००

प्राक्कथन

सम्पूर्ण विश्व पञ्चतन्त्र की उपयोगिता से परिचित है । यद्यपि यह ग्रन्थ सरल संस्कृत भाषा में लिखा है, तथापि हिन्दी मात्र के ज्ञाता तो इसका आनन्द नहीं ही उठा सकते। जो टीकाएँ हिन्दी में प्रकाशित हुई भी हैं, वे इस कोटि की हैं कि संस्कृत के ज्ञाता ही उनसे लाभान्वित हो सकते हैं । अतः स्व० गोकुलदास गुप्त विरचित स्वतन्त्र रूप की यह व्यवस्थित सरल हिन्दी टीका प्रकाशित की गई है । इस टीका की यह विशेषता है कि एक मात्र हिन्दी जानने वाले भी पञ्चतन्त्र की कथाओं में आये हुए उपदेशों तथा नीतितत्त्वों से भली- भाँति अवगत हों तथा पदे पदे संस्कृत भाषा एवं साहित्य का आनन्द लेते हुए विषय को हृदयङ्गम कर सकें । विद्यार्थियों, अध्यापकों एवं साहित्य तथा नीति- प्रेमियों को समान रूप से लाभ हो, इस बात का प्रस्तुत टीका में अत्यधिक ध्यान रखा गया है । परन्तु निःसंकोच यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें किसी प्रकार की त्रुटि है ही नहीं । अस्तु, इस प्रकाशन से टीकाकार की दिवंगत आत्मा को शान्ति एवं पाठक को आनन्द अवश्य प्राप्त होगा, ऐसी आशा है । टीकाकार का परिचय प्रस्तुत टीका के रचयिता चौखम्बा संस्कृत सीरीज तथा चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी के अध्यक्ष स्वनामधन्य बाबू जयकृष्णदासजी गुप्त के ज्येष्ठ पुत्र स्व ० बाबू गोकुलदासजी गुप्त हैं । आपके सम्बन्ध में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि-

( ४ ) ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥’ यह अभिलाष ही आपकी थी । जगत् में जो कुछ है सब भगवान् का प्रकाश है। मानव के भीतर भी भगवान् हैं । मानव जिस दिन इस बात को सम्यक् रूप से उपलब्ध करता है, उसी दिन से वह भगवान् में निवास करता है । वेदान्तवादियों में वैष्णवों ने नरनारायण के रूप का अवलम्बन करके इस बात को खूब दिखलाया है । आप उसी वैष्णव- कुल के स्वच्छ नीलगगन में उत्फुल्ल सुधाकर की भाँति उदित हो रहे थे, किन्तु २१ वर्ष की आयु में ही आपका दुःखद निधन हो गया । आप रामायण, गीता और नीति-ग्रन्थों का अध्ययन विशेष अभिरुचि से किया करते थे । पश्वतन्त्र की यह टीका आपके समक्ष प्रकाशित नहीं हो सकी, अतः आपकी स्मृतिस्वरूप यह पुस्तक आज आपको ही भेंट की जा रही है । इसका सम्पादन करते समय दिवंगत गुप्तजी का अभाव यदा-कदा मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ कर देता था, किन्तु यात्रच्छक्य मैंने इसको सुचारु बनाने का प्रयत्न किया है । फिर भी सम्पादन में कुछ दोष रह गया हो तो पाठक उसे सुधार कर मुझे अनुगृहीत करेंगे ।

विवासराणसी० १५
२०१५
वि० सं० २० विनीत रामचन्द्र झा

विषयसूची

का इस में का व- हो । चि त ही का क्य में 71

कथामुख ( प्रस्तावना )
मूर्ख वानर की कथा
गोमायु शृगाल की कथा
दन्तिल वैश्य की कथा
कथानुक्रमणिका प्रथम तन्त्र : मित्रभेद
देवशर्मा परिव्राजक की कथा

