[[अलङ्कारप्रदीपः Source: EB]]
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हरिदाससंस्कृतग्रन्थमालासमाख्य-
काशीसंस्कृतसीरिज़पुस्तकमालायाः
८
काव्यविभागे (१) प्रथमपुष्पम् ।
अलङ्कार प्रदीपः
पर्वतीय-विश्वेश्वरपण्डित -
विरचितः।
नेपालदेशीय-
विष्णुप्रसादभण्डारिणा
संशोधितः।
काशीस्थ-
चौखम्बासंस्कृतपुस्तकालयस्वामिनाश्रेष्ठिकुलभूषण-
हरिदासगुप्तात्मजेन जयकृष्णदासगुप्तमहोदयेन
विद्याविलासनाम्नि यन्त्रालये
मुद्रयित्वा प्रकाशितम्।
सन् १९२३
Registered According to Act XXV. of 1867
अलङ्कारप्रदीपः
कुवलयानन्दादिसदृशः केवलार्थालङ्कारनिरूपकोऽयं प्रबन्धः । अस्य च कर्ता सर्वतन्त्रस्वतन्त्रपाण्डितीको नानानिबन्धकर्ता कूर्माचलदेशीयः पाण्डेयकुलभूषणो विश्वेश्वरावतारो विश्वेश्वरपण्डितः । अस्य समयादीतिवृत्तं मुद्रयिष्यमाणैतदीयनिबन्धान्तरे यथावसरं निवेशयिष्यत इति तत एवावगन्तव्यम् । अत्र च ग्रन्थकर्त्रासरलैः सङ्क्षिप्तैः सूत्रभूतैर्वाक्यैरलङ्कारलक्षणानि तथा प्रतिपादितानि यथा सुकुमारमतयोऽपि क्लेशलेशं विनाऽलङ्कारतत्वमवबुद्ध्येयुः । उदाहृतानि स्वकृतान्येव पद्यानि, अव्याप्त्यतिव्याप्तिबाध्यबाधकभावादिगहनः शास्त्रीयो विचारो न प्रचारित इति च विशेषः।
अत्र ( ) एतच्चिह्नमध्यपातिन्यः पङ्क्तय आदर्शपुस्तकेऽविद्यमाना अप्यपेक्षिता इति स्थापिताः ।
आदर्शपुस्तकस्य नातिशुद्धस्यैकस्यैव लाभात्तदाधारेण मुद्रयितुमारब्धे सपरिश्रमं परिशोधितेऽप्यस्मिन् मानुष्यकनान्तरीयेषु स्खलितेषु भवन्तु क्षमाशीला ग्रन्थतत्वमात्रग्रहिलाः सहृदया इति
काशी
३०-४-२३
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निवेदयते-
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नेपालदेशीयो
विष्णुप्रसादभण्डारी ।
अलङ्कारप्रदीपस्थालङ्काराणामकारादिक्रमेण-
सूची
| पृ० | पृ० | ||
| अक्रमातिशयोक्तिः | १७ | असम्भवः | ४६ |
| अङ्गाङ्गिभावसङ्करः | ५६ | ||
| अतद्गुणः | ४६ | आक्षेपः | २४ |
| अतिशयोक्तिः | १६ | " अन्यः | २५ |
| अत्यन्तातिशयोक्ति | १८ | " अपरः | २५ |
| अत्युक्तिः | ३३ | आक्षेपान्तरम् | २६ |
| अधिकम् | ४७ | आवृत्तिदीपकम् | २२ |
| अनन्वयः | ५ | ||
| अनुकूलम् | ३३ | उत्तरम् | ४४ |
| अनुपलब्धिः | ३७ | " द्वितीयम् | " |
| अनुमानम् | ३५ | उत्प्रेक्षा | ६ |
| अनुरूपम् | ४५ | उदात्तम् | ३३ |
| अन्योन्यम् | ४४ | " द्वितीयम् | " |
| अपह्नुतिः | ९ | उदाहरणम् | ५ |
| अप्रस्तुप्रशंसा | १५ | उन्मीलितम् | ४६ |
| अर्थान्तरन्यासः | २७ | उपमा | १ |
| अर्थापत्तिः | ३७ | उपमितिः | ३६ |
| अल्पम् | ४८ | उपमेयोपमा | ६ |
| अवज्ञा | ५२ | उल्लासः | ५२ |
| असङ्गतिः | ५० | उल्लेखः | १९ |
| ,, अन्या | ५१ | " अपरः | २० |
| " अपरा | " | ऊर्जस्वी | ५७ |
| असमः | ५ | ||
| असम्बन्धातिशयोक्तिः | १७ | एकदेशविवर्तिरूपकम् | ८ |
| पृ० | पृ० | ||
| एकपदवृत्तिः (एकवाचकानुप्रवेशः ) सङ्करः | ५६ | पर्यायोक्तम् | ३२ |
| एकावली | ४८ | " द्वितीयम् | " |
| ऐतिह्यम् | ३७ | पिधानम् | ३९ |
| पूर्वरूपम् | ४५ | ||
| प्रतिवस्तूपमा | २० | ||
| कारकदीपकम् | २१ | प्रतीपम् | ४९ |
| कारणमाला | ४४ | प्रत्यनीकम् | ४८ |
| काव्यलिङ्गम् | ३१ | प्रत्यक्षम् | ३६ |
| गूढोक्तिः | ३९ | प्रस्तुताङ्कुरः | १६ |
| चपलातिशयोक्तिः | १७ | प्रहर्षणम् | ४७ |
| प्रेयोऽलाङ्करः | ५७ | ||
| छेकापह्नुतिः | ११ | प्रौढोक्तिः | १८ |
| छेकोक्तिः | ४० | भावशबलः | ५७ |
| तुल्ययोगिता | २२ | भावसन्धिः | " |
| " अन्या | " | भाविकम् | ३१ |
| दीपकम् | २१ | भावोदयः | ५७ |
| दृष्टान्तः | " | भेदकातिशयोक्तिः | १६ |
| निदर्शना | १३ | भ्रान्तिमान् | ४८ |
| " द्वितीया | १४ | भ्रान्त्यपह्नुतिः | ११ |
| निरुक्तिः | ४२ | मालादीपकम् | २१ |
| निश्चयः | ११ | मालारूपकम् | ८ |
| निषेधः | ४२ | मालोपमा | ४ |
| परम्परितं रूपकम् | ८ | मीलितम् | ४६ |
| परिकरः | ३८ | मिथ्याध्यवसितिः | १८ |
| परिकराङ्कुरः | " | यथासङ्ख्यम् | २७ |
| परिणामः | ४ | युक्तिः | ३८ |
| परिवृत्तिः | ३१ | ||
| परिसङ्ख्या | ४३ | रत्नावली | ९ |
| पर्यायद्वयम् | ३५ | रशनोपमा | ४ |
| पृ० | पृ० | ||
| रसवत् | ५६ | व्याघातः | ५५ |
| रूपकम् | ७ | व्याजनिन्दा | ३० |
| व्याजस्तुतिः | २९ | ||
| ललितम् | १४ | व्याजोक्तिः | ३८ |
| लुप्तोपमा | २ | शब्दः | ३६ |
| लेशः | ५२ | श्लेषः | १२ |
| लोकोक्तिः | ४० | सन्देहः | ६ |
| विकल्पः | ७ | सन्देहसङ्करः | ५६ |
| विकस्वरः | २८ | समः | ५२ |
| विचित्रम् | ५५ | समस्तवस्तुविषयं रू० | ७ |
| विभावना | २६ | समाधिः | ४६ |
| वितर्कः | ७ | समासोक्तिः | १३ |
| विधिः | ४३ | समाहितम् | ५७ |
| विनोक्तिः | ३० | समुच्चयः | ३४ |
| विरोधाभासः | २८ | सम्बन्धातिशयोक्तिः | १७ |
| विवृतोक्तिः | ४० | सम्भावनम् | १८ |
| विशेषः | ४९ | संसृष्टिः | ५५ |
| " अन्यः | ५० | सहोक्तिः | ३० |
| " अपरः | " | सामान्यम् | ४६ |
| विशेषकम् | ४६ | सारः | ५० |
| विशेषोक्तिः | २६ | सूक्ष्मम् | ३९ |
| विषमः | ५३ | स्मरणम् | ४८ |
| " अपरः | " | स्वभावोक्तिः | २९ |
| " अन्यः | ५४ | ||
| विषादनम् | ४७ | हेतुः | १९ |
| व्यतिरेकः | २३ | " द्वितीयः | " |
अलङ्कारप्रदीपस्थोदाहरणपद्यानामकारादिक्रमेणानु-
क्रमणिका।
| श्लोकाः | पृ० | श्लोकाः | पृ० |
| अ | इ | ||
| अग्निशिखावृत | ४५ | इच्छन्त्या | ५८ |
| अङ्गुलीष्वहृद | ४४ | इयमिन्दुमुखी | ५५ |
| अतिरोध | २६ | ईर्ष्याकषायितमपि | २० |
| अतिसौरभ | २१ | उ | |
| अधर इवो | ४ | उद्वेल्लद्भुजवल्लरी | २९ |
| अधरकरचरण | २३ | उन्नीताः प्रगुणा | ५७ |
| अधरे तव | २८ | उपनिबन्ध्यतया | ३७ |
| अधिवासर | ४८ | ऊर्ध्वीकृत्य ग्रीवां | १३ |
| अनया विहिते | ५२ | ऋ | |
| अन्तर्निगूढ | ९ | ऋजुहृदयया | २६ |
| अन्योन्याभिमत | ३५ | ||
| अपहाय कुटिल | " | ओ | |
| अब्दोऽभ्यागमना | ४१ | ओजायते | २७ |
| अंहःसंहति | ६ | ओन्नमः सकल | १ |
| अलकावलोकने | १२ | ||
| असमाः शरा | ४२ | क | |
| अस्मत्सख्यङ्क | ३७ | कङ्केल्लिपल्लव | ४६ |
| अस्माभिरेव | १६ | कण्टकभरेण | ३८ |
| आ | कण्ठः कम्बुसमो | २४ | |
| आकाशं स्मर | ३३ | कर्पूरं वह्निरुष्णो | २८ |
| आकुलयति | ११ | कश्चन्द्रो वरतनु ! | ४४ |
| आकृष्टिर्हृदयस्य | १९ | कस्तूरिकामृगाणां | ८ |
| आपातप्रणया | ४० | कान्ताकुचा | ४३ |
| आयाति वल्लभ | ४७ | कामनीकमनन्य | ५३ |
| आरज्यत्तपनीय | ४४ | कामुके किमपि | ३९ |
| श्लोकाः | पृ० | श्लोकाः | पृ० |
| कालिन्दीयं | ३३ | जृम्भायामम्भोरुह | १५ |
| किञ्चित्तिर्यगवे | " | ज्योत्स्नारसानु | २३ |
| किमेद्राजीवं | ७ | ||
| कीचकवृन्दं | ३९ | त | |
| कुचयोर्द्वयो | ३५ | तत्तद्व्यक्तितया | ३२ |
| कुचाभोगं | ३८ | तत्तत्सुन्दरभाव | ५ |
| कुमुदमन्दिति | २४ | ताटङ्कमौक्तिक | १० |
| कुसुमशर | १५ | तामरसकुसुम | ५४ |
| कृतोत्साहां | २५ | तरुण्याद्भवति | ४४ |
| केतक्यो जनयन्ति | ५२ | तीरे तरणिसुताया | ११ |
| केयं नितान्त | ५३ | तुन्दपरिमृजमिदं | १७ |
| केशकलापः | ५६ | तुहिनरहितेव | ३१ |
| कौमुद्यामुद्यतायां | ४७ | त्वत्पाणिपल्लव | ४५ |
| त्वद्बिम्बाधर | ४ | ||
| ख | त्वद्वक्त्रे रुचि | २३ | |
| खञ्जनमञ्जुल | १२ | त्वद्वक्षोरुह | ३७ |
| खञ्जननयने | ४५ | त्वं तावदाचर | ३० |
| ग | त्वं श्यामा | ५१ | |
| गगनतललक्ष्मी | १८ | त्वां पश्यन्नवतीर्णां | ३१ |
| गेहपतावायास्यति | १७ | ||
| च | द | ||
| चक्षुस्त्वदीक्षण | ६ | दधती मदन | १२ |
| चाम्पेयमालिकोरसि | ४६ | दूति त्वं ! कृतिनी | ५७ |
| चित्राङ्गदा | २० | दूरीकरोति | ११ |
| चुम्बिता | ८ | दृक्पाते स्वकुल | ४८ |
| चेतःसंवननं | ३ | दृष्ट्वा बलाहक | ३१ |
| ज | दृश्यं दर्पणवत् | २३ | |
| जलदाः प्रचला | २२ | ध | |
| जातच्छायतया | २८ | धाराधरे गगन | २२ |
| जीवनहेतोर्दयि | ७ | धुरि मधुरिम | १५ |
| श्लोकाः | पृ० | श्लोकाः | पृ० |
| न | प्रालेयांशोः | १९ | |
| न बिभीहि | ४२ | प्रियश्रोत्रोपान्त | ५८ |
| नलिनी केलि | २१ | प्रियान्यव्यावृ्त्तिः | ५४ |
| नव जपाकुसुम | ६ | प्रेयसः प्रणय | २९ |
| नवयमवयवा | १० | प्रेयोमनीषित | ५५ |
| नवीनवरर्णिनी | ५१ | ब | |
| नाभिः सुभ्रु ! | २४ | बालाया दिन | ४८ |
| निपतितं गज | १७ | बालेयं सवि | ४ |
| निशि भवदास्य | " | बाले! विलासा | ५४ |
| नो तावन्मलया | २६ | बाले स्युर्यदि | १८ |
| प | बिभ्रद्भासा | ३१ | |
| पयोधरपिधानतां | ४७ | ||
| परपुष्टगिरः | ४२ | भ | |
| परितो निपुणं | ३७ | भजत्याविर्भावं | ५७ |
| पाणिना स्वमधरं | ३९ | भवदौपम्य | ६ |
| पिदधति करभोरु ! | २२ | भवद्विषयता | ३० |
| पीयूषद्युति | ३६ | भवनं तपनीयमयं | ४५ |
| पुरस्तादालीनां | ३२ | भावितमपि भव | ४६ |
| पुरातनानप्यधुना | ५९ | भुवनेषु भवन्तु | २१ |
| पुष्पेषोर्वीर | ८ | भ्राम्यन्तीभि | ५६ |
| पूर्वं चाक्षुष | ३४ | म | |
| पूर्वा हरिदपि | १२ | मदनमतिवेलयन्ती | ६ |
| प्रकाशादाकाश | १० | मधुरतामवधेेहि | १४ |
| प्रगल्भेभ्यो | ८ | मध्यं यथा विहायः | २ |
| प्रतिसृभ्रुवाम | ५२ | मनोमैवं कार्षीः | २५ |
| प्रत्यासत्तिभृता | २१ | महतामुपसं | २८ |
| प्रत्येकावयव | ५७ | माकन्दः कुसुमं | १३ |
| प्रदाय नव | ३१ | मानसे विरमसे | ५० |
| प्रययुर्मदीय | १८ | माविरम षट्पद ! | ५३ |
| प्रसूनसम | ७ | मुधैव विरु | १४ |
| श्लोकाः | पृ० | श्लोकाः | पृ० |
| मृगमदचन्द | ४६ | विधाय वाच | १ |
| य | विभ्रष्टं भूमि | ५४ | |
| यत्तव स्तनसरोज | ५२ | वियुक्ताश्चाम्पे | ३ |
| युवत्वे बालत्वे | २७ | विरोधिनीनां | ५५ |
| यौवनविहित | " | विलसति परिच्छिन्नं | १६ |
| यौवनेन तनु | ४४ | विवेकवैकल्य | ४९ |
| र | वृक्षावतंस | ४२ | |
| रदनच्छद | ४६ | व्यापारा हितहेत | ४३ |
| रमणीयपदार्थ | ४९ | व्याहरन्ति | ३४ |
| रमन्ते मालाया | ४ | व्याहारनावहेल | २६ |
| रागोत्तरेण | ९ | व्याहारा विहसन्ति | २४ |
| राजीवभ्रमभृति | ५१ | श | |
| राजीवे इव ते | २४ | शशाङ्कसमवायि | १८ |
| रोहिण्याः सुत | ३६ | शिञ्जानेन सम | १५ |
| श्रमवारिपृषन्ति | ४८ | ||
| ल | श्रवणकोकनदं | ५४ | |
| लक्षमनङ्गस्य | ९ | श्रवणाभिमुखं | ३४ |
| लावण्यं त्रिज | ५९ | श्रीमन्महीमहित | ५९ |
| लावण्येन | ५० | श्रोत्रेण कोकिल | २० |
| लीलापूर्वक | ३३ | श्वश्रूरश्रूद्गमन | ५२ |
| लीलावने | ३६ | स | |
| लोभेन त्वद्बिम्बा | १६ | सङ्केतकुञ्ज | १९ |
| व | सम्प्ररूढनव | ४८ | |
| वदनमधि | १४ | सन्तप्तं त्वद | ३२ |
| वरवर्णिनि ! | ५४ | सध्रीची | ३८ |
| वर्षासुरजोयो | ४३ | सविलासमावलित | ५६ |
| वाणी चेच्छ्रवणे | ४९ | सहचरि ! | ४० |
| विकसति कदम्ब | २२ | सहावहेलं | ५१ |
| विकसितमभि | १ | सारं जन्तुषु | ५० |
| विच्छिति | १७ | साहसकी | १३ |
| श्लोकाः | पृ. | श्लोकाः | पृ. |
| सुतनुमनुसमा | ४७ | ||
| सुन्दरि ! नेन्दुरयं | १० | ह | |
