( चतुर्थ तन्त्रम् )
पञ्चतन्त्रम् ( चतुर्थं तन्त्रम् ) अथ लब्धप्रणाशम् अथेदमारभ्यते लब्धप्रणाशं नाम चतुर्थं तत्त्रम् । यस्यायमादिमः श्लोक:- ‘लब्धप्रणाश’ नामक चतुर्थ तन्त्र प्रारम्भ किया जाता है। जिसका यह ( वक्ष्यमाण ) प्रथम श्लोक है- समुत्पन्नेषु कार्येषु बुद्धिर्यस्य न हीयते । स एव दुर्गं तरति जलस्थो वानरो यथा ॥ १ ॥ उपस्थित कार्यों में जिस पुरुष की बुद्धि लुप्त नहीं होती, जो संकट में भी धैर्यपूर्वक अपना कर्तव्य स्थिर कर सकता है, वही पुरुष, जल में स्थित वानर की तरह संकटों को पार कर सकता है-दुःखों से छूट सकता है ॥ १ ॥ तद्यथानुश्रूयते- जैसा कि सुना जाता है-कहानी इस प्रकार प्रारम्भ होती है- कथा १ अस्ति कस्मिंश्चित्समुद्रोपकण्ठे महाञ्जम्बुपादपः सदाफलः । तत्र च रक्तमुखो नाम वानरः प्रतिवसति स्म । तत्र च तस्य तरोरधः कदा- चित्करालमुखो नाम मकरः समुद्रसलिलान्निष्क्रम्य सुकोमलबालुका- सनाथे तीरोपान्ते न्यविशत । ततश्व रक्तमुखेन स प्रोक्तः- ‘भोः ! भवा- न्समभ्यागतोऽतिथिः । तद्भक्षयतु मया दत्तान्यमृततुल्यानि जम्बूफलानि । उक्तं च- किसी समुद्र तीर पर सदा फलनेवाला एक जामुन का वृक्ष था। उस पर रक्तमुख नामक वानर रहा करता था । किसी समय उस वृक्ष के नीचे कोमल
२ पञ्चतन्त्रम् रेत से पूर्ण तट पर करालमुख नाम का मकर समुद्र जल से निकलकर आ बैठा । रक्तमुख ने उससे कहा- आप हमारे प्रिय अतिथि हैं, इसलिए अमृततुल्य (अमृत के समान स्वादिष्ट ) जम्बूफल आपको भेंट हैं, आप इन्हें खाइये । कहा भी है- प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो मूर्खो वा यदि पण्डितः । वैश्वदेवान्तमापन्नः सोऽतिथिः स्वर्गसङ्क्रमः ॥ २ ॥ !जो अतिथि चाहे वह प्रिय हो अथवा शत्रु, मूर्ख या पण्डित हो, वैश्वदेव ( बलिवैश्वदेव नामक एक यज्ञविशेष, जिसमें तैयार हुए भोजन से सब देवताओं को बलि दी जाती है) के अन्त में उपस्थित हो जाय तो वह ( गृहस्थ को ) स्वर्गं पहुंचाता है ।। २ ॥ न पृच्छेच्चरणं गोत्रं न च विद्यां कुलं न च । अतिथि वैश्वदेवान्ते श्राद्धे च मनुरब्रवीत् ॥ ३ ॥ बलिवैश्वदेव कर्म के अन्त में तथा श्राद्ध में समुपस्थित अतिथि से उसका चरण (शाखा), गोत्र, विद्या ( वेद-वेदांग का अध्ययन ) और कुछ न पूछे । ऐसा मनु महाराज ने कहा है ॥ ३ ॥ दूरमार्गश्रमश्रान्तं वैश्वदेवान्तमागतम् । अतिथि पूजयेद्यस्तु स याति परमां गतिम् ॥ ४ ॥ जो मनुष्य लम्बा रास्ता तय करने के श्रम से थके हुए और बलिवैश्वदेव कर्म की समाप्ति पर उपस्थित अतिथि का सत्कार करता है, वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ अपूजितोऽतिथिर्यस्य गृहाद्याति विनिःश्वसन् । गच्छन्ति विमुखास्तस्य पितृभिः सह देवताः ॥ ५ ॥ जिस पुरुष के घर से अतिथि आदर न पाकर अत एव ( अपना अपमान स्मरण कर ) लम्बी सांस लेता हुआ वापस चला जाता है, उस पुरुष के देवता पितरों के साथ मुख फेरकर चले जाते हैं ।। ५ ।। 1 एवमुक्त्वा तस्मै जम्बूफलानि ददौ । सोऽपि तानि भक्षयित्वा तेन सह चिरं गोष्ठी सुखमनुभूय भूयोऽपि स्वभवनमगात् । एवं नित्यमेव तौ वानरमकरौ जम्बूच्छायास्थितौ विविधशास्त्रगोष्ठ्या कालं नयन्तौ सुखेन तिष्ठतः । सोऽपि मकरो भक्षितशेषाणि जम्बूफलानि गृहं गत्वा स्वपत्न्याः प्रयच्छति । अथान्यतमे दिवसे तया स पृष्टः - ‘नाथ ! क्वैवंविधान्यमृत, 1 बैठा । ( अमृत नी है- वदेव ताम को ) उसका पुछे । वदेव को मान वता तेन तो खेन या: नृत ई लब्धप्रणाशस् ३ फलानि प्राप्नोषि ।’ स आह- ‘भद्रे ! ममास्ति परमसुहृद्रक्तमुखो नाम वानरः । स प्रीतिपूर्वकमिमानि फलानि प्रयच्छति ।’ अथ तयाभिहितम् - ‘यः सदैवामृतप्रायाणीदृशानि फलानि भक्षयति, तस्य हृदयममृतमयं भविष्यति । तद्यदि भार्यया ते प्रयोजनम्, ततस्तस्य हृदयं मह्यं प्रयच्छ । येन तद्भक्षयित्वा जरामरणरहिता त्वया सह भोगान्भुनज्मि ।’ स आह- ‘भद्रे ! मा मैवं वद । यतः स प्रतिपन्नोऽस्माकं भ्राता । अपरं फलदाता ततो व्यापादयितुं न शक्यते । तत्यजैनं मिथ्याग्रहणम् । उक्तं च- । 1 यह कहकर उसने ( वानर ने ) उसे (मकर को) जम्बूफल दिये । वह भी उन्हें खाकर उसके साथ बहुत देर तक वार्तालाप का आनन्द उठाकर फिर अपने घर चला गया । वे वानर और मगर इस प्रकार प्रतिदिन ही जम्बू-वृक्ष की छाया में बैठकर भिन्न-भिन्न शास्त्रों की चर्चा से समय बिताते हुए सुखपूर्वक रहते थे । और वह मगर बचे हुए जम्बूफल घर जाकर अपनी पत्नी को दिया करता था । एक दिन उसकी पत्नी ने उससे ( मगर से ) पूछा- नाथ ! ऐसे अमृततुल्य फल तुम कहीं पाते हो ? उसने कहा-भद्रे । रक्तमुख नाम का वानर मेरा परम मित्र है, वही प्रेमपूर्वक ये फल दिया करता है । तब उसने कहा- जो सदा ही ऐसे अमृत समान फल खाता है, उसका हृदय अवश्य ही अमृतमय होगा । इसलिये अगर तुम्हें मुझ पत्नी से कुछ काम है-यदि तुम मुझे अपनी पत्नी रखना चाहते हो तो उसका हृदय मुझे (लाकर) दो, जिससे उसे खाकर बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्त हो तुम्हारे साथ भोग भोगें । उसने कहा-भद्रे ! ऐसा मत कहो, क्योंकि हमने उसे अपना भाई स्वीकार किया है। दूसरी बात यह भी है कि वह मेरा फलदाता है और उसे हम मार नहीं सकते । अतः यह असम्भव हठ छोड़ दो। कहा भी है- एकं प्रसूयते माता द्वितीयं वाक्प्रसूयते । वाग्जातमधिकं प्रोचुः सोदर्यादपि बन्धुवत् ॥ ६ ॥ एक बन्धु को माता उत्पन्न करती है और दूसरे को वाणी (सम्भाषण ) । पण्डित लोग इन दोनों में सम्भाषण से उत्पन्न बन्धु को सोदर भाई से भी प्रिय बताते हैं । अथ मकर्याह - ‘त्वया कदाचिदपि मम वचनं नान्यथा कृतम् । तन्नूनं सा वानरी भविष्यति, यतस्तस्या अनुरागतः सकलमपि दिनं तत्र गमयसि । तत्त्वं ज्ञातो मया सम्यक् । यतः -
पश्चतन्त्रम् तब मकरी ने कहा- ‘तुमने कभी भी मेरी बात नहीं टाली । तब निश्चय ही वह वानरी है, क्योंकि उसी के प्रेम के कारण तुम सारा दिन वहीं ( उसी के पास ) बिताते हो, मैंने तुम्हें अच्छी तरह समझ लिया है तुम्हारे मानसिक भाव मैंने खूब जान लिये हैं। क्योंकि - साह्लादं वचनं प्रयच्छसि न मे नो वाञ्छितं किञ्चन प्रायः प्रोच्छ्वसिषि द्रुतं हुतवहज्वाला समं रात्रिषु । कण्ठाश्लेषपरिग्रहे शिथिलता यन्नादराच्चुम्बसे तत्ते धूर्त्तं हृदि स्थिता प्रियतमा काचिन्ममेवापरा’ ॥ ७ ॥ मेरे साथ प्रेमपूर्वक बातचीत नहीं करते और न मेरी किसी इच्छा को ही पूर्ण करते हो । रात्रियों में प्रायः अग्निशिखा के समान ( उष्ण ) लम्बी सांस लेते हो । कण्ठाग्रहपूर्वक आलिङ्गन में तुम्हें जरा भी उत्सुकता नहीं और न प्रेम से चुम्बन ही करते हो, हे घूर्त ! इस सबका कारण यही है कि तुम्हारे हृदय में मेरे अतिरिक्त कोई दूसरी ही प्यारी विराजमान है ।। ७ ।।’ Į सोऽपि पत्न्याः पादोपसङ्ग्रहं कृत्वाङ्कोपरि निधाय तस्याः कोप- (1) कोटिमापन्नायाः सुदीनमुवाच - वह (मगर) अत्यन्त कुपित हुई अपनी पत्नी के चरण पकड़कर और उसे गोद में बैठाकर दीनतापूर्वक कहने लगा- मयि ते पादपतिते किङ्करत्वमुपागते । त्वं प्राणवल्लभे ! कस्मात्कोपने कोपमेष्यसि ॥ ८ ॥ हे कोपशीले ! प्राणप्रिये ! जब कि मैं तुम्हारे चरणों में पड़ा हुआ हूँ और दास के समान तुम्हारी आज्ञा पालन करने के लिये उद्यत हूँ फिर अन्य कौन कारण है, जिसके ( वशीभूत हो ) तुम क्रोध करोगी ! ( तुम्हें क्रोध छोड़ देना चाहिए ) ॥ ८ ॥ सापि तद्वचनमाकर्ण्याश्रुप्लुतमुखी तमुवाच- वह (मगरी) भी आँखों में आँसू भरकर बोली- साधं मनोरथशतैस्तव धूर्त कान्ता सैव स्थिता मनसि कृत्रिमभावरम्या । अस्माकमस्ति न कथञ्चिदिहावकाशं तस्मात्कृतं चरणपातविडम्बनाभिः ॥ ९ ॥
नय सी क ही स म य से र KFE न T f लब्धप्रणाशस् हे बवक ! तुम्हारे मन में बनावटी ( न कि मेरे समान वास्तविक ) प्रेम से मनोहर प्रतीत होनेवाली वही प्रिया विराजमान है, जिसके ऊपर तुम सैकड़ों मनसूबे बांधा करते हो, इसलिए वहाँ ( तुम्हारे हृदय में ) हमारे लिये स्थान कहाँ ? ( हमारे ऊपर तुम्हारा कुछ भी प्रेम नहीं ) अत एव पैरों पर गिरकर धोखा देने से क्या लाभ ? ।। ९ ।। कहने पर भि अपरं सा यदि तव वल्लभा न भवति, तत्कि मया भणितेऽपि तां न व्यापादयसि । अथ यदि स वानरस्तत्कस्तेन सह तव स्नेहः । तत्कि बहुना । यदि तस्य हृदयं न भक्षयामि, तन्मया प्रायोपवेशनं कृतं विद्धि । एवं तस्यास्तनिश्चयं ज्ञात्वा चिन्ताव्याकुलितहृदयः स प्रोवाच । अथवा साध्विदमुच्यते- दूसरी बात यह भी है कि यदि वह तुम्हारी प्रिया नहीं है तो मेरे कहने पर भी उसे क्यों नहीं मारते ? और यदि वह वानर है तो तुम्हारा उसके साथ स्नेह कैसा ? अधिक क्या, अगर उसका हृदय मुझे खाने के लिये न मिलेगा तो निश्चय समझ लो कि मैं प्रायोपवेशन ( मरने के लिये भूख हड़ताल ) करूंगी 1 उसका यह निश्चय जानकर वह (मगर) चिन्ता से (इस अवस्था में क्या करना चाहिए ऐसी ) व्याकुल मन हो कहने लगा । अथवा यह ठीक ही कहा गया है- वज्रलेपस्य मूर्खस्य नारीणां कर्कटस्य च । एको ग्रहस्तु मीनानां नीलीमद्यपयोस्तथा ॥ १० ॥ वज्रलेप मूर्ख अर्थात् महामूर्ख, स्त्री, केकड़ा, मछली, नील रंग तथा मद्य- पायी की पकड़ प्रबल होती है ।। १० ।। ‘तत्कि करोमि । कथं स मे वध्यो भवति ।’ इति विचिन्त्य वानर- पार्श्वमगमत् । वानरोऽपि चिरादायान्तं तं सोद्वेगमवलोक्य प्रोवाच- ‘भो मित्र ! किमद्य चिरवेलायां समायातोऽसि । कस्मात्साह्लादं नाल- पसि । न सुभाषितानि पठसि ।’ स आह ‘मित्र ! अहं तव भ्रातृजायया निष्ठुरतरैर्वाक्यैरभिहितः - ‘भोः कृतघ्न ! मा मे त्वं स्वमुखं दर्शय, यतस्त्वं प्रतिदिनं मित्रमुपजीवसि । न च तस्य पुनः प्रत्युपकारं गृह- दर्शनमात्रेणापि करोषि । तत्ते प्रायश्चित्तमपि नास्ति । उक्तं च- ‘क्या करूँ ? कैसे मार सकूंगा’ इत्यादि बातें सोचता हुआ वह वानर के पास गुप Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri गया। वानर भी उसको देर से आया हुआ और घबड़ाया हुआ देखकर ६ पञ्चतन्त्रम् बोला- ‘मित्र ! आज आने में देर क्यों हुई ? आनन्दपूर्वक बातचीत क्यों नहीं करते ? सूक्तियां (उत्तम उत्तम वचन) क्यों नहीं सुनाते ?’ वह बोला- ‘मित्र ! आज तुम्हारी भौजाई (मेरी पत्नी ) ने मुझसे कड़े शब्दों में कहा कि – ‘अरे कृतघ्न ! मेरे सामने अपना मुख मत दिखा, क्योंकि तू नित्य ही मित्र के दिये हुए फलादि खाकर माता है, परन्तु अपना घर दिखलाने मात्र से भी उसका प्रत्युपकार नहीं करता । तेरा प्रायश्चित्त भी नहीं है । कहा भी है- SPRE ब्रह्मघ्ने च सुरापे च चौरे भग्नव्रते शठे । निष्कृति विहिता सद्भिः कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ॥ ११ ॥ ब्रह्महत्या करनेवाले, मद्य पीनेवाले, चोर तथा अपना व्रत भङ्ग करने बाले के लिये साधु पुरुष (स्मृतिकारों) ने प्रायश्चित्त कहा है, परन्तु कृतघ्न के लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं बताया ॥ ११ ॥ तत्त्वं मम देवरं गृहीत्वाऽद्य प्रत्युपकारार्थं गृहमानय । नो चेत्त्वया सह मे परलोके दर्शनम्’ इति । तदहं तयैवं प्रोक्तस्तव सकाशमागतः । तदद्य तया सह त्वदर्थे कलहायतो ममेयती वेला विलग्ना । तदागच्छ मे गृहम् । तव भ्रातृपत्नी रचितचतुष्का प्रगुणितवस्त्रमणिमाणिक्या- द्युचिताभरणा द्वारदेशबद्धवन्दनमाला सोत्कण्ठा तिष्ठति । मर्कट आह- ‘भो मित्र ! युक्तमभिहितं मदुद्भ्रातृपत्न्या । उक्तं च- इसलिये, आज तू प्रत्युपकार के लिये मेरे देवर को लेकर घर आ । नहीं तो परलोक में ही मेरा दर्शन करेगा ( मैं प्राणत्याग कर दूँगी ) ।’ उसके ऐसा कहने से तुम्हारे पास आया हूँ । इसलिये तुम्हारे विषय में उसके साथ वाद- विवाद करते हुए मुझे इतनी देर हो गई । अब मेरे घर चलो, तुम्हारी भोजाई चौक बनाकर (दक्षिण में यह रिवाज है कि जब कोई मान्य अतिथि घर माता है, तब उसके सत्कार के लिए खड़िया अथवा पिसे हुए एक प्रकार के सफेद चूगं से दरवाजे पर तथा भोजनस्थान पर भांति-भांति की रेखाएं खींचते हैं, उसे चौक कहते हैं, वही यहां ‘चतुष्क’ शब्द से अभिप्रेत है ), उत्तम उत्तम वस्त्र तथा मोती, मूंगा आदि समयोचित भूषण धारण कर तथा दरवाजे पर वंदनवार बांधकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।’ वानर बोला-‘मित्र ! तुम्हारी स्त्री ने ठीक ही कहा है, क्योंकि कहा भी हैcollection. Digitized by eGangotri ( ऐ खं त ग ग K त णश वर्जयेत्कीलिकाकारं मित्रं प्राज्ञतरो नरः । आत्मनः सम्मुखं नित्यं य आकर्षति लोलुपः ॥ १२ ॥ जो लोभी मनुष्य, अपने मित्र की धनादि वस्तु अपनी ओर खींचता है ( स्वयं ले लेना चाहता है ), बुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि तन्तुवाय-तुल्य ऐसे मित्र को छोड़ देवें ( तन्तुवाय- जुलाहा भी डोरों को यन्त्र द्वारा अपनी ओर खींचा करता है ) ।॥ १२ ॥ तथा च - ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति । भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥ १३ ॥ और भी - स्नेही पुरुष (मित्र) को अपनी वस्तु देना, उससे लेना, अपनी गोप्य बात कहना और उससे पूछना, भोजन करना और उसे भोजन कराना छह प्रीति के चिह्न हैं ॥ १३ ॥ ‘परं वयं वनचराः युष्मदीयं च जलान्ते गृहम् । तत्कथं शक्यते तत्र दे गन्तुम् । तस्मात्तामपि मे भ्रातृपत्नीमत्रानय येन । प्रणम्य तस्या अशी- र्वादं गृह्णामि ।’ स आह - भो मित्र ! अस्ति समुद्रान्तरे सुरम्ये पुलिन- प्रदेशेऽस्मद्गृहम् । तन्मम पृष्ठमारूढः सुखेनाकृतभयो गच्छ ।’ सोऽपि तच्छ्र ुत्वा सानन्दमाह- ‘भद्र ! यद्येवं तत्कि विलम्ब्यते । स्वर्यताम् । एषोऽहं तव पृष्ठामारूढः ।’ तथानुष्ठितेऽगाधे जलधौ गच्छन्तं मकरमा- लोक्य भयत्रस्तमना वानरः प्रोवाच- ‘भ्रातः ! शनैः शनैर्गम्यताम् । जलकल्लोलैः प्लाव्यते मे शरीरम् । तदाकर्ण्य मकरश्चिन्तयामास - ‘असावगाधं जलं प्राप्तो मे वशः सञ्जातः । मत्पृष्ठगतस्तिलमात्रमपि चलितुं न शक्नोति । तस्मात्कथयाम्यस्य निजाभिप्रायम्, येनाभीष्ट- देवतास्मरणं करोति । आह च - ‘मित्र ! त्वं मया वधाय समानीतो भार्यावाक्येन विश्वास्य । तत्स्मर्यतामभीष्टदेवता ।’ स आह-भ्रातः ! किं मया तस्यास्तवापि चापकृतं येन मे वधोपायश्चिन्तितः ।’ मकर मह - ‘भोः ! तस्यास्तावत्तव हृदयस्यामृतमयफलरसास्वादन मृष्टस्य भक्षणे दोहदः सञ्जातः । तेनैतदनुष्ठितम् ।’ प्रत्युत्पन्नमतिर्वानर आह- ‘भद्र ! यद्येवं तत्कि त्वया मम तत्रैव न व्याहृतम् । येन स्वहृदयं जम्बू- कोटरे सदैव मंया सुगुप्तं कृतम्, तद्भ्रातृपत्न्या अर्पयामि । त्वयाहूं शून्यहृदयोऽत्र कस्मादानीतः ।’ तदाकर्ण्य मकरः सानन्दमाह - ‘भद्र ! SC -0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri ( ८ पञ्चतन्त्रम् यद्येवं तदर्पय मे हृदयम् । येन सा दुष्टपत्नी तद्भक्षयित्वाऽनशनादुत्ति- ष्ठति । अहं त्वां तमेव जम्बूपादपं प्रापयामि ।’ एवमुक्त्वा निवर्त्य जम्बूतलमगात् । वानरोऽपि कथमपि जल्पितविविधदेवतोपचारपूज- स्तीरमासादितवान् । ततश्च दीर्घंतरचङ्क्रमणेन तमेव जम्बूपादपमा- रूढश्चिन्तयामास अहो ! लब्धास्तावत्प्राणः । अथवा साध्विदमुच्यते- लेकिन हम वन में रहनेवाले हैं और तुम्हारा घर जल में है । इसलिये हम कैसे जा सकते हैं ? अतः हमारी भोजाई को भी यहीं ले आओ जिससे उन्हें प्रणाम कर उनका आशीर्वाद ग्रहण करें ।’ उसने कहा - ‘मित्र ! हमारा घर समुद्रतल में मनोहर बालुकामय तट पर है । अतः मेरी पीठ पर चढ़कर निर्भय- पूर्वक चलो ।’ यह सुनकर वानर ने आनन्दपूर्वक कहा - ‘भद्र ! यदि यह बात है तो फिर देर क्यों ? जल्दी करो, लो मैं यह तुम्हारी पीठ पर चढ़ गया ।’ ऐसा करने पर मकर को अगाध समुद्र में जाता हुआ देखकर वानर भयभीत हो कहने लगा- ‘भाई ! धीरे-धीरे चलो, महातरङ्गे मेरे शरीर को डुबा रही हैं ।’ यह सुनकर मगर सोचने लगा- ‘इस समय अगाध जल में पहुँचा हुआ यह वानर मेरे अधीन है, मेरी पीठ से तिल मात्र भी इधर-उधर नहीं हो सकता, इसलिये इससे अपना अभिप्राय कह देना चाहिए, जिससे यह अपने इष्ट- देव का स्मरण कर ले ।’ और ( यह सोचकर ) बोला- ‘पत्नी के कहने से मैं तुम्हें विश्वास दिलाकर मारने के लिये लाया हूँ ।’ उसने कहा- ‘भाई ! मैंने, उसकी या तुम्हारी क्या बुराई की है, जिसके कारण तुमने मुझे मारने का उपाय किया है।’ मगर ने कहा- ‘हे मित्र ! उसकी (मेरी पत्नी की) अमृत- तुल्य फलों के रसास्वाद से स्वादिष्ट तुम्हारा हृदय खाने की इच्छा हुई है, इसी कारण यह किया गया है ।’ तब प्रत्युत्पन्नमति ( समय पर जिसको उपाय सूझ सके ) बानर ने कहा- ‘भद्र । यदि यह बात थी तो तुमने मुझ से वहीं क्यों न कहा, मैं सदा ही अपना हृदय जम्बू-कोटर में सुरक्षित रखता हूँ, उसे भौजाई को देता, तुम हृदयरहित मुझको क्यों लाये ?’ यह सुन, मगर ने सानन्द कहा- ‘भद्र ! अगर यह बात है तो अपना हृदय मुझे दो, जिससे कि वह दुष्ट स्त्री, उसे खाकर अनशन व्रत का परित्याग करे ( अनशन से उठे ) । मैं तुम्हें, उसी जामुन के वृक्षपर पहुँचाये देता हूँ ।’ यह कह लोटकर उसी जम्बू-वृक्ष के नीचे गया । वानर भी भांति-भांति के द्रव्यों से अपने अभीष्ट देवताओं की
लब्धप्रणाशस् ९ पूजा का सकल्प करता हुआ किसी प्रकार किनारे पर पहुँच गया । और एक लम्बी छलांग से जम्बू-वृक्ष पर चढ़ सोचने लगा- ‘चलो, प्राण तो पा लिये- बच गये । अथवा यह ठीक ही कहा है- न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्तेऽपि न विश्वसेत् । विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ॥ १४ ॥
