर्शः (तु) चन्दनात् अतिरिच्यते ॥ १९ ॥ व्याख्या - लोकः = जननिवहः । एवं = अनेक प्रकारेण । भाषते = वदति ! यत् चन्दनं = मलयजम् । किल = खलु । शीतलम् = सुखप्रदम् । भवति । किन्तु पुत्रगात्रस्य – पुत्रस्य गात्रं पुत्रमात्रं तस्य पुत्रगात्रस्य = सुतशरीरस्य : संस्पर्शः== स्पर्शः तु चन्दनात् = पाटीरादपि । अतिरिच्यते = अधिकः सुखकरो भवति । तनयस्याङ्गे जायमानः स्पर्शो मनस्तापं शमयतीत्यर्थः ॥ १९ ॥ हिन्दी - लोग ऐसा कहते हैं कि चन्दन अत्यन्त शीतल होता है किन्तु पुत्र के शरीर का स्पर्श तो चन्दनसे भी बढ़कर शीतल तथा मानन्ददायक होता है ।। १९।।
२२ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके सोहृदस्य न वाञ्छन्ति जनकस्य हितस्य च । लोकाः प्रपालकस्याऽपि, यथा पुत्रस्य बन्धनम् ॥ २० ॥ अन्वयः - लोकाः यथा पुत्रस्य बन्धनं वाञ्छन्ति ( तथा ) सौहृदस्य जन- कस्य हितस्य च प्रपालकस्य अपि ( बन्धनं ) न ( वाञ्छन्ति ) ॥ २० ॥
अन्वयः - लोकाः – जनसमुदायाः । यथा येन प्रकारेण । पुत्रस्य = सुतस्य । बन्धनं स्नेहपाशम् । वाञ्छन्ति = इच्छन्ति । तथा
मित्रस्य । जनकस्य = पितुः । हितस्य = हितकारिणो वा । 1 सौहृदस्य सौहार्दस्य, प्रपालकस्य = पोषकस्य । बन्धनं न वाञ्छन्ति । सुतस्य स्नेहपाशः सर्वाधिक इति भावः ॥ २० ॥ हिन्दी - लोग जैसा पुत्र के स्नेह बन्धन को चाहते हैं वैसा न मित्र के, न पिता के, न हितैषी एवं पालन-पोषण करनेवालों के बन्धन को चाहते हैं ॥ २०॥ अथ सा कदाचिच्छय्यायां पुत्रं शाययित्वा जलकुम्भमादाय पतिमुवाच - “ब्राह्मण ! जलार्थमहं तडागे यास्यामि । त्वया पुत्रोऽयं नकुलाद्रक्षणीयः ।” अथ तस्यां गतायां, पृष्ठे ब्राह्मणोऽपि शून्यं गृहं मुक्त्वा भिक्षार्थं क्वचिचन्नि- र्गतः । अत्रान्तरे देववशात् कृष्णसर्पों विलान्निष्क्रान्तः । नकुलोऽपि तं स्वभाव - वैरिणं मत्वा भ्रातुः रक्षणार्थं सर्पेण सह युद्ध्वा, सपं खण्डशः कृतवान् । ततो रुधिराप्लावितवदनः सानन्दं स्वव्यापारप्रकाशनार्थं मातुः सम्मुखो गतः । माताऽपि तं रुधिरक्लिन्नमुखमालोक्य शङ्कितचित्ता “नूनमनेन दुरात्मना दारको भक्षितः” इति विचिन्त्य कोपात्तस्योपरि तं जलकुम्भं चिक्षेप । ।
। व्याख्या - सा - ब्राह्मणी । कदाचित् = एकदा । शय्यायाम् = पर्यङ्के । शाय- यित्वा = शयनं कारयित्वा । जलकुम्भं – पानीयार्थघटम् । आदाय गृहीत्वा । पतिमुवाच = स्वस्वामिनमाह । जलार्थ = जलं नेतुम् । तडागे = सरोवरे । यास्यामि = गच्छामि । त्वया = भवता । रक्षणीयः = संरक्ष्यः । तस्यां = ब्राह्मणपत्न्याम् गतायां = प्रस्थितायाम् । पृष्ठे = पश्चात् । शून्यं = बालकाविरिक्तजनरहितं निर्जनम् । गृहं गेहम् । मुक्त्वा = विहाय । भिक्षायं = भिक्षाटनाय । क्वचित् = कुत्रापि । निर्गतः = निष्क्रान्तः बहिर्गतः । अत्रान्तरे =अस्मिन्नवसरे । देववशात् = दुर्भाग्यात् । कृष्णसर्पः = कृष्णकायो भुजङ्गमः । विलात् = स्वविवरात् । निष्क्रान्तः = बहिरा - गतः तं = कृष्णसर्पम् । स्वभाववैरिणं सहजशत्रुम् । मत्वा = ज्ञात्वा । भ्रातुः = ब्राह्मणीपुत्रस्य | रक्षणायं = परित्राणाय । युद्ध्वा = युद्धं विधाय । खण्डशः खण्डं- खण्डम् । कृतवान्=अकरोत् । ततः = तदनन्तरम् । रुधिरप्लावितवदनः - रुधि- रेण प्लावितं वदनं यस्य स रुधिरप्लावितवदनः = रक्त क्लिन्न मुख: । सानन्दनम् = I
जन- तस्य । र्दस्य, कस्य । के, न १२०॥ च- चन्नि- भाव- मुखो त्मना शाय- त्वा । स्यामि याम् । नम् । पि । याद । हिरा- तु:- खण्डं-
- रुधि- नम्=
ब्राह्मणी-नकुल-कथा २३ आनन्देन सहितं यथा स्यात्तथा सानन्दम् । स्वव्यापारप्रकाशनार्थ = स्वकृत्यं प्रकटयितुम् । मातुः ब्राह्मण्याः । सम्मुखे = समक्षे । गतः = उपस्थितः । शङ्कितचित्ता - शङ्कितं चित्तं यस्याः सा शङ्कितचित्ता=माशङ्कितहृदया । रुधिर- क्लिन्नमुखं = रुधिरार्द्रवदनम् । अवलोक्य = विलोक्य । नूनं निश्चयम् । अनेन = एतेन । दुरात्मना = दुष्टहृदयेन । दारकः = बालकः । भक्षितः खादितः । इति विचिन्त्य = एवं विचार्य । कोपात् = क्रोधात् । तस्योपरि = तस्मिन् । जलकुम्भं = जलघटम् ! चिक्षेप = पातयामास । 1 L और हिन्दी - बाद एक दिन उस ब्राह्मणी ने पुत्र को शय्या पर सुलाकर जल के घड़े को लेकर पति से कहा- स्वामिन् ! मैं जल लाने के लिए तालाब पर जा रही हूँ । आप इस नेवले से बालक की रक्षा करना । उसके चले जाने पर ब्राह्मण भी घर को खाली छोड़कर भीख लाने के लिए कहीं चला गया । इसी समय दुर्भाग्य से एक काला सांप बिल से निकला । देखते ही उसे अपना स्वभाविक शत्रु समझकर भाई की रक्षा के निमित्त सर्प के साथ लड़कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । नेवले ने उस सर्प को फिर ब्राह्मणी के लौटने पर वह नेवला प्रसन्नतापूर्वक अपने कार्य को प्रकट करने के लिए खून से लथपथ मुँहवाला माता के पास पहुँचा । वह उसके रक्तार्द्र मुख को देखते ही शङ्कित हो उठी और यह सोचकर कि इस पापी नेवले ने मेरे पुत्र को मारकर खा लिया है, क्रोधातुर हो उसने जल से भरे घड़े को नेवले के ऊपर पटक दिया । एवं सा नकुलं व्यापाद्य यावत्प्ररूपती गृहे आगच्छति, तावत्सुतस्तर्थव सुप्तस्तिष्ठति । समीपे कृष्णसर्व खण्डशः कृतमवलोक्य पुत्रवधशोकेनात्मशिरो वक्षःस्थलं च ताडितुमारब्धा ।
अत्रान्तरे ब्राह्मणो गृहीतनिर्वापः समायातो यावत्पश्यति, तावत्पुत्रशोकाऽभि- तप्ता ब्राह्मणी प्रलपति - “भो भो लोभात्मन् । लोभाऽभिभूतेन त्वया न कृतं मद्वचः । तदनुभव साम्प्रतं पुत्रमृत्युदुःखवृक्ष फलम् ।” अथवा साध्विदमुच्यते- व्याख्या - एवं = अनेन प्रकारेण । नकुलं व्यापाद्य नकुलं हत्वा । प्रलपन्ती = विलपन्ती । गृहे आगच्छति = गेहं प्रविशति । तथैव = यथास्थापितः । सुप्तः = शयानः । पुत्रवधशोकेन पुत्रस्य पुत्रसदृशस्य नकुलस्य यो वधो हननं तज्जन्यो यः शोकः तेन पुत्रवधशोकेन = पुत्रतुल्यनकुलवधशोकेन । आत्मशिरः = स्वमस्तकम् । वक्षःस्थलं = वक्षः प्रदेशम् । ताडितुमारब्धा = प्रताडितुमारब्धा ।
।
२४ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके
अत्रान्तरे = एतस्मिन्नेव समये । गृहीतनिर्वापः - गृहितः निर्वापः येन स गृहीत- निर्वाण: = लब्धभिक्षः, लब्धप्रतिग्रहो वा । समायातः आगतः । पुत्रशोकाभि- सन्तप्ता - पुत्रशोकेन अभिसन्तप्ता पुत्रशोकाभिसन्तप्ता = नकुलवधशोकदुःखिता । प्रलपति = विलपति । लोभाभिभूतेन = लोभाकृष्टेन । मद्वचः मम वचनम् । अनुभव = अनुभवं कुरु । साम्प्रतम् = इदानीम् । पुत्रमृत्युदुः खवृक्ष फलम् - पुत्रमृत्योः = नकुलवधस्य यद् दुःख तदेव वृक्षः तरुः इति पुत्र मृत्युदुः खवृक्षस्तस्य फलम् = सुतवधशोकवृक्ष फलम् । साध्विदमुच्यते = सम्यगिदं कथ्यते- 1 हिन्दी - इस प्रकार नेवले को मारकर विलाप करती हुई वह ब्राह्मणी ज्यों ही घर में आयी । त्यों ही उसने पुत्र को पूर्ववत् सोते हुए देखा और खाट के पास में ही टुकड़े-टुकड़े किये हुए काले सांप को देखकर वह नकुल की मृत्यु से शोका- कुल हो उठी और अपनी छाती एवं माथे को पीट-पीटकर रोने लगी । इतने में भिक्षा लेकर ब्राह्मण भी आ गया। घर के अन्दर जाकर देखा कि नकुल के वध से ब्राह्मणी शोकाकुल हो बिलख-बिलखकर रो रही है। पति को देखते ही उसने रोकर कहा- अरे लोभी, लोभाभिभूत होकर तुमने मेरी बात नहीं मानी तो अब पुत्र की मृत्यु के दुःखरूपी वृक्ष के फल को भोगो । अथवा यह ठीक ही कहा गया- “अतिलोभो न कर्तव्यो लोनं नैव परित्यजेत् । अतिलोभाऽभिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके” ॥ २१ ॥ ब्राह्मण आह - " कथमेतत् ?” सा प्राह- अन्वयः - अतिलोभो न कर्तव्यः, लोभं नैव परित्यजेत् । ( यतः ) अति- लोभाभिभूतस्य ( जनस्य ) मस्तके चक्रं भ्रमति ।। २१ ।। व्याख्या - अतिलोभः = अधिकलोभः । न कर्तव्यः =न कार्यः । सर्वथा लोभं नैव परित्यजेत् = न च दूरीकुर्यात् । अतिलोभाभिभूतस्य — अघिको लोभः अति- लोभः, अतिलोभेन अभिभूत इति अतिलोभाभिभूतः तस्य अतिलोभाभिभूतस्य == अत्यधिकलोमाकृष्टस्य जनस्य । मस्त के=मूहिन, शिरसि । चक्रं = विपद्रूपं चक्रम् । भ्रमति = प्राम्यति । अतिलोभो हि परिणामे दुःखजनको जायते इति भावः ॥२१॥ कथमेतत्= एतत्कथानकं कथमस्ति । सा आहू = ब्राह्मणी ब्रूते- 1 । हिन्दी - अधिक लालच नहीं करना चाहिये और सर्वदा लालच का त्याग भी नहीं करना चाहिए। अति लोभी मनुष्य के मस्तक पर चक्र घूमता है ।।२१।। ब्राह्मण ने पूछा- यह कैसे ? तब ब्राह्मणी ने कहना आरम्भ किया- गृहीत- काभि- खिता । चनम् । त्रमृत्योः फलम् मी ज्यों के पास शोका- इतने में के वध उसने तो ठीक ही अति- लोभं अति- तस्य= क्रम् | २१॥ त्याग २१॥
- लोभाविष्टचक्रधर-कथा २. लोभाविष्टचक्रधर - कथा २५ ‘कस्मिचिदधिष्ठाने चत्वारो ब्राह्मणपुत्राः परस्परं मित्रतां गता वसन्ति स्म । ते चाऽपि वारिद्रयोपहताः परस्परं मन्त्रं चक्रुः - “अहो, घिगियं दरिद्रता । उक्तं च- व्याख्या - अधिष्ठाने = नगरे । ब्राह्मणपुत्राः = ब्राह्मणस्य तनयाः । परस्परं = मिथः अन्योऽन्यम् । मित्रतां गताः = मित्रत्वमापन्नाः । वसन्ति स्म = निवसन्ति स्म । ते = ब्राह्मणपुत्राः । दारिद्रयोपहताः = दारिद्र्यदुःखेन दुःखिताः । मन्त्र चक्क्रुः =मन्त्रयामासुः । विचारं कृतवन्त इति यावत् । हिन्दी - किसी नगर में चार ब्राह्मणपुत्र आपस में मित्रता करके रहते थे । दरिद्रता से दुःखित होकर उन लोगों ने आपस में सलाह की । अहो ! इस दरिद्रता को धिक्कार है, क्योंकि कहा गया है- वरं वनं व्याघ्रगजादिसेवितं, जनेन हीनं बहुकण्टका वृतंम् । तृणानिशम्या परिधानवल्कलं, न बन्धुमध्ये धनहीनजीवितम् ॥ २२ ॥ अन्वयः - व्याघ्रगजादिसेवितं जनेन हीनं, बहुकण्टकावृतं वनं तृणानि शय्या परिधान वल्कलं वरं (किन्तु) बन्धुमध्ये धनहीनजीवितं न वरं (भवति) । व्याख्या - व्याघ्रगजा दिसेवितम् - व्याघ्राश्च गजादयश्चेति व्याघ्रगजादयः तैः सेवितमिति व्याघ्रगजा दिसे वितम् = शार्दूल द्विपादियुतम् । जनेन हीनम् = निर्जनम् । बहुकण्टकावृतम् - बहुभिः कण्टकैः आवृतं बहुकण्टकावृतम् = नाना- कण्टकाकीर्णम् । वनं विपिनम् । तत्र च तृणानि शय्या = तृणमयं शयनीयम्, तृणासनं वा । परिधानवल्कलम् - परिधाने वल्कलं परिधानवल्कलं = भूजं - पत्रादित्वग्मयं परिधानम् । वरं = श्रेष्ठम् । किन्तु बन्धु मध्ये = बन्धूनां मध्यं वन्धु- मध्यं तस्मिन् बन्धु मध्ये ज्ञातिमध्ये । धनहीनजीवितम् — घनेन हीनं जीवितं धनहीनजीवितं = निर्धनजीवनम् । वरं श्रेष्ठं न भवति । दरिद्रस्य पुंसः बन्धुभिः साकं गृहेऽवस्थानापेक्षया वनवास एव श्रेयानिति भावः ॥ २२ ॥
हिन्दी - सिंह, हाथी आदि हिस्रजन्तुओं से युक्त, मनुष्यरहित, कुश काँटों से भरा जङ्गल में रहना, और वहाँ वल्कल वस्त्र धारण करना तथा घास- फूस के बिछावन पर सोना अच्छा, किन्तु बन्धु बान्धवों के बीच निर्धन होकर जीवन व्यतीत करना अच्छा नहीं ॥ २२ ॥
-२६ तथा च- पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके स्वामी द्वेष्टि सुसेवितोऽपि, सहसा प्रोज्झन्ति सद्बान्धवाः, राजन्ते न गुणास्त्यजन्ति तनुजाः, स्फारीभवन्त्यापदः । भार्या साधु सुवंशजाsपि भजते नो, यान्ति मित्राणि च, न्यायारोपित विक्रमाप्यपि नृणां येषां न हि स्याद्धनम् ॥ २३ ॥ अन्वयः - हि येषां नृणां धनं न स्यात्, सुसेवितोऽपि स्वामी ( तान् ) द्वेष्टि, सद्बान्धवा अपि सहसा प्रोज्झन्ति गुणा न राजन्ते; तनुजाः त्यजन्ति, आपदः स्फारीभवन्ति, सुवंशजा अपि भार्या साधु न भजते, न्यायारोपित- विक्रमाणि मित्राणि अपि यान्ति ॥ २३ ॥
। =
व्याख्या - हि = निश्वयेन । येषां = मनुष्याणाम् । धनं= वित्तम् । न स्यात् = न भवेत् । सुसेवितोऽपि सम्यगनुसृतोऽपि । स्वामी = प्रभुः । तान् द्वेष्टि = न मन्यते । सद्बान्धवाः स्वज्ञातयः । प्रोज्झन्ति = त्यजन्ति । गुणाः= सौजन्यादयः । न राजन्ते न शोभन्ते, न वा प्रकाशन्ते । तनुजाः = पुत्राः । त्यजन्ति = मुञ्चन्ति । तेषाम् आपदः - विपत्तयः । स्फारीभवन्ति न स्फारा अस्फाराः अस्फाराः स्फारा भवन्तीति स्फारोभवन्ति = विपुलोभवन्ति, विवर्द्धन्ते । सुवंशजा - सुष्ठु वंशे जाता सुवंशजा = सत्कुलजा अपि । भार्या = स्त्रीः । तान् = मनुष्यान् । साधु = सम्यक् | नो भजते=न सेवते, यथा कथ- चित् कष्टेन सेवते । अपि न न्यायारोपित विक्रमाणि - न्यायेन=नीत्या आरोपितः =आलम्बितः, विक्रम = पराक्रमः यंस्तानि न्यायारोपितविक्रमाणि= नीतिमार्गा- नुमारीण्यपि । मित्राणि = सुहृदः । यान्ति गच्छन्ति । दूरे भवन्ति । तथा च निर्धनो मानवः सर्वैरुपेक्ष्यमाण कष्टेनावतिष्ठते इति तात्पर्यम् ॥ २३ ॥ |
। हिन्दी - जिन मनुष्यों के पास धन नहीं है—भली भांति सेवा करने पर भी स्वामी उनसे द्वेष करता है । अच्छे बन्धुगण भी उनको एकाएक छोड़ देते हैं । उनके गुण शोभा नहीं देते उनके पुत्र भी उनको छोड़ देते हैं। आपत्तियाँ बढ़ती जाती हैं । अच्छे खानदान में उत्पन्न पत्नी भी भलीभांति उनकी सेवा नहीं करती तथा न्याय मार्ग पर चलनेवाले मित्र भी दूर हो जाते हैं ।। २३ ।। शूरः सुरूपः सुभगश्च वाग्मी, शस्त्राणि शास्त्राणि विदांकरोतु | अर्थ विना नैव यशश्व मानं, प्राप्नोति मर्त्योऽत्र मनुष्यलोके ॥ २४ ॥
1 ज्ञानू ) जन्ति, दीपित- । न तान् गा:= सुत्राः । स्फारा नवन्ति, र्या = कथ- रोपितः मार्गा- तथा च पर भी देते हैं । ‘बढ़ती वा नहीं ॥ लोभाविष्टचक्रघर - कथा
२७ अन्वयः – शूरः सुरूपः सुभगः शस्त्राणि शास्त्राणि (वित्) वाग्मी विदाङ्करोतु (यत्) अत्र मनुष्यलोके मर्त्यः अर्थ विना यशः मानं च नैव प्राप्नोति ॥ २४ ॥ व्याख्या – शूरः = वीरः । सुरूपः = रूपवान् । सुभगः सुन्दरः । शस्त्राणि । = आयुधानि । शास्त्राणि धर्मशास्त्रादीनि । ( वित् यः पुरुषः ) वाग्मी = वाचालः । विदाङ्करोतु = जानातु (यत्), अत्र = अस्मिन् । मनुष्यलोके = मत्र्यलोके । मर्त्यः = मानवः । अर्थं विना = धनमन्तरा । यशः = कीर्तिम् । मानं = सम्मानम् । च नैव प्राप्नोति = न लभते । शस्त्र शास्त्रावगन्तुरपि निर्धनस्य पुंसः यशः- सम्मानी दुर्लभो भवत इति भावः ।। २४ ।। हिन्दी - शूरवीर, रूपवान्, सौभाग्यशाली, शस्त्र, ज्ञ शास्त्रज्ञ, और वाक्पटु मनुष्य यह जान लें कि इस संसार में मनुष्य धन के बिना कीर्ति और सम्मान को प्राप्त नहीं कर सकता ॥ २४ ॥ तानीन्द्रियाण्यविकलानि, तदेव नाम, सा बुद्धिरप्रतिहता, वचनं तदेव । अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः स एव बाह्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् ॥ २५ ॥ अन्वयः - एतत् विचित्रं ( यत् ) तानि एव अविकलानि इन्द्रियाणि, तदेव नाम, सा एव अप्रतिहता बुद्धिः, तदेव वचनं ( तथापि ) अर्थोष्मणा विरहितः स एव पुरुषः क्षणेन बाह्यो भवति ।। २५ ।।
व्याख्या - एतत् विचित्रं = अत्यद्भुतं वर्तते ( यत् = यद्यपि पुरुषस्य ) तानि एव पूर्ववदेव | अविकलानि-न विकलानि अविकलानि = अशिथिलानि अनुप- हतानि । इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि । तदेव = पूर्वतनमेव । नाम = अभिधानम् । अस्ति । अप्रतिहता-न प्रतिहता अप्रतिहता=अनवरुद्धा सर्वत्र स्फुरद्रूपा सा बुद्धिः = घी: मतिः । तदेव = पूर्ववदेव | वचनम् = त्रचः वर्तते । किन्तु अर्योष्मणा - अर्थस्य उष्मा अर्थोमा तेन अर्धोष्मणा = धनस्योष्णतया । विरहितः = हीनः । स एव = पूर्वावस्थोऽपि पुरातनः । पुरुषः = मानवः । क्षणेन = झटिति । बाह्यः= सर्वलोकतिरस्कृतोऽन्य इव । भवति = जायते । घनस्योपाये निर्गते स एव नरः सर्वतो बहिर्भूतो लोकानामप्रियो भवतीति भावः ।। २५ ।।
हिन्दी - यह आश्चर्य है कि शक्ति से परिपूर्ण काम करनेवाली वे इन्द्रियां हैं, वही नाम है, वही अकुण्ठित ( न रुकनेवाली तीव्र ) बुद्धि है ओर वही वाणी भी है, तो भी धन की गर्मी से रहित हुआ वह पुरुष क्षणभर में
२८ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके ही बाहरी पराया हो जाता है । अर्थात् ऐसा बदल जाता है कि कोई उसे पहचानता तक नहीं ॥ २५ ॥ " तद्गच्छामः कुत्र चिदर्थाय ।” इति सम्मन्ध्य स्वदेशं पुरं च स्वसहृत्सहितं गृहं च परित्यज्य, प्रस्थिताः । अथवा साध्विदमुच्यते– व्याख्या — कुत्रचित् = क्वचित् । अर्थाय = अर्थोपार्जनार्थम् । सम्मन्त्र्य = विचार्य । परित्यज्य = त्यक्त्वा । प्रस्थिताः = प्रचलिताः । हिन्दी - अनः हमें भी अर्थोपार्जन के लिए कहीं जाना चाहिए । ऐसा विचार करके अपने देश, ग्राम, मित्र, बन्धु बान्धव तथा गृह का त्याग करके अथवा ठीक ही कहा चारों ब्राह्मण कुमार अर्थोपार्जन के निमित्त चल पड़े । गया है- सत्यं परित्यजति मुञ्चति वन्धुवर्ग, शीघ्रं विहाय जननीमपि जन्मभूमिम् । सन्त्यज्य, गच्छति विदेशमभीष्टलोकं, चिन्ताकुलीकृतमतिः पुरुषोऽत्र लोके ।। २६ । ॥ अन्वयः - अत्र लोके चिन्ताकुलीकृतमतिः पुरुषः सत्यं परित्यजति, बन्धुवगं मुखति, जननी जन्मभूमि अपि विहाय अभीष्टलोकं सन्त्यज्य शीघ्रं विदेशं गच्छति ।। २६ ।। अन्वयः - अत्र लोके = अस्मिन् भूमण्डले । चिन्ता कुली कृतमतिः - चिन्तया अकुलीकृता मतीर्यस्य स चिन्ताकुलीकृतमतिः = चिन्ताव्याकुलचित्तः । पुरुषः मानवः । सत्यं परित्यजति = सत्यं त्यजति । बन्धुवर्ग = कुटुम्बादिकं । सुभ्वति== त्यजति । जननीं = मातरम् । जन्मभूमि = स्वोत्पत्तिस्थानम् । शीघ्रं त्वरितम् । सन्त्यज्य = मुक्त्वा । अभीष्टलोकं = स्वप्रियस्थानम् । विहाय त्यक्त्वा । गच्छति = याति । गार्हस्थ्य चिन्ताकुलस्य पुंसो विदेशगमनमेव शरणमिति भावः ।। २६ ।। ।
हिन्दी - इस संसार में विभिन्न चिन्ताओं से व्याकुल होकर मनुष्य सत्य का परित्याग कर देता है ( अर्थात् मनुष्य धन कमाने के लिए झूठ का सहारा लेता है ), बन्धु बान्धवों को छोड़ देता है ( अर्थात् परिवार के व्यक्तियों का स्नेह भी उसे रोक नहीं सकता ) जननी एवं जन्मभूमि का परित्याग कर देता है और अपने प्रिय स्थान को छोड़कर परदेश चला जाता है ।। २६ ।॥ एवं क्रमेण गच्छन्तोऽवन्तीं प्राप्ताः । तत्र सिप्राजले कृतस्नानाः महाकालं प्रणम्य यावन्निर्गच्छन्ति, तावद् भैरवानन्दो नाम योगी संमुखो बभूव । ततस्तं
उसे व्हतं सा 可席阅 रके चहा वर्ग देशं नया न । । ति त्य रा का देता कालं तस्तं लोभाविष्टचक्रधर- कया २६ ब्राह्मणोचित विधिना सम्भाव्य, तेनैव सह तस्य मठं जग्मुः अथ तेन पृष्टाः- “कुतो भवन्तः समायाताः ? क्व यास्यय ? कि प्रयोजनम् ?” ततस्तेरभिहितम् - “वथं सिद्धियात्रिकाः, तत्र यास्यामो यत्र धनाप्तिर्मृत्युर्वा भविष्यतीत्येष निश्चयः” । उक्तश्व -
व्याख्या - एवं इत्थम् । क्रमेण = क्रमशः । गच्छन्तः = चलन्तः । अवन्तीं = उज्जयिनीम् । प्राप्ताः = उपस्थिताः । तत्र = उज्जयिन्याम् । सिप्राजले = सिप्रा- नामनद्याः सलिले । कृतस्नानाः कृतं विहितं स्नानं स्नानक्रिया, येस्ते कृत• स्नानाः स्नानं कृत्वा । महाकालं महाकालनामकं शिवलिङ्गम् । प्रणम्य = नमस्कृत्य । यावत् = यावदेव । निर्गच्छन्ति = निष्क्रामन्ति । तावत् = तावदेव । भैरवानन्दो नाम = भैरवानन्दनामकः । योगी = गोरक्षसम्प्रदायानुयायी साधकः । सम्मुखे = समक्षे । बभूव = अभवत् । ततः = तदनन्तरम् । तं = भैरवानन्दनामकं योगिनम् । ब्राह्मणोचितविधिना = ब्राह्मणयोग्य विधानेन । सम्भाव्य सत्कृत्य, अभिवाद्य दा । तेनैव सह - भैरवानन्देन साकम् । मथं = कुटीरम् | जग्मुः = गतवन्तः । सिद्धयात्रिका: - सिद्धये यात्रिकाः सिद्धिपात्रिकाः = धनादिसिद्धये गमनशीलाः । धनातिः - धनस्य आतिः धनाप्तिः = धनलाभः । मृत्यु = मरणं वा । एष निश्चयः निर्णयः ।
हिन्दी - इस प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हुए वे उज्जयिनी पहुँच गये । वहाँ सिप्रा नदी के जल में स्नान के बाद महाकालनामक शिवजी को प्रणाम करके जैसे ही मन्दिर से निकलते हैं वैसे ही भैरवानन्द नामक योगी सामने जा पहुँचा । तब ब्राह्मणोचित विधि से उसको प्रणाम करने के बाद वे चारों उन्हीं के मठ तक चले गये । वहाँ पहुँचकर भैरवानन्द ने उन लोगों से पूछा- आप लोग कहीं से आ रहे हैं ? और कहाँ जायेंगे ? तथा क्या काम है ? तब उन लोगों ने कहा- हम अर्थोपार्जन की सिद्धि के लिए यात्रा करने वाले हैं। वहीं जायेंगे जहाँ धन की प्राप्ति हो अथवा मरण हो जाय । यही हम लोगों का निश्चय है। कहा भी गया है- दुष्प्राप्याणि बहूनि च लभ्यन्ते वाञ्छितानि द्रविणानि । अवसरतुलिताभिरलं तनुभिः साहसिक पुरुषाणाम् ॥ २७ ॥ अन्वयः - साहसिक पुरुषाणां, व्यवसरतुलिताभिः तनुभिः अलं वाञ्छितानि द्रविणानि बहूनि दुष्प्राप्याणि च लभ्यन्ते ।। २७ ।।
३० पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके व्याख्या - साहसिक पुरुषाणां - साहसेन कार्यं कर्वन्तीति साहसिकाः ते च ते पुरुषा इति साहसिकपुरुषाः तेषां साहसिकपुरुषाणाम् = उद्योगिनां मानवानाम् । श्रवसरतुलिताभिः — अवसरे तुलिता अवसरतुलिताः ताभिः अवसरतुलिताभिः = समये तुलामारोपिताभिः । परीक्षिताभिः = पूर्णरूपेण कार्यकारिभिः । तनुभिः शरीरैः । अलं == पर्याप्तम् । वाञ्छितानि = अभिलषितानि । द्रविणानि = घनानि । बहूनि=बहुलानि । दुष्प्राप्याणि दुर्लभानि कष्टसाध्यानि । लभ्यन्ते = प्राप्यन्ते । शारीरिकैः श्रमैरभिलषितं धनं भवति सुलभमिति भावः ॥ २७ ॥ 1
हिन्दी - कार्य के समय अपने शरीर को तुलापर चढ़ा देने वाले, जान की बाजी लगा लेने वाले, साहसी व्यक्तियों को अभिलषित सम्पत्ति तो मिल ही जाती है, अनेक दुष्प्राप्य वस्तुएं भी मिल जाती हैं ॥। २७ ॥ तथा च- पतति कदाचिन्नभसः खाते, पाताळतोऽपि जलमेति । देवमचिन्त्यं बलवद्द बलवान्ननु पुरुषकारोऽपि ॥ २८ ॥ अन्वयः - अचिन्त्यं देवं वलवत्, ननु पुरुषकारोऽपि बलवान् । कदाचित् जलं नभसः खाते पतति, ( कदाचिद् ) पातालतोऽपि खातम् एति ॥ १३ ॥ 1 व्याख्या - अचिन्त्यं - चिन्तायोग्यं चिन्त्यं न चिन्त्यमचिन्त्यम् - अ चिन्तनीयम् । दैवं = भाग्यम् । बलवत् = शक्तिमत् । ननु = निश्चयम् । पुरुषकारोऽपि = पुरुषा- र्थोऽपि । बलवान् शक्तिमान् । भवति । कदाचित् = कस्मिन्नपि काले । जलं = पानी- यम् । नभसः= आकाशात् (दृष्टिरूपेण) । खाते जलाशये पुष्करिण्यादी । पतति = समा- गच्छति । कदाचिच्च पातालतोऽपि = पाताल लोकादपि, भूगर्भादपि ( खननोत्पन्न- विवरद्वारा ) खाते=कूपादी, एति = आगच्छति । अर्थात् वर्षाकाले जलम् आका- शात् जलाशयेषु निपतति तथा पुरुषार्थद्वारा भूगर्भादपि उत्खनने जलाशयादो । हिन्दी - यद्यपि अचित्य भाग्य तो बलवान् होता ही है, कभी पुरुषार्थ भी बलवान् हो जाता है । क्योंकि, कभी ( वर्षा काल में ) तो पानी आकाश से } जलाशय में गिरता है और पुरुषार्थं से खोदे हुए जलाशय में (कूपतालाब आदि में ) पाताल से भी निकलता है । अर्थात् कभी पानी आकाश से जलाशय में गिरता है और कभी पुरुषार्थं द्वारा पाताल से भी जलाशय में ( निकलता है ) ॥ २८ ॥ अभिमतसिद्धिरशेषा भवति हि पुरुषस्य पुरुषकारेण । दैवमिति यदपि कथयसि पुरुषगुणः सोऽप्यदृष्टाख्यः ॥ २६ ॥
ते न Tie 1 की ही चत् न । ET- नी- समा
का- । भी से ब से में लोभाविष्टचक्रधर कथा ३१ अन्वयः - पुरुषकारे पुरुषस्य अशेषा अभिमतसिद्धिः भवति, हि यदपि देवमिति कथयसि अदृष्टाख्यः पुरुषगुणः ( एव भवति ) ।। २९ ।। व्याख्या - पुरुषकारेण = पुरुषार्थेन । पुरुषस्य मनुष्यस्य । अशेषा = नि:- शेषा सम्पूर्णा । अभिमतसिद्धिः = वाञ्छितार्थसिद्धिः, इष्टसिद्धिः, इच्छित फल - प्राप्तिर्वा । भवति जायते । हि=निश्चयेन | यदपि = यत् किल । देवं = भाग्यम् । बलवद् = बलान्वितमस्ति । इति कथयसि = ब्रवीषि । सोऽपि = पुरुष• गुणः, पुरुषस्यैव प्रयत्नोऽस्ति कर्मणा परिणामस्वरूपमपूर्वमदृष्टं तावद्भाग्या- परपर्यायं पुरुषप्रयत्नेनैव साध्यमिति भावः ॥ २९ ॥ = । = । हिन्दी - पुरुषार्थ से ही मनुष्य की सारी मनोकामनाएँ जिसे अदृष्ट या भाग्य कहा जाता है, वह अदृष्ट नाम का ही गुण होता है । अर्थात् पुरुषार्थ के अतिरिक्त देव कुछ नहीं है । दूसरा नाम भाग्य है ।। २९ ।। 1 पूरी होती हैं । पुरुष का एक पुरुषार्थं का ही द्वयमतुलं गुरु लोकात्तृणमिव तुलयन्ति साधु साहसिकाः । प्राणानद्भुतमेतच्चरितं चरितं ह्युदाराणाम् ॥ ३० ॥ 1 अन्वयः - साहसिकाः प्राणान् तृणमिव साधु तुलयन्ति एतदद्भुतं चरितं हि उदाराणां चरितं च द्वयं लोकात् गुरु अतुलं च भवति ।। ३० ।।
व्याख्या - साहसिकाः - साहससम्पन्नाः पुरुषार्थिनः पुरुषाः । प्राणान् = असून, जीवनम् । तृणमिव = शष्पमिव मत्वा, साधु = निर्भयम् । तुलयन्ति = पणीकुर्वन्ति कार्यातुलामारोपयन्ति मन्यन्ते वा । एतत् = अद्भुतं । चरितं = इदमपूर्वमाचरणम् । उदाराणाम् = स्वपरशून्यानामुदारपुरुषाणाम् । द्वयम् = एतदुभ- यमपि । लोकात् = विश्वतः । सर्वतोऽपीत्यर्थः । गुरु महत्. श्रेष्ठम् । मतुलम = अतुल- नीयम् असाधारणं च भवति । उदारा हि जीवं तृणमिव मत्वा प्राणपणेनापि पौरुषं कुर्वन्तीति भावः ॥ ३० ॥ हिन्दी - साहसी व्यक्ति कार्य के समझकर प्राण की बाजी लगा देते हैं 1 समय अपने प्राणों को तृण के समान । साहसी व्यक्तियों का यह अपूर्व चरित्र तथा उदार व्यक्तियों का आचरण ये दोनों लोक सामान्य से महान् एवं अनोखा होता है ।। ३० ।। क्लेशस्याऽङ्गमदत्त्वा सुखमेव सुखानि नेह लभ्यन्ते । मधुभिन्मथनायस्तै राश्लिष्यति बाहुभिर्लक्ष्मीम् ॥ ३१ ॥
३२ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके । अन्वयः - इह क्लेशस्य अङ्गमदस्त्वा सुखमेव सुखानि च लभ्यन्ते । ( यतो हि ) मधुभित् मथनायस्तै: बाहुभिः लक्ष्मीम् आश्लिष्यति ॥ ३१ ॥
व्याख्या — इह = अस्मिन् संसारे । क्लेशस्य = कष्टस्य । अङ्ग = शरीरम् । अदत्त्वा = अवितीर्य, असमप्यं कायक्लेशमननुभूय । सुखपूर्वकमेव आयासेन, सरलतया । सुखानि न लभ्यन्ते = नैवासाद्यन्ते, यतो हि मधुभित् = मधुं = मधुनामकं दैत्यं, भिनत्तीति मधुभित् = मधुदैत्यनाशको भगवान् विष्णुः । मथना- यस्तैः - मथनेनायस्ता मथनायस्ताः तैः मथनायस्तैः समुद्रमथनेन परिश्रान्तः, बाहुभिः = भुजैः । लक्ष्मीं = श्रियम् । आश्लिष्यति = समालिङ्गति । भगवता विष्णुना समुद्रमन्थनपरिश्रमेणैन लक्ष्मीः लब्धा तथैव क्लेशं सोवेव सुखप्राप्तिः सम्भवति न क्लेशं विना सुखाप्तिः सम्भावनेति भावः ।। ३१ ।। हिन्दी - इस संसार में शरीर को मिलता। क्योंकि मधुनामक दैत्य को
यथा बिना कष्ट दिये अनायास ही सुख नहीं मारने वाले भगवान् विष्णु भी समुद्र- मन्थन से थके हाथों के द्वारा ही लक्ष्मी का आलिङ्गन करते हैं ॥ ३१ ॥ तस्य कथं न चला स्यात् पत्नी विष्णोन सिंहकस्यापि । मासांश्चतुरो निद्रां यः सेवति जलगतः सततम् ॥ ३२ ॥ अन्वयः - यः जलगतः चतुरः मासान् सततं निद्रां सेवति नृसिंहकस्य अपि तस्य पत्नी चला कथं न स्यात् ? ।। ३२ ॥
व्याख्या – यः = भगवान् विष्णुः । जलगतः = जलमध्ये स्थितः सन् । चतुरः मासान् = मासचतुष्टयम् । सततं = निरन्तरम् । निद्रां सेवति - निद्राति, शेते । नृसिंहकस्य = कार्यवशात् नसिंहरूपधारिणः अपि, श्रेष्ठपुरुषस्यापि । तस्य = प्रसिद्धस्य भगवतो विष्णोः । पत्नी = भार्या, लक्ष्मीः । चला = चश्वला । कथं न स्यात् = कुतो न भवेत् । यथा चतुर्षु मासेषु क्षीरसमुद्रे निद्रालोभंगवतो नारायणस्य धर्मपत्नी लक्ष्मीः स्थिरा नास्ति तथैव पौरुषमकुर्वतः श्रेष्ठपुरुष- स्थापि लक्ष्मीः कथं चिरं तिष्ठेत् ।। ३२ ।। 1 हिन्दी – जो चार महीने तक निरन्तर समुद्र में शयन करते हैं, उन नरश्रेष्ठ विष्णु की भी स्त्री लक्ष्मी चश्वला क्यों न हो जाय ! आलसवश विश्राम करने वाले व्यक्ति को भी लक्ष्मी छोड़ देती है ।। ३२ ।। दुरधिगमः परभागो यावत्पुरुषेण साहसं न कृतम् । जयति तुलामधिरूढो भास्वानिह जलदपटलानि ॥ ३३ ॥
यतो रम् । सेन, घुं= थना- वान्तः, यथा द्वैव नहीं समुद्र- अपि सन् । द्राति, । तस्थ । कथं मंगवतो ठपुरुष- , उन लसवश लोभाविष्टचक्रधर- कथा ३३ अन्वयः - यावत् पुरुषेण साहसं न कृतम्, ( तावत् ) परभागः दुरधिगमः ( भवति ) । इह भास्वान् तुलामधिरूढ: ( एव ) जलदपटलानि जयति ॥ ३३॥ व्याख्या - यावत् = यावत् कालपर्यन्तम् । पुरुषेण जनेन । साहसं=पौरुषम् । न कृतं = नैव विहितम् । तावत्पर्यन्तम् । परभाग:- परस्य भागः परभागः = विजय: । दुरधिगमः - दुःखेनाधिगन्तुं शक्य इति दुरधिगमः = दुष्प्रापः । इह = लोके । भास्वान् == सूर्य: । तुलामधिरूढः = तुलाराशि गतः । जलदपटलानि== मेघमण्डलानि । जयति = पराजयते । यथा शरदतौ तुलाराशिगमनपरिश्रमेणैव दिनमणिना वार्षिकं मेघवृन्दं पराजीयते तथैव विशिष्टः कश्चन गुणः पौरुषेणैव प्राप्तुं शक्यते नान्यथेति भावः ॥ ३३ ॥ हिन्दी- - जब तक मनुष्य साहस नहीं करता, तब तक ही उसे विजयप्राप्ति दुर्लभ रहती है । भगवान् सूर्य तुला राशि पर आरूढ होने के बाद ही मेष- मण्डल को विजित कर पाते हैं । अर्थात् साहसपूर्वक प्राणों की बाजी लगाने पर ही कार्य सिद्ध हो पाता है ।। ३३ ।। तत् कथ्यतामस्माकं कश्चित् धनोपायो विवरप्रवेशशाकिनी साधनश्मशान- सेवन महामांसविक्रयसाधकवतिप्रभृतीनामेकतम इति । अद्भुतशक्तिर्भवान श्रूयते । वयमप्यतिसाहसिकाः । उक्तञ्च -
व्याख्या–कथ्यताम् = उच्यताम् । अस्माकं = अस्मदर्थम् । घनोपायः = धनलाभोपायः । विवरप्रवेशश्च शाकिनीसाधनश्च श्मशानसेवनन्च महामांस- विक्रयश्च साधकवतिश्चेति विवरप्रवेश-शाकिनीसाधन - प्रमशान सेवन - महामांस- विक्रयसाधकवर्तयः तेषां विवरप्रवेशशाकिनीसाधन श्मशानसेवन महा मांसविक्रय- साधकवर्तीनाम् तत्र, विवरप्रवेश: भूगर्भप्रवेश: ( पातालयात्रा ) । शाकिनी- साधनम् = यक्षिणीसाधनम् । श्मशानसेवनं श्मशानोपासनं, श्मशानसाधनं वां । महामांस विक्रयः गोमनुष्यमांसविक्रयः । साधकवतिः = साधक गुटिका- कार्यसाधकरूपा. अञ्जनपादलेपनादिरूपा वर्तिः । एकतमः = एषु कवन एक उपायः । अद्भुतशक्तिः अद्भुतपराक्रमः सिद्धपुरुषः । श्रूयते = कर्णाकर्णिकया आकर्ण्यते । वयं = चत्वारोऽपि । अतिसाहसिकाःसाहसपूर्ण कार्यकर्तारः । उक्तश्च = कथितश्व |