| सोढा व्रणा | ३० | हरिति लोहितता | ३४ |
| स्नेहस्य संवरण | ४९ | हेयः सन्नपि | ५ |
| स्फुरदलकत्वं | ३८ | हृदयाद्वहिर्नि | ५३ |
| स्मारं स्मारमति | ५८ | क्षीयन्ते सह | ३० |
अलङ्कारप्रदीपस्थानि
अलङ्कारसूत्राणि।
चमत्कारप्रयोजकं सादृश्यवर्णनमुपमा ॥१॥
एकस्मिन्नुपमेये बहूपमानसादृश्यं मालोपमा ।
पूर्वपूर्वोपमायामुपमेयस्योत्तरोत्तरोपमायामुपमानत्वेन कथनं रशनोपमा। आरोप्यस्यारोपविषयतादात्म्यापत्त्या प्रकृतोपयोगः परिणामः ॥ २॥
सामान्येन निरूपितस्य विशेषेण निरूपणमूदाहरणम् ॥३॥
उपमानोपमेययोर्ज्ञायमानमैक्यमनन्वयः ॥ ४ ॥
सर्वथैवोपमाननिषेधोऽसमः ॥ ५॥
परस्परसादृश्यमुपमेयोपमा ॥६॥
प्रकृतेऽप्रकृततादात्म्यसम्भावनमुत्प्रेक्षा ॥ ७॥
सादृश्यनिबन्धनः प्रकृतसंशयः सन्देहः ॥८॥
संशयोत्तरमनिर्णये ऊहो वितर्कः ॥ ९॥
विरुद्धयोः पाक्षिकी प्राप्तिर्विकल्पः ॥ १०॥
उपमेये उपमानतादात्म्यारोपो रूपकम् ॥ ११ ॥
सर्वेषामारोप्यारोपविषयाणां शब्दोपात्तत्वे समस्तवस्तुविषयम्।
यत्र केचिदिच्छावहाः केचिदार्थास्तदेकदेशविवर्ति।
एकस्मिन्नुपमेये बहूपमानतादात्म्यारोपो मालारूपकम् ।
आरोपान्तरसापेक्ष आरोपः परम्परितम् ।
प्रसिद्धक्रमाणामेकत्रोपनिबन्धनं रत्नावली ॥ १२ ॥ प्रकृतनिषेधविशिष्टस्तदन्यारोपोऽपह्नुतिः ॥ १३ ॥
स्वकीयतात्पर्यख्यापनेन परभ्रान्तिखण्डनं भ्रान्त्यपह्नुतिः।
परकीयप्रमाखण्डनाय स्वतात्पर्यस्यान्यथाकरणं छेकापह्नुतिः।
अप्रकृतनिषेधविशिष्टप्रकृतस्थापनं निश्चयः ॥१४॥
शब्दैक्ये सत्यनेकार्थकथनं श्लेषः ॥१५॥
प्रकृतवृत्तान्तेनाप्रकृतप्रतीतिः समासोक्तिः ॥ १६ ॥
अन्वयानुपपत्त्या सादृश्यपर्यवसानं निदर्शना ॥ १७॥
क्रियया हेतुहेतुमद्भावप्रतीतिर्द्वितीया निदर्शना।
प्रकृतमनुपन्यस्य तत्स्थानीयवाक्यार्थान्तरोपन्यासो ललितम् ॥ १८ ॥
अप्रकृतवृत्तान्तेन प्रकृतप्रतीतिरप्रस्तुतप्रशंसा ॥ १९॥
प्रस्तुतवृत्तान्तेन प्रस्तुतप्रतीतिः प्रस्तुताङ्कुरः ॥२०॥
प्रस्तुताप्रस्तुतयोः सर्वथैवाभेदप्रतीतिरतिशयोक्तिः ॥२१॥
तस्यैवान्यत्वाभिधानं भेदकातिशयोक्तिः।
असम्बन्धे सम्बन्धकल्पनं सम्बन्धातिशयोक्तिः ।
सम्बन्धेऽप्यसम्बन्धकथनं द्वितीयाऽसम्बन्धातिशयोक्तिः। कार्यकारणयोर्यौगपद्यमक्रमातिशयोक्तिः ।
हेतुप्रसक्तावेव कार्योत्पत्तिकथनं चपलातिशयोक्तिः ।
कारणात्प्रागेव कार्योत्पत्तिकथनमत्यन्तातिशयोक्तिः।
केन चिदापादकेन कस्य चिदापादनं सम्भावनम् ॥२२॥
कस्य चिदर्थस्य मिथ्यात्वसिद्धये मिथ्याभूतार्थान्तरोपन्यसनं मिथ्याध्यवसितिः ॥ २३ ॥
उत्कर्षानुपपादनेऽप्युत्कर्षहेतुत्वकथनं प्रौढोक्तिः ॥२४॥ कार्यकारणयोरभेदाभिधानं हेतुः॥ २५ ॥
हेतुहेतुमद्भाववर्णनं द्वितीयो हेतुः । एकस्यानेकसमवेतभिन्नभिन्नप्रकारकज्ञानविषयत्ववर्णनमुल्लेखः ॥ २६ ॥ एकस्याप्येकवृत्त्यनेकप्रकारकज्ञानविषयत्ववर्णनमपर उल्लेखः ।
साम्याभिप्रायके वाक्यद्वये एकधर्मोपादानं प्रतिवस्तूपमा २७
तत्रैव बिम्बप्रतिबिम्बभावेन भिन्नधर्मोपादानं दृष्टान्तः।२८। प्रकृताप्रकृतानामेकधर्मान्वयो दीपकम् ॥ २९॥
एककारकस्यानेकक्रियान्वयः कारकदीपकम् ।
रूपान्तरेण पूर्वात्तस्य उत्तरत्रान्यरूपेणान्वयो मालादीपकम्॥
क्रियाया द्विरभिधानमावृत्तिः (त्तिदीपकम् ) ॥३०॥
प्रकृतानामप्रकृतानामेव वा एकधर्मान्वयस्तुल्ययोगिता ॥३१॥ सपक्षविपक्षयोर्वृत्तिसामान्यमन्या तुल्ययोगिता । उपमानादुपमेयस्योत्कर्षवर्णनं व्यतिरेकः ॥ ३२॥
अभिधातुमिष्टस्यापि विशेषलाभार्थोनिषेध आक्षेपः ॥३३॥ उपमेयेनोपमानवैयर्थ्योक्तिरन्य आक्षेपः ।
अर्थान्तरतात्पर्यको निषेधोऽपर आक्षेपः।
निषेधफलको विधिराक्षेपान्तरम् ।
विना हेतुं कार्योत्पत्तिर्विभावना ॥ ३४ ॥
हेतुसत्त्वेऽपि कार्यानुक्तिर्विशेषोक्तिः ॥ ३५ ॥
निर्देशक्रमेण पदार्थान्वयो यथासङ्ख्यम् ॥ ३६ ॥
सामान्यविशेषाभ्यां विशेषसामान्यसमर्थनमर्थान्तरन्यासः ३७ विशेषसमर्थकस्य सामान्यस्य विशेषान्तरेण समर्थनं विकस्वरः॥ ३८ ॥ आपाताद्विरोधभानं विरोधाभासः॥ ३९ ॥
रम्यस्वभाववर्णनं स्वभावोक्तिः ॥ ४०॥ स्तुतिनिन्दातात्पर्यकनिन्दास्तुत्यभिधानं व्याजस्तुतिः ॥४१॥
अन्यनिन्दया अन्यनिन्दाभिव्यक्तिर्व्याजनिन्दा॥४२॥ उभयोश्चमत्कार्येकधर्मान्वयः सहोक्तिः॥ ४३ ॥
किञ्चिद्विना कस्यचिदप्राशस्त्यप्राशस्त्यान्यतराभिधानं विनोक्तिः॥४४॥नित्यसम्बन्धानामसम्बन्धवचनमन्या विनोक्तिः ।
किञ्चिद्दत्वाकस्यचिदुपादानं परिवृत्तिः ॥ ४५ ॥
भूतभाविविशेषप्रत्यक्षं भाविकम् ॥ ४६॥
हेतूक्तिः काव्यलिङ्गम् ॥ ४७॥
वाच्यस्यापि भङ्ग्यन्तरेणाभिधानं पर्यायोक्तम् ॥ ४८॥
व्याजेनेष्टसाधनं द्वितीयं पर्यायोक्तम् । आनुकूल्यपर्य्यवसायिप्रातिकूल्यमनुकूलम् ॥ ४९॥ वस्तुनोऽतिशयविशेषकथनमुदात्तम् ॥ ५० ॥
महतामङ्गत्वकथनं द्वितीयमुदात्तम् ।
अद्भुतशौर्यादिवर्णनमत्युक्तिः ॥ ५१ ॥
एकहेतुत्वेऽपि हेत्वन्तरोक्तिः समुच्चयः ॥ ५२ ॥
गुणक्रियायौगपद्यमपरः समुच्चयः ।
एकस्यानेकत्रानेकस्यैकत्र वा क्रमेण वृत्तिः पर्य्यायद्वयम् ५३
व्याप्येन व्यापकज्ञानमनुमानम् ॥ ५४॥
चमत्कारिसाक्षात्कारः प्रत्यक्षम् ॥ ५५॥
अतिदेशवाक्यार्थजन्यं ज्ञानमुपमितिः॥ ५६ ॥
आप्तवाक्यं शब्दः ॥ ५७॥
उपपाद्येनोपपादककल्पनमर्थापत्तिः ॥ ५८ ॥
प्रतियोगिभिन्नायां प्रतियोगिप्रत्यक्षसामग्र्यांसत्यां प्रतियोगिनोऽप्रत्यक्षमनुपलब्धिः ॥ ५९ ॥
सम्भवः ॥६० ॥
अदृष्टवक्तृकः प्रवाद एवैतिह्यम् ॥६१॥
साभिप्रायविशेषणत्वं परिकरः ॥ ६२॥
विशेष्यस्य साभिप्रायकत्वं परिकराङ्कुरः ॥ ६३ ॥ रहस्यप्रकाशप्रतिबन्धकवाक्यं व्याजोक्तिः ॥ ६४ ॥
तादृशी क्रिया युक्तिः ॥ ६५॥
ज्ञातपररहस्यप्रकाशनं पिधानम् ॥ ६६ ॥
प्रतिभया ज्ञातस्यार्थस्यान्यानवगम्यप्रकारेण प्रकाशनं सुक्ष्मम् ॥ ६॥ अन्यतात्पर्येणान्यं प्रति कथनं (गूढो) गुच्छोक्तिः॥६८॥
गुप्तार्थस्य कविना स्फुटीकरणं विवृतोक्तिः ॥ ६९ ॥
लोकप्रवादानुकारो लोकोक्तिः ॥ ७० ॥
अर्थान्तरगर्भा लोकोक्तिरेव छेकोक्तिः ॥ ७१॥
(एकेनान्याभिप्रायेणोक्तं वाक्यं यद्यन्येनान्याभिप्रायकं कल्प्यते तदा वक्रोक्तियोगाद्वक्रोक्तिः ॥ ७२ ॥)
नाम्नामवयवार्थान्तरकल्पनं निरुक्तिः ॥ ७३ ॥
अन्यार्थाभिप्रायो निषेधो निषेधः ॥ ७४ ॥
तादृशं विधानं विधिः ॥ ७५ ॥
कार्यस्य कुतश्चिदसम्भवाभिधानमसम्भवः ॥ ७६ ॥
इतरनिषेधफलकं वचनं परिसङ्ख्या ॥ ७७ ॥
उत्तरकारणोक्तिः कारणमाला ॥ ७८॥
परस्परोपकारकथनमन्योन्यम् ॥ ७९ ॥
उत्तरे एव प्रश्नोन्नयनमुत्तरम् ॥ ८ ॥
सति प्रश्नेऽसकृदपूर्वोत्तरकथनमप्युत्तरम् ॥
वस्त्वन्तरगुणनिमित्तकः स्वगुणत्यागस्तद्गुणः ॥८१॥
तादृशः स्वगुणातिशयोऽनुगुणः ॥ ८२ ॥
पुनः स्वगुणप्राप्तिस्तादृश्येव पूर्वरूपम् ॥ ८३ ॥
अवस्थाभेदेऽपि पूर्वावस्थासाम्यमन्यत्पूर्वरूपम् ॥ अन्यगुणापसङ्क्रमोऽतद्गुणः ॥ ८४ ॥
गुणसाम्याद्भेदानवभासो मीलितम् ॥८५॥
हेत्वन्तरेण भेदप्रतीतिरुन्मीलितम् ॥ ८६ ॥
विजातीयव्यक्तितादात्म्यप्रत्ययः सामान्यम् ॥ ८७॥
हेत्वन्तरेण तत्प्रमा विशेषकम् ॥ ८८ ॥
कारणान्तरसमवधानात्कार्यसौकर्य्येसमाधिः ॥ ८९ ॥
इष्टादधिकलाभः प्रहर्षणम् ॥ ९० ॥
विरुद्धप्राप्तिर्विषादनम् ॥ ९१॥
आधाराधेययोरेव परस्पराधिक्यमधिकम् ॥९२॥
विरोधिपक्षापकारः प्रत्यनीकम् ॥ ९३ ॥
सूक्ष्मादप्याधारादाधेयस्य सूक्ष्मत्वकथनमल्पम् ॥९४ ॥
पूर्वपूर्वविशेषणानामुत्तरोत्तरं विशेष्यत्वोक्तिरेकावली ९५॥
चमत्कारिस्मृतिः स्मरणम् ॥ ९६॥
रम्यभ्रमो भ्रान्तिमान् ॥ ९७ ॥
उपमानतिरस्कारः प्रतीपम् ॥ ९८ ॥
आधारं विनापि वृत्तिर्विशेषः ॥ ९९ ॥
एकस्य युगपदनेकत्र वृत्तिरपरो विशेषः ॥
एककार्य्येणानेककार्य्यसिद्धिरन्यो विशेषः ॥
उत्तरोत्तरोत्कर्षः सारः॥१००॥
कार्यकारणयोर्भिन्नदेशत्वमसङ्गतिः॥ १०१॥
अन्यत्र चिकीर्षितस्यान्यत्र करणमपराऽसङ्गतिः॥
कार्यान्तरप्रकृतस्य तद्विरुद्धकार्यकरणमन्यासङ्गतिः॥ दोषगुणयोर्गुणदोषत्वकल्पनं लेशः ॥ १०२॥ अन्यगुणदोषाभ्यामन्यदोषगुणकथनमुल्लासः ॥ १०३ ॥ अन्यगुणदोषयोरप्रयोजकत्वकथनमवज्ञा ॥ १०४ ॥
गुणविशेषानुषङ्गाद्दोषस्य प्रार्थनमनुज्ञा ॥१०५॥
सम्बन्धानुरूप्यं समः ॥ १०६॥
अयोग्यसम्बन्धोविषमः ॥ १०७ ॥
इष्टप्राप्त्यभावविशिष्टानिष्टप्राप्तिरपरो विषमः ॥ कार्यकारणयोर्गुणक्रियान्यतरविरोधेऽन्यो विषमः ॥
उपादेयस्यापि कुतश्चिद्दोषात्तिरस्कारः …. ॥१०८॥
कार्यान्तरहेतोस्तविरुद्धकार्ये जनकत्वं व्याघातः॥१०९॥
इष्टार्थविरुद्धे प्रयत्नो विचित्रम् ॥ ११० ॥ परस्परमनपेक्षमाणानामलङ्काराणामेकवाक्यवृत्तित्वं संसृष्टिः ॥ १११॥ अलङ्कारस्यालङ्कारान्तरसापेक्षत्वेऽङ्गाङ्गिभावः सङ्करः ११२ साधकबाधकप्रमाणाभावादन्यतरालङ्कारनिणर्याभावे सन्देहरूपः सङ्करो द्वितीयः ॥ ११३ ॥
शब्दार्थालङ्करणयोरेकपदवृत्तित्वं तृतीयः सङ्करः ॥११४॥
रसस्य पराङ्गत्वे रसवदलङ्कारः ॥ ११५ ॥
भावस्य पराङ्गत्वे प्रेयोनामालङ्कारः ॥ ११६ ॥
रसाभासभावाभासयोः पराङ्गत्वे ऊर्ज्जस्वी ॥ ११७ ॥
भावशान्तेःपराङ्गत्वे समाहितम् ॥ ११८॥
भावोदयभावसन्धिभावशबलत्वानां पराङ्गत्वेतन्नामान एव त्रयोऽलङ्काराः शास्त्रकारैः संज्ञान्तरानुक्तेः ॥ ११९॥
इति ।
श्रीविश्वेश्वरपण्डितविरचितः
अलङ्कारप्रदीपः।
श्रीगणेशाय नमः ॥
ॐ नमः सकलगोपवधूनां स्वात्मनि प्रवणितप्रणयाय ॥घर्मवासरगमाऽवसरोद्यद्वारिवाहरुचिराय चिराय ॥१॥
विधाय वाचस्पतये धराया लक्ष्मीधरायाभिमतं प्रणामम् ॥
[विश्वेश्वरोऽर्थं1विशदं वितन्वन् करोत्यलङ्कारकुलपदीपम्॥२॥
तत्र-
चमत्कारप्रयोजकं सादृश्यवर्णनमुपमा ॥१॥
सा च पूर्णा लुप्ता चेति द्विविधा । यत्रोपमानमुपमेयं सामान्यधर्म इवादिपदं चेति चतुष्टयमुपात्तं सा पूर्णा।
यथा-
विकसितमभिरामतमं रदनद्युतिकेसरं रुचिरपत्रम् ॥ अलकश्यामलमाननमलिमलिनं नलिनमिव तस्याः ॥
धर्माभिधाने च बहवः प्रकाराः। अत्रोक्ताः षट् । विकसितमित्युपचारः2। पद्मे पत्रविभागात्मकमुख्यविकाशः, मुखे तूपचारादुल्लासविशेषः । अभिरामेत्यनुगामित्वम्3रदनद्युतिवत्केसराणि यत्रेति पद्मपक्षे, रदनद्युतय एव केसराणि यत्रेति मुखपक्षे
इति समासभेदः । पत्रपदस्य दलपरत्वं कस्तूर्यादिपत्रलेखापरत्वं चेति श्लेषः । कुन्तलभ्रमरयोर्विम्बप्रतिविम्बभावः4 । स च वस्तुतो भिन्नयोरन्योन्यसादृश्यादभिन्नतयाध्यवसितयोः प्रयोगः । श्यामलत्वं मालिन्यं चाभिन्नतया तद्विशेष्यतयोपात्तमिति । वस्तुप्रतिवस्तुभावः5
इवादिपदयोगे इवार्थकवतिप्रत्यये चोपमा श्रौती, तल्यादियोगे तुल्यार्थकवतिप्रत्यये च आर्थीति सिद्धान्तः । आर्थी यथा पूर्वश्लोके “अवलाया अलिमलिननलिनतुल्यम्” इति पाठे इति बोध्यम् ।
लुप्ता6 त्रिविधा-एकलुप्ता द्विलुप्ता त्रिलुप्ता चेति । तत्राद्या त्रिधा-धर्मलुप्ता वाचकलुप्तोपमानलुप्ता चेति । धर्मलुप्ता पञ्चधा7
यथा-
मध्यं यथा विहायस्तडिदिव तनुरक्षि तुल्यमब्जेन ॥
अधरः सुधासधर्मा कुशेशयाक्षि ! त्वमुर्वशीदेश्या ॥
उपमानिरूपणम्
अत्र वाक्ये समासे च श्रौत्यार्थी च । तद्धिते आर्थी च स्पष्टा । तद्धिते श्रौत्या धर्मलुप्ताया असम्भवात् । वाचकलुप्ता षड्विधा । यथा-
वियुक्ताश्चाम्पेयान्यहह दहनीयन्ति, मलया-
निलाः श्वासायन्ते तव, नवसुधाधाममधुरे ॥
शरव्ययित्यन्तर्मदनविशिखस्तस्य, भवतीं
रतिश्लेषं श्लिष्यन् कुसुमशरचारं चरतु सः ॥
अत्र श्वासायन्त इति कर्तरि क्यङ् । सुधाधाममधुरे इति