अविश्वास के योग्य पुरुष का ( कभी ) विश्वास न करना चाहिए तथा विश्वासी का भी ( अधिक ) विश्वास न करना चाहिए । विश्वास के कारण उत्पन्न हुआ भय जड़ें भी काट देता है - सर्वथा नाश कर देता है, जिससे फिर उन्नति करने की कोई आशा नहीं रहती ।। १४ ।। तन्ममैतदद्य पुनर्जन्मदिनमिव सञ्जातम् ।’ इति चिन्तयमानं मकर आह- ‘भो मित्र ! अर्पय तद्धृदयं यथा ते भ्रातृपत्नी भक्षयित्वाऽनशाना- दुत्तिष्ठति ।’ अथ विहस्य निर्भत्संयन्वानरस्तमाह - धिग्धिङ्मूर्ख विश्वास- घातक ! किं कस्यचिद्धृदयद्वयं भवति । तदाशु गम्यतां जम्बूवृक्षस्याध- स्तान्न भूयोऽपि त्वयात्रागन्तव्यम् । उक्तं च यतः-
आज मेरा यह पुनर्जन्म हुआ है (आज मानो मेरा दूसरा जन्मदिवस है) ।’ इस प्रकार सोचते हुए ( वानर से ) मगर ने कहा- ‘हे मित्र ! अपना हृदय लामो, जिससे तुम्हारी भोजाई अनशन से उठे ।’ तब हँसकर उसे धमकाते हुए वानर ने कहा- ‘मूर्ख, विश्वासघातिन् ! तुझे धिक्कार है, क्या किसी के दो हृदय हुआ करते हैं ? जल्दी चले जाओ । इस जामुन के पेड़ के नीचे फिर कभी मत आना । कहा भी है- सकृद् दुष्टं च यो मित्रं पुनः संधातुमिच्छति । स मृत्युमुपगृह्णाति गर्भमश्वतरी यथा ॥ १५॥ जो मनुष्य एक बार अपराध करने पर भी मित्र से फिर मेल करना चाहता है, वह उसी तरह मृत्यु को प्राप्त होता है, जिस तरह की खचरी (गदहे से घोड़ी की सन्तान) गर्भधारण कर मृत्यु को प्राप्त होती है ।। १५ ।।’ तच्छ्रुत्वा मकर: संविलक्षं चिन्तितवान्-‘अहो ! मयातिमूढेन किम- स्य स्वचित्ताभिप्रायो निवेदितः, तद्यद्यसो पुनरपि कथञ्चिद्विश्वासं गच्छति, तद्भूयोऽपि विश्वासयामि ।’ आह च - ‘मित्र ! हास्येन मया
f १० पञ्चतन्त्रम् तेऽभिप्रायो लब्धः । तस्या न किञ्चित्तव हृदयेन प्रयोजनम् । तदागच्छ प्राघुणिकन्यायेनास्मद्गृहम् । तव भ्रातृपत्नी सोत्कण्ठा वर्तते ।’ वानर आह - ‘भो दुष्ट ! गम्यताम् । अधुना नाहमागमिष्यामि । उक्तं च– यह सुनकर मगर भौचक्का-सा हो सोचने लगा- ‘मैं महामूर्ख हूँ, मैंने क्यों अपना अभिप्राय इससे कह दिया । अगर यह फिर भी किसी प्रकार विश्वास कर सके तो विश्वास दिलाऊँ ।’ और बोला – ‘मित्र ! मजाक से मैंने तुम्हारा हृदय-भाव लिया था ( तुम मुझपर विश्वास करते हो या नहीं, यह जानना चाहता था) उसे तुम्हारे हृदय से कोई प्रयोजन नहीं । इसलिए अतिथि रूप से हमारे घर चलो। तुम्हारी भोजाई तुम्हारे लिये उत्कण्ठित हो रही है ।’ वानर ने कहा- अरे दुष्ट ! चले जाओ, अब मैं नहीं आऊँगा । कहा भी है- बुभुक्षितः किं न करोति पापं क्षीणा जना निष्करुणा भवन्ति । आख्याहि भद्रे ! प्रियदर्शनस्य न गङ्गदत्तः पुनरेति कूपम् ॥१६॥ भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं करता ? ( भूख मिटाने के लिए सब ही पाप करने को उद्यत हो जाता है), दरिद्र पुरुष निर्दयी होते हैं । हे भद्रे ! प्रियदर्शन ( सर्पविशेष ) से जाकर कहो कि गङ्गदत्त फिर कुएं में नहीं माता । मकर आह- ‘कथमेतत् ।’ स आह- मगर ने कहा – ‘यह कैसे ?’ उसने ( वानर ने ) कहा-
कथा २ कस्मिश्चित्कूपे गङ्गदत्तो नाम मण्डूकराजः प्रतिवसति स्म । स कदाचिद्दायादैरुद्वेजितोऽरघट्टघटीमारुह्य निष्क्रान्तः । अथ तेन चिन्ति- तम् -‘यत्कथं तेषां दायादानां मया प्रत्यपकारः कर्त्तव्यः । उक्तं च- किसी कुएं में गङ्गदत्त नामक मेढकों का राजा रहा करता था। एक बार वह बन्धुओं से पीड़ित होकर अरहट के सहारे ( कुएँ से ) बाहर निकला । उसने सोचा कि किस प्रकार छन कुटुम्बियों में बदला लूं । कहा भी है- ‘आपदि येनापकृतं येन च हसितं दशासु विषमासु । अपकृत्य तयोरुभयोः पुनरपि जातं नरं मन्ये ॥ १७ ॥ जिस मनुष्य ने विपत्ति के समय बुराई की हो और जिसने दुरवस्था के समय उपहास ( मजाक ) किया हो, इन दोनों से जिस मनुष्य ने बदला चुका लिया हो, उसे मैं दुबारा पैदा हुआ समझता हूँ ॥ १७ ॥’
लब्धप्रणाशम् ११ एवं चिन्तयन्बिले प्रविशन्तं कृष्णसर्पमपश्यत् । तं दृष्ट्वा भूयोऽप्य- चिन्तयत् - ‘यदेनं तत्र कूपे नीत्वा सकलदायादानामुच्छेदं करोमि । उक्तं च- ऐसा विचार करते समय बिल में घुसते हुए एक कृष्णसर्प को देखा । उसे देखकर पुनः सोचने लगा- सोचने लगा- ’ ( अहो ! ( अहो ! ) इसी सर्प को उस कुएँ में ले जाकर अपने सभी दायादों का नाश क्यों न कर दूँ । क्योंकि कहा भी है- शत्रुभिर्योजयेच्छत्रं बलिना बलवत्तरम् । स्वकार्याय यतो न स्यात्काचित्पीडात्र तत्क्षये ॥ १८ ॥ अपना कार्य सिद्ध करने के लिए शत्रु को उससे भी अधिक बलवान् के साथ भिड़ा देवे। होने पर किसी प्रकार का दुःख नहीं होता, प्रत्युत तथा च – शत्रुमुन्मूलयेत्प्राज्ञस्तीक्ष्णं तीक्ष्णेन को शत्रु के साथ तथा बलवान् क्योंकि उन दोनों का नाश सुख ही होता है ॥ १८ ॥ शत्रुणा । व्यथाकरं सुखार्थाय कण्टकेनैव कण्टकम् ॥ १९ ॥’ से और भी-नीतिज्ञ पुरुष, अपने सुख के लिए पैने कांटे से शरीर में लगे काँटे के समान क्लेशप्रद बलवान् शत्रु को, बलवान् शत्रु हुए करा दे ।। १९ ।। ’ समूल नष्ट एवं स विभाव्य बिलद्वारं गत्वा तमाहूतवान्- ‘एह्य ेहि प्रियदर्शन ! एहि ।’ तच्छ्र ुत्वा सर्पश्चिन्तयामास - य एवं मामाह्वयति, स्वजातीयो न भवति । यतो नैषा सर्पवाणी । अन्येन केनापि सह मम मर्त्यलोके सन्धानं नास्ति । तदत्रैव दुर्गे स्थितस्तावद्वेद्मि कोऽयं भविष्यति । उक्तं च- यह विचार कर वह (मेढक) बिल के पास पहुँच कर उसे (सर्प को) पुकारने लगा - ‘आओ, आओ प्रियदर्शन ! माओो ।’ यह सुन सर्प सोचने लगा- ‘मुझे बुलानेवाला यह ( व्यक्ति ) अपनी जाति का तो है नहीं, क्योंकि यह सर्प की आवाज नहीं है मोर न इस संसार में किसी दूसरे के साथ मेरा मेल ही है, इसलिये इस बिल में ही रहकर देखूं कि यह कौन है ? कहा भी है- यस्य न ज्ञायते शीलं न कुलं न च संश्रयः । न तेन सङ्गतिं कुर्यादित्युवाच बृहस्पतिः ।। २० ।। 4
१२ पश्ञ्चतन्त्रम् जिस पुरुष का स्वभाव, कुल और निवासस्थान ज्ञात न हो उसके साथ संगति न करे, ऐसा बृहस्पति ने कहा है ।। २० ॥ कदाचित्कोऽपि मन्त्रवाद्यौषधचतुरो वा मामाहूय बन्धने क्षिपति । अथवा कश्चित्पुरुषो वैरमाश्रित्य कस्यचिद्भक्षणार्थे मामाह्वयति ।’ आह च - ‘भोः ! को भवान्’ । स आह-‘अहं गङ्गदत्तो नाम मण्डूकाधिपति- ॐ स्त्वत्सकाशे मैत्र्यर्थमभ्यागतः । तच्छ ुत्वा सर्प आह- ‘भो ! अश्रद्धेय- मेतत् यत्तृणानां वह्निना सह सङ्गमः । उक्तं च- कदाचित् कोई मन्त्र पढ़नेवाला ( मन्त्र पढ़कर सर्प को वश में करने वाला ) अथवा औषध-निपुण पुरुष, मुझ (सर्प) को बुलाकर बन्धन में डाल देता है, अथवा कोई शत्रुता के कारण किसी को खाने ( काटने ) के लिये मुझे बुलाता है ।’ ( यह सोचकर ) बोला- ‘तुम कौन हो ?’ उसने कहा- गङ्गदत्त नाम का मेढकों का राजा हूं, और मित्रता के लिये ( तुम्हारे पास मित्रता करने के लिये ) आया हूँ ।’ यह सुन सर्प ने कहा - ‘तिनकों का आग के साथ एकत्रित होना’ विश्वास के योग्य नहीं अर्थात् जिस प्रकार आग और तिनकों का मेल नहीं हो सकता, उसी प्रकार तुम्हारी और हमारी मित्रता भी असम्भव है । अत: तुम्हारा मेरे पास मित्रता के लिये मना भी विश्वासयोग्य नहीं हो सकता । कहा भी है- यो यस्य जायते वध्यः स स्वप्नेऽपि कथञ्चन । न तत्समीपमभ्येति तत्किमेवं प्रजल्पसि ॥ २१ ॥’ जो जिसका वध्य ( मारने योग्य, भक्ष्य ) होता है, वह स्वप्न में भी किसी प्रकार उसके पास नहीं जाता, फिर क्यों तू ऐसा कहता है ॥ २१ ॥’ गङ्गदत्त आह- ‘भोः ! सत्यमेतत् । स्वभाववैरी त्वमस्माकम् । परं परिभवात्प्राप्तोऽहं ते सकाशम् । उक्तं च- गङ्गदत्त ने कहा- ‘है सर्प ! यह बात सच है कि तुम हमारे स्वभाव से ही शत्रु हो, परन्तु मैं दूसरों के द्वारा अपमानित हो तुम्हारे पास आया हूँ/? कहा भी है- सर्वनाशे च सञ्जाते प्राणानामपि संशये । अपि शत्रुं प्रणम्यापि रक्षेत्प्राणान्धनानि च ॥ २२ ॥’ धन-जनादि सर्वस्व की तथा प्राणों की रक्षा भी जब सन्दिग्ध हो जावे, तब शत्रु को भी प्रणाम करके प्राण और धनादि की रक्षा करनी चाहिये ॥२२॥ ’ ’ स्वा अप यत्र ‘कु में, स्थ क अ स्थ जा व K त 2 3.लब्धप्रणाशम् १३ सर्प आह— ‘कथय कस्मात्ते परिभवः ।’ स आह - ‘दायादेभ्यः ।’ सोऽप्याह - ‘क्व ते आश्रयो वाप्यां कूपे तडागे ह्रदे वा । तत्कथय स्वाश्रयम् ।’ तेनोक्तम्- ‘पाषाणचयनिबद्धे कूपे ।’ सर्प आह- ‘अहो ! अपदा वयम् । तन्नास्ति तत्र मे प्रवेशः । प्रविष्टस्य च स्थानं नास्ति । यत्र स्थितस्तव दायादान्व्यापादयामि । तद् गम्यताम् । उक्तं च- सर्प ने कहा- ‘कहो, तुम्हारा अपमान करनेवाला कौन है ?" उसने कहा- कुए ‘कुटुम्बी लोग ।’ वह बोला- ‘तुम्हारा निवासस्थान कहाँ है ? बावली में, में, तालाब अथवा महासरोवर ( हृद=अगाधजल तालाब, कुण्डा ) में ? अपना स्थान बताओ ।’ उसने कहा- ‘पत्थरों के समूह से बने हुए कुएँ में ।’ सर्प ने कहा - ‘अहो ! हम चरण-हीन हैं, इसलिए मैं उसमें प्रविष्ट नहीं हो सकता और यदि किसी प्रकार प्रविष्ट हो भी जाऊँ तो वहीं ( मेरे लिए उपयुक्त ) स्थान नहीं है, जहां बैठकर तुम्हारे कुटुम्बियों को मार सकूं ? इसलिये चले जाओ । कहा भी है- यच्छक्यं ग्रसितुं यस्य ग्रस्तं परिणमेच्च यत् । हितं च परिणामे यत्तदाद्यं भूतिमिच्छता’ ॥ २३ ॥ जो भोज्य वस्तु खाई जा सके, खाने पर जो अच्छी तरह पच सके और जो पचने पर लाभकारी हो, अपनी भलाई चाहनेवाले पुरुष को चाहिए कि वही वस्तु खावे ॥ २३ ॥’ गङ्गदत्त आह- ‘भोः ! समागच्छ त्वम् । अहं सुखोपायेन तत्र तव प्रवेशं कारयिष्यामि । तथा तस्य मध्ये जलोपान्ते रम्यतरं कोटरमस्ति । तत्र स्थितस्त्वं लीलया दायादान्व्यापादयिष्यसि ।’ तच्छ त्वा सर्पों व्यचिन्तयत्-अहं तावत्परिणतवयाः, कदाचित्कथश्चिन्मूषकमेकं प्राप्नोमि । तत्सुखावहो जीवनोपायोऽयमनेन कुलाङ्गारेण मे दर्शितः । तद्गत्वा तान्मण्डूकान्भक्षयामि’ इति । अथवा साध्विदमुच्यते- गङ्गदत्त ने कहा- ‘तुम लामो, मैं बड़े आसानी से तुमको वहाँ प्रविष्ट करा दूंगा और कुएं के अन्दर जल के पास एक सुन्दर बिल है, उसमें रहकर तुम आसानी से मेरे कुटुम्बियों को मार सकोगे ।’ यह सुन सर्प सोचने लगा- ‘मैं वृद्ध हो गया हूँ, कभी-कभी बड़ी कठिनता से एकाघ चूहा पा जाता हूँ, यह अच्छा ही हुआ कि इस फुलाङ्गार ( कुल-कलङ्क ) ने मुझे यह सरल जीविका
१४ पञ्चतन्त्रम् का ढङ्ग बता दिया, इसलिये जाकर उन मेढकों को खाऊँ । अथवा यह ही कहा है- यो हि प्राणपरिक्षीणः सहायपरिवर्जितः । ठीक चल अप स हि सर्वसुखोपायां वृत्तिमारचयेद् बुधः’ ॥ २४ ॥ जो मनुष्य, शक्तिहीन हो चुका हो और जिसके सहायक भी न हो, यदि वह समझदार हो तो सब प्रकार के सुख देनेवाली जीविका की तलाश करे । । एवं विचिन्त्य तमाह - ‘भो गङ्गदत्त ! यद्येवं तदग्रे भव । येन तत्र गच्छावः ।’ गङ्गदत्त आह- ‘भोः प्रियदर्शन ! अहं त्वां सुखोपायेन तत्र नेष्यामि, स्थानं च दर्शयिष्यामि । परं त्वयास्मत्परिजनो रक्षणीयः । केवलं यानहं तव दर्शयिष्यामि त एव भक्षणीया:’ इति । सर्प आह- ‘साम्प्रतं त्वं मे मित्रं जातम् । तन्न भेतव्यम् । तव वचनेन भक्षणीयास्ते दायादाः ।’ एवमुक्त्वा बिलान्निष्क्रम्य तमालिङ्गय च तेनैव सह प्रस्थितः । अथ कूपमासाद्यारघट्टघटिकामार्गेण सर्पस्तेनात्मना स्वालयं नीतः । ततश्च गङ्गदत्तेन कृष्णसर्प कोटरे धृत्वा दर्शितास्ते दायादाः । ते च तेन शनैः शनैर्भक्षिताः । अथ मण्डकाभावे सर्पेणाभिहितम् - ‘भद्र ! निःशेषितास्ते रिपवः । यत्प्रयच्छान्यन्मे किञ्चिद्भोजनम् । यतोऽहं त्वयाऽत्रानीतः।’ गङ्गदत्त माह - ‘भद्र! कृतं त्वया मित्रकृत्यम् । तत्साम्प्रत- मनेनैव घटिकायन्त्रमार्गेण गम्यताम्’ इति । सर्प आह - ‘भो गङ्गदत्त ! Q न सम्यगभिहितं त्वया । कथमहं तत्र गच्छामि । मदीयबिलदुर्गमन्येन रुद्धं भविष्यति । तस्मादत्रस्थस्य मे मण्डूकमेकैकं स्ववर्गीयं प्रयच्छ । नो चेत्सर्वानपि भक्षयिष्यामि’ इति । तच्छ त्वा गङ्गदत्तो व्याकुलमना व्याचिन्तयत् - ‘अहो ! किमेतन्मया कृतं सर्पमानयता । तद्यदि निषेध - यिष्यामि तत्सर्वानपि भक्षयिष्यति । अथवा युक्तमुच्यते- सर्प ने यह ( पूर्वोक्त ) सोचकर उससे (गङ्गदत्त से ) कहा - ‘है गङ्गदत्त ! यह बात है तो आगे होओ, जिससे वहाँ ( तुम्हारे स्थान पर ) चलें ।’ गङ्गदत्त. ने कहा- ‘हे प्रियदर्शन ! मैं तुम्हें वहाँ सरलता से ले चलूंगा और स्थान (रहने योग्य अनुकूल स्थान) भी दिखा दूँगा परन्तु तुम, हमारे कुटुम्बियों को बचाना न खाना । जिनको मैं दिखाऊँ केवल उन्हें ही खाना ।’ सर्प बोला- ‘अब तुम मेरे मित्र हो गये हो, इसलिये डरो मत। तुम्हारे कथनानुसार ही मैं तुम्हारे कुटुम्बियों को खाऊंगा ( जिन्हें तुम बताओगे उन्हें ही खाऊँगा ) ।’ यह कहकर और बिल से निकल उसको आलिङ्गन किया और उसी के साथ
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लब्धप्रणाशम् १५ चल पड़ा । अनन्तर कुएं के पास पहुंचकर, ढेंकुली के मार्ग से वह सर्प को अपने स्थान में ले गया । तब गङ्गदत्त ने उस कृष्णसर्प को घोंसले में ठहराकर ‘शत्रु दायादों को दिखा दिया और उसने धीरे-धीरे उन सबको खा लिया । अनन्तर मेढ़कों के (गङ्गदत्त के दायादों के) समाप्त हो जाने पर सर्प ने कहा- ‘भद्र ! तुम्हारे सव शत्रु समाप्त कर दिये, अब मुझे ओर कोई भोजन दो, क्योंकि तुम ही मुझे यहाँ लाये हो ।’ गङ्गदत्त ने कहा- ‘भद्र ! तुमने मित्र का कार्य पूरा कर दिया ( जो एक मित्र को करना चाहिये ) इसलिए, अब इसी घटिकायन्त्र मार्ग से चले जाओ ।’ सर्प ने कहा- ‘गङ्गदत्त ! तुमने यह बात ठीक नहीं कही। मैं वहां कैसे जाऊँ? मेरा बिलरूपी दुर्गं दूसरे ने घेर लिया होगा । इसलिये यहीं रहते हुए मुझे अपने वर्ग का एक-एक मण्डूक ( प्रतिदिन) दिया करो, नहीं तो मैं सबको ही खा जाऊँगा ।’ यह सुनकर गङ्गदत्त घबड़ा- कर सोचने लगा- ‘सर्प को लाकर मैंने यह क्या किया ? (बहुत बुरा किया) अव यदि मैं निषेध करता हूँ, तो सबको खा जायेगा । अथवा ठीक ही कहा है- योऽमित्रं कुरुते मित्रं वीर्याभ्यधिकमात्मनः । स करोति न सन्देहः स्वयं हि विषभक्षणम् ।। २५ ।। जो मनुष्य अपने से अधिक बलशाली शत्रु को मित्र बनाता है, तो इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि वह स्वयं ही विष खाता है ।। २५ ।। तत्प्रयच्छाम्यस्यैकैकं प्रतिदिनं सुहृदम् । उक्तं च- इसलिये इसे एक-एक कुटुम्बी (मेढक ) प्रतिदिन दिया करूँ। कहा भी है- सर्वस्वहरणे युक्तं शत्रुं बुद्धियुता नराः । तोषयन्त्यल्पदानेन वाडवं सागरो यथा ॥ २६ ॥ जिस तरह समुद्र वडवानल को थोड़ा-सा जल देकर अपनी रक्षा करता है, उसी तरह बुद्धिमान् पुरुष सर्वस्व का हरण करने में तत्पर शत्रु को थोड़ा बहुत देकर भी प्रसन्न कर लेते हैं ।। २६ ।। तथा च- यो दुर्बलोऽणूनपि याच्यमानो बलीयसा यच्छति नैव साम्ना । प्रयच्छते नैव च दर्श्यमानं खारी स चूर्णस्य पुनर्ददाति ॥ २७॥ और भी - दुर्बल मनुष्य बलवान् पुरुष से शान्तिपूर्वक मांगने पर थोड़ी-सी २ प०
१६ श्री पञ्चतन्त्रम् वस्तु नहीं देता और दिखलाई देनेवाली छोटी भी वस्तु उसे नहीं देता, वही फिर ( जबर्दस्ती छीनने पर) खारी (१० सेर) परिमित आटा दे देता है ||२७|| तथा च - सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डितः । अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हि दुस्तरः ॥ २८ ॥ और भी - बुद्धिमान् पुरुष सर्वनाश उपस्थित होने पर आधा छोड़ देता और आधे से अपना काम करता है, क्योंकि सर्वनाश असह्य होता है ।। २८ ।। न स्वल्पस्य कृते भरि नाशयेन्मतिमान्नरः । एतदेव हि पाण्डित्यं यत्स्वल्पाद् भूरिरक्षणम् ॥ २९ ॥ बुद्धिमान् पुरुष थोड़े के लिये बहुत का नाश न करे । क्योंकि थोड़ा देकर अधिक की रक्षा करना ही चातुर्य है ।। २९ ।। ’ एवं निश्चित्य नित्यमेकैकमादिशति । सोऽपि तं भक्षयित्वा तस्य परोक्षेऽन्यानपि भक्षयति । अथवा साध्विदमुच्यते- ऐसा विचार कर गंगदत्त प्रतिदिन १-१ मेढक देने लगा । वह सर्प उसे खाकर परोक्ष में अन्यान्य मेढकों को भी खा जाता था । अथवा ठीक ही कहा है- W ‘यथा हि मलिनैर्वस्त्रैर्यत्र तत्रोपविश्यते । एवं चलित वित्तस्तु वित्तशेषं न रक्षति ॥ ३० ॥’ ‘जिस प्रकार मलिन वस्त्रधारी पुरुष जहाँ-तहाँ ( धूलि आदि में भी ) बैठ जाता है, इसी प्रकार किसी सदाचार से भ्रष्ट हुआ पुरुष अन्य आचारों की भी परवाह नहीं करता, सब प्रकार के दुराचारों में प्रवृत्त हो जाता है ॥ ३० ॥’ अथान्यदिने तेनापरान्मण्डूकान्भक्षयित्वा गङ्गदत्तसुतो यमुनादत्तो भक्षितः । तं भक्षितं मत्वा गङ्गदत्तस्तारस्वरेण धिग्धिप्रलापपरः कथ- चिदपि न विरराम । ततः स्वपत्न्याभिहितः -