हिन्दी - अतः हम लोगों के लायक पाताल में प्रवेश, यक्षिणी आदि का साधन, भूत-वेताल आदि के सिद्ध करने के लिए श्मशान में उपासना, पुरुष के मांस का बेचना तथा सिद्धगुटिका बनाने में से कोई एक धन प्राप्त करने का Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri ३४ पश्वतन्त्र स्यापरीक्षितकारके उपाय बतलाइए । सुना जाता है कि आप एक अद्भुत शक्तिसम्पन्न सिद्ध पुरुष हैं। हम लोग हर स्थिति का सामना करने को प्रस्तुत हैं। कहा भी गया है कि– महान्त एव महतामर्थं साधयितुं क्षमाः । ऋते ते समुद्रादन्यः को बिर्भात वडवानलम् ॥ अन्वयः - महान्त एवं महामर्थं साधयितुं क्षमाः । क: वडवानलं विभति ॥ ३४ ॥
३३ ॥ समुद्रात् ऋते अन्यः व्याख्या - महान्तः = श्रेष्ठाः महापुरुषाः । एव निश्चयेन । महतां = महा- पुरुषाणाम् | अर्थ = कार्यम् । साधयितुं निष्पादयितुम् । क्षमाः = समर्थाः भवन्ति । समुद्रात् ऋते समुद्रं बिना, सागरं विहाय । अन्यः = इतरः । कः = को जनः । बडवानलं बडवाग्निम् | बिर्भात = दधाति ? न कोऽपीत्यर्थः । अर्थात् महतां कार्यं महद्भिरेव सम्पादयितु शक्यं नाऽन्यैरिति भावः ॥ ३४ ॥
हिन्दी - बड़े व्यक्ति हो बड़े व्यक्तियों के प्रयोजन को पूर्ण करने में समर्थ होते हैं, क्योंकि समुद्र के अतिरिक्त दूसरा कौन बडवानल को धारण कर सकता है ? ॥ ३४ ॥ भैरवानन्दोऽपि तेषां सिद्धयर्थं बहूपायं सिद्धवतिचतुष्टयं कृत्वाऽर्पयत् । आह च - “गम्यतां हिमालयदिशि । तत्र सम्प्राप्तानां यत्र वतिः पतिष्यति, तत्र निधानमसन्दिग्धं प्राप्यस्व । तत्र स्थानं खनित्या निधि गृहीत्वा व्याघु- व्यताम् ।” व्याख्या - तेषां = ब्राह्मणकुमाराणाम् । सिद्धयर्थं कार्यसम्पादनाय । बहुपायं = नाना कार्यसाधनक्षमम् । सिद्धवतिचतुष्टयम् = चतस्रः सिद्धगुटिकाः । कृत्वा = निर्माय | अपंगत् = ददी । आह् च - उक्तवांश्च । हिमालयदिशि = उत्तरस्यां दिशि । सम्प्राप्तानां गतानां भवताम् । निधानं = भूमिगतं धनम् । असन्दिग्धं = निश्चयम् । प्राप्स्यथ = अवाप्स्यथ यूयम् । निधिद्रव्यम् । गृहीत्वा = वादाय । व्याघुव्यताम् = प्रत्यागम्यताम्, निवर्त्यताम् ।
हिन्दी - तब भैरवानन्द ने भी उनकी सफलता के लिए बहुत उपायों वाली चार सिद्धवतिकाओं को बनाकर उन्हें दे दिया और कहा— हिमालय की बोर चले जाओ । वहाँ पहुँचने पर जहाँ तुम्हारी वर्तिका गिरेगी, वहाँ निः- सन्देह तुम्हें बहुत-सा धन मिलेगा । वर्तिका के गिरनेवाले स्थान को खोदकर धन निकाल देना और उसे लेकर लोट जाना । न सिद्ध हा भी अन्यः = महा- वन्ति । 5: को अर्थात्
में समर्थ रण कर यत् । तिष्यति, - व्याघु- दनाय । पुटिकाः । दिशि= तं धनम् । गृहीत्वा = यों वाली मालय की वहाँ निः-
- खोदकर लोभाविष्टचक्रधर - कथा ३५ तथाऽमुष्ठिते तेषां गच्छतामेकतमस्य हस्ताद्वतिनिपपात । मयाऽसौ यावत्तं प्रदेशं खनति तावत्ताम्रमयी भूमिः । ततस्तेनाऽभिहितम् — “अहो, गृह्यतां स्वेच्छ्या ताम्रम्’ । अन्ये प्रोचु:- “भो मूढ ! किमनेन क्रियते यत् प्रभूतमपि वारिद्र्यं न नाश- - यति । तदुत्तिष्ठ अग्रतो गच्छामः ।” सोऽब्रवीत् - “यान्तु भवन्तः । नाऽहमग्रे यास्यामि ।” एवमभिधाय तानं यथेच्छ्या गृहीत्वा प्रथमो निवृत्तः । I ते त्रयोsपि अग्रे स्थिताः । अथ किश्चिन्मात्रं गतस्याऽप्रेसरस्य वर्तिनपपात सोऽपि यावत्वनितुमारब्धस्तावद् रूप्यमयी क्षितिः । ततः प्रहृषितः प्राह्, यत्- “भो भो, गृह्यतां यथेच्छया रूप्यम् । नाऽग्रे गन्तव्यम् ।”
तावूचतु — “भोः पृष्ठतस्ताम्रमयी भूमिः, अग्रतो रूप्यमयी । तन्नूनमने सुवर्णमयी भविष्यति । कि चाऽनेन प्रभूतेनाऽपि दारिद्र्यनाशो न भवति । तदावामत्रे यास्यावः ।” एवमुक्त्वा द्वावप्यने प्रस्थितौ । सोऽपि स्वशक्त्या रूम्य- मादाय निवृत्तः । व्याख्या - तथाऽनुष्ठिते तथैव कृते । तेषां ब्राह्मणकुमाराणाम् । एकतमस्य = एकस्य । ताम्रमयी = ताम्रखनिः । अभिहितं = कथितम् । अन्ये प्रोचुः = अपरे कथितवन्तः । अनेन ताम्रेण । प्रभूतमपि = अत्यधिकमपि । दारिद्र्यं न नाश- वैति = दरिद्रतां निर्धनत्वं न निवारयति । अग्रतः = अग्रे । यान्तु गच्छन्तु । अभिधायः = उक्त्वा । यथेच्छया = स्वेच्छया । निवृत्तः = परावृत्तः । प्रस्थिताः= प्रचलिताः । अग्रेसरस्य = अग्रगामिनः । रूपमयी = रजतमयी । क्षितिः = भूमिः | प्रहर्षितः = आनन्दितः । अनेन = रजतेन । रूप्यं = रजतम् । 1 हिन्दी - वैसा करने पर जाते हुए उनमें से एक के हाथ से वर्ती गिर गयी । तब वह जैसे ही उस स्थान को खोदता है तो देखा कि तांबे की खान है । तब उनसे साथियों से कहा- ‘अरे, जितना चाहो तांबा निकाल लो ।’ उनकी बात पुनकर दूसरों ने कहा- ‘अरे मूर्ख, इस तांबे से क्या किया जायेगा, यह अधिक होने पर भी हमारी निर्धनता को नहीं मिटा सकता । उठो, आगे चला जाय ।’ उसने कहा- ‘तुम लोग जाओ, मैं आगे नहीं जाऊँगा ।’ ऐसा कहकर वह इच्छानुसार तांबा लेकर लौट गया । उसके लौट जाने पर शेष तीनों आगे बढ़े। अभी वे कुछ ही दूर गये थे
३६ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके कि आगेवाले की वर्ती गिर पड़ी। उसने भी जब खोदना आरम्भ किया तो चांदी की खान दिखाई पड़ी। उससे प्रसन्न होकर वह बोला- ‘मित्रो ! इसमें इच्छानुसार चांदी ले लो और लोट चलो, आगे मत जाओ ।’ से उसकी बात सुनकर शेष दोनों ने कहा- ‘भाई, पीछे तांबे की खान मिली थी, उससे आगे चांदी की खान मिली, इससे आगे निश्चय ही सोने की खान मिलेगी। इसको लेकर हम लोग क्या करेंगे कि अधिक से अधिक लेकर लौटने पर भी हमारी दरिद्रता दूर नहीं हो सकेगी । अतः हम आगे जायेंगे ।’ यह कहकर वे दोनों आगे बढ़ गये और दूसरा ब्राह्मणकुमार भी यथाशक्ति चांदी लेकर लोट गया । अथ तयोरपि गच्छतोरेकस्याग्रे वतिः, पपात । सोऽपि प्रहृष्टो यावत् खनति, तावत्सुवर्णभूमि दृष्ट्वा द्वितीयं प्राह - “भो, गृह्यतां स्वेच्छया सवर्णम् । सुवर्णा- वन्यन्न किञ्चिदुत्तमं भविष्यति ।” । स प्राह - " मूढ ! न किन्चित् चेत्सि । प्राक्तानं, ततो रूप्यं, ततः सुवर्णम् । तन्नूनमतः परं रत्नानि भविष्यन्ति, येषामेकतमेनाऽपि दारिद्रधनाशो भवति । तदुत्तिष्ठ, अग्रे गच्छावः । किमनेन भारभूतेनाऽपि प्रभूतेन ?” स आह- “गच्छतु भवान् । अहमत्र स्थितस्त्वां प्रतिपालयिष्यामि ।” तथाऽनुष्ठिते, सोऽपि गच्छन्तेकाकी, प्रीष्माऽकंप्रतापसन्तप्ततनुः पिपासाकुलितः सिद्धि मार्गच्युत इतश्चेतश्च बभ्राम । अय भ्राम्यन्, स्थलोपरि पुरुषमेकं रुधिरप्लावितगात्रं भ्रमच्चक्रमस्तकम- पश्यत् । ततो द्रुततरं गत्वा तमवोचत् - “भोः, को भवान् ? किमेवं चक्रेण शिरसि तिष्ठसि ? तत्कथय मे यदि कुत्रचिज्जलमस्ति ।”
व्याख्या - सोऽपि = अन्यतमोऽपि । प्रहृष्टः = प्रसन्नः । सुवर्णभूमि = स्वर्णखनि । दृष्ट्वा = अवलोक्य । उत्तमं श्रेष्ठम् । वेत्सि जानासि । प्राक् =पूर्वम्, मादौ वा । ग्रेषां=रत्नानाम् । एकतमेन = एकेन । भारभूतेन =भारस्वरूपेण । प्रतिपालयामि प्रतीक्ष्ये । एकाकी - एकलः, एको वा । ग्रीष्माकं प्रतापसन्तप्ततनुः — ग्रीष्मस्य = श्रीष्म- कालिकस्प, यः अर्कः सूर्यः, ग्रीष्मार्कः तस्य प्रतापः इति ग्रीष्माकंप्रतापः प्रचण्डः, तेन सन्तप्तः तनुर्यस्य स ग्रीष्माकं प्रतापसन्तप्ततनुः श्रीष्मतापात्तप्तकायः । पिपासा- कुलितः पिपासया । आकुलितः = पिपासाव्याकुलः । सिद्धिमागंच्युतः - सिद्धेः मार्गः सिद्धिमार्गः, सिद्धिमार्गात् च्युतः सिद्धिमार्गच्युतः = गन्तव्यस्थानात् स्खलितः अथवा सुवर्णलब्धमार्गभ्रष्टः । इतश्चेतश्च = इतस्ततः । भ्राम्यन्=परिभ्रमन् । स्थलो-
या तो ! इसमें मिली खान
- लोटने ।’ यह चांदी खनति, सुवर्णा- वर्णम् । भवति । मि " कुलितः स्तकम- वं चक्रेण खनि । दी वा । मि= =ग्रीष्म- प्रचण्डः, पिपासा -
- सिद्धेः स्खलित: 1 स्थलो- लोभाविष्टचक्रषर - कथा ३७ परि-समतलप्रदेशे । रुधिरेण प्लावितं गात्रं यस्य स रुधिरप्लावितगात्रः तं रुधिर- प्लावितगात्रं = रक्ताभिषिक्तशरीरम् । भ्रमच्चक्रं मस्तके यस्य स भ्रमच्चक्र- मस्तकं = चक्रभ्रमितशिरम् । द्रुतम् = शीघ्रातिशीघ्रम् । अवोचत् = अकथयत् । हिन्दी — बाद शेष उन दोनों के कुछ आगे जाने पर उसमें से भी एक हाथ से वर्ती गिर गयी । प्रसन्न होकर वह भी ज्यों ही खोदता है तो सोने की ख़ान देखकर दूसरे से कहा- ‘अरे अपनी इच्छा के अनुसार सोना ले लो । सोने से बढ़कर कोई उत्तम वस्तु नहीं मिलेगी ।’ दूसरे ने कहा - ‘मूर्ख, तुम कछ नहीं जानते । देखो, पहले तांबा, उनके बाद चांदी, उसके बाद सोने की खान मिली, इसके बाद निश्चय ही रत्नों की खान मिलेगी । उसमें से यदि एक भी मिल गया तो दरिद्रता दूर हो जायेगी । अतः उठो और आगे चला जाय । इस बोझीले बहुत भार से क्या लाभ ?’ यह सुनकर उसने कहा- ‘तुम आगे जाओ मैं यहीं ठहरा हुआ तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा । अन्त में विवश होकर चतुर्थं को अकेला ही आगे जाना पड़ा। कुछ दूर जाने के बाद वह ग्रीष्म ऋतु की भीषण गर्मी और प्यास से सन्तप्त एवं व्याकुल होकर लक्ष्य से भ्रष्ट हो गया और इधर-उधर घूमने लगा । इधर-उधर घूमते हुए उसने उस समतल मरुभूमि पर खून से लथपथ एक व्यक्ति को देखा, जिसके मस्तक पर चक्र घूम रहा था। बड़ी शीघ्रता से जाकर उसने पूछा- ‘अरे आप कौन हैं ? इस प्रकार शिर पर घूमते हुए चक्र के नीचे क्यों बैठे हो ? यदि पास में कहीं पानी हो तो मुझे बताओ । एवं तस्य प्रववतस्तच्चक्रं तत्क्षणात्तस्य शिरसो ब्राह्मणमस्तके घटितम् । स आह- “भद्र किमेतत् ?” स आह- “ममाऽप्येवमेतच्छिरसि चटितम् ?” स आह- “तत्कथय, कदैतदुत्तरिष्यति ? महती मे वेदना वर्तते ।” स आह- " यदा त्वमिव कश्चिदधृत सिद्धर्षातिरेवमागत्य, त्वामालापयिष्यति तदा तस्य मस्तकं चटिष्यति ।" स आह- “कियान् कालस्तवेवं स्थितस्य ?” स आह- “साम्प्रतं को राजा धरणीतले ?” स आह- “वीणावादनपटुः वत्सराजः ।” स आह- “अहं तावत्कालसङ्ख्यां न जानामि । परं यवा रामो राजाऽऽसी-
३८ पश्वतन्त्रस्यापरीक्षितकारके तवाऽहं दारिद्रयोपहृतः सिद्धवतिमादायानेन पथा समायातः । ततो मयाऽन्यो नरो मस्तकतचक्रो दृष्टः, पृष्टश्च । ततश्चैतज्जातम् ।” स आह- “भद्र ! कथं तदेवं स्थितस्य भोजननलप्राप्तिरासीत् ?” स आह- “भन्न 1. धनदेन निधानहरणभयात्सिद्धानामेतच्चक्रपतनरूपं भयं दशितम् । तेन कश्चिदपि नागच्छति । यदि कश्चिदायाति, स क्षुत्पिपासानिद्रा- रहितो जरामरणवजितः केवलमेवं वेदनामनुभवति इति । तदाज्ञापय मां स्वगृहाय ।” इत्युक्त्वा गतः । व्याख्या — प्रवदतः = वार्तां कुर्वतः । तत्क्षणात् तस्मिन्नेव काले । चटितं = मारुरोह । त्वमिव = त्वत्सदृशः । आलापयिष्यति = वार्तां करिष्यति । काल- संख्यां = कालगणनाम् । दारिद्रयोपहृतः - दारिद्रघेण उपहतो दारिद्रयोपहृतः = दरिद्रतापीडितः । मस्तके घृतचक्रः = चक्रयुक्तसिरः । धनदेन कुबेरेण । निधान- हरणभयात् = धनाहरणभीतेः । सिद्धानां = सिद्धयर्थं मागतानाम् । क्षुत्-पिपासा - निद्रारहितः - क्षुच्च पिपासा च निद्रा चेति क्षुत्-पिपासानिद्राः ताभिः रहितः क्षुत्पिपासानिद्रारहितः = बुभुक्षापिपासादिविरहितः । जरामरणवजितः= वार्द्धक्यमृत्युरहितः । वेदनामनुभवति = कष्टमनुभवति । गेहगमनाय । । स्वागृहाय = निज. हिन्दी - इस प्रकार उससे बातचीत करना आरम्भ करते ही वह चक्र उस व्यक्ति के शिर से उतरकर ब्राह्मणकुमार के सिर पर चढ़ गया । यह देख उसने आश्चर्य चकित होकर पूछा- ‘भले आदमी, यह क्या हुआ ?’ उसने उत्तर दिया- ‘यह मेरे सिर पर भी इसी प्रकार चढ़ गया था ।’ उस ब्राह्मण ने पूछा - ‘तो बताओ, यह कब उतरेगा ? मुझे बहुत कष्ट है।’ उसने उत्तर दिया- ‘आप ही के समान जब कोई दूसरा व्यक्ति इसी प्रकार सिद्धवर्तिका को लेकर आयेगा और बातचीत करेगा, तब वह आपके मस्तक से उतरकर उसके मस्तक पर चढ़ जायेगा ।’ उसने पूछा- ‘आपको कितने दिनों यहां बैठना पड़ा ।’ उसने पूछा - ‘इस समय पृथ्वी पर कौन राजा है ?" उस ब्राह्मण ने बतलाया— ‘वीणावादनपटु वत्सराज ।’ उस पुरुष ने कहा - ‘समय की गणना तो मैं नहीं जानता, किन्तु जब राम राजा थे, तब मैं निर्धनता से दुःखी हो सिद्धवर्ती लेकर इस मार्ग से आया था। यहां आने पर मैंने एक आदमी को देखा, जिसके सिर पर चक्र घूम
- लोभाविष्टचक्रधर-कथा
- १६
- याऽन्यो
- पं भयं सानिद्रा-
- पय मां
- चटितं =
- । काल-
- पहतः = निधान- -पिपासा-
- रहितः जित:- == निज• वह चक्र यह देख था ।’ कष्ट है।’ व्यक्ति इसी वह आपके जब राम से आया चक्र घूम • रहा था । इसके विषय में अभी मैं उससे पूछ ही रहा था कि यह ( चक्र ) मेरे शिर पर आकर चढ़ गया ।’ उस ब्राह्मण ने पूछा- -‘मित्र, इस प्रकार चक्र के नीचे बैठने पर आप को भोजन पानी कैसे मिलता था ?" चोरी के भय से अर्थ उसने उत्तर में कहा - ‘महाशय, कुंबेर ने धन की की चिन्ता में इधर आनेवाले व्यक्तियों के लिए चक्र के गिरने का यह भय दिखाया है । अत: इधर कोई नहीं आता है । यदि लोभवश कोई आ पड़ा तो वह इसी प्रकार भूख, प्यास, नींद, बुढ़ापा एवं मृत्यु से रहित होकर केवल वेदना का ही अनुभव करता है । अब आप कृपया मुझे घर जाने की आज्ञा प्रदान करें ।’ वह यह कहकर वहां से तत्काल चल दिया । तस्मिश्चिरयति स सुवर्णसिद्धिस्तस्याऽन्वेषण परस्तत्पदपङ्गवस्था यावत् किन्द्रि वनान्तरमागच्छति तावत्र पिरप्लावितशरोरस्तीक्ष्णचक्रेण मस्तके भ्रमता सवे. दनः क्वणन्नुपविष्ठतीति ददर्श । ततः तत्समीपवर्तिना भूत्वा सर्वार्थ पृष्ट:- “भद्र किमेतत् ?” स आह- “विधिनियोगः ।” स आह- “कथं तत् ? कथय कारणमेतस्य ।” सोऽपि तेन पृष्टः, सर्व चक्रवृत्तान्तमकथयत् । तत् श्रुत्वाऽसौ तं विगर्हयन्निदमाह – “भो ! निषिद्धस्त्वं मयाऽनेकशो न शृणोषि मे वाक्यम् । तत्कि क्रिपते ? विद्यावानपि, कुलीनोऽपि, ( वस्तुतः ) बुद्धिरहितः ( असि ) ।" अथवा साध्विदमुच्यते- व्याख्या - तस्मिन् = ब्राह्मणे । चिरयति= विलम्बिते सति । अन्वेषणतत्परः = सन्धानतत्परः । तत्पदपङ्क्त्यातच्चरणचिह्नेन । वनान्तरं = काननान्तरम् । तीक्ष्णचक्रेण = । तीव्राग्रयुक्तेन चक्रेण । सवेदनः = कष्टयुक्तः । क्वणन् सप्राब्द रुदन् । तत्समीपवर्तिना भूत्वा तस्य सामीप्यं प्राप्य । सबाष्पं प्रभुयुक्तनेत्रम् । विधिनियोगः = भाग्यविडम्बितम् । विगर्हयन् = निन्दयन् । निषिद्धः प्रतिषिद्धः । न शृणोषि = नैवाऽशृणोः । 1 हिन्दी - उस ब्राह्मण के विलम्ब करने पर सुर्वणसिद्धि ( सोना प्राप्त कर प्रतीक्षा करने वाला ब्राह्मणकुमार ) उसकी खोज में लगा हुआ उसके पैरों के चिह्नों की परम्परा का अनुसरण करता हुआ वह दूसरे वन में पहुँचा तो देखा
४० पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके कि उसका मित्र खून से लथपथ दुःखी होकर बैठा है, आह भरकर रो रहा है और उसके शिर पर तीव्र धार का चक्र घूम रहा है । अपने मित्र को इस स्थिति में देखकर अत्यन्त दुःखी हुआ और उसकी आंखों में आँसू भर आये । उस मित्र के पास जाकर उससे उसने पूछा- ‘मित्र यह क्या हुआ ?" उसने उत्तर दिया- ‘मित्र ! भाग्य का चक्कर है ।’ सुवर्णसिद्धि ने पूछा - ‘यह कैसे हुआ ? इसका कारण तो बताओ ।’ इस पर चक्रधर ने समस्त वृत्तान्त कह सुनाया । यह सुनकर सुवर्णसिद्धि ने तुमको कितना मना किया कि
उसकी भर्त्सना करते हुए कहा – ‘अरे, मैंने मत जाओ, किन्तु तुमने मेरी एक बात भी नहीं सुनी । अब क्या किया जा सकता है ? तुम विद्वान एवं कुलीन होकर भी वस्तुतः बुद्धिहीन हो । अथवा ठीक ही कहा है- वरं बुद्धिर्न सा विद्या विद्याया बुद्धिरुत्तमा । बुद्धिहोना विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ।। ३५ ।। अन्वयः - बुद्धिः वरं ( किन्तु ) सा विद्या ( वरं ) न, यतः विद्याया बुद्धिः उत्तमा ( भवति ) । बुद्धिहीना: (तु) विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ( विनष्टा बभूवुः ) ।। ३५ ।। व्याख्या - बुद्धिः = मतिः । वरं = श्रेष्ठम् । किन्तु सा विद्या वरं श्रेष्ठं न । विद्याया:=विद्यातः । बुद्धिरुत्तमा= श्रेष्ठा भवति । यतो हि बुद्धिहीना:-मतिविहीना विनश्यन्ति = नाशं यान्ति । यथा येन प्रकारेण । सिंहकारकाः = शार्दूलनिर्मातारः, केशरी निष्पादकाः । ब्राह्मणा विनष्टा बभूवुः । अतो लोके बुद्धिरेवोपयुज्यते, न केवला विद्येति भावः ॥ ३५ ॥ । हिन्दी - विद्या की अपेक्षा बुद्धि बड़ी होती है । उत्तम विद्यासम्पन्न व्यक्ति भी बुद्धि के अभाव में शेर को जिलानेवाले ब्राह्मणों की तरह नष्ट हो जाते हैं ।। ३५ ।। चक्रधर आह— " कथमेतत् ?" सुवर्णसिद्धिराह- चक्रधर ने पूछा - ‘यह कैसे ?’ तब सुवर्णसिद्धि ने कहा- ३. सिंहकारक मूर्खब्राह्मण-कथा कस्मिश्चिदधिष्ठाने चत्वारो ब्राह्मणपुत्राः परस्परं मित्रभावमुपगता वसन्ति स्म । तेषां त्रयः शास्त्रपारङ्गताः, परन्तु बुद्धिरहिताः । एकस्तु बुद्धिमान् केवलं
है इस मैंने 编审审 भी भी FT: E TI हीना रः, न क्ति हो न्ति वलं सिंहकारक मुखं ब्राह्मण कथा ४१ शास्त्रपराङ्मुखः । अथ तेः कवाचिन्मित्रेर्मन्त्रितम् —‘को गुणो विद्यायाः, येन देशान्तरं गत्वा, भूपतीन् परितोष्याऽर्थोपार्जनः न क्रियते । तत्पूर्वदेशं गच्छामः । तथानुष्ठिते कि चिन्मागं गत्वा, तेषां ज्येष्ठतरः प्राह - “अहो, अस्माकमे- कश्चतुर्थी मूढः केवलं बुद्धिमान् । न च राजप्रतिग्रहो वुद्ध्या लभ्यते विद्यां विना । तन्नास्मै स्वोपार्जितं दस्यामि । तद् गच्छनु गृहम् ।” ततो द्वितीयेना- ऽभिहितम् - “भोः ! सुबुद्धे ! गच्छ त्वं स्वगृहं यतस्ते विद्या नास्ति । ततस्तृ- तीयेनाऽभिहितम् - “अहो, न युज्यते एवं कर्तुम्, यतो वयं बाल्यात्प्रभृत्ये कत्र क्रीडिताः, तदागच्छतु महानुभावोऽस्मदुपार्जितवित्तस्य समभागो भविष्यतीति । उक्तञ्च-
व्याख्या - अधिष्ठाने = नगरे । तेषां = ब्राह्मणपुत्राणाम् । शास्त्र पारङ्गताः शास्त्रमर्मज्ञाः । शास्त्रपराङ्मुखः = शास्त्र विमुखः, अनधीतशास्त्रः । तैः = ब्राह्मणपुत्रः । मन्त्रितं = विमर्शः कृतः । देशान्तरं विदेशम् । भूपतीन् = नृपतीन्, वसुधाधिपान् । पारितोष्य = सन्तोष्य । अर्थोपार्जनं धनोपार्जनम् । क्रियते = विधीयते । तथाऽनुष्ठिते = तथा कृते सति । एकः = चतुर्थः । मूढः =मूर्खः । राजपरिग्रहः- राज्ञा दत्तं धनादिकं, राजदानम् । अस्मै = अमुष्मै, मूर्खाय । स्वोपार्जितं == निजार्जितम् । वाल्यात् प्रभृति = वाल्यकालादारभ्य । समभागी = समानप्राप्तिशाली ।
। हिन्दी - किसी नगर मैं चार ब्राह्मणपुत्र परस्पर मित्र बनकर रहते थे । उनमें से तीन ने शास्त्रों का अध्ययन तो किया था, किन्तु वे बुद्धिहीन थे । तथा एक शास्त्र से विमुख था, परन्तु लोकव्यवहार में दिन चारों ने आपस में विचार किया, कि ‘ऐसी बड़ा चालाक था । एक विद्या से क्या लाभ है, जिससे देश विदेश में जाकर राजाओं को, सन्तुष्ट करके धन न कमाया जाय । अतः धन कमाने के निमित्त कहीं चलना चाहिए, तो पूर्व दिशा में चलना अधिक लाभप्रद होगा ।’ यह निश्चय कर वे चारों धनोपार्जन के लिए चल पड़े। कुछ मार्ग चलकर उनमें सबसे बड़ा बोला- ‘बन्धुओ, हममें जो चौथा मूर्ख है वह केवल लोक- व्यवहार में पटु है । राजाओं का दान विद्या के अभाव में केवल बुद्धि से नहीं मिलता। अतः मैं अपनी कमाई में से इसे हिस्सा न दूंगा । अच्छा तो यह होगा कि यह घर लौट जाय । उसकी यह बात सुनकर द्वितीय ने कहा- ‘भरे ! सुबुद्धे ! तुम अपने घर लौट जाओ, क्योकि तुम्हारे पास कोई विद्या नहीं है ।’ तब तीसरे कहा- ‘भाई, मेरे विचार से ऐसा करना उचित नहीं है, क्योंकि
४२ पञ्चतन्त्र स्थापरीक्षितकार के हम लोग बचपन से ही एक साथ खेले हैं। अतः इसको भी चलने देना चाहिए । हमारे कमाये हुए धन में से यह भी एक हिस्सा ले लिया करेगा । कहा भी गया है- कि तथा क्रियते लक्षम्या, या बघूरिव केवला । या न वेश्येव सामान्या पथिकरुपभुज्यते ॥ ३६ ॥ अन्वयः - या सामान्या वेश्या इव पथिकः न उपभुज्यते, या केवलं वधूरिव ( तिष्ठति ) तथा लक्ष्म्या किं क्रियते ॥ ३६ ॥ व्याख्या - या = लक्ष्मीः । सामान्या = सर्वसामान्या । वेश्या = वाराङ्गना इव, साधारणगणिकेव | पथिकैः = पान्थैः । न उपभुज्यते = न I ह्युपभुक्ता भवति । केवलेनात्मनैवोपभुज्यते । सा = लक्ष्मीः । केवला = एका । वधूः = कुलस्त्री । पतिव्रता इव तिष्ठति । तया = असामान्यया असाधारणया वा । लक्षम्या== श्रिया । किं क्रियते = कि विधीयते । व्यथैव सा श्रीः सर्वसाधारणजन भोग्यैव लक्ष्मीः प्रशंनीया भवतीति भावः ॥ ३६ ॥ हिन्दी - जो साधारण वेश्या की तरह पथिकों के उपयोग में नहीं आ सकती है तथा केवल पतिव्रता कुलवधू के समान एक ही व्यक्ति के उपभोग की वस्तु है उस लक्ष्मी से क्या लाभ है ? ॥ ३६ ॥ तथा च- अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानान्तु वसुधैव “तदागच्छत्वेषोऽदि” इति । कुटुम्बकम् ।। ३७ । अन्वयः - अयं निजः परो वा इति गणना लघुचेतसाम् (भवति ) । उदार - चरितानां तु वसुधा एव कुटुम्बकम् ( भवति ) ॥ ३७ ॥ व्याख्या - अयं निजः = स्वकीयः । परः = परकीयः वा । इति गणना = विचारः । लघुचेतसाम् - लघु चेतो यषां ते लघुचेतसः तेषां लघुचेतसाम् = क्षुद्र- पुरुषाणाम्, क्षुद्रान्तःकरणानां पुंसां भवति । उदारचरितानाम् - उदारं चरितं येषां ते उदारचरिताः, तेषामुदारचरितानाम् उदारान्तःकरणवृत्तीनां महात्म- नाम् ।” तु वसुधैव = पृथिवीमात्रम् सर्वं जगदित्यर्थः । कुटुम्बं = परिवारोऽस्ति, आत्मीयं कुटुम्वकमिव वास्ति । महान्तो हि पुरुषाः सर्वत्रात्मीयामेव बुद्धिमालम्बन्ते इत्यर्थः ।। ३७ ।।
हिन्दी - यह अपना है, यह पराया है इस प्रकार का विचारसंकुचित भावना के व्यक्ति करते हैं । उदार व्यक्तियों के लिए समस्त संसार ही अपना परिवार है ।
नी लं ना ti यैव आ ग र- रतं त्म- स्त, बन्ते चना है। सिंहकारकमूर्ख ब्राह्मण-कथा अतः इसको भी चलने दो । ४३ तथाऽनुष्ठिते तेर्मार्गाश्रितेरटव्यां कतिचिदस्थीनि दृष्टानि । ततश्चैकेनाभि- हितम् - “अहो, अद्य विद्याप्रत्ययः क्रियते । किश्विवेतत्सत्त्वं मृतं तिष्ठति । तद् विद्याप्रभावेण जीवनसहितं कुर्मः । अहमस्थिसवयं करोमि । ततश्च तेनोत्सु- क्यादस्थिसश्वयः कृतः । द्वितीयेन चर्ममांसरुधिरं संयोजितम् । तृतीयोऽपि याव- ज्जीवनं सञ्चारयति, तावत्सुबुद्धिना निषिद्ध: - “भो तिष्ठतु भवान् । एष सिहो निष्पाद्यते । यद्येनं सजीवं करिष्यसि ततः सर्वानपि व्यापादयिष्यति ।” 1
व्याख्या - तथानुष्ठिते तथैव स्वीकृते सति । मार्गाश्रितः पथि गच्छद्भिः । अष्टव्यां= वने । अस्थीनि = कीकसानि । दृष्टानि = अवलोकितानि । अभिहितं = कथितम् । विद्याप्रत्ययः = विद्यापरीक्षा, विद्याया: प्रत्यक्षानुभवः । सत्त्वं जीवः । भोत्सुक्यात् = मत्कण्ठ्यात् । निषिद्धः निवारितः । संयोजितम् = समायोजितम् । जीवनं सन्चारयति = प्राणसन्चारं करोति । निष्पाद्यते = विनिर्मीयते । व्यापा- दयिष्यतिमारयिष्यति । T हिन्दी - वैसा स्वीकार कर लेने पर मार्ग में जाते हुए उन्होंने जंगल में कुछ हड्डियां देखीं। तब एक ने कहा – ‘अरे, आज अपनी विद्या की परीक्षा की जाय । यह कोई मरा हुआ प्राणी है। विद्या के प्रभाव से इसको जिलाया जाय । मैं हड्डियों को एकत्र करता हूँ” यह कहकर उसने उत्सुकतापूर्वक हड्डियों को इकट्ठा किया। दूसरे ने हड्डियों में चाम, मांस एवं खून का सम्चार किया । इसके बाद जब तीसरे व्यक्ति ने उसमें प्राण सन्चार करना प्रारम्भ कर दिया तब चतुर्थ मूर्ख सुबुद्धि ने उसे रोकते हुए कहा – ‘अरे आप रुकिये । यह शेर बनाया जा रहा है। यदि तुमने इसको जिला दिया तो यह हम सभी को मार डालेगा।’ इति चेनाऽभिहितः स आह” धिङ्मुखः ! नाऽहं विद्याया विफलतां करोमि । " ततस्तेनाऽभिहितम् - ‘तहि प्रतीक्षस्व क्षणं, यावदहं वृक्षमारोहामि । "
तथाऽनुष्ठिते, यावत्सजीवः कृतस्तावत्ते त्रयोऽपि सिहेनोत्थाय व्यापादिताः । स च पुनवृक्षादवतीर्य, गृह गतः । अतोऽहं ब्रवोमि - “वरं बुद्धिनं सा विद्या” इति । अतः परमुक्त’ च सुवर्णसिद्धिना- व्याख्या - विफलतां निष्फलताम् । सजीवः कृतः = प्राणसञ्चारेण नियोजित्तः । प्रतीक्षस्व = प्रतिपालय, तिष्ठ । हिन्दी - इस प्रकार उसके कहने पर वह जिलानेवाला व्यक्ति बोला- ‘मरे मूर्ख ! तुझे धिक्कार है । मैं अपनी विद्या को निष्फल नहीं कर सकता ।’ तब
४४ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकार के मना करनेवाले ने कहा- ‘तो थोड़ी देर ठहरो, जब तक मैं इस वृक्ष पर चढ़ जाता हूँ, तब अपनी विद्या का प्रयोग करना ।’ उसके पेड़ पर चढ़ जाने के बाद उसने ज्यों ही उस सिंह में प्राण का संचार किया, त्यों ही उठकर सिंह ने उन तीनों मूर्ख पण्डितों को मार डाला मौर वह सुबुद्धि पेड़ से उतरकर अपने घर चला गया । इसीलिए कहता हूँ- “वैसी विद्या अच्छी नहीं, अपितु बुद्धि अच्छी होती है । अर्थात् विद्यां’ से बुद्धि उत्तम है ।’ इसके बाद सुवर्णसिद्धि ने कहा- अपि शास्त्रेषु कुशला लोकाचार चिर्वाजिताः । सर्वे ते हास्यतां यान्ति, यथा ते मूर्खपण्डिताः ॥ ३८ ॥ अन्वयः - शास्त्रेषु कुशला अपि लोकाचारविवर्जिताः ते सर्वे हास्यतां यान्ति, यथा ते मूर्खपण्डिताः ॥ ३८ ॥ व्याख्या - शास्त्रेषु = विद्यासु । कुशलाः = निपुणाः, पटवो, दक्षा वा । अपि । लोकाचारविवजिताः - लोकस्य आचारेण विवर्जिताः इति लोकाचारविवजिता. = लोकव्यवहारशून्याः । ते सर्वे = सकलाः । हास्यतां = परिहास्यताम् । यान्ति = गच्छन्ति । यथा येन प्रकारेण । ते = पूर्वोक्ताः लोकानभिज्ञाः । मूर्खपण्डिताः = मूर्खाश्च ते पण्डिताः मूर्ख पण्डिताः = अज्ञ विद्वांसः । उपहसनीया अभूवन् । शास्त्र- ज्ञानेन सद्व्यवहारज्ञानमपि नूनमावश्यकमिति भावः ॥ ३८ ॥ । - हिन्दी - शास्त्रों में कुशल रहने पर भी लोकव्यवहार से अनभिज्ञ व्यक्ति उसी प्रकार उपहास के पात्र होते हैं जैसे वे लोकव्यवहार से हीन मूर्ख पण्डित बने थे ।। ३८ ।। चक्रघर आह— “कथमेतत् ?” सोऽब्रवीत्— तब चक्रधर ने पूछा - ‘यह कैसे हुआ ?’ सुवर्णसिद्धि ने कहा- ४. मूर्खपण्डित-कथा कस्मिश्चिदधिष्ठाने चत्वारो ब्राह्मणाः परस्परं मित्रत्वमापन्ना वसन्ति स्म ! बालभाचे तेषां मतिरजायत-भोः ! देशान्तरं गत्वा, विद्याया उपार्जनं क्रियते ।” अथाऽन्यस्मिन्दिवसे ते ब्राह्मणाः परस्परं निश्चयं कृत्वा विद्योपार्जनार्थं कान्य- कुब्जे गताः । तत्र च विद्यामठे गत्वा पठन्ति । एवं द्वादशाब्दानि यावदेकचित्त- तया पठित्वा, विद्याकुशलास्ते सर्वे सञ्जाताः । ढ़ TT ह
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| ततस्तैश्चतुर्भिमिलित्वोक्तम् - “वयं सर्वविद्यापारङ्गताः । तदुपाध्यायमु- त्कलापयित्वा स्वदेशं गच्छामः । तथैवाऽनुष्ठीयतामित्युक्त्वा ब्राह्मणाः उपाध्याय- मुत्कलापयित्वा अनुज्ञां लब्ध्वा पुस्तकानि मोरवा, प्रचलिताः । यावत्किञ्चिन्मार्ग यान्ति, तावद् द्वौ पन्यानौ समायातों उपविष्टाः सर्वे । |
व्याख्या - मित्रत्वमापन्नाः = सुहृद्भावमुपगताः । बालभावे = वाल्यकाले । मतिरजायत = बुद्धिरभवत् । देशान्तरं विदेशं । विद्याया उपार्जनम् = शास्त्राध्यय- नम् । विद्योपार्जनाथं = विद्या शिक्षाये । विद्यामठे - विद्यालये । द्वादशाब्दानि = द्वादशवर्षपर्यन्तम् । एकचित्ततया - एकाग्रचित्तेन । विद्याकुशलाः = शास्त्रप्रवीणाः । विद्वांसः । विद्यापारङ्गताः - सकलविद्याविशारदाः । उपाध्यायं = गुरुम् । उत्क - लापयित्वा = पृष्ट्वा, आपृच्छ्य । अनुज्ञाम् = अनुमतिम् । हिन्दी - किसी नगर में चार ब्राह्मण आपस में मित्र बनकर रहते थे । बचपन में उनका विचार हुआ कि दूसरे देश में जाकर विद्या पढ़ी जाय । दूसरे दिन आपस में विचार करने के बाद वे विद्या पढ़ने के लिए कान्य- कुब्ज देश की ओर चल पड़े और वहाँ पहुँचकर किसी पाठशाला में विद्या पढ़ने • लगे । एकाग्रचित्त से बारह वर्ष तक अध्ययन करने के बाद से चारों अद्भुत विद्वान् हो गये । एक दिन चारों ने आपस में विमर्श किया- हम सभी विद्याओं में निपुण हो चुके । अब गुरुजी की आज्ञा लेकर हमें अपने घर चलना चाहिए। यह निश्चय करके वे गुरुजी के पास गये और उनसे अपनी-अपनी पुस्तकों को साथ लेकर घर के लिए जाने के बाद मार्ग दो तरफ जाते हुए देखकर निश्चय करने के लिए एक जगह बैठ गये । तत्रैकः प्रोवाच - “केन मार्गेण गच्छामः ?” पूछकर अनुमति प्राप्त करके प्रस्थान कर दिये । कुछ दूर किस मार्ग से चला जाय, यह एतस्मिन्समये तस्मिन् पत्तने कश्चित् वणिक्पुत्रो मृतः । तस्य वाहाय महा- जनो गतोऽभूत् । ततश्चतुर्णां मध्यादेकेन पुस्तकमवलोकितं - “महाजनो येन गतः स पन्यः” इति । तन्महाजन मार्गेण गच्छामः । अथ ते पण्डिता यावन्महाजनमेलापकेन सह यान्ति, तावद्रासभः कश्चित्तत्र श्मशाने दृष्टः । अथ द्वितीयेन पुस्तकसुद्घाटघावलोकितम् - व्याख्या - पत्तने = नगरे । दाहाय = अग्निसंस्कारणाय । महाजन:-
४६ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके
वणिक्समूहः, श्रेष्ठजनो वा । महाजन मेलापकेन वणिक्समूहेन । रासभः = गर्दभः । श्मशाने = श्मशानभूमौ । दृष्टः = अवलोकितः । हिन्दी - उनमें से एक ने पूछा - ‘किस मार्ग से चला जाय ?” उसी समय पास के नगर में एक बनिये का लड़का मर गया था । उसके दाह संस्कार के लिए वाणिक् लोग जा रहे थे । उस शवयात्रा को देखकर उन चारों में से एक ने पुस्तक देखकर कहा - ‘महाजन लोग जिस रास्ते से जायें, उसी रास्ते से अन्य लोगों को भी जाना चाहिए।’ अतः हमें भी वणिक्समूह के साथ चलना चाहिए । उनके कथन पर चारों व्यक्ति उस वणिक्समूह के पीछे चल दिये, जैसे ही वे पण्डित महाजनों के साथ चलते हैं वैसे ही वहाँ श्मशान पर उन्होंने कोई गधा देख लिया । तब दूसरे ने पुस्तक खोलकर देखा और कहा -.. उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसङ्कटे । । राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति त बान्धवः ॥ २६ ॥ अन्वयः - उत्सवे व्यसने दुर्भिक्षे शत्रुसङ्कटे च प्राप्ते राजद्वारे श्मशाने च यः तिष्ठति स ( एव ) बान्धवः ( भवति ) ॥ ३९ ॥ व्याख्या - उत्सवे :- माङ्गलिके कार्ये, हर्षोल्लाससमये वा । व्यसने-आपत्ती, दुःखे कष्टे वा । दुर्भिक्षे दुष्काले, अन्नसंकटे वा । शत्रुसङ्कटे = वैरिक्रते भये, शत्रु- सम्बाधे । राजद्वारे = राजकीयभवनद्वारे, राजसभायाम्, न्यायाधिकरणे वा । श्मशाने == श्मशानभूमी च 1 यः तिष्ठतिवर्तते । स एव बान्धवः कथ्यते, वस्तुतः त एव सन्ति बान्धवा ये उत्सवव्यसनादी सम्मिलिता भवन्तीति भावः ॥ ३९ ॥ हिन्दी - उत्सव के समय, आपत्तिकाल में, दुर्भिक्ष पड़ने पर, शत्रुओं से घिर जाने पर, राजसभा में और श्मशान में जो साथ रहता है वही बन्धु होता है ।। ३९ ।। तदहो ! अयमस्मदीयो बान्धवः । ततः कश्चित्तस्य ग्रीवायां लगति, कश्चित् पादी प्रक्षालयति । अथ यावत्ते पण्डिताः दिशामचलोफनं कुर्वन्ति तावत्कश्चिदुष्ट्रो दृष्टः । तैश्चोक्तम्- “एतत्किम् ?” तावत्तृतीयेन पुस्तकमुद्घाटयोक्तम् - “धर्मस्य त्वरिता गतिः । तन्नमेष धर्मस्तावत् |” चतुर्थेनोक्तम्- “इष्टं घर्मेण योजयेत्” ।