“उपमानानि सामान्यवचनैः” (२।१।५५) इति समासभेदः । दहनीयन्ति शरव्यीयन्तीति कर्मण्यधिकरणे क्यच् । रतिश्लेषं श्लिष्यन्निति कर्मणि णमुल् । कुसुमशरचारं चरत्वितिकर्तरि णमुल् ।
उपमानलुप्ता द्विधा । यथा-
चेतःसंवननं8 च विद्म इह तत् त्वं गीयसे यत्समा
नेत्रासेचनकं9 च यस्य भवती कल्याणि तुल्या भवेत् ॥
तेन त्वत्कुचजातरूपकलशे विन्यस्यमानो मुदा
यूनस्तस्य नवप्रवालतु करः पुष्पाशुगीयत्ययम् ॥
अत्र पूर्वार्द्धे समासे वाक्ये चोपमानमप्रयुक्तम् । द्विलुप्ता पञ्चविधा । क्विप्समासयोर्धर्मवाचकलुप्ता यथा - “नवप्रवालतु कर” इति । अत्राचारार्थकस्य क्विप इव शब्दस्य च लोपात् । अग्रिमपद्ये च ‘विम्बाधर’ इति । अत्रोत्तरपपदलोपिसमासे सदृशपदलोपे (वाचक) धर्माप्रयोगयोः सत्वात् । पुष्पाशुगीयतीति क्यचि वाचकोपमेयलुप्ता । पुष्पाशुगमिवात्मानमाचरतीत्यर्थे उपमेयस्यात्मान इवशब्दस्य च प्रयोगाभावात् ।
त्वद्बिम्बाधरवृत्तेः साम्यस्य निरूपको यः स्यात् ॥
यत्सादृश्यं दृश्यपि स दृश्यते नैव हरिणाक्षि ! ॥
अत्र वाक्ये समासे च धर्मोपमानलुप्ता । त्रिलप्ता यथा-‘हरिणाक्षि’ इति । हरिणस्याक्षिणी इवाक्षिणी यस्याइति धर्मोपमानवाचकलुप्ता । इत्थमेकोनविंशतिभेदा लुप्ता ।
एकस्मिन्नुपमेये बहूपमानसादृश्यं मालोपमा।
यथा-
रमन्ते मालायामिव कुसुममय्यां मधुकरा-
श्चमत्कारोद्रेकादिव रुचि चकोरा हिमरुचः॥
सरस्यां सौरभ्यादिव वरतनु ! श्वेतगरुतो
भवत्यामेतस्यां मम हृदयवृत्तिव्यतिकराः॥
पूर्वपूर्वोपमायामुपमेयस्योत्तरोत्तरोपमायामुपमानत्वेन कथनं रशनोपमा।
यथा–
अधर इवोक्तिर्मधुरा तनुलक्ष्मीरुक्तिवद्विशदवर्णा ।
तनुरिव मनोहरा दृग्दृगिवमृगाक्ष्याः सुदुःसहो विरहः ॥
आरोप्यस्यारोपविषयतादात्म्यापत्त्या प्रकृतोपयोगः परिणामः ।२।
यथा-
बालेयं सविलासं विवलितवदना विलोकयति ।
कमनीयतैकनिधिना प्रसेदुषा नेत्रनलिनेन ॥
नेत्रमिव नलिनमिति रूपकस्वीकारे नलिनस्य विशेष्यतया वीक्षणानुपयोगः । न चोपमा, नेत्रं नलिनमिवेति समासस्य दुर्लभत्वात् कमनीयेत्यादिसामान्यधर्मप्रयोगात् । “उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे"(२।११।५६) इति सूत्रात् । अतो नलिनस्य
उदाहरणानन्वयासमालङ्काराः
नेत्रतादात्म्यापत्यैव प्रकृतोपयोगः।
सामान्येन निरूपितस्य विशेषेण निरूपणमुदाहरणम्10 ॥ ३॥
यथा–
हेयः सन्नपि विषयः स्वरूपतोऽस्मि-
न्नादेयो भवति समीहितानुकूलः ॥
चन्द्रास्ये ! हृदयकदर्थनानिदानं
सम्भोगानुगुणतयेव विप्रलम्भः ॥
उपमानोपमेययोर्ज्ञायमानमैक्यमनन्वयः ॥ ४॥
यथा–
तत्तत्सुन्दरभावभावकधियां सन्दाननं, मन्दिरं
मन्दाक्षस्य, विलासमानभवनं, शीलैकशालायिता ॥ अन्यस्माद्विषयान्मनोनयनयोर्व्यावृत्तिमातन्वती
लोकेऽस्मिन्वरवर्णिनि ! त्वमिव मे सत्यंत्वमाभाससे ॥ सर्वथैवोपमाननिषेधोऽसमः ।५।
यथा–
भवदौपम्यनिरूपकमभिदधतांबालिशा बहुशः ॥
इह सहृदयो रहस्यं व्याहरति न किञ्चिदस्तीति ॥
परस्परसादृश्यमुपमेयोपमा ।६।
यथा-
मदनमतिवेलयन्ती दिक्ष्ववदातत्वमादधती।
त्वं चन्द्रिकेव विदिता वरवर्णिनि ! चन्द्रिका त्वमिव ॥
अनन्वये उपमानान्तरव्यवच्छेदो व्यङ्ग्यः, असमे वाच्यः,
उपमेयोपमायां तृतीयोपमानव्यवच्छेदो व्यङ्ग्यइति विशेषः । प्रकृतेऽप्रकृततादात्म्यसम्भावनमुत्प्रेक्षा। ७ ।
सा त्रिविधा । स्वरूपहेतुफलभेदात् ।
स्वरूपोत्प्रेक्षा यथा–
नवजपाकुसुमद्युतिपाटलो विधुमुखि ! प्रतिभाति तवाधरः।
तरुणतातरुणा नवपल्लवो विशदतामुपनीत इव स्वयम् ॥
अत्राधरे तादात्म्येन पल्लवस्यारोपः॥
हेतूत्प्रेक्षा यथा-
अंहस्संहतियोगादिव मुक्तानां हिमे सरोजानाम् ॥
मलिनं मण्डलमिन्दोरवदातं तव मुखं सुकृतैः॥
अत्र स्वकृतादृष्टविशेषो मुखलावण्यहेतुः तत्र तादात्म्येन कमलसुकृतस्यारोपः । एवमन्यदप्यूत्द्यम् ।
फलोत्प्रेक्षा यथा–
चक्षुस्त्वदीक्षणोत्सुकमाकर्णितभवदुदन्तवृन्देन ॥
तस्याः श्रोत्रेण समं मिलितुमिव तदन्तिकं याति ॥
अत्र तदन्तिकगमनफलं तत्संयोगः तत्र वृत्तान्तश्रवणेच्छाजन्यत्वस्य तादात्म्येनारोपः ८॥
सादृश्यनिबन्धनः प्रकृतसंशयः सन्देहः । ८।
वितर्क-विकल्प-रूपकनिरूपणम्
यथा–
प्रसूनसमवायिभिर्मलयजस्य चारम्भकै-
र्मृणालपरमाणुभिः किमु कलाभिरिन्दोः किमु ।
व्यधायि किमु वेधसा कुसुमधन्वनाऽहो इति
प्रिये तव कलेवरं समवलोक्य सन्दिह्यते ॥
संशयोत्तरमनिर्णये ऊहो वितर्कः ।९।
यथा–
किमेतद्राजीवं रजनिषु तदुल्लासरहितं
सुधांशोर्बिम्बं किं तदपि च कलङ्कं कलयति ॥
किमादर्शः स्पर्शो भवति कठिनोऽस्येति दयिता-
मुखं साक्षात्कुर्वन्सहृदयजनोऽभ्यूहतितमाम् ॥
अत्र यदीदं कमलं स्यात्तर्हि रात्रावुल्लासवन्न स्यात् इति तर्कस्यापातात् यो रात्रावुल्लासाभावः स च मुखे नास्तीतितात्पर्यम्।
विरुद्धयोः पाक्षिकी प्राप्तिर्विकल्पः।१०।
यथा–
जीवनहेतोर्दयिततमस्य प्राणस्य वैष सखि ! ॥
आगमने गमने वा दिवसं समुपैत्यवधिरद्य ॥
अत्र प्रियतमस्यागमनं प्राणगमनं वेत्यन्यतरस्यपाक्षिकी प्राप्तिः ॥१०॥ उपमेये उपमानतादात्म्यारोपो रूपकम् ॥११॥
तच्च द्विविधम् । सावयवनिरवयवभेदात् । तत्र सावयवं द्विधा । (समस्तवस्तुविषयमेकदेशविवर्ति च । ) सर्वेषामारोप्यारोपविषयाणां शब्दोपात्तत्वे समस्तुवस्तुविषयम् ।
यथा–
कस्तूरिकातिमिरतो मलिनीयमानौ
वामेक्षणे ! भवदुरोरुहचक्रवाकौ ॥
हाराग्रहीरकसुधानिधिपद्मराग-
भानू निरीक्ष्य भवतो न मिथः पृथग्वा ॥
यत्र11 केचिदिच्छावहाः केचिदार्थास्तदेकशविवर्त्ति। यथा-
चुम्बिता12 सुमनसामनेहसा स्नेहसारसदृशं वनस्थली ॥
आतनोति कलकण्ठकूजितं सीत्कृतं कुवलयाक्षि! भावय ॥
अत्र वसन्ते आरोप्यो नायकः, वनस्थल्यां नायिका चेति द्वयमर्थगम्यम् । पिकरवे सीत्कृतारोपेण तदाक्षेपः।
निरवयवं यथा–
प्रगल्भेभ्योऽप्यन्तःकरणतलरत्वापहरणे
यतस्तेभ्यस्तेभ्यो भजति विषयेभ्यो विमुखताम् ॥
शरद्राकाजैवातृकमुखि ! विना त्वां प्रियतमो
निपीतायाः सोऽयं त्वदधरसुधाया मधुरिमा ॥
अत्रैक एवारोपः।
एकस्मिन्नुपमेये बहूपमानतादात्म्यारोपो मालारूपकम् ।
यथा–
पुष्पेषोर्वीरयात्राजयपटहरवोऽपूर्वशृङ्गारसूत्र-
व्याख्याभाष्यप्रपञ्चस्तरुणिमकरिणो बृंहितस्यानुबन्धः ॥ सौन्दर्यैकप्रशस्तिर्निधुवनकलहोपक्रमस्वस्तिवादः ।
श्रुत्योः पीयूषपूरो जयति कलकलं कामिनीकाञ्चिदाम्नः ॥
आरोपान्तरसापेक्ष आरोपः परम्परितम् ।
परम्परितरूपक रत्नावल्यौ
।
(तच्च श्लिष्टाश्लिष्टशब्दनिबन्धनत्वेन द्विविधम् )
यथा–
रागोत्तरेण रजनी निधिना कलानां
सौरभ्यवैभववता परिरभ्यमाणा ॥
उत्सार्यमाणतिमिरोत्करकेशपाशा
ताराः प्रसूननिवहानिव निर्जहाति ॥
अत्र कलानिधिपदं श्लिष्टम् ।
श्लेषाभावे यथा–
अन्तर्निगूढमपि गुम्फितगूढभाव-
कोलाहलं कलहहालहलं सहेलम् ॥
सद्योऽपसारयति भीरु ! रसालवीरु-
द्बद्धावधानमधुपध्वनिसिद्धमन्त्रः॥
अत्र(कलहे) विषारोपस्तदपनायकत्वेन भ्रमरगुञ्जिते मन्त्रारोपे निमित्तम् ।
प्रसिद्धक्रमाणामेकत्रोपनिबन्धनं रत्नावली । १२ ।
यथा-
लक्षमनङ्गस्य13 मतं कलेवरं तव सुधांशुमुखि ! ।
अब्जंपुनस्तनुभृतां ततः परार्द्धं सहृदयानाम् ॥
अत्र लक्षादिसङ्ख्यानां श्लेषेण निबन्धनम् । प्रकृतनिषेधविशिष्टस्तदन्यारोपोऽपह्नुतिः। १३ ।
निषेधो द्विधा शाब्द आर्थश्च ।
शाब्दे निषेधे यथा–
सुन्दरि ! नेन्दुरयं किमु नभोऽङ्गणे तारतण्डुलजिघत्सुः । हरिहयहरिन्महेलाहेलापारावतः स्फुरति ॥
आर्थे यथा–
ताटङ्कमौक्तिकमिषाद्वरतनु ! नक्षत्रपङ्तिरियम् ॥
किमपि परिष्कुरुते तव शब्दग्रहसाधनं गगनम्14 ॥
अत्र मिषपदेन नैतानि मौक्तिकानि किंतु श्रोत्रस्याकाशात्मकतया तदीयनक्षत्राणीति गम्यते । अत्रैव कैतवापन्हुतिरिति व्यवहारः । क्वचित्सहेतुको विषयनिषेधः15
यथा–
न वयमवयवार्थस्यान्वयादन्वयामो16
मतिमिह हिमधामाभेदमुद्गाहमानाम्17 ॥
विरहिनयनमीनत्रासदाने निदानं
गगनसरसि खेलन्व्यंसकोऽयं चकास्ति18 ॥
अत्र चन्द्रे चन्द्रत्वनिषेधे आल्हादकत्वाभावो हेतुरुक्तः । क्वचिद्विषयहेतूक्तावपि विषयनिषेधः ।
यथा–
प्रकाशादाशानां तिमिरनिकुरम्बाणि तिरय-
भ्रान्त्यपह्नुति-छेकापह्नुति-निश्चयालङ्काराः।
त्यशक्यं सङ्कोचं गमयति समूहं जलरुहाम् ॥
तथापि प्रज्ञैवं हृदि सहृदयानामुदयते
विधुर्नायं किन्तु प्रणयिनि ! मुखं ते विधुरिति ॥
स्वकीयतात्पर्य्यख्यापनेन परभ्रान्तिखण्डनंभ्रान्त्यपह्नुतिः ॥१॥
यथा–
दूरीकरोति कुचयोः सिचयोपराग19-
मासञ्जयत्यवयवेषु परागयोगम्20 ।
किं भेजिषे विषयतां मलयानिलस्य
मुग्धे ! न, किन्तु हृदयाभिमतस्य तस्य ॥
परकीयप्रमाखण्डनाय स्वतात्पर्यस्यान्यथाकरणं छेकापह्नुतिः ।२।
यथा–
आकुलयति कुचमुकुलं चुम्बति बिम्बाधरं दृशौ स्पृशति ।
दयिततमः किमधिगतो न हि सहचरि ! विभ्रमन्भ्रमरः ॥अप्रकृतनिषेधविशिष्टप्रकृतस्थापनं निश्चयः ॥ १४ ॥
यथा-
तीरे21 तरणिसुतायास्तमालविथीयमुल्लसति ।
किमिति त्वरया दूरादध्वग ! नावं गवेषयसि ॥
अत्र तमालमालायां भ्रान्त्या प्रसक्तं यमुनातादात्म्यं नि-
षिध्य वस्तुतस्तमालमालातादात्म्यस्य स्थापनम् ॥
शब्दैक्ये सत्यनेकार्थकथनं श्लेषः
॥१५॥
स च द्विधा । अभङ्गसभङ्गभेदात् ।
यथा-
पूर्वा22 हरिदपि तमसा श्यामेयमकारि जृम्भमाणेन ।
तस्यामेव कलानिधिराधास्यति रागमुद्गच्छन् ॥
अत्रैकानुपूर्वीकपदानामेव भिन्नार्थकत्वम् । द्वितीयो भिन्नानुपूर्वीकशब्दबोद्ध्यान्यार्थकः । स चाष्टधा । वर्ण-पद-लिङ्ग-भाषा-प्रकृति-प्रत्यय-विभक्ति-वचनभेदात्। वर्णश्लेषो यथा-
खञ्जनमञ्जुलनयने ! त्वया समासञ्जितो यदसौ।
तेन तदीयावयवा बाधांदधतीति साधीयः॥
अत्र असु-असिशब्दयोरसाविति सप्तम्येकवचने तुल्यम् ।
पदश्लेषो यथा-
अलकावलोकने तवसारम्भा23 मम दृगुत्सुकिता।
उपरुद्धा निकषाभवचेलेन बतान्तरा मिलता ॥
अत्रालकानाम् अलकाया वेत्यादिपदभेदः ।
लिङ्गभेदो यथा-
दधती मदनविकारं कमलानां मालिकामुपहसन्ती ।
यूनां मनो हरन्ती सुतनु ! त्वं च त्वदीयनेत्रे च ॥
श्लेष-समासोक्त्यलङ्कारौ।
भाषाश्लेषो यथा–
साहसकी सरसं तं मोहं मा गच्छ भण सुमासवहम् ।
इत्याहेत्यभिदधतीं दयिततमो मानिनीमनुनिनीषन् ॥
अत्र तं पूर्वकालीनं मद्विषयकं (रसं) मोघं व्यर्थं कस्मात्कथयसि, मा आगच्छ आगमन(प्रयोजन)स्य मत्परिरम्भादेर्दुर्लभत्वात् , भण मा शपथमिति नायिकावाक्यार्थः। साहसकी साहसयुक्ता, सरसं साभिनिवेशं, मोहं मदपराधभ्रमं मा गच्छ माप्नुहि सुमानां पुष्पाणाम् आसः क्षेपः तद्वहं तद्वत्सुकुमारं यथा स्यात्तथा भण न तु निष्ठुरमिति नायकवाक्यार्थः ।
प्रकृत्यादिचतुष्टयश्लेषो यथा-
माकन्दः24 इति षष्ठीनिषेधः । अत्र प्रत्ययश्लेषः । समायास्यतः इति षष्ठ्यन्तं मलयानिलस्य इत्यस्य विशेषणं, क्रियापदं वा । अत्र च विभक्तिश्लेषः । गाते इति गाङ् गतौ इत्यस्य एकवचने बहुवचने च तुल्यं रूपम् । अत्र वचनश्लेषः । श्रमं, खेदम्।") कुसुमं प्रधास्यति मधुप्रस्यन्दमिन्दिन्दिरः
श्रोतारः पिककूजितानि परमामार्तिंगमिष्यन्ति च ॥
प्रत्यक्षं मलयानिलस्य सुरभिस्पर्शौसमायास्यतः
सञ्चिन्त्येति मनो वियुक्तसुतनोः सख्यश्च गाते श्रमम् ॥ प्रकृतवृत्तान्तेनाप्रकृतप्रतीतिः समासोक्तिः ॥१६॥
यथा–
ऊर्ध्वीकृत्य ग्रीवां चकोरि ! किं वा दिदृक्षसे चन्द्रम् । अयथास्थानस्थापितपञ्जररुद्धं न वेत्सि स्वम् ॥
अत्र प्रकृतचकोरीव्यवहारेण क्वचिदनुरक्तायाः पराधीन-