जब दूसरे दिन वह सर्प अन्य मेढकों को खाकर गंगदत्त के पुत्र यमुनादत्त को भी खा गया। तब उसको खाया हुआ समझकर गंगदत्त जोर-जोर से अपने को धिवकारता हुआ कुछ क्षण के लिये भी शान्त नहीं हुआ, तब उसकी पत्नी ने कहा- ‘किं क्रन्दसि दुराक्रन्द स्वपक्षक्षयकारक । स्वपक्षस्य क्षये जाते को नस्त्राता भविष्यति’ ॥ ३१ ॥ , तू व हमा अथ ग तो त्व का fra त सो चि प्र नि पां म म य त र न तो त ने नी लब्धप्रणाशम् १७ हे व्यर्थं रोदन करनेवाले और अपने वर्ग का नाश करनेवाले ( मुर्ख ) तू क्यों रोता है ? (अब तेरे रोने से क्या लाभ ?) अपने पक्ष का नाश होने पर हमारी रक्षा कौन करेगा ? अर्थात् कोई नहीं । अतः विनाश अवश्यम्भावी है । तदद्यापि विचिन्त्यतामात्मनो निष्क्रमणम्, अस्य वधोपायः च ।’ अथ गच्छता कालेन सकलमपि कवलितं मण्डूककुलम् । केवलमेको गङ्गदत्तस्तिष्ठति । ततः प्रियदर्शनेन भणितम्- ‘भो गङ्गदत्त ! बुभुक्षि- तोऽहम् । निःशेषिताः सर्वे मण्डूकाः । तद्दीयतां मे किश्विद्भोजनं यतोऽहं त्वयात्रानीतः ।’ स आह- ‘भो मित्र ! न त्वयात्र विषये मयावस्थितेन कापि चिन्ता कार्या । तद्यदि मां प्रेषयति ततोऽन्यकूपस्थानपि मण्डूका - विश्वास्यात्रानयामि ।’ स आह- ‘मम तावत्त्वमभक्ष्यो भ्रातृस्थाने । तद्यद्येवं करोषि तत्साम्प्रतं पितृस्थाने भवसि । तदेवं क्रियताम्’ इति । सोऽपि तदाकर्ण्यारघट्टघटिकामाश्रित्य विविधदेवतोपकल्पितपूजोपया- चितस्तत्कूपाद्विनिष्क्रान्तः । प्रियदर्शनोऽपि तदाकाङ्क्षया तत्रस्थः प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति । अथ चिरादनागते गङ्गदत्ते प्रियदर्शनोऽन्यकोटर- निवासिनीं गोधामुवाच - ‘द्रे ! क्रियतां स्तोकं साहाय्यम् । यतश्चिर- परिचितस्ते गङ्गदत्तः । तद् गत्वा तत्सकाशं कुत्रचिज्जलाशयेऽन्विष्य मम सन्देशं कथय । येनागम्यतामेकाकिनापि भवता द्रुततरं यद्यन्ये मण्डूका नागच्छन्ति । अहं त्वया विना नात्र वस्तुं शक्नोमि । तथा यद्यहं तव विरुद्धमाचरामि तत्सुकृतमन्तरे मया विधृतम् ।’ गोधाऽपि तद्वचनाद् गङ्गदत्तं द्रुततरमन्विष्याह - ‘भद्र गङ्गदत्त ! स तव सुहृत्प्रिय- दर्शनस्तव मार्गं समीक्षमाणस्तिष्ठति । तच्छीघ्रमागम्यताम्’ इति । अपरं च तेन तव विरूपकरणे सुकृतमन्तरे धृतम् । तन्निःशङ्केन मनसा समागम्यताम् । तदाकर्ण्य गङ्गदत्त आह- इसलिये अब भी अपने ( यहाँ से ) निकलने और इसके मारने का उपाय सोचो। कुछ समय में ( सर्प ने ) सब मेढक खा लिये । केवल गङ्गदत्त मकेला बच गया । तब प्रियदर्शन ( सर्प ) ने कहा- हे गङ्गदत्त ! मैं भूखा हूँ, सब मण्डूक समाप्त हो चुके हैं । इसलिये मुझे कुछ भोजन दो क्योंकि तुम ही मुझे यहाँ लाये हो । उसने कहा- मित्र ! मेरे रहते हुए इस विषय में तुम्हें कोई चिन्ता न करनी चाहिए । यदि तुम मुझे भेजो तो दूसरे कुओं में रहनेवाले मेढकों को विश्वास दिलाकर ( बहकाकर ) यहाँ ले आऊं । उसने कहा तुम
१८ पञ्चतन्त्रम् मेरे भाई· तुल्य हो, इसलिए तुम्हें मैं नहीं खा सकता और अगर ऐसा करो तो फिर पितृतुल्य हो जाओ, इसलिये ऐसा करो। वह भी अरहट के सहारे, अनेक देवी-देवताओं की पूजा और भेंट की मनौती मनाता हुआ उस कुएँ से निकला । प्रियदर्शन भी, अन्य कुओं में रहनेवाले मण्डूकों को खाने की इच्छा से वहीं रहकर उसकी ( गङ्गदत्त की ) प्रतीक्षा करने लगा । अनन्तर, बहुत काल वाद भी जब गङ्गदत्त न लौटा, तब उसने दूसरे बिल में रहनेवाली गोह से कहा- हे भद्रे ! थोड़ी सी सहायता करो । गङ्गदत्त से तुम्हारा चिरकाल का परिचय है, इसलिये किसी जलाशय (तालाब आदि) में उसे तलाश करके मेरा सन्देश उससे कहो – यदि अन्य मेढक नहीं आते तो तुम अकेले ही जल्दी चले आओ । मैं तुम्हारे बिना यहां नहीं रह सकता, और यदि तुम्हारे विरुद्ध मैं कोई कार्य करू’ तो मेरा पुण्य नष्ट हो जाय ( अपने दोनों के बीच मैं अपना पुण्य रखता हूँ, यह एक प्रकार की शपथ है ) । गोह भी उसके (प्रयदर्शन) कहने से गङ्ग- दत्त को शीघ्र ही तलाश करके उससे बोली- ‘भद्र गङ्गदत्त ! वह तुम्हारा मित्र प्रियदर्शन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, इसलिए जल्दी आमो । मोर तुम्हारे विरुद्धाचरण न करने के लिए उसने अपना धर्म बीच में रख दिया है, अतः निःशंक मन से आओ ।’ यह सुनकर गङ्गदत्त ने कहा- बुभुक्षितः किं न करोति पापं क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति । आख्याहि भद्रे ! प्रियदर्शनस्य न गङ्गदत्तः पुनरेति कूपम् ॥ ३२ ॥ ‘भूखा क्या पाप नहीं करता’ इत्यादि । ( अनुवाद कथारम्भ में देखिये ) एवमुक्त्वा स तां विसर्जयामास । ऐसा कहकर उसने उसको बिदा कर दिया । तद्भो दुष्टजलचर ! अहमपि गङ्गदत्त इव त्वद्गृहे न कथञ्चिदपि यास्यामि । तच्छ्रुत्वा मकर आह-भो मित्र ! नैतद्युज्यते । सर्वथैव मे कृतघ्नतादोषमपनय मद्गृहागमनेन । अथवाऽत्राह्मनशनात्प्राणत्यागं तवोपरि करिष्यामि ।’ वानर आह- ‘मूढ ! किमहं लम्बकर्णो मूर्खः । दृष्ट्वापायोऽपि स्वयमेव तत्र गत्वाऽत्मानं व्यापादयामि | हे दुष्ट जलचर ! गङ्गदत्त के समान में भी किसी प्रकार तुम्हारे घर नहीं जाऊँगा । यह सुन मकर ने कहा- मित्र ! यह बात ठीक नहीं है, मेरे घर चलकर मेरे ऊपर से कृतघ्नता का लाञ्छन मिटाओ ( यहाँ मकर का आशय यह है- मेरी बातों से तुमने मुझे कृतघ्न समझ लिया है, मैं उसे दूर
करत कुशल अन्य- कहा- कर परन्त थे अ तन्मे मरा च धूर . चित्तर यैः प कण्ठो पीडित करोमि मामव त्समीप पान्ते भूत्वा दृष्टोऽ कि क न प्रय लब्धप्रणाशसु १९ करना चाहता हूँ, परन्तु वह तभी सम्भव है जब तुम मेरे साथ चलो ओर कुशलपूर्वक लौट आओ, मकर फिर बन्दर को अपने कब्जे में लाना चाहता है) अन्यथा मैं यहीं तुम्हारे ऊपर निराहार रहकर प्राण त्याग दूँगा । वानर ने कहा- मूर्ख ! क्या मैं लम्बकणं गदहा हूँ, जो अपना नाश ( नाशसाधन ) देख- कर भी फिर वहीं जाकर महौं । ‘आगतश्च गतश्चेव दृष्ट्वा सिंहपराक्रमम् । अकर्णहृदयो मूर्खो यो गत्वा पुनरागतः ॥ ३३ ॥ ( सिंह के पास ) आया और सिंह का पराक्रम देखकर चला भी गया, परन्तु चूंकि वह मूर्ख कान और हृदय से रहित था ( न तो सुनने के लिये कान थे और न विचारने के लिए दिमाग ही था ) इसलिए वह मारा गया ॥ ३३ ॥ मकर आह - ‘भद्र ! स को लम्बकर्णः । कथं दृष्टापायोऽपि मृतः । तन्मे निवेद्यताम् । वानर आह । मकर ने कहा- ‘भद्र ! वह लम्बकर्ण कौन था ? नाश देखकर भी कैसे मरा ? यह सब मुझसे कहो ।’ वानर ने कहा- कथा ३ कस्मिश्चिद्वनोद्देशे करालकेसरो नाम सिंहः प्रतिवसति स्म । तस्य च धूसरको नाम शृगालः सदैवानुयायी परिचारकोऽस्ति । अथ कदा- चित्तस्य हस्तिना सह युध्यमानस्य शरीरे गुरुतराः प्रहाराः सञ्जाताः, यैः पदमेकमपि चलितुं न शक्नोति । तस्याचलनाच्च धूसरकः क्षुत्क्षाम- कण्ठो दौर्बल्यं गतः । अन्यस्मिन्नहनि तमवोचत् स्वामिन् ! बुभुक्षया पीडितोऽहम् । पदात्पदमपि चलितुं न शक्नोमि । तत्कथं ते शुश्रूषां करोमि ।’ सिंह आह - ‘भोः ! गच्छ । अन्वेषय किश्चित्सत्त्वम्, येने- मामवस्थां गतोऽपि व्यापादयामि ।’ तदाकर्ण्य शृगालोऽन्वेषयन्कञ्चि- त्समीपवर्तिनं ग्राममासादितवान् । तत्र लम्बकर्णो नाम गर्दभस्तडागो- पान्ते प्रविरलदूर्वांकुरान्कृच्छादास्वादयन्दृष्टः । ततश्च समीपवर्तिना भूत्वा तेनाभिहितः -माम ! नमस्कारोऽयं मदीयः सम्भाव्यताम् । चिराद् दृष्टोऽसि । तत्कथय किमेवं दुर्बलतां गतः ।’ स आह-भो भगिनीपुत्र ! किं कथयामि । रजकोऽति निर्दयाऽतिभारेण मां पीडयति । घासमुष्टिमपि न प्रयच्छति । केवलं दूर्वाद्धकुरा लिमिश्रितान्भक्षयामि by तक्कुतो मे २० पञ्चतन्त्रम् शरीरे पुष्टिः ।’ शृगाल आह- ‘माम ! यद्येवं तदस्ति मरकतसदृशशष्प- प्रायो नदीसनाथो रमणीयतरः प्रदेशः । तत्रागत्य मया सह सुभाषित- गोष्ठीमुखमनुभवस्तिष्ठ ।’ लम्बकर्ण आह- ‘भो भगिनीसुत ! युक्त- मुक्तं भवता । पर वयं ग्राम्याः पशवोऽरण्यचारिणां वध्याः । तत्किं तेन भव्यप्रदेशेन ।’ शृगाल आह-माम ! मैवं वद । मद्भुजपञ्जरपरिरक्षितः सः देशः । तत्रास्ति न कश्चिदपरस्य तत्र प्रवेशः । परममनेनैव दोषेण रजककदर्थितास्तत्र तिस्रो रासभ्योऽनाथा सन्ति । ताश्च पुष्टिमापन्ना यौवनोत्कटा इदं मामूचुः - ‘यदि त्वमस्माकं सत्यो मातुलस्तदा कश्चिद् ग्रामान्तरं गत्वाऽस्मद्योग्यं कश्चित्पतिमानय । तदर्थे त्वामहं तत्र नयामि ।’ अथ शृगालवचनानि श्रुत्वा कामपीडिताङ्गस्तमवोचत्- ‘भद्र ! यद्येवं तदग्रे भव, येनागच्छामि ।’ अथवा साध्विदमुच्यते
कथा इस प्रकार है— किसी वन में ( वनस्थान में ) करालकेशर नाम का सिंह रहता था । हमेशा साथ रहनेवाला घूसरक नाम का एक शृंगाल उसका सेवक था । एक समय हाथी के साथ युद्ध करते हुए उस (सिंह) के शरीर में बड़े-बड़े घाव हो गये, जिनके कारण वह एक पग भी नहीं चल सकता था; उसके न चलने से घूसरक भूख से पीड़ित हो कृश हो गया । एक दिन उसने सिंह से कहा- स्वामिन् ! मैं भूख से पीड़ित हूँ, एक पग भी नहीं चल सकता, आपकी सेवा कैसे करूँ । सिंह ने कहा-अच्छा जाओ, कोई पशु तलाश करो, जिससे इस दशा में भी उसे मारूं । यह सुनकर शृगाल तलाश करता हुआ पास के किसी ग्राम में पहुँचा। वहीं उसने देखा कि तालाब के किनारे पर लम्बकर्ण नाम का गदहा छोदी छोदी दूब के अंकुर बड़ी कठिनता से खा रहा है । तब उसके पास जाकर उसने कहा-मामा ! मेरा यह नमस्कार ग्रहण कीजिये, चिरकाल के बाद दिखाई पड़े हो, कहो, इतने दुर्बल क्यों हो ? उसने कहा - हे भानजे ! क्या कहूँ, धोबी बड़ा निर्दयी है, वह मुझे बोझा (लादकर)- बड़ा कष्ट देता है परन्तु ( खाने को ) मुट्ठी भर घास भी नहीं देता, केवल धूल में मिले हुए दूब के अङ्कर खाता हूँ। फिर मेरे शरीर में शक्ति कहाँ से आये । शृगाल ने कहा-मामा ! अगर यह बात है तो, मरकत मणि के समान हरी हरी घास से भरा हुआ नदी के पास एक सुन्दर स्थान है, वहाँ आकर मेरे साथ उत्तम उत्तम विषयों पर वार्तालाप का सुख भोगते हुए रहो । लम्ब- कर्ण ने कहा हेमान Var आपने ठीक कहDigiतु हम ग्राम के रहने वाले प व न धों के हो मैं त से पि अ तर तर व्य ‘भ त ल आ अ क्र न तः ण ना बद् का चका र में था; उसने कता, करो, हुआ रे पर रहा ग्रहण उसने दकर) केवल कहाँ से समान आकर लम्ब- नेवाले लब्धप्रणाशस् २१ इसलिये उस सुन्दर स्थान से कहो, ( यह बात नहीं है ) पशु, जङ्गली जानवरों के शिकार हुआ करते हैं, क्या लाभ ! शृगाल बोला-मामा | ऐसा मत वह स्थान मेरी भुजा रूपी पिंजरे से सुरक्षित है, वहां किसी भी शत्रु का प्रवेश नहीं हो सकता । लेकिन इसी दोष के कारण ( पर्याप्त भोजन न मिलने से ) धोबी से सताई हुई तीन गर्दमियाँ वहाँ हैं, जिनका कोई स्वामी ( पति ) नहीं है । अत्यन्त पुष्ट हुई उन्होंने योवनोन्मत्त हो मुझसे कहा - यदि तुम, सचमुच ही हमारे मामा हो तो किसी ग्राम में जाकर हमारे योग्य पति लामो, उन्हीं के लिये मैं तुम्हें वहां ले जा रहा हूँ । तब श्रृंगाल के वचन सुनकर कामातुर होकर उसने शृगाल से कहा- ‘भद्र ! यदि यह बात है तो मागे होओ, जिससे मैं चलूं ।’ यह ठीक ही कहा है- नामृतं न विषं किञ्चिदेकां मुक्त्वा नितम्बिनीम् । यस्याः सङ्गेन जीव्येत म्रियते च वियोगतः ।। ३४ ।। एक सुन्दरी को छोड़कर दूसरी कोई अमृत या विष नाम की वस्तु नहीं है, जिसके संसर्ग से मनुष्य जीता और जिसके वियोग से मर जाता है ।। ३४ ।। तथा च-यासां नाम्नापि कामः स्यात्सङ्गमं दर्शनं विना । तासां दृक्सङ्गमं प्राप्य यन्न द्रवति कौतुकम् ॥ ३५ ॥ जिन प्रमदाओं के संसर्ग और दर्शन के बिना भी केवल उनके नाम मात्र से ही काम ( भोगेच्छा ) उत्पन्न होता है, उनकी दृष्टि में पड़कर मनुष्य न पिघले ( कामपीड़ित न हो ) यही आश्चर्य की बात है । सभी लोग उनके अधीन हो जाते हैं ।। ३५ ।। तथानुष्ठिते शृगालेन सह सिंहान्तिकमागतः । सिंहोऽपि व्यथाकुलि- तस्तं दृष्ट्वा यावत्समुत्तिष्ठति, तावद्रासभः पलायितुमारब्धवान् । अथ तस्य पलायमानस्य सिंहेन तलप्रहारो दत्तः । स च मन्दभाग्यस्य व्यवसाय इव व्यर्थतां गतः । अत्रान्तरे शृगालः कोपाविष्टस्तमुवाच- ‘भोः ! किमेवंविधः प्रहारस्ते । यद् गर्दभोऽपि तव पुरतो बलाद् गच्छति । तत्कथं गजेन सह युद्धं करिष्यसि ? तद् दृष्टं ते बलम् ।’ अथ सवि- लक्षस्मितं सिंह आह - ‘भोः ! किमहं करोमि । मया न क्रमः सज्जीकृत आसीत् । अन्यथा गजोऽपि मत्क्रमाक्रान्ता न गच्छति ।’ शृगाल आह - ‘अद्याप्येकवारं तवान्तिके तमानेष्यामि । परं त्वया सज्जीकृत- क्रमेण स्थातव्यम् ।’ सिंह आह- ‘भद्र ! यो मां प्रत्यक्षं दृष्ट्वा गतः स 1 ‘CC-D. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by Gangotri २२ आह- पञ्चतन्त्रम् पुनः कथमत्रागमिष्यति । तदन्यत्किमपि सत्त्वमन्विष्यताम् ।’ शृगाल आह - ‘किं तवानेन व्यापारेण । त्वं केवलं सज्जितक्रमस्तिष्ठ ।’ तथा- नुष्ठिते शृगालोऽपि यावद्रासभमार्गेण गच्छति, तावत्तत्रैव स्थाने चरन्दृष्टः । अथ शृगाल दृष्ट्वा रासभः प्राह- ‘भो भगिनीसुत ! शोभन- स्थाने त्वयाहं नीतः । द्राङ्मृत्युवशं गतः । तत्कथय किं तत्सत्त्वम्, यस्यातिरौद्रवज्रसदृशक रप्रहारादहं मुक्तः । तत्छू त्वा प्रहसञ्शृगाल - ‘भद्र ! रासभी त्वामायान्तं दृष्ट्वा सानुरागमालिङ्गितुं समुत्थि- ता । त्वं च कातरत्वान्नष्ट: । सा पुनर्न शक्ता त्वां विना स्थातुम् । तया तु नश्यतस्तेऽवलम्बनार्थं हस्तः क्षिप्तः । नान्यकारणेन । तदागच्छ । सा त्वत्कृते प्रायोपवेशनोपविष्टा तिष्ठति । एतद्वदति - ‘यल्लम्बकर्णो यदि मे भर्ता न भवति तदहमग्नौ जलं वा प्रविशामि । पुनस्तस्य वियोगं सोढुं न शक्नोमि’ इति । तत्प्रसादं कृत्वा तत्रागम्यताम् | नो चेत्तव स्त्रीहत्या भविष्यति । अपरं भगवान्कामकोपं तवोपरि करिष्यति । उक्तं च- वैसा करने पर वह, शृगाल के साथ सिंह के पास पहुँचा । व्यथा से पीड़ित सिंह, उसे देखकर ज्योंही उठने की कोशिश करने लगा, त्योंही गदहा भागा । भागते हुए गदहे के ऊपर सिंह ने पजा मारा । परन्तु वह देवहीन पुरुष के पुरुषार्थ के समान निष्फल गया । तब शृगाल क्रुद्ध होकर उससे कहने लगा- तेरे पजे की चोट कैसी है ? जो गदहा भी तेरे सामने से जबर्दस्ती निकल जाता है, हाथी के साथ तू कैसे युद्ध करेगा ? तेरी शक्ति देख ली । तब सिंह । ने कुछ लज्जित हो कहा- मैं क्या करूँ, मैं आक्रमण करने के लिये तैयार न या, अन्यथा मेरे आक्रमण से हाथी भी नहीं निकल सकता । श्रृंगाल ने कहा- अब भी एक बार मैं उसे तेरे पास लाऊंगा, परन्तु तू आक्रमण के लिये तैयार होकर बैठना | सिंह बोला भद्र | जो मुझे प्रत्यक्ष देखकर गया है, वह फिर यहाँ कैसे आयेगा । इसलिए ओर कोई जानवर तलाश करो । शृगाल ने कहा- ‘तुम्हें इस बात से क्या मतलब | तुम केवल तैयार रहो ।’ तब श्रृंगाल गदहे के पीछे-पीछे ( गदहे के रास्ते से ) गया मीर उसने उसी स्थान पर ( तालाब के किनारे ) उसे चरते हुए देखा । श्रृंगाल को देखकर गदहा कहने लगा- बाह भानजे ! अच्छी जगह तुम मुझे ले गये, मैं मृत्यु के मुँह में पड़ ही गया था, कहो वह कौन जानवर है, जिसके अति भयंकर वज्रतुल्य चपेटाघात से बचकर आया हूँ। यह सुनकर श्रृंगाल ने हँसते हुए कहा-भद्र ! तुझे आता TT से ना 1 लब्धप्रणाशमु २३ हुआ देखकर, कामपीड़ित गर्दभी तेरा बालिङ्गन करने के लिए उठी थी । तू तो कायर होने से भाग आया, परन्तु वह तेरे बिना नहीं रह सकती । उसने भागते हुए तुझे पकड़ने के लिये हाथ चलाया था, किसी अन्य कारण से नहीं, माओ चलो, वह तेरे लिये अनशन व्रत किये वैठी है । वह कहती है यदि लम्ब- कर्ण मेरा पति न होगा तो मैं, अग्नि या जल में प्रवेश करूँगी अथवा विष खा लूँगी परन्तु उसका वियोग नहीं सह सकती। इसलिए कृपाकर वहीं चलो, नहीं तो तुम्हें स्त्रीहत्या का पाप लगेगा और भगवान् कामदेव भी तुम्हारे ऊपर क्रोध करेंगे । कहा भी है- ‘स्त्रीमुद्रां मकरध्वजस्य जयिनीं सर्वार्ध सम्पत्करीं. ते मूढाः प्रविहाय यान्ति कुधियो मिथ्याफलान्वेषिणः । ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं नग्नीकृता मुण्डिताः केचिद्रक्तपटीकृताश्च जटिलाः कापालिकाश्चापरे’ ॥ ३६ ॥ जो मूर्ख अविवेकी पुरुष ( तीनों लोक की ) विजेत्री, सब प्रकार के सुख और ऐश्वर्य देनेवाली, कामदेव की स्त्रीरूपी मुद्रा ( ध्वजा ) को छोड़कर अन्य नीरस स्वर्गादि की तलाश में घूमा करते हैं, भगवान् कामदेव ने उन पर निर्दयता से प्रहार करके उनमें से किन्हीं को नंगे और मुण्डे सिरवाले बना दिया, किन्हीं को लाल वस्त्रधारी बनाया, किन्हीं को जटाधारी और अन्यों को कपालधारी बना दिया है ।। ३६ । अथासौ तद्वचनं श्रद्धेयतया श्रुत्वा भूयोऽपि तेन सह प्रस्थितः । अथवा साध्विदमुच्यते- तब वह ( गदहा) उसकी बात श्रद्धापूर्वक सुनकर फिर उसके साथ चल दिया । अथवा यह ठीक ही कहा है- जानन्नपि नरो दैवात्प्रकरोति विगर्हितम् । कर्म कि कस्यचिल्लोके गर्हितं रोचते कथम् || ३७ ॥ मनुष्य सब कुछ जानता हुआ भो जो निन्दित कर्म करने में प्रवृत्त होता है, उसका एकमात्र कारण देव ( होनहार ) ही है । ( ऐसा न हो तो ) संसार में क्या कोई भी निन्दित कर्म किसी को अच्छा लगे ? कभी नहीं ॥ ३७ ॥ अत्रान्तरे सज्जितक्रमेण सिंहेन स लम्बकर्णो व्यापादितः । ततस्तं हत्वा शृगालं रक्षकं निरूप्य स्वयं स्नानार्थं नद्यां गतः । शृगालेनापि लौल्योत्सुक्यात्तस्य कर्णहृदयं भक्षितम् । अत्रान्तरे सिंहो यावत्स्नात्वा
२४ पञ्चतन्त्रम्