अथ तैश्च रासभ उष्ट्रग्रीवायां बद्धः तत्तु केनचित्तत्स्वामिनो रजकस्याग्रे कथितम् । यावव्रजकस्तेषां मूर्ख पण्डितानां प्रहारकरणाय समायातस्तावत्ते प्रनष्टाः ।
i, क ही ई च नो, श्रु- TI तः ॥ से न्धु चत् 3:1 मेष न्याने ण्टाः । मूर्खपण्डित-कथा ४७ ततो तावदग्रे किश्चित्स्तोकं मागं यान्ति तावत्काचिन्नदो समासादिता । तस्य जलमध्ये पलाशपत्रमायातं दृष्ट्वा पण्डितेनैकेनोक्तम्- “आगमिष्यति यत्पन्नं तदस्मांस्तारयिष्यति” एतत्कथयित्वा तत्पत्रस्योपरि पतितो यावन्नद्या नीयते तावत्तं नीयमानमलोषयाऽन्येन पण्डितेन केशान्तं गृहीत्वोक्तम्- |
व्याख्या - त्वरिता = सत्वरा । गतिः = गमनम् । इष्टं = मिश्रम् । धर्मेण योजयेत् = धर्मेण सह नियोजयेत् । बद्धः = निबद्धः । तत्तु तद्वृत्तान्तम् । रजकस्य = निर्णेजकस्य । प्रहारकरणाय = ताडनाय । ते = पण्डिताः । प्रनष्टाः = पलायिताः । स्तोकं == अल्पम् । सामासादिता = प्राप्ता । पलाशपत्रं = पलाशवक्षस्य पत्रम् | तारविष्यति = पारं प्रापयिष्यति । पतितः पपात । निमज्जति । केशान्तं - शिरोरुहम् । ।
नद्या नीयते = जले हिन्दी- - अतः यह गदहा भी हमारा स्वजन ही होगा। उसके वचन को सुनकर उसमें कोई तो उस गदहे के गले लगा और कोई उसका पैर धोकर पोंछने लगा । तदनन्तर जब तक उन लोगों ने चारों ओर देखा तो उन्हें एक ऊंट दिखाई पड़ा । उसे देखकर सबों ने आपस में तर्क किया कि यह क्या है ? तब तीसरे पण्डित ने पुस्तक खोल देखकर कहा कि- ‘धर्म की गति तीव्र होती है। तो निश्चय ही यह धर्म होगा।’ इसपर चौथे पण्डित ने कहा- ‘मिश्र को धर्म के साथ जोड़ देना चाहिए ।’ यह विचार करके उन लोगों ने गदहे को ऊँट के गले में बांध दिया । उस समाचार को किसी ने उस गधे के स्वामी धोबी से कह दिया । जब तक धोबी उन पण्डितों को पीटने के लिए आया तब तक वे वहाँ से भाग गये थे । इसके बाद जब वे और कुछ दूर आगे गये तो एक नदी मिल गयी। उसकी धार में पलाश का एक पत्ता कहीं से बहता हुआ आ रहा था । उसे देखकर उनमें से एक ने कहा- ‘आने वाला पत्ता हमें उस पार पहुँचा देगा ।’ यह कहकर वह मूर्ख पण्डित नदी में कूद पड़ा। जब वह नदी की धारा में बहने लगा तो दूसरे पण्डित ने उसकी चोटी पकड़कर कहा- सर्वनाशे समुत्पन्ने अद्धं त्यजति पण्डितः । अर्द्धन कुरुते कार्य, सर्वनाशो हि दुःसहः ॥ ४० ॥ अन्वयः - पण्डितः सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्द्ध त्यजति, अर्द्धेन च कार्यं कुरुते । हि सर्वनाशः दुःसहः ( भवति ) ॥ ४० ॥
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पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके די व्याख्या - पण्डितः = विद्वान् । सर्वनाशे समुत्पन्ने = सर्वनाशस्यावसरे । अर्द्ध- तदर्द्धभागम् | त्यजति विजहाति । अर्द्धन = अर्द्धभागेन । कार्यं कुरुते - सम्पाद- यति । हि यतः सर्वनाशः । दुःसहः = दुःखेन सोढुं शक्यो भवति । सर्वनाशा - पेक्षयाऽर्द्धनाशे एव ज्यायानिति भावः ॥ ४० ॥ हिन्दी - सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न होने पर समझदार व्यक्ति आधा भाग छोड़ देता है और आधे से सन्तोषपूर्वक अपना कार्य चलाता है, क्योंकि सम्पूर्ण नाश वहन करना कठिन हो जाता है ॥ ४० ॥ इत्युक्त्वा तस्य शिरश्छेदो विहितः । ऐसा कहकर आधा बचाने के लिए डूबते हुए उस पण्डित का सिर काट लिया । अथ तैश्च पश्चात् गत्वा कश्चित् ग्राम आसादितः । तेऽपि ग्रामीणनिमन्त्रितः पृथग् गृहेषु नीताः । ततः एकस्य सूत्रिका घृतमण्डसंयुता भोजने दत्ता । ततो विचिन्त्य पण्डितेनोक्त यत् “दीर्घसूत्री विनस्यति” । एवमुक्त्वा भोजनं परि- त्यज्य गतः । तथा द्वितीयस्य मण्डका दत्ताः, तेनाऽयुक्तम्- ‘अतिविस्तार- विस्तीर्णं तद्भवेश चिरायुषम् " । स भोजनं त्यक्त्वा गतः । अथ तृतीयस्य वाटिका भोजने दत्ता । तत्राऽपि तेन पण्डितेनोक्तम्- “छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ।” एवं ते त्रयोऽपि पण्डिताः क्षुत्क्षामकण्ठाः, लोके हास्यमानास्ततः स्थानात् स्ववेशं गताः । व्याख्या - तैः - शेषः । ग्रामीणः = ग्रामवासिभिः । निमन्त्रिताः = भोजना- थंमामन्त्रिताः घृतखण्डसंयुक्ताः घृतशर्करामिश्रिताः । दीर्घसूत्री = दीर्घसूत्र- वान्, सालस्यो जनो वा । मण्डका = रोटिका । वटिका = वाडानाम्ना प्रसिद्धं वस्तु । छिद्रेषु = छिद्रयुक्तेषु । अनर्थाः = आपत्तयः । बहुलीभवन्ति = स्फारी• भवन्ति । क्षुत्क्षामकण्ठाः क्षुधया शुष्ककण्ठा, बुभुक्षिताः । लोकैः जनैः । हास्यमानः उपहास विषयं नीयमानाः ।
हिन्दी - उसके बाद आगे चलकर उन्हें कोई गांव मिला। गांववालों ने उन्हें ब्राह्मण समझकर निमन्त्रित किया और भोजन करने के लिए पृथक्-पृथक् अपने-अपने घरों में ले गये। किसी गृहस्थ ने एक को घी-चीनी में बनी हुई सेवई खाने को दी। उसे देखकर उस ब्राह्मण ने सोचा- ‘दीर्घसूत्री ( लम्बे सूतों- वाला) व्यक्ति नष्ट हो जाता है।’ अतः इसे खाकर मैं भी नष्ट हो जाऊंगा । यह विचार कर वह भोजन को छोड़कर चला सया । दूसरे व्यक्ति को रोटी खाने को मिली तो उसने सोचा- ‘अधिक विस्तृत वस्तु चिरस्थायी नहीं होती ।’
द्धं= पाद- शा- भाग म्पूर्ण काट त्रतः ततो परि- तार- टिका एवं ताः । जना- सूत्र- सिद्ध कारी. नैः । लों ने -पृथक् हुई सूतों- | यह खाने ती ।’ मूर्खपण्डित-कथा ४६ अतः इसे खाकर मैं भी क्षीणायु हो जाऊँगा । यह सोचकर उसने भी भोजन करना छोड़ दिया। तीसरे को बड़ा मिला। उसने विचार किया कि छिद्र ( सदोष होने ) पर आपत्तियां और बढ़ जाती हैं । कहीं इसे खाकर मैं भी किसी आपत्ति में न फँस जाऊँ । यह सोचकर वह भी भोजन छोड़कर चला गया। इस प्रकार वे तीनों ही भूखे रह गये और लोगों के उपहास के पात्र बने । अन्ततोगत्वा वे विना खाये - पिये अपने घर लौट गये । . अथ सुवर्णसिद्धिराह — “घत्वं लोकव्यवहारमजानन्मया वार्ययाणोऽपि न स्थितः तत ईदृशीमवस्थामुपगतः । अतोऽहं ब्रवीमि - " अपि शास्त्रेषु कुशलाः” इति । तत् श्रुत्वा चक्रधर आह-अहो, अकारणमेतत् । यतो हि-
1 1 व्याख्या — वार्यमाणोऽपि = निवार्यमाणोऽपि । ईदृशीं एतादृशीं चक्राच्छन्न- मस्तकरूपाम् । अवस्थां स्थितिम् । कुशलाः प्रवीणाः । अकारणं = निरर्थकम् । हिन्दी - पूर्वकथा को सुनकर सुवर्णसिद्धि ने कहा-तुम लोकव्यवहार को न जानते हुए मेरे रोकने पर भी नहीं रुके। इसलिए ऐसी दशा को प्राप्त हुए हो । बतः मैं कहता हूँ - " शास्त्रों में कुशल भी” आदि । उसे सुनकर चक्रधर ने कहा- अरे, यह तो विना कारण के ही है, क्योंकि सुबुद्धयो विनश्यन्ति दुष्टदेवेन नाशिताः । स्वल्पधीरपि तस्मिस्तु फुले नन्वति सन्ततम् ॥ ४१ ॥ अन्वयः – दुष्टदैवेन नाशिताः सुबुद्धयः अपि विनश्यन्ति, तु तस्मिन् कुले स्वल्पधी: अपि सन्ततं नन्दति ।। ४१ ।।
व्याख्या — दुष्टदैवेन प्रतिकूलभाग्येन । नाशिताः = नाशं प्रापिताः । सुवु- द्वयः सुधियः । विनश्यन्ति = नाशं प्राप्नुवन्ति । तु तस्मिन् कुले = तत्रैव | स्वल्पधी:- स्वल्पा धीयंस्यासौ स्वल्पधीः= मन्दबुद्धिः अपि । सन्ततं = निरन्तरम् ! नन्दति = मोदते । देवप्रातिकूल्येन बुद्धिमन्तोऽपि विनश्यन्ति देवानुकूल्यादेव मन्दबुद्धिरपि मोदते इति भावः ॥। ४१ ।।
। हिन्दी – भाग्य को प्रतिकूलता से बुद्धिमान् व्यक्ति भी कष्ट उठाते हैं। और अनुकूल भाग्य के कारण मूर्ख भी आनन्द मनाता है ॥ ४१ ॥ उक्तं च- अरक्षितं तिष्ठति देवरक्षित, सुरक्षितं वैवहतं विनश्यति । जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे न जीवति ॥ ४२ ॥ cow. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri . ५० पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकार के अन्वयः - देवरक्षितम्, अरक्षितम् (अपि) तिष्ठति, किन्तु दैवहतं सुरक्षितमपि जयति । वने विसर्जितः अनाथोऽपि जीवति, कृतप्रयत्नोऽपि गृहे न जीवति ॥४२॥ व्याख्या - देवरक्षितम् - देवेन रक्षितं दैवरक्षितम् = भाग्यरक्षितम् । वस्तु । -अरक्षितं-न रक्षितमरक्षितम् = मनुष्यद्वारा न रक्षितमपि वस्तु । तिष्ठति = स्थिरो भवति । किन्तु दैवहतम् - देवेन हतं = नाशितं सत् । सुरक्षितमपि = लोकः साधु संर- क्षितमपि । नश्यति=नाशं गच्छति । वने विसर्जितः = अरण्ये त्यक्तः । अनाथोऽपि - 1 नास्ति नाथो यस्य स अनाथो-निराश्रितः सहायहीनोऽपि । दैवसाहाय्येन जीवति= प्राणान् धत्ते । गृहे कृतप्रयत्नोऽपि - कृतः विहितः प्रयत्न उद्योगः रक्षणप्रयासः यस्मै यस्य वा स कृतप्रयत्नः । न जीवति = नश्यति । भाग्याभिहतः पुरुषप्रयत्नः विफलतामेतीत्यर्थः ॥ ४२ ॥ हिन्दी - कहा भी गया है कि देव ( भाग्य ) के द्वारा रक्षा किया गया पुरुष या पदार्थ मनुष्य द्वारा रक्षा न किया गया भी विद्यमान रहता है। किन्तु देव के द्वारा नष्ट की गयी मनुष्य के द्वारा भलीभांति रक्षित भी वस्तु नष्ट हो जाती है। वन में छोड़ा गया बिना स्वामी का भी पुरुष जी जाता है, किन्तु प्रयास किया गया भी घर में नहीं जीता । अर्थात् – भाग्य द्वारा सुरक्षित वस्तु बिना किसी रक्षा के भी बची रहती है और भाग्य के प्रतिकूल होने से सुरक्षित रहकर भी वह नष्ट हो जाती है । सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं के बीच वन में अनाथ छोड़ा हुआ व्यक्ति जीवित रह जाता है तथा प्रयत्नपूर्वक घर में सुरक्षित व्यक्ति भी जीवित नहीं रह पाठा ॥ ४२ ॥ तथा च- शतबुद्धिः शिरस्थोऽयं लम्बते च सहस्रघोः । एकबुद्धिरहं भद्रे ! क्रीडामि विमले जले ॥ ४३ ॥ अन्वयः - भद्रे ! मयं शतबुद्धिः शिरस्थः, सहस्त्रधीः च लम्बते । किन्तु एकबुद्धिः अहं विमले जले क्रीडामि ॥ ४३ ॥ व्याख्या - भद्रे ! – भद्रकारिणि ! सुन्दरि ! अयं पुरो दृश्यमानः । शतबुद्धिः = तन्नामकः मत्स्यः । शिरस्थः- शिरसि तिष्ठतीति शिरस्थः = मस्तके अस्ति । सहस्रधीः = सहस्रबुद्धिनामको मत्स्यश्च । लम्बते - हस्ते लम्बमानो विद्यते । एक- बुद्धिः = एवं बुद्धिनामा मण्डूकोऽहम् । विमले जले निर्मले सलिले । क्रीडामि= विहामि, विलसामि । अत्यधिका बुद्धिर्नाशहेतुका भवतीति भावः ॥ ४३ ॥ हिन्दी - और भी यह शतबुद्धि ( सौ बुद्धिवाला ) नामक मछली सिर 1
E Я त तमपि ॥४२॥ स्तु । स्थिरो संर- sपि - वति यासः यत्नः गया किन्तु ष्ट हो किन्तु वस्तु रक्षित बीच घर में किन्तु नबुद्धि: स्ति । 1 एक- मि ३॥ सिर मत्स्यमण्डूक- कथा ५१ पर रखा है और सहस्रधी ( हजार बुद्धिवाला ) नामक मछली बांह में लटक रहा है। किन्तु हे भद्रे ! एक बुद्धिवाला मैं तो स्वच्छ जल में खेल रहा हूँ ॥४॥ सुवर्णसिद्धिराह - " कथमेतत् !" स आह- सुवर्णसिद्धि ने कहा- ‘यह कैसे हुआ !’ तब चक्रधर ने कहना आरम्भ किया- ५. मत्स्यमण्डूक- कथा “कस्मिश्चिज्जलाशये शतबुद्धिः सहस्रबुद्धिश्च द्वौ मत्स्यो निवसतः स्म । अब तयोरेकबुद्धिर्नाम मण्डूको मित्रतां गतः । एवं ते त्रयोऽपि जलतीरे बेलायां सुभाषितगोष्ठी सुखमनुभूय, भूयोऽपि सहिलं प्रविशन्ति । अथ कदाचित्तेषां गोष्ठीगतानां जालहस्ता घीवराः प्रभूतैरस्येर्व्यापादिते- मंस्तके विद्युतेरस्तमनवेलायां तस्मिञ्जलाशये समायाताः । ततः सलिलाशयं दृष्ट्वा मिथः प्रोचुः - “अहो ! बहुमत्स्योऽयं हृदो दृश्यते, स्वल्पसलिलश्च । तत्प्रभातेऽत्रागमिष्यामः” । एवमुक्त्वा स्वगृहं गताः ।
व्याख्या - जलाशये - सरोवरे । शतबुद्धिः सहस्रबुद्धिश्च शत बुद्धि- सहस्र- बुद्धिनामानो । तयो: = मत्स्ययोः । मित्रतां गतः - मित्रभावमुपगतः । एक- बुद्धिर्नाम = एक बुद्धिनामकः । मण्डूकः = दर्दुरः । जलतीरे=सलिलतटे । वेलायाम् = सायंकाले । सुभाषितगीष्ठी सुखमनुभूय-सूक्तिकाव्यालापसमा सुखमवाप्य । गोष्ठी- गतानां = एकत्रोपविष्टानाम् । जालहस्ताः - जालपाणयः । धीवराः = कैवर्ताः । प्रभूतः = प्रचुरैः । मत्स्यैः मीनैः । व्यापादितैः निहतैः । मस्तके शिरसि । विघृतः न्यस्तः । अस्तमनवेलायां = सूर्यास्तसमये । सलिलाशयं = सरोवरम्, प्रोचुः = मन्त्रयामासुः । हृदः - तडागः । स्वल्पसलिल: अत्यल्पजलः । प्रभाते – प्रातःकाले ।
O हिन्दी - किसी तालाब में शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि नांम की दो मछलियाँ रहती थीं। उनसे किसी एकबुद्धि नामक मेढक की मित्रता हो गयी थी । वे तीनों शाम को तालाब के किनारे बैठकर कुछ समय काव्यादि का आनन्द चले जाते थे । लेने के बाद पुनः जल में एक दिन शाम को उनकी गोष्ठी के समय में ही कहीं से मछलियों को मारकर शिर पर रखे हुए कुछ केवट उस तालाब के किनारे आये । उस तालाब को देखकर उन लोगों ने आपस में यह विचार किया- इस तालाब में काफी मछलियां हैं और पानी भी कम है। तो कल सुबह में यहां जाया जायेगा । यह निश्चय करके वे चले गये ।
५२ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके मत्स्याश्च विषण्णवदना मियो मन्त्रं चक्र: । ततो मण्डूक आह- “भोः, शतबुद्धे ! श्रुत धौवरो भवता ? तत्किमत्र युज्यते कर्तुम्, पलायनमवष्टम्भो वा ? यत् कर्तुं युक्तं भवति तदाविश्यतामद्य ।” तत् श्रुत्वा सहस्रबुद्धिः प्रहस्य आह- “भोः ! मित्र, मा भैषीः, तयोः वचन- श्रवणमात्रावेव भयं न कार्यम् । न भेतव्यम् । उक्तं च- व्याख्या - विषण्णवदनाः म्लानाननाः, चिन्ताग्रस्ताः । मन्त्रं = विचारम् । चक्रुः = विदधुः । पलायनम् = अन्यत्र गमनम् । अवष्टम्भः = अवस्थानम् । मा भैषीः = भयं मा कुरु । वचनश्रवणमात्रादेव = वार्तालापश्रवणेनैव । न भेतव्यं = भयं न कार्यम् । युक्तं = उचितम् । आदिश्यतां = आज्ञाप्यताम् । प्रहस्य हसित्वा । में हिन्दी-उन केवटों के चले जाने पर मछलियों ने खिन्न होकर आपस एक विचार गोष्ठी की । उस गोष्ठी में मेढक ने कहा- ‘अरे शतबुद्धि ! आपने केटों के वार्तालाप को सुना ? दहिए, इस परिस्थित में हमें क्या करना चाहिए ? यहां रहना ठीक है या अन्यत्र कहीं भाग जाना चाहिए ? जैसा करना उचित हो, आदेश दें ।’ उस बात को सुनकर सहस्रबुद्धि ने हँसकर कहा - ‘अरे मित्र, डरो मत । उनके कथन मात्र से ही नहीं डरना चाहिए। कहा भी गया है- सर्पाणां च खलानां च सर्वेषां दुष्टचेतसाम् । अभिप्राया न सिध्यन्ति तेनेदं वर्तते जगत् ॥ ४४ ॥ अन्वय - सर्पाणां च खलानां च सर्वेषां दुष्टचेतसाम् अभिप्रायाः ( इह ) न सिध्यन्ति, तेन इदं जगत् वर्तते ।। ४४ ।। व्याख्या – सर्पाणां भुजङ्गानाम् । खलानां दुष्टानाम् च । सर्वेषां समस्ता- नाम् । दुष्टचेतसां - दुष्टानि चेतांसि येषां ते, तेषां दुष्टचेतसाम् - मलिनान्तः- कारणानाम् | अभिप्रायाः = मनोरथाः, अभिलषितार्था वा, न सिध्यन्ति=न सिद्धि प्राप्नुवन्ति, व्यर्था भवन्ति । तेन हेतुना, जगदिदं = लोकोऽयम् । वर्तते = तिष्ठति । सर्पाणां दुष्टाना चाभिलषितार्थसिद्धी नूनमेव जगतो विनाशः स्यादित्यर्थः ॥ ४४ ॥ हिन्दी - सर्पों के, दुष्टों के तथा बुरे हृदयवालों के मनोरथ संसार में पूरे नहीं होते । इस कारण यह संसार विद्यमान है । अर्थात् उनकी विफलता के कारण ही यह संसार चल रहा है ।। ४४ । तत्तावत्तेषामागमनमपि न सम्पत्स्यते । भविष्यति तहि त्वां बुद्धिप्रभावे- णात्मसहितं रक्षयिष्यामि । यतोऽनेकां सलिलचर्यामहं जानामि ।
“भोः, टम्भो वचन- बारम् । मेषी: = = भयं न सित्वा । पस में आपने करना
- करना मत । इह ) न समस्ता- चनान्त:- न सिद्धि तिष्ठति । ॥४४॥ र में पूरे लता के विप्रभावे- मत्स्यमण्डक-कथा ५३ तदाकयं शतबुद्धिराह - “भो युक्तमुक्तं भवता । सहस्रबुद्धिरेव भवान् । अथवा साध्विदमुच्यते । व्याख्या - तेषां = धीवराणाम् । न सम्पत्स्यते न भविष्यति । बुद्धिप्रभा- वेण = बुद्धिबलेन । आत्मसहितं = आत्मना साकम् । सलिलगतिचर्याम् = जल- सचरणकौशलम् । जानामि = अवगच्छामि । आकण्यं = श्रुत्वा । हिन्दी – मैं तो समझता हूँ कि उनका आगमन ही नहीं होगा । यदि हुआ भी तो, से अपनी बुद्धिके प्रभाव से अपने साथ ही तुम्हारी भी रक्षा कर दूंगा, क्योंकि मैं जल में चलने की कई कलाएँ जानता हूँ । उसको सुनकर शतबुद्धि ने कहा- ‘अरे आपने ठीक कहा है। सचमुच आप सहस्रबुद्धि ही हैं ।’ अथवा यह ठीक ही कहा गया है— बुद्धेबुद्धिमतां लोके नास्त्यगम्यं हि किञ्चन । बुद्धधा यतो हता नन्दाश्चाणक्येनासिपाणयः ॥ ४५ ॥ अन्वयः - लोके बुद्धिमतां बुद्धेः किश्वन अगम्यं नास्ति, हि यतः चाणक्येन बुद्धया असिपाणयः नन्दा हताः ॥ ४५ ॥ । व्याख्या - लोके = संसारे । बुद्धिमतां = धीमताम् । बुद्धेः = धियः । किम्वन= किमपि । अगम्यं - गन्तुं योग्यं गम्यं न गम्यमगम्यं = अविषयः । नास्ति =न विद्यते । हि = निश्चयेन । यतः = यस्मात्कारणात् । चाणक्येन = तन्नामधारिणा नीतिशास्त्रप्रवर्तकेन विदुषा विष्णुगुप्तेन । बुद्ध्या - बुद्धिप्रभावेण विवेकशक्त्या । असिपाणयः- असिः पाणी येषां ते असिपाणयः खङ्गहस्ताः । नन्दाः= नन्दवंशीयाः नवसंख्याकाः राजानः । हताः = नाशिताः । विश्वस्मिन् बुद्धधा सर्व कार्य सम्पद्यते इति भावः ॥। ४५ ।।
हिन्दी - इस विश्व में बुद्धिमानों की बुद्धि के लिए कोई भी स्थान अगम्य नहीं है क्योंकि चाणक्य ने अपनी बुद्धि के ही बल पर खङ्गधारी नन्द वंश का विनाश किया था ॥ ४५ ॥ तथा– न यन्त्राऽस्ति गतिर्वायो रश्नीनां च विवस्वतः । तत्रापि प्रविणत्याशु बुद्धिर्बुद्धिमतां सदा ॥ ४६ ॥ अन्वयः - पत्र वायोः विवस्वतः रश्मीनां च सदा गतिर्नास्ति, तत्रापि बुद्धि- मतां बुद्धिः आशु प्रविशति ।। ४६ ।।
५४ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकार के
व्याख्या - यत्र = यस्मिन् स्थाने । वायोः वातस्य । विवस्वतः सूर्यस्य । रश्मीनां = किरणानाम् च । गतिः = प्रवेशः । नास्ति = न भवति । तत्रापि स्थाने । बुद्धिमतां = धीमताम् | बुद्धिः = मतिः । सदा = सर्वस्मिन् काले । आशु = । । शीघ्रम् । प्रविशति = प्रविष्टा भवति, गच्छति । बुद्धिमतो हि बुद्धिः सर्वत्र सदा सत्त्वरं प्रसरतीत्यर्थः ।
हिन्दी – जिस स्थान पर वायु और सूर्य की किरणों का प्रवेश नहीं हो पाता, वहां बुद्धिमानों की बुद्धि तत्काल पहुँच जाती है ।। ४६ । ततो वचनश्रवणमात्रादपि पितृपर्यायागतं जन्मस्थानं त्यक्तुं न शक्यते । उक्तं च- व्याख्या - वचनश्रवणमात्रादपि = वाक्यश्श्रवणमात्रेणापि धीवरोक्तं वचनं श्रुत्वैव । पितृपर्यायागतं = पितृपरम्पराप्राप्तम्, वंशक्रमादागतम् । जन्मस्थानं = मातृ- भूमिः, निवासस्थानम् । त्यक्तुं = परित्यक्तुम् । न शक्यते न पार्यते । हिन्दी - अतः मल्लाहों के वार्तालापमात्र सुनने से ही पूर्व पुरुषों द्वारा परम्परागत जन्मस्थान को छोड़ना ठीक नहीं है । कहा भी गया है कि- no न तत् स्वर्गेऽपि सौख्यं स्याद्दिव्यस्पर्शन शोभने । कुस्थानेऽपि भवेत्पुंसां जन्मनो यत्र सम्भवः ॥ ५७ ॥ अन्वयः - शोभने स्वर्गेऽपि दिव्यस्पर्शेन तत्सौख्यं न ( भवति, यत् ) पुंसां यत्र जन्मनः सम्भव ( तत्र ) कुस्थाने अपि भवेत् ॥ ४७ ॥ व्याख्या – शोभने– रमणीये । स्वर्गे दिवि । दिव्यस्पर्शेन = देवाङ्गना- लिङ्गनसम्पर्केण | तत्सौख्यं = तत्सुखम् । ननहि भवति । यत् पुंसां = प्राणि- नाम् । यत्र जन्मनः—उत्पत्तेः । सम्भवः = जन्मस्थानम् । तत्र कुस्थानेऽपि = कष्टप्रदेऽपि स्थाने । भवेत् = जायेत् । स्वर्गेऽप्यलभ्यं सुखं जन्मभूमौ लभ्यते इति भावः । अत एवोक्तं- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ ॥ ४७ ॥ हिन्दी - रमणीय स्वगं में देवाङ्गनाओं के स्पर्श से भी वह सुख नहीं प्राप्त होता, जो मनुष्य को अपनी जन्मभूमि में अनायास ही मिलता है। चाहे वह स्थान असुविधाजनक ही क्यों न हो ॥ ४७ ॥ तन्न कदाचिदपि गन्तव्यम् । अहं त्वां बुद्धिप्रभावेण रक्षयिष्यामि । हिन्दी - अत: तुमको अपनी मातृभूमि का परित्याग नहीं करना चाहिए । मैं अपनी बुद्धि के प्रभाव से तुम्हारी रक्षा करूँगा । मण्डूक आह— “भवौ ! मम तावदेकंव बुद्धिः पलायनपरा । तदहमन्य- यस्य । थाने । शु= सदा हृीं हो ययते । वचनं = मातृ- द्वारा ) पुंसां ाङ्गना- = प्राणि- sपि = ते इति 11 हीं प्राप्त चाहे वह हिए। बहमन्य- मत्स्यमण्डूक- कथा ५५ जलाशयमद्यंव सभार्यो यास्यामि ।” एवमुक्त्वा स मण्डूको रात्रावेवाऽन्यजल 1- शयं गतः । धीवरंरपि प्रभाते आगत्य, जघन्यमध्यमोत्तमजलचराः मत्स्य कूर्ममण्डक कर्क- टादयो गृहीताः । तावपि शतबुद्धिसहस्रबद्धी सभार्थी पलायमानो चिरमात्मानं गतिविशेषविज्ञानः कुटिलचारेण रक्षन्तौ जाले निपतितौ, व्यापादितौ च । H
व्याख्या - भद्री महाशयी ! पलायनपरा = अन्यत्र गमनपरा | समाय: = सपत्नीकः । यास्यामि गमिष्यामि । धीवरैः कैवर्तः । जघन्यमध्यमोत्तमजल- चराः = लघुमध्यमोत्त पजलजीवाः, बालमध्य वृद्धजलजीवाः । सभायौ = सप- त्नीको । चिरं = बहुकालं यावत् । गतिविशेष विज्ञानः - जलतरणज्ञान विशेष: । कुटिलचारेण = चक्रगमनेन । रक्षन्तौ = त्रायन्तो । व्यापादितो = निहती । हिन्दी - शतबुद्धि के वचन को सुनकर मेढक ने कहा— सज्जनो ! मैं एक बुद्धिवाला हूँ, तो यहां से भाग जाना ही उचित समझता हूं। मैंने तो यह निश्चय कर लिया है कि आज ही रात में अपनी स्त्री के साथ किसी अन्य जलाशय में चला जाऊँगा । और यह कहकर वह मेढक उसी रात में दूसरे तालाब में चला गया । दूसरे दिन सुबह में उन मल्लाहों ने आकर छोटे-बड़े तथा मध्यजाति की मछलियों, कछुओं, मेढकों तथा केकड़ों आदि सभी जलचरों को पकड़ लिया । शतबुद्धि और सहस्रबुद्धि ने भी अपनी स्त्रियों के साथ इधर-उधर भागते हुए अपनी जलसचरण सम्बन्धी विभिन्न कलाओं की जानकारी के कारण कुटिल गमन द्वारा अपने को बहुत देर तक बचाने की कोशिश की, किन्तु अन्ततोगत्वा वे दोनों जाल में फँस गये और मार डाले गये । अथाऽपराह्नसमये प्रहृष्टास्ते घीवराः स्वगृहं प्रति प्रस्थिताः । गुरुत्वाच र्व केन शतबुद्धिः स्कन्धे कृतः सहस्रबुद्धिः प्रलम्बमानो नीयते । ततश्च वापीकण्ठोपगतेन मण्डूकेन तौ तथा नीयमानौ दृष्ट्वा अभिहिता स्वपत्नी – “प्रिये ! पश्य पश्य - शतबुद्धिः शिरःस्थोऽयं, लम्बते च सहस्रघोः । एकबुद्धिरहं भद्रे ! क्रीडामि विमले जले ॥ अतश्च “वरं बुद्धिनं सा विद्या” यद्भवतोक्तं तत्रेयं मे मतियंत् न एका- रहेन बुद्धिरपि प्रमाणम् ।” सुवर्णसिद्धिः प्राह - यद्यप्येतदस्ति, तथापि मित्र वचनं नं लङ्घनीयम् । परं
५६ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके कि क्रियते, निवारितोऽपि मया न स्थितोऽसि, अतिलोल्यात् विद्याहङ्काराच्च । अथवा साध्विदमुच्यते- व्याख्या - अपराह्नसमये = दिवसावसानसमये । गुरुत्वात् = भाराधिक्यात् । वापीकण्ठोपगतेन = वापीतीरोपविष्टेन । तो शतबुद्धिससहस्त्रबुद्धी । अभिहिता = कथिता | स्वपत्नी-निजभार्या । प्रमाणं कार्यसिद्धी हेतुभूतम् । न लङ्घनीयम् = नो लङ्घनीयम् । निवारितोऽपि = वर्जितोऽपि । अतिलौल्यात् = अतिलोभात्, विद्याहङ्काराच्च = विद्यागर्वाच्च । हिन्दी - जब तीसरे पहर प्रसन्न हुए वे केवट अपने घर की ओर लौटने लगे तो भारी होने के कारण उनमें से एक ने शतबुद्धि को अपने शिर पर रख लिया और लम्बा होने से सहस्रबुद्धि को कन्धे से लटकाकर घसीटता हुआ ले जाने लगा । तब वापी के किनारे पर बैठा हुआ मेढक उन दोनों की उस दुर्गति को देखकर अपनी स्त्री से बोला- प्रिये ! देखो- हे भद्रे ! यह शतबुद्धि सिर पर रखा हुआ है और सहस्रबुद्धि लटकता हुआ जा रहा है और एक बुद्धिवाला मैं निर्मल जल में खेल रहा हूँ ।
इसलिए बुद्धि अच्छी, वह विद्या नहीं, यह आपने जो कहा उस विषय में मेरा विचार यह है कि अकेली बुद्धि भी कार्य का साधन नहीं है । यह सुनकर सुबुद्धि ने कहा— यद्यपि ऐसा ही है तथापि मित्र का कहना नहीं टालना चाहिए, किन्तु क्या किया जाय, मेरे द्वारा रोके जाने पर भी तुम अति लोभ और विद्या के घमण्ड से नहीं माने । अथवा यह ठीक ही कहा गया है- साघु मातुल ! गीतेन, मया प्रोक्तोऽपि न स्थितः । अपूर्वोऽयं मणिबंद्धः सम्प्राप्तं गोतलक्षणम् ॥ ४८ ॥ अन्वयः - मातुल ! गीतेन साधु, मया प्रोक्तोऽपि न स्थितः । ( अतः ) अपूर्वोऽयं बद्धः मणि: ( इदानीं भवता ) गीतलक्षणं सम्प्राप्तम् ॥ ४८ ॥ व्याख्या - हे मातुल ! = मातुर्भ्रातः ! गीतेन = गानेन । साधु = अलम् । समीचीनं त्वया कृतम् धन्योऽसीत्यर्थः । अनुचितं त्वया कृतमिति यावत् । मया प्रोक्तोऽपि = कथितोऽपि वारितोऽपि । त्वं न स्थितः न गानाद्विरतोऽभूः । अतो- ऽयमपूर्वः = विलक्षणः अद्भुतः । मणिः = उलूखलरूपरत्नम् । गले बद्ध:, इदानीं भवता । गीतलक्षणम् = गानचिह्नम् । गीतस्य पारितोषिकस्वरूपं चिह्नं सम्प्राप्तम् सम्यग्लब्धम् । अतो मित्र वचनस्योल्लङ्घनं न श्रेयसे भवतीत्यर्थः । कस्यचित् शृगालस्य रासमं मित्रं प्रति सस्मितं सपरिहावोक्तिरियम् ॥ ४८ ॥
रासभवगाल-कथा ५७ हिन्दी - हे मामा ! गाना न गाओ, आपका गाना जरा भी अच्छा नहीं लगता । इस प्रकार मेरे बार-बार कहने पर भी तुम नहीं रुके और गाने लगे । तुम्हारे गले में यह कितना सुन्दर अद्भुत मणि बांध दिया गया है। वस्तुतः तुम अब अपने गाने का वास्तविक पुरस्कार पा गये हो ॥ ४८ ॥ चक्रधर आह - " कथमेतत् ?” सोऽब्रवीत्- चक्रधर ने पूछा- ‘यह कैसे हुआ ।’ तब सुवर्णसिद्धि ने कहना आरम्भ किया- ६. रासभशृगाल-कथा कस्मिश्चिदधिष्ठाने उद्धतो नाम गर्दभः प्रतिवसति स्म । सः सदेव रजकगृहे भारोद्वहनं कृत्वा रात्रौ स्वेच्छया पर्यटति । ततः प्रत्यूषे बन्धनभयात्स्वयमेव रजकगृहमायाति । रजकोऽपि ततस्तं बन्धनेन नियुनक्ति । अथ तस्य रात्रौ क्षेत्राणि पर्यटतः कदाचिच्छूगालेन सह मैत्री सञ्जाता स च पीवरत्वाद् वृत्तिभङ्गं कृत्वा कर्कटिकाक्षेत्रे शृगालसहितः प्रविशति । एवं तो यदृच्छया चिटिका भक्षणं कृत्वा, प्रत्यहं प्रत्यूषे स्वस्थानं व्रजतः । अथ कदाचित्तेन मदोद्धतेन रासभेन क्षेत्रमध्यस्थितेन शृगालोऽभिहित: - “भोः, भगिनीसुत । पश्य पश्य, अतीव निर्मला रजनी, तदहं गीतं करिष्यामि । तत्कथय कतमेन रागेन करोमि ?” व्याख्या - रजकगृहे = निर्णेजकगृहे । भारोद्वहनम् = वस्त्रादिभारोद्वहनम् । रात्रौ - निशायाम् । स्वेच्छया = यथेच्छम् । पर्यटति = भ्रमति । प्रत्यूषे = प्रात:- काले । बन्धनभयात् = बन्धनप्रहारादि- दण्डभयात् । आयाति = आगच्छति । नियु- नक्ति= बध्नाति । तस्य = गर्दभस्य । क्षेत्राणि पर्यटतः = क्षेत्राणि परिभ्रमतः । शृगालेन सह = जम्बूकेन साकम् । पीवरत्वात् = स्थूलत्वात् । वृत्तिभृङ्गम् = क्षेत्र- प्राचीरभङ्गम् । कर्कटिका उर्वारु: । तो= रासभशृगाली । चिटिका कर्कटिका । व्रजतः गच्छतः । मदोद्धतेन = मदोन्मत्तेन । क्षेत्रमध्यस्थितेन क्षेत्रान्तर्गतेन । भगिनीसुत - भागिनेय ! निर्मला = गतकल्मषा, धवला । रजनी = रात्रिः । गीतम् = गानम् । करोमि = गायामि ।
हिन्दी - किसी स्थान में उद्धत नाम का गदहा रहता था। वह हमेशा धोबी के घर में दिन भर कपड़े का गट्ठर ढोने के बाद रात में मनमाना इधर-उधर घूमता रहता था। सुबह होते ही वांधे जाने या मार खाने के भय से वह प्रतिदिन धोबी के यहाँ आ जाता था और घोबी भी उसे आते ही बांध दिया करता था ।
५८ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके किसी दिन रात के समय खेतों में घूमते हुए गधे की एक शृंगाल से मित्रता हो गयी। खूब मोटा हो जाने के कारण वह खेत के घेरे को तोड़कर उस शृगाल के साथ ककड़ी के खेत में घुस जाता था और दोनों भर पेट ककड़ी खाने के बाद सुबह अपने-अपने स्थानों पर चले जाया करते थे । किसी दिन उन्मत्त गधे ने ककड़ी के खेत में खड़े-खड़े श्रृंगाल से कहा- भानिज ! देखो, यह रात कितनी स्वच्छ है । मैं गाना गाना चाहता हूँ, तो बताओ किस राग से आरम्भ करूँ ? स आह- “माम ! किमनेन वृथाऽनर्थप्रचालनेन ? यतश्चौरकमंप्रवृत्तावा- वाम्, निभृतंश्च चौरजारेंरत्र स्थातव्यम् । उक्तं च- 1 व्याख्या – माम ! = मातुल ! अनर्थप्रचालनेन = विपदामन्त्रणेन । चौरकर्म- प्रवृत्ती = स्तेयकर्मणि प्रवृत्तौ । निभृतः = निगूढैः । चोरजारः = चोरः, परस्त्री- गामिभिश्च । स्थातव्यम् - भवितव्यम् । हिन्दी - गदहे की बात सुनकर श्रृंगाल ने कहा – मामा, आपत्ति को व्यर्थ निमन्त्रण देने से क्या लाभ है ? हम लोग यहां चोरी करने के लिए आये हैं । चोरों और व्यभिचारियों को चाहिए कि वे शान्त और अपने को छिपाकर रहें । अतः मौन रहना ही ठीक है, क्योंकि कहा गया है- कासयुक्तस्त्यजेच चौयं निद्रालुश्चेत्स पुंश्चलीम् । जिह्वालौल्यं राजाक्रान्तो जीवितं योऽत्र वाञ्छति ॥ ४६ ॥ अन्वयः - यः अत्र जीवितं वाञ्छति ( सः ) कासयुक्तः चीयं, निद्रालु: पुंश्चलीं, रुजाक्रान्तश्च जिह्वालौल्यं त्यजेत् ॥ ४९ ॥ व्याख्या - यः = मनुष्यः । अत्र = लोके । जीवितं = जीवनम् । वाञ्छति= तच्छति, जीवितुमिच्छति । सः कामयुक्तः - कासेन युक्तः कासयुक्तः = कासरोग- युक्तः, कासरोगेणाक्रान्तः पुरुषः । चीर्यं - चोरस्य कर्म चौयं स्तेयम् । निद्रालु := निद्रातुरः । पुंश्चलीं = व्याभिचारिणीं स्त्रियम् । रुजाक्रान्तः = रोगेणाभिभूतः । च जिह्वालौल्यम् = रसानाचापल्यम् । त्यजेत् = परित्यजेत् । = । अयं भावः यो हि मानवो विश्वस्मिन् जीवितुमिच्छति । कासरोगग्रस्ते तस्मिन् चौर्यकर्म कर्तुं प्रवृत्ते तदानीं तस्य कासोद्गमेन जनाः जागृयुः । निद्रा- लुश्चौर्यपरः पुत्रलीसेवनपरश्च तत्रैव निद्रां प्राप्तः मानवः ज्ञातः स्यात् । रोगग्रस्तो जनो जिह्वायाश्चापल्येन लोभादपथ्यं सेवेत । एवं सति सर्वत्रानर्थसम्भावनया तेषां कदाचिदपि चौर्यादिकं न हितकरं सम्भवतीति भावः ॥ ४६ ॥