नायिकायाः प्रतीतिः । अत्र प्रकृतेऽप्रकृतनायिकादिव्यवहार एवारोप्यत इति सर्वस्वकारादयः। नायिकात्वादिकमप्यारोप्यत इति रसगङ्गाधरादयः॥ अन्वयानुपपत्त्या सादृश्यपर्यवसानं निदर्शना । १७।
यथा–
वदनमधि विधुविधुन्तुदमृधमाधुर्य्यंदधाति वाष्पाम्बु । कज्जलमलिनितमक्ष्णोरम्बुजरोलम्बसम्बलनम् ॥
अन्यदीयधर्मस्यान्येन धारणानुपपत्त्या सादृश्यसिद्धिः ॥
क्रियया हेतुहेतुमद्भावप्रतीतिर्द्वितीया निदर्शना ।
यथा–
मुधैव विरुणद्धि योऽधिकगुणेन सार्द्धं, स तन्निरूपितपराभवं भजति भावये भामिनि ! ॥
भवद्वदनभव्यतां समभिमन्यमानो विधुः
कपोलफलके तव प्रतिफलन् पराभूयते ॥
अत्र स्वोत्कृष्टविरोधः पराभवहेतुरिति सामान्यकार्यकारणभावः पूर्वार्द्धप्रतिपाद्यः। तत्रोत्तरार्द्धं दृष्टान्तः। तत्र वदनं गुणाधिकविशेषः चन्द्रोऽपकृष्टविशेषः । कार्यमुभयत्र पराभव एव ।
प्रकृतमनुपन्यस्यतत्स्थानीयवाक्यार्थान्तरोपन्यासो ललितम् ॥१८॥
यथा–
मधुरतामवधेहि मधोरिमां मलयमारुतमाकलयाबले ! ॥
किमितिनावदधासि मुधाऽबुधे ! विधिवशान्निधिमाहितसन्निधिम् ॥
अत्रस्वयमागतं नायकं किमित्युपेक्षसे इति प्रकृतमनभिधाय तत्समजातीयस्य स्वयमुपस्थितनिधिं कस्मान्नाद्रियसे इत्यस्यो-
अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः ।
पन्यासः॥
अप्रकृतवृत्तान्तेन प्रकृतप्रतीतिरप्रस्तुतप्रशंसा ॥१९॥
सा च पञ्चविधा । कार्ये प्रस्तुते कारणस्योक्तिर्यथा-
धुरि मधुरिमधराणामधीयते मधु मुधैव वैधेयाः25
बिम्बाधरं वधूनामभिदधति विशुद्धधीनिधयः ॥
अत्र नायिकामात्राऽऽसक्तौ वाच्यायां तद्धेतोरधरमाधुर्यस्याभिधानम् ।
कारणे प्रस्तुते कार्यस्योक्तिर्यथा–
जृम्भायामम्भोरुहवदनाया भवदवेक्षणभवायाम् । पुलकोदञ्चितकञ्चुकसन्धिभिराबन्धि चटचटाशब्दः ॥
अत्र सा त्वय्यत्यन्तमनुरक्तेतिवक्तव्ये तत्कार्यमुक्तम् ।
सामान्याभिधाने विशेषाभिधानं यथा—
शिञ्जानेन26 समञ्जसमिह मञ्जीरेण खञ्जनाक्षि ! कृतम् । क्षणमलिगुञ्जितविरही दुरवस्थः स्यादशोककुसुमौघः ॥
अत्र यद्व्यतिरेको यदीयविलक्षणशोभाव्यतिरेकप्रयोजक-
स्तद्रहितस्य तस्य जन्मानर्थकमिति सामान्ये भ्रमरगुञ्जिताभावेऽशोककुसुमानां शोभाराहित्यमापादितम् ।
विशेषे प्रस्तुते सामान्याभिधानं यथा–
कुसुमशरवश्यमनसो नूतनकुवलयदलद्रोहिनयनायाः।
तन्वि! विभावय दयिते नैव विरुध्यासितुं युक्तम् ॥
अत्र कामार्तायास्तव दयितानादरो न युक्त इति विशेषे वाच्ये ईदृश्या नायिकाया दयितानादरणं न युक्तमिति सामान्यमुक्तम् ।
तुल्ये वाच्ये तुल्याभिधानं यथा–
अस्माभिरेव विहितस्तव लवलि ! लवङ्गसंसर्गः ।
अधुना वेल्लितविटपा मुखमप्यस्मिन्निवर्तयसि ॥
अत्र नायकसङ्घटनोत्तरं दूतीमनाद्रियमाणायां नायिकायां तत्सदृशी लवली उक्ता।
प्रस्तुतवृत्तान्तेन प्रस्तुतप्रतीतिः प्रस्तुताङ्कुरः ॥२०॥
यथा–
लोभेन त्वद्बिम्बाधररसपीयूषपानस्य ।
संविहितचरणपातस्तं27 रागी यावकः श्रयति ॥
अत्र यावकप्रक्रमे चरणसम्बन्धानन्तरमधरसम्बन्धोक्त्या प्रस्तुतस्य प्रणामानन्तरसम्भोगार्थिनो नायकस्य वृत्तान्तप्रतीतिः।
प्रस्तुताप्रस्तुतयोः सर्वथैवाभेदप्रतीतिरतिशयोक्तिः २१॥
यथा–
विलसति परिच्छिन्नं व्योम स्तनन्धयममुष्टिना
मिहिरमिलनादव्याकोशं कुशेशयकोरकम् ।
अहनि रजनावेकाकारं सुधानिधिमण्डलं
भुवि विजयते दृश्या विद्युन्महान्तमनेहसम् ॥
अत्र नायिकाया मध्यकुचमुखतनूनां व्योमाद्युपमानवाचकपदैरेव गौणवृत्याऽभिधानम् ।
तस्यैवान्यत्वाभिधानं भेदकातिशयोक्तिः । १ ।
अतिशयोक्तिभेदाः ।
यथा–
विच्छित्तिरत्यन्तविलक्षणेयमनन्यजोज्जृम्भितमन्यदेव28।
अन्यानि दृग्भङ्गतरङ्गितानि तस्या विजातीयमथोक्तिजातम् ॥
असम्बन्धे सम्बन्धकल्पनं सम्बन्धातिशयोक्तिः ।२।
यथा–
निशि भवदास्यसमुद्भवपरिमलमाजिघ्रदेकजातीयम् ।
पद्मस्मितमनुमिनुते कोककुलं केलिवापीषु ॥
अत्र चक्रवाकानां तादृशानुमित्यसम्बन्धेऽपि तादृशसम्बन्ध उक्तः। सम्बन्धेऽप्यसम्बन्धकथनं द्वितीयाऽसम्बन्धातिशयोक्तिः ।३।
यथा–
तुन्दपरिमृजमिदं ते मुखरुचिपानाच्चकोरकुलम् ।
राकायामपि चन्द्रज्योत्स्नापानाय नो यतते ॥
अत्र ज्योत्स्नास्वादनयत्नसम्बन्धेऽप्यसम्बन्ध उक्तः।कार्यकारणयोर्यौगपद्यमक्रमातिशयोक्तिः।४।
यथा—
निपतितं गजगामिनि ! मामकं
तव कलेवरवीरूधि लोचनम् ।
अपि हृदि क्षणमाप्य तदैव मे
निपतिता रतिनायकासायकाः ॥
हेतुप्रसक्तावेव कार्योत्पत्तिकथनं चपलातिशयोक्तिः ॥५॥
यथा–
गेहपतावायास्यति दयिततमे च प्रवत्स्यति गृहिण्याः ।
तनुतोदयेन तत्क्षणमनर्थबीजं समर्थितप्रायम् ॥
अत्रप्रियप्रवाससम्भावनायामेव तत्कार्यतनुत्वस्योत्पत्तेः कथनम्। कारणात्प्रागेव कार्योत्पत्तिकथनमत्यन्तातिशयोक्तिः।६।
यथा-
प्रययुर्मदीयहृदयाद्गुणा विवेकादयः प्रथमम् ।
सर्वस्वं मदनस्य न्यविशत् स्वान्तं ततश्चरमम् ॥
केन चिदापादकेन कस्य चिदापादनं सम्भावनम् ॥२२॥
यथा-
बाले ! स्युर्यदि जातुचित्सुमनसांमाला विमर्दक्षमा
बिभ्राणा यदि सौरभं सहजतः स्युर्जातरूपस्रजः ॥
चैतन्यं यदि वा कदापि बिभृयुः श्रीखण्डपाञ्चालिका-
स्तर्ह्यन्येन निरूपितं तव तनुः सादृश्यमासादयेत् ॥
कस्य चिदर्थस्य मिथ्यात्वसिद्धये मिथ्याभूतार्थान्तरोपकल्पनं मिथ्याध्यवसितिः ॥२३॥
यथा-
गगनतललक्ष्मीकमलपरिमलकमनीयतनुर्मृगाक्षि29 ! पुमान् ॥
बन्ध्यासुतं प्रति वदेत्तवावलग्नस्य सावयवभावम् ॥
उत्कर्षानुपपादनेऽप्युत्कर्षहेतुत्वकथनं प्रौढोक्तिः॥२४॥
यथा-
शशाङ्कसमवायिभिः शकलितैः कलङ्कोज्झितैः
कृते30 सुमुखि ! चत्वरे यदि सरोवरं रोहति ॥
ततो भवति पद्मिनी यदि तया समारभ्यते
हेतूल्लेखालङ्कारौ।
प्रसूनममुना समं तव मुखं तदाचक्ष्महे31॥
अत्र निमित्तकारणगुणानां कार्य्यगुणे तदुत्कर्षे वानुपपादकत्वेऽपि तदुपपादकत्वोक्तिः।
कार्यकारणयोरभेदाभिधानं हेतुः । २५ ।
यथा–
आकृष्टिर्हृदयस्य विस्मयप्ततेःसृष्टिर्दृशोर्बन्धनं
प्रोल्लासो मकरध्वजस्य जगतीवामभ्रुवां न्यक्कृतिः।
उद्रेकः प्रमदस्य32 विभ्रमभुवो निर्दम्भमुज्जृम्भणं
प्रत्यासत्तिरसौ रसस्य जयति त्रस्यत्कुरङ्गेक्षणा ।
हेतुहेतुमद्भाववर्णनं द्वितीयो हेतुः।१।
यथा–
प्रालेयांशोः कलायामुपहतिमतये दृश्यतावश्यतायां
मालानां कौसुमीनामपि मृदुतरताव्यत्ययप्रत्ययाय ॥
अप्रामाण्याय वाण्यास्त्रिदिवमृगदृशां रूपवत्तापराया
विस्तारायाद्भुतानामिह भुवि भुवने भाससे भामिनि ! त्वम् ॥ एकस्यानेकसमवेतभिन्नभिन्नप्रकारकज्ञानविषयत्ववर्णनमुल्लेखः ॥ २६ ॥ यथा–
सङ्केतकुञ्जभवने प्रतिसञ्चरन्ती-
मालोक्य सुभ्रु ! भवतीं गहनान्धकारे।
चाम्पेयकोरकमयी स्रगिति द्विरेफाः
सौदामिनीति कलयन्ति मुदं मयूराः ॥
अत्र ज्ञानं भ्रमरूपम् ।
प्रमारूपं यथा–
श्रोत्रेण कोकिलवधूकलकूजितेति
घ्राणेन भासुरसरोरुहसौरभेति ॥
राजीवरम्यनयने ! रसनेन ताव-
द्विज्ञायसे ननु सुधामधुराधरेति ॥
एकस्याप्येकवृत्त्यनेकप्रकारकज्ञानविषयत्ववर्णनमपर उल्लेखः ।१।
यथा–
चित्राङ्गदा33 भुजयुगे तनुसन्निवेशे
पाञ्चालिका दृशि पृषत्यसि वाचि सत्या।
रोहिण्यसि त्वमधरे विनता विनीतौ
छाया मनोभवविकारमहानिदाघे॥
साम्याभिप्रायके वाक्यद्वये एकधर्मोपादानं प्रतिवस्तूपमा ॥२७॥
यथा–
ईर्ष्याकषायितमपितेवदनमिदं मां धिनोत्येव ।
इन्दुरुदयारुणिम्नाभिन्नोऽपि मुदे चकोराणाम् ॥
अत्र धिविप्रीणने इति धातुपाठात् धिनोतीति तिङन्तेन, ‘मुदे’इत्यनेन च प्रीतिजनकत्वरूपैकधर्मोक्तिः ।
दृष्टान्त-दीपकालङ्कारौ।
तत्रैव बिम्बप्रतिबिम्बभावेन भिन्नधर्मोपादानं दृष्टान्तः॥२८॥
यथा–
भुवनेषु भवन्तु भव्यभेदा नयनासेचनकं त्वसि त्वमेव ।
कुसुमानि वहन्तु वीरुधोऽन्या नलिनी केलिविलासभूरलीनाम् ॥
अत्र नयनासेचनकत्वं केलिभूमित्वं चेति भिन्नधर्मोक्तिः । प्रकृताप्रकृतानामेकधर्मान्वयो दीपकम् ॥ २९ ॥
यथा-
अतिसौरभवल्लिभिः34पिकानां
नलिनीभिश्च कलाः शिलीमुखानाम् ।
महिलाभिरनाविला विलासा
बहुवेलं हि विलक्षणा ध्रियन्ते ॥
अत्र महिलाविलासाः प्रकृताः (कोकिलानां भ्रमराणां च कला अप्रकृताः )तेषां कर्मत्वेन ध्रियन्ते इत्येकक्रियान्वयः ।
एककारकस्यानेकक्रियान्वयः कारकदीपकम् । १ ।
यथा-
त्वामात्मीयविहारसौधसविधावस्थायिरथ्यामुख–
प्रत्यासत्तिभृता पथा विधिवशादालोक्य सञ्चारिणम् ।
तत्र प्रक्षिपतीक्षणं वितनुते पाणौकपोलस्थलीं
ध्यायत्युत्पुलकायते शिथिलतामायाति मुह्यत्यपि ॥
रूपान्तरेण पूर्वात्तस्य कारकस्य उत्तरत्रान्यरूपेणान्वयो मालादीपकम् ॥२॥ यथा–
नलिनी केलिसरस्या तयाम्बुजं तेन मकरन्दः।
तेन मरुत्तेनाङ्गं विरहिण्यास्तेन लभ्यते लाभः ॥
पूर्वं कर्मत्वेनान्विताया नलिन्या उत्तरत्र कर्तृत्वेनान्वयः।
क्रियाया द्विरभिधानमावृत्तिः (त्तिदीपकम् ) ॥३०॥
शब्दावृत्तिर्यथा–
जलदाः प्रचलाकिनां कुलानि35
स्तनितैरुन्मदयन्ति सान्द्रमन्द्रैः।
इषवोऽनिमिषध्वजस्य चामी36
हृदयान्युन्मदयन्ति हन्त यूनाम् ॥
उन्मदानि कुर्वन्ति हर्षयन्ति चेत्यर्थभेदः ।
अर्थावृत्तिर्यथा–
पिदधति करभोरु ! पुष्करान्तं37
कलय कुलानि मुदा वलाहकानाम् ।
भुवमपि तिरयन्ति सातिरेकं
मलिनतमानि तमालकाननानि ॥
उभयावृत्तिर्यथा–
विकसति कदम्बकुसुमे मधुव्रता मधु धयन्त्यधुना।
सहृदयधुर्य्या मधुरं धयन्ति बिम्बाधरं वधूनाम् ॥
प्रकृतानामप्रकृतानामेव वा एकधर्मान्वयस्तुल्ययोगिता ३१
यथा–
धाराधरे गगनसीममलीमसत्व-
सम्पादके समभिवर्षति वारिजाक्षि!।
कल्लोलिनीषु कुसुमेषु च केतकीना-
मध्यन्यहृत्सु च विभाति रजोऽभियुक्तिः ॥
तुल्ययोगिता-व्यतिरेकालङ्कारौ।
अत्र वर्षावर्णने प्रकृतानां केतकादीनां रजोरूपैकधर्मसम्बन्धः । अप्रकृतानां यथा-
अधरकरचरणवृत्तिं तरुणि ! तवोत्पश्यतामरुणिमानम् ।
हिङ्गुललोहितकमहारजनानां हीयते महिमा ॥
सपक्षविपक्षयोर्वृत्तिसामान्यमन्या तुल्ययोगिता ॥१॥
यथा–
ज्योत्स्नारसानुभूतिप्रोल्लसदङ्गाररुचिभाजः38।
हिमदीधितिना विहिताः सुतनु ! चकोराश्च चक्रवाकाश्च ॥उपमानादुपमेयस्योत्कर्षवर्णनं व्यतिरेकः । ३२ ।
स च चतुर्विंशतिभेदः । शाब्दे साम्ये चत्वारो भेदाः।
उत्कर्षापकर्षहेतूक्तौ, उत्कर्षमात्रहेतूक्तौ, अपकर्षमात्रहेतूक्तौ, उभयमात्रहेत्वनुक्तौचेति । एवमार्थे साम्ये, आक्षिप्ते चेति द्वादश भेदाः । तेषां श्लिष्टत्वेद्वादशेति मिलित्वा चतुर्विंशतिभेदाः ।
तत्र शाब्दे साम्ये यथा—
त्वद्वक्रेरुचिरब्जवत्पुनरवच्छिन्नाऽनवच्छिन्नता-
भिन्ना धूमलतेव भाति कबरी भूयोऽभिरामा दृशोः।
श्रीरोष्ठस्य च पद्मरागदलवत्तत्सौकुमार्योज्झितं
किञ्चित्कालिकवक्रतां न वहति भ्रूश्चापलेखा यथा ॥
आर्थे साम्ये यथा–
दृश्यं दर्पणवत्कपोलफलकं प्रातः शुभं सर्वदा
मुक्ताभिः सदृशा लसन्ति दशना रन्ध्रानुबन्धत्यजः ॥
कुम्भेनापि पयोधरावुपमितावन्तः स शून्यः परं
रम्भास्तम्भवदूरुयुग्ममहिमैकाश्लोषयोग्यं तु तत् ॥
आक्षिप्ते साम्ये यथा–
नाभिः सुभ्रु! सरःसनाभिरसकौमन्द्रा सदा जातु त-
द्रोमालिर्यमुनामसूयितवती नो वक्रतामञ्चति ।
मध्यं व्योमविरोधि दृश्यपदवींतज्जातु नोद्गाहते
पाणिः पल्लवमभ्यसूयति परं राजीवसंयोगभाक् ॥
एतत्क्रमेणैव द्वादश श्लिष्टभेदाः । यथा–
राजीवे इव ते पदे विसदृशी ते दृश्यभूते इमे मृद्व्यस्त्वङ्गुलयोऽतिलोहितमणिज्योतिःशलाका इव ।
तिस्रोऽमूर्वलयोऽपि वीचय इव प्रायेण ते नीचगाः
श्रीरुच्चैर्बिसवद्रुचिर्नियमतो दोष्प्रोचनोष्प्रोदये ॥(?)
कण्ठः कम्बुसमोविहाय हृदयं तस्यास्यसङ्गृह्यगो-(?)