कृते देवार्चनः प्रतर्पित पितृगणः समायाति तावत्कर्णहृदयरहितो रास- भस्तिष्ठति । तं दृष्ट्वा कोपपरीतात्मा सिंहः शृगालमाह – ‘पाप ! किमिदमनुचितं कर्म समाचरितम् । यत्कर्णहृदयभक्षणेनायमुच्छिष्टतां नीतः । ’ शृगालः सविनयमाह - ‘स्वामिन् ! मा मैवं वद । यत्कर्णहृदय- रहितोऽयं रासभ आसीत्, तेनेहागत्य त्वामवलोक्य भूयोऽप्यागतः ।’ अथ तद्वचनं श्रद्धेयं मत्वा सिंहस्तेनैव सह संविभज्य निःशङ्कितमनास्तं भक्षितवान् । अतोऽहं ब्रवीमि - ‘आगतश्च गतश्चैव’ इति ( दे० पृ० १९ ) । तन्मूर्ख ! ‘कपटं कृतं त्वया । परं युधिष्ठिरेणेव सत्यवचनेन विनाशितम् । अथवा साध्विदमुच्यते- तब, आक्रमण के लिए पूर्व से ही उद्यत सिंह ने उस लम्बकर्ण को मार डाला । उसे मारकर शृगाल को रक्षक नियुक्त कर स्वयं स्नान करने के लिये नदी मे गया। इधर, श्रृंगाल ने चपलता के कारण लालसा (इच्छा) वश उसके कान और हृदय खा लिये। जब सिंह स्नान करके देवपूजा से निवृत्त हो पितरों को तृप्त करके (लोटकर ) आया, तब तक गदहा कणं और हृदय से खाली हो चुका था । यह देखकर सिंह ने क्रुद्ध हो श्रृंगाल से कहा- अरे पापी ! तूने यह क्या अनुचित काम किया कि इसके कान और हृदय खाकर इसे उच्छिष्ट ( जूठा ) कर दिया। शृगाल ने नम्रता से कहा-प्रभो ! यह न कहिये, क्योंकि यह कान और हृदय से रहित ही था, इसीलिए तो यहाँ आकर तुम्हें देखे जाने पर भी फिर यहाँ आ गया (अगर इसके कान होते तो सिंह की गर्जना सुनकर भी यहाँ कैसे आता ? और यदि हृदय होता तो एक बार तल-प्रहार का अनुभव करके भी उसे क्यों भूल जाता ) उसकी बात का विश्वास करके, सिंह ने उसके साथ बाँट कर निःशङ्कचित्त हो उसे खाया । इसलिये मैं कहता हूँ ‘आगतश्च गतवचैव’ इत्यादि ( दे० पृ० १९ ) । मूर्ख ! तूने कपट तो किया था परन्तु युधिष्ठिर के समान सच बोलकर उसे नष्ट कर दिया । अथवा ठीक ही कहा है- स्वार्थमुत्सृज्य यो दम्भी सत्यं ब्रूते सुमन्दधीः । स स्वार्थाद् भ्रश्यते नूनं युधिष्ठिर इवापरः’ ॥ ३८ ॥ जो कपटी मनुष्य, अपना स्वार्थं छोड़कर ( भुला कर ) सच बोलता है, वह महामूर्ख है ( क्योंकि ) वह दूसरे युधिष्ठिर के समान, निश्चय ही अपने स्वार्थ से भ्रष्ट हो जाता है, अपना काम नष्ट कर लेता है ।। ३८ ।। मकर आह- ‘कथमेतत् ।’ स आह- मगर ने कहा- यह कैसे ? वह कहने लगा ।
लब्धप्रणाशम् कथा ४ २५ कस्मिश्चिदधिष्ठाने कुम्भकारः प्रतिवसति स्म । स कदाचित्प्रमादा- दर्धभग्नखर्परतीक्ष्णाग्रस्योपरि महता वेगेन धावन्पतितः । ततः खर्पर- कोट्या पाटितललाटो रुधिरप्लाविततनुः कृच्छ्रादुत्थाय स्वाश्रयं गतः । ततश्चापथ्यसेवनात्स प्रहारस्तस्य करालतां गतः कृच्छ्रेण नीरोगतां नीतः । अथ कदाचिद् दुर्भिक्षपीडिते देशे च कुम्भकारः क्षुत्क्षामकण्ठः कैश्चिद्राजसेवकैः सह देशान्तरं गत्वा कस्यापि राज्ञ सेवको बभूव । सोऽपि राजा तस्य ललाटे विकरालं प्रहारक्षत दृष्ट्वा चिन्तयामास - ‘यद्वीरः पुरुषः कश्चिदयम् । नूनं तेन ललाटपट्टे सम्मुख प्रहारः ।’ अतस्तं समानादिभिः सर्वेषां राजपुत्राणां मध्ये विशेषप्रसादेन पश्यति स्म । तेऽपि राजपुत्रास्तस्य तं प्रसादातिरेकं पश्यन्तं परमेर्ष्याधर्मं वहन्तो राजभयान्न किञ्चिदूचुः । किसी स्थान में कुम्भकार रहा करता था। एक समय वह, नशे में चूर होकर, वेग से दौड़ता हुआ, आधे टूटे हुए घड़े के नोकीले खप्पर पर गिर पड़ा । खप्पर की नोक से उसका मस्तक फट गया और उसका सारा शरीर रुधिर से तर हो गया । तब बड़ी कठिनता से उठकर घर पहुँचा । अपथ्य सेवन करने के कारण उसका वह घाव बहुत बढ़ गया और बड़ी कठिनता से आराम हुआ । अनन्तर एक समय देश में अकाल पड़ने के कारण वह कुम्भकार भूख से पीड़ित हो किन्हीं राजसेवकों के साथ दूसरे देश में जाकर किसी राजा का सेवक हो गया। उसके मस्तक पर भीषण चोट का ( घाव ) निशान देख कर राजा ने सोचा- यह कोई वीर पुरुष है, इसलिये सम्भव है सामने युद्ध करते हुए इसके मस्तक पर यह प्रहार लगा। अत एव वह राजा सब राजपूतों की अपेक्षा सम्मान आदि के द्वारा उस पर विशेष कृपादृष्टि रखता था । वे राजपूत लोग राजा की इस विशेष कृपा को देखते हुए और मन में ईर्ष्या ( डाह ) रखते हुए भी राजा के भय से कुछ कह नहीं पाते थे । अथान्यस्मिन्नहनि तस्य भूपतेर्वीरसम्भावनायां क्रियमाणायां विग्रहे समुपस्थिते प्रकल्प्यमानेषु गजेषु संनह्यमानेषु वाजिषु योधेषु । प्रगुणी- क्रियमाणेषु तेन भूभुजा स कुम्भकारः प्रस्तावानुगतं पृष्टो निर्जने भो राजपुत्र ! कि ते नाम । का च जातिः । कस्मिन्संग्राम प्रहारोऽयं ते kshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri २६ पञ्चतन्त्रम् ललाटे लग्नः । स आह- ‘देव ! नायं शस्त्रप्रहारः । युधिष्ठिराभिधः कुलालोऽहं प्रकृत्या । मद्गेहेऽनेकखर्पराण्यासन् । अथ कदाचिन्मद्यपानं कृत्वा निर्गतः प्रधावन्खर्परोपरि पतितः । तस्य प्रहारविकारोऽयं मे ललाटे एवं विकरालतां गतः ।’ तदाकर्ण्य राजा सव्रीडमाह – ‘अहो ! वश्वितोऽहं राजापुत्रानुकारिणानेन कुलालेन । तद्दीयतां द्रागेतस्य चन्द्रार्धः ।’ तथानुष्ठिते कुम्भकार आह- ‘मां मैवं कुरु । पश्य मे रणे हस्तलाघवम् ! राजा प्राह- ‘भोः ! सर्वगुणसम्पन्नो भवान् । तथापि गम्यताम् उक्तं च- अनन्तर एक दिन, युद्ध उपस्थित होने पर जब कि वीरों का दान मानादि द्वारा सत्कार किया जा रहा था, घोड़ों पर काठी आदि कसी जा रही थी, योधाओं को कवायद आदि कराकर युद्ध के लिए तैयार किया जा रहा था, उस समय समयानुसार राजा ने उस कुलाल से एकान्त में पूछा — हे राजपूत ! तुम्हारा क्या नाम है ? तुम्हारी जाति क्या है ? और किस युद्ध में तुमको यह घाव लगा है ? उसने कहा हे राजन् ! यह शस्त्र का घाव नहीं है । मैं युधिष्ठिर नाम का जाति का एक कुम्हार हूँ । मेरे घर अनेक खपड़े थे । एक दिन मद्य पीकर दौड़ता हुआ घर से निकला और खपड़े पर गिर पड़ा। उसी की यह चोट ऐसी भीषण हो गई है । यह सुनकर राजा ने लज्जित हो कहा- राजपूतों का अनुकरण ( वेषभूषादि से) करनेवाले इस कुलाल ने मुझे बड़ा धोखा दिया । इसलिये इसे शीघ्र गलहस्ती देकर ( गले में हाथ डालकर ) निकाल दो। ऐसा करते समय कुम्भकार ने कहा- ऐसा मत कीजिये, में मेरे हाथ की सफाई (फुर्ती) देखिये । राजा ने कहा- आप सर्वगुणसम्पन्न हैं, तो भी जाइये। कहा भी है- शूरश्च कृतविद्यश्व दर्शनीयोऽसि पुत्रक ! । यस्मिन्कुले त्वमुत्पन्नो गजस्तत्र न हन्यते ॥ ३९ ॥ युद्ध हे पुत्र ! तुम शूरवीर और शिक्षित भी हो, परन्तु जिस वंश में तुम उत्पन्न हुए हो, उसमें हाथी नहीं मारे जाते ।। ३९ ।। कुलाल आह- ‘कथमेतत् ।’ राजा कथयति - कुलाल ने कहा- यह कैसे (यह कहानी किस प्रकार है ?) राजा ने कहा- कथा ५ कस्मिश्चिदुद्देशे सिंहृदम्पती प्रतिवसतः स्म । अथ सिंही पुत्रद्वयम-
लब्धप्रणाशम् २७ जीजनत् । सिंहोऽपि नित्यमेव मृगान् व्यापाद्य सिंह्यं ददाति । अथान्य- स्मिन्नहनि तेन किमपि नासादितम् । येन भ्रमतोऽपि तस्य रविरस्तं गतः । अथ तेन स्वगृहमा गच्छता शृगाल शिशुः प्राप्तः । स च बालकोऽय- मित्यवधार्य यत्नेन दंष्ट्रामध्यगत कृत्वा सिंह्या जीवन्तमेव समर्पित- वान् । ततः सिंह्याऽभिहितम् - ‘भोः कान्त ! त्वयानीतं किश्विदस्माकं भोजनम् ।’ सिंह आह - ‘प्रिये ! मयाद्यैनं शृगालशिशुं परित्यज्य न किञ्चित्सत्त्वमासादितम् । स च मया बालोऽयमिति मत्त्वा न व्यापा- दितो विशेषात्स्वजातीयश्च । उक्तं च-
किसी स्थान में सिंह और सिही रहते थे । एक समय, सिही ने दो पुत्र जने । तब सिंह, प्रतिदिन पशुओं को मारकर सिंही को दिया करता था । एक दिन उसे कुछ भी नहीं मिला। वन में घूमते हुए सूर्य भी अस्त हो गया । घर को लौटते हुए उसे गीदड़ का बच्चा मिला, परन्तु उसने उसे बालक समझकर बड़े यत्न से दोनों दाढ़ों के बीच रखकर जिन्दा ही सिही को सौंप दिया । तब सिंही ने कहा- स्वामिन् ! हमारे लिये कुछ भोजन लाये । सिंह ने कहा- प्रिये ! आज इस मृगाल शिशु के अतिरिक्त मुझे कोई जानवर नहीं मिला । उसे भी मैंने बालक समझकर नहीं मारा। कहा भी है- स्त्रीविप्रलिङ्गिबालेषु प्रहर्तव्यं न कर्हिचित् । प्राणत्यागेऽपि सञ्जाते विश्वस्तेषु विशेषतः ।। ४० ।। जीवन के सन्देह में पड़ने पर भी स्त्री, ब्राह्मण, संन्यासी तथा बालक और विशेषकर अपना विश्वास करनेवालों पर कभी भी प्रहार न करना चाहिये । इदानीं त्वमेनं भक्षयित्वा पथ्यं कुरु । प्रभातेऽन्यत्किञ्चिदुपार्जयि- ष्यामि । सा प्राह - ‘भोः कान्त ! त्वया बालकोऽयम् इति विचिन्त्य न हतः । तत्कथमेनमहं स्वोदरार्थे विनाशयामि उक्तं च- इस समय तो तुम इसे खाकर पथ्य करो । प्रातः काल और कुछ लाऊंगा । उसने कहा हे नाथ ! जब तुमने इसे बालक समझकर नहीं मारा तो मैं अपने पेट के लिए क्यों माखें । कहा भी है- अकृत्यं नैव कर्त्तव्यं प्राणत्यागेऽपि संस्थिते । न च कृत्यं परित्याज्यमेष धर्मः सनातनः ॥ ४१ ॥ प्राणों का संशय उपस्थित होने पर भी, अनुचित कर्म नहीं करना चाहिये और न उचित कर्म छोड़ना चाहिये । यही सनातन धर्म है ।। ४१ ।।
२८ पश्वतन्त्रस तस्मान्ममायं तृतीयः पुत्रो भविष्यति । इत्येवमुक्त्वा तमपि स्वस्त- नक्षीरेण परां पुष्टिमनयत् । एवं ते त्रयोऽपि शिशवः परस्परमज्ञातजा- तिविशेषा एकाचारविहारा बाल्यसमयं निर्वाहयन्ति । अथ कदाचित्तत्र वने भ्रमन्नरण्यगजः समायातः । तं दृष्ट्वा तो सिंहसुतौ द्वावपि कुपिता- ननौ तं प्रति प्रचलितौ यावत् तावत्तेन शृगालसुतेनाभिहितम् - ‘अहो ! गजोऽयं युष्मत्कुलशत्रुः । तन्न गन्तव्यमेतस्याभिमुखम् । एवमुक्त्वा गृहं प्रधावितः । तावपि ज्येष्ठबान्धवभङ्गान्निरुत्साहतां गतौ । अथवा साध्विदमुच्यते- इसलिए, यह मेरा तीसरा पुत्र हो जायगा । यह कहकर उसे भी वह अपने दूध से पालने लगी ( पुष्ट करने लगी ) । इस प्रकार वे तीनों बच्चे, एक दूसरे की जाति को न जानते हुए, साथ-साथ खेलते कुदते समय बिताने लगे । एक समय, उस वन में घूमता हुआ जङ्गली हाथी आया । उसे देखकर, वे दोनों सिंह के बच्चे क्रुद्ध होकर जब उस पर आक्रमण करने के लिए उद्यत हुए, तब श्रृंगालपुत्र ने कहा- यह हाथी है, जो कि तुम्हारे कुल का शत्रु है । यह कहकर घर को भाग गया। वे दोनों भी बड़े भाई के भयभीत हो जाने से उत्साहहीन हो गये । किसी ने ठीक ही कहा है- एकेनापि सुधीरेण सोत्साहेन रणं प्रति । सोत्साहं जायते सैन्यं भग्ने भङ्गमवाप्नुयात् ॥ ४२ ॥ ( सेना में ) एक भी पुरुष के घर्यशाली और उत्साही होने पर सारी सेना युद्ध में उत्साहित हो जाती है और ( एक भी पुरुष के ) निरुत्साहित होने पर उत्साहहीन हो जाती है ॥ ४२ ॥ तथा च-अत एव हि वाञ्छन्ति भूपा योधान्महाबलान् । शूरान्वीरान्कृतोत्साहान्वर्जयन्ति च कातरान् ॥ ४३ ॥ इसीलिए राजा लोग बलवान्, वीर, स्थिरबुद्धि और उत्साही योधाओं को चाहते हैं तथा भीठ सिपाहियों का परित्याग कर देते हैं ॥ ४३ ॥ अथ तौ द्वावपि गृहं प्राप्य पित्रोरग्रतो ज्येष्ठ भ्रातृचेष्टितमूचतुः । यथा गजं दृष्ट्वा दूरतोऽपि नष्टः । सोऽपि तदाकर्ण्य कोपाविष्टमनाः प्रस्फुरिताधरपल्लवस्ताम्रलोचनस्त्रिशिखां भृकुटिं कृत्वा तौ निर्भ- संयन्परुषतरवचनान्युवाच । ततः सिंह्यं कान्ते नीत्वा प्रबोधितोऽसौ- ‘वत्स ! मैवं कदाचिज्जल्प । भवदीयलघुभ्रातरावेतौ ।’ अथासौ प्रभूतको-
लब्धप्रणाशम् २९ पाविष्टस्तामुवाच - ‘किमहमेताभ्यां शौर्येण रूपेण विद्याभ्यासेन कौश- लेन वा हीनः येन मामुपहसनः । तन्मयावश्यमेतौ व्यापादनीयौ ।’ तदा- कर्ण्य सिंही तस्य जीवितमिच्छन्त्यन्तविहस्य प्राह- की तब वे दोनों (सिहपुत्र ) घर जाकर माता-पिता के सामने अपने बड़े भाई करतूत पर हँसते हुए कहने लगे - यह हाथी को देखकर दूर से ही भाग गया । वह भी, यह सुन अत्यन्त क्रुद्ध हुआ तथा उसके ओष्ठ फड़कने लगे, आँखें लाल हो गई, वह भौं तानकर उनको धमकाते हुए कठोर वचन कहने लगा । तब सिंही ने, एकान्त में, उसे ले जाकर समझाया-वत्स ! ऐसा मत कहो, यह तुम्हारे छोटे भाई हैं । इस पर वह और अधिक क्रोध से भरकर उससे बोला- शूरता, रूप, विद्याभ्यास और चतुराई में क्या इनसे में कम हूँ, जो ये मेरा उपहास करते हैं । इसलिये, मैं अवश्य ही उन्हें मारूंगा । यह सुन- कर उसका जीवन चाहती हुई सिंही मुस्कराकर कहने लगी । शूरा कृत- विद्यश्च’ इत्यादि । ( दे० श्लोक ३९ ) । 1 ‘तत्सम्यक्श्शृणु । वत्स ! त्वं शृगालीसुतः, कृपया मया स्वस्तनक्षीरेण पुष्टि नीतः । तद्यावदेतो मत्पुत्री शिशुत्वात्त्वां शृगालं न जानीतः, तावद् द्रुततरं गत्वा स्वजातीयानां मध्ये भव । नो चेदाभ्यां हतो मृत्यु- पथं समेष्यसि । सोऽपि तद्वचनं श्रुत्वा भयव्याकुलमनाः शनैः शनैर- पसृत्य स्वजात्या मिलितः । तस्मात्त्वमपि यावदेते राजपुत्रास्त्वां कुलालं न जानन्ति, तावद् द्रुततरमपसर । नो चेदेतेषां सकाशाद्विडम्बनां प्राप्य मरिष्यसि ।’ कुलालोऽपि तदाकर्ण्य सत्वर प्रनष्टः । अतोऽहं ब्रवीमि ‘स्वार्थमुत्सृज्य यो दम्भी’ ( दे० श्लो० ३८ ) इति । इसलिये ध्यान देकर सुन, है वत्स ! तू शृगालपुत्र है, दूध पिलाकर तुझे पाला है, अत एव जब तक ये लोग तुझे पूर्व ही तू भागकर अपनी जाति में मिल जा । नहीं तो
मैंने कृपाकर अपना गाल न जानें, उससे इनसे मारा जाकर तुरन्त भाग गया । मृत्यु को प्राप्त होगा। वह भी सुनकर भयभीत हो इसलिये तुम भी, जब तक ये राजपूत तुम्हें कुलाल न जानें, तब तक शीघ्र चले जाबो, नहीं तो इनके द्वारा तिरस्कार पाओगे । कुलाल भी यह सुनकर तुरन्त भाग गया । इसलिये मैं कहता हूँ ‘स्वार्थमुत्सृज्य यो दम्भी’ इत्यादि (दे० श्लोक ३८ ) ।
३० पञ्चतन्त्रम् धिङ्मूर्ख ! यत्त्वया स्त्रियोऽर्थं एतत्कार्यं मनुष्ठातुमारब्धम् । न हि स्त्रीणां कथञ्चिद्वश्वासमुपगच्छेत् । उक्तं च– अरे मूर्ख ! तुझे धिक्कार हैं, क्योंकि तूने स्त्री के लिये यह कार्य आरम्भ किया है । स्त्रियों का कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए। कहा भी है- यदर्थे स्वकुलं त्यक्तं जीवितार्धं च हारितम् । सा मां त्यजति निःस्नेहा कः स्त्रीणां विश्वसेन्नरः ’ ॥ ४४ ॥ जिसके लिए मैंने अपना कुल त्यागकर जीवन का आधा हिस्सा दे दिया, वह स्नेहविमुख होकर मुझे त्याग रही है। तब कौन मनुष्य स्त्रियों का विश्वास करेगा ॥ ४४ ॥ मकर आह- ‘कथमेतत् ।’ वानर आह- मकर ने कहा- यह कैसे ? वानर ने कहा- कथा ६ 1 अस्ति कस्मिंश्चिदधिष्ठाने कोऽपि ब्राह्मणः । तस्य च भार्या प्राणे- भ्योऽप्यतिप्रियासीत् । सोऽपि प्रतिदिनं कुटुम्बेन सह कलहं कुर्वाणा न विश्राम्यति । सोऽपि ब्राह्मणः कलमसहमानो भार्यावात्सल्यात्स्वकुटुम्बं परित्यज्य ब्राह्मण्या सह विप्रकृष्टं देशान्तरं गतः । अथ महाटवीमध्ये ब्राह्मण्याभिहित: - आर्यपुत्र ! तृष्णा मां बाधते । तदुदकं क्वाप्यन्वेषय ।’ अथासौ तद्वचनानन्तरं यावदुदकं गृहीत्वा समागच्छति तावत्तां मृताम- पश्यत् । अतिवल्लभतया विषादं कुर्वन्यावद्विलपति तावदाकाशे वाचं शृणोति । यथा हि-यदि ब्राह्मण ! त्वं स्वकीयजीवितस्यार्धं ददासि ततस्ते जीवति ब्राह्मणी ।’ तच्छ्र ुत्वा ब्राह्मणेन शुचीभूय तिसृभिर्वाचाभिः स्वजीवितार्धं दत्तम् । वाक्सममेव च ब्राह्मणी जीविता सा । अथ तौ जलं पीत्वा बनफलानि भक्षयित्वा गन्तुमारब्धौ । ततः क्रमेण कस्यचिन्न • गरस्य प्रदेशे पुष्पवाटिकां प्रविश्य ब्राह्मणो भार्यामभिहितवान् - ‘भद्रे ! यावदहं भोजनं गृहीत्वा समागच्छामि तावदत्र त्वया स्थातव्यम् ।’ इत्य- भिधाय ब्राह्मणो नगरमध्ये जगाम । अथ तस्यां पुष्पवाटिकायां पङ्गुर- रघट्ट खेलयन्दिव्यगिरा गीतमुद्गिरति । तच्च श्रुत्वा कुसुमेषुणार्दिता ब्राह्मण्या तत्सकाशं गत्वाऽभिहितम् -‘भद्र ! यहि मां न कामयसे, तन्मत्सक्ता स्त्रीहत्या तव भविष्यति ।’ पङ्गुरब्रवीत् किं व्याधिग्रस्तेन-