रासभम्भृगाल-कथा ५६ हिन्दी - इस संसार में जो खांसीवाला हो उसे चोरी नहीं करना चाहिए, अधिक सोनेवाले व्यक्ति को परस्त्रीगमन नहीं करना चाहिए और रोगी व्यक्ति को जीभचटोरी नहीं करना चाहिए। अर्थात् जो मनुष्य संसार में जीना चाहता है उसे ये दोष रहने पर ये कर्म नहीं करने चाहिये ।। ४६ ।। अपरं त्वदीयं गीत न मधुरस्वरम्, शङ्खशब्दानुकारं दूरादपि श्रूयते । तदत्र क्षेत्रे रक्षापुरुषाः सुसुप्ताः सन्ति । ते उत्थाय वधं बन्धनं वा फरिष्यन्ति । तद्भक्षय तावदमृतमयोश्चिमंटोः । मा त्वमत्र गीतथ्यापारपरो भव ।”
तच्छ्रुत्वा रासभ आह— “भोः, वनाश्रयत्वात्त्वं गीतरसं न वेत्सि, तेनैतद् ब्रवीषि । उक्तं च- 1 1 व्याख्या - शङ्खशब्दानुकारं शङ्खध्वनिसदृशम् । रक्षापुरुषाः = क्षेत्रपालाः । अमृतमयीः = अमृतुल्य मधुराः । गीतव्यापारः = गानतत्परः । वनाश्रयत्वात् = वनवासित्वात् । गीतरसं = सङ्गीतमाधुर्यम् । न वेत्सि = नावगच्छसि ।
हिन्दी-दूसरी बात यह है कि आपके गाने का स्वर मधुर नहीं है । शङ्ख की आवाज के समान दूर से सुनाई पड़ जाता है। यहां खेत में रखवाले सोये रहते हैं । यदि वे जग जायेंगे तो बघ या बन्धन दो में एक होना अनिवार्य है । अतः शान्त होकर इस अमृतमय ककड़ी को खाओ, व्यर्थ गाने के फेर में मत पड़ो । शृगाल की यह बात सुनकर गधे ने कहा जंगली होने के कारण तुम संगीत का रस नहीं जान सकते हो इसलिए ऐसा कह रहे हो। देखो, कहा गया है कि- पारज्ज्योत्स्नाहते दूरं तमसि प्रियसन्निधौ । । घन्यानां विशति अत्रे गीतझङ्कारजा सुधा ।। ५० ।। अन्वयः — तमसि दूरं शरज्ज्योत्स्नाहृते नभसि प्रियसन्निधौ धन्यानां श्रोत्रे गीतभङ्कारजा सुधा विशति ।। ५० ।। । ।
व्याख्या - तमसि = अन्धकारे । दूरं = दूरदेशपर्यन्तम् । शरज्ज्योत्स्नाहते- शरदि शरत्काले या ज्योत्स्ना तथा हते दूरीकृते इति शरज्ज्योत्स्नाहते शरत्का- लीनचन्द्रिका नाशिते । प्रियसन्निधी = प्रियजनस्य सामीप्ये च सति । धन्यानां = । भाग्यशालिनाम् । धोत्रे = कर्णे । गीतझदारना – गीतस्य भङ्कारः तालस्वर- समन्वितः शब्द ततो जाता समुत्पन्ना इति गीतझङ्कारजा = गानतालस्वरसम- न्वितसमुत्पन्ना गीतरवोत्था । सुधा=सङ्गीतामृतम् । विशति=प्रविशति । अमृत- मयमधुरगीतश्रवणसुखं पुण्यवन्त एवं पिवन्ति नाकृतपुण्याः इति भावः ॥ ५० ॥ हिन्दी - शरत्कालीन चांदनी से जब रात का अन्धकार दूर हो जाता है
६० पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके और अपना प्रिय व्यक्ति पास में खड़ा रहता है उस समय गाये गये संगीत का अमृतमय रस भाग्यशालियों के ही कान में पड़ता है ॥ ५० ॥ भुगाल आह— “मान ! अस्त्येतत् परं न वेत्सि त्वं गीतम् । केवलमुन्नदसि । तत्कि तेन स्वार्थभ्रं शकेन ?” रासभ आह— “धिग्धिमूर्ख ! किमहं न जानामि गीतम् ? तद्यथा तस्य भेदान् शृणु- व्याख्या— अस्त्येत् — सत्यमिदम् । न वेत्सि गीतम् = गान न जानासि । उन्नदसि = उच्चैः शब्दं करोषि । स्वायंभ्रंश केन= स्वार्थं विघातकेन । किमहं न जानामि = अपि तु जानाम्येव । तस्य भेदान् = गीतस्यावान्तरेभेदान् । हिन्दी - गधे के दुराग्रह को सुनकर शृगाल ने कहा- मामा ! तुम ठीक कहते हो, किन्तु तुम्हें गाना तो आता नहीं है, केवल जोर-जोर से रेंकते हो । अतः व्यर्थ की हानि करने से क्या लाभ है ?. यह सुनकर गधे ने कहा- अरे मूर्ख ! क्या मैं गाना ही नहीं जानता हूँ । अच्छा तो संगीत के जितने भेद होते हैं उनको मैं सुनाता हूँ सुनो- सप्त स्वतास्त्रयो ग्रामा मूच्र्छनाश्चैकविशतिः । तानास्त्वेकोनपञ्चाशत्तस्त्रो मात्रा ल्यास्त्रयः ॥ ५१ ॥ अन्वयः - सप्त स्वराः, त्रयः ग्रामाः, एकविंशतिः मूर्च्छनाः, एकोनपञ्चाशत् तानाः, तिस्रः मात्रा, त्रयः लया च ।। ५१ ॥ व्याख्या - स्वरो नाम श्रुत्यनन्तरं जायमानोऽनुरणनात्मकः स्निग्धः स्वर- विशेषः । एवं सप्त स्वराः = षड्ज ऋषभ - गान्धार-मध्यम-पश्चम- धैवत-निषाद- नामान: सप्त स्वरभेदाः सन्ति । त्रयः = त्रिसंख्याकाः, ग्रामश्च स्वराणां सन्दोहः ( एकीभावः) ते च ग्रामाः – षड्जग्रामो मध्यग्रामो गान्धारग्रामश्चेति सङ्केतिताः । तथा च ग्रामाः = षड्जमध्यमनिषादसंज्ञकाः स्वरसमूहाः । एक- विशतिसंख्यकाः । मूच्र्छनाः = स्वरस्यारोहावरोहक्रमः । एकोनपञ्चाशत् = एकोन- पश्चाशत्संख्याकाः । तानाः = तालाः । येन च मूर्च्छना शेष संश्रयाः प्रयोगा विस्तार्यन्ते स तानः । तिस्रः = तिस्रसंख्याका एक मात्रा भवन्ति । यावता समयेनं स्वरो जानुमण्डले परिपतति सा मात्रा = ह्रस्व-दीर्घ- प्लुतात्मिका । श्रय एव लयाः भवन्ति । लयो हि गीतादीनां क्रियाकालयोः साम्यम् । तथा च सङ्गीत शास्त्रानुसारं सप्तस्वराः, त्रयो ग्रामाः एकविंशतिः मूर्च्छना एकोनपञ्चाशत् तालाः, तिस्रो भात्राः, त्रयश्च लया भवन्ति ॥ ५१ ॥
रासभवगाल-कथा ६१ हिन्दी - स्वरों के सात भेद होते हैं । इनके तीन समूह होते हैं, जिसको ग्राम कहते हैं । संगीत की इक्कीस मूर्च्छनाएं होती हैं। उनचास ताल होते हैं । स्वरों की तीन मात्राएँ होती हैं और तीन ही ताल होते हैं ॥ ५१ ॥ स्थानत्रयं यतीनां च षडास्यानि रसा नव । रागा षत्रिशतिर्भावाश्चत्वारिंशत्ततः स्मृताः ॥ ५२ ॥ 1 अन्वयः - स्थानत्रयं यतीनां च षड् आस्यानि, नव रसाः, षड्विंशतिः रागाः, तत: चत्वारिंशत् भावाः स्मृताः ॥ ५२ ॥ व्याख्या — स्थानं == स्वनिर्गमस्थानम् । स्थानत्रयं - हृदयादूर्ध्वं मूर्तश्चाध- स्तात् यत्र हि प्राणः सञ्चरति तत् किल स्थानमुच्यते । तच्च उरः कण्ठः शिर- श्चेति । स्थानत्रयं =स्वराणामुत्पत्तेः क्षेत्रं कथ्यते । तालच्छन्दसोर्ज्ञानाय वाद्यैहींनः श्रुतिसुखो यः किल विरामो भवति । स एव यतिविच्छेदो नाम । यतीनां = विरामाणाम् । मास्यानि = मुखानि । तानि चात्र षण्णां रागाणां षड् भवन्ति । षड्जं विहाय षण्णां स्वराणां वा षण्मुखानि सन्ति । रसाः =नवरसभेदाः शृङ्गार- हास्य-करुण-रौद्र-भयानक - वीर - वीभत्स अद्भुत शान्तनामानः । रागाः = रागिण्यः । षड्विंशतिः = षडविंशतिसंख्याकाः ततः चत्वरिंशत् = चत्वारिंशत्संख्याकाः भावाः । भावाः स्मृता उक्ताः सन्ति । य रसान् भावयन्ति = उद्भावयन्ति ते भावाः अभिधीयन्ते । तथाहि विभावैः अनुभावैः सञ्चारिभिश्व व्यक्तः आस्वाद्य- योग्यतां नीतः स्थायिभावो रसपदवीं प्रयाति ।। ५२ ।। हिन्दी - स्वरों के तीन उद्गम स्थान होते हैं । यति के भी तीन भेद कहे गये हैं । बास्य आरम्भ छः प्रकार के होते हैं । रसों की संख्या नव होती है। रागों के छत्तीस भेद बताये गये हैं और भावों के चालीस भेद होते हैं ॥ ५२ ॥ पश्चाशीत्यधिकं ह्येतद् गीताङ्गानां शतं स्मृतम् । स्वयमेव पुरा प्रोक्तं भरतेन श्रुतेः परम् ॥ ५३ ॥ अन्वयः - एतत् हि गीताङ्गानां पञ्चाशीत्यधिकं शतं स्मृतम् । ( एतत् च ) श्रुतेः परं पुरा स्वयमेव भरतेन प्रोक्तम् ॥ ५३ ॥
व्याख्या - एतत् हि = पूर्वोक्तं हि । गीताङ्गानां - गीतावयवानाम् । पश्चा- शीत्यधिकं शतम् = शतोत्तरं पञ्चाशीतिः । स्मृतम् उक्तम् । एतच्च श्रुतेः परं =
वेदस्य सारभूतं तत्त्वं, श्रवणस्यात्यन्तं सुखदम् । पुरा=पूर्वस्मिन् काले । स्वयमेव= निजमुखद्वारैव भरतेन भरतमुनिना । एव प्रोक्तं = कथितम् ॥ ५३ ॥
६२ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके हिन्दी - पश्चम वेद स्वरूप तथा श्रवण सुखद संगीत के एक सौ पचासी भेदों को संगीत के प्रवर्तक आचार्य भरत मुनि ने स्वयं अपने मुख से कहा है ।। ५३ ।। नान्यद्गीतात्प्रियं लोके देवानामपि दृश्यते । शुष्कस्नायुस्वराह्लादात् प्रयक्षं जग्राह रावणः ॥ ५४ ॥ अन्वयः - लोके देवानामपि गीतात् अन्यत् प्रियं न दृश्यते । (यतः ) रावणः शुष्कस्नायुस्वराह्लादात् पक्षं जग्राह ॥ ५४ ॥
ध्याख्या - लोके - भुवने ! देवानामपि सुराणामपि । गीतात् = गानात् । अन्यत् - द्वितीयम् । किमपि वस्तु । प्रियं = मनः सन्तोषदायकं मनोहरम् । न दृश्यते = नहि विलोक्यते । यतो हि रावणः = दशाननो लङ्काधिपतिः । शुष्क- स्नायुस्वराह्लादात् — शुष्काः तपः क्लेशात् शोषं गताः, स्नायवो=वस्नसाः अङ्ग- प्रत्यङ्गसन्धिबन्धनरूपाः यस्य स, शुष्कस्नायुः कण्ठः तस्मादुत्पन्नो यः स्वरः- गीतशब्दः तेन आह्लादः = आनन्दः तस्मात् शुष्कस्नायुस्वराह्लादात् = शुष्क तन्त्री- स्वरानन्दात् । त्र्यक्षं - त्रीणि अक्षीणि यस्य स त्र्यक्षः तं त्र्यक्षं = त्रिनेत्रम् शिवं भगवन्तं सदाशिवम् | जग्राह प्रसादयामास । नीरसेनापि स्वरेण स्तुतिगीति कृत्वा दशाननो भगवन्तमाशुतोषं प्रसाद्य ततो वरं लब्धवान् । अतो देवा अपि गान- प्रिया भवन्तीत्यत्र नास्ति कश्चन सन्देहलेशः ।। ५४ ।। हिन्दी - मनुष्यों की तो बात ही छोड़ दो, देवताओं को भी संगीत से बढ़कर कोई वस्तु प्रिय नहीं है । रावण ने तपस्या के क्लेश से सूखे नीरस कण्ठ के स्वरालाप से ही भगवान् शङ्कर को सन्तुष्ट किया था ॥ ५४ ॥ तत्कथं भगनीसुत ! मामनभिज्ञं वदत्रिवारयति ?” शृगाल आह- “माम ! यद्येवं यावद् वृत्तेर्द्वारस्थितः क्षेत्रपालमव- लोकयामि, त्वं पुनः स्वेच्छया गीतं कुरु ।” तथाऽनुष्ठिते रासभरटनमाकण्यं क्षेत्रपः क्रोधात् दन्तान्घर्षयन् प्रधावितः । यावद्रासभो दृष्टस्तावल्लगुडप्रहारस्तथा हतो, यथा प्रताडितो भूपृष्ठे पतितः । ततश्च सच्छिद्र मुलूखलं तस्य गले बद्ध्वा क्षेत्रपालः प्रसुतः । रासभोऽपि स्वजातिस्वभावाद्गतवेदनः क्षणेनाऽभ्युस्थितः । उक्तं च- व्याख्या - भगिनीसुत !=भागिनेय ! अनभिज्ञं=आज्ञातारम् । निवारयसि = प्रतिषेधयसि । वृत्तेः वेष्टनस्य क्षेत्ररोधकस्य । रासभरटनम् =गदंभरवम् । क्षेत्रपः क्षेत्रपालः । प्रताडित = हतः । भूपृष्ठे = पृथिव्याम् । मतवेदनः विगतदुःखः । स्वजातिस्वभावात् = निजजातिप्रकृतेः । अभ्युत्थितः उत्थितः । । = =
रासभशृगाल-कथा ६३ हिन्दी - संगीत के पूर्वोक्त भेदों को बताकर गधे ने कहा- ‘इतना जानते हुए भी मुझे अनभिज्ञ कहकर क्यों मना कर रहे हो ?’ इसपर श्रृंगाल ने उत्तर दिया- ‘मामा ! यदि ऐसी बात है तो मैं घेरे से बाहर बैठकर खेत के रखवालों को देखता हूँ, आप निश्चिन्त होकर गाइए ।’ गाल के चले जाने के बाद गधे ने जोर-जोर से रेंकना शुरू कर दिया । उसकी आवाज सुनकर क्रुद्ध क्षेत्रपाल अपने दांतों को पीसता हुआ दोड़ा । खेत में पहुंचकर जब उसने गधे को देखा तो डण्डे से इस प्रकार पीटना शुरू किया कि वह गधा मार खाकर वहीं गिर गया। जी भरकर पीटने के बाद क्षेत्रपाल ने छेदवाली उलूखल को लाकर उसके गले में बांध दिया और पुनः जाकर सो गया । क्षेत्रपाल के जाते ही वह गधा अपने जातिगत स्वभाव के कारण उस मार को भूलकर तत्काल उठकर खड़ा हो गया। कहा भी गया है कि- सारमेयस्य चाश्वस्य रासभस्य विशेषतः । मुहूर्तात्परतो न स्यात्प्रहारअनिता व्यथा ।। ५५ । अन्वयः - सारमेयस्य अश्वस्य च विशेषतः रासभस्य प्रहारजनिता व्यथा मुहूर्तात् परतः न स्यात् ।। ५५ ।। व्याख्या – सारमेयस्य = कुक्कुरस्य । अश्वस्य = घोटकस्य । विशेषतः = एतदुभया- पेक्षया विशेषरूपेण । रासभस्य=गदंभस्य च । प्रहारजनिता=ताडनोत्पन्ना । व्यथा =पीडा । मुहूर्तात्=घटिकाद्वयात् । परतः = अनन्तरम् । न स्यात् =न भवेत् । सार- मेयादयो हि न चिरकालपर्यन्तं प्रहारपीडामनुभवन्तीति भावः ॥ ५५ ॥ हिन्दी - कुते, घोड़े तथा विशेषकर गधे की मारजनित पीडा केवल कुछ क्षणों तक रहती है ।। ५५ ।। ततस्तमेवोल खलमादाय ततस्तमेवोलूखलमादाय वृत्ति चूर्णयित्वा पलायितुमाररुषः । अत्रान्तरे शृगालोऽपि दूरादेव दृष्ट्वा सस्मितम् आह- व्याख्या - वृत्ति चूर्णयित्वा = बन्धनं विदार्य । सस्मितं = प्रहसन् । आह- अकथयत् । हिन्दी - गधे ने उलूखल के साथ खेत के घेरे को तोड़कर वहां से भागना शुरू कर दिया । शृगाल ने दूर से ही जब उसको इस प्रकार भागते हुए देखा तो मुस्कराकर कहा- साधु मातुल ! गीतेन, मया प्रोक्तोऽपि न स्थितः । अपूर्वोऽयं मणिबंद्धः साम्प्रतं गीतलक्षणः ॥ ५६ ॥ . ६४ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके अन्वयः - मातुल ! गीतेन साधु ( एवं ) मया प्रोक्तः अपि ( भवान् ) न स्थितः । अत एव साम्प्रतं गीतलक्षणः अपूर्व:, अयं मणिः ( भवता ) बद्ध: ।। ५६ ।। 1 व्याख्या - मातुल ! =माम ! गीतेन = गानेन । साधु = युक्तम् । व्यर्थं गीतं न गेयं भवता इत्येवं मया प्रोक्तः अपि वारितोऽपि भवान् । न स्थितः स्वदुराग्रहे आरूढः । अत एव साम्प्रतम् इदानीम् । गीतलक्षणः - गीतस्य लक्षणं पुरस्कारः यस्य सः गीतलक्षणः = गीत पुरस्काररूपेण । अपूर्वः = अद्भुतः । अयं मणिः इदं रत्नम् । भवता=त्वया । बद्धः= स्वगलालङ्कारः कृतः । अनवसरदुराग्रहिणामेषैव दशा भवति ।। ५६ ।। 1 हिन्दी - मैंने तो कितना मना किया कि गाना रहने दो, किन्तु मेरे मना करने पर भी तुमने गाना गाया ही । देखो, यह कितना सुन्दर मणि तुम्हारे गले में बांध दिया गया है । वस्तुतः तुमको गाने का समुचित पुरस्कार मिला है ।। ५६ ।। " तद्भवानपि मया वार्यमाणोऽपि न स्थितः ।” तत् श्रुत्वा चक्रधर आह- “भो मित्र, सत्यमेतत् ।” अथवा साध्विवमुच्यते- हिन्दी - इस कथा को सुनाने के पश्चात् सुवर्णसिद्धि ने कहा- ‘आप भी मेरे मना करने पर नहीं रुके थे ।’ यह सुनकर चक्रधर ने कहा- ‘मित्र ! सत्य कहते हो ।’ अथवा किसी ने ठीक ही कहा है- यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा मित्रोक्त न करोति यः । स एव निधनं याति यथा मन्थरकोलिकः ॥ ५७ ॥ अन्वयः - यस्य स्वयं प्रज्ञा नास्ति, यः मित्रोक्तं न करोति स एव निधनं याति यथा मन्थरकोलिकः ॥ ५७ ॥ व्याख्या - यस्य पुरुषस्य । स्वयं = स्वतः । प्रज्ञा = बुद्धिः । नास्ति =न विद्यते । यश्च पुरुषः मित्रोक्तं = सुहृत्कथितम् । न करोति = नानुतिष्ठति । सः पुरुषः । निधनं= नाशं । याति गच्छति । यथा येन प्रकारेण । मन्थरकौलिकः = मन्थरो नाम कश्चन तन्तुवायो । मन्दबुद्धिमित्रस्य वचनमुपेक्ष्य नाशं गतवानतो मन्दबुद्धिना पुंसा मित्रोक्तं नोपेक्षणीयमिति भावः ।। ५७ ।। हिन्दी - जो स्वयं बुद्धिहीन है ही, मित्र का कहना भी नहीं मानता है, वह व्यक्ति मन्थर नामक जुलाहे की तरह मृत्यु को प्राप्त होता है ॥ ५७ ॥ सुवर्णसिद्धिराह - ‘कथमेतत् ?” सोऽब्रवीत्- सुवर्णसिद्धि ने पूछा- ‘यह कैसे हुआ ?’ तब उसने कहना आरम्भ किया- मन्थरकौलिक कथा ७. मन्थरकौलिक-कथा ६५ कस्मिश्चिदधिष्ठाने मन्थरको नाम कौलिकः प्रतिवसति स्म । तस्य कदाचित् पटकर्माणि कुर्वतः सर्वपटकर्मकाष्ठानि भग्नानि । ततः स कुठारमादाय बने काष्ठार्थं गतः । स च समुद्रतटे यावद् भ्रमन् प्रयातः तावत्तत्र शिशपापादपस्तेन दृष्टः । ततश्चिन्तितवान्- “महानयं वृक्षो दृश्यते। तदनेनैव कर्तितेन प्रभूतानि पटकर्मोप- करणानि भविष्यन्ति ।” इत्यवधार्यं तस्योपरि कुठारमुत्क्षिप्तवान् ।
। व्याख्या — कोलिकः = तन्तुवायः । पटकर्माणि वस्त्रनिर्माणकार्याणि । सर्व पटकर्मकाष्ठानि = वस्त्रनिर्माणक्षमानि, तुरीवेमादीनि उपकरणानि । भग्नानि = त्रुटितानि । कुठारमादाय = परशुं गृहीत्वा । तत्र = समुद्रतीरे । शिशपापादपः- शिशपानामकतरुः । कर्तितेन = छिन्नेन । पटकर्मोपकरणानि = तुरीचे मादीनि वस्त्र- निर्माणोपकरणानि । अवधार्य = विचार्यं । तस्योपरि = शिशपावृक्षोपरि । उत्क्षिप्तवान् = प्रक्षिप्तवान् । । हिन्दी - किसी नगर में मन्थरक नाम का जुलाहा रहता था। एक दिन कपड़ा बनाते समय उसके कपड़ा बनाने के सभी औजार टूट गये । तब वह कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने के लिए वन में गया । इधर-उधर घूमता हुआ जैसे ही सागर के किनारे पहुॅचा वैसे ही उसने एक शीशम का पेड़ देखा । तब उसने सोचा कि यह पेड़ बहुत बड़ा दिखाई पड़ रहा है। इसके काटने से पर्याप्त उपकरण तैयार हो सकते हैं। ऐसा सोचकर उसने उस पर कुल्हाड़ी चलायी । अथ तत्र वृक्षे कश्चिद् व्यन्तरः समाश्रित आसीत् । अथ तेनाभिहितम् - “भोः मदाश्रयोऽयं पादपः सर्वथा रक्षणीयः । यतोऽहमत्र महासौख्येन तिष्ठामि, समुद्र कल्लोलस्पर्शनाच्छीतवायुनाप्यायितः ।” कौलिक आह- “भोः ! किमहं करोमि, बाद सामग्री विना मे कुटुम्बं बुभु- क्षया पीड्यते । तस्मादन्यत्र शीघ्रं गम्यताम् । अहमेनं कर्त्तयिष्यामि ॥” व्यन्तर आह्-“भोः ! तुष्टस्तवाऽहम् । तत्प्रार्थ्यतामभीष्टं किञ्चित् । रक्षैमं पादवस्” इति । कौलिक आह- “यद्येव तदहं स्वगृहं गत्वा स्वमित्रं, स्वभायां च पृष्ट्वा आगमिष्यामि, ततस्त्वया देयम् ।” व्याख्या - व्यन्तरः = पक्षः । समाश्रितः = स्थितः । तेन व्यन्तरेण । मदाश्र योऽयं = मम निवासभूतः । सर्वथा=सर्वोपायेन । सौख्येन सुखेन । समुद्रकल्लोल- ५ पञ्च०
६६ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके 1 स्पर्शात्= = सागरतरङ्गसम्पर्कात् । शीतवायुना शीतवातेन । आप्यायितः = सन्तुष्टः । दारुसामग्री विना काष्ठोपकरणं विना । कुटुम्बं = कलत्रादिकम् । बुभुक्षया = भोवतुमिच्छया । तुष्टः प्रसन्नः । अभीष्टं = स्वाभिमतं वस्तु । ततस्त्वया देयम् = पृष्ट्वा समागते सति प्रदातव्यम् । हिन्दी- -उस पेड़ पर एक यक्ष रहता था । वृक्ष को काटते हुए देखकर उस यक्ष ने कहा- ‘मैं इस पेड़ पर रहता हूँ । तुम्हें इस वृक्ष की रक्षा करनी चाहिए । इस वृक्ष को तुम नहीं काट सकते हो, क्योंकि मैं यहाँ समुद्र की लहरों के सम्पर्क से शीतल वायु का आनन्द लेकर सुखपूर्वक निवास करता हूँ ।’ कोलिक ने विनयपूर्वक कहा - ‘महाशय ! मैं क्या करूँ, वस्त्र बुनने के लिए आवश्यक काष्ठ साधनों (तुरी, वेमा आदि ) के अभाव में मेरा परिवार भूखों मर रहा है | आप कृपया कहीं अन्यत्र चले जाइए, मैं इस वृक्ष को अवश्य काटूंगा ।’ कोलिक की उक्त बात सुनकर यक्ष ने कहा- ‘मैं तुमपर प्रसन्न हूँ । तुम मुझसे कोई अभिलषित वर मांगो, इस पेड़ की रक्षा करो । कोलिक ने कहा – ‘यदि ऐसी बात है, तो मैं अपने घर जाकर अपने मित्र मोर अपनी स्त्री से पूछ लेता हूँ, फिर मेरे लौटने पर वर दीजिएगा ।’ अथ " तथा " इति व्यन्तरेण प्रतिज्ञाते, स कौलिकः प्रहृष्टः स्वग्रहं प्रति निवृत्तो यावदग्रे गच्छति, तावद् प्रामप्रवेशे निजसुहृदं नापितमपश्यत् । ततः तस्य व्यन्तरवाक्यं निवेदयामास, यत् — “अहो मित्र ! मम कश्चिद् व्यन्तरः सिद्धः । तत्कथय कि प्राथये ? अहं त्वां प्रष्टुमागतः " । नापित आह- “भद्र ! यद्येवं तद्राज्यं प्रार्थयस्व, येन त्वं राजा भवस, अहं त्यन्मन्त्री । द्वावपीह सुखमनुभूय, परलोक सुखमनुभवावः । उक्तश्व -
व्याख्या - अथ = कोलिकस्य प्रार्थनानन्तरम् । तथा=तथाऽस्तु | प्रतिज्ञाते= कथिते । निवृत्तः परावर्तितः । ग्रामप्रवेशे = पुरप्रवेशे । निजसुहृदं = स्वमित्रम् । तस्य = नापितस्य | सिद्धः = सन्तुष्टः । द्वो = आवाम् । सुखमनुभूय आनन्दमनुभूय । परलोकसुखम् = आनन्दसुखम् | अनुभवावः - अनुभवं कुर्वः । हिन्दी - कौलिक की बात सुनकर यक्ष ने-‘अच्छा जाओ’ कहकर अनुमति दे दी। बाद जुलाहा खुश होकर अपने घर की ओर लोट गया। मार्ग में गांव के बाहर ही अपने मित्र एक नाई को आते देखा और यक्ष की पूरी f स श अ PMC क्य
॥ - 5 या स नी रों ए त्रों य त्र हं chel न मन्थरकौलिक-कथा ६७ बात को उससे कह सुनाया । और कहा - मित्र, मेरे ऊपर एक यक्ष खुश हो गया है, उसने मुझसे वरदान मांगने को कहा है, तो बताओ, मैं उससे क्या मांग लूं | यही पूछने के लिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ ।’. नाई ने कहा- ‘मित्र ! यदि ऐसी बात है, तो राज्य मांग लो, जिससे तुम राजा हो जाओ और मैं तुम्हारा मन्त्री बन जाऊँगा । दोनों यहां सुख भोगकर स्वर्ग में भी सुख भोगेंगे ।’ कहा भी गया है- राजा दानपरी नित्यमिह कीर्तिमवाप्य च । 1 तत्प्रभावात्पुनः स्वगं स्पर्धते त्रिदर्शः सह ॥ ५८ ॥ अन्वयः — नित्यं दानपरो राजा इह कीर्तिमवाप्य तत्प्रभावात् पुनः स्वर्गे त्रिदशैः सह स्पर्धते ॥ ५८ ॥ व्याख्या — नित्यं = निरन्तरम् । दानपरः = दानपरायणः । राजा=तृपतिः । इह = संसारे । कीर्तिमवाप्य - यशो लब्ध्वा । पुनः = भूयः । तत्प्रभावात् = नित्यदानसामर्थ्यात् । त्रिदशैः = देवैः । सह - साकम् । स्पर्धते = स्पर्धा करोति, मोदते इत्यर्थः । धर्मिष्ठो राजा भूलोकसुखमनुभूय स्वर्गलोकसुखान्यपि भोवतुं प्रभवतीति भावः ॥ ५८ ॥
हिन्दी - हमेशा दान देनेवाला राजा इस लोक में यश को प्राप्त कर उसके प्रभाव से फिर स्वर्ग में भी देवताओं के साथ होड करता है । अर्थात् सुखपूर्वक विचरता है ॥ ५८ ॥ कौलिक आह- “अस्त्येतत् तथापि गृहिणीं पृच्छामि ।” स आह- “भन्न ! शास्त्र विरुद्धमेतत् र्यात्त्रिया सह मन्त्रः । यतस्ताः स्वल्प- मतयो भवन्ति । उक्तञ्च - 1 व्याख्या - अस्त्येतत् = उचितमेतत् । गृहिणीं = भायी । शास्त्रविरुद्धं == शास्त्रप्रतिषिद्धम् । मन्त्रः = परामर्शः । ताः = स्त्रियः । स्वल्पमतयः =अल्पबुद्धयः । हिन्दी - जुलाहे ने कहा- ‘मित्र ! यद्यपि तुम ठीक कहते हो, फिर भी अपनी पत्नी से परामर्श कर लेना आवश्यक समझता हूँ । अतः उससे पूछ लेता हूँ ।’ यह सुन नाई ने कहा- ‘मित्र ! स्त्री से परामर्श लेना शास्त्रविरुद्ध है, क्योंकि स्त्रियां स्वाभाविक रूप से कम बुद्धिवाली होती हैं ।’ कहा भी गया है- भोजनाच्छादने दधातुकाले च सङ्गमम् । भूषणाद्यं च नारीणां न ताभिर्मन्त्रयेत्सुधीः ॥ ५६ ॥
६८
पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके अन्वयः- -सुधीः नारीणां भोजनाच्छदने भूषणाद्यं ( दद्यात्) ऋतुकाले सङ्गमं च दद्यात् ( किन्तु ) ताभिः (सह ) न मन्त्रयेत् ॥ ५९ ॥ व्याख्या - सुधीः = विद्वान् पुरुषः । नारीणां = स्त्रीभ्यः । भोजनाच्छादने= अन्नवस्त्रे | भुषणाद्यं = भूषणालङ्कारादिकं च । दद्यात् प्रयच्छेत् । अन्नवस्त्रा- लङ्कारादिदानेन ताः सन्तोषयेदित्यर्थः । ऋतुकाले ऋतौ प्राप्ते, समागमयोग्य- काले । सङ्गमं ==समागमं च । दद्यात् = समर्पयेत् । किन्तु = परन्तु । ताभिः = स्त्रीभिः सह । न मन्त्रयेत् - गुप्तपरामर्शादिकं न कुर्यात् । रहस्यभङ्गभिया विद्वद्भिः भार्यया सह मन्त्रणा न कर्तव्येति भावः ॥ ५९ ॥
हिन्दी – बुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि वे स्त्रियों को भोजन एवं वस्त्र दें, ऋतुकाल में गर्भाधान के समय उन्हें सहवास का सुख दें तथा गहने आदि भाव- श्यक पदार्थ भी उन्हें दें, किन्तु उनके साथ कभी परामर्श न करें ।। ५९ ।। यत्र स्त्रीः, यत्र कितवो, बालो यत्र प्रशासिता । तद्गृहं क्षयमायाति, भार्गवो हीदमब्रवीत् ॥ ६० ॥ अन्वयः - यत्र स्त्रीः, यत्र कितवः, यत्र बालः ( वा ) प्रशासिता । तद् गृहं क्षयम् आयाति । हि इदं भार्गवः अब्रवीत् ॥ ६० ॥ I 1 व्याख्या - यत्र यस्मिन् गृहे । स्त्री योषित् । यत्र = यस्मिन् गृहे । कितवः = धूर्तः । यत्र वा बालः बालकः, शिशुः । एषु अन्यतमः कोऽपि । प्रशासिता = नियन्त्रकः व्यवस्थापको वर्तते । तद् गृहम् = गेहम् | क्षयं = नाशम् । आयाति = प्राप्नोति, विनश्यति । हि-निश्वयेन । इदं = इत्थम् एतत्किल वचनम् । भार्गवः = भृगुपुत्रः शुक्राचार्यः । अब्रवीत् अकथयत् । अप्रोढबुद्धिभिः- शिशु- धूर्त स्त्रीभिः कृतं शासनं गृहस्य नाशायैव भवति, अतो यत्र नारीपरामर्शदात्री, कितवः परामर्शदाता, बालकश्च नियन्ता भवति तद्गृहं नूनं विनश्यतीत्यर्थः ॥ ६० ॥ हिन्दी — क्योंकि जिस घर में स्त्री का प्राधान्य होता है, जहां धूतं, जुआडी आदि सलाह देते हैं ओर जहां बालक शासन करने वाला होता है निश्चय ही वह घर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । यह शुक्राचार्य ने अपने नीतिशास्त्र में कहा है ।। ६० ।। तावत्स्यात्सुप्रसन्नास्यस्तावद् गुरुजने रतः । पुरुषो योषितां यावन्न शृणोति बची रहः ॥ ६१ ॥ अन्वयः - पुरुषः यावत् रहः योषितां वचः न शृणोति तावत् सुप्रसन्नास्यः ( तावत् ) गुरुजने रतः स्यात् ॥ ६१ ॥
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मन्थरकौलिक-कथा व्याख्या – पुरुषः = जनः । यावत् = यावत्कालपर्यन्तम् । रहः = एकान्ते । योषितां = स्त्रीणाम् । वचः वचनम् । न शृणोति - नाकर्णयति । तावत् = तदवधि | सुप्रसन्नास्यः - सुप्रसन्न आस्यो यस्य सः सुप्रसन्नास्यः = प्रसन्नमुखः । गुरुजने = श्रेष्ठजने च, रक्तः = अनुरक्तः । स्यात् = भवेत् । नारीवचनविमोहि- तानां पुंसां मानसिकः सद्भावो विनश्यति । अतो नारीवचनं सदा न श्रोतव्य- मिति भावः ।। ६१ ॥
। हिन्दी- - पुरुष जब तक एकान्त में स्त्री की बात नहीं सुनता, तभी तक वह प्रसन्न रहता है और अपने बड़े व्यक्तियों में अनुरक्त रहता है ॥ ६१ ॥ एताः स्वार्थपरा नार्यः, केवलं स्वसुखे रताः । न तासां वल्लभः कोऽपि सुतोऽपि स्वसुखं विना ॥ ६२ ॥ अन्वयः – एताः नार्यः स्वार्थपराः केवलं स्वसुखे रता ( भवन्ति ) । तासां स्वसुखं विना कोऽपि सुतोऽपि वल्लभो न ( भवति ) ॥ ६२ ॥
। व्याख्या - एता नार्यः – इमाः स्त्रियः | स्वार्थपराः = स्वसुखपरायणाः केवलं स्वसुखे रताः आत्मनः सौख्ये दत्तचित्ता भवन्ति । तासां = स्त्रीणाम् । स्वसुखं विना = आत्मनः सुखं विहाय । सुतोऽपि = पुत्रोऽपि । वल्लभः प्रियो न भवति । तथा च निरन्तरमात्म सुख साधन परायणानां नारीणां प्रेम लोकेऽति- दुर्लभमित्यर्थः ।। ६२ ।। । 1 हिन्दी – ये स्त्रियां स्वभाव से परम स्वार्थी होती हैं। केवल अपना ही सुख देखती हैं । इनका कोई भी प्रिय नहीं होता है । यहाँ तक कि अपना औरस पुत्र भी स्वात्मसुख के अभाव में प्रिय नहीं लगता ।। ६२ ।। कौलिक आह- ‘तथाऽपि प्रष्टव्या सा मया । यतः पतिव्रता सा । अपर, तामपृष्ट्वाऽहं न किञ्चित्करोमि ।” एवं तमभिधाय सत्वरं गत्वा तामुवाच- “प्रिये ! अद्यास्माकं कश्चिद् व्यन्तरः सिद्धः । स वाञ्छितं प्रयच्छति । तबहं त्वां प्रष्टुमागतः । तत्कथय कि प्रार्थये ? एष तावन्मम मित्रं नापितो वदत्येयं यत् - " राज्यं प्रार्थयस्व” । साऽऽह - आर्यपुत्र ! का मतिर्नापितानासु ? तप्त कार्य तद्वचः । उक्तञ्च - व्याख्या - सा मम भार्या । पतिव्रता = पतिपरायणा साध्वा । तं = नापितम् । सत्वरं = शीघ्रम् । तां = भार्याम् । सः व्यन्तरः । याञ्छितं = मनोरथम् । का मतिः = का बुद्धिः । तद्वचः = नापितस्य वचनम् ।
हिन्दी - जुलाहे ने कहा- “फिर भी मैं उससे अवश्य पूछ गा, क्योंकि वह पतिव्रता है । इसके अतिरिक्त एक और बात है कि मैं बिना उससे परामर्थ
७० पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके लिये कोई भी कार्य नहीं करता हूँ।’ इस तरह नाई से कहकर उसने अपनी स्त्री के पास जाकर कहा - ‘प्रिये ! आज मुझपर एक यक्ष प्रसन्न हो गया है । वह मुझे वरदान देना चाहता है, तो बताओ, उससे क्या मांग लूं, यही पूछने के लिए तुम्हारे पास मैं आया हूँ। मेरा मित्र नाई कहता है कि राज्य मांगो।’ तब उसकी स्त्री ने कहा- ‘मार्यपुत्र ! नाई की क्या बुद्धि होती है, उसका कहना किसी तरह न मानियेगा ।’ कहा भी गया है- चार बन्दिभिर्नीचैर्नापितैर्बालकेर पि 1 न मन्त्रं मतिमान्कुर्यात्साधं भिक्षुभिरेव च ॥ ६३ ॥ अन्वयः - मतिमान् चारणैः वन्दिभिः नीचे: नापितैः च बालकैः च भिक्षुभिः अपि सार्द्धं मन्त्रं न कुर्यात् ॥ ६३ ॥ 1 व्याख्या - मतिमान् = बुद्धिमान् । चारणैः = एतन्नामकैः प्रसिद्धेर्नट विशेषः । राजवंशप्रशंसकैः । वन्दिभिः = स्तुतिपाठकैः । नीचैः = अघमर्दुष्टः । नापितैः = क्षुरकर्मकारिभिः । बालकैरपि = स्वल्पवयस्कैरपि । तथा भिक्षुभिः = भिक्षा- वृत्तिभिः, क्षपणकः पुरुषः सार्द्धम् । मन्त्रं न कुर्यात् =न मन्त्रयेत् । पूर्वोक्तैरेभिः सह कृतो विचारः न स्थिरो भवतीत्यर्थः ॥ ६३ ॥ हिन्दी - चारणों, बन्दीजनों, अधम दुष्ट व्यक्तियों, बालकों एव संन्यासियों से बुद्धिमान् व्यक्ति को परामर्श नहीं करना चाहिये ॥ ६३ ॥ अपरं महती क्लेशपरम्परंषा राज्यस्थितिः सन्धिविग्रहयानासनसंश्रयद्वेषी- भावादिभिः कदाचित्पुरुषस्य सुखं न प्रयच्छतीति । यतः -
व्याख्या—अपरं - किश्व | क्लेशपरम्परा= कष्टपरिपाटी । राज्यस्थितिः = राज्यव्यवस्था । सन्धिः शत्रुभिः सन्धानम् । विग्रहः = युद्धम् । यानं = 1
। = युद्धा- क्क्रमणम् । आसनम् = युद्धप्रतीक्षायामवस्थानम् । संश्रयः = अन्याश्रयः । द्वैधी- भावः = भेदः । न प्रयच्छति न ददाति । हिन्दी - इसके अतिरिक्त राज्य अत्यन्त कष्टकारक है । सन्धि, विग्रह, यान, बासन, संश्रय, द्वैधीभाव आदि राज्य का कार्य अत्यन्त कष्टप्रद होता है । वह कभी भी राजा को सुख नहीं देता । क्योंकि - यदैव राज्ये क्रियतेऽभिषेकस्तदेव याति व्यसनेषु बुद्धिः । घटा नृपाणामभिषेककाले सहाऽम्भसेवापदमुद्गरन्ति ॥ ६४ ॥ अन्वयः - यदैव राज्ये अभिषेकः क्रियते तदैव बुद्धिः व्यसनेषु याति, नृपाणां अभिषेककाले एव घटा अम्भसा सह आपदम् उद्गिरन्ति ।। ६४ ।।
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७१ व्याख्या—यदेव = यस्मिन्नेव काले । राज्ये = राजपदे । अभिषेक: = राज्याभिषेचनम् । क्रियते विधीयते, पुरुषो राज्याभिषिक्तो भवतीत्यर्थः । तदैव = तस्मिन्नेव समये । तस्य बुद्धिः मतिः । व्यसनेषु विपत्तिषु, कष्टेषु याति = गच्छति प्रवेशं कुरुते । नृपाणां = राज्ञाम् । अभिषेककाले = राज्याभिषेकस्य समये । घटाः =जलपूर्णाः कलशाः । अम्भसा जलेन, सहैव = साकम् । आपदम् = विपत्तिम् । उद्गिरन्ति = उद्धमन्ति निपातयन्ति । राजनो हि राज्यप्राप्तिसम- नन्तरमेव दुष्करानेकराजकीय साधनबुद्धयः सन्तः विविधैश्वर्यसुखेऽपि जीवनं कष्ट- मयं भावयन्तीति भावः ॥ ६४ ॥ 1 । हिन्दी - राज्याभिषेक होते ही व्यक्ति की बुद्धि जटिल समस्याओं की ओर चली जाती है और विभिन्न चिन्ताएँ आकर घेर लेती हैं । राजाओं के अभिषेक का घट जल के साथ अनेक आपत्तियों को भी उद्गिरण करता है ॥ ६४ ॥ तथा च- रामस्य व्रजनं वने निवसनं पाण्डोः सुतानां वने, वृष्णीनां निधनं नलस्य नृपते राज्यात्परिभ्रंशनम् । सौदासं तदवस्थमर्जुनवधं सञ्चिन्त्य लङ्केश्वरं, दृष्ट्वा राज्यकृते विडम्बनगतं तस्मान्न तद्वाञ्छयेत् ॥ ६५ ॥ अन्वयः - रामस्य वने व्रजनं पाण्डोः सुतानां वने निसनम्, वृष्णीनां निधनं नृपतेः नलस्य राज्यात् परिभ्रंशनम्, सौदासं तदवस्थम् अर्जुनवधं सञ्चिन्त्य राज्यकृते विडम्बनगतं लङ्केश्वरं दृष्ट्वा तस्मात् तत् न वाञ्छयेत् ॥ ६५ ॥ 1