र्नासेयं तिलपुष्पवद्वहति नो मालिन्यमस्याःफलम् ।
भालं चेन्दुदलोपमं भवति तदृश्यं तु पक्षान्तरे
दृक्कञ्जप्रतिमा शिलीमुखततेस्तादात्म्यमस्यां पुनः ॥
व्याहारा विहसन्ति कोकिलकलान्ध्वन्यात्मवर्णा ध्वनीन्
कौमुद्या मदहृत्स्मितं बहुलमप्यासाद्य विद्योतते ।
दृग्भङ्गी जलजस्रजां विजयिनी साकूतभावत्यजां
माधुर्य्येविरुणद्धि सुन्दरि ! सुधां दृष्ट्या प्रपेया तनुः ॥
अभिधातुमिष्टस्यापि विशेषलाभार्थोनिषेध आक्षेपः ३३॥
स द्विविधः । वक्ष्यमाणविषय उक्तविषयश्चेति । आद्योयथा-
कुमुदामिन्दति माद्यति कौमुदी
वहति गन्धवहो मलयोद्भवः ।
किमथवाभिहितैः क्रियते हितैः
सहृदयैरहितग्रहिले जने ॥
आक्षेपालङ्कारभेदाः ।
अत्रैतादृशसमये मानं मुञ्चेति अभिधित्सितमेव प्रतिषिद्धम् । तथाचावश्यं मानस्त्याज्य इति व्यङ्ग्यम् । द्वितीयो यथा-
मनो मैवं कार्षीरतिपरुषितं मानिनि ! रुषा
दृशौ मैवं नैषीरपि कलुषतामश्रुपृषतैः ॥
करेण स्प्राक्षीर्मा मृदिततिलकं गण्डफलकं
कृतं वा संवादैः सुहृदभिहितानीहितहृदाम्39 ॥
अत्रोक्त्वापि तत्प्रतिषेधः कृतः40 ।
उपमेयेनोपमानवैयर्थ्योक्तिरन्य41 आक्षेपः ॥१॥
यथा-
वैफल्याकलिता बलाहककला तावत्कलापे स्थिते
केशानां सति ते मुखे कुमुदिनीकान्ते वृथैक्यं ततः ॥
व्याहारेषु पिकाङ्गनाकलकलः कोलाहलः केवलं
पानाच्चेन्मदकृत्कलेवरलता हालापि हालाहलम् ॥
अर्थान्तरतात्पर्यको निषेधोऽपर आक्षेपः ॥२॥
यथा-
कृतोत्साहां किञ्चिद्विषयकविजिज्ञापयिषया
तदीयामालिं मा गुणविधिनिषेधात्स्म जगणः ॥भवत्साक्षात्काराधिकरणमुपक्रम्य समयं
धियां धारा तस्यां विषयमपरं नो विषहते ॥
अत्र तत्सखीत्वेन ज्ञायमानायास्तत्सखीत्वेन ज्ञाननिषेधो
बाधितः सन् नाहं तत्पक्षपाततया ब्रवीमीत्यर्थे पर्यवसन्नः।
निषेधफलको विधिराक्षेपान्तरम् ॥३॥
यथा-
ऋजुहृदयया मया तव मृष्यन्त्या तावदपराधान् ॥
दृष्टान्तः स्वयमेव स्वहस्तितस्तत्सजातीये ॥
अत्र पूर्ववदन्यानप्यपराधानहं सहिष्ये अतो मत्प्रातिकूल्यंयथेष्टं क्रियतामिति विधिः स्पष्टः । अद्यपर्यन्तं सहनेऽप्यतः परं न सहिष्ये तस्मादपराधं मा कार्षीरिति तात्पर्य्यम् ॥
विना हेतुं कार्योत्पत्तिर्विभावना ॥ ३४ ॥
सा च द्विविधा । उक्तनिमित्ताऽनुक्तनिमित्ता च । आद्यायथा-
नो तावन्मलयानिलेन तरलायन्ते लवङ्गीलता
माकन्दे मुकुलाकुले कलकलं कुर्वन्ति नो कोकिलाः॥
नो वा चम्पकसम्पदा वनभुवः सम्पन्नशम्पान्वया42
जातं प्रोषितभर्तृकाजनमनश्चैतन्यमन्यादृशम् ॥
अत्र वसन्तानाविर्भावेऽपि विरहिणीनां मनोविकार उक्तः।
विरहरूपं तन्निमित्तं च प्रोषितपदेनोपात्तम् । द्वितीया यथा-
अतिरोधतिरोहिता दृशोः श्री-
रविभक्तावयवं कृशं शरीरम् ॥
अपरागपराहतौ प्रियायाः
प्रतिभातः परिपाण्डुरौ कपोलौ।
अत्र विरहहेत्वनुक्तिः ।
हेतुसत्वेऽपि कार्यानुक्तिर्विशेषोक्तिः॥ ३५ ॥
यथा–
व्याहारानवहेलयस्यपि वयस्यानां वयस्याग्रहा-43
यथासंख्यार्थान्तरन्यासालङ्कारौ ।
न्नोगृह्णासि गिरः प्रियस्य कियतीर्निर्मायमायस्यतः ॥
एते चेतसि केतकीसुमनसामामोदतो मेदुरा
उन्मादं पवना अपीह न मनाक्तन्वन्ति तन्वङ्गि! ते ॥
अत्र प्रस्तुतहेतुसत्वेऽपि तदनुत्पत्तिः ।
निर्देशक्रमेण पदार्थान्वयो यथासङ्ख्यम् ॥ ३६ ॥
यथा-
युवत्वे बालत्वेऽप्युपजिगमिषानिर्जिगमिषे
स्तने मध्ये वास्या महिमतनिमानौ निवसतः॥
गिरि श्रोणीभागेऽपि च मधुरभारातिगुरुते
दृशोर्भङ्गेचेतस्यपि कुटिलताविभ्रभरौ ॥
सामान्यविशेषाभ्यां विशेषसामान्यसमर्थनमर्थान्तरन्यासः ॥३७॥
प्रत्येकं द्विधा । साधर्म्यवैधर्म्यभेदात् । आद्यंसाधर्म्येण यथा-
ओजायते यथेन्दुर्ग्लायति तस्यास्तथा वदनम् ॥
न खलु विपक्षसमृद्धौ परितोषंयान्त्यपि विपत्स्थाः44 ।
तदेव वैधर्म्येण यथा-
यौवनविहितविमर्दनमपि बालत्वं45कुरङ्गनयनायाः ।
बालेष्वेवावर्त्ततचिराय साधारणे दुरासम् ॥
अत्र तुरीयचरणस्य विपर्ययः - स्वासाधारणविषये चिरं स्थातुं शक्यम् इति तेन पूर्वसमाधानम् ।
द्वितीयं साधर्म्येण यथा,
महतामुपसङ्ग्रहेण दोषा
अपि सम्बिभ्रति भूरिभव्यभावम् ।
कुचसीमनि मत्तकाशिनीनां
कठिनत्वं कलयन्ति कौतुकाय॥
तदेव वैधर्म्येण यथा-
अधरे तव माधुरीनिधाने
हृदयं तस्य सदैव सानुबन्धम् ।
विषयेषु निसर्गसुन्दरेषु
प्रवणत्वं न नवीनमिन्द्रियाणाम् ॥
अत्रोत्तरार्द्धस्य विपर्यय इन्द्रियाणां विषयाभिमुख्यं स्वाभाविकमिति तेन पूर्वसमाधानम् ।
विशेषसमर्थकस्य सामान्यस्य विशेषान्तरेण समर्थनं विकस्वरः ॥ ३८॥
यथा–
जातच्छायतया कपोलभुवि ते वाच्छन्मुखस्य श्रियं कर्णालम्बितकेतकक्रकचभाक् शीतद्युतिर्भिद्यते ।
आकाङ्क्षाकिल बाधितेऽपि विषये भाति प्रयासैकभू-
र्बालस्येव सुधाकरस्य समुपादित्सा मुहुः पाणिना ॥
आपाताद्विरोधमानं विरोधाभासः ॥ ३९॥
स दशविधः । जातेः जातिगुणक्रियाद्रव्यैः, गुणस्य गुणक्रियाद्रव्यैः, क्रियायाः क्रियाद्रव्याभ्यां, द्रव्यस्य द्रव्येणेति ।
यथा-
कर्पूरं वन्हिरुष्णो मरुदपि तपनं चन्दनं क्ष्वेड इन्दुः
सा श्यामा पाण्डुरुच्छुष्यति सजलमुखं मन्मथोऽप्यप्रमेयः ।
स्वभावोक्ति-व्यानस्तुती।
चेतः शून्यायते चोल्लिखति च किमपि प्रेक्ष्यसे सर्वतस्त्वं
वैदेही सापि जाता विरहकपटतो रावणेनोपरुद्धा॥
अत्र कर्पूरं वह्निरिति जात्योर्विरोधः। मरुदुष्ण इति जातिगुणयोः। चन्दनं तपनमिति जातिक्रिययोः। इन्दुर्विषमिति जातिद्रव्ययोः। एककाले चन्द्रव्यक्तिभेदाभावेनचन्द्रत्वस्यात्र जातित्वेनाभिमतत्वात् । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । श्यामा पाण्डुरिति गुणयोः । अश्रुजलसंयोगवन्मुखं शुष्यतीति गुणक्रिययोः।त्वं46 सर्वत्र दृश्यस इति क्रियाद्रव्ययोः । सापि वैदेहीतिद्रव्ययोरिति विवेकः । अपिशब्दत्वे शाब्दो विरोधः तदभावे त्वार्थ इति सिद्धान्तः।
रम्यस्वभाववर्णनं स्वभावोक्तिः॥४०॥
यथा-
उद्वेल्लद्भुजवल्लरीव्यतिकरप्रोक्षिप्तकूर्पासक-
प्रत्यन्तावरणव्युदासविशदीभूतार्द्धवक्षोरुहम् । दूरादायतरोमवल्लिविततस्कन्धोन्नमत्कन्धरं
किञ्चित्कोरकितेक्षणं विनयते रम्भोरु ! ते जृम्भणम् ॥स्तुतिनिन्दातात्पर्यकनिन्दास्तुत्यभिधानं व्याजस्तुतिः॥४१॥
यथा-
प्रेयसः प्रणयभूरहमेवेत्याकलय्य वरगात्रि ! न दृप्येः । कान्तसौहृदमनन्तरमस्ति त्वद्विपक्षयुवतीनिवहेऽपि ॥
अत्र त्वस्मिन्प्रणये विषयत्वेऽपि सपत्नीजनं प्रति तत् न बध्नातीत्यतो निर्दोषासीति स्तुतिपर्यवसानम् ।
सोढा व्रणा यदधरे च पयोधरे च
दौर्बल्यमभ्युपगतं च तनूलतायाम् ।
दूति ! त्वया सुविहितं सुहृदोऽनुरूपं
सिद्धौ विधेयविषयस्य विधिः प्रमाणम् ॥
अत्र निन्दायाम्47 ।
अन्यनिन्दया अन्यनिन्दाभिव्यक्तिर्व्याजनिन्दा ॥४२॥
यथा-
त्वं तावदाचर जनेषु वियोगभाजा-
मात्मोचितानि मलयानिल ! चापलानि ।
वाच्यः स एव तु परं भगवानगस्त्यो
यो वृद्धिसम्मुखमरुन्ध मुधैव विन्ध्यम्॥
अत्रागस्त्यस्य निन्दया मलयानिलस्य निन्दा ।
उभयोश्चमत्कार्येकधर्मान्वयः सहोक्तिः ॥४३॥
यथा-
क्षीयन्ते सह निःसहैरवयवैस्तत्पूर्वपूर्वक्षणाः
प्राणात्याहितशङ्कयापि समुपागच्छन्ति हन्तोत्तराः।
सन्तस्तेऽपि निरन्तरायरुदितश्वासैः सहैवासते
त्वद्दत्तावधिवासरे व्यवधिना स्तोकेन युक्ते सति ॥
किञ्चिद्विना कस्यचिदप्राशस्त्यप्राशस्त्यान्यतराभिधानं विनोक्तिः**॥४४॥**यथा-
भवद्विषयतां विना सुमुखि ! ते मृषा चाक्षुषं-
विना तव वचःसुधामपि मुधा श्रवस्सम्भवः । त्वदीयपरिरम्भणानुभवमाधुरीमन्तरा
विनोक्ति-परिवृत्ति-काव्यलिङ्गानि ।
कलापिकलकाकली कलयते न कौतूहलम् ॥
तुहिनरहितेव नलिनी विकल्पजालैरनाकुलेव सती ।
हृदयदयितस्य विरहं विहाय रम्या वरारोहा ॥ नित्यसम्बन्धानामसम्बन्धवचनमन्या48 विनोक्तिः॥१॥
यथा–
बिभ्रद्भासामभावं स्फुरति हिमरूचिर्दृश्यमाने त्वदास्ये
बिम्बोष्ठे स्वाद्यमानेमधुरिमविधुरा बुध्यते सा सुधापि ।
एवं तावद्भवत्या अनघमवयवे मार्दवं संविभाव्य
प्रव्यक्तं सौकुमार्य्यातिशयविरहवद्भाति मन्दारदाम49 ॥
किञ्चिदत्त्वा कस्यचिदुपादानं परिवृत्तिः ॥४५॥
यथा-
प्रदाय नवयौवनं कुसुमधन्वना तावकं
मृगाङ्कमुखि ! मानसं सदृशमात्मसान्निर्मितम् ।
मदीयहृदयं त्वया समुपगृह्य मह्यं पुनः
प्रसह्य जडतातनुक्षितिरुंजः प्रसादीकृताः॥
पूर्वत्र सदृशयोर्विनिमय उत्तरत्रासदृशयोः ।
भूतभाविविशेषप्रत्यक्षं भाविकम् ॥ ४६॥
यथा-
त्वां पश्यन्नवतीर्णांविहारवापीविभागमगात् ।
पूर्वापरकालीनालङ्कृतिशोभां विभावयाम्येव ॥
हेतूक्तिः काव्यलिङ्गम् ॥४७॥
यथा–
दृष्ट्वा बलाहकगलद्बलवज्जलौघै-
रन्तर्हितानि सहसा सरसीरुहाणि।
नेत्रारविन्दयुगलं पथिकाङ्गनाया
वाष्पैः पयोधरपिधानमिवातनोति ॥
अत्रोत्तरार्द्धाभिधेयं प्रति पूर्वार्द्धंहेतुरवान्तरवाक्यार्थतयोक्तः। स्वतन्त्रवाक्यार्थत्वेन यथा–
तत्तद्व्यक्तितया निवेदनमनैश्वर्य्यादसम्भावितं
सन्देशार्थकमेकदेशकथनं ब्रूयादियत्तामिव ।
सामान्यानुगमोऽपि पर्यवसितोयत्किञ्चिदादाय त-
त्किंप्राणप्रियविप्रयोगरुजतां लेखे लिखेयं सखि ! ॥
अत्र विरहव्यथानिवेदनानुपपत्तौ वाक्यत्रयेण हेतूपन्यासः ।
वाच्यस्यापि भङ्ग्यन्तरेणाभिधानं पर्यायोक्तम् ॥४८॥
यथा-
सन्तप्तं त्वददर्शनेन हृदयं शेते स्वतापोर्मिषु
त्यक्तं त्वत्परिचुम्बनैरपि कराम्भोजे कपोलद्वयम् । त्वद्विश्लेषविशेषशोषविवशं वक्षोजकुम्भद्वयं विस्वस्तालकजालशैवललतामालम्बतेसुभ्रुवः ॥
अत्र विरहे तत्कार्यस्यावश्याभिधेयत्वादुक्तरीत्या विरहावस्थाभिधानम् ।
व्याजेनेष्टसाधनं द्वितीयं पर्यायोक्तम् ॥१॥
यथा-
पुरस्तादालीनां कृतपरिकरा मानकलहेऽ-
प्यमत्वा निर्वाहं प्रियतमपुरस्सूक्तिसुधया ।
समुद्दिश्य प्राणप्रणयितममुत्तंसकमणिं
तथाऽसावत्याक्षीत्प्रणिपतति दीपोपरि यथा ॥
अत्र सम्भोगप्रतिबन्धकसखीनिस्सारणार्थं दीपनिर्वापणे-
अनुकूलोदात्तात्युक्तयः।
न सम्भोगरूपेष्टसाधनम् ।
आनुकूल्यपर्य्यवसायिप्रातिकूल्यमनुकूलम् ॥४९॥
यथा-
किञ्चित्तिर्यगवेक्षणे सहजतो नीतेऽन्यथासिद्धतां
कर्णोत्तंसकुशेशये प्रणिहिते मूर्ध्नाधृते सादरम् ।
तात्पर्ये सति पर्यवस्यति विधौ नेत्यान्तिकानां गिरां
सा मानाद्व्यधित स्वयंभुजलताबन्धं प्रसादोचितम् ॥ वस्तुनोऽतिशयविशेषकथनमुदात्तम् ॥ ५० ॥
यथा-
लीलापूर्वकमिन्द्रनीलनिलयादभ्रंलिहाद्बिभ्रमा-
न्निर्यान्तीं जलदोदरादिव नवां सौदामिनीं कामिनीम् ।
पश्यन्तीभिरदभ्रमभ्रसमये दत्तावधीनां प्रियै–
रालीभिः सुदृशामभूयत भृशायस्यन्मनोवृत्तिभिः ॥
महतामङ्गत्वकथनं50 द्वितीयमुदात्तम् ॥१॥
यथा-
कालिन्दीयं51 सहचरि ! तमालनीलायमानतीरान्ता।
कैवर्तककन्यायां पराशरो यत्र रतिमापत् ॥
अद्भुतशौर्यादिवर्णनमत्युक्तिः ॥५१॥
यथा-
आकाशं स्मरशासितुः कलयता कामेन कायान्तरं यन्नक्षत्रमयप्रसूनविशिखैर्विष्वक्समाविध्यत।
तस्यैते पतयालवोऽप्यवयवा धाराधराणां छला-
न्निःश्वासानिलरंहसा विरहिणां मन्येऽन्तराले धृताः॥
एकहेतुत्वेऽपि हेत्वन्तरोक्तिः समुच्चयः ॥ ५२ ॥
यथा-
पूर्वं चाक्षुषमेव तद्विषयकं चेतोऽपहारक्षमं
तद्वृत्तेरथ चाक्षुषस्य विषयीभावस्य वा का कथा । वैलक्षण्यमपाङ्गभङ्गविषयं तत्रापि मन्दस्मितं
किं वाच्यं गमनक्षणे विवलितग्रीवं पुनर्वीक्षणम् ॥
गुणक्रियायौगपद्यमपरः समुच्चयः52 ॥ १॥
यथा-
हरिति लोहितता तडितां गुणै-
र्मलिनता च विहायसि वारिदैः।
विशदता विपिनेषु च केतकैः
प्रवसतां हृदि चोत्सुकताऽभवत् ॥
श्रवणाभिमुखं परिप्लवत्वं
गतवानेष च तावको दृगन्तः ।
मदनोऽपि शरासनं व्यकर्ष-
द्विशिखाश्चानशिरे मनो मदीयम् ॥
व्याहरन्ति सहसा सहकारा-
नोकहेषु परपुष्टसमूहाः।
बिभ्रते च मलिनत्वमिदानी-
पर्यायानुमानालङ्कारौ।
मध्वनीनवनिताहृदयानि ॥
एकस्यानेकर्त्रानेकस्यैकत्र वा क्रमेण वृत्तिःपर्य्यायद्वम् ॥ ५३॥
आद्योयथा-
कुचयोर्द्वयेऽर्द्धचन्द्रस्पर्शिनि53 वैमुख्यमर्हमेतस्याः ।
चित्रं प्रतियुवतीनां तद्व्यतिरेकेऽपि यत्तदभूत् ॥
अत्र वैमुख्यस्य कुचवृत्तेस्तदुत्तरं सपत्नीषु वृत्तिः ।
द्वितीयो यथा-
अपहाय54 कुटिलमीक्षणमृजुकविलोकेन सूचयसि मानम् ।
ऋजुकुटिलत्वमतन्त्रं प्राहास्वरसं तु विकृतिरेव ॥
अत्रैकस्यामेव नायिकायां पूर्वं कुटिलस्य पश्चात्सरलस्य दर्शनस्य वृत्तिः।
व्याप्येन व्यापकज्ञानमनुमानम् ॥ ५४॥
यथा-
अन्योन्याभिमतार्थकोविदतया स्वान्तात्मनोरेकक-
व्यापारव्यभिचारहानिनियतेःप्राणेन्द्रियाणामपि ।
अन्योन्यप्रतियोगिकस्य विरहे भेदस्य संसाधिते
साधीयो युवयोर्वियोगधिषणा भ्रान्तित्वमालम्बते ॥
अत्रेमौ भिन्नाविति भ्रमः भेदाभाववति भेदप्रकारकत्वा-
दितिहेतुविशेषणसिद्ध्यर्थं चेमौ भेदाभाववन्तौ सर्वदा समान-
विषयज्ञानादिमत्वादित्यनुमितिः । द्वयोरपि कल्पितव्याप्तिमूल- ’ कत्वादलङ्कारकत्वम् ।
चमत्कारिसाक्षात्कारः प्रत्यक्षम् ॥ ५५॥
यथा-
पीयूषद्युतिमणिशालभञ्जिका वा
किं प्रेयोविरहितमत्तकाशिनीति ।
सन्देहेऽभ्युदयति निश्चिकाय शोषा-
द्वारीणां स्तनकमले निपातुकानाम् ॥