लग्धप्रणाशम् ३१ मया करिष्यसि ।’ साऽन्नवीत् - ’ किमनेनोक्तेन । अवश्यं त्वया सह मया सङ्गमः कर्तव्यः । तच्छ्र ुत्वा तथा कृतवान् । सुरतानन्तरं साऽब्रवीत् - ‘इतः प्रभृति यावज्जीवं मयात्मा भवते दत्तः । इति ज्ञात्वा भवानप्य- स्माभिः सहागच्छतु ।’ सोऽब्रवीत् - ‘एवमस्तु’ । अथ ब्राह्मणो भोजनं गृहीत्वा समागत्य तया सह भोक्तुमारब्धः साऽब्रवीत् - ‘एष पङ्गुर्बुर्भु- क्षितः । तदेतस्यापि कियन्तमपि ग्रासं देहि’ इति । तथानुष्ठिते ब्राह्मण्या- भिहितम् - ‘ब्राह्मण ! सहाय हीनस्त्वं यदा ग्रामान्तरं गच्छसि, तदा मम वचनसहायोऽपि नास्ति । तदेनं पङ्गं गृहीत्वा गच्छावः ।’ सोऽब्रवीद- ‘न शक्नोम्यात्मानमप्यात्मनां वोढुम् । किं पुनरेनं पगुम् । साऽब्रवीत्- ‘पेटाभ्यन्तरस्थमेनमहं नेष्यामि ।’ अथ तत्कृतकवचनव्यामोहितचित्तेन तेन प्रतिपन्नम् । तथानुष्ठितेऽन्यस्मिन्दिने कूपोपकण्ठे विश्रान्तो ब्राह्मण- स्तया च पङ्गुपुरुषासक्तया सम्प्रेर्य कूपान्तः पातितः । सापि पगु गृहीत्वा कस्मिश्चिन्नगरे प्रविष्टा । तत्र शुल्कचौर्यरक्षानिमित्तं राजपुरुषैरितस्ततो भ्रमद्भिस्तन्मस्तकस्था पेटी दृष्टा बलादाच्छिद्य राजाने नीता । राजा च यावत्तामुद्घाटयति, तावत्तं पङ्गु ददर्श । ततः सा ब्राह्मणी विलापं कुर्वती राजपुरुषानुपदमेव तत्रागता । राज्ञा पृष्टा - ’ को वृत्तान्तः’ इति । साऽब्रवीत् - ममैष भर्ता व्याधिबाधितो दायादसमूहैरुद्वेजितो मया स्नेह- व्याकुलितमानसया शिरसि कृत्वा भवदीयनगर आनीतः ।’ तच्छ्रुत्वा राजाऽब्रवीत् - ‘ब्राह्मणि ! त्वं मे भगिनी । ग्रामद्वयं गृहीत्वा भर्त्रा सह भोगान्भुञ्जाना सुखेन तिष्ठ ।’ अथ स ब्राह्मणो देववशात्केनापि साधुना कूपादुत्तारितः परिभ्रमंस्तदेव नगरमायातः । तया दुष्टभार्यया दृष्टा राज्ञे निवेदित: - ‘राजन् ! अयं मम भर्तुर्वेरी समायातः ।’ राज्ञापि वध आदिष्टः । साऽब्रवीत् - ‘देव ! अनया मम सक्तं किश्चिद् गृहीत मस्ति । यदि त्वं धर्मवत्सलः, तद्दापय ।’ राजाऽब्रवीत् ’ -भद्रे ! यत्त्वयास्य सक्तं किञ्चिद् गृहीतमस्ति तत्समर्पय । सा प्राह- ‘देव! मया न किञ्चिद्गृही- तम् ।’ ब्राह्मण आह— ‘यन्मया त्रिवाचिकं स्वजीवितार्धं दत्तम्, तद् देहि ।’ अथ सा राजभयात्तत्रैव ‘त्रिवाचिकमेव जीवितार्धमनेन दत्तम्’ इति जल्पन्ती प्राणैविमुक्ता । ततः सविस्मयं राजाऽब्रवीत् - किमेतत् ’ इति । ब्राह्मणेनापि पूर्ववृत्तान्तः सकलोऽपि तस्मै निवेदितः । अतोऽहं ब्रवीमि - ‘यदर्थे स्वकुलं त्यक्तम्’ इति (दे० श्लोक ४४ ) । ccb. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri 19 ३२ । पञ्चतन्त्रम् किसी स्थान में एक ब्राह्मण रहता था । उसको अपनी स्त्री प्राणों से भी अधिक प्यारी थी । वह प्रतिदिन कुटुम्ब के साथ झगड़ा करती हुई कभी भी शान्त नहीं रहती थी । वह ब्राह्मण भी झगड़े से ऊब गया और भार्या के प्रेम- श अपने कुटुम्ब को छोड़ कर ब्राह्मणी के साथ दूर देश को चल पड़ा। चलते -२ एक भयंकर जंगल के मध्य में पहुँचने पर ब्राह्मणी ने कहा – आर्यपुत्र ! मुझे । ब्राह्मणी के कहने पर बड़ी प्यास लगी है। सो कहीं जल की खोज करो जब वह जल लेकर आया, तो उसे मरी पड़ी देखा । मतिशय प्रेम के कारण दुःख से जब वह विलाप करने लगा, तब यह आकाशवाणी सुनाई दी- ब्राह्मण ! यदि तू इसे अपने जीवन का आधा हिस्सा दे दे तो यह ब्राह्मणी जीवित हो जायगी । यह सुन ब्राह्मण ने पवित्र होकर तीन बार प्रतिज्ञा करके अपना आधा जीवन उसे दे दिया । उसके ऐसा करते ही वह ब्राह्मणी जी उठी । तब वे दोनों जल पीकर वन के फल खाते हुए चलने लगे । चलते चलते किसी नगर की पुष्पवाटिका में ठहरकर ब्राह्मण ने अपनी स्त्री से कहा - भद्रे ! मैं जाकर भोजन की सामग्री ले आता हूँ । तब तक तुम यहीं रहो। ऐसा कहकर ब्राह्मण शहर को चला गया । उस पुष्पवाटिका में एक लंगड़ा कुएँ की सीढ़ी पर खेलता हुआ मधुर स्वर से गीत गा रहा था। उस गीत को सुनकर कामबाण से पीड़ित होकर ब्राह्मणी उसके पास गयी और बोली- भद्र ! तुम यदि मेरी इच्छा पूरी नहीं करोगे, तो तुमको कामासक्त स्त्री की हत्या का पाप लगेगा । लँगड़ा बोला- व्याधि से ग्रस्त मुझसे तू क्या करेगी ? वह बोली- ऐसा कहने से क्या लाभ ? मैं अवश्य तुम्हारे साथ सम्भोग करूँगी । यह सुनकर उसने वैसा ही किया । सम्भोग के अन्त में वह बोली- अब से जीवन भर के लिए मैंने अपनी आत्मा तुम्हें दे दी है। ऐसा जानकर तुम भी हमारे साथ चलो। वह बोला- ऐसा ही सही । तब तक ब्राह्मण भोजन लाया और उसके साथ खाने लगा । - वह बोली- यह लंगड़ा भूखा है । सो इसको भी कुछ भोजन दे दो । वैसा कहने पर ब्राह्मणी ने कहा- ब्राह्मण ! तुम सहायहीन होकर जब ग्रामान्तर चले जाते हो, तब मेरा भी कोई वचनसहाय नहीं रहता । सो इस पंगु को साथ ले लो । वह बोला- ‘मैं स्वयं चलने में असमर्थ हूँ फिर इस पगु को कैसे ले चलूंगा ?" वह बोली- गठरी के भीतर रखकर इसको मैं ले चलूंगी। उस स्त्री के बनावटी वचनों से मोहित होकर उसने यह भी अङ्गीकार कर लिया । वैसा करने पर एक दिन उस पगु में आसक्त चित्तवाली उस ब्राह्मणी ने कुएँ के T २ 시 ग T र T T लब्धप्रणाशम् الله الله ३३ समीप विश्राम करते हुए अपने पति को कुएं में ढकेल दिया और प्यारे पगु को लेकर किसी नगर में चली गई । वहाँ राज्य-कर ( चुंगी ) नहीं देनेवाले चोरों की खोज में इधर-उधर घूमते हुए राजपुरुषों ने उसके मस्तक पर वह गठरी देखी, तो जबर्दस्ती छीनकर राजा के पास ले गये । राजा ने जब उसे खोलवाया, तो उसमें लँगड़े को देखा । तब तक ब्राह्मणी भी विलाप करती हुई राजपुरुषों के पीछे पीछे वहाँ आ गई। राजा ने पूछा- क्या बात है ? बोली- मेरा रोगग्रस्तस्वामी बंधुओं से सताया हुआ है । मैं स्नेहवश व्याकुल मन से सिर पर रखकर इसे आपके नगर में लायी हूँ। यह सुनकर राजा बोला - ब्राह्मणी ! तू मेरी (सती) बहिन है। मुझसे दो गाँव लेकर अपने पति के संग सुख भोगती हुई सुख से रहो । उधर किसी साधु द्वारा कुएँ से निकाला हुआ वह ब्राह्मण देववश घूमता फिरता उसी नगर में वह मा पहुँचा । तब उस दुष्ट भार्या ने उसे देखकर राजा से कहा- राजन् ! यही मेरे स्वामी का वैरी है। राजा ने तत्काल उसके वध की आज्ञा दे दी। वह ब्राह्मण बोला- देव ! इसने मेरी धरोहर ले रखी है। यदि आप धर्मवत्सल राजा हैं, तो उसे दिला दीजिए । राजा बोला - भद्रे ! तुमने इसका कुछ लिया हो तो दे दो । वह बोली- देव ! मैंने इसका कुछ नहीं लिया है । ब्राह्मण बोला- जो मैंने त्रिवाचिक देकर अपना आधा जीवन इसे दिया था, वह दे दे। तब राजा के भय से उसने कहा – त्रिवाचिक जीवन, जो इसने मुझे दिया था, सो मैं लोटा रही हूं। ऐसा कहते ही वह मर गयी । तब विस्मयपूर्वक राजा बोला - यह क्या हुआ । तब ब्राह्मण ने पहले का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया । इसी से मैं कहता हूँ - ’ यदर्थे स्वकुलं त्यक्तम्’ (दे० श्लोक ४४ ) । वानर पुनराह - ‘साधु चेदमुपाख्यानकं श्रूयते- फिर वानर ने कहा - ‘यह भी एक अच्छी कथा सुनी जाती है- न किं दद्यान्न किं कुर्यात्स्त्रीभिरभ्यथितो नरः । अनश्वा यत्र हषन्ते शिरः पर्वणि मुण्डितम् ’ ॥ ४५ ॥ पत्नी के मांगने पर मनुष्य क्या नहीं देता और क्या नहीं करता अर्थात् सब कुछ देता है ओर करता है । जब घोड़े न होकर भी मनुष्य हिनहिनाते हैं और पर्व दिन अर्थात् चौदस अष्टमी आदि निषिद्ध दिनों में भी सिर का मुण्डन कराते हैं । मकर आह— ‘कथमेतत् ’ ? वानरः कथयति- मगर बोला- ‘यह कैसे ?’ वानर ने कहा-
३४ पश्चतन्त्रम् कथा ७ अति प्रख्यातबलपौरुषोऽनेकनरेन्द्र मुकुटमरी चिजालजटिलीकृत- पादपीठः शरच्छशाङ्ककिरणनिर्मलयशाः समुद्रपर्यन्तायाः पृथिव्या भर्ता नन्दो नाम राजा । यस्य सर्वशास्त्राधिगतसमस्ततत्त्वः सचिवो वर- रुचिर्नाम । तस्य च प्रणयकलहेन जाया कुपिता । सा चातीव वल्लभा- नेकप्रकारं परितोष्यमाणापि न प्रसीदति । ब्रवीति च भर्ता - ‘भद्रे ! येन प्रकारेण तुष्यसि तं वद । निश्चितं करोमि ।’ ततः कथञ्चित्तयोक्तम्- ‘यदि शिरो मुण्डयित्वा मम पादयोर्निपतसि, तदा प्रसादाभिमुखी भवामि ।’ तथानुष्ठिते प्रसन्नाऽऽसीत् । अथ नन्दस्य भार्यापि तथैव रुष्टा प्रसाद्यमानापि न तुष्यति । तेनोक्तम्- ‘भद्रे ! त्वया विना मुहूर्तमपि न जीवामि । पादयोः पतित्वा त्वां प्रसादयामि ।’ साऽब्रवीत् यदि खलीनं मुखे प्रक्षित्याहं तव पृष्ठे समारुह्य त्वां धावयामि । धावितस्तु यद्यश्व- वधेषसे, तदा प्रसन्ना भवामि ।’ राज्ञाऽपि तथैवानुष्ठितम् । अथ प्रभातसमये सभायामुपविष्टस्य राज्ञ समीपे वररुचिरायातः । तं च दृष्ट्वा राजा पप्रच्छ-‘भो वररुचे ! कि पर्वणि मुण्डितं सिरस्त्वया ।’ सोऽब्रवीत् - ‘न किं दद्यात्’ इत्यादि ( श्लोक ४५ ) । किसी देश में पूर्ण प्रख्यात और बल पुरुषार्थयुक्त अनेक राजाओं के मुकुटों के किरणसमूह से सेवित चरण- पीठवाला, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान निर्मल और समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का स्वामी नन्द नाम का राजा था। सम्पूर्ण शास्त्र का तत्त्वज्ञ वररुचि उसका मन्त्री था । एक दिन उसकी स्त्री प्रणय- कलह से क्रोधित हुई । वह उसे बहुत प्यारी थी, अतः अनेक प्रकार से सतुष्ट करने पर भी जब वह प्रसन्न नहीं हुई, तब उसका पति बोला- भद्रे ! तुम किस तरह प्रसन्न होगी ? सो कहो, उसको मैं अवश्य करूँगा । तब उसने कहा-यदि सिर मुड़ा- कर मेरे चरणों में गिरो, तो मैं प्रसन्न हो जाऊँगी । वररुचि के वैसा करने पर वह प्रसन्न हो गई । उधर राजा नन्द की भार्या भी उसी प्रकार रूठी थी और किसी प्रकार सन्तुष्ट नहीं हो रही थी । तब राजा ने कहा-भद्रे ! तेरे बिना मैं क्षणभर भी नहीं जी सकता । मैं चरण पकड़कर तुझे मनाता हूँ । वह बोली- तुम मुख में लगाम डालो और तुम्हारी पीठपर चढ़कर शीघ्रता से मैं तुम्हें दोड़ाऊँगी । दौड़ते हुए तुम घोड़े के समान हिनहिनाओ, तो मैं प्रसन्न हो जाऊँगी । राजा ने भी वैसा ही किया । तब प्रातःकाल सभा में बैठे राजा के
f 3 त लब्धप्रणाशम् ३५ समीप वररुचि आया । उसे देखकर राजा ने जब पूछा -अहो वररुचि ! तुमने किस पर्व में सिर मुड़ाया है ? तब वह बोला- ‘न कि दद्यात्’ इत्यादि । ( दे० श्लोक ४५ ) । तद्भो दुष्ट मकर ! त्वमपि नन्दवररुचिवत्स्त्रीवश्यः । ततो भद्र ! आगतेन त्वया मां प्रति वधोपायप्रयासः प्रारब्धः परं स्ववाग्दोषेणैव प्रकटीभूतः । अथवा साध्विदमुच्यते- इसलिए अरे दुष्ट मगर ! तू भी नन्द और वररुचि के समान स्त्री के वशीभूत है । भद्र ! आते ही तुमने मेरे वध का उपाय सोचना प्रारम्भ किया, परन्तु तुम्हारी वाणी के दोष से भेद खुल गया । अथवा ठीक ही कहा है- आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः । बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥ ४६ ॥ शुक और सारिकाएँ ( मैना ) अपने मुख दोष से ( बोलने और गान का सामर्थ्य होने से ) पकड़े जाते हैं परन्तु बगुले नहीं पकड़े जाते, अतः चुप रहना, सब कामों का साधक होता है । तथा च- ‘सुगुप्पं रक्ष्यमाणोऽपि दर्शयन्दारुणं वपुः । व्याघ्रचर्म प्रतिच्छन्नो वाक्कृते रासभो हतः ॥ ४७ ॥ बड़ी सावधानी से रक्षा किया जाता हुआ, व्याघ्र के चमड़े से ढका हुआ, अत एव भयंकर शरीर दिखाता हुआ ( अपने सिहतुल्य शरीर से क्षेत्रपालों को डराता हुआ ) भी गदहा अपने बोलने के कारण मारा गया । मकर आह— ‘कथमेतत् ?’ वानरः कथयति — मगर बोला- ‘यह कैसे ?" वानर ने कहा- कथा ८ कस्मिश्चिदधिष्ठाने शुद्धपटो नाम रजकः प्रतिवसति स्म । तस्य च गर्दभ एकोऽस्ति । सोऽपि घासाभावादतिदुर्बलतां गतः । अथ तेन रजकेनाटव्यां परिभ्रमता मृतव्याघ्रो दृष्टः । चिन्तितं च-अहो ! शोभ- नमापतितम् । अनेन व्याघ्रचर्मणा प्रतिच्छाद्य रासभं रात्रौ यवक्षेत्रे- षूत्स्रक्ष्यामि । येन व्याघ्र मत्त्वा समीपवर्तिनः क्षेत्रपाला एनं न निष्कास- यिष्यन्ति । तथाऽनुष्ठिते रासभो यथेच्छया यवभक्षणं करोति । प्रत्यूषे भूयोऽपि रजकः स्वाश्रयं नयति । एवं गच्छता कालेन स रासभ: पीवर-
३६ पश्ञ्चतन्त्रसु तनुर्जातः । कृच्छ्राद् बन्धनस्थानमपि नीयते । अथान्यस्मिन्नहनि स मदोद्धतो दूराद्रासभीशब्दमशृणोत् । तच्छ्रवणमात्रेणैव स्वयं शब्दयितु- मारब्धः । अथ ते क्षेत्रपाला रासभोऽयं व्याघ्रचर्मप्रतिच्छन्न इति ज्ञात्वा लगुडशरपाषाणप्रहारैस्तं व्यापादितवन्तः । अतोऽहं ब्रवीमि - ‘सुगुप्तं रक्ष्यमाणोऽपि’ इति ( श्लो० ४७ ) । किसी स्थान में शुद्धपट नामक धोबी रहता था । उसके पास एक गदहा था परन्तु वह भी घास न मिलने से अत्यन्त दुर्बल हो गया था । एक समय उस धोबी ने जंगल में घूमते हुए मरे हुए व्याघ्र को पाया । तब उसने सोचा- यह बहुत अच्छा हुआ, इस चमड़े को ओढ़ा कर गदहे को रात के समय जो के खेत में छोड़ दिया करूँगा, जिससे कि इसे बाघ समझ कर पास के खेतवाले खेत से न निकालेंगे । ऐसा करने पर, रात में गदहा इच्छानुसार जो खाया करता था, प्रातःकाल फिर धोबी अपने घर ले जाता था । कुछ ही दिनों में वह खूब मोटा-ताजा हो गया, बड़ी कठिनता से बाँधने में जाता था। एक दिन मदमत्त वह रासभ, दूर से गर्दभी का शब्द सुनकर जोर से चिल्लाने लगा । तब क्षेत्रपालों ने यह समझकर कि - बाघ के चमड़े से ढका हुआ यह रासभ है, लकड़ी-पत्थर और तीर मारकर उसे मार डाला । इसलिए मैं कहता हूँ कि ‘सुगुप्तं रक्ष्यमाणोऽपि’ इत्यादि ( श्लोक ४७ ) । ‘तत्कि श्यामलकवदत्यपमानसहनादर्धचन्द्रदानेन यास्यसि ।’ तो क्या तू श्यामलक के समान अपमान सहकर गलहत्थी देने से जायेगा । मकर आह- ‘कथमेतत् ?’ वानर आह— मगर ने कहा- यह कैसे ? वानर ने कहा- कथा ९ अस्त्यत्र धरापीठे विकण्टकं नाम पुरम् । तत्र महाधन ईश्वरो नाम भाण्डपतिः । तस्य चत्वारो जामातृका अवन्तीपीठात्प्राघूर्णका विकण्ट- कपुरे समायाताः । ते च येन महता गौरवेणार्थ्यांचिता भोजानाच्छादना- दिभिः । एवं तेषां तत्र वसतां मासषट्कं सञ्जातम् । तत ईश्वरेण स्वभा- यक्ता यदेते जामातरः परमगौरवेणावजिताः स्वानि गृहाणि न गच्छन्ति, तत्कि कथ्यते ? विनापमानं न यास्यन्ति । तदद्य भोजन- वेलायां पादप्रक्षालनार्थं जलं न देयं येनापमानं ज्ञात्वा परित्यज्य
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लब्धप्रणाशम् ३७ गच्छन्तीति ।’ तथानुष्ठिते गर्गः पादप्रक्षालनापमानात्, सोमो लघ्वासन- दानात्, दत्तः कदशनतो यातः । एवं ते त्रयोऽपि परित्यज्य गताः । चतुर्थ: श्यामलको यावन्न याति तावदर्धचन्द्रप्रदानेन निष्कासितः । अतोऽहं ब्रवीमि - गर्गो हि पादशौचाल्लघ्वासनदानतो गतः सोमः । दत्तः कदशनभोज्याच्छ्यामलकश्चार्धचन्द्रेण ॥ तुम्हारी क्या सम्मति है ? नहीं जायेंगे । इसलिए आज पृथ्वी तल पर विकण्टक नामक एक नगर है । वहाँ ‘ईश्वर’ नाम का एक बड़ा धनवान् सौदागर रहता था । अवन्ति ( उज्जैन ) नगर से उसके चार दामाद अतिथि रूप से विकण्टक नगर में आये । सौदागर ने भोजन-वस्त्रादि द्वारा उनका बड़ा सत्कार किया। इस तरह वहाँ रहते हुए उन्हें छः मास बीत गये । तब ईश्वर ने अपनी पत्नी से कहा कि ये दामाद अत्यन्त आदर के कारण अपने घर नहीं जाते। कहो इस विषय में ( मेरी सम्मति में तो ) ये लोग, बिना अपमान के भोजन के समय पैर धोने के लिए जल न देना, जिससे कि अपना अपमान समझकर छोड़कर चले जायें। ऐसा करने पर गगं पैर धोने के ( जल न मिलने से ) अपमान से, छोटा आसन देने से सोम और खराब भोजन मिलने से दत्त चला गया । इस प्रकार तीनों घर छोड़ कर चले गये । चतुर्थ श्यामलक जब नहीं गया, तो गलहत्थी देकर निकाल दिया गया । इसलिए मैं कहता हूँ- ‘गर्गो हि’ इत्यादि । ( अर्थ गद्यभाग में ही स्पष्ट है ) तत्किमहं रथकारवन्मूर्खो यतः स्वयमपि दृष्ट्वा ते विकार पश्चाद्विश्वसिमि । उक्तं च- क्या मैं रथकार के समान मूर्ख हूँ कि जो स्वयं तुम्हारे निन्दित भावों को जानकर भी विश्वास कर लूं ? कहा भी है– प्रत्यक्षेऽपि कृते पापे मूर्खः साम्ना प्रशाम्यति । रथकारः स्वकां भार्यां सजारां शिरसाऽवहत् ॥ ४८ ॥ मूर्ख मनुष्य अपने सम्मुख किया जाता हुआ पापकर्म देखकर भी सन्तोष- जनक वाक्यों से ही प्रसन्न हो जाता है (जैसा कि ), किसी रथकार ( बढ़ई ) ने जार ( यार ) सहित अपनी पत्नी को सिर पर धारण किया ।। ४८ ।। मकर आह- कथमेतत् ? वानर आह- मगर ने कहा वह कैसे ? वानर ने कहा-
३८ पञ्चतन्त्रम् कथा १० कस्मिश्चिदधिष्ठाने कश्चिद्रथकारः प्रतिवसति स्म । तस्य भार्या पुंश्चलीति जनापवादसंयुक्ता । सोऽपि तस्याः परीक्षार्थं व्यचिन्तयत्- कथं मयाऽस्याः परीक्षणं कर्तव्यम् । न चैतद्युज्यते कर्तुम् । यतः -
किसी शहर में कोई बढ़ई रहता था, उसकी पत्नी के विषय में किंवदन्ती थी कि यह व्यभिचारिणी है । उसकी परीक्षा के लिए उसने विचार किया- किस तरह मैं इसकी परीक्षा करूँ ? परन्तु यह कहना ( परीक्षा करना ) उचित नहीं है । क्योंकि -
नदीनां च कुलानां च मुनीनां च महात्मनाम् ।
परीक्षा न प्रकर्तव्या स्त्रीणां दुश्चरितस्य च ॥ ४९ ॥
नदियों, वंशों, मुनियों, महापुरुषों तथा स्त्रियों के दुराचार की परीक्षा नहीं करनी चाहिए ।। ४९ ।।
वसोर्वीर्योत्पन्नामभजत मुनिर्मत्स्यतनयां,
तथा जातो व्यासो शतगुणनिवासः किमपरम् ।
स्वयं वेदान्व्यस्यञ्छमित कुरुवंशप्रसविता
स एवाभूच्छ्रीमानहह ! विषमा कर्मगतयः ॥ ५० ॥
पराशर मुनि ने वसु ( देवविशेष) के वीर्य से उत्पन्न मत्स्यपुत्री सत्यवती के साथ सम्भोग किया। उससे व्यास उत्पन्न हुए, जो इस प्रकार उत्पन्न होकर भी सैकड़ों गुणों के आश्रय थे। अधिक क्या कहें- उन्होंने नष्ट होते हुए कुरुवंश को आगे चलाया और स्वयं वेदों का विभाग किया, वे अत्यन्त तेजस्वी थे । ओहो ! कर्मों की गति बड़ी अज्ञेय होती है ।। ५० ।।
कुलानामिति पाण्डवानामपि महात्मनां नोत्पत्तिरधिगन्तव्या यतः ते क्षेत्रजा इति । स्त्रीदुश्चरितं संधुक्ष्यमाणमनेकदोषान्प्रकटयति स्त्रीणा- मिति । तथा च-
महात्मा पाण्डवों की भी उत्पत्ति की परीक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे क्षेत्रज ( अन्य पिता से उत्पन्न ) थे । ( श्लो० ४९ में ‘कुलानां’ पद से यह बात बोधित की गई है। इसी प्रकार ‘स्त्रीणां’ पद से ) स्त्रियों के चरित्र की छान बीन करने से अनेक बुराइयाँ प्रकट होती हैं ( दर्शाई गई हैं ) ।
यदि स्यात्पावकः शीतः प्रोष्णो वा शशलाञ्छनः ।
स्त्रीणां तदा सतीत्वं स्याद् यदि स्याददुर्जनो हितः ॥५१॥
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लब्धप्रणाशम्
३९
यदि अग्नि शीतल, चन्द्रमा अत्यन्त उष्ण और दुष्ट पुरुष हित हो जाय, तो स्त्रियां भी सच्चरित्र हो सकती हैं । जिस प्रकार अग्नि आदि का शीतल आदि होना असम्भव है, इसी तरह स्त्रियों का सच्चरित्र होना असम्भव है ।। ५१ ।। यथापि शुद्धामशुद्धां वापि जानामि लोकवचनात् । उक्तं च-
तो भी ( यद्यपि स्त्रियों के चरित्र की परीक्षा करना उचित नहीं है ) लोगों
( की बातों को ध्यान में रखते हुए मैं देखूं कि यह सच्चरित्र है या नहीं ? क्योंकि- यन्न वेदेषु शास्त्रेषु न दृष्टं न च संश्रुतम् ।
तत्सर्वं वेत्ति लोकोऽयं यत्स्याद् ब्रह्माण्डमध्यगम् ॥ ५२ ॥
।
जो बात वेदों ओर शास्त्रों में नहीं है और न संसार में देखी व सुनी गई है, तथा जो ब्रह्माण्ड में अर्थात् समस्त संसार में कहीं भी मौजूद हो, उस सबको यह संसार जानता है । ( तात्पर्य यह है कि मनुष्य किसी भी बात की यथार्थता का ध्यान न रखकर अनर्गल बातें कहा करते हैं, अतः उन पर सर्वथा विश्वास नहीं करना चाहिए । मत एव मुझे अपनी स्त्री के चरित्र की परीक्षा करना उचित ही है । ) ।। ५२ ।।