व्याख्या - रामस्य = श्रीरामचन्द्रस्य, कैकेय्या वचनात् पितुराज्ञया चतुर्दशवर्ष- पर्यन्तम् । वने विपिने । व्रजनं = गमनम् । पाण्डोः सुतानां = पाण्डवानां युधिष्ठिरा- दीनाम् । वने = अरण्ये । निवसनं द्वादशवर्षाणि यावत् राज्यार्थं काननस्थितिम् । वृष्णीनां = भगवतः श्रीकृष्णस्य लीलया वृष्णिवंशीयानाम् । यादवानां निधनं = नाशम् । नलस्य नृपतेः द्यूते भ्रात्रा पराजितस्य राज्ञः । राज्यात् = राज्यपदात् । परिभ्रंशनम् = परिपतनम् । सौदासं सुदासनामक मिक्ष्वाकुवंशीयं भूपतिम् । तद- वस्थं = राक्षसयो निगमनम्, गुरोः वसिष्ठस्य शापात् सोदासस्य राक्षसयोनी गमनम् । अर्जुनवघं = कार्तवीर्यार्जुनस्य परशुरामकर्तृकं नाशम् । सचिन्त्य = विचार्य | राज्यकृते = राज्यार्थम् । विडम्बनगतं = विडम्बने पतितम्, कालवशं गतं सीतापहारहेतोः समूल नाशमनुभवन्तम् । लङ्केश्वरं लङ्काधिपति रावणं त्रिलोकत्रस्तकारकं दशाननं वा । दृष्ट्वा = विलोक्य । तस्मात् कारणात् । तत् =
७२ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके राज्यम् । न वाञ्छयेत्= नेच्छेत् । अतः सर्वथाऽनथंस्य कारणं राज्यं नाहमभिल- ध्येयमित्यर्थः ।। ६५ ॥ हिन्दी - देखो, राज्य के लिए राम को बन जाना पड़ा था । पाण्डवों को वन में वास करना पड़ा था । यदुवंशियों का विनाश भी राज्य के लिए ही हुआ था । राजा नल राज्य के लिए ही अनेक कष्ट झेलते रहे । सोदास राजा को कुलगुरु वसिष्ठजी के शाप से राक्षसयोनि में जाना पड़ा । कार्तवीर्य अर्जुन को राज्य के लिए ही परशुराम ने मार डाला और लड़केश्वर रावण की राज्य के लिए ही कितनी कष्टप्रद मृत्यु हुई । अतः बुद्धिमान् व्यक्ति को राज्यप्राप्ति की इच्छा नहीं करनी चाहिए ॥ ६५ ॥ यदर्थं भ्रातरः पुत्रा अपि वाञ्छन्ति ये निजाः । वधः राज्यकृतां राज्ञां तद्राज्यं दूरतस्त्यजेत् ॥ ६८ ॥ अन्वयः - ये निजा भ्रातरः पुत्राः ते अपि यदर्थं राज्यकृतां राज्ञां वधं वाञ्छन्ति तत् राज्यं दूरतः परित्यजेत् ॥ ६६ ॥ तनुजा:
व्याख्या - ये किल निजाः = स्वकीयाः । भ्रातरः = सहोदराद्याः । पुत्राः = सन्ति । ते अपि यदर्थं यस्मै राज्याय, यस्य राज्यस्य प्राप्तये । राज्यकृतां - राज्यशासनाधिकारिणाम्, राज्ञां नृपतीनाम् । वधं = नाशम् । वाञ्छिन्ति = प्राणान् ग्रहीतुमिच्छन्ति । तत् = अनर्थावहं राज्यम् । दूरतः दूरादेव । त्यजेत् = मुञ्चेत् । राज्यलोभो हि स्वीयत्ववुद्धि विघातयति । विवादास्पदं राज्यं महते- ऽनर्थाय कल्पते । अतः तत् सर्वथा हेयमित्यर्थः ।। ६६ ।। हिन्दी - जिस राज्य के लिए अपने सहोदर भाई तथा पुत्र भी राजा फा वध कर डालना चहते हैं, उस राज्य को दूर से ही छोड़ देना चाहिए ॥ ६६ ॥ कौलिक आह- " सत्यमुक्तं भवत्या । तत्कथय कि प्रार्थये ?” साऽऽह - " त्वं तावदेकं पटं नित्यमेव निष्पादयसि ! तेन सर्वा व्ययशुद्धिः सम्पद्यते । इदानीं स्वमात्मनोऽन्यद्बाहुयुगलं द्वितीयं शिरश्य याचस्व, येन पटद्वयं सम्पादयसि पुरतः पृष्ठतश्च । एकस्य मूल्येन गृहे यथापूर्वं व्ययं सम्पादयिष्यसि, द्वितीयस्य मूल्येन विशेषकृत्या नि करिष्यसि । एवं सौख्येन स्वजातिमध्ये श्लाध्य- मानस्य कालो यास्यति, लोकद्वयस्योपार्जना च भविष्यति ।” 1 व्याख्या - प्रार्थये = याचे । नित्यमेव = प्रत्यहम् । निष्पादयसि=विरचयसि । व्ययशुद्धिः प्रहव्ययनिर्वाहः । अन्यदद्वाहुयुगलं = द्वितीयं बाहुद्वयम् । याचस्व = प्रार्थयस्व । पुरतः =अग्रतः । यथापूर्वं = पूर्ववत् । विशेषकृत्यानि = अतिरिक्त ।
न- को ही TT न न्य की " चं 1 ST 1 ४ यं T- 5. ।
मन्थरकोलिक- कथा ७३ कार्याणि । सौख्येन सुखेन । स्वजातिमध्ये = स्वकीयजाती । श्लाघ्यमानस्य = प्रशस्यमानस्य । कालः समयः । यास्यति व्यतिगमिष्यति । लोकद्वयस्य = भूलोकस्य स्वर्गस्य च । उपार्जना = प्राप्तिः । हिन्दी-अपनी स्त्री की बात सुनकर जुलाहे ने कहा- ‘प्रिये, तुम ठीक कहती हो, पर बताओ कि उससे क्या मागूँ ?” स्त्री ने कहा- ‘तुम प्रतिदिन एक कपड़ा तैयार करते हो। उसी से घर का सब खर्च चलता है । तुम जाकर दो और हाथ एवं एक शिर मांग लो । इससे तुम रोज वस्त्र बुन सकोगे, एक आगे से और दूसरा पीछे से । एक के दाम से घर का खर्च चलेगा और दूसरे के मूल्य से अन्य कार्य किया जायेगा । इस प्रकार अपनी जाति के लोगों में प्रतिष्ठापूर्वक सुख से समय कट जायेगा और परलोक भी बन जायेगा । सोऽपि तदाकर्ण्य प्रहृष्टः प्राह - “साधु पतिव्रते । साधु, युक्तमुक्तं भवत्या । तदेवं करिष्यामि । एष मे निश्चयः ।” ततोऽसौ गत्वा व्यन्तरं प्रार्थयाञ्चक्रे – “भो, यदि ममेप्सितं प्रयच्छसि तत् देहि मे द्वितीयं बाहुयुगलं शिरश्च ।” एवमभिहिते, तत्क्षणादेव स द्विशिराश्चतुर्बाहुश्च सञ्जातः । ततो हृष्टमना यावद् गृहमागच्छति तावल्लोकैः “राक्षसोऽयमिति मान्यमानैलंगुडपाषाणप्रहारें- स्ताडितो मृतश्च ।” अतोऽहं ब्रवीमि - “यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा” इति । चक्रधर आह— “भोः, सत्यमेतत् । सर्वोऽपि जनोऽश्रद्धेयामाशापिशाचिकां प्राप्य हास्यपदवीं याति । अथवा साध्विदमुच्यते केनाऽपि -
। व्याख्या - तदाकण्यं = भार्याया वचनं श्रुत्वा । प्रहृष्टः = सुप्रसन्नः । असी = कौलिकः । प्रार्थयाञ्चक्रे = प्रार्थयामास । ममेप्सितं = मम मनोरथम् । बाहुयुगलं । = भुजद्वयम् । तत्क्षणात् = फटिति । लोकैः जनैः । मन्यमानः = स्वीकृर्वद्भिः । ताडितः = व्यापादितः । अश्रद्धेयां= अनादरणीयाम् । आशा पिशाचिकाम् = आशारूपां पिशाचीम् । प्राप्य - अवाध्य | हास्यपदवीं - हास्यताम् । याति = गच्छति । . हिन्दी —स्त्री के परामर्श को स्वीकार करते हुए जुलाहे ने प्रसन्न होकर कहा - ‘प्रिये, तुम ठीक कह रही हो । मैं तुम्हारे परामर्श के अनुसार करूँगा । मैं तुमसे सत्य कहता हूँ । यही मेरा भी निश्चय है ।’
२७४ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके बाद यक्ष के पास जाकर उनसे नम्रतापूर्वक कहा - ‘यदि आप मेरी मनो- भिलषित वस्तु देना चाहते हैं तो मुझे दो भुजाएं और एक शिर और प्रदान कीजिए ।’ इस प्रकार प्रार्थना करते ही उसे चार बाहु और दो शिर हो गये । वह खुश होकर जब घर लोटने लगा तो रास्ते में ही लोगों ने उसे राक्षस समझ- कर घेर लिया और लाठी एवं पत्थरों से उस पर प्रहार करना शुरू कर दिया । इस प्रकार वह मार खाकर वहीं मर गया । सुवर्णसिद्धि ने कहा - ‘इसलिए मैं कहता हूँ कि जिसकी स्वयं बुद्धि नहीं होती और मित्रों का कहना भी नहीं मानता है उसकी जुलाहे की तरह. ही कष्टप्रद मृत्यु होती है ।’ यह सुनकर चक्रधर ने कहा- ‘आप ठीक कहते हैं । अविश्वसनीय दुराशा पिशाची के फन्दे में पड़ने वाला प्रत्येक आदमी उपहास का पात्र होता है ।’ अथवा ठीक ही कहा गया है- अनागतवतीं चिन्तामसम्भाव्यां करोति यः । स एव पाण्डुरः शेते सोमशर्मपिता यथा ॥ ६७ ॥ अन्वयः - यः अनागतवतीम् असम्भाव्यां चिन्तां करोति, स एव सोमशर्मपिता यथा पाण्डुरः शेते ।। ६७ ॥ व्याख्या - यः पुरुषः । अनागतवतीं = अनागतां,
भविष्यन्तीम् । असम्भाव्यां= असम्भावनीयाम् । चिन्तां = विचारपरम्पराम् । करोति= विधत्ते । स एव = पुरुषः । निश्चयेन । सोमशर्म पिता सोमशर्मणो जनकः । यथा यद्वत् इव । चिन्तयाऽऽक्रान्तः । पाण्डुरः पीतः सन् । शेते = दुःखमग्न उदासीनो । भवति । कश्चन स्वभावकृपणः सोमशर्मानामा ब्राह्मणः सक्तुं चिन्तयन् पाण्डुरतां गतवानित्यर्थः ॥ ६८ ॥ हिन्दी - असम्भाव्य और अनागत चिन्ता को करने वाला व्यक्ति ही सोम- शर्मा के पिता के समान पाण्डु रोगग्रस्त रोगी की भाँति पीला होकर. सोता है ।। ६७ ।। सुवर्णसिद्धिराह - " कथमेतत् ?” सोऽब्रवीत् - हिन्दी - सुवर्णसिद्धि ने पूछा- ‘यह कैसे हुआ ?’ तब उसने कहना आरम्भ किया- सोमशर्मपितृ-कथा ८. सोमशर्मपितृ - कथा ७५ कस्मिश्चिन्नगरे कश्चित्स्वभावकृपणो नाम ब्राह्मणः प्रतिवसति स्म । तेन भिक्षाऽजितेः सक्तुभिर्भुक्तशेषः कलशः सम्पूरितः । तं च घटं नागदन्तेऽवलम्ब्य, तस्याऽधस्तात्खट्वां निधाय सततमेकदृष्ट्या तमवलोकयति ।
अथ कदचिद्रात्रो सुप्तश्चिन्तयामास — यत् परिपूर्णोऽयं घटस्तावत्सक्तुभि- वर्तते । तद्यदि दुर्भिक्षं भवति, तदनेन रूप्यकाणां शतमुत्पत्स्यते । ततस्तेन मया- ऽजाद्वयं ग्रहीतव्यम् ततः षाण्मासिकमा प्रसववशात्ताभ्यां यूथं भविष्यति । ततो- जाभिः प्रभूता गा ग्रहीष्यामि । गोभिमंहिषीः । महिषीभिवंडवाः । वडवाप्रसवतः प्रभूता अश्वा भविष्यन्ति । तेषां विक्रयात्प्रभूतं सुवणं भविष्यति । सुवर्णेन चतु:- शालं गृहं सम्पत्स्यत ।
व्याख्या – स्वभावकृपणः = अतिकदर्यः । तेन ब्राह्मणेन । भिक्षाजितैः = भिक्षायां प्राप्तः । सक्तुभिः पिष्टान्नविशेषेः । भुक्तशेषः - भोजनावशिष्टैः । = : = कलश: = घटः । सम्पूरितः = आपूरितः । नागदन्ते – मित्तिनिविष्टे काष्ठे । अवलम्ब्य समारोप्य । । तस्याधस्तात् = नागदन्तावलम्बित घटस्याधस्तात् । ताभ्यां = छागमिथुनाभ्याम् । यूथं = छागवृन्दम् । मजाभिः = छागैः । प्रभूताः = विपुलाः । वडवाः अश्वाः । प्रसवतः प्रसवक्र मेण । प्रभूतं = प्रचुरं चतुः- शालम् = चतुः प्राकारकम् । हिन्दी - किसी नगर में अति कृपण स्वभाव का एक ब्राह्मण रहता था । उसने अपनी भिक्षा में मिले हुए भोजन में अवशिष्ट सत्तू को सचित करके एक घड़ा भर लिया था। उस घड़े को खूंटी में टांग दिया था और उसी के नीचे चारपाई बिछाकर सोया करता था । चारपाई पर सोये सोये वह निर- न्तर ध्यानपूर्वक उस घड़े को देखा करता था । एक दिन सोते-सोते उसने सोचा कि यह घड़ा सत्तू से भर गया है । यदि अकाल पड़ जाता तो इसे बेचकर सौ रुपया मिल जाता । उन रुपयों से दो बकरियाँ खरीद लेता । फिर उनसे प्रति ६-६ माह में बच्चे पैदा होते और क्रमशः मेरे पास बकरियों का झुण्ड हो जाता । उन बकरियों को बेचकर मैं गायें खरीदता और गायों को बेचकर भैंस खरीद लेता, फिर भैंस को बेचकर घोड़ियाँ खरीदता । धीरे-धीरे घोड़ियाँ बच्चा पैदा करतीं तो अनेक घोड़े तैयार हो जाते । उन घोड़ों को बेचने से अधिक सोना मिलता । पुनः मैं उस स्वर्णराशि से सुन्दर चौसाल घर बनवाता ।
७६ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके ततः कश्चिद् ब्राह्मणो मम गृहमागत्य प्राप्तवयस्कां रूपाढ्यां कन्यां मह्यं दास्यति । तत्सकाशात्पुत्रो मे भविष्यति । तस्याऽहं “सोमशर्मा” इति नाम करि- व्यामि । ततस्तस्मिञ्जानुचलनयोग्ये सज्जातेऽहं पुस्तकं गृहीत्वाऽश्वशालायाः पृष्ठदेशे उपविष्टस्तदवधारयिष्यामि । अत्रान्तरे सोमशर्मा मां दृष्ट्वा, जनन्यु- त्सङ्गाज्जानुचलनपरोऽश्वखुरासन्नवर्ती मत्समीपमागमिष्यति । ततोऽहं ब्राह्मणीं कोपाविष्टोऽभिधास्यामि - “गृहाण तावद् बालकम् ।” साऽपि गृहकर्मव्य प्रतथाऽ- स्मद्ववचनं न श्रोष्यति । ततोऽहं समुत्थाय, तां पादप्रहारेण ताडयिष्यामि । एवं तेन ध्यानस्थितेन तथैव पादप्रहारो दत्तो यथा स घटो भग्नः, स्वयञ्च सक्तुभिः पाण्डुरतां गतः । अतोऽहं ब्रवीमि - “अनागतवतीं चिन्ताम्” इति । सुवर्णसिद्धिराह - " एवमेतेत् । कस्त दोषः । यत: सर्वोऽपि लोभेन विड- म्बितो बोध्यते । उक्तञ्च - व्याख्या - ब्राह्मणः = विप्रः । प्राप्तवयस्कां –युवतीम् । रूपाढ्यां = रूप- वतीम् । दास्यति विवाहे प्रदास्यति । तत्सकाशात् = मार्यासकाशात् | तस्य= पुत्रस्य । तस्मिन् = बालके । जानुचलनयोग्ये - जानुद्वयचलनसमर्थे । पृष्ठदेशे = पृष्ठभागे । तदवधारयिष्यामि = तस्य परीक्षां करिष्यामि । जनन्युत्सङ्गात्= मातुः क्रोडात् । जानुचलनपरः = जानुभ्यां चलन् । अश्वखुरासन्नवर्ती = अश्व- पादनिक्टचरः । कोपाविष्टः = क्रुद्धः सन् । अभिधास्यामि = कथयिष्यामि । गृहकर्मव्यग्रतया गेहकार्यव्यस्ततया । अस्मद्वचनम् = ममाज्ञाम् । समुत्थाय = उत्थाय | पादप्रहारेण = चरणाघातेन । ध्यानस्थितेन = विचारमग्नेन । भग्नः = त्रुटितः । पाण्डुरतां पीतवर्णताम् सक्तुभिरासिक्तशरीरः पीतवर्णः । गतः= प्रातः, बभूव । कस्ते दोषः न कोऽपि दोषो भवतः । विडम्बितः = प्रतारितः । बोध्यते = पीड्यते । हिन्दी - मेरा घर बन जाने के बाद कोई ब्राह्मण आकर अपनी युवती तथा रूपवती कन्या के साथ मेरा विवाह कर देगा । उसके गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न होगा, उसका नाम मैं सोमशर्मा रखूंगा। जब वह घुटने से चलने योग्य हो जायेगा, तो मैं पुस्तक लेकर उसकी परीक्षा में घोड़साल के पीछे जाकर बैठूंगा । सोमशर्मा वहाँ मुझे बैठा हुआ देखकर अपनी माता की गोद से उतरकर मेरे पास आने के लिए घुटने के बल चलता हुआ घोड़ों के पास होकर गुजरता मेरे पास आयेगा । तब मैं क्रुद्ध होकर अपनी स्त्री को आज्ञा दूंगा - लड़के को पकड़ो | पर
चन्द्र भूपति-कथा ७७ घर के कार्य में व्यस्त होने के कारण जब वह मेरी आज्ञा को नहीं सुनेगी तो मैं उस पर चरणप्रहार करूँगा । इस प्रकार सोचते-सोचते उस ब्राह्मण ने तन्मय होकर ब्राह्मणी को मारने के लिए पाद प्रहार किया। उसके पाद प्रहार से वह घड़ा फूट गया और वह पाद-प्रहार ब्राह्मण सत्तू से पीला ( सराबोर ) हो उठा । इसलिए कहता हूँ कि अनावश्यक चिन्ता को करनेवाला व्यक्ति सोमशर्मा के पिता की तरह दुर्गति को प्राप्त होता है । सुवर्णसिद्धि कहा- तुम्हारा इसमें दोष ही क्या है ? सभी लोभ से वशीभूत होने पर प्रताडित होते हैं।’ कहा भी गया है- यो लौल्यात्कुरुते कर्म, कर्म, नवोदर्कमवेक्षते । विडम्बनामवाप्नोति स यथा चन्द्रभूपतिः ॥ ६८ ॥ अन्वयः - यः लोल्यात् कर्म कुरुते उदकं न अवेक्षते स विडम्बनाम् अवा- प्नोति यथा चन्द्रसूपतिः- ( अवाप्तवान् ) ॥ ६८ ॥ व्याख्या - यः पुरुषः । लौत्यात् = चञ्चलतया । कर्म कुरुते = कार्य करोति । उदर्क = उत्तरं कालम्, तत्परिणामं वा । कालेन न अवेक्षतेन पूर्व पर्यालोचयति । सः जनः । विडम्बनाम् = वस्वनाम् । अवाप्नोति लभते, लोकेन प्रताडितो भवतीत्यर्थः । यथा = यद्वत् । चन्द्रभूपतिः चन्द्रो नाम कश्चिद् राजा विडम्बनां प्राप्तवान् । परिणामं विचार्यैव कार्यं कर्तव्यम् । अन्यथा विचार- मन्तरा क्रियमाणं कार्यमनर्थायैव प्रभवतीत्यर्थः ॥ ६८ ॥
हिन्दी - जो व्यक्ति अतिचपलता के कारण कार्य के परिणाम को सोचे बिना किसी कार्य को करता है वह अन्त में धोखा खा ही जाता है । चन्द्र- भूपति भी इसी प्रकार चपलता के कारण धोखा खा गया था ।। ६८ । चक्रधर आह - “कथमेतत् ?” स आह– हिन्दी - चक्रधर ने पूछा - ‘यह कैसे ?’ इस पर सुवर्णसिद्धि ने कहा- ९. चन्द्रभूपति-कथा कस्मिश्चिन्नगरे चन्द्रो नाम भूपतिः प्रतिवसति स्म । तस्य पुत्रा वानर- क्रीडारता वानरयूथं नित्यमेवाऽनेक भोजनभक्ष्यादिभिः पुष्टि नयन्ति स्म । अथ वानरयूथाऽधिपो यः स औसनस-वार्हस्पत्य-चाणक्य-मतवित्, तदनुष्ठाता च तत्सर्वानप्यष्यापयति स्म । अथ तस्मिन् राजगृहे लघुकुमार वाहन योग्यं मेषयूषमस्ति । तन्मध्यादेको
७८ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके जिह्वालौल्यादनशं निःशङ्कं महानसे प्रविश्य, यत्पश्यति तत्सर्वं भक्षयति ते च सृपकारा यत्किचित्काष्ठं, मृण्मयं भाजनं कांस्यपात्रं, ताम्रपात्रं वा पश्यन्ति, तेनाशु ताडयन्ति ।
व्याख्या –— नगरे = पुरे । प्रतिवसति स्म = अवसत् । तस्य = चन्द्रभूफ्तेः । वानरक्क्रीडारताः = मर्केटः सत क्रीडानुरक्ताः वानरखेलक्रिया वा । वानरयूथं = मर्कटवृन्दम् । अनेकभोजनभक्ष्यादिभिः - विविधभोजनभक्ष्य पदार्थः । पुष्टि = पाल- नम् नियन्ति स्म = पालयन्ति स्म । वानरयूथाधिपः = मर्केटवृन्दाधिराजः । उशनस इदम्, ओशनसम् = भार्गवमुनि निगदितंम् । बाह्स्पत्यं - बृहस्पतेरिदं बार्हस्पत्यं = बृहस्पति निर्मितं नीतिशास्त्रम् । चाणक्यमतवित् - चाणक्यप्रोक्तनीतिशास्त्रवेत्ता । सकलनीतिशास्त्रकुशलः समस्तनीतिशास्त्रपारङ्गतः । तदनुष्ठाता = नीति- सम्मताचरणशीलः । सर्वान् = वानरान् । मध्यापयति स्म = पाठयति स्म । लघु- कुमारस्य = अल्पवयस्क - राजकुमारस्य । वाहनयोग्यं वहनक्षमम्, अल्पकायम् मेषयूथं = अजवृन्दम् । तन्मध्यात् = यूथमध्यात् । जिह्वालोल्यात् - रसनास्वाद- ग्रहणचापत्यात् । अहर्निशं अहोरात्रम् । निःशङ्कं निर्भयम् । महानसे = भोजनालये । भक्षयति = खादयति स्म । सूपकाराः = पाचकाः । यत्किञ्चित् काष्ठं = लभ्येन्धनम् । मृण्मयं = मृत्तिकानिर्मितम् । भाजनं = पात्रम् | कांस्य- पात्रं = कांस्यधातुनिर्मितपात्रम् । आशु - शीघ्रमेव । ताडयन्तिस्म घ्नन्ति स्म ।
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हिन्दी - किसी नगर में चन्द्र नाम का एक राजा रहता था । उसके पुत्र बन्दरों के खेल में विशेष रुचि रखते थे । इसलिये बन्दरों के झुण्ड को विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्रियों को देकर वे उनका पालन-पोषण करते थे । वानरों के झुण्ड का नायक उशनस्, बृहस्पति तथा चाणक्य आदि नीतिविदों द्वारा रचित नीतिशास्त्रों का ज्ञाता था । वह स्वयं भी नीतिसम्मत आचरण करता तथा अन्य बन्दरों को भी नीतिशास्त्र पढ़ाया करता था । उस राजघराने के छोटे छोटे राजकुमारों को चढ़ने के लिए भेंड़ों का एक झुण्ड भी पाला गया था। उनमें से एक भेंड़ अपने जिह्वास्वाद की चपलता के कारण रात-दिन जब भी अवसर पाता था निडर होकर रसोई घर में घुस जाया करता और जो कुछ पाता था, खा जाया करता था । भण्डारी भी उसे देखते ही लकड़ी, मिट्टी का बर्तन, या तांबे का तुरन्त चलाकर मार दिया करते थे । बर्तन जो कुछ पा जाते सोऽपि वानरयूथपस्तद्दृष्ट्या व्यचिन्तयत्- ‘महो, नेवसूपकारकलहोऽयं
चन्द्र भूपति-कथा वानराणां क्षयाय भविष्यति । यतोऽन्नरसास्वादलम्पटोऽयं मेषो, महाकोपाश्च सूपकारा यथासन्नवस्तुना प्रहरन्ति । तद्यदि वस्तुनोऽभावात्कदाचिदुल्मुकेन ताडयिष्यति, तदोर्णाप्रचुरोऽयं मेषः स्वल्पेनापि वह्निना प्रज्वलयिष्यति । तद्दा- मानः पुनरश्वकुटयां समीपर्वातन्यां प्रवेक्ष्यति । साऽपि तृणप्राचुर्याज्ज्वलिष्यति । ततोऽश्वा वह्निवाहमचाप्स्यन्ति । शालिहोत्रेण पुनरेतदुक्त यत् - “वानरवसयाऽश्वानां वह्निदाहदोषः प्रशा- म्यति”, नन्नूनमेतेन भाव्यम् । एषोऽत्र निश्चयः । एवं निश्चित्य सर्वान् वान- रानाहूय रहसि प्रोवाच, यत्- व्याख्या - तद्दृष्ट्वा = मेष सूपकारयोविवादमवलोक्य । व्यचिन्तयत् = चिन्तया- मास । कलहः = विवादः । क्षयाय = विनाशाय । यतः = यस्माद्धि । अन्नरसास्वाद- लम्पट : - सिद्धान्नभक्षणलोलुपः । महाकोपाः = अतीवक्रुद्धाः । यथासन्नवस्तुना== निकटस्थपदार्थेन । उल्मुकेन =ज्वलास्काष्ठेन । ऊर्णाप्रचुरः = लोमबहुल: । -स्वल्पेन = अत्यल्पेन । दह्यमानः = प्रज्वल्यमानः । अश्वकुटयां = घोट कशालायाम् । सा = अश्वशाला । तृणप्राचुर्यात् = तृणबाहुल्यात् । वह्निदाहं = अग्निदाहम् । शालिहोत्रेण = शालिहोत्रनाम्ना घोटक चिकित्सकेन । महर्षिणा = महामुनिना । वानरवसया = मर्कटवपया | वह्निदाहदोष: अग्निदाहजन्यदोषः । भाव्यम् = अवश्यमेवेयं घटना घटिष्यति । रहसि एकान्ते । प्रोवाच = उवाच ।
एतेन हिन्दी - वानरों के यूथप ने जब इस घटना को देखा तो उसे बड़ी चिन्ता हुई। उसने मन ही मन सोचा इस भेड़ और भण्डारियों के बीच होने वाला यह निश्य का कलह किसी दिन वानरों के विनाश का कारण होगा, क्योंकि यह भेड़ अन्न खाने का लोभी है ओर भण्डारी भी क्रुद्ध होकर पास में पड़ी हुई किसी भी वस्तु को चलाकर मारा करते हैं । कभी संयोगवश किसी अन्य वस्तु के न मिलने पर अवश्य ही ये जलती हुई लकड़ी से ही मारेंगे । इस भेड़ की देह में ऊन है, वह चिनगारी लगते ही जल उठेगी । मार खाने पर भेड़ निकट- वर्ती घुड़शाल की ओर दौड़ेगा । घासों के इधर-उधर पड़े रहने के कारण वह तत्काल जलने लगेगी। परिणामतः घोड़े जलने लगेंगे । शालिहोत्र ने यह लिखा है कि घोड़ों के जलने का घाव बन्दरों की चर्बी से अच्छा होता है । एक न एक दिन घटना अवश्य घटेगी और वानरों की चर्बी की तलाश की जायेगी । यह निर्विवाद है । यह सोच-विचार कर उसने सभी वानरों को एकान्त में ले जाकर कहा-
८० पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकार के मेषेण सूपकाराणां कलहो योऽत्र जायते । स भविष्यत्यसन्दिग्धं वानराणां क्षयावहः ॥ ६६ ॥ अन्वयः - अत्र मेषेण ( सह ) सूपकाराणां यः कलहः जायते असन्दिग्धं सः वानराणां क्षयावहः भविष्यति ॥ ६९ ॥
व्याख्या - अत्र = अस्मिन् स्थाने । मेपेण एडकेन सह । सूपकाराणां = भोजन निर्मातृणां सूदानाम् । कलहः विवाद: । जायते भवति । तत्र अस- न्दिग्धं = निःसंशयम् । सः = कलहः । वानराणां = मकंटानाम् । क्षयावहः - क्षयमा वहति करोति वा इति क्षयावहः = विनाशकारकः । भविष्यति = यास्यति । मेष- सूपकारयोः नित्यकलहान्नूनं वानराणां विनाशो भविष्यतीति भावः ॥ ६९ ॥ हिन्दी – यहाँ भेड़ों के साथ भण्डारियों का जो प्रतिदिन विवाद चलता रहता है, वह निश्चित ही वानरों के विनाश का कारण होगा ।। ६९ ॥ तस्मात् स्यात् कलहो यत्र गृहे नित्यमकारणः । तद्गृहं जीवितं वाञ्छन्, दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ७० ॥ अन्वयः – तस्मात् यत्र गृहे नित्यम् अकारणं कलहः स्यात् तत् गृहं जीवितं वाञ्छन् दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ७० ॥ व्याख्या - तस्मात् = पूर्वोक्तकारणात् । यत्र गृहे = यस्मिन् गेहे । नित्यम् = निरन्तरं प्रतिदिनम् । अकारणः = कारणमन्तरा व्यर्थः । कलहः = विवादः । स्यात् =भवेत् । तद्गृहम् = तत् सदनम् । जीवितं वाञ्छन् = जीवनमभिलषन् । दूरतः दूरादेव । परिवर्जयेत् त्यजेत् । जिजीविषुभिः पुरुषः कलहस्यले न स्थेयमिति भावः ॥ ७० ॥ | हिन्दी - जिस घर प्रतिदिन व्यर्थं का कलह होता रहता हो उस घर को जीवित रहने की इच्छा वाले व्यक्ति को तत्काल छोड़े देना चाहिए ॥ ७० ॥ फळहान्तानि हर्म्याणि कुवाक्यान्तं च सौहृदम् । कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मान्तं यशो नृणाम् ॥ ७१ ॥ अन्वयः - हर्म्याणि कलहान्तानि सौहृदं कुवाक्यान्तं, राष्ट्राणि कुराजा- न्तानि च नृणां यशः कुकर्मान्तं ( भवति ) ॥ ७१ ॥
व्याख्या – हाम्र्म्याणि = गृहाणि । कलहान्तानि - कलहेन वैमनस्येन विवादेन अन्तो नाशो येषां तानि कलहान्तानि = विवादान्तानि भवन्ति । सौहृदं मित्रता, सख्यम् । कुवाक्यान्तम् — कुत्सितेन वाक्येन दुर्वचनेन अन्तो यस्य तत् कुवाक्यान्तम् = f ऊ क द व नि दृ वि प्र
चन्द्र भूपति-कथा ८१ कटुवाक्यान्तं भवति । राष्ट्राणि = राज्यानि, देशाः । कुराजान्तानि - कुत्सितेन राज्ञा दुष्टभूपतिना अन्तो येषां तानि कुराजान्तानि दुष्टभूपतिपर्यन्तानि । जायन्ते । नृणां मनुष्याणाम् | यशः कीर्तिः । कुकर्मान्तं – कुकर्मणा = नीचकार्येण अन्तो यस्य । तत् कुकर्मान्तम् । भवति । अर्थात् कलहेन गृहाणि, दुर्वचनेन मंत्री, दुष्टेन राज्ञा राज्यम्, असत्कर्मणा च तृणां यशो नाशमुपयान्तीत्यतः कलहो नूनं हेयः ॥७१॥ हिन्दी - प्रतिदिन के कलह से अच्छे-अच्छे घर नष्ट हो जाते हैं । कटुवाक्यों के प्रयोग से सुदृढ़ मित्रता भी टूट जाती है । कुराजा के कारण राज्य का विनाश हो जाता है और व्यक्ति का यश दुष्कर्म करने से समाप्त हो जाता है । तात्पर्य यह है कि प्रतिदिन के झगड़े से अच्छे-अच्छे घर, कुवाक्यों से मित्रता; दुष्ट राजा से राष्ट्र मोर कुकर्म से मनुष्यों का यश नष्ट हो जाता है ।। ७१ ।। तन्न यावत्सर्वेषां संक्षयो भवति, तावदेवैतद्राजगृहं सन्त्यज्य वनं गच्छामः । अथ तत्तस्य वचनमश्रद्धेयं श्रुत्वा मदोद्धता वानराः प्रहस्य प्रोचुः “भो ! भवतो वृद्धभावाद बुद्धिवैकल्यं सब्जातं येनैतद् ब्रवीषि । उक्तव-
व्याख्या —– सन्त्यज्य त्यक्त्वा । तत् = वृन्दम् । तस्य=यूथपस्य । अश्रद्धेयम् = अविश्वसनीयम् । मदोद्धताः = मदोन्मत्ताः । वृद्धभावात् = वार्द्धक्यात् । बुद्धि- वैकल्यं = मतिविभ्रमः । ब्रवीषि = कथयसि । हिन्दी - इसलिए वानरों का विनाश आने के पूर्व ही इस राजघराने को छोड़कर किसी जङ्गल में चले जाना चाहिए। यूथप के इस अविश्वसनीय वाक्य को सुनकर मतवाले वानरों ने हँसकर कहा – ‘अरे, बुढ़ापे के कारण आपकी बुद्धि भ्रम में पड़ गयी है । इसीलिए आप ऐसी सलाह दे रहे हैं। कहा भी गया है- वदनं दशर्नर्होनं, लाला स्रवति नित्यशः । न मतिः स्फुरति क्वापि बाले वृद्धे विशेषतः ॥ ७२ ॥ अन्वयः - दर्शन: हीनं वदनं, नित्यथः लाला स्रवति बाले वृद्धे विशेषतः क्वापि मतिः न स्फुरति ।। ७२ ।। 1
व्याख्या – दशनैः = दन्तेः । हीनं विरहितम् । वदनं = मुखम् । भवति । नित्यशः सर्वदा । मुखात् लाला=स्यन्दिनी, जलम् । स्रवति - निःसरति । बाले वृद्धे च = बाल्यावस्थायां वृद्धावस्थायां च, बालकानां वृद्धानां च । विशेषतः = विशेषरूपेण । क्वापि कस्मिन्नपि विषये । मतिः = बुद्धिः । न स्फुरति न प्रवर्तते । बाला वृद्धाश्च बुद्धिहीना भवन्तीत्यर्थः ॥ ७२ ॥ ६ पञ्च०
८२ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके हिन्दी - मुंह में दांत न रहने के कारण निरन्तर लार टपकती रहती है । अतः बाल्यावस्था और वृद्धावस्था में विशेषकर किसी विषय में बुद्धि स्फुरित नहीं होती है ।। ७२ ।। न वयं स्वर्गसमानोपभोगान् नानाविधान् भक्ष्यविशेषान्, राजपुत्रैः स्वदत्तान- मृतकल्पान् परित्यज्य तत्राऽटव्यां कषायकटुतिक्तक्षा रख्क्ष फळानि भक्षयिष्यामः ।” तच्छ्रुत्वाऽनुकलुषां दृष्टि कृत्वा स प्रोवाच- 1 रे मूर्खाः । यूयमेतस्य सुखस्य परिणामं न जानीथ । किम्पाकरसास्वादन- प्रायमेतत्सुखं परिणामे विषवद् भविष्यति । तवहं फुलक्षयं स्वयं नावलोकयि- ष्यामि । साम्प्रतं वनं यास्यामि । उक्त च- व्याख्या - वयं = वानराः । स्वर्गसमानोपभोगान् = स्वगं सदृशसुखभोगान् । नानाविधान् = अनेक प्रकारान् । स्वहस्तदत्तान् = निजकरे: प्रेम्णा समर्पितान् । अमृत कल्पान् = अमृतोपमान्, सुधासदृशास्वादान् । तत्र तस्मिन् । अटव्यां= अरण्ये | कषाय कटुतिक्तक्षाररूक्ष फलानि – कषायाणि - कषायरसयुक्तानि, कटूनि = कटुरसमिश्रितानिः तिक्तानि, क्षाराणि लवणरससहितानि, रूक्षाणि - विरसानि च तानि कषायकटुतिक्तक्षा रख्क्षाणि तादृशानि फलानि = विभिन्ना- स्वादयुक्तानि फलानि । अश्रुकलुषां = बाष्पकलुषाम् । दृष्टि = नेत्रम् । एतस्य = अस्य । परिणामं = विपाकम्, फलम् । किम्पाकरसास्वादनप्रायं विषवृक्ष फला- स्वादोपमम् । नावलोकयिष्यामि =न विलोकयिष्यामि । साम्प्रतम् = इदानीम् । यास्यामि = गमिष्यामि । हिन्दी - हम लोग दिव्य उपभोगों को और अनेक प्रकार के भक्ष्यों एवं राजकुमारों के हाथ से स्नेहपूर्वक दिये गये अमृत के समान स्वादिष्ट पदार्थों को छोड़कर वन में कसैले, कडवे, तीते, खट्टे एवं नीरस फलों को खाने के लिए कभी भी नहीं जायेंगे। यूथप ने वानरों के इस निर्णय को जब सुन लिया, तब आंखों में आंसू भरकर रोता हुआ उनकी ओर देखकर बोला- अरे मूर्खो ! खाने में सुस्वादु विषमय फल के समान यह सुख परिणाम में कितना विषमय होगा । सुख की उस अन्तिम परिणति को तुम लोग नहीं जानते हो । मैं अपनी इन आंखों से अपने ही कुल का विनाश नहीं देख सकता हूँ । यतः मैं अभी वन में चला आता हूँ, क्योंकि— मित्रं व्यसनसम्प्राप्तं स्वस्थानं परपीडितम् । धन्यास्ते ये न पश्यन्ति देशभङ्ग कुलक्षयम् ॥ ७३ ॥
1 त न- 19 7- प- T, T- T- वं के न में 1 चन्द्र भूपति-कथा ८१ अन्वयः - व्यसनसम्प्राप्तं मित्रं, परपीडितं स्वस्थानं, देशभङ्गं कुलक्षयं च मैं न पश्यन्ति ते धन्याः ( भवन्ति ) ॥ ७३ ॥
व्याख्या - व्यसनसम्प्राप्तं - व्यसनं कष्टं, सम्प्राप्तं लब्धं येन तत् व्यसन- सम्प्राप्तं = कष्टें पतितम् । मित्रं = सुहृदम् । परपीडितम् = परैः शत्रुभिः पीडितम् = आक्रान्तमिति परपीडितम् तत् परपीडितं = शत्रुसमाक्रान्त्रम् । स्वस्थानम् = आत्मनो निवासभूमिम् । देशभङ्गं - देशस्य देशखण्डस्य भङ्ग-विच्छेदम् विश्वसं वा । कुलक्षयं - कुलस्य = वंशस्य क्षयो = विनाशः कुलक्षयः तं कुलक्षयं कुल- नाशम् । च ये नराः । न पश्यन्ति = नावलोकयन्ति । ते किल । धन्याः = = श्रेष्ठाः भवन्ति । भाग्यवन्तो जना एव कुलक्षयादिकं नावलोकयन्ति ।। ७३ ।।
हिन्दी - दुःख में पड़े हुए मित्रों को और शत्रुओं द्वारा आक्रान्त अपने देश को नहीं देखना चाहिए। वे मनुष्य धन्य हैं जो अपने नेत्रों द्वारा अपने निवास- स्थान एवं कुल का विनाश नहीं देखते हैं ।। ७३ ।। एवमभिधाय सर्वांस्तान् परित्यज्य स यूथाधिपोऽटव्यां गतः । अथ तस्मिन्ाते- अन्यस्मिन्नहनि स मेषो महानसे प्रविष्टो यावत्सूपकारेण नान्यत्किञ्चित्समासादितं तावदधंज्वलितकाष्ठेन ताड्यमानो जाज्वल्यमानशरीरः शब्दायमानोऽश्वकुटयां प्रत्यासन्नर्वातन्यां प्रविष्टः । तत्र तृणप्राचुर्ययुक्तायां क्षितौ तस्य प्रलुठतः सर्वत्राऽपि वह्निज्वालास्तथा समुत्थिता यथा केचिदश्वा; स्फुटितलोचनाः पश्वत्वं गताः । केचिद् बन्धनानि त्रोटयित्वा, अर्द्धदग्धशरीरा इतश्चेतश्च हृषायमाणा घावमानाः, सर्वमपि जन- समूहमाकुलो चक्रुः ।
व्याख्या - एवमभिधाय = पूर्वोक्तं वाक्यमुक्त्वा । तान् = वानरान् । परि- त्यज्य = त्यक्त्वा । यूथाधिपः = यूथपः । अटव्याम् = वने । गतः = अगच्छत् । गते = वनं गते’ सति । अन्यस्मिन्नहनि = कस्मिश्चिद्दिने । महानसे पाक शालायाम् । समासादितम् = अवाप्तम् । अर्द्धज्वलित काष्ठेन - अर्द्धदग्धेन्धनेन ताड्यमानः = हन्यमानः । जाज्वल्यमानशरीरः = प्रज्वलिताङ्गः । शब्दायमानःः शब्दं कुर्वन् । प्रत्यासन्नवर्तिन्यां = निकटवर्तिन्याम् । तृणप्राचुर्ययुक्तायाम् = तृणबहुलायम् । क्षितो = पृथिव्याम् । प्रलुण्ठतः = लुण्ठतः । वह्निज्वाला = अग्निज्वाला । समुत्थिता = उत्थिता । स्फुटितलोचनाः = नष्टदृष्टयः । पञ्चत्वं = निधनम् । बन्धनानिबन्धनसूत्राणि । त्रोटयित्वा = खण्डयित्वा । अर्द्ध