अत्र वारिशोषेण तापकत्वमनुमाय ततो विरहित्वव्याप्यतापकत्वज्ञानरूपविशेषदर्शनसत्वेनेयं विरहिणीति प्रत्यक्षम् ।
अतिदेशवाक्यार्थजन्यं ज्ञानमुपमितिः ॥५६॥
यथा-
लीलावने कुसुमितेषु महीरुहेषु
तं सिन्दुवारतरुमिन्दुमुखि ! प्रतीहि ॥
स्वच्छन्दसेवितमनोभवकेलिखेद-
स्वेदानुबिन्दुसदृशाः स्तबका यदीयाः ॥
अत्र स्वेदबिन्दुमुकुलवान् सिन्दुवार इत्यतिदेशवाक्यार्थज्ञानादयं सिन्दुवारपदवाच्य इत्युपमितिः।
आप्तवाक्यं शब्दः ॥ ५७॥
यथा -
रोहिण्याः55 सुत उल्मुकमजनयदिति तावदाप्तवचः ।
अर्थापत्यनुपलब्ध्यैतिह्यालङ्काराः ।
तद्दयितादेव पुनस्तज्जनिरध्यक्षसंसिद्धा ॥
उपपाद्येनोपपादककल्पनमर्थापत्तिः ॥५८ ॥
यथा–
अस्मत्सख्यङ्कपालीविरहसहकृतां पीवरोत्तुङ्गनारी-
वक्षोजाश्लेषमुद्रां दधदतिविशदां वक्षसा लक्ष्यसे त्वम् ।
आश्चर्य्यंपर्यवस्यत्यपि नियतमसद्दम्भमम्भोरुहाक्ष्याः
सम्भोगे यत्परस्याः शठ ! शपथशतैः श्राम्यसीत्यप्यसम्यक् ॥
अत्र तस्याङ्गनासम्भुक्तत्वं विनानुपपद्यमानम् एतत्सम्भो-
गरहितत्वे सति सम्भोगचिन्हत्वमन्याङ्गनासम्भोगमाक्षिपति ।
प्रतियोगिभिन्नायां प्रतियोगिप्रत्यक्षसामग्र्यांसत्यां प्रतियोगिनोऽप्रत्यक्षमनुपलब्धिः ॥५९॥
यथा-
परितो निपुणं निरूपयन्त्या
सहचर्य्यासह सुभ्रुवा निकुञ्जम् ।
अनिरीक्षणतः प्रियस्य तस्मि-
न्विरहं तस्य विभाव्य हा व्यषादि ॥
सम्भवो यथा- ॥ ६०॥
त्वद्वक्षोरुहयुगले विभाति शोभा
माणिक्याभरणभुवां भरेण भासाम् ।
भूभृत्त्वेसति शिखरस्य सम्प्रयोगः
पीयूषद्युतिमुखि ! सम्भवं बिभर्ति॥
अदृष्टवक्तृकः प्रवाद एवैतिह्यम् ॥ ६१ ॥
यथा-
स्फुरदलकत्वं युक्तं रोहणवृक्षस्य रोहिणीशमुखि !।
वैश्रवणस्य निवासो वृद्धैरभिधीयते यदयम् ॥
साभिप्रायविशेषणत्वं परिकरः ॥६२॥
यथा-
उपनिबन्ध्यतयाधिकमन्थरा
विधुरतां दधतो विधुतावधिम् ।
निरवकाशितपैशुनशासनाः
सहृदयप्रणयाः सखि ! दुर्लभाः॥
विशेष्यस्यसाभिप्रायकत्वं परिकराङ्कुरः ॥ ६३॥
यथा-
कण्टकभरेण भवतीमावृणुते कुसुमसायकोऽप्येताम् । अधरकुचस्मितपल्लवगुलुच्छकुसुमा हि वीरुदसि ॥
अत्र कुसुमसायकेतिविशेष्यसमर्पकपदं साकूतम् । कुसुमार्थिनि लतारक्षणस्यावश्यकत्वलाभात् ।
रहस्यप्रकाशप्रतिबन्धकवाक्यं व्याजोक्तिः॥६४॥
यथा-
कुचाभोगं भृङ्गाः कमलमुकुलत्वाकलनया
दशन्त्येते दन्तच्छदमपि शुकाः बिम्बरभसात् ।
विना मां प्रत्यग्रं कुसुमितमिदानीमुपवनं
प्रयाता स्वीयानां फलमविनयानामनुभव ॥
तादृशी56 क्रिया युक्तिः ॥ ६५ ॥
सा यथा-
सध्रीची दयितस्य सन्निधिमसम्बाधेन गत्वाऽध्वना
मार्गप्रस्मृतिकैतवेन रहसि स्थित्वा यथामानसम् ।
उद्यत्केतककण्टकाकुलतया प्राप्यव्रणेनाध्वना
पिधान-सूक्ष्म-गूढोक्तयः।
मार्गप्रस्मृतिकैतवेन कुशला दूती परावर्तते ॥
ज्ञातपररहस्यप्रकाशनं पिधानम् ॥ ६६ ॥
यथा-
पाणिना स्वमधरंपिदधानं
वीक्ष्य वल्लभतमं हरिणाक्षी।
तत्कपोलतलवर्तिगृहीत्वा
केतकीदलमबीजयदेनम् ॥
प्रतिभया ज्ञातस्यार्थस्यान्यानवगम्यप्रकारेण प्रकाशनं सूक्ष्मम् ॥ ६७ ॥
यथा-
कामुके किमपि केलिकन्दुकं
पाणिना स्पृशति भावपूर्वकम् ।
अन्तरा निजमुरोरुहद्वयं
कामिनी न्यधित मौक्तिकावलिम् ॥
स्वभावेनाध्यवसिते कन्दुके करन्यासेन सम्भोगसमयं
जिज्ञासमाने यूनि चक्रवाकाध्यवसिते स्तनद्वये मुक्तावलिदानेन चक्रवाकविच्छेदाधिकरणसमयस्तथेति विदग्धयुवत्या व्यञ्जितम्। अन्यतात्पर्य्येणान्यं प्रति कथनं गुच्छोक्तिः57॥६८॥
यथा-
कीचकवृन्दं सहचरि ! भीमेन ज्वलनतेजसा दग्धम् ॥
येनाकारि विहाराकाङ्क्षा निभृतैव कान्तायाः58 ॥
अत्र सख्याः सख्यन्तरं प्रति विराटपर्वकथोक्तिः । उप-
नायकं प्रति सङ्केतस्थानस्य विघटितत्वादन्यत्स्थलमन्विष्यतामिति व्यङ्गयम् ।
गुप्तार्थस्य कविना स्फुटीकरणं विवृतोक्तिः॥६९॥
यथा-
आरामातिशयेक्षणप्रकरणे नीतेन साक्षाक्रिया-
मेकामप्यतिसौरभेण तरुणोत्तंसेनतस्या भुवः ।
मूर्द्ध्नःसीमनि मञ्जरीं कलयता मन्दानिलावेल्लितां
चेतो मे हृतमित्युदाहृतवती साकूतमालीं वधूः॥
अत्र व्यङ्ग्योऽप्युपनायकदर्शनरूपोऽर्थः साकूतमिति कविना वाच्यप्रायतां नीतः।
लोकप्रवादानुकारो लोकोक्तिः ॥ ७० ॥
यथा-
आपातप्रणयातिमात्रहृतयानालोचयन्त्या पतिं
चित्तं न्यासि यया मया त्वयि शठे साहं विहेयाधुना ।
को वा पर्यनुयुज्यते वद परः किं वा त्वदावेदितै-
र्नेत्रे विध्यति यो हि तस्य पुरतोऽकिञ्चित्करं रोदनम् ॥
अर्थान्तरगर्भालोकोक्तिरेव छेकोक्तिः ॥७१ ॥
यथा-
सहचरि ! शरत्कालीनेयं वतायतकौमुदी
हृदयनियमो रत्याः पत्या प्रसह्य न सह्यते ।
तदभिसरणं तस्यैवास्मिन्ननेहसि युज्यते
कथय कलमाः केनोप्यन्ते निहत्य मृगानिह ॥
अत्र तुर्यपादे लोकोक्तिः। मृगशब्दस्यान्वेषकव्यञ्जकतया पिशुनानादरो व्यङ्ग्यः।
वक्रोक्तिरलङ्कारः।
श्लेषण59 यथा-
अब्दोऽभ्यागमनावधिः सुतनु ! मे संयोगविश्लेषयो-
र्नैयत्याद्वचसां कुतः प्रियतम ! प्रस्ताव एतादृशाम् ।
स्थैर्यं60 नन्वित एव निश्चितमुरीकार्यं मृगाक्षि ! त्वया
निघ्नत्वे मदनस्य सत्यसति वा प्राणेश ! तद्व्याहतम् ॥
अत्र वर्षोत्तरमागन्तव्यमिति नायकतात्पर्य्यम् । नायिकया तु
अब्दपदस्य मेघार्थकत्वम् अवधिपदस्यापादानार्थकत्वं च विवक्षित्वा
मेघादागत इति तदर्थं कल्पयित्वा विभागस्य संयोगपूर्वकत्वान्मेघसंयोगाभावेतव तस्मादागमनमनुपपन्नमित्युक्तम् । नायिकया स्थैर्यपदेन नायकाभिमतं द्वितीयक्षणनाशाभावरूपं च स्थैर्य्यमभिप्रेत्य मदनपारतन्त्र्येसति विश्लेषदुःखमावश्यकम्
तदभावे तु सौगतत्वापत्त्यास्थैर्य्यस्वीकरणमनुपपन्नम् तस्य क्षणभङ्गवादित्वादित्युक्तम् ।
किञ्चिदंशत्यागेन यथा-
व्रतापलापमादत्ते तत्क्षतित्रासवाञ्जनः ।
प्रियैवमेव वच्मि त्वां सर्वाद्यव्यञ्जनं विना ॥
स्वक्रोधचिह्नं गोपयन्त्यां प्रियायां पूर्वार्द्धेनायकस्योक्तिः ।
तदपरं61 रतापलापं त्वमेव करोषीत्यर्थकतया तयोक्तम् ।
काक्वायथा-
परपुष्टगिरः प्रमाणनीया दयितोक्तीरवमत्य किं त्वयैवम् ।
इदमेव वचः सखि ! स्वकीयं मम सन्देशतया नयापि तस्मै ॥
प्रियानुनयेन मानमपरित्यजन्त्या पिकशब्देन तत्परित्यागो नार्हइति सखीवाक्यार्थः । स्वप्रियाया अन्यनायिकाया उक्तीरनादृत्य परस्यां तद्भिन्नायां मयि पुष्टा दाक्षिण्यमात्रेण प्रयुक्तागिरःकिं त्वया प्रमाणनीया अपि तु नैवेति नायिकातात्पर्यम्।
नाम्नामवयवार्थान्तरकल्पनं निरुक्तिः ॥ ७३ ॥
यथा-
वृक्षावतंस ! सहकार ! वसन्तलक्ष्मी-
सर्वस्व ! दुष्प्रसह ! भामतिलङ्घ्यसौरीम् ।
यद्भासि चक्षुषि जनस्य वियोगभाज-
स्तेनातिसौरभ इति स्फुटसंज्ञकोऽसि ॥
सूर्यस्येयं सौरी सौरी चासौ भा च सौरभा तामतिक्रान्तोऽतिसौरभः ततोऽपि(प्रचण्ड इति) यावत् । इदं पदभङ्गेनोदाहरणम् । अतिशयितं सौरभं यस्येति तदर्थप्रसिद्धेः।
अभङ्गेन यथा-
असमाः शरा रतिपतेर्वैलक्षण्याच्छरान्तरापेक्षात् ।
सङ्ख्यावैषम्यादिति पुनरनुभूत्या विसम्वादि ॥
असमाः शरा यस्येत्यसमशरः इति कामनामधेयम् । तत्रासमत्वं पश्चसङ्ख्यत्वं पीडाविशेषानुपपादकत्वेन दूषयित्वा शरान्तरापेक्षयाधिकदुःखजनकत्वरूपमसमत्वं व्यवस्थापितम् । अन्यार्थाभिप्रायो निषेधो निषेधः ॥ ७४ ॥
यथा-
न बिभीहि ममोपकण्ठमेतुं
न च जिह्रीहि विभाव्य पूर्ववृत्तम् ।
निषेध-विध्यसम्भव-परिसङ्ख्यालङ्काराः।
दयिता तव सा भवत्यहं किं
भवताहं निकृतास्मि सास्मि किं वा ॥
अल्पेऽपराधे परकीयया तिरस्कृतं नायकं प्रति स्वकीयोक्तिः । तस्यां स्वभेदस्य स्वस्मिंस्तद्भेदस्य च सत्वात्तद्वचनमनुपयुक्तं सत् तस्यां तदपराधासहिष्णुत्वं62च व्यञ्जयति ।
तादृशं विधानं विधिः ॥ ७५ ॥
यथा-
कान्ताकुचाकलितकुङ्कुमसङ्करेण
वक्षोऽनुरञ्जितमिदं विषहे समक्षम् ।
चित्रं तथापि पिदधासि निजापराधं
किं वा विधेयमथवा मम वल्लभोऽसि ॥
अत्र वल्लभे वल्लभत्वविधानं ममानन्यगतिकत्वान्मिथ्याभूतमपि त्वदुक्तं मन्तव्यमेवेत्यत्र पर्य्यवसन्नम् ।
कार्यस्य कुतश्चिदसम्भवाभिधानमसम्भवः ॥ ७६ ॥
व्यापारा हितहेतवः सहचरीव्यूहेहिता हेलिता
यस्यार्थे न समर्थितानि वचनान्यायस्यतः प्रेयसः ।
को नामाकलयेदयं दृढतरारूढिंसमारूढिवा-
न्मानः कोकिलकूजितैः कलकलाकारैर्निकारिष्यते ॥
इतरनिषेधफलकं वचनं परिसङ्ख्या ॥ ७७ ॥
(इतरनिषेधो वाच्यो व्यङ्ग्यश्च । वाच्यो)
यथा-
वर्षासु रजोयोगः सरित्सु निर्भाति न हरित्सु ।
सुन्दरि सचन्द्रकमिदं केकिकुलं नान्तरिक्षतलम्63 ॥
व्यङ्ग्यो यथा-
अङ्गुलीष्वहृदयाक्षरमुद्राचापलं घनमिदं प्रतिभाति ।
तीक्ष्णता कररुहस्य शिखायां मत्तकाशिनि ! विभाति भवत्याः ॥
उत्तरकारणोक्तिः64 कारणमाला ॥ ७८ ॥
यथा-
तारुण्याद्भवति मदो मदात्परेषामाभाति प्रतिपदमप्रयोजकत्वम् । एतस्मात्तदवमतिस्तयेतरेषां विद्वेषः सुतनु ! ततो निजापकर्षः ॥
परस्परोपकारकथनमन्योन्यम् ॥७९ ॥
यथा–
यौवनेन तनुवीरुद्भुता यौवनं च तनुवीरुधा तव ।
भासते मधुमवाप्य माधवी रोचते मधुरुपेत्य माधवीम् ॥
उत्तरे एव प्रश्नोन्नयनमुत्तरम् ॥८०॥
यथा-
आरज्यत्तपनीयगौरवपुषां प्रेयोवियोगानलो-
त्तप्तानामवलोकिनो मृगदृशामुद्योतचन्द्रद्विषाम्65 ।
दावोपद्रवशङ्कया परिहृतारण्यप्रयाणोद्यमा
यद्व्याधाः सखि ! भाग्यजृम्भितमिदं पल्लीभुवां सुभ्रुवाम् ॥
अत्र66 व्याधीं प्रति कस्यचिदुपनायकस्यार्थे तव पतिर्वनं गतो न वेति सख्याः प्रश्नोऽवगम्यते ।
सति प्रश्नेऽसकृदपूर्वोत्तरकथनमप्युत्तरम् ॥ १ ॥
यथा-
कश्चन्द्रो वरतनु ! तावकीनमास्यं
किं बिम्बं सुतनु ! रदच्छदं त्वदीयम् ।
तद्गुणानुगुणपूर्वरूपालङ्काराः ।
का वीणा प्रणयिनि ! कण्ठकन्दली ते
को मेरुः कमलमुखि ! स्तनस्तवायम् ॥
वस्त्वन्तरगुणनिमित्तकः स्वगुणत्यागस्तद्गुणः ॥ ८१॥
यथा-
भवनं तपनीयमयं चम्पकमयमखिलमपि कुसुमम् । कुङ्कुममयमनुलेपनमाभाति भवत्प्रभाभारैः ॥
अत्र विजातीयवर्णानां देहप्रभासम्बन्धः।
तादृशः स्वगुणातिशयोऽनुगुणः ॥ ८२ ॥
यथा-
खञ्जननयने ! पुञ्जीभवदञ्जनमञ्जुलैरधुना ।
मालिन्यमाकलयति द्वैगुण्यं गगनगामि जीमूतैः ॥
अत्राकाशवृत्तेर्मालिन्यस्य मेघयोगादुत्कर्षः।
पुनः स्वगुणप्राप्तिस्तादृश्येव पूर्वरूपम् ॥ ८३ ॥
यथा-
त्वत्पाणिपल्लवरुचा वरगात्रि ! मुक्ता-
दामापि लोहितपदं प्रतिपद्य सार्थम् ।
सद्यः समागमवशात्स्मितकौमुदीनां
दीनायते न किमपि स्वगुणोदयस्य ॥
अत्र करकान्त्या प्राप्तारुण्यस्यस्मितप्रभया श्वैत्यापत्तिः ।
अवस्थाभेदेऽपि पूर्वावस्थासाम्यमन्यत्पूर्वरूपम् ॥१॥
यथा-
अग्निशिखावृतदेहा सदैव सा नयनमुद्रयाकुलिता।
अयि याति त्वद्विरहापत्तावपि पान्थ ! पूर्वदशाम्67 ॥
अत्र श्लेषवशादवस्थाद्वयैकरूप्यम् ।
अन्यगुणापसङ्क्रमो68ऽतद्गुणः ॥ ८४ ॥
यथा-
मृगमदचन्दनकुङ्कुमपङ्कैरपि सङ्करापन्ना।
वरतनु ! तवतनुवीरुत्काञ्चनपाञ्चालिकैवेयम्॥
अत्र विजातीयवर्णानुलेपनयोगेऽपि देहस्य स्वगुणतादवस्थ्यम् । गुणसाम्याद्भेदानवभासो मीलितम् ॥ ८५ ॥
यथा-
भावितमपि भवदीये तापिततपनीयकमनीये।
काश्मीरपङ्कलेपं कलेवरे नावकलयामः ॥
हेत्वन्तरेण भेदप्रतीतिरुन्मीलितम् ॥८६॥
यथा-
रदनच्छदभाभराभिभूतस्तरुणि ! व्यक्तमलक्तकद्रवोऽयम् । दशनद्युतिभिर्निवदेनीयः सरसं केसरसन्निवेशभाग्भिः ॥ विजातीयव्यक्तितादात्म्यप्रत्ययः सामान्यम् ॥८७॥
यथा-
चाम्पेयमालिकोरसि तव तनुभासैवलम्भिताभिभवम् ॥
मिलितापि मीलितेयं मिलिन्दमालेन्द्रनीलगुलिकाभिः ॥
हेत्वन्तरेण69 तत्प्रमा विशेषकम् ॥ ८८ ॥
यथा-
कङ्केल्लिकिशलयोपरि पिहितं तव पाणिमरुणिम्ना । सरणरणकङ्कणगणोद्गुणच्छणत्करणमेव विगणयति ॥ कारणान्तरसमवधानात्कार्यसौकर्य्यंसमाधिः ॥८९ ॥
यथा-
प्रहर्षण-विषादनाधिकालङ्काराः।
पयोधरपिधानतां गमितयोररालभ्रुवो
भजामि भुजंवीरुधोरपनयाय यावत्स्पृहाम् ॥
कुशेशयतया धियं कलयता कुलेनालिनां
व्यधीयत तदानने किमपि तावदास्कन्दनम् ॥
इष्टादधिकलाभः प्रहर्षणम् ॥९०॥
यथा-
सुतनुमनुसमाजमाजिहानामहमगमं समहं दिदृक्षमाणः70 । जनसमुदयनोदनादशङ्कं स्वयमनया भुजपञ्जरेण बद्धः ॥
विरुद्धप्राप्तिर्विषादनम् ॥९१॥
यथा-
आयाति वल्लभतमेऽभिमुखं मृगाक्षी
यावन्निभालयति सस्मितमास्यमस्य ।
तावद्विपक्षरमणीवदनारविन्द-
दत्तां ददर्श नवयावकरागमुद्राम् ॥
आधाराधेययोरेव परस्पराधिक्यमधिकम् ॥ ९२॥
यथा-
कौमुद्यामुद्यतायां विशदयितुमिदं दिक्कदम्बं पदानि
न्यस्यन्त्याः केलिकुञ्जाभिमुखमभिमतासादने सादरायाः ।
अद्वैतापन्नपुष्पायुधविविधसमुल्लासपुण्यास्तरुण्याः
धारावाहिस्पृहाया मुद उदयभृतो मानसे नैव मान्ति ॥
अत्राऽऽधेयस्याधिक्यम् ।
विरोधिपक्षापकारः प्रत्यनीकम् ॥ ९३ ॥
यथा-
अधिवासरमात्मनोऽभिभूतिंमिहिरेणोपहितामिवासहित्वा।
विजितं जलजं प्रिये ! त्वदीयाननतादात्म्यवता सुधाकरेण ॥
सूक्ष्मादप्याधारादाधेयस्य सूक्ष्मत्वकथनमल्पम् ॥९४॥
यथा-
बालाया दिनयौवनाभिसरणेऽवश्यायबिन्दूपमा
याः स्वेदोदकविप्रुषः समभवन्वक्षोजयोरन्तरे।
ता एव प्रियदर्शनोल्लसितयोर्मध्ये तयोः सङ्कटा-
दुत्सृज्य स्वदशांविशन्ति नलिनीनालोल्लसत्सूत्रवत् ॥
अत्र स्वभावपीवरयोः स्तनयोरन्तरस्य सूक्ष्मतया तदन्त-