एवं सम्पधार्यं तामवोचत - प्रिये ! अहं प्रातर्ग्रामान्तरं यास्यामि तत्र दिनानि कतिचिल्लगिष्यन्ति; तत्त्वया किश्वित्पाथेयं मम योग्यं कार्यम् । साऽपि तदाकर्ण्य हर्षित चित्तोत्सुक्येन सर्वकायाणि सन्त्यज्य सिद्धमन्नं घृतशर्कराप्रायमकरोत् । अथवा साध्विदमुच्यते-
यह सोचकर उससे ( पत्नी से ) बोला- प्रिये ! प्रातः काल मैं दूसरे ग्राम को जाऊँगा, वहाँ कुछ दिन लग जायेंगे ? इसलिये तुम मेरे लिए कुछ कलेवा बना दो। यह सुनकर उसने प्रसन्नचित्त हो, बड़ी उत्सुकता से सब काम छोड़- कर, घी और शक्कर से भोजन तैयार किया । अथवा यह ठीक ही कहा जाता है-
दुर्दिवसे धनतिमिरे दुःसंचारासु नगरवीथीषु ।
पत्यौ विदेशयाते परमसुखं जघनचपलायाः ।। ५३ ।।
बादलों के अन्धकार युक्त दुर्दिन में, अन्धकार के कारण न चलने योग्य शहर की गलियों में और पति के विदेश चले जाने पर कुलटा स्त्री को परम आनन्द होता है ।। ५३ ॥
अथासौ प्रत्यूषे उत्थाय स्वगृहान्निर्गतः । साऽपि तं प्रस्थितं विज्ञाय प्रहसितवदनाङ्गसत्कारं कुर्वाणा कथवित्तं दिवसमत्यवायत् । ततश्च पूर्व परिचितं विटगृहं गत्वा तमभ्ययक्तवती यद् - ‘ग्रामान्तरं गतः
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पश्वतन्त्रम्
स दुरात्मा मे पतिः । तदद्य त्वयाऽस्मद्गृहे प्रसुप्ते जने समागन्तव्यम् ।’ तथानुष्ठिते स रथकारोऽप्यरण्ये दिनमतिवाह्य प्रदोषे स्वगृहमपर- द्वारेण प्रविष्टः शय्यातले निभृतो भूत्वा स्थितः । अत्रान्तरे स देवदत्तः शयन आगत्योपविष्टः । तं दृष्ट्वा रथकारो रोषाविष्टचित्तो व्यचिन्त- यत् - किमेनमुत्थाय विनाशयाम्यथवा द्वावप्येतौ सुप्तो हेलया हन्मि । परं पश्यामि तावच्चेष्टितमस्याः शृणोमि चानेन सहालापान् । अत्रा- न्तरे सा गृहद्वारं निभृतं पिधाय शयनतलमारूढा । तस्यास्तच्छयन- मारोहन्त्या रथकारशरीरे पादो लग्नः । ततो व्यचिन्तयत् - नूनमेतेन दुरात्मना रथकारेण मत्परीक्षणार्थं भाव्यम् । तत्स्त्रीचरित्रविज्ञानं किमपि करोमि । एवं तस्याश्चिन्तयन्त्याः स देवदत्तः स्पशौत्सुक्यो बभूव । ततश्च तथाकृताञ्जलिपुटयाऽभिहितम् - भो महानुभाव ! न मे गात्रं त्वया स्प्रष्टव्यं यतोऽहं पतिव्रता महासती च, नो चेच्छापं दत्त्वा त्वां भस्मसात्करिष्यामि । स आह - यद्येवं तर्हि किमर्थं त्वयाह- माहूतः ? सा प्राह - भोः ! शृणुष्वैकाग्रमनाः । अहमद्य प्रत्यूषे देवता- दर्शनार्थं चण्डिकायतनं गता । तत्राकस्मात् खे वाणी सञ्जाता - पुत्रि ! किं करोमि । भक्तासि मे त्वम् । परं षण्मासाभ्यन्तरे विधिनियोगा- द्विधवा भविष्यसि । ततो मयाऽभिहितम् - ‘भगवति ! यया त्वमापदं वेत्सि तथा तत्प्रतीकारमपि जानासि । तदस्ति कश्चिदुपायो येन मे पतिः शतसंवत्सरजीवी भवति ।’ ततस्तयाऽभिहितम् - वत्से ! सन्नपि नास्ति यतस्तवायत्तः स प्रतीकारः । तच्छ्र ुत्वा मयाऽभिहितम् - ‘देवि ! यन्मत् प्राणैर्भवति तदादेशय येन करोमि ।’ ततो देव्याऽभिहितम् - ‘यद्यद्य दिने परपुरुषेण सहैकस्मिञ्छयने समारुह्यालिङ्गनं करोषि, तदा तव भर्तृसत्तोऽपमृत्युस्तस्य संचरित त्वद्भर्ता पुनर्वर्षशतं जीवति । तेन मया त्वमभ्यथितः ।’ तयो यत्किञ्चित्कर्तुमनास्तत्कुरुष्व, नहि देवतावचनमन्यथा भविष्यतीति निश्चयः । ततोऽन्तर्हासविकासमुखः स तदुचितमाचचार ।
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अनन्तर, वह ( रथकार ) प्रातःकाल उठकर घर के बाहर गया । उसको गया हुआ समझकर रथकार- वधू ने मुस्कराते हुए ओर अङ्गों का संस्कार ( सफाई, सजावट ) करते हुए बड़ी कठिनता से वह दिन व्यतीत किया । तब सायङ्काल) अपने पूर्वपरिचित यार के घर जाकर उससे प्रार्थना करती हुई बोली- वह मेरा दुष्ट पति आज किसी गांव को गया है, इसलिये माज तुम
म
६
लब्धप्रणाशम्
४१
अन्यथा शाप
देकर तुम्हें भस्म कर
तुमने मुझे
मनुष्यों के सो जाने पर हमारे घर आना । ऐसा करने पर इधर रथकार भी जंगल में दिन बिताकर सायङ्काल के समय दूसरे दरवाजे से घर में प्रविष्ट होकर खाट के नीचे छिपकर बैठ गया । इसी समय वह देवदत्त आकर शय्या पर बैठ गया । उसे देखकर रथकार ने क्रुद्ध हो विचार किया—क्या उठकर इसे मार डालू अथवा जब ये दोनों सो जावें, तब आसानी से इनको मारूँ, पहिले ( मारने से पूर्व ) इसकी हरकतें देखूं और इसके (विट के साथ इसकी बातचीत सुनूं । इसी समय ( जब सोच रहा था तब ) रथकारवधू चुपचाप दरवाजा बन्द कर शय्या पर चढ़ी । चारपाई पर चढ़ते हुए उसका पैर रथकार के शरीर में लग गया । तब वह सोचने लगी- निश्चय ही, यह दुष्ट (जो इस प्रकार आकर छिपा है ) रथकार मेरी परीक्षा के लिए छिपा है, इस- लिए इसे कुछ त्रिया चरित्र दिखाऊँ । जब वह इस प्रकार सोच रही थी, तब वह देवदत्त आलिङ्गन करने के लिये उद्यत हुआ । उस समय उसने हाथ जोड़कर कहा - हे महापुरुष ! तुम मेरा शरीर न छूना, क्योंकि मैं पतिव्रता ( पति के प्रति भक्तिमती ) और परम साध्वी हूँ । हूँगी । उसने कहा - यदि यह बात है, तो
क्यों बुलाया है ? वह बोली- एकाग्रमन से ध्यान देकर सुनो-आज मैं प्रातःकाल देवता के दर्शन करने के लिये चण्डी देवी के मन्दिर में गई थी । उसी समय, अकस्मात् आकाशवाणी हुई- पुत्रि ! क्या करूँ तू मेरी भक्त है, परन्तु भाग्यवश छः महीने में तू विधवा हो जायेगी। तब मैंने कहा- भगवति ! जैसे तुम विपत्ति को जानती हो, उसी प्रकार उसका प्रतीकार उपाय भी जानती हो, इसलिए बतायो कि क्या ऐसा कोई उपाय है, जिससे मेरा पति शतायु ( सो वर्ष की आयुबाला) हो । तब उसने कहा - वत्से ! होते हुए भी नहीं है, क्योंकि वह उपाय तुम्हारे मैंने अधीन है ( मोर तुम वैसा करना स्वीकार नहीं करोगी ) । यह सुनकर कहा-देवि ! अगर मैं अपने प्राण देकर भी कर सकूँगी, तो करूंगी, आप आज्ञा
1 दें, जिससे मैं उसे करूँ । तब देवी ने कहा-यदि माज तू एक शय्या पर बैठकर परपुरुष का आलिङ्गन करेगी, तो तेरे पति की अपमृत्यु उस पुरुष को लग जायगी और तुम्हारा पति सौ वर्ष जियेगा । इसलिए मैंने तुम्हें बुलाया है, अतः तुम
जो करना चाहो सो करो, क्योंकि यह निश्चय है कि देवता का वचन अन्यथा ( मिथ्या ) नहीं हो सकता । उसने जो कुछ कहा है, वह सत्य ही है, इससे मेरा पति अवश्य चिरञ्जीवी होगा । तब मन ही मन प्रसन्न होते हुए उस (su Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri
(देवदत्त ) ने जो उचित था सो किया ।
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४२
पश्ञ्चतन्त्रम्
सोऽपि रथकारो मूर्खस्तस्यास्तद्वचनमाकर्ण्य पुलकाङ्किततनुः शय्या- तलान्निष्क्रम्य तामुवाच - साधु पतिव्रते ! साधु कुलनन्दिनि ! साधु ! अहं दुर्जनवचनशङ्कितहृदयस्त्वत्परीक्षार्थं ग्रामान्तरव्याजं कृत्वाऽत्र निभृतं खट्वातले लीनः स्थितः । तदेहि, आलिङ्गय माम् । त्वं स्वभर्तृभक्तानां मुख्या नारीणाम्, यदेवं ब्रह्मव्रतं परसङ्गेऽपि पालितवती, मदायुर्बुद्धि- कृतेऽपमृत्युविनाशार्थं श्व त्वमेवं कृतवती । तामेवमुक्त्वा सस्नेहमा लिङ्गि- तवान् । स्वस्कन्धे तामारोप्य तमपि देवदत्तमुवाच - ‘भोः महानुभाव ! भत्पुण्यैस्त्वमिहागतः । त्वत्प्रसादात्प्राप्तामद्य मया वर्षशतप्रमाणमायुः । ततस्त्वमपि मां समालिङ्गय स्कन्धं मे समारोह’ इति जल्पन्ननिच्छन्त- मपि देवदत्तं बलादालिङ्गय स्कन्धे समारोपितवान् । ततश्च तूर्यध्वनि- च्छन्देन नृत्यन्सकलगृहद्वारेषु बभ्राम । अतोऽहं ब्रवीमि ‘प्रत्यक्षेऽपि कृते पापे’ इति । तन्मूढ ! दृष्टविकारस्त्वम्, तत्कथं तत्र गृहं गच्छामि । अथवा यन्मां त्वं विश्वासयसि तत्ते दोषो नास्ति यत् ईदृशी स्वभावदुष्टा युष्मज्जातिर्या शिष्टसङ्गादपि सौम्यत्वं न याति । अथवा स्वभावोऽयं दुष्टानाम् । उक्तं च-
वह मूर्ख रथकार, उसकी ये बातें सुनकर रोमान्चित हो शय्या के नीचे से निकलकर उससे बोला- हे पतिव्रते । तुझे धन्यवाद है। दुष्टों के वचनों से मेरे हृदय में तेरे चरित्र के विषय में सन्देह हो गया था, इसलिए तुम्हारी परीक्षा के लिए गाँव जाने का बहाना करके, यहाँ खाट के नीचे छिपा हुआ वैठा था । आओ, मुझे आलिङ्गन करो । तू स्वामिभक्त स्त्रियों में मुख्य है, क्योंकि तूने परपुरुष का संसर्ग होने पर भी इस प्रकार ब्रह्मव्रत का पालन किया है। तूने केवल मेरी आयुवृद्धि तथा अपमृत्यु के नाश के लिए ऐसा किया । यह कहकर प्रेमपूर्वक उसका आलिङ्गन किया और उसे कन्धे पर बैठा- कर देवदत्त से भी कहने लगा- ‘हे महापुरुष ! मेरे पुण्यों के कारण ही तुम यहाँ आये हो, तुम्हारी कृपा से मैंने १०० वर्ष की आयु पायी है, इसलिए तुम भी मुझे आलिङ्गन करो और मेरे कन्धे पर चढ़ो ।’ यह कहकर उसकी इच्छा न होते हुए भी देवदत्त को जबरदस्ती आलिङ्गन कर अपने कन्धे पर बैठा लिया । अनन्तर, बाजे के शब्द को सुनकर नाचता हुआ घर के सब दरवाजों पर नाचा । इसलिए मैं कहता हूँ ‘प्रत्यक्षेऽपि कृते पापे’ इत्यादि ( इलो० ४८ ) । अरे मूर्ख ! तेरे चित्त की दुष्ट भावनाएं मैं देख चुका हूँ। फिर तेरे घर कैसे
स स टT-
मृतं नां ! ते । T i लब्धप्रणाशम् ४३ जा सकता हूँ ? अथवा जो तू मुझे विश्वास दिला रहा है, इसमें तेरा दोष नहीं है । क्योंकि तुम्हारी जाति स्वभाव से ही ऐसी दुष्ट है कि वह सज्जनों का सङ्ग पाकर भी नहीं सुधरती । यह दुष्टों का स्वभाव ही है । कहा भी है- सद्भिः सम्बोध्यमानोऽपि दुरात्मा पापपौरुषः । घृष्यमाण इवाङ्गारो निर्मलत्वं न गच्छति ॥ ५४ ॥ दुष्ट स्वभाव, पाप कर्म में रत (लगा हुआ) पुरुष सज्जनों से उपदेश दिये जाने पर भी सत्स्वभाव नहीं होता, जैसे कि कोयला घिसने पर भी सफेद नहीं होता ॥ ५४ ॥ तन्मूर्ख ! स्त्रीलुब्ध ! स्त्रीजितः ! अन्येऽपि ये त्वद्विधा भवन्ति ते स्वकार्यं विभवं मित्रं च परित्यजन्ति तत्कृते । उक्तं च- अरे मूर्ख ! पत्नी-सक्त, भार्याधीन ! अन्य पुरुष भी, जो तेरे समान ( स्त्रीवश्य होता है वह ) स्त्री के लिये अपना कार्य, ऐश्वर्यं तथा मित्र को भी छोड़ देता है। कहा भी है- या ममोद्विजते नित्यं साद्य मामवगूहते । प्रियकारक ! भद्रं ते यन्ममास्ति हरस्व तत् ॥ ५५ ॥ जो मेरी पत्नी सर्वदा मुझसे घृणा का व्यवहार करती रही, आज वही मुझे आलिङ्गन कर रही है । हे मेरे अभीष्ट कार्य के करनेवाले ! मेरा जो कुछ है, वह सब तुम ले लो ॥ ५५ ॥ मकर आह- कथमेतत् ? वानरोऽब्रवीत्- मगर ने कहा यह कैसे ? वानर ने कहा- कथा ११ अस्ति कस्मिश्चिदधिष्ठाने कामातुरो नाम महाधनो वृद्धवणिक् । तेन मृतभार्येण कामोपहतचेतसा काचिन्निर्धनवणिक्सुता प्रभूतं वित्तं दत्त्वोद्वाहिता । अथ सा दुःखाभिभूता तं वृद्धवणिजं द्रष्टुमपि न शशाक । अथवा साध्विदमुच्यते- किसी नगर में ‘कामातुर’ नामक एक महाधनवान् वृद्ध बनिया रहता था । उसने पत्नी मर जाने पर भोगवासनाओं में लिस-मन होने के कारण किसी गरीब वैश्य की पुत्री के साथ बहुत सा धन देकर विवाह किया। परन्तु वह ( वैश्यपुत्री ) दुःखी रहती और उस वृद्ध वैश्य ( अपने पति ) को देख भी नही सकती थी । यह ठीक ही कहा है-
४४ पश्चतन्त्रम् श्वेतं पदं शिरसि यत्तु शिरोरुहाणां, स्थानं परं परिभवस्य तदेव पुंसाम् । आरोपितास्थिशकलं परिहृत्य यान्ति चाण्डालकूपमिव दूरतरं तरुण्यः ।। ५६ ।। सिर पर केशों का श्वेत चिह्न ( बालों का सफेद होना ) ही मनुष्यों के अनादर का मुख्य कारण है, क्योंकि जिस प्रकार मनुष्य, जिस पर हड्डी का टुकड़ा रक्खर हुआ हो, ऐसे चाण्डालों के कुएँ को छोड़कर दूर से ही चले जाते हैं । इसी प्रकार वृद्ध पुरुष को युवतियां दूर से ही छोड़ देती हैं— उसके पास भी नहीं फटकतीं, संभोग आदि का तो कहना ही क्या है । ( पुराने समय में यह प्रथा थी कि पहचानने के लिये चाण्डालों के कुओं पर हड्डी का टुकड़ा रख दिया जाता था, जिससे अपरिचित मनुष्य भी उसे देखकर समझ जाते थे कि यह चाण्डालों का कूप है ) ।। ५६ ।। तथा च - गात्रं सङ्कुचितं गतिविगलिता दन्ताश्च नाशङ्गताः दृष्टिर्भ्राम्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते हा कष्टं जरयाभिभूतपुरुषः पुत्रैरवज्ञायते ।। ५७ ।। ( वृद्ध पुरुष के ) अङ्ग सिकुड़ गये हैं, चाल लड़खड़ाने लगी, दांत टूट गये, दृष्टि घूमने लगी, रूप भी विकृत हो गया है, मुख से लार टपकने लगी हैं । कुटुम्बी लोग आज्ञा नहीं मानते, पत्नी भी सेवा नहीं करती, कितने दुःख की बात है कि बुढ़ापे से आक्रान्त पुरुष का पुत्र भी अनादर करते हैं ।। ५७ ।। अथ कदाचित् सा तेन सहैकशयने पराङ्मुखी यावत्तिष्ठति तावत्त- स्य गृहे चौरः प्रविष्टः । साऽपि तं चौरमवलोक्य भयव्याकुला वृद्धमपि पति गाढं समालिलिङ्ग । सोऽपि विस्मयात् पुलकाङ्कितसर्वगात्रश्चि- न्तयामास अहो ! किमेषा मामद्यावगूहते । अहो चित्रमेतत् । ततश्च यावन्निपुणतयावलोकयति तावत् चौरः प्रविष्टः कोणैकदेशे तिष्ठति । पुनरप्यचिन्तयत्- ‘तूममेषा चौरस्य भयान्मामालिङ्गति । तज्ज्ञात्वा चौरमाह - ‘या ममोद्विजते नित्यं सा-’ इति ( श्लो० ५५ ) । भूयोऽपि निर्गच्छन्तमवादीत् - ‘भो चोर ! नित्यमेव त्वया रात्रावागन्तव्यम् मदीयोऽयं विभवस्त्वदीयः’ इति । अतोऽहं ब्रवीमि - ‘या ममोद्विजते’
इ त रह भ के अ उ हु भय दि रा लि अ भ हि पि ए य म ज अ के ते च लब्धप्रणाशम् ४५ इत्यादि । किं बहुना - तेन च स्त्रीलुब्धेन स्वं सर्वमपि चौरस्य समर्पि- तम् । त्वयापि तथानुष्ठितम् । अनन्तर एक समय वह उस ( पति ) के साथ शय्या पर मुख फेरे हुए सो रही थी । उस समय कोई चोर घर में घुस आया । उस चोर को देखकर वह भयभीत हो वृद्ध पति को आलिङ्गन करने लगी । आश्चर्य के कारण उस वृद्ध के सब अङ्ग रोमान्चित हो गये और वह सोचने लगा ‘बाज यह क्यों मेरा आलिङ्गन कर रही है, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है’ यह सोच कर जब उसने सावधानी से इधर-उधर देखा, तो घुसे हुए चोर को एक कोने में खड़ा हुआ पाया । उसने फिर यह विचार किया कि ‘निश्चय ही यह इस चोर के भय से मुझे आलिङ्गन कर रही है ।’ यह समझ कर चोर से कहा- ‘या ममो- द्विजते’ इत्यादि (श्लो० ५५) । निकलते हुए चोर से फिर भी कहा- ‘हे चोर ! रात में तुम प्रतिदिन यहाँ आना, यह मेरा सारा ऐश्वर्य तुम्हारा ही है ।’ इस- लिये मैं कहता हूँ - ’ या ममोद्विजते’ इत्यादि । और क्या ? इस प्रकार उसने अपना सर्वस्व चोर को समर्पित कर दिया। तूने भी वैसा ही किया है । अथैवं तेन सह वदतो मकरस्य जलचरेणैकेनागत्याभिहितम्- ‘भो मकर ! त्वदीया भार्यानशनोपविष्टा त्वयि चिरयति प्रणयाभिभवा- द्विपन्ना ! ’ एवं तद्वज्रपातसदृशवचनमाकर्ण्यातीव्र व्याकुलितहृदयः प्रल- पितमेवं चकार - ‘अहो किमिदं सञ्जातं मे मन्दभागस्य । उक्तं च- जब वह मगर इस प्रकार उस वानर के साथ बातचीत कर रहा था, तब एक दूसरे जलचर ने आकर कहा- हे मगर ! अनशन व्रत धारण किये हुए तुम्हारी भार्या, तुम्हें देर होने पर अपने प्रेम का अपमान समझकर मर गई । यह सुन वह अत्यन्त उद्विग्न हो विलाप करने लगा- मुझ अभागे पर यह क्या आफत आ गई है। कहा भी है- न गृहं गृहमित्याहुर्गृहणी गृहमुच्यते । गृहं तु गृहिणीहीनं कान्तारान्नातिरिच्यते ॥ ५८ ॥ घर-घर नहीं कहलाता, किन्तु भार्या ही घर कही जाती है । पत्नीशून्य घर जङ्गल से बढ़ कर होता है ।। ५८ ।। अन्यच्च - वृक्षमूलेऽपि दयिता यत्र तिष्ठति तद्गृहम् । प्रासादोऽपि तया हीनोऽरण्यसदृशः स्मृतः ॥ ५९ ॥
४६ पश्ञ्चतन्त्रम् मोर भी- जहाँ वृक्ष के नीचे भी प्रिया मौजूद हो, वह वृक्षमूल ही घर है और दयिता से सूना राजमहल भी अरण्यतुल्य समझा जाता है ।। ५९ ॥ माता यस्य गृहे नास्ति भार्या च प्रियवादिनी । अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गृहम् ॥ ६० ॥ जिस पुरुष के घर में माता तथा मधुरभाषिणी पत्नी नहीं है, उसे अरण्य चले जाना चाहिए। क्योंकि उसके लिये जैसा अरण्य है, वैसा ही घर है ॥६०॥ तन्मित्र ! क्षम्यताम् । मया तेऽपराधः कृतः । सम्प्रत्यहं तु स्त्री- वियोगाद्वैश्वानरप्रवेशं करिष्यामि ।’ तत् श्रुत्वा वानरः प्रहसन्प्रोवाच - ‘भोः ! ज्ञातो मया प्रथममेव यत्त्वं स्त्रीवश्यः स्त्रीजितश्च । साम्प्रतं च प्रत्ययः सञ्जातः । तन्मूढ ! आनन्देऽपि जाते त्वं विषादं गतः । तादृग्भार्यायां मृतायामुत्सवः कर्तुं युज्यते । उक्तं च यतः- सो मित्र ! माफ करना, मैंने तुम्हारा बहुत बड़ा अपराध किया है, मैं अब स्त्रीवियोग से अग्नि में प्रविष्ट होकर जल मरूंगा । यह सुनकर वानर हँसता हुआ बोला- भाई ! यह मैंने पहले ही समझ लिया था कि तुम स्त्री के बशी- भूत और अधीन हो । अब पूरा विश्वास हो गया । ओ मूर्ख ! आनन्द के समय भी तू विषाद करता है ? ऐसी स्त्री के मरने पर तो उत्सव मनाना चाहिए । कहा भी है- या भार्या दुष्टचारित्रा सततं कलहप्रिया । भार्यारूपेण सा ज्ञेया विदग्धैर्दारुणा जरा ॥ ६१ ॥ जिसका चरित्र शुद्ध नहीं और जो सवंदा कलह (झगड़ा) पसन्द करती है, विद्वानों को चाहिए कि ऐसी पत्नी को भार्यारूप में भयङ्कर वृद्धावस्था ही समझें । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन नामापि परिवर्जयेत् । स्त्रीणामिह हि सर्वासां य इच्छेत्सुखमात्मनः ॥ ६२ ॥ इसलिये, इस संसार में जो मनुष्य अपनी भलाई चाहे, वह सब प्रकार की स्त्रियों का नाम भी छोड़ दे, ( उनके सम्भोग आदि का तो कहना ही क्या है ) ।। ६२ ॥ यदन्तस्तन्न जिह्वायां यज्जिह्वायां न तद्बहिः । यद्बहिस्तन कुर्वन्ति विचित्रचरिताः स्त्रियः ॥ ६३ ॥ स्त्रियों के मन में जो रहता है वह जिह्वा में नहीं, जो जिह्वा में रहता है वह बाहर नहीं और जो कल्याण की बात होती है, उसे करने की वे इच्छा नहीं करती हैं। स्त्रियों का चरित्र ही विचित्र होता है ।। ६३ ।।