८४ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके दग्धशरीराः = ज्वलितार्द्धकायाः । हेषायमाणाः शब्दायमानाः | जनसमूहं - अनुष्यसमुदायम् । आकुलीचक्रुः = व्याकुलयामासुः । । हिन्दी - ऐसा कहकर उन सबको छोड़कर वह समूह का स्वामी (नेता) वन्दर वन में चला गया । उसके चले जाने के बाद एक दिन भेड़ ने पाकशाला में ज्यों ही प्रवेश किया, त्यों ही भण्डारियों ने अन्य वस्तु के अभाव में आधी जली हुई लकड़ी चलाकर मारा, अर्द्ध दग्ध लकड़ी के लगते ही उस भेड़ की देह में आग लग गयी । जलता हुआ वह भेड़ चिल्लाकर पास की घोड़साल में घुस गया और अपनी आग को बुझाने के निमित्त जमीन पर लोटने लगा । सूखी घासों के इधर-उधर पड़ने के कारण घोड़साल में भी आग लग गयी। थोड़ी ही देर में वहाँ ऐसी अग्निज्वाला उठी कि कुछ घोड़ों की आँखें फूट गयीं और वे तत्काल मर भी गये । कुछ घोड़ों ने अपने बन्धनों को तोड़ दिया और आधी जली देह लेकर इधर उधर हिनहिनाते हुए दौड़ लगाने लगे । उनकी इस भागदोड़ के कारण सम्पूर्ण जनसमुदाय व्याकुल हो उठा । अत्रान्तरे राजा सविषादः शालिहोत्रज्ञान् वैद्यानाहूय, प्रोवाच - “भोः ! प्रोच्यतामेषामश्वानां कश्चिद्दाहोपशमनोपायः । तेऽपि शास्त्राणि विलोक्य प्रोचुः “देव ! प्रोक्तमत्र विषये भगवता शालिहोत्रेण, यदु
व्याख्या - अत्रान्तरे = अस्मिन्नेवावसरे । सविषादः = दुःखितः । मालि- होत्रज्ञान् = अश्व चिकित्सकान् । प्रोच्यतां = कथ्यताम् । दाहोपशमनोपायः : अग्निदाहनाशकोपायः । तेऽपि = चिकित्सकाः । शास्त्राणि अश्वचिकित्सा- शास्त्राणि । प्रोचुः = उक्तवन्तः । प्रोक्तं – कथितम् । अत्र विषये बवाना- मग्निदाहावसरे । शालिहोत्रेण = तन्नाम्ना महर्षिणा ।
हिन्दी - घोड़ों के जलने का समाचार पाकर राजा अत्यन्त दुःखी हुआ और अश्व चिकित्सा में निपुण वैद्यों को बुलाकर कहा—घोड़ों के जलने पर जो कोई उपचार हो सकता है तो आप लोग कृपया बतायें । वैद्यों ने चिकित्सा- शास्त्र देखकर कहा – महाराज, इस विषय में भगवान् शालिहोत्र ने लिखा है कि-
कपीनां मेदसा दोषो वह्निवाहसमुद्भवः । अश्वानां नाशमभ्येति तमः सूर्योदये यथा ॥ ७४ ॥ अन्वयः - अश्वानां वह्निदाहसमुद्भवः दोषः कपीनां मेदसा नाश मभ्येति, यथा सूर्योदये तमः ( नाशमभ्येति ) ॥ ७४ ॥ चन्द्र भूपति-कथा 1 ८५ व्याख्या - अश्वानां-घोटकानाम् । वह्निदाहसमुद्भवः — वह्नेः अग्नेः दाहात् सन्तापात् समुद्भवः = अनलदाह समुत्थितः । दोषः विकारः । कपीनां वानरा- णाम् । मेदसा = वसया । तथैव नाथमभ्येति = क्षयं प्राप्नोति, शाम्यति । यथा येन प्रकारेण । सूर्योदये = प्रातःकाले । तमः = अन्धकारः । नाशमभ्येति = नाश्यति । अर्थात् वानराणां वसा अश्वानां वह्निदाहजनितं दोषं दूरी- करोतीत्यर्थः ॥ ७४ ॥ हिन्दी - घोड़ों के जलने का दाह वानरों की चर्बी से उसी प्रकार समाप्त हो जाता है जैसे कि सूर्योदय होने से अन्धकार समाप्त हो जाता है ।। ७४ ॥ तरिक्रयतामेतच्चिकित्सतं द्राक्, यावदेते न बाहदोषेण विनश्यन्ति । सोऽपि तदाकर्ण्य समस्तवानरवधमादिष्टवान् । किं बहुना - सर्वेऽपि ते नानरा विविधायुधलगुडपाषाणादिभिर्व्यापादिताः इति । अथ सोऽपि वानरयूथपस्तं पुत्रपौत्रभ्रातृसुतभागिनेयादिसंक्षयं ज्ञात्वा विधाद- सुपगतः, सन्त्यक्ताहारक्रियो वनाद्वनं पर्यटति । अचिन्तयच्च - " कथमहं तस्य नृपापसदस्यानूणतां कृत्येनाऽपकृत्यं करिष्यामि । उक्तश्व- 1
व्याख्या - एतत् = वानरवसारूपम् । चिकित्सितं = उपचारः । द्राक्= त्वरितम् । सोऽपि = राजाऽपि । तदाकयं तच्छुत्वा । वानरवधं वानराणां विनाशं । आदिष्टवान् = आज्ञापितवान् । व्यापादिता:- हताः । पुत्रपौत्र- भ्रातृसुतभागिनेयादिसंक्षयं = स्वकुलविनाशम् । ज्ञात्वा = अवगत्य । परम्= अत्यन्त । विषादमुपगतः शोकग्रस्तः । संत्यक्ताहारक्रिय:- भोजनं विहाय । पर्यटति भ्रमति । नृपापसदस्य = दुष्टस्य राज्ञः । अनुणतां वैरसन्धानेना- नृण्यम् । कृत्येन = स्वकृत्येन । अपकृत्य = अपकारं कृत्वा । करिष्यामि== विधास्यामि । हिन्दी - अग्निदाह के कारण उत्पन्न दोष से इन घोड़ों के मरने के इस उपचार को करने का तत्काल आदेश दे दिया जाय । राजा ने वैद्यों की राय से समस्त वानरों को मार डालने का आदेश दे दिया । तदनुसार विचारे बन्दर विभिन्न प्रकार के आयुधों लाठियों और पत्थरों द्वारा मार डाले गये । उस यूथप ने जब इस समाचार को सुना तब अपने पुत्र-पौत्र, भतीजे, भागिनेय आदि सगे-सम्बन्धियों की मृत्यु से अत्यन्त दुःखी हुआ । खाना-पीना । छोड़कर इधर-उधर जङ्गलों में घूमने लगा और निरन्तर यह सोचता रहा कि मैं किस प्रकार इस कृतघ्न राजा का अपकार करके अपने सम्बन्धियों की मृत्यु का बदला चुका हूं। कहा भी गया है—
८६ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके मर्षयेद्धर्षणां योऽत्र वंशजां परनिर्मिताम् । भयाद्वा यदि वा कामात् स ज्ञेयः पुरुषाऽधमः ॥ ७५ ॥ अन्वयः - यः अत्र भयात् यदि वा कामात् परनिर्मितां वंशजां घर्षणां मर्षयेत् स पुरुषाधमः ज्ञेयः ॥ ७५ ॥
व्यास्या — यः = पुमान् । अत्र = संसारे । भयात् भीतेः कारणात् । यदि वा= अथवा | कामात = अभिलाषात् । केनाप्यभिप्रायेण । पर निर्मितां — परेण इतरेण= पुंसा, निर्मितां शत्रुकृताम् । वंशजां= कौटुम्बिकीस् । घर्षणां = पराभवम् । मर्षयेत् = क्षमते । सः पुमान् । पुरुषाधमः = नराधमः । ज्ञेयः ज्ञातव्यः । कुलस्थापमानं नीचा एव सहन्ते नोत्तमाः, ते तु तं सोढुमक्षमाः एव भवन्तीति भावः ।। ७५ ।। हिन्दी - भय के कारण अथवा लोभ से वशीभूत होकर जो व्यक्ति शत्रुओं द्वारा उत्पन्न की हुई अपने वंश की अवमानना को मौन होकर सह लेता है, उसे नराधम समझना चाहिए ।। ७५ ।। अथ तेन वृद्धवानरेण कुत्रचित्पिपासाकुलेन भ्रमता पचिनीखण्डमण्डितं सरः समासादितम् । तद्यावत्सूक्ष्मेक्षिकयाऽवलोकर्यात तावद् वनचरमनुष्याणां पद- पक्तिप्रवेशोऽस्ति न निष्क्रमणस् । ततश्चिन्तितम् “नूनमन्त्र आक्रान्ते दुष्टग्राहिण भाष्यम् । तत्पद्मिनीनालमादाय दूरस्थोऽपि नलं पिबामि ।” तथाऽनुष्ठिते तन्मध्याद्राक्षसो निष्क्रम्य, रत्नमालाविभूषितकण्ठस्तमुवाच - “भो! ! अत्र यः सलिले प्रवेशं करोति स मे भक्ष्यः इति । तन्नास्ति घूर्ततर- स्त्वत्समोऽन्यो यः पानीयमनेन विधिना पिबति । ततस्तुष्टोऽहं, प्रार्थयस्व हृदयवाञ्छितम् ।” कपिराह - “भोः ! कियती ते भक्षणशक्तिः ?” स आह- " शतसहस्रायुतकक्षाण्यपि जलप्रविशनि भक्षयामि । बाह्यतः भृगालोऽपि मां घर्षयति ।” बानर आह— “अस्ति मे केनचिद् भूपतिना सहाऽत्यन्तं वैरम् । यद्येनां रत्नमालां मे प्रयच्छसि तत्सपरिवारमपि तं भूपति वाक्यप्रपञ्चेन लोभयित्वाऽत्र सरसि प्रवेशयामि ।” सोऽपि श्रद्धेयं वचस्तस्य श्रुत्वा रत्नमालां दत्त्वा प्राह- “भो मित्र ! यत्स- सुचितं भवति तत् कर्त्तव्यम्” इति । L व्याख्या - अथ = पश्चात् । कुत्रचित् इतस्ततः । वृद्धवानरेण= वृद्धेन यूथा- धिपवानरेण । पिपासाकुलेन पिपासितेन, तृषातुरेण । पद्मिनिखण्डमण्डितं =
Π न i 5 न a i चन्द्र भूपति-कथा
८७ पद्मिनीखण्डेन = कमलिनीसमूहेन, मण्डितं = शोभितमिति, पद्मिनीखण्डमण्डितं = कमलिनीकदम्बालकृतम् । सरः = तडागः । समासादितम् - अवाप्तम् । सूक्ष्मे - क्षिकया = सूक्ष्मदृष्टया । अवलोकयति = पश्यति । बनचरमनुष्याणां - वनचराश्च ते मनुष्याश्च वनचरमनुष्याः तेषां वनचरमनुष्याणाम् = वनचरजीवानाम् । पद- पङ्क्तिः = चरणचिह्नावलिः । प्रवेशः, न निष्क्रमणं नहि निर्गमः, न हि बहि- रागमनस्य चिह्नं दृश्यते । जलान्ते – जलमध्ये । दुष्टग्राहेण = दुष्टमकरेण । भाव्यम् = भवितव्यम् । पदिमनीनालं = कमलिनीदण्डम् । दूरस्थोऽपि बहि:- स्थितः सन् । निष्क्रम्य = बहिरागत्य । रत्नमालाविभूषितकण्ठः = रत्नस्य मालया विभूषितः कण्ठो यस्य स रत्नमालाविभूषित कण्ठः रत्नमालाऽलङ्कृतकण्ठः । तं = यूथाधिपं वानरम् । उवाच = प्रोवाच । घूर्ततरः = अतिशयेन धूर्ती घूर्ततरः =प्रवश्वकः, चतुरः । पानीयं =जलम् । तुष्टः = प्रसन्नः । हृदयवाञ्छितं - मनोऽभिलषितम् । भक्षणशक्तिः = भोजनसामर्थ्यम् । अयुतं = दशसहस्रम् । जल- प्रविष्टानि =जलान्तर्गतानि । बाह्यतः बहिः स्थितः सन् । घर्षयति = तिरस्करोति, प्रवश्वयति । भूपतिना = राज्ञा । वैरं = द्वेषः । वाक्प्रपञ्चेन = वाग्जालेन । लोभयित्वा = प्रवञ्चय । प्रवेशयामि निवेशयामि । श्रद्धेयं = विश्वासयोग्यम् । यत् समुचितं यद् युक्तम् । तत् कर्तव्यम् = तद् विधेयम् ।
हिन्दी - कभी उस वृद्ध वानर ने प्यास से व्याकुल होकर इधर उधर पानी की खोज में घूमते हुए कमलिनी से सुशोभित एक तालाब को देखा । उसने जब ध्यान से देखा तो वहाँ तालाब में प्रवेश करनेवाले जीवों का पदचिह्न दिखाई दिया, किन्तु उनके निकलने का कोई चिह्न नहीं था । इसे देखकर उसने सोचा कि इस तालाब में कोई न कोई दुष्ट मगर अवश्य रहता है । अतः अन्दर प्रवेश करना ठीक नहीं होगा । बाहर से ही कमलनाल के सहारे पानी पी लेता हूँ । वह कमलनाल के द्वारा पानी पी रहा था कि तालाब के अन्दर से एक राक्षस निकला । वह रत्न की अत्यन्त सुन्दर माला पहने हुए था । वानर को देखकर उसने कहा- अरे वानर ! इस पानी के अन्दर जो प्रवेश करता है, वह मेरा भक्ष्य होता है । तुम्हारे समान धूर्त मैंने नहीं देखा, क्योंकि तुम पानी में प्रवेश किये किये बिना ही कमलनाल से पानी पी रहे हो। मैं तुम्हारी चतुरता से तुझ पर प्रसन्न हूँ । तुम्हारा जो मनोकामना हो वह मुझसे माँग लो । वानर ने पूछा- तुम कितने जीवों को खा सकते हो ? राक्षस ने कहा- पानी में प्रविष्ट एक सी, हजार, लाख व्यक्तियों को भी
८८ पञ्चतन्त्र स्यापरीक्षितकारके खा सकता हूँ, किन्तु पानी से बाहर निकलने पर एक सियार भी मुझे विजित कर सकता है । यह सुनकर उस वानर ने कहा- एक राजा के साथ मेरा आत्यन्तिक वर हैं । यदि इस रत्नमाला को तुम मुझे दे दो तो मैं अपनी वाक्चातुरी से प्रलो- भित करके सकुटुम्ब उस राजा को इस तालाब के अन्दर प्रवेश करा सकता हैं । राक्षस ने उस वानर की विश्वास योग्य बात को सुनकर रत्नमाला को देते हुए कहा - मित्र ! जो तुम्हें उचित प्रतीत हो वह करना । वानरोऽपि रत्नमालाविभूषितकण्ठो वृक्षप्रासादेषु परिभ्रमञ्जनैदृष्टः, पृष्टश्व- “भो यूथप ! भवानियन्तं कालं कुत्र स्थितः ? भवता ईवप्रत्नमाला कुत्र लब्धा, दीप्त्या सूर्यमपि तिरस्करोति ।” वानरः प्राह - “अस्ति कुत्रचिदरण्ये गुप्ततरं महत्सरो धनदनिर्मितम् । तत्र सूर्येऽर्षोदिते रविवारे यः कश्चिनिमज्जति, स धनदप्रसादाबीद् ग्रत्नमालाविभूषित- कण्ठो निःसरति ।” अथ भूभुजा तदाकण्यं स वानरः समाहूतः, पृष्टश्च - “भो यूथाधिप ! कि सत्यमेतत्, रत्नमालासनाथं सरोऽस्ति बवाऽपि ?” कपिराह - “स्वामिन् । एष प्रत्यक्षतया मत्कण्ठस्थितया रत्नमालया प्रत्ययस्ते । तद्यदि रत्नमालया प्रयोजनं तन्मया सह कर्मापि प्रेषय, येन दर्शयामि ।” तच्छ्रुत्वा नृपतिराह - “यद्येवं तदहं सपरिजनः स्वयमेष्यामि, येन प्रभूता रत्नमाला उत्पद्यन्ते ।”
व्याख्या – रत्नमालाविभूषित कण्ठः = रत्नमालालङ्कृत कण्ठः । वृक्षप्रासादेषु - वृक्षाश्च प्रासादाश्चेति वृक्षप्रासादाः तेषु वृक्षप्रासादेषु = वृक्षेषु प्रासादेषु च । इयन्तं कालम् = एतावद्दिनपर्यन्तम् । । लब्धा = प्राप्ता । दीप्त्या कान्त्या । तिरस्करोति = परिभक्त्ति | गुप्ततरं = सुगोप्यम् । धनपति निर्मितं - धनपतिना = कुबेरेण निर्मितं खनितमिति धनपतिनिर्मितम् = कुबेरकृतम् । सूर्योऽर्धोदिते- अर्धोदिते भास्करे । निमज्जति स्नाति । धनदप्रसादात् = कुबेरकृपया । ईदृक् = एतादृक् । निःसरति = सरोवरानिष्क्रामति भूभुजा = राज्ञा । समाहूतः = आकारितः । रत्नमालासनाथं रत्नमालायुतम् । क्वापि = कुत्रापि । प्रत्यक्षतथा =प्रत्यक्षरूपया | प्रत्ययः = विश्वासः । सपरिजनः सपरिकरः सानुचरश्च । एष्यामि = गमिष्यामि । प्रभूताः = विपुलाः । उत्पद्यन्ते = मिलन्ति ।
S
त A 7- । . 7, 可 -} ד बु 1 1 1 ד 1 चन्द्रभूपति-कथा ८६ वह वानर हिन्दी-राक्षस की दी हुई माला को कण्ठ में धारण करके वृक्षों एवं भवनों पर क्रमशः घूमता हुआ पुरवासियों की दृष्टि में पड़ गया । नगरनिवासियों ने प्रेमपूर्वक उससे पूछा- अरे यूथप ! आप इतने दिनों तक कहीं रहे, इतनी सुन्दर रत्न की माला आपको कहीं से मिल गयी । यह तो अपनी कान्ति से सूर्य को भी तिरस्कृत कर दे रही है । बन्दर ने उत्तर दिया-वन में कुवेर द्वारा निर्मित एक अत्यन्त गुप्त तालाब है । उस तालाब में रविवार को अघं सूर्योदय काल में जो स्नान करता है, वह कुबेर की कृपा से ऐसी ही रत्नमाला से सुशोभित कण्ठवाला होकर तालाब से बाहर निकलता है । राजा ने जब यह समाचार सुना तो उसने उस यूथप को बुलाकर उससे पूछा- यूथाधिप ! क्या यह बात सत्य है ? कहीं पर रत्नमालाओं से युक्त तालाब है ? उस यूथप बन्दर ने कहा- स्वामिन् ! इतना तो मेरे कण्ठ में प्रत्यक्ष रूप से स्थित इस रत्नमाला को देखकर ही विश्वास किया जा सकता है । यदि श्रीमान् को रत्नमाला की आवश्यकता है, तो मेरे साथ किसी को भेज दीजिए । मैं उसे भी वह सरोवर दिखा दूँगा । यह सुनकर राजा ने कहा- यदि यह बात सत्य है तो मैं स्वयं अपने समस्त परिवार के साथ वहीं चलूंगा । चलने से मेरे पास बहुत-सी रत्नमालाएँ हो जायेंगी । बानर आह- “एवं क्रियताम् ।” वानर ने कहा- ठीक है, आप स्वयं चल सकते हैं । तथानुष्ठिते, भूपतिना सह रत्नमालालोभेन सर्वे कलत्रभृत्याः प्रस्थिताः । वानरोऽपि राज्ञा दोलाऽधिरूद्रेन स्वोत्सङ्गे आरोपितः सुखेन प्रीतिपूर्वमानीयते । अथवा साध्विदमुच्यते-
व्याख्या - तथाऽनुष्ठिते तथैव स्वीकृते । भूपतिना = राज्ञा । रत्नमाला- लोभेन = रत्नमालाप्राप्तिलालसया । कलत्रभृत्याः - कलत्राणि च भृत्याश्चेति कलत्रभृत्याः = मार्याः सेवकाच । प्रस्थिताः - प्रचलिताः । दोलाधिरूढेन- दोलायामधिरूढो दोला धिरूढस्तेन दोलाधिरूढेन = प्रेङ्खाश्रितेन । स्वोत्सङ्गे- स्वस्योत्सङ्गः स्वोत्स्वङ्गः तस्मिन् स्वोत्सङ्गे– आत्मनः क्रोडे । आरोपितः = स्थापितः, उपवेशितः । आनीयते = नीयते ।
६० पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकार के हिन्दी - राजा के प्रस्थान करने पर रत्नमाला के लोभ से राजा की स्त्रियों तथा नौकर भी राजा के साथ चल पड़े । पालकी बैठे हुए राजा ने प्रेमपूर्वक उस वृद्ध वानर को अपनी गोद में बैठा लिया और वह सुखपूर्वक चलने लगा । अथवा ठीक ही कहा गया है- तृष्णे ! देवि ! नमस्तुभ्यं, यया वित्ताऽन्विता अपि । अकृत्येषु नियोज्यन्ते भ्रमन्ते दुर्गमेष्वपि ॥ ७६ ॥ अन्वयः - तृष्णे ! देवि ! तुभ्यं नमः, ( यतो हि ) यया वित्तान्विता अपि अकृत्येषु नियोज्यन्ते, दुर्गमेषु अपि भ्राम्यन्ते ॥ ७६ ॥ व्याख्या - हे तृष्णे देवि ! = तृष्णानामिके देवते । तुभ्यं = ते । नमः = नम- स्कारोऽस्तु । यतो हि यया = त्वया । वशीभूताः वित्तान्विताः - वित्तेन अन्विताः वित्तान्विता=वनिनोऽपि । अकृत्येषु = अकार्येषु । नियोज्यन्ते = प्रवर्त्यन्ते । तथा दुर्गमेषु गन्तुं दुःशकेषु अपि स्थानेषु । भ्राम्यन्ते= भ्रमणे प्रवृत्ताः क्रियन्ते । तृष्णयाऽभिभूता धनाढ्या अपि अकार्येषु प्रवर्तन्ते इत्यर्थः ॥ ७६ ॥
हिन्दी - हे देवि तृष्णे ! तुमको प्रणाम है, क्योंकि जिस तेरे द्वारा वशीभूत होकर धनवान व्यक्ति भी अनुचित कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं और दुर्गम स्थानों में भी भटकते फिरते हैं ।। ७६ ।। तथा च- इच्छति शती सहस्रं सहस्री लक्षमीहते । लक्षाऽधिपस्तथा राज्यं, राज्यस्थः स्वर्गमीहते ॥ ७७ ॥ अन्वयः - शती सहस्रं इच्छति, सहस्री लक्षम् ईहते, लक्षाधिपः राज्यं तथा राज्यस्थः स्वर्गम् ईहते ॥ ७७ ॥
व्याख्या - शती - शतं शतसंख्याकं परिमितं धनमस्यास्तीति शती शता- धिपः । लक्षं लक्षसंख्यापरिमितं द्रव्यम् । ईहते = कामयते । लक्षाधिपः । लक्षसंख्याकधनवान् । राज्यं = नृपत्वम् । ईहते = वाञ्छति । तथा राज्यस्थ:- राज्ये तिष्ठतीति राज्यस्थः राज्य सिंहासनाधिरूढः सन् । स्वर्ग = देवलोकम् । ईहते = कामयते । उत्तरोत्तरं तृष्णा वर्द्धते इत्यर्थः ।। ७७ ।।
हिन्दी - सौ रुपयेवाला व्यक्ति हजार रुपये चाहता है, हजार रुपयेवाला लाख रुपये चाहता है, जो लखपति है वह सम्पन्न राज्य चाहता है उसी प्रकार राज्याधिरूढ सब सुविधाओं वाला स्वर्गं चाहता है । ( इस तृष्णा के वर्शीभूत
चन्द्र भूपति-कथा ६१ होकर प्रत्येक व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता है, किन्तु मनुष्य की कामनाएँ अपरि- मित होती हैं, उनका कभी अन्त नहीं होता है ।। ७७ ।। जीर्यन्ते जीर्यतः केशाः, दन्ता जीयंन्ति जीर्यतः । जीयंतश्चक्षुषी श्रोत्रे, अन्वयः – जीर्यंतः केशाः जीर्यन्ते, तृष्णेका तृष्णका तरुणायते ॥ ७८ ॥ जीर्यंतः दन्ता जीर्यन्ति, जीर्यंतः चक्षुषी श्रोत्रे ( जीते, किन्तु ) एका तृष्णा तरुणायते ॥ ७८ ॥ व्याख्या- जीर्यतः - जीयंतीति जीर्यन् तस्य जीयंत: जीयमाणस्य वृद्धस्य जनस्य | केशाः = लोमानि । दन्ताः = रदाः । चक्षुषी = नेत्रे । श्रोत्रे = कणौ च जयन्ते । केवलम् एका तृष्णा = स्पृहा । तरुणायते - तरुणीवाचरदीति तरुणा- यते = नवीनतामाप्नोति । अर्थात् केवलमेका तृष्णैव सर्वदा उत्तरोत्तरमेधते इति भावः ॥ ७८ ॥ हिन्दी - वृद्ध व्यक्ति का बाल, दांत, आँख और कान आदि सभी इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं । किन्तु उसकी एकमात्र तृष्णा - कामना-इच्छा नित्य प्रति युवती सी बनी रहती है। अर्थात् मनुष्य की कामनाएँ कभी भी पूर्ण नहीं होती हैं, वे हमेशा नवयौवना युवती के समान नवीन होती रहती हैं ।। ७८ ॥ अथ तत्सरः समासाद्य वानरः प्रत्यूषसमये राजानमुवाच - “देव ! अत्रा- अर्धोदिते सूर्येऽन्तः प्रविष्टानां सिद्धिर्भवति तत्सर्वोऽपि जन एकदेव प्रविशतु । स्वया पुनर्मया सह प्रवेष्टव्यं येन पूर्वदृष्टस्थानमासाद्य, प्रभूतास्ते रत्नमाला वर्शयामि ।” अथ प्रविष्टास्ते लोकाः सर्वे भक्षिता राक्षसेन । अय तेषु चिरमाणेषु राजा बानरमाह – “भो यूथाधिप ! किमिति चिरायते मे परिजनः ?” तच्छ्रुत्वा वानरः सत्वरं वृक्षमारुह्य, राजानमुवाच - “भो दुष्टनरपते ! राक्षसेनान्तः सलिलस्थितेन भक्षितास्ते परिजनः । साधितं मया कुलक्षयजं चैरम, तद् गम्यताम् । स्वं स्वामीति मत्वा नाऽत्र प्रवेशितः । उक्तं च- 1
‘व्याख्या - अथ तदन्तरम् । समासाद्य = प्राप्य । प्रत्यूषसमये प्रभात- काले । अत्र = सरसि । अर्धोदिते = अर्धोदय कालिके । अन्तःप्रविष्टानाम् = मध्ये प्रविष्टानाम् । सिद्धिः = मनोरथपुतिः, रत्नप्राप्तिः । एकदेव = एकस्मिन् काले । लोकाः जनसमुदाय: । अथ कियत्कालानन्तरम् । तेषु = राजपरिवारेषु । चिर- माणेषु = विलम्बायमानेषु । चिरायते = प्रतिकालयते । सत्वरम् = अतिशीघ्रम् । अन्तः सलिलस्थेन == जलमध्यगतेन । साधितं = सम्पादितम् । कुलक्षयजं कुटुम्ब - ।
६२ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके क्षयेणोत्पन्नम् । स्वामीति मत्वा = कुलप्रभुः मम पालकश्चेति विचार्य । अत्र= सरसि । न प्रवेशितः = न प्रवेशाय प्रयत्नः कृतः । हिन्दी - इसके बाद प्रातः काल में उस सरोवर पर पहुंचकर बन्दर ने राजा से कहा- राजन् ! सूर्य के अर्धोदय काल में ही इस सरोवर में प्रवेश करने से अभीष्ट की सिद्धि होती है । अतः सभी लोग एक ही समय में प्रवेश करें तो अच्छा होगा । और आप अभी रुक जाइए, मेरे साथ प्रवेश कीजिएगा, जिससे मैं पूर्वपरिचित स्थान में आपको ले चलकर असंख्य रत्नमालाओं को दिखलाऊँगा । उस सरोवर में प्रवेश करते ही राजा के समस्त परिवार को वह राक्षस खा गया। अपने परिजनों को देर करते देखकर राजा ने वानर से पूछा- यूथाधिप ! मेरे अनुयायी लोग अभी तक बाहर नहीं निकले, उनके निकलने में देर क्यों हो रही है ? राजा के प्रश्न को सुनकर वह वानर तत्काल एक वृक्ष पर चढ़ गया और ऊपर से ही उत्तर दिया- अरे नीच राजा ! पानी में रहने वाले राक्षस ने तुम्हारे परिवार को खा लिया है । मैंने अपने कुल के विनाश का बदला चुका लिया । अब तुम वहीं से जा सकते हो। तुमको अपना पालक समझकर मैंने इस सरोवर में प्रवेश नहीं करने दिया। कहा भी गया है कि- कुते प्रतिकृतं कुर्याद्धसिते प्रतिहिंसितम् । न तत्र दोषं पश्यामि, यो दुष्टे दुष्टमाचरेत् ॥ ७६ ॥ अन्वयः - यः कृते प्रतिकृतं कुर्यात्, हिसिते प्रतिहिसितं च कुर्यात्, दुष्टे, दुष्टम् आचरेत् तत्र दोषं न पश्यामि ।। ७९ ।।
व्याख्या – यः पुरुषः कृते = केनापि पुरुषेण उपकारेऽपकारे वा विहिते सति । प्रतिकृति = प्रतिकारं यथोचितमुपकारमपकारं वा कुर्यात् = विदध्यात् । हिसिते = हिंसायाम् । मारणे सति प्रतिहिंसितं = प्रतिहिंसा प्रतिवधं कुर्यात् । दुष्टे= दुर्जने दुष्टप्रकृतिके जने । दुष्टं दोषयुक्तम्, कर्मदण्डं दौर्जन्यं वा । समा- चरेत् = अनुतिष्ठेत् । तत्र = तस्मिन् विषये । दोषं न पश्यामि =नावलोकयामि । अर्थात् यो मानवः अपकारं कृते प्रतिकारं कुर्यात्, वधे प्रतिवधं विदध्यात्, दुष्ट- प्रकृती नरे दण्डं दद्यात् तत्र न कञ्चन भवति दोष इति भावः ॥ ७९ ॥ 1 हिन्दी - अपकार करनेवाले व्यक्ति का अपकार करना, मारनेवाले व्यक्ति को मारना और दुष्ट प्रकृति व्यक्ति के प्रति दुष्टता करना उचित है । ऐसा करने
चन्द्र भूपति- कथा ६३ पर कोई दोष नहीं होता । अतः तुम्हारे प्रति किये गये आचरण को मैं दोष- युक्त नहीं समझता हूँ ।। ७९ ।। “तत्त्वया मम कुलक्षयः कृतः, मया पुनस्तव” इति । अर्थतदाकर्ण्य राजा कोपाविष्टः पदातिरेकाकी यथायातमार्गेण निष्क्रान्तः । अथ वस्मिन् भूपतौ गते राक्षसस्पृप्तो जलानिष्क्रम्य सानन्दमिदमाह - । व्याख्या - त्वया - भूपतिना । कुलक्षयः = भूपतिना । कुलक्षय: = वंशविनाशः । मया = वानरेण । कोपाविष्टः क्रोधाभिभूतः । पदातिः पादचारी । यथायातमार्गेण येनायात- स्तेन मार्गेण । निष्क्रान्तः = गतः । गते = प्रयाते । तृप्तः = सुतृप्तः । मह उवाच ।
L हिन्दी - तुमने मेरे कुल का विनाश किया । अतः मैंने भी तुम्हारे कुल का नाश कर दिया । वानर की इस बात को सुनकर राजा क्रोधाभिभूत हो पैदल ही जिस रास्ते से आये थे उसी रास्ते से वापस चले गये । राजा के चले जाने के बाद राक्षस ने जलाशय से बाहर निकलकर अत्यन्त प्रसन्नता के साथ कहा- “हतः शत्रुः, कृतं मित्रं, रत्नमाला न हारिता । नालेन पिबता तोयं भवता साधु वानर ! ॥ ८० ॥ अन्वयः - हे वानर ! भवता शत्रुः हतः, मित्रं कृतम्, रत्नमाला (च ) न हारिता नालेन तोयं पिबता साधु ( कृतम् ) ॥ ८० ॥ व्याख्या हे वानर ! = हे कपे ! भवता=त्वया । शत्रुः = शत्रुभूतः कुलनाश- कारिणो राज्ञः परिवारः । हतः नाशितः । मित्रं कृतं = मल्लक्षणं, सखा प्राप्तः । रत्नमाला मत्प्रसादेन लब्धा रत्नमयी मालिका च । न हारिता=न हस्तान्मो- चिता । नालेन = कमलदण्डेन । तोयं =पानीयम् । पिबता - आस्वादयता । साधु = सम्यक् ( कृतम् ) । प्रज्ञाप्रभावेण कमलनालेन पानीयं पीत्वा भवान् सर्वं स्वकार्य कृतवानित्यहो प्रशंसनीयास्ति ते बुद्धिः ॥ ८० ॥ हिन्दी - कमलनाल से पानी पीने की निपुणता दिखाकर तुमने अपने शत्रु का विनाश कर दिया, मेरे साथ मित्रता कर ली और रत्नमाला को कहीं खोया भी नहीं । वानरराज ! तुम्हारी बुद्धि धन्य है । वस्तुतः तुम एक चतुर वानर हो ॥ ८० ॥ । अतोऽह ब्रवीमि - “यो लौल्यात्कुरुते कर्म” इति । हिन्दी - अतः मैं कहता हूँ कि जो लोभ के कारण कार्य करता है.” इत्यादि । एवमुक्त्वा, भूयोऽपि स चक्रधरमाह - “भो मित्र ! प्रेषय मां, येन स्वगृह गच्छामि ।”
६४ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके चक्रधर आह— “भद्र ! आपदर्थे धनमित्रसङ्ग्रहः क्रियते । तम्मामेवंविधं त्यक्त्वा क्व यास्यसि ? उक्त च- व्याख्या - एवमुक्त्वा = एवं कथयित्वा भूयोऽपि = पुनरपि । प्रेषय मां= गमनायानुमति प्रयच्छ । आपदर्थे = आपत्तिनिवारणाय । धनमित्रादिसङ्ग्रहः = धनानां मित्राणां च सङ्ग्रहः – सभ्वयः । एवंविधं = चक्राकुलम् । क्व यास्यसि = कुत्र गच्छसि । हिन्दी – उक्त कथा को सुनने के बाद सुवर्णसिद्धि ने चक्रधर से कहा- मित्र ! अब मुझे जाने की अनुमति दो, जिससे मैं घर जा सकूँ । चक्रधर ने कहा-भद्र ! विपत्तिकाल में सहयोग करने के लिए ही धन और मित्र संग्रह किया जाता है । मुझे इस स्थिति में छोड़कर कहीं जाओगे, क्योंकि- यस्त्यक्त्वा सापदं मित्रं याति निष्ठुरतां वहन् । कृतघ्नस्तेन पापेन नरके यात्यसंशयम् ॥ ८१ ॥ अन्वयः - यः सुहृत् सापदं मित्रं त्यक्त्वा निष्ठुरतां वहन् याति कृतघ्नः (सः) तेन पापेन असंशयं नरके याति ॥ ८१ ॥
व्याख्या - यः = यो हि । सुहृत् = सखा । सापदं - आपदा सहितं सापदं– विपद्ग्रस्तम् । मित्रं = सुहृदम् । त्यक्त्वा = विहाय । निष्ठुरतां = निर्दयत्वम् । वहन् = धारयन् । याति = प्रयाति । कृतघ्नः - कृतं हन्तीति कृतघ्नः - अकृतज्ञः, तत्कृतं पूर्वोपकारं विस्मृतवान् । सः = पुरुषः । तेन पापेन = मित्रोपेक्षारूपेण पातकेन । असंशयम् = निःसन्देहम् । नरके = निरये । याति = गच्छति । मित्रस्यापदो दूरी- करणं मित्रस्यास्ति धर्मं इति भावः ॥ ८१ ॥ हिन्दी - जो व्यक्ति आपत्ति में पड़े हुए मित्र को छोड़कर निष्ठुरतापूर्वक चला जाता है वह कृतघ्न उसी पाप के कारण निःसन्देह नरक का भागी बनता है ।। ८१ ।। सुवर्णसिद्धिराह - भोः, सत्यमेतद्यदि गम्यस्थाने शक्तिर्भवति । एतत्पुनर्मनु- व्याणामगम्यस्थानम् । नास्ति कस्याऽपि त्वामुन्मोचयितुं शक्ति: अपरं यथा यथा चक्रभ्रमवेदनया तब मुखविकारं पश्यामि तथा तथाऽहमेतज्जानामि यत्- द्राग् गच्छामि मा कश्चिन्ममाऽप्यनर्थो भवेदिति । यतः- व्याख्या - गम्यस्थाने = गमनयोग्ये स्थले । मोचयितुं = उन्मोचयितुम्, कष्टा- निवारयितुम् | शक्तिः = सामर्थ्यम् । चक्रभ्रमवेदनया = चक्रभ्रमणजन्यकष्टेन । मुखविकारं वदनविकृतिम् । द्राक् = त्वरितम् । अनर्थः = आपत्तिः । विकाल - वानर-कथा ६५ हिन्दी – सुवर्णसिद्धि ने कहा- तुम ठीक कहते हो यदि इस स्थान में रहने की शक्ति होती तो मैं अवश्य रह जाता । यह स्थान मनुष्य के ठहरने योग्य नहीं है और तुम्हें इस चक्र से छुड़ाने की सामर्थ्य किसी में नहीं है । दूसरी बात यह है कि जैसे चक्र के घूमने से पीड़ा के कारण तुम्हारी बदलती हुई मुखाकृति को देखता हूँ तो उसमें मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि मुझे यहां से अतिशीघ्र चला जाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि मैं भी किसी आपत्ति में पड़ जाऊँ, क्योंकि कहा गया है- याशी वदनच्छाया दृश्यते तव वानर । विकालेन गृहीतोऽसि यः परैति स जीवति ॥ ८२ ॥ अन्वयः - हे वानर ! यादृशी तव वदनच्छाया दृश्यते ( तेन ज्ञायते ) विकालेन ( राक्षसेन ) गृहीतोऽसि, ( तस्मात् ) यः परैति स ( एव ) जीवति ॥ ८२ ॥
व्याख्या - हे वानर ! =भो कपे ! यादृशी = यथा (म्लग्नतां गता ) । तव = भवतः । वदनच्छाया = मुखश्रीः । दृश्यते = प्रत्यक्षतयानुमीयते । यत्त्वं विकालेन = दुष्टकालेन राक्षसेन । गृहीतः = आक्रान्तः । असि । अतः यः पुरुषः । परैति= - पलायते । स एव जीवति = प्राणान् धर्तुं शक्नोति । अर्थात् दुर्दशाग्रस्तं पुमांस- मनर्थापातशङ्ख्या परित्यज्य ततः स्थानात् पलायनमेव प्राणिनां प्राणरक्षणोपाय इति भावः ॥ ८२ ॥ हिन्दी - हे वानर ! जैसी तुम्हारे मुख क़ी कान्ति दिखाई देती है उससे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि तुम विकाल नामक राक्षस से अभिभूत हो चुके हो। अतः जो यहाँ से दूर भाग जायेगा वही जीवित बच सकेगा ।। ८२ ॥ चक्रधर ने पूछा- यह कैसे ? सुवर्णसिद्धि ने कहा- चक्रघर आह— कथमेतत् ? सोऽब्रवीत्-
१०. विकाल - वानर - कथा कस्मिश्चिनगरे भद्रसेनो नाम राजा प्रतिवसति स्म । तस्य सर्वलक्षणसम्पन्ना रत्नवती नाम कन्याऽस्ति । तां कश्चिद्राक्षसो जिहीर्षति । रात्रावागत्योपभुङ्क्ते, परं कृतरक्षोपधानां तां हतुं न शक्नोति । साऽपि तत्समये रक्षः सान्निध्यजाम- वस्थामनुभवति कम्पादिभिः । एकमतिक्रामति काले कदाचित्स राक्षसो मध्यनिशायां गृहकोणे स्थितः ।
पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकार के साऽपि राजकन्या स्वसखीमुवाच - “सखि ! पश्यैष विकालः समये नित्यमेव मां कदर्थयति । अस्ति तस्य दुरात्मनः प्रतिषेधोपायः कश्चित् ?” तच्छ्रुत्वा राक्षसोऽपि व्यचिन्तयत्-“नूनं यथाहं, तथाऽन्योऽपि कश्चिद्विकाल- नामास्या हरणाय नित्यमेवागच्छति, परं सोऽप्येनां हर्तुं न शक्नोति । तत्तावदश्व- रूपं कृत्वाऽश्वमध्यगतो निरीक्षयामि - किरूपः सः किप्रभावश्चेति ?” एवं राक्षसोऽश्वरूपं कृत्वाऽश्वानां मध्ये तिष्ठति । । व्याख्या – सर्वलक्षणसम्पन्ना - सर्वेः लक्षणैः सम्पन्ना सर्वलक्षणसम्पन्ना = सर्वलक्षणयुक्ता सकलशुभलक्षणोपेता वा । कन्या-पुत्री। जिहीर्षति = हर्तुमिच्छति । उपभुङ्क्ते : = तया सह कामक्रीडां करोति । कृतरक्षोपधानां कृतं रक्षाया उप- धानं यस्याः सा तां कृतरक्षोपधानां == मन्त्रतन्त्रादिद्वारा रक्षिताम् । हतुं नेतुम् । तत्समये = राक्षसस्यागमनकाले, रतिसमये वा । रक्षःसान्निध्यजां = राक्षसागमन- कालिकीम् । कम्पादिभिः शरीरकम्पनादिभिः । अतिक्रामति गच्छति । मध्यनिशायाम् - अर्धरात्रे । विकालः विकालनामा, विकरालाकृतिर्वा । समये = निशीथे । कदर्थयति = पीडयति । प्रतिषेधोपायः = निरोधोपायः । अन्योऽपि = इतरोऽपि । अस्याः = कन्यायाः । एनां = कन्याम् । अश्वरूपं कृत्वा = घोटकरूपं विधाय । अश्वमध्यगतः = अश्वानां मध्ये स्थितः । निरीक्षयामि = पश्यामि । किप्रभावः = क्रिविक्रमः कीदृक्शक्तिसम्पन्नो वा । 1 रहता था । उसकी सभी हिन्दी - किसी नगर में भद्रसेन नाम का राजा लक्षणों से सम्पन्न रत्नवती नाम की एक कन्या थी । कोई राक्षस उस कन्या को हरना चाहता था । वह रात में माकर उस कन्या के साथ काम-क्रीडा किया करता था । किन्तु मन्त्र-यन्त्र आदि के द्वारा अभिरक्षित होने के कारण उसका अपहरण नहीं कर सकता था । रात के समय वह अपने शरीर के प्रकम्पन आदि से राक्षस के आगमन का आभास पा जाती थी । इस प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर एक दिन कभी वह राक्षस आधी रात में उस कन्या के घर के कोने में आकर बैठ गया । उसी समय बह राज- कन्या भी अपनी सखी से बोली- हे सखि ! देख, यह विकाल नाम का राक्षस नित्य रात में निश्चित समय पर मुझे कष्ट पहुँचाता है । क्या उस पापी के रोकने का कोई उपाय है ? उस कन्या के कथन को सुनकर उस राक्षस ने सोचा, मालूम पड़ता है कि जिस प्रकार में इसका अपहरण करना चाहता हूँ उसी प्रकार कोई दूसरा भी