र्वर्तिस्वेदकणानां सूक्ष्मत्वे तदपेक्षयापि स्तनान्तरसूक्ष्मत्वं स्तनोल्लासवशादुक्तं तेन स्वेदकणानां सूक्ष्मतमत्वसिद्धिः ।
पूर्वपूर्वविशेषणानामुत्तरोत्तरं विशेष्यत्वोक्तिरेकावली ९५
यथा -
सम्प्ररूढनवयौवनमङ्गं यौवनं जनितचित्तविकारम् ।
चञ्चलीकृतदृशोऽपि विकारा मानसं च गमयन्ति दृशोऽस्याः॥
चमत्कारिस्मृतिः स्मरणम् ॥९६॥
यथा–
श्रमवारिपृषन्निषिक्तगण्डस्थलमालम्बितचूर्णकुन्तलास्यम् । पुरुषायितमायतेक्षणायाः श्वसितेन स्फुरिताधरं स्मरामि॥
रम्यभ्रमो भ्रान्तिमान् ॥९७॥
यथा-
दृक्पाते स्वकुलस्य मन्दहसिते किञ्जल्कराजेर्भ्रमा-
दप्रामाण्यमधुच्युतिश्रवणतो गन्धोपलब्धेरपि ।
प्रतीपविशेषालङ्कारौ।
पद्मत्वप्रतिपत्तिमाकलयता भृङ्गेण जैवातृक-
भ्रातृश्रीमुखि ! शेमुषी तव मुखं पातुं समाधीयते ॥
उपमानतिरस्कारः प्रतीपम् ॥९८॥
स च त्रिविधः । उपमेयेनोपमानस्यानर्थक्यं, तस्योपमेयत्वकथनम्, उपमेयत्वस्यापि प्रतिषेधश्च । क्रमेणोदाहरणानि ।
वाणी चेच्छ्रवणे कृतार्थयति तद्राक्षारसः क्षारव-71
न्निर्बन्धोऽपि मुधैव गन्धफलिकां प्रत्यङ्गमस्या यदि ।72
वक्रंचेदवलोक्यते तदफलोदर्कादिदृक्षा विधो-
र्वक्षोजौ यदि तर्हि गर्हिततमा मेरोरवाप्तिस्पृहा ॥
रमणीयपदार्थसार्थपूर्णं भुवनं भावनया विभाव्य तस्याः । वदनप्रतियोगिकोपमाया अनुरूपं शशिनं निरूपयामः ॥
विवेकवैकल्यमनेकशाखं कल्याणि ! पर्याकलनीयमेषाम् ।
मुखेन पीयुषमयूखमब्जं दृशा रतिं ये तुलयन्ति तन्वा ॥
आधारं73 विनापि वृत्तिर्विशेषः ॥ ९९ ॥
यथा-
स्नेहस्य संवरणगोचरता रसावि-
र्भावोऽनिरुद्धविषयः सुरताभिलाषः ।
अप्यन्तरेण तपतींजनकात्मजां वा
बाणोद्भवामपि वसन्ति नवाङ्गनायाम् ॥
एकस्य युगपदनेकत्र वृत्तिरपरो विशेषः ॥१॥
मानसे विरमसे न कदाचिल्लक्षसे नयनयोरनुलग्ना ।
व्याहृतिं न विजहासि मुहूर्तं भाससे वपुषि सुभ्रु ! निषण्णा ॥
एककार्य्येणानेककार्य्यसिद्धिरन्यो विशेषः ॥२॥
यथा-
लावण्येन विलक्षणेन चरितैःसाध्व्या असाधारणैः
कान्त्यां केनचिदद्भुतेन भवतीमातन्वता वेधसा ।
नीता लोचनगोचरं भुवि सतां पुष्पायुधप्रेयसी
वैदेही विहितान्यदेहसहिता विद्युत्कृता स्थायिनी ॥
उत्तरोत्तरोत्कर्षः सारः॥ १००॥
यथा-
सारं जन्तुषु मानुषं वपुरिदं तत्रेन्द्रियाणीन्द्रिय-
ग्रामेऽमी विषयास्त्वमेषु सुमुखि ! त्वय्युद्धतं यौवनम् ।
लावण्यातिशयोऽत्र तत्र मदनस्तस्मिन्विलासोदय-
स्तस्मिन्नुन्नमितभ्रुवः स्मितभृतः साकूतदृग्भङ्गयः ॥कार्यकारणयोर्भिन्नदेशत्वमसङ्गतिः ॥ १०१॥
यथा-
त्वं श्यामा74 ज्वलति त्वयं मयि शशी रम्भोपमौ तावका-
असङ्गति-लेशालङ्कारौ।
वूरू जाड्यसमन्वयो मयि घनश्रीस्त्वं दृशोरम्बु मे।
कुम्भत्वं बिभृतस्तवोरसिरुहौ शून्यान्तरत्वं तु मे
पाणौ ते तरुणि ! स्फुरत्यरुणता तापो मयीत्यद्भुतम् ॥75
अन्यत्र चिकीर्षितस्यान्यत्रकरणमपराऽसङ्गतिः ॥१॥
यथा-
सहावलेहं76 स्पृहयन्वयस्ते स्मरः सपत्नीजनमेवमाधात् ।
त्वदीक्षणस्य श्रवणाभिमुख्यमिच्छन्व्यधत्त स्वधनुर्गुणस्य ॥कार्यान्तरप्रकृतस्य तद्विरुद्धकार्यकरणमन्यासङ्गतिः॥२॥
यथा–
नवीनवरवर्णिनीवदनचन्द्रमोमण्डले
विधातुमभिवाञ्छता किमपि नेत्रसंयोजनम् ।
निरूपय कुतूहलं प्रियतमेन नेत्रं मुखा-77
द्व्यधीयत विदूरगं करकुशेशयेन स्वयम् ॥
दोषगुणयोर्गुणर्दोषत्वकल्पनं लेशः॥१०२॥
यथा-
राजीवभ्रमभृति सुभ्रु! भृङ्गपूगे त्वद्वक्रंरुजति कृतः प्रदीपभङ्गः। विज्ञायाशयमपरं ययुर्वयस्याः सम्पन्नं रह इह दोषवैभवेन ॥
अत्र भ्रमराणां सखीनां च भ्रान्त्या एकान्तसम्पत्याभ्रा-
न्तेर्दोषभूताया अपि गुणत्वेनाभिधानम् । (गुणस्य दोषत्वेनाभिधानं)
यथा–
केतक्यो जनयन्ति ते दृशि रजोराजीभिरुच्चै रुजं
व्याधूता मरुता लताः किसलयैराघातमातन्वते।
सङ्केतस्थलमप्यतिव्यवहितं तुर्यांशशेषा निशा
सोऽयं ते जघनस्तनस्य78 गुरुणो गौराङ्गि ! बोध्यो गुणः ॥
अत्र जघनस्तनगौरवस्य वस्तुतो गुणस्यापि शीघ्रगमनप्रतिकूलत्वाद्दोषत्वेनोक्तिः। अन्यगुणदोषाभ्यामन्यदोषगुणकथनमुल्लासः ॥१०३॥
यथा–
यत्तव स्तनसरोजगुलुच्छे सङ्गतोऽपि वरवर्णिनि ! हारः।
भाति रागरहितः प्रतिवेलं तत्तदीयमहहाऽहृदयत्वम् ॥
श्वश्रूरश्रूद्गमनजननी यातरो जातरोषाः
प्राचुर्य्येण प्रतियुवतयो रन्ध्रबद्धावधानाः ।
दूरावस्थे हृदयदयिते सर्वमेतन्मृगाक्ष्याः
शीलं साक्षादनुगुणतया यामिकप्रायमासीत् ॥ अन्यगुणदोषयोरप्रयोजकत्वकथनमवज्ञा ॥१०४॥
यथा–
अनया विहिते प्रियावमाने परितुष्यन्तु विपक्षसारसाक्ष्यः। गुणगौरवयोगयोग्यगर्वानुगुणं स्यादियतैव किं विधेयम् ॥
प्रतिसुभ्रुवामदभ्रा भवन्तु निःश्वासमातरिश्वानः।
स्वगुणानुरूपमनया दयिततमो नमयितव्य एवायम् ॥ गुणविशेषानुषङ्गाद्दोषस्य प्रार्थनमनुज्ञा ॥ १०५ ॥
समविषमालङ्कारौ।
यथा-
मा विरम षट्पद ! दश रदनच्छदमिन्दुवदनायाः। सरभससीत्कृतकरधुतिनयनविकाराः किमन्यथा प्रेक्ष्याः॥
सम्बन्धानुरूप्यं79 समः ॥१०६ ॥
यथा-
कामनीयकमनन्यसमानं बिभ्रतोर्गुणगणानगणेयान् ।
सङ्गमेन सदृशेन विधिर्वा नूनमप्रतिहतप्रतिपत्तिः ॥
अत्र सतोर्योगः।
यथा वा-
हृदयाद्बहिर्निहितयोवैर्मुख्यभृतोर्नितान्तनिष्ठुरयोः । स्तनमौक्तिकदाम्नोरयमनुरूपो भवति सम्बन्धः ॥
असत्वमारोपितं न तु वास्तवमित्यन्यदेतत् ।
अयोग्यसम्बन्धो विषमः ॥ १०७ ॥
यथा-
केयं नितान्तसुकुमारशरीरवीरु-
द्भीरुर्धवप्रहितवारिरुहासहिष्णुः।
झञ्झानिलाभिहतवैद्युतहेतिदीप्त-
धारासु वारिदनिशासु च कोऽभिसारः॥
अत्रद्वाभ्यां किम्पदाभ्यां तन्नायिकाव्यक्तेःतादृशाभिसारस्य च सम्बन्धानौचित्यं द्योत्यम् ॥
इष्टप्राप्त्यभावविशिष्टानिष्टप्राप्तिरपरो80 विषमः॥१॥
इष्टप्राप्त्यभावमात्रं यथा-
बाले ! विलासालयजालरन्ध्रकृतप्रवेशान्विधुरश्मिदण्डान् ।
मृणालबुद्ध्या दशतो मरालकुलस्य दृश्यो विफलप्रयासः ॥
अनिष्टप्राप्तिमात्रं यथा-
श्रवणकोकनदं स्पृहयन्नयं तव कपोलतले निपतत्यलिः।
न चलितुं बत पिण्डितकुङ्कुमद्रवनिबद्धपदः पदमप्यलम् ॥
उभयं यथा-
विभ्रष्टं भूमिभागेऽभिसरणरभसादायताक्ष्याः सरस्या-
स्तीरे मञ्जीरमारादरुणमणिमयं भासमानं प्रभाभिः।
चुम्बन्तश्चक्रवाका दिवसकरसमारम्भकालीनभास्व81
द्बिम्बभ्रान्त्या भजन्ते रुजमतिरभसाद्भावयन्तोऽभिघातम् ॥
कार्यकारणयोर्गुणक्रियान्यतरविरोधेऽन्यो विषमः ॥२॥
यथा-
तामरसकुसुमकिसलयचन्द्रमसां हिततमास्तवावयवाः।
तेषु त्वं समवेता शिशिरे शिशिरेतरस्पर्शा॥
वरवर्णिनि ! बाहुवल्लरीयं भवदीया भवतीह कण्टकारिः ।
जनितं परिरम्भणं तया मे मदनाजिह्मगकण्टकं हिनस्ति ॥
उपादेयस्यापि कुतश्चिद्दोषात्तिरस्कारः….॥१०८॥
यथा-
प्रियान्यव्यावृत्तिः परिजनभयं स्वस्य विभुता
गुणा भासन्तेऽमी सखि ! यदपि माने बहुविधाः ।
व्याघात-विचित्र-संसृष्टयः ।
तथापि प्रारब्धप्रणयपरिपाटीषु विषया-
न्तराणां सञ्चारोऽनुपममपकर्षंध्वनयति॥
अत्र स्वोत्कर्षोपपादकस्यापि मानस्य प्रणयव्यवधायकत्वा-
दनादरणीयत्वम् ।
कार्यान्तरहेतोस्तद्विरुद्धकार्ये जनकत्वं व्याघातः॥१०९॥
यथा-
प्रेयोमनीषितनिराकरणप्रयत्नोबिम्बाधरस्फुरणमीक्षणवक्रभावः ।
अन्यत्र रागविहतेरनुमापकानि तानि त्वयि प्रणयितामनुमापयन्ति॥
अत्र रागाभावानुमापकत्वेन प्रसिद्धानां रागानुमापकत्वम् ।
इष्टार्थविरुद्धे प्रयत्नो विचित्रम् ॥ ११० ॥
यथा-
विरोधिनीनां वरवर्णिनीनामपेक्षया स्वातिशयं विधातुम् ।
चित्रं कुरङ्गाक्षि ! गणं गुणानामनारतं स्वापचयं तनोषि ॥
अत्र स्वोत्कृष्टिमिच्छन्त्या गुणस्य स्वस्यापचयकरणं गुणा-
पचयस्य स्वापकर्षहेतुत्वात् अविच्छेदेन स्वापचयो वृद्धिर्यस्येत्यविरोधः।
परस्परमनपेक्षमाणानामलङ्काराणामेकवाक्यवृत्तित्वं संसृष्टिः ॥१११॥
यथा-
इयमिन्दुमुखी गुणं विपक्षप्रतिलोमं दधती तिलोत्तमायाः ।
स्वतनुप्रभया दिगन्तगानां तिमिराणामचिरान्निरासहेतुः॥
अत्रेन्दुमुखीत्युपमा, तिलोत्तमाया गुणं दधतीति निदर्शना,
‘उत्तरार्द्धेऽसम्बन्धे सम्बन्धरूपातिशयोक्तिः, एतेषां परस्परनिरपेक्षत्वात्संसृष्टिः।
अलङ्कारस्यालङ्कारान्तरसापेक्षत्वेऽङ्गाङ्गिभावः सङ्करः ११२
यथा-
केशकलापः प्रकरं समुद्गिरन् कुन्दमुकुलानाम् ।
प्रियपरिरम्भानन्दाद्भातितरां वाष्पविप्रुषइवोज्झन् ॥
अत्र तृतीयचरणोक्तकाव्यलिङ्गमुपजीव्य कुन्दमुकुलेषु
वाष्पवर्षबिन्दूत्प्रेक्षासिद्धिः।
साधकबाधकप्रमाणाभावादन्यतरालङ्कारनिणर्याभावे सन्देहरूपः सङ्करो द्वितीयः ॥ ११३ ॥
यथा-
भ्राम्यन्तीभिरनन्तरं मधुकरश्रेणीभिरम्भोरुहं
रम्भोरुप्रणयात्प्रियेण(सहसा) हस्तेन संमार्ज्यते ।
तत्सम्बन्धभृतां परस्परविभागाय प्रयासस्पृशां
पत्राणामवलोकनेन विगतप्राया निशा ज्ञायताम् ॥
अत्र किं मानत्यागो विधीयतामित्यर्थस्य रात्रिर्गतेतिभङ्ग्यन्तरेणाभिधानात्पर्यायोक्तम्, किं वा मधुकराम्भोरुहपदाभ्यामलकमुखप्रतीतेरतिशयोक्तिः, किं वाऽप्रस्तुतेन कमलमार्जनेन प्रस्तुतस्य मुखमार्जनस्यावगमात्प्रस्तुताङ्कुर इति सन्देहः । शब्दार्थालङ्करणयोरेकपदवृत्तित्वं तृतीयः सङ्करः॥११४॥
यथा-
सविलासमावलितलोलतारका नवयौवनोदयविकारघूर्णिताः ।
हृदयं न कस्य मदयन्ति भङ्गयो घनसारसारसदृशां दृशां तव ॥
अत्र तुर्यचरणे उपमानुप्रासौ । वर्णसाम्यमनुप्रासः।
रसस्य पराङ्गत्वे रसवदलङ्कारः ॥ ११५ ॥
यथा
प्रेय ऊर्जस्विनौ।
प्रत्येकावयवसमूहसन्निवेशे माधुर्य्येवयसि विभूषणे विलासे ।
शोभायामपि तव तन्वि! यन्निदानं जानीमस्तदितरदन्यजन्यहेतोः82
अत्राद्भुतरसः शृङ्गारस्याङ्गम् ।
भावस्य पराङ्गत्वे प्रेयोनामालङ्कारः॥ ११६ ॥
यथा-
उन्नीताः प्रगुणा गुणाश्चरणयोः प्रह्वीकृतो वल्लभो
विध्वस्तश्च विपक्षयौवतमदः सौभाग्यमुद्भावितम् ।
अस्मिन्याति कुहूरुतां कुहुरुतैः काले सकोलाहलं
निर्बन्धादनिबन्धनाद्विरम तद्दीर्घानुबन्धादितः॥
अत्र सखीनिष्ठनायिकाविषयकभावः शृङ्गारस्याङ्गम् ।
रसाभासभावाभासयोः पराङ्गत्वे ऊर्ज्जस्वी॥११७॥
यथा–
भजत्याविर्भावं मलिनिमनि सीमासु हरितां
गुलुच्छावस्थानं कुवलयकलापे कलयति।
मनः केलीकुञ्जेनयनमिदमीयेऽध्वनि तनु-
र्गृहाचारे सज्जत्यभिसृतिपटूनां विधुमुखि ! ॥
अत्राभिसारिकानिष्ठरसाभासो नायकनिष्ठशृङ्गारस्य ।
दूति ! त्वं कृतिनी मम प्रियतमप्रेक्षोत्सवानन्वभू-
र्विश्रम्भादित आशु भास्वति तपत्यास्वादयन्त्यातपम् ।
स्वेदस्य व्यजनानिलैरवयवालस्यस्य संवाहनैः
साकूतं करपल्लवेन रजसांकुर्यां तवापक्रियाम् ॥
अत्र नायकं सम्भुज्यागतायां वैरिण्यां दूत्यां नायिकारति-
र्भावाभासरूपा नायिकानिष्ठनायकविषयशृङ्गारस्य ।
भावशान्तेःपराङ्गत्वं समाहितम् ॥११८॥
यथा-
स्मारंस्मारमतिक्रमान् प्रणयिनः कृत्वाऽऽलिभिः सम्मतिं
यो मध्येहृदयं कुशेशयदृशां संवासितो वासरम् । विश्लेषाकुलचक्रवातरुणीकूजासमाकर्णनैः
सायं कुण्डलनेव83तस्य विहिता मानस्य हारच्छलात् ॥
अत्र क्रोधशान्तिः शृङ्गारस्य ।
भावोदयभावसन्धिभावशबलत्वानां पराङ्गत्वेतन्नामान एव त्रयोऽलङ्काराः शास्त्रकारैः संज्ञान्तरानुक्तेः११९॥
यथा–
प्रियश्रोत्रोपान्तात्किशलयमशोकस्य कुतुक-
ग्रहाद्यज्जग्राह प्रथममनुरागाङ्कुरमिव ।
तदेव प्रोन्मीलन्नवरदपदं गण्डफलकं
विलोक्य व्यत्याक्षीन्मदनदहनाजिह्मगमिव ॥84
अत्र क्रोधोदयः पराङ्गम् ।
इच्छन्त्या85 हृदयप्रियं प्रियसखीसम्प्रेरणात्प्रस्थिति-
मन्दाक्षातिशयात्ततो विमुखतामासादयन्त्या पुनः ॥
उत्कम्पो हृदि चम्पकीयमुकुलोत्तंसःप्रतिच्छायया
भात्यात्मेव चिरादनिर्णयवशाद्दोलायमानो मुहुः ॥
औत्सुक्यलज्जयोः सन्धिः पराङ्गम् ।
भावोदय-भावसन्धि-भावशबलोदाहरणानि।
लावण्यं त्रिजगद्विलक्षणमिदं चेतस्त्वमेधि स्थिरं
संवादि स्पृहया विधेर्विलसितं दौर्जन्यमन्यादृशम् ।
स्यामस्या86 नयनत्रिभागविषयो नन्वेतदेवाधिकं
दुर्बोधाः परबुद्धयो भगवते पुष्पायुधायोन्नमः ॥
अत्र विस्मयमतिहर्षशङ्कौत्सुक्यधृतिदैन्यासूयानां
शबलत्वं गौरीविषयकशिवनिष्ठशृङ्गारस्याङ्गमिति शिवम् । पुरातनानप्यधुनातनांश्च महानिबन्धानवधार्य्यसम्यक् ।
अयं कृतोऽलङ्करणप्रदीपो विद्वत्स्यमानैर्बहुमाननीयः॥
श्रीमन्महीमहिततत्तदसीमधीम-
न्मूर्द्धन्यताकलनसङ्गतधन्यताकः।
लक्ष्मीधरो यमुदसूतमुदं प्रसूतां
विश्वेश्वरस्य कृतिरस्य चिरस्य लोके ॥
इति पण्डितवरविश्वेश्वरकृतोऽलङ्कारप्रदीपः समाप्तः ॥
हरिदाससंस्कृतग्रन्थमालासमाख्या
काशीसंस्कृतसीरीज।
अस्यां काशी-संस्कृतग्रन्थमालायां बिभागशः प्रकाशिता भवति । एतस्यां प्राचीनाः नवीनाश्च दुर्लभाः सुलभाश्च अत्युपयुक्ताः संस्कृतग्रन्थाः काशिकराजकीयसंस्कृतपाठशालीयैः पण्डितैरन्यैरपि विद्वद्भिः संशोधिताः क्रमेण समुद्रिता भवन्ति । अस्यां प्रकाश्यमाणानां ग्रन्थानां मूल्यं सूचीपत्रे प्रकाशितं वर्तते । परं तु एतस्या नियमेनाऽविच्छिन्नतया निश्चितग्राहकमहाशयानां प्रतिमुद्राशतकं पञ्चविंशतिमुद्राः ( कमिशन) परावर्तिता भवेयुः मार्गव्ययश्च न पृथक् दातव्यो भवेत् ।
तत्र मुद्रित ग्रन्थनामानि ।
रु. आ. पा.