स र अ भी प्रे क मे चि ठी 쇠의 어 स जो लब्धप्रणाशम् के नाम न विनश्यन्ति मिथ्याज्ञानान्नितम्बिनीम् । रम्यां ते उपसर्पन्ति दीपाभां शलभा यथा ।। ६४ ।। ४० मनुष्य बुद्धिभ्रम से स्त्री को मनोहर समझकर सेवन करते हैं, उनमें कीन ऐसा है, जो नष्ट नहीं होता, दीपशिखा पर गिरनेवाले पतङ्गों के समान सब ही नष्ट हो जाते हैं ॥ ६४ ॥ अन्तविषमया ह्य ेता बहिश्चैव मनोरमाः । गुञ्जाफलसमाकाराः स्वभावादेव योषितः ॥ ६५ ॥ क्योंकि ये स्त्रियाँ, गुञ्जाफल ( चौटली, घूंघची ) के समान स्वभाव से ही मन में विषपूर्ण और बाहर मनोरम होती हैं ॥ ६५ ॥ ताडिता अपि दण्डेन शस्त्रैरपि विखण्डिताः । न वशं योषितो यान्ति न दानैर्न च संस्तर्वः ॥ ६६ ॥ दण्डे से पीटने, शस्त्रों से घायल करने, दान और प्रशंसा के द्वारा भी स्त्रियाँ वश में नहीं होतीं ॥ ६६ ॥ आस्तां तावत्किमन्येन दौरात्म्येनेह योषिताम् । विधृतं स्वोदरेणापि घ्नन्ति पुत्रं स्वकं रुषा ।। ६७ ॥ स्त्रियों की अन्य किसी दुष्टता को जाने दीजिये, उसका वर्णन न करना ही अच्छा है, यही क्या कम है वे अपने उदर में धारण किये भी क्रोध से मार डालती हैं ।। ६७ ।। रूक्षायां स्नेहसद्भावं कठोरायां हुए अपने पुत्र को सुमार्दवम् । नीरसायां रसं बालो बालिकायां विकल्पयेत् ॥ ६८ ॥ स्त्री के स्वभाव को न समझनेवाला मूर्ख पुरुष कठोर चित्तवाली स्त्री में प्रेमभाव, निष्ठुर में कोमलता और स्नेहशून्य में अनुराग की भले ही कल्पना करे, किन्तु विद्वान् लोग ऐसा नहीं करते ।। ६८ ॥ मकर आह- ‘भो मित्र ! अस्त्वेतत् । परं किं करोमि । ममानर्थद्वय- मेतत्सञ्जातम् । एकस्तावद् गृहभङ्गः अपरस्त्वद्विधेन मित्रेण सह चित्तविश्लेषः । अथवा भवत्येवं दैवयोगात् । उक्तं च यतः- मगर ने कहा- हे मित्र ! यह बात (स्त्रियों के संबन्ध में जो आपने कहा ) ठीक है । परन्तु मैं क्या करूँ, मेरे तो दो अनर्थ हो गये । प्रथम तो स्त्री विनाश और द्वितीय तुम्हारे जैसे मित्र के साथ चित्त का फटना । अथवा, भाग्य से सताये हुए पुरुषों को ऐसा हुआ ही करता है । कहा भी है- ४ ५०
४८ पञ्चतन्त्रम् यादृशं मम पाण्डित्यं तादृशं द्विगुणं तव । नाभूज्जारो न भर्ता च किं निरीक्षसि नग्निके ॥ ६९ ॥ जैसा मेरा चातुर्य है तुम्हारा उसी तरह का मुझ से दूना है। तुम्हारा न तो स्वामी रहा और न यार ही रहा । हे नग्निके ! तू क्या देख रही है ।। ६९ ।। वानर आह- ‘कथमेतत् ?’ मकरोऽब्रवीत् - वानर ने कहा- यह कैसे ? मगर ने कहा- कथा १२ कस्मिश्चिदधिष्ठाने हालिकदम्पती प्रतिवसतः स्म । सा च हालिक- भार्या पत्युर्वृद्धभावात्सदेवान्यचित्ता न कथञ्चिद् गृहे स्थैर्यमालम्बते । केवलं परपुरुषानन्वेषमाणा परिभ्रमति । अथ केनचित्परवित्तापहारकेण धूर्तेन सा लक्षिता विजने प्रोक्ता च - ‘सुभगे ! मृतभार्योऽहम्। त्वद्दर्शनेन स्मरपीडितश्च । तद्दीयतां मे रतिदक्षिणा ।’ ततस्तयाऽभिहितम् -‘भोः सुभग ! यद्येवं तदस्ति मे पत्युः प्रभूतं धनम् । स च वृद्धत्वात्प्रचलितुम- प्यसमर्थः । ततस्तद्धनमादायाहमागच्छामि । येन त्वया सहान्यत्र गत्वा यथेच्छया रतिसुखमनुभविष्यामि ।’ सोऽब्रवीत् - ’ रोचते मह्यमप्येतत् । तत्प्रत्यूषेऽत्र स्थाने शीघ्रमेव समागन्तव्यम्, येन शुभतरं किञ्चिन्नगरं गत्वा त्वया सह जीवलोकः सफलीक्रियते’ सापि ‘तथा’ इति प्रतिज्ञाय प्रहसितवदना स्वगृहं गत्वा रात्री प्रसुप्ते भर्तरि सर्व वित्तमादाय प्रत्यूष- समये तत्कथितस्थानमुपाद्रवत् । धूर्तोऽपि तामग्रे विधाय दक्षिणां दिश- माश्रित्य सत्वरगतिः प्रस्थितः । किसी स्थान में किसान पति-पत्नी रहते थे। पति के वृद्ध होने के कारण किसान की पत्नी का चित्त सदा अन्य पुरुषों में लगा रहता था, किसी प्रकार भी वह घर में स्थिर नहीं रहती थी। केवल अन्य पुरुषों की तलाश करती हुई घूमा करती थी । एक समय दूसरों का धन हरनेवाले किसी धूर्त उसको देखकर ताड़ गया और एकान्त में उससे कहा- हे सुन्दरि ! मेरी पत्नी मर चुकी है और तुम्हारे सौन्दर्य को देखकर काम ने मुझे हृदय में पीडित कर दिया है । इसलिये मुझे रतिदक्षिणा दो । तब उसने कहा- ‘हे सुभग ! अगर ऐसा है तो (ठीक है) मेरे पति के पास बहुत धन है परन्तु वृद्ध होने के कारण वह चलने में भी असमर्थ है, इसलिये उसका धन लेकर मैं आती हूँ, जिससे तेरे साथ किसी
दूस पसन् नग ऐसी पर कर दृष्ट् ष्या स्या वाच गच्छ सा अथ जल यथा पुलि मांस तीरे सा तीयं शृग लोक प्राप्त ( प्री कोई में फ कर है, न 1 1 ग न 1: 7- य TTM 可 को ती लब्धप्रणाशम् ४९ दूसरे स्थान पर जाकर रति-सुख भोगूंगी ।’ उसने कहा - ‘यह बात मुझे भी पसन्द है । प्रातः काल तुम यहाँ शीघ्र ही आ जाना, जिससे किसी उत्तम नगर में पहुँचकर तेरे साथ संसार का सुख भोगूं ।’ वह भी ‘ऐसा ही होगा’ ऐसी प्रतिज्ञा कर प्रसन्न हो अपने घर गई और रात्रि में पर सब धन लेकर, प्रातःकाल निर्दिष्ट स्थान पर पहुँची । करके दक्षिण की तरफ जल्दी-जल्दी रवाना हुआ । पति के सो जाने धूतं भी उसे आगे एवं तयोर्व्रजतोर्योजनद्वयमात्रेणाग्रतः काचिन्नदी समुपस्थिता । तां दृष्ट्वा धूर्तश्चिन्तयामास - ‘किमहमनया यौवनप्रान्ते वर्तमानया करि- ष्यामि । किं च कदाप्यस्याः पृष्ठतः कोऽपि समेष्यति, तन्मे महाननर्थः स्यात् । तत्केवलमस्या वित्तमादाय गच्छामि ।’ इति निश्चित्य तामु- वाच - ‘प्रिये ! सुदुस्तरेयं महानदा । तदहं द्रव्यमात्रां पारे धृत्वा, समा- गच्छामि । ततस्त्वामेकाकिनीं स्वपृष्ठमारोप्य सुखेनोत्तारयिष्यामि । सा प्राह- सुभग ! एवं क्रियताम् । इत्युक्त्वाशेषं वित्तं तस्मै समर्पयामास । अथ तेनाभिहितम् - ‘भद्रे ! परिधानाच्छादनवस्त्रमपि समर्पय, येन जलमध्ये निःशङ्का व्रजसि ।’ तथानुष्ठिते धूर्तो वित्तं वस्त्रयुगलं चादाय यथाचिन्तितविषयं गतः । साऽपि कण्ठनिवेशितहस्तयुगला सोद्वेगा नदी- पुलिनदेश उपविष्टा यावत्तिष्ठति तावदेतस्मिन्नन्तरे काचिच्छृगालिका मांसपिण्डगृहीतवदना तत्राजगाम । आगत्य च यावत्पश्यति, तावन्नदी- तीरे महान्मत्स्यः सलिलान्निष्क्रम्य बहिः स्थित आस्ते । एतं च दृष्ट्वा सा मांसपिण्डं समुत्सृज्य तं मत्स्यं प्रत्युपाद्रवत् । अत्रान्तरं आकाशादव- तीर्य कोऽपि गृध्रस्तं मांसपिण्डमादाय पुनः खमुत्पपात । मत्स्योऽपि शृगालिकां दृष्ट्वा नद्यां प्रविवेश । सा शृगालिका व्यर्थश्रमा गृधमव- लोकयन्ती तया नग्निकया सस्मितमभिहिता- इस प्रकार जब वे दोनों जा रहे थे, तब दो योजन ( ८ कोस ) आगे } प्राप्त हुई नदी को देखकर धूर्त ने विचार किया - जवानी के किनारे पर ( प्रौढ़ावस्था में वर्तमान ) पहुँची हुई, इसका मैं क्या करूंगा । और भी यदि कोई इसके पीछे ( तलाश करने के लिए ) आया, तो मुझे बड़ी भारी विपत् में फँसना पड़ेगा । इसलिए केवल इसका धन लेकर चला जाऊं । यह निश्चय कर (उसने उससे कहा है प्रिये ! इस महानदी का पार करना बड़ा कठिन है, इसलिए ( प्रथम ) धन को पार में रखकर आता है । फिर तुम्हें अपनी
५० पञ्चतन्त्रम् पीठ पर चढ़ाकर आसानी से पार ले जाऊँगा ।’ उसने कहा- ‘सुभग ! ऐसा ही करो ।’ यह कहकर सारा धन उसे ( धूर्त को ) सौंप दिया। तब धूर्त ने फिर कहा - ‘हे भद्रे ! ओढ़ने-पहनने के कपड़े भी दो, जिससे जल में निर्भय चल सकोगी ।’ वैसा ही करने पर - वस्त्र भी सौंप देने पर - धूतं धन तथा दोनों वस्त्र लेकर अपने मनचाहे स्थान को चला गया । वह ( स्त्री भी ) गले में दोनों हाथ डाले हुए (उरोज ढकने के लिए) नदी के किनारे जब बैठी हुई थी, उसी समय मुख में मांसपिण्ड लिये हुए कोई शृगाली वहीं आई। उसने वहाँ आकर देखा कि एक बड़ा भारी मत्स्य जल से निकलकर बाहर बैठा हुआ है । यह देख, वह शृगाली मांसपिण्ड छोड़कर उस मत्स्य की ओर दोड़ी। इसी समय आकाश से उतर कर कोई गिद्ध उस मांसपिण्ड को लेकर आकाश में उड़ गया। इधर मत्स्य भी शृगाली को देखकर जल में घुस गया। इस प्रकार शृगाली का सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया और वह गिद्ध की तरफ देखने लगी । तब उस स्त्री ने मुस्कराकर कहा- ‘गृध्रेणापहृतं मांसं मत्स्योऽपि सलिलं गतः । मत्स्यमांसपरिभ्रष्टे किं निरीक्षसि जम्बुके’ ।। ७० ।। गिद्ध ने मांस हर लिया और मत्स्य भी जल में घुस गया । हे मत्स्य मोर मांस दोनों को खानेवाली शृगाली ! अब तू क्या ताक रही है || ७० ॥ तच्छ्रुत्वा शृगालिका तामपि पतिधनजारपरिभ्रष्टां दृष्ट्वा सोप- हासमाह - ‘यादृशं मम पाण्डित्य’ मित्यादि ( श्लो० ६९ ) यह सुन शृगालिका ने भी पति, धन और जार तीनों से बिछुड़ी हुई उस स्त्री से उपहासपूर्वक कहा - ‘यादृशं मम पाण्डित्यम्’ इत्यादि । एवं तस्य कथयतः पुनरन्येन जलचरेणागत्य निवेदितम् - ‘यदहो, त्वदीयं गृहमप्यपरेण महामकरेण गृहीतम् ।’ तच्छ त्वासावतिदुःखित- मनास्तं गृहान्निसारयितुमुपायं चिन्तयन्नुवाच - अहो ! पश्यतां मे देवो- पहतत्वम् । जब वह इस प्रकार कह रहा था उसी समय किसी अन्य जलचर ने आकर कहा ‘तुम्हारा घर भी अन्य महामकर ने घेर लिया है।’ यह सुनकर वह अत्यन्त दुःखित हो, उस मकर को घर से निकालने का उपाय सोचने लगा, ( कहने लगा कि ) मेरा दुर्भाग्य देखो- मित्रं ह्यमित्रतां यातमपरं मे प्रिया मृता । गृहमन्येन च व्याप्तं किमद्यापि भविष्यति ।। ७१ ।।
लिय है, वस्थ होने सम् मु कि कुछ उपदे विघ् मित्र मक साम पाप मूर्ख मेरा लिए किस ऐसा लब्धप्रणाशम् ५१ र्तने नर्भय तथा गले हुई उसने हुआ इसी उड़ कार गी। और तोप- उस दहो, स्वत- देवो- कर वह लगा, मित्र शत्रु हो गया, मेरी पत्नी भी मर गई और घर भी दूसरे ने घेर लिया, न मालूम अब और क्या होगा ।। ७१ ।। अथवा युक्तमिदमुच्यते- अथवा यह ठीक ही कहा है- क्षते प्रहारा निपतन्त्यभीक्ष्णमन्नक्षये वर्धति जाठराग्निः । आपत्सु वैराणि समुद्भवन्ति वामे विधी सर्वमिदं नराणाम् ॥७१॥ घाव में ही हमेशा चोट लगा करती है, धनाभाव में भूख भी बढ़ जाती है, विपत्तिकाल में शत्रुता उठ खड़ी होती है, इस प्रकार मनुष्य की विपन्ना- वस्था में ही सब अनर्थ बढ़ जाया करते हैं । ( पाठान्तर में - भाग्य के प्रतिकूल होने पर मनुष्यों के ऊपर ये सब विपत्तियां पड़ती हैं ) ।। ७२ ।। तत्किं करोमि । किमनेन सह युद्धं करोमि । किं वा साम्नैव सम्बोध्य गृहान्निःसारयामि । किं वा भेदं दानं वा करोमि । अथवा- ऽमुमेव वानरमित्रं पृच्छामि । उक्तं च- तब, उसके साथ युद्ध करूँ, अथवा शान्ति से समझाकर ही घर से निकालूं ? किं वा भेद अथवा दान करूं (किसी दूसरे से लड़ाकर इसका नाश करूँ अथवा कुछ देकर निकालूं ) अथवा इस मित्र वानर से ही पूछूं। कहा भी है- यः पृष्ट्वा कुरुते कार्यं प्रष्टव्यान् स्वहितान् गुरून् । न तस्य जायते विघ्नः कस्मिंश्चिदपि कर्मणि ॥ ७३ ॥ जो मनुष्य, पूछने योग्य पुरुषों से ( अपने बड़े व मित्रों से), जिनका उपदेश लाभदायक होता है, पूछकर कार्य करता है, उसके किसी भी कार्य में विघ्न उपस्थित नहीं होता ।। ७३ ।। एवं सम्प्रधार्यं भूयोऽपि तमेव जम्बूवृक्षमारूढं कपिमपृच्छत् – ‘भो मित्र ! पश्य मे मन्दभाग्यताम् । तत्सम्प्रति गृहमपि मे बलवत्तरेण मकरेण रुद्धम् । तदहं त्वां प्रष्टुमभ्यागतः । कथय किं करोमि ? सामादीनामुपायानां मध्ये कस्यात्र विषयः स आह— ‘भोः कृतघ्न पापचारिन् ! मया निषिद्धोऽपि किं भूयो मामनुसरसि । नाहं तव मूर्खस्योपदेशमपि दास्यामि ।’ यह विचार कर जम्बू-वृक्ष पर चढ़े हुए वानर से फिर पूछा- हे मित्र ! मेरा दुर्भाग्य देखो, मेरा घर भी किसी बलवान् मकर ने घेर लिया है । इस- लिए मैं तुमसे पूछता हूँ, कहो क्या करूँ । साम आदि (चार) उपायों में से यहाँ किसका उपयोग है ?’ उसने कहा- अरे कृतघ्न 1 जब कि मैं तुझे ( अपने
५२ पञ्चतन्त्रम् पास जाने को ) मना कर चुका, तब फिर क्यों मेरे पीछे लगा है, मैं तुझ मूखं को उपदेश भी देना नहीं चाहता । तच्छ्र ुत्वा मकरः प्राह - ‘भो मित्र ! सापराधस्य मे पूर्व स्नेह- मनुस्मृत्य हितोपदेशं देहि ।’ वानर आह- ‘नाहं ते कथयिष्यामि । यद्भार्यावाक्येन भवताऽहं समुद्रे प्रक्षेप्तुं नीतः । तदेवं न युक्तम् । यद्यपि भार्या सर्व लोकादपि वल्लभा भवति, तथापि न मित्राणि बान्धवारच भार्यावाक्येन समुद्रे प्रक्षिप्यन्ते । तन्मूर्ख ! मूढत्वेन नाशस्तव मया प्रागेव निवेदित आसीत् । यतः - यह सुनकर मकर ने कहा - ‘हे मित्र ! यद्यपि मैं आप का अपराधी हूँ, तथापि प्रथम स्नेह का स्मरण कर मुझे कोई उपाय बताओ ।’ वानर बोला- मैं नहीं कहूँगा क्योंकि तुम मुझे स्त्री के कहने से समुद्र में डुबाने के लिए ले गये थे। यह उचित नहीं था । यद्यपि यह ठीक है कि पत्नी समस्त संसार से ( सब लोगों से) प्यारी होती है तो भी स्त्री के लिए मित्र तथा कुटुम्बी समुद्र में नहीं फेंके जाते । मरे मूर्ख ! मूर्खता के कारण तेरे सर्वनाश की बात मैंने पहले ही कही थी । ( तुझे धिक्कार है, जो तूने स्त्री के लिए यह दुष्कर्म करना प्रारम्भ किया था । स्त्रियों का तो किसी भी दशा में विश्वास न करना चाहिए । ) क्योंकि - सतां वचनमादिष्टं मदेन न करोति यः । स विनाशमवाप्नोति घण्टोष्ट्र इव सत्वरम् ॥ ७४ ॥ जो मनुष्य, मूर्खता के कारण सज्जनों के बताये हुए वचनों का तिरस्कार करता है–उनके अनुसार कार्य नहीं करता वही पुरुष, सिंह से दासेरक- ऊंट के बच्चे के समान नाश को प्राप्त होता है ।। ७४ ॥ मकर आह- ‘कथमेतत् ?’ सोऽब्रवीत्- मकर ने कहा- ‘यह कैसे ?’ उसने कहा- कथा १३ कस्मिश्चिदधिष्ठाने उज्ज्वलको नाम रथकारः प्रतिवसति स्म । स चातीव दारिद्रयोपहतश्चिन्तितवान्- ‘अहो ! धिगियं दरिद्रताऽस्मद्गृहे । यतः सर्वोऽपि जनः स्वकर्मणैव रतस्तिष्ठति । अस्मदीयः पुनर्व्यापारो नात्राधिष्ठानेऽर्हति । यतः सर्वलोकानां चिरन्तनाश्चतुर्भूमिका गृहाः सन्ति । मम च नात्र । तत्कि मदीयेन रथकारत्वेन प्रयोजनम् । इति चिन्तयित्वा 220. Mumhakshu Bhमदायन ।तुझ नेह- म द्यपि श्च नया हूँ, • गये ( सब नहीं के = 1) कार क- 1 स गृहे । पारो सन्ति । यत्वा लब्धप्रणाशम् ५३ देशान्निष्क्रान्तः । यावत्किञ्चिद्वनं गच्छति तावद्गह्वराकारवनगहन- मध्ये सूर्यास्तमनवेलायां स्वयूथाद् भ्रष्टां प्रसववेदनया पीड्यमाना - मुष्ट्रीमपश्यत् । स च दासेरकयुक्तामुष्ट्रीं गृहीत्वा स्वस्थानाभिमुखः प्रस्थितः । गृहमासाद्य रज्जुं गृहीत्वा तामुष्ट्रिकां बबन्ध । ततश्च तीक्ष्णं प्रशुमादाय तस्याः पल्लवानयनार्थं पर्वतैकदेशे गतः । तत्र च नूतनानि कोमलानि बहूनि पल्लवानि छित्त्वा शिरसि समारोप्य तस्याग्रे निचि- क्षेप | तया च तानि शनैः शनैर्भक्षितानि । पश्चात्पल्लवभक्षणप्रभावाद- हर्निशं पीवरतनु रुष्ट्री सञ्जाता । सोऽपि दासेरको महानुष्ट्रः सञ्जातः । ततः स नित्यमेव दुग्धं गृहीत्वा स्वकुटुम्बं परिपालयति । अथ रथकारेण वल्लभत्वाद्दासेरकग्रीवायां महती घण्टा प्रतिबद्धा । पश्चाद्रथकारो व्य- चिन्तयत्- ‘अहो ! किमन्यैर्दुष्कृतकर्मभिः, यावन्ममैतस्मादेवोष्ट्रापरिपाल- नादस्य कुटुम्बस्य भव्यं सञ्जातम् । तत्किमन्येन व्यापारेण ।’ एवं विचि- न्त्य गृहमागत्य प्रियामाह - ‘भद्रे ! समीचीनोऽयं व्यापारः । तव सम्मति- श्चेत्कुतोऽपि धनिकात्किञ्चिद् द्रव्यमादाय मया गुर्जरदेशे गन्तव्यं कल- भग्रहणाय । तावत्त्वयैतौ यत्नेन रक्षणीयो । यावदहमपरामुष्ट्रीं नीत्वा समागच्छामि ।’ ततश्च गुर्जरदेशं गत्वोष्ट्रीं गृहीत्वा स्वगृहमागतः 4 किं बहुना ? तेन तथा कृतं यथा तस्य प्रचुरा उष्ट्राः करभाश्च सम्मि- लिताः । ततस्तेन महदुष्ट्रयूथं कृत्वा रक्षापुरुषो धृतः । तस्य प्रतिवर्षं वृत्या करभमेकं प्रयच्छति । प्रतिवर्षं अन्यच्चाहनिशं दुग्धपानं तस्य निरूपितम् । एवं रथकारोऽपि नित्यमेवोष्ट्रीकरभव्यापारं कुर्वन्सुखेन तिष्ठति । अथ ते दासेरका अधिष्ठानोपवनाहारार्थं गच्छन्ति । कोमल- वल्लीर्यथेच्छ्या भक्षयित्वा महति सरसि पानीयं पीत्वा सायंतनसमये मन्दं मन्दं लीलया गृहमागच्छन्ति । स च पूर्वदासेरको मदातिरेकात्पृष्ठ आगत्य मिलति । ततस्तैः कलभैरभिहितम् - ‘अहो ! मन्दमतिरयं दासेरको यथा यूथाद् भ्रष्टः पृष्ठे स्थित्वा घण्टां वादयन्नागच्छति । यदि कस्यापि दुष्टसत्त्वस्य मुखे पतिष्यति, तन्नूनं मृत्युमवाप्स्यति । अथ तस्य तद्वनं गाहमानस्य कश्चित्सिही घण्टारवमाकर्ण्य समायातः । याव- दवलोकयति, तावदुष्ट्रीदासेरकाणां यूथं गच्छति । एकस्तु पुनः पृष्ठे क्रीडां कुर्वन्वल्लरीश्चरन्यावत्तिष्ठति, तावदन्ये दासे रकाः पानीयं पीत्वा स्वगृहे गताः । सोऽपि वनान्निष्क्रम्य यावद्दिशोऽवलोकयति, तावन्न