विकाल - वानर-कथा ९७ विकाल नामक राक्षस इसको हरने के लिए नित्य आया करता है, किन्तु यह भी इसको हरने में समर्थं नहीं होता। मैं घोड़े का रूप धारण कर घोड़ों के बीच बैठ जाता हूँ और देखता हूँ कि वह कितना सुन्दर और कैसा प्रभाव- शाली है । तदनुसार वह राक्षस घोड़ा बनकर घोड़ों के मध्य में खड़ा हो गया । तथाऽनुष्ठिते निशीथसमये राजगृहे कश्चिदश्वचौरः प्रविष्टः । स च सर्वान- श्वान् अवलोक्य, तं राक्षरामश्वतमं विज्ञायाधिरूढः अत्रान्तरे राक्षसश्चिन्तयामास - “नूनमेष विकालनामा मां चौरं मत्वा कोपान्निहन्तुमागतः । तत्कि करोमि ?” एवं चिन्तयन् सोऽपि तेन खलीनं मुखे, निघाय, कशाघातेन ताडितः । अथाऽसौ भयत्रस्तमनाः प्रधावितुमारब्धः । चोरोऽपि दूरं गत्वा, खलीनाकर्षणेन तं स्थिरं कर्तुमारब्धवान् । स तु वेगा- वेगतरं गच्छति । अथ तं तथाऽगणितखलीनाकर्षणं मत्वा चौरश्चिन्तयमात - “अहो, मैवंविधा वाजिनो भवन्त्यगणितखलीनाः । तन्मूनमनेनाश्वरूपेण राक्षसेन भवितव्यम् । यद्यपि कचित्पांसुलं भूमिदेशमवलोकयामि तदात्मानं तत्र पात- यामि । नाऽन्यथा मे जीवितव्यमस्ति ।
व्याख्या - तथाऽनुष्ठिते = तथाकृते सति । निशीथसमये = अर्धरात्रे । अश्व- तमं श्रेष्ठमश्वम् । मत्वा = विज्ञाय । निहन्तुं = मारयितुम् । सोऽपि = राक्ष- सोऽपि । तेन = चोरेण । खलीनं - खे = मुखे लीनं, खलीनं कविकाम् । मुखे = मुखमध्ये | निधाय = आरोप्य | कशाघातेन = कशाप्रहारेण । भयत्रस्तमनाः भयभीतः । प्रधावितुं = धावितुमारब्धः । खलीनाकर्षणेन – कविकाकर्षणेन । तं = राक्षसाश्वम् । सः = अश्वः । वेगाद्वेगतरं - तीव्रातीव्रतरम् । गच्छति = प्रधावति । अगणितखलीनाकर्षणं विगणितकविकाकर्षणम् । वाजिनः = अश्वाः । पांसुलं = सिकताबहुलम् । जीवितव्यं = जीवनम् ।
हिन्दी - वैसा करने पर आधी रात के समय कोई घोड़ों का चोर राज- भवन में घुसा और सब घोड़ों को देखकर उस राक्षस को सबसे अच्छा घोड़ा- समझकर उसी पर सवार हो गया । इसके बाद राक्षस सोचने लगा- निःसन्देह यही विकाल नाम का वह राक्षस है, जो मुझे चोर समझकर मारने के लिए आया है । तो क्या करूँ ? अभी वह सोच ही रहा था कि उस चोर ने उसके मुख में लगाम लगाकर कोड़े से मारा । कोड़े की मार खाकर वह भयभीत हो उठा मोर दौड़ना प्रारम्भ किया । ७ पञ्च०
६८ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके कुछ दूर जाने के बाद चोर लगाम को खींचकर उसे रोकने लगा । लगाम को खींचने पर वह राक्षस ओर भी वेग से भागने लगा । लगाम के अवरोध को न मानते हुए देखकर चोर चिन्ता में पड़ गया और सोचने लगा - इस प्रकार के घोड़े नहीं हो सकते हैं, जो लगाम के अवरोध को न मानें । जान पड़ता है कि घोड़ा बना हुआ कोई राक्षस है । यदि कहीं बालूवाली जमीन मिल जाय तो मैं वहाँ कूद पड़ े, अन्यथा मेरा प्राण बचना कठिन है । एवं चिन्तयत इष्टदेवतां स्मरतस्तस्य सोऽश्वो वटवृक्षस्य तले निष्क्रान्तः । चौरोऽपि बटप्ररोहमासाद्य तत्रैव विलग्नः ततो द्वावपि तौ पृथग्भूतौ परमानन्द- भाजौ, जीवितविषये लब्धप्रत्याशौ सम्पन्नौ । अथ तत्र वटे कश्चिद्राक्षससुहद्वानरः स्थित आसीत् । तेन राक्षसं त्रस्तमा- लोक्य व्याहृतं — “भो मित्र ! किमेव पलाय्यतेऽलीकभयेन ? तद्भक्ष्योऽयं मानुषः, भक्ष्यताम् ।” सोऽपि वानरवचो निशम्य; स्वरूपमाधाय शङ्कितमनाः स्खलितगतिनिवृत्तः । चौरोऽपि तं वानराहूतं ज्ञात्वा, कोपात्तस्य लाड्गुलं लम्बमानं मुखे निधाय, चवितवान् । वानरोऽपि तं राक्षसाऽभ्यधिकं मन्यमानो भयान्न किश्विदुक्तवान् । केवलं व्ययात निमीलितनयनस्तिष्ठति । राक्षसोऽपि तं तथाभूतमवलोक्य इलोकमेन- मपठत् - यादृशी वदनच्छाया दृश्यते तव वानर ! विकालेन गृहीतोऽसि यः परंति स जीवति ॥ इत्युक्त्वा प्रनष्टश्च । । व्याख्या एवं चिन्तयतः इत्थं विचारयतः । इष्टदेवतां स्मरतः = स्वेष्टदेवतां प्रार्थयतः । तस्य चीरस्य । तले=अधस्तात् । निष्क्रान्त= निर्गतः । वटप्ररोहं= वटवृक्षजटाम् । आसाद्य = धृत्वा । तत्रैव = वटमूले । विलग्नः = प्रलग्नः । द्वो = चोरराक्षसी । पृथग्भूती = पृथग्जातो । जीवितविषये =स्वस्वजीवनविषये । लब्ध- प्रत्याशी = प्राप्ताशी । त्रस्तमालोक्य = भयग्रस्तं विलोक्य । व्याहृतं = कथितम् । पलाय्यते = पलायनं क्रियते । अलीकभयेन मिथ्याभयेन । भक्ष्यः = खाद्यभूतः । निशम्य = श्रुत्वा । स्वरूपमाधाय = स्वकीयं रूपं घृत्वा । स्थलितगतिः स्खलितवेगः । वानराहूतं = वानरेणावाहितम् । कोपात् क्रोधात् । लाङ्गूलं - पुच्छम् । चवितवाने = खादितवान् । राक्षसाभ्यधिकं = राक्षसादपि बलवत्तरम् ।
म घ इस न न द- πT- :1 य, लं न- Π 1 1 1
विकाल - वानर- कथा
व्ययातः पीडया दुःखितः । निमीलितनयन: निमीलितलोचनः । तथाभूतं = दुःखितं मोनं च । प्रनष्टः = पलायितः । हिन्दी - उसके ऐसा सोचते हुए और इष्ट देवता का स्मरण करते हुए वह घोड़ा एक वटवृक्ष के नीचे से निकला। चोर वट की जटाओं को पकड़कर वहीं चिपक गया । तब वे दोनों अलग हुए तथा अत्यधिक प्रसन्न हुए एवं जीवन के विषय में आशावान् हो गये ।
उस वटवृक्ष पर राक्षस का मित्र एक वानर रहता था। राक्षस को भय- भीत होकर भागते हुए जब उसने देखा तो उसे रोकते हुए कहा – अरे, झूठमूठ के भय से तुम क्यों भाग रहे हो ? यह तो तुम्हारा भक्ष्य मनुष्य है । इसे पकड़- कर खा जाओ । वानर की बात सुनकर वह राक्षस अपना स्वरूप प्रकट करके भयत्रस्त सा धीरे-धीरे अपनी गति को रोकते हुए खड़ा हो गया। चोर भी उस राक्षस को वानर द्वारा आवाहित समझकर क्रोध के कारण उसकी लटकती हुई पूंछ को चबाने लगा। उस चोर को राक्षस से भी अधिक बलवान् मारे वानर ने कुछ नहीं कहा, केवल अपनी दोनों माँखों को रह गया । राक्षस ने जब उसको इस प्रकार मीन देखा पढ़ा- ‘यादृशी वदनच्छाया’ आदि। इस श्लोक को पढ़ने के वहां से भाग खड़ा हुआ । समझकर डर के बन्द करके मीन तो इस श्लोक को बाद वह तत्काल “तत्प्रेषय मां येन गृहं गच्छामि । त्वं पुनरनुभुङ्क्ष्वात्र स्थित एव लोभवृक्ष फलम् ।” चक्रधर आह - “भोः अकारणमेतत् । देववशात्सम्पद्यते नृणां शुभाशुभम् । उक्तं च-
व्याख्या — भुङ्क्ष्व – अनुभव | लोभवृक्षफलम् = लोभरूपपादपस्य फलं, परिणामम् । देववशात् == भाग्यवशात् । हिन्दी - सुवर्णसिद्धि ने कहा- अब आशा दो कि मैं घर चला जाऊँ । तुम यहाँ रहकर लोभरूपी वृक्ष का फल भोगो । चक्रधर ने कहा- मैं तुम्हारी इस बात से सहमत नहीं हूँ । भाग्य के कारण मनुष्य शुभाशुभ फल का उपभोग करता है । कहा भी गया है— दुर्गत्रिकूटः परिखा समुद्रो रक्षांसि योघा धनदाच्च वित्तम् । शास्त्रं च यस्योशनसा प्रणीतं स रावणो वैववशाद्विपन्नः ॥ ८३ ॥
१०० पश्वसन्त्रस्यापरीक्षितकारके अन्वयः - यस्य त्रिकूट: दुर्ग:, समुद्रः परिखा, योधा रक्षांसि, धनदाच्च वित्तम्, उशनसा प्रणीतं शास्त्रम्, स रावणः दैववशात् विपन्नः ॥ ८३ ॥ = । व्याख्या—यस्य = रावणस्य । त्रीणि कूटानि शिखराणि यस्य स त्रिकूट: = त्रिकूटनामधेयः पर्वतः । दुर्ग: परेषां दुर्गमं सुगुप्तं स्थानमासीत् । समुद्र:- शतयोजविस्तीर्णो जलनिधिः । तस्य दुर्गस्य । परिखा = खेयम्, दुर्गस्य समन्तात् स्थापितो जलसमूह मासीत् । रक्षांसि = राक्षसाः । योधाः = योद्धारो भटा आसन् । धनदात् - धनं ददातीति धनदः तस्मात् धनदात् = निजपराक्रमेण जितात् कुबेरात् च यस्य धनं धनप्राप्तिरासीत् । यस्य शास्त्रं = ज्ञानसम्पादकं नीतिशास्त्रम् । उशनसा = दैत्यगुरुणा शुक्राचार्येण । प्रणीतं = निर्मितम् आसीत् । सोऽपि रावणः । देववशात् = भाग्यस्य प्रतिकूलतया । विपन्नः विपत्ति प्राप्तः विनष्टः । अर्थात् भाग्ये विरुद्धे सति महदैश्वर्यसम्पन्नो रावणोऽपि यदि विपत्ति- मनुभूतवान् तर्हि का कथाऽन्येषामित्यर्थः ॥ ८३ ॥
हिन्दी — त्रिकूट पर्वत ही जिसका दुर्गं था, समुद्र खाई का काम करता था, राक्षस ही जिसके योद्धा थे, कुबेर का समस्त धन ही जिसका अपना था और शुक्राचार्य द्वारा निर्मित नीतिशास्त्र ही जिसका ज्ञानवर्द्धक शास्त्र था, वह रावण भी भाग्य की प्रतिकूलता के कारण मारा गया ॥ ८३ ॥ तथा च - अन्धकः, कुब्जकश्चैव त्रिस्तनी राजकन्यका । त्रयोऽप्यन्यायतः सिद्धाः सम्मुखे कर्मणि स्थिते ॥ ८४ ॥ अन्वयः - कर्मणि सम्मुखे स्थिते अन्धकः, कुब्जकः, त्रिस्तनी राज्यकन्यका च त्रयोऽपि अन्यायतः सिद्धाः ॥ ८४ ॥ व्याख्या— कर्मणि= कर्मफले । सम्मुखे स्थिते = अनुकूलतां गते । अन्धकः नेत्रहीनः । कुञ्जकः = कुब्जः । त्रिस्तनी - त्रीणि स्तनानि यस्याः सा त्रिस्तनी = स्तनत्रयवती । राजकन्यका राजसुता च । त्रयोऽपि = एते त्रयः । अन्यायतः = अनीत्या असत् कार्यं कुर्वन्तः, अन्यायं कुर्वन्तो वा । सिद्धाः = सफलतां गताः । स्वं स्वमयं प्राप्ता इत्यर्थः ॥ ८४ ॥ हिन्दी - और भी— अन्ध, कुब्ज तथा त्रिस्तनी राजकुमारी इन तीनों ने ही असत् कार्य किया था, किन्तु भाग्य की अनुकूलता से तीनों के मनोरथ पूर्ण हो गये ॥ ८४ ॥ सुवर्णसिद्धिः प्राह - “कथमेतत् ?’ सोऽब्रवीत्- सुवर्णसिद्धि ने पूछा - ‘यह कैसे ?” चक्रधर ने कहना शुरू किया-
f fa अ क क बु द E !!!! गंस्य द्वारो मेण दकं त्। प्तः त्ति- रता था था, पका क:- T: I ने पूर्ण अन्षक कुब्जक - त्रिस्तनी - कथा नाग नांक… १५ १५ बास प्रन्थालय ११ अन्धक- कुब्जक- त्रिस्तंनी कथा….. १०१ “अस्त्युत्तरापथे मधुपुरं नाम नगरम् । तत्र मधुसेनो नाम राजा बभूव । तस्य कदाचिद्विषयसुखमनुभवत ख्रिस्तनी कन्या बभूव । अथ तां त्रिस्तनीं जातां श्रुत्वा स राजा कञ्चुकिनं प्रोवाच — यत् - “भोः ! त्यज्यतामियं त्रिस्तनी, गत्वा दूरेऽरण्ये यथा कश्चिन्न जानाति ।” तत् श्रुत्वा कञ्चुकिनः प्रोचुः — ‘महाराज ! ज्ञायते यदनिष्टकारिणी
- त्रिस्तनी कन्या भवति । तथापि ब्राह्मणं आहूय प्रष्टव्याः, येन लोकद्वयं न विरुध्यते । यतः -
। व्याख्या— उत्तरापथे= उत्तरस्यां दिशि । कदाचित् = कस्मिंश्चित् काले । विषयसुखं स्त्रीसुखम्, रतिसुखम् । त्रिस्तनी - स्तनत्रययुक्ता । जाताम् = उत्पन्नाम् । कञ्चुकिनः–अन्तःपुररक्षकान् । त्यज्यताम् = दूरं परित्यज्यताम् । अरण्ये = बने । अनिष्टकारिणी - कष्टदायिनी । लोकद्वयं = लोकपरलोकी । न विरुध्यते = न विरुद्धं भवति ।
हिन्दी- -उत्तर दिशा में मधुपुर नामक एक नगर था, वहाँ मधुसेन नाम का राजा रहता था । विषयों का सुख अनुभव करते हुए उसके यहां कभी त्रिस्तनी ( तीन स्तनोंचाली ) कन्या उत्पन्न हुई । तब उस त्रिस्तनी कन्या के जन्म को सुनकर राजा बहुत चिन्तित हुआ । उसने कंचुकियों को बुलाकर कहा - इस कन्या को ले जाकर कहीं दूर वन में छोड़ दो। और ध्यान रखना कि इस बात को कोई जानने न पाये । । राजा के इस आदेश को सुनकर कंचुकियों ने कहा – महाराज हम लोग इस बात को जानते हैं कि त्रिस्तनी कन्या अनिष्टकारिणी होती है फिर भी ब्राह्मणों को बुलाकर पूछ लेना चाहिए जिससे इस लोक में निन्दा और पर- लोक में असद्गति न हो । क्योंकि- यः सततं परिपृच्छति, शृणोति, सन्धारयत्यनिशम् । तस्य दिवाकर किरण नलिनीव विवर्द्धते बुद्धिः ॥ ८५ ॥
अन्वयः - यः सततं परिपृच्छति, शृणोति, अनिशं सन्धारयति च तस्य बुद्धिः दिवाकरकिरणैः नलिनी इव विवर्द्धते ॥ ८५ ।।
व्याख्या – यः पुरुषः । परिपृच्छति = पृष्ट्वा कार्य करोति । शृणोतिः आकर्णयति । अन्यान् पृच्छति, अन्यस्य वचनं च शृणोति । अनिशं नित्यम् ।
१०२ पवतन्त्रस्यापरीक्षितकार के
सन्धारयति = धारयति । तस्य = पुरुषस्य । बुद्धिः मतिः । दिवाकरकिरणै:: सूर्यरश्मिभिः । नलिनी = कमलिनी । इव = यथा । विबर्द्धते विकसिता भवति । अर्थात् यो हि पुमान् अन्यानपि परिपृच्छति । अन्येषां वचनं शृणोति, अन्योक्तं सन्धारयति च तस्य बुद्धिः सूर्यकिरणे: कमलिनीच विकसिता भवतीत्यर्थः ॥ ८५ ॥ हिन्दी - जो व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से परामर्श करता है, दूसरे की बात को ध्यान से सुनता है और उसके अनुसार आचरण करता है, उसकी बुद्धि सूर्य की किरणों से विकसित होने वाली कमलिनी के समान हमेशा विकसित होती रहती है ।। ८५ ।। तथा च- पृच्छकेन सदा भाव्यं पुरुषेण विजानता । राक्षसेन्द्रगृहीतोऽपि प्रश्नान्मुक्तो द्विजः पुरा ॥ ८६ ॥ अन्वयः - विजानता पुरुषेण ( अपि ) सदा पृच्छकेन भाव्यम्, ( यतः ) पुरा राक्षसेन्द्रगृहीतोऽपि द्विजः प्रश्नात् मुक्तः ॥ ८६ ॥
व्यास्या - विजानता- विजानातीति विजानन् तेन विजानता=अवगच्छता । पुरुषेणापि । सदा सर्वदा । पृच्छकेन - पृच्छतीति पृच्छकस्तेन पृच्छकेन = प्रश्न- कर्त्रा जिज्ञासुना । भाव्यं भवितव्यम् । पुरा = पूर्वस्मिन् काले । राक्षसेन्द्र- गृहीतोऽपि - राक्षसानामिन्द्रः राक्षसेन्द्रः तेन गृहीतः राक्षसेन्द्रगृहीतोऽपि = राक्षसराजघृतोऽपि । द्विजः = ब्राह्मणः । प्रश्नात् = प्रश्नकारणात् । मुक्तः = उन्मुक्तो बभूव ।। ८६ ।। 1 हिन्दी - और भी, सब कुछ जानते हुए भी मनुष्य को जिज्ञासु होना चाहिए, क्योंकि राक्षस के द्वारा गृहीत ब्राह्मण उससे पूछने के कारण ही मुक्त हुआ था ।। ८६ ।। राजा आह— कथमेतत् ? ते प्रोचुः- राजा ने पूछा- ‘यह कैसे हुआ ?” तब कञ्चुकियों ने कहा – “देव ! कस्मिश्चिद्वनोद्देशे चण्डकर्मा नाम राक्षसः प्रतिवसति स्म । एकदा तेन भ्रमताटव्यां कश्चिद् ब्राह्मणः समासादितः । ततस्तस्य स्कन्धमारुह्य प्रोवाच — “भो ! अग्रेसरो गम्यताम् ।” ब्राह्मणोऽपि भयत्रस्तमनास्तमादाय प्रस्थितः । अथ तस्य कमलोदर कोमली पादौ दृष्ट्वा ब्राह्मणो राक्षसमपृच्छत् — “भोः ! किमेवंविधी ते पादावति- कोमलो ? राक्षस आह- “भोः । व्रतमस्ति, नाहमार्द्रपांदो भूमि स्पृशामि ।”
|| त । तं ५॥ को सूर्य ती :) वन- न्द्र- FE || E क्तो त दा ह्य त- कथान्तरम् ( राक्षस- गृहीत- ब्राह्मण-कथा ) १०३ ततस्तच्छ त्वात्मनो मोक्षोपागं चिन्तन् स सरः प्राप्तः । ततो राक्षसेना- ऽभिहितं - “भो ! यावदहं स्नानं कृत्वा, देवतार्चनविधि विधायागच्छामि, ताव- स्वयाऽतः स्थानादन्यत्र न गन्तव्यम् ।” 1 व्याख्या - अटव्यां = वने । समासादितः = संलब्धः । अग्रेसर:-अग्रे गन्ता । तमादाय = राक्षसमादाय | कमलोदरकोमली — कमलस्योदरोऽभ्यन्तरभागः तद्व- त्कोमलो कमलोदरकोमली = बाह्याभ्यन्तरकोमली । पादी = चरणी । व्रत- मस्ति = प्रतिज्ञाऽस्ति । आर्द्रपाद: क्लिन्नचरणः । मोक्षोपायं-मोक्षस्योपायो मोक्षोपायस्तं मोक्षोपायं = मुक्तिसाधनम् । सरः = सरोवरः । देवतार्चनविधि - देवपूजन विधानम् । विधाय = कृत्वा । न गन्तव्यं =नाग्रे व्रजनीयम् ।
1 हिन्दी - स्वामिन् ! किसी वनप्रान्त में चण्डवर्मा नाम का राक्षस रहता था । एक दिन वन में घूमते हुए उसने एक ब्राह्मण को देखा । तब उस ब्राह्मण के कन्धे पर चढ़कर बोला- अरे ! आगे चलो । इतना कोमल हुए वह ब्राह्मण भयभीत होकर चला । कुछ दूर जाने के बाद राक्षस के कमल- वत् कोमल चरणों को देखकर ब्राह्मण ने पूछा- आपका चरण क्यों है ? राक्षस ने उत्तर दिया, मेरी यह प्रतिज्ञा है कि मैं भीगे पृथ्वी का स्पर्श नहीं करूँगा । चरणों से राक्षस की बात सुनकर वह ब्राह्मण अपनी मुक्ति का उपाय सोचता हुआ उस सरोवर तक जा पहुँचा । राक्षस ने सरोवर को देखकर कहा मैं स्नान कर देवताओं का पूजन कर लेता हूँ। जब तक मैं वापस न लोटू तब तक तुम आगे न बढ़ना । तथानुष्ठिते द्विजश्चिन्तयामास - " ननं देवताऽचनविघेरूध्वं मामेष भक्षयि- व्यति । तद् द्रुततरं गच्छामि, येनंष आर्द्रपादो न मम पृष्ठमष्यति ।” तथानुष्ठिते, राक्षसो व्रतभङ्गभयात्तस्य पृष्ठं न गतः ।” अलोऽहं ब्रवीमि - “पुच्छकेन सदा भाग्यम्” इति । अय तेभ्यस्तच्छ त्वा, राजा द्विजानाहूय प्रोवाच - “भो ब्राह्मणाः ! त्रिस्तनी मे कन्या समुत्पन्ना तरिक तस्याः प्रतिविधानमस्ति, न वा ?” ते प्रोचः - देव ! श्रूयताम् -
व्याख्या - तथाऽनुष्ठिते तथैव कृते । द्विजः - ब्राह्मणः । चिन्तयामास=== यशोचत् । द्रुततरं = शीघ्रम् । पृष्ठमेष्यति = अनुगमिष्यति । व्रतभङ्गभयात् =
fo.. १०४ पश्यतन्त्रस्यापरीक्षितकार के प्रतिज्ञाभङ्गभीतेः । तेभ्यः = कञ्चुकिभ्यः । तस्या = समुत्पन्नायाः । प्रतिविधा - नम् = दोषपरिहारोपायः । हिन्दी - राक्षस के स्नान करने के लिए चले जाने पर ब्राह्मण ने विचार किया- ‘अवश्य ही देवार्चन विधि के पश्चात् वह राक्षस मुझको खा जायेगा । अतः शीघ्र ही यहाँ से चला जाऊं, जिससे यह गीले पैर होने के कारण मेरे पीछे न आ सकेगा । ब्राह्मण के ऐसा करने पर अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग होने के डर से राक्षस उसके पीछे नहीं गया । इसलिए मैं कहता हूँ- सदा प्रश्न करनेवाला होना चाहिए । तब उन कञ्चुकियों से उस बात को सुन कर राजा ने ब्राह्मणों को बुला कर पूछा- हे ब्राह्मणो ! मुझे त्रिस्तनी कन्या पैदा हुई है । तो उसके प्रतीकार की कोई विधि है अथवा नहीं है ? उन्होंने कहा – महाराज सुनिए- हीनाङ्गी वाऽधिकाङ्गी वा या भवेत् कन्यका नृणाम् । भर्तुः स्यात् सा विनाशाय स्वशीलनिधनाय च ॥ ८७ ॥ अन्वयः - नृणां हीनाङ्गी वा अधिकाङ्गी वा या कन्यका भवेत् सा भर्तुः विनाशाय स्वशील निधनाय च स्यात् ॥ ८७ ॥
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व्याख्या – नृणां = मनुष्याणाम् । हीनाङ्गी = न्यूनाङ्गी । वा अधिकाङ्गी = अधिकावयवा वा । या कन्यका – पुत्री । भवेत् = स्यात् । सा कन्यका भर्तुः स्व• पतेः । विनाशाय = नाशाय । स्वशील निधनाय - निजचारित्र्यभङ्गाय च स्यात् =जायेत् ॥ ८७ ॥ हिन्दी - मनुष्यों के यहाँ कम अङ्गवाली या अधिक अङ्गवाली जो कन्या उत्पन्न होती है, वह पति के विनाश के लिए और अपने चरित्र के हनन के लिए होगी ॥ ८७ ॥ या पुनस्त्रिस्तनी कन्या याति लोचनगोचरम् । पितरं नाशत्येव सा द्रुतं नात्र संशयः ॥ ८८ ॥ अन्वयः - पुनः या विस्तनी कन्या लोचनगोचरा याति ( तहि ) सा (तु) द्रुतमेव पितरं नाशयति अत्र संशयः न ॥ ८८ ॥ व्याख्या – पुनः - भूयः । या त्रिस्तनी = स्तनत्रयवती । कन्या = पुत्री । लोचनगोचरा – लोचनयोः = नेत्रयोः, गोचरा = विषयीभूता । याति = भवति । तहि सा तु द्रुतमेव = शीघ्रमेव । पितरं = जनकम् । नाशयति = विनाशयति । अत्र अस्मिन् विषये । संशय: = सन्देहः । न = नास्तीत्यर्थः ॥ ८८ ॥ .T- र 1 क T र T T fam अन्धक - कुब्जक- त्रिस्तनी - कथा १०५ हिन्दी - यदि त्रिस्तनी कन्या पिता के समक्ष उपस्थित होती है तो अपने पिता का शीघ्र ही नाश कर देती है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ८८ ॥ तस्मादस्या दर्शनं परिहरतु देवः । तथा यदि कश्चिदुद्वाहयति, तदेनां तस्मै दरवा, देशत्यागेन स नियोजयितव्यः इति । एवंकृते लोकद्वयाऽविरुद्धता भवति ।” अथ तेषां तद्वचनमाकण्यं, स राजा पटहशब्देन सर्वत्र घोषणामाज्ञापयामास- “अहो ! त्रिस्तनीं राजकन्यां यः कश्चिदुद्वाहयति, स सुवर्णलक्षमाप्नोति देशत्यागश्च ।” एवं तस्यामाघोषणायां क्रियमाणायां महान् कालो व्यतीतः । न कश्चितां प्रतिगृह्णाति । साऽपि यौवनोन्मुखी सञ्जाता सुगुप्तस्थानस्थिता, यत्नेन रक्ष्यमाणा तिष्ठति । व्याख्या - तस्मात् = अत एव । अस्याः कन्यायाः । परिहरतु = वर्जयतु । उद्वाहयति = विवाहयति । देशत्यागेन = राज्यत्यागेन । नियोजयितव्यः = समामो- जयितव्यः । पटहशब्देन = आनको द्घोषेण । आप्नोति = प्राप्नोति । महान् कालः = अधिकसमयः । यत्नेन = प्रयत्नेन । तिष्ठति = निवसति । हिन्दी — इसलिए महाराज ! आप इस कन्या का दर्शन न करें। यदि कोई इसके साथ विवाह करना चाहे तो उसके साथ इसका विवाह करके इसको राज्य से निकाल दिया जाय । ऐसा करने से आपके दोनों लोक बना रहेगा । तब उन ब्राह्मणों के वचन को सुनकर राजा ने नगाड़ा पीटकर घोषणा कराने की आज्ञा दे दी कि मेरी विस्तनी कन्या के साथ जो विवाह करेगा उस व्यक्ति को एक लाख सुवर्ण मुद्राएँ दी जायेंगी और साथ ही उसको राज्य से निकाल भी दिया जायेगा । राजा की इस घोषणा के हुए बहुत दिन बीत गये, परन्तु कोई व्यक्ति उस कन्या से विवाह करने के लिए तैयार नहीं हुआ। वहीं कन्या भी धीरे- धीरे युवती हो गयी । उसको गुप्त स्थान में अत्यन्त प्रयत्न के साथ सुरक्षित रखा गया । अत्र तत्रैव नगरे कश्चिदन्धस्तिष्ठति । तस्य च मन्थरकनामा कुब्जोऽप्रेसरो यष्टिग्राही । ताभ्यां तं पटहशब्दमाकर्ण्य, मिथो मन्त्रितं - स्पृश्यतेऽयं पटहः । यदि कथमपि देवात् कन्या लभ्यते, सुवर्णप्राप्तिश्च भवति, तथा सुखेन सुवर्णप्राप्त्या
१०६ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके कालो व्रजति । अथ यदि तस्य दोषतो मृत्युर्भवति, तदा दारिद्रयोपात्तस्याऽस्य क्लेशस्य पर्यन्तो भवति । उक्तं च- व्याख्या - अथ = कियद्दिनानन्तरम् । कुब्जः = खञ्जः । अग्रेसरः = अग्रगः । यष्टिग्राही = यष्टिग्रहीता । मिथः = परस्परम् । मन्त्रितं विचारितम् । कालो व्रजति = समयो याति । तस्याः कन्यायाः । मृत्युः = मरणम् । दारिद्रयोपात्तस्य = दारिद्रयजनितस्य । क्लेशस्य = दुःखस्य । पर्यन्तः अवसानं समाप्तिर्वा ।
हिन्दी - उसी नगर में एक अन्धा भी रहता था और मन्थरक नाम का एक लंगड़ा व्यक्ति उसका मित्र था, जो उसकी लाठी पकड़कर आगे-आगे चलता था । उन दोनों ने जब राजा की घोषणा को सुना तो आपस में विचार किया- चलो, पटह को छू लिया जाय, एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ भी मिल जायेंगी, संयोग से राजकन्या मिल गयी तो उनसे हम लोगों का समय सुख से बीतेगा । यदि उसके कुलक्षणी होने से मृत्यु होती है तो निर्धनता से होनेवाले इस कष्ट का अन्त हो जायेगा । क्योंकि कहा भी गया है- लज्जा स्नेहः स्वरमधुरता बुद्धयो यौवनश्रीः, कान्तासङ्गः स्वजनममता दुःखहानिविलासः । धर्मः शास्त्रं सुरगुरुमतिः शौचमाचारचिन्ता, पूर्ण सर्वे जठरपिठरे प्राणिनां सम्भवन्ति ॥ ८६ ॥ अन्वयः - लज्जा, स्नेहः, स्वरमधुरता, बुद्धयः, योवनश्रीः, कान्तासङ्गः, स्वजनममता; दुःखः, हानिः, विलासः, धर्मः, शास्त्रं, सुरगुरुमतिः, शौचम्, आचारचिन्ता, प्राणिनां (एते) सर्वे (व्यापारा:) जठरपिठरे पूर्णे एव सम्भवन्ति । व्याख्या - लज्जा = ह्रीः । स्नेहः = अनुरागः । स्वरमधुरता - स्वरस्य मधुरता स्वरमधुरता = शब्दमाधुरी प्रियभाषित्वम् । बुद्धयः = मतयः विवेकाः । योवनश्रीः- योवनस्य श्री: शोभा यौवनश्रीः = युवावस्था । कान्तासङ्गः - कान्ताया= भार्याया, सङ्गः =प्रसङ्गः, कान्तासङ्गः = स्त्रीप्रसङ्गः । स्वजनममता - स्वजनस्य ममता स्वजनममता=निजजनमोहः । दुःखकष्टम् । हानिः = नाशः । विलासः = शृङ्गारचेष्टा । धर्मः = धर्माचरणम् । शास्त्रं = शास्त्रानुशीलनम् । सुरगुरुमतिः- सुरेषु = देवेषु, गुरुषु = पुज्येषु च मतिः बुद्धिरिति सुरगुरुमतिः = देवगुरुपूज्यबुद्धिः । शौचं = पवित्रता आचारचिन्ता - आचारस्य - सदाचारस्य चिन्ता = विवेक इति आचारचिन्ता = आचरणविवेकः । जठरपिठरे = उदरभाण्डे । पूर्णे = पूरिते । सम्भवन्ति सम्पद्यन्ते ।। ८९ ।।
अन्धक - कुब्जक- त्रिस्तनी - कथा १०७ हिन्दी - लज्जा, प्रेम, प्रियभाषिता, विचारशीलता, युवावस्था का सौन्दर्य, स्त्री का साथ, प्रिय व्यक्तियों का मोह, कष्ट, हानि, विलास, सुखोपभोग, धर्माचरण, शास्त्राध्ययन, देवता तथा गुरुजनों में श्रद्धा, आचार, पवित्रता आदि का प्रादुर्भाव ( विचार ) मनुष्य के मन में तभी तक होता है जब तक उसका उदरमाण्ड (पेट) भरा रहता है, पेट के खाली रहने पर कोई भी बात अच्छी नहीं लगती ।। ८९ ।। एवमुक्त्वाऽन्धेन गटवा, स पटहः स्पृष्टः । उक्तं च- “भोः, अहं तां कन्या- मुद्वाहयामि, यदि राजा मे प्रयच्छति ।” ततस्ते राजपुरुषगंत्था, राज्ञे निवेदितम् - “देव ! अन्धेन केनचित्पटहः स्पृष्टः । तदत्र विषये देवः प्रमाणम् ।” राजा प्राह- 1 व्याख्या - एवमुक्वा = एवं कथयित्वा । अन्धेन = नेत्रहीनेन । गत्वा = उप- गम्य । पटहः = घोषणापटहः । स्पृष्टः =पस्पर्श । प्रयच्छति = ददाति । राज- पुरुषः- राजभृत्यैः । निवेदितम् = कथितम् । तदत्र विषये देवः प्रमाणम् = भवान् यदिच्छेत् तत् कुर्यात् । हिन्दी - इस प्रकार आपस में विचार करके अन्धे ने जाकर पटह को पकड़ लिया और कहा - यदि महाराज प्रस्तुत हों तो मैं उस कन्या के साथ विवाह करना चाहता हूँ । राजपुरुषों ने राजा के पास जाकर इस समाचार को सुनाते हुए राजा से निवेदन किया—देव ! एक अन्धे ने पटह को पकड़ लिया है । इस विषय में आपका जो आदेश हो उसका पालन हम लोग करेंगे। सिपाहियों के वचन को सुनकर राजा ने कहा-
अन्धो वा वधिरो वाऽपि कुष्ठी वाप्यन्तयजोऽपि वा । प्रतिगृह्णातु तां कन्यां सलक्षां स्याद्विदेशगः ॥ ६० ॥ अन्वयः - अन्धो वा वधिरोऽपि वा कुष्ठी अपि, अन्त्यजोऽपि सलक्षां तां कन्यां प्रतिगृह्णातु विदेशगः ( च ) स्यात् ॥ ९० ॥ व्याख्या - अन्धः - नेत्रहीनो वा । वधिरः - श्रोत्रहीनः अपि वा । कुष्ठी - कुष्ठरोगान्वितोऽपि वा । अन्त्यजः नीचोऽपि वा । सलक्षां-लक्षेण रूप्यकेन सह सलक्षा तां. सलक्षां लक्षरूप्यकसहिताम् । तां विस्तनीम् । कन्यां दुहितरम् । प्रतिगृह्णातु = स्वीकरोतु । अथ च विदेशगः - विदेशं गच्छतीति विदेशगः परदेशग: राज्याद बहिर्गतः । स्पात्मवेत् ।। ९० ।।
+– १०८ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके हिन्दी - चाहे वह अन्धा हो, बहिरा हो, कोढ़ी हो या अन्त्यज हो, मैं उसके साथ इस कन्या का विवाह करने को प्रस्तुत हूँ । वह एक लाख स्वर्ण- मुद्राओं के साथ इस कन्या को ग्रहण कर सकता है । केवल शर्त यह है कि उसे तत्काल यह राज्य छोड़ देना होगा ।। ९० । अथ राजादेशात्तं राजपुरुषस्तं नदीतीरे नीत्वा सुबर्णलक्षेण समं विवाहविधिना त्रिस्तनीं तस्मै दरवा, जलयाने निधाय कैवर्ताः प्रोक्ताः- “भो ! देशान्तरं नीत्वा कस्मिश्चिदधिष्ठानेऽन्यः सपत्नीकः, कुब्जकेन सह मोचनीयः " । तथानुष्ठिते विवेशमासाद्य, कस्मिश्चिदधिष्ठाने कैवर्तदशिते त्रयोऽपि मूल्येन गृहं प्राप्ताः सुखेन कालं नयन्तिस्म । केवलमन्धः पर्यङ्के सुप्तः तिष्ठति, गृहव्यापारं मन्थरकः करोति । एवं गच्छता कालेन त्रिस्तन्या कुब्जकेन सह विकृतिः सम- पद्यत । अथवा साध्विदमुच्यते-
· व्याख्या – राजादेशात् = नृपाज्ञया । तं = अन्धम् । नदीतीरे = तदीतटे । नीत्वा = उपस्थाप्य । तस्मै अन्धाय । जलयाने — जलस्य यानमिति जलयानं तस्मिन् जलयाने = नौकायाम् । निधाय = उपवेश्य | कैवर्ताः = धीवराः । सप- त्नीकः = सस्त्रीकः । मोचनीयः = परित्याज्यः । असाद्य प्राप्य । कस्मिश्चिदधि- ष्ठाने = कस्मिन्नपि स्थाने । कैवर्तदर्शिते = धीवरनिर्दिष्टे । मूल्येन = भाटकेन । गृहं प्राप्ताः गेहमासादिताः । सुखेन = सुखपूर्वकं । कालं नयन्ति स्म = समयं यापयन्ति स्म । पर्यङ्के = मन्व के शय्यायाम् । गृहव्यापारं = गृहप्रबन्धम् । विकृतिः = मनोविकारः, पापसम्बन्धः । समपद्यत अजायत ।
हिन्दी - तब राजा के आदेश से उन राजपुरुषों ने उस अन्धे को नदी के किनारे पर ले जाकर विधि से विवाह कर त्रिस्तनी को एक लाख स्वर्णमुद्राओं के साथ उसे देकर उन्हें नौका में बैठाकर मल्लाहों से कहा- ‘अरे, दूसरे देश में ले जाकर कुबड़े के साथ पत्नी सहित इस अन्धे को छोड़ देना । वैसा करने पर विदेश को प्राप्त कर केवटों द्वारा दिखाये गये किसी नगर में भाड़े पर मकान लेकर वे तीनों ही सुख से रहने लगे । अन्धा रात-दिन चार- पाई पर पड़ा रहता था और मन्थरक घर का सारा प्रबंन्ध किया करता था । इस प्रकार कुछ दिन बीत जाने पर त्रिस्तनी की लंगड़े मन्थरक के साथ मनों- विकृति ( अवैध सम्बन्ध ) हो गयी । अथवा ठीक ही कहा गया है- यदि स्याच्छीतलो वह्निश्चन्द्रमा दहनात्मकः । सुस्वादुः सागरः स्त्रीणां तत्सतीत्वं प्रजायते ॥ ६१ ॥
अन्धक- कुब्जक- त्रिस्तनी - कथा १०६ अन्वयः – यदि वह्निः शीतलः स्यात्, यदि (चा) चन्द्रमा दहनात्मकः स्यात् यदि सागरः सुस्वादुः स्यात् तत् स्त्रीणां सतीत्वं प्रजायते ।। ९१ ।। 1 व्याख्या – यदि = कदाचित् । वह्निः अग्निः । शीतलः =शीतः । स्यात् = भवेत् । यदि चन्द्रमाः चन्द्रः । दहनात्मकः = दाहको भवेत् । यदि वा सागरः = लवणसमुद्रः । सुस्वादुः सुपेयो मधुरस्वादिष्टो वा भवेत् । तत्तर्हि । स्त्रीणां = नारीणाम् | सतीत्वम् = पातिव्रात्यम् । प्रजायते = सम्भवति ।। ९१ ॥
हिन्दी - यदि आग अपनी स्वाभाविक उष्णता को छोड़कर शीतल हो जाय, चन्द्रमा शीतलता को छोड़कर उष्ण हो जाय और क्षार समुद्र सुपेय- मधुर हो जाय तो कदाचित् स्त्री अपने सतीत्व का पालन कर सकती है ।।९१।। अथाऽन्येद्युचिस्तन्या अथाऽन्येद्यु स्त्रिस्तन्या मन्थरकोऽभिहितः - “भो सुभग ! यद्येषोऽन्धः कथ- श्चित् व्यापाद्यते, तदावयोः सुखेन कालो याति । तदन्विष्यतां कुत्रचिद्विषम्, येना- स्मै तत् प्रदाय सुखिनो भवामि । " अन्यदा फुब्जकेन परिभ्रमता, मृतः कृष्णसर्पः प्राप्तः । तं गृहीत्वा, प्रहृष्टमना गृहमभ्येत्य, तामाह — “सुभगे ! लब्धोऽयं कृष्णसर्पः । तदेनं खण्डशः कृत्वा, प्रभूतशुण्ठ्यादिभिः, संस्कार्यास्मै विकलनेत्राय मत्स्यामिषं भणित्वा प्रयच्छ, येन द्राग्विनश्यति । यतोऽस्य मत्स्यामिषं सदा प्रियम् ।” एवमुक्वा मन्धरको बहिर्गतः । ।
। व्याख्या — अन्येद्युः = एकस्मिन्नहनि । अभिहितः = कथितः । कथञ्चित् = कथमपि । व्यापाद्यते = हन्यन्ते । मानयोः तव मम च । अस्मै अन्धाय । प्रदाय = दत्वा । सुखिनी = चिन्तारहिता, विगतभया । अन्यदा = अन्यस्मिन् काले । मृतः = गतप्राणः । कृष्णसर्पः कृष्णाहिः । लब्धः प्राप्तः । प्रहृष्टमनाः = प्रसन्नचेता । अभ्येत्य = आगत्य | खण्डशः कृत्वा खण्डं खण्डं विधाय । शुण्ठघादिभिः- शुण्ठी- मरीच्या दिभिः । संस्कार्य संसाध्य । विकलनेत्राय = दृष्टिशून्याय । आमिषं = मांसम् । भणित्वा = कथयित्वा | द्राक्= झटिति । बहिर्गत-बहिर्निर्गतः । हिन्दी - इसके बाद त्रिस्तनी ने एक दिन मन्थरक से कहा- हे प्रिय ! यदि यह अन्धा किसी प्रकार मार दिया जाता तो हम दोनों का समय सुखपूर्वक बीतता । तो तुम कहीं से विष खोजकर लाओ जिससे इसको विष खिलाकर निश्चित एवं निर्भय हो जाऊँ । इसके उपरान्त एक बार घूमते हुए कुबड़े को एक मरा हुआ काला साँप मिल गया । उसे लेकर वह प्रसन्नतापूर्वक लोटा और त्रिस्तनी से कहा-प्रिये !
११० पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकार के यह काला सांप मिला है, तो इसे टुकड़े-टुकड़े करके सोंठ, मिर्च, नमक आदि से छौंककर खूब बढ़िया बना दो और मछली का मांस कहकर इस अन्धे को खिला दो जिससे यह शीघ्र ही मर जायेगा। क्योंकि इसे मछली का मांस हमेशा अच्छा लगता है | यह कहकर मन्थरक कहीं बाहर चला गया । साऽपि प्रदीप्ते वह्नौ कृष्णसर्वं खण्डशः कृत्वा तक्रस्यात्यामधाय गृहव्यापारा- कुला तं विकलाऽक्षं सप्रश्रयमुवाच - “आर्यपुत्र ! तबाऽभीष्टं मत्स्यमांसं समानी- तम् । यतस्त्वं सदैव तत्पृच्छसि । ते च मत्स्या वह्नौ पाचनाय तिष्ठन्ति । तद्या- वदहं गृहकृत्यं करोमि, तावत्त्वं दवमादाय क्षणमेकं तान् प्रचालय ।” सोऽपि तदाकण्यं हृष्टमनाः सुक्कणी परिलिहन् व्रतमुस्थाय बवमादाय प्रमथितुमारब्धः । अथ तस्य मत्स्यान् मथ्नतो विषगर्भबाष्पेण संस्पृष्टं नीलपटलं चक्षुर्भ्यामगलत् । असावप्यन्धस्तं बहुगुणं मन्यमानो विशेषान्नेत्राभ्यां बाष्प ग्रहण- मकरोत् । 1 व्याख्या - सापि त्रिस्तनी अपि । प्रदीप्ते वह्नो = प्रज्वलितेऽग्नो । तक्र- स्थाल्यां = तक्रभाण्डे | विकलाक्षं विकृतनेत्रं दृष्टिशून्यम् । सप्रश्रय = सस्नेहं सविनयं वा । उवाच = उक्तवती । आर्यपुत्र ! तवाभीष्टं = तवाभिलषितम् प्रियं वस्तु | मत्स्यमांसं = मीनामिषम् । समानीत = अनीतमस्ति । पाकाय = पाचनाय । गृहकृत्यं = गेहकार्यम् । ‘दवमादाय = कम्बि खजाकं वा गृहीत्वा । प्रचालय = मन्थय । तदाकर्ण्य = तत् श्रुत्वा । हृष्टमनाः = प्रसन्न चेताः । सन् सृक्कणी = ओष्ठ - प्रान्ती । परिलिहन् = जिह्वया लिहन् । द्रुतं शीघ्रम् । उत्थाय = उत्थितो भूत्वा । प्रमथितुं = परिचालयितुम् । आरब्धः समारब्धः । मध्नतः = परिचालयतः विष- गर्भबाष्पेण= गरल मिलितबाष्पेण | नीलपटलं नेत्रयोनलमावरणम् | अगलत् =अस्रवन् । द्रवरूपेण पपात । बहुगुणं लाभप्रदम् । विशेषात् = विशिष्टरूपे । नेत्राभ्यां=लोचनाभ्याम् । वाष्पग्रहणं = बाष्पस्वेदम् । अकरोत् = अकार्षीत् । हिन्दी-उस त्रिस्तनी ने उस सांप को टुकड़े टुकड़े काटकर छांछ की हैंड़िया में रख उसे आग पर रखकर गृह कार्य की व्यस्तता के कारण प्रेमपूर्वक उस मछली मँगायी गयी है, क्योंकि अन्धे से कहा- आर्यपुत्र ! आपकी प्रिय वस्तु आप उसके विषय में बार-बार पूछा करते हैं। उन मछलियों को पकने के लिए मैंने आग पर चढ़ा दिया है, आप चम्मच लेकर उसे तब तक चलाते रहिये जब तक मैं घर का अन्य कार्य कर लेती हूँ ।
उसकी बात को किनारे को जीभ से किया। मछली को अन्धक- कुब्जक- त्रिस्तनी - कथा १११ सुनकर अन्धे ने प्रसन्नतापूर्वक अपने दोनों ओठों के चाटते हुए चम्मच को लेकर उसको चलाना प्रारम्भ चलाते समय उसके नेत्रों में विषमिश्रित बाष्प के लगने से मांख का मोतियाबिन्द गलकर गिरने लगा । बाष्प के प्रिय लगने के कारण अन्धे ने भी अपनी आँखों को खूब सेका । ततो लब्धदृष्टिर्जातो यावत्पश्यति, तावत्तक्रमध्ये कृष्णसर्पखण्डानि केवला- न्येवाऽवलोकयति ततो व्यचिन्तयत्-“अहो, किमेतत् ? मम मत्स्यामिषं कथित- मासीदनया । एतानि तु कृष्णसर्पखण्डानि । तत्तावद्विजानामि सम्यक् त्रिस्तम्या- वचेष्टितं कि मम वधोपायक्रमः कुब्जस्य वा । उताहो अन्यस्य वा कस्यचित् ।” एवं विचिन्त्य स्वाकारं गृहयन्नन्धवत्कर्म करोति यथापुरा । अत्रान्तरे कुब्जः समागत्य, निःशङ्कतयालिङ्गनचुम्वनादिभिस्त्रिस्तनीं सेवितुमुपचक्रमे । सोऽप्यन्धस्तमवलोकयन्नपि यावन्न किञ्चिच्छस्त्रं पश्यति, ताव- स्कोप व्याकुलमनाः पूर्ववच्छयनं गत्वा कुब्जं चरणाभ्यां सङ्ग्रह्य, सामर्थ्यात्स्व- मस्तकोपरि भ्रामयित्वा त्रिस्तनीं हृदये व्यताडयत् । 4 अथ कुब्जप्रहारेण तस्यास्तृतीयः स्तन उरसि प्रविष्टः । तथा बलान्मस्तको- परिभ्रमणेन कुब्जः प्राञ्जलतां गतः । अतोऽहं ब्रवीमि - अन्धकः कुजकश्चैव इति । सुवर्णसिद्धिराह-“भोः ! सत्यमेतत् । देवाऽनुकूलतया सर्वं कल्याणं सम्प- द्यते । तथापि पुरुषेण सत्तां वचनं कार्यम् । पुनरेवमेव वर्तितव्यम् । अथ एवमेव यो वर्तते, स त्वमिव विनश्यति । तथा च-
व्याख्या - ततः = तदनन्तरम् । लब्धदृष्टिः - लब्धा दृष्टिः येनाऽसौ लब्ध- दृष्टिः = प्राप्तदर्शनशक्तिः । तक्रमध्ये = तक्रभाण्डमध्ये | अवलोकयति ददर्श । व्यचिन्तयत् = विचारितवान् । अनया = त्रिस्तन्या मम भायया । विजानामि = विस्तरेणावगच्छामि । चेष्टितं = ईहितं कृत्यम् । वघोपायक्रमः = हनन प्रयासः । उताहो = अथवा | स्वाकारं स्वस्वरूपम् । गृहयन् = अप्रकटयन् । समागत्य = उपस्थाय । नि.शङ्कतया = निर्भयतया । आलिङ्गनचुम्बनादिभिः = संश्लेषमुख- चुम्बनप्रभृतिभी रतिक्रीडया । सेवितुं = रमितुम् । उपचक्रमे=आरब्धवान् । अव- लोकयन्नपि = पश्यन्नपि । यावत् = यावत्पर्यन्तम् । शस्त्रं = प्रहारसाधनमस्त्रम् । पूर्ववत् = अन्धवत् । कोपव्याकुलमनाः = क्रोधाक्रान्तचित्तः । चरणाभ्याम् = पद्भ्याम् । संगृह्य = धृत्वा । सामर्थ्यात् = पूर्णशक्त्या । स्वमस्तकोपरि = निज- 8
११२ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके
शिरसि । भ्रामयित्वा = भ्रमणं कारयित्वा । हृदये = वक्षःस्थले । व्यताडयत् = आघातितवान् । कुब्जप्रहारेण = कुब्जपादाघातेन । तृतीयः स्तनः = त्रितयं मध्य- स्थमुरोजम् । उरसि = हृदये । प्रविष्टः अन्तरितः । बलात् = बलाघातात् वेगात् | मस्तकोपरि = शिरसि । भ्रामणेन परिभ्रामणेन चालनेन । प्राक्ष- लतां गतः = ऋजुतां, सामान्यस्वरूपतां प्राप्तः । देवानुकूलतया = अदृष्टाकूल्येन । सम्पद्यते = सम्पन्नं भवति । सतां = सज्जनानाम् । वचनं = कथनम् । कार्यं == विधेयम् । वर्तितव्यं = व्यवहारः कार्यः । विनश्यति = नाथं गच्छति ।
हिन्दी - भापके सेवन से अन्धे की आंखें खुल गयी। बाद में उसने देखा कि मट्ठे में काले सांप के टुकड़े पड़े हुए हैं । यह देखकर उसने सोचा- अरे ! यह क्या है ? त्रिस्तनी ने तो मुझसे कहा था कि मछली का मांस है । ये तो काले साँप के टुकड़े हैं । अच्छा, जरा समझ तो लूं त्रिस्तनी की चाल को । यह मुझे मारने का उपाय किया गया है, या कुब्जे को अथवा किसी अन्य को । यह सोच कर वह अपने स्वरूप को छिपाते हुए अन्धे की तरह पूर्ववत् कार्यं करने लगा । इसी समय वह कुबड़ा घर में आकर विस्तनी का आलिङ्गन एवं चुम्बन आदि करके उसके साथ रमण करने लगा । अन्धे ने उन्हें इसे अवस्था में देख कर मारने के निमित्त जब दूसरी वस्तु नहीं पायी, तो क्रोध से व्याकुल होकर पूर्ववत् टटोलता हुआ खाट के पास जाकर कुबड़े की दोनों टांगों को पकड़ लिया और पूर्ण बल लगाकर अपने शिर के ऊपर घुमाने के बाद त्रिस्तनी की छाती पर दे मारा । अन्धे के इस प्रहार से त्रिस्तनी का तीसरा स्तन उसकी छाती में घुस गया मोर बलपूर्व घुमाने के कारण कुबड़ा भी सीधा हो गया, इसलिए मैं कहता हूँ कि भाग्य के अनुकूल होने पर अन्धा, लंगड़ा एवं त्रिस्तनी तीनों का दोष बुरा कर्म करते हुए भी मिट गया । यह सुनकर सुवर्णसिद्धि ने कहा- भाई, तुम ठीक कहते हो । भाग्य के अनु- कूल रहने पर सर्वत्र कल्याण लाभ होता है । फिर भी मनुष्यों को सज्जन व्यक्तियों का आदेश मानना चाहिए अपने मन का नहीं करना चाहिए । दूसरों की बात न मानकर अपने मन से कार्य करनेवाला व्यक्ति तुम्हारी ही तरह कष्ट उठाता है । क्योंकि कहा भी गया है- एकोदराः पृथग्ग्रीव अन्योन्यफल भक्षिणः । भसंहता विनश्यन्ति, भारुण्डा इव पक्षिण ॥” ६२ ॥
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यं न ख र 1. की या 5 Phee रा नु. न रों कष्ट भारुण्डपक्षि-कथा ११३ अन्वयः - असंहताः एकोदराः पृथग्ग्रीवा: अन्योन्यफलभक्षिणः भारुण्डा: पक्षिणः इव विनश्यति ।। ९२ ।।
व्याख्या - असंहृताः-न संहता असंहताः असम्मिलिताः परस्परविरुद्धाः सन्तः । एकोदराः - एकं समानमुदरं येषां ते एकोदराः = अभिन्नकुक्षयः । पृथग्- ग्रीवा - पृथक् ग्रीवा येषां ते पृथग्ग्रीवाः भिन्नकण्ठाः । अन्योन्यफलभक्षिणः - अन्योऽन्यं फलं भक्षितुं शीलं येषां ते अन्योन्यफलभक्षिणः = परस्परविषम- फलाशिनः । भारुण्डा: भारुण्डाख्याः । पक्षिणः खगाः । इव = यथा । विन- श्यन्ति = नाशं प्राप्नुवन्ति । विनाशकारणं पारस्परिको विरोधो न श्रेयसे जायते इत्यर्थः ॥ ९२ ॥
हिन्दी - एकमत होकर कार्य करनेवाले व्यक्ति एक उदर, किन्तु दो मुख वाले और परस्पर में पृथक्-पृथक् फलों को खानेवाले भारुण्ड नामक पक्षी के समान विनष्ट हो जाते हैं ।। ९२ ।। चक्रधर माह - " कथमेतत् ?” सोऽब्रवीत्- चक्रधर ने पूछा - ‘यह कैसे ?” सुवर्णसिद्धि ने कहा- १३. भारुण्डपक्षि-कथा कस्मिश्चित् सरोवरे भारुण्डनामा पक्षी एकोदरः, पृथग्ग्रीवः प्रतिवसति स्म । तेन च समुद्रतीरे परिभ्रमता कञ्चित्फलम मृतकल्पं तरङ्ग क्षिप्तः सम्प्राप्तम् । सोऽपि भक्षयन्निदमाह - “अहो, बहूनि मयाऽमृतप्रायाणि समुद्र कल्लोलाहृतानि फलानि भक्षितानि । परमपूर्वोऽस्यास्वादः । तत्कि पारिजात हरिचन्दनतरुसम्भवम् ? कि वा किञ्चिदमृतमय फलमिदमव्यक्तेनापि विधिनाऽपातितम् ।” एवं तस्य ब्रुवतो द्वितीय मुखेनाऽभिहितम् - “भो, यद्येवं तम्ममाऽपि स्तोकं प्रयच्छ, येनाऽहमपि जिह्वासौख्यमनु भवामि ।” ततो विहस्य प्रथमववत्रेणाऽभिहितम् - “आवयोस्ताचवेकमुदरम्, एका तृप्तिश्च भवति । ततः किं पृथग्भक्षितेन ? वरमनेन शेषेण प्रिया तोष्यते ।” 1
- अमृततकल्पं = सुधाममानं मधुरम् । तरङ्गाङ्क्षिप्तं = जलवीचि- प्रोक्तम् । सम्प्राप्तं लब्धप, समुद्रकल्लोला हुतानि सागरतरङ्गानीतानि । अमृतप्रायाणि=अमृततुल्यानि फलानि । भक्षितानि= खादितानि । अपूर्वः = अभि- .नवः । आस्वादः । पारिजातहरिचन्दनलरुसम्भवं देववृक्षोत्पन्नम् । अमृतमयं फलं- सुधानिर्मितफलम् । अव्यक्तेन = अलक्षितेन । विधिना=दैवेन । आपातितं निपाति- ८ पृ8. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri ११४ पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके तस् । स्तोकं = किञ्चिदल्पम् । प्रयच्छ = देहि । जिह्वासौख्यं = आस्वादसुखम् । अनुभवामि प्राप्नोमि । तृप्तिः सन्तोषः । वरम् = एतदुचितम् । शेषेण= अवशिष्टभागेन । प्रिया = भार्या ।
हिन्दी – किसी सरोवर में एक पेट, किन्तु पृथक्-पृथक् कण्ठवाला एक भारुण्ड नामका पक्षी रहता था। एक दिन समुद्र के किनारे घूमते हुए उसको अमृत तुल्य फल मिल गया, जो समुद्र की तरङ्गों द्वारा तीर पर लाया गया था। उस फल को खाते हुए उसने कहा-मोह ! मैंने समुद्र की लहरों द्वारा तीर पर लाये गये बहुत से अमृत तुल्य फल खाये थे, किन्तु इसका स्वाद तो विलक्षण ही है, तो क्या यह किसी देववृक्ष का फल है ? अथवा अलक्षित भाग्य ने कहीं से इस अमृतमय फल को लाकर यहां छोड़ दिया है ? प्रथम मुख की इस बात को सुनकर द्वितीय मुख ने कहा- अरे भाई ! यदि इतना मधुर फल है तो थोड़ा मुझे भी दे दो, जिससे मैं भी इसके आस्वाद का आनन्द ले लूं । से यह सुनकर पहले मुख ने कहा- हमारा एक ही तो पेट है और एक ही तृप्ति भी होती है, फिर अलग-अलग खाने से क्या लाभ है ? अच्छा तो यह होगा कि अवशिष्ट भाग प्रियतमा को दे दिया जाय, जिससे वह भी सन्तुष्ट हो जायेगी । एवमभिधाय तेन शेषं भावण्डाः प्रवत्तम् । साऽपि तदास्वाद्य प्रहृष्टतमा- किङ्गनचुम्बनसम्भावनाद्यनेकचादुपरा च बभूव । द्वितीयं मुखं तद्दिनादेव प्रभृति सोवेगं सविधावं च तिष्ठति । 1 अथाऽन्ये द्वितीयमुखेन विषफलं प्राप्तम् । तद् दृष्ट्राऽपरमाह- “भो निस्त्रिश ! पुस्वाधम ! निरपेक्ष ! मया विषफलमासादितम् । तत्तवाऽपमानाद्भक्षयामि ।” अपरेणाऽभिहितम् - “मूर्ख ! मा मेवं कुरु । एवं कृते द्वयोरपि विनाशी भविष्यति” । अर्थवं वदता तेनाऽपमानेन तत्फलं भक्षितम् । कि बहुना, द्वावपि विनष्टी ।” अतोऽहं ब्रवीमि - “एकोवराः पृथग्ग्रीवा” इति । चक्रवर आह— “सत्यमेतत् । तद्गच्छ गृहम् । परमेकाकिना न गन्तव्यम् । उक्त प–
1 व्याख्या - एवमभिधाय इत्यमुक्त्वा । तेन प्रथममुखेन । भारुण्डघाः= प्रियायै । प्रदत्तम् =प्रददे । तदास्वाद्य तद् भक्षयित्वा । प्रहृष्टतमा = अतिप्रसन्ना क को या हरों द तत बाद से
- तो भी नमा- 邮紫 巨爸爸 यम् । T:= सन्ना भारुण्डपक्षि-कथा सती, आलिङ्गनचुम्बन सम्भावनाद्यनेकचाटुपरा - आलिङ्गनं
११५ समाश्लेषः, चुम्बनं मुखादिचुम्बनम्, सम्भावनं भूविक्षेपादि, चाटुतत्परा - प्रशंसावचन- = तत्परा । बभूव = अजायत । सोगं— उद्वेगेन विषादेन च सहितं = सविषादम् । अथ – अनन्तरम् । अन्येद्युः अन्यस्मिन् दिने । विषफलं गरलफलम् । प्राप्तं = लब्धम् । तद् दृष्ट्वा=तदासाद्य । अपरं = प्रथमम् । मुखमाह = उक्तवान् । मो निस्त्रिश ! = हे निर्घुण ! निष्ठुर ! हे पुरुषाधम ! अधम जन ! हे निरपेक्ष != निःसङ्ग ! विषफलं = गरलफलम् । मासादितं = प्राप्तम् । तवापमानात् = तवाना- दरात् । भक्षयामि = खादामि । अपरेण=अन्येन प्रथममुखेन । अभिहितं कथि तम् । मा मैवं कुरु = एवं न कर्तव्यम् । एवं कृते त्वया विषफले भक्षिते सति । द्वयोः = आवयोरपि । विनाशः = नाशः । अथैवं वदेता - तत एवं ब्रुवाणैन । तेनापमानेन तदनादरेण । तत्फलं विषफलम् । भक्षितं खादितम् । द्वावपि विनष्टौ =मृती । एकाकिना = एकेन । न गन्तव्यं = मा व्रजनीयम् ।
हिन्दी - यह कहकर अवशिष्ट फल को उसने अपनी पत्नी को दे दिया । उस फल के खाने के बाद वह प्रसन्न होकर पति को आलिङ्गन चुम्बन तथा कटाक्ष-विक्षेप आदि द्वारा प्रसन्न करने लगी। दूसरा मुंह उस दिन से उदास एवं खिन्न रहने लगा । किसी दूसरे दिन दूसरे मुँह को एक विष का फल मिल गया । उसको देख कर उसने कहा - अरे निष्करुण ! नराधम ! निरपेक्ष ! आज मैंने विषफल पाया है । तुमसे अपमानित होने के कारण में उसे खाऊंगा। यह सुनकर पहले मुंह ने कहा- मूर्ख ! ऐसा करने से तो हम दोनों का ही विनाश हो जायेगा । उसके मना करने पर भी दूसरे मुंह ने क्या कहा जाय, दोनों ही उस विषफल के कहता हूँ कि एकमत न होकर कार्य करने से भारुण्ड पक्षी के समान व्यक्ति का ‘विनाश हो जाता है । उस फल को खा लिया । अधिक खाने से मर गये । इसीलिए मैं । चक्रधर ने कहा- तुम ठीक कहते हो । अच्छा, तो तुम जाओ, किन्तु अकेले मत जाना, क्योंकि कहा गया है— एक: स्वादु न भुञ्जीत, नैकः सुप्तेषु जागृयात् । एको न गच्छेदध्वानं, नैकवचार्थान्प्रचिन्तयेत् ॥ ६३ ॥ अन्वयः - एकः स्वादु न भुञ्जीत, सुप्तेषु एकः न जागृयात् । अध्वानं एकः न गच्छेत् अर्थात् च एकः न प्रचिन्तयेत् ॥ ९३ ॥
११६ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके
व्याख्या– एकः = एकाकी मनुष्यः | स्वादु = स्वादिष्टं मधुरं वा वस्तु | न भुञ्जीत = नाश्नीयात् । सुप्तेषु = निद्वितेषु । अन्येषु जनेषु । एकः = एकाकी जनः । न जागृयात् = न जागरणं कुर्यात् । तदानीं सोऽपि शयीत । एकः = असहायः पुमान् । अध्वानं = पन्थानम् । न गच्छेत् न व्रजेत् । एकश्च अर्थान् = विषयान् । न प्रचिन्तयेत् = नालोचयेत् । कमप्यपरं सहायं कृत्वैव बहिर्गमनादिकं कुर्यादिति भावः ।। ९३ ।। हिन्दी - स्वादिष्ट या मीठी वस्तु को अकेले नहीं खाना चाहिए । यदि साथ के सभी व्यक्ति सो गये हों, तो उनमें से एक व्यक्ति को नहीं जागना चाहिए । मार्ग में अकेले ही यात्रा नहीं करनी चाहिए। किसी गूढ विषय पर अकेले ही विचार नहीं करना चाहिए ।। ९३ ॥ P अपि च - अपि कापुरुषो मार्गे द्वितीयः क्षेमकारकः । कर्कटेन द्वितीयेन जीवितं परिरक्षितम् ॥ ६४ ॥ अन्वय - कापुरुषः अपि द्वितीयः मार्गे क्षेमकरः ( भवति ) ( यथा) द्वितीयेन कर्कटेन ( ब्राह्मणस्य ) जीवितं परिरक्षितम् ।। ९४ ।। 1 व्याख्या - कापुरुष. - कुत्सितः पुरुषः कापुरुषः = भयशीलो भीरुर्वा अपि । द्वितीय = स्वेतरः । मार्गे = पथि । क्षेमकारकः-क्षेमं कल्याणं करोतीति क्षेम- कारकः = कल्याणकारी हितकारी वा भवति । यथा द्वितीयेन= स्वस्मादितरेण । कर्कटेन = केनापि कुलीरकेण । ब्राह्मणस्य जीवितं जीवनम् । परिरक्ष क्षितं प्राण- रक्षणं कृतम् । क्वचन गन्तुं कामः स्वकीयरक्षणार्थं कमप्यपरं सहायमवश्यं कुर्या - दित्यर्थः ।। ९४ ।। हिन्दी - मार्ग में यदि अत्यन्त भीरु व्यक्ति हो तो भी उसे साथ लेकर जाना चाहिए, क्योंकि साथ में रहने के कारण ही कर्कटक ने ब्राह्मण की जीवनरक्षा की थी ।। ९४ ।। सुवर्ण सिद्धिराह - “कथमेतत् ?” सोऽब्रवीत् - सुवर्णसिद्धि ने पूछा - ‘यह कैसे हुआ ?’ चक्रधर ने कहना आरम्भ किया । १४. ब्राह्मणकर्कटक-कथा कस्मिश्चिदधिष्ठाने ब्रह्मदत्तनामा ब्राह्मणः प्रतिवसति स्म । स च प्रयोजन- वशाद् ग्रामं प्रस्थितः स्वमात्राऽभिहितः, यद् - “बत्स ! कथमेकाकी ब्रजसि ? तदन्विष्यतां कश्चिद् द्वितीयः सहायः ।
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1 T द T र T र. ब्राह्मणकर्कटक-कथा ११७ स आह- “अम्ब! मा भैषीः । निरुपद्रवोऽयं मार्गः । कार्यवशादेकाकी गमिष्यामि ।” अथ तस्य तं निश्चयं ज्ञात्वा, समीपस्थवाध्याः सकाशात्कर्कटमादाय मात्रा- ऽभिहितं - “वत्स ! अवश्यं यदि गन्तव्यं, तदेष कर्कटोऽपि सहायो भवतु । तदेनं गृहीत्वा गच्छ ।” सोऽपि मातुर्वचनादुभाभ्यां पाणिभ्यां न संगृह्य कर्पूरपुटिकामध्ये निधाय, पात्रमध्ये संस्थाप्य शीघ्रं प्रस्थितः ।
– व्याख्या : - कस्मिंश्चिदधिष्ठाने = कस्मिश्चिन्नगरे । प्रतिवसतिस्म निवसति - स्म । प्रयोजनवशात् - अत्यावश्यककार्यात् । प्रस्थितः प्रचलितः । स्वमात्रा = निजजनन्या | अभिहितः उक्तः । एकाकी एक:, असहायः । व्रजसि = गच्छसि । तत्=तस्मात् कारणात् । अन्विष्यतां मृग्यताम् । द्वितीयः अपरः । सहायः - सहायक: । अम्ब ! = मातः ! । मा भैषीः भयं न कुरु । निरुपद्रवः = निवि- ध्नः । अयं मार्गः = एषः पन्थाः । तस्य बालकस्य । निश्चयं = निर्णयम् । ज्ञात्वा = अवगत्य । समीपस्थ वाप्याः = निकटस्थवाप्याः । कर्कट=कुलीरम् । आदाय = गृहीत्वा । वत्स ! = पुत्र ! एतं गृहीत्वा = कर्कटमेनमादाय । सहाय: सह- चरः । उभाभ्यां = द्वाभ्याम् । पाणिभ्यां हस्ताभ्याम् । कर्पूरपुटिकामध्ये = कर्पूरपेटिकायाम् । संस्थाप्य = निधाय स्मिन् पात्रे निधाय । शीघ्रं प्रस्थितः = त्वरितं प्रचलितः । । ।
संगृह्य = धृत्वा । पात्रमध्ये = अन्य- हिन्दी-किसी नगर में ब्रह्मदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था । बह आवश्यक कार्य से जब एक दिन किसी दूसरे ग्राम को जाने लगा, तो उसकी मां ने कहा - पुत्र ! अकेले क्यों जा रहे हो, ‘किसी साथी को खोज लो । उसने उत्तर दिया- मां आप डरें मत, यह मार्ग निर्विघ्न है । कुछ कार्य- वश अकेले ही जा रहा हूँ । माँ ने उसके दृढ़ निश्चय को जानकर पास की बावली से कर्कट को लाकर देते हुए कहा - वत्स ! यदि तुम्हारा वहाँ जाना आवश्यक है तो इस केंकड़े को ही साथ में ले लो । यही तुम्हारा सहायक होगा । मां की आज्ञा से उसने उस केकड़े को दोनों हाथों से पकड़कर कपूर की डिबिया में रख लिया और उसे झोले में रखकर चल दिया । अथ गच्छन्प्रीष्मोष्मणा सन्तप्तः कश्विन्मार्गस्थं वृक्षमासाद्य, तत्रैव प्रसुप्तः । अत्रान्तरे वृक्षकोटरान्निर्गत्य सर्पस्तत्समीपमागतः ।
११८ पश्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके स चाभ्यन्तरगतां कर्पूरपुटिकामतिलौल्यादभक्षयत्। सोऽपि कर्कटस्तत्रैव स्थितः सन् सर्पप्राणानपाऽहरत । ब्राह्मणोऽपि यावत्प्रबुद्धः पश्यति, तावत्समीपे मृत कृष्णसर्पों निजपावें कर्पूरपुटिकोपर स्थितस्तिष्ठति । तं दृष्ट्वा व्यचिन्त- यत् - “कर्कटेनाऽयं हतः” इति । प्रसन्नो भूत्वाऽब्रवीच्च - “भोः ! सत्यमभिहितं मम मात्रा यत् - “पुरुषेण कोऽपि सहायः कार्यः । नैकाकिना गन्तव्यम् ।” यतो मया श्रद्धापूरितचेतसा तद्वचनमनुष्ठितं तेनाऽहं ककटेन सर्वव्यापादनाद्र क्षितः " अथवा साध्विदमुच्यते-
व्याख्या – गच्छन् – व्रजन् । ग्रीष्मोष्मणा = ग्रीष्मार्तधर्मेण । सन्तप्तः - प्रतप्तः । मार्गस्थं = पथि वर्तमानम् । वृक्षं = तरुम् । आसाद्य = प्राप्य । तत्रैव - वृक्षस्याधस्तात् । प्रसुप्तः शयितः । वृक्षकोटरात्तरुविवरात्, वृक्षरन्ध्रात् । निर्गत्य - निःसृत्य । तत्समीपं = ब्राह्मणसमीपम् । स च = सर्पः । अभ्यन्तरगतां = वस्त्रान्तर्गताम् । कर्पूरपुटिकाम् । अतिलोल्यात् = जिह्वोत्कण्ठ्यात् । तत्रैव पुटिकायाम् । सर्पप्राणान् सर्पजीवनम् । अपाहरत् = व्यनाशयत् । प्रबुद्धः = सुप्तोत्थितः । व्यचिन्तयत = चिन्तयामास । ककंटेन=कुलीरेण । हतः मारितः । अब्रवीत् = उवाच । अभिहितं = कथितम् । मम मात्रा = मे जनन्या । श्रद्धापूरितचेतसा = श्रद्धापूर्णं हृदयेन । तद्वचनं = मातुः कथनम् । अनुष्ठितं = कृतम् । सर्पव्यापादनात् - सर्पदशनात्, सर्पमारणात् । रक्षितः मोचितः ।
हिन्दी - कुछ दूर जाने के बाद ग्रीष्मकालिक भीषण धूप से व्याकुल होकर रास्ते के बीच में ही एक पेड़ के नीचे वह सो गया । इसी समय पेड़ के खोखले से निकलकर एक सांप उस ब्राह्मण के पास आया । - कपूर की सुगन्धि में स्वाभाविक रुचि होने के कारण सर्प ने ब्राह्मण को छोड़ दिया और पोटली को फाड़कर उसके अन्दर रखी हुई कपूर की डिबिया को लोभवश निगलने लगा। उसमें रखे हुए केकड़े ने बाहर निकलकर सीप को मार डाला । नींद खुलने पर जब ब्राह्मण ने इधर-उधर देखा, तो उसकी दृष्टि पास में पड़ी हुई उस कपूर की डिबिया पर पड़ी, जिसपर मरा हुआ वह साँप पड़ा था । उस सांप को देखकर वह सोचने लगा कि केकड़े ने ही इसको मारा है । पुनः उसने अपने मन में सोचा कि मेरी मां ने ठीक ही कहा था - यात्राकाल में मनुष्य का कोई न कोई सहायक अवश्य खोज लेना चाहिए । अच्छा ही हुआ कि मैंने श्रद्धापूर्वक मां की आज्ञा को मान लिया था । उसी का यह परिणाम
ब्राह्मणकर्कटक-कथा है कि आज इस केकड़े ने मुझे सांप के काटने से बचा लिया है । अथवा ठीक ही कहा गया है- क्षीणः श्रयति शशी रविमृद्धो वर्द्धयति पयसां नायम् । अन्ये विपदि सहाया घनिनां श्रियमनुभवन्त्यन्ये ॥ ६५ ॥ अन्वयः - क्षीणः शशी, रवि श्रयति, ऋद्ध: ( शशी ) पयसां नाथं वर्द्धयति ( एवमेव ) विपदि धनिनां सहायाः अन्ये ( भवन्ति ) ( तेषां ) श्रियं च अन्ये अनुभवन्ति ।। ९५ ।। व्याख्या - क्षीणः = कलाक्षयं प्राप्तः, कलाविहीनो वा । शशी = चन्द्रमाः । रवि = सूर्यम् । श्रयति = आश्रयते । ऋद्धः समृद्धः पूर्णकलः । पयसां नाथं = समुद्रम् । वर्द्धयति = प्रवर्द्धयति आनन्दयति वा । अतः स्पष्टमेवैतत् यत् विपदि = आपत्ती | धनिनां समृद्धानाम् । सहायाः सहायकाः अन्ये भवन्ति । तेषां
श्रियं - लक्ष्मी, धनम् । अन्ये = इतरे जनाः । अनुभवन्ति = उपभुञ्जते “स्रवति” “रविवृद्धी” इति पाठान्तरे तु व्याख्या-
क्षीणः = कलाविहीनोऽपि । शशी = चन्द्रमाः । स्रवति=अमृतं वर्षति, लोक- मानन्दयति । रविवृद्धो = रवेः सकाशात् कलाभिवृद्धी सत्याम् । स एव चन्द्र: पयसां नाथं = समुद्रम् वर्द्धयति = वृद्धि नयति । अन्ये = विरलाः पुरुषा । विपदि= आत्मनो विपत्ती जातायामपि परेषां सहायाः भवन्ति । अन्ये = इतरे तु धनिनां श्रीसम्पन्नानां, श्रियं सम्पत्तिम् । अनुभवन्ति = उपभुञ्जते । अर्थात् महा- पुरुषाः कष्टे पतिता अपि लोकानानन्दयन्ति, कि पुनर्वक्तव्यं यदि ते सम्पत्ति- परिपूर्णाः स्युरित्यर्थः ।। ९५ ।।
हिन्दी-अपनी विपत्ति के समय दूसरों की सहायता करनेवाले लोग दूसरे होते हैं और बहुतेरे लोग धनिकों की सम्पत्ति का अनुभव करते हैं । जैसे चन्द्रमा क्षीण होने पर भी अमृत बरसाता है और वही सूर्य के द्वारा कलाभि- वृद्धि होने पर समुद्र को बढ़ाता है । अमावास्या का कलाहीन चन्द्रमा सूर्य का आश्रय ग्रहण करता है, पूर्णिमा के दिन कलाओं से पूर्ण होने पर सूर्य को भूल जाता है तथा समुद्र को अह्लादित करता है । इससे यह स्पष्ट है कि सम्पन्न व्यक्तियों को आपत्ति काल में सहयोग देनेवाले दूसरे व्यक्ति होते हैं और उनके धन का उपयोग दूसरे व्यक्ति करते हैं। मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे देवज्ञ भेषजे गुरौ । याहशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥ ६६ ॥
११ स्थि यत मा मर अ Я f आ . १२० पञ्चतन्त्रस्यापरीक्षितकारके अन्वयः - मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे देवज्ञे भेषजे गुरौ च यस्य यादृशी भावना भवति तादृशी ( एव तस्य ) सिद्धिः भवति ।। ९६ ।।
व्याख्या - मन्त्रे = मन्त्रसिद्धी । तीर्थे पवित्रे काश्यादिक्षेत्रे । तीर्थयात्रायां तीर्थस्थाने वा । द्विजे = ब्राह्मणे । देवे देवतायाम् । देवज्ञे ज्योतिषिके । भेषजे औषधी । गुरौ = उपदेष्टरि च । यस्य = जनस्य । भावना=भक्तिविश्वासो = | वा, श्रद्धा वा । यादृशी = सम्यगसम्यग्वा । येन प्रकारेण वर्तते । तस्य = पुरु- षस्य । तादृशी तथैव । सिद्धिः फलप्राप्तिः । भवति = जायते । मन्त्रतीर्था- दिभिर्भावनानुकूलमेव फलं प्राप्नुवन्ति मानवा इत्यर्थः ।। ९६ ।।
हिन्दी — ठीक भी है –मन्त्र की साधना में, तीर्थयात्रा एवं तीर्थस्थान में ब्राह्मणों की सेवा आदि में, देवनाओं के विषय में, भविष्यवक्ता ज्योतिषियों में, ओषधियों में तथा गुरु में जिस व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है उसके अनुसार ही उसको फल भी मिलता है ।। ९६ ।। एवमुक्त्वाऽसौ ब्राह्मणो यथाऽभिप्रेतं गतः । व्याख्या - एवं = पूर्वोक्तम् । उक्त्वा = पठित्वा । ब्राह्मणो = असो ब्रह्मदत्तः । यथाभिप्रेतं = यथेच्छं स्थानम् । गतः = प्रस्थितः । हिन्दी - ऐसा कहकर वह ब्राह्मण अपने लक्ष्य स्थान को चला गया । अतोऽहं ब्रवीमि - “अपि कापुरुषो मागें” इति । एवं श्रुत्वा सुवर्णसिद्धिस्तमनुज्ञाप्य स्वगृहं प्रति निवृत्तः । , इति श्रीविष्णुशर्मविरचिते पञ्चतन्त्रेऽपरीक्षितकारकं नाम पश्चमं तन्त्रं समाप्तम् । व्याख्या – एवं = ब्रह्मदत्तचरितम् । श्रुत्वा = निशस्म । सुवर्णसिद्धि: = स्वर्णंप्रापकः । तं = भ्रमच्चक्रमस्तकं स्वं मित्रम् । अनुज्ञाप्य = प्रार्थ्यं तेनानुमतः वा । स्वगृहं = निजभवनम् । प्रतिनिवृत्तः = अनुप्रस्थितः, परावृतो वा जातः । हिन्दी- - इस कथा को सुनने के बाद चक्रधर ने सुवर्णसिद्धि से कहा- इसलिए मैं कहता हूँ कि यात्रा के समय साथ में रहने वाला अति दुर्बल प्राणी भी उपकारक होता है । चक्रधर की पूर्वोक्त बात सुनकर सुवर्णसिद्धि उसकी आज्ञा लेकर अपने अपने घर की ओलाटण इस प्रकार विष्णुशर्मा द्वारा प्रति पञ्चतन्त्र नामक ग्रन्थ के अपरीक्षित- कारक’ नामक पाँचवें तुन्त्र (करण) की डॉ० श्रीकृष्ण मणित्रिपाठी जिस की गई व्याख्या एवं हिन्दी अनुवाद समाप्त । avail:o:-
नावना त्रायां षिके । श्वासो = पुरु- तीर्था- न. में बों में, नुसार तः । म् ।
- मतः
- । 1- नाणी अपने
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