कौलिक ( जुलाहा ) और रथकार ( बढ़ई ) की कथा वायस - दम्पती की कथा बगुले और केकड़े की कथा भासुरक सिंह की कथा अग्निमुख मत्कुण ( खटमल ) और मन्दविसर्पिणी यूका ( जूँ ) की कथा चण्डरव शृगाल की कथा ना मदोत्कट सिंह की कथा टिट्टिभ-दम्पती और समुद्र की कथा कम्बुग्रीव, कच्छप और संकट, विकट हंस की कथा अनागत विधाता, प्रत्युत्पन्न मति और यद्भविष्य …. पृष्ठाङ्कः १ १३ ३५ ५७ ७७ ९० ९१ 33 = 2 ९७ १११

११४

१२५ १३७ १३९ मत्स्य की कथा १४२ चटक- दम्पती और काष्ठकूट की कथा १४७ वज्रदंष्ट्र सिंह और चतुरक श्रृंगाल की कथा १६२

मूर्ख वानरयूथ की कथा वानर और चटक- दम्पती की कथा धर्मबुद्धि और पापबुद्धि की कथा ( ६ ) मूर्ख बगुला और चतुरक शृगाल की कथा PM १७३

१७५

१७८ १८४ १८६ १९० क जीर्णधन वणिक्पुत्र की कथा मूर्ख वानर और राजा की कथा द्वितीय तन्त्र : मित्रसम्प्राप्ति काक, कूर्म, मृग और मूषक की कथा हिरण्यक और लघुपतनक का संवाद हिरण्यक वृत्तान्त तिल बेचने वाली शाण्डिली की माता की कथा तृष्णाभिभूत पुलिन्द ( भील ) की कथा प्राप्तव्यमर्थ वणिका की कथा सोमिलक कौलिक की कथा तीक्ष्णविषाण और शृगाल की कथा

११ २४ २ २८ ~ ~ * ~ * X + Y ३१ ४२

५३

तृतीय तन्त्र : काकोलूकीय

मेघवर्ण काक और उलुक का वृत्तान्त चतुर्दन्त हाथी और लम्वकर्ण शशक की कथा शशक, कपिंजल और चटक की कथा ५८ (D) १ २४

३० मित्रशर्मा और बकरे की कथा महाकाय कृष्ण सर्प और चींटियों की कथा ३९ ४३ हरिदत्त ब्राह्मण और सर्प की कथा ४९ राजा चित्ररथ और हंस की कथा .५१ ३३ १५ ३८ २४ १६ ( ७ ) कपोत, कपोती और व्याध की कथा ( पद्यात्मक ) कामातुर वृद्ध वणिक् की कथा चोर और राक्षस की कथा वल्मीक और उदरगत सर्प की कथा वीरवर रथकार और उसकी पत्नी की कथा शालंकायनरक्षित मूषिका की कथा स्वर्णष्ठीवी सिन्धुकार पक्षी की कथा खरनखर सिंह की कथा २ मन्दविष सर्प की कथा १ घृतान्ध ब्राह्मण की कथा २४ १८ ६१

चतुर्थ तन्त्र : लब्धप्रणाश

बानर और मगर की कथा -२ गंगदत्त मण्डूक की कथा .३ ८ ५३ ६२ ६४ ६७ ७० ७६ ८६ ८९

९७

१०० १ १०. 0 ९ कराल केसर सिंह की कथा कुम्भकार की कथा सिंह- दम्पती और भृगाल की कथा ब्राह्मण की कथा राजा नन्द और वररुचि की कथा १ ४ शुद्धपट रजक की कथा रथकार और व्यभिचारिणी स्त्री की कथा १९

२५ २६ …. ३० ३४ ३५ ३८ ३ कामातुर वृद्धवणिक् की कथा 0000 ४३ ९ हालिक - दम्पती की कथा ४८ १ उज्ज्वलक रथकार की कथा ५२

महाचतुरक शृगाल की कथा (&) चित्रांग नामक सारमेय ( कुत्ते ) की कथा

पञ्चम तन्त्र : अपरीक्षितकारक

क्षपणक - कथा ( आमुख ) १ ब्राह्मणीनकुल-कथा २ लोभाविष्टचक्रघर - कथा ३ सिंहकारक - मूर्खब्राह्मण-कथा ५६ ६० १ २० २५ ४० ४४ ४ मूर्खपण्डित - कथा ५ मत्स्य - मण्डूक- कथा ६ रासभ-शृगाल-कथा