५४ पञ्चतन्त्रम् कञ्चिन्मार्गं पश्यति वेत्ति च । यूथाद् भ्रष्टो मन्दं मन्दं बृहच्छब्दं कुर्व- न्यावत्कियद्दूरं गच्छति, तावत्तच्छन्दानुसारी सिंहोऽपि क्रमं कृत्वां निभृतोऽग्रे व्यवस्थितः । ततो यावदुष्ट्रः समीपमागतः तावत्सहेन लम्भ- यित्वा ग्रीवायां गृहीतो मारितश्च । अतोऽहं ब्रवीमि - ‘सतां वचनमा- दिष्टम्’ इति । ( श्लो० ७४ ) किसी नगर में उज्ज्वलक नामक बढ़ई रहता था । अत्यन्त दरिद्रता से पीड़ित हो उसने विचार किया - हमारे घर की दरिद्रता को धिक्कार है; क्योंकि सभी मनुष्य अपने-अपने काम में खुशहाल हैं, हमारा काम इस नगर में नहीं चल सकता । सब लोगों के चौमञ्जिले महल हैं, फिर मेरी इस बढ़ईगिरी से क्या लाभ ? यह सोचकर वह अपने देश से निकल पड़ा । जब किसी वन में पहुँचा, तब गुफा के आकारवाले घने वन में, सायंकाल के समय, अपने झुण्ड से बिछुड़ी हुई, प्रसववेदना से पीड़ित उसने उष्ट्री देखी । तब वह बच्चे सहित ऊँटनी को लेकर अपने घर की तरफ चल दिया तथा घर पहुँचकर रस्सी से ऊँटनी बाँध दी । अनन्तर, तेज कुठार लेकर उसके लिए पत्ते लाने को पर्वत के पास गया। वहाँ से बहुत से नये कोमल पत्ते काट कर सिर पर रख लाया और उसके सामने डाल दिये । उसने धीरे-धीरे खा लिए । इस प्रकार प्रतिदिन पत्ते खाने के प्रभाव से ऊँटनी मोटी-ताजी हो गई और वह बच्चा भी बड़ा ऊंट हो गया और वह रथकार भी प्रतिदिन दूध पाकर कुटुम्ब पालने लगा । रथकार ने प्रिय होने के कारण ऊँट के गले में बड़ा भारी घण्टा बांध दिया। तब रथकार ने सोचा- अन्य कठिन काम करने से क्या लाभ ? जब कि इस एक ही ऊँटनी के पालने से मेरे कुटुम्ब का मला ( कल्याण ) हो गया, तब अन्य व्यापार करने से क्या प्रयोजन ? यह सोच और घर आकर उसने अपनी पत्नी से कहा - भद्रे ! यह व्यापार बहुत अच्छा है । तुम्हारी सम्मति हो तो किसी साहूकार से कुछ धन लेकर ऊँटनी के बच्चे लेने के लिए गुजरात चला जाऊँ, जब तक मैं दूसरी ऊँटनी लेकर लोहूं, तब तक ध्यान से तुम इसकी रक्षा करना । अनन्तर, गुजरात जाकर और वहाँ से ऊँटनी लेकर घर लौट आया। अधिक कहने से क्या लाभ ? उसने ऐसा यत्न किया कि उसके पास बहुत से ऊँट और बच्चे इकट्ठे हो गये, तब उसने ऊंटों का झुण्ड बनाकर एक रखवाला रख दिया । उसे वेतन रूप में - साल में एक बच्चा देता था और प्रतिदिन दूध भी बाँध दिया। इस प्रकार वह रथकार सदा ऊँटनी और उसके बच्चों का व्यापार ( दूध व बच्चे
5 न 5 T 시 व लब्धप्रणाशम् ५५ चेचना ) करता हुआ आराम से रहने लगा । वे ऊँट, अपने रहने के स्थान के समीपवर्ती वन में चरने के लिए जाया करते और कोमल लताएँ खाकर और सरोवर में पानी पीकर, सायङ्काल के समय धीरे-धीरे खेलते-कूदते घर आया करते थे । परन्तु सबसे पहिला ऊंट, जवानी के गर्व से पीछे आकर मिलता था। तब उन्होंने कहा- यह ऊंट बड़ा ही दुर्बुद्धि है, जो यूथ से पृथक् हो, पीछे रहकर घण्टा वजाता हुआ आता है । यदि किसी दृष्ट प्राणी की दृष्टि में पड़ गया, तो निश्चय ही मरेगा । ( एक दिन ) जब वे उस वन में चर रहे थे, तब कोई सिंह घण्टे का शब्द सुनकर वहीं माया और उसने देखा कि ऊँटनी ओर ऊंटों का झुण्ड जा रहा है । इधर जब उनमें से एक पीछे रहकर, क्रीड़ा करता हुआ और लताएँ चरता हुआ जा रहा था, तब तक दूसरे ऊँट जल पीकर घर पहुँच गये । जब उसने जंगल से निकलकर इधर-उधर देखा, तब उसे रास्ता समझ में न आया। अपने झुण्ड से बिछुड़कर घण्टे का महाशब्द करता हुआ जब वह कुछ दूर पहुँचा, तब उसके शब्द के अनुसार, आक्रमण के लिए तैयार हो सिंह आगे खड़ा हो गया ! अनन्तर, जब वह ऊंट पास आया, तब सिंह ने कूद कर उसकी गर्दन पकड़ ली और मार डाला । इसलिये मैं कहता हूँ — ‘सतां वचनमादिष्टम्’ इत्यादि ( श्लो० ७४ ) । अथ तच्छ्र ुत्वा मकरः प्राह - ‘भद्र ! उपदेशप्रदातॄणां नराणां हितमिच्छताम् । परस्मिन्निह लोके च व्यसनं नोपपद्यते ॥ ७५ ॥ यह सुनकर मकर ने कहा-भद्र ! उपदेश देनेवाले और दूसरों की भलाई चाहनेवाले पुरुषों को इस लोक और परलोक में भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता ।। ७५ ।। तत् सर्वथा कृतघ्नस्यापि मे कुरु प्रसादमुपदेश प्रदानेन । उक्तं च- इसलिए, यद्यपि मैं सर्वथा कृतघ्न हूँ, तो भी मुझे उपदेश देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करो । कहा भी है- उपकारिषु यः साधुः साधुत्वे तस्य को गुणः । अपकारिषु यः साधुः स साधुः सद्भिरुच्यते ।। ७६ ।। जो मनुष्य अपने साथ उपकार करनेवालों के प्रति सद्व्यवहार करता है, उसकी इन सज्जनता में क्या प्रशंसा है ? अपना अहित करनेवालों के प्रति जो सद्व्यवहार करता है, सज्जन लोग उसे ही सत्पुरुष कहते हैं ।। ७६ ॥
५६ पश्ञ्चतन्त्रम् तदाकर्ण्य वानरः प्राह - ‘भद्र ! यद्येवं तहि तत्र गत्वा तेन सह युद्ध कुरु’ । उक्तं च- यह सुन वानर ने कहा— भद्र ! यदि यह बात है तो जाकर उसके साथ युद्ध करो। क्योंकि- हतस्त्वं प्राप्स्यसि स्वर्गं जीवन्गृहमथो यशः । युध्यमानस्य ते भावि गुणद्वयमनुत्तमम् ॥ ७७ ॥ तुम, यदि युद्ध में मारे गये, तो स्वर्ग पाओगे और यदि (विजयी होकर ) जीवित रहे, तो घर और कीर्ति प्राप्त करोगे । इस प्रकार युद्ध करते हुए तुम्हें दो उत्तम गुणों की प्राप्ति होगी ॥ ७७ ॥ उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् । नीच मल्पप्रदानेन समशक्ति पराक्रमैः ॥ ७८ ॥ श्रेष्ठ पुरुष को नम्रता से, बलवान् को भेद से (आपस में फूट डलवाकर ), नीच ( ओछे मतवाले) को कुछ देकर और समान शक्तिवाले को शूरता के द्वारा वश में करना चाहिये ।। ७८ ।। मकरः प्राह - ‘कथमेतत् ?’ सोऽब्रवीत् - मकर ने कहा- यह कैसे ? उसने कहा- कथा १४ आसीत्कस्मिश्चिदेशे महाचतुरको नाम शृगालः । तेन कदाचिद- रण्ये स्वयं मृतो गजः समासादितः तस्य समन्तात्परिभ्रमति, परं कठिनां त्वचं भेत्तुं न शक्नोति । अथात्रावसर इतश्चेतश्च विचरन् कश्चित्सिह- स्तत्रैव प्रदेशे समाययो । अथ सिंहं समागतं दृष्ट्वा स क्षितितलविन्य- स्तमौलिमण्डलः संयोजित करयुगलः सविनयमुवाच - स्वामिन् ! त्वदी- योऽहं लागुडिकः स्थितस्त्वदर्थे गजमिमं रक्षामि । ‘तदेनं भक्षयतु स्वामी ।’ तं प्रणतं दृष्ट्वा सिंहः प्राह- ‘भोः ! नाहमन्येन हतं सत्त्वं कदाचिदपि भक्षयामि । तत्तवैव गजोऽयं मया प्रसादीकृतः । किसी वन में महाचतुरक नामक श्रृंगाल रहता था । एक समय उसने वन में स्वयं मरा हुआ हाथी पाया । वह उसके चारों तरफ घूमता रहा । परन्तु उसका कड़ा चमड़ा न काट सका । इसी समय, कोई सिंह इधर-उधर घूमता हुआ उसी स्थान पर आ पहुंचा । उसको आया हुआ देखकर वह
Phot य i ने -+ । 员 लब्धप्रणाशम् ५७ शृगाल पृथ्वी में मस्तक रख तथा कमलतुल्य हाथ जोड़कर नम्रता से बोला- हे स्वामिन् ! मैं तुम्हारा सिपाही (रक्षापुरुष) तुम्हारे लिये इस हाथी की रक्षा कर रहा हूँ, इसलिये तुम इसे भक्षण करो । तब सिंह ने कहा- मैं कभी भी दूसरे से मारा हुआ जानवर नहीं खाता, इसलिये यह हाथी मैं तुम्हें ही इनाम में देता हूँ । तच्छ्र ुत्वा शृगालः सानन्दमाह - ‘युक्तमिदं स्वामिनो निजभृत्येषु । उक्तं च यतः- यह सुनकर श्रृंगाल आनन्दपूर्वक बोला- ‘प्रभु के लिये अपने भृत्यों के प्रति यह बात उचित ही है । कहा भी है- अन्त्यावस्थोऽपि महान्स्वामिगुणान्न जहाति शुद्धतया । न श्वेतभावमुज्झति शङ्खः शिखिभुक्तमुक्तोऽपि ।। ७९ ।। महान् ( उदार ) पुरुष, विपत्ति की पराकाष्ठा पाकर भी ( महासङ्कट में फंसकर भी ) पवित्रता के कारण ( महोदार होने से ) प्रभु के गुणों को नहीं छोड़ता, जैसे कि शंख अग्नि से जलाये जाने पर भी अपने स्वाभाविक गुण सफेदी को नहीं छोड़ता ।। ७९ ।। अथ सिंहे गते कश्चिद् व्याघ्रः समाययौ । तमपि दृष्ट्वाऽसौ व्य- चिन्तयत्- ‘अहो ! एकस्तावद् दुरात्मा प्रणिपातेनापवाहितः । तत्कथ- मिदानीमेनमपवाहयिष्यामि ? नूनं शूरोऽयम् । न खलु भेदं विना साध्यो भविष्यति । उक्तं च यतः- अनन्तर सिंह के चले जाने पर कोई व्याघ्र आया । उसे देख, श्रृंगाल ने सोचा- एक दुष्ट को तो नम्रता से दूर किया, अब इसे कैसे हटाऊँ ? यह शूर है, अत: भेद के बिना वश में नहीं आयेगा । कहा भी है- न यत्र शक्यते कतु साम दानमथापि वा । भेदस्तत्र प्रयोक्तव्यो यतः स वशकारकः ।। ८० ।। जहाँ साम अथवा दान न किये जा सकें-जहाँ इनसे काम न चल सके, वहाँ भेद का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि भेद वश में लाने का अच्छा उपाय है ।। ८० ।। किश्च सर्वगुणसम्पन्नोऽपि भेदेन वध्यते । उक्तं च यतः- क्योंकि, सब गुणों से युक्त भी भेद से नष्ट किया जा सकता है। कहा भी है- अन्तःस्थेन विरुद्धेन सुवृत्तेनातिचारुणा । अन्तभिन्नेन सम्प्राप्तं मौक्तिकेनापि बन्धनम् ।। ८१ ।।
५८ पश्चतन्त्रम् इस पद्य के दो अर्थ हैं ( १ ) अत्यन्त निर्मल ( श्वेत ), बिना बिंधा हुआ, गोल और सुन्दर मोती भी बिंधने पर बन्धन में पड़ जाता है ( हार में पिरोया जाता है) । ( २ ) अत्यन्त शुद्ध चरित्र, अनुकूल सदाचारी, प्रियदर्शन मोर मुक्ति की इच्छा रखनेवाला पुरुष भी परमात्मा से भिन्न होने पर ( चित्त की एकाग्रता नष्ट होने पर ) संसारबन्धन में पड़ जाता है ।। ८१ ।। एवं सम्प्रधार्यं तस्याभिमुखो भूत्वा गर्वादुन्नतकन्धरः ससम्भ्रम- मुवाच - ‘माम ! कथमत्र भवान्मृत्युमुखे प्रविष्टः । येनैष गजः सिंहेन व्यापादितः । स च मामेतद्रक्षणे नियुज्य नद्यां स्नानार्थं गतः । तेन च गच्छता मम समादिष्टम् — ‘यदि कश्चिदिह व्याघ्र समायाति, त्वया सुगुप्तं मामावेदनीयम् । येन वनमिदं मया निर्व्याघ्र कर्तव्यम् । यतः पूर्वं व्याघ्र णैकेन मया व्यापादितो गजः शून्ये भक्षयित्वोच्छिष्टतां नीतः । तद्दिनादारभ्य व्याघ्रान्प्रति प्रकुपितोऽस्मि ।’ तच्छू त्वा व्याघ्रः संत्रस्तमाह — ‘भो भागिनेय ! देहि मे प्राणदक्षिणाम् । त्वया तस्यात्र चिरायायातस्यापि मदीया कापि वार्ता नाख्येया ।’ एवमभिधाय सत्वरं पलायाश्वक्रे । यह निश्चय कर, उसके सामने हो, गर्दन उठा जल्दी से बोला- हे मामा ! यहाँ तुम मौत के मुँह में क्यों आ रहे हो, क्योंकि अभी यह हाथी सिंह ने मारा है और वह मुझे इसकी रखवाली में नियुक्त कर स्नान करने गया है । जाते समय उसने मुझे आज्ञा दी है कि यदि कोई व्याघ्र यहां आये, तो चुपचाप मुझे सूचित करना, क्योंकि मुझे यह वन व्याघ्रों से खाली कर देना है, एक समय पहिले एक व्याघ्र ने मेरे मारे हुए हाथी को सूने में खाकर जूठा कर दिया था, उसी दिन से मुझे व्याघ्रों के प्रति बड़ा क्रोध है । यह सुनकर व्याघ्र ने भयभीत हो उससे कहा- हे भानजे ! ( भगिनी पुत्र ) मुझे प्राणों की दक्षिणा दो, वह चाहे कितनी ही देर में आये तो भी तू, मेरे सम्बन्ध में कोई बात उससे न कहना । यह कहकर वह तुरन्त भाग गया । 1 अथ गते व्याघ्र तत्र कश्चिद् द्वीपी समायातः । तमपि दृष्ट्वासौ व्यचिन्तयत् - ‘दृढदंष्ट्रोऽयं चित्रकः । तदस्य पर्वादस्य गजस्य यथा चर्मच्छेदो भवति तथा करोमि ।’ एवं निश्चित्य तमप्युवाच - ‘भो भगिनीसुत ! किमिति चिराद् दृष्टोऽसि । कथं च बुभुक्षित इव लक्ष्य- से ? तदतिथिरसि मे । एष गजः सिंहेन हतस्तिष्ठति । अहं चास्य
लब्धप्रणाशम् ५९ तदादिष्टो रक्षपाल: । परं तथापि यावत्सहो न समायाति, तावदस्य गजस्य मांस भक्षयित्वा तृप्ति कृत्वा द्रुततरं व्रज ।’ स आह- ‘माम ! तद्येवं तन्न कार्य मे मांसाशनेन, यतो ‘जीवन्नरो भद्रशतानि पश्यति’ । उक्तं च- ’ यच्छक्यं ग्रसितुं यस्य ग्रस्तं परिणमेच्च यत् । इत्यादि ( पृ० १३ ) तब व्याघ्र के चले जाने पर कोई चीता वहाँ आया । उसे देखकर इसने विचार किया यह चीता है, इसकी दाढ़ें मजबूत हैं । इसी से इस हाथी का चमड़ा कटवा लूँ ! यह सोचकर उससे बोला- हे भानजे ! बहुत दिनों बाद क्यों दिखाई पड़े ? और भूखे से क्यों मालूम होते हो ? तुम मेरे अतिथि हो । कहा भी है- ( भोजन के ) समय जो आये वह अतिथि होता है । सिंह से मारा हुआ यह हाथी पड़ा है और मैं उसका नियुक्त किया हुआ रखवाला हूँ, जब तक वह न आये, तब तक इसका मांस खाकर तृप्ति कर लो और जल्दी चले जाओ । वह बोला-मामा ! अगर यह बात है, तो मुझे इसके मांस से कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि ‘यदि मनुष्य जिन्दा रहे तो सैकड़ों भलाइयाँ देखता है ।’ कहा भी है-यच्छक्यमित्यादि ( पृ० १३ ) । ‘तत्सर्वथा तदेव भुज्यते यदेव परिणमति । तदहमितोऽपयास्यामि ।’ इसलिये वही वस्तु खानी चाहिए, जो पच सके अर्थात् जिसके भक्षण करने से कोई हानि नहो । इसलिये मैं तो भागता हूँ । शृगाल आह - ‘भो अधीर ! विश्रब्धो भूत्वा भक्षय त्वम् । तस्याग- मनं दूरतोऽपि तवाहं निवेदयिष्यामि । तथानुष्ठिते द्वीपिना भिन्नां त्वचं विज्ञाय जम्बूकेनाभिहितम् - ‘भो भगिनीसुत ! गम्यताम् । एष सिंहः समायाति ।’ तच्छ्र ुत्वा चित्रको दूरं प्रनष्टः ।
शृगाल ने कहा – अरे अधीर ! तू निश्चिन्त हो खा, दूर से ही मैं उसका आगमन तुझे बता दूंगा । तब चीते के वैसा करने पर खाल को कटा हुआ जान शृगाल ने कहा-भानजे ! भागो भागो, यह सिंह आ रहा है । यह सुन चीता दूर भाग गया । अथ यावदसौ तद्भेदकृतद्वारेण किश्चिन्मांसं भक्षयति, तावदति- संक्रुद्धोऽपरः शृगालः समाययौ । अथ तमात्मतुल्यपराक्रमं दृष्ट्वा- ‘उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् ।’ इति श्लोकं पठन् तदभि-
६० पञ्चतन्त्रम् मुखकृतप्रयाणः स्वदंष्ट्राभिस्तं विदार्यं दिशो भागं कृत्वा स्वयं सुखेन चिरकालं हस्तिमांसं बुभुजे । जब तक वह शृगाल उसके किये हुए छिद्र से कुछ मांस खाने लगा, तब तक अत्यन्त क्रोधी दूसरा श्रृंगाल वहाँ आ पहुँचा। तब उसे अपने समान और उसका पराक्रम अनुभूत जानकर ‘उत्तमं प्रणिपातेन’ इत्यादि श्लोक पढ़ता हुआ वह उसके सामने गया और अपने दांतों से उसे विदीर्ण ( मारा ) कर और उसका मांस इधर-उधर ( सब दिशाओं में ) फेंककर स्वयं सुख से चिरकाल तक हस्तिमांस खाता रहा । एवं त्वमपि तं रिपुं स्वजातीयं युद्धेन परिभूय दिशोभागं कुरु । नो चेत्पश्चाद् बद्धमूलादस्मात्त्वमपि विनाशमवाप्स्यसि । उक्तं च यतः - इस प्रकार तुम भी, अपने स्वजातीय शत्रु को युद्ध में मारकर दिशाओं को बलि चढ़ा दो । यदि ऐसा नहीं करोगे तो पीछे तुम भी जड़ पकड़ जाने पर उसी जलचर से विनाश को प्राप्त होंगे। कहा भी है- सम्भाव्यं गोषु सम्पन्नं सम्भाव्यं ब्राह्मणे तपः । सम्भाव्यं स्त्रीषु चापल्यं सम्भाव्यं जातितो भयम् ॥ ८२ ॥ गौवों में ऐश्वर्य, ब्राह्मण में तप, स्त्रियों में चपलता तथा कुटुम्बियों से भय की सम्भावना की जा सकती है ॥ ८२ ॥ अन्यच्च - सुभिक्षाणि विचित्राणि शिथिलाः पौरयोषितः । एको दोषो विदेशस्य स्वजातिर्यद्विरुध्यते ॥ ८३ ॥ ओर भी - ( विदेश में ) तरह-तरह के उत्तम अन्न मिल जाते हैं, (यहाँ की ) स्त्रियाँ भी असावधान होती हैं परन्तु विदेश में एक हो दोष है कि अपने जाति के पुरुष विरुद्ध हो जाते हैं ।। ८३ ।। मकर आह- ‘कथमेतत् ?’ वानरोऽब्रवीत्- मकर ने कहा - ‘यह कैसे ?’ उसने कहा- कथा १५ अस्ति कस्मिंश्चिदधिष्ठाने चित्राङ्गो नाम सारमेयः । तत्र च चिर- कालं दुर्भिक्षं पतितम् | अन्नाभावात्सारमेयादयो निष्कुलतां गन्तु- मारब्धाः । अथ चित्राङ्गः क्षुत्क्षामकण्ठस्तद्भयाद् देशान्तरं गतः तत्र च कस्मिश्चित्पुरे कस्यचिद् गृहमेधिनो गृहिण्याः प्रमादेन प्रतिदिनं गृहं
प्र -3 द्र f T त f लब्धप्रणाशम् ६१ प्रविश्य विविधान्नानि भक्षयन्परां तृप्ति गच्छति । परं तद्गृहाद् बहिनिष्क्रान्तोऽन्ये मंदोद्धृतसारमेयैः सर्वदिक्षु परिवृत्य सर्वाङ्ग दंष्ट्रा- भिर्विदार्यते । ततस्तेन विचिन्तितम् - ‘अहो ! वरं स्वदेशो यत्र दुर्भि- क्षेऽपि सुखेन स्थीयते । न च कोऽपि युद्धं करोति । तदेवं स्वनगरं व्रजामि’ इत्यवधार्य स्वस्थानं प्रति जगाम । किसी स्थान में चित्राङ्ग नाम का कुत्ता रहता था। वहाँ एक बड़ा अकाल पड़ा । अन्न न मिलने से कुत्ते आदि सब प्राणी जब नष्ट हो जाने लगे, तब चित्रांग भूख से पीड़ित हो अन्य देश चला गया। वहाँ किसी नगर में किसी गृहस्थ की पत्नी को असावधानी के कारण प्रतिदिन उसके घर में घुस कर तरह तरह के अन्न खाता हुआ अत्यन्त तृप्त हो जाता था; परन्तु उस घर से निकलने पर अन्य मदमत्त कुत्ते सब ओर से घेरकर उसके सम्पूर्ण अङ्गों को दांतों से काट डालते थे। तब उसने सोचा - अहो ! अपना ही देश अच्छा; जहाँ दुर्भिक्ष पड़ने पर भी गाराम से तो रहा जाता है । वहाँ कोई युद्ध नहीं करता, इसलिये उसी अपने नगर को जाता हूँ। यह विचार कर अपने स्थान को चला गया । अथासौ देशान्तरात् समायातः सर्वैरपि स्वजनैः पृष्ट:- ‘भोवि- त्राङ्ग ! कथयास्माकं देशान्तरवार्ताम् । कीदृग्देश: ? किं चेष्टितं लोकस्य ? क आहारः ? कश्च व्यवहारस्तत्र’ इति । स आह-कि कथ्यते विदेशस्य स्वरूपविषय: - ‘सुभिक्षाणि विचित्राणि शिथिला: पौरयोषितः ।’ इत्यादि पठति ( श्लो० ८३ ) जब वह विदेश से लौटकर आया, तब सब कुटुम्बियों ने पूछा- हे चित्राङ्ग ! हमें, विदेश का समाचार सुनाओ, वह कैसा देश है ? वहीं के रहनेवालों की चेष्टाएँ कैसी हैं ? भोजन क्या मिलता है और व्यवहार कैसा है ? उसने कहा- विदेश के विषय में क्या कहूँ – ‘सुभिक्षाणि’ इत्यादि ( श्लो० ८३) पढ़कर सुना दिया।
सोऽपि मकरस्तदुपदेशं श्रुत्वा कृतमरणनिश्चयो वानरमनुज्ञाप्य स्वाश्रयं गतः तत्र च तेन स्वगृहप्रविष्टेनाततायिना सह विग्रहं कृत्वा दृढसत्त्वावष्टम्भनाच्च तं व्यापाद्य स्वाश्रयं च लब्ध्वा सुखेन चिरकाल- मतिष्ठत् । साध्विदमुच्यते-
६२ पञ्चतन्त्रम् तब वह मगर उसका उपदेश सुनकर और मरने का निश्चय कर वानर की अनुमति से अपने स्थान पर पहुँचा और वहाँ अपने घर में घुसे हुए उस आततायी के साथ युद्ध करके और उत्साह की प्रबलता के कारण उसे मारकर अपना स्थान पा लिया और आराम से चिरकाल तक रहा अथवा ठीक ही कहा है- अकृत्वा पौरुषं या श्रीः किं तयापि सुभोग्यया । जरद्गवः समश्नाति दैवादुपगतं तृणम् ॥ ८४ ॥ पुरुषार्थं न करके प्राप्त हुई अत एव आलसी पुरुषों के भोगने योग्य लक्ष्मी पाने से भी क्या लाभ ? ( देखो ) भाग्यवश प्राप्त घास को बूढ़ा बेल भी चरता है ।। ८४ ।। इति श्रीविष्णुशमं विरचिते पश्चतन्त्रे लब्धप्रणाशं नाम चतुर्थं तन्त्रं समाप्तम् । वानर र उस रकर क ही लक्ष्मी कभी ॥ श्री ॥ चौखम्बा सुरभारती ग्रन्थमाला १५ श्रीविष्णुशर्मप्रणीत पञ्चतन्त्रम्