१ नलपाकःनलविरचितः । संपूर्णः (पाकशास्रम् १)… १-८-०
२ संक्षेपशारीरकम् । रामतीर्थस्वामिकृता-
ऽन्बयार्थबोधिनीटीकासहितम्। (वेदान्तः १) १०-०-०
३ वैशेषिकदर्शनम् । सटीक-प्रशस्तपादभा-
ष्योपस्काराभ्यां समन्वितम् । (वैशेषिक १) … ३-८-०
४ श्रीसूक्तम् । विद्यारण्यपृथ्वीधराद्याचार्य
कृतभाष्यत्रयेण टिप्पण्या च समलङ्कृतम् ( वैदिक १) … ०-६-०
५ लघुशब्देन्दुशेखरः सटीकः तत्पुरुष-
समासादारभ्य कृदन्तान्तः (व्याकरण १) … १०-०-०
६ कारिकावली मुक्ता० दिन० राम०
शब्दखण्डसहिता तथा “गुणनिरूपण”
दिनकरीय महामहोपाध्याय पं० लक्ष्मण-
शास्त्रीव्याख्या सहिता । (न्याय १) …. १०-०-०
७ पञ्चीकरणम् । वार्तिकाभरणालङ्कृत वार्तिकटीकया-तत्त्व
चन्द्रिका समवेत विवरणेन च समन्वितम् । (वेदान्त २)०-८-०
८ अलङ्कारप्रदीपः पण्डितवर विश्वेश्वर
पाण्डेयनिर्मितः। (काव्य १)… …. ०-८-०
पत्रादिप्रेषणस्थानम्-
हरिदासगुप्ता एण्ड सन्स,
मालिक, चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफीस,
विद्याविलासप्रेस गोपालमंदिरलेन
बनारससिटी।
]
-
“अर्थम् अर्थालङ्कारम्। शब्दालङ्काराणां यमकानुप्रासादीनामन्यत्र विस्तरतो निरूपितत्त्वादर्थालङ्काराणामेव विशदीकरणे यत्नः।” ↩︎
-
“उपचारः सादृश्यलक्षणा।” ↩︎
-
“उपमानोपमेयोभवानुगतत्वम् ।” ↩︎
-
“अत्र उपमेयवृत्तिधर्मस्य बिम्बता उपमानवृत्तिधर्मस्य च प्रतिविम्बतेत्यालङ्कारिकसम्प्रदायः।” ↩︎
-
“प्रतियोगिभेदेन एकस्यैव धर्मस्य द्विरुपादानं वस्तुप्रतिवस्तुभावः। स च शुद्धो न सम्भवति किन्तु विम्बप्रतिबिम्बभावे विशेषणतया विशेष्यतया वा। प्रकृते च एक एव धर्मः श्यामलमलिनपदाभ्यां विशेष्यतया निर्दिष्टः । केचित् ‘विमलं वदनं तस्या निष्कलङ्कमृगाङ्कति’ इत्यादौशुद्धोऽपि वस्तुप्रतिवस्तुभावः सम्भवति. वैमल्यनिष्कलङ्कत्वयोर्भेदाभावेन बिम्बप्रतिबिम्बभावाभावात् इत्याहुः ॥” ↩︎
-
“अत्र प्रयोगाभावरूपो लोपो विवक्षितो न तु सर्वथाऽभावरूपः अन्यथोपमाया एवानिष्पत्तेः । स च क्वचिच्छास्त्रकृतः क्वचिच्च कवयित्रिच्छाकृत इति बोध्यम् ।” ↩︎
-
“वाक्य-समासगतत्वेन द्विविधा श्रौती,वाक्य-समास-तद्धितगतत्वेन त्रिविधा आर्थी इतिमिलित्वा धर्मलोपे पञ्चविधा लुप्तोपमा ।” ↩︎
-
“संवननं वशीकरणम् वशक्रिया संवननम् इत्यमरात् ।” ↩︎
-
“तदासेचनेकं तृप्तेर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शनात् । इत्यमरः ।” ↩︎
-
“विशेषेण सामान्यसमर्थनरूपार्थान्तरन्यासभेदेन नास्य गतार्थता, यथेवदृष्टान्तादिशब्दघटितत्वादस्य तद्रहितत्वाच्चार्थान्तरन्यासस्य।इवशब्दघटितस्थले उपमया गतार्थत्वशङ्कापि न कार्या,लक्षणयेवादेः सामान्यविशेषात्मकवाक्यार्थयोरवयवावयविभावपरत्वेन उपमाप्रयोजकसादृश्यासमुल्लासात् । इवादिरहितस्थले आर्थेनानेनैवोपपत्तौनार्थान्तरन्यास आश्रयणीय इति न वक्तव्यम् । द्वयोर्वैलक्षण्यस्य जागरूकत्वात् । तथाहि- यत्र विशेषवाक्यार्थेन सामान्यवाक्यार्थः समर्थ्यतेतत्र द्वयी गतिर्भवति । अनुवाद्यांशे विशेषत्वं विधेयांशस्तु सामान्यगत इत्येका,उभयांशेऽपि विशेषत्वमित्यन्या । तत्र पूर्वा उदाहरणालङ्कारस्य विषयः । अन्या अर्थान्तरन्यासस्य इत्यादि रसगङ्गाधरे उदाहरणालङ्कारप्रकरणे अर्थान्तरन्यासप्रकरणे च प्रतिपादितम् ।” ↩︎
-
“इच्छावहाः, ऐच्छिकाः शब्दोपात्ता इतियावत् ॥” ↩︎
-
“सुमनसामनेहसा, वसन्तेन ।” ↩︎
-
“लक्षं शरव्ये सङ्ख्यायामिति विश्वः । अब्जं कमलं तद्वत्सुकुमारत्वात् । पक्षे शतकोटिसङ्ख्या । परार्धंश्रेष्ठम् । पक्षे सङ्ख्यान्तरानपकृष्टसङ्ख्याविशेषः।” ↩︎
-
“शब्दसाक्षात्कारहेतुभूतमाकाशं श्रोत्रेन्द्रियमितियावत् । कर्णशष्कुल्यवच्छिन्ननभस एव श्रोत्रत्वात्।” ↩︎
-
“यस्मिन् विषयिणि धर्मिणि यो विषयो धर्मस्तस्य निषेधः । अयमेव कुबलयानन्दे हेत्वपह्नुतित्वेनोक्तः।” ↩︎
-
“अन्वयाम इति अनुदात्तेत्त्वप्रयुक्तात्मनेपदानित्यत्वश्रयणेन अय गतौ इत्यस्य, इट किट कटी इत्यत्र प्रश्लिष्टस्य ईधातोर्वाऽनुपूर्वस्य रूपमिति ध्येयम्।” ↩︎
-
“हिमधामाभेदम् हिमाभिन्नंधाम यस्य स तदभेदम् ।” ↩︎
-
“व्यंसको धूर्तः।” ↩︎
-
“सिचयस्य वस्त्रस्य उपरागं सम्बन्धम् ।” ↩︎
-
“परागः धूलिः सुरतश्रमशान्तिनिमित्तककर्पूरादिचूर्णेच ॥” ↩︎
-
“अत्र कालिन्दीतीरलग्नतमालमालायां कालिन्दीभ्रात्या नावं गवेषयन्तं पान्थंप्रति कयाचित् तद्भ्रमखण्डनेन तरणोपायो नापेक्षित इति प्रतिपाद्यते।” ↩︎
-
“अत्र हरित् दिक् हरितवर्णा च, श्यामा नायिका कृष्णरूपा च, कलानिधिश्चन्द्रो विदग्धश्च, रागं रक्तवर्णत्वं अनुरागं चइति एकानुपूर्वीमद्भिः पदैर्भिन्नार्थप्रतिपादनादभङ्गश्लेषः ।” ↩︎
-
“सारम्भा कृतोपक्रमा सा रम्भा स्वर्वेश्या, अममदृक् ममत्वशून्यदृष्टिः, निकषाभवं समपिस्थं चेलं वस्त्रं तेन प० निकषाभवोराक्षसः चेलः कुत्सितार्थः रावणेनेत्यर्थः । उत्तरकाण्डगेयं कथा।” ↩︎
-
“प्रधास्यति इति धाञो धेटश्च रूपम् । अत्र प्रकृतिश्लेषः । श्रोतारः इति श्रुधातोर्लुटि, तृनि च बहुवचने रूपम् । तृन्पक्षे ‘नलोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम् (२।३ । ६९ ↩︎
-
“मुर्खवैधेयवालिशा इत्यमरः ।” ↩︎
-
“अत्र दोहदाय विहिताशोकचरणताडना का चित्केन चिदुच्यते । आकस्मिकचरणतलताडनोत्पन्नानां पुष्पाणां तदानीं भ्रमरसंयोगाभावेन तद्गुञ्जितहीनतया शोभाविशेषहानिः स्यात् । नूपुरकूजितसम्पत्त्यातु उत्पत्तिकालावच्छेदेनैव भ्रमरध्वनिसजातीयध्वनिसम्बन्धात्तत्प्रयुक्त वैजात्यहानिर्न भवतीति भावः ।” ↩︎
-
“पातः संयोगः प्रणामश्च । रागी रक्तवर्णः स्नेहवांश्च । यावकः अलक्तकः,यौति मिश्रीभवितुमर्हतीति च।” ↩︎
-
“अनन्यजः कामः।” ↩︎
-
“अत्र मध्यगतसावयवत्वस्य मिथ्यात्वसिद्धये बन्ध्यासुतादिमिथ्याभूतार्थान्तरकल्पनम् ।” ↩︎
-
“कृते निर्मिते।” ↩︎
-
“अत्र निष्कलङ्कचन्द्रखण्डानि निमित्तकारणानि तद्गता धावल्यादिगुणाः कार्यभूतकमलगतशुभ्रतादेस्तदतिशयस्य वान हेतवस्तथापि तद्धेतुत्वकल्पनम्” ↩︎
-
“प्रमदो हर्षः।” ↩︎
-
“श्लेषसङ्कीर्णमिदम् । चित्राङ्गदा काचिदङ्गना विचित्रकेयूरवती च । पाञ्चालिका द्रौपदी पुत्तलिका च । अथवा पञ्चमेव पाञ्चं विस्तृतम् अलिकं ललाटं यस्याः सा, पचि विस्तारे इत्यस्य पचाद्यजन्तस्य स्वार्थेऽण् । पृषती हरिणी । सत्या सत्यभामा ऋता च सत्यभाषिणीति यावत् । रोहिणी वसुदेवपत्नी रक्तवर्णा च । विनता गरुडप्रसूः विनयवती च । छाया सूर्यप्रिया अनातपश्च।” ↩︎
-
“अतिसौरभः सहकारः।” ↩︎
-
“प्रचलाकिनो मयूराः।” ↩︎
-
“अनिमिषध्वजः मीनध्वजः काम इत्यर्थः ।” ↩︎
-
“पुष्करान्तम् आकाशप्रदेशम् ।” ↩︎
-
“अत्र चक्रवाकाणां विरहितया ज्योत्स्नारसे वह्निबुद्धिः सन्तापजनकत्वात्, चकोराणां ज्योत्स्नारसास्वादने सत्यपि स्वाभाविकी स्फुलिङ्गास्वादनेच्छा जायत इति तात्पर्यं बोध्यम् ।” ↩︎
-
“मित्रोक्तेषु अनिष्टधियामित्यर्थः।” ↩︎
-
“अत्र ‘यत्र वक्तुमुपक्रान्तः पूर्वार्थो निषिध्यते स वक्ष्यमाणविषयः । यत्र तु उक्त्वा तद्वचनवैयर्थ्यमुच्यते स उक्तविषय’ इति द्विविधस्याक्षेपस्य स्वरूपं बोध्यम् ।” ↩︎
-
“काव्यप्रकाशकार इममाक्षेपभेदम् उपमानाक्षेपरूपप्रतीपभेदेऽन्तरयामास ।” ↩︎
-
“शम्पा विद्युत् । शम्पा शतह्रदाहादिन्यैरावत्यः क्षणप्रभाः। इत्यमरः” ↩︎
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“वयसि यौवने ।” ↩︎
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“विपदापन्नेऽपि परितोषः इति पाठान्तरम् ।” ↩︎
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“बालत्वं शैशवं केशवृत्तिजातिश्च । यौवनप्रागभावाधिकरणतया तत्साधारणे तस्याः शरीरे स्थितमपि यौवनागमे तत्र स्थातुमसमर्थेस्वासाधारणाश्रयेषु बालेष्वेवबालत्वं स्थितंयतः स्वपरसाधारणविषये आसितुं दुष्करं भवतीत्यर्थः ।” ↩︎
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“अत्र-मन्मथोऽप्यप्रमेय इति गुणद्रव्ययोः । शून्यायते च उल्लिखति च इति क्रिययोः । इत्यपेक्षितम् ।” ↩︎
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“पर्यवसानमिति शेषः ।” ↩︎
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“नित्यः सम्बन्धो येषामिति विग्रहः।” ↩︎
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“विरहवदिति मतुबन्तो न वत्यन्तः।” ↩︎
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“महताम् उत्कृष्टानां वर्णनीयनिष्ठाङ्गित्वप्रतियोगित्वरूपस्य अङ्गत्वस्य कथनं द्वितीयमुदात्तमित्यर्थः।” ↩︎
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“सङ्केतस्थानं सूचयन्त्याः कस्याश्चित्काञ्चित्प्रत्युक्तिः । यत्र तादृशसंयमवतःपराशरस्यापि मनःक्षोभोदयादगम्यागमनं जातं तत्र का वार्ताऽन्येषामिति भावः ।” ↩︎
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“अत्रगुणौ च क्रिये च गुणक्रियाः गुणश्च क्रिया च गुणक्रिये गुणक्रियाश्च गुणक्रिये च गुणक्रियाः तासां योगपद्यम् इति विग्रहो बोध्यः। एवं च गुणयोः क्रिययोर्गुणक्रिययोश्च यौगपद्येऽपरः समुच्चय इत्यर्थः। अत्र च सङ्ख्याविशेषोऽविवक्षितः। तेन गुणानां क्रियाणां वा यौगपद्येऽपि भवति।” ↩︎
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“सौभाग्यं सूचयन्त्याः कस्याश्चित्काञ्चित्प्रति कथनम् । अर्धचन्द्रो नखक्षतविशेषो गलहस्तश्च। वैमुख्यं वृत्तत्वं पराङ्मुखत्वं च । तद्व्यतिरेकेऽपि अर्धचन्द्राभावेऽपि सपत्नीनांस्वस्मिन्नायकाननुरागमाशङ्क्यपराङ्मुखत्वम् ।” ↩︎
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“मानं गोपयन्तीं काञ्चित्प्रति कस्यचिदुक्तिरियम् । अतन्त्रम् अविवक्षितम् । विकृतिः सार्वदिकावस्थावैपरीत्यम् । तथा चाभिमुखदर्शनान्मानो नास्तीति न वाच्यम् । सर्वदा कुटिलदर्शनहीनायाः कटाक्षमुन्मुच्य दर्शनेन मानस्यानुमानादिति भावः ।” ↩︎
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“विरहिण्या उक्तिरियम् । बलरामपुत्र उल्मुकसंज्ञइति पुराणे प्रसिद्धम् । तद्दयितादेव रोहिणीप्रियाच्चन्द्रात्तस्योल्मुकस्यअलातस्य उत्पत्तिस्तु अध्यक्षसंसिद्धा प्रत्यक्षेणानूभूयते चन्द्रकिरणानामङ्गारवदुष्णस्पर्शत्वानुभवादिति भावः । अङ्गारोऽलात उमुल्कमित्यमरः।” ↩︎
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“तादृशी, रहस्यप्रकाशप्रतिबन्धिकेत्यर्थः ।” ↩︎
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“गूढोक्तिरित्युचितम्। तथा च कुवलयानन्दे-गूढोक्तिरन्योद्देश्यं चेद्यदन्यं प्रति कथ्यते । इति।” ↩︎
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“कुलटायाः सखीं प्रति कस्याश्चिदुक्तिः । महता ज्वलनमयेन तेजसा वंशवनं दग्धं, येन नायिकाया अभिसरणं गुप्तमेव स्थापितमिति विवक्षितार्थः । वन्हिसदृशप्रभावेन भीमसेनेन कीचककुलं नाशितं येन द्रौपद्या विहाराकाङ्क्षाविहितेति यथाश्रुतार्थः।” ↩︎
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“इतः पूर्वं वक्रोक्तेर्लक्षणमपेक्षितं तत् त्रुटितं भाति। तल्लक्षणं च-एकेनान्याभिप्रायेणोक्तं वाक्यं यद्यन्येनान्याभिप्रायकं कल्प्यते तदा वक्रोक्तियोगाद्वक्रोक्तिः । सा च श्लेषेण काक्वा वा । श्लेषेऽप्यविकृतश्लेषवक्रोक्तिर्विकृतश्लेषवक्रोक्तिरिति । अत्र " ↩︎
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“पक्षे इतः कामत इत्यर्थः।” ↩︎
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“तदपवंइति पाठोऽपेक्षितः । वकाररहितमिति तदर्थः ।” ↩︎
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“अत्र ‘स्वस्मिंस्तत्सहिष्णुत्वं’ इत्यपेक्षितं चकारानुरोधात् ।” ↩︎
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“रजः रेणुः आर्तवं च । चन्द्रकःमेचकः शशी च।” ↩︎
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“अत्र ‘पूर्वे पूर्वे’ इत्यपेक्षितम् । “कारणमाला प्रोक्ता पूर्वे पूर्वे यथोत्तरं हेतौ” ↩︎
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“‘अवलोकिन’ इत्यस्य ‘व्याधा’ इत्यनेन सम्बन्धः।” ↩︎
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“व्याधीं व्याधस्त्रियम्।” ↩︎
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“अग्निशिखा विरहानलज्वाला, अग्निशिखं कुङ्कुमम् । अथ कुङ्कुमम् । काश्मीरजन्माग्निशिखम् । इत्यमरः ।” ↩︎
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“अपसङ्क्रमः = असम्बन्धः ।” ↩︎
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“तत्प्रमा = तस्य विजातीयव्यक्तितादात्म्यापन्नस्य प्रकृतस्य प्रमा।” ↩︎
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“समहं सोत्सवम् ।” ↩︎
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“अत्र तच्छब्दस्य तर्हीत्यर्थः । एवं तृतीयचरणेऽपि।” ↩︎
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“गन्धफलिकां चम्पककलिकां प्रति । ‘अथ चाम्पेयश्चम्पको हेमपुष्पकः । एतस्य कलिका गन्धफली स्यात्’ इत्यमरः ।” ↩︎
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“अत्र आधारपदं प्रसिद्धाधारपरं बोध्यम्।” ↩︎
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“श्यामा रात्रिः अप्रसूता वनिता च । तथा च मेदिनी- श्यामो वटे प्रयागस्य वारिदे वृद्धदारके। पिके च कृष्णहरितोः पुंसि स्यात्तद्वति त्रिषु॥मरीचे सिन्धुलवणे क्लीबंस्त्री शारिवौषधे। अप्रसूताङ्गनायां च प्रियङ्गावपि चोच्यते ॥ यमुनायां त्रियामायां कृष्णत्रिवृतिकौषधौ । इति ।” ↩︎
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“अरुणता सूर्यता रक्तवर्णता च ‘अरुणः सूर्यभेदे स्याद्वर्णभेदेऽपि च त्रिषु’ इत्यमरात् ।” ↩︎
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“सहावहेलम्इति सहावलेशम्इति वा पाठो भवेत् ।” ↩︎
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“नेत्रं धस्त्रम् ‘स्याज्जटांशुकयोर्नेत्रम्’ इत्यमरात् ।” ↩︎
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" जघनस्तनस्य इति प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावेन प्रयोगः।” ↩︎
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“अनुरूपसम्बन्ध इत्यर्थः। परस्परसम्बन्धानुरूपयोः सम्बन्धइति यावत् । स च सम्बन्धः सतोरसतोश्चेति द्विविधः समालङ्कारः।” ↩︎
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“अत्र इष्टप्राप्त्यभावानिष्टप्राप्त्योर्मिलितयोः प्रत्येकमपि विषयत्वं बोध्यम् । अलङ्कारकौस्तुभादौ तथैव प्रतिपादनात् । इहाप्युदाहरणानां तेनैव क्रमेण दत्तत्वात् ।” ↩︎
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“दिवसेति-दिवसकरस्य समारम्भकालीनं = उदयकालिकं भास्वत्=दीप्तिमत् यत् बिम्बं तस्य भ्रान्त्या।” ↩︎
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“अन्यजन्यहेतोः =अन्यंअवयवसन्निवेशादर्भिन्नं यत् जन्यं कार्यं तस्य यो हेतुः कारणं तस्मात्, इतरत्=भिन्नम् अलौकिकमितियावत् ।” ↩︎
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" कुण्डलना= वैयर्थ्यसूचिका रेखावेष्टना।” ↩︎
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“मदनदद्दनेति शिवसम्बोधनम् । अजिह्मगः सर्प इत्यर्थः ।” ↩︎
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“अत्र हृदयप्रियमिति प्रतिशब्दाध्याहारेणोपपादनीयम् । हृदयप्रियं प्रति सखी-इति पाठो वा बोध्यः।” ↩︎
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“अस्या नयनत्रिभागाविषयः स्याम् इत्यन्वयः । पार्वत्याः कटाक्षगोचरो भवेयम् इत्यर्थः।” ↩︎