  • ७ मन्थरकौलिक-कथाएक ८ सोमशर्मपितृ - कथा ५१ .५७" ६५ ७५ .९ चन्द्रभूपति - कथा ७७ १० विकालवानर-कथा ९.५ ११ अन्धक - कुब्जक त्रिस्तनी- कथा १०१ १२ रासभगृहीत- ब्राह्मण-कथा १०२ : १३. भारुण्डपक्षि- कथा ११३. - १४ ब्राह्मणकर्कटक - कथा ११६-

प्राक्कथन

सम्पूर्ण विश्व पञ्चतन्त्र की उपयोगिता से परिचित है । यद्यपि यह ग्रन्थ. सरल संस्कृत भाषा में लिखा है तथापि हिन्दी मात्र के ज्ञाता तो इसका आनन्द नहीं ही उठा सकते। जो टीकाएँ हिन्दी में प्रकाशित हुई भी हैं वे इस कोटि की हैं कि संस्कृत के ज्ञाता ही उनसे लाभान्वित हो सकते हैं । अतः स्व० श्रीगोकुल दास गुप्त विरचित स्वतन्त्र रूप की यह व्यवस्थित सरल हिन्दी टीका प्रकाशित की गई है । इस टीका की यह विशेषता है कि एक मात्र हिन्दी जानने वाले भी पञ्चतन्त्र की कथाओं में आये हुए उपदेशों तथा नीतितत्त्वों से भली भाँति अवगत हों तथा पदे पदे. संस्कृत भाषा एवं साहित्य का आनन्द लेते हुए विषय को हृदयङ्गम कर सकें । विद्यार्थियों, अध्यापकों एवं साहित्य तथा नीतिप्रेमियों को समान रूप से लाभ हो, इस बात का प्रस्तुत टीका में अत्यधिक ध्यान रखा गया है । परन्तु निःसंकोच यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें किसी प्रकार की त्रुटि है ही नहीं । अस्तु, इस प्रकाशन से टीकाकर की दिवङ्गत आत्मा को शान्ति एवं पाठक को आनन्द अवश्य प्राप्त होगा, ऐसी आशा है । टीकाकार का परिचय 1 प्रस्तुत टीका के रचयिता चौखम्बा संस्कृत सीरीज तथा चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी के अध्यक्ष स्वनामधन्य बाबू जयकृष्णदासजी गुप्त के ज्येष्ठ पुत्र स्वo बाबू गोकुलदासजी गुप्त हैं । आपके सम्बन्ध में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि-

(8). ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥’ यह अभिलाषा ही आपकी थी । जगत् में जो कुछ है सब भगवान् का प्रकाश है । मानव के भीतर भी भगवान् हैं। मानव जिस दिन इस बात को सम्यक् रूप से उपलब्ध करता है, उसी दिन से वह भगवान् में निवास करता है । वेदान्तवादियों में वैष्णवों ने नरनारायण के रूप का अवलम्बन करके इस बात को खूब दिखलाया है । आप उसी वैष्णवकुल के स्वच्छ नीलगगन में उत्फुल्ल सुधाकर की भाँति उदित हो रहे थे, किन्तु २१ वर्ष की आयु में ही आपका दुःखद निधन हो गया । आप रामायण, गीता और नीति ग्रन्थों का अध्ययन विशेष अभिरुचि से किया करते थे । पञ्चतन्त्र की यह टीका आप के समक्ष प्रकाशित नहीं हो सकी, अतः आपकी स्मृतिस्वरूप यह पुस्तक आज आपको ही भेंट की जा रही है । इसका सम्पादन करते समय दिवङ्गत गुप्तजी का अभाव यदा-कदा मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ कर देता था, किन्तु यावच्छक्य मैंने इसकों सुचारु बनाने का प्रयत्न किया है। फिर भी सम्पादन में कुछ दोष रह गया हो तो पाठक उसे सुधार कर मुझे अनुगृहीत करेंगे । वाराणसी वि० सं० २०१५ विनीत 1 -रामचन्द्र झा

श क् । स में नों – ho t ह य T, नी त f ॥ श्रीः ॥ पञ्चतन्त्रम्